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वह निष्प्रमाणित भी नहीं हुआ है, कारण, आधुनिक विज्ञान न तो मानव-अन्तरात्माके पूर्वजीवनके बारेमें कुछ जानता है, न उत्तरजीवनके बारेमें, वस्तुतः वह तो अन्तरात्माके वारेमें कुछ भी नहीं जानता और न जान ही सकता है, उसका क्षेत्र मांस, मस्तिष्क और स्नायु भ्रूण और उसकी रचना तथा विकासतक ही सीमित है । फिर, आधुनिक आलोचकके पास कोई ऐसा साधन भी नहीं जिससे पुनर्जन्मकी सत्यता या असत्यता स्थापित की जा सके । वस्तुतः आधुनिक आलोचना, सूक्ष्म अनुसंधान और सावधानीभरी सुनिश्चितताका सारा आडम्बर करके भी बहुत निपुण सत्यान्वेषी नहीं; सन्निकट भौत्तिक प्रदेशके वाहर वह असहाय सी रहती है। वह तथ्योंको खोज निकालने में तो कुशल है, परन्तु जहाँ वे तथ्य अपनेसे ही अपने निष्कर्पोको हमारे सामने सतहपर लाकर रख देते हों उससे भिन्न स्थलोंमें उसके पास ऐसा कोई साधन नहीं है जिससे वह तथ्योंके आधारपर निकाले गये उन सर्वसामान्य निष्कर्पोके वारेमें निश्चित हो सके जिन्हें वह एक पीढ़ीमें इतने विश्वासके साथ घोषित करती है और दूसरीमें विल्कुल खंडित । उसके पास ऐसा कोई साधन नहीं जिससे वह निश्चयके साथ किसी संदिग्ध ऐतिहासिक प्रतिपादनकी सत्यता या असत्यताका पता लगा सके; एक शताब्दीके विवादके बाद भी वह ईसा मसीहके अस्तित्वके वारेमें हाँ या ना नहीं कह सकी है। तो वह इस पुनर्जन्म जैसे विषयपर कैसे विचार कर सकती है जो कि मनोविज्ञानकी वस्तु है और जिसका निर्णय भौतिककी अपेक्षा मनोवैज्ञानिक प्रमाणसे ही करना होगा ? समर्थकों और विरोधियों द्वारा सामान्यतः जो युक्तियाँ दी जाती हैं वे प्रायः काफी, निरर्थक होती हैं। वे, अपने अच्छे से अच्छे रूपमें भी, जगत्की किसी भी चीजको प्रमाणित या निष्प्रमाणित करनेके लिये अपर्याप्त ही होती हैं। उदाहरणके लिये, पुनर्जन्मको अप्रमाणित करनेके लिये जिस तर्कको प्रायः जीतके भावसे सामने रखा जाता है वह यह है कि हमें अपने विगत जन्मोंकी याद नहीं है, अतः विगत जीवन थे ही नहीं । यह देखकर हैसी सी आती है कि ऐसे तर्कको वे लोग गंभीरतासे उपस्थित करते हैं जो यह कल्पना करते हैं कि वे वौद्धिक शिशुओंकी अपेक्षा अधिक कुछ हैं । यह तर्क मनोवैज्ञानिक आधारपर आगे बढ़ता है, फिर भी हमारी सामान्य या स्थूल स्मृतिकी प्रकृतिकी ही अवहेलना कर देता है जब कि यह स्मृति ही वह एकमात्र वस्तु है जिसका उपयोग प्राकृत मनुष्य कर सकता है। हमारे वर्तमान जीवनके बारे में कोई संदेह नहीं, किन्तु उसकी भी हमें कितनी बातें याद हैं ? जो समीप है उसके लिये हमारी स्मृति सामान्यतः अच्छी रहती है, पर ज्यों-ज्यों उसके विषयं दूर हटते जाते हैं त्यों-त्यों वह अस्पष्ट या कम व्यापक होती जाती है, और भी दूर होनेपर वह केवल कुछ प्रमुख विन्दुओंको ही पकड़ पाती है और अन्तमें, हमारे जीवनके आरम्भिक कालके विषयमें निरी, रिक्ततामें जा पड़ती है। क्या हमें मांकी छातीपर शिशु-रूपमें रहनेकी सरल अवस्थाकी, सरल वास्तविकताकी स्मृति है ? और फिर भी वह गैंगवावस्था, वौद्ध मतके अतिरिक्त अन्य सभी मतोंके
अनुसार, इसी जीवनका अंग और इसी व्यक्तिकी अवस्था थी जिसे उसकी याद वैसे ही नहीं है जैसे उसे अपने विगत जीवनकी याद नहीं हो पाती । तो भी हम यह माँग करते हैं कि यह स्थूल स्मृति, मनुष्यके असंस्कृत मस्तिष्ककी यह स्मृति जिसे हमारे गैशवका स्मरण नहीं और जो हमारे शैशवके बादके वर्षोंकी इतनी सारी बातें खो चुकी है, फिर भी यह याद रखे कि शैशवावस्थासे पहले, जन्मसे पहले, स्वयं उसकी रचनासे पहले क्या था । और यदि वह यह याद नहीं रख सकती, तो हम घोषणा करेंगे, "निष्प्रमाणित हो गया तुम्हारा पुनर्देहधारणका सिद्धान्त ।" हमारी सामान्य मानवीय युक्तिवुद्धिकी अकलमन्द वेअकली इस प्रकारकी तर्कणामें और आगे नजा सकी । स्पष्ट है कि हमें यदि अपने विगत जीवनोंको याद करना है, चाहे वास्तविकता और स्थितिके रूपमें, चाहे उनकी घटनाओं और प्रतिमाओंके रूपमें, तो यह केवल चैत्यिक स्मृतिके जगनेसे ही हो सकेगा जो स्थूलकी सीमाओंको लांघकर स्थूल सत्तापर स्थूल मस्तिष्क-व्यापारकी डाली हुई छापोंमे भिन्न छापोंको फिरसे जीवित करेगी । यदि हमें विगत जीवनोंके वारेमें स्थूल स्मृति या ऐसी चैत्यिक जागृतिके प्रमाण मिल भी जायँ, तो भी इससे सन्देह है कि यह मत पहलेकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रमाणित माना जायगा । आजकल हम ऐसे बहुतसे उदाहरणोंके वारेमें सुनते हैं जो बड़े विश्वास - के साथ उपस्थित किये जाते हैं, परन्तु उनके साथ उन प्रमाणोंकी सामग्री नहीं होती जिनकी सत्यता जाँच ली गयी हो और जिनकी समीक्षा उत्तरदायित्वके भावसे की गयी हो, जब कि उस सामग्रीसे ही चैत्यिक गवेषणाके परिणामोंको गुरुत्व मिलता है । जवतक वे प्रमाण्यके दृढ़ आधारपर न खड़े हों, सन्देहवादी उन्हें मनगढ़न्त कल्पना कहकर सदा आपत्ति उठा सकता है। यदि इस तरह कही गयी वातोंके सत्यकी परीक्षा हो भी जाय, तो भी
यह कहनेका अवकाश रहता है कि वे यथार्थतः स्मृतियाँ नहीं हैं, प्रत्युत कहनेवालेको सामान्य स्थूल साधनों द्वारा ज्ञात थीं या दूसरों द्वारा भुझायी गयी थी और उसने उन्हें या तो चेतन प्रवंचना द्वारा या आत्म-प्रवंचना और आत्म-विभ्रमकी किसी प्रक्रिया द्वारा पिछले जन्मोंकी फिरसे साकार हो उठी निर्दोष स्मृतिमें परिवर्तित कर दिया है। और यदि यह भी मान लें कि प्रमाण इतने सवल और निर्दोष है कि इन परिचित उपायोंसे उनसे पीछा न छुड़ाया जा सके, तो भी यह सम्भव रहता है कि उन्हें पुनर्जन्मके प्रमाणके रूपमें स्वीकार नहीं किया जाय; एक ही तथ्य समुदायके लिये मन सैंकड़ों सैद्धान्तिक व्याख्याएँ खोज सकता है। आधुनिक दृष्टि और अनुसंधानने सभी चैत्यिक सिद्धान्तों और सामान्यीकरणपर इस सन्देहकी छाया डाल दी है । उदाहरणके लिये हम जानते हैं कि स्वचालित लेखन या मृतकोंके सन्देशोंके व्यापारको लेकर यह विवाद उठता है कि वह व्यापार वाहरसे, विदेह मनोंसे आता है या कि अन्दरसे, अवगूढ़ चेतनासे; वह सन्देश- संचार शरीर-मुक्त व्यक्तित्वसे सचमुच और उसी समय आता है या कि वह विचारके पारेंद्रिय संक्रमणकी किसी ऐसी छापका सतहपर उठना है जो उस समय जीवित रहते मनुष्यके मनमेंसे आयी थी परन्तु हमारे अवगूढ़ मनके अन्दर डूबी पड़ी थी । पिछले जन्मोंकी साकार होनेवाली स्मृतिकी साखीके विरुद्ध भी इसी प्रकारके सन्देह किये जा सकते हैं। यह दावा किया जा सकता है कि इनसे हमारे अन्दर एक निश्चित रहस्यमयी क्षमता, एक ऐसी चेतना प्रमाणित होती है जिसे वीती घटनाओंआ कोई अव्याख्येय ज्ञान प्राप्त हो सकता है, परन्तु ये घटनाएँ हमसे भिन्न अन्य व्यक्तित्वोंसे सम्बद्ध होती हैं और उनके बारेमें हमारी यह मान्यता कि वे विगत जीवनोंके हमारे ही व्यक्तित्वकी घटनाएँ हैं, एक कल्पना है, विभ्रम है, या फिर मानसिक भूल-भ्रान्तिके निःसन्दिग्ध व्यापारोंमेंसे उस दशाका उदाहरण है जिसमें हम अपनी देखी हुई उन वस्तुओं और अनुभूतियोंको जो हमारी अपनी नहीं होतीं अपनी ही मान लेते हैं। ऐसीसाखियोंके संग्रह से बहुत कुछ प्रमाणित होगा, किन्तु संशयात्माके लिए तो पुनर्जन्म तो प्रमाणित नहीं हो सकेगा। यदि ये साखियाँ पर्याप्त रूपमें प्रचुर, यथातथ्य, भरपूर और अन्तरंग हो तो ये एक ऐसा वातावरण अवश्य रच देंगी जिसके कारण अन्तमें मानवजाति इसे एक नैतिक निश्चितिके रूपमें सर्वसामान्य स्वीकृति दे देगी । परन्तु प्रमाण एक भिन्न वस्तु है । आखिरकार, जिन चीजोंको हम सच्ची मानते हैं उनमें से अधिकांश यथार्थमें नैतिक निश्चितियोंसे अधिक कुछ नहीं होतीं। हमारा गहरेसे गहरा अडिग विश्वास है कि पृथ्वी अपनी ही धुरीपर घूमती है, परन्तु, जैसा कि एक बड़े फ्रेन्च गणितज्ञने बताया है, यह तथ्य प्रमाणित नहीं हुआ है; यह केवल एक सिद्धान्त है जो कुछ दृश्यमान् तथ्यों की अच्छी तरह व्याख्या करता है, इससे अधिक कुछ नहीं । कौन जानता है कि इसका स्थान इस या किसी अन्य शताब्दीमें इससे एक अधिक अच्छा या अधिक बुरा मत न ले लेगा ? सारे दृश्य खगोलीय व्या
पारोंकी व्याख्या गैलीलियोके आनेके पहले ग्रहोंके और न जाने किन-किन अन्य सिद्धान्तों द्वारा भली भाँति होती थी, फिर गैलीलियोका अपने "फिर भी यह गतिशील है" के सिद्धान्तको लेकर आना हुआ जिसने पोप और बाइबिलको, विद्वानोंके विज्ञान और तर्कको निर्मूल माननेकी भावनाको डिगा दिया। यह बात निश्चित-सी है कि यदि हमारी मनोबुद्धि न्यूटनके पूर्ववर्ती प्रदर्शनों द्वारा पूर्वग्रह और पक्षपात से इतनी प्रभावित न होती तो गुरुत्वाकर्षणकी वास्तविकताओंकी व्याख्याके लिये प्रशंसनीय सिद्धान्तोंका आविष्कार किया जा सकता था'। यह यह आइंस्टीन के सिद्धान्तोंके आनेसे पहले लिखा गया था । हमारी बुद्धिका चिर-जटिल और अन्तर्निहित महारोग है; कारण, वह कुछ भी नहीं जाननेसे शुरू करती है और उसे व्यवहार करना होता है अनन्त सम्भावनाओंसे, और जबतक हम यह नहीं जान लेते कि तथ्योंके किसी समुदायके पीछे वस्तुतः क्या है तबतक उन तथ्योंकी सम्भाव्य व्याख्याओंका अन्त नहीं आता । अन्तमें हम वस्तुतः केवल उसे ही जानते हैं जिसे कि हम देखते हैं, लेकिन वहाँ भी कोई सन्देह भूतकी तरह पीछे पड़ा रहता है; उदाहरणके लिये, हरा हरा है और सफेद सफेद, किन्तु यह मालूम होता है कि रंग रंग नहीं, वरन् और कुछ हैं जिससे रंगकी प्रतीति होती है । दृश्य वास्तविकतासे परेके लिये हमें यथोचित तार्किक सन्तोष, प्रमुख सम्भावना और नैतिक निश्चितिसे तुष्ट रहना होगा, -- कमसे कम तबतक जबतक कि हममें यह देखनेकी क्षमता न आ जाय कि हममें इन्द्रियाश्रित बुद्धिसे उच्चतर क्षमताएँ भी है जो विकसित होनेकी प्रतीक्षा कर रही हैं और जिनके द्वारा हम श्रेष्ठतर निश्चितियोंतक पहुँच सकते हैं । संशयान्माके सामने हम पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी ओरसे कोई ऐसी प्रबल सम्भावना या कोई ऐसी निश्चितता प्रतिपादित नहीं कर स
कते। अभी तक जो भी बाह्य साक्ष्य प्राप्त है वह बिलकुल ही प्रारम्भिक है। पाइथागोरस महानतम मुनियोंमेंसे थे, परन्तु उनका यह कथन कि वह द्रवायमें लड़नेवाले एंटिनोरिड नामक व्यक्ति थे और एत्रियसके कनिष्ठ पुत्र द्वारा मारे गये थे दावा मात्र है, और उनका ट्रवायकी ढालको पहचानना किसी ऐसे व्यक्तिको विश्वास न दिला सकेगा जो पहलेसे ही विश्वास न करता हो । अभीतकके आधुनिक साक्ष्य पाइथागोरसके प्रमाणकी अपेक्षा अधिक विश्वासोत्पादक नहीं हैं। बाह्य प्रमाणकी अनुपस्थितिमें, जब कि बाह्य प्रमाण ही हमारी जड़-शासित संवेदनात्मक बुद्धिके लिये एकमात्र निर्णयात्मक प्रमाण है, हमें पुनर्जन्मवादियोंकी यह युक्ति मिलती है कि अबतक उपस्थित किये गये किसी भी मतकी अपेक्षा उनका मत सारे तथ्योंकी व्याख्या अधिक अच्छी तरह करता है। यह दावा ठीक है, परन्तु यह किसी भी प्रकारकी निश्चितता नहीं उत्पन्न करता । पुनर्जन्मका मत, कर्मके सिद्धान्तके साथ मिलकर, हमें चीजोंकी एक सरल सममित, सुन्दर व्याख्या देता है; परन्तु, इसी तरह, ग्रहोंके सिद्धान्तने भी हमें कभी व्योमकी गतिविधिकी एक सरल, सममित, सुन्दर व्याख्या दी थी। फिर भी हमें अभी एक विलकुल ही अलग व्याख्या मिली है जो कहीं अधिक जटिल है, अपनी सममिततामें कहीं अधिक गोथिक शैलीवाली और डॉवाडोल है, अस्तव्यस्त अनन्तताओंमेंसे विकसित एक अव्याख्येय व्यवस्था है, और उसे हम इस विषयका सत्य मानते हैं । किन्तु फिर भी, यदि हम विचार मात्र करें, तो शायद देखेंगे कि यह भी समूचा सत्य नहीं है; पर्देके पीछे इससे बहुत अधिक ऐसा कुछ है जिसे हम अभीतक नही खोज सके हैं। अतः पुनर्शरीरधारणके सिद्धान्तकी सरलता, सममितता, सुन्दरता और सन्तोषकारिता उसकी निश्चितताका परवाना नहीं । जब हम व्योरोंमें जाते हैं तो अनिश्चितता बढ़ जाती है । उदाहरणके लिये, पुनर्जन्मसे प्रतिभा, अर्न्तजात क्षमता और कितने ही अन्य मनोवैज्ञानिक रहस्योंके व्यापारोंकी व्याख्या होती है। परन्तु तब विज्ञान अपनी आनुवंशिकताकी सर्वपर्याप्त व्याख्या लेकर प्रवेश करता है, -- किन्तु पुनर्जन्मकी भाँति यह व्याख्या भी केवल उन्हींके लिये सर्वपर्याप्त होती है जिन्हें उसपर पहलेसे विश्वास हो । इसमें सन्देह नहीं कि आनुवंशिकताके दावोंको अनुचित रूपसे बहुत ही बढ़ा-चढ़ा दिया गया है। वह हमारी शारीरिक रचना, हमारी प्रकृति, हमारी प्रणिक विशेषताओंके सब कुछकी तो नहीं, बहुत कुछकी ही व्याख्या करनेमें सफल हुई है। उसका प्रतिभा, अन्तर्जात क्षमता और उच्च प्रकारके अन्य मनोवैज्ञनिक व्यापारोंकी व्याख्या करनेका प्रयत्न मिथ्याभिमानी वैफल्य है । परन्तु इसका कारण यह हो सकता है कि हमारे मनःस्वरूपमें जो कुछ मूलभूत है उसका विज्ञानको पता नहीं हो, - - वैसे ही जैसे कि आदिकालीन खगोलवेत्ताओंको उन नक्षत्रोंकी रचना और विधानका ज्ञान नहींके बराबर था जिनकी गतिविधिका वे काफी ठीक-ठीक अवलोकन कर सके थे । ऐसा नहीं लगता कि विज्ञान जब अधिक और ज्यादा अच्छी तरह जान लेगा तब भी वह इन चीजोंकी व्याख्या आनु
वंशिकतासे कर सकेगा; परन्तु वैज्ञानिक यह तर्क भली भाँति कर सकता है कि वह अभी तो अपने अनुसंधानोंके आरम्भमें ही है, उसके जिस सामान्य सिद्धान्तोंने इतनी चीजोंकी व्याख्या कर दी है वह सबकी व्याख्या भी भली भाँति कर सकेगा और, चाहे कुछ भी हो, प्रमाण्य तथ्योंके साधनकी दृष्टिसे उसकी प्राक्कल्पनाको पुनर्शरीरधारणके सिद्धान्तकी तुलनामें अधिक अच्छा आरम्भ मिला है । तो भी, यहाँतक पुनर्शरीरधारणवादीका तर्क अच्छी और आदरणीय युक्ति है, भले ही निर्णयात्मक नहीं। परन्तु एक दूसरी युक्ति जो अधिक जोर-शोरसे उपस्थित की जाती है, कमसे कम, जिस रूपमें वह सामान्यतः अपक्व मनको आकर्षित करनेके लिये उपस्थित की जाती है उसमें, - वह मुझे उस विरोधी युक्तिके वराबर लगती है जो स्मृतिके अभावके सहारे पेश की जाती है । यह वह नैतिक युक्ति है जिससे जगत्के प्रति ईश्वरके व्यवहार या जगत्के अपने-आपके प्रति व्यवहारका समर्थन करनेका प्रयत्न किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जगत्के लिये अवश्य ही कोई नैतिक शासन होना चाहिए या, कमसे कम, विश्वमें पुण्यके बदले पुरस्कारका और पापके बदले दण्डका कोई विधान होना चाहिए । परन्तु हमारी संभ्रमित और अस्तव्यस्त पृथ्वीपर ऐसा कोई दण्ड या पुरस्कारका विधान नहीं दिखायी देता । हम देखते हैं कि भला आदमी कष्टकी चक्कीमें पीसा जाता है और दुष्ट व्यक्ति जयपत्रके हरेभरे वृक्षकी तरह फलता फूलता है और जब उसका अन्त आता है तो उसे बुरी तरह काटकर फेंक नहीं दिया जाता। किन्तु यह तो असह्य है । यह क्रूर असंगति है, ईश्वरकी बुद्धिमत्ता और न्यायशीलतापर आक्षेप है, लगभग इस बातका प्रमाण है कि ईश्वर हैं नहीं; हमें इसका उपचार करना ही होगा। और यदि ईश्वर नहीं हैं तो हमारे लिये सदाचारका कोई और विधान होना ही चाहिये । कितना सुखकर हो यदि
हम भले आदमीकी पहचान और उसके भलेपनका माप भी इसके द्वारा कर सकें कि उसे अपने पेटमें डालनेके लिये कितना घी मिलता है और बैंकमें वह कितने खनखनाते रूपये जमा कर सकता है और उसे कौन-कौनसे विभिन्न सौभाग्य प्राप्त हैं, -- कारण, क्यां परमेश्वरको कड़ा और सम्माननीय लेखाकार नहीं होना चाहिए ? हाँ, और यह भी कितना सुखकर होगा यदि हम दुष्टको सारे लुकावछिपावसे बाहर निकालकर उसपर अंगुली उठा सकें और चीख सकें, "रे दुष्ट व्यक्ति ! तू यदि बुरा न होता तो ईश्वर द्वारा या, कमसे कम, शुभ द्वारा शासित जगत्में इस भाँति चिथड़ोंमें, भूखा, अभागा, शोकग्रस्त, मनुष्योंके बीच आदरसे वंचित क्यों रहता ? हाँ, तेरी दुष्टता प्रमाणित हो गयी है, कारण, तू चिथड़ोंमें है । ईश्वरका न्याय स्थापित हो गया है।" सौभाग्यसे परम प्रज्ञा मनुष्यके वचकानेपनकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् और श्रेष्ठतर है, अतः ऐसा होना असम्भव है । परन्तु हम एक बातसे सान्त्वना ले सकते है । ऐसा लगता है कि यदि भले आदमीको पर्याप्त सौभाग्य, घी और रूपये नहीं मिले हैं, तो इसका कारण यह है कि वह यथार्थमें बहुत दुष्ट व्यक्ति है जो अपने अपराधोंके बदले कष्ट पा रहा है, परन्तु वह अपने गत जीवनमें ही दुष्ट था जो अपनी मांके पेटमें अकस्मात् परिवर्तित हो गया; और यदि वह सामने आता दुष्ट फल-फूल रहा है और जगत्को गौरवसे रौंद रहा है तो यह उसके भलेपनके कारण है, एक विगत जीवनके भलेपनके कारण, उस समयका वह सन्त बादमें बिलकुल बदलकर, -- क्या पुण्यकी कालिक निःसारताके कारण हो ? -- पाप सम्प्रदायमें आ गया है । तो अव सब कुछकी व्याख्या हो गयी, हर चीजका औचित्य प्रमाणित हो गया । हम अपने पापोंके लिये दूसरे शरीरमें कष्ट पाते हैं, हम अपने इस शरीरके पुण्योंके लिये अन्य शरीरमें पुरस्कृत होंगे; और इसी भाँति अनन्त काल चलता रहेगा। कोई आश्चर्य नहीं कि दार्शनिकोंको यह धन्धा जैचा नहीं और उन्होने पाप और पुण्य दोनोंसे छुटकारा पानेके लिये, यहाँ तक कि हमारे सर्वोच्च शुभके रूपमें, यह प्रस्ताव रखा कि इतने विस्मयकारी रूपसे शासित जगत्मेंसे किसी भाँति बाहर निकल भागा जाय । यह स्पष्ट है कि यह व्यवस्था प्राचीन आध्यात्मिक भौतिक रिश्वत और धमकीका, भलोंके लिये दीर्घ सुखोंके स्वर्ग और दुष्टोंके लिये शाश्वत आग या पाशविक उत्पीड़न के नरकका ही एक भिन्न रूप है । जगत्के विधानके बारेमें यह भाव कि वह प्रमुखतः पुरस्कार और दण्डका निर्वाहक है, परम पुरुषके बारेके इस भावका सगोत्र है कि वह न्यायाघीश, पिता और विद्यालय के शिक्षककी तरह है जो अपने अच्छे बच्चोंको हमेशा मिठाईयाँ बाँटता और नटखट छोकरोंको बराबर सोंटी लगाता रहता है । यह उस वर्बर और अन्यायी प्रणालीका भी सगोत्र है जिसमें सामाजिक अपराधोंके लिये नृशंस और अपमानजनक दण्ड दिया जाता है और जिसपर मानव समाज अभी भी आधारित है। अपने आपको अधिकाधिक ईश्वरके प्रतिरूपमें घड़नेके स्थानपर मनुष्य निरन्तर ईश्वरको ही अपने प्रतिरूपमें घड़नेका आग्रह करता है, और ये सारे भाव हमारे अन्दर रहनेवाल
े बालक, वर्वर और पशुके प्रतिविम्ब है जिन्हें रूपान्तरित करने या जिनसे आगे बढ़नेमें हम अभी तक विफल रहे हैं । यदि यह इतना अधिक स्पष्ट न होता कि मनुष्य अपने भूतकालके कड़े-करकटको अपने ज्ञानियोंके गंभीरतर विचारोंके साथ टॉक देनेके विलाससे अपने आपको वंचित नहीं रखना चाहता तो हमें यह आश्चर्य होता कि ये बालवत् कल्पनाएँ बौद्ध और हिन्दू धर्म जैसे गंभीर दार्शनिक धर्मोमें कैसे प्रवेश कर गयीं । चूँकि ये विचार इतने अधिक प्रमुख रहे थे अतः मानवजातिको प्रशिक्षित करनेमें उनकी उपयोगिता निस्सन्देह रही होगी । शायद यह भी सत्य है कि परमेश्वर शिशुअन्तरात्माके साथ उसके वालकपनके अनुसार ही व्यवहार करता है और भौतिक शरीरकी मृत्युके बाद भी कुछ समयतक उसे अपनी स्वर्ग और नरक-सम्बन्धी संवेदनात्मक कल्पनाएँ जारी रखने देता है । शायद इस जीवनके वादके जीवन और पुनर्जन्मको दण्ड और पुरस्कारके क्षेत्रोंके रूपमें माननेकी आवश्यकता थी क्योंकि वे हमारी अर्धमनोभावापन्न पशुवृत्तिके लिए उपयुक्त थे । परन्तु एक विशेष स्थितिके बाद इस प्रणालीका कार्यकर प्रभाव जाता रहता है। मनुष्य स्वर्ग और नरकमें विश्वास करते हैं, परन्तु मजेसे पाप करते जाते हैं, अन्तमें पोपकी दया या पादरी द्वारा अन्तिम पापमोचन या मृत्यु- शय्याके पश्चात्ताप या गंगा स्नान या वाराणसीकी पावन मृत्यु द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, हम अपने वचपनसे ऐसे बचकाने उपायों द्वारा छुटकारा पाते हैं ! और अन्तमें मन वयस्क हो जाता है और शिशुकक्षकी सारी अनर्थक वातोंको तिरस्कारसे दूर हटा देता है । पुनर्जन्मका पुरस्कार और दण्डका सिद्धान्त यदि अपेक्षाकृत कुछ उन्नत है या, अन्ततः, कम अपरिष्कृत रूपसे सनसनी पैदा करता है, तो भी वह उतना ही प्रभावहीन निकलता है। और ऐसा होना अच्छा भी है। कारण, य
ह बात असह्य है कि दिव्य सामर्थ्यवाला मनुष्य पुरस्कारके लिये पुण्यात्मा बने और भयके कारण पापको छोड़े। स्वार्थी कायर या ईश्वरके साथ क्षुद्र मोलतोल करने वालेकी अपेक्षा सवल पापी होना बेहतर है; उसमें अधिक दिव्यता होती है, ऊपर उठनेकी अधिक क्षमता होती है । गीताने सत्य ही कहा है, कृपणाः फलहेतवः । और यह अकल्पनीय है कि इस विशाल और तेजस्वी जगत्की योजना इन तुच्छ और निकृष्ट हेतुओंपर आधारित हो । इन मतोंमें विवेक है ? तो वह शिशुकक्षका विवेक है बचकाना है । सदाचार - नीति ? तो वह सदाचार-नीति कीचड़की है, पंकिल है । पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी सच्ची भित्ति अन्तरात्माका क्रमविकास, या यूँ कहें, उसका जड़तत्त्वके पर्देसे प्रस्फुटन और उसकी क्रमिक आत्म-प्राप्ति है । बौद्ध धर्मने इस सत्यको अपने कर्म और कर्म-निवृत्तिके सिद्धान्तमें प्रच्छन्न रूपसे तो समाविष्ट रखा था, परन्तु वह उसे प्रकाशमें लानेमें असफल रहा; हिन्दू धर्मने इसे पुरातन कालसे ही जाना था, परन्तु बादमें उसकी भावव्यंजनामें वह सही सन्तुलनको खो बैठा । अव हम फिरसे उसी प्राचीन सत्यको एक नयी भाषामें कहनेमें समर्थ हुए हैं और कुछ विचारपंथ' ऐसा कर भी रहे हैं, किन्तु पुरानी पपड़ियाँ अभी तक गंभीरतर बुद्धिमत्ताके साथ जुड़ी रहना चाहती हैं। और यदि यह क्रमिक प्रस्फुटन सच है तो पुनर्जन्मका सिद्धान्त एक बौद्धिक आवश्यकता है, तर्कणामें अनिवार्य उपपरिणाम है । परन्तु उस विकासक्रमका लक्ष्य क्या है ? रूढ़िगत या सकाम पुण्य नहीं, किसी संविभाजित भौतिक पुरस्कारकी आशामें अच्छाईकी छोटी-छोटी मुद्राओंकी ठीक-ठीक गिनती नहीं, वरन् दिव्य ज्ञान, वल, प्रेम और शुचिताकी निरन्तर वृद्धि । ये वस्तुएँ ही यथार्थ पुण्य हैं और यह पुण्य अपना पुरस्कार आप ही है । प्रेमके कार्योका एकमात्र सच्चा पुरस्कार है आत्माके सर्वग्राही आलिंगन और विश्वानुरागके उल्लासके मिलनेतक प्रेमके आनन्द और सामर्थ्य में सदा वर्द्धित होते जाना; सम्यक् ज्ञानके कर्मोकाएकमात्र पुरस्कार है अनन्त ज्योतिकी ओर निरन्तर वर्द्धित होते जाना; सम्यक् शक्तिके कर्मोका एकमात्र पुरस्कार है दिव्य शक्तिको अधिकाधिक धारण करना और शुचिताके कर्मोका एकमात्र पुरस्कार है अहंसे अधिकाधिक मुक्त होकर उस निर्मल विशालतामें पहुँचना जहाँ सभी वस्तुएँ दिव्य समतामें रूपान्तरित और समन्वित हो जाती है। कोई और पुरस्कार खोजना मूर्खता और बालेय अज्ञानके साथ वैव जाना है; और इन चीजोंको भी पुरस्कारके रूपमें देखना अपक्वता और अपूर्णता है । अव सुख और दुःख, समृद्धि और दुर्भाग्यकी वात ? ये अन्तरात्माके प्रशिक्षणमें उसके अनुभव हैं, उसके लिये सहायक, अवलम्ब, साधन, अनुशासन, कठोर परीक्षाएँ हैं, - और प्रायः समृद्धि दुःखकी अपेक्षा अधिक कठिन परीक्षा है। वस्तुतः, विपदा और कष्टको प्रायः पापके दण्डकी अपेक्षा पुण्यका पुरस्कार माना जा सकता है, क्योंकि अपने प्रस्फुटनके लिये संघर्ष करनेवाले अन्तरात्माका वह सबसे बड़ा सहायक और शोधक सिद्ध होता है। उसे केवल न्यायावीशका क
ठोर निर्णय, उत्तेजित शासकका क्रोध या बुराईके कारणपर बुराईके परिणामका यान्त्रिक प्रतिक्षेप मानना अन्तरात्माके प्रति ईश्वरके व्यवहारों और उसके विकासक्रमके नियमके बारेमें ऐसी दृष्टि है जिससे अविक छिछली दृष्टि सम्भव नहीं। और, जागतिक वैभव घन और सन्तानकी, कला, सौन्दर्य तथा शक्तिके वाह्य भोगकी बात ? यदि वे अन्तरात्माको हानि पहुँचाए बिना प्राप्त हो सकें और उनका भोग इस भाँति किया जा सके कि वे हमारे भौतिक जीवनपर दिव्य हर्प तथा कृपाकी बाढ़ हैं तो अच्छा है। परन्तु पहले हमें उनकी खोज दूसरोंके लिये, वल्कि सबके लिये करनी चाहिये, और अपने लिये केवल वैशव अवस्थाके अँगके रूपमें या पूर्णताको समीपतर लानेके साधनके रूपमें अन्तरात्माको जैसे अपनी अमरताके प्रमाणकी आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही अपने पुनर्जन्म प्रमाणकी भी नहीं। क्योंकि एक समय आता है जब वह चेतन रूपसे अमर और अपने शाश्वत तथा अक्षर सारतत्वके प्रति सवोघ रहता है। एक वार यह उपलब्धि हो जाय तो अन्तरात्माकी अमरताके पक्ष और विपक्ष में होनेवाले सारे वौद्धिक प्रश्न स्वयंसिद्ध और नित्य विद्यमान सत्यके सामने अज्ञानके व्यर्थ कोलाहलकी तरह दूर हो जाते हैं; ततो न विचिकित्सते । अमरत्वमें सच्चा सक्रिय विश्वास तभी होता है जब वह हमारे लिये वौद्धिक सिद्धान्त नहीं, बल्कि श्वास लेनेकी भौतिक वास्तविकता जैसा स्पष्ट तथ्य बन जाता है और इसीकी तरह उसके लिये भी प्रमाण अथवा तर्ककी आवश्यकता नहीं रहती। इसी भाँति एक समय आता है जब अन्तरात्माको अपने शाश्वत तथा क्षर क्षणगत स्वरूपका बोध होता है; तब उसे पीछेके उन युगोंका चोष होता है जिनसे गतिघाराके वर्तमान संगठनका निर्माण हुआ, वह देखता है कि अविच्छिन्न अतीतमें उसकी तैयारी कैसे हुई थी, वह अतीतकी आन्तरात्मिक स्थितियों, परिवेगों, और
क्रियाशीलताके उन विशेष रूपोंको स्मरण करता है जिन्होंने उसके वर्तमान उपादानोंको निर्मित किया है, और यह जानता है कि वह अविच्छिन्न भविष्य में विकास द्वारा किसकी ओर बढ़ रहा है । यही पुनर्जन्ममें सच्चा सक्रिय विश्वास है, और यहाँ भी प्रश्नकारिणी बुद्धिकी क्रीड़ा वन्द हो जाती है; अन्तरात्माकी दृष्टि और अन्तरात्माकी स्मृति ही सब कुछ हैं । अवश्य ही, विकासके तंत्रका और पुनर्जन्मके नियमोंका प्रश्न रह जाता है जिसमें वृद्धिकी, उसकी पूछताछकी, उसकी सर्वसामान्यीकरण-वृत्तिकी कुछ क्रीड़ा फिर भी हो सकती है। और यहाँ, जितना अधिक विचार और अनुभव किया जाय, पुनर्शरीरधारणके साधारण, सरल और कटे-छँटे सिद्धान्तको प्रमाणिकता उतनी ही अधिक संदिग्व लगने लगती है। यहाँ अवश्य ही एक अधिक बड़ी जटिलता है, 'अनन्त' की सम्भावनाओंमेंसे एक अधिक संश्लिष्ट सामंजस्य और अधिक दुष्कर गतिका नियम विकसित हुआ है। परन्तु यह ऐसा प्रश्न है जिसके लिये लम्बे और प्रचुर विवेचनकी आवश्यकता है, क्योंकि इसका धर्म सूक्ष्म है; अणु ह्येष धर्मः । जनसाधारणमें मानव-विचार अविवेचित विचारोंकी मोटी और स्थूल स्वीकृति हो होता है; वह उनीदे संतरीकी तरह होता है और हर अच्छी वेशभूषावाली या रमणीय रूपवाली या किसी परिचित संकेत-शब्दसे मिलते जुलते शब्द बुदबुदानेवाली चीजको फाटकके कन्दर आने देता है। ऐसा विशेष रूपसे सूक्ष्म वातोंमें, उन बातोंमें होता है जो हमारे भौतिक जीवन तथा परिवेशके ठोस तथ्योंसे दूर होती हैं। जो लोग साधारण बातोंमें सावधानी और चतुराईसे तर्क करते हैं और भूल-भ्रान्तिके विरुद्ध जागरूक रहनेको बौद्धिक या व्यवहारिक कर्त्तव्य समझते हैं वे भी जब उच्चतर और अधिक कठिन भूमिपर पहुँचते हैं तो अत्यधिक असावधानताकी ठोकर खानेसे तुष्ट हो जाते हैं । जहाँ यथार्थता और सूक्ष्म विचार सबसे जरूरी हैं, वहीं वे उसके प्रति सबसे अधिक अवीर रहते हैं और उनसे जिस श्रमकी माँग की जाती है उससे कतराते हैं। मनुष्य इन्द्रियगोचर चीजोंके बारेमें तो सूक्ष्म विचार कर सकता है, परन्तु सूक्ष्मके वारेमें सूक्ष्मतासे विचार करना हमारी बुद्धिकी स्थूलताके लिये अत्यधिक श्रमकारी होता अतः हम सत्यपर पुचारा मारकर वैसे ही तुष्ट हो जाते हैं जैसे एक चित्रकारने अभीष्ट फल प्राप्त न कर सकनेपर अपनी कूचीको चित्रपर दे मारा । हम परिणाममें उत्पन्न घन्को ही किसी सत्यका निर्दोष रूप माननेकी भूल करते हैं । अतः यह आश्चर्यजनक नहीं है कि मनुष्य पुनर्जन्म जैसे विषयपर स्थूल रूपसे विचार करके सन्तुष्ट हो जाय । जो लोग उसे स्वीकार करते हैं, वे सामान्यतः उसे एक वनी-बनायी चीज की तरह, या तो कटे-छँटे मत या स्थूल सिद्धान्तके रूपमें मानते हैं। उनके लिये यह अस्पष्ट और लगभग अर्थहीन मान्यता पर्याप्त होती है कि अन्तरात्मा नये शरीरमें पुनर्जन्म लेता है । परन्तु अन्तरात्मा क्या है और अन्तरात्माके पुनर्जन्मका अर्थ सम्भवतः क्या हो सकता है ? हाँ, इसका अर्थ होता है पुनः शरीरधारण; अन्तरात्मा, वह चाहे जो कुछ हो, मांसकी एक प
ेटीमेंसे निकल गया था और अब मांसकी एक दूसरी पेटीमें आ रहा है। बात सीधी सादी लगती है, कह सकते हैं कि यह अरबकी कहानियोंके 'जिन' की तरह है जो अपनी शीशीमेंसे निकलकर बाहर फैल जाता और फिर सिकुड़कर उसीमें वापस आ जाता है, या शायद तकियेकी तरह जिसे एक खोलसे निकालकर दूसरे खोलमें डाल दिया जाता है । या अन्तरात्मा अपनेसे ही मांके गर्भमें किसी शरीरको घड़ता और फिर उसमें रहने लगता है, या यूँ कहें, मांसकी एक वेशभूषाको उतारकर देता और दूसरीको पहन लेता है। परन्तु जो इस भाँति एक शरीरको "छोड़ता" और दूसरेमें "प्रवेश" करता है, वह है क्या ? क्या वह एक चैत्य शरीर और सूक्ष्म रूप जैसा अन्य कुछ है जो स्थूल शारीरिक रूपमें प्रवेश करता है ? -- वह शायद प्राचीन रूपकका पुरूप है जो मनुष्यके अंगूठेसे बड़ा नहीं, या क्या वह कोई निराकार और स्पर्शातीत वस्तु ही है जो हाड़-मांसकी इन्द्रियगोचर आकृति वन जानेके अर्थमें शरीर धारण करती है ? सामान्य या गँवारू धारणाके अनुसार अन्तरात्माके जन्मकी बात ही नहीं है, बल्कि जगत्में एक नये शरीरका जन्म होता है जिसमें एक पुराना व्यक्तित्व निवास करता है । वह व्यक्तित्व उससे भिन्न नहीं होता जिसने किसी दिन अभीके परित्यक्त शरीरके ढाँचेको छोड़ दिया था । सोहनलाल जिस मांस-पिण्डमें रहता था उसमेंसे बाहर निकलकर जानेवाला सोहनलाल ही है; यह सोहनलाल ही कल या कुछ शताब्दियों वाद मांसके दूसरे पिण्डमें पुनः शरीर धारण करेगा और अपने पार्थिव अनुभवोंकी धाराका किसी नये नामसे और भिन्न परिवेशमें आरम्भ करेगा । उदाहरणके लिये, एचिलिस मेसिडोनियावासी फिलिपके पुत्र सिकन्दरके रूपमें पुनर्जन्म लेता है, तब वह हेक्टरका नहीं, डेरिअसका विजेता होता है, उसका क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है, और उसकी नियति अधिक विशाल; परन्तु तंब भ
