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संयोग कि लड़की सोशल सांइस की किताब को अपने साथ स्कूल न ले गयी हो और दूसरा कि बेतरतीब बुक रैक में कम से कम श्रम से उसे ढूँढ़ लिया जा सके! पर किस्मत! उसने पहली किताब जो उठायी वह समाजशास्त्र की ही थी!
वसुंधरा कार्णिक का काम ठीक तरह बुक रैक के आगे बैठने के पहले ही खत्म हो गया। वह बिना ठीक तरह से बैठे ही उठ सकती थी वापस। किताब उठा कर वह लपट की तरह उठी और मुड़ी ही थी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी। लड़की खुली आँखों से उसे देख रही थी। उसके दोनों होंठों के बीच थोड़ा सा फाँक था, जिससे हँसी, अपनी देह समेट कर आसानी से आ जा सकती थी। उसकी बायीं बगल की लट ठुड्डी की लंबाई तक लटक गयी थी। लड़की पलकें झपकाये बगैर ताक रही थी और ऐसे ही ताकती रहने वाली थी बरसों तक। वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया और उसने किताब को आँचल में छिपा लिया। उसने साफ साफ देखा कि बुकशेल्फ के ऊपर रखे फोटो फ्रेम के पीछे से लड़की की मुस्कान सूत भर और फैली।
इजा कहलाने वाली स्त्री आँचल में हाथ छिपाये छिपाये अपने कमरे में भाग गयी कपड़े की आलमारी तक। यह जख्म देने के लिए औजार को पैना करने की शुरुआत थी।
बहरहाल लड़की के लिए खुशी जुगाड़ना किचन से कोई ललचाऊ खुशबू उठाने जितना आसान था या कि चौक के डिपार्टमेंटल स्टोर से कुरकुरे लाने जितना या कि उसकी नयी ड्रेस से मेल खाता क्लिप या हेयरबैंड लाने जितना। दूसरे मोर्चे पर इवा कार्णिक भी एक दिन पहले की दोपहर में तपे हुए एक धारदार छल की भरपाई में अपने आप को विनम्र और विनम्र बना कर पेश कर रही थी। उसके फैले होंठों की हँसी मन की उदारता को सँभाल नहीं पा रही थी और जहाँ कहीं उदारता छलक जा रही थी। खाना खा चुकने के बाद जब वसुंधरा कार्णिक उसके रूखे बालों पर हाथ फिरा कर जड़ों में तेल लगा देने को उद्यत हुई तो उसने |
अपने रोम रोम को सतर्क कर दिया। वह तत्क्षण इस प्रस्ताव के आगे न बोलना चाहती थी। पर उसके चाहने के पहले ही जुबान ने अपने अभ्यास के मुताबिक 'ठीक' कह दिया।
इवा कार्णिक की मुड़ी मुड़ी लटों की जड़ में इजा की उँगलियाँ सहरने लगीं। इवा कार्णिक ने इजा के घुटनों में अपना चित्त माथा फँसा दिया। खून बेतहाशा माथे में इधर उधर दौड़ने लगा और उसकी आँखें मुँदने लगीं। वसुंधरा कार्णिक ने मुँदती मुँदती पलकों को कोई बाधा न पहुँचे इस आस में उँगलियों की छुअन को और धीमा कर दिया। उसे लग गया था कि जख्म दिये जाने के पहले सुख के सामान लड़की के लिए अपने हाथों से जुटा चुकी थी वह। उसकी आत्मा से बोझ छँट चुका था। उसकी खुद की भी पलकें मुँदने लगीं लड़की की पलकों की जुगलबंदी में। लड़की ने धीमे से कहा - 'मैं कल दोपहर सर के साथ घूमने गयी थी डिज्नीलैंड।'
वसुंधरा कार्णिक के दो हाथ लड़की के बालों में सहर रहे थे, अलावा इसके दो हाथ और भी, जो आकस्मिक पलों के लिए छिपे थे, जिन्हें कि बढ़ा कर वसुंधरा कार्णिक ने लड़की के उघड़े हुए को ढक लेना चाहा।
इवा कार्णिक ने दोहराया - 'सर के साथ।'
इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री ने कहा - 'चल हो गयी मालिश सिर की। बगैर झूठ बोले तेरा एक भी दिन चैन से गुजरता नहीं?'
'सोलह आने इजा।'
'हाँ सोलह आने! चल मैंने यकीन कर लिया।'
'सच में इजा।'
'मुझे उठने तो दे! सुन लिया।'
इवा कार्णिक ने अपने होठों से उसके हाथों को छुआया एक पल के लिए और कहा - 'एह! शाम का पहला झूठ! मालिश करके मुझे नींद में ऐसा ठेल दिया था कि ठीक से निभा नहीं पायी।' बहुत महीन सा आँसू उसकी आँखों में सूख गया। पर उसकी परछाईं तेजी से नजरें बचाते बचाते भी इजा की आँखों में दिख गयी उसे।
वसुंधरा कार्णिक ने अपने को दूसरी तरफ पलट कर लड़खड़ाते हुए जोड़ा - 'नींद! भूल जा नींद को! सुबह तेरे सर घर आये थे। पढ़ाई में तेरी लापरवाही से बहुत परेशान दिखते थे। और आज वे तेरी सरप्राइज टेस्ट लेने वाले हैं।' लड़की की तरफ मुड़ चुकी वसुंधरा कार्णिक की संयत गोल गोल पुतलियों में अब आँसू की छाया की जगह भेद भरी खुसफुसाहट दिखायी पड़ रही थी - 'उसके आने में अभी घंटे दो घंटे बचे हैं। जा तैयारी कर ले!'
'किस चीज की?' जवाब में आयी लड़की की फुसफसाहट जगह जगह से उघड़ी हुई थी।
'सोशल साइंस की।' वसुंधरा कार्णिक ने होंठों की बिदबिदाहट को देख कर पढ़ी जा सकने वाली फुसफुसाहट में सस्पेंस से परदा उठा दिया।
लड़की दौड़ कर अपने कमरे में भागी। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया कि उसके हाथ खुद ब खुद जाकर आँचल के पीछे छिप गये थे। वह चौंकी किताब को क्या अभी तक आँचल के पीछे ही छिपाये बैठी थी वह! जवाब की तसल्ली में हाथ खाली खाली आँचल से बाहर आये सही, पर उनके पसीने पर किताब के निशान अभी भी मौजूद थे। दूसरे कमरे में तेज उकट पुकट मची थी। वसुंधरा कार्णिक चुप रह सकती थी। दबा सकती थी सरप्राइज टेस्ट की बात अपने तक। फिर भी उससे ऐसा हो गया।
लड़की अपने कमरे में तबाही मचा कर उस तक आयी - |
'आप झूठ तो नहीं बोल रहीं! मजाक?'
'नहीं! क्या हुआ?'
'बुक मिल नहीं रही सोशल साइंस की।'
'खोजो! वरना तुम पढ़ कैसे पाओगी!' उसने कहा था। कहा था या कहना चाहा था! शायद उसने कहा था, तभी लड़की ने कहा - 'क्या खोजूँ?'
लड़की वापस अपने कमरे में भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक आकर ड्राइंग रूम में बैठ गयी। उसकी एड़ियाँ काँप रही थीं। उसने एड़ियों को उठा कर गोद में डाल लिया। वह अपने धड़ को सोफे पर पूरी तरह उठंगा कर बैठी थी। उसके भीतर लड़की से रत्ती भर भी कम उथल पुथल नहीं मची थी। दूर दूर तक कोई खुशी नहीं थी न कोई रोमांच ही। वह अपने आप को पूरी सज धज से नीचे गिरता हुआ देख रही थी। बावजूद इसके उसने अपने को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया।
वह अपने पैरों के कंपन को गिनती हुई बैठी रही। कुछ घड़ी बाद उसे ऐसा लगा मानों अलावा पैरों के कोई और आवाज आ नहीं रही। बगल के कमरे से आती आवाज थम चुकी थी! वह सरपट उठी और बगल के कमरे तक पहुँची। झाँक कर देखा उसने। लड़की सो रही थी या ऐसा मान सकते हैं कि अपने बिस्तर पर लेटी थी। बहुत शांत सी। चित्त। साँवली। आँखों को साँवले हाथों से ही ढाँप कर।
लड़की का जन्म सातवें महीने में हो गया था। वह एकदम लिकलिक कमजोर सी थी। उसे रूई के फाहे में सहेज कर पाला गया इस तल्लीनता से कि वह गोरी है कि साँवली किसी के ध्यान में आया ही नहीं। इस सवाल से सामना सबसे पहले लड़की का हुआ और उसकी पहल पर वसुंधरा कार्णिक को इस सच का भान हुआ।
वसुंधरा कार्णिक पस्त चाल लौट आयी। उसने अपनी आलमारी से किताब निकाला और उसे ले जाकर लड़की के बुकशेल्फ में रख आयी। वह सुनियोजित ढंग से जमीन को देखते हुए गयी थी और जमीन को देखते हुए ही लौटने की बात भी तय थी इसीलिए ऐन उसके मुड़ते वक्त बुकशेल्फ पर रखी तस्वीर ने ही अपने आप को गिरा लिया |
जमीन पर। इजा कहलाने वाली स्त्री की आँखें छन्न से उस पर पड़ीं। लड़की टूट कर भी मुस्कुरा रही थी। वसुंधरा कार्णिक यह भूल गयी कि उसे काँच चुनने की बजाये आवाज को चिनगा कर चिल्लाना था - यहीं बुकशेल्फ में तो रखी है किताब ठीक से ढूँढ़ तक नहीं सकती! उफ! या ऐसा ही कुछ भी!
इवा कार्णिक को सत्रह सवाल मिले थे, जिनके जवाब छोटे छोटे होने थे। एक से दो डेग वाले। जवाब की कंजूसी ही वजह कि वह लंबे जवाब लिखने के बहाने देर तक कलम चलाते रहने का भ्रम भी नहीं रच पा रही थी। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा वह कलम की नोंक को कागज पर टिका कर सोचने का दिखावा भर कर सकती थी, जो उसने किया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अखबार पर झुका था। इजा सोफे पर बैठी थी चुपचाप से छत को ताकती - इवा कार्णिक ने पुतली और पलकों के बीच वाली जगह से महसूस कर लगा लिया यह हिसाब।
कलम की बजाये उसके हाथों में अगर पेन्सिल होती तो उसकी नोंक को सुरीली करने के बहाने से वह वक्त को कुछ आगे खींच कर ले जा सकती थी। लेकिन किसके लिए? वक्त को काट लेना उसकी जरूरत थी कि जवाब को कटने से बचा लेना! ऐसे वक्त में उसकी आँखों में आँसू आने चाहिए थे बेबसी के स्वाद वाले, पर आँसू आये नहीं। उसने आँखें बंद करके दोहराना शुरू किया एक किसी सवाल को मन ही मन इस उम्मीद से कि जवाब न सूझने की बेबसी में आँसुओं को आँखों तक का रास्ता दिखाया जा सके। पर हुआ क्या!
अभी सवाल अपने को तीन चार बार ही दोहरा पाया था और आँसू ने आँखों तक की अपनी यात्रा शुरू भी नहीं की थी कि चार अक्षर का जवाब भयानक आभा के साथ कौंध गया। इवा कार्णिक ने आँखें खोलीं और कॉपी पर पहला जवाब लिखा और आँखें वापस मूँद कर दूसरे सवाल को मन मन दोहराना शुरू किया लेकिन इस बार सवाल को तीन चार बार दोहराने की नौबत नहीं आयी। उसके काफी पहले ही सही जवाब की जगह एक आँसू पलकों के पीछे जाकर चिपक गया। इवा कार्णिक को इतनी जल्दी प्रतिक्रिया की उम्मीद न थी। पलकें हड़बड़ा कर खुल गयीं और उसने उस बूँद भर आँसू को अपने हिस्से के जवाब की राह देख रहे सवाल के बगल में लाकर धर दिया। इवा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसकी साँसें सीने में समा कर रह नहीं पायेंगी अब आगे। उसने अकबका कर बिना वक्त गँवाये बाकी के बचे रह गये पंद्रह सवालों के बगल में भी आँसुओं को धर दिया और कॉपी परीक्षक की ओर बढ़ा दी।
परीक्षक ने चार अक्षर के एक जवाब के आगे सही का निशान लगाया और बाकी की खाली जगहों को एक सरसरी निगाह से खँगाल कर कॉपी बंद कर दी। उसे तेज आवाज में लड़की की ओर देख कर चिल्लाना था, पर वह कंठ से भीतर की ओर जाने वाली आवाज में वसुंधरा कार्णिक की ओर देख कर घिसघिसाया - 'पुअर स्कोर!' वसुंधरा कार्णिक जो छत की ओर देख रही थी, छत की ओर देखते देखते ही समझ गयी कि बात उससे कही गयी थी और जवाब में विक्रम आहूजा से बोल पड़ी - 'तुमने सुना! सुबह सब्जी वाली बता रही थी कि ट्रक मालिकों की हड़ताल के कारण अगले छह सात दिन भी सब्जियों के भाव चढ़े रहेंगे!' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने कॉपी खोल |
कर उसके आगे बढ़ा दी - 'शी हैज स्कोर्ड ओनली।' वसुंधरा कार्णिक बिच्छू का डंक खाकर उसकी बात को अधूरेपन में काटती हुई उठी - 'तुम पढ़ायी जारी रखो। मैं देखती हूँ कि खाने में क्या बनाना है।'
वसुंधरा कार्णिक किचन का रास्ता भटक कर लड़की के कमरे में जा पहुँची। वहाँ थरथर काँपने के अलावा एक दूसरा काम जो उसने किया वह था बुकरैक से सोशल सांइस की किताब को निकाल कर तसदीक कर लेना कि वाकई उसने जीते जागते ऐसा छल किया या सोते सपने में ऐसा कुछ देखा भर उसने! किताब के कवर ने उँगलियों की कोर को छूकर बता दिया कि छल वाकई उससे ही हुआ था।
उसने अपने होठों को बायीं हथेली से ढक लिया इस मुस्तैदी से मानों उसके जबड़े अचानक दाँतों पर से अपनी गिरफ्त ढीली करने पर आमादा हो गये हों और वह उन्हें हर हाल में गिरने से बचा लेना चाह रही हो। उसके इस प्रयास से बिखरते दाँतों को तो फिर भी सँभाला जा सकता था पर एक तेज हूक को सँभालना उस जतन के बूते का भी न था। उँगलियों के पोरों से रिस कर आवाज कहीं कहीं बेपर्दा हो गयी थी, जिसे दूसरी हथेली से दबा कर कमरे की जद तक ही रोक लेने में कामयाब हो गयी थी वह।
दूसरे कमरे में सोफे पर बैठी इवा कार्णिक इस तरह बेपर्दा होती चीजों को दमसा कर रखने का ढब नहीं जानती थी। वह ढुलढ़ुल आँसुओं के झोंके में सुबकने लगी। ऊँचे कंधे वाला आदमी सिर झुकाये लगातार उसी कॉपी के खुले पन्ने को देखता था। लड़की की हिचकी की ताल पर उसकी पलकें फड़फड़ाती थीं। वह परख रहा था कि कहीं उसने जरूरत से ज्यादा कठिन सवाल तो नहीं रख दिये लड़की के सामने! कहीं मन ही मन वह चाह तो नहीं रहा था कि लड़की के अंक कम आयें और उसे शर्मिंदा होना पड़े। उसने दुबारा से पढ़ा तो सवाल सारे उसे आसान ही लगे। अगर वह वाकई वैसा नहीं चाहता था तो चुप तो करा ही |
सकता था लड़की को। इवा कार्णिक ने अपने आप चुप हो जाने के प्रयास में जोरदार सुबकी ली।
ऊँचे कंधे वाले आदमी ने अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न दिखाने के प्रयास में उस इकलौते सवाल को पढ़ा, जिसका जवाब लड़की ने सही लिखा था। सवाल को पढ़ने पर और उससे सटे जवाब को भी पढ़ने पर उसे लगा कि सवाल कठिन था, जवाब भी। वाकई! लड़की उधर उपसंहारसूचक दबी छिपी सिसकियाँ ले रही थी, इधर परीक्षक उसी सवाल के ऊपर नीचे वाले तमाम सवालों को एक एक कर कठिन सवालों के खाने में फेंकता जा रहा था। जैसे ही लड़की आखिरी हिचकी लेकर सामान्य हुई, वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका कि उससे चूक हो गयी थी और सवाल दरअसल कठिन थे। उसने कहा -'फिर से सवाल लिखो दूसरे! ये तो बहुत कठिन थे!' लड़की के होंठों ने एक शानदार झूठ का मौका नहीं गँवाया। वह मुस्कुरायी। उसकी आँखों में देख कर विक्रम आहूजा के लिए यह यकीन करना कठिन हो गया कि लम्हे भर पहले आती सिसकियों से इस लड़की का कभी कोई संबंध रहा होगा! उसके भीतर कहीं कुछ चिनगा - कहीं उसे खबर तो नहीं थी अपनी इजा और ट्यूटर के बीच सुबह हुई मंत्रणा की! और शाम भर वह जो सब कुछ कर रही थी वह झूठ तो नहीं! ढोंग!
वसुंधरा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसके जीवन से सारे स्वर निकल चुके हों और केवल ठस्स व्यंजन वर्ण बचे रह गये हों जिनके बगैर जीवन का कोई सार्थक मतलब न निकले, केवल ठूँठ संकेत खड़े हों जहाँ तहाँ। और उसका एक हाथ जिस संकेत को उघाड़ रहा होता है, दूसरा उसे ही ढक रहा होता है। अकेले लेटे रहने पर भी वह फैसला नहीं कर पा रही थी कि आखिर वह है किस तरफ! अपने पक्ष में? या अपना ही प्रतिपक्ष? और उसका अपना पक्ष ही कौन सा? लड़की की खुशी का पाला या उसके जख्म का पाला! या कि एक अलग ही खेमा, जिसमें सिर्फ कुंठाएँ थीं ईर्ष्या थी तिकड़म थे।
रात घुटनों तक नींद में धँस चुकी थी कि एक चूड़ी भर टूटन ने वसुंधरा कार्णिक को उठा कर बैठा दिया। उसने अपनी दाहिनी कलाई को उठा कर देखने की कोशिश की। अँधेरे में बगैर चश्मे के भी साफ साफ दिखा कि चूड़ियाँ थीं नहीं वहाँ। पर चूड़ियों के पहनाये जाने के निशान फिर भी रह गये थे उधर। और वह दर्द भी, जो कलाई में पहनायी जाती एक चूड़ी के टूटने से जन्मा था, उस आवाज के साथ जिसने उसे जगा दिया था। और सबसे बढ़ कर चूड़ियाँ पहनाने वाले हाथों का खुरदुरा स्पर्श जो सबसे साफ दिखायी दे रहा था। किसके हाथ! उसके पति के नहीं! वह उछल कर बिस्तर से कूद गयी। अगले ही पल कमरे में रोशनी थी। उसने अपनी कलाई को गौर से देखा, जो ऊपर से नीचे तक खाली थी। बेदाग भी। बायाँ हाथ उस पर फिराया उसने। टूटी चूड़ी का दर्द अब भी महसूस हुआ कहीं।
तो क्या कोई पिछला अध्याय था उसके अतीत के तहखाने में जिसने दिन रात दिमाग पर जोर डालने के बाद उसके सपने में ही सही, अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी थी! उसके जीवन में भी कभी कोई था जिसकी शक्ल नहीं कोई, पर जो था! वह नंगे पाँव लड़की के कमरे तक भाग कर गयी। उसे लगा कि उसके आस पास बल्कि उसके जीवन म |
ें ही कहीं बस लड़की ही बची रह गयी थी जिसके साथ वह अपने सुदूर अतीत से उड़ कर आया खुशी का एक पन्ना बाँट सके, जिस पर लिखा तो कुछ भी नहीं था, फिर भी जिसे पढ़ा जा सकता था। लेकिन एक कमरे के उजाले को लाँघ कर दूसरे कमरे के अँधेरे में दाखिल होने के रास्ते के बीचोंबीच ही उसे अहसास हो गया कि वह जो करने जा रही थी, उस काम को दरअसल बिना किये ही लौट आना था उसे बीच राह में। इवा कार्णिक के कमरे के मुहार से वापस लौटते समय उसकी चाल में एक इतराहट थी, जो अकसर चलते हुए पेटीकोट के तेज तेज फड़कने से सूँघी जा सकती है।
वसुंधरा कार्णिक गमले की मिट्टी को खुरपी से उलट पुलट रही थी। उसके किसी एक हाथ में सोने की एक पतली चूड़ी थी, जिस पर गीली मिट्टी के दाग उछल उछल कर लग गये थे जहाँ कहीं। लड़की उसकी बगल में जाकर बैठ गयी। उसने किसी बहाने से अपने हाथ गमले की कोर पर रखे। आईने में जो दिखता था उस पर एक तुलनात्मक अध्ययन की मुहर भर लगा लेना चाहती थी वह चोरी वाली सरसरी निगाह से। दोनों हाथों में दूरी थी फिर भी चमड़े के अंतर की पहचान करना वाकई नजर भर का काम ही साबित हुआ। हताशा ने पलक भर के वक्त में इतनी सधी तेजी से उसे अपनी गिरफ्त में लिया कि चोरी की बात को भूल कर वह बेलाग पूछ बैठी - 'मेरा रंग ऐसा कब तक रहेगा?'
वसुंधरा कार्णिक ने चौंक कर पहले उसे देखा, पीछे दोनों हाथों को। तीन अलग अलग भाव क्रम से उसके मन में आये। सबसे पहले ममता, उसके पीछे अपराधबोध और उसके भी पीछे कुटिल सी खुशी। उस तीसरे भाव के चंगुल में फँस कर उसने साँस छोड़ी - 'जन्म का रंग साथ कैसे छोड़ सकता है!'
लड़की ने अपने हाथ खींच लिए। वह बगैर वक्त गँवाये अपने कमरे की ओर भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत लंबी सी गंभीर साँस ली। उसका मन हलका हो गया और वह मिट्टी को द |
ुगुने उत्साह से उकटने लगी। ऐसे छलके उत्साह से कि पौधों की नाजुक जड़ों को खुरपी की धार से बचने के लिए अपने आप में अपने आपको छिपाना पड़ा। फिर भी गमले कम पड़ गये। और उत्साह बचा ही रह गया। पड़ोसियों के गमले का भी विकल्प था पर विवेक ने उत्साह की कलाई दबा दी। वसुंधरा कार्णिक सजग हुई अवश्य पर उत्साह में फीकापन नहीं झलका। उसने साड़ी का पल्लू कमर से निकाला और गमले पर पोतने के लिए गेरुआ रंग खरीदने वह चौक तक चल दी।
दुकान से दो कदम पीछे रह जाने पर उसे खयाल आया कि पैसे लेना वह भूल गयी। फिर भी उसका उत्साह नहीं कुम्हलाया। वह घर तक लौटी वापस। दुबारे के रास्ते में उसकी मुट्ठी में गेरू के लायक पैसे थे। गेरु के खरीदे जाने तक, घर वापस आने तक, उसके पानी में घुलाये जाने तक, गमलों की रँगाई शुरू किये जाने तक उत्साह की मात्रा टस से मस नहीं हुई। पर अभी एक तिहाई ही गमले रंगे गये कि अचानक उसका उत्साह खत्म हो गया। ब्रश चलते चलते अचानक थम गया। रंगे जाते हुए गमले में तीन चार अंगुल भर ही जगह बची रह गयी थी बेरंगी। पर ब्रश जहाँ रुक गया था उसके आगे एक कदम भी चलने से उसने इनकार कर दिया। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत प्रयास किया - अपने मन को ठुकठुकाया। हार कर उसे उलट भी दिया कहीं किसी कोने में दुबके रह गये तीन चार अंगुल भर उत्साह की तलाश में, पर मन एकदम खाली था। बूँद भर की भी गुंजाइश नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक ने हार कर अधरंगे गमले के आगे से अपने को उठा लिया। ब्रश पीछे जमीन पर ही पड़ा रह गया।
वसुंधरा कार्णिक अपने कमरे में आकर उकड़ू बैठ गयी कि लेट गयी। कुछ घड़ी ठहर कर किचन से बरतन के निकाले जाने की, खाना परोसे जाने की, परसन लिए जाने की, थाली वापस धोये जाने की, बरतन रखे जाने की छिटपुट आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। लड़की के कमरे से कपड़े बदलने की, दो दो चोटियाँ गूँथने की, ट्यूब को खोज कर ट्यूब तो खो चुकी है यह याद करने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। ड्राइंग रूम से गहरे गहरे कदमों से किसी के चलने की, घर का दरवाजा खोलने की, बाहर निकल कर फिर से उसे सटा देने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक बस हिली नहीं।
वह उछल कर बिस्तर से उतर गयी। बिना क्रीम वाले साँवले चेहरे में लड़की के विदा ले चुकने के बाद वसुंधरा कार्णिक ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया। उसके पास एक खतरनाक इरादा था। उसने आईने को अपने आगे खड़ा कर दिया। उसने अपने बालों से जिम्मेदारी के भार से अर्धवृत्ताकार हो चुके क्लिप को निकाल फेंका। बालों में बेमौसम एक तिरछी क्यारी निकल गयी और वसुंधरा कार्णिक अपनी आँखों में आँखें डाल कर सरपट दो चोटियाँ गूँथती चली गयी।
अगली छापामारी में साड़ी के पिन को निशाना बनाया गया। साड़ी को नाभि के पास से एक बार पकड़ कर बेदखल कर दिया जाय तो साड़ी लगभग खुली चुकी मान ली जा सकती है। वसुंधरा कार्णिक ने अपने चालीस साल के अनुभव की बिना पर साड़ी को सबसे कम समय में पूरी तरह खोल देने का शार्टकट अपनाया। वह साड़ |
ी के फंदों को तड़पा कर इवा कार्णिक की आलमारी तक दौड़ गयी।
लड़की के तूफानी स्कर्ट्स, जींस और नाइटसूट के बीच से कुर्ता सलवार का जोड़ा बीनना था कठिन पर उसकी पकड़ में एक सलवार की मोहरी आ ही गयी। सलवार में साढ़े तीन मीटर कपड़े दुबके पड़े थे। पर उसकी जोड़ का पटियाला कुर्ता वसुंधरा कार्णिक को अपने में कभी भी समा नहीं पाता। एक दूसरे, जिप से खुल सकने वाले कुर्ते की जिप खोले खोले वह गले के रास्ते प्रवेश तो कर सकती थी पर कमर के ऊपर आकर यहाँ भी बात अटक जाती थी। वह वापस उसी रास्ते कुर्ते से बाहर आ गयी और उसने अपने शरीर के अगले हिस्से के आगे कुर्ते को बस खड़ा कर दिया और उसके पीछे से झाँक कर आईने को इस भ्रम में डालने के इरादे से देखने लगी मानों उसने कुरता सच का पहन ही रखा हो! इस भ्रम के सीने पर दो चोटियाँ डुलाते हुए अपने आप को अतीत के तहखाने तक खींच ले जाकर अपनी खोज को जारी रखने का जुनून, अपनी दयनीय पहचान को टुकुर टुकुर तकने के अभियान में बदल गया।
शाम गहरा गयी थी और लड़की अभी तक लौटी नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक को ऐसे वक्त में घर के दरवाजे पर होना चाहिए था चहलकदमी करते हुए और उसकी धड़कन को सीने से बाहर आकर धड़कना चाहिए था अपनी गति की सीमा लाँघ कर। पर वर्तमान में वसुंधरा कार्णिक अँधेरे कमरे में लेटी थी और उसका दिल भी टिम टिम किस्म का धड़क रहा था। अचानक कमरे की बत्ती जली और वसुंधरा कार्णिक की पुतलियाँ बहुत धीमे धीमे मुड़ीं उस तरफ, जहाँ से आवाज आयी - 'आप ऐसे लेटी हैं! मेरे कमरे में!'
एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'तुम भीतर कैसे आयी!'
'दरवाजा खुला था। मैं अंदर आ गयी।'
एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'कहाँ थी इतनी देर तक?'
'स्कूल के बाद सर के साथ चली गयी थी।'
एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'किससे प |
ूछ कर?'
'आप इतनी चुप क्यों हैं? तबीयत।'
एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'शाम हो गयी क्या?'
'रात होने वाली है।'
वसुंधरा कार्णिक बहुत आहिस्ता से उठ कर बैठ गयी। लड़की उसके पास आकर बैठ गयी - 'दरवाजा खुला कैसे रह गया।'
'भूल हो गयी होगी! तेरी ट्यूशन का वक्त।'
लड़की ने चहक कर कहा - 'वे अब नहीं आयेंगे। कल सुबह वे शहर छोड़ कर जा रहे हैं।'
एक सवाल जो यहाँ कतई नहीं किया जा सकता था - 'नहीं आयेंगे! मतलब?'
लड़की ने पलकें झपकायीं - 'यहाँ नहीं आयेंगे!'
एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'कैसे नहीं आयेंगे!'
'जैसे नहीं आया जाता है वैसे ही।'
एक सवाल जो यहाँ कभी नहीं किया जा सकता था - 'मेरा क्या होगा।'
लड़की ने मुस्कुरा कर कहा - 'आप दो चोटियों में अच्छी लगती हैं।'
वसुंधरा कार्णिक के होंठों के बीच फाँक बन गयी और उसके हाथ चोटियों की जड़ तक जाकर बंधन को खोलने लग गये। होंठों की फाँक में तसल्ली थी कि पंद्रहवें सोलहवें सत्रहवें साल से खौफ का काँटा निकल गया था। चोटी की जड़ में हूक थी कि काँटे की वजह से उसकी सफेद जिंदगी में ईर्ष्या, तलाश, बेचैनी, दर्द के जो रंग आये थे, वे सब अब नेपथ्य में चले जायेंगे फिर से और हलचल की अगली तलाश तक वापस जिंदगी सफेद होगी। कोरी।
लड़की मुस्कुरायी हालाँकि गैर तैलीय त्वचा पर हल्की मूँछों का मौसम था और छनछनाहट होती थी होंठों के ऊपर, मुस्कुराने में। फिर भी। उसके होंठ कहते थे कि अब तक जो कुछ भी उसने कहा वह सिरे से सच था। लड़की की आँखों में पारदर्शी कुछ चमक रहा था। उसकी आँखें सुनती थीं कि होंठ जो कह रहे थे वह पाँव तक झूठ था।
रात अभी भी हल्की साँवली थी। वसुंधरा कार्णिक अभी भी खड़ी थी, पर अपने कमरे की खिड़की से लग कर। और बहुत घड़ी बाद उसे होश आया कि वह हाथ खिड़की से बाहर फैलाये खड़ी थी। यह उसके जीवन की सबसे भयानक नाटकीय मुद्रा थी, पर इसकी सुध आने पर भी वह अपने हाथों को वापस नहीं खींच सकी। हाथ अकड़ गये थे कि मच्छरों ने आगे बढ़े हाथ पर धावा बोल दिया था। कुछ भी। फिर भी।
बल्कि वह रात को जागी ही थी, यह तक यकीन से नहीं कहा जा सकता। उस रात का यकीन बगल के कमरे से आते महीन पंद्रहसाला खर्राटे पर टिका था। जमाने बाद लड़की सो रही थी, जबकि वसुंधरा कार्णिक जाग रही थी या शायद सो नहीं रही थी। जो भी था, सुबह हो चुकी है यह सूचना रात को पहले पहल उसने ही दी।
और सूचना देने के फौरन बाद वह घर से बाहर निकल गयी। गंतव्य तक पहुँचने के पहले की उसकी उधेड़बुन एक असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि शहर छोड़ कर जाते हुए किसी व्यक्ति को रोक कर रख लिया जाय, पर वहाँ पहुँचने के बाद की उसकी उधेड़बुन उससे भी ज्यादा असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि कुछ भी छोड़ कर कहीं भी जाने का कोई ख्याल न रखने वाले आदमी के आगे अपनी इस कुसमय उपस्थिति को जायज साबित किया जा सके।
इतवार के दिन वह चाहती थी कि लड़की को दिन में भी पढ़ाया जाय जैसा कुछ। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया था कि लड़की के नाम से जरा सा |
भी संबंध होने पर झूठ अपने को खुद ब खुद गढ़ लेता था। लड़की के नाम का जिक्र आते ही उसकी मुट्ठी बँध गयी। मुट्ठी के साथ धोखा हुआ था!
विक्रम आहूजा जाग कर उठा था। वसुंधरा कार्णिक ने घर पर नजर दौड़ायी। घर को 'कहीं जाना है' की खबर तक नहीं थी। हालाँकि वह ड्रांइग रूम में थी और उस कमरे में ऐसा कोई सामान अमूमन हुआ नहीं करता था, जिसकी सज धज को घर के मालिक के पलायन का प्रतीक करार दिया जा सके। फिर भी उसने सूँघ लिया दीवारों से कि जाना वाना किसी को नहीं था। इतने के बावजूद भी उसने पूछ लिया - 'कहीं निकलना तो नहीं तुम्हें?'
विक्रम आहूसजा को भी कैसे तो लग गया कि उस सवाल का जवाब नहीं देने से भी काम चल जायगा उतने ही कदम, जितने कि जवाब देने से चलता।
विक्रम आहूजा को तुरत फिर से एक बार कैसे तो लग गया कि वह इतनी सुबह सुबह उसे अपने साथ ले जाने ही आयी है। वह चार उँगलियों की लचक से आगंतुक को बैठा कर अपने को तैयार करने भीतर की तरफ भागा।
वापसी के रास्ते में वह विक्रम आहूजा के आगे आगे खरहे की तरह फुदक रही थी। वह खूब गहरी गहरी साँसें ले रही थी और उसे लग रहा था कि रोज सुबह ताजा हवा में सैर न करके उसने कितने तो स्वास्थवर्धक पल गँवा दिये। अपार्टमेंट में नीचे बित्ते बित्ते भर की गुलदावदी पसरी थी। उन्हें भर आँख देख कर उसे अहसास हो रहा था कि उसने अपनी बागवानी में कोताही कर कितने तो बित्ते बित्ते भर के अचम्भे गँवा दिये। एक साँस में और एक नजर भर में इतनी चीजें गँवा देने के बाद भी वह खुश थी। वह साड़ी के फंदों के नीचे दोनों एड़ियाँ जोड़ कर और अँगूठे छितरा कर चल सकती थी या कि अँगूठे ही जोड़ कर और एड़ियाँ छितरा कर। उसने पीछे घूम कर कहा फिर से या पहली बार पता नहीं। कुछ भी। फिर भी उसने कहा - 'तुम्हें कहीं जाना तो नहीं था!' |
जवाब जानने के लिए उसे कानों की नहीं आँखों की जरूरत पड़ेगी। वह जानती थी। उसने विक्रम आहूजा को न में गरदन डुलाते हुए देख लिया, तब आँखों को वापस मुड़ने की राह पर डाला उसने लगभग अपने आप को गिरा हुआ ही महसूस किया। विक्रम आहूजा ने कूद कर उसे सँभालना चाहा पर तब तक एड़ी मुड़ चुकी थी!
'क्या हुआ?'
'छल! क्या तुम भी इसमें शामिल थे!'
वसुंधरा कार्णिक ने सिर झुका लिया - 'कुछ नहीं। गड्ढा था।'
विक्रम आहूजा ने उसके चेहरे को पहली बार देखा खुलेपन में। उसे लगा वह किसी अजनबी भाषा में सरपट बुदबुदायी कुछ। विक्रम आहूजा ने आँखों को बंद कर फिर से खोला। उसे लगा कि हालाँकि सामने वाली स्त्री से पूछा नहीं गया उसके पहले के कहे का मतलब फिर भी वह गालों में गड्ढे धँसा कर मुस्कुरायी बस। उसने याद करने की कोशिश की कि उस स्त्री के गालों पर गड्ढे पहले कभी पड़ते भी थे क्या! पर जवाब में उसे आयरिश गड्ढों की गहरायी ही याद आयी केवल। उसने देखा वसुंधरा कार्णिक उससे फर्लांग भर आगे निकल चुकी थी। उसे लगा कि बादलों का एक गुच्छा बिना उसको छुए ऊपर से निकल गया।
अपने घर के भीतर घुसने के लिए वसुंधरा कार्णिक को दरवाजे पर दस्तक भी नहीं देनी पड़ी। परदा दरवाजे का, घुटने उठा कर लहरा रहा था। लड़की ड्रांइग रूम में पार्टिशन के उस तरफ किताबें बिखरा कर अध्ययन कक्ष की परिकल्पना साकार किये तैयार बैठी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी को मालूम था कि उसे कहाँ बैठना है मंच पर। उसने बैठते ही सामने की किताब उठा ली। रोशनी का घेरा उन दोनों के ऊपर से उठ चुका था। वसुंधरा कार्णिक पार्टिशन के उस पार भीतर की तरफ बढ़ गयी।
उस पार कदम धरते ही दीवार मिल गयी, जिससे टिक कर नीचे नीचे और नीचे ढहना संभव हुआ। बैठते ही वसुंधरा कार्णिक का जूड़ा ढलक कर खुल गया पूरी तरह बाल की लंबाई में। परदों की ढँकास से आती अलसायी रोशनी में अंधकार का एक सुडौल वृत्त, उसके चेहरे की नाप जोख का, सामने खड़ा हो गया। वसुंधरा कार्णिक ने अपने डिम्हे के बंजर भूरेपन में उस वृत्त को देखा। आईने के सुकून से।
धोखा था यह! पर उस प्रजाति का जो खाये जाने के लिए ही बना था। अँधेरे के वृत्त में जो चेहरा दिखता था वह जवान था। वसुंधरा कार्णिक हड़बड़ा गयी। उसने दोनों हाथों से आईने को पकड़ लिया और उसे हिला डुला कर हर ऐंगल से सच को परखने लगी। पर सच वही था। जवान जवान और जवान होता जाता चेहरा, वसुंधरा कार्णिक के हाथों से हड़बड़ी में आईना छूट गया और उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को थाम लिया। पर आश्चर्य कि आईना टूटा नहीं! टूटा नहीं क्या वह गिरा तक नहीं! गिरा नहीं भी नहीं, बल्कि वह डिगा तक नहीं अपनी जगह से। वह टँगा रहा उसके चेहरे के सामने, जवान चेहरे के सामने।
वसुंधरा कार्णिक घसीट कर उसके और करीब सिमट आयी। इतनी कि उसकी नाक की नोक से आईने के उस पार वाले जवान चेहरे के गालों में गड्ढे पड़ जायें। पर हुआ उल्टा। आईने के भीतर की पलकें वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर लकीरें खींचनें लग गयीं। वसुंधरा कार्णिक ने उँगली |
के पोर से उन्हें मिटाने की कोशिश की पहले।
फिर उन निशानों को जिन्हें उम्र की पलकों ने उगा रखा था उसके अपने चेहरे पर। पर मिटने की बजाय वे लेपाने लग गयीं चेहरे पर। वसुंधरा कार्णिक को बल्कि ऐसा दिखा आईने में कि लड़की आ गयी वहाँ - अपनी उँगलियों से फेयरनेस क्रीम को चेहरे पर लपेसती लड़की।
वसुंधरा कार्णिक के सीने को बाँस की खपच्ची के तीखेपन से छीला किसी ने। उसे दुनिया अच्छी नहीं लगी। उसने दाहिनी हथेली को बढ़ा कर आईने के वृत्त को ढाँक दिया। उसका माथा नीचे झुका। नीचे उस रोज के टूटे फोटोफ्रेम के काँच का एक कोई टुकड़ा रह गया था, उसके चुनने से बचा हुआ, कोई दूसरा वक्त होता तो वसुंधरा कार्णिक चौंक सकती थी। घर की सफाई में हुई अपनी इस चूक से। पर इस वक्त उस टुकड़े ने उसे समेट लिया। टुकड़े के तीखे कोरों से कटी तस्वीर में आड़ी तिरछी झुर्रियाँ और एक मोटी सफेद लट थी।
वसुंधरा कार्णिक ने आँखें बंद कर लीं। उसे चुनना था किसी एक को। गरदन उठा कर अँधेरे के वृत्त को या गरदन झुका कर काँच के टुकड़े को। उसे आगे जाना था कि लौट जाना था पीछे। वसुंधरा कार्णिक ने गरदन ऊपर उठा कर आँखें खोल दीं। पिछला अगले पर भारी पड़ा था। फैसला हो चुका था। पर अँधेरे का वृत्त नहीं था वहाँ कहीं भी! आईना नहीं था न शक्ल कोई! उसने भयानक चेहरे से दोनों हाथों को खोल कर घुमाया हवा में। तलाश। कहीं कुछ नहीं था। उसकी साँसों से एक तेज चिघ्घार की परछाईं निकली।
वह खड़ी हो गयी।
उसने डग बढ़ाये दोनों हाथों से।
फिर भी कुछ नहीं था।
कुछ था!
