chunks
stringlengths
14
2.5k
लेना जानते हैं, गा रहे हैं । "लेकिन उनका स्वास्थ्य ... " मैने कहना चाहा। जीवन भर काम देने लायक स्वास्थ्य की पूंजी सभी के पास होती है। स्वास्थ्य ? अगर तुम्हारे पास धन है तो क्या उसे खर्च नहीं करोगे ? स्वास्थ्य की पूंजी भी धन की तरह है। क्या तुम्हें मालूम है कि मेरा यौवन किस तरह खर्च हुआ ? सुबह से सांझ तक मैं क़ालीन बुनती थी । बैठे-बैठे कमर अकड़ जाती थी। मैं, जिसमें जीवन उसी प्रकार थिरकता था जैसे सूरज की किरन, बिना हिले - डुले पत्थर की भांति बैठी रहती। कभी-कभी, इतनी देर बैठे रहने के कारण, मेरी हड्डियां तक दुःखने लगतीं । लेकिन सांझ होते ही मैं हवा हो जाती और उस आदमी से जा लिपटती जिसे मैं प्यार करती थी । तीन महीने तक मेरा वह प्रेम चला और मेरी हर रात उसके साथ बीती । फिर भी, देखो न मैं अब तक - इतनी बड़ी उमर तक - जीती हूं। मेरी रगों में, ऐसा मालूम होता है, काफ़ी रक्त था । न जाने कितनी बार मैं प्रेम में डूबी उतराई, न जाने कितने चुम्बनों की मैंने बौछार की और बौछार ली ! मैंने उसके चेहरे पर नज़र डाली। उसकी काली आंखें वैसी ही धुंधली थीं। उसकी ये स्मृतियां तक उनमें चमक नहीं ला सकी थीं। उसके सूखे-फटे हुए होंठ, उसकी नुकीली ठोड़ी, जिसपर सफ़ेद बालों के गुच्छे उगे थे, और उल्लू की चोंच की भांति टेढ़ी उसकी झुर्रियोंदार नाक चांद की रोशनी में चमक रही थी । गालों की जगह काले गड्ढे पड़े थे और उनमें से एक पर उसके सफ़ेद बालों की एक लट झूल रही थी, जो लाल रंग के उस चिथड़े से बाहर निकल आई थी, जिसे उसने अपने सिर पर लपेट रखा था । उसके चेहरे, गरदन और हाथों पर झुर्रियों का जाल बिछा था और जब भी वह हिलती-डुलती थी तो ऐसा लगता था कि उसकी यह झुर्रियोंदार सूखी खाल अभी तड़ककर अलग जा गिरेगी और धुंधली काली आंखों से युक्त हड्डियों का एक ढांचा मात्र यहां बैठा रह जाएगा । अपनी चरचराती आवाज़ में उसने अब फिर बोलना शुरू कर दिया बिरलात नदी के किनारे, फ़ाल्मी के निकट, मैं अपनी मां के साथ रहती थी, और मैं पन्द्रह वर्ष की थी जब पहले पहल वह हमारे फ़ार्म में आया । लम्बा क़द, काली मूंछ, सुहावना और बहुत ही मनमौजी । हमारी खिड़की के तले उसने अपनी नाव रोक दी और गूंजदार आवाज़ में पुकार उठा - 'अरे कोई है ? क्या यहां कुछ खाने-पीने को मिल सकता है ? ' मैंने है? खिड़की में से बाहर की ओर झांका और ऐश वृक्ष की टहनियों के बीच से देखा कि नदी चान्द की नीली चान्दनी में चमचमा रही है और वह सफ़ेद ब्लाउज पर पटका कसे वहां खड़ा है, एक पांव उसका नाव में है श्रीर दूसरा तट पर । वह नाव को झुला रहा था और गा रहा था। जब उसकी नज़र मुझपर पड़ी तो बोला- 'ओह, कितनी सुन्दर लड़की रहती है यहां और मुझे पता तक नहीं !' - मानो वह दुनिया भर की सुन्दर लड़कियों का हिसाब रखता हो । पीने के लिए कुछ शराब और खाने के लिए कुछ गोश्त मैंने उसकी भेंट कर दिया और इसके चार दिन बाद में खुद भी उसकी हो गई । हर रात मैं और वह एक साथ नाव पर घूमने जाते । वह ता और गिलहरी की भा
ंति धीमे से सीटी बजाता और मैं खिड़की में से मछली की भांति नदी तट पर कूद पड़ती । और हम दोनों हह्वा हो जाते । वह प्रूत का निवासी था और मछियारे का काम करता था । जब मेरी मां को हम दोनों की करतूत का पता चला और उसने मेरी मरम्मत की तो वह मेरे सिर हो गया। कहने लगा कि चलो, यहां से दूर - दोब्रूजा- बल्कि इससे भी दूर दान्यूब की उपनदियों की ओर भाग चलें । लेकिन तब तक मैं उससे ऊब चली थी - गाने और प्रेम जताने के सिवा वह और कुछ नहीं करता था। मैं इससे उकता गई । और तभी गुत्सूलों का एक दल घूमताघामता इधर के इलाकों में आ निकला । और उन्होंने इस देश की लड़कियों पर डोरे डालना शुरू कर दिया। उन लड़कियों ने खूब मौज की। कभी-कभी ऐसा होता कि प्रेमी ग़ायब हो जाता और उसकी प्रेमिका उसकी याद में घुलने लगती । सोचती, हो न हो या तो वह जेल में डाल दिया गया है, या लड़ाई में मारा गया है। और इसके बाद एकाएक वह इस तरह प्रकट हो जाता जैसे खुले आसमान में से टपक पड़ा हो । वह अकेला ही या फिर अपने दो या तीन साथियों के साथ प्रकट होता । बहुमूल्य उपहारों का - जो कि लूट का माल थे - वह ढेर लगा देता, अपनी प्रेमिका के साथ दावतें उड़ाता, अपने साथियों के सामने उसे लेकर खूब शेखी बघारता । और इस सबसे वह खिल उठती । एक बार एक लड़की से, जिसका प्रेमी इसी तरह का था, मैंने कहा कि मेरा भी किसी गुत्सूल से परिचय करा दे। लेकिन ज़रा ठहरो, भला क्या नाम था उस लड़की का ? ओह, मेरी याद से उतर गया । मेरी याददाश्त अब तेज़ नहीं रही। और यह बात भी इतनी पुरानी है कि उसे कोई भी भूल सकता है। उस लड़की के ज़रिये मैं एक युवक गुत्सूल से मिली । वह बहुत खूबसूरत था । उसके बाल लाल थे । लाल बाल और लाल गलमुच्छे - दहकते हुए लाल । कभी वह अपने में ही खो जाता, ही खो जाता, क
भी खूब गरजता और मरने मारने पर उतर आता। एक बार उसने मेरे मुंह पर
आदर्श हिंदू-बालिका की भाँति प्रेमा पति के घर आ कर पति की हो गई थी। अब अमृतराय उसके लिए केवल एक स्वप्न की भाँति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गृह-कार्य में बड़ी कुशल थी। सारा दिन घर का कोई-न-कोई काम करती रहती। दाननाथ को सजावट का सामान खरीदने का शौक था, वह अपने घर को साफ-सुथरा सजा हुआ देखना भी चाहते थे। लेकिन इसके लिए जिस संयम और श्रम की जरूरत है, वह उनमें न था। कोई चीज ठिकाने से रखना उन्हें आता ही न था। ऐनक स्नान के कमरे के ताक पर रख दिया, तो उसकी याद उस वक्त आती जब कॉलेज में उसकी जरूरत पड़ती। खाने-पीने, सोने-जागने का कोई नियम न था। कभी कोई अच्छी पुस्तक मिल गई, तो सारी रात जागते रहे। कभी सरेशाम से सो रहे, तो खाने-पीने की सुध न रही। आय-व्यय की व्यवस्था न थी। जब तक हाथ में रुपए रहते, बेदरेग खर्च किए जाते, बिना जरूरत की चीजें आया करतीं। रुपए खर्च हो जाने पर, लकड़ी और तेल में किफायत करनी पड़ती थी। तब वह अपनी वृद्ध माता पर झुँझलाते, पर माता का कोई दोष न था। उनका बस चलता तो अब तक दाननाथ चार पैसे के आदमी हो गए होते। वह पैसे का काम धेले में निकलना चाहती थी। कोई महरी, कोई कहार, उनके यहाँ टिकने न पाता था। उन्हें अपने हाथों काम करने में शायद आनंद आता था। वह गरीब माता-पिता की बेटी थी, दाननाथ के पिता भी मामूली आदमी थे और फिर जिए भी बहुत कम। माता ने अगर इतनी किफायत से काम न लिया होता तो दाननाथ किसी दफ्तर के चपरासी होते। ऐसी महिला के लिए कृपणता स्वाभाविक ही थी। वह दाननाथ को अब भी वही बालक समझती थीं जो कभी उनकी गोद में खेला करता था। उनके जीवन का वह सबसे आनंदप्रद समय होता था जब दाननाथ के सामने थाल रख कर वह खिलाने बैठती थी। किसी महाराज या रसोइए, कहार या महरी को वह इस आनंद में बाधा न डालने देना चाहती थीं, फिर वह जिएँगी कैसे? जब तक दाननाथ को अपने सामने बैठ कर खिला न लें, उन्हें संतोष न होता था। दाननाथ भी माता पर जान देते थे, चाहते थे कि यह अच्छे से अच्छा खाएँ, पहनें और आराम से रहें मगर उनके पास बैठ कर बालकों की तोतली भाषा से बातें करने का उन्हें न अवकाश था न रूचि। दोस्तों के साथ गप-शप करने में उन्हें अधिक आनंद मिलता था। वृद्धा ने कभी मन की बात कही नहीं, पर उसकी हार्दिक इच्छा थी कि दाननाथ अपना पूरा वेतन लाकर उसके हाथ में रख दें, फिर वह अपने ढंग पर खर्च करती। तीन सौ रुपए थोड़े नहीं होते, न जाने कैसे खर्च कर डालता है। इतने रूपयों की गड्डी को हाथों से स्पर्श करने का आनंद उसे कभी न मिला था। दाननाथ में या तो इतनी सूझ नहीं थी, या तो लापरवाह थे। प्रेमा ने दो ही चार महीने में घर को सुव्यवस्थित कर दिया। अब हरेक काम का समय और नियम था, हरेक चीज का विशेष स्थान था, आमदनी और खर्च का हिसाब था। दाननाथ को अब दस बजे सोना और पाँच बजे उठना पड़ता था, नौकर-चाकर खुश थे और सबसे ज्यादा खुश थी प्रेमा की सास। दाननाथ को जेब खर्च के लिए पच्चीस रुपए दे कर प्रेमा बाकी रुपए सास के हाथ में रख देती थी और जिस चीज
की जरूरत होती, उन्हीं से कहती। इस भाँति वृद्धा को गृह-स्वामिनी का अनुभव होता था। यद्यपि शुरू महीने से वह कहने लगती थीं अब रुपए नहीं रहे, खर्च हो गए, क्या मैं रूपया हो जाऊँ, लेकिन प्रेमा के पास तो पाई-पाई का हिसाब रहता था, चिरौरी-विनती करके अपना काम निकाल लिया करती थी। उस पर भी दाननाथ के मन में वह शंका बनी हुई थी। वह एक बार उसके अंतस्तल में बैठ कर देखना चाहते थे - एक बार उसके मनोभावों की थाह लेना चाहते थे, लेकिन यह भी चाहते थे कि वह यह न समझे कि उसकी परीक्षा हो रही है। कहीं उसने भाँप लिया तो अनर्थ हो जाएगा, उसका कोमल हृदय उस परीक्षा का भार सह भी सकेगा या नहीं। आखिर उन्होंने एक दिन कह ही डाला - 'आजकल, आईने में अपनी सूरत देखते हो?' अमृतराय - 'कोई अंतर है?' अमृतराय - 'झूठ न बोलो यार, मुझे तो याद ही नहीं आता कि तुम इतने तैयार कभी थे। सच कहता हूँ, मैं तुम्हें बधाई देने जा रहा था। मगर डरता था कि तुम समझोगे यह नजर लगा रहा है।' अमृतराय अपनी हँसी न रोक सके। दाननाथ को उन्होंने इतना मंद-बुद्धि कभी न समझा था। दाननाथ ने समझा - यह मेरी हँसी उड़ाना चाहते हैं। मैं मोटा हूँ, या दुबला हूँ, इनसे मतलब? यह कौन होते हैं पूछनेवाले? आप शायद यह सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रेमा की स्नेहमय सेवा ने मुझे मोटा कर दिया। यही सही, तो आपको क्यों जलन होती है, क्या अब भी आपका उससे कुछ नाता है। मैले बर्तन में साफ पानी भी मैला हो जाता है। द्वेष से भरा हृदय पवित्र आमोद भी नहीं सह सकता। यह वही दाननाथ है, जो दूसरों को चुटकियों में उड़ाया करते थे, अच्छे-अच्छों का काफिया तंग कर देते थे। आज सारी बुद्धि घास खाने चली गई थी। वह समझ रहे थे कि यह महाशय मुझे भुलावा दे कर प्रेमा की टोह लेना चाहते हैं। मुझी से उड़ने चले हैं। अभी
कुछ दिन पढ़ो तब मेरे मुँह आना। बोले - 'तुम हँसे क्यों? क्या मैंने हँसी की बात कही है?' दाननाथ - 'आपकी आँखों को धोखा हुआ है।' दाननाथ - 'पहाड़ पर जाने में रुपए लगते हैं, यहाँ कौड़ी कफन को भी नहीं है।' दाननाथ - 'तुम्हारे पास भी तो रुपए नहीं हैं, ईंट-पत्थर में उड़ा दिए।' दाननाथ - 'खूब उन रूपयों से आप पहाड़ों की हवा खाइएगा। अपने घर की जमा लुटा कर अब दूसरों के सामने हाथ फैलाते फिरोगे?' दाननाथ - 'जी, तो मुझे क्षमा कीजिए, आप ही पहाड़ों की सैर कीजिए। तुमने व्यर्थ इतने रुपए नष्ट कर दिए। सौ-पचास अनाथों को तुमने आश्रय दे ही दिया, तो कौन बड़ा उपकार हुआ जाता है। हाँ, तुम्हारी लीडरी की अभिलाषा पूरी हो जाएगी।' दाननाथ को 'उपकार' शब्द से घृणा थी। 'सेवा' को भी वह इतना ही घृणित समझते थे। उन्हें सेवा और उपकार के परदे में केवल अहंकार और ख्याति-प्रेम छिपा हुआ मालूम होता था। अमृतराय ने कुछ उत्तर न दिया। दाननाथ कोई उत्तर सुनने को तैयार भी न थे, उन्हें घर जाने की जल्दी थी, अतएव उन्होंने भी उठ कर हाथ बढ़ा दिया। दाननाथ ने हाथ मिलाया और विदा हो गए। घर पहुँचे, तो प्रेमा ने पूछा - 'आज बड़ी देर लगाई, कहाँ चले गए थे? देर करके आना हो तो भोजन करके जाया करो।' प्रेमा ने इसका कुछ उत्तर न दिया। हाँ में हाँ मिलाना न चाहती थी, विरोध करने का साहस न था। बोली - 'अच्छा चल कर भोजन तो कर लो, महाराजिन कल से भुनभुना रही है कि यहाँ बड़ी देर हो जाती है। कोई उसके घर का ताला तोड़ दे, तो कहीं की न रहे।' दाननाथ दिल में अमृतराय को इतना नीच न समझते थे - कदापि नहीं। उन्होंने केवल प्रेमा को छेड़ने के लिए यह स्वाँग रचा था। प्रेमा बड़े असमंजस में पड़ गई। अमृतराय की यह निंदा उसके लिए असह्य थी। उनके प्रति अब भी उसके मन में श्रद्धा थी। दाननाथ के विचार इतने कुत्सित हैं, इसकी उसे कल्पना भी न थी। बड़े-बड़े तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली - 'मैं समझती हूँ कि तुम अमृतराय के साथ बड़ा अन्याय कर रहे हो। उनका हृदय विशुद्ध है, इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं। वह जो कुछ करना चाहते हैं, उससे समाज का उपकार होगा या नहीं, यह तो दूसरी बात है, लेकिन उनके विषय में ऐसे शब्द मुँह से निकाल कर तुम अपने हृदय का ओछापन दिखा रहे हो।' बोले - 'मुझे नहीं मालूम था कि तुम अमृतराय को देवता समझ रही हो, हालाँकि देवता भी फिसलते देखे गए हैं।' दाननाथ - 'तो फिर लीडर कैसे बनते, हम जैसों की श्रेणी में न आ जाते? अपने त्याग का सिक्का जनता पर कैसे बैठाते?' इतने में वृद्ध माता आ कर खड़ी हो गईं। दाननाथ ने पूछा - 'क्या है, अम्माँ जी?' दाननाथ ने हँस कर कहा - 'यही मुझसे लड़ रही है, अम्माँ जी, मैं तो बोलता भी नहीं।' माता - 'बहू, जोर से तो तुम्हीं बोल रही हो। यह बेचारा तो बैठा हुआ है।' दाननाथ - 'अम्माँ जी में यही तो गुण है कि वह सच ही बोलती हैं। तुम्हें शर्माना चाहिए।' दाननाथ - 'तुमने भोजन क्यों न कर लिया? मैं तो दिन में दस बार खाता हूँ। मेरा इंतजार क्यों करती हो। आज
बाबू अमृतराय ने भी कह दिया कि तुम इन दिनों मोटे हो गए हो। एकाध दिन न भी खाऊँ तो चिंता नहीं।' दाननाथ - 'नहीं अम्माँ जी, सचमुच कहते थे।' दाननाथ मोटे चाहे न हो गए हों, कुछ हरे अवश्य थे। चेहरे पर कुछ सुर्खी थी। देह भी कुछ चिकनी हो गई थी। मगर यह कहने की बात थी। माताओं को तो अपने लड़के सदैव ही दुबले मालूम होते हैं, लेकिन दाननाथ भी इस विषय में कुछ वहमी जीव थे। उन्हें हमेशा किसी-न-किसी बीमारी की शिकायत बनी रहती थी। कभी खाना नहीं हजम हुआ, खट्टी डकारें आ रही हैं, कभी सिर में चक्कर आ रहा है, कभी पैर का तलवा जल रहा है। इस तरह ये शिकायतें बढ़ गई थीं। कहीं बाहर जाते, तो उन्हें कोई शिकायत न होती, क्योंकि कोई सुनने वाला न होता। पहले अकेले माँ को सुनाते थे। अब एक और सुनने वाला मिल गया था। इस दशा में यदि कोई उन्हें मोटा कहे, तो यह उसका अन्याय था। प्रेमा को भी उनकी खातिर करनी पड़ती थी। इस वक्त दाननाथ को खुश करने का उसे अच्छा अवसर मिल गया। बोली - 'उनकी आँखों में शनीचर है। दीदी बेचारी जरा मोटी थीं। रोज उन्हें ताना दिया करते, घी मत खाओ, दूध मत पीयो। परहेज करा-करा के बेचारी को मार डाला। मैं वहाँ होती तो लाला जी की खबर लेती।' दाननाथ - 'अच्छी नहीं, पत्थर है। बलगम भरा हुआ है। महीने भर कसरत छोड़ दें, तो उठना-बैठना दूभर हो जाए।' दाननाथ - 'मेरे साथ खेलते थे, तो रुला-रुला मारता था।' लेकिन दाननाथ जहाँ विरोधी स्वभाव के मनुष्य थे, वहाँ कुछ दुराग्रही भी थे। जिस मनुष्य के पीछे उनका अपनी ही पत्नी के हाथों इतना घोर अपमान हुआ, उसे वह सस्ते नहीं छोड़ सकते। सारा संसार अमृतराय का यश गाता, उन्हें कोई परवाह न थी, नहीं तो वह भी उस स्वर में अपना स्वर मिला सकते थे, वह भी करतल-ध्वनि कर सकते थे, पर उनकी पत्नी अमृतराय के प
्रति इतनी श्रद्धा रखे और केवल हृदय में न रख कर उसकी दुहाई देती फिरे, जरा भी चिंता न करे कि इसका पति पर क्या प्रभाव होगा, यह स्थिति दुस्सह थी। अमृतराय अगर बोल सकते हैं, तो दाननाथ भी बोलने का अभ्यास करेंगे और अमृतराय का गर्व मर्दन कर देंगे, उसके साथ ही प्रेमा का भी। वह प्रेमा को दिखा देंगे कि जिन गुणों के लिए तू अमृतराय को पूज्य समझती है, वे गुण मुझमें भी हैं, और अधिक मात्रा में। प्रेमा ने पूछा - 'क्या आज तुम्हारा व्याख्यान है? तुम तो पहले कभी नहीं बोले।' प्रेमा - 'मुझे तो तुमने सुनाई ही नहीं। मैं भी जाऊँगी। देखूँ तुम कैसा बोलते हो?' प्रेमा- 'लाला जी ने तुम्हें आखिर अपनी ओर घसीट ही लिया?' प्रेमा ने दबी जबान से कहा - 'अब तक वह तुम्हें अपना सहायक समझते थे। यह नोटिस पढ़ कर चकित हो गए होंगे।' दाननाथ - 'नहीं, अभी मेरे सामने कर दो। तुम्हें गाते-बजाते मंदिर तक जाना पड़ेगा।' रात के आठ बज रहे थे। दाननाथ प्रेमा के साथ बैठे दून की उड़ा रहे थे - 'सच कहता हूँ, प्रिये। दस हजार आदमी थे, मगर क्या मजाल कि किसी के खाँसने की आवाज भी आती हो। सब-के-सब बुत बने बैठे थे। तुम कहोगी, यह जीट उड़ा रहा है पर मैंने लोगों को कभी इतना तल्लीन नहीं देखा।' विवाह के बाद आज अमृतराय पहली बार दाननाथ के घर आए थे। प्रेमा तो ऐसी घबरा गई, मानो द्वार पर बारात आ गई हो। मुँह से आवाज ही न निकलती थी। भय होता था, कहीं अमृतराय उसकी आवाज न सुन लें। इशारे से महरी को बुलाया और पानदान मँगवा कर पान बनाने लगी। अमृतराय ने उन्हें गले लगाते हुए कहा - 'आज तो यार तुमने कमाल कर दिखाया मैंने अपनी जिंदगी में कभी ऐसी स्पीच न सुनी थी।' अमृतराय - 'दिल्लगी नहीं थी भाई, जादू था। तुमने तो आग लगा दी। अब भला हम जैसों की कौन सुनेगा। मगर सच बताना यार, तुम्हें यह विभूति कैसे हाथ आ गई? मैं तो दाँत पीस रहा था। मौका होता वहीं तुम्हारी मरम्मत करता।' अमृतराय- 'सबसे पीछे की तरफ, मैं मुँह छिपाए खड़ा था। आओ, जरा तुम्हारी पीठ ठोंक दूँ?' अमृतराय - 'अब तुम मेरे हाथों पिटोगे। तुमने पहली ही स्पीच में अपनी धाक जमा दी, आगे चल कर तो तुम्हारा जवाब ही न मिलेगा। मुझे दुःख है तो यही कि हम और तुम अब दो प्रतिकूल मार्ग पर चलते नजर आएँगे। मगर यार यहाँ दूसरा कोई नहीं है, क्या तुम दिल से समझते हो कि सुधारों से हिंदू-समाज को हानि पहुँचेगी?' अमृतराय - 'तो फिर हमारी और तुम्हारी खूब छनेगी, मगर एक बात का ध्यान रखना, हमारे सामाजिक सिद्धांतों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो, मंच पर चाहे एक-दूसरे को नोच ही क्यों न खाएँ मगर मैत्री अक्षुण्ण रहनी चाहिए। हमारे निज के संबंध पर उनकी आँच तक न आने पाए। मुझे अपने ऊपर तो विश्वास है, लेकिन तुम्हारे ऊपर मुझे विश्वास नहीं है। क्षमा करना, मुझे भय है कि तुम...' अमृतराय ने संदिग्ध भाव से कहा - 'तुम कहते हो, मगर मुझे विश्वास नहीं आता।' अमृतराय - 'और तो घर में सब कुशल है न? अम्माँ जी से मेरा प्रणाम कह देना।' अमृतराय - 'कई जगह जाना
है। अनाथालय के लिए चंदे की अपील करनी है। जरा दस-पाँच आदमियों से मिल तो लूँ। भले आदमी, विरोध ही करना था, तो अनाथालय बन जाने के बाद करते। तुमने रास्ते में काँटे बिखेर दिए।' प्रेमा - 'वह भी सुनने गए थे?' प्रेमा - 'यह तुम कैसे कह सकते हो? पुराने पंडित चाहे सुधारों का विरोध करें, लेकिन शिक्षित-समाज तो नहीं कर सकता।' प्रेमा - 'अच्छा, उन्हें एक कौड़ी भी न मिलेगी। झगड़ा काहे का? अब रुपए लाओ, कल पूजा कर आऊँ। भाभी और पूर्णा दोनों को बुलाऊँगी। कुछ मुहल्ले की हैं। दस-बीस ब्राह्मणों का भोजन भी आवश्यक ही होगा।' प्रेमा - 'राम जाने, तुम नीयत के बड़े खोटे हो, भैंस से चींटी वाली मसल करोगे क्या? शाम को सवा सेर कहा था, अब सवा पाव पर आ गए। मैंने सवा मन की मानता की है।' कमलाप्रसाद ने घर में कदम रखा। प्रेमा ने जरा घूँघट आगे खींच लिया और सिर झुका कर खड़ी हो गई। कमलाप्रसाद ने प्रेमा की तरफ ताका भी नहीं, दाननाथ से बोले - 'भाई साहब, तुमने तो आज दुश्मनों की जबान बंद कर दी। सब-के-सब घबराए हुए हैं। आज मजा तो जब आए कि चंदे की अपील खाली जाए, कौड़ी न मिले।' कमलाप्रसाद - 'कौन, अगर पाँच सौ से ज्यादा पा जाएँ तो मूँछ मुँड़ा लूँ, काशी में मुँह न दिखाऊँ। अभी एक हफ्ता बाकी है। घर-घर जाऊँगा। पिता जी ने मुकाबले में कमर बाँध ली है। वह तो पहले ही सोच रहे थे कि इन विधर्मियों का रंग फीका करना चाहिए, लेकिन कोई अच्छा बोलने वाला नजर न आता था। अब आपके सहयोग से तो हम सारे शहर को हिला सकते हैं। अभी एक हजार लठैत तैयार हैं, पूरे एक हजार। जिस दिन महाशय जी की अपील होगी चारों तरफ रास्ते बंद कर दिए जाएँगे। कोई जाने ही न पाएगा। बड़े-बड़ों को तो हम ठीक कर लेंगे और ऐरे-गैरों के लिए लठैत काफी हैं। अधिकांश पढ़े-लिखे आदमी ही तो उनके सहायक
हैं। पढ़े-लिखे आदमी लड़ाई-झगड़े के करीब नहीं जाते। हाँ, कल एक स्पीच तैयार रखिएगा। इससे बढ़ कर हो। उधर उनका जलसा हो, इधर उसी वक्त हमारा जलसा भी हो। फिर देखिए क्या गुल खिलता है।' कमलाप्रसाद हाकिम-जिला का नाम सुन कर जरा सिटपिटा गए। कुछ सोच कर बोले - 'हुक्काम उनकी पीठ भले ही ठोंक दें, पर रुपए देनेवाले जीव नहीं हैं। पाएँ तो उल्टे बाबू साहब को 'मूँड़' लें। हाँ, क्लेक्टर साहब का मामला बड़ा बेढब है। मगर कोई बात नहीं। दादाजी से कहता हूँ - आप शहर के दस-पाँच बड़े-बड़े रईसों को ले कर साहब से मिलिए और उन्हें समझाइए कि अगर आप इस विषय में हस्तक्षेप करेंगे, तो शहर में बलवा हो जाएगा।' प्रेमा ये बातें सुन कर पहले ही से भरी बैठी थी। यह प्रश्न चिनगारी का काम कर गया, मगर कहती क्या? दिल में ऐंठ कर रह गई। बोली - 'मैं इन झगड़ों में नहीं पड़ती। आप जानें और वह जानें। मैं दोनों तरफ का तमाशा देखूँगी। कहिए, अम्माँ जी तो कुशल से हैं। भाभीजी आजकल क्यों रूठी हुई हैं? मेरे पास कई दिन हुए एक खत भेजा था कि मैं बहुत जल्द मैके चली जाऊँगी।' कमलाप्रसाद चला गया। दाननाथ भी उनके साथ बाहर आए और दोनों बातें करते हुए बड़ी दूर तक चले गए। दाननाथ - 'इसी वक्त! कम-से-कम एक बजे तक होगा। नहीं साहब, आप जाएँ, मैं जाता हूँ।' दाननाथ - 'नहीं भाई साहब, माफ कीजिए। बेचारी औरतें मेरी राह देखती बैठी रहेंगी। दाननाथ ने दो-चार बार मना किया, मगर कमलाप्रसाद ने न छोड़ा। दोनों ने मैनेजर के घर भोजन किया और सिनेमा-हाल में जा बैठे, मगर दाननाथ को जरा भी आनंद न आता था। उनका दिल घर की ओर लगा था। प्रेमा बैठी होगी - अपने दिल में क्या कहती होगी? घबरा रही होगी। बुरा फँसा। कमलाप्रसाद बीच-बीच में कहता जाता था - यह देखो चैपलिन आया - वाह-वाह! क्या कहने हैं पट्ठे, तेरे दम का जमूड़ा है - अरे यार, किधर देख रहे हो, जरा इस औरत को देखो, सच कहता हूँ, यह मुझे पानी भरने को नौकर रख ले, तो रह जाऊँ-वाह! ऐसी-ऐसी परियाँ भी दुनिया में हैं। एक हमारा देश खूसट है, तुम तो सो रहे हो जी।' प्रेमा ने कहा - 'बड़ी जल्दी लौटे, अभी ग्यारह ही तो बजे हैं।' प्रेमा ने तिनक कर कहा - 'झूठ मत बोलो, भाई साहब पकड़ ले गए। उन्होंने कहा होगा, चलो जी जरा सिनेमा देख आएँ, तुमने एक बार तो नहीं की होगी, फिर चुपके से चले गए होंगे। जानते तो थे ही, लौंडी बैठी रहेगी।' प्रेमा - 'जी, ऐसे ही बड़े शीलवान तो हैं आप, यह क्यों नहीं कहते कि वहाँ की बहार देखने को जी ललच उठा।' प्रेमा - 'उन्हें तो भोजन करके सुला दिया। इस वक्त जागती होतीं, तो तुमसे डंडों से बातें करतीं। सारी शरारत भूल जाते।' प्रेमा - 'सिखा रहे हो, तो वह भी सीख लूँगी। भैया से मेल हुआ है, तो मेरी दशा भी भाभी की-सी हो कर रहेगी।' प्रेमा - 'और तुम?' प्रेमा - 'तो मैं भी कर चुकी।' प्रेमा ने न माना। दाननाथ को खिला कर ही छोड़ा, तब खुद खाया। दाननाथ आज बहुत प्रसन्न थे। जिस आनंद की-जिस शंका-रहित आनंद की उन्होंने कल्पना की थी, उसका आज कुछ आभ
ास हो रहा था। उनका दिल कह रहा था - 'मैं व्यर्थ ही इस पर शंका करता हूँ। प्रेमा मेरी है, अवश्य मेरी है। अमृतराय के विरुद्ध आज मैंने इतनी बातें की और फिर भी कहीं तेवर नहीं मैला हुआ। आज आठ महीनों के बाद दाननाथ को जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हुआ।' दाननाथ - 'सोचता हूँ, मुझ-सा भाग्यवान संसार में दूसरा कौन होगा?' दाननाथ - 'तुम देवी हो।' छः दिन बीत गए। कमलाप्रसाद और उनके मित्र-वृंद रोज आते और शहर की खबरें सुना जाते। किन-किन रईसों को तोड़ा गया, किन-किन अधिकारियों को फाँसा गया, किन-किन मुहल्लों पर धावा हुआ, किस-किस कचहरी, किस-किस दफ्तर पर चढ़ाई हुई, यह सारी रिपोर्ट दाननाथ को सुनाई जाती। आज यह भी मालूम हो गया कि साहब बहादुर ने अमृतराय को जमीन देने से इनकार कर दिया है। ईंट-पत्थर अपने घर में भर रखे हैं बस कॉलेजों के थोड़े-से विद्यार्थी रह गए हैं, सो उनका किया क्या हो सकता है? दाननाथ इन खबरों को प्रेमा से छिपाना चाहते थे, पर कमलाप्रसाद को कब चैन आता था। वह चलते वक्त संक्षिप्त रिपोर्ट उसे भी सुना देते। दाननाथ ने उदासीन भाव से कहा - 'मुझे ले जा कर क्या कीजिएगा। आप लोग तो हैं ही।' दाननाथ - 'अभी मेरा व्याख्यान तैयार नहीं हुआ है। उधर गया, तो फिर अधूरा ही रह जाएगा।' यह कहते हुए कमलाप्रसाद अंदर चले गए। प्रेमा आज की रिपोर्ट सुनने के लिए उत्कंठित हो रही थी। बोली - 'आइए भैयाजी, आज तो समर का दिन है।' प्रेमा - 'मार-पीट न होगी?' प्रेमा को बड़ी चिंता हुई। जहाँ इतने विरोधी जमा होंगे, वहाँ दंगा हो जाने की प्रबल संभावना थी। कहीं ऐसा न हो कि मूर्ख जनता उन पर ही टूट पड़े। क्या उन्हें इन बातों की खबर नहीं है? सारे शहर में जिस बात की चर्चा हो रही है, क्या वह उनके कानों तक न पहुँची होगी? उनके भी तो कुछ-न-कुछ सहा
यक होंगे ही। फिर वह क्यों इस जलसे को स्थगित नहीं कर देते? क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हैं? आज इन लोगों को जलसा कर लेने दें। जब ये लोग जरा ठंडे हो जाएँ, तो दो-चार महीने बाद अपना जलसा करें, मगर वह तो हठी जीव हैं। आग में कूदने का तो उन्हें जैसे मरज है। क्या मेरे समझाने से वह मान जाएँगे? कहीं ऐसा तो न समझेंगे कि यह भी अपने पति का पक्ष ले रही है। चार बजे। दाननाथ अपने जत्थे के साथ अपने जलसे में शरीक होने चले। प्रेमा को उस समय अपनी दशा पर रोना आया। ये दोनों मित्र जिनमें दाँत-काटी रोटी थी, आज एक-दूसरे के शत्रु रहे हैं और मेरे कारण। अमृतराय से पहले मेरा परिचय न होता तो आज ऐसी लाग-डाँट क्यों होती? वह मानसिक व्यग्रता की दशा में कभी खड़ी हो जाती, कभी बैठ जाती। उसकी सारी करूणा, सारी कोमलता, सारी ममता, उसे अमृतराय को जलसे में जाने से रोकने के लिए उनके घर जाने की प्रेरणा करने लगी। उसका स्त्री-सुलभ संकोच एक क्षण के लिए लुप्त हो गया। एक बार भय हुआ कि दाननाथ को बहुत बुरा लगेगा लेकिन उसने इस विचार को ठुकरा दिया। तेजमय गर्व से उसका मुख उद्दीप्त हो उठा - मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ, किसी के हाथ अपनी धारणा नहीं बेची है, प्रेम पति के लिए है, पर भक्ति सदा अमृतराय के साथ रहेगी। माता ने पूछा - 'कहाँ जाएगी, बेटी?' माता - 'बड़ी अच्छी बात है। बेटी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। मेरी बात वह न टालेगा। जब नन्हा-सा था, तभी से मेरे घर आता-जाता था। न जाने ऐसी क्या बात पैदा हो गई कि इन दोनों में ऐसी अनबन हो गई। बहू, मैंने दो भाइयों में भी ऐसा प्रेम नहीं देखा।' माता - 'दानू बेचारा भोला है। उनकी बातों में आ गया।' मगर ताँगे का घोड़ा दिन-भर का थका हुआ था, कहाँ तक दौड़ता? कोचवान बार-बार चाबुक मारता था, पर घोड़ा गर्दन हिला कर रह जाता था। टाउन हॉल आते-आते बीस मिनट लग गए। दोनों महिलाएँ जल्दी से उतर कर हॉल के अंदर गईं, तो देखा कि अमृतराय मंच पर खड़े हैं और सैकड़ों आदमी नीचे खड़े शोर मचा रहे हैं। महिलाओं के लिए एक बाजू में चिकें पड़ी हुई थीं। दोनों चिक की आड़ में आ खड़ी हुईं। भीड़ इतनी थी और इतने शोहदे जमा थे कि प्रेमा को मंच की ओर जाने का साहस न हुआ। कई आदमियों ने चिल्ला कर कहा - 'धर्म का द्रोही है।' कई आवाजें - 'और क्या हो तुम? बताओ कौन-कौन से वेद पढ़े हो?' अमृतराय ने फिर कहा - 'मैं जानता हूँ, कुछ लोग यहाँ सभा की कार्यवाही में विघ्न डालने का निश्चय करके आए हैं। जिन लोगों ने उन्हें सिखा-पढ़ा कर भेजा है, उन्हें मैं जानता हूँ।' अमृतराय के पक्ष के एक युवक ने झल्ला कर कहा - 'आपको यदि यहाँ रहना है, तो शांत हो कर व्याख्यान सुनिए, नहीं तो हॉल से चले जाइए।' अमृतराय ने जोर से कहा - 'क्या आप लोग फसाद करने पर तुले हुए हैं? याद रखिए, अगर फसाद हुआ, तो इसका दायित्व आपके ऊपर होगा।' इस पर फिर चारों ओर तालियाँ पड़ीं, और कहकहों ने हॉल की दीवारें हिला दीं। महिला ने प्रकंपित स्वर में कहा - 'सज्जनो, आपके सम्मुख आपकी बहन-आपक
ी कन्या खड़ी आपसे एक भिक्षा माँग रही है। उसे निराश न कीजिएगा...' महिला - 'मैं आपके शहर के रईस लाला बदरीप्रसाद की कन्या हूँ और इस नाते से आपकी बहन और बेटी हूँ। ईश्वर के लिए बैठ जाइए। बहन को क्या अपने भाइयों से इतनी याचना करने का भी अधिकार नहीं है? यह सभा आज इसलिए की गई है कि आपसे इस नगर में एक ऐसा स्थान बनाने के लिए सहायता माँगी जाए, जहाँ हमारी अनाथ आश्रयहीन बहनें अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करते हुए शांति से रह सकें। कौन ऐसा मुहल्ला है, जहाँ ऐसी दस-पाँच बहनें नहीं हैं। उनके ऊपर जो बीतती है वह क्या आप अपनी आँखों से नहीं देखते? कम-से-कम अनुमान तो कर ही सकते हैं। वे जिधर आँखें उठाती हैं, उधर ही उन्हें पिशाच खड़े दिखाई देते हैं, जो उनकी दीनावस्था को अपनी कुवासनाओं के पूरा करने का साधन बना लेते हैं। हमारी लाखों बहनें इस भाँति केवल जीवन-निर्वाह के लिए पतित हो जाती हैं। क्या आपको उन पर दया नहीं आती? मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि अगर उन बहनों को रूखी रोटियों और मोटे कपड़ों का भी सहारा हो, तो वे अंत समय तक अपने सतीत्व की रक्षा करती रहें। स्त्री हारे दर्जे की दुराचरिणी होती है। अपने सतीत्व से अधिक उसे संसार की और किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता, न वह किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है। आप सभी सज्जनों के कन्याएँ और बहनें होंगी। क्या उनके प्रति आपका कोई कर्तव्य नहीं है? और आप लोगों में ऐसा एक भी पुरुष है, जो इतना पाषाण हृदय हो, मैं यह नहीं मान सकती। यह कौन कह सकता है कि अनाथों की जीव-रक्षा धर्म-विरुद्ध है? जो यह कहता है वह धर्म के नाम को कलंकित करता है। दया धर्म का मूल है। मेरे भाई बाबू अमृतराय ने ऐसा एक स्थान बनवाने का निश्चय किया है। वह अपनी सारी संपत्ति उस पर अर्पण कर चुके हैं। अब वह इस का