ी वह एचिलिस ही है, वही व्यक्तित्व है जिसने पुनर्जन्म ले लिया है, केवल शारीरिक परिस्थितियाँ भिन्न है । पुनर्जन्मके सिद्धान्तमें एक ही व्यक्तित्वका इस प्रकार उत्तरजीवी होना ही आजके यूरोपीय मनको आकर्पित करता है; कारण, व्यक्तित्वका, इस मानसिक, स्नायविक और शारीरिक सम्मिश्रणका, जिसे हम अपना आपा कहते हैं, विलोपन या विघटन सहना ही जीवनसे अनुराग रखनेवालेके लिये कठिन होता है, और उसकी उत्तरजीविता तथा भौतिक पुनःप्राकट्यका आश्वासन ही बड़ा आकर्षण है । उसे स्वीकार करनेमें जो एक आपत्ति वस्तुतः वाधा देती है वह है स्मृतिका स्पष्ट विनाश । आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहता है कि स्मृति ही मनुष्य है, और हमारे व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताका लाभ ही क्या यदि भूतकालकी स्मृति न बनी रहे, यह वोध न रहे कि हम अब भी और सदा ही वही व्यक्ति हैं ? उसकी क्या उपादेयता रही ? कहाँ मजा रहा ? प्राचीन भारतीय विचारकोंने, ---यहाँ मैं लोक-प्रचलित विश्वासकी बात नहीं कर रहा जो काफी असंस्कृत था और जिसने इस विषयपर विचार ही नहीं किया,प्राचीन बौद्ध तथा वेदान्ती चिन्तकोंने सारे क्षेत्रका पर्यवेक्षण एक बहुत भिन्न दृष्टिकोणसे किया था। वे व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताके प्रति आसक्त नहीं थे, उन्होंने इस उत्तरपुनर्जन्मकी समस्या जीविताको अमरताका ऊँचा नाम नहीं दिया था, उन्होंने देखा था कि व्यक्तित्व एक सतत परिवर्तित होता सम्मिश्रण है और इस दशामे एक ही व्यक्तित्वकी उत्तरजीविता एक अर्थहीन वात, एक गाब्दिक अन्तविरोध है । उन्होंने वस्तुत यह अनुभव किया था कि एक सातत्य तो है और उन्होंने यह ढूंढना भी चाहा कि उस सातत्यका निर्धारक क्या है और उसमे जो अभिन्न व्यक्तित्वका भाव प्रविष्ट होता है वह भ्रम है या किसी वास्तविकताका, किसी यथार्थ सत्यका प्रदर्शन, और यदि पिछली बात ठीक है, तो वह सत्य क्या हो सकता है । वौद्धोंने किसी भी यथार्थ व्यक्तित्वको नही माना । उन्होंने कहा कि न तो आत्मा है, न व्यक्ति ही, वस कियारत शक्तिका एक अविच्छिन्न स्रोत है, जैसे किसी नदीका अविच्छिन्न बहाव हो या अग्निशिखाका अविच्छिन्न जलना । यह अविच्छिन्नता ही मनमे अभिन्न व्यक्तित्वका मिथ्या भाव उत्पन्न करती है। मै आजके दिन वही व्यक्ति नही है जो एक वर्ष पहले था, वह व्यक्ति भी नहीं हूँ जो एक ही क्षण पहले था, वात वैसे ही है जैसे सामनेके घाटमे बहता हुआ पानी वही पानी नही है जो कुछ क्षण पहले उधरसे गुजरा था, एक ही धारामे निरन्तर प्रवाह ही अभिन व्यक्तित्वकी मिथ्या प्रतीतिको बनाये रखता है। अत स्पष्ट है कि कोई अन्तरात्मा नही है जो पुन शरीर धारण करता हो, प्रत्युत केवल कर्म है जो उसी अविरत दीखनेवाली वारामे अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित होता रहता है । कर्म ही शरीर धारण करता है; कर्म ही सतत परिवर्तनशील मनोवृत्ति और भौतिक शरीरोकी सृष्टि करता है जो, हम मान सकते हैं, विचारो और सवेदनोके उस परिवर्तनशील सम्मिश्रणका परिणाम है जिसे हम हम कहते हैं । वह अभिन्न "हम" है नही, न वह कभी था, न कभी होगा । व्यवहारत
या, जबतक व्यक्तित्वकी भूल वनी रहती है, तबतक उससे बहुत अन्तर नही पडता और हम अज्ञानकी भाषामे कह सकते हैं कि हम एक नये शरीरमे पुनर्जन्म लेते है, व्यवहारतया हमे उसी भूलके आधारपर आगे बढना है। परन्तु एक यह महत्वपूर्ण वात मिल गयी है कि यह सब भूल है, और एक ऐसी भूल है जिसका अन्त हो सकता है, उस सम्मिश्रणको नयी रचना किये विना सदाके लिये खण्डित किया जा सकता है, अग्निशिखाको बुझाया जा सकता है, जिस धाराने अपने आपको नदी कहा था उसका विनाश किया जा सकता है। और तब है अ-सत्ता, अवसान, भूल - भ्रान्तिका अपने-आपमेमे छुटकारा । वेदान्ती एक भिन्न निष्कर्षपर पहुँचता है, वह एक अभिन्नको, एक आत्माको, एक स्थायी अपरिवर्तनशील मवस्तुको स्वीकार करता है, परन्तु वह हमारे व्यक्तित्वसे भिन्न है, जिस सम्मिश्रणको हम हम कहते हैं उससे भिन्न । कठोपनिषद्मे यह प्रश्न एक बहुत ही शिक्षाप्रद रीतिसे उठाया गया है जो हमारे वर्तमान विषयके लिये बिलकुल प्रासंगिक है। अपने पिता द्वारा मृत्युलोकमे भेजा गया नचिकेतस उस लोकके अधिपति यमसे यो प्रश्न करता है जो मनुष्य आगे चला गया है, जो हमसे विदा लेकर चला गया है, उसके बारेमे कुछ लोग कहते हैं कि वह है और दूसरे कहते हैं कि "वह यह नही है", तो उनमे कौन ठीक है ? उस महा यात्राका सत्य क्या है ? यही प्रश्नका रूप है और पहली नजरमे ऐसा लगता है कि यह अमरता शब्दके यूरोपीय अर्थमे उसकी समस्याको, अभिन्न व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताकी समस्याको उठा रहा है । परन्तु नचिकेतस जो पूछ रहा है वह यह नहीं है । यमके तीन वरदानोमेसे दूसरेमे वह उस पवित्र अग्निका ज्ञान पा चुका है जिसके द्वारा मनुष्य भूख और प्यासको पार कर जाता, दु ख और भयको बहुत पीछे छोड़ जाता और निश्चित रूपसे आनन्द पाता हुआ स्वर्गमे निवास करता है । उस अर्थमे
तो वह अमरताको स्वीकृत जैसा मान लेता है, जैसा कि उस दूरस्थ लोकमे स्थित होनेसे वह अवश्य करेगा। वह जिस ज्ञानकी माँग कर रहा है, उसमे वह गभीरतर, सूक्ष्मतर समस्या समाविष्ट है जिसके बारेमे यमका कथन है कि पुरातन कालमे देवोने भी इस विषयपर विवाद किया था और इसे जानना आसान नही है, क्योकि उसका धर्म सूक्ष्म है, कोई ऐसी वस्तु उत्तरजीविनी रहती है जो वही व्यक्ति प्रतीत होती है, जो नरकमे उतरती, स्वर्गमे चढती और पृथ्वीपर एक नये शरीरके साथ वापस आती है, परन्तु क्या यथार्थत वही व्यक्ति उत्तरजीवी होता है ? उस मनुष्यके बारेमे क्या हम यथार्थत कह सकते हैं "वह अभी तक है" ? क्या इसकी जगह बल्कि हमे यह न कहना चहिये कि "वह अब यह और नहीं है"? यम भी अपने उत्तरमे मृत्युके बाद उत्तरजीविताकी बात बिलकुल नही कहते और वह केवल एक-दो श्लोकोमे उस सतत पुनर्जन्मका वर्णन मात्र कर देते हैं जिसे सभी गम्भीर विचारकोंने सर्वमान्य सत्यके रूपमे स्वीकार किया था । वह जिसकी बात करते हैं वह 'आत्मा' है, यथार्थ 'मनुष्य' है, इन सारे बदलते हुए रूपोका प्रभु है, उस 'आत्मा' के ज्ञानके विना व्यक्तित्वकी उत्तरजीविता अमर जीवन नही, अपितु निरन्तर भृत्युसे मृत्युकी ओर यात्रा है, अमर केवल वही बनता है जो व्यक्तित्वसे परे सच्चे व्यक्तित्वको प्राप्त करता है । तबतक मनुष्य सचमुच अपने ज्ञान तथा कर्मोकी शक्तिसे बार-बार जन्म लेता प्रतीत होता है, एक नामके बाद दूसरा नाम आता है, एक रूपके स्थानपर दूसरा रूप आता है, परन्तु अमरता नही आती । तो यही वह यथार्थ प्रश्न है जिसे बौद्ध तथा वेदान्ती इतने भिन्न रूपसे रखते और उत्तर देते हैं। नये शरीरोमे व्यक्तित्वकी सतत पुनर्रचना होती है, परन्तु यह व्यक्तित्व क्रियाशील शक्तिकी क्षर सृष्टि है जो कालमे आगे प्रवाहित होती जाती है और कभी भी, एक क्षणके लिये भी, वहीकी वही नही होती, और जो अह-वोष हमे शरीरके जीवनसे चिपकाए रखता और आसानीसे यह विश्वास दिलाता है कि वह वही भाव और रूप है, कि सोहनलाल ही पुनर्जन्ममे सिदि हुसेन हो गया है, वह मनकी रचना है। एचिलिसने सिकन्दर बनकर पुनर्जन्म नही लिया था, वरन् अपने कार्योमे लगी जिस शक्ति-धाराने एचिलिसके क्षण-क्षण परिवर्तित होते मन और शरीरकी सृष्टि की थी वह आगे वहती गयी और उसने सिकन्दरके हर क्षण परिवर्तित होते मन और शरीरकी सृष्टि की । किन्तु प्राचीन वेदान्तने कहा कि फिर भी इस क्रियारत शक्तिसे परे कुछ और है जो उसका स्वामी है, वह है जो उससे अपने लिये नये नाम और रूप वनवाता है, और वही है आत्मा, पुरुष, मनुष्य और सच्चा व्यक्ति । अह-बोध उसकी विकृत मूर्ति मात्र है जो शरीरघारी मनके वहते स्रोतमे प्रतिविम्बित होती है । तो क्या आत्मा ही शरीर लेता और बार-बार शरीर बदलता है ? परन्तु आत्मा तो अविनाशी, अक्षर, अज, अमर है। आत्मा न तो शरीरमे जन्म लेता है, न उसमे रहता ही है, इसके विपरीत शरीर ही आत्मामे जन्म लेता और उसमे रहता है। कारण, आत्मा सर्वत्र एक है, - हम कहते हैं, सब शरीरोमे एक ही है, परन्तु
यथार्थमे, वह विभिन्न शरीरमे सीमित और बैटा हुआ नही है, सिवाय इसके कि वह सर्वोपादान आकाश जैसा है जो विभिन्न पदार्थ वन गया लगता है और एक अर्थमे उनके अन्दर है । वल्कि ये सारे शरीर आत्मामे हैं, परन्तु यह भी देश-धारणाकी कल्पना ही है, और ये शरीर उसके अपने प्रतीक तथा आकृतियाँ मात्र हैं जिनकी सृष्टि उसीने कपनी स्व-चेतनामे की है। जिसे हम वैयक्तिक अन्तरात्मा कहते हैं वह भी अपने शरीरसे बढकर है, कम नही, उसकी अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है और फलत उसकी स्थूलतासे वैधा नही है । मृत्युके समय वह अपने रूपसे विदा नही लेता, वरन् उसे उतार फेकता है, अत महान् आत्मा प्रयाणके समय इस मृत्युके बारेमे सशक्त भाषामे कह सकता है, "मैंने शरीरको थूक दिया है।" तो वह क्या है जिसे हम शारीरिक ढाँचेमे निवास करता अनुभव करते है ? वह क्या है जिसे आत्मा इस आशिक शारीरिक चोलेको उतारकर फेकते समय शरीरसे खींच लेता है, जिसने स्वयं उसको नही, अपितु उसके अगोके एक भागको आच्छादित कर रखा था ? वह क्या है जिसके बाहर निकलनेसे यह विछोह-पीडा होती है, वियोगका यह तेज सघर्ष और कष्ट होता है, उग्र सम्बन्ध विच्छेदका यह भाव पैदा होता है ? इसका उत्तर हमे बहुत सहायता नहीं देता । वह सूक्ष्म या चैत्य ढाँचा है जो हृत्तत्रियो द्वारा, प्राण-शक्तिकी, स्नायविक ऊर्जाकी उन डोरियो द्वारा भौतिक शरीरके साथ बँधा होता है जो प्रत्येक भौतिक रेशेमे बुन दी गयी है । शरीरके प्रभु इसे ही खीच निकालते हैं और प्राण-डोरियोका उग्र रूपसे तोडा जाना या तेजीसे या धीरे-धीरे ढीला पुनःशरीरधारी अन्तरात्मा. किया जाना, सयोजिका शक्तिका चला जाना ही, मृत्युकी वेदना और उसकी कठिनाईका कारण है । तो हम प्रश्नका रूप बदल दे और यह पूछे कि जब आत्मा अक्षर है तो वह क्या है जो क्षर व्यक्तित्वको प्रतिवि
म्बित और स्वीकार करता है ? वास्तवमे एक अक्षर आत्मा, एक सत्-व्यक्ति होता है जो इस सदा - परिवर्तनशील व्यक्तित्वका अघिपति है, और फिर यह व्यक्तित्व सदा-परिवर्तनशील शरीरोको धारण करता है, परन्तु सदात्मा सदा ही अपने वारेमे यह जानता है कि वह क्षरसे ऊपर है, वह उसे देखता और उसका भोग करता है, परन्तु उसके अन्दर उलझता नही । वह क्या है जिसके द्वारा परिवर्तनोका भोग करता और उन्हें अपना अनुभव करता है, जब कि वह यह भी जानता है कि वह स्वय इन सबसे अप्रभावित है ? मन और अह-बोध केवल निम्न उपकरण हैं, उसका अपना कोई अधिक मूलभूत रूप अवश्य होगा जिसे 'यथार्थ मनुष्य' व्यक्त करता है, मानो अपने ही सामने और परिवर्तनोके पीछे रखता है जिससे वह उन्हे आधार दे सके और प्रतिबिम्बित कर सके, साथ ही उनके द्वारा वस्तुत परिवर्तित भी न हो । यह अधिक मूलभूत रूप मनोमय पुरुष या मनोमय व्यक्ति है जिसे उपनिषदोने प्राण तथा शरीरका नेता कहा है, मनोमय प्राण- शरीर नेता । वही अह-बोधको मनमे एक क्रिया-व्यापारके रूपमे बनाए रखता है और हमे आत्माकी कालरहित अभिन्नताके प्रतिपक्षमे कालके अन्दर अविच्छिन्न व्यक्तित्वकी दृढ धारणाको रखनेमे समर्थ करता है । परिवर्तनशील व्यक्तित्व यह मनोमय पुरुष नहीं है, वह प्रकृतिके विविध उपादानोका सम्मिश्रण है, प्रकृतिकी रचना है, पुरुष बिलकुल नही । और वह एक बहुत जटिल सम्मिश्रण होता है जिसमे बहुतहसी परते होती हैं, एक परत अन्नमय व्यक्तित्वकी, एक परत स्नायवीयकी, एक परत मनोमयकी, एक अन्तिम स्तर अतिमानसिक व्यक्तित्वका भी । और फिर इन परतोके अन्दर भी प्रत्येक स्तरके अन्दर कई स्तर होते हैं। हमसे व्यक्तित्वका नाम पानेवाली इस आश्चर्यजनक सृष्टिके विश्लेषणकी तुलनामे पृथ्वीकी एकके बाद एक करके आनेवाली परतोका विश्लेषण एक सरल चीज है। बार-बार शारीरिक जीवन धारण करनेवाला मनोमय पुरुष अपने नये पार्थिव अस्तित्व के लिये नया व्यक्तित्व घडता है, वह भौतिक जगत्की सर्वसामान्य जड सामग्री, प्राण सामग्री, मानस सामग्रीमेसे सामग्री लेता है और पर्थिव जीवनमे निरन्तर नयी सामग्रीको आत्मसात् करता जाता है, और जो खर्च हो चुका है उसे वाहर फेकता जाता है, अपने शारीरिक, स्नायविक और मानसिक तन्तुओको वदलता रहता है। परन्तु यह सारा सतही कार्य होता है, पीछे भूतकालके अनुभवकी नीव रहती है जिसे स्थूल स्मृतिमे आनेसे रोक रखा जाता है ताकि उपरितलीय चेतना अतीतके चेतन भारसे कष्ट या वाघा न पाय, वरन् जो तात्कालिक कार्य हाथमे लिया हुआ है उसपर केन्द्रित रहे । तथापि, भूतकालके अनुभवकी वह नीव व्यक्तित्वकी दृढ आधारशिला है, उससे भी अधिक है । वह हमारा वास्तविक कोष है, अपने परिवेशके साथ होनेवाले अपने वर्तमान ऊपरी वाणिज्य अतिरिक्त भी हम उस कोषका सदा सहारा ले सकते हैं। वह वाणिज्य हमारे लाभोमे वृद्धि करता है, परवर्ती जीवनके लिये नीवमे परिवर्तन करता है। इसके अतिरिक्त, फिर, यह सब भी सतहपर ही है। हमारे 'स्व' का एक छोटासा भाग ही हमारे पार्थिव जीवनकी ऊर्जाओमे रहता और कार्य क
रता है। जैसे भौतिक विश्वके पीछे अन्य लोक हैं, हमारा जगत् जिनका अतिम परिणाम ही है, वैसे ही हमारी आत्म-सत्ताके लोक है जो हमारी सत्ताके इस बाह्य रूपको वाहर प्रकट करते हैं। अवचेतन और अतिचेतन वे समुद्र हैं जिनमेसे और जिनकी ओर यह नदी बहती है । अत हमारा अपने वारेमे यह कहना कि हम वार-बार शरीर धारण करनेवाला अन्तरात्मा हैं, हमारे अस्तित्वके चमत्कारको एक अति सरल रूप दे देना है, यह कथन उस परम ऐन्द्रजालिकके इन्द्रजालको एक अति सुविधाजनक और अति स्थूल सूत्रमे प्रस्तुत करता है। ऐसी कोई निश्चित चैत्य सत्ता नही है जो मासके एक नये खोलमे प्रवेश कर रही हो, एक पुनर्जन्तरात्मानुप्रवेश एक नये चैत्य व्यक्तित्वका पुनर्जन्म और साथ ही एक नये शरीरका जन्म होता है। और इसके पीछे रहता है पुरुष अपरिवर्तनशील सत्ता, इस सश्लिष्ट सामग्रीका व्यवहार करनेवाला स्वामी, इस आश्चर्यजनक कौशलका शिल्पी । यही वह आरम्भ-विन्दु है जहाँसे हमे पुनर्जन्मकी समस्यापर विचार करनेके लिये अग्रसर होना होगा। अपने आपको इस भाँति देखना कि अमुक अमुक व्यक्ति मासके एक नये खोलमे प्रवेश कर रहा है अज्ञानमे ठोकरे खाते फिरना है, जडमय मन और इन्द्रियोकी भूलको पक्का करना है। शरीर एक सुविधा है, व्यक्तित्व एक सतत रचना है जिसके विकासके लिये कर्म तथा अनुभव उपकरण है, परन्तु वह आत्मा जिसकी इच्छासे और जिसके आनन्दके लिये यह सब है, इस शरीरसे भिन्न है, कर्म और अनुभवसे भिन्न है, और वे जिस व्यक्तित्वकी विकसित करते हैं उससे भी भिन्न है। इसकी अवज्ञा करना अपनी सत्ताके सम्पूर्ण रहस्यकी अवज्ञा करना है ।
रात में कुम्हार को भूख नहीं थी। पत्नी के बार-बार कहने पर उसने एक रोटी खाई और ढेरों पानी चढ़ा लिया। इस पर पत्नी नाराज़ हुई। उसने पत्नी की नाराज़गी पर ज़रा भी ध्यान न दिया। सीधे खाट पर पड़ गया। लेटते ही उसकी आँख लग गई लेकिन थोड़ी ही देर में वह जाग गया। उसे अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। मन में बार-बार यह ख़्याल आ रहा था कि कहीं उसकी ज़मीन हाथ से जाने वाली तो नहीं। उसे लग रहा था कि हो न हो बड़े साहब की निगाह उसकी ज़मीन पर है तभी वह दौरे पर आए थे, उसके झोपड़े, ख़ाली पड़ी ज़मीन और नीम के विशाल पेड़ को लालच भरी निगाह से देख रहे थे। उन्होंने तभी पटवारी को तलब किया था जो दौड़ा हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ था। ज़रूर बड़े साहब ने पटवारी को हुक्म दिया कि यह ज़मीन मौक़े की है, इस पर कब्जा जमाओ... पटवारी उस वक़्त हाथ जोड़ के हुक्म की तामीली के लिए उनके सामने झुक गया था जैसे कह रहा हो कि हुजूर, यह काम हो जाएगा, आप निशाख़ातिर रहें। हे भगवान! क्या अनर्थ होने वाला है। घरवाली भी उसे सचेत कर रही थी। वह तो साफ़ कह रही थी कि यह पटवारी गड़बड़ आदमी है, कुछ न कुछ अंधेर ज़रूर करेगा। कुम्हार उठकर बैठ गया। तकिया के नीचे से उसने बीड़ी का बंडल निकाला। बीड़ी जलाने को हुआ कि अंधेरे में बीड़ी की चिनगी नज़र आई। लग रहा था कोई उसके पास आ रहा है। श्यामल के बाबू थे, खाना खाकर उसके पास यूँ ही दो पल के लिए बैठने आए थे। हाथ में उसके जलती बीड़ी थी। खाट पर बैठते ही उसने पूछा- और भोला, कैसे हो? अब तो तुम चंगे हो गए। -हाँ भाई, जो कष्ट लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा। यकायक वह खोखली हँसी हँसा - अब बिलकुल ठीक हूँ। भगवान चाहेगा तो अब नया हीला और भी रफ़्तार पकड़ लेगा। -बिल्कुल! आज कुछ भी करो, माटी बेचो, पैसे कहीं नहीं गए। आदमी में बस हुनर हो, वह भूखा नहीं मरेगा- श्यामल का बाबू बोला- पेट भर को मिल ही जाएगा यार, और ये तुमने समय रहते कर लिया, अच्छी बात है। आगे इसी काम को गोपी भी अच्छे से सम्हाल सकता है। -अरे, गोपी की क्या? अभी तो उसके खेलने के दिन हैं; सज्ञान होते कौन-सी लाइन हाथ लगे, क्या भरोसा। देख नहीं रहे हो नई-नई चीज़ें आ रही हैं, नये नये धंधे। कभी सोचा नहीं, कभी देखा नहीं। -ऐसई है भाई- श्यामल का बाबू थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला- फैक्टरी का क्या मामला है? तरह-तरह की बातें सुन रहा हूँ। कोई कह रहा है कि बस्ती के बीचोबीच में कहीं लगने वाली है, कोई कहता है तुम्हारे झोपड़े के सामने। आज पटवारी मुझे मिला संझा को, मैंने उससे पूछा तो वह भी कहने लगा कि फैक्टरी लगेगी। मैंने पूछा कहाँ तो बोला चिंता क्यों करते हो। सुना है, तुम्हारी ख़ैर-ख़बर लेने घर आया था? कुम्हार बोला- हाँ, आया था। मुझसे भी यही कहने लगा कि मेरे रहते चिंता न करो, मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब देख लूँगा। -तुम किसी से या पटवारी से चर्चा न करना - श्यामल का बाबू बोला- पटवारी तो मेरे कान में कह रहा था कि बड़े साहब को तुम्हारा झोपड़ा और नीम का पेड़ और खाली पड़ी ज़म
ीन जँच गई है, हो न हो वहीं फैक्टरी डले। कुम्हार के प्राण नहों में समा गए। -तुम चिंता मत करो- श्यामल का बाबू बोला- कोई मज़ाक-खेल है क्या? हम लोग मर गए हैं क्या? कोई यहाँ घुसे तो सई। लहास गिरा देंगे.. वह ग़ुस्से में भर उठा था। यकायक श्यामल की आवाज़ आई। शायद उसकी माँ उसे बुला रही थी। जय राम कहकर श्यामल का बाबू उठा और अँधेरे में खो गया। कुम्हार के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। थोड़ी देर बाद जब वह मटके से पानी निकालकर पी रहा था, उसके दिमाग़ में आया कि उसे घबराना नहीं चाहिए जब तक कोई बात साफ़ नहीं हो जाती। अभी एकदम से भड़भड़ाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। पटवारी ज़रूर गड़बड़ आदमी है लेकिन जब वह कुछ कह रहा है तो उस पर यक़ीन करना चाहिए। हो सकता है, वह कुछ मदद करे। अक्सर देखा गया है, नीचे के लोग मदद कर देते हैं। हो सकता है कुछ करे, नहीं भला क्यों कहता। वह तो हमारी ख़ैर-ख़बर के लिए झोपड़े पर आया, आज भला कौन किसे पूछता है- ऐसे में बिना सबूत के उस पर शक करना ठीक नहीं। जब वह कह रहा है कि हम कोई न कोई रास्ता निकाल देंगे तो उस पर भरोसा करने में क्या जाता है। पत्नी लाख मना करे, मैं तो अभी उस पर भरोसा करूँगा चाहे जो हो जाए। उड़ी-उड़ी बातों पर क्यों कान दें...इन बातों को सोचता वह काफ़ी देर तक नीम के नीचे टहलता रहा। जब दूर के पेड़ों पर पंछियों के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ आई और पीछे के ठूँठ पर बैठने वाले उल्लू के बोलने की आवाज़, वह खाट पर लेट चुका था। थोड़ी देर बाद वह गहरी नींद के हवाले था। सबेरे जब कुम्हार की नींद टूटी, अवध सामने खड़ा मिला। वह बहन को लेने आया था। माँ सख़्त बीमार थी और उसके नाम की रट लगाए थी। इस ख़बर से कुम्हारिन के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आँगन में बैठी वह घुटी आवाज़ में मुँह
में आँचल ठूँसे रो रही थी। माँ के लिए वह रो रही थी, इसी के साथ कुम्हार को अकेला छोड़ने का दुःख भी उसे साल रहा था। वह बीमार था, अभी-अभी तो ठीक हुआ- उसे छोड़ के कैसे जाए? सोच-सोचकर बेहाल हुई जा रही थी वह। कुम्हार ने अवध से पूछा - क्या हुआ जिया को? सास को वह जिया कहता था। हालाँकि सभी उसे जिया कहके पुकारते थे। अवध ने कहा - पहले सर्दी हुई, फिर तेज़ बुखार और पेट में दर्द। उस पर दस्त। अब ये हाल है कि उठ-बैठ नहीं पा रही हैं, कह रही हैं, समय आ गया है, परबतिया को बुलाओ। न कुछ खा रही हैं न पी। बस एक रट परबतिया! परबतिया!!! परबतिया अपना सामान बाँध रही थी और बीच-बीच में कुम्हार से कहे जा रही थी- ठीक से रहना। रोटी बना लेना। मन तो हो रहा है कि गोपी को छोड़ जाऊँ लेकिन बो जाने की ज़िद किए है कि नानी के घर जाएँगे... एक पल यहाँ नहीं रुकेगा, नहीं छोड़ जाती। अवध ने कहा- जीजा, तुम भी चलो न! हम ऑटो बुला लाते हैं, वैसे भी तुम कभी निकल नहीं पाते हो! -बहन को ले जाओ, समय मिला तो मैं पीछे से आ जाऊँगा। परबतिया ने कहा - रहन दो तुम, कोई झूठ तुमसे बुलवा ले। -चलो न जीजा! अवध ने इसरार किया। भोला ने कहा - सच्ची कहता हूँ, तुम चलो, मैं जरूर आऊँगा। जिया को देखने का मेरा भी मन है। परबतिया का जाने का ज़रा भी मन न था। रह-रह वह अँसुआ पड़ती। रुँधे कण्ठ के बीच उसने खाना बनाया, सबको खिलाया। जब जाने को हुई, उसे ज़ोरों की रुलाई छूटी। आवाज़ तो नहीं निकल पाई क्योंकि उसने मुँह में आँचल ठूँस लिया था। हाँ, आँसुओं को वह रोक न सकी जो उसके चेहरे को भिंगो रहे थे। अवध झोला लिए आगे-आगे चलने को हुआ, पीछे गोपी की उँगली पकड़े कुम्हारिन थी। ठीक इसी वक़्त मैना ने दर्दीला स्वर छेड़ दिया। कुम्हारिन ने मैना को देखा जैसे कह रही हो कि ध्यान रखना कुम्हार का। मैं जल्द लौटूँगी। हाथ हिलाते हुए कुम्हार रुँधे कण्ठ से दीवार की आड़ में आ गया। पता नहीं क्यों इस वक़्त पत्नी को जाता देख वह सिसकियाँ दे रो पड़ा। बड़े मियां तेज़ गति से चल रहे थे, उन्हें हँकाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी, उल्टे अवध को दौड़ना पड़ रहा था। -यार, तू तो दौड़ रहा है, मुझे थका डालेगा, धीरे तो चल- अवध हाँफता बोला। अवध पान के ठेले के सामने रुक गया। उसी के बग़ल लाला की चाय की दुकान थी जहाँ इस वक़्त ताज़ा समोसे बनने की गंध उठ रही थी। अवध बोला - बड़े मियां, समोसा खाना है तो बोल दे। गरम-गरम मामला है, ऊपर से धनिया की चटनी, ऐ रामू, एक गुटखा और जर्दा तो रगड़ बढ़िया, ख़ुशबूदार। लाला बोले - अरे, ये बड़े मियां को तुम कहाँ ले जा रहे हो, यह तो भोला कुम्हार का साथी है। अवध बोला - बड़े मियां ने हीला बदल दिया है। वक़्त के हिसाब से जीना चाहता है जिसमें मौज़-मस्ती भी कुछ करने को मिले, बहुत हो चुके मटके, कुल्हड़, सकोरे, परई!!! लाला ने अवध से छिपाकर बड़े मियां को चार समोसे दिये जो कल रात के बचे थे। अंदर का माल ख़राब हो गया था। बड़े मियां कुछ नहीं बोले। चुपचाप खा गए। जानवरों के साथ सब
ऐसा ही बर्ताव करते हैं। किसी में ज़रा भी हमदर्दी नहीं। -कैसे लगे बड़े मियां - अवध ने पूछा - अच्छे थे न? ख़ूब गर्म? बड़े मियां ने कोई जवाब न दिया। बड़े मियां कोई जवाब देते इससे पहले ही लाला ने एक काफ़ी गर्म समोसा बड़े मियां को दिया जिसे वे बहुत ही मुश्किल से किसी तरह हलक के नीचे उतार पाये। रास्ते में जहाँ खटखटे के घोड़े-खच्चर और गधे पानी सोखते हैं, अवध ने बड़े मियां को ढील दिया। खैनी-तम्बाखू का मज़ा लेने को भी कहा जिसे बड़े मियां ने हँसकर मना कर दिया। अवध के व्यवहार पर बड़े मियां आश्चर्यचकित थे। ये वही अवध है कि कोई और अवध। यह तो बहुत ही अच्छा आदमी है। कितनी सेवा कर रहा है, कितना ध्यान रख रहा है। प्यार से काम समझाता है, ज़रा भी नाराज़ नहीं होता। ऐसे चलो, किनारे चलो, फासला बना के। रुक-रुककर सुस्ता के चलो, कोई जल्दी नहीं, कोई आफ़त नहीं फटी पड़ी है। ठेले मुकाम पर पहुँच जाएँ सही सलामत - यही अपना काम है। ठेले वाले कर्रे पैसे देते हैं तो उनका भी काम अच्छे से होना चाहिए, क्या? हफ़्ते-दस दिन में बड़े मियां ने अवध का दिल जीत लिया। सलीक़े और लगन से ऐसा काम किया कि अवध उसे इंतहा प्यार करने लगा। थोड़े ही दिन में बड़े मियां शहर के चप्पे-चप्पे से परिचित हो गए। किस मण्डी में, किस रास्ते से कैसे माल लेकर निकलना है- अच्छे से जान गए थे। कहाँ ढाल है, कहाँ चढ़ाव, कहाँ गहरा जानलेवा गड्ढा, कहाँ रास्ता सँकरा, कहाँ चौड़ा - सब उनके दिमाग़ में बसा था। आँख मूँदकर बता देते। शाम को दो-तीन बजे से सब्ज़ी बाज़ार लगना शुरू हो जाता। शुरू में तो लोग इक्का-दुक्का दिखते लेकिन गैस बत्ती के जलते ही ऐसी गदर मचती कि न पूछो। ठेलमठेल। चीख़-गुहार। सब्जी वालों की ऐसी गुहार कि कान के पर्दे फट जाएँ। बड़े मियां सोचते, ऐसी ग
ुहार की क्या ज़रूरत? लोग अपने आप आ रहे हैं, सामान ख़रीद रहे हैं, फिर भी गुहार! यह गुहार लगातार तेज़ होती जाती। जैसे-जैसे रात घनी होती जाती गुहार और भीड़ ढलान पर होती जाती। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लग जाती। सब्जी बेचनेवाले ही रह जाते। गैस-बत्तियाँ बुझाई जाने लगतीं। और फिर सामान बँधने लग जाते। ठेलों को एक लाइन में बाँधना शुरू हो जाता। फिर शुरू होता इन्हें दूसरी मण्डी में ले जाने का सिलसिला। बड़े मियां अपने काम को बहुत ही अच्छे से अंजाम दे रहे थे कि अगले माह ही ऐसा कुछ घट गया जिसने सब कुछ उलट-पलट डाला। हुआ यह कि बड़े मियां ठेलों की आख़िरी खेप लेकर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वे सबसे आगे थे और एक-दूसरे से बँधे दस ठेले उनके पीछे। यकायक उनके आगे दो साइकिल सवार जो बेतरह शराब पिए हुए थे, नशे में डाँवाडोल, उलझकर सड़क पर आ गिरे। शराबियों के गिरते ही सामने से तेज़ गति से आ रहा एक डम्फर, उनको कुचलने से बचाने के चक्कर में यकायक संतुलन खो बैठा। शराबी तो बच गए, रहे ठेले उसकी चपेट में आ गए। दस के दसों ठेले पहचान में नहीं आ रहे थे, दुच गए थे। उनमें लदा सामान चारों तरफ़ बिखर कर मिट्टी में मिल गया था। क़िस्मत अच्छी थी कि बड़े मियां को गिरने के बाद भी तनिक भी चोट न लगी और वे भौंचक खड़े थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। कैसे अवध को बुलाया जाए। संयोग था कि अवध वहाँ आ पहुँचा। दुचे ठेले और सामान का सत्यानास देखकर उसका दिमाग़ घूम गया - बड़े मियां ने ज़रूर कोई हरमपन की तभी यह हादसा हुआ, अब ठेलेवाले उसे ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे? कहाँ से भरेगा वह पैसा! हे भगवान! उसकी आँखों में ख़ून उतर आया - उसने लट्ठ उठाया और अनगिनत लट्ठ बड़े मियां पर बरसने लगे। पाँवों पर लट्ठ, पीठ पर लट्ठ, सिर पर लट्ठ, पोंद पर लट्ठ। हे भगवान! ये ज़ालिम तो मार डालेगा। बड़े मियां गिर गए फिर भी लट्ठों की बरसात होती ही रही। इस बीच, पता नहीं कैसे और क्या हुआ कि अवध का पाँव चीथड़े में उलझ गया और वह ज़मीन पर लोट गया। बड़े मियां को जान बचाकर भागने का मौक़ा मिल गया। वे भागे, सिर पर पाँव रखे। बेतरह चिल्लाते। पत्नी मैके क्या गई, कुम्हार को घर काटने-सा दौड़ता महसूस होता। लगता वह वीराने में रह रहा है जहाँ परिन्दे तक जाना पसंद नहीं करते। पत्नी जा रही थी तो मैना दर्दीला गीत गा रही थी। उसके जाते ही ऐसी चुप हुई जैसे कण्ठ अवरुद्ध हो गया। या वह बोलना भूल गई हो। कुम्हार ने कई बार आवाज़ देकर उसे बुलाया, दाने का आमंत्रण दिया, वह बंदी उतरी तो उतरी नहीं। लगता था जैसे उसे भी कुम्हारिन का जाना अखर गया हो। पेड़ में छिपी बैठी वह कभी ज़ोरों से पंख फड़फड़ा उठती जिससे उसके होने का एहसास तो होता, लेकिन वीरानगी और बढ़ गई-सी लगती। रात को कुम्हार को भूख ही नहीं लगी, इसलिए पानी पीकर खाट पर लेट गया। अँधेरी रात थी, हाथ को हाथ न सूझने वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। पल भर को कुम्हार की आँख लगी कि एकदम से चौंककर उठ बैठा। लगा पत्नी है जो बड़े मियां को पानी दे
ने गई है। बाल्टी से वह उसके बड़े मुँह के मटके में पानी कुरो रही है। वह उठा और धीरे-धीरे चलता सार की तरफ़ गया। सार में घना अँधेरा था। बड़े मियां को तो अवध ले गया था, वो तो यहाँ थे नहीं, फिर पत्नी भी तो नहीं है- वो कैसे यहाँ आ गई। गहरी साँस छोड़ता कुम्हार खाट पर वापस आ गया। पता नहीं क्यों खाट पर बैठते ही उसे लगा, पत्नी जाँत चला रही है, साथ में लोकगीत की कोई दर्दीली पंक्ति जाँत की चाल से मिलाकर गा उठी है। रह-रह चूड़ियाँ भी खनक रही हैं। वह खाट से उठा, झोपड़े में गया - कोई न था! हे भगवान! क्या हो गया है उसे! उसने श्यामल के घर की टोह ली। यह आवाज़ और किसी की नहीं, कुम्हारिन की थी - उसकी पत्नी की। उसने उसका नाम मन में उच्चारित किया - परबतिया! परबतिया!! खाट पर सीधा लेटकर वह सोचने लगा कि पत्नी कब मायके गई थी। उसे कुछ याद नहीं। शायद गोपी छे माह का था तभी एक माह के लिए गई थी। उसके बाद घर वह एक पल को नहीं छोड़ पाई थी। घर गृहस्थी में ऐसी फँसी कि सीवान-खेत से आगे न बढ़ पाई। यही उसकी चौहद्दी थी जिसमें वह कोल्हू के बैल की तरह घूमती रही। -सोते क्यों नहीं? क्या सोच रहे हो? - जैसे ही उसकी आँख लगी, कानों में ये शब्द बजे। उसने आँखें खोलीं, देखा तो कोई नहीं। वह सोच में पड़ गया- पत्नी की आवाज़ थी, कानों में गूँजी थी। कहाँ से आई? कैसे आई? समझ में नहीं आता। ज़रूर कुछ है जो समझ से परे है! मैके में वह उसे बेक़रारी से याद कर रही है, तभी वह याद यहाँ मुझे बेक़रारी में डाले है। यकायक वह उठ बैठा। सोचा, क्यों न सास के बहाने वह पत्नी से मिल आए। सास की ख़ैर-ख़बर मिल जाएगी इसी बहाने पत्नी से भेंट भी हो जाएगी। मन भी जुड़ा जाएगा। फिर सोचा, कहीं बुरा न मानें पत्नी तो? मानने दो बुरा। पत्नी से ही तो मिलने गया था, किस