उसके पैरों में कोई टुकड़ा चुभा।
या ऐसा ही कुछ भी।
वह बिलबिला कर नीचे बैठ गयी।
उसका माथा घुटने पर ढुलक गया था।
उसने एक उँगली को जमीन पर डग भर आगे बढ़ा दिया किसी तीखे कोर वाले टुकड़े की तलाश में।
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यूँ तो सरसरी तौर पर यह एक सनसनीखेज फिल्मी पटकथा है जिसे पढ़ते हुए डर है कि कहीं लोग किसी ब्लू फिल्म का आनंद न लेने लगें। हालाँकि ब्लू फिल्म में भी कहीं कोई आनंद होता है, यह एक अलग विवाद का विषय है। फिलहाल इस कहानी में कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ तो ऐसा है जो इस अनजान अबोध लेखक को बाध्य कर रहा है लिखने को, और लिखना भी ऐसा कि रातों की नींद हराम हो जाए।
तो लिखना पड़ रहा है, इस डर के साथ कि लोग पढेंगे और हँसेंगे। हालाँकि हँसना अच्छा है, स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी कभी कोई कहानी पढ़कर हँसना त्रासद भी हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे किसी ब्लू फिल्म का आनंद त्रासद होता है।
तो मित्रो, यह कहानी की भूमिका थी और मुझे लगता है कि जरूरी थी। क्यों जरूरी थी, इसका कोई जवाब नहीं है मेरे पास। सिर्फ कुछ संभावनाएँ हैं और उन संभावनाओं से ही इस कहानी का विकास होना है।
पहली संभावना यह कि कथाकार को डर है एक ऐसी फिल्मी पटकथा से जिसमें एक होता है नायक और एक होती है नायिका। दोनों पूरे नौ दिन संभोगरत रहते हैं। सो भी खजुराहो के किसी बियाबान होटल में। जंगल में नहीं रहते, यही गनीमत है।
खजुराहो में नायक और नायिका का नौ दिनों का संभोग यहाँ कोई रूपक नहीं है। यह दरअसल कई रूपकों का एक रूपक है। दिक्कत यह है कि मिथकों के इस देश में इस कार्यक्रम के लिए फिलहाल हमारे पास ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इसकी संपूर्ण व्याख्या कर सके। इसलिए हम इसे संभोग ही कहेंगे। हालाँकि मनोरंजन की तर्ज पर कुछ लोग इसे तनोरंजन भी कहते हैं। लेकिन उससे अर्थ की जटिलता कहीं और ज्यादा जटिल न हो जाए, इसलिए फिलहाल उसे छोड़िए और आइए अपने उस मूल कथानक की तरफ जहाँ वस्तुतः कथाकार की इन ऊलजलूल बातों और शुरुआतों का सार छिपा है।
इस कथानक का नायक है एक कलाकार जो वस्तुतः आवारा है और बेवजह चित्र बनाता है।
इस कथानक की नायिका है भारतीय मूल की एक धनाढ्य फ्रांसीसी युवती जो वस्तुतः एक टूरिस्ट है और भटकते-भटकते यहाँ आ पहुँची है खजुराहो में।
खजुराहो का इतिहास एकाएक जाग उठा है इन दोनों के यहाँ आने से, और कहानी है कि बार-बार भागना चाहती है इतिहास की उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में जहाँ चंदेल वंश के परम प्रतापी राजा धंगदेव ने कभी एक सपना देखा था।
सपने में उन्होंने जो देखा वह इतिहास की नहीं, बल्कि इतिहास के बाहर की कथा है। कहते हैं कि राजा धंगदेव काफी उदार, स्नेहिल और प्रजावत्सल राजा थे। जैजाकभुक्ति का उनका सिंहासन इंद्र के सिंहासन से कहीं जाता अटल माना जाता था। इतिहास का यह वही दौर था जब पूरे हिंदुस्तान में कहीं कोई केंद्रीय शक्ति नहीं बची थी। दक्षिण में राष्ट्रकूटों का पराभव हो चुका था और कन्नौज पर एक कमजोर और नपुंसक राजा राज्य कर रहा था। उत्तर में गहड़वाल थे, दक्षिण में पांड्य, होयसल, चालुक्य और यादव। दिल्ली में जरूर चौहानों के सशक्त दावेदार काबिज हो चुके थे। पश्चिम में मुल्तान की सीमा उस समय भी सबसे कमजोर सीमा मानी जाती थी और हर समय मुस्लिम आक्रांताओं का खतरा वह |
ाँ मंडराया करता था। पूरे हिंदुस्तान का कहीं कोई नक्शा नहीं था और सीमाओं में अक्सर उलटफेर हो जाया करते थे।
जिस समय राजा धंगदेव ने वह सपना देखा उस समय भी जैजाकभुक्ति के चंदेल कन्नौज के प्रतिहार नरेश से युद्ध में व्यस्त थे।
चूँकि राजा धंगदेव का सपना इतिहास के बाहर की कथा है इसलिए इतिहास में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन राजा धंगदेव ने सपना देखा था और सपने में उन्होंने देखा कि तंत्र की अधिष्ठात्री देवी तारा अपने प्रचंड आवेग में प्रकृतिस्थ हो, उनके निकट और निकट चली आ रही हैं। उनकी देह का अपना एक व्याकरण, अपनी एक भाषा थी।
देवी तारा हँसीं और भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँजने लगा।
"मुझे भक्त नहीं, प्रेमी चाहिए राजन!" देवी तारा एक कुटिल मुस्कान से मुस्कराईं। राजा धंगदेव काँपने लगे। एकाएक देवी तारा की वीभत्स नग्न मुद्रा एक लावण्यमयी चंचल सुकुमारी में तब्दील होने लगी। राजा ने देखा की वह चंचल सुकुमारी और कोई नहीं, उन्हीं की पुत्री राजकुमारी अलका थी।
उधर प्रतिहार नरेश से युद्ध चल रहा था और इधर राजा धंगदेव अपने उस सपने का गूढ़ार्थ खोजने में अपनी तमाम राजनीतिक प्रतिभा को दाँव पर लगा रहे थे। कवि, ज्योतिषी, तांत्रिक, साधु, संन्यासी सब के सब राजा का सपना विचार रहे थे और इधर देवी तारा थीं कि हर रात पंचमकार में लिप्त अपने भक्तों पर जादू कर रही थीं।
राजा का सुख, चैन सब छिन गया, भूख मर गई, नींद हराम! अराजकता के उसी दौर में राज्य में एक भयानक महामारी आई। जैजाकभुक्ति के चंदेलों का सिंहासन डोलने लगा। यह वही सिंहासन था जो कभी इंद्र के सिंहासन से कहीं ज्यादा अटल माना जाता था।
राजा मौन थे और सिंहासन डोल रहा था।
उस भूखे कलाकार की खोज में राज्य की पूरी सैन्यशक्ति लगा दी गई और अंततः कलाकार ढ |
ूँढ़ लिया गया। भूख से बेहाल, फटेहाल कलाकार ने बताया कि देवी तारा निरंतर उसके स्वप्नों में भी आती रही हैं और प्रेम की भीख माँगती हैं।
राजा स्तब्ध। चिंतातुर। उसने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से परामर्श किया।
मगर राजा धंगदेव के स्वप्निल नेत्र इस महादेश की उस मिथकीय दुनिया में चले गए थे जहाँ कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान महादेव को एकाएक ज्ञात हुआ कि इस महादेश का काम कुंठित हो गया है। उस समय देवासुर संग्राम चल रहा था और बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ चिंतातुर क्षीरसागर पर टहल रहे थे। युद्ध और युद्धातुर शक्तियों को रोकने का अब कोई विकल्प नहीं बचा था और उधर असुरों की प्रचंड शक्ति देवताओं को छिन्न-भिन्न कर रही थी।
युद्धलिप्सा से त्रस्त भगवान महादेव ने एकाएक एक निर्णय लिया और देवी पार्वती के साथ नौ दिनों के महाअनुष्ठान पर चले गए। युद्ध चल रहा था और भगवान महादेव अज्ञातवास पर थे।
अज्ञातवास का एक-एक दिन जब बरसों लंबा खिंचने लगा तब बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ की व्याकुलता बढ़ी। वे दौड़ पड़े उस एकांत स्थल की तरफ जहाँ भगवान महादेव उस महाअनुष्ठान में रत थे।
उस महाअनुष्ठान में रत भगवान महादेव की ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही थी और मस्तक पर किशोर चंद्रमा अपनी शीतल रश्मियाँ बिखेरते हुए विराजमान था।
द्वारपाल ने भगवान जगन्नाथ को उस महाअनुष्ठान कक्ष में जाने से रोक दिया। शिष्टाचारवष भगवान जगन्नाथ रुक गए। लेकिन कब तक? दो दिन, चार दिन पूरे नौ दिन तक भगवान महादेव अनुष्ठान कक्ष से बाहर नहीं निकले। सहस्रबाहु भगवान जगन्नाथ को क्रोध आ गया। दनदनाते हुए पहुँचे गर्भगृह में और जो देखा वह सृष्टि का वही रहस्य था जो कभी कहा नहीं गया और जिसे कहने के प्रयास में इस धरा-धाम के तमाम कवि-द्रष्टा पागल हो गए।
युद्ध लिप्सा से त्रस्त और क्रोध के वशीभूत सहस्त्रबाहु भगवान जगन्नाथ ने भगवान महादेव को जो शाप दिया उसके अनुसार उन्हें इस मर्त्यलोक में युग-युगांतर तक लिंग-योनि के रूप में ही पूजा जाना था। भगवान महादेव के लिए यह शाप एक वरदान भी था।
राजा धंगदेव तत्पर थे इस अधिकार को देने के लिए मगर इधर राजकुमारी अलका थीं कि राजा का प्रतिपक्ष बनी हुई थीं। पूर्व के तांत्रिकों का समूह नित नई दार्शनिक व्याख्याएँ दे रहा था और भूख से पीड़ित कलाकार शिल्पी तटस्थ द्रष्टा की मुद्रा में आ गया था।
राज्य के सभी स्त्री-पुरुषों को देह का अधिकार मिल चुका था। दुंदुभि बज रही थी। समाज के तमाम नीतिज्ञ पुरुषों का विवेक देवी तारा ने एक ही झटके में हर लिया था।
भगवान महादेव का आशीर्वाद, देवी तारा की इच्छा कि खजुराहो की इस पुण्यभूमि में एक मोक्षमार्ग बने, लिंग-योनि की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जाए, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा।
कलाकार को बुलावा आया। वह भूखा-नंगा कलाकार ही अब जैजाकभुक्ति के चंदेलों की कीर्ति बचा सकता है। काम के इस उद्दाम वेग को रोकना अब बस इस भूखे-नंगे कलाकार के हाथों में ही शेष है।
देवी तारा फिर एक बार लावण्यमयी, चंचल, सुकुमारी राजकुमारी अ |
लका में तब्दील होने लगी और कलाकार... वह राजकुमारी अलका की तटस्थ भाव से नग्न मूर्तियाँ बना रहा था।
इतिहास का वही एक छोटा लम्हा ठीक एक हजार साल बाद आज फिर खजुराहो की उसी पुण्यभूमि में खुद को दोहरा था। वह फ्रांसीसी युवती जो इस पटकथा की नायिका है, नग्न देह धारण कर निद्रामग्न है होटल के एक कमरे में और ब्राह्मण पुत्र हमारा कलाकार नायक कागज-पेंसिल लिए उसके चित्र खींच रहा है।
वस्तुतः इस कहानी का प्रारंभ यहीं से है। ऊपर जो कुछ कहा गया, वह तो इतिहास की एक गप्प मात्र थी जिस पर ध्यान न देना ही श्रेयस्कर होगा।
तो, हमारा कलाकार नायक अपनी कलात्मक दृष्टि से उस फ्रांसीसी नायिका को देख रहा है। देख रहा है और काँप रहा है। उसकी दृष्टि केंद्रित है और होंठों से अस्फुट से कुछ शब्द फूट रहे हैं जो देखते-देखते खजुराहो के पूरे इतिहास में गूँजने लगते हैं।
कुछ ऐसा ही कहती है वह फ्रांसीसी नायिका भी हमारे कलाकार नायक से। और हमारा कलाकार नायक उसके न्यूड स्केच का अंतिम स्ट्रोक मारता है।
'अहम् विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।
मैं अपनी ऐश्वर्यशक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने अपने समेट लिया है। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूँ। तुम स्थिर हो जाओ।
कलाकार नायक स्थिर खड़ा है और सिगरेट का धुआँ निगल रहा है। फ्रांसीसी नायिका बिस्तर पर अलमस्त बिखरी हुई है। उसकी नीली, गहरी आँखें कलाकार नायक के पूरे अस्तित्व को छेद रही हैं... गहरे... बहुत गहरे तक!
"इट मींस?" फ्रांसीसी नायिका ने पूछा।
"ईश्वरीय मैथुन!" एक निःश्वास छोड़ते हुए कलाकार नायक ने कहा।
और फिर पल भर का सन्नाटा। दो जोड़ी आँखें जैसे एक साथ ओम् मणि पद्मे हुम् का जाप करने लगीं।
"देखो, कमल में रत्न छिपा है!" देवी तारा का आश्वासन।
यहाँ हम |
एक छोटा-सा ब्रेक लेकर कहानी को थोड़ा-सा 'फ्लैशबैक' में ले जाएँगे ताकि बात कुछ और साफ हो सके। दरअसल, जिस समय हमारा कलाकार नायक और वह फ्रांसीसी खजुराहो के होटल के उस कमरे में संभोगरत थे ठीक उसी समय भारत के धुर पश्चिमोत्तर प्रांत में अपने समय के महानायक भगवान बुद्ध पाँच-पाँच परमाणु विस्फोटों की उपस्थिति में एक कुटिलता से मुस्कुराए थे। यह तो आप सब जानते ही हैं कि दुनिया की हर चीज इस कदर जुड़ गई है कि अलग से किसी चीज की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। सो, भगवान बुद्ध की वह कुटिल मुस्कान भी अलग से कल्पनातीत थी। दूसरी तरफ 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद था जो सूचना क्रांति के इस युग में भगवान बुद्ध की उस कुटिल मुस्कान के साथ इस कदर जुड़ गया था कि आश्चर्य होता था।
और सचमुच वह भी एक आश्चर्यलोक था जहाँ हमारा कलाकार नायक और फ्रांसीसी नायिका एकाएक पहुँच गए थे। हालाँकि एकाएक भी एकदम से एकाएक नहीं होता। उसके पीछे भी कई एक और अनेक होते हैं। सो, 'ब्रेक' के बाद की यह कहानी उन्हीं एक और अनेक की कहानी है।
तो मित्रो, हमारा कलाकार नायक शुरू से ही एक आम घर का बेरोजगार लड़का था और फ्रांसीसी नायिका शुरू से ही एक बड़े घर की बिगड़ैल लड़की थी। बहुत पहले की बात है। कलाकार नायक के पिता अपने गाँव से चलकर एक छोटे से कस्बे में आए थे और फ्रांसीसी नायिका के पिता उसी छोटे कस्बे से चलकर फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुँचे थे। विस्थापन दोनों का हुआ था। लेकिन... लेकिन कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता ने उस छोटे कस्बे में लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाई और फ्रांसीसी नायिका के पिता पेरिस जाकर कलात्मक भारतीय वस्तुओं का व्यापार करने लगे। यह उतना ही बड़ा अंतर था जितना कि जमीन और आसमान के बीच होता है। सो, जमीन और आसमान का यह अंतर कलाकार नायक और उस फ्रांसीसी नायिका के जीवन पर भी पड़ा और... और फिर वही दोयम दर्जे की फिल्मी प्रेम कहानी चली जो अक्सर गरीब और अमीर के बीच चलती है।
तमाम मिथकीय कथाओें के बीच गुजरा कलाकार नायक का बचपन जहाँ छोटी-से-छोटी चीजों के लिए तरसता था, वहीं पेरिस में गुजरा फ्रांसीसी नायिका का बचपन खुद अपने आपमें एक मिथक था। सूचनार्थ बता दें कि फ्रांसीसी नायिका के पिता ने फ्रांस में कलात्मक भारतीय वस्तुओं के व्यापार से धन ही नहीं जोड़ा, बल्कि अपनी पुत्री यानी हमारी फ्रांसीसी नायिका की कलात्मक सनकों में भी काफी इजाफा किया था।
यह उस समय की बात है जब विश्व बाजार में भारतीय चीजों की कीमत एकाएक बढ़ गई थी और सारा विश्व भारतीय सौंदर्यबोध पर अभिभूत था। शासक-प्रशासक कवि हो गए थे और कविता का बाजार भाव सातवें आसमान पर था। उस छोटे-से कस्बे में भी जहाँ हमारे कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाया करते थे और खुद जहाँ हमारा कलाकार नायक बेरोजगारी के दिनों में फांके किया करता था, टीवी और अन्य इतर माध्यमों के जरिए बंबई स्टॉक एक्सचेंज की खबरें आने लगी थीं। बावजूद इसके कि हमारे कलाकार ना |
यक को टीवी के पर्दे पर बंबई स्टॉक एक्सचेंज की भव्य इमारत काफी खूबसूरत लगती थी, वह समझ नहीं पाता था कि शेयर सूचकांक का उठना-गिरना किस तरह उस देश के शासक-प्रशासक की कविता से जुड़ा है। लेकिन... यह सब था और इसके साथ ही और तमाम बातें थीं जो कथा से संबंध न रखते हुए भी संबंध रखती हैं। अब जैसे यही कि अपनी तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद पेरिस में ऐंटीक के सबसे बड़े व्यापारी की पुत्री एकाएक भारत आने की जिद कर बैठी, वो भी तब जब भारत में एक तरह की अघोषित इमरजेंसी लगी हुई थी। बुद्ध मुस्कुरा रहे थे और बेरोजगारी में फांके करता हमारा कलाकार नायक भागकर खजुराहो आ गया।
खजुराहो में उसने गाइड का धंधा किया और महाराज धंगदेव के कल्पित सपने का गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगा। यूँ भी उसका पूरा जीवन इन्हीं मिथकीय आख्यानों में रचा-बसा था।
फ्रांसीसी नायिका चूँकि 'अपने' इतिहास की खोज में आई थी इसलिए कलाकार नायक से उसका संबंध महज एक संयोग भी हो सकता है। और सच पूछिए तो यह पूरा आख्यान ही उन सहज संयोगों का एक विराट प्रतिबिंब है जो देवासुर संग्राम के दौरान भगवान महादेव के अनुष्ठान से चलकर महाराज धंगदेव के सपनों में आया था और फिर बीसवीं सदी के अंत में खजुराहो के किसी बियावान होटल में उस फ्रांसीसी नायिका और हमारे कलाकार नायक के बीच एक असहज संभोग का कारण बन गया था।
...लेकिन कलाकार नायक के सिगरेट से उठते धुएँ ने हमें एक बार फिर उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में धकेल दिया है जहाँ महाराज धंगदेव अपने मंत्रणा कक्ष में बैठे इतिहास के उस प्रवाह को देख रहे थे जब कन्नौज पर चंदेलों का आक्रमण निर्णायक क्षण की प्रतीक्षा में था। पश्चिमोत्तर से मुस्लिम आक्रांताओं की एक टोली महमूद गजनवी के साथ आगे बढ़ रही थी। खंड-खंड भारत की विखंडित आत्मा |
जैसे किसी विप्लव की प्रतीक्षा में थी, और उनके अपने ही राज्य में 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह निरंतर जाप... भयाक्रांत राजा को लगता जैसे उनकी साँस ही घुट जाएगी।
शिल्पी और राजकुमारी का यह मौन संवाद निरंतर गूँज रहा है उन प्रस्तर प्रतिमाओं में जिन्हें योजनानुसार प्रस्तावित मंदिर की बाह्य परिधि में ही रहना है।
'ओम् मणि पद्मे हुम्'! संस्कृति के कामुक क्षण जैसे एक साथ राजकुमारी अलका के दैहिक धरातल पर बहकने लगे।
इधर राजपुरुषों और सामंतों में चिंता व्याप गई है कि एक शूद्र कोटि शिल्पी आखिर कैसे एक राजकन्या से प्रेम कर सकता है? यह अनैतिक है... घोर अनैतिक!
वर्जित फल का स्वाद आदम और हौव्वा ने चखा था तो उन्हें दंडस्वरूप इस मर्त्यलोक में धकेला गया। मगर यहाँ तो वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शूद्रकोटि शिल्पी था। इसे पाताल भेजना होगा... वरना...।
इस तरह दो संस्कृतियों के मुखर संघर्ष जारी थे और उधर महमूद गजनवी अपने दल-बल के समेत बढ़ता चला आ रहा था। राजा धंगदेव ने जान लिया था कि महाविप्लव सन्निकट है। उनके बूढ़े शरीर में अब उतना तेज भी बाकी नहीं था... फिर स्वप्न में निरंतर देवी तारा का आना... राजा भयभीत हो गए।
समाज में नैतिकता के तमाम मानदंड टूट कर बिखर रहे थे। ब्राह्मणों का अपमान... शूद्रकोटि जातियाँ गुस्से से खौलने लगी थीं। जैसे देवी तारा ने उन सबको आशीर्वाद दे रखा हो।
शिल्पी और राजकुमारी अलका के प्रेम की अनुगूँजें भी राजा के कानों में पड़ीं... राजा असहाय हो गए। उधर राजकीय कार्यशाला में शिल्पी की बनाई प्रस्तर प्रतिमाएँ निरंतर मुखर हो रही थीं। मुक्ति के सौंदर्य प्रतिमान गढ़े जा रहे थे।
"मैं क्या कहूँ राजकुमारी? मैं एक शूद्रकोटि शिल्पी जो कुछ दिन पूर्व भूख से बेहाल था... कह भी क्या सकता है? मुझे तो इस मंदिर के निर्माण के उपरांत उसके सांधार प्रासाद में भी घुसने की अनुमति नहीं होगी।" शिल्पी ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहा।
और शिल्पी उठा... निःशेष! तमाम कामुक, मांसल प्रतिमाओं के बीच वह धँसकर हल चलाते एक श्रमिक की मूर्ति गढ़ रहा था, साथ ही रक्तपिपासु शस्त्र सुसज्जित एक सैनिक...! शिल्पी ने एक पूरा-का-पूरा दृश्य खींचा जहाँ मुस्लिम आक्रांताओं का पूरा समूह नतमस्तक जमीन पर बैठा हुआ था... पराजित। भारत खंड की सुसज्जित सेनाएँ बढ़ी जा रही थीं और उनके बीच एक स्वर गूँज रहा था - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'!
"यदगुह्यं परमं लोके सर्वरक्षात्करं नृणाम्।
जो इस संसार में परम गोपनीय है और मनुष्यों की हर तरह से रक्षा करने वाला है, वह रहस्य जो आपने किसी से नहीं कहा, प्रभो! मुझसे कहिए।
"व्हाट नानसेंस!" फ्रांसीसी नायिका के शब्द।
"सांस्कृतिक विप्लव का महाआख्यान..." कलाकार नायक के मौन से गूँजती एक ध्वनि!
कुछ ऐसी ही ऊलजुलूल बातें और हरकतें कलाकार नायक नायक पिछले नौ दिनों से करता रहा है। कभी वह दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है तो कभी तांत्रिक सूत्रों का वाचन। उसकी हर हरकत पर फ्रांसीसी नायिका उसे आश्चर्यमिश्रित श्रद् |
धा से देखती है। कभी झिड़कती है तो कभी जिज्ञासा करती है।
उसके अनुसार इन नौ दिनों में उसे अपूर्व आध्यात्मिक आनंद मिला है। कलाकार नायक के इस विरल संयोग ने जैसे उसे धन्य-धन्य कर दिया।
इधर उसके बनाए चित्र भी अपूर्व बन पड़े हैं। फ्रांसीसी नायिका इसे जानती है। उसकी व्यवसाय बुद्धि उसे फ्रांसीसी कला जगत के शीर्ष पर देख रही है। मगर हमारे कलाकार नायक की जिद है कि वह फ्रांस नहीं जाएगा। उसे अपनी धरती प्यारी है... अपने लोग। यह अलग बात है कि उसका अपना यहाँ कोई भी नहीं।
कलाकार नायक चाहता है कि काश! वह इसमें एक चित्र और खींच सकता जिसमें पश्चिमी आक्रांताओं का नत शिर समूह होता और वह कहता, 'ओम् मणि पद्मे हुम्'।
मगर वह कह नहीं पाता। उसके शब्द एकाएक खजुराहो के मध्ययुगीन इतिहास में कहीं खो गए हैं और वह बावला-सा उन्हें खोज रहा है।
खजुराहो में मोक्ष मार्ग के निर्माण का स्वप्न पूरा हुआ। अब मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। देश-विदेश के तमाम कवि-ज्योतिषी, तांत्रिक और विद्वान इतिहास के इस अपूर्व आयोजन के साक्षी होने जा रहे हैं।
महाराज धंगदेव की बेचैनी थमी नहीं थी। उनकी आत्मा पर जैसे कोई बोझ था। इधर राजपुरुषों और सामंतों ने एक अलग ही मुहिम छेड़ रखी थी। राजकुमारी अलका और शिल्पी का उन्मुक्त प्रेम अब नैतिकता का नहीं - उनके अस्तित्व का प्रश्न बन चुका था।
राजा धंगदेव दोराहे पर खड़े बार-बार देवी तारा का स्मरण कर रहे थे मगर देवी तारा हँसे जा रही थीं। उनका भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँज रहा था। मंदिर के सांधार प्रासाद में प्रवेश करते हुए राजकुमारी अलका ने अपने तमाम सामंतों व राजपुरुषों पर एक दृष्टि डाली। शिल्पी उसमें कहीं नहीं था। राजकुमारी की नजरें पूरे परिदृश्य में सिर्फ और सिर्फ शिल्पी को खोज रही |
थीं, मगर वह उन्हें कहीं नजर नहीं आ रहा था।
शिल्पी मंदिर से दूर खड़ा था... एकाकी। अपनी इस अनुपम कृति को देखते हुए कभी उसे गर्व होता था... कभी क्षोभ। अब वह इन मूर्तियों की प्रदक्षिणा भी नहीं कर सकता। हालाँकि वह चाहता था कि इन उदग्र मूर्तियों पर वह कभी शांति से केसर का भरपूर लेप करे...।
अपवित्र मूर्तियाँ भागीरथी के जल से पवित्र कर दी गई थीं। शिल्पी के भीतर जैसे कोई ज्वालामुखी धधकने लगा... उसकी आँखें गुस्से और अपमान से लाल हो गईं।
इतिहास में यह दृश्य फिर कभी दोहराया नहीं गया। शिल्पी के तेज बढ़ते कदमों में एक अद्भुत दैवीय चमक थी और वह निरंतर दृढ़तापूर्वक मंदिर के सांधार प्रासाद की ओर बढ़ रहा था। देवी तारा साँस रोककर इस पूरे आयोजन को हतप्रभ देख रही थीं।
जैसे ही शिल्पी प्रदक्षिणा पथ के निकट पहुँचा, एक साथ कई-कई प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया और उसे दूर ले गए... बहुत दूर...!
राजकुमारी अलका अपने विवश नेत्रों से उसे जाते हुए देख रही थीं और सुन रही थीं - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'!
सुनने में आया कि मूर्तिभंजक महमूद गजनवी पंजाब के सीमांत प्रदेशों तक चढ़ आया था। वहाँ का शासक जयपाल पराजय व अपमान से क्षुब्ध अग्निचिता पर जलकर मर गया। महाविप्लव से आक्रांत राजा धंगदेव ने भी उस रात दो विकट फैसले लिए। एकाएक उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी और प्रयाग की ओर प्रस्थान कर गए। प्रयाग में उन्होंने जल-समाधि ले ली। जब वे संगम में जल-समाधि ले रहे थे ठीक उसी समय खजुराहो में वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शिल्पी पाताल लोक भेज दिया गया था।
इस समय तक महमूद गजनवी ने भी पेशावर जीत लिया था।
कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। महाराजा धंगदेव की जल-समाधि और खजुराहो में मूर्ति शिल्पी की निर्मम हत्या के वर्षों बाद जब राजा धंगदेव के प्रपौत्र परम प्रतापी राजा विद्याधर देव ने महमूद गजनवी के खिलाफ कायर राज्यपाल का वध कर एक अभियान छेड़ा और भारत खंड के छह राजपूत राज्यों की सशस्त्र संघीय सेना लेकर महमूद गजनवी को खदेड़ना शुरू किया तब अचानक एक घटना घट गई।
भारत खंड की विजयिनी सेनाओं ने महमूद गजनवी को पराजय के कगार पर खड़ा कर दिया था और हताश महमूद अल्लाह से मदद की दुआ कर रहा था।
इधर दिन भर युद्ध से थके राजा विद्याधर निद्रामग्न थे और देवी तारा उन्हें स्वप्न में कह रही थीं, "भागो राजन, भागो! महाविप्लव सन्निकट है। संपूर्ण भारत देश की खंडित आत्मा एक शूद्रकोटि शिल्पी के शाप से अभिशप्त हो चुकी है। अब मूर्तिभंजक महमूद को इस महादेश में आने से कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारी अपनी ही सेनाओं की तमाम अंत्यज जातियाँ विद्रोह पर उतारू हैं। महाविप्लव आ चुका है।" पसीना-पसीना हुए राजा की नींद टूट गई। गुप्तचरों के अनुसार विद्रोह की सूचना सही थी। भयभीत राजा विद्याधर देव अचानक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए।
कोई भी इतिहास लेखक कभी यह नहीं जान पाया कि आखिर क्यों परम प्रतापी विद्याधर देव इस तरह अचानक कायरतापूर्वक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए?
राजनीत |
िक प्रपंच ने एक जीती हुई बाजी पलट दी थी। थानेश्वर, कन्नौज, कालिंजर को लूटता हुआ मूर्तिभंजक महमूद सोमनाथ तक पहुँचा और फिर इस खंडित देश की आत्मा एक साथ त्राहि-त्राहि कर उठी।
पाताल लोक में बैठा शूद्रकोटि शिल्पी भी भारतखंड की इस नियति पर हँस रहा था। उसकी उस हँसी में प्रतिशोध और हताशा का एक मिला-जुला भाव था। खजुराहो की तमाम तांबई, उदग्र प्रतिमाएँ उसकी इस हँसी से मुक्तिरास कर रही थीं। भगवान महादेव शांत थे और देवी तारा...!
'ओम् मणि पद्मे हुम्' इस कथानक का सूत्रवाक्य जैसे अब भी खजुराहो के मध्यकालीन इतिहास में कहीं खोया हुआ है और हमारा कलाकार नायक अपने लाख प्रयत्न के बावजूद उसे खोज नहीं पा रहा था।
उसकी नौ दिनों की सतत साधना का प्रतिफल उसकी वे अनुपम कलाकृतियाँ फ्रांसीसी नायिका अपने साथ ले गई है और हमारा कलाकार नायक पागलों की तरह अकेले होटल के इस कमरे में भटक रहा है। उसकी तेज चलती साँसों के आरोह-अवरोह एक बार फिर आध्यात्मिक स्थिरता की माँग कर रहे हैं, मगर हमारा कलाकार नायक है कि इस तरह की किसी भी स्थिरता के खिलाफ अब तनकर खड़ा हो गया है।
बावजूद इसके कि पश्चिमोत्तर में भगवान बुद्ध की कुटिल मुस्कान अब तक शांत हो गई थी, कलाकार नायक की क्रुद्ध जलती हुई आँखें और तनी हुई मुट्ठियाँ 'युद्धं देहि' का आह्वान कर रही थीं। मगर पता नहीं क्यों, 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद अब भी हमारे कलाकार नायक की पकड़ में नहीं आ रहा था।
शायद इसके कारण राजनीतिक थे।
शायद सांस्कृतिक।
या शायद कुछ भी नहीं... कलाकार नायक यूँ ही हवा में अपनी मुट्ठियाँ तान रहा था।
'अब तक फ्रांसीसी नायिका पेरिस पहुँच चुकी होगी। कुछ ही दिनों में उसके चित्र देश-विदेश में विख्यात हो जाएँगे और...' कलाकार नायक इसके आगे कुछ नहीं सोच पाता।
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अचानक वह दौड़ पड़ता है कंदरिया महादेव के उस विख्यात मंदिर की तरफ जहाँ भगवान महादेव के आशीर्वाद से कभी एक मोक्ष मार्ग का निर्माण हुआ था। कलाकार नायक उसके गर्भगृह में प्रवेश से पहले, क्षण भर को ठिठकता है और दौड़कर उन तमाम मूर्तियों की प्रदक्षिणा करता है जो रात के उस सुरमई प्रकाश में मुक्तिनाद कर रही थीं।
कलाकार नायक उन सभी मूर्तियों को अपने आलिंगन में कस लेना चाहता है और चाहता है उनके ठोस वर्तुल स्तनों पर एक सुदीर्घ चुंबन...।
इस तरह की तमाम इच्छाएँ ढोता हुआ हमारा कलाकार नायक मंदिर में प्रवेश कर रहा है। ज्योर्तिलिंग के ठीक सामने एक शिला पर बैठा हमारा कलाकार नायक न जाने क्यों अचानक रो पड़ता है। उसका यह रुदन अनेकार्थी है और अपने अलग-अलग अर्थों में सारे ब्रह्मांड का रुला रहा है। भगवान महादेव का आशीर्वाद... देवी तारा की इच्छा...।
मित्रो, यह कथा का प्रस्थान बिंदु है। इस बिंदु पर आकर खुद कथाकार भी असमंजस में है। वह ठीक-ठीक नहीं जानता कि इस तरह कलाकार नायक के रोने के असली कारण क्या थे? जब तक उन असली कारणों की खोज नहीं हो जाती तब तक कथाकार सांस्कृतिक विप्लव के इस महाआख्यान से मुक्ति चाहता है।
फ्रांस लौटने के बाद उस फ्रांसीसी नायिका ने पेरिस में एक भव्य प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें हमारे कलाकार नायक के चित्र काफी ऊँचे दामों पर बिके थे। और कला-समीक्षकों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उस समय भारत में करगिल युद्ध हो रहा था और कलाकार नायक का कहीं अता-पता नहीं था।
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नरेंद्र ने तो मोबाइल नंबर देने के लिए ही हिमानी को फोन किया था। यही सोच कर कि कभी इमरजेंसी में मौसी कहां - कहां लैंडलाइन पर फोन पर फोन करके उसे खोजेगी, वह एक जगह तो बैठता नहीं, सौ जगहें, और सौ काम हैं उसके पास।
यह ठीक है कि घर जाने को उसका मन नहीं होता, बचपन से ही घर में कोई आकर्षण नहीं रहा। मां नहीं थी, मौसी थी, मां जैसी ही। बाप की जगह एक शराबी, अड्डेबाज आदमी था, जो सुबह - शाम दिखता था, हमेशा तंगी से जूझता, लड़ने को आमादा। ताऊ - ताई शुरू से अजनबी थे। उनके लड़के कभी भाई जैसे नहीं लगे। वैसे यह सब न भी होता, तो भी आमतौर पर 'टीन एजर' लड़के घर के कम बाहर के ज्यादा होकर रहते हैं।
हिमानी ने नंबर लिख कर बातों का सिलसिला जोड़ लिया। यही कि तेरे ताऊजी ने छोटे बेटे का भी रिश्ता तय कर दिया है। कहते हैं सोचा तो यही था कि यहां से कहीं दूर जाकर शादी करें, किंतु क्या करें मकान बिका ही नहीं तो... अब कहते हैं, हम लोगों को शादी में बुलाएंगे नहीं, बदनामी होगी...। बात करते - करते हिमानी भावुक हो गई। कहने लगी, "एक ही जिम्मेदारी रह गई...रितु यहां होती तो उसकी डोली कब की उठ गई होती, एक - दो बच्चे गोद में खेल रहे होते...। अब तू भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, तू भी मेरी बात नहीं सुनता। अपने बाप को तो तू जानता ही है, उसे किसी की फिकर नहीं। मैं ही कोशिश कर रही हूं, हां! अपनी गली के आखिर में जो चौहान जी हैं, उनकी पहचान वालों की लड़की है। मिसेज चौहान दो बार पूछ चुकी हैं, क्या कहूं? तू बता, अगर तेरी अपनी कोई पसंद है तो बता दे...कुछ बोल न...मैं कब से बकर - बकर कर रही हूं...बिलकुल गूंगा हो गया है...हलो! नन्नू!'
नरेंद्र ने मुख्तसर - सा जवाब दिया, "मौसी! उस बेशर्म रितु की बात मुझसे आगे कभी मत करना। दूसरी बात यह कि मेरी शादी की चिंता छोड़ दो, सोचो भी मत, मुझे शादी - वादी के झंझट में नहीं पड़ना। हां, ध्यान रखना, मकान की डील जब भी फाइनल हो, मुझे जरूर खबर करना।"
प्रापर्टी 'महादेव भवन' में से अपना हिस्सा लेना था। इसके लिए वह पूरी तरह सचेत था। नंबर भी इसीलिए दिया था कि भावकुता की मारी मौसी उससे संपर्क करती रहेगी। वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा था। देखते - देखते आर एन सेठ ने राजनीति के पांच वर्ष पूरे कर लिए। अब वह उसके अनुभवी खिलाड़ी बन गए थे। नये जनादेश के लिए कभी भी घोषणा हो सकती थी। चूंकि इस सरकार के कार्यकाल में बड़े - बड़े घोटाले हुए, स्वयं प्रधानमंत्री पर कई आरोप थे, इसलिए पार्टी की हालत नाजुक लग रही थी। स्वयं आर एन सेठ भी बातचीत में ऐसी संभावना जता चुके थे। परदे के पीछे यह तय भी था कि हालत देखकर वे अपने समर्थकों के साथ विपक्षी पार्टी का दामन थाम लेंगे। तब उनके मंत्री बनने का सपना जल्दी पूरा हो जाएगा। जब आर एन सेठ को कद बढ़ेगा तो उनके करीबी लोगों का भी फायदा होगा। सचमुच किसी मंत्री जी का खास होना किस्मत की बात है। नरेंद्र अभी से ख्वाब बुनने लगा।
सफेद सफारी में तो वह अब भी जमता था, क |
िंतु नेताओं वाला अंदर का रुआब, जिससे चेहरा दिप - दिप करता है और पुलिस के बड़े - बड़े अधिकारी सलाम ठोककर आगे - पीछे घिघियाते फिरते हैं'उस रुतबे की बात ही और है।'
एम.पी. साहब आराम फरमा रहे होते थे, वही समय उसकी फुरसत का होता था। पूरी तरह वह भी नहीं, क्योंकि फोन की घंटी हर समय घनघनाती रहती थी। उसके जूनियर फोन उठाकर उससे जवाब पूछते थे। खास लोगों को वह स्वयं जवाब देता था। उनसे खास लोगों की कॉल उसके मोबाइल पर आती थी।
उस दिन वह निश्चिंत, अपने कमरे में व्हिस्की के साथ बैठा था। सेठ विदेश दौरे पर थे। ऐसे वक्त उनके साथ उनका दूसरा पी.ए. राघवन ही साथ जाता था। वह निश्चिंत, अवकाश की मनःस्थिति में, बोतल खोलकर अपने कमरे में बैठा था। तीन लोग और थे, दो उसके जूनियर और एक सेठ के क्षेत्र से उनका परिचित युवक राकेश, जिसे यहां रहकर भविष्य की संभावनाएं तलाशनी थीं। उसके साथ कुछ ही दिनों में नरेंद्र का दोस्ताना हो गया था।
एकांत था, उम्र का उठान था और शराब का साथ। माहौल में सुरूर घुल रहा था। राकेश ने उठकर टीवी चालू कर दिया। यह मात्र संयोग था कि चैनल पर जो गाना बज रहा था, वह रितु के एलबम का था। अपने समय का 'लोकप्रिय' भड़काऊ गाना।
नरेंद्र पेग सिप करते हुए भविष्य के सपनों में सफेद पोशाक में सजा - संवरा अपने को सफेद अम्बेसडर में देख रहा था, जिसके आगे - पीछे हॉर्न बजाती अन्य अम्बेसडर चल रही थीं। उसे लगा जैसे गाड़ी को इमरजेंसी ब्रेक लग गए हों। आगे रेड लाइट है या एक्सीडेंट हुआ है या कि गाड़ी ही खराब हो गई है। टीवी स्क्रीन पर उसकी बहन, रितु कम से कम कपड़ों में दर्शकों को उत्तेजना का आमंत्रण देती हुई तेज़ 'बीट' पर थिरक रही थी। उसने आंखें बंद कर लीं। यही है शायद, जिससे उसकी गाड़ी को ब्रेक लग सकते हैं। आदमी जब मशहू |
र होता है, उसका परिवार भी मशहूर होता है। आजकल चैनल वाले तो पुरखों का बायोडाटा तक निकाल लाते हैं। यह तो मेरी बहन है, जीती - जागती। 'अपोजीशन' वाले खूब नमक - मिर्च लगाएंगे, संस्कृति की दुहाई देंगे। हो सकता उसके पोस्टर तक छपवाकर दीवारों पर चिपकवा दें। लोगों के जुनून का कुछ पता नहीं, पासा पलट गया तो?