म में आपकी मदद माँग रहे हैं। जिस आदमी के पास कल लाखों की जायजाद थी, आज भिखारी बन कर आपसे भिक्षा माँग रहा है। आपमें सामर्थ्य हो तो भिक्षा दीजिए। न सामर्थ्य हो तो कह दीजिए - भाई, दूसरा द्वार देखो, मगर उसे ठोकर तो न मारिए, उसे गालियाँ तो न दीजिए। यह व्यवहार आप जैसे पुरूषों को शोभा नहीं देता।' दूसरे सज्जन बोले - 'और बाबू दाननाथ भी तो हैं?' एक मोटे ताजे पगड़ी वाले आदमी ने कहा - 'और जो हम कमलाप्रसाद बाबू से पुछाय देई? हमका इहाँ का लेबे का रहा जौन औतेन, वही लोग भेजेन रहा, तब आयन।' प्रेमा ने इसी तरह कोई आध घंटे तक अपनी मधुर वाणी, अपने निर्भय सत्य प्रेम और अपनी प्रतिभा से लोगों को मंत्र-मुग्ध रखा। उसका आकस्मिक रूप से मंच पर आ जाना जादू का काम कर गया। महिला का अपमान करना इतना आसान न था, जितना अमृतराय का। पुरुष का अपमान एक साधारण बात है। स्त्री का अपमान करना, आग में कूदना है । फिर स्त्री कौन? शहर के प्रधान रईस की कन्या। लोगों के विचारों में क्रांति-सी हो गई। जो विघ्न डालने आए थे, वे भी पग उठे। जब प्रेमा ने चंदे के लिए प्रार्थना करके अपना आँचल फैलाया, तो वह दृश्य सामने आया, जिसे देख कर देवता भी प्रसन्न हो जाते। सबसे बड़ी रकमें उन गुंडों ने दीं, जो यहाँ लाठी चलाने आए थे, गुंडे अगर किसी की जान ले सकते हैं, तो किसी के लिए जान भी दे सकते हैं। उनको देख कर बाबुओं को भी जोश आया। जो केवल तमाशा देखने आए थे, वे भी कुछ-न-कुछ दे गए। जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है। समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी। कितने मनुष्य तो घर से रुपए लाए। सोने की अंगूठियों, ताबीजों और कंठों का ढेर लग गया, जो गुंडों की कीर्ति को उज्ज्वल कर रहा था। दस-बीस गुंडे तो प्रेमा के चरण छू कर घर गए। वे इतने प्रसन्न थे, मानो तीर्थ करके लौटे हों। प्रेमा ने हँस कर कहा - 'जब इन उजड्डों को मना लिया, तो उन्हें भी मना लूँगी।' प्रेमा ने कठोर हो कर कहा- 'अपने ही हाथों तो।'
seerhiyaa सीढिय़ाँ.. seerhiyaa सीढिय़ाँ.. गौरीशरण डोरीवाल की सुकन्या शारदा को जब 'साहित्यश्री' सम्मान मिला तो यह पूरे परिवार के लिए उत्सव और उसको सेलिब्रेट करने का दिन था। निपट व्यावसायिक पृष्ठभूमि वाले डोरीवाल परिवार की एक युवती को इतना बड़ा सम्मान मिला ! इस खुशी में कुछ उत्साही परिजनों द्वारा स्थानीय अख़बारों में बधाई के विज्ञापन भी प्रकाशित करवाए गये। तीन सितारा होटल 'डायमंड ट्यूलिप 'में ग्रेंडगाला पार्टी दी गई। डीज़े भी चला। सब झूमते रहे। साहित्यिक सम्मान का इतना रंगीन-धमाकेदार जश्न सबके नसीब में भी नहीं होता। पार्टी में स्थानीय लेखक शामिल नहीं हो सके थे। उनको इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि ऐसी कोई पार्टी-शार्टी रखी गई है। यह निहायत पारिवारिक आयोजन था। लेकिन पार्टी में शहर के कुछ नवधनाढ्य, कुछ प्रशासनिक अधिकारी और कुछ मंत्री-विधायक भी शरीक हुए थे। वैसे शारदा तो चाहती थी, कि कुछ लेखक भी आ जाएँ मगर पिताजी ने इंकार कर दिया था। उनका साफ कहना था, "गोष्ठियों में लेखकों से मिल लो, कोई बात नहीं लेकिन हमारी पार्टी अपर क्लास सोसाइटी की पार्टी है। इसमें लेखक वगैरह फिट नहीं होते। डोंट वरी, उन्हें कभी स्वल्पाहार में बुला लेंगे।" शारदा ,चालीस साल की उम्र की खूबसूरत गोरी-चिट्टी युवती ! बिल्लौरी आँखें। भरा हुआ शरीर। तीखे नैन-नक्श। तन पर नयानाभिराम कीमती परिधान। खाते-पीते घर की लड़कियाँ अलग ही से पहचान में आ जाती हैं। सुंदर वर की तलाश में कब उम्र निकल गई पता ही नहीं चला। शारदा को इसकी परवाह भी नहीं, कि शादी नहीं हो सकी। उसने अपने लेखन और व्यवसाय से ऐसा रिश्ता गाँठ लिया है, कि शादी का कभी कोई टेंशन ही नहीं रहा। पिता गौरीशरण को इस बात का दुःख ज़रूर है ,लेकिन संतोष है कि शारदा ने हालात से समझौता कर लिया और उनकी फैक्ट्री को अच्छे-से संभाल लिया है। शारदा को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता कि वह चालीस की है। बमुश्किल तीस के आसपास की ही लगती है। सुंदर तो खैर वह बचपन से ही थी। ....."किसी-किसी में जन्मजात प्रतिभा विकसित हो जाती है।" ....."महादेवी भी बचपन से कविताएँ करने लगी थीं।" ....."पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं।" शारदा सुंदर थी। बच्ची थी। गोष्ठी में वह सबको आकर्षित कर रही थी। लगभग हर कवि ने शारदा को अपने पास बुलाया और उसे स्नेह दिया। सभी ने एक ही बात कही कि अगर इसी तरह लिखती रही तो यह एक अच्छी कवयित्री बन कर उभरेगी। रामानंद ने वातावरण बनाया-"मुझे तो लगता है, कि यह भविष्य की महादेवी वर्मा है। क्यों शारदा, तुमने महादेवी का नाम सुना है?" शारदा मौन रही। गोष्ठी खत्म होने के बाद रामानंद बोले- "तुम मेरे पास आना। महादेवी और सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएँ दूँगा। उन्हें ध्यान से पढऩा।" गोष्ठी में गोरीशरण भी बैठे थे। रामानंद ने कहा- "भाई साहब, आप इस लड़की को लेकर मेरे पास आइएगा। देखिए, मैं इसे कहाँ से कहाँ पहुँचा दूँगा।" "अरे भैया, धंधे-पानी वाला आदमी हूँ। मैं तो आने से
रहाः हाँ, शारदा ज़रूर आती रहेगी आपके पास। इसे तराश दीजिए।" "यही तो काम है हम मास्टरों का।" "अब आप जैसे ज्ञानियों का साथ मिला है तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा।" गोष्ठी के चाय-नाश्ते का पूरा इंतजाम गौरीशरण ने ही किया था। उन्होंने इस बात का भी ऐलान किया कि 'जब कभी कवि गोष्ठी हो, चाय-पान का जिम्मा मेरी तरफ से। लेकिन शर्त यही है, कि मेरी बेटी शारदा की कविता भी सुनी जाएगी'। इस शर्त के पीछे परिहास था , लेकिन व्यावहारिकता भी थी। 'माँ वीणापाणि साहित्य समिति' के पास तो इतना भी पैसा नहीं रहता कि गोष्ठियों में किसी को कवि चाय भी पिला सकें। गौरीशरण जी की बात सुन कर सबसे ज्य़ादा प्रसन्न हुए अध्यक्ष सुरेशकांत 'भ्रमर'। बोले, "चलो, कोई स्थाई दान-दाता तो मिला।" शारदा के जीवन की पहली गोष्ठी हिट रही। फिर तो सिलसिला-सा चल पड़ा।" हर गोष्ठी में रामानंद शर्मा के साथ ही शारदा आती जाती थी। कई बार जब रामानंद जी को शारदा की कोई कविता कमजोर लगती तो उसे वे सुधार दिया करते थे। अकसर सुधारने से भी बात नहीं बनती थी, तो वे पूरी उदारता के साथ अपनी ओर से एक कविता लिख कर दे दिया करते थे। मगर वे शारदा को समझा भी देते थे, कि सबसे यही कहना कि 'कविता तुमने ही लिखी है। वरना लोग गोष्ठियों में नहीं बुलाएँगे। ध्यान रखना'। रामानंद दयावती, अग्रोहा महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते थे। किताबों की समीक्षाओं के साथ-साथ कभी-कभार कविताएँ भी लिखा करते थे। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ कभी-कभार राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में भी इक्का-दुक्का कविताएँ, और ज्यादातर पाठकीय प्रतिक्रियाओं के लिए उनको लोग पहचानते थे। शहर की लगभग हर साहित्यिक कार्यक्रमों के स्थाई संचालक भी रामानंद जी ही हुआ करते थे। कभी-कभी, कहीं-कहीं अतिथि के रूप में भी बुलाए
जाते थे। कोर्स में पढ़ाए जाने वाले लेखकों का साहित्य उन्हें कंठस्थ हो चुका था। 'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियों' संबंधित पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ाई जाने वाली सामग्री भी वे पचा चुके थे। जब किसी साहित्यिक सभा या गोष्ठी में वे बोलते तो हर कोई उनकी विद्वता का कायल हो जाता था। शारदा ने रामानंद जैसा विद्वान जीवन में पहले कभी देखा ही नहीं था। आम लोगों को भी साहित्य की कुछ किताबी बातें रामानंद जी के सौजन्य से ही पता चलती थीं। गौरीशरण भी उन्हें सबसे बड़ा विद्वान मानते थे। गौरीशरण को यकीन था कि अगर रामानंद को आर्थिक दृष्टि से सहयोग करते रहे तो वह शारदा को काफी आगे बढ़ा सकते हैं। एक दिन जब गौरीशरण ने कुछ पैसे देने चाहे तो रामानंद ने साफ-साफ कहा, "मुझे पैसे नहीं चाहिए। मेरा लक्ष्य है शारदा को अच्छी साहित्यकार बनाना।" गौरीशरण की अपनी री-रोलिंग मिलें थीं। बेटे राघवशरण और श्यामशरण बिल्डर थे । घर पर केवल व्यवसाय की ही चर्चाएँ होती थीं। लेकिन जब से शारदा कविताएँ लिखने लगी, कभी-कभार कविताओं की चर्चा भी होने लगी। एक दिन स्कूल से लौटने के बाद शारदा ने एक कविता लिखी। कविता कैसी बनी, यह जानने के लिए वह रामानंद शर्मा के घर पहुँच गई। रामानंद ड्राइंग रूम में बैठे कर सुबह का अखबार पढ़ रहे थे। शारदा को देखा तो उसे अपने पास बुला लिया। "कहो, कैसे आना हुआ। लगता है, फिर कुछ कविताएँ बनी हैं।" "जी सर, सुनिए कैसी है।" शारदा कविताएँ सुनाती रही। रामानंद हर कविता पर 'वाह'...'अद्भुत'...'सुंदर'...'क्या बात है'...आदि-आदि कह कर दाद देते रहे। "तुम कमाल का लिख रही हो।" इतना कह कर रामानंद ने शारदा को चूम लिया। फिर बोले, "तुमको बुरा तो नहीं लगा?" "बिल्कुल नहीं सर। आप तो चाचा के समान हैं ।" "चाचा के समान हूँ मगर चाचा नहीं हूँ, क्यों?" रामानंद हँस पड़े और बोले, "हम दोनों दोस्त हैं। साहित्यिक दोस्त। पक्के दोस्त। समझी न?" शारदा भी हँस पड़ी। इसके बाद रामानंद ने शारदा को फिर चूमा। शारदा शरमा गई। कुछ नहीं बोली। थोड़ी देर तक रामानंद शारदा की कविताओं को गौर से देखते रहे फिर उसका हाथ पकड़ कर बोलने लगे- "मेरे पास अनेक कवियों की कविताएँ हैं। अगली बार आना। निकाल कर रखूँगा। उन्हें पढऩा। तुम्हें प्रेरणा मिलेगी।" शारदा रामानंदजी की पकड़ से मुक्त होना चाहती थी, लेकिन रामानंद हाथ छोड़ ही नहीं रहे थे। रामानंद शारदा के हाथ को सहलाते, कभी उसकी पीठ पर हाथ फिराते। कभी उसकी जाँघ पर हाथ रखते हुए साहित्य-चर्चा करते रहे। जब वे समझ गए, कि लड़की कुछ-कुछ घबरा रही है, तो अपनी गतिविधियों पर पूर्णविराम लगाते हुए बोले, "ठीक है, आज की चर्चा यही खत्म। तुम अपनी कविताएँ मेरे पास छोड़ दो। इनको मैं सुधार कर किसी पत्रिका में भेजूँगा। उसमें छपने से तुम्हारा नाम होगा।" "अच्छा, सर, मेरी कविताएँ छप जाएँगी न? मैं कवि बन जाऊँगी न?" "जरूर बनोगी। लेकिन तुमको मेरे पास आना पड़ेगा। गुरु बिन होत न ज्ञान।" शारदा प्रसन्न हो कर लौट गई। रामानंद जी ने उन
कविताओं को ध्यान से पढ़ा और उन्हें डस्टबिन में फेंकने के बाद दो-तीन नई कविताएँ लिखीं और 'कोकिल-स्वर' में भेज दी। पत्रिका का संपादक हँसकुमार रामानंद का पुराना दोस्त था। कविता छप गई। पूरी साहित्यिक बिरादरी में शारदा की चर्चा होने लगी। इतनी कम उम्र में इतनी परिपक्व कविता ..? सब हैरत में थे। लेकिन सभी इस बात से सहमत थे, कि प्रतिभा उम्र, घर, ऊँच-नीच या गरीब-अमीर नहीं देख्रती। दिन बीतते गए। शारदा कॉलेज में पहुँच गई। अब वह अपने मन से कुछ-कुछ शब्द गढऩे लगी। रामानंद जी के पास रखी साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़-पढ़कर उसे कुछ-कुछ ट्रेंड भी समझ में आने लगा था। लेकिन उसकी कविताओं में रामानंद जी द्वारा सुधार का सिलसिला जारी रहा। उन्हीं के सौजन्य से पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ भी छपती रहीं। शारदा की कार अकसर रामानंद शर्मा के घर के बाहर खड़ी दिखती तो लोग समझ जाते कि सेठ गौरीशरण की पुत्री रामानंद से साहित्य के नए पाठ सीख रही है। कुछ मुसकराते, कुछ अपनी कल्पना-शक्ति का सहारा ले कर अनुमान लगाते। लेकिन इससे शारदा को कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि उसके मन में कोई ऐसी-वैसी बात भी पैदा नहीं हुई थी। धीरे-धीरे शारदा का नाम युवा कवयित्रियों की सूची में शामिल हो गया। कभी-कभार उसकी चर्चा भी होने लगी। रामानंद जी से शारदा उसका मिलना-जुलना जारी रहा। शारदा की कविताओं में रामानंद इतना सुधार कर देते थे, कि अंततः कविता रामानंद जी की हो जाती थी, लेकिन रामानंद उदार हो कर कहते थे, "नहीं, ये कविताएँ तुम्हारी हैं। भूल कर भी किसी से मत कहना कि मैं सुधारता हूँ। लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगते हैं। ये आपस की बात है, ध्यान रखना। समझ रही हो न, मैं क्या कह रहा हूं?" "जी, समझ रही हूँ।" शारदा ने शरमा कर मुसकराते हुए ज़वाब दिया। ए
क बार दिल्ली में राष्ट्रीय सेमिनार हुआ। रामानंद के कहने पर ही शारदा को भी कविता पाठ के लिए बुलाया गया था। लेकिन एक युवती अकेले कैसे जाए? घर के लोगों को व्यवसाय से फुरसत मिले तब तो । आखिर गौरीशरण ने रामानंद से आग्रह किया। वे बड़ी मुश्किल से राजी हुए। गौरीशरण ने धन्य होते हुए बोले- "आपका यह अहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा।" शारदा सत्रह साल की और रामानंद पैंतालीस साल के। पिता की उम्र के। गौरीशरण बोले- "यह आपकी बिटिया है। इसे आपके संरक्षण में भेज रहा हूँ।" "चिंता न करें, मैं हूँ। ध्यान रखूँगा इसका। अरे, आपकी बेटी है तो ये मेरी भी कुछ है। अब आपने इसे मुझे सौंप दिया है तो इसका ध्यान रखना मेरा फर्ज है। देखिएगा, दिल्ली में ऐसा रंग जमाएगी, कि हर तरफ शारदा-शारदा की ही गूँज सुनाई पड़ेगी।" रामानंद शर्मा शादीशुदा थे। उनकी एक लड़की थी सुकन्या। वह भी कविताएँ लिखती थी, लेकिन रामानंद उसे फटकारते हुए समझाते थे, "कविता-फविता छोड़ो। मन लगा कर पढ़ाई करो। तभी कहीं नौकरी मिलेगी ! "पति से त्रस्त हो कर पत्नी अकसर मायके चली जाती थी। दरअसल पत्नी ज्ञानवती, पति की दिलफेंक शैली से दुःखी रहती थी। अकसर इस बात को लेकर घर में झगड़ा होता रहता था। ज्ञानवती एक ही बात कहती थी, "तुम पराई लड़कियों पर बहुत ध्यान देते हो। अपनी लड़की पर तो ध्यान हीं नही देते, कि क्या पढ़-लिख रही है।" कई बार तो मारपीट की भी नौबत आ जाती थी। खैर...गौरीशरण को भरोसा दिला कर रामानंद शारदा को दिल्ली ले गए। दोनों एक ही होटल में रुके। वहाँ शारदा का परिचय बेटी के रूप में ही कराया। शारदा कुछ नहीं बोली। मंद-मंद मुसकारती रहीं। साथ रहते-रहते शारदा के मन में रामानंद के प्रति आकर्षण बढऩे लगा था। उनके कारण वह एक कवयित्री के रूप में पहचानी जाने लगी थी। कितने लोगों के पत्र आते हैं। फोन आते हैं। आज इनके कारण ही वह दिल्ली तक पहुँच गई। अगर रामानंद मुझे प्यार करते हैं तो मैं भी इनको चाहती हूँ। बात खत्म। बढ़ती बेल को एक सहारा तो चाहिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। यह बात तो पिता गौरीशरण शुरू में समझा ही चुके थे। होटल में रात बिताने के बाद दूसरे दिन का सूर्योदय 'नए रिश्तों' की किरणें बिखेरता हुआ उदित हुआ। शारदा प्रफुल्लित थी। शरमा भी रही थी। रामानंद शर्मा पहले से ज्यादा युवा नज़र आ रहे थे। सुबह-सुबह शारदा ने एक कविता लिखी। उसका शीर्षक था-'पहला प्यार'। कविता पढ़कर रामानंद शर्मा मुसकरा पड़े और बोले-"अब तुम्हारी कविताओं में भोगे हुए यथार्थ के बिंब भी आएंगे। अच्छा है। "फिर उन्होंने कुछ टिप्स दिये। जैसे पहले कौन-सी कविता पढऩी है और दूसरी कौन-सी। अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में क्या बोलना है। आदि-आदि। सब कुछ रामानंद शर्मा लिख कर लाए थे। शारदा को उसे कंठस्थ करना था। वह देख कर भी बोल सकती थी। "सर, आप के कारण मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई।" शारदा प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिन्ह लेकर लौटी। अख़बारों की कतरनें भी साथ थीं। "अपनी गरिमा बना कर रखो। जिस तरह तु
म बेटी की उम्र की लड़की के साथ चिपक रहे थे, उसे देख कर ही समझ में आ गया था, कि दाल में कुछ काला है। मुझे तो लगता है, कि पूरी दाल ही काली है। बहुत दिन बाद लौटी थी। सोचा था, कि तुम सुधर गए होगे, लेकिन यह मेरी भूल थी। तुम जैसे लंपट तो कभी सुधर ही नहीं सकते। मन करता है कि हमेशा-हमेशा के लिए लौट जाऊँ। मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकती। सहने की भी एक सीमा होती है।" "तुम तो बस, बेमतलब शक करती रहती हो। अरे, वह मेरी बेटी की उम्र की है।" "यही सुविधा लेकर दोनों तरफ से गलत संबंध फलते-फूलते रहते हैं', ज्ञानवती बोली, 'मुझे मत सिखाओ रिश्तों का गणित। मैंने तुम जैसे अनेक लेखक देखें हैं। क्या इधर और क्या दिल्ली ! छिः ! व्यभिचार के लिए साहित्य की आड़ ली जाती है? और ये लड़कियाँ... आगे बढऩे के लिए तुम्हारे जैसे लोगों का सहारा लेती हैं। आज तुम्हारे साथ लड़िहा रही है, कल किसी और के साथ नजर आएगी। साहित्य की दुनिया में एक-दो छिनालें बड़ी चर्चा में हैं। इनके कारण दूसरी अच्छी लेखिकाएँ, शक की नज़रों से देखी जाती हैं। लेकिन ध्यान रखना, मैं ठाकुर की बेटी हूँ। मुझे धोखा दिया तो चौराहे पर पीटूँगी ,चप्पल से। जैसे वो कौन-सा सिंह था न, उसे उसकी पत्नी ने युनिवर्सिटी के गेट पर सबके सामने पीटा था। मैं भी लिहाज न करूँगी, हाँ।" रामानंद जी की बोलती बंद थी। क्या बोलते । चुपचाप सोने चले गए। दिन बीतते गए। शारदा और ज्यादा 'बड़ी'...और ज्यादा 'समझदार.'..और ज्यादा 'व्यावहारिक' होती गई। एक दिन शारदा की मुलाकात डॉ. विष्णुस्वरूप से हुई। हिंदी-दिवस पर आयोजित काव्य गोष्ठी की वे अध्यक्षता कर रहे थे। विष्णुस्वरूप ,विवेकानंद महाविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक थे। शारदा को देख कर हौले से मुसकराए। शारदा ने इसके पहले एक-दो कार्यक्रमों म
ें देखा जरूर था, लेकिन रामानंद शर्मा साथ में थे इसलिए कोई बातचीत नहीं हो सकी थी। विष्णुस्वरूप ने अपनी ओर से आगे बढ़ कर बातचीत शुरू की-"तुम..शारदा डोरीवाल हो न? मैंने तुम्हारी कविताएं पढ़ी हैं। अच्छा लिखती हो। कुछ कविताओं पर तो मैंने लम्बा नोट्स भी लिखा है। देखो, साथ ले कर आया हूँ।" विष्णुस्वरूप ने जेब से एक कागज निकाल कर दिखाया जिस पर शारदा की कविताओं के बारे में कुछ लिखा था। शारदा ने उसे इत्मीनान से पढ़ा ,फिर विष्णुस्वरूप के पैर छू कर मुसकराते हुए बोली- "आप जैसे पारखी लोगों के कारण ही मैं यहाँ तक पहुँची हूँ, सर।" "लेकिन तुमको अभी और आगे जाना है। मेरी मानो तो पी-एच. डी कर लो। एम.ए.तो तुमने कर ही लिया है शायद।" "जी मेरे नंबर भी अच्छे हैं। प्रथम श्रेणी के। रामानंद शर्मा जी की कृपा थी। वैसे सर भी बोल रहे थे कि पी-एच.डी कर लो। अब आप मिले हैं तो लगता है मेरी यह तमन्ना भी पूरी हो जाएगी।" "बिल्कुल। मैं हूँ न। करवा दूँगा। तुम रजिस्ट्रेशन करवा लो। अरे, वो भी मैं सब करा दूँगा। तुम कल मुझसे मिलो।" "लेकिन सर, पी-एच. डी के लिए तो बहुत लिखना पड़ता है। मैं कुछ-कुछ आलसी किस्म की लड़की हूँ। कैसे होगा काम?" "तुम उसकी चिंता मत करो। पंजीयन करवा लो। लिखने का काम मुझ पर छोड़ दो। जितना हो सके, तुम लिखना वरना मैं खुद लिख दूँगा या किसी से लिखवा लूँगा। दरअसल मैं तुम जैसी प्रतिभाओं को देख कर भावुक हो जाता हूँ। लगता है,तुम जैसी लड़कियों को आगे बढऩा चाहिए। हम स्त्री-विमर्श की बातें भर करते हैं। मैं तुम्हारे लिए समय निकाल सकता हूँ। इसके पहले भी मेरे अंडर में अनेक लोग पी-एच. डी कर चुके हैं।" "सर, आपने तो मेरी मन की मुराद पूरी कर दी। कल घर आइए। पिताजी से चर्चा करके उन्हें समझा दीजिए। उनको विश्वास में लेना जरूरी है। वे कहेंगे ,तभी मैं आगे बढूँगी।" "बड़ी सुंदर बात है। अपने पिता से तुम इतना प्यार करती हो। ठीक है, मैं कल आता हूँ। लेकिन शर्त यही है कि तुमको चाय पिलानी होगी। वो भी अपने हाथों की।" "आप आएँ तो सही।" विष्णुस्वरूप ने शारदा के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- "नई कविता में स्त्री-विमर्शः आधुनिकता के विशेष संदर्भ में ' इस विषय पर मैं एक सिनौप्सिस तैयार कर लेता हूँ। दो चार-दिन में रजिस्ट्रेशन की औपचारिकता भी पूरी कर लेंगे। कोई दिक्कत नहीं आएगी। सब अपने लोग हैं। तो ठीक है, कल आता हूँ।" शारदा घर पहुँची और पिताजी को विष्णुस्वरूप से हुई बातचीत का जिक्र कर दिया। गौरीशरण तो प्रसन्न हो गए, वाह, मेरी बेटी अब डॉक्टर भी बन जाएगी? डॉ. शारदा डेरीवाल। अच्छी खबर सुनाई तुमने। कल विष्णुस्वरूप को हम कुछ पैसे एडवांस में दे देंगे। पीएच- डी करना आसान नहीं। और तुम से ये सब हो नहीं पाएगा। बेचारे प्रोफेसर साहब किसी न किसी से लिखवाएँगे ही। उसके लिए पैसे खर्च करने पड़ेंगे । मैंने सुना है, कुछ लोगों ने इसे धंधा बना लिया है।" "वहीं मैं सोच रही थी', शारदा बोली, 'लेकिन पता नहीं, कितना खर्चा होगा? आप तो सीधे तीस हजार का
चेक काट देना।" शारदा अपने कमरे में चली गई। अचानक उसे रामानंद शर्मा की याद आई। उसने नंबर मिलाया। वह लैंडलाइन का युग था। फोन रामानंद की पत्नी ज्ञानवती ने उठाया। "ओह तो तुम...? रईसजादी...?' वहाँ से ज्ञानवती का तल्ख स्वर गूँजा, 'तुम्हारे हुस्न के पीछे ये बुढ़ऊ बर्बाद हो गए हैं। तुम जैसी लड़कियों के कारण दूसरी औरतें बदनाम होती हैं। कितनी बार बिस्तर गर्म कर चुकी हो?" "क...क....क्या बक रही हैं आप? मैं....मैं तो उनकी बेटी के समान हूँ।" "अच्छा, बेटी के समान हो...?' ज्ञानवती के स्वर में और कठोरता आ गई थी, 'मैं बताऊँ बाप-बेटी की हरकतें? दिल्ली साथ-साथ जाना, एक कमरे में रहना, हाथ में हाथ धर कर घूमना। सगी बेटी भी अपने बाप से इतना नहीं चिपकती ,जितना तुम चिपकती हो। उस दिन पार्टी में भी तुम यही कर रही थी। खबरदार जो दुबारा फोन किया तो। घर आ कर चप्पलों से आरती उतारूँगी तेरी। समझ गई ना?" इतना बोल कर ज्ञानवती ने रिसीवर पटक दिया। शारदा घबरा गई। उसे डर तो था, कि जिस तेजी के साथ रामानंद शर्मा के निकट आई और फिर साथ-साथ घूमना-फिरना हो रहा है, उसे देख कर कोई भी बातें बना सकता है। कहानियाँ गढ़ सकता है। शारदा सोचने लगी, समाज अभी बहुत अधिक प्रोग्रेसिव नहीं हो सका है। जैसे पश्चिम हुआ है। भारतीय समाज ,अभी भी स्त्री-पुरुष के साथ संबंधों को सेक्स के साथ ही जोड़ कर क्यों देखता है। क्या स्त्री-पुरुष अच्छे दोस्त नहीं हो सकते? इतना सोचने के बाद शारदा मुसकरा पड़ी। हकीकत तो यही थी, कि उसने न जाने कितनी बार रामानंद शर्मा के साथ प्यार-मोहब्बत वाला फिल्मी खेल खेला था। दिल्ली में तो अति हो गई थी। लेकिन सच पूछा जाए तो यह सब देखा किसने? बस, लोग अनुमान लगाते रहते हैं। जो भी हो, अब तो आगे ही बढऩा है। अगर रामानंद शर्मा स
े इतनी अंतरंग न होती तो क्या वे मेरे लिए इतना कुछ करते, जितना कर रहे हैं। ये तो 'गिव्ह एंड टेक' का दौर है। लेकिन ज्ञानवती की बातें सुन कर शारदा ने मन बना लिया कि अब रामानंद जी से दूरी बनाने का समय आ गया है। मामले ने तूल पकड़ लिया तो कभी भी कोई सीन क्रिएट हो जाएगा। बेहतर है, कि किनारा ही कर लिया जाए। अब विष्णुस्वरूप हैं, इनके सहारे डॉक्टर तो बन ही जाऊँगी। शारदा अब धीरे-धीरे आत्मनिर्भर भी होती जा रही थी। 'कोकिला स्वर', 'साहित्य दर्पण', 'कवितायुग', 'नवार्थ', और 'साहित्ययुग' जैसी कुछ चर्चित पत्रिकाओं में शारदा की कविताएँ और कहानियाँ छपने लगी थी। समय-समय पर इन पत्रिकाओं को वह अपनी कंपनी 'गौरी एंड संस' का विज्ञापन भी भिजवाया करती थी। लोग उसे काव्य-कहानी-पाठ के लिए इधर-उधर आमंत्रित भी करने लगे थे। शारदा घर पर बैठे-बैठे अखबार पलट रही थी, कि तभी फोन बजा। "हैलो, कौन? मैं बोल रहा हूँ...रामानंद शर्मा....बहुत दिन से तुम घर नहीं आई, क्या बात है?" "बस, ऐसे ही। अरे सर, एक खुशी की बात है। मैं पी-एच. डी कर रही हूँ।" वाह, खुशी की बात है। तुम आना मेरे पास। विषय तय कर लेंगे। अगले साल मैं भी गाइड बन जाऊँगा।" मुझे गाइड मिल गया है।' शारदा बोली," विष्णुस्वरूपजी । उन्होंने कहा है कि वे पूरा मार्गदर्शन करेंगे।" "विष्णुस्वरूप...?" रामानंदजी का मुँह कड़वा हो गया, 'अरे, उसे कुछ नहीं आता। फेंकने में माहिर है। वह केवल वसूली-मास्टर है। बेगारी कराता है। शोषण करता है। तुम एक साल रुक जाओ। सारा काम मैं कर दूँगा।" "नहीं सर, मैं अब नहीं रुक सकती। मुझे जल्द से जल्द डॉक्टर बनाना है।" "मतलब तुम मेरा कहना नहीं मानोगी।" "अब आप एक साल रोकेंगे ,तो कैसे रुकूँगी।" "ये मेरा आदेश है कि तुम विष्णस्वरूप के अंडर में पी-एच. डी नहीं करोगी ,तो नहीं करोगी।" "सॉरी सर, यह संभव नहीं।" इतना बोल कर शारदा ने फोन काट दिया। फोन क्या कटा, रामानंद भी कट गए। वे समझ गए कि शारदा को अब मेरी ज़रूरत नहीं ,क्योंकि अब उसे दूसरी सीढ़ी जो मिल गई थी। शारदा डोरीवाल की कार अब विष्णस्वरूप के घर के बाहर खड़ी नज़र आने लगी। शोधकार्य हेतु शारदा का पंजीयन हो गया था। विष्णुस्वरूप पूरे मनोयोग से रात-दिन एक करके शोधकार्य में भिड़ गए थे। बीच-बीच में शारदा भी कुछ टिप्स दे दिया करती थी। इस बीच विष्णुस्वरूप और शारदा अंतरंग पलों को भी जीते रहे। विष्णुस्वरूप भागते रहे और शारदा जीती रही। दो साल कब निकल गए पता ही न चला। शारदा को पी-एच. डी की उपाधि भी प्रदान कर दी गई। शारदा को विष्णुस्वरूप के निकट आना शुरू -शुरू में तो अजीब-सा लगा। ये तो रामानंद शर्मा से धोखा है। लेकिन रामानंद भी क्या कर रहे थे। जीवन भर अपनी पत्नी को धोखा देते रहे। धोखे की बुनियाद पर ही तो अब संबंधों के महले खड़े हैं । कौन किसको कितनी चालाकी से धोखा देता है, यह उसकी प्रतिभा पर निर्भर है। मौका मिले तो धोखा दे दो। ज्यादा भावुक होने की ज़रूरत नहीं। शारदा के नये चेहरे ने ,पुराने चेहरे को ब
िना किसी अतिरिक्त हिचक के अपदस्थ कर दिया था। शारदा को डॉक्टरेट मिलने की खुशी में डोरीवाल परिवार की ओर से इस बार ,सितारा होटल कैक्टस में डिनर दिया गया । डांस-डीजे, कॉकटेल.. यानी फुल एंन्जाय ! शहर का कोई साहित्यकार पार्टी में नज़र र नहीं आया। बस एक नया चेहरा था और वो था विष्णुस्वरूप का। बाद में शारदा का शोधकार्य पुस्तक रूप में भी छप कर आ गया। प्रज्ञान प्रकाशन ने पचास हजार रुपए लेकर पुस्तक छाप दी। शानदार विमोचन भी हुआ। विमोचन में जाने-माने आलोचक महेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी, 'कोकिलस्वर' के संपादक कामेश्वरसिंह विशेष तौर पर बुलाए गए थे। स्थानीय अखबार के संपादक भी विशेष अतिथि थे। खबरे छपवाने के लिए कई बार ऐसे रचनात्मक हथकंडे जरूरी होते हैं। यह ज्ञान शारदा को विष्णुस्वरूप ने ही दिया था। कार्यक्रम का संचालन विष्णुस्वरूप ने किया। अपनी लच्छेदार भाषा के लिए पहचाने जाने वाले आलोचक महेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी ने शारदा की मेहनत की जमकर तारीफ की। उन्होंने कहा-"इधर के स्त्री-विमर्शों में ,बिल्कुल ताजा और धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करके शारदा ने अपनी प्रतिभा का एक तरह से विस्फोटक परिचय दिया है। दैहिक वर्जनाओं से ऊपर उठकर स्त्री अब अपनी अस्मिता के लिए ,अपने आकाश के लिए संघर्ष कर रही है। स्त्री को नैतिकता का पाठ पढ़ा कर उसे मध्ययुगीन मानसिकता में जीने पर मजबूर करने वाले समाज में ,अब इधर का स्त्री-लेखन एक तरह से प्रतिरोधी आवाज के रूप में उभरा है। शारदा जैसी लेखिकाओं ने स्त्री-छवि को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है। अब जरूरी हो गया है कि स्त्री बगावत करे। परम्परा से, गर्हित-से लगने वाले मूल्यों से।' चतुर्वेदी जी का भाषण गौरीशरण जी के कुछ खास समझ में नहीं आया मगर वे इतना तो समझ गये कि उनकी बिटिया की तारीफ हो रही
है। जहाँ सब लोग तालियाँ बजाते थे, वहाँ गौरीशरण भी बजा देते थे। उनके लिए यह दिन व्यक्तिगत उपलब्धि से कम नहीं था। उनके परिवार के एक सदस्य ने कितना नाम रौशन किया है ! शारदा ने भी अपने लिखित विचार व्यक्त किए। पिता गौरीशरण और विष्णुस्वरूप की उसने जम कर तारीफ की। कार्यक्रम में रामानंद शर्मा भी पीछे की पंक्ति में बैठे हुए थे। कार्यक्रम के बाद शारदा उनसे मिली तो सकुचाते हुए कहा, "सॉरी सर, मैं आपका नाम लेना भूल गई है। लेकिन मैं जानती हूँ, कि मुझे आगे बढ़ाने में आपने कितनी मेहनत की है।" रामानंद ने बुझी मुसकान के साथ कहा- 'अरे, कोई बात नहीं। हो जाता है कभी-कभी।" तभी शारदा की नजर रामानंद के ठीक पीछे खड़ी एक युवती पर पड़ी। रामानंद ने परिचय कराते हुए कहा, "इससे मिलो, ये है विनीता। तुम्हारी ही तरह प्रतिभाशाली है। कविताएँ लिखती है।" शारदा ने विनीता का मुसकराते हुए अभिवादन किया और आगे बढ़ गई। वक्ता हवाईजहाज से आए थे। उन्हें स्टार होटल में ठहराया गया था। लौटते वक्त सबको आकर्षक गिफ्ट भी दिए गए। कीमती शॉल एवं आकर्षक स्मृति चिन्ह तो पहले ही प्रदान किए जा चुके थे । बाद में होटल पहुँच कर गौरीशरण ने वक्ताओं को एक-एक लिफाफा सौंपते हुए कहा-मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें। हर लिफाफे में दस-दस हजार रुपए रखे गए थे। शारदा और विष्णुस्वरूप की जोड़ी मशहूर हो चुकी थी। दोनों ने अनेक सेमिनार और साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लिया। कभी-कभार शारदा अपनी विधवा सहेली सुनीता को भी साथ ले जाया करती थी। इससे घर वाले निश्चिंत हो जाते थे कि लड़की अकेली नहीं है। सुनीता में साहित्यिक प्रतिभा भी खूब थी। सुनीता किसी निजी स्कूल में टीचर थी। शारदा सुनीता को कुछ विचार-बिंदु दे दिया करती थी , और सुनीता इन्हें कभी कहानी तो कभी कविता में ढाल दिया करती थीं। रचना शारदा की हो जाती थी। शारदा सुनीता को हर महीने पाँच हजार रुपए की मदद करती थी। शारदा के पास पैसे की कोई कमी थी नहीं। अकेली जान। काम-काज करने वाले नौकर-चाकर। मस्त हो कर साहित्य की दुनिया में खोई हुई थी। फिर सुनीता जैसी सहेली मिल गई। सुनीता की ऐसी कोई चाहत भी नहीं थी, कि वह कोई बड़ी लेखिका बने। बस, उसे इसी बात का संतोष था कि शारदा जैसी सहेली के वह काम आ रही है। उसका समय भी कट रहा है। सुनीता की रचनाओं में बाकी सुधार विष्णुस्वरूप कर दिया करते थे। समय बीतता गया। शारदा की मेहनत रंग लाती गई। एक दिन शारदा को स्थानीय अखबार में एक शासकीय विज्ञापन नजर आया। लेखक की पहली कृति के लिए पचास हजार का सम्मान दिया जा रहा था। शारदा ने अपने पिता को विज्ञापन दिखाया। गौरीशरण बोले- "अरे, ये पुरस्कार तो सरकारी है। मंत्रीजी अपने खास है। बात करके देखता हूँ। मिल जाए तो ठीक। प्रयास करके देखता हूँ। मनुष्य को ईमानदारी से कोशिश करनी चाहिए। बाकी हरि इच्छा। आज ही मिलता हूँ मंत्रीसे। कितनी बार तो उसे चंदा दिया है।" गौरीशरण मंत्री से मिले। शारदा भी साथ गई। मंत्रीजी शारदा की देहभाषा पढ़ते रहे। गह
