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कैसे?' बहुरा ने कहा। 'मैं स्वयं जाऊँगी भरोड़ा।' माया की बात ने सबको चौंका दिया। सब मौन हो गए. 'नहीं दीदी' ! बहुरा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, 'यह उचित नहीं।' 'क्यों पुत्री?' 'तुम्हारे इस सकारात्मक पहल का अर्थ उनकी दृष्टि में नकारात्मक ही होगा। यह तो झुक जाने वाली बात होगी।' 'तो क्या हुआ!' माया ने कहा, 'हम कन्या पक्ष वाले हैं। हमारा झुकना तो यूँ भी स्वभाविक ही है पुत्री!' और माया की इस बात पर बहुरा पुनः मौन हो गयी। आनंद और उत्साह में सारा अंचल छलक रहा था। कुँवर के आगमन ने भरोड़ा का वातावरण पूर्णतः बदल दिया। ऐसे में तांत्रिक चंद्रा अंचल के बच्चों के मध्य सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था। बच्चों का समूह उसे घेरे रहता और तांत्रिक चंद्रा, अपने जादू के खेल दिखाकर उन सबों का मनोरंजन करता। पलक झपकते ही उसके हाथों में विभिन्न मिष्टान्न एवं खिलौने उत्पन्न हो जाते, जिसे पाकर बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहता। सारे अंचल के बच्चे, खिलौने तथा मिठाई पाने के लोभ में उससे चिपके रहते। कापालिक टंका, बहुरा के बलाबल से ज्ञात होने हेतु तांत्रिक अनुष्ठान में संलग्न था। राजा विश्वम्भरमल्ल के साथ-साथ रानी गजमोती अपने पुत्र को निहारने-निरखने में व्यस्त हो गए. मंगलगुरु आगामी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे तथा भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल, बहुरा को दण्डित करने की योजना बना रहे थे। पूर्णतः परिवर्तित स्थिति ने उनका उत्साह बढ़ा दिया था। शंखाग्राम की राजमाता एवं उत्कल नरेश, भरोड़ा प्रवास का आनंद उठा रहे थे तथा उनका पुत्र अपनी भार्या भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ कुँवरश्री के द्विरागमन पर विचार-विमर्श कर रहा था। चंद्रचूड़ की इच्छा थी कि वह स्वयं बखरी में उपस्थित होकर बहुरा से मिले, परन्तु उसकी भार्या भुवनमोहिनी की इच्छा थी कि कुल की नीति-रीति के अनुसार ही कार्य करना उचित है, अतः कुँवर के पिताश्री जो निर्णय करेंगे, उसी का अनुपालन करना श्रेयस्कर होगा। दूसरी और भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल का कहना था कि बहुरा ने जब कुल की परम्परा का उल्लंघन कर हमारे आत्मसम्मान को धूल-धूसरित कर दिया तो फिर किसी लोकाचार, रीति-रिवाज तथा पारम्परिक औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें तो बहुरा का मान-मर्दन कर अपनी पुत्रवधु को बल-पूर्वक भरोड़ा लाना चाहिए. ऐसे विरोधाभासी विचारों के मध्य राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श को स्वीकार कर राजा विश्वंभर मल्ल ने अतंतः कुँवर के गौना का डाला भेजने का निश्चय कर लिया और इस मध्य सबसे अधिक व्यस्त था वज्रबाहु। समस्त अतिथियों के आतिथ्य का भार उसी पर था। किसी पल वह पाकशाला में उपस्थित होता तो अगले पल सेवकों के पास। सभी व्यस्त थे। कोई आमोद-प्रमोद में, कोई चिन्तन में, कोई मनन में तो कोई चर्चा में। परन्तु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो पूर्णरूपेण निष्क्रिय था। क्या करे, क्या न करे वाली स्थिति थी उसकी। वह था उत्कल का अति महत्त्वाकांक्षी सेनापति। दीर्घ विचार-मंथन के उपरांत वह इसी निश्चय पर प
हुँचा कि नियति के समक्ष स्वयं को समर्पित कर दे वह। अन्यथा ऐसा न हो कि सेनानायक के पद से भी वह च्युत हो जाये। भँवर के मध्य से निकली अमृता की जीवन-नौका किनारे पहुँचती कि तभी पतवार उसके हाथ से छूट गया। काकी और बहुरा की हठ में, विरहिणी अमृता टूट कर बिखर गयी। उसकी हँसी खो गयी, मुस्कराना भूल गयी। खोयी-खोयी-सी हो गयी वह। निंदिया तो बैरन हो ही चुकी थी, जागी रहती तो भी संज्ञाहीन ही रहती। उसकी पीड़ा माया से सही नहीं जाती। परन्तु इस घड़ी जब उसकी दृष्टि कक्ष में बैठी अमृता पर पड़ी तो, बरबस ही उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। उसकी अमृता बैठी-बैठी कहीं खो-सी गयी थी। लाज से भरी उसकी आँखों से अपूर्व-सी प्रसन्नता छलक रही थी। हुआ क्या है इसे? यह निगोड़ी आज इतनी प्रसन्न क्यों है? कदाचित् अपनी जागी आँखों से ही स्वप्न देख रही है यह अभागी। निकट पहुँच कर अमृता को घड़ी भर निहारती रही वह, परन्तु माया की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ अमृता की प्रफुल्लित दृष्टि शून्य में ही अटकी रही। क्या करे वह? अमृता की तंद्रा भंग कर दे अथवा कुछ पल और जी लेने दे इसे, क्योंकि चैतन्य होते ही पुनः रो पड़ेगी यह। ममतामयी उसके हृदय ने कहा-पीर विरह की विरहिनी ही जाने और न जाने कोय नीर बहे अँखियन से, फिर भी मन न शीतल होय और वह सचमुच ही स्वप्न में खोई थी। हँसती-खिलखिलाती सखियाँ उसे घेरे चुहल कर रही हैं। कोई पाँवों में मेंहदी रच रही है तो कोई उसकी वेणी को पुष्पों से श्रृंगारित कर रही है। दूर खड़ी पोपली काकी स्निग्ध नेत्रों से उसे तक रही है और पास बैठी माता बहुरा बारंबार उसकी बलाइयाँ ले रही है। हाथों में महावर लिए उसकी प्यारी दीदी माया आयी और तभी जैसे बादलों की ओट से चंदा झांके-उसके प्राण, उसके कुँवर ने द्वार की ओट से उसे झांका। न
ैना चार होते ही लाज से दुहरी होकर सकुचायी अमृता और भी सिमट गयी। पगली हो जायेगी यह। माया ने सोचा। उसकी चेतना ने उससे कहा-कुँवर के स्वप्न-भंवर मेंपड़ी है यह अभागी। हृदय फट गया माया का, आँखें भर आयीं। रोक न सकी स्वयं को और बढ़ कर अपने अंक में समेट लिया उसने अमृता को। तत्क्षण तंद्रा टूटी तो अमृता ने स्वयं को दीदी के अंक में जकड़े पाया। तो स्वप्न था यह! प्रथम बार...अपने जीवन में संभवतया प्रथम बार रो पड़ी माया। अमृता भी रो पड़ी। फिर तो बांध ही टूट गया दोनों का। राज भरोड़ा से आये मनुआ ठाकुर को बहुरा ने आपादमस्तक निहारा। राजा ने अपने ठाकुर के हाथों, उसकी पुत्री के गौना का डाला भिजवाया था। साँवले वर्ण के इस वृद्ध ठाकुर ने अपने मस्तक पर पीला मुरैठा बाँध रखा था। इसके कंधों पर लालवर्णी गमछा और कमर में पीली धोती बँधी थी। बाँस की किरचियों से बने जिस डाले को यह अपने साथ लेकर आया था, वह वहीं भूमि पर उसके पास उपेक्षित-सा पड़ा था। लाल रंग से चित्रित इस डाले पर अक्षत, चंदन एवं रोली के छींटे अंकित थे। लाल रेशमी पाड़ से बँधा यह डाला यंू तो ठाकुर के आगमन का अभिप्राय स्वयं कह रहा था, फिर भी बहुरा ने तीक्ष्ण स्वर में प्रश्न किया-'यह क्या लेकर आये हो यहाँ? ...और तुम हो कौन?' 'मैं, मनुआ ठाकुर, राज भरोड़ा से आया हूँ चौधराइन!' सादर कहा उसने, 'हमारे राजा जी ने भेजा है मुझे।' 'अच्छा तो राज भरोड़ा से पधारे हैं आप!' व्यंगपूर्ण स्वर में बहुरा ने कहा, 'सौगात लेकर आये हैं हमारे लिए.' 'नहीं चौधराइन' , कमर तक झुक कर कहा उसने, 'बिटिया के गौना का डाला है यह।' बहुरा की मुखाकृति पर क्रोध उभर आया। भूमि पर पड़ा डाला उसे चिढ़ा रहा था। इच्छा हुई कि पग-प्रहार से दूर कर दे इस डाला को। निर्लज्जता की परिणति है यह तो। मुझे पराभूत करने के लिए पहले तो उन्होंने सैन्य बलों का संचय किया और अब डाला भेजकर मेरा उपहास! उसकी उग्रता और भी बढ़ गयी। मेरी अबोध कन्या का परित्याग करने के उपरान्त अब दुष्टों ने लोकाचार की धृष्टता की है। लोकाचार के निर्लज्ज प्रदर्शन के साथ ही उन्होंने मेरी अस्मिता को भी चुनौती दी है। उनका यह दुःसाहस! क्रोध से उफनते बहुरा ने अपने समधी को दण्डित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और ऐसा निश्चय करते ही उसके अंतस् का ज्वालामुखी फट कर, उसके भयंकर अट्टहास में प्रकट हो गया। बहुरा के इस अति-विकट अट्टहास से थर्राया मनुआ ठाकुर की टाँगे काँपने लगीं। प्राणों के भय से काँपते ठाकुर ने अपने दोनों कर जोड़ दिए. उसके नेत्रों में भय उभर आया और कंठ अवरुद्ध हो गया। अपनी मृत्यु को निश्चित जानकर उसने उस पल को धिक्कारा, जब भरोड़ा से गौना का डाला लेकर उसने बखरी के लिए प्रस्थान किया था। कितना समझाया था पत्नी ने और परिजनों ने भी तो रोका था; परन्तु काल ने उसकी बुद्धि ही हर ली थी, तभी तो मैं मूर्ख स्वयं चल कर आ गया, काल का ग्रास बनने। अब क्या करे वह? पता नहीं यह विकटा अब क्या करेगी? मनुआ ठाकुर अपनी मृत्यु को आसन्न जान थरथरा ह
ी रहा था कि इसी मध्य पोपली काकी और माया दीदी ने कक्ष में प्रवेश किया। बहुरा पूर्ववत् अट्टहास कर रही थी। भयाक्रांत ठाकुर कर जोड़े, थरथराता खड़ा था। गौना का उपेक्षित डाला, पास ही भूमि पर पड़ा था। समस्त परिस्थितियाँ स्पष्ट थीं। तो भरोड़ा से डाला लेकर नाई आया है। माया दीदी के अधरों पर सुखद मुस्कान बिखरी। परन्तु पोपली काकी को इस दृश्य ने विक्षिप्त कर दिया। भरोड़ा का ऐसा दुःसाहस! उसने सोचा, सैन्य-बल ने विश्वंभरमल्ल को अति-विश्वासी बना दिया है। भुवनमोहिनी, कामायोगिनी तथा कापालिक टंका की मित्रता के गर्व में चूर होकर उसने इस लोकाचार का दुस्साहस किया है। बहुरा का अट्टहास थमा तो उसने पोपली से व्यंग्य में कहा, 'देखा काकी। तुम्हारे समधी जी ने क्या भेजा है?' 'देख रही हूँ' , क्रोधित काकी ने कहा, 'इस डाले में शत्रु ने शगुन नहीं, अपना गर्व और अभियान भर कर भेजा है।' 'क्या कहती हो काकी!' तड़प कर कहा माया ने, 'बिगड़ी को और न बिगाड़ो। समधी जी ने तो सौहार्द का प्रदर्शन किया है। शगुन के इस डाले में जो संदेश छिपा है, उसे पहचानो काकी और अभागी अमृता के बिखरे भाग्य को सँवरने से मत रोको!' काकी ने तत्काल कुछ नहीं कहा, परन्तु बहुरा ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखा माया को। कैसी मूर्ख है यह, सोचा उसने। शत्रु की धृष्टता का इसे तनिक भी भान नहीं। यूँ भी हमारी मान-मर्यादा के विरुद्ध ही विचार व्यक्त करना, इसे प्रिय लगने लगा है। उसकी इच्छा हुई कि वह तत्क्षण माया को कक्ष त्यागने का परामर्श दे-दे परन्तु उसने ऐसा कुछ कहा नहीं। बहुरा ने काकी तथा माया को बैठा कर स्वयं भी बैठते हुए माया से कहा, 'वही करूँगी जिसपर सब सहमति होगी, परन्तु अपने स्वाभिमान से समझौता कदापि नहीं करूँगी।' 'स्वाभिमान और अभिमान में अंतर होता है पुत्री!'
माया ने शांत स्वर में कहा। 'अच्छा, तो अब हमें तुमसे सीखनी होगी' ! क्रोधयुक्त स्वर में काकी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'मैं देख रही हूँ माया, आज-कल प्रायः तुम्हारा स्वर, हमारे विरोध में ही व्यक्त होता है।' 'ऐसा मत कहो काकी!' पूर्ववत् शांत स्वर में माया ने कहा, 'विचारों में मतभेद को इस प्रकार व्यक्तिगत मतभेद में परिणत मत करो! हमें अच्छी तरह सोच-विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए. हमारे सौभाग्य से ही यह शुभ अवसर उपस्थित हुआ है। तनिक सोचो काकी...भरोड़ा में बाहरी सेना की उपस्थिति से कितने भ्रमित थे हम। क्या-क्या नहीं सोच लिया था हमने। स्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञता ने ही हमारी पुत्री को भी इतना उद्वेलित कर दिया था जिस कारण इसने कुँवर पर तंत्र-प्रहार तक किया। परन्तु इतनी कटुतापूर्ण स्थिति में भी हमारे समधी ने जब इस सौजन्य का प्रदर्शन किया है तो हमें भी सब विस्मृत कर अमृता के जीवन को सुखों से भर देना चाहिए काकी।' मूक काकी के अंदर विभिन्न विचारों के प्रवाह चल रहे थे। माया से पूर्णतया असहमत काकी कुछ और ही सोच रही थी। सहसा उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। समझ गयी माया। काकी अवश्य ही किसी दुश्चक्र में लिप्त है इस घड़ी। बहुरा के मनोभावों को तो वह शत-प्रतिशत जान लेती थी क्योंकि उसके अंतस का भाव, तत्काल उसकी मुखाकृति पर प्रतिबिम्बित होने लगता था। परन्तु काकी के साथ ऐसी बात नहीं थी। वह क्या सोच रही है... उसका मुख देख कर यह जान पाना संभव नहीं था। दूसरी तरफ बहुरा भी वही सोच रही थी जो कदाचित् पोपली काकी सोच रही थी। बहुरा के अंदर एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था। क्या इस अवसर को शत्रु-मर्दन के शुभ-अवसर पर परिवर्तित कर दिया जाए? और इस विचार के आते ही उस के अधरों पर पोपली काकी की भांति विषाक्त मुस्कान थिरकने लगी। बहुरा के नेत्र काकी से मिले। मूक नेत्रों का परस्पर सम्भाषण हुआ। 'धबड़ाओ मत ठाकुर!' काकी से दृष्टि हटाकर बहुरा ने मनुआ से कहा, 'तुम तो अतिथि हो! शांत हो जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो!' बहुरा के स्वर परिवर्तन ने माया को आशान्वित कर दिया। कदाचित् इसने मेरा तर्क स्वीकार लिया है। उसकी उत्सुक दृष्टि बहुरा पर केन्द्रित हो गयी। बहुरा कह रही थी, 'यद्यपि तुम्हारे राजा ने हमें हार्दिक क्लेश एवं आघात पहुँचाया है। विवाहोपरांत उन्होंने मेरी निर्दोष पुत्री को कलपते छोड़कर, उसका परित्याग कर दिया। तथापि हम अपने समस्त आत्मसम्मान का विचार छोड़ कर इस शगुन के डाले को स्वीकार करते हैं ठाकुर! हम कन्या-पक्ष वाले हैं। परम्परा ने भी हमें वर-पक्ष के अधीन रखा है। यूँ भी समर्थ को कोई दोष नहीं देता। अपनी पुत्री के मलिन मुख को देख कर, उसके सुख के समक्ष आज वीरा झुक गयी है ठाकुर! इस शगुन को तो मैं स्वीकार कर ही चुकी हूँ साथ ही अपनी पुत्री का गौना भी स्वीकारती हूँ ठाकुर! परन्तु अपनी आहत अंतरात्मा की रक्षा हेतु मेरी एक अरदास है। गौना के लिए मेरे जमाई को अकेले ही आना होगा। अपने समधी-समधिन, उनके परिजन तथा इष्ट-मित्रों क
ा मैं स्वागत नहीं कर सकूंगी। अपने राजा को कहना, वीरा की यह बात यदि उन्हें स्वीकार्य हो, तो वे अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेज दें।' बहुरा की वाक्पटुता ने पोपली काकी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर दिया। माया को यद्यपि बहुरा की बात अच्छी नहीं लगी तथापि उसने इस बार कोई विरोध नहीं किया। पति संग अमृता की विदाई हो जाये, इसके अतिरिक्त उसकी कोई अभिलाषा थी भी नहीं। उसे पता था, शेष कटुता शनैः-शनैः स्वयं मिट जायेगी। परन्तु सर्वाधिक प्रसन्न हुआ मनुआ ठाकुर। प्राणभय से मुक्ति मिली थी उसे। त्रण पाते ही उसने मुक्ति की सांस ली। राजा विश्वम्भरमल्ल के शिविर में सभी को मनुआ ठाकुर की प्रतीक्षा थी। सभी उत्सुक थे। राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श पर ही शंकित राजा ने अंततः मनुआ को भेजा था। परन्तु राजा के इस निर्णय से सेनापति भीममल्ल अत्यंत व्यथित थे। विरोध करते हुए उन्होंने कहा भी था 'जिस अंचल से हम सभी को इस प्रकार अपमानित कर भगा दिया गया, उसी के पास हम अपने नाई के द्वारा गौना का डाला भेजें... धिक्कार है हम पर...और हमारे पुरूषार्थ पर!' क्रोध से उफनते सेनापति को बड़ी कठिनाई से सम्हाला था राजरत्न ने, परन्तु सेनापति ने तभी से आहत हो, मौन धारण कर लिया था। इसी कारण राजा जी के शिविर में इस घड़ी राजरत्न और वैद्यराज के साथ उपस्थित होकर भी वह पूर्ण मौन था और यह स्वभाविक ही था। नृशंस बहुरा ने जिस क्रूरता से उसकी दाहिनी आँख नोच ली थी, उसे भूल जाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। फिर भीममल्ल जैसा अति बलशाली सेनापति, इस अपमान को भूल जाये, यह भला कैसे संभव था। उसके अंदर धधकते प्रतिशोध की ज्वाला से राजा, राजरत्न और वैद्यराज अच्छी तरह परिचित थे, परन्तु फिर भी वार्तालाप के मध्य उनका निंरतर मौन रहना किसी को स्वीक
ार्य नहीं था। इसी कारण वैद्यराज ने सेनापति से कहा, 'आपका क्रोध सकारण ही है सेनापति! आपकी मनःस्थिति से भी हम अपरिचित नहीं, परन्तु इस प्रकार आपका निरंतर मौन रहना हम सभी को अखर रहा है सेनापति।' 'वैद्यराज का मैं भी समर्थन करता हूँ सेनापति!' राजरत्न ने भी कहा, 'तथा आपकी पीड़ा भी हम सभी समझ रहे हैं...फिर भी मेरा अनुरोध है कि आप अपना मौन भंग करें।' वैद्यराज तथा राजरत्न के अनुरोध पर भी जब सेनापति मौन ही रहा तो राजा ने ही अंततः कहा, 'सेनापति के दुःख में हम सभी दुखी हैं तथा हमारे भी अंतस में बहुरा को दण्डित करने की तीव्र अभिलाषा है, परन्तु इस घड़ी हमने विवशता में वही किया, जिस पर सर्वसम्मति थी।' अपनी बात कह कर राजा ने पुनः सेनापति से कहा, 'आप यह मत समझें सेनापति कि बहुरा को हमने क्षमा कर दिया अथवा उसके कुकृत्य को हमने भुला दिया। उसके इस जधन्य अपराध को, मैं आजन्म नहीं भूलूंगा...परन्तु इस घड़ी मैंने जो निर्णय लिया इसी में सबों की सहमति थी।' सेनापति ने दृष्टि उठा कर राजा को देखा। उसके अंतर की समस्त पीड़ा उसकी बांयी आँख में उभर आयी। कुछ पल वह यूँ ही राजा को देखता रहा और अंततः उसके बोल खुल गए. शांत-गंभीर स्वर में उसने कहा, 'जिन परिस्थितियों में हमेंविवश होकर बखरी से पलायन करना पड़ा, वह स्थिति अब नहीं रही राजा जी. अब हम हर प्रकार से शक्ति-सम्पन्न हैं। हमारे सहायकों में कापालिकों में श्रेष्ठ टंका तक हमारे साथ है जिसके समक्ष बहुरा जैसी सिद्ध भी तृण के समान है। इसके अतिरिक्त, बंग तथा उत्कल की श्रेष्ठ शक्तियों से सम्पन्न होते हुए भी हमने कापुरुषों जैसा निर्णय लिया...इसकी ग्लानि मुझे सदा व्यथित करती रहेगी।' 'यह निर्णय किसी कापुरुष का नहीं, हमारा समवेत् निर्णय है,' राजा ने कहा, 'अपनी वर्तमान शक्ति का भली प्रकार भान होते हुए भी हमने कायरों का नहीं वीर पुरुषों का निर्णय लिया है सेनापति...! और आप यूँ अधीर क्यों होते हैं...संभव है बहुरा हमारे अनुरोध को स्वीकार न कर, हमारा पुनः तिरस्कार ही कर दे और संभावना भी इसी की है सेनापति। जिस प्रकार उसने कुँवर के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया था, उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह हमारे अनुरोध को अवश्य ठुकरा देगी और यदि ऐसा हुआ तो आप विश्वास करें, हम वही करेंगे जो आपकी इच्छा है।' राजा की बात से संतुष्ट सेनापति उठ कर खड़ा हो गया और राजा को प्रणाम करते हुए कहा, 'अपने समस्त क्लेशों से मैं मुक्त हो गया महाराज! इतनी छोटी-सी बात भी मेरी समझ में नहीं आयी थी, आश्चर्य है मुझे। हमने अपने संस्कारों के अनुरूप, सब कुछ भूल कर बहुरा के पास अपना नाई भेज दिया है। यह जानते हुए भी कि वह दुष्टा पुनः हमारा अपमान ही करेगी, क्योंकि यही स्वभाव है उसका।' कह कर सेनापति मुस्कराया और मुस्कराते हुए ही उसने पुनः कहा, 'अब मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मनुआ ठाकुर के आते ही हम टूट पड़ेंगे उस दुष्टा पर...टूट पड़ेंगे' ! भरोड़ा का नाई डाला लेकर आया है, यह समाचार देखते-ही-देखते सारे अंचल म
ें फैल गया। हाट-बाजार, खलिहान और चौपाल में बस एक ही चर्चा...क्या होगा अब? बखरी का प्रत्येक आंगन और प्रांगण इसी उत्सुकता में प्रतीक्षा कर रहा था कि बहुरा की अब प्रतिक्रिया क्या होगी और ऐसे में अमृता की स्थिति और भी विचित्र थी। उसकी तो श्वास ही अटक गयी। उसकी माता तो मानेगी नहीं...और क्रोधावेग में जाने क्या कर बैठेगी वह। अपने मानस-पटल में अमृता ने देखा, उसकी माता ने पग-प्रहार से उसके गौना के डाला को ठोकर मार दिया है और भय से थरथराता नाई मूक खड़ा है। उसने चाहा, दौड़ कर जा पहुँचे अपनी माँ के पास और उसके चरणों से लिपट कर अपने सुहाग की भीख माँग ले अपनी माँ से। परन्तु उसके पग ठिठक कर रुक गए. आँखों में सावन-भादो उतर आया। जड़ हो गयी वह। अंतस् में झंझावात उठा और मस्तक में चक्कर-सा आने लगा। इसी घड़ी कक्ष में प्रविष्ट हो रही माया ने सम्हाला न होता तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी होती वह, 'यह क्या पुत्री!' माया ने उसे सम्हाल कर कहा, 'क्या कर रही है तू...! कदाचित् तुझे पता नहीं... तेरी माँ ने तेरा गौना स्वीकार कर लिया है पुत्री!' अप्रत्याशित था यह! कुछ पल तो विश्वास ही न हुआ अमृता को। परन्तु उसके कक्ष में जब उसके गौना का डाला आ गया तो उसे विश्वास करना ही पड़ा। डाले की एक-एक वस्तु को उसने स्वयं स्पर्श करके निहारा। सिंदूर, चूड़ी, लहटी, बिंदिया, कुँकुम और महावर के अतिरिक्त जब उसने चमचमाते कठमंगिया (घूंघट) को हाथों में उठाया तो उसकी आँखों में कई सपने तैरने लगे। बहुरा ने षडयंत्र तो रच दिया परन्तु उसे पता था, राजा विश्वम्भरमल्ल अपने पुत्र को अकेला कदापि नहीं भेजेंगे। यह स्वभाविक भी था। शंखाग्राम एवं उत्कल के वीर-सेनानी उसके पास थे। साथ ही भुवनमोहिनी, कामायोगिनी एवं कुख्यात कापालिक टंका भी भरोड़ा में उ
सके साथ उपस्थित था। ऐसी स्थिति में उसका दामाद अकेला-निःसहाय उसके पास चला आए, ऐसी कल्पना भी उसके लिए हास्यास्पद थी। वास्तव में यह प्रस्ताव नहीं, बहुरा की खुली चुनौती थी और महाकाल की सहायता से उसे विश्वास भी था कि वह अपने समधी का, उसके समस्त सहायकों सहित मान-मर्दन कर देगी। वस्तुतः भरोड़ा के ठाकुर को ससम्मान विदा करने के उपरांत से ही वह मुदित थी क्योंकि अपने प्रतिशोध का अवसर, अनायास ही उसे प्राप्त हो गया था। बखरी में जहाँ बहुरा ने अपना विकट अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया था, वहीं भरोड़ा में बहुरा के निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियायंे होने लगीं। रानी गजमोती ने निःस्वास लेते हुए राजा से कहा, 'बहुरा की पीड़ा मैं समझ सकती हूँ। जिसकी नव-विवाहिता पुत्री, विवाह होते ही परित्यक्ता हो गयी हो, उसकी व्यथा आप नहीं समझ सकते।' 'कदाचित् आप ठीक कह रही हैं' ! राजा ने कहा, 'परन्तु इसमें हमारा क्या दोष? ...हमें तो बलात् पलायन करना पड़ा था... और तनिक हमारे सेनापति की तो सोचिये। बहुरा ने कितनी नृशंसता से उसकी दायीं आँख नोच ली थी, फिर भी आप उसकी व्यथा की बात कर रही हैं...आश्चर्य है मुझे!' रानी गजमोती की ममता और राजा विशम्भरमल्ल की मर्यादा परस्पर टकराती रही और अंततः अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेजना उन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेनापति भीममल्ल को मनोवांछित फल प्राप्त हो चुका था। हर्षित सेनापति, तड़ित-वेग से जा पहुँचा टंका के पास, 'कापालिक श्रेष्ठ!' अभिवादन के उपरांत सेनापति ने कहा, 'हमारा ठाकुर, बहुरा का दुष्टतापूर्ण प्रस्ताव लेकर वापस लौट आया है, ज्ञात है आपको?' 'जानता हूँ सेनापति...! ज्ञात है मुझे बहुरा ने क्या कहा और यही अपेक्षित भी था उससे... मेरे स्वामी को बंदी बनाना चाहती है वह।' और कहते ही टंका हँस पड़ा। 'आपको विनोद सूझ रहा है कापालिक-श्रेष्ठ और मेरी भुजायें फड़फड़ा रही हैं,' व्यग्र स्वर में सेनापति ने कहा, 'जिस प्रकार वनराज के पंजों में आकर उसका निरीह शिकार तड़फड़ाता है, ठीक उसी प्रकार, मैं इस दुष्टा को अपनी बलशाली भुजाओं में तड़पता हुआ देखने को अति-व्याकुल हूँ।' 'दुर्बल से दुर्बल और वीर्यहीन-कापुरूष तक ऐसी स्थिति में उद्विग्न हो जायेगा सेनापति, जबकि आप तो अतुलित-बलशाली सिंह पुरूष हैं। आपके अंदर प्रतिशोध की कैसी लपटें उठ रही हांेगी, मैं समझ सकता हूँ। विश्वास करें, मैं चाहूँ तो इसी क्षण बहुरा समेत उसके सम्पूर्ण अंचल को भस्म कर सकता हूँ, अथवा स्वामी का आदेश हो तो उस दुष्टा को बांध कर आज ही यहाँ ला सकता हूँ।' 'नहीं कापालिक-श्रेष्ठ!' तड़प कर कहा सेनापति ने, 'मेरे प्रतिशोध की अग्नि तभी शांत होगी, जब मैं स्वयं अपनी भुजाओं से उस दुष्टा को दण्डित करूँ।' कापालिक टंका के ओठों पर मुस्कान बिखरी देख सेनापति ने संकोचपूर्ण वाणी में पुनः कहा, 'इन नंगी भुजाओं से मैं हिंसक वनराज को भी परास्त कर सकता हूँ कापालिक-श्रेष्ठ! परन्तु बहुरा के तांत्रिक-छल का प्रतिकार मैं कैसे करूँ? ...इसी कारण आपके समक्ष।' और स
ेनापति का वाक्य पूर्ण न हो पाया क्योंकि सेनापति की इस बात पर टंका पुनः हँस पड़ा। आपातकालीन व्यवस्था में व्यस्त होना पड़ गया। परन्तु, इसके विपरीत भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी मौन रह गयीं। उत्कल नरेश पार्थसारथी और शंखाग्राम की राजमाता राजराजेश्वरी भी इसी विमर्श में निमग्न थे। अंत में राजमाता ने कहा, 'कुँवर के पिताश्री का निर्णय ही मुझे उचित प्रतीत होता है महाराज...! यूँ तो मैंने अपने कुँवर की दिव्यता स्वयं जान ली है। इसीलिए मुझे विश्वास है, उस जैसी तामसी-साधिका की शक्तियाँ हमारे कुँवर का कदापि अहित नहीं कर सकतीं, परन्तु फिर भी लोकाचार की दृष्टि से कुँवर का अकेले प्रस्थान करना, मर्यादा का उल्लंघन है महाराज!' 'आपके कथन पर सहमत हूँ मैं राजमाता!' उत्कल नरेश ने मुद्रा बदलते हुए कहा, 'परन्तु यह तो कहिए, ऐसी स्थिति में अब हमें करना क्या है?' 'यही तो समस्या है महाराज! कुँवर के नहीं जाने का स्पष्ट अर्थ है, द्विरागमन का स्थगित हो जाना...और किसी भी स्थिति में हम ऐसा होने नहीं देंगे।' 'फिर तो संघर्ष!' उत्कल नरेश बुदबुदाये। इसी प्रकार अलग-अलग टुकड़ों में विमर्श होता रहा और संध्या घिर आयी। रात्रि-भोज में जब समस्त अतिथि एवं आतिथेय एक साथ सम्मिलित हुए तो, इसी समस्या पर सामूहिक विमर्श प्रारंभ हो गया। राजा विशम्भरमल्ल ने अपने निर्णय से सबको अवगत कराते हुए कहा, 'द्विरागमन हेतु हमने अपने जिस नाऊ को गौना के डाला के साथ बखरी-सलोना भेजा था, वह आज लौट आया है। समधिन ने मेरे पुत्र का द्विरागमन तो स्वीकारा है, परन्तु उसने कहा है कि वह अपने अंचल में हमारे बंधु-बांधवों एवं परिजनों का स्वागत-सत्कार करने में असमर्थ है अतः हमें अपने प्रिय पुत्र को एकाकी ही उसके अंचल में भेजना होगा।' कहकर राजा ने सभी पर अपनी विहं
गम दृष्टि डाली और पुनः कहा, 'आप सभी को विदित ही है, पूर्व में उसने मेरे प्रिय पुत्र पर प्राण-घातक मारण-पात्र का उग्र-संधान किया था तथा मेरे निर्दोष सेनापति की एक आँख छलपूर्वक नोच ली थी। उसकी इन घृष्टताओं पर हमारे मौन ने उसे और भी नृशंस कर दिया, तभी तो उसने गंगा की मध्य-धारा में पुनः मेरे पुत्र पर तंत्र-प्रहार का दुःसाहस किया। बहुरा की निंरतर दुष्टता के कारण ही मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं लोकाचार की परम्परा का निर्वहन करते हुए, उसके समक्ष द्विरागमन का औपचारिक प्रस्ताव भेजूँ, परन्तु आपके सामूहिक परामर्श ने मुझे विवश कर दिया। मुझे भली-भांति ज्ञात था कि इस निर्णय से मेरे वीर सेनापति अत्यंत आहत होंगे, फिर भी मैंने आप सबों का सर्वसम्मत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।' कहते-कहते राजा की वाणी अवरुद्ध हो गयी। क्रोध एवं प्रायश्चित का सम्मिलित भाव उनके चेहरे पर उभरा और क्षण भर के लिए वे मौन हो गए. सबों की ध्यानमग्न दृष्टि उनपर ही थी। क्षणोपरांत उन्होंने पुनः कहा, 'बहुरा के प्रस्ताव के नेपथ्य में क्या है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। मुझे दृढ़ विश्वास है यदि मेरा पुत्र अकेला गया तो निश्चित ही वह उसका ग्रास बन जायेगा और यदि आप सब साथ गए तो भी संघर्ष निश्चित ही है। इसीलिए मैंने विचार किया है, मैं द्विरागमन को ही स्थगित कर दूँ।' उपस्थित जन में से किसी ने भी जब कुछ न कहा तो राजा ने ही पुनः कहा, 'इस समस्या के समाधान पर आप सबांे की क्या प्रतिक्रिया है...? कृपा करके मुझे बताऐं, क्योंकि मेरे सम्मुख मात्र दो ही विकल्प शेष हैं। या तो मैं अपनी पुत्रवधु का द्विरागमन भूल जाऊँ या फिर बखरी से संघर्ष स्वीकारूँ, जबकि इन दोनों में कोई भी विकल्प मेरी आत्मा को स्वीकार नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे परामर्श दें...मुझे क्या करना उचित है।' 'अपने विवाहित पुत्र को पत्नीविहीन रखना किसी को स्वीकार नहीं हो सकता राजा जी' ! शंखाग्राम की राजमाता ने धीर-गम्भीर वाणी में कहा, 'परन्तु दुष्टता का प्रतिकार तो मानव-मात्र का धर्म है...आपकी आत्मा इसे क्यों नहीं स्वीकारती?' 'हाँ राजा जी,' तुरंत ही उत्कल नरेश बोल पड़े, 'राजमाता के कथन का मैं भी समर्थन करता हूँ...और हमारे आगमन का एकमात्र प्रयोजन भी यही है। हमें तो पूर्व ही से विदित था कि हमारे प्रिय कुँवरश्री के द्विरागमन का प्रारंभ ही संघर्ष से होगा। हम सभी इसके लिए पूर्व से तैयार भी हैं। साथ ही हमें विश्वास भी है कि हमें दीर्घ-संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमारी संयुक्त-शक्ति के समक्ष वह भला कब-तक ठहर सकेगी!' राजा विश्वम्भरमल्ल के अंतस् का द्वंद्व और भी गहरा गया। राजमाता एवं उत्कल नरेश ने जो कहा उसका आभास तो उन्हें पूर्व से ही था। संघर्ष को अवश्यंभावी मान कर वे चिंतित हो गए.