ी और से तो नहीं। इसमें हरज क्या है? फिर अवध ने भी तो आने के लिए इसरार किया था, कई बार बोला था- यह तर्क देकर वह लेटा और विचार बना लिया कि कल सुबह वह घर से निकलेगा और सीधे ससुराल के लिए चल देगा। वैसे ससुराल है भी कितनी दूर। कुल मिलाकर दस किलोमीटर। पाँचों पीरन के पास! अलसुबह जब झीना उजास फैल रहा था, कुम्हार को नींद लग गई। नींद में उसने देखा, बड़े मियां भयंकर चीत्कार के साथ सरपट, सिर पर पैर रखे उसकी तरफ़ दौड़े चले आ रहे हैं और उनके पीछे अवध है जिसके हाथ में है बड़ा-सा लट्ठ, तेल पिया। अवध बेतरह ग़ुस्से में है, अलफ़, बेहिसाब गालियाँ बकता। वह बड़े मियां को रुकने के लिए चिल्ला रहा है ताकि वह उसका मार-मार कर कचूमर निकाल दे। बड़े मियां हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। सार में पनाह के लिए वे भागे। अवध सार में पहुँच गया। बड़े मियां वहाँ से किसी तरह निकले और कुम्हार के झोपड़े में घुस गए और खाट पर लेटे कुम्हार के ऊपर चढ़ बैठे बेतरह गुहार लगाते कि बचाओ! बचाओ!! जल्लाद से बचाओ!!! भयंकर चीख़ के साथ कुम्हार उठ बैठा, आँखें खोलकर देखा तो सामने सचमुच में बड़े मियां खड़े थे। बड़े मियां के अंजर-पंजर ढीले थे। शरीर ख़ूना-ख़ून था। पैर, सिर, पीठ, गरदन, शरीर का कोई भी हिस्सा ऐसा न था जो चोटखाया न हो, ख़ून से छिबा न हो। कुम्हार को यह समझते देर न लगी कि किसने इसके साथ दुराचार किया। उसकी आँखों में ख़ून उतर आया, बावजूद इसके उसने ज़ब्त किया। बड़े मियां के घावों को गर्म पानी से धोया, उस पर फिटकिरी फेरी और मरहम का लेप लगाया। बड़े मियां को दाना-पानी देकर कुम्हार घण्टों उसके बदन को सहलाता रहा। दूसरे दिन दोपहर होने से पहले कुम्हार बड़े मियां के साथ अपनी ससुराल के दरवाज़े पर था। बड़े मियां ने सी-पो की मीठी गुहार से साँकल खोलने का निवेदन किया। कुम्हार जब ससुराल पहुँचा था तो दरवाज़े की संध से उसने पत्नी को देख लिया था जो आँगन में पटे पर बैठी हसिया से तरकारी काट रही थी। सामने उसकी माँ नाव जैसी खाट पर लेटी थी। माँ पाँव में चाँदी के लच्छे पहने थी जो धूप में चमक रहे थे।- ये तो भली-चंगी है, बीमार बिल्कुल नहीं। जरूर परबतिया को बुलाने का नाटक रचा गया। वैसे तो किसी तरह निकल न पाती। उसका मन हुआ कि साँकल खड़काए लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया, पीछे हट गया। बड़े मियां से फुसफुसाकर बोला- यार, तुम आवाज़ लगाओ न। -न बाबा, हमसे न होगा- बड़े मियां घबराकर बोले। -क्यों नहीं होगा? -मुझे डर लग रहा है। भौजाई उल्टा-सीधा न सोचें। -तो बेवकूफ ये बात तूने पहले क्यों नहीं बताई। -तुमने पूछा कब था? मैं तो तुम्हारी ख़ातिर दौड़ा चला आया। -तो मेरे ख़ातिर ही अब आवाज़ लगा दो। -तो तू लौट जा यहाँ से - कुम्हार ने जब यह कहा तो बड़े मियां आँखें चमका के बोले- यह तुम्हारी नहीं, मेरी भी ससुराल है। -बो कैसे? -तुम्हारी ससुराल है तो इस नाते मेरी भी ससुराल हुई। -तो तू ससुराल में रसगुल्ले खा, मैं निकलता हूँ- जब कुम्हार ने ऐसा कहा और बढ़ने को हु
आ तो बड़े मियां ने हारकर गुहार लगा दी। एक हफ़्ते बाद जब कुम्हारिन घर आई, कुम्हार ने उसे ये बातें बताईं। कुम्हारिन बोली- तुम भी गजब हो- वह हँसने लगी। कुम्हार भी हँसा। कुम्हारिन बोली- चले गए तो अच्छा ही हुआ, माँ से, सबसे भेंट हो गई। वैसे जिया को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं थी। दस्त हुए और वह लस्त पड़ गई। लगी छाती पीटने कि बुलाओ सबको। बिचारा अवध काम छोड़कर भागा आया। समय से जिया को दवा मिल गई, एक खुराक में बच गई... लेकिन तुम्हारे बिना एक पल वहाँ रहना मुश्किल था। मैं तो उस रात जागती रही, करवटें बदलती रही। बस तू ही तू आँखों के आगे था। कुम्हार ने मुस्कुराकर कहा - मैं तो तान के सोया और देर से उठा। कुम्हारिन बोली- हो ही नहीं सकता! अगर ऐसा होता तो भागे आते भाई बंद को लिए! -मैं तो जिया की ख़ातिर गया था। -झूठा कहीं का! तू ऐसई बोलता है, कसम खा। -किसकी? लंगड़ी की। -हाँ, तेरे लिए तो वही सबसे प्यारी है। -अब तू जान और तेरी लंगड़ी जाने! -बुढ़ापे में भी जिया गहने लादे रहती हैं। -क्यों न लादें, भगवान ने दिया है तो लादे हैं। उस पर भी नज़र लगी है कि माँ किसे देती है। अवध को या दया को। क्या करना है अपने को! सब अच्छे से रहें- भैया जियें कुशल से काम। जीजी! - गौरी की आवाज़ थी। श्यामल के बाबू ने शहर में झुग्गी बना ली थी। लीला ने जगह दिखलाई और बस मामला जम गया। कई दिनों से यहाँ से जाने का हो रहा था, सामान तो थोड़ा-थोड़ा करके चला गया था, कुछ रह गया है, वह यहीं पड़ा रहेगा, उसकी ऐसी ज़रूरत भी नहीं। आज शाम को गौरी बच्चे श्यामल के साथ यहाँ से चली जाएगी। यह ख़बर देने वह आई थी। वह यह भी कह रही थी कि तुम लोग भी वहीं आ जाओ, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यहाँ कुछ नहीं धरा है। गीली आँखें रुँधा कण्ठ लिए जब पत्नी लौटी, कुम्ह
ार सब जानते हुए भी अनजान बना रहा, प्लास्टिक के गिलासों की गिनती करने में उलझा था। पत्नी ने गौरी के यहाँ से जाने की ख़बर दी तब भी वह कुछ नहीं बोला। बोलकर भी क्या करेगा वह? शाम को गोपी श्यामल के घर से लौटा तो आँखों में आँसू भरे, बेआवाज़ रो रहा था। माँ ने अनजान बनते हुए पूछा - क्या हो गया बेटा? गोपी यकायक ज़ोरों से रो पड़ा। -क्या हो गया है? बोल तो सई। रोते-रोते वह बोला- श्यामल जा रहा है, हम किसके साथ खेलेंगे। हमें भी भेज दो उसके साथ। कुम्हार बोला- तो यहाँ बड़े मियां के साथ कौन खेलेगा? मैना को दाना-पानी कौन देगा? -अम्मा दे देगी। काफ़ी दूर तक दोनों उन्हें ऑटो के पीछे-पीछे चलते छोड़ने आए। गोपी खाट में मुँह छिपाए रो रहा था। फैक्ट्री लगने वाली बात जंगल में आग की तरह फैली। और शहर के जिस भी कोने में बस्ती के लोग थे, उन तक किसी न किसी के ज़रिए पहुँच ही गई। यह बात सच है कि उनकी ज़मीनों पर आँच नहीं आई थी, इसलिए वे अंदर ही अंदर ख़ुश थे लेकिन यह भी सच है कुम्हार के साथ होने वाले अन्याय से सभी दुखी भी थे और उसे दिलासा दे रहे थे कि जो भी सुना है, ख़राब है, लेकिन हम तुम्हारे साथ हैं, तुम जब भी आवाज़ दोगे, हम हक़ की लड़ाई के लिए आ खड़े होंगे। कुम्हार के लिए यह एक बहुत बड़ी बात थी कि समूची बस्ती के लोग उसके साथ हैं। सभी उसके साथ लड़ने-मरने के लिए तैयार हैं। उसकी छाती फूल कर दुगुनी हो गई थी। सुनी-सुनाई बातों से जहाँ कुम्हार विचलित था, वहीं यह सोच उसे अंदर ही अंदर ताक़त दे रहा था कि जब तक बात साफ़ होकर सामने नहीं आए घबराना मूर्खता है। पटवारी ने भी यही कहा है कि फैक्ट्री लगने वाली है, लेकिन कहाँ लगेगी- यह बात उसने अभी तक साफ़ नहीं की थी। वह तो यहाँ तक कह रहा है कि मेरे रहते घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझ पर भरोसा रक्खो, मैं सब रास्ते पर ला दूँगा। यह बात अलग है कि पटवारी ने अभी तक जो काम किए, ग़लत किए हैं, पत्नी भी इसी बात को रह-रह दुहराती रहती है लेकिन जब तक वह हमारे साथ कुछ ग़लत नहीं कर रहा है, उस पर भरोसा करने से क्या जाता है। मैना का स्वर आज बदला हुआ है। जैसा सुरीला वह गाती उसके बिल्कुल उलट। उसमें कुछ ऐसा भाव है जैसे कोई घपला होने वाला है, कुम्हार को उससे आगाह कर रही हो। और कुम्हार है कि उसकी बात समझ नहीं पा रहा है। निरीह भाव से वह टुकुर-टुकुर पत्नी की ओर ताक रहा है। कुम्हारिन भी कुछ समझ नहीं पा रही है। यकायक वह बोली- चिड़िया ऐसा तभी बोलती है जब उन्हें साँप या बिल्ली आते दिखाई देते हैं। वे संकट पहचानती हैं। -चल तू काम कर, जो होगा सो देखा जाएगा। अभी से उसके लिए हलाकान क्यों हों? - कुम्हार ने कुम्हारिन से कहा। कुम्हारिन चाक के पास रौंधी माटी रख रही थी और कुम्हार चाक पर बैठने से पहले बड़े मियां को देखने गया। उसके घावों पर उसने मरहम का लेप लगाया था। मरहम घाव पर टिकता नहीं था इसलिए कई-कई बार उसे लगाना पड़ता था। और सब घाव पुर गए थे, कूल्हे का घाव बाक़ी था जो उसे भारी पीड़ा दे रहा था, प
ुरने का नाम नहीं ले रहा था। कुम्हार के नगीच आती कुम्हारिन बोली- नाकिस ने इतनी बेरहमी से मारा कि जान निकलना रह गया था। -पूरा मार डालता तो सब्र होता। कुम्हारिन आँखें तमतमा के बोली- अवध अब दिखे तो बताऊँ उसे। इतना सुनाऊँगी कि यहाँ दुबारा कभी पाँव नहीं रखेगा। -वह नीच है कमीन! ऐसा दोगला आदमी हमने देखा नहीं। झूठा कहीं का मक्कार। देखो न, मण्डी में काम करने लगा, ख़बर तक न दी जैसे मैं उससे काम की बोलूँगा। -मर भी जाऊँ तो न बोलूँ - पत्नी ने कहा। गहरी साँस भरता कुम्हार चाक पर बैठने को हुआ कि उसे पटवारी आता दिखा। पेड़ों की चितकबरी धूप-छाँव में धीरे-धीरे चलता वह सीधे कुम्हार के पास आता जा रहा है। कुम्हारिन बोली- लो, पटवारी आ गया। मैना इसके लिए तो नहीं किटकिटा रही थी? कुम्हार कुछ नहीं बोला। उसके स्वागत में झुककर खड़ा हो गया, बोला- हुजूर, बैठें- बाल्टी में हाथ डुबोता मिट्टी साफ़ करता वह बोला- बस एक मिनट हाथ धोके खाट लाया। वह खाट के लिए झोपड़े में घुसा। खाट बिछाता वह बोला- बैठें हुजूर। -अरे यार, मैं तो यूँ ही यहाँ घूम आया, मैं तो तहसील जा रहा था- यकायक नई बुनी खाट को देखता बोला- बड़ी सुन्दर बुनी है। भोला, तू जो काम करता है नायाब करता है। तेरे मटके भी ऐसई कमाल के होते हैं! वह खाट पर बैठ के बाध पर पंजे पटकता उसकी तारीफ़ के पुल बाँधने लगा कि मैना ज़ोरों से किटकिटाने लगी। सहसा वह फड़फड़ाते हुए तीर की तरह नीचे उतरी और पटवारी के सिर पर ऐसा झपट्टा मारा मानो उसका मुँह नोच डालना चाहती हो। पटवारी सकते में आ गया। घबरा गया। लगा बाज है जो उसकी आँखें निकालना चाहता है। वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और ज़ोरों से चीख़ा- ये बाज़ कहाँ से आ गया! मारो! मारो!! मारो!!! मैना पलक झपकते नीम में कहीं छिप गई थी। पटवारी हकबकाय
ा हुआ था- क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बाज उस पर क्यों झपट्टा मार रहा है? उसने क्या बिगाड़ा है उसका? वह निरीह भाव से मुस्कुराया और कुम्हार की ओर देखने लगा जैसे उसी से यह प्रश्न कर रहा हो। कुम्हार जानते हुए भी अनजान बना रहा और यह कहने लगा- बैठें हुजूर, बाज-फाज से क्या डरना, पंछियों की भला किसी से क्या अदावत होगी! वे तो वैसे ही इंसानों से दूर रहना चाहते हैं। सिर खुजलाता पटवारी जैसे ही खाट पर बैठने को हुआ- मैना फिर उस पर झपट्टा मार बैठी। अजीब मामला था। पटवारी परेशान। अब वह एक पल भी यहाँ बैठना नहीं चाह रहा था, बोला- फिर आते हैं भोला, ये बाज़ कहीं मेरी आँखें न फोड़ डाले। क्या भरोसा! पता नहीं कौन-सी अदावत का बदला ले रहा है यह दुष्ट? आज का दिन ही ख़राब है, साहब अलग परेशान कर रहे हैं। ख़ैर, भोला,- आँखों पर हाथ धरे, कहीं बाज़ उस पर फिर झपट्टा न मार बैठे-पटवारी जिस रास्ते आया था, उसी पर धीरे-धीरे चलता आगे बढ़ा और सीधे बाबू के घर जा पहुँचा। यहाँ पटवारी और बाबू में ये बातें चल रही थीं, वहीं कुम्हार और कुम्हारिन मैना की कारसाज़ी पर आह्लादित थे। कुम्हारिन ठहाका लगाके बोली- मुझे तो लगा, मैना आँखें नोंच के रहेगी। यह कहो बच गया, नहीं सूरे बना देती। अब वह यहाँ आने वाला नहीं। -आएगा तो मैना उसकी गत बना देगी। कुम्हार हँस के बोला। कुम्हार ने सोचा पटवारी अब यहाँ आने से पहले दस बार सोचेगा। लेकिन पटवारी था कि दूसरे दिन सुबह-सुबह कुम्हार के झोपड़े के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था। कुम्हारिन कुम्हार से बोली - तुम अंदर रहो, मैं देखती हूँ। क्यों बार-बार फेरे लगा रहा है? कुम्हार बोला - लगाने दो फेरे! चिंता काहे की। तू मत जा बाहर। औरतजात है, अच्छा नहीं लगता। कुछ ऊँच-नीच हो जाएगी। -ऊँच-नीच की मुझे चिंता नहीं- कुम्हारिन फुसफुसाकर बोली। -तुझे नहीं है, मुझे तो है। -क्या ऊँच-नीच होगी बता? कुम्हारिन यकायक ग़ुस्साकर बोली। -यही कि यह अच्छा आदमी नहीं है, इसके मुँह लगना ठीक नहीं। -इसके मुँह कौन लग रहा है- इसे तो समझाना है कि कोई भी जुल यहाँ चलने वाला नहीं। दुनिया में हल्ला करने से कुछ नहीं होगा। मान लो अगर पुराना पैसा है तो पर्ची काट दो, हम भर देंगे। काहे को बार-बार भिखारियों की तरह आ खड़े हो रहे हो। कुम्हार हँस पड़ा। कुम्हारिन भी। कुम्हारिन आगे बोली- देख रहे हो तुम! फेरे पर फेरे। कोई तरीका है यह? कुम्हार बोला - अच्छा तू तरीका मत सिखा, अंदर चल। -मैं अंदर नहीं जाने वाली। इसकी पग्गड़ न उतार दी, नाम परबतिया नहीं। -तेरे हाथ जोड़ता हूँ। -पाँव भी जोड़ ले तब भी मैं सुनने वाली नहीं। कुम्हार पत्नी की कलाई पकड़े अंदर की तरफ़ खींच रहा था, पत्नी थी कि समूची ताक़त लगाकर बाहर की तरफ़ निकल पड़ने के लिए कसमसा रही थी। यकायक उसने दाँत काटने का नाटक कर कलाई छुड़ा ली और बाहर की ओर भागी। बाहर से उसने टटरा भिड़ा दिया। -मैं बैठूँगा नहीं, चलूँगा। -कोई बात हो तो बता दें - मैं उन्हें बतला दूँगी। -नहीं, ऐसी कोई बात नह
ीं। बस ऐसई, वह हँसा- पटवारी जब तक अपनी जरीब न घुमा ले उसे चैन कहाँ पड़ता है- चलो तुम कहती हो तो थोड़ा इंतज़ार कर लेते हैं, खाट की चिंता तुम न करो, खड़े रहेंगे, ऐसा क्या? कुम्हारिन जिस उबाल के दबाव में झोपड़े से निकली थी, पता नहीं क्या हुआ कि वह शांत हो गया। दरवाज़े आए आदमी के साथ अनादर ठीक नहीं जब तक वह कोई गड़बड़ न करे। इस लिहाज़ से टटरा हटाती अंदर आई और खाट लेकर बाहर निकली। खाट बिछाती वह बोली - बैठें हुजूर, दरवाज़े पर खड़ा रहना अच्छा नहीं लगता। मुस्कुराता हुआ पटवारी खाट पर बैठ गया। उसने पान की पन्नी निकाली और कई सारे पान मुँह में ठूँस लिये। थोड़ा सा चूना भी उँगली से काटा और चारों तरफ़ नज़र मारने लगा। इस बीच कुम्हारिन काम के बहाने से झोपड़े के पीछे गई। आँगन से होती हुई बाहर के झोपड़े में आई, कटाक्ष करती कुम्हार से बोली - तुम्हारे जीजा दरवज्ज़े पर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं, तुम्हारा। आरती के लिए जाओ। -तू तो कह रही थी कि पग्गड़ उतार लूँगी, अब क्या हुआ? कुम्हारिन चुप। -बोल न, क्या हुआ? -यह तुम्हारा मामला है, तुम जानो। -यह हमारा अकेले का मामला है? इसमें तुम नहीं हो? -मैं क्या जानूँ! - कुम्हारिन तंजिया अंदाज़ में मुस्कुराती बोली। -ये तो अंधेर है। - कुम्हार गहरी साँस छोड़ता बोला। -चिंता न कर मेरे माटी के कुम्हार, चिंता न कर! तूने ही कहा है जब तक बात साफ़ न हो, चिंता में गलना अच्छा नहीं। सहसा बाहर पेड़ पर मैना अजीब-सी आवाज़ में किटकिटाने लगी। पटवारी खाट पर पैर चढ़ाकर बैठ गया था, मैना का यह रूप देखकर उठ खड़ा हुआ - भयभीत सा। कुम्हार ने चुटकी ली - तू नहीं है तो मैना है मेरे साथ - वह निपट लेगी। कुम्हारिन ने जब इस पर नाराज़गी जतलाते हुए उसे तिरछी नज़रों से देखा तो वह हँसता आगे बोला- जा तू
, अपना काम निपटा। बड़े मियां को खुल्ला छोड़ दे, इधर-उधर चर लेगा। कुछ तो पेट भरेगा उसका। सार में बड़े मियां पीठ खुजला रहे थे, कुम्हारिन को देखते ही बोले- ये पटवारी जानहार दरवज्ज़े पे काहे खड़ा है जमदूत की तरह। कई दिनों से इसे देख रहा हूँ, चक्कर काटते। -मुझे नहीं पता, इनसे पूछ तू। -मुझे तो इसकी आँखों में बदमाशी दीखती है। -तो तू कुछ कर। कोई खेल दिखला दे, जो होगा देखा जाएगा। कुम्हारिन ने बड़े मियां को खुल्ला छोड़ा तो वह बगटुट दौड़ता झोपड़े के सामने खाट पर बैठे पटवारी को देखता उस तक जा पहुँचा और फिर पता नहीं क्या हुआ कि वह उसके मुँह पर ज़ोरों की सी-पो, सी-पो की गुहार लगाने लगा। मैना भी किटकिटाते हुए पेड़ से उतर पड़ी। पटवारी ने सोचा - भाग लो यहाँ से, कहीं बाज़ झपट्टा न मार बैठे और उसकी हालत बिगाड़ दे और ये बड़े मियां को तो देखो, मुँह पर रेंक रहा है जैसे कान के पर्दे फाड़ डालेगा। उस पर कहीं दुलत्ती झाड़ दी तो मैं कहीं का न रहूँगा। यकायक पटवारी यहाँ से भागा और सीवान पर जाकर साँस ली। महुए के पेड़ की छाँह में खड़े होकर वह कुम्हार का इंतज़ार करने लगा। कुम्हार आएगा तो इसी रास्ते। और कोई रास्ता है नहीं। देखते हैं कब तक नहीं आता है। चाक के सामने कुम्हार उदास बैठा है। थोड़ी ही दूरी पर घरवाली है जो कुम्हार की उदासी से आहत है। जबसे कुम्हार बाज़ार से लौटा है- गुमसुम है, उदास है। जैसे कोई नाइंसाफी उसके साथ हो गई है जिसे वह पीड़ा की वजह से होंठों तक ला नहीं पा रहा है। क्योंकि ख़ुद तो वह उससे टूटा है, कहीं घरवाली भी बेज़ार न हो जाए। पत्नी समझ रही है कि ज़रूर पटवारी की कोई न कोई कारस्तानी है जिसके चलते कुम्हार उदास हो गया है। ढेरों माटी वह छान चुकी थी, इस वजह कि इसी बहाने वह कुम्हार से बात भी कर लेगी, लेकिन कुम्हार है कि अनमना, रह-रह गहरी साँस छोड़ता और 'हे भगवान' की कराह छोड़कर ज़मीन ताकने लग जाता। मैना चाक पर बैठी है। कहने पर भी उसने दाने की तरफ़ नहीं देखा-जैसे कुम्हारिन की तरह वह भी कुम्हार से उदासी का कारण जानना चाहती हो। -बड़े मियां के कूल्हे का घाव पुर नहीं रहा है। कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ी। -मक्खियाँ अलग जान खाए जा रही हैं उसकी - कुम्हारिन की यह बात भी कुम्हार की ज़बान खोलने के लिए थी, लेकिन कुम्हार चुप तो चुप। यह बात ज़रूर कुम्हार को हिला डालेगी लेकिन यह भी बेकार गई। -मैं जाऊँ? - जलती आवाज़ में जब कुम्हारिन ने यह प्रश्न किया तो कुम्हार के बोल फूटे। -कहाँ जा रही है? -कुएँ में कूदने। -कुएँ में कूदने! काहे के लिए? -कुएँ में कूद रही हूँ और पूछता है काहे के लिए। इत्ता भोला क्यों बन रहा है तू? कुम्हार ने कनखियों से पत्नी को देखा जो उसका नाम कभी नहीं लेती थी, आज कैसे अनचित्ते में ले बैठी। पत्नी बात तो समझ रही थी बावजूद इसके अनजान बनी रही। -भोला बनने की बात नहीं है। भोला तो मैं हूँ। -कहाँ है भोला? बता तो सई। मैं उसे ढूँढ रही हूँ। -अब तुझे नहीं दीखता है तो क्या करूँ। चिराग लेकर
दिखाता फिरूँ? -तीन घण्टे से तू होंठ सिए बैठा है, तुझे ज़रा भी रहम नहीं कि मैं कित्ता परेशान हो रही हूँ! पटवारी ने उसे घेर लिया था। पटवारी के साथ बाबू भी था जिसने पटवारी से वादा किया था कि वह उसके इशारे पर चलेगा और उसी के स्वर में स्वर मिलायेगा। बाबू अब पूरी तरह चंगा था। बाबू ने चुटकी लेते हुए कहा - भोला, आज तो तू भारी ख़ुश दिख रहा है, लाटरी हाथ लग गई क्या? पटवारी बोला- तेरे घर गए थे, तू था ही नहीं। कहाँ चला गया था? तेरी घरवाली ने बताया नहीं कि हम आए थे। काफ़ी देर तक बैठे रहे, फिर तेरे बड़े मियां और उस दुष्ट बाज़ ने हमें वहाँ टिकने नहीं दिया। ऐसी ख़ातिरदारी की कि कुछ कह नहीं सकता। भोला ने विनीत स्वर में कहा - हुजूर, घरवाली ने बताया था... सहसा बात घुमाकर बोला - बात ये हुई कि सास की तबियत जादा खराब हो गई थी, उसी चक्कर में वहाँ निकल गया था, इसलिए भेंट नहीं हो पाई। पटवारी बोला - कोई बात नहीं भोला, अब मिल गया है तू - फिर कुटिलता से आँख मारकर बाबू से बोला - भोला को काग़ज़ दे दो। भोला घबरा गया, बोला - क्या है, हुजूर, हम तो पढ़े-लिखे हैं नहीं, आप बताएँ कि यह क्या है? -भोला हाथ जोड़ता दोनों के सामने खड़ा था। पटवारी ने कहा - घबराने की कोई बात नहीं है। वही फैक्टरी वाली बात है। बाबू ने समझाया - देखो, हाँ, यहीं खड़े रहो, उधर मत जाओ। क्या है कि गौरमिंट ने एक आडर निकाला है। आडर यह है कि सड़क किनारे और उसके आजू-बाजू जो लोग बसे हैं उनके पास ज़मीन का पट्टा है तो उसे दिखाएँ। पट्टा नहीं है तो वह ज़मीन कब्जे की मानी जाएगी, गौरमिंट सबको हटाएगी... तू घबरा न, तू तो बरसों से रह रहा है, तेरे पास तो पट्टा होगा। पटवारी बोला - किसी से क्या पूछ लें, तू बता? पट्टा है तो दिखा। बाबू ने उसके कंधे पर हाथ रखा,
कहा - अभी तू परेशान न हो, घर में देख ले, सब मिल जाएगा। पटवारी ने सान्त्वना के अंदाज में कहा- हम तो काग़ज़ देना नहीं चाह रहे थे, वैसे यह तेरे नाम है भी नहीं, आम जनता के नाम है, आडर है, सूचना है। हम कई दिनों से टालते आ रहे थे कि किसी तरह बात टल जाए, लेकिन क्या है, ऊपर का फरमान है। हम कितने दिन इसे दबा सकते हैं, जितने दिन हमसे दब गया, हमने दबाया। अब जब हम पर दबिश पड़ रही है, हम लाचार हैं। ये काग़ज़ सबको थमाना पड़ रहा है, फिर तू चिंता काहे कर रहा है। मैंने पहले भी कहा था कि मैं तेरे साथ हूँ और अंतिम समय तक रहूँगा, तू विश्वास तो कर! ऐसे काग़ज़ तो आए दिन आते हैं- मैं सब मामला निकाल दूँगा। सहसा दोनों 'बड़े साहब ने तलब किया है' कहकर चले गए थे। कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ते हुए पत्नी से कहा - अब ये मामला है, क्या करें बताओ? कुम्हारिन ने गीली आवाज़ में कहा - मैंने पहले ही कहा था, दाल में कहीं काला है। ये कमीन और कुछ नहीं, हमें बेदखल करना चाहते हैं। काफ़ी देर तक दोनों के बीच गहरी चुप्पी छाई रही। इस बीच कुम्हार ने मैना को दाना और पानी परोसा। मैना काठ की तरह बैठी रही जैसे जतला रही हो कि ऐसी ख़बर पर भला कोई दाना-पानी हलक के नीचे उतार कैसे सकता है! बड़े मियां भी ग़मगीन-से धीरे-धीरे चलते चाक के पास आकर बैठ गए।
अनिल जनविजय (चर्चा । योगदान) (नया पृष्ठः {{GKGlobal}} {{GKRachna ।रचनाकार=सत्यनारायण पटेल }} Category:कहानी <POem> फूँऊँ.ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ.....) (कोई अंतर नहीं) यह शंख की ध्वनि थी- न सिर्फ़ मन्दिर से डूँगा के कान तक बल्कि गाँव के कोने-कुचाले तक पसरी और लम्बी। गन्धहीन और अदृश्य। ध्वनि भी क्या! बस, शंख के पिछवाड़े़ में फूँकी एक लम्बी फूँक, जो शंख के मुँह से ऊँचा स्वर लिए, तेज़ी से बाहर निकली थी, और डूँगा के कान तक आते-आते हवा में घुली धीमी और महीन ध्वनि में बदल गई थी। थी हवा से भी हल्की, पर जब कान से मग़ज़ तक में पसरी और फिर ख़ून में घुल गई तो डूँगा उठकर खड़ा हो गया। असल में वह डूँगा और उसके सरीखे उन सबके लिए एक हाँक, एक बुलावा और एक संकेत था, या हवा का ऐसा हाथ, जो दिखता नहीं, बस, हर रात आठ बजे के दरमियान कान पकड़कर मन्दिर में होने वाली आरती में खींच ले जाता। डूँगा मन्दिर में होने वाली आरती में जाता तो था पर उसे न भगवान पर कोई भरोसा था, न आरती गाने का शौक। फिर भी वह आरती में जाता, क्योंकि वहाँ ढपली, करताल, खँजड़ी और झाँझ होती, और डूंगा झाँझ, करताल, ढपली और खँजड़ी बजाने का शौकीन था, इनमें से जो भी हाथ लग जाता, उसे इतनी तनमयता से बजाता कि आरती में आए लोग देखते ही रह जाते। सोचते कि डूँगा आरती में, भक्ति में लीन हो जाता है। पर वह लीन किसमें होता, 'अपनी पसंद का वाद्य बजाने में, या पसंद का वाद्य बजा-बजाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करने में, या फिर तनाव को दूर करने में, यह वही जानता था। जब उस रात शंख की ध्वनि डूँगा को ढूँढती हुई आयी थी। वह क्षण भर को डूँगा के घर के दरवाज़े की बारसाख के पास ठिठकी थी। वहाँ ऊपर ओसारी की छत पर रखी पतरे की चद्दर से नीचे एक चालीस वाॅट का गुलुप जल रहा था। गुलुप, एक बत्ती कनेक्षन वाली स्कीम के तहत लगा था, जिसका मरियल उजास अँधेरे के आगे सेरी की धूल में गिन्डोले (कैंचुए) की तरह रेंग रहा था। जैसे किसी ने इंजक्षन से उसके भीतर का करंट खींच लिया था; और केवल इतना करंट था कि एकदम बुझा हुआ न लग रहा था। जहाँ से उजास आगे नहीं बढ़पा रहा था, वहाँ से कुछ क़दम आगे एक खाट ढली थी, जिस पर टिमटिमाते तारों की महीन रोषनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे ही आसमान की दया पर बरस रहे थे। उस रोषनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे के उजास में खाट पर एक डूँड लेटा नज़र आ रहा था। डूँड- बरसात में भीगा, ष्याले (सर्दी) में सिकुड़ा और उनाले (गर्मी) में तपा गेरूआ झेल चुके गेहूँ के रंग का डूँड। जब षँख की ध्वनि ने कुछ क़दम खाट की जानिब बढ़ाये, तो उसे डूँड की एक षक्ल भी नज़र आने लगी। चार क़दम और बढ़ाने पर किसी कपड़े की तरह बहुत ही धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलता डूँड का पेट दिखने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ने पर तो पोल ही खुल गयी, वह डूँड नहीं डूँगा था। डूँगा और बारसाख के ऊपर जलते गुलुप में सगे भाइयों सरीखी की एक समानता थी- गुलुप बुझा नहीं, जल रहा था। डूँगा मरा नहीं, हिल रहा था। डूँगा को खोज लेने पर षँख की ध्वन
ि ख़ुषी से पोमा उठी। उसका अट्टहास अँधेरे के कम्बल को चीरता तारों तक जा पहुँचा। फिर जैसे डूँगा का कान मरोड़ती बोली- चल, आरती का टैम हो गया। जब डूँगा मन्दिर में पहँुचा तो देखा- आरती में टुल्लर के छोरे पहले से मौजूद थे। कोई षँख बजा रहा था। कोई घण्टी, झालर और झाँज बजा रहा था। डूँगा के हाथ खँजड़ी लगी, तो वह खँजड़ी बजाने लगा था। खँजड़ी बजाने में डूँगा ऐसा डूबा कि सुध-बुध भूल गया था। आरती ख़त्म हो गयी। सभी ने अपने-अपने वाद्य पंडित के पास जमा कर दिये। लेकिन डूँगा ने खँजड़ी को न जमा की, न बजाना बन्द की। आरती में आये छोटे छोरे उसकी बेख्याली पर कुतूहल के साथ हँस रहे थे। स्याने छोरे कभी उसे और कभी टुल्लर के छोरों को आष्चर्य से देखते खड़े थे। टुल्लर के छोरे को डूँगा देख-हो.... हो.... कर हँस रहे थे। डूँगा उनकी हो... हो... के जवाब में खँजड़ी बजा रहा था। बजाते-बजाते हथैलियाँ छील गयी। ख़ून रिसने लगा। पर डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी रहा। उस रात ठन्ड ज्वार की बुरी की तरह काट रही थी, पर डूँगा के कपाल, घोग से पसीने की तिरपने रिस रही थी। अगर कोई सजगमना तेज़ी से बहती तिरपनों को एक पाट में बहा देता, तो रात भर में एक बीघा खेत रेलवा जाता। लेकिन तिरपने अपनी ही हिकमत अमली से बह रही थीं। पीछे यानी सिर, कन्धे, गरदन के पसीने की तिरपन पीठ के पाट में बहती। कमर पर उचकी हड्डियों के बीच से धोती में उतरती। आगे यानी भाल, नाक और ठोडी के नीचे से रिसते पसीने की तिरपन, कन्ठ के नीचे ढुलकती। सीने की उभरी दो पसलियों के रेगाँले से गुज़रती। पिचके पेट का डोबना भरती। धोती में उतरती। ऐसे ही दोनों बगल की काँख का पसीना और अनेक तिरपनों का पसीना लट्ठे की फतवी को तर्रमतर करता। जब फतवी का रेषा-रेषा पसीने से तर हो जाता। उसमंे और पसी
ना सोखने की कुबत न रह जाती और पसीने का आना ज़ारी रहता। तब फतवी से रिसता पसीना भी धोती में ही समाता। असल बात यह कि डूँगा की धोती बड़ी कलेजेदार थी। वह अपने भीतर पसीने की कितनी ही धाराओं को समा लेती और पुर नहीं आती। डूँगा की धोती, मानो धोती नहीं थी। उसकी कमर के आसपास लिपटा पूरा समुद्र थी। पंडित हाथ में आरती की थाली लिये था। थाली में जलते दीप की सेंक को वह बारी-बारी से सभी की ओर धकियाता। कोई थाली में दो का सिक्का डालता, कोई पाँच का। जलते दीप की लो से लोग अपने हाथों को गरमाते। फिर उस गरमाहट को अपनी आँखों, गालों और बालों पर हाथ फिरा कर महसूस करते। बीच-बीच में पंडित डूँगा की ओर देखता और बोलता- र्कइं खँजड़ी तोड़ी के दम लेगो। टुल्लर हो... हो... कर हँसता। डूँगा टुल्लर की हँसी को खँजड़ी की आवाज़से दबाने की कोषिष में और ज़ोर से बजाता। पंडित ने आरती की थाली मूर्ति के चरणों में धर दी। पंचामृत की गवड़ी उठायी। प्रसाद का धामा उठाया। उन्हें सिंहासन के चैनल गेट के पास नीचे धरा। फिर धीरे से एक छोटे से आसन पर ख़ुद बैठा, तो तोंद नीचे फर्ष पर टिक गयी। फिर बारी-बारी से दो चम्मच पंचामृत देता। लेने वाला जब पंचामृत पी लेता, और हाथों को बालों या कूल्हों से पोंछ लेता, तब वह प्रसाद देता। यह सब षुरू होने तक भी जब डूँगा का खँजड़ी बजाना नहीं थमा। हथैलियों से रिसता ख़ून पसीने के साथ कोहनी के रास्ते से मन्दिर के आँगन में टपकने लगा। तब रामा बा का धैर्य भी चुक गया। उन्होंने डूँगा को झिन्झोड़ा- अरे र्कइं दम उखड़ने तक बजावेगो, धर अब। टुल्लर फिर हो.... हो.... कर हँसा। डूँगा ने और ज़ोर से खँजड़ी बजायी। जब उसने रामा बा की बात भी न सुनी, तो रामा बा ने उसके हाथ से खँजड़ी ज़ोर से खींच कर छुड़ा ली। तब उसकी तंद्रा टूटी। उसे लगा- जैसे गाँव के सभी टुल्लर के छोरे मिलकर उसके हाथों से खेत छुड़ा रहे हैं। उसने घबराकर खँजड़ी को और ज़्यादा मज़बूती से पकड़ा और ज़ोर से चीखा- म्हारे नी बेचनो है म्हारो खेत। यह सुन रामा बा के हाथ पाँव ढीले पड़गये। वह समझ गये, डूँगा का इस क़दर खँजड़ी बजाने का कारण। उनके मन में घृणा का समुद्र हिलोरने लगा। फिर उसी भाव से टुल्लर की तरफ़देखा और मुँह फेर कर ज़ोर से थूका। रामा बा की घृणा और उस ढँग से थूकने को देख, अगर कोई ज़रा भी लाज-षरम वाला होता। वहीं गड़जाता। लेकिन टुल्लर ने तो लाज-षरम काटकर ढेका (कूल्हे) पीछे धर ली थी। टुल्लर फिर बेषर्मी के मचान पर चढ़हो.... हो.... कर हँसा। उस रात चुपचाप डूँगा चला आया था। उसके मग़ज़में हो.... हो.... गूँज रही थी। वह आकर सेरी में ढली अपनी खाट पर लेट गया था। खाट उनाले भर सेरी में ही ढ़लती थी। आम की लकड़ी की ईंस पर नरेटी यानी 'नारियल के रेषों से बनी रस्सी' से बुनी खाट। साँझ को खाट पर कोई गुदड़ी या पल्ली नहीं बिछी होती। वह तो जब आरती से लौट आता, तब बिछायी जाती। उनाले की साँझ होती, तो आरती में जाने से पहले डूँगा उमस के कारण फतवी को उतार देता। उघड़े बदन नरेटी