उसने टीवी देखना ही छोड़ रखा था, इसलिए कि उसकी सूरत दिखेगी तो मन खराब होगा, गुस्सा आएगा। वह सिर्फ न्यूज चैनल देखने लगा, पर वहां भी ब्रेक में विज्ञापनों के दरमियान उसके दिख जाने का अंदेशा बना रहता था। एक बार तो उसने अपने कमरे से टीवी हटवाकर रिसेप्शन में रखवा दिया था। सेठ साहब को पता चला तो उन्होंने वजह पूछी तो यही कह सका कि देखने लायक कुछ होता नहीं है। उसमें सब ऊलजलूल दिखाते हैं।
"न्यूज देखो, सिर्फ न्यूज! समझे, अपडेट रहना जरूरी है। न्यूज देखो, हमें भी बताओ, कहां क्या हुआ? किसने क्या कहा और क्या किया? हमारा तो सारा कैरियर न्यूज पर ही टिका है ...ऊलजलूल! ...अरे तू कब से साधु - संन्यासी हो गया। हमारे छोड़े हुए 'लेग - पीस' चांपता है कि नहीं, बोल!" अंतिम वाक्य उन्होंने खास अंदाज में आंख दबाकर कहा था, जिसका मतलब नरेंद्र जानता था, इसलिए वह मुस्कराया भी था। ऐसी अंतरंग बातें सेठ खाना खाते समय करते थे। इस तरह टीवी फिर उसके कमरे में आ गया था।
वह सोच से उबरा तो देखा अभी भी रितु कमर लचकाते हुए सीने को खास अंदाज में हिला रही थी। अन्य तीनों लोग सुरूर में गाने के साथ झूमते हुए सिसकारियां ले रहे थे। वह गुस्से से भन्ना गया। उसने जोर से गिलास को टेबल पर ठोक कर रखा, गिलास छन्न से टूटकर बिखर गया। छन्नाहट के साथ - साथ उसकी आवाज गूंजी, "बंद करो, यह सब...!" बाकी लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? या कि उन्होंने क्या गलत किया। उन्होंने अपने - अपने गिलास तुरंत खाली किए और बेआवाज वहां से खिसक गए। नरेंद्र अभी भी बुदबुदा रहा था, "जाओ!...सब जाओ!...मुझे अकेला छोड़ दो..."
आदित्य ने लगभग सात वर्ष 'महादेव भवन' के ऑफिस में गुजारने के बाद आखिरकार कब्जा छोड़ दिया। उसने कोई मांग नहीं रखी थी। यदि रखता भी तो गरज़ के हिसाब से पूरी हो सकती थी, लेकिन नहीं, उसका मानना था कि किसी के मकान को हथिया लेना या उसके एवज़ में रुपया मांगना सरासर गलत है।' इसीलिए वह स्वयं किरायेदार होते हुए भी 'किराया - कानून' के शोर - शराबे के बीच मालिक - मकानों का समर्थन कर रहा था।
उस दिन सुखदेव जितना खुश था, उतना ही हिमानी दुःखी थी। अजीब बेचैनी से भरी थी वह, जैसे कुछ छूटा जा रहा है उससे। लेकिन क्या? कुछ अबूझ है, जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। दिल में हौल - सा पड़ रहा है। खाली - खाली - सा सब निरर्थक। अब क्या होगा, यहां से आगे अब किधर जाएगा जीवन, किसके सहारे जाएगा। आज भी वह क्यों खाली हाथ खड़ी है, इतने बरस बाद भी।
सोच - सोच कर जिया फटने को हो रहा था। कब तक, कितने दिन, कितनी रातें, कितना जीवन, कैसे कटेगा, निपट अकेले, सन्नाटे में। अब क् |
या शेष है, बच्चों का बहाना भी नहीं, तब?
सुन, अपने लिए जी, नई राह बना, जो साथ हो लें, उनके लिए जी। जीवन को बड़ा और बड़ा बना...'
जिस दिन उसका सामान 'पैक' हुआ, आदित्य पहले ही कुछ दिन से गायब था। विनोद ने दोनों टेबल, अलमारी कुछ फाइलों के बण्डल छोटे ट्रक में रखवाए और चाबी हिमानी को दे आया था। हिमानी ने पूछा था, "कहां हैं वकील बाबू, कुछ दिनों से दिखे नहीं।"
"हां! वे बिजी हैं, शहर से बाहर गए हैं।"
"नया दफ्तर कहां खोला है, मतलब कहां शिफ्ट किया है?"
"साब जिस एनजीओ के लिए काम करते हैं, उसका बड़ा दफ्तर है, उसी कैम्पस में मिल गया है, सभी सुविधाएं हैं वहां!"
हिमानी को अपने हर प्रश्न के बाद सोचना पड़ रहा था कि अब क्या पूछे। लगा, प्रश्न खत्म हो गए हैं या जो प्रश्न पूछना है, वह जुबान पर नहीं आ रहा। हलक तक आकर फिर नीचे लौट जाता है।
"बैठो भैया! चाय पिओगे।" यूं ही पूछा उसने और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना रसोई की ओर जाने को मुड़ी। विनोद ने विनम्रता से अनुरोध ठुकराया, बोला "नहीं मैडम! चाय रहने दीजिए, थोड़ा पानी पिऊंगा, ट्रकवाला इंतजार कर रहा है।"
विनोद पानी पी रहा था, तब हिमानी ने पूछा, "वकील बाबू अकेले रहते हैं?"
"जी!" विनोद के मुंह से निकला, जैसे कह रहा हो कि यह क्या प्रश्न है? उधर हिमानी का दिल जोर - जोर से धड़क रहा था।
किया न बच्चों का..." हिमानी ने बात को इधर - उधर घुमाकर स्वयं को सहज बनाने की कोशिश की।
विनोद ने पानी पीकर गिलास पकड़ाते हुए बताया कि वह कभी उनके घर नहीं गया और साब कभी घर की बात नहीं करते। हारकर हिमानी ने उनके नये ऑफिस का नंबर नोट कर लिया था।
कई दिन से वह आदित्य को फोन पर संपर्क करना चाह रही थी, किंतु आदित्य फोन पर उपलब्ध नहीं हो रहा था। विनोद हर बार उसकी व्यस्तता की बात कहता थ |
ा, 'उनकी कुछ पर्सनल प्रॉबलम्स है, बताते नहीं हैं मैडम...मैं उन्हें कहूंगा आपका फोन था। ...मैंने आपका मैसेज दे दिया था... जैसे ही थोड़ा फ्री होंगे, बात करेंगे... जी मैं याद दिला दूंगा। ओ.के. मैडम!'
लगभग दो महीने बाद अचानक आदित्य का फोन आया और उसने देर से फोन करने के लिए खेद प्रगट किया। उसने यह भी कहा कि वह बेहद निजी समस्या से जूझ रहा था। वह मसला हल हो गया है, वह अब फ्री है।
जिस दिन से विनोद ने कहा था कि साहब कभी घर की बात नहीं करते, हिमानी को वह आदमी अचानक रहस्यमय लगने लगा था, जो वर्षों से उसके पड़ोस में ऑफिस चलाता रहा। उसे याद आया, आदित्य ने एक बार वादा किया था, एक दिन अपने बारे में बताएगा। एकाएक यही सूत्र हिमानी को बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगा या कहें कि फेसीनेट करने लगा। अब जबकि आदित्य ने स्वयं अपनी निजी समस्या का हल्का - सा ज़िक्र किया था तो हिमानी ने उस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और बच्चे की भांति आग्रह किया, "मुझे आपसे मिलना है। अभी के अभी!"
"जैसे भी हो, मुझे नहीं मालूम, इट्स अरजेंट!"
"क्या हुआ, सब कुशल तो है, नन्नू, सुखदेव सिंह या रितु की कोई खबर है।" चिंतित होकर पूछा उसने।
हिमानी कुछ क्षण के लिए खामोश हो गई।
"हलो! क्या हुआ...कुछ बोलिए तो।"
"क्या बोलूं, उन तीनों के अलावा किसी और की चिंता नहीं है आपको।"
कुछ पल रुका आदित्य, फिर संजीदा स्वर में कहा, "सच तो यह है कि उस एक ही की चिंता अधिक है। उसकी खुशी के लिए उसके अपनों की चिंता करनी पड़ती है।"
"खुशनसीबी है उसकी, वकील बाबू।"
"पर मेरी नहीं।"
"क्यों भला।" आश्चर्य व्यक्त किया हिमानी ने।
"इसलिए कि आप मुझे हमेशा वकील बाबू बुलाती हैं और आप - आप कहकर बात करती हैं...आप मुझे नाम से बुला सकती हैं, छोटा हूं आपसे।"
छोटा होने की बात पर हिमानी पल भर के लिए बुझ गई। 'यह क्या नया बैरियर है हमारे बीच।' सोचा उसने, पर तुरंत संभल कर कहा, "मैं तो आपका आदर करती हूं..."
"यदि आदर के साथ प्यार भी है, तब मुझे कोई एतराज नहीं। केवल सम्मान का सूखापन...नो वे।" आदित्य के यह शब्द सुनकर हिमानी लरज गई। उसके कपोल रक्ताभ से खिल उठे थे। कानों के पास चींटियां - सी रेंगने लगी थीं। एक मीठी लहर उसके भीतर उतर गई। संभवत उसके कान ऐसा ही कुछ सुनने को तरस रहे थे।
तो...माफ कर दीजिए..."
हंस पड़ी हिमानी, "नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं, पर मैं हैरान हूं कि आज अचानक... ऐसी बातें...आप...आपकी तबीयत तो ठीक है न!" उसने चुहल करते हुए पूछा।
"तबियत ठीक वैसी ही है, जैसी आपकी।"
हिमानी उसकी हाजिर जवाबी पर मोहित हुई, किंतु तुरंत ही नहले पर दहला मारते हुए कहा, "मगर आप तो मुझसे छोटे हैं न।" इस वाक्य में जो गुदगुदाहट थी, उसे महसूस कर दोनों देर तक हंसते रहे।
अवरोध जैसे हट गया था। इसके बाद वे कई बार एक - दूसरे से मिले भी। आदित्य के दफ्तर में, सीपी के युनाइटेड कॉफी हाउस में, पंडारा रोड के रेस्तरां में। खुली जगहों पर मिलना दोनों को ही नापसंद था। शायद नापसंद वाली बात उतनी स |
ही नहीं थी, हां! एक हिचक ज़रूर थी कि इस उम्र में, टीन एजर्स की भांति पेड़ों के पीछे चिपककर बैठना, गोद में सिर रखकर लेटना, हाथों में हाथ लेकर टहलना शोभा नहीं देता। प्यार किसी उम्र में हो, हर उम्र की अपनी गरिमा होनी चाहिए, ऐसा उनका मत था। वे बैठकर बातें करते हों या रेस्तरां में खाना खा रहे हों, हमेशा आमने - सामने बैठते थे। हर मुलाकात के बाद ज्यादा नज़दीक महसूस करते थे। एक - दूसरे को अधिक से अधिक समझ लेने की आतुरता थी। दोनों को एक - सा आश्चर्य था, क्या यह बहुत पहले से हमारे भीतर था या अचानक अब ऐसा क्या हुआ कि सारी सीमाओं को नजरअंदाज कर वे इतना पास आ गए? उत्तर भी उनके ही भीतर था।
आदित्य ने बताया था कि वह हिमानी को ऐसी बदहाली और वीतरागी छवि में भी पसंद करता था। उसमें एक चार्म है। वह उसे बहुत पहले से अच्छी लगती थीं। उसका ओवर - आल लुक, बात करने का सलीका और सबसे बड़ी बातजिंदगी से जूझने की हिम्मत...मरते हुए भी शेष रहने का जज्बा मुझे फेसीनेट करता था। इसलिए आपसे बात करना चाहता था। वह मौका आपके परिवार की मुश्किलें मुहैया करा देती थीं। इस बात पर हिमानी ने चुटकी ली थी, 'अच्छा!' ओह ओ! कितनी भोली थी मैं, यह भी नहीं जान पार्इं कि कोई मदद के बहाने मेरी कलाई पकड़ना चाह रहा है।" दोनों खूब हंसे थे। आदित्य ने कहा था, 'यह सच है कि आपकी मुश्किलें हल होने पर मुझे राहत मिलती थी। हां! एक और बातकभी - कभी आप मुझे परीकथाओं वाली राजकुमारी लगती थीं, जिसे सुखदेव - रूपी राक्षस ने अपने महादेव भवन में कैद कर रखा है। मैं उस राजकुमारी को राक्षस के चंगुल से मुक्त देखना चाहता था। यह मात्र मनोभाव थे। प्यार के बारे में तो सोचा ही नहीं जाता था।'
"आप मुझसे छोटे थे, शायद इसीलिए।" हिमानी को मजाक सूझा और उसने फिर वही जुमल |
ा जड़ दिया।
दोनों देर तक हंसे थे। आदित्य ने उत्तर में इतना ही कहा था, "मैं इस रूढ़ि का पक्षधर तो नहीं हूं, पर अंतर बहुत अधिक नहीं होना चाहिए, पर मेरा यकीन मानिए, तब मैं वैसा सोचता ही नहीं था।"
"और अब सोचते हो?" चट से पूछ लिया हिमानी ने।
वह गंभीर हो गया था, "इस पर हम दोनों को सीरियसली विचार करना चाहिए। जहां तक मेरा सवाल है, मेरे लिए अब कोई अड़चन नहीं है। अकेला हूं...मेरा फैसला, मां की खुशी होगी। पर आपके लिए बहुत मुश्किलें हैं। आपका परिवार, सुखदेव सिंह, नाते - रिश्तेदार सबसे कैसे छूटेंगी आप?"
"जुड़ने जैसा वहां कुछ है कहां! दोनों बच्चों के जाने के बाद तो बिलकुल नहीं। मैं नहीं चाहती कि अब शेष जिंदगी उस शराबी के साथ लड़ते - झगड़ते पूरी करूं। इससे पहले कि मैं अकेली बंद कमरों में पागल हो जाऊं वहां से भाग जाना चाहती हूं। दूर, बहुत - दूर।"
"और अगर रितु लौट आई किसी दिन...नन्नू जवान हो गया है, उसकी शादी, उसके बच्चे! क्या नहीं देखना चाहोगी।"
कातर निगाहों से कुछ पल वह आदित्य को देखती रही, सोचती रही। फिर बोली, 'शायद यह उत्तरदायित्व भी मुझे निभाना है ...पर क्यों? हरदम फर्ज की सलीब पर मैं ही क्यों? मेरे लिए किसी का दायित्व नहीं... अब मैं अपने लिए कुछ चाह रही हूं तो इसलिए उसे गवां दूं कि रितु के आने का इंतजार करूं, नरेंद्र की गृहस्थी बनाऊं। फिर उसके बच्चे पालूं...सुखदेव जैसे नाकारा की सुहागिन बनी अंतिम सांसें गिनूं? ...नहीं! अब और नहीं!'
प्रत्यक्ष में उसने आदित्य से कहा था, "यह सब क्या अब भी जरूरी है?"
यह सब बातें बाद की हैं। पहली मुलाकात में तो हिमानी ने वही पूछा था, जो वह अरसे से जानने को व्याकुल थी, जिसके लिए आदित्य ने वादा किया था कि समय आने पर अपने बारे में सब बताएगा।
"क्या अभी भी समय नहीं आया है, जब आप मुझे अपने बारे में बता सकें।" हिमानी ने पूछा था।
"बिलकुल आ गया है, तभी आपसे बात करने की हिम्मत कर सका। आज मैं खुश हूं और स्वतंत्र भी।" बात को आगे बढ़ाते हुए आदित्य ने अपनी कथा को कुछ इस तरह बयान किया था, "आदित्य अपने माता - पिता की दूसरी संतान था, छोटा बेटा। बड़े बेटे सोमेंद्र ने एम.सी.ए. के बाद एम.बी.ए. करके एक आईटी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। चूंकि पिता सूचना - प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी थे, उन्हें भविष्य में आईटी क्रांति का पूरा अंदाजा था। सोमेंद्र ने उनकी बात मानी और उसी लाइन पर बढ़ गया, परंतु आदित्य कुछ अपने मन की करना चाहता था। विरोध के बावजूद उसने सोशलवर्क से ग्रेजुएशन किया, उसके बाद उसने एल - एल.बी. कर ली। इससे पिता खुश नहीं हुए, किंतु थोड़ा संतोष हुआ कि आज के जमाने में वकालत थोड़ी भी चल गई तो अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। मां हाउस - वाइफ थी और वह बच्चों के कैरियर को लेकर इतनी चिंतित नहीं थी। उनका मानना था कि बच्चे अपनी खुशी से जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे। इज्जत से जीवनयापन हो जाए, बाकी क्या धरा है मारामारी में।' आदित्य ने एन.जी.ओ. के लिए काम करना शुरू कर दिया। आदित् |
य मां की सोच के ज्यादा करीब था। उसने तो वकालत भी यह सोचकर की थी कि वह असहाय लोगों के लिए कानून का पैरोकार बनेगा। उन दिनों उसे जनहित याचिकाएं भी बहुत प्रभावित करती थीं और सोशल कॉज के लिए काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े वकील उसके प्रेरक थे।
इस दौरान बड़े भाई सोमेंद्र की शादी हो गई और जल्दी ही वह बंगलौर शिफ्ट कर गया। कंपनी ने उसे बंगला, गाड़ी और मोटी तनख्वाह ऑफर की थी। पिता उसकी तरक्की से जितना खुश थे, उतना ही आदित्य की ओर से दुःखी। सिर्फ दुःखी नहीं, उसमें उनकी नाराज़गी और क्रोध भी झलकता था। वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहना चाहते थे। उनकी पत्नी, उन्हें टोक देती थीं, 'पहले इसकी भी शादी कर दें और फारिग होकर जहां दिल चाहे, वहां रहें। अभी आपके रिटायरमेंट में भी दो - तीन वर्ष हैं। पद पर रहते ही यह काम भी निबट जाए तो अच्छा है। 'आदि' भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, अब देर करना उचित नहीं।'
पिता ने भी आदित्य से यथाशीघ्र मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर समझा।
कई रिश्ते आए। आदित्य की मां कहती थी, 'तय तो वहीं होगा, जहां ऊपर वाले ने लिखा होगा। जहां रिश्ता तय हुआ, वह रिश्ता दूर के संबंधी के अपने परिचित की लड़की का था। पिता कारोबारी था, लड़की के दो बड़े भाई थे और दोनों शादीशुदा थे। लड़की पढ़ी - लिखी थी, पर नौकरी करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी गोया पढ़ाई टाइम - पास के लिए ही की गई थी।
स्वाभाविक था। जिसका उत्तर आदित्य को कई वर्ष बाद मिला। लड़की सुंदर थी, कॉलेज के समय ही किसी लड़के से आंखें चार कर बैठी थी। जब घर वालों को मालूम हुआ तो पांव तले जमीन खिसक गई। जितने भी दबाव हो सकते थे, सब लड़की पर डाले गए। ऊंच - नीच भी समझाया गया। लड़की उतनी बागी नहीं हुई थी और वह शादी करने को राजी हो गई, इसलिए बिना किसी हंग |
ामे के शादी हो गई थी। एक और कारण था, एक कारोबारी द्वारा आदित्य को पसंद कर लेने का, वह यह कि उन दिनों एक जनहित याचिका में आदित्य का नाम अखबार की सुर्खियों में उछला था। कोर्ट का फैसला याचिका के पक्ष में आया था। धन - कुबेरों में प्रसिद्धि का आकर्षण बेहद होता है, लोकप्रियता का दर्जा उन्हें धन से ऊपर लगता है। पहले सेठ - साहूकार परोपकार के कार्य करके नाम कमाने का प्रयास करते थे। कुएं - बावड़ी, धर्मशालाएं, अस्पताल और मंदिर आदि इसी भावना के तहत बनवाए जाते थे, जिनमें बनवाने वाले दो - तीन पीढ़ियों के नाम के पत्थर स्थापित कर दिए जाते थे ताकि सनद रहे। अब तो उनका नजरिया भी बदल गया है। वे सोचते हैंजिस तरह धन से प्रसिद्धि हासिल की जा सकती उसी तरह प्रसिद्धि को भुनाकर धन भी कमाया जा सकता है।
थी, घूमना - फिरना, शॉपिंग करना, डिस्कोथिक जाना, डिनर होटल में करना, उसके खास शगल थे। शुरुआत में कुछ समय तक तो चला। फिर कलह होनी शुरू हो गई। आदित्य के पिता रिटायर होने वाले थे। उन्हें अपने भविष्य के लिए पैसा सुरक्षित रखना था, करते भी तो कितना? खर्च की कोई सीमा भी तो हो। उधर आदित्य की आय सीमित थी। कुछ समय लड़की के मां - बाप ने स्थिति को संभाला। लड़की के पास अपनी गाड़ी नहीं थी, उन्होंने बड़ी गाड़ी दे दी, महंगा मोबाइल दे दिया, कैश भी हर महीने भिजवा देते थे, पर कब तक? अंततः दबाव आदित्य पर बढ़ रहा था कि वह अपनी आमदनी बढ़ाए। यह कि गरीब - गुरबा लोगों और अनाथ बच्चों की पैरवी छोड़कर कायदे से वकालत करे, धोखाधड़ी, मारकाट, लूटपाट, जालसाजी के हजारों मुकदमें रोज आते हैं, क्यों नहीं लड़ता ऐसे मुकदमे। बड़ी - बड़ी कंपनियों में अपने 'लीगल - सेल' होते हैं, क्यों नहीं ज्वाइन करता। बड़े - नामी वकीलों से जुड़कर काम क्यों नहीं करता...वगैरह - वगैरह!
किंतु आदित्य ऐसा नहीं कर सकता था। वह जानता था कि ईमानदारी से यदि उन केसों को लड़ेगा तो भी उसकी स्थिति में विशेष सुधार नहीं होने वाला, तो क्या अपने मन के संतोष को भी नष्ट करे। उसकी पत्नी ने घर छोड़ दिया, यह कहकर कि ऐसे 'होपलेस' आदमी के साथ वह नहीं रह सकती। उसके मां - बाप ने थोड़ी कोशिश की, उसे वापस भेजा,
किंतु कुछ महीने बाद वह फिर चली गई। आदित्य के लिए संतोष की बात यह रही कि इस दौरान पत्नी ने 'कंसीव' नहीं किया था, वरना बच्चे की जिंदगी तो तबाह होती ही उसके अधिकार को लेकर भी महाभारत होना था।
रिटायर होने के बाद आदित्य के माता - पिता उसके बड़े भाई सोमेंद्र के पास चले गए, वह रह गया और उसका काम। तलाक को लेकर आदित्य ने अपनी ओर से कोई पहल नहीं की। काफी समय गुजर गया। जब उधर से तलाक का केस फाइल किया गया तो उसमें स्त्रीधन को वापस करने की मांग से कई पेचीदगियां आ गर्इं। फिर गुजारा भत्ते का मसला उसमें जुड़ गया, केस लटकता चला गया, कभी तारीख, कभी जज महोदय का ट्रांसफर, कभी उनका रिटायरमेंट, इन सबके चलते कानूनी तौर पर संबंध - विच्छेद होने में छह वर्ष लग गए।
आधा - अधूरा ही तो रहा। "सच |
मुच! यू आर ग्रेट! आदित्य बाबू!" उसने कहा था। 'मेरी मुश्किलें आसान बनार्इं, किंतु अपना दुःख कभी शेयर नहीं किया, ऐसा क्यों? ...वो कहते हैं न कि दुःख बांटने से कम होता है।
संबंधों के दुःख दूर तक फैल जाते हैं। उनको फैलाने में लोगों को मज़ा आता है। उदाहरण के तौर पर आपने कभी नहीं बताया कि सुखदेव आपका जीजा था, दोनों बच्चे आपकी बहन के थे, लेकिन मुझे शुरू में ही इधर - उधर से यह जानकारी मिल गई थी। और भी न जाने कितने लोगों को मालूम होगा। वे सभी आपको हमेशा सहानुभूति की नजर से या खोट - परखने वाले शीशे से ही देखेंगे ताकि आप अपने को तुच्छ - निरीह समझती रहें। ऐसे दुःखों को जितना कम लोग जानें, उतना अच्छा है। पर क्या करें, अड़ोस - पड़ोस और संबंधियों की हिस्सेदारी, अपने आप हो जाती है।'
आदित्य के बारे में सब जान लेना, हिमानी के लिए अंततः सुखद रहा। यह विचित्र बात है कि एक दुःख, कैसे दूसरे को सुकून दे सकता है! पर कहते हैं न कि दिल को दिल से राहत होती है। या दो अंधे मिलकर ज्यादा हौसले के साथ सड़क पार करते हैं। दरअसल हिमानी आत्मग्लानि से भी मुक्त हो रही थी। आदित्य को चाह लेने में अब उसे किसी अपराध - बोध का अहसास नहीं हो रहा था। यदि आदित्य सुखी गृहस्थ होता तो उसके सूखे रूख पर, जो नन्हीं कोमल कोपलें फूटी थीं, कुम्हला जातीं। सपनों के ताने - बाने टूट जाते। परिजनों और समाज से आंखें मिलाकर अपने लिए जीने की जो चाहत पैदा की थी, वह मर जाती। 'थैंक गॉड! ऐसा नहीं हुआ, सब बच गया। उसकी चाह बरकरार है, अब नई ऊर्जा के साथ। और जहां चाह होती है, राह निकल ही आती है।'
यही उसने आदित्य से कहा था, जब उसने पूछा था कि 'अब आप क्या करेंगी? आपकी राह अभी मुश्किल है। तलाक लेना भी किसी यातना शिविर से गुजरने जैसा होता है।' हिमानी न |
े बात के वजन को एकदम हल्का कर दिया था, यह कहकर, 'मैं जो करूंगी, बाद में सोचूंगी। पहले आप मुझे 'आप - आप' कहना बंद करिए...।'
आदित्य ने भी मुस्कराकर कहा, "अब आप भी मुझे आप नहीं कहेंगी...पहले वादा कीजिए।"
"फिर आप!" हिमानी ने फिर टोका और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े थे।
"संबंधों से टूटकर, अकेले जीना कैसा लगता है।" हिमानी तुरंत संजीदा हो गई थी।
"संबंध, अहसास भर होता है, आदमी जीता तो अकेले ही है।"
"मुझे भयावह लगता है, अकेले जीना। फिर भी मन के बोझ, तन के कष्ट नितांत निजी अनुभव होकर भी तसल्ली दिया करते हैं, सिक्योर करते हैं।"
"शायद तुम ठीक हो, पर कभी - कभी भयानक दंश देते हैं।" कहने के साथ आदित्य के चेहरे पर दर्द था, जिसे देखकर हिमानी के अपने दर्द हरे हो गए। फिर भी उसने पूछा, "क्या परिवार के लोग अब मिलते नहीं।"
आदित्य ने गहरी सांस ली, "जब दिल करता है, मां आ जाती है।"
कुछ देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही। आदित्य, दीवार पर लगी एक पेंटिंग देख रहा था और हिमानी, नजरें नीची किए टेबल के 'सनमाइका' डिजाइन के फेड - आउट हो गए डिजाइन को उंगली से बना रही थी। थोड़ा और रुक कर वे उठे, तब हिमानी ने पूछ लिया, "मुझे मां से मिलाओगे?"
कुछ क्षणों के लिए हिमानी को देखता रह गया था आदित्य, फिर कहा था, "आखिर तुम्हारा इरादा क्या है?"
"वही, जो तुम्हारा नहीं है शायद!"
फिर दोनों हंसे थे, हंसते - हंसते ही रेस्तरां से बाहर आ गए थे, जहां कुछ भीख मांगने वाले बच्चों और औरतों ने उन्हें घेर लिया था।
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की सहायता से पहुॅचा । साहित्यालोचन का विज्ञान अब भी अपने सञ्चित ज्ञान को क्रमबद्ध कर रहा है और अभी दूसरी अवस्था से आगे नहीं बढा । वह अपनी तीसरी अवस्था को तभी प्राप्त होगा जब वह उन नियमो का अन्वेषरण कर लेगा जो इस बात को स्पष्ट करेगे कि तरह-तरह की साहित्यिक कृतियाँ किस प्रकार अपने प्रभावो को पैदा करती है । इस बीच मे साहित्यालोचन को वैज्ञानिक कठोरता से अन्वेषण और वर्गीकरण के काम को अग्रसर करना चाहिए ।
लोकको साहित्य का निरीक्षण वैज्ञानिक वृत्ति से करना चाहिये । वह अपने तथ्य कृति के ब्यौरो मे ढूंढे । परन्तु कुछ शास्त्रशो का कहना है कि साहित्य की विषय-वस्तु मे कोई निश्चितता नही है । साहित्य का एक तथ्य उतने तथ्य हो जाते है जितने पाठक होते हे । इसके उत्तर मे मोल्टन की दलील है कि यह कठिनाई और विज्ञानो मे भी मिलती है । भय की एक वस्तु दर्शको को तरह-तरह से प्रभावित करती है, कोई दिखाता है तो कोई मूर्छा से विवश हो जाता है । फिर भी मनोविज्ञान सम्भव हुआ है । प्रश्न केवल यह उठता है कि तथ्य से प्रभावित होने की विभिन्नता कैसे दूर की जाय । साहित्य मे यह विभिन्नता किताब की ओर बार-बार ध्यान देने से निकाली जा सकती है क्योकि तथ्य उसी मे निश्चित है । जब तथ्य ऐसे शुद्ध रूप मे एकत्रित किये जाते है तो उनके आधार पर साधारणीकरण सम्भव हो सकता है । मान लो, हमे मैक्वैथ के चरित्र की व्याख्या करनी है । हम नाटक को अनात्मिकता से पढ़े, उसमे मैक्वैथ जो कुछ कहता है या करता है और उसके विषय मे जो कुछ दूसरे कहते महसूस करते है, इन बातो पर और दूसरी ऐसी बातो पर ध्यान देकर मैक्वैथ के विषय मेहमी मति निर्धारित करे । बस, यही मैक्वैथ के चरित्र की आगमनात्मक व्याख्या होगी। इस व्याख्या की सत्यता से हम तभी प्रभावित होगे जब वह उन सब व्यौरोको स्पष्ट कर देगी जो मैक्वैथ के चरित्र के सम्बन्ध मे नाटक मे मिलते है । यह व्याख्या चरित्र के निहित उद्देश्य को विदित करेगी, चरित्र के शरीर अथवा अन्तर्जात उद्देश्य को ऐसे किसी उद्देश्य को नही जो स्वय नाटककार का अभिप्रेत हो । वैज्ञानिक आलोचक इस बात को मानता है कि कला प्रकृति का अश है । जैसे प्रकृति के नियम प्रकृति ही देती है, उनका आरोप बाहर से किसी शक्ति द्वारा प्रकृति पर नहीं होता, वैसे ही साहित्य के नियम साहित्य देता है, बाहर से कोई व्यक्ति उन्हे निश्चित नही करता । यह नियम धार्मिक अथवा राजनीतिक नियमो से भिन्न होते है। केवुए का उद्देश्य धरती फाडकर उसे उपजाऊ बनाना है। क्या कोई बाहर से केचुए को इस उद्देश्य की पूर्ति की शिक्षा देता है ? इसी तरह फूलो के रङ्ग-बिर होने का उद्देश्य कीडों को आकृष्ट करना है। कौन फूलों की पूर्वप्रबोध के लिये प्रशसा करता है? ऐसे ही उद्देश्य साहित्य के होते है और ऐसे ही उद्देश्य और नियमो की खोज वैज्ञानिक आलोचक साहित्य मे करता है । जिस नियम की उसे उपलब्धि होती है वह रचना विस्तार विषयक व्यापार का वर्णन होता है । यदि वैज्ञानिक आलोचक को निश्चित नियम से हटा हुआ |
कोई दृष्टान्त मिलता है तो वह उसे किसी नये वंश का सूचक मानता है । साहित्यिक वशो का अन्तर तिरूपण ही मोल्टन के
मतानुसार वैज्ञानिक आलोचना का मुख्य कर्त्तव्य है । वह इस बात को मानती है कि साहित्य मे असीम परिवर्तन और नानाविधित्व की पूरी क्षमता है और इसी क्षमता के फल - स्वरूप उसकी वृद्धि होती है । और क्योकि साहित्योत्पादन आलोचना के आगे आगे चलता है, आलोचना का फर्ज यही है कि वह उसके पीछे-पीछे चले और उसकी उत्पादित नई वस्तु की व्यवस्था करे ।
आगमनात्मक आलोचना पुराने समय से चली आ रही है । अरिस्टॉटल आगमनात्मक आलोक था । उसने उस यूनानी साहित्य का जो उसके समय से पहले लिखा जा चुका था, पूरा अध्ययन किया था । कविता, करुरण, और महाकाव्य के सम्वन्ध मे उसके साधारणीकरण हमे उसकी 'पोइटिक्स' मे मिलते है, और गद्य प्रौर सुभाषरणकला के सम्बन्ध मे उसके साधारणीकररण हमे उसकी 'रैटॉरिक' मे मिलते है । उसके प्रदत्त मे आख्यायिको की कमी थी । इसी से उसने कविता को आत्मिक रूप की जगह अनुकरणात्मक तत्त्व कहा । फिर भी करुरण और महाकाव्य के क्षेत्रो मे उसके साधारणीकरण अब तक बडे उपयोगी साबित हुए है । करुण की कई बातो पर तो उसका कथन अन्तिम हे । बेकन ने कविता के रूपों की परीक्षा करके उनको तीन वर्गों में विभक्त किया कथात्मक, प्रतिके • निध्यात्मक, और लाक्षरिएक। अठारहवी शताब्दी के अँग्रेजी साहित्य की विवेचना मे पैरी का यह दृढ विश्वास है कि साहित्य का विकास उतना ही नियमबद्ध हे जितना कि समाज का विकास । पोसनैट ने साहित्य की प्रगति चिह्नित करने के लिये स्पैसर के वैज्ञानिक अनुसन्धानो की सहायता ली है । उसका यह निष्कर्ष है कि साहित्य पहले कुल सम्बन्धी था, फिर नगर प्रजातन्त्र सम्बन्धी हुआ, फिर ससार सम्बन्धी हुआ और अन्त में राष्ट्रीय हुआ । |
ब्र नैटियर ने साहित्यिक प्रकारों के विविधत्व की परीक्षा स्पैन्सर के विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार की है, उनके रूपान्तर की परीक्षा टेन के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार की है, और उनके परिवर्तन की परीक्षा डार्विन के जीवनहेतु सघर्ष और प्राकृतिक चुनाव के सिद्धान्तो के अनुसार की है। मोल्टन को आगमनात्मक आलोचना मे पथप्रदर्शक नही कह सकते । अपनी 'शेक्सपिअर एज ए ड्रैमैटिक आर्टिस्ट' नाम की पुस्तक मे जिसमे उसने शेक्सपिअर के नौ नाटकों के आधार पर उसकी आगमनात्मक व्याख्या की है, वह साफ कहता है कि साहित्यिक आलोचना मे आगमनात्मक काम काफी हुआ है, खेद इसी बात का रहा है कि प्रलोचको ने अपने काम को आगमनात्मक कह कर घोषित नहीं किया है ।
आगमनात्मक आलोचना मे मनोवृत्ति पूर्ण सहानुभूति की रहती है । और सहानुभूति ही वास्तविक व्याख्याता है। निर्णयात्मक क्रिया मे सहानुभूति सीमित हो जाती है । निरर्णय की भावना ही चाहे जितनी ग्रहणशील क्यो न हो, पक्षपातपूर्ण होती है। इसीसे मोल्टन आगमनात्मक आलोचना को निर्णयात्मक आलोचना से उच्चतर कहता है। परन्तु साहित्यिक अध्ययन की आगमनात्मक पद्धति के आवेश मे आकर वह अपने सिद्धान्त की उपेक्षा करता है। आलोचना उसी साहित्य का एक प्रश है जो सदा वृद्धि की ओर अग्रसर होता है । निर्णयात्मक आलोचना साहित्य मे अपना अस्तित्व रखती है और वैज्ञानिक
गवेषरणा का विषय उसी तरह बन सकती है जिस तरह शेक्सपिअर का नाटक मोल्टन बडी दृढता से इस बात की पुष्टि करता है कि साहित्यिक व्यापारी का विज्ञान उतना ही न्याय्य है जितना कि बनस्पति व्यापारी का अथवा बारिणज्य व्यापारी का । यदि बनस्पतिशास्त्र और अर्थशास्त्र सम्भव है तो आलोचना - शास्त्र भी सम्भव है । गुरण और दोष के सवाल आलोचना के बाहर है । कोई भूगर्भविज्ञानवेत्ता इस चट्टान को बुरा और उस चट्टान को भला कहते हुए नही सुना गया। उसे सब चट्टाने एक समान ग्रहणीय है और सब का वह आगमनात्मक रीति से अध्ययन करता है । उसी वृति से आलोचना साहित्यिक तथ्यो का अध्ययन करती है । परन्तु भूगर्भविज्ञान अथवा बनस्पति विज्ञान मे वैयक्तिक तत्त्व का लोप हो जाता है । साहित्य में व्यक्तित्व प्रधान होता है। दूसरी बात यह है कि साहित्य कला की हेसियत से जीवन का चित्ररण करता है । जब तक साहित्यिक तथ्यो की मानुषिक और रचनाप्रक्रिया विषयक सङ्गतता का मूल्य न निर्धारित किया जाय तब तक ठीक आलोचना सम्भव नही और ऐसी सङ्गतता के मूल्य निर्धारण से आगमनात्मक आलोचक विमुख रहता :है । फिर भी आगमनात्मक आलोचना की उपयोगिता है । किसी कृति अथवा कृतिकार को आलोचना उसके सम्यक् बोध के बाद ही आ सकती है। आगमनात्मक आलोचना हमारा ध्यान उन सिद्धान्तो पर एकाग्र करती है जो साहित्यिक कृतियो के ब्योरो को सम्बद्ध करते और उनका एकीकरण करते है । ऐसे सिद्धान्तो की पकड के अतिरिक्त क्या कोई और तरीका ऐसा है जिससे कृति का ज्ञान अधिक पूर्णता से हो जाय ?