सत्रहवाँ अध्याय हमारे विकास में प्रकृतिका नियम विभिन्नता में एकता, विधि (Law) और स्वाधीनता पृथ्वीके सब प्राणियोमेसे अकेले मनुष्यको ही ठीक ढगसे जीवन-यापन करनेके लिये ठीक ज्ञान प्राप्त करनेकी आवश्यकता पडती है, चाहे यह ज्ञान वह, जैसा कि बुद्धिवादका कहना है, अपनी बुद्धिके एकमात्र या प्रधान साधनद्वारा प्राप्त करे अथवा अधिक व्यापक और जटिल रूपमे अपनी समस्त शक्तियोद्वारा । उसे सत्ताके सच्चे स्वरूप और जीवनके व्यावहारिक क्षेत्रोमे उसकी सतत आत्म-चरितार्थताको, - सरल भाषामे कहे तो, -- प्रकृतिके नियम विशेषतया अपनी प्रकृतिके नियम, तथा अपने अदर और अपने चारो ओरकी शक्तियोको जाननेकी आवश्यकता है; साथ ही उसे यह भी जानना है कि उसके अपने महत्तर सुख और उत्कर्पके लिये अथवा उसके और उसके साथियोके महत्तर सुख और उत्कर्षके लिये इन शक्तियोका ठीक उपयोग क्या है। पुरानी उक्तिके अनुसार, उसे प्रकृतिके अनुकूल जीवन बितानेका ढंग सीखना चाहिये । कितु प्रकृतिका जो रूप पहले स्वीकार किया जाता था वह अब स्वीकार नही किया जा सकता; अब प्रकृति वह सनातन सत्य नियम नही मानी जाती जिससे मनुष्य विच्छिन्न हो गया है, वल्कि प्रकृति स्वयं एक ऐसी चीज है जो बदल रही है, वर्द्धित और विकसित हो रही है, एक शिखरसे अधिक उन्नत शिखरकी ओर बढ़ रही है, अपनी सभावनाओके एक छोरसे अधिक व्यापक छोरकी ओर विस्तृत हो रही है । तथापि इस समस्त परिवर्तनम सत्ताके कुछ सनातन नियम या सत्य भी है जो सदा एकसे रहते है और इन्हीके आधारपर एव इन्ही प्रारंभिक साधनोसे तथा इन्हीके ढाँचेके भीतर हमारी प्रगति और पूर्णताको सपन्न होना है। नही तो शक्तियोके सघर्षमे भी व्यवस्थित रहनेवाले ससारका अस्तित्व न होता, वरन् चारो ओर अनत अस्तव्यस्तताका ही साम्राज्य होता । पशु और वनस्पतिके अवमानवीय जीवनको न तो इस ज्ञानकी और न इस ज्ञानके साथ अनिवार्य रूपमे रहनेवाली उस चेतन इच्छा शक्तिकी ही - आवश्यकता पड़ती है जो सदैव प्राप्त ज्ञानको कार्यरूपमे परिणत करनेकी प्रेरणा अनुभव करती है । इस छूटके मिल जानेसे वह अनगिनत भ्रांतियो, विकृतियों और व्याधियोसे बच जाता है, क्योकि वह सहज-स्वभाववश ही प्रकृतिके अनुसार चलता है; उसका ज्ञान और संकल्प दोनो प्रकृतिके है, चेतन हों अथवा अवचेतन, वे उसके नियमों और आदेशोको टाल नही सकते । इसके विपरीत, मनुष्यके पास एक ऐसी सामर्थ्य प्रतीत होती है जो प्रकृतिके ऊपर अपनी बुद्धि और इच्छाशक्तिका प्रयोग कर सकती है, उसमें उसकी गति-विधियोंको संचालित करने, यहांतक कि जो मार्ग वह उसे बताती है उससे भिन्न मार्ग ग्रहण करनेकी भी क्षमता विद्यमान है। परंतु वास्तवमे यह भी भाषाकी एक विकृतिपूर्ण चाल है, क्योकि मनुष्यका मन भी प्रकृतिका ही एक अंग है, और यह मन यदि उसकी अपनी प्रकृतिका सबसे वडा अंग नही तो सबसे प्रमुख अंग अवश्य है । हम कह सकते है कि यह भी प्रकृति ही है जो कुछ हदतक अपने नियमो और शक्तियो तथा अपने विकाससंबंधी संघर्षके प्रति सजग हो गयी है और जिसके अंदर अपने जीवन और अस्तित्
वकी प्रक्रियाओपर एक अधिकाधिक उच्चतर नियम लागू करनेकी चेतन इच्छा जाग उठी है। अवमानवीय जीवनमें प्राणिक और भौतिक संघर्ष तो है पर मानसिक संघर्ष नही । मनुष्य इस मानसिक उलझनमें ग्रस्त है और इसी कारण वह दूसरोके साथ ही नहीं, अपने साथ भी संघर्ष करता है और क्योकि उसमें अपने साथ इस प्रकारका संघर्ष करनेकी सामर्थ्य मौजूद है, उसमे आंतरिक विकासके, उच्चसे उच्चतर स्तरकी ओर बढ़ने तथा अनवरत आत्म-अतिक्रमण करनेके संघर्षकी भी सामर्थ्य विद्यमान है जो पशुओको प्राप्त नहीं है । वर्तमान समयमें यह विकास जीवनसे संवद्ध विचारोके संघर्ष और उनकी प्रगतिद्वारा होता है। अपने प्राथमिक रूपमें मानवके जीवनविषयक विचार स्वयं जीवनकी शक्तियो और प्रवृत्तियोका, जैसे कि वे आवश्यकताओ, इच्छाओ और हितोंके रूपमे प्रकट होती है, मानसिक उल्थामात्र होते है। मनुष्यकी बुद्धि व्यावहारिक और थोड़ी-बहुत स्पष्ट एवं यथार्थ होती है । वह इन चीजोको अपनी दृष्टिमें रखती है तथा अपने अनुभव, मत और रुचिके अनुसार इनमेंसे एक या दूसरेको अधिक या कम महत्त्व देती है। इनमेंसे कुछको मनुष्य स्वीकार करता है और अपनी इच्छा शक्ति और बुद्धिद्वारा उनके विकासमे सहायता पहुंचाता है और कुछको अस्वीकार करके निरुत्साहित कर देता है, यहांतक कि उनका उन्मूलन करनेमे भी सफल हो जाता है । परतु इस प्रारंभिक प्रक्रियासे मनुष्यके अंदर जीवनके विषयमे एक और प्रकार - के उन्नत विचार उत्पन्न होते है । वह उनके मानसिक उल्थामात्र और उनके साथ सहज सक्रिय संबंधसे आगे बढकर उन शक्तियो और प्रवृत्तियोंका निय मित रूपसे मूल्यांकन करने लगता है जो उसमें और उसके वातावरणमे प्रकट हो चुकी है या हो रही है । वह उन्हे प्रकृतिकी स्थिर प्रक्रियाएँ और नियम समझकर उनका अध्ययन करता है और उनके विधान और ढंगको जानन
ेका प्रयत्न करता है । वह अपने मन, प्राण और शरीरके नियम तथा अपने चारों ओरके उन तथ्यो और शक्तियोके विधान और नियम निर्धारित करनेकी चेष्टा करता है जो उसका वातावरण बनाते हैं तथा उसके कार्यका क्षेत्र और ढंग निश्चित करते है । क्योकि हम अपूर्ण और विकसनशील प्राणी है, जीवनसंबंधी नियमोंका यह अध्ययन अवश्य ही दो पहलुओको अपने विचारमें लायगा : एक तो उसका नियम जो इस समयमें है अर्थात् हमारी वर्तमान अवस्थाओका नियम और दूसरा उसका नियम जो हो सकता है या होना चाहिये अर्थात् हमारी संभावित शक्तियोंका नियम यह पिछला नियम ही मानवबुद्धिके निकट जो सदा ही वस्तुओके विषयमे मनमाना और आग्रहपूर्ण सिद्धांत वनानेकी प्रवृत्ति रखती है, एक स्थिर और आदर्श मानदंड या कुछ नियमोंका रूप ले लेता है जिनसे हमारा वर्तमान जीवन विचलित और च्युत हो गया है या जिनकी ओर वह प्रगति एवं अभीप्सा कर रहा है । प्रकृति और जीवनका विकासवादी सिद्धात हमें एक गंभीरतर विचारकी ओर ले जाता है। जो है और जो हो सकता है दोनो सत्ताके उन्ही शाश्वत तथ्यो और हमारी प्रकृतिकी शक्तियो या सामर्थ्योकी अभिव्यक्तियाँ है जिनसे हम न तो बच सकते है और न इनसे बचना अभिप्रेत ही है । कारण, जीवनमात्र वह प्रकृति है जो स्वयंको चरितार्थ कर रही है, वह प्रकृति नही जो अपने-आपको नष्ट या अस्वीकार कर रही है। किंतु हम अपनी प्रकृति और सत्ताके इन शाश्वत तथ्यों और शक्तियोके रूपो एवं महत्त्वो तथा इनकी व्यवस्थाओको उन्नत कर सकते हैं, और उन्हें उन्नत करना, वदलना तथा विस्तृत रूप देना हमारा निर्दिष्ट कार्य भी है। हमारे विकासक्रममे यह परिवर्तन और पूर्णत्व समूल रूपांतर जैसा प्रतीत हो सकता है, यद्यपि मल वस्तुमें कोई परिवर्तन नही होता । हमारी वर्तमान क्षमताएँ अभिव्यक्तिका वह रूप और महत्त्व अथवा सामर्थ्य है जिसे हमारी प्रकृति और हमारा जीवन प्राप्त कर चुके हैं, उनका मानदड या नियम विकासके उसी सोपानकी एक विशिष्ट और स्थिर व्यवस्था एवं प्रक्रिया है। हमारी संभावित शक्तियाँ अभिव्यक्तिके उस नये रूप, महत्त्व और सामर्थ्यकी ओर संकेत करती है जिनकी अपनी एक नयी और उपयुक्त व्यवस्था तथा प्रक्रिया होती है और वही इनका विशेष नियम और मानदंड है । इस प्रकार वर्तमान और सभवनीयके बीचमे स्थित हमारी बुद्धि वर्तमान नियम और रूपको हमारी प्रकृति और हमारे अस्तित्वका सनातन नियम समझनेकी गलती करने लगती है, और जहाँ कोई परिवर्तन हुआ उसे वह नियम भंग या पतन मान लेती है, या, इसके विपरीत, किसी भावी और प्रसुप्त नियम एवं रूपको हमारे जीवनका आदर्श नियम माननेकी भूल कर बैठती है, - उसके अनुकूल यदि कार्य - न किया जाय तो उसे वह हमारी प्रकृतिका दोप या पाप समझने लगती है। वास्तवमें, केवल वही नित्य है जो सब परिवर्तनोके वीच भी स्थिर रहता है और हमारा आदर्श इसकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्तिसे अधिक और कुछ नही हो सकता । आत्म-अभिव्यक्तिकी उच्चता, व्यापकता और परि पूर्णताकी जो चरम सीमा मनुष्यके लिये संभव है - यदि ऐसी कोई सीमा हो और उसका हमे
ज्ञान हो, किंतु अभीतक हमें अपनी चरम संभावनाओका ज्ञान नही है -- केवल उसीको सनातन आदर्श समझा जा सकता है । जिन विचारों या आदर्शोको मानव-मन जीवनसे संगृहीत करता है या उसपर लागू करनेकी चेष्टा करता है वे स्वयं जीवनकी, जव कि वह अपने नियमको अधिकाधिक प्राप्त करनेका तथा उसे ऊँचेसे ऊँचा उठाने और साथ ही अपनी सुप्त शक्तियोंको उपलब्ध करनेका यत्न कर रहा होता है, अभिव्यक्तिके अतिरिक्त कुछ नही हो सकते । प्रकृतिकी मानवी जीवनप्रणालीके महत्त्व तथा उसकी सुप्त शक्तियोंकी इस क्रमिक चरितार्यता और परिपूर्णतामे हमारा मन उसकी गतिके चेतन भागका प्रतिनिधि है । यदि यह मन पूर्ण होता तो यह अपने ज्ञान और संकल्पमें उस समग्र गुप्त ज्ञान और सकल्पके साथ एक होता जिसे प्रकृति ऊपरी तलपर लानेकी कोशिश कर रही है और तब कोई मानसिक संघर्प भी न होता, क्योकि तव हम उसकी क्रियाके साथ एक हो सकते, उसके उद्देश्यको जान लेते और उसके मार्गका वुद्धिमत्तापूर्वक अनुसरण कर सकते । तब हम वह सत्य जान लेते -- जिसपर गीता भी वल देती है - कि केवल प्रकृति ही क्रियाशील है और हमारे मन एवं जीवनके कार्य उसके गुणोंके ही व्यापार है । अव मानवीय जीवन प्राण और सहजबुद्धिके द्वारा और यात्तिक रूपसे यही कार्य करता है, वह अपनी श्रेणी - विशेषकी सीमाओके भीतर प्रकृतिके अनुकूल वनकर ही रहता है और इस प्रकार आंतरिक संघर्ष से मुक्त हो जाता है, यद्यपि इतर जीवनके साथ उसका संघर्ष फिर भी चलता है । उधर अतिमानवीय जीवन सचेतन रूपमे इस पूर्णताको प्राप्त करेगा, वस्तुओंमें निहित गुप्त ज्ञान और संकल्पको अपना बना लेगा और प्रकृतिके द्वारा, उसीकी मुक्त, सहज और सामंजस्यपूर्ण गतिसे अपने आपको चरितार्थ करेगा; प्रकृति धीर, अविश्रांत भावसे उस पूर्ण विकासकी ओर बढ़ रही है जो उसका जन्म-ज
ात और इसलिये पूर्व निर्धारित लक्ष्य है । सच तो यह है कि हमारा [ मन अपूर्ण है, हमे उसकी प्रवृत्तियों तथा उद्देश्योका आभासमात्र ही मिलता [ है और ऐसे प्रत्येक आभासको हम अपने जीवन और व्यवहारका निरपेक्ष नियम वा आदर्श सिद्धांत वना लेते है; हम उसकी प्रक्रियाका केवल एक पहलू देखते है, उसे एक समग्र और पूर्ण प्रणालीके रूपमे प्रस्तुत करते है और फिर वही हमारी जीवन-व्यवस्थाका संचालन करती है । अपूर्ण व्यक्ति तथा उससे भी अधिक अपूर्ण सामूहिक मनद्वारा कार्य करते हुए वह हमारी सत्ताके तथ्यों तथा शक्तियोको उन विरोधी नियमो और सामर्थ्याके रूपमें खड़ा कर देती है जिनके साथ हम अपनी बुद्धि और भावावेगोद्वारा अपना संबंध स्थापित कर लेते है । कभी वह एकको उत्साहित या निरुत्साहित करती है और कभी दूसरेको; इस प्रकार मनुष्यके मनमे वह उन्हें संघर्ष और विरोधके द्वारा उस पारस्परिक ज्ञान और उनकी पारस्परिक आवश्यकताकी भावना तथा उनकी सुप्त शक्तियोके उत्तरोत्तर समुचित संबंध और समन्वयकी ओर ले जाती है जो मनुष्य जीवनकी नमनीय सभाव्यतामे चरितार्थ शक्तियोंके बढ़ते हुए सामंजस्य तथा संगठनमे प्रकट होता है । मानवजातिका सामाजिक विकास आवश्यक रूपसे तीन स्थायी तत्त्वो, - व्यक्ति, नाना प्रकारके समाज और मनुष्यजाति, के बीचके सबधोका विकास है। इनमेसे प्रत्येक अपनी परिपूर्णता और तुष्टि चाहता है । पर प्रत्येक ही इन्हें स्वतंत्र रूपमे नही अपितु दूसरोसे संबंध रखते हुए विकसित करनेको वाध्य होता है। व्यक्तिका पहला स्वाभाविक उद्देश्य उसकी अपनी आतरिक उन्नति और पूर्णता और अपने बाह्य जीवनमे इनकी अभिव्यक्ति है। यह कार्य वह दूसरे व्यक्तियोके साथ, अनेक प्रकारके धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक, राजनीतिक समुदायोके साथ जिनका वह अग है और सामान्य रूपमे मनुष्यजातिकी भावना और आवश्यकताके साथ संबंध रखकर ही कर सकता है। समुदाय भी अपनी परिपूर्णता चाहता है, पर उसकी समष्टि चेतना और उसके सामूहिक सगठनमें कितनी भी शक्ति क्यो न हो, वह अपना विकास केवल व्यक्तियोके द्वारा ही कर सकता है। ऐसा वह अपने वातावरणद्वारा प्रस्तुत की गयी परिस्थितियोके दबावसे और उन अवस्थाओके अधीन होकर करता है जो दूसरे समुदायो और व्यक्तियो तथा समग्र मनुष्यजातिके साथ उसके संबंधोद्वारा उसपर लाद दी जाती है । समूची मानवजातिका अपना कोई सचेतन रूपमे संगठित सामान्य जीवन नही है, उसके पास केवल एक ऐसा प्रारंभिक सगठन है जो मानवी बुद्धि और इच्छा-शक्तिसे कही अधिक परिस्थितियोद्वारा निर्धारित होता है । तथापि हमारे सामान्य मानव अस्तित्व, स्वभाव और भवितव्यताके विचार और तथ्यने सदा ही मनुष्यके विचारों और कार्योपर अत्यधिक प्रभाव डाला है। नीति और धर्मका तो मुख्य कार्य ही मनुष्यजातिके प्रति मनुष्यके कर्त्तव्योंका बताना रहा है। जातिमें होनेवाले वृहत् आंदोलनों और परिवर्तनोके द्रबावसे उसके पृथक्-पृथक् समुदायोका भविष्य सदा ही प्रभावित हुआ है, साथ ही अपने विस्तारके लिये और यथासंभव समस्त जातिको अपनेमे मिला लेन
ेके लिये इन पृथक् सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक समुदायोंका प्रतिकारात्मक दवाव भी सदा हो रहा है । और यदि अथवा जव भी समस्त मनुष्यजाति एक संगठित सामान्य जीवन प्राप्त कर लेगी और सभीकी परिपूर्णता और तुष्टिकी इच्छा करने लगेगी, तो ऐसा वह समष्टिके अपने अंगोके साथ संवधद्वारा और व्यक्तियो और समुदायके विस्तारशील जीवनकी सहायतासे ही कर सकेगी। क्योंकि इनकी प्रगति ही मनुष्यजातिके जीवनकी अधिक व्यापक अवस्थाओंका निर्माण करती है । प्रकृति सदैव इन तीन करणोके द्वारा काम करती है, और इनमेंसे किसीको भी हटाया नही जा सकता । वह एक और अनेकको प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति तथा समष्टि और उसकी अवयवभूत इकाइयोंसे आरंभ करती है और फिर इन दोनोके बीचकी एकताओंका निर्माण करती है जिनके विना न तो समष्टिका और न ही इकाइयोंका पूर्ण विकास हो सकता है । उद्भिज जीवनमे भी वह सदा जाति, उपजाति और व्यप्टिकी तीन अवस्थाओंकी रचना करती है। किंतु, जव कि पशु-जीवनमें वह तीव्र भेद करने और छोटे-छोटे वर्ग बनानेसे ही संतुष्ट हो जाती है, मानवजीवनमे वह अपने किये हुए विभाजनोको अतिक्रांत करने और समस्त जातिको ऐक्यकी भावना तथा एकत्वको प्राप्तिकी ओर ले जानेका प्रयत्न करती है। मनुष्यके समुदाय एक ही जाति या उपजातिके कुछ व्यक्तियोकी सहजप्रेरणावश एकत्र होनेके द्वारा उतने नहीं निर्मित होते जितने कि स्थानीय संसर्ग और हितो एवं विचारोकी समानताके द्वारा निर्मित होते है । जैसे-जैसे जातियो, राष्ट्रों, है। हितों, विचारों और संस्कृतियोके निकटतर संमिश्रणसे मनुष्यके विचार और सद्भाव व्यापेक् रूप धारण करते जायंगे वैसे-वैसे ये सीमाएँ भी समाप्त होती जायंगी। फिर भी, अपने पृथक्त्वकी दृष्टिसे समाप्त होकर भी, तथ्य रूपमे ये समाप्त नही होती; कारण, ये प्रकृतिके मूल सिद
्धांत - एकतामे विभिन्नता - पर आधारित होती है । अतएव, यह प्रतीत होता है कि प्रकृतिका आदर्श अथवा अंतिम उद्देश्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा समस्त व्यक्तियोका जुनकी पूरी सामथ्यंके अनुसार विकास हो जाय, प्रत्येक हमारे विकासमे प्रकृतिका नियम समुदाय तथा समस्त समुदाय इस प्रकार विकसित हो जायं कि जिस अनेकागी अस्तित्व और क्षमताको व्यक्त करनेके लिये उनमे विभिन्नताएँ पैदा की गयी थी उसकी पूरी अभिव्यक्ति हो जाय, साथ ही मानवजातिका एकीकृत जीवन भी इस प्रकार विकसित हो जाय कि सभी अपनी पूर्ण योग्यता और सतोषको प्राप्त कर ले । पर ऐसा वह व्यक्ति या छोटे समुदायके जीवनकी समृद्धिको दबाकर नही पर जिस विभिन्नताको वे विकसित करते है उससे पूरा लाभ उठाते हुए करेगी । मनुष्यजातिके सपूर्ण वैभवको बढाने तथा उसके द्वारा सर्वसामान्यकी सुख-संपत्तिके कोषमे वृद्धि करनेका यही सर्वोत्तम ढग प्रतीत होता है । इस प्रकार मनुष्यजातिका सयुक्त विकास व्यक्ति व्यक्तिके बीच, व्यक्ति और समुदायके बीचे, समुदाय और समुदायके बीच, छोटे जनसमाज और समृची मनुष्यजातिके बीच, मनुष्यजातिके सामान्य जीवन और उसकी चेतनाके बीच तथा उसके स्वतत्र रूपमे विकसित होते हुए सामाजिक और वैयक्तिक अगोके बीच आदान-प्रदान एवं आत्मसात्करणके सामान्य सिद्धांतद्वारा साधित किया जायगा । चाहे अब भी प्रकृति इसी आदान-प्रदानको चलानेकी चेष्टा कर रही है, फिर भी तथ्य यह है कि जीवनका ऐसे स्वतंत्र और समस्वर पारस्परिक सहयोगके सिद्धांतद्वारा परिचालित होना अभी बहुत दूरकी बात है । इसमे संघर्ष है, विचारो, आवेगो और हितोका परस्पर विरोध है, प्रत्येक ही दूसरोके साथ अनेक प्रकारके सघर्प करके लाभ उठानेका प्रयत्न करता है; ऐसा करनेके लिये वह स्वतंत्र और प्रचुर आदान-प्रदानकी अपेक्षा कही अधिक एक प्रकारकी बौद्धिक, प्राणिक और भौतिक चोरी डकैतीका आश्रय लेता है, इतना ही नही, वह अपने साथियोके शोषण, उत्पीडन और भक्षणतककी इच्छा रखता है । अपने सर्वोच्च विचार और अभीप्साकी अवस्थामे मनुष्यजाति यह जानती है कि जीवनके इस पक्षसे उसे ऊपर उठना है, पर या तो उसे इसके ठीक साधनका पता ही नहीं चला और या फिर उसमे इसे प्रयोगमे लानेकी शक्ति नही है । इसके स्थानपर वह अब वैयक्तिक जीवनको कठोरतापूर्वक सामाजिक जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर विकासके सघर्ष और उसकी अव्यवस्थासे मुक्त होना चाहती है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सामाजिक जीवनको प्रवल रूपसे मानवजातिके सयुक्त और संगठित जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर समाजोके पारस्परिक कलहके निवारणके लिये यत्न करना पडेगा । अव्यवस्था, संघर्ष और विनाशसे त्राण पानेके लिये स्वतत्रताका त्याग, पृथक्त्व और विरोधी जटिलताओसे मुक्त होनेके लिये विभिन्नताका त्याग व्यवस्था और शासनप्रवधकी एक ऐसी प्रेरणा है जिसके द्वारा वौद्धिक तर्ककी स्वच्छद कठोरता प्रकृतिकी क्रियाके कठिन और विषम मार्गीके स्थानपर अपना सीधा मार्ग लानेका प्रयत्न करती हैं । किंतु स्वतंत्रता भी जीवनके ल
िये उतनी ही आवश्यक है जितने कि विधान और शासन पद्धति; विभिन्नताका भी हमारी सच्ची पूर्णतामें उतना ही स्थान है जितना कि एकताका । सत्ता अपने सार और अपनी समग्रतामें केवल एक है, जब कि अपनी क्रीड़ामे वह आवश्यक रूपसे बहुरूप है । पूर्ण एकरूपताका अर्थ होगा जीवनका अंत, उधर जीवन-धमनीकी शक्ति उन विभिन्नताओकी समृद्धिसे नापी जा सकती है जिन्हें जीवन उत्पन्न करता है । साथ ही, यदि विभिन्नता जीवनकी शक्ति और विपुलताके लिये आव श्यक है तो एकता भी उसकी व्यवस्था, क्रमवद्धता और मुस्थिरताके लिये जरूरी है । एकता तो हमे उत्पन्न करनी है पर एकरूपता उत्पन्न करन उतना आवश्यक नहीं । यदि मनुष्य एक पूर्ण आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सके तो किसी भी एकरूपताकी आवश्यकता नही होगी, क्योंकि तब इस आधारपर विभिन्नताकी चरम क्रीड़ा सुरक्षित रूपमें संभव होगी । माथ ही यदि वह एक सुरक्षित, स्पष्ट और सुदृढ एकता सिद्धातरूपमे चरितार्थ कर सके, तो उसे क्रियान्वित करने में एक समृद्ध यहांतक कि एक असीम विभिन्नता भी प्राप्त की जा सकेगी और उसमे किसी संघर्प, अव्यवस्था या अस्तव्यस्तताका भय भी नहीं होगा। क्योंकि वह इन दोनों बातोमेंसे एक भी नहीं कर सकता, वह सदा सच्ची एकताके स्थानपर एकरूपता लानेके लिये लालायित रहता है । जब कि मनुष्यकी जीवन-शक्ति विभिन्नताकी माँग करती है, उसकी बुद्धि एकरूपताका पक्ष लेती है । वह एकरूपताको इसलिये अधिक पसंद करती है कि यह सच्ची एकताके स्थानपर - जिसे प्राप्त करर्ना अत्यंत कठिन है - मनुष्यके अंदर सहज ही एकताका एक प्रवल भ्रम पैदा कर देती है। वह एकरूपताके पक्षमें इसलिये भी है कि यह उसके लिये विधान, व्यवस्था और शासन-प्रबंधके कार्यको आसान कर देती है जो वैसे कठिन होता है। उसकी पसंदका एक कारण यह भी है कि मनुष्यके मनकी प्र
ेरणा प्रत्येक अनुभवनीय विभिन्नताको पृथक्त्व और संघर्षका बहाना बना लेती है और इसलिये एकरूपता ही उसे एकत्व प्राप्त करने की एकमात्र सुरक्षित और सुगम पद्धति प्रतीत होती है । इसके अतिरिक्त, जीवनकी किसी एक दिशा या क्षेत्रमे एकरूपता उसे दूसरी दिशाओमें विकास करनेके लिये शक्ति-संचय करनेमें सहायता देती है । यदि वह अपने आर्थिक जीवनको एक नियत रूप देकर उसकी समस्याओसे वच सके तो उसे अपने वौद्धिक और सास्कृतिक विकासकी ओर ध्यान देनेके लिये अधिक अवकाश और अवसर मिल सकता है । अथवा फिर, यदि अथवा फिर, यदि वह अपने समस्त सामाजिक जीवनको भी एक नियत रूप दे दे और साथ ही भविष्यमे प्रकट हो सकनेवाली समस्याओका निराकरण कर दे तो उसे वह शांति और स्वतंत्र मानसिक अवस्था प्राप्त हो सकती है जिससे वह अपने आध्यात्मिक विकासकी ओर अधिक उत्साहपूर्वक ध्यान दे सकेगा । किंतु यहाँ भी सत्ताकी जटिल एकता अपने सत्यका प्रतिपादन करती है, अतमे मनुष्यके समग्र बौद्धिक और सास्कृतिक विकासको सामाजिक निष्क्रियतासे, उसके आर्थिक जीवनकी सीमाओ और हीनतासे हानि उठानी पड़ती है । जातिका आध्यात्मिक जीवन यदि अधिक ऊँचा उठ जाय और एक अत्यधिक नियमबद्ध और अनुशासित समाजपर निर्भर रहने लगे तो अतमे उसका वैभव और उसकी जीवन-शक्तिके अखड स्रोत क्षीण हो जाते है, तमस् नीचेसे उठकर शिखरोतकको जा छूता है । अपनी मनोवृत्तिके दोषोके कारण हमे कुछ हदतक एकरूपताको स्वीकार तो करना पड़ता है तथा उसके लिये प्रयत्न भी करना पड़ता है । फिर भी प्रकृतिका वास्तविक उद्देश्य समृद्ध विभिन्नताको आश्रय देनेवाली सच्ची एकता ही है । उसका गुप्त भेद इस तथ्यसे काफी स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही सामान्य योजनाके अनुसार निर्माण करती है तथापि उसका आग्रह सदा असीम विविधतापर होता है । मानवीय आकृतिकी योजना एक ही है, तथापि कोई भी दो मनुष्य अपनी शारीरिक गठनमे एक समान नही है । मानव प्रकृति अपने उपादानो और अपनी प्रधान दिशाओमे एक है पर किन्ही भी दो मनुष्योका स्वभाव, गुण या मनोवैज्ञानिक तत्त्व ठीक एक जैसा नही है । समस्त जीवन अपनी मूल योजना और सिद्धातमे एक है, यहाँतक कि पौदा भी पशुका सजातीय प्रतीत होता है परंतु जीवनकी एकता प्रतिरूपोकी असीम विविधताको स्वीकार और उत्साहित करती है । मानव-समुदायोका एक-दूसरेसे स्वाभाविक भेद भी उसी योजनाके अनुसार होता है जिसके अनुसार व्यक्तियोमे परस्पर विभिन्नता पायी जाती है । प्रत्येक ही अपना-अपना गुण, विभिन्न सिद्धात और स्वाभाविक नियम विकसित करता है । यह विभेद और मूल रूपसे अपने ही नियमका अनुसरण उसके जीवनके लिये तो आवश्यक है ही, पर मानवजातिके स्वस्थ और समग्र जीवनके लिये भी यह उतना ही आवश्यक है । क्योकि विविधताका सिद्धांत स्वतत्र आदान-प्रदानको नही रोकता और न ही वह एक ही भंडारके द्वारा सबकी और सबके द्वारा उस भंडारकी समृद्धिका विरोध करता है और यही, जैसा कि हम देख चुके हैं, जीवनका आदर्श सिद्धात है। इसके विपरीत, बिना किसी सुरक्षित विविधताके इस प्रकारका आदान-प्र
दान और पारस्परिक आत्मसात्करण संभव ही नही होगा । अतएव हम देखते है कि हमारी एकता और हमारी विभिन्नताके समन्वयमे ही हमारे जीवनका गुप्त भेद निहित है। प्रकृति अपने सव कार्यो में एकता और विभिन्नतापर समान रूपसे आग्रह करती है। हम देखेंगे कि सच्ची आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता स्वतंत्र विभिन्नताको तो स्वीकार कर सकती है पर एकरुपता वह केवल उतनी ही रखती है जो स्वभाव और मूल तत्त्वकी समानताको मूर्त रूप देनेके लिये पर्याप्त होती है। जबतक हम उस पूर्णताको नही प्राप्त कर लेते, तबतक हमें एकरूपताकी प्रणालीको व्यवहारमें लाना पडेगा, पर हमें इसके प्रयोगमे अति नही करनी चाहिये, अन्यथा जीवनकी शक्ति, समृद्धि और उसकी स्वस्थ, स्वाभाविक आत्म-अभिव्यक्तिके मूल स्रोतोंके मद पड़नेका भय उपस्थित हो जायगा । विधि और स्वाधीनताका झगड़ा भी इसी प्रकारका है और उसका समाधान भी यही होगा। विभिन्नता अथवा विविधता स्वतंत्रतापूर्ण होनी चाहिये । प्रकृति वस्तुएँ गढ़ती नही, न ही उसका आग्रह किसी बाह्य प्रतिरूप या नियमपर होता है । वह जीवनको अपने अंदरमे विकमिन होने तथा अपने स्वाभाविक नियम और विकासका प्रतिपादन करनेके लिये प्रेरित करती है । जीवनके इस नियम और विकासमें परिवर्तन केवल वातावरणके साथ उसके संबंधसे होता है । वैयक्तिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक समस्त प्रकारकी स्वाधीनता हमारे जीवनके मूल सिद्धांतपर आधारित होती है। स्वाधीनतासे हमारा अभिप्राय है अपनी सत्ताके नियमके अनुसार चलना, अपनी स्वाभाविक आत्म-परिपूर्णतातक, विकसित होना और अपने वातावरणके साथ स्वाभाविक और स्वतंत्र रूपये समस्वरता प्राप्त करना । स्वाधीनताका दुरुपयोग स्वाधीनताका दुरुपयोग करनेसे अव्यवस्था, सघर्प, विनाश और अस्तव्यस्तताके रूपमें जो संकट आते है या हानियाँ
होती है वे तो प्रत्यक्ष है ही, किंतु ये चीजे इस कारण ऊपर उठती है कि व्यक्ति व्यक्ति, समाज समाजमे, एकताकी भावनाका या तो अभाव होता या उसमें कुछ त्रुटि होती है जो उन्हें पारस्परिक सहायता और आदानप्रदानद्वारा उन्नति करनेके स्थानपर दूसरेको हानि पहुँचाकर भी अपने स्वत्वकी स्थापना करनेके लिये तथा अपने साथियोके स्वतंत्र विकासमें बाधा डालते हुए अपनी स्वतव्रताका समर्थन करनेके लिये प्रेरित करती है। यदि एक वास्तविक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता प्राप्त कर ली जाय तो स्वाधीनतामे न तो कोई सकट रहेगा और न ही उससे कोई हानि होगी, क्योकि एकताप्रिय स्वतंत्र व्यक्तियोको अपने आप ही अपनी आवश्यकतावश इस वातके लिये वाधित होना पड़ेगा कि वे अपने और अपने साथियोके विकासमे पूर्ण समन्वय स्थापित करे और तवतक अपने आपको परिपूर्ण न समझे जवतक दूसरोका भी स्वतन • विकास नही हो जाता । क्योकि हम अभी अपूर्ण है, हमारा मन और सकल्प भी अज्ञानग्रस्त है, वाह्य रोक और दवावके लिये हमे विधि और शासनकी सहायता लेनी पड़ती है । एक सबल विधि और दवावके सहज लाभ तो प्रत्यक्ष है ही, पर हानियाँ भी उतनी ही वड़ी है । जिस पूर्णताको लानेमे यह सफल होती है वह भी पीछे यात्रिक हो जाती है, यहाँतक कि जो व्यवस्था यह स्थापित करती है वह भी अंतमे कृत्रिम सिद्ध होती है और यदि पकड़ ढीली पड़ जाय या नियंत्रण हटा लिया जाय तो वह व्यवस्था टूट भी सकती है । यदि यह बाह्य व्यवस्था अधिक दूरतक ले जायी जाय तो यह स्वाभाविक विकासके उस सिद्धातको जो जीवनको यथार्थ प्रणाली है, निरुत्साहित कर देती है, यहाँतक कि यह वास्तविक विकासकी सामर्थ्यको नष्ट भी कर सकती है । जीवनको दवाने और उसे आवश्यकतासे अधिक नियमित करनेसे हम सकटमे पड़ जाते है। शासन-प्रवधकी अति करनेसे हम प्रकृतिकी प्रेरणा और उसके सहज आत्म-अनुकूलनके स्वभावको कुचल डालते है । नमनीयतासे कम या अधिक वचित निष्प्राण व्यक्तित्व ऊपरसे सुन्दर और सुडौल प्रतीत होनेपर भी अदरसे नष्ट हो जाता है । जो विधि हमारी अपनी नही है या जिसे हमारी सच्ची प्रकृति आत्मसात् नही कर सकती, उसके लगातार बने रहने से तो अराजकता अच्छी है। दवाने या रोकनेवाली प्रत्येक विधि एक उपाय अथवा सच्ची विधिकी स्थानापन्नमात्र होती है; सच्ची विधि तो अदरसे हो विकसित होनी चाहिये, उसे स्वाधीनताका प्रतिबंधक नही, बल्कि उसका वाह्य स्वरूप तथा उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होना चाहिये । जहाँतक विधि स्वतन्त्रताका शिशु बनकर रहती है, मानव समाज वास्तविक और सजीव रूपमे उन्नति करता है । वह अपनी पूर्णतातक तभी पहुंचेगा जब मनुष्य अपने साथियोके साथ आध्यात्मिक रूपमे एक होना जान लेगा और एक हो जायगा, एवं जब उसके समाजकी सहज विधि केवल उसकी स्व-शासित आंतरिक स्वाधीनताका बाह्य साँचामात्र रह जायगी ।
सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें. उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये. सम्राट् को अपने पास, समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये. सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं, कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है ' विस्मय से सुनते हैं लोग. व्यास देव की मनोरम शैली, श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या सुन्दर ताल-मेल! युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी, अनेक महान् वंश समाप्त हो गये. माँ और पितामही, की बातों से जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं. यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने, उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है, बोले, ' हाँ,मुझे ज्ञात है, कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. ' 'जाने दो पुत्र,उनकी बातें उनके साथ गईँ. ' 'परीक्षित को जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है. उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं. यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले. ' भावी राजमाता है उत्तरा. अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा. तब युधिष्ठिर ने संशय किया था, ' धार्मिक कार्यों में राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना,. . . . ' 'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ ? हमारा कर्तव्य,हमारा धर्म. राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का, इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ? ' व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं. सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है. धर्म वैयक्तिक जीवन के साथ समाज को भी साधता है. लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है,' परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे. उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है. ' पार्थ बोले,'सही है. उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन. जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ? ' क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले. ' पांचाली स्वयं स्वागत करती है, आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है. कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे,और आप तो भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे आदरणीय हैं. ' गद्गद् हो जाते हैं जन. गद्दी पर आसीन महर्षि व्यास ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं, ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक. पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की. यही है वह परीक्षित. आपके सम्मुख. ' मर्मर ध्वनि उठती है -'परीक्षित ? ' 'पुत्र सम्मुख आओ, ये सब तुम्हारे अपने, मिलो इनसे!' कितना सुदर्शन, गौर वर्ण युवक! वह,शीष झुका कर, कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें!' हर्ष की लहर दौड़ जाती है. पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा, हृदय से लगा लिया, वात्सल्य उमड़ पड़ा. उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ द
ोनों की झलक पा ली . अपने पुत्र के संपर्क से पयोधर उमड़ आये हों ज्यों, वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी, वही अनुभव दुहरा आया अपने सजल होते नेत्रों को छिपा गई वह. अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार अंतर उसी भाव से भर उठा. मेरी ही टोक न लग जाय कहीं. उसने दृष्टि-दिशा बदल दी. 'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो. नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये. ' 'आपका आशीष साथ रहे, पितामही. ' सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ? 'हाँ, और हृदय के समीप भी. जैसे उस समय की मुद्रा में था, अस्त्र शिशु के हृदय में प्रविष्ट हुआ हो. ' किसी की उत्सुकता जागी है. 'तुम्हें क्या अनुभव हुआ था वत्स, उस समय ? " कुछ स्मरण करता-सा बोला, ' बहुत धुँधली स्मृति. अभी भी कँपा देती है! इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन जाऊँगा. तभी कानों में कुछ ध्वनित होने लगा. लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा. . . . हाँ, फिर ताप घटने लगा,' कहते-कहते उसकी वह बाँह हिल गई, ' यहाँ तीव्र पीड़ा, असहनीय. अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो. तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,' उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा, ' माँ ने मेरे उदर पर अपना हाथ धरा था. कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं. धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी. . आगे कुछ याद नहीं. ' महिलाओं के समूह में किसी ने उत्तरा से सहानुभूति प्रकट की, ' इन्हें कैसा लगा होगा उस समय, हे भगवान!' 'पुत्री, तुम पर क्या बीती होगी!' सुभद्रा पास खिसक आईं आश्वस्त करती बोलीं. 'कुछ बोलोग
ी, वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार हल्का हो जाता है. ' कुछ क्षण सिर झुका रहा, मुख पर कुछ भाव आये-गये, जैसे स्वयं में कुछ समेट रही हो. बोली उत्तरा,' हाँ, मुझे लगा अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा, इतनी व्याकुल हो गई. . . हाथ उदर पर धर लिया, मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो, चेत मत खोना वधू, परीक्षा का समय है, अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया. . ' और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान न आये,. ' मुझे याद आ गया, माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था. ' दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं. उन्होंने ने सिर हिलाया. विशाल कक्ष. अपार जन-समुदाय. वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति. स्तंभित से हो गये थे सब. 'ओह, कैसे बीता वह समय? जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो. जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी. कैसा दारुण, विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा. असह्य! ओह. ' स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी. 'बस, बस, अब कुछ मत बोलो,' 'मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की. अंत भला सो सब भला! नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं, 'चेत बनाये रखा फिर भी. . ' कोई कह रहा था. . 'सुख और आनन्द के सब भागीदार, दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग. ' वह फिर भी कहती रही, कुछ क्षण और, कुछ क्षण और. पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा खिंच रहा है. और फिर, मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया . ताप का भान भूल गई. उन्होंने कहा ', बस, शान्त हो,सो जाओ पुत्री. ' और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई. लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर रही है. . ' 'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था जो बाद में चिह्न शेष रह गया. . ' सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख पर. पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं. पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे. उनके शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं. . 'उत्तरे, मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्रीवत् माना. तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल-आनन्द का अनुभव किया. वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था. ' तभी तो मुझे अपने पुत्र के लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो गया. जनार्दन की भागिनेय-वधू, उत्तरा के नैन भर आये. उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे. पांचाली भी जानती है, दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और वह भी इन पर अपना विशेष अधिकार समझती थी. तभी वन में जब जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय. भावाकुल होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा. ' इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा. नहीं तो कौन बचा है मेरा!' कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं, भाई का मुख झलकता है व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में. 'ऐसा न कहो पुत्री,' पांचाली ने
शीष पर हाथ धर दिया, ' यह सभी तुम्हारा है!'. बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में व्यवधान नहीं, उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है. अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन गई. महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं में विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल!' कोई बोल उठा, 'अब कहाँ जल? संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ!' 'जल कहाँ, अब केवल कीच और विषम गंध!' दूसरा स्वर, 'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं. ' कहाँ हो रे, अश्वत्थामा! आओ देखो. ये परिणाम कहाँ तक चला आया. और आगे कहाँ तक पहुँचेगा! शताब्दियों की अनवरत साधना ने जो उपलब्ध किया था, उत्तेजना के एक पल ने चौपट कर दिया! कैसे आदिबद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा की प्रभास क्षेत्र तक की अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली. विस्तीर्ण, वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया. तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं- ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और तपस्वियों के बिना वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं ' आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं. 'सब इस युद्ध के कारण, जो हम पर थोपा गया. ' 'अति हो गई थी,' सबको लगता है. परित्राण के लिये जो हुआ, वह होना ही था. उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों का शुद्ध उच्चारण भूल गये, मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया. केवल दक्षिणा का लोभ रह गया. दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त को विदेशी आँखें टटोलन
े लगीं. आदर्शों के भव्य-प्रासाद ढह गये थे. उतार पर आ था गया सब. एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है? उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग, जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं. ' वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा, 'वत्स, सत्य को जान लो, जनार्दन की छाया में रहे हो. . . तुमसे बहुत आशायें हैं जन को. ' 'मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है, पूज्य. अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे, कि अपनी आँखों से देख लूँ. ' पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली, 'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे. कितने आगे तक की सोच गये. ' 'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे, मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला. . परीक्षित बोल उठा,' 'महान् नीतिज्ञ माना है, तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे मार्ग दिखायेंगे. ' युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स, तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो. ' 'तात, आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ. प्रयत्नशील रहूँगा. ' सुभद्रा पुलक उठी. सब ने संतोष से देखा. ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो. 'वे स्वर्णिम दिवस सदा को लुप्त हो गये ? ' एक चिन्तित स्वर उठा. 'सदा को कुछ लुप्त नहीं होता, वत्स. समय का चक्र, और कर्म तुम्हारे!' आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे महर्षि द्वैपायन. सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल सेवकों ने लाकर रख रख दिये- साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग! सब की उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ. कहते हैं - जिस मानसिकता से पाक हो, भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है! सात दिन की भागवत-कथा. सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प! हृदयों का संस्कार हो रहा है. ये सात दिवस, वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे. सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी. इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब, कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी, धीरे-धीरे वही सात्विकता, स्वभाव में परिणत होने लगेगी. 'सारे जीवन तपे थे वे, संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये. उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है!' अभिभूत है नर-नारी. जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण देख रहे हों! सकारात्मक ऊर्जायें जन-मानस में नव-चेतना संचरित करने लगीं थीं. परीक्षित का राज्याभिषेक धूम-धाम से संपन्न हो गया. मणिपुर नरेश और कौरव्य नाग के परिवारों का समर्थन था ही, उलूपी और चित्रांगदा के साथ सभी पांडव-बंधुओं की अन्य पत्नियों के परिवार भी सादर आमंत्रित थे. सबका समुचित सत्कार किया था पांचाली ने. पौत्र को निर्देश दिया था इस विस्तृत परिवार की शाखायें अलग जा कर भी परस्पर जुड़ी रहें, अपने मूल से संबद्ध रहें. एक दूसरे की संपद्-विपद् में सहयोगी बनी रहें. आस-विश्वास
का संबंध कभी न टूटे. परीक्षा की घड़ियों में एक दूसरे को साध कर ही वे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं. पितामही के रूप में सभी संततियों को नेह से सींचती रही थी वह. पर भीतर ही भीतर एक विरक्ति घेरती जा रही थी. कभी जब अकेली होती, चुपचाप बैठी कुछ सोचती रह जाती. परम मीत चला गया,मन उमड़ आता है किससे कुछ कहे. बार-बार उसके शब्द कानों में झंकारने लगते हैं. वह उपस्थित हो कर भी वर्तमान में नहीं रह जाती. ऐसी अन्यमनस्कता देख, पार्थ ने पूछा था, ' प्रिये, सबसे तटस्थ होती जा रही हो, सबसे विच्छिन्न- सी. क्या हुआ तुम्हें ? ' 'पार्थ, अब मन उचाट हो गया. कितना लंबा जीवन जी लिया, कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ घेरती रहीं. . . ' 'जो बीत गया सो गया उस पर क्या सोचना. ' आगे भी क्या है- कहना चाहती थी पर कहते-कहते रुक गई. समारोह समाप्ति के पश्चात् एक खालीपन पसर गया था, जैसे खुमार उतर जाने के बाद अवसन्न-सी विरक्ति तन-मन को घेर ले. आगे कुछ करने को नहीं रहा. प्रिय सखा के प्रस्थान के बाद पार्थ का व्यक्तित्व भी बदला-बदला लगता है. तेजस्वी धनंजयका वह सव्यसाची रूप उदासीनता के आवरण से ढँक गया. युद्ध के बाद के घटना-क्रम ने हृदय में स्थाई ग्लानि-भाव की छाया डाल दी. नकुल-सहदेव के लिये कोई क्षेत्र नहीं बचा, हाँ अपने को लगा सकें. अवस्था में छोटे होने पर भी वार्धक्य का प्रभाव उन पर कम नहीं था. नित्यसुन्दरी, चिर-यौवना, पांचाली अपने आप में सिमटी हुई - जीवन की सारी रुचियाँ, सारे चाव हवा हो गये. उसे देख कर लगता जैसे कोई मनोरम चित्र मन को भाये पर थिरता में थम जीवन्तता का बोध गुम जाये. ' भीम का वेग शान्त पड़ गया, युधिष्ठिर की धर्म और नीति की दमक को तो तभी से ग्रहण लग गया था जब बर्बरीक ने औचित्य पर प्रश्न उठाया था. रही-सही कमी कर
्ण के वृत्तान्त ने पूरी कर दी. पांडव -बंधुओं को लगने लगा कि अब यहाँ उनका कोई काम नहीं. योग्य उत्तराधिकारी सब सँभाल लेगा. युगान्तर के आचार-विचार में आया परिवर्तन कभी-कभी उनके वार्तालाप का विषय बन जाता था. 'आगे क्या' का प्रश्न सिर उठाने लगा. वेदव्यास के शब्द याद आये, 'हमारी नीति-अनीति हमारे साथ! अब नई पीढ़ी को अपने समय के साथ जीने दो. काल-कथा की नई भूमिकाओं में नये पात्रों का आगमन, पुरानों का पृष्ठभूमि में पदार्पण; यही जीवन का क्रम है. . . ' सब गहन सोच में पड़े रहे, किन्तु समाधान खोजना ही था. और उन्होंने निश्चय किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना ही उचित है, पूरा प्रबंध करने के पश्चात् परीक्षित को समझा-बुझा कर उन्होने सुभद्रा और उत्तरा को प्रबोधित किया, पुत्र के गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु परामर्श दिया. पांचाली ने उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ पौत्र के विवाह हेतु अपना मत प्रकट कर दिया. प्रस्थान की पूर्व-संध्या वे प्रणाम करने महर्षि व्यास के आश्रम गये. स्नेह से आसन दे समुचित सत्कार किया उन्होंने. प्रस्थान की बात जान कर बोले,' उचित है. सारे कार्य संपन्न कर चुके, तुम्हारा निर्णय सर्वथा उचित है. ' कुछ रुक कर उन्होंने कहा, ' अब तक के सांसारिक संबंध अब नहीं, सब समानरूपेण स्वतंत्र हैं. किसी पर किसी का अधिकार नहीं. ' उन्होंने युधिष्ठिर की ओर देखा था. 'सब अपने निजत्व में रमें, सबका व्यक्तित्व अपने ही स्व के अधीन रहे. ' बिदा समय साथ हो लिये थे वे, आश्रम-द्वार पर रुक कर खड़े हो गये. 'जाओ वत्स, पंथ कल्याणमय हो तुम्हारा! अब पीछे लौट कर मत देखना. ' पीछे खड़े वे उन्हें जाते हुये निहारते रहे. श्वेत श्मश्रुओं और रजत भौंहों के नीचे किंचित ढके नेत्र अर्ध निमीलित हो उठे थे. और फिर प्रस्थान की बेला आ गई. नगर-सीमा के आगे, जहाँ तक संभव हो सके, रथारूढ़ रहें - परीक्षित का अनुरोध था. प्रजाजनों और परिजनो के उद्गारों से, चलते समय व्यवधान न पड़े, वे शान्ति से गृह त्याग सकें इसलिये रात्रि की सुनसान, अंतिम बेला में पाँचो पांडव द्रौपदी के साथ उत्तर- यात्रा पर चल पड़े. जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी! अंत में विजय मिली, पर उसके लिये क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा! अपने दुष्कृतों के प्रायश्चित हेतु हिमालय की देव-धरा पर जा कर साधना करने का विचार मन में पाले, वे निरंतर बढ़ते गये. जीवन में दीर्घकाल तक वनवासी रहे उन छः जनों के लिये पर्वत के तल-तक चलते जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. गिरि पर आरोहण का श्रम या अपने आप में डूबे, वे अधिक तर मौन ही चलते जा रहे थे. बीच-बीच में कुछ वार्तालाप हो जाता था. 'कितना गहन वन. 'पांचाली बोल उठी, ' यहाँ तो वन्य-जीव रहते होंगे?" अर्जुन आगे बढ़ आये, 'हाँ छोटे-बड़े सब. यहीं तो वन-शूकर के कारण भगवान पशुपति से झड़प हुई थी मेरी, और फिर पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति.' पार्थ के चले हुये रास्ते हैं ये, इधर ही तपस्या करने इन्द्रकील पर्वत पर आये थे. अपने अनुभव बताने लगते है. दोनों छोटे,
कुछ कह-सुन कर परस्पर मन बहला लेते हैं. वे भी चर्चा में सम्मिलित हो गये. हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे, ऊँचाइयों पर चढने लगे वे. पर्वत के शिखरों का विस्तृत क्रम प्रारंभ हो चुका था. युधिष्ठिर चुप चल रहे हैं, यों भी मौन ही रहते आये थे, उनकी विचार-लीनता स्वाभाविक लग रही है. वेद व्यास के कथन बार-बार स्मरण हो आते हैं. 'यह मात्र बाहरी यात्रा नहीं, एकान्त अंतर-यात्रा भी हो, जो मन के गहन से परिचित कराये!' आशीष था, या वानप्रस्थ के लिये संदेश? उन्होंने कहा था -' किसी का किसी पर अधिकार नहीं ' युधिष्ठिर को लग रहा है उन्हीं के लिये कहा. और तो किसी ने किसी को कहीं अटकाया नहीं...मैंने ही कितनी बार...और द्यूत में. भी...सोचा था केवल क्रीड़ा है, पर कहाँ रहा था वहाँ मनोरंजन! एक दुरभिसंधि थी जैसे.., मनोमालिन्य ही बढ़ा, एक बार नहीं बार-बार...' पश्चाताप से भर उठे. 'स्वयं को धिक्कारते-से पग बढ़ाये जा रहे हैं. अनुज-वधू थी. कैसे प्रस्तुत किया मैंने, माँ का उत्तर जानता था, ओह, मन का सच! मुझे लगता था सबसे बड़ा हूँ, सब नीतिज्ञ मानते हैं मुझे! जो करूँगा परिस्थितियों के अनुसार उचित कहलायेगा. उस दिन बर्बरीक ने झटक दिये सारे आवरण! और अब स्वयं से सामना! 'बहुत अकार्य कर डाले हैं, तब विचार नहीं किया... अब पश्चाताप ही शेष रहा..' 'जीवन भर जो करना पड़ा, अपनी समझ भर किया, अब सारी गठरी ही सौंप आई तो अपना क्या? रिक्त हूँ! उस सबसे मुक्त हूँ...' धर्मराज क्या कहें! वही कहती रही. 'देख रही हूँ चारों ओर का असीम विस्तार, डूब जाती हूँ इस में..' 'तुम नारी हो सहज समर्पित हो सकती हो. हमारा अहं, हमारा कर्तृ-भाव हमें जगाये रखता है.' 'हर पुरुष में एक नारी निहित है, उससे बचता रहता है, पर, उससे भिन्न हो कर वह रिक्त र
ह जाता है, बस अपने भीतर उसे जगा रहा हूँ. उससे समन्वित हो कर संभव है यह कोलाहल शान्त हो जाये, अंतर की उद्विग्नता से मुक्ति मिल जाये. अब तक उसे दबाता रहा अपने अहं में उसे सुना नहीं. पर अब उसके बिना निस्तार नहीं. साधना के पथ में केवल पुरुष होना पर्याप्त नहीं. यह पुरुष-भाव कहीं समर्पित होने नहीं देगा. .उस निष्ठा, उस विश्वास और समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग खुलेगा नहीं.' सब मौन सुनते रहे. 'आज मैं समझ पाया, सारे संबंध सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह हेतु जुड़ते हैं प्रत्येक का व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहे यही उचित है.' 'संबंधों को भावना मधुर बनाती है बुद्धि या तर्क तो.., ' सबको अपनी ओर देखते पा सहदेव सकुचा कर बीच में ही चुप हो गये. नकुल ने जोड़ा, 'बौद्धिकता से पूरा नहीं पड़ता, भावना की फुहार बिना लगाव कैसे विकसे! और कहते हैं, सात जनम का बंधन होता है...' भीम, चुप न रह सके, '.हे भगवान, सात जनम ! एक को ही ईमानदारी से निभा दे....' पांचाली कैसे चुप रहती, ' सात जनम वही सारे पति..नहीं रे, नहीं, सोच कर ही जान सूख जाती है.' फिर स्पष्ट करने लगी -'नहीं, ऐसा नहीं, जनार्दन ने कहा था, ये नहीं होता कि पति, पति ही हो या पुत्र, पुत्र ही हो., बंधु, भगिनी पिता कुछ भी. जन्म लेंगे, मिलेंगे संस्कारवश.' सहदेव ने एक और मोड़ दिया, ' सात जन्मों की बात है तो ऐसा होता होगा कि इस जन्म में जो पति बन कर सेवा-समर्पण ले, अगले में वह उसी की पत्नी बन कर उसका उधार चुकाये.' सब हँस पड़े. 'तुम भी इतने ज्ञानी नहीं रहोगे.' 'पांचाली, तुमसे कब जीता मैं?' भीम का प्रश्न, 'फिर सात जनम क्यों?' 'जिसमें तुम जैसे लोग एक दूसरे के अनुकूल होने के प्रयास करते रहें, विमुख न हों.' चैन की सांस ली भीम ने, 'वही तो मैं कहूँ..' 'क्यों हिडिंबा भाभी का ध्यान आ गया?' सबकी विनोदभरी दृष्टियाँ भीम पर. 'वे अगले जनम में नया रूप लेंगी, अपने संस्कारों के अनुरूप. क्यों भीम के पीछे पड़े हो! तुम भी नकुल, आवश्यक नहीं कि इतने सुन्दर ही बने आओ. सदा करेणुका से तुलना करते रहते हो.' कुछ खिसियाता सा बोला, 'तुमसे तो नहीं करता न!' युधिष्ठिर सुन रहे थे अब तक, बोल उठे, 'अब यहाँ वे सब चर्चायें नहीं करनी चाहियें.' 'भइया, हम तो केवल हँस बोल रहे हैं, मन से कोई लिप्त नहीं.' आरोहण का क्रम जारी रहा. भयंकर शीत, पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें, पल-पल विचलित करती, जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं. लड़खड़ाते, एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे हैं धीरे-धीरे! सर्वप्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. अग्नि-संभवा पांचाली जीवन भर ताप झेलती रही. उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था, चिर-शीतल हिम-शिखरों के बीच. गिर पड़ी द्रौपदी. द्रुत गति से अर्जुन आगे बढ़े. वही लाए थे उसे, कितने चाव से भरे, अपने पौरुष की परीक्षा देकर. प्रिया को अंतिम क्षणों में बाँहों का सहारा देने आगे आए. "नहीं.' युधिष्ठिर ने रोक दिया. 'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु, उस ओर अकेले ही जाना है.' जि
स नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. क्या कभी कुछ कर पाए? आज भी इतने विवश क्यों हैं- पार्थ का हृदय विकल हो उठा. द्रौपदी ने क्षण भर को नेत्र खोले. पाँचो पर दृष्टिपात किया, अर्जुन पर आँख कुछ टिकी - जैसे बिदा मांग रही हो. बहुत धीमें बोल फूटे, ' हे कृष्ण, गोविंद, माधव, मुरारे... ' जाने कहाँ से एक मोरपंख याज्ञसेनी के समीप आ गिरा. देखा उसने, ईषत् हास्य अधरों पर खेला और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका शान्त हो गई. भीम के आगे बढते पग थम गए, धम्म से वहीं बैठ गए. नकुल, सहदेव स्तब्ध. अर्जुन ने आँसू छिपा लिए. युधिष्ठिर स्थिर हैं. कुछ क्षण देखते रहे एकदम चुप, अगम से. फिर बोले, ' कहीं रुकना नहीं है अब कुछ नहीं है यहाँ, बस, चलो आगे!' अर्जुन कह रहे थे, '..अब तक उसमें प्राण थे, वह सबका हिस्सा थी. अब निर्जीव है किसी की नहीं रही. अब केवल मेरी, ' व्याकुल हृदय आज हर मर्यादा भूल गया, ' नित्ययौवना, याज्ञसेनी, छोड़ कर अभी मत जाओ.. मैं जीवन भर भटकता रहा...कहाँ रह पाया तुम्हारे साथ. रुक जाओ, पांचाली मत जाओ..! ' देखते रहे उस निष्चेष्ट देह को. झुक आये उसकी ओर, 'ओ पांचाली, थक गई तू, नहीं झेल पाई, चली गई तू..' वहीं बैठे रहे अर्जुन, पांचाली के शान्त निर्विकार श्यामल मुख को निष्पलक ताकते. 'वह किसी की नहीं. केवल मेरी. सब जाओ अब. मैं देख लूँगा..' सारे भाई शोकाकुल विमूढ़! युधिष्ठिर आगे बढ़े, 'अब कुछ देखने को नहीं बचा. पागल हुये हो बंधु, अब पांचाली कहाँ! मृत देह, माटी,. मोह छोड़ो, उठो.' अर्जुन ने सुना कि नहीं सुना? 'वह सौभाग्यशालिनी थी, चली गई.' कुछ रुक कर बोले युधिष्ठिर, 'हमें भी उसी राह जाना है. रुकना नहीं है अब, उठो बंधु, उठो.' भीम को संकेत किया, वे अनुज को हाथ पकड़ उठाने लगे.
