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ेने तैयार था। मगर दया ने साफ मना कर दिया। रूप को गुस्सा आया। एक टुकड़ा जमीन बेच देने से क्या हो जाता। इतना पैसा मिलनेवाला था। उसकी बात पर दया ने कहा था - हम दरिया की मछलियाँ काँच के बक्सों में बंद होकर नहीं जी सकते रूप। सब कुछ तो लगभग चला गया है। अब अपने इस चाँद, समंदर और हवा का सौदा नहीं कर पाऊँगा... रूप उसका मुँह तकती रह गई थी। पता नहीं आजकल दया को क्या होता जा रहा है। अक्सर परेशान रहता है और गुस्से में भी। बड़बड़ाता रहता है।
मगर दया क्या करे? उसकी आँखें जो देखती हैं - साहिल पर बिखरी गंदगी - प्लास्टिक की बोतलें, कागज, फलों के छिलके, बीयर के टीन... वह उन्हें एक-एककर चुनता है - स्वर्ग देखने आते हैं ये सैलानी और उसे नर्क में तब्दील कर चले जाते हैं। लो, एक और जन्नत कचरा पेटी बन गया! खुश हो लो सबलोग... वह निरंतर बड़बड़ाता है। इन दिनों उसे अपने आप से बातें करने की आदत पड़ती जा रही है - कोई सुने न सुने, मैं बोलूँगा, अरे इतना तो कर ही सकता हूँ! रूप अपने ईश्वर को याद करती है, मन ही मन हाथ जोड़ती है - इस आदमी का दिमाग दुरुस्त रहने दो देवा! मेरा और कौन है।
उसकी सोच से अनजान दया अब भी बोल रहा है - ये तेल में लिथड़े पक्षी, मरी हुई मछलियों के बसाते हुए ढेर... असल में ये जीवन के निरंतर मरने, मरते चले जाने के संकेत हैं। मगर कौन समझना चाहता है। सबको अपनी पड़ी है। अपने जीने की जुगाड़ में लोग औरों के लिए मौत का सामान बनते जा रहे हैं। अच्छा, कहो तो रूप, जब ये धरती ही नहीं बचेगी, ये लोग किस जमीन पर अपने सुख के महल बाँधेंगे...? दूसरों के लिए नहीं तो कम से कम अपने बच्चों के लिए ही सोचते। विरासत में उन्हें क्या सौपेंगे - ये बीमार दुनिया? गंदी और कुरूप... उसके अंतर का तहस-नहस उसके चेहरे पर रिस आया |
था - किसी जलती हुई भट्टी की तरह।
दया की हालत देखकर रूप सोच नहीं पाती, उसे कैसे सांत्वना दे। वह उसका पसीने से तर हाथ पकड़ती है - इतना सोचकर क्या होगा दया, सब ऊपरवाले पर छोड़ दो। 'हाँ, सब तो यही करते आ रहे हैं अब तक - छोड़ दो ऊपरवाले पर, बीचवालों पर। बाकी रह गए हम - समाज के हाशिए पर, तलछट पर - कीड़े-मकौड़े! - रूँदते हुए, पिसते हुए..., अपने खून, पसीने से जिसे सींचते हैं, वह दुनिया हमारी नहीं। उन परजीवियों की है जो हम गरीबों के हाड़-मज्जे पर पनपते हैं, हमारे खून और आँसू पीकर बड़े होते हैं... रक्तबीज की जात!
रूप को इतनी बड़ी-बड़ी बातें समझ में नहीं आती। वह हरी-भरी पहाड़ियों पर घाव- सी दगदगाती हुई जमीन की उघड़ी हुई लाल-भूरी देह देखती है, मशीनों के उकाब-से पंजे और दाँत देखती है। उसे डर लगता है। आकाश में लाल धूल का बवंडर उठता है, घर-दालान पट जाता है। आँगन की तुलसी मुर्झा जाती है। वह साफ करते-करते परेशान। खदानों की सुरंगे चारों तरफ ऑक्टोपस की तरह फैली है। हर तरफ धमाके हो रहे हैं - निरंतर... धीरे-धीरे धरती की कोख खोखली हो रही है और उनका सीना भर रहा है, फेफड़ा सूज रहा है - धूल से, मिट्टी से और धुआँ से। दैत्य की तरह गरजते हुए मशीनों से उसका जी घबराता है, पेट का बच्चा उत्तेजित होता है, काँपता, लरजता है। वह खुद को सँभाले या उसे शांत करे।
दया अलग परेशान। समंदर में मछली नहीं। बड़े-बड़े जहाज अपना जाल डालकर सारी अच्छी मछलियाँ छानकर ले जाते हैं। अमीर देश गहरे समंदर से ही उन्हें खरीद भी लेते हैं। स्थानीय बाजार में बचा-खुचा माल ही पहुँचता है। ऊपर से ये सैलानियों की भीड़, होटलों की कतार... सब कुछ वहीं खप जाता है। यहाँ के लोग क्या खाएँ! चावल और मछली ही तो उनका मुख्य भोजन है। पर्यटन ने यहाँ के बाजार में आग लगा दी है। महँगाई अपने चरम पर, किसी चीज में हाथ नहीं दिया जाता।
बड़े व्यापारी कोल्ड स्टोरेज में अपनी मछली जमा करके सही समय पर ऊँची दाम से बेचते हैं। मगर दया जैसे छोटे मछेरे कहाँ जाएँ? उन्हें तो कोई सुविधा उपलब्ध नहीं। माल के नष्ट होने के डर से औने-पौने दाम में सब बेच आना पड़ता है।
विदेसी रुपयों से संपन्नता आती है, मगर किस कीमत पर? किसके लिए? जाहिर है, उनके लिए तो नहीं। खोखली जमीन पर खड़ा है ये हवा महल, एक दिन गिरेगा, न जाने किस-किस पर! रूप उसे समझाती है और खुद छिपकर रोती है - देवा! कैसी दुनिया में आएगा हमारा बच्चा! क्या साफ हवा, पानी और दरिया सिर्फ उनके किस्से-कहानियों में ही रह जाएँगे?
एक बार उसी ने तो कहा था, न जाने किस उछाह और अभिमान में - रूप, मैं तेरे लिए ताजमहल बाँधूँगा। सुनकर खूब हँसी थी रूप - अब कहाँ गया वह अभिमान, ताजमहल... दया अपने खंडहर होते जीवन को देखता है। उसकी साँसें लंबी होती जाती है। तो क्या अब कल का इतिहास उसके मुमताज के बेबस आँसुओं से ही लिखा जाएगा? उदास साँझ की धुंध में दोनों की परछाइयाँ सूखे पत्तों की तरह काँपती रहती हैं। उधर समंदर के सीने पर रोशनी से सजे ज |
हाजों की कतार गुजरती है, हवा में फिल्मी गीत के टुकड़े उछालते हुए - बंबई से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो...' सैलानी! गोवा देख रहे हैं। जहाज के सतरंगी काँच की खिड़कियों से, न जाने कौन-सा गोवा, किसका गोवा... हमारावाला तो बिल्कुल नहीं!
दया कुढ़ता है, हमारी आधी संस्कृति तो पुर्तगाली नष्ट कर गए और अब बची हुई आधी ये सैलानी खत्म कर देंगे। वह फिर रूप से पूछता है, क्यों रूप, टी.वी. में जो दिखता है, कैलेंडर में छपता है वह हमारा गोवा है क्या? पूरब का रोम... चल हट! हम दूसरों से ज्यादा हिंदुस्तानी हैं। नाच, अंग्रेजी बोली, रहन-सहन गिने-चुनों का ऊपरी दिखावा होगा, गोवा की आत्मा नहीं। ओढ़ा हुआ अपना थोड़े ही न होता है, अपनाया हुआ होता है।
वह जब कभी पीछे मुड़कर देखती है तो एक बीता हुआ सुंदर कल नजर आता है - रंगीन त्योहारों, उत्सवों और मेलों से भरापूरा। बचपन में देखा हुआ लहराई देवी का मेला याद आता है - सुलगते हुए अंगारों पर निर्भय होकर चलते भक्त... फिर होली के बाद सिगमो का उत्सव। हजारों लोगों की रंगीन जुलूस। औरतें उनके स्वागत में घर की चौखट पर दिया जलाकर रखती थी। लोग घर-घर जाकर नाचते-गाते। बदले में उन्हें हर घर से पाँच नारियल और चावल मिलता था। फिर गणेश पूजा का उत्सव, लगातार ग्यारह दिनों तक। क्या धूम मचती थी। गोवा के लोग जहाँ भी होते हैं इस अवसर पर अपने पूवर्जों के घर में जरूर आते हैं। पूरा कुटुंब एकसाथ मिलकर गणपति बप्पा की पूजा करते हैं। खाना-पीना, मौज-मस्ती, शामों को घुमाट, खंजनी बजाकर आरती। प्रतिमा विर्सजन के दिन 'गणपति बप्पा मोरया' की गगन भेदी गूँज... कितने सारे वाद्य यंत्र ढोल, तासा, मांदल, नगाड़ा... ढालो, जागोर, मेल, गोफ, झेमाडो आदि पारंपरिक नृत्य! उधर ईसाइयों में क्रिसमस की धूम, पड़ोसिय |
ों के घर से मिठाइयों की भर-भरकर आती डलिया।
शादी के बाद हर नई दुल्हन की तरह अपने ससुराल में बैठकर वह भी अपने मायके की याद में ओखली में मसाला कूटते हुए गाती थी - म्हजे दोंगरी वो, चित्त माजे मायरी... गाते हुए आँखें पानी में डूबकर दरिया हो जाया करती थीं। उसे पता नहीं चलता था। दरिया होकर बह जाती थी, उसे तब भी पता नहीं चलता था। मायके का अनुराग होता ही ऐसा है।
दिन-दिन रूप भारी होती जा रही है। अब उससे सहज चला-फिरा नहीं जाता। काम करते हुए भी हाँफ जाया करती है। उसका नौंवा महीना चल रहा है। बच्चा अब जल्द आएगा। कुछ ही दिनों की बात है। रूप अँगुलियों पर दिन गिनती है।
उधर मौसम का ताप बढ रहा है। हवा में बारूद की गंध है। लहू में चिनगारी लगी है। पूरी बस्ती, कुनबा परेशान है। उनकी जमीन, उनका पानी, उनके आकाश पर राहु की छाया पड़ गई है। नए कानून, नए नियम नित नए ढंग से उन्हें परेशान कर रहे हैं, उनपर हावी हो रहे है। दया सबको संगठित करने की कोशिश में लगा हुआ है। रोज मीटिंग होती है, पंचायत बैठती है, मशविरे किए जाते हैं। सब चाहते हैं, ये हालात बदले, कोई सूरत निकले, सिलसिले चल पड़े कुछ अच्छा, उन सबके भला होने के।
इन दिनों तरह-तरह की अफवाहों से हवा भी गर्म है। कोई कहता है मोरजी के समुद्र तट के बाद उनके गाँव की बारी है। किसी भी दिन नोटिस आ जायगा और उन्हें अपना गाँव खाली करना पड़ेगा। सुनने में ये भी आया है कि वास्तव में यहाँ एक और पाँच सितारा होटल आनेवाला है। इसीलिए बहाने से गाँव खाली करवाया जा रहा है।
दया जबड़े भींचकर सुनता है। कल कहेंगे मछलियाँ समंदर छोड़कर चली जायँ... बात तो ऐसी ही हुई न! अपने गाँव और अपने दरिया को छोडकर वे क्यों जायँ? पहले-पहल रूप ने उससे पूछा था, तुम इस गाँव में कब से हो। उसने हँसकर जवाब दिया था, जब से यह समंदर यहाँ पर है... रूप खूब हँसी थी उसकी बात सुनकर। मगर सच तो यही है न! जब से वह जन्मा है, इसी आकाश और इसी पानी को देखता आया है। उसकी नसों में इसी दरिया का नमक है, इसी का पानी और स्वाद। जीवन बनकर अविरल बह रहा है, ठाँठे मार रहा है यह समंदर उनकी शिरा, उपशिराओं के संजाल में... यही उनका जीवन, जीवन का आधार और जीवन रेखा है। ये कट गया तो वे क्यों कर जिएँगे! नहीं, वे किसी भी हाल में अपनी जमीन, अपना दरिया नहीं छोड़ेंगे। दया दूसरे मछेरों के साथ रोज धरने पर बैठता है, जलूस निकालता है, नारे लगाता है। मगर सब बेकार!
कल उन्हें सरकारी नोटिस मिल गई है। जल्द से जल्द उन्हें यह गाँव खाली करके जाना पड़ेगा। सरकार ने हजारों रिपोर्टों का हवाला देकर समझाने की कोशिश की है कि उनका यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। पर्यावरण को भी नुकसान पहुँच रहा है। सारे विशेषज्ञों की भी यही राय है कि इस गाँव को यहाँ से जल्द से जल्द हटा दिया जाय। सभी सन्न! अवाक्! एक-दूसरे का मुँह देख रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले एनजीओस भी न जाने क्यों अचानक चुप मारकर बैठ गए हैं। उनकी भारी दलीलें, भाषण कहाँ गए? सबने जैसे एक |
साथ उनके सरोकारों से हाथ धो लिए हैं। दया और उसके गाँववाले हर दरवाजे पर दस्तक देकर, हर चौखट पर माथा टेककर आखिर निराश हो गए हैं। अब? अब क्या? सबकी आँखों में यही मूक प्रश्न।
दया की हालत अजीब है। उसे लग रहा है वह पागल हो जायगा। दिमाग सोच-सोचकर अंगार बन रहा है। लग रहा है, अंदर कोई ज्वालामुखी धुआँ रहा है। अब कभी भी फट पड़ेगा।
शाम को नंदा मौसी कह गई है, आजकल में बच्चा आ जाएगा। अभी वह ठीक से खुशी भी नहीं मना पाया था कि रघु खबर दे गया था - कल गाँव खाली करवाने की सरकारी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। एक महीने की सरकारी नोटिस पर गाँववालों ने अब तक कोई ध्यान नहीं दिया था। रूप अंदर की कोठरी में हल्के-हल्के कराह रही है। चचेरे भाई की पत्नी उसके पास बैठी है। एक और औरत भी है देखभाल के लिए।
दया के अंदर अजीब-सी सनसनाहट भरी हुई है। उसे लग रहा है, उसके सोचने-समझने की सारी शक्ति खो गई है। वह पागल हो जायगा। देर तक आँगन में चहलकदमी करने के बाद अचानक वह मुड़ा था और अंधकार को चीरते हुए दरिया की ओर चल पड़ा था। आज शाम से ही आसमान पर काले-काले बादल छाने शुरू हो गए थे। हवा में भी ठंडक थी। पड़ोस के दक्षिणी राज्य में मानसून पहुँच चुका था। शायद अब यहाँ भी पहुँचने वाला है।
दरिया के किनारे खड़े होकर दया उफनते हुए पानी को देखता है। चारों तरफ अँधियारा छाया है, पानी का रंग गहरा स्याह! दूर बादलों के कोने से मौसम का एक टुकड़ा नया चाँद दिख रहा है। उसकी हल्की, धुँधली रोशनी में सब कुछ रहस्यमय प्रतीत हो रहा है। दया चुपचाप सब कुछ देख रहा है। कल ये सब छिन जाएगा... उसकी कनपटी में कुछ लगातार धड़क रहा है। एक तेज खिंचाव, जैसे अंदर सब कुछ तड़ककर टूट पड़ना चाहता है। दृष्टि में धुंध और धुआँ, कुछ सुझ नहीं रहा है। ये दरिया, ये जमीन, उन |
के पुरखे, कूल देवता, ग्राम देवता... क्या सबको छोड़कर जाना पड़ेगा, या ये सब भी उनके साथ बेघर हो जाएँगे? और उनका बच्चा... वह कहाँ पैदा होगा? अपना घर-बार खोकर एक शरणार्थी बनकर इस दुनिया में आएगा?
दया ने चिपको आंदोलन के विषय में लोगों से सुना है। अपने जंगल को कटने से बचाने के लिए औरत, मर्द पेड़ों से चिपक जाते हैं, उनके साथ कट मरने को तैयार हो जाते हैं... दया के अंदर ये बातें गूँज बनकर पैदा होती है, चक्कर काटती हैं - चिपको आंदोलन... सामने दूर समंदर में उनके जाल पड़े हैं। स्याह समंदर के सीने में बड़े-बड़े मछली पकड़नेवाले जहाजों के धब्बे उभर रहे हैं। वह उनके जालों की तरफ ही बढ़ रहे हैं। थोड़ी ही देर में वे उनके जालों को तोड़कर गुजर जाएँगे। कई बार ऐसा हो चुका है।
दया की नसों में फिर से आग भरने लगती है। नहीं, अब वह ऐसा नहीं होने देगा। वह भी अपनी जमीन, अपने समंदर और जाल से चिपक जायगा, उनके साथ जिएगा या उनके साथ ही मर जायगा... इसके बाद दया ने एक क्षण के लिए अपने गाँव की ओर मुड़कर देखा था और फिर आँखों में कुछ चट्टान-सा अडोल लिए बुदबुदाते हुए हरहराते-गरजते, गहरे काले समंदर में उतर गया था - मेरा इतंजार करना रूप, मैं हमारे और अपने बच्चे के हिस्से का चाँद, समंदर और हवा लेने जा रहा हूँ, अगर लौटूँगा तो उन्हीं के साथ लौटूँगा... उसके आगे के शब्द पानी के ऊँचे उठते रेले में खो गए थे। चारों तरफ एक हाहाकार-सा मचा था, पानी में गहरा उन्माद था। उसी समय तेज हवा के साथ जोर से बिजली कड़की थी और बड़ी-बड़ी बूँदों के साथ बारिश शुरू हो गई थी - मौसम की पहली बारिश... दूर गाँव के पास टीले पर हाथ में लालटेन लिए नंदा मौसी दया को ढूँढ़ते हुए बार-बार आवाज दे रही थी - लगभग उसी समय! रूप को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी। बच्चे के आने का समय हो गया था।
दूसरी सुबह पूरा गाँव सरकारी मुलाजिमों, पुलिस कर्मचारियों और लोगों से भरा हुआ था। चारों तरफ अफरा-तफरी मची थी। गाँव खाली करवाने की सरकारी कवायद शुरू हो गई थी।
दूसरी तरफ इस शोरगुल से बहुत दूर किसी निर्जन सागर सीमांत पर एक मछेरे की रक्त-रंजित निष्प्राण देह फटे हुए जाल में लिपटी पड़ी लहरों में उभ-चुभ रही थी। एक टूटी नाव के टुकड़े उसके आसपास बिखड़े पड़े थे शायद कल रात फिर कोई विशाल जहाज मछेरों के बिछे जाल के साथ उस मछेरे को बीच से चीरकर गुजर गया था।
...एक मछेरा अपने दरिया के साथ जी नहीं पा रहा था, इसलिए उसके साथ चिपककर मर गया था, हमेशा उसके साथ रहने के लिए - उसका अभिन्न, अटूट हिस्सा बनकर। उसकी पथराई हुई आँखों में सारा दरिया, जमीन आौर आकाश स्तब्ध होकर पड़ा था। जैसे वे भी अपने मछेरे के साथ मर गए हों! उगते हुए सूरज की किरणों में समंदर का पानी गहरा लाल होकर चमक रहा था - खून की तरह! हवा में टूटे पंखों की-सी बेकल छटपटाहट भरी थी। दूर कहीं समुद्री पक्षी लगातार चीखते फिर रहे थे। न जाने किसी का क्या खो गया था। शायद सारी दुनिया ही!
और इसी गहरी निःस्तब्धता के बीच अचानक गाँव |
में पुलिस की सायरन फिर से बज उठी थी और उसकी तेज आवाज में एक नवजात शिशु का पहला रुदन खो गया था। दया के बेटे ने जन्म ले लिया था, अपनी जमीन पर बेगाना बनकर - रोते हुए, रोते रहने के लिए... यह एक अंत की लंबी शुरुआत थी!
उधर हर बात से बेखबर रूप खुशी से झिलमिलाती हुई दया को ढूँढ़ रही थी - उसे अपने प्यार की पहली निशानी दिखाने के लिए!
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हाँ, हमें उन प्रबलित की जरूरत है! कुछ और लाओ! हिस्सेदारी की जरूरत है! बाहरी परिधि पर! द्वार! मेरे साथ आओ! हाँ, सभी तरफ।
... बहुत मजबूत रक्षा।
यहां पर अधिक लकड़ी।
हाँ, सभी तरफ।
आओ अपनी बकरियां पाओ! चिकन के! वह आदमी कौन है?
मुझे नहीं पता।
कुछ अन्य व्यापारियों के साथ।
कुछ भी खरीदना चाहते हैं।
कुछ खरीदने में?
आक्रमण! वह क्या कर रहे थे?
हमारी सुरक्षा में कमजोरियां।
ऐसा लगता है कि उन्हें एक मिला।
द्वार खोलो! राजा एले के साथ लड़ाई में।
प्रिय भगवान।
प्रिंस एथेलवुल्फ।
उसे नीचे रखें! यह आपके लिए किसने किया?
रग्गर लोथब्रोक का?
उनकी सेना उनकी सेना कितनी बड़ी है?
कितने योद्धा?
एक क्षेत्र में हैं?
इसका क्या मतलब है?
सैकड़ों? हजारों?
मुझे बताओ, चलो।
मुझे बताओ! लानत है तुम पर! और आप शांति में आराम कर सकते हैं।
सभ्य ईसाई दफन।
हमें सही करना चाहिए।
तो, राजा एले हार गया है।
तो ऐसा कहा जाता है।
खैर, मुझे यह सुनकर खेद है।
हमारे सभी के लिए।
यहां पहले से ही अपने रास्ते पर।
बाहर जाने और इसका सामना करने के लिए।
हथियार पर अधिक पुरुषों को उठाने के लिए।
स्वयं सार का है।
एक सप्ताह के भीतर वेसेक्स के लिए! सबसे मूल्यवान संपत्ति है आदेश, तो मुझे इसका प्रयोग करने दो! पिताजी, मैं आपसे लड़ना चाहता हूं।
मैं भी! आप में से किसी के जीवन।
मेरा कर्तव्य आपकी रक्षा करना है।
सोने जाओ। शांति से सोइये।
अच्छा बच्चा। अच्छा बच्चा।
तुम सही हो, मेरे बेटे।
सपने कौन था, पिताजी।
भेजने के लिए दूत।
हम्म।
हमें बचाओ, यह मेरा बेटा है।
मुझे पता है। वह बहुत बहादुर है वह और भी हो सकता है।
उसके पास, मेरे प्यार।
और आपके दिमाग की चमक।
क्योंकि उसे आपको माफ कर देना चाहिए।
मेरे जैसे मरने वाले जानवर के लिए।
अगर मैं नहीं चाहता तो क्या होगा?
आप, अपने राजा होने के नाते।
मोहतरमाँ।
क्या आप डरते हैं?
नहीं, मुझे डर नहीं है।
पूरा वक्त।
मेरा मतलब तुम्हारा असली पिता है।
आप बहुत अच्छे से जानते हैं।
भिक्षु वे एथेलस्तान कहा जाता है।
पवित्र आदमी, अल्फ्रेड।
वह एक बहुत ही खास व्यक्ति था।
उसने हमारे सारे जीवन बदल दिए।
उसके जैसे पिता होने के लिए।
इस तरफ! आइए। सर्र से।
हे भगवान, हमें बचाओ! शीघ्र! आशीर्वाद और रखो।
इस पवित्र युद्ध में जीत।
धन्यवाद् पिताजी।
किसी से मत डरो।
हम सभी जल्द ही एक साथ रहेंगे।
प्रिसे थे लार्ड।
और हमारी उम्मीदों को ले लो।
विदाई।
लाइव, लाइव, और लाइव! आप के योग्य होने के लिए, जूडिथ।
सूर्य के नीचे उद्देश्य।
और शांति का समय।
अब यह युद्ध का समय है! यह नफरत करने का समय है! मैं आपकी क्षमा चाहता हूँ।
तुम मेरे पूरे दिल से।
चलिए चलते हैं।
बाहर निकलो! चलिए चलते हैं! आगे! संरेखित! भयभीत महिलाओं के रूप में डरपोक के रूप में।
उनके दिल बेहोश हैं।
वास्तव में हमें परेशान कर सकते हैं।
आप पर्याप्त नहीं जानते, इवर।
आपने पर्याप्त नहीं देखा है।
ये बहादुर पुरुष हैं।
मेरी आंखें मुझे बताओ, बोजर्न।
एक पुराने, बुद्धिमान भाई को सुनो?
दूर, वे योद्धा |
नहीं हैं।
इस राज्य की रक्षा करें।
उनके सम्मान के बिना एक योद्धा है?
मुझे नहीं पता।
तुम मुझे बताओ, भाई।
क्या आप लड़े हैं?
वैसे ही, भाई।
एक आरामदायक खूनी रथ! भाईचारे, हम सफल नहीं होंगे।
हमारे सामने चुनौतियां।
तो मेरा सुझाव है कि आप छोड़ दें।
हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है।
ओह, लेकिन आपको मेरी ज़रूरत है।
मैं उसके साथ इंग्लैंड आना चाहता हूं?
उसके पास ऐसा करने का कारण था।
यकीन है कि वह बदला गया था।
सोचने के लिए, फिर सोचो।
एक क्रिप्ल और एक अस्वीकार।
छोटे सूअरों के बारे में सब कुछ था! नहीं वहाँ नहीं! मैं उन्हें कहां रखूंगा?
अपनी घंटी भरें, लड़के! वो यहां है! भगवान एथेलवुल्फ! वह वहाँ है! प्रिंस एथेलवुल्फ! उसे मेरे लिए खोजना है।
यह सब आप आज मिल जाएगा।
उनकी ताकत का? ईमानदारी से?
कौन बता सकता है?
या चार हजार।
मेरे जैसा लग रहा था।
इससे पहले कुछ भी।
लेकिन एक महान राष्ट्र सेना।
वे कहाँ जा रहे थे?
मिडलैंड्स, अब तक रेप्टन की तरफ।
मेरे पिता के राज्य पर हमला करने पर?
वेसेक्स पर हमला करने के लिए एक साथ?
मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है।
रग्गर लोथब्रोक का।
उनके पिता की मृत्यु के लिए।
उन्होंने एले को मारा।
उनकी मृत्यु में शिकायत थी।
वेसेक्स के लिए मार्च कर रहे हैं।
Mmmहम्म।
मैं इस आदमी पर विश्वास करता हूँ।
मेरे पिता के खिलाफ बदला लेने के लिए।
तो चलो रेप्टन की तरफ बढ़ें।
भाग्य हमें वहाँ इंतजार कर रहा है।
Tanaruz! Floki, उठो! Floki! हम्म?
यह क्या है?
शायद यह बेहतर के लिए है।
तुम्हारी किस बारे में बोलने की इच्छा थी?
और वह भाग गई है।
वह खतरे में हो सकती है, फ्लोकी! फ्लोकी, हमें उसे ढूंढना है! मेरा प्रिय कहाँ है?
Floki, कृपया उसे खोजें।
Tanaruz?
मुझे माफ कर दो।
मुझे नहीं पता क्या करना है।
Tanaruz! मेरा |
बच्चा! मेरा बच्चा! अंदर आ जाइए। अंदर आ जाइए।
वो यहाँ हैं।
अपनी स्थिति ले लो! दीवार के लिए! गेट पकड़ो! आप दोनो! टावर लो! दीवार पर! वहॉ पर! उस उल्लंघन को बंद करो! ग्रेट हॉल में! एस्ट्रिड! हम गलत जगह पर हैं! Torvi! उन्हें खाड़ी में रखें।
जल्दी कीजिये! हाँ! आगे! Egil! रिट्रीट! चलिए चलते हैं! रिट्रीट! वापस! नौकाओं पर वापस! रुकें! आह! उसे रहने दो।
रिट्रीट! रिट्रीट! उसे छोड़ दो! आओ, पीछे हटो! चलिए बाहर निकलते हैं! चलिए चलते हैं! भागो! छोड़ना।
एक मूर्ख उसे मारने के लिए नहीं।
वह हमेशा आपके लिए इंतजार करेगी।
लगता है कि वह तुमसे प्यार करती थी।
उस से शादी करो?
शायद वह उसे प्यार करती है।
तो वह कोई है।
अचानक इतना बुद्धिमान, भाई?
लेकिन मैं खुद से शादी नहीं कर रहा हूँ।
तुम जानते हो क्यों?
आप से ज्यादा कोई भी।
महिलाएं चंचल हैं। उसे भूल जाओ।
Ellisif?
मैं तुम्हें क्षमा करने आया था।
तुम मेरे लिए इंतजार नहीं कर सका।
कार्य आपने मुझे किसी भी मामले में स्थापित किया था।
इसे प्राप्त करने के लिए माना जाता है।
मुझसे शादी करने के लिए, क्या तुमने?
मुझे माफ कर दो।
मुझे आपका नाम भी पता नहीं है।
मुझे आपसे मिलकर खुशी हुई।
व्यवस्था मेरी पत्नी के साथ थी।
Mmm।
Mmm।
नहीं! विक! विक।
मुझे खेद है।
आपको एगिल कहा जाता है! एगिल द बस्टर्ड।
यही वह है जिसे वे आपको बुलाते हैं।
न तो कान और न ही राजा।
ऐसी सेना इकट्ठा करो?
बास्टर्ड एगिल?
मैं क्यों तुम्हे बताऊ?
चाहे मैं आपको बताऊं या नहीं।
यह सच नहीं है।
बेशक यह सच है! खेल मत खेलो।
मेरे पास खेल के लिए कोई समय नहीं है।
हमने आपकी पत्नी को पाया।
उसकी तरफ देखो! तो हम आपके जीवन को छोड़ देंगे।
एक साथ फिर से रहो। आनंद से।
मैं इस महिला को नहीं जानता।
बस उन्हें बताओ।
बस उन्हें बताओ, एगिल! अगर मैं ऐसा करता हूं, तो यह आपके लिए है।
मेरे लिए नहीं।
मैं वैसे भी मर चुका हूँ।
शायद वे आपको छोड़ देंगे।
किंग हेराल्ड फाइनहायर।
पर! पर! गति को बनाए रखने के! कृपया कॉल पर बने रहें! रेखा! जोर लगाओ! पीछे की तरफ खींचो! अपना फॉर्म पकड़ो! रुकें! रुकें! वाह, व्हाओ, व्हाओ।
हॉल्ट! क्या ख़बर है?
एक दिन की सवारी से दूर।
उनके पास एक बड़ी सेना है।
हम यहाँ शिविर बनायेंगे।
कल हम लड़ेंगे।
हम होंगे कामयाब।
शिविर बनाओ! यहाँ शिविर बनाओ! आप शिविर बना सकते हैं।
जहां हम लड़ने जा रहे हैं।
तुम्हारी किस बारे में बोलने की इच्छा थी?
एक निश्चित तरीके से लड़ने के लिए।
हमें ऐसा क्यों करना चाहिए?
अलग रास्ता, और उन्हें आश्चर्य है?
क्या हो रहा है।
हम ढाल की दीवार में लड़ते हैं।
इस तरह हम लड़ते हैं।
लेकिन अब हमारे पास एक बड़ी सेना है।
सेना, अब, Hvitserk।
उसी तरह से लड़ो।
अब बदलना बहुत देर हो चुकी है।
आप यह कहने के लिए कौन हैं?
अपना मुंह बंद करें।
हम भाई हैं।
साथ में।
रणनीति बदलो?
क्या आप जीतना चाहते हैं, भाई?
सुनो, मेरे साथ आओ, बोजर्न।
युद्धस्थल।
और परिदृश्य का उपयोग करें।
खिंचाव, पहाड़ियों, जंगल।
आप क्या कहते हैं |
?
यह एक अच्छी योजना है।
तो यह एक बुरी योजना है।
एक साथ घोड़ों को बांधो! आप किस का इंतजार कर रहे हैं?
हा! क्या मैं आपसे बात कर सकता हूँ?
बात करें।
मैंने भूल की। मुझे खेद है।
मुझे इंतजार करना चाहिए था।
मैंने उसे कभी प्यार नहीं किया।
मैंने तुम्हें प्यार किया।
लेकिन लोगों ने मुझे राजी किया। उन्होंने मुझसे झूठ बोला।
क्या तुम समझ सकते हो?
इतना लंबा समय दूर।
लेकिन मैं गलत था, तो गलत! मुझे इंतजार करना चाहिए था! और अब मैं देखता हूं क्यों।
आपने जो कहा वह आप करेंगे।
और मैं अब तुम पर विश्वास करता हूँ।
मुझे माफ़ करदो।
आप से, भाई! आगे! कीप अप! सीधे रहो! अपने रंगों को उच्च रखें! सतर्क रहें! हा! आगे! आगे! कप्तान! पार्श्व! तुम लोग! मुझे बाएं का पालन करें! का पालन करें! उन पर अपनी आंखें रखें! चले जाओ! उठ जाओ! आइए! ठीक है मुझ पर! सर ई! मुड़ो! गोल चेहरा! पूर्ण मोड़! उनके बाद! चलते रहो! एक साथ रहो! मोड़! मुड़ो! पीछे मुङो! पीछे मुङो! मोड़! मुड़ो! रक्षा दीवार! रक्षा दीवार! गेट टूगेदर! गठन! अग्रिम! एक साथ रहो! अग्रिम! आगे! प्रिंस एथेलवुल्फ?
प्रिंस एथेलवुल्फ?
Mmm अगर तुम कहते हो तो।
जल्दी कीजिये! हाँ! Hyah! वहां वे हैं, मेरे भगवान! रुकिए! वाह।
या अब उनके डुप्ले! रेप्टन में उनके जहाज?
हाँ, मेरे भगवान एथेलवुल्फ़।
रेप्टन किस दिशा में है?
इस लड़ाई के बेहतर! और उन्हें हमारे पीछे रखें! ले जाएँ! वे क्या कर रहे हैं?
वे कहाँ जा रहे हैं?
रेप्टन करने के लिए, मुझे कल्पना है।
नौकाओं के लिए?
वे हमारी नावों के लिए जा रहे हैं?
आप बेस्टर्ड अपंग! तुम सही थे! तुम सही थे! ओह, आप खूनी पागल प्रतिभा।
तुम सही थे! निचे रहना! लाइनों में जाओ! रिज कवर! रिज पर! शील्ड्स! क्लोज़ अप! क्लोज़ अप! साथ मिलकर काम करना! अपनी पीठ को याद |
करो! रक्षा दीवार! चार्ज! हाँ, हमें उन प्रबलित की जरूरत है!
कुछ और लाओ!
हिस्सेदारी की जरूरत है!
हर दूसरे आदमी
बाहरी परिधि पर!
द्वार!
मेरे साथ आओ!
हाँ, सभी तरफ।
... बहुत मजबूत रक्षा।
मुझे थोड़ा चाहिए
यहां पर अधिक लकड़ी।
हाँ, सभी तरफ।
आओ अपनी बकरियां पाओ!
चिकन के!
वह आदमी कौन है?
मुझे नहीं पता।
वह आज सुबह पहुंचे
कुछ अन्य व्यापारियों के साथ।
वे देखो, लेकिन वे नहीं करते हैं
कुछ भी खरीदना चाहते हैं।
मैं खुद से पूछता हूं, उन्होंने क्यों किया
इस तरह से आने के लिए परेशान
अगर वे रुचि नहीं रखते हैं
कुछ खरीदने में?
आक्रमण!
वह क्या कर रहे थे?
खोज रहे हैं
हमारी सुरक्षा में कमजोरियां।
ऐसा लगता है कि उन्हें एक मिला।
द्वार खोलो!
बिशप था
राजा एले के साथ लड़ाई में।
प्रिय भगवान।
उसकी कृपा निश्चित रूप से है
अभी भगवान के करीब
आप से,
प्रिंस एथेलवुल्फ।
उसे नीचे रखें!
यह आपके लिए किसने किया?
क्या यह बेटे थे
रग्गर लोथब्रोक का?
उनकी सेना उनकी सेना कितनी बड़ी है?
कितने योद्धा?
घास के कितने ब्लेड
एक क्षेत्र में हैं?
इसका क्या मतलब है?
सैकड़ों? हजारों?
मुझे बताओ, चलो।
मुझे बताओ!
लानत है तुम पर!
और आप शांति में आराम कर सकते हैं।
बिशप को उचित दें और
सभ्य ईसाई दफन।
यहां तक कि ऐसे समय में,
हमें सही करना चाहिए।
तो, राजा एले हार गया है।
सबसे भयंकर और बर्बरता से
मौत, सर
तो ऐसा कहा जाता है।
खैर, मुझे यह सुनकर खेद है।
हमारे सभी के लिए।
वह महान सेना निस्संदेह है
यहां पहले से ही अपने रास्ते पर।
मैं तुमसे चार्ज करता हूँ, मेरे बेटे,
बाहर जाने और इसका सामना करने के लिए।
अगर यह वास्तव में महान है
जैसा कि बिशप ने सुझाव दिया था,
तो मुझे कुछ अतिरिक्त समय चाहिए
हथियार पर अधिक पुरुषों को उठाने के लिए।
मैं सहमत हूँ। लेकिन अब समय
स्वयं सार का है।
वे नहीं ला सकते हैं
पैर पर ऐसी शक्ति,
या नाव से,
एक सप्ताह के भीतर वेसेक्स के लिए!
फिर भी, आश्चर्य का तत्व
सबसे मूल्यवान संपत्ति है ...
पिता! चूंकि आपने मुझे दिया है
आदेश, तो मुझे इसका प्रयोग करने दो!
पिताजी, मैं आपसे लड़ना चाहता हूं।
मैं भी!
और मुझे जोखिम नहीं होगा
आप में से किसी के जीवन।
आप भविष्य हैं
मेरा कर्तव्य आपकी रक्षा करना है।
सोने जाओ। शांति से सोइये।
अच्छा बच्चा। अच्छा बच्चा।
मैं भगवान की आशा करता हूँ
तुम सही हो, मेरे बेटे।
अभी के लिए,
सभी सपनों और योजनाओं
मैं खड़ा था
सबसे बड़ी खतरे
केवल तुम ही नहीं हो
सपने कौन था, पिताजी।
अगर तुम मुझे माफ़ करोगे, मेरे पास है
भेजने के लिए दूत।
हम्म।
अगर कोई कर सकता है
हमें बचाओ, यह मेरा बेटा है।
मुझे पता है। वह बहुत बहादुर है ...
वह और भी हो सकता है।
मैं आपको फिर से जाने का आग्रह करता हूं
उसके पास, मेरे प्यार।
उसे ताकत की आवश्यकता होगी
और आपके दिमाग की चमक।
आपको उसे माफ कर देना चाहिए
क्योंकि उसे आपको माफ कर देना चाहिए।
संलग्न रहने की कोई जरूरत नहीं है
मेरे जैसे मरने वाले जानवर के लिए।
अगर मैं नहीं चाहता तो क्या होगा?
त |
ो मुझे आदेश देना होगा
आप, अपने राजा होने के नाते।
मोहतरमाँ।
तुम सो क्यों नहीं सकते
क्या आप डरते हैं?