चौथा प्रकरण
निर्णयात्मक आलोचना ( जुडीशल क्रिटीसिज़्म)
आलोचना के लिये अंग्रेजी |
का शब्द क्रिटीसिज्म है । यह शब्द जिस ग्रीक धातु से आया है उसका अर्थ निरर्णय करना है । पश्चिम मे आलोचना की प्रारम्भिक रीति निर्णयात्मक ही थी, और निर्णय करने के मानदण्ड नैतिक होते थे। धीरे-धीरे आलोचना ने प्रेक्षावत् विश्लेषण द्वारा साहित्याध्ययन की प्रक्रिया का निष्पादन किया । आलोचना की आधुनिक चाल साहित्यिक कृतियों से प्राप्त मनाको को लिख डाल कर सन्तुष्ट होने की है । इस क्रम से आलोचना का विकास समय में हुआ। आदर्श रूप मे यह क्रम उलट जाना चाहिये । पहली अवस्था मे प्रलोचक पूर्ण ग्रहरणशीलता से कृति को पढे और उसके सम्पर्क में अपनी स्वतन्त्र प्रतिक्रिया का अनुभव करे । दूसरी अवस्था में कृति का सम्पर्क ज्ञान प्राप्त करे, जो तभी सम्भव हो सकता है जब आलोचक उत्तरप्रद और उत्तरदायी दोनो हो । और अन्त मे कृति के मूल के विषय में अपना निर्णय निश्चय करे । जो कि रचनात्मक और व्याख्यात्मक आलोचक इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं है, फिर भी यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि आलोचना का मुख्य कार्य निर्णय रहा है और रहेगा ।
कृति का मूल्य उसी में पहले से ही निहित है अभिव्यक्त अनुभव मे ही नहीं, वरन् अनुभव की अभिव्यजन्ना मे भी । यदि कलाकार का अनुभव उसके लिये मूल्यवान् नही है और अनुभव की अभिव्यञ्जना उसे सन्तुष्ट नहीं करती, तो वह कलाकृति की रचना में असफल रहेगा, आलोचक का यही कर्तव्य है कि वह उन मूल्यों की खोज करे जिनके प्रभाव से कलाकार की रचनात्मक क्रियाशीलता सञ्चालित हुई थी और उन मूल्यों के जीवन और कलासम्बन्धी औचित्य की परीक्षा करे। इस प्रकार आलोचक मूल्यों का निर्णायक है । कलाकार जीवन के जङ्गल और अभिव्यञ्जना की परिक्रिया के परिष्कारकों का साहसी नेता है । आलोचक देखता है कि भटकी हुई मानवजाति के लिये उसने रास्ता साफ क |
िया है या नहीं। और जिसे मानव जाति सत्य समझती थी, उसे उसने व्यक्त किया है या नही । आदर्श आलोचक तो असम्भव सी चीज़ है । वह सर्वज्ञ हो तथा जीवन और अस्तित्व की योजना में प्रत्येक वस्तु का आवश्यक स्थान समझता हो । उसकी बुद्धि दैविक होनी चाहिये। जिस प्रालोचक को हम आदर से सुन सकते है, वह मानव जाति की सञ्चित ज्ञानराशि का पूर्णतया जानता हो और उसमे यह निर्णय करने का सामर्थ्य हो कि कहाँ
मनुष्य जाति सत्य के मार्ग पर थी और कहाँ वह भ्रान्तिमय भटकती थी । आलोचक कलाकार से उसके स्थल पर ही भेट नहीं करता वरन् उससे प्रागे जाता है। उसकी यह क्षमता जीवन व्याख्या तक ही सीमित नही है । उसे रूप के मूल्याङ्कन और शब्दो की व्यञ्जनाशक्ति की परीक्षा मे प्रवीण होना चाहिये, क्योंकि कलाकार अपने जीवनदर्शन को क्रमिक प्रतिमाओ और प्रत्ययो द्वारा रूप देता है । जिस प्रकार आलोचक जीवन के मूल्याङ्कन मे कलाकार से आगे होता है उसी प्रकार वह उससे रूप और रचनाप्रक्रिया के मूल्याङ्कन मे आगे होता है । उसमे यह देखने की योग्यता होती है कि वारणा और अभिव्यञ्जना दोनो मे रूप प्राप्त करने के लिये कलाकार ने जीवनवस्तु का निष्कपटता से प्रयोग किया है और उपकरण रूप के पूर्णतया उपयुक्त है। ऐसे प्रलोकको सास्कृतिक अनुशासन अविरत और सोत्माह स्वीकार करना चाहिये । ग्रीस के एक प्राचीन आलोचक लॉञ्जायनस का कहना है कि साहित्य की योग्यता पर निर्णय देना अतिशय प्रयास का मिष्ठ फल है। लोकको कला का विस्तृत अनुभव और दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र तथा मालोचना का सर्वाङ्ग अध्ययन होना चाहिये । ऐसे अनुभव और अध्ययन से उसे मूल्याङ्कन के उन मानदण्डो की सूझ होगी जिन्हे वह साहित्य की परीक्षा में सविश्वास इस्तेमाल कर सकता है । साहित्य और कला के मूल्याङ्कन को समस्या को भलीभाँति समझने के पहले यह जानना लाभदायक होगा कि भिन्न-भिन्न काल के कवियो, दार्शनिको और आलोचको ने हमारे पथप्रदर्शन के लिए कौन-कौन सङ्केन, सिद्धान्त, और विशदीकरण दिये है ।
यूनानियो मे आलोचनात्मक शक्ति होमर से ही क्रियाशील हो जाती है। उसकी 'इलियड' के अठारहवें सर्ग मे कलात्मक रचना के विषय में एक प्रसिद्ध स्थल है । हिस्टस ने एकोलीज की माँ थैटिस की प्रार्थना पर उसके लिए एक ढाल बनायी थी । वह युद्ध और शान्ति के दृश्यो से प्राभूषित थी । इनमे से एक दृश्य बसन्त ऋतु मे किसी कृषक को खेत मे हल चलाता हुआ उपस्थित करता है। खेत को कन्दाकारी का वर्णन करते हुए होमर, हिफ स्टस की प्रशसा मे लिखता है, "और हल के पीछे धरती काली पड़ गई और जुती हुई धरती की तरह दिखाई पडने लगी, यद्यपि वह सोने की बनी हुई थी, और यही उसकी कला का अद्भुत चमत्कार था ।" कवि का कहना है कि यद्यपि कलाकार सोने पर काम कर रहा था फिर भी वह सोने के पीलेपन को काला कर दिखाने मे सफल हुआ । स्पष्ट है कि कलाकार माध्यम को अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर उसके द्वारा अपने विचार प्रकट कर सकता है। यहाँ हिर्फ स्टस ने सोने मे वह बात पैदा कर दी जो सोने का गुण नहीं था। गोकि |
होमर साफ-साफ नहीं कहता, इस स्थल का मालोचनात्मक महत्व कलाकार की सफलता का मानदण्ड निर्दिष्ट करना है। जहाँ तक कलाकार अपने माध्यम के अन्तर पर विजय प्राप्त करता है, वहाँ तक ही उसे सफल कहा जा सकता है । होमर के बाद यूनानी आलोचना मे कूटतार्किकों (सोफिस्ट्स ) का स्थान है । वे व्याकरण मे
और वाग्मिता में निपुण होते थे। इसी से उन पर यह आक्रमरण होता था कि वे नवयुवको को वाक्चपल बनाकर उन्हे भ्रष्ट करते थे। परन्तु उनके छोटे नगरराज्य मे जनसत्तावादी वक्ता की आवाज कान मे गूंजती थी और सुभाषणकला मे चातुर्य दिखाने की प्रवृत्ति प्रत्येक नागरिक मे देखी जाती थी। इस कारण से आलोचना का एक ओर तो सुभाषणकलाकौशल मे अनुराग बढ़ा और दूसरी ओर उसी कला की विषय-वस्तुओ मे। बस, पालोचनात्मक मूल्याङ्कन के दो मानदण्ड भली-भाँति परिभाषित हो गये । जो लेख अथवा वक्तव्य जितना अलङ्कारयुक्त, व्यग्यार्थपूर्ण, प्रभावशाली हो वह उतना ही सुन्दर है और उसकी विषयवस्तु जितनी शिक्षाप्रद हो वह उतना ही महान् । यूनानी मस्तिष्क पर धर्म पौर जनतन्त्रीय राजनीति का ढाग्रह था और इन्ही दोनो गुरणको ने यूनान के साहित्य का विकास निश्चित किया। यूनानी मत के अनुसार साहित्य का उद्देश्य मनुष्यो को सत्य, धर्म्यता, और नागरिकता का उपदेश देना है। सभी यूनानी आलोचक इस बात पर सहमत है कि साहित्य का कर्तव्य पढाना है, परन्तु क्या पढाया जाय और कैसे पढ़ाया जाय, इन बातो पर मतभेद है । साहित्य उपदेशात्मक हो, इस मत का सबसे बली प्रकाशक प्लैटो था । प्लेटो आदर्शवादी सुधारक था और वह प्रत्येक एथेन्स निवासी को आदर्श नागरिक बनाना चाहता था । मनुष्य के दो धर्म हैं । बतौर विशिष्ट व्यक्ति के उसे सत्य की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिये और बनौर समाज के सदस्य के उसे सदाचारी होना चाह |
िये । सत्य और सदाचार की प्राप्ति ज्ञान द्वारा सम्भव है, ज्ञान जीवन के अनुभव के अतिरिक्त साहित्य द्वारा भी आता है। यह जानने के लिए कि साहित्य द्वारा प्राप्त ज्ञान एथेन्स के नवयुवक को लाभदायक या अथवा हानिकारक, उसने यूनानी साहित्य की कड़ी परीक्षा की। उसने होमर के महाकाव्य के बहुत से शो को दूक और झूठा साबित किया । पावित्र्यदूषकता का तो साहित्य मे व्यापक दोष है। इसका कारण यह है कि साहित्यकार अपने काव्यों मे भले आदमियों को दुखी और बुरे भादमियों को सुखी करके चित्रित करता है। नाटक मे तो बहुधा यही मिलता है। कविता भी मनोवेगो को दबाने के बजाय उन्हें उत्तेजित करती है और पाठक की बुद्धि पर अन्धकार का आवरण माच्छादित करती है। क्रूडेपन का दोष भी साहित्य में व्यापक है। प्लेटो का विश्वास था कि लौकिक सत्य अलौकिक सत्य की छाया है। कलाकार लौकिक सत्य का अनुकररण करता है और जिस सत्य को वह अपनी कला मे चित्रित करता है वह लौकिक सत्य की छाया है। इस प्रकार कला का सत्य दैविक अथवा सारभूत अथवा शुद्ध सत्य की छाया है । बस, यह बात सिद्ध हो जाती है कि साहित्य, नागरिक को न तो सत्य की शिक्षा देता है और न नीति की । इसी विचार से प्लैटो ने अपने जनसत्तात्मक राज्य मे कवि को कोई स्थान नहीं दिया। परन्तु इस विचार को प्लैटो का अन्तिम विचार नहीं समझना चाहिये। यदि कोई कवि दार्शनिक मनन मे व्यस्त रहता हुआ आध्यात्मिक अनुशासन का जीवन व्यतीत करे और ब्रह्मनिष्ठ गति को प्राप्त करके दैविक सत्य का अनुभव करने में समर्थ हो और ऐसे अनुभवो को अपती कविता में चित्रित करे, तो ऐसा कवि मानव जाति का सच्चा पथप्रदर्शक होगा
और उसकी कविता मानव जाति की वाञ्छित विपुल धनराशि होगी। दोनो पक्षो मे जब वह कवि का बहिष्कार करता है और जब कवि को सच्चा पथप्रदर्शक कहता है, प्लैटो का निष्कर्ष यही है कि कविता अथवा कला वही उत्कृष्ट मानी जायगी जो नैतिक और दार्शनिक सत्य पर आधारित होगी। प्लेटो की कलात्मक उत्कृष्टता के मूल्याङ्कन का मानदण्ड सत्य की अनुकूलता है। प्लेटो कला को उपदेश के अधीनस्थ करके उसकी उपेक्षा करता है। अरिस्टॉटल उसे कल्पनात्मक आदर्शीकरण से सम्बन्धित करके उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करता है। प्लेटो ने सुन्दर और शिव का समीकरण किया। अरिस्टॉटल ने सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना । उसने कहा कि कल्पनात्मक अनुकरण तो चाहे बुराई का हो चाहे कुरूपता का सदा सुखदायक होता है और उपलब्ध सुख सदा मानसिक शोध का होता है। इस बात को उसने करुरण की परिभाषा के अन्तिम भागो मे स्पष्ट किया है कि वह करुणा, दया और भय के भावो को उत्तेजित करके उनका शोध करता है। इस विचार से कला पर पावित्र्यदूषकता का दोषारोपण करना वृथा है। झूठेपन का दोषारोपण भी सर्वथा निरर्थक है। कला का सत्य, भाव का सत्य होता है, तथ्य अथवा इतिहास का सत्य नही । अमुक पुरुष अमुक परिस्थिति में प्रमुक चारित्रिक विशेषताओं के कारण ऐसा करेगा, यह कलात्मक सत्य है। एलकोवियेडीज ने यह किया, यह ऐतिहासिक सत्य |
है। इस विचार से यह निश्चित हुआ कि अरिस्टॉटल का कला के मूल्याङ्कन का पहला मानदण्ड कलात्मक आदर्शीकरण है । कला के मूल्याङ्कन का अरिस्टॉटल का दूसरा मानदण्ड रूपसौष्ठव है। इसका स्पष्टीकरण उसने करुरण के विवेचन मे किया है। करुण के छ घटकावयव होते हैं - वस्तु अथवा घटनाओं का विन्यास; चरित्र अथवा सकल्पमक वृत्ति का बाह्य प्रदर्शन, वाक्सरणि जिसके द्वारा पात्रों के विचार व्यक्त होते है, भाव जिनसे वे उत्तेजित होते है, रङ्गमञ्च पर अभिनेताओं का खेल, और सङ्गीत । इन छहों मे वस्तु करुण की जान है और कवि को उसके निर्माण मे बडी नावधानी दिखानी चाहिये । वस्तु का श्रादि, मध्य, और अन्त हो और समस्त वस्तु मे ऐक्य हो । उसका घटना- विन्यास सम्भाव्य और अनिवार्यता के सिद्धान्तो पर हो । नायक के भाग्य में एक परिवर्तन हो सकता है, सुख से ही दुख की ओर; और दो परिवर्तन भी हो सकते हैं, सुख से दुःख की ओर और फिर दुख से सुख की ओर, परन्तु नाटककारो को एक परिवर्तन वाली वस्तु को अधिक पसन्द करना चाहिये । वस्तु का विकास अनुवृत्ताधार पर हो । नायक की परिस्थिति, उसके मित्रो और शत्रुओं के वर्गों के विवरण के पश्चात् धीरे-धीरे नायक का भाग्य उच्चतम स्थान तक उत्कृष्ट हो और फिर वहाँ से शावशक्तियों के बल पकड जाने के कारण धीरे-धीरे उसके भाग्य का पतन हो यहाँ तक कि उसका दु खमय परिणाम मे अन्त हो । पात्रो मे चार विशेषताएँ होनी चाहिये- वे पुण्यात्मा और उत्कृष्ट वृत्ति के हो, उनमे विप्रतिपत्ति न हो, उनमे यथार्थता हो, और अन्त तक उनके विकास मे सङ्गीत हो । करुण और भयानक रसों की उत्पत्ति के लिये नाटककार अभिनय और सङ्गीत का सहारा न ले वरन् चरित्र और सङ्घर्ष की विशेषताओं का ।
पात्र बडे घराने का हो और जाने किसी घातक भूल के कारण विपत्ति मे फँसे । सङ्घर |
्ष निकट सम्बन्धियो मे हो । शैली विशद और उत्कृष्ट हो । शब्द साधारण बोलचाल के हो, वैदेशिक शब्दो का प्रयोग किया जा सकता है, उपयुक्त अलङ्कार भाषा को रोचक और बनाएँ । रुरण का यह विवेचन जिसे वह महाकाव्य के विषय मे भी ठीक समझता है, इस बात का पूरा साक्ष्य है कि अरिस्टॉटल रूपमौष्ठव को कविता की परीक्षा मे कितने महत्त्व का समझता था। अरिस्टॉटल ने करुरण के विषय में विशिष्ट सुख का उल्लेख किया था, जो हमे रङ्गमञ्च पर उसके अभिनय अथवा घर मे उसके पढ़ने से मिलता है, परन्तु उसने इसे इतने महत्व का नही समझा था कि उसे कविता की परीक्षा का महत्त्वपूर्ण मानदण्ड माने । यूनान के अन्तिम महान् प्रलोचक लॉञ्जायनस का ध्यान इसी ओर गया । वह अपनी 'एट्रीटिज कन्सनिङ्ग सब्लीमिटी' नामक पुस्तक मे लिखता हे कि साहित्य मे अत्युदात्तत्व सदा भाषा की उच्चता और वैशिष्ट्य है । इसी गुरण के कारण कवि और गद्य-लेखक यशस्वी और अमर हुए है। असाधारण प्रतिभा के गद्याश और पद्याश हमे बोध ही प्रदान नही करते, वरन् हमे अलौकिक चमत्कारक आनन्द का स्वादन कराते हैं । रचना - कौशल और अनुक्रममूलक व्यवस्थापन तो समस्त रचना मे रचयिता परिश्रम से ले आता है, परन्तु अत्युदात्तत्व उचित समय पर आकर विषय-वस्तु को इधर-उधर अलग कर देता है और रचयिता की समस्त शक्ति को बिजली की जैसी एक चमक मे प्रकाशित करता है । साहित्य मे अत्युदात्तत्व पाँच तत्त्वों से आता है। पहला तत्व है महान और ऊँचे विचारों को सोचने और ग्रहण करने की शक्ति जो नैसर्गिक प्रतिभा का फल होती है । अत्युदात्तत्व का स्वर महानात्मा से ही निकलता है । महान् शब्द अनिवार्यत महान् प्रतिभा से ही उत्पन्न होते है । दूसरा तत्त्व है प्रबल और द्रुतम मनोवेग जिसकी क्षमता भी प्रकृति देती है। तीसरा तत्त्व है शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का उपयुक्त प्रयोग । चौथा तत्त्व है पदरचना अथवा वाक्शैली । पाचवाँ तत्त्व है चमत्कारक प्रणयन । इन सब गुरगो से सम्पन्न प्रत्युदात्तत्व की पहचान यह है कि इससे सहृदय की आत्मा सत्व के उद्रेक से आनन्दमय हो उत्कृष्ट होती है। वही महान् साहित्य है जो नये मनन के लिये उत्तेजना देता है, जिसके प्रभाव को रोकना असम्भव हो जाता है, जिसकी स्मृति शक्तिवान् और अमिट होती है । यह सर्वथा सत्य है कि अत्युदात्तत्व के वही सुन्दर और सच्चे प्रभाव हैं जो सब कालो मे और सब देशो मे सहृदयो को आनन्द देते हैं। अत्यानन्दमय प्रभावोत्पादकता ही लॉञ्जायनस का साहित्यिक गुरण जाँचने का मानदण्ड है ।
सेण्ट्सबैरी के कथनानुसार तुलना ही उच्चतर और श्रेष्ठतर मालोचना का जीवन और प्राण है। रोम के आलोचको को तुलना का लाभ था, क्योंकि उनके सामने यूनानी साहित्य उपस्थित था । इस लाभ के परिणामस्वरूप वे यूनान की Raieना से अधिक सयुक्तिक आलोचना छोड सकते थे। परन्तु रोम की प्रतिभा व्यवहार कौशल मे चाहे जितनी उत्कृष्ट हो, तत्त्वत शौर्यहीन थी और यूनानी प्रतिभा की अपेक्षा अपने को तुच्छ समझती थी। रोम, ग्रीस को साहित्यिक बातो मे अपना शिक्षक औ |
र पदप्रदर्शक समझता
। निरर्णयात्मक आलोचना
रहा । और जिस उपयोगिता के दृढाग्रह ने यूनानी आलोचना को पथभ्रष्ट किया उसी दृढाग्रह ने रोम के आलोचको को और भी पथभ्रष्ट किया । सिसरो और क्विण्टीलियन दोनो वाग्मित्ता पर जोर देते है । वे किसी साहित्य को वही तक ऊँचा समझते है जहाँ तक वह सुभाषणकला के लिये लाभकारी हो । सुभाषणकला ही उनका प्रधान हित है और साहित्य गौरण । रोम के श्रालोचको मे एक हौरेस अवश्य ऐसा आलोचक है जो साहित्य को ही प्रधान हित मानता है । हौरेस कवि आलोचक था और कवि आलोचक कोरे आलोचक से सदा अधिक विश्वसनीय होता है, क्योकि वह कविता का अभ्यास करने के कारण कविता के सब नियमो को अपने भीतर देखने की क्षमता रखता है । परन्तु होरेस भी हमे निराश करता है । साहित्य के किसी रूप का उसे गहरा ज्ञान नही है । उसके सारे नियम ऐच्छिक है और वे पूर्वगामी आलोचको से लिये गये है । जिस बात पर उसका ज़ोर है, वह रचनाकौशल मे व्यवहारिक बुद्धि का प्रदर्शन है । उसके नियम उसके 'दि एपीसल टू द पीसोज अथवा आर्ट ऑफ पो मे है । श्रौचित्य का ध्यान रखो । ऐसा न करो कि स्त्री का सर घोडे की गदन और किसी पक्षी के शरीर पर रख दो । हाँ, कविश्नो को सब प्रकार के साहस का अधिकार प्राप्त है। फिर भी प्रकृति और व्यावहारिक बुद्धि असगत बातो को मिलाने से रोकती है। अलङ्कररण विषयोनुकूल होना चाहिये । इन बातो का ध्यान रखो कि कहीं सक्षेप होने में अस्पष्ट न हो जाओ, स्पष्टता के प्रयास मे बलहीन न हो जाम्रो, उडान के पीछे वृहच्छब्दस्फीत न हो जाओ, सादगी का गौरव प्राप्त करने मे नीरस न हो जाओ, और विभिन्नता के उद्देश्य की पूर्ति मे अमर्यादित न हो जाओ । विषय अपनी शक्ति को ध्यान में रख कर बॉटो । शब्दो की छाँट मे रिवाज का ख्याल रखो । जिस प्रकार की कविता मे जैसा छ |
न्द का प्रयोग चला आ रहा है, उससे न हटो । काव्यो के पात्र अब तक जैसे चित्रित होते आये है वैसे ही चित्रित होते रहने चाहिये, एकीलीज़ को सदा असहिष्णु, कठोर और घमण्डी चित्रित करना चाहिये और मैडी को रुधिरप्रिय और प्रतिशोधनोत्सुक चित्रित करना चाहिए । नये विषयो की अपेक्षा पुराने विषय अधिक अच्छे है। पुराने विषयो पर नया प्रकाश डाल कर मौलिकता दिखाना ज्यादा ठीक है। किसी प्रबन्ध का आदि शब्दाडम्बर पूर्ण शैली मे नही होना चाहिये। आग जलाकर धुँए मे अन्त करने से धुंए से आग जलाना अधिक चित्तवशकर होता है। अपने पाठक को धीरेधीरे ऊपर उठाना चाहिये । जीवन-चित्ररण मे साधारणीकरण सविवेक हो, बच्चे को बुड्ढे के गुण देना और बुड्ढे को जवानो के गुरण देना अनुचित है। प्रत्येक नाटक मे पाँच प्रक होने चाहिये और एक दृश्य मे तीन पात्रो से अधिक न बोले । कार्य की कमी को गायकगरण पूरी करे, उनके भाव नैतिक और धार्मिक हो । हास्य और करुण का सम्मिश्रण अनुचित है। हर प्रकार के लेख को जितना माँजा जाय उतना अच्छा । अचिन्तित और प्रेरित रचना की चर्चा सारहीन है। जीवन और दर्शन के कवि को जितना ज्ञान हो उतना ही थोडा । ( राजशेखर भी अपनी 'काव्यमीमासा' मे कहता है कि बिना सर्वज्ञ कवि होना असम्भव है) कवि शिक्षा दे, अथवा दुख दे, अथवा शिक्षा और सुख दोनी दे । दोषो
से बिल्कुल बनने की कोशिश ज्यादा आवश्यक नहीं, पर दोषो से जितना बचा जाय उतना अच्छा । ( इस विषय में लॉञ्जायनस की यह उक्ति व्यान में रखने योग्य है कि मनुष्य की श्रेष्ठता उस ऊँचाई से जानी जाती है जिस तक वह चढ जाता है । उस नीचाई से नही जिस तक गिर जाता है ।) मध्य श्रेणी की कविता असह्य है । कविता या तो उदात्त ही होती है नही तो दूषित और घृणित ही। अपनी रचना को प्रकाशित करने की जल्दी न करो परन्तु अपनी और दूसरो की आलोचना से उसे ठीक करते रहो । इन नियमो मे बडी ऊँची बाते नहीं है और इन नियमो का पालन करके कोई मध्यम श्रेणी का कवि ही बन सकता है, फिर भी पुनरुत्थान और नवशास्त्रीय कालो मे हौरेस का बडा आदर था, नवशास्त्रीयकाल मे तो उसका अरिस्टॉटल से भी अधिक आधिपत्य था । इन नियमो से हौरेस ने शास्त्रीय मत की स्थापना की ।
मध्यकालीन विचार सामूहिक था, स्वतन्त्र और वैयक्तिक था । स्वभावत आलोचना के अनुकूलन था । बीथियस का मानदण्ड प्लैटो का है । काव्य देवियाँ मनुष्यो को मधुर विष पिलाती है, बुद्धि के प्रचुर फल का विनाश करती है, और दर्शन देवी को आते देखकर खिसक जाती है । सेट ऑगस्टिन भी साहित्य के सुख को राक्षसी सुख बताता है । डाएटे अकेला ही आलोचना का ऐसा महान् उदाहरण है जिसने बिना धार्मिक पक्षपातो के साहित्य की परीक्षा की। वह हौरेस से काव्यशक्ति और आलोचनात्मक प्रेरणा मे कही बढा चढा था । उसके निर्णयात्मक मानदण्ड उसकी 'डे वलौराई
दूसरी पुस्तक से निकाले जा सकते है । इस पुस्तक मे वह कविता के लिये सास्कृतिक भाषा की उपयुक्तना की जाँच करता है। उसके विचार ये है । उत्कृष्ट कविता सास्कृतिक भाषा ही मे हो सकती है |
। उत्कृष्ट कविता के विषय युद्ध, प्रेम और धर्म होते है । कवियो के अभ्यास से भी यही स्पष्ट है और दार्शनिक विचार से भी । मनुष्य - पौधा-जातीयपाशविक - बौद्धिक प्राणी है । पौधाजतीय होते हुए बढवार के लिये रक्षा चाहता है जिसके लिये उसे शत्रुप्रो से लडना पड़ता है, पाशविक होते हुए भिन्न लिङ्ग पर आसक्ति की उसमे प्रवृत्ति है; और बौद्धिक होते हुए धर्म और नीति के पालन करने मे तत्पर होता है । उत्कृष्ट कविता का पद ग्यारह मात्रा का होता है । डाराटे कविता की परिभाषा ऐसे करता है, "कविता वग्मितापूर्ण पद्यकृत कल्पित कथा के अतिरिक्त और कोई चीज़ नही है।" इस परिभाषा मे कल्पित कथा जातिसूचक है और वाग्मिता और पद्यात्मकता पार्थक्य सूचक है, कल्पना और पद्यात्मकता इस प्रकार कविता के दो मुख्य लक्षण हो जाते हैं । महान् शैली के लक्षण डाएटे के अनुसार चार है- अर्थगुरुता जो युद्ध, प्रेम, और धर्म उपर्युक्त विषयो का प्रयोग से है; पद्य-चमत्कार जो ग्यारह मात्राओ के पद के प्रयोग से आता है; शैली की उत्कृष्टता जो सालङ्कार भाषा के प्रयोग से आती हैं, और शब्दसग्रह की श्रेष्ठता जो मध्य आकार के शब्दों के प्रयोग से आती है। डाराडे मुख्यत, रूप का आलोचक है 'गोकि जैसा स्पष्ट है विषयवस्तु की ओोर भी वह ध्यान देता है। यदि
कविता रूपसौष्ठव मे उच्चश्रेणी की है तो वह ही सराहनीय है । इस विषय मे उसकी दो उक्तियाँ स्मरणीय है - पहली यह कि जो कुछ सङ्गीत के नियमों के अनुसार पदो मे व्यक्त हो चुका है, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवादित नही हो सकता । इससे स्पष्ट है कि डाएटे को रूपसौष्ठव का ज्यादा ख्याल है क्योकि अनुवाद मे विषय तो ज्यो का त्यो रहता है परन्तु रूपसौष्ठव की हानि होती है। दूसरी उक्ति है कि किसी भाषा की आन्तरिक शक्ति उसकी गद्य मे जानी |
जाती है न कि उसकी पद्य मे । भारतीय विचार के अनुसार भी गद्य को कवि को कसौटी कहते है - "गद्य कवीना निकष वदन्ति" । यहाँ भी डाएटे का व्यान अर्थ की अपेक्षा शब्द और शब्दयोजना की ओर है। काव्यगुण निर्णय करने का डाराटे का मानदण्ड रूप का सौन्दर्य है ।
पुनरुत्थान के समय कई प्रभाव ऐसे क्रियाशील थे जिन्होने योरोपीय मस्तिष्क को स्पष्टतया आलोचनात्मक मनोवृति प्रदान की। जागीरदारी की प्रथा का केन्द्रित राज्य मे परिवर्तन, प्राचीन शास्त्रो का अध्ययन भ्रष्ट पादरी जीवन का स्पष्ट विरोध - ये ऐसी - बाते थी जिनसे राजनीतिक, सास्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रो मे क्रान्ति पैदा हो गई । क्रान्तिकारी वृत्ति जो आलोचना से उत्तेजित होती है, स्वय आलोचना को वृद्धि भी देती है । शैतान ही तो पहला आलोचक था जिसने भगवान के विरुद्ध स्वर्ग मे क्रान्ति फैलाई और फिर नरक मे पहुँच कर अपने अनुयायियों को आलोचनात्मक व्याख्यान दिये । पुनरुत्थान मे मुद्रणकला द्वारा विचारों के प्रसार ने आलोचनात्मक प्रक्रिया को और प्रवर्तकशक्ति दो । साहित्य मे आलोचनात्मक प्रवृत्ति को नई भाषाओ की कमजोरी, ग्रीक और लैटिन आलोचना की पुनर्प्राप्ति और प्योरीटन आक्रमण के विरुद्ध प्रतिवाद ने और मदद दी । पुनरुत्थान की पहली अवस्थाओ मे इटली आलोचनात्मक संस्कृति का घर था और इटली के आवक योरोप भर मे तब तक सम्मानित रहे जब तक कि फ्रान्स के आलोचक सत्तरहवी शताब्दी मे उच्चतर पद को न प्राप्त हुए । विडा का मत है कि कवियो को शास्त्रीय लेखको का अनुकरण करना चाहिये, विशेषतया वर्जिल का जो कि होमर से बढ़ा चढा था । वह वर्जिल को सब गुरगो का प्रतिमान और सब श्रेष्ठता का आदर्श मानता है । डैनीलो सुख और शिक्षा देने के अतिरिक्त कविता का उद्देश्य आवेग और सानन्दाश्चर्य का उत्तेजित करना भी मानता है। फार्केस्टोरो अरिस्टॉटल के अनुकरणात्मक सिद्धान्त के प्रत्ययात्मक तत्त्व को स्पष्ट करता है, कवि वस्तु के सादे और तात्विक सत्य का वर्णन करता है, वह नग्न वस्तु का वर्णन नहीं करता वरन् सब प्रकार के आभूषण से सजा कर उसके प्रत्यय का वर्णन करता है। फार्केस्टोरी के समय तक सौन्दर्य के तीन विचार प्रचलित थे। पहला शुद्ध अनात्मिक विचार था जिसके अनुसार सौन्दर्य स्थिर और रूपात्मक माना जाता है, वही वस्तु सुन्दर कही जा सकती है जो किसी यान्त्रिक अथवा रेखागणित विषयक रूप के समान हो जैसे गोलाकार, सम-चतुर्भुजाकार और सारल्य। दूसरा प्लैटो सम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार शिव, सत्य और सुन्दर को समान माना जाता है; तीनो दैविक शक्ति के प्रकटन हैं। तीसरा सौन्दर्य शास्त्रसम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार
सौन्दर्य को उन सब उपयुक्तता के अनुरूप माना जाता है जो किसी वस्तु से सम्बन्धित की जा सकती है । यह विचार आधुनिक विचार के निकट आ जाता है जिसके अनुसार सौन्दर्य किसी पदार्थ के वास्तविक लक्षरण का प्रत्यक्षीकरण है अथवा उसके अस्तित्व के नियम की सिद्धि है। इतिहासकार अपने लेख को इतिहास सम्बन्धी सौन्दर्य ही दे सकता है, दार |
्शनिक दर्शन सम्बन्धी सौन्दर्य दे सकता है, परन्तु कवि अपने लेख को सब प्रकार के सौन्दर्य से सजा सकता है । वह किसी एक क्षेत्र के सौन्दर्य ही की धारणा नहीं करता, वरन् उन सब सौन्दर्यो की जो किसी वस्तु के शुद्ध प्रत्यय से सम्बन्ध रखती है। इस प्रकार कवि और सव लेखको से श्रेष्ठ है क्योकि वह अपनी वरिंगत वस्तु को सम्पूर्ण सौन्दर्य मे प्रदर्शित करता है। मिण्टरनो के मतानुसार कवि को सदाचारी और विद्वान् पण्डित होना चाहिये । यदि वह प्रतिभाशाली हो तो नियमो का उल्लङ्घन कर सकता है । स्कैलीगर कवि के पाण्डित्य पर ज़ोर देता है । जिराल्डी सिन्थियो करुण और हास्य पर अपने विचार व्यक्त करता है । करुण के पात्र ऊँची पदवी के होते हे और हास्य के साधारण और नीची पदवी के । करुरण महान् और भयानक घटना का वर्णन करता है और हास्य सुज्ञान और घरेलू बातो का । करुरण सुख से दुख की ओर परिवर्तित होता है और हास्य बहुधा दुख से सुख की ओर । करुण की शैली और वाक्सररिग उत्कृष्ट मौर उदात्त होती है और हास्य की अपकृष्ट और सालापिक । करुण के विषय अधिकाश ऐतिहासिक होते है और हास्य के कवि के आविष्कृत । करुण का वातावरण अधिकतया निर्वासन और रक्तपात का होता है और हास्य का प्रधानत प्रेम और सग्रहण का । कैस्टेलवैट्रो का ध्यान भी नाटक की आलोचना की ओर जाता है । वह उसी नाटककार को सफल मानता है जो अपने नाटक मे वस्तुसङ्कलन, कालसङ्कलन, और देशसङ्कलन तीनो मे से किसी को भङ्ग नही करता और जो रङ्गमञ्चीय सत्याभास देता है । टासो ने रोमानिक महाकाव्य का आदर्श निश्चित किया है । उसमे विषय की आनन्दप्रद विभिन्नता के साथ-साथ महाकाव्य का तात्विक वस्तुसङ्कलन भी होता है। रोमासिक वीरकाव्य की यह विशेषताएँ बताता है । विषय ऐतिहासिक होना चाहिये । ऐतिहासिकता से काव्य मे सत् |
य का प्राभास होने लगता है और पाठक को भान होता है कि लिखित बाते सब सप्रमाण है। वीरकाव्य मे सच्चे धर्म का अर्थात् ईसाई मत का वृतान्त होना चाहिये, झूठे मत का नहीं, यूनानी धर्म की बाते वीरकाव्य के लिये ठीक नही क्योकि उसमे अद्भुत तत्त्व तो है परन्तु सम्भाव्य नही और वीरकाव्य के लिये दोनो आवश्यक है । काव्य मे धर्म की ऐसी कट्टर बातो का समावेश न होना चाहिये ज़िनका थोडा बहुत परिवर्तन कर देना अधर्म का दोष ले आये और कवि की कल्पना बाधित हो जाय । विषय-वस्तु न तो अधिक प्राचीन हो, न अधिक आधुनिक हो, क्योकि यदि बहुत प्राचीन हुई तो उसमे ऐसे अनोखे रीतिरिवाजो का वर्णन आयेगा जिसमे पाठक का अनुराग कठिनाई से हो सकता है और यदि विषयवस्तु बहुत आधुनिक हुई तो उसमे सम्भाव सहित अद्भुत बातो का लाना कठिन हो जायगा । शार्लमेन और आर्थर के काल उचित माने जा सकते है। घटनाएँ महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये । नायक भद्र और जातिनिर्णयात्मक आलोचना ]
पालक होना चाहिये । पैट्रिजी का कहना है कि कविता किन्ही विशिष्ट विपयो से सीमित नही है, उसमे कला, विज्ञान इतिहास सब विषयों का निरूपण हो सकता है, बस बात यह है कि शैली काव्यमय हो ।
पुनरुत्थान काल की अँग्रेजी आलोचना न इतनी प्रचुर है, न इतनी प्रभावशाली और विभिन्नतापूर्ण है जितनी कि इटली की । परन्तु उसका अध्ययन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पुनरुत्थान काल मे आलोचनात्मक सिद्धान्त उपलब्ध थे और इस उपलब्धि मे इङ्गलैड का भी पूरा भाग था। दूसरी बात जो यह अध्ययन स्पष्ट करता है वह यह है कि किस प्रकार अंग्रेजी आलोचना मे शास्त्रीयता का प्रचार बढा । अंग्रेजी आलोचना के विकास की पहली अवस्था मे मालोचको ने आलङ्कारिता, रूप, और शैली की ओर व्यान दिया । दूसरी अवस्था में भाषा और पदयोजना के प्रश्नो को हल किया। तीसरी अवस्था मे कविता का दार्शनिक विचार से अध्ययन, विशेषतया इस हेतु से कि किस प्रकार उसे प्योरीटनो के आक्रमण से बचाया जाय जो कविना को झूठी और कलुषीकारक कह कर दूषित करते थे। चौथी अवस्था मे कविता का अध्ययन काव्यरचना और आलोचनात्मक सिद्धान्तों के समर्थन के उद्देश्यो से हुप्रा । उस काल के सिडनी, बैनजॉन्सन, और बेकन, तीन ऐसे आलोचक हैं जिनसे साहित्य परीक्षा के मानदण्ड मिलते है । सिडनी, कविता को अरिस्टॉटल की तरह अनुकरण मानता है । सालङ्कार भाषा मे उसे बोलती हुई तस्वीर कहता है जिसका उद्देश्य सुख और शिक्षा देना है । छन्द कविता के लिये तात्त्विक नही है, वह उसका आवश्यक प्राभूषण है । कविता नीति की शिक्षा देती है और मनुष्य के जीवन को उच्चतम स्तर तक ले जाने में समर्थ होती है । कविता नैतिक ज्ञान ही नही देती, नैतिक जीवन व्यतीत करने की उत्तेजना भी देती है । कवि तत्त्ववेत्ता और इतिहास - वरन् कार दोनो से उच्चतर है । तत्त्ववेत्ता तो नीति और अनीति का स्पष्टीकरण करता है और अपने अनुयायियों को आदेश देता है, परन्तु कवि नैतिक प्रदेश को एक कल्पित व्यक्ति के जीवन मे अनुप्राणित कर एक प्रभावोत्पादक उदाहरण पेश करता ह |
