chunks
stringlengths
14
2.5k
्त्यर्थं ही प्रयत्न करते हैं; इस वास्ते उनके यहाँ अधिक संघर्ष नहीं प्रवेश करने पाता । परन्तु कुछ लोगों की तो सिद्धान्त या स्वाभिमत तत्त्व प्राप्त्यर्थं प्रयत्न करने से तत्परता छूटकर परमत खण्डन या परकीय इष्टदेव तथा आचार्यों के दोष प्रकट करने में ही प्रवृत्ति होती है । जेसे 'शैव' या 'वैष्णव' लोगों की कट्टरता प्रसिद्ध है; सुना जाता है कि शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची आदि परमपुण्य स्थलों में प्रथम ऐसी दशा थी कि एक दूसरों के देवता के उत्सव या रथयात्रा आदि काल में 'अभद्र' अर्थात् शोक के चिह्न एवं अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया करते थे। विष्णुभक्त शिव की निन्दा और शिवभक्त विष्णु को निन्दा करते थे । भस्म, रुद्राक्ष, ऊर्ध्वपुण्ड्र, तप्तमुद्रा, कण्ठी आदि विषयों पर ही अतिगहंणीय कलह करते थे । प्रज्ञा का तत्त्व पक्षपात होना स्वभाव है । जरा ध्यान देकर विचारिये कि क्या उक्त समस्त सिद्धान्त सोपानारोहक्रम से किसी सिद्धान्तभूत परमार्थ सत्य परमतत्त्व में पर्यवसित होते हैं; अथवा परस्पर विरुद्ध होने से सुन्दोपसुन्दन्याय से निर्मूल हो जाते हैं ? द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि भला थोड़ी देर के लिये बाह्यों को छोड़ भी दें, तो भी तत्तद्वादाभिमानियों से अभिमत तत्तद्देवताओं के अवतारभूत तत्तदाचार्य मात्सर्यादि दोपशून्य "प्रमाणं परमं श्रुतिः" का उद्घोष करते हुए "सर्वभूतानुकम्पया" प्रवृत्त होकर अतात्त्विक निष्प्रयोजन सिद्धान्त स्थापन क्यों करेंगे ? इस वास्ते प्रथम पक्ष ही में कुछ सार प्रतीत होता है। अब प्रश्न यह होता है कि फिर उक्त सिद्धान्तों में कौन सा सिद्धान्त ऐसा है कि जिसमें साक्षात् या परम्परया सभी सिद्धान्तों का सामञ्जस्य हो ? क्योंकि द्वत-अद्वैत अत्यन्त विरोधी सिद्धान्तों का परस्पर सामञ्ज
स्य होना मानों तेज-तिमिर या दहन-तुहिन का ऐक्य सम्पादन है। इस विषय में समन्वय साम्राज्य पथानुसारी शास्त्र-तात्पर्य - परिशोलन संस्कृतप्रेक्षावानों का कहना है कि "वेदकसमधिगम्य" तत्त्व में आस्था रखनेवाले सिद्धान्तों का सामन्जस्य तो सिद्ध ही है । विशेष विचार से तो अदृष्ट कुछ न मानकर एकमात्र दृष्ट पदार्थ को माननेवाले बाह्य चार्वाक का भी दृष्ट को परमार्थसत्तया कुछ न मानकर केतल अदृश्य, अव्यक्त,
उपनिषदों में परम सत्व ब्रह्म पूर्ण माना गया है और कहते है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है। यदि परमात्मा पूर्ण स्वरूप है तो पूर्ण का अंश आत्मा भी पूर्ण ही मानी जा सकती है। और अगर आत्मा पूर्ण है तो ...पूर्ण को तृप्ति क्या अतृप्ति क्या...... ? पच्चीसवीं मंजिल की ऊँचाई से समुद्र का नज़ारा काफी साफ और खूबसूरत हुआ करता है। जहाँ तक नजर जाती वहाँ तक फैला हुआ सीमारहित जल प्रपंच ... ऊपर खुले साफ आकाश में ढलता लाल सूरज.... दूर क्षितिज में दोनों का मिलन...आकाश और समुद्र जैसे एक दूसरे से मिल गए हो ... समर्पण और पूर्णता का आभास। तभी शायद सीमाएं अवरोध लगने लगती है ... दृश्य जगत में भी और विचारों में भी ...एक दायरा सा या बंदिश सी। और ...दायरे ..दायरे तो घुटन पैदा करते हैं ....। इसीलिए कहते है कि सागर के पास मन... विचार. सब शांत हो जाते है...सब उथल -पुथल समाप्त हो जाती है.. मन समाधिस्थ हो जाता है। ... शांत... निस्पृह...! 'दीदी... कॉफी.'। प्रतिमा की तंद्रा टूटी। भाप नथुनों को लगते ही अजीब सी ताजगी आ गई। कांता बाई ने गरम कॉफी का प्याला थमाया .. अपने लिए स्टूल खींच लिया। 'क्या सोच रही हो दीदी... पता है आपको बिल्डिंग नम्बर दो की बात। बहुत अन्याय है दीदी। घोर कलजुग'। 'क्यों क्या हुआ'? 'तुम्हें तो कुछ खबर नहीं रहती दीदी। तुम कहीं आती-जाती तो हो नहीं न इसलिए। है तो बात एक साल पुरानी, पर लगता है कि कल की ही घटना हो। पार्क के सामने की बिल्डिंग के बीसवें माले पर तीसरे घर में 'वो' अवन्ती रानी है न , उसकी कहानी। मेरी ननद है न बिमला, वहीं उनके घर काम करती थी। बहुत भली थी अवन्ती रानी ... बहुत भली ... उसका पति महेश्वर बीमा कम्पनी का एजेंट था और एक ही बेटा...सिरजन ....हाँ शायद सिरजन नाम था ...पता है दीदी क्या हुआ '। और फिर शुरु हो गया कांता का अनथक वृतांत। न तो उसकी कहानी थकती थी और न कांता बाई। जब से इस घर में आई थी, पूरा घर संभाले हुई थी। बातूनी पर ईमानदार। उसके द्वारा दी गई मोहल्ले की जानकारी लगभग प्रामाणिक ही होती थी। हाँ कभी कभी अपनी ओर से थोड़ा तड़का अवश्य लगा लेती थी कांता बाई रोचकता के लिए। 'मोक्ष धाम' कई गगनचुम्बी इमारतों की गेटेड़कम्यूनिटी ...शहर का सबसे नामी आलीशान समुदाय ... हर इमारत में कम से कम पच्चीस मंजिले थी। काफी भीड़ -भाड़ की जगह थी। और यही कारण था कि कहानियों की कमी नहीं थी कांता बाई के पास। भरपूर मनोरंजन का पिटारा थी वो क्योंकि उसका पूरा परिवार ही यहीं इन्हीं इमारतों में किसी न किसी के घर पर काम में लगा हुआ था। तो हर बिल्डिंग की खोज खबर उसके पास होना जायज था। प्रतिमा ने सर कुर्सी पर टिका लिया और आंखें बंद कर ली। कांता की कहानी निर्बाध चलती रही। 'क्या दीदी आप तो सो गईं और देखो मेरी कहानी पूरी भी हो गई। आपने कुछ सुना भी कि मैं योंही बोलती रही दीदी'? 'सब सुना। जा. तू लाइट जला दे। अंधेरा होने को आया है'। कांता बाई उठी, बालकनी की बत्ती जलाई और स्टूल को एक ओर सरका कर नीचे जम
ीन पर ही टांगे फैलाकर आराम से पसर गई। बत्ती के जलते ही पूरी बालकनी रोशनी ने नहा गई। 'देखो तो दीदी, सामने की सड़क कितनी सूनी लग रही है। दिन ढ़लते ही यह सड़क कैसी सूनी हो जाती है...। लोग घूमने पार्क में जाते है. यहाँ नहीं आते। पता नहीं क्यों'। कांता क्षण भर को रुकी ... , 'दीदी...सुनो...मेरा मन तो ड़रता है इस सड़क को देखकर...कितनी सूनी है ...आप भी न ...देर रात यहाँ नहीं जाया करो'। सचमुच वीरान लग रही थी वह सड़क। यह सड़क इसी समुदाय का ही हिस्सा थी ... उसके पिछवाड़े की परिसीमा .. ठीक इस के पार समुद्र का बैकवॉटरस था .. नहरनुमा जल प्रवाह जहाँ सवेरे तो कई सफेद दूधिया सारस पानी पर अपना भोजन ढूँढते दिख जाते थे .. काफी सुंदर होता था सुबह का नजारा ....हाँ शाम को यह जगह सूनी हो जाती थी। इस समुदाय और समुद्र के बीच मुश्किल से दो किलोमीटर का फासला था।बीच में कोई अवरोध भी नहीं था इसीलिए चौबीसों घंटे तेज समुद्री हवासांय-सांय करती बहती रहती थी। इतनी तेज जैसे अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी। सुबह लोग इस सड़क पर टहलने आते थे अपने कुत्तों के साथ पर अंधेरा पड़ते यह जगह सुनसान हो जाती थी.. एक दम वीरान और डरावनी। कोई इक्का-दुक्का आदमी ही दिखता था इस तरफ क्योंकि कम्यूनिटी में तो कई पार्क थे ... कुछ महिलाओं के लिए...कुछ विशेष खेलने के लिए ... कुछ बच्चों के लिए खास ..कुछ जगह तो बड़े -बूढ़ों ने अपने लिए जैसे आरक्षित ही कर ली थी। शाम होते ही अड्डा जम जाता था। हाँ ! पर इस सड़क पर चहल-पहल बिल्कुल नहीं होती थी इसीलिए प्रतिमा को यह सड़क विशेष भाती थी। अकेले घूमना ही उसकी आदत बन गया था।। एकांत शांत वातावरण में वह रात को निकलती और देर समय तक चलती रहती थी। सड़क के एक छोर पर गोरखा तैनात रहता था। एक घंटा चलती तो काफी
थक जाती थी और थकने के बाद नींद भी अच्छी आ जाती थी। 'क्यों? क्या खराबी है इस सड़क में'? प्रतिमा कान्ता बाई की अनावश्यक दखलंदाजी से चिड़ गई। आजकल वह उसे हर बात में उसे टोक देती थी। 'न दीदी। देर रात अकेले सुनसान जगहों पर घूमा नहीं करते। आज तो बिल्कुल मत जाना। आज पूनम है ...पता नहीं कब कोई छाया पीछे पड़ जाए'। 'कान्ता बाई ... तुम भी कैसी बातें करती हो? कोई छाया वाया नहीं होती। डर तो जिंदों से लगता है, छाया से क्या ड़रना? और पूनम का चांद ! आज तो मैं अवश्य जाऊँगी। मुझे नहीं विश्वास तुम्हारी इन बेसिरपैर की बातों का। मत टोका करो मुझे। मत ड़राया करो'। प्रतिमा आजकल बहुत जल्दी गुस्सा जाती थी। स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। बड़ी जिद्दी हो गई थी। वही करती थी जिसके लिए उसे टोका जाए। 'अब जाओ भी यहाँ से। ...और सुनो रात को अपने लिए कुछ बना लेना। मुझे भूख नहीं। अभी दोपहर का ही भारी लग रहा है। मुझे कुछ नहीं खाना है'। इस वक्त कांता बाई का उपदेश सुनना उसे बहुत बुरा लगा था। 'ठीक है दीदी। अभी ऐसा ही लगेगा ... फिर भूख लगेगी रात को ... हल्का सा बना देती हूँ ... मन करें तो खा लेना। कान्ता बाई उठी और बर्तन लेकर रसोई में चली गई। राजेश अग्रवाल एक बड़ी गार्मेंट्स कम्पनी का मालिक था। राजेश से विवाह करके प्रतिमा खुश थी। विवाह से पहले वह साहित्य की प्रवक्ता थी। उसे अपनी नौकरी से बेहद लगाव था। साहित्य ...उस का मनपसंद विषय। विवाह के दो साल हुए थे। वह अभी बच्चा नहीं चाहती थी लेकिन राजेश के परिवार को पोता चाहिए था और राजेश ने भी उस पर अप्रत्यक्षरूप से दबाव डालना शुरु कर दिया था। उसकी खुशी के लिए प्रतिमा को झुकना पड़ा। अवि गर्भ में आ गया था। महीने बीतते गए और प्रसव के बाद प्रतिमा को अपनी नौकरी छोड़नी ही पड़ी। इस का उसे बहुत दुख था लेकिन अवि की प्यारी सी नन्ही सी मुस्कुराहटों ने उस दर्द को भुला दिया। वह सब भूलकर केवल माँ बन गई। उस समय राजेश का व्यवसाय संघर्ष के दौर से गुजर रहा था तो अवि की सारी जिम्मेवारी भी प्रतिमा पर ही आ गई थी। उसका सारा ध्यान अब अवि में सिमट कर रह गया था। अब वह ही उसकी पूरी दुनिया बन चुका था। फिर धीरे-धीरे अवि बड़ा होने लगा।राजेश को समय लगा अपना व्यवसाय जमाने में...। फिर जब जडें जमनी शुरु हुई तो शाखाएं भी बढ़ने लगी ... समृद्धि आने लगी ..। राजेश की इच्छा थी कि अवि को विदेश भेजकर पढ़ाया जाए। लेकिन प्रतिमा अपने बेटे से दूर नहीं रह सकती थी। घर में इस विषय को लेकर काफी झगड़ा हुआ था। 'वैसे यहाँ क्या कमी है राजेश? फिर मैं अवि के बिना कैसे रह पाऊँगी'। प्रतिमा दिन-रात उससे मिन्नतें करती... मनाने का प्रयत्न करती रही लेकिन ... लेकिन उसकी एक न चली बाप बेटे के सामने। अवि भी मचल रहा था विदेश में पढ़ने के लिए सो उसे फिर झुकना पड़ा। वह मन मसोस कर रह गई। और एक दिन ...एक दिन अवि विदेश चला गया। प्रतिमा बहुत रोई थी। अवि के बिना जीना मुश्किल हो गया था। समय लगा था उसे सामान्य होने में ...उसने
बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला था। वह फिर से काम करना चाहती थी लेकिन अब तो राजेश का व्यवसाय काफ़ी फैल गया था और वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी नौकरी करें। जब भी उससे वह अपने दोबारा काम करने की बात कहती वह झट से मना कर देता और उलटे उसे ही समझाने लगता ,'प्रतिमा क्या कमी है तुम्हें बताओ... ? बंगला नौकर गाड़ियाँ...फिर तुम नौकरी करोगी? लेकिन क्यों ? घर बैठो और आराम करो"। 'नहीं राजेश मैं घर में बोर हो जाती हूँ। प्लीज मुझे मत रोको। अब कौन है यहाँ? अवि वहाँ चला गया है और तुम...तुम तो हमेशा कभी इस छोर तो कभी उस छोर ...घूमते रहते हो। मेरा भी सोचो न'। प्रतिमा कहती रही लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआ। आखिर प्रतिमा हार गई। एक ओर अवि का बिछोह और दूसरी ओर अकेलापन। उसने अपना मन मार लिया। सब से अपने आपको अलग कर लिया। अब वह घंटों कमरे में बंद रहने लगी। साहित्य से नाता टूट गया था। अब तो वह न पढ़ना चाहती थी और न काम करना। सजना संवरना भी लगभग छूट ही गया था। अब उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया। वह मानसिक रूप से बीमार हो रही थी।अपने चारों ओर उसने एक दायरा बना लिया था जिसमें वह कैद हो गई थी। उन दायरों में वह किसी को प्रवेश नहीं करने देती थी और स्वयं भी नहीं निकलना चाहती थी। पागलपन हदें पार कर रहा था।। उसे मतिभ्रम होने लगा था। सच सहने की ताकत नहीं रही थी। वह कल्पना में जीने लगी थी। जब कभी पागलपन के दौरे पड़ते तब वह दीवारों से बातें करने लगती। राजेश बहुत चिंतित रहने लगा था। उसने उपचार करवाने का प्रयत्न भी किया था लेकिन प्रतिमा इस विषय में बात करते ही उत्तेजित हो जाती थी चिल्ला चिल्लाकर घर सर पर उठा लेती थी। उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। राजेश अपने आप को प्रतिमा का दोषी मानने लगा था इसी लिए उसने इस कम्य
ूनिटी में अपार्टमेन्ट खरीदा था यह सोचकर कि प्रतिमा यहाँ रहेगी तो लोगों से मिलेगी ... नए मित्र बनाएगी ... घूमेगी फिरेगी तो सामान्य हो जाएगी। लेकिन वह हुआ नहीं था जो सोचा था। प्रतिमा तो और भी कट गई थी। बस इस पिछवाड़े की सड़क पर अकेले घूमना ही उसे पसंद था ... 'वो' भी शाम ढले या रात को जब कोई नहीं होता था तब ...सबसे अलग... सबसे दूर ... एकांत... निर्जन यह सड़क उसके जीवन की ही तरह ..सूनी ..सांय-सांय करती हुई ..उसकी प्रिय जगह बन गई थी। राजेश अब उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाना चाहता था क्योंकि परिणाम वह भुगत रहा था।उसे भली-भांति अंदाजा था कि जिस तरह प्रतिमा अपने आप को प्रताड़ित कर रही है ,इसका परिणाम घातक हो सकता है। वह अपने को अनकिए अपराध की सजा दे रही थी। रात के आठ बज चुके थे। चांद निकल आया था। प्रतिमा गुमसुम सी बैठी बड़ी देर तक चांद को निहारती रही। समय हो रहा था ...टहलने जाना था। कपड़े बदलने वह अलमारी की ओर गई। फिर कुछ सोचकर रुक गई। लगा... क्या खराबी है इन कपड़ों में जो पहने हुए हैं ... ठीक ही तो हैं।अनमने ढंग से वह मुड़ी। उलझे बाल गूंथे .चोटी बनाई और चप्पल पहन कर निकल पड़ी। ठंडी हवा के झोंका ने चेहरे को छुआ और सुकून दे गया। देखा ...दूर कोई इक्का दुक्का आदमी उसी की तरह टहल रहा था। वह अभी कुछ ही दूर चली थी कि पाया सड़क तो पूरी तरह सुनसान हो चुकी थी। खंबों से रोशनी झाग की तरह सड़क पर फैली हुई थी। गोरखा कुर्सी पर पाँव ऊपर किए सिकुड़ा हुआ सा ऊँघ रहा था। वह हर रोज की तरह पत्थर की बेंच पर बैठ गई। उसने देखा... दूर अंधेरे में कोई आकृति चल रही है। उसे आश्चर्य हुआ। इतनी रात गए कौन हो सकता है'? 'वो' आकृति धीरे-धीरे चल रही थी। उसका दिल धड़कने लगा। तसल्ली करने का मन हुआ। वह उठी और उसी ओर को चलने लगी। धीरे-धीरे। कुछ ही पलों में दोनों आमने-सामने आ गईं थी। 'वो' एक सुंदर महिला थी ...नजरें मिली... हल्की सी औपचारिक मुस्कान के साथ। फिर ...दोनों एक दूसरे को पार कर गईं। प्रतिमा की जान में जान आयी। वैसे वह इन बातों में विश्वास तो नहीं करती थी लेकिन कांता बाई ने डर का बीज बो दिया था। वह अब थोड़ी आश्वस्त हो गई थी सो सहज होकर चलने लगी। वापस आते वक्त देखा 'वो' एक बेंच पर बैठी हुईं थीं। चालीस तक की उम्र रही होगी ... सफेद सादी सी सूती सलवार कमीज ... चेहरा गोल आंखें कुछ सूजी हुई चौड़ा माथा ... उस ने इस बार एक ही नजर में पूरा मुआयना कर लिया। वह भी उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गई। अचानक नया चेहरा देख मन में उत्सुकता जग गई थी। 'आपको पहले तो कभी नहीं देखा? प्रतिमा उसके चेहरे की चमक को ही देख रही थी। बड़ा प्यारा लग रहा था। कोमल .. सौम्य। हवा के कारण उसके बाल उड़ कर गालों को छू रहे थे। 'हाँ। बिल्डिंग नंबर दो के सामने का पार्क है न ... वहीं जाती हूँ टहलने को। आजकल वहाँ बहुत शोर होने लगा है। आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम का शोर ... तो अब वहाँ नहीं जाती। इसीलिए देखा ... यहाँ तो काफ़ी शांति है और
कोई नहीं रहता ...तो अच्छा लगा ... सो यहाँ चली आई। वैसे मैंने भी आपको कभी नहीं देखा वहाँ उस पार्क में। इतनी रात गए ... आप अभी भी घूम रही है'? उसकी आवाज बहुत मीठी थी ... होंठों पर मुस्कान ...बड़ी प्यारी सी .. अपनापन ओढ़े हुए। 'हाँ! आज देर हो गई। वैसे घर जल्दी जाकर करना भी क्या है? कौन है घर में जो मेरा इंतजार कर रहा है ? आज शनिवार थोड़े ही न है जो अवि का फोन आयेगा ? और राजेश भी तो नहीं है यहाँ ..फिर मैं किसके लिए जाऊँ'? प्रतिमा ने बड़े ही रूखे लहजे में कहा लेकिन फिर तुरंत चुप हो गई। लगा जैसे कुछ गलत कह दिया हो। उसे अजनबी के सामने ऐसा नहीं कहना चाहिए था। क्या जरूरत थी ऐसे बोलने की। वह तो उसे जानती तक नहीं। फिर इतना व्यक्तिगत होने की क्या आवश्यकता थी? वह झेंप सी गई और मुंह दूसरी ओर फेर लिया। दोनों के बीच खामोशी पसर गई। कुछ क्षण पश्चात 'वो' उठी और चुपचाप चलने लगी। 'वो' अभी भी बेंच पर बैठी हुई थी और उस को हड़बड़ी में जाते देख रही थी। प्रतिमा को पहले उसे बिना बताए इस तरह चले आना अच्छा नहीं लगा ... अपने शुष्क व्यवहार पर उसे क्रोध भी आया लेकिन... लेकिन फिर सोचा...'क्या जान पहचान है हमारी? अभी तो मिले थे फिर क्या औपचारिकता को निभाना ? क्या जरूरत है? पता नहीं कल आए भी या नहीं'। वह मन ही मन कुछ अस्थिर सी हो रही थी ...फिर भी न जाने क्योंरुकी... मुड़कर देखा ... हल्के से हाथ हिलाया और अपनी बिल्डिंग की ओर निकल गई। अगली सुबह बालकनी से सड़क का नजारा कुछ और ही लग रहा था। रात का सन्नाटा अब नहीं था। लोग टहल रहे थे .. बच्चे खेल रहे थे , काफी चहल-पहल थी। निर्जन और डरावनी तो वह रात को होती थी। कांता बाई कॉफी लेकर उपस्थित हो गई थी एक नई कहानी के साथ। 'दीदी सुना बिल्डिंग नम्बर चार की बात ... पता है कल
क्या हुआ'... कांता का बिल्डिंगोपाख्यान शुरु हो गया। आज प्रतिमा को उसकी बातों में कोई मजा नहीं आ रहा था। वह तो कुछ और ही सोच रही थी। आज वह 'उसी' को याद कर रही थी. मन वहीं उसकी ओर खिंचा चला जा रहा था। न भूल पा रही थी वह चेहरा। कितना प्यारा था ..हंसमुख और खुशमिजाज। शायद ईश्वर की विशेष कृपा रही होगी उसपर। तभी तो इतना नूर बरस रहा था उस चेहरे पर। वह अपने विचारों में खोई रही .उसकी हर बात यत्न पूर्वक याद करती रही। .पता ही नहीं चला कब कान्ता ने कहानी खत्म की और कब रसोई में चली गई।। रसोई से बर्तनों की खनखनाने की आवाजें आ रही थी और हर दिन की ही तरह आज भी प्रतिमा वहीं बैठी इंतजार करने लगी ... दिन ढलने का ..शाम होने का ...और शाम से रात होने का .....। रात के आठ बज चुके थे। बहुत दिनों के बाद उसने अपने लिए हल्का गुलाबी रंग का सूट निकाला ...बालों पर क्लिप लगाकर जूड़ा बनाया , चेहरे को आईने में संवारा...एक दो बार देखकर तसल्ली की और फिर कैनवस पहन कर निकल पड़ी। सड़क सुनसान तो थी लेकिन खंबों की रोशनी से सरोबार। उस ने सड़क पर आकर देखा, आज 'वो' वहीं उसी बेंच पर बैठी हुई थी। मन में एक हिलोर सी उठी ..शायद कल के व्यवहार का अपराध बोध था।। वह सीधी उसके पास चल पड़ी। 'हेलो... कितनी देर हुई आपको आकर? टहल चुकी क्या? प्रतिमा धीमे से बोली और ठीक सामने वाली बेंच पर बैठ गई। 'नहीं अभी आई हूँ। आपका ही इंतजार कर रही थी। कल तो आप अचानक चली गईं थीं? उसने मुस्कुराकर जवाब दिया। 'हाँ। कल मन खराब हो गया था उन आवारा कुत्तों के कारण। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है उनका रोना। बहुत गुस्सा आता है। आज नहीं दिखाई दे रहे है "वो"। खैर छोड़िए ... हाँ कल...कल आपका नाम भी नहीं पूछा था...। मैं प्रतिमा अग्रवाल हूँ, अग्रवाल टेक्सटाइल का नाम तो सुना होगा ... राजेश अग्रवाल मेरे पति है। एक बेटा है अविनाश ... विदेश में रहता है.... सामने वाली बिल्डिंग देख रही है न , मैं वहीं रहती हूँ .. पच्चीसवां फ्लोर ...मैं साहित्य पढ़ाती थी कॉलेज में... अवि के पैदा होने के बाद मैंने छोड़ दिया ... ये नहीं चाहते न इसलिए ... और आप'? प्रतिमा एक ही सांस में बोल गई। 'उसके' चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी। 'मैं अवन्ती द्विवेदी। बिल्डिंग नम्बर दो में। यहाँ कोचिंग सेंटर में गणित की अध्यापिका थी। मैंने भी छोड़ दिया है अब पढ़ाना ...आपकी तरह ...लेकिन वजह कुछ और थी ...एक बेटा है. सृजन द्विवेदी .. बारह साल का... बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता है। जब से मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है न तभी से बोर्डिंग स्कूल भेज दिया है'। 'और आपके पति'? प्रतिमा की आंखें उसके मनोभावों को पढ़ रही थी। 'वैसे क्या हुआ था आपको'? 'गंभीर कुछ नहीं। ब्रेन में छोटा सा टयूमर हो गया था। जिसके कारण कुछ दिन अस्वस्थ थी लेकिन अब सब शांत हो गया है। मेरे पति बीमा कम्पनी में एजेंट है। महेश्वर द्विवेदी। पार्क के सामने बिल्डिंग नंबर दो की बीसवीं मंजिल पर तीसरा अपार्टमेंट...मेरे जीवन का मोल'। 'वो' कुछ कहते
कहते रुक गई। प्रतिमा को उसका वाक्य अजीब सा लगा। 'आपके जीवन का मोल ? यानी ? कुछ समझ नहीं आया'। 'अरे कुछ नहीं। ये बीमा कम्पनी में काम करते है न तो बीमारी का बीमा लिया था जिससे पैसा मिला और घर खरीदा। इनकी यहाँ घर लेने की बड़ी मंशा थी। मेरी पूंजी समझिए, जब मिली तब सब आसान हो गया था'।उसने बड़ी सफाई से बात गोल कर दी। कुछ क्षण चुप रही और फिर उसने अचानक कहा, 'महेश्वर ...मेरे पति महेश्वर ... संहारक शक्ति'! 'संहारक शक्ति? मैं समझी नहीं। संहारक शक्ति? यानी'? 'अरे प्रतिमा जी ... त्रिदेव होते हैं न हमारे पुराणों में ...ब्रह्मा ...विष्णु...महेश्वर ... ब्रह्मा सर्जक शक्ति... विष्णु पालक शक्ति तो महेश्वर...बोलिए और क्या होगा ...संहारक शक्ति ...'। उसने शरारत भरी मुस्कान से कहा। दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को देखती रही .. फिर ठहाका मार कर जोर से हंस पड़ी। उनकी हंसी सुनसान सड़क में दूर तक गूँज उठी। वातावरण हल्का हो गया था। 'कितना समय हो गया है अवन्ती जी इस तरह खुलकर हंसते हुए। आज आपने हंसा दिया। सच। मैं सच कह रही हूँ। संहारक शक्ति'। प्रतिमा अब भी हंस रही थी। 'हाँ प्रतिमा जी! अच्छा लग रहा है आपको इस तरह हंसते देखकर ...दिल हल्का हो जाता है'। दोनों धीरे-धीरे खुल रही थी और अब सब सामान्य लग रहा था। प्रतिमा भी अब सहज हो गई थी और सभी शक सुबह सभी दूर हो चुके थे। 'आप ने फिर से नौकरी नहीं ढूँढी? अवन्ती ने जान बूझकर उसे कुरेदा। 'हाँ। करना तो बहुत चाहती थी अवन्ती जी, पर इन्होंने करने नहीं दिया फिर अब तो मन भी उचट गया है। पता है मेरे छात्र मुझे बहुत चाहते थे। कहते थे, मैडम आप पढ़ाती हैं तो पूरा दिमाग में छप जाता है। और मैं भी कितनी तल्लीनता से उन्हें पढ़ाती थी। फिर अवि पैदा हुआ और नौकरी छूट गई तो बहुत बुरा लगा
'। प्रतिमा बिना रुके बोले जा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा था उसे। 'पर प्यारा सा बेटा भी तो मिला था न आपको ... बताइए कैसे करती आप नौकरी? कौन ध्यान रखता उसका आप से बढ़ कर? अवन्ती की बातें मरहम का काम कर रही थी। उसकी आवाज में बहुत आत्मीयता थी जो प्रतिमा पर प्रभाव कर रही थी। 'हाँ। हाँ। अवि! बचपन में कितना गोल -मटोल था जानती है आप? दो कदम चलता और फिर धड़ाम से गिर जाता था। ममी ममी कहकर लिपट जाता और रोने लगता था। किसी के पास भी नहीं जाता था ..अपने पिता के पास भी नहीं ...केवल मैं ही चाहिए थी उसे ...केवल मैं।। पता है बाद में जिम जाकर वजन कम किया था उसने'। प्रतिमा पेट पकड़कर हंसने लगी थी। लेकिन अगले ही पल अकारण बुझ सी गई। 'लेकिन अवन्ती जी, अब मेरे जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है। बेकार जी रही हूँ ... किसी को मेरी आवश्यकता नहीं है और जब किसी को आपकी जरूरत नहीं होती तो जीना दूभर हो जाता है। ऐसे जीवन को खत्म हो जाना चाहिए ... हाँ खत्म'। प्रतिमा की आवाज रुंध गई। आंखें नम हो आईं। अवन्ती कुछ क्षण चुपचाप उसे देखती रही। फिर पलटकर उसने ने एक बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए कहा , 'देखिए न वहाँ। कितनी रंग बिरंगी लाइटें लगा रखी है उस आदमी ने अपनी बालकनी में। पूरा बरामदा कभी लाल कभी नारंगी कभी पीला। कैसा लग रहा है आपको रंगो का खेल' ? 'घटिया। वाहियात। रंग आँखों में चुभ रहे है। बिल्कुल बकवास। यह भी कोई पसंद है? बिल्कुल बेकार'। प्रतिमा का मुंह बिगड़ गया। 'अरे! क्या हुआ ? आप तो बिगड़ गई। यही बात मुस्कुराकर भी कही जा सकती है प्रतिमा जी ... इतना गुस्सा क्यों'? 'इसमें मुस्कुराने की क्या बात है? मुझे ऐसी बदलती फितरत वाले लोग पसंद नहीं। जो रंगो में स्थिरता नहीं देखना चाहते वे दिमाग में भी अस्थिर ही होंगे। मुझे ऐसे लोग बिल्कुल पसंद नहीं'। प्रतिमा का हर वाक्य अपने को सही साबित करने के यत्न में ही निकल रहा था। 'ओफ्फो आप नाराज हो गईं. आप सही है प्रतिमा जी ...बिल्कुल सच कहा आपने। मुस्कुराइए प्रतिमा जी मुस्कुराइए। और फिर वह आपका घर नहीं है। है न'। 'क्या आप मानती है कि मैं ठीक बोल रही हूँ.. मैं सही हूँ न ?...हर कोई समझता है कि मैं ही गलत हूँ'। ? प्रतिमा ने उसके चेहरे पर नजरे टिका दींउत्तर की प्रतीक्षा में। 'हाँ! बिल्कुल सही। आप सही है'। 'क्या आप बिन बात हमेशा यूँ ही मुस्कुराती रहती है? 'हाँ बिल्कुल। खुश रहना मेरी आदत है और फिर परेशान यहाँ कौन नहीं'? अवन्ती उठकर चलने लगी। प्रतिमा भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी। 'मुझे लगता है कोई मुझे समझता ही नहीं। मैं आपकी तरह बिन बात मुस्करा भी नहीं सकती। जब मन उदास हो तो मुस्कुराहट कैसे आ सकती है'? 'सच मानिए प्रतिमा जी मुस्कुराना ही तो जीवन है। वरना लोग तो सुख सुविधाओं के रहते भी रोनी सूरत बनाए जीते रहते है। जीवन रुकता नहीं है। हम रोएं या मुस्कुराएं, रात होती है, दिन होता है। समय नहीं रुकता। तो फिर क्यों न मुसकुरा कर ही इसे बित
ाएं। और फिर मुस्कुराने की वजह क्या आवश्यक है? उन नाचती हुई रोशनियों को देखिए बस ... हंसी आ जाएगी। इतना विश्लेषण ही क्यों। इतना मत सोचा करिए। दिमाग पर बोझ मत लीजिए। बस सहज हो जाइए। सब आसान बन जाएगा न जाने फिर यह क्षण हो न हो? जीवन रहे या न रहे किसे मालूम'? उसका चेहरा अभी भी खिल रहा था। "आप को समझना कठिन है। आप आशावादी है या निराशावादी? कभी कहती हैं .. मुस्कुराइए और कभी जीवन समाप्त होने की बात करती है'। उसे उसकी बातों में रस आ रहा था। वह उसे सुनना चाह रही थी। लग रहा था कि वो बोलती रहे और प्रतिमा सुनती रहे। 'हाँ प्रतिमा जी ... पता है कहते है कि जीवन हमारे कर्मों का फल है, कर्म भोगने के लिए ही हम यहाँ जन्म लेते है और मेरे हिसाब से जो जिंदा है वह भाग्यवान है। आप जो कह रही है वह एकदम सच है ...लेकिन बस एक जगह आपसे चूक हो गई ... जानतीं हैं ...हर जीवन का प्रयोजन होता है और जब प्रयोजन समाप्त हो जाता है तो जीवन खत्म हो जाता है लेकिन जब तक जीवन है जीना चाहिए। हम किसी को दोष ही क्यों दे अपने कर्मों के लिए? हम हमेशा अपनी खुशी के लिए दूसरों पर क्यों आश्रित बने रहते है। जो चीज बाहर ढूंढ रहे है, वह तो अंदर ही तो है और सोचिए जीवन खत्म करने का अधिकार हमें किसने दिया? यह ईश्वर का क्षेत्र है। आप तो अध्यापिका है ... किसी दूसरे के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश तो अपराध होता है ... आप तो इसे अच्छी तरह जानती है...है न' ? 'यानी'? प्रतिमा उसके बहाव में बहती जा रही थी। दिल को सुकून मिल रहा था। तनाव धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। 'यानी जीवन भाग्यशालियों को ही मिलता है। देखिए न इस छोटे से पौधे को'। अवन्ती एक जगह पर चलते चलते रुक गई।... सड़क पर बिखरी रेत में पत्थर पर उगी एक छोटी सी कोंपल को देखकर उसने कहा, 'कितनी