नहीं, मुझे डर नहीं है।
अच्छा। आपके पास नहीं
डरने का कारण
आपके पिता आप पर देखता है
पूरा वक्त।
लेकिन तुम मेरे पिता हो
मेरा मतलब तुम्हारा असली पिता है।
आप बहुत अच्छे से जानते हैं।
भिक्षु वे एथेलस्तान कहा जाता है।
ओह, वह बहुत था
पवित्र आदमी, अल्फ्रेड।
वह एक बहुत ही खास व्यक्ति था।
उसने हमारे सारे जीवन बदल दिए।
आपको गर्व महसूस करना चाहिए
उसके जैसे पिता होने के लिए।
मुझे भी गर्व है
तुम्हारे जैसे पिता हैं
इस तरफ!
आइए। सर्र से।
नॉर्थमेन के क्रोध से,
हे भगवान, हमें बचाओ!
शीघ्र!
भगवान उसकी दया में हो सकता है
आशीर्वाद और रखो।
और वह भ्रम बो सकता है
अपने दुश्मनों के बीच,
और तुम्हें लाओ
इस पवित्र युद्ध में जीत।
धन्यवाद् पिताजी।
अभी के लिए विदाई
किसी से मत डरो।
हम सभी जल्द ही एक साथ रहेंगे।
प्रिसे थे लार्ड।
मेरे पति,
आप हमारे प्यार से निकलते हैं,
और हमारी उम्मीदों को ले लो।
विदाई।
लाइव, लाइव, और लाइव!
मै कोशिश करूँगा। जैसा कि मैं भी कोशिश करूंगा
आप के योग्य होने के लिए, जूडिथ।
सबकुछ में,
एक मौसम है,
और हर किसी के लिए एक समय
सूर्य के नीचे उद्देश्य।
प्यार करने का समय,
और घृणा करने का समय,
युद्ध का समय,
और शांति का समय।
अब यह युद्ध का समय है!
यह नफरत करने का समय है!
मेरा बेटा,
मैं आपकी क्षमा चाहता हूँ।
में था
एक बहुत गरीब पिता,
लेकिन पता है कि मैं प्यार करता हूँ
तुम मेरे पूरे दिल से।
चलिए चलते हैं।
बाहर निकलो!
चलिए चलते हैं!
आगे! संरेखित!
ऐसा लगता है कि सैक्सन हैं
भयभीत महिलाओं के रूप में डरपोक के रूप में।
उनके दिल बेहोश हैं।
मुझे नहीं लगता कि वे
वास्तव में हमें परेशान कर सकते हैं।
आप पर्याप्त |
नहीं जानते, इवर।
आपने पर्याप्त नहीं देखा है।
ये बहादुर पुरुष हैं।
मैंने उनके खिलाफ लड़ा है,
आपने नहीं किया
मैं केवल देख सकता हूँ
मेरी आंखें मुझे बताओ, बोजर्न।
और जो मैं देखता हूं वह डरा हुआ है
हमारे सामने चल रहे लोग
मैं उनके निर्बाध भगवान को देखता हूं
हमारे देवताओं से दूर भागना
एक बार के लिए, आप बस क्यों नहीं
एक पुराने, बुद्धिमान भाई को सुनो?
ये लोग जो दौड़ रहे हैं
दूर, वे योद्धा नहीं हैं।
वो नहीं हैं
जो रहेंगे
और लड़ो
इस राज्य की रक्षा करें।
और उनके सम्मान की रक्षा करें। किस लिए
उनके सम्मान के बिना एक योद्धा है?
मुझे नहीं पता।
तुम मुझे बताओ, भाई।
और, मुझे दोबारा बताओ, कितने
क्या आप लड़े हैं?
वैसे ही, भाई।
सिवाय इसके कि मैं चारों ओर सवारी नहीं करता हूं
एक आरामदायक खूनी रथ!
आपको क्या सीखना है, इवर,
यह है कि अगर आप इसे तोड़ देते हैं
भाईचारे, हम सफल नहीं होंगे।
हमारे पास असंख्य है
हमारे सामने चुनौतियां।
तो, अगर आप चाहते हैं
बहस करने के लिए
और चमक रहा है
एक छोटी लड़की की तरह,
तो मेरा सुझाव है कि आप छोड़ दें।
हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है।
ओह, लेकिन आपको मेरी ज़रूरत है।
आपको क्यों लगता है पिताजी ने चुना
मैं उसके साथ इंग्लैंड आना चाहता हूं?
उसके पास ऐसा करने का कारण था।
उसने मुझे बताया कि मैं एक था
उसके लिए कौन काम करेगा,
कौन करेगा
यकीन है कि वह बदला गया था।
यदि तुम वही चाहते हो तो
सोचने के लिए, फिर सोचो।
मैं यह समझता हूँ
आपके लिए मुश्किल होना चाहिए
असली वारिस स्वीकार करने के लिए
महान रग्गर लोथब्रोक के लिए
होना चाहिए
एक क्रिप्ल और एक अस्वीकार।
तो यही वह है जो grunting है
छोटे सूअरों के बारे में सब कुछ था!
नहीं वहाँ नहीं!
मैं उन्हें कहां रखूंगा?
अपनी घंटी भरें, लड़के!
वो यहां है!
भगवान एथेलवुल्फ!
वह वहाँ है!
प्रिंस एथेलवुल्फ!
लेकिन मुझे अब उसकी ज़रूरत है! आप करेंगे
उसे मेरे लिए खोजना है।
यह सब आप आज मिल जाएगा।
आपका अनुमान क्या है
उनकी ताकत का? ईमानदारी से?
कौन बता सकता है?
तीन के बीच
या चार हजार।
यही वह है
मेरे जैसा लग रहा था।
हमने कभी नहीं देखा है
इससे पहले कुछ भी।
एक हमलावर पार्टी नहीं है,
लेकिन एक महान राष्ट्र सेना।
वे कहाँ जा रहे थे?
उन्होंने राजा एले को मार डाला
यॉर्क के पास,
और वे दक्षिण में आगे बढ़ रहे हैं
मिडलैंड्स, अब तक रेप्टन की तरफ।
क्या यह आपकी धारणा है कि वे सेट हैं
मेरे पिता के राज्य पर हमला करने पर?
वे इकट्ठे हुए हैं
वेसेक्स पर हमला करने के लिए एक साथ?
मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है।
ये बेटे हैं
रग्गर लोथब्रोक का।
वे बदला चाहते हैं
उनके पिता की मृत्यु के लिए।
उन्होंने एले को मारा।
लेकिन वे आपके पिता को जानते हैं
उनकी मृत्यु में शिकायत थी।
तो ऐसा लगता है कि वे अनिवार्य हैं
वेसेक्स के लिए मार्च कर रहे हैं।
Mmmहम्म।
मैं इस आदमी पर विश्वास करता हूँ।
मैंने हमेशा सोचा कि वे करेंगे
मेरे पिता के खिलाफ बदला लेने के लिए।
तो चलो रेप्टन की तरफ बढ़ें।
मुझे लगत |
ा है कि हमारा
भाग्य हमें वहाँ इंतजार कर रहा है।
Tanaruz!
Floki, उठो!
Floki!
हम्म?
यह क्या है?
वह जा चुकी है! तनारुज चला गया है
शायद यह बेहतर के लिए है।
तुम्हारी किस बारे में बोलने की इच्छा थी?
उसे कुछ डरा दिया
और वह भाग गई है।
वह खतरे में हो सकती है, फ्लोकी!
फ्लोकी, हमें उसे ढूंढना है!
मेरा प्रिय कहाँ है?
Floki, कृपया उसे खोजें।
Tanaruz?
मुझे माफ कर दो।
तुम हमसे नफरत करते हो
मुझे नहीं पता क्या करना है।
Tanaruz! मेरा बच्चा!
मेरा बच्चा!
क्या तुम ठीक हों,
क्या तुम नहीं हो
अंदर आ जाइए। अंदर आ जाइए।
वो यहाँ हैं।
अपनी स्थिति ले लो!
दीवार के लिए! गेट पकड़ो!
आप दोनो!
टावर लो!
दीवार पर!
वहॉ पर! उस उल्लंघन को बंद करो!
ग्रेट हॉल में!
एस्ट्रिड!
हम गलत जगह पर हैं!
Torvi! उन्हें खाड़ी में रखें।
जल्दी कीजिये!
हाँ!
आगे!
Egil!
रिट्रीट! चलिए चलते हैं! रिट्रीट!
वापस! नौकाओं पर वापस!
रुकें!
आह!
उसे रहने दो।
रिट्रीट! रिट्रीट! उसे छोड़ दो! आओ, पीछे हटो!
चलिए बाहर निकलते हैं!
चलिए चलते हैं! भागो!
छोड़ना।
ठीक है। मैं मानता हूं कि मैं था
एक मूर्ख उसे मारने के लिए नहीं।
आप सोचने के लिए मूर्ख थे
वह हमेशा आपके लिए इंतजार करेगी।
आप मूर्ख थे
लगता है कि वह तुमसे प्यार करती थी।
वह कैसे हो सकती है
उस से शादी करो?
शायद वह उसे प्यार करती है।
और, अगर वह उसे प्यार करती है,
तो वह कोई है।
क्या हाल है
अचानक इतना बुद्धिमान, भाई?
यह आपके ध्यान से बच निकला हो सकता है,
लेकिन मैं खुद से शादी नहीं कर रहा हूँ।
तुम जानते हो क्यों?
मैं महिलाओं को समझ नहीं पा रहा हूं
आप से ज्यादा कोई भी।
महिलाएं चंचल हैं। उसे भूल जाओ।
Ellisif?
मैं तुम्हें क्षमा करने आया था।
ये तुम्हारी गलती नहीं है
तुम मेरे लिए इंतजार नहीं कर सका।
आपने शाय |
द सोचा कि यह असंभव था
कार्य आपने मुझे किसी भी मामले में स्थापित किया था।
मैं कभी नहीं था
इसे प्राप्त करने के लिए माना जाता है।
आप वास्तव में कभी इरादा नहीं किया
मुझसे शादी करने के लिए, क्या तुमने?
मुझे माफ कर दो।
मुझे आपका नाम भी पता नहीं है।
मेरा नाम विक है,
किंग हेराल्ड
मुझे आपसे मिलकर खुशी हुई।
मेरा विश्वास करो, मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता था
व्यवस्था मेरी पत्नी के साथ थी।
Mmm।
लेकिन मुझे खुशी है कि
तुमने उसे क्षमा कर दिया है
Mmm।
नहीं! विक!
विक।
मुझे खेद है।
वे कहते हैं
आपको एगिल कहा जाता है!
एगिल द बस्टर्ड।
यही वह है जिसे वे आपको बुलाते हैं।
लेकिन तुम तो
न तो कान और न ही राजा।
आप कैसे कर सकते हैं
ऐसी सेना इकट्ठा करो?
आपकी सेना के लिए किसने भुगतान किया,
बास्टर्ड एगिल?
मैं क्यों तुम्हे बताऊ?
तुम मुझे मारोगे, मुझे जिंदा जलाओ,
चाहे मैं आपको बताऊं या नहीं।
यह सच नहीं है।
बेशक यह सच है!
खेल मत खेलो।
जैसा कि आप देख सकते हैं,
मेरे पास खेल के लिए कोई समय नहीं है।
हमने आपकी पत्नी को पाया।
उसकी तरफ देखो!
हमने उसे बताया है
अगर आप हमें बताते हैं
आपके लिए भुगतान किया
बेड़े और हमले,
तो हम आपके जीवन को छोड़ देंगे।
आप और आपकी पत्नी कर सकते हैं
एक साथ फिर से रहो। आनंद से।
मैं इस महिला को नहीं जानता।
बस उन्हें बताओ।
बस उन्हें बताओ, एगिल!
अगर मैं ऐसा करता हूं, तो यह आपके लिए है।
मेरे लिए नहीं।
मैं वैसे भी मर चुका हूँ।
शायद वे आपको छोड़ देंगे।
मुझे भुगतान किया गया था
किंग हेराल्ड फाइनहायर।
पर! पर!
गति को बनाए रखने के!
कृपया कॉल पर बने रहें!
रेखा!
जोर लगाओ!
पीछे की तरफ खींचो!
अपना फॉर्म पकड़ो!
रुकें!
रुकें!
वाह, व्हाओ, व्हाओ।
हॉल्ट!
क्या ख़बर है?
सैक्सन कम हैं
एक दिन की सवारी से दूर।
उनके पास एक बड़ी सेना है।
हम यहाँ शिविर बनायेंगे।
कल हम लड़ेंगे।
हमारे पिता के नाम पर,
हम होंगे कामयाब।
शिविर बनाओ!
यहाँ शिविर बनाओ!
आप शिविर बना सकते हैं।
मैं एक नज़र रखना चाहता हूँ
जहां हम लड़ने जा रहे हैं।
तुम्हारी किस बारे में बोलने की इच्छा थी?
वे हमें उम्मीद करेंगे
एक निश्चित तरीके से लड़ने के लिए।
हमें ऐसा क्यों करना चाहिए?
हम एक में लड़ने की योजना क्यों नहीं बनाते हैं
अलग रास्ता, और उन्हें आश्चर्य है?
हमारे योद्धा समझ नहीं पाएंगे
क्या हो रहा है।
हम ढाल की दीवार में लड़ते हैं।
इस तरह हम लड़ते हैं।
लेकिन अब हमारे पास एक बड़ी सेना है।
और उनके पास एक बड़ा है
सेना, अब, Hvitserk।
हम नहीं कर सकते
उसी तरह से लड़ो।
अब बदलना बहुत देर हो चुकी है।
आप यह कहने के लिए कौन हैं?
अपना मुंह बंद करें।
हम भाई हैं।
साथ में।
तुम क्यों ऐसा चाहते हो
रणनीति बदलो?
क्या आप जीतना चाहते हैं, भाई?
सुनो, मेरे साथ आओ, बोजर्न।
आइए जांच करें
युद्धस्थल।
शायद, इसके बजाय
एक संकीर्ण और छोटी जगह,
हमें
युद्ध के मैदान को फैलाओ
एक बड़े क्षेत्र में,
कई मील
और परिदृश्य का उपयोग करें।
खिंचाव, पहाड़ियों, जंगल।
आप क्या कहते हैं? |
अगर यह काम करता है,
यह एक अच्छी योजना है।
अगर ऐसा नहीं होता है,
तो यह एक बुरी योजना है।
एक साथ घोड़ों को बांधो!
आप किस का इंतजार कर रहे हैं?
हा!
क्या मैं आपसे बात कर सकता हूँ?
बात करें।
मैंने भूल की। मुझे खेद है।
मुझे इंतजार करना चाहिए था।
मैंने उसे कभी प्यार नहीं किया।
मैंने तुम्हें प्यार किया।
लेकिन लोगों ने मुझे राजी किया। उन्होंने मुझसे झूठ बोला।
क्या तुम समझ सकते हो?
आपका सपना लग रहा था
इतना लंबा समय दूर।
लेकिन मैं गलत था, तो गलत!
मुझे इंतजार करना चाहिए था!
और अब मैं देखता हूं क्यों।
आप बिल्कुल करने जा रहे हैं
आपने जो कहा वह आप करेंगे।
और मुझे चाहिए
तुम पर विश्वास किया है
और मैं अब तुम पर विश्वास करता हूँ।
मुझे माफ़ करदो।
ऐसा लगता है, आखिरकार,
मैं महिलाओं को बहुत बेहतर जानता हूँ
आप से, भाई!
आगे!
कीप अप!
सीधे रहो!
अपने रंगों को उच्च रखें!
सतर्क रहें!
हा!
आगे!
आगे!
कप्तान! पार्श्व!
तुम लोग! मुझे बाएं का पालन करें!
का पालन करें!
उन पर अपनी आंखें रखें!
चले जाओ! उठ जाओ! आइए!
ठीक है मुझ पर!
सर ई!
मुड़ो!
गोल चेहरा! पूर्ण मोड़!
उनके बाद!
चलते रहो!
एक साथ रहो!
मोड़! मुड़ो!
पीछे मुङो! पीछे मुङो!
मोड़! मुड़ो!
रक्षा दीवार!
रक्षा दीवार! गेट टूगेदर!
गठन!
अग्रिम!
एक साथ रहो!
अग्रिम!
आगे!
प्रिंस एथेलवुल्फ?
प्रिंस एथेलवुल्फ?
Mmm ...
चार विस्फोट
अगर तुम कहते हो तो।
जल्दी कीजिये!
हाँ!
Hyah!
वहां वे हैं, मेरे भगवान!
रुकिए!
वाह।
मैं उनका मूर्ख नहीं बनूंगा
या अब उनके डुप्ले!
आप कहते हैं कि वे चले गए
रेप्टन में उनके जहाज?
हाँ, मेरे भगवान एथेलवुल्फ़।
रेप्टन किस दिशा में है?
तब वह है
हम कहाँ जा रहे हैं
और अगर हम पहले रेप्टन पहुंचे,
और अपने जहाजों को नष्ट कर दिया,
तो हमारे पास होगा
इस लड़ाई के ब |
ेहतर!
लेकिन हमें तेज़ी से आगे बढ़ना चाहिए,
और उन्हें हमारे पीछे रखें!
ले जाएँ!
वे क्या कर रहे हैं?
वे कहाँ जा रहे हैं?
रेप्टन करने के लिए, मुझे कल्पना है।
नौकाओं के लिए?
वे हमारी नावों के लिए जा रहे हैं?
आप बेस्टर्ड अपंग!
तुम सही थे!
तुम सही थे! ओह, आप खूनी पागल प्रतिभा।
तुम सही थे!
निचे रहना!
लाइनों में जाओ!
रिज कवर! रिज पर!
शील्ड्स!
क्लोज़ अप! क्लोज़ अप!
साथ मिलकर काम करना!
अपनी पीठ को याद करो!
रक्षा दीवार!
चार्ज!
|
लोग नहीं मैं ही कहता हूँ कि मैं मूलतः आवारा हूँ और एक दौर था मुझे केवल मिस मुस्कराहट से लेना देना था। मिस मुस्कराहट एक तरह से मेरी पड़ोसन थीं। और मेरे पिताजी के चीफ की दूसरी बेटी भी। और उनकी अम्मा, सॉरी! मम्मा जो तीन बच्चों के बाद मोटापे के एक बहुत अच्छे साँचे में ढल चुकी थीं, नजदीकी ब्यूटी पार्लर की शान और संचालिका थीं। खासकर खूब चटक रंगों वाले लिपस्टिक अपने होठों पर उसकी आत्मा को घिसते हुए लगाती थीं। और होठों के किनारों पर बेहद बारीक आउट लाइनर देखने वालों को अपनी सीमा में बाँध लेता था। वे जब किचन के नाजुक पसीने वाली गर्मी में होती थी तब भी उनके चेहरे की गरिमा से वे सारी चीजें नहीं उतरती थीं। मैं सोचता हूँ कि वे मेक अप उतार कर ही सोती होंगी। लेकिन वहाँ तक मुझे नहीं पहुँचना हैं। मुझे तो बस मिस मुस्कराहट तक ही रह जाना है। हाँ! तो मिस मुस्कराहट के चेहरे पर भी अपनी मम्मा के गुणों की वे सारी परछाइयाँ थीं जिसका लेखा जोखा और पूर्वानुमान कोई पहले भी लगा सकता था। ऐसा जानिए कि दोनों एक ही कसौटी पर दो अलग अलग उम्र वाली थीं। मिस मुस्कराहट के बारे में आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि वे कुँआरी थीं। मतलब शादीशुदा नहीं थीं।
ऐसा मैंने एक घटना के बाद निष्कर्ष निकाला था। और हलके पाउडर या क्रीम वाले चेहरे के साथ अपनी मम्मा की ब्लेक एंड व्हाइट संस्करण लगती थीं... लेकिन वह चीज जिस पर मैं बेहोश होने की हद तक फिदा था वह थे उनके होंठ। इतने पतले कि जैसे होंठ होने की औपचारिकता भर पूरी कर रहे हों। नक्काशीदार। और बेहद मुलायम भी थे, यह मैंने कहानी के अंत में छूकर देखा था। इस कयामत वाली जगह पर लिप लिक्विड लगाती थीं... वह लिक्विड वहाँ उन रसों की उत्पत्ति कर देता था, जो कभी कभी दाएँ या बाएँ भाग रहे होते थे। उनके होंठों के ठीक ऊपर बाए तरफ जो काला तिल था, उसे शायद मेरी नजर ने पैदा किया था। क्योंकि मैं मानता हूँ कि पहले वे नहीं थे। यह तिल मेरे अंदर एक साहस पैदा करता था। वह एक ऐसी चीज थी कि मुझे लगता था मिस मुस्कराहट बाखुशी मेरे नाम कर सकती थी। लेकिन बस लगता रहा। और इसी नीव पर दुःस्वप्नों की शुरुआत होती है। जो रिसकर मेरे यथार्थ में भी टपकने लगते हैं। आप को कोई अतिरिक्त आनंद आए इससे पहले मैं बता दूँ कि कहानी अपनी शुरुआत की तरह खुशनुमा नहीं है। यह एक डरावनी किस्म कहानी है।
बाबूजी जी स्वभाव से यूकेलिप्टस की तरह एकदम सीधे थे। वे एक लेखा जोखा रखने वाले केंद्रीय कर्मचारी थे। ठीक ठीक कहूँ तो जो सरकार की लूट-पाट की योजनाओं का हिसाब और बही खाता रखने की जिम्मेदारी थी। हमारा घर उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमारेखा पर था। अम्मा आरा जिले से थीं। और हमेशा सीधे पल्ले में रहती थीं। कभी कभी बोलती थीं। उनका बोलना इतना नगण्य था कि आवाज से भरोसा उठा देने वाला था। गाहे बगाहे अम्मा जब भी बोलती घर में मिसरी की परछत्ती छा देती। घर में खट पट एकदम नहीं होती थीं। मेरे घर का जीवन बिलकुल गांधीजी के भोजन की तरह, नमकविहीन खान |
े की तरह था। गांधीजी का जिक्र इसलिए कि पिताजी गांधीजी को अन्य देशभक्तों के मुकाबले ज्यादे पसंद करते थे। मैं जैसा कि घोषित आवारा था। इसलिए पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। घर के ताखों में एकाध श्योर सीरिज के अलावा जो जो दो चार किताबें थीं, वे पिताजी की थीं। जिस पर मैंने गांधी के नाम के सिवा कुछ नहीं पढ़ रखा था। बेहद मन बना कर छुट्टियों में कभी कभार पिताजी उन किताबों को निकालते। और शायद दो चार पन्ने पढ़ कर रख देते थे। बाबूजी दिन भर में मात्र एक पेज से ज्यादा नहीं बोलते थे। अम्मा थी तो आफत विपत के समय ही कुछ कहती थीं। सब कुछ घर में घड़ी की तरह यंत्रवत चलता था। जैसे आप जब भी आएँ सुबह के वक्त हमेशा चाय तैयार मिलती थी। खाने में किस दिन क्या बनेगा निर्धारित था।
शुक्रवार के दिन बाबूजी के लिए सैजन की सब्जी बनती थी। सैजन खरीदना नहीं होता था। कालोनी में ही बगल के पेड़ से तोड़ कर लाया जाता था। जिन महीनों में सैजन के सीजन का दिन नहीं होता था उन दिनों सूरन, टिंडा, अरुई, सेम, ऐसी ही कोई रहस्यमयी सब्जी बनती थी। बाबूजी जब शाम में आते थे तब अम्मा कोई न कोई हलवा जरूर बना के रखती थीं। मान लीजिए किसी दिन वे न ही आए तब भी शाम में हलवा बना मिल जाता था। अगले दिन भी यह जानते हुए कि पिताजी नहीं आएँगे, ढलती हुई शाम में हलवा मिल सकता था। कोई विशेष कारण नहीं, बस इसलिए कि यह आदत और दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुका था। शनिवार चोखे और खिचड़ी का दिन था। माँ चोखा इतना लाजवाब बनाती थी कि मैं मान बैठा था कि उसकी पसंदगी अगर होगी तो यही है। घर इतना सादगीपूर्ण था कि जैसे शनिवार के दिन दूरदर्शन पर शाम चार बजे आने वाली कोई पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्म का संस्करण। सब कुछ मजे में और दुरुस्त था कि तभी पटना के एक कस् |
बाई शहर से डेल्ही को अचानक हुए ट्रान्सफर में एकाएक सब कुछ तहस नहस हो गया। और शायद सीधे सीधे इसका जिम्मेवार मैं साबित हुआ था। यह कहानी इसी संदर्भ में है।
हम तबादले में जैसे उजड़-पजड़ के आए और फिलहाल एक समय तक डेल्ही मेरे लिए अनजान जगह रही।
मुझ जैसे आवारों के लिए पान की दुकान किसी मंदिर की हैसियत रखता था। हाथ में जली हुई सिगरेट को अगर आप अगरबत्ती समझना चाहते हैं तो समझ सकते हैं। मैंने कालोनी के बाहर, जहाँ आंटी जी का पार्लर था, उसके सौ मीटर के घेरे में पान की दुकान को अपना अड्डा बना लिया था। मैं घर की बजाय वहाँ ज्यादा मिल सकता था। अगर नहीं मिलूँ तो मेरी सायकिल अक्सर वहाँ खड़े मिल सकती थी। वह इस बात का इशारा करती थी कि मैं कहीं भी होऊँ, जल्दी यहाँ पहुँच सकता हूँ। मेरे हाथों और होंठों के इर्द गिर्द अक्सर सिगरेट की एक काली गंध मिल सकती थी। मिस मुस्कराहट का गुजरना वहीं से एक खास समय के लिए होता था।
अम्मा, जिनकी हालत कालोनी के चकाचौंध से, ट्रैफिक में फँसी किसी गाय की तरह हो गई थी, घर से कम निकलती। चूल्हे चौकों से निकलती तो बरामदे में बैठकर चावल के दाने चुनती। जैसे दुनिया का सारा सुख उसी में समा आया हो। मैंने उनसे कई बार कहा कि अम्मा चलो डेल्ही घुमा लाता हूँ। लेकिन जैसे ही वे चौराहे से आगे बढ़तीं ऐसे घबराने लगतीं जैसे उन्हें दिल का दौरा आने वाला हो। कहतीं कि बस बचवा यहीं तक। और कोई सब्जी ली और घर की और लौट पड़तीं। कई बार पिताजी ने कहा कि यह आरा नहीं है। यह डेल्ही है बेगम। ये उलटा पल्ले करना छोड़ो और जरा सीधे पल्ले में भी रहा करो। अभी कौन सी उम्र चली गई है। अम्मा को जवाब देने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अपने को ऐसे रखतीं जैसे कुछ सुना ही नहीं। पिताजी कहते कि मुन्ना इस बार गाँव जाना तो दो बोरा चावल और लेते आना। और हो सके तो कुछ कंकड़ अपनी ओर से भी मिला देना। इसकी तो दुनिया यही है। और हँसने लगते।
पहले तो मैं अकेले यहाँ वहाँ घूम आता। चिकनी सड़के और हरियाली, पोश कालोनियाँ और उन्मुक्त लड़कियाँ मन को मयूर बना देती थीं। राजधानी के आस पास रहने का अलहदा एहसास अब जीवन में कायम होने लगा था। पढ़ना तो था नहीं। लेकिन राजनीति शास्त्र जैसे विषय लेकर मैंने पढ़ने का कोरम शुरू कर दिया था। वह इसलिए कि मन में कभी कभी ख्याल आता था कि आगे चलकर चुनाव लड़ा जाएगा। जैसा कि हमारी भारतीय राजनीति की बुनियादी योग्यता एक आँकड़े में दिखने लगी थी। यह एक हौसलादायक आँकड़ा था कि क्षेत्र के जितने आवारा थे वे बाद में अपराधी भी घोषित हुए थे और फिर हत्यारे की योग्यता हासिल की। और जेल से विधायकी का चुनाव लड़ा और जीत गए। मेरा मकसद इतना बड़ा नहीं था पर यह जरूर था कि कुछ नहीं तो कम से कम लोकतंत्र की छोटी इकाई प्रधानी पर तो जरूर हाथ आजमाऊँगा। पिताजी ने अगर साथ दिया तो प्रमुख का चुनाव भी लड़ा जा सकता था। और इसके लिए कम से कम बेसिक जानकारियाँ जरूरी थी। मसलन विधायिका क्या है? संसद कैसे काम करती है? हमारा लोकतंत्र |
क्या है? और योजनाएँ कैसे बनती हैं? और उस पर हमारे नौकरशाहों और जनता के प्रतिनिधि लूटपाट का कैसे गणितीय मिथक रचते-रचाते हैं। इन सभी कामों का विश्लेषण मेरे लिए अहम था।
इसके उलट किताब पलटते मुझे लगता था कि मेरे पाठ्यक्रम में प्लेटो, अरस्तू, मैकियावेली आदि के राजनीतिक सिद्धांत एक खुबसूरत गल्प या मजाक थे। इसलिए ये सब व्यक्तित्व मेरे लिए बस एक पौराणिक मिथक भर थे। ये कभी रहे होंगे, ऐसा मानने का मन नहीं करता था। हमारा तंत्र इन सब सिद्धांतों पर कितना आधारित था, यह भी मैं ठीक ठीक नहीं जानता था। और इन विद्वानों का हमारे निजी जीवन से, उसके दर्शन और गणित से कभी संबंध रहा होगा,इस बात से मैं इनकार करता रहा। हमारी सरकार, संस्थान, योजनाओं और उसके क्रियान्वयन से आँकड़ा छत्तीस का ही था। हमारी सरकारी योजनाओं के यथार्थ में ऐसे कई गणितीय धोखे थे जो अपने निष्कर्षों में किसी जादुई यथार्थवाद की तरह साबित होने वाले थे।
खैर !
अभी तो मेरे खेलने खाने और गाने के दिन थे। मैं चाँदनी चौक चला जाता। कनाट प्लेस घूम आता था। दरियागंज चला जाता। वहाँ पटरियों के अगल बगल कई साहित्यिक पत्रिकाएँ और महत्वपूर्ण किताबें धूल खाते खाते जर्जर हो चुकी थीं। उसके अगल बगल से शानदार गाड़ियाँ और लोग जाते थे। ऐसी गाड़ियाँ जो केवल और केवल महँगे शब्द में अर्थ भर देने के लिए बनी थी, उसके ऊपर से गुजर जाती रही। और विक्रेता की ऊब और खीज देखकर ऐसा लगने लगता था कि वह दिन जल्दी ही आने वाला है जब वह इन सब पोथियों को उठाकर वह नजदीक वाले बस स्टैंड पर मूँगफली वाले को बेच आएगा। और कोई बुद्धिजीवी अनजाने में उसपर मूँगफली लेकर टूँगता हुआ बस में चढ़ जाएगा... और सिगरेट के छल्ले बनाएगा। और किसी मोड़ पर वह उस कागज को, जिसपर किसी राजनितिक व्यक्तित्व का |
विचार लिखा रहेगा, को दोनों हथेलियों के बीच रगड़ कर खिड़की के बाहर फेंक देगा। वह पन्ना सड़क पर किसी झोंके से उड़कर पहले तो विचार से निकलेगा फिर सीधे सभ्यता से निकल कर ब्रह्मांड में गुम जाएगा... और जिस दाढ़ी वाले आदमी का उस कागज पर चित्र है, उसका नाम मार्क्स है। कहते हैं कि एक दिन उसके बल पर किसी देश में क्रांति हुई थी। सरकार बदल गई थी। वैसे ही जैसे अपने यहाँ गांधी ने किया था। और देश आजाद हुआ। सब कुछ के बावजूद गांधी क्रांतिकारी कभी नहीं कहलाए।
भारतीय संदर्भों में जो क्रांतिकारी कहलाए वे फाँसी चढ़ने वाले थे। आजादी मिली, ऐसा हम पढ़ते आए हैं। लेकिन लोग समझ नहीं पाएँ कि आजादी किस चिड़िया का नाम है। और बुद्धिजीवी इसकी अलग अलग हसीन व्याख्या करते रहें, जो आज तक जारी रही। जो नियम हमने लोकतंत्र के नाम पर लागू किए थे, वह नियम कम और नाटक ज्यादा था। कागजी खानापूर्ति के बोझिल नाटकों के साथ न्याय जैसे किसी कहानी का जादुई करतब भर था। जिसका असर तभी तक रहता था जब तक हाथ में पैसे थे... अंबेडकर, हीगेल, सिमोन, देरिदा, फूको, के विचार जो उसी फुटपाथ वाली किताबों में रचे बसे अपने भारतीय दिन का इंतजार कर रहे थे। उन स्वप्नों पर कोई दुनिया कायम होगी। लेकिन मौजूदा माहौल में यह ख्याल ही एक छलावे की तरह लगता था। और कुछ हो न हो, कोई आए या न आए, लेकिन कम से कम इन किताबों को उद्धार के लिए कोई आएगा या नहीं, यह भी मुझे ठीक से पता नहीं था। और मुझे इन सबमें जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कोई दिलचस्पी नहीं थी। आते जाते नजर पड़ जाती थी। तो बस एक सोचना भर हो जाता था। मैं था कि दिन भर उस पान के दुकान के सिवा जहाँ भी रहा भटकता रहता। बाते मैं और लिखूँगा पर उसके पहले एक बहुत सज धज कर आती सुबह पर एक नजर जो मेरे जीवन के रंगत को पलट कर रख देने वाली थी।
उस सुबह उठकर मैंने पाया कि सिगरेट खत्म हो गई है। और दिमाग के धुँधले भाप को पोछने के लिए उसके गर्माहट की तलब होने लगी थी। मैं चुरा कर पीता था। कारण थे पिताजी। पिताजी किसी भी मादक द्रव्य से न केवल परहेज करते थे बल्कि एक आधे घंटे के ऊपर तक इस पर भाषण भी तैयार कर रखा था। हो सकता है कि इन सब बातों पर गांधी जी का असर रहा हो। मैंने पूछा नहीं था। बस एक अनुमान भर लगा रखा है। क्योंकि गाँव में जिस किसी भी व्यक्ति को ऐसा करते देखते उसे बाकायदा बुलाकर उपदेश की घुट्टी पिलाते थे। लेकिन मेरे जाने में उनकी बातों का असर रत्ती भर नहीं होता था। खैनी खाने वाला इतना जरूर करता था कि जब भी वह हथेली को मलता आगे पीछे देख जरूर लेता कि पिता जी है या नहीं।
उस सुबह जब पान की दुकान से जब मैं घर की ओर बढ़ रहा था तब मिस मुस्कराहट को देखा। यह मेरा पहला देखना था। सुबह की नहाई हुई... जिसे विद्यापति ने सद्यस्नात कहा है। बालों में हलकी कंघी फेरे हुए। स्कूटी से जाते हुए। स्कूटी लाल रंग की थी। लाल रंग की यह स्कूटी बनाने वाले कंपनी का मालिक जैसा कि हमेशा होता है, एक पूँजीपति था। और उसे लाल रंग से |
बहुत लगाव था। उसके आँकड़े बताते थे कि यह रंग भारतीय संदर्भों में बेहद शुभ और पूजनीय है। और इस रुझान को देखते हुए उसने इस रंग की बनावट कुछ ज्यादा करनी शुरू कर दी थी। कुछ ऐसे ही समीकरणों से पूँजीपति घर की बेटी मिस मुस्कराहट भी थीं। जैसा कि बता चुका हूँ कि मिस मुस्कराहट के डैड उसी विभाग में एक बहुत बड़े पद पर थे, जिस विभाग में मेरे पिताजी थे। वे उनसे कई पायदान नीचे थें। मिस मुस्कराहट के डैड ने बहुत सारी प्रोपर्टी बना रखी थी। उस रुपये का पेड़ उगाने वाली नौकरी के साथ उन्होंने कई सारी एजेंसियाँ अपने नाम से ले रखी थीं। इसके अलावा उनका दिल्ली जैसे इलाके रियल स्टेट का करोड़ों का कारोबार था। पान वाला बताता है कि अभी दो साल पहले शादी में अपनी बड़ी लड़की को उसने कोई जगुआर दी थी।
मैं मिस मुस्कराहट को इस पूँजीवादी नजर से तो देखना नहीं चाहता था पर असर तो सामने आ ही जाता था। उस दिन बेहद हलकी और मुलायम धूप थी। ऐसी धूप जिसमें किसी चीज की ठीक ठीक परछाईं तक न बन पाए। इसलिए ठीक से नहीं बता सकता कि उसके प्रेम की मेरे अंदर परछाईं बनी थी या नही, लेकिन ऐसा देखते ही लगा था कि बस इसी लड़की की तो अपने अंदर कहीं खोज थी। वह कालोनी के मोड़ के पार्लर पर रुकी अंदर गई जो उसकी मम्मा का था और एक हैंड बैग के साथ बाहर आई। उसने हैंड बैग को अपने बाँहों में लटकाया और चल दी। बाद में पता चला कि वह हैंड बैग कोरियन था। और साँप के चमड़े का बना था। वह पान की उस दुकान से होते हुए गुजरी। जहाँ अब मैं खड़ा था। सिगरेट के कश लेते हुए मैंने महसूस किया कि नशे की गहराई दुगुनी हो गई है। इसके साथ ही मैंने यह भी नोट किया वहाँ दुकान पर खड़े हमउम्र लड़कों में एक चमक सी आ गई। यह दृश्य बिलकुल वैसे ही था जैसे हम किसी स्कूटी के विज्ञापन मे |
ं किसी ख्यात अभिनेत्री को टेस्ट ड्राइव करते हुए देखते हैं।
कुछ सवाल रह रह कर मेरे जेहन में उठ जाते हैं। जैसे प्रेम क्या पूँजी पर सीधे सीधे आधारित है? अगर नहीं तो क्या प्रेम को पूँजी अप्रत्यक्ष रूप से चुटकी भर नमक जितना भी प्रभावित करती है। अगर आपका उत्तर सकारात्मक रूप से दशमलवांश भी आता है तो अपनी बात कहने की एक जगह बन जाती है। मैं हमेशा से यह सोचता रहा कि प्रेम में दिए गए उपहारों में एक गुलाब महत्वपूर्ण है या कोई विमान? हमारे जीवन में संसाधन जो कि पूँजी की ही उपज हैं, कितने जरूरी हैं। हमारे द्वारा बनाया गया समाज में कोई न्यूनतम और अधिकतम उपभोग का कोई मानक है? आप हँस सकते हैं पर मैं इस बात को प्रेम के संदर्भ में सोचता हूँ कि मान लीजिए कि मिस मुस्कराहट को मुझे कुछ देना ही हुआ तो दो समानधर्मी प्रेम वाले दो लड़कों में (जिसमे मैं हूँ और मेरा रकीब है) वह किसे वरीयता देगी? पहला प्रेमी ताजमहल बना देता है और मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है (रखना तो नहीं चाहिए पर चलिए एक शर्त भी रख देते हैं कि दोनों को वह उतना ही चाहती है)?
यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मिस मुस्कराहट ने गली के आखिरी मोड़ पर जहाँ एक ब्रेकर है वहाँ अपनी स्कूटी रोक दी है। वहाँ एक लड़का है जो इंतजार में है। वह यामाहा की एक महँगी मोटरसायकिल पर है। वहाँ रुककर वह उससे कुछ देर तक बात करती है। और अपना आईपोड जो दिखाई तो नहीं दे रहा पर यकीनन किसी शानदार कंपनी का होगा, उसे देती है। लड़का उसे अपने कान में लगाता है और दोनों चल देते हैं। हो सकता है कि वह इयर फोन उसी लड़के का रहा हो। हो सकता है कि वह मिस मुस्कराहट का ही रहा है। हो सकता है कि वे दोनों एक ही कालेज में पढ़ते हों। हो सकता है कि वे एक ही इयर में हो। हो सकता है वे दोनों प्रेम में हो। और हो सकता था कि मेरे साथ प्रेम की कभी संभावना भी बने तो मेरी स्थिति त्रिकोण के उस सिरे पर रहे जहाँ से मिस मुस्कराहट की दूरी अनंत पर बैठे। जिसे मेरी अदनी सी सायकिल पूरी न कर सके।
लोग कहते हैं और मैं मानता भी हूँ कि धर्म के बाद नशे में शराब का नशा सबसे बुरा है। लत लग जाए तो जीवन या तो तबाह कर देती है। कुछ परम शराब भक्त कहते हैं कि बना भी देती है। शराब सदियों से मशहूर शायरों, कलाकारों, और बुद्धिजीवियों के चिंतन का सहारा रहा है। यह धरती पर मिलने वाली सबसे ख्यातिलब्ध चीज थी। प्रखर मार्क्सवादियों, पूँजीपतियों के साथ साथ मजदूरों का भी संबल रही है। यह वर्ग अंतर जरूर रहा है कि जहाँ ये लोग वोडका, व्हिस्की, रम इत्यादि के विदेशी ब्रांड पीते रहें वही मजदूर जैसे रिक्शाचालक, सफाई करने वाले, चौकीदार, कुली, ठेला वाले, बेलदार, इत्यादि ठर्रे, महुए, ताड़ी और जहरीली शराब पीते रहें। जहाँ तक मुझे पता है कि गांधीवादी चिंतन में यह तरल पेय सिरे से गायब है। लेकिन उस शाम की बात है जब मैंने भी इसकी शुरुआत कर दी थी। इसकी सीधे सीधे वजह पिताजी थे। और पिताजी के लिए वजह मिस मुस्कराहट के डैड!
जैसा कि मैंने पहले |
बताया था कि पिताजी केंद्र की एक नौकरी में लेखा जोखा अधिकारी थे। और मिस मुस्कराहट के डैड भी उसी विभाग में ऊँचे पद पर थे। सीधे सीधे वे चीफ की हैसियत से थे। पहले तो मुझे नहीं पता था। लेकिन एक दिन सुबह की सैर से लौटते हुए मुझसे इस बात का जिक्र पिताजी ने उनके आलीशान घर को दिखाते हुए कहा था कि वह देखो मेरे चीफ का घर। और फिर वे चुप हो गए। उस चुप्पी के घनत्व में इतना दम था कि एकाएक मुझे लगा कि मैं छोटा हो गया। यह सूचना तो मुझे देर सवेर मालूम चल ही जाती। लेकिन मुझे दिखाकर अचानक चुप हो जाना, मुझे साल गया। मैं जानता था कि पिताजी इतने नेक थे कि किसी का अनर्गल पैसा लेना नहीं चाहते थे। जिसे कि हम घूस कहते थे। अगर लेते तो बस एक इशारे से इतनी रकम तो कमा ही लेते कि गाँव से जुड़े किसी अच्छे कस्बे में अच्छा सा देखने लायक मकान बन जाता। उस दिन पिताजी क्या कहना चाहते थे। उनकी चुप्पी का कई सारा अर्थ था। उस आलीशान हवेली के ऊपर जो आसमान चमक रहा था वह चटक नीला था। लेकिन वही आसमान वहाँ से कुछ दूर की झुग्गी झोपड़ियों पर भी चमक रहा था। मैं सोचता था कि एक ही समय दो अलग अलग जगह चमकता वह आसमानी टुकड़ा किसी समय की व्याख्या के लिए कितना महत्वपूर्ण था। बिलकुल पिताजी के चुप्पी की तरह।
एक फीके दिन की एक शाम जब वे घर आए तो थकान में डूबकर बरामदे वाली कुर्सी पर पसर गए। शाम में माँ हलवा रख गई। देर तक बैठे रहे। बरामदे में शाम भरती गई। और रात हो आई। मैं ढली रात जब घर आया तो माँ ने कहा कि शायद पिताजी की तबियत ठीक नहीं है। जाकर पूछ लो कोई दवा तो नहीं लानी होगी। मैं गया और उनकी तबियत के बारे में पूछा और देर तक बैठा रहा। खाना खाने के बाद भी बैठा रहा। जब सोने के लिए अपने कमरे में जाने लगा तो उन्होंने कहा कि मुन्ना! किसी श |
राब का नाम जानते हो। कौन सी शराब सबसे अच्छी होती है।
दफ्तर में बात ही बात में पिताजी के चीफ ने घर में दावत रखवा ली थी। जैसे कि होता है अक्सर चीफ तानाशाह होते हैं। मिस मुस्कराहट के डैड भी उसी में से एक थे। पिताजी से उसने यह कह रखा था कि पार्टी में शराब उसी तरह जरूरी होनी चाहिए जैसे कि पूजा में अगरबत्ती। और सब तो ठीक था। पिताजी सहर्ष राजी थे। पर शराब की बात से वे बिदक गए। उन्होंने कहना चाहा था कि साहेब और सब तो ठीक पर मैं शराब पीने पिलाने की दूर उसके बारे में सोच भी नहीं सकता। बस यही बात उनके गले में अटक कर फाँस बन गई। चीफ के सामने निकल ही नहीं पायी। और इसी सोच में वे देर तक बैठे रहे। बाद में जब उस चपरासी के माध्यम से यह बात कहलवाई, जो रिश्वत लेने में दलाली का काम करता था, तो चीफ हँसने लगे। 'अरे पीता नहीं है तो पिला तो सकता है' सुनकर पिताजी की कनपटी की एक नस तनाव में तन गई। कोई और दिन और कोई और आदमी होता तो पिताजी कान के नीचे एक दे देते। पर एक मिनट पिताजी हिंसा में विश्वास नहीं करते थे। तब? तब वे क्या करते मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए।
अगले दिन मैं दौड़ता रहा। घर की सजावट अति सामान्य थी। लाफिंग बुद्धा के सिवा अनर्गल कोई ऐसा सामान नहीं था, जिसकी जरूरत न लगे। सबकी जरूरत थी। परदे, चादर भी थे पर महँगे नहीं थे। स्टेट्स सिंबल का एक जर्रा तक न था। खादी की उपस्थिति विशेष थी। माँ को ऐसा कोई ज्ञान और शौक नहीं था जिससे वह सिलाई कढ़ाई-बुनाई जैसा कोई गुण रखती। मैं चादर, परदे। क्रोकरी, चाय के अच्छे बरतन, कालीन, शराब पीने के खास गिलास, खास नमकीन, सोडा, मुर्गे, अंडे मछली आदि इत्यादि सामान खरीद लाया था। यहाँ तक कि घर में फ्रिज जैसी सर्व साधारण चीज नहीं थी। तो अलग से बर्फ भी लानी पड़ी थी। मेरे घर में एयर कंडीशन भी नहीं था। अलबता बोनस के पैसे से कूलर का जुगाड़ जरूर हुआ था। पिताजी के विभाग में ऐसे कई पहुँचे हुए चपरासी थे जो केवल दलाली की बदौलत अच्छी रकम बटोर चुके थे। और सुख के वे सभी साधन जुटा चुके थे जो हम लोग सोच तक नहीं सकते थे। खैर! माँ के साथ मैं घर की सजावट में लग गया था। इन सभी कामों में उस दलाल चपरासी ने काफी मदद की... कहा जाए कि निर्देशन किया था।
रात के करीब नौ बजे चीफ और उनके दोस्त आए थे। तब तक हम दिन भर के कामों से थककर चूर हो गए थे। वे पहले से ड्रिंक किए हुए थे। बरामदे में जहाँ थोड़ी सी ऊँचाई है वहाँ उनका दोस्त लडखड़ाया था, जिसे मैंने लपक कर थाम लिया। चीफ ने कहा कि करमचंद बहुत प्यारा और फुर्तीला बेटा है तुम्हारा। पिताजी ने आगे बढ़कर चीफ का अभिवादन किया था। मैंने गौर किया कि पिताजी की आँखों में अजब किस्म की विनम्रता चमक रही थी। जो बमुश्किल से खिंच तान कर आई थी। चीफ की आवाज कुत्ते और शेर की गुर्राहट की मिली जुली आवाज थी। शराब पीने से उसकी आँखों की लालिमा उसके नीचे फैले कालेपन पर चढ़ आती थी। और भयावह दिखती थी।
दलाल चपरासी किचेन में मदद कर रहा था। ट्रे वही ले के जाता |
था। बीच में कुछ घट जाता था तो मुझे बुला लेता था। मैं भी किचेन में ही था। और मिठाइयों को सजाने में मदद कर रहा था। बोतल खोलने और ढालने में मदद कर रहा था। और सामान तो रेडीमेड आ गए थे पर पकौड़े तुरंत बनाकर गरम गरम परसे जाने थे। मछली हल्दी लगाकर रख दी गई थी। और समय पर माँगे जाने पर तली जानी थी। सो रुककर मैं अम्मा की भी मदद कर दे रहा था। चीफ के चार दोस्त थे जो उसी विभाग से थे। क्या पता वे चीफ से भी ऊँचे पद पर रहे हों। जैसा की बातों से अनुमान लगाया जा सकता था। और कुल मिलाकर वे बाते कम और हल्ले ज्यादा कर रहे थे। दलाल चपरासी अपने चीफ को छोड़कर और शेष चार दोस्तों के लूटपाट के हिसाब का बखान कर रहा था। वह उनकी औकात बता रहा था। जिसके आगे मैं दब दब जाता था और अम्मा सहम सहम जाती थी।
पिताजी वहीं निष्क्रिय बैठे थे। और वे जैसा कि मैंने पहले बताया कि बात कम करते थे और जो पियेला है उससे सिवाय उपदेश के कुछ बात कर भी नहीं सकते थे। अचानक चीफ चिल्लाने लगे। उनकी चिल्लाहट सुनकर मैं अंदर गया। चीफ ने जैसे ही मुझे देखा अपने पास बुलाया और पिताजी से मुखातिब हुआ। घर में सोफा एक ही था लंबा वाला। जिस पर वे चारों बैठे थे। सोफा जैसे दम तोड़ने वाली स्थिति में था। चीफ ने मेरा हाथ पकड़ा और पिताजी से पूछा कि बताओ तुमने अपने बेटे के भविष्य के लिए क्या योजना बनाई है। कितनी जमीन है। कितने की पालिसी है... कितना इन्वेस्ट किया है? भगवान न करे मान लो कल तुम मर ही गए तो सोचा है कि बीवी बच्चों का क्या होगा? इसीलिए कहता हूँ कि हाथ धोकर बस कमाओ। पैसे तुम्हारे सर के दाएँ बाएँ से होकर जा रहे हैं। बस पकड़ लो। अपना नहीं सोचते हो तो बच्चों का तो सोचो। गाँव में कम से कम एक पक्का मकान बनवा लो। जानते हो तुम्हारे एक साइन की कीमत तुम् |
हें लाखों में मिल सकती है। करना कुछ नहीं है। फँसना-फँसाना कही नहीं है। अरे ऊपर हम लोग किस दिन रात के लिए बैठे है।
...क्यों भाई! उसने सामने बैठे अपने दोस्त की ओर देखते हुए कहा था, जो नशे में धुत्त था। जाओ बेटा सोडा ले आओ कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और शराब की बोतल पकड़ ली। मैंने सोडा ले जाकर दिया और किचेन में लग गया। दलाल चपरासी ने जोड़ा कि साहेब आज पूरा मूड में हैं। चीफ की बात में हरियाणा का बोली का पूरा असर था। एक बार फिर हल्ला हुआ तो मैं फिर गया। क्या देखता हूँ कि चीफ पिताजी को एक शराब की गिलास थमा रहा है। और कह रहा है कि बस थोड़ा सा चखो। मेरी कसम। मेरी बात की तो कुछ कीमत ही नहीं है। पिताजी ने गिलास पकड लिया है। और थामे थामे खड़े हैं कि क्या करें। पीओ यार ...पीओ। ...एक घूँट से क्या होने वाला है। दुनिया पलट थोड़े जाने वाली है। मेरा मन किया कि जाकर उसके कान के निचे एक चमाट दूँ। लेकिन क्या किया जाए। मैं आगे बढ़ा और पिताजी के हाथ से गिलास छीन लिया और चीफ से बोला कि पिताजी नहीं पीते हैं और नहीं पिएँगें। थोड़ी देर तक शांति छाई रही। फिर चीफ अचानक हँसने लगा। अरे मैं तो बस मजाक कर रहा था। तुम तो बेवजह लोड ले लिए बेटा! मजाक! यह कैसा मजाक था। मैं समझ नहीं पाया। और बात आगे न बढ़े इसलिए मैं चुप रह गया... अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मजाक की भी खोज किसी गंभीर मुद्दे के संधान के लिए किया गया होगा।
चीफ की दावत रात के दो बजे खत्म हुई। इन सभी घंटों में मुझे और घर वालों को घुटन से ज्यादे कुछ नहीं मिला था। चीफ ने जाते हुए पिताजी से कहा कि करमचंद भाई हमारी भी मदद किया करो। क्या बिगड़ जाता है। साथ में मिल जुल कर रहने में फायदा है। और फिर माता जी के लिए उसने पार्लर का पता दिया। और कहा की जब भी जरूरत हो निःसंकोच चली जाया करें। और घर तो अपना ही है। कभी कभी आया करो आप सब। मुझे पता नहीं कि कोई चीफ अपने कनिष्ठ को कभी घर भी बुलाता हो। पर शराब माथे पर चढ़ी हो तो जरूर बुलवा देती है। हम हाँ में हाँ मिलाते गए। इस तरह से दावत खत्म हुई। घर में सिगरेट, शराब, मछली की मिली जुली गंध बची रह गई। जिसे हम जल्दी से साफ कर देना चाहते थे।
यहाँ मैं पिताजी की मनोस्थिति का रेखाचित्र नहीं खीचूँगा, बस आपकी कल्पना के लिए छोड़ देता हूँ। सबके जाने के बाद मैं कमरे में कुछ देर तक पड़ा रहा। फिर जब नींद नहीं लगी तो किचेन में गया और सिगरेट लिया। सामने बोतल रखी हुई थी। उसे पहले एकटक देखता रहा। फिर उठा लिया और सब लेकर छत पर आ गया। सामने दिल्ली की दूर दूर तक चमकती हुई रोशनियाँ थी। मैं देर तक देखता रहा। और गिलास के साथ कश लेता रहा। अचानक आँखों में पानी उतर आया। उसमे सब चमक धुँधलाने लगी थी। चाँद अब जर्द पड़ गया था। और उसका इस शहर में कुछ महत्व भी नहीं था। इतनी चमक दमक में वह बीमार सा दिख रहा था।
किसी भी किस्म के स्वप्न से लगातार मुझे डर लगता रहा। मैं हमेशा रात भर की एक लंबी और स्वप्नहीन नींद के पक्ष में रहा। |
मुझे जागती दुनिया हमेशा अच्छी लगी स्वप्न हमारे अवचेतन को दर्शाते थे। और अवचेतन एक ऐसा अँधेरा था जो लगातार मेरे यथार्थ का भयानुवाद करता रहा। जैसे बहुत सारी चीजें ऐसी आती रहीं जो रात की नींद हराम कर देती थीं। राजनीति का बहुत कमजोर विद्यार्थी होने के कारण सारे अधिकार और कर्तव्य भले याद न हो पाते थे या परिभाषाएँ एक में मिल जाती थीं पर अलग से मेरा सोचना यह था कि किसी भी नागरिक को कम से कम अच्छे स्वप्न देखने का अधिकार होना चाहिए था। और उसके लिए एक सुंदर संभाव्य यथार्थ। जैसे कि यह स्वप्न मेरे लिए किसी भयावहता से कम नहीं था कि मैं मिस मुस्कराहट से प्रेम करता हूँ। यह चीज तो थी। लेकिन बस अवचेतन का एक हिस्सा भर थी। इसकी ठोस यथार्थवादी शुरुआत एक दिन की घटना के बाद से शुरू हुई थी। फिर तो स्वप्न से यथार्थ और यथार्थ से स्वप्न की एक लंबी कड़ी ही शुरू हो गई।
पहले उस स्वप्न की एक बात जो भुलाए नही भूलती है और इस स्वप्न से सच कहूँ तो मुझे बहुत पहले सीख भी ले लेनी चाहिए थी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका था। उस रात मैंने देखा कि दोपहर का समय है और मैं और मिस मुस्कराहट दिल्ली की किसी माल में टहल रहे हैं। माल एकदम सूनी हवेली की तरह खाली है। सारी दुकानें सजी हुई हैं। पर दुकानदार कोई नहीं है। सिनेमा होल में फिल्में अपने आप चल रही हैं। सारे सिनेमा होल में मैं ही बैठा मिलता हूँ। सीढ़ियाँ यंत्रवत गतिमान है। मैं देखता हूँ कि मैं और मिस मुस्कराहट उस पर आ रहे हैं और जा रहे हैं। मुझे प्यास की तलब होती है। मैं सिनेमा होल के कार्नर में पानी खरीदने के लिए भागता हूँ। वहाँ कोई नहीं है वहाँ का दुकानदार मैं ही हूँ। मैं चौक जाता हूँ। वह जो मैं ही हूँ, नहीं चौकता है। मैं खुद से एक ग्राहक की तरह व्यवहार करता हूँ। मैं उसस |
े पानी माँगता हूँ। वह एक बोतल पानी देता है। मैं उसे सौ की नोट देता हूँ। वह भीतर से किसी से छुट्टे की माँग करता है। मिस मुस्कराहट आती है। और वह चेंज मेरे हाथ पर रखती है। सिक्के जो की मेरी हथेली पर हैं, देखते ही देखते बिच्छुओं में बदल जाते हैं। मैं झटक कर बाहर भागता हूँ। पानी की बोतल वहीं छूट जाती है। मैं बाहर आता हूँ और सड़कें सुनसान मिलती है। मैं घर की ओर भाग रहा हूँ। रास्ता भूल गया लगता हूँ।
एक गली में घुसता हूँ तो गली में गली और गली में गली मिलने लगती है। एक सघन अबूझ अंतर्जाल। मैं आँखें मूँदे भाग रहा हूँ। एक मोड़ पर कोई मरा सा पड़ा हुआ लेटा है। मैं उसे के निकट जाता हूँ। और जैसे ही उसका चेहरा देखने के लिए झुकता हूँ वह एक झटके में उठ खड़ा होता है। वह आदमी मैं ही हूँ। दाढ़ी खूब बढ़ी हुई है। और बरसों से जैसे नहाया नहीं हूँ। वह पीछे से मेरी गर्दन पर चाकू रख देता है। और जैसे ही दबाव बढ़ने लगता है मैं उसे झटक कर भागता हूँ। गली से आगे निकलते हुए मैं चार आदमियों को जाते हुए देख रहा हूँ। मैं जैसे ही आगे बढ़कर मुड़ कर देखता हूँ पाता हूँ कि वे मेरे ही चेहरे हैं। मुझे मेरा घर सामने दिख रहा है। मैं और जोर लगाकर भागता हूँ। घर का दरवाजा जैसे ही मैं खोलता हूँ वैसे ही मैं पाता हूँ कि मैं किसी भयावह खंडहर में पहुँच गया हूँ। यह खंडहर चीफ के आलीशान घर के हिस्से जैसा है। अचानक एक बड़ी सी गाड़ी में मुझे मिस मुस्कराहट मुझे दिखाई देती है। मैं चिल्लाता हूँ। मैं फिर चौक जाता हूँ। ड्रायवर की सीट पर मैं ही बैठा हूँ। वह धुल उड़ाते हुए मेरे सामने से गुजर जाती है। अचानक आगे जाकर किसी को कुचल देती है। मैं दौड़कर आगे बढ़ता हूँ। उस लहूलुहान व्यक्ति को उठाता हूँ। यह पिताजी हैं। और मेरी नींद खुल जाती है।
इतना सन्नाटा है कि घड़ी की टिक टिक साफ सुनाई दे रही है। मैं पसीने से तरबतर इस स्वप्न से इतना भयभीत हो गया हूँ कि कई सारे टुकड़े जैसे यथार्थ में लिथड़कर चले आए हैं। क्षणों के कई अंतराल खुद इस बात को समझाने में निकल जाते हैं कि नहीं यह कोरा स्वप्न है और यथार्थ से रिश्ता दूर दूर तक नहीं। मैं उठता हूँ और किचेन में जाता हूँ। एक गिलास पानी पीता हूँ। और फिर पिताजी के कमरे में जाता हूँ। पाता हूँ कि पिताजी के साँस लेने की आवाज गूँज रही है। यह मेरे लिए राहत की बात है।
उस दिन के बाद मैंने नोट किया था कि पिताजी की चुप्पी गहन से गहनतर होती गई थी। पहले तो वे घर पर ऑफिस के काम की कोई फाइल नहीं लाते थे। अब लाने लगे थे। रोजाना दफ्तर के अलावा वे अब दो घंटे शाम में काम करते थे। और बार बार अपना चश्मा पोंछते जाते थे। हलवा रखा का रखा रह जाता था। बेहद थके से दिखते। तनावपूर्ण चेहरे जल्दी पहचान में आ जाते है। संख्याओं का एक मकड़जाल था जिसमें वे उलझे रहते थे। मुझे यह नहीं मालूम था कि पिताजी जोड़-घटाना में कैसा और कौन-सा सूत्र लगा रहे हैं। पूछने पर बताते कि किन्हीं सरकारी योजनाओं की फाइल थी। एक दिन मैंने देखा कि फाइल |
के कई बंडल वे घर ले आए हैं और पूरी आलमारी भर दी है। दिन रात फाइलों में उलझे रहने के कारण उनकी आँखों के नीचे काली लालिमा हो आई थी।
एक दिन मुझे एक फाइल देते हुए कहा कि इसे ले जाओ और चीफ के घर दे आओ। पहले तो मैं जाना नहीं चाहता था। लेकिन पिताजी का आदेश था इसलिए जाना पडा। चीफ के घर जाने के लिए एक बड़े से गेट और कुत्तों से होकर गुजरना था। घर में सबसे पहले भेंट मिस मुस्कराहट से ही हुई। मैंने कहा कि यह फाइल साहब को देनी है। उसने एक कमरे की ओर आवाज दी। डैडी! कोई फाइल लेकर आया है। चीफ निकले। वे शेविंग कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बैठने के लिए कहा और मिस मुस्कराहट की ओर देखते हुए कहा कि इसे पानी वगैरह पिलवाओ... अपने करमचंद का बेटा है। मिस मुस्कराहट ने एक मुस्कराहट मेरी ओर फेंकी। 'आइए'। मैं एक शानदार गेस्ट रूम में बैठाया गया। और किसी को पानी पिलाने के लिए आदेशित कर दिया गया। मिस मुस्कराहट ने इस बीच मुझसे कई सारे सवाल पूछे। यह जानकार कि मैं राजनीति का विद्यार्थी हूँ, जोर से हँसने लगी। उसने कहा कि राजनीति कोई पढ़ने की चीज होती है। मैंने कहा कि और क्या! उसने जो कुछ बताया वह चौंकाने वाली बात लगी। उसने कहा कि राजनीति पढ़ने की नहीं, करने की चीज होती है। पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग अमूमन राजनीति में भाग नहीं लेते हैं। उसने कहा कि दो चार दिन में उसके कोलेज में एक फंक्शन है... वह नाटक में भाग ले रही है और मुख्य भूमिका में है। और मुझे जरूर आना चाहिए। उसने यह भी कहा कि मैं चाहती हूँ कि तुम कोई उसमें रोल करो। मैंने वादा किया कि आऊँगा और भूमिका निर्वहन के बारे में सोच कर बताऊँगा।
नाटक शेक्सपियर का था। मैकबेथ। और प्रेतात्माओं की उपस्थिति में कुछ पात्र कम पड़ रहे थे। सो उसने कहने पर और कुछ मेरी रुच |
ि भी थी। मैंने हामी भर दी थी। डेल्ही कॉलेज के उस स्कूल का ऑडीटोरियम बेहद भव्य था। उसका कैंटीन और बन रहे उसमे पकवान, रुचिकर थे। वहाँ के टेबल और मेज पर चाय पी रहे लड़के और लड़कियाँ दुनिया जहान की बातें कर रहे थे। जिसमें सर्वाधिक उच्च सुर दुनिया को जल्दी से बदल देने के बारे में था। इसके सिवा बात बात में हँसी और मजाक से फूटते हुए गुब्बारे थे। मैंने वहा बैठकर बातें सुनी। वहाँ मेरे राजनीति विषय के ख्यातिलब्ध विद्वानों के अलावा भी कई महान कवि, दार्शनिकों, विचारकों, संगीतकारों और कलाकारों की बातों को कोट किया जा रहा था... मैं नहीं समझ पाता था कि इतने जहीन विचारों वाले विद्यार्थी आखिर कॉलेज से निकल कर कहाँ जाते हैं... अगर ये ऐसे ही विचारों से लैस होकर जब जाते हैं तो क्या वे सिस्टम का एक हिस्सा बन जाते हैं। क्योंकि जितना सुंदर इस कोलेज में उत्पन्न और चलायमान विचारधाराएँ थीं उतना ही कैंपस से बाहर का वातावरण दूषित था। हमारी नाटक की टीम अक्सर वहाँ बैठती थी। वहाँ हम (जिसमे मैं चुप ही रहता था) नाटक के संक्षिप्तीकरण से लेकर उसके बहुलतावादी अर्थों बहस करते थे।
नाटक का वह हिस्सा और दृश्य जहाँ मुझे आना है वहाँ एक लंबे टेबल पर मोमबत्तियों की जलती हुई श्रृखलाएँ रखी हुई हैं। कुछ ऐसा परिदृश्य तैयार किया गया है कि परदे पर खिंची आकृतियों का उतार चढ़ाव राजमहल की दीवारों जैसा लगा। और लेडी मैकबेथ की भव्य भूमिका में मिस मुस्कराहट को वहाँ से गुजरना है। लगभग अर्धनिद्रा में। कदम थोड़े से लड़खड़ाते हुए पड़ने थे। सारी पोशाक पाश्चात्य तरीके की हैं। मिस मुस्कराहट पहले से ही सादगी के ओज में ढाती रहती थीं। मेकअप के बाद तो वे और जानलेवा साबित होती थीं। होंठों के बाएँ सिरे पर अलग से कोई कृत्रिम तिल लगाने की कोई जरूरत नहीं थी। खुदा ने पहले से बक्श रखा था। जो किसी बुरी नजर की ताकत को त्वचा को छूने से पहले ही सोख लेता था। इस मोमबत्ती वाले हिस्से में लेडी मैकबेथ को लहरा कर चलना था। जिससे मंच के ऊपर हिसाब किताब से प्रकाश और अँधेरे का एक जुगलबंदी चल सके। और ठीक उसी समय मेरी उपस्थिति होनी थी।
लेकिन रिहर्सल की एक दुर्घटना ने मुझे मिस मुस्कराहट के और करीब कर दिया था। लेकिन इस दरमियाँ मैं मैकबेथ की भूमिका वाले लड़के का परिचय देना भूल ही रहा हूँ जो इस कहानी में केंद्रीय हस्तक्षेप की तरह मौजूद था और हमेशा आईपोड कान में लगाए घुमता था उसके पास किसिम किसिम के आईपोड थे। और उनमे भरा था एक रॉक संगीत। मैंने उसका जिक्र पहले ही किया था। यह वही लड़का था जिसे उस दिन मिस मुस्कराहट ने अपने कान से निकालकर आईपोड दिया था। बाद में पता चला कि इसका नाम ही आईपोड था। यह उनके कॉलेज के दोस्तों का दिया हुआ एक निक नाम था। आईपोड के बाल लंबे और घुँघराले थे। उसके चचा विधायक थे। आईपोड के चाचा और चीफ का जो रिश्ता था। वह व्यापारिक था। इस तरह से मिस मुस्कराहट और आईपोड के नजदीक आने के हजार कारण बनते थे। मेरा एक कारण था प्रेम जो शायद अभी तक |
मेरी समझ से भी बाहर था, वह इन कारणों के बरक्स कितना टिक पाएगा मैं नहीं बता सकता।
लेकिन एक वजह जो देखा जाए तो मिस मुस्कराहट मेरे नजदीक आई थी। उस दिन हुआ क्या था कि रिहर्सल में शाम हो आई थी। मैकबेथ अपनी तलवार चलाने की बारीकी और हुनर सीखने में मगन था। और इधर लेडी मैकबेथ का रिहर्सल उन जल रही मोमबत्तियों के बीच से होना था। मंच पर भरपूर अँधेरा था। परदे के बीच से कई आवर्तन में घुमकर लेडी मैकबेथ को अपनी पोशाक के लहराव से मोमबत्तियों के प्रकाश को अँधेरे की ओर एक खास दिशा देनी थी। और यह कई बार करना था। इन्हीं के बीच समयों में मुझे दूसरे परदे की आड़ से चुड़ैलों के साथ निकलना था। और संवाद के बीच अपनी क्रियात्मक उपस्थिति जिंदा रखनी थी। हुआ यह था कि उस खास एक्ट को करते वक्त मिस मुस्कराहट की पोशाक ने आग पकड़ ली थी। मिस मुस्कराहट चीखने लगी। इससे पहले कि वे बदहवास होकर भागें और आग अपनी रवानी पर हो मैंने उन्हें पकड़ कर जमीन पर लिटा दिया था। और साथ में लुढ़कते हुए बहुत दूर तक चला गया। यह एकदम फिल्मी दृश्य था।
यही से मुस्कराहट का लगाव मेरी ओर हुआ होगा। पहले कुछ खास नहीं थी लेकिन अब मेरे प्रति उसके व्यवहार में एक विशेष नरमी आ गई थी। इस दुर्घटना से हदसकर निर्देशक ने इसे हटाने का फैसला कर लिया था। जब बात मुस्कराहट तक आई तो इस फैसले को नकार गई। उसने कहा कि यह दृश्य खास है नहीं हटेगा। मैं करूँगी। संयोग से मैं वहीं था और ऐसा कहकर उसने मेरे कंधे पर हाथ धर दिया था। यह सुखद अनुभूति थी।
उस रात इस सुखद आधार पर मुझे जो सपने आने चाहिए थे वे कम से कम इतने डरावने तो नहीं होने चाहिए थे। जब रात में आया तो पिताजी फाइलों में डूबे हुए थे। उन्होंने इस संबंध में कुछ कहा तो नहीं था पर जहाँ तक मैं समझता हूँ उन्हें यह |
जानकर कि मैं नाटक में काम कर रहा हूँ (भले प्रेत का!)अच्छा ही लगा होगा। कम से कम दिन रात इधर उधर घूमने से तो अच्छा ही था। थोड़ा कमजोर दिखने लगे थे वे इन दिनों। मैंने कहा कि फाइलों में वे ऐसा क्या करते हैं अगर समझा देंगे तो मैं भी मदद कर दिया करूँगा। तुम्हारे वश का नहीं कहकर वे दूसरी फाइल चेक करने लगते थे।
उस रात मैंने एक स्वप्न देखा जिसका संबंध शायद यथार्थ से तो नहीं ही था। मैंने देखा कि मैं प्रेत हूँ। सचमुच का। जिसकी त्वचा उधड़ चुकी है। और यहाँ वहाँ हर जगह से रिसाव हो रहा है। मिस मुस्कराहट जो सचमुच लेडी मैकबेथ हैं। और मैकबेथ सचमुच मैकबेथ है। वे अपने राजमहल में सो रहे हैं। राजमहल में आग लगी हुई है। मैं दौड़ता हूँ... और सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ। और वहाँ पहुँचता हूँ जहाँ मैकबेथ और लेडी मैकबेथ प्रणय प्रसंग के नाजुक चरण में हैं। मैं खिड़कियों पर से होकर चिल्लाता हूँ। वे मेरी और देखते हैं। मुझ पर हँसते हुए। मैं अपनी दशा पर तरस खा रहा हूँ। क्या मेरी नियति ही प्रेत होना है। जिसपर वे दोनों हँस रहे हैं। मैं फिर सीढ़ियों से उतर कर सड़क पर आ जाता हूँ। इस बार मैं जब राजमहल की ओर पलट कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि वहाँ अब मेरा घर है मैं दौड़कर ऊपर जाता हूँ और पाता हूँ एक कमरे में पिताजी अपनी फाइलों में खोए हुए हैं। मैं चिल्ला रहा हूँ कि पिताजी भागिए। ...आग आग आग !!! लेकिन जैसे वे सुनते ही नहीं हैं। और अपनी धुन में फाइलों में गुम हैं। आग उनके मेज तक पहुँच गई है। वे उसे जैसे देख ही नहीं पा रहे हैं। वह उनके कपड़ों को पकड़ चुकी है। फिर भी वे उसी तरह फाइलों में मगन हैं। तभी मेरी नींद टूट जाती है। वही वैसा ही भयावह सपना! इसके बाद मैं लगातार सोने का प्रयास करता हूँ पर सो नहीं पाता हूँ। क्या है ये सब! मेरे डर का क्या कारण है। कितने परतों में वह दबा हुआ है। रात भर सोचने के बाद भी मैं समझ नहीं पाता हूँ। बिलकुल भोर में मुझे टूटकर नींद आती है और मैं धूप के चढ़ जाने तक सोता हूँ।
खैर! उस दिन अचानक हुई बारिश की वजह से रिहर्सल रद्द करनी पड़ी थी। और फिल्म देखने का प्रोग्राम बन आया था। ठंडी हवा और झकोरों के बीच यह मस्ताना आइडिया था। हम शहर के महँगे मल्टीप्लेक्स में गए। यह मल्टीप्लेक्स बीते सालों झुग्गी झोपड़ियों को हटा कर बनाया गया था। अब इसके चमक दमक में उन झोपड़ियों की याद भी नहीं आती है। उनकी कब्रें बहुत नीचे होंगी। घुसने के गेट पर एक चौकीदार, जो बुझे हुए चेहरे के साथ एकदम निर्वासित और कई रातों से सोया नहीं लगता था, वह झुककर सबको सलाम करता था। हमारी टीम ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। हमारी टीम की तो छोड़िये, शायद ही कोई उस ओर ध्यान देता हो। वह चौकीदार किसी परछाईं मात्र के आभास से झुक जाता था। अगर ठीक से पड़ताल की जाए तो यह उसी झुग्गियों से निकला हुआ आदमी होगा। बाजार में गुलाम बनाने के अनंत तरीके थे। यह आदमी भी उसी तंत्र और तरीके का मारा हुआ लगता था।
एकबारगी मुझे लगा कि मेरा देखा गया सपना सच होगा। म |
सलन मैं हर सिनेमा होल में मिलूँगा। लेकिन ऐसा रत्ती भर भी नहीं हुआ। मैंने चैन की साँस ली। हमने एक ताजा मूवी का टिकट लिया। उस वक्त मौजूदा सिनेमा भी हमारे ख्यालों और तंत्र की तरह अपंग था। ऐसे सिनेमा देखने की जगह अगर हम जमकर एक नींद सो लें तो ज्यादा सेहतमंद साबित लगता था। मिस मुस्कराहट जो की मेरी बगल की सीट पर बैठी थी, ने हाथ आगे बढ़ाकर चिकोटी काटी। मैं नींद से जग गया। वह हँसी और कहा कि सोने के लिए आए हो। मैंने कहा कि ऐसे सिनेमा देखने से तो अच्छा है कि मैं मर जाऊँ। वह हँसी फिर। ...तो क्या करोगे। यह सही वक्त था कहने के लिए और मैंने कह दिया कि इससे तो अच्छा है कि मैं तुम्हें ही देखता रहूँ। ...देखता रहूँ क्या? इस तरह मैं सो नहीं पाऊँगा। वह जोर से हँसी पर उसकी हँसी परदे पर चल रही गोलियों के बीच दब कर रह गई। देखते रहो कहकर वह फिर मारधाड़ में गुम हो गई। मैं अँधेरे में उसे देखता रहा। बीच सिनेमा में कई बार उसने मुझे देखते हुए देखा। उस अँधेरे में उसकी आँखें मछली की तरह चमक जाती थीं।
रात में हम एक लंबी ड्राइविंग पर थे। दिल कितने भी गंदे रहे हों, लेकिन देलही की सड़कें साफ और चौड़ी थीं। आईपोड अहलुवालिया स्टेयरिंग पर से हाथ छोड़कर अपने आईपोड पर गाने सलेक्ट करने लगता था। सामने कई जगह फुटपाथ पर गरीब बेघर लोग सोए थे। बस एक चूक से मौत हो सकती थी। मुझे अचानक याद आई उस दरबान की, जिसने मल्टीप्लेक्स में घुसते हुए गेट खोला था। फिर लगा कि जैसे वह कोई और नहीं मैं ही था। फिर उन झोपड़ियों के लोगों की याद आई जिन्हें जबरन बेघर कर दिया गया था। क्या वे सब ही फुटपाथ पर थे? फिर अचानक मुझे लगा कि अगर दो कमरों के उस सरकारी मकान को छोड़ दिया जाए तो मेरा यहाँ क्या है? एक बित्ते भर की भी तो जमीन नहीं है। पिताजी तो ए |
क पैसे घूस में लेते नहीं। और मैं सौ फीसद आवारा और नकारा। गाँव में भी क्या रखा है? दो कमरों का मकान। जिसकी ढहती हुई दीवार किसी दुःस्वप्न से से कम नहीं। क्या है मेरे पास जिसके बल पर मैं कहूँ कि मैं सुंदर स्वप्न और यथार्थ के बीच रहने वाला इस देश का नागरिक हूँ? न तो मेरे पास इन धनाढ्यों जैसे मेल मिलाप करके घोटाले करके करोड़ों की संपत्ति है और न ही हजारों बीघे खेत है। फिर भी मेरी स्थिति तो इनसे कई गुना अच्छी है। कम से कम दो वक्त की शानदार रोटी है। हलवा है। अल्लसुबह सिगरेट है। माँ पिताजी है। किराया या सरकारी ही सही, दो कमरे का घर है। और मेरा पेट भी इतना भरा है कि कम से कम एक अदद प्रेम को अफोर्ड करने की औकात भले न हो। उसके बारे में सोच तो सकता है। लेकिन क्या यही सब कुछ है? क्या मुझे घर जाकर चादर तानकर सो जाना चाहिए? फिलहाल तो अफसोस कि मैं यही कर रहा हूँ।
घर पहुँचा तो पिताजी फाइलों के बीच सोते हुए मिले। मैंने उन्हें जगाया और कमरे में जाकर सोने के लिए कहा। बत्ती बंद कर दी। रात और गहराती गई। इस अमावस की रात में डेल्ही और चमक रही होगी। फिलहाल उसे देखने की कोई तमन्ना नहीं बची है। और आगे जो कुछ हुआ उसमें सपने और यथार्थ इतने घुल मिल गए थे कि उसे अलगाना मेरे वश की बात नहीं रह गई थी।
जैसे कि यह जो हुआ था सपने की तरह लग रहा था। मैं कई दिन उस रिहर्सल में जाता रहा। चूँकि मैं उस कोलेज का विद्यार्थी नहीं था इसलिए नियमतः रोल मिलना मुश्किल-सा था। लेकिन करना चाहो तो सब एडजस्ट हो जाता है। और वैसे भी मैं उस टीम में कौन सा विशेष महत्वपूर्ण था। मेरा चेहरा तक पहचान में मुश्किल था। मेरी पूरी बनावट ही प्रेत के नजदीक थी। एक शाम की मैं बात बताने जा रहा हूँ। नाटक की निर्धारित तारीख नजदीक थी। और हम जोरों से मेहनत कर रहे थे। रिहर्सल की उस शाम हुआ यह था कि निर्देशक पहुँचा नहीं था। कहीं ट्रैफिक में फँसा था। उसने कहा था कि तुम लोग तैयार रहो। जल्दी ही मैं पहुँचता हूँ। मैंने अपना मेक अप कर रखा था। और मिस मुस्कराहट भी पूरे धज के साथ तैयार थी। वह एक ऐसी शाम थी जिससे देह की सारी नसें और तंत्रिका तंत्र शिथिल पड़ जाती है। और मन एक अलहदा दार्शनिक ख्यालों में उड़ने लगता है। हम बाते करते हुए फाइन आर्ट की गैलरियों की ओर चले गए थे। वहाँ एक एकांत से दिखते बेंच पर बैठ गए। मिस मुस्कराहट की ओर मैं देखता रहा। वह क्षण ही एक विशेष क्षण था जब मुस्कराहट ने मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछा था कि तुम सारी उम्र मुझे इसी तरह देखना चाहते हो ना! इस अप्रत्याशित सवाल से मैं एकदम चौंक गया था। मैंने पूछा कि किस तरह। तो वह बोली ऐसे ही जैसे देखते रहते हो। सच कहूँ तो मैं उस वक्त उससे बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन पता नहीं क्यों गले ने जवाब दे दिया। फिर बोली जानते हो तुम सबमें बहुत अलहदा लगते हो। पूरी टीम में तुम ऐसे हो जिस पर... आँख मूँद कर खुद को तुम्हारे भरोसे छोड़ सकती हूँ। फिर कुछ देर तक वह चुप बैठी रही। सामने हरे मैदान में ल |
ैंपपोस्ट के रोशनी में चमकता एक स्कल्पचर था। लैंपपोस्ट की सारी रोशनी उस पाषाण युवती के उभारों पर चमक बन कर उतर रही थी। मैंने अपनी पूरी ताकत जुटाकर कहना चाहा कि तुम्हारे होंठों के ऊपर का तिल कितना प्यारा है। लेकिन नहीं कह पाया था। और वह जाने कैसे इस बात जान गई। तुम मेरा तिल देखते रहते हो न! मैं चौक गया। हाँ! यह मुँह से अनायास निकल गया था। वह हँसने लगी। तुम्हे कैसे पता? बस पता है। वह मेरी ओर इस तरह से देखने लगी जैसे कोई प्रेम में डूबकर किसी ओर देखता है। और आगे जो कुछ हल्का सा हुआ उसमें अगर दोष कहीं से था तो वह प्रकृति का है। मैं उसके और नजदीक पहलू में सिमट आया था। और होंठों के ऊपर के तिल को छू रहा था। उसके बेहद पतले और मुलायम होंठों को छू रहा था। मुस्कराहट की आँखें इस तरह से हो गई थी जैसे अपने ही अंदर कहीं कुछ मुलायम सा देख रही हों। हमारे इर्द गिर्द एक पीली सी स्वप्नमयी रोशनी गिर रही थी। अगर दूर से कोई देखता तो लगता कि किसी सपने में एक प्रेत के चंगुल में एक परी है। इसके पहले कि कोई अदृश्य सी इच्छा हमें हाथ पकड़कर और आगे ले जाता गैलरी में कोई पात्र हमें पुकारता हुआ चला आ रहा था। निर्देशक आ गया था।
जैसा मैं सोच रहा था या आप सोच रहे हैं वैसा रत्ती भर नहीं था। और होता तो ग़ालिब के एक लय की तरह मैं खुशी से मर नहीं जाता। एक दिन की घटना और हुई जिससे मुझे लगा था कि मिस मुस्कराहट के अंदर कुछ लगाव मेरे लिए है। मैं ठीक से नहीं बता सकता पर यह एक सपने की तरह घटित हुआ था। एक सुबह जब मैं सोकर उठा ही था तो मुस्कराहट घर चली आई थी। और चुपके से अम्मा के साथ किचेन में लग गई। अम्मा मना करते रह गई। वह मेरी किताबें देखती रही। बगल में कई सारी फाइल पड़ी हुई थी। उसने अपना महँगा हैंड बैग उतार कर रख दिया थ |
ा। जो मेरी साधारण सी मेज पर और असाधारण लग रहा था। वह चाय और ब्रेड लेकर मेरे साथ छत पर आ गई। बेहद भीगी सी सुबह में उसके साथ होना मुझे अतिशय सुहाना लगा। इतनी देर तक सोते रहते हो। मैंने हाँ कहा। सामने उस रात की पी गई खाली बोतल पड़ी हुई थी। पापा पीते हैं क्या? ऐसा कहने पर मैंने कहा कि नहीं! उस दिन जब पार्टी सी थी तब की यह बोतल है। वह बोतल पूरे आभा में सूरज की रोशनी को अपने कब्जे में कर मेरे आँखों में भेज रही थी। उस रोज छत पर एक और वाकया हुआ था। मैं मिस मुस्कराहट का हाथ पकड़ कर एक कोने में खींच ले गया। और मैंने पूरी हिम्मत जुटाकर उससे कहा कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। फिर चूम लिया। पहले तो वह हँसी फिर कहा कि अभी तक नींद में ही हो। जाओ सो जाओ। मैंने कहा कि नहीं मैं बिलकुल नींद में नहीं हूँ। और मैंने वह बोतल उठाई और नीचे फेंक दी थी। एक खनाक से वह सड़क पर छितरा गई।
पिताजी का दिन रात काम करना उनके सेहत के लिए घातक था। लगातार फाइलों में डूबे रहने से वे किसी निर्बल जीव की तरह दयनीय लगने लगे थे। और एक दिन बीमार पड़ गए। मैंने उनकी सहायता के लिए कुछ सूत्रों को रटकर हाथ बटाने लगा था। मैंने उन्हें सही करता जा रहा था। और पिताजी साइन करते जा रहे थे। वे बिस्तर पर पड़े हुए हिसाब किताब बताते जाते थे और मैं उन्हें सही करता जा रहा था। फाइलों में कई सारी गड़बड़ियाँ थीं। एक अलग से कोई फाइल उन्होंने बना रखी थी। जिससे मिलान करना था और सही करते जाना था। बहुत सारे आँकड़े बढ़ा चढ़ा कर लिखे गए थे। जैसे अगर किसी प्रोजेक्ट में पचास लाख रुपये की वास्तविक लागत थी। तो उसे इस तरह की धोखेबाजी से समायोजित किया गया था कि वह एक करोड़ की पूँजी प्रदर्शित करता था। यह कुछ ऐसे था कि अगर हम एक नदी पर एक पुल दिखा रहे हैं तो वास्तविक अर्थों में वह दिखता हुआ पूरा पूल, आधा पुल ही था। या था ही नहीं। या कोई दस करोड़ की सड़क है तो उसे तीन बार तीन योजनाओं में बस कागज पर दौड़ा दिया गया है। जबकि वह सड़क अपने पुराने जर्जर हालत में है। चुनाव नजदीक आने थे। और चुनावी गणित और अन्य चालों के तहत पिताजी के विभाग पर केंद्रीय जाँच लगा दी गई थी। पिताजी ने यह बताया कि यह सारी जाँच केवल इसलिए हो रही है कि चीफ ने वह कमीशन का वह हिस्सा उस मंत्री को भेजने से इनकार कर दिया था जिसे हमारा धोखेबाज तंत्र योजना बनाने से पहले ही निर्धारित कर लेती है। पहले भेजा जाता रहा। पर आईपोड अहलुवालिया के विधायक चाचा ने इसमें हस्तक्षेप कर दिया था। और कहा था कि वह निर्धारित कमीशन मत दो। वह सब सँभाल लेगा। और अंत में नहीं सँभाल पाया। उस मंत्री ने शासन से कहकर एक जाँच बिठवा दी थी। और मिथक आँकड़े तो यह बताते है कि जो यह केंद्रीय जाँच है, वह सत्ता की रखैल है। इसका प्रयोग वह अपने अपने विशेष चुनावी प्रयोजन साधने के लिए करती रही है। खैर! जो भी बात रही हो, यह सब फाइल पिताजी के मेज पर कई दिनों से साइन के लिए पड़ी हुई थी। जिसे उन्होंने इनकार कर दिया था। पहले त |
ो चीफ कई दिन तक पिताजी को अपना हिस्सा लेने के किए समझाता रहा। और सही फाइल का हिसाब लेने से वह इसलिए नकारता रहा कि हो सकता है कभी किसी दिन उनका हृदय परिवर्तन हो जाए। और उसे ऊपर से भी बचना था। लेकिन ऐसा नहीं होना था। अब जब जाँच आई तो काम का दबाव बढ़ गया था। अब पिताजी को सब सही सही करना था। नहीं तो वे इस मामले में फँस जाते। मैं भी पिताजी के निर्देशन में दिन रात एक करके सारे आँकड़े दुरुस्त करने लगा था।
लेकिन इसी बीच मैकबेथ का वह नाटक भी होना था। वह नियोन और कई किस्म की रंगीन प्रकश में डूबी हरी घास पर एक चमकती रात थी। कॉलेज का मंच बेहद आलीशान था। मेकअप रूम के लिए अलग अलग कमरे थे। और सभी टीम को मिले थे। मुझे कुछ करना नहीं था। सभी लोग अपने अपने मेकअप में यहाँ वहाँ जा रहे थे। मैदान में टहल रहे थे। मैं भी टहलता हुआ मैदान से थोड़ा और आगे आ गया। वहाँ एक झाड़ी थी। झाड़ी में मैंने हलचल देखी थी और जो देखा उससे मैं पूरी तरह हिल गया था। वहाँ मिस मुस्कराहट आईपोड अहलुवालिया के साथ थी। और ऐसी हालत में थी जो हर लिहाज से आपत्तिजनक थी। सामने एक बेंच था। उस बेंच पर शराब की एक बोतल रखी हुई है। और बगल में अधपीया हुआ सुलगता सिगरेट पड़ा है। इसके पहले वे मुझे देखते मैं मंच की ओर लौट आया। लगभग बदहवास। अभी अभी कोई एक्ट पूरा हुआ था। और सभी दर्शक अतिउत्साह में तालियाँ और सीटियाँ बजा रहे थे। मैं आया और सीधे मेकअप रूम में बैठ गया। वहाँ मन नहीं लगा। मैं सीधे घर की ओर भागता हूँ। अम्मा दरवाजा खोलती हैं तो चीखकर एक ओर हो जाती हैं। मैं हूँ अम्मा। ...मैं! आवाज पहचान कर कहती हैं कि तू तो नाटक में गया था न! मैं कोई जवाब नहीं देता और सीधे कमरे में लौट जाता हूँ। पिताजी देखते हैं तो चौंककर खड़े हो जाते हैं। फिर ध्यान से |
देखकर कहते हैं कि क्या बना था तू? प्रेत! प्रेत बना था मैं! फिर लगता है कि इस दुनिया में सचमुच मेरी स्थिति प्रेत की ही है। यहाँ सब उसी स्थिति में है। एक ऐसा जीवन जी रहे हैं हम जिसकी बहुत पहले हत्या कर दी गई है। एक मृतप्राय जीवन!