अर्जुन विवश यंत्र-चालित-से उठे. भीम और युधिष्ठिर ने बीच में ले लिया. युधिष्ठिर ने कुछ विचार कर सीधे आगे न बढ़ कर, चढ़ाव के घूम पर मोड़ की ओर पग बढ़ाये, बंधु साथ देते रहे, अचानक लौट पड़े अर्जुन. बड़े पांडव ने टेरा, ' कहाँ, कहाँ जा रहे हो, बंधु?.' कोई उत्तर नहीं. पार्थ बिना कुछ बोले चलते रहे. पांचाली की देह के निकट पहुँचे. जा कर अर्जुन ने अपना उत्तरीय उतारा और झुक कर पत्नी की देह आवरित करने लगे. 'बंधु, अब उसे शीत-ताप कुछ नहीं व्यापेगा.' युधिष्ठिर पीछे चले आये थे. पार्थ नहीं मान सके अग्रज का तर्क, जीवन भर पाले गये अनुशासन भंग हो गये, 'उत्तरदायी मैं हूँ, पितृगृह से उसे अर्धांगिनी बनाने को मैं लाया था, दायित्व मेरा था. क्या किया मैंने उसके साथ? जब वह पूछेगी, मुझे अनावृत्त कैसे भेज दिया तुमने? मैं क्या कहूँगा...' युधिष्ठिर ने कुछ कहा. शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँचे. उनके हाथ ठिठक गये, दृष्टि उस चिर -परिचित मुख पर टिक गई, नील-कमल की सुपरिचित गंध कुछ देर चतुर्दिक मँडरा कर वायु-मंडल में विलीन हो गई. 'पांचाली, तुम समर्पित रहीं. जीवन भर किसी को अपना माध्यम नही बनाया. अंत में स्वयं को विसर्जित कर दिया. मैं अधिकार-भावना से ग्रस्त रहा, पांचाली ने निःस्व-भाव में स्वयं को ढाल लिया था. तुम्हारी साधना तक हम कहाँ पहुँचे? हमारी यात्रा अभी शेष है.' भाइयों से बोले 'माधव की शरण में रही, उसकी मुक्ति सर्व प्रथम होनी ही थी.' बहुत अस्पष्ट थे स्वर - 'और मेरी, संभवतः सबसे बाद!' किरीटी ने वह देह यत्न-पूर्वक ढाँक दी. 'वह जीवित थी तब तक सबका अधिकार था. अब वह नहीं है, यह देह-मात्र, वह केवल मेरी. कोई लज्जा नहीं अब. अंतिम बिदा लेने में कोई आड़े नहीं आ सकता.' 'जाता हूँ प्रिये, जीवन भर भागता रहा, तुम्हें पाने को व्याकुल. आज तुम चली गई हो. मैं यहीं रह गया. अब भटकने को है ही क्या? हर तरह से निभा गईं तुम. हम स्वार्थी तुम्हें कुछ न दे सके....' कंठ वाष्पित हो रहा था. आगे पार्थ क्या बोल रहे हैं, कोई समझ नहीं पा रहा था. कुछ क्षण खड़े रहे अर्जुन टक लगाये, भीम ने आगे बढ़ हाथ पकड़ा. वे विवश से पलटे और चलने लगे, भयंकर शीत भरी हवायें अबाध चली आ रही हैं. रह-रह कर तुषार-कणों की वर्षा, वनस्पतिविहीन दुर्गम प्रदेश, हिम-चट्टानें रोर करती फिसल रही हैं, एक-एक पग दूभर, विषम झोंके झेलते लड़खड़ाते किसी तरह बढ़ रहे हैं, एक दूसरे को साधते -सँभालते. आगे पंचचूली शिखर तक जाने को राह पर्वत के किनारे घूम जाती है. उसी ओर जाना है, मोड़ आ गया था. कुछ आगे बढ़े वे, मुड़ने से पहले अर्जुन ठिठके, पलट गये. उनके साथ शेष चारों भी देखने लगे उस ओर, जहाँ पांचाली को छोड़ आये थे. तल की हिमशिला पर वह श्यामल देह एकदम शान्त. उद्दाम हवाएँ उत्तरीय का छोर बार-बार उड़ा रहीं थीं. सघन केश-राशि की कुछ बिखरी लटें उस अनिन्द्य मुख पर आ पड़ी थीं. हिमालय की उठती हुई धवल श्रेणियाँ, मंदिर के भव्य शिखरों सी दिशा व्याप्त करती हुई. वहीं नीचे हिमाच्छादन युक्
त तल पर निश्चल पड़ी याज्ञसेनी की देह, ज्यों शुभ्र वेदिका पर अर्पित, जल से विच्छिन्न नीलोत्पल! आगे मोड़ था. युधिष्ठिर ने कंधे पर हाथ रखा, भीम बाँह से सहारा दिये आगे बढ़े. सब पीछे छूट गया. हिमपात से धुँधलाते परिवेश में दूर जाती, प्रचंड पवन झोंकों में हिलती -डोलती वे पाँच आकृतियाँ दृष्टि-पथ से ओझल हो गईं!
कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। नाम से डरना सिखाओ। कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। जो तुमने सपने में देखी थी? कई बार प्रदर्शन किया है। पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कुछ नहीं बचा! फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। तो क्या तुम प्रभावित होगी? सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। मेरी ज़िंदगी काफ़ी कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। जो चाहे वह ले लेता था। मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। तो हमारे सिर कलम होंगे। यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या क्या तुम उनमें से एक हो? काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग क
ौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। और उसके बीतने का इंतज़ार किया। ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर बस दो बार। तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! हमारा नाम ख़राब किया। छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। त
ुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। और पानी भी ख़त्म हो रहा है। वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। संपर्क कर पाता, तो शायद वे दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। तो भुगतान के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। हर एक पाई ढूँढ निकालो। केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना इसे जीना नहीं कहते हैं! उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। हम गिड़गिड़ा रहे तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने ठीक है। हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया त
रकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। असल में हमारी तरफ़ है। तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मानो, यार। एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसर
े के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। जितना वह कहते थे। कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? एक नियम के हिसाब से चलता है। सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। तो सामने आओ। इसी वक़्त। थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए... लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। तुम्हें जो चाहिए वह ले लो, और उन्हें ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ के नाम से डरना सिखाओ। द लेजेंड ऑफ़ वॉक्स माकिना कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। पक्का यही वह जगह थी, जो तुमने सपने में देखी थी? सौ फ़ीसदी। मैंने वेस्ट्रन में कई बार प्रदर्शन किया है। बख्शीश देने में कंजूस, पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। मेरा सबसे लोकप्रिय गाना था, "जब कोई बात..." स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। मिथकार्वर ने मुझे शहर को ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। और एक बेहद गबरू आदमी ने रत्नों के दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। इससे पहले विल्हैंड को चिंता हो कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। इन लोगों को हमारी मदद की ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कसम से, मेरे पास जो था मैंने दे दिया, कुछ नहीं बचा! ख़ैर, नन्हे दोस्त, अगर तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है, फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। मैंने पहले एक बार किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। अगर हमें वे दस्ताने चाहिए, तो हमें सामान्य ग्रॉग के झुंड से लड़ना होगा, फिर उन्हें महाविशालग्रॉग
के हाथों से चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे नहीं लगता कि मैं हर्ड को मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? क्या हम अपने दोस्तों का इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? पर चलो भी, तुम एक फ़रसा तो उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। दरअसल, पाइक, अगर मैं अपने दम पर वेस्ट्रन में घुसपैठ करके वह अवशेष लेकर आता हूँ, तो क्या तुम प्रभावित होगी? यह तुम्हारा आज तक का सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। अगर क्रांतिकारी स्कैनलैन एक घंटे के अंदर वापस नहीं लौटा, तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पुराने हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। तुम्हारे मुझे अपनाने से पहले, मेरी ज़िंदगी काफ़ी... विल्हैंड को एहसास था कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। अगर तुम नहीं चाहते, तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। जब मैं हर्ड के साथ था, तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। मैं बिना कुछ सोचेसमझे, जो चाहे वह ले लेता था। कोई भी चीज़ या इंसान मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। अगर हमारी पेशकश में कमी हुई, तो हमारे सिर कलम होंगे। मैंने किसी ड्रैगन से आदेश
लेने के लिए यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? मैं कहता हूँ कि किसी को मेरे पिता का सामना करना होगा और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या... क्या तुम उनमें से एक हो? मैं "उनमें से एक" होने के लिए काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग कौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। जब ड्रैगन ने हमला किया, हम सब छिप गए और उसके बीतने का इंतज़ार किया। और जिस दिन वह ड्रैगन गया, उसके अगले ही दिन ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। हम बचकर भागने के मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर... तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर... बस दो बार। ...दादा ने मुझे देखा, तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। मेरे पिता को तुम्हें यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या... माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। उम्मीद है एक दिन तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! तुम उसके पीछे मेरे बेटे, अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? मुझे उस बौने का सिर काटकर दो, वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! तुम दोनों ने अपनी कमज़ोरी से हमारा नाम ख़राब किया। मुझे पता होना चाहिए था कि तुममें छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ, आज से तुम्हें हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। हाँ। "बहादुर।" मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। और हम लोगों की जान लेते, कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। तुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। पर उन लोगों को इससे फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? तो, तुम कह रही हो कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। डॉ. ड्रैन्ज़ल की यात्रा मंडली, आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़
्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट के जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। इन लोगों के पास खाना नहीं है और पानी भी ख़त्म हो रहा है। हर्ड घरघर जाकर वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। अगर दोस्तों से संपर्क कर पाता, तो शायद वे... दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। मैंने ज़िंदगी में एक चीज़ सीखी है, कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। तो स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट, क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। क्या मुझे ही ऐसा लगता है या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? बेशक, एक अवशेष की ताक़त की तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। मुझे बताओ कि तुमने अब तक इसे इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। तुच्छ चीज़ों से समय ज़ाया कर रहे हैं, जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। इस शहर से दिनबदिन कम पेशगी मिल रही है, पर तुम्हारे प्रिय कॉन्क्लेव के लिए हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। आशा का भक्षक तुम्हें मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। अगर तुमने मुझे थोरडैक का सोना लाकर न दिया, तो भुगतान
के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। खोजी दलों को इकट्ठा करो और इस शहर से दौलत की हर एक पाई ढूँढ निकालो। कोई कसर मत छोड़ना, वरना तुम्हें केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना... इसे जीना नहीं कहते हैं! हमें उन ड्रैगन का शिकार करना चाहिए, उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। उसके बजाय, आपकी कमज़ोरी के कारण हम गिड़गिड़ा रहे... तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। मैं इस हर्ड पर शासन करता हूँ, और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। अब जाओ। स्थानीय लोगों को मार डालो और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। जैसा कि मैंने कहा था, हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने... ठीक है। तो हम चुपके से जाएँगे, हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। फिर तो हमें एक बढ़िया सी भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। हाँ, इस निखट्टू बौनी ने केवडैक से कुछ चुराया था, तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। और उन्हें इंतज़ार करना पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया तरकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। इससे पहले कि उल्टा लटककर बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। सुनो, मैं अकेले जाता हूँ और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरी चिंता मत करो, मोहतरमा, मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। और अगर मुझे कामयाब होना है, तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। यह कातिलाना विशालकाय असल में हमारी तरफ़ है। कमाल है, तुम्हें इससे तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मान
ो, यार। यह डरी हुई है क्योंकि तुम्हारा चाचा एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? फाटक से बाहर निकलने के बाद, पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। ग्रॉग, तुमसे प्यार करती हूँ, पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। और जब तक कोई हर्ड को ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? ऐसे लग रहा है उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसरे के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। लेकिन अगर मैं गया, तो उतना ही कमज़ोर हूँ जितना वह कहते थे। नहीं। ज़ोर से मारने से या बड़ा होने से कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। लेकिन, अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? वेस्ट्रन हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स एक नियम के हिसाब से चलता है। बल के बूते पर जीना, सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। अगर उस सत्ता को कोई चुनौती देता है, तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। इसने बताया कि तुममें से कुछ लोग वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। पर मेरे नेतृत्व पर सवाल उठाने की गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त
नहीं कर सकता। अगर यहाँ कोई सोचता है कि वह मुझसे बेहतर नेतृत्व कर सकता है, तो सामने आओ। इसी वक़्त। क्या कोई भी थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षकअशोक बक्षी
‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪मैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं ‪मैं तुमसे
मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नहीं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या है, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है।
‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा ‪सहकर्मी, पेशेवर ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं ‪प्रिंसिपल? ‪मैं ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪हैलो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि!
‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता ह
ै। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब ‪किसी को लग सकता है ‪हावी, रुको। ‪हाविएर। रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जाती हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी च
िंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪मैंने खत्म कर दी। ‪आ रहा हूँ! ‪NETFLIX ओरिजिनल सीरीज़ ‪"सोफ़िया।" ‪"सच में?" ‪"एक मुखौटा?" ‪"मुझे लगा तुम कुछ अनोखा करोगे।" ‪"मेरा मतलब, तुम्हारे अहंकार के कारण।" ‪"क्या तुम मुझे जानती हो?" ‪"यह सच नहीं है।" ‪"क्या तुम पता लगाने से डरती हो?" ‪"नहीं, मैं तुम्हें नहीं जानती।" ‪"मैं तुम्हें नहीं ढूँढ पा रही।" ‪"हम इतने करीब रहे हैं।" ‪"नहीं, यह सच नहीं है।" ‪"मैं तुम्हारे बहुत करीब रहा हूँ।" ‪"तुम इसकी पुष्टि करने से डरती हो।" ‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪क्या आप मुझे बताएँगी ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪सोफ़ी, मुझे खुद ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪अस्पताल से सीधे स्कूल, ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪अगर तुम लुईस से मिलने आए हो, ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪म
ैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ... ‪बदलना चाहता हूँ जो मैंने ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪जब तुम्हें पता चले, ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪तुमने कहा था तुम उसकी ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪भले ही यह जानबूझकर ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪मैं उसे कईयों से ज़्यादा पसंद ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪ऐसा लगता है ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪नहीं, यह ऐसा नहीं है ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪माफ़ करना, घर पहुँचने पर मुझे बहुत चक्कर ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪"बनी तुम्हारे बहुत करीब है।" ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪मारिया, तुम्हें उसे ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪उसके साथ मेरी समस्याओं ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪हमें प्रोजेक्टर स्थापित ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪हाँ, किया था, ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪और मैंने संदेश भेजने की कोशिश की, ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪सोफ़िया, मुझे मेरा काम ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪अरे, मैं तुमसे ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं... ‪मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪वही खाता जहाँ मैंने ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नही
ं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪मैंने तुम्हें पैसे दे दिए ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪क्योंकि वह मेरी ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪कम से कम मैं ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪उस स्थिति के कारण ‪जिसका हम सामना कर रहे हैं, ‪मुझे कठोर कदम लेने की जरूरत महसूस हुई, ‪जैसे स्कूल परिसर में मोबाइल के इस्तेमाल ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪इसके अलावा, एहतियाती उपाय के रूप में, ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪और अंत में, मैं बताना चाहता था ‪कि हम उस व्यक्ति या लोगों को पकड़ने के लिए ‪बहुत व्यापक छानबीन करेंगे, ‪जो हाल ही में हुई ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪शांति। आइए कुछ सवालों ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी को औद्योगिक जैव ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪नई सामग्री बनाई जाती है, ‪जैसे सड़नशील प्लास्टिक, ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं... ‪रोसिता, क्या तुम पूरी कक्षा ‪को बताओगी तुम क्या बात कर रही हो ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪दोस्तों, मुझे पता है यह तुम्हारे लिए ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या ह
ै, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य... ‪इसका उपयोग ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब... ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है। ‪खैर, मैं आपके आने की सराहना ‪करता हूँ, और अगर कोई और सवाल न हो, ‪मैं आपकी सेवा में हूँ ‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪नोरा, मेरे दिमाग ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪तुम आखिरी चीज़ हो ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪उनमें से एक की मौत हो गई ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪क्या तुम जानती हो हाविएर ने साल ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪जब तुमने बाथरूम में मेरा ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪उच्च प्रदर्शन केंद्र ‪"हाविएर इस टीम का कप्तान था।" ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪और हाविएर ने कभी भी अपने ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं... ‪मुझे मातापिता की मीटिंग की चिंता थी ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪इसके अलावा, ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और... ‪सोफ़िया की माँ ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪लेकिन मान लेते हैं कि गुएरो ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा... ‪देखो, तुम और मैं सहकर्मी हैं, ‪सहकर्मी, पेशेवर... ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं... ‪प्रिंसिपल? ‪मैं... ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪है
लो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪हाँ, पर सच कहूँ, मुझे नहीं लगता ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪अगर मैं तुम होती, ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪हम उस लड़के के दोस्त हैं ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪वह नहीं जानती वह ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं... ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि! ‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था... ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪मैं उससे कह रहा था ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪मैं नहीं चाहता तुम ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪यह वही है जो हमें ख़ास बनाता है ‪और तुम उस मौके ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪तुमने उनके चेहरे ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध
्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪और वह नौसिखियों ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪हाविएर को विचार आए, ‪उन्होंने उनको रिकॉर्ड किया, ‪और फिर उन्होंने ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪"कूद! कूदो, कमीने!" ‪देखो, हाविएर अच्छा बर्ताव ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪उन्होंने बिना मानहानि के उसे ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪और उन्होंने विडियो ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪यह मत भूलो ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪जो हाविएर ने विडियो ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता है। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪लेकिन वह मुझे ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪देखो, सोफ़िया, मुझे पता है ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है... ‪कि कोई वह नहीं है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪मुझे नहीं पता था कि मेरे पिताजी ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪यहाँ तक कि मेरे स्तन ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪मुझे सच में शक है ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪माइनर लीग में दुखद दुर्घटना ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪देखो, हम जानते हैं तुमने क्या किया, ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मैंने उसे कूदने के लिए ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब... ‪किसी को लग सकता है... ‪हावी, रुको। ‪हाविएर।
रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪खैर, मैं बस तुम्हें बताना चाहता हूँ ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪उसने अभी तक ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪तुम्हें अभी भी लगता है ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪अगर तुम्हें कभी भी, किसी भी चीज़ ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪मुझे समझ नहीं आता ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪हर बीतते दिन के साथ, ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस... ‪वह जितना दिखता है, ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी... ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मैंने देखा तुम एक लड़के के साथ ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪मुझे ऐसा लगता है ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जात
ी हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम... ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪क्या आप एक बार के लिए मेरे बारे ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪और पता है क्या? आप जितना ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"तुम्हारे पापा ने जो किया..." ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪क्या तुम जानती हो...?" ‪"क्या तुम जानती हो क्या हो सकता है?" ‪"क्या तुम्हारी ‪अपने पिता से अच्छी बनती थी?" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪"अगर तुम्हारे पापा..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"अगर तुम्हारे पिताजी देख सकते..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मेरे पापा मर चुके हैं।" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪"मेरे पापा कहते थे ‪कि ये छोटी चीज़ें जादुई हैं।" ‪"इसलिए तुम बोर नहीं होती।" ‪मैंने खत्म कर दी। ‪"तुम्हारे पापा की पसंदीदा किताब।" ‪वहाँ पहुँचकर मैं खबर कर दूँगी। " ‪"कितना कमीना है।" ‪"क्या तुम जानती हो ‪इसका खुलासा होने पर क्या होगा, सोफ़ी?" ‪"हाँ, मैं जानती हूँ।" ‪"अगर तुम्हारी माँ को पता चल गया, ‪तो वह तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगी।" ‪@_ऑलयौरसीक्रेट्स ‪मैं तुम्हारा राज़ जानता हूँ ‪"मैं क्या सोच रहा था? मूर्ख!" ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪आ रहा हूँ! ‪संवाद अनुवादक: नीना किस
