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नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (उच्चारण, Gujarati: નરેંદ્ર દામોદરદાસ મોદી; जन्म: १७ सितम्बर १९५०) २०१४ से भारत के १४वें प्रधानमन्त्री तथा वाराणसी से सांसद हैं।[2][3] वे भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। इससे पहले वे 7 अक्तूबर २००१ से 22 मई २०१४ तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मोदी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सदस्य हैं। वडनगर के एक गुजराती परिवार में पैदा हुए, मोदी ने अपने बचपन में चाय बेचने में अपने पिता की मदद की, और बाद में अपना खुद का स्टाल चलाया। आठ साल की उम्र में वे आरएसएस से जुड़े, जिसके साथ एक लंबे समय तक सम्बंधित रहे। स्नातक होने के बाद उन्होंने अपने घर छोड़ दिया। मोदी ने दो साल तक भारत भर में यात्रा की, और कई धार्मिक केंद्रों का दौरा किया। 1969 या 1970 वे गुजरात लौटे और अहमदाबाद चले गए। 1971 में वह आरएसएस के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। 1975 में देश भर में आपातकाल की स्थिति के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए छिपना पड़ा। 1985 में वे बीजेपी से जुड़े और 2001 तक पार्टी पदानुक्रम के भीतर कई पदों पर कार्य किया, जहाँ से वे धीरे धीरे सचिव के पद पर पहुंचे।   गुजरात भूकंप २००१, (भुज में भूकंप) के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के असफल स्वास्थ्य और ख़राब सार्वजनिक छवि के कारण नरेंद्र मोदी को 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मोदी जल्द ही विधायी विधानसभा के लिए चुने गए। 2002 के गुजरात दंगों में उनके प्रशासन को कठोर माना गया है, इस दौरान उनके संचालन की आलोचना भी हुई।[4] हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) को अभियोजन पक्ष की कार्यवाही शुरू करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला। [5] मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नीतियों को आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए श्रेय दिया गया।[6] उनके नेतृत्व में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और 282 सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।[7] एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से जीत दर्ज़ की।[8][9] उनके राज में भारत का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं बुनियादी सुविधाओं पर खर्च तेज़ी से बढ़ा। उन्होंने अफसरशाही में कई सुधार किये तथा योजना आयोग को हटाकर नीति आयोग का गठन किया। इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के 14वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने लगातार 4 बार (2001 से 2014 तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं।।[10] माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर (4.5करोड़+, जनवरी 2019) वाले भारतीय नेता हैं। उन्हें 'नमो' नाम से भी जाना जाता है। [11] टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ़ द ईयर 2013 के 42 उम्मीदवारों की सूची में शामिल किया है।[12] अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।[13][14] निजी जीवन नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था।[15] वह पैदा हुए छह बच्चों में तीसरे थे। मोदी का परिवार 'मोध-घांची-तेली' समुदाय से था,[16][17] जिसे भारत सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।[18] वह पूर्णत: शाकाहारी हैं।[19] भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर सफ़र कर रहे सैनिकों की सेवा की।[20] युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए | उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया।[21] किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की।[15] उन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एम॰एससी॰ की डिग्री प्राप्त की।[22] अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया।[23][24] बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी।[23] इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।[25] 13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ,[26] वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये।[27] परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।[23] जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है:[28] "उन दोनों की शादी जरूर हुई परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। शादी के कुछ बरसों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।" पिछले चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर खामोश रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के मुताबिक एक शादीशुदा के मुकाबले अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती।[29] हालांकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।[30] दामोदरदास मोदीहीराबेनसोमाभाई मोदीअमृत मोदीनरेन्द्र मोदीयसोदाबेनप्रह्लाद मोदीपंकज मोदीवासंती प्रारम्भिक सक्रियता और राजनीति नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ[22][31] उन्होंने शुरुआती जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी। अप्रैल १९९० में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, मोदी की मेहनत रंग लायी, जब गुजरात में १९९५ के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी दौरान दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया। १९९५ में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। १९९८ में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्टूबर २००१ तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्टूबर २००१ में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंप दी। गुजरात के मुख्यमन्त्री के रूप में 2001 में केशुभाई पटेल (तत्कालीन मुख्यमंत्री) की सेहत बिगड़ने लगी थी और भाजपा चुनाव में कई सीट हार रही थी।[32] इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को नए उम्मीदवार के रूप में रखते हैं। हालांकि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मोदी के सरकार चलाने के अनुभव की कमी के कारण चिंतित थे। मोदी ने पटेल के उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी से बोले कि यदि गुजरात की जिम्मेदारी देनी है तो पूरी दें अन्यथा न दें। 3 अक्टूबर 2001 को यह केशुभाई पटेल के जगह गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही उन पर दिसम्बर 2002 में होने वाले चुनाव की पूरी जिम्मेदारी भी थी।[33] 2001-02 नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल 7 अक्टूबर 2001 से शुरू किया। इसके बाद मोदी ने राजकोट विधानसभा चुनाव लड़ा। जिसमें काँग्रेस पार्टी के आश्विन मेहता को 14,728 मतों से हरा दिया। नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक हलकों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत स्टाफ में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम अमला नहीं होता। लेकिन कर्मयोगी की तरह जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं इस नाते उन्हें अपने कामकाज को अमली जामा पहनाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती। [34] उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई कोताही नहीं बरती जो सरकारी कानून कायदों के मुताबिक नहीं बने थे। हालाँकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की; जो उन्हें उचित लगा करते रहे।[35] वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता-पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह हिन्दी में ही बोलते हैं।[36] मोदी के नेतृत्व में २०१२ में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार ११५ सीटें मिलीं। गुजरात के विकास की योजनाएँ मुख्यमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास[37] के लिये जो महत्वपूर्ण योजनाएँ प्रारम्भ कीं व उन्हें क्रियान्वित कराया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- पंचामृत योजना[38] - राज्य के एकीकृत विकास की पंचायामी योजना, सुजलाम् सुफलाम् - राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग, जिससे जल की बर्बादी को रोका जा सके,[39] कृषि महोत्सव – उपजाऊ भूमि के लिये शोध प्रयोगशालाएँ,[39] चिरंजीवी योजना – नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी लाने हेतु,[39] मातृ-वन्दना – जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु,[40] बेटी बचाओ – भ्रूण-हत्या व लिंगानुपात पर अंकुश हेतु,[39] ज्योतिग्राम योजना – प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने हेतु,[41][42] कर्मयोगी अभियान – सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु,[39] कन्या कलावाणी योजना – महिला साक्षरता व शिक्षा के प्रति जागरुकता,[39] बालभोग योजना – निर्धन छात्रों को विद्यालय में दोपहर का भोजन,[43] मोदी का वनबन्धु विकास कार्यक्रम उपरोक्त विकास योजनाओं के अतिरिक्त मोदी ने आदिवासी व वनवासी क्षेत्र के विकास हेतु गुजरात राज्य में वनबन्धु विकास[44] हेतु एक अन्य दस सूत्री कार्यक्रम भी चला रखा है जिसके सभी १० सूत्र निम्नवत हैं: १-पाँच लाख परिवारों को रोजगार, २-उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता, ३-आर्थिक विकास, ४-स्वास्थ्य, ५-आवास, ६-साफ स्वच्छ पेय जल, ७-सिंचाई, ८-समग्र विद्युतीकरण, ९-प्रत्येक मौसम में सड़क मार्ग की उपलब्धता और १०-शहरी विकास। श्यामजीकृष्ण वर्मा की अस्थियों का भारत में संरक्षण नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के ५५ वर्ष बाद २२ अगस्त २००३ को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया[45] और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया।[46] मोदी द्वारा १३ दिसम्बर २०१० को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं।[47] गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।[48] आतंकवाद पर मोदी के विचार १८ जुलाई २००६ को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की। मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के मद्देनज़र उन्होंने केंद्र सरकार से राज्यों को सख्त कानून लागू करने के लिए सशक्त करने की माँग की।[49] उनके शब्दों में - "आतंकवाद युद्ध से भी बदतर है। एक आतंकवादी के कोई नियम नहीं होते। एक आतंकवादी तय करता है कि कब, कैसे, कहाँ और किसको मारना है। भारत ने युद्धों की तुलना में आतंकी हमलों में अधिक लोगों को खोया है।"[49] नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् २००४ में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफज़ल को २००१ में भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए दोषी ठहराया था एवं ९ फ़रवरी २०१३ को तिहाड़ जेल में उसे फाँसी पर लटकाया गया। [50] विवाद एवं आलोचनाएँ 2002 के गुजरात दंगे 27 फ़रवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात वापस लौट कर आ रहे कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में मुसलमानों की हिंसक भीड़ द्वारा आग लगा कर जिन्दा जला दिया गया। इस हादसे में 59 कारसेवक मारे गये थे।[51] रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप समूचे गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मरने वाले 1180 लोगों में अधिकांश संख्या अल्पसंख्यकों की थी। इसके लिये न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोदी प्रशासन को जिम्मेवार ठहराया।[36] कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे की माँग की।[52][53] मोदी ने गुजरात की दसवीं विधानसभा भंग करने की संस्तुति करते हुए राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। परिणामस्वरूप पूरे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।[54][55] राज्य में दोबारा चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में विधान सभा की कुल १८२ सीटों में से १२७ सीटों पर जीत हासिल की। अप्रैल २००९ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विशेष जाँच दल भेजकर यह जानना चाहा कि कहीं गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी की साजिश तो नहीं।[36] यह विशेष जाँच दल दंगों में मारे गये काँग्रेसी सांसद ऐहसान ज़ाफ़री की विधवा ज़ाकिया ज़ाफ़री की शिकायत पर भेजा गया था।[56] दिसम्बर 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट पर यह फैसला सुनाया कि इन दंगों में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।[57] उसके बाद फरवरी 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया कि रिपोर्ट में कुछ तथ्य जानबूझ कर छिपाये गये हैं[58] और सबूतों के अभाव में नरेन्द्र मोदी को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता।[59][60] इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह लिखा कि रिपोर्ट में मोदी के विरुद्ध साक्ष्य न मिलने की बात भले ही की हो किन्तु अपराध से मुक्त तो नहीं किया।[61] द हिन्दू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ़ इतनी भयंकर त्रासदी पर पानी फेरा अपितु प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न गुजरात के दंगों में मुस्लिम उग्रवादियों के मारे जाने को भी उचित ठहराया।[62] भारतीय जनता पार्टी ने माँग की कि एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट को लीक करके उसे प्रकाशित करवाने के पीछे सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ है इसकी भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच होनी चाहिये।[63] सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई फैसला दिये अहमदाबाद के ही एक मजिस्ट्रेट को इसकी निष्पक्ष जाँच करके अविलम्ब अपना निर्णय देने को कहा।[64] अप्रैल 2012 में एक अन्य विशेष जाँच दल ने फिर ये बात दोहरायी कि यह बात तो सच है कि ये दंगे भीषण थे परन्तु नरेन्द्र मोदी का इन दंगों में कोई भी प्रत्यक्ष हाथ नहीं।[65] 7 मई 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जज राजू रामचन्द्रन ने यह रिपोर्ट पेश की कि गुजरात के दंगों के लिये नरेन्द्र मोदी पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 ए (1) (क) व (ख), 153 बी (1), 166 तथा 505 (2) के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के बीच बैमनस्य की भावना फैलाने के अपराध में दण्डित किया जा सकता है।[66] हालांकि रामचन्द्रन की इस रिपोर्ट पर विशेष जाँच दल (एस०आई०टी०) ने आलोचना करते हुए इसे दुर्भावना व पूर्वाग्रह से परिपूर्ण एक दस्तावेज़ बताया।[67] 26 जुलाई 2012 को नई दुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी को दिये गये एक इण्टरव्यू में नरेन्द्र मोदी ने साफ शब्दों में कहा - "2004 में मैं पहले भी कह चुका हूँ, 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के लिये मैं क्यों माफ़ी माँगूँ? यदि मेरी सरकार ने ऐसा किया है तो उसके लिये मुझे सरे आम फाँसी दे देनी चाहिये।" मुख्यमन्त्री ने गुरुवार को नई दुनिया से फिर कहा- “अगर मोदी ने अपराध किया है तो उसे फाँसी पर लटका दो। लेकिन यदि मुझे राजनीतिक मजबूरी के चलते अपराधी कहा जाता है तो इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है।" यह कोई पहली बार नहीं है जब मोदी ने अपने बचाव में ऐसा कहा हो। वे इसके पहले भी ये तर्क देते रहे हैं कि गुजरात में और कब तक गुजरे ज़माने को लिये बैठे रहोगे? यह क्यों नहीं देखते कि पिछले एक दशक में गुजरात ने कितनी तरक्की की? इससे मुस्लिम समुदाय को भी तो फायदा पहुँचा है। लेकिन जब केन्द्रीय क़ानून मन्त्री सलमान खुर्शीद से इस बावत पूछा गया तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया - "पिछले बारह वर्षों में यदि एक बार भी गुजरात के मुख्यमन्त्री के खिलाफ़ एफ॰ आई॰ आर॰ दर्ज़ नहीं हुई तो आप उन्हें कैसे अपराधी ठहरा सकते हैं? उन्हें कौन फाँसी देने जा रहा है?"[68] बाबरी मस्जिद के लिये पिछले 45 सालों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे 92 वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी के मुताबिक भाजपा में प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के प्रान्त गुजरात में सभी मुसलमान खुशहाल और समृद्ध हैं। जबकि इसके उलट कांग्रेस हमेशा मुस्लिमों में मोदी का भय पैदा करती रहती है।[69] सितंबर 2014 की भारत यात्रा के दौरान ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा कि नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि वह उस समय मात्र एक 'पीठासीन अधिकारी' थे जो 'अनगिनत जाँचों' में पाक साफ साबित हो चुके हैं।[70] २०१४ लोकसभा चुनाव प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार गोआ में भाजपा कार्यसमिति द्वारा नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव अभियान की कमान सौंपी गयी थी।[71] १३ सितम्बर २०१३ को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों के लिये प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी मौजूद नहीं रहे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की।[72][73] मोदी ने प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद चुनाव अभियान की कमान राजनाथ सिंह को सौंप दी। प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद मोदी की पहली रैली हरियाणा प्रान्त के रिवाड़ी शहर में हुई।[74] एक सांसद प्रत्याशी के रूप में उन्होंने देश की दो लोकसभा सीटों वाराणसी तथा वडोदरा से चुनाव लड़ा और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से विजयी हुए।[8][9][75] लोक सभा चुनाव २०१४ में मोदी की स्थिति न्यूज़ एजेंसीज व पत्रिकाओं द्वारा किये गये तीन प्रमुख सर्वेक्षणों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री पद के लिये जनता की पहली पसन्द बताया था।[76][77][78] एसी वोटर पोल सर्वे के अनुसार नरेन्द्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने से एनडीए के वोट प्रतिशत में पाँच प्रतिशत के इजाफ़े के साथ १७९ से २२० सीटें मिलने की सम्भावना व्यक्त की गयी।[78] सितम्बर २०१३ में नीलसन होल्डिंग और इकोनॉमिक टाइम्स ने जो परिणाम प्रकाशित किये थे उनमें शामिल शीर्षस्थ १०० भारतीय कार्पोरेट्स में से ७४ कारपोरेट्स ने नरेन्द्र मोदी तथा ७ ने राहुल गान्धी को बेहतर प्रधानमन्त्री बतलाया था।[79][80] नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन मोदी को बेहतर प्रधान मन्त्री नहीं मानते ऐसा उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था। उनके विचार से मुस्लिमों में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध हो सकती है जबकि जगदीश भगवती और अरविन्द पानगढ़िया को मोदी का अर्थशास्त्र बेहतर लगता है।[81] योग गुरु स्वामी रामदेव व मुरारी बापू जैसे कथावाचक ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया।[82] पार्टी की ओर से पीएम प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस दौरान तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर पूरे देश में ४३७ बड़ी चुनावी रैलियाँ, ३-डी सभाएँ व चाय पर चर्चा आदि को मिलाकर कुल ५८२७ कार्यक्रम किये। चुनाव अभियान की शुरुआत उन्होंने २६ मार्च २०१४ को मां वैष्णो देवी के आशीर्वाद के साथ जम्मू से की और समापन मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया में किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जनता ने एक अद्भुत चुनाव प्रचार देखा।[83] यही नहीं, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की। परिणाम चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ३३६ सीटें जीतकर सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरा वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी ने २८२ सीटों पर विजय प्राप्त की। काँग्रेस केवल ४४ सीटों पर सिमट कर रह गयी और उसके गठबंधन को केवल ५९ सीटों से ही सन्तोष करना पड़ा।[7] नरेन्द्र मोदी स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो सन २००१ से २०१४ तक लगभग १३ साल गुजरात के १४वें मुख्यमन्त्री रहे और भारत के १४वें प्रधानमन्त्री बने। एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि नेता-प्रतिपक्ष के चुनाव हेतु विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा क्योंकि किसी भी एक दल ने कुल लोकसभा सीटों के १० प्रतिशत का आँकड़ा ही नहीं छुआ। भाजपा संसदीय दल के नेता निर्वाचित २० मई २०१४ को संसद भवन में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित भाजपा संसदीय दल एवं सहयोगी दलों की एक संयुक्त बैठक में जब लोग प्रवेश कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी ने प्रवेश करने से पूर्व संसद भवन को ठीक वैसे ही जमीन पर झुककर प्रणाम किया जैसे किसी पवित्र मन्दिर में श्रद्धालु प्रणाम करते हैं। संसद भवन के इतिहास में उन्होंने ऐसा करके समस्त सांसदों के लिये उदाहरण पेश किया। बैठक में नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से न केवल भाजपा संसदीय दल अपितु एनडीए का भी नेता चुना गया। राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी को भारत का १५वाँ प्रधानमन्त्री नियुक्त करते हुए इस आशय का विधिवत पत्र सौंपा। नरेन्द्र मोदी ने सोमवार २६ मई २०१४ को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली।[3] वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा दिया नरेन्द्र मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक अन्तर से जीती गुजरात की वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा देकर संसद में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया और यह घोषणा की कि वह गंगा की सेवा के साथ इस प्राचीन नगरी का विकास करेंगे।[84] प्रधानमन्त्री के रूप में ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह नरेन्द्र मोदी का २६ मई २०१४ से भारत के १५वें प्रधानमन्त्री का कार्यकाल राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित शपथ ग्रहण के पश्चात प्रारम्भ हुआ।[85] मोदी के साथ ४५ अन्य मन्त्रियों ने भी समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली।[86] प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित कुल ४६ में से ३६ मन्त्रियों ने हिन्दी में जबकि १० ने अंग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की।[87] समारोह में विभिन्न राज्यों और राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया।[88][89] इस घटना को भारतीय राजनीति की राजनयिक कूटनीति के रूप में भी देखा जा रहा है। सार्क देशों के जिन प्रमुखों ने समारोह में भाग लिया उनके नाम इस प्रकार हैं।[90] – राष्ट्रपति हामिद करज़ई[91] – संसद की अध्यक्ष शिरीन शर्मिन चौधरी[92][93] – प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे[94] – राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम[95][96] – प्रधानमन्त्री नवीनचन्द्र रामगुलाम[97] – प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला[98] – प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़[99] – प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे[100] ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और राजग का घटक दल मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एमडीएमके) नेताओं ने नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने के फैसले की आलोचना की।[101][102] एमडीएमके प्रमुख वाइको ने मोदी से मुलाकात की और निमंत्रण का फैसला बदलवाने की कोशिश की जबकि कांग्रेस नेता भी एमडीएमके और अन्ना द्रमुक आमंत्रण का विरोध कर रहे थे।[103] श्रीलंका और पाकिस्तान ने भारतीय मछुवारों को रिहा किया। मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित देशों के इस कदम का स्वागत किया।[104] इस समारोह में भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। इनमें से कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया (कांग्रेस) और केरल के मुख्यमंत्री, उम्मन चांडी (कांग्रेस) ने भाग लेने से मना कर दिया।[105] भाजपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटों पर विजय प्राप्त करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने समारोह में भाग न लेने का निर्णय लिया जबकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपनी जगह मुकुल रॉय और अमित मिश्रा को भेजने का निर्णय लिया।[106][107] वड़ोदरा के एक चाय विक्रेता किरण महिदा, जिन्होंने मोदी की उम्मीदवारी प्रस्तावित की थी, को भी समारोह में आमन्त्रित किया गया। अलवत्ता मोदी की माँ हीराबेन और अन्य तीन भाई समारोह में उपस्थित नहीं हुए, उन्होंने घर में ही टीवी पर लाइव कार्यक्रम देखा।[108] भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण उपाय भ्रष्टाचार से सम्बन्धित विशेष जाँच दल (SIT) की स्थापना योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा। समस्त भारतीयों के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में समावेशन हेतु प्रधानमंत्री जन धन योजना का आरम्भ। रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति ४५% का कर देकर काला धन घोषित करने की छूट सातवें केन्द्रीय वेतन आयोग की सिफारिसों की स्वीकृति रेल बजट प्रस्तुत करने की प्रथा की समाप्ति काले धन तथा समान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने के लिये ८ नवम्बर २०१६ से ५०० तथा १००० के प्रचलित नोटों को अमान्य करना भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों को आमंत्रण सर्वप्रथम विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन ब्रिक्स सम्मेलन में नए विकास बैंक की स्थापना नेपाल यात्रा में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा अमेरिका व चीन से पहले जापान की यात्रा पाकिस्तान को अन्तरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग करने में सफल जुलाई २०१७ में इजराइल की यात्रा, इजराइल के साथ सम्बन्धों में नये युग का आरम्भ सूचना प्रौद्योगिकी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता भारत के प्रधानमन्त्री बनने के बाद 2 अक्टूबर 2014 को नरेन्द्र मोदी ने देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत अभियान का शुभारम्भ किया। उसके बाद पिछले साढे चार वर्षों में मोदी सरकार ने कई ऐसी पहलें की जिनकी जनता के बीच खूब चर्चा रही। स्वच्छता भारत अभियान भी ऐसी ही पहलों में से एक हैं। सरकार ने जागरुकता अभियान के तहत लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करने की दिशा में कदम उठाए। देश को खुले में शौच मुक्त करने के लिए भी अभियान के तहत प्रचार किया। साथ ही देश भर में शौचालयों का निर्माण भी कराया गया। सरकार ने देश में साफ सफाई के खर्च को बढ़ाने के लिए स्वच्छ भारत चुंगी (सेस) की भी शुरुआत की। स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक गांधी जी का चश्मा रखा गया और साथ में एक 'एक कदम स्वच्छता की ओर' टैग लाइन भी रखी गई। स्वच्छ भारत अभियान के सफल कार्यान्वयन हेतु भारत के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुड़ने की अपील की। इस अभियान का उद्देश्य पांच वर्ष में स्वच्छ भारत का लक्ष्य प्राप्त करना है ताकि बापू की 150वीं जयंती को इस लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। स्वच्छ भारत अभियान सफाई करने की दिशा में प्रतिवर्ष 100 घंटे के श्रमदान के लिए लोगों को प्रेरित करता है। प्रधानमंत्री ने मृदुला सिन्‍हा, सचिन तेंदुलकर, बाबा रामदेव, शशि थरूर, अनिल अम्‍बानी, कमल हसन, सलमान खान, प्रियंका चोपड़ा और तारक मेहता का उल्‍टा चश्‍मा की टीम जैसी नौ नामचीन हस्तियों को आमंत्रित किया कि वे भी स्‍वच्‍छ भारत अभियान में अपना सहयोग प्रदान करें। लोगों से कहा गया कि वे सफाई अभियानों की तस्‍वीरें सोशल मीडिया पर साझा करें और अन्‍य नौ लोगों को भी अपने साथ जोड़ें ताकि यह एक शृंखला बन जाए। आम जनता को भी सोशल मीडिया पर हैश टैग #MyCleanIndia लिखकर अपने सहयोग को साझा करने के लिए कहा गया। एक कदम स्वच्छता की ओर: मोदी सरकार ने एक ऐसा रचनात्मक और सहयोगात्मक मंच प्रदान किया है जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन की सफलता सुनिश्चित करता है। यह मंच प्रौद्योगिकी के माध्यम से नागरिकों और संगठनों के अभियान संबंधी प्रयासों के बारे में जानकारी प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति, सरकारी संस्था या निजी संगठन अभियान में भाग ले सकते हैं। इस अभियान का उद्देश्य लोगों को उनके दैनिक कार्यों में से कुछ घंटे निकालकर भारत में स्वच्छता संबंधी कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना है। स्वच्छता ही सेवा: प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 15 सितम्बर २०१८ को 'स्वच्छता ही सेवा' अभियान आरम्भ किया और जन-मानस को इससे जुड़ने का आग्रह किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 150 जयंती वर्ष के औपचारिक शुरुआत से पहले 15 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर आयोजन किया जा रहा है। इससे पहले मोदी ने समाज के विभिन्न वर्गों के करीब 2000 लोगों को पत्र लिख कर इस सफाई अभियान का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया, ताकि इस अभियान को सफल बनाया जा सके। रक्षा नीति भारतीय सशस्त्र बलों को आधुनिक बनाने एवं उनका विस्तार करने के लिये मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने रक्षा पर खर्च को बढ़ा दिया है। सन २०१५ में रक्षा बजट ११% बढ़ा दिया गया। सितम्बर २०१५ में उनकी सरकार ने समान रैंक समान पेंशन (वन रैंक वन पेन्शन) की बहुत लम्बे समय से की जा रही माँग को स्वीकार कर लिया। मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर भारत के नागा विद्रोहियों के साथ शान्ति समझौता किया जिससे १९५० के दशक से चला आ रहा नागा समस्या का समाधान निकल सके। २९ सितम्बर, २०१६ को नियन्त्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक सीमा पर चीन की मनमानी का कड़ा विरोध और प्रतिकार (डोकलाम विवाद 2017 देखें) घरेलू नीति हजारों एन जी ओ का पंजीकरण रद्द करना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को 'अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय' न मानना तीन बार तलाक कहकर तलाक देने के विरुद्ध निर्णय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर लगाम आमजन से जुड़ने की मोदी की पहल देश की आम जनता की बात जाने और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने लोगों के विचारों को जानने की कोशिश की और साथ ही साथ उन्होंने लोगों से स्वच्छता अभियान सहित विभिन्न योजनाओं से जुड़ने की अपील की।[109] अन्य ७० वर्ष से अधिक उम्र के सांसदों एवं विधायकों को मंत्रिपद न देने का कड़ा निर्णय ग्रन्थ नरेन्द्र मोदी के बारे में कुशल सारथी नरंद्र मोदी (लेखक - डॉ. भगवान अंजनीकर) दूरद्रष्टा नरेन्द्र मोदी (पंकज कुमार) (हिंदी) नरेन्द्र मोदी - एक आश्वासक नेतृत्व (लेखक - डॉ. रविकांत पागनीस, शशिकला उपाध्ये) नरेन्द्र मोदी - एक झंझावात (लेखक - डॉ. दामोदर) नरेन्द्र मोदी का राजनैतिक सफर (तेजपाल सिंह) (हिंदी) Narendra Modi: The Man The Times (लेखक: निलंजन मुखोपाध्याय) Modi's World: Expanding Sphere of Influence (लेखक: सी. राजा मोहन) स्पीकिंग द मोदी वे (लेखक विरेंदर कपूर) स्वप्नेर फेरावाला (बंगाली, लेखक: पत्रकार सुजित रॉय) नरेन्द्रायण - व्यक्ती ते समष्टी, एक आकलन (मूळ मराठी. लेखक डॉ. गिरीश दाबके) नरेन्द्र मोदी: एका कर्मयोग्याची संघर्षगाथा (लेखक - विनायक आंबेकर) मोदीच का? (लेखक भाऊ तोरसेकर)- मोरया प्रकाशन एक्जाम वॉरियर्स द नमो स्टोरी, अ पोलिटिकल लाइफ नरेन्द्र मोदी द्वारा रचित सेतुबन्ध - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार की जीवनी के सहलेखक (२००१ में) आँख आ धन्य छे (गुजराती कविताएँ) कर्मयोग आपातकाल में गुजरात (हिंदी) एक भारत श्रेष्ठ भारत (नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन ; संपादक प्रदीप पंडित) ज्योतिपुंज (आत्मकथन - नरेंद्र मोदी) सामाजिक समरसता (नरेंद्र मोदी के लेखों का संकलन) सम्मान और पुरस्कार अप्रैल २०१६ में नरेन्द्र मोदी सउदी अरब के उच्चतम नागरिक सम्मान 'अब्दुलअजीज अल सऊद के आदेश' (The Order of Abdulaziz Al Saud) से सम्मानित किये गये हैं।[110][111] जून 2016 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अफगानिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड से सम्मानित किया।[112] सितम्बर २०१८: ' चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड ' -- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह सम्मान अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और एक ही बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक से देश को मुक्त कराने के संकल्प के लिए दिया गया। [113] संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक बयान जारी कर कहा है कि- इस साल के पुरस्कार विजेताओं को आज के समय के कुछ बेहद अत्यावश्यक पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिये साहसी, नवोन्मेष और अथक प्रयास करने के लिये सम्मानित किया जा रहा है।' नीतिगत नेतृत्व की श्रेणी में फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुअल मैक्रों और नरेंद्र मोदी को संयुक्त रूप से इस सम्मान के लिये चुना गया है। वैश्विक छवि २०१४: फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में १४ वां स्थान। २०१५: विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में ९ वां स्थान फोर्ब्स पत्रिका के सर्वे में। [114] २०१६: विश्व प्रसिद्ध फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में मोदी का ९ वां स्थान। [114][115][116] सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय आम चुनाव, 2014 वस्तु एवं सेवा कर (भारत) भारत के 500 और 1000 रुपये के नोटों का विमुद्रीकरण आधार (परियोजना) डोकलाम विवाद 2017 नेशनल पेंशन सिस्टम मन की बात मेक इन इंडिया नोटबंदी   बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक - आधिकारिक तथा सत्यापित ट्विटर खाता - आधिकारिक फेसबुक खाता - आधिकारिक जालस्थल - निजी ब्लॉग Template:नरेन्द्र मोदी का वंशवृक्ष Template:भारत के प्रधानमन्त्री Template:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री श्रेणी:1950 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री श्रेणी:गुजरात के मुख्यमंत्री श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ श्रेणी:गुजरात के लोग श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य श्रेणी:नरेन्द्र मोदी श्रेणी:दलित नेता श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री
नरेन्द्र मोदी जी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल कब से शुरू किया?
7 अक्तूबर २००१
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c67476278
विश्व बैंक संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट संस्था है। इसका मुख्य उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों को पुनर्निमाण और विकास के कार्यों में आर्थिक सहायता देना है। विश्व बैंक समूह पांच अन्तर राष्ट्रीय संगठनों का एक ऐसा समूह है जो सदश्य देशों को वित्त और वित्तीय सलाह देता है। इसका मुख्यालय वॉशिंगटन, डी॰ सी॰ में है।[2] सन्दर्भ श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान
विश्व बैंक का मुख्यालय कहाँ स्थित है?
वॉशिंगटन, डी॰ सी॰
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मधुमक्खी कीट वर्ग का प्राणी है। मधुमक्खी से मधु प्राप्त होता है जो अत्यन्त पौष्टिक भोजन है। यह संघ बनाकर रहती हैं। प्रत्येक संघ में एक रानी, कई सौ नर और शेष श्रमिक होते हैं। मधुमक्खियाँ छत्ते बनाकर रहती हैं। इनका यह घोसला (छत्ता) मोम से बनता है। इसके वंश एपिस में 7 जातियां एवं 44 उपजातियां हैं। प्रजातियाँ जंतु जगत में मधुमक्खी ‘आर्थोपोडा’ संघ का कीट है। विश्व में मधुमक्खी की मुख्य पांच प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनमें चार प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। मधुमक्खी की इन प्रजातियों से हमारे यहां के लोग प्राचीन काल से परिचित रहे हैं। इसकी प्रमुख पांच प्रजातियां हैं: भुनगा या डम्भर (Apis melipona) यह आकार में सबसे छोटी और सबसे कम शहद एकत्र करने वाली मधुमक्खी है। शहद के मामले में न सही लेकिन परागण के मामले में इसका योगदान अन्य मधुमक्खियों से कम नहीं है। इसके शहद का स्वाद कुछ खट्टा होता है। आयुर्वेदिक दृष्टि से इसका शहद सर्वोत्तम होता है क्योंकि यह जड़ी बूटियों के नन्हें फूलों, जहां अन्य मधुमक्खियां नहीं पहुंच पाती हैं, से भी पराग एकत्र कर लेती हैं। भंवर या सारंग (Apis dorsata) इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत में ‘भंवर’ या ‘भौंरेह’ कहते हैं। दक्षिण भारत में इसे ‘सारंग’ तथा राजस्थान में ‘मोम माखी’ कहते हैं। ये ऊंचे वृक्षों की डालियों, ऊंचे मकानों, चट्टानों आदि पर विषाल छत्ता बनाती हैं। छत्ता करीब डेढ़ से पौने दो मीटर तक चौड़ा होता है। इसका आकार अन्य भारतीय मधुमक्खियों से बड़ा होता है। अन्य मधुमक्खियों के मुकाबले यह शहद भी अधिक एकत्र करती हैं। एक छत्ते से एक बार में 30 से 50 किलोग्राम तक शहद मिल जाता है। स्वभाव से यह अत्यंत खतरनाक होती हैं। इसे छेड़ देने पर या किसी पक्षी द्वारा इसमें चोट मार देने पर यह दूर-दूर तक दौड़ाकर मनुष्यों या उसके पालतू पषुओं का पीछा करती हैं। अत्यंत आक्रामक होने के कारण ही यह पाली नहीं जा सकती। जंगलों में प्राप्त शहद इसी मधुमक्खी की होती है। पोतिंगा या छोटी मधुमक्खी (Apis florea) यह भी भंवर की तरह ही खुले में केवल एक छत्ता बनाती है। लेकिन इसका छत्ता छोटा होता है और डालियों पर लटकता हुआ देखा जा सकता है। इसका छत्ता अधिक ऊंचाई पर नहीं होता। छत्ता करीब 20 सेंटीमीटर लंबा और करीब इतना ही चौड़ा होता है। इससे एक बार में 250 ग्राम से लेकर 500 ग्राम तक शहद प्राप्त हो सकता है। खैरा या भारतीय मौन (Apis cerana indica) इसे ग्रामीण क्षेत्रों में मधुमक्खी की प्रजातियां ‘सतकोचवा’ मधुमक्खी कहते हैं। क्योंकि ये दीवारों या पेड़ों के खोखलों में एक के बाद एक करीब सात समानांतर छत्ते बनाती हैं। यह अन्य मधुमक्खियों की अपेक्षा कम आक्रामक होती हैं। इससे एक बार में एक-दो किलोग्राम शहद निकल सकता है। यह पेटियों में पाली जा सकती है। साल भर में इससे 10 से 15 किलोग्राम तक शहद प्राप्त हो सकती है। यूरोपियन मधुमक्खी (Apis mellifera) इसका विस्तार संपूर्ण यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका तक है। इसकी अनेक प्रजातियां जिनमें एक प्रजाति इटैलियन मधुमक्खी (Apis mellifera lingustica) है। वर्तमान में अपने देश में इसी इटैलियन मधुमक्खी का पालन हो रहा है। सबसे पहले इसे अपने देश में सन् 1962 में हिमाचल प्रदेश में नगरौटा नामक स्थान पर यूरोप से लाकर पाला गया था। इसके पश्चात 1966-67 में लुधियाना (पंजाब) में इसका पालन शुरू हुआ। यहां से फैलते-फैलते अब यह पूरे देश में पहुंच गई है। इसके पूर्व हमारे देश में भारतीय मौन पाली जाती थी। जिसका पालन अब लगभग समाप्त हो चुका है। कृषि उत्पादन में मधुमक्खियों का महत्त्व परागणकारी जीवों में मधुमक्खी का विषेष महत्त्व है। इस संबंध में अनेक अध्ययन भी हुए हैं। सी.सी. घोष, जो सन् 1919 में इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान में कार्यरत थे, ने मधुमक्खियों की महत्ता के संबंध में कहा था कि यह एक रुपए की शहद व मोम देती है तो दस रुपए की कीमत के बराबर उत्पादन बढ़ा देती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में कुछ फसलों पर परागण संबंधी परीक्षण किए गए। सौंफ में देखा गया कि जिन फूलों का मधुमक्खी द्वारा परागीकरण होने दिया गया उनमें 85 प्रतिशत बीज बने। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागित करने से रोका गया उनमें मात्र 6.1 प्रतिशत बीज ही बने थे। यानी मधुमक्खी, सौंफ के उत्पादन को करीब 15 गुना बढ़ा देती है। बरसीम में तो बीज उत्पादन की यह बढ़ोत्तरी 112 गुना तथा उनके भार में 179 गुना अधिक देखी गई। सरसों की परपरागणी 'पूसा कल्याणी' जाति तो पूर्णतया मधुमक्खी के परागीकरण पर ही निर्भर है। फसल के जिन फूलों में मधुमक्खी ने परागीकृत किया उनके फूलों से औसतन 82 प्रतिशत फली बनी तथा एक फली में औसतन 14 बीज और बीज का औसत भार 3 मिलिग्राम पाया गया। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागण से रोका गया उनमें सिर्फ 5 प्रतिशत फलियां ही बनीं। एक फली में औसत एक बीज बना जिसका भार एक मिलिग्राम से भी कम पाया गया। इसी तरह तिलहन की स्वपरागणी किस्मों में उत्पादन 25-30 प्रतिशत अधिक पाया गया। लीची, गोभी, इलायची, प्याज, कपास एवं कई फलों पर किए गए प्रयोगों में ऐसे परिणाम पाए गए। मधुमक्खी परिवार एक साथ रहने वाली सभी मधुमक्खियां एक मौनवंश (कॉलोनी) कहलाती हैं। एक मौनवंश में तीन तरह की मधुमक्खियां होती हैं: (1) रानी, (2) नर तथा (3) कमेरी। रानी एक मौनवंश में हजारों मधुमक्खियां होती हैं। इनमें रानी (क्वीन) केवल एक होती है। यही वास्तव में पूर्ण विकसित मादा होती है। पूरे मौनवंश में अंडे देने का काम अकेली रानी मधुमक्खी ही करती है। यह आकार में अन्य मधुमक्खियों से बड़ी और चमकीली होती है जिससे इसे झुंड में आसानी से पहचाना जा सकता है। नर मधुमक्खी मौसम और प्रजनन काल के अनुसार नर मधुमक्खी (ड्रोन) की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। प्रजनन काल में एक मौनवंष में ये ढाई-तीन सौ तक हो जाते हैं जबकि विपरीत परिस्थितियों में इनकी संख्या शून्य तक हो जाती है। इनका काम केवल रानी मधुमक्खी का गर्भाधान करना है। गर्भाधान के लिए यद्यपि कई नर प्रयास करते हैं जिनमें एक ही सफल हो पाता है। कमेरी मधुमक्खी किसी मौनवंश में सबसे महत्त्वपूर्ण मधुमक्खियां कमेरी (वर्कर) ही होती हैं। ये फूलों से रस ले आकर शहद तो बनाती ही हैं साथ-साथ अंडे-बच्चों की देखभाल और छत्ते के निर्माण का कार्य भी करती हैं। इन्हें भी देखें मधुमक्खी पालन *
जंतु जगत में मधुमक्खी किसके संघ का कीट है?
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सेब एक फल है। सेब का रंग लाल या हरा होता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे मेलस डोमेस्टिका (Melus domestica) कहते हैं। इसका मुख्यतः स्थान मध्य एशिया है। इसके अलावा बाद में यह यूरोप में भी उगाया जाने लगा। यह हजारों वर्षों से एशिया और यूरोप में उगाया जाता रहा है। इसे एशिया और यूरोप से उत्तरी अमेरिका बेचा जाता है। इसका ग्रीक और यूरोप में धार्मिक महत्व है। व्युत्पत्ति यह भारत के उत्तरी प्रदेश हिमाचल में पैदा होता है, इसमे विटामिन होते हैं। इतिहास इसके बारे में पता लगाने का श्रेय सिकंदर महान को दिया जाता है। वह मध्य एशिया में जब आया तब उसने इस फल के बारे में जाना और उसी के कारण यूरोप में भी सेब के कई प्रजातियाँ मौजूद है।[1] सांस्कृतिक पहलू युरोपीय बुतपरस्ती नॉर्स, इंग्लैंड में इस फल को देवताओं द्वारा दिया गया उपहार मानते हैं। यह इंग्लैंड में जर्मन लोगों के शुरुआती समय में बने कब्र में पाया गया। जो एक प्रतीक के रूप में बनाया जाता था। ‌‌‌सेब खाने के फायदे सेब केवल स्वादिष्ट ही नहीं होता है। वरन इसके अंदर कई सारे तत्व भी मौजूद होते हैं। जो हमारे शरीर को पोषण प्रदान करते हैं। शरीर के अंदर आवश्यक पदार्थें की भी पूर्ति करते हैं। इसके अलावा सेब खाने से अनेक प्रकार की बिमारियों के होने की संभावना कम हो जाती है। ‌‌‌एनिमिया को दूर करता है एनिमिया के अंदर इंसान मे खून की कमी हो जाती है। और शरीर के अंदर खून नहीं बनता है। हिमोग्लोबिन की भी कमी आ जाती है। सेब के अंदर आयरन होता है। जिससे बोड़ी के अंदर हिमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाएगी । यदि रोज सेब खा नहीं सकते तो सप्ताह के अंदर एक बार अवश्य खाएं । ‌‌‌चेहरे की खूबसूरती को बढ़ाता है यदि आपके फेस पर दाग धब्बे हो गए । और आप अपने चेहरे को साफ करना चाहते हैं तो आप रोज एक सेब का सेवन करें । कुछ ही दिनों मे आपको फर्क महसूस हो जाएगा । ‌‌‌हर्ट के रोगों को दूर करने मे मददगार सेब हर्ट के लिए भी काफी फायदे मंद है। हर्ट मे oxidation से होने वाली क्षति को कम करता है। यह शरीर के अंदर कॉलेस्ट्रॉल की मात्रा को कंट्रोल करता है। यह शुगर की मात्रा को भी कम करता है हर्ट के अंदर अच्छे से खून का प्रवाह बनाए रखने के लिए भी सेब फायदे मंद है। ‌‌‌वजन घटाने मे सहायक यदि आपका वजन तेजी से बढ़ रहा है। और आपको इसका कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा है। तो आपको रोजाना 2 सेब का सेवन करना चाहिए । जिससे आपका वजन कम होगा । यह वैज्ञानिक रिसर्च के अंदर भी प्रमाणित किया जा चुका है। ‌‌‌दिमाग को अच्छा बनाने मे सेब का सेवन करने से अल्जाइमर रोग होने की संभावना कम हो जाती है। और यादाश्त भी अच्छी बनी रहती है। यह दिमागी कोशिकाओं को स्वस्थ बनाता है। और दिमाग के अंदर खून का प्रवाह सही करता है। ‌‌‌लिवर को साफ करता है सेब के अंदर कई प्रकार के विषहर पदार्थ पाए जाते हैं यह लिवर कीगंदगी को साफ करता है।प्रतिदिन सेब का सेवन करने पाचन सही से होता है। और खून भी शरीर के अंदर सही तरह से दौरा करता है। ‌‌‌किड़नी स्टोन की संभावना को कम करता है सेब के अंदर  साइडर विनिजर नामक तत्व पाया जाता है जोकि किडनी के अंदर पैदा होने वाले स्टोन की संभावना को कम कर देता है। वैसे आजकल हर दूसरे इंसान को पथरी की समस्या है। ऐसे लोगों को सेब का अधिक सेवन करना चाहिए । इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाता है सेब इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाता है वैज्ञानिक रिसर्च के मुताबिक सेब शरीर के अंदर पाए जाने वाले बैक्टिरिया को खत्म करता है। सेब के अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का गुण भी पाया जाता है । ‌‌‌आंखों की रोशनी बढ़ाने मे मददगार सेब के अंदर विटामिन ए पाया जाता है। जो आंखों की रोशनी को बढ़ाने मे मददगार है। जिन लोगों की आंखों की रोशनी कमजोर हो चुकी हैं। या चश्मा लग चुका है उनको सेब का सेवन करना चाहिए । उत्पात व खपत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:फल
सेब कहाँ ज़्यादा उगाया पाया जाता है?
हिमाचल
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संयुक्त राष्ट्र संगठन का मुख्यालय [[[अमेरिका]] के न्युयॉर्क शहर में स्थित है। इसका भवन आधिकारिक रूप से 9 जनवरी 1951 को खुला। इस भवन का निर्माण 1949-1950 में हुआ। इसके लिए विलियम जेकेंडॉफ से नदी के पूर्वी किनारे पर 17 एकड़ जमीन खरीदी गई। इस सौदे में नेल्सन रॉकफेलर की अहम भूमिका थी। सहायक एवं संदर्भ श्रोत श्रेणी:आधार श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय कहा पर है?
न्युयॉर्क
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बुर्ज ख़लीफ़ा दुबई में आठ अरब डॉलर की लागत से छह साल में निर्मित ८२८ मीटर ऊँची १६८ मंज़िला दुनिया की सबसे ऊँची इमारत है (जनवरी, सन् २०१० में)। इसका लोकार्पण ४ जनवरी, २०१० को भव्य उद्घाटन समारोह के साथ किया गया। इसमें तैराकी का स्थान, खरीदारी की व्यवस्था, दफ़्तर, सिनेमा घर सहित सारी सुविधाएँ मौजूद हैं। इसकी ७६ वीं मंजिल पर एक मस्जिद भी बनायी गयी है। इसे ९६ किलोमीटर दूर से भी साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। इसमें लगायी गयी लिफ़्ट दुनिया की सबसे तेज़ चलने वाली लिफ़्ट है। “ऐट द टॉप” नामक एक दरवाज़े के बाहर अवलोकन डेक, 124 वीं मंजिल पर, 5 जनवरी 2010 पर खुला। यह 452 मीटर (1,483 फुट) पर, दुनिया में तीसरे सर्वोच्च अवलोकन डेक और दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा दरवाज़े के बाहर अवलोकन डेक है। निर्माण विशेषता सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ No URL found. Please specify a URL here or add one to Wikidata. श्रेणी: गगनचुम्बी इमारतें श्रेणी: सर्वोच्च गगनचुम्बी
बुर्ज खलीफा की लम्बाई कितनी है?
८२८ मीटर
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अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक है ‌जिसका अनुवाद प्राय: सभी विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, विवाह, विरह, प्रत्याख्यान तथा पुनर्मिलन की एक सुन्दर कहानी है। पौराणिक कथा में दुष्यन्त को आकाशवाणी द्वारा बोध होता है पर इस नाटक में कवि ने मुद्रिका द्वारा इसका बोध कराया है। इसकी नाटकीयता, इसके सुन्दर कथोपकथन, इसकी काव्य-सौंदर्य से भरी उपमाएँ और स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुई समयोचित सूक्तियाँ; और इन सबसे बढ़कर विविध प्रसंगों की ध्वन्यात्मकता इतनी अद्भुत है कि इन दृष्टियों से देखने पर संस्कृत के भी अन्य नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल से टक्कर नहीं ले सकते; फिर अन्य भाषाओं का तो कहना ही क्या ! तो यहीं सबसे ज्यादा अच्छा है। मौलिक न होने पर भी मौलिक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तल की कथावस्तु मौलिक नहीं चुनी। यह कथा महाभारत के आदिपर्व से ली गई है। यों पद्मपुराण में भी शकुंतला की कथा मिलती है और वह महाभारत की अपेक्षा शकुन्तला की कथा के अधिक निकट है। इस कारण विन्टरनिट्ज ने यह माना है कि शकुन्तला की कथा पद्मपुराण से ली गई है। परन्तु विद्वानों का कथन है कि पद्मपुराण का यह भाग शकुन्तला की रचना के बाद लिखा और बाद में प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। महाभारत की कथा में दुर्वासा के शाप का उल्लेख नहीं है। महाभारत का दुष्यन्त से यदि ठीक उलटा नहीं, तो भी बहुत अधिक भिन्न है। महाभारत की शकुन्तला भी कालिदास की भांति सलज्ज नहीं है। वह दुष्यन्त को विश्वामित्र और मेनका के सम्बन्ध के फलस्वरुप हुए अपने जन्म की कथा अपने मुंह से ही सुनाती है। महाभारत में दुष्यन्त शकुन्तला के रूप पर मुग्ध होकर शकुन्तला से गांधर्व विवाह की प्रार्थना करता है; जिस पर शकुन्तला कहती है कि मैं विवाह इस शर्त पर कर सकती हूं कि राजसिंहासन मेरे पुत्र को ही मिले। दुष्यन्त उस समय तो स्वीकार कर लेता है और बाद में अपनी राजधानी में लौटकर जान-बूझकर लज्जावश शकुन्तला को ग्रहण नहीं करता। कालिदास ने इस प्रकार अपरिष्कृत रूप में प्राप्त हुई कथा को अपनी कल्पना से अद्भुत रूप में निखार दिया है। दुर्वासा के शाप की कल्पना करके उन्होंने दुष्यन्त के चरित्र को ऊंचा उठाया है। कालिदास की शकुन्तला भी आभिजात्य, सौंदर्य और करुणा की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने सारी कथा का निर्वाह, भावों का चित्रण इत्यादि जिस ढंग से किया है, वह मौलिक और अपूर्व है। कथा शकुंतला राजा दुष्यंत की पत्नी थी जो भारत के सुप्रसिद्ध राजा भरत की माता और मेनका अप्सरा की कन्या थी। महाभारत में लिखा है कि शंकुतला का जन्म मेनका अप्सरा के गर्भ से हुआ था जो इसे वन में छोड़कर चली गई थी। वन में शंकुतों (पक्षियों) आदि ने हिंसक पशुओं से इसकी रक्षा की थी, इसी से इसका नाम शकुंतला पड़ा। वन में से इसे कण्व ऋषि उठा लाए थे और अपने आश्रम में रखकर कन्या के समान पालते थे। एक बार राजा दुष्यंत अपने साथ कुछ सैनिकों को लेकर शिकार खेलने निकले और घूमते फिरते कण्व ऋषि के आश्रम में पहुँचे। ऋषि उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे; इससे युवती शकुंतला ने ही राजा दुष्यंत का आतिथ्य सत्कार किया। उसी अवसर पर दोनों में प्रेम और फिर गंधर्व विवाह हो गया। कुछ दिनों बाद राजा दुष्यंत वहाँ से अपने राज्य को चले गए। कण्व मुनि जब लौटकर आए, तब यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि शकुंतला का विवाह दुष्यंत से हो गया। शकुंतला उस समय गर्भवती हो चुकी थी। समय पाकर उसके गर्भ से बहुत ही बलवान्‌ और तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'भरत' रखा गया। कहते हैं, 'भारत' नाम 'भरत' के नाम पर ही पड़ा। कुछ दिनों बाद शकुंतला अपने पुत्र को लेकर दुष्यंत के दरबार में पहुँची। परंतु शकुंतला को बीच में दुर्वासा ऋषि का शाप मिल चुका था। राजा ने इसे बिल्कुल नहीं पहचाना और स्पष्ट कह दिया कि न तो मैं तुम्हें जानता हूँ और न तुम्हें अपने यहाँ आश्रय दे सकता हूँ। परंतु इसी अवसर पर एक आकाशवाणी हुई, जिससे राजा को विदित हुआ कि यह मेरी ही पत्नी है और यह पुत्र भी मेरा ही है। उन्हें कण्व मुनि के आश्रम की सब बातें स्मरण हो आईं और उन्होंने शकुंतला को अपनी प्रधान रानी बनाकर अपने यहाँ रख लिया। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में अनेक मार्मिक प्रसंगों को उल्लेख किया गया है। एक उस समय, जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है। दूसरा उस समय, जब कण्व शकुन्तला को अपने आश्रम से पतिगृह के लिए विदा करते हैं। उस समय तो स्वयं ऋषि कहते हैं कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है तो जिनकी औरस पुत्रियां पतिगृह के लिए विदा होती हैं उस समय उनकी क्या स्थिति होती होगी। तीसरा प्रसंग है, शकुन्तला का दुष्यन्त की सभा में उपस्थित होना और दुष्यन्त को उसको पहचानने से इनकार करना। चौथा प्रसंग है उस समय का, जब मछुआरे को प्राप्त दुष्यन्त के नाम वाली अंगूठी उसको दिखाई जाती है। और पांचवां प्रसंग मारीचि महर्षि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला के मिलन का। ध्वन्यात्मक संकेत शकुन्तला में कालिदास का सबसे बड़ा चमत्कार उसके ध्वन्यात्मक संकेतों में है। इसमें कवि को विलक्षण सफलता यह मिली है कि उसने कहीं भी कोई भी वस्तु निष्प्रयोजन नहीं कही। कोई भी पात्र, कोई भी कथोप-कथन, कोई भी घटना, कोई भी प्राकृतिक दृश्य निष्प्रयोजन नहीं है। सभी घटनाएं यह दृश्य आगे आने वाली घटनाओं का संकेत चमत्कारिक रीति से पहले ही दे देते हैं। नाटक के प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए वन-वायु के पाटल की सुगंधि से मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक है। इसी प्रकार नाटक के प्रारम्भिक गीत में भ्रमरों द्वारा शिरीष के फूलों को ज़रा-ज़रा-सा चूमने से यह संकेत मिलता है कि दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन अल्पस्थायी होगा। जब राजा धनुष पर बाण चढ़ाए हरिण के पीछे दौड़े जा रहे हैं, तभी कुछ तपस्वी आकर रोकते हैं। कहते हैं-‘महाराज’ यह आश्रम का हरिण है, इस पर तीर न चलाना।’ यहां हरिण के अतिरिक्त शकुन्तला की ओर भी संकेत है, जो हरिण के समान ही भोली-भाली और असहाय है। ‘कहां तो हरिणों का अत्यन्त चंचल जीवन और कहां तुम्हारे वज्र के समान कठोर बाण !’ इससे भी शकुन्तला की असहायता और सरलता तथा राजा की निष्ठुरता का मर्मस्पर्शी संकेत किया गया है। जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रेम कुछ और बढ़ने लगता है, तभी नेपथ्य से पुकार सुनाई पड़ती है कि ‘तपस्वियो, आश्रम के प्राणियों की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ। शिकारी राजा दुष्यन्त यहां आया हुआ है।’ इसमें भी दुष्यन्त के हाथों से शकुन्तला की रक्षा की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है, परन्तु यह संकेत किसी के भी कान में सुनाई नहीं दिया; शकुन्तला को किसी ने नहीं बचाया। इससे स्थिति की करुणाजनकता और भी अधिक बढ़ जाती है। चौथे अंक के प्रारम्भिक भाग में कण्व के शिष्य ने प्रभात का वर्णन करते हुए सुख और दुःख के निरन्तर साथ लगे रहने का तथा प्रिय के वियोग में स्त्रियों के असह्य दुःख का जो उल्लेख किया है, वह दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला का परित्याग किए जाने के लिए पहले से ही पृष्ठभूमि-सी बना देता है। पांचवें अंक में रानी हंसपदिका एक गीत गाती हैं, जिसमें राजा को उनकी मधुर-वृत्ति के लिए उलाहना दिया गया है। दुष्यन्त भी यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने हंसपदिका से एक ही बार प्रेम किया है। इससे कवि यह गम्भीर संकेत देता है कि भले ही शकुन्तला को दु्ष्यन्त ने दुर्वासा के शाप के कारण भूलकर छोड़ा, परन्तु एक बार प्यार करने के बाद रानियों की उपेक्षा करना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। अन्य रानियां भी उसकी इस मधुकर-वृत्ति का शिकार थीं। हंसपादिका के इस गीत की पृष्ठभूमि में शकुन्तला के परित्याग की घटना और भी क्रूर और कठोर जान पड़ती है। इसी प्रकार के ध्वन्यात्मक संकेतों से कालिदास ने सातवें अंक में दुष्यन्त, शकुन्तला और उसके पुत्र के मिलने के लिए सुखद पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। इन्द्र राजा दुष्यन्त को अपूर्व सम्मान प्रदान करते हैं। उसके बाद हेमकूट पर्वत पर प्रजापति के आश्रम में पहुंचते ही राजा को अनुभव होने लगता है कि जैसे वह अमृत के सरोवर में स्नान कर रहे हों। इस प्रकार के संकेतों के बाद दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन और भी अधिक मनोहर हो उठता है। काव्य-सौंदर्य जर्मन कवि गेटे ने अभिज्ञान शाकुन्तलं के बारे में कहा था- ‘‘यदि तुम युवावस्था के फूल प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शान्ति पाता हो, अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है - शाकुन्तलम्, महान कवि कालिदास की एक अमर रचना !’’ इसी प्रकार संस्कृत के विद्वानों में यह श्लोक प्रसिद्ध है- काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला। तत्रापि च चतुर्थोऽंकस्तत्र श्लोकचतुष्टयम्।। इसका अर्थ है - काव्य के जितने भी प्रकार हैं उनमें नाटक विशेष सुन्दर होता है। नाटकों में भी काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से अभिज्ञान शाकुन्तलं का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलं का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलं में भी उसका चतुर्थ अंक और इस अंक में भी चौथा श्लोक तो बहुत ही रमणीय है। अभिज्ञान शाकुन्तल में नाटकीयता के साथ-साथ काव्य का अंश भी यथेष्ट मात्रा में है। इसमें शृंगार मुख्य रस है; और उसके संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्षों का परिपाक सुन्दर रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त हास्य, वीर तथा करुण रस की भी जहां-तहां अच्छी अभिव्यक्ति हुई है। स्थान-स्थान पर सुन्दर और मनोहरिणी उतप्रेक्षाएं न केवल पाठक को चमत्कृत कर देती हैं, किन्तु अभीष्ट भाव की तीव्रता को बढ़ाने में ही सहायक होती हैं। सारे नाटक में कालिदास ने अपनी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का उपयोग कहीं भी केवल अलंकार-प्रदर्शन के लिए नहीं किया। प्रत्येक स्थान पर उनकी उपमा या उत्प्रेक्षा अर्थ की अभिव्यक्ति को रसपूर्ण बनाने में सहायक हुई है। कालिदास अपनी उपमाओं के लिए संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध हैं। शाकुन्तल में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई। शकुन्तला के विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ऐसा फूल है, जिसे किसी ने सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की खरोंच नहीं लगी; ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया और ऐसा मधु है, जिसका स्वाद किसी ने चखा नहीं है।’ इन उपमाओं के द्वारा शकुन्तला के सौंदर्य की एक अनोखी झलक हमारी आंखों के सामने आ जाती है। इसी प्रकार पांचवें अंक में दुश्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को तो गिराती ही है और अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’ यहां शकुन्तला की चट को तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को व्यक्त करने में विशेष रूप से सहायक होती है। इसी प्रकार जब कण्व के शिष्य शकुन्तला को साथ लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं तो दुष्यन्त की दृष्टि उन तपस्वियों के बीच में शकुन्तला के ऊपर जाकर पड़ती है। वहां शकुन्तला के सौंदर्य का विस्तृत it. Of love in ,,0 न करके कवि ने उनके मुख से केवल इतना कहलवा दिया है कि ‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है।’ इस छोटी-सी उपमा नेपीले पत्ते और कोंपल की सदृश्यता के द्वारा शकुन्तला के सौन्दर्य का पूरा ही चित्रांकन कर दिया है। इसी प्रकार सर्वदमन को देखकर दुष्यन्त कहते हैं कि ‘यह प्रतापी बालक उस अग्नि के स्फुलिंग की भांति प्रतीत होता है, जो धधकती आग बनने के लिए ईधन की राह देखता है।’ इस उपमा से कालिदास ने न केवल बालक की तेजस्विता प्रकट कर दी, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से सूचित कर दिया है कि यह बालक बड़ा होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। इस प्रकार की मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकुन्तल में से दिये जा सकते हैं क्योंकि शाकुन्तल में 180 उपमाएं प्रयुक्त हुईं हैं। और उनमें से सभी एक से एक बढ़कर हैं। यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है। इन्हें भी देखें मेघदूतम् रघुवंश बाहरी कड़ियाँ (अंग्रेज़ी और देवनागरी में) (pdf में)
´अभिज्ञान शाकुन्तलम् ´ नाटक के रचयिता कौन थे?
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पर्वत या पहाड़ पृथ्वी की भू-सतह पर प्राकृतिक रूप से ऊँचा उठा हुआ हिस्सा होता है, जो ज़्यादातर आकस्मिक तरीके से उभरा होता है और पहाड़ी से बड़ा होता है। पर्वत ज़्यादातर एक लगातार समूह में होते हैं। पर्वत ४ प्रकार के होते है: वलित पर्वत भ्रंशोत्थ पर्वत या ब्लॉक पर्वत ज्वालामुखी पर्वत अवशिष्ट पर्वत ये सबसे गर्म भी रहते है == वलित पर्वत == ये तब बनते हैं जब पृथ्वी की टेक्टॉनिक चट्टानें एक दूसरे से टकराती या सिकुड़ती हैं, जिससे पृथ्वी की सतह में मोद के कारन् उभार आ जाता है। दुनिया के लगभग सभी बड़े और ऊँचे पर्वत युवा मोड़दार पर्वत हैं। हिमालय, यूरोपीय आल्प्स, उत्तरी अमरीकी रॉकी, दक्षिणी अमरीकी एण्डीज, वगैरह सभी युवा अर्थात नये पर्वत हैं। ये दुनिय के सब्से नये पर्वत तथा सब से उच्छे पर्वत है भ्रंशोत्थ पर्वत या ब्लॉक पर्वत भ्रंशोत्थ पर्वत या ब्लॉक पर्वत का निर्माण पृथ्वी के उपरी सतहो मे भ्रन्शन के द्वारा भूभाग के उपर उठने अथवा बहुत बडे भाग के टूट कर ऊर्ध्वाधर रूप से विस्थापित होने से होता है ऊपर उठे खण्ड को उत्खण्ड(हार्स्ट) तथा नीचे धँसे खण्डों को द्रोणिका भ्रंश(ग्राबेन) कहा जाता है जैसे युरोप की राइन घाटी तथा वॉसजेस पर्वत हार्ज। यह अच्छा उदाहरण। है। ज्वालामुखी पर्वत ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण पृथ्वी के अंदर से निकले लावा के उदगार के जमाव से होता है। जैसे:- वर्मा क माउंट पोपा, मौना लोवा, विसुविअस आदि। अवशिष्ट पर्वत अवशिष्ट पर्वत का निर्मान वाह्य दुतो के मलवो के जमाव से होता है। जैसे बिहार का पारसनाथ। एक पहाड़ के एक बड़े स्थालाकृति कि एक सीमित क्षेत्र में आसपास के भूमि के ऊपर फैला है, आम तौर पर एक चोटी के रूप में है। एक पर्वत आम तौर पर एक पहाड़ी से steeper है। पर्वत विवर्तनिक बलों या ज्वालामुखी के माध्यम से बनते हैं। इन बलों को स्थानीय रूप से पृथ्वी की सतह बढ़ा सकते हैं। पर्वत नदियों, मौसम की स्थिति, और ग्लेशियरों की कार्रवाई के माध्यम से धीरे धीरे इरोड। कुछ पहाड़ों पृथक शिखर हैं, लेकिन सबसे बड़ी पर्वत श्रृंखला में होते हैं। पहाड़ों पर उच्च उन्नयन समुद्र तल से ठंडा मौसम का उत्पादन। ये ठंडा मौसम दृढ़ता से पहाड़ों की पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित: विभिन्न ऊँचाइयों विभिन्न पौधों और जानवरों की है। कम मेहमाननवाज इलाके और जलवायु की वजह से, इस तरह के पहाड़ों पर्वत पर चढ़ाई के रूप में संसाधन निष्कर्षण और मनोरंजन के लिए कृषि के लिए कम और अधिक इस्तेमाल होते हैं। पृथ्वी पर उच्चतम पर्वत एशिया के हिमालय में माउंट एवरेस्ट, जिसका शिखर सम्मेलन 8850 मीटर (29035 फीट) ऊपर समुद्र तल है। सौर प्रणाली में किसी भी ग्रह पर सबसे अधिक जाना जाता पहाड़ 21171 मीटर (69459 फीट) पर मंगल ग्रह पर ओलंपस मॉन्स है। विषय वस्तु [छिपाएं] 1 परिभाषा 2 भूविज्ञान 2.1 ज्वालामुखी 2.2 गुना पहाड़ों 2.3 ब्लॉक पहाड़ों 2.4 कटाव 3 जलवायु 4 पारिस्थितिकीय 5 समाज में 6 सर्वोत्कृष्ट 7 इन्हें भी देखें 8 नोट्स 9 संदर्भ 10 बाहरी लिंक परिभाषा Matterhorn, स्विस आल्प्स माउंट केन्या की चोटियों वहाँ एक पहाड़ का कोई सार्वभौमिक स्वीकार किए जाते परिभाषा है। ऊंचाई, मात्रा, राहत, ढलवाँपन, रिक्ति और निरंतरता एक पहाड़ को परिभाषित करने के लिए मापदंड के रूप में इस्तेमाल किया गया है। [2] ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में एक पहाड़ के रूप में "पृथ्वी की सतह का एक प्राकृतिक ऊंचाई आसपास से अचानक कम या ज्यादा बढ़ती परिभाषित किया गया है स्तर और ऊंचाई है, जो अपेक्षाकृत आसन्न पदोन्नति के लिए, प्रभावशाली या उल्लेखनीय है को प्राप्त करने। "[2] चाहे एक स्थालाकृति कहा जाता है एक पहाड़ स्थानीय उपयोग पर निर्भर हो सकता है। सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया में उच्चतम बिंदु माउंट डेविडसन कहा जाता है, 300 मीटर (980 फीट) की ऊंचाई इसकी होते हुए भी, जो अमेरिकी पदनाम से एक पर्वत के लिए यह न्यूनतम से कम बीस फुट बनाता है। इसी तरह, माउंट स्कॉट के बाहर [प्रशस्ति पत्र की जरूरत] लॉटन, ओक्लाहोमा अपने उच्चतम बिंदु के लिए अपने बेस से केवल 251 मीटर (823 फीट) है। भौतिक भूगोल की Whittow की डिक्शनरी [3] में कहा गया है, "कुछ अधिकारियों 600 मीटर (2,000 फुट) पहाड़ों के रूप में ऊपर eminences के संबंध में, नीचे उन पहाड़ियों के रूप में भेजा जा रहा है।" ब्रिटेन और आयरलैंड गणराज्य में, एक पहाड़ आमतौर पर किसी भी शिखर सम्मेलन के रूप में परिभाषित किया गया है कम से कम 2,000 फुट (या 610 मीटर) उच्च, [4] [5] [6] [7] [8] जबकि आधिकारिक यूनाइटेड किंगडम सरकार की परिभाषा एक पहाड़ की, उपयोग के प्रयोजनों के लिए, 600 मीटर या उससे अधिक की एक शिखर सम्मेलन है। [9] इसके अलावा, कुछ परिभाषाओं को भी एक स्थलाकृतिक प्रमुखता आवश्यकता है, आम तौर पर 100 या 500 फीट (30 मीटर या 152) शामिल हैं। [10] एक समय, अमेरिका 1000 फीट (300 मीटर) या लम्बे होने के रूप में एक पहाड़ को परिभाषित किया। किसी भी इसी तरह इस ऊंचाई की तुलना में कम स्थालाकृति एक पहाड़ी माना जाता था। बहरहाल, आज, संयुक्त राज्य अमेरिका भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (यूएसजीएस) का निष्कर्ष है कि इन शर्तों अमेरिका में तकनीकी परिभाषा नहीं है। [11] "पहाड़ी पर्यावरण" की संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की परिभाषा निम्न में से किसी में शामिल हैं: [12] कम से कम 2,500 मीटर (8,200 फुट) की ऊंचाई; कम से कम 1,500 मीटर (4,900 फुट), 2 डिग्री से अधिक से अधिक एक ढाल के साथ की ऊंचाई; कम से कम 1,000 मीटर (3,300 फुट), 5 डिग्री से अधिक से अधिक एक ढाल के साथ की ऊंचाई; कम से कम 300 मीटर (980 फीट), 7 किमी (4.3 मील) के भीतर एक 300 मीटर (980 फीट) की ऊंचाई सीमा के साथ की ऊंचाई। इन परिभाषाओं का प्रयोग, पहाड़ों यूरेशिया के 33%, दक्षिण अमेरिका के 19%, उत्तरी अमेरिका के 24%, और अफ्रीका के 14% को कवर किया। [13] एक पूरे के रूप में, पृथ्वी की भूमि द्रव्यमान का 24% पहाड़ी है। [14] भूगर्भशास्त्र मुख्य लेख: पर्वत निर्माण और पहाड़ प्रकार की सूची जेफ डेविस पीक व्हीलर पीक, नेवादा के ग्लेशियर नक्काशीदार शिखर सम्मेलन से देखा । ज्वालामुखी, गुना, और ब्लॉक [15] सभी तीन प्रकार प्लेट टेक्टोनिक्स से बनते हैं: जब पृथ्वी की पपड़ी चाल के कुछ भागों, पड़ना, और गोता वहाँ पहाड़ों के तीन मुख्य प्रकार हैं। Compressional बलों, isostatic उत्थान और आग्नेय बात बलों की घुसपैठ ऊपर की ओर चट्टान की सतह, एक स्थालाकृति आसपास सुविधाओं की तुलना में अधिक बनाने। सुविधा की ऊंचाई यह या तो एक पहाड़ी बनाता है या, उच्च और steeper, एक पहाड़ है। मेजर पहाड़ों लंबे रेखीय आर्क्स में होते हैं, टेक्टोनिक प्लेट सीमाओं और गतिविधि का संकेत करते हैं। ज्वालामुखी मुख्य लेख: ज्वालामुखी फ़ूजी ज्वालामुखी की भूवैज्ञानिक पार अनुभाग जब एक थाली एक मध्य महासागर रिज या हॉटस्पॉट पर एक और प्लेट नीचे धकेल दिया है, या ज्वालामुखी का गठन कर रहे हैं। [16] करीब 100 किलोमीटर की गहराई में, पिघलने रॉक स्लैब में ऊपर (पानी के अलावा के कारण) होता है, और मेग्मा कि सतह तक पहुँच रूपों। मेग्मा सतह तक पहुँच जाता है, यह अक्सर इस तरह के एक ढाल ज्वालामुखी या एक स्ट्रैटोज्वालामुखी के रूप में एक ज्वालामुखी पर्वत बनाता है। [17] ज्वालामुखी के उदाहरण जापान में माउंट फ़ूजी और फिलीपींस में माउंट Pinatubo शामिल हैं। मेग्मा कि जमीन के नीचे solidifies अभी भी ऐसे संयुक्त राज्य अमेरिका में नवाजो पर्वत के रूप में गुंबद पहाड़ों, फार्म कर सकते हैं: मेग्मा के क्रम में एक पहाड़ बनाने के लिए सतह तक पहुंचने के लिए जरूरी नहीं है। पहाड़ों मोड़ो मुख्य लेख: गुना पहाड़ों मोड़ो पहाड़ों होती है जब दो प्लेटों के टकराने:। छोटा जोर दोष के साथ होता है और पपड़ी overthickened है [18] कम घना महाद्वीपीय परत "मंगाई" के बाद से सघन विरासत चट्टानों के नीचे, किसी भी क्रस्टल सामग्री के वजन को ऊपर की ओर मजबूर पहाड़ियों के रूप में करने पर, पठारों या पहाड़ों में एक बहुत बड़ी विरासत में नीचे की ओर मजबूर मात्रा की उछाल बल द्वारा संतुलित किया जाना चाहिए। इस प्रकार महाद्वीपीय परत सामान्य रूप से ज्यादा पहाड़ों के नीचे गहरा हो जाता है, कम झूठ बोल क्षेत्रों की तुलना में। [19] रॉक या तो संतुलित रूप से या asymmetrically गुना कर सकते हैं। upfolds anticlines कर रहे हैं और downfolds synclines हैं: विषम तह में वहाँ भी लेटा हुआ हो सकता है और परतों पलट सकता है। जुरा पहाड़ों गुना पहाड़ों का एक उदाहरण है। ब्लॉक पहाड़ों मुख्य लेख: ब्लॉक पहाड़ों Upstate न्यूयॉर्क में Catskills एक घिस पठार प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्लॉक पहाड़ों पपड़ी में दोष के कारण होता है: एक सीवन जहां चट्टानों एक दूसरे के अतीत को स्थानांतरित कर सकते हैं। चट्टानों दूसरे के लिए एक गलती वृद्धि रिश्तेदार के एक तरफ, यह एक पहाड़ के रूप में कर सकते हैं। [20] uplifted ब्लॉकों ब्लॉक पहाड़ों या horsts हैं। दरम्यानी गिरा ब्लॉकों Graben में कहा जाता है: ये छोटा हो सकता है या व्यापक दरार घाटी सिस्टम के रूप में। परिदृश्य के इस रूप को पूर्वी अफ्रीका, वॉसगेस, पश्चिमी उत्तर अमेरिका और राइन घाटी के बेसिन और रेंज प्रांत में देखा जा सकता है। इन क्षेत्रों में अक्सर होती है जब क्षेत्रीय तनाव extensional है और पपड़ी पतला है। कटाव मुख्य लेख: कटाव और निम्न उत्थान के दौरान, पहाड़ों के कटाव के एजेंट (पानी, हवा, बर्फ, और गुरुत्वाकर्षण), जो धीरे-धीरे uplifted क्षेत्र नीचे पहनने के अधीन हैं। कटाव पहाड़ों की चट्टानों की सतह कि पहाड़ों को खुद के लिए फार्म की तुलना में छोटी होने का कारण बनता है। [21] हिमनदों प्रक्रियाओं ऐसे गिरिशृंग, चाकू बढ़त arêtes, और कटोरे के आकार का cirques कि झीलों के रूप में शामिल कर सकते हैं विशेषता भू आकृतियों, उत्पादन। पठार पहाड़ों, ऐसे Catskills के रूप में, एक uplifted पठार के कटाव से बनते हैं। जलवायु मुख्य लेख: अल्पाइन जलवायु कार्बन काउंटी, यूटा में एक पहाड़ दस चोटियों, कनाडा के Rockies की घाटी पहाड़ों पर जलवायु उच्च ऊंचाई पर ठंडा हो गया है, कारण है कि जिस तरह सूरज पृथ्वी की सतह तपता है। [22] सूरज सीधे जमीन वृद्धि, जबकि एक कंबल के रूप में ग्रीन हाउस प्रभाव कार्य करता है, गर्मी पृथ्वी की ओर वापस दर्शाती है कि होगा अन्यथा अंतरिक्ष के लिए खो दिया जा सकता है। ग्रीन हाउस प्रभाव इस प्रकार गर्म कम ऊंचाई पर हवा रहता है। ऊंचाई बढ़ जाती है, वहाँ कम ग्रीनहाउस प्रभाव है, तो परिवेश के तापमान नीचे चला जाता है। [23] जिस दर पर तापमान ऊंचाई के साथ चला जाता है, कहा जाता पर्यावरण चूक दर, स्थिर नहीं है (यह दिन भर में उतार चढ़ाव हो सकता है या मौसम और भी क्षेत्रीय), लेकिन एक ठेठ चूक दर 1,000 मीटर (3.57°F प्रति 5.5 डिग्री सेल्सियस है 1,000 फुट)। [24] [25] इसलिए, एक पहाड़ पर 100 मीटर की दूरी तक चलती मोटे तौर निकटतम ध्रुव की ओर 80 किलोमीटर (45 मील या अक्षांश के 0.75 °) चलती करने के लिए बराबर है। [26] इस संबंध केवल अनुमानित है हालांकि, , इस तरह के महासागरों (जैसे कि आर्कटिक महासागर के रूप में) काफी जलवायु संशोधित कर सकते हैं करने के लिए निकटता के रूप में स्थानीय कारकों के बाद से। [27] की ऊंचाई बढ़ जाती है, वर्षा का मुख्य रूप से बर्फ बन जाता है और हवाओं वृद्धि हुई है। [28] ऊंचाई पर पारिस्थितिकी पर जलवायु का प्रभाव काफी हद तक वर्षा की मात्रा का एक संयोजन के माध्यम से कब्जा किया जा सकता है, और biotemperature, लेस्ली में Holdridge द्वारा वर्णित के रूप में 1947 [29] Biotemperature औसत तापमान है; नीचे 0 डिग्री सेल्सियस (32°F) सभी तापमान 0 डिग्री सेल्सियस माना जाता है। तापमान 0 डिग्री सेल्सियस नीचे है जब, पौधों, निष्क्रिय कर रहे हैं ताकि सही तापमान महत्वहीन है। स्थायी रूप से बर्फ के साथ पहाड़ों की चोटियों से नीचे 1.5 डिग्री सेल्सियस (34.7 ° एफ) एक biotemperature हो सकता है। परिस्थितिकी मुख्य लेख: पर्वतीय पारिस्थितिकी स्विस आल्प्स में एक अल्पाइन कीचड़ पहाड़ों पर ठंडा जलवायु पौधों और पहाड़ों पर रहने वाले जानवरों को प्रभावित करता है। पौधों और जानवरों के एक विशेष सेट जलवायु की एक अपेक्षाकृत संकीर्ण रेंज के लिए अनुकूल हो जाते हैं। इस प्रकार, पारिस्थितिक तंत्र मोटे तौर पर स्थिर जलवायु के उन्नयन के बैंड के साथ झूठ बोलने के लिए करते हैं। इस altitudinal zonation कहा जाता है। [30] शुष्क जलवायु के साथ क्षेत्रों में, उच्च वर्षा के साथ ही कम तापमान है करने के लिए पहाड़ों की प्रवृत्ति भी बदलती स्थितियों के लिए प्रदान करता है, जो zonation को बढ़ाता है। [31] [32] कुछ पौधों और जानवरों altitudinal क्षेत्रों में पाया के बाद से ऊपर और नीचे एक विशेष क्षेत्र की स्थिति दुर्गम हो सकता है और इस तरह उनके आंदोलनों या प्रसार विवश होगा अलग हो जाते हैं। इन अलग पारिस्थितिकी प्रणालियों आकाश द्वीपों के रूप में जाना जाता है। [33] ऊंचाई से जोनों एक विशिष्ट पैटर्न का पालन करते हैं। सर्वोच्च ऊंचाई पर, पेड़ नहीं विकसित कर सकते हैं, और जो कुछ भी जीवन, अल्पाइन प्रकार का हो जाएगा मौजूद हो सकता है टुंड्रा जैसी। [32] बस पेड़ रेखा से नीचे, एक नीद्लेलेअफ़ पेड़ों की subalpine जंगलों मिल सकता है, जो सर्दी, सूखे की स्थिति का सामना कर सकते। [34] कि नीचे, पर्वतीय जंगलों से बढ़ता है। पृथ्वी के शीतोष्ण भागों में, उन जंगलों, नीद्लेलेअफ़ पेड़ होने के लिए, जबकि उष्णकटिबंधीय में, वे चौड़े एक वर्षा जंगल में बढ़ रही पेड़ों की जा सकती हैं। समाज में पहाड़ पर्वतारोही माउंट रेनियर आरोही बेन नेविस, ब्रिटिश द्वीप समूह के शिखर सम्मेलन 'उच्चतम, एक स्मारक है पर्वत कठोर मौसम और छोटे स्तर कृषि के लिए उपयुक्त जमीन की वजह से, नीचे के देश से मानव निवास के लिए आम तौर पर कम बेहतर कर रहे हैं। जबकि पृथ्वी की भूमि क्षेत्र के 7% 2,500 मीटर (8,200 फुट) से ऊपर है, [13] केवल 140 मिलियन लोगों को उस ऊंचाई [35] और केवल 20-30 लाख लोगों 3,000 मीटर (9,800 फुट) की ऊंचाई से ऊपर के ऊपर रहते हैं। [36 ] ऊंचाई बढ़ाने के साथ कम हो वायुमंडलीय दबाव मतलब है कि कम ऑक्सीजन साँस लेने के लिए उपलब्ध है, और वहाँ सौर विकिरण (यूवी) के खिलाफ कम सुरक्षा है। [31] को कम ऑक्सीजन के कारण, दुनिया में सबसे ज्यादा जाना जाता स्थायी बस्ती 5,100 मीटर की दूरी पर है ( 16,700 फुट) है, जबकि सर्वोच्च ज्ञात स्थायी रूप से संतोषजनक ऊंचाई 5,950 मीटर (19520 फीट) पर है। [37] 8000 से ऊपर मीटर (26,000 फीट) की ऊंचाई, वहाँ पर्याप्त ऑक्सीजन मानव जीवन का समर्थन करने के लिए नहीं है। यह "मौत जोन 'के रूप में जाना जाता है। [38] माउंट एवरेस्ट और K2 के शिखर मौत जोन में हैं। पहाड़ में रहने वाले लोगों के बारे में आधा एंडीज, मध्य एशिया और अफ्रीका में रहते हैं। [14] परंपरागत पहाड़ी समाज कम उन्नयन की तुलना में फसल की विफलता के उच्च जोखिम के साथ, कृषि पर निर्भर हैं। खनिज खनन अक्सर कुछ पर्वतीय समाज के अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण घटक होने के साथ पहाड़ों में पाए जाते हैं। अभी हाल ही में इस तरह के पर्यटन राष्ट्रीय पार्कों या स्की रिसॉर्ट के रूप में आकर्षण के आसपास कुछ गहन विकास के साथ, पहाड़ समुदायों का समर्थन करता है। पहाड़ के लोगों की [39] के बारे में 80% गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। [14] दुनिया की नदियों में से अधिकांश बर्फ बहाव के उपयोगकर्ताओं के लिए एक भंडारण तंत्र के रूप में अभिनय के साथ, पर्वत स्रोतों से तंग आ चुके हैं। [40] और मानवता के आधे से अधिक पानी के लिए पहाड़ों पर निर्भर करता है। [41] [42] पर्वतारोहण, पर्वत पर चढ़ाई, या alpinism खेल, शौक या लंबी पैदल यात्रा, स्कीइंग, और चढ़ाई पहाड़ों की पेशा है। पर्वतारोहण unclimbed बड़े पहाड़ों विशेषज्ञताओं यह है कि पहाड़ के विभिन्न पहलुओं को संबोधित में branched है के उच्चतम बिंदु तक पहुंचने के लिए प्रयास के रूप में शुरू किया था और तीन क्षेत्रों के होते हैं, जबकि: रॉक-शिल्प, बर्फ से शिल्प और स्कीइंग, चाहे मार्ग चुना खत्म हो गया है पर निर्भर करता है चट्टान, बर्फ या बर्फ। सभी अनुभव, पुष्ट करने की क्षमता है, और तकनीकी ज्ञान सुरक्षा बनाए रखने की आवश्यकता है। [43] अतिशयोक्ति मुख्य लेख: ऊँचे पहाड़ों की सूची Zugspitze, जर्मनी में सबसे ऊंची पर्वत शुक्र का Maat मॉन्स (22.5x अतिशयोक्ति) पहाड़ों की ऊंचाइयों को आम तौर पर समुद्र स्तर से ऊपर मापा जाता है। इस मीट्रिक का उपयोग करना, माउंट एवरेस्ट 8,848 मीटर (29,029 फीट) पर, पृथ्वी पर सबसे ऊंचा पर्वत है। [44] वहाँ समुद्र के स्तर से ऊपर 7,200 मीटर से अधिक (23622 फीट) की ऊंचाई के साथ कम से कम 100 पहाड़ों, जो सभी में स्थित हैं मध्य और दक्षिणी एशिया। समुद्र के स्तर से ऊपर ऊँचे पहाड़ों आम तौर पर आसपास के इलाके के ऊपर उच्चतम नहीं हैं। आसपास के आधार का कोई सटीक परिभाषा है, लेकिन Denali, [45] माउंट किलिमंजारो और नंगा पर्वत इस उपाय से जमीन पर सबसे ऊंची पर्वत के लिए संभव उम्मीदवार हैं। पहाड़ द्वीप समूह के ठिकानों समुद्र के स्तर से नीचे हैं, और इस विचार के मौना (समुद्र तल से 4207 मीटर (13802 फीट)) दिया प्रशांत महासागर के तल से लगभग 10203 मीटर (33474 फीट) बढ़ रहे हैं, दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत और ज्वालामुखी है। [ 46] ऊँचे पहाड़ों आम तौर पर सबसे मोटा नहीं हैं। Mauna Loa (4169 मीटर या 13678 फुट) आधार क्षेत्र (2,000 वर्ग मील के बारे में या 5,200 km2) और मात्रा (लगभग 18,000 घन मील या 75,000 km3) के मामले में पृथ्वी पर सबसे बड़ा पहाड़ है। [47] किलिमंजारो पर्वत की सबसे बड़ी गैर है दोनों आधार क्षेत्र (245 वर्ग मील या 635 km2) और मात्रा (1,150 घन मील या 4,793 km3) के मामले में -shield ज्वालामुखी। माउंट लोगान आधार क्षेत्र (120 वर्ग मील या 311 km2) में सबसे बड़ा गैर ज्वालामुखी पहाड़ है। समुद्र के स्तर से ऊपर ऊँचे पहाड़ों की चोटियों भी पृथ्वी के केंद्र से दूर के साथ उन लोगों में नहीं हैं, क्योंकि पृथ्वी का आंकड़ा गोलाकार नहीं है। समुद्र के स्तर से भूमध्य रेखा के करीब पृथ्वी के केंद्र से कई मील दूर है। Chimborazo, इक्वाडोर की सबसे ऊंची पर्वत के शिखर सम्मेलन, आमतौर पर, पृथ्वी के केंद्र से दूर बिंदु माना जाता है, हालांकि पेरू की सबसे ऊंची पर्वत, Huascaran, के दक्षिणी शिखर सम्मेलन एक और दावेदार है। [48] दोनों है समुद्र स्तर से ऊपर उन्नयन अधिक से अधिक 2 किलोमीटर की दूरी पर (6,600 फुट) एवरेस्ट की तुलना में कम। श्रेणी:भौतिक भूगोल शब्दावली श्रेणी:भू-आकृति विज्ञान श्रेणी:स्थलरूप श्रेणी:पर्वत
पृथ्वी का सबसे बड़ा पहाड़ कौनसा है?