ै । इतिहासकार किसी सासारिक महान व्यक्ति के जीवन का वृतान्त देता है जिसको पढकर पाठक को यह विश्वास नही हो पाता कि जिन नियमों का पालन करके उस महान् व्यक्ति ने यश और गौरव पाया वे व्यापक महत्त्व के हैं, परन्तु कवि साधारणीकरण शक्ति के द्वारा पाठक को नियमो का प्रभाव कारणकार्य रूप में दिखाता है। इतिहास मे कभी-कभी बुरे आदमी सफल हो जाते हैं और कभी-कभी भले मादमी विफल हो जाते है और साहित्यकार उनके जीवन को वैसे ही वरिंगत करता है, परन्तु कवि भले प्रादमी को सदा सफल कर दिखा सकता है और बुरे आदमी को सदा विफल कर दिखा सकता हैं। इसी विशेषता से कविता को अज्ञानी पुरुष झूठा कह देते हैं। वे ऐतिहासिक सत्य और काव्यमय सत्य मे भेद नही कर सकते । बैनजॉन्सन की रुचि व्यवस्था, एकरूपता, और शास्त्रीयता की ओर थी । उसने बडे पाण्डित्य से उन सब बातो को कह डाला है जिन्हें अग्रेजी आलोचक ऐस्कन से लेकर पदनहम तक
कहने का प्रयास कर रहे थे और वह ड्राइडन, पोप, और जॉन्सन के मत की रूपरेखा निश्चित करता है । नाटक प्ररणयन मे वह शास्त्रीय मत का प्रकाशक है और नियमो का बडा निर्भीक प्रतिपादक है, गो कि अभ्यास में वह काल और देशसङ्कलन और गायकगरण सम्बन्धी नियमों का उल्लङ्घन करता है। करुण के लेखक को नियमो के पालन के साथसाथ वस्तु की सत्यता, पात्रो की गम्भीरवृत्ति, वक्तृत्व की उत्कृष्टता और सारपूर्ण वाक्यो की बहुतायत पर ध्यान देना चाहिये । बैनजॉन्सन ने करुरण की अपेक्षा हास्य का अधिक विस्तृत विवरण दिया है । हास्य के श्रङ्ग वे ही है जो करुरण के है और करुणा की तरह हास्य का उद्देश्य भी सुख और शिक्षा देना है । हास्य मनुष्य के छोटे-छोटे दोषो को रङ्गमञ्च पर खोल दिखाकर उन्हें उपहास्य बताता है ताकि दर्शक लोग अपने ऐसे दोषो पर स्वय दृष्टि डाले और उन् |
हे छोडे । जैसे करुरण, शोक और भय द्वारा नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है वैसे ही हास्य छोटे परिमाण के कमीनेपन और बेवकूफी की हँसी उडाकर नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है। दोनो मे क्रिया सुधारक है, बस उपकरण का अन्तर है । करुरण ऊँची और असाधारण बातो से मतलब रखता है और हास्य छोटी बातो से, जो साधारण अनुभव की होती है, हास्य मे अन्तर्वेगो का द्वन्द्व और घटनाओ का भाग्य से और उनका परस्पर सङ्घर्ष दिखाया जाता है, करुण मे चरित्रो का भेद और कूटयुक्तियों की सफलता अथवा विफलता दिखाई जाती है, हास्य मे कृत्य की विशेषता यह है कि उसका कोई वाह्य आधार नहीं होता, बल्कि चरित्र - विभेद का प्रान्तरिक प्रभाव ही कृत्य का रूप दृढ करता है । ऐसे सादृश्य के आधार पर ही बैनजॉन्सन ने हास्य का विवेचन किया। हास्य का मुख्य उद्देश्य हँसी और विनोद नहीं, वे उसके साधक है । हास्य के लेखक को उन्हें मुख्य उद्देश्य बनाने के विलोभन से बचते रहना चाहिये । यदि वह इस विलोभन मे पड गया तो सम्भव है कि वह घोर पापो का प्रदर्शन कर उनकी ओर हँसी दिलाने की चेष्टा करने लगे । इससे हास्य का उद्देश्य मारा जायगा क्योकि घोर पापो की ओर घृणा उत्पन्न करना चाहिये न कि हँसी । हँसी उत्पन्न करने के विलोभन में यह भी खतरा है कि हास्य का लेखक प्रतिवाद मे पड जाय और अतिवाद प्रहसन ( फार्स ) मे ठीक है, हास्य मे गलत । प्रचचित सुखान्त हास्य को बैनजॉन्सन निन्दनीय मानता है । ठीक हास्य समाज का सुधारक होता है, इस धारणा से उसने स्वभाव ( ह्यूमर ) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पृथ्वी, जल, वायु, औौर अग्नि इन चार तत्वों के अनुरूप मनुष्य के शरीर मे कृष्ण पित्त, कफ़, रक्त, और पित्त इन चार द्रव्यो का सञ्चार है । जब ये चारों द्रव्य ठीक-ठीक अनुपात में किसी मनुष्य में विद्यमान होते हैं तो मनुष्य का मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। यदि इनमे से किसी एक द्रव्य का अनुपात अधिक हो जाय तो मनुष्य का स्वभाव अधिक मात्रा वाले द्रव्य की विशेषता दिखायेगा। यदि मनुष्य में कृष्ण पित्त अधिक हुआ तो उसका स्वभाव निरुत्साह होगा, यदि उसमे कफ का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव मन्द होगा, यदि उसमें रक्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव उल्लसित होगा, यदि उसमे पित्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव
निर्णयात्मक प्रालोचना]
क्रोधी होगा । हास्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार मे उन तत्त्वों का निरीक्षण करना है जो या तो उसमे नैसर्गिक रूप से प्रधान होते है या जो जीवन व्यापार मे उत्तेजना पाने पर दूसरे तत्त्वो को दबाकर अपनी सीमा से बढ जाते है । ऐसा निरीक्षरण भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले बहुत से मनुष्यों में किया जाय और जब बिगडे हुए स्वभावो का एक दूसरे से सङ्घर्ष हो तो इन व्यतिक्रमो का अनैतिक प्रभाव प्रदर्शित किया जाय । मान लो कि हम किसी आदमी को लोभी कहते है क्योकि लोभ उसकी विशेषता है और उसके लिए लोभ स्वाभाविक है, यह श्रादमी जीवन व्यापार में इस प्रकार काम कर सकता है कि लोभ की प्र |
वृत्ति उभरने न पाये, और मूर्खो प्रथवा शैतानों के बीच मे पड जाने से ऐसा भी व्यवहार कर सकता है जिससे उसकी लोभ की प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्तियो पर आधिपा जाये । पहली दशा मे मनुष्य अपने स्वभाव के अन्तर्गत कहा जायगा और दूसरी दशा मे अपने स्वभाव के वहिर्गत कहा जायगा । दोनो दशाओ मे हास्य को अवकाश है और प्रश्न केवल परिमारण का है। पिछली दशा नाटककार को अधिक प्रिय है क्योकि आधिक्य रङ्गमञ्च पर अधिक प्रभावोत्पादक होता है और आधिक्य के सङ्घर्षो का प्रदर्शन प्रधिक शिक्षाप्रद होता है । इस सिद्धान्त पर हास्य लिखने मे पात्र कठपुतली की तरह रुक्ष और एकरूप हो सकते है और वे सरल तो हो ही जाते हैं, तथा वे आन्तरिक शक्ति की न्यूनता के कारण जीवित से भी प्रतीत नही होते । परन्तु बैनजॉन्सन का हास्य विषयक मानदण्ड यहाँ स्पष्ट है । कविता के विषय में पहली बात जो बैनजॉन्सन की आलोचना मे एकदम द्रष्टव्य है वह कवि की नैतिकता है। बिना सदाचारी हुए कवि अच्छी कविता नही कर सकता । अपनी 'डिसकवरीज' मे कवि की आवश्यकताओ का वर्णन देते हुए बैनजॉन्सन कहता है कि "कवि मे उपयुक्त स्वाभाविक बुद्धि हो, क्योकि बहुत सी दूसरी कलाएँ नियमो और प्रदेश के परिपालन से भी आ सकती है, परन्तु कवि जन्मना ही होता है। दूसरी आवश्यकता कवि मे जन्मप्राप्त बुद्धि का अभ्यास है। बहुत से पद जल्दी लिख डालने से ऊँची श्रेणी की कविता नही आ सकती । काट-छाँट और पदो को धीरे-धीरे माँजना आवश्यक है। अच्छा लिखने से जल्दी लिखना आता है न कि जल्दी लिखने से अच्छा लिखना । वर्जिल कहा करता था कि वह अपनी कविता को पीछे से ऐसे रूप देता था जैसे रीछनी अपने बच्चो को डालकर फिर चाट चाट कर उन्हें रूप देती है। तीसरी आवश्यकता अनुकरण की है। किसी महान् कवि को छाँट कर उसका ऐसे अनुकरण करना कि ध |
ीरे-धीरे स्वय उसी कवि के समान हो जाना, जैसे वर्जिल और स्टेटस ने होमर का अनुकरण किया था। अनुकरण दास तुल्य न हो। चौथी आवश्यकता अध्ययन की सूक्ष्मता और विस्तार, ऐसा अध्ययन जो जीवन का अश हो जाय और उचित समय पर काम आ जाय। पाँचवी आवश्यकता नियमो का ज्ञान है, क्योकि बिना नियमो के ज्ञान के प्रतिभा का नियन्त्रण और उससे पैदा हुए भावो का व्यवस्थापन सम्भव नहीं। इस प्रकार लिखी हुई कविता को कवि ही जाँच सकता है, कविता की समीक्षा की शक्ति कवियो मे ही होती है। बेकन ने इतिहास का निर्देश मेधा से, दर्शन का ज्ञानशक्ति से,
और कविता का कल्पना से मान लेने मे परम्परा का अनुसरण किया । नाटक को उसने सारङ्गी बजाने वाले का गज कहा जिससे निकली हुई तान द्वारा बडे-बडे मस्तिष्क प्राभवित हो सकते है। रङ्गशाला मे नाटक के अद्भुत प्रभाव का कारण सामूहिक मनोवृत्ति बताई गयी है । जब बहुत से दर्शक एक जगह एकत्रित होते हैं तो उनमे रस का सवार आधिक्य पा जाता है । कविता कल्पनामय ज्ञान है । उसका स्रोत मनुष्य की इस संसार से असन्तुष्टि है । सासारिक गौरव, सासारिक व्यवस्था, सासारिक विभिन्नता मनुष्य को सन्तुष्ट नही करती और वह अपनी कल्पना से वास्तविक गौरव से अधिक श्रेष्ठ गौरव, वास्तविक व्यवस्था से अधिक पूर्ण व्यवस्था और वास्तविक विभिन्नता से अधिक सुन्दर विभिन्नता सोच सकता है । कविता वस्तुओं के रूप को मानसिक इच्छा के अनुरूप परिवर्तित कर देती है । बेकन का मानदण्ड कल्पनात्मक सुख है ।
सत्तरहवी शताब्दी के फ्रान्सीसी आलोचको के नियम फ्रान्स ही मे नही वरन् समस्त यूरोप में सम्मानित थे जिनमे से तीन अधिक माननीय हैं - बोयलो, रैपिन और लै बौस्यू । वोयलो की 'एल आर्ट पोयटीक' से यह मत यहाँ उल्लेखनीय है । कविता के प्रत्येक विषय मे चाहे वह मोदजनक हो चाहे उदात्त, विवेक अवश्य होना चाहिये । पद्यरचना से अधिक मूल्यवान् विवेक ही है और इसी से काव्य मे गुरण और चमक पैदा होती है। बहुत से कवियो को इस बात का मान होता है कि उनकी कविता मे ऐसी अद्भुत बाते है जो आज तक किसी दूसरे ने नही लिखी । यह सब प्रयुक्त है । कविता विवेकपूर्ण होनी चाहिये । कविता मे कोईं अविश्वसनीय बात नही होनी चाहिये, जिस बात मे विश्वास नही उससे मन कैसे प्रभावित हो सकता है । यदि तुम अपनी कविता को प्रिय बनाना चाहते हो तो तुम्हारी काव्यदेवी ज्ञानपरिपूर्ण होनी चाहिये । सौरस्य के साथ-साथ सार और उपयोगिता भी होनी चाहिये । प्रकृति ही हमारा अध्ययन होनी चाहिये । हम प्रकृति से कभी विमुख न हो । बोयलो का मत इस बात पर आधारित है कि प्रत्येक साहित्यिक रूप की सम्पूर्णता की चरम सीमा अथवा मर्यादा है। रचनात्मक कलाकार इस मर्यादा को पूरी तरह समझे और आलोचक इसी के मानदण्ड से साहित्य समीक्षा करे । इस मत मे वस्तु के विषय में प्रार्थना की कचहरी विवेक अथवा प्रकृति है और प्रणयन के विषय में प्रार्थना की कचहरी रुचि है। रैपिन अपनी 'रिफलेक्शन्स सर लापोयटीक' मे कविता पर अपने विचार प्रकट करता है । वह प्लैटो और अ |
रिस्टॉटल के इस मत का प्रतिवाद करता है कि कविता में विक्षिप्ति का प्रवेश होना चाहिये । चित्तविक्षेप का कविता से कोई सम्बन्ध नही । कविता सुख का प्रयोग उपदेश के लिये करती है। अरिस्टॉटल के नियम प्रकृति के व्यवस्थापन है। यदि किसी नाटक मे सङ्कलन-त्रय न हो तो उसमे सत्याभास भी नहीं आ सकता । ले बोस्यू महाकाव्य मे अरिस्टॉटल और हौरेस को नियमो के सम्बन्ध मे और होमर और बजिल को आधार के सम्बन्ध मे सब अधिकार देता है ।
नवशास्त्रीय काल की रूपरेख बैनजॉन्सन और बोयलो मे निश्चित हो जाती हे । आलोचनात्मक एकरूपता इस काल की मुख्य विशेषता है । मिल्टन कहता है कि शिक्षणपूर्णता मे कविता तक प्रौर वाग्मिता से दूसरी श्रेणी की हे ओर शिक्षणपूर्ण होने के लिये कविता सरल, इन्द्रियमूलक ओर आवेगमय होनी चाहिये । ड्राइडन आलोचना को शिक्षरण के उद्देश्य से बचाकर उसे सद्धान्तिक, तुलनात्मक ओर ऐतिहासिक बनाता है । वह कवि मालोचक था, साहित्य मे उसका सच्चा अनुराग था, उसने प्राचीन ग्रीक और रोमी साहित्य खूब पढ रखा था और तत्कालीन यूरोप के साहित्य का भी उसे अच्छा ज्ञान था । ड्राइडन नाटक को जीवन का जीवित चित्र मानता है । इसी कारण वह ऐसे नाटको से जो नियमो का पालन करते हो पर जीवन- चित्रण में कृत्रिम हो जाते हो, उन नाटको को ज्यादा अच्छा समझता है, जिनमे नियमो का चाह उल्लङ्घन हो, परन्तु उनमे अकृत्रिमता हो । वह करुण-हास्य के पक्ष मे है । करुण-हास्य अधिक सुखमय होता हे । यह बात नही मानी जा सकती कि करुण श्रोर प्रमोद एक-दूसरे को निष्फल बना देते हे, सच यह हे कि सम्मिश्रण मे वे एक-दूसरे को और फलीभूत कर देते हैं। यदि के साथ किसी नाटक में उपवस्तु भी हो और उपवस्तु के होने से अस्तव्यस्तता न तो उपवस्तु का प्रयोग दोप की जगह गुरण माना जायगा । नाटक क च |
ित्रित कृत्य और वरिणत कृत्य मे ठीक सामञ्जस्य हो, एलीजेत्रेय के काल का नाटक कृत्य को अधिक दिखाता है और फान्स का नाटक कम दिखाता है, नाटककार को दोनों के बीच का रास्ता पकडना चाहिये । करुण की भाषा के विषय मे ड्राइडन का मत है कि वह पद्यात्मक होनी चाहिये, पहले तो तुकान्त पद्य के पक्ष मे था पर पीछे से अतुकान्त के पक्ष मे हुआ । वह पद्यात्मक भाषा के प्रयोग का समर्थन इस विचार से करता है कि उसके द्वारा एक ऐस। वातावरण तैयार हो जाता है जिसमे काव्य की आदर्शवादिता अच्छी तरह ग्रहणीय होती है। इसमे शक नही कि पद्यात्मक भाषा से अकृत्रिम, क्योकि जीवन मे पद्यात्मक भाषा नहीं बोली जाती और नाटक जीवन का अनुकरण होता है । नाटक के विषय में ड्राइडन का मत नियमो के कठार बन्धन से मुक्त होने का है । वह 'डिफेन्स ऑफ दी एसे' में बिना हिचक के स्वीकार करता है कि कविता का प्रधान उद्देश्य सुख देना है, शिक्षा गौण । 'प्रफेस टू एन ईवनि प्रहसन (फार्स) मे यह भद लक्षित करता है । हास्य मे पात्र निम्न श्रेणी के उनके चरित्र और कृत्य निसर्गज होते है, उसमे ऐसी वृत्तियाँ, योजनाएँ और ऐसे साहसी कार्यं प्रदर्शित होते है जो दिन-प्रतिदिन जीवन मे मिलते है; प्रहसन मे बनावटी वृत्तियां और अप्राकृतिक घटनाएँ होती हैं। हास्य, मनुष्य स्वभाव की त्रुटियाँ हमारे सामने लाता है; प्रहसन ऐसी वस्तुओ से हमारा मनोरञ्जजन करता है जो अमूलक और अपरूप होती हैं । हास्य एसे लोगो को हँसी दिलाता है जो मनुष्यों की मूर्खताओ और उनके भ्रष्टाचारो पर अपना निर्णय दे सकते हैं, प्रहसन ऐसे लोगो को हँसी दिलाता है जिनमे निर्णयात्मक शक्ति नहीं होती और जो असम्भवकल्पक प्रदर्शन से खुश होते है । हास्य अवधारणा और
उच्छृङ्खल कल्पना पर क्रियाशील होता है, प्रहसन उच्छृङ्खल कल्पना पर ही । हास्य की हसी में अधिक सन्तुष्टि होती है, प्रहसन की हँसी मे अधिक घृणा । इसी लेख मे ड्राइडन करुण और हास्य का मुकाबिला करते हुए कहता है कि करुरण के लिये काव्यात्मक न्याय ( पोइटिक जस्टिस ) आवश्यक है क्योकि उसका उद्देश्य उदाहरण द्वारा शिक्षा देना है और हास्य मे उसकी आवश्यकता नही क्योकि उसका उद्देश्य सुख और आनन्द है । वह 'ऑफ हीरोइक प्लेज' मे वीर नाटक के लिये प्रतिमानुष श्रेष्ठता और उत्कृष्ट शैली का पक्षपाती है । वीर नाटक महाकाव्य का सक्षिप्त रूप है । महाकाव्य मे अतिमानुष पात्रो और उदात्त शैली के अतिरिक्त अलौकिक पात्रो और घटनाओ का समावेश भी होता है । करुण भी भाव मे वीर होता है । उसकी रूपरेखा पहले से ही निर्दिष्ट है । नायक वृहद् आकार का होता है, नायिका सौन्दर्य और सातत्व मे अद्वितीय होती है, बहुत से पात्रों के हृदय मान और प्रेम के बीच मे विभक्त होते है, कहानी युद्ध और सामरिक उत्साह से परिपूरण होती है । समग्र वातावरण उत्कृष्ट प्रदर्शवादिता का होता है । वीर नाटक, महाकाव्य, और करुण मे ड्राइडन के वीरकाव्य विषयक विचार स्पष्ट है । वह 'प्रेफेस टू द ट्रान्सलेशन ऑफ प्रोविड्स एपीसल्स' मे अनुवाद का |
आदर्श पेश करता है । अनुवाद तीन प्रकार का होता है - Jथाशब्दानुवाद जिसमे लेखक का एक भाषा से दूसरी भाषा मे शब्दश और पदश अनुवाद होता है, शब्दान्तरकरण जिसमे लेखक का ध्यान प्रतिक्षरण रहता है परन्तु उसके शब्दो का इतना ध्यान नहीं किया जाता जितना उसके आशय का अनुकरण जिसमे अनुवादक लेखक के शब्दो और आशय से भी ध्यानमुक्त हो जाता है और उससे केवल इशारा लेकर अपना स्वतन्त्र लेख लिख डालता है। अनुवाद का काम इतन। मुश्किल है जितना बँधे पैरो से रस्सी पर नाचना । पहले और तीसरे प्रकार के अनुवाद बहुवा असन्तोषजनक ही होते है । दूसरे प्रकार का अनुवाद ही ठीक अनुवाद माना गया है और इसके अनुवादक का दोनों भाषाम्रो पर पूरा प्रभुत्व होना चाहिये और अपनी प्रतिभा को मौलिक लेखक की प्रतिभा के अनुरूप करने की क्षमता होनी चाहिये । 'ए पैरेलल ऑफ पोइट्री एण्ड पेण्टिड' मे ड्राइडन चित्रकला के लिये आदर्शवाद का पक्ष लेता है । कला में प्रकृति के अनुकरण करने का अर्थ प्रत्यय को पा लेना है और अनुभव की नानाव्यक्तिभूत बातो को छोड देना है। जब चित्रकार के हृदय में सम्पूर्ण सौन्दर्य की मूर्ति समा जाती है तभी वह कला के पवित्र मन्दिर मे प्रवेश करने का अधिकारी होता है । साहित्यिक रूपो का ड्राइडन-कृत जैसा विश्लेषण अग्रेजी मालोचना मे नही हुआ था । ड्राइडन के बाद एडीसन ने आलोचनात्मक बल दिखाया, परन्तु उसमे कोई बडी मौलिकता न थी । महाकाव्य के उसके मानदण्ड अरिस्टॉटल के हैं। मिल्टन के 'पैरेडाइज लॉस्ट' की परीक्षा उसने वस्तु, पात्र, भाव और भाषा, इन चार धारो पर की और उनके गुण-दोष बडी सूक्ष्मता से दिखाये । वस्तु की परीक्षा करते हुए उसने अरिस्टॉटल के मत से अपनी असहमति व्यक्त की। महाकाव्य का अन्त सदा सुखमय होना चाहिये । वह महाकाव्य, महाकाव्य, नही जिसम |
े उच्च उपदेश नही ।
इसलिये महाकाव्य मे काव्यात्मक न्याय अवश्य होना चाहिये । काव्यात्मक न्याय के माने बुराई को दण्ड देना और भलाई को प्रतिफल देना है । कल्पना पर एडीसन के विचार हम पहले ही व्यक्त कर चुके है । वोर्सफोल्ड उन विचारों को इतना महत्त्वपूर्ण समझता है कि एडीसन को वह कल्पना को प्रेरणा देने के मानदण्ड से साहित्य की जाँच करने वाला पहला ही आलोचक बताता है । परन्तु जैसा हम पहले दिखा चुके हे, कल्पना को प्रेरणा देने का मानदण्ड अरिस्टॉटल और बेकन में भी निहित है । स्विफ्ट अपनी 'बैट्ल ऑफ बुक्स मे प्राचीन लेखको की मधुमक्खियो से तुलना देता हुआ उनकी कलात्मक निता को 'माधुर्य और प्रकाश से प्रतिक्षित करता है । यहाँ काव्य के प्रभाव से एक बडा सन्तोषजनक मानदण्ड निश्चित होता है । पोप के आलोचनात्मक विचार होरेस, बैनजॉन्सन, और बोयलो से मिलते-जुलते है । वह शास्त्रीयता का पूरा पक्षपाती है । जब प्रकृति को प्रेरणा देने के मानदण्ड का प्रतिपादित करता है तो वह प्रकृति स एक ऐसी कृत्रिम प्रकृति समझता है जो नागरिक समाज की रीतियों के अनुसार व्यवस्थित हो और जिसमे रूढ़ियो और साधारणीकरण का पूरा प्रवकाश मिला हो । यदि किसी काव्य मे ऐसी प्रकृति को प्रेरणा हो तो वह श्रेष्ठ काव्य है । इस काल का हमारा अन्तिम आलोचक डाक्टर जॉन्सन हे । उसने यूनान के साहित्य को पूरी तरह पढा था, परन्तु लेटिन और मध्यकालीन साहित्य को उसने इतना नही पढा या । उसकी साहित्यिक संस्कृति के प्रदर्श ड्राइडन और पोप थे, इसीसे उसकी नवशास्त्रीय प्रवृत्ति बडी बलवान हो गई थी। उसने आलोचनात्मक सिद्धान्तो पर अपने विचार मुख्यत 'रैम्बलर' मे व्यक्त किये हे । मिल्टन की पद्य की आलोचना कही कही बडी शिक्षाप्रद है, विशेषत यति के स्थान के विषय मे । यति जितनी मव्यस्थित हो उतनी अच्छी । पश्चगणात्मक पद मे यति दूसरे या तीसरे गण के बाद होना चाहिये । सिद्धान्त यह है कि यति से विभक्त दोनो भाग सङ्गीतमय होने चाहिये । यदि तीसरे अक्षर (सिविल) और सातवे अक्षर के बाद यति हो तो भी भाग सङ्गीतमय हो सकते है। लय, गरण की श्रावृत्ति से पैदा होती है। पहले गण के बाद तीसरे अक्षर के आते ही उसमे चौथे अक्षर की प्राकाक्षा होती है और लय की व्यञ्जना हो जाती है । इसी प्रकार सातवे अक्षर के बाद यति आने पर भी दोनो विभक्त भाग सङ्गीतमय हो जाते है । पहले और दूसरे अक्षरो तथा आठवे और न अक्षरो के बाद की यति दूषित होती है। मिल्टन इन स्थानों पर भी यति लाता है और इस कारण उसकी पदयोजना दोषरहित नही कही जा सकती। 'रैम्बलर' के अगले एक नम्बर मे आलोचक के दायित्व का वर्णन है। चक पक्षपात से अलग हो, वह इस बात का घमण्ड न करे कि वह बडेबड़े कवियो और लेखको का न्यायाधीश है, वह पुस्तक अथवा लेखक के समझने मे मे जल्दबाजी न करे, वह यह न सोचे कि उससे तो गलती हो ही नहीं सकती । आलोचक स्वानुराग से पथभ्रष्ट हो सकता है, देशप्रेम उसके निर्णय को दूषित कर सकता है; जीवित लेखकों के प्रति वह अधिक कोमल हृदय हो सकता है। आलो |
चना का कर्त्तव्य शुद्ध बुद्धि के प्रकाश में सत्य दिखाना है। और अगले एक नम्बर मे जॉन्सन नाटक के नियमो की
परीक्षा करता है । अक्सर, नियम कल्पना की उडान को रोकते है । यह पुराना नियम कि रङ्गमञ्च पर तीन अभिनेता से अधिक न आये, कोई अर्थ नहीं रखता, और जैसे-जैसे नाटक मे विभिन्नता और गहनत्व आये यह नियम भङ्ग होने लगा। नाटक पाँच श्री मे विभक्त हो, इस नियम की आवश्यकता न तो कृत्य के गुरण से और न उसके प्रदर्शन के औचित्य से दीख पडती है और आज कल तीन अङ्क के और एक अ के बहुत से नाटक लिखे जा रहे है । काल सङ्कलन का नियम यह चाहता है कि नाटक में जितनी घटनाओ का समावेश हो वे सब उतने समय मे हो जितने समय मे नाटक रगमच पर खेला जाता है । यदि दो अड्को के बीच मे काफी समय दे दिया जाय तो कोई बुराई नही, क्योकि वह भ्रम जिस पर खेल की सफलता निर्भर है अड्को के बीच के आये हुए समय से नष्ट नही हो सकता । करुण-हास्य को इस कारण बुरा कहा जाता है कि उसमे तुच्छ और महत्त्वपूर्ण बाते साथ-साथ आती है और करुरण का प्रभाव नष्ट हो जाता है यदि उसमे गम्भीरता की क्रमश बाढ न हो । जॉन्सन का कहना है कि शेक्सपिअर इस बात का उदाहरण हे कि उसने अपने करुण और हास्य रसो को बारी-बारी से एक ही नाटक मे बडी सफलता से दिखाया है । एक नाटक में एक ही प्रधान कृत्य हो और उसमे एक ही नायक हो, ये नियम ठीक है । नियमो का बन्धन कडा नही होना चाहिये । यदि कोई लेखक उन्हें तोडकर उच्चतर सौन्दर्य प्राप्त कर लेता है तो वह इस बात का साक्षी है कि प्रकृति रूढि के ऊपर सदा विजय पाती है । 'प्रफेस टू शेक्सपियर' मे शेक्सपियर के पात्रों के विषय मे जॉन्सन की यह उक्ति बडी सूक्ष्म है कि उनमे व्यापकता भी है और वैशिष्ट्य भी । उत्कृष्ट कविता का यह पक्का चिह्न है, क्योकि कवि किसी व्या |
पक आदर्श को लेकर किसी व्यक्ति में समाविष्ट करता है। आदर्शीकरण की इस वृत्ति का यह उत्लेख वह स्वय 'रैसीलाज' मे करता है । कवि का कर्तव्य व्यक्तियों की परीक्षा करना नही वरन् व्यापक गुणो और रूपो का निरीक्षण करना है। जॉन्सन के मानदण्डो मे पूरी शास्त्रीयता नही है । वह प्रकृति के अधिकार को रूढ़ि के ऊपर सदा उच्चता देता है।
अठारहवी शताब्दी मे जर्मनी का भी प्रालोचनात्मक उत्थान हुआ और नियमो के प्रति वही भावनाएँ प्रदर्शित हुईं जो इङ्गलैण्ड मे । गौटशेड, अरिस्टॉटल के अनुसार वस्तु को ही काव्य की आत्मा मानता है और उन सब पात्रो और घटना का निषेध करता है जिनमे सत्याभास न हो, जैसे मिल्टन का पैण्डिमोनियम और उसके सिन और डैथ दो पात्र । वह नियमो का पूरा अनुयायी था। गैलर्ट की प्रवृत्ति मध्यस्थावलम्बन की है। उसका कहना है कि नियम व्यापक रूप से उपयोगी हैं परन्तु प्रतिभा के लिये उनका उल्लङ्घन करने का अधिकार होना उचित है । लैसिङ्ग साफ कहता है कि नियम प्रतिभा को कष्ट पहुंचाते हैं । अरिस्टॉटल के प्रति तो उसकी श्रद्धा है परन्तु फ्रान्सीसी आलोचको के प्रति उसकी कोई श्रद्धा नही, क्योकि उन्होंने उसके मतानुसार, नियमो की ऐसी उल्टी-सीधी व्याख्या की जिससे अरिस्टॉटल का आशय कुछ का कुछ हो गया । काण्ट और गढ़ साहित्य की परीक्षा
सौन्दर्य को किसी ऐसे उद्देश्य की उपयुक्तता का विशेष गुण बताता है जिसका किसी उपयोगी उद्देश्य से सम्बन्ध नही । गटे का कहना है कि कला और कविता में व्यक्तित्व सब कुछ है । वह बफो का शब्दान्त रकरण करता हुआ कहता है कि शैली लेखक की अन्तरात्मा की सच्ची व्यञ्जना है । यह अचेतन शैली के विषय मे निश्चित रूप से ठीक है, परन्तु इससे विषय निरूपण पर कोई प्रभाव नहीं पडना चाहिये । उत्कृष्ट कविता मे पूर्ण रूप से वास्तविकता होती है । जब वह वाह्य ससार से असम्बद्ध हो कर प्रात्मक हो जाता है तभी वह पदच्युत हो जाती है । काव्यात्मक रचना सारपूर्ण होती है । प्रकृति जीवित और निरर्थक प्रारी को व्यवस्थित करती है और कला मृत और सार्थक प्रारणी को व्यवस्थित करती है ।
नवशास्त्रीय काल की यह विशेषता थी कि उसमे कुछ ऐसे आलोचनात्मक नियम प्रचलित थे जिन्हे अधिकाश में आलोचक मानते थे । रोमान्सिक काल मे साहित्यालोचन के नियमों के प्रतिपादन मे कोई एकरूपता नही । वर्ड्सवर्थ कविता को वेगपूर्ण अन्तर्वेगो का स्वयप्रवर्तित सप्लव कहता है । यह सप्लव याद की हुई अनुभूतियो पर मनोवृत्ति के सन्द्ररण से उठता है। उसका विचार है कि अच्छी कविता कभी तत्कालविहित नहीं होती । उसकी अभिव्यञ्जना के लिये किसी विशेष वाक्मरणि की आवश्यकता नहीं होती । उसकी भाषा मे और गद्य की भाषा मे कोई तात्विक अन्तर नही । साधारण बोलचाल की चुनी हुई भाषा कविता के लिये उपयुक्त है। यह भाषा छन्दोबद्ध अवश्य हो क्योकि कवि का उद्देश्य सुख देना है। पोप्यूलर जजमेण्ट' नामक लेख मे व सवर्थ का मत है कि साहित्य का आनन्द सहृदय रुचि से लेता है । रुचि के तीन अर्थ माने जाते है --अध्ययनशील आलो |
चको के मत की प्रमुरूपता, सवेदनशीलता और अपने को लेखक के स्तर तक उठा लेने की शक्ति । जिस रुचि से सहृदय लेखक का आनन्द लेता है वह तीसरे अर्थ की रुचि है । बिना ऐसी रुचि की क्षमता के करुणात्मक और उदात्त साहित्य की उचित सराहना असम्भव है । कोलरिज मालोचक होते हुए बडा सूक्ष्मदर्शी तत्त्ववेत्ता था। उसने व सवर्थ के कई सिद्धान्तो की विश्लेषणात्मक बुद्धि से काट की। कविता की परिभाषा करता हुआ वह 'बायोग्रॅफिया लिटरैरिया' मे लिखता है, पद्य मे सत्य की सुखमय अभिव्यञ्जना को कविता कह सकते है, गो कि दृढतापूर्वक नही । ऐसी आख्यायिका और उपन्यासो को जो तत्क्षणिक सुख देती है, कविता कह सकते है यदि उन्हे पद्य में परिवर्तित कर दिया जाय, गो कि दृढतापूर्वक नही । केवल ऐसे प्ररणयन को जो तत्क्षणिक सुख देता है और जो प्रत्येक भाग में उतना ही सुखमय है जितना कि पूर्ण मे-दृढतापूर्वक कविता कह सकते हैं । कविता की इसी विशेषता के कारण कि उसका प्रत्येक भाग मनोरञ्जक होता है, यह आवश्यक है कि उसकी वाक्सर रिण ध्यानपूर्वक चुनी हुई हो और शब्दो का व्यवस्थापन कौशलपूर्ण हो । ग्रामीण और निम्नश्रेणी का जीवन कविता के लिये अनुपयुक्त है क्योकि कविता आदर्श जीवन को व्यक्त करती है न कि वास्तविक जीवन को । व सवर्थ
कुछ कविताएँ जैसे 'हैरीगिल' श्रीर 'इडियट बौय' वास्तविक जीवन को ज्यो का त्यो नरित करने के कारण काव्यात्मक नही हो पाती । दूसरी कविताएँ जैसे 'माइकेल ' और 'रूथ' इसी से काव्यात्मक हो जाती है क्योकि उनमे जीवन का धर्म द्वारा आदर्शीकरण हो गया है । यह कहना कि कविता साधारण जीवन की भाषा मे होनी चाहिये ठीक नही, क्योकि यह भाषा संस्कृत होती है और ऐसे गूढ और सूक्ष्म अर्थों के व्यक्त करने में असमर्थ होती है, जिनमे कविता अपनी प्रतिभा का वैभव दिखात |
ी है। स्वय व सवर्थ जहाँ उत्कृष्ट शैली की कविता करता है, ऐसी भाषा का परित्याग कर देता है । कविता श्रेष्ठतम शब्दो का श्रेष्ठतम क्रम मे प्रयोग करती है । छन्द के विचार से भी कविता की वाक्सरणि श्रेष्ठतम होनी चाहिये । कविता का उद्गम शरीर और मन की आवेशपूर्ण दशा है । ऐसी दशा मे यदि आवेश बढ़ता ही जाय तो मनुष्य पर इतना जोर पड सकता है कि उसके कारण विह्वल होकर मर जाय । इसी से ऐसी दशा मे ही आप विचार शक्ति उद्धव होती है जो मनोवेग के कार्य को नियन्त्रित करती है । प्रवेशपूर्ण काव्यात्मक प्रणयन के कार्य में विचार शक्ति शब्दरचना को छन्दोबद्ध कर देती है और वाक्सररिग को उत्कृष्ट कर देती है। छन्द के प्रभाव की जाच से भी कविता के लिए उत्कृष्ट वाक्सरणि आवश्यक है। छन्द ध्यान ओर साधारण भावो को प्रफुल्लता और सुविकारता को वर्द्धित करता है। यह प्रभाव अचम्भे के उत्ताप से और उत्सुकता के जागृत और सन्तुष्ट होने से पैदा होता है। यदि वर्द्धित ध्यान और वर्द्धित भावो को उत्कृष्ट भाषा के रूप में उचित भोजन न मिला तो पाठक की अशा अवश्य भङ्ग होगी और उसे कविता मे कोई आनन्द न आयगा । छन्द और कविता के अवियोज्य होने के कारण जिन-जिन वस्तुप्रो का समावेश छन्द मे होगा उनका समावेश कविता में भी होगा । छन्द मे उत्कृष्ट वाक्सररिण होते हुए उत्कृष्ट वाक्सर रिण काव्यात्मक हुई । उत्कृष्ट वासरणि कविता और छन्द के बीच मे फिटकरी का काम देती है। फिर यह भी विचार है कि कविता बहुत से तत्त्वो का समस्वरत्व है। जब विचार उत्कृष्ट है, छन्द उत्कृष्ट है, व्यक्तित्व उत्कृष्ट है, तो भाषा अपने आप उत्कृष्ट होगी। अन्त मे, कवियो का अभ्यास भी इसी बात का द्योतक है कि कविता में उत्कृष्ट वाक्सरणि होती है । आलोचना के विषय मे एक लेख मे कोलरिज यह विचार व्यक्त करता है। आलोचना का काम काव्यरचनात्मक सिद्धान्तो की स्थापना करना है और 'एडिनबरा रिव्यू' के एडीटरो की तरह लेखो और लेखको पर फैसले देना नही । यदि फैसला देना आलोचना का काम माना जाय तो पहले एक एकेडेमी बनाई जाय जो ऐसे नियमो की सहिता तैयार करे जिनके आधार पर व्यापक नैतिकता और दार्शनिक बुद्धि हो । व सवर्थ की कविता के गुरण बताते हुए कोलरिज 'बायोग्रॅफिया लिट्रेरिया' मे उदात्त शैली की पक्की पहचान बताता है। वह यह है कि उदात्त शैली मे लिखा हुआ लेख उसी भाषा के शब्दों में भी बिना अर्थ को हानि पहुंचाये अनूदित नही हो सकता। इसी आशय का फ्रेन्च आलोचक फ्लोबर्ट का केवल शब्द का सिद्धान्त ( द डॉक्ट्रिन ऑफ द सिङ्गिल वर्ड ) है । प्रवीण लेखक के लेख मे जो शब्द जहाँ |
मेरी एक संन्यासिनी है -- माधुरी । उसकी मां भी संन्यासिनी है। उसकी मां ने मुझे कहा कि उसके तो आपरेशन में दोनों स्तन उसे गंवाने पड़े। लेकिन डाक्टरों ने कहा, चिंता न करो, अब तुम्हें कोई नया विवाह तो करना भी नहीं है, उम्र भी तुम्हारी ज्यादा हो गई। और झूठे रबर के स्तन मिलते हैं, वे तुम अंदर पहन लो, बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। रबर के हों कि चमड़ी के हों, क्या फर्क पड़ता है? बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। सच तो यह है कि रबर के ज्यादा सुडौल होंगे।
तो वह रबर के स्तन पहनने लगी। मेक्सिको में रहती थी। कार से कहीं यात्रा पर जा रही थी। रास्ते में ट्रैफिक जाम हो गया तो रुकी। पुलिस का इंसपेक्टर पास आया। खुद ही कार ड्राइव कर रही थी। वह एकटक उसके स्तन की तरफ देखता रह गया। उसे मजाक सूझा । बड़ी हिम्मतवर औरत है। उसने कहा, पसंद हैं? एक क्षण को तो वह इंसपेक्टर डरा कि कोई झंझट खड़ी न हो।
मगर उसने कहा, नहीं, चिंता न करो, पसंद हैं?