राई और गोलाइयों का अनुमान लगाते रहे। आखिर वही हुआ। दो महीने बाद सम्मान डॉ. शारदा डोरीवाल की झोली में था। शारदा उपलब्धियों की सीढिय़ाँ चढ़ती जा रही थी। अब वह मोबाइल-युग में प्रवेश कर चुकी थी। हाइटेक हो चुकी थी। देश के कोने-कोने में उसके चाहने वाले थे। कभी किसी पत्रिका के संपादक का मोबाइल आता तो कभी किसी साहित्यिक संस्था का बुलावा। उसकी साहित्यिक यात्राएँ चलती रहती। अब तो विष्णुस्वरूप की भी कोई खास जरूरत नहीं थी। वह अपनी सहेली सुनीता के साथ इधर-उधर चली जाती। फिर परदेस में कोई न कोई ऐसा अनुकूल आत्मीय-सा लगने वाला मिल ही जाता था, जिसके साथ पल दो पल प्रेम के गुजारे जा सकते थे। सुनीता शारदा की भावनाओं को समझ कर उसका पूरा साथ दिया करती थी। कहाँ साथ रहना है, कहाँ शारदा को अकेले छोडऩा है, उसे समझ में आ गया था। एक दिन फिर एक मोड़ आया। शारदा के जीवन में फिर एक चेहरे ने प्रवेश किया। यह था रीतेशकुमार। रीतेश की अँगरेज़ी अच्छी थी। एक दिन किसी समारोह में रीतेश से मुलाकात हुई थी। रीतेश ने मिलते ही कहा था, आपकी कविताओं से मैं बहुत प्रभावित हूँ। इनका मैं अँगरेज़ी में अनुवाद करना चाहता हूँ। अगर आप इज़ाज़त दें तो।" "ये तो खुशी की बात है। मेरी रचनाएँ आपको इस लायक लग रही हैं तो खुशी से कीजिए। कब मिलूँ आपसे?" "जब भी मन हो आपका। मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा...आपके लिए।" रीतेश ने दिलफेंक मुसकान के साथ उत्तर दिया और शारदा का हाथ दबाते हुए कहा, "मैं कल आपका इंतजार करूँगा।" दूसरे दिन शारदा की कार रीतेश के घर के बाहर खड़ी थी। फिर तो यह रोज़ का क्रम बन गया। अनुवाद के लिए साथ-साथ बैठना भी जरूरी है ,और जब सुनीता साथ है तो घर वाले भी निश्चिंत। देखते ही देखते अनुवाद कार्य पूरा हो गया। कुछ महीने बाद शारदा की
लिखी अँगरेजी की कविताओं का संग्रह "स्वीट मेमोरीज़ एंड अदर पोयम्स' प्रकाशित हो गया। तब लोगों को पहली बार पता चला कि शारदा अँगेरजी कविताएँ भी लिखती है। रीतेश के प्रयासों से शारदा को 'फ्रंकलिन पुरस्कार' भी मिल गया। पुरस्कार लेने के लिए शारदा अपनी सहेली सुनीता के साथ पहली बार विदेश यात्रा के लिए निकल रही थी। पूरा परिवार उसे छोडऩे एयरपोर्ट पर था। सबके चेहरे पर खुशी थी। पिता गौरीशरण की आँखें बार-बार छलक रही थीं। लेकिन इधर शारदा कुछ-कुछ परेशान नज़र आ रही थी। फ्लाइट का समय हो रहा था....मगर रीतेश अब तक नहीं पहुँचा। उसका मोबाइल भी नहीं लग रहा। पता नहीं क्या बात है। तभी रीतेश का चेहरा नज़र आया तो शारदा की जान में जान आई। रीतेश भी साथ में जा रहा था। शारदा का अँगरेज़ी -भाषण रीतेश ने ही तैयार किया था। शारदा को कामचलाऊ अँगेरजी तो आती थी लेकिन इतनी नहीं कि धाराप्रवाह साहित्यिक भाषण दे सके। रीतेश को देख कर शारदा ने खुश हो कर हाथ लहराया। तभी शारदा का मोबाइल बजा। उसने देखा स्क्रीन पर विष्णुस्वरूप का नाम था। शारदा ने फौरन काट दिया और तेजी के साथ रीतेश की ओर बढ़ गई।
बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है। बेहतर बनाएँ। बीस वोट से। ठीक से चेक किया ना? बीस ही हैं। गोलू जीत गई है। तुम दूसरे नंबर पे हो। मास्टर साहब। मुन्ना हम्म? ...फिर से गिनती करवाएँ? काहे, भैया, उन लोगों का काम बढ़ा रहे हैं? नियम के हिसाब से हुई है ना वोटिंग? उसमें तो कोई फेरबदल नहीं हुआ? बस। बाहर छात्र लोग सब इंतजार कर रहा होगा। जाके एलान कर दीजिए। अरे, और सुनिए। इधर आइए। ये मिठाई भी बाँट दीजिए। खुसी का मौका है। अरे, मास्टर साहब? हम्म? गजगामिनी जी को तो फ़ोन करिए। गो... गोलू को फ़ोन लगाएँ? हाँ, फ़ोन मिलाइए। अच्छा, हम मिलाते हैं। रुकिए। लाइए, लाइए। हम लगाते हैं। हाँ, लगाइए। इसमें है? हाँ, इसमें है। हाँ, तो "जी" में ढूँढिए। अरे... अरे, कहाँ हो तुम? तुमको पता था ना कि आज नतीजा आने वाला है? बधाई हो। जीत गई हो तुम। ठीक है। ठीक है। कहाँ हैं प्रेसिडेंट साहिबा? वो... गोरखपुर गई है। अपने जीजाजी और दीदी के साथ में। अच्छा, हाँ, हाँ। पूरे परिवार के साथ में गई है। जाना था उन लोगों को। ठीक है, मास्टर साहब। प्रणाम। अरे, मुन्ना, तुमको का हो गया है? तुम हार गए हो चुनाव में। जीतने वाले को बधाई देने। गोरखपुर। गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! भैयाजी, किसकी गांड लेनी है? गांड नहीं, बे। जान लेनी है। गुड्डू और बबलू की। तो खुद शिकार बन जाएँगे। इसी लिए ये शेरनी अपने बच्चों को मकबूल, तुम मुन्ना के पीछे चले जाओ। हाँ? ध्यान भी रहेगा और बैकप भी। जी, भैयाजी। बाऊजी : किसी को जाने की जरूरत नहीं है। तो उन्हें चलाने भी दो। त्रिपाठियों की औलाद है। करके दिखाएँगे। हम जानते हैं तुम बाप हो। पर उनके दुस्मन मत बनो। थोड़ी खुशी तो मना, गोलू। चुनाव जीती है। कोई मजाक है? कॉलेज में होना चाहिए था। आप तो फिर भी परिवार हैं। हमें काहे को खींच लिया गया है? तो तुम परिवार नहीं हो? कि तुम बबलू भैया को कंपनी देने भी आई हो? देखो, डिंपी, तुम ना अब चालू मत हो जाओ। डिंपी : अरे! सुन। अपनी मदद के लिए भी लाए हैं। मदद? ये सारा उसी का नतीजा है। लेकिन ठीक हो जाएँगे उसके बाद आप। चलिए। अब ठीक है? हम्म? चलो, हो गया बस। चलिए, चलिए। गोलू : सच्ची, ये तो थोड़ा घबरा रहे हैं हम। डिंपी : अरे, क्यों? गोलू : अपना खयाल रखना बस। स्वीटी : हाँ। गोलू : हम तो हैं ही। इधर आओ तुम। गाल चूम लें तुम्हारा। स्वीटी : तुम्हारी लिपस्टिक लग रही है। बबलू : क्या बात है? बड़ा भरत मिलाप चल रहा है! वो गोलू चुनाव जीत गई है ना। हम तो जानते ही थे। गजगामिनी गुप्ता जी। सबका? हाँ, नहीं, सबका दिल जीता था। बधाई है तुमको, गोलू। थैंक्यू। बाकी हर जगह अच्छा काम करके जीते हैं। जिससे कि अच्छा काम कर सकें। जब कुछ अच्छा करेंगे। अच्छा, बोर मत कर, यार। हमें एक और आइसक्रीम ऑर्डर करनी है। अभी मंगाते हैं, भाभीजी। लेकिन मंत्री जी की पार्टी रहेगी। चुनाव जीती हैं, भाई। स्वीटी और गोली : हाँ! गोलू : जश्न का
वक्त है। डबल मंगवाइए। और हमारे लिए चॉकलेट वाली। स्वीटी : अच्छी लग रही है? जी, भाभी? हम पूछ रहे हैं, अच्छी लग रही है गोलू? देखने के लिए ही मार रहे हैं ना आप? क्या, भाभी? हम तो ऐसे ही बस देख रहे थे। आप एकदम चुप बैठे हैं। ठीक हैं? अफ़सर : साला! अफ़सर : मादरचोद! नहीं बोलेगा? जैसमीन। बेटा। दीदी। काहे इतना बेरहमी से कूट रहे हैं? अरे, अफ़ीम ही पकड़े हैं न हमसे! तो ले चलिए कोर्ट! बड़े वकील बन रहे हो? हमें ही कानून समझा रहे हो? हैं? अफ़सर : साला! मौर्या : उधर हो, उधर। उधर। उधर हो। हो गया? निकल गई बहादुरी? इधर देखो, ऊपर आओ। ऊपर आओ! हमको अफ़ीम से कोई लेनादेना नहीं है। हमको मतलब है अफ़ीम आई कहाँ से। तुम्हारा लेनदेन बाबर खान से है। है ना? बाबर खान गुड्डूबबलू के लिए काम करता है। गुड्डूबबलू किसके लिए काम करते हैं? अखण्डानन्द त्रिपाठी। वही है ना? वही है ना जंगल का सबसे टॉप जानवर यहाँ का? उसका नाम ले दो, छोड़ देंगे। कालीन भैया : हाँ, गुप्ता, बोलो। डिंपी : अच्छा लग रहा है ना? स्वीटी : हम्म। सबके लिए कमरों का इंतजाम किया है। ये दुल्हन का कमरा कौन सा है? उधर, आखिर वाला। खाना तो लग गया होगा। अच्छा। आप लोग सब तैयार हो जाइए। हम शबनम से मिलकर आते हैं। ठीक है। कुछ मंगवाऊँ? अच्छा। शबनम! आ गई तू? मुझे तो लगा तूने गोली दे दी। अरे, आते कैसे नहीं? तुमसे वादा जो किए थे। हमें तो आना ही था। कैसी लग रही हूँ? बहुत सुंदर लग रही हो। सच? सच। अच्छा, चलो दो। मैं करती हूँ, लाओ। ये उल्टा है। कैसे दिख रहे हैं हम? बात बताएँ? आप पापा बनने वाले हैं। आप सुने नहीं हम क्या बोले? आप पापा बनने वाले हैं। कपड़े निकालके रख दिए हैं। बदलके आ जाइए। आयु बड़ी लम्बी होती है। इनमें से कुछ तो सत्तर बाऊजी, हो गया? हम्म? हाँ। सबसे खतरनाक व
बेहतरीन शिकारी माना जाता है। राजा। जी? गाजर का हलवा बनाना। बना देंगे, बाऊजी। गाजर का हलवा तो भाभी को भी बहुत पसंद है। हम्म। सब खैरियत? मौलवी साहब, कैसे हैं आप? नहीं, अभी नहीं। बबलू : जी। भैयाजी, आ गया गोरखपुर वाले कबूतर का फ़ोन। उठाओ, उठाओ। हाँ, बोलो बे। हम गुड्डूबबलू को देखे हैं। शाबाश, कहाँ देखा उन दोनों को? मुन्ना बोल रहे हैं। गुंडा : प्रणाम, भैयाजी। अबे, प्रणाम को डालो गांड़ में। पता बताओ। सेलिब्रेशन हॉल, मेडिकल रोड। गोरखपुर। मुन्ना : आ रहे हैं। दूल्हादुल्हन का दीदार आप सबको मुबारक हो। एक बार ताली बजा दीजिए। हमारा स्पेशल आइटम पेशे खिदमत है। डिंपी : चलिए, सब स्टेज चलिए। चलिए, भैया। डिंपी : भैया। बबलू : गुड्डू भैया। गुड्डू भैया! चलिए। इनको क्या हुआ है? स्वीटी : चलो। उठिए, उठिए, चलिए। गुड्डू भैया। अरे, चलिए ना। चलिए, हमारी सहेली की शादी है। लाला : शबनम? शबनम : जी, अब्बू? इन्हें तुमने बुलावा दिया है? जी, अब्बू। ये हमारी सहेली, डिंपी। मिर्ज़ापुर वाली। डिंपी : अभी खाना खाने आप मिले तो थे। और वो दोनों इनके भाई। और वो भाभी। गोलू : खाना खा लें? स्वीटी : चलो। हम आते हैं। आ रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं ये? बाथरूम जा रहे हैं। आप आइए ना। आ जाएँगे। आइए। जी, भैयाजी? डर खतम हो रहा है। थोड़ा बढ़ाना पड़ेगा। हमारी बात ध्यान से सुनो। नमस्ते, मुन्ना भैया। आप ही का इंतज़ार कर रहे थे। अपने कबूतर को फ़ोन लगाओ। जी, भैयाजी। गुंडा : चलिए। पकड़ो बे। ये है मिर्ची का सालन, लखनवी बिरयानी। हम जरा मम्मी को फ़ोन करके आते हैं। दो मिनट में आ रहे हैं। आप लोग यहीं रुकिए। ठीक है। ठीक है। चुंबक की तरह चिपके हुए हो, मादरचोद। क्या चाहिए? कुछ नहीं, भैयाजी। आगे देखो, चुपचाप चलो। ठीक है? भैयाजी, फ़ोन नहीं उठा रहा, मादरचोद। मुन्ना : तुम यहाँ दरवाजे पे ही रुकना। तुम इसके साथ रुकना यहीं पर। तुम हमारे साथ आगे स्टेज पे चलो। कोई गलती नहीं चाहिए। बबलू : अब बता। भैयाजी, हम स हम सच कह रहे हैं। हम मेहमान हैं। जँच रही हो। बधाई हो! ये मेरे साथ है। कोई कहीं नहीं जाएगा! पंकज : बैठ जाओ! चाचा? ओ भोसड़ी वाले चाचा। अरे, गाना बंद करो जरा। मुन्ना : चाचा, चाचा। हो गया बस। थोड़ा रेस्ट कर लीजिए। वरना रेस्ट इन पीस हो जाएँगे। मुन्ना। लाला : ये सब क्या है? अरे, लाला! आप भी आए हैं। क्या बात है! ये हमारी बेटी का रिसेप्शन है। आपकी बे नहीं था ये आपकी बेटी का रिसेप्सन है। हमें न्योता नहीं दिए आप? कोई बात नहीं। हम यहाँ इनको नुकसान पहुँचाने नहीं आए हैं। ये बस हमारे बीमे की तरह हैं। बबलू : भाभी, भाभी। स्वीटी : गोलू, इधर। मुन्ना : हाँ, तो, भैया। हम यहाँ गुड्डू और बबलू के लिए आए हैं। दोनों चुपचाप बाहर आ जाओ। काहे खूनखच्चर करना है, भैया? देखिए, अब हमसे और संयम नहीं हो रहा है। भैया। ए! ए! भैया! ए! मुन्ना : ए, मादरचोद! नहीं! नहीं, नहीं, उसे दूल्हे का पिता : दारा! लाला : गोली मत चलाना। मुन्ना : पकड़ इसे। बैठ! दारा! लाला : संभालो अपनेआप क
ो, यूसुफ़। यूसुफ़, संभालो। संभालो अपने आप को। बबलू! बाहर आ जाओ, बंधु। क्योंकि तुम्हारे गुड्डू भैया गिर चुके हैं। बबलू! गुड्डू : बाहर मत आना। जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। स्वीटी : गुड्डू, गु बबलू : भाभी। ए! ए! बबलू! गुड्डू भैया। हो गया, बाऊजी। हम राजा और तुम्हारे बारे में जानते हैं। बाहर मुँह नहीं मारा करतीं। दरवाजा बंद करके यहाँ आओ। हमें पता है कि तुम भागोगी नहीं। भागके जाओगी भी कहाँ? तुम्हारे अंदर। तब क्या करोगे, मुन्ना? इनाम लेंगे, बे। हमको इजाज़त दिए हैं तुमको मारने की। गोलू गोलू बंदूक नहीं चलानी आती प्रेसिडेंट साहिबा को? कॉलेज कैसे चलाएँगी आप? हम्म? लाइए, दीजिए हमको। अरे, दो इधर! मुन्ना। मुन्ना... मुन्ना, जाने दे। गुड्डू : जाने दे, मुन्ना। नहीं, मुन्ना। गुड्डू : मुन्ना! नहीं, मुन्ना। अरे, तुम काहे नहीं, नहीं बोल रही हो? तुमको थोड़े ही ना हम स्वीटी : हम पेट से हैं। हम पेट से हैं। प्यार किए थे। स्वीटी : नहीं। और तुम्हारे पेट में आज किसी और का मुन्ना। मुन्ना, मुन्ना, मुन्ना, मुन्ना। गुड्डू : मुन्ना, मुन्ना। स्वीटी : गुड्डू गु बाऊजी : गलती तुमने अकेले तो नहीं ना की थी। दो लोग किए थे। इसलिए सजा भी दोनों को ही मिलेगी। बाऊजी : पजामा खोलके जगाइए इनको। लुटवाते आए हैं पापा की नजरों में। और लोग आपकी योग्यता ना पहचानें। बहुत तकलीफ़ होती है। गुड्डू : ब बबलू। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! दिमाग चलाना भी जरूरी होता है। अब चलाएँगे। अब चलाएँगे। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना, मत मार। मुन्ना! मुन्ना, बबलू को नहीं मार, मुन्ना। हमको मार डालो। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना, मत मार। मुन्ना, मत मार। भैया गुड्डू : मुन्ना, मुन्ना, मु मुन्ना, मुन्ना बबलू : गुड्डू भैया, गुड्डू भैया गु
ड्डू भैया। गुड्डू भैया। गुड्डू भैया। आप आँखें खोलें और कब हम इन्हें जैसा ये दिखते हैं। ढीले। काटो! कालीन भैया : लेके आओ। मेहमान नवाजी की वजह? हमारा नाम अखण्डानन्द त्रिपाठी है। परिचय हो चुका है हमारा पहले। वो व्यापारी थे। और हम बाहुबली हैं। मौर्या साहब, जितना करना था आप कर लिए। अब हम करेंगे। क्या कर लेंगे आप? मकबूल। ए! मुक्ति दे दी है। आए हैं, हम मालिक हैं उस शहर के। मुन्ना : माहौल काफ़ी भारी हो गया है, गुरु। देखो, दीदी भी रो रही हैं। गाना चलाओ। गाना चलाओ, बे। बसंती, नाचो। नाचो। माफ़ करना। गलती से लग गया। ओ भोसड़ी वाले चचा। मुन्ना : कहाँ हो? बाहर निकलो। जल्दी, जल्दी। अबे, आओ ना जल्दी। नाचने के लिए ही बुला रहे हैं। नाचिए इसके साथ। मुन्ना : ऋतिक रोशन वाला आता है? नागिन। नागिन वाला करो। मज़े लेके करो। थोड़ा दिल से नाचो। अबे, नाचो भोसड़ी के। मर नहीं जाओगे। ये! क्या बात है! हाँ। बहुत खूब। देखो, देखो, दीदी कैसे कर रही है? गोलू। मुन्ना : उनके साथ केमिस्ट्री बनाओ। गोलू। मुन्ना : आ रहा है मजा? पास जाकर नाचो। पास जाओ। बंदूक उठाओ। बंदूक उठाओ। मुन्ना : ये! हाँ। थोड़ा जवान है बुड्ढा। गुड्डू : उठाओ। मुन्ना : साबास! अरे, लाला ये माफ़ करना तुम्हारी लड़की को। अब ध्यान से बात सुनो हमारी। हम्म? अपनी तरफ़ खींचो, जोर से! और छोड़ दो। ट्रिगर पे उंगली लगाओ। पहली वाली। गोलू निसाना लगाओ और दाग दो। गोलू! मुन्ना : मिस्टर पूर्वांचल। हाँ, गुड्डू भैया। किधर किसी भी कीमत पे। साथियो, आज का दिन हमारे गज्जूमल कॉलेज के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है। आप सभी छात्रों से हमारा अनुरोध है कि आप अपना कीमती वोट सही उम्मीदवार को देकर अपने और अपने कॉलेज के भविष्य को बेहतर बनाएँ। बीस वोट से। ठीक से चेक किया ना? बीस ही हैं। अंतिम गिनती में, गोलू जीत गई है। तुम दूसरे नंबर पे हो। दो ही तो लोग खड़े थे चुनाव में, मास्टर साहब। मुन्ना... हम्म? ...फिर से गिनती करवाएँ? अरे, मास्टर साहब, काहे, भैया, उन लोगों का काम बढ़ा रहे हैं? नियम के हिसाब से हुई है ना वोटिंग? उसमें तो कोई फेरबदल नहीं हुआ? बस। अरे, काका, बाहर छात्र लोग सब इंतजार कर रहा होगा। जाके एलान कर दीजिए। अरे, और सुनिए। इधर आइए। ये मिठाई भी बाँट दीजिए। खुसी का मौका है। अरे, मास्टर साहब? हम्म? गजगामिनी जी को तो फ़ोन करिए। गो... गोलू को फ़ोन लगाएँ? हाँ, फ़ोन मिलाइए। अच्छा, हम मिलाते हैं। रुकिए। लाइए, लाइए। हम लगाते हैं। हाँ, लगाइए। इसमें है? हाँ, इसमें है। हाँ, तो "जी" में ढूँढिए। अरे... अरे, कहाँ हो तुम? तुमको पता था ना कि आज नतीजा आने वाला है? बधाई हो। जीत गई हो तुम। ठीक है। ठीक है। कहाँ हैं प्रेसिडेंट साहिबा? वो... गोरखपुर गई है। अपने जीजाजी और दीदी के साथ में। अच्छा, हाँ, हाँ। पूरे परिवार के साथ में गई है। जाना था उन लोगों को। ठीक है, मास्टर साहब। प्रणाम। अरे, मुन्ना, तुमको का हो गया है? तुम हार गए हो चुनाव में। इसी लिए तो जा रहे हैं ज
ीतने वाले को बधाई देने। गोरखपुर। सभी : गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! गोलू गुप्ता ज़िंदाबाद! भैयाजी, किसकी गांड लेनी है? गांड नहीं, बे। जान लेनी है। गुड्डू और बबलू की। कालीन भैया द किंग ऑफ़ मिर्ज़ापुर मिर्ज़ापुर जंगल में अगर शेर के बच्चे शिकार करना नहीं सीखेंगे तो खुद शिकार बन जाएँगे। इसी लिए ये शेरनी अपने बच्चों को... मकबूल, तुम मुन्ना के पीछे चले जाओ। हाँ? ध्यान भी रहेगा और बैकप भी। जी, भैयाजी। बाऊजी : किसी को जाने की जरूरत नहीं है। अखण्डा, तुम अपनी बंदूक मुन्ना के हाथ में दिए हो, तो उन्हें चलाने भी दो। त्रिपाठियों की औलाद है। करके दिखाएँगे। हम जानते हैं तुम बाप हो। पर उनके दुस्मन मत बनो। थोड़ी खुशी तो मना, गोलू। चुनाव जीती है। कोई मजाक है? दीदी, हमें ना इस समय कॉलेज में होना चाहिए था। आप तो फिर भी परिवार हैं। डिंपी की सहेली की शादी में हमें काहे को खींच लिया गया है? तो तुम परिवार नहीं हो? और तुम्हें खींचके लाए हैं कि तुम बबलू भैया को कंपनी देने भी आई हो? देखो, डिंपी, तुम ना अब चालू मत हो जाओ। डिंपी : अरे! सुन। हम तुझे अपनी मदद के लिए भी लाए हैं। मदद? इतना जहर डालें हैं जो अपने अंदर, बॉडी बिल्डिंग के दवाइयों के नाम पे, ये सारा उसी का नतीजा है। थोड़े दिन रहेगा ऐसे, लेकिन ठीक हो जाएँगे उसके बाद आप। चलिए। अब ठीक है? हम्म? चलो, हो गया बस। चलिए, चलिए। गोलू : सच्ची, ये तो... थोड़ा घबरा रहे हैं हम। डिंपी : अरे, क्यों? गोलू : अपना खयाल रखना बस। स्वीटी : हाँ। गोलू : हम तो हैं ही। इधर आओ तुम। गाल चूम लें तुम्हारा। स्वीटी : तुम्हारी लिपस्टिक लग रही है। बबलू : क्या बात है? बड़ा भरत मिलाप चल रहा है! वो गोलू चुन
ाव जीत गई है ना। हम तो जानते ही थे। पहले भाषण में दिल जीत लीं थी सबका, गजगामिनी गुप्ता जी। सबका? हाँ, नहीं, सबका दिल जीता था। बधाई है तुमको, गोलू। थैंक्यू। बाकी हर जगह अच्छा काम करके जीते हैं। चुनाव ही ऐसी जगह है जहाँ जीतते हैं, जिससे कि अच्छा काम कर सकें। तो असली बधाई हम तब लेंगे जब कुछ अच्छा करेंगे। अच्छा, बोर मत कर, यार। हमें एक और आइसक्रीम ऑर्डर करनी है। अभी मंगाते हैं, भाभीजी। लेकिन मंत्री जी की पार्टी रहेगी। चुनाव जीती हैं, भाई। स्वीटी और गोली : हाँ! गोलू : जश्न का वक्त है। डबल मंगवाइए। और हमारे लिए चॉकलेट वाली। स्वीटी : अच्छी लग रही है? जी, भाभी? हम पूछ रहे हैं, अच्छी लग रही है गोलू? शीशा टेढ़ा करके इतनी फ़ाईट उसको देखने के लिए ही मार रहे हैं ना आप? क्या, भाभी? हम तो ऐसे ही बस देख रहे थे। आप एकदम चुप बैठे हैं। ठीक हैं? अफ़सर : साला! अफ़सर : मादरचोद! नहीं बोलेगा? जैसमीन। बेटा। दीदी। ए साहब, काहे इतना बेरहमी से कूट रहे हैं? अरे, अफ़ीम ही पकड़े हैं न हमसे! तो ले चलिए कोर्ट! बड़े वकील बन रहे हो? हमें ही कानून समझा रहे हो? हैं? अफ़सर : साला! मौर्या : उधर हो, उधर। उधर। उधर हो। हो गया? निकल गई बहादुरी? इधर देखो, ऊपर आओ। ऊपर आओ! हमको अफ़ीम से कोई लेनादेना नहीं है। हमको मतलब है अफ़ीम आई कहाँ से। तुम्हारा लेनदेन बाबर खान से है। है ना? बाबर खान गुड्डूबबलू के लिए काम करता है। गुड्डूबबलू किसके लिए काम करते हैं? अखण्डानन्द त्रिपाठी। वही है ना? वही है ना जंगल का सबसे टॉप जानवर यहाँ का? उसका नाम ले दो, छोड़ देंगे। कालीन भैया : हाँ, गुप्ता, बोलो। डिंपी : अच्छा लग रहा है ना? स्वीटी : हम्म। डिंपी : अच्छा, उसने ना, सबके लिए कमरों का इंतजाम किया है। ये दुल्हन का कमरा कौन सा है? उधर, आखिर वाला। खाना तो लग गया होगा। अच्छा। आप लोग सब तैयार हो जाइए। हम शबनम से मिलकर आते हैं। ठीक है। कुछ मंगवाऊँ? अच्छा। शबनम! आ गई तू? मुझे तो लगा तूने गोली दे दी। अरे, आते कैसे नहीं? तुमसे वादा जो किए थे। हमें तो आना ही था। कैसी लग रही हूँ? बहुत सुंदर लग रही हो। सच? सच। अच्छा, चलो दो। मैं करती हूँ, लाओ। ये उल्टा है। कैसे दिख रहे हैं हम? बात बताएँ? आप पापा बनने वाले हैं। आप सुने नहीं हम क्या बोले? आप पापा बनने वाले हैं। कपड़े निकालके रख दिए हैं। बदलके आ जाइए। ग्रेट व्हाइट शार्क्स की आयु बड़ी लम्बी होती है। इनमें से कुछ तो सत्तर... बाऊजी, हो गया? हम्म? हाँ। ग्रेट व्हाइट शार्क्स को समुद्री दुनिया का सबसे खतरनाक व बेहतरीन शिकारी माना जाता है। राजा। जी? आज रात खाने में गाजर का हलवा बनाना। बना देंगे, बाऊजी। गाजर का हलवा तो भाभी को भी बहुत पसंद है। हम्म। सब खैरियत? मौलवी साहब, कैसे हैं आप? नहीं, अभी नहीं। बबलू : जी। भैयाजी, आ गया गोरखपुर वाले कबूतर का फ़ोन। उठाओ, उठाओ। हाँ, बोलो बे। गुंडा : भैयाजी, हम गुड्डूबबलू को देखे हैं। शाबाश, कहाँ देखा उन दोनों को? मुन्ना ब
ोल रहे हैं। गुंडा : प्रणाम, भैयाजी। अबे, प्रणाम को डालो गांड़ में। पता बताओ। सेलिब्रेशन हॉल, मेडिकल रोड। गोरखपुर। मुन्ना : आ रहे हैं। दूल्हादुल्हन का दीदार आप सबको मुबारक हो। एक बार ताली बजा दीजिए। डीजे : अब आप सबके सामने हमारा स्पेशल आइटम पेशे खिदमत है। डिंपी : चलिए, सब स्टेज चलिए। चलिए, भैया। डिंपी : भैया। बबलू : गुड्डू भैया। गुड्डू भैया! चलिए। इनको क्या हुआ है? स्वीटी : चलो। उठिए, उठिए, चलिए। गुड्डू भैया। अरे, चलिए ना। चलिए, हमारी सहेली की शादी है। लाला : शबनम? शबनम : जी, अब्बू? इन्हें तुमने बुलावा दिया है? जी, अब्बू। ये हमारी सहेली, डिंपी। मिर्ज़ापुर वाली। डिंपी : अभी खाना खाने... आप मिले तो थे। और वो दोनों इनके भाई। और वो भाभी। गोलू : खाना खा लें? स्वीटी : चलो। हम आते हैं। आ रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं ये? बाथरूम जा रहे हैं। आप आइए ना। आ जाएँगे। आइए। जी, भैयाजी? कालीन भैया : इन लोगों में डर खतम हो रहा है। थोड़ा बढ़ाना पड़ेगा। हमारी बात ध्यान से सुनो। नमस्ते, मुन्ना भैया। आप ही का इंतज़ार कर रहे थे। अपने कबूतर को फ़ोन लगाओ। जी, भैयाजी। गुंडा : चलिए। पकड़ो बे। दारा वेड्स शबनम ये है मिर्ची का सालन, लखनवी बिरयानी। हम जरा मम्मी को फ़ोन करके आते हैं। दो मिनट में आ रहे हैं। आप लोग यहीं रुकिए। ठीक है। ठीक है। बहुत देर से देख रहे हैं चुंबक की तरह चिपके हुए हो, मादरचोद। क्या चाहिए? कुछ नहीं, भैयाजी। आगे देखो, चुपचाप चलो। ठीक है? भैयाजी, फ़ोन नहीं उठा रहा, मादरचोद। मुन्ना : तुम यहाँ दरवाजे पे ही रुकना। तुम इसके साथ रुकना यहीं पर। तुम हमारे साथ आगे स्टेज पे चलो। कोई गलती नहीं चाहिए। बबलू : अब बता। भैयाजी, हम स... हम सच कह रहे हैं। हम मेहमान हैं। जँच रही हो।
बधाई हो! ये मेरे साथ है। कोई कहीं नहीं जाएगा! पंकज : बैठ जाओ! चाचा? ओ भोसड़ी वाले चाचा। अरे, गाना बंद करो जरा। मुन्ना : चाचा, चाचा। हो गया बस। थोड़ा रेस्ट कर लीजिए। वरना रेस्ट इन पीस हो जाएँगे। मुन्ना। लाला : ये सब क्या है? अरे, लाला! आप भी आए हैं। क्या बात है! ये हमारी बेटी का रिसेप्शन है। आपकी बे... अरे, ये लो। हमको तो पता ही नहीं था ये आपकी बेटी का रिसेप्सन है। हमें न्योता नहीं दिए आप? कोई बात नहीं। हम यहाँ इनको नुकसान पहुँचाने नहीं आए हैं। ये बस हमारे बीमे की तरह हैं। बबलू : भाभी, भाभी। स्वीटी : गोलू, इधर। मुन्ना : हाँ, तो, भैया। हम यहाँ गुड्डू और बबलू के लिए आए हैं। दोनों चुपचाप बाहर आ जाओ। काहे खूनखच्चर करना है, भैया? देखिए, अब हमसे और संयम नहीं हो रहा है। भैया। ए! ए! भैया! ए! मुन्ना : ए, मादरचोद! नहीं! नहीं, नहीं, उसे... दूल्हे का पिता : दारा! लाला : गोली मत चलाना। मुन्ना : पकड़ इसे। बैठ! दारा! लाला : संभालो अपनेआप को, यूसुफ़। यूसुफ़, संभालो। संभालो अपने आप को। बबलू! बाहर आ जाओ, बंधु। क्योंकि तुम्हारे गुड्डू भैया गिर चुके हैं। बबलू! गुड्डू : बाहर मत आना। जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। स्वीटी : गुड्डू, गु... बबलू : भाभी। ए! ए! बबलू! गुड्डू भैया। हो गया, बाऊजी। हम राजा और तुम्हारे बारे में जानते हैं। और तुम्हें ये सिखाना बहुत जरूरी है कि शरीफ़ घरों की बहुएँ बाहर मुँह नहीं मारा करतीं। दरवाजा बंद करके यहाँ आओ। हमें पता है कि तुम भागोगी नहीं। भागके जाओगी भी कहाँ? सिर्फ़ त्रिपाठियों का बीज गिरेगा तुम्हारे अंदर। जब कालीन भैया जानेंगे, तब क्या करोगे, मुन्ना? इनाम लेंगे, बे। तुम्हारे कालीन भैया ही हमको इजाज़त दिए हैं तुमको मारने की। गोलू... गोलू... बंदूक नहीं चलानी आती प्रेसिडेंट साहिबा को? कॉलेज कैसे चलाएँगी आप? हम्म? लाइए, दीजिए हमको। अरे, दो इधर! मुन्ना। मुन्ना... मुन्ना, जाने दे। गुड्डू : जाने दे, मुन्ना। नहीं, मुन्ना। गुड्डू : मुन्ना! नहीं, मुन्ना। अरे, तुम काहे नहीं, नहीं बोल रही हो? तुमको थोड़े ही ना हम... स्वीटी : हम पेट से हैं। हम पेट से हैं। स्वीटी, तुम्हें हम अपनी जान से ज्यादा प्यार किए थे। स्वीटी : नहीं। और तुम्हारे पेट में आज किसी और का... मुन्ना। मुन्ना, मुन्ना, मुन्ना, मुन्ना। गुड्डू : मुन्ना, मुन्ना। स्वीटी : गुड्डू... गु... बाऊजी : गलती तुमने अकेले तो नहीं ना की थी। दो लोग किए थे। इसलिए सजा भी दोनों को ही मिलेगी। बाऊजी : पजामा खोलके जगाइए इनको। मुन्ना : साले, हम हमेशा इज्जत ही लुटवाते आए हैं पापा की नजरों में। बहुत तकलीफ़ होती है जब आप योग्य हों और लोग आपकी योग्यता ना पहचानें। बहुत तकलीफ़ होती है। गुड्डू : ब... बबलू। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! लेकिन तुमसे सीखे हैं, गुरु, कि बंदूक के साथ दिमाग चलाना भी जरूरी होता है। अब चलाएँगे। अब चलाएँगे। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्
ना, मत मार। मुन्ना! मुन्ना, बबलू को नहीं मार, मुन्ना। हमको मार डालो। मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना! मुन्ना, मत मार। मुन्ना, मत मार। भैया... गुड्डू : मुन्ना, मुन्ना, मु... मुन्ना, मुन्ना... बबलू : गुड्डू भैया, गुड्डू भैया... गुड्डू भैया। गुड्डू भैया। गुड्डू भैया। नहीं, हम इंतज़ार ही कर रहे थे कि कब लोग आप आँखें खोलें और कब हम इन्हें... इन्हें वही राजा बना दो जैसा ये दिखते हैं। ढीले। काटो! कालीन भैया : लेके आओ। मेहमान नवाजी की वजह? हमारा नाम अखण्डानन्द त्रिपाठी है। परिचय हो चुका है हमारा पहले। जिस अखण्डा से आप परिचित हैं, वो व्यापारी थे। और हम बाहुबली हैं। मौर्या साहब, जितना करना था आप कर लिए। अब हम करेंगे। क्या कर लेंगे आप? मकबूल। ए! कालीन भैया : आपके बाकी साथियों को भी मुक्ति दे दी है। मौर्या जी, आप जिस शहर में नौकर बनके आए हैं, हम मालिक हैं उस शहर के। मुन्ना : माहौल काफ़ी भारी हो गया है, गुरु। देखो, दीदी भी रो रही हैं। गाना चलाओ। गाना चलाओ, बे। बसंती, नाचो। नाचो। माफ़ करना। गलती से लग गया। ओ भोसड़ी वाले चचा। मुन्ना : कहाँ हो? बाहर निकलो। जल्दी, जल्दी। अबे, आओ ना जल्दी। नाचने के लिए ही बुला रहे हैं। नाचिए इसके साथ। मुन्ना : ऋतिक रोशन वाला आता है? नागिन। नागिन वाला करो। मज़े लेके करो। थोड़ा दिल से नाचो। अबे, नाचो भोसड़ी के। मर नहीं जाओगे। ये! क्या बात है! हाँ। बहुत खूब। देखो, देखो, दीदी कैसे कर रही है? गोलू। मुन्ना : उनके साथ केमिस्ट्री बनाओ। गोलू। मुन्ना : आ रहा है मजा? पास जाकर नाचो। पास जाओ। बंदूक उठाओ। बंदूक उठाओ। मुन्ना : ये! हाँ। थोड़ा जवान है बुड्ढा। गुड्डू : उठाओ। मुन्ना : साबास! अरे, लाला ये... माफ़ करना... लेकिन दूसरा दूल्हा मिल जाएगा तुम्हारी
लड़की को। अब ध्यान से बात सुनो हमारी। हम्म? बंदूक का ऊपर का हिस्सा अपनी तरफ़ खींचो, जोर से! और छोड़ दो। ट्रिगर पे उंगली लगाओ। पहली वाली। गोलू निसाना लगाओ और दाग दो। गोलू! मुन्ना : मिस्टर पूर्वांचल। हाँ, गुड्डू भैया। किधर... मिर्ज़ापुर रतिशंकर : हमको मिर्ज़ापुर चाहिए, शरद, किसी भी कीमत पे।