मैं सोता हूँ तो यह सोचकर सोता हूँ कि अब मेरी नींद कभी न खुले। मैं कोई सुबह नहीं देखना नहीं चाहता हूँ। मुझमें अब वह हौसला ही नहीं रह गया है। लेकिन ऐसा कहाँ होता है! सुबह मेरी नींद पिताजी की आवाज से खुलती है। वे कोई फाइल ढूँढ़ रहे हैं। मैं उनकी आवाज कान से पहले ही रोकर नींद में और अंदर धँस जाना चाहता हूँ। वहीं होगी आलमारी में! कहकर मैं दूसरी करवट बदल लेता हूँ। अरे उठो! फाइल नहीं मिल रही है। इस बार उनकी आवाज का तंज भाँपकर मैं उठता हूँ। तो वे बताते हैं कि फलाँ फलाँ नंबर की कई सारी महत्वपूर्ण फाइलें गुम हैं। उठकर मैं देखता हूँ। सचमुच आलमारी में फाइलें नहीं मिलती। हम सभी बदहवास होकर बाथरूम, किचेन से लेकर चारपाई के चादर और परदे तक झाड़कर देख लेते हैं। पिताजी कहते है कि वे फाइलें बेहद जरूरी हैं। आज जाँच समिति के सामने पेश करना है। वे बहुत निराश होकर टेबल पर बैठ जाते हैं।
मैं आलमारी के पास फिर से फाइलों के बीच जाता हूँ। हर फाइल उठाकर बारीकी से सूँघता हूँ और पाता हूँ कि इसमे मुस्कराहट की एक विशेष किस्म इत्र की एक बेहद हलकी गंध बसी हुई है। यह गंध अरब अमीरात से आयातित किसी खास इतर की है। जिसे कम से कम हमारे परिवार की यह समकालीन पीढ़ी वहन नहीं कर सकती है। मैं धम्म से बैठ जाता हूँ। इतना बड़ा धोखा!
केंद्रीय जाँच संगठन की जाँच समिति ने पिताजी के इस घपले के लिए थाने में एफ आई आर दर्ज की। और अगली सुबह हम सड़क के चौराहे पर आ गए। पिताजी को बुरी तरह से फँसाया जा चुका है। चीफ ने यह कहकर कि वह सब संबंधित फाइल पिताजी ने उन्हें दी ही नहीं है। और वह जाने कब से माँग रहा है। जिसे वह साइन करके आगे शासन की ओर अग्रसारित करता। कुल मिलाकर ठीकरा पिताजी के माथे पर फूटना था, और फूटा। सरकारी घर हमसे छिन गया था। हमने अपने घर, अपने गाँव की जाने की तैयारी बना ली थी। पिताजी को संबंधित घोटालों से पूछताछ के लिए वहीं रोक लिया गया था। उनके खाते सीज कर दिए गए। उसमें मात्र दस हजार चार सौ सैंतीस रुपये थे। गाँव आने के लिए पैसे उधार माँगने पड़े।
एक दिन जब मैं सामान बाँधने के लिए रस्सी खरीदने जा रहा था तो मिस मुस्कराहट से मुलाकात हो गई। मैंने उसे बुलाया तो उसने पहचानने से इनकार कर दिया। फिर जब मैंने सारी बातें तफसील से बताई तो उसने कहा की अच्छा तो तुम उस घोटालों वाले उस फलाँ बाप के बेटे हो। मेरे जबड़े तन गए। मन किया कि वही उसे जमीन में दफन कर दूँ। जब मैंने कहा कि तुम मेरे घर आई थी और सब फाइल चुराकर गई हो। तो दाँत पीसकर उसने अंग्रेजी में कोई गाली दी। मैंने कहा कि मैंने तुम्हारे साथ नाटक में काम किया था। भूल गई। तो उसने कहा कि कौन से नाटक में! मैंने कहा कि उस दिन तुम छत पर थी मेरे सा |
थ। और मैंने तुम्हारे बाप की पार्टी में पी गई बोतल को उठाकर छत से फेंका था। और तुम्हें चूमा भी था। उसका पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने कहा कि कमीने मेरी नजरों से हट जाओ! नहीं तो यही चिल्लाकर तुम्हारी दुर्गति करवा दूँगी। तुम्हारी क्या औकात क्या है? एक मामूली क्लर्क के बेटे हो और सपने इतने ऊँचे पालते हो। मुझे ऐसे ही किसी जवाब का अंदाज पहले से था। जिसका आभास उस सपने से मुझे हो गया था। लेकिन इतना तगड़ा और धूलपकड़ जवाब होगा, नहीं सोचा था। इतने के बाद तो मैं यह भी जान गया था कि जब यह नहीं पहचान रही है तो इसके दोस्त सब क्या पहचानेगें? लेकिन यकीनन उसका घर आना कोई सपना नहीं था। हाथ से छुआ और आँख से देखी गई बातें थीं। लेकिन एक घटित यथार्थ को बुरे सपने में बदल दिया गया था। और एक हो रही साजिश को सपने में से निकालकर यथार्थ में ला दिया गया था। मैं उस दिन मैं अपने दिमागी संजाल में उलझ गया। तो क्या जो सब हुआ था एक स्वप्न था। और जो मैं जीवन जी रहा हूँ, वह बस नींद भर है। शायद हो। और हो जाए तो कितना सब कुछ आसान हो जाएगा। कि एकदम सुबह नींद खुले और पता चले कि हम गाँव में है।
पिताजी की नौकरी बस एक सुखद स्वप्न की तरह झूठ है। और डेल्ही नाम का शहर बस नींद में कभी था। सच में था ही नहीं या फिर है ही नहीं। और अम्मा जिन्हें शहर के नाम से ही रक्तचाप बढ़ जाता है, वे कभी गई ही नहीं। और सवेरे सवेरे आँगन में झाड़ू लगा रही हैं। और पिताजी को चाय पीने के लिए बाहर आवाज दे रही हैं। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है! मैं इस सुखद स्वप्न में घुस जाने के लिए जैसे सड़क पर भाग रहा हूँ। लेकिन उस दृश्य में नहीं घुस पा रहा हूँ। और रात है कि इतनी लंबी है कि उसमे दिन भी होने लगे हैं। और मैं उसी दिन में साँस ले रहा हूँ। मैंने पा |
न वाली दुकान से सिगरेट का पैकेट लिया और छत पर जाकर पीने लगा था। मैंने देखा कि वहाँ कोने में वह बोतल पड़ी थी जिसे मैंने उठाकर नीचे फेंक दिया था। तो क्या वह छनाक की ध्वनि बस सपने से निकल कर आई थी। लेकिन नहीं एक मिनट! मैंने ध्यान से देखा उसकी तली में थोड़ी सी शराब बची थी। उस दिन मुझे याद है कि मैं शराब की एक एक बूँद चाट गया था। लेकिन याद का क्या भरोसा! वह भी मुझ जैसे आदमी पर, जो सपने और यथार्थ के बीच किसी जर्जर कड़ी की तरह अटक गया हो।
पिताजी को पूछताछ के लिए उठा लिया गया था। कुछ क्षणों को छोड़ दिया जाए तो हमसे मिलने नहीं दिया गया था। हमारी वहाँ कोई पकड़ नहीं थी जिससे हम कोई फरियाद करते। पिताजी ने कहा कि वे निर्दोष हैं और देर सवेर लाख साजिशों के बावजूद वे पाक साफ घोषित होंगें। और जल्दी गाँव आ जाएँगें। पिताजी का चेहरा बहुत धुँधला और बीमार था। उन्होंने हमें जल्दी अगली सुबह ट्रेन पकड़ लेने के लिए कहा था। माँ और मैं उस चमकती दुनिया में असहाय, लाचार और विक्षिप्त से लग रहे थें। जब हमारी ट्रेन उन विस्थापितों की झुग्गी झोपड़ियों से होकर गुजर रही थी जो इस तंत्र में अपाहिजों की तरह अपना जीवन घिसट घिसट कर ढो रहे थें, तो माँ के साथ साथ मुझे भी बेतरह रोना आ रहा था। और ठीक ठीक देखा जाए तो हम भी कहीं न कहीं से उनका एक हिस्सा बन चुके थें। इस यात्रा में गर पिताजी साथ रहे होते तो सच में मैं इस बीते चुके जीवन को कोई दुःस्वप्न मानकर भूल गया होता।
गाँव में पहले से हल्ला था कि करमचंद जैसे बेहद ईमानदार आदमी को जान-बूझकर फँसाया गया था। पिताजी के शरीफ व्यक्तित्व का दबदबा कुछ ऐसा था कि अगर हमारे एक्के दुक्के दुश्मन भी कहीं होंगे तो उन्हें भी विश्वास नहीं होता। और एक किस्म की सहानुभूति उपजती। यह वही वक्त था जब जिला पंचायत के चुनाव नजदीक आ रहे थे। मैं कई महीनों तक घर ऐसे ही उदास बैठा रहा। आने वाले आते रहे और हाल चाल पूछते रहे। कुछ भी हो पिताजी की इलाके में छाप थी। कुछ सूत्रों से मालूम चला कि इस बार चैयरमैन की सीट आरक्षित होने वाली है। एक रात जब मैं सोने जा रहा था तो एक सपना देखा। वह यह था कि सैकड़ों-हजारों की भीड़ हमारे पीछे चल रही है। हमारे नाम की जय जय करते हुए। पिताजी को लोगों ने माला पहना कर अपने कंधों पर बैठा रखा है वे जिला मुख्यालय के अंदर जा रहे हैं और सामने की लगी हुई कुर्सी पर बैठ गए हैं। लोग मुझे बधाई और मिठाई दे रहे हैं। जब मैं जगा तो रात बस शुरू हुई थी। और अम्मा पशुओं को तबेले में बाँधकर दूध की हाँडी बोरसी पर से उतार रही थीं। मैंने उन्हें बुलाया और इस सुखद सपने की बाबत बात की। मैंने उन्हें यह बात बताई कि जीतने की संभावना बहुत है। और लड़ाई भी सीट आरक्षित होने की वजह से और माफियाओं, दलालों और बदमाशों के प्रत्यक्षतः न लड़ने से थोड़ी आसान है। और एक तरह से यह मेरा सपना भी तो है।
माँ मान गई। और चुनाव में मैंने अम्मा के नाम से पर्चा भर दिया था। चुनाव में पैसे लगने जरूर थे पर मेरे नह |
ीं लगे। दारू और मुर्गा की माँग हम लोगों की दयनीय स्थिति की वजह से नहीं हुई थी। हमारे विपक्ष में भी क्षेत्र के माफियाओं ने अपने कैंडिडेट खड़े किए थे। जो कि हमारे बरक्स यानी कि पिताजी के नाम के बरक्स काफी कमजोर निकले थे। और कुछ तो रुपये पैसों और पहुँच से हमारी भी मदद करने को तैयार थे। मैंने खुद मना कर दिया था। इस सीट को हम निकाल लेने वाले थे। हमने गाँव गाँव घूमकर रात्रि सभा की। और पिताजी के मामले में पर्याप्त सहानुभूति हासिल की। गाँव वालों ने साथ भरपूर दिया था। और कहा जाए तो हमारे वार्ड में सभी ने साथ दिया। हम भारी बहुमत से जीते थे। अब बारी चैयरमैन की दावेदारी की थी। जिसमे हमने जी जान लगा दिया था। कुल तीन सीट हमारे प्रतिपक्ष में थी। और वे भी चैयरमैन की इस आरक्षित सीट पर दावेदारी करने वाले थे। और इन्हें मनाना आसान नहीं था। जब हम जीते थे तब इस अपार सफलता से प्रभावित होकर जिले के वर्तमान चैयरमैन और माफिया जगदंबा चौधरी हमसे मिलने आए थे। और उन्होंने बताया कि पिताजी और वे माध्यमिक स्कूल में सहपाठी थे।
पिताजी के साथ जो भी हुआ था उसे सुनकर उन्होंने कहा कि यह सरासर अन्याय है। और देर सबेर सत्य की जीत होगी। जो भी जरूरत होगी उनसे बिना संकोच के मिल लें। उस दिन अगर इस आदमी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो हम शायद चैयरमैन का चुनाव हार गए होते। उसने हमारे विरोध में आने वाली हर आवाज को दबा दिया था। उसने एक प्रत्याशी को पैसे दिए और दुसरे को हड़का दिया था। और तीसरे को अगवा कर लिया था। और हम निर्विरोध इस चुनाव को जीत चुके थे। अम्मा पहनाए जाने वाले मालाओं तले जैसे दब गई थीं। जगदंबा चौधरी से हमारी मुलाकात सीधे गेट पर हो गई। मैंने झुककर उनके पैर छुए। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और माथे पर टीका लगाकर गो |
द में उठा लिया था। उसने कहा कि मैंने किसी और के लिए नहीं अपने बेटे के लिए कुर्सी छोड़ी है। और अगले दिन शपथ में जगदंबा पूरे कार्यक्रम में मौजूद रहे। उनके साथ में उनके कई गनर और बाहर कई सारी पजेरो खड़ी थीं। हम न न करते रहें पर वह हमें घर छोड़ कर गया था। मैं इस आदमी को पहले से ही सर पर चढ़ाना नहीं चाहता था। पर यह तो खुद हमें चढ़ा चुका था।
उधर पिताजी को जमानत मिल चुकी थी और मुकदमे में बार दौड़ना न पड़े इसलिए वे डेल्ही ही रुक गए थे। देर सवेर सच्चाई सामने आते ही उन्हें बहाल कर दिया जाता। लेकिन सबसे कठिन चीफ के खिलाफ सबूत जुटाना था। जो आसान नहीं था। उसने वे सभी फाइल पिताजी से रिसीव कराकर रखी थी। जिसमें उसका कहना था कि सब कुछ नियम और मानकों के अनुसार हुआ है। वे सारी रसीदें और खरीद की रिपोर्टें उस फाइल में दर्ज है जो पिताजी ले गए थे। जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं। जाँच समिति चीफ से भी पूछताछ कर रही है। पर मेरा तंत्र और मिली रही सूचनाओं को देखते हुए यह मानना है कि चीफ अपनी पहुँच का प्रयोग करते हुए बच निकलने वाला है। उस जाँच समिति का एक सदस्य उसका दूर का समधी निकल चुका है। और जज के साथ वे होटलबाजी करते हुए देखे जा रहे हैं। यह सब चीजें हौसलों को कम कर देने वाली साबित हो रही हैं। लेकिन पिताजी हिम्मत बांधे हुए है। और यह बात उनके लिए बड़ी सुकूनदेह साबित हुई है कि अम्मा चैयरमैन हो चुकी है। लेकिन वे यह बात भूल रहे थे कि आखिर काम तो इसी तंत्र के अंतर्गत करना है जिसके रास्ते जीवन धूसर होता चला गया है।
सब काम सही सही चल रहे थे। अगर इस तंत्र में वैध तरीके से भी काम किया जाए तो भी इतने पैसे आ जाते हैं कि कई सारी पीढ़िया बैठकर खा सके। मेरा दो घर सात-सात नक्काशीदार कमरों के बाद आलीशान कर दिया गया था। और एक स्कार्पियो द्वार पर खड़ी कर दी गई थी। और कुछ एक सुबह की बात है जब जगदंबा चौधरी हमारे घर आए थे। और चाय पीने के बाद उन्होंने कहा कि बेटे घर के आदमी हो तुमसे क्या छुपाना! हमारे घर का खर्चा, राशन और गाड़ी का पेट्रोल तो यहीं जिला मुख्यालय से ही चलता है। मैं समझा नहीं सर! अरे! भाई। तुम्हारे पिता जी रहते तो समझते। तुम क्या समझोगे? खैर। ...चौधरी मेरे कंधे की और झुक आया था। और कान से लग कर बोला था कि सुन रहे हैं कि अपने इलाके की नक्सलाइट बेल्ट में सड़कें बिछाने के लिए हजारों करोड़ की धनराशि आने वाली है। तो? तो बेटा अगर मुझे मिल जाता तो मेरा भी कार बार चलता और तुम्हें भी... फिर उसने और पास आकर चुपके से कहा कि चिंता मत करो! बेटा समझ लो तुम्हें डबल कमीशन दूँगा। ...वह क्या है न कि ऊपर के नेताओं से मेरा हँसी मजाक चलता है। ...सालों से मैनेज कर लूँगा। और वह तुम्हारा ही होगा। मेरा माथा वहीं झनक गया था। और जब तक चौधरी चला नहीं गया तब तक मैं एक सन्नाटे में बैठा रहा। चौधरी जिले का घोषित माफिया था। इसमे दो राय नहीं। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में उसकी चार हजार के करीब ट्रकें चलती थीं।
जैसा कि आप जानते हैं |
कि मैं राजनीति विज्ञान का निहायत ही कमजोर विद्यार्थी हूँ। और इसलिए इस विषय का चुनाव किया था कि मुझे राजनीति में जाना था। एक सपना था, जो कमोबेश सच भी होता जा रहा था। पर उस दिन बात अंदर से महसूस हुई कि समकालीन राजनीति में आने के लिए राजनीति विज्ञान से रत्ती भर के लेना देना नहीं है। या यूँ कहें कि इस राजनीति में पढ़ाई लिखाई से भी एक पैसे का नाता नहीं था। संविधान ने राजनीति में आरक्षण के माध्यम से यह व्यवस्था जरूर की थी पर इस व्यवस्था में जमीदार, भूमिधर, दलाल, शोषक, सामंत, हत्यारे अपना रूप बदलकर एक नए तरीके से इस तंत्र को अपहृत कर चुके थे... और जाहिर है लूट पाट भी एक बड़े स्तर पर नियोजित थे। और लोक तंत्र के नाम पर ऐसे ऐसे तमाशे थे जो समझने और उबरने में बेहद जटिल और कर्क रोग की तरह लाइलाज थे।
एक से बढ़कर एक ऐसी पार्टियाँ जिनका दावा था कि वे दबे कुचले की शुभचिंतक हैं लेकिन वे अपना टिकेट ऐसे ही माफियाओं को बाँटती थीं। जिनका इतिहास काला और खूनरंगेजी था। और एक नए तरीके से पोषक साबित हो चुकी थी। संविधान में सबकी गहरी आस्था थी। पर उसके नियम उन पर कम ही लागू होते थें। न्याय पालिका भी बिकी हुई संस्था साबित हो चुकी थी। तो जिस अँधेरे में हम रह रहे थे वह अबूझ और घटाटोप था। जिससे निकलने के रास्ते बहुत कम थे। अधिकतर विद्वान, लेखक, समाज सुधारक, चिंतक, क्रांतिकारी सब डेल्ही भाग चुके थे। गाँव गिराव जहाँ हम रहते थें ऐसे ही सड़न में ऊब चूब हो रहे थे। वहाँ ऐसे लोग कम थे जो किसी भी तरह का लोकतांत्रिक पहल करें और थे भी तो ऐसे फासीवादी जकड़न में जल्दी दम घोट देने वाले थे। भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सामंतवाद, पुरुषवाद, भाईभतीजावाद सर पर चढ़ कर बोल रहे थे। तब भी ऐसे कई जानबूझकर जहर खाने वाले लोग मि |
ल जाते थे जो कहते थे कि नहीं सब मजे में है। यह चीज हर जगह मौजूद थी चाहे वह दिल्ली हो चाहे वह अपना छोटा सा जिला।
मिस मुस्कराहट और उसके साथ आए हुए सपनों और थप्पड़ से भी तेज चले हुए धोखों को मैं तब तक नहीं भुला सकता जब तक पिताजी को न्यायालय निर्दोष नहीं साबित नहीं कर देता है। लेकिन इधर बीच इस संबंध में हुआ कुछ नहीं है। बस कुछ और दुःस्वप्नों में वृद्धि ही हुई है।
कुछ और भी दुःस्वप्न आए थें। जो अगर पिछले सपनों की तरह सही साबित हो गए तो मेरा पतन निश्चित है। मैंने कई रातों में सपने टुकड़े टुकड़े देखे थे। और सभी स्मृति में गड्डमगड्ड हो जाते थे। एक रात मैं क्या देखता हूँ कि जगदंबा चौधरी के साथ हम मीटिंग में बैठे है। जगदंबा तो कोई सदस्य ही नहीं है। लेकिन बैठा है। साथ में उसके गनर हैं। सड़क के ठेके के मामले में मेरी उससे कुछ झड़प हो गई है। साथ में उसके गनर भी हैं। और उसने मेरे ऊपर गन की बौछार कर दी है। मैं लिथड़ा हुआ वहीं कुर्सी पर लटक गया हूँ। कमरे से उसे मैं जाते हुए मैं देखता हूँ तभी खिड़की से गुजरते हुए मैं देखता हूँ कि उसका चेहरा चीफ का हो गया है। सामने ही सड़क के पार मुख्यालय ऑफिस है। वहाँ बैठा हुआ पुलिस अधीक्षक मुझे देखता है। और हँसने लगता है। मैं लड़खड़ाते हुए बाहर सड़क पर आता हूँ तो पाता हूँ कि मिस मुस्कराहट अपनी स्कूटी स्टार्ट कर रही हैं। मैं उससे कहता हूँ कि कम से कम वह मुझे अस्पताल तक छोड़ दे। वह नहीं छोड़ती है और चली जाती है। मैं सड़क पर लिथड़ता हुआ चला जा रहा हूँ। अचानक मैं प्रेत बन जाता हूँ। मैं देखता हूँ कि सड़क पर मेरा शव है। मैं उसके बगल में बैठा हूँ और उस प्रेत की तरह हूँ जैसे कि कभी मैंने नाटक में रोल करते हुए रूप धरा था। मेरी लाश पर अम्मा रो रही हैं।
मैं उनके कंधे पकड़ कर कहता हूँ अम्मा! अम्मा! मैं यहाँ हूँ। तुम्हारे पास बैठा हुआ। पर अम्मा हैं कि सुन ही नहीं रही है। मेरे शव को को जब लोग जलाने वाले हैं तब दूर पश्चिम से एक धूसर सी मनुष्य की आकृति उभरती है। वह धीरे धीरे जब पास आती है तो मैं देखता हूँ कि वह पिताजी हैं। मैं आगे बढ़कर उनका हाथ पकड़ लेता हूँ। और कहता हूँ कि कब आए पिताजी। तब मेरा ध्यान उस हथकड़ी पर पड़ता है जो उनके हाथ में लगी हुई है। वे आगे बढ़ जाते हैं। मेरी लाश में आग लगती है। हड्डियाँ चिट चिट करके उड़ती हैं। आसमान में गाढ़ा धुआँ इकट्ठा हो जाता है। अँधेरे की तरह और सामने नदी में सूरज आहिस्ते आहिस्ते डूब जाता है। और काली रात की शुरुआत होने लगती है। फिर बारिश शुरू हो जाती है। मैं भीगने से बचने के लिए सामने नदी किनारे पीपल की ओर भागता हूँ। और जब बारिश खत्म होती है तब सब लोग जा चुके हैं। और मैं अपने घर का रास्ता इस कदर भूल गया हूँ कि घूम घाम कर उसी पीपल के नीचे पहुँच जा रहा हूँ।
बस यहीं मेरी नींद टूट जाती है। ऐसा दुःस्वप्न मैंने आज तक नहीं देखा था। शायद शेक्सपियर के नाटक में मैकबेथ ने भी ऐसा दुःस्वप्न नहीं देखा होगा। आगे क्या होगा मैं नही |
ं जानता। लेकिन मेरी इस कहानी को सुनने के बाद आप इस दुःस्वप्न के बारे में क्या राय रखते हैं? जरूर बताइएगा।
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हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है - हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारी घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े से गुण- सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए । नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण बात बात में मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता रहता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है, जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता । मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे चाहे वह जिधर लगावे । सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह निकालती है ।
अब तुम्हें क्या करना चाहिए इसका ठीक ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता । कैसा भी विश्वासपात्र मित्र हो तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता । हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुने, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक माने, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों ही से हमारी रक्षा वा हमारा पतन होगा हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतंत्रता को दृढ़तापूर्वक बनाए रखना चाहिए। जिस युवा पुरुष की दृष्टि सदा नीची रहती है उसका सिर कभी ऊपर
न होगा । नीची दृष्टि रखने से यद्यपि हम रास्ते पर रहेंगे पर इस बात को न देखेंगे कि वह रास्ता कहाँ ले जाता है । चित्त की स्वतंत्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता वा प्रकृति की उग्रता नहीं है । अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रक्खो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो । अपने मन को कभी भरा हुआ न रक्खो, जितना ही जो मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है ।
संसार में ऐसे ऐसे दृढ़चित्त पुरुष हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया । राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी इतनी पत्तियाँ आई पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रहीचंद्र टरै, सूरज टरै टरै जगत-व्यौहार । पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार ॥ महाराणा प्रतापसिंह जंगल जंगल मारे मारे फिरते थे, अपनी स्त्री और बच्चों को भूख से पीड़ित देखते थे, पर उन्हों ने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक संधि करने की सम्मति दी, क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिंता जितनी अपने को हो सकती है उतनी दूसरों को नहीं । हकीक़तराय नामक बीर बालक ही को देखो जिसने जल्लाद की चमकती तलवार गरदन पर देखकर भी
क़ाज़ी के सामने अपना धर्म परित्याग करना स्वीकार नहीं किया । सिक्ख गुरु गोविंदसिंह के दोनों लड़के जीते जी दीवार में चुन दिए गए पर वे अपना धर्म छोड़कर मुसलमान होने के नाम पर 'नहीं' 'नहीं' कहते रहे। एक बार एक रोमन राजनीतिज्ञ बलवाइयों के हाथ में पड़ गया। बलवाइयों ने उससे व्यंग्यपूर्वक पूछा कि "अब तेरा क़िला |
कहाँ है ?" उसने हृदय पर हाथ रखकर उत्तर दिया "यहाँ" । ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये यही बड़ा भारी गढ़ है। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जो युवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक न एक नया अगुआ ढूँढ़ा करते हैं और उसके अनुयायी बना करते हैं वे श्रात्मसंस्कार के कार्य में उन्नति नहीं कर सकते । उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्मति श्राप स्थिर करना, दूसरों की उचित बातों का मूल्य समझते हुए भी उनका अंधभक्त न होना, सीखना चाहिए। तुलसीदास जी को लोक में जो इतनी सर्वप्रियता और कीर्त्ति प्राप्त हुई, उनका दीर्घ जीवन जो इतना महत्त्वमय और शांतिमय रहा सब इसी मानसिक स्वतंत्रता, निर्द्वद्वता और आत्मनिर्भरता के कारण । वही उनके समकालीन केशवदास को दखिए जो जीवन भर विलासी राजाओं के हाथ की कठपुतली बने रहे, जिन्होंने आत्मस्वातंत्र्य की ओर कम ध्यान दिया और अंत में आप अपनी बुरी गति की। एक इतिहासकार कहता है-"प्रत्येक मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है। प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन निर्वाह
श्रेष्ठ रीति से कर सकता है। यही मैंने किया है और यदि अवसर मिले तो फिर यही करूँ ।" इसे चाहे स्वतंत्रता कहो, चाहे आत्मनिर्भरता कहो, चाहे स्वावलंबन कहो, जो कुछ कहो, यह वही भाव है जिससे मनुष्य और दास में भेद जान पड़ता है, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से राम लक्ष्मण ने घर से निकल बड़े पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से हनुमान् ने सीता की
खोज की, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से कोलंबस ने अमेरिका इतना बड़ा महाद्वीप ढूंढ़ निकाला । चित्त की इसी वृत्ति के बल पर सूरदास ने अकबर के बुलाने पर फ़तहपुर सिकरी जाने से इनकार किया और कहा" कहा मोको सीकरी सो काम ?"