माउंट एवरेस्ट
2,135
hindi
fe65cbc46
जठरांत्र शोथ (गैस्ट्रोएन्टराइटिस) एक ऐसी चिकित्सीय स्थिति है जिसे जठरांत्र संबंधी मार्ग ("-इटिस") की सूजन द्वारा पहचाना जाता है जिसमें पेट ("गैस्ट्रो"-) तथा छोटी आंत ("इन्टरो"-) दोनो शामिल हैं, जिसके परिणास्वरूप कुछ लोगों को दस्त, उल्टी तथा पेट में दर्द और ऐंठन की सामूहिक समस्या होती है।[1] जठरांत्र शोथ को आंत्रशोथ, स्टमक बग तथा पेट के वायरस के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। हलांकि यह इन्फ्लूएंजा से संबंधित नहीं है फिर भी इसे पेट का फ्लू और गैस्ट्रिक फ्लू भी कहा जाता है। वैश्विक स्तर पर, बच्चों में ज्यादातर मामलों में रोटावायरस ही इसका मुख्य कारण हैं।[2] वयस्कों में नोरोवायरस[3] और कंपाइलोबैक्टर[4] अधिक आम है। कम आम कारणों में अन्य बैक्टीरिया (या उनके जहर) और परजीवी शामिल हैं। इसका संचारण अनुचित तरीके से तैयार खाद्य पदार्थों या दूषित पानी की खपत या संक्रामक व्यक्तियों के साथ निकट संपर्क के कारण से हो सकता है। प्रबंधन का आधार पर्याप्त जलयोजन है। हल्के या मध्यम मामलों के लिए, इसे आम तौर पर मौखिक पुनर्जलीकरण घोल के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अधिक गंभीर मामलों के लिए, नसों के माध्यम से दिये जाने वाले तरल पदार्थ की जरूरत हो सकती है। जठरांत्र शोथ प्राथमिक रूप से बच्चों और विकासशील दुनिया के लोगों को प्रभावित करता है। लक्षण एवं संकेत जठरांत्र शोथ में आम तौर पर दस्त और उल्टी दोनों शामिल हैं,[5] या कम आमतौर पर इसमे केवल एक या दूसरा शामिल होता है।[1] पेट में ऐंठन भी मौजूद हो सकती है।[1] संकेत और लक्षण आमतौर पर संक्रामक एजेंट से संपर्क के 12-72 घंटे बाद आरंभ होते हैं।[6] यदि यह एक वायरल एजेंट के कारण हुआ हो तो स्थिति आमतौर पर एक सप्ताह के भीतर ठीक हो जाती है।[5] कुछ वायरल स्थितियां बुखार, थकान, सिरदर्द, और मांसपेशियों में दर्द के साथ जुड़ी हो सकती हैं।[5] यदि मल खूनी है, तो इसके वायरस जनित होने की संभावना कम है[5] और बैक्टीरिया जनित होने की संभावना अधिक है।[7] कुछ बैक्टीरिया संक्रमण गंभीर पेट दर्द के साथ संबद्ध किये जा सकते है और कई हफ्तों तक बने रह सकते हैं।[7] रोटावायरस से संक्रमित बच्चे आमतौर पर तीन से आठ दिनों के भीतर पूरी तरह से ठीक हो सकते हैं।[8] हालांकि, गरीब देशों में गंभीर संक्रमण के लिए उपचार अक्सर पहुँच से बाहर होता है और लगातार दस्त आम स्थिति है।[9] निर्जलीकरण, दस्त की एक आम समस्या है,[10] और निर्जलीकरण की काफी महत्वपूर्ण मात्रा वाले बच्चे को लंबे समय तक केशिका फिर से भरना, खराब त्वचा खिचाव और असामान्य साँस की समस्या हो सकती है।[11] खराब स्वच्छता वाले क्षेत्रों में संक्रमणों का फिर से होना आमतौर पर देखा जाता है और परिणास्वरूप कुपोषण,[6] अवरुद्ध विकास तथा लंबी अवधि का संज्ञानात्मक विलंब हो सकता है।[12] कंपाइलोबैक्टर प्रजातियों के साथ संक्रमण के बाद 1% लोगों में प्रतिक्रियाशील गठिया हो जाता है और 0.1% लोगों मेंगुलियन-बैरे सिंड्रोम हो जाता है।[7] एस्केरेशिया कॉलि का निर्माण करने वाले शिगा टॉक्सिन या शिगेला प्रजातियों के साथ संक्रमण के परिणामस्वरूप रक्तलायी (हीमोलिटिक) यूरेमिक सिंड्रोम (HUS) हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप निम्न प्लेटलेट संख्या, खराब गुर्दा गतिविधि तथा निम्न रक्त कोशिका संख्या (उनमें टूटन के फलस्वरूप) की समस्या हो सकती है।[13] HUS होने की संभावना के मामले में, वयस्कों की तुलना में बच्चे अधिक संवेदनशील होते हैं।[12] कुछ वायरल संक्रमण मामूली शिशु दौरे भी पैदा कर सकते हैं।[1] कारण वायरस (विशेष रूप से रोटावायरस) और बैक्टीरिया एस्केरेशिया कॉलि और कंपाइलोबैक्टर प्रजातियां जठरांत्र शोथ का प्राथमिक कारण हैं।[6][14] हलांकि, कई अन्य संक्रामक एजेंट भी इस रोग का कारण बन सकते हैं।[12] कुछ अवसरों पर गैर संक्रामक कारणों को भी देखा गया है लेकिन उनके होने की संभावना वायरल या बैक्टीरियल एटियॉलॉजि से कम है।[1] प्रतिरक्षा की कमी और अपेक्षाकृत खराब स्वच्छता के कारण बच्चों में संक्रमण का जोखिम अधिक होता है।[1] विषाणुजनित (वायरल) वे वायरस जो जठरांत्र शोथ के होने के कारणों में शामिल हैं उनको रोटावायरस, नोरोवायरस, एडेनोवायरस और एस्ट्रोवायरस कहा जाता हैं।[5][15] रोटावायरस बच्चों में जठरांत्र शोथ का सबसे आम कारण है,[14] और विकसित तथा विकासशील दुनिया, दोनों में समान प्रकार की दर से इसको पैदा करता है।[8] बाल उम्र समूह में संक्रामक दस्त के मामलों का 70% कारण वायरस है।[16] सक्रिय रोगक्षमता के कारण वयस्कों में रोटावायरस, कम आम कारण है।[17] अमरीका में वयस्कों के बीच जठरांत्र शोथ का प्रमुख कारण नोरोवायरस है, जिसका प्रकोप 90% से अधिक मामलों में हो सकता है।[5] ये सभी स्थानीयकृत महामारियां आम तौर पर तब होती हैं जब लोगों के समूह, एक दूसरे के करीब शारीरिक निकटता में समय बिताते हैं, जैसे कि क्रूज जहाज पर,[5] अस्पतालों में, या रेस्तरां में।[1] दस्त के समाप्त होने के बाद भी लोग संक्रामक रह सकते हैं।[5] नोरोवायरस, बच्चों में लगभग 10% मामलों का कारण होता है।[1] जीवाण्विक (बैक्टीरियल) विकसित दुनिया में कंपाइलोबैक्टर जेजुनि बैक्टीरियल जठरांत्र शोथ का प्राथमिक कारण है जिसमें से आधे मामले पोल्ट्री से जुड़े हुये हैं।[7] बच्चों में,15% मामले बैक्टीरिया के कारण होते हैं, जिसमें सबसे आम प्रकार एस्केरेशिया कॉलि, साल्मोनेला, शिगेला और कंपाइलोबैक्टर प्रजातियाँ हैं।[16] यदि भोजन, बैक्टीरिया से संदूषित हो जाय और कई घंटे तक कमरे के तापमान पर रहे तो जीवाणु बढ़ते हैं तथा इस भोजन का उपभोग करने वालों में संक्रमण का खतरा बढ़ाते हैं।[12] कुछ खाद्य जो आमतौर पर बीमारी से संबंधित हैं उनमें कच्चा या कम पका मांस, पोल्ट्री, समुद्री भोजन तथा अंडे, गैर पास्चरीकृत दूध तथा नरम चीज़ फल व सब्जी के रस शामिल हैं।[18] विकासशील दुनिया में, विशेष रूप से उप-सहारा अफ्रीका और एशिया में हैजा, जठरांत्र शोथ का एक आम कारण है। यह संक्रमण आम तौर पर दूषित पानी या भोजन के द्वारा फैलता है।[19] जहर पैदा करने वाला क्लोस्ट्रीडियम डिफिसाइल दस्त का एक महत्वपूर्ण कारण है जो कि बुजुर्गों में अधिक होता है।[12] शिशु, इन बैक्टीरिया का संवहन, विकासशील लक्षणों के बिना, कर सकते हैं।[12] यह उन उन लोगों में दस्त का आम कारण है जो अस्पताल में भर्ती होते हैं और एंटीबायोटिक के उपयोग के साथ अक्सर जुड़ा हुआ है।[20] उनको स्टैफलोकॉकस ऑरीस संक्रामक दस्त भी हो सकता है जिन्होनें एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया है।[21] "ट्रैवेलर्स डायरिया" आमतौर पर जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न जठरांत्र शोथ का एक प्रकार है। एसिड का दमन करने वाली दवा, कई जीवों से प्रभावित होने के बाद महत्वपूर्ण जोखिम को बढ़ाती हुई प्रतीत होती है, इन जीवों में क्लोस्ट्रीडियम डिफिसाइल, सेल्मोनेला और कंपाइलोबैक्टर प्रजातियां शामिल हैं।[22] यह जोखिम H2 एंटागोनिस्ट के साथ वालों से प्रोटॉन पंप इनहिबटर्स में अधिक है।[22] परजीवीय कई सारे एक कोशीय जीव, जठरांत्र शोथ का कारण बन सकते हैं - सबसे आमतौर पर जियार्डिया लैम्बलिया - लेकिन एन्टामोएबा हिस्टोलिटिका तथा क्रिप्टोस्पोरिडियम प्रजातियों को भी शामिल पाया गया है।[16] एक समूह के रूप में, ये एजेंट के 10% बच्चों के मामलों में शामिल होते हैं।[13] जियार्डिया सामान्यतः विकासशील दुनिया में होता है, लेकिन यह इटियॉलॉजिक एजेंट इस तरह की बीमारी कुछ हद तक हर जगह पैदा करता है।[23] यह उन लोगों में अधिक आम तौर पर होता है जो इसके अधिक होने वाली जगहों पर यात्रा करते हैं, बच्चे जो डे-केयर में शामिल होते हैं, पुरुष जो पुरुषों के साथ यौन संबंध रखते हैं और आपदाओं के बाद।[23] प्रसारण (प्रसार) इसका प्रसार दूषित पानी की खपत से या व्यक्तिगत वस्तुओं को आपस में साझा करने हो सकता है।[6] नम और शुष्क मौसमों वाले स्थानों में, पानी की गुणवत्ता आम तौर पर नम मौसम के दौरान बिगड़ जाती है और यह प्रकोपों के समय के साथ संबद्ध है।[6] ऐसे मौसम वाले दुनिया के क्षेत्रों में संक्रमण, सर्दियों में आम हैं।[12] अनुचित तरीके से साफ की गयी बोतलों के साथ बच्चों को दूध पिलाना वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण कारण है।[6] विशेष रूप से बच्चों में,[5] भीड़ भरे घरों में,[24] और पहले से मौजूद खराब पोषण की स्थिति वाले लोगों में प्रसार दर, खराब स्वच्छता से भी संबंधित है।[12] सहनशक्ति विकसित करने के बाद, संकेतों या लक्षणों के प्रदर्शन के बिना वयस्क कुछ ऐसे जीवों के वाहक हो सकते हैं और छूत के प्राकृतिक कुण्ड की तरह काम कर सकते हैं।[12] जबकि कुछ एजेंट (जैसे शिंगेला के रूप में) केवल नर वानरों में पाए जाते हैं जबकि दूसरे, जानवरों की एक विस्तृत विविधता (जैसे जियार्डिया के रूप में) में हो सकते हैं।[12] गैर संक्रामक जठरांत्र संबंधी मार्ग की सूजन के कई सारे गैर संक्रामक कारण हैं।[1] कुछ अधिक आम कारणों में शामिल हैं दवाएं (जैसे NSAIDs), कुछ खाद्य पदार्थ जैसे लैक्टोज़ (जो लोग इसके प्रति असिहष्णु हैं उनमें) और ग्लूटेन (सीलिएक रोग से पीड़ितों में)। क्रोहन का रोग भी जठरांत्र शोथ (अक्सर गंभीर) का गैर- संक्रमण स्रोत है।[1] ऐसे रोग जो विषों का परिणाम हो वे भी हो सकती हैं। मतली, उल्टी और दस्त से संबंधित कुछ खाद्य स्थितियों में शामिल हैं: दूषित शिकारी मछली की खपत के कारण सिग्वाटेरा विषाक्तता, कुछ प्रकार की खराब मछलियों की खपत से जुड़ी स्कॉमब्रॉएड, कई अन्य साथ पफर मछली की खपत से टेट्रोडॉक्सिन विषाक्तता तथा आम तौर पर अनुचित तरीके से संरक्षित भोजन के कारण बॉटुलिस्म।[25] पैथोफिज़ियोलॉजी (रोग के कारण पैदा हुए क्रियात्मक परिवर्तन) जठरांत्र शोथ को छोटी या बड़ी आंत के संक्रमण के कारण से उल्टी या दस्त के रूप में परिभाषित किया जाता है।[12] छोटी आंत में परिवर्तन आम तौर सूजन रहित होते हैं जबकि बड़ी आंत में सूजन के साथ परिवर्तन होते हैं।[12] एक संक्रमण के लिये आवश्यक रोगजनकों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है जो कम से कम एक (क्रिप्टोस्पोरिडियम के लिये) से लेकर 10 8 (विब्रियो कॉलरा के लिए) हो सकते हैं।[12] रोग के लक्षण जठरांत्र शोथ आमतौर पर चिकित्सीय रूप से पहचाना जाता है, जो कि किसी व्यक्ति के लक्षणों और चिह्नों पर आधारित होता है।[5] सटीक कारण के निर्धारण की आम तौर पर जरूरत नहीं होती है क्योंकि यह हालात के प्रबंधन में परिवर्तन नहीं करता नहीं है।[6] हालांकि, उन लोगो पर मल कल्चर परीक्षण किया जाना चाहिये जिनके मल में रक्त आ रहा हो, जो खाद्य विषाक्तता के शिकार हुये हों तथा जो हाल ही में विकासशील दुनिया की यात्रा कर के आये हों।[16] नैदानिक परीक्षण, निगरानी के लिए भी किया जा सकता है।[5] जैसे रक्त में शर्करा की कमी लगभग 10% शिशुओं और युवा बच्चों में होती है, इस आबादी में सीरम ग्लूकोज को मापने की सिफारिश की जाती है।[11] जहाँ पर गंभीर निर्जलीकरण चिंता का विषय है वहाँ पर इलेक्ट्रोलाइट्स और गुर्दे की क्रिया की जाँच की जानी चाहिए।[16] निर्जलीकरण किसी व्यक्ति को निर्जलीकरण है या नहीं इसका निर्धारण, मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। निर्जलीकरण को आम तौर पर हल्के (3-5%), मध्यम (6-9%) और गंभीर मामलों (≥ 10%) में विभाजित किया गया है।[1] बच्चों में, मध्यम या गंभीर निर्जलीकरण के सबसे सटीक संकेत विलंबित केशिका पुर्नभरण, खराब त्वचा खिचाव और असामान्य श्वसन हैं।[11][26] अन्य उपयोगी निष्कर्षों (जब संयोजन में उपयोग किये जायें) में धंसी हुयी आँखें, कम गतिविधि, आँसू की कमी है और मुँह की शुष्कता शामिल हैं।[1] सामान्य मूत्र उत्पादन और मौखिक तरल पदार्थ का सेवन आश्वस्त करता है।[11] प्रयोगशाला परीक्षण, निर्जलीकरण के स्तर का निर्धारण करने में चिकित्सीय रूप से लाभप्रद है।[1] विभेदक रोगनिदान जठरांत्र शोथ में दिखने वाले संकेतों और लक्षणों के समान दिखने वाले लक्षणों के अन्य कारण जिनको अलग करने की आवश्यकता है उनमें उण्डुक-शोथ (अपेंडिसाइटिस), आंत में असामान्य घुमाव के कारण रुकावट (वॉल्वलस), सूजन वाला आंत्र रोग, मूत्र पथ के संक्रमण तथा मधुमेह शामिल हैं।[16] अग्नाशयी कमी, लघु आंत्र सिंड्रोम, व्हिपिल्स रोग, कोलिएक रोग और रेचक समस्या पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।[27] यदि व्यक्ति केवल उल्टी या दस्त (किसी एक से) से पीड़ित हो तो विभेदक निदान कुछ जटिल हो सकता है।[1] 33% मामलों में उण्डुक-शोथ (अपेंडिसाइटिस) उल्टी, पेट दर्द और हल्के दस्त के साथ उपस्थित हो सकता है।[1] यह हल्का दस्त जठरांत्र शोथ के कारण होने वाले दस्त की तीव्रता के वितरीत है।[1] बच्चों में मूत्र पथ या फेफड़ों के संक्रमण भी उल्टी या दस्त का कारण हो सकते हैं।[1] क्लासिकल मधुमेह केटोएसिडोसिस (DKA) में पेट का दर्द, मतली और उल्टी होती है लेकिन दस्त नहीं होता है।[1] एक अध्ययन में पाया है कि DKA से पीड़ित बच्चों में से 17% में शुरू में जठरांत्रशोथ का निदान किया गया गया।[1] रोकथाम जीवनशैली संक्रमण की दरों और चिकित्सकीय रूप से महत्वपूर्ण जठरांत्र शोथ को कम करने के लिए आसानी से सुलभ शुद्ध पानी की आपूर्ति और अच्छी स्वच्छता आदतें महत्वपूर्ण हैं।[12] विकासशील और विकसित दुनिया दोनो में, व्यक्तिगत उपायों (जैसे हाथ धोना) को जठरांत्र शोथ की घटनाओं और प्रसार की दर में 30% तक की कमी करते देखा गया है।[11] एल्कोहल-आधारित जैल भी प्रभावी हो सकता है।[11] विशेष रूप से, खराब स्वच्छता वाले स्थानों में, आम तौर पर स्वच्छता के सुधार के रूप में स्तनपान महत्वपूर्ण पाया गया है।[6] स्तनपान से प्राप्त दूध संक्रमणों की आवृत्ति और उनकी अवधि दोनों को कम कर देता है।[1] दूषित भोजन या पेय से बचना भी प्रभावी होना चाहिए।[28] टीकाकरण इसकी प्रभावशीलता और सुरक्षा, दोनों कारणों से, 2009 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बात की सिफारिश की है कि रोटावायरस वैक्सीन सभी दुनिया भर में सभी बच्चों को दिया जाये।[14][29] दो वाणिज्यिक रोटावायरस टीके मौजूद हैं और कई अन्य विकसित हो रहे हैं।[29] अफ्रीका और एशिया में इन टीकों ने शिशुओं में गंभीर बीमारी कम की है[29] तथा वे देश जिन्होनें राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम को ठीक प्रकार से लागू किया है वहाँ पर रोग की दरों और रोग की गंभीरता में एक गिरावट देखी गयी है।[30][31] यह टीका उन बच्चों में बीमारी को रोक सकेगा जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है क्योंकि यह परिसंचारी संक्रमणों की संख्या को कम करेगा।[32] 2000 के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका में रोटावायरस टीकाकरण कार्यक्रम के कार्यान्वयन के कारण, दस्त के मामलों की संख्या में 80% तक की कमी आई है।[33][34][35] शिशुओं को टीके की पहली खुराक 6 से 15 सप्ताह की उम्र के बीच दी जानी चाहिए।[14] मौखिक हैजा टीका को 2 साल से अधिक समय तक 50-60% प्रभावी पाया गया है।[36] प्रबंधन जठरांत्र शोथ आमतौर पर एक तीव्र और अपने आप को खुद से सीमित करने वाली बीमारी है जिसके लिये दवा की आवश्यकता नहीं होती है।[10] हल्के तथा मध्यम निर्जलीकरण से पीड़ित लोगों के लिये बेहतर उपचार मौखिक पुनर्जलीकरण चिकित्सा (ORT) है।[13] मेटोक्लोप्रामाइड और/या ओडनसेन्ट्रन हलांकि कुछ बच्चों में सहायक हो सकते हैं और[37] ब्यूटिलस्कोपामाइन पेट दर्द के इलाज में उपयोगी है।[38] पुनर्जलीकरण बच्चों और वयस्कों, दोनों में आंत्रशोथ का प्राथमिक उपचार पुनर्जलीकरण है। अधिमानतः इसे मौखिक पुनर्जलीकरण चिकित्सा द्वारा हासिल किया जाता है, हलांकि यदि चेतना का स्तर कम हो या निर्जलीकरण गंभीर स्तर का हो तो इसे नसों के माध्यम से देने की आवश्यकता भी पड़ सकती है।[39][40] जटिल कार्बोहाइड्रेट के साथ बनाये गये मौखिक रिप्लेसमेंट थेरेपी उत्पाद (अर्थात गेहूं या चावल से बने) साधारण शर्करा आधारित उत्पादों से बेहतर हो सकते हैं।[41] साधारण शर्करा की उच्च मात्रा वाले पेय जैसे कि शीतल पेय और फलों के रसों को 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए के रूप में सरल शर्करा, विशेष रूप से उच्च पेय 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अनुशंसा नहीं की जाती है क्योंकि वे दस्त को बढ़ा सकते हैं।[10] यदि अधिक विशिष्ट और प्रभावी ORT मिश्रण अनुपलब्ध हो या स्वीकार्य न हों तो सादा पानी इस्तेमाल किया जा सकता है।[10] यदि आवश्यक हो तो युवा बच्चों में तरल पदार्थ देने के लिये नैसोगेस्ट्रिक ट्यूब का इस्तेमाल किया जा सकता है।[16] आहार-संबंधी यह सिफारिश की जाती है कि है कि स्तनपान कराये जा रहे शिशुओं को सामान्य देखभाल जारी रखनी चाहिये तथा फॉर्मूला-पोषित शिशुओं को ORT के साथ पुनर्जलीकरण के तुरंत बाद उनका फॉर्मूला पोषण दिया जाना जारी रखना चाहिए।[42] लैक्टोज-मुक्त या कम-लैक्टोज फॉर्मूले आमतौर पर आवश्यक नहीं हैं।[42] दस्त के प्रकरणों के दौरान बच्चों को उनका आम आहार देना जारी रखना चाहिये तथा इसमें अपवाद स्वरूप साधारण शर्करा की उच्च मात्रा वाले खाद्यों से बचना चाहिये।[42] BRAT आहार (केले, चावल, सेब का सॉस, टोस्ट और चाय) की सिफारिश नहीं की जाती है क्योंकि इसमें अपर्याप्त पोषक तत्व होते हैं और ये सामान्य भोजन से बेहतर नहीं होते है।[42] बीमारी की अवधि को और दस्त की आवृत्ति, दोनो को कम करने में कुछ प्रोबायोटिक्स फायदेमंद पाये गये हैं।[43] ये एंटीबायोटिक से जुड़े दस्त के इलाज तथा रोकथाम में भी उपयोगी हो सकते है।[44] किण्वित दूध उत्पाद (जैसे दही) समान रूप से फायदेमंद होते हैं।[45] विकासशील देशों में, बच्चों में दस्त के इलाज तथा रोकथाम दोनो में जिंक पूरक प्रभावी पाया गया है।[46] वमनरोधी (एंटीमेटिक्स) वमनरोधी दवाएं बच्चों में उल्टी के इलाज के लिए सहायक हो सकती है। नसों के माध्यम से तरल पदार्थों को देने की कम आवश्यकता, अस्पताल में भर्ती होने की कम दर तथा कम उल्टी के साथ जुड़े होने के कारण ऑनडेन्स्ट्रॉन की एक खुराक कुछ उपयोगी है।[47][48][49] मेटोक्लोप्रामाइड भी सहायक हो सकता है।[49] हालांकि, ऑनडेन्स्ट्रॉन का उपयोग संभवतः बच्चों में अस्पताल में वापसी की वृद्धि दर के लिए जुड़ा हुआ हो सकता है।[50] यदि नैदानिक निर्णय के अनुसार आवश्यक हो तो ऑनडेन्स्ट्रॉन की नसों के माध्यम से दिया जाने वाला मिश्रण मौखिक रूप से दिया जा सकता है।[51] उल्टी को कम करने के लिए डाइमेनहाइड्रिनेट, महत्वपूर्ण नैदानिक लाभ नहीं प्रदर्शित करता है।[1] एंटीबायोटिक्स जठरांत्र शोथ के लिए आमतौर पर एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल नहीं होता है, हलांकि यदि लक्षण विशेष रूप से गंभीर हों[52] या अतिसंवेदनशील बैक्टीरिया की पहचान हो या उसका संदेह हो तो कभी-कभी उनकी अनुशंसा की जाती है।[53] यदि एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाना है तो फ़्लोरोक्विनोलोन में उच्च प्रतिरोध के कारण मैक्रोलाइड (जैसे एज़ीथ्रोमाइसिन) को अधिक पसंद किया जाता है।[7] स्यूडोमेम्ब्रेनस बृहदांत्रशोथ, जो कि आमतौर पर एंटीबायोटिक के प्रयोग की वजह से होता है, प्रेरक एजेंट को रोक कर तथा मेट्रोनिडाज़ोल या वैंकोमाइसिन द्वारा उपचार करके प्रबंधित किया जाता है।[54] बैक्टीरिया और प्रोटोज़ोन जो कि इलाज के लिए उत्तरदायी हैं, उनमें शिंगेला[55] साल्मोनेला टाइफी,[56] और जियार्डिया प्रजातियां शामिल हैं।[23] जियार्डिया प्रजाति या एंटामोएबा हिस्टोलिटिका वाले मामलों में, टिनिडाज़ोल उपचार की सिफारिश की जाती है जो कि मेट्रोनिडाज़ोल से बेहतर है।[23][57] विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) उन युवा बच्चों के लिए एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग की सिफारिश करता है जिनमें खूनी पेचिश और बुखार दोनों की समस्या हो।[1] जठरांत्र गतिशीलताविरोधी एजेंट (ऐंटीमोटिलिटी एजेंट) जठरांत्रगतिशीलता विरोधी चिकित्सा में जटिलताओं को पैदा करने का एक सैद्धांतिक जोखिम है और हालांकि नैदानिक अनुभव इसकी संभावना को नकारते हैं,[27] इन दवाओं को खूनी पेचिश या बुखार द्वारा जटिल हो गये डायरिया से पीड़ित लोगों के लिये उपयोग किये जाने को हतोत्साहित किया जाता है।[58] लोपरामाइड जो कि एक ओपियॉएड अनुरूप है, आम तौर पर दस्त के लाक्षणिक उपचार के लिए प्रयोग की जाती है।[59] बच्चों के लिये लोपरामाइड की सिफारिश नहीं की जाती है, क्योंकि यह अपरिपक्व रक्त मस्तिष्क बाधा पार करके विषाक्तता पैदा कर सकती है। बिस्मथ सबसैलिसिलेट, जो कि बिस्मथ तथा सैलिसिलेट का एक त्रिसंयोजक अघुलशील यौगिक है, हल्के से लेकर मध्यम स्तर तक के मामलों में इस्तेमाल किया जा सकता है,[27] लेकिन सैलिसिलेट विषाक्तता एक सैद्धांतिक संभावना है।[1] महामारी विज्ञान यह अनुमान है कि जठरांत्र शोथ के तीन से पांच बिलियन मामले हर वर्ष होते हैं[13] जो कि प्राथमिक रूप से बच्चों तथा विकासशील दुनिया के लोगों को प्रभावित करते हैं।[6] इसके कारण 2008 में पाँच वर्ष से कम की आयु के 1.3 मिलियन बच्चों की मृत्यु हुई है,[60] जिनमें से अधिकांश दुनिया के सबसे गरीब देशों के बच्चे हैं।[12] इन मौतों में से 4,50,000 से अधिक वे मौतें है जो पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में रोटावायरस के कारण हुई थीं।[61][62] हैजा, के कारण रोग के तीन से पांच लाख मामले होते हैं तथा यह वार्षिक रूप से लगभग 1,00,000 लोगों को मारता है।[19] विकासशील दुनिया के दो वर्ष से कम की आयु के बच्चों को अक्सर एक वर्ष में छः या अधिक संक्रमण होते हैं जिनके परिणामस्वरूप चिकित्सीय रूप से महत्वपूर्ण जठरांत्रशोथ होता है।[12] यह वयस्कों में कम आम है, आंशिक रूप से जिसका कारण सक्रिय प्रतिरक्षा का विकास होना है।[5] 1980 में सभी कारणों से पैदा हुये जठरांत्र शोथ के कारण 4.6 मिलियन बच्चों की मृत्यु हुई, जिनमें से अधिकांश विकासशील दुनिया में हुई।[54] वर्ष 2000 तक मृत्यु दर में काफी कम हो गई थी (लगभग 1.5 मिलियन वार्षिक मृत्यु), जिसका मुख्य कारण मौखिक पुनर्जलीकरण चिकित्सा की शुरुआत तथा व्यापक उपयोग था।[63] अमेरिका में जठरांत्र शोथ के कारण होने वाले संक्रमण दूसरे सबसे आम संक्रमण (आम सर्दी के बाद) हैं और इनके कारण 200 से 375 मिलियन मामलों मे गंभीर दस्त हो जाता है[5][12] तथा वार्षिक तौर पर लगभग दस हजार मौतें होती हैं,[12] जिनमें से 150 से 300 पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत होती है।[1] इतिहास "जठरांत्र शोथ (गैस्ट्रोएन्टराइटिस)" शब्द को सबसे पहले 1825 में उपयोग किया गया था।[64] इस समय से पहले इसे अधिक विशिष्ट रूप से टाइफाइड बुखार या दूसरे नामों के साथ "कॉलरा मॉर्बस", अथवा कम विशिष्ट रूप से "ग्रिपिंग ऑफ गट्स", "सर्फीट","फ्लक्स","बॉवल कंप्लेनेट" या गंभीर दस्त के लिये दूसरे कई पुरातन नामों में से किसी एक नाम से जाना जाता था।[65] समाज और संस्कृति जठरांत्र शोथ कई बोलचाल वाले नामों के साथ जुड़ा है, जिनमें कई अन्य नामों के साथ "मॉन्टेज़ूमा रीवेंज", "दिल्ली बेली", "लॉ टूरिस्टा" तथा "बैक डोर स्प्रिंट" शामिल है।[12] इसने कई सैन्य अभियानों में एक भूमिका निभाई है और माना जाता है कि कहावत "नो गट्स नो ग्लोरी" की उत्पत्ति का मूल यही है।[12] जठरांत्र शोथ के कारण अमरीका में चिकित्सकों के पास प्रत्येक वर्ष 3.7 मिलियन[1] तथा फ्रांस में प्रत्येक वर्ष 3 मिलियन चिकित्सीय दौरे किये जाते हैं।[66] संयुक्त राज्य अमेरिका में जठरांत्र शोथ, समग्र रूप से 23 बिलियन अमरीकी डालर प्रति वर्ष के व्यय के लिये उत्तरदायी है,[67] जिसमें से अकेले रोटावायरस के कारण एक वर्ष में एक बिलियन अमरीकी डालर का अनुमानित व्यय होता है।[1] शोध जठरांत्र शोथ के खिलाफ कई सारे टीके विकास की प्रक्रिया में हैं। उदाहरण के लिए, पूरी दुनिया में जठरांत्र शोथ के दो मुख्य बैक्टीरिया जनित कारणों, शिगेला और एन्टेरोटॉक्सिजेनिक {0एस्केरेशिया कॉलि, (ETEC), के खिलाफ टीके।[68][69] अन्य प्राणियों में बिल्लियों और कुत्तों में जठरांत्र शोथ, कई ऐसे एजेंटों के कारण होता है जो मनुष्यों के समान हैं। सबसे आम जीव हैं: कैम्पाइलोबैक्टर, क्लोस्ट्रीडियम डिफिसाइल,क्लोस्ट्रीडियम परफ्रिंजेंस तथा साल्मोनेला।[70] विषैले पौधों की एक बड़ी संख्या भी लक्षणों को पैदा कर सकती है।[71] कुछ एजेंट कुछ प्रजातियों के लिए अधिक विशिष्ट हैं। संक्रामक जठरांत्र शोथ कोरोनावायरस (TGEV) सुअरों में होता है जिसके कारण उल्टी, दस्त तथा निर्जलीकरण होता है।[72] ऐसा माना जाता है कि यह जंगली पक्षी द्वारा सूअरों में प्रवेश करता है और इसका कोई विशिष्ट उपचार उपलब्ध नहीं है।[73] यह मनुष्य के लिए संक्रामक नहीं है।[74] सन्दर्भ नोट्स बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बालचिकित्सा श्रेणी:भोजन द्वारा होने वाली बीमारियां श्रेणी:संक्रामक रोग श्रेणी:सूजन श्रेणी:पेट दर्द श्रेणी:मल परीक्षण द्वारा निदान स्थितियां श्रेणी:गैर संक्रामक जठरांत्र शोथ और बृहदांत्रशोथ श्रेणी:दस्त
जठरांत्र शोथ (गैस्ट्रोएन्टराइटिस)\" शब्द का उपयोग सबसे पहले किस वर्ष किया गया था?
1825
18,380
hindi
b80c37711
महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। कभी कभी इसे केवल ."भारत" कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम 022470धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं।[1] विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है।[2] यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं[3], जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।[4][5] हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।[6] मूल काव्य रचना इतिहास वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था।[7] उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी।[8] इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है।[9] विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं: प्रारम्भिक चार अवस्थाएं ३१०० ईसा पूर्व[10][11] १) सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा १०० पर्वों के रूप में एक लाख श्लोकों का रचित भारत महाकाव्य, जो बाद में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[10][12][13] २) दूसरी बार व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा पुनः इसी "भारत" महाकाव्य को जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।[10][12][12][13] २००० ईसा पूर्व ३) तीसरी बार फिर से ‍वैशम्पायन और ऋषि-मुनियो की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" को सूत जी द्वारा पुनः १८ पर्वों के रूप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।[12][14] १२००-६०० ईसा पूर्व ४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। भंडारकर संस्थान द्वारा इसके बाद भी कई विद्वानो द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियो के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियो में कई भिन्न भिन्न श्लोक मिलते हैं, इस समस्या के निदान के लिये पुणे में स्थित ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियों (लगभग १०, ०००) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग ७५,००० श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया, कई खण्डों वाले १३,००० पृष्ठों के इस ग्रंथ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया।[15][16] ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण १००० ईसा पूर्व महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता।[17] साथ ही शतपथ ब्राह्मण[18](११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी।[19] ६००-४०० ईसा पूर्व पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।[10][12][19][20][21] प्रथम शताब्दी यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्ररायसोसटम (Dio Chrysostom) यह बताते है की दक्षिण-भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रंथ है[12][22][23], जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि।[24] संस्कृत की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एमएस स्पित्ज़र पाण्डुलिपि में भी महाभारत के १८ पर्वों की अनुक्रमणिका दी गयी है[25], जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत १८ पर्वों के रूप में प्रसिद्ध थी, यद्यपि १०० पर्वों की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम १०० पर्वों में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने १८ पर्वों के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।[26] ५वीं शताब्दी महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है।[27] वह अभिलेख निम्नलिखित है: “ उक्तञच महाभारते शतसाहस्त्रयां संहितायां पराशरसुतेन वेदव्यासेन व्यासेन। „ पुरातत्त्व प्रमाण (१९०० ई.पू से पहले) सरस्वती नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।[28] कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है।[29] इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारका भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं। निष्कर्ष इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता है कि महाभारत निश्चित तौर पर 95०-8०० ईसा पूर्व रची गयी होगीं,[17] जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना ६००-२०० ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परंपरा द्वारा हम तक पीढी दर पीढी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है। परिचय आरम्भ महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: “ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्।। „ परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।[30] विभिन्न नाम यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।[31] ग्रन्थ लेखन की कथा महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली।[32] परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच नहीं रुकेंगे।[33] व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।[33][34] वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया।[35] शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया।[36] वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। विशालता महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है: “ "जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा"[37] „ महाभारत का १८ पर्वो और १०० उपपर्वो में विभाग[38] पृष्ठभूमि और इतिहास महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। इस युद्ध की भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा कई भिन्न भिन्न निर्धारित की गयी तिथियाँ निम्नलिखित हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था।[39] विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था।[40] चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट पुलकेसि २ के ५वीं शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३, ७३५ वर्ष बीत गए है, इस दृष्टिकोण से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा।[41] पुराणों की माने तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावली को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया था वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है।[42] अधिकतर पश्चिमी विद्वान जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं।[43] अधिकतर भारतीय विद्वान जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व और कुछ यूरोपीय विद्वान जैसे पी वी होले इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं।[44][45] भारतीय विद्वान पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्टूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था, मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढी को २०-३० वर्ष दे तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय हुआ होगा।[45][46] महाभारत की संक्षिप्त कथा मुख्य उल्लेख:महाभारत की विस्तृत कथा कुरुवंश की उत्पत्ति और पाण्डु का राज्य अभिषेक पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु हुए। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये और राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की आज्ञा से व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र ने गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पांच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया। एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृगरुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी। उस ऋषि से शापित हो कि "अब जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तो तेरी मृत्यु हो जायेगी", पाण्डु अत्यन्त दुःखी होकर अपनी रानियों सहित समस्त वासनाओं का त्याग करके तथा हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को अपना का प्रतिनिधि बनाकर वन में रहने लगें। पाण्डवों का जन्म तथा लाक्षागृह षडयंत्र राजा पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से धर्म को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर और कालान्तर में वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। कुन्ती से ही उस मन्त्र की दीक्षा ले माद्री ने अश्वनीकुमारों से नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया। एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण करते हुए पाण्डु के मन चंचल हो जाने से मैथुन में प्रवृत हुये जिससे शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई। कुन्ती ने विवाह से पहले सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया। धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन किया। कर्ण की रुचि युद्धकला में थी अतः द्रोणाचार्य के मना करने पर उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की। शकुनि के छलकपट से दुर्योधन ने पाण्डवों को बचपन में कई बार मारने का प्रयत्न किया तथा युवावस्था में भी जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाक्ष के बने हुए घर लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु विदुर की सहायता के कारण से वे उस जलते हुए गृह से बाहर निकल गये। द्रौपदी स्वयंवर पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और मुनि का वेष बनाकर एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था। वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं। माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद,धृष्टद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे पाँच ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। अतः उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलाया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं। इन्द्रप्रस्थ की स्थापना द्रौपदी स्वयंवर से पूर्व विदुर को छोड़कर सभी पाण्डवों को मृत समझने लगे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके अग्नि देव को तृप्त किया। इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ तथा श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया। द्रौपदी का अपमान और पाण्डवों का वनवास पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उनका वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो गया अतः शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने युधिष्ठिर के साथ जूए में प्रवृत्त होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। परन्तु गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया। धृतराष्ट्र ने एक बार फिर दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। इस प्रकार पुन जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित वन में चले गये। वहाँ बारहवाँ वर्ष बीतने पर एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वे विराट नगर में गये[47]। जब कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया था परन्तु उनका का अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था। परन्तु १२ वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञातवास पूरा करने के बाद भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। शांतिदूत श्रीकृष्ण, युद्ध आरंभ तथा गीता-उपदेश धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव अर्पित कर युद्ध टाल दों। श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भूमि भी देने से मना कर युद्ध करने का निशचय किया। ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने माया से अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर सबको भयभीत कर दिया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले कि दुर्योधन के साथ युद्ध करो। युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति [धृष्टद्युम्न] थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म और द्रोण वध भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। कर्ण और शल्य वध द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। यदुकुल का संहार और पाण्डवों का महाप्रस्थान ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अंत होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये।[48] इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में युधिष्ठिर को छोड़ सभी एक-एक करके गिर पड़े। अन्त में युधिष्ठिर इन्द्र के रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। और अधिक यहाँ महाभारत के पात्र मुख्य उल्लेख:महाभारत के पात्र अभिमन्यु: अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा: शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन: देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन: अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर: महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म: भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी: द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण: हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद: पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन: कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन: दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य: द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। गांडीव: अर्जुन का धनुष। [जो, कई मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव से इंद्र और उसके बाद अग्नि देव अंत में अग्नि-देव ने अर्जुन को दिया था।] गांधारी: गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी। जयद्रथ: सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काट कर वध किया था। कर्ण: सूर्यदेव एवमं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण को दानवीर-कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुये थे और उनका दान इंद्र को किया था। कृपाचार्य: हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरु। इनकी बहिन 'कृपि' का विवाह द्रोण से हुआ था। कृष्ण: देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे। कुरुक्षेत्र: वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र आज के भारत में हरियाणा में स्थित है। पाण्डव: पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पांच भाई थे: युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। परशुराम: अर्थात् परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरु थे। वे भगवान विष्णु का षष्ठम अवतार थे। शल्य: नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई। उत्तरा: राजा विराट की पुत्री। अभिमन्यु कि धर्म्पत्नी। महर्षि व्यास: महाभारत महाकाव्य के लेखक। पाराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था। बलराम: देवकी की सातवीं संतान और शेषनाग के अवतार थे। मान्यता है कि इन्हें नंद की दूसरी पत्नी रोहिणी ने कंस से बचने के लिए देवकी गर्भ से बलराम को धारण किया था। सुभद्रा: यह महारथी अर्जुन की पत्नी एवं भगवान कृष्ण तथा बलराम की बहन थी। रुक्मिणी: कृष्णा की पत्नी महाभारत: अनुपम काव्य विभिन्न भाग एवं रूपान्तर महाभारत के कई भाग हैं जो आमतौर पर अपने आप में एक अलग और पूर्ण पुस्तकें मानी जाती हैं। मुख्य रूप से इन भागों को अलग से महत्व दिया जाता है:- भगवद गीता श्री कृष्ण द्वारा भीष्मपर्व में अर्जुन को दिया गया उपदेश। दमयन्ती अथवा नल दमयन्ती, अरण्यकपर्व में एक प्रेम कथा। कृष्णवार्ता: भगवान श्री कृष्ण की कहानी। राम रामायण का अरण्यकपर्व में एक संक्षिप्त रूप। ॠष्य ॠंग एक ॠषि की प्रेम कथा। विष्णुसहस्रनाम विष्णु के १००० नामों की महिमा शान्तिपर्व में। महाभारत के दक्षिण एशिया मे कई रूपान्तर मिलते हैं, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, बर्मा (म्यान्मार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत मे अधिकतम १,४०,००० श्लोक मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर मे १,१०,००० श्लोक मिलते हैं। अठारह की संख्या महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग हैं। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठारह हैं।[49] महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रंथ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया हैं और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं। सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त हैं।[50] आद्य भारत महाभारत के आदिपर्व के अनुसार वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पन्द्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ।[36] पृथ्वी के भौगोलिक सन्दर्भ महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल[51], मिस्र की नील नदी[52], लाल सागर[53] तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है-: सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्। -- वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है: चित्र दीर्घा एक खरगोश और दो पत्तो का चित्र चित्र को उल्टा करने पर बना पृथ्वी का मानचित्र उपरोक्त मानचित्र ग्लोब में प्रचलित मीडिया में १९८८ के लगभग बी आर चोपड़ा निर्मित महाभारत, भारत में दूरदर्शन पर पहली बार धारावाहिक रूप में प्रसारित हुआ। १९८९ में पीटर ब्रुक द्वारा पहली बार यह फिल्म अंग्रेजी में बनी। महाभारत नाम से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी साहित्यिक कृति है। कहानियाँ हमारे महाभारत की नाम से एकता कपूर ने भी एक दूरदर्शन धारावाहिक बनाया था, जिसका प्रसारण २००७ में ९एक्स चैनल पर किया जाता था।[54] एक और महाभारत: भारतीय रेल के अधिकारियों तथा विभिन्न कर्मचारियों द्वारा कहानी संग्रह। कुरुक्षेत्र में एक महाभारत दीर्घा का निर्माण हो रहा है, जिसमें तब के कुछ दृश्यों को जीवंत हुआ देखा जा सकेगा।[55] १००० महाभारत प्रश्नोत्तरी नामक पुस्तक, में महाभारत के गहन ज्ञान पर गुप्त १००० प्रश्न हैं।[2] कुरु वंशवृक्ष संज्ञासूचीपुरुष: नीला किनारा स्त्री: लाल किनारा पांडव: नीला पृष्ठ कौरव: पीला पृष्ठ टिप्पणीक: शांतनु कुरु वंशके राजा थे। उनका प्रथम विवाह गंगा के साथ और दूसरा विवाह सत्यवती के साथ हुआ था। ख: पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद व्यास द्वारा नियोग पद्धति से किया गया था। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को क्रमशः अंबिका, अंबालिका और एक दासी ने जन्मा था। ग: कर्ण को कुंती ने जन्मा था। पांडु के साथ विवाह के पूर्व उसने सूर्य देव का आवाहन किया था जिससे कर्ण उत्पन्न हुए थे। घ: युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडु के पुत्र थे किन्तु उनको कुन्ती एवं माद्री ने विभिन्न देवताओं का आवाहन करके जन्मा था। पाँचों पाण्डवों का विवाह, द्रौपदी से हुआ था, जिसको इस सारणी में नहीं दिखाया गया है। च : दुर्योधन और उसके सभी भाई-बहन एक ही समय में जन्मे थे। वे पाण्डवों के समवयस्क थे। संदर्भ और टीका इन्हें भी देखें महाभारत के विभिन्न संस्करण महाभारत (निराला की रचना) रामायण महाभारत की संक्षिप्त कथा महाभारत के पात्र महाभारत (टीवी धारावाहिक) महाभारत के पर्व कहानियाँ हमारे महाभारत की (टीवी धारावाहिक) हरिवंश पर्व बाहरी कड़ियाँ (केवल संस्कृत पाठ) (हिन्दी में सम्पूर्ण कथा) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक ; चन्द्रकान्त वांदिवडेकर) - यहाँ महाभारत का खोजने योग्य डेटाबेस तथा अन्य सुविधाएँ हैं। - यहाँ देवनागरी और रोमन में महाभारत का पाठ उपलब्ध है; अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है; और एक जिप संचिका के रूप में सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। - यहाँ देवनागरी विपुल संस्कृत साहित्य उपलब्ध है। सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। (published between 1883 and 1896) चलचित्र १९८९ मूवी पीटर ब्रुक द्वारा निर्देशित at IMDb १९८० मूवी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित। यह चलचित्र महाभारत की कहानी पर आधारित है और आधुनिक युग के संदर्भ में कहानी की पुनः वुयाख्या करता है, जिसमें दो परिवार एक औद्योगिक संकाय पर नियन्त्रन के लिए लड़ रहे हैं।Template:महाभारत Template:वैदिक साहित्यश्रेणी:महाभारत श्रेणी:महाभारत कथा श्रेणी:महाभारत श्रेणी:पौराणिक कथाएँ श्रेणी:ऐतिहासिक वीर गाथाएँ श्रेणी:काव्य ग्रन्थ
परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय किसको दिया जाता है?
वेदव्यास
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प्रोटीन या प्रोभूजिन एक जटिल भूयाति युक्त कार्बनिक पदार्थ है जिसका गठन कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन एवं नाइट्रोजन तत्वों के अणुओं से मिलकर होता है। कुछ प्रोटीन में इन तत्वों के अतिरिक्त आंशिक रूप से गंधक, जस्ता, ताँबा तथा फास्फोरस भी उपस्थित होता है।[1] ये जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के मुख्य अवयव हैं एवं शारीरिक वृद्धि तथा विभिन्न जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक हैं। रासायनिक गठन के अनुसार प्रोटीन को सरल प्रोटीन, संयुक्त प्रोटीन तथा व्युत्पन्न प्रोटीन नामक तीन श्रेणियों में बांटा गया है। सरल प्रोटीन का गठन केवल अमीनो अम्ल द्वारा होता है एवं संयुक्त प्रोटीन के गठन में अमीनो अम्ल के साथ कुछ अन्य पदार्थों के अणु भी संयुक्त रहते हैं। व्युत्पन्न प्रोटीन वे प्रोटीन हैं जो सरल या संयुक्त प्रोटीन के विघटन से प्राप्त होते हैं। अमीनो अम्ल के पॉलीमराईजेशन से बनने वाले इस पदार्थ की अणु मात्रा १०,००० से अधिक होती है। प्राथमिक स्वरूप, द्वितीयक स्वरूप, तृतीयक स्वरूप और चतुष्क स्वरूप प्रोटीन के चार प्रमुख स्वरुप है। प्रोटीन त्वचा, रक्त, मांसपेशियों तथा हड्डियों की कोशिकाओं के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। जन्तुओं के शरीर के लिए कुछ आवश्यक प्रोटीन एन्जाइम, हार्मोन, ढोने वाला प्रोटीन, सिकुड़ने वाला प्रोटीन, संरचनात्मक प्रोटीन एवं सुरक्षात्मक प्रोटीन हैं।[2] प्रोटीन का मुख्य कार्य शरीर की आधारभूत संरचना की स्थापना एवं इन्जाइम के रूप में शरीर की जैवरसायनिक क्रियाओं का संचालन करना है। आवश्यकतानुसार इससे ऊर्जा भी मिलती है। एक ग्राम प्रोटीन के प्रजारण से शरीर को ४.१ कैलीरी ऊष्मा प्राप्त होती है।[3] प्रोटीन द्वारा ही प्रतिजैविक (एन्टीबॉडीज़) का निर्माण होता है जिससे शरीर प्रतिरक्षा होती है। जे. जे. मूल्डर ने १८४० में प्रोटीन का नामकरण किया। प्रोटीन बनाने में २० अमीनो अम्ल भाग लेते हैं। पौधे ये सभी अमीनो अम्ल अपने विभिन्न भागों में तैयार कर सकते हैं। जंतुओं की कुछ कोशिकाएँ इनमें से कुछ अमीनो अम्ल तैयार कर सकती है, लेकिन जिनको यह शरीर कोशिकाओं में संश्लेषण नहीं कर पाते उन्हें जंतु अपने भोजन से प्राप्त कर लेते हैं। इस अमीनो अम्ल को अनिवार्य या आवश्यक अमीनो अम्ल कहते हैं। मनुष्य के अनिवार्य अमीनो अम्ल लिउसीन, आइसोलिउसीन, वेलीन, लाइसीन, ट्रिप्टोफेन, फेनिलएलानीन, मेथिओनीन एवं थ्रेओनीन हैं।[3] स्रोत पौधे अपनी जरूरत के अमीनो अम्ल का संश्लेषण स्वयं कर लेते हैं, परन्तु जंतुओं को अपनी प्रोटीन की जरूरत को पूरा करने के लिए कुछ अमीनो अम्लों को बाहर से खाद्य के रूप में लेना पड़ता है। शाकाहारी स्रोतों में चना, मटर, मूंग, मसूर, उड़द, सोयाबीन, राजमा, लोभिया, गेहूँ, मक्का प्रमुख हैं। मांस, मछली, अंडा, दूध एवं यकृत प्रोटीन के अच्छे मांसाहारी स्रोत हैं। पौधों से मिलनेवाले खाद्य पदार्थों में सोयाबीन में सबसे अधिक मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है। इसमें ४० प्रतिशत से अधिक प्रोटीन होता है। सोलह से अट्ठारह वर्ष के आयु वर्गवाले लड़के, जिनका वजन ५७ किलोग्राम है, उनके लिए प्रतिदिन ७८ ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है। इसी तरह समान आयु वर्ग वाली लड़कियों के लिए, जिनका वजन ५० किलोग्राम है, उनके लिए प्रतिदिन ६३ ग्राम प्रोटीन का सेवन जरूरी है। गर्भवती महिलाओं के लिए ६३ ग्राम, जबकि स्तनपान करानेवाली महिलाओं के लिए (छह माह तक) प्रतिदिन ७५ ग्राम प्रोटीन का सेवन आवश्यक है।[4] सन्दर्भ श्रेणी:प्रोटीन श्रेणी:पोषण श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
प्रोटीन का नामकरण किस वैज्ञानिक द्वारा किया गया?
जे. जे. मूल्डर
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दीपा मलिक (जन्म:30 सितंबर 1970), शॉटपुट एवं जेवलिन थ्रो के साथ-साथ तैराकी एवं मोटर रेसलिंग से जुड़ी एक विकलांग भारतीय खिलाड़ी हैं जिन्होंने 2016 पैरालंपिक में शॉटपुट में रजत पदक जीतकर इतिहास रचा। 30 की उम्र में तीन ट्यूमर सर्जरीज और शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हो जाने के बावजूद उन्होने न केवल शॉटपुट एवं ज्वलीन थ्रो में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीते हैं, बल्कि तैराकी एवं मोटर रेसलिंग में भी कई स्पर्धाओं में हिस्सा लिया है। उन्होने भारत की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 33 स्वर्ण तथा 4 रजत पदक प्राप्त किये हैं। वे भारत की एक ऐसी पहली महिला है जिसे हिमालय कार रैली में आमंत्रित किया गया। वर्ष 2008 तथा 2009 में उन्होने यमुना नदी में तैराकी तथा स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बूक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। यही नहीं, सन् 2007 में उन्होने ताइवान तथा 2008 में बर्लिन में जवेलिन थ्रो तथा तैराकी में भाग लेकर रजत एवं कांस्य पदक प्राप्त किया। कोमनवेल्थ गेम्स की टीम में भी वे चयनित की गई। पैरालंपिक खेलों में उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हे भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया। [1] रियो पैरालिंपिक खेल- 2016 में दीपा मलिक ने शॉट-पुट में रजत पदक जीता, दीपा ने 4.61 मीटर तक गोला फ़ेंका और दूसरे स्थान पर रहीं। पैरालिंपिक खेलों में मेडल जीतने वाली दीपा पहली भारतीय महिला बन गई हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ [2] वेबदुनिया हिन्दी आई बी एन-7 प्रेसनोट श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ * श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:भारतीय एथलेटिक्स श्रेणी:महिला एथलीट श्रेणी:अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता श्रेणी:भारतीय महिलाएँ श्रेणी:1970 में जन्मे लोग श्रेणी:भारतीय महिला खिलाड़ी
भारत की पहली महिला एथलीट कौन है?
दीपा मलिक
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'रॅन्मिन्बी (Chinese:人民币) चीनी जनवादी गणराज्य (PRC) की आधिकारिक मुद्रा है। यह मुख्य भूमि चीन में विधिमान्य मुद्रा है, लेकिन हांगकांग और मकाओ में नहीं। इसका संक्षिप्त रूप RMB है और रॅन्मिन्बी की इकाइयां हैं युआन (元), झाओ (角) और फ़ेन (分): 1 युआन = 10 झाओ = 100 फ़ेन. फ़ेन लगभग गायब हो गया है, अतः संचलन में रहने वाले सिक्के हैं एक युआन, पांच झाओ और एक झाओ. बैंकनोटों का विस्तार एक युआन से एक सौ युआन तक है और इसका आकार तथा रंग, दोनों अलग है। हांगकांग और मकाओ की अपनी मौद्रिक नीतियां और मुद्राएं, क्रमशः हांगकांग डॉलर और मैकनीज़ पटाका हैं, जो ज़रूरी नहीं कि रॅन्मिन्बी के साथ संगत हों. नव प्रस्तर युग से ही चीन में किसी न किसी प्रकार की मुद्रा का उपयोग किया जाता रहा। चीनियों ने 9वीं सदी में काग़ज़ी मुद्रा का आविष्कार किया। प्रारंभिक इतिहास प्राचीन मुद्राएं लगभग 3000 से 4500 वर्ष पहले, मध्य चीन में कौड़ी को मुद्रा का प्रारंभिक रूप माना जाता है। चीनी लेखन प्रणाली में 'विनिमय' से संबंधित कई अन्य शब्दों के अलावा, माल (貨), 'खरीद/बिक्री' (買/賣) और 'व्यापारी' (販) जैसे पारंपरिक सभी पदों में मूल '貝' शामिल है, जो सीपी की चित्रलिपि है। (सरलीकरण ने 貝 को 贝 में बदल दिया। ) तथापि, मुद्रा के रूप में सीपियों के संचालन की मात्रा अभी भी अज्ञात है और बाज़ार में तथाकथित वस्तु-विनिमय व्यापार को हावी माना गया है। लेकिन हड्डी, लकड़ी, पत्थर, सीसा और तांबे से बनाई गई इन सीपियों की प्रतियां इतनी आम थीं कि ऐसी व्यापार प्रणाली की कल्पना की जा सके जिसमें उनका उपयोग किया गया हो। शांग राजवंश (ई.पू. 1500-ई.पू. 1046) की पुरानी राजधानी यिन के अवशेषों में कांसे की सीपियां पाई गईं। झोउ राजवंश में कांस्य सार्वभौमिक मुद्रा बन गई। ऐसा प्रतीत होता है कि चीनी लोगों ने ई.पू. 900 से पहले ही प्रथम धातु के सिक्कों का आविष्कार किया था, जो अन्यांग के निकट एक कब्र में पाए गए।[1][2] तब, सिक्का उससे पहले प्रयुक्त कौड़ियों का ही बनावटी रूप था, इसलिए उसे कांस्य सीपी नाम दिया गया।[3][4][5] ई.पू. 5वीं सदी से ई.पू. 221 तक के वारिंग स्टेट्स युग के दौरान, चीनी मुद्रा कांस्य वस्तुओं के रूप में थी मुख्यतः जिसके तीन प्रकार थे। झोउ, वेइ (魏), हान (汉) और क़िन (秦) सभी ने कुदाल (बु) के आकार के सिक्कों का उपयोग किया। क़ि (齊) ने चाकू (दाओ) के आकार वाली मुद्रा का प्रयोग किया। झाओ (趙) और यान (燕) ने मोटे तौर पर वारिंग स्टेट्स युग के बीच में कुदाल मुद्रा में बदलने से पहले चाकू मुद्रा का उपयोग किया। चू (楚) ने मुद्रा के रूप में चींटी की नाक के आकार के सिक्कों यिबी का उपयोग किया। शाही चीन चीन के एकीकरण के अंश के रूप में क़िन शी हुआंग (Chinese:秦始皇; pinyin:Qín Shǐ Huáng, ई.पू. 260-ई.पू. 210) ने सभी प्रकार की स्थानीय मुद्रा को समाप्त कर दिया और क़िन द्वारा पहले प्रयुक्त सिक्कों के आधार पर एक राष्ट्रीय एकरूप तांबे के सिक्कों को प्रवर्तित किया। ये सिक्के गोलाकार थे जिनके बीच में चौकोर छेद था, जोकि 20वीं सदी तक अधिकांश चीनी तांबे के सिक्कों के लिए सामान्य डिज़ाइन रहा। व्यक्तिगत सिक्कों के कम मूल्य के कारण, चीनियों ने परंपरागत रूप से एक सूत्र में सांकेतिक एक हज़ार तांबे के सिक्कों को पिरोया. तथापि सिक्के और रेशम के रोल जैसे उत्पाद, दोनों पर सरकारी कर लगाए गए। क़िन राजवंश और हान राजवंश, दोनों में वेतन का भी भुगतान अनाज के "कंकरों" (石, डैन) में किया गया। प्रारंभिक सांग राजवंश (चीनी: 宋, 960–1279) के दौरान, चीन ने दस या अधिक स्वतंत्र राज्यों के सिक्कों को प्रतिस्थापित करते हुए मुद्रा प्रणाली का दोबारा एकीकरण किया। सांग से पूर्व के सिक्कों में, उत्तरी राज्यों ने तांबे के सिक्कों को चलाना पसंद किया। दक्षिणी राज्यों ने सीसे या लोहे के सिक्कों का उपयोग चलाया जहां सिचुआन ने अपने स्वयं के भारी लोहे के सिक्कों का उपयोग किया जिनका प्रचलन अल्पावधि के लिए सांग राजवंश में भी जारी रहा। 1000 तक, एकीकरण संपन्न हो चुका था और चीन ने आर्थिक विकास की एक तेज़ अवधि का अनुभव किया। यह सिक्कों की वृद्धि में परिलक्षित हुआ। 1073 में, जोकि उत्तरी सांग में सिक्कों की ढलाई का चरम वर्ष था, सरकार ने प्रत्येक में हज़ार तांबे के सिक्कों सहित अनुमानित रूप से साठ लाख तार उत्पादित किए। माना जाता है कि उत्तरी सांग ने दो सौ मिलियन सिक्कों के तार ढाले, जिनका अक्सर निर्यात आंतरिक एशिया, जापान और दक्षिण-पूर्वी एशिया में किया गया, जहां वह अक्सर प्रधान मुद्रा सिक्का रहा। सांग व्यापारियों ने तेजी से कागज़ी मुद्रा को अपनाया जिसकी शुरूआत सिचुआन में "उड़ाका मुद्रा" (feiqian) नामक वचन पत्र के साथ हुई। ये इतने उपयोगी साबित हुए कि राष्ट्र ने 1024 में सरकार समर्थित प्रथम मुद्रण के साथ कागज़ी मुद्रा के इस स्वरूप का उत्पादन संभाल लिया। 12वीं सदी तक, कागज़ी मुद्रा के विभिन्न रूप चीन में प्रमुख मुद्रा रूप बन गए थे और ये झाओज़ी, क़ियानइन, कुआइज़ी या गुआन्ज़ी जैसे विविध नामों से जाने गए। मंगोलों द्वारा स्थापित युआन राजवंश (चीनी: 元, 1271–1368) ने भी कागज़ी मुद्रा के उपयोग का प्रयास किया। सांग राजवंश के विपरीत, उन्होंने एक एकीकृत, राष्ट्रीय प्रणाली निर्मित की जो चांदी या सोने से समर्थित नहीं थी। युआन द्वारा जारी मुद्रा विश्व की पहली वैध कागज़ी मुद्रा थी, जिसे चाओ के रूप में जाना जाता है। युआन सरकार ने चांदी या सोने में सभी लेन-देन या उसके कब्ज़े पर रोक लगाने का प्रयास किया, जिसे सरकार को देना पड़ता था। 1260 में मुद्रास्फीति के कारण सरकार को 1287 में नई कागज़ी मुद्रा के साथ वर्तमान कागज़ी मुद्रा को प्रतिस्थापित करने के लिए बाध्य होना पड़ा, लेकिन अनुशासनहीन मुद्रण की वजह से मुद्रास्फीति राजवंश की समाप्ति तक युआन राज्यसभा के लिए समस्या बनी रही। प्रारंभिक मिंग राजवंश (Chinese:明; pinyin:Míng, 1368-1644) ने भी दोबारा हुए एकीकरण की प्रारंभिक अवधि में कागज़ी मुद्रा के उपयोग का प्रयास किया। इस मुद्रा ने भी तेज़ मुद्रास्फीति का अनुभव किया और 1450 में निर्गम निलंबित कर दिए गए हालांकि 1573 तक नोट प्रचलन में बने रहे। मिंग राजवंश के अंतिम वर्षों में जब ली ज़ाइचेंग ने 1643-1644 में बीजिंग को धमकी दी, सिर्फ़ तब दुबारा मुद्रण कार्य संपन्न हुआ। मिंग के अधिकांश कार्यकाल में चीन में सभी महत्वपूर्ण लेन-देन के लिए विशुद्ध निजी मुद्रा प्रणाली मौजूद थी। सुदूर दक्षिण प्रांत गुआंगडोंग में विदेशों से प्रवाहित होने वाली चांदी का मुद्रा के रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ, जहां से 1423 तक उसका प्रसार निम्न यांगज़ी क्षेत्र में हुआ जब वह करों के भुगतान के लिए विधिमान्य मुद्रा बन गई। 1465 के बाद राजधानी को प्रांतीय करों का भुगतान चांदी में प्रेषित करना पड़ता था, 1475 से नमक उत्पादकों को चांदी में भुगतान करना पड़ा और 1485 से बेगार छूट का भुगतान चांदी में करना पड़ा. चांदी के लिए चीनी मांग आंशिक रूप से अमेरिकास से स्पेनिश आयातों द्वारा पूरी की गई, मनीला में स्पेनिशों की 1571 में स्थापना के बाद, विशेषकर Potosi पेरू और मेक्सिको में. तथापि चांदी को ढाला नहीं गया। यह सिल्लियों के रूप में परिचालित हुआ (जो साइसी या युआनबाओ के रूप में जाना जाता है) जिसका भार मामूली लियांग (लगभग 36 ग्राम) था हालांकि शुद्धता और वज़न क्षेत्रवार भिन्न थे। लिआंग को अक्सर गोरों द्वारा मलय शब्द ताइल द्वारा निर्दिष्ट किया जाता था। अंतिम शाही चीन ने चांदी और तांबा, दोनों की मुद्रा प्रणाली को क़ायम रखा। तांबा प्रणाली नकद तांबा (वेन) पर आधारित थी। चांदी की प्रणाली में कई इकाइयां थीं जो क़िंग राजवंश के अनुसार: 1 ताइल = 10 मेस = 100 कैंडरीन = 1000 लाइ (चांदी की नकदी) थी। 1889 में, चीनी युआन को मेक्सिकन पीसो के बराबर प्रवर्तित किया गया और उसे 10 झाओ (角, अंग्रेज़ी नाम नहीं दिया गया, cf. डाइम), 10 100 फ़ेन (分, सेंट) और 1000 वेन (文, नकदी). युआन 7 मेस और 2 कैंडरीन (या 0.72 ताइल) के बराबर था और एक समय, सिक्के अंग्रेजी में इस तरह चिह्नित किए गए थे। सबसे प्रारंभिक निर्गम क्वांगटुंग टकसाल में 5 फ़ेन, 1,2 और 5 झाओ तथा 1 युआन मूल्यवर्गों में उत्पादित चांदी के सिक्के थे। 1890 में ऐसे ही सिक्कों को उत्पादित करने वाले अन्य क्षेत्रीय टकसाल खोले गए। 1, 2, 5, 10 और 20 वेन मूल्यवर्ग में तांबे के सिक्के भी जारी किए गए। केंद्र सरकार ने 1903 में युआन मुद्रा प्रणाली में अपने ही सिक्के जारी करना शुरू कर दिया। शाही सरकार द्वारा स्थापित "इम्पीरियल बैंक ऑफ़ चाइना" और "हु पु बैंक" (जो बाद में "ता-चिंग गवर्नमेंट बैंक" कहलाया) के साथ, कई स्थानीय और निजी बैंकों द्वारा 1890 दशक से युआन मूल्यवर्ग में बैंक नोट जारी किए गए। चीन गणराज्य चांदी के सिक्के चीन गणराज्य की स्थापना क्ज़िनहाइ क्रांति द्वारा क़िंग राजवंश के लुढ़कने के बाद हुई। नानजिंग अस्थाई सरकार को तुरंत पिछली क़िंग मुद्रा की जगह सैन्य मुद्रा जारी करने की ज़रूरत पड़ी. क्रमिक रूप से, प्रत्येक प्रांत ने क़िंग से अपनी स्वतंत्रता घोषित की और उन्होंने अपने स्वयं की सैन्य मुद्रा जारी की। 1914 में, राष्ट्रीय मुद्रा अध्यादेश ने चीन गणराज्य की राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में रजत डॉलर की स्थापना की। हालांकि शाही युग के सिक्कों की तुलना में डिजाइन परिवर्तित हुए, लेकिन 1930 के दशक तक सिक्कों के लिए प्रयुक्त आकार और धातु अधिकांशतः अपरिवर्तित रहे। 1920 और 1930 दशक के दौरान अधिकांश क्षेत्रीय टकसाल बंद हुए, हालांकि कुछ 1949 तक जारी रहे। 1936 से, केंद्र सरकार ने तांबे के ½, 1 और 2 फ़ेन सिक्के, सीसे (बाद में ताम्रिक-सीसे) के 5, 10 और 20 फ़ेन और ½ युआन सिक्के जारी किए। 1940 में एल्यूमीनियम के 1 और 5 फ़ेन सिक्के जारी किए गए। दुर्भाग्य से, 1920 और 1930 के दशक ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चांदी के दामों में काफ़ी बढ़ोतरी देखी. इससे चीन से बाहर चांदी का व्यापक बहिर्वाह और राष्ट्रीय मुद्रा के ढहने की संभावना उभरी. यह स्पष्ट हो गया कि चीन रजत मानक नहीं बनाए रख सकता. वाणिज्यिक, प्रांतीय और विदेशी बैंकों द्वारा विभिन्न मूल्यों की सभी मुद्राओं को जारी करने की अधिकता से स्थिति भड़क गई। विधिमान्य मुद्रा 1935 में केंद्रीय सरकार ने मुद्रा सुधार क़ानून बना कर मुद्रा निर्गम को चार प्रमुख सरकारी बैंकों तक सीमित किया: बैंक ऑफ चाइना, सेंट्रल बैंक ऑफ़ चाइना, बैंक ऑफ कम्युनिकेशंस और फ़ार्मर्स बैंक ऑफ़ चाइना. रजत डॉलर के सिक्कों का प्रचलन निषिद्ध किया गया और चांदी के निजी स्वामित्व पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उसके स्थान पर 法幣 (पिनयिन: fǎbì) या "विधिमान्य मुद्रा" (लीगल टेंडर) नामक एक नई मुद्रा जारी की गई। सीमा-शुल्क स्वर्ण इकाइयां आयातीत माल पर शुल्क के भुगतान को सुविधाजनक बनाने के लिए सेंट्रल बैंक ऑफ़ चाइना द्वारा सीमा-शुल्क स्वर्ण इकाइयां (關金圓, पिनयिन: guānjīnyuán) जारी की गईं। अति मुद्रास्फीति से पीड़ित राष्ट्रीय मुद्रा के विपरीत, 1 CGU = US$0.40 पर CGU अमेरिकी डॉलर के प्रति नियंत्रित थे। दुर्भाग्यवश, 1935 में दर-स्थिरीकरण हटाया गया और बैंक ने CGU को सामान्य उपयोग के लिए जारी करने की अनुमति दी। पहले से ही अत्यधिक कागजी मुद्रा से प्लावित, CGU ने बस अनियंत्रित अति मुद्रास्फीति में योगदान दिया। 1945-1948 1945 में जापान की हार के बाद, सेंट्रल बैंक ऑफ चाइना ने उत्तरी-पूर्व में पप्पेट (कठपुतली) बैंकों द्वारा जारी मुद्रा को प्रतिस्थापित करने के लिए अलग मुद्रा जारी की। "東北九省流通券" (पिनयिन:Dōngběi jiǔ shěng liútōngquàn) कही जाने वाली यह मुद्रा अन्यत्र संचालित फ़ाबै से लगभग 10 गुणा अधिक मूल्यवान थी। 1948 में स्वर्ण युआन ने इसकी जगह ली। उत्तरपूर्वी प्रांत युआन चीन के कुछ क्षेत्रों को अति मुद्रास्फीति से अलग करने का प्रयास था जिससे फ़ाबे मुद्रा त्रस्त थी। स्वर्ण युआन द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत ने फ़ाबे मुद्रा में तेज़ अवमूल्यन देखा. यह बड़े पैमाने पर युद्ध के प्रयास को वित्तपोषित करने के लिए असंयमित रूप से जारी मुद्रा के कारण था। जापान की हार और कुओमिनटांग केंद्रीय सरकार की वापसी के बाद, अति मुद्रास्फीति की प्रतिक्रिया में अगस्त 1948 में अतिरिक्त सुधार प्रवर्तित किए गए। स्वर्ण युआन प्रमाण-पत्र ने 1 स्वर्ण युआन = 3 मिलियन युआन फ़ाबे = US$0.25 की दर पर फ़ाबे को प्रतिस्थापित किया। स्वर्ण युआन को सांकेतिक रूप से सोने के 0.22217ग्रा पर निर्धारित किया गया। तथापि, वास्तव में मुद्रा को सोने से समर्थित नहीं किया गया और अति मुद्रास्फीति जारी रही। 1949-2000 अंततः, 1949 में कुआमिनटांग ने चीन को रजत मानक पर लौटाते हुए, रजत युआन प्रमाण-पत्र के प्रवर्तन के साथ सुधार की घोषणा की। रजत युआन का विनिमय 1 रजत युआन = 100 मिलियन स्वर्ण युआन की दर पर किया गया और यह चीन के केंद्रीय टकसाल द्वारा ढाले गए रजत डॉलर द्वारा समर्थित था। यह मुद्रा अल्प समय तक रही, क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जल्द ही मुख्यभूमि के प्रांतों पर नियंत्रण हासिल किया। यह पीपल्स बैंक ऑफ़ चाइना द्वारा जारी मुद्रा से प्रतिस्थापित हई, जिसको मुद्रास्फीति का कम ख़तरा था। कुओमिनटांग की ताइवान वापसी के बाद, रजत युआन चीन गणराज्य के खाते में वैध क़ानूनी मुद्रा बनी रही। ROC के नियंत्रणाधीन क्षेत्रों में बैंक ऑफ़ ताइवान द्वारा जारी केवल ताइवानी डॉलर संचलन में रहने के तथ्य के बावजूद यही स्थिति रही। 1949 में एक मुद्रा सुधार ने नए ताइवानी डॉलर का निर्माण किया, जहां सांविधिक विनिमय दर 1 रजत युआन = NT$3 निर्धारित किया गया। नए ताइवानी डॉलर को चीन गणराज्य की आधिकारिक क़ानूनी मुद्रा बनाने के लिए 2000 में एक संशोधन पारित किया गया। ताइवानी डॉलर जब ताइवान जापानी प्रशासन के अधीन था, तब 1899 में मूलतः जापानियों द्वारा बैंक ऑफ़ ताइवान की स्थापना की गई। बैंक ने ताइवानी येन जारी किए जिनकी क़ीमत जापानी येन के प्रति स्थिर की गई। चीन गणराज्य में ताइवान की वापसी के बाद, नए बैंक ऑफ़ ताइवान को अपने स्वयं की मुद्रा के निर्गम को जारी रखने की अनुमति दी गई। "ताइवान डॉलर" कहलाने वाली इस मुद्रा ने सममूल्य पर ताइवानी येन की जगह ली। यह कुओमिनटांग द्वारा फ़ाबे को अति मुद्रास्फीति से प्रभावित होने से बचाते हुए ताइवान को प्रभावित होने से बचाने का प्रयास था। तथापि, गवर्नर-जनरल चेन यी के कुप्रबंधन का तात्पर्य है कि ताइवानी डॉलर को भी मूल्यह्रास का सामना करना पड़ा. यह 1 के प्रति 40,000 की दर पर, 1949 में नए ताइवान डॉलर द्वारा प्रतिस्थापित हुआ। जापानी आधिपत्य मुद्रा जापानी शाही सरकार ने चीन में अपने आधिपत्य के दौरान कई माध्यमों से मुद्रा जारी की। मंचूरिया 1931 में चीन के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पर आक्रमण के समय, कई मुद्रा संचलन में थे। इनमें शामिल थे स्थानीय प्रांतीय निर्गम, बैंक ऑफ़ चोसन और बैंक ऑफ़ ताइवान द्वारा जारी कुओमिनटांग फ़ाबे और येन मुद्राएं. कठपुतली राज्य मंचुकाउ के गठन के बाद, जापानियों ने चांगचुन (長春) में, जो इस समय ह्सिनकिंग (新京) के नाम से विख्यात था, सेंट्रल बैंक ऑफ़ मंचाउ की स्थापना की। बैंक ने वाणिज्यिक कार्य निष्पादित करने के अलावा केंद्रीय बैंक और मुद्रा के जारीकर्ता के रूप में भी काम किया। शुरूआत में मंचुकाउ युआन को 1 मंचुकाउ युआन = 23.91ग्रा चांदी पर निर्धारित किया गया, लेकिन जापान द्वारा स्वर्ण मानक छोड़ने के बाद 1935 में जापानी येन के प्रति 1:1 दर पर क़ीमत को स्थिर किया गया। यह मुद्रा द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक चली. इसे सेंट्रल बैंक ऑफ़ चाइना द्वारा जारी उत्तरपूर्वी प्रांतों के युआन ने प्रतिस्थापित किया। आंतरिक मंगोलिया जापानी आधिपत्य से पहले, चारहर कमर्शियल बैंक चीन के उत्तरी प्रांतों (सुईयुआन, चाहर और शान्स्की सहित) का प्रधान बैंक था। जब जापानियों ने आक्रमण किया, बैंक ने अपनी पूंजी और सभी अनिर्गमित मुद्रा के साथ क्षेत्र खाली कर दिया। जापानी सैन्य सरकार ने तुरंत उसके नोट निर्गम कार्य को प्रतिस्थापित करने के लिए चानन कमर्शियल बैक की स्थापना की। मेनचियांग कठपुतली राज्य के गठन के साथ, प्राधिकारियों ने बैंक ऑफ़ मेंगचियांग की स्थापना की जिसने तीन अन्य छोटे बैंकों के साथ चानन कमर्शियल बैंक का एकीकरण किया। बैंक ऑफ़ मेंगचियांग ने 1937 से मेंगचियांग युआन जारी किया जिसकी क़ीमत जापानी सैन्य येन और जापानी येन के प्रति सममूल्य पर स्थिर की गई। सहयोगी सरकारें चीन में अपने आधिपत्य के दौरान जापानी दो सहयोगी शासन की स्थापना में कामयाब रहे। उत्तर में, बीजिंग में आधारित "चीन की अनंतिम सरकार" (中華民國臨時政府) ने फ़ेडरल रिज़र्व बैंक ऑफ़ चाइना (中國聯合準備銀行, पिनयिन: Zhōngguó liánhé zhǔnbèi yínháng) की स्थापना की। FRB ने कुओमिनटांग फ़ाबे के सममूल्य पर 1938 में नोट जारी किए। हालांकि शुरूआत में बराबर, जापानियों ने 1939 में राष्ट्रवादी मुद्रा के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया और FRB युआन के पक्ष में मनमाने विनिमय दरों को निर्धारित किया। 1945 में कुओमिनटांग फ़ाबे द्वारा FRB युआन, 1 FRB युआन = 0.2 फ़ाबे की दर पर प्रतिस्थापित किया गया। नानजिंग में वैंग डिंगवेइ सरकार ने 1938 में सहयोगी नानजिंग सुधार सरकार (南京維新政府) की स्थापना की। 1940 में इसे बाद में नानजिंग राष्ट्रीय सरकार (南京國民政府) के रूप में पुनर्गठित किया गया। उन्होंने सेंट्रल रिज़र्व बैंक ऑफ़ चाइना (中央儲備銀行, पिनयिन: Zhōngyāng chǔbèi yínháng) की स्थापना की, जिसने 1941 में CRB युआन जारी करना शुरू कर दिया। हालांकि शुरूआत में राष्ट्रवादी फ़ाबे के प्रति सममूल्य पर निर्धारित किया गया, उसे भी मनमाने ढंग से 0.18 जापानी सैन्य येन के बराबर बदल दिया गया। 1945 में, यह भी 1 CRB युआन = 0.005 फ़ाबे की दर पर राष्ट्रवादी फ़ाबे द्वारा प्रतिस्थापित हो गया। जापानी सैन्य येन जापानी कब्ज़े में जापानी सैन्य येन समस्त पूर्वी एशिया के कई क्षेत्रों में वितरित किए गए। प्रारंभ में, ये सैनिकों को भुगतान के रूप में जारी किए गए। दरअसल इरादा था कि सैन्य येन की ऐसी अनंत राशि अदा की जाए जिसे जापानी येन में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है और इस तरह जापान में मुद्रास्फीति पैदा नहीं हो सकती है। तथापि, स्थानीय पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं पर विनाशकारी प्रभाव एक प्रमुख चिंता का विषय नहीं था। 1937 में शुरूआत के साथ मुद्रा चीन में विधिमान्य मुद्रा बन गई। इसे बाद में कठपुतली बैंकों के निर्गमों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। बहरहाल, मुद्रा 1941 से 1945 के बीच हांगकांग में बनी रही। प्रारंभ में HK$2 = JMY1 दर पर निर्धारित, स्थानीय लोगों ने हांगकांग डॉलर को काफ़ी पसंद किया और इसकी जमाख़ोरी हुई। इसके समाधान के लिए, जापानी सरकार ने 1943 में हांगकांग डॉलर के स्वत्व को अवैध बनाया और 4 से 1 की दर पर JMY विनिमेयता आवश्यक हुई। जब 1945 में ब्रिटिश की हांगकांग में वापसी हुई, तो जापानी सैन्य येन को 100 JMY के प्रति HK$1 की दर पर हांगकांग डॉलरों में बदल दिया गया। चीनी जनवादी गणराज्य रॅन्मिन्बी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1948 और 1949 के दौरान चीन के उत्तर-पूर्वी विशाल क्षेत्रों पर नियंत्रण हासिल किया। हालांकि कई क्षेत्रीय बैंक स्थापित किए गए, पर वे दिसंबर 1948 में पीपल्स बैंक ऑफ़ चाइना के रूप में संगठित किए गए। शीज़ीयाज़ूआंग में स्थापित, नए बैंक ने कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों में मुद्रा जारी करने की जिम्मेदारी ग्रहण की। चीन जनवादी गणराज्य के प्रवर्तन के बाद, एक ऐसी अल्प अवधि रही, जब 100,000 स्वर्ण युआन को 1 युआन रॅन्मिन्बी से बदला जा सकता था। रॅन्मिन्बी नोट 12 मूल्यवर्गों में जारी किए गए: 1, 5, 10, 20, 50, 100, 200, 500, 1000, 5000, 10000 और 50000 युआन. इन मूल्यवर्गों को 62 शैलियों में उप-विभाजित किया गया। मार्च 1955 में मुद्रा मूल्य के 1:10000 अनुपात में समायोजन के बाद, रॅन्मिन्बी के दूसरे संस्करण को 12 मूल्यवर्गों में जारी किया गया, जिनमें शामिल थे 1 फ़ेन, 2 फ़ेन, 5 फ़ेन, 1 झाओ, 2 झाओ, 5 झाओ, 1 युआन, 2 युआन, 3 युआन, 5 युआन और 10 युआन. चीन जनवादी गणराज्य ने दिसंबर 1957 में 1, 2 और 5 फ़ेन के मूल्यवर्ग में एल्यूमीनियम सिक्के जारी करना शुरू किया। 1961 से, चीन ने 3, 5 और 10 युआन नोटों की छपाई के लिए सोवियत संघ को आउटसोर्स किया। चीन जनवादी गणराज्य की मुद्रा के पांचवें और नवीनतम संस्करण 1 अक्टूबर 1999 के बाद से उत्पादित किए जाने लगे। नोट 8 मूल्यवर्गों में उत्पादित किए गए: 1 फ़ेन, 2 फ़ेन और 5 फ़ेन के पुराने प्रकार, साथ ही माओ ज़ेडॉन्ग के चित्र सहित नए निर्गम: 5 युआन, 10 युआन, 20 युआन, 50 युआन और 100 युआन. 2004 में, माओ ज़ेडॉन्ग के चित्र सहित 1 युआन नोट का पहला उत्पादन हुआ। 1999 के बाद, 1 फ़ेन, 2 फ़ेन, 5 फ़ेन, 1 झाओ, 5 झाओ और 1 युआन मूल्यवर्ग के सिक्कों का उत्पादन किया गया। विदेशी मुद्रा प्रमाण-पत्र मुख्यभूमि पर बैंक ऑफ़ चाइना को प्रमुख विदेशी व्यापार और विनिमय बैंक के रूप में अधिकृत किया गया था। 1979 और 1994 के बीच चीन में पधारने वाले विदेशी आगंतुकों के लिए आवश्यक था कि वे बैंक ऑफ़ चाइना द्वारा जारी विदेशी विनिमय प्रमाण-पत्र से अपना लेन-देन करें। इन्हें समाप्त कर दिया गया है और सभी लेन-देन अब रॅन्मिन्बी में होते हैं। इन्हें भी देखें प्राचीन चीनी सिक्का चीनी रजत पांडा चीन का आर्थिक इतिहास नोट सन्दर्भ अंग्रेज़ी चांग, एच.: द सिल्वर डॉलर्स एंड टेल्स ऑफ़ चाइना. हांगकांग, 1981 (पृ. 158 चित्र). सहायक सहित पर नोट्स "द सिल्वर डॉलर्स एंड टेल्स ऑफ़ चाइना" पर सहायक नोट्स सहित, हांगकांग, 1982 (पृ. 40 चित्र). क्रिब, जो: ए कैटलॉग ऑफ़ साइसी इन द ब्रिटिश म्यूज़ियम. चाइनीज़ सिल्वर करेंसी इनगॉट्स सी. 1750-1933. ब्रिटिश म्यूज़ियम प्रेस, लंदन, 1992. डोंग वेनचाउ: एन ओवरव्यू ऑफ़ चाइनास गोल्ड एंड सिल्वर कॉइन्स ऑफ़ पास्ट एजस - द गोल्ड एंड सिल्वर कॉइन्स एंड मेडल्स ऑफ़ मॉडर्न चाइना. बीजिंग, 1992. कान, एडवर्ड: इलस्ट्रेटेड कैटलॉग ऑफ़ चाइनीज़ कॉइन्स. दूसरा संस्करण. मिन्ट प्रोडक्शंस, इंक., न्यूयॉर्क, 1966 (पृ. 476 और 224 प्लेटें). लू, डब्ल्यू.एच. 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चीन की मुद्रा क्या है?
रॅन्मिन्बी
1
hindi
72fc0d5b5
एडोल्फ हिटलर (२० अप्रैल १८८९ - ३० अप्रैल १९४५) एक प्रसिद्ध जर्मन राजनेता एवं तानाशाह थे। वे "राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी" (NSDAP) के नेता थे। इस पार्टी को प्राय: "नाजी पार्टी" के नाम से जाना जाता है। सन् १९३३ से सन् १९४५ तक वह जर्मनी का शासक रहे। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब उनके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनो ने नाज़ी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जीवनी अडोल्फ हिटलर का जन्म आस्ट्रिया के वॉन नामक स्थान पर 20 अप्रैल 1889 को हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए। कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे। इसी समय से वे साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे। जब प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो वे सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस में कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया। 1918 ई. में युद्ध में घायल होने के कारण वे अस्पताल में रहे। जर्मनी की पराजय का उनको बहुत दु:ख हुआ। 1918 ई. में उन्होंने नाजी दल की स्थापना की। इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों से सब अधिकार छीनना था। इसके सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था। इस दल ने यहूदियों को प्रथम विश्वयुद्ध की हार के लिए दोषी ठहराया। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण जब नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों में उसे ठीक करने का आश्वासन दिया तो अनेक जर्मन इस दल के सदस्य हो गए। हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओ का शुभ चिह्र है समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया। भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई। 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। इसमें वे असफल रहे और जेलखाने में डाल दिए गए। वहीं उन्होंने मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए। 1930-32 में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाजी दल के सदस्यों की संख्या 230 हो गई। 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933 में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया, साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को स्वावलंबी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। 1934 में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। 1933 से 1938 तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली। हिटलर ने 1933 में राष्ट्रसंघ को छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया। 1934 में जर्मनी और पोलैंड के बीच एक-दूसरे पर आक्रमण न करने की संधि हुई। उसी वर्ष आस्ट्रिया के नाजी दल ने वहाँ के चांसलर डॉलफ़स का वध कर दिया। जर्मनीं की इस आक्रामक नीति से डरकर रूस, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, इटली आदि देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए पारस्परिक संधियाँ कीं। उधर हिटलर ने ब्रिटेन के साथ संधि करके अपनी जलसेना ब्रिटेन की जलसेना का 35 प्रतिशत रखने का वचन दिया। इसका उद्देश्य भावी युद्ध में ब्रिटेन को तटस्थ रखना था किंतु 1935 में ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर की शस्त्रीकरण नीति की निंदा की। अगले वर्ष हिटलर ने बर्साई की संधि को भंग करके अपनी सेनाएँ फ्रांस के पूर्व में राइन नदी के प्रदेश पर अधिकार करने के लिए भेज दीं। 1937 में जर्मनी ने इटली से संधि की और उसी वर्ष आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। हिटलर ने फिर चेकोस्लोवाकिया के उन प्रदेशों को लेने की इच्छा की जिनके अधिकतर निवासी जर्मन थे। ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर को संतुष्ट करने के लिए म्यूनिक के समझौते से चेकोस्लोवाकिया को इन प्रदेशों को हिटलर को देने के लिए विवश किया। 1939 में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के शेष भाग पर भी अधिकार कर लिया। फिर हिटलर ने रूस से संधि करके पोलैड का पूर्वी भाग उसे दे दिया और पोलैंड के पश्चिमी भाग पर उसकी सेनाओं ने अधिकार कर लिया। ब्रिटेन ने पोलैंड की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध प्ररंभ हुआ। फ्रांस की पराजय के पश्चात् हिटलर ने मुसोलिनी से संधि करके रूम सागर पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का विचार किया। इसके पश्चात् जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया। जब अमरीका द्वितीय विश्वयुद्ध में सम्मिलित हो गया तो हिटलर की सामरिक स्थिति बिगड़ने लगी। हिटलर के सैनिक अधिकारी उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। जब रूसियों ने बर्लिन पर आक्रमण किया तो हिटलर ने 30 अप्रैल 1945, को आत्महत्या कर ली। प्रथम विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों की संकुचित नीति के कारण ही स्वाभिमनी जर्मन राष्ट्र को हिटलर के नेतृत्व में आक्रमक नीति अपनानी पड़ी। बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया) छबियाँ एवं विडियो on archive.org भाषण एवं प्रकाशन (34 pages) Office of Strategic Services report on how the testament was found (transcripts of conversations in February–2 अप्रैल 1945) सन्दर्भ श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:राजनीतिज्ञ श्रेणी:जर्मनी श्रेणी:तानाशाह श्रेणी:1889 में जन्मे लोग श्रेणी:१९४५ में निधन श्रेणी:आत्महत्या श्रेणी:ऑस्ट्रिया के लोग श्रेणी:मृत लोग
एडोल्फ हिटलर का जन्म कब हुआ था?