प्रतिकूलता में भी यह जी आया है देखिए ... पता नहीं कल रहे या उखड़ जाए लेकिन जब तक है, हरहरा रहा है। झूम रहा है। है न। तो जब यह नन्ही सी जान मुस्कुराकर जी सकती है तो हम क्यों नहीं मुस्कुराते हुए जीए ? बताइए न। जीना एक कला है और मुस्कुराते जीना वरदान'। 'हाँ! आप ठीक कहती है। मैं ने हार मान ली। वैसे आप की बातें बहुत मीठी है ... दिल को सहलाने वाली ..। मुझे आपसे हारना स्वीकार है'। प्रतिमा ने हथियार डाल दिए। 'मैं तो थक गई। आज चार चक्कर पूरे हो गए पता ही नहीं चला। आप नहीं थकी'? 'तो वादा कीजिए हमारे अगली बार मिलने तक ही सही, उलटे सीधे सवालों से आप खुद को परेशान न करेगी और इसी तरह मुस्कुराने का अभ्यास करती रहेंगी ...धीरे-धीरे यह आपकी आदत बन जाएगी और सभी प्रश्नों का हल मिल जाएगा। वैसे जिंदगी इतनी भी मुश्किल नहीं है प्रतिमा जी, बस जीकर देखिए। आप भाग्यशाली हैं'। प्रतिमा चुप सी उसे देखे जा रही थी। मन शांत हो गया था। विचार रुक गए थे। उसने स्वीकृति में हल्के से सिर हिलाया। 'नौ बज गए। मेरे पति तो शहर से बाहर है और घर भी सामने है। इसीलिए देर भी हो तो कुछ नहीं। जल्दी नींद नहीं आती इसीलिए घूम लेती हूँ। अभी निकल जाऊँगी। लेकिन आप के घर में कोई कुछ नहीं कहता ? आप देर रात घूम रही है? 'नहीं। मेरे पति भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते है और कभी तो बहुत रात भी हो जाती है। बेटा भी यहाँ नहीं है सो कुछ फर्क नहीं पड़ता'। 'फिर भी। क्या आपको डर नहीं लगता'? प्रतिमा ने सुनसान सड़क को देख कर कहा। 'किससे? यहाँ तो कोई नहीं है तो डर कैसा ? 'भूत-प्रेतों से। 'हाँ...हाँ ... आप मानती हो? विश्वास करती हैं? नहीं ...बिल्कुल नहीं। इसीलिए इतनी रात गए भी यहाँ हूँ'। प्रतिमा ने जोर देकर कहा। उसकी आवाज स्थिर थी। 'तो फ़िर कल क्यों चली गई थी'? 'बताया था न कुत्तों की रोने की आवाज... बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मन बेचैन हो जाता है। बस'। कुछ क्षण दोनों चुप हो गई थी। निःशब्द। खामोशी। दोनों विचारमग्न। प्रतिमा धीरे से उठी। 'आप और ठहरेंगी'? 'हाँ कुछ देर... बस फिर निकलती हूँ। शुभ रात्रि'। 'जल्दी निकल जाइएगा। और देर नहीं। देर रात सुनसान जगहों पर घूमना ठीक नहीं ...मैं मानती तो नहीं...लेकिन फिर भी ...क्या पता कोई छाया आ जाए। शुभ रात्रि'। प्रतिमा कुछ पल उसके होंठों पर थिरकती प्यारी सी मुस्कान देखती रही। फिर हल्के से हाथ हिलाया और चल दी। अगले कुछ दिनों में आती जाती बारिश की झड़ी लग गई थी। आज कई दिनों बाद धूप निखर कर आई थी। प्रतिमा घर पर ही थी। बहुत दिनों बाद वह अपनी कैद से बाहर निकली थी। सुबह से उसने अपने आप को व्यस्त कर लिया था। अलमारी के सभी कपड़ों को ठीक किया गया था। सभी पुस्तकें करीने से सजाईं गई। अवि की सब चीजें धूल झाड़ कर अलमारी में संभाल कर रखीं गईं। राजेश के कोट भी निकाल कर धूप खाने रख दिए। और फिर कब से छूटा हुआ अपना एमब्रोइड्री का काम पूरा करने बैठ गई। कांता बाई बीच बीच में रसोई से झांक झांक कर उसे इस तरह से काम करत
े देख रही थी। हमेशा चुपचाप गुमसुम उदास सी बैठने वाली मालकिन आज अकारण चहक रही थी। धीरे- धीरे उसके व्यवहार में बहुत कुछ बदल रहा था। वह सामान्य हो रही थी। अब किसी बात पर उसे गुस्सा नहीं आता था। और कभी आदत वश गुस्सा आता ...तो अवन्ती की बात याद आ जाती और न चाहते हुए भी होंठों पर मुस्कुराहट तैर आती। मन अकारण प्रफुल्लित रहने लगा था। उसने ही तो मंत्र दिया था मुस्कुराने का ..आसान बनने का .. सहज बनने का ... और यह मुस्कुराना आदत बन जाने का भरोसा भी दिया था। शायद यही मंत्र काम कर गया था। अवन्ती ने तो एक दो दिनों में ही जादू कर दिया था प्रतिमा पर। प्रतिमा उसके प्रभाव में तैरती जा रही थी। हमेशा सोचती ... 'एक दो मुलाकातों में ही कभी रिश्ते कितने गहरे बन जाते है! सच ! रिश्ता समय की दीर्घता की मांग कभी नहीं करता। कभी कभी उम्र भर साथ रहकर भी हम अजनबी बने रहते है और कभी कुछ पलों में ही मन के तार जुड़ जाते है। अवन्ती भी उसके जीवन में छा गई थी। उसका मुसकुराता चेहरा कितना भला लगता था, ऊर्जा और शक्ति देता हुआ। प्रतिमा अपने आपको भी वैसा बनाने की कोशिश कर रही थी।। उसकी ऊब खीज उदासी अवसाद घुटन सब धीर-धीरे कम हो रहे थे।कभी कभी तो वह कमरे का दरवाजा बंद कर लेती और घंटों आईने के सामने खड़े होकर सोच में डूबी अपना मुसकुराता हुआ चेहरा देखती रहती। मन ही मन विचार चलते 'कितनी पागल थी मैं...न जाने क्यों मैं ने तो जीना ही छोड़ दिया था। बदला तो अब भी कुछ नहीं ...बस...मन बदल लिया तो सब कुछ बदल गया'। अपना मुसकुराता चेहरा कितना सुंदर लगने लगा था। न जाने क्या खिंचाव था अवन्ती में ... प्रतिमा खिंचती जा रही थी। अबकी बार वह उसके सामने अपना बदला रूप लेकर जाना चाहती थी। अगले कुछ दिन व्यस्तता में गुजरे। आज दस दिन हो गए थे।
अवन्ती नहीं दिखीं थी। प्रतिमा रोज जाती , केवल उससे मिलने के लिए ..उसकी बातें सुनने के लिए ...उसकी प्यारी सी मुस्कान देखने के लिए। लेकिन अवन्ती नहीं आई। प्रतिमा घूम लेती .. चक्कर पूरे हो जाते और कदम उसी पौधे के रुक जाते ... उसे कुछ पल देखती रहती ..पास बैठती..सहलाती और खुश होती। वह हरा भरा बड़ा हो रहा था। उखड़ा नहीं था ... जड़े मजबूत हो रही थी.. अब तो एक कली भी आ गई थी। प्रतिमा को उसका जीवन अब अनमोल लगने लगा था। अगले दिन प्रतिमा ने निश्चय किया कर लिया कि वह जाकर उससे मिल आयेगी। दस दिन हो गए। मन में विचार हलचल मचाने लगे थे। .'क्या हुआ होगा? शायद कहीं घूमने गए होंगे। इतनी आत्मीयता दिखा रही थी तो आकर बता तो सकती थी ... घर का पता दिया था न ... हाँ फोन नंबर न लिया था और न दिया था। ... रोज मिलते जो थे ... फिर जरूरत ही नहीं लगी। लेकिन फिर मन न माना ... 'क्या सोचेगी? बिन बुलाए मेहमान की तरह धमक जाऊँ तो क्या अच्छा लगेगा। कुछ दिन और इंतजार कर लेते है। फिर चलूंगी'। प्रतिमा ने आज फिर मन को रोक लिया। पूरे एक सप्ताह बाद राजेश घर आये थे। प्रतिमा काफी खुश थी। राजेश भी बदली हुई प्रतिमा को देख रहा था। न गुस्सा , खीज। हमेशा रूठी और उदास सी दिखने वाली प्रतिमा बड़ी शांत और बड़े प्यार से पेश आ रही थी। राजेश को बहुत अच्छा लग रहा था। वह कुछ चकित तो हुआ था ... कारण भी जानने की कोशिश की थी लेकिन प्रतिमा सफाई से टाल गई थी। उसने कांता बाई से भी जानने की कोशिश की कि प्रतिमा कैसे अचानक बदल गई पर वह भी निरुत्तर थी। जो भी कुछ हुआ था ,अच्छा ही हुआ था। वह तो खुद भी यही चाहता था कि प्रतिमा अपने आप को संभाले। मन लगाए और खुश रहे। अब तक प्रतिमा ने राजेश को अवन्ती के बारे में कुछ नहीं बताया था। वह चाहती थी कि एक दिन उसे घर पर बुलाएगी और सबको बड़ा सरप्राइज़ देगी। आज पंद्रह दिन हो गए थे। हर दिन प्रतिमा जाने का प्रोग्राम बनाती और फिर ठहर जाती। हिम्मत नहीं हो रही थी। अंत में हार कर मन ने निर्णय लिया.. 'चलो चलकर देखा जाए ..हुआ क्या है'?। ठान लिया कि अब वह और कुछ नहीं सोचेगी... मिल ही आएगी। उसका मन घबरा रहा था ... क्या पता तबीयत ही ठीक न हो। और भला उसका घर जाकर मिलना अवन्ती को क्यों खराब लगेगा बल्कि वह तो खुश होगी उसे देखकर। मिल कर आ जाऊँगी। क्या पता तबीयत अचानक बिगड़ गई हो। और उस तक खबर पहुँचे तो भी कैसे ? उसके घरवाले तो उसे जानते ही नहीं है अभी। अगर ऐसा ही हुआ हो तो कुछ दिन बाद जब भी मिलेगी तो अवश्य शिकायत करेगी....'कि प्रतिमा जी मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, मैं नहीं आई , पर आप तो एक बार आ सकती थी? एक बार भी मिलने नहीं आई'? फिर मैं क्या मुंह दिखाऊँगी? कितना बुरा लगेगा ? इसी उधेड़बुन में प्रतिमा कब उनकी बिल्डिंग तक पहुँच गई पता ही नहीं चला। शाम के पांच बज रहे थे। धूप अभी भी थी। पार्क के सामने ही बिल्डिंग थी. बिल्डिंग नंबर दो। लिफ्ट में घुसकर उसने बीस नंबर का बटन दबाया। दरवाजा खुलते ही लंबी कोरीडोर में उसकी
नजरे तीन नंबर अपार्टमेंट के दरवाजे को ढूँढने लगी। घर के बाहर दीवाल पर नेमप्लेट लगी हुई थी ,'अवन्ती निवास'। उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई। उसने उंगलियों से नेमप्लेट को छुआ। सोचा दरवाजा खोलते ही कितना आश्चर्य होगा अवन्ती जी को। मैं भी.. लेकिन ..मुंह बनाऊँगी गुस्से से। उन्हें नापसंद है न मेरा गुस्सा तो उन्हें पता तो चले कि मैं कितनी बेचैन थी उनसे मिलने को'। प्रतिमा ने अपने आप को सहज किया और बेल दबाई। आज दरवाजा खुलने की देरी भी असहनीय लग रही थी। दरवाजा खुला लेकिन एक अजनबी चेहरा सामने आया। 'जी किससे मिलना है आपको? प्रतिमा सकपका गई , फिर से नेमप्लेट पढ़ा कि कही गलत पते पर तो नहीं आ गई। 'देखिए यह अवन्ती जी का घर ही है न...? 'आइए. आइए। आप बिल्कुल सही जगह पर आईं है। वैसे मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा'। उसने प्रतिमा को सोफे पर बैठने का इशारा किया। प्रतिमा को तसल्ली हुई कि सब कुछ ठीक ही है और अवन्ती शायद अंदर होंगी ...अभी उसकी आवाज सुन दौड़ी चली आएंगी।। 'दरअसल मैं कई दिनों से आना चाह रही थी लेकिन...'। 'आपने अच्छा किया', उसने बीच में ही टोक कर कहा', 'आप आती तो घर पर ताला मिलता। पन्द्रह दिन हम घर पर नहीं थे ...काशी गए हुए थे। मेरा मायका है वहाँ और अवन्ती दीदी की बरसी भी थी न इसी लिए'। प्रतिमा को जोर का धक्का लगा। कानों पर विश्वास नहीं आया। नहीं नहीं ...क्या कहा इसने .... क्या सुना ? यह औरत क्या बोल रही है...पागल तो नहीं हो गई है यह ? होश में तो है? या नाम सुनने में मुझसे गलती तो नहीं हुई ? लेकिन इतने में उसकी निगाहें सामने दीवार पर टंगी अवन्ती की बड़ी सी तस्वीर पर जा टिकी जिस पर ताजा फूलों की माला चढ़ी हुई थी। प्रतिमा हड़बड़ाकर सोफे से उठ गई। उसे आंखों पर विश्वास नहीं आया। वह कुछ समझ पान
े की स्थिति में नहीं थी। सब कुछ नाटक लग रहा था। यह कैसे हो सकता था ? उसे लगा जैसे वह कोई बुरा सपना देख रही है। अभी आंख खुल जाएगी और सब सामान्य हो जाएगा। पांव कांप रहे थे। दिल की धड़कन तेज हो गई थी। बदन पसीने से तर-बतर हो रहा था। तभी कानों पर आवाज पड़ी.. 'पिछले साल जब दीदी की मृत्यु हुई थी न , तब ये विधिपूर्वक संस्कार नहीं कर पाए थे। और फिर घर भी नया खरीदा था। पंडित ने साफ कह दिया था कि नये घर में केवल शुभ कार्य ही करना चाहिए। फिर क्या करते। फिर एक महीने के अंदर तो मैं भी आ गई थी। मेरे आने के बाद जानती है लोगों ने बाते बनाना भी शुरु कर दिया था कि महेश्वर जी दुल्हन ले आए पर बड़ी का क्रिया-कर्म भी नहीं किया। अब लोगों का मुंह भी बंद करना था तो इस साल हम काशी गए। अनुष्ठान किया, ब्राह्मणों को भोज दिया तब जाकर इन्हें शांति मिली। और देखिए न कहते है कि मरे का संस्कार ठीक तरह से न करें तो आत्मा तृप्त नहीं होती। सब निपटाकर हम दो दिन पहले ही वापस आए है। आप बैठिए न ... वहां ही खड़ी है.... आइए न ... मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ। वैसे क्या नाम बताया आपने ?मैं राशि द्विवेदी हूँ ... महेश्वर जी की दूसरी पत्नी'। प्रतिमा की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। उसका मानसिक सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ चुका था। जो दिख रहा था उसका अस्तित्व संदेहात्मक था और जो सुनाई दे रहा था मन उस पर विश्वास नहीं कर रहा था। बुद्धि और शरीर दोनों साथ नहीं दे रहे थे। 'प्रातिमा...प्रतिमा अग्रवाल... मैं... मैं चाय नहीं पीऊंगी। मुझे घर जाना है ... घर ...'।प्रतिमा कांपते कदमों से दरवाजे की ओर मुड़ी। 'अरे प्रतिमा जी रुकिए ...क्या हुआ? आप इतनी परेशान क्यों हो गई ? आपकी तबीयत तो ठीक है? क्या हुआ ? ...चलिए.. कोई बात नहीं ...कुछ देर आराम कर ले तो अच्छा होगा'। 'नहीं मैं चली जाऊँगी'। प्रतिमा की आवाज लड़खड़ा रही थी। .यह मिठाई तो लेकर जाइए। दीदी का प्रसाद है शायद आप के लिए ही एक डिब्बा रह गया था। दीदी तृप्त हो जाएगी'। राशि जल्दी से उठी टेबुल पर रखा मिठाई का डिब्बा प्रतिमा की हथेली पर धर दिया। प्रतिमा चेतना शून्य बाहर की ओर चल दी। अंदर लावा फट रहा था। सर घूम रहा था। कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। इसी घबराहट में दरवाजे पर वह महेश्वर जी से टकरा गई जो तभी अंदर आ रहे थे। गिरते-गिरते बची। उसने अपने आप को संभाला और तेजी से लिफ्ट की ओर चली। लिफ्ट बंद थी। वह बटन दबाना भी भूल गई थी। वहीं बुत सी खड़ी रह गई। तभी महेश्वर जी की आवाज सुनाई दी,' कौन थी 'वो' ? 'प्रतिमा नाम बताया था कह रही थी दीदी की दोस्त है...'। लिफ्ट का दरवाजा खुला। कोई उतरा था , प्रतिमा तेजी से अंदर चली गई। पसीने से हाथ में डिब्बे का ऊपरी कागज भीग चुका था। सांस इतनी तेज चल रही थी कि दिल हलक से निकल कर बाहर आ जाए। लिफ्ट रुकी और वह बाहर तो आ गई लेकिन अब वह अपने घर का रास्ता भी भूल गई थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसकी बिल्डिंग किस ओर है। दिमाग पूरी तरह से सुन्न हो चुका था। हड़बड़ाहट
में वह उलटी दिशा में पार्क की ओर ही चलने लगी। 'दीदी ...यहाँ कहाँ जा रही हो? और यहाँ क्या करने आई थी ? किससे मिलने?' अचानक किसी की जानी पहचान आवाज सुन प्रतिमा मुड़ी। कांता बाई थी... अपनी ननद के साथ खड़ी हुई। 'कांता... कांता ... प्लीज. मुझे घर ले चल...प्लीज.. मुझे घर जाना है'। प्रतिमा दहाड़ मार कर रो पड़ी। 'हाँ दीदी हाँ। चुप हो जाओ दीदी चुप हो जाओ। ले जाऊँगी। पर दीदी तुम यहाँ आई कैसे और क्यों"। कांता प्रतिमा की हालत देख कर डर गई थी। 'वो...वो... बीस मंजिल... अवन्ती जी ... महेश्वर जी ...बीमा एजेंट'। प्रतिमा कुछ ठीक से बोल भी न पा रही थी। 'क्या... क्या कह रही हो दीदी'? कांता का मुंह खुला का खुला रह गया। 'उस दिन मैंने तुम्हें सब बताया तो था और तुमने सुना भी था तो फिर कैसे तुम उससे मिलने चली आई'? कांता की ननद ठुड्डी पर हाथ रखकर प्रतिमा को ऐसे देख रही थी जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। 'उस पापी से, उस से तुम्हारा क्या काम? दुष्ट कहीं का ...पत्नी को खा गया... उससे मिलने तुम क्यों आई भौजी? मैं तो उसी के घर काम करती थी ... सिर में फोड़ा हुआ .. डॉक्टर बोला ...आपरेशन करने को ... लेकिन यह दुष्ट बीमा लिया था न पत्नी पर ...रोज इंतजार करता था कब मरे तो पैसा मिले और घर खरीदे... दवा दारू भी बंद कर दी नीच ने ... बड़ी तड़प तड़प कर जान निकली बेचारी की ...बड़ी भली थी ...मेरी कितनी मदद करती थी ... किसी को दुखी न देख सकती थी ...बड़ी देवी आत्मा थी ...क्रिया कर्म भी नहीं किया दुष्ट ने ...एक महीने के अंदर शादी कर ली ..दुल्हन ले आया ... कमीना ...अब बड़ा धार्मिक बनता है ... मुझे भी बुलाकर मिठाई दी ... मैंने तो उसके मुंह पर फेंक दी ... सजा देगा ... भगवान जरूर सजा देगा ... देखना ... यह भी तड़पेगा
उसी की तरह ... देखना हाँ ...आप भी मत खाना भौजी ...मिठाई फेंक दे भौजी '। कांता की ननद सिसकती हुई वह बार-बार आंखें पोंछ रही थी। प्रतिमा के कानों में सीटीयाँ बजने लगी। चक्कर आ रहे थे। धरती घूम रही थी। अब और कुछ सुनने की हिम्मत ही नहीं रही। कई सवाल पागल किए जा रहे थे ... 'वो कौन थी.... कौन थी वो? अगर वो अवन्ती नहीं थी तो क्या यह सब मेरी कल्पना था ...? ऐसा कैसे हो सकता है। नहीं ..नहीं ...। वो अवन्ती ही थी'। वह पागलों की तरह इधर -उधर देखने लगी। हाथ का डिब्बा कब का नीचे गिर चुका था और गली के कुत्ते दुम हिलाते हुए मिठाई खा रहे थे। वह बुत बनी देख रही थी। अचानक कानों में जोर -जोर के ठहाके सुनाई देने लगे ...'महेश्वर ...संहारक शक्ति...पापी...कातिल ...खूनी ...। चली जाओ प्रतिमा ...चली जाओ ...फिर यहाँ कभी मत आना'। प्रतिमा बुरी तरह से हांफने लगी ...सांस उखड़ रही थी ... उसने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर लिए ... बस वह वहाँ से निकल जाना चाहती थी ... चली जाना चाहती थी अपने राजेश के पास .... लेकिन मन था जो चीख-चीख कर कह रहा था , 'अगर अवन्ती थी ही नहीं तो 'वो' कौन सी शक्ति थी था जिसने तुम्हें पुनः जीवित कर दिया ... कल्पना...मतिभ्रम ... ? और अगर 'वो' अवन्ती की आत्मा ही थी तो क्या अब वह तृप्त हो गई है ? हाँ ? ...तो कैसे ? उस पापी महेश्वर के अनुष्ठान से या मेरे पुनर्जन्म से .....'?
"चाक डोले, चकबन्ना डोले, हमारे गांव के बाहर जो वाम्हनपार का सिवान है, वहीं एक दुबला-पतला पुराना पीपल हुआ करता था। पता नहीं अब वह पेड़ है या नहीं। बचपन में जब हम गाय-भैंसें चराने सिवान की ओर जाते थे तब उसी पेड़ के नीचे चिकई, कबड्डी या कभी-कभार ओल्हापाती खेला करते थे। गांव में लोग ऐसा मानते थे कि हमारे सिवान का यह पीपल ही खैरा पीपल है। मां ने ही शायद कभी बताया था कि प्रलय के दिनों में जब सारी धरती डूब गयी थी, तब डरे हुए देवताओं और सप्तर्षिगण ने इसी पीपल पर शरण ली थी। हमारे गांव को तीन ओर से घेरने वाला गोधनी नाला उसकी जड़ों को छूकर ही आगे बहता था। हमें विश्वास था कि पूरे दुनिया के लोग इस पीपल को आदर और श्रद्धा के साथ, इसकी अनन्त अखंडता, इसकी पवित्र पुरातनता को प्रणाम करते हैं। कुछ अलौकिक किस्म के कौतूहल और रहस्य के रोमांच से अभिभूत हम उस खैरा पीपल को निहारा करते थे। बाद में, मिडिल की पढ़ाई के लिए मैंने कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। सातवीं में हमारे साथ पढ़ने वाला मनोहर, जो किसी दूसरे गांव का था, उसने अपने गांव के पोखर के बारे में बताया कि श्रवण कुमार अपने अन्धे मां-बाप को पीने के लिए उसी पोखर से पानी ले रहे थे, तथा दशरथ ने उन्हें शब्दवेधी वाण से मार डाला था। जब मैंने अपने गांव का महत्व बताने के लिए उसे खैरा पीपल और प्रलय की बात बतायी तो, मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि वह खैरा पीपल के बारे में कुछ नहीं जानता। जबकि मां ने बताया था कि सारी दुनिया के लोग खैरा पीपल को जानते हैं। असहमति! लेकिन, इस अर्थतन्त्र में, शेयर बाजार की गन्दगी बटोर कर जिन्होंने अपने ड्राइंग रूम को सजा रखा है, जिनकी दिनचर्या बीवी के साथ शुरू होकर टी.वी. के साथ बीत जाती है, भद्र नागरिकता का लबादा ओढ़े जिन्होंने जीवन का व्याकरण कुलीनता के 'फ्रेम' में मढ़ लिया है, उन संवेदनहीन घोघा बसन्तों का तो जिक्र भी मैं नहीं करना चाहता। उनकी नियति है कि वे लोग जार्ज पंचम से लेकर जार्ज बुश के लिए तोरण पताकाएं और बन्दनवार सजाएं, अमरबेल की इन हरी-भरी लताओं ने हर आती-जाती बयार का गीत गाया है। इनके पास भाषा का छद्म है। भीतर गन्दगी और गजालत है। ऊपर ओढ़े हुए कुलीन संस्कार हैं। इन्हीं की प्रतिक्रिया में 'काशी का अस्सी' रचा गया है। अपनी पहली पंक्ति से लेकर आखिरी पंक्ति तक यह उपन्यास इसी मध्यवर्गीय भद्रलोक की ऐसी-तैसी करता हुआ भाषा के कुलीन छद्म को तहस-नहस करता है। जो लोग बेटे का 'बर्थ डे' और गृह प्रवेश का संयुक्त उत्सव करते हैं, जिनके जीवन में हनुमान चालीसा से ज्यादा साहित्य की गुंजाइश नहीं है, होली की गुझिया भर है जिनका सामाजिक सरोकार, उन सारे भद्रजनों को कोट के बटन में गुलाब टांके नेहरू के दरबार में श्रद्धांजलि देकर हम चलते हैं 'काशी का अस्सी'। नब्बे के दशक में जहां भारतीय समाज का समुद्र मंथन चल रहा है। मन्दराचल को लपेटे वासुकि के एक छोर पर देवतागण हैं और दूसरी ओर राक्षस। कमंडल और मंडल। क्या खूब है! जिनके पुर
खों ने आदमी को जातियों में बांटा था आज उन्हीं के वंशज दूसरों को जातिवादी बता रहे हैं। बहरहाल...'काशी का अस्सी' में अस्सी चौराहा एक जिन्दादिल चरित्र की तरह हर जगह मौजूद है। कभी तो देश-दुनिया, कभी नगर और कभी मुहल्ले में घटने वाली घटनाएं इस अस्सी के हाथ, पैर, मुंह, नाक-नक्श हैं जिसके बीच से इसकी आकृति उभरती और फैलती रहती है, यह अस्सी 'टिपिकल' नहीं, 'टाइप' है। जैसी बेफिक्र, मौजू और मस्त अस्सी की शाम, वैसी ही काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। नामवर सिंह के अलावा इस त्रिलोक में ऐसा कोई नहीं है जो इस भाषा के प्रहार से, मुहावरों की नुकीली धार से, बचकर निकल सके। जैसे कोई नटखट शरारती बच्चा अपने क्लास-टीचर के सामने बिल्कुल आज्ञाकारी भाव से सिर्फ कान को सजग रखे रहता है, वैसे ही बड़े भइया के सामने काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। तितली के पंख की तरह विमोहित, विहूल और स्निग्ध। छुट्टी का घंटा बचते ही रास्ते में सबसे पहले मिल गए-'दन्त कथाओं में त्रिलोचन' और फिर 'काशी का अस्सी' तक आते-आते अपने समूचे उछाह, जोश और तरन्नुम के साथ भाषा ने अपने सतरंगी पंखों को खोल दिया। जब 'हंस' में इस उपन्यास की पहली किस्त छपी तो लोगों ने आरोप लगाया कि इसमें अश्लीलता है। गो कि, यह आरोप हिन्दी की कई महत्वपूर्ण रचनाओं पर पहले भी लग चुका था। काशीनाथ सिंह ने सफाई दी-अस्सी की यही भाषा है।-मैंने पहले ही कह दिया है कि इस उपन्यास का मुख्य और एकमात्र चरित्र अस्सी ही है।-'टिपिकल' अस्सी नहीं। 'टाइप' अस्सी। कुछ लोग नमक या हल्दी को ही दाल मान लेते हैं वही लोग अपने को इस उपन्यास का नायक मान बैठे हैं। अस्सी की यह जबान गया सिंह, तन्नी गुरू या रामजी राय के ही भरोसे नहीं है। शिवजी! शंकर बाबा की जबान का नमूना-"बे धरमनाथ! कहां है बे! गधे
, सुअर, उल्लू के पट्ठे! निकल बे कोठरी से...चूतिए, मैंने बहुत बर्दाश्त किया रे। जहां मुझे रखा है, वह मन्दिर है कि माचिस?" -"पांडे़ कौन कुमति तोहें लागी' में यह जबान गालियों के 'माइक टायसन' रामजी राय की नहीं है। इसीलिए मैंने नामवर सिंह को छोड़कर पूरे त्रिलोक की बात कही थी। "हैूहें सिला सब चन्द्रमुखी। परसे पद मंजुल कंज तिहारे।। कीन्ही भली रघुनायक जू। ये रामजी राय से भी ऊंचे सुरों में 'हनुमान चालीसा' का पाठ करने लगते। सचमुच इस उपन्यास ने अस्सी की भाषा को भी बदल दिया। भाषा का भाजपाई छद्म त्राहि-त्राहि कर उठा। प्रवीण तोगड़िया की संस्कृतिनिष्ठ तुकबन्दियों का जवाब देते हुए सोमनाथ चटर्जी या सोनिया गांधी के तर्क बाल भी बांका नहीं कर पाते। जबकि लालू यादव के ठेठ गंवई मुहावरे उनकी सही जगह, किसी कबाड़ी के कबाड़ में फेंक आते हैं। दुनिया का सबसे पुराना और जीवित शहर बनारस है। जो लोग बनारस को जानते हैं वे लोग अस्सी को भी जानते हैं, तुलसीघाट, रीवां कोठी, मुमुक्ष भवन, मारवाड़ी सेवा संघ, लोलार्क कुण्ड आदि-आदि के साथ बर्फी की दुकान वाले सीताराम जादो, केदार और पप्पू की चाय की दुकानें अस्सी के आजू-बाजू को घेरे हुए हैं। 'सुख' कहानी के भोला बाबू डूबते सूरज के जिस सौन्दर्य पर अभिभूत हो गए थे, वह अस्सी की ही सांझ में है। जिन लोगों ने बनारस को चैक की तंग गलियों से गुजरते हुए पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर खड़े होकर देखा, बरबस ही उनके मुख से फूट पड़ा-सुबहे-बनारस! और जिन्होंने चना-चबेना, गंगाजल, भांग और धतूरे में छनी पप्पू की चाय से जिन्दगी गुजारते हुए वहां सड़क पर लगने वाली संसद में शिरकत की है, वह उसकी सांझ के दीवाने होकर रह गए। सुभाष राय, कामता यादव और श्रीकान्त पांडेय की तरह वे लोग देश-विदेश जाने कहां-कहां गए और कहीं जी नहीं लगा तो आखिर में अस्सी लौट आये। वहीं दम तोड़ा। गया सिंह, रामजी राय, तन्नी गुरू आदि-आदि के लिए तो अस्सी ब्याहता है। जनम-जनम के इस बन्धन में ऊब, उमस और एकरसता चाहे जितनी हो, दूसरा ठिकाना ही इनके लिए कहां है? मुहल्ले में, नगर में, देश-विदेश में कहीं कोई बड़ी घटना घटती है, उसे लेकर अस्सी पर हर सांझ बहसें होती हैं। यहां की संसद में ओसामा बिन लादेन और बुश के बराबर-बराबर वोट हैं। ज्योतिष, सेक्स, साहित्य और राजनीति की बहसों से गन्धाता अस्सी। आग चाहे कहीं लगे अस्सी के आकाश पर उसका धुआं फैल जाता। धूल और धुएं के गुबार में अलसाया अस्सी। शादी चाहे जिसकी हो, उसके साथ पहला हनीमून अस्सी ही मनाता है। यही है-'काशी का अस्सी'। शब्द चित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज की कई मिलीजुली शैली में लिखा गया हिन्दी का नया और अनोखा उपन्यास। "टूटे सींगों वाले सांड़ों का, यह अजीब सा टक्कर था। उधर दुधारु गाय खड़ी थी, राजनारायण इसी बनारसी शैली के राजनेता थे। लालू यादव चाहे जहां पैदा हुए हों, उनका जनेऊ अस्सी पर हुआ है। उनका गंवई अन्दाज, ह्यूमर, विट और सब पर छा जाने की कला यह बनारसी शैली की खूबी है, जैसे संगीत म
ें घराना चलता है उसी तरह राजनीति का भी घराना है। यह बात दीगर है कि अस्सी पर लालू के समर्थक सबसे कम पाये जाते हैं। आज जहां पप्पू की चाय की दुकान है, हो सकता है दो-चार या दस साल के भीतर वहां कोई मल्टी स्टोरी, शॉपिंग काम्प्लेक्स बन जाय। सम्भव है, मारवाड़ी सेवा संघ किसी पांच सितारा होटल में तब्दील हो जाय। लेकिन तब भी अस्सी कहीं न कहीं मौजूद रहेगा। नाम और जगह बदलकर। यही अस्सी का महत्व है। क्योंकि आपाधापी की जिन्दगी में कुछ न कुछ ऐसे लोग बचे रहेंगे जिन्हें अपने लड़के को इंजीनियर बनाने के लिए रात-दिन हाय-हाय करते हुए अपने सुख-चैन, इत्मीनान और हंसी-ठिठोली को किसी साहूकार के यहां गिरवी रखना मुनासिब न लगे। वह लोग जरूर इस तरह भी सोच सकते हैं कि नालायक बेटा बाप का कमाया धन खाता है और डी.एम., एस.पी. जिले भर की विकास परियोजनाओं-अंधे, अपाहिजों के कल्याण का फण्ड, कोढ़ियों के इलाज का पैसा, मलेरिया उन्मूलन, साक्षरता प्रसार, बाढ़, अकाल, भूकम्प, महामारी इन सबके नाम पर करोड़ों-अरबों की रकम डकार जाते हैं। अब बताओ, लायक किसे कहोगे? 'देख तमाशा लकड़ी का' शीर्षक से 'काशी का अस्सी' उपन्यास की पहली किस्त जब 'हंस' में छपी तो उसमें हरिद्वार पांडेय (भाषण कला के बैजू बावरा) छाये हुए थे। आज पांडे जी का नामो-निशान भी अस्सी पर नहीं है। गया सिंह, रामजी राय, दीनबन्धु तिवारी वगैरह-वगैरह दूसरे-तीसरे परिच्छेदों से जुड़ते चले गए। यह लोग भी कल रहें, न रहें, अस्सी पर राई-रत्ती फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसलिए कि अस्सी देश के किसी भी शहर में, किसी नुक्कड़ के कोने-अंतड़े में, अपनी जगह खुद-ब-खुद बना लेता है। अस्सी किसी एक की वजह से नहीं है। रामजी राय, गया सिंह, तन्नी गुरू सबको अस्सी ने रचा है। चूंकि यह उपन्यास परम्परागत उप
न्यासों से भिन्न जीवित और वास्तविक व्यक्ति चित्रों के ताने-बाने, हास-परिहास से ही बुना गया है, इसलिए हमें यह भी जानना चाहिए कि अस्सी वाले गया सिंह लहरतारा वाले कबीर की तरह नहीं हैं, जो घर फूंक तमाशा देखें। इनकी जड़ें बाबा कीनाराम के मठ, एक डिग्री कॉलेज में रीडर और सुदूर पहाड़ी इलाके के महाविद्यालय में बतौर प्रबन्धक, गहरे पैठी हुई हैं। अस्सी के जनतन्त्र में उनकी निरन्तर शिरकत एक बड़े जुगाड़ तन्त्र की देन है। कहां साबरमती का आश्रम और कहां हरियाणा का भोड़सी। खल्वाट खोपड़ी, बकौल काशीनाथ सिंह, जिसमें सिर्फ भूसा और गोबर भरा हुआ है। जुगाड़ तन्त्र में चौबीस घंटे 'होलटाइमर' है। घर वह लोग फूंकें जिन्हें नौकरी की उम्मीद में डिग्रियां खरीदनी हैं। गया सिंह सिर्फ तमाशा देखेंगे। इस उत्तर आधुनिक युग में धडल्ले से शिक्षा का व्यापार चल रहा है। हर शहर में कोई न कोई शिक्षा माफिया मिल जायेगा। अपनी-अपनी हैसियत और औकात! कोई माफिया और कोई छुटभैया! यह है ऊपर से दिखने वाली मस्ती, फक्कड़पन और भांग की गोलियों का आन्तरिक रहस्य। जुगाड़ तन्त्र। अगर यही लोकतंत्र है तो लोकतंत्र का बहुरुपिया कैसा होगा? इस तरह तो अजीत सिंह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत कहे जाएंगे। ऐसे ही तर्कों से धरमनाथ शास्त्री ने अपनी पड़ाइन को बहलाया-फुसलाया और अंग्रेजिन को 'पेइंग गेस्ट' बनाकर शंकर बाबा को देश निकाला दिया था। अपने बेटों के हर गुनाह मानवीय लगते हैं। यही किया है काशीनाथ सिंह ने अपने गदरहों के लिए। अस्सी के प्रति अन्धी मोहासक्ति इन्हें इस हद तक जकड़ लेती है कि हू-ब-हू अपने पात्रों की तरह सोचने भी लगते हैं। यह घोर प्रतिक्रिया है। ड्राइंग रूम की बन्द दीवारों के भीतर निरन्तर जोड़-घटाना लगाने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के दोगलेपन और उनके भाषाई छद्म से। या सम्भव है, घर के तनावों से आकुल-व्याकुल मन को यह सुकून देता हो! छायावादी कवियों के क्षितिज जैसा ही कुछ-कुछ प्रतीत होता है यह अस्सी। लेकिन इन ढेर सारी इधर-उधर की फुटकल बातों के बावजूद, चाहे कोई रहे, न रहे, अस्सी रहेगा। बावजूद गया सिंह के अस्सी बचा रहेगा। भारत के हर शहर में कहीं किसी चाय की दुकान के आसपास जहां चार-छह लोगों के बैठने-बतियाने की जगह बची रहेगी, वहीं खानाबदोश जातियों की तरह अपना डेरा-डंडा डालकर अस्सी बस जायेगा। जो जीवन की ऊंचाइयां पाने के लिए प्रवासी हो गये हैं, उनके जेहन में लड़कपन की तरह अस्सी याद आयेगा। जो असफल रह गये, एक-एक कर जीवन के सारे मुकदमे हार चुके, लोगों को सुकून देने के लिए अस्सी बचा रहेगा। डी.एम., एस.पी. या कोतवाल, अस्सी को उपद्रव की तरह देखेंगे। तानाशाह के हुक्म से बार-बार तबाह किया जायेगा अस्सी। 'इंक्रोचमेन्ट' के नाम पर हल्लागाड़ी आयेगी और अस्सी को उजाड़कर शहर का व्याकरण दुरुस्त करेगी। फिर दूसरी सांझ किसी न किसी जगह अपनी मस्ती, अपनी बे-परवाही, अपनी हंसी की छटा बिखेरता, जिन्दगी के गीत गाता अस्सी दिख जायेगा। दीवाली और होली की तरह