पर लेट जाता। थके षरीर में नरेटी एक्यूपंचर का काम करती। जब षँख की ध्वनि आरती में बुलाने के लिए हाँक लगाती। डूँगा उठकर बैठता और खाट के पाए के माथे पर टँगी फतवी को उठाता। झटकारता। पहनता। इस बीच उसकी पीठ पर अबूझ नक्षा देखा जा सकता, जो नरेटी बनाती थी। नक्षा साँझ को ही बनता पीठ पर, ऐसा ज़रूरी नहीं था। वह तो खाट पर उघड़े बदन लेटने से बनता था। जब उनाले के दिनों में खेत पर कम जाना होता। डूँगा दोपहर में घर सामने की ईमली की छाँव में दोपहरी गालने खाट पर लेट जाता। उठता तो पीठ ही नहीं, दायीं-बायीं पाँसुओं पर भी अबूझ नक्षे बने होते। जब नक्षों पर डूँगा की छोरी पवित्रा का पहली बार ध्यान गया था, तो पवित्रा ने जिज्ञासावष डूँगा से नक्षों के बारे में पूछा लिया था, तब डूँगा अपने मन में खाद-बीज से जुड़ी सन के रेसों की उलझी गुत्थी को सुलझाने का सिरा खोज रहा था। उसी मूड में उसने कह दिया था- बेटी, इ तो म्हारी ज़िनगी का नक्षा हैं, न समझ आवेगा और न मिटेगा ! उन दिनों पवित्रा आठवीं-नौवी कक्षा में थी। उसके षरीर में तेज़ी से तमाम बदलाव भी आना षुरू हुए थे। उस दोपहर डूँगा का जवाब सुन पवित्रा ने सोचा, वह कभी नरेटी बुनी खाट पर न बैठेगी, न सोयेगी। अगर बैठी या सोयी, तो उसके षरीर पर भी ऐसे आड़े-तिरछे और उलझे नक्षे बन जायेंगे, जो कभी नहीं मिटेंगे। डूँगा के घर में एक ही खाट थी, जिस पर पहले उसकी जी (माँ) और दायजी (पिता) सोया करते थे। जब दायजी न रहे और डूँगा छोटा था, तो जी के साथ उसी खाट पर सोता था। बड़ा हुआ तो नीचे गुदड़ी बिछाकर सोया करता। जब जी न रही। कुछ दिन पारबती के साथ उसी खाट पर सोया। जब परिवार बढ़गया, तब फिर अकेला उस खाट पर सोता था। एक बार डूँगा के पास थोड़े पैसे आये, तो उसने सोचा, घरवाली पारबती और छोरी पवित्
रा के लिए भी एक-एक खाट बनवा ली जाये। खाट की ईंस और पाए तो अपने खेत के एक पेड़की कुछ डगाले कटवाकर गाँव के सुतार बा से गढ़वा लिये थे। खाट बुनवाने को रस्सी लाना थी और नरेटी ख़रीदने जितने पैसों का बन्दोबस्त था, सो खाट बनवाने के ख्याल में कोई खोट नहीं थी। जब पारबती की खाट बनकर तैयार हो गयी और पवित्रा की खाट में रस्सी बुनवाने की बारी आयी, तो पवित्रा ने अपनी खाट में सस्ती और चुभने वाली नरेटी न बुनवाने दी। उसके मन में यही था कि नरेटी से बुनी खाट पर सोयेगी, तो पूरे षरीर पर नक्षे ही नक्षे उभर आयेंगे। उसने पड़ोसन सम्पत माय की खाट में बुनी सूती निवार देख रखी थी, वही बुनवाने की जिद की। डूँगा ने पवित्रा की जिद का मान रखा। नरेटी वापस की। अपनी दो भैंसों का दूध जिस सेठ को बेचता था, उस सेठ से कुछ रुपये उधार लिये। सूती निवार लाया। पवित्रा की खाट पर बुनवायी। पवित्रा निवार की खाट पर भी दो गुदड़ी बिछाकर सोती। डूँगा और पारबती की इकलौती और लाड़ली जो थी। उस रात जब षँख की ध्वनि डूँगा को बुलाने आयी, तब अपनी खाट पर चीत लेटे डूँगा का मुँह अधखुला और आँखें पूरी खुली थीं। पलकों के कोनो में लोणी (मक्खन) के रंग का कीचड़जमा था। कोटरों में भरे पानी में पुतलियाँ तैर रहीं थीं। कोटरों के पानी और पुतलियों में बारसाख के ऊपर टँगे गुलुप की मानिन्द आसमान के तारे झीलमीला रहे थे। डूँगा की आँखों में झीलमीलाते तारे, केवल आसमान के तारे नहीं थे- एक सपना था। सपना भी क्या ! एक लुगड़ी का सपना ! छींटदार। सितारे टँकी लुगड़ी का सपना। यह एक ऐसा सपना था, जिसे देखने के लिए डूँगा को अर्धनिंद्रा में जाने की ज़रूरत नहीं थी। यह तो कुछ ऐसा था कि जब भी डूँगा खाट पर लेटता। सिर तकिये पर धरता। नज़्ारे तारों को छूतीं और क्षणभर में ही आसमान छींटदार लुगड़ी में बदल जाता। उस लुगड़ी को देखते-देखते ही वह नींद में चला जाता। सुबह उठकर लुगड़ी को पाने के लिए दिनभर खेत में हाड़तोड़मेहनत करता। डूँगा का कुछ चीज़ों से ख़ास लगाव था, वे न हो तो डूँगा की नींद हराम हो जाती। मसलन कुआॅ हो, खेत हो, षरीर हो और मेहनत न हो। आसमान हो, तारे हो और तीन तारों की छड़ी न हो। आँखें हों, सपना हो, खाट हो और तकिया न हो। तकिया....... याद आया। उसकी खाट पर एक तकिया हमेषा धरा रहता। तकिया भी क्या, बस समझो, फटे-चेथरों को खोल में भरकर बना माकणों (खटमलों) का घर। जब किसी भी घर में सफाई अभियान के दौरान माकणों पर घासलेट या फ़सलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता, तब माकणें गारे की भीतों की दरारों से, ईंस और पाए की दरारों से यानी जो जहाँ होता, वहाँ से जान हथेली पर लेकर भागता और डूँगा के तकिये में आकर राहत की साँस लेता। माकणों के लिए पूरे गाँव में डूँगा के तकिये से ज़्यादा महफूज़कुछ नहीं था। डूँगा का वह तकिया उसकी जी ने बनाया था- जिस पर पारबती ने पुराने लुगड़े कीखोल चढ़ायी थी। तकिये को कभी डूँगा की खाट से अलग नहीं रखा जाता। डूँगा खेत पर जाता। डूँगा परगाँव जाता और रा
त को लौटने वाला नहीं होता। तब भी तकिया खाट पर ही होता। पारबती इतना ज़रूर कर देती। खाट को ओसारी के आँगन में खड़ी कर देती और तकिया उसके पाए पर धर देती। यह ऐसा काम था जिसे टाला न जाता। अगर किसी व्यस्तता या मुसीबत की वजह से टल जाता, तो फिर खाट पर कबरे टेगडे (कुत्ते) का राज होता। टेगड़ा डूँगा की मौजूदगी में खाट के नीचे और ग़ैर मौजूदगी में ऊपर सोता। जब ऊपर सोता और सू सू की इच्छा होती। आलस्य के मारे नीचे न उतरता। खाट पर धरा तकिया उसे टीला नज़र आता। वहीं टाँग उठाता और उसी पर....तुर्रर...। वह तो एक रात पारबती ने देख लिया। तब से वह खाट को आँगन में खड़ी कर देती। न देखती, तो टेगड़े काखेल अभी ज़ारी रहता। लेकिन वह कभी भी तकिये को घर में गुदड़मच्चा पर नहीं रखती। ऐसा भी कुछ नहीं था कि उस तकिये को घर के और तकियों के साथ रखने की मनाही थी। लेकिन पारबती और पवित्रा की आदत में ही नहीं था कि उस तकिये को भीतर गुदड़मचा पर रखी गुदड़ी और तकियों के साथ रखती। एक बार पवित्रा ने डूँगा का तकिया ग़्ालती से और घर के दूसरे तकियों के साथ रख दिया था। साँझ को जब डूँगा की खाट सेरी में ढाली। उस पर तकिया रखा, तो भूल से दूसरा रखा गया। तकिया क्या बदला ! बदल गया सब कुछ- जैसे तकिये की गंध, उसकी नर्माहट, उसके माकणेें और ऐसे ही तकियों के माकणों के लिए भी सब कुछ। उस रात डूँगा आरती से लौटा। खाना-वाना खा-पीकर। अपनी खाट पर लेटा। सिर तकिये पर धरा। आँखें खुली। नज़रें तारों से मिली, तो डूँगा को भी सब कुछ अजीब-अजीब-सा, बदला-बदला-सा लगा। तकिया अटपटा लगा। आसमान ओगला लगा। तारे बेपहचाने लगे। सपने का सिलसिला भी बिखरा-बिखरा लगा। नींद आँखों के आसपास मँडराती महसूस तो होती, पर पलकों पर लुमट कर उन्हें बंद न कर पाती। डूँगा हैरान-परेषान। कुछ
समझ में न आये। रात बीती जाये। लेकिन फिर देर रात में ही सही, पर वजह उसके हाथ लग ही गयी। वहज वही थी कि भूल से तकिया बदल गया। डूँगा ने घर में सोयी पारबती और पवित्रा को जगाने का सोचा और तकिया लेकर खाट पर उठ बैठा। आसमान में तीन तारों की छड़ी की ओर देखा, छड़ी, 'जिसे वह अपनी सपनों की लुगड़ी में सोने का तार समझता था। उसी से टैम का अँदाज़ा लगाया। करीब एक-सवा-एक बजना चाह रहा था। यह सोच वापस लेट गया- अब घरवाली और छोरी की नींद ख़राब न करूँ। लेकिन रात के दो बजे तक सोने में असफल रहा। फिर से उठा और जाकर किवाड़खटखटाया। पारबती जागी। किवाड़खोला। नींद से पारबती की पलकंे भारी थीं। डूँगा को अपनी नींद बिगड़ने की झुँझलाहट थी। लेकिन बची हुई दोनों ने न बिगाड़ने की सोची। पारबती मौन थी, पर उबासी बज रही थी। डूँगा की झुँझलाहट यथावत थी, पर संयम से बोला- म्हारो तक्यो दी दे। पारबती भीतर गयी। धम्म.. धम्म...। पवित्रा के माथे के नीचे से तकिया खींचा। माथा नीचे गुदड़ी पर गिरा-भट्ट। पारबती वापस लौटी- धम्म... धम्म.. । डूँगा के हाथ में तकिया थमाया- थप्प। डूँगा होठ हिलाता जैसे कोई षान्ति जाप करता खाट की ओर लौटा। पारबती ने किवाड़के पल्ले भिड़े- भड़ाक। डूँगा खाट पर आ बैठा। सिरहाने बाजू ईंस पर तकिया धरा। फिर लेटा। तकिये पर माथा धरा। नज़रे तारों पर जा टिकी। मग़ज़्ा में लुगड़ी फरफराने लगी। थोड़ी देर में घुर्र.. घुर्र... खर्राटे षुरू। उस दिन के बाद वह तकिया कभी भी भीतर नहीं गया। इस बात को ज़्यादा नहीं तो भी आठ-दस साल हो गये थे। तब तो तकिया ऐसा था कि कोई भी उसे सिर के नीचे रख लेता। लेकिन अब तकिये के भीतर भरे चेथरों के लड्डू बन गये थे, बल्कि कोई-कोई लड्डू तो कबीट की भाँति कड़क बम हो गया था। उस तकिये की खोल पसीने और मैल से इतनी चिकट और काली हो गयी थी कि उस पर कोई मक्खी भी बैठना पसंद नहीं करती। और कबरा टेगड़ा तो उसकी बास से भी कतराता। इसलिए जब भी खाट के नीचे सोता, अपना मुँह डूँगा के पैरों की तरफ़करता। लेकिन तकिये में रहने वाले माकणों और डूँगा को उसकी बास से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि उसकी बास की आदत पड़गयी थी और डूँगा का सफे़द बालों वाला सिर उसी तकिये पर टिककर आराम महसूस करता था। जब कभी उसका सिर तकिये पर धरा होता। उसे अपनी गुज़र चुकी जी (माँ) की याद आती, तो ऐसा महसूस होता - वह तकिये पर नहीं, अपनी जी की जाँघ पर सिर रखकर लेटा है, और यह बात तो कभी वह किसी मीठे या भयानक डरावने सपने में भी नहीं भूल सकता था कि उसने एक रात जी की जाँघ पर माथा धर कर लेटे-लेटे ही काहा था- जी। -हँ... जी ने हुँकारा भरा था। -जद हूँ बड़ो हुई जउवाँ, थारा सरू एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउवाँ। -बहोत अच्छी..... जी का झुर्रीदार चेहरा चमक उठा और उसने ख़ुषी से भरकर पूछा था- कैसी ? -वैसी..... डूँगा ने आसमान में जगरमगर करते तारों की ओर इषारा करते हुए कहा था। उस रात डूँगा की जी का कलेजा भर आया था। अचानक अधेड़और पतली पलकों से खारा पानी ढुलक गया था। वह
खारा पानी, जिसे उसने पन्द्रह बरस के रँडापे में कभी ढुलकने तो दूर, पलकों के आसपास भी नहीं आने दिया था। पन्द्रह साल पहले वह ब्याहकर आयी थी, और फिर साल भर बाद ही डूँगा उसके पेट में हिलने-डुलने लगा था। उन दिनों एक रात डूँगा के दायजी (पिता) ने उसकी जवान, किन्तु गर्भवती होने के कारण नर्म और ढीली पड़ती जाँघ पर माथा रखकर कहा था- हूँ थारा सरू अबकी एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउआँ। -कैसी ? उस रात भी डँूगा की माँ ने ऐसे ही पूछा था और डूँगा के दायजी ने आसमान में चमकते सितारों की ओर इषारा करके कहा था- वैसी। लेकिन डूँगा के दायजी ने जीवन में ऐसा गच्चा खाया। लुगड़ी तो दूर, वे कभी लाख का एक चूड़ा भी नहीं पहना सके। डूँगा दस बरस का ही था, जब उसके दायजी के पैर भरोसे के धागों से बुने जाल में उलझ गये। दायजी के माथे उनके दायजी का लिया कुछ कर्ज़ा था। जिसे वे चुका नहीं सके; और जाल उन्हें लील गया। जिन्होंने दायजी को मारा, वे दायजी के भाइयों के बहादुर बेटे थे। उन्हीं ने उस कर्ज़ की वसूली के बदले दायजी से दो खेत के काग़ज़ों पर अगूँठा लगवाया था। काग़ज़पर लिखा था- कर्ज़ा न चुकाने की स्थिति में खेत उनके हो जायेंगे। दायजी को खेत अपनी जान से भी प्यारे थे। जीवन का एक ही मक़सद- ज़ल्दी से ज़ल्दी खेतों को कर्जे़से मुक्त करना। वे फ़सल के गोड़में मेहनत, भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद डालते थे। एक-एक पौधे को ख़ून के पसीने से सींचते थे। फ़सल को अच्छी होना ही पड़ता था। एक दिन उनकी अदा ने दायजी के भाइयों के बेटों के मन में षंका का बीज बो दिया- यह ऐसी मेहनत करता रहा। ऐसी फ़सल काटता रहा। कर्ज़ा तो यूँ पटा देगा। पर रुपये के बदले रुपये लेने को थोड़ी दिया था कजऱ्ा। कर्ज़ा दिया था, ताकि उसके बदले खेत आ सके। पर लगता है ये तो उ
लटी गंगा बहाने पर तूला है। उन्होंने एक रात दायजी को खेत पर करंट लगाकर मार दिया। जब दायजी का नुक्ता-घाटा हो गया, उन्होंने वे खेत कब्जा लिये। डूँगा की जी ने जैसे-तैसे उसे बढ़ा किया और ब्याह के साल-छः महीने बाद ही वह चली गयी। उसे कोई बीमारी थी, ये तो कभी कुछ उजागर न हुआ। पर उसकी उम्र और पड़ौस की सम्पत की, बाखल की और दूसरी औरतों की सुने, और माने, तो यही सुनने-समझने में आता- डूँगा की जी को आराम और ख़ुषी नहीं फली। डूँगा अपनी जी को दी जबान पूरी करने को भरसक अपटा था। पर हर बार उसके सामने कोई न कोई मुसीबत खड़ी हो जाती। उस पर मुसीबतें कुछ ज़्यादा ही महरबान थीं। कुछ इस तरह की गाँव में से कोई भी मुसीबत को बाहर खदेड़ता, तो मुसीबत माकणों की तरह डूँगा के घर में आ बसती। डूँगा का घर यानी मुसीबतों का पिहर। अगर डूँगा का घर मुसीबतांे की नज़र में न चढ़ता। डूँगा और उसका परिवार मुसीबतों को चकमा देने का हुनर सीख लेता। लुगड़ी तो वह एक नहीं, सौ-सौ कभी का; और कई-कई बार ख़रीद चुका होता। क्योंकि डूँगा अपने दायजी की तरह मेहनती था। फ़सल के रूप में नगद उगाता। पर वह मेहनत से कमाये पैसोें को अपनी मर्ज़ी से ख़र्च नहीं कर पाता। उसकी सभी इच्छाएँ, ज़रूरतें और सपने धरे रह जाते। पैसा किसी न किसी मुसीबत की भेंट चढ़जाता। अब उसके ब्याह के बरस की ही बात ले लो। ब्याह से पहले तक उसकी जी एकदम टनटनाट थी। न सर्दी, न खाँसी, न गठिया, न कोई और अमका-ढिमका रोग। डूँगा के दायजी के चले जाने के बावजूद उसने जिस दमदारी से डूँगा को पाल-पोसकर बड़ा किया। खेती-बाड़ी के गुर सिखाये। वह सब अच्छे-अच्छे मूँछ वालों के सामने मिसालें थीं। कैसे वह अपनी बची-खुची ज़मीन को जेठ, देवर और उनके छोरों की नज़र से बचाती रही। कैसे उसने डूँगा को घड़ी भर भी अपनी नज़र से दूर नहीं जाने दिया। उसे पढ़ाने-लिखाने की इच्छा का गला घोंट दिया। उसने अपनी और डूँगा की रक्षा के लिए कभी कमर से बँधा दराँता (हँसिया) घड़ी भर को दूर नहीं रखा। लेकिन डूँगा के ब्याह के बाद तो जैसे उसकी सारी मुरादें पूरी हो गयी। बहू पारबती ऐसी गुणवंती मिली थी कि सास को तिनका तोड़कर दो नहीं करने देती। उसे लगा- अब उसकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी। उसे डूँगा के दायजी की याद सताने लगी। यह रोग उस पर इस क़दर हावी हुआ कि वह मिट्टी की तरह गलने लगी, और उस दिन जब डूँगा ब्याह के बाद पहली फ़सल बेचकर लौटा। उसने अपनी जी की गोदी में नोटों की नवली रखी। फिर उसमें से कुछ नोट लेकर वह जी के लिए एक लुगड़ी ख़रीदने जाने लगा। अपने सपनों की लुगड़ी। अपने दायजी के सपनों की लुगड़ी। छापादार लुगड़ी। डूँगा की जी अपने जीवन पर, अपने सपूत पर मुग्ध हो गयी। उसकी आँखों से ख़ुषी के दो गर्म रेले ढुलके- मानो रँडापे में सहे सभी दुख धूल गये। उसने अपने षरीर पर छापादार लुगड़ी को महसूस किया। ख़ुषी का एक गोला उसकी ष्वांस नली में फँस गया और वह ख़़ुषी-ख़ुषी अपनी देह से बाहर चली गयी। डूँगा के पैरों तले की धरती धँस गयी। सिर पर आसमान
टूट पड़ा। नुक्ते-घाटे का ख़र्चा पहाड़की तरह छाती पर खड़ा हो गया। डूँगा खूब नटा। उसने कहा कि वह जीते-जी अपनी जी को मन पसंद एक लुगड़ी न ओढ़ा सका। मरे पाछे नुक्ते-घाटे का ढ़कोसला करने का क्या फ़ायदा ? समाज के ठेकेदारों ने अच्छे-अच्छों के घर-खेत बिकवा कर नुक्ते करवाये थे। फिर डूँगा को कैसे बख़्षते ? फ़सल का पूरा पैसा जी के क्रिर्याकर्म और नुक्ते-घाटे में ख़र्च हो गया। फिर एक रात जब मन्दिर में षँख, झाँझ, खँजड़ी और ढपली की आवाज़थमी। रोज़की तरह पारबती समझ गयी, आरती ख़त्म हुई। आरती से लौटकर डूँगा खाना खाया करता। आरती ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हुआ था पारबती का खाना बनाना भी। उसने जिस दाथरी में आटा गून्धा था, उसी में हाथ धोये। दाथरी धोयी। दाथरी का पानी पनहरी के नीचे रखे कुण्डे में डाला। दाथरी को भीत से खड़ी टिका दी, ताकि पानी निथर जाये। फिर अपने पूरे नौ महीने के पेट को लेकर उठी। बारी में से पीतल की थाली निकाली। पनहरी के ऊपर भीत में ठूँकी खूँटी पर रखे पटिये पर से काँसे का गिलास उठाया। बारी में से छाछ का चूड़ला निकालकर बाहर रखा। बैठकर थाली में खाना परोसने लगी। लेकिन परोसने से पहले थाली पोंछने का ख्याल आया। इधर-उधर नज़र मारी, थाली पोंछने का चेथरा कहीं नज़र न आया। उठकर चेथरे को ढूँढ़ने की इच्छा न हुयी, अलसा गयी, तो अपनी घाघरी से थाली पोंछी और खाना परोसने लगी। उस रात खाना भी क्या बनाया था उसने ! देखते ही गलफों से लार की तिरपने फूट पड़तीं। कड़ेले पर छींटादार सेंकी ज्वार की रोटी। मटूरिया। भरता। लीली मिर्चा। लूण। यह सब जब पीतल की थाली में परोसा और चूड़ले में से गिलास में गाढ़ी और चार-पाँच दिन पुरानी खट्टी छाछ कूड़ही रही थी कि डूँगा आ गया। आरती में जाने से पहले ही डूँगा के सिर में हल्का-हल्का
दर्द था। लेकिन जब थाली में अपना मन पसंद भोजन देखा, तब दर्द तो भूला ही, भूला खाने से पहले हाथ धोना भी, और दोनों साथ-साथ खाने लगे। खाने के बाद फिर सिर में दर्द ने आँखें खोली और धीरे-धीरे चटीके पड़ने लगे। वहीं सामने वाली भीत से सटी अनाज से भरे थैलों की थप्पी लगी थी। कुछ दिन पहले ही आयी ताज़ी फ़सल को अवेरकर रखी थी। बेंचना बाक़ी थी। थप्पी पर गोल घड़ी कर खजूर के खोड्यों से बनी छादरी धरी थी। डूँगा ने छादरी उठायी और ज़मीन पर बिछाकर उस पर लेट गया। पारबती से माथा दुखने का बताया, तो वह पास आ गयी। भीत से टिककर बैठी। पैर लम्बे किये। डूँगा का माथा अपनी नर्म और ढीली जाँघों पर रखा और कपाल को हथेली के गुद्दे से कूचने लगी। पारबती के हाथों में जैसे जादू था। दर्द छू मन्तर होने लगा था। अपने सिर के नीचे पारबती की नर्म और ढीली जाँघों को महसूस कर डूँगा को अपनी जी की याद आने लगी। डूँगा की आँखें बंद होने लगी। उसके कपाल के नीचे से दर्द के छू मन्तर होने पर जो जगह ख़ाली हुयी, वहाँ लुगड़ी लहराने लगी। लुगड़ी के पीछे ही जी के न रहने का ख्याल भी आया। उसका मन इस मलाल से भर गया कि जीते-जी जी को लुगड़ी न ला सका। जी होती तो आज गल्ले से भरे थैलों की थप्पी बेचकर लुगड़ी ले आता। पर अब किसके लिये....? उसके मन में आये इस प्रष्न के पीछे-पीछेे ही उत्तर भी चला आया- जी न सही, पारबती तो है। वह पारबती को कम नहीं चाहता, बस, कभी मन में लुगड़ी लाने का खयाल ही नहीं आया। लेकिन उस क्षण अचानक ह्दय में पारबती के लिए भी प्रेम की क्षिप्रा किनारे तोड़कर बहने लगी। फिर उन दिनों तो पारबती के दिन भी पूरे चल रहे थे। वह किसी भी दिन बच्चे को जन्म दे सकती थी। डूँगा सोच में पड़गया। षायद मग़ज़में गूँजने लगा- म्हारा ही अंष के जनम दइगी। उना गेंहूँ का खळा में म्हारा ही एक टिपका (बूंद) के कोख में छिपइ ल्यो थो; और उनाज टिपका के अब फूल बनई के म्हारी गोदी में रखी देगी। पारबती म्हारी बैराँ तो है ही, जी भी बनी जावेगी। उस क्षण डँूगा अपनी भावना में भीग गया। पारबती की जाँघों पर से सिर उठाकर उसकी छातियों पर रख दिया। उसके फूले पेट पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फिराता और छातियों से सटे मुँह को ऊपर उठाया। पारबती की आँखों में देखता बोला- गल्लो बेचने जउँआ, तो थारा सरू बहोत अच्छी लुगड़ी लउँआ। -कसी (कैसी) ? पारबती ने उसके बालों में अँगुली फेरते पूछा। -लाल छींटादार। डूँगा ने भौहों को उचकाकर और होंठों पर मुस्कान लाकर कहा था। उन्हीं दिनों दो दिन बाद की एक सुबह, इधर डूँगा ने मंडी ले जाने को मेटाडोर में गल्ला भरा। उधर पारबती की कोख के भीतर बच्चा ज़ोर-ज़ोर से लात मारने लगा- मानो पेट का बच्चा भी अपने बाऊजी के साथ मंडी जाने को ज़ल्दी से बाहर आना चाह रहा था। उसी मेटाडोर में पारबती को बैठाया। अस्पताल में उसकी देख-रेख करने को पड़ौसन सम्पत काकी को साथ बैठा लिया। बड़ी भली बैराँ थी सम्पत काकी। ऐसे मामलों में कभी मना नहीं करती। वह सुबह पाँच-साढ़े पाँच का वक़्त था।
सम्पत काकी लोटा लेकर झाड़े(दिषा फारिग) फिरने जा रही थी। पर उसने लोटे का पानी फेंक दिया। लोटा अपने घर की ओटली पर रखा और बाहर से हाँक देकर अपनी छोरी को बुलाया। छोरी भीतर चाय बनाने को चूल्हा सुलगा रही थी, वह हाथ का काम छोड़कर बाहर आयी, तो उसे बस इतना कहा- थारा बाऊजी के बता दे, हूँ पारबती काकी की साथ में हस्पताल जय री हूँ। छोरी आठ-दस साल की ही थी। उसे कुछ सम्पट नहीं पड़ी, तो उसने पलट कर पूछा- क्यों र्कइं हुई ग्यो ? -थारो माथो हुई ग्यो, तू तो थारे बतायो, उतरो बता दी जे, वी सब समझी जायेगा। उसने मेटाडोर में बैठते-बैठते कहा था। गाँव से षहर की दूरी आधे घण्टे की थी। षहर पहुँचते ही महात्मा गाँधी अस्पताल था। पारबती और सम्पत काकी को अस्पताल में छोड़ा और वह गल्ला लेकर मंडी पहुँचा। मेटाडोर भर कर गल्ला बेचा और मुट्ठी भर नोट लेकर दो घण्टे में वापस अस्पताल आ गया था। आते ही उसने देखा- अभी तक पारबती को भर्ती ही नहीं किया था। वह फर्ष पर लेटे चीख़ रही थी। उनकी कोई सुनवाई नहीं हुयी थी। डूँगा ने भाग-दौड़कर अस्पताल का कोना-कोना एक कर दिया। तब नर्स और डाॅक्टर के कान पर जूँ रेंगी। पारबती को भर्ती किया। बच्चा हिल-हिल कर भीतर उलझ गया था। डाॅक्टर ने अपने और अस्पताल के ख़र्चे का मुँह फाड़ा, तो डूँगा ने पूरे के पूरे नोट उसके मुँह में ठँूस दिये थे। तब पारबती को आॅपरेषन के लिए ले गये। उधर पारबती को ले गये। इधर सम्पत काकी ने भाल का पसीना पोछते हुए कहा- डूँगा, बीर तू याँ बैठी जा, हूँ झाड़े फिरीन अभी अऊँ। उस दिन बड़े आॅपरेषन और लम्बे इंतज़ार के बाद आयी थी- पवित्रा। पवित्रा के आने की ख़ुषी से डूँगा उछल पड़ा। उसने उन क्षणों में सम्पत काकी को भी एक लुगड़ी ओढ़ाने का वादा किया। सम्पत काकी ने सात-आठ दिन तक अस्पताल में
पारबती की देख-भाल, अपनी सगी बेटी की तरह की थी। जब अस्पताल से पारबती को छुट्टी दी। तब डाॅक्टर ने डूँगा को अपने केबिन में बुलाकर समझाया- पारबती का केस कुछ ज़्यादा बिगड़गया था। उसकी कोंख बिल्कुल ख़राब हो गयी। अब वह दुबारा माँ नहीं बनेगी। सुनकर डूँगा को दुख तो हुआ था। एक क्षण को उसके ज़ेहन में कौंधा- पढ़ा-लिखा होता, या षहरी पैसे वाला होता, तो षायद पारबती के केस में ढ़ीलपोल नहीं होती। लेकिन दूसरे ही क्षण उसने नन्हीं पवित्रा की ओर देख कर सोचा- यही छोरा और यही छोरी। अब जो करी, वही खरी। वही पवित्रा जो आठवी-नवीं तक दुबली-पतली और लम्बी नाक वाली बच्ची दिखती थी, ग्यारवी-बारहवीं पास करते-करते एकदम बदल गयी। पारबती से तीन-चार इंच लम्बी दिखने लगी। उसके बदन पर भी मानो किसी ने पीली मिट्टी की छबाई कर दी। अब उसकी नाक पहले से कम लम्बी दिखती, क्योंकि नाक के दायें-बायें सुलगती छाणी के टापू की तरह गाल उभर आये थे। कभी जिन आँखों में कीचड़भरा रहता। अब उनके सामने कुलाँचे भरती हिरणी की आँखें भी कमतर लगती। गरदन के नीचे की हड्डियाँ भी छाती पर उभरे माँस के नीचे छुप गयी। अब तो बस.... उसकी देह ऐसी हो गयी थी कि उसे छूते हुए हवा जिस बाखल से गुज़रती, पवित्रा के हम उम्र और चारेक साल बड़ों तक का मग़ज़पगला जाता। पारबती की नज़रों से भी न पवित्रा का षरीर छुपा था, न खिलते षरीर की ख़ुषबू। उसने इस सम्बन्ध में न डूँगा से कोई सलाह-मषविरा किया, न पवित्रा से कुछ कहा। ख़़ुद ही यह तय किया- अब पवित्रा को कहीं अकेली जाने-आने नहीं देगी। वे कुएँ या हैण्ड पम्प से पानी लेने जाती, तो माँ-बेटी साथ जाती। खेत पर जाती, तो साथ-साथ जाती। यहाँ तक की झाड़े फिरने भी एक साथ जाती। बस, पारबती नहीं जा सकती थी, तो पवित्रा के साथ पढ़ने ! इसलिए पवित्रा का पढ़ना बारहवीं के बाद पारबती ने छुड़वा दिया। लेकिन इतना पढ़कर भी वह गाँव की छोरियों में सबसे ज़्यादा भणी-गुणी थी। पारबती की आँखों में छोरी के हाथ पीले करने का सपना जवान होने लगा। वह डूँगा पर पवित्रा के लायक लड़का ढँूढ़ने का दबाव बढ़ाने लगी। डूँगा सालों से खेती में मेहनत और बस मेहनत करता आ रहा था। उसकी दुनिया घर, मन्दिर और खेत के बीच फैली थी। गाँव से बाहर जाने के नाम पर कभी अनाज मंडी जाता। सोसायटी में खाद लेने जाता। बिजली का बिल भरने जाता। लुगड़ी ख़रीदने के सपने के अलावा, भी कुछ चिंताएँ थी- मसलन कभी खाद का महँगा होना, कभी बिजली का कटोत्रा बढ़ना, कभी बीज बोदा निकलना। कभी डंकल का डसना। कभी अंकल का हँसना। लेकिन अब जब गाँव-परगाँव आना-जाना बढ़ने लगा था। छोरा भलेही ढँग-ढोरे का नहीं मिल रहा था। पर छोरा ढूँढ़ते हुए जो कुछ देखने-सुनने और जानने-समझने को मिल रहा था, वह भी उसे आष्चर्य से भरता था। उसे अपने आसपास की दुनिया में बहुत कुछ बदलाव नज़र आता। बदलाव, कुछ समझ में आता और कुछ समझ से परे भी रह जाता। पवित्रा का जन्म अब तक उसे जैसे कल की घटना लगती। लेकिन अब लगने लगा- वह बीस बरस पुरानी बात ह
ै। इतिहास में बीस बरस जो भी मायना रखते हो, लेकिन एक जीवन में बहुत मायना रखते हैं। उसने तो बीस बरस में बीस बार ढंग से आईना तक नहीं देखा। आईने के सामने बस बैठता। नाई हजामत बना देता और वह उठकर चला आता। लेकिन पिछली बार जब एक साँझ वह नाई से गाल के बाल छिलवाने गया। आईने के सामने बैठा। आईने में ख़ुद को देखा, तो एकदम अपना चेहरा पहचान न सका। पलट कर पीछे देखा कि पीछे कौन बूढ़ा है, जो आईने में दिख रहा है। पीछे नाई के सिवा कोई नहीं था। वह सफे़द बालों से भरा उसी का चेहरा था। जब नाई ने चेहरे से सफ़ेद बालों को साफ़कर दिया, तो चेहरे पर मकड़ी का जाला उभर आया था। वह आँखें बंदकर मानस पटल पर अपना पुराना चेहरा देखने लगा। गालों पर हाथ फेरकर पुराना चेहरा ही महसूस किया। पर जब आँखें खोली तो वही चेहरा सामने था- पुपलाता मुँह, आँखें धँसी। पुतलियों के आसपास फफूँद जैसा कुछ जमा हुआ। भाल, नाक और गाल पर मकड़जाल। जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे ऐसे छेद, जैसे कोई बहुत सावधानी से चोरी-चुपके कई दिन-रात बेर के सीधे काँटे से करता रहा था और डूँगा ने पहली बार उसी साँझ को देखे थे। वह उठ खड़ा हुआ। नाई को पाँच रुपये थमाकर घर की ओर चल पड़ा। उस साँझ उसे लगा- वह बूढ़ा हो गया। वह चलते-चलते अचानक रुक गया। दरअसल आनायास ही उसकी जीभ ऊपरी जबड़े की बाँई बाजू के दाँतों को टटोलने लगी। उसने महसूस किया, बाँई बाजू का तीखा दाँत नहीं था, जिसे अक्सर वह साँटे (गन्ने) की पँगेर में सबसे पहले धँसाता और बाकी अड़ौसी-पड़ौसी दाँतों की मदद से साँटे को चीर देता था। उसे ज़ोर का धक्का तब लगा, जब अगले छण महसूस किया- तीखे दाँत की बगल वाली दाड़भी नही है। जीभ जैसे एक-एक दाड़-दाँत का समाचार लेने लगी। मानों मुँह का बाड़ा छोड़कर चले गयों के प्रति
दुख और सहानुभूति प्रकट करने लगी। बचे हुओं को, जाने वालों के ग़म से उभारने का सोच ढाँढ़स बँधाने लगी। जीभ जैसे ही मसूड़ों पर चलकर अगले दाँत के पास पहँुचती। कोई अकड़कर और कोई विन्रमता में अपनी जगह खड़ा रहता। कोई रूठकर पीछे हट जाता। जैसे जता रहा हो- मैं ज़्यादा दिन रुकने वाला नहीं। फिर वह अपनी जगह खड़ा-खड़ा ही हँसा। सचमुच में नहीं, लेकिन मन ही मन ख़ुद की खोपड़ी में पीछे से एक टप्पू मारा और बुदबुदाया- कसो घनचक्कर है हूँ भी। दरअसल उसे चार साल पहले की वह घटना याद हो आयी थी। जब सरपँच ने मजे़-मज़े में बिजली कटौत्रा के विरोध में विद्युत मंडल का घेराव करवा दिया था। उसने गाँव में डोन्डी फिरवाकर हर घर से 'एक आदमी को जाना ज़रूरी है' बता दिया था। डूँगा के घर से डूँगा गया था। वहीं जब बात बढ़गयी और पुलिस वालों के डन्डे अपनी कला दिखाने लगे थे। डूँगा का जबड़ा सामने आ गया और कुछ दाड़-दाँत से हाथ धो बैठा था। हालाँकि उसके बाद डूँगा के जबड़े का मुआवजा सरपँच और टुल्लर ने प्रषासन के हलक से निकालकर अपने हलक के नीचे उतार लिया था। डूँगा तो अपनी धुन में खेत में जुतकर लुगड़ी के सपने को साकार करे में भिड़गया था। उस दिन एक-एक दाँतों पर जीभ घुमाते हुए महसूस किया- बचे हुए दाड़-दाँत पर मैल की जाने कितनी परतें चढ़गयी हैं। वह जीभ के साथ मुँह में उलझे मन को वापस अपनी जगह पर लाया। घर की ओर चलने लगा। थोड़ी दूर चलने के बाद उसकी नज़्ार अपने कबरे टेगड़े पर पड़ी- टेगड़ा हाँप रहा था। उसकी लटकती जीभ से लार टपक रही थी। वह एक गुमटी के पीछे था और उसका मुँह डूँगा की तरफ़। डूँगा खड़ा हो, टेगड़े को बुलाने लगा। टेगड़ा देख तो रहा था डूँगा की तरफ़, पर आ नहीं रहा था। डूँगा जहाँ खड़ा होकर टेगड़े को बुला रहा था। वहाँ उसके पीछे एक ओटला था। ओटले पर छोरों का एक टुल्लर बैठा था, जो बैठे किस काम से थे नहीं मालूम, पर जब डूँगा टेगड़े को बुलाने लगा, तो वे डूँगा को ही ऐसे देखने लगे थे, मानो यह देखने के लिए ही वहाँ आकर बैठे थे। वे डूँगा का कबरे टेगड़े को बुलाना देख रहे थे और मुस्करा रहे थे। डूँगा ने फिर थोड़ी ज़ोर से हाँक लगाकर कबरे टेगड़े को बुलाया। कबरा नहीं आया, पर डूँगा को लगा कि कबरे ने आने की कोषिष की, मगर किसी ने पीछे से खींच लिया। उसे कबरे के पाँव ज़मीन पर पीछे की ओर घीसटते लगे। डूँगा ने सोचा- कबरा गुमटी के पीछे गड़े अर्थिन्ग के तार में या किसी मुसीबत में तो नहीं उलझ गया। वह थोड़ा तिरछान में आगे बढ़ा, ताकि कबरे का पिछला धड़देख सके। दो क़दम बढ़ते ही देखा कि कबरा के पीछे एक टेगड़ी भी है। डूँगा वापस दो क़दम पीछे चला और मुड़ा, तो ओटले पर बैठा टुल्लर हथेली पर हथेली मारकर ज़ोर से ठहाका लगा उठा। डूँगा ठहाके को अनसुना कर आगे बढ़गया। डूँगा अभी भी अपने घर से डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर था कि उसके दाहिने कान में एक ख़ास मौके़पर बजायी जाने वाली सीटी की आवाज़पड़ी। उसने उधर देखा, उसकी बाखल के रामा बा सीटी बजा रहे थे। रामा बा अपनी