और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। हस कार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। पहले कुछ प्रश्नः एक मित्र ने पूछा है, क्या संसारी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता? घर-बार और स्त्री ही क्या ईश्वर को पाने में बाधा है? संसारी के लिए क्या ईश्वर को पाने का कोई उपाय नहीं है? ऐसी भ्रांति प्रचलित है कि संसारी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इससे बड़ी और कोई भ्रांति की बात नहीं हो सकती, क्योंकि होने का अर्थ ही संसार में होना है। आप संसार में किस ढंग से होते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। संसार में होना ही पड़ता है, अगर आप हैं। होने का अर्थ ही संसार में होना है। फिर आप घर में बैठते हैं कि आश्रम में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। घर भी उतना ही संसार में है, जितना आश्रम। और आप पत्नी-बच्चों के साथ रहते हैं या उनको छोड़कर भागते हैं, जहां। आप रहते हैं, वह भी संसार है; जहां आप भागते हैं, वह भी संसार है। होना है संसार में ही और जब परमात्मा भी संसार से भयभीत नहीं है, तो आप इतने। क्यों भयभीत हैं? और जब हम परमात्मा को मानते हैं कि वही कण-कण में समाया हुआ है, इस संसार में भी वही है; संसार भी वही है...। संसार से भागकर वह नहीं मिलेगा। क्योंकि गहरे में तो जो भाग रहा है, वह उसे पा ही नहीं सकेगा। उसे तो पाता वह है, जो ठहर गया है। भगोड़ों के लिए नहीं है परमात्मा। ठहर जाने वाले लोगों के लिए है, घिर हो जाने वाले लोगों के लिए है। आप कहां हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर आप शात हैं और ठहरे हुए हैं, तो वहीं परमात्मा से मिलन हो जाएगा। अगर आप दुकान पर बैठे हुए भी शात हैं और आपके मन में कोई दुविधा, कोई अड़चन, कोई द्वंद्व, कोई संघर्ष, कोई तनाव नहीं है, तो उस दुकान पर ही परमात्मा उतर आएगा। और आप आश्रम में भी बैठे हो सकते हैं, और मन में द्वंद्व और दुविधा और परेशानी हो, तो वहा भी परमात्मा से कोई संपर्क न हो पाएगा। न तो पत्नी रोकती है, न बच्चे रोकते हैं। आपके मन की ही द्वंद्वग्रस्त स्थिति रोकती है। संसार नहीं रोकता, आपके ही मन की विक्षिप्तता रोकती है। संसार से भागने से कुछ भी न होगा। क्योंकि संसार सै भागना एक तो असंभव है। जहां भी जाएंगे, पाएंगे संसार है। और फिर आप तो अपने साथ ही चले जाएंगे, कहीं भी भागें। घर छूट सकता है, पत्नी छूट सकती है, बच्चे छूट सकते हैं। आप अपने को छोड़कर कहां भागिएगा? और पत्नी वहां आपके कारण थी, और बच्चे आपके कारण थे। आप जहां भी जाएंगे, वहा पत्नी पैदा कर लेंगे। आप बच नहीं सकते। वह घर आपने बनाया था। और जिसने बनाया था, वह साथ ही रहेगा। वह फिर बना लेगा। आप असली कारीगर को तो साथ ले जा रहे हैं। वह आप हैं । अगर यहां धन को पकड़ते थे, तो वहा भी कुछ न कुछ आप पकड़। लेंगे। वह पकड़ने वाला भीतर है। अगर यहां मुकदमा लड़ते थे अपने मकान के लिए तो वहां आश्रम के लिए लडिएगा। लेकिन मुकदमा! आप लडिएगा। यहां कहते
थे, यह मेरा मकान है; वहा आप कहिएगा, यह मेरा आश्रम है। लेकिन वह मेरा आपके साथ होगा। आप भाग नहीं सकते। अपने से कैसे भाग सकते हैं? और आप ही हैं रोग। यह तो ऐसा हुआ कि टी बी. का मरीज भाग खड़ा हो। सोचे कि भागने से टी. बी से छुटकारा हो जाएगा। मगर वह टी. बी. आपके साथ ही भाग रही है। और भागने में और हालत खराब हो जाएगी। भागना बचकाना है। भागना नहीं है, जागना है। संसार से भागने से परमात्मा नहीं मिलता, और न संसार में रहने से मिलता है। संसार में जागने से मिलता है। संसार एक परिस्थिति है। उस परिस्थिति में आप सोए हुए हों, तो परमात्मा को खोए रहेंगे। उस परिस्थिति में आप जाग जाएं, तो परमात्मा मिल जाएगा। ऐसा समझें कि एक आदमी सुबह एक बगीचे में सो रहा है। सूरज निकल आया है, और पक्षी गीत गा रहे हैं, और फूल खिल गए हैं, और हवाएं सुगंध से भरी हैं, और वह सो रहा है। उसे कुछ भी पता नहीं कि क्या मौजूद है। आंख खोले, जागे, तो उसे पता चले कि क्या मौजूद है। जब तक सो रहा है, तब तक अपने ही सपनों में है। हो सकता है - यह फूलों से भरा बगीचा, यह आकाश, ये हवाएं, यह सूरज, ये पक्षियों के गीत तो उसके लिए हैं ही नही - हो सकता है, वह एक दुखस्वप्न देख रहा हो, एक नरक में पड़ा हो। इस बगीचे के बीच, इस सौंदर्य के बीच वह एक सपना देख रहा हो कि मैं नरक में सड़ रहा हूं और आग की लपटों में जल रहा हूं। जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह संसार नहीं है। हमारा सपना, हमारा सोया हुआ होना ही संसार है। परमात्मा तो चारों तरफ मौजूद है, पर हम सोए हुए हैं। वह अभी और यहां भी मौजूद है। वही आपका निकटतम पड़ोसी है। वही आपकी धड़कन में है, वही आपके भीतर है; वही आप हैं। उससे ज्यादा निकट और कुछ भी नहीं है। उसे पाने के लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। वह यहां
है, अभी है। लेकिन हम सोए हुए हैं। इस नींद को तोड़े। भागने से कुछ भी न होगा। इस नींद को हटाए। यह मन होश से भरे, इस मन के सपने विदा हो जाएं, इस मन में विचारों की तरंगें न रहें, यह मन शात और मौन हो जाए तो आपको अभी उसका स्पर्श शुरू हो जाएगा। उसके फूल खिलने लगेंगे; उसकी सुगंध आने लगेगी; उसका गीत सुनाई पड़ने लगेगा, उसका सूरज अभी - अभी आपके अंधेरे को काट देगा और आप प्रकाश से भर जाएंगे। इसलिए मेरी दृष्टि में, जो भाग रहा है, उसे तो कुछ भी पता नहीं है। यह हो सकता है कि आप संसार से पीड़ित हो गए हैं, इसलिए भागते हों। लेकिन संसार की पीड़ा भी आपका ही सृजन है। तो आप भागकर जहां भी जाइएगा, वहा आप नई पीड़ा के स्रोत तैयार कर लेंगे। यह ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता, तो आप जाकर देखें। आश्रमों में बैठे हुए लोगों को देखें, संन्यासियों को देखें। अगर वे जागे नहीं हैं, तो आप उनको पाएंगे वे ऐसी ही गृहस्थी में उलझे हैं जैसे आप। और उनकी उलझनें भी ऐसी ही हैं, जैसे आप। उनकी परेशानी भी यही है। वे भी इतने ही चिंतित और दुखी हैं। इतना आसान नहीं परमात्मा को पाना कि आप घर से निकलकर मंदिर में आ गए और परमात्मा मिल गया! कि आप जंगल में चले गए, और परमात्मा मिल गया! परमात्मा को पाने के लिए आपकी। जो चित्त - अवस्था है, इससे निकलना पड़ेगा और एक नई चित्त - अवस्था में प्रवेश करना पड़ेगा। ये ध्यान और प्रार्थनाएं उसके ही मार्ग हैं कि आप कैसे बदलें। आम हमारी मन की यही तर्कना है कि परिस्थिति को बदल लें, तो सब हो जाए। हम जिंदगी भर इसी ढंग से सोचते हैं। लेकिन परिस्थिति हमारी उत्पन्न की हुई है। मनःस्थिति असली चीज है, परिस्थिति नहीं। एक आदमी गाली देता है, तो आप सोचते हैं, इसके गाली देने से दुख होता है, पीड़ा होती है, क्रोध होता है। इस आदमी से हट जाएं, तो न क्रोध होगा, न पीड़ा होगी, न अपमान होगा, न मन में संताप होगा। लेकिन जो आदमी गाली देता है, वह क्रोध पैदा नहीं करता। क्रोध तो आपके भीतर है; उसको केवल हिलाता है। आप भाग जाएं; क्रोध को आप भीतर ले जा रहे हैं। अगर कोई आदमी न होगा, तो आप चीजों पर क्रोध करने लगेंगे। लोग दरवाजे इस तरह लगाते हैं, जैसे किसी दुश्मन को धक्का मार रहे हों! लोग जूतों को गाली देते हैं और फेंकते हैं लोग लिखती हुई कलम को जमीन पर, फर्श पर पटक देते हैं। क्रोध में चीजें. एक कलम क्या क्रोध पैदा करेगी? एक दरवाजा क्या क्रोध पैदा करेगा? लेकिन क्रोध भीतर भरा है। उसे आप निकालेंगे; कोई न कोई बहाना आप खोजेंगे। और बहाने मिल जाएंगे। बहानों की कमी नहीं है। तब फिर आप सोचेंगे, इस परिस्थिति से हटूं तो शायद किसी दिन शात हो जाऊं। तो आप जन्मों - जन्मों से यही कर रहे हैं, परिस्थिति को बदलो और अपने को जैसे हो वैसे ही सम्हाले रही! आप अगर रहे, तो आप ऐसा ही संसार बनाते चले जाएंगे। आप स्रष्टा हैं संसार के। मन को बदलें; वह जो भीतर चित्त है, उसको बदलें। अगर कोई गाली देता है, तो उससे यह अर्थ नहीं है कि उसकी गाली आप में क्र
ोध पैदा करती है। उसका केवल इतना ही अर्थ है, क्रोध तो भीतर भरा था, गाली चोट मार देती है और क्रोध बाहर आ जाता है। ऐसे ही जैसे कोई कुएं में बालटी डाले और पानी भरकर बालटी में आ जाए। बालटी पानी नहीं पैदा करती, वह कुएं में भरा हुआ था। खाली कुएं में डालिए बालटी, खाली वापस लौट आएगी। बुद्ध में, महावीर में गाली डालिए, खाली वापस लौट आएगी। कोई प्रत्युत्तर नहीं आएगा। वहां क्रोध नहीं है। और आपको जो आदमी गाली देता है, अगर समझ हो, तो आपको उसका धन्यवाद करना चाहिए कि आपके भीतर जो छिपा था, उसने बाहर निकालकर बता दिया। उसकी बड़ी कृपा है। वह न मिलता, तो शायद आप इसी खयाल में रहते कि आप अक्रोधी हैं, बड़े शांत आदमी हैं। उसने मिलकर आपकी असली हालत बता दी कि भीतर आप क्रोधी हैं; बाहर - बाहर, ऊपर-ऊपर से रंग-रोगन किया हुआ है। सब व्हाइट-वाश है; भीतर आग जल रही है। यह आदमी मित्र है, क्योंकि इसने आपके रोग की खबर दी। यह आदमी डाक्टर है, इसने आपका निदान कर दिया। इसकी डायग्नोसिस से पता चल गया कि आपके भीतर क्या छिपा है। इसे धन्यवाद दें और अपने को बदलने में लग जाएं। पत्नी आपको नहीं बांधे हुए है। स्त्री के प्रति आपका आकर्षण हैं, वह बांधेगा। पत्नी से क्या तकलीफ है नः या पति से क्या तकलीफ है? आप भाग सकते हैं। लेकिन आकर्षण तो भीतर भरा है। कोई दूसरी स्त्री उसे छू लेगी, और वह आकर्षण फिर फैलना शुरू हो जाएगा। फिर आप संसार खड़ा कर लेंगे। वह जो बेटा है आपका, वह आपको बांधे हुए नहीं है। बेटे से आप बंधे हैं, क्योंकि आप अपने को चलाना चाहते हैं मृत्यु के बाद भी। बेटे के कंधों से आप जीना चाहते हैं। आप तो मर जाएंगे; यह पता है कि यह शरीर गिरेगा; तो आप अब बेटे के सहारे इस जगत में रहना चाहते हैं। कम से कम नाम तो रहेगा मेरा मेरे बेटे के
साथ! वह आपको बांधे हुए है। बेटे को छोड़कर भाग जाइए; शिष्य मिल जाएगा। फिर आप उसके सहारे संसार में बचने की कोशिश में लग जाएंगे। बाकी कोशिश वही रहेगी, जो आप भीतर हैं। नाम बदल जाएंगे, रंग बदल जाएंगे, लेबल बदल जाएंगे, लेकिन आप इतनी आसानी से नहीं बदलते हैं। तो ध्यान रखें, क्षुद्र धर्म परिस्थिति बदलने की कोशिश करता है। सत्य धर्म मनःस्थिति बदलने की कोशिश करता है। आप बदल जाएं, जहां भी हैं। और आप पाएंगे, संसार मिट गया। आप बदले कि संसार खो जाता है; और जो बचता है, वही परमात्मा है। यहीं संसार की हर पर्त के पीछे वह छिपा है। आपको संसार दिखाई पड़ता है, क्योंकि आप संसार को ही देखने वाला मन लिए बैठे हैं। जो आपको दिखाई पड़ रहा है, वह आपके कारण दिखाई पड़ रहा है। जैसे ही आप बदले, आपकी दृष्टि बदली, देखने का ढंग बदला, संसार तिरोहित हो जाता है और आप पाते हैं कि चारों तरफ वही है। फिर वृक्ष में वही दिखाई पड़ता है और पत्थर में भी वही दिखाई पड़ता है। मित्र में भी वही दिखाई पड़ता है और शत्रु में भी वही दिखाई पड़ता है। फिर जीवन का सारा विस्तार उसका ही विस्तार है । संसार आपकी दृष्टि के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। और परमात्मा भी आपकी दृष्टि के ही अनुभव में उतरेगा; आपके दृष्टि के परिवर्तन में उतरेगा। क्रांति चाहिए आंतरिक, भीतरी, स्वयं को बदलने वाली। भागने में समय खराब करने की कोई भी जरूरत नहीं है। भागने में व्यर्थ उलझने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार परमात्मा को पाने का अवसर है; एक मौका है। उस मौके का उपयोग करना आना चाहिए। सुना है मैंने कि एक घर में एक बहुत पुराना वाद्य रखा था, लेकिन घर के लोग पीढ़ियों से भूल गए थे उसको बजाने की कला। वह कोने में रखा था। बड़ा वाद्य था। जगह भी घिरती थी। घर में भीड़ भी बढ़ गई थी। और आखिर एक दिन घर के लोगों ने तय किया कि यह उपद्रव यहां से हटा दें। वह उपद्रव हो गया था। क्योंकि जब संगीत बजाना न आता हो और उसके तारों को छेड़ना न आता हो.। तो कभी बच्चे छेड़ देते थे, तो घर में शोरगुल मचता था। कभी कोई चूहा कूद जाता, कभी कोई बिल्ली कूद जाती। आवाज होती। रात नींद टूटती। वह उपद्रव हो गया था। तो उन्होंने एक दिन उसे उठाकर घर के बाहर कचरेघर में डाल दिया। लेकिन वे लौट भी नहीं पाए थे कि कचरेघर के पास से अनूठा संगीत उठने लगा। देखा, राह चलता एक भिखारी उसे उठा लिया है और बजा रहा है। भागे हुए वापस पहुंचे और कहा कि लौटा दो। यह वाद्य हमारा है। पर उस भिखारी ने कहा, तुम इसे फेंक चुके हो कचरेघर में। अगर यह वाद्य ही था, तो तुमने फेंका क्यों? और उस भिखारी ने कहा कि वाद्य उसका है, जो बजाना जानता है। तुम्हारा वाद्य कैसे होगा? जीवन एक अवसर है। उससे संगीत भी पैदा हो सकता है। वही संगीत परमात्मा है। लेकिन बजाने की कला आनी चाहिए। अभी तो सिर्फ उपद्रव पैदा हो रहा है, पागलपन पैदा हो रहा है। आप गुस्सा होते हैं कि इस वाद्य को छोड़कर भाग जाओ, क्योंकि यह उपद्रव है। यह वाद्य उपद्रव नहीं है। एक ही है
जगत का अस्तित्व। जब? बजाना आता है, तो वह परमात्मा मालूम पड़ता है। जब बजाना नहीं आता, तो वह संसार मालूम पड़ता है। अपने को बदलें। वह कला सीखें कि कैसे इसी वाद्य सै संगीत उठ आए। और कैसे ये पत्थर प्राणवान हो जाएं। और कैसे ये एक-एक फूल प्रभु की मुस्कुराहट बन जाएं। धर्म उसकी ही कला है। तो जो धर्म भागना सिखाता है, समझना कि वह धर्म ही नहीं है। कहीं कोई भूल-चूक हो रही है। जो धर्म रूपांतरण, आंतरिक क्रांति सिखाता है, वही वास्तविक विज्ञान है। एक मित्र ने पूछा है कि आपने बताया कि बेहोशी में किया हुआ कृत्य पाप है। लेकिन भाव से भी तो बेहोशी होती है? कृपया समाधान कीजिए। बेहोशी बेहोशी में बड़ा फर्क है। एक बेहोशी नींद में होती है, तब आपको कुछ भी पता नहीं होता। एक बेहोशी शराब पीने से भी होती है, तब भी आपको कुछ पता नहीं होता। एक बेहोशी भाव से भी होती है, आप पूरे बेहोश भी होते हैं और आपको पूरा पता भी होता है। जब आप मग्न होकर गीत में नाच रहे होते हैं, तो यह नृत्य भी होता है, इस नृत्य में पूरा डूबा हुआ होना भी होता है, और भीतर दीए की तरह चेतना भी जलती है, जो जानती है, जो देखती है, जो साक्षी होती है। अगर आपके भाव में बेहोशी शराब जैसी आ जाए, तो आप। समझना कि चूक गए। तो समझना कि यह भाव भी फिर शराब ही हो गई। प्रार्थना में बेहोशी का मतलब इतना है कि आप इतने लीन हो गए हैं कि मैं हूं, इसका कोई पता नहीं है। मैं हूं, इसका कोई शब्द निर्मित नहीं होता। लेकिन जो भी हो रहा है, उसके आप साक्षी हैं। जो साक्षी है, उसमें कोई मैं का भाव नहीं है। और वह जो साक्षी है, वह आप नहीं हैं; आप तो लीन हो गए हैं। और आपके लीन होने के बाद जो भीतर असली आपका स्वरूप है, वह भर देखता है। उस दर्शन में, उस द्रष्टा के होने में, जरा भी बेहोश
ी नहीं है। भाव की बेहोशी में आपके जो-जो रोग हैं, वे सो गए होते हैं, और आपके भीतर जो शुद्ध चेतन है, वह जाग गया होता है। जब चैतन्य नाच रहे हैं सड़कों पर, तो आप यह मत सोचना कि वे बेहोश हैं। हालांकि वे कहते हैं कि मैं बेहोश हूं। और हालांकि वे कहते हैं कि हमने शराब पी ली परमात्मा की। वे सिर्फ इसलिए कहते हैं कि आप इन्ही प्रतीकों को समझ सकते हैं। उमर खय्याम ने कहा है कि अब हमने ऐसी शराब पी ली है, जिसका नशा कभी न उतरेगा। और अब बार-बार पीने की कोई जरूरत न रहेगी। अब तो पीकर हम सदा के लिए खो गए हैं । शराब का उपयोग किया है प्रतीक की तरह। क्योंकि आप एक ही तरह का खोना जानते हैं, जिसमें आपकी सारी चेतना ही शून्य हो जाती है। भाव में शराब का थोड़ा-सा हिस्सा है। आपकी सब बीमारियां सो जाती हैं, आपका अहंकार सो जाता है, आपका मन सो जाता है, आपके विचार सो जाते हैं। लेकिन आप? आप पूरी तरह जाग गए होते हैं और भीतर पूरा होश होता है। लेकिन यह तो अनुभव से ही होगा, तो ही खयाल में आएगा। यह तो बात जटिल है। यह तो आपको कैसे खयाल में आएगी! भाव में डूबकर देखें । लेकिन हम डरते हैं। डर यही होता है, कहीं अगर भाव में पूरे डूब गए, तो जो-जो हमने दबा रखा है, अगर वह बाहर निकल पड़ा, तो लोग क्या कहेंगे! डरते हैं हम, क्योंकि हमने बहुत कुछ छिपा रखा है। और हमने चारों तरफ से अपने को बांध रखा है नियंत्रण में। तो कहीं नियंत्रण ढीला हो गया, और जरा - सा भी कहीं छिद्र हो गया, और हमने जो रोक रखा है, वह बाहर निकल पड़ा तो? उस भय के कारण हम अपने को कभी छोड़ते नहीं, समर्पण नहीं करते। हम कहीं भी अपने को शिथिल नहीं करते। हम चौबीस घंटे डरे हुए हैं और अपने को सम्हाले हुए हैं। यह जिंदगी नरक जैसी हो जाती है। इसमें सिवाय संताप के और विष के कुछ भी नहीं बचता। यह रोग ही रोग का विस्तार हो जाता है। खुलें, फूल की तरह खिल जाएं। माना कि बहुत सी बीमारियां आपके भीतर पड़ी हैं। लेकिन आप उनको जितना सम्हाले रखेंगे, उतनी ही वे आपके भीतर बढ़ती जाएंगी। उनको भी गिर जाने दें। उनको भी परमात्मा के चरणों मै समर्पित कर दें। और आप जल्दी ही पाएंगे कि बीमारियां हट गईं और आपके भीतर फूल का खिलना शुरू हो गया। आपके भीतर का कमल खिलने लगा। जिस दिन यह भीतर का कमल खिलना शुरू होता है, उसी दिन पता चलता है कि बेहोशी भी है और होश भी है। एक तल पर हम बिलकुल बेहोश हो गए हैं, और एक तल पर हम पूरी तरह होशवान हो गए हैं। ये घटनाएं एक साथ घटती हैं। शराब में हम केवल बेहोश होते हैं, कोई होश नहीं होता। इसलिए कुछ साधकों ने तो इस भाव की जागरूकता को पाने के बाद शराबें पीकर भी देखी हैं, कि क्या हमारी इस भाव की जागरूकता को शराब डुबा सकती है? आपको पता हो या न हो, योग और तंत्र के ऐसे संप्रदाय रहे हैं, जहां कि शराब भी पिलाई जाएगी। जब भाव की पूरी अवस्था आ जाएगी और साधक कहेगा कि अब मैं बाहर से तो बिलकुल बेहोश हो जाता हूं लेकिन मेरा भीतर होश पूरा बना रहता है, तो फिर गुरु उसको शराब भी
पिलाएगा, अफीम भी खिलाएगा। और धीरे - धीरे बेहोशी की, मादकता की मात्रा बढ़ाई जाएगी और उससे कहा जाएगा कि यहां बाहर बेहोशी घेरने लगे, शरीर बेहोश होने लगे, तो भी तू भीतर अपने होश को मत खोना। और यह बात यहां तक प्रयोग की गई है कि सब तरह की शराब और सब तरह के मादक द्रव्य पीकर भी साधक भीतर होश में बना रहता है, तब फिर सांप को भी कटवाते हैं उसकी जीभ पर; कि जब सांप काट ले, उसका जहर भी पूरे शरीर में फैल जाए, तो भी भीतर का होश जरा भी न डिगे, तभी वे मानते हैं कि अब तूने उस होश को पा लिया, जिसको मौत भी न हिला सकेगी। पर अनुभव के बिना कुछ खयाल न आ सकेगा। थोड़ा भाव में डूबना सीखें। भाव में जो डूबता है, वह उबर जाता है। और भाव से जो बचता है, वह डूब ही जाता है, नष्ट ही हो जाता है। लेकिन कुछ चीजें हैं, जो समझ से नहीं समझाई जा सकतीं। कोई उपाय नहीं है। और जितनी भीतरी बात होगी, उतना ही अनुभव पर निर्भर रहना पड़ेगा। अगर मेरे पैर में दर्द है, तो आपको मानना ही पड़ेगा कि दर्द है। और क्या उपाय है! और अगर मैं आपको समझाने जाऊं और आपके पैर में कभी दर्द न हुआ हो, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। मैं कितना ही कहूं कि पैर में दर्द है, लेकिन आपको अगर दर्द का कोई अनुभव नहीं है, तो शब्द ही सुनाई पड़ेगा; अर्थ कुछ भी समझ में न आएगा। आपको भी दर्द हो, तो ही..। अनुभव को शब्द से हस्तांतरित करने की कोई भी सुगमता नहीं है। बुद्ध के पास कोई आया और उसने कहा कि जो आपको हुआ है, थोड़ा मुझे भी समझाएं। तो बुद्ध ने कहा कि समझा मैं न सकूंगा। तुम रुको और वर्षभर जो मैं कहूं वह करो। समझ में आ जाएगा। क्योंकि जब तक भीतर प्रतीति न हो इस बात की कि सब बेहोशी हो गई है और फिर भी भीतर कोई जागा है, दीया जल रहा है, तब तक कैसे, तब तक आप बाहर से ही देखेंगे
। तो आप बाहर से नाचते हुए देखेंगे मीरा को, तो आपको लगेगा कि बेहोश है, होश नहीं है इसे। लगेगा ही। कपड़ा गिर गया। साड़ी का पल्लू हरि गया। अगर होश होता, तो मीरा अपना पल्लू सम्हालती, कपड़ा सम्हालती। होश में नहीं है, बेहोश है। निश्चित ही, शरीर के तल पर बेहोशी हैः। कपड़े के तल से होश हट गया है। वहां मीरा अब नहीं है। न कपड़े में है, न शरीर में है। भीतर कहीं सरक गई है। लेकिन वहा होश है। पर यह तो आप भी मीरा हो जाएं, तभी खयाल में आए, अन्यथा कैसे खयाल में आए! मीरा के भीतर झांकने का कोई भी उपाय नहीं है। कोई खिड़की-दरवाजा नहीं, जिससे हम भीतर झांक सकें। अगर मीरा के भीतर झांकना है, तो अपने ही भीतर झांकना पड़े, और कोई उपाय नहीं है। बुद्ध को समझना हो, तो बुद्ध हुए बिना कोई रास्ता नहीं है। इसलिए शिष्य जब तक गुरु ही नहीं हो जाता, तब तक गुरु को नहीं समझ पाता है। कैसे समझेगा? अलग - अलग तल पर खड़े हुए लोग हैं। वे अलग भाषाएं बोल रहे हैं। अलग अनुभवों की बातें कर रहे हैं। तब तक मिसअंडरस्टैंडिंग ज्यादा होगी, नासमझी ज्यादा होगी, समझ कम होगी। अगर सच में ही समझना चाहते हैं, तो प्रयोग की हिम्मत जुटानी चाहिए। विज्ञान भी प्रयोग पर निर्भर करता है और धर्म भी। दोनों एक्सपेरिमेंटल हैं। विज्ञान भी कहता है कि जाओ प्रयोगशाला में और प्रयोग करो। और जब तुम भी पाओ कि ऐसा होता है, तो ही मानना, अन्यथा मत मानना। धर्म भी कहता है कि जाओ प्रयोगशाला में, प्रयोग करो। हालांकि प्रयोगशालाएं दोनों की अलग हैं। विज्ञान की प्रयोग शाला बाहर है, धर्म की प्रयोगशाला भीतर है। आप ही हो धर्म की प्रयोगशाला। इसलिए विज्ञान की प्रयोगशाला तो निर्मित करनी पड़ती है, और आप अपनी प्रयोगशाला अपने साथ लिए चल रहे हो। नाहक ढो रहे हो वजन। बड़ा अदभुत यंत्र आपको मिला है, उसमें आप प्रयोग कर लो, तो अभी आपको खयाल में आ जाए कि क्या हो सकता है। भाव की बेहोशी बहुत गहन होश का नाम है। वह किसी दूसरे तल पर होश है, जागरूकता है। एक मित्र ने पूछा है कि अपने आप को भगवान के चरणों में समर्पित कर देने के बाद क्या सुख-दुख के भाव हममें नहीं उठेंगे? उन्हें उठने देने से रोकने का क्या उपाय है? फिर आपको रोकने की जरूरत नहीं, जब भगवान के चरणों में समर्पित ही कर दिया। तो समर्पण पूरा नहीं कर रहे हैं। पीछे आप भी इंतजाम रखेंगे अपना जारी! हमें खयाल नहीं है कि हम क्या सोचते हैं, किस ढंग से सोचते हैं! अगर अपने को भगवान के हाथ में समर्पण कर दिया, तो फिर सुख-दुख के भाव उठेंगे या नहीं, यह भी भगवान पर छोड़ दें। क्या पहले तय कर लेंगे, फिर समर्पण करेंगे? तब तो समर्पण झूठा हो जाएगा, सशर्त, कंडीशनल हो जाएगा। क्या भगवान से यह कहकर समर्पण करेंगे कि समर्पण करता हूं लेकिन ध्यान रहे, अब सुख-दुख का भाव नहीं उठना चाहिए! अगर उठा, तो समर्पण वापस ले लूंगा। रह कर दूंगा काट्रेक्ट। यह कोई समझौता तो नहीं है कि आप इसमें शर्त रखेंगे। समर्पण का मतलब है, बेशर्त। आप कहते हैं, छोड़ता हूं तुम्हार
े हाथ में। अब दुख देना हो तो दुख देना, मैं राजी रहूंगा। समर्पण का मतलब यह है । सुख देना तो सुख देना, मैं राजी रहूंगा। दोनों छीन लेना, राजी रहूंगा। दोनों जारी रखना, राजी रहूंगा। मेरी तरफ से, तुम कुछ भी करो, राजीपन रहेगा। समर्पण का यह अर्थ है। तुम क्या करोगे, अब मैं उस पर कोई विचार न करूंगा। मैं सिर्फ राजी रहूंगा। यह जो राजीपन है...। स्वीकार कर लूंगा कि तुम्हारी मर्जी है, जरूर कुछ बात होगी, जरूर कुछ लाभ होगा। सुख - दुख कैसे बचेंगे! जिस आदमी ने अपने को छोड़ दिया, उसके सुख-दुख बच सकते हैं? सुख-दुख है क्या? आपकी अपने आप पर पकड़ ही तो जड़ में है। और समर्पण में आप अपनी पकड़ छोड़ते हैं। जो आदमी कहता है कि सुख होगा तो राजी, दुख होगा तो राजी, क्या उसको सुख-दुख हो सकते हैं? सवाल यह है। कैसे हो सकते हैं! क्योंकि सुख का मतलब ही होता है कि चाहता हूं। दुख का मतलब होता है, नहीं चाहता हूं। सुख का मतलब होता है, कहीं छिन न जाए, यह भय । दुख का मतलब होता है, कहीं टिक न जाए, यह भय। समर्पण का अर्थ है, सुख तो राजी, दुख तो राजी। सुख छिन जाए तो राजी, दुख बना रहे तो राजी । सुख-दुख बचेंगे कैसे? सुख-दुख के बचने की आधारशिला खो गई। सुख है क्या? जिसको आप चाहते हैं। दुख है क्या? जिसको आप नहीं चाहते हैं। और कभी आपने खयाल किया कि कैसा चमत्कार है कि आज जिसे आप चाहते हैं, वह सुख है; और कल अगर न चाहें, तो वही दुख हो जाता है। और आज जिसे आप नहीं चाहते थे, वह दुख था; और कल अगर आप उसी को चाहने लगें, तो सुख हो जाता है। एक प्रेमी है। वह कहता है कि इस स्त्री के बिना मैं जी न सकूंगा। यही मेरा सुख है। और लगता है उसे कि इसके बिना मैं नहीं जी सकूंगा। और कल शादी हो जाती है। और परसों वह अदालतों में घूम रहा है कि तलाक कैसे कर
ूं! स्त्री वही है। पहले कहता था, इसके बिना न जी सकूंगा। अब कहता है, इसके साथ न जी सकूंगा। वह कल सुख था, आज दुख हो गया। और आप ऐसा मत सोचना, कुछ हैरानी की बात नहीं है। ऐसी घटनाएं घटती हैं। मेरे एक परिचित हैं। स्पेन में रहते हैं। उन्होंने अपनी पत्नी को तलाक दिया और दो साल बाद उसी स्त्री से दुबारा शादी कर ली! पहले सुख पाया, फिर दुख पाया। दो साल उसके बिना रहे, और फिर लगा कि वह सुख है। जब उन्होंने मुझे खबर की, तो मैंने कहा कि तुम पहले अनुभव से कुछ भी सीखे नहीं मालूम पड़ता। यह स्त्री कभी सुख थी, फिर दुख हो गई थी। अभी फिर सुख हो गई है! कितनी देर चलेगा? और कब दुख हो जाए, ज्यादा देर नहीं चलेगा मामला। क्योंकि व्यक्ति वे वही के वही हैं। फिर दुख हो जाएगा। इतने दूर जाने की जरूरत नहीं है। आपकी पत्नी ही थोड़े दिन मायके चली जाती है, तो सुखद मालूम पड़ने लगती है। लौट आती है, तो देखते ही से फिर तबीयत घबडाती है कि वापस आ गई! दूरी सुख के भावों को जन्म देने लगती है, निकटता उबाने लगती है। जो भी हमारे पास है, उससे ही हम ऊब जाते हैं। तो ऐसा कुछ नहीं है कि कोई चीज सुख है और कोई चीज दुख है। भाव! आपका भाव अगर चाह का है, तो सुख है; और अगर बेचाह का हो गया, तो दुख है। चीज वही हो, इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है। लेकिन समर्पण करने वाले ने अपनी चाह छोड़ दी, अपना भाव छोड़ दिया। अब उसे दुख देना मुश्किल है। अब उसे सुख देना भी मुश्किल है। और जिस व्यक्ति को सुख और दुख दोनों देना मुश्किल हो जाता है, वही आनंद को उपलब्ध होता है। आनंद सुख नहीं है। शब्दकोश में ऐसा ही लगता है, भाषा में ऐसा ही लगता है कि महासूख का नाम आनंद है। भूलकर भी ऐसा मत सोचना। आनंद का सुख से उतना ही संबंध है, जितना दुख से। या उतना ही संबंध नहीं है। आनंद का अर्थ है, जहां सुख-दुख दोनों व्यर्थ हो गए वह चित्त की दशा। समर्पण के बाद आनंद है। लेकिन अगर न हो, तो समझना कि समर्पण नहीं है। यह मत समझना कि समर्पण के बाद आनंद नहीं है। समर्पण के बाद आनंद न हो, तो समझना कि समर्पण नहीं है। समर्पण के बाद आनंद है ही। समर्पण शरीर है और आनंद उसकी आत्मा है। लेकिन समर्पण पूरा होना चाहिए। पूरे समर्पण का अर्थ है कि अब मेरा कोई चुनाव नहीं। अब मैं नहीं कहता, यह मिले, अब मैं यह नहीं कहता, यह न मिले। अब मैं हूं ही नहीं। अब मेरा कोई निर्णय नहीं है। अब मैंने अपनी बागडोर उसके हाथ में डाल दी है। वह पूरब ले जाए तो ठीक, पश्चिम ले जाए तो ठीक, कहीं न ले जाए तो ठीक। जो भी वह करे, ठीक। मेरी ही बेशर्त है। वह जो भी कहेगा, मैं कहूंगा, हा। फिर चिंता आपको नहीं रह जाएगी कि सुख-दुख के भाव उठेंगे, तो हम उनको कैसे रोकेंगे। आप ही न बचेंगे, उनको रोकने की आपको कोई भी जरूरत न रह जाएगी। वे भी न बचेंगे। आपके साथ ही समाप्त हो जाएंगे। वे आपके ही संगी - साथी हैं। अहंकार का ही पहलू है एक सुख, और एक दुख। अहंकार को जो बात रुचती है वह सुख, जो बात नहीं रुचती वह् दुख। अहंकार खो जाता है, दोन
ों भी खो जाते हैं। जो शेष रह जाता है, उसको नियंत्रण करने की जरूरत भी नहीं है। और जिसने परमात्मा के हाथ में अपनी नाव छोड़ दी, अब उसको अपने साथ नियंत्रण की समझदारी ले जाने की जरूरत नहीं है। उसकी समझदारी अब काम भी नहीं पडेगी। एक मित्र ने पूछा है, आपकी बातों को समझने के लिए तो बुद्धि की ही आवश्यकता पड़ती है, तो इस अवसर पर बुद्धि को ही प्राथमिकता देनी चाहिए या भाव को? क्या सिर्फ भाव को प्रधानता देने से आपकी बातें समझ में आ जाएंगी? निश्चित ही, मेरी बात समझनी है, तो बुद्धि से समझनी पड़ती है। लेकिन अगर मेरी बात अनुभव करनी है, तो भाव से करनी पड़ेगी। समझ के लिए बुद्धि जरूरी है। लेकिन समझ अनुभव नहीं है। अगर समझ पर ही रुक गए और समझदार होकर ही रुक गए, तो आप बड़े नासमझ हैं। मैं जो कह रहा हूं उसे समझने के लिए बुद्धि की जरूरत है। लेकिन मैं जो कह रहा हूं उसका अनुभव करने के लिए भाव की जरूरत है। तो बुद्धि से समझ लेना, और फिर भाव से करने में उतर जाना। अगर बुद्धि पर ही रुक गए और भाव तक न गए, तो वह समझ बेकार हो गई और मैं आपका दुश्मन साबित हुआ। आप वैसे ही काफी बोझ से भरे थे और मैंने थोड़ा बोझ बढ़ा दिया। आपके मस्तिष्क पर ऐसे ही काफी कूड़ा-करकट इकट्ठा है, उसमें मैंने और थोड़ा उपद्रव जोड़ दिया। बुद्धि का काम है समझ लेना। लेकिन वहीं रुक जाना बुद्धिमान का लक्षण नहीं है। समझकर उसे प्रयोग में ले आना और भाव में उतार देना, अनुभव बना लेना। और जब तक कोई चीज अनुभव न बन जाए, तब तक ऐसी ही हालत होती है कि आप कोई चीज पेट में गटक लें और पचा न पाएं। तो बीमारी पैदा करेगी, विजातीय हो जाएगी, जहर बन जाएगी, और शरीर से बाहर निकालने का उपाय करना पड़ेगा। लेकिन आप कोई चीज चबाएं, ठीक से पचाएं, तो खून बनती है, मांस - मज्जा बनत
ी है। बीमारी नहीं होती, फिर उससे स्वास्थ्य पैदा होता है। बुद्धि का काम है कि आपके भीतर ले जाए लेकिन भाव का काम है कि पचाए। और जब तक आप भाव से पचा न सकें, डायजेस्ट न कर सकें, तब तक सब ज्ञान जहर हो जाता है। तो अच्छा हो कि अपने कान बंद कर लेना चाहिए। जो बात भाव में न उतारनी हो, उसे न सुनना ही बेहतर है। क्या सार है? हम खाने में उन्हीं चीजों को खाते हैं, जिन्हें हमें पचाना है। जिन्हें नहीं पचाना है, उन्हें नहीं खाते। नहीं खाना चाहिए. क्योंकि उन्हें खाने का अर्थ है कि हम पेट पर व्यर्थ का बोझ डाल रहे हैं और शरीर की व्यवस्था को रुग्ण कर रहे हैं। और अगर इस तरह की चीजें हम खाते ही चले जाएं, तो हम शरीर को पूरी तरह नष्ट कर डालेंगे। तो भोजन हमारा जीवन नहीं बनेगा, मृत्यु बन जाएगा। शब्द भी भोजन हैं। आप ऐसा मत सोचना कि सुन लिया। सुन लिया नहीं, आपके भीतर चली गई बात। अब आप इससे बच नहीं सकते। कुछ करना पड़ेगा। या तो इसे पचाना पड़ेगा और या फिर यह आपके भीतर बीमारी पैदा करेगी। बहुत लोग ज्ञान से बीमार हैं। उनको ज्ञान का अपच हो गया है। काफी सुन लिया है, पढ़ लिया है, चारों तरफ से इकट्ठा कर लिया है और पचाने की उन्हें कोई सुध-बुध नहीं है। वे भूल ही गए कि पचाना भी है। अब वह सब पत्थर की तरह उनकी छाती पर बैठ गया है। उससे तो बेहतर है सुनना ही मत, पढ़ना ही मत। जब लगे कि पचाने की तैयारी है, तो! बुद्धि भीतर ले जाने का द्वार है। भाव पचाने की व्यवस्था है। सुनें, बुद्धि से समझें, और भाव तक पहुंचने दें। निश्चित ही, बुद्धि दो तरह के काम कर सकती है। या तो भाव तक पहुंचने दे और या बाहर ठेलने की कोशिश करे, भीतर न आने दे। अगर आप सिर्फ तर्क का ही भरोसा करते हों, तो आपकी बुद्धि चीजों को बाहर धक्का देना शुरू कर देगी। क्योंकि जो बात तर्क की पकड़ में नहीं आएगी, बुद्धि कहेगी, भीतर मत लाओ। और जितनी कीमती बातें हैं, कोई भी तर्क की पकड़ में नहीं आतीं। क्योंकि तर्क की पकड़ में वही बात आ सकती है, जो केवल तर्क हो। अनुभव की कोई भी बात तर्क की पकड़ में नहीं आ सकती। तर्क और अनुभव का कहीं मेल नहीं होता। एक अंधा आदमी है, उसको प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। आप उसको कितना ही तर्क करिए, समझ में नहीं आ सकता। वह इनकार करता चला जाएगा। वह तर्क देगा, आपको गलत सिद्ध करेगा। उसकी बुद्धि अगर तर्क से ही चले...। हम सब भी ऐसा ही कर रहे हैं परमात्मा के संबंध में। तर्क से ही चलते हैं, इनकार करते चले जाते हैं। इनकार का एक अवरोध खड़ा हो जाता है। फिर कोई चीज भीतर प्रवेश नहीं करती। तर्क पहले ही कह देता है, बेकार है। गणित में नहीं आती। अनुभव की बात रहस्य मालूम पड़ती है। यह अपनी सीमा नहीं। तर्क कह देता है, इसे बाहर छोड़ो। बुद्धि दूसरा काम कर सकती है कि द्वार बन जाए। जो अनुभव में आने योग्य हो, चाहे तर्क की समझ में न भी आता हो, उस पर भी प्रयोग करने की हिम्मत सदबुद्धि है। नहीं तो बुद्धि दुर्बुद्धि हो जाती है। तर्क कुतर्क हो जाता है। नहीं, मुझे अनुभ
