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और, साथ में उन्हें नौकरियों औरशिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया
पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न तब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है
तीसरा, आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक शिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं
वे वैसे ही संख्या में बहुत कम हैं इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुकता बहुत कम होती है
यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता, तो उसके क्या परिणाम निकलते? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आईहै, वह काम नहीं हो पाता
दूसरे, जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं, वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है
दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है
चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है,
पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं
इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाए धीरे-धीरे ही सही, पर चलती रहती है
अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता तीसरे, गिनती से जुड़े हुएमौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो ही, उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करनेके लिए उकसाता
आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं है, इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है
मसलन, महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती
कमजोर की दावेदारी
गिनतियां क्या-क्या गुल खिला सकती हैं, यह पंजाब के मामले में जनगणना के भाषाई पहलुओं की रोशनी में देखा जा सकता है
पंजाबी, जो हिंदुओं और सिखों की समान भाषा थी, तकनीकी रूप से सिर्फ सिखों की भाषा रह गई क्योंकि हिंदुओं ने राजनीतिक प्रभाव में आकर अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाना मुनासिब समझा
विख्यात भारतिद् मार्कगैलेंटर का यह कथन सही है कि जातिगत सेंसस बेरोजगारी, शिक्षा और आर्थिक हैसियत से संबंधित सूचनाओं में भी गड़बड़ी पैदा करत
जो जाति खुद को जितना अशिक्षित, गरीब और बेरोजगार दिखाती, उसे राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के संसाधनों पर उतनी ही बड़ी दावेदारी करनेका मौका मिलता
आज के जमाने में जातिगत सेंसस की प्रासंगिकता और भी कमजोर हो गई है
व्यक्तियों और समुदायों का आर्थिक विकास अब सरकारी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें प्राइवेट सेक्टर और बाजार की भूमिका ज्यादा है
बाजार एक सीमा तक ही अ फरमेटिव ऐक्शन को अपना सकता है
उसके बाद वहां अवसरों का खेल खुल जाता है जाहिर है कि पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रतिनिधि अभीतक इस हकीकत के साथ सहज नहीं हो पाए हैं
एक और लो फ्लोर बस धू-धू जल गई
फिर से एक मीटिंग... फिर से बस बनाने वाली कंपनी को कोसा गया... फिर से घटना की जांच के आदेश और फिर से कहा गया कि एक एक बस की पड़ताल होगी
यह सिलसिला लगातार जारी है
अब तो लोग गिनती भूलते जा रहे हैं कि कितनी बार आग लग चुकी है
ब्लूलाइन बसें हट रही हैं और लो फ्लोर बसें आ रही हैं
एक बस कुचलती हुई निकल जाती थी, तो दूसरी में जलकर मरने का खतरा है
लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है
ज्यादा किराया भी दें और जान हथेली पर रखकर चलें अपनी तरफ से वे इतनी एहतियात बरत रहे हैं कि बस के पिछले हिस्से में न बैठें, क्योंकि इस बस का इंजन पिछली तरफ है
अभी तक न तो सारे प्रोजेक्ट की जांच के आदेश दिए गए हैं और न ही बसों की आमद पर रोक लगाई गई है
बस बनाने वाली कंपनी जब दिल्ली की सड़कों को दोष देती है तो सरकार आंखें दिखाती है
इस आरोप को वापस ले लिया जाता है और दोष ओवर-लोडिंग या फिर अनाड़ी ड्राइवरों पर लाद दिया जाता है