इसी चित्त वृत्ति के बल से मनुष्य इस लि |
ये परिश्रम के साथ दिन काटता और दरिद्रता के दुःख को भेलता है जिसमें उसे ज्ञान के श्रमित भांडार में से कुछ थोड़ा बहुत मिल जाय । इसी चित्तवृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों का निवारण करके उन्हें पददलित करते हैं, कुमंत्राओं का तिरस्कार करते हैं और शुद्ध चरित्र के लोगों से प्रेम और उनकी रक्षा करते हैं। इसी चित्तवृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष कार्यालयों में शांत और सच्चे रह सकते हैं और उन लोगों की बातों में नहीं आ सकते जो आप अपनी मर्यादा खोकर दूसरों को भी अपने साथ बुराई के गड्ढे में गिराना चाहते हैं । इसी चित्तवृत्ति के प्रताप से
बड़े बड़े लोग ऐसे समयों में भी जब कि उनके और साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया है अपने महत्कायों में अग्रसर होते गए हैं और यह सिद्ध करने में समर्थ हुए हैं कि निपुण उत्साही और परिश्रमी पुरुषों के लिये कोई अड़चन ऐसी नहीं जो कहे कि 'बस यहीं तक, और आगे न बढ़ना' । इसी चित्तवृत्ति की दृढ़ता के सहारे दरिद्र लोग दरिद्रता से और पढ़ लोग अज्ञता से निकलकर उन्नत हुए हैं तथा उद्योगी और अध्य वसायी लोगों ने अपनी समृद्धि का मार्ग निकाला है। इसी चित्तवृत्ति के अवलंबन से पुरुषसिंहों को यह कहने की क्षमता हुई है कि "मैं राह ढूँढूँगा या राह निकालूँगा" । यही चित्तवृत्ति थी जिसकी उत्तेजना से शिवाजी ने थोड़े से वीर मरहठे सिपाहियों को लेकर औरंगज़ेब की बड़ी भारी सेना पर छापा मारा और उसे तितर बितर कर दिया। यही चित्तवृत्ति थी जिसके सहारे से एकलव्य बिना किसी गुरु वा संगी साथी के जंगल के बीच निशाने पर तीर पर तीर चलाता रहा और अंत में एक बड़ा धनुर्धर हुआ । यही चित्तवृत्ति है जो मनुष्य को सामान्य जनों से उच्च बनाती है, उसके जीवन को सार्थक और उद्देश्य पूर्ण करती है तथा उसे उत्तम संस्कारों को ग्रहण करने योग्य बनाती है। जिस मनुष्य की बुद्धि और चतुराई उसके दृढ़ हृदय ही के आश्रय पर स्थित रहती है वह जीवन और कर्मक्षेत्र में स्वयं भी श्रेष्ठ और उत्तम रहता है और दूसरों को भी श्रेष्ठ और उत्तम बनाता है। प्रसिद्ध उपन्यासकार
स्काट एक बार ऋण के बोझ से बिलकुल दब गया । उसके मित्रों ने उसकी सहायता करनी चाही पर उसने यह बात स्वीकार नहीं की और स्वयं अपनी प्रतिभा ही का सहारा लेकर अनेक उपन्यास थोड़े ही दिनों के बीच लिखकर लाखों रुपए का ऋण उसने सिर पर से उतार दिया ।
घर में, बन में, संप में, विपद् में, मनुष्य को अपने अंतःक रणही का सहारा रहता है। अंतःकरण का बल बड़ा भारी बल है जो भौतिक अवस्थाओं की कुछ भी परवाह नहीं करता । जो युवा पुरुष अपना काम अच्छी तरह और ईमानदारी से करता है, जो अपने चित्त में उत्तम विचारों को धारण करता है, जिसमें सत्य और सौंदर्य के श्रादर्श का भाव जाग्रत रहता है, जो भरसक मनुष्य जाति के नाना कष्टों को दूर करने का यत्न करता है, जो ज्ञान के प्रकाश के लिये निरंतर दृढ़ उद्योग करता है, जो संसार के भोग विलास की प्रेरणा का तिरस्कार करता है, जो उपस्थित वस्तुओं के गुण दोष की जाँच करने में बेध |
ड़क रहता है, जिसका हृदय अबलाओं के प्रति कोमल रहता है, जो अपनी बुद्धि और जानकारी बढ़ाने का अखंड प्रयत्न करता है, जो परमेश्वर को सर्वत्र उपस्थित मानती हुआ अपने तथा अपने बंधु बांधवों के कल्याण के लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है उसी को मैं स्वतंत्र कहूँगा । वह जीवन यात्रा में बराबर बढ़ता जायगा, सहारे के लिये किसी का हाथ न पकड़ेगा और टेकने के लिये किसी की लाठी मँगनी न
माँगेगा। मनुष्य को तीन वस्तुओं का अध्ययन करना चाहिए। ईश्वर को प्रत्यक्ष करने के लिये उसे सृष्टि का अध्ययन करना चाहिए, अपने आपको पहचानने के लिये
अध्ययन करना चाहिए, और अपने निकटवर्ती लोगों से स्नेह करने के लिये धर्मग्रंथों का पठन पाठन करना चाहिए । इसी प्रकार के अध्ययन से स्वतंत्रता के उच्च भाव की वृद्धि होगी और आशा, विश्वास तथा आश्वासन की प्राप्ति होगी । स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना तो युवा पुरुष के
लिये अच्छी बात है ही पर उसे प्रत्येक दशा में वीरव्रती होना चाहिए। उसे अन्याय का विरोध और अत्याचार का अवरोध करना चाहिए, उसे दूसरों का ध्यान पहले और
रखना चाहिए, उसे ऐसे स्थलों पर वीरता दिखानी चाहिए जहाँ शरीर की वा धर्म- बुद्धि की हानि का भय हो, उसे आत्मोत्सर्ग का भाव धारण करना चाहिए। मैंने कहीं पर दो राजपूत वीरों का वृत्तांत पढ़ा था जिसका मेरे वित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। इन दोनों राजपूतों में बहुत दिनों का बैर चला आता था। एक दिन की बात है कि इनमें से एक क्रोध के आवेश में दूसरे का प्राण लेने की इच्छा से नगर में निकला । वह थाड़ी दूर गया था कि उसने देखा कि लोग घबराहट के साथ सड़क छोड़ कर इधर उधर भागे जा रहे हैं। देखते ही देखते सड़क मनुष्यों से खाली हो गई और सामने से एक मतवाला हाथी श्राता दिखाई पड़ा । राजपूत एक कोने में छिप रहा |
। हाथी
क्रोध से सूँड़ फटकारता चला आता था । संयोगवश भागनेवालों में से किसी का एक बालक सड़क पर छूट गया था । हाथी उसके बिलकुल पास पहुँच गया और उसको चीर कर फेंकना ही चाहता था कि चट किसी ओर से एक मनुष्य फुरती के साथ दौड़ा आया और उस लड़के को गोद में लेकर किनारे निकल गया । जब हाथी दूर निकल गया तब लोग धन्य धन्य करते हुए उसके पास इकट्ठे हुए। राजपूत भी कोने में से निकलकर वहाँ पहुँचा। निकट जाने पर उसे विदित हुआ कि वह मनुष्य जिसने उस बालक की इस वीरता के साथ प्राण-रक्षा की थी वही दूसरा राजपूत था जिसके वध की इच्छा से वह निकला था । यह देखते ही उसकी आँखों में आँसू आ गया और वह उसके गले से लिपटकर कहने लगा "भाई ! मैं आज तुम्हारा प्राण लेने के लिये निकला था, पर तुम्हें इस वीरता के साथ जीवन-दान देते देख मेरी आँख खुल गई । तुम्हारे ऐसे धर्मवीर के प्रति दुर्भाव रखना अधर्म है " । मेरी समझ में तो इस राजपूत की वीरता उन राजपूतों से कहीं बढ़ चढ़कर थी जो रणक्षेत्र में गर्व के साथ शत्रुओं के हृदय में चमचमाते हुए भाले भोंकत्ते हैं। दूसरों की रक्षा के लिये अपनी रक्षा का ध्यान न रखने का जो महत्त्वपूर्ण दृष्टांत इस राजपूत ने दिखलाया वही धर्मवीरता का चरम लक्षण है। असहाया सीताजी को जब दुष्ट रावण रथ पर चढ़ाकर लिए
जा रहा था तब जटायु से न देखा गया। जबतक उसके शरीर
में प्राण रहा तब तक वह अन्याय का दमन करने के लिये सीता जी को छुड़ाने के लिये लड़ता रहा । इस प्रकार के उत्कट और भयानक रूप में अपनी वीरता प्रकट करने का अवसर तो शायद हमें न मिले पर यदि हममें उसका भाव तो हमें उसके प्रदर्शन के बहुत से अवसर घर में, समाज में, नित्य के व्यवहार में, मिल सकते हैं ।
वीरता का एक और दृष्टांत लीजिए। किसी टापू में एक बड़ी सेना उतरी थी । सेना-नायक को मालूम हुआ कि उस टापू में कुछ दिनों से घड़ियाल की तरह का एक महा भयंकर जंतु आता है जो लोगों को पकड़ पकड़ कर खा जाया करता है। सेना-नायक ने उसे मारने की आज्ञा दी । बहुत से वीरों ने उसके मारने का उद्योग किया पर वे सबके सब उसके मुँह में चले गए। अंत में सेना नायक ने हार कर आशा दी - "जाने दो उसके मारने का प्रयत्न न करो" । सेना में एक वीर युवक था । उसे यह श्राज्ञा पसंद न आई क्योंकि वह उस भीषण जंतु को, जिसने इतने मनुष्यों के प्राण लिए थे, मार कर यश और अनुग्रह प्राप्त करना चाहता था। उसने उस भीषण जंतु की एक मूर्ति बनाई, अपने दो कुत्तों को उसके पेट पर आक्रमण करना सिखाया और अपने घोड़े को उसके सामने ठहरने का अभ्यास कराया । जब वह पूरी तैयारी कर चुका तब वह उस जंतु की कंदरा की ओर गया। उसने तुरंत अपने कुत्तों को उस पर छोड़ दिया और आप भाले से उसे मारने
लगा। अंत में वह जंतु मर गया । जब यह संवाद उस टापू में फैला तब वहाँ के निवासी उसे बड़े आदर और धूमधाम के साथ उसके सेनानायक के पास ले गए। सेनानायक उससे कुछ रुखाई के साथ मिला और त्योरी चढ़ा कर बोला- "धर्मवीर का पहला कर्त्तव्य क्या है ?" उस युवक ने |
संकुचित और लजित हो कर उत्तर दिया "आज्ञा-पालन" । सेना-नायक ने उसकी वीरता का सम्मान करते हुए कहा- "तुमने मेरी शा भंग करके उससे बढ़ कर शत्रु खड़ा किया जिसे तुमने मारा, तुमने नियमभंग और व्यवस्थाविरोध का सूत्रपात किया" ।
अस्तु, यह समझ रखना चाहिए कि वीरत्व के लिये स्वार्थत्याग के अतिरिक्त आज्ञापालन की भी आवश्यकता है। सब गुणों में से यही एक ऐसा गुण है जिसका संपादन करना नव-युवकों को बहुत ज़हर लगता है। हम लोगों में मनमानी करने की इच्छा स्वाभाविक होती है और हम समझते हैं कि जो हम करते हैं वह सब से अच्छा है । जहाँ हमने थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त की हम अपने को और लोगों से बढ़ कर समझने लगते हैं और अभिमान के मद में चूर इतराए फिरते हैं। हमारा यह मोह बहुत दिनों तक प्रायः नहीं रहता और जिस समय यह दूर होता है हमें अपने ऊपर बड़ा दुःख होता है । अतः हमें पहले ही से यह समझ रखना चाहिए कि जो फूल तोड़ना चाहता है उसे पहले काँटे मिलते हैं, जो हुक्म चलाना चाहता है उसे पहले हुक्म मानने का अभ्यास करना पड़ता है। बड़ों के आदेश
का जो बहुत से नवयुवक विरोध करते हैं उसका आधार बहुत तुच्छ होता है और अंत में उन्हें हार माननी पड़ती है। जैसे कि नीति और धर्म में वैसेही विज्ञान और कला कौशल में बुद्धिमानी की बात यही है कि पहले हम धीर, जिज्ञासु और विनीत विद्यार्थी के रूप में संतोष के साथ काम करें, फिर ज्ञान और अनुभव का संचय करके निश्चित बातों में शंका करने तथा ठीक न जँचनेवाले सिद्धांतों का तिरस्कार करने का अधिकार प्राप्त करें। जिस स्वाधीनता का मैंने ऊपर उल्लेख किया है उससे इस उचित और युक्तिसंगत अधीनता का कुछ विरोध नहीं है। जो सिपाही आज्ञा-भंग करता है उसे लोग स्वाधीन नहीं कहते, बाग्री कहते हैं। प्रतिष्ठित नियम और मर्यादा क |
ा पालन करने ही से किसी मनुष्य की स्वाधीनता की, उसकी इच्छा और प्रयत्न की स्वतंत्रता की, हानि नहीं होती ।
साहस वीरता का एक प्रधान अंग है । साहस से मेरा अभिप्राय केवल उस शारीरिक बल वा बहादुरी से नहीं है जो बहुतों को जन्म से प्राप्त होती है, बल्कि उस उच्च और शुद्ध वृत्ति से है जिसे नैतिक साहस वा धर्मबल कहते हैं और जो हृदय की पवित्र उच्चता से संबंध रखती है। नित्य के व्यवहार में हमारे इस साहस की परीक्षा बराबर होती रहती है। समय पड़ने पर लोगों को सोहानेवाली बात का कहना जितना सुगम होता है उतना सत्य बात का कहना नहीं। इसीसे एक नीतिश ने यहाँ तक कहडाला है कि "सत्यं ब्रूयात्प्रियं व्यान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' ।
इसी प्रकार प्रलोभन में आ जाना जितना सुगम होता है उतना उसका अवरोध करना नहीं । हम मौक़ा पाने पर झट अपने पड़ोसी की हानि करके स्वयं लाभ उठाने का कारण ढूँढ़ निकालते हैं और लोगों से कहते फिरते हैं कि वह अकर्मण्य है, वह अपना काम काज सँभालना नहीं जानता, उसे अपना हानि-लाभ नहीं सूझता । अपने लोभ और अन्याय के लिये हम अपने को कभी नहीं धिक्कारते । भरत के ऐसे इस संसार में सब नहीं होते कि राजधानी से दूर केवल इसलिये जाकर पड़े रहे जिसमें बड़े भाई के लिये राजसिंहासन खाली रहे । कोई कार्य उचित है केवल इसी निमित्त उसके करने का धर्मबल वा साहस इस संसार में बहुत कम देखा जाता है। दुःख में शक्ति, क्षोभ में आत्मनिग्रह, विपत्ति में धैर्य, संपद् में मिताचार धर्मबल के लक्षण हैं। 'बाबू तिरबेनीसहाय देखेंगे तो क्या कहेंगे ? दुनिया देखेगी तो क्या कहेगी' इस बात का भय हमारे हाथों को दुर्बल करके अत्याचार पीड़ित प्राणियों की रक्षा के लिये, सत्य और औदार्थ के पालन के लिये, असत्य और विडंबना के विनाश के लिये, उठने नहीं देता । अमुक महाशय देखेंगे तो क्या कहेंगे ' इस भय से न जाने कितने ऐसे नव-युवकों का जीवन सत्यानाश हो जाता जिनमें झूठे घमंडियों के बीच अपना निराला मार्ग निकालने की आत्मिक क्षमता नहीं होती। बुद्धिमान् और अनुभवी लोगों की बात न मानना मूर्खता है पर दुनियाँ के हँसने और
भला बुरा कहने की बराबर चिंता करना उससे भी बढ़ कर मूर्खता है। लोगों का बहुत सा गुण और चमत्कार थोड़ी सी उचित आत्मिक दृढ़ता के प्रभाव से यों ही नष्ट जाता है । नित्य बहुत से ऐसे लोग चिता पर चढ़ते हैं जो इस कारण हीन दशा में पड़े रहे कि उनकी भीरुता ने उन्हें कोई कार्य प्रारंभ ही नहीं करने दिया । यदि वे लोग प्रारंभ करने पाते तो बहुत संभव था कि व सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए बहुत कुछ नाम और यश कमाते तथा अपने उद्योगों से अपना और दूसरों का बहुत कुछ भला करते। बात यह है कि इस संसार में किसी करने योग्य काम को करने में हमें कठिनाई और बाधा देख ठिठक कर पीछे न हटना चाहिए बल्कि जहाँ तक हो सके कूद कर आगे बढ़ना चाहिए। इसी आत्मिक दृढ़ता के बल से जो कठिनाई और सफलता के समय दूनी हो जाती है संसार में मनुष्य के ज्ञान और सुख है की वृद्धि करनेवाले सुधार हुए |
हैं, बड़े बड़े आविष्कार हुए हैं तथा मनुष्य जाति उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुई है, क्योंकि शुरू शुरू में प्रत्येक सुधार स्वभावतः लोगों की रुचि के प्रतिकूल होता है, उनके सुख चैन के भाव में बाधा डा लता है, और उनके चित्त में कठिनाई और असुविधा का खटका उत्पन्न करता है । जो सुधार पर जोर देता है उसे चारों ओर का घोर विरोध सहते हुए, बिना किसी के कृतज्ञतासूचक वा उत्साहवर्द्धक वाक्य के एकांत में चुपचाप
काम करना पड़ता है। जब वह अच्छी बातों का उपदेश करता है तब लोग उस पर पत्थर फेंकते हैं ।
धर्म के हेतु प्राण देनेवाले महात्माओं को इसी त्मिक दृढ़ता का बल और अवलंब था, इसी की गुप्त प्रेरणा से वे धन और मान का तिरस्कार करने में समर्थ हुए थे। इसी आत्मिक दृढ़ता के बल से उन्होंने कारागार और अग्नि की भीषण यंत्रणा सहन की पर उस बात का पक्ष न छोड़ा जिसे अधिकांश लोग मिथ्या और अनुचित समझते थे । समरक्षेत्र में जहाँ रणोत्साह से नस नस में रुधिर उमंगें मारता है और पास ही सहस्रों को एक ही उद्देश्य से प्रेरित देख उत्तेजना बढ़ती है, यश और कीर्त्ति प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है पर उसकी वीरता अत्यंत विकट है जो महीनों अत्याचार की घोर साँसत सह कर अपने ऐसे शत्रुओं के सम्मुख लाया जाता है जो उससे कहते हैं कि 'यदि तुम अपनी भूल को स्वीकार कर लो और अधिकारियों के मत के प्रतिकूल बातें छोड़ दो तो मुक्त कर दिए जाओ और फाँसी से बचा दिए जाओ' । दो चार अनुकूल शब्द मुँह से निकाल देने ही से उसका छुटकारा हो सकता है। यही असली परीक्षा का समय है। इसमें जो मुँह से 'आह' तक न निकाल कर सब कुछ सहे वही सच्चा वीर है। यदि इस प्रकार का उच्च और उत्कृष्ट साहस नित्य प्रति के जीवन व्यवहार में दिखाया जाय तो संसार कितना सुखमय और पवित्र हो जाय ! जिसे |
सत्य
और न्याय से प्रेम होगा वह इस प्रकार का साहस दिख लावेगा । समाज के संस्कार के लिये जिस वस्तु की बहुत बड़ी आवश्यकता है वह आत्मिक बल है जो बुराई की छाया तक को पास नहीं फटकने देता, जो सब प्रकार के दंभ, पाखंड, और भ्रम को दूर फेंकता है, जो नम्रतापूर्वक महात्मात्रों के उपदेश और आदर्श पर चलने की सामर्थ्य प्रदान करता है, जो चित्त में पवित्रता, सचाई, उदारता और भ्रातृस्नेह की स्थापना करता है। क्या इस उच्च कोटि का आत्मोत्सर्ग और श्रात्म-तुष्टि असंभव है ? हाँ दुर्बलचित्त और स्वार्थियों के लिये अवश्य असंभव है जिन्होंने लड़कपन से कभी प्रलोभनों का शासन नहीं किया, जिनका श्राशय सदा नीच रहा, जिन्होंने कभी उच्च उद्देश्य की भावना नहीं की, जो समाज के कहने सुनने का ही सदैव ध्यान रखते हैं, यह नहीं देखते कि उनकी श्रात्मा क्या कहती है, जो चिर अभ्यास के कारण संसार की तुच्छ वस्तुओं और वासनाओं से चित्त को हटा कर अपने विचारों को उन्नत करने में असमर्थ हैं। पर ऐसे लोगों के लिये असंभव नहीं है जो एक महान् लक्ष्य की अपनी सारी बुद्धि और बल लगाते हुए अग्रसर हो रहे हैं । जुआरियों, शराबियों, आलसियों, लंपटों, श्रश्रद्धा. लुनों, झूठों, घमंडियों, बेईमानों और विषयासक्कों के लिये तो अवश्य असंभव है, पर ऐसे लोगों के लिये जो महात्माओं के पथ पर चलते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो
प्रलोभनों का दमन करते हैं, जो अपना कर्त्तव्य पालन ईश्वर पर भरोसा करते हुए निःशंक भाव से करते हैं यह बात कठिन चाहे हो पर असंभव नहीं है ।
विलायत में जार्ज स्टिफ़ेसन नामक एक व्यक्ति ने देखा कि खान के भीतर काम करनेवालों के लिये एक लालटेन की बड़ी आवश्यकता है जिसके प्रकाश में लोग आराम के साथ काम करें । पर खानों के भीतर एक प्रकार की ज़हरीली हवा (गैस) होती है जिससे श्राग लगने का भय होता है । अतः बालटेन ऐसी होनी चाहिए थी जिसकी लपट से खान के भीतर ज़हरीली हवा न भभके। स्टिफ़्रेंसन ने एक लालटेन तैयार की । पर उसे काम में लाने के पहले उसकी परीक्षा आवश्यक थी। पर ऐसी भयंकर परीक्षा करे कौन ? अंत में अपने पुत्र और दो मित्रों को साथ ले कर स्वयं स्टिफ़ेसन अपनी बनाई लालटेन की परीक्षा के लिये आधी रात को खान के मुँह पर पहुँचा। चारों आदमी धीरे धीरे खान में उतरे और एक ऐसे अँधेरे गड्ढे की ओर बढ़े जहाँ बाहर की हवा बिल्कुल नहीं पहुँचती थी और अत्यंत ज़हरीली दंद निकल रही थी । स्टिफ़ेसन का एक साथी उस गड्ढे को देख कर लौटा और कहने लगा कि जहाँ वहाँ जलती बत्ती पहुँची कि गैस भभक उठेगी, सारी खान में आग लग जायगी और चारों में से एक भी जीता न बचेगा । पर स्टिस अपने संकल्प से रत्ती भर भी विचलित न हुआ । एक हाथ में लालटेन ले
कर वह बड़ी धीरता के साथ गड्ढे की ओर बढ़ा । उस समय यही जान पड़ता था कि मानो वह मृत्यु के मुख में जा रहा है, पर उसकी प्राकृति से किसी प्रकार की व्यग्रता नहीं झलकती थी। उस गड्ढे के पास पहुँच कर चट उसने अपनी लालटेन वहाँ रख दी और खड़ा हो कर परिणाम |
की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर बत्ती भभकी, फिर झलमलाने लगी और बुझ गई। इससे यह बात भली भाँति सिद्ध हो गई कि उस लालटेन से खान में आग लगने की कोई आशंका नहीं है । यहाँ पर पाठकों के ध्यान देने की बात स्टिफ्रेंसन का श्रात्मिक बल है जिसके कारण वह अकेले एक बड़े भारी उद्देश्य के साधन के लिये एक भय के स्थान में कूद पड़ा ।
श्रार्थ्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का आत्मिक बल भी ध्यान देने योग्य है । उनका आशय जैसा उच्च था वैसा ही उनका परिश्रम भी असाधारण था। विलक्षण विवादपटुता और अद्भुत साहस के साथ उन्होंने उन बुराइयों का दिग्दर्शन कराया जो हिंदू धर्म की शक्ति का अपहरण कर रही हैं। उन्होंने पूर्ण निर्भीकता और सच्चाई के साथ समाज की प्रचलित विलासप्रियता और भोगाडंबर का विरोध किया। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह बहादुर स्वामी जी का बड़ा आदर सम्मान करते थे । एक दिन स्वामी जी दरबार में पहुँचे तो क्या देखते हैं कि एक वेश्या वहाँ बैठी हुई है । महाराणा साहब स्वामी जी को लेने के लिये उठे । पर स्वामी
जी तुरंत वहाँ से उलटे पाँव यह कहते हुए फिरे - "जहाँ वेश्याओं को यह स्थान मिलता है वहाँ एक क्षण भी ठहरना उचित नहीं, ऐसे दरबार को दूर से नमस्कार ! " महाराणा साहब ने उस वेश्या को निकलवा दिया, सब कुछ किया पर स्वामी जी फिर लौट कर न गए । उन्होंने लोभी पंडों पुरोहितों के आचरण की घोर निंदा की, उनके स्वार्थमय व्यापार का खूब भंडा फोड़ा । स्वार्थियों ने उन्हें भाँति भाँति के प्रलोभन दिखाए, बड़ी बड़ी धमकियाँ दों पर वे अपने पथ से विचलित न हुए । यदि वे चाहते तो लोगों की रुचि के अनुकूल चल कर, उनकी हाँ में हाँ मिला कर, बड़े चैन के साथ मठधारी महंतों की तरह दिन बिताते, पर उन्होंने इस प्रकार बुराइयों पर परदा डालना, सत्य का |
अपघात करना उचित नहीं समझा । जिन लोगों के हित के लिये वे प्रयत्न करते थे उन्हीं से अपनी कटुक्लियों के कारण गालियाँ खा कर, अनेक प्रकार के अपमान सहकर, अंत में उन्होंने वह विष का घूँट पिया जिसे उनके खरेपन ने उनके लिये प्रस्तुत किया। स्वामी दयानंद की विद्वत्ता आदि के विषय में चाहे जो कुछ कहा जाय पर उनका उद्देश्य उच्च और दृढ़ था, उनमें चरित्रवल पूरा था। स्वामी दयानंद ने जो जो कठिनाइयाँ सहीं उन्हें समाज ने देखा, उनके बहुत से पक्षपाती हुए तथा साधुवाद देने के लिये बहुत से श्रद्धालु प्रस्तुत हुए। जो कुछ उन्होंने किया वह संसार और समाज के सामने था इससे उन्हें सहारा देनेवाले
और सहानुभूति रखनेवाले बहुत से मिल गए । पर इस संसार-कानन में ऐसे बहुत से साधु महात्मा पड़े हैं जिन्होंने अपने को कभी किसी प्रकार प्रसिद्ध नहीं किया, जिन्होंने अपनी वाणी का विकाश कभी नहीं किया, जिन्होंने अपनी एकांतता परित्याग करके कभी चर्चा लोक में नहीं
फैलाई, जिनका देवतुल्य श्रेष्ठ जीवन सदा अंतर्थात ही रहा और जिनके अंतःकरण का सौंदर्य उसी प्रकार लोगों से छिपा रहा जैसे निर्जन वन में खिली हुई कमलिनी का । जिनका जी चाहे वे रण-रक्त-रंजित विजयी योद्धाओं की प्रशंसा करें, तथा अपनी नीति द्वारा निर्बल जातियों के सुख और स्वातंत्र्य का अपहरण करनेवाले राजनीतिज्ञों को धन्य धन्य कहें पर जो सत्यप्रिय और ज्ञानार्थी हैं वे उसी आत्मिक बल का बखान करते हैं जो संसार के दुःख और भंझट को, निंदा और उपहास को प्रभाव और दरिद्रता को कुछ नहीं समझता । यही आत्मिक बल संसार की कठिन कसौटी पर ठहर सकता है ।
आजकल उन्नति और विद्याप्रचार के जितने साधन उतने पहले समय में न थे । प्राचीन काल में न छापे की कलें थीं, न स्थान स्थान पर बड़े बड़े पुस्तकालय थे, न सामयिक पत्र पत्रिकाएँ थीं, न डाक विभाग था, न वैज्ञानिक परीक्षालय थे, पर ऐसे ऐसे अध्यवसायी, मेधावी और प्रतिभाशाली विद्वान् होते थे जिनकी कृतियों को देख आज कल के
लोगों को भी चकित होना पड़ता है । शारीरिक वारता लोगों को तोप के मोहड़े के सामने ले जा कर खड़ा कर सकती है क्योंकि वे एक दूसरे की देखादेखी तथा प्रतिहिंसा, विजय और लूट की आशा से उत्तेजित रहते हैं । पर भूख प्यास का वेग, शीत ताप की व्यथा, उद्धतों का कुव्यवहार, धनियों का अपमान सहने के लिये एक और ही उच्च प्रकार की प्रेरणा की आवश्यकता होती है । ज्ञान के गुप्त रहस्यों का उद्घाटन और आत्मा की उन्नति करने के लिये एकांत में, अकेले और अज्ञातभाव से परिश्रम करना पड़ता है । जिस समय लिखने पढ़ने की सामग्रियों और पुस्तकों का भाव था, विद्यार्थी गुरुकुलों में कुशासन पर सोते थे, वन वन लकड़ी चुनते और कंद मूल उखाड़ते थे. उस समय भी ऐसे ऐसे प्रकांड प्राचार्य हुए जिन्होंने ज्ञान की ज्योति को निरंतर प्रज्वलित रक्खा और भावी संतति की ओर बढ़ाया। - संस्कार में रत युवा पुरुष जितनी प्रशंसा ऐसे लोगों के धर्मबल की करेंगे उतनी प्रशंसा उन योद्धाओं के बाहुबल की नहीं जो तलवा |
र और भाले ले कर विजय और कीर्त्ति की लिप्सा से संग्रामभूमि में अग्रसर हुए हैं। इसी एक धर्मबल के सहारे संसार के बड़े बड़े महात्माओं ने ज्ञान की खोज में अनेक आपत्तियाँ उठाई और अनेक संकट सहे । लोग कह सकते हैं कि जो काम उन्होंने किए उनका महत्त्व उन्हें अवश्य विदित था, पर महत्त्व विदित होने पर भी यदि उनमें ज्ञान
की निःस्वार्थ चाह न होती तो वे इस वीरता के साथ और इस अटल भाव से अपने व्रत का पालन करते हुए अपने विकट और कंटकमय मार्ग में अग्रसर न हो सकते ।
जब कि उस समय के लोग इतना कर गए तब क्या आज कल के लोग सब कुछ सुबीता रहते हुए भी अपना जीवननिर्वाह उसी योग्यता के साथ नहीं कर सकते ? क्या आज कल के लोग उन प्राचीनों से भी गए बीते बनना चाहते हैं जिनके पास उन्नति के साधन इतने अल्प थे ? एक बात जो
में भली भाँति अंकित कर रखने की है वह यह है कि मनुष्य का जीवन केवल एक ही गुण से उच्च और महान हो सकता है। यह गुण सत्यबल है । सत्यबल योग से प्राप्त होता है । सत्यबल धर्मबल ही का नाम है । यदि तुम यह समझते हो कि पोथियों, पांडित्यपूर्ण शास्त्रार्थी, तथा तर्क वितर्क से ही तुम सब कुछ कर लोगे तो यह तुम्हारी बड़ी भारी भूल है । पुस्तकें तुम्हें जाग्रत और उत्तेजित कर सकती हैं तथा उँगलियों का इशारा कर सकती हैं कि इधर उधर न भटको पर वे तुम्हें पथ पर असर नहीं कर सकतीं। पथ पर अग्रसर तुम्हारे पैर ही करेंगे। यह करने धरने की बात है केवल जानने की बात नहीं है । उँगलियों के इशारे मिलते रहे तो अच्छी बात है, पर यदि उन के बिना काम चले तो और भी अच्छी बात है, क्योंकि यह निश्चय समझो कि जीवन यात्रा में थोड़ी दूर आगे चल कर तुम्हें फिर उजाड़ मैदान और दलदल मिलेंगे, सो यदि तुम्हें
पग पग पर दूसरों ही के इशारे पर चलने का अभ्यास रहेगा तो |
किं- कर्त्तव्य-विमूढ़ हो कर तुम फटफटाते रह जाओगे । तुम्हारा पथप्रदर्शक तुम्हारी श्रात्मा में होना चाहिए अन्यथा तुम्हें उद्धार के लिये ऐसों का मुँह ताकना पड़ेगा जिनकी दशा तुमसे कदाचित् ही कुछ अच्छी होगी। अतः कमर कस कर उठो और इस बात को प्रमाणित कर दो कि जिस प्रकार तुम्हें चलना रहता है तो चलते हो, कूदना रहता है तो कूदते हो, उछलना रहता है तो उछलते हो, इसी प्रकार तुम श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिये प्रत्येक अवसर पर श्रेष्ठ आचरण करते हो । आत्म-बल का संपादन करो, हृदय और बुद्धि को परिष्कृत करो, और अपना संकल्प दृढ़ रक्खो । तुम दुनिया में रह कर भी बिल्कुल दुनियादारी ही का व्यवहार न करो, इंद्रियों से कार्य लेते हुए भी इंद्रियासक्ल न हो जाओ बल्कि अपना संकल्प उच्च और श्राशय गम्भीर रक्खो । जब तुम भाँति भाँति के प्रलोभनों वा आपदाओं के बीच पड़ोगे अथवा विरोधियों से घिर जाओगे तब तुम्हें अपनी आत्मा ही की शरण रहेगी, अपने दृढ़ संकल्प ही का सहारा रहेगा। ऐसे अवसरों पर तुम तिल भर भी न डिगना । जब सिपाही गढ़ के द्वार में घुसता है तब वह या तो बराबर आगे बढ़ता जाता है और विजय प्राप्त करता है अथवा पीठ दिखाता वा मारा जाता है। जब तक समुद्र वा नदी का बाँध मज़बूत रहता है तब तक उसके पीछे की भूमि रक्षित रहती है पर जहाँ उसमें
कोई छेद हुआ कि जल वेग के साथ उसे तोड़ फोड़ देता है और बढ़ कर सब कुछ सत्यानाश कर देता है। पवित्रता और शुद्धता का आदर्श सदैव अपने सामने रक्खो जिसमें तुम्हारे संकल्प और भाव आत्मबल के सहारे उसके निकट तक पहुँचें । इस पृथ्वी पर मनुष्य या तो इंद्रियों का सुख भोगे अथवा आत्मा की शांति प्राप्त करे । यदि मा की शांति प्राप्त करनी है, यदि अपने मानव जीवन को देव-जीवन बनाना है, यदि इस मर्त्यलोक में निर्देद्वभाव से रहना है तो इस भाव-कानन के कुफल न चखो । बाहरी सौंदर्य से नेत्रों को आनंद मिल सकता है पर काल की गति के साथ यह क्षणिक आनंद भी देखते ही देखते बदल जाता है । द्रव्य ही परिव र्त्तनशील है, आत्मा का प्रदर्शभाव जिसे सौंदर्य और उत्त मता की अगोचर अवस्था कह सकते हैं, लौकिक से परे एक दिव्य ज्योतिर्मय सृष्टि से संबंध रखता है। क्या इस आदर्शभाव के सहारे तुम ऊँचे उठना चाहते हो ? यदि चाहते हो तो पार्थिव को छोड़ो और इस क्षुद्र अंधकारमयं जीवन से निकल कर आदर्शभावमय राज्य में प्रवेश करो। वहीं परमात्मा का वह रूप दिखाई पड़ेगा जिसका जीवात्मा एक अंश है । उस दिव्य रूप में जीवात्मा पूर्ण, शुद्ध, बुद्ध और नित्य देख पड़ेगा जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैन जायते म्रियते वा कदाचि
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
श्रजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ श्रच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ अस्तु हमें चाहिए कि हम विषयादि में नितांत लिप्त न हो कर शुद्ध आत्मा की शांति का सुख भोगे क्योंकिअवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यज |
ति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजंतः स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्त्वा होते शमसुखमनंतं विदधति ॥
चाहे हम कितने ही दिनों तक क्यों न रहे विषयादि एक दिन अवश्य जानेवाले हैं इसलिये चाहे हम स्वयं उनका त्याग करें अथवा वे हमारा त्याग करें उनके हमारे वियोग में किसी प्रकार का संशय नहीं । पर संसारी मनुष्य फिर भी स्वयं उनका परित्याग नहीं करते। जब आप ही आप विषयादि हमारा त्याग करते हैं तब हमें अत्यंत दुःख होता है पर जब हम स्वयं उनका परित्याग कर देंगे तब अनंत शांति सुख का लाभ कर सकेंगे ।
युवा पुरुषों के लिये हम यहाँ परिश्रम के महत्त्व की लंबी चौड़ी व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझते । जो परिश्रम करने के लिये उद्यत नहीं वह आत्मसंस्कार में भला क्या प्रवृत्त होगा ? आलसी और अकर्मण्य को अपना हृदय परि
ष्कृत करने और बुद्धि विवर्द्धित करने की लालसा ही न होगी । पर अध्यवसाय की आवश्यकता की ओर में विशेष ध्यान दिलाना चाहता हूँ । मैंने ऐसे बहुत से प्रारंभशूर युवा पुरुषों को देखा है जिन्होंने बड़ी धूम और तपाक के साथ कार्य आरंभ किया, बड़ी बड़ी पुस्तकें इकट्ठी कों, अध्ययन की प्रणाली स्थिर की, पर जहाँ उन्होंने दो चार पृष्ठ पढ़े, या दो चार सवाल लगाए कि उनके सामने भारी कठिनता दिखाई दी, फिर तो पुस्तके किनारे फेंक सारी पढ़ाई लिखाई उन्होंने यह कह कर छोड़ दी कि 'यह सब हमारे किए न होगा' ।
भर पुरुषों को थोड़ा ही आगे चल कर यह मालूम होने लगता है कि जो कार्य उन्होंने ठाना है वह उनकी शक्ति और सामर्थ्य के बाहर है। थोड़ा सोचिए तो कि यह कैसी बात ? उस सेनापति को लोग क्या कहेंगे जिसने शत्रु के दुर्ग को तोड़ने का संकल्प करके उसका नक़शा तैयार किया, जो आक्रमण करने के लिये सिपाहियों को ले कर आगे बढ़ा पर एक छोटी सी खाई देख कर |
लौट आया। श्रात्मसंस्कारा भिलाषी पुरुष में अध्यवसाय अवश्य चाहिए। उसे कठिनाइयाँ पड़ेगी- एक दो नहीं सैकड़ों पर ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता जायगा त्यों त्यों उसकी एक एक कठिनाई सुगम होती जायगी और बराबर कृतकार्य्य होते होते उसे पूरी आशा और हिम्मत बँध जायगी । कठिनाइयाँ तो अवश्य पड़ेगी क्योंकि यदि कठिनाइयां न हों तो फिर अभ्यास और परिश्रम का महत्व ही