20 अप्रैल 1889
602
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6b54cbcbb
शुक्र (Venus), सूर्य से दूसरा ग्रह है और प्रत्येक 224.7 पृथ्वी दिनों मे सूर्य परिक्रमा करता है।[12] ग्रह का नामकरण प्रेम और सौंदर्य की रोमन देवी पर हुआ है। चंद्रमा के बाद यह रात्रि आकाश में सबसे चमकीली प्राकृतिक वस्तु है। इसका आभासी परिमाण -4.6 के स्तर तक पहुँच जाता है और यह छाया डालने के लिए पर्याप्त उज्जवलता है।[13] चूँकि शुक्र एक अवर ग्रह है इसलिए पृथ्वी से देखने पर यह कभी सूर्य से दूर नज़र नहीं आता है: इसका प्रसरकोण 47.8 डिग्री के अधिकतम तक पहुँचता है। शुक्र सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद केवल थोड़ी देर के लए ही अपनी अधिकतम चमक पर पहुँचता है। यहीं कारण है जिसके लिए यह प्राचीन संस्कृतियों के द्वारा सुबह का तारा या शाम का तारा के रूप में संदर्भित किया गया है। शुक्र एक स्थलीय ग्रह के रूप में वर्गीकृत है और समान आकार, गुरुत्वाकर्षण और संरचना के कारण कभी कभी उसे पृथ्वी का "बहन ग्रह" कहा गया है। शुक्र आकार और दूरी दोनों मे पृथ्वी के निकटतम है। हालांकि अन्य मामलों में यह पृथ्वी से एकदम अलग नज़र आता है। शुक्र सल्फ्यूरिक एसिड युक्त अत्यधिक परावर्तक बादलों की एक अपारदर्शी परत से ढँका हुआ है। जिसने इसकी सतह को दृश्य प्रकाश में अंतरिक्ष से निहारने से बचा रखा है। इसका वायुमंडल चार स्थलीय ग्रहों मे सघनतम है और अधिकाँशतः कार्बन डाईऑक्साइड से बना है। ग्रह की सतह पर वायुमंडलीय दबाव पृथ्वी की तुलना मे 92 गुना है। 735 K (462°C,863°F) के औसत सतही तापमान के साथ शुक्र सौर मंडल मे अब तक का सबसे तप्त ग्रह है। कार्बन को चट्टानों और सतही भूआकृतियों में वापस जकड़ने के लिए यहाँ कोई कार्बन चक्र मौजूद नही है और ना ही ज़ीवद्रव्य को इसमे अवशोषित करने के लिए कोई कार्बनिक जीवन यहाँ नज़र आता है। शुक्र पर अतीत में महासागर हो सकते है[14]लेकिन अनवरत ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण बढ़ते तापमान के साथ वह वाष्पीकृत होते गये होंगे |[15] पानी की अधिकांश संभावना प्रकाश-वियोजित (Photodissociation) रही होने की, व, ग्रहीय चुंबकीय क्षेत्र के अभाव की वजह से, मुक्त हाइड्रोजन सौर वायु द्वारा ग्रहों के बीच अंतरिक्ष में बहा दी गई है।[16]शुक्र की भूमी बिखरे शिलाखंडों का एक सूखा मरुद्यान है और समय-समय पर ज्वालामुखीकरण द्वारा तरोताजा की हुई है। भौतिक लक्षण शुक्र चार सौर स्थलीय ग्रहों में से एक है। जिसका अर्थ है कि पृथ्वी की ही तरह यह एक चट्टानी पिंड है। आकार व द्रव्यमान में यह पृथ्वी के समान है और अक्सर पृथ्वी की "बहन" या "जुड़वा " के रूप में वर्णित किया गया है।[17] शुक्र का व्यास 12,092 किमी (पृथ्वी की तुलना में केवल 650 किमी कम) और द्रव्यमान पृथ्वी का 81.5% है। अपने घने कार्बन डाइऑक्साइड युक्त वातावरण के कारण शुक्र की सतही परिस्थितियाँ पृथ्वी पर की तुलना मे बिल्कुल भिन्न है। शुक्र के वायुमंडलीय द्रव्यमान का 96.5% कार्बन डाइऑक्साइड और शेष 3.5% का अधिकांश नाइट्रोजन रहा है।[18] भूगोल 20 वीं सदी में ग्रहीय विज्ञान द्वारा कुछ सतही रहस्यों को उजागर करने तक शुक्र की सतह अटकलों का विषय थी | अंततः इसका 1990-91 में मैगलन परियोजना द्वारा विस्तार में मापन किया गया | यहाँ की भूमि विस्तृत ज्वालामुखीकरण के प्रमाण पेश करती है और वातावरण में सल्फर वहाँ हाल ही में हुए कुछ उदगार का संकेत हो सकती है।[19][20] शुक्र की सतह का करीबन 80% हिस्सा चिकने और ज्वालामुखीय मैदानों से आच्छादित है। जिनमें से 70% सलवटी चोटीदार मैदानों से व 10% चिकनी या लोदार मैदानों से बना है।[21]दो उच्चभूमि " महाद्वीप " इसके सतही क्षेत्र के शेष को संवारता है जिसमे से एक ग्रह के उत्तरी गोलार्ध और एक अन्य भूमध्यरेखा के बस दक्षिण में स्थित है। उत्तरी महाद्वीप को बेबीलोन के प्यार की देवी इश्तार के नाम पर इश्तार टेरा कहा गया है और आकार तकरीबन ऑस्ट्रेलिया जितना है। शुक्र का सर्वोच्च पर्वत मैक्सवेल मोंटेस इश्तार टेरा पर स्थित है। इसका शिखर शुक्र की औसत सतही उच्चतांश से 11 किमी ऊपर है। दक्षिणी महाद्वीप एफ्रोडाईट टेरा ग्रीक की प्यार की देवी के नाम पर है और लगभग दक्षिण अमेरिका के आकार का यह महाद्वीप दोनों उच्चभूम क्षेत्रों में बड़ा है। दरारों और भ्रंशो के संजाल ने इस क्षेत्र के अधिकाँश भाग को घेरा हुआ है।[22] शुक्र पर दृश्यमान किसी भी ज्वालामुख-कुण्ड के साथ लावा प्रवाह के प्रमाण का अभाव एक पहेली बना हुआ है। ग्रह पर कुछ प्रहार क्रेटर है जो सतह के अपेक्षाकृत युवा होने का प्रदर्शन करते है और लगभग 30-60 करोड़ साल पुराने है।[23][24] आमतौर पर स्थलीय ग्रहों पर पाए जाने वाले प्रहार क्रेटरों, पहाड़ों और घाटियों के अलावा, शुक्र पर अनेकों अद्वितीय भौगोलिक संरचनाएं है। इन संरचनाओं में, चपटे शिखर वाली ज्वालामुखी संरचनाएं "फेरा" कहलाती है, यह कुछ मालपुआ जैसी दिखती है और आकार में 20-50 किमी विस्तार में होती है। 100-1,000 मीटर ऊँची दरार युक्त सितारा-सदृश्य चक्रीय प्रणाली को "नोवा" कहा जाता है। चक्रीय और संकेंद्रित दरारों, दोनों के साथ मकड़ी के जाले से मिलती-जुलती संरचनाएं "अर्कनोइड" के रूप में जानी जाती है। "कोरोना" दरारों से सजे वृत्ताकार छल्ले है और कभी-कभी गड्ढों से घिरे होते है। इन संरचनाओं के मूल ज्वालामुखी में हैं।[25] शुक्र की अधिकांश सतही आकृतियों को ऐतिहासिक और पौराणिक महिलाओं के नाम पर रखा गया हैं।[26] लेकिन जेम्स क्लार्क मैक्सवेल पर नामित मैक्सवेल मोंटेस और उच्चभूमि क्षेत्रों अल्फा रीजियो, बीटा रीजियो और ओवडा रीजियो कुछ अपवाद है। पूर्व की इन तीन भूआकृतियों को अंतराष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा अपनाई गई मौजूदा प्रणाली से पहले नामित किया गया है। अंतराष्ट्रीय खगोलीय संघ ग्रहीय नामकरण की देखरेख करता है।[27] शुक्र पर भौतिक आकृतियों के देशांतरों को उनकी प्रधान मध्याह्न रेखा के सापेक्ष व्यक्त किया गया है। मूल प्रधान मध्याह्न रेखा अल्फा रीजियो के दक्षिण मे स्थित उज्ज्वल अंडाकार आकृति "एव" के केंद्र से होकर गुजरती है।[28] वेनरा मिशन पूरा होने के बाद, प्रधान मध्याह्न रेखा को एरियाडन क्रेटर से होकर पारित करने के लिए नए सिरे से परिभाषित किया गया था |[29][30] भूतल भूविज्ञान शुक्र की अधिकतर सतह ज्वालामुखी गतिविधि द्वारा निर्मित नजर आती है। शुक्र पर पृथ्वी की तरह अनेकानेक ज्वालामुखी है और इसके प्रत्येक 100 किमी के दायरे मे कुछ 167 के आसपास बड़े ज्वालामुखी है। पृथ्वी पर इस आकार की ज्वालामुखी जटिलता केवल हवाई के बड़े द्वीप पर है।[25] यह इसलिए नहीं कि शुक्र ज्वालामुखी नज़रिए से पृथ्वी की तुलना में अधिक सक्रिय है, बल्कि इसकी पर्पटी पुरानी है। पृथ्वी की समुद्री पर्पटी विवर्तनिक प्लेटों की सीमाओं पर भूगर्भिय प्रक्रिया द्वारा निरंतर पुनर्नवीकृत कर दी जाती है और करीब १० करोड़ वर्ष औसत उम्र की है,[31] जबकि शुक्र की सतह 30-60 करोड़ वर्ष पुरानी होने का अनुमान है।[32] शुक्र पर अविरत ज्वालामुखीता के लिए अनेक प्रमाण बिन्दु मौजुद है। सोवियत वेनेरा कार्यक्रम के दौरान, वेनेरा 11 और वेनेरा 12 प्रोब ने बिजली के एक निरंतर प्रवाह का पता लगाया और वेनेरा 12 ने अपने अवतरण के बाद एक शक्तिशाली गर्जन की करताल दर्ज की | यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के वीनस एक्सप्रेस ने उँचे वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में बिजली दर्ज की |[33] जबकि पृथ्वी पर बारिश गरज-तूफ़ान लाती है, वहीं शुक्र की सतह पर कोई वर्षा नहीं होती है (हालांकि उपरी वायुमंडल में यह वर्षा सल्फ्युरिक अम्ल करता है जो सतह से करीब 25 किमी उपर वाष्पीकृत कर दी जाती है)। एक संभावना है एक ज्वालामुखी विस्फोट से उडी राख ने बिजली पैदा की थी | एक अन्य प्रमाण वायुमंडल में मौजुद सल्फर डाइऑक्साइड सांद्रता के माप से आता है, जिसे 1978 और 1986 के बीच एक 10 के कारक के साथ बुंदों से पाया गया था। इसका मतलब यह हो सकता है कि पहले बड़े पैमाने पर ज्वालामुखीय विस्फोट से स्तर बढ़ाया गया था।[34] शुक्र पर समूचे हजार भर प्रहार क्रेटर सतह भर मे समान रूप से वितरित है। पृथ्वी और चंद्रमा जैसे अन्य क्रेटरयुक्त निकायों पर, क्रेटर गिरावट की अवस्थाओं की एक रेंज दिखाते है। चंद्रमा पर गिरावट का कारण उत्तरोत्तर ट्क्कर है, तो वहीं पृथ्वी पर यह हवा और बारिश के कटाव के कारण होती है। शुक्र पर लगभग 85% क्रेटर प्राचीन हालत में हैं। क्रेटरों की संख्या, अपनी सुसंरक्षित परिस्थिती के सानिध्य के साथ, करीब 30-60 करोड वर्ष पूर्व की एक वैश्विक पुनर्सतहीकरण घटना के अधीन इस ग्रह के गुजरने का संकेत करती है,[35][36] ज्वालामुखीकरण मे पतन का अनुसरण करती है।[37] जहां एक ओर पृथ्वी की पर्पटी निरंतर प्रक्रियारत है, वहीं शुक्र को इस तरह की प्रक्रिया के पोषण के लिए असमर्थ समझा गया है। बिना प्लेट विवर्तनिकी के बावजुद अपने मेंटल से गर्मी फैलाने के लिए शुक्र एक चक्रीय प्रक्रिया से होकर गुजरता है जिसमें मेंटल तापमान वृद्धि पर्पटी के कमजोर होने के लिए आवश्यक चरम स्तर तक पहुंचने तक जारी रहती है | फिर, लगभग 10 करोड वर्षों की अवधि में दबाव एक विशाल पैमाने पर होता है जो पर्पटी का पूरी तरह से पुनर्नवीकरण कर देता है।[25] शुक्र क्रेटरों के परास व्यास में 3 किमी से लेकर 280 किमी तक है। आगंतुक निकायों पर घने वायुमंडल के प्रभाव के कारण 3 किमी से कम कोई क्रेटर नहीं है। एक निश्चित गतिज ऊर्जा से कम के साथ आने वाली वस्तुओं को वायुमंडल ने इतना धीमा किया हैं कि वें एक प्रहार क्रेटर नहीं बना पाते है।[38] व्यास मे 50 किमी से कम के आने वाले प्रक्ष्येप खंड-खंड हो जाएंगे और सतह पर पहुंचने से पहले ही वायुमंडल में भस्म हो जाएंगे।[39] आंतरिक संरचना भूकम्पीय डेटा या जड़त्वाघूर्ण की जानकारी के बगैर शुक्र की आंतरिक संरचना और भू-रसायन के बारे में थोड़ी ही प्रत्यक्ष जानकारी उपलब्ध है।[40] शुक्र और पृथ्वी के बीच आकार और घनत्व में समानता बताती है, वें समान आंतरिक संरचना साझा करती है: एक कोर, एक मेंटल और एक क्रस्ट। पृथ्वी पर की ही तरह शुक्र का कोर कम से कम आंशिक रूप से तरल है क्योंकि इन दो ग्रहों के ठंडे होने की दर लगभग एक समान रही है।[41] शुक्र का थोड़ा छोटा आकार बताता है, इसके गहरे आंतरिक भाग में दबाव पृथ्वी से काफी कम हैं। इन दो ग्रहों के बीच प्रमुख अंतर है, शुक्र पर प्लेट टेक्टोनिक्स के लिए प्रमाण का अभाव, संभवतः क्योंकि इसकी परत कम चिपचिपा बनाने के लिए बिना पानी के अपहरण के लिए बहुत मजबूत है। इसके परिणामस्वरूप ग्रह से गर्मी की कमी कम हो जाती है, इसे ठंडा करने से रोकती है और आंतरिक रूप से जेनरेट किए गए चुंबकीय क्षेत्र की कमी के लिए संभावित स्पष्टीकरण प्रदान किया जाता है।[42] बावजुद, शुक्र प्रमुख पुनर्सतहीकरण घटनाओं में अपनी आंतरिक ऊष्मा बीच बीच में खो सकता हैं।[35] वातावरण और जलवायु शुक्र का वायुमंडल अत्यंत घना है, जो मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन की एक छोटी मात्रा से मिलकर बना है। वायुमंडलीय द्रव्यमान पृथ्वी पर के वायुमंडल की तुलना मे 93 गुना है, जबकि ग्रह के सतह पर का दबाव पृथ्वी पर के सतही दबाव की तुलना मे 92 गुना है- यह दबाव पृथ्वी के महासागरों की एक किलोमीटर करीब की गहराई पर पाये जाने वाले दबाव के बराबर है। सतह पर घनत्व 65 किलो/घनमीटर है (पानी की तुलना में 6.5%) | यहां का CO2-बहुल वायुमंडल, सल्फर डाइऑक्साइड के घने बादलों के साथ-साथ, सौर मंडल का सबसे शक्तिशाली ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करता है और कम से कम 462 °C (864 °F) का सतही तापमान पैदा करता है।[7][45] यह शुक्र की सतह को बुध की तुलना में ज्यादा तप्त बनाता है। बुध का न्यूनतम सतही तापमान −220°C और अधिकतम सतही तापमान 420°C है।[46] शुक्र ग्रह सूर्य से दोगुनी के करीब दूरी पर होने के बावजुद बुध सौर विकिरण (irradiance) का केवल 25% प्राप्त करता है। प्रायः शुक्र की सतह नारकीय रूप में वर्णित है।[47]यह तापमान नसबंदी प्राप्त करने के लिए उपयोग किए जाने वाले तापमान से भी अधिक है।(See also: Hot air oven) अध्ययनों ने बताया है कि शुक्र का वातावरण हाल की तुलना में अरबों साल पहले पृथ्वी की तरह बहुत ज्यादा था और वहां सतह पर तरल पानी की पर्याप्त मात्रा रही हो सकती है। लेकिन, 60 करोड से लेकर कई अरब वर्षों तक की अवधि के बाद,[48] मूल पानी के वाष्पीकरण के कारण एक दौडता-भागता ग्रीनहाउस प्रभाव हुआ, जिसने वहां के वातावरण में एक महत्वपूर्ण स्तर की ग्रीन हाउस गैसों को पैदा किया |[49] हालांकि ग्रह पर सतही हालात किसी भी पृथ्वी-सदृश्य जीवन के लिए लम्बी मेहमान नवाजी योग्य नहीं है, जो इस घटना के पहले रहे हो सकते है। यह संभावना कि एक रहने योग्य दूसरी जगह निचले और मध्यम बादल परतों में मौजुद है, शुक्र अब भी दौड से बाहर नहीं हुआ है।[50] तापीय जड़ता और निचले वायुमंडल में हवाओं द्वारा उष्मा के हस्तांतरण का मतलब है कि शुक्र की सतह के तापमान रात और दिन के पक्षों के बीच काफी भिन्न नहीं होते है, बावजुद इसके कि ग्रह का घूर्णन अत्यधिक धीमा है। सतह पर हवाएं धीमी हैं, प्रति घंटे कुछ ही किलोमीटर की दूरी चलती है, लेकिन शुक्र के सतह पर वातावरण के उच्च घनत्व की वजह से, वे अवरोधों के खिलाफ उल्लेखनीय मात्रा का बल डालती है और सतह भर में धूल और छोटे पत्थरों का परिवहन करती है। यह अकेला ही इससे होकर मानवीय चहल कदमी के लिए मुश्किल खड़ी करता होगा, अन्यथा गर्मी, दबाव और ऑक्सीजन की कमी कोई समस्या नहीं थी।[51] सघन CO2 परत के ऊपर घने बादल हैं जो मुख्य रूप से सल्फर डाइऑक्साइड और सल्फ्यूरिक अम्ल की बूंदों से मिलकर बने है।[52][53] ये बादल लगभग 90% सूर्य प्रकाश को परावर्तित व बिखेरते है जो कि वापस अंतरिक्ष में उन पर गिरता है और शुक्र की सतह के दृश्य प्रेक्षण को रोकते है। बादलों के स्थायी आवरण का अर्थ है कि भले ही शुक्र ग्रह पृथ्वी की तुलना में सूर्य से नजदीक है, पर शुक्र की सतह अच्छी तरह से तपी नहीं है। बादलों के शीर्ष पर की 300 किमी/घंटा की शक्तिशाली हवाएं हर चार से पांच पृथ्वी दिवसो में ग्रह का चक्कर लगाती है।[54] शुक्र की हवाएं उसकी घूर्णन के 60 गुने तक गतिशील है, जबकि पृथ्वी की सबसे तेज हवाएं घूर्णन गति की केवल 10% से 20% हैं।[55] शुक्र की सतह प्रभावी ढंग से समतापीय है, यह न सिर्फ दिन और रात के बीच बल्कि भूमध्य रेखा और ध्रुवों के मध्य भी एक स्थिर तापमान बनाए रखता है।[2][56] ग्रह का अल्प अक्षीय झुकाव (कम से कम तीन डिग्री, तुलना के लिए पृथ्वी का 23 डिग्री) भी मौसमी तापमान विविधता को कम करता है।[57] तापमान में उल्लेखनीय भिन्नता केवल ऊंचाई के साथ मिलती है। 1995 में, मैगेलन जांच ने उच्चतम पर्वत शिखर के शीर्ष पर एक अत्यधिक प्रतिबिंबित पदार्थ का चित्रण किया जो स्थलीय बर्फ के साथ एक मजबूत समानता थी। यह पदार्थ तर्कसंगत रूप से एक समान प्रक्रिया से बर्फ तक बना है, यद्यपि बहुत अधिक तापमान पर। सतह पर घुलनशील करने के लिए बहुत अस्थिर, यह गैस के रूप में उच्च ऊंचाई को ठंडा करने के लिए गुलाब, जहां यह वर्षा के रूप में गिर गया। इस पदार्थ की पहचान निश्चितता के साथ ज्ञात नहीं है, लेकिन अटकलें मौलिक टेल्यूरियम से सल्फाइड (गैलेना) तक ले जाती हैं।[58] शुक्र के बादल पृथ्वी पर के बादलों की ही तरह बिजली पैदा करने में सक्षम हैं।[59] बिजली की मौजुदगी विवादित रही है जब से सोवियत वेनेरा प्रोब द्वारा प्रथम संदेहास्पद बौछार का पता लगाया गया था। 2006-07 में वीनस एक्सप्रेस ने स्पष्ट रूप से व्हिस्टलर मोड तरंगों का पता लगाया, जो बिजली का चिन्हक है। उनकी आंतरायिक उपस्थिति मौसम गतिविधि से जुड़े एक पैटर्न को इंगित करता है। बिजली की दर पृथ्वी पर की तुलना में कम से कम आधी है।[59] 2007 में वीनस एक्सप्रेस प्रोब ने खोज की कि एक विशाल दोहरा वायुमंडलीय भंवर ग्रह के दक्षिणी ध्रुव पर मौजूद है।[60][61] 2011 में वीनस एक्सप्रेस प्रोब द्वारा एक अन्य खोज की गई और वह है, शुक्र के वातावरण की ऊंचाई में एक ओजोन परत मौजूद है।[62] 29 जनवरी 2013 को ईएसए के वैज्ञानिकों ने बताया कि शुक्र ग्रह का आयनमंडल बाहर की ओर बहता है, जो इस मायने में समान है "इसी तरह की परिस्थितियों में एक धूमकेतु से आयन पूंछ की बौछार होती देखी गई"।"[63][64] चुंबकीय क्षेत्र और कोर 1967 में वेनेरा 4 ने शुक्र के चुंबकीय क्षेत्र को पृथ्वी की तुलना में बहुत कमजोर पाया। यह चुंबकीय क्षेत्र एक आंतरिक डाइनेमो, पृथ्वी के अंदरुनी कोर की तरह, की बजाय आयनमंडल और सौर वायु के बीच एक अंतःक्रिया द्वारा प्रेरित है।[65][66] शुक्र का छोटा सा प्रेरित चुंबकीय क्षेत्र वायुमंडल को ब्रह्मांडीय विकिरण के खिलाफ नगण्य सुरक्षा प्रदान करता है। यह विकिरण बादल दर बादल बिजली निर्वहन का परिणाम हो सकता है।[67] आकार में पृथ्वी के बराबर होने के बावजुद शुक्र पर एक आंतरिक चुंबकीय क्षेत्र की कमी होना आश्चर्य की बात थी | यह भी उम्मीद थी कि इसका कोर एक डाइनेमो रखता है। एक डाइनेमो को तीन चीजों की जरुरत होती है: एक सुचालक तरल, घूर्णन और संवहन। कोर को विद्युत प्रवाहकीय होना माना गया है, जबकि इसके घूर्णन को प्रायः बहुत ज्यादा धीमी गति का होना माना गया है, सिमुलेशन दिखाते है कि एक डाइनेमो निर्माण के लिए यह पर्याप्त है।[68][69] इसका तात्पर्य है, डाइनेमो गुम है क्योंकि शुक्र के कोर में संवहन की कमी है। पृथ्वी पर, संवहन कोर के बाहरी परत मे पाया जाता है क्योंकि तली की तरल परत शीर्ष की तुलना में बहुत ज्यादा तप्त है। शुक्र पर, एक वैश्विक पुनर्सतहीकरण घटना ने प्लेट विवर्तनिकी को बंद कर दिया हो सकता है और यह भूपटल से होकर उष्मा प्रवाह के घटाव का कारण बना। इसने मेंटल तापमान को बढ़ने के लिए प्रेरित किया, जिससे कोर के बाहर उष्मा प्रवाह बढ़ गया। नतीजतन, एक चुंबकीय क्षेत्र चलाने के लिए कोई आंतरिक भूडाइनेमो उपलब्ध नहीं है। इसके बजाय, कोर से निकलने वाली तापीय ऊर्जा भूपटल को दोबारा गर्म करने के लिए बार-बार इस्तेमाल हुइ है।[70] एक संभावना यह कि शुक्र का कोई ठोस भीतरी कोर नहीं है,[71] या इसका कोर वर्तमान में ठंडा नहीं है, इसलिए कोर का पूरा तरल हिस्सा लगभग एक ही तापमान पर है। एक और संभावना कि इसका कोर पहले से ही पूरी तरह जम गया है। कोर की अवस्था गंधक के सान्द्रण पर अत्यधिक निर्भर है, जो फिलहाल अज्ञात है।[70] शुक्र के इर्दगिर्द दुर्बल चुंबकीय आवरण का मतलब है सौर वायु ग्रह के बाह्य वायुमंडल के साथ सीधे संपर्क करती है। यहां, हाइड्रोजन व ऑक्सीजन के आयन पराबैंगनी विकिरण से निकले तटस्थ अणुओं के वियोजन द्वारा बनाये गये है। सौर वायु फिर ऊर्जा की आपूर्ति करती है जो इनमें से कुछ आयनों को ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र से पलायन के लिए पर्याप्त वेग देती है। इस क्षरण प्रक्रिया का परिणाम निम्न-द्रव्यमान हाइड्रोजन, हीलियम और ऑक्सीजन आयनों की हानि के रूप मे होती है, जबकि उच्च-द्रव्यमान अणुओं, जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड, को उसी तरह से ज्यादा बनाये रखने के लिए होती है। सौर वायु द्वारा वायुमंडलीय क्षरण ग्रह के गठन के बाद के अरबों वर्षों के दरम्यान जल के खोने का शायद सबसे बड़ा कारण बना। इस क्षरण ने उपरि वायुमंडल में उच्च-द्रव्यमान ड्यूटेरियम से निम्न-द्रव्यमान हाइड्रोजन के अनुपात को निचले वायुमंडल में अनुपात का 150 गुना बढ़ा दिया है।[72] परिक्रमा एवं घूर्णन शुक्र करीबन 0.72 एयू (10,80,00,000 किमी; 6,70,00,000 मील) की एक औसत दूरी पर सूर्य की परिक्रमा करता है और हर 224.65 दिवस को एक चक्कर पूरा करता है। यद्यपि सभी ग्रहीय कक्षाएं दीर्घवृत्तीय हैं, शुक्र की कक्षा 0.01 से कम की एक विकेन्द्रता के साथ, वृत्ताकार के ज्यादा करीब है।[2] जब शुक्र ग्रह, पृथ्वी और सूर्य के बीच स्थित होता है, यह स्थिति अवर संयोजन कहलाती है, जो उसकी पहुंच को पृथ्वी से निकटतम बनाती है, अन्य ग्रह 4.1 करोड की औसत दूरी पर है।[2] शुक्र औसतन हर 584 दिनों में अवर संयोजन पर पहुँचता है।[2] पृथ्वी की कक्षा की घटती विकेन्द्रता के कारण, यह न्यूनतम दूरी दसीयों हजारों वर्ष उपरांत सर्वाधिक हो जाएगी। सन् 1 से लेकर 5383 तक, 4 करोड किमी से कम की 526 पहुंच है, फिर लगभग 60,158 वर्षों तक कोई पहुंच नहीं है।[73] सर्वाधिक विकेन्द्रता की अवधि के दौरान, शुक्र करीब से करीब 3.82 करोड किमी तक आ सकता है।[2] सौरमंडल के सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा एक वामावर्त दिशा में करते है, जैसा कि सूर्य के उत्तरी ध्रुव के उपर से देखा गया। अधिकांश ग्रह अपने अक्ष पर भी एक वामावर्त दिशा में घूमते है, लेकिन शुक्र हर 243 पृथ्वी दिवसों में एक बार दक्षिणावर्त ( "प्रतिगामी" घूर्णन कहा जाता है) घूमता है, यह किसी भी ग्रह की सर्वाधिक धीमी घूर्णन अवधि है। इस प्रकार एक शुक्र नाक्षत्र दिवस एक शुक्र वर्ष (243 बनाम 224.7 पृथ्वी दिवस) से लंबे समय तक रहता है। शुक्र की भूमध्य रेखा 6.5 किमी/घंटा की गति से घुमती है, जबकि पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर घूर्णन लगभग 1,670 किमी/घंटा है।[74] शुक्र का घूर्णन 6.5 मिनट/शुक्र नाक्षत्र दिवस तक धीमा हो गया है, जब से मैगलन अंतरिक्ष यान ने 16 साल पहले उसका दौरा किया है।[75] प्रतिगामी घूर्णन के कारण, शुक्र पर एक सौर दिवस की लंबाई इसके नाक्षत्र दिवस की तुलना में काफी कम है, जो कि 116.75 पृथ्वी दिवस है (यह शुक्र सौर दिवस को बुध के 176 पृथ्वी दिवसों की तुलना में छोटा बनाता है)। शुक्र का एक वर्ष लगभग 1.92 शुक्र सौर दिवस लंबा है।[8] शुक्र की धरती से एक प्रेक्षक के लिए, सूर्य पश्चिम में उदित और पूर्व में अस्त होगा।[8] शुक्र ग्रह, विभिन्न घूर्णन अवधि और झुकाव के साथ एक सौर नीहारिका से गठित हुआ हो सकता है। सघन वायुमंडल पर ज्वारीय प्रभाव और ग्रहीय उद्विग्नता द्वारा प्रेरित अस्तव्यस्त घूर्णन बदलाव के कारण वह वहां से अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुंचा है। यह बदलाव जो कि अरबों वर्षों की क्रियाविधि उपरांत घटित हुआ होगा। शुक्र की घूर्णन अवधि सम्भवतः एक संतुलन की अवस्था को दर्शाती है जो, सूर्य के गुरुत्वाकर्षण की ओर से ज्वारीय जकड़न जिसकी प्रवृत्ति घूर्णन को धीमा करने की होती है और घने शुक्र वायुमंडल के सौर तापन द्वारा बनाई गई एक वायुमंडलीय ज्वार, के मध्य बनती है।[76][77] शुक्र की कक्षा और उसकी घूर्णन अवधि के बीच के 584-दिवसीय औसत अंतराल का एक रोचक पहलू यह है कि शुक्र की पृथ्वी से उत्तरोत्तर नजदीकी पहुंच करीब-करीब पांच शुक्र सौर दिवसो के ठीक बराबर है।[78] तथापि, पृथ्वी के साथ एक घूर्णन-कक्षीय अनुनाद की परिकल्पना छूट गई है।[79] शुक्र का कोई प्राकृतिक उपग्रह नहीं है,[80] हालांकि क्षुद्रग्रह 2002 VE68 वर्तमान में इसके साथ एक अर्ध कक्षीय संबंध रखता है।[81][82] इस अर्ध उपग्रह के अलावा, इसके दो अन्य अस्थायी सह कक्षीय 2001 CK32 और 2012 XE33 है। 17 वीं सदी में गियोवन्नी कैसिनी ने शुक्र की परिक्रमा कर रहे चंद्रमा की सूचना दी जो नेइथ से नामित किया गया था | अगले 200 वर्षों के उपरांत अनेकों द्रष्टव्यों की सूचना दी गई | परन्तु अधिकांश को आसपास के सितारों का होना निर्धारित किया गया था। कैलिफोर्निया प्रौद्योगिकी संस्थान में, एलेक्स एलमी व डेविड स्टीवेन्सन के पूर्व सौर प्रणाली पर 2006 के मॉडलों के अध्ययन बताते है कि शुक्र का हमारे जैसा कम से कम एक चांद था जिसे अरबो साल पहले एक बड़ी टकराव की घटना ने बनाया था।[83] अध्ययन के मुताबिक करीब एक करोड़ साल बाद एक अन्य टक्कर ने ग्रह की घूर्णन दिशा उलट दी। इसने शुक्र के चंद्रमा के घुमाव या कक्षा को धीरे धीरे अंदर की ओर सिकुड़ने के लिए प्रेरित किया जब तक कि वह शुक्र के साथ टकराकर उसमें विलीन नहीं हो गया।[84] यदि बाद की टक्करों ने चन्द्रमा बनाये है तो वें भी उसी तरह से खींच लिए गए। उपग्रहों के अभाव लिए एक वैकल्पिक व्याख्या शक्तिशाली सौर ज्वार का प्रभाव है जो भीतरी स्थलीय ग्रहों की परिक्रमा कर रहे बड़े उपग्रहों को अस्थिर कर सकते है।[80] पर्यवेक्षण शुक्र किसी भी तारे (सूर्य के अलावा) की तुलना में हमेशा उज्जवल है। सर्वाधिक कांतिमान, सापेक्ष कांतिमान −4.9,[10] अर्द्धचंद्र चरण के दौरान होती है जब यह पृथ्वी के निकट होता है। शुक्र करीब −3 परिमाण तक मंद पड़ जाता है जब यह सूर्य द्वारा छुपा लिया जाता है।[9] यह ग्रह दोपहर के साफ आसमान मे काफी उज्जवल दिखाई देता है,[85] और आसानी से देखा जा सकता है जब सूर्य क्षितिज पर नीचा हो। एक अवर ग्रह के रूप में, यह हमेशा सूर्य से लगभग 47° के भीतर होता है।[11] सूर्य की परिक्रमा करते हुए शुक्र प्रत्येक 584 दिवसों पर पृथ्वी को पार कर जाता है।[2] जैसा कि यह दिखाई देता है, यह सूर्यास्त के बाद "सांझ का तारा" से लेकर सूर्योदय से पहले "भोर का तारा" तक बदल जाता है। एक अन्य अवर ग्रह बुध का प्रसरकोण मात्र 28° के अधिकतम तक पहुँचता है और गोधूलि में प्रायः मुश्किल से पहचाना जाता है, जबकि शुक्र को अपनी अधिकतम कांति पर चुक जाना कठिन है। इसके अधिक से अधिक अधिकतम प्रसरकोण का मतलब है यह सूर्यास्त के एकदम बाद तक अंधेरे आसमान में नजर आता है। आकाश में एक चमकदार बिंदु सदृश्य वस्तु के रूप में शुक्र को एक "अज्ञात उड़न तस्तरी" मान लेने की सहज गलत बयानी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1969 में एक उड़न तस्तरी देखे जाने की सूचना दी, जिसके विश्लेषण ने बाद में ग्रह होने की संभावना का सुझाव दिया था | अनगिनत अन्य लोगों ने शुक्र को असाधारण मानने की भूल की है।[86] जैसे ही शुक्र की अपनी कक्षा के इर्दगिर्द हलचल होती है, दूरबीन दृश्यावली में यह चंद्रमा की तरह कलाओं का प्रदर्शन करता है: शुक्र की कलाओं में, ग्रह एक छोटी सी "पूर्ण" छवि प्रस्तुत करता है जब यह सूर्य के विपरीत दिशा में होता है, जब यह सूर्य से अधिकतम कोण पर होता है एक बड़ी "चतुर्थांस कला" प्रदर्शित करता है, एवं रत्रि आकाश में अपनी अधिकतम चमक पर होता है, तथा जैसे ही यह पृथ्वी और सूर्य के मध्य समीपस्थ कहीं आसपास आता है दूरबीन दृश्यावली में एक बहुत बड़ा "पतला अर्द्धचंद्र" प्रस्तुत करता है। शुक्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीचोबीच होता है, अपने सबसे बड़े आकार पर होता है और अपनी "नव कला" प्रस्तुत करता है। इसके वायुमंडल को ग्रह के चारों ओर के अपवर्तित प्रकाश के प्रभामंडल द्वारा एक दूरबीन में देखा जा सकता हैं।[11] शुक्र पारगमन शुक्र की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के सापेक्ष थोड़ी झुकी हुई है; इसलिए, जब यह ग्रह पृथ्वी और सूर्य के बीच से गुजरता है, आमतौर पर सूर्य के मुखाकृति को पार नहीं करता। शुक्र पारगमन करना तब पाया जाता है जब ग्रह का अवर संयोजन पृथ्वी के कक्षीय तल में उपस्थिति के साथ मेल खाता है। शुक्र के पारगमन 243 साल के चक्रों में होते हैं। पारगमन की वर्तमान पद्धति मे, पहले दो पारगमन आठ वर्षों के अंतराल में होते है, फिर करीब 105.5 वर्षीय या 121.5 वर्षीय लंबा विराम और फिर से वहीं आठ वर्षीय अंतराल के नए पारगमन जोड़ो का दौर शूरू होता है। इस स्वरुप को सबसे पहले 1639 में अंग्रेज खगोलविद् यिर्मयाह होरोक्स ने खोजा था।[87] नवीनतम जोड़ा 8 जून,2004 और 5-6 जून 2012 को था। पारगमन का अनेकों ऑनलाइन आउटलेट्स से सीधे अथवा उचित उपकरण और परिस्थितियों के साथ स्थानीय रूप से देखा जाना हो सका।[88] पारगमन की पूर्ववर्ती जोड़ी दिसंबर 1874 और दिसंबर 1882 में हुई; आगामी जोड़ी दिसंबर 2117 और दिसंबर 2125 में घटित होगी।[89] ऐतिहासिक रूप से, शुक्र के पारगमन महत्वपूर्ण थे, क्योंकि उन्होने खगोलविदों को खगोलीय इकाई के आकार के सीधे निर्धारण करने की अनुमति दी है, साथ ही सौरमंडल के आकार की भी, जैसा कि 1639 में होरोक्स के द्वारा देखा गया[90] कैप्टन कुक की ऑस्ट्रेलिया की पूर्वी तट की खोज तब संभव हो पाई जब वें शुक्र पारगमन के प्रेक्षण के लिए पीछा करते हुए जलयात्रा कर 1768 में ताहिती आ गए।[91][92] भस्मवर्ण प्रकाश तथाकथित भस्मवर्ण प्रकाश लंबे समय से चला आ रहा शुक्र प्रेक्षणों का एक रहस्य है। भस्मवर्ण प्रकाश शुक्र के अंधकार पक्ष की एक सुक्ष्म रोशनी है और नजर आती है जब ग्रह अर्द्ध चंद्राकार चरण में होता है। इस प्रकाश को सर्वप्रथम देखने का दावा बहुत पहले 1643 में हुआ था, परंतु रोशनी के अस्तित्व की भरोसेमंद पुष्टि कभी नहीं हो पाई। पर्यवेक्षकों ने अनुमान लगाया है, यह शुक्र के वायुमंडल में बिजली की गतिविधि से निकला परिणाम हो सकता है, लेकिन यह भ्रामक हो सकता है। हो सकता है यह एक उज्ज्वल, अर्द्ध चंद्राकार आकार की वस्तु देखने के भ्रम का नतीजा हो।[93] अध्ययन पूर्व अध्ययन शुक्र ग्रह को "सुबह के तारे" और "शाम के तारे" दोनों ही रूपों में प्राचीन सभ्यताओं ने जान लिया था। नाम से ही पूर्व समझ जाहिर होती है कि वें दो अलग-अलग वस्तुएं थी | अम्मीसाडुका की शुक्र पटलिका, दिनांकित 1581 ईपू, यूनानी समझ दिखाती है कि दोनों वस्तु एक ही थी। इस पटलिका में शुक्र को "आकाश की उज्ज्वल रानी" के रूप में निर्दिष्ट किया गया है और विस्तृत प्रेक्षणों के साथ इस दृष्टिकोण का समर्थन किया जा सका है।[94] छठी शताब्दी ईसा पूर्व में पाइथागोरस के समय तक, यूनानियों की अवधारणा, फोस्फोरस और हेस्पेरस, के रूप में दो अलग-अलग सितारों की थी।[95] रोमनों ने शुक्र के सुबह की पहलू को लूसिफ़ेर के रूप में और शाम के पहलू को वेस्पेर के रूप में नामित किया है। शुक्र के पारगमन के प्रथम दर्ज अवलोकन का संयोग 4 दिसम्बर 1639 (24 नवम्बर उस समय प्रचलित जूलियन कैलेंडर अंतर्गत) को यिर्मयाह होरोक्स द्वारा, उनके मित्र विलियम क्रेबट्री के साथ-साथ, बना था।[96] 17 वीं सदी की शुरुआत में जब इतालवी भौतिक विज्ञानी गैलीलियो गैलीली ने ग्रह का प्रथम अवलोकन किया, उन्होने उसे चंद्रमा की तरह कलाओं को दिखाया हुआ पाया, अर्धचंद्र से उन्नतोदर से लेकर पूर्णचंद्र तक और ठीक इसके उलट। जब यह सूर्य से सर्वाधिक दूर होता है अपना अर्धचंद्र रुप दिखाता है और जब सूर्य के सबसे नजदीक होता है यह अर्द्ध चंद्राकार या पूर्णचंद्र की तरह दिखता है। यह संभव हो सका केवल यदि शुक्र ने सूर्य की परिक्रमा की और यह टॉलेमी के भूकेन्द्रीय मॉडल, जिसमें सौरमंडल संकेंद्रित था और पृथ्वी केंद्र पर थी, के स्पष्ट खंडन करने के प्रथम अवलोकनों में से था।[97] शुक्र के वायुमंडल की खोज 1761 में रूसी बहुश्रुत मिखाइल लोमोनोसोव द्वारा हुई थी।[98][99] शुक्र के वायुमंडल का अवलोकन 1790 में जर्मन खगोलशास्त्री योहान श्रोटर द्वारा हुआ था। श्रॉटर ने पाया कि ग्रह जब एक पतला अर्द्धचंद्र था, कटोरी 180° से अधिक तक विस्तारित हुई। उन्होने सही अनुमान लगाया कि यह घने वातावरण में सूर्य प्रकाश के बिखरने की वजह से था। बाद में, जब ग्रह अवर संयोजन पर था, अमेरिकी खगोलशास्त्री चेस्टर स्मिथ लीमन ने इसके अंधकार तरफ वाले हिस्से के इर्दगिर्द एक पूर्ण छल्ले का निरिक्षण किया और इसने वायुमंडल के लिए प्रमाण प्रदान किये।[100] The atmosphere complicated efforts to determine a rotation period for the planet, and observers such as Italian-born astronomer Giovanni Cassini and Schröter incorrectly estimated periods of about 24 hours from the motions of markings on the planet's apparent surface.[101] भू-आधारित अनुसंधान 20 वीं सदी तक शुक्र के बारे में थोड़ी बहुत और खोज हुई थी। इसकी करीब-करीब आकृतिहीन डीस्क ने कोई सुराग नहीं दिया कि इसकी सतह आखिर किस तरह की हो सकती है। इसके और अधिक रहस्यों का पर्दाफास, स्पेक्ट्रोस्कोपी, रडार और पराबैंगनी प्रेक्षणों के विकास के साथ ही हुआ। पहले पराबैंगनी प्रेक्षण 1920 के दशक में किए गए जब फ्रैंक ई रॉस ने पाया कि पराबैंगनी तस्वीरों ने काफी विस्तृत ब्योरा दिखाया जो दृश्य और अवरक्त विकिरण में अनुपस्थित था। उन्होने सुझाव दिया ऐसा निचले पीले वातावरण के साथ उसके उपर के पक्षाभ मेघ के अत्यधिक घनेपन की वजह से था।[102] 1900 के दशक में स्पेक्ट्रोस्कोपी प्रेक्षणों ने शुक्र के घूर्णन के बारे में पहला सुराग दिया। वेस्टो स्लिफर ने शुक्र से निकले प्रकाश के डॉप्लर शिफ्ट को मापने की कोशिश की, लेकिन पाया कि वह किसी भी घूर्णन का पता नहीं लगा सके। उन्होने अनुमान लगाया ग्रह की एक बहुत लंबी घूर्णन अवधि होनी चाहिए।[103] 1950 के दशक में बाद के कार्य ने दिखाया कि घूर्णन प्रतिगामी था। शुक्र के रडार प्रेक्षण सर्वप्रथम 1960 के दशक में किए गए थे, इसने घूर्णन अवधि की पहली माप प्रदान की, जो आधुनिक मान के करीब थी।[104] 1970 के दशक में रडार प्रेक्षणों ने पहली बार शुक्र की सतह को विस्तृत रूप से उजागर किया। एरेसिबो वेधशाला पर 300 मीटर की रेडियो दूरबीन का प्रयोग कर ग्रह पर रेडियो तरंगों के स्पंदन प्रसारित किए गए और गूँज ने अल्फा और बीटा क्षेत्रों से नामित दो अत्यधिक परावर्तक क्षेत्रों का पता लगाया। प्रेक्षणों ने पर्वतों के लिए उत्तरदायी ठहराये गए एक उज्ज्वल क्षेत्र भी पता लगाया, इसे मैक्सवेल मोंटेस कहा गया था।[105] शुक्र पर अब अकेली केवल यह तीन ही भूआकृतियां है जिसके महिला नाम नहीं है।[106] अंवेषण आरंभिक प्रयास शुक्र के लिए, वैसे ही किसी भी अन्य ग्रह के लिए, पहला रोबोटिक अन्तरिक्ष यान मिशन, 12 फ़रवरी 1961 को वेनेरा 1 यान के प्रक्षेपण के साथ आरंभ हुआ। सोवियत वेनेरा कार्यक्रम अन्तर्गत यह पहला यान था। वेनेरा 1 ने मिशन के सातवे दिन सम्पर्क खो दिया, तब वह पृथ्वी से 20 लाख किमी की दूरी पर था।[107] शुक्र के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का अन्वेषण भी प्रक्षेपण स्थल पर ही मेरिनर 1 यान को खोने के साथ बुरे हाल मे शुरू हुआ। पर इसके अनुवर्ती मेरिनर 2 ने सफलता पाई। 14 दिसम्बर 1962 को अपने 109-दिवसीय कक्षांतरण के साथ ही यह शुक्र की धरती से 34,883 किमी उपर से गुजरने वाला दुनिया का पहला सफलतम अन्तर्ग्रहीय मिशन बन गया। इसके माइक्रोवेव और इन्फ्रारेड रेडियोमीटर से पता चला कि शुक्र के सबसे उपरी बादल शांत थे जबकि पूर्व के भू-आधारित मापनो ने शुक्र की सतह के तापमान को अत्यधिक गर्म (425० सेन्टीग्रेड) होने की पुष्टि की है,[108] और आखिरकार यह उम्मीद भी खत्म हो गई कि यह ग्रह भूमि-आधारित जीवन का ठिकाना हो सकता है। मेरिनर 2 ने शुक्र के द्रव्यमान और खगोलीय दूरी को और बेहतर प्राप्त किया, पर वह चुंबकीय क्षेत्र या विकिरण बेल्ट का पता लगाने में असमर्थ था।[109] वायुमंडलीय प्रवेश सोवियत वेनेरा 3 यान 1 मार्च 1966 को शुक्र पर उतरते वक्त दुर्घटनाग्रस्त हो गया | वायुमंडल मे प्रवेश करने वाली और किसी अन्य ग्रह की सतह से टकराने वाली यह पहली मानव-निर्मित वस्तु थी | भले ही इसकी संचार प्रणाली विफल हो गई पर इससे पहले यह तमाम ग्रहीय डेटा को प्रेषित करने में सक्षम था | [110] 18 अक्टूबर 1967 को वेनेरा 4 ने सफलतापूर्वक वायुमंडल में प्रवेश किया और अनेको वैज्ञानिक उपकरणो को तैनात किया | वेनेरा 4 ने सतह के तापमान को मेरिनर 2 द्वारा मापे गए लगभग 500० C अधिकतम से भी ज्यादा बताया और वायुमंडल को लगभग 90 से 95% कार्बन डाइऑक्साइड का होना दिखाया | वेनेरा 4 के रचनाकारो द्वारा लगाये गए अनुमानो की तुलना मे शुक्र का वायुमंडल काफी घना था | इसने पैराशुट को उतरने के तयशुदा समय की तुलना मे धीमा कर दिया | इसका मतलब था सतह तक पहुंचने से पहले यान की बैटरियो का मन्द हो जाना | 93 मीनट तक अवतरण डेटा प्रेषित करने के बाद, 24.96 किमी कि ऊचाई पर वेनेरा 4 की दबाव की अंतिम रीडिंग 18 बार थी |[110] एक दिन बाद 19 अक्टूबर 1967 को मेरिनर 5 ने बादलों के शीर्ष से 4000 किमी से कम की ऊंचाई पर एक गुजारें का आयोजन किया | दरअसल मेरिनर 5 को मूल रूप से मंगल से जुडे मेरिनर 4 के लिए एक बैकअप के रूप में बनाया गया था | लेकिन जब मिशन सफल रहा तो यान को शुक्र मिशन के लिए तब्दील कर दिया गया | इसके उपकरणों के जोडे मेरिनर 2 पर की तुलना में अधिक संवेदनशील थे। विशेष रूप में इसके रेडियो प्रच्छादन प्रयोग ने शुक्र के वायुमंडल की संरचना, दबाव और घनत्व के डेटा प्रेषित किए।[111] वेनेरा 4-मेरिनर 5 के संयुक्त डेटा का एक संयुक्त सोवियत-अमेरिकी विज्ञान दल द्वारा औपचारिक वार्तालाप की एक श्रृंखला में अगले वर्ष भर में विश्लेषण किया गया।[112] यह अंतरिक्ष सहयोग का एक प्रारंभिक उदाहरण है।[113] वेनेरा 4 से सीखे सबक के बाद सोवियत यूनियन ने जनवरी 1969 को एक पांच दिवसीय अंतराल मे जुडवें यान वेनेरा 5 और वेनेरा 6 को प्रक्षेपित किया। शुक्र से इनका सामना उसी साल एक दिन के आड़ में 16 व 17 मई को हुआ। यान के कुचलने की दाब सीमा को बढ़ाकर 25 बार तक सुदृढ़ किया गया और एक तेज अवतरण प्राप्त करने के लिए छोटे पैराशूट के साथ सुसज्जित किया गया। बाद के, शुक्र के हाल के वायुमंडलीय मॉडलों ने सतह के दबाव को 75 और 100 बार के बीच होने का सुझाव दिया था। इसलिए इन यानों के सतह पर जीवित बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं थी | 50 मीनट के एक छोटे अंतराल का वायुमंडलीय डेटा प्रेषित करने के बाद दोंनों यान शुक्र के रात्रि पक्ष की सतह पर टकराने से पहले तकरीबन 20 किमी की ऊंचाई पर तबाह हो गए।[110] भूतल और वायुमंडलीय विज्ञान वेनेरा 7 को ग्रह के सतह से निकले डेटा को वापस लाने के प्रयास के लिए पेश किया गया। इसे 180 बार के दबाव को बर्दाश्त करने में सक्षम एक मजबूत अवतरण मॉड्यूल के साथ निर्मित किया गया था। मॉड्यूल को प्रवेश से पहले ठंडा किया गया, साथ ही 35 मिनट के तेज अवतरण के लिए इसे एक विशेष रूप से समेटने वाले पैराशूट के साथ लैस किया गया था। 15 दिसम्बर 1970 को यह वायुमंडल में प्रवेश करता रहा, जबकि माना गया है पैराशूट आंशिक रूप से फट गया और प्रोब ने सतह को एक जोर की टक्कर मारी, पर घातक नहीं। शायद यह अपनी जगह पर झुक गया, कुछ कमजोर संकेत प्रेषित किये और 23 मिनट के लिए तापमान डेटा की आपूर्ति की जो किसी अन्य ग्रह की सतह से प्राप्त की गई पहली दूरमिति थी।[110] वेनेरा 8 के साथ वेनेरा कार्यक्रम जारी रहा | इसने 22 जुलाई 1972 को वायुमंडल मे प्रवेश करने के बाद 50 मीनट तक सतह से आंकडे भेजे | वेनेरा 9 ने 22 अक्टूबर 1975 को वायुमंडल में प्रवेश किया | जबकि वेनेरा 10 ने इसके ठीक तीन दिन बाद 25 अक्टूबर को वायुमंडल में प्रवेश कर शुक्र के परिदृश्य की पहली तस्वीरें भेजी | दोंनों ही यानों ने अपने अवतरण स्थलों के आसपास के तत्कालिक एकदम अलग ही परिदृश्य प्रस्तुत किये। वेनेरा 9 एक 20 डिग्री की ऐसी ढलान पर उतरा था जहां चारों ओर 30-40 सेमी के पत्थर बिखरे हुए थे | वेनेरा 10 ने मौसमी सामग्री सहित बेसाल्ट-प्रकार के बेतरतीब शिलाखंडों को दिखाया।[114] इस बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका ने मेरिनर 10 को उस गुरुत्वीय गुलेल प्रक्षेपवक्र पर भेजा जिसकी राह शुक्र से होकर बुध ग्रह की ओर जाती थी। 5 फ़रवरी 1974 को मेरिनर 10 शुक्र से 5,790 किमी नजदीक से गुजरा और 4,000 से ज्यादा तस्वीरों के साथ वापस लौटा। इसने तब की सबसे अच्छी तस्वीरें हासिल की थी जिसमें दृश्य प्रकाश में शुक्र को लगभग आकृतिहीन दिखाया गया था। लेकिन पराबैंगनी प्रकाश ने बादलों को विस्तार मे दिखाया जिसे पृथ्वी-आधारित अवलोकनों ने पहले कभी नहीं दिखाया था।[115] अमेरिकी पायनियर वीनस परियोजना ने दो अलग-अलग अभियानों को शामिल किया था।[116] पायनियर वीनस ऑर्बिटर को 4 दिसम्बर 1978 को शुक्र के आसपास की एक दीर्घवृत्ताकार कक्षा में स्थापित गया था। यह 13 साल से अधिक समय तक वहां बना रहा। इसने रडार के साथ सतह की नाप-जोख की तथा वायुमंडल का अध्ययन किया। पायनियर वीनस मल्टीप्रोब ने कुल चार जांच-यान छोडे जिसने 9 दिसम्बर 1978 को वायुमंडल में प्रवेश किया और इसकी संरचना, हवाओं और ऊष्मा अपशिष्टों पर डेटा प्रेषित किया।[117] अगले चार वर्षों में चार और वेनेरा लैंडर मिशनों ने अपनी जगह ले ली। जिनमें से वेनेरा 11 और वेनेरा 12 ने शुक्र के विद्युतीय तुफानों का पता लगाया[118] तथा वेनेरा 13 और वेनेरा 14, चार दिनों की आड में 1 और 5 मार्च 1982 को नीचे उतरे और सतह की पहली रंगीन तस्वीरें भेजी। सभी चार मिशनों को ऊपरी वायुमंडल में गतिरोध के लिए पैराशूट के साथ तैनात किया गया था, लेकिन 50 किमी की ऊंचाई पर उनको मुक्त कर दिया गया, क्योंकि शुक्र का घना निचला वायुमंडल बिना किसी अतिरिक्त साधन के आरामदायक अवतरण के लिए पर्याप्त घर्षण प्रदान करता है। वेनेरा 13 और 14 दोनों ने एक्स-रे प्रतिदीप्ति स्पेक्ट्रोमीटर के साथ ऑन-बोर्ड मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण किया और प्रविष्ठी टक्कर के साथ की मिट्टी की संपीडता मापने का प्रयास किया।[118] वेनेरा 14 ने, हालांकि, खुद से अलग हो चुके अपने ही कैमरें के लेंस का ढक्कन गिरा दिया और इसकी प्रविष्ठी मिट्टी को छुने मे विफल रही।[118] अक्टूबर 1983 में वेनेरा कार्यक्रम को बंद करने का तब समय आ गया, जब वेनेरा 15 और वेनेरा 16 को सिंथेटिक एपर्चर रडार के साथ शुक्र के इलाकों के मानचित्रण संचालन के लिए कक्षा में स्थापित किया गया।[119] 1985 में सोवियत संघ ने, शुक्र और उसी वर्ष अंदरुनी सौरमंडल से होकर गुजर रहे हैली धूमकेतु, से मिले अवसर का संयुक्त अभियानों से भरपूर फायदा उठाया। 11 और 15 जून 1985 को हैली के पडने वाले रास्ते पर वेगा कार्यक्रम के दो अंतरिक्ष यानों से वेनेरा-शैली की एक-एक प्रविष्ठी गिराइ गई (जिसमें वेगा 1 आंशिक रूप से असफल रहा) और उपरी वायुमंडल के भीतर एक गुब्बारा-समर्थित एयरोबोट छोडा गया। गुब्बारों ने 53 किमी के करीब एक संतुलित ऊंचाई हासिल की, जहां दबाव और तापमान तुलनात्मक रूप से पृथ्वी की सतह पर जितना होता हैं। दोनों तकरीबन 46 घंटों के लिए परिचालन बने रहे और शुक्र के वातावरण को पूर्व धारणा से ज्यादा अशांत पाया | यहां अशांत वातावरण का तात्पर्य उच्च हवाओं और शक्तिशाली संवहन कक्षों से है।[120][121] रडार मानचित्रण प्रारंभिक भू-आधारित रडार ने सतह की एक बुनियादी समझ प्रदान की। पायनियर वीनस और वेनेरा ने बेहतर समाधान प्रदान किये। संयुक्त राज्य अमेरिका के मैगलन यान को रडार से शुक्र के सतही मानचित्रण के लिए एक मिशन के साथ 4 मई 1989 को प्रक्षेपित किया गया था।[27] अपने 4½ वर्षीय कार्यकलापों के दरम्यान प्राप्त की गई उच्च-स्पष्टता की तस्वीरें पूर्व के सभी नक्शों से काफी आगे निकल गई और यह अन्य ग्रहों की दृश्य प्रकाश तस्वीरों के बराबर थी। मैगलन ने रडार द्वारा शुक्र की 98% से अधिक भूमी को प्रतिबिंबित किया,[122] और उसके 95% गुरूत्व क्षेत्र को प्रतिचित्रित किया। 1994 में अपने मिशन के अंत में, मैगलन को शुक्र के घनत्व के अंदाज के लिए वायुमंडल में तबाह होने भेज दिया गया था।[123] शुक्र ग्रह को गैलिलियो और कैसिनी अंतरिक्ष यान द्वारा बाहरी ग्रहों के लिए अपने संबंधित मिशनों के गुजारे के दौरान अवलोकित किया गया है। लेकिन मैगलन एक दशक से भी ज्यादा तक के लिए शुक्र का अंतिम समर्पित मिशन बन गया।[124][125] वर्तमान और भविष्य के मिशन नासा के बुध के मेसेंजर मिशन ने अक्टूबर 2006 और जून 2007 में शुक्र के लिए दो फ्लाईबाई का आयोजन किया। धीमा करने के लिए इसके प्रक्षेपवक्र का मार्च 2011 में बुध की एक संभावित कक्षा में समावेश हुआ | मेसेंजर ने उन दोनों फ्लाईबाई पर वैज्ञानिक डेटा एकत्र किया।[126] वीनस एक्सप्रेस प्रोब यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा डिजाइन और निर्मित किया गया था। इसे स्टारसेम के माध्यम से प्राप्त एक रूसी सोयुज-फ्रेगट रॉकेट द्वारा 9 नवम्बर 2005 को प्रमोचित किया गया। 11 अप्रैल 2006 को इसने सफलतापूर्वक शुक्र के इर्दगिर्द एक ध्रुवीय कक्षा ग्रहण की।[127] प्रोब शुक्र के वायुमंडल और बादलों का एक विस्तृत अध्ययन कर रहा है। इसमें ग्रह का प्लाज्मा वातावरण और सतही विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान, के मानचित्रण शामिल है। वीनस एक्सप्रेस से उजागर प्राथमिक परिणामों से एक यह खोज है कि विशाल दोहरा वायुमंडलीय भंवर ग्रह के दक्षिणी ध्रुव पर मौजूद है।[127] [128]]] जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (JAXA) ने एक शुक्र परिक्रमा यान अकात्सुकी (औपचारिक रूप से "Planet-C") को तैयार किया, जो 20 मई 2010 को प्रक्षेपित हुआ था, पर यह यान दिसंबर 2010 में कक्षा में प्रवेश करने में असफल रहा | आशाएं अभी बाकी है, क्योंकि यान सफलतापूर्वक सीतनिद्रा में है और छह साल में एक और प्रविष्टि का प्रयास कर सकता है। नियोजित जांच-पड़ताल ने बिजली की उपस्थिति की पुष्टि हेतू सतही प्रतिचित्रण के लिए डिजाइन किया गया एक इंफ्रारेड कैमरा और उपकरणों को, साथ ही वर्तमान भूपटल के ज्वालामुखीकरण के अस्तित्व के निर्धारण को, शामिल किया है।[129] यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को 2014 में बुध के लिए एक बेपिकोलम्बो नामक मिशन शुरू करने की उम्मीद है। 2020 में बुध की कक्षा तक पहुंचने से पहले यह शुक्र के लिए दो फ्लाईबाई का प्रदर्शन करेंगे |[130] नासा ने अपने न्यू फ्रंटियर्स कार्यक्रम के तहत, सतह की स्थिति का अध्ययन करने और regolith के तात्विक और खनिजीय लक्षणों की जांच करने के लिए, शुक्र ग्रह पर उतरने के लिए एक वीनस इन-सीटु एक्सप्लोरर नामक लैंडर मिशन का प्रस्ताव किया है। यह यान, सतह में ड्रिल करने और उन प्राचीन चट्टान के नमूनों के अध्ययन के लिए जो कठोर सतही परिस्थितियों से अपक्षीण नहीं हुए है, के लिए एक कोर सेम्पलर से लैस किया जाएगा। शुक्र का वायुमंडलीय और सतही अन्वेषी मिशन "सर्फेस एंड एटमोस्फेयर जियोकेमिकल एक्सप्लोरल" (SAGE) को 2009 न्यू फ्रंटियर चयन में एक मिशन अध्ययन उम्मीदवार के रूप में नासा द्वारा चुना गया था।[131] लेकिन मिशन को उड़ान के लिए नहीं चुना गया। वेनेरा डी (रूसी: Венера-Д) अन्वेषी शुक्र के लिए एक प्रस्तावित रूसी अंतरिक्ष यान है। इसे शुक्र ग्रह के इर्दगिर्द रिमोट-सेंसिंग प्रेक्षण और एक लैंडर की तैनाती करने के अपने लक्ष्य के साथ 2016 के आसपास छोड़ा जाएगा। यह वेनेरा डिजाइन पर आधारित है। जो ग्रह की धरती पर लंबी अवधि तक जीवित रहने में सक्षम है। अन्य प्रस्तावित शुक्र अन्वेषण अवधारणाओं में रोवर, गुब्बारे और एयरोबोट शामिल हैं।[132] मानवयुक्त उड़ान अवधारणा एक मानवयुक्त शुक्र फ्लाईबाई मिशन, अपोलो कार्यक्रम हार्डवेयर का प्रयोग कर, 1960 के दशक के अंत में प्रस्तावित किया गया था।[133] मिशन को अक्टूबर के अंत या नवंबर 1973 की शुरुआत में शुरु करने की योजना बनाई गई और तकरीबन एक वर्ष तक चलने वाली इस उड़ान में तीन लोगों को शुक्र के पास भेजने के लिए एक सेटर्न V रॉकेट का प्रयोग किया गया। करीब चार महीने बाद, अंतरिक्ष यान शुक्र की सतह से लगभग 5,000 किलोमीटर की दूरी से गुजर गया।[133] अंतरिक्ष यान समय-सूची यह शुक्र ग्रह को और अधिक बारीकी से अन्वेषण के लिए पृथ्वी से छोड़े गये प्रयासरत और सफल अंतरिक्ष यान की एक सूची है।[134] शुक्र को पृथ्वी की कक्षा में स्थित हबल स्पेस टेलीस्कोप द्वारा भी प्रतिबिंबित किया गया है। सूदूर दूरबीन प्रेक्षण शुक्र के बारे में जानकारी का एक अन्य स्रोत है। औपनिवेशीकरण अपने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण शुक्र की धरती पर उपनिवेश मौजूदा प्रौद्योगिकी के बस के बाहर है। हालांकि, सतह से लगभग पचास किलोमीटर ऊपर वायुमंडलीय दबाव और तापमान पृथ्वी की सतह पर जितना ही हैं। शुक्र के वायुमंडल में वायु (नाइट्रोजन और ऑक्सीजन) एक हल्की गैस होगी जो अधिकांशतः कार्बन डाइऑक्साइड है। इसने शुक्र के वायुमंडल में व्यापक "अस्थायी शहरों" के प्रस्तावों के लिए प्रेरित किया है।[135] एयरोस्टेट (हवा के गुब्बारे से भी हल्का) को प्रारंभिक अन्वेषण के लिए एवं अंतिम रूप से स्थायी बस्तियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।[135] कई इंजीनियरिंग चुनौतियों में से एक इन ऊंचाइयों पर सल्फ्यूरिक एसिड की खतरनाक मात्रा हैं।[135] सन्दर्भ श्रेणी:शुक्र ग्रह श्रेणी:सौर मंडल के ग्रह श्रेणी:ग्रह श्रेणी:खगोलशास्त्र
शुक्र ग्रह का व्यास लगभग कितने किमी है?
12,092
2,176
hindi
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भारतीय चंदन (Santalum album) का संसार में सर्वोच्च स्थान है। इसका आर्थिक महत्व भी है। यह पेड़ मुख्यत: कर्नाटक के जंगलों में मिलता है तथा भारत के अन्य भागों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है। भारत के 600 से लेकर 900 मीटर तक कुछ ऊँचे स्थल और मलयद्वीप इसके मूल स्थान हैं। इस पेड़ की ऊँचाई 18 से लेकर 20 मीटर तक होती है। यह परोपजीवी पेड़, सैंटेलेसी कुल का सैंटेलम ऐल्बम लिन्न (Santalum album linn.) है। वृक्ष की आयुवृद्धि के साथ ही साथ उसके तनों और जड़ों की लकड़ी में सौगंधिक तेल का अंश भी बढ़ने लगता है। इसकी पूर्ण परिपक्वता में 8 से लेकर 12वर्ष तक का समय लगता है। इसके लिये ढालवाँ जमीन, जल सोखनेवाली उपजाऊ चिकली मिट्टी तथा 500 से लेकर 625 मिमी. तक वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। तने की नरम लकड़ी तथा जड़ को जड़, कुंदा, बुरादा, तथा छिलका और छीलन में विभक्त करके बेचा जाता है। इसकी लकड़ी का उपयोग मूर्तिकला, तथा साजसज्जा के सामान बनाने में और अन्य उत्पादनों का अगरबत्ती, हवन सामग्री, तथा सौगंधिक तेज के निर्माण में होता है। आसवन द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग 3,000 मीटरी टन चंदन की लकड़ी से तेल निकाला जाता है। एक मीटरी टन लकड़ी से 47 से लेकर 50 किलोग्राम तक चंदन का तेल प्राप्त होता है। रसायनज्ञ इस तेल के सौगंधिक तत्व को सांश्लेषिक रीति से प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। चंदन के प्रसारण में पक्षी भी सहायक हैं। बीजों के द्वारा रोपकर भी इसे उगाया जा रहा है। सैंडल स्पाइक (Sandle spike) नामक रहस्यपूर्ण और संक्रामक वानस्पतिक रोग इस वृक्ष का शत्रु है। इससे संक्रमित होने पर पत्तियाँ ऐंठकर छोटी हो जाती हैं और वृक्ष विकृत हो जाता है। इस रोग की रोकथाम के सभी प्रयत्न विफल हुए हैं। चंदन के स्थान पर उपयोग में आनेवाले निम्नलिखित वृक्षों की लकड़ियाँ भी हैं: (१) आस्ट्रेलिया में सैंटेलेसिई (Santalaceae) कुल का (क) यूकार्या स्पिकैटा (आर.बी-आर.) स्प्रैग. एवं सम्म.उ सैंटेलम स्पिकैटम् (आर.बी-आर.) ए. डी-सी. (Eucarya Spicata (R.Br.) Sprag. et Summ, Syn. Santalum Spicatum (R.Br.) A.Dc.), (ख) सैंटेलम लैंसियोलैटम आर. बी-आर. (Santalum lanceolatum (R.Br.)) तथा (ग) मायोपोरेसी (Myoporaceae) कुल के एरिमोफिला मिचेल्ली बैंथ. (Eremophila mitchelli Benth.) नामक वृक्ष; (२) पूर्वी अफ्रीका तथा मैडेगास्कर के निकटवर्ती द्वीपों में सैंटेलेसी कुल का ओसाइरिस टेनुइफोलिया एंग्ल. (Osyris tenuifolia Engl.); तथा (३) हैटी और जमैका में रूटेसिई (Rutaceae) कुल का एमाइरिस बालसमीफेरा एल. (Amyris balsmifera L.), जिसे अंग्रेजी में वेस्ट इंडियन सैंडलवुड भी कहते हैं। बाहरी कड़ियाँ The anatomy of Santalum album (Sandalwood) haustoria. श्रेणी:वृक्ष
चंदन वृक्ष की ऊंचाई लगभग कितने मीटर तक होती है?
18 से लेकर 20
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महासंगणक (supercomputer) उन संगणकों को कहा जाता है जो वर्तमान समय में गणना-शक्ति तथा कुछ अन्य मामलों में सबसे आगे होते हैं। अत्याधुनिक तकनीकों से लैस सुपर कंप्यूटर बहुत बड़े-बड़े परिकलन और अति सूक्ष्म गणनाएं तीव्रता से कर सकता है। इसमें कई माइक्रोप्रोसेसर एक साथ काम करते हुए किसी भी जटिलतम समस्या का तुरंत हल निकाल लेते हैं। वर्तमान में उपलब्ध कंप्यूटरों में सुपर कंप्यूटर सबसे अधिक तीव्र क्षमता, दक्षता व सबसे अधिक स्मृति क्षमता वाला कंप्यूटर है। आधुनिक परिभाषा के अनुसार, वे कंप्यूटर, जो 500 मेगाफ्लॉप की क्षमता से कार्य कर सकते हैं, सुपर कंप्यूटर कहलाते है। सुपर कंप्यूटर एक सेकंड में एक अरब गणनाएं कर सकता है। इसकी गति को मेगा फ्लॉप से नापते है। उपयोग सुपर कंप्यूटरों का इस्तेमाल मुख्यत: विश्वविद्यालयों, सैनिक व वैज्ञानिक अनुसंधान प्रयोगशालाओं में किया जाता है। इसका उपयोग खासकर ऐसे क्षेत्रों में किया जाता है, जिनमें कुछ ही क्षणों में बड़े पैमाने पर गणनाएं करने की जरूरत पड़ती है। मसलन, मौसम संबधी अनुसंधान, नाभिकीय हथियारों, क्वांटम फिजिक्स और रासायनिक यौगिकों के अध्ययन में सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जाता है। सुपरकम्प्युटर का ऑपरेटिंग सिस्टम ज्यादतर नए सुपरकम्प्युटर्स मे लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम काम लिए जाता है लेकिन लिनक्स के आलावा CentOS, bullx SCS, SUSE एंड Cray लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम सुपरकम्प्युटर के लिए काम मे लेते है | इतिहास पहला सुपर कंप्यूटर इल्लीआक 4 है, जिसने 1975 में काम करना आरंभ किया। इसे डेनियल स्लोटनिक ने विकसित किया था। यह अकेले ही एक बार में 64 कंप्यूटरों का काम कर सकता था। इसकी मुख्य मेमोरी में 80 लाख शब्द आ सकते थे और यह 8, 32, 64 बाइट्‌स के तरीकों से अंकगणित क्रियाएं कर सकता था। इसकी कार्य क्षमता 30 करोड़ परिकलन क्रियाएं प्रति सेकंड थी, अर्थात जितनी देर में हम बमुश्किल 8 तक की गिनती गिन सकते हैं, उतने समय में यह जोड़, घटाना, गुणा, भाग के 30 करोड़ सवाल हल कर सकता था। सर्वश्रेष्ट 5 सुपरकंप्यूटर तिअन्हे-१अ (एन यू डी टी), चीन ब्लू जीन/ एल सिस्टम (आईबीएम), यूएस ब्लू जीन/पी सिस्टम (आईबीएम), जर्मनी सिलिकॉन ग्राफिक्स (एसजीआई), न्यू मैक्सिको एका, सीआरएल (आर्म ऑफ टाटा सन्स), भारत इंटरनेशनल कांफ्रेंस फॉर हाई परफोर्मेंस कंप्यूटिंग रेनो (कैलिफोर्निया) ने दुनिया के टॉप- 500 कंप्यूटरों की सूची जारी की है। इसमें टाटा के सुपर कंप्यूटर एका को दुनिया में चौथा और एशिया में सबसे तेज सुपर कंप्यूटर करार दिया गया है। यह एक सेकंड में 117.9 ट्रिलियन (लाख करोड़) गणनाएं कर सकता है। 40 वर्ष पहले सुपर कंप्यूटर के बाजार में जहां महज कई कंपनियां थी, वहीं अब इस बाजार में क्रे, डेल, एचपी, आईबीएम, एनईसी, एसजीआई, एचपी, सन जैसे बड़े नाम ही बचे हैं। महासंगणकों की मुख्य विशेषताएँ महासंगणकों की मुख्य विशेषताएँ ये हैं- संगणन गति - प्रति सेकेण्ड खरबों फ्लोटिंग प्वाइंट संक्रियाएँ (TFlops) करने की क्षमता आकार: इनको ठण्डा करने के लिये विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है। उपयोग करने में कठिनाई: इन्हें विशेषज्य लोग ही उपयोग में ले पाते हैं। ग्राहक: विशाल अनुसंधान केन्द्र सामाजिक पहुँच: लगभग शून्य समाज पर प्रभाव: अनुसंधान के क्षेत्र में बहुत अधिक लागत मूल्य: २०१० में प्रत्येक के लिये सैकड़ों मिलियन डॉलर (क्रे XT5 के लिये लगभग US $ 225MM ); सुपर कंप्यूटर की राजनीति 1980 के अंतिम दशक में भारत को अमेरिका ने क्रे सुपर कंप्यूटर देने से इनकार कर दिया था। इसके पीछे अमेरिका की अपने प्रभुत्व बरकरार रखने की मंशा मानी जा रही थी, क्योंकि वह एक ऐसा दौर था, जब भारत और चीन में तकनीकी क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसे में, अमेरिका नहीं चाहता था कि विश्व में कोई दूसरी शक्ति तकनीक के मामले में उसके मुकाबले में खड़ी हो। चूंकि सुपर कंप्यूटर के उपयोग से रॉकेट प्रक्षेपण, परमाणु विस्फोट के समय गणनाओं में आसानी हो जाती है, इसलिए भी अमेरिका के मन में भय था कि कहीं इसके द्वारा भारत अपने नाभिकीय ऊर्जा प्रसार कार्यक्रम को एक नया रूप न दे दे। लेकिन भारतीय वैज्ञानिकों ने सी-डेक परम-8000 कंप्यूटर बनाकर अपनी क्षमताओं का एहसास करा दिया। 1988 में रूस ने भारत को सुपर कंप्यूटर देने की बात कही थी। लेकिन हार्डवेयर सही न होने के कारण रूस के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। भारत ने सुपर कंप्यूटर बनाने के बाद परम 8000 जर्मनी, यूके और रूस को दिया। महासंगणक और भारत भारत भी अब सुपर कंप्यूटर के क्षेत्र में एक हस्ती है। दुनिया के अव्वल 500 सुपर कंप्यूटरों की नई टॉप टेन लिस्ट में उसका सुपर कंप्यूटर चौथे स्थान पर आया है। टाटा कंपनी की पुणे स्थित इकाई - 'कंप्यूटेशनल रिसर्च लैबोरेटरीज' के बनाए हुए सुपर कंप्यूटर ‘एचपी-3000-बीएल-460-सी’ को 117.9 टेराफ्लॉप की गति के कारण अमेरिका और जर्मनी के सुपर कंप्यूटरों के ठीक बाद स्थान दिया गया है। हालांकि हमारा यह पहला सुपर कंप्यूटर नहीं है। इससे काफी पहले 1998 में सी-डेक, पुणे के वैज्ञानिक ‘परम-10000’ सुपर कंप्यूटर बना चुके हैं और दावा था कि उस वक्त वह सुपर कंप्यूटर मौजूदा अमेरिकी सुपर कंप्यूटरों के मुकाबले 50 गुना तेज था। लेकिन उसके बाद सुपर कंप्यूटिंग को लेकर भारत में वैसी उत्सुकता नहीं दिखाई दी, जैसी अन्य विकसित मुल्कों में इस दौरान रही है। पर अब लगता है कि भारत इस दौड़ में पिछड़े नहीं रहना चाहता, जिसका नतीजा है टाटा का यह सुपर कंप्यूटर। प्रमुख महासंगणक निर्माता स्रोत: बाहरी कड़ियाँ (पड़ताल) श्रेणी:कंप्यूटर
सुपर कंप्यूटर की गति को किस इकाई से मापा जाता है?
मेगा फ्लॉप
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भारत राज्यों का एक संघ है।[1] इसमें उन्तीस राज्य और सात केन्द्र शासित प्रदेश हैं। ये राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश पुनः जिलों और अन्य क्षेत्रों में बांटे गए हैं।[1]. भारत के राज्य और केन्द्र-शासित प्रदेश १९५६ से पूर्व भारत के इतिहास में भारतीय उपमहाद्वीप पर विभिन्न जातीय समूहों ने शासन किया और इसे अलग-अलग प्रशासन-संबन्धी भागों में विभाजित किया। आधुनिक भारत के वर्तमान प्रशासनिक प्रभाग नए घटनाक्रम हैं, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान विकसित हुए। ब्रिटिश भारत में, वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश, साथ ही अफ़्गानिस्तान प्रांत और उससे जुड़े संरक्षित प्रांत, बाद में उपनिवेश बना, बर्मा (म्यांमार) आदि, सभी राज्य समाहित थे। इस अवधि के दौरान, भारत के क्षेत्रों में या तो ब्रिटिशों का शासन था या उन पर स्थानीय राजाओं का नियंत्रण था। १९४७ में स्वतन्त्रता के बाद इन विभागों को संरक्षित किया गया और पंजाब तथा बंगाल के प्रांतों को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित किया गया। नए राष्ट्र के लिए पहली चुनौती थी राजसी राज्यों का संघों में विलय। स्वतन्त्रता के बाद, हालांकि, भारत में अस्थिरता आ गई। कई प्रांत औपनिवेशिकरण के उद्देश्य से ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए, पर इन पर भारतीय नागरिकों की या राजसी राज्यों की कोई इच्छा दिखाई नहीं दी। १९५६ में जातीय तनाव ने संसद का दरवाजा खटखटाया और राज्य पुनर्गठन अधिनियम के आधार पर देश को जातीय और भाषाई आधार पर पुनर्निर्माण करने के लिए अधिनियम लाया गया। १९५६ के बाद भारत में जिस प्रकार पूर्व में फ़्रांसीसी और पुर्तगाली उपनिवेशों को गणराज्य में समाहित किया गया था, वैसे ही १९६२ में पांडिचेरी, दादरा, नगर हवेली, गोआ, दमन और दियू को संघ राज्य बनाया गया। १९५६ के बाद कई नए राज्यों और संघ राज्यों को बनाया गया। बम्बई पुनर्गठन अधिनियम के द्वारा १ मई, १९६० को भाषाई आधार पर बंबई राज्य को गुजरात और महाराष्ट्र के रूप में अलग किया गया। १९६६ के पंजाब पुनर्गठन अधिनियम ने भाषाई और धार्मिक पैमाने पर पंजाब (भारत) को हरियाणा के नए हिन्दू बहुल और हिन्दी भाषी राज्यों में बाँटा और पंजाब के उत्तरी जिलों को हिमाचल प्रदेश में स्थानांतरित कर दिया गया और एक जिले को चण्डीगढ़ का नाम दिया जो पंजाब और हरियाणा की साझा राजधानी है। नागालैण्ड १९६२ में, मेघालय और हिमाचल प्रदेश १९७१ में, त्रिपुरा और मणिपुर १९७२ में राज्य बनाए गए। १९७२ में अरुणाचल प्रदेश को एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। सिक्किम राज्य १९७५ में एक राज्य के रूप में भारतीय संघ में सम्मिलित हो गया। १९८६ में मिज़ोरम और १९८७ में गोआ और अरुणाचल प्रदेश राज्य बने जबकि गोआ के उत्तरी भाग दमन और दीयु एक अलग संघ राज्य बन गए। २००० में तीन नए राज्य बनाए गए। पूर्वी मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ (१ नवंबर, २०००) में और उत्तरांचल (९ नवंबर, २०००) बनाए गए जो अब उत्तराखण्ड है। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों के कारण झारखण्ड (१५ नवंबर २०००) को बिहार के दक्षिणी जिलों में से पृथक कर बनाया गया। दो केन्द्र शासित प्रदेशों दिल्ली और पाण्डिचेरी (जो बाद में पुदुचेरी कहा गया) को विधानसभा सदस्यों का अधिकार दिया गया और अब वे छोटे राज्यों के रूप में गिने जाते हैं। इन्हें भी देखें भारत के राज्य और संघशासित प्रदेश भारत के स्वायत्त क्षेत्र भारत के राज्य भारत के केन्द्र शासित प्रदेश सन्दर्भ विदेश संबंध श्रेणी:भारत के राज्य श्रेणी:भारत के केन्द्र शासित प्रदेश श्रेणी:भारत के उपविभाग
२०२० में भारत में कितने राज्य थे?