लोग हैरानी से पूछते हैं कि 16लाखरुपये वाली, 100 से ज्यादा मुसाफिरों को ढोने वाली और इन ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर चलने की आदी बसों में जब कोई परेशानी नहीं हुई तो फिर 55लाखरुपये खर्च करके सिर्फ 50 यात्रियों को लेकर उन्हीं सड़कों पर उन्हीं ड्राइवरों के साथ चलने वाली इन कथित आधुनिक बसों में बार-बार ये परेशानियां क्यों आ रही हैं
एक्सपर्ट्स से बात करें तो मन में कई सवाल उठ खड़े होते हैं
दरअसल जनरल बसों और इन नई लो फ्लोर बसों दोनों को ही मोटर वीइकल एक्ट के तहत 16,200किलोग्राम तक वजन ले जाने की अनुमति है
इसमें बस का वजन भी शामिल है
पुरानी बसों का वजन 9,000किग्रा. है यानी वे 7,200 किलो तक यात्रियों का वजन ढो सकती हैं
आमतौर पर एक यात्री का औसत वजन 80किलो होता है
इन बसों में 56 सीटें हैं और एक्ट के अनुसार 50फीसदी तक यात्री खड़े होकर जा सकते हैं यानी कुल 84 यात्री एक बार में पुरानी बसों में ढोए जा सकते हैं
यह बात और है कि यात्रियों की संख्या कई बार 100 से भी ज्यादा हो जाती है
अब लो फ्लोर बस पर गौर करें
इस बस का अपना वजन ही 13,200किग्रा. है इस प्रकार इन बसों में केवल 3,000किग्रा. तक का वजन ही ढोया जा सकता है
इनमें 36 सीटें हैं और 18 यात्री खड़े होकर जा सकते हैं
अगर 54 यात्रियों का वजन निकालें तो वह 4320किग्रा. हो जाता है
जाहिर है कि ये बसें इतने यात्रियों को भी ले जाने लायक नहीं हैं
इन बसों में 50 यात्री ही ओवरलोडेड माने जाते हैं
अब यह भी रहस्य है कि 17लाख की जनरल बस की जगह आप 55लाख की आधुनिक लो फ्लोर बस खरीद रहे हैं, जो वास्तव में दिल्ली के लायक नहीं हैं
यह भी गौर करने लायक तथ्य है कि जब इन बसों को दिल्ली की सड़कों पर लाने की बात हुई थी तो इन्हें हाई कपैसिटी बस कहा गया था
अब ये किस लिहाज से हाई कपैसिटी हैं, यह तो बस खरीदने का ऑर्डर देने वाले ही बता सकते हैं
यह भी एक विचारणीय पहलू है कि आखिर जनरल बस की जगह लो फ्लोर बस ही खरीदने का फैसला क्यों किया गया
लो फ्लोर का मतलब है कि ऐसी बस जिस पर आप फुटपाथ से सीधे ही चढ़ जाएं जैसे मेट्रो का लेवल प्लेटफार्म के बराबर ही होता है
वास्तव में लो फ्लोर बसें बीआरटीकॉरिडोर के लिए ही लाई जानी थीं, क्योंकि बीआरटीकॉरिडोर के सारे फुटपाथ दोबारा से बनाए जाने थे
सुनने में कितना भला लगता है कि 14साल तक के बच्चों के लिए अब शिक्षा एक अधिकार की तरह होगी
यह सरकार की जिम्मेदारी होगी कि 14साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराए
हर बच्चे को स्कूल में एडमिशन मिले और ऐसे हालात न बनें कि उसे स्कूल छोड़ना पड़े
इन दिनों राजधानी में एडमिशन के लिए जितनी आपाधापी मचती रही है और अब भी मच रही है, उसे देखते हुए राइट टु एजुकेशन ऐक्ट वास्तव में सुखद स्वप्न जैसा ही महसूस होता है
कम से कम दिल्ली में एजुकेशन नहीं बल्कि केवल राइट टु एडमिशन मिल जाए तो लोग सरकार के शुक्रगुजार होंगे
वैसे भी केंद्र सरकार ने यह ऐक्ट लागू करने की घोषणा तो कर दी लेकिन इसकी सारी जिम्मेदारी तो राज्य सरकारों पर ही है क्योंकि शिक्षा विषय तो राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में ही आता है
राजधानी के शिक्षा क्षेत्र पर एक निगाह डालने की जरूरत है
तब शायद यह समझ में आ सके कि यह नया कानून लागू कर पाना इतना आसान नहीं है
दिल्ली सरकार के तहत 935 स्कूलों में लगभग 13लाख बच्चे पढ़ते हैं
नगरनिगम के 1800 स्कूलों में स्टूडेंट्स की तादाद करीब 9लाख है
अन्य एजेंसियों के स्कूलों के बच्चों की तादाद भी मिला लें तो यह संख्या 25लाख हो जाती है
दूसरी तरफ करीब दोहजार छोटे-बड़े पब्लिक स्कूलों में 11लाख बच्चों हैं
एमसीडी के स्कूलों में तो एडमिशन आसानी से मिल जाता है लेकिन दिल्ली सरकार के स्कूलों के लिए पैरंट्स को एडि़यां रगड़नी पड़ती हैं
अगर आंकड़े उठाकर देखें तो पिछले दससालों में स्कूलों की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ जबकि स्टूडेंट्स की संख्या 8लाख से बढ़कर 13लाख हो गई है
यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि टीचर्स के 40हजार पदों में से लगभग 7हजार खाली पड़े हैं
14हजार नए टीचरों की जरूरत है
एक एक क्लास में 80-90 स्टूडेंट पढ़ रहे हैं जबकि नियमानुसार एक क्लास में इससे आधे बच्चे होने चाहिए दयालपुर, मोलडबंद या ऐसे ही दूरदराज के इलाकों या देहाती क्षेत्रों में स्टूडेंट्स की तादाद 100 को भी छू जाती है
क्लासरूम 40-50 बच्चों के लिए बनाया जाता है और उसमें 100 बच्चे ठूंसे जाते हैं
यह स्थिति तब है जब राइट टु एजुकेशन नहीं है
यह लागू होने के बाद आखिर बच्चों को एडमिशन कैसे मिल पाएगा
नया ऐक्ट यह भी कहता है कि हर पब्लिक स्कूल में 25फीसदी गरीब बच्चों को पढ़ाया जाए जिसका खर्चा सरकार देगी
अगर सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो सरकारी स्कूलों में हर बच्चे पर लगभग 950रुपये खर्च होते हैं और बकौल सरकार पब्लिक स्कूलों पर यह खर्चा 500रुपये है क्योंकि वे टीचर्स की सैलरी से लेकर हर तरह के खर्चे में घपला कर सकते हैं
पब्लिक स्कूल अपना खर्चा उससे तीन-चारगुना ज्यादा बताते हैं और उनकी यह धमकी भी है कि नया ऐक्ट लागू होने पर सरकार भुगतान से भरपाई नहीं हुई तो फीस बढ़ाकर अन्य बच्चों के पैरंट्स पर बोझ डाला जाएगा
इन सरकारी आंकड़ों पर इसलिए भी विश्वास नहीं होता कि अगर सरकारी स्कूलों में पब्लिक स्कूलों की तुलना में ज्यादा खर्च हो रहा है फिर स्कूलों की हालत बदतर क्यों है
अविनाशमोती नाम है उसका
उम्र होगी कोई 24-25 की
कार चलाता है और हिंदी के अलावा चार और भाषाएं फर्राटे से बोलता है
हर तरह से बिल्कुल भारतीय लगता है... लेकिन वह है नहीं
उसकी रगों में दौड़ते हिंदुस्तानी खून के बावजूद वह खुद हिंदुस्तानी नहीं है
पिछले दिनों मॉरिशस गए थे तो ट्रैवल एजेंसी ने जो कार भिजवाई थी हमारे लिए, उसका ड्राइवर था अविनाश
उससे खूब बातें हुईं और उन बातों के साथ-साथ मैंने जो बात नोट की, वह यह कि कार चलाने से पहले ही उसने सीट बेल्ट लगा दिया था हालांकि होटल से दूरदराज़ के इलाकों में जाने के दौरान कहीं भी हमें कोई ट्रैफिक पुलिसवाला नहीं दिखा कैपिटल पोर्टलूइ को छोड़ कर
हर जगह सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल्स थे और अविनाश हर लाल बत्ती पर रुक जाता था चाहे सामने से कोई गाड़ी आ रही हो या नहीं
एक बार तो मैं खुद चौंक गया कि यह अचानक क्यों रुक गया क्योंकि दाएं बाएं कोई सड़क भी नहीं थी कि कोई गाड़ी आती
देखा तो पैदल यात्रियों के लिए वहां सिग्नल था और वह उन्हें पार करने देने के लिए रुक गया था
कई जगह, खास कर जहां गोल चक्कर हैं और सिग्नल्स नहीं हैं, वहां अविनाश अपनी कार धीमी करता, और कई बार तो रोक ही देता, फिर अपनी दाईं तरफ देखता कि कोई गाड़ी आ तो नहीं रही है
अगर आ रही होती तो रुका रहता
जब तसल्ली हो जाती कि कोई नहीं आ रहा है, तभी वह बाएं मुड़ता
और ऐसा केवल अविनाश नहीं कर रहा था
जब हमारी गाड़ी किसी मेन रोड पर होती और किसी और को उस सड़क पर आना होता तो वह भी इसी तरह रुक कर खाली सड़क का इंतज़ार करता
और सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात यह कि अपनी सातदिनों की यात्रा में हमने सिर्फ एक बार हॉर्न की आवाज़ सुनी
वह भी हल्के से जब हमारे बस ड्राइवर ने एक पतली सड़क में अपने आगे जा रहे एक बाइक सवार को आगाह करने के लिए इसका उपयोग किया
बढ़िया-से-बढ़िया गाडियाँ हैं वहाँ
खाली सड़क पर ड्राइवर चलाते भी तेज़ हैं
लेकिन जब पोर्टलूइ का बिज़ी चौराहा आता है, तब वे पूरे धैर्य का परिचय देते हुए उतने ही धीमे हो जाते हैं, सिग्नल हरा होने का इंतज़ार करते हुए
कई बार तो धोखा हो जाता है कि वहां की गाड़ियों में हॉर्न लगे है भी या नहीं
कार की तरह हमारी बस का ड्राइवर भी हिंदुस्तानी था नाम था अनिल
साउथ टूर कराते हुए या एयरपोर्ट छोड़ते हुए वह हमेशा बीच की लेन में चलता रहा