क्या ? हम ऐसे वीर सेनानायक की प्रशंसा नहीं करते जो किसी अरक्षित देश में बिना किसी प्रकार की लड़ाई भिड़ाई के प्रवेश करता है । ज्ञान का श्राधा महत्त्व और सौंदर्य नष्ट हो जाय यदि वह बिना कठिन और अखंड प्रयत्न के प्राप्त हो । पुरुषार्थियों के लिये यथार्थ आनंद प्रयत्न में है, फल में नहीं । प्रयत्न ही आत्मा की शिक्षा और चरित्र की उन्नति का विधान करता है। प्रयत्न ही मनुष्य को धैर्य और शांति रखने तथा कर्त्तव्य-स्थिर करने की शिक्षा देता है। प्रयत्न में मनुष्य को कठिनाई अवश्य पड़ती है, पर कोई कठिनाई ऐसी नहीं जो दूर न की जा सके। किसी धीर और पुरुषार्थी के हाथ में एक घन और टांकी तथा कुछ समय दे दीजिए वह बड़ी बड़ी चट्टानों को उखाड़ कर फेंक देगा । इसी प्रकार आत्मशिक्षाभिलाषी पुरुष अवसर और साधन पाकर जिस काम को करना चाहेगा कर डालेगा । प्रयत्न और परिश्रम अच्छे गुण हैं, पर अध्यवसाय सबसे बढ़ कर है। कोई मनुष्य परिश्रमी हो कर भी असफलता देख शीघ्र हतोत्साह हो सकता है । उसका जी यह देख कर टूट सकता है कि वह अपने काम में बहुत कम आगे बढ़ा है। युवा पुरुष को जिस गुण की बड़ी भारी आवश्यकता है वह अध्यवसाय है, इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकता । मान लीजिए कि वह कोई काम करता चला जा रहा है इसी बीच में उसके मन में आया कि 'जितना समय नित्य मैं इस काम में लगाता हूँ उतने से क्या होगा, काम
बहुत है । अब क्या उसे उस काम को बीच ही में छोड़ देना चाहिए। नहीं कदापि नहीं, उसे अध्यवसाय पूर्वक काम करते चलना चाहिए। उसे किसी बात से हतोत्साह न होना चाहिए, उसे हार मान कर बैठ न रहना चाहिए । यदि तुम्हें प्रतिदिन एक घंटा ही मिलता है तो उसी एक घंटे का पूरा उपयोग करो । यदि साहित्य की ओर तुम्हारी रुचि नहीं है तो इतिहास पढ़ो, विज्ञान सीखो, दर्शन में अभ्यास करो, कलाकौशल में निपुणता प्राप्त करो । तात्पर्य यह कि अध्यवसाय न छोड़ो । तुम्हें पहले यह सीखना चाहिए कि किस तरह सीखना होता है । जिस तरह बच्चा जब पैरों के बल चलने का करना सीखने लगता है तब कई बार गिरता पड़ता है उसी प्रकार तुम्हें भी गिरना पड़ना पड़ेगा, पर उद्योग न छोड़ना ।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्न-विहता विरमंति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजंति ।।
जब वसुदेव जी अँधेरी भयानक रात में बालक श्री कृष्ण को लिए पार जाने के निमित्त बढ़ी हुई जमुना के किनारे पहुँचे तब वे ठिठक कर खड़े हो गए, पार होने का कोई उद्योग उनसे न बन पड़ा। जब देवबल से जमुना का जल कम हुआ तब वे नदी में हल कर पार हुए। |
पर साधारण अवस्थाओं में युवा
पुरुषों के लिये इस प्रकार ठिठक कर खड़ा हो जाना ठीक नहीं। उन्हें चटपट कमर कस कर नदी पार करने के उद्योग में लग जाना चाहिए । संस्कृत साहित्य की ओर यूरोप को आकर्षित करनेवाले, एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सर विलियम जोंस का यह सिद्धांत था कि चाहे कितनी ही कठि नाइयाँ पड़े जिस कार्य में हाथ डाले उसे बिना पूरा किए न छोड़े । इसी से उन्होंने अपने अल्प जीवन काल में आठ भाषाओं में तो पूरी और भाषाओं में उससे कुछ कम योग्यता प्राप्त की । इनके अतिरिक्त वे बारह और भाषाओं की भी थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे । यह सब अध्यव साय के अमोघ बल से हुआ । इसी प्रकार यहाँ पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर, जस्टिस महादेव गोविंद रानडे, अध्यापक हरिनाथ दे, रमेशचंद्रदत्त, डाक्टर राजेंद्रलाल मित्र, आदि बहुत से लोगों के वृत्तांत दिए जा सकते हैं पर वे इतने प्रसिद्ध हैं। के उनके नाम देने ही से काम निकल जायगा । ये लोग पुकार पुकार कर इस भारी बात की घोषणा कर रहे हैं कि अध्यवसाय के बिना कुछ भी नहीं हो सकता । यही राजनीतिज्ञ की बुद्धि है, विजयी का अस्त्र है, विद्वान् का बल है । प्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण और ग्रंथकार बोपदेव के विषय में एक आख्यान प्रसिद्ध है । ऐसा कहा जाता है कि जब वे गुरु के समीप विद्याध्ययन के लिये बैठाए गए तब उनकी बुद्धि अत्यंत मोटी थी । गुरु जी जो कुछ समझाते थे वह
उन्हें समझ ही में न आता था। एक दिन उन्होंने अपने मन में निश्चय कर लिया कि अब मुझे पढ़ना न आवेगा और वे घर से निकल पड़े । एक दिन वे घूमते घूमते एक सरोवर के तट पर पहुँचे जिसके चारों ओर पत्थर का घाट बँधा था । वहाँ बैठे ही थे कि इतने में एक स्त्री घड़ा ल कर आई और उसे घाट पर रख कर नहाने लगी। थोड़ी देर म वह नहा धो कर और घड़े में पान |
ी ले कर चली गई । बोपदेव ने देखा जहाँ उस स्त्री ने घड़ा रक्खा था वहाँ पत्थर पर एक गड्ढा पड़ गया है । यह देख कर बोपदेव ने मन में सांचा कि जब पत्थर ऐसी कठोर वस्तु मिट्टी के घड़े की रगड़ से घिस जाती है तब क्या लगातार परिश्रम करने से मेरी स्थूल बुद्धि भी घिस कर सूक्ष्म न हो जायगी । इस विचार के उठते ही बोपदेव वहाँ से चल पड़े और फिर अपने गुरु जी के पास श्रा कर तन मन से विद्याध्ययन में लग गए। फिर तो बोपदेव ऐसे भारी पंडित हुए और उन्होंने ऐसे ऐसे ग्रंथ बनाए कि उनका नाम सारे भारतवर्ष में फैल गया । बंगदेश में इन्हीं बोपदेव के व्याकरण को पढ़ कर लोग पंडित होते हैं।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर जिस समय अपने ग्राम की शिक्षा समाप्त करके कलकत्ते के संस्कृत कालेज में भरती हुए उस समय उन्होंने अध्यवसाय और परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी। संस्कृत व्याकरण के साथ उन्होंने स्कूल में अँगरेजी पढ़ना भी
प्रारंभ किया। ईश्वरचंद्र के पिता अत्यंत साधारण वित्त के मनुष्य थे इससे वे पुत्र की विशेष सहायता न कर सकते थे । ईश्वरचंद्र दिन भर तो कालिज और स्कूल में संस्कृत और अँगरेज़ी का पाठ सुनाते और लेते, रात को रसोई बना कर पढ़ने बैठते और दो दो बजे रात तक बैठे रह जाते । वे कभी कभी एक दिन का बनाया दो दो दिन खाते । उन दिनों उनका यह हाल था कि वे सबेरे स्नान करके बाज़ार जाते और तरकारी इत्यादि लेकर डेरे पर लौट। फिर अपने हाथों ही से सिल पर हलदी मसाला पीसते और आग जलाते थे। उनके बास में चार आदमी भोजन करते थे । सब के लिये वे भात दाल, मछली तरकारी आदि बनाते । फिर सब के भोजन कर चुकने पर चौका साफ़ करते और बरतन माँज थे । सचमुच बासन माँजत और लकड़ी चीरते चीरते उनके हाथ खुरखुरे हो गए थे और दो एक नख घिस गए थे। इस अपूर्व परिश्रम का विद्यासागर को अपूर्व फल मिला । थोड़े ही दिनों में वे व्याकरण, साहित्य, स्मृति, अलंकार आदि में पारंगत हो गए और उन्होंने उच्च छात्रवृत्ति प्राप्त की। धीरे धीरे वे विद्यासागर हो गए और उनकी उज्ज्वल कीर्त्ति सारे भारतवर्ष में फैल गई ।
अध्यवसाय मानसिक शिक्षा का एक बड़ा भारी साधन है। मन को व्यर्थ इधर उधर बहँकने से रोकने के लिये, कल्पना को अनुपयोगी विषयों में लीन होने से बचाने के लिये मेरी
समझ में इससे बढ़ कर आर कोई उपाय नहीं है कि तर्क विद्या की खरी शैली का अभ्यास किया जाय प्राचीन और
अर्वाचीन भाषाओं का पूर्ण अध्ययन किया जाय। अध्यवसाय नैतिक शिक्षा का भी साधन है । जब बौद्ध भिक्षुकों को मार के प्रलोभनों का बहुत भय होता है तब वे अपने धर्मकार्यों में दूनी तत्परता के साथ रत हो जाते हैं। यदि प्रत्येक घड़ी के लिये कोई न कोई काम रहे तो क्षुद्र ईर्ष्या, मात्सर्थ्य, अपवित्र वासना आदि के लिये समय न मिले, ऐसे खोटे उद्योगों के लिये अवकाश ही न रहे जिनके द्वारा खाली बैठे हुए निकम्मे लोग अपना सत्यानाश करते हैं। अंगरेज़ी कहावत है कि शैतान ऐसे ही हाथों को खोटे कम्मों की ओर बढ़ाता है जिनमें कुछ काम धंधा नहीं रहता। अध्यवसाय के |
महत्व को समझते हुए भी युवा पुरुष को चाहिए कि वह इस बात में भी श्रावश्यकता से अधिक न बढ़ जाय । बहुत से युवा पुरुषों के लिये तो इस चेतावनी की कोई आवश्यकता ही नहीं क्योंकि बिरले ही मनुष्यों को परिश्रम वा अध्यवसाय इतना प्रिय होता है। पर कभी कभी कोई उत्साही छात्र ज्ञान-पिपासा के इतना वशीभूत हो जाता है कि वह उतना समय व्यर्थ नष्ट हुआ समझता है जितना पुस्तकों के अध्ययन में नहीं बीतता । इसी विचार स मे युवा पुरुषों में एक और गुण का होना आवश्यक समझता हूँ जिसे संयम वा मिताचरण कह किसी बात में अति कभी न करनी चाहिए। यह वाक्य सदा
ध्यान में रखना चाहिए"अति सर्वत्र वर्जयेत्"। हर एक बात की हद होती है। जिस प्रकार राजाओं को नये नये देशों को जीत कर राज्य में मिलाने की धुन हो जाती है उसी प्रकार किसी किसी विद्या व्यसनी को एक शास्त्र स दूसर शास्त्र, एक विद्या से दूसरी विद्या पर अधिकार प्राप्त करने की धुन हो जाती है। वह कभी इतिहास पढ़ते पढ़ते दर्शनों की ओर झुकता है, कभी संस्कृत प्राकृत में प्रवीण होकर अरबी फ़ारसी सीखने लगता है, रसायन और विज्ञान में पारंगत होकर भूगभविद्या और वनस्पतिविद्या में परिश्रम करता है। सच्चे जिज्ञासु और विद्वान् का यही लक्षण है । पर उसे इस बात से भी सावधान रहना चाहिए कि अत्यंत अधिक परिश्रम स कहीं वह अस्वस्थ न हो जाय और किसी काम के करने लायक़ ही न रहे । अतः हे युवा पुरुष ! तुम्हें चाहिए कि तुम अति न करो। तुम्हें काम की भी उसी प्रकार अति न करनी चाहिए जिस प्रकार आराम की । जितना समय तुम्हारे हाथ में हो उसे अच्छी तरह सोच समझ लो और जितना तुम उसके बीच कर सकते हो उससे अधिक के लिये प्रयत्न न करो। मैं पहले ही बतला चुका हूँ कि अपने समय और शक्ति का क्रम और व्यवस्थापूर्वक उपयोग करने से तुम कि |
तने बड़े बड़े काम कर सकते हो । इस ढंग से तुम जितना कर सको उससे संतोष करो, अपने शरीर और मस्तिष्क के पुरज़ों से इतना अधिक काम न लो जितना वे स्वस्थतापूर्वक न कर सकें ।
यदि तुम शरीर वा मस्तिष्क पर बहुत अधिक बोझ डालोगे, उसे बहुत अधिक झटका दोगे, तो वह तड़ से उखड़ जायगा। मैंने बहुत से युवा पुरुषों को देखा है जो एक बारगी बहुत अधिक काम के कारण चक्कर खाते हुए सिर में भीगी रुमाल लपेटते हैं, थके हुए मन में फुरती लाने के लिये दम पर दम गरमा गरम चाय पीते हैं तथा इसी प्रकार के अनेक और उपाय करते हैं। यह अत्यंत हानिकारक है, यह भारी पागलपन है । इससे भाँति भाति के रोग लग जाते हैं, और शरीर उखड़ जाता है। मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो पढ़ने में अति करने के कारण अकाल ही काल के गा में गए हैं । याद वे अपने समय र श्रमका संयमपूर्वक उचित विभाग करत तो अपने जीवन से हाथ न धीते । संयम और व्यवस्था इन दो बातों से बड़ी रक्षा रहती है। युवा पुरुष को चाहिए कि वह अपने उद्देश्यों को परिमित रक्खे और अपने कार्यो को नियमित करे । यदि मन को नियत समय पर एक एक विषय की ओर लगाया जाय तो वह बहुत कुछ कर सकता है । पर यदि उसे लगातार एक ही ओर लगा कर उस पर एक ही समय में बहुत सा बोझ डाल दिया जायगा तो अंत भ कुछ भी न हो सकेगा। लोगों की मृत्यु असंयम ही से होती है। नियमपूर्वक कार्य करने से कोई नहीं मरता, बल्कि इतिहास और जीवनचरित इस बात के साक्षी हैं कि काम करने से मनुष्य दीर्घायु होता है। पड़ी पड़ी मुर्चा खाने से वस्तु |
अचानक देखता हूं कि पिछली तरफ़ के कमरे का दर्वाजा खोलकर शचीश निकल आया और हम लोगों के साथ ही बैठ गया ।
उसी क्षण दामिनी की हंसी एकदम बंद हो गई, मैं भी इसके लिये जरा तैयार-सा नहीं था। सोचा, शचीश के साथ कुछ बातें करू , किन्तु बात खोजे न मिली। चुपचाप किताब के सफे उलटने लगा। शचीश जिस तरह अचानक आकर बैठ गया था, वैसे ही औचक उठकर चला गया। उस दिन फिर हम लोगों का पढ़ना और आगे न बढ़ सका। शचीश शायद यह बात न समझ पाया कि मेरे और दामिनी के बीच जिस ओट के न होने की कल्पना करके वह मुझसे ईर्ष्या करता है, वास्तव में उसके और दामिनी के बीच उसी ओट के विद्यमान होने के कारण मैं उससे ईर्ष्या करता हूं ।
उसी दिन शचीश गुरुजी के पास जाकर बोला, प्रभु, कुछ दिन अकेले समुद्र की तरफ घूम आना चाहता हूं, ह फ्ते भर के भीतर ही लौट आऊंगा ।
गुरुजी बहुत उत्साह के साथ बोले, खूब अच्छी बात है, अवश्य हो आओ !
शचीश चला गया । दामिनी ने न तो फिर मुझे पढ़ने के लिये बुलवाया, और न उसे मेरी कोई अन्य ज़रूरत ही पड़ी। उसे मुहल्ले की स्त्रियों के साथ भी ग़पशप करते नहीं देखा। अक्सर कमरे में ही रहती; कमरे का दरवाजा प्रायः बन्द रहता।
कुछ दिन और भी बीत गए । एक रोज़ गुरुजी दुपहर को सो रहे थे; मैं छत के बरामदे में बैठा चिट्ठी लिख रहा था - कि इसी समय
सहसा शचोश आगया और बिना मेरी ओर दृष्टिपात किए, दामिनी के बन्द दरवाज़े पर धक्का देकर बोला, दामिनो, दामिनी !
दामिनी झटपट दरवाज़ा खोलकर बाहर आई । शवीश का चेहरा भला यह कैसा हो गया है ! प्रचण्ड तूफ़ान का झपट्टा खाए हुए, फटे पाल और टूटे मस्तूलवाले जहाज़ की तरह उसका भाव है; आंखें दोनों कैसी-कैसी, केश उलके-सुलके, मुंह सूखा और फोका, कपड़े बिल्कुल ही मलिन । शचीश बोला, दामिनी, मैंने तुमसे चले जाने के लिये कहा था, वह मेरी भूल थी, मुझे माफ़ करो !
दामिनी हाथ जोड़कर बोली, यह आप क्या कह रहे हैं !
नहीं, मुझे माफ़ करो दामिनी । हम लोग अपनी ही साधना के सुभीते के लिये तुम्हें मर्जी मुताबिक साथ रखें या दूर हटाएं, इतना बड़ा अपराध अब मैं कभी मन में भी नहीं लाऊंगा। किन्तु तुमसे भी मेरा एक अनुरोध है जो तुम्हें मानना ही होगा।
दामिनी ने तत्काल झुककर शचीश के दोनों पावं छूते हुए कहा, मुझे आज्ञा दो तुम !
शचोश बोला, तुम हमारा साथ दो, दामिनों, अपने को इस तरह अलग-अलग मत रखो !
दामिनी ने कहा, यही होगा, मैं अब कोई अपराध नहीं करूंगी। - यह कहकर फिर नत होकर पांवों की धूलि लेते हुए उसने शचीश को प्रणाम किया, और फिर कहा, मैं अब कोई अपराध नहीं करूंगो ।
कठिन पाषाण एक बार फिर गला । दामिनी की जो यथार्थ दीप्ति थी उसका प्रकाश तो बना रहा, किन्तु ताप मिट गया । पूजा-अर्चना सेवा जतन के भीतर से माधुर्य का फूल खिल उठा। जब कीर्तन की धुन जमती, जब गुरुजी हमारे साथ ज्ञान - चर्चा के लिये बैठते, जब वे गीता अथवा भागवत की व्याख्या करते, तब दामिनी कभी पल भर के लिये भी अनुपस्थित न रहती। उसकी सजधज में भी परिवर्तन हो गया। उसने फिर अपनी वही दू |
सर की सीधी-सादी सफेद साड़ी पहन ली; दिन में जब भी वह दिखाई पड़ती तो ऐसा मालूम होता जैसे अभी-अभी स्नान करके शुचि शुभ्र होकर आई हो ।
गुरुजी के संस्पर्श में ही उसकी सबसे कड़ी परीक्षा होती । उन्हें जब वह प्रणाम करने के लिये नत होती, तब मैं उसको आंखों के कोनों में एक रुद्र तेज की झलक साफ़ देख पाता । मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि गुरुजी के किसी भी हुक्म को वह मन ही मन ज़रा भी सह नहीं पाती, किन्तु उनकी सभी बातें उसने एकांत भाव से मान ली हैं। यहां तक कि एक दिन बंगला के उसी विषम आधुनिक लेखक की दुविषह रचना के विरुद्ध साहसपूर्वक गुरुजी ने अपना एतराज भी जाहिर कर दिया। दूसरे दिन देखा गया कि दुपहरिया में उनके विश्राम करने के कमरे में बिछौने के पास कितने ही फूल रखे हुए हैं, ये फूल उसी आदमी की पुस्तक के फाड़े हुए पन्नों पर सजाए हुए हैं।
मैंने यह बात कई बार देखो थी कि गुरुजी जब शवीश को अपनी
परिचर्या के लिये बुलाते, तो वह स्थिति दामिनी के लिये सबसे अधिक असह्य हो उठती । वह जैसे-तैसे उसे वहां से कहीं और भेजकर उसका काम खुद हो कर देने की कोशिश करती, लेकिन हर बार वैसा संभव नहीं होता । इसीलिये शचीश जब गुरुजी के हुक की चिलम को सुलगाते हुए फूंक लगाता, तब दामिनो प्राणपण से मनहो - मन अपनी वही प्रतिज्ञा जपती : अपराध नहीं करूंगी, अपराध नहीं करूंगी ! लेकिन शचीश ने वास्तव में जो कुछ सोचा था, वह तो कुछ भी नहीं हुआ ! इसी तरह पहले भी एक बार जब दामिनी समर्पण का अध्ये लेकर नत हुई थी, तब भी शचीश ने केवल उसके अतंरस्थ 'माधुर्य' को ही देखा; जो 'मधुर' था उसे नहीं। किंतु इस बार स्वयं दामिनी ही शचीश के निकट इस प्रकार सत्य हो उठी कि भजन-कीत्त न की लड़ियों और तत्त्व के उपदेशों को ठेलकर वहा सबके आगे सुस्पष्ट दिखाई देती ; उसे |
आज किसी भी तरह ढककर नहीं रखा जा सका। शवोश उसे इतने सुस्पष्ट रूप में देख पाता कि उसके भक्तिभाव का नशा ही टूट जाता। उसे वह किसी भी तरह अरूप भाव-रस का रूपक मात्र नहीं समझ पाता । आज दामिनी भक्ति के उन गीतों को अपने कंठ द्वारा सजाकर सुंदर नहीं बनाती, बल्कि वे गीत ही दामिनो को संवारकर सुंदर और सजीला बना डालते हैं ।
यहां एक और छोटी-सी बात कह रहूं, दामिनी को अब मेरी कोई ज़रूरत नहीं रह गई । मेरे पास उसकी सारो फ़रमाइश अचानक एकदम बन्द हो गईं। मेरे जो सहयोगी थे, उनमें चील तो मर चुकी, नेवला भाग गया ; कुत्ते के पिल्ले के अनाचार से गुरुजी तंग थे, इसलिये दामिनी ने ही उसे किसीको दान कर दिया । ने
इस तरह फिर बेकार और बेसाथी हो जाने से मैं दुबारा गुरुजी के दरबार में पहले के समान भर्ती हो गया, यद्यपि वहां की सारी बातचीत और गाना बजाना मुझे इस बार बिल्कुल ही बेस्वाद लगने लगे ।
एक दिन शचीश कल्पना के के उन्मुक्त पात्र में पूरब और पच्छिम, अतीत और वत्त मान के समस्त दर्शन और विज्ञान, रस और तत्व को एक साथ पकाकर एक अपूर्व अर्का उतार रहा था, कि इसी समय हठात् दामिनी दौड़ती हुई आकर बोली, अजी, एक दफा जल्दी इधर तो आओ !
मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा और पूछा, क्या हुआ ?
दामिनी बोलो, नवीन की घरवाली ने शायद जहर खा लिया है। नवीनचन्द्र हमारे गुरुजी के किसी चेले का रिश्तेदार, हमारा पड़ोसी और हमारे कीत्त न दल का एक गायक है। हम लोगों ने जाकर देखा कि उसकी स्त्री तब तक समाप्त हो चुकी है। पता लग पर जो क़िस्सा खुला हुआ वह इस तरह है : नवीन की स्त्री ने अपनी मातृहीना बहन को अपने पास लाकर रखा था। वे लोग कुलीन ठहरे, अतएव लड़की के लायक़ पात्र मिलना कठिन था । लड़की देखने में फबोली थी ; नवीन के छोटे भाई ने उसे ब्याह के लिये पसन्द भी किया था। सभी कुछ ठीक हो चुका था । इसी बीच नवीन की स्त्री को पता लगा कि उसके पति और उसकी
बहन दोनों में एक-दूसरे के प्रति आसक्ति पैदा हो उठी है। तब उसने पति से अपनी बहन के साथ शादी करने के लिये अनुरोध किया । कोई ख़ास जबर्दस्ती इसके लिये उसे नहीं करनी पड़ी; पतिदेवता अनायास ही राज़ी होगए । विवाह खत्म होने पर नवीन की पहली स्त्री ने आज विष खाकर आत्महत्या कर ली है।
उस समय कोई ख़ास काम करने को नहीं था हम लोग लौट आए । गुरुजी के निकट बहुत से शिष्य आ जुटे, और उन्हें कीर्त्तन सुनाने लगे; गुरुजी कीतन में शामिल होकर नाचने लगे ।
तब रात के शुरू पहर का चांद आकाश में निकल आया था। छत के जिस कोने की तरफ फरहद के पेड़ को कुछ शाखें झुक आई थीं, वहीं छाया और प्रकाश से बुने आसन पर दामिनी चुपचाप बैठी थी। शचीश उसके पीछे की ओर के छायादार बरामदे में धोरै-धोरै चहलक़दमी कर रहा था। डायरी लिखने का मुझे रोग-सा है, सो मैं कमरे में अकेला बैठा लिख रहा था ।
उस दिन अमराई में मानो कोयल की पलकों में नींद ही नहीं थी । दक्खिन की हवा में पत्तों के मुंह से जैसे बोल फूटना, चाहते थे। उनपर चांद का उजाला झलमल कर रहा था । अचानक किसी समय श |
चीश के जी में क्या आया, वह दामिनी के पीछे आकर टुक खड़ा हो गया । दामिनी ने चौंककर सिर पर कपड़ा खींचा और वहां से चटपट चले जाने का उपक्रम किया ।
शचीश ने पुकारा, दामिनी
दामिनी रुककर खड़ी हो गई। फिर हाथ जोड़कर बोली, प्रभु, मेरी एक बात सुनो ।
शवीश ने चुपचाप उसके मुंह की ओर ताका । दामिनी बोली, मुझे इतना समझा दो कि तुम लोग दिनरात जिसे लेकर पागल हो रहे हो, उससे संसार में किसका कौन-सा प्रयोजन सघता है ? तुमने कब किसका उद्धार किया ?
मैं कमरे से निकलकर बाहर बरामदे में आ खड़ा हुआ । दामिनी बोली, तुम लोग रात और दिन केवल 'रस' की पुकार मचाए हो, उसे छोड़ तुम्हारे पास और कोई बात हो नहीं । रस क्या है सो तो आज अपनी आंखों देख लिया न ? - उसके न धर्म है न कर्म, न भाई है न स्त्री, न कुल न मान । उसके दया- माया नहीं, श्रद्धा-विश्वास नहीं, लाज-शर्म नहीं। इस निलंज निष्ठुर सत्यानाशी रस के रसातल से मनुष्य की रक्षा करने का तुमने क्या उपाय किया है ?
मुझसे रहा नहीं गया, बोल उठा, हमने स्त्रियों की अपनो बहारदीवारी से दूर खेदकर खूब निरापद स्थान में रस की साधना करने का कौशल रचा है ।
मेरी बात पर ज़रा भी कान न देकर दामिनी शचीश से कहती गई, मैंने तो तुम्हारे गुरु के निकट कुछ भी नहीं पाया ! वे तो मेरे चञ्चल मन को पल भर भी शान्त नहीं कर पाए। आग से आग नहीं बुझाई जाती । तुम्हारे गुरु जिस पथ पर सबको चला रहे हैं, वहां न धैर्य है, न वीर्य, और न शान्ति । आज जो वह छोकरी मर गई, रस के मार्ग में, रस की राक्षसी ने ही तो उसकी छाती का खून सोखकर उसे मार डाला । कैसा कुत्सित चेहरा था उसका सो तो तुमने साक्षात् ही देख लिया न ? प्रभु, हाथ जोड़कर कहती हैं, उस राक्षसी के निकट मेरा बलिदान मत कर देना । मुझे बचाओ ! अगर मुझे कोई बचा सकता है तो |
वह तुम्हीं हो !
पल भर के लिये हम तानों ही स्तन्त्र हो रहे । चारों ओर सब कुछ इस तरह ख़ामोश हो उठा कि मुझे ऐसा जान पड़ा मानो झिल्लो के रव से पांडुवर्ण आकाश की सारो देह अनकनाने का उपक्रम करनेवाली हो ।
शचीश बोला, मैं क्या कर सकता हूँ सो कहो ?
दामिनी बोली, तुम्हीं मेरे गुरु होओ। मैं और किसीको नहीं मानूंगी। मुझ ऐसा कुछ मन्त्र दो जो सचमुच ही इस सबसे कहीं ऊपर की वस्तु हो - जिसके सहारे मैं बच सकू । मेरे साथ मेरे आराध्य देवता को भी तुम मत नष्ट होने दो !
शचीश स्तब्ध भाव से खड़े होकर बोला, यही होगा ।
दामिना शचीश के पात्रों के पास धरती पर माथा टेककर बहुत देर तक प्रणाम किए रही और बारबार केवल यही गुनगुनाती रहो, तुम्हों मेरे गुरु हो, तुम्हों मेरे गुरु हो । मुझे सब प्रकार के अपराध से बचाओ, बचाओ, बचाओ !
अख़बारों में एक दिन फिर कानाफूसी और गाली-गलौज का तूफ़ान मच गया कि शचीश के मत में फिर परिवर्तन हो गया है ! एक दिन अति उच्चस्वर से वह न जात-पांत मानता था, न धर्म । फिर इसके बाद एक दिन अति उच्चस्वर से उसने खाना-पाना, छुआछूत, संध्या-तर्पण, योग-याग, देवी-देवता कुछ भी मानते बाक़ी नहीं रखा। इसके बाद एक दिन ऐसा भी आया कि इसका राशि- राशि बोझा एक तरफ झाड़कर वह शांत होकर एक किनारे बैठ रहा : उसने क्या माना और क्या नहीं सो कुछ भी समझ में नहीं आया । सि. फतना ही देखने में आया कि पहले की तरह वह फिर जी-जान से काम में भिड़ गया है। किन्तु इस बार उसमें झगड़ा-फसाद का उग्र तीखापन बिल्कुल नहीं है ।
और भी एक मामले के बारे में अखबारों में बेहिसाब व्यंग्य और कटूक्ति की बौछार की गई है, वह यह कि मेरे साथ दामिनी का विवाह हो गया है। इस विवाह का रहस्य सब लोग नहीं समझेंगे और शायद ज़रूरत भी नहीं है समझने की !
इस स्थान पर किसी समय गोरे साहबों की एक नीलकोठो खड़ा आज केवल खंडहर के नाम उसके थोड़े से टूटे-फूटे कमरे-भर बाक़ी हैं। दामिनी का मृतदेह का दाह-संस्कार करके देश लौटते समय मुझे यह स्थान बहुत भा गया था, इसीसे कुछ दिन के लिये वहीं
रम गया ।
नदी से लेकर कोठी तक आनेवाले रास्ते के दोनों ओर शीशम के पेड़ों की कतार है । बाग़ के प्रवेशद्वार पर बाहरी फाटक के दो टूटे हुए खंभे और चहारदीवारी का कुछ हिस्सा अब भी अवशिष्ट हैं, लेकिन वाग़ अब नहीं रहा है। बाकी बची हुई चीज़ों के नाम एक कोने में काटी के किसी मुसलमान गुमाश्ते को कब-भर है जिसकी हर संधि से झुंड-के-झुंड आक और भाँट- भांडीरक-फूलों के खाड़ सिर उठा रहे हैं, -- सिर से पर तक फूलों से लदे । सोहागरात में कोहवर-घर के भीतर वर की चंचल सालियां जिस तरह मज़ाक़ की शरारत से वर के कान मलकर हंसी की हिलोर में डूब जाता है, उसी तरह मृत्यु के कान मलकर ये पौधे दक्षिण-पवन में हंस-हंसकर मानी लोटपोट हो रहे हैं। पार टूट जाने से पोखर का पानी बहकर सूख चुका है; उसकी तली में धनियां के साथ चने की मिलावट करके किसानों ने खेती की हैं। जब मैं सुबह के समय सील
खाई हुई ईंटों के टीले पर शीशम की छाया- तले |
बैठा रहता हूं, उस समय धनियां के फूलों की खुशत्रू से दिमाग गनगना उठता है ।
बंठा-बैठा साचा करता : यह नोल की कोठी जो आज मरे ढारों के गढ़े में फको हुई गाय की ठउरी की तरह पड़ी हुई है, किसी दिन सजीव रहो होगी। उसने अपने चारों ओर सुख दुःख का जो लहरियां उठाई थीं, उनका तूफ़ान कभी शांत नहीं होगा - शायद उस दिन उसने वहंकारवश ऐसा हो सोचा होगा। यहाँ पर बेठेबैठे कोठो के जिस प्रचंड गोरे, साहिब ने हज़ारों ग़रोब खेतिरां का खून पानी कर डाला। हागा, उसके सामने मेरे-जसे एक सामान्य बंगाली लड़के की मला हस्ती ही क्या ! लेकिन फिर भी धरती ने ( अपने सन्ज रंग का आंवल कमर में खोलकर, किसी तत्पर गृहिणों के समान, अनायास ही । उस / साहिब समेत उस सत्रूची नोलकोठो को [खूब ] अच्छी तरह मिट्टी से मांजावसकर निखार दिया है। यहांवहां जो एकात्र पुराना दाग़ दिखाई पड़ता है, वह भी एकाध लीप-पोत और पड़ते ही बिल्कुल साफ़-झक् हो जाएगा ।
बात पुरानी है, मैं उसे आज दुहराने नहीं बैठा। मेरा मन कहता हैः अजो नहीं, यह जो हर रोज़ नया सवेश- उजाले की तरह खिल उठता है, यह केवल काल-देवता का आंगन लापना - मात्र नहीं है। नाल [ कोठो का वह साहब और उसकी नीलकोठो की वह विभोषिका ज़रासे धूलि चिन्ह को तरह भले होः पु छ गए हों, लेकिन मेरो दामिन !
मुझे मालूम है, मेरी बात कोई नहीं सुनेगा। शंकराचाय का 'मोहमुद्गर' किसीको रिहाई कहां देता है । 'मायामय मिदमखिलं' है। ...इत्यादि इत्यादि कितनी हो बातें तो बैरागियों के शास्त्र में
लिखी हैं। किन्तु शंकराचार्य संन्यासी थे - 'का तव कान्ता कस्ते पुत्र' : - यह सब उन्होंने कहा ज़रूर था लेकिन उसका अर्थ उन्होंने नहीं जाना । चूंकि मैं संन्यासी नहीं हूं, इसीलिये अच्छी तरह जानता हूँ कि दामिनी कमल के पत्तों पर पल भर के लिये झल |
कनेवाली ओस की बूंद नहीं थी - वह सत्य थी।
किंतु सुनता हू, गृहस्थ लोग भी ऐसी ही वैराग्य की बातें कहा करते हैं। सो कहते होंगे। ऐसे लोग बेचारे केवलमात्र गृही हा हो पाते है - गृहिणी को उपलब्ध नहीं कर पाते । उनका गृह भी सचमुच माया ही समझिए, और गृहिणी भी कोई सत्य नहीं । वे सब हाथ की गढ़ी हुई चीजें हैं कि झाड़ू फिरते ही साफ़ !
मुझे तो गृही होने का समय ही नहीं मिला और संन्यासी होना मेरी प्रकृति में ही नहीं है - यही गनीमत है। इसीसे मैंने जिसे अपने निकट पाया वह गृहिणी भी नहीं हुई, माया भी नहीं । वह सत्य ही बनी रही, वह आदि से अंत तक दामिनी ही थी। उसे छाया कह सके - ऐसा साहस किसे है ! यदि मैं दामिनी को केवल घर की गृहिणी के रूप में हा जानता तो बहुत सी बातें नहीं लिख पाता । मैंने उसे उस संबंध की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ी और सत्य वस्तु के रूप में जाना है, इसीसे सारी बातें खुलासा करके लिख सका ह, लोग चाहे जो कहें ।
माया के जगत् में मनुष्य जिस तरह दिन काटा करता है, उसी तरह दामिनी के साथ भी यदि मैं पूरी तरह घर- गिरिस्ती कर पाता तो तेल मलकर स्नान करके, आहारान्ते इत्मीनान से पान चबाकर
बेफिक्र जिन्दगी गुज़ार देता । और दामिनी की मृत्यु के पश्चात् लंबी
सांस खींचकर कहता, 'संसारोऽयमतीव विचित्र ः' । और इतना ही नहीं, संसार के वैचित्र्य की एक बार फिर से परीक्षा करने के लिये किसी बुआ अथवा मौसी का अनुरोध भी शिरोधार्य कर लेता । कितु पुराने जूते के जोड़े में जिस तरह सहज हो पांव चला जाता है, उस तरह अति सहज भाव से तो मैंने संसार में प्रवेश किया नहीं था - शुरू से ही सुख की प्रत्याशा छोड़ दी थी । लेकिन नहीं, यह बात भी सही नहीं है, - सुख की प्रत्याशा छोड़ दूं, इतना बड़ा अमानुष मैं नहीं हूं । सुख की आशा तो अवश्य करता था, किंतु सुख का दावा करने का अधिकार मैंने नहीं रख छोड़ा था, इतनी बात हो शायद सच है।
क्यों नहीं रख छोड़ा था ? कारण यह है कि मैंने अपनी ही ओर से दामिनी को व्याह के लिये राज़ी किया था। किसी रंगीन रेशमी परिधेय के झीने घूंघट - तले, शाहाना रागिनी को तान पर और शहनाई के सुर में तो हमारी 'शुभट्टष्ट्रि' - प्रथम दर्शन - हुआ नहीं था । दिन के प्रखर उजाले में सब कुछ देख-सुनकर और समझवूझकर ही मैंने यह कार्य किया था ।
लोलानन्द स्वामी को छोड़कर जब मैं चला आया, तब नून-तेललकड़ी की बात सोचने का अवसर आया। इतने दिन तक जहाँ गया, वहीं खूब छककर गुरु का प्रसाद पाता रहा, सो अब तक भूख की अपेक्षा अजीर्ण की पीड़ा ने ही अधिक भुगाया था। दुनिया में मनुष्य को घर वसाना पड़ता है, उसकी रखवाली करनी होती है, और कम-से-कम मकान तो भाड़े पर लेना ही होता है, ये सब बातें हम भूल ही चुके थे ; केवल यही जानते थे कि घर में निवास किया जाता है। हमने यह नहीं सोचा कि गृहस्थ बेचारा कहां हाथश्रीविलास
पैर सिकोड़कर जरा-सी जगह कर लेगा; यह चिन्ता गृहस्थ के ही दिमाग़ के लिये छोड़ दी जाती थी कि हम साधु लोग उसकी गिरस्ती में कहां इत्मीनान से हाथ पै |
र फैलाकर आराम करते रहेंगे ।
तभी याद आया कि बड़े चाचा ने अपने वसीयतनामे में अपना मकान शचीश के ही नाम लिख दिया था । वसीयतनामा अगर शचोश के हाथों में रहा होता तो अब तक भाव के स्रोत में रस की तरंगों से टकराकर जाने कब कागज की नाव की तरह कहीं डूब गया होता। लेकिन भाग्य से वह मेरे ही हाथ में था - मैं ही उसका एक्ज़ीक्यूटर था । वसीयतनामे में कुछ ऐसी शर्तें थीं, जिनके पालन का भार मेरे ही ऊपर था । तीन प्रधान शर्तें इस प्रकार थीं : इस घर में कभी पूजापाठ नहीं हो सकेगा; निचले तल्ले में मुहल्ले के मुसलमान और चमार लड़कों के लिये नैशपाठशाला बराबर चलती रहेगी; और शचीश की मृत्यु के बाद सारा मकान इन्हींकी शिक्षा और उन्नति के लिये उत्सगं कर दिया जायगा । संसार में बड़े चाचा का सबसे अधिक क्रोध था पुण्य पर; वे गिरिस्ती की अपेक्षा इसे ही ज्यादा हेय वस्तु मानते थे। बगल के मकान में पुण्य को जो घोरतर हवा वह रही थी, उसीको निरस्त करने के लिये उन्होंने यह व्यवस्था की थो । अंग्रेजी में वे इसे 'सैनेटरी प्रिकाशन्स' कहा करते थे। मैंने शचीश से कहा, चलो, उस कलकत्त वाले मकान में चलकर रहें - शचीश बोला : अब भी उसके लिये अच्छी तरह तैयार नहीं हो सका हू । - मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई। उसने कहा किसी दिन 'बुद्धि' पर भरोसा किया था, लेकिन मालूम हुआ कि उसपर जीवन का सारा भार नहीं
टिकाया जा सकता । फिर एक दिन 'रस' पर भरोसा किया, तो देखा कि वहां पेंदो नाम को कोई चोज हो नहीं है। बुद्धि भी मेरो निजी है और रस भा; सो अपने हो ऊपर खड़ा होना संभव नहीं। और किसी प्रकार का आश्रय पाए बिना मैं शहर लौटने की हिम्मत नहीं करता । मैंने पूछा : तो क्या करना होगा, बताओ ।
शचीश ने कहा : तुम दोनों चले जाओ। मैं कुछ दिनों अकेला ही घूमूंगा । ऐसा जान पड |
़ता है मानो किसी जगह कुछ कूल-किनारासा देख पा रहा हूं । यदि इसी समय उसकी दिशा भूल जाऊँ तो वह फिर ओझल हो जाएगा उसे फिर नहीं खोज पाऊंगा ।
तभी ओट से आकर दामिनी ने मुझसे कहा : सो नहीं हो सकता। अकेले भटकते फिरेंगे तो इनको देख-भाल कौन करेगा ? वह जो एक बार अकेले निकले थे सो कैसाकंसा चेहरा लेकर लौटे थे ! मुझे तो उस बात को याद करते ही डर लगने लगता है ।
सच बताऊं ? दामिनी के इस उद्वेग से मेरे चित्त में मानो क्रोध ने अपना डंक मारा - दुःसह जलन होने लगी । - बड़े चाचा की मृत्यु के बाद शचीश तो प्रायः दो वर्ष तक अकेला ही घूमता रहा थाउस समय वह मर तो नहीं गया ! - मैं ज़रा कडु एपन के साथ ही यह कह गया - मन के भाव को दबा नहीं सका ।
दामिनी बोली, श्रीविलास बाबू, आदमों के मरने में बहुत समय लगता है, यह बात मुझे मालूम है। किन्तु हम लोग जब हई हैं तो फिर थोड़ी भी तकलीफ़ इन्हें क्यों होने दें ?