भैंस को गाबन कराने के लिए पटेल बा के पाड़े के सामने लेकर खड़े थे। रामा बा ऐसे मौक़े पर बजायी जाने वाली सीटी बजाकर पाड़े को भैंस पर डाकने के लिए राज़ी कर रहे थे। भैंस टेंटा हिलाती। थोड़ी-थोड़ी देर में पूँछ उठाती। पाड़ा पूँछ के नीचे सूँघता। आँखें मीचता। नकसुर सिकोड़ता। ऊँचा मुँह करता। थोड़ा आगे-पीछे क़दम करता और फिर भैंस की पूँछ नीचे सूँघता। थोड़ी दूरी पर गुल्ली-डन्डा खेलना छोड़कर छोटे-छोटे चार-पाँच छोरे रामा बा, भैंस और पाड़े को कुतहल से देख रहे थे। डूँगा कुछ सोचता हुआ रामा बा की ओर बढ़गया। राम.. राम.. कह दुआ-सलाम करने के बाद पूछा- या कित्ता बैत झोंटी है,यानी अब तक कितनी बार जन चुकी है। -अब तीसरी बैंत होगी। रामा बा ने कहा और फिर पाड़े की ओर देखते बोले- बड़ा ढीला नाड़ा को पाड़ो है, आधा घण्टा से भैंस लीने खड़्यो हूँ, पर छीणालका को मन ही नी होतो। और फिर रामा बा मज़ाक़करता बोला- पाड़ा की जगह पटेल बा होता, तो इतरी देर में दस के गाबन कर देता। -हाँ, पटेलों को काड़(लिंग)को जस है। डूँगा ने कहा। डूँगा और रामा बा की एक साथ हँसी निकल पड़ी। फिर डँूगा ने राम राम की और घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचा तो देखा- आँगन में बैठी पारबती साग-भाजी काटने की बंकी से बिजाला (बैंगन) के टुकड़े कर रही थी। वह उसकी तरफ़मुस्कराया। वह ऐसी मुस्कान थी, जिसे पारबती ने बरसों बाद देखी थी- जैसे चेहरे पर फैले मकड़जाल के धागों में बिजली दौड रही थी। झुर्रियाँ भी झुर्रियाँ नहीं, मकड़जाल के बीच में चमकते जुगनू लग रही थीं। वह ज़रा-सी लजा गयी थी। डूँगा पारबती की ओर बढ़ा, उसके नज़दीक जाकर बैठ गया। पारबती के हाथ से बंकी और बिजाला थाली में छूट गये; और सोचने लगी- क्या बात है ? तभी उसका हाथ पकड़कर डूँगा बोला- पारी तू आज भी उसीज (वै
सी) लागे। -कसीज (कैसी) ? पारबती जैसे क्षणभर को ख़ुद को भूल गयी, ऐसे देखती बोली थी। -जैसी पहली बार गेहूँ का खळा (खलिहान) में लागी थी। डूँगा ने उसकी आँखों को अपनी आँखों से सेंकते हुए कहा था। डूँगा ने उन दिनों की याद दिलायी, जब वह ब्याह के बाद पहली बार ससुराल आयी थी। कुछ दिन तो उसे डूँगा की माँ अपने साथ ही सुलाती रही थी। वह सोचती थी कि बहू छोटी है, इसलिए डूँगा से दूर रखा करती थी। पारबती छेड़ा (घूँघट) भी इतना लम्बा काड़ती थी कि डूँगा एक घर में रह कर भी पारबती की षक्ल नहीं देख पाता। वह माँ की नज़र से बचकर इधर-उधर छू लेता। लेकिन उस रात जब खलिहान में गेहूँ थ्रेषर में से निकाले जा रहे थे। डूँगा गेहूँ का पूला उठा-उठाकर थ्रेषर के पास जमाता। उसकी माँ पूला थ्रेषर में देती। पारबती थ्रेषर में से निकलते गेहूँ को एक तगारी में झेलती। जब तगारी भर जाती, तो उसे गेहूँ के थापे (ढेर) में उडै़ल देती। इस काम में दो तगारी लगती। भरी तगारी को उठाते वक़्त ही उसकी जगह दूसरी ख़ाली तगारी लगा देती। तगारी को गेहूँ से भरने में थोड़ी देर लगती, उतनी देर पारबती ख़ाली नहीं बैठती। डूँगा के साथ गेहूँ के पूले उठा कर लाती और सास के पास ढेर जमाती, ताकि सास पूलों को थ्रेषर में लगातार देती रहे। -नी देखेगी.... जी... पूला को ढ़ेर.....डूँगा ने कुछ समझाया। उधर थ्रेषर में झोंकने को पूले का ढेर तो छोटा नहीं हुआ, लेकिन कुछ देर में डूँगा की माँ को प्यास लग आयी। उसने पारबती से पानी माँगा। पारबती तो पीछे पूलों पर सवार हो तारों की सेर कर रही थी, उसने आवाज़न सुनी, या आवाज़ही ने उसके कान के रास्ते जाकर मग़ज़में खलल पैदा करना ठीक न समझा, और उल्टे पाँव वापस लौट आयी। सास ने थोड़ी देर बाद फिर पानी माँगा और जब पानी नहीं मिला; तो उसने सोचा- रात काफ़ी हो गयी, कहीं बहू सो तो नहीं गयी। उसने उधर देखा- जिधर गेंहूँ झेलने को तगारी लगी थी। तगारी भर गयी थी और उसमें से गेंहूँ उबराकर बाहर गिर रहे थे। लेकिन वहाँ बहू नहीं थी। पानी की गागर की ओर देखा- उधर भी बहू नहीं थी। उस दिन जब पारबती को यह रात याद दिलायी। क्षण भर को उस रात की तरह ही खिली केसुड़ी बन गयी थी, लेकिन पिघलकर आँगन में फैलने से पहले, ज़ल्दी से संभल कर अपना हाथ खींचती बोली- भांग पी ली र्कइं, घर में पवित्री रोटी बेली री है। डूँगा ने फिर उसका हाथ पकड़ने की कोषिष की। पारबती दूर खिसकी और देखा कि डूँगा भी खिसकने वाला है, तो वह उठकर भीतर जाते-जाते धीरे से फुसफुसायी- यो गेहूँ को खळो नी, घर है, और अब बूढ़ा हुई गया हो, थोड़ी सरम करो। वह भी उठने को हुआ। उठते हुए उसके घुटनों ने उसे एहसास दिलाया- पारबती सच कह रही, वह बूढ़ा हो गया। उसे षिद्दत से यह महसूस भी हुआ- अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। न षरीर, न मन, न घर, न गाँव, न दुनिया। डूँगा के गाँव में भी सबकुछ तेज़ी से बदल रहा। न केवल गाँव का हुलिया, बल्कि गाँव के सँस्कार, त्यौहार मनाने का ढँग, बोली, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन का ढंग, त्यौहार,
षादी-ब्याह के तौर तरीके, सबकुछ षहरी सँस्कृति गोलगप्पों की तरह निगल रही थी। लेकिन बाल-विवाह, घूँघट, पवणई, मामेरा, त्यारी जैसी कई बुराईयाँ बरकरार थीं और उन्हें करते वक़्त आधुनिकता हावी रहती। बाज़ार हावी रहता। महँगी और अनावष्यक चीज़ों की भरमार और दबदबा बढ़रहा था। रिष्ते तेज़ी से अविष्वसनीय हो रहे थे और अपने अर्थ भी बदल रहे थे। डूँगा के गाँव का हुलिया जिम्मा दो षहर बखूबी निभा रहे थे- एक प्रदेष की व्यावसायिक राजधानी और दूसरा औद्योगिक नगरी से नाम से विख्यात। दोनों षहर गाँव के विकास और उद्धार का डंका बजाते। अपनी मस्ती में मस्त धापे साँड की तरह डुकारते। इन दोनों षहरों के बीच के गाँव में पीछले दस-पन्द्रह बरसों में काॅलेज में पढ़ने वाले छोरों की संख्या बढ़रही थी। वे बी. ए., एम. ए. के अलावा दूसरे व्यावसायिक विषय भी पढ़रहे थे। छोरियाँ अभी भी दसवीं-बारहवीं से आगे कम ही पहुँच रही थीं। इस पढ़ी-लिखी पीढ़ी में कोई बिरला छोरा ही होता, जो खेती-बाड़ी के काम में रुचि दिखाता। कुछ प्राॅयवेट नौकरियों में षहर चले गये। कुछ पुलिस और सेना में चले गये। जो कहीं नहीं गये थे, उनमें से कुछ गये हुओं से ज़्यादा मजे़में थे, कुछ के बुरे हाल थे। कुछ छोरों ने ज़मीन की दलाली का रोज़गार अपना लिया था। रोज़गार धीरे-धीरे ऐसा पनपा कि वह उन छोरों के लिए बिजनेस बन गया था। बिजनेस में होड़षुरू हो गयी। होड़में मारकाट षुरू हो गयी। गाँव के छोरे अब आईटीसी, रिलायंस या ऐसी किसी भी बढ़ी कम्पनियों के नुमाईंदों के सम्पर्क में रहने लगे थे। डूँगा के देखते-देखते ही सबकुछ इतनी तेज़ी हो रहा था कि डँूगा सरीखे कई देख-समझ भी नहीं पा रहे थे। एक सुबह खेत पर जाने को वह घर से निकला। सेरी में सम्पत काकी के छोरे किषोर से राम-राम हुई। उस बखत किषोर
अपनी मोटरसायकिल पोंछ रहा था। डूँगा ने सोचा- कहीं जा रहा होगा। उसे इधर-उधर दौड़ने के अलावा काम भी क्या ? रोज़एक-दो लुगड़ी का तैल तो फूँक ही देता होगा ! साँझ को जब डूँगा लौटा। बैलगाड़ी को अपनी सेरी में थोबी। तब उसने किषोर के घर सामने नवी-नकोर कार खड़ी देखी। पहले तो उसने सोचा- किषोर के यहाँ कोई पावणा-पई (मेहमान-वगैरह) आया होगा। बैलों के जोत छोड़ते हुए पवित्रा को हेल्ला दिया, तो वह घर से निकल सेरी में आ गयी। बैलगाड़ी को डँई पर धरता पवित्रा से बोला- निराव के कोठा में पटकी दे। वह बैलों की रास थामें उन्हें कोठे में ले चला। पीछे-पीछे निराव को बाहों की बाद में भर कर पवित्रा भी कोठे में पहँुची। उसने बैलों को अलग-अलग खूँटे से बाँध दिया। पवित्रा ने एक कोने में निराव पटका और दूसरी खैप लेने जाने लगी। तब डँूगा बोला- छोरी रुक ज़रा। पवित्रा रुक गयी। डँूगा उसके पास गया और धीमें से पूछा- किषोर्या का घर कोई पावणा आया है ? -ऊँ हूँ । पवित्रा ने गरदन हिलाकर कहा। यह कहते उसके चेहरे पर ऐसा भाव उभर आया मानो उसने पूछा- क्यों पूछ रहे हो ? -तो फिर वा कार ? डूँगा ने जिज्ञासा से पूछा। -वाऽऽ वा तो किषोर अंकल लाया है। पवित्रा ने कहा। फिर बोली- उनने बादर वाला खेत बेच दिया, कार तो बयाना के पयसे से ही लायें है। -अच्छा ! डूँगा ने जैसे कुछ ख़ास जान लिया था। -म्हारा से भी कार के टिक्को (तिलक) करायो। डूँगा की ओर ख़ुषी से देखते हुए पवित्रा बोली- थाली में सौ रुप्या भी धर्या। -अच्छा, तू तो भणी-गुणी है, तो थारे मालम है ? या कार कितरा रुप्या की आवे ? डूँगा ने जानकारी के लिए पूछा। -या कार तो पाँच लाख में लाया है किषोर अंकलजी। पवित्रा ने कहा और आगे बताया- सम्पत माय को बता रहे थे, बादर वाला खेत का तीस लाख रुप्या मिलेगा। फिर वह बोली- अच्छा, अभी निराव पटकी दूँ, फिर सिरियल देखूँआँ, थोड़ी देर में आने वालो है। -तीस लाख.....। दो बीघा का तीस लाख। डूँगा बुदबुदाया। उसके मग़ज़में तीस लाख की एक बड़ी जबरी पोटली उभर आयी थी। डूँगा ओसारी में आया। अपनी खाट और तकिया उठाकर बाहर सेरी में लाया। किषोर की कार को देखते हुए खाट ढाली और उस पर कूल्हे टिकाये ही थे कि पारबती आ गयी थी। पारबती का रोज़का नियम था। बैलगाड़ी बाहर सेरी में थुबती और वह चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती। डूँगा कोठे में बैल बाँध कर आता। खाट ढाल कर बैठता। पानी के लोटे और चाय के गिलास के साथ पारबती हाज़िर हो जाती। लेकिन उस साँझ पारबती के हाथ में न पानी का लोटा था, न चाय के कपबषी। डूँगा ने उसके ख़ाली हाथों की तरफ़देखा। डूँगा कुछ पूछता उससे पहले पारबती ने ही बताया- रोज़चाय-पानी दूँ, तो सम्पत माय देखे। उनने आज एक बात समझय म्हारे। -कईं बात...? डूँगा ने पूछा। -उनने बतायो..... पारबती बताने लगी- धरधरी बखत दिया-बत्ती को टेम रय। -त .....? डूँगा ने पूछा। -त.... इतरी बखत सरग में भगवान हमारा पुरखा हुण के पीने के कुल्हड़ी भर पानी, और खाने के चना दय। पारबती थोड़ी रुकी। सम्प
त माय के घर तरफ़देखा और फिर बोली- सम्पत माय ने बतायो- जो धरधरी बखत (सूरज डूबने के वक़्त) चाय-पानी पीये सरग में उनका पुरखा भूखे मरे। -अरे रहने दे ओ बायचैदी.... डूँगा ने कहा- तू भी काँ सम्पत काकी की बात में अयगी। फिर हँसकर बोला- म्हारा जी-दायजी तो भगवान का हाथ से छोड़य ने खई लेगा, तू फिकर मत कर। जा चाय-पानी ल्या। पारबती घर में गयी और चाय-पानी ले आयी। डूँगा ने पारबती के हाथ से पानी का लोटा लिया। पानी के कुछ छींटे मुँह पर छाँटे। फिर कुल्ला किया। फिर मुँह ऊँचा कर खोला और लोटे का आधा-पौन लीटर पानी गट-गट गटक गया। लोटा पारबती को पकड़ाया और अपने गले में पड़े गमछे से मुँह पोंछा। हाथ पोंछे। पारबती के हाथ से चाय का गिलास लेता बोला- बैठी जा। -बैठी कैसे जऊँ, दाथरी में आटा गून्धा धरा है, रोटा थेपी लूँ। थेपणा तो है, फिर देर कईं्र सरू करूँ। पारबती ने कहा। -पवित्री थेपी लेगी। डूँगा ने चाय का घूँट लेने के बाद कहा। -वा टी बी का सामने जमीगी, अब सोती बखत ही वाँ से हलेगी। पारबती ने कहा- टी वी राँड में जाणे कसी-कसी डाकण आवे। इनके एक बार खेत में नींदने बैठइ दो, तो दस दिन तक ढेका (कूल्हों) की फाड़में से गारो नी हिटेगो। पर पवित्री के उनके देखने को घणो चुरुस है। उसके कहने में कुछ ग़्ाुस्सा था। वह नहीं चाहती थी कि जब तब पवित्रा टी वी के सामने बैठी रहे। टी वी में जाने क्या-क्या आता-जाता रहता है। कहीं पवित्रा भी टी वी की डाकनों जैसी करने लगी तो ? पवित्रा की कुछ आदतें थीं भी ऐसी, जो पारबती को लगता कि वह डाकनों से सीखी होगी। घर में छोटी टी वी भी पवित्रा की जिद पर आयी थी। -अगी देखने दे, बालक है। डूँगा गिलास की चाय को ऐसे फूँक मार कर ठन्डी कर रहा था, मानो चाय नहीं पारबती के ग़्ाुस्से को ठन्डा कर रहा था। -र्कइं
की बालक, म्हारा से हाथ भर ऊँची हुई गयी। म्हारे तो इससे छुटपन में ही ब्याह दी थी। अन तमने खळा में जबड़य भी ली थी। पारबती ने कहा और खाट पर बैठ गयी। धीमें स्वर में बोली- सवेरे म्हारा पेर (मायका) चल्या जाओ। म्हारा भई मदन ने आज सम्पत काकी का फ़ोन पर म्हारे बतायो। कोई छोरो देख्यो है, तम भी देखी आवो। -अच्छा, या तो अच्छी बात है, सवेरे जऊँआ। डूँगा ने चाय का आख़िरी घूँट लेकर गिलास खाली कर पारबती को दिया। पारबती गिलास और लोटा लेकर घर में चली गयी। तभी मन्दिर तरफ़से षँख की आवाज़आयी। डूँगा समझ गया। आरती का टैम हो गया। उठा और आरती में चल पड़ा। आरती से लौट कर खाना खाया, और वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने खाट पर एक गुदड़ी बिछा दी। रात उनाले की थी, पर रात बारह के बाद एक कम्बल की ठंड तो उनाले में भी लगती, इसलिए पैताने कम्बल भी रख दी थी। डूँगा के दिमाग़में वही सरबल रहा- तीस लाख कितने होते होंगे ? उसने कल्पना की- अगर बैलगाड़ी में चारा, बगदा की तरह नोट भरूँ, तो गाड़ी कहाँ तक भरा जायेगी ? आधी-आधी मूँडियों तक तो भरा सकती है ! और अगर तीस लाख की खन्डार बनाऊँ, तो कितनी लम्बी, चैड़ी और ऊँची बनेगी ? दो बीघा के चनों की खन्डार बराबर तो बनेगी ही ! किषोर के दो बीघा के तीस लाख, तो मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अं अं डेढ़सौ लाख। बहुत ऊँची और चैड़ी खन्डार होगी। पूरी बैलगाड़ी भर जायेगी। लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लुगड़ी आयेगी। फिर मैं, मेरी पड़ौसन सम्पत काकी को ही नहीं, परगाँव की भी कई सम्पत काकियों, पारबतियों और पवित्रियों को लुगड़ी दे सकूँगा। धरती माँ की हरेक बेटी को लाल छींटादार लुगड़ी ओढ़ा दूँगा। तभी उसके मग़ज़की सभी भीतों से प्रष्नों की तिरपन रिसने लगीं- डूँगा खेत बेच देगा, तो काम क्या करेगा ? रोटी कहाँ से कमायेगा ? क्या तू धरती का बेटा, धरती को बेचे पैसों से रोटी ख़रीद कर खायेगा ? क्या तू अपने भाई और बेटों सरीखे प्यारे बैलों को भी बेच देगा ? नहीं बेचेगा, तो उन्हें खिलायेगा क्या ? खेत में मेहनत करे बग़्ौर तूझे रोटी हजम हो जायेगी ? नींद आ जायेगी ? कोई बेटा अपनी माँ का सौदा करके चैन से सो सकता है ? तेरे मन में ये लालच कैसे आया ? तूझे अपना ही नहीं, पवित्रा और पारबती के भी सपने पूरे करने है, लेकिन धरती माँ की गोदी से ही, उसे बेचकर नहीं। यही सब सोचते-सोचते उसके रोम रोम से नकार का पानी यों झिरपने लगा- मानो बदन रेत का था, जिसके भीतर पानी न ठहरता। वह लेटा था, उसकी आँखें छोटे-छोटे दो डोबनों की तरह डबडब थी, और आसमान की ओर खुली थी, जिनमें मोती से भरी थाल काँप रही था। धीरे-धीरे नींद के बोझ से पलकें बंद हो गयी। काँपती थाल भीतर ही रह गयी, जो लाल छींटादार लुगड़ी में बदल गयी और पूरी रात मग़ज़के चैगान में फरफराती रही। सवेरे मुँह झाँकले के टैम पर उठा। रोज़मर्रा के कामों से निपटा। कई दिनों के बाद उसने बालों में खोपरे का तेल लगाया। साबुत और धुले हुए धोती-कमीज पहने। कई सालों के बाद डूँग
ा ससुराल की ओर चल पड़ा। लोंडी पिपल्या गाँव में डूँगा का ससुराल था। ससुराल जो कभी, व्यावसायिक राजधानी के नाम से ख्यात षहर के कुछ ज़्यादा ही नज़दीक था। अब नज़्ादीक नहीं रह गया था, षहर की आँतों में समा चुका था। जब डूँगा वहाँ पहुँचा, तो अचम्बे में पड़गया। गाँव के आसपस जहाँ कभी फ़सले लहलहाया करती। वहाँ कहीं बँगले, तो कहीं मल्टियाँ खड़ी थीं। गाँव के भीतर भी कई बड़े-बड़ेघर उग आये थे। गाँव में कभी लोग ढँूढ़े नहीं मिलते थे। पिछली बार कई बरस पहले जब आया था, तो साले से मिलने खेत पर जाना पड़ा था। लेकिन इस बार साला बीच गाँव में ईमली के पेड़की छाँव में जुआ खेलता मिल गया। खेत साले के भी बिक गये थे। उसने सपने में भी न सोचा था कभी, इतने रुपये मिलेंगे। पर जब मिल गये, तो करे क्या इतने रुपयों का ? घर बना लिया ! कार ख़रीद ली ! थैला भरकर बैंक में रख दिया; और क्या करता ? इससे ज़्यादा उसे ही नहीं, कइयों को नहीं सूझा! जो थोड़े-बहुत भणे-गुणे थे, उन्हें थोड़ा-सा ज़्यादा सूझा भी, तो वे षहर में जाकर किसी न किसी रोज़गार से लग गये। कुछ ने किसी दूर के गाँव में ज़मीन ख़रीद ली और वहीं बस गये। लेकिन कई लोग थे, जो कहीं नहीं गये। उनमें से कई दिन भर ईमली के पेड़के नीचे जुआ खेलते। रात को बाय पास या रिंग रोड के ढाबों पर पीने-खाने चले जाते। और कुछ यहाँ भी डूँगा के मिजूँ टुल्लर के साथी बन गये। डूँगा का साला मदन भी इन्हीं में से एक था। उस दिन जब डूँगा को मदन ने देखा, तो बोला- अरे जीजा, आ गये, बैठो। ये बाज़ी हो जाये फिर चलते हैं। ईमली की दूसरी तरफ़कोल्ड्रींक्स की दुकान वाले को आवाज़दी- चार-पाँच ठन्डी षीषी दे इधर। उसने जीजा डूँगा के अलावा वहाँ खेल रहे साथियों के लिए भी कोल्ड्रींक्स मँगवाया। डूँगा जुआ खेलने वालों के बीच
पैसे का ढेर देख, सोच रहा था- इतनी रकम में तो जाने कितनी लुगड़ी आ जाये। पर ये तो ऐसे ही खेल रहे हैं, जैसे मैं बचपन में राखी के ख्याल और ख़ाली आगपेटी खेला करता। उन दिनों तो आगपेटी भी कोई बिरला ही लाता, ज़्यादातर तो चूल्हों में राख के भीतर अँगार भार कर रखते थे। थोड़ी देर में बाज़ी ख़त्म हो गयी। पूरे रुपये डूँगा का साला अपनी जेब में ऐसे भर रहा था, जैसे रुपये नहीं रद्दी काग़ज़के टुकड़े हों। उसे देख डूँगा का मन हुआ- साले को डांटे। उससे रुपये ले ले, उनकी अच्छी घड़ी करे, एक बरसाती की थैली में धरे और फतवी के भीतरी जेब में दिल से लगा कर रखे- एकदम सुरक्षित। साले को तो रुपयों की क़द्र करनी ही नहीं आती। लेकिन फिर उसने ख़ुद को समझाया- कमाने में पसीना बहाया हो, तो क़द्र करे ? साले ने अपने साथी खिलाड़ियों से उठते हुए कहा- यार जीजा के साथ जाना पड़ेगा, बाद में फिर बैठता हूँ। डूँगा को लगा- साला ऐसे कह रहा था, जैसे उसके साथ जाने की इच्छा नहीं, मजबूरी हो। मन हुआ, साले को दो बातें सुनाये। लेकिन फिर सोचा- साला दस-पन्द्रह साल छोटा है, अब छोटे को कुछ सुनाने से क्या फ़ायदा ? बराबरी का होता, तो सुनाता। उसे बात लगती भी। पर इतने छोटे को क्या कहना, छोड़ो। मन के किसी कोने में यह आषंका भी थी कि कहा, और कहीं माजना बिगाड़दिया तो ..? दोनों चलने लगे, पवित्रा के लिए छोरा देखने। थोड़ी ही देर में दोनों वापस लौट आये। डूँगा को वह छोरा अपने गाँव के टुल्लर के छोरों का ही साथी लगा, सो पसंद नहीं आया। डूँगा साँझ तक वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने उसे पानी का लोटा दिया। उसने मुँह पर पानी के छिंटे मारे। गट... गट पानी गटका। फिर खाट के पैताने की तरफ़बैठी पारबती को बताया- छोरा नी जँचा। पारबती जाकर चूल्हे-चैके में लग गयी। पवित्रा टी वी के सामने बैठी थी, जो थोड़ी देर बाद डूँगा को चाय दे गयी। चाय पीकर वह खाट पर आड़ा पड़गया। साँझ ष्याम रंगी सितारों जड़ी लुगड़ी ओढ़चुकी थी। कहीं-कहीं सितारे भी टँक गये थे। उसके मग़ज़्ा में ए.बी. रोड किनारे के कई खेत आ-जा रहे थे, जो पिछले कुछ सालों में ही बिके थे। अब सड़क किनारे के खेतों में फ़सल की बजाय कहीं रिलायंस और कहीं एस्सार कम्पनी का पेट्रोल पम्प खड़ा था। कहीं आई टी सी का हब और कहीं चैपाल सागर खुला था। ये सारे खेत टुल्लर के छोरों ने बिकवाये थे। उस साँझ जब वह घर लौट रहा था। टुल्लर के एक छोरे ने उसे कई के बाद फिर टोक दिया- डूँगा काका खेत बेचणु कईं, घणी जबरी पार्टी है इनी बार! डूँगा ने उससे तो कुछ न कहा था, लेकिन जबसे उसके मग़ज़में वह बात चल रही थी। दरअसल उस पट्टी में डूँगा का खेत कुछ फँस ही ऐसी जगह गया था कि अब वह मिट्टी का नहीं रह गया। खेत की एक बाजू आईटीसी का चैपल सागर। दूसरी बाजू रिलायंस पेट्रोल पम्प। सामने एस्सार पम्प। अब तो यह कि उस खेत का दाम जो डूँगा के मुँह से निकल जाये। लेकिन डूँगा चाहता नहीं था खेत बेचना। वह चाहता था उसमें फ़सल पैदा करना। फ़सल ही से पैसा कमाना। अ
पनी धरती माँ को बेचने या उसकी दलाली करने की सोच ही उसे कंपकंपा देती। वह मेहनत के दम पर लुगड़ी ख़रीदना चाहता। घर चलाना चाहता। पर सरकार की नीतियाँ और बाज़ार के छल ने कभी हाथ में इतना पैसा आने ही न दिया, और दिन फिरेंगे भी वह नहीं जानता ! पर वह सपने में भी उस ज़मीन का सौदा नहीं करना चाहता। लेकिन गाँवदी और षहरी दलाल टुल्लरों की भी अपनी समस्या थी- ज़मीन उनके मग़ज़में चढ़गयी थी औ बिकवानी थी। टुल्लरों द्वारा उसका घर गूँधना बढ़रहा था। दलालों के एक टुल्लर ने मदन को भी अपने साथ मिला लिया था। सभी डूँगा को किसी न किसी तरह से पटाने की कोषिष में लगे रहते। दलालों ने डूँगा ही नहीं, पारबती, पवित्रा की ज़रूरतों और सपनों को भी भाँप लिया था। दलाल किसी भी वक़्त डूँगा के यहाँ आ धमकते। डूँगा घर पर नहीं होता, तो वे पारबती और पवित्रा को पटाते। एक बार भाई दूज पर मदन आया, तो अकेला नहीं आया, उसके साथ दलालों का एक पूरा टुल्लर आया। मदन जानता था कि बहन के यहाँ टुल्लर की खातिरदारी कुछ ख़ास नहीं होगी। इसलिए वह पहले ही बायपास रोड के एक ढाबे पर बीयर-वियर पी-पाकर, चिकन-मटन चटखा कर आया। पारबती ने खाने को पूछा, तो वह नट गया। -मामा चाय तो पियोगे न, बनाऊ ? पवित्रा ने टी वी में आये ब्रेक के वक़्त पूछा। -अं... हं .. कुछ भी नहीं। मदन ने कहा था। पूरा टुल्लर आँगन में ढली दो खाटों पर बैठा था। ये दोनों खाट पवित्रा और पारबती की थी। डूँगा की खाट भीत से टिकी खड़ी थी और उसके पाये पर तकिया भी धरा था। टुल्लर में से एक 'जो अपनी रियाज से दो बीयर ज़्यादा पी गया था, ने सोचा थोड़ी देर खाट पर आड़ा पड़जाये। आड़ा पड़ने के लिये सिर नीचे तकिया रखने की ज़रूरत थी, तो वह उठा और डूँगा की खाट पर का तकिया उठाया, तकिया उठाते ही उसे लगा, तकिया नह
ीं ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी उठा ली। तकिये की काली चिकट खोल देख कर लगा, पेट में भरी बीयर और चिकन बाहर आ जायेंगे। उसने तकिया झटपट वापस रखा और उलटे क़दम आकर खाट पर बैठ गया। तभी पारबती भी दोनों ढली खाट के सामने आकर नीचे आँगन में बैठ गयी और मदन के सामने पवित्रा के ब्याह की चिंता सरकायी। पवित्रा जो धारावाहिक देख रही थी, वह ख़त्म हो गया था, तो वह भी आकर धीरे से पारबती के पीछे बैठ गयी। मदन ने पवित्रा की ओर देख धीमे से मुस्कराया और फिर उसे गुदगुदाने के अँदाज़में पारबती की ओर देखता बोला- हिरोइन की हिरोइन दिखती भान्जी को चाहे जिसके साथ फान्द दें क्या ? भणी-गुणी भान्जी को किसी के यहाँ गोबर सोरने और कंडे थेपने को परणई (ब्याह) दें क्या ? इतना कह उसने फिर पवित्रा की ओर देखा- पवित्रा का चेहरा बता रहा था, मामा मदन की बात उसके गले से रसगुल्ले की तरह उतर रही थी। क्योंकि पवित्रा भी टी वी के धारावाहिकों में आते हीरो-सा दुल्हा चाहती थी। वैसा ही घर, सोफ़े और बेडरूम। वह धारावहिक देखते-देखते दुल्हन के जेवर के, सितारों जड़ी लाल चुनड़ी के और जाने किस-किस चीज़के सपने देख लेती। उस दिन उसे लगा- मदन मामा उसके बारे में कितना अच्छा सोचते हैं। मामा मदन के चेहरे पर ज़रा-सी उदासी उतर आयी। वह उदासी के पीछे से बहन पारबती का चेहरा बाँचता बोला- दुनिया में छोरों की कमी थोड़ी है, छोरा तो टी वी में से अच्छा हीरो पकड़कर बाहर ले आऊँ। तू चाहे तो घर जवाँई बना के रखना। चाहे उसके साथ रहना। पर अच्छा छोरा भी अच्छी जगह ही रुकेगा न ? अब कोई भणा-गुणा यहाँ आकर जीजा के साथ खेत में तो नहीं खपेगा ? -मामा की बात तो सही है। धारावाहिकांे में छोरे या तो कारखाने के मालिक हैं। मैनेजर हैं या इतने पैसे वाले हैं कि कुछ करते ही नहीं। पवित्रा ने मन ही मन ख़ुद से कहा- सच में मामा ने किसी धारावाहिक वाले छोरे से बात पक्की कर दी, तो वह ऐसे घर में कैसे रहेगा ? फिर वह सोचने लगी- धारावाहिक में किस-किस के लिए लड़की ढूँढ़ी जा रही है ? उसे कोई याद आता, तो वह मन ही मन उसके साथ अपनी जोड़ी बना कर देखती। जोड़ी न बनती, तो मन में यह भी आता- किसकी आपस में नहीं पट रही है, या किसकी जोड़ी को कैसे तोड़ी जा सकती है, जिससे अपनी जोड़ी बन सके। पवित्रा इसी में उलझ गयी थी। भाई मदन की बात बहन पारबती को भी सुहाती लग रही थी, इसलिए उसने मदन से ही पूछा- त.. फिर र्कइं कराँ बीर, तू ही बता। -जाजी के राज़ी कर लो, ज़मीन के छाती पर बाँधी के तो नी ले जानी है। मदन ने हल सुझाते कहा। तभी पवित्रा, पारबती और टुल्लर ने देखा। सेरी में बैलगाड़ी थुबी। रोज़की जगह से थोड़ी पीछे थुबी थी, क्योंकि रोज़की जगह पर टुल्लर की कार थुबी थी। पवित्रा उठी और बैलगाड़ी में से निराव उतरवाने चली गयी। पारबती चाय का पानी चढ़ाने चली गयी। डँूगा ने हाथ में पकड़ी रास को गाड़ी के जुए के ऊपर से बैलों के सामने फेंका। फिर जुए के ऊपर से ही वह भी उतरा। समेले में से जोत के आँटे खोल बैलों के गलो
को मुक्त किया। गाड़ी की ऊद पकड़ऊपर उठायी और बैलों को टचकारा तो वे इधर-उधर हट गये। गाड़ी की डँई को ज़मीन पर टिकाया और बैलों को कोठे में बाँधने ले गया। इस बीच उसने दो बार आँगन में बैठे टुल्लर की ओर देखा, पर मदन भीतर की बाजू बैठा था, तो दिखा नहीं और किसी ओर को वह जानता नहीं था। फिर भी घर आये पावणों से उसने औपचारिक राम-राम बैलगाड़ी थोबती बखत ही कर ली थी। डूँगा ने कोठे में बैल बाँधने के बाद पवित्रा से पावणो के बारे में पूछ लिया था, इसलिए जब वह आँगन में आया, तो चेहरे पर पावणो से बेओलखान (अपरिचय) का भाव नहीं था। टुल्लर खाट पर बैठा, आपस में खुसुर-फुसुर कर रहा था। एक दो ने चलने के लिए कहा। मदन ने समझाया- जीजा अभी आये हैं, उनसे मिले बग़ैर कैसे चलें। उनसे भी दो बात करनी पड़ेगी। वह डूँगा से मुखातिब हो बोला- र्कइं जीजा, मज़े में हो ? -हाँ, मज़ा में ही है। गेहूँ बो दिया है। सरी बाँध रहा हूँ। डूँगा ने खेत पर कर रहे काम के बारे में बताया था। -जीजा आप भी इस उमर में खेत में खटते रहते हो। वह गरदन हिलाता ऐसे उपेक्षित भाव से बोला, मानो खेत में खटना बहुत बुरा काम है। -किरसान को बेटो खेत में खटे नी, अपना मन से जुटे है। डूँगा बोल रहा था- जैसे अपनी धरती माय की गोदी में खेले है। -हाँ, ठीक है, ये सब मन समझाने की बात है। मदन ने कहा- खेत बेचो तो बताओ, इनी बार बम्बई की भोत जबरी पार्टी है। मन होय, तो बात करूँ ? -मदन, जिको मन जी का दूध से नी भर्यो, जी का ख़ून पीना से, गोष्त खाना से कैसे भरेगो ? यह कहते हुए डूँगा का गला भर आया। पर कुछ नहीं बोला। पारबती ने चाय दे दी, तो नीची घोग (गरदन) से चाय को फूँक कर ठन्डी कर रहा था। अभी उसने एक घूँट सुड़की थी कि वहीं खड़ी पारबती बोली- और र्कइं पूरी उमर तो बीती गयी, गारो ख
ोदते-खोदते। ढंग की एक लुगड़ी भी नी लय पाया। बुढ़ापा में तो गार के सुधार लो ! पारबती की बात से डूँगा तिलमिला उठा। चाय पिघला लोहा बन गयी और भीतर तक फफोले पाड़ती गयी। ढंग का एक ही तो सपना था डूँगा का। जिसकी ख़ातिर उसने कितने ष्याले, उनाले और बरसात लट्ठे की फतवी में काट दिये थे। उस क्षण उसे लगा- उसकी मेहनत पर पारबती का भरोसा पोला था, जो मदन द्वारा फेंके लालच की मार से पिचक गया। उसे लुगड़ी ख़रीदने के लिए उस ज़मीन को बेचने का कहा जा रहा, जिसे उसकी जी और दायजी ने उसे सौंपी थी। जिसके गारे में जी-दायजी की उम्र भर का पसीना मिला हुआ था। उसने चाय पीकर ख़त्म की और पीछे खिसकर भीत के सहारे टिक गया था। चुप। उसके मग़ज़्ा में चल रहा था- इस बार आधी सोयाबीन बाँझ रह गयी। आधी का पानी की ताण के कारण दाना छोटा रह गया। ई चैपाल वाले ने ख़रीदी नहीं। कस्बे में बाण्या को बेची, उसमें गेहूँ के लिए खाद और टेमपरेरी बिजली कनेक्षन लिया। बरसात चकमा न देती, तो पारबती को तो इसी बरस एक लुगड़ी ला देता। पारबती ने जो ताना दिया, वह तो कभी सम्पत काकी ने भी न दिया। पारबती के सिर पर एक लुगड़ी आ जाती, तो मदन की बातें उसे न भरमा पाती। -बीस लाख रुपये बीघा तक दे सकते हैं। सोचो, दस बीघा का कितरा रुपया होगा। मदन ने डूँगा की ओर देखते हुए कहा और फिर पारबती की ओर देखते हुए बात ख़त्म की- वारा न्यारा हुई जायेगा। चाहो तो लुगड़ी बनाने को कारखानो खोली लीजो। सौ-दो सौ लुगड़ी रोज़बाँटोगा तो भी कम नी पड़ेगी। -और क्या ? कारखाने को सम्भालने के लिए मामा धारावहिक के किसी हिरो को राज़ी कर लेंगे। पवित्रा मन ही मन बुदबुदायी और डूँगा की ओर यूँ देखा, मानो उसकी आँखें कह रही हो- हाँ कह दो ? पर डूँगा तो जैसे बहरा हो गया। मदन की बात न सुन पा रहा, न समझ पा रहा। हालाँकि मदन और उसके साथियो ने, और भी कुछ बातें सुझायी। मसलन- अभी बेचने का मन न हो, तो मत बेचो। बीस-तीस लाख रुपये बम्बई की पार्टी से यूँ ही दिलवा देते हैं। घर बनवा लो। पवित्रा को परना दो और आराम से बैठे-बैठे बुढ़ापे का मज़ा लो। बस, एक छोटा-सा एग्रीमेंट करना होगा- जब भी बेचोगे, उसी पार्टी को बेचोगे, जिससे पइसे दिलवायेंगे। डूँगा हाँ, ना कुछ नहीं बोला। वैसा ही बैठा रहा। बाहर गुमसुम। भीतर खदबदाता। खाट पर बैठा टुल्लर जाने को उठा। कोई और पावणा होता, तो डूँगा कहता- और आवजो। लेकिन जब वह टुल्लर जाने को उठा, तो उसके साथ डूँगा भी उठा। वह सेरी में खड़ी कार तक साथ-साथ गया, उन्हें हाथ जोड़बिदा करता मन ही मन बुदबुदाया- म्हारो पिंड छोड़दी जो। मदन के जाने के बाद पारबती ने फिर से चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दिया। वह उसी वक़्त समझ गयी थी कि डूँगा की चाय का स्वाद बिगड़गया है। तभी से डूँगा गुमसुम भी था। चाय के पानी में पत्ती-षक्कर और दूध मिलाने के बाद, उसने चाय की ज़िम्मेदारी पवित्रा को दे दी। डूँगा सेरी में खड़ा डूबते सूरज की ओर देख कर, षायद अँदाज़ा लगा रहा- आरती में कितनी देर बाक़ी है। पारबती ने