व्यापक है काशी का यह अस्सी। मां कहती थी-प्रलय के दिनों में जब सब कुछ डूब गया था तब भी खैरा पीपल बचा रह गया था। वही खैरा पीपल जहां हम लोग ओल्हापाती खेला करते थे। आज गांवों में अलाव नहीं जलते। पता नहीं खैरा पीपल अब है या नहीं। पच्चीस-तीस साल होने को हैं। मैं इतनी देर के लिए गांव कभी नहीं गया कि जाकर खैरा पीपल का हालचाल ले सकूं। लेकिन गांव के बाहर दूर-दूर तक फैले ऊसर के टीले, जहां से 'रेह' ले जाकर हम अपने कपड़े फींचते थे, अब नहीं रह गये हैं। नागफनी के जंगल, महुवे के बाग और इन सबके बीच दूर-दूर तक फैले चरागाह, जहां हम गाय-भैंसें चराया करते थे, उनके नामो-निशान भी गांवों में नहीं रह गये हैं, अब उनकी यादें भी असम्भव हो गयी हैं। हरित क्रान्ति ने गांवों की शक्ल-सूरत बदल दी। व्यवसाय का पुश्तैनी और परम्परागत ढांचा बदल दिया। अर्थशास्त्र जानने वाले कहते हैं कि गांव की तरक्की हो गयी है। समाजशास्त्र के विद्वान कहते हैं कि रिश्तों में दरार आ गयी है। गांव के लोग कहते हैं कि अब वह बात नहीं रही। बहुत उदास-उदास लगता है। यहां रहने का मन नहीं होता। लब्बो-लुबाब यह कि इतनी उदास, मनहूस और कर्ज में डूबी तरक्की। बैंकों की मदद से हमारे गांव में तीन लोगों ने ट्रैक्टर खरीदे और तीनों के आधे खेत बिक गये। टैªक्टर औने-पौने दाम मंें बेंचने पड़े। पता नहीं कर्ज चुकता हुआ कि नहीं? पंचायती राज में लोकतंत्र को गांवों तक ले जाने का कार्यक्रम बना। फिर तो, अपहरण, हत्याएं और मुकदमेबाजी। सारे के सारे गांव थानों और कचहरियों में जाकर कानून की धाराएं रटने लगे। गांधीजी का अन्तिम आदमी, जो आजादी की लड़ाई का नैतिक तर्क और सम्बल था। आज उसके हाथों में एक तिरंगा है और वह भाग रहा है। ग्रामीण विकास बैंकों के दलदल में उसके पैर धंस ग
ये हैं। सांस धौंकनी की तरह चल रही है। भारी-भरकम सिर पेट की अंतड़ियों में फंसकर फड़फड़ा रहा है। वकील, जज, अर्थशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर, नेता, पुलिस अधिकारी सब उसे चारों तरफ से घेर रखे हैं। सबके हाथों में एक-एक फंदा है। सब उसे ही पुचकार रहे हैं-आजादी की आधी शताब्दी का महोत्सव जारी है। अपराध के अंधेरे में चारों ओर संशय और अविश्वास की फुसफुसाहटें फैल रही हैं। अपनी ही सांसों का बोझ ढोते गांवों की तरक्की की यही दास्तान है। कितना भयावह और डरावना है अंधेरे का यह एकाकी सफर। यह सब इसलिए कि आज इन गांवों के आसपास पंडित धरमनाथ शास्त्री के सपने की तरह कोई न कोई कस्बा समृद्ध हो रहा है। इन कस्बों में भी किसी न किसी दुकान पर एक अस्सी बस गया है। यहां भी लोग गप्पें हांकते हैं। गया सिंह, रामजी राय या तन्नी गुरू की ही तरह यहां भी लोगों के कोई सरोकार नहीं हैं। समय काटने के लिए अड्डे हैं ये। पूर्वांचल के ये कस्बे अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक तन्त्र की नर्सरी हैं। मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हों या फिल्म इंडस्ट्री के गुलशन कुमार इन सबके खून के धब्बे इन गुमनाम कस्बों में बिखरे पड़े हैं। हवाला, दाउद, इब्राहिम, सउदी अरब, छोटा राजन, दुबई यहां की बातचीत के विषय हैं। यह भी अस्सी का ही दूसरा चेहरा है। गया सिंह, रामजी राय और तन्नी गुरू आदि-आदि से गुजारिश है कि अपने आपको इस उपन्यास का नायक न समझें। जो स्थान अस्सी का है उसे अस्सी के हिस्से रहने दें। जहां हर कोई नायक बनने लगता है उस देश की शक्ल विदूषकों जैसी दिखती है। इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड हैं, और जिन्दगी के अलग-अलग मंसूबे। कभी गांव में चौपालों और अलाव के इर्द-गिर्द बैठकर भी लोग बतकही किया करते थे। अब वह सब नहीं रहा। उस समय भी वहां एक प्रजाति पायी जाती थी, जिसके बारे में लोग कहा करते-"गंजेड़ी यार किसके? दम लगाये खिसके।" सुना है अब वह प्रजाति अस्सी पर बस गयी है। शहर में आकर थोड़ा-बहुत सभी बदल जाते हैं। गंजेड़ी और भंगेड़ी में अन्तर ही कितना होता है। कभी गोदोलिया के 'दी रेस्टोरेन्ट' और पास में ही किसी माखन दा की दुकान हुआ करती थी। लोग वहीं घंटों बहसें किया करते थे। साहित्य और राजनीति की गम्भीर बहसें। इस परिवेश ने बनारस में चन्द्रबली सिंह और नामवर सिंह जैसी शख्सियत को पैदा किया। और आज रामजी राय या गया सिंह अन्त्याक्षरी। छिछले चुटकुले। जब सरोकार खत्म हो जाते हैं तो यही बचा रहता है। मस्ती और फक्कड़पन की शक्ल में बहुरुपिये मसखरे पैदा होते हैं। दूसरों का मजाक उड़ाने से ज्यादा क्रूर और अमानवीय कुछ नहीं होता। 'काशी का अस्सी' में जो सामाजिक पतनशीलता और व्यक्तित्व के विघटन के चिह्न मात्र हैं वही अपने आपको नायक होने का मुगालता पाल बैठे हैं। इनकी तुकबन्दियां, इनके तर्क, इनकी भाषा किसी चीज पर इन्हें खुद का भरोसा नहीं और चाहते हैं दुनिया इन्हें ही मसीहा मान ले। अगर गया सिंह एक जीवित चरित्र नहीं होते और उनका वजूद सिर्फ 'काशी का अस्सी' उपन्यास में ही होता
तो इतनी पड़ताल की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन संस्मरण से रिपोर्ताज और फिर उपन्यास तक का सफर पूरा करने वाली इस कृति की समीक्षा में इस गैर-साहित्यिक पद्धति का सहारा लेना पड़ रहा है। काशीनाथ सिंह की दिक्कत यह है कि वे रहजनों से ही ठिकाने तक पहुंचने का रास्ता बूझ रहे हैं। इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह उस भावुक भक्त की तरह हैं जो जीवन के तनावों से ऊबकर भगवान को खोजते-खोजते किसी मन्दिर या मठ के पाखंडी पुजारी के आप्त वचनों से गद्गद होकर उसे ही जीवन का सन्देश मान लें। यह अजीब इत्तिफाक है कि डॉ. गया सिंह सिर्फ एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर और एक महाविद्यालय, जहां उनका छोटा भाई प्रिंसिपल है, के प्रबन्धक ही नहीं हैं, उनके जुगाड़ तन्त्र की आभा से कीनाराम मठ की भव्य दीवालें भी जगमगा रही हैं। किसी सिद्धान्त का सबसे बड़ा तर्क होता-जीवन जीने का वैसा ही मिलता जुलता ढंग वर्ना एक फ्राड पैदा होने की गुंजाइश बनी रहती है। मध्यवर्गीय तनावों को लेकर काशीनाथ सिंह ने एक से एक बेहतरीन कहानियां लिखी हैं। 'आखिरी रात', 'कविता की नयी तारीख', 'अपना रास्ता लो बाबा' आदि-आदि। काशीनाथ सिंह का जीवन, जिसे उन्होंने भोगा और जिया है और जिसे करीब से देखने का अवसर किसी न किसी तरह मुझे भी मिला है-इन कहानियों में ज्यादा वास्तविक होकर झांकता रहता है-बनिस्बत अस्सी पर लिखे इस संस्मरणात्मक उपन्यास के। 'सुख' कहानी के भोला बाबू एक सांझ डूबते हुए सूरज के वृत्त की आभा देखकर इस कदर अभिभूत और चमत्कृत होते हैं कि हास्यास्पद लगने लगते हैं। जोड़-घटाने में रत्ती-रत्ती टूट और बिखर चुकी जिन्दगी को प्रकृति का एक अति परिचित मामूली दृश्य अलौकिक आभा से सम्मोहित कर लेता है। स्थितियों और पात्रों के मामूली हेर-फेर के साथ हर अच्छी कहानी किसी आत्मकथा क
ा अंश प्रतीत होती है। "मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि मोया-मोह के जंजाल में फंसा मैं-अस्सी का प्रवासी-इस दर्शन के काबिल नहीं।" असमर्थता है। लेकिन आकांक्षा बनी हुई है। काशीनाथ सिंह और भोला बाबू के दुःख और तनाव एक जैसे हैं। भोला बाबू के लिए एक सांझ का सौन्दर्य अलौकिक प्रतीत होता है और काशीनाथ सिंह को पप्पू की चाय की दुकान। भोला बाबू नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। काशीनाथ सिंह रिटायर होने के करीब हैं। अपनी जिन्दगी में सामर्थ्य भर नक्सलवादी आन्दोलन से भी जुड़े रहे। एक सपना था-शायद भारतीय समाज की मुक्ति और इस तरह अपनी भी मुक्ति का यह रास्ता हो सकता है। यह भी हो सकता है कि लेखकीय अनुभव में खतरों से खेलने के रोमांच की जरूरत महसूस हुई हो। इसी दौरान उन्होंने 'सुधीर घोषाल' कहानी भी लिखी। 'अपना मोर्चा' उपन्यास का 'ज्वान' उन दिनों के काशीनाथ सिंह और धूमिल का मिलाजुला रूप है। लेकिन युग तेजी से बदलता जाता है। कीर्ति व्यवसायियों के हमले से एक-एक कर सबकी कलई खुलती जाती है। 'लाल किले के बाज' और 'वे तीन घर' कहानियां प्रकाशित होती हैं। आस्थाएं एक-एक कर भहरा रही हैं। काशीनाथ सिंह चुपचाप सबको देख रहे हैं, कमी विचारधारा में नहीं, उसकी व्याख्या करने वाले संगठनों में है-वह सोचते हैं। 'ग्लास्नोस्त', 'पेरेस्त्रोइका'! गोर्बाचेव का नोबेल प्राइज पर बिक जाना। बुद्धिजीवियों, कलाकारों की आस्था और विश्वास पर बीसवीं सदी का सबसे बड़ा हमला-समाजवादी सोवियत संघ का पतन। गले की हड्डी क्यूबा और वियतनाम के अपमान का धब्बा अपनी समूची बर्बर विरासत के साथ इराक पर टूट पड़ता है। खुली खिड़कियों से औपनिवेशिक बाजारवाद का प्रदूषण भीतर तक भरने लगता है। विचारधारा के क्षेत्र में उत्तर आधुनिक विमर्श का वर्चस्व। उधर शब्द अर्थ की गुलामी से मुक्त होते हैं और इधर लेखक संगठन विचारधारा के नाम पर कुछ संगठन कर्ताओं के ज्ञान दम्भ और ठगी से। जो यथार्थ हमारे आसपास वर्षों से हमें दिन-रात घेरे हुए थे, जिन्हें हम चोर निगाहों से निरन्तर देख और महसूस कर रहे थे। लेकिन प्रतिक्रियावादी होने के डर से लिख नहीं पा रहे थे, बाद के नये लेखकों ने उन्हें शिद्दत के साथ जद्दोजहद से अपनाया। हिन्दी कथा साहित्य का नया परिदृश्य जीवन की विविध छटाओं से भर गया। गुजरे जमाने के इसराइल, विजेन्द्र अनिल और सुरेश कांटक ने लिखना बन्द कर दिया। दूधनाथ सिंह ने धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, नमोअन्धकारम और निष्कासन जैसी महत्वपूर्ण कहानियां या उपन्यास लिखे। काशीनाथ सिंह ने 'अस्सी को एक चरित्र की तरह 'ट्रीट' किया और 'रागदरबारी' की तरह पठनीय, रोचकता से भरपूर अपना महत्वपूर्ण उपन्यास 'काशी का अस्सी' लिखा। -कहिए किस पार्टी में हैं आजकल? -वे हंसे मेरी मूर्खता पर। नजरिया बदल जाता है। तीस-पैंतीस साल पहले इसी तरह के किसी रामजी राय पर काशीनाथ सिंह ने 'आदमी का आदमी' और ऐसी ही बहसों पर 'चाय घर में मृत्यु' कहानी लिखी थी। आजादी के बाद नेहरू युग के सम्मोहन में नयी कविता और नयी कह
ानी के भीतर रोमानी तत्व उभर रहे थे। नामवर सिंह ने कहीं लिखा है, शायद मुक्तिबोध के सन्दर्भ में लिखा है कि उस युग का महत्वपूर्ण और सार्थक लेखन नेहरू युग के जादू से मुक्त होकर लिखा गया। सम्मोहन का खतरा अस्सी से भी है। लेकिन यह सम्मोहन ही तो इस उपन्यास की जान है। अगर यह नहीं होता तो न ही इस उपन्यास में भाषा का ऐसा उछाह होता और न ही अस्सी की इस मस्ती और फक्कड़पन का ऐसा मोहक संगीत होता, जो मिठाई लाल के कंठ से फूटकर देर तक और दूर तक हमारी आत्मा में बजता रहता है। आज विश्वग्राम की अवधारणा है। हम चौराहे पर खडे़ हैं। भौचक्क और पथराये से हम। हमारे भीतर मुक्तिबोध का एक सवाल बार-बार गूंज रहा है-"कहां जायें? दिल्ली या उज्जैन।" एक सौदागरों की नगरी है और दूसरी कालिदास की। हम तय नहीं कर पाते और थक-हारकर टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। सूचनाएं! अतिसूचनाएं! और अतिशय सूचनाएं!! सूचनाओं का अम्बार लगा है। हम भौचक और भकुवाये हुए हैं। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।" 'काशी का अस्सी' इसी आशय का आख्यान है। कभी भविष्य में इतिहासकारों, विशेषकर 'सबाल्टन' इतिहासकारों को अगर बीसवीं सदी के आखिरी दशक का अध्ययन करना पड़ा तो 'काशी का अस्सी' सबसे भरोसे का उपन्यास लगेगा। क्योंकि डायरी के पन्नों की तरह यहां सब कुछ ज्यों का त्यों क्रमवार दर्ज है। नेहरू युग की सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में आई पतनशीलता को आधार बनाकर जिस तरह 'रागदरबारी' लिखा गया था कुछ वैसे ही कथा विन्यास के लिए, वैसे ही रोचकता और पठनीयता से सन्तुलन साधकर लिखा गया यह उपन्यास अपने युग का प्रामाणिक दस्तावेज और आख्यान है। आज काशीनाथ सिंह के पास हिन्दी की समृद्ध और लोकरंजक भाषा है। जो न सिर्फ भाषा के परम्परागत और शास्त्रीय ढांचे को तोड़कर विकसित हुई है, बल्कि समाज
में जो भी कुलीन प्रभामंडल का छद्म फैला हुआ है उस पर वज्रपात करके पली-बढ़ी है। भाषा का ऐसा स्फुरण और ऐसी गतिमयता कि उसके संस्पर्श से, हजारी प्रसाद द्विवेदी या त्रिलोचन को छोड़ भी दंे तो कमला प्रसाद पांडेय जैसा व्याकरण निबद्ध भाषा और कठोर अनुशासन से निर्मित जीवन चरित भी कसमसाकर शुष्क सिद्धान्तों की मर्यादा रेखा लांघने को बेताब बन्द दरवाजों की सांखल खटखटाने लगता है।
ये किताब मैं मेरी मां स्वर्गीय श्रीमती अनिमा भट्टाचार्या को समर्पित करती हुं। राजू दसवीं में पढ़ता था और सबका बहुत ही दुलारा था।राजू को किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। उसके घर में दो काम करने वाले थे एक था दिनेश काका दूसरी कृष्णा वाई। कृष्णा वाई की एक बेटी थी आनंदी जैसा नाम वैसा काम। बहुत ही खूबसूरत, खुश मिजाज वाली लड़की थी आनंदी। राजू आनंदी को अपनी छोटी बहन जैसा मानता था। राजू में ये खास बात थी कि काम करने वाले को कभी नौकरानी नहीं मानता था। कृष्णा वाई आनंदी को काम पर लाती थी क्योंकि राजू का बंगला काफी बड़ा था। आनंदी को पढ़ने लिखने का बड़ा शौक था पर ग़रीब होने की वजह से वह अपनी पढ़ाई पूरी ना कर सकी । आनंदी सातवीं कक्षा तक पढ़ी थी और हर विषय में अव्वल दर्जे का नम्बर आया था। रोज सुबह सबसे पहले कृष्णा वाई राजू के घर जाती थी। राजू के घर पहुंच कर ही कृष्णा अपने काम में लग जाती थी और आनंदी भी अपनी मां के साथ काम करती थी कृष्णा वाई ने कहा राजू बाबा आपका जूस देती हुं। राजू ने कहा हां हां ठीक है। राजू ने कहा अरे आनंदी आज पहाड़ा सुनायेगी ना। आनंदी ने हंस कर कहा हां दादा । तभी कृष्णा वाई ने कहा आज नहीं बहुत काम है और बड़ी दीदी आने वाली है। राजू बोला अरे दीदी को आने में देर है। तभी राजू के सर आ गए और वो पढ़ने अपने कमरे में चला गया। तभी घर की मालकिन सैर से आ गई और फिर बोली कृष्णा जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे और फिर सामान भी लाना है। कृष्णा वाई ने कहा हां अनु मैम। अनु ने कहा अरे आनंदी राजू के कपड़े इस्त्री किया क्या? आनंदी ने कहा हां मैम। अनु ने कहा जा फिर सर को नाश्ता दे आ । और हां वहां जाकर बैठ मत जाना। आनंदी धीरे बोली नहीं मैम, आज दीदी आ रही है तो बहुत सारा काम है । फिर आनंदी ने जाकर सर को नाश्ता दिया। राजू बोला अरे आनंदी आज नहीं पढ़ना -सर से! आनंदी ने कहा नहीं दादा ,मैम बुला रही है। फिर आनंदी बेमन से चली गई। राजू समझ गया था कि मां ने मना किया होगा। सर बोले राजू आनंदी को मौका मिल सकता है मैं कुछ करता हूं। राजू ने कहा जी सर। फिर कृष्णा और आनंदी धीरे धीरे घर का सारा काम करते रहे। दोपहर हो गई। अनु ने कहा अब हाथ जल्दी चलाओ तुम लोग। कृष्णा मेनू देखकर सब बनाया ना। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम। कृष्णा ने कहा आनंदी आज तू किरन मैम के घर चली जा। आनंदी ने कहा ठीक है मां। अनु ने कहा आनंदी तूने रीतू का रूम ठीक किया। आनंदी ने कहा हां मैम। कृष्णा वाई ने कहा मैम मैं सामान लेकर आती हुं। अनु ने कहा हां जल्दी जा। आज दिनेश भी आधा छुट्टी लेकर गया। फिर आनंदी और कृष्णा दोनों निकल गए। आनंदी बाहर निकल कर बोली मां आज कितना कुछ बना था पर हमें नहीं मिला। कृष्णा वाई बोली हां मैं जानती हूं तुम्हें भुख लगी है। कृष्णा ने जल्दी से दस रुपए आनंदी को दिए और कहा समोसा खा लेना ।ये बोल कर कृष्णा सामान लेने गई। आनंदी भी किरन मैम के घर काम करने गई। एक घंटे बाद आनंदी राजू के घर पहुंच गई। कुछ देर बाद कृष्णा वाई भी साम
ान लेकर घर आ गई और उसने अनु को सारा हिसाब दे दिया। अनु ने कहा अरे दस रुपए तो कम है। कृष्णा बोली हां मैम मेरे पगार से काट लें ना। अनु बोली आज कल ज़बान चले रहे हैं तेरे। अनु के पति अमर बोले अनु अब जाने दो। फिर कृष्णा वाई रसोईघर में आ गई। तभी आनंदी बोली मां किरन मैम ने कहा कि तू मत आया कर तेरी मां को बोल आकर मिले। कृष्णा वाई ने कहा जरूर तूने कुछ गलती किया होगा। आनंदी ने कहा नहीं मां मैने तो सारा काम अच्छे से किया था। अनु रसोई में आकर बोली कृष्णा पुरी और आलू पालक ले जा और एकदम पांच बजे तक आ जाना। कृष्णा वाई बोली हां जी मैम। और फिर आनंदी और कृष्णा वाई कुछ पुरी व आलू पालक अपने टिफिन बॉक्स में भर लियाऔर अपने घर चले गए । कृष्णा वाई को राजू के घर से दो वक़्त का खाना मिल जाता था । कृष्णा का सबसे पुराना काम भी था । राजू के घर करीब सात साल से कम कर रही थी । फिर कृष्णा और आनंदी अपने घर में आ गए। आनंदी बोली मां मैम का स्वभाव कितना अजीब है ? कृष्णा बोली जाने दो आनंदी वो उम्र में बड़ी है तुमसे ।वो कुछ भी बोल सकती है।चलो अब खाना खा कर सो जाते हैं। कृष्णा ने पुरी और आलू पालक की सब्जी परोसा और दोनों खाकर सो गए। आनंदी थोड़ी देर बाद उठकर अपनी किताब कापी लेकर गणित के सवाल निकलने लगी उसका सबसे प्रिय विषय गणित है। फिर कब पांच बज गया पता नहीं चला। फिर जल्दी जल्दी दोनों घर से निकल गए और सीधे राजू के घर पहुंच गए। अनु तेजी से बोली अभी मैं फोन करने वाली थी।सुन पहले चाय बना और शाम के नाश्ते में चुरा मटर बना दे। कृष्णा बोली हां अभी करती हुं। अनु ने कहा आनंदी जाकर पौधों को पानी दे दे। आज माली नहीं आया। आनंदी ने कहा ठीक है मैम। तभी राजू बोला अरे आनंदी वह सवाल हल कर लिया। आनंदी ने कहा हां दादा। राजू ने कहा शा
बाश बहन।। कृष्णा ने जल्दी से चाय चढ़ा दिया और फ्रिज से मटर निकाला जो कि सुबह कृष्णा ने छिल कर रखें थे। और फिर जल्दी से चुरा मटर तैयार करने लगी। उधर आनंदी बड़े ही प्यार से पौधों को पानी दे दिया। अनु नीचे आ गई और रसोई में आकर बोली कृष्णा अब केक बनाना है सारा सामान निकाल कर अच्छे से बना लें ना, और उसके बाद रात के खाने में क्या बनेगा याद है ? कृष्णा बोली हां मैम सब याद है। अनु ने हंस कर कहा गुड।। फिर अनु अपने सहेलियों से फोन पर बात करने लगी और बोली अमर तो एयरपोर्ट गए हैं अपने बेटी को लेने। तभी राजू आकर बोला अरे मां पापा कब से फोन कर रहे हैं आप को। अनु बोली अच्छा क्या बोले। राजू बोला बस अभी रीतू दीदी को लेकर निकल गए। अनु बोली अच्छा एक घंटे तक पहुंच जाएंगे। राजू बोला हां। अनु बोली अरे आनंदी साफ सफाई कर दे जल्दी ,तू यहां पढ़ने नहीं आती है हां।। आनंदी ने कहा हां मैम कर दिया सब। अनु फिर बोली चल जूते पोलिश कर दे। राजू ये सुनकर बोला क्या मां ये सब आनंदी क्यों करेगी? अनु गुस्से से लाल हो गई और बोली राजू तू अपने कमरे में जा। अब शाम हो चुकी थी और अमर रीतू को लेकर घर पहुंच गए। रीतू बहुत ही खूबसूरत , खुश मिजाज जिन्दा दिल लड़की है लंदन में ही अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वही नौकरी करती थी। रीतू आकर ही बोली अरे मम्मी क्या बात है क्या खाने की खुशबू आ रही है ये तो कृष्णा वाई के हाथ का बना है। ये सुनकर कृष्णा रसोई घर से बाहर निकल कर बोली हां बेबी कैसी हो।? रीतू बोली अच्छी हुं अरे मेरी होनहार छात्रा कहां है? आनंदी ने कहा नमस्ते दीदी । रीतू बोली अरे आनंदी इस बार तो मैं तुझे ले जाऊंगी।। अनु बोली अच्छा बाकी बातें बाद में करना अब अपने कमरे में जाकर कर तैयार हो जा।सब साथ में नाश्ता करेंगे। कृष्णा वाई ने कहा हम अब चलते हैं। अनु बोली सब कुछ ठीक से कर दिया कोई भी काम छूट तो नहीं गया। कृष्णा बोली हां मैंने केक भी सजा दिया और खाना भी टेबल पर लगा दिया है। अनु बोली रात का खाना लेकर जाना। कृष्णा बोली हां ले लिया है। फिर आनंदी और कृष्णा चली गई। रीतू बोली मम्मी मैं रात को दिखाती हुं लंदन से क्या क्या लाई हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है अब नाश्ता कर लो । रीतू बोली नाश्ता में क्या है ? अनु बोली चुरा मटर । रीतू बोली अरे वाह जल्दी दो ना। फिर सब ने मिलकर कर नाश्ता किया और फिर टी वी देखने लगे। उधर कृष्णा घर पहुंच कर थोड़ा बहुत काम समेट कर आनंदी को बोली चल खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां,चलो पर एक बात बताओ रीतू दीदी क्या सचमुच मुझे ले जाएंगी? । कृष्णा ने समझाया और कहा ना बाबा इतना सपना मत देख जो पुरा ना हो। आनंदी ने कहा मुझे भरोसा है खुद पर और रीतू दीदी पर। अगर मैं गई तो तुम रह लोगी ना। कृष्णा बोली हां बाबा मेरी गुड़िया । उधर राजू के घर में सब एक साथ खाने बैठे हैं। रीतू बोली मम्मी आज तो मेरा मनपसंद डिश बना है जो कि मैंने पहले ही देख लिया। अनु ने कहा हां बेटा । इतने दिनों बाद सुकुन से खा ले। राजू बोला दीद
ी आप आनंदी के लिए कुछ सोच रही है। रीतू बोली अरे सोचना क्या वो तो जाएगी मेरे साथ। मैंने वहां के सबसे अच्छे स्कूल में बात भी कर लिया और उसे तो सब सोच को स्कलर सिप मिल जाएंगा। अगर एक छोटी सी कोशिश से किसी का भला हो सकता है तो फिर क्या बात। अनु बोली अरे बेटा उसकी जिम्मेदारी तू क्यों लेगी भला कहीं कुछ हो गया तो। रीतू बोली अरे मम्मी आज मैं कुछ बन पाई हुं तो सिर्फ कृष्णा वाई की वजह से आपको तो याद होगा ना किस तरह कृष्णा वाई इस परिवार को सम्हाल कर रखी थी।आप तो उन दिनों कितने टूर में जाती थी और मेरे परिक्षा के वक्त राजू छोटा था आनंदी को साथ लेकर कर कृष्णा वाई ने किसी तरह मुझे पढ़ने के लिए उत्साहित किया करती थी और समय से खिलाना सुलाना सब करती थी । मुझे पढ़ाई के समय कोई भी शोर पसंद नहीं था तो कृष्णा वाई ने राजू को आनंदी को लेकर घर का सारा काम किया करती थी। और आज जब मुझे मौका मिला है गुड़िया के लिए कुछ करने का तो मैं पीछे नहीं हट सकती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है तुझे जो सही लगे वहीं कर। फिर सब खाने के बाद रीतू के लाये हुए तोहफा देखने लगे। अनु बोली थैंक्स बेटा बैग बहुत अच्छा है। राजू ने कहा थैंक यू दी मोबाइल के लिए। फिर सब गुड नाईट बोल कर सोने चले गए। दूसरे दिन रीतू रोज की तरह योगा और सैर से हो कर आई। तभी कृष्णा और आनंदी आ गए। रीतू बोली कृष्णा वाई आपके लिए एक बैग और एक घड़ी लाई हुं। आईये आपको दिखाती हुं। कृष्णा बहुत खुश हुई। रीतू बोली गुड़िया के लिए एक काम की चीज लाई हुं। आनंदी ने कहा क्या दीदी ? तभी रीतू ने अलमारी से एक बैग, घड़ी और लैपटॉप निकाल कर कृष्णा वाई को बैग, घड़ी दिया और लैपटॉप आनंदी को दिया। आनंदी देख कर रोने लगी। कृष्णा वाई ने कहा अरे बेबी ये बहुत महंगा सामान दिया है। रीतू हंस क
र कहा हां पर आनंदी से ज्यादा महंगी नहीं है कृष्णा वाई। कृष्णा ये सुनकर रोने लगी। रीतू तुरन्त बोली अरे आप रोरिये मत। जल्दी से एक चाय पिलाओ। कृष्णा बोली हां अभी बनाती हुं। ये देख राजू खुश हो गया और बोला आनंदी अब खिटपिट करेंगी। आनंदी ने कहा दादा आप भी। अनु ने कहा अब बहुत हुआ बातचीत आनंदी राजू को जूस दे दो । आनंदी ने कहा हां मैम ,बस अभी लाती हूं। और फिर कृष्णा वाई और आनंदी का काम शुरू हो गया। अनु बोली जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे हम लोगों को बहार निकलना है। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आलू का पराठा बना दिया और साथ में दाल तरका । अनु बोली आज दोपहर का खाना मत बना। आज सारा साफ सफाई कर दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम कर देती हुं । फिर सब खाने की टेबल पर गर्म गर्म आलू का पराठा खाने लगे और फिर अमर बोले मेरा हो गया मैं तो निकलता हूं। अनु बोली अच्छा ठीक है पर जल्दी डाईबर को भेज देना। अमर बोले हां। फिर कुछ देर बाद राजू का भी स्कूल बस आ गया और वो भी चला गया। रीतू बोली आनंदी आ तुझे लैपटॉप सिखा दु। आनंदी ने कहा हां दीदी जरूर। इधर कृष्णा ने सारे बंगले की सफाई कर दिया और वो किरन मैम के घर चली गई। किरन के घर पहुंच कर चार बातें सुनकर कृष्णा ने मन बना लिया कि अब ये काम छोड़कर राजू के घर पुरे समय के लिए काम करेगी। फिर सारा काम करने के बाद कृष्णा ने कहा किरन मैम मैं अब काम नहीं कर पाऊंगी।। किरन ने कहा अरे अब क्या हुआ। कृष्णा वाई ने कहा जो एक इन्सान को इन्सान नहीं समझते है वहां काम नहीं करना है।बोल कर कृष्णा निकल गई। फिर वापस राजु के घर पहुंच कर बोली मैम क्या कुछ और काम है।? अनु बोली नहीं और तो कुछ काम नहीं है बस तू शाम को जल्दी से आना । कृष्णा ने तभी आनंदी को आवाज लगाई। और फिर आनंदी आ कर बोली हां मां क्या हुआ? कृष्णा बोली कि चल फिर घर चलते हैं।कह कर दोनों घर के लिए निकल गए। घर पहुंच कर ही कृष्णा वाई रीतू का दिया हुआ तोहफा देखने लगी और बोली रीतू बेबी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। आनंदी ने कहा हां मां दीदी तो दुर्गा है। पता है मां- मुझे तो दीदी ने लैपटॉप से ही लंदन के एक स्कूल में दाखिला लेने के लिए फार्म भरना सिखाया। कृष्णा वाई ने कहा अच्छा -बहुत ही भाग्यशाली हैं तू जो रीतू दीदी इतना कर रही है तेरे लिए, वरना आजकल कहा कोई अपना भी नहीं कर पाता है। भगवान उसका भला करे। कृष्णा बोली अच्छा चल आलू का पराठा खा ले। फिर दोनों रोज की तरह खा कर सो गए। फिर शाम हो चुकी थी और दोनों फिर राजू के घर पहुंच गए।तो देखा कि अनु मैम की सहेलियां आई थी। कृष्णा वाई बोली मैम चाय बना लूं। अनु बोली हां, साथ में पकौड़े कटलेट स्वीट कार्न सब तल लें। कृष्णा वाई बोली हां अभी करती हुं। और फिर जल्दी से नाश्ता तैयार करने लगी कटलेट के लिए आलू को उबालने गैस पर रख दिया और प्याज के पकौड़े तलने लगी और सबको चाय और नाश्ता दे दिया । अनु की सहेलियां सब बड़े चाव से खाने लगे और तारीफ भी कर दिया। रीतू बोली अरे गुड़िया तू चल मेरे रूम में।
आनंदी ने कहा हां-हां दीदी। फिर रीतू ने आनंदी का लैपटॉप निकाला और आनंदी को कहा कि तू चालू कर लैपटॉप। आनंदी ने झट से चालू कर दिया और फिर रीतू ने जैसे -जैसे अंग्रेजी में टाइप करने को कहा ,वैसे ही आनंदी भी टाइप करती जा रही थी और फिर आनंदी का दाखिला फार्म सबमिट हो गया और वो भी लंदन में। आनंदी को खुशी का ठिकाना न रहा।वो रीतू के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। रीतू बोली तेरा हर सपना पूरा हो। आनंदी ने कहा हां दीदी। फिर आनंदी ने रीतू का रूम अच्छी तरह से ठीक कर दिया । और फिर आनंदी नीचे आ कर रसोई में चली गई और बोली मां कुछ काम करना है। कृष्णा ने कहा नहीं रे सब हो गया अब हमलोगो को चलना चाहिए। कृष्णा बोली मैम सब टेबल पर रख दिया। अब चलती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है, खाना ले लिया। कृष्णा बोली हां मैम,ले लिया है।ये कह कर कृष्णा और आनंदी बहार निकल गए। घर जाते समय आनंदी ने सारी बात बताई । कृष्णा बोली अच्छा तो सब ठीक हो।आनंदी ने कहा हां मां अब वहां से ज़बाब आ गया तो मैं तो उड़ गई समझो। कृष्णा बोली हां मैम बन जा तू। फिर दोनों हंसने लगे और घर पहुंच गए। कृष्णा बोली आनंदी तू परदेश जाकर मां को भुल गई तो। आनंदी ने कहा अरे मां मैं तुमको भी वहां ले जाऊंगी। कृष्णा बोली अच्छा चल अब जल्दी से खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां चलो। फिर दोनों खाना खाने बैठे। आनंदी को छोले भटूरे बहुत पसंद थे और जैसे ही थाली में भटूरे देख कर बोली अरे वाह !मां क्या मस्त छोले भटूरे बना है। फिर खाना खाने के बाद कृष्णा घर का सारा काम कर के सोने गई तो देखा आनंदी पढ़ रही है। कुछ देर बाद दोनों सो गए। फिर सुबह हो गई और फिर आनंदी ने कहा मां आज लेट हो गया चलों जल्दी। कृष्णा वाई ने कहा हां चलो । फिर दोनों राजू के घर पहुंच गई और कृष्णा रसोई घर में
जाकर चाय बनाने लगी। अनु बोली आज तो सात बजा दिया।अब जल्दी जल्दी से नाश्ता में कचौड़ी और इमली की चटनी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आज आंख नहीं खुली ,तो इसलिए लेट हो गया। आप टेंशन मत किजिए मैं सब जल्दी से कर देती हूं। अनु बोली अच्छा आनंदी तू छत से कपड़े लेकर इस्त्री कर और सबके अलमारी में लगा दे। रीतू बोली अरे !मम्मी क्या तुम आनंदी से सब मत करवाओ ।वो इस्त्री वाला तो है चौराहे पर। अनु बोली अरे बाबा वो दुकान नहीं लगाया है। रीतू बोली जो आज जरूरत के कपड़े है मैं इस्री कर दुंगी। कृष्णा वाई जल्दी जल्दी नाश्ता बना रही थी। फिर सबको चाय भी पिलाई। रीतू बोली वाह क्या चाय बना है। और फिर आनंदी ने कहा कि दीदी वहां से कुछ ज़बाब आया क्या ? रीतू ने कहा नहीं अभी तक नहीं पर तुमको सिलेब्स बता देंती हुं।रूक अभी कचौड़ी खाकर चलते हैं। आनंदी ने कहा हां दीदी ठीक है। रीतू बड़े मन से कचौड़ी खा कर ऊपर अपने कमरे में आनंदी को लेकर आ गई और रीतू ने लैपटॉप निकाल कर आनंदी को सारा विवरण नोट करवाया और फिर समझाया कि कैसे ज़बाब देना होगा। इधर कृष्णा वाई ने सब खाना बना कर टेबल में लगा दिया और आनंदी को आवाज लगाई घर चलने के लिए कहा ,क्योंकि तीन बज रहे थे। आनंदी भी मां की आवाज़ से नीचे आ गई और बोली हां मां चलो। कृष्णा ने मन में बोला अनु मैम फोन पर ही बात कर रही है इसलिेए कृष्णा ने रीतू ने कहा बेबी हम जा रहे हैं। रीतू बोली कृष्णा वाई खाना लिया न?कृष्णा वाई बोली हां ले लिया है और आप लोगों का भी टेबल पर लगा दिया। फिर दोनों अपने घर पहुंच गए। कृष्णा ने कहा आज बहुत थकावट हो गई। आनंदी ने कहा हां, मां तुम आराम करो मैं खाना परोसती हुं। और फिर आनंदी ने खाना परोसा और दोनों खाकर कर सो गए। फिर शाम को कृष्णा वाई और आनंदी समय से पहले राजू के घर पहुंच गए। देखा तो घर में राजू के दादाजी , चाचा-चाची सब आए है। आनंदी ने कहा कि सब लोग आए हैं क्योंकि कहा कल दादा का जन्मदिन है। कृष्णा वाई ने कहा अरे हां,याद नहीं रहा। अनु बोली अच्छा हुआ जल्दी आ गई । पहले सबके लिए चाय बना और फिर रात के खाने में पुरी , आलू मटर की रससेदार सब्जी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम अभी सब करती हुं । आनंदी बोली अरे दादा कल तो आप का विशेष दिन है। राजू बोला हां मेरी गुड़िया। रीतू बोली अरे आनंदी तू मेरे कमरे में चल तो कुछ काम है। आनंदी रीतू के साथ उसके कमरे में गई। अनु फोन पर ही सबको कल रात की पार्टी में आने के लिए कहा रही थी। क्योंकि आज कल सबकुछ फोन पर ही हो जाता है। दादाजी और चाचा-चाची सब बैठ कर बातचीत कर रहे थे। कृष्णा ने सबको चाय, नाश्ता कराया। फिर कृष्णा का सब काम हो गया और वह आनंदी को लेकर चली गई। घर पहुंच कर आनंदी ने कहा मां आज दीदी ने मुझे अंग्रेजी में बात करना सिखाया। कृष्णा बोली अच्छा ठीक है चल जल्दी खा कर सो जाते हैं कल जल्दी जाना होगा। आनंदी ने कहा हां मां चलो । फिर दोनों का खाना खा कर सो जाते हैं। फिर सुबह उठकर कर तैयार हो कर दोनों रा