हमलोग ! बहुवचन का कम से कम आधा हिस्सा इस अभागे श्रीविलास का है, सो यही क्या कम है ! पृथ्वी के एक श्रेणी के
आदमियों को दुःख से बचाने के लिये और एक श्रेणी के मानव को दुःख पाना ही होगा। इन्हीं दो जाति के आदमियों को लेकर यह दुनिया है । दामिनी ने इतना तो भली भांति समझ ही लिया है कि मैं किस श्रेणा का आदमी हूं । सो जो हो, मुझे उसने अपने दल में ले लिया, यही मेरा काफ़ी सुख है
अतएव शचोश से कहा, इस समय शहर नहीं ही गए तो हर्ज क्या है ! न सही शहर ! तो चलो, नदी किनारे वह जो नोलकोठीवाला खंडहर है, वहीं कुछ दिन बिताए जाए । अफ़वाह है कि उसमें भूत का उत्पात हुआ करता है, सो कम-से-कम आदमी के उत्पात की संभावना तो वहां नहीं है ।
शचीश ने कहा, और तुम दोनों ?
मैंने कहा, हम दोनों भूत ही की तरह, जहां तक संभव होगा, अपने को छिपाकर रखेंगे ।
शचीश ने एक बार दामिनी के मुंह की ओर निहारा । दृष्टि में [ शायद थोड़ी सी आशंका मिश्रित थी।
दामिनी ने हाथ जोड़कर कहा, तुम मेरे गुरु हो । मैं चाहे कितनी भी पापिष्टा क्यों न होऊ, मुझे सेवा के अधिकार से वंचित न करना !
आप चाहे जो कहें, लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि शचीश की यह साधना की व्याकुलता मेरो समझ में नहीं आई। वैसे एक दिन तो इस चीज़ को हंसकर ही उड़ा दिया था लेकिन आज, और
चाहे जो हो, हंसी बंद हो गई है। यह उल्का का प्रकाश नहीं है, यह तो साक्षात् अग्नि है । एक दिन शचीश में जब इसकी जलन देखी थी, तो उसके आगे बड़े चाचा की चेलागिरो करने का भी साहस नहीं हुआ था। किस भूत पर विश्वास करने से इसका श्रीगणेश हुआ था और किस अद्भुत-तत्त्व में विश्वास जगा रखने से इसका अंत होगा, इस बहस को छेड़कर हर्बर्ट स्पेन्सर के साथ मुक़ाबला करके क्या होगा ? स्पष्ट हो तो देख रहा हूँ कि शवीश भीतर हो भीतर सुलग रहा है, उसका जीवन इस सिरे से लेकर उस सिरे तक लाल होकर दगदग कर रहा है ।
इतने दिन वह नाचकर, गाकर, रोकर, गुरुको सेवा करके दिन-रात बेचैन था, सो शायद वह भी एक प्रकार से अच्छा ही था। हर घड़ी मन की सारी चेष्टा को निःशेष उंडेलकर |
वह अपने आपको दिवालिया कर डालता । लेकिन आज जब वह स्थिर होकर बैठ गया है, तो मन को दबा रखने का कोई उपाय हाथ में नहीं रह गया है। आज भाव-संभोग के काल्पनिक जगत् में डूब जाने का अवकाश नहीं; इस समय तो अनुभूति के सत्य लोक में प्रतिष्ठित होने के लिये भीतर ही भीतर ऐसी लड़ाई चल रही है कि शचोश का मुंह देखकर डर लगने लगता है। एक दिन मुझसे नहीं रहा गया मैं बोला : देखो शचीश, मुझे ऐसा
• लगता है जैसे इस समय तुम्हें किसी गुरु की आवश्यकता है जिनके सहारे तुम्हारी साधना सहज हो सके ।
शचीश चिढ़कर बोल उठा : चुप रहो, विश्री, चुप रहो । जो सहज है उसे भला बाहर से किसीकी क्या ज़रूरत ? धोखा ही सहज होता है, सत्य ही कठिन ।
मैं डरते-डरते बोला : उसी सत्य को पाने के लिये ही तो रास्ता दिखानेवालाशचीश अधीर होकर बोला : अजी यह तुम्हारे भूगोल का सत्य नहीं है - जो जिस किसीने भी दिशा दिखला दी । मेरे अंतर्यामी का आना-जाना सिर्फ मेरे हो रास्ते से हो सकता है - गुरु का रास्ता गुरु के हो आंगन में जाने का रास्ता है।
इसी शवीश के मुंह से कितनी बार कितनी उलटी बातें सुनने मिली हैं। मैं, श्रीविलास, बड़े चाचा का चेला अवश्य हूं, किन्तु उन्हें 'गुरु' कहने पर तो वे मुझे चैला लेकर मारने दौड़ते। उसी श्रीविलास से शचाश ने गुरु के पैर दबवा लिए और फिर दो दिन जाते न जाते मेरे हो लिये यह व्याख्यान । मुझे हंसने का भी साहस नहीं हुआ, गंभीर हो रहा ।
शचीश बोला, आज मैं स्पष्ट समझ रहा हूं, 'स्वधमं निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' - श्लोक का क्या अर्थ है । और सभी चीज़ दूसरेके हाथ से पाई जा सकती हैं, परन्तु यदि धर्म अपना न हो तो वह मारता ही है, बचाता नहीं। मेरे भगवान् दूसरोंके हाथ से मिली हुई मुट्ठीभर भीख नहीं हैं। यदि उन्हें पाऊँगा तो मैं हा उन्हें पाऊँग |
ा, नहीं तो 'निधनं श्रेयः' ।
बहस करना मेरा स्वभाव है, मैं सहज ही छोड़नेवाला प्राणी नहीं हूँ । बोला, जो कवि होता है वह मन के भीतर से ही कविता पाता है, जो नहीं होता वह दूसरे से कविता ग्रहण करता है। शचांश निःसंकोच बोल उठा, मैं कवि हूँ ।
बस ! झगड़ा ख़त्म हो गया ! भला इसपर कोई क्या कहे? मैं चला आया। |
पहला प्रवचन
जो मर जाए वह ईश्वर ही नहीं
मेरे प्रिय आत्मन् !
एक छोटी सी कहानी से मैं आज की चर्चा प्रारंभ करना चाहूंगा।
एक सुबह की बात है, एक बड़े पहाड़ से एक व्यक्ति बहुत गीत गाता हुआ नीचे उतर रहा था। उसकी
आंखों में किसी बात को खोज लेने का प्रकाश था। उसके हृदय में किसी सत्य को जान लेने की खुशी थी। उसके कदमों में उस सत्य को दूसरे लोगों तक पहुंचा देने की गति थी। वह बहुत उत्साह से और बहुत आनंद से भरा हुआ प्रतीत हो रहा था।
अकेला था पहाड़ के रास्ते पर और नीचे मैदान की तरफ उतर रहा था। बीच में उसे एक बूढ़ा आदमी मिला, जो पहाड़ की तरफ, ऊपर को चढ़ रहा था।
उस व्यक्ति ने उस बूढ़े आदमी को पूछाः तुम पहाड़ पर किसलिए जा रहे हो?
उसे बूढ़े ने कहाः परमात्मा की खोज !
और वह व्यक्ति जो पहाड़ से नीचे की तरफ उतर रहा था, यह सुन कर बहुत जोर से हंसने लगा और उसने कहा, क्या यह भी हो सकता है कि तुम्हें अभी तक वह दुखद समाचार नहीं मिला?
उस बूढ़े आदमी ने पूछाः कौन सा समाचार?
उस व्यक्ति ने कहाः क्या तुम्हें अभी तक पता नहीं कि ईश्वर मर चुका है? तुम किसे खोजने जा रहे हो? क्या जमीन पर नीचे मैदानों तक अब तक यह खबर नहीं पहुंची कि ईश्वर मर चुका है? मैं पहाड़ से आ रहा हूं और मैं भी ईश्वर को खोजने गया था, लेकिन वहां जाकर मुझे ईश्वर तो नहीं, ईश्वर की लाश मिली। और क्या दुनिया तभी विश्वास करेगी, जब अपने हाथों से उसे दफना देगी? क्या यह खबर अब तक नहीं पहुंची?
मैं यही खबर लेकर नीचे उतर रहा हूं कि मैदानों में जाऊं और लोगों को कह दूं कि पहाड़ों पर जो ईश्वर रहता था, वह मर चुका है। लेकिन बूढ़े आदमी ने विश्वास नहीं किया। साधारणतः कोई मर जाए तो उसकी बात पर भी हम विश्वास नहीं करते हैं। ईश्वर के मरने पर कौन विश्वास करता है? उस बूढ़े आदमी ने समझा कि युवक पागल हो गया है। वह अपने रास्ते पर बिना कुछ कहे, पहाड़ चढ़ने लगा और उस युवक ने सोचा कि अजीब है यह आदमी, जिसे खोजने जा रहा है, वह मर चुका है और फिर भी खोज को जारी रखना चाहता है। लेकिन वह नीचे की तरफ उतरता रहा। रास्ते में उसे और एक साधु मिला, जो आंखें बंद किए हुए किसी के ध्यान में लीन था। उस युवक ने उसे झकझोरा और कहा कि किसका चिंतन करते हो? किसका ध्यान करते हो? उसने कहाः परमात्मा का स्मरण कर रहा हूं। वह युवक हंसा और बोला कि मालूम होता है यह खबर ले जाने का दुखद काम मुझे ही करना पड़ेगा कि तुम जिसका ध्यान कर रहे हो, बहुत समय हुआ, मर चुका। अब उसके ध्यान करने से कुछ भी नहीं होगा। अब उसके स्मरण करने से कुछ भी नहीं होगा और अब उसके गीत और प्रार्थनाएं कोई भी फल न लाएंगी, क्योंकि मुर्दा आदमी कुछ नहीं कर सकता, मुर्दा परमात्मा भी क्या करेगा? और वह युवक और नीचे उतरा। और उसी पहाड़ पर मैं भी गया था और मेरी भी उससे मुलाकात हुई। वही मैं आपसे कहना चाहता हूं। उस आदमी ने मुझसे भी पूछा कि कहां जाते हो? इसके पहले कि मैं उसको कोई उत्तर
देता, मैंने भी उससे पूछाः तुम कहां जाते हो? उसने कहाः |
एक खबर मेरे पास है, उसे दुनिया को मुझे कहना है । और उसने मुझसे कहा कि ईश्वर मर गया है, तुम्हें पता चला? मैंने उस आदमी को कहा कि मेरे पास भी एक खबर है और वह मुझे भी दुनिया को कहनी है। और क्या तुम्हें पता है कि जो ईश्वर मरा है वह ईश्वर था ही नहीं। एक झूठा ईश्वर मर गया है। कुछ लोग उस झूठे ईश्वर के जिंदा होने के ख्याल में हैं और कुछ लोग उस झूठे ईश्वर के मर जाने के ख्याल में हैं। लेकिन जो सच्चा ईश्वर था, वह अब भी है और हमेशा रहेगा। तो मैंने उससे कहा कि तुम एक खबर दुनिया को कहना चाहते हो और मैं भी एक खबर कहना चाहता हूं कि जो मर गया है, वह सच्चा ईश्वर नहीं था, क्योंकि जो मर सकता है, वह जीवित ही न रहा होगा। जीवन का मृत्यु से कोई भी संबंध नहीं है। जहां जीवन है, वहां मृत्यु नहीं है। और जहां मृत्यु हो, जानना कि जीवन भ्रामक था और झूठा था, कल्पित था। मृत्यु ही सत्य थी । वह जो मरा हुआ है, वही केवल मरता है। जो जीवित है, उसके मरने की कोई संभावना नहीं है। जीवन के मर जाने से ज्यादा असंभव और कोई बात नहीं हो सकती है और ईश्वर तो समग्र जीवन का नाम है।
वह आदमी दुनिया के कोने-कोने में अपनी खबर कहता फिरता है मुझको भी उसका पीछा करना पड़ रहा है। जहां वह जाता है, वहां मुझे भी जाना पड़ता है। जरूर आपसे भी उसने यह बात आकर कही होगी कि ईश्वर मर चुका है। बहुत तरकीबें हैं उस बात को कहने की, बहुत से रास्ते हैं, बहुत सी व्यवस्थाएं हैं। बहुत ढंगों से यह खबर आप तक भी निश्चित ही पहुंच गई होगी कि ईश्वर मर चुका है।
मैं आपको दूसरी बात कहना चाहूंगा इन आने वाले चार दिनों की चर्चाओं में, वह यह कि जो ईश्वर मर चुका है वह जिंदा ही नहीं था। कुछ लोगों ने उसे झूठा ही जीवन दे रखा था। और अच्छा हुआ कि वह मर गया है। और अच्छा हुआ ह |
ोता कि वह कभी पैदा ही न होता। और अच्छा हुआ होता कि वह बहुत पहले मर गया होता। इसलिए यह खबर सुखद है, दुखद नहीं। लोगों ने आपसे बहुत रूपों में कहा होगा कि धर्म की मृत्यु हो गई है। यह बहुत अच्छा हुआ है, क्योंकि जो धर्म मर सकता है, वह मर ही जाना चाहिए। उसे जिंदा रखने की कोई जरूरत नहीं है। और जब तक झूठा धर्म जिंदा रहेगा और झूठा ईश्वर जीवित मालूम पड़ेगा, तब तक सच्चे ईश्वर को खोजना अत्यंत कठिन है, क्योंकि सच्चे ईश्वर और हमारे बीच में झूठे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई भी नहीं खड़ा हुआ है। मनुष्य के और परमात्मा के बीच में एक झूठा परमात्मा खड़ा हुआ है। मनुष्य के और धर्म के बीच में अनेक झूठे धर्म खड़े हुए हैं। वे गिर जाएं, वे जल जाएं, वे नष्ट हो जाएं, तो मनुष्य की आंखें उसकी तरफ उठ सकती हैं जो कि सत्य है और परमात्मा है।
कौन सा ईश्वर झूठा ईश्वर है? मंदिरों में जो पूजा जाता है, वह ईश्वर झूठा है, वह इसलिए झूठा है कि उसका निर्माण मनुष्य ने किया है। मनुष्य ईश्वर को बनाए, इससे ज्यादा झूठी और कोई बात नहीं हो सकती है। ईश्वर ने मनुष्य को बनाया होगा, यह तो हो भी सकता है, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य और ईश्वर को बनाए! लेकिन जितने प्रकार के मनुष्य हैं उतने ही प्रकार के ईश्वर हमने निर्मित कर लिए हैं। और जितने प्रकार के मनुष्य हैं उतने ही प्रकार के मंदिर हैं, उतने ही प्रकार की मस्जिदें हैं, उतने ही प्रकार के गिरजाघर हैं, और, और न मालूम क्या हैं। हम सबने मिल कर न मालूम कितने प्रकार के ईश्वर ईजाद कर लिए हैं। ये ईश्वर निश्चित ही झूठे हैं। ईश्वर ईजाद नहीं किया जा सकता है, इनवेंट नहीं किया जा सकता। कोई उसे न तो पत्थर के द्वारा निर्मित कर सकता है और न शब्दों के द्वारा और न रंगों के द्वारा और न रेखाओं के द्वारा, क्योंकि जो भी हम निर्मित कर सकेंगे, वह हमसे भी कच्चा और हमसे भी ज्यादा झूठा और हमसे भी ज्यादा क्षणभंगुर होगा।
मनुष्य ईश्वर निर्मित नहीं कर सकता, लेकिन ईश्वर को उपलब्ध कर सकता है। मनुष्य ईश्वर की ईजाद नहीं कर सकता लेकिन ईश्वर का आविष्कार कर सकता है। इनवेंट तो नहीं कर सकता, डिस्कवर कर सकता है । मनुष्य ने जितने भी ईश्वर ईजाद किए हैं वे सब झूठे हैं। और इन्हीं ईश्वरों के कारण, इन्हीं धर्मों, रिलिजंस के कारण, रिलीजन, धर्म का, दुनिया में कहीं कोई पता भी नहीं मिलता है। जहां भी जाइएगा, कोई न कोई ईश्वर बीच में आ जाएगा और कोई न कोई धर्म। और धर्म से आपका कोई संबंध न हो सकेगा। हिंदू बीच में आ जाएगा, ईसाई और मुसलमान और जैन और बौद्ध, कोई न कोई बीच में आ जाएगा। कोई न कोई दीवाल खड़ी हो जाएगी, कोई न कोई पत्थर बीच में अटक जाएगा और द्वार बंद हो जाएंगे। और ये द्वार परमात्मा से तो मनुष्य को तोड़ते ही हैं, मनुष्य को भी मनुष्य से तोड़ देते हैं।
मनुष्य को अलग करने वाला कौन है ? एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच कौन सी दीवाले हैं? पत्थर की, मकानों की? नहीं। मंदिरों की, मस्जिदों की, धर्मों की, शास्त्रों की, |
विचारों की दीवालें हैं, जो एक-एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग किए हुए हैं, और स्मरण रहे जो दीवालें मनुष्य और मनुष्य को ही दूर कर देती हों, वे दीवालें मनुष्य को परमात्मा से कैसे मिलने देंगी? यह असंभव है। यह असंभव है। अगर मैं आपसे दूर हो जाता हूं तो यह कैसे संभव है कि जो चीज मुझे आपसे दूर कर देती हो, वह मुझे उससे जोड़ दे जो कि सबका नाम है। यह संभव नहीं है। लेकिन इसी तरह का ईश्वर, इसी तरह का धर्म, हजारों-हजारों बरसों से मनुष्य के मन पर छाया हुआ है। और यही कारण है कि पांच-छह हजार वर्षों के निरंतर, निरंतर चिंतन-मनन और ध्यान के बाद जीवन में धर्म का कोई अवतरण नहीं हो सका है। एक फॉल्स रिलीजन, एक मिथ्या धर्म हमारे और धर्म के बीच में खड़ा हुआ है। नास्तिक नहीं धर्म को रोक रहे हैं और न वैज्ञानिक रोक रहे हैं और न भौतिकवादी रोक रहे हैं, रोक रहे हैं वे लोग जिन्होंने धर्मों की ईजाद कर ली है। और तब हम उन ईजाद किए किसी न किसी धर्म की दीवाल में आबद्ध हो जाते हैं। कारागृह में बंद हो जाते हैं। और हमारे चित्त परतंत्र हो जाते हैं और उस स्वतंत्रता को खो देते हैं, जो कि सत्य की खोज की पहली शर्त है। ऐसा ईश्वर मर गया है, मर जाना चाहिए। न मरा हो तो जिन लोगों को भी ईश्वर से प्रेम है, उन्हें सहायता करनी चाहिए कि वह मर जाए, उसे दफना दिया जाना चाहिए। अगर समय रहते यह न हो सका तो सच्चे धर्म के अभाव में मनुष्य-जाति का क्या होगा, यह कहना बहुत कठिन है और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है वह घोषणा करनी और उस दिन की कल्पना भी मन को कंपाने वाली है।
आज भी मनुष्य का क्या हो गया है? आज भी मनुष्य क्या है? अगर पशु-पक्षियों में होश होगा तो वह आदमी को देख कर जरूर हंसते होंगे, उन्हें हंसी आती होगी। डार्विन ने कुछ वर्षों पहले लोग |
ों को समझाया कि मनुष्य जो है, वह बंदर का विकास है। लेकिन एक बंदर ने मुझे बताया है कि मनुष्य जो है, वह बंदर का पतन है। डार्विन समझ नहीं पाया। बंदर हंसते हैं आदमी पर और सोचते हैं कि यह उनका पतन है। यह कुछ बंदर भटक गए हैं और आदमी हो गए हैं। और डार्विन को ख्याल था कि यह बंदरों का विकास है। यह केवल आदमी के अहंकार की भूल है -- एक बंदर ने मुझे यह बताया है। यह जो आदमी की आज स्थिति है, यह कल और क्या होगी? और कौन इसे इस स्थिति को ऐसा बनाए हुए है?
स्मरण रखिए, बीमारियों से भी ज्यादा घातक वे दवाइयां हो जाती हैं, जो झूठी हों। स्मरण रखिए, समस्याओं से भी ज्यादा खतरनाक वे समाधान हो जाते हैं जो कि सच्चे न हों, क्योंकि समस्या तो एक तरफ बनी रहती हैं और समाधान दूसरी समस्याएं खड़ी कर देते हैं। इधर पांच हजार वर्षों में धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ, उससे जीवन की कोई समस्या हल नहीं हुई, बल्कि और नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं और हर समाधान
अगर नई समस्याएं खड़ी कर देता हो तो ऐसे समाधानों से विदा लेने का समय आ गया है, उन्हें विदा दे देनी जरूरी है, क्योंकि बहुत सी व्यर्थ की समस्याएं उनके कारण खड़ी हुई हैं और समाधान तो कोई भी नहीं हुआ। मनुष्य ईश्वर के कितने निकट पहुंचा है? मंदिर तो बढ़ते जाते हैं, मस्जिद तो बढ़ती जाती हैं, गिरजे रोज नयेनये खड़े होते जाते हैं और ऐसा मालूम होता है कि अगर यह विकास इसी भांति चला तो आदमी के रहने के लायक मकान न बचेंगे, ईश्वर सब मकान घेर लेगा। लेकिन इन मंदिरों में, इन गिरजों में, इन मस्जिदों में होता क्या है? क्या मनुष्य के जीवन से कोई ईश्वर का संबंध वहां पैदा होता है? क्या मनुष्य के जीवन में कोई क्रांति वहां घटित होती है? क्या मनुष्य के जीवन का दुख और अंधकार वहां दूर होता है? क्या मनुष्य के जीवन की हिंसा और घृणा वहां समाप्त होती है? क्या मनुष्य के जीवन में प्रेम और प्रार्थना के गीत वहां पैदा होते हैं? क्या कोई सौंदर्य और क्या कोई सौंदर्य के फूल, मनुष्य के हृदय पर वहां पैदा होते हैं, बनते हैं और निर्मित होते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। बल्कि वहां मनुष्य और मनुष्य के बीच घृणा पैदा होती है। क्रोध और हिंसा पैदा होती है। आज तक जितना संघर्ष, युद्ध और खूनपात मंदिरों के और मूर्तियों के नाम पर हुआ है और किस चीज के नाम पर हुआ है और मनुष्य की जितनी हत्या, मनुष्यों के द्वारा निर्मित धर्मस्थानों को लेकर हुई है और किसी बात से हुई है? अगर हम अब भी इस बात को कहे चले गए कि हम इन्हीं स्थानों को धर्मस्थान मानते रहेंगे तो निश्चित मानिए, धर्म के अवतरण की फिर कोई संभावना नहीं है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, वह मैं आपसे कहूं ।
एक चर्च के द्वार पर सुबह-सुबह एक आदमी ने आकर दस्तक लगाई। मैं तो उसे आदमी कह रहा हूं, लेकिन चर्च में जो लोग रहते थे, वे उसे आदमी नहीं समझते थे, क्योंकि मंदिरों ने आदमियों और आदमियों में फर्क पैदा कर रखा है। वह आदमी काले रंग का था और जिनका मंदिर था और जिनका परमा |
त्मा था, वे सफेद रंग के लोग थे। उस मंदिर के पुरोहित ने उस काले आदमी को कहाः यहां कैसे आए? उसने कहाः मैं परमात्मा की खोज में आया हूं। उस पुरोहित ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा । काला आदमी है और सफेद आदमियों के परमात्मा के मंदिर में आया? यह बिल्कुल समझ में आने वाली बात नहीं है। लेकिन पुराने दिन होते तो उसने तलवार निकाल ली होती और उससे कहा होता -- यहां से हट जाओ। तुम्हारी छाया पड़नी भी खतरनाक है। लेकिन दिन बदल गए और भाषाएं बदल गईं। उस पुरोहित ने बहुत प्रेम से कहा और कहाः मेरे भाई, मंदिर में आने से क्या होगा? जब तक तुम्हारा हृदय शांत न हो और तुम्हारा मन विकारों से मुक्त न हो, तब तक मंदिर में आकर क्या करोगे? परमात्मा तो केवल उन्हें मिलता है, जिनके हृदय शांत होते हैं और विकार से मुक्त होते हैं। तो तुम जाओ, पहले हृदय को पवित्र करो और फिर आना । उस पुरोहित ने सोचा होगा, न होगा हृदय पवित्र और न यह वापस आएगा। लेकिन यह बात उसने सफेद चमड़ी के लोगों से कभी भी नहीं कही थी। यह तो इस आदमी को इस मंदिर से दूर रखने का उपाय था। वह काला आदमी चला गया। कई महीनों के बाद रास्ते के चौराहे पर, उस पुरोहित को वह दिखाई पड़ा। वह बहुत मगन, बहुत आनंदित और उसकी आंखों में कोई रोशनी झलकती थी। उस पुरोहित ने पूछा कि तुम दुबारा नहीं आए? उसने कहा कि मैं क्या करता? मैंने मन को पवित्र करने की कोशिश की, मुझसे जो बन पड़ता था, वह मैंने किया। मैं शांत हुआ, मैंने एकांत खोजा, और एक दिन रात परमात्मा ने मुझे सपने में दर्शन दिए और उसने कहा कि तू किसलिए पवित्र होने की कोशिश कर रहा है? मैंने उससे कहा कि वह जो मंदिर है हमारे गांव में, वह जो चर्च है, मैं उसमें प्रवेश पाना चाहता हूं और उसके पुरोहित ने कहा है, पहले पवित्र हो जाओ, तब आने |
के लिए द्वार खुल सकेगा। परमात्मा यह सुन कर हंसने लगा और उसने कहा कि तू बिल्कुल पागल है। कोशिश छोड़ दे। दस साल से मैं खुद ही उस चर्च में घुसने की कोशिश
कर रहा हूं। वह पुजारी मुझे घुसने ही नहीं देता। मैं खुद ही सफल नहीं हो सका हूं और निराश हो गया हूं, तू भी वहां प्रवेश नहीं पा सकेगा।
और यह बात एक मंदिर के बाबत नहीं, सभी मंदिरों के बाबत है। और यह बात एक पुजारी के संबंध में नहीं, सभी पुजारियों के संबंध में है। जहां भी मंदिर हैं और जहां भी पुजारी हैं, वहां उन्होंने परमात्मा को कभी प्रवेश नहीं पाने दिया और न वे पाने देंगे, क्योंकि परमात्मा और पुजारी दोनों एक साथ नहीं चल सकते। परमात्मा प्रेम है, पुजारी व्यवसाय है। प्रेम और व्यवसाय का क्या संबंध? जहां पुजारी है, वहां दुकान है, वहां मंदिर कैसे हो सकता है? लेकिन अपनी उन दुकानों को, उन्होंने मंदिर बना रखा है और उन दुकानों के ग्राहकों को, दूसरी दुकानों के खिलाफ, बहुत घृणा से भर रखा है, ताकि वे उनकी दुकानों को छोड़ कर, दूसरी दुकानों पर न चले जाएं इसलिए एक मंदिर दूसरे मंदिर के विरोध में है और एक मंदिर का परमात्मा दूसरे मंदिर के परमात्मा के विरोध में है। क्या यह धर्म की स्थिति है? और क्या इसके द्वारा धर्म को गति मिली है, प्राण मिले हैं? धर्म निष्प्राण हुआ है। इस भांति का ईश्वर मर गया हो, इससे ज्यादा सुखद सुसमाचार और दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन अगर वह मर भी गया हो तो पुजारी इसकी खबर आपको पता नहीं चलने देंगे, क्योंकि यह आपको पता चल जाना बहुत खतरनाक होगा। इसलिए वह उस मरे हुए ईश्वर के आस-पास भी मंत्र पढ़ते रहेंगे और पूजा करते रहेंगे। इसलिए नहीं कि परमात्मा से उन्हें बहुत प्रेम है, बल्कि इसलिए कि उनके जीवन का आधार यही पूजा है। वे इसी से जीते हैं। यही उनकी आजीविका है।
जिन लोगों ने परमात्मा को आजीविका बनाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को परमात्मा से दूर करने के उपाय किए। तो जहां भी परमात्मा आजीविका बन गया हो, जान लेना कि वहां परमात्मा नहीं हो सकता है। परमात्मा प्रेम है और प्रेम का व्यवसाय नहीं हो सकता। उसकी आजीविका नहीं हो सकती। प्रार्थना बेची नहीं जा सकती और प्रार्थना दूसरे के लिए की भी नहीं जा सकती और प्रेम में कोई मध्यस्थ नहीं होता है और न कोई दलाल होता है। जहां दलाल हों और मध्यस्थ हों, वहां प्रेम असंभव है। वहां सौदा होगा, बार्गेन होगा, प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम सीधा होता है। प्रेम के बीच में कोई भी मौजूद नहीं होता। परमात्मा और मनुष्य के बीच में जिस दिन से पुजारी मौजूद हुआ, उसी दिन से सारी बात खराब हो गई। ऐसा परमात्मा मर जाए, इससे ज्यादा शुभ कुछ भी नहीं है, क्योंकि ऐसा परमात्मा जिंदा ही नहीं है। और इसकी मृत्यु से, उस परमात्मा के जीवन की तरफ हमारी आंखें उठनी शुरू होंगी जो कि वस्तुतः जीवन है, महा जीवन है, परम जीवन है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन और बौद्ध और इस तरह के सभी नाम, दुनिया से विदा होने चाहिए, तो दुनिया में धर्म का जन्म हो |
सकता है और इसी भांति शास्त्रों, शब्दों और सिद्धांतों का ईश्वर भी मर गया है। वह भी सच्चा ईश्वर नहीं है। शब्द, शास्त्र और सिद्धांत मनुष्य के चित्त और बुद्धि के अनुमानों से ज्यादा नहीं है। वे अंधेरे में फेंके गए उन तीरों के की भांति हैं, जो लग भी जाते हों तो भी उनके लगने का कोई अर्थ नहीं है। उनका लग जाना बिल्कुल सांयोगिक
मनुष्य सोचता रहा है, जीवन में जहां-जहां अज्ञान है और अंधेरा है, मनुष्य विचार करता रहा है, अनुमान करता रहा है। अनुमानों के बहुत शास्त्र, सारी जमीन पर इकट्ठे हो गए हैं। इन अनुमानों में, इन कल्पनाओं में, इन धारणाओं में कोई सत्य नहीं है, कोई ईश्वर नहीं, क्योंकि ईश्वर का अनुभव तो वहीं शुरू होता है, जहां सब अनुमान, सब विचार, सब धारणाएं शांत हो जाते हैं। जहां चित्त, मौन और निर्विचार को उपलब्ध होता है, वहीं वह सत्य को जानने में समर्थ होता है। जहां सारे शास्त्र शून्य हो जाते हैं, वहीं उसका उदघाटन होता है जो सत्य है।
इसलिए शब्दों में जो भटके हों, शब्दों को जिन्होंने पकड़ रखा हो, शास्त्रों को जिन्होंने अपनी आत्मा समझ रखी हो, उनका सत्य से कोई संबंध न हो सकेगा। अनुमान करने में मनुष्य की बुद्धि प्रखर है, तीव्र है और अनुमान के द्वारा अपने अज्ञान को ढंक लेने में भी हम बहुत होशियार हैं।
जहां-जहां अज्ञान है, वहां-वहां हम कोई अनुमान कर लेते हैं, कोई कल्पना कर लेते हैं और धीरे-धीरे उस कल्पना पर विश्वास करने लगते हैं। क्यों? क्योंकि उस कल्पना पर विश्वास कर लेने से हमारे अज्ञान का बोध नष्ट हो जाता है। हमें लगता है कि हम जानते हैं। जिस मनुष्य को यह लगता हो कि मैं जानता हूं ईश्वर को, वह ईश्वर को कभी न जान सकेगा। वह ईश्वर को कभी भी नहीं जान सकेगा क्योंकि उसका जानना निश्चित ही किन्हीं शा |
स्त्रों और सिद्धांतों की पकड़ पर निर्भर होगा। कुछ उसने सीख लिया होगा, कुछ उसने समझ लिया होगा, कुछ उसने स्मरण कर लिया होगा, वही उसका ज्ञान बन गया होगा। ऐसा ज्ञान नहीं, बल्कि ऐसा अज्ञान कि मैं जीवन-सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं जानता हूं। इस बात का बोध कि मुझे जीवन-सत्य के संबंध में कुछ भी पता नहीं, कुछ भी ज्ञात नहीं, ऐसी इग्नोरेंस का स्पष्ट, स्पष्ट अहसास, ऐसी प्रतीति कि मुझे पता नहीं है, मनुष्य के चित्त को शब्दों के भार से मुक्त कर देती है और वह मौन पैदा होता है, जो उसे जानने की तरफ ले जा सकता है।
किसी ने यह घोषणा कर दी एथेंस में कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। लोग सुकरात के पास गए और उन्होंने सुकरात से कहा कि लोगों ने घोषणा की है कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो । सुकरात हंसा और उसने कहाः उनसे जाओ, और कहना कि जब मैं युवा था तो मुझे ऐसा भ्रम था कि मैं ज्ञानी हूं। फिर जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी, मेरा ज्ञान बिखरता गया और पिघलता गया और बह गया है। अब जब कि मैं मौत के करीब आ गया हूं और अब जब मुझे कोई भी किसी से डर नहीं है, मैं एक सच्ची बात कह देना चाहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं जाओ और उन लोगों को कह दो कि सुकरात तो कहता है कि वह महाअज्ञानी है।
वे लोग गए और उन्होंने जाकर, जो लोग इसकी घोषणा गांव में करते फिरते थे, उनसे जाकर कहा कि सुकरात तो कहता है कि वह महा अज्ञानी है।
उन्होंने कहाः इसीलिए, इसीलिए तो हम कहते हैं कि उसको परम ज्ञान उपलब्ध हुआ है, क्योंकि जो यह कहने में समर्थ हो गया है और जो इस सत्य को जानने में समर्थ हो गया है कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। इस शांत, और मौन, इस इनोसेंट, इस निर्दोष स्थिति में ही जानने के द्वार खुल सकते हैं। जिसको यह ख्याल हो कि मैंने जान लिया है, उसका तो अहंकार और मजबूत हो जाएगा। ज्ञानियों के अहंकार से ज्यादा बड़ा अहंकार और किसी का भी नहीं होता है। उनकी तो ईगो, उनका तो "मैं" भाव कि "मैं" कुछ हूं" और भी प्रबल हो जाएगा और जिसको यह वहम हो जाए कि मैं हूं वह परमात्मा से नहीं मिल सकेगा, क्योंकि परमात्मा में मिलने की पहली शर्त यह है कि जैसे बूंद अपने को सागर में खो देती है, ऐसे ही कोई अपने अहंकार को सर्व के साथ निमज्जित कर दे, सर्व के साथ खो दे। वह जो चारों तरफ फैला हुआ विस्तार है, वह जो असीम और अनंत सत्ता है चारों ओर, उसमें अपने को डुबा दे और खो दे।
सुकरात ने कहा कि मैं महा अज्ञानी हूं। क्या आप भी किसी क्षण में इस बात को अनुभव कर पाते हैं कि आप महा अज्ञानी हैं? अगर कर पाते हैं तो किसी न किसी दिन परमात्मा वह क्षण निकट लाएगा, जब ज्ञान का जन्म हो सके। लेकिन अगर आप भी अपने मन में यह दोहराते हों कि मैं जानता हूं तो स्मरण रखना, यह जानने का भ्रम कभी भी नहीं जानने देगा।
ज्ञानियों का ईश्वर मर गया है। उनका ईश्वर, जिनको यह ख्याल है कि हम जानते हैं। पंडितों का ईश्वर मर गया है। अब तो उन लोगों के ईश्वर के लिए इस जगत में जगह होगी, जिनके हृदय बच्चों की तरह |
सरल हों और जो यह कह सकें कि हम नहीं जानते हैं और उस न जानने के बिंदु से जिनकी खोज शुरू हो सके, जो न जानने के स्थान से खोज कर सकें और यात्रा कर सकें। सच तो यह है इंक्वायरी या कोई भी खोज तभी प्रारंभ होती है, जब न जानने का भाव गहरा और प्रबल हो जाए। जब जानने का भाव गहरा हो जाता है तो खोज बंद हो जाती है, टूट जाती है, समाप्त हो जाती है।
लेकिन हम सभी लोग कुछ न कुछ जानने के ख्याल में हैं, अगर हमने गीता स्मरण कर ली है या कुरान या बाइबिल या कोई और शास्त्र और अगर हमें वे शब्द पूरी तरह कंठस्थ हो गए हैं और जीवन जब भी कोई समस्याएं खड़ी करता है तो हम उन सूत्रों को दोहराने में सक्षम हो गए हैं और अगर हमें इस भांति ज्ञान पैदा हो गया है तो हम बहुत दुर्दिन की स्थिति में हैं, बहुत दुर्भाग्य है। यह ज्ञान खतरनाक है। यह ज्ञान कभी सत्य को नहीं जानने देगा और कभी ईश्वर को नहीं जानने देगा, कभी ईश्वर से यह ज्ञान संबंधित नहीं होने देगा। यह ज्ञान जो शब्दों से और शास्त्रों से आता है, ज्ञान ही नहीं है। यह अज्ञान को छिपा लेने के उपाय से ज्यादा नहीं है। हां, यह हो सकता है कि इस अज्ञान में भी कभी-कभी कोई तीर लग जाता हो, कहीं ठीक जगह। यह हो सकता है। कभी-कभी तो पागल भी ठीक उत्तर दे देते हैं। और कभी-कभी तो अनुमान भी अंधेरे में सच्चाइयां साबित हो जाते हैं। लेकिन उन पर कोई जीवन खड़ा नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, एक गांव में एक स्कूल के निरीक्षण के लिए एक इंस्पेक्टर आया। खबर उसके पहले ही उस गांव में आ गई थी कि उस इंस्पेक्टर का दिमाग खराब हो गया है। लेकिन सरकारी काम था, और जैसे कि सभी सरकारी काम होते हैं। यह खबर मिल जाने पर भी कि उसका दिमाग खराब हो गया है, अभी उसकी चिकित्सा की व्यवस्था होने में काफी देर थी या उसे नौकरी |
से निवृत्त करने में भी अभी काफी देर थी। वह पागल हो गया था, लेकिन अपने काम को जारी रखे हुए था, बल्कि और भी मुस्तैदी से। पागल काम करने में बड़े कर्मठ हो जाते हैं। वे जो भी करते हैं पूरी ताकत से करते हैं। वह और भी जोर से निरीक्षण करने लगा था। अब वह बैठता ही नहीं था घर पर। वह गांव-गांव निरीक्षण करता घूमता था और हर स्कूल के रजिस्टर में उस स्कूल का रिकॉर्ड खराब करता था, क्योंकि उसके प्रश्नों के उत्तर देने बिल्कुल असंभव थे।
वह उस गांव में भी आया, जिसकी मैं बात कर रहा हूं-- उस गांव का अध्यापक डरा हुआ था, प्रधान अध्यापक डरा हुआ था, बच्चे डरे हुए थे कि क्या होगा ! वह आया और जो सबसे बड़ी कक्षा थी उस स्कूल की, उसमें जाकर उसने कुछ प्रश्न पूछे। सबसे पहले उसने यह कहा कि जो प्रश्न मैं पूछ रहा हूं, इसका कोई भी अब तक उत्तर नहीं दे पाया है। अगर तुम बच्चों में से किसी ने भी इसका उत्तर दे दिया तो फिर मैं दूसरा प्रश्न नहीं पूछूंगा, क्योंकि एक चावल को ही परख लेना काफी होता है। बाकी चावलों के पके होने का पता चल जाता है। अगर तुम इसका उत्तर न दे सके तो मैं और प्रश्न भी पूछूंगा, लेकिन वे फिर इससे भी ज्यादा कठिन। उसने प्रश्न पूछा। उसने पूछा कि दिल्ली से एक हवाई जहाज कलकत्ते की तरफ उड़ा । वह घंटे भर में दौ सौ मील चलता है, तो क्या तुम हिसाब लगा कर बता सकते हो कि मेरी उम्र क्या है?