डूँगा की खाट को लाकर सेरी में ढाल दी। सिरहाने तकिया भी धर दिया। डूँगा बुरी तरह थका-मांदा-सा खाट पर बैठा। पैरों से पनही निकाल दी। धोती की काँछ को ऊपर चढ़ा ली। दोनों पैरों को उठाकर खाट पर रखे और फिर आड़ा पड़गया। तकिये पर सिर रखा और आँखें आसमान में टिका दी। सूरज डूबने के बाद की लाली पर साँझ की ष्याम रंगी झिनी लुगड़ी अभी पूरी तरह फरफरायी भी नहीं थी कि गाँव के छोरों का एक टुल्लर आया, तो डूँगा उठकर बैठ गया। सभी छोरे गाँव के ही थे। सभी अधकचरे पढ़े-लिखे थे। उनके बाप-दादा की ज़मीने बिक गयी थी। उनमें से एक के बाप ने तो बाहर दूर गाँव, जहाँ की ज़मीन गारे की थी, यहाँ की ज़मीन की तरह सोने की नहीं, वहाँ ज़मीन ख़रीद ली थी। ज़मीन पर हाली छोड़दिये थे। बीच-बीच में जाकर देख आते थे। फ़सल अवेर लेते थे। इस गाँव में बाप के पास ताष पत्ते खेलने के अलावा कोई ख़ास काम नहीं था। बेटा लोगों की ज़मीन बिकवाता। गाँव की बहू-बेटियों को ताकता। उसका अपने सरीके पाँच-सात छोरों का एक टुल्लर था। गाँव में यही इकलौता टुल्लर था, ऐसा हरग़िज नहीं था। टुल्लर तो और भी थे, पर उनके भीतर लाज और गाँवदीपन अभी बचा था। अभी वे बुजुर्ग़ों से आँख मिलाते या उन्हें धमकाते झिझकते थे। लेकिन ये टुल्लर बिन्दास और पाॅवर फुल था। इसी टुल्लर की महरबानी से डूँगा के घर की मगरी पर तीन तरह के खापरे थे, यानी देषी नलिये, देषी खापरे तो पुराने ही डले हुए थे। लेकिन जब इस टुल्लर का मन दगड़्या चैदस मनाने का होता। मना लेता। टुल्लर तो पत्थर को आसमान की ओर उछालता। पत्थर ही हवा और अँधेरे की मदद से डूँगा के घर के ऊपर जाता। खपरेलों पर वहाँ गिरता, जहाँ नीचे पवित्रा सोयी होती। लेकिन कवेलू, खापरा और नलिया डूँगा के मग़ज़में टूटता। जहाँ-जहाँ का खापरा, नलिया टूटता,
वहाँ-वहा,ँ डूँगा अँग्रेज़ी कवेलू लगा देता। टुल्लर ऐसा हर उस घर पर नहीं करता, जिसमें जवान छोरी रहती। उस घर के साथ करता, जो टुल्लर की लायी पार्टी के साथ सौदा नहीं करता। डूँगा को सबसे पहले, इसी टुल्लर ने आॅफर दिया था कि खेत बेच दे। दस लाख रुपये बीघा के हिसाब से बिकवा रहे थे तब। पर नहीं बेचा, तो नहीं बेचा। उस वक़्त रामा बा जैसा कोई मामला फँसा नहीं था। लेकिन तभी से उन्होंने दगड़्या चैदस मनाने का काम ज़ारी रखा था, ताकी डूँगा भूले नहीं। गाँव के सभी टुल्लरों के बीच थाना-कचहरी आने-जाने में इसी टुल्लर का नाम सबसे ऊपर था। अगर उसकी लायी पार्टी के साथ किसी ने सौदा नहीं किया, तो फिर कोई खाँ हो, उनकी सहमति के बग़ैर उस ज़मीन को बिकवा नहीं सकता। यह ऐसा अलिखित समझौता था, जिसके विरूद्ध कभी कोई नहीं गया था। डूँगा ऐसे समय और महान देष के गाँव का किसान था, जिसमें डूँगा तो क्या ? उसके जैसे गाँव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फ़सल बेचकर जीते-जी सपना पूरा करने का सोेचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नितियों की खुल्लम खुल्ला तौहीन करना था। हालाँकि सरकार इतनी गेली नहीं थी, न उसकी नीतियाँ इतनी ढीली-ढाली थी कि डूँगा जैसे धोती छाप लोग अपने सपनों को पूरा कर लेते। सरकार ने बहुत ही विकसित और ताक़तवर देषों की सरकारोें की मंसानुसार जो नीतियाँ बनायी थीं, उन्हें समझना डूँगा जैसे धोती छाप गाँवदियों के बस का तो था ही नहीं। लेकिन सरकार के भीतर- बाहर बुद्धि की खाने वालों का दावा करने वालों के लिए भी, बग़ैर चन्द्रायन के चाँद पर जाने का सपना देखने जैसा था। ऐसी बखत में डूँगा का एक मन पसंद लुगड़ी का सपना। पारबती का बूढ़ी हड्डियोें को आराम और जवान छोरी को परनाने का सपना। पवित्रा की आँखों में अच्छे घर और दूल्हे का सपना। सपना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन जीते-जी पूरा करने की जिद। मेहनत की फ़सल से पूरा करने की अड़। ये सरकार की नज़र में क्या था नहीं पता, पर गाँव के टुल्लर की नज़र में यह एक गेलचैदापना था। उसके मग़ज़्ा में कोई उलझाव नहीं था। डंके की चोट पर कहता- वह चूतिया है। जब टुल्लर के सामने डूँगा और उसके परिवार के सपनों की पोल खुली थी, कई मुँह से हँसते-हँसते टुल्लर के कई पेट में बल पड़गये। फिर टुल्लर में से ही एक मुँह ने अपनी हँसी को काबू में करके यह राज़खोला- डूँगा ज़मीन को बेचे बग़ैर सपना पूरा करना चहता है। साँझ का वक़्त था, उस साँझ सरपंच ने पंचायत भवन में टुल्लर, हल्के के पटवारी और क्षेत्र के थानेदार का खाना-पीना रखा था। खाना-पीना रखने की कोई ख़ास वजह नहीं थी, बस, उस साँझ सरपंच का टर्न था। लेकिन जब टुल्लर को यह भनक लगी कि चैधरी बाखल का टुल्लर डूँगा की ज़मीन की फिराक़में है। उसने डूँगा के साले मदन को पटा कर अपने साथ जोड़लिया है, और डूँगा के साथ एक बैठक कर ली है, तो उनकी झाँटों का सुलग उठना जायज ही था। टुल्लर के लीडर ने सरपंच के टुनटुने
(मोबाइल) पर अपने टुनटुने के मार्फत बता दिया कि खाना-पीना नौ बजे के बाद, और टुल्लर सीधे पहुँच गया था डूँगा की सेरी में। टुल्लर में एक लम्बी नाक वाला छोरा था। क़रीब अट्ठाइस-उनतीस साल का। उसकी आँखों की पुतलियाँ गहरी काली। भौंहे चैड़ी। सिर के बाल घने, गहरे काले और चेहरे का रंग साफ़था। वह टुल्लर की सेकैण्ड लाइन का लीडर था। डूँगा के ठीक सामने बैठा था। वह बोल कुछ नहीं रहा था। बस, एक-एक, दो-दो मीनिट के अन्तराल पर डूँगा को घूरता। फिर उधर देखता, जहाँ आँगन में बैठी पवित्रा रात को राँधने के लिए, दराँती से आल काट रही थी। टुल्लर की पहली लाइन का लीडर डूँगा की बाजू में बैठा। दिखने में षरीफ गाय का गोना। डूँगा को टेकल करने के अँदाज़में समझा रहा- रामा बा बनने की खुजाल क्यों मची है ? डूँगा के सामने वह सब पसर गया, जो रामा बा के साथ दो साल पहले घटा था। रामा बा, डूँगा की ही बाखल में रहने वाला बूढ़ा, और दो जवान छोरियों का बाप। उसकी पहली छोरी पवित्रा से दो-तीन साल बड़ी। दूसरी पवित्रा की ही दई (उम्र) की। वह डोलग्यारस का दिन था। पूरा गाँव मन्दिर सामने के चैक में था, और डोल को सजा-धजा कर तलाई पर ले जा रहे थे। वहीं से बड़ी छोरी अलोप हो गयी। आठ-दस दिन तो पता ही नहीं चला, छोरी कहाँ रही। उसके साथ क्या-क्या हुआ ? एक रात जब उसी चैक में वह पड़ी मिली, तो लोगों ने कहा- इससे तो अच्छा होता कि मर जाती। न उसे खाने की सुध, न पीने की। छोटी बहन और उसकी माँ ज़ोर-जबरदस्ती से कपड़े पहना देती, तो वह उतार कर फेंक देती। फिर किसी पहलवान की तरह अपनी जाँघ को ठोकती। टुल्लर के लीडर का, उसके साथियो का, सरपंच का, थानेदार का, पटवारी का एक-एक का नाम पुकार कर चुनौती देती और अपनी टाँगों के बीच इषारा करते हुए कहती- अउ... , अउ और भरई जउ
इमें। दो साल से वह रामा बा के घर की एक अँधेरी ओड़ली में बंद है, पर रामा बा के घर के अलावा कोई नहीं जानता- वह ज़िन्दा है कि मर गयी। छोटी छोरी पवित्रा की तरह जवान हो गयी। पर उसके लिए न कोई रिष्ता आता, न कोई लाता। कोई भूला भटका आ जाता, तो उसे टुल्लर का कोई न कोई छोरा मिल जाता और उलटे पाँव भगा देता। टुल्लर ने ये अघोषित ऐलान किया हुआ था- रामा बा की छोटी छोरी उनकी प्राॅपर्टी है, जिसका उपयोग वे जब चाहे, तब मिल बाँट कर करते हैं। यह सब, क्यों सहा रामा बा ने ? क्या रामा बा को अपनी छोरियों से ज़्यादा ज़्ामीन प्यारी थीं ? क्या ग़ज़ब गुनाह था रामा बा का भी। उनका खेत सड़क किनारे था और षहर के एक सेठ को पसन्द आ गया था। उसे पेट्रोल पम्प डालने के लिए, रामा बा के खेत से मुफिद जगह दुनिया में कहीं नहीं मिली थी। सेठ टुल्लर से मिला। टुल्लर के पहली लाइन के लीडर ने सेठ को खेत दिलवाने की ज़बान दे दी, और दिलवा भी दिया। लेकिन न बेचने और बेचने के बीच, रामा बा और उसके परिवार के साथ जो कुछ हुआ था वह, बल्कि पिछले दस-पन्द्रह बरसों से सड़क किनारे के गाँवों में रामा बाओं के साथ जो कुछ घट रहा था। किसी की फ़सल में आग लग जाती। कोई फ़सल बेच कर लौटता, तो रास्ते में रकम लुटा जाती। रास्ते से बच आता, तो घर में से चोरी हो जाती। ऐसी हर एक बात का तार टुल्लर की तरफ़जाता दिखता। पर कोई तार को पकड़टुल्लर की ओर क़दम बढ़ाता, तो कुछ क़दम के बाद ही वह तार को गला पाता। फिर वहाँ से आगे कुछ नज़र न आता। उन दिनों ए बी रोड किनारे के हर गाँव में टुल्लर, रामा बा और डूँगा की संख्या में बढ़ोत्री हो रही थी। यह बढ़ोत्री तरक्की की झकाझक पौषाक पहनकर इतराती थी। उस साँझ टुल्लर की पहली लाइन के लीडर की बातों से डूँगा को सबकुछ समझ में आ गया था। इस क़दर साफ़-सुथरा और पारदर्षी समझ में आया था कि आँखें समझ को छुपा न सकी। कुछ बूँद समझ चू ही गयी। टुल्लर के जाने के बाद, पारबती हाथ में चाय से भरे कपबषी लेकर आ गयी थी। डूँगा ने काँपते हाथों से कपबषी को पकड़ा। आधा कप चाय बषी में कूड़ी (उड़ेली) और धूजते होंठों से फूँक मारता चाय ठन्डी करने लगा। दो फूँक के बाद ही चाय सुड़क ली, तो इस्सऽऽ कर उठा। जीभ सेे नीचले होंठ की भीतरी सतह को छूकर महसूस किया- जीभ की नुक्खी और नीचले होंठ की भीतरी बाजू में सरसों के दाने के बरोबर के छाले उपक आये हैं। पारबती, जो चाय का कपबषी पकड़ा कर अपने घर के बाहर ओटली पर बैठी सम्पत काकी और सेरी में कार को कपड़ा पहनाते किषोर को देख रही थी। षायद उसके मन में चल रहा था- ज़ल्दी ही उसके घर सामने भी एक कार खड़ी होगी। पवित्रा का लाड़ा कार को कपड़ा पहनायेगा। डूँगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे। तभी डूँगा की लम्बी इस्स से उसका ध्यान टूटा। वह बोली- ज़रा धीरपय से फूँकी- फूँकी के पियो, चाय कपबषी से न्हाटी (भागी) जई री है र्कइं ? डूँगा के होंठ और जीभ जलने से आँखों में जलजले आ गये थे। उसने पारबती की ओर देखा, पर बोला कुछ नहीं। सोचा- काष
उसकी आँखों में आये जलजले के पीछे पारबती झाँक पाती, तो समझती- आँखों में पानी जीभ और होंठ के जलने से हैं या किसी बेबसी सेे हैं ? वह फिर से फूँक-फूँक कर चाय पीने लगा। पर उसेे अब ठन्डी चाय भी गरम जैसी ही लग रही थी। क्योंकि उसने पारबती के मन में सरबलाती हसरत को भाँप लिया था। चाय ख़त्म हुई। डूँगा ने खाली कपबषी पारबती को पकड़ाये। वह कपबषी लेकर घर तरफ़बढ़ी की उसने देखा- किषोर और सम्पत काकी डूँगा की खाट तरफ़आ रहे हंै, तो वह रुक गयी। काकी और किषोर को नज़दीक आते देख, डूँगा बोला- आ काकी बैठ। काकी और किषोर खाट पर बैठ गये। तब पारबती ने काकी और किषोर की ओर देख, पूछा- चाय लाऊँ ? किषोर ने तो गरदन हिला कर नकारा कर दिया और काकी बोली- अरे अग्गी बाल चाय राँड के, आधो कप भी पी लूँ, तो पेट फुगी के ढोल हुई जाये, और फसर-फसर पाद आवे। पारबती धीमे से मुस्कुराती खाट के पास आ गयी। खाट के पास सेरी में नीचे ही बैठ गयी। टी वी में धारवाहिक भी समाप्त हो गया था, तो पवित्रा भी आकर पारबती की बग़ल में बैठ गयी थी। -का रे डूँगा, इ छोराना कूण था ? काकी ने सीधे काम की बात पूछी थी, क्योंकि जब टुल्लर आया था, तब भी काकी वहीं बैठी थी। किषोर नहीं था, वह थोड़ी देर पहले ही आया था। डूँगा ने सोचा, कह दे, ऐसे ही मिलने वाले थे। वह काकी को सच बता भी देगा, तो काकी उनका क्या कर लेगी ? पर दूसरे ही क्षण डूँगा को लगा- वह काकी को झूठ बता कर भी टुल्लर का क्या बिगाड़लेगा ? काकी के किषोर ने तो अभी ही ज़मीन का बयाना लिया है, तो हो सकता है, वे कुछ उपाय सुझा दे ? उसने टुल्लर के बारे में सही-सही बताया। कौन-कौन थे और क्या-क्या बोल रहे थे। पारबती ने वह सब सुना, तो धड़कन बढ़गयी। लेकिन वह डूँगा को हिम्मत बन्धाती बोली- डरने की बात नी, म्हारो भई मद
न सब ठीक कर देइगो। पर जब उसे डूँगा ने बताया कि मदन भी ऐसे ही टुल्लर का साथी है, तो फिर वह चुप हो गयी। वहीं बैठे किषोर के सामने अपनी ज़मीन का सौदा करते वक़्त आयी आफतें तैर गयी। काकी को भी वह सब याद आ गया- कैसे किषोर को घापे में लेकर ज़मीन का बयाना पकड़ाया ! कैसे सौदा चिट्ठी बनवायी ! षुरूआत में किषोर ने सख़्ती से ज़मीन बेचने से मना कर दिया, तो उसके साथ क्या हुआ ? काकी ने अपनी बूढ़ी और लरजती आवाज़में कहा- देख, म्हारी बात कान धर। जितरी ज़ल्दी हुई सके, पवित्री का हाथ पीला कर दे। कोई भी ज़मीन का बारा में पूछे, तो बस, यूँज बोल- छोरी के परणई देने का बाद योज करनो है। -हाँ, इनको कोई भरोसो नी। अपने तो रात-बेरात पाणत करने भी आनो-जानो पड़े। किषोर ने कहा था। पाणत करने ही तो गया था किषोर उस रात। यूँ कहने को तो उस रात टुल्लर ने किषोर को एक झापट भी नहीं मारी। जब वह पाणत कर रहा था टुल्लर के पाँच-सात छोरे पहुँचे। उसके सारे कपड़े उतार दिये। हाथ-पाँव बान्द के पानी के पाट में पटक दिया। सवेरा होते-होते किषोर राज़ी हो गया था। जब सवेरे घर आया। काकी को बताया। काकी ने कहा- जान से प्यारो नी है खेत, बेच दे। फिर टुल्लर ने जहाँ कहा, वहाँ अपना नाम लिख दिया। सात लाख रुपये बयाना पेटे ले लिये। जिसमें से एक लाख दलालों ने रख लिये थे। बाक़ी की रकम छः महीने में देगें। न देने पर सौदा रद्द माना जायेगा। किषोर ने पाँच लाख की एक कार ख़रीद ली। बाक़ी रकम मिलने पर, कहीं सड़क से दूर गाँव में ज़मीन भी लेगा। घर बनावावेगा। टुल्लर डूँगा की भी ऐसी ही कोई नस दबाना चाह रहा था। हो... हो... कर मज़ाक उड़ाना। पी-खाकर कवेलू पर पत्थर फैंकना। जैसे टुल्लर के प्रयोग पुराने और असफल हो गये थे। लेकिन टुल्लर को टैन्षन नहीं थी। वह जानता था- डूँगा ज़मीन को फतवी की जेब में रखकर कहीं भाग नहीं सकता। टुल्लर की सहमति के बग़ैर कोई दलाल बिकवा नहीं सकता। फिर भी बीच-बीच में टुल्लर छोटे-मोटे प्रयोग करता रहता। ताकि लोगों को लगे- वे सब मेहनत भी करते हैं। ऐसे ही टुल्लर ने धुलण्डी की रात में एकदम ताज़ा प्रयोग आजमाने का मन बनाया। हालाँकि प्रयोग पर टुल्लर में साँझ को ही बातचीत हुई थी। टुल्लर की दोपहर बाद से पंचायत भवन में पार्टी-षार्टी चल रही थी। जब पार्टी ख़त्म होने को आयी, तब नये प्रयोग का आइडिया आ गया। फिर बातचीत में तय हो गया- रात में ही प्रयोग कर लिया जाये। प्रयोग में डूँगा का सोना ज़रूरी था। डूँगा के सोने के टेम तक पार्टी को ज़ारी रखना था। फिर हुआ ये कि पार्टी नये सिरे से षुरू हुई। टुल्लर के लीडर ने ख़ुष होकर दो बोतल और खुलवा दी। पके माँस की तो कमी थी नहीं। पर फिलवक़्त कच्चे गोष्त के लिए सरपँच और लीडर का मन मचल उठा। लीडर ने टुल्लर के एक छोरे से कहा- सरपँच साब की कार लेकर जा, और प्राॅपर्टी को बैठा ला। जाने से पहले छोरे के मन में पवित्रा का ख़याल आया। उसने लीडर को पवित्रा का ध्यान दिलाया- भइया, डूँग्या का घर में भी तो गद्दर तोतापरी है !
लीडर ने कहा- अबी नी, अबी जा, जीतरो बोल्ये उतरो कर । छोरा चला गया। लम्बी नाक वाले की तरफ़लीडर ने भौंहें उछाली, जैसे पूछा कोई कमी तो नहीं। उसने दोनों हाथ और चेहरे के भाव से ऐसे बताया कि तृप्त हो गया। तब लीडर बोला- तो तू प्रयोग की प्राॅपर्टी का बन्दोबस्त कर ले। लम्बी नाक वाला एक पोलीथिन लेकर पंचायत भवन से बाहर निकला। पंचायत भवन ए बी रोड के किनारे नया-नया ही बना था। रोड और ख़ास गाँव के बीच में लम्बा चैड़ा काँकड़था। काँकड़पर ज़्यादातर बलाई, चमार और भंगी रहते थे। और टाॅयलेट तो गाँव में पटेलों चैधरियों के भी पुराने घरों में नहीं थे। फिर काँकड़वालों की झोंपड़ियों में तो टाॅयलेट का सवाल ही नहीं। काँकड़के लोग, रोड से थोड़ी दूरी पर, रोड के समानन्तर खुदी खन्ती में ही फारिग हुआ करते थे। लम्बी नाक वाला एक मेहतर के झोंपड़ी पर गया। मेहतर तो था नहीं, उसका तेरह-चैदह बरस का छोरा मिला। लम्बी नाक वाले ने उसी को पोलीथिन पकड़ायी और छोरे से कहा- खन्ती में जा और इके गू से आधी भरी ला। फिर पंचायत भवन के बाहर रखी पानी की टन्की की तरफ़इषारा करता बोला- पानी ली ने उके घोल दीजे। फिर पन्नी का मुन्डो बान्धी ने दीवाल से टिकइन धरी दीजे। छोरे का बाप भी होता, तो मना करने का तो सवाल ही नहीं था। थोड़ी देर में छोरा घोल बनाकर रख गया। तब तक गाँव में से कार में प्राॅपर्टी भी ले आयी गयी थी। फिर देर रात तक उनकी मौज़-मस्ती चली। प्राॅपर्टी को वापस छोड़ा। फिर सब चले प्रयोग करने। डूँगा के घर से थोड़ी दूर इमली के नीचे कार और जीप रोकी। पहले गाड़ी में से ही देखा- दूर से उन्हें भी डूँगा, खाट पर पड़े डूँड की तरह ही नज़र आया। खाट के नीचे कबरा जगकर सतर्क हो गया था। लम्बी नाक वाले से लीडर ने पूछा- भई थारा प्रयोग में टेगड़ा को कईं ब
न्दोबस्त है ? लम्बी नाक वाला बोला- पूरो बन्दोबस्त है। वह एक छोटी पन्नी में हड्डियाँ दिखाता- इ इका सरू तो भेली करी र्यो थो। लीडर ने कहा- आज तो थारी खोपड़ी के मानी ग्यो यार। दो जने गाड़ी से नीचे उतरे। एक ने गू के घोल की पोलीथिन पकड़ी, दूसरे ने हड्डियों की और डूँगा की खाट तरफ़बढ़े। कबरा देख रहा था। सतर्क था। पर भौंक नहीं रहा था। चूँकि डूँगा के घर सामने से रास्ता था। कोई न कोई आता-जाता रहता। कबरा हर किसी पर न भौंकता। वह तब भौंकता, जब उसे भरोसा हो जाता- कोई ओगला आदमी उसकी तरफ़आ रहा है। लम्बी नाक वाले ने दूर से ही उसकी तरफ़हड्डी का टुकड़ा फैंका। कबरा टुकड़े के पास गया। हड्डी की गन्ध से उसका मुँह लार से भर गया। वह करड़-करड़चबाने लगा। फिर लम्बी नाक वाले ने पूरी पोलीथिन उसके पास रख दी। कबरा गदगद। लम्बी नाक वाले के साथ वाला खाट की ओर बढ़ता गया। खाट पर करवटे सोये डूँगा के पीछे पोलीथिन धरी। उसमें ब्लेड से एक चीरा लगाया। पोलीथिन में से घोल बाहर निकलने लगा। यहीं से टुल्लर बिखरा। सब अपने-अपने घर जाकर आराम करने लगे। डूँगा इस प्रयोग से दुखी हुआ। चिन्तित भी हुआ। पर ज़मीन बेचने को राज़ी न हुआ। तब टुल्लर को लगा- डूँगा है मरियल, पर है बड़ा चामठा। जब तक सूखेगा नहीं, टूटेगा नहीं। कुछ नया प्रयोग करना पड़ेगा। टुल्लर कल्पनाषील तो था ही। कुछ ही महीनों बाद देव उठनी ग्यारस पर गाँव के खाती पटेल के यहाँ बारात आयी। बारात में दो बस, तीन-चार कार, जीप भरकर लोग, एक मेटाडोर में बैंड-बाजा, एक में दूल्हे की घोड़ी। कार की डिक्की में षराब की पेटी। आदि आदि। कहने का मतलब- पूरे तामझाम के साथ पधारी थी बारात। डूँगा ने किसी खाती पटेल की ऐसी बारात पहले कभी नहीं देखी थी। लेकिन जबसे खातियों की ज़मीने बिकने लगी थीं, ऐसी बारातें अक्सर देखने को मिलती थी। पहले तो खाती पटेल षराब और माँस को चोरी-छिपे भी नहीं छूते थे। अगर कोई खाता-पीता तो बच्चों की सगाई-षादी नहीं होती। पहले से हुई होती तो टूट जाती। पर अब खातियों की युवा पीढ़ी में खाने-पीने का ही नहीं, औरत बाजी का षौक भी बढ़गया। उस रात बारात डूँगा के घर सामने ईमली के पेड़के नीचे थी। बैंड-बाजा बज रहा था। छोरे नाच रहे थे। पीने वाले डिस्पोजल में पी रहे थे। पटाखे छोड़ने वाले पटाखे छोड़रहे थे। तभी अचानक टुल्लर को एक ऐतिहासिक आइडिया आया। उसने तुरंत ही पटाखे वाले से डिब्बानुमा पटाखा लिया। यह ऐसा पटाखा था, जिसे एक बार सुलगाव तो उसमें से दस-बारह पटाखे निकलते। ऊपर आसमान में जाकर फूटते। लाल, नीली और पीली रोषनी के फूल बिखेरते। उस रात आरती के बाद का वक़्त था। डूँगा के घर में खाना नहीं बना था, क्योंकि पटेल बा के यहाँ से साकुट्म्या (सपरिवार) निमंत्रण था, सो सभी साँझ को जीम आये थे। सर्दी थी इसलिए डूँगा की खाट भी ओसारी में ढली थी। पारबती बारात को अपने घर तरफ़आने का सपना देखती खाट पर बैठी थी। पवित्रा घोड़ी पर बैठे दूल्हे को टी.वी. से बाहर निकल आया हीरो समझती देख रही थी। डूँगा खाट
पर लेटा-लेटा बैंड-बाजा सुन रहा था। उसके मग़ज़में अपनी बारात का दृष्य चल रहा था। उसकी बारात में न बैंड-बाजा था, न पटाखे थे, न घोड़ी। बस, बैलगाड़ी से बारात गयी थी और पारबती को बैठा लाये थे। उसने ख़ुद से पूछा- कितरी फ़सल का पइसा फूँका जाता होगा, इनी तोबगी में ? ख़ुद ही ने जवाब दिया- फ़सल का होता तो नी फूँकता, इ तो ज़मीन का पइसा हैं, असज बंगे लगेगा। जब डूँगा का ख़़ुद से सवाल-जवाब चल रहा था, तभी उसकी ओसारी में ढ़ेर सारे पटाखे वाला डिब्बा आकर गिरा। उसमें एक-एक पटाखा राकेट की तरह बाहर निकलता। डिब्बा आड़ा पड़ा था, उसमें से पटाखे भी आड़े-तिरछे ही निकलते। कोई दीवार से टकराकर फूटता। कोई डूँगा की धोती में घूसने की कोषिष करता। कोई पारबती की घाघरी में। कभी पवित्रा की तरफ़लाल, नीली, पीली रोषनी के फूल बिखरते। कभी पारबती और डूँगा की तरफ़। कभी पवित्रा की चीख़ निकलती, कभी पारबती की। डूँगा के घर की ओसारी, ओसारी नहीं जैसे इरान, फिलिस्तीन थी। थोड़ी देर में धुआँ ही धुआँ भर गया था, न कुछ देखते बनता, न सांस लेते बनता। डूँगा समझ गया था- यह अनायस नहीं है। टुल्लर का ही नया प्रयोग है। उसके बाद जब भी बारात आती। डूँगा परिवार सहित घर के भीतर बंद हो जाता। ओसारी में मिषाइलें दग चुकी होतीं। बारात घर सामने से आगे बढ़जाती। तब किवाड़खोलता। ओसारी के आँगन की साफ़-सफ़ायी करते। यह सितम्बर की एक रात थी। डूँगा ओसारी में खाट पर आड़ा पड़ा था। उसकी नज़रे ओसारी के चद्दरों में पड़े दोंचों पर टीकी थी। दोंचें पटाखों के टकराने और वहीं फूटने से बने थे। देव उठनी ग्यारस कुछ ही दिन दूर थी। उसके मग़ज़में चल रहा था- फिर ब्याह होंगे। फिर बारात आयेगी। फिर आँगन में पटाखे का डिब्बा आकर गिरेगा। चद्दरों में फिर दोंचें पड़ेंगे। ठन्ड ज्वार
की बुरी की तरह ही काट रही थी। पर वह काँप रहा था। कनपटियों से जैसे पसीने की नहीं, गाढ़ेख़ून की तिरपन रिस रही थी। तभी षँख की ध्वनि उसे हमेषा की तरह बुलाने आयी। लेकिन डूँगा ने ध्वनि का आना। कान में प्रवेष करना। महसूस ही नहीं किया। पारबती घर में चूल्हा-चैका का काम करी रही थी। पवित्रा टी.वी. के सामने बैठी थी। डूँगा के मग़ज़में देव उठनी ग्यारस के पटाखे फूट रहे थे। क़रीब दो-तीन मीनिट से उसकी खाट के पास किषोर आकर खड़ा था। वह डूँगा काका...... काका..... कहकर उसे उठा रहा था। जब किषोर ने उसे झिन्झोड़कर उठाने की कोषिष की, तब तंद्र टूटी। किषोर ने बताया- डूँगा काका..... आज आरती में नी गयो। आज खँजड़ी नी बजावेगो। डूँगा के पास तो जैसे भीतर कुछ था ही नहीं, जो कहता। किषोर ने ही कहा- काका जा, थारो खेत अभी नी बिकेगो। थारो खेत लेने वाली बम्बई की पार्टी तो डूबी गयी। डूँगा के मन में जैसे कुछ बुलबुले उठे- न बरसात हुई, न बाढ़आयी। पार्टी कैसे डूब गयी। कुछ समझ में नहीं आया। वह भौचक्क किषोर की ओर देखता रहा। डूँगा ने न कभी दलाल पथ का नाम सुना था, न वाॅल स्ट्रीट का। न मंदी का, षेयर मार्केट का। लेकिन जब किषोर समझा रहा था, तो डूँगा जानने की इच्छा में चुप ही रहा। किषोर ने टी.वी. में देख-सुनकर जो समझा था, उसी के आधार पर डूँगा को अथक प्रयास से कुछ समझाना चाहा। डूँगा को इतना ही समझ में आया। कहीं बहुत भयानक बाढ़आयी- मंदी की बाढ़। उधर दलाल पथ और वाॅल स्ट्रीट के बीच, षायद बरसात को मंदी कहते होंगे। उसी बाढ़में बम्बई की पार्टी डूब गयी। उसी पार्टी को टुल्लर ने किषोर का खेत बिकवाया था। वही पार्टी डूँगा का खेत ख़रीदने की सोच रही थी। पर अब वह डूब गयी। उसका किषोर को दिया बयाना डूब गया। क्योंकि लिखा-पढ़ी के मुताबिक छः महीने से ज़्यादा का वक़्त हो गया था। दुनिया में जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किषोर को मालूम था। टुल्लर तो रोज़ही षहर के दलालों और भू-माफियाओं के सम्पर्क में रहता था, सो वह भी सब कुछ जान ही गया था। डूब का हाहाकार पूरी दुनिया में फैला था। जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किषोर को मालूम। ये डूब उनका क्या कुछ डूबाएगी ! खेत डूबाएगी या मेहनत डूबाएगी ? पर डूँगा को किषोर की बातों से इतना समझ में आ गया था- जब तक खेत बचा है। खेती करने की इच्छा बची है। अपनी मेहनत की फ़सल के दम पर लाल छींटादार लुगड़ी लाने का सपना बचा है। जब तक सपना बचा है, बहुत कुछ बचा है। उस साँझ षँख की ध्वनि भी जैसे अड़बी पड़गयी थी। जब तक डूँगा मन्दिर में नहीं आयेगा, वह उसे हाँक दे. देकर बुलाती रहेगी। डूँगा में जैसे पूरा करंट लौट आया। वह यूँ खटाक से उठा जैसे पूरी रोषनी के साथ गुलुप भिड़ा। वह और किषोर तेज़क़दमों से मन्दिर में पहुँचे। डँूगा ने चैनल गेट के पास धरी खँजड़ी की ओर देखा, उसे लगा- खँजड़ी उसके इंतज़ार में बावली हो गयी थी। उसके छूते ही यों बोलने लगी- जैसे डूँगा के भीतर ज़ख्मी
षदी झूम-झूम कर नाचने लगी। आरती ख़त्म होने पर भी डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी था। खँजड़ी और किषोर की ताली बजना। रामा बा के पाँव के पँजों का ऊपर-नीचे उठना। सबने मिलकर ऐसा समा बाँधा था कि आरती में आये किषोर वय के छोरा-छोरी किलकने लगे थे। पंडित खड़ा-खड़ा देख रहा था। उसे प्रसाद बाँटकर ज़ल्दी जाने की चिंता न थी। पर यह तो डूँगा को ही पता था। वह भक्ति में लीन था या अपनी ख़ुषी में डूबा था। उस रात मन्दिर में खँजड़ी और ताली ही बज रही थी। हो.... हो.... नहीं थी।
अचानक से आकाश में जैसे भटकी हुई बदलियों ने चमकते हुये चन्द्रमा के मुख पर अपनी चादर डाल दी तो पल भर में ही सारा आलम फैली हुई स्याही के रंग में नहा गया। इस प्रकार कि चारों तरफ फैला हुआ रात्रि का ये मनहूस मटमैला अंधियारा जैसे भांय-भांय सा करने लगा। कुशभद्रा शांत थी। उसके जल में फैली हुई चांदनी की कोमल किरणें अपना दम तोड़ चुकी थीं। और बालू के तीर पर कफन के समान सिसक-सिसक कर जलती हुई अंतिम चिता की राख़ भी अब ठंडी हो चुकी थी़। अपने प्रिय को अंतिम विदाई देने वालों का हुजूम भी कुशभद्रा के ठंडे जल में स्नान करके न जाने कब के अपने ठिकानों पर जा चुका था, लेकिन सारी दुनियां से रूठा हुआ अपने में ही गुमसुम, सोचों और विचारों में खोये हुये नाथन को जैसे किसी भी बात का तनिक भी होश नहीं था। वह अभी भी नदी के बिल्कुल ही किनारे ही पानी में अपने नंगे पैर लटकाये हुये, अपने नाकाम इरादों की अर्थी सजाये हुये था। दिन भर का थका-हारा, सारी दुनियां-जहान से बिल्कुल ही अलग-थलग संध्या को सूरज ढलते ही वह यहां रोज़ ही आ जाता था। आकर वह कहीं भी थोड़ा सा एकान्त स्थान पाकर बैठ जाता था। बैठते ही वह अपनी अतीत की उन विचलित कर देनेवाली स्मृतियों को एकत्रित करने लगता था जो उसके जीवन में एक बार सुगन्धित कर देनेवाली प्रस्फुटित कलियों के समान खिली तो जरूर थीं, पर अचानक से उसकी सारी जि़न्दगी के कभी भी न समाप्त होनेवाले कांटे बन कर सदा के लिये चली भी गई थीं ़ ़ ़। ' ये जि़न्दगी कुछ नहीं एक ठहरी हुई भोर है, महीन, पतली और बेहद सुरीली आवाज़ में बेसुध ख्यालों में उपरोक्त गीत के बोल सुनते हुये अचानक ही जब धूल और वायु से उड़ती हुई मिट्टी की गंध का एक रेला सा कुर्सी पर बैठे हुये नाथन की नाक में सरसरा के प्रविष्ट हुआ तो नाथन का ध्यान अपने ख्यालों से हटकर वर्तमान में आया। उसने देखा कि नंदी हर रोज़ के समान, अपनी साड़ी से अपना मुंह और नाक बंद करके उसके घर के सामने झाड़ू लगा रही है। वह जब भी अपने काम पर मसीहियों की इस बस्ती में सफाई का काम करने आती थी तो अपनी आदत के समान उपरोक्त गीत को अवश्य ही गुनगुनाती और गाती थी। गर्मी के दिन थे। मसीहियों की इस बस्ती में बच्चों के खेलने, और प्रायः पानी की कमी के कारण हरियाली और घास का तो कोई नाम-ओ-निशान नहीं था। ऊपर से दिन भर मुर्गियों का भागना, उनका खेलना और कुंलाचे मारना, और भी सारी भूमि को सूख़ा बनाये फिरती थीं। सामने का सारा मैदान कभी जंगली घास का समुद्र बन जाता था, तो कभी बरसात में ताल-तलैया। नाथन की जब भी छुट्टी होती थी तो वह बहुत सबेरे ही अपना चाय का प्याला लेकर बाहर घर के सामने एक कुर्सी पर आकर बैठ जाता था। बैठ कर यही सारे नज़ारे वह देखता रहता था। नंदी जैसे नाथन के घर के सामने रोज़ सुबह ही आकर झाड़ू लगाती थी, ठीक वैसे ही वह मसीहियों के अन्य घरों में भी सफाई का काम किया करती थी। उसके इस सफाई के काम में कोई-कोई मसीही परिवार अपनी मुर्गियों का रहने का स्थान अर्थात् दरबों की भ