उन्तीस
36
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शुक्र (Venus), सूर्य से दूसरा ग्रह है और प्रत्येक 224.7 पृथ्वी दिनों मे सूर्य परिक्रमा करता है।[12] ग्रह का नामकरण प्रेम और सौंदर्य की रोमन देवी पर हुआ है। चंद्रमा के बाद यह रात्रि आकाश में सबसे चमकीली प्राकृतिक वस्तु है। इसका आभासी परिमाण -4.6 के स्तर तक पहुँच जाता है और यह छाया डालने के लिए पर्याप्त उज्जवलता है।[13] चूँकि शुक्र एक अवर ग्रह है इसलिए पृथ्वी से देखने पर यह कभी सूर्य से दूर नज़र नहीं आता है: इसका प्रसरकोण 47.8 डिग्री के अधिकतम तक पहुँचता है। शुक्र सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद केवल थोड़ी देर के लए ही अपनी अधिकतम चमक पर पहुँचता है। यहीं कारण है जिसके लिए यह प्राचीन संस्कृतियों के द्वारा सुबह का तारा या शाम का तारा के रूप में संदर्भित किया गया है। शुक्र एक स्थलीय ग्रह के रूप में वर्गीकृत है और समान आकार, गुरुत्वाकर्षण और संरचना के कारण कभी कभी उसे पृथ्वी का "बहन ग्रह" कहा गया है। शुक्र आकार और दूरी दोनों मे पृथ्वी के निकटतम है। हालांकि अन्य मामलों में यह पृथ्वी से एकदम अलग नज़र आता है। शुक्र सल्फ्यूरिक एसिड युक्त अत्यधिक परावर्तक बादलों की एक अपारदर्शी परत से ढँका हुआ है। जिसने इसकी सतह को दृश्य प्रकाश में अंतरिक्ष से निहारने से बचा रखा है। इसका वायुमंडल चार स्थलीय ग्रहों मे सघनतम है और अधिकाँशतः कार्बन डाईऑक्साइड से बना है। ग्रह की सतह पर वायुमंडलीय दबाव पृथ्वी की तुलना मे 92 गुना है। 735 K (462°C,863°F) के औसत सतही तापमान के साथ शुक्र सौर मंडल मे अब तक का सबसे तप्त ग्रह है। कार्बन को चट्टानों और सतही भूआकृतियों में वापस जकड़ने के लिए यहाँ कोई कार्बन चक्र मौजूद नही है और ना ही ज़ीवद्रव्य को इसमे अवशोषित करने के लिए कोई कार्बनिक जीवन यहाँ नज़र आता है। शुक्र पर अतीत में महासागर हो सकते है[14]लेकिन अनवरत ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण बढ़ते तापमान के साथ वह वाष्पीकृत होते गये होंगे |[15] पानी की अधिकांश संभावना प्रकाश-वियोजित (Photodissociation) रही होने की, व, ग्रहीय चुंबकीय क्षेत्र के अभाव की वजह से, मुक्त हाइड्रोजन सौर वायु द्वारा ग्रहों के बीच अंतरिक्ष में बहा दी गई है।[16]शुक्र की भूमी बिखरे शिलाखंडों का एक सूखा मरुद्यान है और समय-समय पर ज्वालामुखीकरण द्वारा तरोताजा की हुई है। भौतिक लक्षण शुक्र चार सौर स्थलीय ग्रहों में से एक है। जिसका अर्थ है कि पृथ्वी की ही तरह यह एक चट्टानी पिंड है। आकार व द्रव्यमान में यह पृथ्वी के समान है और अक्सर पृथ्वी की "बहन" या "जुड़वा " के रूप में वर्णित किया गया है।[17] शुक्र का व्यास 12,092 किमी (पृथ्वी की तुलना में केवल 650 किमी कम) और द्रव्यमान पृथ्वी का 81.5% है। अपने घने कार्बन डाइऑक्साइड युक्त वातावरण के कारण शुक्र की सतही परिस्थितियाँ पृथ्वी पर की तुलना मे बिल्कुल भिन्न है। शुक्र के वायुमंडलीय द्रव्यमान का 96.5% कार्बन डाइऑक्साइड और शेष 3.5% का अधिकांश नाइट्रोजन रहा है।[18] भूगोल 20 वीं सदी में ग्रहीय विज्ञान द्वारा कुछ सतही रहस्यों को उजागर करने तक शुक्र की सतह अटकलों का विषय थी | अंततः इसका 1990-91 में मैगलन परियोजना द्वारा विस्तार में मापन किया गया | यहाँ की भूमि विस्तृत ज्वालामुखीकरण के प्रमाण पेश करती है और वातावरण में सल्फर वहाँ हाल ही में हुए कुछ उदगार का संकेत हो सकती है।[19][20] शुक्र की सतह का करीबन 80% हिस्सा चिकने और ज्वालामुखीय मैदानों से आच्छादित है। जिनमें से 70% सलवटी चोटीदार मैदानों से व 10% चिकनी या लोदार मैदानों से बना है।[21]दो उच्चभूमि " महाद्वीप " इसके सतही क्षेत्र के शेष को संवारता है जिसमे से एक ग्रह के उत्तरी गोलार्ध और एक अन्य भूमध्यरेखा के बस दक्षिण में स्थित है। उत्तरी महाद्वीप को बेबीलोन के प्यार की देवी इश्तार के नाम पर इश्तार टेरा कहा गया है और आकार तकरीबन ऑस्ट्रेलिया जितना है। शुक्र का सर्वोच्च पर्वत मैक्सवेल मोंटेस इश्तार टेरा पर स्थित है। इसका शिखर शुक्र की औसत सतही उच्चतांश से 11 किमी ऊपर है। दक्षिणी महाद्वीप एफ्रोडाईट टेरा ग्रीक की प्यार की देवी के नाम पर है और लगभग दक्षिण अमेरिका के आकार का यह महाद्वीप दोनों उच्चभूम क्षेत्रों में बड़ा है। दरारों और भ्रंशो के संजाल ने इस क्षेत्र के अधिकाँश भाग को घेरा हुआ है।[22] शुक्र पर दृश्यमान किसी भी ज्वालामुख-कुण्ड के साथ लावा प्रवाह के प्रमाण का अभाव एक पहेली बना हुआ है। ग्रह पर कुछ प्रहार क्रेटर है जो सतह के अपेक्षाकृत युवा होने का प्रदर्शन करते है और लगभग 30-60 करोड़ साल पुराने है।[23][24] आमतौर पर स्थलीय ग्रहों पर पाए जाने वाले प्रहार क्रेटरों, पहाड़ों और घाटियों के अलावा, शुक्र पर अनेकों अद्वितीय भौगोलिक संरचनाएं है। इन संरचनाओं में, चपटे शिखर वाली ज्वालामुखी संरचनाएं "फेरा" कहलाती है, यह कुछ मालपुआ जैसी दिखती है और आकार में 20-50 किमी विस्तार में होती है। 100-1,000 मीटर ऊँची दरार युक्त सितारा-सदृश्य चक्रीय प्रणाली को "नोवा" कहा जाता है। चक्रीय और संकेंद्रित दरारों, दोनों के साथ मकड़ी के जाले से मिलती-जुलती संरचनाएं "अर्कनोइड" के रूप में जानी जाती है। "कोरोना" दरारों से सजे वृत्ताकार छल्ले है और कभी-कभी गड्ढों से घिरे होते है। इन संरचनाओं के मूल ज्वालामुखी में हैं।[25] शुक्र की अधिकांश सतही आकृतियों को ऐतिहासिक और पौराणिक महिलाओं के नाम पर रखा गया हैं।[26] लेकिन जेम्स क्लार्क मैक्सवेल पर नामित मैक्सवेल मोंटेस और उच्चभूमि क्षेत्रों अल्फा रीजियो, बीटा रीजियो और ओवडा रीजियो कुछ अपवाद है। पूर्व की इन तीन भूआकृतियों को अंतराष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा अपनाई गई मौजूदा प्रणाली से पहले नामित किया गया है। अंतराष्ट्रीय खगोलीय संघ ग्रहीय नामकरण की देखरेख करता है।[27] शुक्र पर भौतिक आकृतियों के देशांतरों को उनकी प्रधान मध्याह्न रेखा के सापेक्ष व्यक्त किया गया है। मूल प्रधान मध्याह्न रेखा अल्फा रीजियो के दक्षिण मे स्थित उज्ज्वल अंडाकार आकृति "एव" के केंद्र से होकर गुजरती है।[28] वेनरा मिशन पूरा होने के बाद, प्रधान मध्याह्न रेखा को एरियाडन क्रेटर से होकर पारित करने के लिए नए सिरे से परिभाषित किया गया था |[29][30] भूतल भूविज्ञान शुक्र की अधिकतर सतह ज्वालामुखी गतिविधि द्वारा निर्मित नजर आती है। शुक्र पर पृथ्वी की तरह अनेकानेक ज्वालामुखी है और इसके प्रत्येक 100 किमी के दायरे मे कुछ 167 के आसपास बड़े ज्वालामुखी है। पृथ्वी पर इस आकार की ज्वालामुखी जटिलता केवल हवाई के बड़े द्वीप पर है।[25] यह इसलिए नहीं कि शुक्र ज्वालामुखी नज़रिए से पृथ्वी की तुलना में अधिक सक्रिय है, बल्कि इसकी पर्पटी पुरानी है। पृथ्वी की समुद्री पर्पटी विवर्तनिक प्लेटों की सीमाओं पर भूगर्भिय प्रक्रिया द्वारा निरंतर पुनर्नवीकृत कर दी जाती है और करीब १० करोड़ वर्ष औसत उम्र की है,[31] जबकि शुक्र की सतह 30-60 करोड़ वर्ष पुरानी होने का अनुमान है।[32] शुक्र पर अविरत ज्वालामुखीता के लिए अनेक प्रमाण बिन्दु मौजुद है। सोवियत वेनेरा कार्यक्रम के दौरान, वेनेरा 11 और वेनेरा 12 प्रोब ने बिजली के एक निरंतर प्रवाह का पता लगाया और वेनेरा 12 ने अपने अवतरण के बाद एक शक्तिशाली गर्जन की करताल दर्ज की | यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के वीनस एक्सप्रेस ने उँचे वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में बिजली दर्ज की |[33] जबकि पृथ्वी पर बारिश गरज-तूफ़ान लाती है, वहीं शुक्र की सतह पर कोई वर्षा नहीं होती है (हालांकि उपरी वायुमंडल में यह वर्षा सल्फ्युरिक अम्ल करता है जो सतह से करीब 25 किमी उपर वाष्पीकृत कर दी जाती है)। एक संभावना है एक ज्वालामुखी विस्फोट से उडी राख ने बिजली पैदा की थी | एक अन्य प्रमाण वायुमंडल में मौजुद सल्फर डाइऑक्साइड सांद्रता के माप से आता है, जिसे 1978 और 1986 के बीच एक 10 के कारक के साथ बुंदों से पाया गया था। इसका मतलब यह हो सकता है कि पहले बड़े पैमाने पर ज्वालामुखीय विस्फोट से स्तर बढ़ाया गया था।[34] शुक्र पर समूचे हजार भर प्रहार क्रेटर सतह भर मे समान रूप से वितरित है। पृथ्वी और चंद्रमा जैसे अन्य क्रेटरयुक्त निकायों पर, क्रेटर गिरावट की अवस्थाओं की एक रेंज दिखाते है। चंद्रमा पर गिरावट का कारण उत्तरोत्तर ट्क्कर है, तो वहीं पृथ्वी पर यह हवा और बारिश के कटाव के कारण होती है। शुक्र पर लगभग 85% क्रेटर प्राचीन हालत में हैं। क्रेटरों की संख्या, अपनी सुसंरक्षित परिस्थिती के सानिध्य के साथ, करीब 30-60 करोड वर्ष पूर्व की एक वैश्विक पुनर्सतहीकरण घटना के अधीन इस ग्रह के गुजरने का संकेत करती है,[35][36] ज्वालामुखीकरण मे पतन का अनुसरण करती है।[37] जहां एक ओर पृथ्वी की पर्पटी निरंतर प्रक्रियारत है, वहीं शुक्र को इस तरह की प्रक्रिया के पोषण के लिए असमर्थ समझा गया है। बिना प्लेट विवर्तनिकी के बावजुद अपने मेंटल से गर्मी फैलाने के लिए शुक्र एक चक्रीय प्रक्रिया से होकर गुजरता है जिसमें मेंटल तापमान वृद्धि पर्पटी के कमजोर होने के लिए आवश्यक चरम स्तर तक पहुंचने तक जारी रहती है | फिर, लगभग 10 करोड वर्षों की अवधि में दबाव एक विशाल पैमाने पर होता है जो पर्पटी का पूरी तरह से पुनर्नवीकरण कर देता है।[25] शुक्र क्रेटरों के परास व्यास में 3 किमी से लेकर 280 किमी तक है। आगंतुक निकायों पर घने वायुमंडल के प्रभाव के कारण 3 किमी से कम कोई क्रेटर नहीं है। एक निश्चित गतिज ऊर्जा से कम के साथ आने वाली वस्तुओं को वायुमंडल ने इतना धीमा किया हैं कि वें एक प्रहार क्रेटर नहीं बना पाते है।[38] व्यास मे 50 किमी से कम के आने वाले प्रक्ष्येप खंड-खंड हो जाएंगे और सतह पर पहुंचने से पहले ही वायुमंडल में भस्म हो जाएंगे।[39] आंतरिक संरचना भूकम्पीय डेटा या जड़त्वाघूर्ण की जानकारी के बगैर शुक्र की आंतरिक संरचना और भू-रसायन के बारे में थोड़ी ही प्रत्यक्ष जानकारी उपलब्ध है।[40] शुक्र और पृथ्वी के बीच आकार और घनत्व में समानता बताती है, वें समान आंतरिक संरचना साझा करती है: एक कोर, एक मेंटल और एक क्रस्ट। पृथ्वी पर की ही तरह शुक्र का कोर कम से कम आंशिक रूप से तरल है क्योंकि इन दो ग्रहों के ठंडे होने की दर लगभग एक समान रही है।[41] शुक्र का थोड़ा छोटा आकार बताता है, इसके गहरे आंतरिक भाग में दबाव पृथ्वी से काफी कम हैं। इन दो ग्रहों के बीच प्रमुख अंतर है, शुक्र पर प्लेट टेक्टोनिक्स के लिए प्रमाण का अभाव, संभवतः क्योंकि इसकी परत कम चिपचिपा बनाने के लिए बिना पानी के अपहरण के लिए बहुत मजबूत है। इसके परिणामस्वरूप ग्रह से गर्मी की कमी कम हो जाती है, इसे ठंडा करने से रोकती है और आंतरिक रूप से जेनरेट किए गए चुंबकीय क्षेत्र की कमी के लिए संभावित स्पष्टीकरण प्रदान किया जाता है।[42] बावजुद, शुक्र प्रमुख पुनर्सतहीकरण घटनाओं में अपनी आंतरिक ऊष्मा बीच बीच में खो सकता हैं।[35] वातावरण और जलवायु शुक्र का वायुमंडल अत्यंत घना है, जो मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन की एक छोटी मात्रा से मिलकर बना है। वायुमंडलीय द्रव्यमान पृथ्वी पर के वायुमंडल की तुलना मे 93 गुना है, जबकि ग्रह के सतह पर का दबाव पृथ्वी पर के सतही दबाव की तुलना मे 92 गुना है- यह दबाव पृथ्वी के महासागरों की एक किलोमीटर करीब की गहराई पर पाये जाने वाले दबाव के बराबर है। सतह पर घनत्व 65 किलो/घनमीटर है (पानी की तुलना में 6.5%) | यहां का CO2-बहुल वायुमंडल, सल्फर डाइऑक्साइड के घने बादलों के साथ-साथ, सौर मंडल का सबसे शक्तिशाली ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करता है और कम से कम 462 °C (864 °F) का सतही तापमान पैदा करता है।[7][45] यह शुक्र की सतह को बुध की तुलना में ज्यादा तप्त बनाता है। बुध का न्यूनतम सतही तापमान −220°C और अधिकतम सतही तापमान 420°C है।[46] शुक्र ग्रह सूर्य से दोगुनी के करीब दूरी पर होने के बावजुद बुध सौर विकिरण (irradiance) का केवल 25% प्राप्त करता है। प्रायः शुक्र की सतह नारकीय रूप में वर्णित है।[47]यह तापमान नसबंदी प्राप्त करने के लिए उपयोग किए जाने वाले तापमान से भी अधिक है।(See also: Hot air oven) अध्ययनों ने बताया है कि शुक्र का वातावरण हाल की तुलना में अरबों साल पहले पृथ्वी की तरह बहुत ज्यादा था और वहां सतह पर तरल पानी की पर्याप्त मात्रा रही हो सकती है। लेकिन, 60 करोड से लेकर कई अरब वर्षों तक की अवधि के बाद,[48] मूल पानी के वाष्पीकरण के कारण एक दौडता-भागता ग्रीनहाउस प्रभाव हुआ, जिसने वहां के वातावरण में एक महत्वपूर्ण स्तर की ग्रीन हाउस गैसों को पैदा किया |[49] हालांकि ग्रह पर सतही हालात किसी भी पृथ्वी-सदृश्य जीवन के लिए लम्बी मेहमान नवाजी योग्य नहीं है, जो इस घटना के पहले रहे हो सकते है। यह संभावना कि एक रहने योग्य दूसरी जगह निचले और मध्यम बादल परतों में मौजुद है, शुक्र अब भी दौड से बाहर नहीं हुआ है।[50] तापीय जड़ता और निचले वायुमंडल में हवाओं द्वारा उष्मा के हस्तांतरण का मतलब है कि शुक्र की सतह के तापमान रात और दिन के पक्षों के बीच काफी भिन्न नहीं होते है, बावजुद इसके कि ग्रह का घूर्णन अत्यधिक धीमा है। सतह पर हवाएं धीमी हैं, प्रति घंटे कुछ ही किलोमीटर की दूरी चलती है, लेकिन शुक्र के सतह पर वातावरण के उच्च घनत्व की वजह से, वे अवरोधों के खिलाफ उल्लेखनीय मात्रा का बल डालती है और सतह भर में धूल और छोटे पत्थरों का परिवहन करती है। यह अकेला ही इससे होकर मानवीय चहल कदमी के लिए मुश्किल खड़ी करता होगा, अन्यथा गर्मी, दबाव और ऑक्सीजन की कमी कोई समस्या नहीं थी।[51] सघन CO2 परत के ऊपर घने बादल हैं जो मुख्य रूप से सल्फर डाइऑक्साइड और सल्फ्यूरिक अम्ल की बूंदों से मिलकर बने है।[52][53] ये बादल लगभग 90% सूर्य प्रकाश को परावर्तित व बिखेरते है जो कि वापस अंतरिक्ष में उन पर गिरता है और शुक्र की सतह के दृश्य प्रेक्षण को रोकते है। बादलों के स्थायी आवरण का अर्थ है कि भले ही शुक्र ग्रह पृथ्वी की तुलना में सूर्य से नजदीक है, पर शुक्र की सतह अच्छी तरह से तपी नहीं है। बादलों के शीर्ष पर की 300 किमी/घंटा की शक्तिशाली हवाएं हर चार से पांच पृथ्वी दिवसो में ग्रह का चक्कर लगाती है।[54] शुक्र की हवाएं उसकी घूर्णन के 60 गुने तक गतिशील है, जबकि पृथ्वी की सबसे तेज हवाएं घूर्णन गति की केवल 10% से 20% हैं।[55] शुक्र की सतह प्रभावी ढंग से समतापीय है, यह न सिर्फ दिन और रात के बीच बल्कि भूमध्य रेखा और ध्रुवों के मध्य भी एक स्थिर तापमान बनाए रखता है।[2][56] ग्रह का अल्प अक्षीय झुकाव (कम से कम तीन डिग्री, तुलना के लिए पृथ्वी का 23 डिग्री) भी मौसमी तापमान विविधता को कम करता है।[57] तापमान में उल्लेखनीय भिन्नता केवल ऊंचाई के साथ मिलती है। 1995 में, मैगेलन जांच ने उच्चतम पर्वत शिखर के शीर्ष पर एक अत्यधिक प्रतिबिंबित पदार्थ का चित्रण किया जो स्थलीय बर्फ के साथ एक मजबूत समानता थी। यह पदार्थ तर्कसंगत रूप से एक समान प्रक्रिया से बर्फ तक बना है, यद्यपि बहुत अधिक तापमान पर। सतह पर घुलनशील करने के लिए बहुत अस्थिर, यह गैस के रूप में उच्च ऊंचाई को ठंडा करने के लिए गुलाब, जहां यह वर्षा के रूप में गिर गया। इस पदार्थ की पहचान निश्चितता के साथ ज्ञात नहीं है, लेकिन अटकलें मौलिक टेल्यूरियम से सल्फाइड (गैलेना) तक ले जाती हैं।[58] शुक्र के बादल पृथ्वी पर के बादलों की ही तरह बिजली पैदा करने में सक्षम हैं।[59] बिजली की मौजुदगी विवादित रही है जब से सोवियत वेनेरा प्रोब द्वारा प्रथम संदेहास्पद बौछार का पता लगाया गया था। 2006-07 में वीनस एक्सप्रेस ने स्पष्ट रूप से व्हिस्टलर मोड तरंगों का पता लगाया, जो बिजली का चिन्हक है। उनकी आंतरायिक उपस्थिति मौसम गतिविधि से जुड़े एक पैटर्न को इंगित करता है। बिजली की दर पृथ्वी पर की तुलना में कम से कम आधी है।[59] 2007 में वीनस एक्सप्रेस प्रोब ने खोज की कि एक विशाल दोहरा वायुमंडलीय भंवर ग्रह के दक्षिणी ध्रुव पर मौजूद है।[60][61] 2011 में वीनस एक्सप्रेस प्रोब द्वारा एक अन्य खोज की गई और वह है, शुक्र के वातावरण की ऊंचाई में एक ओजोन परत मौजूद है।[62] 29 जनवरी 2013 को ईएसए के वैज्ञानिकों ने बताया कि शुक्र ग्रह का आयनमंडल बाहर की ओर बहता है, जो इस मायने में समान है "इसी तरह की परिस्थितियों में एक धूमकेतु से आयन पूंछ की बौछार होती देखी गई"।"[63][64] चुंबकीय क्षेत्र और कोर 1967 में वेनेरा 4 ने शुक्र के चुंबकीय क्षेत्र को पृथ्वी की तुलना में बहुत कमजोर पाया। यह चुंबकीय क्षेत्र एक आंतरिक डाइनेमो, पृथ्वी के अंदरुनी कोर की तरह, की बजाय आयनमंडल और सौर वायु के बीच एक अंतःक्रिया द्वारा प्रेरित है।[65][66] शुक्र का छोटा सा प्रेरित चुंबकीय क्षेत्र वायुमंडल को ब्रह्मांडीय विकिरण के खिलाफ नगण्य सुरक्षा प्रदान करता है। यह विकिरण बादल दर बादल बिजली निर्वहन का परिणाम हो सकता है।[67] आकार में पृथ्वी के बराबर होने के बावजुद शुक्र पर एक आंतरिक चुंबकीय क्षेत्र की कमी होना आश्चर्य की बात थी | यह भी उम्मीद थी कि इसका कोर एक डाइनेमो रखता है। एक डाइनेमो को तीन चीजों की जरुरत होती है: एक सुचालक तरल, घूर्णन और संवहन। कोर को विद्युत प्रवाहकीय होना माना गया है, जबकि इसके घूर्णन को प्रायः बहुत ज्यादा धीमी गति का होना माना गया है, सिमुलेशन दिखाते है कि एक डाइनेमो निर्माण के लिए यह पर्याप्त है।[68][69] इसका तात्पर्य है, डाइनेमो गुम है क्योंकि शुक्र के कोर में संवहन की कमी है। पृथ्वी पर, संवहन कोर के बाहरी परत मे पाया जाता है क्योंकि तली की तरल परत शीर्ष की तुलना में बहुत ज्यादा तप्त है। शुक्र पर, एक वैश्विक पुनर्सतहीकरण घटना ने प्लेट विवर्तनिकी को बंद कर दिया हो सकता है और यह भूपटल से होकर उष्मा प्रवाह के घटाव का कारण बना। इसने मेंटल तापमान को बढ़ने के लिए प्रेरित किया, जिससे कोर के बाहर उष्मा प्रवाह बढ़ गया। नतीजतन, एक चुंबकीय क्षेत्र चलाने के लिए कोई आंतरिक भूडाइनेमो उपलब्ध नहीं है। इसके बजाय, कोर से निकलने वाली तापीय ऊर्जा भूपटल को दोबारा गर्म करने के लिए बार-बार इस्तेमाल हुइ है।[70] एक संभावना यह कि शुक्र का कोई ठोस भीतरी कोर नहीं है,[71] या इसका कोर वर्तमान में ठंडा नहीं है, इसलिए कोर का पूरा तरल हिस्सा लगभग एक ही तापमान पर है। एक और संभावना कि इसका कोर पहले से ही पूरी तरह जम गया है। कोर की अवस्था गंधक के सान्द्रण पर अत्यधिक निर्भर है, जो फिलहाल अज्ञात है।[70] शुक्र के इर्दगिर्द दुर्बल चुंबकीय आवरण का मतलब है सौर वायु ग्रह के बाह्य वायुमंडल के साथ सीधे संपर्क करती है। यहां, हाइड्रोजन व ऑक्सीजन के आयन पराबैंगनी विकिरण से निकले तटस्थ अणुओं के वियोजन द्वारा बनाये गये है। सौर वायु फिर ऊर्जा की आपूर्ति करती है जो इनमें से कुछ आयनों को ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र से पलायन के लिए पर्याप्त वेग देती है। इस क्षरण प्रक्रिया का परिणाम निम्न-द्रव्यमान हाइड्रोजन, हीलियम और ऑक्सीजन आयनों की हानि के रूप मे होती है, जबकि उच्च-द्रव्यमान अणुओं, जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड, को उसी तरह से ज्यादा बनाये रखने के लिए होती है। सौर वायु द्वारा वायुमंडलीय क्षरण ग्रह के गठन के बाद के अरबों वर्षों के दरम्यान जल के खोने का शायद सबसे बड़ा कारण बना। इस क्षरण ने उपरि वायुमंडल में उच्च-द्रव्यमान ड्यूटेरियम से निम्न-द्रव्यमान हाइड्रोजन के अनुपात को निचले वायुमंडल में अनुपात का 150 गुना बढ़ा दिया है।[72] परिक्रमा एवं घूर्णन शुक्र करीबन 0.72 एयू (10,80,00,000 किमी; 6,70,00,000 मील) की एक औसत दूरी पर सूर्य की परिक्रमा करता है और हर 224.65 दिवस को एक चक्कर पूरा करता है। यद्यपि सभी ग्रहीय कक्षाएं दीर्घवृत्तीय हैं, शुक्र की कक्षा 0.01 से कम की एक विकेन्द्रता के साथ, वृत्ताकार के ज्यादा करीब है।[2] जब शुक्र ग्रह, पृथ्वी और सूर्य के बीच स्थित होता है, यह स्थिति अवर संयोजन कहलाती है, जो उसकी पहुंच को पृथ्वी से निकटतम बनाती है, अन्य ग्रह 4.1 करोड की औसत दूरी पर है।[2] शुक्र औसतन हर 584 दिनों में अवर संयोजन पर पहुँचता है।[2] पृथ्वी की कक्षा की घटती विकेन्द्रता के कारण, यह न्यूनतम दूरी दसीयों हजारों वर्ष उपरांत सर्वाधिक हो जाएगी। सन् 1 से लेकर 5383 तक, 4 करोड किमी से कम की 526 पहुंच है, फिर लगभग 60,158 वर्षों तक कोई पहुंच नहीं है।[73] सर्वाधिक विकेन्द्रता की अवधि के दौरान, शुक्र करीब से करीब 3.82 करोड किमी तक आ सकता है।[2] सौरमंडल के सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा एक वामावर्त दिशा में करते है, जैसा कि सूर्य के उत्तरी ध्रुव के उपर से देखा गया। अधिकांश ग्रह अपने अक्ष पर भी एक वामावर्त दिशा में घूमते है, लेकिन शुक्र हर 243 पृथ्वी दिवसों में एक बार दक्षिणावर्त ( "प्रतिगामी" घूर्णन कहा जाता है) घूमता है, यह किसी भी ग्रह की सर्वाधिक धीमी घूर्णन अवधि है। इस प्रकार एक शुक्र नाक्षत्र दिवस एक शुक्र वर्ष (243 बनाम 224.7 पृथ्वी दिवस) से लंबे समय तक रहता है। शुक्र की भूमध्य रेखा 6.5 किमी/घंटा की गति से घुमती है, जबकि पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर घूर्णन लगभग 1,670 किमी/घंटा है।[74] शुक्र का घूर्णन 6.5 मिनट/शुक्र नाक्षत्र दिवस तक धीमा हो गया है, जब से मैगलन अंतरिक्ष यान ने 16 साल पहले उसका दौरा किया है।[75] प्रतिगामी घूर्णन के कारण, शुक्र पर एक सौर दिवस की लंबाई इसके नाक्षत्र दिवस की तुलना में काफी कम है, जो कि 116.75 पृथ्वी दिवस है (यह शुक्र सौर दिवस को बुध के 176 पृथ्वी दिवसों की तुलना में छोटा बनाता है)। शुक्र का एक वर्ष लगभग 1.92 शुक्र सौर दिवस लंबा है।[8] शुक्र की धरती से एक प्रेक्षक के लिए, सूर्य पश्चिम में उदित और पूर्व में अस्त होगा।[8] शुक्र ग्रह, विभिन्न घूर्णन अवधि और झुकाव के साथ एक सौर नीहारिका से गठित हुआ हो सकता है। सघन वायुमंडल पर ज्वारीय प्रभाव और ग्रहीय उद्विग्नता द्वारा प्रेरित अस्तव्यस्त घूर्णन बदलाव के कारण वह वहां से अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुंचा है। यह बदलाव जो कि अरबों वर्षों की क्रियाविधि उपरांत घटित हुआ होगा। शुक्र की घूर्णन अवधि सम्भवतः एक संतुलन की अवस्था को दर्शाती है जो, सूर्य के गुरुत्वाकर्षण की ओर से ज्वारीय जकड़न जिसकी प्रवृत्ति घूर्णन को धीमा करने की होती है और घने शुक्र वायुमंडल के सौर तापन द्वारा बनाई गई एक वायुमंडलीय ज्वार, के मध्य बनती है।[76][77] शुक्र की कक्षा और उसकी घूर्णन अवधि के बीच के 584-दिवसीय औसत अंतराल का एक रोचक पहलू यह है कि शुक्र की पृथ्वी से उत्तरोत्तर नजदीकी पहुंच करीब-करीब पांच शुक्र सौर दिवसो के ठीक बराबर है।[78] तथापि, पृथ्वी के साथ एक घूर्णन-कक्षीय अनुनाद की परिकल्पना छूट गई है।[79] शुक्र का कोई प्राकृतिक उपग्रह नहीं है,[80] हालांकि क्षुद्रग्रह 2002 VE68 वर्तमान में इसके साथ एक अर्ध कक्षीय संबंध रखता है।[81][82] इस अर्ध उपग्रह के अलावा, इसके दो अन्य अस्थायी सह कक्षीय 2001 CK32 और 2012 XE33 है। 17 वीं सदी में गियोवन्नी कैसिनी ने शुक्र की परिक्रमा कर रहे चंद्रमा की सूचना दी जो नेइथ से नामित किया गया था | अगले 200 वर्षों के उपरांत अनेकों द्रष्टव्यों की सूचना दी गई | परन्तु अधिकांश को आसपास के सितारों का होना निर्धारित किया गया था। कैलिफोर्निया प्रौद्योगिकी संस्थान में, एलेक्स एलमी व डेविड स्टीवेन्सन के पूर्व सौर प्रणाली पर 2006 के मॉडलों के अध्ययन बताते है कि शुक्र का हमारे जैसा कम से कम एक चांद था जिसे अरबो साल पहले एक बड़ी टकराव की घटना ने बनाया था।[83] अध्ययन के मुताबिक करीब एक करोड़ साल बाद एक अन्य टक्कर ने ग्रह की घूर्णन दिशा उलट दी। इसने शुक्र के चंद्रमा के घुमाव या कक्षा को धीरे धीरे अंदर की ओर सिकुड़ने के लिए प्रेरित किया जब तक कि वह शुक्र के साथ टकराकर उसमें विलीन नहीं हो गया।[84] यदि बाद की टक्करों ने चन्द्रमा बनाये है तो वें भी उसी तरह से खींच लिए गए। उपग्रहों के अभाव लिए एक वैकल्पिक व्याख्या शक्तिशाली सौर ज्वार का प्रभाव है जो भीतरी स्थलीय ग्रहों की परिक्रमा कर रहे बड़े उपग्रहों को अस्थिर कर सकते है।[80] पर्यवेक्षण शुक्र किसी भी तारे (सूर्य के अलावा) की तुलना में हमेशा उज्जवल है। सर्वाधिक कांतिमान, सापेक्ष कांतिमान −4.9,[10] अर्द्धचंद्र चरण के दौरान होती है जब यह पृथ्वी के निकट होता है। शुक्र करीब −3 परिमाण तक मंद पड़ जाता है जब यह सूर्य द्वारा छुपा लिया जाता है।[9] यह ग्रह दोपहर के साफ आसमान मे काफी उज्जवल दिखाई देता है,[85] और आसानी से देखा जा सकता है जब सूर्य क्षितिज पर नीचा हो। एक अवर ग्रह के रूप में, यह हमेशा सूर्य से लगभग 47° के भीतर होता है।[11] सूर्य की परिक्रमा करते हुए शुक्र प्रत्येक 584 दिवसों पर पृथ्वी को पार कर जाता है।[2] जैसा कि यह दिखाई देता है, यह सूर्यास्त के बाद "सांझ का तारा" से लेकर सूर्योदय से पहले "भोर का तारा" तक बदल जाता है। एक अन्य अवर ग्रह बुध का प्रसरकोण मात्र 28° के अधिकतम तक पहुँचता है और गोधूलि में प्रायः मुश्किल से पहचाना जाता है, जबकि शुक्र को अपनी अधिकतम कांति पर चुक जाना कठिन है। इसके अधिक से अधिक अधिकतम प्रसरकोण का मतलब है यह सूर्यास्त के एकदम बाद तक अंधेरे आसमान में नजर आता है। आकाश में एक चमकदार बिंदु सदृश्य वस्तु के रूप में शुक्र को एक "अज्ञात उड़न तस्तरी" मान लेने की सहज गलत बयानी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1969 में एक उड़न तस्तरी देखे जाने की सूचना दी, जिसके विश्लेषण ने बाद में ग्रह होने की संभावना का सुझाव दिया था | अनगिनत अन्य लोगों ने शुक्र को असाधारण मानने की भूल की है।[86] जैसे ही शुक्र की अपनी कक्षा के इर्दगिर्द हलचल होती है, दूरबीन दृश्यावली में यह चंद्रमा की तरह कलाओं का प्रदर्शन करता है: शुक्र की कलाओं में, ग्रह एक छोटी सी "पूर्ण" छवि प्रस्तुत करता है जब यह सूर्य के विपरीत दिशा में होता है, जब यह सूर्य से अधिकतम कोण पर होता है एक बड़ी "चतुर्थांस कला" प्रदर्शित करता है, एवं रत्रि आकाश में अपनी अधिकतम चमक पर होता है, तथा जैसे ही यह पृथ्वी और सूर्य के मध्य समीपस्थ कहीं आसपास आता है दूरबीन दृश्यावली में एक बहुत बड़ा "पतला अर्द्धचंद्र" प्रस्तुत करता है। शुक्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीचोबीच होता है, अपने सबसे बड़े आकार पर होता है और अपनी "नव कला" प्रस्तुत करता है। इसके वायुमंडल को ग्रह के चारों ओर के अपवर्तित प्रकाश के प्रभामंडल द्वारा एक दूरबीन में देखा जा सकता हैं।[11] शुक्र पारगमन शुक्र की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के सापेक्ष थोड़ी झुकी हुई है; इसलिए, जब यह ग्रह पृथ्वी और सूर्य के बीच से गुजरता है, आमतौर पर सूर्य के मुखाकृति को पार नहीं करता। शुक्र पारगमन करना तब पाया जाता है जब ग्रह का अवर संयोजन पृथ्वी के कक्षीय तल में उपस्थिति के साथ मेल खाता है। शुक्र के पारगमन 243 साल के चक्रों में होते हैं। पारगमन की वर्तमान पद्धति मे, पहले दो पारगमन आठ वर्षों के अंतराल में होते है, फिर करीब 105.5 वर्षीय या 121.5 वर्षीय लंबा विराम और फिर से वहीं आठ वर्षीय अंतराल के नए पारगमन जोड़ो का दौर शूरू होता है। इस स्वरुप को सबसे पहले 1639 में अंग्रेज खगोलविद् यिर्मयाह होरोक्स ने खोजा था।[87] नवीनतम जोड़ा 8 जून,2004 और 5-6 जून 2012 को था। पारगमन का अनेकों ऑनलाइन आउटलेट्स से सीधे अथवा उचित उपकरण और परिस्थितियों के साथ स्थानीय रूप से देखा जाना हो सका।[88] पारगमन की पूर्ववर्ती जोड़ी दिसंबर 1874 और दिसंबर 1882 में हुई; आगामी जोड़ी दिसंबर 2117 और दिसंबर 2125 में घटित होगी।[89] ऐतिहासिक रूप से, शुक्र के पारगमन महत्वपूर्ण थे, क्योंकि उन्होने खगोलविदों को खगोलीय इकाई के आकार के सीधे निर्धारण करने की अनुमति दी है, साथ ही सौरमंडल के आकार की भी, जैसा कि 1639 में होरोक्स के द्वारा देखा गया[90] कैप्टन कुक की ऑस्ट्रेलिया की पूर्वी तट की खोज तब संभव हो पाई जब वें शुक्र पारगमन के प्रेक्षण के लिए पीछा करते हुए जलयात्रा कर 1768 में ताहिती आ गए।[91][92] भस्मवर्ण प्रकाश तथाकथित भस्मवर्ण प्रकाश लंबे समय से चला आ रहा शुक्र प्रेक्षणों का एक रहस्य है। भस्मवर्ण प्रकाश शुक्र के अंधकार पक्ष की एक सुक्ष्म रोशनी है और नजर आती है जब ग्रह अर्द्ध चंद्राकार चरण में होता है। इस प्रकाश को सर्वप्रथम देखने का दावा बहुत पहले 1643 में हुआ था, परंतु रोशनी के अस्तित्व की भरोसेमंद पुष्टि कभी नहीं हो पाई। पर्यवेक्षकों ने अनुमान लगाया है, यह शुक्र के वायुमंडल में बिजली की गतिविधि से निकला परिणाम हो सकता है, लेकिन यह भ्रामक हो सकता है। हो सकता है यह एक उज्ज्वल, अर्द्ध चंद्राकार आकार की वस्तु देखने के भ्रम का नतीजा हो।[93] अध्ययन पूर्व अध्ययन शुक्र ग्रह को "सुबह के तारे" और "शाम के तारे" दोनों ही रूपों में प्राचीन सभ्यताओं ने जान लिया था। नाम से ही पूर्व समझ जाहिर होती है कि वें दो अलग-अलग वस्तुएं थी | अम्मीसाडुका की शुक्र पटलिका, दिनांकित 1581 ईपू, यूनानी समझ दिखाती है कि दोनों वस्तु एक ही थी। इस पटलिका में शुक्र को "आकाश की उज्ज्वल रानी" के रूप में निर्दिष्ट किया गया है और विस्तृत प्रेक्षणों के साथ इस दृष्टिकोण का समर्थन किया जा सका है।[94] छठी शताब्दी ईसा पूर्व में पाइथागोरस के समय तक, यूनानियों की अवधारणा, फोस्फोरस और हेस्पेरस, के रूप में दो अलग-अलग सितारों की थी।[95] रोमनों ने शुक्र के सुबह की पहलू को लूसिफ़ेर के रूप में और शाम के पहलू को वेस्पेर के रूप में नामित किया है। शुक्र के पारगमन के प्रथम दर्ज अवलोकन का संयोग 4 दिसम्बर 1639 (24 नवम्बर उस समय प्रचलित जूलियन कैलेंडर अंतर्गत) को यिर्मयाह होरोक्स द्वारा, उनके मित्र विलियम क्रेबट्री के साथ-साथ, बना था।[96] 17 वीं सदी की शुरुआत में जब इतालवी भौतिक विज्ञानी गैलीलियो गैलीली ने ग्रह का प्रथम अवलोकन किया, उन्होने उसे चंद्रमा की तरह कलाओं को दिखाया हुआ पाया, अर्धचंद्र से उन्नतोदर से लेकर पूर्णचंद्र तक और ठीक इसके उलट। जब यह सूर्य से सर्वाधिक दूर होता है अपना अर्धचंद्र रुप दिखाता है और जब सूर्य के सबसे नजदीक होता है यह अर्द्ध चंद्राकार या पूर्णचंद्र की तरह दिखता है। यह संभव हो सका केवल यदि शुक्र ने सूर्य की परिक्रमा की और यह टॉलेमी के भूकेन्द्रीय मॉडल, जिसमें सौरमंडल संकेंद्रित था और पृथ्वी केंद्र पर थी, के स्पष्ट खंडन करने के प्रथम अवलोकनों में से था।[97] शुक्र के वायुमंडल की खोज 1761 में रूसी बहुश्रुत मिखाइल लोमोनोसोव द्वारा हुई थी।[98][99] शुक्र के वायुमंडल का अवलोकन 1790 में जर्मन खगोलशास्त्री योहान श्रोटर द्वारा हुआ था। श्रॉटर ने पाया कि ग्रह जब एक पतला अर्द्धचंद्र था, कटोरी 180° से अधिक तक विस्तारित हुई। उन्होने सही अनुमान लगाया कि यह घने वातावरण में सूर्य प्रकाश के बिखरने की वजह से था। बाद में, जब ग्रह अवर संयोजन पर था, अमेरिकी खगोलशास्त्री चेस्टर स्मिथ लीमन ने इसके अंधकार तरफ वाले हिस्से के इर्दगिर्द एक पूर्ण छल्ले का निरिक्षण किया और इसने वायुमंडल के लिए प्रमाण प्रदान किये।[100] The atmosphere complicated efforts to determine a rotation period for the planet, and observers such as Italian-born astronomer Giovanni Cassini and Schröter incorrectly estimated periods of about 24 hours from the motions of markings on the planet's apparent surface.[101] भू-आधारित अनुसंधान 20 वीं सदी तक शुक्र के बारे में थोड़ी बहुत और खोज हुई थी। इसकी करीब-करीब आकृतिहीन डीस्क ने कोई सुराग नहीं दिया कि इसकी सतह आखिर किस तरह की हो सकती है। इसके और अधिक रहस्यों का पर्दाफास, स्पेक्ट्रोस्कोपी, रडार और पराबैंगनी प्रेक्षणों के विकास के साथ ही हुआ। पहले पराबैंगनी प्रेक्षण 1920 के दशक में किए गए जब फ्रैंक ई रॉस ने पाया कि पराबैंगनी तस्वीरों ने काफी विस्तृत ब्योरा दिखाया जो दृश्य और अवरक्त विकिरण में अनुपस्थित था। उन्होने सुझाव दिया ऐसा निचले पीले वातावरण के साथ उसके उपर के पक्षाभ मेघ के अत्यधिक घनेपन की वजह से था।[102] 1900 के दशक में स्पेक्ट्रोस्कोपी प्रेक्षणों ने शुक्र के घूर्णन के बारे में पहला सुराग दिया। वेस्टो स्लिफर ने शुक्र से निकले प्रकाश के डॉप्लर शिफ्ट को मापने की कोशिश की, लेकिन पाया कि वह किसी भी घूर्णन का पता नहीं लगा सके। उन्होने अनुमान लगाया ग्रह की एक बहुत लंबी घूर्णन अवधि होनी चाहिए।[103] 1950 के दशक में बाद के कार्य ने दिखाया कि घूर्णन प्रतिगामी था। शुक्र के रडार प्रेक्षण सर्वप्रथम 1960 के दशक में किए गए थे, इसने घूर्णन अवधि की पहली माप प्रदान की, जो आधुनिक मान के करीब थी।[104] 1970 के दशक में रडार प्रेक्षणों ने पहली बार शुक्र की सतह को विस्तृत रूप से उजागर किया। एरेसिबो वेधशाला पर 300 मीटर की रेडियो दूरबीन का प्रयोग कर ग्रह पर रेडियो तरंगों के स्पंदन प्रसारित किए गए और गूँज ने अल्फा और बीटा क्षेत्रों से नामित दो अत्यधिक परावर्तक क्षेत्रों का पता लगाया। प्रेक्षणों ने पर्वतों के लिए उत्तरदायी ठहराये गए एक उज्ज्वल क्षेत्र भी पता लगाया, इसे मैक्सवेल मोंटेस कहा गया था।[105] शुक्र पर अब अकेली केवल यह तीन ही भूआकृतियां है जिसके महिला नाम नहीं है।[106] अंवेषण आरंभिक प्रयास शुक्र के लिए, वैसे ही किसी भी अन्य ग्रह के लिए, पहला रोबोटिक अन्तरिक्ष यान मिशन, 12 फ़रवरी 1961 को वेनेरा 1 यान के प्रक्षेपण के साथ आरंभ हुआ। सोवियत वेनेरा कार्यक्रम अन्तर्गत यह पहला यान था। वेनेरा 1 ने मिशन के सातवे दिन सम्पर्क खो दिया, तब वह पृथ्वी से 20 लाख किमी की दूरी पर था।[107] शुक्र के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का अन्वेषण भी प्रक्षेपण स्थल पर ही मेरिनर 1 यान को खोने के साथ बुरे हाल मे शुरू हुआ। पर इसके अनुवर्ती मेरिनर 2 ने सफलता पाई। 14 दिसम्बर 1962 को अपने 109-दिवसीय कक्षांतरण के साथ ही यह शुक्र की धरती से 34,883 किमी उपर से गुजरने वाला दुनिया का पहला सफलतम अन्तर्ग्रहीय मिशन बन गया। इसके माइक्रोवेव और इन्फ्रारेड रेडियोमीटर से पता चला कि शुक्र के सबसे उपरी बादल शांत थे जबकि पूर्व के भू-आधारित मापनो ने शुक्र की सतह के तापमान को अत्यधिक गर्म (425० सेन्टीग्रेड) होने की पुष्टि की है,[108] और आखिरकार यह उम्मीद भी खत्म हो गई कि यह ग्रह भूमि-आधारित जीवन का ठिकाना हो सकता है। मेरिनर 2 ने शुक्र के द्रव्यमान और खगोलीय दूरी को और बेहतर प्राप्त किया, पर वह चुंबकीय क्षेत्र या विकिरण बेल्ट का पता लगाने में असमर्थ था।[109] वायुमंडलीय प्रवेश सोवियत वेनेरा 3 यान 1 मार्च 1966 को शुक्र पर उतरते वक्त दुर्घटनाग्रस्त हो गया | वायुमंडल मे प्रवेश करने वाली और किसी अन्य ग्रह की सतह से टकराने वाली यह पहली मानव-निर्मित वस्तु थी | भले ही इसकी संचार प्रणाली विफल हो गई पर इससे पहले यह तमाम ग्रहीय डेटा को प्रेषित करने में सक्षम था | [110] 18 अक्टूबर 1967 को वेनेरा 4 ने सफलतापूर्वक वायुमंडल में प्रवेश किया और अनेको वैज्ञानिक उपकरणो को तैनात किया | वेनेरा 4 ने सतह के तापमान को मेरिनर 2 द्वारा मापे गए लगभग 500० C अधिकतम से भी ज्यादा बताया और वायुमंडल को लगभग 90 से 95% कार्बन डाइऑक्साइड का होना दिखाया | वेनेरा 4 के रचनाकारो द्वारा लगाये गए अनुमानो की तुलना मे शुक्र का वायुमंडल काफी घना था | इसने पैराशुट को उतरने के तयशुदा समय की तुलना मे धीमा कर दिया | इसका मतलब था सतह तक पहुंचने से पहले यान की बैटरियो का मन्द हो जाना | 93 मीनट तक अवतरण डेटा प्रेषित करने के बाद, 24.96 किमी कि ऊचाई पर वेनेरा 4 की दबाव की अंतिम रीडिंग 18 बार थी |[110] एक दिन बाद 19 अक्टूबर 1967 को मेरिनर 5 ने बादलों के शीर्ष से 4000 किमी से कम की ऊंचाई पर एक गुजारें का आयोजन किया | दरअसल मेरिनर 5 को मूल रूप से मंगल से जुडे मेरिनर 4 के लिए एक बैकअप के रूप में बनाया गया था | लेकिन जब मिशन सफल रहा तो यान को शुक्र मिशन के लिए तब्दील कर दिया गया | इसके उपकरणों के जोडे मेरिनर 2 पर की तुलना में अधिक संवेदनशील थे। विशेष रूप में इसके रेडियो प्रच्छादन प्रयोग ने शुक्र के वायुमंडल की संरचना, दबाव और घनत्व के डेटा प्रेषित किए।[111] वेनेरा 4-मेरिनर 5 के संयुक्त डेटा का एक संयुक्त सोवियत-अमेरिकी विज्ञान दल द्वारा औपचारिक वार्तालाप की एक श्रृंखला में अगले वर्ष भर में विश्लेषण किया गया।[112] यह अंतरिक्ष सहयोग का एक प्रारंभिक उदाहरण है।[113] वेनेरा 4 से सीखे सबक के बाद सोवियत यूनियन ने जनवरी 1969 को एक पांच दिवसीय अंतराल मे जुडवें यान वेनेरा 5 और वेनेरा 6 को प्रक्षेपित किया। शुक्र से इनका सामना उसी साल एक दिन के आड़ में 16 व 17 मई को हुआ। यान के कुचलने की दाब सीमा को बढ़ाकर 25 बार तक सुदृढ़ किया गया और एक तेज अवतरण प्राप्त करने के लिए छोटे पैराशूट के साथ सुसज्जित किया गया। बाद के, शुक्र के हाल के वायुमंडलीय मॉडलों ने सतह के दबाव को 75 और 100 बार के बीच होने का सुझाव दिया था। इसलिए इन यानों के सतह पर जीवित बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं थी | 50 मीनट के एक छोटे अंतराल का वायुमंडलीय डेटा प्रेषित करने के बाद दोंनों यान शुक्र के रात्रि पक्ष की सतह पर टकराने से पहले तकरीबन 20 किमी की ऊंचाई पर तबाह हो गए।[110] भूतल और वायुमंडलीय विज्ञान वेनेरा 7 को ग्रह के सतह से निकले डेटा को वापस लाने के प्रयास के लिए पेश किया गया। इसे 180 बार के दबाव को बर्दाश्त करने में सक्षम एक मजबूत अवतरण मॉड्यूल के साथ निर्मित किया गया था। मॉड्यूल को प्रवेश से पहले ठंडा किया गया, साथ ही 35 मिनट के तेज अवतरण के लिए इसे एक विशेष रूप से समेटने वाले पैराशूट के साथ लैस किया गया था। 15 दिसम्बर 1970 को यह वायुमंडल में प्रवेश करता रहा, जबकि माना गया है पैराशूट आंशिक रूप से फट गया और प्रोब ने सतह को एक जोर की टक्कर मारी, पर घातक नहीं। शायद यह अपनी जगह पर झुक गया, कुछ कमजोर संकेत प्रेषित किये और 23 मिनट के लिए तापमान डेटा की आपूर्ति की जो किसी अन्य ग्रह की सतह से प्राप्त की गई पहली दूरमिति थी।[110] वेनेरा 8 के साथ वेनेरा कार्यक्रम जारी रहा | इसने 22 जुलाई 1972 को वायुमंडल मे प्रवेश करने के बाद 50 मीनट तक सतह से आंकडे भेजे | वेनेरा 9 ने 22 अक्टूबर 1975 को वायुमंडल में प्रवेश किया | जबकि वेनेरा 10 ने इसके ठीक तीन दिन बाद 25 अक्टूबर को वायुमंडल में प्रवेश कर शुक्र के परिदृश्य की पहली तस्वीरें भेजी | दोंनों ही यानों ने अपने अवतरण स्थलों के आसपास के तत्कालिक एकदम अलग ही परिदृश्य प्रस्तुत किये। वेनेरा 9 एक 20 डिग्री की ऐसी ढलान पर उतरा था जहां चारों ओर 30-40 सेमी के पत्थर बिखरे हुए थे | वेनेरा 10 ने मौसमी सामग्री सहित बेसाल्ट-प्रकार के बेतरतीब शिलाखंडों को दिखाया।[114] इस बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका ने मेरिनर 10 को उस गुरुत्वीय गुलेल प्रक्षेपवक्र पर भेजा जिसकी राह शुक्र से होकर बुध ग्रह की ओर जाती थी। 5 फ़रवरी 1974 को मेरिनर 10 शुक्र से 5,790 किमी नजदीक से गुजरा और 4,000 से ज्यादा तस्वीरों के साथ वापस लौटा। इसने तब की सबसे अच्छी तस्वीरें हासिल की थी जिसमें दृश्य प्रकाश में शुक्र को लगभग आकृतिहीन दिखाया गया था। लेकिन पराबैंगनी प्रकाश ने बादलों को विस्तार मे दिखाया जिसे पृथ्वी-आधारित अवलोकनों ने पहले कभी नहीं दिखाया था।[115] अमेरिकी पायनियर वीनस परियोजना ने दो अलग-अलग अभियानों को शामिल किया था।[116] पायनियर वीनस ऑर्बिटर को 4 दिसम्बर 1978 को शुक्र के आसपास की एक दीर्घवृत्ताकार कक्षा में स्थापित गया था। यह 13 साल से अधिक समय तक वहां बना रहा। इसने रडार के साथ सतह की नाप-जोख की तथा वायुमंडल का अध्ययन किया। पायनियर वीनस मल्टीप्रोब ने कुल चार जांच-यान छोडे जिसने 9 दिसम्बर 1978 को वायुमंडल में प्रवेश किया और इसकी संरचना, हवाओं और ऊष्मा अपशिष्टों पर डेटा प्रेषित किया।[117] अगले चार वर्षों में चार और वेनेरा लैंडर मिशनों ने अपनी जगह ले ली। जिनमें से वेनेरा 11 और वेनेरा 12 ने शुक्र के विद्युतीय तुफानों का पता लगाया[118] तथा वेनेरा 13 और वेनेरा 14, चार दिनों की आड में 1 और 5 मार्च 1982 को नीचे उतरे और सतह की पहली रंगीन तस्वीरें भेजी। सभी चार मिशनों को ऊपरी वायुमंडल में गतिरोध के लिए पैराशूट के साथ तैनात किया गया था, लेकिन 50 किमी की ऊंचाई पर उनको मुक्त कर दिया गया, क्योंकि शुक्र का घना निचला वायुमंडल बिना किसी अतिरिक्त साधन के आरामदायक अवतरण के लिए पर्याप्त घर्षण प्रदान करता है। वेनेरा 13 और 14 दोनों ने एक्स-रे प्रतिदीप्ति स्पेक्ट्रोमीटर के साथ ऑन-बोर्ड मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण किया और प्रविष्ठी टक्कर के साथ की मिट्टी की संपीडता मापने का प्रयास किया।[118] वेनेरा 14 ने, हालांकि, खुद से अलग हो चुके अपने ही कैमरें के लेंस का ढक्कन गिरा दिया और इसकी प्रविष्ठी मिट्टी को छुने मे विफल रही।[118] अक्टूबर 1983 में वेनेरा कार्यक्रम को बंद करने का तब समय आ गया, जब वेनेरा 15 और वेनेरा 16 को सिंथेटिक एपर्चर रडार के साथ शुक्र के इलाकों के मानचित्रण संचालन के लिए कक्षा में स्थापित किया गया।[119] 1985 में सोवियत संघ ने, शुक्र और उसी वर्ष अंदरुनी सौरमंडल से होकर गुजर रहे हैली धूमकेतु, से मिले अवसर का संयुक्त अभियानों से भरपूर फायदा उठाया। 11 और 15 जून 1985 को हैली के पडने वाले रास्ते पर वेगा कार्यक्रम के दो अंतरिक्ष यानों से वेनेरा-शैली की एक-एक प्रविष्ठी गिराइ गई (जिसमें वेगा 1 आंशिक रूप से असफल रहा) और उपरी वायुमंडल के भीतर एक गुब्बारा-समर्थित एयरोबोट छोडा गया। गुब्बारों ने 53 किमी के करीब एक संतुलित ऊंचाई हासिल की, जहां दबाव और तापमान तुलनात्मक रूप से पृथ्वी की सतह पर जितना होता हैं। दोनों तकरीबन 46 घंटों के लिए परिचालन बने रहे और शुक्र के वातावरण को पूर्व धारणा से ज्यादा अशांत पाया | यहां अशांत वातावरण का तात्पर्य उच्च हवाओं और शक्तिशाली संवहन कक्षों से है।[120][121] रडार मानचित्रण प्रारंभिक भू-आधारित रडार ने सतह की एक बुनियादी समझ प्रदान की। पायनियर वीनस और वेनेरा ने बेहतर समाधान प्रदान किये। संयुक्त राज्य अमेरिका के मैगलन यान को रडार से शुक्र के सतही मानचित्रण के लिए एक मिशन के साथ 4 मई 1989 को प्रक्षेपित किया गया था।[27] अपने 4½ वर्षीय कार्यकलापों के दरम्यान प्राप्त की गई उच्च-स्पष्टता की तस्वीरें पूर्व के सभी नक्शों से काफी आगे निकल गई और यह अन्य ग्रहों की दृश्य प्रकाश तस्वीरों के बराबर थी। मैगलन ने रडार द्वारा शुक्र की 98% से अधिक भूमी को प्रतिबिंबित किया,[122] और उसके 95% गुरूत्व क्षेत्र को प्रतिचित्रित किया। 1994 में अपने मिशन के अंत में, मैगलन को शुक्र के घनत्व के अंदाज के लिए वायुमंडल में तबाह होने भेज दिया गया था।[123] शुक्र ग्रह को गैलिलियो और कैसिनी अंतरिक्ष यान द्वारा बाहरी ग्रहों के लिए अपने संबंधित मिशनों के गुजारे के दौरान अवलोकित किया गया है। लेकिन मैगलन एक दशक से भी ज्यादा तक के लिए शुक्र का अंतिम समर्पित मिशन बन गया।[124][125] वर्तमान और भविष्य के मिशन नासा के बुध के मेसेंजर मिशन ने अक्टूबर 2006 और जून 2007 में शुक्र के लिए दो फ्लाईबाई का आयोजन किया। धीमा करने के लिए इसके प्रक्षेपवक्र का मार्च 2011 में बुध की एक संभावित कक्षा में समावेश हुआ | मेसेंजर ने उन दोनों फ्लाईबाई पर वैज्ञानिक डेटा एकत्र किया।[126] वीनस एक्सप्रेस प्रोब यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा डिजाइन और निर्मित किया गया था। इसे स्टारसेम के माध्यम से प्राप्त एक रूसी सोयुज-फ्रेगट रॉकेट द्वारा 9 नवम्बर 2005 को प्रमोचित किया गया। 11 अप्रैल 2006 को इसने सफलतापूर्वक शुक्र के इर्दगिर्द एक ध्रुवीय कक्षा ग्रहण की।[127] प्रोब शुक्र के वायुमंडल और बादलों का एक विस्तृत अध्ययन कर रहा है। इसमें ग्रह का प्लाज्मा वातावरण और सतही विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान, के मानचित्रण शामिल है। वीनस एक्सप्रेस से उजागर प्राथमिक परिणामों से एक यह खोज है कि विशाल दोहरा वायुमंडलीय भंवर ग्रह के दक्षिणी ध्रुव पर मौजूद है।[127] [128]]] जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (JAXA) ने एक शुक्र परिक्रमा यान अकात्सुकी (औपचारिक रूप से "Planet-C") को तैयार किया, जो 20 मई 2010 को प्रक्षेपित हुआ था, पर यह यान दिसंबर 2010 में कक्षा में प्रवेश करने में असफल रहा | आशाएं अभी बाकी है, क्योंकि यान सफलतापूर्वक सीतनिद्रा में है और छह साल में एक और प्रविष्टि का प्रयास कर सकता है। नियोजित जांच-पड़ताल ने बिजली की उपस्थिति की पुष्टि हेतू सतही प्रतिचित्रण के लिए डिजाइन किया गया एक इंफ्रारेड कैमरा और उपकरणों को, साथ ही वर्तमान भूपटल के ज्वालामुखीकरण के अस्तित्व के निर्धारण को, शामिल किया है।[129] यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को 2014 में बुध के लिए एक बेपिकोलम्बो नामक मिशन शुरू करने की उम्मीद है। 2020 में बुध की कक्षा तक पहुंचने से पहले यह शुक्र के लिए दो फ्लाईबाई का प्रदर्शन करेंगे |[130] नासा ने अपने न्यू फ्रंटियर्स कार्यक्रम के तहत, सतह की स्थिति का अध्ययन करने और regolith के तात्विक और खनिजीय लक्षणों की जांच करने के लिए, शुक्र ग्रह पर उतरने के लिए एक वीनस इन-सीटु एक्सप्लोरर नामक लैंडर मिशन का प्रस्ताव किया है। यह यान, सतह में ड्रिल करने और उन प्राचीन चट्टान के नमूनों के अध्ययन के लिए जो कठोर सतही परिस्थितियों से अपक्षीण नहीं हुए है, के लिए एक कोर सेम्पलर से लैस किया जाएगा। शुक्र का वायुमंडलीय और सतही अन्वेषी मिशन "सर्फेस एंड एटमोस्फेयर जियोकेमिकल एक्सप्लोरल" (SAGE) को 2009 न्यू फ्रंटियर चयन में एक मिशन अध्ययन उम्मीदवार के रूप में नासा द्वारा चुना गया था।[131] लेकिन मिशन को उड़ान के लिए नहीं चुना गया। वेनेरा डी (रूसी: Венера-Д) अन्वेषी शुक्र के लिए एक प्रस्तावित रूसी अंतरिक्ष यान है। इसे शुक्र ग्रह के इर्दगिर्द रिमोट-सेंसिंग प्रेक्षण और एक लैंडर की तैनाती करने के अपने लक्ष्य के साथ 2016 के आसपास छोड़ा जाएगा। यह वेनेरा डिजाइन पर आधारित है। जो ग्रह की धरती पर लंबी अवधि तक जीवित रहने में सक्षम है। अन्य प्रस्तावित शुक्र अन्वेषण अवधारणाओं में रोवर, गुब्बारे और एयरोबोट शामिल हैं।[132] मानवयुक्त उड़ान अवधारणा एक मानवयुक्त शुक्र फ्लाईबाई मिशन, अपोलो कार्यक्रम हार्डवेयर का प्रयोग कर, 1960 के दशक के अंत में प्रस्तावित किया गया था।[133] मिशन को अक्टूबर के अंत या नवंबर 1973 की शुरुआत में शुरु करने की योजना बनाई गई और तकरीबन एक वर्ष तक चलने वाली इस उड़ान में तीन लोगों को शुक्र के पास भेजने के लिए एक सेटर्न V रॉकेट का प्रयोग किया गया। करीब चार महीने बाद, अंतरिक्ष यान शुक्र की सतह से लगभग 5,000 किलोमीटर की दूरी से गुजर गया।[133] अंतरिक्ष यान समय-सूची यह शुक्र ग्रह को और अधिक बारीकी से अन्वेषण के लिए पृथ्वी से छोड़े गये प्रयासरत और सफल अंतरिक्ष यान की एक सूची है।[134] शुक्र को पृथ्वी की कक्षा में स्थित हबल स्पेस टेलीस्कोप द्वारा भी प्रतिबिंबित किया गया है। सूदूर दूरबीन प्रेक्षण शुक्र के बारे में जानकारी का एक अन्य स्रोत है। औपनिवेशीकरण अपने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण शुक्र की धरती पर उपनिवेश मौजूदा प्रौद्योगिकी के बस के बाहर है। हालांकि, सतह से लगभग पचास किलोमीटर ऊपर वायुमंडलीय दबाव और तापमान पृथ्वी की सतह पर जितना ही हैं। शुक्र के वायुमंडल में वायु (नाइट्रोजन और ऑक्सीजन) एक हल्की गैस होगी जो अधिकांशतः कार्बन डाइऑक्साइड है। इसने शुक्र के वायुमंडल में व्यापक "अस्थायी शहरों" के प्रस्तावों के लिए प्रेरित किया है।[135] एयरोस्टेट (हवा के गुब्बारे से भी हल्का) को प्रारंभिक अन्वेषण के लिए एवं अंतिम रूप से स्थायी बस्तियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।[135] कई इंजीनियरिंग चुनौतियों में से एक इन ऊंचाइयों पर सल्फ्यूरिक एसिड की खतरनाक मात्रा हैं।[135] सन्दर्भ श्रेणी:शुक्र ग्रह श्रेणी:सौर मंडल के ग्रह श्रेणी:ग्रह श्रेणी:खगोलशास्त्र
सूरज से शुक्र कितनी दूर है?
0.72 एयू
16,038
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इन फसलों की बुआई के समय कम तापमान तथा पकते समय खुश्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फसलें सामान्यतः अक्तूबर-नवम्बर के महिनों में बोई जाती हैं। उदाहरण गेहूँ जौ चना मसूर सरसों इन्हें भी देखें रबी की फसल खरीफ की फसल ज़ायद की फसल श्रेणी:फ़सलें श्रेणी:रबी की फ़सल श्रेणी:कृषि भूगोल श्रेणी:भारत में कृषि श्रेणी:पाकिस्तान में कृषि
रबी फसलों को कौन से महीने में बोया जाता है?
अक्तूबर-नवम्बर
109
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जस्टिन ट्रूडो (English: Justin Pierre James Trudeau) (जन्म: २५ दिसम्बर , 1971) कनाडा के एक राजनेता, लिबरल पार्टी के नेता और कनाडा के प्रधानमंत्री हैं। जस्टिन कनाडा के पंद्रहवें प्रधानमंत्री पियर ट्रूडो और मार्गरेट ट्रूडो के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वह पहली बार पैपिनेउ के चुनावी क्षेत्र से 2008 में और फिर 2011 और 2015 में दुबारा चुने गये। उन्होंने लिबरल पार्टी से आलोचक के तौर पर युवा व बहुसंस्कृतिवाद, नागरिकता और प्रवासी मामले, स्नातक शिक्षा और युवा व पेशेवर खेल मंत्रालयों के कार्यो की समीक्षा की। अप्रैल 14, 2013 को जस्टिन कनाडा की लिबरल पार्टी के नेता चुने गये। जस्टिन ट्रुडेउ अक्टूबर 19, 2015, के संघीय चुनावों में अपने दल को बहुमत की जीत दिलाने के बाद प्रधानमंत्री नामित हुए हैं।[1][2] उन्होंने 4 नवंबर 2015 को प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला। उसी समय उन्हें जीवन भर के लिये सम्मानसूचक नाम शैली द राइट ऑनरेबल से भी नवाजा गया।[3] शपथ लेने पर वह कनाडा के प्रधानमंत्री बनने वाले दूसरे सबसे युवा व्यक्ति हो जायेंगे। सबसे युवा (जो क्लॉर्क) हैं। साथ ही वो पहले ऐसे व्यक्ति बन जायेंगे जिनके पिता भी कनाडा के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। [4] बचपन, परिवार और शिक्षा ट्रूडो का जन्म ओटावा नागरिक अस्पताल, ओटावा, ओंटारियो में पूर्वाह्न ईएसटी 9:27 बजे पिता पियर ट्रूडो और माँ मार्गरेट ट्रूडो (née सिनक्लेयर) के यहाँ हुआ था।[5] किसी निवर्तमान प्रधानमंत्री के कार्यकाल के समय पैदा होने वाले यह दूसरे बालक थे। पहली ऐसी संतान जॉन ए. मैक्डोनाल्ड को मार्गरेट मैरी मैक्डोनाल्ड के रूप में हुई थी। ट्रूडो के छोटे भाई एलेक्ज़ेंडर ट्रुडेउ (जन्म दिसम्बर 25, 1973) और माइकल ट्रूडो (अक्टूबर 2, 1975– नवम्बर 13, 1998) किसी प्रधानमंत्री के यहाँ पैदा होने वालों में तीसरे और चौथे क्रम पर आते हैं।[6][7] ट्रूडो के दादा व्यवसायी चार्ल्स ट्रूडो और स्कॉटिश जेम्स सिनक्लेयर थे जो पूर्व प्रधानमंत्री लुईस सेंट लॉरेंट के मंत्रिमंडल में भूतपूर्व मत्स्य मंत्री रह चुके थे।[8] वह मुख्यत: फ्रेंच-कनाडियाई, स्कॉटिश व अंग्रेज मूल से संबंधित हैं। उनकी नानी के कुछ पूर्वज सिंगापूर, इंडोनेशिया और मलेशिया में भी रह चुके हैं। उनमें से एक स्कॉटिश विलियम फार्क़्युहर भी हैं जो औपनिवेशिक काल में सिंगापुर के एक प्रमुख नेता थे। विलियम की पहली पत्नी नोनियो क्लीमेंट एक फ्रेंच पिता और मलेशियाई माँ की संतान थीं। इन सब तथ्यों के आधार पर जस्टिन ट्रूडो कनाडा के पहले ऐसे प्रधानमंत्री भी माने जायेंगे जिनकी गैर-यूरोपीय वंशावली रह चुकी है।[9][10] ट्रूडो के माता-पिता 1977 में अलग हो गये और उन्के पिता 1984 में प्रधानमंत्री पद से सेवा निवृत हो गये थे।[11] ट्रूडो के तीन सौतेले भाई-बहन काइल, एलीसिया और साराह हैं। राजनीति से सन्यास लेने के बाद पियर ट्रूडो ने अपने बच्चों को मॉट्रियल में पाला। ट्रूडो ने कॉलेज जीन-डी-ब्रेब्युफ़ में शिक्षा ली जहाँ उनके पिता भी पढ चुके थे।[12] ट्रूडो के पास मैक्गिल विश्वविद्यालय से साहित्य में बैचलर ऑफ आर्ट्स की उपाधि और ब्रिकोवि से बैचलर ऑफ एजुकेशन की डिग्री है। स्नातक के बाद उन्होंने वेस्ट प्वॉईंट ग्रे अकादमी और वैनकुअर के सर विंस्टन चर्चिल सेकन्ड्री स्कूल में एक फ्रेंच और गणित के शिक्षक के तौर पर कार्य किया।[13][14] 2002 से 2004 तक उन्होंने मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय से अभियांत्रिकी की पढाई की।[15] वकालत ट्रूडो ने अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल कई सामाजिक न्याय के कार्यों को पूरा करवाने के लिये किया। दो साल पहले अपने भाई माइकल ट्रूडो की एक हिमस्खलन में मृत्यु के बाद उन्होंने अपने परिवार के साथ मिलकर सन २००० में शीतकालीन खेलों में सुरक्षा के लिये कोकीन ग्लेसियर अल्पाइन आंदोलन चलाया। [16] 2002 में ट्रुडेउ ने ब्रिटिश कोलम्बिया की सरकार के हिमस्खलन चेतावनी प्रणाली के लिये फ़ंड जारी करने से इंकार करने पर भारी विरोध किया था।[17] 2005 में, वो एक प्रस्तावित $100-मिलियन जस्ता खदान के विरोध में लडे जिसके बारे में उनका मानना था की ये खदान नाहानी नदी को प्रदूषित कर देगी जो कि एक संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त एक विश्व विरासत स्थल है। उन्होंने कहा: "यह नदी एक बेहद ही शानदार और जादुई जगह है। मैं नहीं कहता की जस्ता की खुदाई गलत है [...] लेकिन उसके लिए यह जगह ठीक नहीं है। यंहा यह करने के लिये बिल्कुल ही गलत काम है।"[18][19] राजनीतिक शुरुवात ट्रूडो ने किशोरावस्था से ही लिबरल पार्टी का समर्थन किया। 1988 के संघीय चुनावों में लिबरल दल के उम्मीदवार जॉन टर्नर के लिये प्रचार किया। [20] दो साल बाद उन्होंने अपने विद्यालय में एक छात्र-सभा में कनाडा के संघीय ढांचे की वकालत की।[21] अपने पिता की मृत्यु के बाद ट्रूडो लिबरल पार्टी की गतिविधियों में और ज्यादा शामिल होने लगे। उन्हें 2006 के संघीय चुनावों में पार्टी की हार के बाद उन्हें दल से युवाओं को जोडने के लिये बने एक कार्य दल का अध्यक्ष बनाया गया।[22][23] 2008–2013 प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने अक्टूबर 14, 2008 को संघीय चुनावों की घोषणा की जब ट्रूडो पैपिनेउ में पिछले एक वर्ष से चुनाव प्रचार कर रहे थे। चुनाव के दिन उन्होंने ब्लॉक क़्युबेकोइस के विवियन बार्बोट को नज़दीकी अंतर से हराया। [24] चुनावी जीत के बाद ग्लोब एंड मेल के शीर्ष संपादक एडवर्ड ग्रीनस्पोन ने लिखा था कि ट्रूडो को कुछ अन्य सांसदों के साथ-साथ आने वाले प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में देखा जायेगा और इनके कार्यों की गहन समीक्षा होगी। कंज़र्वेटिव पार्टी ने २००८ के चुनावों में बहुमत की सरकार बनाई और ट्रूडो संसद में आधिकारिक विपक्ष के सदस्य के तौर पर आये। कनाडा की चालीसवीं संसद में व्यक्तिगत प्रस्ताव पेश करने वाले के ट्रूडो पहले सांसद थे। इस प्रस्ताव में उन्होंने युवाओं के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक योजना लाने की बात की थी। उनके इस प्रस्ताव को सभी पार्टियों ने स्वीकार किया और समर्थन दिया।[25] बाद में उन्होंने वैनकुअर में आयोजित हुए लिबरल पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन की अप्रैल 2009 में सह-अध्यक्षता की। [26] सितम्बर 2010 में उन्हें युवा, नागरिकता व प्रवास मामलों के लिये अपने पार्टी की तरफ से आलोचक नियुक्त किया गया। [27] उन्होंने हैती के भूकम्प के बाद कनाडा द्वारा राहत कार्य बढाने की वकालत की और हैतियों के लिये प्रवास प्रक्रिया आसान बनाए जाने की मांग की। उन्के अपने चुनावी क्षेत्र में अच्छी खासी संख्या हैती निवासियों की भी है।[28] ट्रूडो कनाडा के संघीय चुनाव में दोबारा पैपिनेउ से लिबरल पार्टी से सांसद चुने गये। हालांकि लिबरल पार्टी इस बार संसद में सिर्फ़ ३४ सीटों के साथ तीसरे स्थान पर खिसक गयी। इग्नैतिफ़ ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया उअर ट्रूडो के अध्यक्ष बनने की अफवाह फैलने लगी। टोरंटो के सांसद बॉब रे को कार्यवाहक चुनावों तक अध्यक्ष चुना गया। रे ने अपनी पार्टी से ट्रूडो को युवा व पेशेवर खेल मंत्रालय और स्नातक शिक्षा के आलोचक के पद के लिये चुना।[29] ट्रूडो को पार्टी का रॉक स्टार कहा गया। चुनावों के बाद वह देश भर में पार्टी और चैरिटी सेवाओं के लिये अनुदान संचयन के लिये घूमते रहे।[30][31][32][33] व्यक्तिगत जीवन ट्रूडो ने सोफ़ी ग्रेगोएर से पहली बार बचपन में मॉंट्रियल में मिले थे। ग्रेगोएर, ट्रूडो के भाई माइकल की सहपाठी थीं।[34] बडे होने पर वह पुन: 2003 में एक दूसरे से मिले जब ग्रेगोएर एक टीवी प्रस्तोता बन चुकी थीं और उन्हें एक शो में ट्रूडो की मेहमान नवाजी का जिम्मा सौंपा गया था। [34] ट्रूडो और ग्रेगोएर ने अक्टूबर 2004 में सगाई कर ली [34] और 28, 2005 को शादी कर ली।[35] दोनों के तीन बच्चे हैं: ज़ैवियर जेम्स (जन्म, अक्टूबर 2007),[36] एल्ला-ग्रेस मार्गरेट (फरवरी 2009) [37][38] और हैड्रीन (जन्म, फरवरी2014).[39][40] चुनावी इतिहास *हर संघीय चुनावी जिले के 100 अंक होते हैं, जिनका निर्धारण जिले में निर्वाचकों (वोटरों) द्वारा किया जाता है। प्रकाशित पुस्तकें सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:कनाडा के वर्तमान सांसद
कनाडा के २३ वें प्रधानमंत्री कौन हैं?
जस्टिन ट्रूडो
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बाल्टिक उत्तरी यूरोप का एक सागर है जो लगभग सभी ओर से जमीन से घिरा है। इसके उत्तर में स्कैडिनेवी प्रायद्वीप (स्वीडन), उत्तर-पूर्व में फ़िनलैंड, पूर्व में इस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, दक्षिण में पोलैंड तथा दक्षिण-पश्चिम में जर्मनी है। पश्चिम में डेनमार्क तथा छोटे द्वीप हैं जो इसे उत्तरी सागर तथा अटलांटिक महासागर से अलग करते हैं। जर्मानी भाषाओं, जैसे डच, डेनिश, फ़िन्नी में इसको पूर्वी सागर (Ostsee) के नाम से जाना जाता है। इसमें गौरतलब है कि यह फ़िनलैंड के पश्चिम में बसा हुआ है। यह एक छिछला सागर है जिसका पानी समुद्री जल से कम खारा है। कृत्रिम नहर द्वारा यह श्वेत सागर से जुड़ा हुआ है। फिनलैंड की खाड़ी, बोथ्निया की खाड़ी, रिगा की खाड़ी इत्यादि इसके स्थानीय निकाय हैं। इसकी औसत गहराई ५५ मीटर है तथा यह कोई १६०० किलोमीटर लम्बा है। By- Sumit soni samthar भौगोलिक आँकड़े यह 53°उत्तरी अक्षांश से लेकर 66°उत्तरी अक्षांश तक और 20°पूर्वी देशांतर से लेकर 26°पूर्वी देशांतर के बीच फैला हुआ है। इसकी लंबाई १६०० किलोमीटर, औसत चौड़ाई १९३ किलोमीटर तथा औसत गहराई ५५ मीटर है। मध्यम खारे पानी का यह सबसे बड़ा प्राय-सागर[1] माना जाता है। इसकी अधिकतम गहराई ४५९ मीटर है जो स्वीडन के तरफ केंद्र के पास है। इसका पृष्ठ क्षेत्रफल ३,७७,००० वर्ग किलोमाटर है तथा इसमें जल का आयतन कोई २०००० घन किलोमीटर है। इसके चारो ओर की तटरेखा कोई ८००० किलोमीटर लंबी है। जाड़े के दिनों में यह औसतन अधिकतम ४५ प्रतिशत तक जम जाता है। सन्दर्भ श्रेणी:यूरोप का भूगोल * श्रेणी:यूरोप के सागर
बाल्टिक सागर की अधिकतम गहराई कितनी है?
४५९ मीटर
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भारतीय कानून, ब्रितानी कानून पर आधारित है। अंग्रेज़ो ने इसे पहली बार अपने शासनकाल के दौरान लागू किया। अंग्रेज़ो द्वारा लागू किये कई अधिनियम (acts) और अध्यादेश (ordinances) आज भी प्रभावशील हैं। भारतीय संविधान के लेखन के दौरान इसमें आयरलैंड, संयुक्त राज्य अमेरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के कानूनों को समाहित (synthesize) किया गया था। भारतीय कानून, संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार और वातावरण संम्बधी दिशानिर्देशों के अनुरूप है। इसमें कुछ अंतरराष्ट्रीय कानूनों, जैसे बौधिक अधिकारों आदि, को भारत में लागू किया गया है। भारतीय नागरिक कानून (Indian Civil Law) एक जटिल कानून है जिसमें प्रत्येक धर्म-विशेष के अपने कानून हैं। अधिकांश राज्यों में विवाह और तलाक के लिए पंजीकरण आवश्यक नहीं है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख व अन्य धर्मों के अपने कानून हैं। इसका अकेला अपवाद गोवा राज्य है जहां पुर्तगाली समान नागरिक संहिता प्रभावी है और सभी धर्मों के लिए विवाह, तलाक और (बच्चा) गोद लेने सम्बंधी एक जैसे कानून हैं। इन्हें भी देखें भारतीय संविधान भारतीय न्यायपालिका भारतीय दण्ड संहिता भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 भारत में मानवाधिकार समान नागरिक संहिता भारतीय श्रम कानून भारतीय नागरिकता भारतीय विधि आयोग बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:राजनीति श्रेणी:समाजशास्त्र श्रेणी:भारतीय विधि
भारतीय कानून,किस पर आधारित है?
ब्रितानी
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तेलंगाना के जिले: दक्षिण भारत में तेलंगाना राज्य 31 जिलों में विभाजित है। तेलंगाना राज्य में एक 'जिला' एक प्रशासनिक भौगोलिक इकाई है, जिसका नेतृत्व जिला कलेक्टर, भारतीय प्रशासनिक सेवा से संबंधित अधिकारी है। सांख्यिकी 2016 में तेलंगाना के नए जिले बनाए गए क्षेत्र के संदर्भ में, भद्राद्री कोठागुडम ज़िला 7,483 किमी 2 (2,88 9 वर्ग मील) के क्षेत्र में सबसे बड़ा जिला है और हैदराबाद जिला 217 किमी 2 (84 वर्ग मील) से सबसे छोटा है। हैदराबाद जिले 3943323 की आबादी वाला सबसे अधिक आबादी वाला जिला है और कोमरम भीम जिला सब से कम जनसंख्या 515,805 वाला जिला है। [1] जिले की गणना यह बी देखिया भारत के जिले सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ * श्रेणी:तेलंगाना
तेलंगाना में कितने जिले है?
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बार्सिलोना स्पेन का एक खुबसूरत शहर है। यह स्पेन में कॅटालोनिया के स्वायत्त समुदाय की राजधानी है और स्पेन का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, प्रशासनिक सीमाओं के भीतर जिसकी आबादी 1.6 मिलियन है।[1] बार्सिलोना दुनिया की के अग्रणी पर्यटन, आर्थिक, व्यापार मेला और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक है, और वाणिज्य, शिक्षा, मनोरंजन, मीडिया, फैशन, विज्ञान, कला में इसका प्रभाव व योगदान इसे दुनिया के प्रमुख वैश्विक शहरों में से एक बनाता है।[2] सन्दर्भ श्रेणी:स्पेन श्रेणी:यूरोप में राजधानियाँ श्रेणी:स्पेन के नगर
बार्सिलोना शहर किस देश में स्थित है?
स्पेन
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घोड़ा या अश्व (Equus ferus caballus; ऐक़्वस फ़ेरस कैबेलस)[2][3] ऐक़्वस फ़ेरस (Equus ferus) की दो अविलुप्त उपप्रजातियों में से एक हैं। वह एक विषम-उंगली खुरदार स्तनधारी हैं, जो अश्ववंश (ऐक़्वडी) कुल से ताल्लुक रखता हैं। घोड़े का पिछले ४५ से ५५ मिलियन वर्षों में एक छोटे बहु-उंगली जीव, ऐओहिप्पस (Eohippus) से आज के विशाल, एकल-उंगली जानवर में क्रम-विकास हुआ हैं। मनुष्यों ने ४००० ईसा पूर्व के आसपास घोड़ों को पालतू बनाना शुरू कर दिया, और उनका पालतूकरण ३००० ईसा पूर्व से व्यापक रूप से फैला हुआ माना जाता हैं। कैबेलस (caballus) उपप्रजाति में घोड़े पालतू बनाएँ जाते हैं, यद्यपि कुछ पालतू आबादियाँ वन में रहती हैं निरंकुश घोड़ो के रूप में। ये निरंकुश आबादियाँ असली जंगली घोड़े नहीं हैं, क्योंकि यह शब्द उन घोड़ो को वर्णित करने के लिए प्रयुक्त होता हैं जो कभी पालतू बनाएँ ही नहीं गएँ हो, जैसे कि विलुप्तप्राय शेवालस्की का घोड़ा, जो एक अलग उपप्रजाति हैं और बचा हुआ केवल एकमात्र असली जंगली घोड़ा हैं। वह मनुष्य से जुड़ा हुआ संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी ने किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी (Equidae) कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान युग का गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर भी है। आदिनूतन युग (Eosin period) के ईयोहिप्पस (Eohippus) नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं। इसका वैज्ञानिक नाम ईक्वस (Equus) लैटिन से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरों छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस (Equus caballus) है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जातें है। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापति करने पर बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्ही पालतू घोड़ो के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते है। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलनेवाले ईक्वस प्रज़्वेलस्की (Equus przwalski) नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते है, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजो में से है। दक्षिण अफ्रिका के जंगलों में आज भी घोड़े बृहत झुंडो में पाए जाते है। एक झुंड में एक नर ओर कई मादाएँ रहती है। सबसे अधिक 1000 तक घोड़े एक साथ जंगल में पाए गए है। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज है और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करतेे है। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते है। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओ को घेर खड़े हो जाते है और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफी संख्या में इनके ठिगने कद के जंगली संबंधी 50 से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हे पालतू बनाता रहता है। पालतू बनाने का इतिहास घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7000 वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यो ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं व लेखकों ने इसके आर्य इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया बताया, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर एशिया से यूरोप, मिस्र और शनै:शनै: अमरीका आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्र है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि शालिहोत्र द्वारा अश्वचिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान (Veterinary Science) को शालिहोत्रशास्त्र नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय राजा नल और पांडवो में नकुल अश्वविद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थी। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्वचिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्वचिकित्सक 'शालिहोत्री' कहा जाता है। १२वीं-१३वीं शताब्दी में जयादित्य द्वारा रचित अश्ववैद्यक में घोड़े की चिकित्सा में अफीम के उपयोग का सन्दर्भ आया है।[4] अश्वजनन इसका उद्देश्य उत्तमोत्तम अश्वों की वृद्धि करना है। यह नियंत्रित रूप के केवल चुने हुए उत्तम जाति के घोड़े घोड़ियों द्वारा ही बच्चे उत्पन्नके संपादित किया जाता है। अश्व पुरातन काल से ही इतना तीव्रगामी और शक्तिशाली नहीं था जितना वह आज है। नियंत्रित सुप्रजनन द्वारा अनेक अच्छे घोड़े संभव हो सके हैं। अश्वप्रजनन (ब्रीडिंग) आनुवंशिकता के सिद्धांत पर आधारित है। देश-विदेश के अश्वों में अपनी अपनी विशेषताएँ होती हैं। इन्हीं गुणविशेषों को ध्यान में रखते हुए घोड़े तथा घोड़ी का जोड़ा बनाया जाता है और इस प्रकार इनके बच्चों में माता और पिता दोनों के विशेष गुणों में से कुछ गुण आ जाते हैं। यदि बच्चा दौड़ने में तेज निकला और उसके गुण उसके बच्चों में भी आने लगे तो उसकी संतान से एक नवीन नस्ल आरंभ हो जाती है। इंग्लैंड में अश्वप्रजनन की ओर प्रथम बार विशेष ध्यान हेनरी अष्टम ने दिया। अश्वों की नस्ल सुधारने के लिए उसने राजनिय बनाए। इनके अंतर्गत ऐसे घोड़ों को, जो दो वर्ष से ऊपर की आयु पर भी ऊँचाई में 60 इंच से कम रहते थे, संतानोत्पत्ति से वंचित रखा जाता था। पीछे दूर दूर देशों से उच्च जाति के अश्व इंग्लैंड में लाए गए और प्रजनन की रीतियों से और भी अच्छे घोड़े उत्पन्न किए गए। अश्वजनन के लिए घोड़ों का चयन उनके उच्च वंश, सुदृढ़ शरीररचना; सौम्य स्वभाव, अत्याधिक साहस और दृढ़ निश्चय की दृष्टि से किया जाता है। गर्भवती घोड़ी को हल्का परंतु पर्याप्त व्यायाम कराना आवश्यक है। घोड़े का बच्चा ग्यारह मास तक गर्भ में रहता है। नवजात बछड़े को पर्याप्त मात्रा में मां का दूध मिलना चाहिए। इसके लिए घोड़ी को अच्छा आहार देना आश्यक हैं। बच्चे को पाँच छह मास तक ही मां का दूध पिलाना चाहिए। पीछे उसके आहार और दिनचर्या पर यथेष्ट सतर्कता बरती जाती है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें अश्वधावन घोड़ा घोड़ा
घोड़े का वैज्ञानिक नाम क्या है?
ईक्वस कैबेलस
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मास्को या मॉस्को (रूसी: Москва́ (मोस्कवा)), रूस की राजधानी एवं यूरोप का सबसे बडा शहर है, मॉस्को का शहरी क्षेत्र दुनिया के सबसे बडे शहरी क्षेत्रों में गिना जाता है। मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है। यह मोस्कवा नदी के तट पर बसा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से यह पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रही है। मास्को को दुनिया के अरबपतियों का शहर भी कहा जाता है जहां दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति बसते हैं।[1] २००७ में मास्को को लगातार दूसरी बार दुनिया का सबसे महंगा शहर भी घोषित किया गया था।[2] इतिहास मास्को शहर का नाम मोस्कवा नदी पर रखा गया है। १२३७-३८ के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने सारा शहर जला दिया और लोगों को मार दिया। मास्को ने दुबारा विकास किया और १३२७ में व्लादिमीर - सुज्दाल रियासत की राजधानी बनाई गई। वोल्गा नदी के शुरूवात पर स्थित होने के कारण यह शहर अनुकूल था और इस कारण धीरे धीरे शहर बड़ा होने लगा। मास्को एक शांत और संपन्न रियासत बन गया और सारे रूस से लोग आकर यहाँ बसने लगे। १६५४-५६ के प्लेग ने मास्को की आधी आबादी को खत्म कर दिया। १७०३ में बाल्टिक तट पर पीटर महान द्वारा सैंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद, १७१२ से मास्को रूस की राजधानी नहीं रही। १७७१ का प्लेग मध्य रूस का आखिरी बड़ा प्लेग था, जिसमे केवल मास्को के ही १००००० व्यक्तियों की जान गयी। १९०५ में, अलेक्जेंडर अद्रिनोव मास्को के पहले महापौर बने। १९१७ के रुसी क्रांति के पश्चात, मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया। मई ८,१९६५ को, नाजी जर्मनी पर विजय की २०वीं वर्षगांठ के अवसर पर मास्को को हीरो सिटी की उपाधि प्रदान की गयी। अर्थव्यवस्था मास्को यूरोप की सबसे बड़ी शहरी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यह रूस के सकल घरेलू उत्पाद का करीब २४% योगदान करता है। २००८ में मास्को की अर्थव्यवस्था ८.४४ ट्रिलियन रूबल थी | मास्को में औसत मासिक वेतन ४१६०० रूबल है। २०१० में, मास्को में बेरोजगारी दर सिर्फ १% थी, जो रूस के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों में सबसे कम है। मास्को रूस का निर्विवादित रूप से मुख्य आर्थिक केंद्र है। यहाँ रूस के सबसे बड़े बैंक और कंपनियां स्थित हैं जिनमे रूस की सबसे बड़ी कंपनी गेज्प्रोम भी शामिल है। मास्को की रूस की खुदरा बिक्री में १७% एवं सभी निर्माण गतिविधियों में १३% हिस्सेदारी है। चेर्किजोव्सकी बाजार, ३ करोड़ डॉलर की दैनिक बिक्री एवं दस हजार विक्रेताओं के साथ यूरोप का सबसे बड़ा बाजार है। यह बाजार प्रशासनिक रूप से १२ भागों में बंटा है और शहर के एक बड़े भूभाग पर स्थित है।२००८ में, मास्को में ७४ अरबपति थे और यह न्यूयोर्क, ७१ अरबपति, से ऊँचे पायदान पर है। शिक्षा देखें, मास्को राज्य विश्वविद्यालय मास्को में १६९६ उच्चतर विद्यालय एवं ९१ महाविद्यालय हैं। इनके अलावा, २२२ अन्य संस्थान भी उच्च शिक्षा उपलब्ध करातें हैं, जिनमे ६० प्रदेश विश्वविद्यालय एवं १७५५ में स्थापित लोमोनोसोव मास्को स्टेट विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। विश्वविद्यालय में २९ संकाय एवं ४५० विभाग हैं जिनमे ३०००० पूर्वस्नातक एवं ७००० स्नातकोत्तर छात्र पढते हैं। साथ ही विश्वविद्यालय में, उच्चतर विद्यालय के करीब १०००० विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं करीब २००० शोधार्थी कार्य करते हैं। मास्को स्टेट विश्वविद्यालय पुस्तकालय, रूस के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ लगभग ९० लाख पुस्तकें हैं। शहर में ४५२ पुस्तकालय हैं, जिनमे से १६८ बच्चों के लिए हैं। १८६२ में स्थापित रुसी स्टेट पुस्तकालय, रूस का राष्ट्रीय पुस्तकालय है। स्थापत्य मास्को का स्थापत्य विश्व प्रसिद्ध है। मास्को सेंट बेसिल केथेड्रल, क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल और सेवेन सिस्टर्स के लिए प्रसिद्ध है। लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा | हालाँकि, शहर के समग्र रूप में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुआ है, खासकर जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ | स्टालिन की शहर के लिए योजना में चौड़े रास्तों और सडकों का जाल शामिल था जिनमे कई सड़कें १० लेन तक चौड़ी थीं | इससे शहर का यातायात सुगम हो गया, पर इसके लिए बहुत सारी एतिहासिक इमारतों को हटाना पड़ा | स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान सेवेन सिस्टर्स (सात बहनें) माना जा सकता है। सेवेन सिस्टर्स सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं। सात टावरों को शहर के सभी ऊँचे स्थानों से देखा जा सकता है। ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊंची इमारतों में से हैं। ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण १९६७ में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊँची मुक्त खड़ी भूमि संरचना थी | आज बुर्ज खलीफा दुबई, केंतून टॉवर ग्वांगझू और सी.एन. टॉवर टोरोंटो के बाद चौथे स्थान पर है। हर नागरिक और उसके परिवार को अनिवार्य आवास उपलब्ध कराने की सोवियत नीति एवं मास्को की आबादी के तेजी से विकास के कारण, विशाल एवं नीरस आवासीय परिसरों का निर्माण किया गया | इन परिसरों को इनकी शैली, आयु, मजबूती एवं निर्माण सामग्री के आधार पर विभेदित किया जा सकता है। इनमे से अधिकतर का निर्माण स्टालिन युग के पश्चात हुआ और इनकी निर्माण शैलियाँ नेताओं (ब्रेज्हेनेव, ख्रुश्चेव इत्यादि) के नाम से जानी जाती हैं। आमतौर पर इन परिसरों का रखरखाव खराब है। जनसांख्यिकी बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक जालस्थल मीडिया - मॉस्को का एक बडा अंग्रेजी अखबार - मॉस्को के सबसे पुराने अंग्रेजी अखबारों में से एक मौसम सूचना मानचित्र चित्र एवँ वीडियो मोस्कवा नदी के तट पर सन्दर्भ श्रेणी:यूरोप के नगर श्रेणी:रूस के नगर श्रेणी:यूरोप में राजधानियाँ
१९०५ में मास्को के पहले महापौर कौन बने?
अलेक्जेंडर अद्रिनोव
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हुदहुद एक उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफान है। यह उत्तरी हिंद महासागर में बना २०१४ का अब तक का सबसे ताकतवर तूफान है। इसका नाम हुदहुद नामक एक पक्षी के नाम से लिया गया है। इसके नाम का सुझाव ओमान ने दिया। इतिहास यह ६ अक्टूबर को अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह से होते हुए १२ अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में टकराया। १२ अक्टूबर से पहले इसकी गति बढ़ते-बढ़ते २१५ किलो मीटर प्रति घंटे तक पहुँच गई थी। इस तूफान के कारण ३८ रेल यात्राओं को रद्द कर दिया गया। ७ अक्टूबर को यह उत्तरी हिंद महासागर में बना व पहली बार दिखाई दिया। ८ अक्टूबर को यह अण्डमान और निकोबार से होते हुए बंगाल की खाड़ी में गया। इसके बाद यह ८ से ११ अक्टूबर तक यहीं विकराल रूप व अपनी गति अधिक करता रहा। ११ अक्टूबर को इसके कारण ओडिशा व आंध्र प्रदेश में तेज हवा के साथ वर्षा होने लगी। १२ अक्टूबर को यह आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में २१५ किलो मीटर प्रति घंटे की गति से टकराया। इसी रात ११ से १२ के मध्य यह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले से होते हुए ५० किलो मीटर की गति से पहुँचा व अगले दिन के सुबह यह चला गया। इसके बाद कई स्थानो में वर्षा हुई। १३ अक्टूबर यह छत्तीसगढ़ में ५० किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बस्तर से रायपुर संभाग की ओर गया। १४ अक्टूबर को इसके कारण दिल्ली व उत्तर प्रदेश में इसका प्रभाव दिखने लगा। प्रभाव क्षेत्र इस चक्रवात के लिए १२ अक्टूबर से पहले ही उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में तैयारी किया गया था। इसका सबसे अधिक प्रभाव आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में पड़ा, जहाँ यह सबसे अधिक गति के साथ टकराया था। अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह ८ अक्टूबर को यह अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह में आया। इस तूफान से पहले ही यहाँ सारे कार्यालय व विद्यालयों को बंद रखने के निर्देश दिये गए थे। तूफान के समय कई पेड़ों के टूटने से इसके टुकड़े सड़क में आने व बिजली के तारो में गिरने के कारण सड़क व संचार व्यवस्था बंद रही। इसके पश्चात यह बंगाल की खाड़ी से होते हुए आंध्र प्रदेश की ओर चला गया। आंध्र प्रदेश हुदहुद तूफान आंध्र प्रदेश से १२ अक्टूबर को सुबह ११:३० को गुजरा।[4] यहाँ यह तूफान विशाखापत्तनम में जा कर टकरा गया।[5] तब इसकी गति २१५ किलो मीटर प्रति घंटे की थी।[6] इस तूफान के कारण लगभग २००० करोड़ का नुकसान हुआ है। ओडिशा ओडिशा सरकार ने १६ जिलों में चेतावनी जारी करते हुए सावधान रहने को कहा। वह जिले है- बालेश्वर, केद्रापड़ा,भद्रक, जगतसिंहपुर, पूरी, गंजाम्,मयूरभंज, जाजपुर, कटक, खुरधा, नयागढ़, गजपति, ढेंकनाल, केओंझर, मलकानगिरी और कोरापुट। यहाँ पर हवा की गति ९० किलो मीटर प्रति घंटे से अधिक चल चलने की आशंका मौसम विभाग ने व्यक्त की। छत्तीसगढ़ १२ अक्टूबर को आंध्र प्रदेश और ओडिशा से होते हुए हुदहुद तूफान रात के ११:३० को बस्तर जिले से होते हुए गुज़रा। यहाँ इसकी गति ५० से ६० किलो मीटर प्रति घंटे की थी। इसके साथ-साथ यहाँ के कई स्थानो में भारी वर्षा हुई। १३ अक्टूबर के सुबह यह सुकमा जिले से होते हुए रायपुर की ओर गया। मध्य प्रदेश यहाँ इस तूफान का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा परंतु अनुपपुर आदि स्थानो में हवा के साथ-साथ हल्की वर्षा भी हुई। दिल्ली इसके प्रभाव के कारण दिल्ली व उत्तर प्रदेश में भी हवाएँ चलने लगीं है। उत्तर प्रदेश इसके कारण १४ अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के कई स्थानो में भी इसका असर दिखा।[7] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:चक्रवात श्रेणी:भारत में चक्रवात श्रेणी:2014 में भारत
उत्तरी हिंद महासागर में बना हुदहुद तूफ़ान किस वर्ष का अब तक का सबसे ताकतवर तूफान है?
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गोकरुणानिधि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। सामग्री व प्रारूप इस पुस्तक में स्वामी दयानंद सरस्वती ने गाय आदि पशुओं की रक्षा और कृषि को प्रोत्साहन देने संबंधी कुछ प्रस्ताव रखे हैं व एक 'गोकृष्यादिरक्षिणी सभा' (गो कृषि आदि रक्षिणी सभा) की घोषणा की है। पुस्तक को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। गो आदि प्राणियों पर दया क्यों करनी चाहिए और इससे मनुष्य को क्या लाभ है, इसकी समीक्षा प्रथम भाग में है। एक हिंसक व रक्षक के बीच संवाद भी इस भाग में उपलब्ध है। दूसरे विभाग में गो व कृषि आदि की रक्षा समिति के नियम उल्लिखित हैं। तीसरे विभाग में समिति के नियम व उपसभा के कार्यकलाप आदि हैं, तथा विशेष स्थितियों में सभा को क्या करना चाहिए, यह वर्णित है। पुस्तक की भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है। इस पुस्तक के समीक्षा प्रकरण में भारत के उस समय के शासकों को प्रति सुशासन करने का आह्वान है। उदाहरण के लिए, राजाओं, सरदारों व धनाढ्य व्यक्तियों से गो रक्षा के लिए शतांश से अधिक आय का योगदान करने को कहा गया है। एक परिच्छेद में महारानी विक्टोरिया (उस समय की भारत की शासिका) का भी उल्लेख है[1], कि उन्होंने प्राणियों पर दया करने का विज्ञापन किया है, इस संदर्भ में लेखक का कहना है कि प्राणी की हत्या करना सबसे अधिक निर्दयता है। पुस्तक में पशुओं के साथ दुर्व्यवहार को देख के करुणा के भाव और सभी संप्रदाय के लोगों को समरूप से इस कार्य में शामिल होने का अनुरोध है। वनों और पशुओं को न मारकर उन्हें बचा के रखना, ये आज के पर्यावरणवादियों के विचारों से काफ़ी मिलती जुलती विचार धारा है जो इस पुस्तक में उजागर होती है। माना जाता है कि यह विश्व की पहली ऐसी पुस्तक जिसमें पशुओं को न मारने के अनेक तर्कों सहित पशुओं जैसे गाय, बकरी से प्राप्त दूध की सटीक जानकारी दी गई है। पुस्तक के अनुसार एक गाय अपने जीवन में २५७४० (पच्चीस हजार सात सौ चालीस) मनुष्यों को तृप्त कर सकती है तथा गाय को कुछ मनुष्यों द्वारा मांस के रूप में खाना अत्यंत अस्वाभाविक व निंदनीय है। लेखक का यह मंतव्य है कि गोमांस छिलके के समान है और दुग्ध सार के समान। अतः मांसाहार से बच के दुग्धपान करना चाहिए और पशुओं की रक्षा करनी चाहिए।[2] भारत में गोरक्षा आन्दोलन के प्रारंभिक समय में इस पुस्तक का कई लोगों पर गहरा प्रभाव[3] माना जाता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (अंग्रेज़ी) श्रेणी:आर्य समाज श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:पुस्तकें
´गोकरुणानिधि´ किसके द्वारा लिखित एक पुस्तिका है?