व में नहीं है, लेकिन मैं प्रयोग करके देखूंगा। हजार चीजें हैं, जो आपके अनुभव में नहीं हैं। लेकिन आप प्रयोग करके देखें, तो आपका अनुभव बढ़ सकता है। और अनुभव में चीजें आ सकती हैं। और न आएं अनुभव में, तो मत मानना। लेकिन अनुभव के पहले इनकार कर देना अज्ञान है। तो ईश्वर को, आत्मा को, मुक्ति को, आनंद को, अद्वैत को बिना अनुभव के इनकार कर देना अज्ञान है। अनुभव का एक मौका अपने को दें। अब तक जिसने भी अनुभव किया, वह इनकार नहीं कर पाया। और जिन्होंने इनकार किया, उन्होंने अनुभव नहीं किया, सिर्फ तर्क से ही बात चलाई है। तर्क बड़े खतरनाक हो सकते हैं और गलत चीजों के पक्ष में भी दिए जा सकते हैं। सही चीजों के विपरीत भी दिए जा सकते हैं। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने लड़के का विवाह करना चाहता था। एक धनी लड़की थी - कुरूप, बेडौल, बदशक्ल। मुल्ला का इरादा धन पर था। तो अपने लड़के को कहा कि सुना तूने, सुलताना से तेरे विवाह की बात चलाई है। लड़के ने कहा, सुलताना! क्या मतलब? गांव के नगरसेठ की लड़की? उससे? लेकिन उसे तो कम दिखाई पड़ता है! मुल्ला ने कहा, अभागे, अपने को भाग्यवान समझ। पत्नी को कम दिखाई पड़ता हो, इससे ज्यादा अच्छी बात पति के लिए और क्या हो सकती है! तू सदा स्वतंत्र रहेगा। जो भी करना हो कर। पत्नी को कुछ दिखाई भी नहीं पड़ेगा। लड़का थोड़ा चौंका। उसने कहा, लेकिन मैंने सुना है कि वह तुतलाती भी है, हकलाती भी है! मुल्ला ने कहा, अगर मुझे शादी करनी होती दोबारा, तो मैं ऐसी ही स्त्री से शादी करता। यह तो भगवान का वरदान समझ। क्योंकि स्त्री अगर तुतलाए, हकलाए तो ज्यादा बोलने की हिम्मत नहीं जुटाती। पति शांति से जीता है! उसके लड़के ने कहा, लेकिन मैंने तो सुना है कि वह बहरी भी है! उसे ठीक सुनाई भी नहीं पड़ता
! नसरुद्दीन ने कहा कि नालायक, मैं तो सोचता था तुझमें थोड़ी बुद्धि है। अरे, पत्नी बहरी हो, इससे बेहतर और क्या । तू गाली दे, चिल्ला, नाराज हो, वह कुछ भी नहीं समझ पाएगी। लड़के ने आखिरी बार हिम्मत जुटाई। उसने कहा, यह भी सब ठीक। लेकिन उसकी उम्र मुझसे बीस साल ज्यादा है! मुल्ला ने कहा, एक छोटे-से दोष के लिए कि वह बीस साल पहले पैदा हुई, इतना महान अवसर चूकता है! इतनी - सी छोटी - सी बात को नाहक शोर-गुल मचाता है ! ऐसी सुंदर स्त्री तेरे लिए ढूंढ रहा हूं और तू छोटी-सी बात कि बीस साल ज्यादा है! तो दुनिया में पूर्णता तो कहीं भी नहीं होती। आदमी किस - किस बात के लिए क्या-क्या तर्क नहीं खोज सकता है! ऐसी कोई बात आपने सुनी, जिसके विपरीत तर्क न खोजा जा सके? या ऐसी कोई बात सुनी, जिसके पक्ष में तर्क न खोजा जा सके? तर्क का अपना कोई पक्ष नहीं है, न कोई विपक्ष है। तर्क तो नंगी तलवार है। उससे मित्र को भी काट सकते हैं, शत्रु को भी काट सकते हैं। और चाहें तो अपने को भी काट सकते हैं। तलवार का कोई आग्रह नहीं है कि किसको काटें। इसलिए जरा तलवार सम्हालकर हाथ में लेना। उससे क्या काट रहे हैं, थोड़ा सोच लेना। बहुत - से लोग अपने ही तर्क से खुद को काट डालते हैं। तर्क का उपयोग करना, अगर वह अनुभव की तरफ ले जाए। तर्क का उपयोग करना, अगर वह जीवन की गहराई की तरफ ले जाए। तर्क का उपयोग करना, अगर वह शिखरों का दर्शन कराए। तर्क का उपयोग करना, अगर वह गहराइयों में उतारे। अगर तर्क गहराइयों में उतरने से रोकता हो, तो ऐसे तर्क को कुतर्क समझना; छोड़ देना, क्योंकि वह आत्महत्या है। मेरी बात बुद्धि से समझें। लेकिन वह बात केवल बुद्धि की नहीं है। बुद्धि का हम उपयोग कर रहे हैं एक माध्यम की तरह, एक साधन की तरह। वह बात भाव की है। और जब तक आपके भाव में न आ जाए, तब तक यात्रा अधूरी है। और यात्रा शुरू ही करनी हो, तो मंजिल तक जाने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि तभी रहस्य खुलता है। एक मित्र ने पूछा है कि क्या यह संभव है कि अहंकार से भरे हुए इस जगत में कोई व्यक्ति निरहंकारी होकर जी सके और सफल भी हो सके? क्या जहां सारे लोग अहंकार से भरे हैं, वहां निरहंकारी होकर जीना धारा के विपरीत तैरना न होगा? क्या इससे अड़चन, कठिनाइयां, असफलताएं न आएंगी? थोडा समझें। पहली तो बात कि क्या अहंकार से भरे हुए इस जगत में कोई व्यक्ति निरहंकारी होकर सफल हो सकता है? निरहंकार सफलता की मांग नहीं करता। अहंकार सफलता की मांग करता है। निरहंकार सफलता की मांग ही नहीं करता। सफलता का मतलब क्या है? सफलता का मतलब है कि मैं दूसरों से आगे। सफलता का मतलब है कि क्या मैं दूसरों को असफल कर सकूंगा? सफलता का मतलब है, क्या मैं दूसरों को पीछे छोड़कर उनके आगे खड़ा हो सकूंगा? सफलता का अर्थ है, महत्वाकांक्षा, एंबीशन। ये सब तो अहंकार के लक्षण हैं। अहंकार कहता है कि मुझे आगे खड़े होना है, नंबर एक होना है। नंबर दो में बड़ी पीड़ा है। पंक्ति में पीछे खड़ा हूं क्यू में, तो भारी दुख
है। जितना पीछे हूं उतनी पीड़ा है। नंबर एक होना है। अहंकार की खोज महत्वाकांक्षा की खोज है। और जब मुझे नंबर एक होना है, तो दूसरों को मुझे हटाना पड़ेगा; और दूसरों को मुझे रौंदना पड़ेगा; और दूसरों के सिरों का मुझे सीढ़ियों की तरह उपयोग करना पड़ेगा; और दूसरों के ऊपर, छाती पर चढ़कर मुझे आगे जाना पड़ेगा। सिंहासनों के रास्ते लोगों की लाशों से पटे हैं। तो अहंकार की तो खोज ही यही है कि मैं सफल हो जाऊं। तो आपको खयाल में नहीं है। जब आप पूछते हैं कि अगर मैं निरहंकारी हो जाऊं, तो क्या मैं सफल हो सकूंगा? इसका मतलब हुआ कि आप निरहंकारी भी सफल होने के लिए होना चाहते हैं! तो आप चूक गए बात ही। निरहंकारी होने का अर्थ यह है कि सफलता का मूल्य अब मेरा मूल्य नहीं है। मैं कहां खड़ा हूं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा हूं तो भी उतना ही आनंदित हूं जितना प्रथम खड़ा हो जाऊं। जीसस ने कहा है, इस जगत में जो सबसे पीछे खड़े हैं, मेरे प्रभु के राज्य में वे सबसे प्रथम होंगे। लेकिन इस जगत में जो सबसे पीछे खड़े हैं ! निरहंकार का मतलब है कि पीछे खड़े होने में भी मुझे उतना ही मजा है। मेरे मजे में कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मेरे खड़े होने में है। मेरे होने में मेरा मजा है। लाओत्से ने कहा है, मुझे कभी कोई हरा न सका, क्योंकि मैं लड़ने के पहले ही हारा हुआ हूं। मेरा कोई कभी अपमान न कर सका, क्योंकि मैंने अपने मान की कोई चेष्टा नहीं की। और सभाओं में जहां लोग जूते उतारते हैं, वहां मैं बैठ जाता हूं, ताकि कभी किसी को उठाने का मौका न आए। तो लाओत्से ने कहा है कि मेरी विजय असंदिग्ध है। मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं लड़ने के पहले ही हार जाता हूं। मैं हारा ही हुआ हूं। निरहंकार का अर्थ है कि जो कहता है,
हमने तुम्हारे लड़ने की नासमझी, विजय की मूढ़ता, तुम्हारा संघर्ष, तुम्हारी महत्वाकांक्षा, इसका पागलपन अच्छी तरह समझ लिया और अब हम इसमें सम्मिलित नहीं हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता। इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल होगा नहीं। बारीक फासले हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल नहीं होगा। वही सफल होता है। लेकिन उसकी सफलता की यात्रा का पथ बिलकुल दूसरा है। लोग धन इकट्ठा कर लेते हैं बाहर का । निरहंकारी भीतर के धन को उपलब्ध हो जाता है। लोग बाहर की विजय इकट्ठी कर लेते हैं। निरहंकारी भीतर उस जगह पहुंच जाता है, जहां कोई हार संभव नहीं है। लोग जीवन के लिए सामान जुटा लेते हैं, निरहंकारी जीवन को ही पा लेता है। लोग क्षुद्र को इकट्ठा करने में समय व्यतीत कर देते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं; निरहंकारी विराट से जुड़ जाता है। निरहंकार की सफलता अदभुत है। लेकिन वह सफलता का आयाम दूसरा है। उसे कौड़ियों में, रुपए - पैसे में नहीं तौला जा सकता। इस संसार की सफलता से उस सफलता का कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन इस संसार में भी निरहंकारी से ज्यादा शात और आनंदित आदमी नहीं पाया जा सकता। तो अगर आप सफल होना चाहते हैं, तो कृपा करके अहंकार के रास्ते पर ही चलें। अगर आपको सफलता की मूढ़ता दिखाई पड़ गई है कि सफल होकर भी कौन सफल हुआ है? कौन नेपोलियन, कौन सिकंदर, कहां है? किसने क्या पा लिया है? अगर आपको यह समझ में आ गया हो, तो सफलता शब्द को छोड़ दें। वह अज्ञानपूर्ण है। बच्चों के लिए शोभा देता है। आप सफलता की बात ही छोड़ दें किसी से आगे होने का मतलब भी क्या है? और आगे होकर भी क्या करिएगा? आगे ही क्यू में खड़े हो गए, तो वहां है क्या? जो आगे खड़े हो जाते हैं, बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। क्योंकि फिर उनको तकलीफ यह होती है कि अब क्या करें! सिकंदर से किसी ने कहा था कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा, तो तूने कभी सोचा है कि फिर क्या करेगा! तो सिकंदर एकदम उदास हो गया था और उसने कहा कि नहीं, मुझे यह खयाल नहीं आया। लेकिन तुम ऐसी बात मत करो। इससे मन बड़ा उदास होता है। कि अगर मैं सारी दुनिया जीत लूंगा, तो कोई दूसरी दुनिया तो है नहीं। तो फिर मैं क्या करूंगा! पूछें राष्ट्रपतियों से, प्रधानमंत्रियों से कि जब वे क्यू के आगे पहुंच जाते हैं, तो वहां कोई बस भी नहीं जिस पर सवार हो जाएं। वहा कुछ भी नहीं है। बस, क्यू के आगे खड़े हैं। और पीछे से लोग धक्का दे रहे हैं, क्योंकि वे आगे आने की कोशिश कर रहे हैं। और वह जो आगे आ गया है, उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि अब वह यह भी नहीं कह सकता कि अपनी पूंछ कट गई; यहां आकर कुछ मिला नहीं। और अब पीछे लौटने में भी बेचैनी मालूम पड़ती है कि अब क्यू में कहीं भी खड़ा होना बहुत कष्टपूर्ण होगा। इसलिए वह कोशिश करता है कि जमा रहे वहीं । लेकिन वह अकेला ही तो नहीं है। सारी दुनिया वहीं पहुंचने की कोशिश कर रही है। तो पीछे धक्के हैं! लोग टांग खींच रहे हैं। सब उतारने की कोश
िश में लगे हैं। सब मित्र भी शत्रु हैं वहां। क्योंकि वे जो आस-पास खड़े हैं, वे सब वहीं पहुंचना चाह रहे हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ का कोई दोस्त नहीं होता। हो नहीं सकता। सब मित्र शत्रु होते हैं। मित्रता ऊपर-ऊपर होती है, भीतर शत्रुता होती है। क्योंकि वे भी उसी जगह के लिए, क्यू में नंबर एक आने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ को जितना अपने शत्रुओं से सावधान रहना पड़ता है, उससे ज्यादा अपने मित्रों से। क्योंकि शत्रु तो काफी दूर रहते हैं, उनके आने में काफी वक्त लगता है। उतनी देर में कुछ तैयारी हो सकती है। मित्र बिलकुल करीब रहते हैं। जरा - सा धक्का और वे छाती पर सवार हो जाएंगे। तो उनको ठिकाने पर रखना पड़ता है चौबीस घंटे। तो प्राइम मिनिस्टर्स का काम इतना है कि अपने कैबिनेट के मित्रों को ठिकाने पर रखे। कि कोई भी जरा ज्यादा न हो जाए! और जरा ज्यादा अकड़ न दिखाने लगे, और जरा तेजी में न आ जाए कोई। तेजी में आया, तो उसको दुरुस्त करना एकदम जरूरी है। क्योंकि वह वही काम कर रहा है, जो कि पहले इन सज्जन ने किया था! तो यह जो मूढ़ता है, जिसको दिखाई पड़ जाए-चाहे धन का हो, चाहे पद का हो, चाहे यश का हो - जिसको यह मूढ़ता दिखाई पड़ जाए कि यह विक्षिप्तता है, कि पहले पहुंचकर करिएगा क्या! तो आदमी निरहंकार की यात्रा पर चलता है। निरहंकार सफलता - असफलता की व्यर्थता का बोध है। लेकिन तब सफलता होती है। पर वह आंतरिक है। हो सकता है, इस जगत में उसका कोई मूल्यांकन भी न हो। बुद्ध को कितनी सफलता मिली, हम कैसे आंके? क्योंकि बैंक बैलेंस तो कुछ है नहीं। बुद्ध को कुछ मिला कि नहीं मिला, हम कैसे पहचानें? क्योंकि इतिहास में कहीं कोई मूल्यांकन नहीं हो सकता। जो मिला है, वह कुछ दूसरे आयाम, किसी दूसरे डायमेंशन का है। इस जगत में
उसकी कोई पहचान नहीं है। लेकिन फिर भी हमको उसकी सुगंध लगती है। बुद्ध के उठने में, बैठने में हमें लगता है कि कुछ मिल गया है। उनकी आंखों में लगता है कि कुछ मिल गया है। उनका मौन, उनकी शांति, उनका आनंद! जीवन में उनका अभय, जीवन के प्रति उनकी गहन आस्था ! मृत्यु से भी जरा - सा संकोच नहीं। खो जाने की सदा तैयारी। जैसे वह पा लिया हो, जो खोता ही नहीं है। अमृत का कोई अनुभव उन्हें हुआ है। उसकी हमें सुगंध, उसकी थोड़ी झलक, उसकी भनक, उनके स्पर्श से, उनकी मौजूदगी से लगती है। लेकिन संसार की भाषा में उसे तौलने का कोई उपाय नहीं, कोई तराजू नहीं, कोई कशिश नहीं कि नाप लें, जांच लें, क्या मिला है। सफलता तो निरहंकार की है। सच तो यह है कि सिर्फ निरहंकार ही सफल होता है। लेकिन वे फल, जो निरहंकार की सफलता में लगते हैं, आंतरिक हैं, भीतरी हैं। संसार की सफलता निरहंकार की सफलता नहीं है। लेकिन संसार की कोई सफलता सफलता ही नहीं है। तो यह मत पूछें। और यह भी मत पूछें कि इतने जहां लोग अहंकार से भरे हैं, अगर हम इन सबके विपरीत बहने लगें, तो बड़ी अड़चन होगी! आप गलती में हैं। अहंकार का मतलब ही होता है, धारा के विपरीत बहना। अहंकार का मतलब होता है कि नदी से विपरीत बहना। नदी की धार बह रही है पश्चिम की तरफ, तो आप बह रहे हैं पूरब की तरफ। अहंकार का मतलब ही होता है, उलटे जाना। क्योंकि लड़ने में अहंकार का रस है। जब धारा से कोई विपरीत लड़ता है, तभी तो पता चलता है कि मैं हूं। जब आप नदी में धारा के साथ बहते हैं, तो कैसे पता चलेगा कि आप हैं! जब आप लड़ते हैं धारा से, तब पता चलता है कि मैं हूं। तो अहंकार है, जीवन की धारा के विपरीत। निरहंकार है, धारा के साथ। माना कि और सब लोग जो ऊपर की तरफ जा रहे हैं धारा में, आप उनसे नीचे की तरफ जाएंगे। लेकिन आप यह मत सोचिए कि इससे वे दुखी होंगे। इससे वे प्रसन्न होंगे, क्योंकि एक कापिटीटर कम हुआ, एक प्रतियोगी अलग हटा। इसलिए आप जरा देखें, अहंकारी भी निरहंकारियो को सम्मान देते हैं! राजनीतिज्ञ भी कभी साधु के चरणों में आकर बैठता है। यह आदमी अलग हट गया मैदान से। एक दुश्मन कम हुआ। इसने लड़ाई छोड़ दी। यह बहने लगा धारा में। तो आपको लगता है कि आप विपरीत धारा में बहेंगे निरहंकारी होकर, तो गलत लगता है। आप अहंकारी होकर धारा के विपरीत बह रहे हैं, जीवन की धारा के विपरीत। निरहंकारी होकर आप जीवन की धारा में बहेंगे। ही, और अहकारियों के विपरीत आप जाएंगे, लेकिन इससे कोई अड़चन न होगी। अड़चन हो सकती है, अगर आप निरहंकार से भी संसार का धन, संसार की प्रतिष्ठा और पद पाना चाहते हों। तो हो सकती है। सुना है मैंने, एक सम्राट प्रार्थना कर रहा था एक मंदिर में। वर्ष का पहला दिन था और सम्राट वर्ष के पहले दिन मंदिर में प्रार्थना करने आता था। वह प्रार्थना कर रहा था और परमात्मा से कह रहा था कि मैं क्या हूं! धूल हूं तेरे चरणों की । धूल से भी गया बीता हूं। पापी हूं। मेरे पापों का कोई अंत नहीं है। दुष्ट हूं क्रूर हूं
कठोर हूं। मैं कुछ भी नहीं हूं। आई एम जस्ट ए नोबडी, ए नथिंग। बड़े भाव से कह रहा था। और तभी पास में बैठा एक फकीर भी परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था और वह भी कह रहा था कि मैं भी कुछ नहीं हूं। आई एम नोबडी, नथिंग। सम्राट को क्रोध आ गया। उसने कहा, लिसेन, हू इज क्लेमिंग दैट ही इज नथिंग? एंड बिफोर मी! सुन, कौन कह रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं? और मेरे सामने! जब कि मैं कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं हूं तो कौन प्रतियोगिता कर रहा है? जो आदमी कह रहा है, मैं कुछ भी नहीं हूं, वह भी इसकी फिक्र में लगा हुआ है कि कोई दूसरा न कह दे कि मैं कुछ भी नहीं हूं। कोई प्रतियोगिता न कर दे। अब जब तुम कुछ भी नहीं हो, तो अब क्या दिक्कत है! अब क्या डर है ! लेकिन कहीं दूसरा इसमें भी आगे न निकल जाए! अहंकार के खेल बहुत सूक्ष्म हैं। तो अगर आप किसी निरहंकारी से कहें कि तुमसे भी बड़े निरहंकारी को मैंने खोज लिया है, तो उसको भी दुख होता है, कि अच्छा, मुझसे बड़ा? मुझसे बड़ा भी कोई विनम्र है? तुम गलती में हो। मैं आखिरी हूं। उसके आगे, मुझसे बड़ा विनम्र कोई भी नहीं है। उसको भी पीड़ा होती है। निरहंकारी को भी लगता है कि मुझसे आगे कोई न निकल जाए! तो फिर यह अहंकार की ही यात्रा रही । फिर यह निरहंकार झूठा है, थोथा है। निरहंकार का मतलब है, हम प्रतियोगिता के बाहर हट गए। अब हमसे कोई आगे - पीछे कहीं भी हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। हम अपने होने से राजी हो गए। अब हमारी दूसरे से कोई स्पर्धा नहीं है। निरहंकार का मतलब है, मैं जैसा हूं हूं। अब मैं किसी के आगे और पीछे अपने को रखकर नहीं सोचता। अब मैं अपनी तुलना नहीं करता हूं। और मेरा मूल्य मैं तुलना से नहीं आंकता हूं। जिस दिन कोई व्यक्ति अपना मूल्य तुलना से नहीं आंकता, उसने संसार के तर
ाजू से अपने को हटा लिया। लेकिन ऐसा व्यक्ति परमात्मा की आंखों में मूल्यवान हो जाता है। जो व्यक्ति पड़ोसियों की आंखों का मूल्य खोने को राजी है, वह परमात्मा की आंखों में मूल्यवान हो जाता है। और जो व्यक्ति पड़ोसियों की आंखों में ही अपने मूल्य को थिर करने में लगा है, उसका कोई मूल्य परमात्मा की आंखों में नहीं हो सकता है। यहां से जो हटता है प्रतियोगिता से, तत्क्षण परमात्मा के हाथों में उसका गौरव है। इसलिए जीसस ने कहा कि जो यहां अंतिम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जाएंगे। लेकिन आप अंतिम होने की कोशिश इसलिए मत करना कि प्रभु के राज्य में प्रथम होना है! नहीं तो आप अंतिम हो ही नहीं रहे हैं। जीसस जिस दिन पकड़े गए और जिस दिन, दूसरे दिन उनकी मौत हुई, रात जब उनके शिष्य उन्हें छोड़ने लगे, तो एक शिष्य ने उनसे पूछा कि जाते-जाते यह तो बता दो! माना कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में हम प्रथम होंगे, लेकिन हम भी बारह हैं। तो सबसे प्रथम कौन होगा? माना कि तुम तो प्रभु के पुत्र हो, तो बिलकुल सिंहासन के बगल में बैठोगे। लेकिन तुम्हारे बगल में कौन बैठेगा? वे बारह जो शिष्य हैं, उनको भी चिंता है कि वहां बारह की पोजीशन! कौन कहां बैठेगा? तो बात ही चूक गई। जीसस को खो गए। फिर जीसस को समझे ही नहीं। प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे, यह परिणाम है, अगर आप अंतिम होने को राजी हैं। लेकिन अगर यह आपकी वासना है, तो यह कभी भी नहीं होगा। क्योंकि तब आप अंतिम होने को राजी ही नहीं हैं। तब तो आप प्रथम ही होने को राजी हैं। यह संसार हो कि वह संसार हो, कहीं भी, लेकिन होना प्रथम है। आप लगे हैं उपद्रव में प्रतियोगिता के। निरहंकार का अर्थ है कि परमात्मा की आंखों में जैसा भी मैं हूं, मैं आनंदित हूं। और अब मैं किसी से तुलना नहीं करता हूं। और मैं छोड़ता हूं प्रतियोगिता। यह समझ, यह बोध जिसे आ जाए, फिर वह इसकी फिक्र नहीं करेगा कि क्या तकलीफें होंगी। कोई तकलीफ न होगी। सब तकलीफें अहंकार से होती हैं। निरहंकारी को कोई भी तकलीफ नहीं है। चुभता ही कांटा, अहंकार के घाव में है। एक आदमी निकला और उसने नमस्कार नहीं किया। रोज करता था। तकलीफ शुरू हो गई! कुछ भी नहीं था। यह हाथ जोड़ लेता था, तो क्या मिलता था! और आज नहीं जोड़े, तो क्या तकलीफ हो रही है। किसी ने गाली दे दी, तो तकलीफ हो गई! किसी ने जरा ढंग से न देखा, तो तकलीफ हो गई! रास्ते से जा रहे थे, कोई हंसने लगा, तो तकलीफ हो गई! कहां, यह घाव है कहां? यह आपका अहंकार है, जिसमें यह घाव है। तो आप सोचते हैं कि कोई हंस रहा है, तो बस, मुझे ही सोचकर हंस रहा है। कोई गाली दे रहा है, तो मुझे नीचे उतार रहा है। आप ऊपर चढ़े क्यों हैं? कोई गाली भी देकर कितना नीचे उतारेगा? आप उससे पहले ही नीचे खड़े हो जाएं। कोई सम्मान नहीं कर रहा है, तो पीड़ा हो रही है। क्योंकि सम्मान की मांग। दुख दूसरा रहा। दुख का घाव आप पहले बनाए हैं; दूसरा तो घाव को छू रहा है सिर्फ। अहंकार छूटते ही पीड़ा का विसर्जन हो जाता
है। आपका घाव ही समाप्त हो गया। आपने खयाल किया है, अगर पैर में चोट लग जाए किसी दिन, तो फिर दिनभर उसी जगह चोट लगती है। लेकिन आपने खयाल किया कि सारी जमीन आपके घाव की इतनी फिक्र कर रही है! दरवाजे से निकलें, तो दरवाजा उसी में चोट मारता है। कुर्सी के पास जाएं, तो कुर्सी उसमें चोट मारती है। बच्चे से बात करने लगें, तो बच्चा उस पर पैर रख देता है। यह मामला क्या है कि सारी दुनिया को पता हो गया है कि आपके पैर में चोट लगी है! और सब उसी को चोट मार रहे हैं। किसी को पता नहीं है। लेकिन आज आपको चोट लगती है, क्योंकि घाव है। कल भी लगती थी, लेकिन पता नहीं चलता था, क्योंकि घाव नहीं था। कल भी इस बच्चे ने यहीं पैर रखा था, और यह कुर्सी कल भी यहीं छू गई थी, लेकिन तब आपको पता भी नहीं चला था, क्योंकि घाव नहीं था। अहंकार घाव है। फिर हर चीज - उसी में लगती है। आप तैयार ही खड़े हैं कि आओ और लगो! और जब तक कुछ न लगे, तब तक आपको बेचैनी लगती है कि आज बात क्या है, कुछ लग नहीं रहा है! और हर आदमी सम्हला हुआ चल रहा है कि कोई न कोई लगाने आ रहा है। इतनी भीड़ है, इतनी बड़ी दुनिया है, किसी को मतलब है आपसे ! कोई आपको चोट पहुंचाने को उत्सुक नहीं है। और अगर कोई पहुंचा भी देता है, तो वह चोट आपको इसलिए पहुंचती है कि आप घाव तैयार रखे हैं। नहीं तो पता भी नहीं चलता। ठीक था, किसी ने गाली दी और आप अपने रास्ते पर चले गए। बुद्ध को लोगों ने गालियां दी हैं। तो बुद्ध ने कहा है कि जब तुम गाली देते हो, तब मैं सोचता हूं कि तुम किसको गाली दे रहे हो! इस शरीर को? तो यह तो मिट ही जाएगा। और जो मिट ही जाने वाला है उसके साथ गाली का क्या लेना - देना! तुम मुझको गाली दे रहे हो? तुम्हें मेरा क्या पता होगा? तुम्हें अपना ही पता नहीं है। तो मैं स
ोचता हूं और हंसता हूं कि क्या हो गया है! स्वामी राम कहते थे कि कोई उन्हें गाली दे दे, तो वे हंसते हुए आते थे और कहते थे, आज बाजार में बड़ा मजा आ गया! राम को लोग गालियां देने लगे। और हम खडे होकर हंसने लगे कि अच्छे फंसे राम! और चाहो नाम, उपद्रव होगा! जब वे पहली दफा अमेरिका गए, तो लोग समझे नहीं कि वे किसको राम कहते हैं। वे खुद को ही राम कहते थे, खुद के शरीर को। वे कहते कि राम को आज बड़ी भूख लगी है, हम बड़े हंसने लगे। या राम को लोगों ने गालियां दीं, और हम हंसने लगे। तो लोग पूछते कि आप किसकी बात कर रहे हैं? तो वे कहते, इस राम की। इसको जब गाली पड़ती है, तो हम पीछे खड़े होकर हंसते हैं कि देखो, अब क्या होता है! अब यह राम क्या करता है! यह अहंकार अब क्या करता है! अगर आप पीछे खड़े होकर हंसने लगें, तो फिर यह कुछ भी नहीं कर सकेगा। यह गिर ही जाएगा। यह करता ही तब तक है, जब तक आप मानते हैं कि यही मैं हूं। जब तक यह आइडेंटिफिकेशन है, यह तादात्म्य है, तभी तक इसकी पीडा है। अहंकार से हटकर देखें। अहंकार से हटते ही आप नरक से हट गए। अहंकार से हटते ही स्वर्ग का द्वार खुल गया। अहंकार से हटते ही इस जगत में आपका न कोई संघर्ष है, न कोई प्रतिस्पर्धा है। अहंकार से हटते ही यह जगत आपको स्वीकार कर लेगा, जैसे आप हैं। अहंकार से हटते ही आप परमात्मा की आंखों में ऊपर उठ गए। अब हम सूत्र को लें। और यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन, अभ्यासरूप - योग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर। कृष्ण ने कहा, और अगर तू पाए कि एकदम से भाव कैसे करूं, और एकदम से मन को कैसे लगा दूं प्रभु में, और एकदम से कैसे डूब जाऊं, लीन हो जाऊं; अगर तुझे ऐसा प्रश्न उठे कि कैसे, तो फिर अभ्यासरूप - योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर। यह बात समझ लेने जैसी है। दो तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैं, जिनको यह कहते से ही कि डूब जाओ, डूब जाएंगे। वे नहीं पूछेंगे, कैसे? छोटे बच्चे हैं। उनसे कहो कि नाचो और नाच में डूब जाओ। तो वे यह नहीं पूछेंगे, कैसे? नाचने लगेंगे और डूब जाएंगे। और अगर कोई बच्चा पूछे कैसे, तो समझना कि का उसमें पैदा हो गया, वह अब बच्चा है नहीं। कैसे का मतलब ही यह है कि पहले कोई तरकीब बताओ, तब हम डूबेंगे। डूब सीधा नहीं सकते। इसका मतलब यह हुआ कि डूबने और हमारे बीच में कोई बाधा है, जिसको तोड्ने के लिए तरकीब की जरूरत होगी। बच्चा डूब जाएगा; नाचने लगेगा। बच्चा जानता ही है। खेल में डूब जाता है। बच्चे को खेल से निकालना पड़ता है, डुबाना नहीं पड़ता। बच्चा डूबा होता है; मां-बाप को खींच - खींचकर बाहर निकालना पड़ता है, कि निकल आओ। अब चलो। और वह है कि खिंचा जा रहा है। खेल में डूबा हुआ था। ये मा-बाप उसे कहा खाने की, पीने की, सोने की, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं! वह लीन था। उस लीनता में वह अस्तित्व के साथ एक था। चाहे वह गुड्डी हो, चाहे वह कोई खिलौना हो, चाहे कोई खेल हो। वह जानता
है। बच्चे कभी नहीं पूछते कि खेल में कैसे डूबे? आपने किसी बच्चे को सुना है पूछते कि खेल में कैसे डूबे? वह डूबना जानता है। वह पूछता नहीं। जो लोग बच्चों की तरह ताजे होते हैं - थोड़े से लोग, और उनकी संख्या रोज कम होती जाती है - वे लोग सीधे डूब सकते हैं। पुरानी कहानियां हैं साधकों की। तिलोपा ने अपने शिष्य नारोपा को कहा कि तू आंख बंद कर और डूब जा। और नारोपा ने आंख बंद कर लीं और डूब गया। और ज्ञान को उपलब्ध हो गया। बड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है। इतना मामला आसान! हम भी आंख बंद करते हैं। और कोई कितना ही कहे, डूब जाओ, आंख बंद हो जाती है, विचार चलते रहते हैं। डूबने का कुछ पता नहीं चलता। बल्कि आंख बंद करके और ज्यादा चलने लगते हैं। आंख खुली रहती है, थोड़े कम चलते हैं। बाहर उलझे रहते हैं, तो थोड़ा खयाल कम रहता है। आंख बंद की कि मुश्किल हो जाती है। आपसे लोग कहते हैं, एकांत में बैठ जाओ। आप कहते हैं, एकांत में तो और मुसीबत हो जाती है। इतना तो लोगों से बातचीत करते रहते हैं, तो मन सुलझा रहता है। उलझा रहता है, इसलिए लगता है, सुलझा है! अकेले में तो हम ही रह जाते हैं, और बड़ी तकलीफ होती है। मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया था। और डाक्टर से कहने लगा, एक बड़ी मुसीबत हो गई है। सुबहसांझ, रात - सुबह, जाग कि सोऊ, बस एक मुश्किल हो गई है, अपने से बातें, अपने से बातें, अपने से बातें करने में लगा हूं। कुछ इलाज? डाक्टर ने कहा, इतने परेशान मत होओ। लाखों लोग अपने से बातें करते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, आप समझे नहीं। तुम्हें पता नहीं है, अपने से बात करने से मैं भी इतना न घबड़ाता। लेकिन मैं इतना उबाने वाला हूं कि अभी तक मैं दूसरों को बोर करता था ? अब खुद ही को कर रहा हूं। अभी तक दूसरों को उबाता था। तब