जू के घर पहुंच जाते हैं। गेट से ही सजावट गाना बजाना सब शुरू हो गया था। आनंदी ये देख खुश हो गई और बोली मां देख कितना अच्छा सज गया दादा का बंगला।। फिर अन्दर पहुंच कर ही कृष्णा राजू को बोली जन्मदिन पर बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी बोली दादा तुम जियो हजारों साल।। राजू बोला हां मेरी गुड़िया । अनु बोली अच्छा चल ,अब जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो।महेमान आने वाले हैं। कृष्णा वाई बोली हां मैम बस अभी करती हुं। राजू बोला कृष्णा वाई के हाथ की बनी खीर सबसे पहले खाऊंगा। कृष्णा ने कहा हां राजू बाबा याद है सबसे पहले दूध ही खौलाने जा रही हुं। अनु बोली हां किचन में मैंने दोपहर के लंच का मेनू कार्ड रख दिया ।देख लेना।कृष्णा ने कहा हां मैम, मैं अभी देखती हूं। फिर कृष्णा ने चाय बना कर टेबल पर रख दिया और फिर नाश्ते में मेनू कार्ड देखकर वाटी चोखा की तैयारी करने लगी। और साथ ही खीर भी तैयार करने लगी। फिर कृष्णा ने सबको बड़े मन से गरम - गरम वाटी चोखा खिला दिया। सब वाह! वाह कर रहे थे। राजू बोला हां कृष्णा वाई के हाथ में जादू है। लंच भी तैयार हो गया था फिर कृष्णा ने एक, एक करके सारा खाना बना कर टेबल पर लगा दिया और बोली कि आज राजू बाबा का जन्मदिन है इसलिए मैं सबको खाना परोसा देती हुं। अमर बोले हां कृष्णा तुम तो हमेशा से करती हो। राजू नये पोशाक में आ कर बैठ गए। और कृष्णा ने सबसे पहले राजू के लिए एक चांदी की कटोरी में खीर और फिर पुरा थाली सजाकर गरमा -गरम खाना परोसा और फिर बाकी के महेमानो को भी भोजन परोस दिया। सब बड़े मन से खाना खाने लगे और कृष्णा रसोई का बाकी सारा काम कर दिया। अनु बोली अरे सुन कृष्णा रात को पार्टी है तो तुम लोगों की छुट्टी। ये सुन कर सब अनु को देखने लगे। राजू बोला क्या
मां आज भी ऐसा बोलेगी। कृष्णा वाई और आनंदी को पूरा हक है पार्टी में शामिल होने का। अमर बोले हां ठीक कहा। आज सबके साथ खुशियां मनानी चाहिए। अनु बोली, अच्छा चल ठीक है कुछ ढंग के कपड़े पहन लेना । आनंदी को बहुत बुरा लगा और वो कुछ बोलने जा रही थी । तभी रीतू बोली आनंदी आ मेरे साथ। रीतू आनंदी को ऊपर ले गई और उसने अलमारी से दो पैकेट निकाल कर आनंदी को दिया और कहा ले शाम की पार्टी के लिए गुड़िया तेरा और कृष्णा बाई के कपड़े मैं लाई हुं ।आनंदी ने कहा धन्यवाद आपका। फिर आनंदी वह पैकेट ले कर नीचे रसोई में आकर कर मां को दिया और बोली ये दीदी ने दिया। कृष्णा वाई ने पैकेट ले कर अपने बैग में रख दिया। उधर पुरे घर को रंग-बिरंगी रोशनी वाली लाइट से सजाया जा रहा था। फिर कृष्णा वाई ने कहा मैम हम चलते हैं। अनु बोली अच्छा ठीक है खाना लिया है। कृष्णा बोली हां मैम ले लिया । और फिर कृष्णा और आनंदी चली गई। अनु बोली अरे अमर वो छत पर सब सजावट हो रहा है ना और डी जे भी चेक कर लेना हां। अमर बोले हां मैं सब कुछ देख रहा हु।तुम परेशान मत हो। राजू को उसके दादाजी ने एक किताब दिया राजू ने खोल कर देखा और कहा दादाजी थैंक यू।फिर चाचा चाची ने एक मोबाइल फोन दिया। राजू मोबाइल फोन देख कर बोला अरे वाह! फिर रीतू ने राजू को एक सफारी सूट दिया। राजू सारा तोहफा लेकर अपने कमरे में चला गया। और अलमारी में रख दिया। उधर कृष्णा वाई और आनंदी रास्ते में ये सोच रहे थे कि राजू को क्या उपहार दे।आनंदी बोली मां मुझे दादा के लिए कुछ तोफा लेना है। कृष्णा बोली हां ,मैं घर जाती हुं तू कुछ ले कर आ। आनंदी ने कुछ पैसे लिए और अजय गिफ्ट शाप में गई। आनंदी को एक फोटो फ्रेम पसंद आया और उसने पैक करने को कहा। फिर पैक करवा कर पैसे देकर घर पहुंच गई।घर आकर बोली मां खाना दे दो भुख लगी है फिर कृष्णा और आनंदी खाने लगे। आनंदी बोली मां कितना कुछ बनाई थी बताओ तो। कृष्णा हंस कर बोली हां ज़रूर कह कर बताने लगी। कबाब, पुलाव, आलू दम, कचौड़ी,मटर पकौड़ी,दाल मखानी, कलोंजी, खीर ।बस यही सब बना था। आनंदी बोली मां सुनकर ही पेट भर गया बहुत।कृष्णा बोली हां ठीक है मन से खा ले। फिर दोनों का खाना खा कर सो गए। उधर राजू का बंगला बहुत ही अच्छा सज गया था। फुलों की लड़ियां और रंग-बिरंगी लाइट की मालाओं से सजा था। सब अपने अपने कमरे में तैयार हो रहे थे। अनु तो तैयार होने पार्लर गई थी। रीतू तो तैयार हो गई और उधर राजू भी तैयार था। राजू के दादाजी व चाचा-चाची सब तैयार हो कर नीचे आ गए। फिर एक एक करके राजू के दोस्त आने लगे।सारे तोहफा लाकर राजू को दे रहे थे और जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं दे रहे थे। कुछ देर में अनु भी सज संवर कर आ गई और अपने सहेलियों का इन्तजार करने लगी। तभी अनु की सहेलियां भी आने लगी। सब एक -एक करके राजू को तोहफा दे रही थी। कृष्णा और आनंदी भी जल्दी से तैयार हो गई रीतू ने जो साड़ी और सूट दिया था। दोनो वहीं पहने थे। आनंदी खुशी से झूम उठी और फिर बोली मां देख रीतू
दीदी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। गुलाबी रंग का सूट, दीदी को सब पता है कि मुझे गुलाबी रंग पसन्द है। कृष्णा बोली हां बचपन से ही बेबी तुझे बहुत प्यार करती थी। तुमको वो कभी भी एक नौकरानी की बेटी नहीं समझा। अच्छा चल राजू के घर चलते हैं।फिर आनंदी ने राजू के लिए जो तोहफा खरीदा था वो लेकर राजू के घर पहुंच गई। आनंदी मन में मुस्कुरा कर बोली राजू दादा का बंगला कितना अच्छा लग रहा है। कृष्णा अन्दर जाकर राजू को बोली जन्मदिन की बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी ने तोहफा देते हुए कहा दादा तुम जियो हजारों साल। राजू बोला धन्यवाद आनंदी। खाने पीने की व्यवस्था पार्क पर किया गया था और सारी सजावट बहुत अच्छा लग रहा था। फिर राजू के लिए बहुत बड़ा सा केक आ गया। और राजू ने केक काट और सबको खिलाया। राजू ने आनंदी को भी केक खिलाया । आनंदी ने कहा दादा धन्यवाद। फिर अनु ने कृष्णा से कहा कि केक सबको दे दो। फिर कृष्णा ने एक बड़े ट्रे में केक लेकर सब के पास जाकर केक दे दिया। राजू के दोस्त लोग नाचने लगे सब बहुत मज़े कर रहे थे। फिर अनु ने सबको डिनर के लिए कहा। राजू के दोस्तों ने जाकर खाना शुरू किया। अमर ने और मेहमानों को भी खाना के लिए कहा फिर धीरे धीरे सब खा कर जाने लगे। राजू के दोस्त खाना खा कर सब चले गए। रीतू की कुछ सहेलियां आई थी वो सब खाना खा कर जाने लगी। क्योंकि रात भी काफी हो गया था। सबके खाने के बाद कृष्णा और आनंदी खाने के लिए गए। रीतू बोली अरे आनंदी इतने देर बाद खाने जा रही हो कहा थी तुम? आनंदी ने कहा यही तो थी। अनु बोली अरे मैंने ही कहा था तुम लोगों बाद में खाना खाने जाना जब सारे मेहमान खा कर चले जाएं। रीतू बोली अरे मम्मी आज तो ये नियम नहीं लागू कर सकती थी आज तो राजू का जन्मदिन था। औ
र आज सब मेहमान ही है। अनु बोली हां ठीक है कृष्णा अब जाकर आराम से खाना खा ले।कृष्णा बोली हां मैम। आनंदी और कृष्णा जाकर खाना खाने लगे। वहां पर सिर्फ वो लोग थे जिन्होंने ये सजावट करवाया था।वो लोग भी खाना खा रहे थे। राजू ये सब देख कर बहुत ही मायूस हुआ और अपने कमरे में चला गया। फिर अनु ने आनंदी को कहा सुन ये सारे तोहफा राजू के कमरे में रख दें। आनंदी ने कहा हां मैम मैं सब रख देती हूं। फिर आनंदी और रीतू मिल कर सारा तोहफा राजू के कमरे में रख दिया और फिर आनंदी और कृष्णा अपने घर चले गए। रात को राजू ने एक- एक करके सारा तोहफा खोला तो किसी ने गेम दिया तो किसी ने सजावट का सामान दिया तो कोई पेन डायरी दिया। राजू को सारे तोहफ़ों में आनंदी का दिया फोटो फ्रेम बहुत पसन्द आया। और उसने सोचा कि कोई अच्छी फोटो लगा कर अपने कमरे में सजायेगा। दूसरे दिन सुबह कृष्णा वाई जल्दी से तैयार हो कर राजू के घर पहुंच गई। कृष्णा ने आनंदी की तबीयत ठीक ना होने की वजह से उसको घर पर रहने की सलाह दी । कृष्णा वाई राजू के घर पहुंच कर जल्दी से साफ सफाई करने लगी।अनु बोली अरे आनंदी नहीं आई। कृष्णा बोली नहीं मैम उसकी तबियत ठीक नहीं है।अनु हंस कर बोली जरूर कल ज्यादा ही खा लिया था। कृष्णा कुछ नहीं बोली और काम करने लगी। तभी रीतू नीचे आ कर बोली कृष्णा वाई ओह आनंदी नहीं आई? उसको एक अच्छी खबर देनी थी। कृष्णा बोली अच्छा क्या बात है? रीतू बोली अरे कृष्णा वाई आनंदी को लंदन के स्कूल में दाखिला मिल जायेगा। उसका रेजल्ट इतना अच्छा है। उसे अब मेरे साथ लंदन जाना होगा।कृष्णा सुनकर रोने लगी। रीतू बोली अरे आप रो रही है। कृष्णा वाई बोली हां ये खुशी के आंसु है। राजू भी बहुत खुश हो गया। अनु बोली अच्छा अब नाश्ता बना दे। नाश्ता कुछ हल्का सा बना दो।कृष्णा बोली हां मैम जो आप बोले। अनु ने कहा कि सूजी का हलवा और मठरी बना दे। कृष्णा ने कहा हां मैम बना देती हूं। फिर सब काम करने के बाद कृष्णा अपने घर के लिए निकल गई। घर पहुंच कर देखा कि आनंदी पढ़ रही है। आनंदी ने कहा मां आ गई। कृष्णा वाई बोली हां आनंदी तेरे लिए एक खुशखबरी लाई हुं। आनंदी बोली अरे मां क्या हुआ? कृष्णा बोली तेरा लंदन जाने का सपना पूरा होने वाला है। आनंदी ने कहा अच्छा। कृष्णा ने कहा हां रीतू बेबी ने कहा। आनंदी ने कहा हां दीदी ने सब कर दिया मां। कृष्णा ने कहा हां बेटा वो तो जब पिछले साल आई थी तभी तो तुम्हारा आधार कार्ड ले गई थी और देखो इस साल तुमको ले जाएंगी। दोस्तों इस कहानी को आगे पढ़ने के लिए इसका दूसरा भाग पढ़ना होगा। आज बस यही तक।।
अनासक्ति हो पूर्ण आत्मत्याग है साथ वे तदाकार होकर स्पंदित हो सकें, कभी कभी सैकड़ों वर्ष तक लग सकते हैं । अतएव यह नितान्त सम्भव है कि हमारा यह वायुमण्डल अच्छी और वुरी, दोनों प्रकार की विचार-तरंगों से व्याप्त हो । प्रत्येक मस्तिष्क से निकला हुआ प्रत्येक विचार योग्य आधार प्राप्त हो जाने तक मानो इसी प्रकार भ्रमण करता रहता है । और जो मन इस प्रकार के आवेगों को ग्रहण करने के लिए अपने को उन्मुक्त किये हुए है, वह तुरन्त ही उन्हें अपना लेगा । अतएव जब कोई मनुष्य कोई दुष्कर्म करता है, तो वह अपने मन को किसी एक विशिष्ट सुर में ले आता है; और उसी सुर की जितनी भी तरंगें पहले से ही आकाश में अवस्थित हैं, वे सब उसके मन में घुस जाने की चेष्टा करती हैं। यही कारण है कि एक दुष्कर्मी साधारणतः अधिकाधिक दुष्कर्म करता जाता है। उसके कर्म क्रमशः प्रवलतर होते जाते हैं। यही वात सत्कर्म करनेवाले के लिए भी घटती है; वह अपने को वातावरण की समस्त शुभतरंगों को ग्रहण करने के लिए मानो खोल देता है और इस प्रकार उसके सत्कर्म अधिकाधिक शक्तिसम्पन्न होते जाते हैं। अतएव हम देखते हैं कि दुष्कर्म करने में हमें दो प्रकार का भय है। पहला तो यह कि हम अपने को चारों ओर की अशुभतरंगों के लिए खोल देते हैं; और दूसरा यह कि हम स्वयं ऐसी अशुभ-तरंग का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, फिर चाहे वह सैकड़ों वर्ष वाद ही क्यों न हो। दुष्कर्म द्वारा हम केवल अपना ही नहीं, वरन दूसरों का भी अहित करते हैं, और सत्कर्म द्वारा हम अपना तथा दूसरों का भी भला करते हैं। मनुष्य की अन्य शक्तियों के समान ये शुभ और अशुभ शक्तियाँ भी वाहर से वल संचित करती हैं । कर्मयोग के अनुसार, विना फल उत्पन्न किये कोई भी कर्म नष्ट नहीं हो सकता । प्रकृति की कोई भी शक्ति उसे फल उत्पन्न करने से रोक नहीं सकती। यदि में कोई चुरा कर्म करूँ, तो उसका फल मुझे भोगना ही पड़ेगा; विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो इसे रोक सके । इसी प्रकार, यदि मैं कोई सत्कार्य करूँ, तो विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो उसके शुभ फल को रोक सके । कारण से कार्य होता ही है; इसे कोई भी रोक नहीं सकता। अब हमारे सामने कर्मयोग के सम्बन्ध में एक सूक्ष्म एवं गम्भीर प्रश्न उपस्थित होता है। हमारे सत् और असत् कर्म आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं; इन दोनों के बीच हम निश्चित रूप से एक रेखा खींचकर यह नहीं बता सकते कि अमुक कार्य नितान्त शुभ है और अमुक अशुभ । ऐसा कोई भी कर्म नहीं है, जो एक ही समय शुभ और अशुभ, दोनों फल न उत्पन्न करे । यही देखो, में तुम लोगों से बात कर रहा हूँ; सम्भवतः तुममें से कुछ लोग सोचते होंगे कि मैं एक भला कार्य कर रहा हूँ । परन्तु साथ ही साथ गायद में हवा में रहनेवाले असंख्य छोटे छोटे कीटाणुओं को भी नष्ट करता जा रहा हूँ । और इस प्रकार एक दृष्टि से मैं बुरा भी कर रहा हूँ । हमारे निकट के लोगों पर, जिन्हें हम जानते हैं, यदि किसी कार्य का प्रभाव शुभ पड़ता है, तो हम उसे श
ुभ कार्य कहते हैं। उदाहरणार्य, तुम लोग मेरे इस व्याख्यान को अच्छा कहोगे, परन्तु वे कीटाणु ऐसा कभी न कहेंगे। कीटाणुओं को तुम नहीं देख रहे हो, पर अपने आपको देख रहे हो । मेरी वक्तृता का जो प्रभाव तुम पर पड़ता है, वह तुम स्पष्ट देख सकते हो, किन्तु उसका प्रभाव उन कीटाणुओं पर कैसा पड़ता है, यह तुम नहीं जानते। इसी प्रकार यदि हम अपने असत् कर्मों का भी विश्लेषण करें, तो हमें ज्ञात होगा कि सम्भवतः उनसे भी कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार का शुभ फल हुआ है। जो शुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ अशुभ तथा अशुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ शुभ देखता है, वास्तव में उसीने कर्म का रहस्य समझा है । इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ? - यही कि हम चाहे जितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसा कोई कर्म नहीं हो सकता, जो सम्पूर्णतः पवित्र हो अथवा सम्पूर्णतः अपवित्र, यदि 'पवित्रता' या 'अपवित्रता' से हमारा तात्पर्य है, अहिंसा या हिंसा विना दूसरों को हानि पहुँचाये हम साँस तक नहीं ले सकते। अपने भोजन का प्रत्येक ग्रास हम किसी दूसरे के मुँह से छीनकर खाते हैं। यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व भी दूसरे प्राणियों के जीवन को विनष्ट करके संभव होता है। चाहे मनुष्य हो, पशु हो अथवा कीटाणु, किसी न किसीको हटाकर ही हम अपना अस्तित्व स्थिर रखते हैं । ऐसी दशा में यह स्वाभाविक ही है कि कर्म द्वारा पूर्णता कभी नहीं प्राप्त हो सकती। हम भले ही अनन्त काल तक कर्म करते रहें, परन्तु इस जटिल संसार-व्यूह से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। हम चाहे निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु कर्मफलों में इस शुभ और अशुभ के अपरिहार्य साहचर्य का अंत नहीं होगा। दूसरी विचारणीय बात है --- कर्म का क्या उद्देश्य है ? हम देखते हैं कि प्रत्येक देश के अधिकांश व्यक्तियों की यह धारणा है कि एक
समय ऐसा आयेगा, जब यह संसार पूर्णता को प्राप्त हो जायगा; तब यहाँ न तो किसी प्रकार का रंग रहेगा, न शोक, न दुष्टता, न मृत्यु । वैसे तो यह एक बड़ा सुन्दर विचार है और एक अज्ञानी को उदात्त बनाने और प्रोत्साहन देने के लिए बहुत ही अच्छी प्रेरक शक्ति है; परन्तु यदि हम क्षण भर भी ध्यानपूर्वक सोचें, तो हमें सहज ही ज्ञात हो जायगा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। और यह हो भी कैसे सकता है, जब हम जानते हैं कि शुभ और अशुभ एक ही सिक्के के चित और पढ़ हैं ? ऐसा भी कहीं हो सकता है कि शुभ हो और उसके साथ अशुभ न हो ? तब फिर पूर्णता का अर्थ क्या है ? सच पूछा जाय, तो 'पूर्ण जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्मक है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है। प्रतिक्षण हम बाह्य प्रकृति से संघर्ष करते रहते हैं, और यदि उसमें हमारी हार हो जाय, तो हमारा जीवन-दीप ही बुझ जाता है। आहार और हवा के लिए निरन्तर चेष्टा का नाम ही है जीवन । यदि हमें भोजन या हवा न मिले, तो हमारी मृत्यु हो जाती है। जीवन कोई आसानी से चलनेवाली सरल चीज़ नहीं है - यह तो एक प्रकार का सम्मिश्रित व्यापार है । वहिर्जगत् और अन्तर्जगत् का घोर संघर्ष ही जीवन कहलाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह संघर्ष समाप्त हो जायगा, तो जीवन का भी अन्त हो जायगा । आदर्श सुख का अर्थ है - इस संघर्ष का अन्त हो जाना । परन्तु तब तो जीवन का भी अन्त हो जायगा; क्योंकि संघर्ष का अन्त तभी हो सकता है, जब स्वयं जीवन का ही अंत हो जाय । हम यह देख ही चुके हैं कि संसार का उपकार करना अपना. ही उपकार करना है। दूसरों के लिए किये गये कार्य का मुख्य फल है - आत्मशुद्धि। दूसरों के प्रति निरन्तर शुभ करते रहने से हम स्वयं को भूलने का प्रयत्न करते रहते हैं। और यह आत्मविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है, जो हमें जीवन में सीखनी है। मनुष्य मूर्खतावश सोचता है कि वह अपने को सुखी बना सकता है, परन्तु वर्षों के घोर संघर्ष के बाद उसकी आँखें खुलती हैं और वह यह अनुभव करता " है कि वास्तविक सुख तो स्वार्थपरता को नष्ट कर देने में है, और सिवा अपने उसे और कोई सुखी नहीं बना सकता । परोपकार का प्रत्येक कार्य, सहानुभूति का प्रत्येक विचार, दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म, प्रत्येक शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है और हममें यह भावना उत्पन्न करता है कि हम न्यूनतम और तुच्छतम हैं; और इसीलिए ये सब कार्य श्रेष्ठ हैं । ज्ञान, भक्ति और कर्म, तीनों इस बिंदु पर मिलते हैं। सर्वोच्च आदर्श है - चिरंतन और सम्पूर्ण आत्मत्याग, जिसमें किसी प्रकार का 'मैं' नहीं, केवल 'तू' ही 'तू' है । हमारे जाने या बिना जाने, कर्मयोग हमें इसी लक्ष्य की ओर ले जाता है। सम्भव है, एक धर्मप्रचारक निर्गुण ईश्वर की बात सुनकर दहल उठे। उसका शायद यही दृढ़ मत हो कि ईश्वर सगुण है, और वह अपने निजत्व, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व कोइस व्यक्तित्व के बारे में उसकी धारणा चाहे जैसी भी हो
- क़ायम रखने का इच्छुक हो; परन्तु यदि उसके नीतिविषयक विचार वास्तव में शुद्ध हैं, तो उनका आधार सर्वोच्च आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। यह सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता की नींव है। मनुष्य, पशु, देवता सबके लिए यही एक मूल भाव है, जो समस्त नैतिक विधानों में व्याप्त है । इस संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। प्रथम तो देव-मानव, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं, अपने जीवन की भी वाज़ी लगाकर दूसरों का भला करते हैं । ये सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे सौ मनुष्य भी हों, तो उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं । परन्तु खेद है, ऐसे लोग बहुत-बहुत कम हैं ! दूसरे वे सावु- प्रकृति मनुष्य हैं, जो दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी स्वयं की कोई हानि न हो; और तीसरे वे आसुरी प्रकृति के लोग हैं, जो अपनी भलाई के लिए दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते। एक संस्कृत कवि ने चौथी श्रेणी भी वतायी है, जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते । ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिए ही करते रहते हैं। जिस प्रकार सर्वोच्च स्तर पर साधु-महात्मागण भला करने के लिए ही दूसरों का भला करते रहते हैं, उसी प्रकार सबसे निम्न स्तर पर ऐसे लोग भी हैं, जो केवल बुरा करने के लिए ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता - यह तो उनकी प्रकृति ही है। संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति । प्रवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन या गमन, और निवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु से निवर्तन हैया प्रत्यागमन । 'किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन का ही अर्थ है, हमारा यह संसारयह 'मैं' और 'मेरा' । इस 'मैं' को धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व,
नाम-यश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले, उसीको पकड़ रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस "मैं'-रूपी केन्द्र में ही संगृहीत करना - इसीका नाम है 'प्रवृत्ति' । यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है, - चहुँ ओर से जो कुछ मिले, उसे लेना और सबको एक केन्द्र में एकत्र करते जाना। और वह केन्द्र है, उसका अपना मवुर 'अहं' । जव यह वृत्ति घटने लगती है, जब निवृत्ति का उदय होता है, तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है । 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति', दोनों ही कर्मस्वरूप हैं । एक असत् कर्म है और दूसरा सत् । निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की -नींव है; और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण 'आत्मत्याग' है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है । सत्कार्यों का यही सर्वोच्च फल है। किसी मनुष्य ने चाहे एक भी दर्शनशास्त्र न पढ़ा हो, किसी प्रकार के ईश्वर में विश्वास न किया हो और न करता हो, चाहे उसने अपने जीवन भर में एक बार भी प्रार्थना न की हो, परन्तु केवल सत्कार्यो की शक्ति द्वारा उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ वह दूसरों के लिए अपना जीवन और सब कुछ उत्सर्ग करने को तैयार रहता है, तो हमें समझना चाहिए कि वह उसी लक्ष्य को पहुँच गया है, जहां भक्त अपनी उपासना द्वारा तथा दार्शनिक अपने ज्ञान द्वारा पहुँचता है। इस प्रकार तुम देखते हो कि ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनों एक ही स्थान पर पहुँचते हैं; और वह स्थान है - आत्मत्याग । लोगों के दर्शन और धर्म में कितना ही भेद क्यों न हो, जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिए अर्पित करने को उद्यत रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है। यहाँ किसी प्रकार के मत या संप्रदाय का प्रश्न नहीं, यहाँ तक कि वे लोग भी, जो धर्म सम्बन्धी समस्त विचारों के विरुद्ध हैं, जब इस प्रकार का सम्पूर्ण आत्मत्यागपूर्ण कोई कार्य देखते हैं, तो उसके प्रति श्रद्धानत हुए बिना नहीं रह सकते । क्या तुमने यह नहीं देखा, एक कट्टर मतान्ध ईसाई भी जब एडविन आर्नल्ड के 'एशिया की ज्योति' (Light of Asia) नामक ग्रंथ को पढ़ता है, तो वह भी उस बुद्ध के प्रति किस प्रकार श्रद्धानत हो जाता है, जिन्होंने किसी ईश्वर का उपदेश नहीं किया, आत्मत्याग के अतिरिक्त जिन्होंने अन्य किसी भी बात का प्रचार नहीं किया ? इसका कारण केवल यह है कि मतान्ध व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसका स्वयं का जीवन-लक्ष्य और उन लोगों का जीवन-लक्ष्य, जिन्हें वह अपना विरोधी समझता है, विल्कुल एक ही है। एक उपासक अपने हृदय में निरन्तर ईश्वरी भाव एवं साधु भाव रखते हुए अन्त में उसी एक स्थान पर पहुँचता है और कहता है, "प्रभो, तेरी इच्छा पूर्ण हो ।" वह अपने निमित्त कुछ भी बचा नहीं रखता । यही आत्मत्याग है । एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि उसका यह तथाकथित भासमान 'अहं' केवल एक भ्रम है; और इस तर
ह वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान, तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं। प्राचीन काल के बड़े बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया था कि 'ईश्वर जगत् से भिन्न है, जगत् से परे है, तो असल में उसका मर्म यही था । जगत् एक चीज़ है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है । जगत् से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता । स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है । एक मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से स्वार्थरहित है, तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो चिथड़े क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीन-हीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से डूवा हुआ है। हाँ, तो हम यह कह रहे थे कि बिना कुछ बुरा किये हम न तो भला कर सकते हैं और न बिना कुछ भला किये बुरा ही । तो अब प्रश्न यह है कि यह जानते हुए हम किस प्रकार कर्म करें ? अतः इस संसार में अनेक ऐसे भी सम्प्रदाय हुए हैं, जिन्होंने अद्भुत अनर्गलतापूर्वक यह शिक्षा दी कि धीरे धीरे आत्महत्या कर लेना ही इस संसार से निस्तार पाने का एकमात्र उपाय है, क्योंकि, मनुष्य यदि जीवित रहता है, तो अनेक छोटे छोटे जन्तुओं और पौधों का नाश करके, अथवा अन्य किसी न किसीका कुछ न कुछ अनिष्ट करके ही । इसीलिए उनके मतानुसार इस संसार- चक्र से छूटने का एकमात्र उपाय है मृत्यु ! जैनियों ने अपने सर्वोच्च आदर्श के रूप में इसीका प्रचार किया है। यह शिक्षा बड़ी तर्कसंगत प्रतीत होती है। परन्तु इसका यथार्थ समाधान गीता में मिलता है। और वह है अनासक्ति-अपने जीवन के समस्त कार्य कर
ते हुए भी किसीमें आसक्त न होना । यह जान लो कि संसार में होते हुए भी तुम संसार से नितान्त पृथक् हो और यहाँ तुम जो भी कर रहे हो, वह अपने लिए नहीं है। यदि कोई कार्य तुम अपने लिए करोगे, तो उसका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। यदि वह सत्कार्य है, तो तुम्हें उसका अच्छा फल मिलेगा और यदि बुरा है, तो बुरा । परन्तु कोई भी कार्य हो, यदि तुम वह अपने लिए नहीं करते, तो उसका प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा। इस भाव को स्पष्ट करने के लिए हमारे शास्त्रों में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है, 'यदि किसीमें यह बोध रहे कि मैं इसे अपने लिए विल्कुल नहीं कर रहा हूँ, तो फिर वह चाहे समस्त संसार की हत्या ही क्यों न कर डाले (अथवा स्वयं ही क्यों न ह्त हो जाय), वास्तव में वह न तो हत्या करता है और न हत ही होता है। इसीलिए कर्मयोग हमें शिक्षा देता है, 'संसार को मत छोड़ो, संसार में ही रहो; जितना चाहो, सांसारिक भाव ग्रहण करो। परन्तु यदि यह अपने ही भोग के निमित्त हो, तो फिर तुम्हारा कर्म करना व्यर्थ है।' तुम्हारा लक्ष्य भोग नहीं होना चाहिए। पहले अहंभाव को नष्ट कर डालो, और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो, जैसा प्राचीन ईसाई कहा करते थे उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिए।' इस वूढ़े आदमी का अर्थ है, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार हमारे ही भोग के लिए बना है। अज्ञ माता-पिता अपने बच्चे को यह प्रार्थना करने की शिक्षा देते हैं, "हे प्रभो, तूने यह सूर्य और चन्द्रमा मेरे लिए हो बनाये हैं," मानो उस ईश्वर को सिवाय इसके कि वह इन बच्चों के लिए यह सव पैदा करता रहे और कोई काम ही न था ! अपने बच्चों को ऐसी मूर्खतापूर्ण शिक्षा मत दो। फिर एक दूसरे प्रकार के भी मूर्ख लोग हैं, जो हमें सिखाते हैं कि ये सब जानवर हमारे मारने खाने के लिए ही बनाये गये हैं और यह सारा संसार मनुष्य के भोग के लिए है। यह सब निरो मूर्खता है । एक शेर भी कह सकता है कि मनुष्य की उत्पत्ति मेरे हो लिए हुई है और ईश्वर से प्रार्थना कर सकता है, "है प्रभो, मनुष्य कितना दुष्ट है कि वह अपने को मेरे सामने उपस्थित नहीं कर देता, जिससे में उसे खा जाऊँ । देखिए, मनुष्य आपका नियम भंग कर रहा है।" यदि संसार की उत्पत्ति हमारे लिए हुई है, तो हम भी संसार के लिए ही पैदा किये गये हैं । यह वड़ी कुत्सित धारणा है कि यह संसार हमारे भोग के लिए ही बनाया गया है और इसी भयानक धारणा से हम वद्ध रहते हैं। वास्तव में यह संसार हमारे लिए नहीं है। प्रतिवर्ष लाखों लोग इसमें से बाहर चले जाते हैं, परन्तु उधर संसार की कोई नज़र तक नहीं। लाखों फिर आ जाते हैं। संसार जैसे हमारे लिए है, वैसे ही हम भी संसार के लिए हैं । अतएव ठीक ढंग से कर्म करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम आसक्ति का भाव त्याग दें। दूसरी बात यह है कि हमें स्वयं झंझट में उलझ नहीं जाना चाहिए । अपने को एक साक्षी के समान रखो और अपना काम करते रहो । मेरे गुरुदेव कहा करते थे, "अपने बच्चों के प्रति वही भावना रखो, जो एक धाय की होती है।' वह तुम्हारे बच्