स्वामी दयानंद सरस्वती
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जापान, एशिया महाद्वीप में स्थित देश है। जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है। ये द्वीप एशिया के पूर्व समुद्रतट, यानि प्रशांत महासागर में स्थित हैं। इसके निकटतम पड़ोसी चीन, कोरिया तथा रूस हैं। जापान में वहाँ का मूल निवासियों की जनसंख्या ९८.५% है। बाकी 0.5% कोरियाई, 0.4 % चाइनीज़ तथा 0.6% अन्य लोग है। जापानी अपने देश को निप्पॉन कहते हैं, जिसका मतलब सूर्योदय है। जापान की राजधानी टोक्यो है और उसके अन्य बड़े महानगर योकोहामा, ओसाका और क्योटो हैं। बौद्ध धर्म देश का प्रमुख धर्म है और जापान की जनसंख्या में 96% बौद्ध अनुयायी है।[1][2] इतिहास जापानी लोककथाओं के अनुसार विश्व के निर्माता ने सूर्य देवी तथा चन्द्र देवी को भी रचा। फिर उसका पोता क्यूशू द्वीप पर आया और बाद में उनकी संतान होंशू द्वीप पर फैल गए। प्राचीन काल जापान का प्रथम लिखित साक्ष्य ५७ ईस्वी के एक चीनी लेख से मिलता है। इसमें एक ऐसे राजनीतिज्ञ के चीन दौरे का वर्णन है, जो पूर्व के किसी द्वीप से आया था। धीरे-धीरे दोनों देशों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित हुए। उस समय जापानी एक बहुदैविक धर्म का पालन करते थे, जिसमें कई देवता हुआ करते थे। छठी शताब्दी में चीन से होकर बौद्ध धर्म जापान पहुंचा। इसके बाद पुराने धर्म को शिंतो की संज्ञा दी गई जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - देवताओं का पंथ। बौद्ध धर्म ने पुरानी मान्यताओं को खत्म नहीं किया पर मुख्य धर्म बौद्ध ही बना रहा। चीन से बौद्ध धर्म का आगमन उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार लोग, लिखने की प्रणाली (लिपि) तथा मंदिरो का सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक कार्यों के लिए उपयोग। शिंतो मान्यताओं के अनुसार जब कोई राजा मरता है तो उसके बाद का शासक अपना राजधानी पहले से किसी अलग स्थान पर बनाएगा। बौद्ध धर्म के आगमन के बाद इस मान्यता को त्याग दिया गया। ७१० ईस्वी में राजा ने नॉरा नामक एक शहर में अपनी स्थायी राजधानी बनाई। शताब्दी के अन्त तक इसे हाइरा नामक नगर में स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे बाद में क्योटो का नाम दिया गया। सन् ९१० में जापानी शासक फूजीवारा ने अपने आप को जापान की राजनैतिक शक्ति से अलग कर लिया। इसके बाद तक जापान की सत्ता का प्रमुख राजनैतिक रूप से जापान से अलग रहा। यह अपने समकालीन भारतीय, यूरोपी तथा इस्लामी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न था जहाँ सत्ता का प्रमुख ही शक्ति का प्रमुख भी होता था। इस वंश का शासन ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक रहा। कई लोगों की नजर में यह काल जापानी सभ्यता का स्वर्णकाल था। चीन से सम्पर्क क्षीण पड़ता गया और जापान ने अपना खुद की पहचान बनाई। दसवी सदी में बौद्ध धर्म का मार्ग अपनाया। इसके बाद से जापान ने अपने आप को एक आर्थिक शक्ति के रूप में सुदृढ़ किया और अभी तकनीकी क्षेत्रों में उसका नाम अग्रणी राष्ट्रों में गिना जाता है। भूगोल जापान कई द्वीपों से बना देश है। जापान कोई ६८०० द्वीपों से मिलकर बना है। इनमें से केवल ३४० द्वीप १ वर्ग किलोमीटर से बड़े हैं। जापान को प्रायः चार बड़े द्वीपों का देश कहा जाता है। ये द्वीप हैं - होक्काइडो, होन्शू, शिकोकू तथा क्यूशू। जापानी भूभाग का ७६.२ प्रतिशत भूभाग पहाड़ों से घिरा होने के कारण यहां कृषि योग्य भूमि मात्र १३.४ प्रतिशत है, ३.५ प्रतिशत क्षेत्र में पानी है और ४.६ प्रतिशत भूमि आवासीय उपयोग में है। जापान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। चारों ओर समुद्र से घिरा होने के बावजूद इसे अपनी जरुरत की २८ प्रतिशत मछलियां बाहर से मंगानी पड़ती है। शासन तथा राजनीति , सरकार यद्यपि ऐसा कहीं लिखा नहीं है पर जापान की राजनैतिक सत्ता का प्रमुख राजा होता है। उसकी शक्तियां सीमित हैं। जापान के संविधान के अनुसार "राजा देश तथा जनता की एकता का प्रतिनिधित्व करता है"। संविधान के अनुसार जापान की स्वायत्तता की बागडोर जापान की जनता के हाथों में है। विदेश नीति सैनिक रूप से जापान के सम्बन्ध अमेरिका से सामान्य है। सेना जापान का वर्तमान संविधान इसे दूसरे देशों पर सैनिक अभियान या चढ़ाई करने से मना करता है। अर्थव्यवस्था एक अनुमान के अनुसार जापान विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परन्तु जापान की अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं है। यहां के लोगो की औसत वार्षिक आय लगभग ५०,०० अमेरिकी डॉलर है जो काफी अधिक है। 1868 से, मीजी काल आर्थिक विस्तार का शुभारंभ किया। मीजी शासकों ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की अवधारणा को गले लगा लिया और मुक्त उद्यम पूंजीवाद के ब्रिटिश और उत्तरी अमेरिका के रूपों को अपनाया। जापानी विदेश में और पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन गए थे जापान में पढ़ाने के काम पर रखा है। आज के उद्यमों के कई समय की स्थापना की थी। जापान एशिया में सबसे विकसित राष्ट्र के रूप में उभरा है। 1980 के दशक, समग्र वास्तविक आर्थिक विकास के लिए 1960 से एक "जापानी" चमत्कार बुलाया गया है: 1960 के दशक में एक 10% औसत, 1970 के दशक में एक 5% औसत है और 1980 के दशक में एक 4% औसत। विकास जापानी क्या कॉल के दौरान 1990 के दशक में स्पष्ट रूप से धीमा दशक के बाद बड़े पैमाने पर जापानी परिसंपत्ति मूल्य बुलबुला और घरेलू करने के लिए शेयर और अचल संपत्ति बाजार से सट्टा ज्यादतियों मरोड़ इरादा नीतियों के प्रभाव की वजह से खोया। सरकार को आर्थिक छोटी सफलता के साथ मुलाकात की वृद्धि को पुनर्जीवित करने के प्रयासों थे और आगे 2000 में वैश्विक मंदी से प्रभावित। अर्थव्यवस्था 2005 के बाद वसूली के मजबूत संकेत दिखाया. उस वर्ष के लिए जीडीपी विकास 2.8% था। 2009 के रूप में, जापान दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद, अमेरिका के आसपास 5 नाममात्र का सकल घरेलू उत्पाद और तीसरे के संदर्भ में खरब डॉलर के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और शक्ति समता जापान के लोक ऋण की खरीद के 192 प्रतिशत के मामले में चीन यह वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद, बैंकिंग, बीमा, रियल एस्टेट, खुदरा बिक्री, परिवहन, दूरसंचार और निर्माण की सभी प्रमुख उद्योगों जापान एक बड़े औद्योगिक क्षमता है और सबसे बड़ा की, प्रमुख और सबसे अधिक प्रौद्योगिकी मोटर वाहन, इलेक्ट्रानिक के उत्पादकों उन्नत करने के लिए घर है उपकरण, मशीन टूल्स, इस्पात और पोतों, रसायन, वस्त्र और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ सकल घरेलू उत्पाद के तीन तिमाहियों के लिए सेवा क्षेत्र खातो। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जापान पिछले कुछ दशकों से विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी हो गया है। जापान के वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्रों, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, मशीनरी और जैव चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में से एक है। लगभग 700,000 शोधकर्ताओं शेयर एक अमेरिका में 94 130 अरब डॉलर का अनुसंधान एवं विकास बजट, विश्व में तीसरी सबसे बड़ी [.] जापान मौलिक वैज्ञानिक अनुसंधान में एक विश्व नेता हैं, होने भी भौतिकी में तेरह नोबेल पुरस्कार विजेताओं का उत्पादन किया, रसायन विज्ञान या चिकित्सा, 95 तीन फील्ड्स पदक 96 और एक गॉस पुरस्कार विजेता जापान के अधिक प्रमुख तकनीकी योगदान के कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में, मशीनरी, भूकंप इंजीनियरिंग, औद्योगिक रोबोटिक्स, प्रकाशिकी, रसायन, अर्धचालक और धातुओं पाए जाते हैं। जापान रोबोटिक्स उत्पादन और उपयोग करते हैं, आधे से अधिक रखने (402200 742500 के) दुनिया के औद्योगिक रोबोटों के विनिर्माण के लिए इस्तेमाल किया [98] यह भी QRIO, ASIMO और AIBO का उत्पादन किया। दुनिया में ले जाता है। जापान दुनिया के मोटर वाहन का सबसे बड़ा उत्पादक है 99] [और चार दुनिया की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पन्द्रह निर्माताओं के लिए घर और आज के रूप में सात दुनिया के बीस सबसे बड़ी अर्धचालक बिक्री नेताओं की जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) जापान की अंतरिक्ष एजेंसी है जो अंतरिक्ष और ग्रह अनुसंधान, उड्डयन अनुसंधान आयोजित करता है और रॉकेट और उपग्रह विकसित करता है। यह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भागीदार है और जापानी प्रयोग मॉड्यूल (Kibo है) किया गया था 2008 में अंतरिक्ष शटल विधानसभा उड़ानों के दौरान अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जोड़ा [100.] यह वीनस जलवायु शुरू की परिक्रमा के रूप में अंतरिक्ष की खोज में की योजना बनाई है (ग्रह 2010 में सी), [101] [102 बुध Magnetospheric परिक्रमा विकासशील] 2013 में शुरू किया जाना है, [103] [104] और 2030 से एक moonbase निर्माण 14 सितंबर को, 2007, यह एक एच IIA (मॉडल H2A2022) Tanegashima अंतरिक्ष केंद्र से वाहक रॉकेट को चंद्रमा की कक्षा एक्सप्लोरर "सेलिन" (Selenological एण्ड इंजीनियरिंग एक्सप्लोरर) का शुभारंभ किया। सेलिन भी Kaguya के रूप में जाना जाता है, प्राचीन लोककथा बांस कटर की कथा का चंद्र राजकुमारी। Kaguya अपोलो कार्यक्रम के बाद से सबसे बड़ी जांच चंद्र मिशन है। अपने मिशन से चंद्रमा की उत्पत्ति और विकास पर डेटा इकट्ठा है। यह 4 अक्टूबर के बारे में 100 किमी (62 मील) की ऊंचाई पर चंद्रमा की कक्षा में उड़ान] पर एक चंद्र कक्षा में प्रवेश किया। संस्कृति कुछ लोग जापान की संस्कृति को चीन की संस्कृति का ही विस्तार समझते हैं। जापानी लोगो ने कई विधाओं में चीन की संस्कृति का अंधानुकरण किया है। बौद्ध धर्म यहां चीनी तथा कोरियाई भिक्षुओं के माध्यम से पहुंचा। जापान की संस्कृति की सबसे खास बात ये हैं कि यहां के लोग अपनी संस्कृति से बहुत लगाव रखते हैं। मार्च का महीना उत्सवों का महीना होता है। जापानी संगीत उदार है, होने उपकरणों तराजू, पड़ोसी संस्कृतियों और शैलियों से उधार लिया। Koto जैसे कई उपकरणों, नौवें और दसवें शताब्दियों में पेश किए गए। चौदहवें शताब्दी और लोकप्रिय लोक संगीत से Noh नाटक तारीखों के साथ भाषण, गिटार की तरह shamisen के साथ, सोलहवीं से [144] पश्चिमी शास्त्रीय संगीत, देर से उन्नीसवीं सदी में शुरू की। अब का एक अभिन्न अंग संस्कृति. युद्ध के बाद जापान भारी कर दिया गया है अमेरिकी और यूरोपीय आधुनिक संगीत, जो लोकप्रिय बैंड जम्मू, पॉप संगीत बुलाया के विकास के लिए नेतृत्व किया गया है द्वारा प्रभावित किया। कराओके सबसे व्यापक रूप से सांस्कृतिक गतिविधि अभ्यास है। सांस्कृतिक मामलों एजेंसी द्वारा एक नवंबर 1993 सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिक जापानी कराओके गाया था कि वर्ष की तुलना में परंपरागत सांस्कृतिक गतिविधियों में व्यवस्था या चाय समारोह के फूल के रूप में भाग लिया था। जापानी साहित्य की जल्द से जल्द काम दो इतिहास की पुस्तकों में शामिल हैं और Kojiki Nihon Shoki और आठवीं शताब्दी कविता पुस्तक Man'yōshū, मान्योशू सभी चीनी अक्षरों में लिखा है। हीयान काल के शुरुआती दिनों में, के रूप में जाना प्रतिलेखन की व्यवस्था काना (हीरागाना और काताकाना) phonograms के रूप में बनाया गया था। बांस कटर की कथा पुराना जापानी कथा माना जाता है हीयान अदालत जीवन के एक खाते. है तकिया सेई Shōnagon द्वारा लिखित पुस्तक के द्वारा दिया है, जबकि लेडी मुरासाकी द्वारा गेंजी की कथा अक्सर दुनिया के पहले उपन्यास के रूप में वर्णित है। ईदो अवधि के दौरान, साहित्य इतना chōnin की है कि के रूप में सामुराई शिष्टजन का मैदान नहीं बन गया, साधारण लोग हैं। Yomihon, उदाहरण के लिए, लोकप्रिय बन गया है और पाठकों और ग्रन्थकारिता में इस गहरा बदलाव का पता चलता है [148] मीजी युग पारंपरिक साहित्यिक रूपों, जिसके दौरान जापानी साहित्य पश्चिमी प्रभाव एकीकृत की गिरावट देखी.. Natsume Sōseki और मोरी Ōgai पहली "जापान के आधुनिक 'उपन्यासकार, Ryūnosuke Akutagawa, Jun'ichirō Tanizaki, Yasunari Kawabata, युकिओ मिशिमा और, द्वारा और अधिक हाल ही में पीछा किया, Haruki Murakami थे। जापान के दो नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक-Yasunari Kawabata (1968) और Kenzaburo ँ (1994) है। साहित्य और धर्म मान्योशू जापान का सबसे पुराना काव्य संकलन है। हाइकु जापान की प्रसिद्ध काव्य विधा रही है तथा मात्सुओ बाशो जापानी हाइकु कविता के प्रसिद्ध कवि हैं। धर्म जापान की 96 प्रतिशत जनता बौद्ध धर्म का अनुसरण करती है। चीन के बाद बौद्ध आबादी वाला जापान सबसे बड़ा देश है। शिंतो धर्म भी यहाँ काफी प्रसिद्ध है, इस धर्म के अधिकतर लोग बौद्ध धर्म का ही पालन करते है। ताओ धर्म, कन्फ्यूशीवाद और बौद्ध धर्म चीन से भी जापानी विश्वासों और सीमा शुल्क को प्रभावित किया है। जापान में धर्म प्रकृति में समधर्मी हो जाता है और प्रथाओं का एक माता पिता, परीक्षा से पहले प्रार्थना छात्रों मना बच्चों के रूप में ऐसी किस्म, में यह परिणाम, जोड़ों एक क्रिश्चियन चर्च पर एक शादी पकड़ होने के बौद्ध मंदिर में आयोजित किया। एक अल्पसंख्यक (2,595,397 या 2.04%) ईसाई धर्म को पेशे के अलावा है, क्योंकि 19 वीं सदी के मध्य, कई धार्मिक संप्रदायों (Shinshūkyō) जापान में Tenrikyo और Aum (शिनरिक्यो या Aleph) जैसे उभरा है। भाषा लगभग ९९% जनता जापानी भाषा बोलती है। लेखन प्रणाली कांजी (चीनी अक्षर) और काना के दो सेट के रूप में अच्छी तरह से लैटिन वर्णमाला और अरबी अंकों का उपयोग करता है। भाषाओं में भी जापान भाषा परिवार का हिस्सा है जो जापानी अंतर्गत आता है, ओकिनावा में बोली जाती हैं, लेकिन कुछ बच्चों को इन भाषाओं के लिए सीख लो. भाषा मरणासन्न केवल कुछ बुजुर्ग होकाईदो में शेष देशी वक्ताओं के साथ है। अधिकांश सार्वजनिक और निजी स्कूलों के छात्रों को दोनों जापानी और अंग्रेजी में पाठ्यक्रमों लेने के लिए आवश्यकता होती है। जनजीवन अपनी जापान यात्रा के बाद निशिकांत ठाकुर लिखते हैं - "आज जापान में हर व्यक्ति के पास रंगीन टेलीविजन है, करीब 83 प्रतिशत लोगों के पास कार है, 80 प्रतिशत घरों में एयरकंडीशन लगे हैं, 76 प्रतिशत लोगों के पास वीसीआर हैं, 91 प्रतिशत घरों में माइक्रोवेव ओवन हैं और करीब 25 प्रतिशत लोगों के पास पर्सनल कम्प्यूटर हैं। यह है विकास और ऊंचे जीवन स्तर की एक झलक। आम जापानी स्वभाव से शर्मीला, विनम्र, ईमानदार, मेहनती और देशभक्त होता है। यही कारण है कि विकसित देशों की तुलना में जापान में अपराध दर कम है।" जापान में दुनिया के सबसे ज्यादा बुजुर्ग लोग रहते हैं। जापान तकनीक क्षेत्र में बहुत आगे है खेल-कूद परंपरागत रूप से, सूमो जापान के राष्ट्रीय खेल माना जाता हैऔर यह जापान में एक लोकप्रिय दर्शक खेल है। जूडो जैसे मार्शल आर्ट, कराटे और आधुनिक Kendo भी व्यापक रूप से प्रचलित है और देश में दर्शकों ने आनंद उठाया. मीजी पुनरुद्धार के बाद कई पश्चिमी खेल जापान में शुरू किया गया और शिक्षा प्रणाली के माध्यम से फैल शुरू किया। जापान में पेशेवर बेसबॉल लीग 1936 में स्थापित किया गया था आज बेसबॉल सबसे लोकप्रिय देश में दर्शक खेल है।. एक के सबसे प्रसिद्ध जापानी बेसबॉल खिलाड़ियों के Ichiro सुजुकी, जो 1994 में जापान की सबसे मूल्यवान प्लेयर अवार्ड, 1995 और 1996 है, अब उत्तर अमेरिकी मेजर लीग बेसबॉल के सिएटल Mariners के लिए खेलता है जीत रही है। उसके पहले, Sadaharu ओह अच्छी तरह से किया गया था जापान के बाहर जाना जाता है, कर अधिक घर मारा अपने समकालीन, हांक हारून, संयुक्त राज्य अमेरिका में किया था की तुलना में अपने कैरियर के दौरान जापान में चलाता है। 1992 में जापान प्रोफेशनल फुटबॉल लीग की स्थापना, एसोसिएशन फुटबॉल (सॉकर) के बाद से भी एक विस्तृत निम्नलिखित प्राप्त किया है] जापान। 1981 से इंटरकांटिनेंटल कप के एक स्थल 2004 से था और सह मेजबानी 2002 फीफा विश्व कप दक्षिण के साथ कोरिया. जापान एक सबसे सफल एशिया में फुटबॉल टीमों में से एक है, एशियाई कप जीतने तीन बार. गोल्फ भी जापान, के रूप में लोकप्रिय है सुपर जी.टी. स्पोर्ट्स कार श्रृंखला और निप्पॉन फॉर्मूला फार्मूला रेसिंग के रूप में ऑटो रेसिंग के रूप हैं जुड़वा अँगूठी Motegi था होंडा द्वारा 1997 में पूरा करने के लिए IndyCar लाने के लिए दौड़ जापान. जापान में टोक्यो में 1964 में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक की मेजबानी की। जापान के शीतकालीन ओलंपिक की मेजबानी की है दो बार, नागानो में 1998 में और 1972 में साप्पोरो विदेशी संबंधों और सैन्य जापान के पास रखता आर्थिक और सैन्य संबंधों इसके प्रमुख सहयोगी अमेरिका के साथ, अमेरिका और जापान सुरक्षा अपनी विदेश नीति के आधार के रूप में सेवा के साथ गठबंधन 1956 के बाद से संयुक्त राष्ट्र के एक सदस्य राज्य, जापान के रूप में सेवा की है एक गैर 19 साल की कुल के लिए स्थायी सुरक्षा परिषद के सदस्य, 2009 और 2010 के लिए सबसे हाल ही में. यह भी एक G4 सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग देशों की जी -8, APEC, "आसियान प्लस तीन और पूर्व एशिया शिखर बैठक में एक भागीदार के एक सदस्य के रूप में, जापान सक्रिय रूप से अंतरराष्ट्रीय मामलों में भाग लेता है और दुनिया भर में अपने महत्वपूर्ण सहयोगी के साथ राजनयिक संबंधों को बढ़ाती है। जापान मार्च 2007 और भारत के साथ अक्टूबर 2008 में ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सुरक्षा समझौतेयह भी दुनिया की सरकारी विकास सहायता का तीसरा सबसे बड़ा दाता है पर हस्ताक्षर किए। होने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका 2004 में 8,86 अरब डॉलर का दान. जापान इराक युद्ध करने के लिए गैर लड़नेवाला सैनिक भेजे हैं, लेकिन बाद में इराक से अपनी सेना वापस ले लिया जापानी समुद्री सेल्फ डिफेंस फोर्स. RIMPAC समुद्री अभ्यास में एक नियमित रूप से भागीदार है। जापान ने भी जापानी नागरिकों और अपने परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रम के अपने अपहरण पर एक उत्तरी कोरिया के साथ चल रहेविवाद के चेहरे (देखें भी छह पक्षीय वार्ता). कुरील द्वीप विवाद का एक परिणाम के रूप में, जापान तकनीकी रूप से अब भी रूस के साथ युद्ध में कोई मुद्दा सुलझाने संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे के बाद से कभी भी है। जापान की सेना द्वारा प्रतिबंधित है अनुच्छेद 9 जापानी संविधान है, जो जापान के युद्ध की घोषणा करने के लिए या अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान का एक साधन के रूप में सैन्य बल के प्रयोग का अधिकार त्याग की। जापान के सैन्य रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित है और मुख्य रूप से जापान ग्राउंड सेल्फ डिफेंस फोर्स (JGSDF) के होते हैं, जापान मेरीटाइम सेल्फ डिफेंस (JMSDF) सेना और जापान एयर सेल्फ डिफेंस फोर्स (JASDF). सेना ने हाल ही में आपरेशन किया गया है शांति और जापानी सैनिकों की इराक में तैनाती में प्रयुक्त विश्व युद्ध के द्वितीय के बाद से पहली बार अपने सैन्य उपयोग के विदेशी चिह्नित इन्हें भी देखें जापान का इतिहास जापानी साम्राज्य जापान के क्षेत्र जापान के प्रांत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:एशिया के देश श्रेणी:जापान
जापान की राजधानी का नाम क्या है?
टोक्यो
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जब शरीर का ताप सामान्य से अधिक हो जाये तो उस दशा को ज्वर या बुख़ार (फीवर) कहते है। यह रोग नहीं बल्कि एक लक्षण (सिम्टम्) है जो बताता है कि शरीर का ताप नियंत्रित करने वाली प्रणाली ने शरीर का वांछित ताप (सेट-प्वाइंट) १-२ डिग्री सल्सियस बढा दिया है। मनुष्य के शरीर का सामान्‍य तापमान ३७°सेल्सियस या ९८.६° फैरेनहाइट होता है। जब शरीर का तापमान इस सामान्‍य स्‍तर से ऊपर हो जाता है तो यह स्थिति ज्‍वर या बुखार कहलाती है। ज्‍वर कोई रोग नहीं है। यह केवल रोग का एक लक्षण है। किसी भी प्रकार के संक्रमण की यह शरीर द्वारा दी गई प्रतिक्रिया है। बढ़ता हुआ ज्‍वर रोग की गंभीरता के स्‍तर की ओर संकेत करता है। कारण निम्‍नलिखित रोग ज्‍वर का कारण हो सकते है- मलेरिया टायफॉयड तपेदिक (टी.बी.) गठिया रोग से संबंधित ज्‍वर खसरा . कनफेड़े श्‍वसन संबंधी संक्रमण जैसे न्‍युमोनिया एवं सर्दी, खाँसी, टॉन्सिल, ब्राँन्‍कायटिसआदि। मूत्रतंत्र संक्रमण (यूरिनरी ट्रॅक्‍ट इन्‍फेक्‍शन) मस्तिष्क ज्वर डेंगू साधारण ज्‍वर के लक्षण साधारण ज्वर में शरीर का तापमान ३७.५ डि.से. या १०० फैरेनहाइट से अधिकहोना, सिरदर्द, ठंड लगना, जोड़ों में दर्द, भूख में कमी, कब्‍ज होना या भूख कम होना एवं थकान होना प्रमुख लक्षण हैं। इसके उपचार हेतु सरल उपाय पालन करें: रोगी को अच्‍छे हवादार कमरे में रखना चाहिये। उसे बहुत सारे द्रव पदार्थ पीने को दें। स्‍वच्‍छ एवं मुलायम वस्‍त्र पहनाऍं, पर्याप्‍त विश्राम अति आवश्‍यक है। यदि ज्‍वर 39.5 डिग्री से. या 103.0 फैरेनहाइट से अधिक हो या फिर 48 घंटों से अधिक समय हो गया हो तो डॉक्‍टर से परामर्श लें। इसके अलावा रोगी को खूब सारा स्‍वच्‍छ एवं उबला हुआ पानी पिलाएं, शरीर को पर्याप्‍त कैलोरिज देने के लिये, ग्‍लूकोज, आरोग्‍यवर्धक पेय (हेल्‍थ ड्रिंक्‍स), फलों का रस आदि लेने की सलाह दी जाती है। आसानी से पचनेवाला खाना जैसे चावल की कांजी, साबूदाने की कांजी, जौ का पानी आदि देना चाहिये। दूध, रोटी एवं डबलरोटी (ब्रेड), माँस, अंडे, मक्‍खन, दही एवं तेल में पकाये गये खाद्य पदार्थ न दें। जई (जौ) (ओटस्) जई में वसा एवं नमक की मात्रा कम होती है; वे प्राकृतिक लौह तत्व का अच्‍छा स्रोत है। कैल्शियम का भी उत्तम स्रोत होने के कारण, जई हृदय, अस्थि एवं नाखूनों के लिये आदर्श हैं। ये घुलनशील रेशे (फायबर) का सर्वोत्तम स्रोत हैं। खाने के लिए दी जई के आधा कप पके हुये भोजन में लगभग 4 ग्राम विस्‍कस सोल्‍यूबल फायबर (बीटा ग्‍लूकोन) होता है। यह रेशा रक्‍त में से LDL कोलॅस्‍ट्रॉल को कम करता है, जो कि तथाकथित रूप से ‘’बैड’’ कोलेस्‍ट्रॉल कहलाता है। जई अतिरिक्‍त वसा को शोषित कर लेते हैं एवं उन्‍हें हमारे पाचनतंत्र के माध्‍यम से बाहर कर देते हैं। इसीलिये ये कब्‍ज का इलाज उच्‍च घुलनशील रेशे की मदद से करते हैं एवं गैस्‍ट्रोइंटस्‍टाइनल क्रियाकलापों का नियमन करने में सहायक होते हैं। जई से युक्‍त आहार रक्‍त शर्करा स्‍तर को भी स्थिर रखने में मदद करता है। जई नाड़ी-तंत्र के विकारों में भी सहायक है। जई महिलाओं में रजोनिवृत्ति से संबधित ओवरी एवं गर्भाशय संबंधी समस्‍याओं के निवारण में मदद करता है। जई में कुछ अद्वितीय वसा अम्‍ल (फैटी एसिड्स) एवं ऐन्‍टी ऑक्सिडेन्‍टस् होते हैं जो विटामिन ई के साथ एकत्रित होकर कोशिका क्षति की रोकथाम करता है एवं कर्करोग कैंसर के खतरा को कम करता है। इन्हें भी देखें मस्तिष्क ज्वर सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया) (हील एण्ड हेल्थ) ।।२० जुलाई, २००९। अकबरनवाल श्रेणी:लक्षण श्रेणी:रोग श्रेणी:ज्वर
सामान्य मानव शरीर का तापमान क्या होता है?
३७°सेल्सियस
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एडोल्फ हिटलर (२० अप्रैल १८८९ - ३० अप्रैल १९४५) एक प्रसिद्ध जर्मन राजनेता एवं तानाशाह थे। वे "राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी" (NSDAP) के नेता थे। इस पार्टी को प्राय: "नाजी पार्टी" के नाम से जाना जाता है। सन् १९३३ से सन् १९४५ तक वह जर्मनी का शासक रहे। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब उनके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनो ने नाज़ी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जीवनी अडोल्फ हिटलर का जन्म आस्ट्रिया के वॉन नामक स्थान पर 20 अप्रैल 1889 को हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए। कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे। इसी समय से वे साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे। जब प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो वे सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस में कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया। 1918 ई. में युद्ध में घायल होने के कारण वे अस्पताल में रहे। जर्मनी की पराजय का उनको बहुत दु:ख हुआ। 1918 ई. में उन्होंने नाजी दल की स्थापना की। इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों से सब अधिकार छीनना था। इसके सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था। इस दल ने यहूदियों को प्रथम विश्वयुद्ध की हार के लिए दोषी ठहराया। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण जब नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों में उसे ठीक करने का आश्वासन दिया तो अनेक जर्मन इस दल के सदस्य हो गए। हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओ का शुभ चिह्र है समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया। भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई। 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। इसमें वे असफल रहे और जेलखाने में डाल दिए गए। वहीं उन्होंने मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए। 1930-32 में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाजी दल के सदस्यों की संख्या 230 हो गई। 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933 में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया, साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को स्वावलंबी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। 1934 में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। 1933 से 1938 तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली। हिटलर ने 1933 में राष्ट्रसंघ को छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया। 1934 में जर्मनी और पोलैंड के बीच एक-दूसरे पर आक्रमण न करने की संधि हुई। उसी वर्ष आस्ट्रिया के नाजी दल ने वहाँ के चांसलर डॉलफ़स का वध कर दिया। जर्मनीं की इस आक्रामक नीति से डरकर रूस, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, इटली आदि देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए पारस्परिक संधियाँ कीं। उधर हिटलर ने ब्रिटेन के साथ संधि करके अपनी जलसेना ब्रिटेन की जलसेना का 35 प्रतिशत रखने का वचन दिया। इसका उद्देश्य भावी युद्ध में ब्रिटेन को तटस्थ रखना था किंतु 1935 में ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर की शस्त्रीकरण नीति की निंदा की। अगले वर्ष हिटलर ने बर्साई की संधि को भंग करके अपनी सेनाएँ फ्रांस के पूर्व में राइन नदी के प्रदेश पर अधिकार करने के लिए भेज दीं। 1937 में जर्मनी ने इटली से संधि की और उसी वर्ष आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। हिटलर ने फिर चेकोस्लोवाकिया के उन प्रदेशों को लेने की इच्छा की जिनके अधिकतर निवासी जर्मन थे। ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर को संतुष्ट करने के लिए म्यूनिक के समझौते से चेकोस्लोवाकिया को इन प्रदेशों को हिटलर को देने के लिए विवश किया। 1939 में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के शेष भाग पर भी अधिकार कर लिया। फिर हिटलर ने रूस से संधि करके पोलैड का पूर्वी भाग उसे दे दिया और पोलैंड के पश्चिमी भाग पर उसकी सेनाओं ने अधिकार कर लिया। ब्रिटेन ने पोलैंड की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध प्ररंभ हुआ। फ्रांस की पराजय के पश्चात् हिटलर ने मुसोलिनी से संधि करके रूम सागर पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का विचार किया। इसके पश्चात् जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया। जब अमरीका द्वितीय विश्वयुद्ध में सम्मिलित हो गया तो हिटलर की सामरिक स्थिति बिगड़ने लगी। हिटलर के सैनिक अधिकारी उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। जब रूसियों ने बर्लिन पर आक्रमण किया तो हिटलर ने 30 अप्रैल 1945, को आत्महत्या कर ली। प्रथम विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों की संकुचित नीति के कारण ही स्वाभिमनी जर्मन राष्ट्र को हिटलर के नेतृत्व में आक्रमक नीति अपनानी पड़ी। बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया) छबियाँ एवं विडियो on archive.org भाषण एवं प्रकाशन (34 pages) Office of Strategic Services report on how the testament was found (transcripts of conversations in February–2 अप्रैल 1945) सन्दर्भ श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:राजनीतिज्ञ श्रेणी:जर्मनी श्रेणी:तानाशाह श्रेणी:1889 में जन्मे लोग श्रेणी:१९४५ में निधन श्रेणी:आत्महत्या श्रेणी:ऑस्ट्रिया के लोग श्रेणी:मृत लोग
एडॉल्फ हिटलर की मृत्यु किस साल में हुई थी?
1945
5,107
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भारतीय थलसेना, सेना की भूमि-आधारित दल की शाखा है और यह भारतीय सशस्त्र बल का सबसे बड़ा अंग है। भारत का राष्ट्रपति, थलसेना का प्रधान सेनापति होता है,[6] और इसकी कमान भारतीय थलसेनाध्यक्ष के हाथों में होती है जो कि चार-सितारा जनरल स्तर के अधिकारी होते हैं। पांच-सितारा रैंक के साथ फील्ड मार्शल की रैंक भारतीय सेना में श्रेष्ठतम सम्मान की औपचारिक स्थिति है, आजतक मात्र दो अधिकारियों को इससे सम्मानित किया गया है। भारतीय सेना का उद्भव ईस्ट इण्डिया कम्पनी, जो कि ब्रिटिश भारतीय सेना के रूप में परिवर्तित हुई थी, और भारतीय राज्यों की सेना से हुआ, जो स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय सेना के रूप में परिणत हुई। भारतीय सेना की टुकड़ी और रेजिमेंट का विविध इतिहास रहा हैं इसने दुनिया भर में कई लड़ाई और अभियानों में हिस्सा लिया है, तथा आजादी से पहले और बाद में बड़ी संख्या में युद्ध सम्मान अर्जित किये।[7] भारतीय सेना का प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद की एकता सुनिश्चित करना, राष्ट्र को बाहरी आक्रमण और आंतरिक खतरों से बचाव, और अपनी सीमाओं पर शांति और सुरक्षा को बनाए रखना हैं। यह प्राकृतिक आपदाओं और अन्य गड़बड़ी के दौरान मानवीय बचाव अभियान भी चलाते है, जैसे ऑपरेशन सूर्य आशा, और आंतरिक खतरों से निपटने के लिए सरकार द्वारा भी सहायता हेतु अनुरोध किया जा सकता है। यह भारतीय नौसेना और भारतीय वायुसेना के साथ राष्ट्रीय शक्ति का एक प्रमुख अंग है।[8] सेना अब तक पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ चार युद्धों तथा चीन के साथ एक युद्ध लड़ चुकी है। सेना द्वारा किए गए अन्य प्रमुख अभियानों में ऑपरेशन विजय, ऑपरेशन मेघदूत और ऑपरेशन कैक्टस शामिल हैं। संघर्षों के अलावा, सेना ने शांति के समय कई बड़े अभियानों, जैसे ऑपरेशन ब्रासस्टैक्स और युद्ध-अभ्यास शूरवीर का संचालन किया है। सेना ने कई देशो में संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों में एक सक्रिय प्रतिभागी भी रहा है जिनमे साइप्रस, लेबनान, कांगो, अंगोला, कंबोडिया, वियतनाम, नामीबिया, एल साल्वाडोर, लाइबेरिया, मोज़ाम्बिक और सोमालिया आदि सम्मलित हैं। भारतीय सेना में एक सैन्य-दल (रेजिमेंट) प्रणाली है, लेकिन यह बुनियादी क्षेत्र गठन विभाजन के साथ संचालन और भौगोलिक रूप से सात कमान में विभाजित है। यह एक सर्व-स्वयंसेवी बल है और इसमें देश के सक्रिय रक्षा कर्मियों का 80% से अधिक हिस्सा है। यह 1,200,255 सक्रिय सैनिकों[9][10] और 909,60 आरक्षित सैनिकों[11] के साथ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी स्थायी सेना है। सेना ने सैनिको के आधुनिकीकरण कार्यक्रम की शुरुआत की है, जिसे "फ्यूचरिस्टिक इन्फैंट्री सैनिक एक प्रणाली के रूप में" के नाम से जाना जाता है इसके साथ ही यह अपने बख़्तरबंद, तोपखाने और उड्डयन शाखाओं के लिए नए संसाधनों का संग्रह एवं सुधार भी कर रहा है।.[12][13][14] उद्देश्य बाहरी खतरों के विरुद्ध शक्ति संतुलन के द्वारा या युद्ध छेड़ने की स्थिति में संरक्षित राष्ट्रीय हितों, संप्रभुता की रक्षा, क्षेत्रीय अखंडता और भारत की एकता की रक्षा करना। सरकारी तन्त्र को छाया युद्ध और आन्तरिक खतरों में मदद करना और आवश्यकता पड़ने पर नागरिक अधिकारों में सहायता करना।"[15] दैवीय आपदा जैसे भूकंप,बाढ़ , समुद्री तूफान ,आग लगने ,विस्फोट आदि के अवसर पर नागरिक प्रशासन की मदद करना। नागरिक प्रशासन के पंगु होने पर उसकी सहायता करना। इतिहास १९४७ में आजा़दी मिलने के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना को नये बने राष्ट्र भारत और इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की सेवा करने के लिये २ भागों में बांट दिया गया। ज्यादातर इकाइयों को भारत के पास रखा गया। चार गोरखा सैन्य दलों को ब्रिटिश सेना में स्थानांतरित किया गया जबकि शेष को भारत के लिए भेजा गया। जैसा कि ज्ञात है, भारतीय सेना में ब्रिटिश भारतीय सेना से व्युत्पन्न हुयी है तो इसकी संरचना, वर्दी और परंपराओं को अनिवार्य रूप से विरासत में ब्रिटिश से लिया गया हैं| प्रथम कश्मीर युद्ध (१९४७) आजादी के लगभग तुरंत बाद से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पैदा हो गया था और दोनों देशों के बीच पहले तीन पूर्ण पैमाने पर हुये युद्ध के बाद राजसी राज्य कश्मीर का विभाजन कर दिया गय। कश्मीर के महाराजा की भारत या पाकिस्तान में से किसी भी राष्ट्र के साथ विलय की अनिच्छा के बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के कुछ हिस्सों मे आदिवासी आक्रमण प्रायोजित करवाया गया। भारत द्वारा आरोपित पुरुषों को भी नियमित रूप से पाकिस्तान की सेना मे शामिल किया गया। जल्द ही पाकिस्तान ने अपने दलों को सभी राज्यों को अपने में संलग्न करने के लिये भेजा। महाराजा हरि सिंह ने भारत और लॉर्ड माउंटबेटन से अपनी मदद करने की याचना की, पर उनको कहा गया कि भारत के पास उनकी मदद करने के लिये कोई कारण नही है। इस पर उन्होने कश्मीर के विलय के एकतरफा सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसका निर्णय ब्रिटिश सरकार द्वारा लिया गया पर पाकिस्तान को यह सन्धि कभी भी स्वीकार नहीं हुई। इस सन्धि के तुरन्त बाद ही भारतीय सेना को आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिये श्रीनगर भेजा गया। इस दल में जनरल थिम्मैया भी शामिल थे जिन्होने इस कार्यवाही में काफी प्रसिद्धि हासिल की और बाद में भारतीय सेना के प्रमुख बने। पूरे राज्य में एक गहन युद्ध छिड़ गया और पुराने साथी आपस मे लड़ रहे थे। दोनो पक्षों में कुछ को राज्यवार बढत मिली तो साथ ही साथ महत्वपूर्ण नुकसान भी हुआ। १९४८ के अन्त में नियन्त्रण रेखा पर लड़ रहे सैनिकों में असहज शान्ति हो गई जिसको संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। पाकिस्तान और भा‍रत के मध्य कश्मीर में उत्पन्न हुआ तनाव कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना में योगदान वर्तमान में भारतीय सेना की एक टुकड़ी संयुक्त राष्ट्र की सहायता के लिये समर्पित रहती है। भारतीय सेना द्वारा निरंतर कठिन कार्यों में भाग लेने की प्रतिबद्धताओं की हमेशा प्रशंसा की गई है। भारतीय सेना ने संयुक्त राष्ट्र के कई शांति स्थापित करने की कार्यवाहियों में भाग लिया गया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: अंगोला कम्बोडिया साइप्रस लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, अल साल्वाडोर, नामीबिया, लेबनान, लाइबेरिया, मोजाम्बिक, रवाण्डा, सोमालिया, श्रीलंका और वियतनाम| भारतीय सेना ने कोरिया में हुयी लड़ाई के दौरान घायलों और बीमारों को सुरक्षित लाने के लिये भी अपनी अर्द्ध-सैनिकों की इकाई प्रदान की थी। हैदराबाद का विलय (१९४८) भारत के विभाजन के उपरान्त राजसी राज्य हैदराबाद, जो कि निजा़म द्वारा शासित था, ने स्वतन्त्र राज्य के तौर रहना पसन्द किया। निजा़म ने हैदराबाद को भारत में मिलाने पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। भारत सरकार और हैदराबाद के निज़ाम के बीच पैदा हुई अनिर्णायक स्थिति को समाप्त करने हेतु भारत के उप-प्रधानमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा १२ सितम्बर १९४८ को भारतीय टुकड़ियों को हैदराबाद की सुरक्षा करने का आदेश दिया। ५ दिनों की गहन लड़ाई के बाद वायु सेना के समर्थन से भारतीय सेना ने हैदराबाद की सेना को परास्त कर दिया। उसी दिन हैदराबाद को भारत गणराज्य का भाग घोषित कर दिया गया। पोलो कार्यवाही के अगुआ मेजर जनरल जॉयन्तो नाथ चौधरी को कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिये हैदराबाद का सैन्य शाशक (१९४८-१९४९) घोषित किया गया। गोवा, दमन और दीव का विलय (१९६१) ब्रिटिश और फ्रान्स द्वारा अपने सभी औपनिवेशिक अधिकारों को समाप्त करने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप, गोवा, दमन और दीव में पुर्तगालियों का शासन रहा। पुर्तगालियों द्वारा बारबार बातचीत को अस्वीकार कर देने पर नई दिल्ली द्वारा १२ दिसम्बर १९६१ को ऑपरेशन विजय की घोषणा की और अपनी सेना के एक छोटे से दल को पुर्तगाली क्षेत्रों पर आक्रमण करने के आदेश दिए। २६ घंटे चले युद्ध के बाद गोवा और दमन और दीव को सुरक्षित आजाद करा लिया गया और उनको भारत का अंग घोषित कर दिया गया। भारत-चीन युद्ध (१९६२) 1959 से भारत प्रगत नीति का पालन करना शुरु कर दिया। 'प्रगत नीति' के अंतर्गत भारतीय गश्त दलों ने चीन द्वारा भारतीय सीमा के काफी अन्दर तक हथियाई गई चौकियों पर हमला बोल कर उन्हें फिर कब्ज़े में लिया। भारत के मैक-महोन रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिए जाने पर जोर डालने के कारण भारत और चीन की सेनाओं के बीच छोटे स्तर पर संघर्ष छिड़ गया। बहरहाल, भारत और चीन के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के कारण विवाद ने अधिक तूल नहीं पकड़ा। युद्ध का कारण अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश की क्षेत्रों की संप्रभुता को लेकर था। अक्साई चिन में, जिसे भारत द्वारा कश्मीर और चीन द्वारा झिंजियांग का हिस्सा का दावा किया जाता रहा है, एक महत्वपूर्ण सड़क लिंक है जोकि तिब्बत और चीनी क्षेत्रों झिंजियांग को जोड़ती है। चीन के तिब्बत में भारत की भागीदारी के संदेह के चलते दोनों देशों के बीच संघर्ष की संभावनाएं और बढ़ गई। हैदराबाद व गोवा में अपने सैन्य अभियानों की सफलता से उत्साहित भारत ने चीन के साथ सीमा विवाद में आक्रामक रुख ले लिया। 1962 में, भारतीय सेना को भूटान और अरुणाचल प्रदेश के बीच की सीमा के निकट और विवादित मैकमहोन रेखा के लगभग स्थित 5 किमी उत्तर में स्थित थाग ला रिज तक आगे बढ़ने का आदेश दिया गया। इसी बीच चीनी सेनाएँ भी भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी थीं और दोनो देशों के बीच तनाव चरम पर पहुँच गया जब भारतीय सेनाओं ने पाया कि चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र में सड़क बना ली है। वार्ताओं की एक श्रृंखला के बाद, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने थाग ला रिज पर भारतीय सेनाओं के ठिकानों पर हमला बोल दिया। चीन के इस कदम से भारत आश्चर्यचकित रह गया और 12 अक्टूबर को नेहरू ने अक्साई चिन से चीनियों को खदेड़ने के आदेश जारी कर दिए। किन्तु, भारतीय सेना के विभिन्न प्रभागों के बीच तालमेल की कमी और वायु सेना के प्रयोग के निर्णय में की गई देरी ने चीन को महत्वपूर्ण सामरिक व रणनीतिक बढ़त लेने का अवसर दे दिया। 20 अक्टूबर को चीनी सैनिकों नें दोनों मोर्चों उत्तर-पश्चिम और सीमा के उत्तर-पूर्वी भागों में भारत पर हमला किया और अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के विशाल भाग पर कब्जा कर लिया। जब लड़ाई विवादित प्रदेशों से भी परे चली गई तो चीन ने भारत सरकार को बातचीत के लिए आमंत्रण दिया, लेकिन भारत अपने खोए क्षेत्र हासिल करने के लिए अड़ा रहा। कोई शांतिपूर्ण समझौता न होते देख, चीन ने एकतरफा युद्धविराम घोषित करते हुए अरुणाचल प्रदेश से अपनी सेना को वापस बुला लिया। वापसी के कारण विवादित भी हैं। भारत का दावा है कि चीन के लिए अग्रिम मोर्चे पर मौजूद सेनाओं को सहायता पहुँचाना संभव न रह गया था, तथा संयुक्त राज्य अमेरिका का राजनयिक समर्थन भी एक कारण था। जबकि चीन का दावा था कि यह क्षेत्र अब भी उसके कब्जे में है जिसपर उसने कूटनीतिक दावा किया था। भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच विभाजन रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया। भारत के सैन्य कमांडरों द्वारा लिए गए कमज़ोर फैसलों ने कई सवाल उठाए। जल्द ही भारत सरकार द्वारा भारतीय सेना के खराब प्रदर्शन के कारणों का निर्धारण करने के लिए हेंडरसन ब्रूक्स समिति का गठन कर दिया गया। कथित तौर पर समिति की रिपोर्ट ने भारतीय सशस्त्र बलों की कमान की गलतियाँ निकाली और अपनी नाकामियों के लिए कई मोर्चों पर विफल रहने के लिए कार्यकारी सरकार की बुरी तरह आलोचना की। समिति ने पाया कि हार के लिए प्रमुख कारण लड़ाई शुरु होने के बाद भी भारत चीन के साथ सीमा पर कम सैनिकों की तैनाती था और यह भी कि भारतीय वायु सेना को चीनी परिवहन लाइनों को लक्ष्य बनाने के लिए चीन द्वारा भारतीय नागरिक क्षेत्रों पर जवाबी हवाई हमले के डर से अनुमति नहीं दी गई। ज्यादातर दोष के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की अक्षमता पर भी दिया गया। रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की लगातार माँग के बावजूद हेंडरसन - ब्रूक्स रिपोर्ट अभी भी गोपनीय रखी गई है। द्वितीय कश्मीर युद्ध (१९६५) पाकिस्तान के साथ एक दूसरे टकराव पर मोटे तौर पर 1965 में जगह ले ली कश्मीर. पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान शुरूऑपरेशन जिब्राल्टर१,९६५ अगस्त में जिसके दौरान कई पाकिस्तानी अर्धसैनिक सैनिकों को भारतीय प्रशासित कश्मीर में घुसपैठ और भारत विरोधी विद्रोह चिंगारी की कोशिश की. पाकिस्तानी नेताओं का मानना ​​है कि भारत, जो अभी भी विनाशकारी युद्ध भारत - चीन से उबरने था एक सैन्य जोर और विद्रोह के साथ सौदा करने में असमर्थ होगा. हालांकि, आपरेशन एक प्रमुख विफलता के बाद से कश्मीरी लोगों को इस तरह के एक विद्रोह के लिए थोड़ा समर्थन दिखाया और भारत जल्दी बलों स्थानांतरित घुसपैठियों को बाहर निकालने. भारतीय जवाबी हमले के प्रक्षेपण के एक पखवाड़े के भीतर, घुसपैठियों के सबसे वापस पाकिस्तान के लिए पीछे हट गया था। ऑपरेशन जिब्राल्टर की विफलता से पस्त है और सीमा पार भारतीय बलों द्वारा एक प्रमुख आक्रमण की उम्मीद है, पाकिस्तान [[ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम] 1 सितंबर को शुरू, भारत Chamb - Jaurian क्षेत्र हमलावर. जवाबी कार्रवाई में, 6 सितंबर को पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना के 15 इन्फैन्ट्री डिवीजन अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर गया। प्रारंभ में, भारतीय सेना के उत्तरी क्षेत्र में काफी सफलता के साथ मुलाकात की. पाकिस्तान के खिलाफ लंबे समय तक तोपखाने barrages शुरू करने के बाद, भारत कश्मीर में तीन महत्वपूर्ण पर्वत पदों पर कब्जा करने में सक्षम था। 9 सितंबर तक भारतीय सेना सड़कों में काफी पाकिस्तान में बनाया था। भारत पाकिस्तानी टैंकों की सबसे बड़ी दौड़ था जब पाकिस्तान के एक बख्तरबंद डिवीजन के आक्रामक [Asal उत्तर [लड़ाई]] पर सितंबर 10 वीं पा गया था। छह पाकिस्तानी आर्मड रेजिमेंट लड़ाई में भाग लिया, अर्थात् 19 (पैटन) लांसर्स, 12 कैवलरी (Chafee), 24 (पैटन) कैवलरी 4 कैवलरी (पैटन), 5 (पैटन) हार्स और 6 लांसर्स (पैटन). इन तीन अवर टैंक के साथ भारतीय आर्मड रेजिमेंट द्वारा विरोध किया गया, डेकन हार्स (शेरमेन), 3 (सेंचुरियन) कैवलरी और 8 कैवलरी (AMX). लड़ाई इतनी भयंकर और तीव्र है कि समय यह समाप्त हो गया था द्वारा, 4 भारतीय डिवीजन के बारे में या तो नष्ट में 97 पाकिस्तानी टैंक, या क्षतिग्रस्त, या अक्षुण्ण हालत में कब्जा कर लिया था। यह 72 पैटन टैंक और 25 Chafees और Shermans शामिल हैं। 28 Pattons सहित 97 टैंक, 32 शर्त में चल रहे थे। भारतीय खेम करण पर 32 टैंक खो दिया है। के बारे में मोटे तौर पर उनमें से पन्द्रह पाकिस्तानी सेना, ज्यादातर शेरमेन टैंक द्वारा कब्जा कर लिया गया। युद्ध के अंत तक, यह अनुमान लगाया गया था कि 100 से अधिक पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर दिया और गया एक अतिरिक्त 150 भारत द्वारा कब्जा कर लिया गया। भारतीय सेना ने संघर्ष के दौरान 128 टैंक खो दिया है। इनमें से 40 टैंक के बारे में, उनमें से ज्यादातर AMX-13s और Shermans पुराने Chamb और खेम ​​करण के पास लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी हाथों में गिर गया। 23 सितंबर तक भारतीय सेना +३००० रणभूमि मौतों का सामना करना पड़ा, जबकि पाकिस्तान ३,८०० की तुलना में कम नहीं सामना करना पड़ा. सोवियत संघ दोनों देशों के बीच एक शांति समझौते की मध्यस्थता की थी और बाद में औपचारिक वार्ता में आयोजित किए गए ताशकंद, एक युद्धविराम पर घोषित किया गया था [23 सितंबर]]. भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान लगभग सभी युद्ध पूर्व पदों को वापस लेने पर सहमत हुए. समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद घंटे, लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद विभिन्न षड्यंत्र के सिद्धांत को हवा देने में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। युद्ध पूर्व पदों के लिए वापस करने का निर्णय के कारण भारत के रूप में नई दिल्ली में राजनीति के बीच एक चिल्लाहट युद्ध के अंत में एक लाभप्रद स्थिति में स्पष्ट रूप से किया गया था। एक स्वतंत्र विश्लेषक के मुताबिक, युद्ध को जारी रखने के आगे नुकसान का नेतृत्व होता है और अंततः पाकिस्तान के लिए हार[16]. बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (१९७१) एक स्वतंत्रता आंदोलन में बाहर तोड़ दिया पूर्वी पाकिस्तान जो था बेरहमी से कुचल दिया. पाकिस्तानी बलों द्वारा. कारण बड़े पैमाने पर अत्याचारों उनके खिलाफ के हजारों [[बंगाली लोग | बंगालियों] पड़ोसी भारत में शरण ली, वहाँ एक प्रमुख शरणार्थी संकट के कारण. जल्दी 1971 में, भारत बंगाली विद्रोहियों के लिए पूर्ण समर्थन, मुक्ति वाहिनी के रूप में जाना जाता घोषित और भारतीय एजेंटों को बड़े पैमाने पर गुप्त आपरेशनों में शामिल थे उन्हें सहायता. 20 नवम्बर 1971 को भारतीय सेना 14 पंजाब बटालियन चले गए और 45 कैवलरी गरीबपुर, पूर्वी पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा के पास एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शहर है और में सफलतापूर्वक [[गरीबपुर की लड़ाई | कब्जा कर लिया]. अगले दिन और संघर्ष] भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच जगह ले ली. भारत बंगाली विद्रोह में बढ़ती भागीदारी से सावधान पाकिस्तान वायु सेना (पीएएफ) का शुभारंभ किया [ऑपरेशन [Chengiz खान | हड़ताल अग्रकय] 3 दिसम्बर को भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान के साथ अपनी सीमा के निकट पदों पर. हवाई आपरेशन, तथापि, इसकी कहा उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है और भारत पाकिस्तान के खिलाफ एक पूर्ण पैमाने पर युद्ध के कारण उसी दिन घोषित किया। आधी रात से, भारतीय सेना, भारतीय वायु सेना के साथ, पूर्वी पाकिस्तान में प्रमुख सैन्य जोर का शुभारंभ किया। भारतीय सेना की निर्णायक सहित पूर्वी मोर्चे पर कई लड़ाइयों जीता [Hilli [लड़ाई पाकिस्तान के पश्चिमी मोर्चे पर भारत के खिलाफ जवाबी हमले का शुभारंभ किया। December 4, 1971 को, एक कंपनी के 23 बटालियन के पंजाब रेजिमेंट का पता चला और पाकिस्तान के पास सेना की 51 इन्फैंट्री डिवीजन के आंदोलन को रोक [[रामगढ़, राजस्थान]. [Longewala [लड़ाई]] के दौरान जो लागू एक कंपनी है, हालांकि outnumbered, वीरतापूर्वक लड़ी और पाकिस्तानी अग्रिम नाकाम जब तक भारतीय वायु सेना अपने सेनानियों को निर्देशित करने के लिए पाकिस्तानी टैंक संलग्न. समय लड़ाई समाप्त करके 34 पाकिस्तानी टैंक और 50 APCs या नष्ट हो गए थे परित्यक्त. के बारे में 200 पाकिस्तानी सैनिकों को लड़ाई के दौरान कार्रवाई में मारे गए थे जबकि केवल 2 भारतीय सैनिकों को उनके जीवन खो दिया है। 4 दिसम्बर से 16 तक भारतीय सेना लड़ी और अंत जिसमें से 66 पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर रहे थे और 40 से कब्जा कर लिया गया [] [लड़ाई के Basantar] जीता. बदले में पाकिस्तानी बलों के लिए केवल 11 भारतीय टैंकों को नष्ट करने में सक्षम थे। 16 दिसम्बर तक पाकिस्तान के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर बड़े आकार का क्षेत्र खो दिया था। लेफ्टिनेंट | जगजीत सिंह अरोड़ा के आदेश के तहत जनरल जे एस अरोड़ा, भारतीय सेना के तीन कोर में प्रवेश किया जो पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण किया था ढाका और पाकिस्तानी सेना ने 16 दिसम्बर 1971 को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया। पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल के बाद AAK नियाज़ी समर्पण के साधन पर हस्ताक्षर किए, भारत में 90,000 से अधिक पाकिस्तानी [[] युद्ध के कैदियों (+३८,००० सशस्त्र बलों के कर्मियों और 52,000 मिलिशिया पश्चिम पाकिस्तानी मूल के और नौकरशाहों) ले लिया। 1972 में, [[शिमला समझौते] दोनों देशों के तनाव और simmered के बीच हस्ताक्षर किए गए थे। हालांकि, वहाँ कूटनीतिक तनाव है जो दोनों पक्षों पर वृद्धि हुई सैन्य सतर्कता में समापन में कभी कभी spurts थे। सियाचिन विवाद (1984-) सियाचिन ग्लेशियर, हालांकि कश्मीर क्षेत्र के एक हिस्सा है, आधिकारिक तौर पर सीमांकन नहीं है। एक परिणाम के रूप में, पहले 1980 के दशक के लिए, न तो भारत और न ही पाकिस्तान इस क्षेत्र में स्थायी सैन्य उपस्थिति को बनाए रखा. हालांकि, पाकिस्तान पर्वतारोहण अभियानों के 1950 के दशक के दौरान ग्लेशियर श्रृंखला की मेजबानी शुरू कर दिया. 1980 के दशक तक पाकिस्तान की सरकार पर्वतारोहियों के लिए विशेष अभियान परमिट देने गया था और संयुक्त राज्य अमेरिका सेना नक्शे जानबूझकर पाकिस्तान के एक भाग के रूप में सियाचिन से पता चला है। इस अभ्यास कार्यकाल के समकालीन अर्थoropolitics . को जन्म दिया एक irked भारत का शुभारंभ किया ऑपरेशन मेघदूत अप्रैल 1984 के दौरान जो पूरे कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना की ग्लेशियर पहुंचा था। पाकिस्तानी सेना ने जल्दी से जवाब दिया और दोनों के बीच संघर्ष का पालन किया। भारतीय सेना सामरिक सिया ला और Bilafond ला पहाड़ गुजरता है और 1985 के द्वारा, क्षेत्र के 1000 वर्ग मील से अधिक, पाकिस्तान ने दावा किया, भारतीय नियंत्रण के अधीन था।[17] भारतीय सेना के लिए और अधिक नियंत्रण से ग्लेशियर के 2/3rd जारी है।[18] पाकिस्तान siachen.htm सियाचिन पर नियंत्रण पाने के कई असफल प्रयास किया। देर से 1987 में, पाकिस्तान के बारे में 8,000 सैनिकों जुटाए और उन्हें Khapalu निकट garrisoned, हालांकि Bilafond La. कब्जा करने के लिए लक्ष्य है, वे भारतीय सेना कर्मियों Bilafond रखवाली उलझाने के बाद वापस फेंक दिया गया। पाकिस्तान द्वारा 1990, 1995, 1996 और 1999 में पदों को पुनः प्राप्त करने के लिए आगे प्रयास शुरू किया गया। भारत के लिए अत्यंत दुर्गम परिस्थितियों और नियमित रूप से पहाड़ युद्ध.[19] सियाचिन से अधिक नियंत्रण बनाए रखने भारतीय सेना के लिए कई सैन्य चुनौतियों poses. कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के क्षेत्र में निर्माण किया गया, समुद्र के स्तर से ऊपर एक हेलिपैड 21,000 फीट (+६४०० मीटर) सहित[20] 2004 में भारतीय सेना के एक अनुमान के अनुसार 2 लाख अमरीकी डॉलर एक दिन खर्च करने के लिए अपने क्षेत्र में तैनात कर्मियों का समर्थन. [21] उपद्रव-रोधी गतिविधियाँ भारतीय सेना अतीत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लड़ाई विद्रोही और आतंकवादियों राष्ट्र के भीतर. सेना ऑपरेशन ब्लूस्टार और [ऑपरेशन [Woodrose]] [[सिख] विद्रोहियों का मुकाबला करने के लिए 1980 के दशक में. शुभारंभ सेना के साथ अर्द्धसैनिक बलों भारत के कुछ अर्धसैनिक बलों, बनाए रखने के प्रधानमंत्री जिम्मेदारी है [[कानून और व्यवस्था (राजनीति) | कानून और व्यवस्था] परेशान जम्मू कश्मीर क्षेत्र में. भारतीय सेना श्रीलंका 1987 में के एक भाग के रूप में भी एक दल भेजा है भारतीय शांति सेना. कारगिल संघर्ष (1999) और कुछ दिनों के बाद, पाकिस्तान और अधिक द्वारा प्रतिक्रिया परमाणु परीक्षणों देने के दोनों देशों के परमाणु प्रतिरोध क्षमता | 1998 में, भारत [परमाणु परीक्षण] [पोखरण द्वितीय] किया जाता है कूटनीतिक तनाव के बाद ढील लाहौर शिखर सम्मेलन 1999 में आयोजित किया गया था। आशावाद की भावना कम रहता था, तथापि, के बाद से मध्य 1999-पाकिस्तानी अर्धसैनिक बलों में और कश्मीरी आतंकवादियों पर कब्जा कर लिया वीरान है, लेकिन सामरिक, कारगिल जिले भारत के हिमालय हाइट्स. इन दुर्गम सर्दियों की शुरुआत के दौरान किया गया था भारतीय सेना द्वारा खाली थे और वसंत में reoccupied चाहिए. मुजाहिदीनजो इन क्षेत्रों का नियंत्रण ले लिया महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त है, दोनों हाथ और आपूर्ति के रूप में पाकिस्तान से. उनके नियंत्रण है, जो भी<i data-parsoid='{"dsr":[27177,27190,2,2]}'>टाइगर हिल</i>के तहत हाइट्स के कुछ महत्वपूर्ण श्रीनगर -[[ लेह] राजमार्ग (एनएच 1A), बटालिक और Dras की अनदेखी . एक बार पाकिस्तानी आक्रमण के पैमाने का एहसास था, भारतीय सेना जल्दी 200.000 के बारे में सैनिकों जुटाए और ऑपरेशन विजय शुरू किया गया था। हालांकि, बाद से ऊंचाइयों पाकिस्तान के नियंत्रण के अधीन थे, भारत एक स्पष्ट रणनीतिक नुकसान में था। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 ए पर भारतीयों पर भारी हताहत inflicting &lt;रेफरी नाम = "NLI" | अपने प्रेक्षण चौकी से पाकिस्तानी बलों की दृष्टि से एक स्पष्ट रेखा अप्रत्यक्ष तोपखाने आग [] [अप्रत्यक्ष आग] नीचे रखना पड़ा &gt; 5 मई [[+२,००३] डेली टाइम्स, पाकिस्तान &lt;/ रेफरी&gt; यह भारतीय सेना के लिए एक गंभीर समस्या है के रूप में राजमार्ग अपने मुख्य सैन्य और आपूर्ति मार्ग था इ शार्प, 2003 द्वारा प्रकाशित रॉबर्ट Wirsing करके युद्ध की छाया में[22] इस प्रकार, भारतीय सेना की पहली प्राथमिकता चोटियों कि NH1a के तत्काल आसपास के क्षेत्र में थे हटा देना था। यह भारतीय सैनिकों में पहली बार टाइगर हिल और Dras में Tololing जटिल लक्ष्यीकरण परिणामस्वरूप[23] यह जल्द ही अधिक हमलों से पीछा किया गया था। बटालिक Turtok उप - क्षेत्र है जो सियाचिन ग्लेशियर तक पहुँच प्रदान पर. 4590 प्वाइंट है, जो NH1a के निकटतम दृश्य था सफलतापूर्वक पर 14 जून को भारतीय बलों द्वारा पुनः कब्जा दक्षिण एशिया में युद्ध के नेब्रास्का प्रेस प्रदीप बरुआ 261 &lt;/ ref&gt;[24][25] सरकारी गिनती के अनुसार, एक अनुमान के अनुसार 75% -80% और घुसपैठ क्षेत्र के लगभग सभी उच्च भूमि भारतीय नियंत्रण के तहत वापस आ गया था। भारत पर, समाचार जिनमें से चिंतित अमेरिकी | के रूप में पाकिस्तान पाया खुद एक कांटेदार स्थिति में entwined सेना छिपकर [] परमाणु हमले [परमाणु युद्ध] की योजना बनाई थी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, एक कड़ी चेतावनी में नवाज शरीफ के परिणामस्वरूप[26] वाशिंगटन पर समझौते के बाद 4 जुलाई, जहां शरीफ पाकिस्तानी सैनिकों को वापस लेने पर सहमत हुए, लड़ने के सबसे एक क्रमिक रोकने के लिए आया था, लेकिन कुछ पाकिस्तानी सेना ने भारतीय पक्ष पर स्थिति में बने रहे नियंत्रण रेखा. इसके अलावा, यूनाइटेड जिहाद काउंसिल (सभी [अतिवादी []] समूहों के लिए एक छाता) एक चढ़ाई नीचे के लिए पाकिस्तान की योजना को अस्वीकार कर दिया है, बजाय पर लड़ने के निर्णय लेने.[27] जुलाई के आखिरी हफ्ते में भारतीय सेना अपनी अंतिम हमलों का शुभारंभ किया, के रूप में जल्द ही के रूप में द्रास Subsector पाकिस्तान की मंजूरी दे दी थी बलों से लड़ने पर रह गए 26 जुलाई. दिन के बाद से<i data-parsoid='{"dsr":[31515,31530,2,2]}'>कारगिल विजय</i>भारत में (कारगिल विजय दिवस) दिवस के रूप में चिह्नित किया गया है है। युद्ध के अंत तक भारत सभी क्षेत्र दक्षिण और नियंत्रण रेखा के पूर्व का नियंत्रण फिर से शुरू किया था, के रूप में जुलाई 1972 में शिमला समझौते के अनुसार स्थापित किया गया था। प्रमुख युद्धाभ्यास [[चित्र:. IAexercise.jpg | अंगूठे | भारतीय सेना [[टी 90] टैंक थार रेगिस्तान में एक अभ्यास के दौरान भाग लेने के]] ऑपरेशन पराक्रम {{मुख्य | 2001-2002 भारत - पाकिस्तान} गतिरोध} के बाद 13 दिसंबर [2001]]] [[भारतीय संसद] ऑपरेशन पराक्रम में जो भारतीय सैनिकों की हजारों की दसियों भारत - पाकिस्तान सीमा पर तैनात किया गया था शुरू किया गया था पर हमले. भारत हमले समर्थन के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया. सबसे बड़ा सैन्य किसी एशियाई देश से बाहर किए गए व्यायाम आपरेशन किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अभी स्पष्ट नहीं है है लेकिन परमाणु संघर्ष पाकिस्तान, जो भारतीय संसद पर दिसंबर हमले के बाद तेजी से संभव लग रहा था के साथ किसी भी भविष्य के लिए सेना को तैयार करने के लिए किया गया है प्रकट होता है। ऑपरेशन संघ शक्ति इसके बाद से कहा है कि इस अभ्यास का मुख्य लक्ष्य अम्बाला [[]] आधारित<i data-parsoid='{"dsr":[32589,32609,2,2]}'>द्वितीय स्ट्राइक</i>कोर जुटाना रणनीति को मान्य किया गया था। एयर समर्थन इस अभ्यास का एक हिस्सा था और हवाई छतरी सेना की एक पूरी बटालियन के युद्ध खेल के संचालन के दौरान paradropped संबद्ध उपकरणों के साथ. कुछ २०००० सैनिक अभ्यास में भाग लिया। अश्वमेध युद्धाभ्यास भारतीय सेना व्यायाम अश्वमेध में अपने नेटवर्क केंद्रित युद्ध क्षमताओं का परीक्षण किया। व्यायाम थार रेगिस्तान में आयोजित किया गया, जिसमें 30,000 से अधिक सैनिकों ने भाग लिया[28] पुष्ट अन्य सैन्य व्यूह (Other Field Formations) पैदल सेना रेजिमेंट (Infantry Regiments) तोपखाना रेजिमेंट (Artillery Regiments) तोपखाना सेना के विध्वंसक शक्ति का मुख्य अंग है | भारत में प्राचीन ग्रंथों में तोपखाने का वर्णन मिलता है | तोप को संस्कृत में शतघ्नी कहा जाता है | मध्य कालीन इतिहास में तोप का प्रयोग सर्वप्रथम बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में सन १५२६ ई० में किया था| कुछ नवीन प्रमाणों से यहाँ प्रतीत होता है के तोप का प्रयोग बहमनी राजाओं ने १३६८ में अदोनी के युद्ध में तथा गुजरात के शासक मोहमद शाह ने १५ वीं शताब्दी में किया था |भरत मे तोप खाना के दोउ केन्द्र है ह्य्द्रबद और नसिक रोअद थलसेना का कार्यबल क्षमता भारतीय थल सेना सम्बंधित आंकड़े कार्यरत सैनिक 1,300,000 आरक्षित सैनिक 1,200,000 प्रादेशिक सेना 200,000** मुख्य युद्धक टैंक4500 तोपखाना 12,800 प्रक्षेपास्त्र 100 (अग्नि-1, अग्नि-2) क्रूज प्रक्षेपास्त्र ब्रह्मोस वायुयान 10 स्क्वाड्रन हेलिकॉप्टर सतह से वायु प्रक्षेपास्त्र 90000 * 300,000 प्रथम पंक्ति ओर 500,000 द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं ** 40,000 प्रथम पंक्ति ओर 160,000 द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं पदानुक्रम संरचना भारतीय सेना के विभिन्न पद अवरोही क्रम में इस प्रकार हैं: कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल1 जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) लेफ्टिनेंट-जनरल मेजर-जनरल ब्रिगेडियर कर्नल लेफ्टिनेंट-कर्नल मेजर कैप्टन लेफ्टिनेंट सेकंड लेफ्टिनेंट2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (JCOs) सूबेदार मेजर /मानद कप्तान3 सूबेदार /मानद लेफ्टिनेंट3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदार गैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: •1। आज तक केवल दो ही जनरल फील्ड मार्शल के पद से विभूषित हुए हैं। -: फील्ड मार्शल के एम करिअप्पा भारतीय सेना के प्रथम कमाण्डर इन चीफ (यह पद अब समाप्त कर दिया गया है) तथा फील्ड मार्शल सैम मानेकशा, १९७१ युद्ध के दौरान सेनाध्यक्ष •2. This has now been discontinued. Non-Commissioned Officers in the rank of Havildar are elible for Honorary JCO ranks. •3. Given to Outstanding JCO's Rank and pay of a Lieutenant, role continues to be of a JCO. युद्ध सिद्धान्त उपस्कर एवं उपकरण विमान ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|विमान ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|उद्गम ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|प्रकार ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|संस्करण ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|सेवारत [29] ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|टिप्पणी |----- | HAL Dhruv || India || utility helicopter || || 36+ || To acquire 73 more Dhruv in next 5 years. |----- | Aérospatiale SA 316 Alouette III || France || utility helicopter || SA 316B Chetak || 60 || to be replaced by Dhruv |----- | Aérospatiale SA 315 Lama || France || utility helicopter || SA 315B Cheetah || 48 || to be replaced by Dhruv |----- | DRDO Nishant || India || reconnaissance UAV || || 1 || Delivery of 12 UAV's in 2008. |----- | IAI Searcher II || Israel || reconnaissance UAV || || 100+ || |----- | IAI Heron II || Israel || reconnaissance UAV || || 50+ || |} [30] परम वीर चक्र विजेता भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले वीरों की सूची इस प्रकार है: भारतीय थलसेना की संरचना भारतीय थलसेना को 13 कोर के अंतर्गत 35 प्रभागों में संगठित किया गया है। सेना का मुख्यालय, भारतीय राजधानी नई दिल्ली में स्थित है, और यह सेना प्रमुख (चीफ ऑफ़ दी आर्मी स्टाफ) के निरिक्षण में रहती हैं। वर्तमान में जनरल बिपिन रावत सेना प्रमुख हैं। कमान संरचना सेना की 6 क्रियाशील कमान(कमांड) और 1 प्रशिक्षण कमांड है। प्रत्येक कमान का नेतृत्व जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ होता है जोकि एक लेफ्टिनेंट जनरल रैंक का अधिकारी होता हैं। प्रत्येक कमांड, नई दिल्ली में स्थित सेना मुख्यालय से सीधे जुड़ा हुआ है। इन कमानो को नीचे उनके सही क्रम में दर्शाया गया हैं, लड़ाकू दल नीचे दिए गए कोर, विशिष्ट पैन-आर्मी कार्यों हेतु एक कार्यात्मक प्रभाग हैं। भारतीय प्रादेशिक सेना विभिन्न इन्फैंट्री रेजिमेंटों से संबद्ध बटालियन हैं, जिनमे कुछ विभागीय इकाइयां, कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स, आर्मी मेडिकल कोर या आर्मी सर्विस कोर से हैं। ये अंशकालिक आरक्षित के रूप में सेवा करते हैं। पैदल सेना (इन्फैंट्री) अपनी स्थापना के समय, भारतीय सेना को ब्रिटिश सेना की संगठनात्मक संरचना विरासत में मिली, जो आज भी कायम है। इसलिए, अपने पूर्ववर्ती की तरह, एक भारतीय इन्फैंट्री रेजिमेंट की ज़िम्मेदारी न सिर्फ फ़ील्ड ऑपरेशन की है बल्कि युद्ध मैदान और बटालियन में अच्छी तरह से प्रशिक्षित सैनिक प्रदान करना भी हैं, जैसे कि एक ही रेजिमेंट के बटालियन का कई दल, प्रभागों, कोर, कमान और यहां तक ​​कि थिएटरों में होना आम बात है। अपने ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल समकक्षों की तरह, सैनिक अपने आवंटित रेजिमेंट के प्रति बेहद वफादार और बहुत गर्व करते हैं, जहाँ सामान्यतः उनका पूरा कार्यकाल बीतता हैं। भारतीय सेना के इन्फैंट्री रेजिमेंट्स में नियुक्ति, विशिष्ट चयन मानदंडों के आधार पर होती हैं, जैसे कि क्षेत्रीय, जातीयता, या धर्म पर; असम रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, और सिख रेजिमेंट क्रमशः। अधिकतर रेजिमेंट तो ब्रटिश राज के समय के ही हैं, लेकिन लद्दाख स्काउट, अरुणाचल स्काउट्स, और सिक्किम स्काउट्स, सीमा सुरक्षा विशेष दल, स्वतंत्रता के बाद बनाये गए हैं। वर्षों से विभिन्न राजनीतिक और सैन्य गुटों ने रेजिमेंटों की इस अनूठी चयन मानदंड प्रक्रिया को भंग करने की कोशिश करते रहे है उनका मानना था की कि सैनिक का अपने रेजिमेंट के प्रति वफादारी या उसमे उसके ही जातीय के लोगों के प्रति निष्ठा, भारत के प्रति निष्ठा से ऊपर न हो जाये। और उन्होंने कुछ गैर नस्लीय, धर्म, क्षेत्रीय रेजिमेंट, जैसे कि ब्रिगेड ऑफ गॉर्ड्स और पैराशूट रेजिमेंट, बनाने में सफल भी रहे, लेकिन पहले से बने रेजिमेंट्स में इस प्रकार के प्रयोग का कम ही समर्थन देखने को मिला हैं। भारतीय सेना के रेजिमेंट, अपनी वरिष्ठता के क्रम में:[48] तोपख़ाना (आर्टिलरी) तोपखाना रेजिमेंट (आर्टिलरी रेजिमेंट) भारतीय सेना का दूसरा सबसे बड़ा हाथ है, जोकि सेना की कुल ताकत का लगभग छठवाँ भाग हैं। मूल रूप से यह 1935 में ब्रिटिश भारतीय सेना में रॉयल भारतीय तोपखाने के नाम से शामिल हुआ था। और अब इस रेजिमेंट को, सेना को स्व-प्रचालित आर्टिलरी फील्ड प्रदान करने का काम सौंपा गया है, जिसमे बंदूकें, तोप, भारी मोर्टार, रॉकेट और मिसाइल आदि भी सम्मलित हैं। भारतीय सेना द्वारा संचालित लगभग सभी लड़ाकू अभियानों में, तोपखाना रेजिमेंट एक अभिन्न अंग के रूप में, भारतीय सेना की सफलता में एक प्रमुख योगदानकर्ता रहा है। कारगिल युद्ध के दौरान, वह भारतीय तोपखाना ही था, जिसने दुश्मन को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया था।[50] पिछले कुछ वर्षों में, पांच तोपखाना अधिकारी भारतीय सेना की सर्वोच्च पद, सेना प्रमुख के रूप में रह चुके हैं। कुछ समय के लिए, आज की तुलना में तोपखाना रेजिमेंट सेना के कर्मियों के काफी बड़े हिस्से की कमान संभालता था, जिनमें हवाई रक्षा तोपखाना और कुछ विमानन संपत्तियों का रख-रखाव भी सम्मलित थे। फिर 1990 के दशक में सेना के वायु रक्षा कोर के गठन किया गया और विमानन संपत्तियों को सेना के विमानन कॉर्प्स को हस्तान्तरित कर दिया गया। अब यह रेजिमेंट अपना ध्यान फील्ड आर्टिलरी पर केंद्रित करता है, और प्रत्येक परिचालन कमानो के लिए रेजिमेंट और बैटरी की आपूर्ति करता है। इस रेजिमेंट का मुख्यालय नाशिक, महाराष्ट्र में है, इसके साथ यहाँ एक संग्रहालय भी स्थित है। भारतीय सेना का तोपखाना स्कूल देवलाली में स्थित है। तीन दशकों से आधुनिक तोपखाने के आयात या उत्पादन में निरंतर विफलताओं के बाद[51][52], अंततः तोपखाना रेजिमेंट 130 मिमी और 150 मिमी तोपो की अधिप्राप्ति कर ली है।[53][54][55] सेना बड़ी संख्या में रॉकेट लांचरों को भी सेवा में ला रहा है, अगले दशक के अंत तक 22 रेजिमेंट को स्वदेशी-विकसित पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर से सशत्र किया जायेगा।[56] बख़्तरबंद (आर्मर) पैरा (विशेष बल) (आदेश) कमान सेना के सामरिक 6 आदेशों चल रही है। प्रत्येक आदेश [[लेफ्टिनेंट जनरल] रैंक के साथ जनरल कमांडिंग इन चीफ अधिकारी की अध्यक्षता में है। प्रत्येक आदेश सीधे में सेना मुख्यालय से संबद्ध है [[नई दिल्ली]. इन आदेशों नीचे उनके सही क्रम को ऊपर उठाने के स्थान (शहर) और उनके कमांडरों में दिया जाता है। उनकी भी एक प्रशिक्षण ARTRAC के रूप में जाना जाता है आदेश है। (कोर) कॉर्प व्यूह - रचना (फील्ड गठन) वाहिनी सेना के एक क्षेत्र में एक कमान के भीतर एक क्षेत्र के लिए जिम्मेदार गठन है। स्ट्राइक होल्डिंग और मिश्रित: वहाँ भारतीय सेना वाहिनी के 3 प्रकार के होते हैं। कमान आम तौर पर 2 या अधिक कोर के होते हैं। अपने आदेश के तहत एक कोर सेना प्रभागों है। कोर मुख्यालय सेना में उच्चतम क्षेत्र गठन है। 9 वाहिनी || | योल, हिमाचल प्रदेश || पश्चिमी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल पीके रामपाल || 26 इन्फैंट्री डिवीजन ([[जम्मू छावनी | जम्मू]) 29, इन्फैंट्री डिवीजन(पठानकोट), 2,3,16 इंडस्ट्रीज़ ARMD Bdes10 कोर || | भटिंडा, पंजाब || पश्चिमी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल || 16 इन्फैंट्री डिवीजन (श्री गंगानगर), 18 त्वरित ( कोटा), 24 त्वरित (बीकानेर), 6 इंडस्ट्रीज़ ARMD BDEकोर 12 || | जोधपुर, राजस्थान || दक्षिण पश्चिमी कमान || || 4 ARMD BDE, 340 Mech BDE, 11 इन्फैंट्री डिवीजन (अहमदाबाद), 12 Inf (प्रभाग जोधपुर)16 वाहिनी || | नगरोटा, जम्मू एवं कश्मीर || उत्तरी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल आर Karwal || 10 Inf (डिव अखनूर ),&lt; रेफरी&gt; इन्हें भी देखें site/cimh/divisions/10th%% 20Division 20orbat% 20Chaamb 201971.html% &lt;/ ref&gt; 25 Inf डिव (Rajauri), 39 Inf डिव ( योल), तोपखाना ब्रिगेड, बख़्तरबंद ब्रिगेड? रेजिमेंट संगठन (फील्ड कोर ऊपर उल्लेख किया है के साथ भ्रमित होने की नहीं) इस के अलावा रेजिमेंट या कोर या विभागों भारतीय सेना के हैं। कोर नीचे उल्लेख किया कार्यात्मक विशिष्ट अखिल सेना कार्यों के साथ सौंपा डिवीजनों हैं। शैली = "फ़ॉन्ट - आकार: 100%;" | |शस्त्र भारतीय इन्फैन्ट्री रेजिमेंट आर्मड रेजिमेंट कोर - बख्तरबंद कोर स्कूल और सेंटर [अहमदनगर []] आर्टिलरी रेजिमेंट - आर्टिलरी स्कूल में देवलाली के निकट नासिक. [[भारतीय सेना के कोर इंजीनियर्स | कोर ऑफ इंजीनियर्स] - दपोदी पर सैन्य अभियांत्रिकी कालेज, पुणे. केंद्र इस प्रकार है - मद्रास इंजीनियर ग्रुप बंगलौर, बंगाल इंजीनियर ग्रुप रुड़की और बॉम्बे इंजीनियर ग्रुप Khadki में, पुणे के रूप में स्थित हैं . आर्मी एयर डिफेंस सेंटर कोर गोपालपुर उड़ीसा राज्य. मैकेनाइज्ड इंफेंट्री अहमदनगर - पर रेजिमेंटल केंद्र [[]]. सिग्नल कोर सेना उड्डयन कोरसेवा' आर्मी डेंटल कोर सेना शिक्षा कोर - सेंटर में पचमढ़ी. आर्मी मेडिकल कोर - सेंटर में [[लखनऊ]. सेना आयुध कोर में केंद्र जबलपुर और सिकंदराबाद. सेना डाक सेवा कोर सेना सेवा कोर - बंगलौर पर केंद्र वाहिनी इलेक्ट्रिकल और भोपाल में मैकेनिकल इंजीनियर्स के केंद्र और सिकंदराबाद. वाहिनी सैन्य पुलिस के - बंगलौर में केंद्र इंटेलीजेंस कोर - सेंटर में पुणे. जज एडवोकेट जनरल विभाग. सैन्य विधि संस्थान में कैम्पटी , नागपुर. सैन्य फार्म सेवा मिलिट्री नर्सिंग सर्विस रिमाउंट और वेटेनरी कोर पायनियर कोर अन्य व्यूह सैन्य (अन्य फील्ड संरचनाओं) * प्रभाग: सेना डिवीजन एक कोर और एक ब्रिगेड के बीच एक मध्यवर्ती है। यह सबसे बड़ी सेना में हड़ताली बल है। प्रत्येक प्रभाग [जनरल आफिसर कमांडिंग (जीओसी) द्वारा [[मेजर जनरल] रैंक में होता है। यह आमतौर पर +१५,००० मुकाबला सैनिकों और 8000 का समर्थन तत्वों के होते हैं। वर्तमान में, भारतीय सेना 4 रैपिड (पुनः संगठित सेना Plains इन्फैंट्री प्रभागों) सहित 34 प्रभागों लड़ाई प्रभागों, 18 इन्फैन्ट्री प्रभागों, 10 माउंटेन प्रभागों, 3 आर्मड प्रभागों और 2 आर्टिलरी प्रभागों. प्रत्येक डिवीजन के कई composes ब्रिगेड्स. * ब्रिगेड: ब्रिगेड डिवीजन की तुलना में छोटे है और आम तौर पर विभिन्न लड़ाकू समर्थन और आर्म्स और सेवाएँ के तत्वों के साथ साथ 3 इन्फैन्ट्री बटालियन के होते हैं। यह की अध्यक्षता में है एक ब्रिगेडियर के बराबर ब्रिगेडियर जनरल भारतीय सेना भी 5 स्वतंत्र बख्तरबंद ब्रिगेड, 15 स्वतंत्र आर्टिलरी ब्रिगेड, 7 स्वतंत्र इन्फैंट्री ब्रिगेड, 1 स्वतंत्र पैराशूट ब्रिगेड, 3 स्वतंत्र वायु रक्षा ब्रिगेड, 2 स्वतंत्र वायु रक्षा समूह और 4 स्वतंत्र अभियंता ब्रिगेड है। ये स्वतंत्र ब्रिगेड कोर कमांडर (जीओसी कोर) के तहत सीधे काम. * बटालियन: एक बटालियन की कमान में है एक कर्नल और इन्फैंट्री के मुख्य लड़ इकाई है। यह 900 से अधिक कर्मियों की होते हैं। * कंपनी] के नेतृत्व: मेजर, एक कंपनी के 120 सैनिकों को शामिल. * प्लाटून: एक कंपनी और धारा के बीच एक मध्यवर्ती, एक प्लाटून लेफ्टिनेंट या कमीशंड अधिकारियों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, एक जूनियर कमीशंड अधिकारी [रैंक के साथ, [जूनियर कमीशन अफसर की अध्यक्षता में | सूबेदार या नायब सूबेदार. यह बारे में 32 सैनिकों की कुल संख्या है। * धारा: सबसे छोटा 10 कर्मियों के एक शक्ति के साथ सैन्य संगठन. रैंक के एक गैर कमीशन अधिकारी द्वारा कमान संभाली हवलदार या [सार्जेंट []]. रेजिमेंट पैदल सेना रेजिमेंट (इन्फैन्ट्री रेजिमेंट) वहाँ कई बटालियनों या इकाइयों के एक रेजिमेंट में वही गठन के अंतर्गत हैं। गोरखा रेजिमेंट, उदाहरण के लिए, कई बटालियनों है। एक रेजिमेंट के तहत सभी संरचनाओं के एक ही हथियार या कोर (यानी, इन्फैंट्री या इंजीनियर्स) की बटालियनों हैं। रेजिमेंट बिल्कुल क्षेत्र संरचनाओं नहीं कर रहे हैं, वे ज्यादातर एक गठन नहीं कर सकता हूँ. गोरखा उदाहरण के लिए सभी रेजिमेंट के एक साथ एक गठन के रूप में लड़ना नहीं है, लेकिन विभिन्न ब्रिगेड या कोर या भी आदेश पर फैलाया जा सकता है है। तोपखाना रेजिमेंट (आर्टिलरी रेजिमेंट) तोपखाना सेना के विध्वंसक शक्ति का मुख्य अंग है | भारत सभी प्राचीन ग्रंथों सभी तोपखाने का वर्णन मिलता है | तोप को संस्कृत सभी शतघ्नी कहा जाता है | मध्य कालीन इतिहास सभी तोप का प्रयोग सर्वप्रथम बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध सभी 1526 सन 0 ई सभी किया था | कुछ नवीन प्रमाणों से यहाँ प्रतीत होता है के तोप का प्रयोग बहमनी राजाओं 1368 ने सभी अदोनी के युद्ध सभी तथा गुजरात के शासक मोहमद शाह ने 15 वीं शताब्दी सभी किया था | भरत मे तोप खाना के दोउ है केन्द्र ह्य्द्रबद और नसिक रोअद थलसेना का कार्यबल क्षमता भारतीय थल सेना सम्बंधित आंकड़े - कार्यरत सैनिक १३,००,००० | - आरक्षित सैनिक 1,200,000 | - [[प्रादेशिक सेना] 200.000 ** | - मुख्य युद्धक टैंक 4500 | - तोपखाना 12,800 | - [[] प्रक्षेपास्त्र] 100 (अग्नि -1, अग्नि -2) | - [[क्रूज प्रक्षेपास्त्र] ब्रह्मोस - वायुयान 10 स्क्वाड्रन हेलिकॉप्टर - [[सतह से वायु] प्रक्षेपास्त्र] 90000 | * 300.000 प्रथम पंक्ति 500.000 ओर द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं; * 40,000 प्रथम पंक्ति 160.000 ओर द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं आंकड़े 4 त्वरित (Reorganised सेना Plains इन्फैंट्री प्रभागों) 18 इन्फैंट्री प्रभागों 10 माउंटेन प्रभागों 3 आर्मड प्रभागों 2 आर्टिलरी प्रभागों 13 एयर डिफेंस + ब्रिगेड्स 2 भूतल एयर मिसाइल समूह 5 स्वतंत्र बख्तरबंद ब्रिगेड 15 स्वतंत्र आर्टिलरी ब्रिगेड 7 स्वतंत्र इन्फैंट्री ब्रिगेड 1 पैराशूट ब्रिगेड 4 अभियंता ब्रिगेड 14 सेना उड्डयन हेलीकाप्टर इकाइयों उप - इकाइयाँ 63 टैंक रेजिमेंट 7 एयरबोर्न बटालियन 200 आर्टिलरी रेजिमेंट 360 इन्फैंट्री बटालियन + 5 पैरा बटालियन (एस एफ) 40 मैकेनाइज्ड इंफेंट्री बटालियन लड़ाकू हेलीकाप्टर इकाइयों 20 52 एयर डिफेंस रेजिमेंट पदानुक्रम संरचना [[चित्र: भारतीय सेना के गोरखा rifles.jpg | अंगूठे | [[1 की 1 बटालियन गोरखा राइफल्स] भारतीय सेना का] एक नकली मुकाबला शहर के बाहर एक प्रशिक्षण अभ्यास के दौरान स्थान ले]] भारतीय सेना के विभिन्न रैंक से नीचे के अवरोही क्रम में सूचीबद्ध हैं:कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल] * जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) * लेफ्टिनेंट - जनरल * मेजर - जनरल * ब्रिगेडियर * कर्नल * लेफ्टिनेंट - कर्नल * मेजर * [कप्तान [(भूमि) | कप्तान [[लेफ्टिनेंट] सेकंड लेफ्टिनेंट 2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (जेसीओ) सूबेदार मेजर / [[मानद कप्तान] 3 सूबेदार / मानद लेफ्टिनेंट 3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदारगैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर 2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर 2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: • 1. केवल दो अधिकारियों को फील्ड मार्शल किया गया है अब तक बना है: फील्ड के.एम. करियप्पा पहले भारतीय कमांडर - इन - चीफ (एक के बाद के बाद समाप्त कर दिया है) और फील्ड मार्शल SHFJ मानेकशॉ मार्शल , 1971 के युद्ध पाकिस्तान के साथ. में सेना के दौरान थल सेनाध्यक्ष • 2. यह अब बंद कर दिया गया है। हवलदार के रैंक में गैर कमीशंड अधिकारी मानद जूनियर कमीशन अफसर रैंकों के लिए elible हैं • 3. बकाया है जूनियर कमीशन अफसर श्रेष्टता श्रेणी को देखते हुए और एक लेफ्टिनेंट के भुगतान, भूमिका एक जूनियर कमीशन अफसर का होना जारी है युद्ध सिद्धान्त भारतीय सेना के वर्तमान सिद्धांत का मुकाबला प्रभावी ढंग से पकड़े संरचनाओं और हड़ताल संरचनाओं के उपयोग पर आधारित है। एक हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन होते हैं और हड़ताल संरचनाओं दुश्मन ताकतों को बेअसर पलटवार होगा. एक भारतीय हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन ताकतों नीचे पिन भारतीय को चुनने के एक बिंदु पर whilst हड़ताल संरचनाओं हमले. भारतीय सेना काफी बड़ी हड़ताल भूमिका के लिए कई कोर समर्पित है। वर्तमान में, सेना अपने विशेष बलों क्षमताओं को बढ़ाने में भी देख रहा है। उपस्कर एवं उपकरण सही | अंगूठे | एमबीटी अर्जुन . [[चित्र: भारतीय सेना टी 90.jpg | अंगूठे | भीष्म टी 90] एमबीटी [[चित्र: भारतीय सेना T-72 image1.jpg | अंगूठे | सही | [[टी 72] अजेय]] सही | अंगूठे | नाग मिसाइल और NAMICA (नाग मिसाइल वाहक) सेना के उपकरणों के अधिकांश आयातित है, लेकिन प्रयासों के लिए स्वदेशी उपकरणों के निर्माण किए जा रहे हैं। सभी भारतीय सैन्य आग्नेयास्त्रों बंदूकें आयुध निर्माणी बोर्ड की छतरी के प्रशासन के तहत निर्मित कर रहे हैं, ईशापुर में प्रिंसिपल बन्दूक विनिर्माण सुविधाओं के साथ, काशीपुर, कानपुर, जबलपुर और तिरूचिरापल्ली. भारतीय राष्ट्रीय लघु शस्त्र प्रणाली (INSAS) राइफल है, जो सफलतापूर्वक 1997 के बाद से भारतीय सेना द्वारा शामिल Ordanance निर्माणी बोर्ड, ईशापुर के एक उत्पाद है। जबकि गोला बारूद किरकी (अब Khadki) में निर्मित है और संभवतः बोलंगीर पर. इन्हें भी देखें भारतीय सशस्‍त्र सेनाएं ब्रिटिश भारतीय सेना आज़ाद हिन्द फ़ौज प्रादेशिक सेना भारतीय सेनाएं सशस्त्र ब्रिटिश भारतीय सेना इंडियन नेशनल आर्मी भारतीय प्रादेशिक सेना बाहरी कड़ियाँ मुख्य लेख: भारतीय सेना के उपकरणभारतीय सेना के विभिन्न रैंक से नीचे के अवरोही क्रम में सूचीबद्ध हैं:कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल] * जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) * लेफ्टिनेंट - जनरल * मेजर - जनरल * ब्रिगेडियर * कर्नल * लेफ्टिनेंट - कर्नल * मेजर * [कप्तान [(भूमि) | कप्तान [[लेफ्टिनेंट] सेकंड लेफ्टिनेंट 2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (जेसीओ) सूबेदार मेजर / [[मानद कप्तान] 3 सूबेदार / मानद लेफ्टिनेंट 3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदारगैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर 2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर 2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: • 1. केवल दो अधिकारियों को फील्ड मार्शल किया गया है अब तक बना है: फील्ड के.एम. करियप्पा पहले भारतीय कमांडर - इन - चीफ (एक के बाद के बाद समाप्त कर दिया है) और फील्ड मार्शल SHFJ मानेकशॉ मार्शल , 1971 के युद्ध पाकिस्तान के साथ. में सेना के दौरान थल सेनाध्यक्ष • 2. यह अब बंद कर दिया गया है। हवलदार के रैंक में गैर कमीशंड अधिकारी मानद जूनियर कमीशन अफसर रैंकों के लिए elible हैं • 3. बकाया है जूनियर कमीशन अफसर श्रेष्टता श्रेणी को देखते हुए और एक लेफ्टिनेंट के भुगतान, भूमिका एक जूनियर कमीशन अफसर का होना जारी है युद्ध सिद्धान्त भारतीय सेना के वर्तमान सिद्धांत का मुकाबला प्रभावी ढंग से पकड़े संरचनाओं और हड़ताल संरचनाओं के उपयोग पर आधारित है। एक हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन होते हैं और हड़ताल संरचनाओं दुश्मन ताकतों को बेअसर पलटवार होगा. एक भारतीय हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन ताकतों नीचे पिन भारतीय को चुनने के एक बिंदु पर whilst हड़ताल संरचनाओं हमले. भारतीय सेना काफी बड़ी हड़ताल भूमिका के लिए कई कोर समर्पित है। वर्तमान में, सेना अपने विशेष बलों क्षमताओं को बढ़ाने में भी देख रहा है। उपस्कर एवं उपकरण सही | अंगूठे | एमबीटी अर्जुन . [[चित्र: भारतीय सेना टी 90.jpg | अंगूठे | भीष्म टी 90] एमबीटी [[चित्र: भारतीय सेना T-72 image1.jpg | अंगूठे | सही | [[टी 72] अजेय]] सही | अंगूठे | नाग मिसाइल और NAMICA (नाग मिसाइल वाहक) सेना के उपकरणों के अधिकांश आयातित है, लेकिन प्रयासों के लिए स्वदेशी उपकरणों के निर्माण किए जा रहे हैं। सभी भारतीय सैन्य आग्नेयास्त्रों बंदूकें आयुध निर्माणी बोर्ड की छतरी के प्रशासन के तहत निर्मित कर रहे हैं, ईशापुर में प्रिंसिपल बन्दूक विनिर्माण सुविधाओं के साथ, काशीपुर, कानपुर, जबलपुर और तिरूचिरापल्ली. भारतीय राष्ट्रीय लघु शस्त्र प्रणाली (INSAS) राइफल है, जो सफलतापूर्वक 1997 के बाद से भारतीय सेना द्वारा शामिल Ordanance निर्माणी बोर्ड, ईशापुर के एक उत्पाद है। जबकि गोला बारूद किरकी (अब Khadki) में निर्मित है और संभवतः बोलंगीर पर. इन्हें भी देखें भारतीय सशस्‍त्र सेनाएं ब्रिटिश भारतीय सेना आज़ाद हिन्द फ़ौज प्रादेशिक सेना भारतीय सेनाएं सशस्त्र ब्रिटिश भारतीय सेना इंडियन नेशनल आर्मी भारतीय प्रादेशिक सेना बाहरी कड़ियाँ सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय सेना
किसके द्वारा १२ दिसम्बर १९६१ को ऑपरेशन विजय की घोषणा की?