तक भी थोड़ी राहत थी। अब मैं अपने को ही उबाता हूं चौबीस घंटे। वही बातें जो हजार दफे कह चुका हूं? कह रहा हूं। इसलिए हम भागते हैं अकेलेपन से। जल्दी पकड़ो किसी को। कहीं भी कोई मिल जाए तो एकदम झपट पड़ते हैं, आक्रमण कर देते हैं। हमारे प्रश्न, हमारी बातचीत कुछ नहीं है, भीतर की बेचैनी अब मौसम आपको भी पता है कि कैसा है। जिससे आप पूछ रहे हैं, उसको भी पता है कि कैसा है। आप कहते हैं, कहो, कैसा मौसम है? क्या पूछना है! नहीं लेकिन सिलसिला शुरू कर रहे हैं आप सिर्फ। ये तो सिर्फ ट्रिक्स हैं प्राथमिक। फिर जल्दी से आप जो आपके भीतर उबल रहा है, वह उसके ऊपर उबाल देंगे। फिर जो ज्यादा ताकतवर होगा, वह दूसरे को दबाकर उसकी खोपड़ी में बातें डालकर भाग खड़ा होगा। जो कमजोर होगा, वह बेचारा सुन लेगा, कि ठीक है। अब दुबारा जरा सावधान रहना इस आदमी से। जब यह पूछे कि मौसम कैसा है, तभी निकल जाना। लेकिन अकेले में घबड़ाहट होती है, क्योंकि अकेले में आप ही अपने से पूछ रहे हैं कि मौसम कैसा है और आपको पता है कि मौसम कैसा है। कुछ.। लेकिन तिलोपा ने नारोपा को कहा, आंख बंद कर और डूब जा। और वह डूब गया। छोटे बच्चे जैसा रहा होगा। जमीन बचपन में थी। अब जमीन जवान है; अडल्ट हो गई है। हजार, दो हजार, तीन हजार साल पहले, पांच हजार साल पहले जो लोग थे, बच्चों जैसे थे। उनसे कहा कि डूब जाओ, तो वे डूब गए। उन्होंने नहीं पूछा कि कैसे? हम पूछेंगे, कैसे? तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू डूब सकता हो मुझमें, तो डूब जा। फिर तो कोई बात करने की नहीं है। लेकिन अर्जुन सुसंस्कृत क्षत्रिय है। पढ़ा - लिखा है। उस समय का बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी है। तो कृष्ण को भी शक है कि वह डूब सकेगा कि नहीं। तो वे कहते हैं, और अगर न डूब सके, तो फिर अभ्यासरूप - योग द्वारा मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर। फिर तुझे अभ्यास करना पड़ेगा। भक्त बिना योग के पहुंच जाता है। जो भक्त नहीं हो सकता, उसको योग से जाना पड़ता है। योग का मतलब है, टेक्यालाजी। अगर सीधे नहीं डूब सकते, तो टेक्नीक का उपयोग करो। तो फिर एक बिंदु बनाओ। उस पर चित्त को एकाग्र करो। कि एक मंत्र लो। सब शब्दों को छोड़कर, ओम, ओम, एक ही मंत्र को दोहराओ, दोहराओ। सारा ध्यान उस पर एकाग्र करो। अगर मंत्र से काम न चलता हो, तो शरीर को बिलकुल थिर करके आसन में रोक रखो। क्योंकि जब शरीर बिलकुल थिर हो जाता है, तो मन को थिर होने में सहायता पहुंचाता है। तो शरीर को बिलकुल पत्थर की तरह, मूर्ति की तरह थिर कर लो। सिद्धासन है, पद्यासन है, उसमें बैठ जाओ। अगर आंख खोलने से बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, और आंख बंद करने से भीतर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, तो आधी आंख खोलो। तो नाक ही दिखाई पड़े बस, इतना बाहर। और भीतर भी नहीं, बाहर भी नहीं। तो नाक पर ही अपने को थिर कर लो। ये सब टेक्नीक हैं। ये उनके लिए हैं, जो भक्त नहीं हो सकते। जो प्रेम नहीं कर सकते, उनके लिए हैं। योग उनके लिए है, जो प्रेम में असमर्थ हैं। जो प्रेम में सम
र्थ हैं, उनके लिए योग की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन जो प्रेम में समर्थ नहीं हैं, उनको पहले अपने को तैयार करना पड़े कि कैसे डूबे। तो नाक के बिंदु पर डूबो; कि नाभि पर ध्यान को केंद्रित करो; कि बंद कर लो अपनी आंखों को और भीतर एक प्रकाश का बिंदु कल्पित करो, उस पर ध्यान को एकाग्र करो। वर्षों मेहनत करो। अभ्यासरूप-योग द्वारा! और जब इन छोटे - छोटे, छोटे-छोटे प्रयोगों से अभ्यास करते-करते वर्षों में तुम इस जगह आ जाओ कि अब तुम न पूछो कि कैसे। क्योंकि तुम्हें पता हो गया कि ऐसे डूबा जा सकता है; तब सीधे परमात्मा में डूब जाओ। तब अपने बिंदु, और अपने मंत्र, और अपने यंत्र, सब छोड़ दो, और सीधी छलांग लगा लो। जो सीधा कूद सके, इससे बेहतर कुछ भी नहीं है। प्रेमी सीधा कूद सकता है। लेकिन अगर बुद्धि बहुत काम करती हो, तो फिर पूछेगी, हाउ? कैसे? तो फिर योग की परंपरा है, पतंजलि के सूत्र हैं, फिर साधो। फिर उनको साध - साधकर पहले सीखो एकाग्रता, फिर तन्मयता में उतरो। अभ्यासरूप - योग के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ हो । यह भी हो सकता है कि तू कहे कि बड़ा कठिन है। कहां बैठें! और कितना ही बैठो सम्हालकर, शरीर कंपता है। और मन को कितना ही रोको, मन रुकता नहीं। और ध्यान लगाओ, तो नींद आती है, तल्लीनता नहीं होती। अगर तू इसमें भी समर्थ न हो, तो फिर एक काम कर। तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति, मेरी सिद्धि को पा सकेगा। अगर तुझे यह भी तकलीफ मालूम पड़ती हो, अगर भक्ति - योग तुझे कठिन मालूम पड़े, तो फिर ज्ञान - योग है। ज्ञान - योग का अर्थ है, योग की साधना, अभ्यास। अगर तुझे वह भी कठिन मालूम पड़ता हो, तो फिर कर्म
- योग है। तो फिर तू इतना ही कर कि सारे कर्मों को मुझमें समर्पित कर दे। और ऐसा मान ले कि तेरे भीतर मैं ही कर रहा हूं। और मैं ही तुझसे करवा रहा हूं। और तू ऐसे कर जैसे कि मेरा साधन हो गया है, एक उपकरण मात्र। न पाप तेरा, न पुण्य तेरा। न अच्छा तेरा, न बुरा तेरा। सब तू छोड़ दे और कर्म को मेरे प्रति समर्पित कर दे। ये तीन हैं। श्रेष्ठतम तो प्रेम है। क्योंकि छलांग सीधी लग जाएगी। नंबर दो पर साधना है। क्योंकि प्रयास और अभ्यास से लग सकेगी। अगर वह भी न हो सके, तो नंबर तीन पर जीवन का कर्म है। फिर पूरे जीवन के कर्म को प्रभु-अर्पित मानकर चलता जा। इन तीन में से ही किसी को चुनाव करना पड़ता है। और ध्यान रहे, जल्दी से तीसरा मत चुन लेना। पहले तो कोशिश करना, खयाल करना पहले की, प्रेम की। अगर बिलकुल ही असमर्थ अपने को पाएं कि नहीं, यह हो ही नहीं सकता.। कुछ लोग प्रेम में बिलकुल असमर्थ हैं। असमर्थ हो गए हैं अपने ही अभ्यास से। जैसे कोई आदमी अगर धन को बहुत पकड़ता हो, पैसे को बहुत पकड़ता हो, तो प्रेम में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि विपरीत बातें हैं। अगर पैसे को जोर से पकड़ना है, तो आदमी को प्रेम से बचना पड़ता है। क्योंकि प्रेम में पैसे को खतरा है। प्रेमी पैसा इकट्ठा नहीं कर सकता। जिनसे प्रेम करेगा, वे ही उसका पैसा खराब करवा देंगे। प्रेम किया कि पैसा हाथ से गया। तो जो पैसे को पकड़ता है, वह प्रेम से सावधान रहता है कि प्रेम की झंझट में नहीं पड़ना है। वह अपने बच्चों तक से भी जरा सम्हलकर बोलता है। क्योंकि बाप भी जानते हैं, अगर जरा मुस्कुराओ, तो बच्चा खीसे में हाथ डालता है। मत मुस्कुराओ, अकड़े रहो, घर में अकड़कर घुसो। बच्चा डरता है कि कोई गलती तो पता नहीं चल गई! गलती तो बच्चे कर ही रहे हैं। और बच्चे नहीं करेंगे, तो कौन करेगा! तो समझता है कि कोई गड़बड़ हो गई है; जरा दूर ही रहो। लेकिन बाप अगर मुस्कुरा दे, तो बच्चा फौरन खीसे में हाथ डालता है। तो बाप पत्नी से भी सम्हलकर बात करता है। क्योंकि जरा ही वह ढीला हुआ और उसकी जरा कमर झुकी कि पत्नी ने बताया कि उसने साड़ियां देखी हैं! फलां देखा हैं ।
मैं अधिक देहाती हूँ, पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाई । मकई का, रात को बना दलिया सवेरे मट्ठे से सोंवा लगता है, बाजरे के, तिल लगा कर बनाये हुए पुये गर्म कम अच्छे लगते हैं, ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों को खिचड़ी स्वादिष्ट होती है, सफेद महुवे की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है आदि वह मुझे क्रियात्मक रूप से सिखाती रहती है। पर यहां का रसगुल्ला तक भक्तिन के पोपले मुंह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। मेरे रात दिन नाराज होने पर भी उसने साफ़ धोती पहनना नहीं सोखा, पर मेरे स्वयं घोकर फैलाये हुए कपड़ों को भी वह तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। मुझे उसने अपनी भाषा की अनेक दन्तकथायें कंठस्थ करा दी हैं, पर पुकारने पर वह 'ओय' के स्थान में 'जो' कहने का शिष्टाचार भी नहीं सीख सको। भक्तिन अच्छी है यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चन्द्र नहीं बन सकती पर 'नरो वा कुज्जरो वा' कहने में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर उधर पड़े पैसे रुपये, भण्डार घर की किसी मटकी में कैसे अन्तहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर इस सम्बन्ध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्रार्थ के लिए ऐसी चुनौती दे डालती है जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क-शिरोमणि के लिए भी सम्भव नहीं। यह उसका अपना घर ठहरा-पैसा रुपया जो इधर उवर पड़ा देखा सँभाल कर रख लिया। यह क्या चोरी है ? उसके जोवन का परम कर्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है --जिस बात से मुझे को आ सकता है उसे कछ बदल कर इधर उधर करके बताना क्या झूठ है ? इतनी चोरी और इतना झूठ तो धर्मराज महाराज में भी होगा, नहीं तो वे भगवान जी को कैसे प्रसन्न रख सकते और संसार को कैसे चला सकते ! शास्त्र का प्रश्न भी भक्तिन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता, अतः मैंने भक्तिन को रोका । उसने अकुण्ठित भाव से उत्तर दिया कि शास्त्र में लिखा है। कुतूहल वश मैं पूछ ही बैठी 'क्या लिखा है' ? तुरन्त उत्तर मिला 'तीरथ गए मुंडाये सिद्ध' । कौन से शास्त्र का यह रहस्यमय सूत्र है, यह जान लेना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था । अतः मैं हार कर मौन हो रही और भक्तिन का चूडाकर्म हर वृहस्पतिवार को, एक दरिद्र नापित के गंगाजल से धुले अस्तुरे द्वारा यथाविधि निष्पन्न होता रहा । पर वह मूर्ख है या विद्याबुद्धि का महत्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है । अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढ़ाई लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करने वालों से अंगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्तिन बड़े कष्ट में पड़ गई, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठाई जा सकती थी, दूसरे सब गाड़ीवान दोइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृद्धता का अपमान था । अतः उसने कहना आरम्भ किया 'हमार मलकिन तौ रातदिन कितवियन मां गढ़ी रहती हैं ! अब हमहूँ पढ़ लागव तो घर गिरिस्ती कउन देखी सुनी'
। पढ़ाने वाले और पढ़ने वाले दोनों पर इस तर्क का ऐसा प्रभाव पड़ा कि भक्तिन इन्सपेक्टर के समान क्लास में घूम घूमकर किसी के आ इ की वनावट, किसी के हाथ की मंथरता, किसी की बुद्धि की मन्दता पर टीकाटिप्पणी करने का अधिकार पा गई। उसे तो अंगूठा निशानी देकर वेतन लेना नहीं होता, इसीसे बिना पढ़े ही वह पढ़नेवालों को गुरु वन बैठी। वह अपने तर्क ही नहीं तर्कहीनता के लिए भी प्रमाण खोज लेने में पढ़ है। अपने . पटु आपको महत्व देने के लिए ही वह अपनी मालकिन को असाधारणता देना चाहती है, पर इसके लिए भी प्रमाण की खोज-ढूंढ़ आवश्यक हो उठती है। जब एक बार में उत्तर पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी तब भक्तिन सबसे कहती घूमी 'ऊ विचरिअउ तो रातदिन काम मां झुकी रहती हैं, अउर तुम पचे घुमती फिरती हो ! चलौ त्तनिक तिनुक हाथ वटाय लेउ ।' सब जानते थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं बटाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर भक्तिन से पिण्ड छुड़ाया। वस इसी प्रमाण के आधार पर उसकी सव अतिशयोक्तियां अमरवेलि सी फैलने लगीं-उसकी मालकिन जैसा काम कोई जानता ही नहीं, इसीसे तो बुलाने पर भी कोई हाथ वटाने की हिम्मत नहीं करता । पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती इसे मानना अपनी होनता स्वीकार करना है - इसी से वह द्वार पर बैठकर बार बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर पुस्तकों को बांधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आंचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते तब वह सहायता की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है, इसीसे मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित ह
ोने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से वल्व में छिपा आलोक । वह सूने में उसे बार बार छूकर, आंखों के निकट ले जाकर और सब ओर घमा फिरा कर मानी अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मतोप कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता । यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब वार वार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती तब वह कभी दही का शवंत कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती। दिन भर के कार्य-भार से छुट्टी पाकर जब मैं कोई लेख समाप्त करने या भाव को छन्दवद्ध करने बैठती हूँ तब छात्रावास की रोशनी बुझ चुकती है, मेरी हिरनी सोना तख्त के पैताने फर्श पर बैठकर पागुर करना बंद कर देती है, कुत्ता वसन्त छोटी मचिया पर पञ्जों में मुख रखकर आंखें मूंद लेता है और बिल्ली गोधूली मेरे तकिये पर सिकुड़कर सो रहती है। पर मुझे रात को निस्तब्धता में अकेला न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली की चकाचौंध से आंखें मिचमिचाती हुई भक्तिन प्रशान्त भाव से जागरण करती है। वह ऊँघती भी नहीं, क्योंकि मेरे सिर उठाते ही उसकी धुंधली दृष्टि मेरी आंखों का अनुसरण करने लगती है। यदि मैं सिरहाने रखे रैक की ओर देखती हूँ तो वह उठकर आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती है, यदि मैं कलम रख देती हूँ तो वह स्याही उठा लाती है और यदि में कागज एक ओर सरका देती हूँ तो वह दूसरी फाइल टटोलती है। बहुत रात गए सोने पर भी मैं जल्दी ही उठती हूँ और भक्तिन को तो मुझसे भी पहले जागना पड़ता है--सोना उछल कूद के लिए बाहर जाने को आकुल रहती है, वसन्त नित्य कर्म के लिए दरवाजा खुलवाना चाहता है, और गोधूली चिड़ियों की चहचहाहट में शिकार का आमन्त्रण सन लेती है । मेरे भ्रमण की भी एकान्त साथिन भक्तिन हो रही है । वदरी केदार आदि के ऊँचे नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गांव को धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी परिस्थिति में, किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही में भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ । युद्ध को देश की सीमा में बढ़ते देख जब लोग आतंकित हो उठे तब [[ स्मृति की रेखाएँ भक्तिन के वेटी दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुॅचे, पर बहुत समझाने बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती है, रुपया भेज देती है, पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक है जो सम्भवतः भक्तिन को जीवन के अन्त तक स्वीकार न होगा। जब गतवर्ष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन-वृत्ति जगा दो थी तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुंद्रा के साथ मुझसे गांव चलने का अनुरोध करने आई। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नई धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाढ़ कर और उन पर तख्ते रखकर मेरो किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा चनवाकर और उस पर अपना कम्बल बिछा कर वह मेरे सोने का
प्रवन्ध करेगी, मेरे रंग, स्याही, आदि को नई हँडियों में सँजोकर रख देगी और कागज़ पत्रों को छोकें में यथाविधि एकत्र कर देगी। 'मेरे पास वहां जाकर रहने के लिए रुपया नहीं है। यह मैंने भक्तिन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा था, पर उसके परिणाम ने मुझे विस्मित कर दिया। भक्तिन ने परम रहस्य का उद्घाटन करने की मुद्रा बनाकर और अपना पोपला मुंह मेरे कान के पास लाकर हौले हौले बताया कि उसके पास पांच बीसी और पांच रुपया गढ़ा रखा है। उसी से वह सब प्रबन्ध कर लेगी। फिर लड़ाई तो कुछ अमरोती खाकर आई नहीं है । जब सब ठीक हो जायगा तब यहीं लौट आयेंगे । भक्तिन की कंजूसी के प्रमाण पुञ्जीभूत होते होते पर्वताकार बन चुके थे, परन्तु इस उदारता के ढाइनामाइट ने क्षण भर में उन्हें उड़ा दिया। इतने थोड़े रुपये का कोई महत्व नहीं, परन्तु रुपये के प्रति भक्तिन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्व को सीमा तक पहुँचा देता है । भक्तिन और मेरे वीच में सेवक स्वामी का सम्बन्ध है. यह कहना कठिन है, क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया जो स्वामी से चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे । भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है जितना अपने घर में वारी बारी से आने जाने वाले अँधेरे-उजाले और आंगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं जिस सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुःख देते हैं उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है । परिवार और परिस्थितियों के कारण उसके स्वभाव में जो विषमतायें उत्पन्न हो गई हैं उनके भीतर से एक स्
नेह और सहानुभूति की आभा फूटती रहती है, इसी से उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति उसमें जीवन की सहज मार्मिकता ही पाते हैं । छात्रावास की बालिकाओं में से कोई अपनी चाय बनवाने के लिए उसके चौके के कोने में घुसी रहती है, कोई दूध , औटवाने के लिए देहेली पर बैठी रहती है, कोई बाहर खड़ी मेरे लिए बने नाश्ते को चख कर उसके स्वाद की विवेचना करती रहती है। मेरे बाहर निकलते ही सब चिड़ियों के समान उड़ जाती हैं और भीतर आते ही यथास्थान विराजमान हो जाती हैं। इन्हें आने में रुकावट न हो सम्भवतः इसीसे भक्तिन अपना दोनों जून का भोजन सवेरे ही बनाकर ऊपर के आले में रख देती है और खाते समय चौके का एक कोना धोकर पाकछूत के सनातन नियम से समझौता कर लेती है । मेरे परिचितों और साहित्यिक वन्धुओं से भी भक्तिन विशेष परिचित है, पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्चित होता है । इस सम्बन्ध में भक्तिन की सहजवुद्धि विस्मित कर देनेवाली है। वह किसी को आकार-प्रकार और वेश-भूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभ्रंश द्वारा । कवि और कविता के सम्बन्ध में उसका ज्ञान बड़ा है पर आदर भाव नहीं । किसी के लम्बे बाल और अस्तव्यस्त वेश-भूषा देखकर वह कह उठती है 'का ओहू कवित्त लिख जानत हैं और तुरन्त ही उसकी अवशा प्रकट हो जाती है 'तब ऊ कुच्छो करिहै धरिहै नावस गली गली गाउत वजाउत फिरिहै' । पर सबका दुःख उसे प्रभावित कर सकता है। विद्यार्थी वर्ग में से कोई जब कारागार का अतिथि हो जाता है तब उस समाचार से व्यथित भक्तिन 'वीता बीता भरे लड़कन का जेहल-कलजुग रहा तीन रहा अब परलय होइ जाई - उनकर माई का बड़े लाट तक लड़े का चहीं' कहकर दिन भर सबको परेशान करती रहती है। बापू से लेकर साधारण व्यक्ति तक सबके प्रति भक्तिन की सहानुभूति एकरस मिलती है । भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे हो डरती है जैसे यमलोक से । ऊँची दीवार देखते ही वह आंख मूंदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमजोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जाने की सम्भावना वता बता कर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं यह कहना असत्य होगा, पर डर से भी अधिक महत्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी कै धोती साबुन से साफ कर ले जिससे मुझे वहां उसके लिए लज्जित न होना पड़े । क्या क्या सामान वांव ले जिससे मुझे वहां किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती जितनी अपने साथ न जा सकने की सम्भावना से अपमानित । भला ऐसा अन्वेर हो सकता है ! जहां मालिक वहां नौकर-मालिक को ले जाकर बन्द कर देने में इतना अन्याय नहीं पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बरावर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। कि
सी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी तो नहीं लड़ी पर भक्तिन का तो विना लड़े काम हो नहीं चल सकता । ऐसे विषम प्रतिद्वन्द्रियों की स्थिति कल्पना में भी दुर्लभ है। मै प्रायः सोचती हूँ कि जब ऐसा बुलावा आ पहुंचेगा जिसमें न धोती साफ करने का अवकाश रहेगा न सामान बांधने का, न भक्तिन को रुकने का अधिकार होगा न मुझे रोकने का, तब चिर विदा के अन्तिम क्षणों में यह देहातिन वृद्धा क्या करेगी और मैं क्या कहूँगी ? भक्तिन की कहानी अधूरी है --पर उसे खोकर में इसे पूरी नहीं करना चाहती । मुझे चीनियों में पहचान कर स्मरण रखने योग्य विभिन्नता कम मिलती है। कुछ समतल मुख एक हो सांचे में ढले से जान पड़ते हैं और उनको एकरसता दूर करने वाली, वस्त्र पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी नाक की गठन में भी विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता । कुछ तिरछी, अवखुली और विरल भूरी वरुनियों वाली आंखों की तरल रेखाकृति देखकर भ्रांति होती है कि वे सव एक नाप के अनुसार किसी तेज़ धार से चोर कर बनाई गई हैं। स्वाभाविक पीतवर्ण धूप के चरण-चिन्हों पर पड़े हुए धूल के आवरण के कारण कुछ ललछौंहे सूखे पत्ते की समानता पा लेता है। आकारप्रकार, वेश-भूषा सब मिलकर इन दूर-देशियों को यन्त्रचालित पुतलों की भूमिका दे देते हैं, इसी से अनेक बार देखने पर भी एक फेरी वाले चीनी को दूसरे से भिन्न करके पहचानना कठिन है। पर आज मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे एक मुख आर्द्र नीलिमामयी आंखों के साथ स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है - हम कार्बन की कापियां नहीं हैं। हमारी भी एक कथा है । यदि जीवन की वर्णमाला के सम्बन्ध में तुम्हारी आंखें निरक्षर नहीं तो तुम पढ़कर देखो न । कई वर्ष पहले की बात है। मैं तांगे से उतर कर भीतरं आ रही थी और भूरे कपड़े का गट्ठर बायें कन्धे के सहारे पीठ पर लटक
ाये हुए और दाहने हाथ में लोहे का गज़ घुमाता हुआ चीनी फेरीवाला फाटक से बाहर निकल रहा था । सम्भवतः मेरे घर को बन्द पाकर वह लौटा जा रहा था । 'कुछ लेगा मेम साव' - दुर्भाग्य का मारा चीनी । उसे क्या पता कि यह सम्बोधन मेरे मन में रोष की सब से तुंग तरंग उठा देता है। मझ्या, माता, जीजी, दिदिया, बिटिया आदि न जाने कितने सम्बोधनों से मेरा पिरचय है और सब मुझे प्रिय हैं, पर यह विजातीय सम्बोधन मानो सारा परिचय छीन कर मुझे गाउन में खड़ा कर देता है । इस सम्बोधन के उपरान्त मेरे पास से निराश होकर न लौटना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । मैंने अवज्ञा से उत्तर दिया 'में विदेशी-फ़ॉरेन -- नहीं खरीदती' । 'हम फ़ॉरेन है ? हम तो चाइना से आता है' कहने वाले के कण्ठ में सरल विस्मय के साथ उपेक्षा की चोट से उत्पन्न चोट भी थी। इस बार रुक कर, उत्तर देने वाले को ठीक से देखने की इच्छा हुई । धूल से मटमैले सफ़ेद किरमिच के जूते में छोटे पैर छिपाये, पतलून और पैजामे का सम्मिश्रित परिणाम जैसा पैजामा और कुरते तथा कोट की एकता के आधार पर सिला कोट पहने, उधड़े हुए किनारों से पुरानेपन की घोषणा करते हुए हैट से आवा माया ढके, दाढ़ी-मूंछ विहीन दुवली नाटी जो मूर्ति खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी है। उसे सबसे अलग करके देखने का प्रश्न जीवन में पहली बार उठा । मेरी उपेक्षा से उस विदेशीय को चोट पहुँची यह सोच कर मैंने अपनी 'नहीं' को और अधिक कोमल बनाने का प्रयास किया 'मुझे कुछ नहीं चाहिए भाई !' चीनी भी विचित्र निकला 'हमको भाय बोला है तब जरूल लेगा, जरूल लेगा--हां ?' होम करते हाथ जला वाली कहावत हो गईविवश कहना पड़ा 'देखूं तुम्हारे पास है क्या ?' चीनी वरामदे में कपड़े का गट्ठर उतारता हुआ कह चला 'भोत अच्चा सिल्क लाता है सिस्तर ! चाइना सिल्क, क्रेप'. बहुत कहने सुनने के उपरान्त दो मेज़पोश खरीदना आवश्यक हो गया। सोचा -- चलो छुट्टी हुई । इतनी कम विक्री होने के कारण चीनी अब कभी इस ओर आने को भूल न करेगा । पर कोई पन्द्रह दिन बाद वह वरामदे में अपनी गठरी पर बैठ कर गज़ को फ़र्श पर वजा वजा कर गुनगुनाता हुआ मिला। मैंने उसे कुछ बोलने का अवसर न देकर व्यस्त भाव से कहा- अब तो मैं कुछ न लूंगी। समझे ?' चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से वोला 'सिस्तर का वास्ते हैंको लाता है -- भोत वेस्त, सब सेल हो गया । हम इसको पाकेत में छिपा के लाता है।' देखा कुछ रूमाल थे । ऊदी रंग के डोरे से भरे हुए किनारों का हर घुमाव और कोनों में उसी रंग से बने नन्हे फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी चीनी नारा की कोमल उँगलियों की कलात्मकता ही नहीं व्यक्त कर रही थी जीवन के अभाव की करुण कहानी भी कह रही थी । मेरे मुख के निषेधात्मक भाव ·को लक्ष्य कर अपनी नीली रेखाकृति आंखों को जल्दी जल्दी वन्द करते और खोलते हुए वह एक सांस में 'सिस्तर का वास्ते लाता है, सिस्तर का वास्ते लाता है', दोहराने तिहराने लगा । मन में सोचा अच्छा भाई मिला है। बचपन में मुझे लोग चीनी कह कर चिढ़ाया
करते थे । सन्देह होने लगा उस चिढ़ाने में कोई तत्व भी रहा होगा। अन्यथा आज यह सचमुच का चीनी, सारे इलाहाबाद को छोड़कर मुझसे बहिन का सम्बन्ध क्यों जोड़ने आता ! पर उस दिन से चीनी को मेरे यहां जब-तब आने का विशेष अधिकार प्राप्त हो गया। चीन का साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी कला के सम्बन्ध में विशेष अभिरुचि रखता है इसका पता भी उसी चीनी की परिष्कृत रुचि में मिला । नोली दीवार पर किस रंग के चित्र सुन्दर जान पड़ते हैं, हरे कुशन पर किस प्रकार के पक्षी अच्छे लगते हैं, सफेद पर्दे के कोनों में किस बनावट के फूल-पत्ते खिलेंगे आदि के विषय में चीनी उतनी ही जानकारी रखता था जितनी किसी अच्छे कलाकार में मिलेगी। रंग से उसका अति परिचय यह विश्वास उत्पन्न कर देता था कि वह आंखों पर पट्टी बांध देने पर भी केवल स्पर्श से रंग पहचान लेगा । चीन के वस्त्र, चीन के चित्र आदि की रंगमयता देखकर भ्रम होने लगता है कि वहां की मिट्टी का हर कण भी इन्हीं रंगों से रंगा हुआ न हो । चीन देखने को इच्छा प्रकट करते हो 'सिस्तर का वास्ते हम चलेगा' कहते कहते चीनी की आंखों की नीली रेखा प्रसन्नता से उजली हो उठती थी । अपनी कथा सुनाने के लिए भी वह विशेष उत्सुक रहा करता था पर कहन सुननेवाले के बीच की खाई बहुत गहरी थी। उसे चीनी और वर्मी भाषायें आती थीं जिनके सम्बन्ध में अपनी सारी विद्या बुद्धि के साथ में 'आंखों के अन्य नाम नैनसुख' की कहावत चरितार्थ करती थी। अंग्रेजी की क्रियाहीन संज्ञायें और हिन्दुस्तानी को संज्ञाहीन क्रियाओं के सम्मिश्रण से जो विचित्र भाषा वनती थी उसमें कथा का सारा मर्म बँध नहीं पाता था । पर जो कयायें हृदय का वांध तोड़कर, दूसरों को अपना परिचय देने के लिए वह निकलती हैं वे प्रायः करुण होती है और करुणा की भाषा शब्दहीन रहकर भी ब
ोलने में समर्थ है। चीनी फेरीवाले की कथा भी इसका अपवाद नहीं । जब उसके माता पिता ने मांडले आकर चाय की छोटी दुकान खोली तव उसका जन्म नहीं हुआ था। उसे जन्म देकर और सात वर्ष की वहिन के संरक्षण में छोड़कर जो परलोक सिवारी उस अनदेखी मां के प्रति चीनी की श्रद्धा अटूट थी । सम्भवतः मा ही ऐसा प्राणी है जिसे कभी न देख पाने पर भी मनुष्य ऐसे स्मरण करता है जैसे उसके सम्बन्ध में कुछ जानना बाकी नहीं। यह स्वाभाविक भी है । मनुष्य को संसार से बांधने वाला विधाता मा हो है, इसी से उसे न मान कर संसार को न मानना सहज है पर संसार को मान कर उसे न मानना असम्भव ही रहता है। पिता ने जब दूसरी वर्मी चीनी स्त्री को गृहिणी- पद पर अभिषिक्त किया तब उन मातृहीनों की यातना की कठोर कहानी आरम्भ हुई। दुर्भाग्य इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सका क्योंकि उसके पांचवें वर्ष में पैर रखते न रखते एक दुर्घटना में पिता ने भी प्राण खोये । अन्य अवोध बालकों के समान उसने सहज ही अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया, पर वहिन और विमाता में किसी प्रस्ताव को लेकर जो वैमनस्य बढ़ रहा था वह इस समझौते को उत्तरोत्तर विषाक्त बनाने लगा। किशोरी वालिका की अवज्ञा का बदला उसी को नहीं, उसके अबोध भाई को कष्ट दे कर भी चुकाया जाता था । अनेक बार उसने ठिरती हुई बहिन की कम्पित उँगलियों में अपना हाथ रख, उसके मलिन वस्त्रों में अपना आंसुओं से धुला मुख छिपा और उसकी छोटी सी गोद में सिमट कर भूख भुलाई थी । कितनी ही बार सबरे, आंख मूंद कर बन्द द्वार के बाहर दीवार से टिकी हुई बहिन की ओर से गीले वालों में, अपनी ठिठुरी हुई उँगलियों को गर्म करने का व्यर्थ प्रयास करते हुए, उसने पिता के पास जाने का रास्ता पूछा था । उत्तर में वहिन के फीके गाल पर चुपचाप ढुलक आने वाले आंसू की बड़ी बूंद देख कर वह घबराकर बोल उठा था - उसे कहवा नहीं चाहिए वह तो पिता को देखना भर चाहता है । कई बार पड़ोसियों के यहां रकाबियां धोकर और काम के बदले भात मांग कर बहिन ने भाई को खिलाया था । व्यथा की कौन सी अन्तिम मात्रा ने वहिन के नन्हे हृदय का बांध तोड़ डाला इसे अबोध वालक क्या जाने । पर एक रात उसने बिछौने पर लेट कर बहिन की प्रतीक्षा करते करते आघी आंख खोली और विमाता को कुशल बाजीगर की तरह, मैली कुचैली वहिन का कायापलट करते देना । उसके सूखे ओठों पर विमाता की मोटी उँगली ने दौड़ दौड़ कर लाली फेरी, उसके फीके गालों पर चौड़ी हथेली ने घूम घूम कर सफेद गुलावी रंग भरा, उसके रूखे बालों को कठोर हाथों ने घेर घेर कर संवारा और तव नये रंगीन वस्त्रों में सजी हुई उस मूर्ति को एक प्रकार से ठेलती हुई विमाता रात के अन्धकार में बाहर अन्तहित हो गई ! बालक का विस्मय भय में बदल गया और भय ने रोने में शरण पाई कब वह रोते रोते सो गया इसका पता नहीं, पर जब वह किनी के स्पर्श से जागा तो वहिन उस गडरी बने हुए भाई के मस्तक पर मुख रख कर सिसकियां रोक रही थी। उस दिन उसे अच्छा भोजन मिला, दूसरे दिन कपड़े, तीसरे दिन खिलोने-पर वहिन के