ी सफाई करवाता था। नंदी को इस सफाई के काम की मेहनत के बदले में महीने के पैसे और सारे घरों से एक वक्त का खाना मिल जाता था। हांलाकि, मसीहियों के इस इलाके की विस्त स्वंय नंदी की न होकर उसके पिता जक्खा के नाम थी। मेहतरों के समाज में यह विस्त एक ऐसा रिवाज़ था कि नंदी के पिता जक्खा के अलावा कोई अन्य सफाई कर्मचारी इस इलाके में बगैर उसकी मज़र्ी के काम नहीं कर सकता था। साथ में जक्खा अपने समाज और इलाके में अन्य मेहतरों और भंगियों का मुख्य जमादार भी था। सफाई आदि के विषय में यदि कोई भी शिकायत आदि होती थी तो वह सबसे पहले नंदी के पिता के पास ही जाती थी। चंूकि जक्खा काफी वर्षों से काम कर रहा था, और अपनी उम्र तथा स्वास्थ्य के हिसाब से वह यह काम कर पाने में असमर्थ भी हो जाता था, इसलिये उसकी लड़की नंदी उसके स्थान पर काम करने आती थी। नंदी का विवाह अभी नहीं हुआ था, लेकिन सब जानते थे कि उसकी उम्र विवाह के योग्य हो चुकी थी। कुछ लोगों का ख्याल था कि जब नंदी के भाई का विवाह हो जायेगा तो उसकी पत्नी नंदी का काम संभाल लेगी। नंदी के भाई के विवाह के पश्चात ही तब शायद जक्खा उसका भी विवाह कर दे? ' ऐ नंदी! कैसे झाड़ू लगा रही हो। सारी धूल मेरी नाक में घुसी जाती है?' नाथन से नहीं रहा गया तो उसने नंदी से कह ही दिया। '?' अपने नाम का संबोधन सुनकर झाड़ू लगाते हुये नंदी के हाथ अचानक ही थम गये। उसने झाड़ू रोकते हुये नाथन की तरफ देखा। कुछ देर न जाने क्या सोचा, फिर हल्के से मुस्कराती हुई बोली, '!' नंदी की बात सुनकर नाथन कुछेक क्षणों के लिये चुप हो गया। ' वह क्या?' नाथन बोला। ' ऐसे।' कहते हुये नंदी ने अपने चेहरे पर लपेटी हुई साड़ी को हटाया। फिर आगे बोली, ' बहन जी का स्कॉफ लीजिये और मेरी तरह साड़ी के समान लपेट लीजिये।'
नंदी ने यह सब इतना शीघ्र दिखाया कि नाथन पल भर को उसका आभा से युक्त चांद सा मुखड़ा देखता ही रह गया। एक असाधारण सुन्दरता की वह मालकिन थी। धूल और गर्मी से उसका चेहरा सना होने के बाद भी लंबे बालों की कुछेक लटें उसके गोरे मुखड़े से चिपककर रह गई थीं। बालों को किसी भी शेम्पू और लक्मे की लालसा नहीं, आंखें काज़ल की मोहताज़ नहीं, और होठों को किसी भी लाली की आवश्यकता नहीं? सोचते हुये नाथन एक टक नंदी को देखता ही रह गया। सोचने लगा कि क्यों इस लड़की ने मेहतरों की बस्ती में जन्म लिया है? नंदी ने जब नाथन को यूं इस प्रकार से खुद को गहरी नज़रों से देखते पाया तो मारे लज्जा के उसने अपना चेहरा एक बार फिर साड़ी से कसा और चुपचाप झाड़ू लगाने लगी। मगर इस प्रकार कि बहुत धीरे-धीरे। यही कोशिश करके कि नाथन की तरफ धूल न जाये। साथ ही वह नाथन की नज़रों के देखने का अंदाज भी भली-भांति समझ गई थी। वह क्या? कोई भी लड़की मनुष्य की इस प्रकार की नज़रों का अर्थ बहुत अच्छी तरह से समझ जाती है। फिर एक दिन रविवार का दिन था। नाथन सुबह दस बजे की इबादत के लिये चर्च की तैयारी करके अपने घर की तरफ आ रहा था। चर्च के पास्टर के आग्रह पर वह यह काम निशुल्क अपनी मर्जी से किया करता था। आते हुये मार्ग में उसे सामने से अचानक ही नंदी मिल गई। वह अपना काम समाप्त करके आ रही थी। उसे देखकर नाथन ने जेब से अपना रूमाल निकाला और उसे दिखाते हुये अपना मुंह और नाक ढांकने लगा। उसकी इस हरकत पर नंदी बड़े ही ज़ोरों से खिल-खिलाकर हंस पड़ी। वह जान गई थी कि नाथन उसकी नकल उतार रहा था। हंसते हुये नंदी के मोतियों समान चमकते दांत देखकर नाथन यह सोचे बगैर नहीं रह सका कि सचमुच ईश्वर ने इस लड़की को बनाते समय कोई कसर बाकी नहीं रखी है। ' बाबू जी! मैं झाड़ू लगा कर आ रहीं हूं। धूल कहां से उड़ने लगी?' नंदी नाथन को देखकर हंसते हुये बोली। ' ठीक कहते हो बाबू जी। मुझे देखकर मूंह नहीं छिपाओगे तो और क्या करोगे? आखिर भंगिन जो ठहरी।' नंदी कहते हुये उदास हुई तो नाथन के भी दिल पर जैसे अचानक से चोट लग गई। वह एक दम से नंदी से बोला, '!' नंदी नाथन की इस बात पर मौन होकर नीचे धरती पर देखने लगी, तो नाथन ने उससे आगे कहा कि, ' ?' नंदी ने उसकी तरफ प्रश्नभरी निगाहों से देखा तो वह बोला, ' क्यों नहीं मिलेगा। तुम पहले हां तो बोलो।' नाथन ने कहा। ' तो फिर?' नंदी नाथन को आश्चर्य से देखने लगी। '?' तब नंदी चुप हो गई। नाथन उसको चुप देख कर बोला, ' नंदी ने अपनी बड़ी-बड़ी आखों से नाथन को मुस्कराकर देखा तो पल भर के लिये वह भी मुस्करा गया। ' अब मैं जाऊं? नंदी ने जाने की आज्ञा मांगी तो नाथन मुस्कराकर रह गया। फिर जैसे ही नंदी जाने लगी तो वह उसे खाली हाथ देखकर चौंका। तुरन्त ही उसने नंदी को रोका। बोला, नंदी अपने ही स्थान पर ठिठक गई तो नाथन ने पूछा, ' माता जी कह रही थीं कि अभी किसी ने भी घर में खाना नहीं खाया है। जब सब खा लेंगे तो बाद में आना।' नंदी ने बताया तो नाथन एक दम गंभीर हो गया।
वह नंदी से बोला, तब नंदी नाथन के साथ उसके पीछे हो ली। घर के द्वार पर पहुंचकर नाथन तो अन्दर जाने लगा लेकिन नंदी वहीं दरवाजे़ के बाहर ही खड़ी रही। नाथन ने एक पल नंदी को देखा और उससे बोला, फिर जैसे ही वह अन्दर घुसा, उसकी मां उसे देखकर बोली, ' इतनी देर लगाता है चर्च के अन्दर एक फर्श बिछाने के लिये? चल जल्दी से आकर खाना खा।' यह कहते हुये उसकी मां ने खाना परोसा। नाथन भी शीघ्र ही खाने की मेज के सामने अपने हाथ धोकर बैठ गया। लेकिन वह खाना शुरू करता, उससे पहले ही वह अपनी मां से बोला, ' तू तो खा ले पहले। फिर दे दूंगी उसे भी।' मां बोली। ' तो अभी दे दो न। वह बाहर खड़ी है। वह तो भूख़ी ही चली जा रही थी। मैं वापस लेकर आया हूं उसे।' नाथन ने कहा तो उसकी मां उसे एक भेदभरी दृष्टि से घूरकर ही रह गई। ' जब तक घर में कोई भी खाना नहीं खा लेता है, उससे पहले इन भंगियों को खाना नहीं देते हैं। खानदान की सारी बरकत चली जाती है।' मां ने तर्क किया तो नाथन सोचकर ही रह गया। लेकिन बाद में बोला, ' अच्छा! तू अब इस नई दुनियां की बातें मत कर। हमारे समय की रीतियों, रिवाज़ों, धर्म-संस्कार और परम्पराओं को तू क्या जाने? चुपचाप खाना खा।' कहते हुये मां बाथरूम की तरफ गई तो नाथन को अवसर मिला। उसने शीघ्रता से अपनी प्लेट उठाई। रोटियां उठाई और अचार की बोतल उठाते हुये बाहर दरवाज़े पर आया। खोलकर देखा। नंदी खड़ी हुई उसी की प्रतीक्षा कर रही थी। नाथन ने जल्दी से खाना उसे पकड़ाया और देते हुये कहा, '?' नंदी ने जब सारा खाना देखा। घर की स्टील की प्लेट, अचार की बोतल, सब कुछ फर्क सा देखा तो आश्चर्य से नाथन का मुंह ताकने लगी। वह जानती थी कि नाथन की मां जिस प्लेट में उसे खाना देती थी वह तो सिलवर धातु की प्लेट थी, और वह सदैव ही उनकी मुर्गि
यों के दरबे की छत पर रखी रहती थी। '?' इस पर नंदी ने फिर एक बार नाथन को अचरजभरी निगाहों से निहारा, फिर बगैर कुछ भी कहे चली गई। बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर नाथन को प्रश्नभरी निगाहों से देखती हुई। नंदी के जाने के पश्चात नाथन अन्दर आया। जल्दी से उसने दूसरी प्लेट निकाली और अपने लिये खाना परोसने लगा। मगर इसी बीच मां वापस आ गई। उसको खाना निकालते हुये देखकर वे आश्चर्य से बोली, ' अच्छा! तुझे बहुत ज्यादा हमदर्दी हो गई है उस भंगिन से?' उसकी मां जैसे खीज़कर बोली। ' मामा, काम करने से कोई भी भंगी, चमार और जमादार नहीं बनता है।' नाथन बोला। ' तो क्या हुआ? ईसाई तो वैसे भी भंगी कहलाते हैं। ज्यादर ईसाई तो इन्हीं मेहतरों और चमारों में से परिवर्तित हुये हैं।' नाथन बोला तो उसकी मां पर जैसे जले पर नमक छिड़क गया। वे एक दम से बोली, ' आने दे तेरे बाप को। उनसे बहस करना।' मां जैसे पहले से और भी अधिक भड़क गई थीं। ' तो क्या हम जिन मसीहियों और ईसाइयों के साथ उठते-बैठते, खाते-पीते और रहते हैं, वे क्या सब नंदी जैसी ही भंगिन जाति के हैं?' मां के तेवर चढ़ चुके थे। ' मैंने अपनी आंखों से देखा है यह सब।' नाथन बोला तो उसकी मां बोली, ' अपने पापा के साथ?' मां मन ही मन बुदबुदाई। सोचा कि अब तक तो यह लड़का मेरे से ही उलझ रहा था, अब अपने बाप को भी ले बैठा?' तब बहुत कुछ अपने मस्तिष्क पर ज़ोर डालती हुई नाथन से बोली, तब नाथन ने बताया। उसने कहा कि, '?' नाथन की उपरोक्त बात पर उसकी मां आंखें फाड़कर देखती ही रह गईं। वे फिर आगे कुछ और न कह सकीं। उनकी मुखमुद्रा को देखकर नाथन ने आगे कहा कि, ' एक बार जब मसीह को अपना परमेश्वर मान लिया तो फिर कोई न भंगी है, न मेहतर और ठाकुर। सबकी एक ही जाति और एक धर्म के हैं। और वह है मसीही धर्म।' उसकी मां ने कहा तो नाथन जैसे खिल उठा। तुरन्त ही बोला, '?' मां फिर से चुप हो गई। एक पल उन्होंने नाथन को देखा। संशय और भेदभरी निगाहों से। फिर उससे सन्देह के स्वर में पूछ बैठीं, ' मतलब कुछ भी नहीं। मैंने तो एक सामान्य सी बात कही थी। जब अन्य छोटी जाति के लोग ईसाई बनकर हमारे मसीही समाज में आदरमान और सम्मान से रह सकते हैं तो फिर नंदी क्यों नहीं?' कहते हुये नाथन उठकर बाहर चला गया तो मां उसे आश्चर्य से अपलक देखती रह गईं। तब उन्हें यह सोचते देर नहीं लगी कि आनेवाले कल के दिन कहीं उनके लिये किसी खतरे या मुश्किल परिस्थितियों के संकेत तो नहीं हैं? एक दिन गुज़र गया। तीसरे दिन मंगलवार था। किसी त्यौहार के कारण सरकारी कार्यालय और स्कूल आदि बंद थे। नाथन की भी छुट्टी थी, सो वह भी अपनी प्रेस में चला गया था। नाथन की मां बाहर खड़ी हुई जैसे नंदी के आने की प्रतीक्षा कर रही थीं। मगर जब उसके स्थान पर उसका भाई सुक्खू झाड़ू लगाने आया तो मां उसे देखकर चौंक गई। लगता था कि जैसे वह नंदी से कोई विशेष बात करने के लिये पहले ही से खड़ी हो गई थीं। फिर भी उन्होंने सुक्खू से पूछ लिया। वे बोली, ' माता जी, वह अब यहां काम करने नहीं
आयेगी। सुक्खू बोला तो नाथन की मां एक संशय से बंध गई। वह तुरन्त बोलीं, ' छापेखाने में?' मां के माथे पर बल पड़ गये। प्रेस तो वह जानती थीं, पर यह छापाखाना क्या होता है? वह कुछ समझ नहीं पाई। चुपचाप अन्दर चली गईं। बहुत देर तक सोचती रहीं कि कहीं यह नाथन ही की तो कोई कारिस्तानी नहीं है? यह सब कुछ ऐसा ही चलता रहा। लगभग दो महीने बीत गये। नाथन ने नंदी को अपनी प्रेस में नौकरी दे दी थी। उसकी मां का शक भी सच निकला। मालुम होते ही उन्होंने भी अपनी तरफ से जितना हो सकता था, नाथन को खूब खरी-खोटी सुनाई। बुरा-भला, जितना भी वे बक सकती थीं, उसे बक दिया। उसके पिता से शिकायत की तो उन्होंने भी एक छोटा सा भाषण देकर नाथन को समझाने की कोशिश की। बाद में वे भी यह कहकर चुप हो गये कि, जवान लड़का है। अपने पैरों पर खड़ा है। यदि ज्यादा कुछ कहा-सुना और गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा कर बैठा, तौभी मुसीबत है। फल स्वरूप, उन्होंने तो नाथन पर निगरानी नहीं रखी, पर उसकी मां हर समय उसके पीछे जोंक के समान ही चिपकी रहीं। दूसरी तरफ सारी मसीही बस्ती में भी नाथन की नंदी के प्रति रूचि की बातें परवान चढ़ने लगीं। उसकी मां सुनती तो मारे क्रोध के वह अपना सिर ही पकड़कर बैठ जातीं। फिर धीरे-धीरे और भी समय बीता। नंदी अभी तक नाथन की प्रेस में काम कर रही थी। झाड़ू लगाने और सफाई का काम उसका एक प्रकार से छूट ही गया था। इतने दिनों तक नाथन के साथ उसकी प्रेस में काम करने से नंदी का रहन-सहन, बात करने का ढंग, और कपड़े पहनने का सलीका ही बदल चुका था। अब उसे देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि यह लड़की कभी झाड़ू भी लगाया करती थी। इतने अर्से में नाथन नंदी को और अधिक मन से चाहने लगा था। उसके दिल की हसरत अब स्पष्ट तौर पर उसकी आंखों में झलकने लगी थी। हांलाकि
नंदी भी नाथन के दिल की बात को महसूस करती थी। मन-मस्तिष्क से समझती भी थी, पर वह भी अपने मुख से नहीं कह सकती थी। इसका कारण था कि उसके दिल की गहराइंयों में बसी हुई उसकी मूल जाति, उसके पिता, बाप-दादों का गन्दगी वाला सफाई और मल साफ करने का पेशा, एक मेहतरानी? अपनी किस हैसियत से अपने दिल की हसरतों का पैगाम उस इंसान के समक्ष सुना सकती थी जिसने किसी प्रकार उसे सिर उठाकर चलना सिखाया था। वह चुपचाप अपना काम करती। एक-एक पैसे का हिसाब देती और काम समाप्त होते ही सीधे अपने घर चली जाती। फिर भी ऐसा कब तक चलता? एक दिन तो यह होना ही था। नाथन ने अवसर मिलते ही अपने दिल की बात नंदी से कह दी। वह गंभीरता के साथ नंदी के पास आया और बोला, '?' सुनकर नंदी के पैरों से तनिक ज़मीन तो खिसकी, लेकिन वह संभल भी गई। वह शायद पहले ही से समझ भी रही थी कि नाथन उससे क्या कहने जा रहा है? फिर भी वह अपने ही स्थान पर खड़ी होकर नाथन की आगे की बात का इंतज़ार करने लगी। ' तुम मुझसे शादी करोगी?' सुनकर नंदी चौंकी तो नहीं, क्योंकि पिछले एक लम्बे समय से जो हालात बन रहे थे, उनका अंजाम भी कुछ ऐसा ही होना था। नंदी ने मुख से तो कुछ नहीं बोला, पर एक संशय के साथ वह नाथन को देखने लगी। इस प्रकार कि जैसे कह रही हो कि, जो कुछ तुम कह रहे हो, उसका मतलब जानते हो? ' तुमने कुछ जबाब नहीं दिया? नाथन ने फिर कहा तो नंदी ने उसकी तरफ देखा। बहुत ख़ामोशी और गंभीरता के साथ। फिर बोली, ' मैंने अब तक की जि़न्दगी में यूं भी बहुत अधिक दुख और मुसीबतें उठाई हैं। आते-जाते लोगों की गंदी-गंदी बातें और फिकरे सुनें हैं। अपने शरीर की तरफ ऊंची जातिवालों की ललचाई हुई नज़रों को झेला है। अपना काम करने गई तो लोगों की गालियां और बदतमीजि़यां खाई हैं। घर-घर की जूठन खाकर इतनी बड़ी हुई हूं। और अब तुम मुझसे शादी करोगे तो और कौन सा दुख देना बाकी है मुझको? फिर मुझसे शादी करके आपको सिवाय बदनामी के और क्या मिल जायेगा?' कहते हुये नंदी की आंखें भीग गई। ' मुझे तुम मिल जाओगी, और क्या चाहिये होगा मुझे? मैं सचमुच तुमको अपने घर ले जाना चाहता हूं। बड़े ही कायदे और आदर के साथ। तुम्हारे ये दुख मुझसे देखे नहीं जाते हैं।' नाथन बोला। ' नारी का परमेश्वर, सबसे पहले उसका पति होता है। विवाह के पश्चात आपका परमेश्वर मेरा परमेश्वर होगा। आपका धर्म ही मेरा और मेरी होनेवाली संतान का धर्म होगा। आप जिस जगह ठहरेंगे, वहां की धूल ही मेरा निवास और मेरा अपना घर होगा।' कहते हुये नंदी ने अपने हथियार डाल दिये तो नाथन ने उसे अपने सीने से लगा लिया। फिर कुछेक पलों की चुप्पी के पश्चात नंदी अपना सिर नीचे झुकाते हुये नाथन से बोली, नाथन ने फिर इस काम में देरी भी नहीं की। उसने नंदी के घरवालों से बात की। उसके घरवाले सुनकर एक बार चौंके तो पर, वे सहज ही तैयार भी हो गये। उन्होंने भी सारा कुछ नंदी के अपने स्वंय के निर्णय पर छोड़ दिया था। फिर उन सबको एतराज़ और परेशानी हो भी क्यों हो सकती थी? नाथन को वे सब
सालों से जानते थे। कितने ही वर्षों से वे सब उसके घर की सफाई का काम करते आ रहे थे। इसके साथ ही वे ये भी जानते थे कि कितने मसीही परिवार जो अब एक मान और सम्मान के साथ मसीही बस्ती में रह रहे थे, उनके दादा, परदादा भी मसीहियत में विश्वास लाने से पहले नंदी के परिवारवालों जैसा ही काम किया करते थे। नाथन चाहता था कि उसका विवाह बड़े ही कायदे से मसीही धर्म की रीति के अनुसार हो। लेकिन ऐसा होने से पहले नंदी का ईसाई धर्म में संस्कार होना बहुत आवश्यक था। बगैर मसीही बपतिस्में के वह नाथन से ईसाई धर्म के अनुसार अपना विवाह नहीं कर सकती थी। इसके लिये नाथन ने स्थानीय चर्च के पास्टर से चुपचाप बात की और अपनी परेशानी भी बताई। तब सारी बात सुनकर वहां के चर्च पास्टर ने जैसे बहुत परेशान होते नाथन से कहा कि, ' मैं भी कानूनन बंधा हुआ हूं। मैं बहुत मजबूर हूं।' कहते हुये पास्टर ने अपने हाथ खींच लिये तो नाथन चुपचाप हाथ मलता रह गया। इस प्रकार नाथन घर में नंदी की बात करे तो परेशानी। मसीही बस्ती में सब उसे हर समय एक चुभनेवाली प्रश्नभरी, संशययुक्त नज़रों से देखने लगे। वह नंदी से बात करे, उसके साथ दिखे तो लोगों को परेशानी। उससे विवाह करने में परेशानी। यहां तक कि नंदी के बिरादरीवालों में, उसके समाज में भी बहुत से रूढि़वादी लोगों को उससे परेशानी होने लगी तो उसने अपने घर में बताये बगैर नंदी के साथ सरकारी कोर्ट में बाकायदा विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात नंदी के परिवारवालों ने अपनी समस्त रीतियों को पूरा किया। लड़की को उन्होंने कायदे से विदा किया। मगर नाथन नहीं जानता था कि यहीं से उसके रास्तों की सारी मुश्किलें भी उसके स्वागत में आकर खड़ी हो चुकी थीं। नाथन की मां और उसके परिवार को तो पहले ही इस बात की खबर लग चुकी थी। वे
तो शायद पहले ही से इसके विरुद्ध तैयार हो चुकी थीं। जैसे ही नाथन नंदी को लेकर घर पर आया तो उसकी मां के तेवर देखने लायक थे। मस्तिष्क का सारा पारा सातवें आसमान से भी ऊपर चढ़ चुका था। लगता था कि सारे घर को उन्होंने अपने सिर पर उठा रखा था। नाथन को नंदी के साथ देखते ही वे जैसे अंगारों पर चलती हुई चिल्लाईं, '?' नाथन चुपचाप अपने ही स्थान पर खड़ा रहा। नंदी तो कहती ही क्या। तब नाथन ने चुपचाप नंदी का हाथ पकड़ा। अपनी मां को एक पल देखा। फिर सारे घर को देखता हुआ क्रोध में बोला, ' इस घर में गलती से मैंने जन्म लेने की जुर्रत जरूर की है, लेकिन यह घर मेरा नहीं है। चल नंदी यहां से।' कहकर नाथन नंदी के साथ उल्टे पैर लौट गया। नाथन ने वह दिन, शाम और रात अपनी पे्रस की दुकान में ही बिताई। कुछेक दिन वे दोनों दुकान में ही रहकर अपने दिन काटने लगे। इस बीच नाथन किराये का मकान भी देखने लगा। फिर काफी दिनों के बाद उसे एक, दो कमरों का मकान किराये पर मिल भी गया। इस मकान में सब कुछ ठीक ही था, केवल पानी के लिये एक सार्वजनिक नल लगा हुआ था। नंदी तब बहुत खुशी के साथ नाथन के साथ इस घर में आकर रहने लगी। वह एक पत्नी की तरह अपने पति की हरेक बात का ख्याल रखती। दिन में नाथन अपनी नौकरी पर चला जाता तो वह उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर रख देती। फिर उसके जाने के पश्चात वह उसकी प्रेस का काम देखती। दिन भर दुकान पर रहती, और शाम पांच बजने से पहले, नाथन के लौटने से पूर्व ही घर पर आ जाती। और जब रात को सोने से पहले नंदी अपनी मधुर आवाज़ में नाथन को गीत सुनाती; अपनी वही प्यारी, दिल की रगों को छू देनेवाली आवाज़, जिसको कभी सुनने के पश्चात नाथन के मन में नंदी के प्रति प्रेम की ज्योति जल उठी थी, सुनते हुये नाथन के मन और शरीर दोनों ही का सारा बोझ भी हट जाता। बहुत देर तक तब दोनों अपनी इस नई जि़न्दगी के तमाम हालात और परिस्थिति पर बात करते हुये सो जाते। दोनों यूं तो अपने इस जीवन से बहुत ही खुश थे, लेकिन नंदी के मन में अभी तक यह विचार बना हुआ था कि उसके कारण नाथन कितना अधिक दुख उठाता है। तमाम जगहों पर वह केवल उसके ही कारण अपमानित भी होता है। साथ ही उसकी मां ने भी खुद मसीही होते उसे अपनी बहु के रूप में स्वीकार नहीं किया है। नंदी जब भी इस प्रकार से सोचती तो उसका मन कसैला हो जाता था। इस तरह होते हुये नाथन और नंदी के दाम्पत जीवन के दिन एक जैसे न रह सके। धीरे-धीरे आस-पास के लोगों को पता चल गया कि नंदी मेहतरों की बस्ती से संबन्ध रखती है। सबसे पहली और बड़ी मुश्किल उन दोनों को अपने किराये के मकान में रहने पर आई। लोगों ने उनको पानी भरने से मना कर दिया। नंदी को देखते ही तमाम जान-पहचान के लोग कतराकर निकलने लगे। और अंत में एक दिन मकान मालिक ने भी नाथन से अपना मकान खाली करने के लिये कह दिया। वह बोला कि, नाथन को मकान खाली करना पड़ा। एक बार फिर से उसे अपनी किराये की प्रेस में शरण लेनी पड़ गई। उसके कुछेक दिन यहां पर कटे, लेकिन वही समस्या
और परेशानी उसको यहां पर भी आड़े आ गई। दुकान के अन्य आस-पास के दुकानदारों में नंदी को लेकर खुस-फुस होने लगी। लोग नंदी को सन्देह और अछूत की दृष्टि से देखने लगे। फिर बात बढ़ी तो इतने दिनों से दुकान के मालिक ने भी नाथन को पहले ही से चेतावनी दे दी। वह भी नाथन को जैसे समझाते हुये बोला, इतना ही नहीं, नंदी के कारण नाथन को परेशानी उसकी अपनी नौकरी में भी होने लगी। हांलाकि, सरकारी नौकरी थी। कोई खुलकर तो सामने नहीं आ सका, लेकिन परोक्ष रूप से उसके साथ ही काम करने वाले ही उससे जैसे परहेज़ करने लगे। उसे अछूतों के समान देखने लगे। तब यह सब देखकर नाथन ने सोचा कि वह अपना स्थानान्तरण करवा ले। नंदी को लेकर कहीं ऐसे शहर में चला जाये जहां उन दोनों को कोई भी नहीं जानता हो। मगर यह बात भी नहीं बनी। स्थानान्तरण हो जाना, वह भी तत्काल, यह कोई बच्चों का खेल नहीं था। महीनों से लेकर, वर्षों तक लग सकते थे। नाथन के ऊपर, पहाड़ों का ढेर टूट पड़ा। खाने-पीने और आर्थिक समस्याओं से कहीं बहुत भारी अपनी मातृभूमि पर ही पैर टिकाने के लिये मात्र एक फुट स्थान के लिये भी वह तरस गया। वह परेशान हो गया। अपने आप ही टूटने लगा। शरीर से और आत्मा से भी। नंदी यह सब देखती तो मजबूरी में केवल आंसू बहाकर ही रह जाती। तब अपने कारण नाथन के साथ यह सारी परेशानियां, कठिनाइंया और परिस्थितियां देखकर नंदी ने अपने ही समाज में फिर से वापस जाने की बात नाथन से कही तो वह जैसे फट पड़ा। नाथन उसको एक पल के लिये भी अपनी आंखों से ओझल नहीं कर सकता है? कितना अधिक चाहता है वह उसे, किसकदर वह केवल उस ही का है, नंदी ने जाना और समझा तो सारी परिस्थिति देखकर फूट फूटकर रो पड़ी। लेकिन वह कर भी क्या सकती थी। वह जान गई थी कि नाथन उसका पति ही नहीं, बल्कि उसका दीवाना
भी है। वह उसके रूप के साथ-साथ उसकी आवाज़ और गीतों का इतना अधिक चाहनेवाला है कि जिसकी परिधि की कोई भी सीमा नहीं दी जा सकती है। वह सारी जि़न्दगी इसी तरह से कष्ट उठाता रहेगा, और उफ भी नहीं करेगा। नाथन दुख उठाये? सारा जीवन इसी तरह से परेशान रहे? एक पल को भी वह चैन और शान्ति की सांस न ले सके? इससे तो बेहतर होगा कि वह स्वंय ही इस संसार से चल बसे। वसीयत में जो भंगिन का वर्गीकरण उसकी जाति के लिये किया गया है, उसे तो वह मरकर भी अपने ऊपर से नहीं छुटा सकती है; पर अपने जाने के पश्चात वह नाथन को सम्मान के साथ इस समाज में रहने के योग्य तो बना ही सकती है। फिर एक दिन। वह शायद एक मनहूस शाम थी? नंदी ने अपने घर सदा के लिये वापस जाने की जि़द की तो नाथन के सिर पर जैसे अंगारे टूट पड़े। फिर तो नंदी उसे समझाये, और वह नंदी को। दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अटल थे। फिर काफी कहा-सुनी के पश्चात उस दिन दोनों ही बगैर खाये-पिये सो गये। लेकिन ऐसा कब तक चलता। मनुष्य अभावों में तो जीवन बिता सकता है, परन्तु तनाव में नहीं। घर में बढ़ते हुये रोज़्ााना के तनाव ने एक दिन नंदी के मन में एक भयानक विचार की उत्पत्ति कर दी। उसने घर के चाकू से अपनी जुबान काट ली। ना उसके पास यह प्यारी आवाज़ रहेगी और ना ही फिर कभी नाथन उसे पसन्द करेगा। नाथन ने जब देखा और सुना तो वह जैसे खड़े से ही गिर पड़ा। उसने नंदी का पूरा इलाज करवाया, परन्तु ज़हर नंदी के शरीर में फैल चुका था। उसे टैटनस हो गया था। उसकी जान बचाना कठिन हो गया। वह नाथन को रोता- बिलखता छोड़कर सदा के लिये चली गई। मरना तो एक दिन सब ही को है। नंदी को मरने के पश्चात भी किसी ईसाई कब्रिस्थान में ईसाई न होने के कारण जगह न मिल सकी। भले ही वह एक मसीही और ईसाई आदमी की पत्नी थी, पर ऐसा कोई भी तर्क नहीं माना गया। हार मानकर नाथन को नंदी का अंतिम संस्कार भी कुशभद्रा के बालू के तीर पर चिता की लपटों में करना पड़ा ़ ़ ़। आज नंदी को इस जहान-ए फानी से विदा हुये एक माह से अधिक हो चुका था। तब से न जाने कितनी ही चितायें दुनियां से जानेवालों की राख़ बनाकर ठंडी हो चुकी थीं। इस कुशभद्रा के बालू के किनारे, अपने सीने पर हजारों मरनेवालों की दास्तां कितनी बेदर्दी से हर रोज़ लिख लेते थे? यह शायद यहां आनेवाला कोई भी नहीं पढ़ पाता था। नाथन अक्सर ही यहां आकर बैठ जाता था। आज भी वह बैठा हुआ था। शाम पूरी तरह से डूबी जा रही थी। नदी के आस-पास के वृक्षों, झाडि़यों आदि पर दिन भर के थके-हारे पक्षी अपने बसेरे के लिये पंख फड़फड़ाने लगे थे। चांद कई दिनों के लिये नदारद हो चुका था। अमावस्या के बाद की रातें चल रहीं थीं। रात होते ही कुशभद्रा का सारा जल किसी मृत हुये दानव के शव के समान ठंडा पड़ जाता था- इतनी देर में नाथन बैठे हुये अपने अतीत की उन कड़वी यादों को फिर से दोहरा गया था, जिन्हें शायद दुनियां की किसी भी मीठी से मीठी वस्तु से कभी भी मीठा नहीं किया जा सकता था। नाथन अभी तक बैठा हुआ था। बहुत शांत। नि
राश कामनाओं की लाश के समान। उदास और बेमकसद। तभी उसे अपने कंधे पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ। नाथन ने चौंककर देखा तो उसके पीछे उसके मां-बाप, मसीही बस्ती के कुछेक लोग तथा स्थानीय पास्टर भी खड़े थे। ' बेटा! मरनेवालों के साथ कोई मरता तो नहीं है। जानेवाली तो चली गई है। तुम्हारी यह दशा हमसे अब देखी नहीं जाती है। हम तुम्हें लेने आये हैं?' नाथन के पिता अपनी भरी-भरी आवाज़ में उससे जैसे गुज़्ारिश कर रहे थे। '?' नाथन ने एक बार उन्हें देखा? सब लोगों को एक नज़र निहारा? फिर अपने मां-बाप को देखता हुआ उनसे बोला, कहते हुये नाथन तीव्रता से अपने स्थान से उठा, और आंधी के समान भागता हुआ कुशभद्रा नदी के पुल पर गया, और आनन- फानन में पलक झपकते ही एक बड़ी छंलाग नीचे नदी की चक्कर काटती हुई लहरों में लगा दी। नाथन के नदी की लहरों में समाते ही एक बादलों की गर्जन का दहाड़ता हुआ स्वर माहौल में चिल्लाया और देखते ही देखते नाथन का शरीर एक पल को उभर कर जल के ऊपर दिखाई दिया, फिर सदा के लिये गायब हो गया। नाथन के पिता, मां, चर्च के पास्टर तथा मसीही बस्ती के तमाम लोग जो उसके स्वागत में उसे वापस लेने आये थे, अपने हाथ मलते ही रह गये। शाम गहरा गई थी। कुशभद्रा के तट पर जहां एक ओर इस संसार से जानेवालों की चितायें, राख के रूप में ठंडी पड़ रही थी, वहीं उसकी लहरें भी प्यार के असफल इंसानों की आहुति लेने के पश्चात जैसे शांत हो चुकी थीं। परमेश्वर ने इंसान को इस धरती की एक ही मिट्टी से बनाया है, पर मनुष्य ने स्वंय ही जातिय समीकरण का गुणा भाग करके उनके मध्य ऊंच-नीच की दीवार खड़ी कर दी है; इससे बड़ी बिडंवना उस समाज, धर्म और देश की क्या हो सकती है? - समाप्त।
।इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" वरदासुंदरी जब-तब अपनी ब्रह्म सहेलियों को निमंत्रण देने लगीं। बीच-बीच में उनकी सभा छत पर ही जुटती। हरिमोहिनी अपनी स्वाभाविक देहाती सरलता से स्त्रियों की आव-भगत करतीं, लेकिन यह भी उनसे छिपा न रहता कि वे सब उनकी अवज्ञा करती हैं। यहाँ तक कि उनके सामने ही वरदासुंदरी हिंदुओं के सामाजिक आचार-व्यवहार के बारे में तीखी आलोचना शुरू कर देतीं और उनकी सहेलियाँ भी विशेषरूप से हरिमोहिनी को निशाना बनाकर उसमें योग देतीं। मौसी के पास रहकर सुचरिता चुपचाप से यह आक्रमण सह लेती। बल्कि हठ करके वह यही दिखाने की कोशिश करती कि वह भी अपनी मौसी के पक्ष में है। जिस दिन कुछ खाने-पीने का आयोजन होता उस दिन बुलाए जाने पर सुचरिता कहती, "नहीं, मैं नहीं खाती!" "यह क्या बात है? हम लोगों के साथ बैठकर नहीं खाओगी तुम?" वरदासुंदरी कहतीं, "सुचरिता आजकल महा हिंदू हो गई है, यह शायद तुम्हें मालूम नहीं? वह तो हमारा छुआ हुआ नहीं खाती।" घबराकर हरिमोहिनी कहतीं, "राधारानी, बेटी आओ! तुम जाओ, खाओ बेटी!" गुट के लोगों में उन्हीं के कारण सुचरिता की ऐसी बदनामी होती है, इससे उन्हें बहुत दुःख होता था। लेकिन सुचरिता अटल रहती। एक दिन किसी ब्रह्म लड़की ने कौतूहलवश जूता पहने हुए हरिमोहिनी के कमरे में प्रवेश करेन की कोशिश की। पर सुचरिता ने रास्ता रोकरकर खड़े होते हुए कहा, "इस कमरे में मत जाओ!" "उस कमरे में ठाकुर हैं।" "ठाकुर हैं! तो तुम रोज़ ठाकुर-पूजा करती हो?" हरिमोहिनी ने कहा, "हाँ बेटी, पूजा तो करती ही हूँ।" "ठाकुर पर विश्वास है?" "मुझ हतभागिनी में विश्वास कहाँ! विश्वास होता तो तर न जाती।" ललिता भी उस दिन उपस्थिति थी। तैश में आकर प्रश्न करने वाली लड़की से पूछा उठी, "तुम जिसकी उपासना करती हो क्या उस पर विश्वास करती हो?" "वाह! विश्वास नहीं करती तो क्या!" "ज़ोर से सिर हिलाकर ललिता ने कहा, "विश्वास तो करतीं ही नहीं, यह भी नहीं जानतीं कि विश्वास नहीं करती।" आचार-व्यवहार के मामले में सुचरिता अपने समाज के लोगों से अलग न हो, हरिमोहिनी इसका बड़ा ध्यान रखतीं, लेकिन सफलता उन्हें किसी तरह न मिली। अब तक भीतर-ही-भीतर हरानबाबू और वरदासुंदरी में एक विरोध का भाव रहता आया था। लेकिन इन घटनाओं से दोनों का अच्छा मेल हो गया। वरदासुंदरी ने कहा, "कोई कुछ भी न कहे, किंतु ब्रह्म-समाज के आदर्श को शुध्द रखने की ओर अगर किसी की नज़र है तो पानू बाबू की।" हरानबाबू ने भी सबके सामने अपना यह विचार प्रकट किया कि ब्रह्म-परिवार को सब तरह निष्कलंक रखने के लिए वरदासुंदरी की एकल दर्द-भरी सजगता ब्रह्म गृहिणी-मात्र के लिए एक उत्तम उदाहरण है। उनकी इस प्रशंसा में परेशबाबू पर एक कटाक्ष भी था। एक दिन हरानबाबू ने परेशबाबू के सामने ही सुचरिता से कहा, "मैंने सुना है कि आजकल तुमने ठाकुरजी का प्रसाद खाना शुरू कर दिया है?" सुचरिता का चेहरा लाल हो आया, लेकिन वह ऐसे शुरू कर दिया है?"