चे को गोद में लेती है, उसे खिलाती है और उसको इस प्रकार प्यार करती है, मानो वह उसीका बच्चा हो । पर ज्यों ही तुम उसे काम से अलग कर देते हो, त्यों ही वह अपना बोरा - विस्तर समेट तुरन्त घर छोड़ने को तैयार हो जाती है । उन बच्चों के प्रति उसका जो इतना प्रेम था, उसे वह बिल्कुल भूल जाती है। एक साधारण घाय को तुम्हारे बच्चों को छोड़कर दूसरे के बच्चों को लेने में तनिक भी दुःख न होगा । तुम भी अपने बच्चों के प्रति यही भाव धारण करो । तुम्हीं उनकी धाय हो, - और यदि तुम्हारा ईश्वर में विश्वास है, तो विश्वास करो कि ये सब चीजें, जिन्हें तुम अपनी समझते हो, वास्तव में ईश्वर की हैं । अत्यन्त दुर्बलता कभी कभी बड़ी साधुता और सवलता का रूप धारण कर लेती है। यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसीका भला कर सकता हूँ, अत्यन्त दुर्बलता का चिह्न है । यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भली भाँति समझा देना चाहिए कि इस संसार में हमारे ऊपर कोई भी निर्भर नहीं है । एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं । किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं, संसार का कोई भी प्राणी हमारी सहायता का भूखा नहीं। सबकी सहायता प्रकृति से होती है। यदि हममें से लाखों लोग न भी रहें, तो भी उन्हें सहायता मिलती रहेगी। तुम्हारे-हमारे न रहने से प्रकृति के द्वार वन्द न हो जायेंगे। दूसरों की सहायता करके हम जो स्वयं शिक्षा लाभ कर सक रहे हैं, यही तो हमारे तुम्हारे लिए परम सौभाग्य की बात है । 'जीवन में सीखने योग्य यही सबसे बड़ी बात है । जब हम पूर्ण रूप से इसे सीख लेंगे, तो हम फिर कभी दुःखी न होंगे; तव हम समाज में कहीं भी जाकर उठ बैठ सकते हैं, इससे हमारी कोई हानि न
होगी । तुम्हारे चाहे पति हों, चाहे पत्नियाँ हों, तुम्हारे दल के दल नौकर हों, बड़ा भारी राज्य हो, न गिरे।" बालक शुक ने दूध का प्याला ले लिया और संगीत की ध्वनि एवं अनेक सुन्दरियों के बीच प्रदक्षिणा करने को उठे । राजा की आज्ञानुसार वे सात बार चक्कर लगा आये, परन्तु दूध की एक बूंद भी न गिरी । बालक शुक का अपने मन पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई भी वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी । प्रदक्षिणा कर चुकने के बाद जब वे दूध का प्याला लेकर राजा के सम्मुख उपस्थित हुए, तो उन्होंने कहा, "वत्स, जो कुछ तुम्हारे पिता ने तुम्हें सिखाया है तथा जो कुछ तुमने स्वयं सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति मात्र मैं कर सकता हूँ। तुमने 'सत्य' को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ ।' अतएव हमने देखा कि जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज़ अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती । उसका मन स्वतंत्र हो जाता है । और केवल ऐसा ही पुरुष संसार में रहने योग्य है । वहुधा हम देखते हैं कि लोगों की संसार के सम्बन्ध में दो प्रकार की धारणाएँ होती हैं। कुछ लोग निराशावादी होते हैं। वे कहते हैं, "संसार कैसा भयानक है, कैसा दुष्ट है !" दूसरे लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं, "अहा ! संसार कितना सुन्दर है, कितना अद्भुत है ! जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है, या अधिक से अधिक, अच्छाइयों और बुराइयों का एक मिश्रण है। परन्तु यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, तो यही संसार सुखमय हो जाता है। फिर हमारे ऊपर किसी भी वात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगाहमें सब कुछ यथास्थान और सामंजस्यपूर्ण दिखलायी पड़ेगा। देखा जाता है, जो लोग आरम्भ में संसार को नरककुण्ड समझते हैं, वे ही यदि आत्मसंयम की साधना में सफल हो जाते हैं, तो इस संसार को ही स्वर्ग समझने लगते हैं। यदि हम सच्चे कर्मयोगी हैं और इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो हम चाहे जिस अवस्था से आरम्भ करें, यह निश्चित है कि हमें अन्त में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही। और ज्यों ही इस कल्पित 'अहं' का नाश हो जायगा, त्यों ही वही संसार, जो हमें पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अव स्वर्गस्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा । यहाँ की हवा तक बदलकर मधुमय हो जायगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा । यही है कर्मयोग की चरम गति, और यही है उसकी पूर्णता या सिद्धि । हमारे भिन्न भिन्न योग आपस में विरोधी नहीं हैं। प्रत्येक अन्त में हमें एक ही स्थान में ले जाता है और पूर्णत्व की प्राप्ति करा देता है। पर प्रत्येक का दृढ़ अभ्यास आवश्यक है। सारा रहत्य अभ्यास में ही है। पहले श्रवण करो, फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यह वात प्रत्येक योग के सम्बन्ध में सत्य है । पहले तुम इसके बारे में सुनो और समझो कि इसका म
र्म क्या है । यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों, तो निरन्तर श्रवण एवं मनन से वे स्पष्ट हो जाती है । सब बातों को एकदम समझ लेना बड़ा कठिन है। फिर भी, उनकी व्याख्या आखिर तुम्हीं में तो है। वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता, हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपक मात्र हैं, जो हमारे अन्तःस्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं । तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार शक्ति से स्पष्ट हो जाती हैं और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं; और यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा शक्ति में परिणत हो जाती है। पहले वह भावना होती है, फिर इच्छा, और इस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचंड शक्ति पैदा होती है, जो तुम्हारी प्रत्येक नस, प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे संपूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती है और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम निःस्वार्थता प्राप्त हो जाती है। यह उपलब्धि किसी प्रकार के मत, सिद्धान्त या विश्वास पर निर्भर नहीं है । चाहे ईसाई हो, यहूदी अथवा जेन्टाइल - इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो, तो चाहे तुमने एक भी धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन न किया हो, चाहे तुम किसी भी गिरजा या मन्दिर में न गये हो, फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे । हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिए सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। सांख्ययोगौ पृथक् बालाः प्रवदन्ति
न पण्डिताः । - 'केवल अज्ञ ही कहते है कि कर्म और ज्ञान भिन्न भिन्न हैं, ज्ञानी नहीं।" ज्ञानी यह जानता है कि यद्यपि ऊपर से योग एक दूसरे से विभिन्न प्रतीत होते हैं, अन्त में वे मानवीय पूर्णता के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं । हम पहले कह चुके हैं कि 'कर्म' शब्द 'कार्य' के अतिरिक्त कार्य-कारणवाद को भी सूचित करता है। कोई कार्य, कोई विचार, जो फल उत्पन्न करता है, 'कर्म' कहलाता है । इसलिए कर्म के नियम का अर्थ है, कार्य-कारण- सम्बन्ध का नियम, कारण और कार्य का ध्रुव अनुक्रम । यदि कारण रहे, तो उसका फल भी अवश्य होगा, इसका व्यतिक्रम कभी हो नहीं सकता। भारतीय दर्शन के अनुसार यह 'कर्म-विधान' समस्त जगत् पर लागू है। हम जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा जो कुछ कर्म करते हैं, वह एक ओर तो पूर्व कर्म का फल है और दूसरी ओर वही कारण होकर अपना फल उत्पन्न करता है। इसके साथ ही साथ हमें यह भी समझ लेना आवश्यक है कि 'नियम' शब्द का अर्थ क्या है । इसका अर्थ है - घटनाशृंखलाओं की पुनरावर्तन की प्रवृत्ति । जब हम देखते हैं कि एक घटना के बाद कोई दूसरी घटना होती है अथवा दो घटनाएँ साथ ही साथ होती हैं, तब हम इस अनुक्रम या सह-अस्तित्व के पुनः घटित होने की अपेक्षा करते हैं। हमारे देश के प्राचीन नैयायिक इसे 'व्याप्ति' कहते हैं। उनके मतानुसार नियम सम्वन्धी हमारी समस्त धारणाएँ साहचर्य के आधार पर होती हैं। एक घटना शृंखला अपरिवर्तनीय क्रम से हमारे मन में कुछ वस्तुएं गूंथ जाती है, जिससे हम जब कभी किसी विषय का प्रत्यक्ष करते हैं, तो वह तुरन्त मन के अन्तर्गत कुछ अन्य तथ्यों से सम्बद्ध हो जाता है। कोई एक भाव अयवा, हमारे मनोविज्ञान के अनुसार, चित्त में उत्पन्न कोई एक तरंग सदैव उसी प्रकार की अनेक तरंगों को उत्पन्न कर देती है। यही मनोविज्ञान की साहचर्य की धारणा है और कारणता इसी 'व्याप्ति' नामक योगविधान का एक पहलू मात्र है । अन्तर्जगत् तथा बाह्य जगत् दोनों में 'नियम-तत्त्व ' अथवा नियम की कल्पना एक ही है, और वह है - यह अपेक्षा करना कि एक घटना के बाद एक दूसरी विशिष्ट घटना होगी और इस अनुक्रम की पुनरावृत्ति होती रहेगी। यदि ऐसा हो, तो फिर वास्तव में प्रकृति में नियम का अस्तित्व ही नहीं है । वस्तुतः यह कहना भूल होगी कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है अथवा पृथ्वी के किसी स्यान में कोई वस्तुगत नियम विद्यमान है। हमारा मन जिस प्रणाली अथवा विधि से कुछ घटना-श्रृंखला की धारणा करता है, उसीको हम नियम कहते हैं, और यह हमारे मन में ही स्थित है। एक दूसरे के बाद जयवा एक ही साथ घटित होने
अगर तुम ईमानदारी से जीवन का रूपांतरण चाहते हो तो उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाते न हों; जो तुम्हारे जीवन का निदान सीधा कर के रख देते हों सामने--चाहे चोट भी लगती हो; चाहे तुम्हारा घाव भी छू जाता हो और तुम्हारी मलहम-पट्टी उखड़ जाती हो; चाहे तुम्हारे नासूर से मवाद निकल आती हो। लेकिन उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाने के आदी नहीं हैं; जो तुम्हारे जीवन के सत्य को वैसा का वैसा रख देते हैं जैसा है। पीड़ा होती है। लेकिन जीवन-रूपांतरण में पीड़ा छुपी है। और अगर तुमने उनकी बात सुनी और समझने की कोशिश की और जीवन में वैसा आचरण और व्यवहार किया तो तुम बदल जाओगे। तसल्ली उन्होंने नहीं बंधाई, लेकिन तुम्हारे जीवन को क्रांति दे देंगे वे। लेकिन तुम मुफ्त तसल्ली में घूमते हो। फिर एक साधु चुक जाता है, क्योंकि कई दफे तसल्ली बंधा चुका, अब तुम्हें उसमें भरोसा नहीं रहा, फिर तुम दूसरा साधु खोज लेते हो। साधुओं की कोई कमी नहीं है। जिंदगी बड़ी छोटी है, साधु बहुत हैं । तसल्ली, तसल्ली, तसल्ली । तुम घूमते फिरते हो। बंद करो! जीवन के सत्य को पकड़ो! जीवन का सत्य सुगम नहीं है, सांत्वना नहीं है। जीवन का सत्य कठोर है। कांटा चुभा है तुम्हारी छाती में, उसे निकालने में पीड़ा होगी। तुम चीखोगे, चिल्लाओगे। लेकिन वह चीख-चिल्लाहट जरूरी है। और तुम्हें जो उस पीड़ा से गुजारने में साथी हो सके, उसे मित्र मानना। सदगुरु तसल्ली नहीं देता। सदगुरु सत्य देता है, फिर चाहे कितना ही कड़वा हो । आखिर वैद्य अगर यह सोचने लगे कि मीठी ही दवा देनी है, तो चिकित्सा न होगी, मरीज चाहे प्रसन्न हो जाये क्षणभर को। शरबत पिला दे मरीज को, लेकिन इससे बीमारी ठीक न होगी; मरीज प्रसन्न होकर घर लौट जायेगा, लेकिन बीमारी और बढ़ जायेगी। नहीं, कड़वी दवा भी देनी पड़ती है, जहर जैसी दवा भी देनी पड़ती है। मरीज नाराज भी होता है, तो भी देनी पड़ती है। आशा ने सारे संसार को भटकाया हुआ है । और आशाएं मत खोजो। जहां आशा टूटती हो, जहां तसल्ली उखड़ती हो, जहां तुम्हारे सांत्वना के सब जाल बिखरते हों, जहां तुम्हारा सारा व्यक्तित्व जो अब तक झूठ पर खड़ा था तहस-नहस होकर खंडहर हो जाता हो--वहां जाना। दुर्धर्ष है मार्ग। लोग कहते हैं मौत से बदतर है इंतजार मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में सभी की कटती है। तुम कर क्या रहे हो सिवाय इंतजार के? सैमुअल बैकेट का एक छोटा नाटक है-- वेटिंग फार गोडोड, गोडोड की प्रतीक्षा । यह गोडोड कौन है? किसी ने सैमुअल बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोड कौन है! क्योंकि पूरा नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं चलता कि गोडोड कौन है। सैमुअल बैकेट ने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक लिख दिया होता। मुझे भी पता नहीं, गोडोड कौन है। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ठीक से पूछो, किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उनको भी पता नहीं है। गोडोड यानी वह, जिसका पता नहीं, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी लोग उत्सुकता से बैठे हैं दरवाजे खोले हुए- कोई आनेवाला है। यह गोडोड की कहानी बड़ी प्यारी
है। दो आदमी बैठे हैं। ऐसे नाटक शुरू होता है। और वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि क्यों भई, क्या हाल है? वह कहता है, "सब ठीक है। आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" कौन आयेगा, इसकी तो कोई बात ही नहीं- "आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" दूसरा कहता है, "सोचता तो मैं भी हूं। आना चाहिए। कब से हम राह देख रहे हैं! और भरोसा बंधवाया था। और आदमी ऐसा गैर-भरोसे का नहीं है। देखें शायद आज आए । " ऐसी बात चलती है। वे दोनों देखते रहते हैं रास्ते की तरफ, रास्ते के किनारे बैठे। कोई आता नहीं। दोपहर हो जाती है। सांझ हो जाती है। वे कहते हैं, "फिर नहीं आया। हद्द हो गयी बेईमानी की! आदमी ऐसा तो न था, कुछ अड़चन आ गई होगी, कोई बीमार हो गया!" बाकी कौन है इसकी कोई बात नहीं चलती । कई दफे वे परेशान हो जाते हैं। वे कहते हैं, "अब बहुत हो गया, बंद करो जी इंतजार!" मगर दोनों बैठे हैं। कभी-कभी कहते हैं "अब मैं चला। तुम ही करो।" एक कहता है कि बहुत हो गया, एक सीमा होती है। मगर जाता-करता कोई नहीं, क्योंकि जाएं भी कहां! कहीं और जाओगे, वहां भी इंतजार करना पड़ेगा। रहते वहीं हैं। बैठे वहीं हैं। बात भी करते रहते हैं, कभी यह भी नहीं एक-दूसरे से पूछते कि किसका इंतजार कर रहे हो? मान लिया है कि किसी का इंतजार कर रहे हैं। यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े हुए है। तुमने कभी पूछा है, किसकी राह देख रहे हो? कौन आनेवाला है? किसके लिए द्वार खोले हैं? और किसके लिए घर सजाए बैठे हो ? नहीं, तुम कहोगे यह तो हमें पक्का पता नहीं है, कौन आनेवाला है; लेकिन कोई आनेवाला है, ऐसा लगता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, हमें पता ही नहीं; मगर खोज रहे हैं। अब खोजोगे कैसे अगर यह ही पता नहीं कि क्या खोज रहे हो? लोग मेरे पास आते हैं, वे क
हते हैं, कुछ पूछना है; लेकिन हमें मालूम नहीं कि क्या पूछना है। और वे गलत नहीं कहते, बड़े ईमानदार लोग हैं। यही स्थिति है। लोग पूछना चाहते हैं, कुछ पूछना जरूर है। ऐसा आभास मालूम होता है। कहीं प्राणों में ऐसी घुमड़ मालूम होती है, कुछ पूछना है-- लेकिन क्या? कुछ पकड़ में नहीं आता। कुछ रूप नहीं बनता। कुछ आकार नहीं बैठता । खोजना है-- लेकिन क्या? यह गोडोड कौन है? किसी को मालूम नहीं । इस इंतजार से जागो! यह प्रतीक्षा बहुत हो चुकी। न कभी कोई आया है, न कभी कोई आयेगा। बंद करो दरवाजे। अब तो उसको खोजो जो तुम हो । कभी धन में प्रतीक्षा की, कभी पद में प्रतीक्षा की; कभी लोगों की आंखों में सम्मान चाहा, कभी प्रार्थना की, आकाश की तरफ देखा, किसी परमात्मा को खोजा--लेकिन सब गोडोड! तुम्हें साफ नहीं, तुम क्या खोज रहे हो, तुम क्या मांग रहे हो! अब तो उचित है कि अपने में डूबो। उसे देखें जो हम हैं। किसी और की प्रतीक्षा करनी उचित नहीं है। अगर तुमने हिंसा का बोधपूर्वक त्याग नहीं किया है तो हिंसा जारी रहेगी। महावीर और सूक्ष्म तल पर ले जाते हैं। वे कहते हैं, दूसरे को मारने का, दूसरे को दुख देने का भाव तो हिंसा है ही; लेकिन अगर तुमने बोधपूर्वक दूसरे को दुख देने की समस्त संभावना का त्याग नहीं किया है, अगर तुमने अहिंसा को बोधपूर्वक अपनी जीवनचर्या नहीं बनाया है, तो भी हिंसा है। हिंसा में विरत न होना, जागकर होशपूर्वक, निर्णयपूर्वक अपने सामने यह साफ न कर लेना कि मैं हिंसा से विरत हुआ, तो खतरा है। जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, वह पैदा हो सकता है। किसी घड़ी, किसी असमय में, किसी परिस्थिति में, जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, उसके पैदा होने की संभावना है। माना कि तुमने सोचा भी नहीं कि किसी को मारना है; लेकिन कोई छुरी लेकर सामने आ गया तो तुम भूल जाओगे। तुम्हारे पास अहिंसा की कोई शैली नहीं है। तुम हिंसा की शैली को पकड़ लोगे, क्योंकि वह पुरानी आदत है। तो महावीर यह कह रहे हैं कि हिंसा की शैली तो जन्मों-जन्मों की आदत है। अहिंसा की शैली को बोधपूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा। उसे जीवन की साधना बनाना होगा। नहीं तो जब कोई हिंसा करने को तैयार हो जाएगा, तुम अचानक भूल जाओगे। तुमने सोचा भी न था हिंसा करने के लिए, लेकिन हिंसा होगी। पुरानी आदत है, पुराने संस्कार हैं। पुराने संस्करों को गिराने के लिए बोधपूर्वक निर्णय चाहिए। हिंसा से विरत होने का निर्णय चाहिए। संभावना भी बचा लेना हिंसा है। "इसलिए जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा है...।" यह गहरी से गहरी पकड़ है, जो हो सकती है। "जहां प्रमाद है वहां नित्य हिंसा है... । " प्रमाद यानी मूर्च्छा। जहां सोया-सोयापन है; जहां चले जा रहे हैं नींद में, आंखें खुली हैं, लेकिन मन सोया, बेहोश है; जहां हम मूर्च्छा में चल रहे हैं वहां हिंसा है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? हजार परिस्थितियां रोज आती हैं हिंसा की, मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? होश तो है नहीं कि कुछ नया जीवनउदबोध, कुछ नयी ज
ीवन-उमंग, कोई नई किरण फूट सके। बेहोश है तो पुरानी आदत से चलेगा, बेहोश आदमी आदत से चलता है। होशवाला आदमी प्रतिपल होश से चलता है, आदत से नहीं। किसी ने गाली दी, तुम्हें याद भी न रहेगा कि तुम्हारा चेहरा तमतमा गया। यह तमतमा जाएगा, तब पता चलेगा कि अरे, फिर हो गया! यह एक क्षण में हो जाता है, क्षण के खंड में हो जाता है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, कोई चीज हिल गई भीतर। अभी खाली बैठे थे तो कुछ बात न थी। स्त्री का ख्याल ही न था। अभी बैठे वृक्षों की हरियाली देखते थे; खिले फूलों को, आकाश के तारों को देखते थे--कुछ पता भी न था, लेकिन परिणाम तो भीतर पड़ा है। आदत तो पुरानी भीतर पड़ी है। एक स्त्री पास से गुजर गई, क्षणभर में बिजली कौंध गई। भीतर कुछ हिल गया। भीतर कोई तूफान उठ आया । भीतर कोई वासना सजग हो गई। बीज तो पड़े ही हैं, जब भी वर्षा हो जायेगी, अंकुर हो जायेंगे। तो महावीर कहते हैं, "वस्तुतः मूर्च्छा ही हिंसा है और अमूर्च्छा अहिंसा है। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जब आत्मा मूर्च्छित है तो हिंसा; जब आत्मा जाग्रत है तो अहिंसा। यह सिद्धांत का निश्चय अत्ता चेव अहिंसा--आत्मा ही अहिंसा, आत्मा ही हिंसा । यह सिद्धांत का निश्चय है। "जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है । " जो जागा हुआ है, जो होशपूर्वक जीता है, अवेयरनेस, सम्यक बोध, एक-एक कदम बोधपूर्वक रखता है, विवेकपूर्वक रखता है - वह अहिंसक है। "जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।" जो नशे में जी रहा है, जिसे ठीक पता भी नहीं है --कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं--चला जा रहा है! तुम अपने को पकड़ो। अपने को हिलाओ, डुलाओ, जगाओ! झटका दो! सूफियों में एक प्रक्रिया है-झटका देने की । सूफियों का एक वर्ग साधकों को कहता है कि जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आ रही है, ज
ोर से एक झटका शरीर को दो। जैसे कोई वृक्ष तूफान में हिल जाता है, आंधी में कंप जाता है, धूल-धंवास गिर जाती है, ऐसा कभी अपने को झटका दो। तुम कभी कोशिश करके देखना। क्षणभर को तुम पाओगे एक ताजगी, एक होश, अपनी याद, मैं कौन हूं! चैतन्य थोड़ी देर को प्रखर होगा, झलकेगा; फिर खो जायेगा। ऐसे झटके अपने को देते रहना। कभी-कभी छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। बहुत छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। तो जब भी कोई गाली दे, एक झटका अपने को देना। इसको धीरे-धीरे अपने जीवन की व्यवस्था बना लेना। कोई गाली देगा, तुम अपने को झटका दोगे। झटका देकर तुम पाओगे कि आदत से संबंध छूट गया। यही तो "इलेक्ट्रो शाक... मनोविज्ञान इसी को कहता है। आदमी पागल हो जाता है, कोई उपाय नहीं सूझता, कैसे ठीक करें, तो उसके मस्तिष्क में बिजली दौड़ा देते हैं । होता क्या है? जब बिजली तेजी से दौड़ती है तो उसके मस्तिष्क में एक झंझावात आता है। एक झटका लगता है। उस झटके के कारण, वह जो पागलपन उस पर सवार था, उससे उसका संबंध क्षणभर को टूट जाता है। क्षणभर को वह भूल जाता है कि मैं पागल हूं। सातत्य टूट जाता है, कंटीन्यूटी टूट जाती है। फिर उसे याद नहीं रहती। फिर जब वापिस लौटता है झटके के बाद, तो उसे याद नहीं रहती कि वह अभी थोड़ी देर पहले पागल था, अब उसको पागल रहना है। आदत से संबंध छूट गया। तो अकसर लाभ हो जाता है। अकसर पागल ठीक हो जाता है। लेकिन यह तुम खुद अपने लिए कर सकते हो। और हम सब पागल हैं। और हमारा सारा व्यवहार सोया हुआ है। जिस भांति बन सके, जगाने की चेष्टा अपने को करनी है। कई तरह से झटके दिये जा सकते हैं। कोई भी छोटा स्मरण भी सहयोगी हो सकता है। तुम्हें मैंने माला दी है। इसको ही एक नयी स्मरण की आदत बना लो कि जब कोई कामवासना उठने लगे, तत्क्षण माला को हाथ में पकड़ लेना। किसी को पता भी न चलेगा। लेकिन उस माला को पकड़ना तुम्हें याद दिला देगा कि अरे! फिर गिरे, फिर गिरने को तैयार हुए ! तुम्हें मैंने गैरिक वस्त्र दिये हैं, वे याददाश्त के लिए हैं; अन्यथा गैरिक वस्त्रों से क्या होता जाता है ! एक आदमी शराबी है, वह संन्यास लेने आ गया था। वह कहने लगा कि मैं शराबी हूं, अब आपसे कैसे छिपाऊं! संन्यास भी लेना है। घबड़ाहट यही है कि गैरिक वस्त्रों में फिर शराब-घर कैसे जाऊंगा! "वह तेरी फिक्र है। वह हमारी क्या फिक्र है? तू चिंता करना। हमने अपना काम कर दिया, तुझे संन्यास दे दिया। अब इसमें हम क्या फिक्र करें, कहां तू जायेगा कहां नहीं । तेरे पीछे हम कोई चौबीस घंटे घूमेंगे नहीं। अब तू ही निपट लेना।" उसने कहा कि झंझट में डाल रहे हो आप। झंझट तो है। क्योंकि सोए-सोए जीते थे, जागना एक झंझट है। पर वह हिम्मतवर आदमी है। साफ-सुथरा आदमी है। अन्यथा कहने की कोई जरूरत ही नहीं थी, छिपा जाता । शराब पीते हैं, कौन कहता है! लेकिन कुछ दिन बाद आया और उसने कहा कि मुश्किल हो गई। अब पैर रुकते हैं। ऐसा नहीं कि शराब पीने का मन अब नहीं होता; होता है, लेकिन अब ये गैरिक वस्त्र झं
झट का कारण हैं। वहां पहुंच जाता हूं तो लोग चौंककर देखते हैं जैसे कि कोई अजूबा जानवर हूं । सिनेमा घर में खड़ा था कतार में, तो चारों तरफ लोग देखने लगे। दो आदमियों ने आकर पैर लिये तो मैं भागा कि अब यहां... जहां लोग पैर छू रहे हैं, अब यहां सिनेमा में जाना योग्य नहीं है। तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-- एक साधु महाराज। उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, "अरे हद्द हो गई! मैं झूठा साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं!" लेकिन एक झटका लगा कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता ! लेकिन उस झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" इसलिए महावीर न
े अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! "अहिंसा" शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि बिल्कुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ाः अहिंसा; हिंसा नहीं। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको "इश्क" कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है वही महावीर की अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता हैः वासना । तुमने प्रेम का दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता हैः इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, इस रास्ते से कोई गुजरता ही नहीं, कोई नासापुट आएंगे ही नहीं यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है! ऐसे ही प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा तब दूं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नहीं। इस फर्क को समझना। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का अर्थ हैः प्रेम । तुम्हा
रा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। लेकिन जैन मुनियों की अहिंसा भी नहीं, क्योंकि वह बिल्कुल मुर्दा है। वह मर गयी। नकार में कहीं कोई जी सकता है? सिर्फ नकार-नकार में कोई जी सकता है? नकार में कोई घर बना सकता है? कुछ विधायक चाहिए। विधायक का अर्थ हैः कुछ ऊर्जा तुम्हारे भीतर जगनी चाहिए। सिकुड़ने से ही थोड़े ही काम चलेगा! किसी को मारो मत, बिल्कुल ठीक; लेकिन क्यों न मारो किसी को? क्योंकि तुम्हें प्रेम है, इसलिए। इसलिए नहीं कि मारोगे तो नर्क जाना पड़ेगा। यह कोई प्रेम हुआ? यह तो अपना ही लोभ हुआ। लोगों को मत मारो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हें बताएगा कि दूसरे को मारना, दूसरे को दुख देना... तो तुम कैसे आशा बांधते हो कि तुम्हारे जीवन में प्रेम का फैलाव हो सकेगा? प्रेम फैलता है, बढ़ता है। महावीर कहते हैं, "आकाश जैसा! सुमेरू पर्वत से भी ऊंचा, आकाश से भी विशाल!" तो यह कुछ विधायक घड़ी हो तो ही बढ़ सकती है। कुछ हो तो बढ़ सकता है। अहिंसा का तो अर्थ हैः हिंसा का न होना। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि चिकित्सा शास्त्र में अगर पूछा जाये कि स्वास्थ्य क्या है, तो वे कहते हैं बीमारी का न होना। लेकिन मुर्दा भी बीमार नहीं होता, लेकिन उसको तुम स्वस्थ न कह सकोगे। वह स्वास्थ्य की परिभाषा पूरी करता है, क्योंकि बीमार नहीं है। जिंदा ही बीमार होता है, मुर्दा कैसे बीमार होगा? बीमार होने के लिए जिंदा होना जरूरी है। तो यह स्वास्थ्य की परिभाषा पर्याप्त नहीं है कि बीमार न होना। यह तो नकारात्मक हुई। हां, स्वस्थ आदमी बीमार नहीं होता, यह बात जरूर सच है। लेकिन स्वास्थ्य कुछ और भी है। बीमारी न होने से ज्यादा कुछ है, कुछ विधायक है। जब तुम स्वस्थ रहे हो, क्या तुमने अनुभव नहीं किया, क्या तुम इतना ही जानते हो कि न टी. बी., न