दिनों दिन विवर्ण होने वाले ओठों पर अधिक गहरे रंग की आवश्यकता पड़ने लगी, [ स्मृति की रसाएँ उसके उत्तरोत्तर फीके पड़ने वाले गालों पर देर तक पाउडर मला जाने लगा । वहिन के छोजते शरीर और घटती शक्ति का अनुभव वालक करता था, पर वह किससे कहे, क्या करे, यह उसकी समझ के बाहर की बात थी । बार बार सोचता था पिता का पता मिल जाता तो सब ठीक हो जाता । उसके स्मृति पट पर मा की कोई रेखा नहीं, परन्तु पिता का जो अस्पष्ट चित्र अंकित था उससे उनके स्नेहशील होने में सन्देह नहीं रह जाता। प्रतिदिन निश्चय करता कि दूकान में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति से पिता का पता पूछेगा और एक दिन चुपचाप उनके पास पहुँच और उसी तरह चुपचाप उन्हें घर लाकर खड़ा कर देगा -- तब यह विमाता कितनी डर जायगी और वहिन कितनी प्रसन्न होगी ! चाय की दूकान का मालिक अब दूसरा था, परन्तु पुराने मालिक के पुत्र के साथ उसके व्यवहार में सहृदयता कम नहीं रही, इसीसे वालक एक कोने में सिकुड़ कर खड़ा हो गया और आनेवालों से हकला हकला कर पिता का पता पूछने लगा। कुछ ने उसे आश्चर्य से देखा, कुछ मुस्करा दिये, पर दो एक ने दूकानदार से कुछ ऐसी बात कही जिससे वह बालक को हाथ पकड़कर बाहर ही नहीं छोड़ आया, इस भूल की पुनरावृति होने पर विमाता से दण्ड दिलाने की धमकी भी दे गया । इस प्रकार उसकी खोज का अन्त हुआ । वहिन का सन्ध्या होते ही कायापलट, फिर उसका आधी रात वीत' जाने पर भारी पैरों से लौटना, विशाल शरीरवाली विमाता का जंगली विल्ली की तरह हल्के पैरों से विछोने से उछल कर उतर आना, वहिन के शिथिल हाथों से वटुर्य का छिन जाना और उसका भाई के मस्तक पर मुख रखकर स्तब्ध भाव से पड़ रहना आदि क्रम ज्यों के त्यों चलते रहे । पर एक दिन वहिन लौटी ही नहीं । सवेरे विमाता को कुछ चिन्तित -- भाव से उसे
खोजते देख बालक सहसा किसी अज्ञात भय से सिहर उठा । वहिन - - उसकी एकमात्र आधार वहिन । पिता का पता न पा सका और अब बहिन भी खो गई । वह जैसा था वैसा ही बहिन को खोजने के लिए गली गली में मारा मारा फिरने लगा। रात में वह जिस रूप में परिवर्तित हो जाती थी उसमें दिन को उसे पहचान सकना कठिन था, इसीसे वह जिसे अच्छे कपड़े पहने हुए जाता देखता उसी के पास पहुँचने के लिए सड़क के एक ओर से दूसरी ओर दौड़ पड़ता । कभी किसी से टकरा कर गिर गिरते बचता, कभी किसी से गाली खाता, कभी कोई दया से प्रश्न कर वैठता. -क्या इतना ज़रा सा लड़का भी पागल हो गया है ? इसी प्रकार भटकता हुआ वह गिरहकटों के गिरोह के हाथ लगा और तब उसकी दूसरी शिक्षा आरम्भ हुई । जैसे लोग कुत्ते को दो पैरों से बैठना, गर्दन ऊँची कर खड़ा होना, मुँह पर पंजे रख कर सलाम करना आदि करतव सिखाते हैं उसी प्रकार वे सब उसे तम्बाखू के धुयें और दुर्गन्वित सांस से भरे और फटे चिथड़े, टूटे वरतन और मैले शरीरों से बसे हुए कमरे में बन्द कर कुछ विशेष संकेतों और हँसने रोने के अभिनय में पारंगत बनाने लगे । कुत्ते के पिल्ले के समान ही वह घुटनों के वल खड़ा रहता और हँसने रोने की विविध मुद्राओं का अभ्यास करता । हँसी का स्रोत इस प्रकार सूख चुका था कि अभिनय में भी वह वार बार भूल करता और मार खाता ।। पर कन्दन उसके भीतर इतना अधिक उमड़ा रहता था कि जरा मुँह बनाते हो दोनो आँखों से दो गोल गोल बूंदें नाक के दोनों ओर निकल आतीं और पतली समानान्तर रेखा बनाती और मुंह के दोनों सिरों को छूती हुई ठुड्ढी के नीचे तक चली जातीं । इसे अपनी दुर्लभ शिक्षा का
जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला गया। अपने पेड़-पौधों के बीच जाकर बैठ गया। वे उसके चारों ओर काँपने लगे, दोलायमान होने लगे, छाया नचाने लगे। उसके चारों ओर है, पुष्प खचित पल्लवों की सतह, श्यामल सतह के ऊपर सतह, छाया भरे सुकोमल स्नेह का आच्छादन, सुमधुर आह्वान, प्रकृति का प्रीतिपूर्ण आलिंगन। यहाँ सभी प्रतीक्षा करते हैं, कोई बात पूछता नहीं, भावना में व्याघात उत्पन्न नहीं करता, माँगने पर ही माँगता है, बात करने पर ही बात करता है। इस नीरव श्रवणेच्छा के वातावरण में, प्रकृति के इस अंतःपुर में बैठ कर जयसिंह सोचने लगा। राजा ने उसे जो सीख दी है, मन-ही-मन उस पर विचार करने लगा। उसी समय रघुपति ने धीरे-धीरे आकर उसकी पीठ पर हाथ रखा। जयसिंह चौंक उठा। रघुपति उसके निकट बैठ गया। जयसिंह के चेहरे की ओर देख कर काँपते स्वर में बोला, "वत्स, तुम्हारी ऐसी दशा क्यों देख रहा हूँ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है कि तुम धीरे-धीरे मुझसे दूर होते जा रहे हो?" जयसिंह ने कुछ कहने की चेष्टा की, रघुपति उसे रोकते हुए बोलता रहा, "क्या एक पल के लिए भी मेरे प्रेम में कमी देखी है? क्या मैंने तुम्हारा कोई अपराध किया है, जयसिंह? अगर किया है, तो मैं तुम्हारा गुरु, तुम्हारा पितृ तुल्य, मैं तुमसे क्षमा की भिक्षा माँग रहा हूँ - मुझे क्षमा करो।" जयसिंह वज्राहत के समान चौंक पड़ा; गुरु के चरण पकड़ कर काँपने लगा; बोला, "पिता, मैं कुछ नहीं जानता, मैं कुछ नहीं समझ पाता, मैं कहाँ जा रहा हूँ, देख नहीं पा रहा हूँ।" रघुपति ने जयसिंह का हाथ पकड़ कर कहा, "वत्स, मैंने तुम्हें तुम्हारे बचपन से माँ के समान प्यार से पाला है, पिता से अधिक प्रयत्न के साथ शास्त्र-शिक्षा दी है - तुम पर पूरा विश्वास रखते हुए मित्र के समान तुम्हें अपनी समस्त मंत्रणाओं में सहभागी बनाया है। आज मुझसे कौन तुम्हें छीने ले रहा है? इतने दिन का स्नेह ममता का बंधन कौन तोड़े डाल रहा है? मुझे तुम पर जो देव-प्रदत्त अधिकार प्राप्त है, उस पवित्र अधिकार में कौन हस्तक्षेप कर रहा है? बोलो, वत्स, उस महापातकी का नाम बताओ।" जयसिंह ने कहा, "प्रभु, मुझे आपसे किसी ने अलग नहीं किया - आप ही ने मुझे दूर कर दिया है। मैं घर के भीतर था, आप ही ने सहसा मुझे रास्ते में निकाल दिया है। आपने कहा, कौन है पिता, कौन है माता, कौन है भाई! आपने कहा, संसार में कोई बंधन नहीं, स्नेह-प्रेम का पवित्र अधिकार नहीं। जिन्हें माँ के रूप में जानता था, आपने उन्हें कह दिया शक्ति - जो जहाँ हिंसा कर रहा है, जो जहाँ रक्तपात कर रहा है, जहाँ भी भाई-भाई में विवाद है, जहाँ भी दो मनुष्यों के बीच युद्ध है, वहीं यह प्यासी शक्ति रक्त की लालसा में अपना खप्पर लिए खड़ी है। आपने मुझे माँ की गोद से यह किस राक्षसी के देश में निर्वासित कर दिया!" रघुपति बहु
त देर तक स्तंभित बैठा रहा। अंत में निश्वास छोड़ते हुए बोला, "तब तुम स्वाधीन हुए, बंधन से मुक्त हुए, मैंने तुम पर से अपना समस्त अधिकार वापस ले लिया। यदि तुम इसमें ही सुखी होओ, तो वैसा ही हो।" कह कर उठने को तैयार हो गया। जयसिंह उनके पैर पकड़ कर बोला, "नहीं नहीं नहीं प्रभु - आपके दवारा मुझे छोड़ दिए जान पर भी, मैं आपको नहीं छोड़ सकता। मैं रहा - आपके चरणों में ही रहा, आप जो चाहें, करें। आपके मार्ग के अलावा मेरा कोई अन्य मार्ग नहीं।" रघुपति ने जयसिंह को आलिंगन में भर लिया - उसके आँसू बहते हुए जयसिंह के कंधे पर टपकने लगे। मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता है) के दर्शनों के लिए आए हैं।" रघुपति बोला, "कहाँ हैं ठकुराइन? ठकुराइन इस राज्य से चली गई हैं। तुम लोग कहाँ रख पाए ठकुराइन को! वे चली गई हैं।" भारी शोर-शराबा होने लगा, नाना ओर से नाना बातें सुनाई पडने लगीं। "यह क्या बात है ठाकुर?" "हमने क्या अपराध किया है ठाकुर?" "क्या माँ किसी भी तरह प्रसन्न नहीं होंगी?" "मेरा भतीजा बीमार था, इसी कारण मैं कुछ दिन पूजा करने नहीं आया।" (उसका दृढ़ विश्वास है कि उसी की उपेक्षा न सह पाने के कारण देवी देश छोड़ रही हैं।) "सोचा था, अपने दो पाठे ठकुराइन को चढाऊँगा, किन्तु बहुत दूर होने के कारण नहीं आ पाया।" (दो पाठे चढाने में हुई देरी के कारण राज्य का ऐसा अमंगल हुआ, यही सोच कर वह कातर हो रहा था।) "ठीक है, गोवर्धन ने जो मन्नत माँगी थी, वह माँ को नहीं दे पाया, लेकिन माँ ने भी तो उसे वैसा ही दण्ड दे दिया। उसकी तिल्ली बढ़ कर ढाक हो गई है, वह छह मह
ीने से बिस्तर पर पड़ा है।" (गोवर्धन अपनी बढ़ी तिल्ली को लेकर चिता पर चढ़ जाए, किन्तु माँ देश में रहें - उसने मन में ऐसी प्रार्थना की। सभी अभागे गोवर्धन की तिल्ली के अत्यधिक बढ़ जाने की कामना करने लगे।) भीड़ में एक लम्बा-चौड़ा आदमी था, उसने सभी को धमका कर चुप करा दिया और रघुपति से हाथ जोड़ कर बोला, "ठाकुर, माँ क्यों चली गईं, हमसे क्या अपराध हो गया था?" रघुपति ने कहा, "तुम लोग माँ को एक बूँद रक्त नहीं चढ़ा सकते, यही तो है तुम लोगों की भक्ति!" सब चुप रहे। अंत में बातें होने लगीं। कोई फुसफुसा कर कहने लगा, "राजा की ओर से मनाही है, हम लोग क्या करें!" जयसिंह पत्थर की मूर्ति की तरह निश्चल बैठा था। 'माँ की ओर से मनाही है' यह बात विद्युत गति से उसकी जिह्वा पर आई थी; लेकिन उसने अपने को दबा लिया, एक बात तक नहीं कही। रघुपति तेज आवाज में बोला, "राजा कौन है! माँ का सिंहासन क्या राजा के सिंहासन से नीचा है? तब तुम लोग अपने राजा को लेकर इस मातृहीन देश में रहो। देखता हूँ, कौन तुम्हारी रक्षा करता है!" जनता के बीच गुन गुन शब्द उठा। सभी सावधान होकर बातें करने लगे। रघुपति खड़ा होकर बोला, "राजा को ही बड़ा बना कर तुम लोगों ने राजा के द्वारा अपनी माँ का अपमान करवा कर विदा कर दिया। मत समझना, सुखी रहोगे। और तीन बरस के बाद इतने बड़े राज्य में तुम लोगों की घर बनाने की जमीन का निशान तक नहीं रहेगा - तुम लोगों के खानदान में कोई दीया जलाने वाला नहीं बचेगा।" जन-सागर में गुन गुन शब्द धीरे-धीरे फैलने लगा। जनता भी लगातार बढ़ रही है। उसी लंबे आदमी ने हाथ जोड़ कर रघुपति से कहा, "संतान अगर अपराध करे, तो माँ उसे दण्ड दे, लेकिन माँ संतान को एकदम छोड़ कर चली जाए, क्या ऐसा कभी हो सकता है! प्रभु, बोलिए, क्या करने से माँ लौटेंगी।" रघुपति ने कहा, "जब तुम्हारा यह राजा इस राज्य से बाहर हो जाएगा, तब माँ भी पुनः इस राज्य में पदार्पण करेंगी।" यह बात सुन कर जनता की गुन गुन ध्वनि अचानक थम गई। हठात चारों ओर गहरी निस्तब्धता छा गई, अंत में आपस में एक-दूसरे के चेहरे की ओर देखने लगे; कोई हिम्मत जुटा कर बात नहीं कह पाया। रघुपति ने मेघमन्द्र स्वर में कहा, "तो, तुम लोग देखोगे! आओ, मेरे साथ आओ। बहुत दूर से बड़ी आशा लेकर तुम लोग ठकुराइन के दर्शन को आए हो - चलो, एक बार मंदिर में चलो।" सभी डरते हुए मंदिर के प्रांगण में एकत्र हो गए। मंदिर का द्वार बंद था, रघुपति ने धीरे-धीरे द्वार खोल दिया। कुछ देर तक किसी के मुँह से भी बात नहीं निकली। प्रतिमा का मुख दिखाई नहीं पड़ रहा है, प्रतिमा का पृष्ठ भाग दर्शकों की ओर है। माँ विमुख हो गई हैं। सहसा जनता में क्रंदन ध्वनि गूँज उठी, "एक बार घूम कर खड़ी हो जाओ, माँ! हमने क्या अपराध किया है!" चारों ओर "माँ कहाँ है, माँ कहाँ है" स्वर गूँजने लगा। प्रतिमा पाषाण की होने के कारण नहीं घूमी। अनेक लोग मूर्छित हो गए। बालक कुछ न समझने के कारण रोने लगे। वृद्ध मातृहारा शिशु के समान रोने लगे, "माँ, ओ म
ाँ!" स्त्रियों का घूँघट खुल गया, आँचल खिसक गया, वे छाती पर हाथ मारने लगीं। युवक काँपती हुई ऊँची आवाज में कहने लगे, "माँ, हम लोग तुम्हें लौटा कर लाएँगे - हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।" संतान पर दृष्टि नहीं डालती। पूरा राज्य मानो मंदिर के दरवाजे पर खड़ा होकर "माँ" "माँ" पुकारते हुए विलाप करने लगा - लेकिन मूर्ति नहीं घूमी। मध्याह्न का सूर्य प्रखर हो आया, प्रांगण में भूखी जनता का विलाप नहीं थमा। तब जयसिंह ने काँपते पैरों से आकर रघुपति से कहा, "प्रभु, क्या मैं एक बात भी नहीं कह सकता?" रघुपति ने कहा, "नहीं, एक बात भी नहीं।" जयसिंह बोला, "क्या संदेह का कोई कारण नहीं है?" रघुपति ने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं।" जयसिंह ने मुट्ठियाँ कस कर बाँधते हुए कहा, "क्या सब कुछ पर विश्वास करूँ?" रघुपति ने तीव्र दृष्टि से जयसिंह को दग्ध करते हुए कहा, "हाँ।" जयसिंह छाती पर हाथ रख कर बोला, "मेरी छाती फटी जा रही है।" वह जनता के बीच से दौड़ते हुए बाहर निकल गया। उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन में जाकर बैठा, तो उसकी सारी पुरानी स्मृतियाँ मन में जागने लगीं। इसी वन में, इसी पाषाण के मंदिर की पत्थर की सीढ़ियों पर, इसी गोमती के तट पर, इसी विशाल वट की छाया में, इसी छाया से घिरे पोखर के किनारे उसे अपना बाल्य-काल सुमधुर स्वप्न की भाँति याद आने लगा। जो सम्पूर्ण मधुर दृश्य उसके बाल्य-काल को स्नेहपूर्वक घेरे रहते थे, वे आज हँस रहे हैं, उसे आज पुनः बुला रहे हैं, परन्तु उसका मन कह रहा है, 'मैं आज यात्रा पर बाहर निकल आया हूँ, मैंने विदा ले ली है, मैं और नहीं
लौटूँगा।' स्फटिक के मंदिर पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं तथा उसकी बाईं ओर की दीवार पर बकुल की शाखाओं की कम्पित छाया पड़ रही है। बचपन में जिस प्रकार यह स्फटिक-मंदिर सचेतन अनुभव होता था, इन सीढ़ियों पर बैठ कर खेलते समय सीढ़ियों में जैसा संग-साथ पाता था, आज प्रभात की सूर्य-किरणों में मंदिर को वैसा ही सचेतन, उसकी सीढ़ियों को उसी प्रकार शैशव की आँखों से देखने लगा। मंदिर के भीतर माँ आज फिर से माँ के रूप में अनुभव होने लगी। किन्तु अभिमान में उसका हृदय भर आया, उसकी दोनों आँखों से आँसू टपकने लगे। रघुपति को आता देख जयसिंह ने आँसू पोंछ डाले। गुरु को प्रणाम करके खड़ा हो गया। रघुपति ने कहा, "आज पूजा का दिन है। याद है, माँ के चरण स्पर्श करके क्या शपथ ली थी?" जयसिंह ने कहा, "है।" रघुपति - "शपथ का पालन तो करोगे? " जयसिंह - "हाँ।" रघुपति - "देखो वत्स, काम सावधानी से करना। विपत्ति की आशंका है। मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए ही प्रजा को राजा के विरुद्ध भड़का दिया है।" जयसिंह चुपचाप रघुपति के चेहरे की ओर देखता रहा, कोई उत्तर नहीं दिया; रघुपति उसके सिर पर हाथ रख कर बोला, "मेरे आशीर्वाद से तुम निर्विघ्न अपना कार्य संपन्न कर पाओगे, माँ का आदेश पालन कर सकोगे।" इतना कह कर चला गया। राजा अपराह्न में एक कक्ष में बैठे ध्रुव के साथ खेल रहे हैं। ध्रुव के आदेश के अनुसार एक बार मुकुट सिर से उतार रहे हैं, एक बार धारण कर रहे हैं; ध्रुव महाराज की यह दुर्दशा देख कर हँस-हँस कर बेहाल हो रहा है। राजा तनिक हँस कर बोले, "मैं अभ्यास कर रहा हूँ। यह मुकुट उनके आदेश पर जिस प्रकार सहजता से धारण कर पाया हूँ, इस मुकुट को उनके आदेश पर उतनी ही सहजता से उतार भी पाऊँ। मुकुट धारण करना कठिन है, लेकिन मुकुट त्यागना और भी कठिन है।" सहसा ध्रुव के मन में एक विचार आया - कुछ देर राजा के मुकुट की ओर देख कर मुँह में उँगली डाल कर बोला, "तुमि आजा।" राजा शब्द से 'र' अक्षर एकदम से समूल लोप कर देने पर भी ध्रुव के मन में जरा भी पश्चात्ताप उत्पन नहीं हुआ। राजा के मुँह पर राजा को आजा बोल कर उसे सम्पूर्ण आत्म-सुख मिला। राजा ध्रुव की इस धृष्टता को सहन न कर पाने के कारण बोले, "तुमि आजा।" ध्रुव बोला, "तुमि आजा।" इस विषय में बहस का अंत नहीं हुआ। किसी पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है, बहस केवल धींगामुश्ती की है। अंत में राजा ने अपना मुकुट लेकर ध्रुव के सिर पर पहना दिया। तब ध्रुव के पास और बात कहने का उपाय नहीं बचा, उसकी पूरी तरह हार हो गई। ध्रुव का आधा चेहरा उस मुकुट के नीचे छिप गया। मुकुट के साथ विशाल सिर को हिलाते हुए ध्रुव ने मुकुटहीन राजा को आदेश दिया, "एक कहानी सुनाओ।" राजा ने कहा, "कौन-सी कहानी सुनाऊँ?" ध्रुव बोला, "दीदी वाली कहानी सुनाओ।" ध्रुव कहानी मात्र को ही दीदी की कहानी के रूप में जानता था। वह समझता था, दीदी जो कहानियाँ सुनाती थी, उनके अलावा संसार में और कहानी ही नहीं है। राजा एक भारी पौराणिक कहानी लेकर बैठ गए। वे कहने लगे, "ह
िरण्यकश्यपु नामक एक राजा था।" राजा सुन कर ध्रुव बोल उठा, "आमी आजा।" विशाल ढीले मुकुट के बल पर उसने हिरण्यकश्यपु के राजपद को पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया। चाटुकार सभासद के समान गोविन्दमाणिक्य उस किरीटी शिशु को संतुष्ट करने के लिए बोले, "तुम भी आजा, वह भी आजा।" ध्रुव उसमें भी स्पष्ट रूप से असहमति प्रकट करते हुए बोला, "ना, आमी आजा।" अंत में जब महाराज ने कहा, "हिरण्यकशिपु आजा नय, से आक्कस" (हिरण्यकश्यपु राजा नहीं था, वह राक्षस था।) तब ध्रुव ने उसमें कुछ आपत्ति करने लायक नहीं पाया। ऐसे ही समय नक्षत्रराय ने कक्ष में प्रवेश किया - बोला, "सुना है, महाराज ने मुझे राज-कार्य के लिए बुलाया है। आदेश के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" राजा ने कहा, "थोड़ी और प्रतीक्षा करो, कहानी पूरी कर दूँ।" कह कर कहानी पूरी की। "आक्कस दुष्ट" - कहानी सुन कर ध्रुव ने संक्षेप में इसी प्रकार का मत प्रकट किया। ध्रुव के सिर पर मुकुट देख कर नक्षत्रराय को अच्छा नहीं लगा। जब ध्रुव ने देखा कि नक्षत्रराय की दृष्टि उसी पर जमी हुई है, तो उसने नक्षत्रराय को गंभीरता के साथ जता दिया, "आमी आजा।" नक्षत्रराय बोला, "छी, ऐसी बात नहीं कहते।" कह कर ध्रुव के सिर से मुकुट उतार कर राजा के हाथ में देने को हुआ। ध्रुव मुकुट-हरण की संभावना देख कर सचमुच के राजा के समान चिल्ला पड़ा। गोविन्दमाणिक्य ने आसन्न विपत्ति से उसका उद्धार किया, नक्षत्र को रोक दिया। अंत में गोविन्दमाणिक्य ने नक्षत्रराय से कहा, "सुना है, रघुपति ठाकुर बुरे उपायों से प्रजा में असंतोष भड़का रहा है। तुम स्वयं नगर में जाकर इस विषय में तहकीकात कर आओ और सच-झूठ का निर्णय करके मुझे सूचित करो।" नक्षत्रराय ने कहा, "जो आज्ञा।" कह कर चला गया, किन्तु ध्रुव के सिर पर मुकुट उसे किसी भी तर
ह अच्छा नहीं लगा। प्रहरी ने आकर सूचना दी, "पुरोहित ठाकुर का सेवक, जयसिंह भेंट करने की प्रार्थना लिए द्वार पर खड़ा है।" राजा ने उसे आने की अनुमति प्रदान की। जयसिंह राजा को प्रणाम करके हाथ जोड़ कर बोला, "महाराज, मैं सुदूर देश को जा रहा हूँ। आप मेरे राजा हैं, मेरे गुरु हैं, आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ।" राजा ने पूछा, "कहाँ जाओगे जयसिंह?" जयसिंह बोला, "पता नहीं महाराज, वह कहाँ है, कोई नहीं कह सकता।" राजा को बात कहने को तैयार देख कर जयसिंह ने कहा, "महाराज, मना मत कीजिए। आपके निषेध करने पर मेरी यात्रा शुभ नहीं होगी; आशीर्वाद दीजिए, यहाँ मेरा जो संशय था, वह समस्त संशय वहाँ दूर हो जाए। यहाँ के बादल, वहाँ छँट जाएँ। आपके समान राजा के राजत्व में जाऊँ, शान्ति पाऊँ।" राजा ने पूछा, "कब जाओगे?" जयसिंह ने कहा, "आज शाम को। अधिक समय नहीं है महाराज, तो मैं आज विदा लेता हूँ।" कहते हुए राजा को प्रणाम करके राजा की चरण-धूलि ग्रहण की, राजा के चरणों पर दो बूँद आँसू टपक पड़े। जयसिंह जब उठ कर जाने को हुआ, तो ध्रुव धीरे-धीरे जाकर उसका कपड़ा पकड़ कर बोला, "तुम मत जाओ।" जयसिंह हँसते हुए घूम कर खड़ा हो गया, ध्रुव को गोद में उठा लिया, उसे चूमते हुए बोला, "किसके पास रहूँगा, बेटा? मेरा कौन है?" ध्रुव ने कहा, "आमी आजा।" जयसिंह ने कहा, "तुम लोग राजा के राजा हो, तुमने ही सबको बंदी बना कर रख छोड़ा है।" ध्रुव को गोद से उतार कर जयसिंह कक्ष से बाहर निकल गया। महाराज गंभीर मुद्रा में बहुत देर तक सोचते रहे। चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अंधकार-राशि का मर्म भेद कर बीच-बीच में निश्वास छोड़ रहा है। आज रात लोगों का बाहर मार्ग में निकलना निषिद्ध है। रात में मार्ग में निकलता भी कौन है! लेकिन निषेध है, इस कारण आज मार्ग की विजनता और भी गहन प्रतीत हो रही है। समस्त नगरवासियों ने अपने घर के दीपक बुझा कर द्वार बंद कर लिए हैं। मार्ग में कोई प्रहरी नहीं है। चोर भी आज मार्ग में नहीं निकले हैं। जिन्हें शव-दाह हेतु श्मशान में जाना है, वे शवों को घर में रखे प्रभात होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिनके घरों में मृत्युमुखी संतान पड़ी है, वे वैद्य को बुलाने बाहर नहीं निकले हैं। जो भिक्षुक मार्ग के किनारे वृक्ष के नीचे सोता था, उसने आज गृहस्थ की गोशाला में आश्रय ले लिया है। रात्रि में श्रृगाल-श्वान नगर के मार्गों पर विचरण कर रहे हैं, एक-दो चीते गृहस्थों के द्वार पर आकर झाँक रहे हैं। मनुष्यों में आज केवल मात्र एक व्यक्ति घर के बाहर है - और कोई मनुष्य नहीं। वह नदी किनारे पत्थर पर एक छुरी शान पर चढ़ा रहा है तथा अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रहा है। छुरी की धार काफी थी, किन्तु लगता है, वह छुरी के साथ अपनी भावना भी शान पर चढ़ा रहा था, इसी कारण उसका शान चढ़ाना खतम नहीं हो
रहा है। पत्थर पर घिसने से तेज छुरी हिस् हिस् की ध्वनि करके हिंसा की लालसा में तप्त होती जा रही है। अंधकार के बीच अंधकार की नदी बही चली जा रही थी। संसार के ऊपर से अँधेरी रात के पहर बहे चले जा रहे थे। आकाश के ऊपर से अँधेरे घने मेघों की धारा बही जा रही थी। अंत में जब मूसलाधार बारिश पड़नी आरम्भ हुई, तब जयसिंह की चेतना जगी। तप्त छुरी म्यान में रख कर उठ कर खड़ा हो गया। पूजा का समय निकट आ गया है। उसे शपथ की बात याद आ गई। और एक दण्ड भी विलम्ब करना संभव नहीं। मंदिर आज सहस्र दीपों से आलोकित है। त्रयोदश देवताओं के मध्य खड़ी काली नर-रक्त के लिए जिह्वा फैलाए हुए है। मंदिर के सेवकों को विदा करके चतुर्दश देव-मूर्तियों के सम्मुख रघुपति एकला बैठा है। उसके सामने एक दीर्घकाय खाँडा है। नग्न उजला खड्ग दीपालोक में चमचमाते हुए दृढ़ वज्र के समान देवी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है। पूजा अर्ध-रात्रि में है। समय निकट है। रघुपति अत्यंत बेचैन हृदय से जयसिंह की प्रतीक्षा कर रहा है। सहसा तूफान की भाँति हवा चल कर मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गई। हवा में मंदिर की सहस्र दीप-शिखाएँ काँपने लगीं, नग्न खड्ग पर विद्युत खेलने लगी। चतुर्दश देवताओं और रघुपति की छायाएँ मानो जीवित होकर दीप-शिखाओं के नृत्य की ताल-ताल पर मंदिर की दीवार पर नाचने लगीं। एक नर-कपाल तूफान की हवा में इधर-उधर लुढ़कने लगा। दो चमगादड़ मंदिर में आकर सूखे पत्तों के समान एक के पीछे एक उडते घूमने लगे। उनकी छाया दीवार पर उड़ने लगी। दूसरा पहर आ गया। पहले निकट, बाद में दूर-दूरांतर पर श्रृगाल बोलने लगे। तूफान की हवा भी उनके संग मिल कर हू हू करके रुदन करने लगी। पूजा का समय हो गया। रघुपति अमंगल की आशंका में अत्यंत बेचैन हो उठा। उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की ब
िजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं। रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?" जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।" आवाज से मंदिर काँप उठा। काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई। रघुपति चीत्कार कर उठा - जयसिंह को उठाने की चेष्टा की, उठा नहीं पाया। उसकी मृत देह पर पड़ा रहा। मंदिर के सफेद पत्थरों पर रक्त बहने लगा। धीरे-धीरे एक-एक करके दीपक बुझ गए। अंधकार में पूरी रात एक प्राणी के साँस की ध्वनि सुनाई पडती रही; रात के तीसरे पहर तूफान थम कर चारों तरफ सन्नाटा छा गया। रात के चौथे पहर बादल के छिद्र से चन्द्रमा के प्रकाश ने मंदिर में प्रवेश किया। चन्द्रालोक जयसिंह के पाण्डुवर्ण चेहरे पर पड़ा, चतुर्दश देवता सिरहाने खड़े उसे ही देखने लगे। प्रभात में जब वन में पक्षी बोले, तब रघुपति मृत-देह छोड़ कर उठ गया। राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को नियंत्रित नहीं कर पाता। रघुपति का सामना करने की उसकी कोई इच्छा नहीं है। इसीलिए उसने निश्चय किया है, रघुपति की नजर बचा कर गुप्त रूप से जयसिंह के कमरे में जाकर उससे विशेष विवरण जाना जा सकता है। नक्षत्रराय ने धीरे-धीरे जयसिंह के कमरे में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही सोचा, लौट पाए, तो मुक्ति मिले। देखा, जयसिंह की पुस्तकें, उसके कपड़े, उसकी गृह-सज्जा बिखरी पड़ी है और रघुपति बीच में बैठा है। जयसिंह नहीं है। रघुपति की लाल आँखें अंगारे की तरह जल रही हैं, उसके केश बिखरे हुए हैं। उसने नक्षत्रराय को देखते ही मुट्ठी में मजबूती के साथ उसका हाथ पकड़ लिया। उसे बलपूर्वक जमीन पर बैठा लिया। नक्षत्रराय के प्राणों पर बन आई। रघुपति अपने अंगार-नेत्रों से नक्षत्रराय के मर्म-स्थान तक को दग्ध करके पागल की तरह
बोला, "रक्त कहाँ है?" नक्षत्रराय के हृत्पिंड में रक्त की तरंगें उठने लगीं, मुँह से शब्द नहीं निकले। रघुपति उच्च स्वर में बोला, "कहाँ है, तुम्हारी प्रतिज्ञा? कहाँ है, रक्त?" नक्षत्रराय हाथ हिलाने लगा, पैर हिलाने लगा, बाएँ सरक कर बैठ गया, कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचने लगा - उसका पसीना बहने लगा, वह सूखे मुँह से बोला, "ठाकुर..." रघुपति ने कहा, "इस बार माँ ने स्वयं खड्ग उठा लिया है, इस बार चारों ओर रक्त की धारा बहेगी... इस बार तुम्हारे वंश में एक बूँद रक्त बाकी नहीं बचेगा, तब देखना नक्षत्रराय का 'भ्रातृ-स्नेह!' " " ' भ्रातृ-स्नेह!' हा हा! ठाकुर..." नक्षत्रराय की हँसी और नहीं निकली, गला सूख गया। रघुपति ने कहा, "मुझे गोविन्दमाणिक्य का रक्त नहीं चाहिए। जिसे गोविन्दमाणिक्य संसार में प्राणों से अधिक चाहता हो, मुझे वही चाहिए। उसका रक्त लेकर मैं गोविन्दमाणिक्य के शरीर पर मलना चाहता हूँ - उसका वक्ष-स्थल रक्तवर्ण हो जाएगा - उस रक्त का चिह्न किसी भी तरह मिटेगा नहीं। यह देखो, ध्यान से देखो।" कहते हुए उत्तरीय हटा दिया, उसकी देह रक्त में लिपटी है, उसके वक्ष-स्थल पर जगह-जगह रक्त जमा हुआ है। नक्षत्रराय सिहर उठा। उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। रघुपति बँधी मुट्ठी में नक्षत्रराय का हाथ दबा कर बोला, "वह कौन है? कौन गोविन्दमाणिक्य को प्राणों से भी अधिक प्रिय है? किसके चले जाने पर गोविन्दमाणिक्य की आँखों में यह संसार श्मशान हो जाएगा, उसके जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाएगा? प्रातः शैया से उठते ही उसे किसका चेहरा याद आता है, किसकी याद को साथ लेकर वहा रात को सोने जाता है, उसके हृदय-नीड़ को पूरी तरह भर कर कौन विराज रहा है? कौन है वह? क्या वह तुम हो?" कह कर, जैसे छलाँग लगाने के पूर्व व्याघ्र काँपते हुए हिरन के बच
्चे की ओर एकटक देखता है, वैसे ही रघुपति ने नक्षत्र की ओर देखा। नक्षत्रराय हडबड़ा कर बोला, "नहीं, मैं नहीं हूँ।" परन्तु किसी भी तरह रघुपति की मुट्ठी नहीं छुड़ा पाया। रघुपति ने कहा, "तो बताओ, वह कौन है?" नक्षत्रराय ने कह डाला, "वह ध्रुव है।" रघुपति बोला, "ध्रुव कौन?" नक्षत्रराय, "वह एक बालक है..." रघुपाई बोला, "मैं जानता हूँ, उसे जानता हूँ। राजा की अपनी संतान नहीं है, उसे ही संतान की तरह पाल रहा है। पता नहीं, अपनी संतान को लोग किस तरह प्यार करते हैं, किन्तु पालित संतान को प्राणों से अधिक प्यार करते हैं, यह जानता हूँ। अपनी सम्पूर्ण संपदा की अपेक्षा राजा को उसका सुख अधिक प्रतीत होता है। मुकुट अपने सिर की अपेक्षा उसके सिर पर देख कर राजा को अधिक आनंद होता है।" नक्षत्रराय आश्चर्य में पड़ कर बोला, "सही बात है।" रघुपति ने कहा, "बात सही नहीं है, तो क्या है! क्या मुझे पता नहीं कि राजा उसे कितना प्यार करता है! क्या मैं समझ नहीं पाता! मुझे भी वही चाहिए।" नक्षत्रराय मुँह फाड़े रघुपति की ओर देखता रहा। अपने मन में बोला, 'वही चाहिए।' रघुपति ने कहा, "उसे लाना ही होगा... आज ही लाना होगा... आज रात ही चाहिए।" नक्षत्रराय ने प्रतिध्वनि की भाँति कहा, "आज रात ही चाहिए।" रघुपति ने कुछ देर नक्षत्रराय के चेहरे पर देख कर स्वर को धीमा करके कहा, "यह बालक ही तुम्हारा शत्रु है, जानते हो? तुम राज-वंश में जन्मे हो - कहीं से एक अज्ञात कुलशील बालक तुम्हारे सिर से मुकुट छीन लेने को आ गया है, यह पता है? जो सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था, उसी सिंहासन पर उसके लिए स्थान निर्धारित हो गया है, क्या दो आँखें रहते हुए भी यह नहीं देख पा रहे हो!" नक्षत्रराय के लिए ये सारी बातें नई नहीं हैं। उसने भी पहले ऐसा ही सोचा था। गर्वपूर्वक बोला, "वह क्या और बताना पड़ेगा ठाकुर! क्या मैं इसे देख नहीं पाता!" रघुपति ने कहा, "तब और क्या! उसे लाकर दे दो। तुम्हारे सिंहासन की बाधा दूर कर दूँ। ये कुछ पहर किसी तरह काट लूँगा, उसके बाद... तुम कब लाओगे?" नक्षत्रराय - "अँधेरा हो जाने पर।" रघुपति जनेऊ स्पर्श करके बोला, "अगर न ला पाए, तो ब्राह्मण का शाप लगेगा। वैसा होने पर, जिस मुँह से तुम प्रतिज्ञा बोल कर उसका पालन नहीं करोगे, तीन रातें बीतने के पहले ही उसी मुख के मांस को शकुनी (एक छोटी चिड़िया) नोच-नोच कर खाएँगे।" सुनते ही नक्षत्रराय ने चौंक कर चेहरे पर हाथ फिराया - कोमल मांस पर शकुनी की चोच पड़ने की कल्पना उसे नितांत दुस्सह अनुभव हुई। रघुपति को प्रणाम करके वह जल्दी से विदा हो लिया। उस कमरे से प्रकाश में, हवा में और जन-कोलाहल में पहुँच कर नक्षत्रराय ने पुनर्जीवन पाया। ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र ने कहा, "छीः, ऐसी बात नहीं कहते, मैं तुम्हारा चाचा नहीं हू
ँ।" ध्रुव अब तक उसे हमेशा चाचा कहता चला आ रहा था, आज अचानक मना सुन कर वह भारी आश्चर्य में पड़ गया। कुछ देर गंभीर चेहरा बनाए बैठा रहा; उसके बाद नक्षत्र की ओर बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर बोला, "तुम कौन हो?" नक्षत्रराय ने कहा, "मैं तुम्हारा चाचा नहीं हूँ।" सुन कर ध्रुव को अचानक बहुत हँसी आई - इससे बड़ी असंभव बात इसके पहले कभी नहीं सुनी थी; वह हँसते हुए बोला, "तुम चाचा हो।" नक्षत्र जितना मना करने लगा, वह उतना ही कहने लगा, "तुम चाचा हो।" उसकी हँसी भी उतनी ही बढ़ने लगी। वह नक्षत्रराय को चाचा कह कर चिढ़ाने लगा। नक्षत्र बोला, "ध्रुव, तुम अपनी दीदी को देखने जाओगे?" ध्रुव जल्दी से नक्षत्र का गला छोड़ते हुए खड़ा होकर बोला, "दीदी कहाँ है?" नक्षत्र ने कहा, "माँ के पास।" ध्रुव ने कहा, "माँ कहाँ है?" नक्षत्र, "माँ एक जगह पर है। मैं तुम्हें वहाँ लेकर जा सकता हूँ।" ध्रुव ने ताली बजाते हुए पूछा, "कब ले जाओगे चाचा?" नक्षत्र, "इसी समय।" ध्रुव आनंद में चीत्कार करते हुए नक्षत्र के गले से जोर से लिपट गया; नक्षत्र उसे गोद में उठा कर, चादर से ढक कर गुप्त द्वार से बाहर निकल गया। आज रात भी लोगों का बाहर निकलना निषिद्ध है। इसी कारण मार्ग में न प्रहरी हैं, न पथिक। आकाश में पूर्ण चन्द्रमा है। नक्षत्रराय मंदिर पहुँच कर ध्रुव को रघुपति के हाथों में सौंपने को तैयार हो गया। ध्रुव रघुपति को देख कर ताकत के साथ नक्षत्रराय से चिपट गया, किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहा। रघुपति ने उसे बलपूर्वक छीन लिया। ध्रुव 'चाचा' पुकारते हुए रो पड़ा। नक्षत्रराय की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन रघुपति के सामने हृदय की यह दुर्बलता दिखाते हुए उसे भारी लज्जा आने लगी। उसने समझ लिया कि जैसे वह पत्थर का बना है। तब ध्रुव रोते-रोते 'दीदी' 'दीदी' पुक