और फिर नैना अविनाश के पास आकर बोलती हैं, " हां अवि, अब बोलो क्या हुआ, कुछ काम था क्या तुम्हें" , अविनाश उसकी बात सुनकर हंसता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " काम और मुझे , नहीं तो मैं तो यहां पर तुम्हें तुम्हारे काम से ही बुलाया था" , " मेरे काम से लेकिन मेरा कौन सा काम हैं जिसके लिए तुमने मुझे ही बुलाया हैं यहां पर" , नैना ने चौंकते हुए पूछा, " लगता हैं तुम भूल गई नैना, कल तुमने ही तो कहा था की तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलना हैं, और आज तुम अपनी ही बोली गई बात को भूल गई हो, क्या नैना तुम भी ना" , सूरज ने नैना से कहा, " अरे हां मैं तो भूल ही गई थी उस बारे में, लेकिन तुम दोनों ने तो कहा था की तुम पहले उस आदमी से बात करोगे उसके बाद ही तुम लोग मुझे उस सुपर हीरो कश्यप से मिलवाओगे" , नैना ने कहा, " हां उस आदमी ने बोल दिया हैं और वो उस सुपर हीरो से तुम्हें आज ही मिलवा देगा" , अविनाश ने कहा, " क्या सच में उसने मुझसे मिलने के लिए हां बोल दिया हैं" , नैना ने जोर से चिल्लाते हुए क्लास रूम में सबके सामने कहा, " तुम क्या कर रही हो नैना, इसमें इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं, तुम ये बात धीरे से भी तो बोल सकती हो ना" , अविनाश ने कहा, " हां, वही तो, इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं" , सूरज ने कहा, उसके बाद नैना अपने आस पास क्लास रूम में देखती हैं, जहां पर बाकी के स्टूडेंट भी उसे ही देख रहे थे, क्योंकि नैना ने इतनी जोर से चिल्लाते हुए जो बोला था, और फिर वो धीरे से बोलती हैं, " सॉरी वो मैं कुछ ज्यादा ही एक्साइटेड हो गई थी, इसलिए अपनी खुशी को कंट्रोल नहीं कर पाई" , " अब मेरी बात ध्यान से सुनो, तुम्हें वो सुपर हीरो कश्यप आज शाम को उसी स्कूल में मिलेगा जिसमें कुछ दिनों पहले उन अपराधियों ने उन छोटे बच्चों को कैद करके रखा हुआ था, और तुम वहां पर शाम को ठीक पांच बजे उस स्कूल में पहुंच जाना, और हां ये बात किसी और को बिलकुल भी मत बताना की तुम आज उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने वाली हो, ठीक हैं " , अविनाश ने कहा, " हां मैं किसी को भी नहीं बताऊंगी, लेकिन वो स्कूल तो चार बजे के बाद बंद हो जाता हैं, तो फिर मैं अंदर कैसे जाउंगी" , नैना ने कहा, " तुम उसकी चिंता मत करो सूरज तुम्हें वहां पर अंदर लेकर चला जायेगा, बस तुम दोनों टाइम से वहां पर पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं मैं वहां पर पहुंच जाऊंगी, लेकिन तुम दोनों मेरे साथ कोई मजाक तो नहीं कर रहे हो ना, क्योंकि मुझे मज़ाक बिलकुल भी पसंद नहीं हैं" , नैना ने कहा, " मज़ाक, तुम्हें ये सब मजाक लग रहा हैं, एक तो हम दोनों इतनी मेहनत करके उस सुपर हीरो को तुमसे मिलने के लिए मना रहे हैं और एक तुम हो की तुम्हें हम दोनों की मेहनत मजाक लग रही हैं, ठीक हैं अगर तुम्हें हम दोनों पर अब भी भरोसा नहीं हैं तो तुम हम दोनों से अभी इसी वक्त दोस्ती तोड़ कर यहां से जा सकती हो, हम तुम्हें बिलकुल भी नहीं रोकेंगे", अविनाश ने थोड़े गुस्से में आकर कहा, " नहीं ऐसी बात
नहीं हैं अवि, मुझे तुम दोनों पर पूरा भरोसा हैं, लेकिन वो क्या हैं न की मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं,की सुपर हीरो कश्यप मुझसे मिलने के लिए तैयार हो गया हैं, इसलिए मैंने ऐसा बोल दिया" , नैना ने कहा, " चलो ठीक हैं अब तुम अपनी सीट पर जाकर बैठो, और जब कॉलेज की छुट्टी हो जायेगी तब तुम सूरज के साथ वहां पर उस स्कूल में पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं अवि मैं वहां पर टाइम से पहुंच जाऊंगी, और तुम दोनों ने मेरे लिए इतना सब किया उसके लिए थैंक्स", नैना के कहा और फिर अपने सीट पर जाकर बैठ गई, उसके थोड़ी देर के बाद क्लास रूम में प्रोफेसर आ जाते हैं और फिर वो सभी स्टूडेंट्स की अटेंडेंस लेने लगते हैं, और इधर कैप्टेन स्पाइक अपने उस न्यूज चैनल के ऑफिस में मौजूद हैं और फिर अपने उस नए शो के बारे में सोच रहा हैं, जिसमें गेस्ट के तौर पर उस सुपर हीरो कश्यप को रखने वाले थे लेकिन अब तक उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता नहीं चला था और कैप्टेन स्पाइक अपने केबिन में बैठ कर उसी के बारे में सोच रहा था, की तभी उसके केबिन में एक चपरासी अंदर आता हैं, और उससे बोलता हैं, " सर आपको मनीष सर ने अपने केबिन में बुलाया हैं" , " ठीक हैं, तुम जाओ और उनको बोल दो की मैं आ रहा हूं," कैप्टेन स्पाइक ने उस चपरासी से कहा, उसके बाद कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश चैनल हेड मनीष कुमार के केबिन में जाता हैं, और वहां जाकर वो देखता हैं कि वहां पर पहले से ही रिपोर्टर रिमा मौजूद थी, और फिर वहां पर जाते ही सतीश मनीष से पूछता हैं, " आपने मुझे बुलाया , कुछ जरूरी काम था क्या" , " हां, वो उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता चला की नहीं" , मनीष ने कहा, "नहीं सर, अभी तक तो उसका कुछ पता नहीं चला" , सतीश ने कहा, " क्या, तुम्हें अभी तक वो सुपर
हीरो कश्यप नहीं मिला, अब उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह से मैं क्या बोलूंगा, जिसने हमारे चैनल के नए शो को स्पॉन्सर करने के लिए उतने पैसे दिए थे,और उन्होंने तो हमारे चैनल के साथ डील भी साइन कर लिया हैं, अब हम क्या करे" , मनीष ने कहा, मनीष की बात सुनकर कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश और रिपोर्टर रिमा उदास होकर वहीं पर खड़े रहते हैं, और अपनी नज़रें नीचे झुकाए हुए रहते हैं क्योंकि उनके पास और कोई चारा नहीं था, की तभी रिपोर्टर रिमा अपने दिमाग में कुछ सोचने लगती हैं, और फिर मुस्कुराते हुए मनीष से बोलती हैं, " सर क्या आप कभी उस सुपर हीरो कश्यप से मिले हैं", " नहीं", मनीष ने कहा उदास होकर कहा, " क्या आपने उससे बातें की हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " जब मैं उससे कभी मिला नहीं तो उससे बात कैसे कर सकता हूं, और तुम भी क्या बकवास की बातें कर रही हो, क्या हो गया हैं तुम्हें" , मनीष ने कहा, " एक मिनट सर" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात सुनकर चुप हो जाता हैं, क्योंकि उसके पास अभी कोई आइडिया नहीं आ रहा था, इसलिए वो चुप हो जाता हैं, " क्या तुमने उस सुपर हीरो कश्यप को देखा हैं, सतीश" , रिमा ने सतीश से पूछा, " नहीं, क्योंकि वो अपने चेहरे पर मास्क लगा कर रखता हैं" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने दबी हुई आवाज में रिमा से कहा, वैसे तो कैप्टेन स्पाइक ने उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश को अपने इसी ऑफिस में देखा था, लेकिन उसने रिमा को झूठ बोल दिया, क्योंकि अगर वो बोल देता की उसने देखा हैं, तो सब लोग उसके पीछे पड़ जाते, और उसे अपने चैनल के शो में लाने के लिए बोलते, " बिलकुल सही कहा तुमने, किसी ने भी उसे नहीं देखा हैं,और ना ही किसी ने उससे बात की हैं क्योंकि वो सभी लोगों की मदद करने के बाद वहां से चला जाता हैं, तो फिर हमें इस बात का एडवांटेज लेना चाहिए" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात ध्यान से सुनता रहता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " एडवांटेज, लेकिन कैसा एडवांटेज" , " अगर हम असली सुपर हीरो कश्यप की जगह पर किसी और को मास्क लगा कर अपने शो में चीफ गेस्ट बनाकर ले आए तो उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह जिसने हमारे शो को स्पॉन्सर कर रहा हैं, उसको थोड़े ही पता चलेगा की मास्क के पीछे कौन हैं, अपने ऑफिस में से ही किसी को बना देते हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " लेकिन हमारे ऑफिस में कौन होगा जिसको हम सब सुपर हीरो कश्यप बना सके" , मनीष ने कहा, " वो तो हमारे सामने ही हैं, सर " , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " सामने, लेकिन कौन रिमा?" , मनीष ने पूछा, " सतीश, और कौन?" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, रिमा की बात सुनकर सतीश चौंक जाता हैं, और बोलता हैं, " क्या , मैं...., लेकिन मैं कैसे बन सकता हूं" , " हां, तुम सतीश और तुम्हारी तो हाइट भी उसके जितनी ही हैं, तो तुम ही बन जाओ ना" , रिमा ने कहा, ये बात सुनकर सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक अपने मन में सोचने लगता हैं, " ये कहा आकर फंस गया हूं मैं, मैं जिसे खोजने और फिर उस इं
द्र कवच को उससे छीनने के लिए यहां पर आया था, मुझे उसके ही तरह के कपड़े पहनकर उसकी एक्टिंग करनी पड़ रही हैं" , " क्या सोच रहे हो सतीश, रिमा जो कह रही हैं वो बिल्कुल सही कह रही हैं, नकली ही सही तुम उसकी जगह पर रहकर आम जनता के सारे सवालों के जवाब दे सकते हो" , मनीष ने कहा, " अगर आपको ये सब सही लग रहा हैं तो ठीक हैं, ऐसा ही सही, मैं उस सुपर हीरो कश्यप की जगह पर मास्क लगा उस शो में चीफ गेस्ट बनकर बैठ जाऊंगा" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने कहा, उधर कैप्टेन स्पाइक अपने चैनल के उस नए शो में उस सुपर हीरो कश्यप बनकर उसकी जगह पर मास्क लगा कर बैठने को तैयार था और इधर अविनाश के कॉलेज की सारी क्लासेस खत्म हो चुकी हैं और कॉलेज में छुट्टी हो चुकी हैं और सारे स्टूडेंट्स अपने घर पर जा रहे हैं,और अविनाश अपने कॉलेज के गेट से बाहर निकल रहा हैं और उसके साथ उसका दोस्त सूरज भी होता हैं, और दोनों आपस में कुछ बात कर रहे होते हैं की तभी उसको नैना सामने से आती हुई दिखाई देती हैं, और फिर अविनाश सूरज से बोलता हैं, " चुप हो जा, वो देख नैना आ रही हैं, उसके सामने इस बात का जिक्र मत करना", " ठीक हैं" , सूरज ने कहा, " मैं रेडी हूं, अब चले, वरना देर हो गई और वो वहां पर आकर चला गया तो फिर मैं उससे कैसे मिलूंगी", नैना ने कहा, " हीरो अभी वहां पर गया ही नहीं हैं तो फिर भागेगा कैसे" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " क्या....., तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, "कुछ नहीं नैना, अब चलो वरना लेट हो जायेंगे, क्योंकि आज बस की स्ट्राइक भी हैं, तो हम दोनों को वहां पर पैदल ही जाना पड़ेगा, ना" , सूरज ने नैना से कहा, " उससे मुझे क्या, मेरे पास तो मेरी कार हैं न, हम लोग उस स्कूल में मेरी कार से ही चले जायेंगे" , नैना ने कह
ा, " क्या तुम्हारे पास अपनी पर्सनल कार हैं, लेकिन तुम तो रोज बस से आती थी ना कॉलेज", अविनाश ने कहा, " बस से, नहीं तो मैं तो रोज अपनी कार से ही आती जाती हूं, हां वो कभी कभार दोस्तों के साथ कहीं आस पास किसी रेस्टोरेंट में जाना होता हैं तो उसके लिए टैक्सी या फिर बस से उन लोगों के साथ चली जाती हूं" , नैना ने कहा, " लेकिन उस दिन जब उस स्कूल में उन अपराधियों ने उन बच्चों को कैद करके रखा था और तुमने मुझे बताया था की तुमने उस स्कूल के बाहर भीड़ को देखा था तब तो तुम अपनी दोस्त के साथ पैदल ही जा रही थी" , अविनाश ने कहा, " अच्छा उस दिन , उस दिन तो मेरी कार खराब थी इसलिए मैं कॉलेज में बिना कार के ही पहुंच गई थी, और फिर छुट्टी में मेरी एक दोस्त ने कहा था की उसके साथ चलकर कुछ शॉपिंग करने के लिए चलने के लिए इसलिए मैं उसके साथ पैदल जा रही थी, लेकिन मैं उस दिन पैदल जा रही थी ये तुम्हें कैसे पता चला, हमम क्या तुम मुझ पे नजर रखे हुए थे क्या" , नैना ने कहा, " नहीं वो तो मैं बस ऐसे ही सूरज के साथ बात करते हुए जा रहा था की तभी तुम्हें कॉलेज से जाते हुए देखा था, बस और कुछ नहीं" , अविनाश ने कहा, " अरे अवि मैं तो बस ऐसे ही बोल रही थी, और तुमने सीरियस ले लिया" , नैना ने कहा, उसके बाद सूरज ने देखा की माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहीं हैं तो उसने बात बदलते हुए कहा, " अरे अब बातें ही करते रहोगे या फिर उस स्कूल में चलोगे भी" , " हां रुको मैं यहीं पर ड्राइवर को बुला लेती हूं कार लेकर" , नैना ने कहा और फिर अपने जींस से अपना मोबाइल निकाल कर कॉल करने लगी, थोड़ी देर के बाद ड्राइवर कार लेकर आ जाता हैं और फिर नैना अपने कार का गेट खोलते हुए बोलती हैं, " चलो अवि, सूरज जल्दी से आ जाओ" , उसके बाद सूरज अंदर कार में बैठ जाता हैं और फिर नैना अविनाश की तरफ देखते हुए बोलती हैं, " चलो अवि आओ जल्दी से" , फिर सूरज नैना से बोलता हैं, " अरे नैना वो नहीं आएगा हम लोगों के साथ" " क्यों, वो क्यों नहीं आएगा, वो नहीं मिलेगा क्या उस सुपर हीरो कश्यप से" , नैना ने कहा, " उसे मिलने की क्या जरूरत हैं, वो खुद से कैसे मिलेगा" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, " अरे नैना उसे उस आदमी से काम हैं जिसने उस सुपर हीरो से तुम्हें मिलवाने के लिए बोला था , इसलिए वो अभी उसी के पास जायेगा, तुम उसे छोड़ो और हम दोनों जल्दी से चलो उस स्कूल में" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं, हम चलते हैं, अच्छा अवि जब तुम्हारा काम हो जाए तो तुम वहां पर उस स्कूल में जरूर आना, उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के लिए" , " ठीक हैं नैना मैं अपना काम खत्म करके वहां पर आ जाऊंगा, अब तुम लोग जाओ" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं हम लोग अब जाते हैं, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट कीजिए और यहां से चलिए जहां पर मैं बताती हूं" , नैना ने कहा और फिर उसकी गाड़ी वहां से चली जाती हैं, उसके बाद अविनाश थोड़ी दूर तक ऐसे ही पैदल चलने लगता हैं, और फिर एक सुनसान स
ी जगह देख कर वहां पर जाकर अपने बैग से उस सूट और मास्क को बाहर निकाल लेता हैं और फिर अपने कपड़े उतार कर उन सब को उसी बैग में रख देता हैं और फिर उस सुपर हीरो कश्यप वाले उस सूट और मास्क को अपने शरीर और चेहरे पर पहन लेता हैं, और फिर अपने बैग का चैन बंद करके उसे अपनी पीठ पर टांग लेता हैं और फिर उस सुनसान जगह से उपर हवा में उड़ते हुए उस जगह से स्कूल की तरफ जाने लगता हैं, और फिर थोड़ी देर के बाद अविनाश उस स्कूल की बिल्डिंग के सबसे ऊपर वाली मंजिल के छत पर उतर जाता हैं और सूरज और नैना के वहां पर आने का इंतजार करने लगता हैं, और फिर दस मिनट के बाद नैना की कार उस स्कूल के पास आकर रुकती हैं, और फिर वापस से वो कार चलने लगती हैं और फिर वो कार उस स्कूल के पीछे जाकर रुकती हैं, और फिर उस कार से नैना और सूरज बाहर निकलते हैं, और ये सारा नजारा अविनाश उस स्कूल की चार मंजिला इमारत के उपर की छत से देख रहा था, जैसे ही नैना उस स्कूल के पीछे पहुंच कर अपने कार से बाहर आती हैं तो सूरज से पूछती हैं, " सूरज तुमने मुझे स्कूल के पीछे क्यों लेकर आए हो, हम लोग स्कूल के मेन गेट से भी तो अंदर जा सकते थे न" , " हां जा तो सकते थे लेकिन चार बजे तक ही, क्योंकि ये स्कूल चार बजे तक ही खुला रहता हैं, उसके बाद स्कूल के बच्चों की छुट्टी हो जाती हैं और फिर ये स्कूल का गेट बंद हो जाता हैं, और अभी चार बजके तीस मिनट हो रहे हैं, इसलिए हम दोनों को पीछे के रास्ते से ही अंदर जाना पड़ेगा, सो चलो अब", सूरज ने कहा, " ये दीवार तो ऊंची हैं, मैं कैसे जा पाऊंगी यहां से अंदर" , नैना ने कहा, " हमें यहीं से अंदर जाना पड़ेगा नैना, क्योंकि वो देखो, सिर्फ इसी जगह पर दीवार टूटी हुई हैं और बाकी की दीवार तो उससे भी ऊंची हैं, एक काम करो तुम मेरी
पीठ पर अपना पैर रखकर अंदर कूद जाओ" , सूरज ने कहा, " और फिर तुम अंदर कैसे आओगे, जब मैं अंदर चली जाऊंगी तब" , नैना ने कहा, " उसकी चिंता तुम मत करो नैना , हम लड़के तो इससे भी ऊंची ऊंची दीवारों को लांघ कर अपने स्कूल से भाग जाते हैं, और फिर उन सब के मुकाबले तो ये दीवार छोटी हैं," , सूरज ने कहा, " अच्छा ऐसा क्या, मुझे तो ये सारी बातें पता ही नहीं थी", नैना ने कहा, " अच्छा वो सब छोड़ो अब मैं नीचे झुक रहा हूं , अब तुम मेरी पीठ के उपर चढकर दीवार को फांद कर दूसरी तरफ चली जाओ" , इतना बोलते ही सूरज जमीन पर झुक जाता हैं, और फिर नैना उसकी पीठ पर चढ़ कर स्कूल की दीवार के दूसरी तरफ चली जाती हैं, और फिर उसके जाने के बाद सूरज भी उस दीवार को फांद कर उस तरफ चला जाता हैं, उसके बाद सूरज और नैना दोनों उस स्कूल की बिल्डिंग के अंदर जाने लगते हैं, उस स्कूल के अंदर की बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर पर कोई भी गेट नहीं लगा हुआ था , क्योंकि गेट सिर्फ स्कूल की मेन गेट पर ही लगा था, और फिर दोनों उस स्कूल के अंदर जाने लगते हैं, और फिर अंदर जाने के बाद जब सूरज उपर सीढ़ियों की तरफ जाने लगता हैं तो नैना उससे पूछती हैं, " अरे सूरज उपर कहां पर जा रहे हो, क्या हम दोनों को उपर जाना हैं" , " हां नैना , हमें उपर इस बिल्डिंग की छत पर जाना हैं, क्योंकि सुपर हीरो कश्यप वहीं पर आने वाला हैं तुमसे मिलने के लिए" , " अच्छा ऐसी बात हैं क्या, तो फिर चलो" , नैना ने कहा और फिर सूरज और नैना उपर छत पर जाने लगते हैं, और फिर जब दोनों उपर चढकर छत पर जाते हैं तो देखते हैं की वहां पर सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश सूट पहन कर वहां पर पहले से ही खड़ा था, नैना सुपर हीरो कश्यप को देख कर खुश हो जाती हैं, और फिर सुपर हीरो कश्यप के पास जाकर बोलती हैं, " ओह माय गॉड, क्या सच में ये तुम हो, सुपर हीरो कश्यप", और उधर नैना को उपर छत पर छोड़ कर सूरज वहां से वापस नीचे जाने लगता हैं, " हां मैं ही हूं सुपर हीरो कश्यप, तुम सब का हीरो" , अविनाश ने कहा, " लेकिन मुझे तुम्हारे ऊपर शक हो रहा हैं, क्योंकि सुपर हीरो तो कहीं भी अपना काम करने के बाद रुकता नहीं हैं, और वो तो उड़ भी सकता हैं" , नैना ने कहा, " अच्छा तो तुम्हें लगता हैं की मैं असली नहीं नकली सुपर हीरो कश्यप हूं, तो फिर ठीक हैं मैं यहां से चलता हूं" , इतना बोलते ही अविनाश वहां से हवा में धीरे धीरे उपर उड़ने लगता हैं, और फिर उस छत से दस पंद्रह फिट ऊपर हवा में उड़ने लगता हैं, " नहीं मत जाओ सुपर हीरो, मुझे तुम पर विश्वास हो गया हैं की तुम ही असली वाले सुपर हीरो कश्यप हो , कोई नकली वाले नहीं" , नैना ने कहा, " लेकिन तुम सच में मुझ से मिलने के लिए यहां पर आ गए, मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं, सच में अविनाश ने सच ही कहा था, लेकिन तुम अविनाश को कैसे जानते हो, और तुम दोनों की दोस्ती कैसे हुई थी", नैना ने कहा, अविनाश नैना के इस सवाल पूछने पर सोच में पड़ गया और फिर नैना से झूठ बोलते हु
ए कहता हैं, " मैं उसे पर्सनली तो नहीं जानता हूं लेकिन उस दिन जब उस दानव ने शहर में आतंक मचा रखा था, तभी मैंने उसे पहली बार देखा था जब वो वहां उस मार्केट में फंसे हुए लोगों की उस दानव से दूर भागने में मदद कर रहा था, तभी मैं समझ गया था की वो दिल का नेक इंसान हैं और लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हैं, और जब वो दानव से लोगों को बचा रहा था तभी उस दानव ने उस पर हमला करने की कोशिश की थी , तभी मैंने उसे बचाया था और तभी से मैं उसे जानता हूं " , अविनाश ने कहा, " ओ अच्छा ऐसी बात हैं, वैसे सच में वो नेक और सच्चे दिल का इंसान हैं" , नैना ने कहा, अविनाश अपनी तारीफ नैना के मुंह से सुनते हुए अपने मास्क के अंदर ही मुस्कुरा रहा था , लेकिन चेहरे पर मास्क लगे होने के कारण नैना को उसकी मुस्कान दिखाई नहीं दी, " वैसे क्या मैं आपसे एक पर्सनल बात पूछ सकती हूं अगर आप बुरा न मानो तो" , नैना ने कहा, " हां हां पूछो, मुझे क्यों बुरा लगेगा" , अविनाश ने कहा, " क्या आपकी कोई गर्ल फ्रेंड हैं" , नैना ने कहा, " नहीं तो मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हैं, लेकिन तुम ये बात क्यों पूछ रहीं हो" , अविनाश ने कहा, " नहीं कुछ खास नहीं, वो बस कैजुअली पूछ लिया था मैंने" , नैना ने कहा, उसके बाद अविनाश ने सोचा की यही मौका हैं की नैना से उसके दिल की बात जानने का, उसके बाद अविनाश ने नैना से पूछा, " तुम उस लड़के क्या नाम था उसका...... हां, अविनाश उसको कैसे जानती हो" , " अविनाश...., वो तो मेरे ही कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता हैं, और तो और हम दोनों ने एक ही स्ट्रीम में एडमिशन लिया हैं, यानी की साइंस, और तो और हम दोनों एक ही क्लास रूम भी सेम ही हैं" , नैना ने कहा, " उसके बारे में इतने डिटेल्स में बता रहीं हो, और उसने भी मुझे तुम
से मिलने के लिए इतनी रिक्वेस्ट की थी की मत पूछो क्या बताऊं , मैं तो उसे मना करता रहा, लेकिन उसने आखिरी में मुझे तुमसे मिलने के लिए मना ही लिया था तभी मुझे लगा था की कहीं तुम्हारे और उसके बीच में कुछ......" , इतना बोलकर अविनाश रुक जाता हैं, और फिर नैना की तरफ उसके फेस का एक्सप्रेशन देखने लगता हैं, " , अविनाश ने कहा, " नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं, हम दोनों के बीच अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हैं, और लेकिन,क्या सच में उसने आपको मुझसे मिलने के लिए रिक्वेस्ट किया था" , नैना ने कहा, " हां किया था, और तुम अभी कुछ बोल रही थी लेकिन...., लेकिन क्या इसके आगे भी तो कुछ बोलो" , अविनाश ने कहा, " एक्चुअली मैं तो उसे लाइक करती हूं लेकिन वो मुझे लाइक करता हैं की नहीं ये मुझे नहीं पता हैं, इसलिए अभी तक मैं थोड़ी टेंशन में हूं, और मुझे तो डर भी लगता हैं की अगर मैंने उसे अपने दिल की बात बता दूंगी, और उसे ये बात अच्छी नहीं लगी और उसने मुझसे दोस्ती भी तोड़ दी तो फिर मैं क्या करूंगी, बस इसी बात को सोच कर मैं थोड़ी टेंशन में रहती हूं" , नैना ने कहा, अविनाश ने जैसे ही सुना की नैना भी उसे पसंद करती हैं तो उसके मन में लड्डू फ़ूटने लगते हैं, और वो अपने मन ने सोचने लगता हैं, " अरे यार मैं तो बेकार में ही टेंशन ले रहा था की नैना मुझसे प्यार नहीं करती हैं, अरे इधर तो सेम टू सेम कहानी हैं, ये भी मुझसे प्यार करती हैं लेकिन मुझसे कहने से डरती हैं क्योंकि इसे भी लगता हैं की कहीं मैं इसकी बात सुनकर नाराज न हो जाऊं और इससे दोस्ती न तोड़ दूं" , की तभी नैना उसे चुप चाप खड़े देख कर अविनाश से बोलती हैं, " आप क्या सोचने लगे" , " कुछ नहीं मैं बस यहीं सोच रहा था की जो लड़का तुम्हें मुझसे मिलवाने के लिए मुझसे इतनी शिफारिश कर सकता हैं, उसके दिल में भी तुम्हारे लिए कुछ न कुछ फीलिंग्स तो जरूर होंगी, अब तुम ही मुझे सोच कर बताओ की क्या उसने तुम्हारे लिए इससे पहले भी कुछ काम किया हैं, जिससे ये पता चले की वो तुम्हारी केयर करता हैं, ज़रा अच्छे से सोच कर मुझे बताना" , अविनाश ने कहा, " उसके बाद नैना अविनाश के बारे में सोचने लगती हैं, जब अविनाश ने उसके लिए कुछ काम किया हो, पर फिर वो अपने मन में सोचने लगती हैं कि कैसे उसने उस सीनियर से बचाया था जब उस सीनियर ने उसे धक्का देकर गिराने की कोशिश की थी, और फिर वो रात के आठ बजे उससे मिलने के लिए उस चटकारा रेस्टोरेंट में आया था और फिर उसके साथ पैदल ही उसके घर तक छोड़ने के लिए गया था, और फिर आज उसने उसका सपना यानी की उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने का सपना भी उसके एक बार बोलने पर ही पूरा कर दिया और सुपर हीरो कश्यप से उसके लिए रिक्वेस्ट भी की थी, इतनी सारी बातें सोचने के बाद नैना के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती हैं और फिर वो उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश से बोलती हैं, " हां वो केयर तो करता हैं मेरी और जब जब मैंने उससे मदद मांगी हैं, उसने मेरी मदद की हैं" , " हां, इसका साफ मतलब ह
ैं की वो भी तुम्हें लाइक करता हैं, और तुमसे प्यार भी करता हैं" , अविनाश ने कहा, " लेकिन उसने ये बात मुझसे क्यों नहीं कही, की वो मुझे पसंद करता हैं, वो भी तो बोल सकता था ना ये बात मुझसे" , नैना ने कहा, फिर अविनाश ने सिचुएशन को संभालते हुए कहा, " जिस तरह से तुम उसे खोने से डरती हो और उससे ये बात नहीं बोल सकी ठीक उसी तरह से शायद वो भी ये बात बोलने से डरता होगा, और उसे भी लगता होगा की अगर उसने तुमसे अपने दिल की बात बोल दी तो शायद तुम उससे बात करना छोड़ दोगी और उससे दोस्ती भी तोड़ दोगी" , " लेकिन आप ये बात इतने श्योर होकर कैसे बोल सकते हैं की वो भी मुझसे प्यार करता होगा" , नैना ने कहा, " जिस तरह से तुम लड़कियां दूसरी लड़कियों के मन की बात जान लेती हो ठीक उसी तरह से हम लड़के भी एक दूसरे की मन की बात जान लेते हैं, और मैं पूरे दावे के साथ ये कह सकता हूं की वो भी तुमसे प्यार करता हैं, बस तुम्हें उसे इस बात का एहसास दिलाना होगा, या फिर तुम्हें किसी भी तरह से उसके मुंह से उसके दिल की बात उससे बुलवानी पड़ेगी, समझी अब ये काम तुम कैसे करोगी ये तो तुम ही जानो" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश के बारे सोचने लगती हैं, और फिर अविनाश उसे इस तरह से सोचते हुए देख कर उससे बोलता हैं, " देखो अब मैं चलता हूं , क्योंकि मुझे लेट हो रहा हैं, अब मैं यहां से जाऊंगा" , उसके बाद नैना अपने ध्यान से बाहर आती हैं और बोलती हैं, " ठीक हैं अब मुझे भी अपने घर चलना चाहिए ,आप मुझसे मिलने के लिए यहां पर आए उसके लिए थैंक यू वेरी मच, और क्या मैं आपको गले लगा सकती हूं सिर्फ एक बार प्लीज...." , " ठीक हैं" , अविनाश ने कहा और फिर नैना उसके पास आती हैं और अविनाश यानी की सुपर हीरो कश्यप के गले लग जाती हैं, " अच्छा जाने