कैंसर, न और रोग? क्या जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुमको इनकी याद आती है कि देखो, कितना मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न कैंसर है? ऐसा होता है? जब तुम स्वस्थ होते हो, न तो टी. बी. की याद आती है, न कैंसर की, न नकार की। स्वास्थ्य का अपना ही रस है। स्वास्थ्य का अपना ही अहोभाव है। स्वास्थ्य की अपनी ही प्रफुल्लता है। स्वास्थ्य का झरना फूटता है। यह कोई बीमारी की बात नहीं है। ऐसा समझो कि एक झरना है, उसके मार्ग पर पत्थर रखे हैं। तो हम कहते हैं, पत्थर हटा लो, तो झरना फूट जाये। लेकिन पत्थर का हटा लेना ही झरना नहीं है। क्योंकि कई जगह और जगह भी पत्थर पड़े हैं, वहां हटा लेना, तो झरना नहीं फूटेगा; तुम बैठे रहना कि पत्थर तो हटा लिये, बस झरना हो गया। पत्थर का हटाना झरने के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन पत्थर के हटने में ही झरना नहीं है। झरना तो कुछ विधायक बात है। हो तो पत्थर के हटने पर प्रगट हो जायेगा; न हो तो तुम पत्थर हटाए बैठे रहना जैसे जैन मुनि बैठे हुए हैं। यह नहीं करते, वह नहीं करते सब नहीं करने पर है। चोरी नहीं करते, लेकिन अचोर नहीं हैं। लोभ नहीं करते, लेकिन अलोभी नहीं हैं। हिंसा नहीं करते, लेकिन अहिंसक नहीं हैं। क्योंकि विधायक चूक रहा है। जिंदगी जिंगारे-आईना है, आईना है इश्क संग है मामूरए-कौनेन और शोला है इश्क । इल्म बरबत है, अमल मिजराब है, नग्मा है इश्क । जर्रा-जर्रा कारवां है, इश्क खिज्रे-कारवां । प्रेम स्वच्छ दर्पण है। और प्रेम के सिवाय जीवन में जो कुछ है, वह दर्पण पर मैल है, धूल है। सांसारिक वस्तुएं तो पत्थर हैं। प्रेम प्रकाश है। ज्ञान वाद्य है। आचरण मिजराब है। प्रेम संगीत है। जीवन का कण-कण यात्री है। प्रेम यात्री-दल का पथ-प्रदर्शक है। महावीर ने जिसे अहिंसा कहा है, वह सूफियों का इश्क है। इस बात को अब दोहरा देने की जरूरत पड़ी है। क्योंकि जैसी मुश्किल महावीर को मालूम पड़ी थी प्रेम के साथ, वैसी ही मुश्किल मुझे मालूम पड़ती है अहिंसा के साथ। महावीर प्रेम शब्द का उपयोग न कर सके, क्योंकि गलत धारणा लोगों के मन में प्रेम की थी। आज मुझे अहिंसा शब्द का उपयोग करने में अड़चन होती है, क्योंकि बड़ी गलत धारणा लोगों के मन में है। हमारे सभी शब्द हमारे कारण खराब हो जाते हैं, गंदे हो जाते हैं; क्योंकि हमारे शब्दों में भी हमारी प्रतिध्वनि होती है। जब कामी प्रेम की बात करता है तो उसका प्रेम भी काम से भर जाता है। जब निषेधात्मक वृत्तियों का व्यक्ति अहिंसा की बात करता है तो उसकी अहिंसा निषेधात्मक हो जाती है। अहिंसा यानी प्रेम, परम प्रेम। .जरा मौत दामन बचा कर चले -- जिंदगी अब प्रेम के साथ है, प्रेम की छाया में है। . जरा मौत दामन बचा कर चले। --अब जरा मौत होशियारी से चले, क्योंकि जो प्रेम के साये में आ गया उसकी कोई मौत नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। और प्रेम फूल जैसा है। मौत अंगार जैसी है। लेकिन इस जीवन की, अस्तित्व की यही महत्वपूर्ण राजभरी बात है कि अंततः फूल जीतते हैं, अंगार हार जाते हैं
। अंततः कोमल जीतता है, कठोर हार जाता है। गिरता है पहाड़ से जल, कोमल जल, क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी चट्टानें मार्ग में पड़ी होती हैं--कौन सोचेगा कि ये चट्टानें कभी कट जायेंगी! लेकिन एक दिन धीरे-धीरे धीरे-धीरे चट्टानें कटती जाती हैं और रेत होती जाती हैं। धार बड़ी कोमल है। चट्टानें बड़ी कठोर हैं। लेकिन कोमल सदा जीत जाता है। अंतिम विजय कोमल की है। और जिन्होंने अपने को फूलों से बचाया, कोमलता से बचाया, उनकी जिंदगी में अंगारे ही अंगारे रहे, जलन ही जलन रही। तुम फूल को कमजोर मत समझना। तुम फूल को महाशक्तिशाली समझना। पत्थर कमजोर हैं; यद्यपि दिखाई यही पड़ता है कि पत्थर बड़े मजबूत, बड़े शक्तिशाली हैं। लेकिन पत्थर मुर्दा हैं, शक्तिशाली हो कैसे सकते हैं? फूल जीवंत है। उसके खिलने में जीवन है। उसकी सुगंध में जीवन है। उसकी कोमलता में जीवन है। अकसर हम हिंसा के लिए राजी हो जाते हैं, क्योंकि हिंसा लगती है ज्यादा मजबूत, शक्तिशाली! अहिंसा, प्रेम लगता है कमजोर। हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं हिंसा पर; अहिंसा पर भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि फूलों पर हमारा भरोसा उठ गया है। कोमल की शक्ति को हम भूल ही गये हैं। विनम्र की शक्ति को हम भूल गए हैं। प्रेम बलवान है, यह हमें याद भी न रहा है। हम तो सोचते हैं, क्रोध बलवान है। बस यही धार्मिक और अधार्मिक आदमी का अंतर है। अगर तुम मुझ से पूछो तो धार्मिक आदमी वह है जो यह जान गया कि कोमल अंततः जीतता है; जिसका भरोसा फूल पर आ गया और पत्थर से जिसकी श्रद्धा उठ गई। और अधार्मिक आदमी वह है, जो भला फूल की प्रशंसा करता हो, लेकिन जब समय आता है तो पत्थर पर भरोसा करता है। महावीर की अहिंसा अनुयायियों के हाथ में पड़कर विकृत हो गयी, निषेध हो गयी है। वह बड़ा विधायक जीवन-स्रोत था। लेकिन हमार
ी अड़चन है। जो भी हम सुनते हैं, उसका हम अर्थ अपने हिसाब से लगाते हैं। अगर कोई मर गया--किसी का प्रेमी मर गया, किसी की प्रेयसी मर गई--तो हम अपने हिसाब से अर्थ लगाते हैं। जिसकी प्रेयसी मर गई है या प्रेमी मर गया है, उसे अगर हम रोता नहीं देखते, आंख में आंसू नहीं देखते, तो हम सोचते हैं, "अरे! तो कुछ दर्द नहीं हुआ, दुख नहीं हुआ ? रोई भी नहीं? तो कोई लगाव न रहा होगा। तो कोई चाहत न रही होगी। तो कोई प्रेम न रहा होगा।" लेकिन तुम्हें पता है, अगर सच में ही गहरी पीड़ा हो तो आंसू आते नहीं! आंसू भी रुक जाते हैं। और आंसू बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं--पीड़ा के सबूत हैं - - बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं। अब बड़ी कठिनाई है। आंसू तब भी नहीं आते, जब पीड़ा नहीं होती; और आंसू तब भी नहीं आते जब महान पीड़ा होती है। तो भूलचूक की संभावना है। कभी यह भी हो सकता है कि रूखी आंखों को देखकर तुम सोचो कि कोई पीड़ा नहीं हुई; और कभी यह भी हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं रूखी आंखों में बड़ी गहरी पीड़ा है कि आंसू भी नहीं बह रहे, तो फिर उसको भी तुम समझ लो कि बड़ी गहरी पीड़ा हो रही है जिसको कोई पीड़ा नहीं हुई। जिंदगी में शब्द सीमित हो जाते हैं। अस्तित्व में शब्दों की कोई सीमा नहीं है। वहां तो हमें प्रत्येक घटना को उसके निजी व्यक्तित्व में देखना चाहिए। कोई पुरानी परिभाषा से नहीं चलना चाहिए। शक न कर मेरी खुश्क आंखों पर यूं भी आंसू बहाए जाते हैं। --यह भी एक ढंग है। तुम जल्दी से निर्णय मत लेना। महावीर ने प्रेम की ही बात कही, लेकिन प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम शब्द का उपयोग न करने के कारण अतीत की भूल तो बचा ली, लेकिन भविष्य की भूल हो गयी। तो पीछे जो आये, उन्होंने अहिंसा को सिर्फ निषेध बना लिया। शब्द में निषेध है। सारे शब्द निषेधात्मक हैं। अचौर्य, अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम, अप्रमाद -- सारे शब्द निषेधात्मक हैं। तो ऐसा लगा उनको कि महावीर कहते हैं : नहीं, नहीं, नहीं। हां की कोई जगह नहीं है। इसी कारण हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक ही कह दिया; क्योंकि परमात्मा नहीं और फिर सारा शास्त्र "नहीं" से भरा है। नहीं, लेकिन उस "नहीं" के भीतर बड़ी गहरी "हां" छिपी है। "नहीं" का उपयोग करना पड़ा, क्योंकि लोगों ने "हां" वाले शब्दों का दुरुपयोग कर लिया था। लेकिन भूल फिर हो गयी। महावीर का कोई कसूर नहीं है। शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। और आदमी कुछ ऐसा है, तुम जो भी शब्द उसे दो वह उसका ही दुरुपयोग कर लेगा। क्योंकि सुनते तुम वही हो जो तुम सुन सकते हो। तो महावीर के पीछे निषेधात्मक लोगों की कतार लग गई। इसलिए तो महावीर का धर्म फैल नहीं सका। कहीं निषेध के आधार पर कोई चीज फैलती है? महावीर का धर्म सिकुड़कर रह गया। "नहींनहीं" पर कोई जिंदगी बनती है ? "नहीं-नहीं" से कोई जिंदगी के गीत बनते हैं? तो सिकुड़ गया। लेकिन कुछ रुग्ण लोग, जो नकारात्मक थे, उनके पीछे इकट्ठे हो गये। उनकी कतार लगी है। उनका सारा हिसाब इतना है कि बस "नही
ं" कहते जाओ। जो भी चीज हो उसे इनकार करते जाओ। इनकार कर-कर के वे कटते जाते हैं, मरते जाते हैं। तो उनकी प्रक्रिया करीब-करीब आत्मघात जैसी हो गयी। इसलिए जैन मुनियों के पास जीवन का उत्सव न मिलेगा, जीवन का अहोभाव न मिलेगा। इसलिए जैन मुनियों के पास तुम्हें जीवन की सुरभि न मिलेगी। तुम्हें जैन मुनियों के पास कोई गीत और नृत्य न मिलेगा। यह भी क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य पैदा न हो सके! यह भी क्या धर्म हुआ जिससे गीत का जन्म न हो सके, जिसमें फूल न खिलें! यह सिकुड़ा हुआ धर्म हुआ। यह बीमारों को उत्सुक करेगा। निषेधात्मक और नकारात्मक लोगों को बुला लेगा। यह एक तरह का अस्पताल होगा, मंदिर नहीं। इसलिए मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि महावीर की अहिंसा का ठीक-ठीक अर्थ प्रेम है। सूफी जिसे इश्क कहते हैं, उसी को महावीर अहिंसा कहते हैं। जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। उसी को महावीर ने कहा हैः तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा कोई और पर्वत नहीं, और आकाश से विशाल कोई और आकाश नहीं, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" चौदहवां प्रवचन प्रेम से मुझे प्रेम है पहला प्रश्नः परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं! परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा । इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रू
ढ़िवादी रहा है, तभी से रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं। क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायेगी। इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी विरोध देखते हैं--सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं। जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है। जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है--बड़े सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है। जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, मजबूत करते हो। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः जिस राष्ट्र को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो कैसे भी चुन लेना, लेकिन शत्रु जरा सोच-समझकर चुनना। क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है। तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा । जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्म
ा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं मानते--मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं। लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा--अपने ही पैरों से। महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं। इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब हैः मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है । तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैद
ा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए। सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया । वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का । तेईस तो करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--सभी चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं। आज तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का वही रहा हो, जरूरी नहीं है । आज तो तुम जिस जैन धर्म को जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है। समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में जरूरी नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकूंगा; फिर तुम ज
ब भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है। महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है । और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर किसी के प्रसाद से मिल जाये
तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बुद्ध भी थे। बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिल्कुल अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में उड़ता कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री को मैं संन्यास न दूंगा; क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है। महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को मानता ही नहीं, बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्
होंने तत्क्षण कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का । और बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध धर्म समाप्त हो गया। लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा । महावीर नग्न खड़े हो गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगेः इतना भी त्याग न कर पाये! नग्नता कसौटी हो गई। ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता
है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम अर्थ समझो। नग्न होने का अर्थ हैः समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा । तुम अगर चौरस्ते पर नग्न खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे! हमारे पास शब्द है भाषा में--किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं "नंगा-लुच्चा"--वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका लोंच करते थे। तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लुच्चा क्यों कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरेधीरे लुच्चा शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फलां आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने लोंचा क्या है! महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है-गाली की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये। वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। क्यों? क्यों असभ्य? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिमस्वभाव को चुनता हूं। और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पुलिस ले जायेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा। दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे।
लड़की गहरी साँवली थी। एक दिन अपने साँवलेपन से आजिज आकर वह तीन हफ्ते में गोरेपन का दावा करने वाली एक फेयरनेस क्रीम बाजार से ले आयी। हालाँकि वह तीस हफ्ते तक इंतजार कर सकने के धैर्य से उसे लेकर आयी थी, पर हुआ ये कि पहले हफ्ते के आखिर में ही उसकी त्वचा कुछ निखर गयी। बात यहीं से शुरू होती है। उसे लगने लगा कि जिंदगी को अब वह उसके पूरे चटक के साथ जी सकती है। उसकी झूठ की रफ्तार में दुगुनी उछाल आ गयी। पहले जहाँ उसकी दस में से चार बातें झूठ हुआ करती थीं, अब मात्र एक या दो सही हुआ करतीं। मसलन अगले दिन फिजिक्स का एक्जाम होता तो वह इजा को और अपने ऊँचे कंधे वाले ट्यूटर को बताती कि परीक्षा अंग्रेजी की है। वह पढ़ कर भी अंग्रेजी ही जाती अपने ट्यूटर से और हिसाब चुकता करने के लिए अंग्रेजी वाले दिन फिजिक्स पढ़ लेती। नंबर जाहिर है राम भरोसे आते और वह ट्यूटर और इजा के सामने अगली दफे खूब मेहनत करने के अनकहे वादे वाला गंभीर चेहरा बनाती, जिसका कि असर एक उसके सिवा बाकी सब पर होता। इवा कार्णिक की त्वचा तैलीय थी। सब जगह। खाली होंठों के ऊपर और नीचे के हिस्से को छोड़ कर। गैर तैलीय हिस्सा हवा के जरा सा ससरने भर से अकड़ जाता था। तो ऐसे में इवा कार्णिक को दौड़ दौड़ कर आईना देखना पड़ता इस शुबहा से भर कर कि मूँछें तो नहीं उग आयीं। एक बार फिर। मूँछें अलग से उगती तो नहीं थीं पर होंठ के ऊपर के नीले नीले बाल, जो अमूमन अपनी महीनता में अदृश्य रहते, उन दिनों अपने को अकड़ा कर और एक दूसरे से चिपक कर एक पतली नीली लकीर खींच देते होंठों के ठीक ऊपर। और आगे ये कि होंठ हिलाना, बोलना, मुस्कुराना, ठहाके मारना सब छनछनाहट भरा। चिपचिपा घरेलू लेप प्रलेप ताबड़तोड़ लगा कर उस जगह को वापस से मुलायम बनाने में दो तीन दिन का वक्त लग जाता और इवा कार्णिक फिर से लड़की बन जाती। इसी लड़की छाप दिनों की खाली शाम कही जा सकने वाली शाम। इवा कार्णिक, कक्षा दस, जिसकी कि दायीं चोटी थोड़ी ज्यादा नीचे तक झूलती रहती थी, जल्दी जल्दी पेन्सिल की नोंक को महीन करने में जुटी थी, जबकि ऊँचे कंधे वाला आदमी कमरे में घुसा। इवा कार्णिक को रटे रटाये स्वर में उठ कर खड़े हो जाना था और फिर दूसरे पल बिना किसी की इजाजत लिए वापस बैठ भी जाना था। वह उसका ट्यूटर था। मास्टर वगैरह शब्द प्रचलन में नहीं तो सीधे सर, जो प्रतिमाह दो हजार रुपये, लिफाफे में डाले हुए, पाया करता था, बतौर पारिश्रमिक। और इवा कार्णिक इस लिफाफा सुपुर्दगी के संभावित वक्त अपने को कमरे से अनुपस्थित कर लिया करती थी। वह एक सख्त ट्यूटर था। कुछ चीजें उसे हद तक नापसंद थीं, जो इवा कार्णिक को मुँहजबानी याद थीं। उन दो घंटों में उसे अकड़ी हुई गरदन को उठा कर अकड़ भगाने तक की सहूलियत नहीं मिलती। जिन सवालों के जवाब उसे पक्का मालूम होते, उन्हें वह फुसफुसा कर बोलती। जिन जगहों का ठिकाना पक्का पता होता उन पर बस पेन्सिल टिका कर काम चला लेती। यानी कि गैर तैलीय त्वचा पर अगर हल्की मूँछों का मौसम हो तो, एक बार
भी छनछनाहट नहीं होती। क्योंकि न हिलाना न बोलना न मुस्कुराना ठहाके मारने का तो सवाल ही क्या! आखिर के पंद्रह मिनट संरक्षित थे उसके हिस्से के। उसके सवाल पूछने का वक्त। उस दिन के पढ़ाये पाठ से। इवा कार्णिक के लिए यह दिन के सबसे मुश्किल पंद्रह मिनट होते। उसकी हालत एक ऐसे आदमी की हो जाती, जिसके कि हाथों में स्टेज की कठपुतलियों की सारी डोरियाँ थमा दी गयी हों अचानक से कुछ देर के लिए और उतनी ही देर में उसे अपनी योग्यता साबित भी करनी हो, जबकि अंदर की बात कि कौन सी डोर के खिंच जाने से कौन सी चीज कितनी लचक जायेगी, उसे ये तक न पता हो। दिमाग का पिछला हिस्सा इसी समय चमत्कार कर जाता और उसे तीन चार दिन पहले का पढ़ाया कुछ याद आ जाता। यही वजह कि भूगोल पढ़ा चुकने के बाद के मुकर्रर वक्त में वह अक्सर रसायन का कोई उलझा सा सवाल पूछती। यह उलझी चीज एक बात तो एकदम साफ कर देती कि पढ़ाये जाने वक्त भले उसे ऐसा लगता हो कि वह कुछ भी नहीं सुन पा रही, पर वह सुन सब लेती थी। वरना क्या संभव कि तीन चार दिन देर से ही सही बिना सुन रखा कुछ इतनी शिद्दत के साथ उपस्थित हो जाये प्रश्नवाचक चिह्न को अपने पीछे टाँगे टाँगे! सब कुछ ऐसा रटा रटाया सा कि बिना हैरत भाव, भूगोल की कक्षा के बाद उसे रसायन का खोया हुआ जवाब बदले में मिल भी जाता था बगल वाले से। जवाब को सुनते हुए वह अपने पूछे गये सवाल को समझने की कोशिश करती होती कि एक सुखद समाचार की तरह घड़ी की सबसे पतली सूई हाँफती हुई उसे अपने पंद्रह चक्कर लगा चुकने की सूचना दे देती और वह उठ खड़ी होती। यह वक्त होता जब उसके बगल का सख्त आदमी ड्राइंगरूम में ही पार्टिशन के उस पार सोफे वाले इलाके की ओर चला जाता और वह पलट कर भीतर सुरंग की तरफ चली आती। इजा कहलाने वाली स्त्री सफेद रंग के शिकं
जे में पूरी तरह से कैद कही जा सकती थी। उसकी उम्र, उसके बाल, उसके कपड़े, उसकी हरकतें। वह बगैर इस्तरी और कलफ की साड़ियों को हाथ तक नहीं लगाती थी। उसका ज्यादा वक्त सोफा कवर को पीछे की तरफ खींचने, टीवी कवर की चेन बंद करने, फूलदान की पीली पत्तियों को कतरने और किसी हड़बड़िया पाँव के धक्के से मुड़ गयी कालीन को वापस फैलाने में बीतता था। उसके घर की बाइयों में टिकाऊपने का अभाव रहता। हफ्ता दो दिन के आगे कोई भी चल नहीं पाती। फर्श के कोने कोने से धब्बों को बीन बीन कर रगड़वाना, लोहे के बरतनों को अपनी निगरानी में चमकवाना, इसके मूल में था। खैर फिक्र क्या! एक बाई के विदा लेने और दूसरे के आने के बीच के दिनों में भी घर को कमी महसूस नहीं होने पाती कुछ भी, क्योंकि हर प्रकार के काम की मुस्तैद कमान वह अपने हाथ में सँभाल लेती। हालाँकि उसने दुनिया देखने की शुरुआत अपने पति की देखरेख में एक ग्लोब पर भारत के नक्शे के ऊपर उँगली टिका देने से की थी, पर अब वह इस दुनियादेखी में इतना आगे निकल चुकी थी कि सामने वाले, बगल वाले और पीछे वाले शामिलद्ध को चुटकी भर में परख कर दूध से पानी को अलगा देती। पाँच रुपये के पत्तर वाली काली हेयर पिन और चार रुपये के गुच्छे वाला सेफ्टीपिन उसके सबसे खास औजार थे। नहाने धुलने के बाद से साड़ी का पल्लू तहा कर जो सेफ्टीपिन के तार खाँचे में फिट होते, फिर अगले दिन नहाने के पहले ही अलग हो पाते। यही स्वामिभक्ति हेयरपिन की भी। यहाँ तक कि रात को उसके सो चुकने पर भी वे दोनों अपनी ड्यूटी निभाते जाते। उसकी आँखों का रंग भूरा था और उसी से मेल खाता गार्नियर के चार नंबर का ब्राउन शेड अपने बालों पर लगा कर वह सफेदी के ऊपर सुनहरे भूरे रंग का जिल्द चढ़ाये रखती थी। उसकी चौकसी को देख कर कहा जा सकता था कि उसे किसी महत्वपूर्ण चीज के होने का इंतजार था और उसे अहसास था कि किसी भी पल उसके अपने दरवाजे पर दस्तक हो सकती थी। पर चूँकि उसने नियति की दस्तक सुनी नहीं थी, वह केवल कल्पना कर सकती थी उसके वैसा होने की, जैसी कि वह सच में होती। आँखें मूँद कर आरामकुर्सी पर बैठे रहने पर भी बाकी की दस्तक को सुन कर वह पहचान कर सकती थी कि किस बार दरवाजा खोलने पर सामने कौन दिखेगा! कौन सी थाप दूधवाले की, कौन अखबारवाले की, कौन नाई की, कौन इवा कार्णिक की, कौन ऊँचे कंधे वाले आदमी की। और यह, सच कहें तो उसका दिलचस्प मनबहलाब भी था। हर बार हाथ की थाप पर पहचान करना और दरवाजा खोल कर अपने को सही साबित होते देखना और फिर से दूसरी थाप का इंतजार करना। वजह यही कि आज तक उसके घर के दरवाजे के बायें या दायें कहीं भी कॉलबेल को जगह नहीं मिल पायी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी का दुनियावी नाम विक्रम आहूजा था। उस घर में आते जाते उसका माथा घर के दरवाजे के ऊपरी हिस्से से छू जाता था। एक, दरवाजों की ऊँचाई कम थी और दूसरे हर दरवाजे के नीचे टखनों की ऊँचाई के चौखट बने थे। और इन सबसे ऊपर उसका आसमानी कद। वह हमेशा दौड़ने के वक्त पहने जाने वाले सफेद ज
ूते पहनता। उसके चलने, बोलने ओर साँस लेने में एक खास किस्म की जिद थी। उसके अतीत पर दो प्रेमिकाओं की छाप थी। पहला प्रेम शुरुआती गुनगुनाहट जितना था। गौरी करमाकर। एक कॉलेज, एक क्लास, एक विषय, एक रास्ता घर का - वाले किस्म का। उसमें एक दूसरे प्रायद्वीप पर उतरने का रोमांच था। वह मटर की फलियों को विलगाने जैसा था - बहुत मीठे श्रम की अपेक्षा वाला। वाक्या पंखुड़ी के खिलने जैसा था, जिसका खिलना कोई देख न पाये। ठीक वैसे ही उसका मुरझाना भी फूल के मुरझाने जैसा, जिसके मुरझाने का कोई हवाला नहीं दिया जा सके, बस एकबारगी दुनिया को खबर मिले कि फूल मुरझा चुका, या कि खबर न भी मिले। दूसरा कुछ बरस की करवटों के बाद। एक दिन गहरे शाम के वक्त, जब दफ्तर लगभग खाली हो चुका था, एक बेतरह उजली चमड़ी की लड़की लाल लाल सी हुई उसके पास आयी। उसके कंप्यूटर की सारी सूचनाएँ करप्ट हो चुकी थीं और बैकअप भी मौजूद नहीं था। दफ्तर में किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में दो लड़कियाँ आयी थीं। एक की चमड़ी देशी थी, दूसरी ये - विदेशी मूल वाली। विक्रम आहूजा के साथ किस्मत थी उस शाम। पच्चीस मिनट तक की अंधाधुंध माथापच्ची के बाद उसने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी। लड़की की चमड़ी वापस खूब उजली हो चुकी और लाल रंग छँट गया था। उस शाम के बाद से उनकी पहली दो मुलाकातें विशुद्धतः लड़की की पहल पर हुईं। एक उसके ठीक अगले दिन जब वह इत्मीनान से उसका शुक्रिया अदा करने आयी और दूसरी काम पूरा करके लौटने की पूर्व संध्या पर जब वह अपना काम दिखाने और औपचारिक इजाजत लेने आयी। उसके बाद की मुलाकातों में कुछ राज खुले। लड़की आयरिश थी और होंठों को घुमा घुमा कर हिंदी बोलती थी। जब वह बेलौस बोलती तो शब्द छितरा कर निकलते और जब सचेत होकर बोलती तो शब्द एक दूसरे के
ऊपर चढ़ने लगते। उसे अपने समाज की जर्जर रहस्यमयी लोककथाएँ याद थीं। हालाँकि उसके वाक्दोष पर ध्यान दिया जाये तो कथाओं में रहस्य की जगह हास्य झाँकता मिलता पर उसकी हल्के रंग की पलकों वाली आँखों की गोलाई को ही दुनिया का आखिरी सच मान कर चले कोई तो रहस्य और रोमांस बस। बाकी सब झूठ। चर्च में जलती कैंडिल को आधार पर टिकाते हुए वह अपनी भाषा में सरपट बुदबुदाती कुछ, बाद में जिसका मतलब पूछे जाने पर वह गालों में गड्ढ़े धँसा कर मुस्कुरा देती बस। जिंदगी को बिना छुए हुए ही वह हलचल मचाने का ढब जानती थी। उछल कर मंदिर की घंटिया बजाते हुए, पानीपूरी के तीखेपन के बीच लाल गाल से सिसकारियाँ लेते हुए, बरसात में सड़क किनारे जमा हुए पानी में जान बूझ कर सैंडिल छपकाते हुए तरंग पैदा करने की उसकी क्षमता को महसूसा जा सकता था। वह सुनते हुए कभी ऊबती नहीं थी। उसे दूसरों को माफ करने का भयानक चस्का था। वह हर काम मुस्कुरा कर करती थी चाहे वह पहली शाम मदद माँगने की बात हो या कि आखिरी शाम अपना प्रोजेक्ट पूरी तरह खत्म हो चुकने पर अपने देश वापस लौटने की बात हो। जवाब में विक्रम आहूजा भी मुस्कुराया। उसे लगा कि बादल के एक गुच्छे को कुछ समय के लिए ही सही, उसने छू लिया था। इवा कार्णिक को अपने बालों से बड़ी शिकायत थी। कंधे तक सीधे चल कर वे नीचे छल्लों में उलझ गये थे। शायद इसकी वजह ये कि स्कूल में उसे गूँथ गूँथ कर दो चोटियाँ बनानी होतीं जो स्कूल जाने की हड़बड़ी में अक्सर टेढ़ी मेढ़ी बनतीं। घर लौटते ही सबसे पहले वह उन्हें खोल देती और आजाद बालों के साथ शाम के वक्त पढ़ने जाती। पर होता यह कि जैसे ही वह किताब पर आगे की तरफ झुक कर समझने का खेल शुरू करती, बाल धड़धड़ा कर आगे झूल जाते। वह उन्हें समेट समेट कर कान पर टिकाती पर उसके हाथ अभी वापसी के रास्ते में ही होते कि बाल ढुलक जाते दुबारा से। बालों की सबसे लंबी लट लड़खड़ाते हुए किताब के उस छोर दूर वाले दूसरे पन्ने पर लहराने लगती। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपनी गरदन उठाता उसकी तरफ और इवा कार्णिक का इधर उधर डोलता दिल उछल कर अपनी जगह पर आ जाता, एक पुरजोर डाँट की आशंका में। विक्रम आहूजा होंठ अलगाने के तुरंत बाद अपना निर्णय बदल लेता और लड़की को बिना डाँट खाये रह जाना पड़ता। ट्यूटर समझता था कि उसके बगल की लड़की खाली ढोंग करती है समझने का और जबकि उसे उसके इस ढोंग से भयानक विरक्ति होती थी, वह समझ नहीं पाता कि वह क्यों नहीं डाँट पाता उसे। वह अगर बीच से कोई सवाल कर देता तो लडकी भौंहें तिरछी करके अं अं करके कुछ याद करने की कोशिश करने लगती। वह पढ़ाते वक्त रोज तय करता कि आज पार्टिशन के उस तरफ जाने के बाद वह वसुंधरा कार्णिक से लड़की की शिकायत कर देगा और अगले दिन से न आ पाने की माफी माँग लेगा। वह भूमिका भी डालता इस बात की पर चुस्त दुरुस्त वसुंधरा कार्णिक बतौर दादी इतनी असुरक्षित थी कि शिकायत तो वह शायद कर भी देता पर आगे न आने की बात नहीं कह पाता। और जब न आने की बात ही नहीं हो पाती तो शिक
ायत का फायदा क्या! उसे शक था कि लड़की उसके इस द्वंद्व को समझती थी। इसी वजह उसने अपने आप को भरपूर इतराने की छूट दे रखी थी। पढ़ाते पढ़ाते अचानक से ऊँचे कंधे वाले आदमी का ध्यान बगल वाली की तरफ जाता तो वह उस वक्त उसे ध्यान से सुन रही दिखती पर लड़की के हाथों पर नजर जाते ही भ्रम की झिल्ली गिर जाती और उसका एक छोटे कागज को चिंदी चिंदी फाड़ने में ध्यानरत होना प्रकाश में आ जाता। ट्यूटर की नजर पड़ते ही वह फाड़ रहे अपने हाथों को जहाँ का तहाँ रोक देती। आधे फटे हुए पूरे फटे हुए कागज के छोटे छोटे टुकड़े सोफे पर अपनी बगल में रखे जाते समान भाव से। उसका मन तेज तेज दौड़ रहा होता पर बाकी के अपने पूरे शरीर पर उसका कड़ा नियंत्रण था और वे मन के विपरीत अपने को स्थिर रख पाते थे। चूँकि दाहिना तलवा इस 'पूरे शरीर' की सीमा में नहीं आता था, इसीलिए पूरा शरीर अपने को किताब के पन्ने पर केंद्रित कर देता और दाहिना तलवा मन की गति से हिलता जाता था थरथराने की लय में। बीच बीच में अर्धविराम की हैसियत से सोफे पर इवा कार्णिक के बगल की एक चिंदी उड़ने लगती हवा के झोंके में और तब अपने पूरे शरीर से लड़की का नियंत्रण हट जाता और वह चिंदी के उड़ियाने से लेकर एक कोने में जा दुबकने का पूरा खेल पलकें फड़फड़ा कर देख लेती। विक्रम आहूजा सोचता था कि अगर वह लड़की दो तीन साल और छोटी होती तो वह उसे पाँच भरपूर उँगलियों वाला एक तमाचा मार सकता था, इस फ्रस्टेशन के बाद। स्कूल में प्रीबोर्ड के नतीजों के बाद की गार्जियन मीट। लड़की का अभिभावक बन कर उसे उपस्थित होना था, ये बात एक शाम पहले उद्घाटित की गयी थी। वसुंधरा कार्णिक ने एक प्रस्ताव रखा था, जो उत्तरार्ध में याचना की तरलता से फैल गया। वह हाँ या ना कुछ भी करने में अपने को असमर्थ पा रहा था