ारने लगा, किन्तु दीदी नहीं आई। रघुपति ने वज्र-स्वर में धमकाया। डर के मारे ध्रुव का रोना बंद हो गया। उसका रुदन केवल सिसकियों में बाहर आने लगा। चतुर्दश देव-मूर्तियाँ देखती रहीं। गोविन्दमाणिक्य रात में स्वप्न में क्रंदन सुन कर जाग पड़े। सहसा सुना, कोई उनकी खिड़की के नीचे कातर स्वर में पुकार रहा है, "महाराज! महाराज!" राजा ने जल्दी से उठ कर चन्द्रमा के प्रकाश में देखा, ध्रुव का चाचा, केदारेश्वर है। पूछा, "क्या हुआ?" केदारेश्वर बोला, "महाराज, मेरा ध्रुव कहाँ है?" राजा ने कहा, "क्यों, अपनी शैया पर नहीं है?" केदारेश्वर कहने लगा, "दोपहर के बाद से ध्रुव को न देख पाने के कारण, पूछने पर युवराज नक्षत्रराय के सेवक ने बताया, ध्रुव अंतःपुर में युवराज के पास है। सुन कर मैं निश्चिन्त था। बहुत रात होती देख मुझे आशंका हुई; खोजने पर पता चला, युवराज नक्षत्रराय महल में नहीं हैं। मैंने महाराज के साथ भेंट करने की प्रार्थना के लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन प्रहरियों ने किसी भी तरह मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया... इसी कारण खिड़की के नीचे से महाराज को पुकारा, आपकी नींद तोड़ दी है - मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए।" राजा के मन में एक विचार विद्युत की भाँति कौंध गया। उन्होंने चार प्रहरियों को पुकारा, कहा, "सशस्त्र मेरा अनुसरण करो।" एक बोला, "महाराज, आज रात मार्ग में बाहर निकलना निषिद्ध है।" राजा बोले, "मैं आदेश दे रहा हूँ।" केदारेश्वर साथ जाने को तैयार हुआ, राजा ने उसे लौट जाने को कह दिया। राजा चन्द्रालोक में निर्जन मार्ग पर मंदिर की ओर चल पड़े। मंदिर का द्वार अचानक खुला, तो दिखाई पड़ा, नक्षत्र और रघुपति खड्ग सम्मुख रखे मदिरापान कर रहे हैं। प्रकाश अधिक नहीं है, केवल एक दीपक जल रहा है। ध्रुव कहाँ है? ध्रुव काली की मूर्ति के पैरों के निकट लेटे-लेटे सो गया है - उसके कपोलों पर आँसुओं की रेखा सूख गई है, दोनों होठ तनिक खुल गए हैं, चेहरे पर भय नहीं, चिन्ता नहीं - मानो यह पाषाण-शैया नहीं है, वह दीदी की गोद में सो रहा है। मानो दीदी ने चूम कर उसकी आँखों के आँसू पोंछ दिए हैं। मदिरा पीकर नक्षत्र की हिम्मत खुल गई थी, किन्तु रघुपति स्थिर बैठा पूजा के लग्न की प्रतीक्षा कर रहा था - नक्षत्र के प्रलाप पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा था। नक्षत्र कह रहा था, "ठाकुर, तुम मन-ही-मन डर रहे हो। तुम सोच रहे हो, मैं भी डर रहा हूँ। कोई डर नहीं ठाकुर! डर किसका! डर किसको! मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। तुम क्या समझते हो, राजा से डरता हूँ! मैं शाहशुजा से नहीं डरता, मैं शाहजहाँ से नहीं डरता। ठाकुर, तुमने कहा क्यों नहीं - मैं राजा को पकड़ लाता, देवी को संतुष्ट कर दिया जाता। इतने- से लड़के का रक्त ही कितना होगा!" उसी समय मंदिर की दीवार पर परछाईं पड़ी। नक्षत्रराय ने पीछे देखा - राजा। क्षण भर में नशा हिरन हो गया। अपनी परछाईं से भी ज्यादा काला पड़ गया। सोते हुए ध्रुव को तेजी से गोदी में उठा कर गोविन्दमाणिक्य ने प्रहरियों को आदेश दिया, "इ
न दोनों लोगों को बंदी बनाओ।" चार प्रहरियों ने रघुपति और नक्षत्रराय के दोनों हाथ पकड़ लिए। ध्रुव को छाती में दबा कर राजा ज्योत्स्नालोक में निर्जन मार्ग से महल लौट आए। उस रात रघुपति और नक्षत्रराय कारागार में रहे। अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे हुए हैं - रघुपति पाषाण-मूर्ति की भाँति खड़ा है, नक्षत्रराय का सिर झुका हुआ है। रघुपति का दोष सिद्ध करते हुए राजा उससे बोले, "तुम्हें क्या कहना है?" रघुपति ने कहा, "आपको मेरा न्याय करने का अधिकार नहीं है।" राजा ने कहा, "तो तुम्हारा न्याय कौन करेगा?" रघुपति, "मैं ब्राह्मण हूँ, मैं देव-सेवक हूँ, मेरा न्याय देवता करेंगे।" राजा, "पाप का दण्ड और पुण्य का पुरस्कार देने के लिए संसार में देवताओं के सहस्रों अनुचर हैं। हम भी उन्हीं में से एक हैं। इस विषय में मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करना चाहता - मैं पूछ रहा हूँ, तुमने कल शाम को बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था या नहीं!" रघुपति ने कहा, "हाँ।" राजा ने कहा, "तुम अपराध स्वीकार करते हो?" रघुपति, "अपराध! किस बात का अपराध! मैं माँ के आदेश का पालन कर रहा था, माँ का कार्य कर रहा था, तुमने उसमें बाधा पहुँचाई - अपराध तुमने किया है? मैं तुम्हें माँ के सामने अपराधी घोषित करता हूँ, वे तुम्हारा न्याय करेंगी।" राजा ने उसकी बात का कोई उत्तर न देकर कहा, "मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। मैंने वही दण्ड तुम्हारे लिए निर्धारित किया है। तुम आठ वर्ष के लिए निर्वास
ित कर दिए गए हो। तुम्हें प्रहरी मेरे राज्य के बाहर छोड़ आएँगे।" प्रहरी रघुपति को सभा-गृह से ले जाने को तैयार हो गए। रघुपति ने उनसे कहा, "रुक जाओ।" राजा की ओर देख कर बोला, "तुम्हारा न्याय पूरा हुआ, अब मैं तुम्हारा न्याय करूँगा, ध्यान दो। चतुर्दश देवताओं की पूजा में दो रात, जो कोई रास्ते में बाहर निकलेगा, वह पुरोहित के द्वारा दण्डित होगा, यही हमारे मंदिर का विधान है। इसी प्राचीन विधान के अंतर्गत तुम मेरे समक्ष दण्ड के भागी हो।" राजा ने कहा, "मैं तुम्हारा दण्ड भोगने के लिए प्रस्तुत हूँ।" सभासद बोले, "इस अपराध के लिए केवल अर्थ-दण्ड दिया जा सकता है।" पुरोहित बोला, "मैं तुम पर दो लाख मुद्रा का दण्ड लगाता हूँ। इसी समय भरना होगा।" राजा ने कुछ देर सोचा, फिर बोले, "तथास्तु।" कोषाध्यक्ष को बुला कर दो लाख मुद्राओं का आदेश कर दिया। प्रहरी रघुपति को बाहर ले गए। रघुपति के चले जाने पर राजा ने नक्षत्रराय की ओर देख कर दृढ़ स्वर में कहा, "नक्षत्रराय, तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो या नहीं!" नक्षत्रराय बोला, "महाराज, मैं अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिए।" कह कर भागते हुए राजा के पैरों से लिपट गया। महाराज विचलित हुए, कुछ देर तक बोल नहीं पाए। अंत में आत्म-संवरण करके कहा, "नक्षत्रराय, उठो, मेरी बात सुनो। मैं क्षमा करने वाला कौन होता हूँ? मैं अपने विधान से खुद बँधा हुआ हूँ। जिस प्रकार बंदी बँधा हुआ होता है, वैसे ही न्यायाधीश भी बँधा हुआ होता है। मैं एक ही अपराध के लिए एक व्यक्ति को दंड दूँ और एक व्यक्ति को क्षमा कर दूँ, यह कैसे संभव है? तुम ही फैसला करो।" सभासद बोले, "महाराज, नक्षत्रराय आपका भाई है, अपने भाई को क्षमा कर दीजिए।" राजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "आप सब चुप रहिए। मैं जब तक इस आसन पर हूँ, तब तक न किसी का भाई हूँ, न किसी का बंधु।" चारों ओर के सभासद चुप हो गए। सभा में सन्नाटा छा गया। राजा गंभीर स्वर में कहने लगे, "तुम सब सुन चुके हो - मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर जीव-बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। नक्षत्रराय ने कल शाम को पुरोहित के साथ षड्यंत्र रच कर बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था। इस अपराध के सिद्ध हो जाने के आधार पर मैं उसके लिए आठ वर्ष के निर्वासन के दण्ड का निर्धारण करता हूँ।" जिस समय प्रहरी नक्षत्रराय को ले जाने को तैयार हुए, तब राजा ने आसन से उतर कर नक्षत्रराय को आलिंगन में भर लिया; रुद्ध कंठ से कहा, "वत्स, केवल तुम्हारा ही दण्ड नहीं हुआ, मेरा भी दण्ड हो गया। न जाने पूर्व जन्म में क्या अपराध किया था। जब तक तुम बंधु-बांधवों से दूर रहो, तब तक भगवान तुम्हारे साथ रहें, तुम्हारा कल्याण करें।" देखते-देखते समाचार फैल गया। अंतःपुर में रोना-धोना मच गया। राजा एकांत कक्ष का द्वार बंद करके बैठ गए। हाथ जोड़ कर कहने लगे, "प्रभु, अगर कभी मैं अपराध करूँ, तो मुझे क्षमा मत करना, मुझ पर तनिक भी दया मत करना। मुझे अपने पाप का
दण्ड दो। पाप करके दण्ड को ढोया जा सकता है, किन्तु क्षमा का भार नहीं ढोया जा सकता, प्रभु!" नक्षत्रराय के प्रति राजा के मन में दुगुना प्रेम जागने लगा। नक्षत्रराय का बचपन का चेहरा उन्हें याद आने लगा। उसने जो सब खेल किए थे, बातें की थीं, काम किए थे, वे एक-एक कर उनके मन में उभरने लगे। एक-एक दिन, एक-एक रात अपने सूर्यालोक में, अपने तारा खचित आकाश में शिशु नक्षत्रराय को लेकर उनके सम्मुख प्रकट हो गए। राजा की दोनों आँखों से आँसू झरने लगे। प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर के आसपास आ पहुँचे। तब प्रहरी रघुपति को छोड़ कर राजधानी लौट आए। रघुपति मन-ही-मन बोला, "कलियुग में ब्रह्म-शाप नहीं फलता, देखा जाए, ब्राह्मण में बुद्धि कितनी होती है! देखा जाए, गोविन्दमाणिक्य कैसा राजा है और मैं ही कैसा पुरोहित ठाकुर हूँ।" त्रिपुरा की सीमा में मंदिर के कोने में मुगल राज्य के समाचार अधिक नहीं पहुँचते थे। इसी कारण रघुपति ढाका शहर पहुँच कर मुगलों की रीति-नीति और राज्य की अवस्था जानने का कुतूहली हुआ। तब मुगल सम्राट शाहजहाँ का शासन-काल था। उनका तीसरा पुत्र, औरंगजेब दक्षिणापथ में बीजापुर-आक्रमण में नियुक्त था। उनका दूसरा पुत्र, शुजा बंगाल का अधिपति था, उसकी राजधानी राजमहल में थी। कनिष्ठ पुत्र, शहजादा मुराद गुजरात का शासनकर्ता है। ज्येष्ठ युवराज दारा राजधानी दिल्ली में ही रह रहा है। सम्राट की आयु सड़सठ वर्ष है। उनके बीमार होने के कारण दारा पर ही साम्राज्य का भार आ पड़ा है। कुछ दिन ढाका में रह कर रघुपति ने उर्दू की शिक्षा प्राप्त की और अंत में राजमहल
की ओर चल पड़ा। जब तक राजमहल पहुँचा, तब तक भारतवर्ष में हल्ला मच चुका था। समाचार फैल गया कि शाहजहाँ मृत्यु-शैया पर लेटे हैं। इस समाचार को पाते ही शुजा सेना सहित दिल्ली की ओर दौड़ पड़ा। सम्राट के चारों ही पुत्र मृत्यून्मुखी शाहाजहाँ के सिर से एकदम झपट्टा मार कर मुकुट उड़ा लेने की तैयारी कर रहे हैं। ब्राह्मण तत्काल अराजक राजमहल को छोड़ कर शुजा का पीछा करने में लग गया। सेवक-वाहक आदि को विदा कर दिया। साथ में जो दो लाख रुपया था, उसे राजमहल के पास वाले एक निर्जन कोने में गाड़ दिया। उसके ऊपर एक निशान बना दिया। बहुत थोड़ा-सा रुपया साथ में ले लिया। जली हुई झोपड़ियों, छोड़ दिए गए गाँवों, रौंदी हुई फसलों को देखते हुए रघुपति निरंतर चलता रहा। रघुपति ने संन्यासी का वेश धारण कर लिया। लेकिन संन्यासी वेश के होते हुए भी आतिथ्य दुर्घट है। कारण, सैनिक टिड्डों के समान जिस भी रास्ते से गुजरे हैं, उसके दोनों ओर केवल दुर्भिक्ष विराज रहा है। सैनिक घोड़ों और हाथियों को खिलाने के लिए बिना पकी फसल काट ले गए हैं। किसानों के कुठलों में एक दाना भी नहीं बचा है। चारों ओर केवल लुटाई के अवशेष बिखरे हैं। अधिकांश लोग गाँव छोड़ कर भाग गए हैं। भाग्यवश जो एक-दो लोग दिखाई पड़ जाते हैं, उनके चेहरे पर हँसी नहीं है। वे भयभीत हिरन के समान सतर्क रहते हैं। किसी पर भी वे न विश्वास करते हैं, न दया करते हैं। निर्जन रास्ते के किनारे पेड़ों के नीचे हाथ में लाठी लिए दो-चार लोग बैठे दिखाई पड़ जाते हैं; पथिकों के शिकार के लिए वे पूरे दिन प्रतीक्षा करते रहते हैं। धूमकेतु के पीछे आने वाली उल्का-बारिश के समान दस्यु, सैनिकों के पीछे-पीछे लुटने से बचे हुए को लूट ले जाते हैं। यहाँ तक कि, मृत-देह के ऊपर श्रृगाल-श्वान के समान बीच-बीच में सैनिकों और दस्यु-दल में लड़ाई छिड़ जाती है। निष्ठुरता सैनिकों का खेल हो गई है, रास्ते के किनारे निरीह पथिक के पेट में खप् करके तलवार की हूल मार देने अथवा उसके सिर से पगड़ी के साथ थोड़ी-सी खोपड़ी उड़ा देने को वे साधारण उपहास भर समझते हैं। गाँव के लोगों को अपने से डरता हुआ देख कर वे परम कौतुक अनुभव करते हैं। लूटने के बाद गाँव के लोगों को उत्पीड़ित करके वे आनंद प्राप्त करते हैं। दो मान्य ब्राह्मणों को पीठ से पीठ जोड़ कर एक साथ बाँध कर दोनों की नाक में नसवार डाल देते हैं। दो घोड़ों की पीठ पर एक आदमी को चढ़ा कर दोनों घोड़ों को चाबुक मार देते हैं; दोनों घोड़े दो विपरीत दिशाओं में दौड़ जाते हैं, बीच में आदमी गिर जाता है, उसके हाथ-पाँव टूट जाते हैं। इस प्रकार वे रोजाना नए-नए खेलों का आविष्कार करते हैं। गाँव अकारण जला दिए जाते हैं। कहते हैं, बादशाह की शान में आतिशबाजी कर रहे हैं। सैनिकों के मार्ग में इस प्रकार के अत्याचारों के सैकड़ों-सैकड़ों चिह्न मौजूद हैं। यहाँ रघुपति को आतिथ्य मिलेगा कहाँ! कोई दिन निराहार, कोई दिन अल्पाहार में काटने लगा। रात के अँधेरे में एक टूटी परित्यक्त झोपड़ी में थका हु
आ शरीर लेकर सो गया था, सुबह उठ कर देखा, एक सिर-हीन देह को पूरी रात तकिया बना कर सोता रहा था। रघुपति ने एक दिन दोपहर में भूख लगने पर एक झोपड़ी में जाकर देखा, एक आदमी अपने टूटे संदूक पर उसकी कौली भरे पड़ा है - लगा, अपने लुटे हुए धन का शोक मना रहा था - निकट जाकर ठेलते ही वह लुढ़क कर गिर पड़ा। मात्र मृत देह, उसका जीवन बहुत पहले ही जा चुका था। रघुपति एक दिन एक झोपड़ी में सोया हुआ है। रात व्यतीत नहीं हुई है, कुछ देर है। तभी धीरे-धीरे दरवाजा खुल गया। शरद के चन्द्रालोक के साथ-साथ कुछ परछाइयाँ भी झोपड़ी में आ पड़ीं। फिस् फिस् की आवाज सुनाई पड़ी। रघुपति चौंक कर उठ बैठा। उसके उठते ही कई स्त्री-कंठ डरते हुए बोल पड़े, "उई माँ री!" एक पुरुष आगे बढ़ कर बोला, "कौन है रे?" रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण हूँ, पथिक। तुम लोग कौन हो?" "यह घर हमारा है। हम घर छोड़ कर भाग गए थे। मुगल सैनिक चले गए हैं, सुन कर अब आए हैं।" रघुपति ने पूछा, "मुगल सैनिक किस दिशा में गए हैं?" उन्होंने कहा, "विजयगढ़ की ओर। अब तक तो विजयगढ़ के जंगल में प्रवेश कर गए होंगे।" रघुपति और अधिक कुछ न बोल कर तत्क्षण यात्रा पर निकल पड़ा। विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, नीम है, सैकड़ों-सैकड़ों प्रकार की लताएँ और झाड़ियाँ हैं। जगह-जगह तलैया अथवा जलाशय की तरह दिखाई पड़ता है। लगातार पत्तों के सड़ने से उनका जल पूरी तरह हरा हो गया है। छोटी-छोटी टेढ़ी-मेढ़ी बटियाँ साँपों के समान इधर से, उधर से अँधेरे जंगल में प्रवेश कर रही हैं। पेड़ों की डाल-डाल, पात-पात पर लंगूर हैं। वट वृक्ष क
ी शाखाओं से सैकड़ों-सैकड़ों जटाएँ और लंगूरों की पूँछें झूल रही हैं। भग्न मंदिर का प्रांगण शेफाली के सफेद-सफेद फूलों और लंगूरों के दाँतों की चमक से पूरी तरह ढका है। शाम को बड़े-बड़े छतनार पेड़ों पर झुण्ड के झुण्ड तोतों के शोर से घना अंधकार मानो दीर्ण-विदीर्ण होता रहता है। आज इस विशाल जंगल में लगभग बीस हजार सैनिकों ने प्रवेश किया है। शाखा-प्रशाखाओं, लताओं-पत्तों, घासों-झाड़ियों से भरा यह विशाल जंगल तीक्ष्ण नख-चंचु वाले सैनिक बाजों का एकमात्र नीड़ लग रहा है। सैनिकों का जमावडा देख कर असंख्य कौवे झुण्ड बना कर काँव-काँव करते हुए आकाश में उड़ते घूम रहे हैं - हिम्मत करके डालों पर आकर नहीं बैठ रहे हैं। किसी तरह के शोर-शराबे के लिए सेनापति की मनाही है। सैनिक पूरे दिन चल कर शाम को जंगल में पहुँच कर सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी करके खाना पका रहे हैं और आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं - उनकी उसी गुन गुन से सारा जंगल गम गम कर रहा है, शाम को झींगुर की झंकार सुनाई नहीं पड़ रही है। पेड़ों के तनों से बँधे घोड़े बीच-बीच में खुरों से धूल उड़ा रहे हैं और हिनहिना रहे हैं - उससे सारा जंगल चौंक पड़ रहा है। भग्न मंदिर के निकट खाली स्थान पर शाहशुजा का शिविर लगा है। और सबका पड़ाव आज पेड़ों के नीचे ही है। रघुपति को पूरे दिन लगातार चल कर जंगल में प्रवेश करते हुए रात हो गई है। अधिकांश सैनिक सन्नाटे में सो रहे हैं, थोड़े-से चुपचाप पहरा दे रहे हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं आग जल रही है - मानो अंधकार ने बडे कष्ट से नींद से भारी लाल आँखें खोल रखी हैं। रघुपति ने जंगल में पैर रखते ही मानो बीस हजार सैनिकों के श्वास-प्रश्वास को सुन लिया। जंगल हजारों पेड़ों की शाखाएँ फैलाए पहरा दे रहा है। जैसे धूसर मस्तक वाला उल्लू अपने सद्यजात शिशु पर पंख फैलाए बैठा रहता है, उसी प्रकार जंगल के बाहर की विराट रात्रि जंगल के भीतर की सघनतर रात्रि को दबाए उसे डैनों से ढक कर चुपचाप बैठी है - एक रात्रि जंगल के भीतर मुँह घुसाए सो रही है, एक रात्रि जंगल के बाहर सिर उठाए जाग रही है। उस रात्रि में रघुपति जंगल के किनारे सो रहा। सुबह दो-चार खोंचे खाकर हड़बड़ाते हुए जाग गया। देखा, भरी दाढ़ी वाले पगड़ी बाँधे तूरानी सैनिक उससे विदेशी भाषा में कुछ कह रहे हैं; सुन कर उसने निश्चित अनुमान लगा लिया - गाली है। उसने भी बंग-भाषा में उन्हें साला बक दिया। वे लोग उसके साथ खींचातानी करने लगे। रघुपति बोला, "मजाक सूझ रहा है?" किन्तु उनके व्यवहार से मजाक का कोई लक्षण प्रकट नहीं हुआ। वे उसे अकातर भाव से जंगल में खींच कर ले जाने लगे। वह असाधारण असंतोष प्रकट करते हुए बोला, "खींचतान क्यों कर रहे हो? मैं खुद ही चल रहा हूँ। इतने रास्ते मैं आया किसलिए हूँ?" सैनिक हँसने लगे और उसकी बाँग्ला बातों की नकल करने लगे। धीरे-धीरे उसके चारों ओर सैनिकों का बड़ा हुजूम इकट्ठा हो गया, उसे लेकर भारी हंगामा मचने लगा। उत्पीड़न की भी सीमा न रही। एक सैनिक ने एक गिलहरी की पू
ँछ पकड़ कर उसके मुँड़े सिर पर छोड़ दी - देखने की इच्छा थी कि फल समझ कर खाता है या नहीं! एक सैनिक उसकी नाक के सामने एक मोटे बेंत को टेढ़ा करके पकड़े उसके साथ-साथ चलने लगा, उसे छोड़ देता, तो रघुपति की नाक की उच्च महिमा के सम्पूर्णतः समूल लुप्त हो जाने की आशंका थी। सैनिकों की हँसी से जंगल गूँजने लगा। आज दोपर में युद्ध करना होगा, इसी कारण सुबह रघुपति को लेकर वे बहुत खेल रचाने लगे। खेल की इच्छा पूरी होने के बाद ब्राह्मण को शुजा के पास ले गए। रघुपति ने शुजा को देख कर सलाम नहीं किया। वह देवता और स्व-वर्ण को छोड़ कर और किसी के सम्मुख कभी भी सिर नहीं झुकाता। सिर उठाए खड़ा रहा; हाथ उठा कर बोला, "शहंशाह की जय हो।" शुजा मदिरा का प्याला लिए सभासदों के साथ बैठा था; आलस्य विजड़ित स्वर में नितांत उपेक्षा के भाव से कहा, "क्या, माजरा क्या है?" सैनिक बोले, "जनाब, दुश्मन का जासूस छिप कर हमारी ताकत और कमजोरी का पता लगाने के लिए आया था; हम लोग उसे पकड़ कर हुजूर के पास ले आए हैं।" शुजा ने कहा, "अच्छा अच्छा! बेचारा देखने आया है, उसे सब कुछ अच्छी तरह दिखा कर छोड़ दो। देश लौट कर कहानी सुनाएगा।" रघुपति ने गलत-सलत हिन्दुस्तानी में कहा, "मैं सरकार के यहाँ काम की प्रार्थना करता हूँ।" शुजा ने आलस्य भाव से हाथ हिला कर उसे जल्दी से चले जाने का संकेत किया। बोला, "गरम!" जो हवा कर रहा था, वह दुगुने जोर से हवा करने लगा। दारा ने अपने पुत्र सुलेमान को राजा जयसिंह के अधीन शुजा के आक्रमण का प्रतिरोध करने भेजा है। उसकी विशाल सेना निकट पहुँच गई है, समाचार आ गया है। उसी कारण विजयगढ़ के किले पर अधिकार करके वहाँ सेना इकट्ठी करने के लिए शुजा बेचैन हो गया है। किला और सरकारी खजाना शुजा के हाथों सौंप देने का प्रस्ताव लेकर दू
त विजयगढ़ के अधिपति विक्रम सिंह के पास गया था। विक्रम सिंह ने उसी दूत से कहलवा भेजा, "मैं केवल दिल्लीश्वर शाहजहाँ और जगदीश्वर भवानीपति को जानता हूँ - शुजा कौन है? मैं उसे नहीं जानता।" शुजा ने जड़ता भरे स्वर में कहा, "बड़ा बेअदब है! नाहक फिर लड़ाई करनी पड़ेगी। भारी झमेला है।" रघुपति ने यह सब सुन लिया। सैनिकों के हाथ से छूटते ही विजयगढ़ की ओर चल पड़ा। विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार अपने सहस्र तरु-जाल से ढका है, उसी प्रकार दुर्ग अपने पत्थरों में जकड़ा है। अरण्य सावधान है, दुर्ग चौकन्ना है। अरण्य व्याघ्र के समान हाथ-पैर सिकोड़े पूँछ समेटे बैठा है, दुर्ग सिंह के समान केशर फुलाए गर्दन टेढ़ी किए खड़ा है। अरण्य जमीन से कान लगाए सुन रहा है, दुर्ग आकाश में सिर उठाए देख रहा है। रघुपति के जंगल से बाहर आते ही दुर्ग के प्राचीर पर खड़े प्रहरी चौकन्ने हो गए। शंख बज उठे। प्रहरी नाद करते हुए नख-दन्त खोल कर भृकुटी तान कर खड़े हो गए। रघुपति जनेऊ दिखा कर हाथ उठा कर संकेत करने लगा। सैनिक सतर्क खड़े रहे। जब रघुपति दुर्ग की प्राचीर के निकट पहुँचा, तो सैनिकों ने पूछा, "तुम कौन हो?" रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण, अतिथि।" दुर्गाधिपति विक्रम सिंह परम धर्मनिष्ठ हैं। देवता, ब्राह्मण और अतिथि की सेवा में लगे रहते हैं। जनेऊ रहने पर दुर्ग में प्रवेश के लिए और कोई पहचानपत्र आवश्यक नहीं था। लेकिन आज युद्ध के दिन क्या करना उचित है, सैनिक नहीं सोच पाए थे। रघुपति ने कहा, "तुम लोगों के शरण न देने की स्थिति में मुझे मुसलमानों के हाथों मरना पड़ेगा।" विक्रम सिंह के कानों में जब यह बात पहुँची, तो उन्होंने ब्राह्मण को दुर्ग में शरण देने की अनुमति प्रदान कर दी। प्राचीर के ऊपर से बाँस की एक सीढ़ी उतारी गई, रघुपति दुर्ग में दाखिल हो गया। दुर्ग में सभी युद्ध की प्रतीक्षा में व्यस्त हैं। वृद्ध चाचा साहब ने ब्राह्मण की आवभगत का भार स्वयं सँभाल लिया। उनका असली नाम खड्ग सिंह है, किन्तु कोई उन्हें पुकारता है, चाचा साहब, कोई पुकारता है, सूबेदार साहब - क्यों पुकारता है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं देता। संसार में उनका कोई भतीजा नहीं है, भाई भी नहीं है, उन्हें चाचा होने का कोई अधिकार अथवा इसकी दूर तक संभावना नहीं है और उनके जितने भतीजे हैं, उनका सूबा उनकी अपेक्षा अधिक नहीं है, किन्तु आज तक किसी ने उनकी उपाधि के सम्बन्ध में किसी प्रकार की आपत्ति अथवा संदेह प्रकट नहीं किया। जो बिना भतीजे के ही चाचा हैं, बिना सूबे के ही सूबेदार हैं, संसार की अनित्यता और लक्ष्मी के चपलता-बंधन द्वारा उनके पद से हट जाने की कोई आशंका नहीं है। चाचा साहब आकर बोले, "वाह वा, यही तो हुआ ब्राह्मण!" कहते हुए भक्ति में डूब कर प्रणाम किया। रघुपति का गठन एक प्रकार से तेजस्वी दीपशिख
ा के समान था. जिसे अचानक देख कर पतंग न्योछावर हो जाते थे। चाचा साहब संसार की आजकल की शोचनीय दशा पर दुखी होकर बोले, "ठाकुर, आजकल वैसे ब्राह्मण कितने मिलते हैं!" रघुपति ने कहा, "बहुत कम।" चाचा साहब ने कहा, "पहले ब्राह्मण के मुख में अग्नि थी, अब समस्त अग्नि ने जठर में शरण ले ली है।" रघुपति ने कहा, "वह भी क्या पहले की तरह है?" चाचा साहब ने सिर हिला कर कहा, "सही बात है। अगस्त्य मुनि ने जिस परिमाण में पान किया था, यदि उसी परिमाण में भोजन भी करते, तो जरा सोच कर देखिए।" रघुपति ने कहा, "और भी दृष्टांत हैं।" चाचा साहब, "हाँ, हैं ही तो! जम्भु मुनि की पिपासा की बात सुनी जाती है, उनकी भूख के बारे में कहीं ही लिखा नहीं है, लेकिन एक अनुमान लगाया जा सकता है। हरीतकी खाने से ही कम खाया जाता है, ऐसी बात नहीं है, वे कितनी हरीतकियाँ प्रति दिन खाते थे, एक हिसाब रहने पर समझ सकता था।" रघुपति ने ब्राह्मण के महात्म्य का स्मरण करके कहा, "नहीं साहब, आहार की ओर उनका विशेष ध्यान नहीं था।" चाचा साहब जीभ दाँतों में दबाते हुए बोले, "राम राम, क्या कह रहे हैं ठाकुर? उन लोगों का जठरानल अत्यंत प्रबल था, इसका विशिष्ट प्रमाण है। देखिए ना, कालक्रम में और सारी अग्नियाँ बुझ गईं, होम की अग्नि भी और नहीं जलती, किन्तु..." रघुपति ने तनिक क्षुब्ध होते हुए कहा, "होम की अग्नि और जलेगी कैसे? देश में घी रह कहाँ गया? नास्तिक सारी गायों को ठिकाने लगा रहे हैं, अब हव्य कहाँ मिलता है? होमाग्नि जले बिना ब्रह्मतेज और कब तक टिक सकता है?" कहते हुए रघुपति अपनी जला डालने वाली शक्ति को बहुत अधिक अनुभव करने लगा। चाचा साहब ने कहा, "सही कहा ठाकुर, गायों ने मर कर आजकल मनुष्य लोक में जन्म ग्रहण करना आरम्भ कर दिया है, किन्तु उनसे घी पाने की प्
रत्याशा नहीं की जा सकती। दिमाग की पूरी तरह कमी है। ठाकुर का आगमन कहाँ से हो रहा है?" रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा की राजबाड़ी से।" विजयगढ़ के बाहर स्थित भूगोल अथवा इतिहास के सम्बन्ध में चाचा साहब की साधारण-सी जानकारी थी। भारतवर्ष में विजयगढ़ के अतिरिक्त और कुछ जानने लायक है, उन्हें यह विश्वास भी नहीं है। पूरी तरह अनुमान के आधार पर बोला, "अच्छा, त्रिपुरा के राजा बहुत बड़े राजा हैं?" रघुपति ने इसका पूर्ण समर्थन किया। चाचा साहब - "ठाकुर क्या करते हैं?" रघुपति - "मैं त्रिपुरा का राजपुरोहित हूँ।" चाचा साहब आँखें मींच कर सिर हिलाते हुए बोले, "आहा।" रघुपति के प्रति उनकी भक्ति अत्यधिक बढ़ गई। "किसलिए आना हुआ?" रघुपति ने कहा, "तीर्थ दर्शन के लिए।" धूम की आवाज हुई। शत्रु पक्ष ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। चाचा साहब हँस कर आँखें मिचमिचाते हुए बोले, "वह कुछ नहीं, ढेला फेंक रहा है।" विजयगढ़ पर चाचा साहब का विश्वास जितना दृढ़ है, विजयगढ़ के पत्थर उतने मजबूत नहीं हैं। विदेशी पथिक के दुर्ग में प्रवेश करते ही चाचा साहब उस पर पूरा अधिकार करके बैठ जाते हैं और विजयगढ़ के महात्म्य को उसके मन में बद्धमूल कर देते हैं। रघुपति त्रिपुरा की राजबाड़ी से आया है, ऐसा अतिथि हमेशा नहीं आता, चाचा साहब अत्यंत उल्लास में हैं। अतिथि के साथ विजयगढ़ के पुरातत्व के सम्बन्ध में चर्चा करने लगे। बोले, "ब्रह्मा का अण्ड और विजयगढ़ का दुर्ग लगभग एक ही समय उत्पन्न हुए तथा ठीक मनु के बाद से ही विक्रम सिंह के पूर्वज इस दुर्ग पर अधिकार जमाए चले आ रहे हैं, इस विषय में कोई संशय नहीं हो सकता।" इस दुर्ग को शिव का कौन-सा वर प्राप्त है तथा कार्तवीर्यार्जुन इस दुर्ग में किस प्रकार बंदी हुआ था, वह भी रघुपति से छिपा नहीं रहा। संध्या समय समाचार मिला, शत्रु पक्ष दुर्ग को कोई हानि नहीं पहुँचा पाया है। उन्होंने तोपें लगाई थीं, किन्तु तोपों के गोले दुर्ग तक नहीं पहुँच सके। चाचा साहब ने हँस कर रघुपति की ओर देखा। रहस्य यही कि दुर्ग को शिव का जो अमोघ वर प्राप्त है, उसका इससे प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या हो सकता है। लगता है, स्वयं नंदी तोपों के गोलों को बीच में ही लपक ले गए, उनसे कैलास पर गणपति और कार्तिकेय कंदुक-क्रीड़ा करेंगे। किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण करने में शुजा की सहायता करेगा। किन्तु ब्राह्मण का युद्ध-विग्रह से कोई लेना-देना था नहीं; सो, कैसे शुजा की सहायता की जा सकती है, कुछ भी नहीं सोच पाया। अगले दिन फिर युद्ध आरम्भ हो गया। विरोधी पक्ष ने बारूद से दुर्ग के प्राचीर का थोड़ा-सा हिस्सा उड़ा दिया, किन्तु तेजी से गोली बरसाने के कारण दुर्ग में प्रवेश नहीं कर पाया। देखते ही देखते टूटे अंश की मरम्मत कर दी गई। आज बीच-बीच में दुर्ग में गोली-गोले आकर गिरने ल
गे, दो-चार करके दुर्ग के सैनिक मरने और घायल होने लगे। "ठाकुर, कोई डर नहीं, यह केवल खेल हो रहा है," कह कर चाचा साहब रघुपति को चारों ओर से दुर्ग दिखाते घूमने लगे। कहाँ अस्त्रागार है, कहाँ भंडार है, कहाँ घायलों का चिकित्सालय है, कहाँ कैदखाना है, कहाँ दरबार है, सब तन्न-तन्न करके दिखाने लगे और बार-बार रघुपति के चेहरे की ओर देखने लगे। रघुपति ने कहा, "विलक्षण कारखाना है। त्रिपुरा का दुर्ग इसके सामने नहीं टिक सकता। लेकिन साहब, छिप कर भागने के लिए त्रिपुरा के दुर्ग में एक आश्चर्यभरा सुरंग-मार्ग है, यहाँ उस प्रकार का कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है।" चाचा साहब कुछ बोलने जा रहे थे, सहसा अपने को रोकते हुए कहा, "नहीं, इस दुर्ग में वैसा कुछ भी नहीं है।" रघुपति ने नितांत आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "इतने विशाल दुर्ग में एक सुरंग-मार्ग नहीं, यह कैसी बात है!" चाचा साहब ने तनिक कातर होकर कहा, "न हो, क्या ऐसा हो सकता है! अवश्य ही होगा, तब भी शायद हममें से किसी को पता नहीं है।" रघुपति ने हँस कर कहा, "तब तो न होने के बराबर ही है। जब आप ही नहीं जानते, तो और कौन जानता होगा।" चाचा साहब कुछ देर बहुत गंभीर होकर चुप रहे, उसके बाद सहसा "हरि हे, राम राम" कहते हुए चुटकी बजा कर जमुहाई ली, उसके बाद चेहरे पर, मूँछों पर, दाढ़ी पर एक-दो बार हाथ फेरते हुए अचानक बोले, "ठाकुर, आप तो पूजा-अर्चना में लगे रहते हैं, आपको बताने में कोई दोष नहीं है - दुर्ग में प्रवेश करने और दुर्ग से बाहर जाने के दो गुप्त मार्ग हैं, किन्तु बाहर के किसी व्यक्ति को उन्हें दिखाने का निषेध है।" रघुपति ने किंचित संदेह के स्वर में कहा, "ठीक है, वह तो होगा ही।" चाचा साहब ने देखा, दोष उन्हीं का है, एक बार 'नहीं' एक बार 'हाँ' बोलने पर लोगों को स्वाभा