नई दिल्ली
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d0bdfea1d
न्यूटन के गति नियम तीन भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यांत्रिकी के आधार हैं। ये नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है।[1] न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं- प्रथम नियम: प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में अथवा सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है।[2][3][4] द्वितीय नियम: किसी भी पिंड की संवेग परिवर्तन की दर लगाये गये बल के समानुपाती होती है और उसकी (संवेग परिवर्तन की) दिशा वही होती है जो बल की होती है। तृतीय नियम: प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलासफी नेचुरालिस प्रिंसिपिआ मैथेमेटिका (सन १६८७) में संकलित किया था।[5] न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था। अपने ग्रन्थ के तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं। सिंहावलोकन न्यूटन के गति नियम सिर्फ उन्ही वस्तुओं पर लगाया जाता है जिन्हें हम एक कण के रूप में मान सके।[6] मतलब कि उन वस्तुओं की गति को नापते समय उनके आकार को नज़रंदाज़ किया जाता है। उन वस्तुओं के पिंड को एक बिंदु में केन्द्रित मन कर इन नियमो को लगाया जाता है। ऐसा तब किया जाता है जब विश्लेषण में दूरियां वस्तुयों की तुलना में काफी बड़े होते है। इसलिए ग्रहों को एक कण मान कर उनके कक्षीय गति को मापा जा सकता है। अपने मूल रूप में इन गति के नियमो को दृढ और विरूपणशील पिंडों पर नहीं लगाया जा सकता है। १७५० में लियोनार्ड यूलर ने न्यूटन के गति नियमो का विस्तार किया और यूलर के गति नियमों का निर्माण किया जिन्हें दृढ और विरूपणशील पिंडो पर भी लगाया जा सकता है। यदि एक वस्तु को असतत कणों का एक संयोजन माना जाये, जिनमे अलग-अलग कर के न्यूटन के गति नियम लगाये जा सकते है, तो यूलर के गति नियम को न्यूटन के गति नियम से वियुत्त्पन्न किया जा सकता है।[7] न्यूटन के गति नियम भी कुछ निर्देश तंत्रों में ही लागु होते है जिन्हें जड़त्वीय निर्देश तंत्र कहा जाता है। कई लेखको का मानना है कि प्रथम नियम जड़त्वीय निर्देश तंत्र को परिभाषित करता है और द्वितीय नियम सिर्फ उन्ही निर्देश तंत्रों से में मान्य है इसी कारण से पहले नियम को दुसरे नियम का एक विशेष रूप नहीं कहा जा सकता है। पर कुछ पहले नियम को दूसरे का परिणाम मानते है।[8][9] निर्देश तंत्रों की स्पष्ट अवधारणा न्यूटन के मरने के काफी समय पश्चात विकसित हुई। न्यूटनी यांत्रिकी की जगह अब आइंस्टीन के विशेष आपेक्षिकता के सिद्धांत ने ले ली है पर फिर भी इसका इस्तेमाल प्रकाश की गति से कम गति वाले पिंडों के लिए अभी भी किया जाता है।[10] प्रथम नियम न्यूटन के मूल शब्दों में Corpus omne perseverare in statu suo quiescendi vel movendi uniformiter in directum, nisi quatenus a viribus impressis cogitur statum illum mutare. हिन्दी अनुवाद "प्रत्येक वस्तु अपने स्थिरावस्था अथवा एकसमान वेगावस्था मे तब तक रहती है जब तक उसे किसी बाह्य कारक (बल) द्वारा अवस्था में बदलाव के लिए प्रेरित नहीं किया जाता।" दूसरे शब्दों में, जो वस्तु विराम अवस्था में है वह विराम अवस्था में ही रहेगी तथा जो वस्तु गतिमान हैं वह गतिमान ही रहेगी जब तक कि उस पर भी कोई बाहरी बल ना लगाया जाए। न्यूटन का प्रथम नियम पदार्थ के एक प्राकृतिक गुण जड़त्व को परिभाषित करत है जो गति में बदलाव का विरोध करता है। इसलिए प्रथम नियम को जड़त्व का नियम भी कहते है। यह नियम अप्रत्क्ष रूप से जड़त्वीय निर्देश तंत्र (निर्देश तंत्र जिसमें अन्य दोनों नियमों मान्य हैं) तथा बल को भी परिभाषित करता है। इसके कारण न्यूटन द्वारा इस नियम को प्रथम रखा गया। इस नियम का सरल प्रमाणीकरण मुश्किल है क्योंकि घर्षण और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव को ज्यादातर पिण्ड महसूस करते हैं। असल में न्यूटन से पहले गैलीलियो ने इस प्रेक्षण का वर्णन किया। न्यूटन ने अन्य शब्दों में इसे व्यक्त किया। द्वितीय नियम न्यूटन के मूल शब्दो में: Lex II: Mutationem motus proportionalem esse vi motrici impressae, et fieri secundum lineam rectam qua vis illa imprimitur. हिन्दी में अनुवाद " किसी वस्तु के संवेग मे आया बदलाव उस वस्तु पर आरोपित बल (Force) के समानुपाती होता है तथा समान दिशा में घटित होता है। " न्यूटन के इस नियम से अधोलिखित बिन्दु व्युपत्रित किए जा सकते है: F → = d p → / d t {\displaystyle {\vec {F}}=\mathrm {d} {\vec {p}}/\mathrm {d} t} , जहाँ F → {\displaystyle {\vec {F}}} बल, p → {\displaystyle {\vec {p}}} संवेग और t {\displaystyle t} समय हैं। इस समीकरण के अनुसार, जब किसी पिण्ड पर कोई बाह्य बल नहीं है, तो पिण्ड का संवेग स्थिर रहता है। जब पिण्ड का द्रव्यमान स्थिर होता है, तो समीकरण ज़्यादा सरल रूप में लिखा जा सकता है: F → = m a → , {\displaystyle {\vec {F}}=m{\vec {a}},} जहाँ m {\displaystyle m} द्रव्यमान है और a → {\displaystyle {\vec {a}}} त्वरण है। यानि किसी पिण्ड का त्वरण आरोपित बल के अनुक्रमानुपाती है। आवेग आवेग द्वितीय नियम से संबंधित है। आवेग का मतलब है संवेग में परिवर्तन। अर्थात: I = Δ p = m Δ v {\displaystyle \mathbf {I} =\Delta \mathbf {p} =m\Delta \mathbf {v} } जहाँ I आवेग है। आवेग टक्करों के विश्लेषण में बहुत अहम है। माना कि किसी पिण्ड का द्रव्यमान m है। इस पर एक नियम बल F को ∆t समयान्तराल के लिए लगाने पर वेग में ∆v परिवर्तित हो जाता है। तब न्यूटन- F = ma = m.∆v/∆t F∆t = m∆v. m∆v = ∆p F∆t = ∆p अतः किसी पिण्ड को दिया गया आवेग, पिण्ड में उत्पन्न सम्वेग- परिवर्तन के समान होता है। अत: आवेग का मात्रक वही होता है जो सम्वेग (न्यूटन-सेकण्ड)का है। तृतीय नियम तृतीय नियम का अर्थ है कि किसी बल के संगत एक और बल है जो उसके समान और विपरीत है। न्यूटन ने इस नियम को इस्तेमाल करके संवेग संरक्षण के नियम का वर्णन किया, लेकिन असल में संवेग संरक्षण एक अधिक मूलभूत सिद्धांत है। कई उदहारण हैं जिनमें संवेग संरक्षित होता है लेकिन तृतीय नियम मान्य नहीं है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें गति के समीकरण गुरुत्वाकर्षण आपेक्षिकता सिद्धान्त बाहरी कड़ियाँ - an on-line textbook - an on-line textbook (Mathcad Application Server) "" by Enrique Zeleny श्रेणी:भौतिकी श्रेणी:वैज्ञानिक नियम
न्यूटन के कितने लॉ ऑफ़ मोशन है ?
तीन
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विद्युत-मापी (Electricity meters) या 'ऊर्जामापी' सामान्यत: उन सभी उपकरणों को कहा जाता है विद्युत ऊर्जा का माप करने के लिए प्रयुक्त होते हैं। विद्युत-मापी प्रायः किलोवाट-घण्टा (kWh) में अंशांकित (कैलिब्रेटेड) होते हैं। कुछ विद्युत् मापी विशेष कार्यों के लिए व्यवस्थित होते हैं, जैसे महत्तम माँग संसूचक (Maximum Demand indicator), जिसमें मीटर के साथ ऐसा काल अंशक होता है जो निश्चित अवधि में अधिकतम ऊर्जा का निर्देश करे। कुछ विद्युत-मापी ऐसे भी होते हैं जो महत्तम लोड (पीकलोड) के समय में स्वयं लोड को काट दें। परिचय किसी निश्चित अवधि में उपयुक्त होनेवाली विद्युत् ऊर्जा की माप करने के लिए यह आवश्यक है कि विद्युत्मापी परिपथ में धारा, वोल्टता तथा शक्ति गुणांक (power factor) तीनों की उचित माप करने में तथा उन्हें समाकलित (इंटिग्रेट) करके किसी निश्चित अवधि में खर्च होनेवाली ऊर्जा का मापन कर सकने में समर्थ हो। इस प्रकार किसी भी विद्युतमापी में दो अंशक होते हैं: एक तो शक्ति अंशक, जो धारा, वोल्टता एवं शक्ति गुणांक से प्रभावित होकर शक्ति का मापन करे और दूसरा काल अंशक, जो निश्चित अवधि में शक्ति का समाकलन कर ऊर्जा का मापन करा सके। एम्पीयर-घण्टा मापी शक्ति अंशक, दिष्ट धारा (D.C.) एवं प्रत्यावर्ती धारा (A.C.) में भिन्न भिन्न प्ररूप का होता है। दिष्ट धारा में, शक्ति गुणांक न होने के कारण (वस्तुत: डीसी में शक्ति गुणांक =१), शक्ति अंशक का केवल धारा तथा वोल्टता का गुणन करने में समर्थ होना पर्याप्त है। यदि वोल्टता को स्थिर मान लिया जाए (जैसा साधारणतया होता है), तो केवल धारा मापन से ही कार्य चल सकता है। इस रूप में विद्युत्मापी वस्तुत: ऐंपियर-घंटा (ampere hour) मीटर हो जाता है। यह केवल यही बताता है कि निश्चित अवधि में कितनी धारा प्रयुक्त की गई है। इस प्रकार एक ऐंपियर-घंटा से तात्पर्य है कि निश्चित वोल्टता पर १ घंटे में १ ऐंपियर धारा उपभुक्त की गई हैं। यद्यपि बनावट में ऐसे उपकरण सरल होते हैं, तथापि स्पष्टत: वोल्टता के घटने बढ़ने से उनके द्वारा निर्देशित ऊर्जा में गलती हो जाती है। तब भी अपने सरल बनावट के कारण, सामान्य उपयोगों के लिए ये बहुत उपयुक्त होते हैं। उपरोक्त प्रकार के मीटर में एक बंद प्रकोष्ठ में ऐलुमिनियम का एक डिस्क (disc) संबद्ध रहता है, जिससे उसका चलन स्वतंत्र रूप में हो सके। प्रकोष्ठ में पारा भरा होता है और डिस्क पारे के उत्प्लावन पर अवलंबित रहता है। आपेक्षिक घनत्व १३.६ होने के कारण, पारा डिस्क पर काफी उत्क्षेप लगाता है, जिससे वेयरिंग (bearing) पर दाब कम हो जाती है और डिस्क को घूमने में सुविधा रहती है। डिस्क के दोनों ओर दो चुंबक होते हैं, जिनमें से एक चालन चुंबक (driving magnet) कहलाता है: और दूसरा ब्रेक चुंबक (brake magnet)। घुराग्र (pivot) धारा के वाहक का भी कार्य करता है। धारा घुराग्र से होकर डिस्क में अरीय (radially) बहती है और वहाँ से पारे में होकर प्रकोष्ठ पर के स्थिर टर्मिनल में जाती है। इस प्रकार परिपथ पारे में होकर पूरा होता और चालन चुंबक की उत्तेजक कुंडली (exciting coil) में से प्रवाहित होती हुई धारा डिस्क पर चालन बल (driving force) आरोपित करती है। डिस्क परिभ्रमण के लिए स्वमंत्र होने के कारण घूमने लगता है। उसका ब्रेक चुंबक के क्षेत्र में परिभ्रमण, उसपर ब्रेक बल आरोपित करता है। ब्रेक-चुंबक की स्थिति का व्यवस्थापन करने से डिस्क की गति में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि मोटर ठीक न चल रहा हो, तो रोक चुंबक की स्थिति का व्यवस्थापन करके ठीक किया जा सकता है। दूसरे प्रकार के ऐंपियर घंटा मापियों में धारा के विद्युत् अपघटनी (electrolytic) प्रभाव का उपयोग किया जाता है। किसी निश्चित अवधि में, विद्युत् अपघट्य में से पारित होती हुई धारा जितना अवशेष जमा करती है, उसका परिमाण परिपथ में उपभोग की गई ऊर्जा के अनुपात में होता है। परंतु इस प्ररूप के मीटरों की बनावट मजबूत नहीं होती और उन्हें बार बार व्यवस्थित (set) करना पड़ता है। अत: इस प्ररूप के मीटर अधिक चलन में नहीं हैं। दिष्ट धारा के मीटरों में शक्ति अंशक वाटमीटर जैसे ही होते हैं। इनमें वस्तुत: दो परिपथ होते हैं, (१) धारा कुंडली परिपथ, जो वहन की जानेवाली धारा द्वारा प्रवाहित होता है और दूसरा (२) वोल्टता कुंडली (pressure coil), जो परिपथ के आरपार वोल्टता द्वारा प्रभावित होता है। इन दोनों कुंडलियों की धारा एवं वोल्टता के क्षणिक मानों द्वारा प्रभावित होने के कारण, अंशक का चलनतंत्र परिपथ में औसत शक्ति का परिचायक होता है। प्रत्यावर्ती धारा ऊर्जामापी प्र.धा. मीटर, मुख्यत:, दो प्ररूप के होते हैं: (१) प्रेरण प्ररूप (induction Type) (२) डायनेमोमीटर प्ररूप (Dynamometer Type) दोनों मीटर वास्तव में अपने अपने प्ररूप के वाटमीटर पर ही आधारित होते हैं। शक्तिअंशक के साथ कालअंशक जोड़ देने से ही उनसे ऊर्जा का मापन किया जा सकता है। कालअंशक वास्तव में घड़ी की भाँति होता है, जो निश्चित अवधि में शक्ति का समाकरलन कर ऊर्जा का निर्देश करता है। वाटमीटर में संकेतक (pointer) द्वारा शक्ति का निर्देश ही किया जा सकता है। जबकि विद्युत् मापी में डिस्क के परिभ्रमण गिनने से ऊर्जा का मापन होता है। डिस्क अथवा ड्रम के परिभ्रमण गिनने के लिए एक गणकतंत्र होता है, जिससे कुल ऊर्जा का मान पढ़ा जा सकता है। एक दूसरे प्ररूप के मीटर में वस्तुत: मोटर का छोटा अंग ही काम में लाया जाता है। इसमें धारा कुंडली, उत्तेजक के रूप में होती है और वोल्टता कुंडली, आर्मेचर के रूप में। आर्मेचर से साथ कम्यूटेटर (commutator) भी होता है और संस्पर्श करनेवाले दो बुरुश होते हैं। इस प्रकार वह मीटर, वस्तुत: मोटर का छोटा रूप ही है। इसे इस कारण 'मोटर मीटर' ही कहा जाता है, परंतु यह अधिक महँगा होने के कारण और देखभाल (maintenance) की कठिनाइयों के कारण, बहुत कम प्रयोग में लाया जाता है। त्रिफेज परिपथों में ऊर्जा मापन भी त्रिफेज शक्ति मापन के आधार पर ही किया जाता है। त्रिफेज वाटमीटर की भाँति, इनमें भी शक्ति अंशक दो भागों में संघटित होता है और संयोजन (connection) भी दो वाटमीटर द्वारा शक्तिमापन के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार इसमें ६ टर्मिनल हाते हैं और उन्हें त्रिफेज वाटमीटर की भाँति ही संयोजित किया जाता है। केवल काल अंशक तथा गणन तंत्र जोड़ देने से यह ऊर्जा का मापन कर सकता है। एलेक्ट्रॉनिक ऊर्जामापी सूक्ष्म एलेक्ट्रॉनिकी एवं माइक्रोकंट्रोलर आदि के विकास ने एलेक्ट्रानिक ऊर्जामीटरों का विकास सम्भव बना दिया है। इनका डिस्प्ले LCD या LED पर आधारित होता है। कुछ मीटर पाठ्यांक को दूरस्थ स्थानों पर संचारित भी करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा एलेक्ट्रानिक ऊर्जामापी सप्लाई तथा लोड के कुछ अन्य प्राचलों (पैरामीटर्स) को भी रेकार्ड कर सकते हैं, जैसे- अधिकतम मांग, वोल्टेज, शक्ति गुणांक, रिएक्टिव शक्ति आदि। श्रेणी:विद्युत उपकरण
ऊर्जा को किस इकाई द्वारा मापा जाता है?
kWh
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ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया नामक दुनिया का सबसे छोटा महाद्वीप हिन्द महासागर,दक्षिणध्रुवीय महासागर और प्रशांत महासागर से घिरा हुआ है। इसमें पूरे ऑस्ट्रेलियाई मुख्य भूमि, न्यूजीलैंड, तस्मानिया, न्यू गिनी (केवल पूर्वी आधा) के रूप में ऐसे बड़े द्वीप शामिल हैं, और दक्षिण प्रशांत में बिखरे हुए मेलानेशिया, माइक्रोनेशिया और पॉलीनेशिया क्षेत्रों के हजारों छोटे, उष्णकटिबंधीय द्वीप हैं। 14 स्वतंत्र देश और 12 आश्रित विदेशी क्षेत्र हैं। सबसे बड़ा संप्रभु राज्य ऑस्ट्रेलिया है, जो क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल का लगभग 86% है। सबसे छोटा स्वतंत्र देश नौरू है, जो इतना छोटा है कि आपको इसके चारों ओर ड्राइव करने के लिए एक घंटे से भी कम समय की आवश्यकता है। दुनिया के इस हिस्से में सबसे अधिक देखी जाने वाली पर्यटन स्थलों में सिडनी और मेलबोर्न के ऑस्ट्रेलियाई शहर हैं, जो गोल्ड कोस्ट के प्रसिद्ध समुद्र तट रिसॉर्ट्स हैं। सबसे अच्छा प्राकृतिक आकर्षण ग्रेट बैरियर रीफ है, और लोकप्रिय द्वीप फिजी और बोरा बोरा हैं।[1] ओशिआनिया क्षेत्र के देश ओशिआनिया क्षेत्र के 14 स्वतंत्र देश निम्न हैं - ऑस्ट्रेलिया फिजी किरिबाती न्यूजीलैंड नौरू पापुआ न्यू गिनी मार्शल द्वीपसमूह माइक्रोनेशिया पलाउ टोंगा तुवालू वानूआतू समोआ सोलोमन द्वीप[2] ओशिआनिया क्षेत्र के आश्रित विदेशी क्षेत्र ओशिआनिया क्षेत्र के 12 आश्रित विदेशी क्षेत्र निम्न हैं - अमेरिकी समोआ (संयुक्त राज्य) कुक द्वीपसमूह (न्यूज़ीलैण्ड) फ़्रान्सीसी पॉलिनेशिया (फ़्रान्स) गुआम (संयुक्त राज्य) नया कैलेडोनिया (फ़्रान्स) निउए (न्यूज़ीलैण्ड) नॉर्फ़ोक द्वीप (ऑस्ट्रेलिया) उत्तरी मारियाना द्वीप (संयुक्त राज्य) पिटकेर्न द्वीपसमूह (यूनाइटेड किंगडम) टोकेलाऊ (न्यूज़ीलैण्ड) वेक द्वीप (संयुक्त राज्य) वालैस और फ़्युटुना (फ़्रान्स)[3] सन्दर्भ
ओशिआनिया में सबसे बड़ा देश कौनसा है?
ऑस्ट्रेलिया
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सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। [1] ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। [2] इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है। सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। [3] इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है। विशेषताएँ सूर्य एक G-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग 99.86% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है,[4] इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल 10 किमी से अलग है। [5] जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग 25.6 दिन और ध्रुवों में 33.5 दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन 28 दिनों का है। [6] इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से 1.8 करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है। [7] सूर्य एक पॉपुलेशन I या भारी तत्व युक्त सितारा है। [8] सूर्य का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा शुरू किया गया हो सकता है। [9] ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन II (भारी तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो सकने की सर्वाधिक संभवना है। [8] सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। [10] बहरहाल, इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। [11] एक पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है। सूर्य का आंतरिक भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणीय नहीं है। सूर्य स्वयं ही विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अपारदर्शी है। हालांकि, जिस प्रकार भूकम्प विज्ञान पृथ्वी के आंतरिक गठन को प्रकट करने के लिए भूकंप से उत्पन्न तरंगों का उपयोग करता है, सौर भूकम्प विज्ञान En का नियम इस तारे की आंतरिक संरचना को मापने और दृष्टिगोचर बनाने के लिए दाब तरंगों ( पराध्वनी) का इस्तेमाल करता है। [12] इसकी गहरी परतों की खोजबीन के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग भी सैद्धांतिक औजार के रूप में प्रयुक्त हुए है। कोर सूर्य का कोर इसके केन्द्र से लेकर सौर त्रिज्या के लगभग 20-25% तक विस्तारित माना गया है। [13] इसका घनत्व 150 ग्राम/सेमी3 तक[14][15] (पानी के घनत्व का लगभग 150 गुना) और तापमान 15.7 करोड़ केल्विन के करीब का है। [15] इसके विपरीत, सूर्य की सतह का तापमान लगभग 5,800 केल्विन है। सोहो मिशन डेटा के हाल के विश्लेषण विकिरण क्षेत्र के बाकी हिस्सों की तुलना में कोर के तेज घूर्णन दर का पक्ष लेते है। [13] सूर्य के अधिकांश जीवन में, ऊर्जा p–p (प्रोटॉन-प्रोटॉन) श्रृंखलाEn कहलाने वाली एक चरणबद्ध श्रृंखला के माध्यम से नाभिकीय संलयन द्वारा उत्पादित हुई है; यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को हीलियम में रुपांतरित करती है। [16] सूर्य की उत्पादित ऊर्जा का मात्र 0.8% CNO चक्र En से आता है। [17] सूर्य में कोर अकेला ऐसा क्षेत्र है जो संलयन के माध्यम से तापीय ऊर्जा की एक बड़ी राशि का उत्पादन करता है; 99% शक्ति सूर्य की त्रिज्या के 24% के भीतर उत्पन्न हुई है, तथा त्रिज्या के 30% द्वारा संलयन लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इस तारे का शेष उस उर्जा द्वारा तप्त हुआ है जो कोर से लेकर संवहनी परतों के ठीक बाहर तक विकिरण द्वारा बाहर की ओर स्थानांतरित हुई है। कोर में संलयन द्वारा उत्पादित ऊर्जा को फिर उत्तरोत्तर कई परतों से होकर सौर प्रभामंडल तक यात्रा करनी होती है इसके पहले कि वह सूर्य प्रकाश अथवा कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में पलायन करती है। [18][19] कोर में प्रोटॉन-प्रोटॉन श्रृंखला दरेक सेकंड 9.2×1037 बार पाई जाती है। यह अभिक्रिया चार मुक्त प्रोटॉनों (हाइड्रोजन नाभिक) का प्रयोग करती है, यह हर सेकंड करीब 3.7×1038 प्रोटॉनों को अल्फा कणों (हीलियम नाभिक) में तब्दील करती है (सूर्य के कुल ~8.9×1056 मुक्त प्रोटॉनों में से), या लगभग 6.2× 1011 किलो प्रति सेकंड। [19] हाइड्रोजन से हीलियम संलयन के बाद हीलियम ऊर्जा के रूप में संलयित द्रव्यमान का लगभग 0.7% छोड़ती है,[20] सूर्य 42.6 करोड़ मीट्रिक टन प्रति सेकंड की द्रव्यमान-ऊर्जा रूपांतरण दर पर ऊर्जा छोड़ता है, 384.6 योटा वाट (3.846 × 1026 वाट),[21] या 9.192× 1010 टीएनटी मेगाटनEn प्रति सेकंड। राशि ऊर्जा पैदा करने में नष्ट नहीं हुई है, बल्कि यह राशि बराबर की इतनी ही ऊर्जा में तब्दील हुई है तथा ढोकर उत्सर्जित होने के लिए दूर ले जाई गई, जैसा द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता अवधारणा का वर्णन हुआ है। कोर में संलयन से शक्ति का उत्पादन सौर केंद्र से दूरी के साथ बदलता रहता है। सूर्य के केंद्र पर, सैद्धांतिक मॉडलों के आकलन में यह तकरीबन 276.5 वाट/मीटर3 होना है,[22] जीवन चक्र सूर्य आज सबसे अधिक स्थिर अवस्था में अपने जीवन के करीबन आधे रास्ते पर है। इसमें कई अरब वर्षों से नाटकीय रूप से कोई बदलाव नहीं हुआ है,  और आगामी कई वर्षों तक यूँ ही अपरिवर्तित बना रहेगा। हालांकि, एक स्थिर हाइड्रोजन-दहन काल के पहले का और बाद का तारा बिलकुल अलग होता है। निर्माण सूर्य एक विशाल आणविक बादल के हिस्से के ढहने से करीब 4.57 अरब वर्ष पूर्व गठित हुआ है जो अधिकांशतः हाइड्रोजन और हीलियम का बना है और शायद इन्ही ने कई अन्य तारों को बनाया है। [23] यह आयु तारकीय विकास के कंप्यूटर मॉडलो के प्रयोग और न्यूक्लियोकोस्मोक्रोनोलोजीEn के माध्यम से आकलित हुई है। [24] परिणाम प्राचीनतम सौरमंडल सामग्री की रेडियोमीट्रिक तिथि के अनुरूप है, 4.567 अरब वर्ष। [25][26] प्राचीन उल्कापातों के अध्ययन अल्पजीवी आइसोटोपो के स्थिर नाभिक के निशान दिखाते है, जैसे कि लौह-60, जो केवल विस्फोटित, अल्पजीवी तारों में निर्मित होता है। यह इंगित करता है कि वह स्थान जहां पर सूर्य बना के नजदीक एक या एक से ज्यादा सुपरनोवा अवश्य पाए जाने चाहिए। किसी नजदीकी सुपरनोवा से निकली आघात तरंग ने आणविक बादल के भीतर की गैसों को संपीडित कर सूर्य के निर्माण को शुरू किया होगा तथा कुछ क्षेत्र अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढहने से बने होंगे। [27] जैसे ही बादल का कोई टुकड़ा ढहा कोणीय गति के संरक्षण के कारण यह भी घुमना शुरू हुआ और बढ़ते दबाव के साथ गर्म होने लगा। बहुत बड़ी द्रव्य राशि केंद्र में केंद्रित हुई, जबकि शेष बाहर की ओर चपटकर एक डिस्क में तब्दील हुई जिनसे ग्रह व अन्य सौरमंडलीय निकाय बने। बादल के कोर के भीतर के गुरुत्व व दाब ने अत्यधिक उष्मा उत्पन्न की वैसे ही डिस्क के आसपास से और अधिक गैस जुड़ती गई, अंततः नाभिकीय संलयन को सक्रिय किया। इस प्रकार, सूर्य का जन्म हुआ। मुख्य अनुक्रम सूर्य अपनी मुख्य अनुक्रम अवस्था से होता हुआ करीब आधी राह पर है, जिसके दरम्यान नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओ ने हाइड्रोजन को हीलियम में बदला। हर सेकंड, सूर्य की कोर के भीतर चालीस लाख टन से अधिक पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हुआ है और न्यूट्रिनो व सौर विकिरण का निर्माण किया है। इस दर पर, सूर्य अब तक करीब 100 पृथ्वी-द्रव्यमान जितना पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित कर चुका है। सूर्य एक मुख्य अनुक्रम तारे के रूप में लगभग 10 अरब साल जितना खर्च करेगा। [29] कोर हाइड्रोजन समापन के बाद सूर्य के पास एक सुपरनोवा के रूप में विस्फोट के लिए पर्याप्त द्रव्यमान नहीं है। बावजुद यह एक लाल दानव चरण में प्रवेश करेगा। सूर्य का तकरीबन 5.4 अरब साल में एक लाल दानव बनने का पूर्वानुमान है। [30] यह आकलन हुआ है कि सूर्य संभवतः पृथ्वी समेत सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों की वर्तमान कक्षाओं को निगल जाने जितना बड़ा हो जाएगा। [31] इससे पहले कि यह एक लाल दानव बनता है, सूर्य की चमक लगभग दोगुनी हो जाएगी और पृथ्वी शुक्र जितना आज है उससे भी अधिक गर्म हो जाएगी। एक बार कोर हाइड्रोजन समाप्त हुई, सूर्य का उपदानव चरण में विस्तार होगा और करीब आधे अरब वर्षों उपरांत आकार में धीरे धीरे दोगुना जाएगा। उसके बाद यह, आज की तुलना में दो सौ गुना बड़ा तथा दसियों हजार गुना और अधिक चमकदार होने तक, आगामी करीब आधे अरब वर्षों से ज्यादा तक और अधिक तेजी से फैलेगा। यह लाल दानव शाखा का वह चरण है, जहां पर सूर्य करीब एक अरब वर्ष बिता चुका होगा और अपने द्रव्यमान का एक तिहाई के आसपास गंवा चुका होगा। [31] सूर्य के पास अब केवल कुछ लाख साल बचे है, पर वें बेहद प्रसंगपूर्ण है। प्रथम, कोर हीलियम चौंध में प्रचंडतापूर्वक सुलगता है और सूर्य चमक के 50 गुने के साथ, आज की तुलना में थोड़े कम तापमान के साथ, अपने हाल के आकार से 10 गुने के आसपास तक वापस सिकुड़ जाता है। सौर अंतरिक्ष मिशन सूर्य के निरीक्षण के लिए रचे गए प्रथम उपग्रह नासा के पायनियर 5, 6, 7, 8 और 9 थे। यह 1959 और 1968 के बीच प्रक्षेपित हुए थे। इन यानों ने पृथ्वी और सूर्य से समान दूरी की कक्षा में सूर्य परिक्रमा करते हुए सौर वायु और सौर चुंबकीय क्षेत्र का पहला विस्तृत मापन किया। पायनियर 9 विशेष रूप से लंबे अरसे के लिए संचालित हुआ और मई 1983 तक डेटा संचारण करता रहा। [33][34] 1970 के दशक में, दो अंतरिक्ष यान हेलिओस और स्काईलैब अपोलो टेलीस्कोप माउंट En ने सौर वायु व सौर कोरोना के महत्वपूर्ण नए डेटा वैज्ञानिकों को प्रदान किए। हेलिओस 1 और 2 यान अमेरिकी-जर्मनी सहकार्य थे। इसने अंतरिक्ष यान को बुध की कक्षा के भीतर की ओर ले जा रही कक्षा से सौर वायु का अध्ययन किया। [35] 1973 में स्कायलैब अंतरिक्ष स्टेशन नासा द्वारा प्रक्षेपित हुआ। इसने अपोलो टेलीस्कोप माउंट कहे जाने वाला एक सौर वेधशाला मॉड्यूल शामिल किया जो कि स्टेशन पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा संचालित हुआ था। [36] स्काईलैब ने पहली बार सौर संक्रमण क्षेत्र का तथा सौर कोरोना से निकली पराबैंगनी उत्सर्जन का समाधित निरीक्षण किया। [36] खोजों ने कोरोनल मास एजेक्सन के प्रथम प्रेक्षण शामिल किए, जो फिर "कोरोनल ट्रांजीएंस्ट" और फिर कोरोनल होल्स कहलाये, अब घनिष्ठ रूप से सौर वायु के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है। [35] 1980 का सोलर मैक्सीमम मिशन नासा द्वारा शुरू किया गया था। यह अंतरिक्ष यान उच्च सौर गतिविधि और सौर चमक के समय के दरम्यान गामा किरणों, एक्स किरणों और सौर ज्वालाओं से निकली पराबैंगनी विकिरण के निरीक्षण के लिए रचा गया था। प्रक्षेपण के बस कुछ ही महीने बाद, हालांकि, किसी इलेक्ट्रॉनिक्स खराबी की वजह से यान जस की तस हालत में चलता रहा और उसने अगले तीन साल इसी निष्क्रिय अवस्था में बिताए। 1984 में स्पेस शटल चैलेंजर मिशन STS-41C ने उपग्रह को सुधार दिया और कक्षा में फिर से छोड़ने से पहले इसकी इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। जून 1989 में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश से पहले सोलर मैक्सीमम मिशन ने मरम्मत पश्चात सौर कोरोना की हजारों छवियों का अधिग्रहण किया। [37] 1991 में प्रक्षेपित, जापान के योनकोह (सौर पुंज) उपग्रह ने एक्स-रे तरंग दैर्घ्य पर सौर ज्वालाओ का अवलोकन किया। मिशन डेटा ने वैज्ञानिकों को अनेकों भिन्न प्रकार की लपटों की पहचान करने की अनुमति दी, साथ ही दिखाया कि चरम गतिविधि वाले क्षेत्रों से दूर स्थित कोरोना और अधिक गतिशील व सक्रिय थी जैसा कि पूर्व में माना हुआ था। योनकोह ने एक पूरे सौर चक्र का प्रेक्षण किया लेकिन 2001 में जब एक कुंडलाकार सूर्यग्रहण हुआ यह आपातोपयोगी दशा में चला गया जिसकी वजह से इसका सूर्य के साथ जुडाव का नुकसान हो गया। यह 2005 में वायुमंडलीय पुनः प्रवेश दौरान नष्ट हुआ था। [38] आज दिन तक का सबसे महत्वपूर्ण सौर मिशन सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्सर्वेटरी रहा है। 2 दिसंबर1995 को शुरू हुआ यह मिशन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया था। [36] मूल रूप से यह दो-वर्षीय मिशन के लिए नियत हुआ था। मिशन की 2012 तक की विस्तारण मंजूरी अक्टूबर 2009 में हुई थी। [39] यह इतना उपयोगी साबित हुआ कि इसका अनुवर्ती मिशन सोलर डायनमिक्स ओब्सर्वेटरी (एसडीओ) फरवरी, 2010 में शुरू किया गया था। [40] यह पृथ्वी और सूर्य के बीच लाग्रंगियन बिंदु (जिस पर दोनों ओर का गुरुत्वीय खींचाव बराबर होता है) पर स्थापित हुआ। सोहो ने अपने प्रक्षेपण के बाद से अनेक तरंगदैर्ध्यों पर सूर्य की निरंतर छवि प्रदान की है। [36] प्रत्यक्ष सौर प्रेक्षण के अलावा, सोहो को बड़ी संख्या में धूमकेतुओं की खोज के लिए समर्थ किया गया है, इनमे से अधिकांश सूर्य के निवाले छोटे धूमकेतुEn है जो सूर्य के पास से गुजरते ही भस्म हो जाते है। [41] इन सभी उपग्रहों ने सूर्य का प्रेक्षण क्रांतिवृत्त के तल से किया है, इसलिए उसके भूमध्यरेखीय क्षेत्रों मात्र के विस्तार में प्रेक्षण किए गए है। यूलिसिस यान सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के लिए 1990 में प्रक्षेपित हुआ था। इसने सर्वप्रथम बृहस्पति की यात्रा की, इससे पहले इसे क्रांतिवृत्त तल के ऊपर की दूर की किसी कक्षा में बृहस्पति के गुरुत्वीय बल के सहारे ले जाया गया था। संयोगवश, यह 1994 की बृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी 9 की टक्कर के निरीक्षण के लिए अच्छी जगह स्थापित हुआ था। एक बार यूलिसिस अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित हो गया, इसने उच्च सौर अक्षांशों की सौर वायु और चुंबकीय क्षेत्र शक्ति का निरीक्षण करना शुरू कर दिया और पाया कि उच्च अक्षांशों पर करीब 750 किमी/सेकंड से आगे बढ़ रही सौर वायु उम्मीद की तुलना में धीमी थी, साथ ही पाया गया कि वहां उच्च अक्षांशों से आई हुई बड़ी चुंबकीय तरंगे थी जो कि बिखरी हुई गांगेय कॉस्मिक किरणे थी। [42] वर्णमंडल की तात्विक बहुतायतता को स्पेक्ट्रोस्कोपी अध्ययनों से अच्छी तरह जाना गया है, पर सूर्य के अंदरूनी ढांचे की समझ उतनी ही बुरी है। सौर वायु नमूना वापसी मिशन, जेनेसिस, खगोलविदों द्वारा सीधे सौर सामग्री की संरचना को मापने के लिए रचा गया था। जेनेसिस 2004 में पृथ्वी पर लौटा, पर पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश पर तैनात करते वक्त पैराशूट के विफल होने से यह अकस्मात् अवतरण से क्षतिग्रस्त हो गया था। गंभीर क्षति के बावजूद, कुछ उपयोगी नमूने अंतरिक्ष यान के नमूना वापसी मॉड्यूल से बरामद किए गए हैं और विश्लेषण के दौर से गुजर रहे हैं। [43] सोलर टेरेस्ट्रियल रिलेशंस ओब्सर्वेटरी (स्टीरियो) मिशन अक्टूबर 2006 में शुरू हुआ था। दो एक सामान अंतरिक्ष यान कक्षाओं में इस तरीके से प्रक्षेपित किए गए जो उनको (बारी बारी से) कहीं दूर आगे की ओर खींचते और धीरे धीरे पृथ्वी के पीछे गिराते। यह सूर्य और सौर घटना के त्रिविम प्रतिचित्रण करने में समर्थ है, जैसे कि कोरोनल मास एजेक्सनEn। [44][45] भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 2015-16 तक आदित्य नामक एक 100 किलो के उपग्रह का प्रक्षेपण निर्धारित किया है। सोलर कोरोना की गतिशीलता के अध्ययन के लिए इसका मुख्य साधन एक कोरोनाग्राफEn होगा। [46] सन्दर्भ इन्हें भी देखें सूर्य देव श्रेणी:सौर मंडल श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना * श्रेणी:जी-प्रकार मुख्य अनुक्रम तारे
किस प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है?
परमाणु विलय
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गाय एक महत्त्वपूर्ण पालतू जानवर है जो संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है। इससे उत्तम किस्म का दूध प्राप्त होता है। भारत में वैदिक काल से ही गाय का विशेष महत्त्व रहा है। आरंभ में आदान प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। हिन्दू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में की जाती है।[1] [2] गाय व भैंस में गर्भ से संबन्धित जानकारी सम्भोग काल - वर्ष भर, तथा गर्मिओं में अधिक वर्ष में गर्मी के आने का समय - हर 18 से 21 दिन (गर्भ न ठहरने पर) ; 30 से 60 दिन में (व्याने के बाद) गर्मी की अवधि - 20 से 36 घंटे तक कृत्रिम गर्भधान व वीर्य डालने का समय - मदकाल आरम्भ होने के 12 से 18 घंटे बाद गर्भ जांच करवाने का समय - कृत्रिम गर्भधान का टीका कराने के 60 से 90 दिनों में गर्भकाल - गाय 275 से 280 दिन ; भैंस 308 दिन भारतीय गाय भारत में गाय की ३० नस्लें पाई जाती हैं।[3] रेड सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की प्रमुख नस्लें हैं। लोकोपयोगी दृष्टि में भारतीय गाय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में वे गाएँ आती हैं जो दूध तो खूब देती हैं, लेकिन उनकी पुंसंतान अकर्मण्य अत: कृषि में अनुपयोगी होती है। इस प्रकार की गाएँ दुग्धप्रधान एकांगी नस्ल की हैं। दूसरी गाएँ वे हैं जो दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं। इन्हें वत्सप्रधान एकांगी नस्ल कहते हैं। कुछ गाएँ दूध भी प्रचुर देती हैं और उनके बछड़े भी कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं। भारत की गोजातियाँ निम्नलिखित हैं: साहीवाल जाति सायवाल गाय का मूल स्थान पाकिस्तान में है। इन गायों का सिर चौड़ा उभरा हुआ, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है। भारत में ये राजस्थान के बीकानेर,श्रीगंगानगर, पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। ये भारत में कहीं भी रह सकती हैं। एक बार ब्याने पर ये १० महीने तक दूध देती रहती हैं। दूध का परिमाण प्रति दिन १०-20 लीटर प्रतिदिन होता है। इनके दूध में मक्खन का अंश पर्याप्त होता है। इसके दूध में वसा 4 से 6% पाई जाती है सिंधी इनका मुख्य स्थान सिंध का कोहिस्तान क्षेत्र है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का वर्ण बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। संतानोत्पत्ति के बाद ये ३०० दिन के भीतर कम से कम २००० लीटर दूध देती हैं। काँकरेज कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। वैसे ये काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में भी मिलती हैं। ये सर्वांगी जाति की गाए हैं और इनकी माँग विदेशों में भी है। इनका रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है। मालवी ये गायें दुधारू नहीं होतीं। इनका रंग खाकी होता है तथा गर्दन कुछ काली होती है। अवस्था बढ़ने पर रंग सफेद हो जाता है। ये ग्वालियर के आस-पास पाई जाती हैं। नागौरी इनका प्राप्तिस्थान जोधपुर के आस-पास का प्रदेश है। ये गायें भी विशेष दुधारू नहीं होतीं, किंतु ब्याने के बाद बहुत दिनों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं। थारपारकर ये गायें दुधारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भूरा, या सफेद होता है। कच्छ, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर और सिंध का दक्षिणपश्चिमी रेगिस्तान इनका प्राप्तिस्थान है। इनकी खुराक कम होती है। इसका दूध 10 से 16 लीटर प्रतिदिन तक होता है। पवाँर पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी इनका प्राप्तिस्थान है। इनका मुँह सँकरा और सींग सीधी तथा लंबी होती है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लंबी होती है। ये स्वभाव से क्रोधी होती है और दूध कम देती हैं। भगनाड़ी नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका प्राप्तिस्थान है। ज्वार इनका प्रिय भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी बनाकर भी इन्हें खिलाई जाती है। ये गायें दूध खूब देती हैं। दज्जल पंजाब के डेरागाजीखाँ जिले में पाई जाती हैं। ये दूध कम देती हैं। गावलाव दूध साधारण मात्रा में देती है। प्राप्तिस्थान सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर है। इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। ये कान उठाकर चलती हैं। हरियाना ये ८-१२ लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोतिया या हल्का भूरा होता हैं। ये ऊँचे कद और गठीले बदन की होती हैं तथा सिर उठाकर चलती हैं। इनका प्राप्तिस्थान रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगाँव और जिंद है। भारत की पांच सबसे श्रेष्ठ नस्लो में हरयाणवी नस्ल आती है। यह अद्भुत है। अंगोल या नीलोर ये गाएँ दुधारू, सुंदर और मंथरगामिनी होती हैं। प्राप्तिस्थान तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुंटूर, नीलोर, बपटतला तथा सदनपल्ली है। ये चारा कम खाती हैं। राठी इस गाय का मूल मूल स्थान राजस्थान में बीकानेर, श्रीगंगानगर हैं। ये लाल-सफेद चकते वाली,काले-सफेद,लाल, भूरी,काली, आदि कई रंगों की होती है। ये खाती कम और दूध खूब देती हैं। ये प्रतिदिन का 10 से 20 लीटर तक दूध देती है। इस पर पशु विश्वविद्यालय बीकानेर राजस्थान में रिसर्च भी काफी हुआ है। इसकी सबसे बड़ी खासियत, ये अपने आप को भारत के किसी भी कोने में ढाल लेती है। गीर- ये प्रतिदिन ५०-८० लीटर दूध देती हैं। इनका मूलस्थान काठियावाड़ का गीर जंगल है।राजस्थान मे रैण्डा व अजमेरी के नाम से जाना जाता है देवनी - दक्षिण आंध्र प्रदेश और हिंसोल में पाई जाती हैं। ये दूध खूब देती है। नीमाड़ी - नर्मदा नदी की घाटी इनका प्राप्तिस्थान है। ये गाएँ दुधारू होती हैं। अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी नस्लें मैसूर की वत्सप्रधान, एकांगी गाएँ हैं। कंगायम और कृष्णवल्ली दूध देनेवाली हैं। #गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होने से उसके दूध, घी, झरण आदि में स्वर्णक्षार पाये जाते हैं जो आरोग्य व प्रसन्नता के लिए ईश्वरीय वरदान हैं। पुण्‍य व स्‍वकल्‍याण चाहनेवाले गृहस्‍थों को गौ-सेवा अवश्‍य करनी चाहिए क्‍योंकि गौ-सेवा से सुख-समृद्धि होती है। गौ-सेवा से धन-सम्‍पत्ति, आरोग्‍य आदि मनुष्‍य-जीवन को सुखकर बनानेवाले सम्‍पूर्ण साधन सहज ही प्राप्‍त हो जाते हैं। मानव #गौ की महिमा को समझकर उससे प्राप्त दूध, दही आदि पंचगव्यों का लाभ ले तथा अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी बनाये - इस उद्देश्य से हमारे परम करुणावान ऋषियों-महापुरुषों ने गौ को माता का दर्जा दिया तथा कार्तिक शुक्ल अष्टमी के दिन गौ-पूजन की परम्परा स्थापित की। यही मंगल दिवस गोपाष्टमी कहलाता है। गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है। मानव – जाति की समृद्धि गौ-वंश की समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। अत: गोपाष्‍टमी के पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन-परिक्रमा कर विश्‍वमांगल्‍य की प्रार्थना करन चाइये प्रमुख देशों में गायों की संख्या विश्व में गायों की कुल संख्या १३ खरब (1.3 बिलियन) होने का अनुमान है।[4] नीचे दी गई सारणी में विभिन्न देशों में सन् 2009 में गायों की संख्या दी गई है।[5] सन्दर्भ इन्हें भी देखें पंचगव्य गोमूत्र गोरक्षा आन्दोलन पशुपालन गोकरुणानिधि - स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित लघुग्रन्थ जिसमें गाय का महत्व प्रतिपादित किया गया है। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:गोवंश श्रेणी:स्तनधारी श्रेणी:भारत के पशु
गाय की गर्भावधि कितनी होती है?
275 से 280 दिन
806
hindi
669862999
स्वेज नहर (Suez canal) लाल सागर और भूमध्य सागर को संबंद्ध करने वाली एक नहर है। सन् 1859 में एक फ्रांसीसी इंजीनियर फर्डीनेण्ड की देखरेख में स्वेज नहर का निर्माण शुरु हुआ था। यह नहर आज 165 किमी लंबी, 60 मी चौड़ी और 10 मी गहरी है। दस वर्षों में बनकर यह तैयार हो गई थी। सन् 1869 में यह नहर यातायात के लिए खुल गई थी। पहले केवल दिन में ही जहाज नहर को पार करते थे पर 1887 ई. से रात में भी पार होने लगे। 1866 ई. में इस नहर के पार होने में 36 घंटे लगते थे पर आज 18 घंटे से कम समय ही लगता है। यह वर्तमान में मिस्र देश के नियंत्रण में है। इस नहर का चुंगी कर बहुत अधिक है। इस नहर की लंबाई पनामा नहर की लंबाई से दुगुनी होने के बाद भी इसमें पनामा नहर के खर्च का 1/3 धन ही लगा है। इतिहास इस नहर का प्रबंध पहले "स्वेज कैनाल कंपनी" करती थी जिसके आधे शेयर फ्रांस के थे और आधे शेयर तुर्की, मिस्र और अन्य अरब देशों के थे। बाद में मिस्र और तुर्की के शेयरों को अंग्रेजों ने खरीद लिया। 1888 ई. में एक अंतरराष्ट्रीय उपसंधि के अनुसार यह नहर युद्ध और शांति दोनों कालों में सब राष्ट्रों के जहाजों के लिए बिना रोकटोक समान रूप से आने-जाने के लिए खुली थी। ऐसा समझौता था कि इस नहर पर किसी एक राष्ट्र की सेना नहीं रहेगी। किन्तु अंग्रेजों ने 1904 ई. में इसे तोड़ दिया और नहर पर अपनी सेनाएँ बैठा दीं और उन्हीं राष्ट्रों के जहाजों के आने-जाने की अनुमति दी जाने लगी जो युद्धरत नहीं थे। 1947 ई. में स्वेज कैनाल कंपनी और मिस्र सरकार के बीच यह निश्चय हुआ कि कंपनी के साथ 99 वर्ष का पट्टा रद्द हो जाने पर इसका स्वामित्व मिस्र सरकार के हाथ आ जाएगा। 1951 ई. में मिस्र में ग्रेट ब्रिटेन के विरुद्ध आंदोलन छिड़ा और अंत में 1954 ई. में एक करार हुआ जिसके अनुसार ब्रिटेन की सरकार कुछ शर्तों के साथ नहर से अपनी सेना हटा लेने पर राजी हो गई। पीछे मिस्र ने इस नहर का 1956 में राष्ट्रीयकरण कर इसे अपने पूरे अधिकार में कर लिया। उपयोगिता इस नहर के कारण यूरोप से एशिया और पूर्वी अफ्रीका का सरल और सीधा मार्ग खुल गया और इससे लगभग 6,000 मील की दूरी की बचत हो गई। इससे अनेक देशों, पूर्वी अफ्रीका, ईरान, अरब, भारत, पाकिस्तान, सुदूर पूर्व एशिया के देशों, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों के साथ व्यापार में बड़ी सुविधा हो गई है और व्यापार बहुत बढ़ गया है। यातायात स्वेज नहर में यातायात कॉन्वॉय (सार्थवहन) के रूप में होता है। प्रतिदिन तीन कॉन्वॉय चलते हैं, दो उत्तर से दक्षिण तथा एक दक्षिण से उत्त्र की तरफ। जलयानों की चाल 11 से 16 किलोमीटर प्रति घण्टे के बीच होती है। इस नहर की यात्रा का समय 12 से 16 घटों का होता है। स्वेज नहर का जलमार्ग स्वेज नहर जलमार्ग में जलयान 12 से 15 किमी प्रति घंन्टे की गति से चलते है कियोंकी तेझ गति से चलने पर नहर के किनारे टूटने का भय बना रहता है। इस नहर को पार करने में सामान्यता 12 घंण्टे का समय लगता है इस नहर से एक साथ दो जलयान पार नही हो सकतें है लेकीन जब एक जलयान निकलता है तो दूसरे जलयान को गोदी में बाँध दिया जाता है इस प्रकार इस नहर से होकर एक दिन मे अधिक से अधिक 24 जलयानो का आबगामन हो सकता है। स्वेज नहर बन जाने से यूरोप एवं सुदूर पूर्व के देशो के मध्य दूरी काफी कम हो जाती है। जैसे की लिवरपूल से मुम्बई आने में 7250 किमी तथा हांगकांग पहुँचने मे 4500 किमी; न्यूयार्क से मुम्बई पहुँचने मे 4500 किमी की दूरी कम हो जाती है। इस नहर के कारण ही भारत तथा यूरोपीय देशो के व्यापारिक सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए है। स्वेज नहर से व्यापार स्वेज नहर मार्ग से फारस की खाड़ी के देशों से खनिज तेल,भारत तथा अन्य एशियाई देशों से अभ्रक,लोह-अयस्क,मैगनीज चाय,कहवा,जूट,रबड़,कपास,ऊन,मसाले,चीनी,चमड़ा,खालें,सागवान की लकड़ी,सूती वस्त्र, हैंडीक्राफ्टस आदि पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा उत्तरी अमेरिका को भेजी जाती है तथा इन देशों से रासायनिक पदार्थ,इस्पात,मशीनों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण,औषधियों,मोटर गाड़ियों,वैज्ञानिक उपकरणों आदि का आयात किया जाता है। इन्हें भी देखें मानचेस्टर नहर पनामा नहर स्वेज़ संकट बाहरी कड़ियाँ * Peace Palace Library सन्दर्भ श्रेणी:जलमार्ग श्रेणी:महान परियोजनाएँ
स्वेज नहर की लम्बाई कितनी है?
165 किमी लंबी,
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भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है।[1] इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुंबई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं, इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है।[2] यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है।[3] मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है।[4] भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है।[5] उद्गम "मुंबई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा या महा-अंबा – हिन्दू देवी दुर्गा का रूप, जिनका नाम मुंबा देवी है – और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं।[6] पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया। यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहां अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बना। किन्तु मराठी लोग इसे मुंबई या मंबई व हिन्दी व भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे।[7][8] इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुंबई बना। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली नाम से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे)[9] यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ। सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है। हां सोलहवीं शताब्दी की पुर्तगाली भाषा में छोटी खाड़ी के लिये बैम शब्द है। अन्य सूत्रों का पुर्तगाली शब्द बॉम्बैम के लिये, भिन्न मूल है। José Pedro Machado's Dicionário Onomástico Etimológico da Língua Portuguesa ("एटायमोलॉजी एवं ओनोमैस्टिक्स का पुर्तगाली शब्दकोष") बताता है, कि इस स्थान का १५१६ से प्रथम पुर्तगाली सन्दर्भ क्या है, बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु,[10] माइआम्बु या "MAIAMBU"' मुंबा देवी से निकला हुआ लगता है। ये वही मुंबा देवी हैं, जिनके नाम पर मुंबई नाम मराठी लोग लेते हैं। इसी शताब्दी में मोम्बाइयेन की वर्तनी बदली (१५२५)[11] और वह मोंबैएम बना (१५६३)[12] और अन्ततः सोलहवीं शताब्दी में बोम्बैएम उभरा, जैसा गैस्पर कोर्रेइया ने लेंडास द इंडिया ("लीजेंड्स ऑफ इंडिया") में लिखा है।[13] [14] इतिहास कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये।[16] चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा। १८६९ में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया।[17] अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यह विकास संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से परिपूर्ण था। १९०६ तक नगर की जनसंख्या दस लाख बिलियन के लगभग हो गयी थी। अब यह भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान सबसे बड़ा शहर था। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा। मुंबई में इस संग्राम की प्रमुख घटना १९४२ में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था। १९४७ में भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। १९५० में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा। १९५५ के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधों के चलते, १०५ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे भी गये और अन्ततः १ मई, १९६० को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया। १९७० के दशक के अंत तक, यहां के निर्माण में एक सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक पहुंचाया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पछाड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे।[18] बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों के हित की रक्षा करने हेतु बनी थी।[19] नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र १९९२-९३ के दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद १२ मार्च,१९९३ को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पुरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। १९९५ में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। २००६ में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे।[20] भूगोल मुंबई शहर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण तटीय क्षेत्र में उल्हास नदी के मुहाने पर स्थित है। इसमें सैलसेट द्वीप का आंशिक भाग है और शेष भाग ठाणे जिले में आते हैं। अधिकांश नगर समुद्रतल से जरा ही ऊंचा है, जिसकी औसत ऊंचाई 10m (33ft) से 15m (49ft) के बीच है। उत्तरी मुंबई का क्षेत्र पहाड़ी है, जिसका सर्वोच्च स्थान 450m (1,476ft) पर है।[21] नगर का कुल क्षेत्रफल ६०३कि.मी² (२३३sqmi) है। संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान नगर के समीप ही स्थित है। यह कुल शहरी क्षेत्र के लगभग छठवें भाग में बना हुआ है। इस उद्यान में तेंदुए इत्यादि पशु अभी भी मिल जाते हैं,[22][23] जबकि जातियों का विलुप्तीकरण तथा नगर में आवास की समस्या सर उठाये खड़ी है। भाटसा बांध के अलावा, ६ मुख्य झीलें नगर की जलापूर्ति करतीं हैं: विहार झील, वैतर्णा, अपर वैतर्णा, तुलसी, तंस व पोवई। तुलसी एवं विहार झील बोरिवली राष्ट्रीय उद्यान में शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर स्थित हैं। पोवई झील से केवल औद्योगिक जलापुर्ति की जाती है। तीन छोटी नदियां दहिसर, पोइसर एवं ओहिवाड़ा (या ओशीवाड़ा) उद्यान के भीतर से निकलतीं हैं, जबकि मीठी नदी, तुलसी झील से निकलती है और विहार व पोवई झीलों का बढ़ा हुआ जल ले लेती है। नगर की तटरेखा बहुत अधिक निवेशिकाओं (संकरी खाड़ियों) से भरी है। सैलसेट द्वीप की पूर्वी ओर दलदली इलाका है, जो जैवभिन्नताओं से परिपूर्ण है। पश्चिमी छोर अधिकतर रेतीला या पथरीला है। मुंबई की अरब सागर से समीपता के खारण शहरी क्षेत्र में मुख्यतः रेतीली बालू ही मिलती है। उपनगरीय क्षेत्रों में, मिट्टी अधिकतर अल्युवियल एवं ढेलेदार है। इस क्षेत्र के नीचे के पत्थर काले दक्खिन बेसाल्ट व उनके क्षारीय व अम्लीय परिवर्तन हैं। ये अंतिम क्रेटेशियस एवं आरंभिक इयोसीन काल के हैं। मुंबई सीज़्मिक एक्टिव (भूकम्प सक्रिय) ज़ोन है।[24] जिसके कारण इस क्षेत्र में तीन सक्रिय फॉल्ट लाइनें हैं। इस क्षेत्र को तृतीय श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है, कि रिक्टर पैमाने पर 6.5 तीव्रता के भूकम्प आ सकते हैं। जलवायु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अरब सागर के निकट स्थित मुंबई की जलवायु में दो मुख्य ऋतुएं हैं: शुष्क एवं आर्द्र ऋतु। आर्द्र ऋतु मार्च एवं अक्टूबर के बीच आती है। इसका मुख्य लक्षण है उच्च आर्द्रता व तापमन लगभग 30°C (86°F) से भी अधिक। जून से सितंबर के बीच मानसून वर्षाएं नगर भिगोतीं हैं, जिससे मुंबई का वार्षिक वर्षा स्तर 2,200 millimetres (86.6in) तक पहुंचता है। अधिकतम अंकित वार्षिक वर्षा १९५४ में 3,452 millimetres (135.9in) थी।[25] मुंबई में दर्ज एक दिन में सर्वोच्च वर्षा 944 millimetres (37.17in) २६ जुलाई,२००५ को हुयी थी।[26] नवंबर से फरवरी तक शुष्क मौसम रहता है, जिसमें मध्यम आर्द्रता स्तर बना रहता है, व हल्का गर्म से हल्का ठंडा मौसम रहता है। जनवरी से फरवरी तक हल्की ठंड पड़ती है, जो यहां आने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण होती है। मुंबई का वार्षिक तापमान उच्चतम 38°C (100°F) से न्यूनतम 11°C (52°F)तक रहता है। अब तक का रिकॉर्ड सर्वोच्च तापमान 43.3°C (109.9°F) तथा २२ जनवरी,१९६२ को नयूनतम 7.4°C (45.3°F) रहा।[27]। हालांकि 7.4°C (45.3°F) यहां के मौसम विभाग के दो में से एक स्टेशन द्वारा अंकित न्यूनतम तापमान कन्हेरी गुफाएं के निकट नगर की सीमाओं के भीतर स्थित स्टेशन द्वारा न्यूनतम तापमान ८ फरवरी,२००८ को 6.5°C (43.7°F) अंकित किया गया।[28] अर्थ-व्यवस्था मुंबई भारत की सबसे बड़ी नगरी है। यह देश की एक महत्वपूर्ण आर्थिक केन्द्र भी है, जो सभी फैक्ट्री रोजगारों का १०%, सभी आयकर संग्रह का ४०%, सभी सीमा शुल्क का ६०%, केन्द्रीय राजस्व का २०% व भारत के विदेश व्यापार एवं ₹40 billion (US$560million) निगमित करों से योगदान देती है।[29] मुंबई की प्रति-व्यक्ति आय ₹48,954 (US$690) है, जो राष्ट्रीय औसत आय की लगभग तीन गुणा है।[30] भारत के कई बड़े उद्योग (भारतीय स्टेट बैंक, टाटा ग्रुप, गोदरेज एवं रिलायंस सहित) तथा चार फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियां भी मुंबई में स्थित हैं। कई विदेशी बैंक तथा संस्थानों की भी शाखाएं यहां के विश्व व्यापार केंद्र क्षेत्र में स्थित हैं।[31] सन १९८० तक, मुंबई अपने कपड़ा उद्योग व पत्तन के कारण संपन्नता अर्जित करता था, किन्तु स्थानीय अर्थ-व्यवस्था तब से अब तक कई गुणा सुधर गई है, जिसमें अब अभियांत्रिकी, रत्न व्यवसाय, हैल्थ-केयर एवं सूचना प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं। मुंबई में ही भाभा आण्विक अनुसंधान केंद्र भी स्थित है। यहीं भारत के अधिकांश विशिष्ट तकनीकी उद्योग स्थित हैं, जिनके पास आधुनिक औद्योगिक आधार संरचना के साथ ही अपार मात्रा में कुशल मानव संसाधन भी हैं। आर्थिक कंपनियों के उभरते सितारे, ऐयरोस्पेस, ऑप्टिकल इंजीनियरिंग, सभी प्रकार के कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जलपोत उद्योग तथा पुनर्नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत तथा शक्ति-उद्योग यहां अपना अलग स्थान रखते हैं। नगर के कार्यक्षेत्र का एक बड़ा भाग केन्द्र एवं राज्य सरकारी कर्मचारी बनाते हैं। मुंबई में एक बड़ी मात्रा में कुशल तथा अकुशल व अर्ध-कुशल श्रमिकों की शक्ति है, जो प्राथमिकता से अपना जीवन यापन टैक्सी-चालक, फेरीवाले, यांत्रिक व अन्य ब्लू कॉलर कार्यों से करते हैं। पत्तन व जहाजरानी उद्योग भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ढ़ेरों कर्मचारियों को रोजगार देता है। नगर के धारावी क्षेत्र में, यहां का कूड़ा पुनर्चक्रण उद्योग स्थापित है। इस जिले में अनुमानित १५,००० एक-कमरा फैक्ट्रियां हैं।[32] मीडिया उद्योग भी यहां का एक बड़ा नियोक्ता है। भारत के प्रधान दूरदर्शन व उपग्रह तंत्रजाल (नेटवर्क), व मुख्य प्रकाशन गृह यहीं से चलते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग का केन्द्र भी यहीं स्थित है, जिससे प्रति वर्ष विश्व की सर्वाधिक फिल्में रिलीज़ होती हैं। बॉलीवुड शब्द बाँम्बे व हॉलीवुड को मिलाकर निर्मित है। मराठी दूरदर्शन एवं मराठी फिल्म उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शेष भारत की तरह, इसकी वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ने भी १९९१ के सरकारी उदारीकरण नीति के चलते आर्थिक उछाल (सहसावृद्धि) को देखा है। इसके साथ ही १९९० के मध्य दशक में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्यात, सेवाएं व बी पी ओ उद्योगों में भी उत्थान देखा है। मुंबई का मध्यम-वर्गीय नागरिक जहां इस उछाल से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वहीं वो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपभोक्ता उछाल का कर्ता भी है। इन लोगों की ऊपरावर्ती गतिशीलता ने उपभोक्तओं के जीवन स्तर व व्यय क्षमता को भी उछाला है। मुंबई को वित्तीय बहाव के आधार पर मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड के एक सर्वेक्षण में; विश्व के दस सर्वोच्च वाणिज्य केन्द्रों में से एक गिना गया है।[4] नगर प्रशासन मुंबई में दो पृथक क्षेत्र हैं: नगर एवं उपनगर, यही महाराष्ट्र के दो जिले भी बनाते हैं। शहरी क्षेत्र को प्रायः द्वीप नगर या आइलैण्ड सिटी कहा जाता है।[33] नगर का प्रशासन बृहन्मुंबई नगर निगम (बी एम सी) (पूर्व बंबई नगर निगम) के अधीन है, जिसकी कार्यपालक अधिकार नगर निगम आयुक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक आई ए एस अधिकारी को दिये गए हैं। निगम में 227 पार्षद हैं, जो 24 नगर निगम वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पाँच नामांकित पार्षद व एक महापौर हैं। निगम नागरिक सुविधाओं एवं शहर की अवसंरचना आवश्यकताओं के लिए प्रभारी है। एक सहायक निगम आयुक्त प्रत्येक वार्ड का प्रशासन देखता है। पार्षदों के चुनाव हेतु, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशि खड़े करतीं हैं। मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 7 नगर निगम व 13 नगर परिषद हैं। बी एम सी के अलावा, यहां ठाणे, कल्याण-डोंभीवली, नवी मुंबई, मीरा भयंदर, भिवंडी-निज़ामपुर एवं उल्हासनगर की नगरमहापालिकाएं व नगरपालिकाएं हैं।[34] ग्रेटर मुंबई में महाराष्ट्र के दो जिले बनते हैं, प्रत्येक का एक जिलाध्यक्ष है। जिलाध्यक्ष जिले की सम्पत्ति लेख, केंद्र सरकार के राजस्व संग्रहण के लिए उत्तरदायी होता है। इसके साथ ही वह शहर में होने वाले चुनावों पर भी नज़र रखता है। मुंबई पुलिस का अध्यक्ष पुलिस आयुक्त होता है, जो आई पी एस अधिकारी होता है। मुंबई पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। नगर सात पुलिस ज़ोन व सत्रह यातायात पुलिस ज़ोन में बंटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यातायात पुलिस मुंबई पुलिस के अधीन एक स्वायत्त संस्था है।[35] मुंबई अग्निशमन दल विभाग का अध्यक्ष एक मुख्य फायर अधिकारी होता है, जिसके अधीन चार उप मुख्य फायर अधिकारी व छः मंडलीय अधिकारी होते हैं। मुंबई में ही बंबई उच्च न्यायालय स्थित है, जिसके अधिकार-क्षेत्र में महाराष्ट्र, गोआ राज्य एवं दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली के केंद्र शासित प्रदेश भी आते हैं। मुंबई में दो निम्न न्यायालय भी हैं, स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट –नागरिक मामलों हेतु, व विशेष टाडा (टेररिस्ट एण्ड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज़) न्यायालय –जहां आतंकवादियों व फैलाने वालों व विध्वंसक प्रवृत्ति व गतिविधियों में पहड़े गए लोगों पर मुकदमें चलाए जाते हैं। शहर में लोक सभा की छः व महाराष्ट्र विधान सभा की चौंतीस सीटें हैं। मुंबई की महापौर शुभा रावल हैं, नगर निगम आयुक्त हैं जयराज फाटाक एवं शेर्रिफ हैं इंदु साहनी। यातायात मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में 2009 तक चालू होगी। मुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है।[36] बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं। बेस्ट के अधीन लगभग 3,408 बसें चलतीं हैं,[37] जो प्रतिदिन लगभग 4.5 मिलियन यात्रियों को 340 बस-रूटों पर लाती ले जातीं हैं। इसके बेड़े में सिंगल-डेकर, डबल-डेकर, वेस्टीब्यूल, लो-फ्लोर, डिसेबल्ड फ्रेंड्ली, वातानुकूलित एवं हाल ही में जुड़ीं यूरो-तीन सम्मत सी एन जी चालित बसें सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एम एस आर टी सी) की अन्तर्शहरीय यातायात सेवा है, जो मुंबई को राज्य व अन्य राज्यों के शहरों से जोड़तीं हैं। मुंबई दर्शन सेवा के द्वारा पर्यटक यहां के स्थानीय पर्यटन स्थलों का एक दिवसीय दौरा कर सकते हैं। काली व पीली, मीटर-युक्त टैसी सेवा पूरे शहर में उपलब्ध है। मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं, जो सी एन जी चालित हैं, व भाड़े पर चलते हैं। ये तिपहिया सवारी जाने आने का उपयुक्त साधन हैं। ये भाड़े के यातायात का सबसे सस्ता जरिया हैं, व इनमें तीन सवारियां बैठ सकतीं हैं। मुंबई का छत्रपति शिवाजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (पूर्व सहर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र) दक्षिण एशिया का व्यस्ततम हवाई अड्डा है।[38] जूहू विमानक्षेत्र भारत का प्रथम विमानक्षेत्र है, जिसमें फ्लाइंग क्लब व एक हैलीपोर्ट भी हैं। प्रस्तावित नवी मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, जो कोपरा-पन्वेल क्षेत्र में बनना है, को सरकार की मंजूरी मिल चुकी है, पूरा होने पर, वर्तमान हवाई अड्डे का भार काफी हद तक कम कर देगा। मुंबई में देश के 25% अन्तर्देशीय व 38% अन्तर्राष्ट्रीय यात्री यातायात सम्पन्न होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मुंबई में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक पत्तन उपलब्ध हैं। यहां से ही देश के यात्री व कार्गो का 50% आवागमन होता है।[5] यह भारतीय नौसेना का एक महत्वपूर्ण बेस भी है, क्योंकि यहां पश्चिमी नौसैनिक कमान भी स्थित है।[39] फैरी भी द्वीपों आदि के लिए उपलब्ध हैं, जो कि द्वीपों व तटीय स्थलों पर जाने का एक सस्ता जरिया हैं। उपयोगिता सेवाएं बी एम सी शहर की पेय जलापूर्ति करता है। इस जल का अधिकांश भाग तुलसी एवं विहार झील से तथा कुछ अन्य उत्तरी झीलों से आता है। यह जल भाण्डुप एशिया के सबसे बड़े जल-शोधन संयंत्र में में शोधित कर आपूर्ति के लिए उपलब्ध कराया जाता है। भारत की प्रथम भूमिगत जल-सुरंग भी मुंबई में ही बनने वाली है।[40] बी एम सी ही शहर की सड़क रखरखाव और कूड़ा प्रबंधन भी देखता है। प्रतिदिन शहर का लगभग ७८००मीट्रिक टन कूड़ा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मुलुंड, उत्तर-पश्चिम में गोराई और पूर्व में देवनार में डम्प किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट वर्ली और बांद्रा में कर सागर में निष्कासित किया जाता है। मुंबई शहर में विद्युत आपूर्ति बेस्ट, रिलायंस एनर्जी, टाटा पावर और महावितरण (महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लि.) करते हैं। यहां की अधिकांश आपूर्ति जल-विद्युत और नाभिकीय शक्ति से होती है। शहर की विद्युत खपत उत्पादन क्षमता को पछाड़ती जा रही है। शहर का सबसे बड़ा दूरभाष सेवा प्रदाता एम टी एन एल है। इसकी २००० तक लैंडलाइन और सेल्युलर सेवा पर मोनोपॉली थी। आज यहां मोबाइल सेवा प्रदाताओं में एयरटेल, वोडाफोन, एम टी एन एल, बी पी एल, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा इंडिकॉम हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए सेवाएं, दोनों ही उपलब्ध हैं। एम टी एन एल एवं टाटा यहां ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध कराते हैं। जनसांख्यिकी २००१ की जनगणना अनुसार मुंबई की जनसंख्या ११,९१४,३९८ थी।[41] वर्ल्ड गैज़ेटियर द्वारा २००८ में किये गये गणना कार्यक्रम के अनुसार मुंबई की जनसंख्या १३,६६२,८८५ थी।[42] तभी मुंबई महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या २१,३४७,४१२ थी।[43] यहां की जनसंख्या घनत्व २२,००० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। २००१ की जनगणना अनुसार बी.एम.सी के प्रशासनाधीन ग्रेटर मुंबई क्षेत्र की साक्षरता दर ७७.४५% थी,[44] जो राष्ट्रीय औसत ६४.८% से अधिक थी।[45] यहां का लिंग अनुपात ७७४ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष द्वीपीय क्षेत्र में, ८२६ उपनगरीय क्षेत्र और ८११ ग्रेटर मुंबई में,[44] जो आंकड़े सभी राष्ट्रीय औसत अनुपात ९३३ से नीचे हैं।[46] यह निम्नतर लिंग अनुपात बड़ी संख्या में रोजगार हेतु आये प्रवासी पुरुषों के कारण है, जो अपने परिवार को अपने मूल स्थान में ही छोड़कर आते हैं।[47] मुंबई में ६७.३९% हिन्दू, १८.५६% मुस्लिम, ३.९९% जैन और ३.७२% ईसाई लोग हैं। इनमें शेष जनता सिख और पारसीयों की है।[48][49] मुंबई में पुरातनतम, मुस्लिम संप्रदाय में दाउदी बोहरे, खोजे और कोंकणी मुस्लिम हैं।[50] स्थानीय ईसाइयों में ईस्ट इंडियन कैथोलिक्स हैं, जिनका धर्मांतरण पुर्तगालियों ने १६वीं शताब्दी में किया था।[51] शहर की जनसंख्या का एक छोटा अंश इज़्राइली बेने यहूदी और पारसीयों का भी है, जो लगभग १६०० वर्ष पूर्व यहां फारस की खाड़ी या यमन से आये थे।[52] मुंबई में भारत के किसी भी महानगर की अपेक्षा सबसे अधिक बहुभाषियों की संख्या है।महाराष्ट्र राज्य की आधिकारिक राजभाषा मराठी है। अन्य बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी हैं।[53] एक सर्वसाधारण की बोलचाल की निम्न-स्तरीय भाषा है बम्बइया हिन्दी जिसमें अधिकांश शब्द और व्याकरण तो हिन्दी का ही है, किंतु इसके अलावा मराठी और अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं। इसके अलावा कुछ शब्द यही अविष्कृत हैं। मुंबई के लोग अपने ऑफ को मुंबईकर या मुंबैयाइट्स कहलाते हैं। उच्चस्तरीय व्यावसाय में संलग्न लोगों द्वारा अंग्रेज़ी को वरीयता दी जाती है। मुंबई में भी तीव्र गति से शहरीकरण को अग्रसर विकसित देशों के शहरों द्वारा देखी जारही प्रधान शहरीकरण समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इनमें गरीबी, बेरोजगारी, गिरता जन-स्वास्थ्य और अशिक्षा/असाक्षरता प्रमुख हैं। यहां की भूमि के मूल्य इतने ऊंचे हो गये हैं, कि लोगों को निम्नस्तरीय क्षेत्रों में अपने व्यवसाय स्थल से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सड़कों पर यातायात जाम और लोक-परिवहन आदि में अत्यधिक भीड़ बढ़ती ही जा रही हैं। मुंबई की कुल जनसंख्या का लगभग ६०% अंश गंदी बस्तियों और झुग्गियों में बसता है।[54] धारावी, एशिया की दूसरी सबसे बड़ी स्लम-बस्त्ती[55] मध्य मुंबई में स्थित है, जिसमें ८ लाख लोग रहते हैं।[56] ये स्लम भी मुंबई के पर्यटक आकर्षण बनते जा रहे हैं।[57][58][59] मुंबई में प्रवारियों की संख्या १९९१-२००१ में ११.२ लाख थी, जो मुंबई की जनसंख्या में कुल बढ़त का ५४.८% है।[60] २००७ में मुंबई की अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज अपराध) १८६.२ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो राष्ट्रीय औसत १७५.१ से कुछ ही अधिक है, किंतु भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहर सूची के अन्य शहरों की औसत दर ३१२.३ से बहुत नीचे है।[61] शहर की मुख्य जेल अर्थर रोड जेल है। संस्कृति मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है।[62] मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं।[49] मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है।[63]—दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी।[64] मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है।[65] मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव[66] और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं।[67] हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है।[68][69] यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है।[70] छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं।[71] मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है।[72] नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे।[73] यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था।[74] मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है। यह मुंबई के लेखकों जैसे मोहन आप्टे, अनन्त आत्माराम काणेकर और बाल गंगाधर तिलक के कार्यों में सदा दृष्टिगोचर रहा है। इसको वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार से और प्रोत्साहन मिला है।[75] मुंबई शहर की इमारतों में झलक्ता स्थापत्य, गोथिक स्थापत्य, इंडो रेनेनिक, आर्ट डेको और अन्य समकालीन स्थापत्य शैलियों का संगम है।[76] ब्रिटिश काल की अधिकांश इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय, गोथिक शैली में निर्मित हैं।[77] इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है, जैसे जर्मन गेबल, डच शैली की छतें, स्विस शैली में काष्ठ कला, रोमन मेहराब साथ ही परंपरागत भारतीय घटक भी दिखते हैं।[78] कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें भी हैं, जैसे गेटवे ऑफ इंडिया।[79] आर्ट डेको शैली के निर्माण मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे दिखाई देते हैं।[80] मुंबई में मायामी के बाद विश्व में सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की इमारतें मिलती हैं।[81] नये उपनगरीय क्षेत्रों में आधुनिक इमारतें अधिक दिखती हैं। मुंबई में अब तक भारत में सबसे अधिक गगनचुम्बी इमारतें हैं। इनमें ९५६ बनी हुई हैं और २७२ निर्माणाधीन हैं। (२००९ के अनुसार)[82] १९९५ में स्थापित, मुंबई धरोहर संरक्षण समिति (एम.एच.सी.सी) शहर में स्थित धरोहर स्थलों के संरक्षण का ध्यान रखती है।[76] मुंबई में दो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और एलीफेंटा की गुफाएं[83] शहर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में नरीमन पाइंट, गिरगांव चौपाटी, जुहू बीच और मैरीन ड्राइव आते हैं। एसेल वर्ल्ड यहां का थीम पार्क है, जो गोरई बीच के निकट स्थित है।[84] यहीं एशिया का सबसे बड़ा थीम वाटर पार्क, वॉटर किंगडम भी है।[85] मुंबई के निवासी भारतीय त्यौहार मनाने के साथ-साथ अन्य त्यौहार भी मनाते हैं। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, दशहरा, दुर्गा पूजा, महाशिवरात्रि, मुहर्रम आदि प्रमुख त्यौहार हैं। इनके अलावा गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी कुछ अधिक धूम-धाम के संग मनाये जाते हैं।[86] गणेश-उत्सव में शहर में जगह जगह बहुत विशाल एवं भव्य पंडाल लगाये जाते हैं, जिनमें भगवान गणपति की विशाल मूर्तियों की स्थापना की जाती है। ये मूर्तियां दस दिन बाद अनंत चौदस के दिन सागर में विसर्जित कर दी जाती हैं। जन्माष्टमी के दिन सभी मुहल्लों में समितियों द्वारा बहुत ऊंचा माखान का मटका बांधा जाता है। इसे मुहल्ले के बच्चे और लड़के मुलकर जुगत लगाकर फोड़ते हैं। काला घोड़ा कला उत्सव कला की एक प्रदर्शनी होती है, जिसमें विभिन्न कला-क्षेत्रों जैसे संगीत, नृत्य, रंगमंच और चलचित्र आदि के क्षेत्र से कार्यों का प्रदर्शन होता है।[87] सप्ताह भर लंबा बांद्रा उत्सव स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाता है।[88] बाणागंगा उत्सव दो-दिवसीय वार्षिक संगीत उत्सव होता है, जो जनवरी माह में आयोजित होता है। ये उत्सव महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एम.टी.डी.सी) द्वारा ऐतिहाशिक बाणगंगा सरोवर के निकट आयोजित किया जाटा है।[89] एलीफेंटा उत्सव—प्रत्येक फरवरी माह में एलीफेंटा द्वीप पर आयोजित किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम ढेरों भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है।[90] शहर और प्रदेश का खास सार्वजनिक अवकाश १ मई को महाराष्ट्र दिवस के रूप में महाराष्ट्र राज्य के गठन की १ मई, १९६० की वर्षागांठ मनाने के लिए होता है।[91][92] मुंबई के भगिनि शहर समझौते निम्न शहरों से हैं:[93] योकोहामा, जापान[94][95] लॉस एंजिलिस, संयुक्त राज्य[96] लंदन, यूनाइटेड किंगडम बर्लिन, जर्मनी स्टुगार्ट, जर्मनी[97] पीटर्सबर्ग, रूस मीडिया मुंबई में बहुत से समाचार-पत्र, प्रकाशन गृह, दूरदर्शन और रेडियो स्टेशन हैं। मराठी समाचारपत्र में नवकाल, महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, लोकमत, सकाल आदि प्रमुख हैं। मुंबई में प्रमुख अंग्रेज़ी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, मिड डे, हिन्दुस्तान टाइम्स, डेली न्यूज़ अनालिसिस एवं इंडियन एक्स्प्रेस आते हैं। हिंदी का सबसे पुराना और सार्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र टाइम्स समूह का हिंदी का अखबार नवभारत टाइम्स भी मुंबई का प्रमुख हिंदी भाषी समाचार पत्र है। [98] मुंबई में ही एशिया का सबसे पुराना समाचार-पत्र बॉम्बे समाचार भी निकलता है।[99] बॉम्बे दर्पण प्रथम मराठी समाचार-पत्र था, जिसे बालशास्त्री जाम्भेकर ने १८३२ में आरंभ किया था।[100] यहां बहुत से भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल्स उपलब्ध हैं। यह महानगर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया निगमों और मुद्रकों एवं प्रकाशकों का केन्द्र भी है। राष्ट्रीय टेलीवीज़र प्रसारक दूरदर्शन, दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित करता है,[101] और तीन मुख्य केबल नेटवर्क अन्य सभी चैनल उपलब्ध कराते हैं।[102] केबल चैनलों की विस्तृत सूची में ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, ज़ी मराठी, ईटीवी मराठी, डीडी सह्याद्री, मी मराठी, ज़ी टाकीज़, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, सोनी टीवी और नये चैनल जैसे स्टार मांझा आइ कई मराठी टीवी चैनल व अन्य भाषाओं के चैनल शामिल हैं। मुंबई के लिए पूर्ण समर्पित चैनलों में सहारा समय मुंबई आदि चैनल हैं। इनके अलावा डी.टी.एच प्रणाली अपनी ऊंची लागत के कारण अभी अधिक परिमाण नहीं बना पायी है।[103] प्रमुख डीटीएच सेवा प्रदाताओं में डिश टीवी, बिग टीवी, टाटा स्काई और सन टीवी हैं।[104] मुंबई में बारह रेडियो चैनल हैं, जिनमें से नौ एफ़ एम एवं तीन ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन हैं जो ए एम प्रसारण करते हैं।[105] मुंबई में कमर्शियल रेडियो प्रसारण प्रदाता भी उपलब्ध हैं, जिनमें वर्ल्ड स्पेस, सायरस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम सैटेलाइट रेडियो प्रमुख हैं।[106] बॉलीवुड, हिन्दी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। इस उद्योग में प्रतिवर्शः १५०-२०० फिल्में बनती हैं।[107] बॉलीवुड का नाम अमरीकी चलचित्र उद्योग के शहर हॉलीवुड के आगे बंबई का ब लगा कर निकला हुआ है।[108] २१वीं शताब्दी ने बॉलीवुड की सागरपार प्रसिद्धि के नये आयाम देखे हैं। इस कारण फिल्म निर्माण की गुणवत्ता, सिनेमैटोग्राफ़ी आदि में नयी ऊंचाइयां दिखायी दी हैं।[109] गोरेगांव और फिल सिटी स्थित स्टूडियो में ही अधिकांश फिल्मों की शूटिंग होतीं हैं।[110] मराठी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है।[111] शिक्षा मुंबई के विद्यालय या तो नगरपालिका विद्यालय होते हैं,[112] या निजी विद्यालय होते हैं, जो किसी न्यास या व्यक्ति द्वारा चलाये जा रहे होते हैं। इनमें से कुछ निजी विद्यालयों को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है।[113] ये विद्यालय महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड, अखिल भारतीय काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आई.सी.एस.ई) या सीबीएसी बोर्ड द्वारा संबद्ध होते हैं।[114] यहां मराठी या अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम होता है।[115] सरकारी सार्वजनिक विद्यालयों में वित्तीय अभाव के चलते बहुत सी कमियां होती हैं, किंतु गरीब लोगों का यही सहारा है, क्योंकि वे महंगे निजी विद्यालय का भार वहन नहीं कर सकते हैं।[116] १०+२+३ योजना के अंतर्गत, विद्यार्थी दस वर्ष का विद्यालय समाप्त कर दो वर्ष कनिष्ठ कालिज (ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा) में भर्ती होते हैं। यहां उन्हें तीन क्षेत्रों में से एक चुनना होता है: कला, विज्ञान या वाणिज्य।[117] इसके भाद उन्हें सामान्यतया एक ३-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम अपने चुने क्षेत्र में कर ना होता है, जैसे विधि, अभियांत्रिकी या चिकित्सा इत्यादि।[118] शहर के अधिकांश महाविद्यालय मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, जो स्नातओं की संख्यानुसार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है।[119] भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बंबई),[120] वीरमाता जीजाबाई प्रौद्योगिकी संस्थान (वी.जे.टी.आई),[121] और युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (यू.आई.सी.टी),[122] भारत के प्रधान अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थानों में आते हैं और [[एस एन डी टी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के स्वायत्त विश्वविद्यालय हैं।[123] मुंबई में जमनालाल बजाज प्रबंधन शिक्षा संस्थान, एस पी जैन प्रबंधन एवं शोध संस्थान एवं बहुत से अन्य प्रबंधन महाविद्यालय हैं।[124] मुंबई स्थित गवर्नमेंट लॉ कालिज तथा सिडनहैम कालिज, भारत के पुरातनतम क्रमशः विधि एवं वाणिज्य महाविद्यालय हैं।[125][126] सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई का पुरातनतम कला महाविद्यालय है।[127] मुंबई में दो प्रधान अनुसंधान संस्थान भी हैं: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर), तथा भाभा आण्विक अनुसंधान केन्द्र (बी.ए.आर.सी).[128] भाभा संस्थान ही सी आई आर यू एस, ४०मेगावाट नाभिकीय भट्टी चलाता है, जो उनके ट्राम्‍बे स्थित संस्थान में स्थापित है।[129] क्रीड़ा क्रिकेट शहर और देश के सबसे चहेते खेलों में से एक है।.[130] महानगरों में मैदानों की कमी के चलते गलियों का क्रिकेट सबसे प्रचलित है। मुंबई में ही भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) स्थित है।[131] मुंबई क्रिकेट टीम रणजी ट्रॉफी में शहर का प्रतिनिधित्व करती है। इसको अब तक ३८ खिताब मिले हैं, जो किसी भी टीम को मिलने वाले खिताबों से अधिक हैं।[132] शहर की एक और टीम मुंबई इंडियंस भी है, जो इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम है। शहर में दो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान हैं- वान्खेड़े स्टेडियम और ब्रेबोर्न स्टेडियम[133] शहर में आयोजित हुए सबसे बड़े क्रिकेट कार्यक्रम में आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी का २००६ का फाइनल था। यह ब्रेबोर्न स्टेडियम में हुआ था।[134] मुंबई से प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ियों में विश्व-प्रसिद्ध सचिन तेन्दुलकर[135] और सुनील गावस्कर हैं।[136] क्रिकेट की प्रसिद्ध के चलते हॉकी कुछ नीचे दब गया है।[137] मुंबई की मराठा वारियर्स प्रीमियर हाकी लीग में शहर की टीम है।[138] प्रत्येक फरवरी में मुंबई में डर्बी रेस घुड़दौड़ होती है। यह महालक्ष्मी रेसकोर्स में आयोजित की जाती है। यूनाइटेड ब्रीवरीज़ डर्बी भी टर्फ़ क्लब में फ़रवरी में माह में ही आयोजित की जाती है।[139] फार्मूला वन कार रेस के प्रेमी भी यहां बढ़ते ही जा रहे हैं,[140] २००८ में, फोर्स इंडिया (एफ़ १) टीम कार मुंबई में अनावृत हुई थी।[141] मार्च २००४ में यहां मुंबई ग्रैंड प्रिक्स एफ़ १ पावरबोट रेस की विश्व प्रतियोगिता का भाग आयोजित हुआ था।[142] चित्र दीर्घा मुंबई उच्च न्यायालय जार्ज पंचम एवं क्वीन मेरी की स्मृति में बनाया गया गेटवे ऑफ़ इन्डिया स्थापना - दिसम्बर 1911 फ्लोरा फाउंटेन जिसे हुतात्मा चौक का नाम दिया गया है। मुंबई स्टाक एक्स्चेंज एशिया का सबसे पुराना स्टाक एक्सचेंज बांद्रा-वर्ली समुद्रसेतु ब्रेबोर्न स्टेडियम, शहर के सबसे पुराने स्टेडियमों में से एक है इन्हें भी देखें मुंबई यौन संग्रहालय सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:महाराष्ट्र के शहर श्रेणी:पूर्व पुर्तगाली कालोनी श्रेणी:तटवर्ती शहर श्रेणी:उच्च-प्रौद्योगिकी व्यापार जिले श्रेणी:भारत के नगर
मुंबई की आधिकारिक भाषा क्या है?