। उसके पास एक ही घिसी पिटी दलील थी - अभिभावकों के समूह में उसकी क्या जगह! वसुंधरा कार्णिक जैसी कि एक चुस्त दुरुस्त महिला थी, विद्यालय से पहले ही अपनी अस्वस्थता के कारण अपनी जगह उसे भेजने की इजाजत ले चुकी थी। उससे अब और बैठा नहीं गया। वह अनुमति लेकर घर के दरवाजे पर झुका जूते पहन रहा था कि धरती पर गिरे बूँद की तेजी से इवा कार्णिक हाजिर हो गयी। हाँफने के अंदाज में। अगले दिन उसे पहुँचने के समय की सूचना देती हुई। उसने जूते के फीते बाँधते हुए सिर झुकाये सुना। उठते ही उसकी आँखों के ठीक सामने उसकी आँखों के आकार की एक जोड़ी आँखें आ गयीं। इवा कार्णिक ने फुसफुसा कर कहा - 'ब्लू शर्ट और ब्लैक जींस पहन कर आइयेगा' - बगैर पलक झपकाये। ऊँचे कंधे वाले आदमी की पलकें झपकी थीं। लड़की जा चुकी थी। स्कूल के फाटक के भीतर घुसना पहली नजर में अपने अतीत में दाखिल होने सरीखा था। कतार में लगी साइकिलें, एक कंधे पर बेपरवाही से टंगे बैग्स, चेक के ग्रे स्कर्ट्स और ग्रे फुलपैंटों में बँटी दुनिया। हर हरकत का घंटियों का मुहताज होकर रह जाना, वही परीक्षाओं की तलवार, वही पनिश्मेंट्स की बहार। एक पीढ़ी बदल गयी और स्कूल के फाटक के भीतर कलकल बहते जीवन के बीच भी वक्त वहीं रुका रह गया कहीं। उसका मन हुआ कि वह एक हाथ बढ़ा कर छू ले किसी बस्ते का कोर ही या किसी ग्रे फुलपैंट की दाहिनी जेब में उँगलियाँ ही सरका दे। पर एक गुनगुनाहट भर दूरी थी। उनकी हँसी की खनखनाहट में एक कोड वर्ड छिपा था। उनकी बोली के हिज्जे में किसी को अपने घेरे के भीतर न घुसने देने की जिद छिपी थी। उनकी उँगली नचा नचा कर बोलने की अदा दरअसल एक निशान खींच दे रही थी, अपने को दूसरों से अलगाने के लिए। विक्रम आहूजा को बहुत तेज अहसास हुआ कि वक्त रुका भले रह गया हो पर उसकी शक्ल बदल चुकी थी। अंदर तीन टुकड़ों में बँटी कुर्सियाँ थीं। सामने की सबसे विरल, अध्यापकों के लिए थीं। सामने का दो घेरा। एक में बच्चे। एक पेरेंट्स का कुनबा, जो सबसे घना था। कमरे में उजाले का बँटवारा ऐसा था कि एक खास जगह के हिस्से में तेज रोशनी का घेरा आया था, जिसके कि दायरे में एक एक कर हर बच्चे को अपनी बारी आने पर खड़ा होना था। सामने का विरल घेरा उसके हासिल किये गये अंकों और पढ़ायी लिखायी के उसके प्रदर्शन पर टिप्पणी आरंभ कर देता और घने कुनबे के तीन चार सदस्यों से, जो बच्चे के माता पिता या भाई बहन कुछ भी हो सकते थे, मुखातिब हो जाता। इवा कार्णिक अपनी बारी आने पर कुर्सी से उठी और अलसाये चूहे की रफ्तार से घेरे तक पहुँची। घेरे के बीचोंबीच पहुँच कर पहली हरकत जो उसके मन में हुई, वह दरअसल शुबहा थी। अंदेशा। बल्कि उसे ऐसा पक्का लगा कि उसका दाहिना मोजा सरक चुका था नीचे की तरफ। जूते के बिल्कुल पास सिमटा हुआ। यह एक निहायत ही ट्रैजिक कल्पना थी। रोशनी से चुंधियाने वाले की न सिर्फ दोनों चोटियाँ टेढ़ी मेढ़ी थीं, बल्कि एक मोजा भी एकदम नीचे तक सरका हुआ था। उसकी पनियाई सी मुट्ठी खुली। कमरा बहुत ठंडा था।
इतना कि जिस घुटने का मोजा नीचे सरक चुका था, उसके मोजे के भीतर से तुरंत तुरंत उघड़े दायें पैर के रोयें खड़े हो गये। उसकी आँखों के आगे से उजाला धुल गया। उसकी पुतलियों ने एक बार सारी ताकत बटोर कर नीले रंग को तलाशने की चेष्टा की पर उजाले की अनुपस्थिति में नीला रंग काले रंग में घुल कर दम तोड़ चुका था। गोरेपन की क्रीम लगाते हुए ये तीसरा हफ्ता चढ़ा था। या कि उसका या घेरे का कमाल लड़की बहुत सफेद दिख रही थी। हालाँकि उसमें भय की मात्रा नहीं थी। उसने जो हासिल किया था, उसका अंकों में अनुवाद किया जाय तो अर्जित बहुत कम बचता था। अलग अलग विषयों के अंक उछल कर एक दूसरे के खाने में चले गये थे। गणित का अंक समाजशास्त्र में, केमेस्ट्री के नंबर इकॉनामिक्स में। पर सबका जमा ये कि एक दूसरे के खाने में पड़े भले, पर अंक सारे कमजोर थे। टीचरों की सुनें तो उन्हें पूरा यकीन था कि थोड़ी सी तत्परता अगर वह दिखाये तो वह अच्छा कर सकती है। यह एक ऐसा अटूट विश्वास था जोकि पिछले कई वर्षों से टीचर्स उस पर दिखाती आयी थीं एकतरफा और जिसमें कि खुद लड़की की कोई भागीदारी नहीं थी। उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई सिवाय साँसों की दो एक लंबी आवाजों के, जो चार उँगली की दूरी पर फिट किये हुए माइक से, जिससे कि बच्चों को मैं पूरी कोशिश करूँगी/करूँगा कि अपने टीचरों की उम्मीद पर खड़ा उतर सकूँ या कि मैं अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करूँगा/करूँगी बोलना था, रिस कर आयी थीं। उसने बेआवाज गरदन में हल्की सी तरंग पैदा कर अपनी पारी के बोले जाने की रस्म निभा दी। अब बोलने की बारी ऊँचे कंधे वाले आदमी की थी, जिसे रीति के मुताबिक बोलने की आड़ में सिर्फ देना था - सफाई विश्वास आदि। पर उसने रीति को तोड़ कर बात को एक विराम दिया। उसके पास बोलने के
लिए था ही क्या! क्योंकि चोटियों में कस कर जकड़ी इस लड़की से उसकी पहचान ही क्या! वह उस जंगली उड़ान भरते बालों वाली लड़की की अंटशंट आदतों के खिलाफ या कि उसकी बड़ी बड़ी कमियों के पक्ष में बोल सकता था, पर सामने जो लड़की खड़ी थी, उसकी सफेदी के बारे में कोई बयान कैसे दिया जा सकता था! उसने दो घड़ी पहले अपनी पूरी क्षमता से नाच कर शांत पड़ चुकी पुतलियों के सम्मान में बात को विराम दिया। उस विराम का इवा कार्णिक पर ऐसा असर हुआ कि अपनी बारी के इस तरह खत्म हो चुकने के बाद भी वह उस जगह से हिली नहीं। जब दूसरे का नाम पुकारा गया और जब नाम पुकारा जाने वाला आ चुका तब भी वह सूत बराबर तक नहीं टसकी। उस दूसरे बच्चे को उसे छूकर संज्ञान की अवस्था तक पहुँचाना पड़ा, जहाँ से उसके वापस जाने का रास्ता शुरू होता था। लौटने के लिए मुड़ते वक्त ही उसे मैरून शर्ट दिख गयी, जिसकी शक्ल कुछ कुछ नीले रंग से मिलती जुलती थी। और शाम उसके घर के कमरे की रोशनी में वह यकीनन नीला ही दिखता। इवा कार्णिक ने स्कूल से लौटने के बाद की दुपहरिया में आईने में अपना चेहरा देखा और उसे लगा कि उसे जितने गोरेपन की जरूरत थी, उसे वह पा चुकी है और अब क्रीम की जरूरत उसके चेहरे को नहीं रह गयी थी। उसने अपने हाथ और गरदन पर क्रीम को लपेस लिया और जाकर इजा के बगल में लेट गयी। उसने इजा को बतलाया कि उसे इस बार बहुत कम नंबर मिले। वसुंधरा कार्णिक, जोकि पालने से उसके झूठ बोलने के अंदाज से वाकिफ थी, हर वक्त खाली मजाक करती है लड़की वाली अदा से हंस दी। ऐसे वक्त ही इवा कार्णिक की आस्था झूठ बोलने में और पुख्ता हो जाती और उसकी यह मान्यता एक बार फिर सही साबित होती कि झूठ और सच केवल बातें होती हैं और ये कि बोलने वाले की काबिलियत और सुनने वाले की परख किसी बात को सच या झूठ का जामा पहनाते हैं। उसने, उफ ऐसा सच जैसा दिखने वाला झूठ बोला फिर भी इजा ने पकड़ लिया - वाली लज्जा से कहा - 'इतिहास की टीचर बड़ी तारीफ कर रही थीं।' वसुंधरा कार्णिक गदगद हो गयी। उसने अपने तलवे से उसके पाँव को सहलाते हुए पूछा - 'अरे तेरे अपने ट्यूटर ने क्या कहा!' 'ओ ये! अब कहते क्या विनम्रता से पलकें झुकाये रहे।' दोनों अपने अपने कौशल से सच और झूठ को उनका जामा पहना कर खामोश पड़ गयीं। शाम के एक खास वक्त, जबकि वसुंधरा कार्णिक को एक अलग थाप पर यह पहचानते हुए उठ कर दरवाजा खोल देना था कि ऊँचे कंधे वाला आदमी आ चुका है, दरवाजे पर दस्तक पड़ी। वह अपने बँधे बँधाये विश्वास के साथ दरवाजा खोल कर वापस मुड़ गयी, पर उसे हलका सा आभास हुआ कि दरवाजे पर कोई नहीं था। उसने पलट कर परखा। वाकई कोई नहीं। उसे वापस आकर बैठे दो मिनट भी नहीं गुजरा था कि फिर से वही दस्तक। बैठ चुकने के बाद तुरंत उठने में उसे तकलीफ होती थी। घुटने। दरवाजा फिर खाली था एक बार। इस बार अपनी कुर्सी तक वापस लौट कर वह तत्काल नहीं बैठी। खड़ी रह गयी। तिबारे की थाप की आस में। बाद में हालाँकि उसे बैठना पड़ा इस सोच के साथ कि कहीं ऐसा तो नहीं
कि उसके कान निश्चित समय पर एक खास दस्तक सुन लेते हों रोज जबकि दस्तक कोई दरअसल होती नहीं हो और जब वह दरवाजा खोलती हो तो ऊँचे कंधे वाले आदमी की वहाँ उपस्थिति एक संयोग हो और आज ऐसा होने पर दरवाजे पर उसकी अनुपस्थिति ही सचाई की सबसे करीबी चीज हो! शाम तेजी से गहरा रही थी और इवा कार्णिक बालों को खोल कर लगातार दरवाजा तकते तकते ऊब चुकी थी। किसी का न आना तय था ये जानते हुए भी। वह दरवाजे के बीचोंबीच कुर्सी लगा कर आगे पीछे हिलते हुए इंतजार कर सकती थी। यह तीसरा दिन था। और लगभग उसी वक्त जब शाम की पाली की दस्तक हुआ करती थी, फोन पुरानी धुन में खड़खड़ाया। इस तरफ से वसुंधरा कार्णिक थी, उस पार ऊँचे कंधे वाला आदमी। इस पार से उसके दो दिन से न आने और कोई खबर तक न देने और आगे कब आने की बातें थीं, उस पार से पहले एक चुप्पी, फिर दूसरी चुप्पी, फिर तीसरी चुप्पी के पहले - आगे से न आ पाने की सूचना थी। आगे इस तरफ से तीसरी खामोशी को चीरती बदहवासी थी। क्यों, क्या मतलब क्यों नहीं आ पाआगे जैसी। उस तरफ से 'बस मैं' ये दो शब्द थे अलग अलग हटे हुए। फिर इस तरफ से 'ऐसे कैसे'। बदले में उधर से 'मैं अच्छा पढ़ा नहीं सका!' इस तरफ से फिर 'ऐसा कैसे'। उस तरफ से पहले मौन फिर रिसीवर के रखे जाने की शांति। उस घर तक पहुँचने के लिए पैंसठ मुड़ी मुड़ी सीढ़ियाँ चढ़नी होती थीं। फिर दो पल सुस्ताने के बाद कॉलबेल बजाना होता था। कुछ पल दरवाजे के और बंद रहने पर दुबारे से बेल बजाना होता था। फिर भी न खुलने पर झुँझला कर एक बार दस्तक देनी होती थी। फिर झाँकताँक कर दरवाजे पर किसी सुराख की तलाश करनी होती थी, जिससे कि उस पार से देर होने की वजह की शिनाख्त की जा सके। फिर एक बार दरवाजा पीट कर हाथ को वापस अपनी जगह आने के क्रम में ही एक ताले से टकराना
होता था, जोकि उस दरवाजे पर लगा हो। फिर चौंक कर ये समझना होता था कि घर अभी बंद था बाहर से, भले वह खुला हुआ हो भीतर से। फिर ताले को छूकर वापस पैंसठ सीढ़ियाँ उतरनी होती थीं। वह तीसरे दिन के बाद का दूसरा दिन था। अभी साढ़े पाँच बजे थे। जिसका मतलब कि उसे अगले दिन इजा से एक और एक्स्ट्रा क्लास का बहाना बना कर वापस से पैंसठ सीढ़ियाँ चढ़नी थीं ये मनाते हुए कि छह बजे के पहले तक घर के ताले में चाभी घुसा कर उसे उल्टी दिशा में उमेठ कर साँकल खोल दी गयी हो! एक ही बार में झटके से सब हो गया होता तो बात आयी गयी हो चुकी होती पर एक असफल साढ़े पाँच बजने के बाद से दूसरे छह बजने तक की प्रतीक्षा भारी थी। इस प्रतीक्षा में असमंजस का भी घालमेल था। कहीं उसके जाने से किसी के लौट कर आने की रही सही संभावना भी चली गयी तो! आज के साढ़े पाँच बजे के असफल होने के पीछे कहीं ऊपर वाले का यही इशारा तो नहीं! पर जैसा कि जीभ के एक बार जल चुकने के बाद भी गरम चीजों को मुँह लगाना छोड़ देने की बात लड़की बचपन से सीख नहीं पायी थी, वह अगली शाम भी टपाटप सीढ़ियाँ चढ़ गयी। दरवाजा दो फाँक खुला हुआ था। कॉलबेल बजा कर दरवाजे के खुलने का इंतजार करने के बीच के वक्त में अपने आप को संतुलित कर लेने की जो सहूलियत होती है, उसका यहाँ अभाव था। उजास हल्की जो बाहर से जा रही थी, उतनी भर। घर के पास अपनी कोई रोशनी नहीं थी। किसी खुले हुए दरवाजे को फिर से खुलवाने के लिए क्या करना चाहिए, लड़की में उस शऊर की कमी थी। वह ठिठक ठिठक कर भीतर उस रेखा तक पहुँच गयी जहाँ बाहर के उजाले की आखिरी सरहद खिंची थी। वहाँ तक पहुँच कर उसे कुछ पुकारना था, जिसके लिए कंठ तैयार नहीं था क्योंकि उसे पता था कि 'सर' जैसी कोई आवाज वहाँ से बहुत भद्दी और बेसुरी निकलती। उसे यह भी लगा कि पता नहीं जिस घर में वह घुस चुकी है, वह सही घर है भी या नहीं! हालाँकि ये उसे बहुत थोड़ा थोड़ा लगा था। ज्यादा ज्यादा क्या कह कर पुकारा जाये यह असमंजस ही था, जो उसे वापस घर के दरवाजे तक लौटा लाया। वहाँ पहुँच कर उसने कॉलबेल टीप दिया। घुटने तक लंबे शॉट्स और टी शर्ट पहने अंदर से जो आदमी तौलिये में हाथ पोंछता बाहर तक आ गया, वह दरवाजे के मेहमान को देख कर उसे वहीं से फुटा देने को कृतसंकल्प हो गया। मेहमान ने जवाब में भौंहे उचका कर वही सवाल दोहरा दिया। 'यहाँ कहाँ?' 'आपके यहाँ।' मेजबान की एक धारणा फिर से पुख्ता हो गयी कि लड़की गजब की मूर्ख थी। वह उसके पीछे कौन है कोई है यह झाँकने लगा। वह भी गरदन मोड़ कर अपने पीछे क्या कोई है! ऐसा झाँकने लगी। फिर वह मुड़ी और उसने कहा - 'इजा नहीं है।' 'इतनी देर तक स्कूल में क्या कर रही थी?' उसने ऊपर से नीचे लड़की के स्कूलिया मेकअप को परखा। 'इधर उधर थी। कल साढ़े पाँच बजे आप नहीं मिले तो छह बजा रही थी।' 'भीतर आओ।' 'एक बार आयी थी।' 'ओफ! क्या था?' 'अँधेरा था।' 'काम क्या था?' 'घर के अंदर रोशनी नहीं किया!' 'नहीं। काम क्या था?' 'इजा ने कहा है आने को। उनका मन नहीं लग
ता।' 'मन लगाने जाना है?' 'पढ़ाने के लिए।' 'किसे!' वह चौंका, ऐसा लड़की को लगा। 'ओ! तुम्हें! पर तुम्हें तो सब आता है।' 'मैं बहुत मन लगा कर पढ़ूँगी।' 'अभी तक क्यों नहीं पढ़ रही थी मन लगा कर?' 'आप रोज आ रहे थे इसीलिए।' 'अच्छा! तो मेरा रोज रोज आना छुड़वाने के लिए तुमने मन लगा कर पढ़ना छोड़ दिया!' 'छोड़ा कहाँ?' 'ओ हाँ हाँ छोड़ा कहाँ! मतलब शुरू से ही नहीं पढ़ा न!' 'इजा से कहना दूसरा ट्यूटर खोजें।' वह अभी अभी तो अच्छा भला था, अचानक से कठोर हो गया, ऐसा लड़की को लगा। 'मैं दूसरे ट्यूटर से कैसे पढ़ पाऊँगी!' 'इजा ने नहीं मैंने कहा है आने को। मतलब इजा ने भी कहा है। कहा नहीं है पर कहती। मैं बहुत मन लगा कर...' आगे आवाज दरक गयी। 'घर में भी झूठ बोल कर आयी होगी। घर जाओ।' 'आप कल आयेंगे न!' 'तुम जाओ।' 'आप झूठ नहीं बोलते। आइयेगा न। अभी ही चलिए न। मुझे बहुत सारा होमवर्क भी मिला है।' ऊँचे कंधे वाले आदमी के सारे शब्द पुराने पड़ गये। 'आप अपने घर में रोशनी जला कर और अच्छे कपड़े पहन कर आइये थोड़ी देर में।' उसने जाने के लिए सामान उठाना शुरू किया तब ऊँचे कंधे वाला आदमी देख सका कि स्कूल बैग, लंच, पानी की बॉटल सब फर्श पर टिका कर वह खड़ी थी तभी से। विक्रम आहूजा ने उसे आवाज देकर पीछे पलटा दिया। 'इजा से कहना तुम्हारे लिए नये मोजे खरीदे।' इवा कार्णिक ने बस्ता, पानी, लंच सबको वापस जमीन पर रख कर बायें मोजे को दायें मोजे जितना खींचा, ऊपर और फिर पलट कर चली गयीं। किताब भौतिकी की थी। उसकी बाइंडिग ढीली हो गयी थी और हवा की हल्की ससर पन्ने पलट दे रही थी। कमरे में एकदम शांति थी। इवा कार्णिक को एक न्यूमेरिकल हल करने को मिला था। दोनों जानते थे कि उससे नहीं हो पायेगा पर दिखावे में कोई इसे मानने के लिए तैयार नहीं था। दरअसल इ
वा कार्णिक जिंदगी में पहली बार इतनी गंभीरता से प्रयासरत थी। सच की गंभीरता से। ऊँचे कंधे वाले आदमी के दिमाग में उसकी इस गंभीरता के बरअक्स एक हल्का खयाल जागा। तय रहा कि वह आम इमली, जो भी बना कर दिखलायेगी, विक्रम आहूजा उसके सही होने की घोषणा कर देगा। इवा कार्णिक ने जो आगे बढ़ाया, वह तीन लाइन के बाद फार्मूले से विचलित हो गया था। उस तीसरे लाइन के आगे ही विक्रम आहूजा ने पेंसिल से निशान लगा दिया, सही का। लड़की के चेहरे से सिकुड़न चली गयी और उसका हर एक अंग अपने अधिकतम फैलाव में खुल गया। उसने उसके हाथों से कॉपी छीन ली और जल्दी जल्दी पन्ना देख कर कहा - 'सही है!' 'बनाया गलत था क्या!' उसने सिर को तेज दायें बायें डुला कर कॉपी को वापस अपने ट्यूटर की ओर बढ़ा दिया। 'दुबारे से देखूँगा तो हो सके ये गलत निकल जाय!' लड़की ने बहुत गति से अपने हाथ वापस खींचे और कॉपी को कलेजे में घुसेड़ लिया। उसकी हँसी की तुतलाहट में ऊँचे कंधे वाले आदमी के आलिंद और निलय में खून ले जाने ले आने वाली शिराएँ और धमनियाँ अचानक से अपना काम भूल गयीं। उसका चेहरा जर्द हो गया और उसे अपने धोखे से डर लगा। इवा कार्णिक को ऐसा लगा कि उसकी कॉपी को छुपा लेने की हरकत ने सामने वाले के चेहरे पर ठीक उस काम के विपरीत कोई असर किया है, जो उसके खुद के चेहरे पर फेयरनेस क्रीम ने किया था। उसने अपने हाथ बढ़ा दिये। कॉपी सहित। विक्रम आहूजा को इतना लग गया कि अब आगे वह उससे आँखें नहीं मिला सकेगा। इस खयाल ने उसके भीतर इतनी बेचैनी ठूँस दी आधे पल में कि उसने आखिरी झलक कैद कर लेने के होश में पलकें उठायीं, वहाँ, जहाँ अपने सही साबित हो चुकने की पुलक में तैरती पुतलियाँ थीं। विक्रम आहूजा वहाँ से अपने लिए नमक भर सुकून चुरा कर भाग सकता था, पर उसके लौटने के सारे रास्ते किसी ने बंद कर दिये थे। लिहाजा उसे वहीं रुक कर लड़की की आँखों में देखना पड़ा, जहाँ कॉपी पर तीसरी पंक्ति के बाद फिसल गया फार्मूला दुबका था, जो पहेली को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का दमखम रखता था। लड़की सब कुछ उसी रोज पढ़ लेने के उत्साह में थी। उसने तीन सवाल पूछ डाले, जिन सबका ताल्लुक भौतिकी से ही था, कहीं न कहीं और सबके सब जवाब की पात्रता भी रखते थे। विक्रम आहूजा के माथे पर पसीना छलक आया जवाब की जगह घेर कर। उसने आवाज पर पूरा नियंत्रण साध कर जवाब देना शुरू किया पर आवाज धागा निकल चुकी सूई की तरह टुकुड़ टुकुड़ ताकती रही। उस दिन के कोटे की पढ़ाई के खत्म हो चुकने पर विक्रम आहूजा उठ कर खड़ा हो गया और अगले ही पल वह बैठ भी गया। उसने मेज पर उस दिन के खाते का अपना रोल निभा कर औंधे मुँह पड़ी नोटबुक को उठाया। बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व अभ्यास के हुई इस कार्यवाही के प्रतिउत्तर में नोटबुक हड़बड़ा कर उठी और इस क्रम में उसके पन्ने अपने आप को तेजी से पलटने लगे और वो पन्ना तक खुल गया, जिसे वाकई में ऊँचे कंधे वाला आदमी खोलना चाह रहा था। विक्रम आहूजा ने बगैर लड़की के अचकचायेपन को देखे, उस न्यूमेर
िकल के आगे क्रॉस का निशान लगा दिया और तीसरे लाइन के आगे से बहक गये फॉर्मूले को जहाँ का तहाँ पकड़ कर मंजिल तक पहुँचा दिया। इवा कार्णिक के गलत जवाब के समानांतर एक सही हल लिखा जा चुका था। इवा कार्णिक को जिंदगी में पहली बार गंभीर दुख हुआ और उसकी आँखों की कोर में एक बिना दाँत वाला आँसू आकर ठिठक गया था। आईने के आगे बात मलिन थी। क्रीम का इस्तेमाल स्थगित करते ही त्वचा का साँवला स्वभाव उग्र हो गया था। इवा कार्णिक के आँसू अब चूँकि एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बहने लगे थे, इसलिए आईने में दिखलाई पड़ती हुई साँवली तस्वीर को देख कर इवा कार्णिक चाहे तो कल्पना कर सकती थी कि वह शाम के धुँधलके में नदी में अपनी हिलती डुलती परछाईं देख रही है। उसके आँसू क्यों थे! उसके जवाब का सही प्रमाणित होकर भी गलत साबित हो जाना इसकी वजह क्या! या कि कारण कोई दूसरा, जो आईने के सामने और गहरा गया था! यह अपने पिछड़ जाने का अहसास था। कितनी मुश्किल बात थी कि एक ऐसी दौड़ जिसमें अकेली वही दौड़ रही थी, और वही पिछड़ भी रही थी। इस आईने वाली अतिरिक्त समस्या के लिए, जो आग में घी की हैसियत से मौजूद हो गयी थी, उसके पास एक बढ़िया विकल्प यह भी था कि वह इजा की रसोई में आलू का छिल्का उतारने वाला औजार ले आये और उसकी सहायता से चेहरे की ऊपरी परत हटा दे। पर चूँकि मारे हताशा के उसका एक कदम भी चलने का मन नहीं हो रहा था, उसने वहीं खड़े खड़े कर सकने वाले काम को चुना और अधपिचकी ट्यूब से तीन दिन के कोटे की क्रीम निकाल कर चेहरे पर लपेस लिया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपने फ्लैट की घुमावदार सीढ़ियाँ न चढ़ कर नीचे के चबूतरे पर बैठ गया, जिस पर गर्मी की शाम और जाड़े की दोपहर में फ्लैट भर की औरतें बैठा करती थीं। उसने अपनी मुट्ठी खोली, जो भीतर से गीली थी और
जिसके भीतरी गीलेपन में वह किसी के आँसू चुरा लाया था। उसने चुराने का मन बना ही लिया था तो वह इवा कार्णिक की उस हँसी को चुरा सकता था, जो उसके खेल के बाद लड़की के चेहरे पर उभरी थी, क्योंकि थी तो वह भी विरल ही। पर उसने अपने साथ लाने के लिए उस आखिरी आँसू को चुना जो अब तक के उसके अनुभव से इवा कार्णिक जैसी लड़की की आँखों के लिए नहीं बना था। उसे लग गया था कि पिछली हँसी को लड़की भले सँभाल ले, पर इस आँसू को सँभालना उसके बूते का नहीं था, इसीलिए उसकी पसीजी हथेली गीली चीज को अपने साथ ले आयी। वह दिन में चार की औसत से उन सीढ़ियों पर से चढ़ता उतरता था, पर पहली बार उसके भीतर उन्हें गिनने की इच्छा जगी। उसे ठीक ठीक मालूम था कि चाभी के गुच्छे में से कौन सी चाभी उसके घर का ताला खोला करती थी, पर उसे बारी बारी से हर चाभी को घुसा कर ताला खोलने की असफल कोशिश करने का मन हुआ। अँधेरे घर के अंदर प्रवेश करने के बाद बत्ती जलायी जाती है, इस विकल्प का आविष्कार हुआ ही न हो जैसे, ऐसा। उसने सोफे पर बैठ कर अपना जूता अलगाया और मोजे को बजाय नीचे की तरफ खींचने के उसके हाथों ने उसे घुटने की ओर कस कर खींचा। उसे लगा जैसे भीतर के कमरे से किसी के लगातार कुछ रटने की आवाजें आ रही हों! उसके हाथों से पैर फिसल गया। दोनों के अपने अपने विस्मय थे। वजह कि किसी ने भी इवा कार्णिक को किसी भी चीज को कभी मुँह से रटते नहीं सुना था। वह आँखों से ही रटती आयी थी आज तक। वह उठ कर खड़ा हो गया। कानों का धोखा या कानों को ही धोखा हुआ था। घर शांत था। पर चीजें घर की लगातार कुछ रटे जा रही थीं। सिंक का नल खोलने पर पानी की रटी रटायी धार। स्विच ऑन करने पर पंखे के डैनों का वही रटा रटाया घेरा। उसने गौर किया कि हर रटने रटाने में शोर था। सिवाय आँखों से रटते जाने के। वसुंधरा कार्णिक दरवाजे के पीछे से अँधेरे में अपने आप को घुलाती हुई घंटों झाँकते रहने का अभ्यास साध रही थी। वह संदेह को फूँक फूँक कर उड़ा रही थी दूर दूर। वह जानती थी कि पंद्रहवाँ सोलहवाँ सत्रहवाँ साल निकल जाय चैन से तो फिर पहरेदारी की जरूरत नहीं होती उम्र भर। उसके अपने माँ बाप ने उसकी उमर के खतरे के निशान को छूने के पहले ही उसे अगले ठौर के हवाले कर दिया था। लक्ष्मणरेखा सिंदूर की थी तो क्या, सातों महासागरों के पानी को मिला कर पीने का नशा इन्हीं तीन सीढ़ियों पर तो चखा था उसने। सत्रहवें साल की आखिरी हिचकी तक वह माँ बन गयी थी। उसके आगे की स्क्रिप्ट में जो कुछ भी लिखा था, जैसा भी लिखा था, उसे बिना सवाल किये वही दृश्य वही संवाद अपनाने पड़े। पहले एक बच्चा बिछड़ा, फिर पति, फिर दूसरा बच्चा। अब जबकि उसके चेहरे से मंच के बीचोंबीच की रोशनी का गोला सरक चुका था, उसने नेपथ्य से डोरियों को खींचने, ढील देने का काम सँभाल लिया था मुस्तैदी से और यह भाँप चुकने पर कि इवा कार्णिक फिसलने के जुनून में है, उसकी डोर को खींचे रखना उसका सबसे खास दायित्व। इस पूरे प्रकरण में ऊँचे कंधे वाले आदमी पर अविश्व
ास की कोई सूरत नहीं बनती थी। बस संदेह का पत्ता वहीं खड़खड़ाता था, जहाँ एक बार ट्यूशन छोड़ चुकने का फैसला ले लेने के बाद ट्यूटर दुबारा चला आने लगा था पहले की तरह। अगर कि इवा कार्णिक सच में उसे मनाने गयी थी तो भी पढ़ने लिखने में तीन कौड़ी की एक लड़की की बात को मान ही लेने की उसकी क्या मजबूरी थी! इस बेहद अफसोसजनक वाकये की नींव पर ही उसने ताँकझाँक की पूरी बुनियाद खड़ी की थी। ये बात और कि उन दोनों को एकांत में मिला पाने का व्यूह भी अक्सर उसके ही हाथों रचा जाता। कह सकते हैं कि वह जाल बिछा कर और उस तक इवा कार्णिक को ले जाकर यह परखना चाहती थी कि वह फँस पाती है कि नहीं! उसका चश्मा ढीला था और नाक के रास्ते फिसलने लगता था। इस फिसलन के आगे बाधा साबित होते हुए वसुंधरा कार्णिक को लगातार नजर रखनी थी उनके हावभाव पर। और अगर कि वे हावभाव वाकई किसी लफड़े के अंश थे तो वसुंधरा कार्णिक यह स्वीकार करने में मिनट भर भी नहीं खरचती कि उसका जाल पुरानी किस्म का था जरूर पर दम था उसमें। खम भी। यह सब ताकाझाँकी तब तक चलती जब तक घड़ी की सूइयाँ साढ़े आठ की मुद्रा में आकर बैठ न जातीं और ऊँचे कंधे वाला आदमी उठ न खड़ा होता सरपट। और यहीं उस दिन के कोटे के खत्म होने का परदा वसुंधरा कार्णिक को खींचना होता। परदा सटते ही वह डोर को फेंक फाँक कर उसमें उलझते अपने पैरों की परवाह छोड़ गिरते पड़ते ड्राइंग रूम के पार्टिशन के उस तरफ पहुँचना चाहती, जहाँ उसे रास्ता छेंक कर खड़े हो जाना था दरवाजे के बीचोंबीच ताकि विक्रम आहूजा बाहर कदम न धर सके। वह रुक जाता। वसुंधरा कार्णिक बात को जिधर भी मोड़ती, वह बिल्कुल छोटा सा जवाब देता। उसकी उपस्थिति पूरे वार्तालाप में उतनी ही थी, जितनी लंबे लंबे वाक्यों में 'है' या 'था' की हुआ करती है। छह
रोज पहले सुना चुके एक वाकये को दुहराते दुहराते आँख की कोर से उसे पार्टिशन के पास एक जिंदा सी परछाईं डोलती सी दिखती। तो क्या इवा कार्णिक परदे के उस तरफ थी! वह तुरंत तेज लगाम खींच कर कह उठती - 'मैंने तुम्हें आज भी बड़ी देर करा दी न! बातों की सुध में मुझे वक्त का ख्याल ही न रहा। अच्छा?' 'अच्छा' शब्द के खत्म होते होते वह उठ खड़ा होता और हाथ जोड़ कर बाहर निकल जाता। उनकी दुनिया से। वसुंधरा कार्णिक पलट कर घर के भीतर की ओर बढ़ने लगती। वह चौखट दर चौखट फाँदती जाती पर कोई दिखता नहीं। इवा कार्णिक अपने बिस्तर पर इतनी सारी किताबों से दबी मिलती कि कोई नहीं मानेगा कि वह इतनी सारी किताबों के बीच से अपने को निकाल कर परदे की ओट तक गयी और वापस वहाँ से लौट कर अपने को उन्हीं किताबों से दबा लिया ऐसी सफाई और फुर्ती से। तो क्या वाकई पार्टिशन के पीछे वह नहीं थी! वसुंधरा कार्णिक का माथा गरम था। उसकी पलकें झुरमुट झुरमुट खुलती थीं। फिर बंद हो जाती थीं। इवा कार्णिक ने कढ़ाई में तेल के कड़क चुकने पर मुट्ठी मुट्ठी दो मुट्ठी भिंडियाँ कटी कटी डाल दीं उसमें। तेल कुछ तेज ही कड़क गया था। वजह यही कि भिंडी का एक बीज उछल कर उसकी नाक के सबसे नुकीले सिरे से टकराया। भिंडी को ढक कर भूनना था कि खुली कढ़ाही में! तेज आँच पर कि सिम चूल्हे पर! और सबसे बड़ा सवाल था कि थोड़ी भुन चुकी भिंडी में वापस फोरन कैसे डाला जाय! मिर्च का। जम चुकी दही में वापस जोरन कैसे डाला जाय! ओहो हो! ऊँचे कंधे वाले आदमी के आया होने पर दरवाजा खोलने वह छुलनी हाथ में लिए गयी, जिसके सिरे पर हल्दी से गली भिंडी चिपकी थी। 'इजा को बुखार है। कल आइएगा पढ़ाने।' उसने आधा दरवाजा छेंक कर कहा। 'आज देखने तो आ सकता हूँ!' 'ज्यादा बीमार नहीं हैं।' उसने एक पल अपने ट्यूटर की आँखों में देखा और हट कर रास्ता दे दिया। पूरा। वसुंधरा कार्णिक ने चंचल बीमार की भूमिका में आते हुए अपने बीमार धड़ को उठा कर पूछा - 'कैसे हो?' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने - 'आप लेटी रहें' की तरह हाथ बढ़ा कर कहा - 'अच्छा हूँ।' वसुंधरा कार्णिक ने अभिनयाधिक्य से कहा - 'चाय पीओगे?' 'कौन बनायेगा?' 'आप पीयेंगी?' 'नहीं तो।' इवा कार्णिक मेजपोश ठीक करने के बहाने उनकी बातचीत में सेंध मारने आयी थी। पर उनके बीच के टॉपिक को आधा अधूरा सूँघ कर वह पिछले पाँव खिसक गयी। वह कुछ भी कर सकती थी पर चाय बनाने का विकल्प उसे खौलाता था आतंक से। उसने सतर्क नजरों से कड़ाही में भिंडियों को फैला दिया और चुटकी से एक एक के ऊपर नमक छींट कर दम साध कर भिंडियों को उलटने पुलटने लगी। उसकी सतर्क नजरों के घेरे में एक ऊँचा आदमी आ गया। वह हड़बड़ा कर पलटी और उसने कहा - 'मुझे चाय बनाना नहीं आता।' 'सामने जो है वह भी जल रहा है।' उसने गैस का नॉब बंद करके पूछा - 'चाय सचमुच बनानी होगी क्या!' 'तुम्हारी इजा बता रही थी तुम्हें रोटियाँ बनानी नहीं आतीं। आज का तुम्हारा ट्यूशन यही।' 'मैं बेल सकती हूँ सेंक भी सकती हूँ।' 'तो फिर क्या नहीं कर सकत
ी?' 'उसे खा नहीं सकती।' विक्रम आहूजा पहली बार सिर्फ उसके लिए मुस्कुराया। हालाँकि वह जान नहीं सकी क्यों मुस्कुराया, पर लड़की को इस बात का अहसास हुआ कि दरवाजे से ही उसे लौटा देकर वह कितनी बड़ी भूल करते करते रह गयी थी। उसने पलट कर आटे के डिब्बे का ढक्कन खोल दिया और दूसरे पल दरवाजे से जरा सी बची रह गयी जगह से अपनी देह को निकालते हुए इजा के कमरे तक भाग आकर उनके पैर दबाने लगी। उसकी तलहथी में तेज पसीना था, ये बात इजा के पैर को छूकर ही पता चली। इजा ने अपने पैर ऊपर सरका लिए - 'किचन में जा!' किचन में जाने का रास्ता बहुत आसान था। नाक की सीध में सोलह सत्रह कदम चल कर दाहिने मुड़ कर सात कदम बस। पर उसने अपने मार्ग में विचलन लाते हुए अपने को विपरीत दिशा में मोड़ लिया। भाग भाग कर वह अपने कमरे तक गयी, आईने में देख देख कर चेहरे पर क्रीम लपेसा और किचन के दरवाजे पर खड़े खड़े भीतर देखने लगी। ऊँचे कंधे वाले आदमी ने आटे के बीच एक गड्ढा बनाया और उसे पानी से भर दिया। फिर उस पानी को अगल बगल के आटे से भर दिया। उसने बायें हाथ से पानी डाल डाल कर आटा गूँथ लिया और लोइयाँ बनानी शुरू कर दीं। उसने बगैर पलटे, पीछे खड़ी परछाईं से पूछा - 'कितनी रोटियाँ खाओगी तुम?' लड़की सकपका गयी। उसने शब्दों को आधे आधे हिस्सों में बाँट कर कहा - 'दो।' 'और इजा?' 'और मैं?' 'आपके हिस्से की भिंडी तो मैंने नहीं बनायी।' वह बेलन समेत पलटा। 'आपको कैसे पता चला कि मैं पीछे खड़ी हूँ?' 'पाउडर या क्रीम की खुशबू कमरे में फैली उससे...' तुमने कैसे जाना कि मुझे भिंडी नहीं पसंद!' इवा कार्णिक के होंठ अलग गये। हलकी सी रोशनी में वह आगे बढ़ा। इवा कार्णिक पीछे बढ़ सकती थी, पर वह हिली नहीं बिंदु भर भी। अधिक से अधिक वह जितने करीब आ सकता था, उतने करीब वह