उसने कहा कि सुंदर हैं। क्यों न पसंद होंगे? सुडौल हैं।
तो उसने कहा, यह लो, तुम्हीं ले लो। उसने दोनों स्तन निकाल कर दे दिए। अब जो उस पर गुजरी होगी बेचारे पर, जिंदगी भर न भूलेगा। अब असली स्तन वाली स्त्री को भी देख कर एकटक अब नहीं देखेगा। अब कौन जाने असलियत क्या हो? रखे होगा वह रबर के स्तन अब, अपनी खोपड़ी से मारता होगा कि अच्छे बुद्धू बने।
मुझे उसकी घटना पसंद आई। मैंने कहा, तूने ठीक किया । तू तो और खरीद ले और बांटती चल। जो मिले उसको बांट दिए। जितनों का छुटकारा हो जाए उतना अच्छा । मूढ़ हैं, बचकाने हैं-- छुटकारा करो। जगह-जगह मिलेंगे इस तरह के लोग।
अपनी पत्नी से तो तुम स्वभावतः ऊब जाओगे। पत्नियां भी ऊब जाती हैं। लेकिन पत्नियों को हमने इतना दबाया है सदियों में कि वे यह कह भी नहीं सकतीं कि ऊब गई हैं। हमने उन्हें कहा है, पति परमात्मा है। हमने उन्हें कहा है कि एक पति को ही सब कुछ मानना है। पति व्रत की हमने उन्हें खूब शिक्षा दी है। सदियों की धारणाओं ने उनको एक तरह से कुंठित कर दिया है। उनका रस ही खो गया है। उनका सच में पूछो तो किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। मुझसे हजारों स्त्रियों ने कहा है कि उनका किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। पुरुषों ने ही रस मार डाला है।
यह बात तुम ख्याल रखना कि अगर एक पुरुष में रस है, स्त्री का, तो और पुरुषों में भी रस होगा। क्योंकि पुरुष में रस होने का अर्थ पुरुष में रस होना होता है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि किस में! अगर एक पुरुष में रस है, तो और पुरुषों में भी रस होगा। अगर एक पुरुष आकर्षित करता है, तो उससे सुंदर व्यक्ति को देख कर वह क्यों आकर्षित न होगी?
हमने सदियों से उसे समझाया है कि किसी दूसरे पुरुष में आकर्षण मत रखना, यह महापाप है। और स्त्रियां निश्चित ही ज्यादा भावुक हैं, हार्दिक हैं, उन्होंने इसको हृदय में ले लिया है। पुरुषों के संस्कार तो खोपड़ी में हैं, लेकिन स्त्रियों के संस्कार हृदय तक पहुंच गए हैं, ज्यादा गहरे पह |
ुंच गए हैं। चूंकि उन्हें किसी पुरुष में कोई रस नहीं लेना है, इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने पुरुष में भी कोई रस नहीं है।
इस गणित को तुम ठीक से समझ लो। अगर सारे पुरुषों से रस हटा दोगे तो स्वयं के पुरुष से भी रस नहीं रह जाएगा। और तब वह स्त्री बोझ की तरह पुरुष के साथ संभोग करेगी। पुरुष को तृप्ति नहीं मिलेगी, यह अड़चन है। उसको तृप्ति कैसे मिले? वह स्त्री कोई रस ही नहीं ले रही है। वह यूं टाल रही है कि ठीक है--यंत्रवत।
क्योंकि मैं पत्नी हूं, तुम्हारी दासी हूं, तुम्हारी सेवा के लिए ही मेरा जीवन है, जो करना हो करो, यह देह तुम्हारी है--लाश की तरह। जैसे लाश से तुम प्रेम करोगे, तो क्या रस मिलेगा? उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर नहीं है--न वह नाचती, न वह गाती, न वह गुनगुनाती, न वह मस्त होकर डोलती, न वह तुम्हें धन्यवाद देती।
हालत तो उलटी है, हालत तो यह है कि जब भी तुम उससे कहते हो कि क्या विचार है आज? तो वह कहती है, सिर में दर्द है। कभी कमर में दर्द है। कि आज मैं थक गई हूं, आज क्षमा करो। कि आज मुन्ना के दांत निकल आए हैं, और वह दिन भर से रो रहा है । और बड़ा बेटा अभी तक नहीं लौटा है, पता नहीं कहां गया, आधी रात हो रही है। और तुम्हें यह सूझी है! कि रसोइया घर छोड़ कर चला गया है; कि नौकर ने चोरी कर ली है; कि दिन भर से मैं मरी जा रही हूं काम कर-करके, घर में मेहमान ठहरे हुए हैं-- और तुम्हें यह सूझी है !
मैंने सुना, एक बूढ़े ने जिसकी उम्र अस्सी साल थी, एक बुढ़िया से जिसकी उम्र पचहत्तर साल थी, शादी कर ली। अमरीका में घटना घटी, यहां तो कैसे घटेगी! यह समय तो संन्यास का है-- पचहत्तर साल। पचहत्तर साल में कोई विवाह करे, तो उस पर तो जूतियों की वर्षा हो जाए। उस पर तो लानत-मलानत इतनी हो उसकी, इतना कुटे |
-पिटे जहां जाए वहीं, ऐसा स्वागत-सत्कार हो उसका कि वह भी जिंदगी भर याद रखे। अमरीका में संभव है।
दोनों की शादी हो गई। शादी में बहुत लोग सम्मिलित हुए, क्योंकि सब लोगों को आनंद आया कि यह बढ़िया बात है--पचहत्तर साल की बहू, अस्सी साल का दूल्हा । जो नहीं भी संबंधित थे, वे भी देखने आए थे शादी। चर्च खचाखच भरा था। और सबने फूल भी भेंट किए, सबने उपहार भी भेंट किए--अपरिचितों ने भी-कि आपका दांपत्य जीवन सुखमय हो । हिम्मतवर लोग हो, गजब की हिम्मत है! अरे आदमी तीस-पैंतीसचालीस साल तक पहुंचते-पहुंचते टूटने लगता है, घबड़ाने लगता है; मगर गजब के जुझारू हो, रिटायर होने का के नाम ही नहीं ले रहे।
मगर अब करते क्या दोनों बेचारे। शादी तो हो गई, सुहागरात मनाने भी गए मियामी बीच, जहां जाना चाहिए। जो भी औपचारिक था, सब पूरा किया। शानदार से शानदार होटल में ठहरे, जहां सुहागरात मनाने वाले जोड़े ठहरते हैं। सुंदर से सुंदर कमरा लिया। बहू पचहत्तर साल की तैयार होकर बिस्तर पर लेटी। दूल्हा राजा तैयार होकर... दांत वगैरह निकाल कर उन्होंने सब साफ किए; सिर पर जो बालों का विग वगैरह पहन रखा था, उसको ठीक से जमाया; मूंछें, जिनको काला रंग लिया था, उन पर ताव दिया। वे भी आकर बिस्तर पर लेटे। बुढ़िया का हाथ हाथ में लिया, बड़े प्रेम से दबाया, थोड़ी देर दबाए रहे दो-तीन मिनट, फिर कहा कि अब सो जाएं। तो दोनों सो गए। ऐसी सुहागरात की पहली रात बीती। दूसरी रात भी हाथ दबाया, उतनी देर नहीं। जब तीसरी रात बूढ़ा हाथ दबाने लगा, तो बुढ़िया ने करवट ली और कहा, आज मेरे सिर में दर्द है।
स्त्रियां, इस देश में तो कम से कम, कह भी नहीं सकतीं यह बात; कहना भी हमने उनसे छीन लिया, उनकी जबान भी छीन ली है। इसलिए तो पुरुषों ने वेश्याएं ईजाद कर लीं, लेकिन स्त्रियों ने वेश्य ईजाद नहीं किए। हालांकि लंदन में, न्यूयार्क में अब पुरुष वेश्याएं उपलब्ध हैं। उनको वेश्या नहीं कहना चाहिए, वेश्य कहना चाहिए। यह स्त्री आजादी के आंदोलन का परिणाम है वहां, कि जब पुरुष वेश्याओं के पास जा सकते हैं, तो स्त्रियां क्यों न वेश्यों के पास जाएं!
मेरा मतलब वेश्यों से वह नहीं है जो कि हमारे यहां ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र से होता है। जो अपने शरीर को बेचते हैं, वे वेश्य; जैसे वेश्या, जो अपने शरीर को बेचती है। पुरुष वेश्य उपलब्ध हैं लंदन में। जैसे स्त्रियां खड़ी होती हैं सज-धज कर खास रास्तों पर--उनके रास्ते हैं, उनके मोहल्ले हैं, रेड-लाइट इलाके-वैसे ही
पुरुष भी खड़े होते हैं सज-धज कर । स्त्रियां अपनी कारें रोक कर उनको देखती हैं, पसंद करती हैं, दाम तय करती हैं, हिसाब-किताब होता है।
मगर भारत में तो यह कल्पना के बाहर है बात। स्त्रियां तो सोच ही नहीं सकती हैं। हमने उनका सोचना भी मार डाला है। लेकिन पुरुष का सोचना नहीं मरा है! और स्त्रियों का सोचना पुरुषों ने ही मारा है, इसलिए वे अपना सोचना तो क्यों मारेंगे? वे मालिक हैं। उन्होंने अपने को तो मुक्त रखा है। इससे एक दुविधा औ |
र एक अड़चन पैदा हुई है।
इसलिए मैंने कहा कि श्री मोदी का प्रश्न थोड़ा जटिल है। दुविधा यह है कि सब पुरुष अपनी पत्नियों से ऊब जाते हैं। कोई कहता है, कोई नहीं कहता। कोई झेल लेता है, कोई नहीं झेल पाता। कोई इधर-उधर से रास्ते निकाल लेता है पीछे के दरवाजे से, कोई नहीं निकाल पाता।
लेकिन जब तुम पीछे का रास्ता निकालोगे तो अपराध-भाव पैदा होगा, गिल्ट पैदा होगा, क्योंकि वह पंडित-पुरोहितों की आवाज तुम्हारे भीतर भरी हुई है। वे कहेंगे कि तुम पाप कर रहे हो । तब घबराहट पैदा होगी, बेचैनी पैदा होगी। पत्नियां तो सोच ही नहीं सकतीं। अगर सोचेंगी भी, तो भी अपराध-भाव पैदा हो जाएगा। करना तो दूर, अगर दूसरा पुरुष उन्हें सुंदर भी मालूम पड़ेगा, तो भी उनके भीतर बेचैनी पैदा हो जाएगी कि यह कैसे हुआ! इसलिए उन्होंने तो अपने को बिल्कुल जड़ कर लिया है, संवेदना को ही मार डाला है। इसलिए भारत की स्त्रियां एक अर्थ में आत्महीन हो गई हैं। आत्महीन उन्हें होना पड़ा है, नहीं तो अपराधी होना पड़े। अपराधी होने से आत्महीन होना अच्छा है; बिल्कुल जड़ हो जाना अच्छा है। और पुरुष आत्महीन तो नहीं हुए, लेकिन तब अपराध की भावना पकड़ती है।
दोष व्यवस्था का है, व्यक्ति का नहीं है। हमें व्यवस्था बदलनी होगी। हमें एक व्यवस्था देनी चाहिए जिसमें पुरुष और स्त्रियां साथ रहें, लेकिन इतने बंधन में नहीं जितने बंधन में हम उन्हें रख रहे हैं।
और मनोवैज्ञानिकों का यह अनुभव है पिछले पचास वर्षों का, मेरा यह अनुभव है मेरे अपने आश्रम का, जहां सैकड़ों जोड़े रह रहे हैं, कि अगर कभी-कभी कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, या कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, तो इससे उनके आपसी संबंध खराब नहीं होते-गहरे होते हैं।
यह बा |
त उलटी लगेगी और रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए तो महापाप की लगेगी; मगर मैं तो सत्य ही कहने को मजबूर हूं। लगे जिसको जैसा लगना हो। मैंने तो कसम खाई है कि जो सत्य है, उसे वैसा ही कहूंगा जैसा है; नग्न ही कहूंगा, उस पर वस्त्र भी नहीं डालूंगा। सत्य यह है कि अगर पति-पत्नी का संबंध गहरा करना हो, अगर सिर्फ औपचारिक न रखना हो, तो हमें इतनी स्वतंत्रता देनी चाहिए कि पुरुष कभी किसी और स्त्री के साथ जाए, तो इससे पत्नी बेचैन न हो, परेशान न हो। और अगर पत्नी कभी किसी पुरुष के साथ चली जाए, तो पति बेचैन न हो, परेशान न हो। इससे उनका दांपत्य नष्ट नहीं होगा, इससे उनके दांपत्य में पुनर्जीवन आ जाएगा।
अगर उस नवाब को दो-चार दिन दूसरी सब्जी खाने को मिली होती, और फिर भिंडी मिलती, तो फिर भिंडी में रस आता, फिर भिंडी अच्छी लगती। इससे कुछ गहराई में बाधा नहीं आएगी, इससे गहराई बढ़ेगी। इसमें अपराध-भाव की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
श्री मोदी, मैं यह कहना चाहूंगा कि छोड़ो अपराध-भाव। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाती, तो किसकी पत्नी कर पाती है? किसका पति कर पाता है? और अगर तुम्हें कभी किसी दूसरी स्त्री में रस मालूम होता है, तो अपराध-भाव से मत भरो, अन्यथा दोहरी मुश्किलें होंगी।
अगर अपराध-भाव से भरे तुमने किसी स्त्री से कोई संबंध भी बनाया, तो उससे भी तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि वह अपराध-भाव बीच में खड़ा रहेगा, वह दीवाल बनी रहेगी। तुम उसको प्रेम करते समय भी जानोगे कि सिर्फ पाप कर रहे हो, गुनाह कर रहे हो, नरक में जा रहे हो; तुम अपनी पत्नी के साथ धोखा कर रहे हो।
कोई अपराध-भाव की जरूरत नहीं है। लेकिन यह अपराध-भाव तब तक तुम्हारा पीछा करेगा, जब तक तुम पत्नी को भी इतनी ही स्वतंत्रता न दोगे। इतनी ही स्वतंत्रता पत्नी को भी देनी चाहिए। वह भी मनुष्य है, जैसे तुम मनुष्य हो। न तुम समाधिस्थ हो, न वह समाधिस्थ है। न तुम बुद्ध हो, न वह बुद्ध है। न तुमने ध्यान जाना, न उसने ध्यान जाना। हां, ध्यान जान लो तो कामवासना से मुक्ति हो जाती है। जब तक ध्यान नहीं जाना है, तब तक तुम भी स्वतंत्रता से अपनी इंद्रियों को तृप्ति दो और अपनी पत्नी को भी तृप्ति देने दो।
लेकिन पुरुष को यह बात अखरती है। वह सोचता है कि मैं तो स्वतंत्रता अनुभव करूं, लेकिन पत्नी! यह बरदाश्त के बाहर है कि कोई मुझसे कह दे कि तुम्हारी पत्नी किसी और पुरुष के साथ देखी गई। तो उसके अहंकार को चोट लगती है।
अगर अहंकार को चोट लगेगी, तो फिर अपराध-भाव भी रहेगा, क्योंकि फिर तुम धोखा दे रहे हो। फिर तुम अपनी पत्नी के साथ बेईमानी कर रहे हो। फिर तुम्हें दिखावा करना होगा। फिर तुम्हें एक चेहरा पत्नी के सामने ओढ़ कर रखना पड़ेगा कि प्रेम मैं तुझे करता हूं, सिर्फ तुझे करता हूं, और किसी को नहीं। और पीछे तुम्हें दूसरा चेहरा! तुम दो चेहरे वाले आदमी हो जाओगे। दो चेहरों के बीच में तुम कशमकश में रहोगे, दुविधा में रहोगे। तुम्हारे जीवन में द् |
वंद्व हो जाएगा।
और दो ही चेहरे होते तो ठीक थे, बड़ी मुश्किलें हैं, कई चेहरे हो जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही थी कि देखो, जब तक मैं बरदाश्त कर सकती हूं करती हूं, लेकिन अगर किसी दिन बात पकड़ में आ गई तो ठीक नहीं होगा। यह औरत कौन थी जो अभी रास्ते पर हमको मिली और एकदम मुस्कुरा कर तुम्हारी तरफ देखा, और तुम एकदम डर गए और तुम नीचे देखने लगे--यह औरत कौन थी?
नसरुद्दीन ने कहा कि बाई, तू मुझसे कह रही है कि वह औरत कौन थी! मैं उससे डरा हुआ हूं कि वह मुझे मिलेगी तो पूछेगी कि वह औरत कौन थी जो तुम्हारे साथ थी ?
झंझट तो होने वाली है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपनी नौकरानी से बोली कि सुनती हो, मुझे इस बात के पक्के प्रमाण मिलने शुरू हो रहे हैं कि नसरुद्दीन अपनी टाइपिस्ट के साथ गलत संबंध बनाए हुए है।
वह नौकरानी बोली, रहने दो, रहने दो! मत कहो ये बकवास की बातें! यह सिर्फ तुम मुझसे इसलिए कह रही हो ताकि मेरे मन में ईर्ष्या पैदा हो, जलन पैदा हो। मैं ऐसी जलने-भुनने वाली नहीं हूं। मैं ऐसी बातों में पड़ने वाली नहीं हूं। नसरुद्दीन का प्रेम मुझसे बिल्कुल शाश्वत है। उसने खुद ही मुझसे कहा है कि मेरा प्रेम अमर है।
यह पत्नी को पता ही नहीं था।
दो ही चेहरे से काम नहीं चलेगा, बहुत चेहरे लगाने पड़ेंगे। और तब झंझटें होने वाली हैं। जितने झूठ बोलोगे, उतने उपद्रव में पड़ जाओगे।
मेरी सलाह हैः जीवन को सहजता से जीओ, प्राकृतिक ढंग से जीओ। व्यवस्था भला अप्राकृतिक हो, तुम्हें कुछ अप्राकृतिक होने की जरूरत नहीं है। लेकिन अपनी पत्नी के साथ भी ईमानदारी बरतो। उसको भी कहो कि तू भी स्वतंत्र है।
और इससे यह अर्थ नहीं होता कि तुम अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करते। यह भी भ्रांति पैदा की गई है कि अगर प्रेम है, तो एक |
से ही होगा। यह बात बिल्कुल फिजूल है। इस बात का कोई मूल्य नहीं है। अगर प्रेम है, तो निश्चित ही अनेक से होगा- यह मैं तुमसे कहता हूं। क्योंकि प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं जो एक पर चुक जाए। जिसको फूलों से प्रेम है वह सिर्फ गुलाब के फूलों से ही प्रेम करेगा? चंपा के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? चमेली के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? कमल उसे प्रीतिकर नहीं लगेगा? अगर कोई ऐसा कहता हो, तो या तो वह विक्षिप्त है या फिर झूठ बोल रहा है। जिसे फूलों से प्रेम है, उसे बहुत तरह के फूल प्रीतिकर लगेंगे। बेले का भी अपना आनंद है और गुलाब का भी अपना आनंद है। और दोनों की अपनी खूबियां हैं।
यह हो सकता है, एक स्त्री की देह तुम्हें पसंद आए और इससे ज्यादा कुछ भी पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री का भाव तुम्हें पसंद आए, लेकिन देह पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री की बुद्धिमत्ता पसंद आए --न भाव पसंद आएं, न देह पसंद आए । किसी स्त्री से तुम्हारा लगाव बौद्धिक हो सकता है, तात्विक हो सकता है। तुम उससे चर्चा कर सकते हो गहराइयों की । तुम उससे कला की, धर्म की, अध्यात्म की चर्चा कर सकते हो। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध केवल दैहिक हो सकता है, क्योंकि उसकी देह सुंदर है, सानुपाती है। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध बड़ा रहस्यपूर्ण हो सकता है कि तुम तय ही न कर पाओ कि किस कारण से है, लेकिन कुछ है, कुछ रहस्यपूर्ण जो तुम्हें जोड़े हुए है। और यही बात पुरुषों के संबंध में सही है।
जिस दिन मनुष्य प्राकृतिक होगा, जिस दिन समाज इन अतीत की व्यर्थ वर्जनाओं से मुक्त हो जाएगा, अंधविश्वासों से, जड़शृंखलाओं से-उस दिन हम इन सारे सत्यों को स्वीकार करेंगे।
अब यह हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे जीवन में एक अनिवार्यता हो । उसने तुम्हें जैसी सुविधा दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसी व्यवस्था दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसा स्वास्थ्य दिया हो, तुम्हारी उसने जितनी चिंता की हो, फिक्र की हो-- उतना कोई न करे। लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि इससे तुम्हारी कामवासना को वह तृप्त कर पाए। और यह हो सकता है, जो स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त करे, उससे तुम्हें यह कुछ भी न मिल सके। हो सकता है, सुबह उठ कर तुमको ही चाय बना कर उसको पिलानी पड़े। ज्यादा संभावना यही है। हो सकता है, बर्तन वह तुमसे धुलवाए, कपड़े तुमसे धुलवाए।
व्यक्ति के बहुआयाम हैं, और उसके सब आयाम तृप्ति मांगते हैं। अपराध का भाव जबरदस्ती थोपा गया भाव है। अपराध के भाव से बिल्कुल मुक्त हो जाओ। वह व्यवस्था -जन्य है। लेकिन उससे मुक्त होने में सबसे जरूरी कदम यह है कि अपनी पत्नी को भी मुक्ति दो। तुम्हारा जिसके साथ इतना निकट संबंध है, तुम मुक्त रहो और उसे मुक्त न करो, तो कैसे तुम अपराध से मुक्त हो सकोगे? उसे भी मुक्ति दो। उसे भी कहो कि तू भी मुक्त है।
और झूठ न बोलो, चेहरे मत ओढ़ो, मुखौटे मत लगाओ-सचाइयां प्रकट करो। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि सचाइयां भला एकदम से तूफा |
न खड़ा कर दें, लेकिन वे तूफान आते हैं और चले जाते हैं। और सचाइयों से आए हुए तूफान नुकसान नहीं करते, जड़ों को और मजबूत कर जाते हैं। यह हो सकता है कि झूठ बड़ा सुविधापूर्ण मालूम पड़े। पत्नी को कभी कहो ही मत कि तुम्हारा किसी और स्त्री से कोई नाता संबंध है। लेकिन कभी न कभी पता चल जाएगा। और जिस दिन पता चलेगा, उस दिन सारी चीजें टूट जाएंगी। बजाय इसके कि
पता चले, यह बेहतर है कि तुम कहो। जिसको तुमने प्रेम किया है, यह उचित है कि तुम उसके प्रति कम से कम अपने सत्य को स्वीकार करो। और तुम जितना सत्य अपने लिए चाहते हो, जितनी स्वतंत्रता अपने लिए चाहते हो, उसे भी दो। फिर कोई अपराध-भाव पैदा नहीं होगा।
और स्मरण रखो कि अगर तुम दोनों एक-दूसरे को सत्य दे सको, और दोनों एक-दूसरे को स्वतंत्रता दे सको, तो तुम्हारा संबंध निरंतर गहरा होगा, निरंतर उसमें नये-नये फूल खिलेंगे । और तुम चकित होओगे यह जान कर कि सारी अतीत की धारणाएं कितनी भ्रांत हैं, जो यह कहती हैं कि एक के साथ ही संबंध रखना, अगर एक के साथ संबंध नहीं रखा तो संबंध विकृत हो जाएगा, नष्ट हो जाएगा, खराब हो जाएगा; फिर जोड़ा नहीं जा सकता। तुम्हें यही समझाया गया है।
यह बात बिल्कुल ही गलत है। मनोवैज्ञानिक सत्य कुछ और है। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि मनुष्य को विभिन्न स्वादों की रुचि है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह केवल मनुष्य की बुद्धिमत्ता का लक्षण है। लेकिन इस बुद्धिमत्ता को हम मौका नहीं देते। हमारी छाती पर पंडित-पुरोहित बैठे हुए हैं। जमाने भर की मूढ़ताएं हम ढो रहे हैं।
लेकिन यह मैं तुम्हें अंततः कह देना चाहूंगा कि दूसरी स्त्री जो तुम्हें आज कामवासना तृप्त करती मालूम हो रही है, कल वह भी नहीं मालूम होगी; परसों तीसरी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर चौथी स्त् |
री की जरूरत पड़ेगी; फिर पांचवीं स्त्री की जरूरत पड़ेगी-- क्योंकि कामवासना तृप्त होना जानती ही नहीं। कोई वासना तृप्त होना नहीं जानती। वासना दुष्पूर है। बुद्ध का यह वचन सदा स्मरण रखने योग्य हैः वासना दुष्पूर है। वासना भरती ही नहीं कभी। लाख भरो, खाली की खाली रह जाती है ।
एक सूफी कहानी है। एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर भिक्षापात्र किया। संयोग की बात थी, सम्राट दरवाजे से निकल रहा था, सुबह अपने बगीचे में घूमने को। उस भिखारी ने कहा, मालिक, क्या मैं कुछ मांग सकता हूं?
सम्राट ने कहा, हां, क्या मांगना चाहते हो?
उसने कहा, लेकिन मेरी एक शर्त है। जो मेरी शर्त पूरी करे, उससे ही मैं अपनी मांग कर सकता हूं।
सम्राट ने कहा, क्या शर्त है? भिखारी मैंने बहुत देखे, लेकिन सशर्त भिखारी तुम पहली बार हो। क्या तुम्हारी शर्त है?
सम्राट भी उत्सुक हुआ।
उस भिखारी ने कहा, मेरी शर्त यह है कि अगर कुछ भी आप मुझे देना चाहें, तो मैं लेने को राजी हूं, लेकिन मेरा भिक्षापात्र पूरा भरना पड़ेगा।
सम्राट भी हंसने लगा। उसने कहा, तूने मुझे भिखारी समझा है क्या?
सिर्फ उस भिखारी को दिखाने के लिए कि मैं कौन हूं, उसने अपने वजीर को कहा, जो पीछे आ रहा था, कि इसके भिक्षापात्र को स्वर्ण अशर्फियों से भर दो!
उस फकीर ने कहा, एक बार पुनः सोच लें। मेरी शर्त याद रखें। फिर मैं शर्त पूरी हुए बिना हटूंगा नहीं यहां से। मेरा भिक्षापात्र भरना चाहिए।
सम्राट ने कहा, पागल, चुप रह! तेरा भिक्षापात्र, जरा सा भिक्षापात्र लिए खड़ा है, इसको हम नहीं भर सकेंगे?
स्वर्ण अशर्फियां डाली गईं, और सम्राट हैरान हुआ कि यह तो झंझट हो गई। जैसे ही स्वर्ण अशर्फियां उसमें गिरें, वे न मालूम कहां खो जाएं! भिक्षापात्र खाली का खाली!
मगर सम्राट भी जिद्दी था, और एक भिखारी से हारे! सम्राटों से नहीं हारा था। हार उसने जानी नहीं थी जिंदगी में। जीत और जीत ही उसका एकमात्र अनुभव था। उसने कहा, आज मैं हूं और यह भिखारी है। सारा खजाना डाल दो !
खजाने अकूत थे, मगर सांझ होते-होते खाली हो गए। हीरे-जवाहरात डाले गए, मोती डाले गए, स्वर्णमुद्राएं डाली गईं, चांदी की मुद्राएं डाली गईं। सब खत्म होता चला गया, सब खत्म होता चला गया। सांझ होतेहोते सम्राट की हालत भिखारी की हो गई, और सारी राजधानी इकट्ठी हो गई यह देखने को। खबर आग की तरह फैल गई कि एक भिखारी, पता नहीं क्या, कैसा जादू है उसके भिक्षापात्र में... ! आखिर सम्राट सांझ को उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया। मैं तुम्हारे इस जादू से भरे पात्र को भी नहीं पहचान पाया। मेरे अहंकार को माफी दे दो। मुझ पर दया करो। मुझे यह शर्त स्वीकार नहीं करनी थी। शर्त सुन कर ही समझ लेना था कि कुछ गड़बड़ होगी। क्या मैं पूछ सकता हूं... मैं हार गया, मैं शर्मिंदा हूं अपनी अकड़ के लिए, लेकिन क्या मैं इतना जान सकता हूं-- क्योंकि यह जीवन भर मेरे मन में जिज्ञासा रहेगी- इस भिक्षापात्र का जादू क्या है?
उस भिखा |
री ने कहा, इसमें कोई जादू नहीं है। इसे मैंने आदमी की वासनाओं से निर्मित किया है। इसमें ताने-बाने आदमी की वासनाओं के बुने हैं। यह आदमी का हृदय है, यह आदमी का मन है। इसमें भिक्षापात्र में कुछ खूबी नहीं है। यह भिक्षापात्र साधारण है। बस इसके ताने-बाने विशिष्ट हैं। वे ही ताने-बाने जिनसे तुम्हारा हृदय बना है। तुम्हारा भिक्षापात्र भरा?
जैसे बिजली कौंध गई! सम्राट को दिखाई पड़ा कि निश्चय ही उसका भिक्षापात्र भी खाली रह गया है। जीवन तो हो गया, अभी भी दौड़ जारी है। मौत करीब आने लगी, दौड़ जारी है। हाथ खाली के खाली हैं। इतना बड़ा साम्राज्य है, मगर तृप्ति कहां!
तो श्री मोदी स्मरण रखना, कोई स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाएगी। वासनाएं तृप्त होतीं ही नहीं। इसलिए इस भ्रांति में मत रहना कि मैं यह कह रहा हूं कि इस तरह तुम्हारी वासना तृप्त हो जाएगी। इतना ही होगा कि इससे तुम्हें एक सजगता मिलेगी कि कोई स्त्री तुम्हारी वासना को तृप्त नहीं कर सकती।
इस विवाह ने एक धोखा पैदा कर दिया है। विवाह का सबसे बड़ा धोखा जो है... ।
मैं दुनिया से विवाह को विदा कर देना चाहता हूं। और उसका कारण तुम जान कर चकित होओगे। उसका कारण यह है कि अगर दुनिया से विवाह विदा हो जाए, तो इस दुनिया को धार्मिक होने के लिए रास्ता खुल जाए। विवाह के कारण यह भ्रांति बनी रहती है कि इस स्त्री में मैं उलझा हूं, इससे फंसा हूं, इसलिए वासना तृप्त नहीं हो रही! काश मुझे मौका होता, इतनी सुंदर स्त्रियां चारों तरफ घूम रही हैं, तो कब की वासना तृप्त हो गई होती।
वह भ्रांति है। मगर वह भ्रांति बनी रहती है विवाह के कारण। दूसरे की स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। दूसरे के बगीचे की घास हरी मालूम पड़ती है। और दूसरे की स्त्री जब घर से बाहर निकलती है, त |
ो बन ठन कर निकलती है, तुम्हें तो उसका बाहरी आवरण दिखाई पड़ता है। तुम्हारी स्त्री भी दूसरे को सुंदर मालूम पड़ती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा कि चंदूलाल मारवाड़ी उसकी पत्नी को आलिंगन कर रहा है। वह एकदम ठिठका खड़ा रह गया। चंदूलाल बहुत घबड़ाया। चंदूलाल ने समझा कि मुल्ला एकदम गुस्से में आ जाएगा, बंदूक उठा लेगा!
लेकिन न उसने बंदूक उठाई, न गुस्से में आया। चंदूलाल के कंधे पर धीरे से हाथ मारा और कहा, जरा मेरे पास आओ। बगल के कमरे में ले गया और बोला, मेरे भाई, मुझे तो करना पड़ता है, तुम क्यों कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया? तुम्हारी बुद्धि मारी गई है? मेरी तो मजबूरी है, क्योंकि मेरी पत्नी है। सो रोज मुझे आलिंगन भी करना पड़ता है और रोज कहना भी पड़ता है कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। बस तुझे ही चाहता हूं, जी-जान से तुझे चाहता हूं मेरी जान, जनम-जनम तुझे चाहूंगा। मगर तुझे क्या हो गया मूरख? और हमने तो सुना था कि मारवाड़ी बड़े होशियार होते हैं। मगर नहीं, तू निपट गधा है। और तेरी जैसी सुंदर पत्नी को छोड़ कर तू यहां क्या कर रहा है? अरे मूरख, मैं तेरी पत्नी के पास से चला आ रहा हूं।
चंदूलाल ने कहा कि भैया, तूने मुझे भी मात कर दिया। उस औरत के डर से मैं कहां-कहां नहीं भागा फिरता हूं! शराब पीता हूं, फालतू दफ्तर में बैठा रहता हूं, फिजूल ताश खेलता हूं, शतरंज बिछाए रखता हूं कि जितनी देर बच जाऊं उस चुड़ैल से उतना अच्छा! तू उसके पास से चला आ रहा है! कहते क्या हो नसरुद्दीन? मैं तो सदा सोचता था कि तुम एक बुद्धिमान आदमी हो । तुमने उसमें क्या देखा? उस मोटी थुलथुल औरत में तुमको क्या दिखाई पड़ता है? एक दिन स्टेशन पर वजन तुलने की मशीन पर चढ़ी थी, तो मशीन में से आवाज आईः : एक बार में एक, दो नहीं । तुम्हें उसमें क्या दिखाई पड़ रहा है?
मगर यही होता है। विवाह ने एक भ्रांति पैदा कर दी है। विवाह ने खूब धोखा पैदा कर दिया है। विवाह से ज्यादा अधार्मिक कृत्य दूसरा नहीं है, मगर धर्म के नाम पर चल रहा है! अगर लोग मुक्त हों, तो जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ जाए कि न तो कोई पुरुष किसी स्त्री की वासना तृप्त कर सकता है, न कोई स्त्री किसी पुरुष की वासना तृप्त कर सकती है। लेकिन यह अनुभव से ही समझ में आ सकता है। जब एक से ही बंधे रहोगे तो यह कैसे समझ में आएगा?
और जिस दिन यह समझ में आ जाता है, उसी दिन जीवन में ध्यान की शुरुआत है। उसी दिन जीवन में क्रांति है। उसी दिन तुम वासना के पार उठना शुरू होते हो। ध्यान है क्या? ध्यान यही है कि मन सिर्फ दौड़ाता है, भरमाता है, भटकाता है मृग-मरीचिकाओं में-- और आगे, और आगे... । क्षितिज की तरह, ऐसा लगता है-अब तृप्ति, अब तृप्ति, जरा और चलना है; थोड़े और! और क्षितिज कभी आता नहीं, मौत आ जाती है। तृप्ति आती नहीं, कब्र आ जाती है । ध्यान इस बात की सूझ है कि इस दौड़ से कुछ भी नहीं होगा। ठहरना है, मन के पार जाना है, मन के साक्षी बनना है।
श्री मोदी, अगर सच में ही चाहत |
े हो कि वासना से तृप्ति, मुक्ति, वासना के जाल से छुटकारा हो जाए, तो न तुम्हारी पत्नी दे सकी है, न किसी और की पत्नी दे सकेगी, न कोई वेश्या दे सकेगी, कोई भी नहीं दे सकता है। यह कृत्य तो तुम्हारे भीतर घटेगा। यह महान अनुभव तो तुम्हारे भीतर शांत, मौन, शून्य होने में ही संभव हो पाता है।
मगर जब तक यह न हो, तब तक मैं दमन के पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, तब तक जीवन को जीओ, भोगो। उसके कष्ट भी हैं, उसके क्षणभंगुर सुख भी हैं; कांटे भी हैं, फूल भी हैं वहां; दिन भी हैं और रातें भी हैं वहां - - उन सबको भोगो। उसी भोग से आदमी पकता है। और उसी पकने से, उसी प्रौढ़ता से, एक दिन छलांग लगती है ध्यान में। |
तांत्रिक चंद्रा ने अपने अनुष्ठान का समापन किया ही था कि तभी अश्वारोही सैनिकों के दल ने उसे चारों ओर से आकर घेर लिया। 'चंद्रा...!' दल के नायक का अवज्ञापूर्ण स्वर गूंजा-'सेनापति ने तुझे स्मरण किया है...तत्काल हमारे साथ चल!' अपमानबोध से आहत चंद्रा ने संयम खो दिया। क्रोधाग्नि में उसका रोम-रोम जल उठा। स्वयं से उसने कहा-धृष्टता की यह तृतीय पुनरावृत्ति की है इस दुष्ट सेनापति ने...इस बार क्षमा का अधिकार इसने खो दिया है। इसे दण्डित करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। 'किस चिन्तन में खो गया तू...' उसी सैनिक ने पुनः कहा-'तूने क्या सुना नहीं? ...तुझे अविलम्ब हमारे साथ चलना है। शीघ्रता कर अन्यथा।' 'अन्यथा क्या' ? कुपित चंद्रा ने फुफकारते हुए कहा-'क्या कर लेगा तू...? मुझे बलात् ले जाएगा? क्या सोचता है तू...चंद्रा तांत्रिक को अपने शस्त्रा बल के अधीन कर सकता है तू...क्यों?' तांत्रिक के द्वारा व्यक्त इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से उस सैनिक का आत्मविश्वास डिग गया। क्या पता...सिद्ध तांत्रिक हुआ तो न जाने क्या कर बैठे...उसने तो सोचा था कोई सामान्य तांत्रिक होगा यह...! परन्तु इसकी निर्भीक वाणी से तो प्रतीत होता है, यह वास्तव में सिद्ध है। अब क्या करे वह? उसने तत्काल निर्णय लिया। शस्त्रा-बल को त्याग वाक्-बल से स्थिति को संभालना होगा। परन्तु अनायास झुकना भी अनुचित है अन्यथा यह चंद्रा और चढ़ जाएगा। इस प्रकार विचार कर उसने कहा-'हम सब तो सेनापित के अधीन उनके आज्ञापालक मात्र हैं चंद्रा...! न हमारी तुमसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है न तुम्हारी हम से...अतएव, हम पर तुम्हारा क्रोधित होना व्यर्थ है। हमने तो अपने सेनापति की आज्ञा से तुम्हें अवगत करा दिया है... अब तुम जो संदेश दोगे, वह हम अपने सेनापति को पहुँचा देंगे। इतनी-सी ही तो बात है...अब कहो तुम्हें क्या कहना है?'