मराठी
1,670
hindi
f9447c34b
स्पेन (स्पानी: España, एस्पाञा), आधिकारिक तौर पर स्पेन की राजशाही (स्पानी: Reino de España), एक यूरोपीय देश और यूरोपीय संघ का एक सदस्य राष्ट्र है। यह यूरोप के दक्षिणपश्चिम में इबेरियन प्रायद्वीप पर स्थित है, इसके दक्षिण और पूर्व में भूमध्य सागर सिवाय ब्रिटिश प्रवासी क्षेत्र, जिब्राल्टर की एक छोटी से सीमा के, उत्तर में फ्रांस, अण्डोरा और बिस्के की खाड़ी (Gulf of Biscay) तथा और पश्चिमोत्तर और पश्चिम में क्रमश: अटलांटिक महासागर और पुर्तगाल स्थित हैं। 674 किमी लंबे पिरेनीज़ (Pyrenees) पर्वत स्पेन को फ्रांस से अलग करते हैं। यहाँ की भाषा स्पानी (Spanish) है। स्पेनिश अधिकार क्षेत्र में भूमध्य सागर में स्थित बेलियरिक द्वीप समूह, अटलांटिक महासागर में अफ्रीका के तट पर कैनरी द्वीप समूह और उत्तरी अफ्रीका में स्थित दो स्वायत्त शहर सेउटा और मेलिला जो कि मोरक्को सीमा पर स्थित है, शामिल है। इसके अलावा लिविया नामक शहर जो कि फ्रांसीसी क्षेत्र के अंदर स्थित है स्पेन का एक बहि:क्षेत्र है। स्पेन का कुल क्षेत्रफल 504,030 किमी² का है जो पश्चिमी यूरोप में इसे यूरोपीय संघ में फ्रांस के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश बनाता है। स्पेन एक संवैधानिक राजशाही के तहत एक संसदीय सरकार के रूप में गठित एक लोकतंत्र है। स्पेन एक विकसित देश है जिसका सांकेतिक सकल घरेलू उत्पाद इसे दुनिया में बारहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है, यहां जीवन स्तर बहुत ऊँचा है (20 वां उच्चतम मानव विकास सूचकांक), 2005 तक जीवन की गुणवत्ता सूचकांक की वरीयता के अनुसार इसका स्थान दसवां था। यह संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ, नाटो, ओईसीडी और विश्व व्यापार संगठन का एक सदस्य है। इतिहास प्रागैतिहासिक काल से लेकर एक देश के रूप में अस्तित्व में आने तक स्पेन का राज्यक्षेत्र अपनी खास अवस्थिति की वजह से, कई बाहरी प्रभावों के अधीन रहा था। रोमन काल में यह हिस्पानिया राज्य था। रोमन प्रभाव सीमित होने के बाद विसिगोथिक राज्य बने। सन् 711 में अफ़्रीक़ा के मूर शासक तारीक बिन जियाद ने विसिगोथिकों की आपसी लड़ाई का फ़यदा उठाकर आक्रमण किया और जीत हासिल की। इसके बाद यहाँ सीरिया से निष्कासित उमय्यद ख़िलाफत की पीठ बनी। मुस्लिमों का शासन पूरे स्पेन (अल-अंदलूस) पर रहा - लेकिन उत्तर तथा उत्तर पूर्व में दो छोटे स्वतंत्र राज्य भी रहे। दसवीं सदी में कोर्दोबा स्थित साम्राज्य में मुस्लमान, ईसाइयों और यहूदियों के साथ मिलकर एक बहुआयामी संस्कृति का हिस्सा थे। दसवीं सदी में मुस्लमानों को ईसाइयों ने हराना आरंभ किया। इसके बाद ईसाइयों ने जेरुशलम से मुसलमानों का कब्ज़ा बटाने के लिए धर्मयुद्धों में भाग लिया। पोप के आग्रह पर सैनिक तुर्की होते हुए जेरुशलम पहुँचने लगे। इस समय तुर्की पर मुस्लिम तुर्कों का शासन आरंभ हो गया था जिसकी वजह से ईसाई यूरोपियों का उनके पवित्र धार्मिक स्थल जेरुशलम पहुँचना मुश्किल हो गया था। शुरुआत में तो ईसाई सफल रहे पर सन् 1180 के दशक में मामलुक सेनापति सलादीन के प्रयास के बाद यूरोप के सैनिक हारते गए। इसके साथ ही पूर्व से मसालों, रेशम और कीमती आभूषणों के मार्ग पर भी मुस्लमानों का कब्ज़ा हो गया। इन चीजों के यूरोप में भाव बढ़ते गए और इन कारणों से मुस्लमानों के खिलाफ रोष भी। खोजी युग पंद्रहवीं सदी में पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी और अन्य ने अफ्रीका के स्युटा और मोरक्को पर आक्रमण किया और सफल हुए। इसके बाद पश्चिम अफ्रीका के तटों पर भी नौअन्वेषण चलते रहे। हेनरी और उसकी नौसमूह सेनेगल नदी के मुहाने तक पहुंच गया जो इस समय एक बड़ी उपलब्धि थी - क्योंकि इस जगह को दुनिया का अंत समझा जाता था। कई ऐसी यात्राओं के बाद यूरोप में लोगों का दुनिया के बारे में विश्वास बदलने लगा। पुर्तगाल के राजा और हेनरी के भाई-भतीजों ने कई नौअन्वेषी अभियान चलाए . सन् 1492 में मार्को पोलो की यात्रा-वृत्तांत से प्रभावित होकर पूरब जाने के लिए पश्चिम की यात्रा पर निकला - यह साबित करने कि दुनिया गोल है। वो वेस्ट-इंडीज़ तक पहुँचा। इसके बाद 1498 में वास्को द गामा, अपने कई पूर्वर्तियों के बनाए नक्शे और किले का सहारा लेकर उत्तमाशा अंतरूप और फिर भारत तक पहुँच गया। 15 वीं सदी में कैथोलिक सम्राटों की शादी और 1492 में औबेरियन प्रायद्वीप पर पुनर्विजय (Reconquista) के पूरा होने के बाद स्पेन एक एकीकृत देश के रूप में उभरा। इसके विपरीत, स्पेन अन्य कई क्षेत्रों को प्रभावित करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है, विशेष रूप से आधुनिक काल में जब यह एक वैश्विक साम्राज्य बना और अपने पीछे दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है स्पानी के लगभग 50 करोड़ भाषाभाषियों की विरासत को छोड़ दिया। भूगोल स्पेन पाँच स्थलाकृतिक (topographic) क्षेत्रों में विभक्त है, (1) उत्तरी तटवर्ती कटिबंध, (2) केंद्रीय पठार येसेता, (3) स्पेन का सबसे बड़ा नगर आन्दालूसीआ (4) दक्षिणी पूर्वी भूमध्यसागरीय कटिबंध लेवान्ते (Levante) और (5) उत्तर पूर्व क्षेत्र की कातालूनिआ (Catalonya) तथा एब्रो (Ebro) घाटी। स्पेन में छह मुख्य पर्वतमालाएँ हैं। सबसे ऊँची चोटी पेरदीदो (Perdido) है। स्पेन में पाँच मुख्य नदियाँ हैं, एब्रो, दुएरो (Duero), तागूस (Tagus), दुआदिआना (Duadiana) तथा गुआदलकीवीर (Guadalquivir)। स्पेन का समुद्री तट चट्टानी है। स्पेन की जलवायु बदलती रहती है। उत्तरी तटवर्ती क्षेत्रों की जलवाय ठंढी और आर्द्र (humid) है। केंद्रीय पठार जाड़ों में ठंढा तथा गर्मियों में गरम रहता है। उत्तरी तटवर्ती क्षेत्र तथा दक्षिणी तटवर्ती कटिबंध में वार्षिक औसत वर्षा क्रमश: 100 सेमी तथा 75 सेमी है। विभिन्न किस्म की जलवायु होने के कारण प्राकृतिक वनस्पतियों में भी विभिन्नता पाई जाती है। उत्तर के आर्द्र क्षेत्रों में पर्णपाती (deciduous) वृक्ष जैसे अखरोट, चेस्टनट (Chestnut), एल्म (elm) आदि पाए जाते हैं। स्पेन की राजधानी माद्रीद है। अन्य बड़े नगर बार्सेलोना, वालेनसीआ (Valencia), सिवेये (Sivelle), मालागा (Malaga) तथा सारागोसा (Zaragoza) आदि हैं। लगभग सभी स्पेनवासी कैथोलिक धर्म के अनुयायी हैं। यद्यपि अन्य साधनों की तुलना में खेती का विकास नहीं हुआ है फिर भी यहाँ की आय का प्रमुख साधन कृषि ही है है। बैलिऐरिक तथा कानेरी द्वीपों की भूमि सहित यहाँ पर कुल 4,43,32,000 हेक्टर भूमि कृषि योग्य है। अनाज विशेषकर गेहूँ की पैदावार केंद्रीय पठार में होती है। स्पेन की मुख्य फसल गेहूँ है। अन्य उल्लेखनीय फसलें नारंगी, धान और प्याज आदि है। स्पेन संसार का सबसे बड़ा जैतून उत्पादक है तथा यहाँ आलू, रूई, तंबाकू तथा केला आदि का भी उत्पादन होता है। स्पेन में भेड़े सर्वाधिक संख्या में पाली जाती हैं। उत्तरी समुद्रतट पर मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। सारडीन (Sardine), कॉड (Cod) तथा टूना (Tuna) आदि जातियों की मछलियाँ ही मुख्य रूप से पकड़ी तथा बेची जाती हैं। लवणित सारडीन तथा कॉड डिब्बों में बंदकर विदेशों को भेजी जाती हैं। यद्यपि यहाँ की कुल के 10% क्षेत्र में जंगल पाए जाते हैं फिर भी इमारती लकड़ियों का आयात करना पड़ता है। स्पेन संसार का दूसरा सबसे बड़ा कार्क (cork) उत्पादक देश है। रेज़िन तथा टर्पेंटाइन (Turpentine) अन्य प्रमुख जंगली उत्पादक हैं। यहाँ लगभग सभी ज्ञात खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। खनन (mining) यहाँ की आय का मुख्य साधन है। लोहा, कोयला, ताँबा, जस्ता, सीसा, गंधक, मैंगनीज आदि की खानें पाई जाती हैं। संसार में सबसे अधिक पारे का निक्षेप स्पेन के अल्मादेन (Almaden) की खानों में पाया जाता है। वस्त्र उद्योग यहाँ का प्रमुख लघु उद्योग है। महत्वपूर्ण रासायनिक उत्पाद सुपर फॉस्फेट, सल्फ्यूरिक अम्ल, रंग तथा दवाएँ आदि हैं। लोह तथा इस्पात उद्योग उल्लेखनीय भारी उद्योग हैं। सीमेंट तथा कागज उद्योग भी काफी विकसित हैं। स्पेन में उद्योग का तेजी से विकास हो रहा है। शिक्षण संस्थाएँ सरकारी तथा गैरसरकासी दोनों प्रकार की हैं। गैरसरकारी शिक्षण-संस्थाएँ गिरजाघरों द्वारा नियंत्रित होती हैं। प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य तथा नि:शुल्क है। स्पेन में विश्वविद्यालयों की संख्या 12 है। माद्रीद विश्वविद्यालय छात्रों की संख्या की दृष्टि से स्पेन का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। यहाँ का सर्वप्राचीन विश्वविद्यालय सालामान्का (Salamanca) है। इसकी स्थापना 1250 ई. में हुई थी। स्पेन में माद्रीद शहर तथा यहाँ का संग्रहालय, माद्रीद के समीपस्थ एस्कोरिआल महल (Escorial place), तोलेदो (Toledo) तथा सान सेबासतिआन (San Sebastian) के पास का एमेरालेद समुद्रतट (Emeraled Coast) आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। स्पेन में त्योहारों तथा अन्य दिनों में भी वृषभयुद्ध का आयोजन किया जाता है। स्पेन पर इस्लामी संस्कृति बाहरी कड़ियाँ सन्दर्भ डेउत्स्च्ह्लन्द üबेर अल्लेस १४८८ श्रेणी:यूरोप के देश श्रेणी:स्पेन श्रेणी:इबेरिया प्रायद्वीप श्रेणी:स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र
स्पेन का कुल क्षेत्रफल कितना है?
504,030
905
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पृथ्वी से लगभग 80 किलोमीटर के बाद का संपूर्ण वायुमंडल आयानमंडल कहलाता है। आयतन में आयनमंडल अपनी निचली हवा से कई गुना अधिक है लेकिन इस विशाल क्षेत्र की हवा की कुल मात्रा वायुमंडल की हवा की मात्रा के 200वें भाग से भी कम है। आयनमंडल की हवा आयनित होती है और उसमें आयनीकरण के साथ-साथ आयनीकरण की विपरीत क्रिया भी निरंतर होती रहती हैं। प्रथ्वी से प्रषित रेडियों तरंगे इसी मंडल से परावर्तित होकर पुनः प्रथ्वी पर वापस लौट आती हें। आयनमंडल में आयनीकरण की मात्रा, परतों की ऊँचाई तथा मोटाई, उनमें अवस्थित आयतों तथा स्वतंत्र इलेक्ट्रानों की संख्या, ये सब घटते बढ़ते हैं। आयनमंडल की परतें आयनमंडल को चार परतों में बाँटा गया है। पृथ्वी के लगभग 55 किलोमीटर के बाद से डी परत प्रारंभ होती है, जैसा चित्र में दिखाया गया है। डी परत के बाद ई-परत है जो अधिक आयनों से युक्त है। यह आयनमंडल की सबसे टिकाऊ परत है और इसकी पृथ्वी से ऊँचाई लगभग 145 किलोमीटर है। इसे केनली हेवीसाइड परत भी कहते हैं। तीसरी एफ-वन परत हैं। यह पृथ्वी से लगभग 200 किलोमीटर की ऊँचाई पर हैं। गरमियों की रातों तथा जाड़ों में यह अपनी ऊपर की परतों में समा जाती है। अंत में 240 से 320 किलोमीटर के मध्यअति अस्थि एफ-टू परत हैं। आयनमंडल की उपयोगिता रेडियो तरंगों (विद्युच्चुंबकीय तरंगों) के प्रसारण में सबसे अधिक है। सूर्य की पराबैगनी किरणों से तथा अन्य अधिक ऊर्जावाली किरणों और कणिकाओं से आयनमंडल की गैसें आयनित हो जाती हैं। ई-परत अथवा केनली हेवीसाइड परत से, जो अधिक आयनों से युक्त है, विद्युच्चुंबकीय तरंगें परावर्तित हो जाती हैं। किसी स्थान से प्रसरित विद्युच्चुबंकीय तरंगों का कुछ भाग आकाश की ओर चलता है। ऐसी तरंगें आयनमंडल से परावर्तित होकर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर पहुँचती हैं। लघु तरंगों (शार्ट वेव्स) को हजारों किलोमीटर तक आयनमंडल के माध्यम से ही पहुँचाया जाता है। इन्हें भी देखें व्योम तरंग (स्काई वेव्स) बाहरी कड़ियाँ Gehred, Paul, and Norm Cohen, . Layman Level Explanations Of "Seemingly" Mysterious 160 Meter (MF/HF) Propagation Occurrences श्रेणी:वायुमण्डल श्रेणी:प्लाज्मा भौतिकी श्रेणी:रेडियो आवृत्ति संचरण
पृथ्वी से लगभग ८० किलोमीटर के बाद का संपूर्ण वायुमंडल क्या कहलाता है?
आयानमंडल
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भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है।[1] इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुंबई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं, इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है।[2] यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है।[3] मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है।[4] भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है।[5] उद्गम "मुंबई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा या महा-अंबा – हिन्दू देवी दुर्गा का रूप, जिनका नाम मुंबा देवी है – और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं।[6] पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया। यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहां अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बना। किन्तु मराठी लोग इसे मुंबई या मंबई व हिन्दी व भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे।[7][8] इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुंबई बना। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली नाम से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे)[9] यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ। सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है। हां सोलहवीं शताब्दी की पुर्तगाली भाषा में छोटी खाड़ी के लिये बैम शब्द है। अन्य सूत्रों का पुर्तगाली शब्द बॉम्बैम के लिये, भिन्न मूल है। José Pedro Machado's Dicionário Onomástico Etimológico da Língua Portuguesa ("एटायमोलॉजी एवं ओनोमैस्टिक्स का पुर्तगाली शब्दकोष") बताता है, कि इस स्थान का १५१६ से प्रथम पुर्तगाली सन्दर्भ क्या है, बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु,[10] माइआम्बु या "MAIAMBU"' मुंबा देवी से निकला हुआ लगता है। ये वही मुंबा देवी हैं, जिनके नाम पर मुंबई नाम मराठी लोग लेते हैं। इसी शताब्दी में मोम्बाइयेन की वर्तनी बदली (१५२५)[11] और वह मोंबैएम बना (१५६३)[12] और अन्ततः सोलहवीं शताब्दी में बोम्बैएम उभरा, जैसा गैस्पर कोर्रेइया ने लेंडास द इंडिया ("लीजेंड्स ऑफ इंडिया") में लिखा है।[13] [14] इतिहास कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये।[16] चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा। १८६९ में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया।[17] अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यह विकास संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से परिपूर्ण था। १९०६ तक नगर की जनसंख्या दस लाख बिलियन के लगभग हो गयी थी। अब यह भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान सबसे बड़ा शहर था। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा। मुंबई में इस संग्राम की प्रमुख घटना १९४२ में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था। १९४७ में भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। १९५० में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा। १९५५ के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधों के चलते, १०५ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे भी गये और अन्ततः १ मई, १९६० को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया। १९७० के दशक के अंत तक, यहां के निर्माण में एक सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक पहुंचाया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पछाड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे।[18] बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों के हित की रक्षा करने हेतु बनी थी।[19] नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र १९९२-९३ के दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद १२ मार्च,१९९३ को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पुरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। १९९५ में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। २००६ में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे।[20] भूगोल मुंबई शहर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण तटीय क्षेत्र में उल्हास नदी के मुहाने पर स्थित है। इसमें सैलसेट द्वीप का आंशिक भाग है और शेष भाग ठाणे जिले में आते हैं। अधिकांश नगर समुद्रतल से जरा ही ऊंचा है, जिसकी औसत ऊंचाई 10m (33ft) से 15m (49ft) के बीच है। उत्तरी मुंबई का क्षेत्र पहाड़ी है, जिसका सर्वोच्च स्थान 450m (1,476ft) पर है।[21] नगर का कुल क्षेत्रफल ६०३कि.मी² (२३३sqmi) है। संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान नगर के समीप ही स्थित है। यह कुल शहरी क्षेत्र के लगभग छठवें भाग में बना हुआ है। इस उद्यान में तेंदुए इत्यादि पशु अभी भी मिल जाते हैं,[22][23] जबकि जातियों का विलुप्तीकरण तथा नगर में आवास की समस्या सर उठाये खड़ी है। भाटसा बांध के अलावा, ६ मुख्य झीलें नगर की जलापूर्ति करतीं हैं: विहार झील, वैतर्णा, अपर वैतर्णा, तुलसी, तंस व पोवई। तुलसी एवं विहार झील बोरिवली राष्ट्रीय उद्यान में शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर स्थित हैं। पोवई झील से केवल औद्योगिक जलापुर्ति की जाती है। तीन छोटी नदियां दहिसर, पोइसर एवं ओहिवाड़ा (या ओशीवाड़ा) उद्यान के भीतर से निकलतीं हैं, जबकि मीठी नदी, तुलसी झील से निकलती है और विहार व पोवई झीलों का बढ़ा हुआ जल ले लेती है। नगर की तटरेखा बहुत अधिक निवेशिकाओं (संकरी खाड़ियों) से भरी है। सैलसेट द्वीप की पूर्वी ओर दलदली इलाका है, जो जैवभिन्नताओं से परिपूर्ण है। पश्चिमी छोर अधिकतर रेतीला या पथरीला है। मुंबई की अरब सागर से समीपता के खारण शहरी क्षेत्र में मुख्यतः रेतीली बालू ही मिलती है। उपनगरीय क्षेत्रों में, मिट्टी अधिकतर अल्युवियल एवं ढेलेदार है। इस क्षेत्र के नीचे के पत्थर काले दक्खिन बेसाल्ट व उनके क्षारीय व अम्लीय परिवर्तन हैं। ये अंतिम क्रेटेशियस एवं आरंभिक इयोसीन काल के हैं। मुंबई सीज़्मिक एक्टिव (भूकम्प सक्रिय) ज़ोन है।[24] जिसके कारण इस क्षेत्र में तीन सक्रिय फॉल्ट लाइनें हैं। इस क्षेत्र को तृतीय श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है, कि रिक्टर पैमाने पर 6.5 तीव्रता के भूकम्प आ सकते हैं। जलवायु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अरब सागर के निकट स्थित मुंबई की जलवायु में दो मुख्य ऋतुएं हैं: शुष्क एवं आर्द्र ऋतु। आर्द्र ऋतु मार्च एवं अक्टूबर के बीच आती है। इसका मुख्य लक्षण है उच्च आर्द्रता व तापमन लगभग 30°C (86°F) से भी अधिक। जून से सितंबर के बीच मानसून वर्षाएं नगर भिगोतीं हैं, जिससे मुंबई का वार्षिक वर्षा स्तर 2,200 millimetres (86.6in) तक पहुंचता है। अधिकतम अंकित वार्षिक वर्षा १९५४ में 3,452 millimetres (135.9in) थी।[25] मुंबई में दर्ज एक दिन में सर्वोच्च वर्षा 944 millimetres (37.17in) २६ जुलाई,२००५ को हुयी थी।[26] नवंबर से फरवरी तक शुष्क मौसम रहता है, जिसमें मध्यम आर्द्रता स्तर बना रहता है, व हल्का गर्म से हल्का ठंडा मौसम रहता है। जनवरी से फरवरी तक हल्की ठंड पड़ती है, जो यहां आने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण होती है। मुंबई का वार्षिक तापमान उच्चतम 38°C (100°F) से न्यूनतम 11°C (52°F)तक रहता है। अब तक का रिकॉर्ड सर्वोच्च तापमान 43.3°C (109.9°F) तथा २२ जनवरी,१९६२ को नयूनतम 7.4°C (45.3°F) रहा।[27]। हालांकि 7.4°C (45.3°F) यहां के मौसम विभाग के दो में से एक स्टेशन द्वारा अंकित न्यूनतम तापमान कन्हेरी गुफाएं के निकट नगर की सीमाओं के भीतर स्थित स्टेशन द्वारा न्यूनतम तापमान ८ फरवरी,२००८ को 6.5°C (43.7°F) अंकित किया गया।[28] अर्थ-व्यवस्था मुंबई भारत की सबसे बड़ी नगरी है। यह देश की एक महत्वपूर्ण आर्थिक केन्द्र भी है, जो सभी फैक्ट्री रोजगारों का १०%, सभी आयकर संग्रह का ४०%, सभी सीमा शुल्क का ६०%, केन्द्रीय राजस्व का २०% व भारत के विदेश व्यापार एवं निगमित करों से योगदान देती है।[29] मुंबई की प्रति-व्यक्ति आय है, जो राष्ट्रीय औसत आय की लगभग तीन गुणा है।[30] भारत के कई बड़े उद्योग (भारतीय स्टेट बैंक, टाटा ग्रुप, गोदरेज एवं रिलायंस सहित) तथा चार फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियां भी मुंबई में स्थित हैं। कई विदेशी बैंक तथा संस्थानों की भी शाखाएं यहां के विश्व व्यापार केंद्र क्षेत्र में स्थित हैं।[31] सन १९८० तक, मुंबई अपने कपड़ा उद्योग व पत्तन के कारण संपन्नता अर्जित करता था, किन्तु स्थानीय अर्थ-व्यवस्था तब से अब तक कई गुणा सुधर गई है, जिसमें अब अभियांत्रिकी, रत्न व्यवसाय, हैल्थ-केयर एवं सूचना प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं। मुंबई में ही भाभा आण्विक अनुसंधान केंद्र भी स्थित है। यहीं भारत के अधिकांश विशिष्ट तकनीकी उद्योग स्थित हैं, जिनके पास आधुनिक औद्योगिक आधार संरचना के साथ ही अपार मात्रा में कुशल मानव संसाधन भी हैं। आर्थिक कंपनियों के उभरते सितारे, ऐयरोस्पेस, ऑप्टिकल इंजीनियरिंग, सभी प्रकार के कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जलपोत उद्योग तथा पुनर्नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत तथा शक्ति-उद्योग यहां अपना अलग स्थान रखते हैं। नगर के कार्यक्षेत्र का एक बड़ा भाग केन्द्र एवं राज्य सरकारी कर्मचारी बनाते हैं। मुंबई में एक बड़ी मात्रा में कुशल तथा अकुशल व अर्ध-कुशल श्रमिकों की शक्ति है, जो प्राथमिकता से अपना जीवन यापन टैक्सी-चालक, फेरीवाले, यांत्रिक व अन्य ब्लू कॉलर कार्यों से करते हैं। पत्तन व जहाजरानी उद्योग भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ढ़ेरों कर्मचारियों को रोजगार देता है। नगर के धारावी क्षेत्र में, यहां का कूड़ा पुनर्चक्रण उद्योग स्थापित है। इस जिले में अनुमानित १५,००० एक-कमरा फैक्ट्रियां हैं।[32] मीडिया उद्योग भी यहां का एक बड़ा नियोक्ता है। भारत के प्रधान दूरदर्शन व उपग्रह तंत्रजाल (नेटवर्क), व मुख्य प्रकाशन गृह यहीं से चलते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग का केन्द्र भी यहीं स्थित है, जिससे प्रति वर्ष विश्व की सर्वाधिक फिल्में रिलीज़ होती हैं। बॉलीवुड शब्द बाँम्बे व हॉलीवुड को मिलाकर निर्मित है। मराठी दूरदर्शन एवं मराठी फिल्म उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शेष भारत की तरह, इसकी वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ने भी १९९१ के सरकारी उदारीकरण नीति के चलते आर्थिक उछाल (सहसावृद्धि) को देखा है। इसके साथ ही १९९० के मध्य दशक में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्यात, सेवाएं व बी पी ओ उद्योगों में भी उत्थान देखा है। मुंबई का मध्यम-वर्गीय नागरिक जहां इस उछाल से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वहीं वो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपभोक्ता उछाल का कर्ता भी है। इन लोगों की ऊपरावर्ती गतिशीलता ने उपभोक्तओं के जीवन स्तर व व्यय क्षमता को भी उछाला है। मुंबई को वित्तीय बहाव के आधार पर मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड के एक सर्वेक्षण में; विश्व के दस सर्वोच्च वाणिज्य केन्द्रों में से एक गिना गया है।[4] नगर प्रशासन मुंबई में दो पृथक क्षेत्र हैं: नगर एवं उपनगर, यही महाराष्ट्र के दो जिले भी बनाते हैं। शहरी क्षेत्र को प्रायः द्वीप नगर या आइलैण्ड सिटी कहा जाता है।[33] नगर का प्रशासन बृहन्मुंबई नगर निगम (बी एम सी) (पूर्व बंबई नगर निगम) के अधीन है, जिसकी कार्यपालक अधिकार नगर निगम आयुक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक आई ए एस अधिकारी को दिये गए हैं। निगम में 227 पार्षद हैं, जो 24 नगर निगम वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पाँच नामांकित पार्षद व एक महापौर हैं। निगम नागरिक सुविधाओं एवं शहर की अवसंरचना आवश्यकताओं के लिए प्रभारी है। एक सहायक निगम आयुक्त प्रत्येक वार्ड का प्रशासन देखता है। पार्षदों के चुनाव हेतु, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशि खड़े करतीं हैं। मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 7 नगर निगम व 13 नगर परिषद हैं। बी एम सी के अलावा, यहां ठाणे, कल्याण-डोंभीवली, नवी मुंबई, मीरा भयंदर, भिवंडी-निज़ामपुर एवं उल्हासनगर की नगरमहापालिकाएं व नगरपालिकाएं हैं।[34] ग्रेटर मुंबई में महाराष्ट्र के दो जिले बनते हैं, प्रत्येक का एक जिलाध्यक्ष है। जिलाध्यक्ष जिले की सम्पत्ति लेख, केंद्र सरकार के राजस्व संग्रहण के लिए उत्तरदायी होता है। इसके साथ ही वह शहर में होने वाले चुनावों पर भी नज़र रखता है। मुंबई पुलिस का अध्यक्ष पुलिस आयुक्त होता है, जो आई पी एस अधिकारी होता है। मुंबई पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। नगर सात पुलिस ज़ोन व सत्रह यातायात पुलिस ज़ोन में बंटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यातायात पुलिस मुंबई पुलिस के अधीन एक स्वायत्त संस्था है।[35] मुंबई अग्निशमन दल विभाग का अध्यक्ष एक मुख्य फायर अधिकारी होता है, जिसके अधीन चार उप मुख्य फायर अधिकारी व छः मंडलीय अधिकारी होते हैं। मुंबई में ही बंबई उच्च न्यायालय स्थित है, जिसके अधिकार-क्षेत्र में महाराष्ट्र, गोआ राज्य एवं दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली के केंद्र शासित प्रदेश भी आते हैं। मुंबई में दो निम्न न्यायालय भी हैं, स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट –नागरिक मामलों हेतु, व विशेष टाडा (टेररिस्ट एण्ड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज़) न्यायालय –जहां आतंकवादियों व फैलाने वालों व विध्वंसक प्रवृत्ति व गतिविधियों में पहड़े गए लोगों पर मुकदमें चलाए जाते हैं। शहर में लोक सभा की छः व महाराष्ट्र विधान सभा की चौंतीस सीटें हैं। मुंबई की महापौर शुभा रावल हैं, नगर निगम आयुक्त हैं जयराज फाटाक एवं शेर्रिफ हैं इंदु साहनी। यातायात मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में 2009 तक चालू होगी। मुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है।[36] बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं। बेस्ट के अधीन लगभग 3,408 बसें चलतीं हैं,[37] जो प्रतिदिन लगभग 4.5 मिलियन यात्रियों को 340 बस-रूटों पर लाती ले जातीं हैं। इसके बेड़े में सिंगल-डेकर, डबल-डेकर, वेस्टीब्यूल, लो-फ्लोर, डिसेबल्ड फ्रेंड्ली, वातानुकूलित एवं हाल ही में जुड़ीं यूरो-तीन सम्मत सी एन जी चालित बसें सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एम एस आर टी सी) की अन्तर्शहरीय यातायात सेवा है, जो मुंबई को राज्य व अन्य राज्यों के शहरों से जोड़तीं हैं। मुंबई दर्शन सेवा के द्वारा पर्यटक यहां के स्थानीय पर्यटन स्थलों का एक दिवसीय दौरा कर सकते हैं। काली व पीली, मीटर-युक्त टैसी सेवा पूरे शहर में उपलब्ध है। मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं, जो सी एन जी चालित हैं, व भाड़े पर चलते हैं। ये तिपहिया सवारी जाने आने का उपयुक्त साधन हैं। ये भाड़े के यातायात का सबसे सस्ता जरिया हैं, व इनमें तीन सवारियां बैठ सकतीं हैं। मुंबई का छत्रपति शिवाजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (पूर्व सहर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र) दक्षिण एशिया का व्यस्ततम हवाई अड्डा है।[38] जूहू विमानक्षेत्र भारत का प्रथम विमानक्षेत्र है, जिसमें फ्लाइंग क्लब व एक हैलीपोर्ट भी हैं। प्रस्तावित नवी मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, जो कोपरा-पन्वेल क्षेत्र में बनना है, को सरकार की मंजूरी मिल चुकी है, पूरा होने पर, वर्तमान हवाई अड्डे का भार काफी हद तक कम कर देगा। मुंबई में देश के 25% अन्तर्देशीय व 38% अन्तर्राष्ट्रीय यात्री यातायात सम्पन्न होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मुंबई में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक पत्तन उपलब्ध हैं। यहां से ही देश के यात्री व कार्गो का 50% आवागमन होता है।[5] यह भारतीय नौसेना का एक महत्वपूर्ण बेस भी है, क्योंकि यहां पश्चिमी नौसैनिक कमान भी स्थित है।[39] फैरी भी द्वीपों आदि के लिए उपलब्ध हैं, जो कि द्वीपों व तटीय स्थलों पर जाने का एक सस्ता जरिया हैं। उपयोगिता सेवाएं बी एम सी शहर की पेय जलापूर्ति करता है। इस जल का अधिकांश भाग तुलसी एवं विहार झील से तथा कुछ अन्य उत्तरी झीलों से आता है। यह जल भाण्डुप एशिया के सबसे बड़े जल-शोधन संयंत्र में में शोधित कर आपूर्ति के लिए उपलब्ध कराया जाता है। भारत की प्रथम भूमिगत जल-सुरंग भी मुंबई में ही बनने वाली है।[40] बी एम सी ही शहर की सड़क रखरखाव और कूड़ा प्रबंधन भी देखता है। प्रतिदिन शहर का लगभग ७८००मीट्रिक टन कूड़ा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मुलुंड, उत्तर-पश्चिम में गोराई और पूर्व में देवनार में डम्प किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट वर्ली और बांद्रा में कर सागर में निष्कासित किया जाता है। मुंबई शहर में विद्युत आपूर्ति बेस्ट, रिलायंस एनर्जी, टाटा पावर और महावितरण (महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लि.) करते हैं। यहां की अधिकांश आपूर्ति जल-विद्युत और नाभिकीय शक्ति से होती है। शहर की विद्युत खपत उत्पादन क्षमता को पछाड़ती जा रही है। शहर का सबसे बड़ा दूरभाष सेवा प्रदाता एम टी एन एल है। इसकी २००० तक लैंडलाइन और सेल्युलर सेवा पर मोनोपॉली थी। आज यहां मोबाइल सेवा प्रदाताओं में एयरटेल, वोडाफोन, एम टी एन एल, बी पी एल, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा इंडिकॉम हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए सेवाएं, दोनों ही उपलब्ध हैं। एम टी एन एल एवं टाटा यहां ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध कराते हैं। जनसांख्यिकी २००१ की जनगणना अनुसार मुंबई की जनसंख्या ११,९१४,३९८ थी।[42] वर्ल्ड गैज़ेटियर द्वारा २००८ में किये गये गणना कार्यक्रम के अनुसार मुंबई की जनसंख्या १३,६६२,८८५ थी।[43] तभी मुंबई महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या २१,३४७,४१२ थी।[44] यहां की जनसंख्या घनत्व २२,००० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। २००१ की जनगणना अनुसार बी.एम.सी के प्रशासनाधीन ग्रेटर मुंबई क्षेत्र की साक्षरता दर ७७.४५% थी,[45] जो राष्ट्रीय औसत ६४.८% से अधिक थी।[46] यहां का लिंग अनुपात ७७४ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष द्वीपीय क्षेत्र में, ८२६ उपनगरीय क्षेत्र और ८११ ग्रेटर मुंबई में,[45] जो आंकड़े सभी राष्ट्रीय औसत अनुपात ९३३ से नीचे हैं।[47] यह निम्नतर लिंग अनुपात बड़ी संख्या में रोजगार हेतु आये प्रवासी पुरुषों के कारण है, जो अपने परिवार को अपने मूल स्थान में ही छोड़कर आते हैं।[48] मुंबई में ६७.३९% हिन्दू, १८.५६% मुस्लिम, ३.९९% जैन और ३.७२% ईसाई लोग हैं। इनमें शेष जनता सिख और पारसीयों की है।[49][50] मुंबई में पुरातनतम, मुस्लिम संप्रदाय में दाउदी बोहरे, खोजे और कोंकणी मुस्लिम हैं।[51] स्थानीय ईसाइयों में ईस्ट इंडियन कैथोलिक्स हैं, जिनका धर्मांतरण पुर्तगालियों ने १६वीं शताब्दी में किया था।[52] शहर की जनसंख्या का एक छोटा अंश इज़्राइली बेने यहूदी और पारसीयों का भी है, जो लगभग १६०० वर्ष पूर्व यहां फारस की खाड़ी या यमन से आये थे।[53] मुंबई में भारत के किसी भी महानगर की अपेक्षा सबसे अधिक बहुभाषियों की संख्या है।महाराष्ट्र राज्य की आधिकारिक राजभाषा मराठी है। अन्य बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी हैं।[54] एक सर्वसाधारण की बोलचाल की निम्न-स्तरीय भाषा है बम्बइया हिन्दी जिसमें अधिकांश शब्द और व्याकरण तो हिन्दी का ही है, किंतु इसके अलावा मराठी और अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं। इसके अलावा कुछ शब्द यही अविष्कृत हैं। मुंबई के लोग अपने ऑफ को मुंबईकर या मुंबैयाइट्स कहलाते हैं। उच्चस्तरीय व्यावसाय में संलग्न लोगों द्वारा अंग्रेज़ी को वरीयता दी जाती है। मुंबई में भी तीव्र गति से शहरीकरण को अग्रसर विकसित देशों के शहरों द्वारा देखी जारही प्रधान शहरीकरण समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इनमें गरीबी, बेरोजगारी, गिरता जन-स्वास्थ्य और अशिक्षा/असाक्षरता प्रमुख हैं। यहां की भूमि के मूल्य इतने ऊंचे हो गये हैं, कि लोगों को निम्नस्तरीय क्षेत्रों में अपने व्यवसाय स्थल से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सड़कों पर यातायात जाम और लोक-परिवहन आदि में अत्यधिक भीड़ बढ़ती ही जा रही हैं। मुंबई की कुल जनसंख्या का लगभग ६०% अंश गंदी बस्तियों और झुग्गियों में बसता है।[55] धारावी, एशिया की दूसरी सबसे बड़ी स्लम-बस्त्ती[56] मध्य मुंबई में स्थित है, जिसमें ८ लाख लोग रहते हैं।[57] ये स्लम भी मुंबई के पर्यटक आकर्षण बनते जा रहे हैं।[58][59][60] मुंबई में प्रवारियों की संख्या १९९१-२००१ में ११.२ लाख थी, जो मुंबई की जनसंख्या में कुल बढ़त का ५४.८% है।[61] २००७ में मुंबई की अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज अपराध) १८६.२ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो राष्ट्रीय औसत १७५.१ से कुछ ही अधिक है, किंतु भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहर सूची के अन्य शहरों की औसत दर ३१२.३ से बहुत नीचे है।[62] शहर की मुख्य जेल अर्थर रोड जेल है। संस्कृति मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है।[63] मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं।[50] मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है।[64]—दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी।[65] मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है।[66] मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव[67] और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं।[68] हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है।[69][70] यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है।[71] छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं।[72] मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है।[73] नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे।[74] यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था।[75] मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है। यह मुंबई के लेखकों जैसे मोहन आप्टे, अनन्त आत्माराम काणेकर और बाल गंगाधर तिलक के कार्यों में सदा दृष्टिगोचर रहा है। इसको वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार से और प्रोत्साहन मिला है।[76] मुंबई शहर की इमारतों में झलक्ता स्थापत्य, गोथिक स्थापत्य, इंडो रेनेनिक, आर्ट डेको और अन्य समकालीन स्थापत्य शैलियों का संगम है।[77] ब्रिटिश काल की अधिकांश इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय, गोथिक शैली में निर्मित हैं।[78] इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है, जैसे जर्मन गेबल, डच शैली की छतें, स्विस शैली में काष्ठ कला, रोमन मेहराब साथ ही परंपरागत भारतीय घटक भी दिखते हैं।[79] कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें भी हैं, जैसे गेटवे ऑफ इंडिया।[80] आर्ट डेको शैली के निर्माण मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे दिखाई देते हैं।[81] मुंबई में मायामी के बाद विश्व में सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की इमारतें मिलती हैं।[82] नये उपनगरीय क्षेत्रों में आधुनिक इमारतें अधिक दिखती हैं। मुंबई में अब तक भारत में सबसे अधिक गगनचुम्बी इमारतें हैं। इनमें ९५६ बनी हुई हैं और २७२ निर्माणाधीन हैं। (२००९ के अनुसार)[83] १९९५ में स्थापित, मुंबई धरोहर संरक्षण समिति (एम.एच.सी.सी) शहर में स्थित धरोहर स्थलों के संरक्षण का ध्यान रखती है।[77] मुंबई में दो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और एलीफेंटा की गुफाएं[84] शहर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में नरीमन पाइंट, गिरगांव चौपाटी, जुहू बीच और मैरीन ड्राइव आते हैं। एसेल वर्ल्ड यहां का थीम पार्क है, जो गोरई बीच के निकट स्थित है।[85] यहीं एशिया का सबसे बड़ा थीम वाटर पार्क, वॉटर किंगडम भी है।[86] मुंबई के निवासी भारतीय त्यौहार मनाने के साथ-साथ अन्य त्यौहार भी मनाते हैं। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, दशहरा, दुर्गा पूजा, महाशिवरात्रि, मुहर्रम आदि प्रमुख त्यौहार हैं। इनके अलावा गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी कुछ अधिक धूम-धाम के संग मनाये जाते हैं।[87] गणेश-उत्सव में शहर में जगह जगह बहुत विशाल एवं भव्य पंडाल लगाये जाते हैं, जिनमें भगवान गणपति की विशाल मूर्तियों की स्थापना की जाती है। ये मूर्तियां दस दिन बाद अनंत चौदस के दिन सागर में विसर्जित कर दी जाती हैं। जन्माष्टमी के दिन सभी मुहल्लों में समितियों द्वारा बहुत ऊंचा माखान का मटका बांधा जाता है। इसे मुहल्ले के बच्चे और लड़के मुलकर जुगत लगाकर फोड़ते हैं। काला घोड़ा कला उत्सव कला की एक प्रदर्शनी होती है, जिसमें विभिन्न कला-क्षेत्रों जैसे संगीत, नृत्य, रंगमंच और चलचित्र आदि के क्षेत्र से कार्यों का प्रदर्शन होता है।[88] सप्ताह भर लंबा बांद्रा उत्सव स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाता है।[89] बाणागंगा उत्सव दो-दिवसीय वार्षिक संगीत उत्सव होता है, जो जनवरी माह में आयोजित होता है। ये उत्सव महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एम.टी.डी.सी) द्वारा ऐतिहाशिक बाणगंगा सरोवर के निकट आयोजित किया जाटा है।[90] एलीफेंटा उत्सव—प्रत्येक फरवरी माह में एलीफेंटा द्वीप पर आयोजित किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम ढेरों भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है।[91] शहर और प्रदेश का खास सार्वजनिक अवकाश १ मई को महाराष्ट्र दिवस के रूप में महाराष्ट्र राज्य के गठन की १ मई, १९६० की वर्षागांठ मनाने के लिए होता है।[92][93] मुंबई के भगिनि शहर समझौते निम्न शहरों से हैं:[94] योकोहामा, जापान[95][96] लॉस एंजिलिस, संयुक्त राज्य[97] लंदन, यूनाइटेड किंगडम बर्लिन, जर्मनी स्टुगार्ट, जर्मनी[98] पीटर्सबर्ग, रूस मीडिया मुंबई में बहुत से समाचार-पत्र, प्रकाशन गृह, दूरदर्शन और रेडियो स्टेशन हैं। मराठी समाचारपत्र में नवकाल, महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, लोकमत, सकाल आदि प्रमुख हैं। मुंबई में प्रमुख अंग्रेज़ी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, मिड डे, हिन्दुस्तान टाइम्स, डेली न्यूज़ अनालिसिस एवं इंडियन एक्स्प्रेस आते हैं। हिंदी का सबसे पुराना और सार्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र टाइम्स समूह का हिंदी का अखबार नवभारत टाइम्स भी मुंबई का प्रमुख हिंदी भाषी समाचार पत्र है। [99] मुंबई में ही एशिया का सबसे पुराना समाचार-पत्र बॉम्बे समाचार भी निकलता है।[100] बॉम्बे दर्पण प्रथम मराठी समाचार-पत्र था, जिसे बालशास्त्री जाम्भेकर ने १८३२ में आरंभ किया था।[101] यहां बहुत से भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल्स उपलब्ध हैं। यह महानगर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया निगमों और मुद्रकों एवं प्रकाशकों का केन्द्र भी है। राष्ट्रीय टेलीवीज़र प्रसारक दूरदर्शन, दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित करता है,[102] और तीन मुख्य केबल नेटवर्क अन्य सभी चैनल उपलब्ध कराते हैं।[103] केबल चैनलों की विस्तृत सूची में ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, ज़ी मराठी, ईटीवी मराठी, डीडी सह्याद्री, मी मराठी, ज़ी टाकीज़, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, सोनी टीवी और नये चैनल जैसे स्टार मांझा आइ कई मराठी टीवी चैनल व अन्य भाषाओं के चैनल शामिल हैं। मुंबई के लिए पूर्ण समर्पित चैनलों में सहारा समय मुंबई आदि चैनल हैं। इनके अलावा डी.टी.एच प्रणाली अपनी ऊंची लागत के कारण अभी अधिक परिमाण नहीं बना पायी है।[104] प्रमुख डीटीएच सेवा प्रदाताओं में डिश टीवी, बिग टीवी, टाटा स्काई और सन टीवी हैं।[105] मुंबई में बारह रेडियो चैनल हैं, जिनमें से नौ एफ़ एम एवं तीन ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन हैं जो ए एम प्रसारण करते हैं।[106] मुंबई में कमर्शियल रेडियो प्रसारण प्रदाता भी उपलब्ध हैं, जिनमें वर्ल्ड स्पेस, सायरस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम सैटेलाइट रेडियो प्रमुख हैं।[107] बॉलीवुड, हिन्दी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। इस उद्योग में प्रतिवर्शः १५०-२०० फिल्में बनती हैं।[108] बॉलीवुड का नाम अमरीकी चलचित्र उद्योग के शहर हॉलीवुड के आगे बंबई का ब लगा कर निकला हुआ है।[109] २१वीं शताब्दी ने बॉलीवुड की सागरपार प्रसिद्धि के नये आयाम देखे हैं। इस कारण फिल्म निर्माण की गुणवत्ता, सिनेमैटोग्राफ़ी आदि में नयी ऊंचाइयां दिखायी दी हैं।[110] गोरेगांव और फिल सिटी स्थित स्टूडियो में ही अधिकांश फिल्मों की शूटिंग होतीं हैं।[111] मराठी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है।[112] शिक्षा मुंबई के विद्यालय या तो नगरपालिका विद्यालय होते हैं,[113] या निजी विद्यालय होते हैं, जो किसी न्यास या व्यक्ति द्वारा चलाये जा रहे होते हैं। इनमें से कुछ निजी विद्यालयों को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है।[114] ये विद्यालय महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड, अखिल भारतीय काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आई.सी.एस.ई) या सीबीएसी बोर्ड द्वारा संबद्ध होते हैं।[115] यहां मराठी या अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम होता है।[116] सरकारी सार्वजनिक विद्यालयों में वित्तीय अभाव के चलते बहुत सी कमियां होती हैं, किंतु गरीब लोगों का यही सहारा है, क्योंकि वे महंगे निजी विद्यालय का भार वहन नहीं कर सकते हैं।[117] १०+२+३ योजना के अंतर्गत, विद्यार्थी दस वर्ष का विद्यालय समाप्त कर दो वर्ष कनिष्ठ कालिज (ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा) में भर्ती होते हैं। यहां उन्हें तीन क्षेत्रों में से एक चुनना होता है: कला, विज्ञान या वाणिज्य।[118] इसके भाद उन्हें सामान्यतया एक ३-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम अपने चुने क्षेत्र में कर ना होता है, जैसे विधि, अभियांत्रिकी या चिकित्सा इत्यादि।[119] शहर के अधिकांश महाविद्यालय मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, जो स्नातओं की संख्यानुसार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है।[120] भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बंबई),[121] वीरमाता जीजाबाई प्रौद्योगिकी संस्थान (वी.जे.टी.आई),[122] और युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (यू.आई.सी.टी),[123] भारत के प्रधान अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थानों में आते हैं और [[एस एन डी टी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के स्वायत्त विश्वविद्यालय हैं।[124] मुंबई में जमनालाल बजाज प्रबंधन शिक्षा संस्थान, एस पी जैन प्रबंधन एवं शोध संस्थान एवं बहुत से अन्य प्रबंधन महाविद्यालय हैं।[125] मुंबई स्थित गवर्नमेंट लॉ कालिज तथा सिडनहैम कालिज, भारत के पुरातनतम क्रमशः विधि एवं वाणिज्य महाविद्यालय हैं।[126][127] सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई का पुरातनतम कला महाविद्यालय है।[128] मुंबई में दो प्रधान अनुसंधान संस्थान भी हैं: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर), तथा भाभा आण्विक अनुसंधान केन्द्र (बी.ए.आर.सी).[129] भाभा संस्थान ही सी आई आर यू एस, ४०मेगावाट नाभिकीय भट्टी चलाता है, जो उनके ट्राम्‍बे स्थित संस्थान में स्थापित है।[130] क्रीड़ा क्रिकेट शहर और देश के सबसे चहेते खेलों में से एक है।.[131] महानगरों में मैदानों की कमी के चलते गलियों का क्रिकेट सबसे प्रचलित है। मुंबई में ही भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) स्थित है।[132] मुंबई क्रिकेट टीम रणजी ट्रॉफी में शहर का प्रतिनिधित्व करती है। इसको अब तक ३८ खिताब मिले हैं, जो किसी भी टीम को मिलने वाले खिताबों से अधिक हैं।[133] शहर की एक और टीम मुंबई इंडियंस भी है, जो इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम है। शहर में दो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान हैं- वान्खेड़े स्टेडियम और ब्रेबोर्न स्टेडियम[134] शहर में आयोजित हुए सबसे बड़े क्रिकेट कार्यक्रम में आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी का २००६ का फाइनल था। यह ब्रेबोर्न स्टेडियम में हुआ था।[135] मुंबई से प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ियों में विश्व-प्रसिद्ध सचिन तेन्दुलकर[136] और सुनील गावस्कर हैं।[137] क्रिकेट की प्रसिद्ध के चलते हॉकी कुछ नीचे दब गया है।[138] मुंबई की मराठा वारियर्स प्रीमियर हाकी लीग में शहर की टीम है।[139] प्रत्येक फरवरी में मुंबई में डर्बी रेस घुड़दौड़ होती है। यह महालक्ष्मी रेसकोर्स में आयोजित की जाती है। यूनाइटेड ब्रीवरीज़ डर्बी भी टर्फ़ क्लब में फ़रवरी में माह में ही आयोजित की जाती है।[140] फार्मूला वन कार रेस के प्रेमी भी यहां बढ़ते ही जा रहे हैं,[141] २००८ में, फोर्स इंडिया (एफ़ १) टीम कार मुंबई में अनावृत हुई थी।[142] मार्च २००४ में यहां मुंबई ग्रैंड प्रिक्स एफ़ १ पावरबोट रेस की विश्व प्रतियोगिता का भाग आयोजित हुआ था।[143] चित्र दीर्घा मुंबई उच्च न्यायालय जार्ज पंचम एवं क्वीन मेरी की स्मृति में बनाया गया गेटवे ऑफ़ इन्डिया स्थापना - दिसम्बर 1911 फ्लोरा फाउंटेन जिसे हुतात्मा चौक का नाम दिया गया है। मुंबई स्टाक एक्स्चेंज एशिया का सबसे पुराना स्टाक एक्सचेंज बांद्रा-वर्ली समुद्रसेतु ब्रेबोर्न स्टेडियम, शहर के सबसे पुराने स्टेडियमों में से एक है इन्हें भी देखें मुंबई यौन संग्रहालय सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:महाराष्ट्र के शहर श्रेणी:पूर्व पुर्तगाली कालोनी श्रेणी:तटवर्ती शहर श्रेणी:उच्च-प्रौद्योगिकी व्यापार जिले श्रेणी:भारत के नगर
भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग, किस शहर में स्थित है?
मुम्बई
354
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9e8bf86b7
सेशेल्स (Seychelles ; आधिकारिक तौर पर सेशेल्स गणराज्य) हिंद महासागर में स्थित 115 द्वीपों वाला एक द्वीपसमूह राष्ट्र है। यह अफ्रीकी मुख्यभूमि से लगभग 1500 किलोमीटर दूर पूर्व दिशा मे और मेडागास्कर के, उत्तर पूर्व मे हिंद महासागर में स्थित है। इसके पश्चिम मे ज़ांज़ीबार, दक्षिण मे मॉरीशस और रीयूनियन, दक्षिणपश्चिम मे कोमोरोस और मयॉट और उत्तर पूर्व मे मालदीव का सुवाडिवेस स्थित है। सेशेल्स मे अफ्रीकी महाद्वीप के किसी भी अन्य देश के मुकाबले सबसे कम आबादी है। सेशेल्स की राजधानी विक्टोरिया है। बाहरी कड़ियां official portal of the Republic of Seychelles , a government-supported newspaper Major opposition newspaper, extensive investigative journalism and exposés. श्रेणी:सेशेल्स श्रेणी:अफ़्रीका श्रेणी:हिन्द महासागर के द्वीप श्रेणी:हिन्द महासागर के द्वीपसमूह श्रेणी:देश
सेशेल्स द्वीप कहां स्थित है?
हिंद महासागर
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भारतीय म्यूचुअल फंड भारत का म्यूच्युअल फंड उद्योग है। इसकी शुरूआत भारत में 1964 में भारत सरकार द्वारा यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया की स्थापना से हुई। यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया अभी भी भारत का एक अग्रिणी म्यूच्युअल फंड है। इसका नियंत्रण एक खास कानून, यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1963 के द्वारा होता है। इस उद्योग को 1987 में सरकारी बैंको और बीमा कम्पनियो के लिये खोला गया। अब तक 6 सरकारी बैंको ने अपने म्यूच्युअल फंड शुरू किये है, तथा दो इंश्योरैंस कम्‍पनियां एलआईसी (LIC) और जीआईसी (GIC) ने भी अपने फंड शुरू किये है। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने Mutual Fund (Regulation) 1993, के तहत भारत में पहली बार म्यूच्युअल फंड उद्योग के लिये एक comprehensive regulatory framework बनाया। तब से अब तक काफी सारे निजी और सरकारी म्यूच्युअल फंडो की स्थापना हो चुकी है। म्यूच्युअल फंड (मुख्य लेख:म्यूचुअल फंड) सभी विकसित देशो की तरह भारत मे भी म्यूच्युअल फंड में निवेश तेजी से बढ़ रहा है। इसके कई कारण है। म्यूच्युअल फंड निवेशकों को शेयर बाज़ार में निवेश का एक सस्ता और आसान तरीका प्रदान करते है, म्यूच्युअल फंड के माध्यम से आम निवेशकों को विविधीकरण (diversification) और वित्तीय नियंत्रण (money management) का फायदा आसानी से मिल जाता है। इस तरह की सुविधा पहले केवल उन ही लोगों को मिल पाती थी जिनके पास या तो बहुत सम्पत्ति होती थी या उन्हें पूंजी बाज़ार की तकनीकी जानकारी होती थी। उद्योग के दौर भारतीय म्यूच्युअल फंड उद्योग तीन दौरो से गुज़र चुका है। 1964 से 1987 पहला दौर था 1964 से 1987 का जब यूनिट ट्रस्ट औफ इंडिया ही बाज़ार में अकेला खिलाडी था। दूसरा, 1988 के अंत तक इसके पास रु 6,700 करोड की सम्पत्ति थी। 1993 से अबतक तीसरे दौऱ की शुरुआत 1993 में निजी और विदेशी बैंकोँ के आने से हुई। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India - SEBI) ने 1993 में भारत में पहली बार Mutual Fund and Asset Management Companies के लिये ढाचा परिभाषित किया। कई निजी म्यूच्युअल फंड की स्थापना 1993 और 1994 में हुई। तब से बाज़ार में निजी म्यूच्युअल फंडोँ मे काफी बढ़त हुई है। कोठारी पायोनियर म्यूच्युअल फंड निजी क्षेत्र का पहला फंड था। इसके बाद से भारत में म्यूच्युअल फंड उद्योग ने काफी तरक्की की। सन 2000 के अंत तक 32 फंड रु 1,13,005 करोड़ का प्रबन्धन कर रहे थे। अभी (2006 में) भारत में 34 म्यूच्युअल फंड संस्थान है। यह भी देखे सन्दर्भ बहारी कडियाँ श्रेणी:अर्थशास्त्र श्रेणी:स्टॉक श्रेणी:चित्र जोड़ें
भारतीय म्यूचुअल फंड की शुरुआत कब की गई?
1964
75
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घोड़ा या अश्व (Equus ferus caballus; ऐक़्वस फ़ेरस कैबेलस)[2][3] ऐक़्वस फ़ेरस (Equus ferus) की दो अविलुप्त उपप्रजातियों में से एक हैं। वह एक विषम-उंगली खुरदार स्तनधारी हैं, जो अश्ववंश (ऐक़्वडी) कुल से ताल्लुक रखता हैं। घोड़े का पिछले ४५ से ५५ मिलियन वर्षों में एक छोटे बहु-उंगली जीव, ऐओहिप्पस (Eohippus) से आज के विशाल, एकल-उंगली जानवर में क्रम-विकास हुआ हैं। मनुष्यों ने ४००० ईसा पूर्व के आसपास घोड़ों को पालतू बनाना शुरू कर दिया, और उनका पालतूकरण ३००० ईसा पूर्व से व्यापक रूप से फैला हुआ माना जाता हैं। कैबेलस (caballus) उपप्रजाति में घोड़े पालतू बनाएँ जाते हैं, यद्यपि कुछ पालतू आबादियाँ वन में रहती हैं निरंकुश घोड़ो के रूप में। ये निरंकुश आबादियाँ असली जंगली घोड़े नहीं हैं, क्योंकि यह शब्द उन घोड़ो को वर्णित करने के लिए प्रयुक्त होता हैं जो कभी पालतू बनाएँ ही नहीं गएँ हो, जैसे कि विलुप्तप्राय शेवालस्की का घोड़ा, जो एक अलग उपप्रजाति हैं और बचा हुआ केवल एकमात्र असली जंगली घोड़ा हैं। वह मनुष्य से जुड़ा हुआ संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी ने किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी (Equidae) कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान युग का गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर भी है। आदिनूतन युग (Eosin period) के ईयोहिप्पस (Eohippus) नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं। इसका वैज्ञानिक नाम ईक्वस (Equus) लैटिन से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरों छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस (Equus caballus) है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जातें है। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापति करने पर बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्ही पालतू घोड़ो के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते है। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलनेवाले ईक्वस प्रज़्वेलस्की (Equus przwalski) नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते है, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजो में से है। दक्षिण अफ्रिका के जंगलों में आज भी घोड़े बृहत झुंडो में पाए जाते है। एक झुंड में एक नर ओर कई मादाएँ रहती है। सबसे अधिक 1000 तक घोड़े एक साथ जंगल में पाए गए है। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज है और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करतेे है। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते है। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओ को घेर खड़े हो जाते है और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफी संख्या में इनके ठिगने कद के जंगली संबंधी 50 से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हे पालतू बनाता रहता है। पालतू बनाने का इतिहास घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि 7000 वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यो ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं व लेखकों ने इसके आर्य इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया बताया, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर एशिया से यूरोप, मिस्र और शनै:शनै: अमरीका आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्र है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि शालिहोत्र द्वारा अश्वचिकित्सा पर लिखित प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान (Veterinary Science) को शालिहोत्रशास्त्र नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय राजा नल और पांडवो में नकुल अश्वविद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थी। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्वचिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्वचिकित्सक 'शालिहोत्री' कहा जाता है। १२वीं-१३वीं शताब्दी में जयादित्य द्वारा रचित अश्ववैद्यक में घोड़े की चिकित्सा में अफीम के उपयोग का सन्दर्भ आया है।[4] अश्वजनन इसका उद्देश्य उत्तमोत्तम अश्वों की वृद्धि करना है। यह नियंत्रित रूप के केवल चुने हुए उत्तम जाति के घोड़े घोड़ियों द्वारा ही बच्चे उत्पन्नके संपादित किया जाता है। अश्व पुरातन काल से ही इतना तीव्रगामी और शक्तिशाली नहीं था जितना वह आज है। नियंत्रित सुप्रजनन द्वारा अनेक अच्छे घोड़े संभव हो सके हैं। अश्वप्रजनन (ब्रीडिंग) आनुवंशिकता के सिद्धांत पर आधारित है। देश-विदेश के अश्वों में अपनी अपनी विशेषताएँ होती हैं। इन्हीं गुणविशेषों को ध्यान में रखते हुए घोड़े तथा घोड़ी का जोड़ा बनाया जाता है और इस प्रकार इनके बच्चों में माता और पिता दोनों के विशेष गुणों में से कुछ गुण आ जाते हैं। यदि बच्चा दौड़ने में तेज निकला और उसके गुण उसके बच्चों में भी आने लगे तो उसकी संतान से एक नवीन नस्ल आरंभ हो जाती है। इंग्लैंड में अश्वप्रजनन की ओर प्रथम बार विशेष ध्यान हेनरी अष्टम ने दिया। अश्वों की नस्ल सुधारने के लिए उसने राजनिय बनाए। इनके अंतर्गत ऐसे घोड़ों को, जो दो वर्ष से ऊपर की आयु पर भी ऊँचाई में 60 इंच से कम रहते थे, संतानोत्पत्ति से वंचित रखा जाता था। पीछे दूर दूर देशों से उच्च जाति के अश्व इंग्लैंड में लाए गए और प्रजनन की रीतियों से और भी अच्छे घोड़े उत्पन्न किए गए। अश्वजनन के लिए घोड़ों का चयन उनके उच्च वंश, सुदृढ़ शरीररचना; सौम्य स्वभाव, अत्याधिक साहस और दृढ़ निश्चय की दृष्टि से किया जाता है। गर्भवती घोड़ी को हल्का परंतु पर्याप्त व्यायाम कराना आवश्यक है। घोड़े का बच्चा ग्यारह मास तक गर्भ में रहता है। नवजात बछड़े को पर्याप्त मात्रा में मां का दूध मिलना चाहिए। इसके लिए घोड़ी को अच्छा आहार देना आश्यक हैं। बच्चे को पाँच छह मास तक ही मां का दूध पिलाना चाहिए। पीछे उसके आहार और दिनचर्या पर यथेष्ट सतर्कता बरती जाती है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें अश्वधावन घोड़ा घोड़ा
घोड़े का वैज्ञानिक नाम क्या है?
ऐक़्वस फ़ेरस कैबेलस
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संयुक्त राष्ट्र (English: United Nations) एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति के लिए कार्यरत है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फ़िर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत अहम देश थे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में १९३ देश है, विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देश। इस संस्था की संरचन में आम सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सम्मिलित है। इतिहास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1929 में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। राष्ट्र संघ काफ़ी हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शांति संभालने के लिए तैनात कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पहले उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी होने वाले देशों ने मिलकर कोशिश की कि वे इस संस्था की संरचना, सदस्यता आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पाए। 24 अप्रैल 1945 को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहां सारे 40 उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्रिय संविधा पर हस्ताक्षर किया। पोलैंड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं थी, पर उसके हस्ताक्षर के लिए खास जगह रखी गई थी और बाद में पोलैंड ने भी हस्ताक्षर कर दिया। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र की अस्तित्व हुई। सदस्य वर्ग 2006 तक संयुक्त राष्ट्र में 192 सदस्य देश है। विश्व के लगभग सारी मान्यता प्राप्त देश [1] सदस्य है। कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसकी स्थिति चीन को 1971 में दे दी गई थी), वैटिकन, फ़िलिस्तीन (जिसको दर्शक की स्थिति का सदस्य माना जा [2] सक्ता है), तथा और कुछ देश। सबसे नए सदस्य देश है माँटेनीग्रो, जिसको 28 जून, 2006 को सदस्य बनाया गया। मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पचासी लाख डॉलर के लिए खरीदी भूसंपत्ति पर स्थापित है। इस इमारत की स्थापना का प्रबंध एक अंतर्राष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएं जनीवा, कोपनहेगन आदि में भी है। यह संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र तो नहीं हैं, परंतु उनको काफ़ी स्वतंत्रताएं दी जाती है। भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र ने 6 भाषाओं को "राज भाषा" स्वीकृत किया है (अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी), परंतु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी)। स्थापना के समय, केवल चार राजभाषाएं स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी) और 1973 में अरबी और स्पेनी को भी सम्मिलित किया गया। इन भाषाओं के बारे में विवाद उठता रहता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजभाषाओं की संख्या 6 से एक (अंग्रेज़ी) तक घटाना चाहिए, परंतु इनके विरोध है वे जो मानते है कि राजभाषाओं को बढ़ाना चाहिए। इन लोगों में से कई का मानना है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेज़ी की जगह ब्रिटिश अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है। 1971 तक चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था क्योंकि तब तक संयुक्त राष्ट्र तईवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था। जब तईवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारंभ किया। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में किसी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड नहीं है। किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र महासभा में साधारण बहुमत द्वारा एक संकल्प को स्वीकार करना और संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्यता के दो तिहाई बहुमत द्वारा उसे अंतिम रूप से पारित करना होता है। [3] भारत काफी लम्बे समय से यह कोशिश कर रहा है कि हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाए। भारत का यह दावा इस आधार पर है कि हिन्दी, विश्व में बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और विश्व भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है। भारत का यह दावा आज इसलिए और ज्यादा मजबूत हो जाता है क्योंकि आज का भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ चुनिंदा आर्थिक शक्तियों में भी शामिल हो चुका है।[4] २०१५ में भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के एक सत्र का शीर्षक ‘विदेशी नीतियों में हिंदी’ पर समर्पित था, जिसमें हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में से एक के तौर पर पहचान दिलाने की सिफारिश की गई थी। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए फरवरी 2008 में मॉरिसस में भी विश्व हिंदी सचिवालय खोला गया था। संयुक्त राष्ट्र अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो पर हिंदी भाषा में भी प्रसारण करता है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने यू एन में हिंदी में वक्तव्य दिए हैं जिनमें १९७७ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दी में भाषण, सितंबर, 2014 में 69वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वक्तव्य, सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन में उनका संबोधन, अक्तूबर, 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा 70वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधन [5] और सितंबर, 2016 में 71वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को विदेश मंत्री द्वारा संबोधन शामिल है। उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैं युद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास [6] उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना। सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई। मानव अधिकार द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था। ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, 1948 में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया। यह अबंधनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र समर्थन करने की कोशिश करेगी। 15 मार्च 2006 को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की। आज मानव अधिकारों के संबंध में सात संघ निकाय स्थापित है। यह सात निकाय हैं: मानव अधिकार संसद आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद जातीय भेदबाव निष्कासन संसद नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद यातना विरुद्ध संसद बच्चों के अधिकारों का संसद प्रवासी कर्मचारी संसद संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन) विश्व में महिलाओं के समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विश्व निकाय के भीतर एकल एजेंसी के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला के गठन को ४ जुलाई २०१० को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। वास्तविक तौर पर ०१ जनवरी २०११ को इसकी स्थापना की गयी। मुख्यालय अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बनाया गया है। यूएन वूमेन की वर्तमान प्रमुख चिली की पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री मिशेल बैशलैट हैं। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उनके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करना होगा। उल्लेखनीय है कि १९५३ में ८वें संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भारत की विजयलक्ष्मी पण्डित को प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र के ४ संगठनों का विलय करके नई इकाई को संयुक्त राष्ट्र महिला नाम दिया गया है। ये संगठन निम्नवत हैं: संयुक्त राष्ट्र महिला विकास कोष १९७६ महिला संवर्धन प्रभाग १९४६ लिंगाधारित मुद्दे पर विशेष सलाहकार कार्यालय १९९७ महिला संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान १९७६ शांतिरक्षा संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बंद है ताकि वह शांति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शांतिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है। विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शांतिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। संयुक्त राष्ट्र स्वतंत्र सेना नहीं रखती है। शांतिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है। संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945 - 1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शांतिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था। संघ की स्वतंत्र संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने कई कार्यक्रमों और एजेंसियों के अलावा १४ स्वतंत्र संस्थाओं से इसकी व्यवस्था गठित होती है। स्वतंत्र संस्थाओं में विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं। इनका संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग समझौता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कुछ प्रमुख संस्थाएं और कार्यक्रम हैं।[7] ये इस प्रकार हैं: अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी – विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है। अंतर्राष्ट्रीय अपराध आयोग – हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्द अपराध के सदिंग्ध लोगों पर मुक़दमा चलाने के लिए बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) – यह बच्चों के स्वास्थय, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) – यह ग़रीबी कम करने, आधारभूत ढाँचे के विकास और प्रजातांत्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन-यह संस्था व्यापार, निवेश और विकस के मुद्दों से संबंधित उद्देश्य को लेकर चलती है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक)- यह संस्था सामान्य सभा को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को प्रभावी बनाने में प्रयासरतहै। संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद – पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शांति और विकास का प्रसार करना है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) – नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र राजदूत – इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जीनिवा में स्थित है। विश्व खाद्य कार्यक्रम – भूख के विरुद्द लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ- अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम वनाता है। सन्दर्भ बाहरी कडियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधेश्याम चौरसिया) (दैनिक जागरण) श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय संगठन श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता श्रेणी:नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन
संयुक्त राष्ट्र का गठन कब हुआ था?
२४ अक्टूबर १९४५
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कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे।[1] उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्त्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं।[2] अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है।[3] कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं।[4] उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं।[5] साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है।[6] समय कालिदास किस काल में हुए और वे मूलतः किस स्थान के थे इसमें काफ़ी विवाद है। चूँकि, कालिदास ने द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम् नाटक लिखा और अग्निमित्र ने १७० ईसापू्र्व में शासन किया था, अतः कालिदास के समय की एक सीमा निर्धारित हो जाती है कि वे इससे पहले नहीं हुए हो सकते। छठीं सदी ईसवी में बाणभट्ट ने अपनी रचना हर्षचरितम् में कालिदास का उल्लेख किया है तथा इसी काल के पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख में कालिदास का जिक्र है अतः वे इनके बाद के नहीं हो सकते। इस प्रकार कालिदास के प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी के मध्य होना तय है।[7] दुर्भाग्यवश इस समय सीमा के अन्दर वे कब हुए इस पर काफ़ी मतभेद हैं। विद्वानों में (i) द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का मत (ii) प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत (iii) तृतीय शताब्दी ईसवी का मत (iv) चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत (v) पाँचवी शताब्दी ईसवी का मत, तथा (vi) छठीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का मत; प्रचलित थे। इनमें ज्यादातर खण्डित हो चुके हैं या उन्हें मानने वाले इक्के दुक्के लोग हैं किन्तु मुख्य संघर्ष 'प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत और 'चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत' में है।[8] प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत - परम्परा के अनुसार कालिदास उज्जयिनी के उन राजा विक्रमादित्य के समकालीन हैं जिन्होंने ईसा से 57 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् चलाया।[9] विक्रमोर्वशीय के नायक पुरुरवा के नाम का विक्रम में परिवर्तन से इस तर्क को बल मिलता है कि कालिदास उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे। इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है। चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत - प्रो॰ कीथ और अन्य इतिहासकार कालिदास को गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त से जोड़ते हैं, जिनका शासनकाल चौथी शताब्दी में था।[10] ऐसा माना जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि ली और उनके शासनकाल को स्वर्णयुग माना जाता है। विवाद और पक्ष-प्रतिपक्ष - कालिदास ने शुंग राजाओं के छोड़कर अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता या किसी साम्राज्य का उल्लेख नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने पुरुरवा और उर्वशी पर आधारित अपने नाटक का नाम विक्रमोर्वशीयम् रखा। कालिदास ने किसी गुप्त शासक का उल्लेख नहीं किया। विक्रमादित्य नाम के कई शासक हुए, संभव है कि कालिदास इनमें से किसी एक के दरबार में कवि रहे हों। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास शुंग वंश के शासनकाल में थे, जिनका शासनकाल 100 सदी ईसापू्र्व था। अग्निमित्र, जो मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक है, कोई सुविख्यता राजा नहीं था, इसीलिए कालिदास ने उसे विशिष्टता प्रदान नहीं की। उनका काल ईसा से दो शताब्दी पूर्व का है और विदिशा उसकी राजधानी थी। कालिदास के द्वारा इस कथा के चुनाव और मेघदूत में एक प्रसिद्ध राजा की राजधानी के रूप में उसके उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालिदास अग्निमित्र के समकालीन थे। यह स्पष्ट है कि कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद (150 ई॰ पू॰) और 634 ई॰ पूर्व तक रहा है, जो कि प्रसिद्ध ऐहोल के शिलालेख की तिथि है, जिसमें कालिदास का महान कवि के रूप में उल्लेख है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाए कि माण्डा की कविताओं या 473 ई॰ के शिलालेख में कालिदास के लेखन की जानकारी का उल्लेख है, तो उनका काल चौथी शताब्दी के अन्त के बाद का नहीं हो सकता। अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास की कृतियों में समानताएं हैं। यदि अश्वघोष कालिदास के ऋणी हैं तो कालिदास का काल प्रथम शताब्दी ई॰ से पूर्व का है और यदि कालिदास अश्वघोष के ऋणी हैं तो कालिदास का काल ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ठहरेगा। हम कोई भी तिथि स्वीकार करें, वह हमारा उचित अनुमान भर है और इससे अधिक कुछ नहीं। जन्म स्थान कालिदास के जन्मस्थान के बारे में भी विवाद है। मेघदूतम् में उज्जैन के प्रति उनकी विशेष प्रेम को देखते हुए कुछ लोग उन्हें उज्जैन का निवासी मानते हैं। साहित्यकारों ने ये भी सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कालिदास का जन्म उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ था। कालिदास ने यहीं अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की थी औऱ यहीं पर उन्होंने मेघदूत, कुमारसंभव औऱ रघुवंश जैसे महाकाव्यों की रचना की थी। कविल्ठा चारधाम यात्रा मार्ग में गुप्तकाशी में स्थित है। गुप्तकाशी से कालीमठ सिद्धपीठ वाले रास्ते में कालीमठ मंदिर से चार किलोमीटर आगे कविल्ठा गांव स्थित है। कविल्ठा में सरकार ने कालिदास की प्रतिमा स्थापित कर एक सभागार की भी निर्माण करवाया है। जहां पर हर साल जून माह में तीन दिनों तक गोष्ठी का आयोजन होता है, जिसमें देशभर के विद्वान भाग लेते हैं। कुछ विद्वानों ने तो उन्हें बंगाल और उड़ीसा का भी साबित करने की कोशिस की है। कहते हैं कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी लेकिन विद्वान इसे भी कपोल-कल्पित मानते हैं।[11] जीवन कथाओं और किम्वादंतियों के अनुसार कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे। कालिदास का विवाह विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुआ। ऐसा कहा जाता है कि विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वह उसी के साथ शादी करेगी। जब विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में सभी विद्वानों को हरा दिया तो अपमान से दुखी कुछ विद्वानों ने कालिदास से उसका शास्त्रार्थ कराया। विद्योत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछती थी, जिसे कालिदास अपनी बुद्धि से मौन संकेतों से ही जवाब दे देते थे। विद्योत्तमा को लगता था कि कालिदास गूढ़ प्रश्न का गूढ़ जवाब दे रहे हैं। उदाहरण के लिए विद्योत्तमा ने प्रश्न के रूप में खुला हाथ दिखाया तो कालिदास को लगा कि यह थप्पड़ मारने की धमकी दे रही है। उसके जवाब में कालिदास ने घूंसा दिखाया तो विद्योत्तमा को लगा कि वह कह रहा है कि पाँचों इन्द्रियाँ भले ही अलग हों, सभी एक मन के द्वारा संचालित हैं। विद्योत्तमा और कालिदास का विवाह हो गया तब विद्योत्तमा को सच्चाई का पता चला कि कालिदास अनपढ़ हैं। उसने कालिदास को धिक्कारा और यह कह कर घर से निकाल दिया कि सच्चे पंडित बने बिना घर वापिस नहीं आना। कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से वे ज्ञानी और धनवान बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा खड़का कर कहा - कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरी (दरवाजा खोलो, सुन्दरी)। विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा -- अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः (कोई विद्वान लगता है)। इस प्रकार, इस किम्वदन्ती के अनुसार, कालिदास ने विद्योत्तमा को अपना पथप्रदर्शक गुरु माना और उसके इस वाक्य को उन्होंने अपने काव्यों में जगह दी। कुमारसंभवम् का प्रारंभ होता है- अस्त्युत्तरस्याम् दिशि… से, मेघदूतम् का पहला शब्द है- कश्चित्कांता… और रघुवंशम् की शुरुआत होती है- वागार्थविव… से। रचनाएं छोटी-बड़ी कुल लगभग चालीस रचनाएँ हैं जिन्हें अलग-अलग विद्वानों ने कालिदास द्वारा रचित सिद्ध करने का प्रयास किया है।[12] इनमें से मात्र सात ही ऐसी हैं जो निर्विवाद रूप से कालिदासकृत मानि जाती हैं: तीन नाटक(रूपक): अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; दो महाकाव्य: रघुवंशम् और कुमारसंभवम्; और दो खण्डकाव्य: मेघदूतम् और ऋतुसंहार। इनमें भी ऋतुसंहार को प्रो॰ कीथ संदेह के साथ कालिदास की रचना स्वीकार करते हैं।[13] नाटक मालविकाग्निमित्रम् कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है। अग्निमित्र एक निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र से प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी साबित होती है और उसके प्रेम-संबंध को स्वीकार कर लिया जाता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की दूसरी रचना है जो उनकी जगतप्रसिद्धि का कारण बना। इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी और जर्मन के अलावा दुनिया के अनेक भाषाओं में हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत की कहानी है जो वन में एक परित्यक्त ऋषि पुत्री शकुन्तला (विश्वामित्र और मेनका की बेटी) से प्रेम करने लगता है। दोनों जंगल में गंधर्व विवाह कर लेते हैं। राजा दुष्यंत अपनी राजधानी लौट आते हैं। इसी बीच ऋषि दुर्वासा शकुंतला को शाप दे देते हैं कि जिसके वियोग में उसने ऋषि का अपमान किया वही उसे भूल जाएगा। काफी क्षमाप्रार्थना के बाद ऋषि ने शाप को थोड़ा नरम करते हुए कहा कि राजा की अंगूठी उन्हें दिखाते ही सब कुछ याद आ जाएगा। लेकिन राजधानी जाते हुए रास्ते में वह अंगूठी खो जाती है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब शकुंतला को पता चला कि वह गर्भवती है। शकुंतला लाख गिड़गिड़ाई लेकिन राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। जब एक मछुआरे ने वह अंगूठी दिखायी तो राजा को सब कुछ याद आया और राजा ने शकुंतला को अपना लिया। शकुंतला शृंगार रस से भरे सुंदर काव्यों का एक अनुपम नाटक है। कहा जाता है काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला (कविता के अनेक रूपों में अगर सबसे सुन्दर नाटक है तो नाटकों में सबसे अनुपम शकुन्तला है।) विक्रमोर्वशीयम् एक रहस्यों भरा नाटक है। इसमें पुरूरवा इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगते हैं। पुरूरवा के प्रेम को देखकर उर्वशी भी उनसे प्रेम करने लगती है। इंद्र की सभा में जब उर्वशी नृत्य करने जाती है तो पुरूरवा से प्रेम के कारण वह वहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है। इससे इंद्र गुस्से में उसे शापित कर धरती पर भेज देते हैं। हालांकि, उसका प्रेमी अगर उससे होने वाले पुत्र को देख ले तो वह फिर स्वर्ग लौट सकेगी। विक्रमोर्वशीयम् काव्यगत सौंदर्य और शिल्प से भरपूर है। महाकाव्य कुमारसंभवम् उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है। रघुवंशम् में कालिदास ने रघुकुल के राजाओं का वर्णन किया है। खण्डकाव्य मेघदूतम् एक गीतिकाव्य है जिसमें यक्ष द्वारा मेघ से सन्देश ले जाने की प्रार्थना और उसे दूत बना कर अपनी प्रिय के पास भेजने का वर्णन है। मेघदूत के दो भाग हैं - पूर्वमेघ एवं उत्तरमेघ। ऋतुसंहारम् में सभी ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अन्य रचनाएँ इनके अलावा कई छिटपुट रचनाओं का श्रेय कालिदास को दिया जाता है, लेकिन विद्वानों का मत है कि ये रचनाएं अन्य कवियों ने कालिदास के नाम से की। नाटककार और कवि के अलावा कालिदास ज्योतिष के भी विशेषज्ञ माने जाते हैं। उत्तर कालामृतम् नामक ज्योतिष पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली देवी की पूजा से उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला। इस पुस्तिका में की गई भविष्यवाणी सत्य साबित हुईं। श्रुतबोधम् शृंगार तिलकम् शृंगार रसाशतम् सेतुकाव्यम् पुष्पबाण विलासम् श्यामा दंडकम् ज्योतिर्विद्याभरणम् काव्य सौन्दर्य कालिदास को कविकुलगुरु, कनिष्ठिकाधिष्ठित और कविताकामिनीविलास जैसी प्रशंशात्मक उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं जो उनके काव्यगत विशिष्टताओं से अभिभूत होकर ही दी गयी हैं। कालिदास के काव्य की विशिष्टताओं का वर्णन निम्नवत किया जा सकता है: भाषागत विशिष्टताएँ कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और उन्होंने प्रसाद गुण से पूर्ण ललित शब्दयोजना का प्रयोग किया है। प्रसाद गुण का लक्षण है - "जो गुण मन में वैसे ही व्याप्त हो जाय जैसे सूखी ईंधन की लकड़ी में अग्नि सहसा प्रज्वलित हो उठती है"[14] और कालिदास की भाषा की यही विशेषता है। कालिदास की भाषा मधुर नाद सुन्दरी से युक्त है और समासों का अल्पप्रयोग, पदों का समुचित स्थान पर निवेश, शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग इत्यादि गुणों के कारण उसमें प्रवाह और प्रांजलता विद्यमान है। अलंकार योजना कालिदास ने शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है और उन्हें उपमा अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त और उनकी उपमाओं को श्रेष्ठ माना जाता है।[15] उदहारण के लिये: संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।।[16] अर्थात् स्वयंवर में बारी-बारी से प्रत्येक राजा के सामने गमन करती हुई इन्दुमती राजाओं के सामने से चलती हुई दीपशिखा की तरह लग रही थी जिसके आगे बढ़ जाने पर राजाओं का मुख विवर्ण (रिजेक्ट कर दिए जाने से अंधकारमय, मलिन) हो जाता था। अभिव्यंजना कालिदास की कविता की प्रमुख विशेषता है कि वह चित्रों के निर्माण में सबकुछ न कहकर भी अभिव्यंजना द्वारा पूरा चित्र खींच देते हैं। जैसे: एवं वादिनि देवर्शौ पार्श्वे पितुरधोमुखी। लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।।[17] अर्थात् देवर्षि के द्वारा ऐसी (पार्वती के विवाह प्रस्ताव की) बात करने पर, पिता के समीप बैठी पार्वती ने सिर झुका कर हाथ में लिये कमल की पंखुड़ियों को गिनना शुरू कर दिया। आधुनिककाल में कालिदास कूडियट्टम् में संस्कृत आधारित नाटकों का एक रंगमंच है, जहां भास के नाटक खेले जाते हैं। महान कूडियट्टम कलाकार और नाट्य शास्त्र के विद्वान स्वर्गीय नाट्याचार्य विदुषकरत्तनम पद्मश्री गुरू मणि माधव चक्यार ने कालिदास के नाटकों के मंचन की शुरूआत की। कालिदास को लोकप्रिय बनाने में दक्षिण भारतीय भाषाओं के फिल्मों का भी काफी योगदान है। कन्नड़ भाषा की फिल्मों कविरत्न कालिदास और महाकवि कालिदास ने कालिदास के जीवन को काफी लोकप्रिय बनाया। इन फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट और संगीत का बखूबी उपयोग किया गया था। वी शांताराम ने शकुंतला पर आधारित फिल्म बनायी थी। ये फिल्म इतनी प्रभावशाली थी कि इसपर आधारित अनेक भाषाओं में कई फिल्में बनाई गई। हिन्दी लेखक मोहन राकेश ने कालिदास के जीवन पर एक नाटक आषाढ़ का एक दिन की रचना की, जो कालिदास के संघर्षशील जीवन के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। १९७६ में सुरेंद्र वर्मा ने एक नाटक लिखा, जिसमें इस बात का जिक्र किया गया है कि पार्वती के शाप के कारण कालिदास कुमारसंभव को पूरा नहीं कर पाए थे। शिव और पार्वती के गार्हस्थ जीवन का अश्लीलतापूर्वक वर्णन करने के लिए पार्वती ने उन्हें यह शाप दिया था। इस नाटक में कालिदास को चंद्रगुप्त की अदालत का सामना करना पड़ा, जहां पंडितों और नैतिकतावादियों ने उनपर अनेक आरोप लगाए। इस नाटक में न सिर्फ एक लेखक के संघर्षशील जीवन को दिखाया गया है, बल्कि लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को भी रेखांकित किया गया है। अस्ति कश्चित वागर्थीयम् नाम से डॉ कृष्ण कुमार ने १९८४ में एक नाटक लिखा, यह नाटक कालिदास के विवाह की लोकप्रिय कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार, कालिदास पेड़ की उसी टहनी को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे थे। विद्योत्तम से अपमानित दो विद्वानों ने उसकी शादी इसी कालिदास के करा दी। जब उसे ठगे जाने का अहसास होता है, तो वो कालिदास को ठुकरा देती है। साथ ही, विद्योत्तमा ने ये भी कहा कि अगर वे विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटते हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी। जब कालिदास विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटे तो सही रास्ता दिखाने के लिए कालिदास ने उन्हें पत्नी न मानकर गुरू मान लिया। गाथाएं कालिदास और दंडी में कौन श्रेष्ठ कवि थे, इस सवाल को दोनों ने माता सरस्वती के सामने रखा। सरस्वती ने जवाब दिया, दंडी। दुखी कालिदास ने पूछा, "तो माँ मैं कुछ भी नहीं"? माता ने जवाब दिया, त्वमेवाहं, यानी तुम और मैं दोनों एक जैसे हैं। सन्दर्भ के डी सेठना, प्रॉबलम्स ऑफ एन्शिएंट इंडिया (अध्याय-द टाइम्स ऑफ कालिदास), २००० नई दिल्ली, आदित्य प्रकाशन कालिदास वस्तुतः भारतीय साहित्य के नक्षत्र। इन्हें भी देखें संस्कृत साहित्य संस्कृत नाटक सन्दर्भ बाह्य कड़ियॉ , लेखक-आर्थर डब्ल्यू रायडर (Google book By Kālidāsa, Mallinātha, Moreshvar Ramchandra Kāle] - englische Vers- und Wort-für-Wort Übersetzung von Rtusamhara, Raghuvamsa 1-6, Kumarasambhavam 1 (im Internet Archive) श्रेणी:संस्कृत साहित्य श्रेणी:संस्कृत नाटककार श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:कालिदास
कालिदास कौनसे रीति के कवि हैं?
वैदर्भी
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कटहल या फनस का वृक्ष शाखायुक्त, सपुष्पक तथा बहुवर्षीय वृक्ष है। यह दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया का मूल-निवासी है। पेड़ पर होने वाले फलों में इसका फल विश्व में सबसे बड़ा होता है।[1] फल के बाहरी सतह पर छोटे-छोटे काँटे पाए जाते हैं। इस प्रकार के संग्रन्थित फल को सोरोसिस कहते हैं। कटहल का लैटिन नाम औनतिआरिस टोक्सिकारीआ (Antiaris Toxicaria) पत्ते १० सेमी से लेकर २० सेमी लम्बे कुछ चौड़े ,किंचित अंडाकार और किंचित कालापनयुक्त हरे रंग के होते हैं। पुष्प कटहल में पुष्प स्तम्भ और मोटी शाखाओं पर लगते हैं। पुष्प ५ सेमी से लेकर १५ सेमी तक लम्बे , २-५ सेमी गोल अंडाकार और किंचित पीले रंग के होते हैं फल बहुत बड़े -बड़े लम्बाई युक्त गोल होते हैं। उसके उप्र कोमल कांटे होते हैं। भार में लगभग २० किलो वजन होता है। कटहल के बीज के गुण बीज की मींगी वीर्यवर्धक ,वात ,पित्त तथा कफ नाशक होती है। मंदाग्नि रोग वालों को कटहल खाना छोड़ देना चाहिए। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:वनस्पति विज्ञान
कटहल या फनस वृक्ष का वानस्पतिक नाम क्या है?
औनतिआरिस टोक्सिकारीआ
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अलेक्जेंडर ग्राहम बेल (Alexander Graham Bell) (3 मार्च 1847 – 2 अगस्त 1922) को पूरी दुनिया आमतौर पर टेलीफोन के आविष्कारक के रूप में ही ज्यादा जानती है। बहुत कम लोग ही यह जानते हैं कि ग्राहम बेल ने न केवल टेलीफोन, बल्कि कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कई और भी उपयोगी आविष्कार किए हैं। ऑप्टिकल-फाइबर सिस्टम, फोटोफोन, बेल और डेसिबॅल यूनिट, मेटल-डिटेक्टर आदि के आविष्कार का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। ये सभी ऐसी तकनीक पर आधारित हैं, जिसके बिना संचार-क्रंति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।[1] जीवनी ग्राहम बेल का जन्म स्कॉटलैण्ड के एडिनबर्ग में ३ मार्च सन १८४७ को हुआ था। मरण २ अगस्त,१९२२ == विलक्षण प्रतिभा के धनी == ग्राहम बेल की विलक्षण प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे महज तेरह वर्ष के उम्र में ही ग्रेजुएट हो गए थे। यह भी बेहद आश्चर्य की बात है कि वे केवल सोलह साल की उम्र में एक बेहतरीन म्यूजिक टीचर के रूप में मशहूर हो गए थे। मां के बधिरपन ने दिखाया रास्ता अपंगता किसी भी व्यक्ति के लिए एक अभिशाप से कम नहीं होती, लेकिन ग्राहम बेल ने अपंगता को अभिशाप नहीं बनने दिया। दरअसल, ग्राहम बेल की मां बधिर थीं। मां के सुनने में असमर्थता से ग्राहम बेल काफी दुखी और निराश रहते थे, लेकिन अपनी निराशा को उन्होंने कभी अपनी सफलता की राह में रुकावट नहीं बनने दिया। उन्होंने अपनी निराशा को एक सकारात्मक मोड देना ही बेहतर समझा। यही कारण था कि वे ध्वनि विज्ञान की मदद से न सुन पाने में असमर्थ लोगों के लिए ऐसा यंत्र बनाने में कामयाब हुए, जो आज भी बधिर लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। बधिरों से खास लगाव अगर यह कहें कि ग्राहम बेल ने अपना पूरा जीवन बधिर लोगों के लिए कार्य करने में लगा दिया, तो शायद गलत नहीं होगा। उनकी मां तो बधिर थीं हीं, ग्राहम बेल की पत्नी और उनका एक खास दोस्त भी सुनने में असमर्थ था। चूंकि उन्होंने शुरू से ही ऐसे लोगों की तकलीफ को काफी करीब से महसूस किया था, इसलिए उनके जीवन की बेहतरी के लिए और क्या किया जाना चाहिए, इसे वे बेहतर ढंग से समझ सकते थे। हो सकता है कि शायद अपने जीवन की इन्हीं खास परिस्थितियों की वजह से ग्राहम बेल टेलीफोन के आविष्कार में सफल हो पाए हों। आविष्कारों के जनक ग्राहम बेल बचपन से ही ध्वनि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते थे, इसलिए लगभग 23 साल की उम्र में ही उन्होंने एक ऐसा पियानो बनाया, जिसकी मधुर आवाज काफी दूर तक सुनी जा सकती थी। कुछ समय तक वे स्पीच टेक्नोलॉजी विषय के टीचर भी रहे थे। इस दौरान भी उन्होंने अपना प्रयास जारी रखा और एक ऐसे यंत्र को बनाने में सफल हुए, जो न केवल म्यूजिकॅल नोट्स को भेजने में सक्षम था, बल्कि आर्टिकुलेट स्पीच भी दे सकता था। यही टेलीफोन का सबसे पुराना मॉडल था। शिक्षा एक छोटे बच्चे के रूप में, बेल, अपने भाइयों की तरह, अपने पिता से घर पर अपने प्रारंभिक स्कूली शिक्षा प्राप्त की। एक कम उम्र में, हालांकि, उन्होंने कहा कि वह केवल पहले चार रूपों को पूरा करने, स्कूल 15 साल की उम्र में छोड़ दिया है जो रॉयल हाई स्कूल, एडिनबर्ग, स्कॉटलैंड, में नामांकित किया गया था। [22] उनके स्कूल रिकॉर्ड, न सुलझा था अनुपस्थिति और भावशून्य ग्रेड द्वारा चिह्नित। वह अपने मांग की पिता की निराशा करने के लिए, उदासीनता के साथ स्कूल के अन्य विषयों का इलाज किया है, जबकि उनका मुख्य ब्याज।, विज्ञान, विशेष रूप से जीव विज्ञान में बने [23] स्कूल छोड़ने पर, बेल अपने दादा, अलेक्जेंडर बेल के साथ रहने के लिए लंदन की यात्रा की। लंबे समय तक गंभीर चर्चा और अध्ययन में खर्च के साथ वह अपने दादा के साथ बिताए वर्ष के दौरान सीखने की एक प्रेम पैदा हुआ था। बड़े बेल अपने युवा छात्र, विशेषताओं उनके छात्र एक शिक्षक खुद बनने की जरूरत है कि स्पष्ट रूप से और विश्वास के साथ बात करने के लिए सीखना है करने के लिए काफी प्रयास ले लिया। [24] 16 साल की उम्र में, बेल एक "स्टूडेंट-टीचर 'के रूप में एक स्थान सुरक्षित एल्गिन में वेस्टन हाउस अकादमी, मोरे, स्कॉटलैंड में भाषण और संगीत की। वह लैटिन और ग्रीक में एक छात्र के रूप में नामांकित किया गया था, वह बोर्ड के लिए वापसी और सत्र पाउंड प्रति 10 में कक्षाएं खुद को निर्देश दिए [25] अगले वर्ष, वह एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में भाग लिया। पिछले वर्ष वहां दाखिला लिया था जो उनके बड़े भाई मेलविल में शामिल होने। वह अपने परिवार के साथ कनाडा के लिए रवाना होने से पहले 1868 में, लंबे समय तक नहीं, aleck अपनी मैट्रिक परीक्षा पूरी की और लंदन विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए स्वीकार कर लिया गया। [26] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ । समय लाइव। २ मार्च २००९। रमेश चंद्र बेल, अलेक्ज़ांडर ग्राहम बेल, अलेक्ज़ांडर ग्राहम
´टेलीफोन´ के आविष्कारक कौन थे?