आ चुका था। सीने पर हाथ रख कर जिस जगह पर वह ठीक ठीक दिल के होने की पड़ताल कर सकती थी, उसके ठीक नीचे से एक बवंडर उठा जो, उसकी मानें तो उसके शरीर को ढक्कन की मानिंद उड़ा सकता था फक्क की आवाज के साथ। उसे लगा कि उसके कानों से कुछ रिसने लगा था एकदम तरल और शर्तिया गीला। नहाते वक्त दाहिने कान में घुस गया पानी शायद, जिसे उसने स्कूल में भी दाहिनी बगल झुकते हुए कूद कूद कर निकालने की कोशिश की थी। पर जो निकला था नहीं खाली ढब ढब बजा भर था भीतर। और जो अब रिस रहा था सुसुम सुसुम। वह स्कूल में नजर मिलाने वाले खेल में हमेशा सबसे जल्दी आउट होने वालों में थी, पर यहाँ सामने वाले के आगे अकड़ेपन की स्थिति में भी उसकी एक पलक तक विद्रोह नहीं कर रही थी पल भर झपकने के लिए। ऊँचे कंधे वाले आदमी का चेहरा उसके ठीक ऊपर झुक गया था और इवा कार्णिक को भान हो चुका था कि अगली साँस जो वह छोड़ेगी, वह सामने वाले से टकरा कर ही आगे बढ़ेगी। इस आशंका से कि साँसों का टकराना कमरे की खामोशी को चिनगा न जाये उसने अपनी साँसें अंदर ही रोक लीं। ऊँचे कंधे वाले आदमी की आँखें जरा सिकुड़ीं और उसने कहा - 'तुमने जो लगाया है सफेद सफेद, वह माथे पर ठीक से पसरा नहीं है।' वह बेलन समेत पलटा। इवा कार्णिक भी बिना वक्त गवाँये पलटी। उसने अपने ललाट पर तीन बार रगड़ रगड़ कर हाथ ससराया और किवाड़ की आड़ में छिप कर खड़ी हो गयी। आईना रोशनी समेत उसकी तलाश में घर भर में पैदल पैदल घूम रहा था और उसे किसी भी कीमत पर अपने आप को उसकी नजरों से बचा ही लेना था। गरम माथे वाली स्त्री के पलंग से अब तक के शुबहा के यकीन में बदल जाने के बाद की भारी साँसों वाली हुंकारी निकली। पलंग जोर मोर से चड़मड़ाया और उसने लेटे लेटे ही अपने जाल को खींच कर समेट लेने की कोशिश की क्योंकि शिकार बगैर जाल की मदद के भी, फँस जाने को अपने आप उत्सुक दिखता था या ऐसा ही कुछ भी। लंच ब्रेक में अब इवा कार्णिक अपने दोस्तों के साथ नहीं दिखती थी। वह प्ले ग्राउंड को घुटने तक घेरने वाली बाउंडरी वॉल पर एक किसी पेड़ के नीचे उसकी गिरती पत्तियों को गिनती हुई बैठी रहती। वह सन्नाटे को छूने के लिए शरारत से दूर भागने लगी। वह टीचर के लेक्चर को घूँट घूँट सुन लेने के इरादे से हर क्लास की शुरुआत करती ताकि शाम में किसी को अपने किताबी ज्ञान से चौंकाया जा सके, पर होता ये कि बात जैसे ही तीन चौथाई आगे बढ़ती उसका शरीर झपकने लगता। वह जाँघ की चमड़ी को स्कर्ट समेत चुटकियों में दबा कर अपने शरीर को जगाने का जुगाड़ करने लगती और इसी खींचातानी में 'सुन लेने का इरादा' पीछे ढकेला जाता। उसे तीखी धूप से अब डर नहीं लगता न सामने वाले के उजले रंग से, जिनकी उपस्थिति उसके रंग को और गहराने का खतरा उत्पन्न करती थी। वह खिड़कियों से देख कर शाम के होने का और दरवाजे की झिर्रियों से देख कर गहरे शाम के होने का, जबकि ट्यूटर के आने का वक्त होता, इंतजार कर सकती थी, पर जैसे ही वसुंधरा कार्णिक ऊँचे कंधे वाले आदमी के नाम का दरवाज
ा खोल देती और वह घर के भीतर दाखिल हो जाता, उसका दिल उलट जाता और वह अँधेरे कमरे में अकेले अकेले सुलगने लगती - उन्हें कोई काम धाम नहीं है क्या रोज रोज चले आते हैं बिला नागा किस्म का। वह दो तीन बार औरताना घिसी आवाज में इजा के ड्रांइग रूम से अपना नाम पुकारे जाने के बाद कुछ रटती हुई सी कमरे में दाखिल होती और ट्यूशन का पूरा वक्त कुछ बिदबिदाते हुए ही गुजार देती। इवा कार्णिक अँधेरे कमरे में सूखे पत्ते सी खड़खड़ाती थी। वह मनाती थी कि सूरज रात भर भटक भटक कर ऐसा लटपटाये कि सुबह दुबारा निकलने का रास्ता ही न खोज पाये वह। उसका शरीर अपने उठान की पर्याप्त संभावना तक विकसित हो चुका था। पलकों के लिए भी जितना बढ़ना मुकर्रर था, उस सीमा को छू चुकी थीं वे। वह अगर हथेली में अपना चेहरा ढाँपती तो पलकें उँगलियों के बिचले पोर पर सहरती थीं। वह क्या चाहती थी, यह सवाल अस्तित्व में आया नहीं था। वह क्या नहीं चाहती थी - यह जवाब जगमगा रहा था उजाले में। जो भी सामने हो रहा था उसके, वह चाहती थी कि वही न हो। हर होती हुई चीज को नकार कर मुँह फेर लेने जैसा चित्त। जब उसके साथ के पढ़ने वाले लड़के अपने सिर को टोपियों से ढके, दरके बाँस जैसी आवाज में प्रचलित अनुनासिक ध्वनि वाले आलाप आजमा रहे होते, लड़कियाँ स्कर्ट की हद के पार, घुटने से नीचे के उघड़े पैर के रोओं को सफाई से उड़ाने की तरकीबों में मशगूल होतीं, इवा कार्णिक दिन भर शाम के होने का इंतजार करती और शाम भर हर घटना के आगे न न लिख देने के मौके का इंतजार। जिंदगी को खोल दे तो वह कोरे कागज जैसी। वह मोड़ कर उसका जहाज बना सकती थी और एक सुर में पानी का इंतजार कर सकती थी, उसे तैराने के लिए। अगर कि पानी बाल्टी भर कर सामने आ जाता तो वह तुनक कर खयाल बदल लेती और जहाज को वापस खोल
कर कागज और कागज को एक बार फिर वापस मोड़ कर पंखा बना लेती और ताबड़तोड़ उसे झेलने लगती पसीने के इंतजार में। अगर पसीना बूँद भर उग भी जाता होंठों के ऊपर तो वह धिक्कार भाव से पंखे की लहरों को भहरा कर तुड़मुड़े कागज का नकमदान बनाने लग जाती। जब नमकदान में भरे जाने के लिए बारीक नमक खुद हाजिर हो जाता तो वह झुँझला कर कागज को मोड़ तरोड़ कर कूड़ेदान तलाशने लगती। पर ऐन वक्त पर कूड़ेदान अपने को छिपा कर जिंदगी को गर्क होने से साफ साफ बचा लेता। खाने की मेज पर इवा कार्णिक बिल्कुल सामान्य। लाल नाक को छुड़ा कर सब कुछ बिल्कुल सामान्य। इजा की रसोई में लेमन राइस था, जो बहुत लाड़ से इवा कार्णिक की ओर बढ़ कर आया। 'कैसा बना?' इवा कार्णिक ने उसमें से सरसों के दो काले दाने चुने और उनके कड़वापन को दाँतों की धार पर मसल कर कहा - 'अच्छा। दिखता अच्छा है।' इजा ने सिर से पाँव तक लड़की को देखा। उसकी परछाईं को भी। दोनों में से किसी के भी ऊपर अपराधबोध का एक कतरा तक नहीं था। 'आपको बाबा की आवाज याद है?' 'पहचान लूँगी लगता है।' 'अगली बार भी क्या आप वैसा ही साथी चाहेंगी अपने लिए?' 'कौन जाने।' ऐसा जवाब इवा कार्णिक ने सुना। जबकि इजा चुप बैठी थी। अपने मुँह का कौर निगल चुकने के बाद उसने कहा - 'इन सवालों पर अपना कोई अख्तियार नहीं होता। सब तय होता है ऊपर से।' इवा कार्णिक की नजरें तीखी थीं, जबकि सरसों का दाना इस बार वसुंधरा कार्णिक के दाँतों तले दबा था। वसुंधरा कार्णिक का चेहरा पानी बन गया। कंकड़ मारने से थरथराता हुआ पानी। 'आप मेरे जितनी थीं तो कितनी चोटियाँ बनाती थीं?' 'शायद दो।' 'आप उस वक्त भी ऐसी ही गोरी थीं?' 'रही होऊँगी।' 'वो आपकी जिंदगी के सबसे अच्छे पल थे न?' 'अगर हम अपने अतीत के अनिश्चय के साथ इतनी सहजता से रह सकते हैं तो भविष्य का अनिश्चय हमें इतना परेशान क्यों करता है!' इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री चिहुँक गयी। अरे यह झूठ है तो सच क्या था! और अगर यह सच था तो झूठ क्या था! क्या वाकई वसुंधरा कार्णिक जिस मूर्ख लड़की के साथ अब तक रह रही थी, वह एक पहुँची हुई खिलाड़ी थी! ऐसी ऐसी दाँवपेंच की बातें बनाने वाली! रात के रंग में मिलावट थी। हल्का साँवला रंग। वसुंधरा कार्णिक ने अपनी साँसें ऊपर की ओर खींच लीं और कदम बढ़ाना शुरू किया। लड़की के कमरे तक पहुँच कर उसने परदे की ओट में एक आँख को छिपा लिया। एक उघड़ी आँख, जो अँधेरे में बेहतर देखने में महारत रखती थी, ने हल्की साँवली रात के बीच से गहरी साँवली लड़की को साफ साफ अलगा कर देख लिया। इवा कार्णिक तभी खिड़की से लग कर खड़ी थी और बहुत संभव है उसकी भी एक आँख परदे की ओट में छिपी हो और दूसरी से वह बाहर की दुनिया को देख रही हो। लड़की का इतनी रात तक जगे होना और वह भी चलते देखते जगे होना एक घटना थी। पर वसुंधरा कार्णिक ने उसे बगैर चौंके हुए ऐसे स्वीकार किया मानों गयी रात बरसों से वह लड़की को बिस्तर से दूर खड़ी देखती आयी हो। ठीक इसी वक्त एक अफसोस उसे अपने आप पर
हुआ कि उसे पता तक नहीं चला कब लड़की ने पालने से उठ कर खिड़की से लग कर खड़ी होने तक का सफर पार कर लिया। उसके मन में उसे खिड़की के पास से अपनी गोद में उठा कर वापस बिस्तर पर सुला कर थपकाने की चाह जागी ताकि लड़की एक ढाँढ़स भरी नींद सो सके। उसकी चाह जागने के साथ ही अपने तीखेपन में उजागर हो गयी और बिना पल गँवाये वसुंधरा कार्णिक ने अपनी दूसरी आँख को भी परदे की ओट से बाहर निकाला और उसके कदम लगभग कमरे में प्रवेश करने के लिए उठे कि उन्हें रुकना पड़ा। उस कमरे में कैशोर्य और जवानी की चौखट पर ठिठकी एक लड़की की अंतरंग दुनिया थी, जिसमें बिना दरवाजे पर दस्तक दिये प्रवेश करने में वसुंधरा कार्णिक के कदम काँप गये। बल्कि उस कमरे का वैभव ऐसा प्रचंड था कि अपने तुड़ेमुड़े गेटअप में उसमें दाखिल होने का साहस ही नहीं हुआ उसे। उसकी आँखें, होंठ, आत्मा तमाम चीजें खुली की खुली रह गयीं क्योंकि चौसठ साल गुजर जाने के बाद भी कभी ऐसा कोई वैभवशाली कमरा आया ही नहीं उसके अपने जीवन में। एक मोटरी की तरह उसे उठा कर किसी की बगल में रख कर अग्नि के इर्दगिर्द सारा मामला तमाम कर दिया गया और घूँघट पलटने के बाद वह उसी पलटने वाले से रटा रटाया प्यार करती चली गयी। एक आदमी ने दुनिया के गोल नक्शे पर जिस जगह के जो नाम उसे बताये, वसुंधरा कार्णिक ने उस जगह को उसी नाम से अपना लिया बिना किसी देख परख के। किसी ने कहा कि वह लाल चीज आग है उसे मत छुओ! जल जाओगी! और वह यह मान कर दूर बैठ गयी कि लाल रंग में बहुत लहक होती है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि वह सुने, पास जाय, छुए, जले, हाथ वापस खींचे, दर्द से बिलबिलाये और दर्द के थोड़ा शांत पड़ने पर 'फिर से एक बार और छू लूँ क्या' की उत्कंठा से एक बार फिर से छू ले उसे और फिर से जल जाय एक बार! उसने जलने
की पीड़ा से बचे रह गये अपने शरीर को पीछे खींच लिया। उसी समय उस अप्राप्य जलन के समानांतर एक डाह उसके सीने में उठी - क्यों जो उस लड़की को मिल रहा है उसे नहीं मिला कभी! क्यों नियति ने उसे कभी चुनने की स्वतंत्रता नहीं दी। गलत सही जो भी। क्यों जिंदगी ने उसे उस चुने हुए को दुनिया की नजरों से छिपा कर रखने का ढब नहीं दिया! क्यों कोई छीन लेगा उससे उसके चुने हुए को ऐसे फिक्रमंद लम्हे नहीं दिये! क्यों कैसे बचा कर रखा जाय उस चुने हुए को अपने पास साबुत, ऐसी उधेड़बुन में डूबी बेनींदी रातें नहीं दीं! वह पीछे नहीं मुड़ी बल्कि उसने कदम बढ़ाने शुरू कर दिये पीछे की तरफ। बिस्तर तक पहुँच कर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। क्या उसके कुँवारे अतीत में कोई था, पति के सिवाय! वह उस आदमी की शक्ल अपने सामने उकेरे जाने के बिंदु तक अपने अतीत में वापस गयी। पर किसी की तलाश पूरी होनी तो दूर, शुरू तक नहीं हो पा रही थी। कारण कि अतीत का वह हिस्सा एक काले डॉट में सिमट कर बैठा था, जिसमें से किसी भी कम साँवले, साँवले या गोरे को बीनना मुश्किल था। असंभव की हद तक। उसके अतीत के सबसे पिछले पन्ने पर उसे विदा करते माता पिता और फिर पति नया घर आदि आदि ही अंकित था। उसके पीछे का पन्ना था ही नहीं कुछ भी। अगर जिंदगी ने उसे भी चयन का मौका थमाया होता तो क्या वह अपने पति को ही चुनती! उसकी साँसें तेज तेज आने जाने लगीं। एक साधारण साँस की जगह में ठुँसी हुई पाँच छह साँसें। आतीं। जातीं। एक दूसरे पर चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। इस आवाज को सुनते हुए वसुंधरा कार्णिक के बालों की जड़ों का पसीना पिघलने लगा और वह झटके में चालीस पचास न जाने कितने साल पीछे चली गयी। कमरा यही रहा होगा या जो भी रहा हो फर्क क्या! वह बैठी थी तब भी ऐसे ही आँखें मूँदे या पता नहीं कैसे भी। घूँघट माथे तक था या ठुड्ढी के अंगुल भर नीचे जैसा भी। बल्कि सब कुछ था - नहीं था के बीच का, पर आवाज यही थी। चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। जबकि किसी ताजा दुल्हन की साँसों की आवाज ऐसी निर्ल्लज नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसकी साँसों की तो आवाज ही नहीं होनी चाहिए। एक पति जैसे किसी ने दुल्हन की चौकी को पकड़ा। लाल रंग के घूँघट वाली औरत के हाथ साड़ी के भीतरी रास्तों से अपनी जाँघ पर या कि पैरों पर कहीं भी गये और उसने उस जगह को दाब कर अपनी साँसों के बहाने कुँवारपन के विराटतम भय पर काबू पाने की कोशिश की। वह सफल या असफल होती इस प्रयास में कि इससे पहले उसका घूँघट उलट दिया गया। अच्छा हुआ। उसके भय की उम्र बिना किसी भूमिका के घट गयी। जो भी होना था, जल्दी हो जाय जैसा कुछ। दुल्हन की आँखें, जो घूँघट के उठ जाने के पहले खुली थीं, बंद हो गयीं। फिर खुलीं। मायके की सुहागिनें हड़बड़ी में बताना भूल गयी थीं कि आँखों का क्या करना था उस वक्त। बहरहाल बता भी देतीं तो क्या! उसके धौंकते सीने के आगे आँखों की भूमिका गौण थी। जो पति था, उसने संयमी पति की परम्परा पर चलते हुए दुल्हन के हाथों को अपने हाथों में उठा लिया। वहाँ, उस
कमरे में तभी जो कुछ भी हो रहा था, उसकी टेक दुल्हन की साँसें ही थीं। चाहे वह पति का पास खिसकना हो, हाथ उठाना हो या कि उसके पास खिसकने में चौकी का चरमराना हो! या कमरे के एक कोने में धान के ऊपर धरे कलश के अगल बगल चूहों का दौड़ना हो! कुछ भी सब कुछ। पति ने दूसरे डेग में उसके हाथों को अपने होंठों से दबाया। तीसरे डेग में दुल्हन की ठोढ़ी को पकड़ कर उठा दिया और उसके गालों को हल्के से छुआ। फिर चौथे डेग में वह अभी बुदबुदा कर कुछ बोलना ही चाहता था कि दुल्हन ने जोर से आँखें खोल दीं और भय की लाल मुंडेर से पीछे की तरफ छलाँग लगाते हुए साँसों की आखिरी टेक पर घिघियायी - जल्दी जल्दी कीजिये! वसुंधरा कार्णिक धड़ाम से बिस्तर पर गिरी। उसकी जिंदगी में वाकई सब जल्दी जल्दी ही तो हो गया। उसने तकिये को इतनी जोर से दबाया कि दाँतों के कोर में कपास का स्वाद तिर गया। इतनी जल्दी जल्दी कि अब वक्त बीते रुक कर किसी को खोजना असंभव। उसने तकिये पर घिस घिस कर सेंध मार चुके कपास को मुँह से बाहर निकाला। सुबह की रोशनी तिनके की तरह आकर उसकी आँखों में पड़ी। वह आँखें मलते हुए सरपट बैठ गयी। तो पिछली रात आखिरकार सो पायी वह! वसुंधरा कार्णिक की पूरी दिनचर्या दिन का पूरा गणित आरंभ से ही गड़बड़ा गया था। वह हड़बड़ी में एक ही चप्पल पहन कर पूरे घर भर में बदहवास घूम आयी। घर एकदम स्थिर था। इवा कार्णिक के कमरे में आने पर एक उप दरवाजे के पीछे से पानी के गिरने की आवाज आती थी। वसुंधरा कार्णिक बाथरूम के दरवाजे के बाहर से अहकान कर पीछे लौटने को मुड़ी कि उसके रास्ते में उसका अक्स पड़ गया। ड्रेसिंग टेबुल के दराज खुले थे। उसकी नजर आईने में अपने चेहरे पर पहले, ड्रॉवर से झाँकते फेयरनेस क्रीम की ट्यूब पर बाद में पड़ी। उसकी आईने वाली तस्वीर तो
पर्याप्त गोरी थी, उसे क्रीम की कोई जरूरत नहीं थी। फिर भी। उसने क्रीम को ड्रॉवर से उठा लिया और अपनी साड़ी के पल्लू में दुबका कर कमरे तक ले आयी। ट्यूब को छिपाने की एक महफूज जगह उसे पलंग के मैट्रेस के नीचे पायताने हासिल हुई, जहाँ से कितनी भी उकट पुकट विकट तलाश के बाद भी इवा कार्णिक उसे बरामद न कर सके। दिन। बारह बजे की तरफ से ढलकती घड़ी की छोटी सूई। पिउन की मार्फत विक्रम आहूजा तक सूचना आयी कि कोई उससे मिलने आया है। स्टाफ रूम की ओर संदेशवाहक की उँगली। वह दरवाजे की ओर वाली दीवार से पीठ सटाये बैठी थी। 'यहाँ?' ऊँचे कंधे वाले आदमी के चेहरे पर खीझ उग आयी और उसने दबे स्वर में बात को रफा दफा करने के इरादे से एक बार फिर फुसफुसा कर कहा - 'यहाँ कहाँ?' 'जहाँ भी आप चाहें।' 'क्या मतलब है? यहाँ कहाँ?' उसने कोई सुने तो सुने वाली बेपरवाह चीख में कहा। वह सकपका गयी भीतर से। 'आपको बना रही थी। डिज्नीलैंड घुमा देंगे?' 'स्कूल?' उसने शक्की पुतलियों से पूछा। 'मैनेज कर लिया है।' 'सोयी होंगी।' 'ये सब इतना क्राइम तुम्हारे दिमाग में आता कहाँ से है?' 'कल रात में ही सोच लिया था।' 'बस्ता उठाओ और लौटो स्कूल।' उसके एक किसी आज्ञाकारी हाथ ने सकपका कर अगले ही पल बस्ता उठा लिया। 'टिफिन यहीं छोड़ जाना।' उसके उसी हाथ ने बस्ते को वापस सोफे पर छोड़ दिया, सामने वाला मुलायम पड़ चुका था ये सूँघ कर। 'एह! गो!' वह फिर सख्त हो गया। वह बैठ गयी। उसने गोद में बैग रख कर लंचबॉक्स निकाला और उसे बगल की कुर्सी पर रख कर वह उठ गयी। जाने के लिए। वह मुड़ गयी। वाकई जाने के लिए। उसने कदम बढ़ा लिए। जा चुकने के लिए। 'तुम्हें बना रहा था। लेती जाओ लंचबॉक्स!' वह मुड़ी। उसने टिफिन को उठा कर बस्ते में ठूँस लिया। 'बैठो यहीं। चलता हूँ।' डिज्नीलैंड में हर चीज के दाम उसने पूछे। बताये गये दाम की तिहाई भर कीमत में उस चीज को खरीद लेने को वह अकड़ गयी। खींचतान में दाम तिहाई के आसपास ही कहीं तुड़वा कर उसने अचानक मन पलट लिया और अगली दुकान की ओर बढ़ गयी। स्कर्ट, कान के बुंदे, कोल्हापुरी चप्पलें, कपड़े की बैग्ज, अचार, पाचक, कील ठोकने का स्टैंड तक। सारे झूलों पर भी चढ़ी वह। अकेले अकेले। तमाम तरह के ओल झोल स्टॉल पर के मौज, पाचक के स्टॉल पर हर तरह के पाचक को चुटकी चुटकी चख कर एक को भी न खरीदने की बेपरवाही - सब में वह अकेली थी। पर हर मोलभाव में अपनी जीत हो चुकने के बाद बगल वाले की आँखों में देखने के उल्लास में, किसी भीड़ भरे स्टॉल में धक्के के आवेग में अपने पैर को उठा कर बगल वाले के पैर को कुचल देने की धींगामुश्ती में, झूले से उतरती भीड़ के बीच वह ऊँचे कंधे को खोज सके उस सहूलियत के लिए ऊँचे कंधे वाले आदमी के खुद ही उसके सामने खड़े हो जाने की तत्परता में वह अकेली नहीं थी। 'मैं आइसक्रीम ले आऊँ एक अपने लिए एक आपके लिए?' - सवाल के समानांतर ही उसका एक हाथ आगे बढ़ गया। इस हाथ पर विक्रम आहूजा को पैसे रख देने थे आइसक्रीम के। यह तय नहीं था पहले से, पर हा
थ उसके, जेब में घुस गये। वह पैसे बटोर कर चली गयी। वह अकेला था अब। क्यों था वह! इस मेले में! टिकट की लाइन में, धक्का खाते स्टॉलों पर, झुमके बालियों के काउंटरों पर भले ही पीछे की तरफ खड़ा, और अभी आइसक्रीम के इंतजार में पिघलता हुआ सा। उसकी धड़कनें एकाएक नुकीली होकर सन्नाटे को चुभने लगीं। घास पर कानी उँगली भर का हरा कीड़ा रेंग रहा था। ऐसा कीड़ा किस सब्जी से निकलता था अमूमन उसने याद करने की कोशिश की, पर धुँधलाया सा भी कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। कोई जानी पहचानी हवा पसीने के ठीक ऊपर से होकर गुजरी, पर वैसे झोंके किस मौसम की निशानी सहेजे चलते हैं अपने साथ, वह ठीक पहचान नहीं कर पाया। उसके कंठ के आसपास हर तरफ खूब सूखा पड़ा था। पर उस प्यास की प्रजाति कौन सी है, वह समझ नहीं पाया। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने आसपास देखा। एक दौड़ता चक्कर नजरों का। लड़की नहीं थी कहीं। वह भाग सकता था वहाँ से खूब तेज तेज। आइसक्रीम एकदम सख्त थी। कहीं उमस का एक रत्ती तक नहीं पड़ा हो जिस पर। उसकी ठीक बगल वाली आइसक्रीम पर लड़की के निचले दाँतों के दो निशान पड़ चुके थे, पर वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था उस सख्ती पर जीभ तक फिराने की। आइसक्रीम से भाप उठ रही थी और लड़की उसे फूँक फूँक कर खा रही थी दत्तचित्त। भागने को वह अभी भी भाग सकता था आइसक्रीम फेंक फाँक कर। लड़की लकड़ी के दुबले पतले स्टिक को उलट पुलट कर चाट रही थी। दूध चीनी और चॉकलेट का फ्लेवर पुँछ गया था उसके ऊपर से और लकड़ी का अपना फीका स्वाद भीतरी खोलों से उभर कर बाहर झाँकने लगा था। लड़की ने ऊब कर कहा - 'वहाँ कॉरनेटो भी मिलता था पर मेरे हाथ में उतने पैसे नहीं थे, इसलिए इसे लेना पड़ा।' ऊँचे कंधे वाला आदमी, जिसकी स्टिक पर अभी आइसक्रीम की एक मोटी दरकती परत चढ़ी हुई थी, हिला
नहीं उसकी बात से रत्ती भर भी। 'अगर मेरे पास ज्यादा पैसे होते तो मैं उसे ही लेती।' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने तत्परता से टूट कर गिरते हुए आइसक्रीम के एक मोटे टुकड़े को बीच राह ही मुँह में लपक कर गिरने से बचा लिया। 'ज्यादातर मैं कॉरनेटो ही खाती हूँ।' ऊँचे कंधे वाला आदमी जेब से रुमाल निकाल रहा था। उसे शक था कि उसकी नाक के उभरे सिरे पर कोई हिस्सा दूध की सफेदी का या चॉकलेट के भूरेपन का लगा जरूर था। 'वहाँ बहुत भीड़ है। मैं जब तक लाऊँगी आपकी ये आइसक्रीम खत्म हो जायेगी तब तक। लाइये न फिर से पैसे।' दुबारे से - वह अकेला था अब। उसने अपने स्टिक से उस कीड़े को उठाया घास के बीच से बीन कर। कीड़ा पहले अगला हिस्सा आगे बढ़ाता था, फिर देखा देखी पीछे पीछे और पीछे का हिस्सा भी दुलक दुलक कर बढ़ता था और वह एक कदम आगे रेंग जाता था। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं था। वह दौड़ कर भागना न चाहे न सही, रेंग रेंग कर भी भागता तो तय था कि लड़की के लौटने तक उसका नाम निशान कुछ भी नहीं होता उस जगह। उसके हाथ काँप गये और कीड़ा स्टिक से फिसल कर नीचे गिर गया। वह झुक कर उसे खोजने लगा। वहाँ से न भाग पाने का बहाना उसे मिल चुका था! इवा कार्णिक इस हुनर को साध चुकी थी जिसमें कि कलियों की लंबी कतार के ऊपर से दौड़ कर गुजरना था इस करतब से कि एक कली तक मसलने न पाय। बिना चखे, सही चीनी की चाय वह बना सकती थी। बिना कहे वह प्यास लगने के पहले इजा को ग्लास भर पानी दे सकती थी। बिना नागा वह मुहल्ले के सारे कुत्तों को रोटी खिला सकती थी। बिना वजह वह अपनी सारी कॉपियों पर सुंदर सुंदर जिल्द चढ़ा सकती थी। उसका मन हर दो दो दिन पर एकदम विपरीत दिशा में पलट जा रहा था। उसके लिए कभी घर की पूरी दीवार ही दरअसल झिर्री थी, जिससे कि झाँक कर गहरे शाम के होने का इंतजार किया जा सके या कभी उसका मन एक हाथ में ब्रश और दूसरे हाथ में पेंट लेकर पूरी दुनिया पर न न न न लिखता चला जा रहा होता। कभी ऐसा अहसास कि क्रीम वक्त के पहले ही उसे तेज तेज गोरा बनाती जा रही है, कभी ऐसा कि दिन दिन बढ़ते साँवलेपन को आलू छीलने वाले औजार से त्वचा की परत छील कर ही विलगाया जा सकता है अपने आप से आदि। इस तमाम उलटन पुलटन के बाद मन इस बिंदु पर आकर स्थिर हो गया था कि अब अपनी चीजों पर उसका अख्तियार नहीं रहा कोई। वह एक ऊँचे कंधे वाले आदमी के पास अपने बाकी के सपने गिरवी रख कर आयी थी। विक्रम आहूजा बहुत धीमे धीमे खरचना चाहता था रात को। उसके शरीर पर पसीना था और कंठ के निचले हिस्से में बहुत सी प्यास जमा थी। वह आँखें मूँदता था तो पुतलियाँ चुभती थीं। वह आँखें खोलता था तो पलकें अपने को एक दूसरे के पीछे छिपाने लगती थीं। वह जब साँसें लेता था तो फेफड़े की माँसपेशियाँ विद्रोह कर देती थीं और जब वह साँसें छोड़ता था तो उसके आसपास की हवा उस छोड़ी हुई साँस को अपने में शामिल करने से इनकार कर दे रही थी। वह करवट बदलता था तो नीचे की जमीन अपने पैर तेजी से पीछे की ओर खींचने लगती थी और जब चित्त लेटता था
तो असामान उसके सीने पर अपने दोनों पंजे धँसा कर झुक जाता था पूरी ताकत से। फिर भी वह रात को सँभाल सँभाल कर खरचना चाहता था। अँधेरे में जिस चीज को उसकी उँगलियाँ छू आयी थीं, क्या वह वही थी जिसे पहले भी कभी छू चुका था वह! दुनियादारी के उजाले में बात को सामने से बुहार बुहार कर हटाया जा सकता था पर अँधेरे की चकाचौंध में उमरदराज से उमरदराज सच अपने को नंगा कर देने को बेताब हो जाता है। फिर उसके सच की तो उमर हिचकी जितनी थी या एक बार की साँस को छोड़ चुकने के बाद अगले दान में ली जाने वाली साँसों की तलाश जितनी। उन्हें अपने ऊपर का चोंगा फेंकने में वक्त ही कितना लगता! हैरानी की बात थी कि कपड़े पहने हुए सच से भागता हुआ एक इंसान नंगे सच के सामने होने पर भी अँधेरा ही चाह रहा था। वजह यही कि इस सच की बेपरदगी में एक कोमलता थी और सुबह बिस्तर पर पहली रोशनी पड़ने के साथ जैसे ही वह सच कपड़े पहन लेता, उसमें दुनियादारी भर मिलावट घुस जाती और वह दुनिया, दुनिया जैसी लगने लगती। वसुंधरा कार्णिक के लिए यह एक दुर्लभ मौका था। दस्तक की आवाज पर दरवाजे के उस पार वाले को पहचान लेने की अपनी क्षमता को परखने का, क्योंकि दिन के कुबेरे में विक्रम आहूजा की आमद अप्रत्याशित थी। पर बदकिस्मती कि दरवाजा खुला हुआ था। दृश्य यह था कि दरवाजे के उस पार सब्जीवाली अपना बाजार समेट रही थी और वसुंधरा कार्णिक घर के भीतर चेंज टटोल रही थी। लिहाजा ऊँचे कंधे वाले आदमी का स्वागत दस्तक पहचान कार्यक्रम की जगह सब्जी वाली द्वारा अपनी दौरी दरवाजे के एक तरफ समेट कर उसके प्रवेश के लिए रास्ता बनाने के उद्यम से हुआ। वसुंधरा कार्णिक ने उसे ड्राइंग रूम के बीचोंबीच देखा तो उसका अंकगणित बिसुर गया और वह दो रुपये के चार और एक रुपये के दो सिक्के मिल जाने के ब
ाद भी साबुत सात रुपये खोज लेने में असफल रही और उसने सब्जी वाली को दस रुपये थमा कर घटी बढ़ी अगले दिन पर छोड़ दिया। सब्जी की टोकरी उठ गयी। सब्जीवाली के पीछे पलटते ही वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया। उसने एक कोई हाथ तो बढ़ाया पर आवाज ही नहीं निकली जो लौटा सके सब्जीवाली को। 'कल की दोपहर मैं इवा के साथ था। हम डिज्नीलैंड गये थे।' 'हाँ मैंने अखबार में विज्ञापन देखा था। हफ्ते भर और चले शायद।' 'जाने के पहले आप से पूछ लेना चाहिए था।' 'मैं कहाँ जा पाती अब मेले में।' 'उसे ले जाने के पहले।' 'तुमने कुछ सोच कर ही नहीं पूछा होगा।' वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर अजीब सी धूप निकली उसकी नाक और दाहिने गाल के ठीक बीच में से। 'मैंने सोचा ही तो नहीं।' विक्रम आहूजा की आँखें चुंधिया गयीं। 'तुम तो जाना भी नहीं चाह रहे होगे। ये लड़की ही बड़ी जिद्दी है।' 'मैं चाहता तो जाने को आसानी से रोका जा सकता था।' 'अगर इसके माँ बाप होते तो मैं इतना नहीं सोचती इसके बारे में।' 'आप कहें तो मैं आज से ना।' 'नहीं।' वसुंधरा कार्णिक का 'नहीं' सामने वाले के ना पर चढ़ गया। 'तुम्हें क्या लगता है पढ़ने में कैसा करेगी ये?' 'पढ़ ही जायेगी।' 'तुम कभी कभी बगैर इत्तला किये उसका इम्तिहान ले लिया करो। किसी भी विषय का।' 'कभी क्या बल्कि आज शाम से ही शुरुआत कर दो।' 'शुरुआत न हो सोशल सांइस से कर दो। पिछली दफा सबसे कम अंक उसी में मिले थे। तो तय रहा आज सोशल साइंस की परीक्षा।' 'क्या वो तुम्हें पसंद करने लगी है?' 'मैं उसे रोक दूँगा।' 'और वो रुक जायेगी!' 'मान जायेगी।' 'तब तो और भी खतरनाक।' बहुत तेजी से वसुंधरा कार्णिक की कनपटी से उठी बादल की किसी लपट ने धूप को डुबो दिया। 'देखिए।' विक्रम आहूजा ने गला खखार कर फुसफुसाहट को स्पष्ट किया - 'अगर वह कुछ ऐसा सोचती भी होगी तो वह मिनट भर का खिंचाव होगा, जिसे तोड़ना आसान है।' 'क्या तुमने पहले कभी उसे रोकने के बारे में सोचा था?' 'उसने मेरी आँखों के आगे कभी कदम नहीं बढ़ाया कि रोका जा सके उन्हें।' 'देखना उसका मन बहुत कोमल है।' 'मैं देखूँगा।' विक्रम आहूजा का मन उलट गया। वह बार बार भूल जा रहा था कि वह अपनी पहल पर आया था। वह यह इंतजार करने लग जा रहा था कि कब वसुंधरा कार्णिक की बात खत्म हो और कब वह उसे जाने को कहे पर इसके पहले कि एक बार फिर वह भूल जाय, मन उलट जाने के बिंदु पर ही उसने अपने को उठा लिया उस घर से। वसुंधरा कार्णिक का मन हल्का था कि उसका संशय बँट गया किसी के साथ। साथ ही मन के भीतर एक गोल सी जगह घेर कर बैठी ग्लानि भी थी। वह जानती थी कि इवा कार्णिक के पाँव उठाते ही उसके कदमों को रोक देने की बात तय हो चुकी थी। और इस तयशुदगी में उसकी आधेआध की हिस्सेदारी थी। एक बड़ी चोट खाने के पहले इवा कार्णिक के इर्दगिर्द वह इतनी सारी छोटी छोटी खुशियाँ ला धरना चाहती थी कि लड़की को ठेस का अहसास हुए बगैर जख्म मिल जाय। मतलब! जख्म का मिलना तय था! वसुंधरा कार्णिक वहाँ से सीधे उठ कर लड़की के कमरे में गयी। पहला