से पहले क्या एक बार मैं आपके साथ एक सेल्फी ले सकती हूं, सिर्फ एक ही लूंगी" , नैना ने कहा, " अच्छा ठीक हैं ले लो लेकिन ये फोटो किसी को दिखाना मत, और कहीं तुमने इस पिक्चर को कहीं सोशल मीडिया में पोस्ट कर दिया और कोई बदमाश तुम्हारे पीछे पड़ गया तो फिर तुम्हारे लिए मुसीबत हो हो जायेगा, इसलिए इस पिक्चर को न ही किसी को दिखाना और न ही कहीं पर पोस्ट करना समझी" , अविनाश ने कहा, " हां हां आपने सही कहा, मैं इसे किसी को नहीं दिखाऊंगी, अब मैं सेल्फी ले लूं" , नैना ने कहा, " हां ठीक हैं, ले लो" , अविनाश ने कहा और उसके इतना बोलते ही नैना सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश के साथ सेल्फी लेने लगती हैं, और फिर सेल्फी लेने के बाद नैना अपने आस पास सूरज को खोजने लगती हैं, लेकिन सूरज वहां पर मौजूद नहीं होता हैं, वो तो वहां पर नीचे उस स्कूल की बाउंड्री के पास खड़ा होता हैं, " क्या हुआ, तुम किसी को खोज रही हो" , अविनाश ने कहा, " हां, वो मेरे साथ मेरा एक फ्रेंड यहां उपर छत पर आया था लेकिन वो अब यहां पर नहीं हैं शायद वो नीचे चला गया हैं" , नैना ने कहा, " कहीं वो तो नहीं" , अविनाश ने अपने हांथ से सूरज की तरफ इशारा करते हुए बोला, फिर नैना ने नीचे सूरज को देख कर बोला , " हां वही हैं", " देखो वो तो नीचे भी चला गया हैं, और अब तुम सीढ़ियों से नीचे उतर कर जाओगी, अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं तुम्हें अपने साथ हवा में उड़ा कर ले जा सकता हूं" , अविनाश ने कहा, " हां ज़रूर, मुझे इसमें बुरा क्यों लगेगा" , नैना ने कहा, " तो ठीक हैं मेरे पास आओ और मुझे कस के गले लग जाओ" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश को कस के गले लगा लेती हैं और फिर अविनाश उसे अपने बाहों में कस के पकड़ लेता हैं और फिर उस छत से उड़ते हुए नीचे आने लगता हैं और फिर सूरज के पास जाकर उतर जाता हैं, नैना ने डर के कारण अपनी आंखे बंद कर रखी थी,और फिर अविनाश ने जमीन पर उतरकर नैना से कहा, " हम लोग नीचे आ चुके हैं" , इतना सुनते ही नैना अपनी आंखें खोलती हैं, और फिर अविनाश से दूर होते हुए बोलती हैं, " थैंक्स" , उसके बाद अविनाश उससे बोलता हैं ," यू आर वेलकम" , और फिर इतना बोलते ही अविनाश वहां से उड़ते हुए वहां से अपने घर चला जाता हैं क्योंकि उसे घर पर भी तो जाना था, जहां पर लेट से पहुंचने पर उसकी सौतेली मां उसे ताने मारने लगती हैं, इसलिए वो उस बिल्डिंग में वापस जाकर अपने सुपर हीरो वाले कपड़े खोल देता हैं और फिर अपने नॉर्मल कपड़े पहन कर वापस अपने घर जाने लगता हैं, और दूसरी तरफ सूरज नैना को जल्दी से उस स्कूल से जाने के लिए बोलने लगता हैं, " नैना यहां से जल्दी से चलो अगर उस स्कूल के चपरासी ने देख लिया तो फिर हम दोनों के लिए दिक्कत हो सकती हैं, इसलिए हम दोनों को जल्दी से यहां से चलना चाहिए" , " लेकिन अविनाश ने मुझे यहां पर मिलने के लिए बोला था, तो मैं उससे बिना मिले कैसे चली जाऊं" , नैना ने कहा, " दरअसल वो तो कब का अपने घर पर पहुंच चुका होगा, उसन
े मुझे थोड़ी देर पहले ही कॉल करके बोला था की वो जिस आदमी से मिलने वाला था, और जिसने तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने दिया था, वो उस आदमी से मिलने के बाद अपने घर पर चला गया था और उसने मुझे तुम्हें ये बात बताने के लिए भी बोला था, और सॉरी भी बोला था, की उसने तुमसे वादा किया था यहां पर मिलने के लिए लेकिन मिल नहीं सका" , सूरज ने कहा, "अच्छा, उसने ऐसा बोला था, लेकिन उसने मुझे कॉल करके क्यों नहीं बोला, उसके पास मेरा नंबर भी तो था ना, वो ये बात मुझे भी तो बोल सकता था कॉल करके" , नैना ने कहा, " हां कर तो सकता था, और उसके पास तुम्हारा नंबर भी था लेकिन उसने ये भी बोला था की वो तुम्हें और उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के दौरान डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था इसलिए" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं अब चलो जल्दी से वरना कोई आ जायेगा " , नैना ने कहा और फिर सूरज की पीठ पर चढ़ कर बाउंड्री पार करके वो दोनों उस स्कूल से बाहर चले जाते हैं और फिर नैना सूरज को अपने कार से ही उसके घर तक उसे छोड़ कर अपने घर पर चली जाती हैं,
amera TerBall de Model Rai anno fa ar MukandminSEMIndant UmdatLundellHukum घर पहुँचकर पता लगा मेरे पतिदेव प्रयाग नहीं आये हैं। दादा आशंका से बेचैन हो गये । सबसे अधिक खतरा लड़ाई के रँगरूटोंमें शामिल हो जाने का था। मेरी सास बीच-बीच में छिप-छिप कर रोया करती थीं। मैं उन्हें समझाती पर उनकी समझ में कैसे आता । बुढ़ापे की इकलौती सन्तान की सुधि की आहट से ही उनकी आखें गीली होने लगती थीं । दादा ने गाँव के लोगों को पत्र लिखेइधर-उधर जो रिश्तेदार थे उन्हें सूचनायें दीं और पता लगाया । आठ-दस दिन के बाद नागपुरसे : सूचना मिली कि वे वहाँ हैं और भाराम से हैं । उन्हें प्रयाग वापस भेजने की चेष्टा की जा रही है। समझाया, बुझाया जा रहा है पर दादा के कारण उनकी लौटने की इच्छा नहीं हो रही । मुझे आश्चर्य हुआ -- दादा को जो संतोष और निश्चिन्तता यह खबर पाकर होनी चाहिए थी वह नहीं हुई । चिट्ठी पाकर वह उल्टे और आग-बबूला हो गये । तरहतरह की उल्टी-सीधी गालियाँ पतिदेव को दे रहे थे और बार-बार अपनी नाक के कट जाने की घोषणा भी कर देते थे। मुझे बाद में सांस से पिता जी का था । वहाँ किसी मिल में 'लेबर श्राफ़ीसर' थे । दादा उनसे बिल्कुल दूर रहना चाहते थे उसी विरोधी और खानदानी प्रतिद्वन्द्वी के घर जाकर उनका लड़का पड़ा रोटियाँ तोड़ रहा है। दिल दुखने की बात थी । पत्र में यह भी लिखा था कि यदि वह अकेले आने को तैयार न हुए तो प्रकाश के साथ उन्हें भेज दिया जायगा । दादा निश्चित रहें - वे बम्बई जाने का हठ अवश्य कर रहे हैं पर बम्बई जाने न पायेंगे !! मेरे ससुर के लिये यह सब असह्य था । न जाने कौन सा मर्मान्तक आक्रोश उन के भीतर वेग से छलछला उठा था । क्या करना चाहिये - क्या नहीं यह वे तय न कर पा रहे थे । मेरी सास से पूछने लगे - 'अब ! अब क्या करना चाहिये । भाग कर गया भी तो कहाँ और किसके यहाँ ! फेल हर साल हुआ करता था । क्या मैं खा जाता ? जिनका अहसान मैं कभी नहीं लेना चाहता उन्हीं शत्रुओं के घर जाकर पड़ा है। और कोई ठौर न मिला । सास को अपार निश्चिन्तता हो रही थी यद्यपि अन्धा आँख पा लेने तक एतवार नहीं कर पाता । उनकी गीली आँखें और रोते हुए उच्छ्वास अब सूख चले थे । बोलीं- 'काहे का अपमान ! वे लोग कोई दूसरे हैं ! अपना ही खून मांस हैं। उनसे पूछ कर जो रुपया उनका किशोर ने खर्च कराया हो वह दे देना। इसमें कंजूसी न करना । प्रकाश बड़। चतुर है । वह जरूर किशोर को लाकर यहाँ छोड़ जायगा । उसके बाप को छुट्टी मिले न मिले पर उसकी छुट्टियाँ होंगी । तुम एक तार दे दो कि वे लोग किशोर को अकेला न छोड़ें । इधर उधर हो गया तो जिन्दगी भर का रोना हो जायगा। मैं मन ही मन फिक्र से मरी जा रही थी । भगवान् ने रक्षा कर ली । अब तुम न बिगाड़ना । दादा ने कहा - 'वह यहाँ आ जाय । मैं कुछ न बोलूँगा। नहीं पढ़ना चाहता न पढ़े, पर घर पर रहे। खाने का बहुत है । बहू पढ़ी-लिखी है । हिसाब-किताब रक्खेगी। मैं ताली ताला सब सौंप कर इन्हीं लोगों पर छोड़ दूँगा । मुझे कुछ कहना सुनना
नहीं ।' जानती थी पतिदेव के लौट आने दादा कितनी फजीहत करेंगे । वे अपनो आदत से लाचार थे । मेरा जी हल्का-फुल्का-सा चारों ओर कूद रहा था। एक बार उनके दर्शन होंगे। दादा की कोर भी कहाँ जाकर दवी ! अब देखती हूँ प्रकाश के साथ किस तरह पेश आयेंगे। मैं रोज उनकी बाट जोहने लगी । पति की मुझे चिन्ता न थी । मैं जानती थी वे केवल दादा के भय से भाग निकले हैं। उनमें पौरुष और साहस नाम मात्र को नहीं । इतना बल उनमें नहीं कि आत्महत्या या अन्य किसी असाधारण काम की आशंका उनकी ओर से की जा सके । मैं कभी यह न सोचती थी कि वह नागपुर भाग जा सकेंगे । लेकिन दादा के भय और नवविवाहिता पत्नी के सामने गाली- अपमान की मर्म-व्यथा से बचने के लिये वह न जाने किस प्रकार भागते हुए नागपुर पहुँच गये थे । संभव है प्रकाश की ओर से अब दादा का भाव बदल जाय । वे न आये । दादा का तार पाकर उनके पिता स्वयं मेरे पति को लेकर आ पहुँचे। मैं जानती थी कितना प्रचण्ड अभिमान उनमें हैं । यदि उतना बड़ा अहं उनमें न होता तो वे इतने ऊँचे कवि न हो पाते । उनके पिता सीधे और लम्बे क़द वाले गैर वर्ण के गठे हुए एक अति विनम्र व्यक्ति ज्ञात हुए । लखनऊ से आने के बाद इस बार भोजन मैं बनाया करती थी, क्योंकि सास को पुत्र की चिन्ता में रोने-धोने से फुर्सत न थी । आने के दिन जब उन्होंने खाना खाया तो थाली के पास दस रुपये रखते हुए बोले- 'बहू ! तुम्हारा नेग है यह । मैंने आज पहले पहल तुम्हारे हाथ की रसोई खाई है ।" बगल में दादा बैठे भोजन कर रहे थे। उन्होंने एक दो बार रोका पर मेरी सास ने दादा को ही रोकते हुए कहा - 'क्या हुआ ? ले लेने दो । छोटे भाई की बहू को दिया जाता है । पर अभी तुमने ( प्रकाश के पिता ) बहू का मुँह नहीं देखा । देखकर देना - जल्दी क्या है। दो चार दिन रहोगे न
।' 'नहीं काकी ! मैं कल मेल से लौट जाऊँगा । प्रकाश से बार-चार कहा ---- 'तू चला जा ! मैं बूढ़ा आदमी काहे को इतनी लम्बी यात्रा करूं ।' पर आज-कल के लड़कों को तुम जानती हो । यों महीनों घूमता रहेगा पर मेरे कहने से एक बार प्रयाग न आ सकेगा। तुम लोगों की घबड़ाहट और चिन्ता का ख्याल था । किशोर वहाँ से कहीं और चला जाता तो तुम मुझे कभी क्षमा न करते । मैं किसी न किसी प्रकार उसे तुम्हारे घर पहुँचाकर अपने कर्तव्य से उऋण होना चाहता था। अब ऐसा करना कि कहीं जाने न पाये । आज कल के लड़की-लड़कों से डर कर चलने में कल्याण है । आठ साल से प्रकाश की शादी के लिये झोंख रहा हूँ पर नहीं करता। कहता है आजीवन अविवाहित रहूँगा - विवाह करूँगा ही नहीं। छोटे लड़के कहते हैं- जब तक बड़े भाई की शादी न होगी हम शादी न करेंगे । इतना बड़ा घर भाँय-भाँय किया करता है । आज-कल छुट्टियों में सब इधर-उधर घूमने चले गये हैं । हम दो प्राणी पड़े-पड़े भाग्य को रोया करते हैं। बहू आती - नाती-पोतों से घर भरता तो हमारी आत्मा ठंडी होती । मेरा कल जाना जरूरी है। प्रकाश की माँ बिल्कुल अकेली है। रुपये उठा ले बहू ! तेरा मुँह देखने की क्या जल्दी है ? जब घर में व्याह कर आई है तब कभी न कभी देख लूँगा ।' दादा ने अपने जनेऊ में बँधी चाँदी की दँतखोदनी से दाँत खोदते हुए कहा -- प्रकाश की शादी अब कर लेनी चाहिये । उमर बढ़ रही है। बाद में मुश्किल पड़ सकती है। कारण कुछ बतलाता है ? तीसपैंतीस वर्ष का होने आया । अच्छी-खासी नौकरी है। कोई कमी नहीं । किताबों और रेडियो वगैरह से हज़ारों रुपये साल में कमाता है ! चालचलन ठीक है न ! तुम्हें कोई शिकायत तो नहीं मिली ।' 'यही शनीमत है। कालेज के बीसों लड़के-लड़कियाँ दिन भर घर घेरे रहते हैं । कभी-कभी मैं परेशान हो जाता हूँ, लेकिन क्या बोलूँ । नाराज़ होकर दूसरा बँगला ले ले और रहने लगे - यह भी सहन नहीं। सारा शहर उसकी तारीफ करता है--कालेज के प्रिन्सिपल और अन्य प्रोफेसर भी । किसी प्रकार का स्केण्डल वहाँ नहीं। उधर के लोग यहाँ वालों की तरह परछिद्रान्वेषण नहीं करते फिरते । प्रकाश कहता है- जिस दिन मन में दुर्बलता अनुभव करूंगा विवाह कर लूँगा । देखना चाहता हूँ कत्र तक अपनी रक्षा कर सकता हूँ ।' मैं बैठी-बैठी सव सुन रही थी। मेरी पीठ उनकी ओर थी - मुँह चौके की थोर ! पतिदेव बाहर गये थे। मैं अपनी सास के साथ जब खाने बैठी तो बोली- 'ये बड़े भले और अपनत्व मानने वाले हैं । कैसे तुम लोग इनकी और इनके लड़कों की इतनी निन्दा करते रहते हो । बेचारे उतनी दूर से तुम्हारे लड़के को यहाँ पहुँचाने आये हैं। तुम लोग कल उनके जाने के बाद फिर उनकी निन्दा शुरू कर दोगे । भगवान् को किसी की अकारण निन्दा और प्रपंच बुरा लगता है। दादा को दूसरों के लड़कों का वैभव और यश भाता नहीं । बेचारे अपनी हीनता में ही सदैव बँधे रहते हैं। पर तुम माँ की जाति की हं । तुम किसी के लड़के की अकारण निन्दा न किया करो.........' प्रकाश के पिता में मुझे असाधारण सौकुमार्य औ
र सुरुचि के दर्शन हुए । पुत्र के सारे संस्कारों का बीज मुझे उनमें दिखाई दिया । कोमल और सुन्दर ललाट पर प्रतिभा की रेखा शोभा पा रही थी । मुद्रा में, चाल-ढाल में सारे व्यक्तित्व में चारित्र्य और गाम्भीर्य का प्रवाह दीखता था जो वाचालता को सुघरता प्रदान करता था। प्रकाश के चेहरे जैसी सुसंस्कृत चंचलता उनमें न थी पर एक जीवन्त आलोक था जो उन्हें शक्तिशाली बताता था । भाव के आवेश में आकर वे बात करते-करते गद्गद् हो जाते थे । उनके हृदय की अव्यावहारिक निर्मलता के फूट-फूट कर बाहर आने लगती थी । बड़ी-बड़ी श्वेत मूछों के बीच से होकर आदर्शोपासना की चन्द्र-लेखा बीच-बीच में झलक जाती थी । रात को मैंने पतिदेव से पूछा- 'दादा ने कुछ कहा नहीं ?' पतिदेव ने उसी अर्ध- विकसित चतुरता का भाव प्रकट करते हुए कहा - 'भैया से मैंने यहाँ कह दिया था। उन्होंने जब वायदा कर दिया कि दादा तुम्हें कुछ न कहने पायेंगे- मैं उनसे लौटते समय वचन ले लूँगा कि मेरे आने के बाद तुम्हें कुछ न कहेंगे तब वहाँ से चला हूँ । बेवकूफ नहीं हूँ ।' सचमुच उनकी बुद्धिमानी सराहनीय थी। पर जिसको उस दिन इस प्रकार भला-बुरा कह रहे थे और जिसने मिलने-जुलने और बात करने के लिये मुझे इस प्रकार प्रताड़ित कर रहे थे उसी के पिता के पास आत्मरक्षा की फरियाद लेकर जाना उनकी बुद्धिमानी का परिचायक था । दादा का यह विश्वास कि उनकी सन्तान संसार की सब सन्तानों से गई बीती है निराधार न था । दादा में जो एक अक्खड़पन - संघर्षों के बीच अपने उद्यमी व्यक्तित्व को लेकर उग आने का जातीय अभिमान था वह भी उनके लड़के से दूर था । मैंने पूछा-- 'प्रकाश तुम्हें लेकर आने वाले थे । वे क्यों न आये ? क्या तुम अकेले न आ सकते थे ! ब्यर्थ में...... पतिदेव ने कहा - 'प्रकाश की तुम्हें बड़ी फिक्र
रहती है । वह आता सो तुम खुश होती क्यों न ? मेरी फिक्र काहे को रही होगी ?' मैंने कहा- यों ही पूछा । दादाजी ( सास की आज्ञानुसार प्रकाश के पिता को भी मैंने दादाजी कहना शुरू कर दिया था ) की चिट्ठी पहले इसी तरह की आई थी ।की बात उन्होंने लिखी न थी । आपको अब उन लोगों के प्रति बुरी भावना मन में न लानी चाहिये । आप लोगों के हितचिन्तक न होते तो क्यों साथ में लेकर यहाँ दौड़े आते। मेरे चाहने की बात क्या ? मैं जरूर चाहती थी वे यहाँ आपके साथ आते । आपसे मैं बयान नहीं कर सकती, उन्हें देखकर - उनके पास बैठकर मुझे कितनी खुशी होती है। उसे उन पर भखंड श्रद्धा है................ . कहते-कहते मुझे लगा जैसे दिलकी सूनी अँधियारी कोठरी के पर्दे को उठाता हुआ कोई सिर लटकाये बाहर निकला और ऊपर सितारों के घने आँचल की ओट ओझल हो गया । सहसा पति ने मेरी बाहों में बाहें डाल दीं। मैं अलग जाकर मुन्डेर के पास खड़ी हो गई । नीचे मंजिल की छत पर सब लोग थे । दोनों में बातें चल रहीं थी। गाँव और रिश्तेदारों की चर्चा थी । मेरी सास को इन बातों में दिलचस्पी थी । वे पास जमीन पर बैठी सब सुन रही थीं। पतिदेव का यह हाल था कि मुझे देखते ही उनका तन और मन शारीरिक बुभुक्षाओं का घर बन जाता था । पुरुष की कामुकता की बातें इधर-उधर किताबों में पढ़ी थों पर पता न था - उसके आततायीपन में आजीवन मुझे पिसना होगा। ऐसे पशु-प्रवृत्ति वाले पति की पालतू पत्रि का अभिनय मुझे करना होगा। उनके पास रहने की कल्पना मुझे पतित बनाने लगती थी । इतने बड़े हो जाने पर भी उन्हें पत्नी के मानोभावों की कोमलता का कभी कोई ध्यान न आता था । उठते-बैठते वे मुझे काम-वासना चरितार्थ करने की मशीन बना देना चाहते थे । मैं यह भी जानती थी वे कितने 'टिमिड' और बुली' टाइप के हैं। मेरे पीछे आकर फिर एक पाशव ऊत्तेजना लिये खड़े हो गये । मैं सामने दूर तक फैली छात की कतारें देख रही थी जहाँ की शान्ति और सुख का ओर-छोर न था। जहाँ सौख्य, सुभावना, सुकुमारता और सहवास की आनन्ददायिनी लहरें उठ रही थीं। कहीं रेडिओ बज रहा था, कहीं ग्रामोफोन । कहीं बच्चे बैठे खेल रहे थे और कहीं पति-पत्नी आनन्द से दिन भर के कार्यभार से थक निशीथ की नीरवता का सुख लूट रहे थे । मैंने पीछे मुड़ कर कहा- 'आप मेरा कहना न सुनेंगे तो मैं कल से कह कर कमरे के अन्दर अपनी चारपाई ले जाऊँगी। मुझे क्या आपने भोग की गुड़िया समझ रक्खा है कि जब मन में आया पीट चले। यह सब नहीं होने का । मैं इन सब बातों से दूर रहना चाहती हूँ। मुझे यह सब बेमानी लगता है।' पति के लिए अपनी वासना का बाँध रोकना असम्भव था। मेरे लिये इस प्रकार के वात्म-समर्पण दुःखद ओर भयकारी थे। मैं चुपचाप नीचे उतर आई और कमरे में जाकर जमीन पर लेट गई । पतिदेव की हिम्मत नीचे सबके सामने से होकर मेरे पास आने की न हुई । पड़े-पड़े पछताते रहे होंगे। क्यों न तत्काल बलात्कार कर काबू में कर लिया। सब लोग बातचीत में लगे थे मुझे किसी ने देखा भी नहीं । मैंने चुपचाप भीतर से सिटकनी च
ढ़ा ली । खिड़कियाँ खोलकर रात भर गर्मी के कारण आधी नींद सोती आधी नोंद जागती रही । न जाने कैसी भर्त्सना की चमक मेरे कन्धों से चलकर बाहों और पीठ को कँपाती हुई पैरों तक चली जाती थी। मैंने तयकर लिया मैं कमरे में सोऊँगी - भले मुझे पूरी रात पंखे झलकर काटनी पड़े । तब रोज-रोज के अनाचार से जान छूटेगी । दूसरे दिन दादा जी चले गये । जाते-जाते वे मेरे ससुर को पति के साथ धीरज और विवेक से काम लेने का निर्देश दे गये । पति को अलग बुलाकर बहुत समझाते बुझाते रहे और हर प्रकार दादा को संतुष्ट रखने का आग्रह करते गये । उनके जाने के बाद दो-चार दिन शान्ति रही। मैं देखती थी, पिता-पुत्र की मूक पारस्परिक उदासीनता में घृणा की लपट और विकराल होती जाती थी। कभी-कभी यदि पतिदेव दादा के सामने पड़ जाते थे तो उनके चेहरे पर अकारण कर्कशता फूट पड़ती थी । यह उबाल कब तक भीतर दबा रहता ? इस बीच एक और . बात हो रही थी ? दादा मेरे पति से बिलकुल बोलते न थे । मेरे पति उनसे बोलना चाहते थे पर हिम्मत न पड़ती थी । बेचारे मन ही मन सकुच कर रह जाते थे । कहीं दादा बरस न पड़े। पन्द्रह-बीस दिन बीतते-बीतते गाँव में बिरादरी से एक लड़के के जनेऊ का निमंत्रण आ गया । दादा मुझे गाँव के असभ्य वातावरण में न ले जाना चाहते थे । घर पर एक न एक व्यक्ति का रहना जरूरी था। रेहन रखने वालों का पचीसों हजार का जेवर पड़ा था । साथ ही निमन्त्रण में किसी न किसी का जाना जरूरी था । अन्त में मेरी साँस को लेकर पतिदेव चले गये। मैं निश्चिन्तता की साँस छोड़ कर घर पर अकेली रह गई । मन ही मन डर रही थी कहीं दादा का मत न बदल जाय और पतिदेव के साथ मुझे न भेजने लगें ! मैं उस दशा में साफ इन्कार कर देती । पति के साथ यात्रा करने की अपेक्षा इन्कारी की वेशर्मी मुझे पसन्द थीं । इस
बीच एक नई घटना हो गई। दादा के पैर में कहीं मामूली सी चोट लग गई जो लापरवाही से बढ़ गई। धीरे-धीरे उसका जख्म बढ़ गया । एक दिन जब डाक्टर ने आकर उसे 'कारबंकिलडिक्लेयर' किया और दूसरे दिन पेशाब की जाँच कर दादा को गहरी अपने 'ढायवेडीज' से ग्रस्त पाया गया तो चिन्ता बढ़ गई । दादा जीवन से भी निराश होने लगे। मैं उन्हें बराबर समझाती बुझाती और उनके पास बैठकर उन्हें रामायण, महाभारत, गीता सुनाती रहती । गाँव खबर भेज दी गई थी। मेरी साँस लड़के के साथ चौथे दिन आ गई । दादा की दशा खतरे से बाहर न थी और बराबर उन्हें 'इन्जेक्शन' लग रहे थे । पतिदेव भी आकर उनकी सेवा-सुश्रुषा में लग गये । परिवार का ध्यान चारों ओर से सिमट कर उन पर केंद्रित हो गया । वे लगभग एक सप्ताह दादा की खतरे की अवस्था रही । अब धीरे-धीरे खतरे से बाहर हो रहे थे। जख्म धीरे-धीरे भर रहा था । पर इतने ही बीच में वे कृशकाय रह गये थे और सूख कर कौंटा जैसे निकल आये थे । मृत्यु की निदारुण यातना और भविष्य की काली, कुरूप चिन्तना ने उन्हें इस बिमारी की दशा में, जीवित ही कुम्भीपाक में पकाया था। भयंकर चिड़चिड़ापन और स्वार्थपरता उनमें आ गई थी । मेरी ओर से उनकी विरक्ति और घृणा का पारावार न था । जो कोई उनके पास आता उससे मेरा रोना रोते । 'जब से यह कुलच्छनी बहू आई तब से एक दिन शान्ति न मिलो । इसके आते ही दो-दो बार लड़का 'फर्स्ट इयर' में फेल हुआ। हजारों रुपयों का कर्ज और सूद का सैकड़ों रुपया डूब गया अब 'कारबंकिल' हुआ है। बीच में लड़का घर से भाग गया सो अलग। भगवान ही रक्षा करें। यह आपत्ति कटे तो आगे का उपाय सोचें ।' मैं भीतर कमरे में बैठी सब सुना करती और से अपने भाग्य को कोसती । आजकल पुत्र के ऊपर वे आंशिक रूप से संतुष्ट थे । सारे दोषों की जड़ और दुर्भाग्य का कारण मैं समझी जाती थी । मुझे इस सबकी चिन्ता न थी । इसी समय दूसरा और कदाचित् जीवन की सबसे बड़ा आघात लगा । मुझे गर्भ के लक्षण जान पड़ने लगे। मैं कैसे इसे प्रकट करूँ या कैसे इतने बड़े दंश को भीतर भीतर सहती रहूँ- समझ न पाती थी । भगवान ने मेरे किस अपराध का दण्ड दिया। विवाह को अभी एक साल से कुछ ऊपर हुआ था । यह कहाँ का अभिशाप मेरे सिर पर टूट पड़ा ! संसार में बालिकायें ऐसे अवसरों पर प्रतिक्षण असंख्य गुने हो होकर बढ़ने वाले सुख से भर जाती हैं। अपने सौभाग्य पर फूली नहीं समातीं - इतराती घूमती हैं। मैं अभागिन यह आग अपने भीतर छिपाये तिल-तिल कर भस्म हो रही थी। कैसे यह अनाहूत अंगार मेरे भीतर आ गया ! कभी कभी अपने अधोभाग को कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देने की इच्छा होती थी और मेरा जी भयानक वेग से मिचला उठता था । मेरी देह का एक-एक तार अस्त-व्यस्त होकर विखर जाता । न जाने कहाँ-कहाँ की बौखलाहट भरी बातें सोचने लगती । मुझे मालूम पड़ता - मेरे पेट के रन्ध्र-रन्ध्र से धुएँ के लच्छे निकल रहे हैं । जंगली दरिन्दे की तरह हूँ हूँ हूँ करती कोई चीज मेरी कोख में हलचल कर रही है । ikut Un katt. Ihled With Band Bur
ea Straata. Iya, condam and a mu शाम को पाँच बजे होंगे । दादा बैठकखाने में पड़े रहते थे। उन्हें देखने दिन भर लोग आतेजाते रहते थे। मेरे कारण यह भीतर के कमरे में न हो सकता था । मैं बगल के कमरे में बैठी 'क्रोशिया' बिन रही थी । एक पूर्व परिचित और स्थिर, अपलक स्तव्ध सुख में लहरा देने वाली कंठ ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी। किवाड़ों की साँस से झाँक कर देखा - प्रकाश थे । पर कैसे आये वे और क्यों ? दादा के पैर छूकर कुर्सी पर बैठ गये। दादा ने आशीर्वाद देते हुए अपने की गाथा सुनानो आरम्भ की। उन्होंने बताया- 'देहली रेडिओ पर 'टॉक' देकर लौट रहे थे । यहाँ दो कल शाम को चौंक में किशोर से भेंट हुई और आपकी इस बीमारी का पता चला । आप बिल्कुल दुबले हो गये हैं। मैं बाहर देखता तो पहचान न पाता !' दादा ने कहा- अब पहले से अच्छा हूँ । प्राणों की आशा न रह गई थी। जब से किशोरो की शादी हुई तब से मेरी शान्ति जाती रही । ऐसी कुलच्छनी बहू भाई है...... प्रकाश ने फौरन बात काट कर कहा - 'यह व्यर्थ की बात आप कर रहे हैं। मैं उसे जानता हूँ । बहुत अच्छी और भाग्यवती लड़की है। यह संयोग की बातें हैं दुर्भाग्य भी मैं इसे न मानूँगा । आप उसे कुछ न कहें ।' दादा एक अनभ्यस्त विस्मय में हूबे चुप पड़े रहे। मैं गर्व और गौरव से फूल उठी। संसार में चाँद भैया के बाद कोई और है जो मेरी निन्दा और अवमानना नहीं सहन कर सकता । भूल गई मैं आने वाले संताप को - दादा के भीतर का विद्रूप कितना भयानक विस्फोट करेगा ? दादा ने कहा- 'तुम पिछली बार लखनऊ में जब उससे मिले थे तब मैं वहाँ था । मुझे बड़ा बुरा लगा था यह जान कर कि तुम जान-बूझ कर मुझसे बिना मिले लौट गये - विशेष कर जब तुम्हें यह मालूम हो गया था - उसी के द्वारा कि मैं वहाँ हूँ । एक मसल है - चोर नहीं पर चो
र जैसी बातें । तुम्हारा यह व्यवहार मुझे वैसा ही लगा था ।... तुम्हें यह न करना था । मेरे गोपन अन्तःपुर में उस दिन की याद जाग उठी । किवाड़े की सन्धियों से मैं सांस रोके देख रही थी। वे कुछ बोलते न थे । शायद और कटु सत्य वे जबान पर न लाना चाहते थे। वे केवल मनुष्यत्व सांसारिकता के कारण दादा की ऐसी कड़ी बीमारी का समाचार सुनकर उन्हें देखने आये थे । किसी प्रकार का आरोप प्रतिरोप करने और कोई अप्रिय चर्चा छेड़ने की उनकी इच्छा न थी । दादा को उनका चुप रहना बदमाशी और अपराध की स्वीकृति जान पड़ी। मैं भीतर से देख रही थी उनके चेहरे पर कैसी भींगी वेदना सिमटी पड़ी है। जिस प्रसंग से बचने के लिए यह यहाँ आते समय प्रार्थना करते रहे होंगे वह इतनी जल्द - बैठते हो इस रूप में शुरू हो जायगा यह उन्होंने स्वप्न में न सोचा था । मैं बैठी देख रही थी - एक व्यापक उत्तेजना उनकी नसों में भर-भर आती थी पर वैसी ही ज्यों की त्यों सूख जाती थी। दादा कहा -'तुम उसे जानते हो - वह बड़ी अच्छी लड़की है यह मैंने लिया । पर मेरी बातें तो पूरी सुन लेते। मैं इस बार मरते-मरते बचा हूँ । जब से यह आयी है मेरी अशान्ति और चिन्ता का ओर छोर नहीं ! मैं किशोर का यह विवाह कर अब पछता रहा हूँ। टीकमगढ़ से एक शादी आई थी । पाँच हजार रुपये वे लोग केवल फलदान में दे रहे थे पर मैंने न किया । सोचा ग़रीब घर की लड़की है तो पढ़ी-लिखी सदाचारिणी, सुशील और पुन्यवती होगी। शादी में मिले रुपये से क्या किसीका गुजारा होता है । लेकिन इसके मिजाज रानियों महारानियों से बढ़ कर हैं। न किशोर को कुछ समझती है न मुझे । जिस बात के लिये मना किया जाता है वही करती है और शेखी दिखाती है...' उन्होंने कहा - 'श्राप कोई और बात करें । क्यों उसकी निन्दा तब से कर रहे हैं । आपको पता नहीं । वह मेरे बड़े प्यारे दोस्त की मुँहबोली बहन है । मुझे उस पर उतनी श्रद्धा है जितनी सगी बहन पर होती है। यहाँ के सम्बन्ध से भी वह मेरी काकी लगती है। श्राप बराबर उसकी बातें कर रहे हैं। एक निवेदन मुझे करना है । चाँद मुझे जाते-जाते उसे सौंप गया है । आप मेरे दादा हैं । आप से मेरा कुछ भी कहना अनुचित न होगा । उसे अधिक से अधिक सुखी बनाने का यत्न करें । भावुक और तीव्र बुद्धिवाली लड़की है । चाँद के साथ-साथ लिखते-पढ़ते वह इतनी होशियार और ज्ञानवती हो गई है कि ग्रेजुएट लड़कियों को पढ़ा सकती हैं। किशोर मूर्ख है पर आप इस 'मणि' का मूल्य सहज ही जान सकते हैं। उसे उठते-बैठते हर व्यक्ति से किसी प्रकार की ठेस न लगने दे । उसकी निन्दा और कलंक कहते होंगे उसे छोड़ दें । वह सुनती होगीउसे पीड़ा पहुँचती होगी।' छः सात महीने बाद उन्हें देख रही थी। उनके चेहरे पर एक एक नवप्रभा - एक नया आकर्षण लहरा रहा था । मैं उन्हें निकट से देख चुकी थी और उनसे घण्टों बहस कर उस समय उनके प्रति विरक्त हो उठी थी । पर उनकी महानता से परिचित थी । जानती थी उनकी व्यक्तित्व में कौन-सी दैवी मोहिनी है जो मुझे नीम के नये बौर की सुगन्धि जैसी बेह
ोश और बेहवास बना देती है। मैं मानवता का अपवाद बन जाती हूँ- झंकारहीन पाषाणी जैसी निस्पन्द और कंपनशून्य ! मैं दीवार की आड़ से लगी किवाड़े की सांसों से उन्हें देख रही थी पर जी न भरने आता था । एक कोने में सिमटी स्तब्ध अधीरता और अतृप्ति की सजीव मूर्ति बनी बैठी थी । दादा ने उनकी बात को सुनकर कहा- 'इस सम्बन्ध में तुम्हारा कुछ कहना अनाधिकार चेष्टा है प्रकाश ! वह मेरा पुत्रवधू है । मैं उसके प्रति अपना कर्तव्य जानता हूँ। तुमसे मुझे कुछ सोखने को शेष नहीं । दफ्तर में मेरे नोचे तुम्हारे जैसे पचीसों लौण्डे काम किया करते थे । तुम आज बढ़े आदमी हो गये ! मेरी प्राइवेट बातों दखल देने का तुम्हें अधिकार नहीं । मैं नहीं जानता वह बदमाश चाँद कौन है जो तुम्हें यह काम सौंप गया है । इस नाम का एक कालेजी छोकरा शुक्लजी के यहाँ आया करता था । पर बात यहाँ तक बढ़ गई है यह मुझे न मालूम था । मुझे पता न था तुम उसका पक्ष लेकर मुझसे बहस करोगे - लड़ोगे और बाद में उपदेश देने लगोगे । चाँद पक्का पाजी है - एक नम्बर..... 'मुझे कल ही संवाद मिला है कि लन्दन में उनको मृत्यु हो गई है - एक मोटर एक्सीडेन्ट में यह समाचार मैं मंजु को सुनाना चाहता था । कल मुझे उसके बड़े भाई का तार मिला है । आज उसे दूसरा अशब्द न कहें वर्ना मैं एक मिनट न रुकूँगा ।' मेरे सिर पर गाज गिर पड़ी। इतना बड़ा दर्द छाती में भरे ये इतने गंभीर बैठे हैं। मैं सब कुछ भूल कर पागल हो उठी । बोच का खुला दरवाजा झट से खोल कर सामने आ खड़ी हो गई । दादा हकबका कर उठ बैठे । मेरी मुखमुद्रा देखकर वे हैरत में आगये । प्रकाश ने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया ।...... मैंने उन्मादग्रस्त स्वर में पूछा'चाँद भैया ! चाँद भैया !! उन्हें क्या हुआ है ? आप अभी दादा से क्या कह रहे थे......