सुचरिता का चेहरा सजाकर रखने आया, लेकिन वह ऐसे ढंग से मेज़ पर रखे हुए कलमदान में कलम सजाकर रखने लगी जैसे उसने यह बात सुनी ही न हो। एक करुणा-भरी नज़र से परेशबाबू ने उसकी ओर देखकर हरानबाबू से कहा, "पानू बाबू, जो कुछ हम लोग खाते हैं सभी ठाकुर का प्रसाद है।" हरानबाबू बोले, "लेकिन सुचरिता तो हमारे ठाकुर का परित्याग करने की कोशिश कर रही हैं।" परेशबाबू ने कहा, "ऐसा भी यदि संभव हो तब उसके बारे में विवाद खड़ा करने से क्या प्रतिकार होगा?" हरानबाबू ने कहा, "जो बाढ़ में बहा जा रहा हो क्या उसे किनारे पर लगाने की कोशिश नहीं की जाय?" परेशबाबू ने कहा, "सब मिलकर उसके सिर पर ढेले फेंकने लगें, इसे किनारे लगाने की कोशिश नहीं कहा जा सकता। पानू बाबू, आप निश्चिंत रहिए, सुचरिता को मैं उसे बचपन से देखता आ रहा हूँ- वह अगर पानी में ही गिरी होती तो आप सब लोगों से पहले ही जान जाता, और उदासीन भी न रहता।" हरानबाबू, "सुचरिता तो यहीं मौजूद हैं- उनसे ही आप पूछ लीजिए न। सुनता हूँ हर किसी का छुआ वह नहीं खातीं- यह बात क्या झूठ है?" कलमदान पर अनावश्यक मनोयोग छोड़कर सुचरिता ने कहा, "बाबा तो जानते हैं, मैं हर किसी का छुआ नहीं खाती। मेरे इस आचरण को वह बर्दाश्त कर लेते हैं तो इतना ही बहुत है। आप लोगों को अच्छा न लगे तो आप सब मेरी चाहे जितनी निंदा कर लीजिए, बाबा को क्यों तंग करते हैं? वह आप लोगों का कितना कुछ क्षमा कर देते हैं, यह क्या आप जानते हैं? यह क्या उसी का प्रतिफल है?" हरानबाबू अचंभे में आ गए। सोचने लगे, सुचरिता भी आजकल जवाब देना सीख गई है! स्वभाव से परेशबाबू शांतिप्रिय थे। अपने या दूसरों के संबंध में अधिक चर्चा उन्हें पसंद नहीं थी। अभी तक उन्होंने ब्रह्म-समाज में किसी तरह का कोई प्रधान पद स्वीकार नहीं किया, अप
ने को किसी तरह सामने न लाकर एकांत में ही जीवन-यापन करते रहे। हरानबाबू परेशबाबू की इस प्रवृत्ति को उत्साहहिनता और उदासीनता समझते रहे हैं और इसके लिए परेशबाबू की निंदा भी करते रहे हैं। जवाब में परेशबाबू ने इतना ही कहा है कि "ईश्वर ने सचल और अचल दो प्रकार के पदार्थ रचे हैं, मैं बिल्कुल अचल हूँ। मुझ-जैसे आदमी से जो काम लिया जा सकता है, वह ईश्वर पूरा करा लेंगे। और जो संभव नहीं है, उसकी चिंता से क्या फ़ायदा? मेरी उम्र अब काफ़ी हो गई है, मुझमें किस काम की सामर्थ्य है और किसकी नहीं, इसका फैसला हो चुका है। अब ठेल-ठालकर मुझे कहीं ले जाने की कोशिश बेकार है।" हरानबाबू की धारणा थी कि शिथिल हृदय में भी उत्साह का संचार कर दे सकते हैं, जड़मति को भी रास्ते लगा देने और पथभ्रष्ट जीवन को अनुताप से विगलित कर देने की उनमें सहज क्षमता है। उनका विश्वास था कि उनकी शुभ-इच्छा इतनी एकाग्र और बलवान है कि कोई उसके विरुध्द अधिक नहीं टिक सकता। उन्हें यकीन था कि उनके समाज के लोगों के व्यक्तिगत चरित्र में जो सब अच्छा परिवर्तन हुए हैं, किसी-न-किसी तरह वह स्वयं उसके मुख्य कारण रहे हैं। उन्हें इसमें कोई संदेह न था कि भीतर-ही-भीतर उनका अलक्षित प्रभाव भी असर करता रहता है। अभी तक उनके सामने जब भी किसी ने सुचरिता की विशेष प्रशंसा की है, उन्होंने उसे कुछ ऐसे भाव से ग्रहण किया है जैसे वह उन्हीं की प्रशंसा हो। उनकी इच्छा रही है कि उपदेश, दृष्टांत और संगति के प्रभाव से सुचरिता के चरित्र को वह ऐसा गठित कर देंगे कि इसी सुचरिता के जीवन के द्वारा लोक-समाज में उनका आश्चर्यमय प्रभाव प्रमाणित हो जाएगा। उसी सुचरिता के इस शोचनीय पतन से स्वयं अपनी क्षमता के बारे में उनका गर्व ज़रा भी कम नहीं हुआ, बल्कि इसका सारा दोस उन्होंने परेशबाबू के सिर मढ़ दिया। परेशबाबू की प्रशंसा लोग बराबर करते आए हैं, लेकिन हरानबाबू ने कभी उसमें योग नहीं दिया। इसमें भी उन्होंने कैसी दूरदर्शिता का परिचय दिया है, यह अब सब पर खुलासा हो जाएगा, इसकी भी उन्हें आशा थी। हरानबाबू जैसे लोग और सब-कुछ सह सकते हैं, लेकिन जिन्हें वह विशेष रूप से हित के मार्ग पर चलाना चाहते हों वे ही अपनी बुध्दि के अनुसार स्वतंत्र मार्ग का अवलंबन करें, इस अपराध को वे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकते। सहज ही उन्हें छोड़ देना भी उनके लिए असंभव होता है; जितना ही वह देते हैं कि उपदेश का कुछ फल नहीं हो रहा है उतना ही उनकी हठ बढ़ती जाती है और वह लगातार आक्रमण करते जाते हैं। जैसे जब तक चाभी न खत्म हो जाय तब तक मशीन नहीं रुकती, वैसे ही वे भी किसी तरह अपने को नहीं सँभाल सकते। जो कान उनसे विमुख हैं उनमें एक ही बात को हज़ार बार दुहराकर भी वह हार मानना नहीं चाहते। इससे सुचरिता को बड़ा कष्ट होता- अपने लिए नहीं, परेशबाबू के लिए। सारे ब्रह्म-समाज में परेशबाबू टीका-टिप्पणी के विषय हो गए हैं, इस अशांति को कैसे दूर किया जा सकता है? दूसरी ओर सुचरिता की मौसी भी प्रतिदिन समझती जा रही थीं कि व
ह जितना ही झुककर अपने को बचा रखने की कोशिश करती हैं, उतना ही इस परिवार के लिए और भी समस्या बनती जाती हैं। इसको लेकर मौसी की लज्जा और संकोच सुचरिता को बेचैन किए रहते। इस संकट से कैसे छुटकारा हो, यह सुचरिता किसी तरह सोच नहीं पाती। इधर शीघ्र ही सुचरिता का विवाह कर डालने के लिए वरदासंदरी परेशबाबू पर बहुत दबाव डालने लगीं। उन्होंने कहा, "सुचरिता की ज़िम्मेदारी अब हम लोग और नहीं उठा सकते, क्योंकि वह अपने मनमाने ढंग से चलने लगी है। उसके विवाह में यदि अभी देर हो तो बाकी लड़कियों को लेकर मैं और कहीं चली जाऊँगी- सुचरिता का अद्भुत उदाहरण लड़कियों के लिए बहुत ही कुप्रभावी सिध्द होगा। तुम देखना, इसके लिए आगे चलकर तुम्हें पछताना पड़ेगा। ललिता पहले ऐसी नहीं थी, अब तो जो उसके मन में आता है कर बैठती है, किसी की नहीं सुनती, सोचो, उसकी जड़ में क्या है? उस दिन जो करनी वह कर बैठी उसके लिए मैं शर्म से मरी जा रही हूँ। तुम्हारा क्या ख्याल है कि उसमें सुचरिता का कोई हाथ नहीं था? तुम हमेशा सुचरिता को ही अधिक चाहते रहे हो, तब भी मैंने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन अब और ऐसा नहीं चलेगा यह मैं स्पष्ट कहे देती हूँ।" सुचरिता के लिए तो नहीं किंतु पारिवारिक अशांति के कारण परेशबाबू चिंतित हो उठे। वरदासुंदरी जिस बात को पकड़ लेंगी उसे पूरा करने की कोई कोशिश बाकी न रखेंगी और जितना ही देखेंगी कि आंदोलन से कोई नतीजा नहीं निकलता है उतना ही और हठ पकड़ती जाएँगी, इसमें उन्हें कोई संदेह नहीं था। सुचरिता का विवाह किसी तरह जल्दी हो सके तो वर्तमान अवस्था में सुचरिता के लिए भी वह शांति-दायक हो सकता है, इसमें भी संदेह नहीं। उन्होंने वरदासुंदरी से कहा, "अगर पानू बाबू सुचरिता को राज़ी कर सकें तो विवाह के बारे में मैं कोई आपत्ति नहीं
करूँगा।" वरदासुंदरी ने कहा, "और कितनी बार उसे राज़ी करना होगा? तुम तो हद करते हो! और इतनी खुशामद भी किसलिए? मैं पूछती हूँ, पानू बाबू जैसा पात्र तुम्हें और मिलेगा कहाँ? चाहे तुम गुस्सा ही करो, लेकिन सच बात यही है कि सुचरिता पानू बाबू के योग्य नहीं है!" परेशबाबू बोले, "सुचरिता के मन का भाव पानू बाबू के प्रति कैसा है, यह मैं ठीक-ठीक नहीं समझ सका। इसीलिए जब तक वे लोग आपस में ही बात साफ़ न कर लें, तब तक मैं इसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता।" वरदासुंदरी ने कहा, "नहीं समझ सके! इतने दिन बाद आख़िर स्वीकार करना ही पड़ा। उस लड़की को समझना आसान नहीं है- वह बाहर से कुछ और है, भीतर से कुछ और!" वरदासुंदरी ने हरानबाबू को बुला भेजा। अख़बार में उस दिन ब्रह्म-समाज की वर्तमान दुर्गति की आलोचना छपी थी। उसी में परेशबाबू के परिवार की ओर से ऐसे इशारा किया गया था कि कोई नाम न रहने पर भी यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया था कि आक्रमण किस पर किया गया है। और लिखने के ढंग से यह अनुमान करना भी मुश्किल न था कि उसका लेखक कौन है। एक बार उसे सरसरी नज़र से देखकर सुचरिता उस अख़बार के टुकड़े-टुकड़े कर रही थी। उसे इतना क्रोध आ रहा था मानो फाड़ते-फाड़ते अख़बार की चिंदियों को जब तक कणों में परिणत न कर लेगी तब तक रुकेगी नहीं। उसी समय हरानबाबू आकर एक कुर्सी खींचकर सुचरिता के पास बैठ गए। एक बार चेहरा उठाकर भी सुचरिता ने नहीं देखा, जैसे अखबार फाड़ रही थी वैसे ही फाड़ती रही। हरानबाबू बोले, "सुचरिता, आज एक गंभीर बात करनी है। मेरी बात ज़रा ध्यान से सुननी होगी।" सुचरिता काग़ज़ फाड़ती रही। हाथों से जब और टुकड़े करना असंभव हो गइया, तब कैंची निकालकर उससे और टुकड़े करने लगी। ठीक इसी समय ललिता ने कमरे में प्रवेश किया। हरानबाबू ने कहा, "ललिता, मुझे सुचरिता से कुछ बात करनी है।" ललिता कमरे से जाने लगी, तो सुचरिता ने उसका ऑंचल पकड़ लिया। ललिता ने कहा, "पानू बाबू को तुमसे कुछ बात जो करनी है।" कोई जवाब दिए बिना सुचरिता ललिता का ऑंचल पकड़े रही। इस पर ललिता सुचरिता के आसन के कोने पर बैठ गई। हरानबाबू किसी भी बाधा से दबने वाले शख़्स नहीं हैं। उन्होंने और भूमिका बाँधे बिना सीधे ही बात छेड़ दी। बोले, "विवाह में और देर करना मैं उचित नहीं समझता। परेशबाबू से मैंने कहा था, उन्होंने कहा है कि तुम्हारी सम्मति मिलते ही और कोई बाधा न रहेगी। मैंने तय किया है कि इस रविवार से अगले रविवार को ही.... " उन्हें बात पूरी न करने देकर सुचरिता ने कहा, "नहीं।" सुचरिता के मुँह से यह अत्यंत संक्षिप्त लेकिन स्पष्ट और उध्दत 'नहीं' सुनकर हरानबाबू चौंक गए। वह सुचरिता को अत्यंत आज्ञाकारिणी ही जानते आए थे। वह अपनी एकमात्र 'नहीं' के बाण से उनके प्रस्ताव को आधे रास्ते में ही बेधकर ध्वस्त कर देगी, इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने रुखाई से पूछा, "नहीं! नहीं माने क्या? तुम और देर करना चाहती हो?" सुचरिता ने कहा, 'नहीं।" विस्मित होकर हरानबाबू ने कहा, "तो फ
िर?" सिर झुकाकर सचरिता ने कहा, "विवाह में मेरी सम्मति नहीं सके माने?" व्यंग्यपूर्वक ललिता ने कहा, "पानू उसे बाबू, आज आप बंगला भाषा भूल गए हैं क्या?" एक कठोर दृष्टि से हरानबाबू ने ललिता को चुप करना चाहते हुए कहा, "मातृभाषा भूल गया हूँ यह बात स्वीकार करना उतना कठिन नहीं है जितना यह स्वीकार करना कि जिस व्यक्ति की बात पर हमेशा विश्वास करता आया हूँ उसे मैंने ग़लत समझा।" ललिता ने कहा, "व्यक्ति को समझने में समय लग़ता है, शायद यह बात आपके बारे में भी कही जा सकती है।" हरानबाबू बोले, "मेरी बात या राय या व्यवहार में शुरू से ही कभी कोई भेद नहीं रहा है- कभी मैंने किसी को ग़लत समझने का कोई अवसर नहीं दिया, यह बात मैं ज़ोर देकर कह सकता हूँ। सुचरिता ही कहे कि मैं सही कह रहा हूँ या नहीं।" ललिता फिर कुछ जवाब देने जा रही थी कि उसे रोकते हुए सुचरिता ने कहा, "आप ठीक कहते हैं। आपको मैं कोई दोष नहीं देती।" हरानबाबू ने कहा, "अगर दोष नहीं देतीं तो फिर मेरे साथ ऐसी ज्यादती क्यों करती है?" दृढ़ स्वर में सुचरिता ने कहा, "अगर आप इसे ज्यादती कहते हैं तो मेरी ज्यादती ही है.... लेकिन...." तभी बाहर से पुकार आई, "दीदी, आप कमरे में हैं?" सुचरिता ने चहककर जल्दी से उठते हुए कहा, "आइए, विनय बाबू, आइए।" "आप भूल रही हैं, दीदी! विनय बाबू नहीं आए हैं, निरा विनय आया है, मुझे मान देकर शर्मिंदा न करें", कहते हुए विनय ने कमरे में प्रवेश करते ही हरानबाबू को देखा। हरानबाबू के चेहरे पर अप्रसन्नता देखकर बोला, "मैं इतने दिन आया नहीं, शायद इसलिए नाराज़ हो रहे हैं?" हँसी में योग देने की कोशिश करते हुए हरानबाबू ने कहा, "नाराज़गी की बात तो है ही। लेकिन आज ज़रा असमय में आए हैं- सुचरिता के साथ मेरी कुछ ख़ास बात हो रही थी।" हड़बड़ाकर
विनय उठ खड़ा हुआ। बोला, "यही देखिए न, मेरे कब आने से असमय आना नहीं होगा मैं यह आज तक समझ ही नहीं सका। इसीलिए कभी आने का ही साहस नहीं होता", कहकर विनय बाहर जाने को मुड़ा। सुचरिता ने कहा, "विनय बाबू, जाइए नहीं, हमारी जो बात थी खत्म हो गई है। आप बैठिए!" विनय समझ गया कि उसके आने से सुचरिता को एक विशेष संकट से छुटकारा मिल गया है। वह खुश होकर एक कुर्सी पर बैठ गया और बोला, "मुझे प्रश्रय देने से मैं किसी तरह विमुख नहीं रह सकता- मुझे बैठने को कहने पर मैं ज़रूर बैठूगा, मेरा ऐसा ही स्वभाव है। इसीलिए दीदी से यही मेरा निवेदन है कि ऐसी बात मुझे सोच-समझकर ही कहें, नहीं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे।" कुछ कहे बिना हरानबाबू ऑंधी से पहले के सन्नाटे-जैसे स्तब्ध बैठे रहे। उनका मन मानो कह रहा था- अच्छी बात है, मैं बैठकर इंतज़ार करता हूँ। मुझे जो कहना है पूरा कहकर ही उठूँगा। द्वार के बाहर से ही विनय का कंठ-स्वर सुनकर ललिता के हृदय में जैसे खलबली मच गई थी। वह अपना सहज स्वाभाविक भाव बनाए रखने की बड़ी कोशिश कर रही थी किंतु सफल नहीं हो रही थी। विनय जब कमरे में आ गया तब ललिता परिचित बंधु की तरह सहज भाव से कोई बात उससे न कह सकी। वह किधर देखे, अपने हाथों को क्या करे, यही मानो एक समस्या हो गई थी। एक बार उसने उठकर चलने की कोशिश की, किंतु सुचरिता ने किसी तरह उसका पल्ला न छोड़ा। विनय ने भी जो कुछ बातचीत की, सुचरिता से ही- ललिता से कोई बात चलाना आज उस जैसे वाक् पटु व्यक्ति के लिए भी मुश्किल हो उठा। मानो इसी कारण वह दुगुने ज़ोर से सुचरिता के साथ बातचीत करने लगा- बातों का क्रम उसने कहीं टूटने न दिया। लेकिन ललिता और विनय का यह नया संकोच हरानबाबू से छिपा न रहा। जो ललिता आजकल उनके प्रति इतनी प्रगल्भ हो उठी है वही आज विनय के सामने इतनी सकुचा रही है, यह देखकर मन-ही-मन वह जल उठे। ब्रह्म-समाज के बाहर के लोगों से लड़कियों को मिलने की खुली छूट देकर अपने परिवार को परेशबाबू कैसे ग़लत रास्ते पर ले जा रहे हैं- यह सोचकर उनकी घृणा परेशबाबू के प्रति और भड़क उठी और अभिशाप-सी यह कामना मन में जाग उठी कि एक दिन परेशबाबू को इसके लिए विशेष पश्चात्ताप करना पड़े। ऐसे ही बहुत देर तक रहने पर यह बात स्पष्ट हो गई कि हरानबाबू टलने वाले नहीं हैं। तब सुचरिता ने विनय से कहा, "मौसी की बात मुझे याद नहीं है, ऐसा झूठा इलज़ाम मुझ पर न लगाइए!" जब सुचरिता विनय को अपनी मौसी के पास ले गई तब ललिता ने कहा, "पानू बाबू, मैं समझती हूँ, मुझसे तो आपको कोई ख़ास काम होगा नहीं।" हरानबाबू ने कहा, "नहीं। लेकिन जान पड़ता है और कहीं तुम्हें कुछ ख़ास काम है- तुम जा सकती हो।" ललिता यह इशारा समझ गई। तत्काल ही उध्दत भाव से सिर उठाकर इशारे को बिल्कुल स्पष्ट करते हुए कहा, "आज विनय बाबू बहुत दिन बाद आए हैं, उनसे बातें करने जा रही हूँ। तब तक यदि आप अपना ही लिखा हुआ पढ़ना चाहते हों तो- लेकिन नहीं, वह अख़बार तो देखती हूँ कि दीदी ने काट-कूटकर फेंक दिया है। दू
सरे का कुछ लिखा हुआ आप सह सकते हों तो ये चीज़ें देख सकते हैं।" कहकर कोने की मेज़ पर से सँभालकर रखी हुई गोरा की रचनाएँ हरानबाबू के सामने रखती हुई वह तेज़ी से बाहर निकल गई। हरिमोहिनी विनय को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुईं। वह केवल इसलिए नहीं कि इस प्रियदर्शन युवक के प्रति उन्हें स्नेह था, इसलिए भी कि इस घर के जो भी लोग हरिमोहिनी के पास आए हैं, सभी उन्हें मानो किसी दूसरी ही श्रेणी के प्राणी की तरह देखते रहे है। वे सभी कलकत्ता के लोग रहे हैं अंग्रेजी और बंगला की लिखाई-पढ़ाई में प्रायः सभी उनसे श्रेष्ठ। उनकी दूरी और अवज्ञा के आघात से वह सदा संकुचित होती रही हैं। विनय में मानो उन्हें इससे आश्रय मिल गया हो। विनय भी कलकत्ता का ही है, और हरिमोहिनी ने सुन रखा है कि पढ़ने में वह किसी से कम नहीं है- फिर भी उनके प्रति विनय अश्रध्दा नहीं रखता, बल्कि अपनापा रखता है, इससे उनके आत्म-सम्मान को एक सहारा मिला। इसीलिए विनय थोड़े से परिचय से ही उनके लिए आत्मीय-सा हो गया। उन्हें ऐसा लगने लगा कि विनय उनका कवच बनकर दूसरों की उध्दतता से उनकी रक्षा करेगा। वह इस घर में मानो सभी की ऑंखों से बहुत अधिक खटकती रही थीं- और विनय उन्हें ओट देकर बचाए रखेगा। हरिमोहिनी के पास विनय के जाने के तुरंत बाद ललिता वहाँ कभी न जाती- लेकिन आज वह हरानबाबू के विद्रूप की चोट से सारा संकोच छोड़कर मानो हठपूर्वक ऊपर के कमरे में गई। केवल गई ही नहीं, जाते ही उसने विनय के साथ बातचीत की झड़ी लगा दी। नकी महफिल खूब जम गई, यहाँ तक कि उनकी हँसी का स्वर बीच-बीच में निचले कमरे में अकेले बैठे हुए हरानबाबू के कानों से होता हुआ उनके मर्मस्थल को बेधने लगा। अधिक देर तक वह अकेले न बैठ सके। वरदासुंदरी से बातचीत करके अपना गुस्सा प्रकट करने की चेष्टा कर
ने लगे। वरदासुंदरी ने जब सुना कि सुचरिता ने हरानबाबू के साथ विवाह के बारे में अपनी असहमति प्रकट की है तो यह सुनकर उनके लिए धैर्य रख पाना असंभव हो गया। बोलीं "पानू बाबू, भलमनसाहत दिखाने से यहाँ नहीं चलेगा। जब वह बार-बार सम्मति दे चुकी है और पूरा ब्रह्म-सूमाज जब इस विवाह की प्रतीक्षा कर रहा है, तब आज उसके सिर हिला देने से ही यह सब बदल जाय, ऐसा होने देने से नहीं चलेगा। आप किसी तरह अपना अधिकार न छोड़ें, मैं कहे देती हूँ। देखूँ वह क्या कर लेगी।" हरानबाबू को इस मामले में बढ़ावा देने की कोई ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि वह पहले ही काठ की तरह अकड़कर बैठे हुए सिर उठाए मन-ही-मन कह रहे थे- सिध्दांततः अपना दावा छोड़ने से नहीं चलेगा-सुचरिता का त्याग मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन ब्रह्म-समाज का सिर नीचा नहीं होने दूँगा। हरिमोहिनी के साथ आत्मीयता पक्की करने के लिए विनय कुछ खाने की हठ लगाए बैठा था। हरिमोहिनी ने हड़बड़ाकर एक छोटी थाली में थोड़े-से भिगोए हुए चने, छैना, मक्खन, थोड़ी-सी चीनी और एक केला, और काँसे के कटोरे में थोड़ा दूध लाकर विनय के सामने रख दिया। विनय ने हँस कर कहा, "मैंने तो सोचा था बेवक्त भूख की बात कहकर मौसी को मुश्किल में डालूँगा, लेकिन मैं ही पकड़ा गया।' यह कहकर विनय ने बड़े आडंबर के साथ खाना शुरू किया ही था कि उसी समय वरदासुंदरी आ पहुँचीं। अपनी थाली पर भरसक झुककर विनय ने नमस्कार करते हुए कहा, "मैं तो बहुत देर से नीचे था, आपसे भेंट नहीं हुई।" उसे कोई जवाब न देकर वरदासुंदरी ने सुचरिता की ओर लक्ष्य करके कहा, "यह तो यहाँ बैठी है। मैं पहले ही समझ गई थी कि यहाँ मजलिस जमी है- मजे हो रहे हैं। उधर बेचारे हरानबाबू सबेरे से इनका रास्ता देखते बैठे हैं, जैसे वह इनके बगीचे के माली हों। बचपन से सबको पाल-पोसकर बड़ा किया- उनमें से तो किसी को ऐसा व्यवहार करते कभी देखा नहीं। आजकल न जाने यह सब कहाँ से सीख रही हैं। हमारे परिवार में जो कभी न हो सकता, आज-कल वही सब शुरू हो गया है- समाज में मुँह दिखाने लायक़ न रहे। इतने दिनों से इतनी मेहनत से जो कुछ सिखाया था दो दिन में सब चौपट कर दिया! कैसा अंधेरा है!" हड़बड़ाकर हरिमोहिनी ने उठते हुए सुचरिता से कहा, "नीचे कोई बैठे हैं, मुझे तो मालूम नहीं था। यह तो बड़ी भूल हो गई। बेटी, तुम जाओ, जल्दी जाओ-मुझसे बड़ा अपराध हो गया।" हरिमोहिनी का बिल्कुल अपराध नहीं है, ललिता यह कहने के लिए उसी क्षण तैयार हो गई, लेकिन सुचरिता ने छिपे-छिपे उसका हाथ पकड़ कर ज़ोर से दबाकर उसे चुप करा दिया और कोई जवाब दिए बिना नीचे चली गई। यह पहले ही बताया जा चुका है कि वरदासुंदरी का स्नेह विनय ने अपनी ओर कर लिया था। उनके परिवार के प्रभाव में आकर आगे चलकर विनय ब्रह्म-समाज में प्रवेश करेगा, इसमें वरदासुंदरी को शक नहीं था। वह विनय को मानो अपने हाथों से गढ़कर बना रही हैं, इसका गर्व भी उन्हें था, वह गर्व उन्होंने अपने किसी-किसी बंधु के सामने प्रकट भी किया था। आज उसी विन
य को दुश्मन के शिविर में प्रतिष्ठित देखकर उनके मन में जलन हुई, और अपनी ही लड़की ललिता को विनय के फिर से पतन में सहायता करते देखकर उनके भीतर की ज्वाला और भी भड़क उठी। उन्होंने रूखे स्वर में कहा, "ललिता, यहाँ क्या तुम्हारा कोई काम है?" ललिता ने कहा, "हाँ, विनय बाबू आए हैं इसलिए.... " वरदासुंदरी ने कहा, "जिनके पास विनय बाबू आए हैं वही उनकी खातिर करेंगी। तुम नीचे चलो, काम है।" मन-ही-मन ललिता ने तय किया कि हरानबाबू ने ज़रूर विनय का और उसका नाम लेकर माँ से कुछ ऐसी बात कही है जिसे कहने का उन्हें कोई अधिकार नहीं हैं इस अनुमान से उनका मन अत्यंत सख्त पड़ गया और उसने अनावश्यक ढिठाई से कहा, "विनय बाबू बहुत दिनों के बाद आए हैं, उनसे दो-चार बाते कर लूँ, फिर आती हूँ।" वरदासुंदरी ललिता के बात कहने के ढंग से यह समझ गईं कि ज़बरदस्ती नहीं चलेगी। कहीं हरिमोहिनी के सामने ही उनकी हार न हो जाए, इस भय से कुछ और कहे बिना और विनय से कोई बात किए बिना वह चली गईं। विनय के साथ बातें करने का उत्साह माँ के सामने तो ललिता ने प्रकट किया किंतु वरदासुंदरी के जाते ही उस उत्साह का कोई चिन्ह न दीखा। तीनों जने कुछ कुंठित से हो रहे। ललिता थोड़ी देर बाद ही उठकर चली गई, अपने कमरे में जाकर उसने दरवाज़ा बंद कर लिया। हरिमोहिनी की अवस्था इस घर में कैसी हो गई है यह विनय अच्छी तरह समझ गया। बातों-ही-बातों में हरिमोहिनी का पिछला सारा इतिहास भी उसने जान लिया। सारी बात सुनकर हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा, मुझ जैसी अनाथिनी के लिए दुनिया में रहना ही ठीक नहीं है। किसी तीर्थ में जाकर देव-सेवा में मन लगा सकती तो वही मेरे लिए अच्छा होता। मेरी जो थोड़ी-बहुत पूँजी बची है उससे कुछ दिन चल जाता, उसके बाद भी बची रहती तो किसी घर का चौका-बासन करके
भी किसी तरह दिन कट जाते। काशी में देख आई हूँ, इसी तरह बहुतों का जीवन कट जाता है। लेकिन मैं पापिनी हूँ इसीलिए वैसा नहीं कर सकी। जब अकेली होती हूँ तो मेरे सारे दुःख मुझे घेर लेते हैं-देवता-ठाकुर को भी मेरे पास नहीं आने देते। डरती हूँ कि कहीं पागल न हो जाऊँ। डूबते हुए को तिनके का जैसा सहारा होता है, मेरे लिए राधारानी और सतीश भी वैसे हो गए हैं-उन्हें छोड़ने की बात सोचते ही प्राण मुँह को आ जाते हैं। इसीलिए दिन-रात मुझे डर रहता है कि उन्हें छोड़ना ही होगा, नहीं तो सब खोकर फिर कुछ-एक दिनों में इतनी ममता उनसे क्यों हो जाती! बेटा, तुमसे कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है, जब से इन दोनों को पाया है तब से ठाकुर की पूजा पूरे मन से कर सकी हूँ- ये चले गए तो मेरे ठाकुर भी निरे पत्थर हो जाएँगे।" कहते-कहते हरिमोहिनी ने ऑंचल से ऑंखें पोंछ लीं। निचले कमरे में आकर सुचरिता हरानबाबू के सामने खड़ी हो गई। बोली, "आप को क्या कहना है, कहिए।" हरानबाबू बोले, बैठो!" सुचरिता बैठी नहीं, वैसे ही खड़ी रही। हरानबाबू ने कहा, "सुचरिता, तुमने मेरे साथ अन्याय किया है।" सुचरिता ने कहा, "आपने भी मेरे साथ अन्याय कियाहै।" हरानबाबू ने कहा, "क्यों, मैंने तुम्हें वचन दिया था और अब भी.... " बात काटते हुए सुचरिता ने कहा, "न्याय-अन्याय क्या केवल वचन से ही होता है? उसी वचन पर ज़ोर देकर तो आप मुझ पर अत्याचार करना चाहते हैं? एक सत्य क्या हज़ार झूठ से बड़ा नहीं है? अगर सौ बार भी मैंने भूल की हो तो तब भी क्या आप ज़बरदस्ती उस भूल को ही आगे रखेंगे? आज जब मैंने अपनी वह भूल जान ली है तब मैं अपनी पहले की कोई बात नहीं मानूँगी- उसे मानना ही अन्याय होगा।" ऐसा परिवर्तन सुचरिता में कैसे हो सकता है, किसी तरह हरानबाबू यह नहीं समझ सके। सुचरिता की स्वाभाविक नम्रता ओर मौन के इस तरह भंग हो जाने का कारण वह स्वयं हैं, यह समझने की उनमें न शक्ति थी, न श्रध्दा। मन-ही-मन सुचरिता के नए साथियों को दोष देते हुए उन्होंने पूछा, "तुमने क्या भूल की थी?" सुचरिता ने कहा, "यह मुझसे क्यों पूछते हो? पहले मेरी सम्मति थी और अब नहीं है, इतना ही क्या काफ़ी नहीं है?" हरानबाबू ने कहा, "ब्रह्म-समाज के सामने भी तो हम जवाबदेह हैं। समाज के लोगों के सामने तुम क्या कहोगी, मैं भी क्या कहूँगा?" सुचरिता ने कहा, 'मैं तो कुछ भी नहीं कहूँगी। आप कहना चाहें तो कह दीजिएगा-सुचरिता की उम्र कम है, उसे अक्ल नहीं है, उसकी मति चंचल है। जो चाहें सो कह दीजिएगा। लेकिन इस बारे में हमारी बातचीत यहीं खत्म हो गई समझे।" हरानबाबू बोले, "बात खत्म कैसे हो सकती है? अगर परेशबाबू...." उनके यह कहते समय ही परेशबाबू आ गए। बोले, "क्या है पानू ने कहा, "सुचरिता, जाओ मत, परेशबाबू के सामने ही बात हो जाय।" सुचरिता लौटकर खड़ी हो गई। हरानबाबू ने कहा, "परेशबाबू, इतने दिन बाद आज सुचरिता कह रही हैं कि विवाह में उनकी सम्मति नहीं है। इतनी बड़ी, इतनी गंभीर बात को लेकर इतने दिन तक खिलवाड़ करना क्या उचि
त हुआ है? और आप भी क्या इस लज्जाजनक बात के लिए उत्तरदाई नहीं हैं?" सुचरिता के सिर पर हाथ फेरते हुए परेशबाबू ने स्निग्ध स्वर में कहा, "बेटी, तुम्हारे यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं है, तुम जाओ।" क्षण-भर में इस छोटी-सी बात से सुचरिता की ऑंखों में ऑंसू भर आए और वह जल्दी से चली गई। परेशबाबू ने कहा, "सुचरिता ने अच्छी तरह अपने मन को समझे बिना ही विवाह की सम्मति दी थी, यह संदेह बहुत दिन से मेरे मन में था। इसीलिए समाज के लोगों के सामने आपका संबंध पक्का करने के बारे में आपका अनुरोध मैं अभी तक नहीं मान सका था।" हरानबाबू ने कहा "तब सुचरिता ने अपना मन ठीक समझकर ही राय दी थी और अब बिना समझे 'ना' कह रही है, ऐसा संदेह आपको नहीं होता?" परेशबाबू बोले, "दोनों ही बातें हो सकती हैं, लेकिन संदेह की हालत में तो विवाह नहीं हो सकता।" हरानबाबू बोले, "सुचरिता को आप कोई नेक सलाह न देंगे?" परेशबाबू ने कहा, "आप निश्चित ही जानते हैं कि सुचरिता को मैं भरसक ग़लत सलाह नहीं दूँगा।" हरानबाबू ने कहा, "अगर यही बात होती तो सुचरिता की यह हालत कभी न होती। आपके परिवार में जैसी-जैसी बातें आजकल होने लगी हैं सब आपकी लापरवाही का ही नतीजा है, यह बात मैं आपके मुँह पर कहता हूँ।" मुस्कराकर परेशबाबू बोले, "आपकी यह बात तो ठीक ही है। अपने परिवार की अच्छाई-बुराई की सारी ज़िम्मेदारी मैं न लूँगा तो कौन लेगा?" हरानबाबू बोले, "इसके लिए आपको पछताना पड़ेगा- यह मैं कहे देता हूँ।" परेशबाबू ने कहा, "पछतावा तो ईश्वर की दया है, पानू बाबू! मैं अपराध से ही डरता हूँ, पश्चाताप से नहीं।" कमरे में आकर सुचरिता ने परेशबाबू का हाथ पकड़कर कहा, "बाबा उपासना का वक्त हो गया है।" परेशबाबू ने पूछा, "पानू बाबू, आप ज़रा बैठेंगे?" हरानबाबू बोले, "नहीं!" और शीघ्र
ता से चले गए। अपने अंतस् के साथ और बाहरी परिस्थिति के साथ, एक साथ ही सुचरिता का जो संघर्ष आरंभ हो गया था उससे वह भयभीत हो गई थी। गोरा के प्रति उसके मन का जो भाव इतने दिनों से उसके अजाने गहरा होता जाता था, और गोरा के जेल जाने के बाद से जो उसके सामने बिल्कुल स्पष्ट और दुर्निवार हो उठा था, उसे वह कैसे सँभाले, उसका क्या परिणाम होगा, यही वह सोच नहीं पा रही थी। न इसकी बात वह किसी से कह सकती थी, भीतर-ही-भीतर कुंठित होकर रह जाती थी। अपनी इस गहरी वेदना को लेकर वह अकेली बैठकर अपने साथ किसी तरह का समझौता कर सके, इसका भी अवकाश उसे नहीं मिला था, क्योंकि हरानबाबू सारे समाज को भड़काकर उसके द्वार पर जुटाने का प्रयास कर रहे थे। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में डोंडी पिटवाने के भी लक्षण दीख रहे थे। इन सबके ऊपर सुचरिता की मौसी की समस्या ने भी कुछ ऐसा रूप ले लिया था कि उसका बहुत जल्दी कोई हल निकाले बिना काम नहीं चल सकता था। सुचरिता ने समझ लिया था कि अब उसका जीवन एक संधि-स्थल पर आ पहुँचा है जहाँ से आगे चिर-परिचित मार्ग पर अपने अभ्यस्त निश्चिंत भाव से और नहीं चला जा सकेगा। इस संकट के समय एकमात्र परेशबाबू ही उसके अवलंबन थे। उसने उनसे कोई सलाह या उपदेश नहीं माँगा। बहुत-सी बातें ऐसी थीं जिन्हें वह परेशबाबू के साने नहीं रख सकती थी, और कुछ बातें ऐसी थीं जो अपनी लज्जाजनक हीनता के कारण ही इस लायक़ नहीं थीं। परेशबाबू का संग ही चुपचाप उसे जैसे पिता की गोद में या माता के वक्ष की ओर खींच लेता था। इस संकट के समय एकमात्र परेशबाबू ही उसके अवलंबन थे उसने उनसे कोई सलाह या उपदेश नहीं माँगा। बहुत-सी बातें ऐसी थीं जिनहें वह परेशबाबू के सामने नहीं रख सकती थी, और कुछ बातें ऐसी थीं जो अपनी लज्जाजनक हीनता के कारण ही इस लायक़ नहीं थी। परेशबाबू का संग ही चुपचाप उसे जैसे पिता की गोद में या माता के वक्ष की ओर खींच लेता था। परेशबाबू जाड़े के दिन होने के कारण अब साँझ को बगीचे में नहीं जाते थे। घर के पश्चिम की ओर के छोटे कमरे में खुले दरवाज़े क़े सामने आसन बिछाकर वह उपासना के लिए बैठते थे, पके बालों से मंडित उनके शांत चेहरे पर सूर्यास्त की आभा पड़ती रहती थी। सुचरिता उस समय दबे-पैरों से आकर चुपचाप उनके पास बैठ जाती थी। अपने अशांत व्यथित चित्त को वह परेशबाबू की उपासना की गहराई में डुबा देती थी। आजकल उपासना के बाद परेशबाबू अक्सर ही देखते कि उनकी यह कन्या, यह छात्र चुपचाप उनके पास बैठी है। उस समय इस बालिका को वह एक अनिर्वचनीय आध्यात्मिक मधुरता से घिरी हुई देखकर पूरे अंतःकरण से उसे नीरव आशीर्वाद देने लगते थे। ईश्वर से मिलन ही एकमात्र परेशबाबू के जीवन का लक्ष्य था, इसलिए उनका चित्त हमेशा उसी की ओर उन्मुख रहता था जो कि सत्यतम और श्रेयतम हो। इसीलिए उनके लिए संसार कभी असह्य नहीं होता था। इस प्रकार उन्होंने अपने भीतर ही एक स्वाधीनता प्राप्त कर ली थी। इसी कारण मत अथवा आचरण के मामले में किसी दूसरे के प्रति वह किसी तरह की ज
़बरदस्ती नहीं कर सकते थे। मंगलमय के प्रति निर्भरता और समाज के प्रति धैर्य उनके लिए अत्यंत स्वाभाविक था। यह धैर्य उनमें इतना प्रबल था कि साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग उनकी बुराई करते थे। लेकिन वह बुराई को भी ऐसे ग्रहण कर सकते थे कि वह उन्हें चोट भले ही पहुँचाए, किंतु विचलित नहीं कर सकती थी। वह रह-रहकर एक ही बात की आवृत्ति मन-ही-मन किया करते थे, "मैं और किसी के हाथ से कुछ नहीं लूँगा, सब कुछ उसी ईश्वर के कर-कमलों से लूँगा।" परेशबाबू के जीवन की इस गंभीर निस्तब्ध शांति का स्पर्श पाने के लिए जब-तब कोई-न-कोई कारण निकालकर सुचरिता उनके पास आ जाती। इस अनभिज्ञ कच्ची उम्र में क ओर अपने विद्रोही मन और दूसरी ओर विपरीत परिस्थितियों से बिल्कुल उद्भ्रांत होकर बार-बार वह मन-ही-मन कह उठती- थोड़ी देर बाबा के पैरों में सिर रखकर धरती पर पड़ी रह सकूँ तो मेरा मन शांति से भर उठे। सुचरिता सोचती थी कि मन ही सारी शक्ति को जगाकर अविचलित धैर्य से वह सब आघातों को सह लेगी, और अंत में सभी विरोधी परिस्थितियाँ अपने आप परास्त हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसे अपरिचित पथ पर ही चलना पड़ा। वरदासुंदरी ने जब देखा कि गुस्से या डाँट-फटकार से सुचरिता को डिगाना संभव नहीं है, और परेशबाबू से भी मदद मिलने की कोई आशा नहीं है, तब हरिमोहिनी के प्रति उनका क्रोध बहुत ही भड़क उठा। उनके घर में हरिमोहिनी की उपस्थित उन्हें उठते-बैठते हर समय अखरने लगी। उस दिन उन्होंने पिता की बरसी की उपासना के लिए विनय को भी बुलाया था। उपासना संध्या समय होगी, उसके लिए वह पहले से ही सभागृह सजा रही थी, सुचरिता और अन्य लड़कियाँ भी उनकी सहायता कर रही थी। इसी समय उन्होंने देखा कि विनय पास की सीढ़ी से ऊपर हरिमोहिनी की ओर जा रहा है मन जब बोझिल होता है तब छ
ोटी-सी घटना भी बहुत तूल पकड़ लेती है। विनय का सीधे ऊपर के कमरे की ओर जाना पलभर में ही उनके लिए ऐसा असह्य हो उठा कि घर सजाना छोड़कर तुरंत वह हरिमोहिनी के पास जा खड़ी हुईं। उन्होंने देखा, चटाई पर बैठा विनय आत्मीयों की भाँति घुल-मिलकर हरिमोहिनी से बातें कर रहा है। वरदासुंदरी कह उठीं, "देखो, हमारे यहाँ तक जितने दिन रहना चाहो रहो, मैं तुम्हें अच्छी तरह ही रखूँगी। लेकिन यह मैं कहे देती हूँ कि तुम्हारे उस ठाकुर को यहाँ नहीं रखा जा सकता।" हरिमोहिनी सदा गाँव-देहात में ही रही थी। उनकी ब्रह्म लोगों के बारे में यही धारणा थी कि वे ख्रिस्तानों की ही कोई शाखा है। इसलिए उनके संपर्क में आने के बारे में हरिमोहिनी को सोच-संकोच होना तो स्वाभाविक ही था। लेकिन हरिमोहिनी से मिलने-जुलने में उन लोगों को भी संकोच हो सकता है, यह बात धीरे-धीरे कुछ दिनों से ही उनकी समझ में आ रही थी। उन्हें क्या करना चाहिए, वह इसी की चिंता से व्याकुल हो रही थीं। ऐसे समय में आज एकाएक वरदासुंदरी के मुँह से यह बात सुनकर उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया कि अब और चिंता करने का समय नहीं है, कुछ-न-कुछ निश्चय उन्हें कर लेना चाहिए। पहले उन्होंने सोचा, कलकत्ता में ही कहीं मकान लेकर रहेगी, जिससे बीच-बीच में सुचरिता और सतीश को देखती रह सकें। लेकिन थोड़ी-सी पूँजी में कलकत्ता का खर्च कैसे चलेगा? यों अकस्मात् वरदासुंदरी ऑंधी की तरह आकर चली गईं पर विनय सिर झुकाकर चुपचाप बैठा रहा। थोड़ी देर चुप रकर हरिमोहिनी बोल उठीं, "मैं तीर्थ जाऊँगी- तुममें से कोई मुझे पहुँचा आ सकेगा, बेटा?" विनय ने कहा, "ज़रूर पहुँचा सकूँगा। लेकिन उसकी तैयारी में तो दो-चार दिन लग जाएँगे- तब तक मौसी, तुम चलकर मेरी माँ के पास रहो।" हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा, मेरा बोझ बहुत भारी बोझ है। विधाता ने मेरे सिर पर न जाने क्या गठरी लाद दी है कि मुझे कोई सँभाल नहीं सकता। जब मेरी ससुराल भी मेरा भार नहीं उठा सकी तभी मुझे समझ लेना चाहिए था। लेकिन बेटा, मन बड़ा ही ढीठ है- इस सूनी छाती को भरने के लिए मैं इधर-उधर भटक रही हूँ और मेरा यह खोटा भाग्य भी हर समय मेरे साथ है। अब रहने दो बेटा, और किसी के घर जाने की ज़रूरत नहीं है- जो सारी दुनिया का बोझ ढोते हैं उन्हीं के चरणों में अब मैं भी शरण लूँगी- और कुछ मुझसे अब नहीं होता।" कहती हुई हरिमोहिनी बार-बार ऑंखें पोंछने लगीं। विनय ने कहा, "ऐसा कहने से नहीं चलेगा, मौसी! मेरी माँ से और किसी की तुलना नहीं की जा सकती। अपने जीवन का सारा भार जो भगवान को सौंप दे सकते हैं दूसरों का भार लेते उन्हें कोई क्लेश नहीं होता- जैसे कि मेरी माँ है, या जैसे यहाँ आपने परेशबाबू को देखा है। मैं कुछ नहीं सुनूँगा- एक बार तुम्हें अपने तीर्थ की सैर करा लूँगा, फिर मै तुम्हारा तीर्थ देखने चलूँगा।" हरिमोहिनी ने कहा, "तब पहले एक बार उन्हें ख़बर तो देनी...." विनय ने कहा, "हम लोगों के पहुँचते ही माँ को खबर हो जाएगी-वही तो पक्की खबर होगी।" हरिमोहिनी ने कहा, "तो कल
सबेरे...." विनय ने कहा, "क्या ज़रूरत है? आज रात को ही चला जाए।" संध्या हो रही थी; सुचरिता ने आकर कहा, "विनय बाबू, माँ ने आपको बुला भेजा है। उपासना का समय हो गया है।" विनय ने कहा, "मुझे मौसी से बात करनी है, आज तो नहीं जा सकूँगा।" असल में वरदासुंदरी की उपासना का निमंत्रण आज विनय किसी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि यह सब एक विडंबना है। घबराकर हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा विनय, तुम जाओ। मेरे साथ बातचीत फिर हो जाएगी। पहले तुम्हारा काम हो जाए, फिर आ जाना।" विनय ने समझ लिया कि उसका सभा में न जाना, इस परिवार में जिस विप्लव का सूत्रपात हो चुका है उसे कुछ और बढ़ावा देना ही होगा। इसलिए वह उपासना में चला गया, किंतु उसमें पूरा मन नहीं लगा सका। उपासना के बाद भोज भी था। विनय ने कहा, "आज मुझे भूख नहीं है।" वरदासुंदरी बोलीं, "भूख का क्या दोष है? आप तो ऊपर ही खा-पी आए हैं।" हँसकर विनय ने कहा, "हाँ, लालची लोगों का यही हश्र होता है। जो सामने है उसके लालच में भविष्य खो बैठते हैं।" कहकर वह जाने लगा। वरदासुंदरी ने पूछा, "शायद ऊपर जा रहे हैं?" संक्षेप में विनय 'हाँ' कहकर बाहर हो गया। दरवाज़े के पास ही सुचरिता थी, मृदु स्वर में उससे बोला, "दीदी, एक बार मौसी के पास आइएगा, कुछ ख़ास बात करनी है।" ललिता आतिथ्य में व्यस्त थी। एक बार हरानबाबू के निकट उसके आते ही वह अकारण कह उठे, "विनय बाबू तो यहाँ पर नहीं हैं, वह तो ऊपर गए हैं।" ललिता यह सुनकर वहीं खड़ी हो गई और उनके चेहरे की ओर ऑंखें उठाती हुई बिना संकोच बोली, "मुझे मालूम है। मुझसे मिले बिना वह नहीं जाएँगे। यहाँ का काम ख़त्म कर मैं अभी ऊपर जाऊँगी।" ललिता को वह ज़रा भी कुंठित न कर सके, इससे हरान के भीतर घुटती हुई जलन और भी बढ़ गई। विनय सहसा
सुचरिता को क्या कह गया जिसके थोड़ी देर बाद ही सुचरिता भी उसके पीछे चली गई, यह भी हरानबाबू ने देख लिया। आज वह सुचरिता से बात करने का मौक़ा पाने में कई बार विफल हो चुके थे- दो-एक बार तो सुचरिता उनका स्पष्ट आह्नान ऐसे टाल गई थी कि हरानबाबू ने सभा में जुटे हुए लोगों के सामने अपने को अपमानित अनुभव किया था। इससे उनका मन और भी बेचैन था। ऊपर जाकर सुचरिता ने देखा, हरिमोहिनी अपना सब सामान समेटकर इस तरह बैठी थीं मानो इसी समय कहीं जाने वाली हों। सुचरिता ने पूछा, "मौसी यह क्या?" हरिमोहिनी उसे कोई उत्तर न दे सकीं, रोती हुई बोलीं, "सतीश कहाँ है- एक बार उसे बुला दो, बेटी!" सुचरिता ने विनय के चेहरे की ओर देखा। विनय ने कहा, "इस घर में सभी को मौसी के रहने से असुविधा होती है, मैं इसीलिए उन्हें माँ के पास ले जा रहा हूँ।" हरिमोहिनी ने कहा, "वहाँ से मैं तीर्थ जाने की सोच रही हूँ। मुझ जैसी का यों किसी के घर में रहना ठीक नहीं है। हमेशा के लए कोई मुझे ऐसे रखने भी क्यों लगा?" स्वयं सुचरिता यह बात कुछ दिनों से सोच रही थी। इस घर में रहना उसकी मौसी के लिए अपमानजनक है, यह उसने जान लिया था। इसलिए वह कोई जवाब न दे सकी, चुपचाप उनके पास जाकर बैठ गई। रात हो गई थी, कमरे में दिया नहीं जलाया गया था। कलकत्ता के हेमंत के मटमैले आकाश में तारे धुँधले हो रहे थे। किस-किस की ऑंखों से ऑंसू बहते रहे, यह अंधकार में देखा न जा सका। सीढ़ियों पर से सतीश की तीखी पुकार सुनाई पड़ी, "मौसी!" "क्या बेटा, आओ बेटा", कहती हुई हरिमोहिनी हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं। सुचरिता ने कहा, "मौसी, आज रात तो कहीं जाना नहीं हो सकता। कल सबेरे सब तय होगा। ठीक से बाबा से कहे बिना तुम कैसे जा सकती हो भला? यह तो बड़ी ज्यादती होगी।" वरदासुंदरी के हाथों हरिमोहिनी के अपमान से उत्तेजित विनय ने यह बात नहीं सोची थी। उसने निश्चित किया था कि इस घर में मौसी का अब एक रात भी रहना ठीक नहीं है। हरिमोहिनी कहीं आसरा न होने के कारण ही सब कुछ सहती हुई इस घर में रहती हैं, वरदासुंदरी की यह धारणा दूर करने के लिए हरिमोहिनी को विनय यहाँ से ले जाने में ज़रा भी देर करना नहीं चाहता था। विनय को सहसा सुचरिता की बात सुनकर ध्यान आया, इस घर में हरिमोहिनी का संबंध एकमात्र अथवा मुख्य रूप से वरदासुंदरी के हाथ नहीं है। जिसने अपमान किया है उसी को बड़ा मान लेना, और जिसने उदारता से आत्मीय मानकर सहारा दिया है उसे भूल जाना- यह तो ठीक न होगा। विनय कह उठा, "यह बात तो ठीक है। परेशबाबू को बताए बिना किसी तरह नहीं जाया जा सकता।" आते ही सतीश ने कहा, "जानती हो, मौसी? रूसी लोग भारतवर्ष पर हमला करने आ रहे हैं। बड़ा मज़ा रहेगा।" विनय ने पूछा, "तुम किसकी ओर हो?" सतीश बोला, "मैं-रूसियों की ओर।" विनय ने कहा, "तब तो रूसियों को कोई चिंता नहीं है।" इस तरह सतीश के बातचीत फिर जमा देने पर सुचरिता धीरे-धीरे वहाँ से उठकर नीचे चली गई। सुचरिता जानती थी, बिस्तर पर जाने से पहले परेशबाबू अपनी कोई प्रिय