'अत्यंत चतुर है तू,' कुटिलता से मुस्कुराते हुए चंद्रा ने कहा-'भय के कारण प्रीति प्रदर्शित कर रहा है...परन्तु फिर भी जा...चंद्रा ने तुझे क्षमा किया...अब बता क्या कहा है सेनापति ने?' 'अविलम्ब तुमसे मिलने को व्याकुल हैं वे।' उसी सैनिक ने कहा। 'मुझसे मिलना था तो मेरे समक्ष आना था उसे...मुझे क्यों बुलाया है? ... मुझे तो तुम्हारे सेनापति से कोई कार्य नहीं...मैं क्यों जाऊँ उसके पास। जाओ जाकर कह दो अपने सेनापति से...चंद्रा नहीं जाएगा...जाओ जाकर कह दो उससे।' 'इसकी भलमानसाहत ने तुझे सिंह बना दिया है तांत्रिक' , दूसरे अश्वारोही सैनिक ने तीव्र गति से आगे आकर कहा-'अन्यथा भीगी बिल्ली-सा तू मस्तक झुकाए हमारे साथ चलता...तूने क्या समझा था, हम सब तेरे झाँसे में आकर लौट जायेंगे?' कह कर अश्वारोही अश्व की पीठ से उछलकर भूमि पर आ खड़ा हुआ और अद्भुत तत्परता से तत्क्षण म्यान से तलवार निकाल ली। 'सावधान सैनिक!' चंद्रा ने चीखते हुए कहा-'प्राणों का मोह-त्याग चुका है तो आगे आ, परन्तु फिर मुझे दोष न देना।' कहकर चंद्रा ने भूमि पर अपने दाहिने पग के अंगुष्ठ से |
एक वृत्त खींच दी। 'शौर्य-पुत्र है तो इस अभिमंत्रित वृत्त को पार कर!' कहकर चंद्रा ने भीषण अट्टहास प्रारंभ कर दिया। चंद्रा के अट्टहास ने सैनिकों के हृदय में भय-सा भर दिया। परिणामस्वरूप, भयभीत अश्वारोही सैनिकों का दल तीव्र गति से तत्काल पलायन कर गया। भागते सैनिकों के पीछे खड़ा चंद्रा और भी तीव्र स्वर में अट्टहास करने लगा। सेनापति को पूर्व से ही आशंका थी कि चंद्रा नहीं आएगा, इसी कारण वह क्रोधित न होकर विचारमग्न हो गया। अंततः उसने निश्चय किया कि वह स्वयं जाकर चंद्रा को मनाएगा और उसने ऐसा ही किया।
अश्वारोही सेनापति के पीछे-पीछे पाँच भैंसागाड़ियाँ चंद्रा तांत्रिक की कुटिया पर जा पहुँचीं। अश्व से उतरकर सेनापति ने मुस्कराते हुए कहा-'तुम्हारा क्रोध सर्वथा उचित है चंद्रा! स्वीकार करता हूँ मैं कि मुझसे भूल हुई है, परन्तु यह तो कहो...जब मैं अपनी पूर्व में की गयी भूलों को सुधारने की कामना रखता हूँ तो क्या यह अनुचित है?' चंद्रा ने उत्तर नहीं दिया। उसे दृढ़ विश्वास था, इस धूर्त्त की यह नवीन चाल है। अवश्य किसी प्रयोजन विशेष ने इसे पुनः विवश किया है, अन्यथा यह दुष्ट पुनः क्यों आता? 'मौन क्यों हो मित्र!' सेनापति ने अत्यंत मृदुल स्वर में कहा-' विश्वास करो।
अपनी अंतरात्मा से प्रेरित होकर तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हुआ हूँ... इन गाड़ियों में लदे उपहार मेरी मित्रता के प्रतीक हैं चंद्रा! पूर्व में की गयी मूर्खता ने मुझे अत्यंत लज्जित किया है। मेरा विश्वास करो तथा मेरा उपहार स्वीकार कर मेरी आत्मा का बोझ हलका कर दो मित्र! 'इस बार उलझ गया चंद्रा। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। क्या वास्तव में इस धूर्त्त का हृदय परिवर्तित हो गया है अथवा इसमें भी कुछ चाल है? शंकित चंद्रा ने अंततः कहा-' आपकी अभिलाषा को तो ग्रहण |
लग गया सेनापति! युवराज आ गये और मैंने सुना है उत्कल नरेश अपने पुत्र एवं सुरक्षा-सेना के साथ राज-भरोड़ा प्रस्थान कर रहे हैं...अब इस परिस्थिति में आपको पुनः मेरी मित्रता का स्मरण होना, वास्तव में अनोखी बात है। क्षमा करें सेनापति! मुझे न तो आपसे मित्रता की इच्छा है और न शत्रुता की अभिलाषा...क्षमा कर दें मुझे। नहीं चंद्रा! 'पुनः स्वर में रस घोलते सेनापति ने कहा-' मेरा हृदय यूँ न तोड़ो। इन उपहारों को स्वीकार करो और मुझे विदा करो। परन्तु यह जान लो, तुम सदा मेरे हृदय में मित्रवत् ही रहोगे चंद्रा...यह निश्चित है। मुझसे मित्रता का प्रयोजन भी स्पष्ट कर दें सेनापति तो मेरा विस्मय समाप्त हो जाए', इस बार चंद्रा ने मुस्कुराते हुए कहा-' क्योंकि निष्प्रयोजन आप न किसी को मित्र बनाते हैं...न शत्रु। ठीक ही कहा तुमने चंद्रा! 'सेनापति ने शांत स्वर में कहा-' इस संसार में कोई कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता। अपने राजा जी तथा राज कुँवर के साथ मैं भी राज-भरोड़ा जा रहा हूँ। क्या पता लौटूँ या न लौटूँ... फिर हृदय पर बोझ लिये क्यों जाऊँ? ...मैंने तुम जैसे सिद्ध-साधक को हार्दिक आघात पहुँचाया है...इसका स्पष्ट भान है मुझे। इसीलिए मैं चाहता हूँ तुमसे क्षमा माँग कर तुम्हें पुनः मित्र बना लूँ। भरोड़ा-यात्र में जीवित रहूँगा तो पुनः तुम्हारी सेवा में उपस्थित होऊँगा, मित्र! इस घड़ी तो इन उपहारों को सम्हालो और मुझे विदा करो! क्यों सेनापति जी! 'कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते हुए चंद्रा ने कहा-' भरोड़ा में कौन शत्रु है आपका, जिससे आपको अपने प्राणों का भय है। मैंने तो सुना है महाराज का प्रयोजन कुछ और है...और आप इस प्रकार आशँकित हो रहे हैं जैसे आप युद्ध पर जा रहे हों। वैसे भी युद्ध अभियानों पर तो आपका उत्साह यों भी द्विगुणित हो जाया करता है, फिर इस बार ऐसी क्या बात है? 'प्रसन्न हो गया सेनापति! अब पंछी आया जाल में और उसने बहुरा गोढ़िन की सम्पूर्ण कथा विस्तार में सुना दी। तो यह बात है! चंद्रा तांत्रिक समस्त रहस्य समझ गया। मित्रता स्वीकारते ही फँसेगा वह। यह धूर्त्त अवश्य उसे इस यात्र में अपने साथ चलने का अनुरोध करेगा।' ठीक है सेनापति जी! 'सम्पूर्ण युक्ति पर विचार करने के उपरांत चंद्रा ने कहा-' मैं आपकी भावना समझ गया। मुझे प्रसन्नता है कि आपने अपनी भूल अंततः स्वीकारी। मेरे हृदय में आपके प्रति अब कोई दुर्भाव नहीं रहा, यह निश्चित है परन्तु इन उपहारों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मैं गृहस्थ नहीं, तांत्रिक हँू...ज्ञात ही है आपको। इन सांसारिक पदार्थों का क्या करूँगा मैं। ये सब निरर्थक हैं मेरे लिए, अतः इन्हें लौटा लें और प्रसन्नतापूर्वक भरोड़ा-यात्र सम्पन्न करें। मेरी समस्त शुभकामनाएँ आपके साथ हैं...आप जाइये सेनापति, सुखपूर्वक अपनी यात्र प्रारंभ कीजिए. 'आश्चर्य है! सेनापित फुसफुसाया। पक्षी तो जाल में उतरकर पुनः उड़ गया। ऐसी कलाकारी कब से सीख ली इस मूर्ख ने?' मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी चंद्रा! 'सेनापति ने नैराश्य के |
स्वर में कहा।' क्यों, क्या किया है मैंने! 'चंद्रा ने चतुराई से कहा-' मैंने तो अपने अंतस् से आपके प्रति अपना समस्त विद्वेष विसर्जित कर दिया सेनापति! और आप कहते हैं। 'चंद्रा ने आपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।' क्या करता मैं चंद्रा...तुम्हीं कहो क्या करता मैं? ...वंश-विहीन हो चुके इस उत्कल प्रदेश पर आतताइयों की प्रभुता स्वीकार लेता? क्या करता मैं, क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'और सबसे बड़ी बात कि मैं भी एक मनुष्य ही हूँ। मेरे भी अंदर अभिलाषाएँ हैं...देवता नहीं मैं। विगत की परिस्थितियों में उलझ गया मैं...तो क्या तुम...तुम चंद्रा तुम...मेरे मित्र, मेरे अपने, इस छोटी-सी बात को भी नहीं समझ सकते! और मान लो उस घड़ी मैंने तुम्हें अपमानित कर ही दिया तो इसका दोष अकेले मुझ पर नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों का भी है। आज विश्वास कर सको मित्र तो मुझ पर विश्वास करो। अपने प्रिय युवराज की रक्षा में मैं अपने प्राणों की भी आहुति हँसते...हँसते दे सकता हूँ। परन्तु, मुझे खेद है मित्र, इस स्थिति में भी मुझे तुम्हारा सहयोग, तुम्हारा साहचर्य प्राप्त नहीं हो सका। ऐसी आशा तुमसे नहीं थी चंद्रा!' औपचारिकता का समस्त आवरण तोड़ते हुए इस बार चंद्रा ने कठोर स्वर में कहा-'आप क्या सोचते हैं सेनापति?' विषैली मुस्कान तैर गयी उसके अधरों पर-'चतुराई का समस्त भंडार आपके ही पास है, या विधाता ने कुछ मुझे भी दिया है? ... स्पष्ट क्यों नहीं कहते कि उस विकट बहुरा के भय ने पुनः आपको मेरे पास आने को विवश किया है। यह सारा प्रपंच और आपका अभिनय मुझसे छिपा नहीं है। परन्तु आप इस बार मुझे छल नहीं सकते। दो बार आपने मुझे मूर्ख बनाया, अपमानित किया मुझे, जबकि मैंने आपके लिए।'
पुनः उसने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया और अवाक् सेनापति विस्फारित नेत् |
रों से चंद्रा को अपलक देखने लगा। सारे पासे पलट चुके थे। इस तांत्रिक ने इस बार उसे मात दे दी थी। अब क्या करे वह? क्या मस्तक झुकाये मौन चला जाये वह...अथवा एक प्रयत्न और करके देखे। चंद्रा ने उसके अंतस् की बात जान ली थी। वास्तव में बहुरा की विकट शक्तियों से भयभीत था वह। यह चंद्रा यदि साथ रहता तो उसके स्वयं के प्राणों की रक्षा तो अवश्य हो जाती...रही बात राजा एवं युवराज की, तो उनकी पराजय तो वस्तुतः इसकी विजय ही थी। परन्तु यह धूर्त्त तो सारी चालें भाँप गया...अब क्या करे वह? उसके अंतस् में एक बार क्रोध भी उबला। इच्छा हुई की अपनी प्यासी तलवार की प्यास इसी से बुझा दे, परन्तु तत्क्षण उसने, स्वयं को नियंत्रित किया। ऐसी भूलें पूर्व में भी हो चुकी हैं उससे अन्यथा परिस्थिति ऐसी विषम नहीं होती। यह मूर्ख तो न्यौछावर था मुझ पर, मैंने ही अपनी मूर्खता से अपना अहित किया है। 'अब किस चिंतन में लीन हैं सेनापति!' चंद्रा ने ही पुनः कहा-'मैं भली भाँति जानता हूँ...क्या पक रहा है आपके मस्तिष्क में, परन्तु अब चंद्रा पुनः मूर्ख नहीं बनेगा सेनापति, यह निश्चित है।' 'मैं तुम्हें दोष नहीं देता चंद्रा! भूल मैंने की है तो उसे भोगूंगा भी मैं ही। परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता है कि तुमने मेरे अंतस् को नहीं पहचाना। इस राज्य में और भी तांत्रिक सिद्ध हैं चंद्रा! उग्रचण्डा को ही लो...तुमने स्वयं उसकी शक्ति को पहचाना है। वह प्रसन्न भी है मुझ पर, परन्तु इस विकट संकट में मैं उसके समक्ष न जाकर तुम्हारे समक्ष आया... अपने मित्र के समक्ष आया। इस आशा और विश्वास के साथ आया था चंद्रा कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे...मेरी सहायता करोगे, परन्तु तुमने अपने अंदर इतना विष भर लिया है कि मेरी सीधी-सच्ची भावना में भी तुम मेरी चतुराई ही देख रहे हो...मेरी चाल देख रहे हो! धिक्कार है मुझ पर। मैं इतना पतित, इतना लोभी तथा अहंकारी था कि मेरे साथ यही होना था, जो हो रहा है। तुम्हें दोष क्यों दूँ मैं चंद्रा...क्यों दूँ दोष तुम्हंे?' 'आपने स्वयं के स्वरूप को पहचान लिया...यह अच्छी बात है सेनापति! मैंने आपके लिए कभी अशुभ की कामना नहीं की, सदा आपके कल्याण की ही कामना की, परन्तु आपने दूध की मक्खी समझकर सदा मेरा तिरस्कार किया।' कहते-कहते चंद्रा के मस्तिष्क में सहसा एक नवीन विचार उभरा। इस विचार ने उसकी मुखाकृति पर विषाक्त मुस्कान बिखेर दी। कुछ क्षणों के उपरांत मुस्कुराते हुए उसने कहा-'फिर भी इस यात्र में मैं आपके साथ चलूँगा। जाऊँगा मैं।' चंद्रा की इस अप्रत्याशित स्वीकृति ने अनायास परिस्थिति परिवर्तित कर दी। झपटकर सेनापति ने चंद्रा को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया।
सेनापति के वक्ष से लगा चंद्रा पुनः मुस्कुराया। परन्तु सेनापति को इसका तनिक भी भान न हुआ। चंद्रा की इस मुस्कराहट में विष ही विष भरा था।
शंखाग्राम में कामायोगिनी का स्वागत स्वयं भुवनमोहिनी ने किया। 'शंखाग्राम में भुवनमोहिनी आपका स्वागत करती है देवी!' स्निग्ध मुस्कान बिखेरती भुवनमो |
हिनी ने कहा-'आपके दर्शनों की चिर अभिलाषा आज पूर्ण हुई देवी!' 'अभिलाषा तो मेरी पूर्ण हुई है।' हँसती हुई कामायोगिनी ने कहा-'यही एकमात्र इच्छा थी मेरी कि आपके दर्शन हों। ...वस्तुतः धन्य तो मैं हूँ देवि। मेरे पुण्यों का आज वास्तव में उदय हुआ है तभी तो आप जैसी विदुषी-साधिका के दर्शन संभव हुए हैं। साथ ही आपने मुझे अनुगृहीत भी किया है देवी! आभार व्यक्त करना अभी शेष है।' 'आभार कैसा!' भुवनमोहिनी के मुख पर मंद हास बिखरा-'और मैंने आपको भला अनुगृहीत कैसे कर दिया?' 'मेरे प्रिय कुँवर को शिष्यवत् स्वीकारा है आपने देवी...! मेरे अपूर्ण शिष्य को आपने पूर्ण किया है। कुँवर पर की गयी आपकी कृपा वस्तुतः मुझ पर आपका अनुग्रह ही है देवी! कुँवर को पूर्ण कर वस्तुतः आपने मुझे ही अनुगृहीत किया है। यह आपका उपकार है मुझ पर।' भुवनमोहिनी ने पुनः स्मित-भाव से कामायोगिनी को निहारकर कहा-'आपके शिष्य के साथ मेरी माताश्री भोजन-कक्ष में हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं तथा हम दोनों एक दूसरे की प्रशंसा में व्यस्त हैं...आज्ञा हो तो हम भोजन-कक्ष के लिए प्रस्थान करें?' भुवनमोहिनी की बात पर खुलकर हँस पड़ी कामायोगिनी। हँसती-मुस्कुराती दोनों देवियो ने जब भोजन-कक्ष में प्रवेश किया तो वास्तव में, वहाँ राजमाता एवं कुँवरदयाल इनके लिए प्रतीक्षारत थे। राजमाता के साथ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् भरोड़ा-यात्र की चर्चा प्रारंभ हो गयी तथा देवी कामायोगिनी को राजमाता ने विस्तार में समस्त सूचना देकर कहा-'उत्कल नरेश, हमारे जामाता के साथ भरोड़ा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। अतः, हमें अपनी यात्र कल सूर्योदय के साथ ही प्रारंभ कर देनी चाहिए.' 'ऐसा ही होगा राजमाता!' कामायोगिनी ने कहा-'सूर्योदय के साथ ही, कल हमारी यात्र प्रारंभ हो जाएगी।' इस समस्त व |
ार्तालाप के मध्य कुँवर दयाल सिंह मौन रहा था। भोजन के समापन के उपरांत भुवनमोहिनी कामायोगिनी के साथ अपने शयन-कक्ष में चली गयीं। रात्रिपर्यन्त दोनों इसीप्रकार वार्तालाप में निमग्न रहीं, मानो वर्षों की बिछुड़ी दो सहेलियाँ आपस में मिली हों।
राजामाता को भी नींद नहीं आयी। शय्या पर लेटी राजमाता कुँवर के द्विरागमन-संस्कार की कल्पना में डूबी रहीं। शंखाग्राम के गंगाघाट पर भी रात्रि जागरण था। राजमाता की नौका को अंतिम रूप से सज्जित किया जाता रहा और इन समस्त गतिविधियों से निर्लिप्त कुँवर दयाल सिंह अपने कक्ष में मुस्कुराता विधि का विधान देखता रहा। सूर्योदय के पूर्व ही राजमाता अपनी पुत्री एवं पुत्रवत कुँवर के साथ नौका में उपस्थित हो गयीं। कामायोगिनी अपनी नौका में जा पहुँची। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने दोनों नौकाओं को अपनी सुरक्षा-परिधि में ले लिया। सूर्योदय होने को ही था कि राजमाता की आज्ञा से सभी नौकाओं के लंगर उठ गये और यात्र प्रारंभ हो गयी। क्षितिज से उदित होते सूर्यनारायण की स्वर्णिम किरणें गंगा की कल-कल करती धारा पर स्वर्ण छटा बिखेर रही थीं। आकाश में पंख फैलाये उड़ते पंछियों का कलरव व्याप्त था। नौका के ऊपरी तल पर विराजी राजमाता प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य को मुग्ध हो निहार रही थीं। इसी घड़ी कुँवर के साथ भुवनमोहिनी भी नौका के ऊपरी तल पर आ पहुँची। राजमाता को अभिवादन निवेदित कर दोनों वहीं बैठ गये। 'तुम्हारी निरंतर उदासीनता का क्या कारण है पुत्र?' राजमाता ने स्मित हास से कहा-'जब से हमने इस यात्र का निश्चय किया है, तभी से मैंने लक्ष्य किया है...बात क्या है पुत्र?' राजमाता के कथन पर भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा-'आपने सत्य कहा माताश्री! जीवन से पूर्णरूपेण निर्लिप्त हो चुका है मेरा शिष्य।' 'आपने भी देवी...!' मंद हँसी के साथ कुँवर ने अधूरी पंक्ति कही। 'हाँ मैंने भी' , पुनः हँस पड़ी भुवनमोहिनी। 'मैंने भी माताश्री का अनुमोदन कर दिया तो तुम रुठ गये प्रिय? ...' हँसी रूकी तो उन्होंने कहा। कुँवर के मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा-'चेतना के इस स्तर पर उपस्थिति का अर्थ है-भावनाओं, संवेदनाओं का अभाव हो जाना। परन्तु तुमने तो प्रिय।' मुस्करा कर कुँवर ने देवी की बात में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'मैंने क्या देवी? ... क्या किया है मैंने? ...माताश्री की इच्छा को मैंने सादर-स्वीकार कर लिया। इनके निर्देश पर वज्रबाहु ने दिव्य-भव्य व्यवस्था कर दी। उत्कल-नरेश ने भी मेरे अंचल हेतु भव्य यात्र प्रारंभ कर दी तो मैंने विरोध कहाँ किया देवी?' क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'देवी कामायोगिनी ने मुझसे वचन लिया था, अतएव उन्हें साथ लेना आवश्यक था...परन्तु मेरे लिए आप सब इसप्रकार अतितत्पर हो जाएँगे, ऐसी कोई भावना मेरे अंतस् में नहीं थी। अतः मैं निर्लिप्त था।' कुँवर के कथन पर राजमाता मुस्करायीं। स्मित नेत्रों से उन्होंने कुँवर से कहा-'तुमलोगों की बातें तुम्हीं लोग जानो। मैं तो साधारण मनुष्य की स्त्रा |
ी-योनि में ही संतुष्ट हूँ। भला यह भी कोई बात हुई कि दुःख हमेंदुःखी न करे और सुख में हम प्रसन्न न हों। साधना की यही परिणति है तो अच्छा है...मैं साधिका नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्रवधू की विदाई कराऊँगी और तत्पश्चात् आनंद पर्व भी मनाऊँगी।' राजमाता ने अपनी बात पूरी ही की थी कि तभी उनकी दृष्टि सुदूर जल-धारा पर पद्मासन में आसीन एक कापालिक पर पड़ी। विस्मित स्वर में उन्होंने कहा-'अरे! तनिक आगे तो देखो...कोई कापालिक ही है वह...देखो तो, जल पर कितनी सहजतापूर्वक आसन जमाये आसीन है वह!' कुँवर के साथ ही भुवनमोहिनी की दृष्टि भी उस पर पड़ी। पद्मासन में आसीन वह कापालिक धारा के विपरीत नौका की ओर ही बहता आ रहा था। 'कौन है वह?' राजमाता ने कहा-'वेषभूषा एवं आकृति से तो वह कोई कापालिक ही प्रतीत हो रहा है...परन्तु जल पर इसप्रकार आसीन! ...आश्चर्य है!' 'कौन है वह प्रिय?' भुवनमोहिनी ने कुँवर से प्रश्न किया। 'टंका!' कुँवर ने अति शांत स्वर में कहा। राजमाता चौंकी तथा भुवनमोहिनी मुस्कुराने लगी। भुवनमोहिनी के आदेश पर सेवकों ने तत्काल रस्सी की सीढ़ी नीचे लटका दी। उत्सुक राजमाता के साथ ही मुस्कराती भुवनमोहिनी एवं शांतचित्त कुँवर ने अपने आसन को त्यागा। ये सभी रस्सी के समीप आकर पास आते कापालिक को देखने लगे। वास्तव में यह टंका ही था। उसकी आकृति अब स्पष्ट होने लगी थी। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने उसे अपने मध्य सादर मार्ग प्रदान कर दिया और अब टंका नौका के अत्यंत समीप आ पहुँचा था। टंका ने युगलहस्त तीनों का अभिवादन किया। तदुपरांत पद्मासन त्याग कर उसने सीढ़ियाँ थाम ली। 'आओ मित्र! शंखाग्राम की इस नौका पर तुम्हारा स्वागत है!' नौका पर आते ही कुँवर ने कहा। 'अनामंत्रित व्यक्ति का स्वागत!' हँसते हुए कहा टंका न |
े 'इस टंका को तो आपने विस्मृत ही कर दिया था स्वामी!' उसे बाँहों में भरते हुए कुँवर ने कहा-'नहीं मित्र...! तुम विस्मृति के योग्य नहीं...परन्तु मित्र को व्यर्थ कष्ट प्रदान करना क्या उचित था?' तत्पश्चात् अपनी बाँहों से टंका को मुक्त करते हुए कुँवर ने पुनः कहा-'आओ हमारे संग विराजो!'
'हाँ टंका!' भुवनमोहिनी ने कहा-'तुम्हें अनायास अपने मध्य पाकर मैं भी प्रसन्न हूँ। कुँवर पर तुम्हारा आरोप उचित ही है...स्वीकार करती हूँ तथा इसकी ओर से मैं तुमसे खेद भी प्रकट करती हूँ।' कहकर वह हँस पड़ी। राजमाता की मुखाकृति पर भी टंका के इस अप्रत्याशित आगमन पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आयी थीं। वार्तालाप के क्रम में समस्त कार्यक्रमों से अवगत हो चुके टंका के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयीं। 'स्वामी के प्रति राजमाता के स्नेह से मैं भलीभाँति परिचित हूँ'-भुवनमोहिनी से टंका ने कहा-'परन्तु राजमाता ने भावनाओं के प्रवाह में वज्रबाहु को यों असुरक्षित भेज दिया यह चिन्ता का विषय है देवी! दूसरी ओर उत्कल-नरेश ने भी अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ कर दी है।' 'अपने मनोभावों को तनिक और स्पष्ट करो टंका'-भुवनमोहिनी ने कहा-'और तुमने वज्रबाहु को असुरक्षित क्यों कहा...अभिप्राय क्या है तुम्हारा...?' 'अभिप्राय स्पष्ट है देवी!' टंका ने कहा-'जिस भव्यता के साथ वज्रबाहु ने अपना अभियान सम्पन्न किया, तथा जिसप्रकार उत्कल-नरेश ने अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ की है; इसकी सूचना समस्त अंचलों के साथ-साथ बखरी-सलोना तक अवश्य पहुँचेगी देवी...! पहुँचेगी क्या, कदाचित् पहुँच भी चुकी होगी। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि भ्रमित बहुरा।' टंका ने जानकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मुस्कराती भुवनमोहनी ने कहा-'परन्तु उनसे बहुरा की क्या शत्रुता है? ...भ्रमवश शत्रु तो वह हमारे कुँवर की है टंका...! उसे तंत्र-प्रहार करना ही है तो वह कुँवर पर ही करेगी।' 'नहीं देवी...!' असहमत टंका ने कहा-'मुझे वज्रबाहु के समीप अविलम्ब उपस्थित होना होगा...मुझे आज्ञा दें!' 'तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही हो'-भुवनमोहिनी मुस्करायी। 'आप गंभीर नहीं हैं देवी!' 'तुम्हारी चिन्ता अनावश्यक है टंका!' आश्वस्त भुवनमोहिनी ने कहा-'ऐसी बात नहीं है कि मैंने अपनी सेना की सुरक्षा-व्यवस्था पर विचार नहीं किया था, परन्तु फिर भी तुम्हें मैं रोकूँगी नहीं। तुम्हारी उपस्थिति से वज्रबाहु को प्रसन्नता ही होगी टंका...जाओ...!' न राजमाता ने कुछ कहा न कुँवर ने, परन्तु कुँवर को प्रणाम कर टंका ने तत्काल गंगा में छलांग लगा दी।
शंखाग्राम की सेना के पश्चात् भरोड़ा में उत्कलराज की राजकीय सेना की उपस्थिति का समाचार दावानल की भाँति सम्पूर्ण अंग-महाजनपद में तत्काल फैल गया। अंग के प्रत्येक अंचल राजा-रजवाड़ों के मध्य जहाँ उत्सुकता का वातावरण उत्पन्न हो गया, वहीं बखरी-सलोना में आशंकायुक्त उत्सुकता फैल गयी। जेठ की तपती धूप में बखरी-सलोना का कण-कण तप रहा था। मुख्य चौपाल पर विशाल वट वृक्ष की छाया में एकत्र |
लोग इसी चर्चा में निमग्न थे। घाट पर, मल्लाहों के समूह में, हाट पर, मछली-सब्जी तथा मशालों के व्यापारियों के मध्य तथा तृणयुक्त मैदानों में मवेशी चराते चरवाहे तक आपस में इसी की चर्चा कर रहे थे। अंग की भूमि पर इसप्रकार, बाहरी सेनाओं का जमावड़ा आश्चर्यजनक था। जितनी सूचनाएँ आ रही थीं, सब अभूतपूर्व थीं। भरोड़ा जैसे लधु अंचल में बाहरी सेनाओं का ऐसा जमावड़ा पूर्व में कभी हुआ नहीं। यही कारण था कि चारो ओर अंग के समस्त अंचलों में आकुलता फैल गयी। सैनिकों की यथार्थ संख्या से अनभिज्ञ बखरी के निवासी एक दूसरे से भ्रमित समाचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करने लगे। बखरी सलोना का सम्पूर्ण अंचल जहाँ इसप्रकार आशंकित था, वहीं तिनकौड़ी आम्र वृक्षों से आच्छादित भूमि पर अपनी खाट पर शांतचित्त लेटा था। खाट की रस्सी थी ही इतनी ढीली कि उसका मध्य तन भूमि से मात्र एक मुठ्ठी ऊपर झूल-सा रहा था। उष्ण पवन के तीव्र झोंकों में रगड़ खाती आम्र वृक्षों की डालियों एवं पत्तों के शोर में चिन्तामुक्त लेटा तिनकौड़ी भूमि पर गिर रहे टिकोलों को मौन निहार रहा था। माँ नित्य सिर पीटती और झुंझलाकर कहती-पुत्र अब लड़कपन छोड़ और कुछ काम-धाम शुरु कर। परन्तु वह भला काम क्या करता? प्रातः से सूर्यास्त तक कभी घाट के किनारे और कभी चौपाल पर व्यर्थ समय व्यतीत करते रहना ही उसकी दिनचर्या थी। उसके वयस के सभी संगी-साथियों ने काम-धाम करना शुरू कर दिया था, इसीलिए तिनकौड़ी के साथ व्यर्थ खेलकूद करने वाला कोई रहा नहीं। अकेले ही अपना सारा समय वह यों ही व्यर्थ करता रहता। इधर जबसे जेठ की तपन शुरू हुई, तभी से उसकी दिनचर्या बदल गयी। दोपहर की तपिश में वह आम्र के एक सघन वृक्ष के नीचे भूमि पर खाट बिछा कर अन्यमनस्क-सा यूँ ही पड़ा रहता। आज भी वह अपनी खाट |
पर लेटा गिरते हुए टिकोलों को देख रहा था कि तभी उसकी दृष्टि उस विकटा पर पड़ी जो भूमि को रौंदती हुई तीव्र गति से उसी की ओर चली आ रही थी।
चिकने-काले पत्थर को जैसे किसी कुशल शिल्पी ने सम्पूर्ण मनोयोग से तराश कर बनाया हो, ऐसी सुधड़ काया वाली उस भयंकर आकृति को देखते ही तिनकौड़ी के प्राण सूख गए. नग्न चमकते पृथुल वक्ष पर बंदरों की हड्डियों का मुण्डमाल, कटि-प्रदेश पर रक्तवर्णी लघु-आवरण के ऊपर हड्डियों की जंजीर तथा दोनों कलाइयों में उंगलियों की हड्डियों का आभूषण धारण किये इस अमानवी ने तिनकौड़ी को जड़वत् कर दिया। युवती के उन्नत सुडौल और पाषाण सदृश छातियाँ तिनकौड़ी की दृष्टि को बलात् अपनी ओर खींचने लगीं। परन्तु उसकी बड़ी-बड़ी दहकती आँखों ने उसे अत्यंत भयाक्रांत कर दिया। नितम्बों तक लटक रहे खुले केशों को लहराती इस विकटा की तीक्ष्ण दृष्टि तिनकौड़ी पर ही गड़ी थी। वह पत्ते की भाँति खाट से उठकर अपने दोनांे काँपते कर जोड़े थरथराता खड़ा हो गया। कौन है यह? अपने बाल्य-काल से ही उसने अनेक सिद्ध और कापालिकों को अपने ही आँगन में देखा था। उसकी माता स्वयं तांत्रिक थी। माँ के साथ उसने महाश्मशान में भी अनेक औघड़ों को भयंकर अनुष्ठानों में निमग्न देखा था। अंचल की चौधराइन बहुरा को भी उसने अनेक बार निकट से देखा था, परन्तु ऐसी विकराल स्त्राी-मूर्त्ति की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मानवी तो नहीं हो सकती यह, उसने सोचा। यह अवश्य महाश्मशान की जाग्रत शाकिनी या कोई अतिविकट डाकिनी अथवा हाकिनी ही है। अब उसके प्राण नहीं बचेंगे। यह विकटा तो उसे पकड़कर कच्चा ही चबा जाएगी और यह सोचते ही अनायास रोने लगा वह और वह विकटा तिनकौड़ी पर दृष्टि टिकाये पास आती जा रही थी। तभी उसका रौद्र रूप परिवर्तित हुआ और उसके अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। निकट आकर रुक गयी वह। 'शांत हो जा मूर्ख!' उच्च स्वर में उसने कहा और तत्काल ही तिनकौड़ी का रुदन बलात् रुक गया। उसके दोनों कर अभी भी अभय-याचना में उठे थे और समस्त शरीर पूर्ववत् थर-थर कांप रहा था। 'यूँ काँप क्यों रहा है मूढ़' ! अपेक्षाकृत शांत स्वर में उसने कहा-'मुझसे भयभीत मत हो...शांत हो जा!' कुछ क्षणों तक वह विकटा मौन रही पुनः मुस्कराकर उसने कहा-'यह अंचल, बखरी है न?' 'हाँ माते' ! घिघियाते स्वर में तिनकौड़ी ने कहा, 'आप बखरी-सलोना में ही हैं।' 'तुम्हारी चौधराइन का निवास-स्थल किस दिशा में है पुत्र?' इस बार उसने और भी मृदुल स्वर में प्रश्न किया।
कक्ष में इस घड़ी बहुरा के साथ माया तथा पोपली काकी भी उपस्थित थीं। क्रोधाग्नि में बहुरा ने नियंत्रण खो दिया था, परन्तु माया शांत थी। 'स्वयं को नियंत्रित कर पुत्री!' माया ने कहा-'तुम्हारे क्रोधित होने का वास्तव में कोई कारण ही नहीं है...!' पुनः रूककर उसने कहा-'हमारा जामाता हमारे पास लौट रहा है...हमारी प्रिय पुत्री का बिछुड़ा सुहाग पुनः वापस हो रहा है तो तू इस प्रकार रूष्ट क्यों हो रही है?' 'व्यर्थ वाक्य-भ्रम में हमें मत उलझा माया'-ब |
हुरा को रोककर पोपली काकी ने रूष्ट स्वर में कहा। 'मैं स्थिति को उलझा नहीं रही' , पूर्ववत् शांत माया ने कहा-'अपितु सुलझा रही हूँ काकी! क्यों नहीं समझना चाहतीं आप...हमारा प्रिय जमाई राजा और भी समर्थ होकर हमारे पास वापस आ रहा है। ऐसे में हमें उसका स्वागत करना चाहिए अथवा तिरस्कार?' 'वाह री माया!' हाथ चमका कर काकी ने कहा-'कितनी भोली है तू जो इतनी-सी बात भी नहीं समझती कि हमारा भगोड़ा जमाई, जो हमारी फूल-सी बच्ची को ब्याह के तत्काल पश्चात् यूँ ठुकरा कर भाग गया, उसीका पक्ष ले रही है तू? ... अरी माया, वह हमारे अंचल में नहीं, अपने अंचल में पधारेगा, जहाँ उपस्थित होने के पूर्व से ही उसने शक्ति संचित कर रखी है। भला बता तो हमें, भरोड़ा में बाहरी सेनाओं की उपस्थिति का क्या प्रयोजन है?' 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर समय के गर्भ में छिपा है काकी!' माया ने कहा-'इस घड़ी मैं तुम्हारी इस शंका का समाधान नहीं कर सकती, परन्तु मुझ पर विश्वास करो काकी...! मैं जानती हूँ अपने कुँवर को। वह हमारा शत्रु नहीं है।' 'दीदी, तुम मौन ही रहो तो अच्छा है'-बहुरा ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'शत्रु की भूमि पर सशस्त्रा सेनाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति प्रदर्शित कर दी है और इसके उपरांत हमारे मुख्य शत्रु ने भी अपनी जलयात्र प्रारंभ की है...तो क्या अर्थ है इसका? ...' कुछ क्षणों तक रुष्ट नेत्रों से माया को देखते रहने के उपरांत उसने पुनः कहा-'तुम चाहती हो हम सब अपने जमाई के लिए, जो वस्तुतः शत्रु है हमारा और हमारे अंचल का... उस के स्वागत-सत्कार की कल्पना में पलकें बिछाकर प्रतीक्षा करती रहें और वह कुटिलता से हमपर प्रतिघात कर दे...क्यों दीदी, यही चाहती हो न...?' 'तुमने अपने अंतर्मन में विष ही विष भर लिया है पुत्री!' माया ने |
कहा-' विवाहोत्सव की घड़ी भी जो कुछ अप्रिय घटित हुआ, वह सब भ्रम के माया-जाल के कारण ही हुआ पुत्री, अन्यथा सत्य मान, हमारी प्रिय पुत्री का सुहाग वैसा नहीं,
जैसा तुमने और दुर्भाग्यवश काकी ने भी समझ लिया है। तो अब तू क्या चाहती है माया! 'क्रोधित काकी फूट पड़ी-' हम सब अपनी अबोध अमृता को अपने साथ लेकर भरोड़ा चले चलें? ...और अपने प्रिय कुँवर के समक्ष नतमस्तक होकर प्रार्थना करें कि वे हमें क्षमा प्रदान कर हमारी अमृता को अपनी दासी स्वीकार कर लें...! क्यों माया...यही परामर्श है न तुम्हारा! 'क्रोधयुक्त व्यंग्य-वाण के पश्चात् काकी की आकृति और भी कठोर हो गयी।' नहीं दीदी...नहीं...'बहुरा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा-' तुम्हारी सहृदयता हमारा समूल नाश कर देगी...मुझे उस दुष्ट को दण्डित करना ही होगा। अपने शत्रु को मार्ग में ही दण्डित कर देगी दीदी! ... जिस गंगा में वह उपस्थित है, उसी की धारा में तुम्हारी बहुरा, अपने शत्रु को जल-समाधि प्रदान कर देगी...जल-समाधि...हा...हा...हा'! वीरा का विकट अट्टहास गूंजा। बहुरा की कटुता के समक्ष माया की ममता हार गयी और उसने संकल्प पूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए, अगिनबाण का संधान कर दिया। पोपली काकी की आकृति पर संतुष्टि के भाव उभरे तथा प्रसन्न बहुरा के अधरों पर विजयी मुस्कान छा गयी। विवश माया मौन थी और इसी घड़ी कक्ष में पदार्पण हुआ उस विकटा का, जिसने तीनों को चौंका दिया।' कौन हो तुम? 'बहुरा ने तीव्र स्वर में पूछा। आगंतुका मौन हो मुस्कुरायी।' मैंने तुम्हारा परिचय पूछा था! 'बहुरा ने पुनः कटु स्वर में कहा-' मौन खड़ी यों मुस्कुरा क्यों रही हो...! परिचय दो हमें...कहाँ से आयी हो और कौन हो तुम? आश्चर्य है मुझे'! मुस्कुराते हुए ही कहा उसने-' तुम्हारे द्वार पर अतिथि की ऐसी ही अभ्यर्थना होती है? '...क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-' कदाचित् तुम्हीं बहुरा हो...क्यों? अपरिचितों की अभ्यर्थना नहीं की जाती कापालिके', बहुरा ने कहा-' और तुमने मुझे ठीक ही पहचाना, मैं ही बहुरा हूँ। अभ्यर्थी को तुमने जान लिया और अब मुझे अपना परिचय दो...कौन हो तुम? उत्कल में सभी मुझे उग्रचण्डा के नाम से जानते हैं बहुरा! और मैं। 'मध्य में ही तड़प कर हस्तक्षेप किया बहुरा ने-' बस...उग्रचण्डा...बस, मौन हो जा अब तू! उत्कल की है इतना ही ज्ञात होना पर्याप्त है, शेष मैं समझ गयी। क्या समझ गयी बहुरा? ...'पुनः मुस्कराकर कहा उग्रचण्डा ने-' मैंने तो अभी मात्र अपने निवास-स्थल की ही चर्चा की है और तुमने मेरे आगमन का उद्देश्य भी समझ लिया? उत्कल हमारा शत्रु-राष्ट्र है, उग्रचण्डा! '-बहुरा ने तीव्र स्वर में कहा।' शत्रु-राष्ट्र! 'चकित होने का अभिनय किया उग्रचण्डा ने-' वह क्यों वीरा?