...बोलिये.... बोलिये.........जल्दी बोलिये ?' उन्होंने जेब से तार निकाल कर मेरे सामने फेंक दिया। शोकविह्वल, करुण, कातर दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे तार बड़े भैया का था । चाँद भैया - मेरे चाँद भैया उठी.........................वहीं खड़ी खड़ी कुछ मिनटों के बाद पछाड़ खाकर गिर पड़ी यह क्या हो गया - कैसे हो गया. - कैसे हो गया कितनी सहजता से हो गया...... बाद में जब होश आया तब मैं अपने कमरे में चारपाई पर अकेली पड़ी था । प्रकाश जा चुके थे पर मैं कहाँ जाती ? मुझे कहाँ ठिकाना था ? रात में मैं बराबर फूट-फूट कर घाड़ मार-मार कर रोती रही । मेरी सास ने तरह-तरह से धीरज दिया। पतिदेव दो एक बार पास आये पर मेरी उन्मादग्रस्त दशा को देखकर अधिक समझा न सके । रात के बारह बजे के लगभग मेरे कान में दादा की आवाज पड़ी । वे सास से कह रहे थे - 'जाकर उस कुलच्छिनी से कह दो - रो-रो कर मेरी जान का अमंगल न करे । भगवान की कृपा से मैं बच गया हूँ, मेरा नया जन्म हुआ इस प्रकार अगर रोयेगी और विलाप करेगी तो यह मेरा अशुभ चेतना होगा। इससे मेरा अकल्याण होगा । जाओ उससे कह दो - शोक सभा अब बरखास्त करे और चुपचाप सोये । दुनिया ऐसे ही रोती-धोती रहती है । जिसको जाना है वह चला जाता है। कौन सगा था - अपनी जात बिरादरी, कुटुम्ब कबीले का भी न था । यह सब लगा रहता है। अगर मेरी मृत्यु मनाती हो और सर्वनाश चाहती हो तो बात दूसरी है । मैं जानता हूँ उसे गैरों की जितनी परवाह है उतनी घर के आदमियों की नहीं । उनके साथ मजे उड़ाती रही है.. लेकिन अब कुछ न हो सकेगा ।' मैंने किसी भाँति भैया की स्मृति को हाथ जोड़ कर अधूरा प्रणाम करते हुए कहा- तुम इनकी कुत्सित बातें सुन रहे हो तो कानों में उगली लगा लेना । 'मुझे लगता था जैसे मेरा कंठ-स्वर किसी दूसरे लोक से आ रहा...... मुझे स्वयं उसे सुनकर डर मालूम हो रहा है। हाँ ! डर ही तो है...... जैसा बालक को किसी विक्षिप्त का प्रलाप सुनकर होता है...... जैसा बिल्ली के मुँह में दबे और कड़कड़ होते हुए अस्थिखंड को देखकर बिल के भीतर से झाँकते हुए छोटे चंचल चूहे को होता है । हे मेरे भगवान ! हे मेरे स्वामी ! मेरे देवता - मेरे महादेवता ! किन पापों का दण्ड तुमने मेरे ऊपर डाल दिया। मेरे भैया ! मेरे - केवल मेरे ! किसी के नहीं वरन् मेरे...... उठते बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते. दिन, दोपहर, गत, साँझ, सबेरे जो मेरे ही होकर रहे और चले गये.... मेरे ही होकर एक युग तक जला किये...... दूर बड़ी दूर जाकर बुझ गये । जिस काल के गर्भ से इतना विस्फोट होने वाला था - शाम को इतना भयानक गोला जिसके तलातल से इस विदारक गति से फूटने वाला था वह ऊपर से देखने में कितना शान्त था ! और प्रकाश ! उनके मुख पर विवश भावों की जो चमक थी उसके भीतर एक इंगित पर बड़े-बड़े अङ्गार बरसाने की विदारक क्षमता है, यह मैं केवल दरवाजे का सन्धियों से देखकर कैसे जानती !! मैं केसे शान्त रहूँ ! दादा नहीं चाहते मैं जोर से रोऊँ !! मैं कोशिश करूंगी मैं इस दारुण जगद्द
हन में शान्त रहूँ......गले पर धीरे-धीरे यह आरी चलने दूँ । पर भीतर के दबे आवेगों को उबल कर फूटने से कैसे रोकूँगी ? मेरे श्रहंकार और इस शरवेधक वेदना के द्वेन्द्र का अन्त कहाँ जाकर होगा ! मैं रात भर रोती रही। दादा की बात के बाद यह यत्न करती रही कि मेरी आहे मेरे गले में घुल जायें । सुबकते सुबकते जब गला बिलकुल बेबश हो जाता था तब मेरे चीत्कार बाहर निकल एक घुमड़न बन उस कमरे में फैल जाते थे । सुबह सूजी-सूजी लाल आँखों के भीतर से फटी पड़ रही मेरी प्रमत्तता को देखकर सास ने मुझे छाती से लगा लिया और बोली'रो मत बहू ! जो चला गया वह क्या रोने से कभी वापस मिला है । आज उसकी माँ पर क्या बीतती होगी ? भगवान से विनती कर कि उसकी आत्मा को शान्ति दें । 'भगवान पर उनका दृढ़ विश्वास था माँ !'- मैंने सास के आँचल में अपना फफकता मुँह ढाँप कर कहा-जाने के पहले मुझसे कह गये थे
पता नहीं था। आप वापस नहीं लौट सकते परन्तुआप कुछ समय के लिए वर्तमान भूल सकते हैं और अपनी स्मृति, अपने मनमें ही अतीत को पुनः जी सकते हैं आदमी पशुत्व के तल पर गिर सकता है। वह आनंदपूर्ण होगा, किन्तु अस्थायीयही कारण है कि नशीले पदार्थ, शराब आदि का इतना आकर्षण है। जब आपकिसी मादक द्रव्य के कारण बेहोशा हो जाते हैं तो थोडी देर के लिए आप पीछे गिर जाते हैं। थीड़े समय के लिए आप आदमी नहीं रह जाते, आप एक समस्या नहीं होते। आप फिर से पशुओं के जगत के हिस्से हो गये, अचेतन अस्तित्व के हिस्से हो गये। तब आप आदमी नहीं हैं। इसलिए फिर वहां कोई समस्याभी नहीं हैं। मनुष्यतासदा से कुछ-न-कुछ खोज़करती रही है - सोमरस से लेकर एल. एस. डी. तक ताकि वह भूल सके, पीछे लौट सके, बच्चों जैसा हो सके, पशुओं की निर्दोषिताको फिर से पा सके, बिना समस्या के हो सके, यानी बिना मनुष्यता के हो सके, क्योंकि-मनुष्यता का मेरे लिए अर्थ होता है एक समस्या। यह पीछे लोट जाना, यह गिर जाना संभव है लेकिन केवल अस्थायी रूप् से। तुम फिर लौट आओगे, तुम फिर से आदमी हो जाओगे और वहीसमस्याएँ तुम्हारे सामने खडी हुई होंगी, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होंगी। बल्कि पहले से भी ज्यादा गहरी होंगी। तुम्हारीअनुपस्थिति से ये विलीन होने वाली नहीं, वरन वे और भी जटिल हो जायेंगीऔर तब एक दुष्टचक्र का निर्माण होगा जब तुम लौटकर आओगे और जागोगे तो तुम पाओगे कि तुम्हारी गैरहाजिरीके कारण समस्याएँ और भी अधिक जटिल हो गई। वे बढ़गईं और तब तुम्हेंबार-बार स्वयं को विस्मृत करना पड़ेगा और जितनी बार तुम भूलोगे और पीछेपिरोने, तुंम्हारी समस्याएं बढ़ती जायेंगी। तुम्हें अपनी मनुष्यता का बार-बार सामनाकरना पड़ेगा। कोई इस तरह बच नहीं सकता। कोई चाहे तो स्वयं को धोखादे सकता है, किन्तु इस तरह बच नहीं दूसरा विकल्प अति कठिन है - विकसित होना; अपने चैतन्य को, बीइंग कोपा लेना। जब मैं कहता हूँ पीछे लौटना तो मेरा मतलब है बेहोशा होना; जो थोडीबहुत सजगता भी है उसे थी खो देना। जब मैं कहता हूँ होनाबीइंग तो मैरामलतब है बेहोशी को छोड़समग्र-सजगता को, पूर्ण चैतन्य को उपलब्ध होना। जैसे हम हैं, हमारा केवल एक ही हिस्सा चेतन है। हमारे अस्तित्व का छोटा-सा द्वीप चेतन है, और पूरा प्रायःद्वीप, पूरी मुख्यभूमि अचेतन है। जब यह छोटा-सा हिस्सा भी मूच्छित हो जाता है तो तुम पीछे लौट गये, तुम पीछे गिर गयेयह अज्ञान की अवस्था आनन्दपूर्ण है क्योंकि अब तुम समस्याओं से दूर हट गयेसमस्याएँ तो वहाँ अभी भी मौजूद हैं किन्तु तुम अब उनके प्रति सजग नहीं हो। इसलिए तुम्हारे लिए तुम्हें ऐसा लगता है कि जैसे वे समस्याएं नहीं हैं। यह शुतुरमुर्गकी विधि है, अपनी आँखें बंद कर लो ओर तुम्हारा शत्रु दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि-अब तुम उसे नहीं देख सकते--... यही बचकानी बुद्धि का तर्क कहता है कि जबतुम किसी वस्तु को नहीं देख सकते तो वह नहीं है। जब तक कि कोई चीज़तुम्हें दिखलाई नहीं पड़ती वह नहीं है। इसलिए यदि तुम्हें समस्याएँ महसूस
नहीं होतीं तो वे नहीं हैं। जब मैं कहता हूँ "स्वयं का होना", मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाता, दिव्यता को उपलब्ध हो जाना तो मेरा मतलब है पूर्ण चेतन हो जाना- एक द्वीपनहीं होना, बल्कि पूरा प्रायःद्वीप हो जाना। यह पूर्ण चेतनता भी तुम्हें सब समस्याओं के पार ले जायेगी क्योंकि समस्याएँ वस्तुतः हैं ही तुम्हारे कारण समस्याएँ वस्तुगतसत्य नहीं हैं; वे विषयगत घटनाएँ हैं। तुम ही तुम्हारी समस्याओं के निर्माता हीतुम एक समस्या को सुलझाते हो और उसे सुलझाने में दूसरो बहुत-सी समस्याओंको पैदा कर देते हो क्योंकि तुम तो वही हो। समस्याएँ वस्तुगत नहीं हैं। वे तुम्हारेही हिस्से हैं। तुम ऐसे हो इसलिए तुम ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करते हो। बिज्ञान समस्याओ को वस्तु की तरह सुलझाने का प्रयत्न करता है । औरविज्ञान सोचता है कि यदि समस्याएँ नहीं होंगी तो मनुष्य सुखी हो सकेगा। समस्याएँवस्तु की तरह सुलझाई जा सकती हैं, परन्तु मनुष्य सुखी नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यस्वयं एक समस्या है। यदि वह एक समस्या का सामाधान खोजता है तो वह दूसरीपैदा कर देता है। वही उनका स्रष्टा है । यदि तुम एक इससे अच्छे समाज कानिर्माण कर लो तो समस्याएँ बदल जायेंगी किन्तु समस्याएँ तो रहेंगी। यदि अच्छास्वास्थ्य, अच्छी दवा प्रदान कर दो, तो समस्याएँ बदल जायेंगी, किन्तु समस्यायेंतो रहेंगी। समस्याओँ का अनुपात सदा उतना ही रहेगा जितना पहले था क्योंकि आदमीवही का वही है; केवल परिस्थिति बदल देते है। आप परिस्थिति बदल देते हैं; पुरानी समस्याएँ नहीं होंगी, किन्तु तब नई समस्याएँ होंगी। और नई समस्याएँ औरभी जटिल होंगी बजाय पुरानी समस्याओं के। क्योंकि तुम पुरानी समस्याओं सेपरिचित हो चुके हो। नई समस्याओं के साथ तुम्हें और भी अधिक तकलीफ होगी। इसलिए यद्यपि हमारे समय में ह
मने सारी परिस्थिति बदल डाली है, परन्तु समस्याएँतो है - और भी अधिक घातक, और थी अधिक चिन्ताजनक। विज्ञान और धर्म में यही भेद है। विज्ञान सोचता है कि समस्याएँ वस्तुगत है, कहींबाहर हैं, तुम्हें रूपान्तरित किये बिना उन्हें बदला जा सकता है। धर्मसोचता है कि समस्याएँ यहीँ कहीं भीतर ही मौजूद हैं, मुझ में ही... बल्कि मैंही एक समस्या हूँ। जब तक मैं नहीं बदलता, कुछ भी भेद पड़ने वाला नहीं। रूप बदल सकता है, नाम दूसरा हो सकता है, किन्तु मुख्य वस्तु तो वही रहेगी। मैं समस्याओ का दूसरा संसार खड़ाकर दूंगा, मैं नई-नई समस्याओं को उत्पन्तकर दूँगा। यह आदमी जो कि स्वयं के प्रति ही मूंच्छित है, जिसे स्वयं का कोई भीफ्ता नहीं है, यही सारी समस्याओं का स्रष्टा है। वह कौन है, वया है इन सबसेअनभिज्ञ, स्वयं से अपरिचित रहकर वह समस्याओं को सृजन करता चला जाताहै। क्योंकि जब तक तुम स्वयं को ही नहीं जानते तुम यह नहीं जान सकते कितुम क्यों हो और किसलिए जी रहे ही; तुम नहीं जान सकते कि तुम्हें कहाँ जाना है, तुम अनुभव नहींकर सकते कि तुम्हारी नियति क्या है। और तब हर बाततुम्हें विषाद की और धकेलती जायेगी। क्योंकि यदि तुम कुछ भी करो बिना यहजाने कि तुम क्यों हो और तुम क्या हो तो तुम्हें वह कभी भी गहरी तृप्ति नहीं दे पायेगी। यह असंगत है। मुख्य बिन्दु ही खो गया, तुम्हारा प्रयत्न विफल हो गया। और अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति विषाद को उपलब्ध होता है। क्योंकि जो सफलनहीं होते उन्हें अभी भी सफलता की आशा होती है, लेकिन जो सफल हो जाते हैं वे अब आशा भी नहीं कर सकते। उनकी दशा बडी निराशाजनक हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सफलता से बडी विफलता खोजनी मुश्किल है। धर्म विषयगत विचार करता है, विज्ञान वस्तुगत सोचता है। वह कहता हैकि परिस्थिति कोबदल दो, आदमी को स्पर्श न करो। धर्म कहता है कि आदमीको रूपान्तरित करो, परिस्थिति असंगत है। कोई भी परिस्थिति क्यों न हो एकभिन्न मन, एक रूपान्तरित व्यक्ति सब समस्याओं के पार होगा। इसीलिए एकबुद्ध भिखारी होकर भी पूर्ण शान्ति में जी सके, और एक मिडास भारी परेशानीसे घिरा है जबकि उसके पास चमत्कारी शक्ति है। वह जो भी छूता है, सोना हो जाता है। मिडास की परिस्थिति स्वर्णिम हो गई है। उसके स्पर्श करते-ही वस्तु सोना हो जाती है। किन्तु इससे कुछ भी हल नहीं होता, बल्कि मिडास और भीअधिक जटिल समस्यापूर्ण परिस्थिति में पड़ गया। आंज हमारे जगत ने विज्ञान की मदद से एक मिडास की परिस्थिति उपस्थित कर दी है। अब हम कुछ भी छुए और वह सोने का हो जाता है। एक बुद्धभिखारी की तरह रहते हुए भी इतनी शान्ति और नीरवता मेँ जीते हैं कि सम्राटों को भी ईंष्यों होती है। वया है रहस्य? मनुष्य का अन्तरतम अधिक महत्त्वपूर्ण है, बाह्य परिस्थिति नहीं। इसलिए तुम्हें मनुष्य की आंतरिक अवस्था बदलनी होगी। और बदलाहट केवल एक हैः यदि तुम अपनी सजगता में बढ़ सकों तो तुम बदलते हो, तुम रूपान्तरित होते हो। यदि तुम अपनी सजगता में पीछे गिरे, तब भी तुमबदलते हो
, रूपान्तरित होते हो परन्तु जब तुम्हारी चेतना कम हो जाती है तो तुमपशुतल पर गिर जाते हो। यदि तुम्हारी चेतना बढ़ जाती है तो तुम देवताओं की ओर बढ़ जाते हो। धर्म के लिए यही एक मात्र कठिनाई है कि अपनी सजगता को केसे बढाएँइसलिए धर्म सदैव से ही मादक पदार्थों के विरुद्ध रहा है। उसका कारण नैतिकनहीं है, और तथाकथित नैतिक लोगों ने सारी ज्ञात को ही एक बड़ा गलत रंगदे दिया। धर्मं के लिए यह कोई नैतिकता का प्रश्न नहीं है कि कोई शराब पीता है। यह कोई नैतिकता का सवाल नहीं है क्योंकि नैतिकत्ता का प्रारम्भ ही तबहोता है जब कि मैं किसी और से संबंधित होता हूँ। यदि मैं शराब पीता हूँ औरबेहोश हो जाता हूँ तो इसका किसी से कुछ लेना देना नहीं । मैं जो कुछ कररहा हूँ स्वयं के साथ कर रहा हूँ। हिंसा नैतिकता के लिए एक प्रश्न है, न कि शराब। यहाँ तक कि यदि मैंआपको किसी विशेष समय पर मिलने को समय दूँ और नहीं मिलूँतो वह अनैतिकताकी बात हुई क्योंकि कोई और संबंधित है। शराब नैतिकता का एक प्रश्न हो सकताहै यदि उसमें दूसरा भी संलग्न हो, अन्यथा वह नैतिक सवाल बिल्कुल नहींयह तुम अपने साथ करते हो। धर्म के लिए यह कोई नैतिक सवाल नहीं हैधर्म के लिए यह और भी गहरा सवाल है। यह चेतना को कम करने और बढानेका सवाल है। एक बार तुम्हारी आदत पीछे गिर कर अचेतन होने कोपड़ जाती है, तोतुम्हारी चेतना कोबढाना और भी कठिन हो जाता है। यह और भी मुश्किल होजाएगा क्योंकि तुम्हारा शरीर बढ़ती हुई सजगता में साथ नहीं देगा। वह तुम्हारीघटती हुई सजगता में साथ देगा। तुम्हारे शरीर की संरचनां तुम्हें अचेतन होने में सहायता देगी। वह तुम्हें सजग होने में सहायक नहीं होगी। और कोई भी चीजजो अघिक सजग होने में बाधा बनती हो वह धार्मिक समस्या है। वह कोई नैतिकसमस्या नहीं है। इस
लिए कभी-कभी एक शराबी अधिक नैतिक व्यक्ति हो सकता है बजायउसके जो कि शराब नहींपीता, किन्तु वह अधिक धार्मिक कभी भी नहींहोसकता। एक शराब पीने वाला व्यक्ति ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है बजायराराब नहीं पीने वाले व्यक्ति के । वह ज्यादा प्रेम-पूर्ण, ज्यादा ईमानदार हो सकताहै लेकिन ज्यादा धार्मिक कभी भी नहीं हो सकता। और जब मैं कहता हूँ घार्मिकतो मेरा मतलब होता है कि वह कभी भी अधिक सज़ग, अधिक सचेतन व्यक्तिनहीं हो सकता। सजगता में विकसित होना संताप पैदा करता है। आदम ओर ईव की बाइबिल की पुरानी कहानी को समझना अच्छा होगाउन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया था, उन्हें ईडन के बाग से निष्कासित कर दिया गया था। यह एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक कहानी है। परमात्मा ने उन्हें सिर्फएक फल को छोड़सारे फल खाने के लिए इजाजत दे दी थी। केवल एक वृक्षको नहीं छूना था और वह वृक्ष ज्ञान का वृक्ष था। यह बडी अजीब बात है किईश्वर अपने बच्चों को ज्ञान का फल खाने के लिए मना करे। यह बड़ा विरोधाभासी लगता है। यह कैसा ईश्वर है? और यह केसा पिता है जो कि अपने ही बच्चोंके और अधिक बुद्धिमान व ज्ञानी होने के खिलाफ है। परमात्मा क्यों ज्ञान के लिए निषेध कर रहा है? हम तो ज्ञान को बहुत मूल्य देते हैं। परंतु उन्हें मनाकर दिया गया। आदम व ईव पशु जगत में विचरण कर रहे थे। वे आनंद में थे, किन्तुउन्हें इसका कोई पता नहीं था। बच्चे बड़े आनंद में होते हैं किन्तु वे भी अनभिज्ञहोते हैं। और यदि बच्चों को विकसित होना हो तो उनके ज्ञान की वृद्धि होनीचाहिए। दूसरा कोई विकास का मार्ग नहीं है। यदि आप अज्ञानी हैं तो आप आनन्दपूर्णहो सकते हैं, परंन्तु आप अपने आनंद के प्रति सजग नहीं हो सकते इसे समझ लेना चाहिएः तुम आनंदित हो सकते हो यदि तुम अज्ञान में हो, किन्तु तुम्हें अपने आनंद का कोई पता नहीं होगा। जैसे ही तुम्हें अपने आनन्दका अनुभव होना प्रारंभ होगा, तुम अज्ञान से बाहर होने लगो। ज्ञान ने प्रवेश किया, तुम एक जानने वाले बने। अतः आदम और ईव बिल्कुल पशुओं की भांति रहतेथे-समग्ररूपेण अज्ञानी तथा, आनंदपूर्ण किन्तु यह स्मरण रखें कि इस आनन्दका उन्हें कोई पता नहीं था। वे केवल आनन्दमन थे बिना उसे जाने। कहानी कहती है कि शैतान ने ईव को फल खाने के लिए ललचाया औरउसका कारया यह था कि उसने ईव से कहा कि यदि तुमने यह फल खा लियातो तुम देवताओं के समान हो जाओगी। यह बहुत अर्थपूर्ण बात है। जब तकतुम ज्ञान का यह फल नहीं खाते हो तुम देवताओं के जैसे कभी भी नहीं होसकते। तुम पशु ही रहोगे। और इसीलिए परमात्मा ने उन्हें मना कर दिया था, निषेध कर दिया था कि उस वृक्ष को न छूएं, परन्तु फिर भी वे उसकी ओर आकर्षितहुए बिना नहीं रह सके। यह शब्द "डेविल" (शैतान ) बड़ा सुन्दर है और विशेषज्ञः भारतीयों के लिएइसका ईसाइयों से भिन्न ही महत्त्व है क्योंकि "डेविल" भी उसी शब्द से, उसीस्रोत से आया है जिससे कि "देव" या "देवता" बना है। दोनों उसी स्रोत से आयेहैं इसलिए ऐसा लगता है कि ईसाई कहानी ठीक ब
ातन कह सकी, कहीं अधूरीरह गई। एक बात ज्ञात है कि "डेविल" स्वयं भी एक विद्रोही देवता था-एकविद्रोही देवदूत जिसने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था। परन्तु वह स्वयं भीदेवता था। में यह क्यों कह रहा दूँ? क्योंकि मेरे लिए इस संसार में शैतान और देवताजैसी दोशक्तियाँ नहीं हैं। यह द्वैत झूठा है। केवल एक ही शक्ति है। और द्वैतदो दुश्मनों की तरह नहीं है बल्कि दोदुश्मनोंकी तरह काम कर रहा है क्योंकिजब तक शवित्त दोध्रवों की तरह काम न करेगी तब तक वह काम ही नहींकर सकती। इसलिए मेरे लिए यह कहानी एक नया ही अर्थ रखती है। पत्मात्मा वे निषेधइसलिए किया क्योंकि आप आकर्षित तभी हो सकते हैं जब कि मना करें। यदिज्ञान के वृक्ष की चर्चा ही न की जाती तो यह संभव प्रतीत नहीं होता कि आदमऔर ईव ने उस विशेष वृक्ष के फल खाने की कल्पना भी की होती । ईडन काबाग एक बहुत बड़ा बाग था। वहाँ अनगिनत वृक्ष थे; यहाँ तक कि हम उन वृक्षोंके नाम भी नहीं जानते हैं। यह वृक्ष महत्त्वपूर्ण हो गया क्योंकि इसके लिए निषेध कर दिया गया। यहनिषेध ही निमंत्रण बन गया; यह मना ही आकर्षण का कारण बन गया। वस्तुतः कोई शैतान नहीं था जिसने कि उन्हें ललचाया। सर्वप्रथम ईश्वर ने उन्हें आकर्षितकिया। यह एक "मारी आकर्षण था- ज्ञान के वृक्ष के निकट भी मत जाना, उसकाफल मत खाना। केवल एक वृक्ष का निषेध है, अन्यथा तुम्हें स्वतन्त्रता है। "अचानकयह एक वृक्ष सारे बाग में महत्त्वपूर्ण हो गया और मैरे लिए "डेविल" (शैतान) दिव्यता का केवल दूसरा नाम है-दूसरा छोर, और उस डेविल ने ईव को प्रलोभितकिया क्योंकि तब वह देवताओं जैसी हो सकती थी। यह वादा था। और कौनदेवताओं जेसा नहीं होना चाहेगा? कौन नहीं चाहेगा कि वह देवता हो जाये? आदम और ईव लोभ में आ गये और तब वे स्वर्ग री निकाल दिए गये
। परन्तु यह निष्कासन प्रक्रिया का एक हिस्सा है। वस्तुतः यह स्वर्ग एक पशुवतअस्तित्व था जो कि आनन्दपूर्ण था किन्तु अनजाना। क्योंकि ज्ञान के वृक्ष केइस फल को खाने के बाद आदम और ईव मनुष्य हो गये। उसके पहले वे मनुष्यकतई नहींथे। वे अब मनुष्य हो गये और साथ ही समस्या भी। ऐसा कहा जाता है कि पहले शब्द जो आदम ने स्वर्ग के दरवाजे से निकलनेपर कहे वे थे "कि हम एक बहुत ही क्रान्तिकारी समय से गुजर रहे हैं।" वहसचमुच एक क्रान्ति का काल था। मनुष्य का मन कभी भी इससे अधिक क्रान्तिसे नहीं गुजरेगा जैसा कि यह पशु जगत से उसका निकाले जाना था, आनन्द कीदुनिया से, अज्ञात अस्तित्व से निष्कासन । वह समय वास्तव में, बड़ा क्रान्ति कासमय था। दूसरी सारी क्रान्तियाँ उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह एक सर्वाधिकबडी क्रान्ति थी - स्वर्ग से निष्कासन। लेकिन उनको निकाला क्यों गया? जिस क्षण भी तुम जान लेते हो, जिस क्षण भी सजग होते हो, तो फिर तुम आनन्द में नहीं रह सकते। समस्याएँ उठेगी । और यदि तुम आनन्द में भी हो तो ये समस्याएँ तुम्हारे मन में आयेंगी कि मैंआनन्द में क्यों हूँ? क्यों? और तुम्हें सुख का कोई फ्ता नहीं चल सकता जब तक कि तुम्हें दुख का पता न चले क्योंकि हर एक प्रतीति बिना उसके विपरीतके संभव नहीं । तुम्हें सुख का पता भी तभी चलेगा जबकि तुम्हें दुख अनुभवमें आता हो; तुम स्वास्थ्य से तभी परिचित हो सकते हो जबकि तुम्हें बीमारी काअनुभव ही; तुम जीवन के प्रति सजग नहीं हो सकते जबतक कि तुम मृत्यु रोभयभीत न हो। पशु भी जीते हैं किन्तु उन्हें इसका कोई पता नहीं है कि वे जीवित हैं क्योंकिउन्हें मृत्यु का कोई पता नहीं। मृत्यु की कोई समस्या उनके लिए नहीं है, इसलिए वे चुपचाप जीवन से गुजर जाते हैं। परन्तु वे इसी भाँति जीवित नहीं हैं जिस तरह कि आदमी । मनुष्य जीता है और उसे होश है कि वह जीवित है क्योंकिवह जानता है फि मृत्यु है। ज्ञान के साथ विपरीत का एहसास होता है और समस्याओं का आविर्भाव होता है। तब फिर हर पल द्वन्द्व का होता है। तब तुम हर क्षणदो में बंटे हुए लटके हो । तब फिर तुम कभी एक न हो सकोगे। तुम लगातारद्वन्द्धों में बंटे हुए आंतरिक उलझनों में फंसे हुए रहोगे। इसलिए सचमुच वह एक बडी क्रान्ति थी-महान क्रान्ति आदम और ईवको निष्कासित कर दिया गया। सच ही यह कहानी बडी सुन्दर है। किसी ने उनकोनहीं निकाला किसी ने उन्हें बाहर जाने की आज्ञा नहीं दी। किसी ने नहीं कहाकि जाओ बाहर वे बाहर हो गये। जिस क्षण ही वे होश से भरे कि वे फिरबाग में होकर भी नहीं थे। यह यंत्रवत होगया। इस पर जरा विचार करें - एककुत्ता जो कि यहाँ बैठा हो, अचानक वह होश में आ जाये। तो वह बाहर हो गया। कोई उसे बाहर नहीं निकालता । परन्तु अब वह कुत्ता नहीं रहा। वह अपनीपशुस्थिति से बाहर चला गया और अब वह वापस वहीं नहीं हो सकता। आदम और ईव ने भी पुनः प्रवेश करने को कोशिश की, परन्तु उन्हें वह दस्वाजा फिर नहीं मिला। वे चारों ओर चक्कर लगाते रहे परन्तु सदैव ही द्वार चूक
जाते। कहीं कोई दरवाजा ही नहीं है। निष्कासन समग्र है और अन्तिम है, वे पुनः प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि ज्ञान एक मीठा और कड़वा फल दोनो है। मीठा है क्योंकि वह तुम्हें शक्ति देता है, और कड़वा है क्योंकि उसके कारण समस्याएँ खडी होती हैं। मीठा है क्योंकि पहली बार तुम एक अहंकार की स्थिति में होते हो और कड़वा, क्योंकि अहंकार के साथ दूसरी सारी बीमारियाँ भी तुम्हारी होंगी। यह एक दुधारी तलवार जैसा है। आदम आकर्षित हुआ क्योंकि शैतान ने उससे कहा कि तुम देवताओं की तरह हो जाओगे। तुम शक्तिशाली हो जाओगे। ज्ञान भी एक शक्ति है, परन्तु यहतुम जानते हो तो तुम्हें सिक्के के दोनों पहलूजानने पड़ेंगे। तुम्हें जीवन की अधिकप्रतीति होगी, तुम अधिक आनन्दपूर्ण हो सकोगे किन्तु तुम मृत्यु के प्रति भी सजग हो जाओगे। तुमअधिक आनन्द का अनुभव करोगे, परन्तु तुम उसी अनुपात में अधिक संताप को भी अनुभव करोगे। यही एक समस्या है। यही है आदमी-एकगहरा संताप, एक गहरी खाईं दो विरोधी ध्रुवों के बीच। तुम्हें जीवन की प्रतीति होगी, परन्तु जब मृत्यु सामने हो तो सबकुछ विषाक्त हो जाता है। जब मृत्यु है तो फिर हर क्षण हर चीज़ विषाक्त हो गई। तुम जीकैसे सकोगे जब कि मृत्यु सामने हो। तुम आनन्दित कैसे रहोगे जबकि पीड़ा भीघिरी हो। और यदि आनन्द का एक पल आता भी है तो वह भी भागता हुआ होता है। और जब वह क्या होता है तब भी तुम्हें पता ही हैं कि कहीं पीछेदुख खडा हैं, पीड़ा छिपी है। वह जल्दी ही प्रकट होगी। अतः एक आनन्द काक्षण भी आपकी सजगता के कारण विषेला हो जाता है कि कहीं-न-कहीं दुखछिपा हुआ है, वह आता ही होगा। वह यहीं कहीं आसपास ही होगा, और तुम्हेंउससे साक्षात्कार करना पड़ेगा। आदमी भविष्य के प्रति जाग जाता है, अतीत के प्रति सजग हो जाता है, जीवन के प्रत