सारे बच्चे घबड़ा गए। बच्चे क्या, बूढ़े होते तो वे भी घबड़ा जाते। इससे कोई संबंध नहीं था। प्रश्न बिल्कुल असंगत था। उसमें कोई संबंध ही नहीं था। दिल्ली से हवाई जहाज जाए कलकत्ता, किसी रफ्तार से जाए, से इससे क्या संबंध था उसकी उम्र का? लेकिन बड़ी और हैरानी की बात हुई कि एक बच्चे ने हाथ हिलाया उत्तर देने के लिए। तब तो अध्यापक और प्रधानाध्यापक और भी हैरान हुए। उसका प्रश्न तो पागलपन का था, लेकिन एक
बच्चा उत्तर देने को भी राजी था। जब उसने हाथ हिलाया था, इंस्पेक्टर बहुत खुश हुआ और उसने कहा कि यह पहला मौका है कि ऐसा बुद्धिमान बच्चा मुझे मिला, जिसने हाथ हिलाया उत्तर देने के लिए--खड़े हो और उत्तर दो।
उस बच्चे ने कहाः यह उत्तर मैं ही दे सकता हूं और आप सारी जमीन पर घूम लेते तो भी यह उत्तर नहीं मिल सकता था। जैसे आपका प्रश्न, आप ही कर सकते हैं, यह उत्तर भी सिर्फ मैं ही दे सकता हूं।
उस इंस्पेक्टर ने कहा कि कितनी है मेरी उम्र?
उस लड़के ने कहाः आपकी उम्र चवालीस वर्ष है।
वह इंस्पेक्टर हैरान हो गया। उसकी उम्र चवालीस वर्ष थी। उसने कहाः किस विधि से तुमने यह गणित हल किया?
उसने कहाः बहुत आसान है। मेरा बड़ा भाई आधा पागल है, उसकी उम्र बाइस वर्ष है, तो बिल्कुल ही आसान सवाल है, आपकी उम्र चवालीस वर्ष होनी ही चाहिए।
यह ईश्वर के संबंध में, आत्माओं के संबंध में, परलोक, स्वर्ग और नरक और मोक्ष के संबंध में जो प्रश्न पूछे गए हैं, वह इस पागल के प्रश्न से भी ज्यादा असंगत हैं। और इनके उत्तर देने वाले भी मिल गए हैं। यह कितनी असंगत बात है कि हम पूछे |
ं ईश्वर कैसा है? कहां है? कहां रहता है? हम, जिन्हें अपना भी पता नहीं, हम ईश्वर के संबंध में यह प्रश्न पूछें! हम जिन्हें यह भी पता नहीं कि हम कहां हैं, कौन हैं, क्या हैं, हम यह पूछें कि ईश्वर क्या है, कैसा है, बिल्कुल ही असंगत है।
लेकिन हमारे ये प्रश्न चाहे असंगत हों, इनके उत्तर देने वाले लोग भी मौजूद हैं, जो बताते हैं कि ईश्वर कहां है। उन्होंने नक्शे भी बनाए हैं और उन्होंने किताबें भी छापी हैं और उसमें उसका सब पता-ठिकाना दिया हुआ है। पुराने जमाने में फोन नंबर नहीं होते थे, इसलिए उन्होंने नहीं लिखा। अगर वे अब फिर से नये संस्करण निकालेंगे अपनी किताबों के तो उसमें फोन नंबर भी होगा । और फिर वहां जाने की भी बहुत जरूरत नहीं है, आप घर से ही बात भी कर ले सकते हैं। उन्होंने फासले तक बताए हैं। स्वर्ग के रास्ते और नरक के रास्ते बनाए हैं और नक्शे बनाए हैं और मंदिरों में वे नक्शे टंगे हुए हैं उन्होंने और इन सारी बातों पर अगर नक्शा बनाने वालों में विरोध है, होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह तय करना कठिन है कि किसका नक्शा ठीक है।
अगर इन संबंधों में कि ईश्वर की शक्ल कैसी है, स्वभावतः चीनी में और भारतीय में झगड़ा होना स्वाभाविक है, क्योंकि चीनी जो शक्ल बनाएगा, वह चीन के आदमी जैसी होगी और भारतीय जो शक्ल बनाएगा वह भारतीय आदमी जैसी होगी और नीग्रो जो शक्ल बनाएगा, उसमें वह पतले ओंठ नहीं लगा सकता। उसके बाल घुंघराले होंगे, शक्ल काली होगी और होंठ वैसे होंगे जैसे नीग्रो के होते हैं। तो झगड़ा होना स्वाभाविक है कि ईश्वर के ओंठ कैसे हैं। तो भारतीयों का उत्तर दूसरा होगा, और नीग्रो का उत्तर दूसरा और चीनी का उत्तर दूसरा। यह बिल्कुल स्वाभाविक है। और इन झगड़ों को तय करने का, तय करने का रास्ता फिर एक ही रह जाता है |
कि कौन कितनी जोर से तलवार चला सकता है और कितने जोर से लोगों को मार सकता है जो जितना ज्यादा जोर से मार सकता है और मारने में जीत सकता है, उसका उत्तर सही है।
तो उस स्कूल के इंस्पे े े ेक्टर पर मत हंसिए । सारी दुनिया के इतिहास पर हंसिए, पंडितों पर हंसिए, उत्तर के सही होने का सबूत क्या है? सबूत यह है कि हम सात करोड़ हैं और तुम बीस करोड़। सबूत यह है कि अगर तुम लड़ोगे तो हम तुम्हारी हत्या कर देंगे। तुम हमारी नहीं कर पाओगे। इसलिए हम सही हैं। इसलिए तो सारी दुनिया के धर्म अपनी संख्या बढ़ाने के लिए पागल हैं, क्योंकि संख्या बल है और सत्य की गवाही में संख्या
के सिवाय और कौन सा बल है? इसलिए सारे दुनिया के धर्म-पुरोहित, राजाओं को दीक्षित करने के लिए दीवाने और पागल रहे हैं वह इसलिए कि राजा के पास बल है और जो राजा जिस धर्म में दीक्षित हो जाएगा, वह धर्म सत्य हो जाएगा।
और लड़ कर जो लोग यह तय करना चाहते हों कि कुरान सही है कि बाइबिल, कि गीता, उनसे ज्यादा पागल और कौन होगा? लड़ कर जो यह तय करना चाहते हों कि कौन सही है। लड़ाई क्या किसी बात की सचाई का सबूत है या कि जीत जाना कोई सचाई का सबूत है ?
लेकिन इन उत्तरों का जो कि भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है, क्योंकि वह मनुष्य की कल्पना से निकले हैं और मनुष्य के अपने अनुभव से निकले हैं।
अगर आप तिब्बतियों से पूछें कि नरक में क्या है, तो वे कहेंगे कि नरक में बहुत ठंड है, बहुत शीत है, क्योंकि तिब्बत ठंड से परेशान है, शीत से परेशान है। तो जो-जो तिब्बत में पाप करते हैं, उनको और ठंडी जगह में भेजना बिल्कुल स्वाभाविक है। यह बिल्कुल अनुभव की बात है कि उनको और ठंडी जगह में भेज दो जो पाप करते हैं।
लेकिन भारतीयों से पूछिए कि तुम्हारा नरक कैसा है, तो वहां पर आग की लपटें जल रही हैं, कड़ाहे जल रहे हैं, और उन कड़ाहों में, जलते हुए कड़ाहों में लोगों को डाला जा रहा है। क्योंकि हम गर्मी से परेशान हैं। सूरज तप रहा है, तो हमारा नरक गरम होगा, यह बिल्कुल स्वाभाविक है। यह हमारा अनुमान बिल्कुल स्वाभाविक है। हम अपने पापी को ठंडी जगह नहीं भेज सकते। ठंडी जगह तो हम अपने मिनिस्टरों को भेजते हैं। ठंडी जगह तो हम अपनी राजधानियां बदलते हैं। पापियों को ठंडी जगह भेजेंगे तब तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। पापियों को हम गरम जगह भेजेंगे। यह हमारी कामना गरम जगह भेजने की, उनको सताने की, हमारे नरक का निर्माण बन जाती है। नरक हमारा गरम हो जाता है। यह हमारा अनुमान है। इस अनुमान से नरक के होने का से न पता चलता है कि वह गरम है या ठंडा है या है भी या नहीं। इससे केवल एक बात पता चलती है कि किस कौम ने और किस तरह के लोगों ने यह कल्पना की है।
तो हमारे शास्त्र यह नहीं बताते कि सत्य कैसा है, हमारे शास्त्र यह बताते हैं कि उनको बनाने वाले लोग कैसे हैं। हमारी कल्पनाएं सत्य के संबंध में यह नहीं बताती कि सत्य कैसा है, वे यह बताती हैं कि इसकी कल्पना करने वाले लोग किस स्थिति में हैं, किस मनोदशा में हैं व |
े लोग, उनकी सूचना मिलती है। और फिर हम इन पर लड़ाइयां लड़ते हैं, इन अनुमानों पर। और इन अनुमानों और शास्त्रों पर सारी दुनिया विभाजित खड़ी है और इन हवाई बातों पर हम एक दूसरे की हत्या करते रहे हैं। लेकिन हम लोगों को समझाते रहे हैं कि तुम मरो, फिकर मत करो। जो धर्म के लिए मरता है, वह स्वर्ग जाता है ! और तब ऐसे नासमझ खोज लेने कठिन नहीं हैं, जो कि स्वर्ग जाने की उत्सुकता में जमीन को बर्बाद करने के लिए राजी हो जाएं और ऐसे पागल जमीन पर काफी हैं, जिन्हें शहीद होने में बहुत मजा आ जाए।
और यह सारा हमारा इतिहास, ऐसे झूठे ईश्वरों के आस-पास, इर्द-गिर्द निर्मित हुआ है। शब्दों के आसपास, अनुमानों के आस-पास, सत्य के निकट नहीं है। सत्य के निकट कोई संगठन खड़ा नहीं हो सकता। संगठन हमेशा झूठ के करीब ही खड़े हो सकते हैं।
सत्य के इर्द-गिर्द कोई संगठन, कोई आर्गेनाइजेशन खड़ा नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए कि सत्य का अनुभव अत्यंत व्यैक्तिक है। समूह से उसका कोई संबंध नहीं है। दस आदमी इकट्ठे बैठ कर सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, भीड़ से उसका कोई वास्ता नहीं है। एक व्यक्ति अपने एकांत में, तनहाई में, अकेलेपन में अपने
भीतर डूबता है, शांत होता है, मौन होता है और उसे जानता है। व्यक्ति और व्यक्ति ही केवल सत्य को जानते हैं, समूह और समाज नहीं । इकट्ठे होकर सत्य को नहीं जाना जा सकता। इकट्ठे होकर संगठन बनाया जा सकता है। लेकिन इकट्ठे होकर धर्म को नहीं पाया जा सकता।
संगठनों का ईश्वर मर गया है, मर जाना चाहिए। लेकिन धर्म का ईश्वर ? वह बात ही और है। वही अकेला जीवन है। वही अकेला जीवन है। उसके अतिरिक्त तो सब मृत है, उसके अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं। उसको जानने के लिए संगठन में नहीं, साधना में जाना जरूरी है। साधना अकेले की बात |
है। संगठन, भीड़ और समूह की। और हम सारे लोग अब तक धर्म को समूह और संगठन की बात समझते रहे हैं। हम समझते हैं कि हिंदू हो जाना धार्मिक हो जाना है। मुसलमान हो जाना, पारसी हो जाना धार्मिक हो जाना है। कैसी पागलपन की बातें हैं! किसी एक संगठन के हिस्से हो जाने से कोई धार्मिक होता है? धार्मिक होने का अर्थ ही कुछ उलटा है इससे। संगठन का हिस्सा होकर कोई धार्मिक नहीं होता। बल्कि संगठनों से जो मुक्त हो जाता है, वह धार्मिक हो जाता है। समाज का हिस्सा होकर कोई धार्मिक नहीं होता। लेकिन अपने चित्त में जो समाज से परिपूर्णतया स्वतंत्र हो जाता है, वही धार्मिक होता है। समाज और संगठन में तो हम किन्हीं और कारणों से इकट्ठे होते हैं । किसी भय के कारण, किसी सुरक्षा के लिए, किसी घृणा के लिए, किसी से लड़ने के लिए इकट्ठे होते हैं। इस भय के कारण कि मैं अकेला बहुत कमजोर हूं। मैं दस लोगों के साथ हो जाऊं।
एक फकीर को, मंसूर को फांसी लगाई जा रही थी। लोग उसके हाथ काट रहे थे। लाखों लोग इकट्ठे थे और पत्थर फेंक रहे थे। और वही व्यवहार कर रहे थे जो ईश्वर के आदमी के साथ हमेशा तथाकथित धार्मिक लोग करते हैं। उसकी आंखें फोड़ डाली थीं, उसके पैर काट डाले थे, उस पर पत्थर फेंक रहे थे। लेकिन वह मुस्कुरा रहा था और वह परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था। लेकिन तभी एक फकीर ने भी, जो उस भीड़ में खड़ा था, एक मिट्ठी का ढेला उठा कर उसकी तरफ फेंका। मंसूर अब तक मुस्कुरा रहा था। उसकी आंखें फोड़ दी गई थीं, उनसे खून बह रहा था। उसके पैर काट दिए गए थे। वह मरने के करीब था। उस पर पत्थर मारे जा रहे थे, जो उसके शरीर को क्षत-विक्षत कर रहे थे, लेकिन वह हंस रहा था और उसकी आंखों में, उसके ओंठों पर, उसके हृदय में, इस सारी पीड़ा और दुख के बीच भी प्रार्थना और प्रेम था। लेकिन मिट्टी का एक ढेला एक फकीर ने भी फेंका, जो भीड़ में खड़ा था, और मंसूर रोने लगा। लोग बड़े हैरान हुए। और एक आदमी ने पूछाः तुम्हें इतना सताया गया, तुम नहीं रोए और एक छोटे से मिट्टी के ढेले को फेंकने से ? उसने कहाः और सबको तो मैं सोचता था नासमझ हैं, इसलिए परमात्मा से उनके लिए प्रार्थना कर रहा था, इसलिए मुझे कोई दुख नहीं था। लेकिन एक आदमी यहां खड़ा है, फकीर ! वह वस्त्र पहने हुए है परमात्मा के और उसने भी मुझे पत्थर मारा, तो मुझे हैरानी हुई। तो मेरी आंखों में आंसू आ गए कि जब फकीर भी पत्थर मारेगा फिर दुनिया का क्या होगा!
लेकिन फकीर तो बहुत दिन से पत्थर मार रहे हैं और इसलिए तो दुनिया का यह हाल हो गया है, जो हुआ है। भीड़ बिखर गई है, वह आदमी मंसूर तो मर गया, उसकी सुवास तो उड़ गई। उस फकीर से कुछ दूसरे फकीरों ने पूछा कि तुमने पत्थर क्यों मारा? उसने कहाः भीड़ का साथ देने के लिए। अगर मैं भीड़ का साथ न देता तो लोग समझते कि पता नहीं यह भी मंसूर को पसंद करता है। उन फकीरों ने कहाः पागल, अगर साथ ही देना था तो उसका देना था जो अकेला था। साथ भी दिया उनका जो बहुत थे? उन फकीरों ने उससे कहाः त |
ू फकीरी के कपड़े छोड़ दे, क्योंकि जो भीड़ से डरता है, वह धार्मिक नहीं हो सकता।
जो भीड़ से डरता है, वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि अगर भीड़ ही धार्मिक होती तो दुनिया में अधर्म कहां होता? अगर भीड़ ही धार्मिक होती तो फिर अधर्म और कहां होता? भीड़ तो अधार्मिक है। इसलिए
जो भीड़ से भयभीत है, और भीड़ का अंग बना रहता है। वह कभी भी धार्मिक नहीं हो पाएगा। भीड़ से मन तो मुक्त होना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि आप भीड़ को छोड़ दें और जंगलों में चले जाएं। जमीन बहुत छोटी है, अगर सारे लोग जंगलों में चले गए तो वहां बस्तियां बस जाएंगी। उससे कोई फर्क न पड़ेगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप गांव छोड़ दें और जंगलों में चले जाएं। कुछ लोगों ने यह गलती भी की है। जब उनको यह कहा जाता है कि तुम भीड़ से मुक्त हो जाओ तो भीड़ को छोड़ कर भागने लगते हैं।
भागने वाला कभी मुक्त नहीं होता। भागने वाला भी डरने वाला है।
अगर मुक्त होना है तो बीच में रहो और मुक्त हो जाओ। वह तो अभय का, फियरलेसनेस का सबूत होगा। दो तरह के लोग हैं। भीड़ में रहते हैं तो भीड़ से दब कर और डर कर रहते हैं। यही डरे हुए लोगों को जब कभी यह ख्याल पैदा होता है कि हम मुक्त हो जाएं तो यह जंगल की तरफ भागते हैं, क्योंकि वहां भीड़ ही नहीं रहेगी तो डराएगा कौन? सवाल यह नहीं है कि डराने वाला न हो। सवाल यह है कि आप डरने वाले न रहें। इसलिए जंगल जाने से कुछ भी नहीं होगा। जो जंगल भागते हैं, भयभीत हैं, डरे हुए लोग हैं।
जिंदगी से भागने वाला धर्म सच्चा धर्म नहीं हो सकता।
जिंदगी के बीच, जहां जीवन चारों तरफ है, वहीं, वहीं मुक्त हुआ जा सकता है।
मुक्त होने का मतलब कोई शारीरिक और बाह्य मुक्ति नहीं है। मुक्त होने का मतलब है मानसिक स्वतंत् |
रता। मुक्त होने का मतलब है मानसिक गुलामी को तोड़ देना । मुक्त होने का मतलब है भीड़ ने जो विश्वास दिए हैं, जो बिलीफ दी हैं, उनसे छूट जाना। भीड़ ने जो बातें पकड़ा दी हैं - - हिंदू होना, मुसलमान होना, इस मंदिर को पवित्र मानना, उस मंदिर को पवित्र नहीं मानना, ये जो बातें पकड़ा दी हैं, ये जो शब्द पकड़ा दिए हैं, ये जो सिद्धांत पकड़ा दिए हैं, इनसे मुक्त हो जाना और मन की उस स्वतंत्रता को पाकर सत्य की निजी व्यक्तिक खोज शुरू करनी।
जो व्यक्ति दूसरों से उधार सत्यों को स्वीकार करके चुप हो जाता है, उस आदमी की खोज सत्य के लिए नहीं, क्योंकि सत्य कभी भी उधार नहीं हो सकता, वह बारोड कभी भी नहीं हो सकता। जो भी चीज उधार ली जा सकती है, वह संसार की होगी। और जो चीज कभी उधार नहीं पाई जा सकती, वही केवल परमात्मा की हो सकती है। परमात्मा को उधार नहीं लिया जा सकता। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है, कि ट्रांसफरेबल हो कि मैंने आपको दे दी और आपने किसी और को दे दी। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जीवन में जो भी सत्य है, जीवन में जो भी सुंदर है, जीवन में जो भी शिव है, वह कुछ भी एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। उसे तो सीधे, स्वयं ही, अपनी खोज, अपने प्राणों के आंदोलन, अपने हृदय की प्रार्थनाओं, अपने जीवन की प्यास से ही पाना होता है। वह निजी और व्यक्तिक खोज है।
समूह का ईश्वर मर गया है, मर जाने दें। सहारा दें कि वह मर जाए । व्यक्ति का, एक-एक इकाई का, एकएक मनुष्य का ईश्वर ही सच्चा ईश्वर हो सकता है। संगठन का ईश्वर गया है, जाने दें। उसे रोकें न, घबड़ाएं न कि उसके जाने से दुनिया से धर्म चला जाएगा। उसके होने की वजह से दुनिया में धर्म नहीं आ सका है। उसे जाने दें।
और उस ईश्वर की आकांक्षा करें, उस ईश्वर की अभीप्सा करें, उस ईश्वर के लिए प्रार्थना और प्रेम से भरें,
जो व्यक्ति का है, इकाई का है, समूह का और संगठन का नहीं । मर जाने दें हिंदू को, मुसलमान को। मर जाने दें जैन को, बौद्ध को, विदा हो जाने दें दुनिया से। कोई जरूरत नहीं है। एक-एक व्यक्ति के ईश्वर को और एक-एक व्यक्ति के धर्म को जन्म देना है। समूह के ईश्वर में बड़ी सुविधा है। आपको बिना खोजे धार्मिक होने का मजा आ |
इसलिए कृष्ण की पूर्णता बहुआयामी है। वह एकआयामी नहीं है, मल्टी-डायमेंशनल है। इससे कोई यह न समझ ले कि महावीर वहां नहीं पहुंच पाते, सातवें शरीर के पार; बिल्कुल पहुंच जाते हैं। लेकिन कृष्ण बहुतबहुत मार्गों से वहां पहुंचते हैं, और बिना किसी जीवन के तत्व का निषेध किए पहुंचते हैं। महावीर या बुद्ध निषेध किए बिना नहीं पहुंचते हैं।
इसलिए महावीर और बुद्ध के जीवन में निषेध का, निगेशन का अनिवार्य तत्व है । कृष्ण के जीवन में निषेध का कोई तत्व नहीं है। कृष्ण का जीवन पूरी तरह पाजिटिव, पूरी तरह विधायक है। महावीर कुछ छोड़ कर पहुंचते हैं, कृष्ण सबको आत्मसात करके पहुंचते हैं।
इसलिए मैंने कृष्ण की पूर्णता को भिन्न कहा है। इससे कोई ऐसा न समझे कि महावीर अपूर्ण हैं। इससे इतना ही समझे कि उनकी पूर्णता एकआयामी है, कृष्ण की पूर्णता बहुआयामी है। और भविष्य के मनुष्य के लिए एकआयामी पूर्णता का बहुत अर्थ नहीं होगा। भविष्य के मनुष्य के लिए बहुआयामी पूर्णता का ही अर्थ होगा। इसका एक और ख्याल ले लेना जरूरी है कि जो व्यक्तित्व भी एक दिशा से पूर्ण होता है वह अपने जीवन में ही दूसरी दिशाओं का निषेध नहीं करता, उसके एक दिशा से पूर्ण होने के कारण दूसरी दिशाएं दूसरे लोगों के जीवन में भी निषिद्ध होती हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में सब दिशाओं से यात्रा करता है, उसके कारण विभिन्न दिशाओं से यात्रा करने वाले एकआयामी सब तरह के लोगों को सहारा मिलता है। जैसे हम यह सोच ही नहीं सकते कि कोई चित्रकार या कोई मूर्तिकार या कोई कवि महावीर की चिंतना के आधार पर कभी ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। यह हम सोच ही नहीं सकते। महावीर की साधना एकआयामी उनके जीवन में ही नहीं बनेगी, जो उस साधना को समझेंगे उनके जीवन में भी शेष सारी दिशाओं का निषेध हो जाएगा। यह हम सोच ही नहीं सकते कि कोई नर्तक भी और ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। महावीर के साथ नहीं सोच सकते हैं। कृष्ण के साथ सोच सकते हैं। एक नर्तक भी और सारी दिशाओं को छोड़ दे और सिर्फ नाचता ही चला जाए और नृत्य में डूबता चला जाए, तो उस क्षण को उपलब्ध हो सकता है जिस क्षण को महावीर ध्यान से उपलब्ध होते हैं। यह कृष्ण के साथ संभव है।
तो कृष्ण अपने जीवन से समस्त दिशाओं को भागवत-स्वरूप प्रदान कर देते हैं--समस्त दिशाओं को। समस्त दिशाएं कृष्ण के साथ पवित्र हो जाती हैं। महावीर के साथ सभी दिशाएं पवित्र नहीं होतीं। जिस दिशा से वे यात्रा करते हैं, वही दिशा पवित्र होती है। और उसके पवित्र होने के कारण अनिवार्य रूप से शेष अपवित्र हो जाती हैं। शेष का गहरा कंडेमनेशन और निंदा अपने आप हो जाती है। ऐसा महावीर के साथ ही नहीं होता है, बुद्ध के साथ भी होता है, क्राइस्ट के साथ भी होता है, मोहम्मद के साथ भी होता है, राम के साथ भी होता है, शंकर के साथ भी होता है।
कृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिसको हम कह सकें कि जिसने समस्त जीवन को, समस्त दिशाओं को पवित्रता प्रदान कर दी है। और किसी भी दिशा से गया हुआ व्यक्ति ब्रह्म |
तक पहुंच सकता है। इस अर्थों में वे मल्टी-डायमेंशनल हैं। खुद के जीवन में ही नहीं, दूसरों के जीवन के लिए भी मल्टी-डायमेंशनल हैं। बांसुरी बजा कर भी कोई ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि बांसुरी की भी अंतिम क्षण अवस्था समाधि की हो जाएगी। लेकिन महावीर या बुद्ध के साथ बांसुरी बजा कर कोई ब्रह्म को उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसी कोई संभावना उनके व्यक्तित्व में नहीं है जो बांसुरी को भी इतनी गरिमा दे दे, जितनी ध्यान और समाधि को है। इसका कोई उपाय नहीं है। मीरा उपलब्धि के मार्ग पर नहीं हो सकती, महावीर के हिसाब से। राग के ही मार्ग पर है। और राग कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता, महावीर की दृष्टि में, वैराग्य ही पहुंचाएगा। कृष्ण
के साथ विरागी भी पहुंच जाता है, रागी भी पहुंच जाता है। इन अर्थों में मैंने कहा कि कृष्ण की पूर्णता का कोई मुकाबला नहीं है, कोई उपमा नहीं है।
दूसरी बात पूछी गई है कि क्या तेईस तीर्थंकर, महावीर को भी छोड़ दें तो उनके पहले के तेईस तीर्थंकर, वे कोई भी पूर्णता को उपलब्ध नहीं हुए?
वे सब पूर्णता को उपलब्ध हुए। लेकिन एकआयामी पूर्णता को ही उपलब्ध हुए। और एकआयामी पूर्णता के कारण ही जैन-विचार बहुत व्यापक नहीं हो सका। हो नहीं सकता। महावीर को मरे ढाई हजार वर्ष हो गए हैं, आज भी जैनियों की संख्या तीस-पैंतीस लाख से ज्यादा नहीं है। थोड़ा सोचने जैसा है कि महावीर जैसी प्रतिभा का आदमी जिस विचार को मिला हो--अकेला नहीं, और पीछे तेईस तीर्थंकरों का विराट दर्शन मिला हो--वह विचार तीस-पैंतीस लाख लोगों तक पहुंचा? अगर महावीर के जमाने में तीस-पैंतीस आदमी भी उनसे प्रभावित हो जाएं, तो इतने बच्चे पैदा हो जाएंगे। कारण क्या है? कारण है। वन-डायमेंशनल है, बहुआयामी नहीं है। बहुत दिशाओं को स्पर्श नहीं क |
रता, एक ही दिशा को स्पर्श करता है। इसलिए बहुत विभिन्न तरह के लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। बहुत विभिन्न तरह के लोग उस आयाम में अपने को मौजूं नहीं पा सकते।
फिर बड़े मजे की बात यह है कि ये जो पैंतीस लाख जैन हैं, अगर इनकी तरफ भी हम ध्यान दें तो हम बहुत हैरानी में पड़ जाएंगे। ये भी महावीर के साथ इनमें से अनेक लोग वैसा व्यवहार कर रहे हैं जैसा व्यवहार कृष्ण के साथ तो उचित है, महावीर के साथ अनुचित है। महावीर के सामने आरती लेकर घुमा रहे हैं! कृष्ण के साथ चल सकता है। महावीर के साथ नहीं चल सकता। महावीर की भी भक्ति चल रही है! उसका मतलब यह है कि जैन घरों में जो पैदा हुए हैं, उनका चित्त भी उस आयाम में नहीं बैठता है। वह बहुत थोड़े से लोगों का आयाम है। तो जैन घर में पैदा होने की वजह से आदमी जैन तो रहा चला जाएगा, लेकिन वह उस सबको सम्मिलित कर लेगा जो कि महावीर के आयाम का नहीं है। भक्ति आ गई है जैन में; उपासना आ गई है, प्रार्थना आ गई है, पूजा आ गई है; इनका कोई संबंध महावीर से नहीं है। यह सब महावीर के साथ अनाचार है। महावीर के व्यक्तित्व में इनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन वह जो जैन है, उसके व्यक्तित्व की तकलीफ है। उसके व्यक्तित्व में इसके बिना तृप्ति नहीं है। तो वह महावीर के साथ यह सब जोड़े चला जा रहा है।
इसलिए और दूसरी बात आपसे कहूं कि वन-डायमेंशनल जितने भी व्यक्तित्व हैं, इनके साथ निरंतर अनाचार होगा। सिर्फ मल्टी-डायमेंशनल व्यक्ति के साथ अनाचार आप नहीं कर सकते। क्योंकि आप कुछ भी करें, उसके लिए वह राजी हो सकता है। कृष्ण के साथ हजार तरह के लोग राजी हो सकते हैं, महावीर के साथ सिर्फ एक पर्टिकुलर टाइप राजी हो सकता है।
इस वजह से मैंने कहा कि वे जो चौबीस तीर्थंकर हैं वे सब एक रूप हैं, एक ही यात्रा पर हैं। उन सबकी एक ही दिशा है, एक ही उनकी साधना है। ऐसा नहीं है कि वे नहीं पहुंच जाते हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं, वे बिल्कुल पहुंच जाते हैं। अंतिम क्षणों में ऐसा नहीं है कि जो कृष्ण को मिलता है वह उन्हें नहीं मिलता। वह उन्हें मिल जाता है। हजार धाराओं में नदी बह कर सागर पहुंचे कि एक धारा में पहुंचे, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर में पहुंच कर तो सब बात समाप्त हो जाती है। लेकिन एक धारा और एक मार्ग पर बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को नहीं घेर सकती, यह समझना चाहिए । हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती है। एक धारा में बहने वाली नदी के तट पर जो वृक्ष हैं उनको पानी मिल सकता है; हजार धाराओं में बहने वाली नदी, हजार मार्गों पर जो वृक्ष हैं, उनकी जड़ों को पानी दे पाती है। वह फर्क है। उस फर्क को इनकार नहीं किया जा सकता। उतने फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है। बहुआयामी से मैंने इतना ही कहना चाहा है।
तीसरी बात पूछी गई है कि दमन को छोड़ दें तो संयम का क्या अर्थ है ?
साधारणतः वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। इसलिए जैन शरीर-दमन श |
ब्द का भी उपयोग करते हैं। शरीर को दबाना है, दमन करना है। लेकिन कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि कृष्ण किस हिसाब से संयम का अर्थ दमन कर सकते हैं? कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ बिल्कुल और है। शब्द भी बड़ी दिक्कत देते हैं। क्योंकि शब्द तो एक ही होते हैं--चाहे कृष्ण के मुंह पर हों और चाहे महावीर के मुंह पर हों। संयम, शब्द एक ही है। लेकिन अर्थ बिल्कुल भिन्न है। क्योंकि ओंठ भिन्न हैं और उनका प्रयोग करने वाला आदमी भिन्न है। और उसमें जो अर्थ है, वह उस व्यक्तित्व से आता है। शब्द में जो अर्थ है, वह डिक्शनरी से नहीं आता। डिक्शनरी से सिर्फ उनके लिए आता है जिनके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। जिनके पास व्यक्तित्व है, उनके लिए शब्द का अर्थ भीतर से आता है। कृष्ण के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह कृष्ण को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। महावीर के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। संयम का अर्थ महावीर से निकलेगा, या कृष्ण से निकलेगा। अब कृष्ण को देखते हुए कहा जा सकता है कि संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि अगर दुनिया में कोई भी अ-दमित, अनसप्रेस्ड आदमी हुआ है, तो वह कृष्ण हैं ।
तो संयम का क्या अर्थ होगा?
ऐसे मेरी भी समझ में, संयम का बहुत गहरा अर्थ दमन नहीं है। संयम शब्द बहुत अदभुत है। संयम का मेरे लिए अर्थ है--संतुलन, बैलेंस । संयम का मेरे लिए अर्थ है--न इस तरफ, न उस तरफ-बीच में, मध्य में। त्यागी असंयमी है--त्याग की तरफ; भोगी असंयमी है --भोग की तरफ । भोगी एक छोर छू रहा है, त्यागी दूसरा छोर छू रहा है। ये दो एक्सट्रीम हैं। संयम का अर्थ है, अन- अति, एक्सट्रीम नहीं, बीच में । कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ है, मध्य में। न त्याग, न भोग। या |
त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग। यही अर्थ हो सकता है संयम का कृष्ण के ओंठों पर। त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग; या न त्याग, न भोग--संयम का ऐसा अर्थ होगा। जो कहीं भी झुकता नहीं अति पर, वह व्यक्तित्व संयमित है।
एक आदमी है, धन के पीछे पागल है। बस इकट्ठा किए जाता है, तिजोड़ी भरे चला जाता है, यह असंयमी है। धन इसका साध्य हो गया, अति हो गई इसके जीवन की । एक दूसरा आदमी धन से पीठ करके भागता है। लौट कर नहीं देखता, भागता ही चला जाता है। और सदा डरा हुआ है कि कहीं धन न मिल जाए। यह भी असंयमी है। इसके लिए धन का त्याग वैसे ही साध्य बन गया जैसे किसी के लिए धन का इकट्ठा करना साध्य था। संयमी कौन है?
कृष्ण के अर्थों में जनक जैसा आदमी संयमी है। अन अति संयम है, नॉन- एक्सट्रीमिटी संयम है। मध्य में होना संयम है। भूखा मरना संयम नहीं है, ज्यादा खा लेना संयम नहीं है, सम्यक आहार संयम है। उपवास संयम नहीं है-- भूख की तरफ असंयम है। ज्यादा खा लेना संयम नहीं है --भोग की तरफ असंयम है। सम्यक आहार-जितना जरूरी है बस उतना ही; न ज्यादा, न कम--संयम है। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ बैलेंस है, संतुलन है, संगीत है। जरा ही यहां-वहां हटे कि कुआं और खाई हैं। और दो तरफ आदमी हट सकता है--राग की तरफ हट सकता है, विराग की तरफ हट सकता है।
घड़ी का पेंडुलम हमने देखा है। वह बाएं से हटता है तो सीधा दाएं जाता है, बीच में रुकता नहीं। दाएं से हटता है तो सीधा बाएं जाता है, बीच में रुकता नहीं और एक और बहुत मजे की बात है जो घड़ी के पेंडुलम से समझ लेनी चाहिए कि जब घड़ी का पेंडुलम बाएं तरफ जाता है तो हमें दिखता है बाएं तरफ जा रहा है, लेकिन
बाएं तरफ जाते समय पूरे समय दाएं तरफ जाने का मोमेंटम इकट्ठा करता है। जब घड़ी का पेंडुलम बाईं तरफ जा रहा है तब वह दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। बाएं तरफ जाते हुए दाएं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। दाएं तरफ जाते हुए बाएं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। जो अनशन कर रहा है, वह ज्यादा खाने की तैयारी कर रहा है। जो ज्यादा खा रहा है, वह अनशन की तैयारी कर रहा है। जो राग में डूब रहा है, वह विराग की तैयारी कर रहा है। जो विराग की तरफ दौड़ रहा है, वह राग की तरफ दौड़ेगा। दोनों अतियां सदा जुड़ी होती हैं। सिर्फ वह पेंडुलम, न जो बाएं जा रहा है, न दाएं जा रहा है, बीच में खड़ा हो गया है, वह कहीं भी जाने की तैयारी नहीं कर रहा है -- न वह बाएं जाने की तैयारी कर रहा है, न वह दाएं जाने की तैयारी कर रहा है। और यह जो मध्य में खड़ा हो गया पेंडुलम है, यह संयम का प्रतीक है। असंयम लेफ्टिस्ट या राइटिस्ट दो तरह का होता है। संयम का अर्थ है, मध्य।
कृष्ण के ओंठों पर यह अर्थ है। कृष्ण के ओंठों पर दूसरा अर्थ नहीं हो सकता। इस अर्थ को हम अगर वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे तो क्या होगा? इसे वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे, वस्तुतः जीवन की गहराई में, तो इसके दो अर्थ होंगे। ऐसा व्यक्ति न तो त्यागी कहा जा |
Subsets and Splits