हमारे राज्य ने भला तुम्हारा क्या अहित किया है? मेरे परम शत्रु का मित्र है तुम्हारा राष्ट्र! '-बहुरा ने रोषपूर्ण स्वर में कहा' शंखाग्राम के साथ-साथ तुम्हारे उत्कल नरेश भी हमारे जामाता के हितैषी बन गये हैं तथा मेरे पराभव की कामना से से |
ना सहित राज भरोड़ा में...', कहते-कहते अनायास मौन हो गयी बहुरा। क्षणिक अंतराल के बाद पुनः कहने लगी-' परन्तु यह सब तुम्हें क्यों बता रही हूँ मैं ...तू कह, हमारे अंचल में आने का प्रयोजन क्या है तुम्हारा? सर्वप्रथम तो यह जान ले बहुरा'-उग्रचण्डा ने कहा-' तूने सत्य कहा, राजभरोड़ा में शंखाग्राम की सेना के साथ ही उत्कल के रणबाँकुरे वीर भी उपस्थित हैं। उत्कल-नरेश भी अपने समस्त परिजनों एवं सेनापति सहित पधार चुके हैं। उत्कल सेनापति के साथ एक तांत्रिक चंद्रा भी भरोड़ा में उपस्थित है बहुरा...परन्तु इनमें से कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं। 'हँस पड़ी बहुरा। उसका भयंकर अट्टहास कक्ष में गूंजने लगा। हँसी रुकी तो उसने कहा-' मेरे शत्रु अंचल में सेना का जमावड़ा यों ही हो रहा है, क्यों...? मुझे बहलाने आयी है तू ...अथवा मुण्डमाल के अपने इस शृंगार से मुझे भयभीत करना चाहती है? 'पोपली काकी एवं माया अब तक मौन धारण किये शांत खड़ी थी।' मेरा प्रयोजन न तुम्हें बहलाना है और न भयभीत करना। तो और क्या प्रयोजन है तुम्हारा? तुमसे मित्रता! 'मुस्कराती उग्रचण्डा ने कहा।' ठहरो पुत्री! 'प्रथम बार पोपली काकी ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा-' उग्रचण्डा से मुझे बात करने दो! 'बहुरा को रोककर काकी ने उग्रचण्डा से कहा-' तू भी मेरी पुत्री के समान ही है उग्रचण्डा! बहुरा सहित समस्त अंचल मुझे पोपली काकी सम्बोधित करता है और यह है माया, बहुरा की नृत्य-प्रशिक्षिका तथा भैरव-चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा। 'उग्रचण्डा ने काकी सहित माया का अभिवादन किया तो काकी ने पुनः कहा-' हम सभी अपने अंचल में तुम्हारा स्वागत करती हैं उग्रचण्डा! मैं नहीं जानती तुम्हारे आगमन का प्रयोजन क्या है? मित्र-भाव से आयी हो तो तुम्हारा पुनः स्वागत है परन्तु शत्रुतावश आयी हो |
तो तत्काल इस स्थल से पलायन ही तुम्हारे लिए उचित है। ... वैसे यह स्पष्ट जान लो कि भरोड़ा का राजकुँवर हमारा शत्रु है और शत्रु का मित्र तथा सहायक भी हमारा शत्रु ही है उग्रचण्डा और अब मैं आशा करती हूँ कि शब्दाडम्बर से मुक्त होकर अपने आगमन का स्पष्ट उद्देश्य हमें बताओ! अच्छा लगा मुझे...अच्छा लगा काकी'! उग्रचण्डा ने सहज स्वर में कहा-' आपकी स्पष्टवादिता ने मुझे प्रभावित किया। मैंने आपलोगों की भाँति साधना तो नहीं की है...परन्तु मैंने ब्रह्मपिशाचों को सिद्ध किया है काकी। उत्कल राष्ट्र में मैं जग से निर्लिप्त रहती आयी हूँ। मैंने पूर्व में कभी भी उस राष्ट्र के राजपरिवार में रुचि नहीं ली, परन्तु विगत दिनों घटित घटनाक्रमों से निर्लिप्त भी नहीं रह पायी मैं। आप कदाचित् महान् कापालिक टंका को अवश्य ही जानती होंगी काकी। जानती हूँ...तुम कहती जाओ', शांत स्वर में कहकर काकी मौन हो गयीं।' आपके कुँवरश्री के साथ कापालिक टंका के दर्शनों का प्रथम अवसर मुझे वहीं, अपने उत्कल राज्य में ही प्राप्त हुआ काकी। तो फिर? 'काकी ने पूर्ववत् कहा।' जहाँ तक मेरे स्वयं का प्रश्न है'-उग्रचण्डा ने कहा-' मैं तो टंका के समक्ष अत्यंत तुच्छ साधिका हूँ, परन्तु आपके कुँवरश्री के प्रति जब मैंने टंका का दासत्व भाव देखा तो सत्य मानिये काकी, मैं विस्मित हो गयी। यह कुँवर हैं कौन और इनका विग्रह क्या है? ...और तभी से मैंने अपने ब्रह्मपिशाचों के माध्यम से कुँवरश्री को कुछ-कुछ जाना है। मैं नहीं जानती ऐसे अद्भुत् कुँवरश्री के प्रति आपकी शत्रुता क्यों है...और मेरे आगमन का वास्तव में प्रयोजन भी यही है काकी। 'काकी के अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। रहस्यमयी मुस्कान के साथ काकी ने कहा-' हमारा शत्रु तुम्हारा आराध्य है उग्रचण्डा...! इतनी श्रद्धा भरी है उसके लिए, फिर तो तुम्हारे लिए अत्यंत दुख भरा समाचार है हमारे पास। 'क्षण भर मौन रह कर काकी ने पुनः कहा-' तुम्हारे आगमन के क्षण भर पूर्व ही मेरी पुत्री ने कुँवर पर, अमोघ अग्निबान का संधान सम्पन्न किया है उग्रचण्डा! कुँवर की नौकाएँ गंगा की धारा में हैं और इसी शीतल जल-धारा में तप्त होकर निश्चित दग्ध हो जाएँगी वह...'कहते ही हँसकर उसने पुनः कहा-' भस्म हो जाएगा तुम्हारा कुँवर और साथ ही भस्म हो जाएंगे उसके साथ उपस्थित, उसके समस्त संगी-साथी! 'कह कर काकी ने पुनः अट्टहास प्रारंभ कर दिया। काकी के अट्टहास के मध्य ही बहुरा ने माया से कहा,' हमारे अतिथि को अपने आतिथ्य में ले जाओ दीदी! 'और कह कर मुदित बहुरा हँस पड़ी। माया ने मुस्करा कर उग्रचण्डा को देखा। आँखों ही आँखों में भावों का आदान-प्रदान हुआ और बहुरा के कक्ष से दोनों बाहर निकल गयीं।' तुम चिन्तित न हो उग्रचण्डा! 'माया ने सहजतापूर्वक कहा,' इसने पूर्व में भी हमारे प्रिय कुँवर पर अपने अमोध मारण मंत्र का संधान किया था, परन्तु पूर्णरूपेण असफल रही थी वह। मैं तनिक भी चिन्तित नहीं हूँ! 'उग्रचण्डा ने कहा-' सर्वशक्तिमान टंका का आराध्य है आपका |
कुँवर। उनपर तामसी तंत्रों का कोई संधान, कदापि प्रभावी नहीं हो सकता...यह तो मैं सम्यक् प्रकार जानती हूँ। 'कह कर विचारमग्न उग्रचण्डा कुछ क्षण मौन हो गयी तथा पुनः उसने कहा,' परन्तु फिर भी मैं विस्मित हूँ। अपने जिस जामाता पर बहुरा को गर्व करना था, उसी को अपना शत्रु मान बैठी है यह। यही तो दुर्भाग्य है मेरी पुत्री का'माया ने कहा-' भ्रमित हो गयी है वह ...परन्तु उग्रचण्डा! यह तो कहो... हमारे प्रिय कुँवर के साथ टंका भी उसकी नौका में उपस्थित है क्या? तो तुम भी परिचित हो उससे? देखा कभी नहीं', माया ने कहा,' परन्तु मुझे ज्ञात है। अत्यंत दुर्दान्त है वह। इस युग में भी नरबलि देने वाला वह एकमात्र तांत्रिक है। ऐसे तांत्रिक से मेरे कुँवर का भला क्या नाता हो सकता है? तुमने जिस घड़ी से कहा है, मैं तभी से इसी पर विचार कर रही हूँ। वह तो मैं नहीं कह सकती परन्तु, मैंने स्वयं देखा है। टंका ने कुँवरश्री को अपना स्वामी मान लिया है। आश्चर्य है मुझे! आश्चर्य की आवश्यकता नहीं'...उग्रचण्डा ने कहा,' इस घड़ी मैं कुँवरश्री की मंगल सूचना प्राप्त करना चाहती हूँ माया...! मुझे किसी एकांत कक्ष में ले चलो। '
बिछाये आतुरता में प्रतीक्षारत था और इन समस्त हलचलों से परे कापालिक टंका ने जलधारा की दूसरी ओर स्थित हिंसक वन्य-जीवों से भरे धनघोर वन के मध्य अपना आसन जमा लिया था। टंका की उपस्थिति से अनभिज्ञ समस्त जन शिविरों में मगन थे। उत्कल नरेश के शिविर में भरोड़ा के राजाजी के साथ राजरत्न मंगलगुरु विराजे थे। आमोद-प्रमोद के मध्य वार्तालाप का केन्द्र था मंगलगुरु के प्रशिक्षित काग। उत्कल नरेश के समक्ष ही मंगल के काग निरंतर संदेश पहुँचा रहे थे। 'आश्चर्य है मुझे!' उत्कल नरेश ने मंगलगुरु से कहा, 'आपकी इस कला ने मुझे विस्मित कर दिय |
ा है, राजरत्न! यह कैसे संभव है कि काग जैसा पक्षी, मनुष्य की भाषा का इतना स्पष्ट उच्चारण करे?' उत्कल नरेश की बात पर राजरत्न को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा, 'तोतों को तो आपने अवश्य सुना होगा राजन्...कई तोते हमारी भाषा का स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण करते हैं।' 'हाँ करते हैं' , उत्कल नरेश ने स्वीकार किया, 'हमारे राजमहल में ही वे हमें नित्य' शुभ प्रभात'कहते हैं।' 'तो हमारे कागों पर विस्मय क्यों है महाराज' ! राजरत्न ने कहा, 'थोड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता है बस...और प्रमाण तो आपके समक्ष ही है।' वार्तालाप आगे बढ़ता कि तभी कांव-कांव करता एक काग आकर मंगल के स्कंध पर बैठ गया। मंगल ने मुस्कराते हुये उसे अपने हाथ पर ले कर कहा, 'क्या समाचार है कहो?' 'कांव-कांव...! समाचार अशुभ है!' काग ने अपनी आँखें मटमटाते हुए कहा, 'कुँवर की नौकायें तांत्रिक अग्नि की ज्वाला के मध्य फँसी हैं... कांव...कांव...कांव...! उनकी सहायता करें मंगलगुरु, सहायता करें!' अपनी बात कहकर वह पंख फड़फड़ाता उड़ गया। शिविर में कुछ घड़ी पूर्व तक उपस्थित हास-परिहास का वातावरण अचानक शोकमय हो उठा। 'अब क्या होगा राजरत्न?' आतुर स्वर में भरोड़ा के राजा ने कहा। 'शांत रहें राजाजी!' सहज स्वर में कहा राजरत्न ने, 'बहुरा की तामसी शक्तियाँ हमारे प्रिय कुँवर पर निष्फल हो जायेंगी। लाख जतन करले वह तामसी, परन्तु हमारे कुँवर का बाल भी बाँका न कर पायेगी वह। आप सब निश्चिंत रहें। मुझे विश्वास है, शीघ्र ही शुभ समाचार आ जाएगा।' इसी घड़ी अति प्रसन्न वज्रबाहु एवं चंद्रचूड़ के साथ कापालिक टंका ने शिविर में प्रवेश कर सबको विस्मित कर दिया।
शंखाग्राम से कुँवर के प्रस्थान का यह द्वितीय दिवस था। संध्या होने को थी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें बिखरी थीं तथा नौकाओं के ऊपर, उड़ते पंछी कलरव कर रहे थे। राजमाता के आमंत्रण पर कामायोगिनी, शंखाग्राम की राजकीय नौका पर विराजमान थीं, तथा रक्षक नौकाएँ त्रिकोण की व्यूह-रचना में दोनों नौकाओं को घेरे, गंगा की धारा में निर्भय चली जा रही थीं। तभी सबकी दृष्टि, सुदूर धारा पर प्रज्वलित, अग्नि की लपलपाती ज्वाला पर पड़ी। धारा के मध्य से दोनों किनारों तक फैली ज्वाला के कारण रक्षक नौकाओं ने तत्काल लंगर डालने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। 'हमारे स्वागत का यह प्रथम चरण है देवी!' भुवनमोहिनी ने स्मित नेत्रों से कामायोगिनी को देखते हुए कहा। 'उत्तर में कामायोगिनी मुस्कुरायीं जबकि, राजमाता राजराजेश्वरी उद्विग्न हो गयीं।' यह कैसी विपत्ति है? 'राजमाता ने स्फुट स्वर में स्वतः कहा।' यह विपत्ति नहीं'! भुवनमोहिनी ने हँसते हुए कहा,' हमारा स्वागत है माताश्री...! 'कहकर उन्होंने कुँवर पर दृष्टि डालकर उससे कहा,' क्यों प्रिय...! माता के इस आत्मीय स्वागत से तुम प्रसन्न तो हो न? तुम लोग परिहास कर रही हो'! व्यग्र राजमाता ने हस्तक्षेप किया।' सत्य कहा था टंका ने...! इस घड़ी उसकी उपस्थिति आवश्यक थी। |
इस संकट से वही हमें मुक्त करा सकता था पुत्री, परन्तु तुमने उसकी बात स्वीकार कर व्यर्थ ही उसे विदा कर दिया। यों व्यथित न हों माते! 'शांत स्वर में कुँवर ने कहा,' इस घड़ी हम पर कोई विपत्ति नहीं है। विपत्ति नहीं तो क्या है यह? 'राजमाता ने कहा,' हमारी समस्त रक्षक नौकायें रुक चुकी हैं। इस भीषण अग्नि-शिखाओं से हम भला कैसे निकलेंगे पुत्र? 'इसी घड़ी नाविक प्रमुख हृदयनारायण ने आकर कहा,' हमारे लिए क्या आज्ञा है राजमाता? हमारी रक्षक नौकाएँ लंगर डाल कर रुक चुकी हैं...आदेश हो तो हम। 'परन्तु कामायोगिनी ने मध्य में ही हस्तेक्षप करते हुए कहा,' रक्षक नौकायें रुकी रहेंगी। इस नौका को आगे करके उन्हें निर्देश दो...समस्त नौकाएँ हमारे पीछे-पीछे रहेंगी। चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं...पूर्ववत् चलते रहो। 'उलझनपूर्ण नेत्रों से हृदयनारायण ने राजमाता को देखा। कदाचित् वह उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहता था।' देवी के निर्देश का पालन करो हृदय! 'उसके मनोभाव लक्ष्य कर भुवनमोहिनी ने कहा-' माताश्री का भी यही आदेश है! 'राजमाता राजराजेश्वरी हतप्रभ थीं, कुँवर शांत एवं दोनों देवियों की आकृति पर मुस्कान फैली थी।' जो आज्ञा! 'कह कर हृदयनारायण तत्काल चला गया। निर्देशानुसार राजमाता की नौका आगे बढ़ गयी। शेष नौकाएँ कतारबद्ध होकर कामायोगिनी की नौका के पीछे चलती रहीं।' मुझे आदेश दें देवी! 'कामायोगिनी ने भुवनमोहिनी से कहा,' तो मैं इस अग्नि को पुनः उसी के पास प्रेषित कर दूं, जिसने इसका संधान किया है। यह उचित नहीं है देवी! 'भुवनमोहिनी ने प्रतिवाद किया,' वे हमारी सम्बंधी हैं। उनके प्रति हमारे अंतस् में कोई द्वेष नहीं। परन्तु फिर भी हमें प्रतिकार तो करना ही होगा! 'दृढ़ स्वर में कामायोगिनी ने कहा।' क्या कहते हो प्रिय? 'भुवनमोहिनी ने |
कुँवर से कहा,' तुम्हारी क्या इच्छा है? निर्विकार कुँवर ने कहा, 'यह सत्य है कि हम किसी के शत्रु नहीं परन्तु परिस्थितिवश मेरी माता इस घड़ी भ्रमित हैं। हमारी यात्र में उनके द्वारा उत्पन्न यह प्रथम एवं अंतिम प्रतिरोध नहीं। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वे प्राण-पण से अनवरत अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी।' 'तो इस स्थिति में हमें प्रतिकार तो करते ही रहना होगा न प्रिय!' मंद हासयुक्त स्वर में भुवनमोहिनी ने कहा। 'कोई आवश्यकता नहीं'। पूर्ववत् शांत कुँवर ने कहा। 'तो हम स्वयं को दग्ध हो जाने दें' , कामायोगिनी ने कहा, 'क्या अर्थ है तुम्हारा?' 'अग्नि हमारी शत्रु नहीं है देवी!' 'परन्तु दग्ध करना तो उसकी प्रकृति है वत्स!' कामायोगिनी ने पुनः प्रतिवाद किया। 'प्रकृति की ही तो लीला आज देखनी है...!' अधूरी पंक्ति कह कर मौन हो गया कुँवर! कामायोगिनी उलझ गयीं, परन्तु भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए भुवनमोहनी ने कामायोगिनी से कहा, 'व्यर्थ विवाद में उलझ गयीं हम, अब तो और कुछ न कहूँगी...और प्रकृति की नहीं, अपने कुँवर की लीला देखूंगी मैं।' कामायोगिनी तो मौन हो गयीं परन्तु राजमाता की व्यग्रता और भी तीव्र हो गयी। अब तक अग्नि की लपटें और भी पास आ गयी थीं। राजमाता के नेत्रों में आतंक की छाया उभरी। वे कुछ कहना ही चाह रही थी कि कुँवर ने अपनी आँखों से ही उन्हें आश्वस्त कर दिया और शंखाग्राम की नौका ज्वाला में प्रविष्ट हो गयीं। आश्चर्य! अग्नि की लपटों में पूर्णतया प्रविष्ट हो चुकी नौका सहजता से आगे बढ़ रही थी। कुछ भी तो न दग्ध हुआ और न तप्त और कुँवर की नौका ने सुरक्षित अग्नि-ज्वाला पार कर ली। कामायोगिनी की नौका भी सुरक्षित रही तथा अन्य रक्षक नौकाएँ भी क्रमशः पार होती चली गयीं।
शंखाग्राम की राजकीय नौका में द्वितीय रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हो गयी। बहुरा ने कदाचित् अपने प्रथम अगिनबाण की सफलता को ही अचूक मानकर पुनः प्रहार नहीं किया था। नित्यक्रिया सम्पन्न कर राजमाता, नौका के ऊपर खड़ी होकर उदित होते सूर्य को निहार रही थीं तभी क्रमशः कामायोगिनी, भुवनमोहिनी तथा अंत में कुँवर भी आ पहुँचे। एक साथ सभी ने यहीं प्रातःकालीन जलपान ग्रहण किया। सूर्योदय हो चुका था। कुँवर के आदेश से इसी घड़ी प्रधान नाविक हृदयनारायण आ उपस्थित हुआ। 'हृदय!' कुँवर ने उसे सम्बोधित कर कहा, 'गंगा माता की लहरों पर अब हमारी यात्र समाप्त होने वाली है। दो ही घड़ी में पूर्व की ओर जो दूसरा मार्ग मिलेगा, वहीं से हमारा मार्ग परिवर्तित होगा। उस स्थल पर समस्त नौकाओं को रुक जाना है।' 'जो आज्ञा कुँवर जी!' विनीत स्वर में उसने कहा, 'मैं तत्काल सबको सूचित कर देता हूँ।' सबों का अभिवादन करके हृदयनारायण चला गया तो भुवनमोहिनी ने कुँवर से पूछा, 'तुम्हें तो मार्ग परिवर्तन का आदेश भर देना था...उस स्थल पर रुकने का क्या प्रयोजन है प्रिय?' भुवनमोहिनी के प्रश्न का उत्तर न देकर स्मित-भाव से कुँवर ने आसन त्यागा और मंद गति से चलता हुआ नौका के किनारे जा कर खड़ा हो गया। कुँ |
वर के मौन से उत्सुक भुवनमोहिनी ने कुँवर के समीप जाकर कहा, 'मौन क्यों हो गए प्रिय! इच्छा क्या है तुम्हारी?' 'आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है देवि' , कुँवर ने कहा, 'जिस दिशा में आगे यात्र करनी है, पूर्व में माता कमला की निर्मल धारा वहीं प्रवाहित हुआ करती थी।' 'क्या अर्थ है तुम्हारा!' उत्सुक भुवनमोहनी ने कहा, 'अब क्या कमला मैया की धारा वहाँ प्रवाहित नहीं होती?' 'हाँ देवि! कमला मैया ने अपना मार्ग परिवर्तित कर लिया है।' आश्चर्य है, फिर हमारी सेना किस मार्ग से पहुँची? ' कुँवर ने वज्रबाहु के पहुँचने का मार्ग तथा भरोड़ा में उसके द्वारा सम्पन्न कार्यकलापों से देवी को विस्तार में अवगत कराया तो मुग्ध देवी से उनके अंतस् ने कहा-योग की जिस अवस्था पर उसका शिष्य अवस्थित हो चुका है, वहाँ स्थित योगी तो स्वतः ही सर्वज्ञ हो जाता है। परन्तु उसका प्रिय शिष्य, सूखी नदी के समीप रुकना क्यों चाहता है? इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। दोनों मौन खड़े गंगा की कलकल करती धारा को निहारते रहे।
कापालिक टंका की आशंका सत्य सिद्ध हो चुकी थी। परन्तु उसका तंत्र-प्रहार उसके स्वामी पर होगा, ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था। यद्यपि अपने स्वामी की सुरक्षा के प्रति उसे तनिक भी शंका नहीं थी, तथापि बहुरा के दुःसाहस ने उसे चकित कर दिया था। कदाचित् उसकी शक्ति को उसने कम करके आँका था। इसके पूर्व की क्रुद्ध बहुरा का द्वितीय प्रहार भरोड़ा पर हो, उसे तत्काल ही अंचल को सुरक्षित कर देना होगा। परन्तु तांत्रिक अनुष्ठान प्रारंभ करते ही, वह चौंका। आश्चर्यचकित होकर उसने अपने मानस-पटल पर देखा, भरोड़ा अंचल की प्रत्येक दिशा, उप-दिशा, आकाश एवं भूमि की रक्षा में, एक अज्ञात किन्तु अपूर्व शक्ति उपस्थित है। मुग्ध टंका अपने स्वामी के सौरभ पर नतमस्तक ह |
ो गया। बंद पलकों को खोलकर उसने उद्घोषणा की, सम्पूर्ण अंचल अभेद्य कवच मेंसुरक्षित है। उसे अब कोई चिन्ता नहीं।
उसके स्वामी आज ही पधारेंगे। स्वामी के स्वागत में मुदित टंका के पग तीव्र गति से जलधारा की ओर बढ़ गए. राज भरोड़ा के वातावरण में उत्साह का अतिरेक छाया था। कुँवरश्री के स्वागत में वज्रबाहु ने पांच कोस लम्बे वन के मध्य निर्मित नवीन मार्ग पर शीतल जल का छिड़काव कराया था। सम्पूर्ण मार्ग में अनेक तोरण द्वार बनवाए गए थे। भरोड़ा के नर-नारी और आबाल-वृद्ध, दो घड़ी पूर्व से ही वन-मार्ग के दोनों किनारों पर स्वागत में पंक्तिबद्ध होने लगे थे। स्वयं भरोड़ा के राजा, पुत्र के स्वागत में अपनी रानी एवं अन्य परिजनों सहित जल धारा की ओर प्रस्थान कर चुके थे। उत्कल-नरेश ने भी अपने पुत्र चंद्रचूड़, सेनापति, अमात्य एवं सशस्त्रा योद्धाओं सहित अपनी भव्य शोभा-यात्र प्रारंभ कर दी थी। जल-धारा के किनारे की विस्तृत भूमि को समतल कर, वज्रबाहु ने भव्य स्वागत-द्वार का निर्माण कराया था तथा स्वागत-द्वार के ऊपर शंखाग्राम, उत्कल एवं कामरूप की भव्य ध्वजायें लहरा रही थीं।
भरोड़ा के राजा विश्वम्भरमल्ल जहाँ प्रफुल्लता में छलक रहे थे वहीं रानी गजमोती पूर्वरूपेण शांत और मौन थीं। 'पुत्र के आगमन पर आपने यूँ मौन क्यों धारण कर लिया है?' राजा ने विनोदी स्वर में कहा, 'मार्ग में प्रतीक्षारत अपने अंचल-वासियों को देखिए...! कैसे आनंद-मग्न होकर, सभी आपके पुत्र के स्वागत में खड़े हैं और आप हैं कि इस उत्सव की घड़ी में भी।' वाक्य सम्पूर्ण न कर पाये राजा जी, क्योंकि रानी की आँखें छलकने लग गयी थीं। 'अरे! ... यह क्या!' विस्मय से कहा राजा ने, 'आपने तो रुदन भी प्रारंभ कर दिया...बात क्या है...मुझे नहीं बतायेंगी?' 'इस बार अपने आँचल मेंबांध लूंगी उसे!' रूंधे गले से रानी ने कहा, 'कहीं नहीं जाने दूंगी अब। आप पिता हैं...आप क्या जानें पुत्र जब आँखों से दूर होता है तो माँ पर क्या बीतती है।' कुछ न कह सके राजा जी. अपने पीताम्बर से उन्होंने रानी के अश्रु पोंछने चाहे तो उनका हाथ रोक कर रानी ने कहा, 'चलिए, छोड़िए...अब आप अश्रु पोछना चाहते हैं मेरा...! उस घड़ी क्या किया था आपने? जब मेरा पुत्र हमें छोड़ कर जा रहा था और रो-रो कर मैं निढाल हो गयी थी!' क्या कहते राजा जी? मौन आँखों से रानी को निहारते रह गए.
'बधाई स्वीकार करें राजरत्न!' वैद्यराज रसराज ने कहा, 'आपका प्रिय शिष्य विभूति-सम्पन्न होकर आज वापस आ रहा है।' हँस पड़े मंगलगुरु। 'आपको भी बधाई है वैद्यराज' , हँसते हुए ही मंगलगुरु ने कहा, 'वह क्या आपका शिष्य नहीं?' 'मुझे क्यों छोड़ दिया राजरत्न!' सेनापति भीममल्ल ने प्रतिवाद किया, 'शस्त्रा-संचालन की विद्या में वह मेरा भी शिष्य है।' 'आपको भी बधाई!' वैद्यराज ने मुदित स्वर में कहा फिर तीनों हँस पड़े।
'पिताश्री!' चंद्रचूड़ ने अनुरोध किया, 'इस घड़ी कुँवरश्री गंगा की मुख्य धारा में ही हांेगे। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी नौका से आगे जाकर, वहीं |
उनकी अगवानी करूँ।' अति उत्तम! 'उत्कल नरेश ने उत्साह में कहा,' हम सभी तुम्हारे साथ चलेंगे पुत्र। हमारे पहुँचते ही इसकी व्यवस्था करो। ' तत्काल ही अश्वारोही सेनापति को, तद्नुसार निर्देश प्राप्त हो गये। उसके रण-बाँकुरों के साथ-साथ कापालिक चंद्रा भी मंथर-गति से चला जा रहा था। भरोड़ा आगमन के पश्चात् घटनायें इतनी तीव्र गति से घटित हो रही थीं कि सेनापति भ्रमित हो कर रह गया था। टंका के कारण, बहुरा के कोप से सभी सुरक्षित हो चुके थे और जहाँ तक स्वयं कुँवर का प्रश्न था, उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता ही नहीं थी। कैसा अभागा है वह, उसने सोचा, सौभाग्य का अवसर पाकर भी उसका भाग्य चूक गया। यह तो अच्छा हुआ कि उसके विचार, उसके अंदर ही दबे रह गए, अन्यथा उसके प्राण ही संकट में पड़ जाते। अब यह चंद्रा उसे बोझ लगने लगा था। व्यर्थ ही उसने इस दो कौड़ी के तांत्रिक के लिए इतने पापड़ बेले और इतना अनुनय-विनय किया। अश्व पर आसीन सेनापति के मानस में, चंद्रा का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट करने लगा। उसे स्वयं पर घृणा होने लगी। उसने चंद्रा जैसे मदारी का तिरस्कार सहन कर लिया था। उसे तो उसी पल इस दुष्ट का वध कर देना था। धिक्कार है मुझे...! धिक्कार है! दूसरे अश्व पर बैठा चंद्रा और ही विचारों में मग्न था। उसने तो निश्चय कर लिया था कि बहुरा की क्रोधाग्नि में वह घृत का कार्य करेगा और इस दुष्ट सेनापति को सहज ही अपने कुकृत्यों का दण्ड प्राप्त हो जायेगा। परन्तु टंका ने समस्त परिस्थिति ही बदल कर रख दी अन्यथा कुँवर से पराजय की स्थिति में बहुरा का क्रोध अवश्य ही इस अंचल को जला देता। ऐसे ही विचारों में उलझा, चंद्रा चला जा रहा था कि वन्य-प्रदेश का मार्ग समाप्त हो गया। जलधारा के किनारे पहुँचते ही उसके विचारों का प्रवाह भी थम गया |
। उत्कल नरेश की आज्ञा सुनते ही वज्रबाहु प्रसन्न हो गया। उसकी भी यही इच्छा थी कि वह स्वयं कुँवरश्री का स्वागत गंगा की मुख्य धारा में उपस्थित होकर करे। तत्काल ही तद्नुसार व्यवस्था होने लगी। भरोड़ा के राजा जी को भी उत्कल नरेश का विचार भा गया और उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा व्यक्त कर दी और नदी किनारे की इन हलचलों के मध्य, टंका का शरीर कब जलधारा में प्रविष्ट हो गया, किसी ने न जाना।
निर्देशानुसार हृदयनारायण ने जिस स्थल पर लंगर डाला वहाँ दूसरी दिशा से आती एक अन्य जलाधारा, गंगा एवं कौशिकी का स्पर्श कर पूर्व की ओर प्रवाहित हो रही थी। इसके जल का वर्ण गंगा की धारा से अलग था। पास ही इसी दिशा की ओर, एक अन्य जल-विहीन सूखी नदी दिखाई दे रही थी। कुँवर ने अपने दोनों कर जोड़ कर इस सूखी नदी को प्रणाम किया। उसकी दोनों पलकें झुक कर बंद हो गयीं। 'हे माता!' उसने निःस्वर प्रार्थना की, 'हमारे अंचल की तुम्हीं प्राणधारा हो! तुम्हारा ही आश्रय लेकर हमारे कृषक अपने खेतों में अन्न उगाते हैं और तुम्हारे ही जल से हमारा जीवन-यापन होता है। हमारे व्यापार और वाणिज्य का आधार भी तुम्हीं हो माता! तुम्हारी ही गोद में असंख्य जलचरों का जन्म एवं पोषण भी होता है। जब से तुम विमुख हुई हो, तब से अंचल की कोख ही उजड़ गयी है। यद्यपि अपने पुरूषार्थ से हमारे कटिबद्ध परिजनों ने, तुम्हारे परिवर्तित मार्ग तक, अपनी पहुँच बना ली है तथापि तुम्हारी अनुपस्थिति ने हमारे अंचल की आकृति मलिन कर दी है माते! हे माता! मैं अंग का पुत्र नटुआ दयाल, अपने दोनों कर जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तथा, यदि मैंने अपने जीवन में कुछ भी पुण्य किया हो, तो हे माता! मेरे इस अंचल तथा अंग जनपद में ही नहीं, वरन इस धरा पर कहीं भी तुम, हम से विमुख मत होना माता...विमुख मत होना।' कुँवर के मानस पटल पर इसी क्षण नीलवर्णी प्रभा उदित हुई और कमला माता की स्पष्ट आकृति उभर आयी। उनके नेत्रों में स्नेहयुक्त वात्सल्य भरा था और अधरों पर स्मित मुस्कान। उनके नेत्रों ने हौले से अनुमोदन का भाव प्रकट किया तथा मुस्कुराती हुयी माता अदृश्य हो गयीं। विभोर कुँवर के नेत्र खुले। कामायोगिनी एवं भुवनमोहिनी के साथ-साथ कापालिक टंका उसके समक्ष उपस्थित था। 'मित्र तुम!' स्मित कुँवर ने कहा, 'कहो क्या समाचार लाए हो?' टंका से कह कर कुँवर ने पुनः भुवनमोहिनी से कहा, 'माता ने पुत्र की विनती स्वीकार कर ली है देवी! हृदय नारायण से कहें वह इसी सूखे मार्ग की ओर नौका बढ़ाए.' भुवनमोहिनी मुस्करायी परन्तु कापालिक टंका ने आश्चर्य से कहा, 'इस मार्ग में स्वामी?' 'हाँ मित्र!' कुँवर ने कहा, 'हमारी यात्र इसी मार्ग से होगी!' कुछ न कह सका टंका परन्तु उसके नेत्रों में उलझन का भाव और भी सघन हो गया। भुवनमोहिनी जा चुकी थीं। आश्चर्य से भरा टंका और उत्सुक कामायोगिनी वहीं खड़ी रहीं। कुँवर का आदेश सर्वोपरि था। लंगर उठाये जाने लगे। नौका की दिशा पूर्व की ओर मोड़ दी गयी और शंखाग्राम |
की राजकीय नौका सूखी नदी की दिशा में बढ़ चली। समस्त चौंसठ विद्याओं का सिद्ध, दुर्दांत कापालिक टंका, युगों-युगों की साधिका कामायोगिनी तथा शतदल-सह कमल नृत्य की ज्ञाता भुवनमोहिनी ने मुग्ध होकर देखा, नौका के आगे-आगे सूख चुकी नदी की भूमि पर, कमला का जल-प्रवाह उत्पन्न होता गया और नौका बढ़ती गयी। कुँवर के चरणों में नतजानु होकर कहा टंका ने, 'स्वामी! आप तो स्वयं सर्वज्ञ हैं। आपको तो भली-भाँति ज्ञात ही है कि आपके परिजन नौकाओं के द्वारा किस मार्ग से आने वाले हैं। गंगा की धारा में आपको न पाकर वे कितने उद्विग्न हो जायेंगे...मुझे आज्ञा दें स्वामी तो, मैं तत्काल उनकी नौका यात्र स्थगित करूँ!' कुँवर ने कुछ न कह कर अपने नेत्रों से मूक स्वीकृति दे दी।
कापालिक टंका के आगमन के पूर्व ही चतुर्दिक् शोर मच गया। कमला मैया की धारा पुनः कलकल करती प्रवाहित होने लगी है। दावानल की भाँति प्रसारित इस समाचार ने सबके हर्ष को द्विगुणित कर दिया। सूखी नदी पर बंधी नौकाएँ, कमला की धारा पर, ऊपर उठ आयीं। पंचकोसी वनमार्ग के किनारे खड़े लोग, हर्षोन्माद में दौड़ पड़े! उत्कल नरेश एवं राजा विश्वम्भर मल्ल अपने लोगों के साथ अपनी-अपनी नौकाओं में जाने ही वाले थे कि इस समाचार ने सबको हतप्रभ कर दिया और इसी घड़ी कापालिक टंका ने उपस्थित होकर उन्हें कुँवर की सूचना दे दी। कुँवरश्री की नौकाएँ, अंचल की मूल धारा में ही आ रही हैं यह ज्ञात होते ही हर्षित होकर तत्काल सभी लौट पड़े। काला पहाड़ तथा झिलमा खबास! दोनों ने मिलकर अपनी विशाल नौका को सम्हाल लिया। पारिश्रमिक लिए बिना, उन्होंने अंचल के लोगों को पार पहुँचाना शुरु कर दिया। यह देखते ही अन्य नाविकों ने भी कमला की धारा को पार कर अपनी-अपनी नौकाएँ सम्हाल ली। गड़े हुए लंगर के खूंटों से नौकाओ |
ं को मुक्त किया और लोगों को उस पार पहुँचाना प्रारंभ कर दिया। कमला की धारा ने अंचल में पुनः उपस्थित होकर अभूतपूर्व उमंग और उत्साह उत्पन्न कर दिया था। तत्काल उस पार पहुँच जाने की इच्छा सबकी थी, परन्तु किसी ने अनुशासन भंग न किया। नौकाओं की संख्या प्रतिपल बढ़ती जा रही थी तथा किनारे खड़ी भीड़ धैर्यपूर्वक अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भरोड़ा का राजपरिवार तथा उत्कल नरेश के प्रस्थान के पश्चात् वज्रबाहु के आदेश पर, जलधारा में उपस्थित शंखाग्राम एवं उत्कल की नौकाओं ने अपने लंगर उठाने शुरू कर दिए. समस्त नौकाओं को गंगा की मुख्य धारा में पहुँच कर वापस कमला की नवीन धारा से पुनः भरोड़ा पहुँचना था। समस्त जनों के लौटने के उपरांत जो हलचल थमी थी, नौकाओं के कारण वह पुनः प्रारंभ हो गयी।
बखरी सलोना के परिवेश से उग्रचण्डा अब अपरिचित नहीं रही। माया तो प्रथम परिचय में ही उससे घनिष्ठ हो गयी थी, काकी के अनुमोदन के उपरांत बहुरा के हृदय में भी उसके प्रति कटुता की भावना समाप्त हो गयी। भरोड़ा में भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ, कुँवर के आगमन की विस्तृत जानकारी से, बहुरा अवगत थी। अमृता आहलादित थी तथा माया प्रसन्न, परन्तु काकी के साथ-साथ बहुरा अति-विस्मित थी। 'प्रत्येक कार्य का कारण होता है काकी!' बहुरा ने आश्चर्य से कहा, 'परन्तु हमारे समक्ष जो कुछ घटित हो रहा है, इसके नेपथ्य में क्या है...और सबसे अधिक विस्मयकारी है, कमला की धारा का यूँ अनायास पुनरागमन। विस्मित हूँ मैं।वह कौन-सी अदृश्य शक्ति है जो निरंतर हमारे विपक्षी की सहायक बनी हुयी है?' परन्तु काकी के पास बहुरा केे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। तत्काल कुछ न कह सकी वह। काकी के मौन पर माया ने बहुरा से कहा, 'अपने कुँवर के प्रति तुम्हारे अंदर जो विद्वेष भरा है, उसके ही कारण तुम्हारी चेतना भ्रमित हो गयी है पुत्री! ...अन्यथा मेरी दृष्टि में अब असंगत कुछ नहीं। शंखाग्राम की सेना ने भरोड़ा में उपस्थित होकर हम सब को भ्रमित कर दिया था। मैं भी उलझ गयी थी पुत्री! मुझे भी इसका औचित्य समझ में नहीं आया था, परन्तु अब कोई भ्रांति शेष नहीं।' 'तुम हमेशा उल्टी बात कहती हो माया!' काकी ने तत्क्षण कहा, 'दो भिन्न देशांे की शक्तियों का क्या औचित्य था भरोड़ा में...? अपने कुतर्कों से हम सब को तुम पुनः भ्रमित कर रही हो माया, अन्यथा शत्रु के इस प्रकार शक्ति-प्रदर्शन का क्या कारण है, बताओ तो हमें?' 'घृष्टता न समझें तो मैं कुछ कहूँ काकी?' उग्रचण्डा ने तत्काल कहा। 'कहो, तुम भी कहो उग्रचण्डा' ! काकी ने कहा। 'जिसे आप शक्ति-प्रदर्शन कह रही हैं, वास्तव में वह शक्ति का प्रदर्शन नहीं है, क्योंकि तब स्वयं शंखाग्राम की राजमाता का पदार्पण नहीं होता। जब वे स्वयं आयी हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि यह सैनिक अभियान है ही नहीं।' 'ठीक कह रही है उग्रचण्डा!' माया ने कहा, 'हमने व्यर्थ उन्हें अपना शत्रु मान लिया है। हमें शांत-चित्त होकर समस्त स्थिति पर पुर्नविचार करना होगा तथा धैर |
्य-धारण कर किंचित प्रतीक्षा करनी होगी। फिर यदि, दुर्भाग्यवश परिस्थिति विपरीत हुई, तो तद्नुसार ही हम स्थिति के अनुकूल कार्य करेंगे।' उग्रचण्डा तथा माया के तर्क से पूर्णतया सहमत नहीं होते हुए भी बहुरा ने माया से कहा, 'कदाचित् तुम ठीक कह रही हो दीदी। यूँ भी जिसे हमने अपना शत्रु स्वीकार किया है वह अब स्वयं उपस्थित हो ही गया है। परन्तु फिर भी मैं नहीं चाहती कि हम निष्क्रिय होकर शांत बैठ जायें तथा अनहोनी की प्रतीक्षा करती रहें। हमें पूर्ण सतर्क रह कर प्रतिरोध हेतु हर-पल सावधान रहना होगा।' अपनी बात कह कर बहुरा ने पुनः उग्रचण्डा से कहा, 'और तुम यह मत समझना उग्रचण्डा कि मेरे अगिनबाण का प्रतिकार कर उसने मेरा पराभव कर दिया है अथवा तुम्हारे तथाकथित कापालिक टंका से मैं भयभीत हो गयी हूँ।' हँस पड़ी उग्रचण्डा। हँसते हुए ही उसने विनोद किया, 'स्वीकार करती हूँ बहुरा...तुम्हारी शक्ति को स्वीकार करती हूँ।' कहते ही उसकी आकृति गंभीर हो गयी और उसने पुनः कहा, 'परन्तु मेरा अनुरोध इतना ही है तुमसे कि क्रोधावेश में अपनी शक्ति का अपव्यय न करना!' 'उग्रचण्डा से सहमत हूँ मैं!' काकी ने कहा, 'यद्यपि नीति यही है कि विजयी वही होता है जो सर्वप्रथम प्रहार करता है, परन्तु फिर भी मैं चाहती हूँ कि आक्रमण का पहल शत्रु-पक्ष की ओर से ही हो।' 'क्या कहती है पुत्री!' माया ने बहुरा से कहा, 'काकी ने भी हमारी बात मान ली है। अब क्या निर्णय है तुम्हारा?' 'तत्काल कुछ नहीं कहूँगी मैं' अति-गंभीर स्वर में बहुरा ने कहा और बहुरा के इस वाक्य ने सबको मौन कर दिया। मौन को भंग किया माया ने, 'जब तक दोनों पक्षों में संवाद-हीनता की स्थिति है, तब तक हमारी समस्या यथावत् ही बनी रहेगी पुत्री! अतएव मैं चाहती हूँ इस स्थिति को भंग किया जाये।' 'वह |