ि, भृत्यु के प्रति सचेतन हो जाता है। किर्किगार्ड ने इसे ही "संताप" कहा है - इस जानने को ही। तुम पीछे गिर सकते हो, परन्तु वह अस्थायी रूप से होगा। फिर तुम वापस लौट आओगे। इसलिए एक ही संभावना है कि तुमबढ़ो-ज्ञान में आगे बढ़ो। उस बिन्दु तक, जहाँ से कि तुम उसके भी बाहर छलांगलगा सको, क्योंकि छलांग केवल अन्तिम छोर से ही संभव है। एक छोर हमारेपास हैं कि वापस गिर जाओ। हम वह कर सकते हैं परन्तु वह असंभव है क्योंकि हम सदैव के लिए उसमें नहीं रह सकते। हमें बार-बार आगे की ओर फेंक दियाजाता है। दूसरी संभावना यह है कि हम हमारी चेतना में बढ़ते चले जायें। एकबिन्दु ऐसा आता है कि तुम पूर्ण सजग हो जाते हो और जहां से कि तुम अतिक्रमणकर सकते हो। हमने जान लिया है, अब हमें इस जानने के, इस ज्ञान के भी पार जाना होगा। हम बाग के बाहर आ गये हैं ज्ञान के कारण और हम इस बाग में वापसप्रवेश कर सकते हैं जब हम ज्ञान को फेंक देंगे। परन्तु यह फेंकना पीछे गिरने से संभव नहीं है। जिस द्वार से आदम को बाहर निकाला गया था वह द्वार अब फिर से नहीं मिल सकता। हमेँ दूसरा द्धार मिल सकता है जिससे कि क्राइस्ट को, बुद्ध को निमंत्रण मिला था। हम इस ज्ञान को फेंक सकते हैं, हम इस सजगताको फेंक सकते हैं, किन्तु केवल उस चरम बिन्दु से जहाँ कि हम पूर्ण सजग हो जायें। जब कोई पूर्णरूप से जागरूक हो जाए, जब यह भाव भी नहीं रहे कि मैंसजगहूँ जब कोईबिल्कुल पशु की तरह हो जाए प्रसन्न और आनन्दित। उन्हेंयह पता नहीं है कि जब तुम पूर्णरूप से सजग रहोगे या हो तो देवता हो जाते होयदि यह सजगता समग्र है तो तुम सजग होत बिना यह जाने कि तुम सजग होतब यह साधारण सजंगता ही प्रवेश की शुरुआत हो जाएगी-यही प्रवेश बन जायेगी। तुम पुनः बाग में होओगे-पशुओं की भाँति नहीं, किन्तु देवताओं की भांति । और यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यह आदम का निष्कासन ओर जीसस का प्रवेश एक अनिवार्य प्रकिया है। अपने अज्ञान में से बाहर निकलना ही होता है, यह प्रथम चरण है। और फिर अपने ज्ञान से भी बाहर निकलना होता है, वह दूसरा चरण है। यह सूत्र सजगता से संबंधित हैः "स्वयं में सजगता की अग्नि को जलाना ही धूप है । " स्वयं के भीतर होश की आग पैदा करना । पहली बात तो यह ठीक रो समझ लें कि होश से, सजगता से क्या मतलब है। तुम चल रहे हो; तुम बहुत-सी चीजोंके प्रति सजग हो-दूकानें हैं, लोग हैं जो पास से गुज़र रहे हैं, भीड़ है आदि । तुम ऐसी बहुत सी चीजों के प्रति सजग हो, केवल एक ही चीज के प्रति तुम्हारा ध्यान नहीं हैतुम्हारे अपने प्रति। तुम सड़क पर चल रहे हौः तुम्हारा ध्यानबहुत-सी चीजों के प्रति रहता है, . केवल तुम अपने ही प्रति सजग नहीं हो। यहस्वयं के प्रति होगा, इसे ही गुरजिएफ सेल्फ रिमेम्बरिग कहता है। गुरजिएफ कहताहै कि तुम कहीं पर भी होओ, सदैव, स्वयं का स्मस्या रखो। उदाहरण, के लिए, जैसे कि तुम यहाॅ मुझे सुन रहे हो, किन्तु तुम सुनने वाले के प्रति ही सजग नहीं हो। तुम्हें बोलने वाले का पता है, परन्तु तु
म उस सुनने वाले के प्रति होश में नहीं हो। सुनने वाले के प्रति भी सजग रहो। स्वयंकी यहाँ उपस्थिति अनुभव करो । एक क्षण के लिए एक झलक आती है औरतुम पुनः भूल जाते हो। कोशिश करो। जो कुछ भी तुम कर रहे हो करते समय एक बात का ध्यान सतत भीतरबना रहे कि वह तुम कर रहे हो। भोजन कर रहे ही, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम चल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम सुन रहे हो, तुम बोल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। जब तुमक्रोधित हो रहे हो, होश रहे कि तुम क्रोध में हो। यह स्वयं का सतत स्मस्ण एक सूक्ष्म शक्ति को निर्मित कस्ता है। एकबहुत ही सूक्ष्म ऊर्जा तुम्हारे भीतर पैदा होने लगती है। तुम घनीभूत होने लगते हो। साधारणतः तुम एक ढीलेढाले थैले की तरह होते हो, जिसमें कोई सघनता, कोई केन्द्र नहीं होता-केवल द्रव्यता होती है, खाली बहुत सी चीजों का ढीलमढालामिश्रण होता है जिसमें कोई केन्द्र नहीं होता। एक भीड़ होती है जो कि लगातारयहाँ से वहाँ डोलती रहती है; जिसका "कोई मालिक नहीं। सजगता का अर्थ होता है कि मालिक बनो। और जब मैं कहता हूँ "मालिक बनो" तो मेरा मतलब है कि उपस्थित हो जाओ-एक सतत उपस्थिति। जो कुछ भी तुम कर रहे हो, या नहीं कर रहे हो, एक बात तुम्हारे ध्यान में बनी ही रहे कि तुम हो। यह साघारण स्वयं की अनुभूति कि कोई है, यह एक केन्द्र क्रो निर्मित करतीहै-एक थिरता का केन्द्र, एक मौन का केन्द्र, एक आंतरिक मालकियत का केन्द्र एक भीतरी शक्ति और जब मैं कहता हूँ कि एक भीतरी शक्तितो में शब्दशः कह रहा हूँ-है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि सजगता की अग्नि। यह एक आग है, एक अग्नि है। यदि तुम सजग होना शुरू करो तो तुम अपने भीतर एक नई ऊर्जा को अनुभव करोगे-एक नई आग, एक नया जीवन। और इस नई अग्निये जीवन, नई ऊर्जा के कारण बहुत सी चीजें
जो कि तुम्हारे ऊपर अधिकार जमाये हुए हैं वे सब विलीन हो जाएंगी। तुम्हें उनसे लड़ना नहींपड़ेगा। तुम्हें अपने क्रोध से, तुम्हारे लोभ से, तुम्हारे काम से, लड़ना पड़ता है क्योंकि तुम कमजोर हो। वास्तव में, काम, क्रोध, लोभ कोई समस्याएं नहीं हैं। कमजोरीही एक मात्र समस्या है। एक बार भी तुम भीतर मजबूत होना शुरू करो इस अनुभूतिके साथ कि तुम हो, तो तुम्हारी शक्तियाँ सघन होने लगती हैं, संगठित होने लगतीहैं भीतर एक बिन्दु पर और एक "स्व" का उदय होने लगता है। स्मरण रहे, इगोका, अहंकार का नहीं, बल्कि "स्व" का जन्म होगा। इगो"स्व" का झूठा भाव है। बिना किसी "स्व" के तुम ऐसा मानते चले जाते हो कि तुम्हारे भीतर "स्व" है वही अहं का भाव है। अहं का अर्थ होता है एक मिथ्या स्व । तुम स्व नहींहो, और फिर भी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम एक "स्व" हो। मौलिकपुत्र जो कि एक सत्य का खोजी था, बुद्ध के पास आया । बुद्ध ने पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? मौलिकपुत्र ने कहा-मैं अपने स्व को खोजरहा हूँ। मेरी मदद करें। बुद्ध ने कहा कि तुम एक वादा करो कि जो कुछ भी तुम्हें कहा जाएगा, तुम करोगे। मौलिकपुत्र रोने लगा। उसने कहा कि मैं कैसे वादा कर सकता हूँ? मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो अभी हूँ ही नहीं, फिर वादाकेसे करूं? मुझेतो यह भी पता नहीं कि मैं मेरा कल वया होगा। मेरे भीतर कोई स्व नहीं जो कि वादा कर सके, इसलिए मुझसे ऐसी असंभव बात के लिए मत कहें। मैं प्रयत्न करूँगा, इतना ही कह सकता हूँ कि मैं कोशिश करूँगा, परन्तुमैं ऐसा नहीं कह सकता कि जो कुछ आप कहेंगे, वही करूँगा, क्योंकि कौन करेगा? मैं उसे ही तो खोज रहा हूँ जो कि वादा कर सके और उसे पूरा कर सके। मैं तो अभी हूँ ही नहीं। बुद्ध ने कहा-माँ "मौलिकपुत्र यह सुनने के लिए ही मैंने तुमसे यह प्रश्न पूछा था । यदि तुमने वादा किया होता तो मैं तुम्हें यहाँ से जाहर निकाल देता। यदितुमने कहा होता कि मैं वादा करता हूँ तो मैं जान लेता कि तुम कोई"स्वं" कीखोज में नहीं आये हो क्योंकि एक खोजी को तो पता होना चाहिए कि अभीवह है ही नहीं। अन्यथा, खोज की जरूरत ही क्या है? यदि तुम हो ही, तो कोई आवश्यकत्ता नहीं है। तुम नहीं होयदि कोई इस बात को अनुभव कर सके, तो उसका अहंकार वश्प्पीभूत हो जाता है। अहंकार एक झूठा ख्याल है ऐसी वस्तु का जो है ही नहीं। "स्व" का अर्थ होता है एक केन्द्र जो कि वादाकर सके। यह केन्द्र तब निर्मित होता है जबकि कोई लगातार सजग रहे, सतत होश बनाये रखे। ध्यान रहे कि जब भी तुम कुछकर रहे हो, कि तुम बैठ रहे हो, कि अब तुम सोने जा रहे हो, कि अब तुम्हें नींद आ रही है, कि तुम अब नींद में डूब रहे हो, प्रत्येक क्षण में जागे रहनेका प्रयास करो और तब तुम्हें प्रतीत होगा कि एक केन्द्र तुम्हारे भीतर निर्मितहोने लगा, चीजें सघन होने लगी, एक केन्दीकरण होने लगा। अब प्रत्येक चीज़ केन्द्र से जुड़ने लगी। हम बिना केन्द्र के ही हैं। कभी-कभी हमें केन्द्र की प्रतीति होती है, किन्तुवे क्षण ऐसे ही होते ह
ैं जबकि परिस्थितिवश तुम सजग हो जाते हो। यदि अचानक ऐसी परिस्थिति हो, कि कोई खतरा पैदा हो गया हो तो तुम्हें तुम्हारे भीतर केन्द्रकी प्रतीति होगी क्योंकि खतरें के समय तुम सजग ही जाते हो। यदि कोई तुम्हेंमार डालने वाला हो तो तुम उस क्षण विचार नहीं कर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते हो। तुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते होतुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम भविष्य को भी नहीं विचार सकते। यह क्षणही सब कुछ हो जाता है। और तब केवल तुम घातक के प्रति ही होश से नहींमरत्ते बल्कि तुम अपने प्रति भी सजग हो जाते ही जो कि मारे जाने वाला है। उस सूक्ष्म क्षण में तुम्हें अपने भीतर एक केन्द्र को प्रतीति होती है। इसीलिएखतरनाक खेलों के प्रति इतना आकर्षण है। पूछो किसी गौरीशंकर अथवा माउंट एवरेस्ट पर चढने वाले से। जब पहली बार हिलेरी वहाँ पहुँचा, तो उसे जरूरअपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव हुआ होगा। और जज पहली दफा कोई चन्द्रमापर उतरा, तो अचानक एक गहरे केन्द्र की प्रतीति उसे अवश्य हुई होगी। इसीलिए खतरों का इतना आकर्षण है। तुम एक कार चला रहे हो और तुम उसकी स्पीडबढाते चले जाते हो और तब एक खतरनाक गति आ जाती है। तब तुम कुछभी नहीं सोच सकते, विचार रुक जाता है। उस खतरनाक क्षण में जब मौत कमीभी घटित हो सकती है तुम अपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव करते ही। खतराआकर्षण का कारण है क्योंकि खतरे में कभी-कभी तुम्हें अपने भीतर उस केन्द्रको प्रतीति होती है। नीत्से ने कहीं पर कहा है कि युद्ध चलते ही रहने चाहिए क्योंकि केवलयुद्ध में ही कभी-कभी "स्वं" की प्रतीति होती है-केन्द्र की प्रतीति- क्योंकि युद्ध खतरनाक है। और जब मृत्यु एक सत्य बन जाती है तो जीवन मेँ सघनता आजाती है जब मृत्यु सामने ही हो तो जीवन सघन हो जाता हें और
तुम अपने केन्द्र पर होते हो। परन्तु किसी भी क्षण जब भी तुम अपने प्रति जागे हुए हो तो तुम केन्द्र पर होते हो। परन्तु यदि वह स्थिति पर निर्भर है तो जब वह स्थिति चलीआयेगी तो वह भी चला जायेगा। वह स्थितिजन्य नहीं होना चाहिए। वह आंतरिक ही हो। इसलिए सामान्य-से-सामान्य क्षण में भी सजग रहो। जब कुर्सी पर बैठो, तो भी इस बात का ध्यान रखो-बैठनेवाले के प्रति होश रहे। खाली कुर्सी का ही नहीं कमरे का ही नहीं-चारोंओर के वातावरण का ही नहीं, वरन बैठने वाले का भी ध्यान रहे। अपनी आँखेंबन्द कर लें और स्वयं को महसूस करें, गहरे उतर जायें और स्वयं को अनुभव करें। हेरीगेल एक जेन गुरु के पास ध्यान सीख रहा था। वह तीन वर्ष तक लगातार धनुर्विद्या सीखता रहा। और गुरु सदैव कहता रहा कि ठीक है, जो भी तुम कर रहे हो टीक है, परन्तु वह पर्याप्त नहीं है । हेरीगेल स्वयं एक बहुत अच्छा घनुविद हो गया। उसके सौ फीसदी निशाने ठीक लगते थे और फिर भी गुरु यही कहताकि तुम ठीक कर रहे हो, परन्तु इतना काफी नहीं है। "जब सौ प्रतिशत निशानेठीक लगते हैं तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए? अब मैं आगे क्या करूँ? जबसौ प्रतिशत निशाने ठोक लगते हैं तो इससे आगे मुझसे क्या आशा की जा सकती है?" कहते हैं ज़ेन गुरु ने कहा, "मुझे तुम्हारे निशानों से अथवा तुम्हारी धनुर्विद्यासे कोईमतलब नहीं। मुझें तो तुम्हारे से मतलब है। तुम एक कुशल टेक्नीशियनबन गये हो । परन्तु जब तुम्हारा बाण धनुष से छूटता है तब तुम्हें अपना होश नहीं रहता। इसलिए यह बेकार है। तीर निशाने पर लगा या नहीं इस बात सेमेरा कोई संबंध नहीं है मेरा तो संबंध तुमसे है। जब तीर धनुष पर खिंचे तोतुम्हारे भीतर भी तुम्हारी चेतना का तीर खिंच जाये। और यदि तुम निशाना चुक भी जाते तो भी उससे कोई भेद नहीं पढ़ता। परन्तु तुम्हारा भीतरी निशाना नहींचूकना चाहिए और तुम वही चूक रहे हो। तुम एक कुशल धनुबिद हो गये हो, किन्तु तुम खाली नकल करने वाले ही हो।" परन्तु पश्चिमी चित्त में था आधुनिकमन में, (और पश्चिमी चित्त ही आधुनिक चित्त है) यह बात ख्याल में आना बहुत ही कठिन है। यह उसको बकवास लगेंगी। धनुर्विद्या का संबंध ही इस बातसे है कि निशाने बिल्कुल ठीक लगते हों और उसमें एक विशेष कुशलत्ता हो । धीरे-धीरे हैरीगेल हत्ताश हो गया, और एक दिन उसने कहा, "अब मैं छोड़कर जा रहा हूँ। यह तो असंभव मालूम पड़ता है। यह संभव नहीं जब तुमकिसी चीज पर निशाना लगा रहे हो, तो तुम्हारी चेतना उस बिन्दु पर चली जातीहै; उस चीज़ पर, और यदि तुम्हें एक सफल धनुर्धर बनना है तो तुम्हें अपनेकोबिल्कुलभूल ही जाना है। केवल निशाने को ही स्मरण रखना है, उस वस्तुको ही ख्याल रखना है और बाकी सब भूल जाता है। सिर्फ निशाना ही रह जाएपरन्तु जेन गुरु लगातार उसे भीतर भी एक निशाने का बिन्दु उत्पन्न करने के लिएकह रहा था। यह तीर दो-त्तरफा होना चाहिए-बाहर तो निशान के बिन्दु परलगा हुआ और भीतर भी सतत स्वयं की ओर सधा रहे, स्व की और। हेरीगेल ने कहा, "अब मैं जाऊंगा। यह म
ेरे लिए असंभव है। तुम्हारी शर्तपूरी नहीं हो सकती, और जिस दिन वह जाने वाला था वह सिर्फ बैठा हुआ था। वह गुरु से छुदृटी लेने आया था, और गुरु किसी दूसरे बिन्दु पर निशाना लगा रहा था। कोई और शिष्य सीख रहा था और पहली बार हेरीगेल स्वयं इसमेंसंलग्न नहीं था। वह तो सिर्फ छुट्टी मांगने आया था और वह चुपचाप खाली बैठा था। जैसे ही गुरु खाली होगा, वह छुट्टी लेगा और चला जाएगा। पहलीबार वह उसमें संलग्न नहीं था। तब अचानक उसे गुरु का ख्याल आया और उसकी दो-तरफा चेतना समझ में आई। गुरु निशाना लगा रहा था। तीन वर्ष तक वह उसी गुरु के पास था, परन्तु वह अपने ही प्रयास में लगा हुआ था। उसने इस आदमी को देखा ही नहीं था कि वह क्या कर रहा था। पहली बार उसने उसे देखा और उसे समझ में आया, और अचानक स्वयंस्फूर्त वह उठा बिना किसी प्रयत्न के, और मास्टर के पास गया। उसके हाथ से उसने धनुष लिया, निशाना साधा और तीर छोड़ दियागुरु ने कहा-"ठीक पहली बार तुमने ठीक किया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।" क्या किया उसने? पहली बार वह अपने में केन्दित हुआ था। निशाने काबिन्दु था, परन्तु अब वह भी मौजूद था वहाँ। इसलिए जो भी तुम करो, चाहेकुछ भी करो - किसी धनुर्विद्या की जरूरत नहीं जो भी तुम कर रहे हो, जब खाली बैठे भी होचेतना का तीर दो-तरफा हो-डबल-एरोड। स्मरण रहे कि बाहरक्या हो रहा है और यह भी याद रहे, कि भीतर कौन है। लींची एक दिन सुबह प्रवचन कर रहा था कि किसी ने अचानक पूछ लिया- मेरे एक प्रश्न का उतर दो"मैं कौन हूँ?" लींची उठा और उस आदमी के पास गया। सारा हाल शान्त हो गया। वह क्या करने जा रहा था? यह एक साघारण-सा प्रश्न था। वह अपनी जगह से उतर दे सकता था। वह उस आदमी के पास पहुँचा। सारे हाल में स्तब्धता छा गई। लींची उस प्ररन पूछने वाले की आँखों में आ
ँखें डाल कर देखने लगा। वह एक बड़ा गहरा क्षण था। सब कुछ ठहरगया। प्रश्नकर्ता तो पसीने-पसीने हो गया। खींची उसकी आँखों में घूरकर देख रहा था। और तब लींची ने पूछा-"मुझसे मत पूछो कि मैं कौन हूँ? भीतर जाओ और खोजो उसको जो कि पूछ रहा है। कौन हैं भीतर ये-प्रश्न पूछने बालाइस प्रश्न का स्रोत ढूंढ़ निकालो। भीतर गहरे उत्तर जाओ। और ऐसा कहा जाता है कि उस आदमी ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, मौनहो गया, और अचानक वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उसने अपनी आँखें खोली, हँसा और लींची के पैर छुए और कहा, "आपने मुझे उतर दे दिया। यहप्रश्न मैं बहुतों से पूछता रहा हूँ और बहुत से उतर मुझे दिए गये परन्तु कोई भी उत्तर सिद्ध साबित न हुआ। परन्तु आपने उत्तर दे दिया।" "मैं कौन हूँ?" कैसे कोई इसका उत्तर दे सकता है। परन्तु उस विशेष परिस्थितिमँ-एक हजार आदमी चुप बैठे हों, सुई गिरने को भी आवाज़ जहां सुनाईं पड़ जाये-लींची अपनी आँखों को गड़ा दे और फिर वह आज्ञा दे कि अपनी आँखों को बन्द-करो, भीतर जाओ और पता लगाओ कि यह प्रश्न पूछने वाला कौन है। उत्तर की प्रतीक्षा मत करो। पता लगाओ उसका जो कि पूछ रहा है। और उसआदमी ने आंखें बन्द कीं। क्या हुआ उस क्षण? वह केन्दित हो गया। अचानक वह केन्द्र पर पहुँच गया। अचानक वह अपने अंतरतम के आखिरी बिन्दु को इसे ही खोजना है। और सजगता का अर्थ होता है-वह विधि जिससे अन्तसके इस अन्तिम छोर को खोज लेना होता है। जितने तुम मूच्छित होते हो, उतने ही तुम स्वयं से दूर होते हो। जितने अधिक चेतन, उतने ही स्वयं के निकटयदि सजगता संपूर्ण हो जाये तो तुम अपने केन्द्र पर होते हो। यदि यह चेतना थोड़ी-सी होती है, तो तुम परिधि के पास ही होते हो। जब तुम मूच्छित होतेहो, तो तुम परिधि पर ही होते हो जहाँ कि केन्द्र बिल्कुल विस्मृत हो जाता। इसलिए ये दो संभव मार्ग हैं। तुम परिधि पर आ सकते हो, त्तब तुम मूच्छित होतेहो । कोई फिल्म देखते हुए, कहीं कोई संगीत सुनते हुए तुम अपने कोभूल सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । मुझे सुनते वक्त भी तुम स्वयं को भूल सकते होतब फिर तुम परिधि पर हो । गीत्ता कुरान या बाइबिल पढ़ते समय भी तुम अपनेको विस्मृत कर सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । जो कुछ भी तुम कर रहे हो, यदि तुम स्वयं के प्रति सजग रह सको, तोतुम केन्द्र के निकट हो। तब अचानक कभी भी तुम अपने केन्द्र को पा लोगे। तब तुम्हारे पास ऊर्जा होगी। वह ऊर्जा यह सूत्र कहता है कि, अग्नि है। सारा जीवन, यह सारा अस्तित्व ही ऊर्जा है। अग्नि पुराना नाम है। अब उसे विद्युत कहते हैं। आदमी बहुत-बहुत नामों से उसे पुकारता रहा है, किन्तु अनि अच्छा नाम है। विद्युत कहना कुछ मृत लगता है, अग्नि ज्यादा जीवन्त प्रतीत होता है। यह अंतरकी अग्नि, यह सूत्र कहता है कि यही धूप है। जब कोई पूजा करने के लिएजाता है तो वह अपने साथ धूप लेकर जाता है। वह धूप व्यर्थ है जब तक कितुम अपनी अन्तराग्नि को धूप की तरह नहीं लाये हो । यह उपनिषद बाहरी संकेतों को उनके पीछे छिपे हुए भीतरी अर
्थ दे रहा हैं। प्रत्येक संकेत का भीतरी हिस्सा भी होता है। बाह्य भी अपने में ठीक है, किन्तु वह काफी नहीं है। और वह केवल प्रतीकात्मक है, वह वास्तविक बात नहीं हैं। वह कुछ संकेत करता है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। तुमने धूप देखीहोगी, वह सब जगह मन्दिरों में जल रही है। वह अपने आपमें ठीक है, परन्तु यह बाहरी संकेत मात्र है। एक भीतरी अग्नि चाहिए। और जैसे घूप सुगन्ध प्रदानकरती है उसी तरह आंतरिक अग्नि हमें वह सुगन्ध देती है। ऐसा कहते हैं कि जब महावीर चलते थे तो हर एक को एक सूक्ष्म सुगन्धसे उनकी उपस्थिति का अनुभव होत्ता था। ऐसा बहुत से लोगों के लिए कहा जाता हैं। यह संभव है। जितना अधिक तुम अपने भीतर केन्दित हो जाते हो उतनीही अधिक तुम्हारी उपस्थिति एक सुगंध बन जाती है। और जिनके पास भी ग्राहकताहोती है, उन्हें उसकी प्रतीति होती है। अतः मन्दिर में बाहरी धूप लेकर प्रवेशन करें, वरन आंतरिक धूप लेकर। और यह आंतरिक धूप केवल अवेयरनेस, केवलसजगता से ही उपलब्ध होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो भी करें होशपूर्वक करें। यह एक लम्बी और कठिन यात्रा है। और एकक्षण के लिए भी होश रखना बड़ा कठिन है। मन सत्तत्त चलता ही रहत्ता है। परन्तु यह असंभव नहीं है। यह अति कठिन है, बहुत श्रम चाहिए, परन्तु यह संभवहै। प्रत्येक के लिए यह संभव है। केवल श्रम चाहिए समग्र रूपेणा श्रम। कुछभी बाकी नहीं छूटना चाहिए, भीतरी कुछ भी अछूता नहीं छूटना चाहिए। सजगताके लिए हर चीज़ का बलिदान देना पड़ेगा। तभी केवल उस आंतरिक ज्योति को खोजा जा सकता है। वह वहाँ है। यदि कोई सब धर्मों में, जो कि हुए हैं औरजो कभी होंगे, एक अनिवार्य एकता को दूंढ़ना चाहत्ता ही तो यहशब्द सजगतासब में मिलेगा। जीसस एक कहानी कहते हैं। एक बड़े घर का मालिक बाहर गया औरउसने
अपने घर के सारे नौकरों को लगातार सजग रहने के लिए कहा- क्योंकिकिसी भी क्या वह वापस लौट सकता है। इसलिए चौबीस घंटे उन्हें सावघानरहना पड़ता है। किसी क्षण भी मालिक लौट सकता है। कोई क्षण, कोई भी दिननिश्चित नहीं है। यदि कोई तारीख तय हो, तो तुम सो सकते हो, तब तुम जोचाहो कर सकते हो, और तुम केवल उस निश्चित तारीख को ही सचेत रह सकतेहो, क्योंकि तब मालिक आ रहा होगा। परन्तु मालिक ने कहा है, मैं किसी भी क्षण आ सकता हूँ। रात और दिन तुम्हें मेरा स्वागत करने के लिए जागते हुएरहना है। यही जीवन को कहानी है। तुम स्थपित नहीं कर सकते। किसी भी क्षणपरमात्मा आ सकता है, किसी भी क्षण मालिक लौट सकता है। सतत सजग रहने की जरूरत है। कोई तिथि निश्चित नहीं है, कुछ भी पक्का पता नहीं है कि वहअचानक घटना कब घटित होगी। केवल इतना ही कोई कर सकता है कि सजगरहे और प्रतीक्षा करे। रवीन्द्रनाथ ने एक कविता लिखी है-दि किंग आँफ दि नाइट-रात का राजायह एक बहुत गहरी प्रतीकात्मक कहानी है। एक बहुत बड़ा मन्दिर था जिसमें कई सौ पुजारी थे। एक दिन मुख्य पुजारी ने सपना देखा कि दिव्य अतिथि उसरात्रि आने वाला है-वह दिव्य अतिथि जिसके लिए वे बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहे है। शताब्दियों से सारा मन्दिर उस राजा के लिए प्रतीक्षा कर रहा है-उस दिव्य राजा के लिए। मन्दिर का देवता आने वाला है। बहुत से लोग हंसे कियह केवल सपना है, इसलिए इस पर ध्यान देने की ज़रूरतनहीं है। मुख्य पुजारीभी सन्देह से भरा आ, कि यह सपना ही तो है। और यदि यह केवल सपना हीसाबित हुआ, तो सब लोग उस पर हंसेंगे। परन्तु कौन जाने, सच ही हो । यहसूचना सच ही निकल जाये। मुख्य पुजारी सोच में पड़ गया उसी दिन कि किसी को कहा जाये या नहीं। लेकिन फिर डर भी गया यह सच भी हो सकता है। त्तब दोपहर में उसने यहबात कह दी। उसने सारे पुजारियों को इकट्ठा किया, मन्दिर के सारे दरवाजे बन्दकिये और उसने कहा कि बाहर मत जाना और न ही किसी और से कुछ कहनायह केवल सपना भी हो सकता है, कौन जाने। परन्तु मैंने सपना देखा है, औरसपना इतना वास्तविक था। सपने में मन्दिर के देवता वे मुझे कहा था कि मैं आज रात आ रहा हूँ। तैयार रहना। इसलिए हमें सचेत रहना है। आज की रात हमसो नहीं सकते। अतः उन्होंने सारे मन्दिर को सजाया, उन्होंने सारे मन्दिर को धोया. साफकिया, और उन्होंने अतिथि के स्वागत के लिए सारी तैयारियाँ की। और त्तब वे प्रतीक्षा करने लगे। तब धीरे-धीरे सन्देह पैदा होने लगा। फिर किसी ने कहा-यह सब व्यर्थ ही बात है। आधी रात बीत गई, तब और भी सन्देह बढ़ने लगा। तब किसी ने विद्रोह से भरकर कहा, मैं तो सोने जा रहा हूँ। "यह मूर्खता है, सारादिन व्यर्थ गया और अभी भी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं। कोई आने वाला नहीं है। तब बहुत-से-लोगों ने उसका साथ दिया । तब मुख्य पुजारी भी झुक गयाऔर उसने कहा, हो सकता है कि वह मात्र सपना ही हो। मैं कैसे कह सकता हूँ कि वह सच था? हो सकता है हम मूर्खता की बात कर रहे हो कि एक सपने की बात के पीछे चल रहे हैं।
अतः उन्होंने कहा कि सिर्फ द्वार पर जोआदमी है वह जगा रहे बाकी सब सो जायें। यदि कोई आता है तो वह हमेंखबर कर देगा। निन्यानबे पुजारी सो गये और जो पुजारी इस काम के लिए नियुक्त किया गया था उसने कहा, जब निन्यानबे ऐसा सोचते हैं कि सपना था तो फिर मैं अपनीनींद खराब क्यों करूं? और यदि दिव्य अतिथि को आना ही हो तो आये। वहतो बहुत बडे रथ पर सवार होकर आयेगा, अतः उसका तो काफी शोरगुल होगाऔर सब लोग जान जायेंगे। उसने द्वार बन्द किया और वह भी सो गया। तब रथ आया और रथ के पहियों की भारी आवाज हुई। तब कोई जो नींद में था बोला, लगता है कि राजाआ गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि रथ के पहिये भारी शोर मचा रहे हैं। कोईदूसरा जो कि सोने की तैयारी कर रहा था, उसने कहा, समय बर्बाद न करो, सो जाओ। कोई आने वाला नहीं है। यह रथ नहीं है। ये तो आकाश में धिरे बादल-है। और फिर दिव्य अतिथि द्वार पर आया और उसने दरवाजे पर दस्तक दी। फिर किसी ने नींद में ही कहा कि ऐसा लगता है कि कोई आया है और द्वार पर दस्तक दे रहा है। तब मुख्य पुजारी ने कहा कि अब सो जाओ, यारबार नींद खराब मत करो। कोई दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहा है, यह तो केवलहवा है । सवेरे वे लोग रो रहे ये और चिल्ला रहे थे क्योंकि रात को रथ आया था। सड़क पर उसके चिह्नथे और दिव्य अतिथि द्वार तक आया था और उसने दस्तक दी थी। धूल पर निशान बने हुए थे और सीढियों पर उसके चिह्न थे। ऐसी कितनी ही कहानियां हैं। महावीर और बुद्ध ने कितनी ही कहानियाँकही है जिसमें उन्होंने बतलाया है कि आत्म-ज्ञान कभी भी और किसी भी क्षण हो सकता हैं। यह संभव है। इसलिए बहुत सावघान सचेत और सजग रहने की आवश्यकता है। यह रात के राजा की कहानी मात्र कहानी नहीं है। यह सच है हम सभी चीजों कोइसी तरह लेते रहते हैं। और जितने भी अर