ग्राहम बेल
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हाइड्रोजन (उदजन) (अंग्रेज़ी:Hydrogen) एक रासायनिक तत्व है। यह आवर्त सारणी का सबसे पहला तत्व है जो सबसे हल्का भी है। ब्रह्मांड में (पृथ्वी पर नहीं) यह सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। तारों तथा सूर्य का अधिकांश द्रव्यमान हाइड्रोजन से बना है। इसके एक परमाणु में एक प्रोट्रॉन, एक इलेक्ट्रॉन होता है। इस प्रकार यह सबसे सरल परमाणु भी है।[7] प्रकृति में यह द्विआण्विक गैस के रूप में पाया जाता है जो वायुमण्डल के बाह्य परत का मुख्य संघटक है। हाल में इसको वाहनों के ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर सकने के लिए शोध कार्य हो रहे हैं। यह एक गैसीय पदार्थ है जिसमें कोई गंध, स्वाद और रंग नहीं होता है। यह सबसे हल्का तत्व है (घनत्व 0.09 ग्राम प्रति लिटर)। इसकी परमाणु संख्या 1, संकेत (H) और परमाणु भार 1.008 है। यह आवर्त सारणी में प्रथम स्थान पर है। साधारणतया इससे दो परमाणु मिलकर एक अणु (H2) बनाते है। हाइड्रोजन बहुत निम्न ताप पर द्रव और ठोस होता है।[8] द्रव हाइड्रोजन - 253° से. पर उबलता है और ठोस हाइड्रोजन - 258 सें. पर पिघलता है।[9] उपस्थिति असंयुक्त हाइड्रोजन बड़ी अल्प मात्रा में वायु में पाया जाता है। ऊपरी वायु में इसकी मात्रा अपेक्षाकृत अधिक रहती है। सूर्य के परिमंडल में इसकी प्रचुरता है। पृथ्वी पर संयुक्त दशा में यह जल, पेड़ पौधे, जांतव ऊतक, काष्ठ, अनाज, तेल, वसा, पेट्रालियम, प्रत्येक जैविक पदार्थ में पाया जाता है। अम्लों का यह आवश्यक घटक है। क्षारों और कार्बनिक यौगिकों में भी यह पाया जाता है। निर्माण प्रयोगशाला में जस्ते पर तनु गंधक अम्ल की क्रिया से यह प्राप्त होता है। युद्ध के कामों के लिए कई सरल विधियों से यह प्राप्त हो सकता है। 'सिलिकोल' विधि में सिलिकन या फेरो सिलिकन पर सोडियम हाइड्राक्साइड की क्रिया से ; 'हाइड्रोलिथ' (जलीय अश्म) विधि में कैलसियम हाइड्राइड पर जल की क्रिया से ; 'हाइड्रिक' विधि में एलुमिनियम पर सोडियम हाइड्राक्साइड की क्रिया से प्राप्त होता है। गर्म स्पंजी लोहे पर भाप की क्रिया से एक समय बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन तैयार होता था[10] आज हाइड्रोजन प्राप्त करने की सबसे सस्ती विधि 'जल गैस' है। जल गैस में हाइड्रोजन और कार्बन मोनोक्साइड विशेष रूप से रहते हैं। जल गैस को ठंडाकर द्रव में परिणत करते हैं। द्रव का फिर प्रभाजक आसवन करते हैं। इससे कार्बन मोनोऑक्साइड (क्वथनांक 191° सें.) और नाइट्रोजन (क्वथनांक 195 सें.) पहले निकल जाते हैं और हाइड्रोजन (क्वथनांक 250° से.) शेष रह जाता है। जल के वैद्युत अघटन से भी पर्याप्त शुद्ध हाइड्रोजन प्राप्त हो सकता है। एक किलोवाट घंटासे लगभग 7 घन फुट हाइड्रोजन प्राप्त हो सकता है। कुछ विद्युत्‌ अपघटनी निर्माण में जैसे नमक से दाहक सोडा के निर्माण में, उपोत्पाद के रूप में बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन प्राप्त होता है। गुण हाइड्रोजन वायु या ऑक्सीजन में जलता है। जलने का ताप ऊँचा होता है। ज्वाला रंगहीन होती है। जलकर यह जल (H2O) और अत्यल्प मात्रा में हाइड्रोजन पेरॉक्साइड (H2O2) बनाता है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिश्रण में आग लगाने या विद्युत्‌ स्फुलिंग से बड़े कड़ाके के साथ विस्फोट होता है और जल की बूँदें बनती हैं। हाइड्रोजन अच्छा अपचायक है। लोहे के मोर्चों को लोहे में और ताँबे के आक्साइड को ताँबे में परिणत कर देता है। यह अन्य तत्वों के साथ संयुक्त हो यौगिक बनाता है। क्लोरीन के साथ क्लोराइड, (HCl), नाइट्रोजन के साथ अमोनिया (NH3) गंधक के साथ हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), फास्फोरस के साथ फास्फोन (PH3) ये सभी द्विअंगी यौगिक हैं। इन्हें हाइड्राइड या उदजारेय कहते है। हाइड्रोजन एक विचित्र गुणवाला तत्व है। यह है तो अधातु पर अनेक यौगिकों से धातुओं सा व्यवहार करता है। इसके परमाणु में केवल एक प्रोटॉन और एक इलेक्ट्रॉन होते हैं। सामान्य हाइड्रोजन में 0.002 प्रतिशत एक दूसरा हाइड्रोजन होता है जिसको भारी हाइड्रोजन की संज्ञा दी गई है। यह सामान्य परमाणु हाइड्रोजन से दुगुना भारी होता है। इसे 'ड्यूटीरियम' (D) कहते हैं और इसका उत्पत्ति होता है जब हाइड्रोजन (उदजन) को एक अधिक न्यूट्रॉन मिलते है और ऐसे ड्यूटेरियम को हाइड्रोजन का एक समस्थानिक कहते है। ऑक्सीजन के साथ मिलकर यह भारी जल (D2O) बनाता है। हाइड्रोजन के एक अन्य समस्थानिक का भी पत लगा है। इसे ट्रिशियम (Tritium) कहते हैं और इसका उत्पत्ति होता है जब ड्यूटीरियम को एक अधिक न्यूट्रॉन मिलते है। सामान्य हाइड्रोजन से यह तिगुना भारी होता है। परमाणुवीय हाइड्रोजन हाइड्रोजन के अणु को जब अत्यधिक ऊष्मा में रखते हैं तब वे परमाणुवीय हाइड्रोजन में वियोजित हो जाते हैं। ऐसे हाइड्रोजन का जीवनकाल दबाव पर निर्भर करता और बड़ा अल्प होता है। ऐसा पारमाण्वीय हाइड्रोजनरसायनत: बड़ा सक्रिय होता है और सामान्य ताप पर भी अनेक तत्वों के साथ संयुक्त हो यौगिक बनाता है। उपयोग हाइड्रोजन के अनेक उपयोग हैं। हेबर विधि में नाइट्रोजन के साथ संयुक्त हो यह अमोनिया बनता है जो उर्वरक के रूप में व्यवहार में आता है। तेल के साथ संयुक्त होकर हाइड्रोजन वनस्पति तेल (ठोस या अर्धठोस वसा) बनाता है। खाद्य के रूप में प्रयुक्त होने के लिए वनस्पति तेल बहुत बड़ी मात्रा (mass scale) में बनती है। अपचायक के रूप में यह अनेक धातुओं के निर्माण में काम आता है। इसकी सहायता से कोयले से संश्लिष्ट पेट्रोलियम भी बनाया जाता है। अनेक ईधंनों में हाइड्रोजन जलकर ऊष्मा उत्पन्न करता है। ऑक्सीहाइड्रोजन ज्वाला का ताप बहुत ऊँचा होता है। वह ज्वाला धातुओं के काटने, जोड़ने और पिघलाने में काम आती है। विद्युत्‌ चाप (electric arc) में हाइड्रोजन के अणु के तोड़ने से परमाण्वीय हाइड्रोजन ज्वाला प्राप्त होती है जिसका ताप 3370° सें. तक हो सकता है। हल्का होने के कारण गुब्बारा और वायुपोतों में हाइड्रोजन प्रयुक्त होता है तथा इसका स्थान अब हीलियम ले रहा है। अभिक्रियाओं की सूची H2+Cl2 -&gt; 2HCl 2H2+O2 -&gt; 2H2O संश्लेषण प्राकृतिक गैस को गर्म तथा कुछ अन्य प्रक्रियाओं द्वारा गुज़ारने पर हाइड्रोज़न और कार्बन मोनोऑक्साईड का मिश्रण मिलता है CH4+H2O -&gt; CO + 3H2 चित्रदीर्घा हाइड्रोजन का इलेक्ट्रॉन ढांचा इन्हें भी देखें भौतिकी बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:हाइड्रोजन श्रेणी:रासायनिक तत्व श्रेणी:द्विपरमाणुक अधातु श्रेणी:अपचायक श्रेणी:गैसें श्रेणी:औद्योगिक गैसें श्रेणी:नाभिकीय संलयन ईन्धन
हाइड्रोजन का परमाणु द्रव्यमान क्या है?
1.008
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नाभिक, परमाणु के मध्य स्थित धनात्मक वैद्युत आवेश युक्त अत्यन्त ठोस क्षेत्र होता है। नाभिक, नाभिकीय कणों प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन से बने होते है। इस कण को नूक्लियान्स कहते है। प्रोटॉन व न्यूट्रॉन दोनो का द्रव्यमान लगभग बराबर होता है और दोनों का आंतरिक कोणीय संवेग (स्पिन) १/२ होता है। प्रोटॉन इकाई विद्युत आवेशयुक्त होता है जबकि न्यूट्रॉन अनावेशित होता है। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन दोनो न्यूक्लिऑन कहलाते है। नाभिक का व्यास (10−15 मीटर)(हाइड्रोजन-नाभिक) से (10−14 मीटर)(युरेनियम) के दायरे में होता है। परमाणु का लगभग सारा द्रव्यमान नाभिक के कारण ही होता है, इलेक्ट्रान का योगदान लगभग नगण्य होता है। सामान्यतः नाभिक की पहचान परमाणु संख्या Z (प्रोटॉन की संख्या), न्यूट्रॉन संख्या N और द्रव्यमान संख्या A(प्रोटॉन की संख्या + न्यूट्रॉन संख्या) से होती है जहाँ A = Z + N। नाभिक के व्यास की परास "फर्मी" के कोटि की होती है। इनके अलावा नाभिक के कई गुण होते हैं जैसे आकार, आकृति, बंधन ऊर्जा, कोणीय संवेग और अर्द्ध-आयु इत्यादि। आकार नाभिक में प्रोटॉनो के वितरण से नाभिक का औसत व्यास निर्धारित होता है जो कि १−१० से १०−१५ मीटर सीमा में होता है। नाभिक का व्यास परमाणु के व्यास १०−१० मीटर की अपेक्षा बहुत कम होता है, इसलिए परमाणु के भीतर नाभिक बहुत ही कम आयतन घेरता है। आकृति कुछ नाभिकों की आकृति गोलाकार होती है जबकि कुछ की आकृति थोडी दबी हुई विकृत होती है। बंधन ऊर्जा किसी नाभिक के प्रोटॉन, न्यूट्रॉन को अलग करने के लिए आवश्यक उर्जा को उस नाभिक की बंधन ऊर्जा कहते हैं बंधन ऊर्जा वो ऊर्जा होती है जो नाभिक को बांधकर रखती है। इस ऊर्जा का स्तर भिन्न भिन्न नभिकों में भिन्न भिन्न होता है। नाभिक का द्रव्यमान जितना अधिक होगा उसका ऊर्जा स्तर उतना ही अधिक होगा। बंधन ऊर्जा की विविधता के कारण नाभिक अस्थिर होते है। नाभिक की प्रकृति अस्थिरता से स्थिरता की ओर जाने की होती है। इसलिए अस्थिर नाभिक क्षय के बाद स्थिर नाभिक में परिवर्तित होते है। नाभिक के क्षय होने की दर उसकी औसत आयु पर निर्भर होती है। कोणीय संवेग या स्पिन नाभिक, बोसॉन और फर्मिऑन दोनो तरह के होते है। जिन नाभिकों में न्यूक्लिऑन की संख्या सम होती है, बोसॉन होते हैं और जिनमें संख्या विषम होती है वो फर्मिऑन होते हैं। इतिहास नाभिक की आधुनिक अवधारणा सबसे पहले रदरफोर्ड ने सन १९१२ में प्रतिपादित की। सन्दर्भ इन्हें भी देखें नाभिकीय विखण्डन नाभिकीय ऊर्जा रेडियोसक्रियता (रेडियोऐक्टिविटी) नाभिकीय बल कोशिका केन्द्रक (Cell nucleus) बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:रसायन शास्त्र श्रेणी:परमाणु श्रेणी:अपरमाणविक कण श्रेणी:नाभिकीय रसायनिकी
नाभिक की खोज सबसे पहले किस साल में की गयी थी?
सन १९१२
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विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। इतिहास 1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा का आयोजन किया गया था। इसी चर्चा के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया। 1987 में इसके केंद्र को बदलते रहने का सुझाव सामने आया और उसके बाद से ही इसके आयोजन के लिए अलग अलग देशों को चुना जाता है।[1] इसमें हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं और इसमें कई सरकारी, सामाजिक और व्यावसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं। विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने के लिए कवि अभय कुमार ने धरती पर एक गान लिखा था, जिसे 2013 में नई दिल्ली में पर्यावरण दिवस के दिन भारतीय सांस्कृतिक परिषद में आयोजित एक समारोह में भारत के तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने इस गाने को पेश किया। आयोजन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:आधार श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय दिवस श्रेणी:पर्यावरण
पहला विश्व पर्यावरण दिवस किस वर्ष आयोजित किया गया था?
1974
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"विश्व व्यापी वितान," "W3," और "WWW" यहाँ पुनर्निर्देशित करें. अन्य उपयोगों के लिए, देखें वेब (Web) और WWW (disambiguation) (WWW (disambiguation))। "वेब सर्फिंग" यहाँ पुनर्निर्देशित करेगी.वेब ब्राउज़र के लिए, देखें WorldWideWeb (WorldWideWeb)। विश्व व्यापी वेब(जिसे सामान्यत: वेब कहा जाता है) आपस में परस्पर जुड़े हाइपरटेक्स्ट दस्तावेजों को इन्टरनेट द्वारा प्राप्त करने की प्रणाली है। एक वेब ब्राउजर की सहायता से हम उन वेब पन्नों को देख सकते हैं जिनमें टेक्स्ट, छवि (image), वीडियो, एंवं अन्य मल्टीमीडिया होते हैं तथा हाइपरलिंक की सहायता से उन पन्नों के बीच में आवागमन कर सकते है। विश्व व्यापी वेब को टिम बर्नर्स ली द्वारा 1989 में यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान संगठन जो की जेनेवा, स्वीट्ज़रलैंड में है, में काम करते वक्त बनाया गया था और 1992 में जारी किया गया था। उसके बाद से बरनर्स-ली नें वेब के स्तरों के विकास (जैसे की मार्कअप भाषाएँ जिनमें की वेब पन्ने लिखे जाते हैं) में एक सक्रीय भूमिका अदा की है और हाल के वर्षों में उन्होनें सीमेंटिक (अर्थ) वेब (Semantic Web) विकसित करने के अपने स्वप्न की वकालत की है। वेब कैसे काम करता है विश्व व्यापी वेब पर एक वेब पन्ने को देखने की शुरुआत सामान्यत: वेब ब्राउजर में उसका यूआरएल लिख कर अथवा उस पन्ने या संसाधन के हाइपरलिंक का पीछा करते हुए होती है। तब उस पन्ने को ढूंढ कर प्रर्दशित करने के लिए वेब ब्राउजर अंदर ही अंदर संचार संदेशों की एक श्रृंखला आरंभ करता है। सबसे पहले यूआरएल के सर्वर-नाम वाले हिस्से को विश्व में वितरित इन्टरनेट डाटा-बेस, जिसे डोमेन नाम प्रणाली के नाम से जाना जाता है, की सहायता से आईपी पते में परिवर्तित कर दिया जाता है। वेब सर्वर से संपर्क साधने और डाटा पैकेट भेजने के लिए ये आईपी पता जरुरी है। उसके बाद ब्राउजर वेब सर्वर के उस विशिष्ट पते पर हाइपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल की प्रार्थना भेज कर रिसोर्स से अनुरोध करता है। एक आम वेब पन्ने की बात करें तो, वेब ब्राउजर सबसे पहले उस पन्ने के एच.टी.एम.एल. टेक्स्ट के लिए अनुरोध करता है और तुंरत ही उसका पदच्छेद कर देता है। उसके बाद वेब ब्राउजर पुनः अनुरोध करता है उन छवियों और संचिकाओं के लिए जो उस पन्ने के भाग हैं। एक वेबसाइट की लोकप्रियता सामान्यत: इस बात से मापी जाती है कि कितनी बार उसके पन्नों को देखा गया या कितनी बार उसके सर्वर को हिट किया गया या फिर कितनी बार उसकी संचिकाओं के लिए अनुरोध किया गया। वेब सेवक से आवश्यक संचिकाएँ प्राप्त करने के बाद ब्राउज़र उस पन्ने को स्क्रीन पर एच.टी.एम.एल., कैस्केडिंग स्टाइल शीट्स एंवं अन्य वेब भाषाओँ के निर्देश के अनुसार प्रर्दशित करता है। जिस वेब पन्ने को हम स्क्रीन पर देखते हैं उसके निर्माण के लिए अन्य छवियों एंवं संसाधनों का भी इस्तेमाल होता है। अधिकांश वेब पृष्ठों में उनसे संबंधित अन्य पृष्ठों और शायद डाउनलोड करने लायक वस्तु, स्रोत दस्तावेजों, परिभाषाएँ और अन्य वेब संसाधनों के हाइपरलिंक स्वयं शामिल होंगे। इस उपयोगी और सम्बंधित संसाधनों के समागम को, जो की आपस में हाइपरटेक्स्ट लिंक के द्वारा जुड़े हुए हों, को जानकारी का "वेब" कहा गया। इसको इन्टरनेट पर उपलब्ध कराने को टिम बर्नर्स ली नें सर्वप्रथम 1990[1] में विश्वव्यापीवेब का नाम दिया। इतिहास वेब की उत्पत्ति के अन्तर्निहित विचारों के लक्षण 1980 में मिलने शुरू हो गए थे जब सर्न में टिम बरनर्स-ली नें एंक्वाइयर (ENQUIRE) की रचना की थी (यहाँ उनका इशारा एक किताब, एंक्वाइयर विदिन अपॉन एव्री-थिंग (Enquire Within Upon Everything), की तरफ़ था जो उन्होनें बचपन में पढ़ी थी। हालाँकि आज इस्तेमाल होने वाली प्रणाली से ये भिन्न था लेकिन इसके मूल विचार काफी हद तक सामान थे (यहाँ तक की विश्व व्यापी वेब के बाद की परियोजना सीमेंटिक वेब (Semantic Web) के विचार भी) मार्च 1989 में टिम बरनर्स-ली नें एक प्रस्ताव लिखा[2] जिसमें एंक्वाइयर का जिक्र किया गया और एक अधिक विस्तृत सूचना प्रणाली का वर्णन किया गया। रॉबर्ट कैल्लिअउ (Robert Cailliau) की मदद से उन्होनें नवम्बर 12, 1990[3] में विश्व व्यापी वेब का एक अधिक औपचारिक प्रस्ताव प्रकाशित किया। इसका आदर्श नमूना EBT के DYNATEXT SGML रीडर, जिसे की सर्न द्वारा अनुबंधित किया गया था, द्वारा प्रदान किया गया था। EBT(इलेक्ट्रॉनिक बुक टेक्नोलॉजी, जिसका विकास ब्राउन यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट फॉर रिसर्च इन इन्फोर्मेशन एंड स्कॉलरशिप द्वारा किया गया था)। हालाँकि ये DYNATEXT (Dynatext) (HYTIME (HyTime) के अंतर्गत SGML ISO 8879:1986 के हाइपरमीडिया में विस्तार में इसका मुख्य योगदान था) प्रणाली काफी उच्च तकनीक की मानी जाती थी, परन्तु इसे बहुत महंगा समझा जाता था और HEP(हाई एनर्जी फिजिक्स) के समाज के इस्तेमाल के लिए जो लाइसेंसिंग नीति थी उसे भी अनुचित समझा जाता था। नेक्स्ट क्यूब (NeXTcube) का इस्तेमाल बरनर्स-ली द्वारा 1990 में दुनिया के पहले वेब सर्वर की तरह और पहले वेब ब्राउजर, वर्ल्ड वाइड वेब, को लिखने के लिए किया गया था। 1990 के क्रिसमस तक बरनर्स-ली ने एक चालू वेब के लिए आवश्यक सभी उपकरणों का निर्माण कर लिया था:[4]पहला वेब ब्राउजर (जो की एक अच्छा वेब संपादक भी था), पहला वेब सेवक और प्रथम वेब पृष्ठ[5] जो इस परियोजना का वर्णन करते थे। 6 अगस्त 1991 को उन्होंने विश्व व्यापी वेब परियोजना का एक संक्षिप्त सार alt.hypertext न्यूज़ग्रुप (newsgroup)[6] पर पोस्ट किया था। इस तिथि को वेब के इंटरनेट पर एक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सेवा के शुरुआत के रूप में भी याद किया जाता है। यूरोप के बाहर पहला सर्वर SLAC (SLAC) में दिसम्बर 1991 में बनाया गया था[7]। हाइपरटेक्स्ट जैसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी विचार की उत्पत्ति 1960 की पुरानी परियोजनाओं (जैसे की ब्राउन यूनिवर्सिटी का हाइपरटेक्स्ट एडिटिंग सिस्टम, HES) से ही हो गई थी- टेड नेल्सन (Ted Nelson) और एंड्रियस वेन डेम (Andries van Dam)- टेड नेल्सन (Ted Nelson) की परियोजना ज़नाडू (Project Xanadu) और डगलस एन्गेल्बर्ट (Douglas Engelbart) की ऑन-लाइन सिस्टम्स (oN-Line System) (NLS).दोनों नेल्सन और एन्गेल्बर्ट को वन्नेवर बुश (Vannevar Bush) की माइक्रोफिल्म (microfilm) पर आधारित "मेमेक्स (memex)" से प्रेरणा मिली थी, जिसका वर्णन 1945 के एक निबंध में इस प्रकार किया गया था " जैसा हम सोंचें (As We May Think)"। बेर्नेर्स-ली की एक बड़ी सफलता थी हाइपरटेक्सट और इन्टरनेट का आपस में मेल कराना.अपनी किताब वीविंग द वेब में उन्होंने वर्णन किया है कि कैसे उन्होंने बार बार दोनों तकनीकी समुदायों के सदस्यों को ये सुझाव दिया था की इन दोनों तकनीकों का आपस में मेल हो सकता है, लेकिन किसी ने उनका न्योता स्वीकार नहीं किया और अंत में इस परियोजना में उन्हें स्वयं हाँथ डालना पड़ा। वेब और अन्य जगहों पर इस्तेमाल होने वाले संसाधनों की विश्व में एकमात्र पहचान वाली प्रणाली विकसित की: यूनिफ़ॉर्म रिसोर्स अभिज्ञापक। वेब में उस समय मौजूद अन्य हाइपरटेक्स्ट प्रणालियों से काफी सारी भिन्नाताएँ थीं। वेब में दो दिशाओं की कड़ियों की बजाय केवल एक दिशा वाली कड़ियों की आवश्यकता थी। यदि किसी को किसी संसाधन से जुड़ना हो, बिना उस संसाधन के मालिक की मदद के, तो ये भी सम्भव हो गया। पहले की प्रणालियों की तुलना में इसने वेब ब्राउज़र्स और सर्वरों को लागू करने में आने वाली दिक्कतों को काफी हद तक कम कर दिया। लेकिन बदले में लिंक रोट (link rot) की भीषण समस्या को पैदा का दिया। पूर्वाधिकारीयों, जैसे की हाइपर कार्ड (HyperCard), की तुलना में ये वेब गैर मालिकाना था। जिससे की लाईसेन्स प्रतिबंधों के बिना ही सर्वरों और ग्राहकों को स्वतंत्र रूप से विकसित करना और अन्य विस्तारों को जोड़ना सम्भव हो गया। 30 अप्रैल 1993 को सर्न ने घोषणा[8] की कि विश्व व्यापी वेब सबके लिए निःशुल्क होगा और कोई शुल्क बकाया नहीं रहेगा। गोफर (Gopher) प्रोटोकॉल कि इस घोषणा कि अब उसकी सेवा निःशुल्क नहीं है, लोगों का रुझान बहुत तेज़ी से गोफर की बजाय वेब की तरफ़ हो गया। ViolaWWW (ViolaWWW) एक शुरुआती लोकप्रिय वेब ब्राउसर था, जो कि हाइपर कार्ड (HyperCard) पर आधारित था। विद्वान आमतौर पर इस बात से सहमत हैं कि विश्व व्यापी वेब के जीवन में नया मोड़ (turning point) 1993 में मोजेक (Mosaic) वेब ब्राउज़र[9] के आने[10] के साथ शुरू हुआ, इस सुचित्रित ब्राउज़र का विकास अर्बाना शम्पैग्न के इलिनोइस विश्वविद्यालय (University of Illinois at Urbana-Champaign) के सुपरकंप्यूटिंग के अनुप्रयोगों के लिए राष्ट्रीय केन्द्र (National Center for Supercomputing Applications) (NCSA-UIUC) के एक दल द्वारा मार्क एंड्रिस्सें (Marc Andreessen) कि अगुवाई में किया गया। मोज़ेक के लिए अनुदान उच्च निष्पादन कम्प्यूटिंग और संचार पहल की तरफ़ से आया, ये एक वित्त पोषण कार्यक्रम था जिसकी शुरुआत उच्च निष्पादन कम्प्यूटिंग और संचार अधिनियम 1991 (High Performance Computing and Communication Act of 1991) के तहत हुई थी। ये सेनेटर अल गोर[11] द्वारा शुरू किए गए अनेकों कंप्यूटिंग विकास (several computing developments) के कार्यक्रमों में से एक था। मोजैक के बाहर आने से पहले चित्रित (ग्राफिक्स) और लिखित शब्दों का मिश्रण वेब पन्नों पर आम तौर पर नहीं होता था और इसकी लोकप्रियता इन्टनेट के पुराने प्रोटोकॉलों, जैसे की गोफर (Gopher) और वाइड एरिया इन्फोर्मेशन सर्वर्स (Wide Area Information Servers)(WAIS), से कम थी। मोजैक अब तक का सबसे लोकप्रिय इन्टरनेट प्रोटोकॉल इसके चित्रमय उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस की वजह से बना। विश्व व्यापी वेब संघ के टिम बेर्नेर्स-ली द्वारा अक्टूबर 1994 में यूरोपीय संगठन परमाणु अनुसंधान (सर्न) छोड़ने के बाद स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना मसाचुसेट्स तकनीकी संस्थान की कंप्यूटर विज्ञान की प्रयोगशाला में रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजनाओं एजेंसी (Defense Advanced Research Projects Agency) (DARPA) समर्थन से की गई थी - जिसने इन्टनेट और यूरोपीय आयोग (European Commission) की शुरुआत की थी। साहित्य में इतिहास घर में स्थापित वैश्विक सूचना प्रणाली का विचार को कम से कम इसाक असिमोव (Isaac Asimov) की मार्च 1959 की लघु कहानी "एनिवर्सरी" अमेजिंग स्टोरीज (Amazing Stories) तक पीछे खिंचा जा सकता है। इसमें पात्र "मल्टीवाक (Multivac) आउटलेट" नामक एक होम कंप्यूटर के द्वारा जानकारी प्राप्त करते हैं। ये ग्रह कंप्यूटर पूरे ग्रह पर फैले सर्किट्स के एक जाल द्वारा एक मील लंबे सुपर कंप्यूटर से जुडा हुआ था, जो की पृथ्वी के अंदर कहीं स्थापित था। एक चरित्र अपने बच्चों के लिए एक मल्टीवाक, जूनियर मॉडल स्थापित करने की सोच रहा है। इस कहानी में भविष्य के उस समय की कल्पना की गई जब व्यावसायिक अंतरिक्ष यात्रा एक आम बात होगी, फ़िर भी मशीन उत्तर को एक टेप की पर्ची पर प्रिंट करती है जो की किसी खाने में से बाहर आता है- कोई विडियो दिखाई नहीं देता है- और कंप्यूटर का मालिक कहता है कि उसने इतना खर्चा इसलिए तो नहीं किया था की उसे एक मल्टीवाक आउटलेट मिले जो सिर्फ़ बोलता हो। मानक विश्व व्यापी वेब, इंटरनेट और कंप्यूटर जानकारी विनिमय के विभिन्न पहलुओं के संचालन को कई औपचारिक मानक और अन्य तकनीकी विशेषताएं परिभाषित करती हैं। कई दस्तावेजों को विश्व व्यापी वेब संघ (W3C) ने बरनर्स-ली के नेतृत्व में बनाया है, लेकिन कुछ अन्य को इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स (Internet Engineering Task Force) (IETF) और अन्य संगठनों द्वारा बनाया गया है। आमतौर पर, जब वेब मानकों पर चर्चा होती है तब निम्नलिखित प्रकाशनों मूलभूत के रूप में देखा जाता है: W3C की तरफ़ से मार्कउप भाषाओँ (markup languages)- खासकर HTML और XHTML (XHTML)- के लिए सलाह.ये हाइपरटेक्स्ट (hypertext) दस्तावेजों की संरचना और व्याख्या को परिभाषित करती हैं। W3C की तरफ़ से स्टाइलशीट (stylesheets), खासकर CSS (CSS), के लिए सलाह। ECMA (ECMAScript) स्क्रिप्ट के मानक (सामान्यत: जावा स्क्रिप्ट के रूप में), द्वारा Ecma अंतर्राष्ट्रीय (Ecma International)। दस्तावेज़ ऑब्जेक्ट मॉडल (Document Object Model) के लिए अनुशंसाएँ, W3C से। अतिरिक्त प्रकाशन विश्व व्यापी वेब की अन्य आवश्यक तकनीकों की परिभाषा प्रदान करते हैं, जिनमें निम्नलिखित (परन्तु इसी तक सीमित नहीं) शामिल हैं: यूनिफ़ॉर्म रिसोर्स पहचानकर्ता (यूआरआइ (URI)), जो की इन्टरनेट पर संसाधनों, जैसे की हायपरटेक्स्ट दस्तावेज़ और तस्वीरें, को संदर्भित करने की एक सार्वभौमिक प्रणाली है। यूआरआइ, जिन्हें की अक्सर URL भी कहा जाता है, IETF's / STD 66 द्वारा परिभाषित किए जाते हैं: यूनिफ़ॉर्म रिसोर्स आइडेंटिफाइयर (यूआरआइ): जेनेरिक सिंटेक्स , साथ ही अपने पूर्ववर्ती तथा अनेकों यूआरआइ योजना (URI scheme)-परिभाषित RFC (RFCs); हायपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल (HTTP), खासतौर पर द्वारा परिभाषित: एचटीटीपी/१.1 तथा RFC २६१७: एचटीटीपी प्रमाणीकरण, जो ये बताते हैं कि ब्राउज़र और सर्वर कैसे एक दूसरे को प्रमाणित करते हैं। जावा वेब प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रगति थी सन माइक्रोसिस्टम्स (Sun Microsystems') का जावा मंच (Java platform)। इसने वेब पन्नों को छोटे प्रोग्रामों (जिन्हें एप्प्लेट (applet) कहा जाता है) को सीधे दिखने में सक्षम बनाया। ये एप्प्लेट अन्तिम इस्तेमालकर्ता के कंप्यूटर पर चलते हैं और वेब पन्नों के मुकाबले में उसे एक उत्तम श्रेणी का अनुभव प्रदान करते हैं। जावा के ग्राहकों के लिए जो एप्प्लेट्स थे उन्हें अनेकों कारणों से आशा के अनुरूप लोकप्रियता हासिल नहीं हुई। इन कारणों में शामिल था अन्य तत्वों के साथ एकीकरण का आभाव (एप्प्लेट्स दर्शाए गए पन्नों के छोटे बक्सों तक ही सीमित थे) और ये तथ्य की उस समय के काफी सारे कंप्यूटर उचित जावा वर्चुअल मशीन (Java Virtual Machine) को लगाये बिना ही अन्तिम ग्राहकों तक भेज दिए गए थे, जिसकी वजह से इस्तेमालकर्ता को डाउनलोड करना परता था तब जा कर एप्प्लेट्स सामने आते थे। एडोब फ्लैश (Adobe Flash) अब उन कार्यों को करता है जिनकी अपेक्षा शुरू में जावा एप्प्लेट्स से की गई थी, जैसे की विडियो सामग्री, एनिमेशन, तथा कुछ उत्कृष्ट विशेषताओं वाले GUI (GUI) अदि को चलाना.स्वयं जावा (Java) का व्यापक इस्तेमाल अब सर्वर-साइड (server-side) और अन्य प्रोग्रामिंग के लिए उचित मंच और भाषा के तौर पर होने लगा है। जावास्क्रिप्ट दूसरी तरफ, जावास्क्रिप्ट, एक स्क्रिप्टिंग भाषा (scripting language) जिसे की शुरुआत में वेब पृष्ठों के भीतर उपयोग के लिए विकसित किया गया था। इस मानकीकृत संस्करण है ECMA स्क्रिप्ट (ECMAScript).जबकि इसका नाम जावा के समान है, जावास्क्रिप्ट को नेटस्केप (Netscape) द्वारा विकसित किया गया था और जावा से इसका कोई लेना देना नहीं है, हालांकि दोनों भाषाओं की वाक्य रचना को C प्रोग्रामिंग भाषा से लिया गया है। वेब पन्ने के दस्तावेज़ ऑब्जेक्ट मॉडल (Document Object Model) (डोम) के संयोजन में जावास्क्रिप्ट, उसके मूल रचनाकारों की भी कल्पना के परे, एक अत्यन्त प्रभावी तकनीक बन चुकी है। एक पन्ने को उसके इस्तेमालकर्ता तक पहुंचाने के बाद भी उसके DOM में छेड़-छाड़ करने को गतिशील HTML (Dynamic HTML) (DHTML) कहा गया, स्थिर HTML से रुझान परिवर्तन पर जोर देने के लिए ऐसा किया गया। सामान्य मामलों में, सभी वैकल्पिक जानकारियां और कार्य, जो की जावास्क्रिप्ट युक्त वेब पन्ने पर उपलब्ध हैं, वो उस पन्ने के पहली बार पहुँचने के साथ ही डाउनलोड हो जाती हैं। AJAX (Ajax)("एसिंक्रोनस जावास्क्रिप्ट एंड XML") अंतर्मिश्रित वेब विकास की तकनीकों का एक समूह है जिसका उपयोग इंटरएक्टिव वेब अनुप्रयोगों के विकास में किया जाता है जो की वेब पन्ने के अन्दर अंशों को उन्नत करने का एक तरीका प्रदान करते हैं। नेटवर्क पर यूसर द्वारा बाद की तारीख में प्राप्त नई जानकारी का इस्तेमाल कर के, इससे पन्ने को अधिक संवादात्मक, उत्तरदायी एवं रोचक बनाने में मदद मिलती है। इसके लिए उपयोगकर्ता को पूरे पन्ने के रीलोड होने तक की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है। AJAX को वेब २.० (Web 2.0) के एक महत्त्वपूर्ण पहलु के रूप में देखा जा रहा है। Ajax तकनीकों के वर्तमान उपयोग के उदाहरण हैं Gmail, Google Maps (Google Maps) और अन्य गतिशील वेब अनुप्रयोग। वेब पृष्ठों का प्रकाशन वेब पन्नों का उत्पादन मास मीडिया (mass media) के बाहर के व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध है। वेब पन्ने का प्रकाशन करने के लिए आपको किसी प्रकाशक या अन्य मीडिया संस्थानों के पास जाने की आवश्यकता नहीं है और संभावित पाठक आपको दुनिया के हर कोने में मिल जायेंगे। वेब पर भिन्न भिन्न प्रकार की जानकारियां उपलब्ध हैं और जो लोग अन्य समाज, संस्कृतियों और लोगों के बारे में जानने में इच्छुक हैं उनके लिए भी बड़ी आसानी हो गई है। अपनी वास्तु को प्रकाशित करने बढे हुए मौकों के बारे में इस बात से पता चलता है कि आज कल ढेरों व्यक्तिगत और सामाजिक नेट्वर्किंग के पन्ने हैं, यहाँ तक की परिवारों और छोटी दुकानों की भी साइटें हैं, ये सब मुफ्त वेब होस्टिंग (Web hosting) की वजह से सम्भव हो पाया है। आँकड़े 2001 के एक अध्ययन के मुताबिक वेब में 550 अरब से भी ज्यादा दस्तावेज़ थे, इनमें से अधिकांश अदृश्य अथवा डीप वेब (deep Web) में थे।[12] 2002 के 2024 मिलियन वेब पन्नों[13] के एक सर्वेक्षण के अनुसार सबसे अधिक वेब सामग्री, 56.4%, अंग्रेजी में थी, उसके बाद जर्मन भाषा में (7.7%), फ्रेंच (5.6%) और जापानी (4.9%).हाल के दिनों के एक अध्ययन के अनुसार, जिसने 75 अलग अलग भाषाओँ का इस्तेमाल वेब खोजों के लिए किया था, जनवरी 2005 के अंत तक 11.5 अरब वेब पन्ने सार्वजनिक इंडेक्सेबल वेब (publicly indexable Web) में थे।[14] जून 2008 तक इस इंडेक्सेबल वेब में कम से कम 63 अरब पन्ने शामिल हैं।[15] जुलाई 25, 2008 को Google के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों जेस्सी अल्पर्ट और निसान हजाज नें घोषणा की कि Google खोज (Google Search) नें एक लाख करोड़ अद्वितीय URL खोज लिए हैं।[16] मार्च 2008 तक 100.1 मिलियन से ज्यादा वेब साइटें कार्यरत थीं।[17] इनमें से 74% आर्थिक या अन्य साइटें थीं जो .COM जेनेरिक शीर्ष स्तर डोमेन (generic top-level domain).[17] में कार्यरत थीं। वो सेवाएं जिनका खर्चा विज्ञापन द्वारा निकलता है, याहू वेब के व्यावसायिक उपयोगकर्ताओं के बारे में सबसे अधिक आंकडे एकत्र कर पाया है, प्रति माह अपने प्रत्येक इस्तेमालकर्ता और सम्बद्ध विज्ञापन नेटवर्क साइटों के बारे में जानकारियों के लगभग 2500 बिट.याहू के बाद नम्बर आता है माईस्पेस (MySpace) का जिसके पास संभावना याहू की लगभग आधी है, उसके बाद है एओएल (AOL)-टाइमवार्नर (TimeWarner), गूगल, फेसबुक (Facebook), माइक्रोसॉफ्ट और ईबे (eBay)।[18] लगभग 27% वेबसाइटें .com पते के बाहर कार्य करती हैं।[17] स्पीड के मुद्दे अधिक भीड़-भाड़ (congestion) के मुद्दे के कारण इन्टरनेट के बुनियादी ढांचे के ऊपर लोगों की हताशा और लम्बी इंतजार की अवधि (latency), जिसकी वजह से इन्टरनेट पर ब्राउज़िंग अत्यन्त धीमी हो गई थी, यही कारण था की विश्व व्यापी वेब का एक वैकल्पिक, अपमानजनक नामकरण किया गया: विश्व व्यापी इंतजार (वेट)। इन्टरनेट की रफ़्तार बढ़ने के लिए चर्चाएँ पीयरिंग (peering) और QoS (QoS) तकनीकों के इस्तेमाल के ऊपर चल रही हैं। विश्व व्यापी इंतजार को कम करने के अन्य समाधान पर पाए जा सकते हैं। आदर्श वेब प्रतिक्रिया समय के लिए मानक दिशानिर्देश (guideline) हैं:[19] 0.1 सेकंड (एक सेकंड का दसवां हिस्सा).आदर्श प्रतिक्रिया का समय.प्रयोक्ता को किसी भी रुकावट का एहसास न हो। 1 सेकंड.सर्वाधिक स्वीकार्य प्रतिक्रिया समय है। 1 सेकंड से ऊपर का डाउनलोड समय उपभोक्ता के अनुभव में रुकावट पैदा करता है। 10 सेकंड.अस्वीकार्य प्रतिक्रिया समय.उपभोक्ता के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है और उसके साईट या कंप्यूटर को छोड़ कर चले जाने की संभावना होती है। परिसेवक क्षमता नियोजन में इन संख्याओं की आवश्यकता होती है। कैचिंग यदि कोई उपयोगकर्ता केवल एक छोटे अंतराल के बाद एक वेब पृष्ठ पर फ़िर से आता है तो पृष्ठ डेटा पुन: सर्वर के स्रोत से प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती है। लगभग सभी वेब ब्राउज़र्स हाल में प्राप्त हुए आंकडों को इकठ्ठा (cache) करते हैं, आमतौर पर लोकल हार्ड ड्राइव पर.ब्राउजर द्वारा भेजा गया HTTP अनुरोध सामान्यत: केवल उन्हीं आंकडों के बारे में पूछता है जो पिछले डाउनलोड के बाद सेबदले हैं। यदि स्थानीय-कैश्ड डाटा में की भी परिवर्तन नहीं है तो उसी को दोबारा इस्तेमाल किया जाएगा। कैशिंग इंटरनेट पर वेब यातायात की मात्रा को कम करने में मदद करता है। प्रत्येक डाउनलोडेड संचिका की समय समाप्ति की अवधि का निर्णय स्वतंत्र रूप से किया जाता है, फ़िर वो चाहे छवि, स्टाइल शीट (stylesheet), जावा स्क्रिप्ट, या कोई अन्य सामग्री जिसे साईट प्रदान करती है। इस प्रकार भी अत्यधिक गतिशील सामग्री वाली साइटों पर भी, बुनियादी संसाधनों को सिर्फ़ कभी कभी ही ताज़ा करने की ही आवश्यकता होती है। वेब साइट डिजाइनरों के अनुसार सीएसएस डाटा और जावास्क्रिप्ट जैसे संसाधनों को कुछ साइटों की संचिकाओं में इकठ्ठा रखना लाभप्रद होता है ताकि उनको अधिक कुशलता पूर्वक कैश्ड किया जा सके। इससे पृष्ठ को डाउनलोड समय कम करने में मदद मिलती है और वेब सर्वर पर बोझ कम पड़ता है। इन्टरनेट के अन्य घटक भी हैं जो वेब सामग्री को कैश कर सकते हैं। कंपनियों और शिक्षण संस्थानों की फायरवालें (firewalls) अक्सर एक के द्वारा अनुरोधित वेब संसाधनों को बाकि सब के उपयोग के लिए कैश कर लेती हैं। (यह भी देखें कैशिंग प्रॉक्सी सर्वर (Caching proxy server).) कुछ खोज इंजन (search engines), जैसे कि गूगल और याहू!अपनी वेबसाइटों पर भी कैश्ड सामग्री को एकत्र करते हैं। वेब सर्वर ये पता कर सकते हैं कि कौन सी संचिकाओं में परिवर्तन हुआ है ताकि उन्हें दुबारा भेजा जा सके। इन सुविधाओं के आलावा, अत्यन्त गतिशील पन्नों को बनाने वाले उपयोगकर्ताओं को उनके अनुरोध पर भेजे गए HTTP हेडर को भी नियंत्रित कर सकते हैं, ताकि अस्थायी और संवेदनशील पन्ने कैश्ड न हों। इंटरनेट बैंकिंग (Internet banking) और समाचार साइटें अक्सर इस सुविधा का उपयोग करती हैं। HTTP (HTTP) 'गेट' के साथ अनुरोधित डाटा के कैश हो जाने की सम्भावना होती है, यदि अन्य शर्तें पूरी होती हों। 'पोस्ट' के प्रतिउत्तर में प्राप्त डाटा को पोस्टेड डाटा पर आश्रित माना जाता है इसलिए वो कैश्ड नहीं होता है। लिंक रोट और वेब अभिलेखीय समय के साथ कई वेब संसाधन जिनकी तरफ़ हायपरलिंक इशारा करता है, गायब, विस्थापित, या किसी अन्य सामग्री द्वारा बदल दिए जाते हैं। इस वस्तुस्थिति को कुछ हलकों में "लिंक रोट (link rot)" कहा जाता है और जो हायपरलिंक इससे प्रभावित होते हैं उन्हें "डेड लिंक (dead link)" कहा जाता है। वेब के क्षणिक स्वभाव ने कई वेब साइट्स को अपने पुराने दस्तावेजों आदि का संग्रह करने की प्रेरणा दी। इन्टरनेट पुरालेख (Internet Archive) सबसे मशहूर प्रयासों में से एक है, ये 1996 से सक्रिय है। शैक्षणिक सम्मलेन विश्व व्यापी वेब सम्मलेन (World Wide Web Conference) वेब की ख़बर देने वाले शैक्षणिक कार्यक्रमों में मुख्य है, इसको IW3C2 (IW3C2) द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। सुरक्षा मैलवेयर (malware) फैलाने के लिए वेब अपराधियों की पसंदीदा जगह बन गई है। HTML और यूआरएल के रास्ते होने वाले हमलों, जैसे की क्रॉस-साईट स्क्रिप्टिंग (cross-site scripting)(XSS), जो की जावास्क्रिप्ट[20] के साथ अस्तित्व में आये थे), के सामने वेब कमजोर था। और इनको कुछ हद तक बढ़ावा वेब 2.0 एवं AJAX वेब डिज़ाइन (web design) के कारण मिला था क्योंकि ये लिपियों के प्रयोग को पसंद करते थे।[21] वेब निहित कमजोरियां अब पारंपरिक कंप्यूटर सुरक्षा चिंताओं से अधिक हो गयीं थीं।[22] एक अनुमान के अनुसार, सभी वेबसाइटों का 70% आज अपने उपयोगकर्ताओं पर XSS हमलों के लिए खुला HAI.[23] जैसा की Google द्वारा आंका गया है, प्रत्येक दस वेब पन्नों में से लगभग एक में दुर्भावनापूर्ण कोड हो सकता है।[24] पहचान की चोरी, धोखाधड़ी, जासूसी और खुफिया जानकारी जुटाना- ये सभी वेब पर किए जाने वाले अपराध हैं।[25] अधिकांश वेब आधारित हमले वैध वेब साइटों पर ही किए जाते हैं और अधिकांश, जैसा की सोफोस (Sophos) द्वारा मापा गया है, की शुरुआत अमरीका, चीन और रूस में होती है।[26] प्रस्तावित समाधान चरम सीमाओं तक जाते हैं। बड़े सुरक्षा विक्रेता जैसे की McAfee (McAfee) पहले से ही 9 सितम्बर के बाद बने प्रावधानों[27] को पूरा करने के लिए प्रशासनिक और अनुपालन सुइट्स बना रहे हैं। और कुछ, जैसे की फिन्जन (Finjan), नें प्रस्ताव रखा है कि सभी सामग्रियों का सक्रिय निरीक्षण वास्तविक समय में हो, उसके स्रोत की चिंता किए बिना।[25] कुछ लोगों का ये मत है कि उद्यम के लिए सुरक्षा को एक खर्चे की बजाय एक व्यावसायिक मौके के रूप में देखने के लिए,[28]"हमेशा चालू और हमेशा मौजूद रहने वाले डिजिटल अधिकार प्रबंधन" को कुछ गिनी चुनी कंपनियों के द्वारा ही लागू करवाना चाहिए, बजाय इसके की सैकडों कम्पनियाँ जो आज डाटा और नेटवर्क को सुरक्षा प्रदान करती हैं।[29]ज़ोनाथन जिट्रेन (Jonathan Zittrain) नें कहा है कि इन्टरनेट को ताला मारने से ज्यादा अच्छा ये रहेगा की इस्तेमालकर्ता कंप्यूटर सुरक्षा की जिम्मेदारियों का भार आपस में बाँट लें।[30] वेब उपलब्धता कई देशों में वेब साइट्स से ये अपेक्षा की जाती है कि वो वेब तक पहुँच (web accessibility) को नियंत्रित करेंगे। वेब पतों में WWW उपसर्ग "www" अक्षर सामान्यत: वेब एड्रेस (Web address) की शुरुआत में पाए जाते हैं, ऐसा एक लम्बे समय से चले आ रहे व्यवहार की वजह से है जिसके अनुसार इन्टरनेट मेज़बान का नाम इस आधार पर रखा जाता है कि वो क्या सेवाएं प्रदान करता है। तो उदहारण के लिए, वेब सर्वर (Web server) के होस्ट नाम अक्सर "www" होता है। FTP सर्वर (FTP server) के लिए "ऍफ़टीपी"' और उसनेट न्यूज़ सर्वर (news server) के लिए "न्यूज़" अथवा "एनएनटीपी" (समाचार प्रोटोकॉल एनएनटीपी (NNTP) के कारण)। ये होस्ट नाम डीएनएस उपनाम (subdomain) की तरह प्रकट होते हैं, जैसे की "www.EXAMPLE.कॉम" इन उपसर्गों का प्रयोग किन्हीं तकनीकी कारणों की वजह से नहीं है; वास्तव में पहला वेब सर्वर "nxoc01.cern.ch" पर था,[31] और यहाँ तक आज भी कई साइट्स बिना "www" उपसर्ग के मौजूद हैं। मुख्य वेब साईट किस तरह दिखाई देगी इसमें "www" उपसर्ग का कोई महत्त्व नहीं है।"www" उपसर्ग किसी वेब साईट के होस्ट नाम का बस एक विकल्प मात्र है। यदि लिखे गए URL में कोई मेज़बान दिखाई नहीं देता है तो कुछ वेब ब्राउसर "www" को स्वतः ही शुरू में जोड़ने की कोशिश करेंगे और संभवतः ".com" को अंत में.इंटरनेट एक्सप्लोरर, फ़ायरफ़ॉक्स, सफ़ारी और ओपेरा यह भी "उपसर्ग जाएगाhttp://www."और जोड़ना"। पता पट्टी सामग्री "के लिए com अगर नियंत्रण और चाबी एक साथ दबा रहे हैं दर्ज करें.मिसाल के तौर पर, पता लिखने की जगह पर यदि "EXAMPLE" लिख कर या तो केवल एंटर और या तो कंट्रोल+एंटर दबाने पर आमतौर पर "http://www.example.com" लिखा आयेगा, लेकिन ये निर्भर करेगा ब्राउज़र की सेटिंग्स और उसके संस्करण पर। "www" का उच्चारण अंग्रेजी में "www" का उच्चारण इस प्रकार है "डबल्यू डबल्यू डबल्यू" । चीनी भाषा मेंडेरिन में विश्व व्यापी वेब का आमतौर पर फोनो-सीमैंटिक मैचिंग (phono-semantic matching) के द्वारा "wàn wéi wǎng ()" अनुवाद किया जाता है, जो "www" से मेल भी खाता है और जिसका शाब्दिक अर्थ है "असंख्य आयामी नेट"।[32] इन्हें भी देखें सफ़ारी वेब ब्राउज़र डीप वेब (Deep web) वेबसाइटों की सूची (List of websites) खोज इंजन स्ट्रीमिंग मीडिया (Streaming media) वेब 1.0 वेब २.० वेब 3.0 वेब पहुँच (Web accessibility) वेब संग्रह (Web archiving) वेब डायरेक्टरी (Web directory) वेब ऑपरेटिंग सिस्टम वेब विज्ञान (Web science) वेब सेवाएँ (Web services) Webology (Webology) वेबसाइट वेबसाइट वास्तुकला (Website architecture) नोट्स सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ निःशुल्क हिंदी कंप्यूटर शिक्षा (जर्मन) विश्व व्यापी वेब सहित इंटरनेट का एक व्यापक इतिहास दैनिक वर्ल्ड वाइड वेब के आकार का अनुमान। वेब ब्राउज़रों का व्यापार एवं तकनीकी इतिहास, ऑनलाइन प्रीप्रिंट। अब तक लिखे गए वेब सॉफ्टवेयरओं में सबसे महान कौन सा है? *
विश्व व्यापी वेब(डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू) को किस वर्ष जारी किया गया था?
1992
733
hindi
839bdc1fc
संयुक्त राष्ट्र () एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति के लिए कार्यरत है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फ़िर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत अहम देश थे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में १९३ देश है, विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देश। इस संस्था की संरचन में आम सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सम्मिलित है। इतिहास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1929 में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। राष्ट्र संघ काफ़ी हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शांति संभालने के लिए तैनात कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पहले उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी होने वाले देशों ने मिलकर कोशिश की कि वे इस संस्था की संरचना, सदस्यता आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पाए। 24 अप्रैल 1945 को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहां सारे 40 उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्रिय संविधा पर हस्ताक्षर किया। पोलैंड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं थी, पर उसके हस्ताक्षर के लिए खास जगह रखी गई थी और बाद में पोलैंड ने भी हस्ताक्षर कर दिया। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र की अस्तित्व हुई। सदस्य वर्ग 2006 तक संयुक्त राष्ट्र में 192 सदस्य देश है। विश्व के लगभग सारी मान्यता प्राप्त देश [1] सदस्य है। कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसकी स्थिति चीन को 1971 में दे दी गई थी), वैटिकन, फ़िलिस्तीन (जिसको दर्शक की स्थिति का सदस्य माना जा [2] सक्ता है), तथा और कुछ देश। सबसे नए सदस्य देश है माँटेनीग्रो, जिसको 28 जून, 2006 को सदस्य बनाया गया। मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पचासी लाख डॉलर के लिए खरीदी भूसंपत्ति पर स्थापित है। इस इमारत की स्थापना का प्रबंध एक अंतर्राष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएं जनीवा, कोपनहेगन आदि में भी है। यह संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र तो नहीं हैं, परंतु उनको काफ़ी स्वतंत्रताएं दी जाती है। भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र ने 6 भाषाओं को "राज भाषा" स्वीकृत किया है (अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी), परंतु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी)। स्थापना के समय, केवल चार राजभाषाएं स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी) और 1973 में अरबी और स्पेनी को भी सम्मिलित किया गया। इन भाषाओं के बारे में विवाद उठता रहता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजभाषाओं की संख्या 6 से एक (अंग्रेज़ी) तक घटाना चाहिए, परंतु इनके विरोध है वे जो मानते है कि राजभाषाओं को बढ़ाना चाहिए। इन लोगों में से कई का मानना है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेज़ी की जगह ब्रिटिश अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है। 1971 तक चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था क्योंकि तब तक संयुक्त राष्ट्र तईवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था। जब तईवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारंभ किया। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में किसी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड नहीं है। किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र महासभा में साधारण बहुमत द्वारा एक संकल्प को स्वीकार करना और संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्यता के दो तिहाई बहुमत द्वारा उसे अंतिम रूप से पारित करना होता है। [3] भारत काफी लम्बे समय से यह कोशिश कर रहा है कि हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाए। भारत का यह दावा इस आधार पर है कि हिन्दी, विश्व में बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और विश्व भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है। भारत का यह दावा आज इसलिए और ज्यादा मजबूत हो जाता है क्योंकि आज का भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ चुनिंदा आर्थिक शक्तियों में भी शामिल हो चुका है।[4] २०१५ में भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के एक सत्र का शीर्षक ‘विदेशी नीतियों में हिंदी’ पर समर्पित था, जिसमें हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में से एक के तौर पर पहचान दिलाने की सिफारिश की गई थी। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए फरवरी 2008 में मॉरिसस में भी विश्व हिंदी सचिवालय खोला गया था। संयुक्त राष्ट्र अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो पर हिंदी भाषा में भी प्रसारण करता है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने यू एन में हिंदी में वक्तव्य दिए हैं जिनमें १९७७ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दी में भाषण, सितंबर, 2014 में 69वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वक्तव्य, सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन में उनका संबोधन, अक्तूबर, 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा 70वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधन [5] और सितंबर, 2016 में 71वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को विदेश मंत्री द्वारा संबोधन शामिल है। उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैं युद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास [6] उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना। सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई। मानव अधिकार द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था। ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, 1948 में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया। यह अबंधनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र समर्थन करने की कोशिश करेगी। 15 मार्च 2006 को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की। आज मानव अधिकारों के संबंध में सात संघ निकाय स्थापित है। यह सात निकाय हैं: मानव अधिकार संसद आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद जातीय भेदबाव निष्कासन संसद नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद यातना विरुद्ध संसद बच्चों के अधिकारों का संसद प्रवासी कर्मचारी संसद संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन) विश्व में महिलाओं के समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विश्व निकाय के भीतर एकल एजेंसी के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला के गठन को ४ जुलाई २०१० को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। वास्तविक तौर पर ०१ जनवरी २०११ को इसकी स्थापना की गयी। मुख्यालय अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बनाया गया है। यूएन वूमेन की वर्तमान प्रमुख चिली की पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री मिशेल बैशलैट हैं। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उनके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करना होगा। उल्लेखनीय है कि १९५३ में ८वें संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भारत की विजयलक्ष्मी पण्डित को प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र के ४ संगठनों का विलय करके नई इकाई को संयुक्त राष्ट्र महिला नाम दिया गया है। ये संगठन निम्नवत हैं: संयुक्त राष्ट्र महिला विकास कोष १९७६ महिला संवर्धन प्रभाग १९४६ लिंगाधारित मुद्दे पर विशेष सलाहकार कार्यालय १९९७ महिला संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान १९७६ शांतिरक्षा संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बंद है ताकि वह शांति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शांतिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है। विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शांतिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। संयुक्त राष्ट्र स्वतंत्र सेना नहीं रखती है। शांतिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है। संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945 - 1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शांतिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था। संघ की स्वतंत्र संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने कई कार्यक्रमों और एजेंसियों के अलावा १४ स्वतंत्र संस्थाओं से इसकी व्यवस्था गठित होती है। स्वतंत्र संस्थाओं में विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं। इनका संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग समझौता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कुछ प्रमुख संस्थाएं और कार्यक्रम हैं।[7] ये इस प्रकार हैं: अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी – विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है। अंतर्राष्ट्रीय अपराध आयोग – हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्द अपराध के सदिंग्ध लोगों पर मुक़दमा चलाने के लिए बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) – यह बच्चों के स्वास्थय, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) – यह ग़रीबी कम करने, आधारभूत ढाँचे के विकास और प्रजातांत्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन-यह संस्था व्यापार, निवेश और विकस के मुद्दों से संबंधित उद्देश्य को लेकर चलती है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक)- यह संस्था सामान्य सभा को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को प्रभावी बनाने में प्रयासरतहै। संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद – पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शांति और विकास का प्रसार करना है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) – नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र राजदूत – इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जीनिवा में स्थित है। विश्व खाद्य कार्यक्रम – भूख के विरुद्द लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ- अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम वनाता है। सन्दर्भ बाहरी कडियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधेश्याम चौरसिया) (दैनिक जागरण) श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय संगठन श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता श्रेणी:नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन
संयुक्त राष्ट्र संगठन किस साल में स्थापित हुआ था?
1945
1,442
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[1] किसी वस्तु के वेग परिवर्तन की दर को त्वरण (Acceleration) कहते हैं। इसका मात्रक मीटर प्रति सेकेण्ड2 होता है तथा यह एक सदिश राशि हैं। a → ( t ) = d v → ( t ) d t ≡ v → ˙ ( t ) {\displaystyle {\vec {a}}(t)={\frac {\mathrm {d} {\vec {v}}(t)}{\mathrm {d} t}}\equiv {\dot {\vec {v}}}(t)} या, a → ( t ) = d 2 r → ( t ) d t 2 ≡ r → ¨ ( t ) {\displaystyle {\vec {a}}(t)={\frac {\mathrm {d} ^{2}{\vec {r}}(t)}{\mathrm {d} t^{2}}}\equiv {\ddot {\vec {r}}}(t)} उदाहरण: माना समय t=० पर कोई कण १० मीटर/सेकेण्ड के वेग से उत्तर दिशा में गति कर रहा है। १० सेकेण्ड बाद उसका वेग बढ़कर ३० मीटर/सेकेण्ड (उत्तर दिशा में) हो जाता है। यह मानते हुए कि इस समयान्तराल में त्वरण का मान नियत है, त्वरण का मान = (३० m/s - १० m/s) / १० सेकेण्ड = २ मीटर प्रति सेकेण्ड2 होगा। किसी वस्तु विशेष द्वारा बदला गया वेग ही त्वरण Acceleration कहलाता है। स्पर्शरेखीय तथा अभिकेंद्रीय त्वरण किसी वक्र पथ पर गति करते हुए कण का वेग समय के फलन के रूप में निम्नलिखित प्रकार से लिखा जा सकता है- v ( t ) = v ( t ) v ( t ) v ( t ) = v ( t ) u t ( t ) , {\displaystyle \mathbf {v} (t)=v(t){\frac {\mathbf {v} (t)}{v(t)}}=v(t)\mathbf {u} _{\mathrm {t} }(t),} जहाँ v(t) पथ की दिशा में वेग है, तथा u t = v ( t ) v ( t ) {\displaystyle \mathbf {u} _{\mathrm {t} }={\frac {\mathbf {v} (t)}{v(t)}}\,} गति की दिशा में गतिपथ के स्पर्शरेखीय इकाई सदिश है। ध्यान दें कि यहाँ v(t) तथा ut दोनों समय के साथ परिवर्तन्शील हैं, त्वरण की गणना निम्नलिखित प्रकार से की जायेगी:[2] a = d v d t = d v d t u t + v ( t ) d u t d t = d v d t u t + v 2 r u n {\displaystyle {\begin{alignedat}{3}\mathbf {a} &amp;={\frac {\mathrm {d} \mathbf {v} }{\mathrm {d} t}}\\&amp;={\frac {\mathrm {d} v}{\mathrm {d} t}}\mathbf {u} _{\mathrm {t} }+v(t){\frac {d\mathbf {u} _{\mathrm {t} }}{dt}}\\&amp;={\frac {\mathrm {d} v}{\mathrm {d} t}}\mathbf {u} _{\mathrm {t} }+{\frac {v^{2}}{r}}\mathbf {u} _{\mathrm {n} }\,\\\end{alignedat}}} जहाँ un इकाई नॉर्मल सदिश (अन्दर की तरफ) है तथा r उस क्षण पर वक्रता त्रिज्या है। त्वरन के इन दो घटकों को क्रमशः स्पर्शरेखीय त्वरण (tangential acceleration) तथा नॉर्मल त्वरन या त्रिज्य त्वरण या अभिकेन्द्रीय त्वरण (centripetal acceleration) कहते हैं। कुछ विशिष्ट स्थितियाँ रैखिक गति वृत्तीय गति सरल आवर्त गति (सिम्पल हार्मोनिक मोशन) परवलयिक गति - त्वरण का परिमाण और दिशा अचर हो, वेग का परिमाण और दिशा परिवर्ती हो; जैसे प्रक्षेप्य गति) सन्दर्भ इन्हें भी देखें त्वरणमापी भूकम्पमापी गुरुत्वजनित त्वरण न्यूटन का गति का दूसरा नियम कण त्वरक उपरोधी वाल्व (थ्रॉटिल वाल्व) या मोटरगाड़ियों का त्वरक (एक्सलरेटर) बाहरी कड़ियाँ Simple acceleration unit converter Based on starting &amp; ending speed and time elapsed. * श्रेणी:गति श्रेणी:भौतिक राशियाँ श्रेणी:गतिविज्ञान श्रेणी:भौतिकी श्रेणी:भौतिक शब्दावली
त्वरण की SI इकाई क्या है?
मीटर प्रति सेकेण्ड2
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जैगुआर (jaguar) फ़ेलिडाए कुल का एक शिकारी मांसाहारी जानवर है जो उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका में पाई जाने वाली इकलौती पैन्थेरा (Panthera) जाति है। सिंह और बाघ के बाद जैगुआर बिल्ली (फ़ेलिडाए) कुल का तीसरा सबसे बड़ा और पृथ्वी के पश्चिमी गोलार्ध (हेमिस्फ़्येर​) का पहला सबसे बड़ा सदस्य जानवर है। इसका निवास क्षेत्र उत्तर में संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ दक्षिणी हिस्सों से लेकर दक्षिण में आर्जेन्टीना के उत्तरी हिस्सों तक है। हालांकि देखने में जैगुआर कुछ-कुछ तेन्दुए जैसा लगता है, लेकिन इसका शरीर तेन्दुए से बड़ा और अधिक शक्तिशाली होता है। इसका रहन-सहन और आदतें तेन्दुए से ज़्यादा बाघ से मिलती हैं। यह वनों में रहना पसंद करता है लेकिन मैदानों और झाड़ वाले इलाकों में भी घूमता है। इसे पानी के पास रहना पसंद है और बाघ की तरह इसे भी आसानी से तैरना आता है। इसे अकेला रहना और पीछा करके अपना शिकार मारना पसंद है। इसका जबड़ा और दांत बहुत मज़बूत होते हैं और सहज ही कवच वाले जानवरों को भी ग्रास बनाने में सक्षम हैं। आमतौर पर यह अपने शिकार को कानों के बीच काट कर सीधा कोपल की हड्डी तोड़कर मस्तिष्क पर जानलेवा घाव कर देता है।[2] इन्हें भी देखें फ़ेलिडाए बाघ तेन्दुआ कूगर सन्दर्भ श्रेणी:पैन्थेरा श्रेणी:उत्तर अमेरिका के स्तनधारी श्रेणी:दक्षिण अमेरिका के स्तनधारी
जैगुआर किस कुल का एक शिकारी मांसाहारी जानवर है?
फ़ेलिडाए कुल
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किसी प्रतिरोधक के सिरों के बीच विभवान्तर तथा उससे प्रवाहित विद्युत धारा के अनुपात को उसका विद्युत प्रतिरोध (electrical resistannce) कहते हैं।इसे ओह्म में मापा जाता है। इसकी प्रतिलोमीय मात्रा है विद्युत चालकता, जिसकी इकाई है साइमन्स। R = V I {\displaystyle R={\frac {V}{I}}} जहां R वस्तु का प्रतिरोध है, जो ओह्म में मापा गया है, J·s/C2के तुल्य V वस्तु के आर-पार का विभवांतर है, वोल्ट में मापा गया। I वस्तु से होकर जाने वाली विद्युत धारा है, एम्पीय़र में मापी गयी। बहुत सारी वस्तुओं में, प्रतिरोध विद्युत धारा या विभवांतर पर निर्भर नहीं होता, यानी उनका प्रतिरोध स्थिर रहता है। समान धारा घनत्व मानते हुए, किसी वस्तु का विद्युत प्रतिरोध, उसकी भौतिक ज्यामिति (लम्बाई, क्षेत्रफल आदि) और वस्तु जिस पदार्थ से बना है उसकी प्रतिरोधकता का फलन है। R = l ⋅ ρ A {\displaystyle R={l\cdot \rho \over A}\,} जहाँ l उसकी लम्बाई है A अनुप्रस्थ परिच्छेद क्षेत्रफल है, और ρ वस्तु की प्रतिरोधकता है इसकी खोज जार्ज ओह्म ने सन 1820 ई. में की। [1], विद्युत प्रतिरोध यांत्रिक घर्षण के कुछ कुछ समतुल्य है। इसकी SI इकाई है ओह्म (चिन्ह Ω). विभिन्न पदार्थों की प्रतिरोधकता सन्दर्भ इन्हें भी देखें प्रतिरोधक (रेजिस्टर) ऊष्मा प्रतिरोध विद्युत प्रतिरोधकता विद्युत चालन ओह्म का नियम विभावांतर विभाजक श्रेणी और समानांतर परिपथ विद्युत प्रतिबाधा विद्युत प्रतिघात SI विद्युतचुम्बकीय इकाइयाँ त्वचा प्रभाव (स्किन इफेक्ट) बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:इलेक्ट्रानिक शब्द श्रेणी:भौतिक मात्राएं श्रेणी:विद्युत चुम्बकत्व
विद्युत घटक अवरोध का आविष्कार किसने किया था?
जार्ज ओह्म
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जीवविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस विज्ञान में हम जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान एक बहुत विस्तृत विज्ञान है, जिसकी कई शाखाएँ हैं। 'बायलोजी' (जीवविज्ञान) शब्द का प्रयोग सबसे पहले लैमार्क और ट्रविरेनस नाम के वैज्ञानिको ने १८०१ ई० में किया। जिन वस्तुओं की उत्पत्ति किसी विशेष अकृत्रिम जातीय प्रक्रिया के फलस्वरूप होती है, जीव कहलाती हैं। इनका एक परिमित जीवनचक्र होता है। हम सभी जीव हैं। जीवों में कुछ मौलिक प्रक्रियाऐं होती हैं: पोषण: इसके अन्तर्गत सभी जीव विशेष पदार्थों के अधिग्रहण से अपने लिए ताँत्रिक ऊर्जा प्राप्त करतें हैं। श्वसन: इसमें प्राणी महत्वपूर्ण गैसोँ का परिवहन करता है। संवेदनशीलता: जीवोँ में वाह्य अनुक्रियाओँ के प्रति संवेदनशीलता पायी जाती है। प्रजनन: यह जीवोँ में पाया जानें वाला अनोखा एँव अतिमहत्वपूर्ण प्रक्रिया है। प्रजनन से जीव अपने ही तरह की सन्तान उत्पन्न कर सकता है तथा जैविक अस्तित्व को पुष्टता प्रदान करता है। इतिहास शब्द जीव विज्ञान ग्रीक शब्द βίος, bios, "जीवन" और प्रत्यय -λογία, -logia, "का अध्ययन" से प्राप्त होता है। [4] [5] लैटिन भाषा के शब्द का पहला शब्द 1736 में प्रकट हुआ जब स्वीडिश वैज्ञानिक कार्ल लिनिअस (कार्ल वॉन लिन्न) ने अपनी बिब्लियोथेका बोटानिका में जीवविज्ञान का इस्तेमाल किया इसका प्रयोग 1766 में फिर से इस्तेमाल किया गया था, जिसका काम फिलोसॉफिया प्राकृतिक प्राकृतिक विज्ञान भौतिकी: टॉमस III, क्राइस्टिन वॉल्फ़ के शिष्य माइकल क्रिस्टोफ हनोव ने किया था, भूगर्भवादी, जीवविज्ञानवादी, फाइटोलॉजिस्ट जनरल के सिद्धांतों के अनुसार। पहला जर्मन प्रयोग, जीवविज्ञान, लिनिअस के काम का 1771 अनुवाद में था 17 9 7 में थियोडोर जॉर्ज अगस्त रूज ने इस पुस्तक का इस्तेमाल ग्रांडज्यूज डेर लेह्रे वैन डेर लेबेन्स्क क्राफ्ट के प्रस्ताव में किया था। कार्ल फ्रेडरिक बड़काक ने 1800 में एक संज्ञा, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य (प्रॉपडेटिक ज़ूम स्टडीयियन डेर गेसममेंट हेइलकुनस्ट) से मनुष्य के अध्ययन के एक अधिक प्रतिबंधित अर्थ में शब्द का इस्तेमाल किया। यह शब्द गॉटफ्रेड रीनहोल्ड ट्रेविरनस द्वारा छह-वॉल्यूम ग्रंथ बायोलॉजी, ओदर फिलोसॉफी डेर लेबेंडेन नेचूर (1802-22) के साथ अपने आधुनिक उपयोग में आया, जिन्होंने घोषणा की: [6]     हमारे शोध की वस्तुओं के जीवन के विभिन्न रूपों और अभिव्यक्तियाँ, शर्तों और कानून होंगे जिनके तहत ये घटनाएं होती हैं, और जिन कारणों के माध्यम से वे प्रभावित हुए हैं विज्ञान जो इन वस्तुओं से खुद को चिंतित करता है, हम नाम जीवविज्ञान [जीवविज्ञान] या जीवन के सिद्धांत [लेबेंसेलेह्र] से इंगित करेंगे। Animalia - Bos primigenius taurus Planta - Triticum Fungi - Morchella esculenta Stramenopila/Chromista - Fucus serratus Bacteria - Gemmatimonas aurantiaca (- = 1 Micrometer) Archaea - Halobacteria Virus - Gamma phage आधुनिक जीवविज्ञान के आधार (१) कोशिका सिद्धान्त (२) क्रम-विकास (evolution) (३) अनुवांशिकता (४) समस्थापन (Homeostasis) (५) ऊर्जा इन्हें भी देखें आयुर्विज्ञान आयुर्वेद प्राणिविज्ञान (जूलोजी) वनस्पतिविज्ञान (बॉटनी) बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:विज्ञान श्रेणी:जीव विज्ञान
जीवविज्ञान शब्द का प्रयोग सबसे पहले किसने किया था?
लैमार्क और ट्रविरेनस
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (वि॰ स्वा॰ सं॰) (WHO) विश्व के देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 193 सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्‍ल्‍यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं। वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।। [1] भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है। सन्दर्भ मूल रूप से 23 जून 1851 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। 1851 से 1 9 38 तक चलने वाली 14 सम्मेलनों की एक श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों, मुख्य रूप से कोलेरा, पीले बुखार, और ब्यूबोनिक प्लेग का मुकाबला करने के लिए काम किया। 18 9 2 में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब कोलेरा के साथ निपटाया गया एक अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन पारित किया गया था। पांच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए। [2] सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो, और ऑफिस इंटरनेशनल डी हाइगेन पब्लिक को जल्द ही 1 9 02 और 1 9 07 में स्थापित किया गया था। जब 1 9 20 में लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ, तो उन्होंने लीग ऑफ नेशंस के हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ बनाने के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया। [3] बाह्य कड़ि‍यां श्रेणी:स्वास्थ्यविज्ञान
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुख्यालय कहाँ स्थित है?
जेनेवा
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क्रिकेट एक बल्ले और गेंद का दलीय खेल है जिसकी शुरुआत दक्षिणी इंग्लैंड में हुई थी। इसका सबसे प्राचीन निश्चित संदर्भ १५९८ में मिलता है, अब यह १०० से अधिक देशों में खेला जाता है।[1] क्रिकेट के कई प्रारूप हैं, इसका उच्चतम स्तर टेस्ट क्रिकेट है, जिसमें वर्तमान प्रमुख राष्ट्रीय टीमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैण्ड, श्रीलंका, वेस्टइंडीज, न्यूजीलैण्ड, पाकिस्तान, ज़िम्बाब्वे , बांग्लादेश अफ़ग़ानिस्तान और आयरलैण्ड हैं।[2] अप्रैल 2018 में, आईसीसी ने घोषणा की कि वह 1 जनवरी 2019 से अपने सभी 104 सदस्यों को ट्वेन्टी-२० अंतरराष्ट्रीय की मान्यता प्रदान क्रिकेट के बल्ले से गेंद को खेलता है। इसी बीच गेंदबाज की टीम के अन्य सदस्य मैदान में क्षेत्ररक्षक के रूप में अलग-अलग स्थितियों में खड़े रहते हैं, ये खिलाड़ी बल्लेबाज को दौड़ बनाने से रोकने के लिए गेंद को पकड़ने का प्रयास करते हैं और यदि सम्भव हो तो उसे आउट करने की कोशिश करते हैं। बल्लेबाज यदि आउट नहीं होता है तो वो विकेटों के बीच में भाग कर दूसरे बल्लेबाज ("गैर स्ट्राइकर") से अपनी स्थिति को बदल सकता है, जो पिच के दूसरी ओर खड़ा होता है। इस प्रकार एक बार स्थिति बदल लेने से एक रन बन जाता है। यदि बल्लेबाज गेंद को मैदान की सीमारेखा तक हिट कर देता है तो भी रन बन जाते हैं। स्कोर किए गए रनों की संख्या और आउट होने वाले खिलाड़ियों की संख्या मैच के परिणाम को निर्धारित करने वाले मुख्य कारक हैं। यह कई बातों पर निर्भर करता है कि क्रिकेट के खेल को ख़त्म होने में कितना समय लगेगा। पेशेवर क्रिकेट में यह सीमा हर पक्ष के लिए २० ओवरों से लेकर ५ दिन खेलने तक की हो सकती है। खेल की अवधि के आधार पर विभिन्न नियम हैं जो खेल में जीत, हार, अनिर्णीत (ड्रा), या बराबरी (टाई) का निर्धारण करते हैं। क्रिकेट मुख्यतः एक बाहरी खेल है और कुछ मुकाबले कृत्रिम प्रकाश (फ्लड लाइट्स) में भी खेले जाते हैं। उदाहरण के लिए, गरमी के मौसम में इसे संयुक्त राजशाही, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका में खेला जाता है जबकि वेस्ट इंडीज, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में ज्यादातर मानसून के बाद सर्दियों में खेला जाता है। मुख्य रूप से इसका प्रशासन दुबई में स्थित अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के द्वारा किया जाता है, जो इसके सदस्य राष्ट्रों के घरेलू नियंत्रित निकायों के माध्यम से विश्व भर में खेल का आयोजन करती है। आईसीसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले पुरूष और महिला क्रिकेट दोनों का नियंत्रण करती है। हालांकि पुरूष, महिला क्रिकेट नहीं खेल सकते हैं पर नियमों के अनुसार महिलाएं पुरुषों की टीम में खेल सकती हैं। मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप, आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, दक्षिणी अफ्रीका और वेस्टइंडीज में क्रिकेट का पालन किया जाता है।[3] नियम संहिता के रूप में होते हैं जो, क्रिकेट के कानून कहलाते हैं[4] और इनका अनुरक्षण लंदन में स्थित मेरीलेबोन क्रिकेट क्लब (एम सी सी) के द्वारा किया जाता है। इसमें आई सी सी और अन्य घरेलू बोर्डों का परामर्श भी शामिल होता है। क्रिकेट मुकाबला दो दलों (टीमों) या पक्षों के बीच खेला जाता है। हर टीम में ग्यारह खिलाड़ी होते हैं। इसका मैदान कई आकार और आकृतियों का हो सकता है। मैदान घास का होता है और इसे ग्राउंड्समैन के द्वारा तैयार किया जाता है, जिसके कार्य में उर्वरण, कटाई, रोलिंग और सतह को समतल करना शामिल होता है। मैदान का व्यास 140–160 yards (130–150m) सामान्य होता है। मैदान की परिधि को सीमा कहा जाता है और इसे कभी कभी रंग दिया जाता है या कभी कभी एक रस्सी के द्वारा मैदान की बाहरी सीमा को चिह्नित किया जाता है। मैदान गोल, चौकोर या अंडाकार हो सकता है, क्रिकेट का सबसे प्रसिद्ध मैदान है ओवल। प्रत्येक टीम का उद्देश्य होता है दूसरी टीम से अधिक रन बनाना और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ियों को आउट करना। क्रिकेट में खेल को ज्यादा रन बना कर भी जीता जा सकता है, चाहे दूसरी टीम को पूरी तरह से आउट न किया गया हो। दूसरे रूप में खेल को जीतने के लिए अधिक रन बनाना और दूसरी टीम को आउट करना जरुरी होता है, अन्यथा मुकाबला बिना किसी नतीजे के समाप्त हो जाता है। खेल शुरू होने से पहले दोनों टीमों के कप्तान एक सिक्के को उछाल करके निर्धारित करते हैं कि कौन सी टीम पहले बल्लेबाजी या गेंदबाजी करेगी। टॉस जीतने वाला कप्तान पिच औसम की वर्तमान और प्रत्याशित स्थिति के अनुसार अपना फैसला लेता है। नियम और गेमप्ले पिच मुख्य आकर्षण मैदान के विशेष रूप से तैयार किए गए क्षेत्र में होता है (आमतौर पर केन्द्र में) जो "पिच" कहलाता है। पिच के दोनों और 22 yards (20m) विकेट लगाए जाते हैं। ये गेंदबाजी उर्फ क्षेत्ररक्षण पक्ष के लिए लक्ष्य होते हैं और बल्लेबाजी पक्ष के द्वारा इनका बचाव किया जाता है जो रन बनाने की कोशिश में होते हैं। मूलतः एक रन तब बनता है जब एक बल्लेबाज गेंद को अपने बल्ले से मारने के बाद पिच के बीच भागता है, हालाँकि नीचे बताये गए विवरण के अनुसार रन बनाने के कई और तरीके हैं।[5] यदि बल्लेबाज और रन बनाने का प्रयास नहीं करता है तो गेंद "डेड" हो जाती है और गेंदबाज के पास वापिस गेंदबाजी के लिए आ जाती है।[6] गेंदबाजी पक्ष विभिन्न तरीकों से बल्लेबाजों को आउट करने की कोशिश करता है[7] जब तक बल्लेबाजी पक्ष "आल आउट" न हो जाए। इसके बाद गेंदबाजी वाला पक्ष बल्लेबाजी करता है और बल्लेबाजी वाला पक्ष गेंदबाजी के लिए "मैदान" में आ जाता है।[8] पेशेवर मैचों में, खेल के दौरान मैदान पर १५ लोग होते हैं। इनमें से दो अंपायर होते हैं जो मैदान में होने वाली गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। दो बल्लेबाज होते हैं, उनमें से एक स्ट्राइकर होता है जो गेंद का सामना करता है और और दूसरा नॉन स्ट्राइकर कहा जाता है। बल्लेबाजों की भूमिका रन बनने के साथ और ओवर पूरे होने के साथ बदलती रहती है। क्षेत्ररक्षण टीम के सभी ११ खिलाड़ी एक साथ मैदान पर होते हैं। उनमें से एक गेंदबाज होता है, दूसरा विकेटकीपर और अन्य नौ क्षेत्ररक्षक कहलाते हैं। विकेटकीपर (या कीपर) हमेशा एक विशेषज्ञ होता है लेकिन गेंदबाजी पिच विकेटों के बीच की लम्बाई[9] होती है और चौड़ी होती है। यह एक समतल सतह है, इस पर बहुत ही कम घास होती है जो खेल के साथ कम हो सकती है। पिच की "हालत" मैच और टीम की रणनीति पर प्रभाव डालती है, पिच की वर्तमान और प्रत्याशित स्थिति टीम की रणनीति को निर्धारित करती है। प्रत्येक विकेट में तीन लकड़ी के स्टंप होते हैं जिन्हें एक सीधी रेखा में रखा जाता है इनके ऊपर दो लकड़ी के बेल्स ([रखे जाते हैं; बेल्स सहित विकेट की कुल ऊंचाई है और तीनों स्टाम्पों की कुल चौड़ाई है . चार लाइनें, जिन्हें क्रीज के रूप में जाना जाता है, पिच पर विकेट के चारों और पेंट की जाती हैं, ये बल्लेबाज के "सुरक्षित क्षेत्र" और गेंदबाज की सीमा को निर्धारित करती हैं। ये "पोप्पिंग" (या बल्लेबाजी) क्रीज या बालिंग क्रीज या दो "रिटर्न" क्रीज कहलाती हैं। स्टंप को गेंदबाजी क्रीज की लाइन में रखा जाता है और इन्हें एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर रखा जाता है। बीच वाली स्टंप को बिल्कुल केन्द्र पर गेंदबाजी क्रीज की लम्बाई में रखा जाता है पोप्पिंग क्रीज की लम्बाई समान होती है, यह गेंदबाजी की क्रीज के समांतर होती है और विकेट के सामने होती है। रिटर्न क्रीज बाकी दोनों के लम्बवत होती है; ये दोनों पोप्पिंग क्रीज के अंत से जुड़ी होती हैं और इन्हें गेंदबाजी की क्रीज के अंत तक कम से कम इसकी लम्बाई में चित्रित किया जाता है। गेंदबाजी करते समय गेंदबाज का पिछला पैर उसकी "डिलीवरी स्ट्राइड" में दो रिटर्न क्रीजों के बीच में होना चाहिए, जबकि उसका अगला पैर पोप्पिंग क्रीज के ऊपर या उसके पीछे पढ़ना चाहिए। अगर गेंदबाज इस नियम को तोड़ता है, तो अंपायर "नो बाल" घोषित कर देता है। बल्लेबाज के लिए पोप्पिंग क्रीज का महत्त्व यह है कि यह उसके सुरक्षित क्षेत्र की सीमा को निर्धारित करता है जब वह "अपने इस क्षेत्र से बाहर" होता है तो उसका विकेट उखाड़ दिए जाने पर वह स्टंप या रन आउट हो सकता है (नीचे Dismissals देखें)| पिच की स्थिरता भिन्न हो सकती है जिसके कारण गेंदबाज को मिलने वाला उछाल, स्पिन और गति अलग अलग हो सकती है। सख्त पिच पर बल्लेबाजी करना आसान होता है, क्यों की इस पर उछाल ऊँचा लेकिन समान होता है। सूखी पिच बल्लेबाजी के लिए खराब मानी जाती है क्यों की इस पर दरारें आ जाती हैं और जब ऐसा होता है तो स्पिनर एक अहम भूमिका अदा कर सकता है। नम पिच या घास से ढकी पिचें (जो "हरी" पिचें कहलाती हैं) अच्छे तेज गेंदबाज को अतिरिक्त उछाल देने में मदद करती है। इस तरह की पिच पूरे मेच के दौरान तेज गेंदबाज की मदद करती है लेकिन जैसे जैसे मेच आगे बढ़ता है ये बल्लेबाजी के लिए और भी बेहतर होती जाती है। बल्ला और गेंद इस खेल का सार है कि एक गेंदबाज अपनी ओर की पिच से बल्लेबाज की तरफ़ गेंद डालता है जो दूसरे अंत पर बल्ला लेकर उसे "स्ट्राइक" करने के लिए तैयार रहता है। बल्ला लकड़ी से बना होता है इसका आकर ब्लेड के जैसा होता है और शीर्ष पर बेलनाकार हेंडल होता है। ब्लेड की चौडाई से अधिक नहीं होनी चाहिए और बल्ले की कुल लम्बाई से अधिक नहीं होनी चाहिए गेंद एक सख्त चमड़े का गोला होती है जिसकी परिधि गेंद की कठोरता जिसे से अधिक गति से फेंका जा सकता है, वो एक विचारणीय मुद्दा है और बल्लेबाज सुरक्षात्मक कपड़े पहनता है जिसमें शामिल है पेड (जो घुटनों और पाँव के आगे वाले भाग की रक्षा के लिए पहने जाते हैं), बल्लेबाजी के दस्ताने हाथों के लिए, हेलमेट सर के लिए और एक बॉक्स जो पतलून के अन्दर पहना जाता है और क्रोच क्षेत्र को सुरक्षित करता है। कुछ बल्लेबाज अपनी शर्ट और पतलून के अन्दर अतिरिक्त पेडिंग पहनते हैं जैसे थाई पेड, आर्म पेड, रिब संरक्षक और कंधे के पैड अंपायर और स्कोरर मैदान पर खेल को दो अंपायर नियंत्रित करते हैं, उनमें से एक विकेट के पीछे गेंदबाज की तरफ़ खड़ा रहता है और दूसरा "स्क्वेयर लेग" की स्थिति में जो स्ट्राइकिंग बल्लेबाज से कुछ गज पीछे होता है। जब गेंदबाज गेंद डालता है तो विकेट वाला अम्पायर गेंदबाज और नॉन स्ट्राइकर के बीच रहता है। यदि खेल की स्थिति पर कुछ संदेह होता है तो अम्पायर परामर्श करता है और यदि आवश्यक होता है तो वो खिलाड़ियों को फ़ील्ड से बहार ले जाकर मैच को स्थगित कर सकता है, जैसे बारिश होने पर या रोशनी कम होने पर| मैदान से बहार और टी वी पर प्रसारित होने वाले मैचों में अक्सर एक तीसरा अंपायर होता है जो विडियो साक्ष्य की सहायता से विशेष स्थितियों में फ़ैसला ले सकता है। टेस्ट मैचों और दो आईसीसी के पूर्ण सदस्यों के बीच खेले जाने वाले सीमित ओवरों के अंतरराष्ट्रीय खेल में तीसरा अंपायर जरुरी होता है। इन मैचों में एक मैच रेफरी भी होता है जिसका काम है यह सुनिश्चित करना होता है कि खेल क्रिकेट के नियमों के तहत खेल की भावना से खेला जाये| मैदान के बाहर दो अधिकारिक स्कोरर रनों और आउट होने वाले खिलाड़ियों का रिकॉर्ड रखते हैं, प्रत्येक अधिकारी एक टीम से होता है। स्कोरर अंपायर के हाथ के संकेतों द्वारा निर्देशित होते हैं। उदाहरण के लिए, अंपायर एक तर्जनी अंगुली उठा कर बताता है कि बल्लेबाज आउट हो गया है; और यदि बल्लेबाज ने छ: रन बनाए हैं तो वो दोनों हाथों को ऊपर उठाता है। स्कोरर क्रिकेट के नियमों के अनुसार सभी रनों, विकेटों और ओवरों का रिकॉर्ड रखते हैं। व्यवहार में, वे अतिरिक्त डेटा भी संचित करते हैं जैसे गेंदबाजी विश्लेषण और रन की दरें| पारियां पारी (हमेशा बहुवचन रूप में प्रयुक्त होती है) बल्लेबाजी पक्ष के सामूहिक प्रदर्शन के लिए एक शब्द है। [10] सिद्धांत के तौर में, बल्लेबाजी पक्ष के सभी ग्यारह सदस्य बारी बारी से बल्लेबाजी करते हैं, लेकिन कई कारणों से "पारी" इससे पहले भी ख़त्म हो सकती है (नीचे देखें)| खेले जा रहे मैच के प्रकार के अनुसार हर टीम की एक या दो परियां होती हैं। "पारी" शब्द का उपयोग कभी कभी एक बल्लेबाज के व्यक्तिगत योगदान को बताने के लिए भी किया जाता है। ("जैसे उसने एक अच्छी पारी खेली" आदि) गेंदबाज का मुख्य उद्देश्य क्षेत्ररक्षकों की सहायता से बल्लेबाज को आउट करना होता है। एक बल्लेबाज जब बर्खास्त कर दिया जाता है तब कहा जाता है कि वह "आउट" हो गया है अर्थात उसे मैदान छोड़ कर जाना होगा और उसकी टीम का अगला बल्लेबाज अब बल्लेबाजी करने आएगा| जब दस बल्लेबाज बर्खास्त (अर्थात आउट) हो जाते हैं तो पूरी टीम बर्खास्त हो जाती है और पारी समाप्त हो जाती है। अंतिम बल्लेबाज, जो आउट नहीं हुआ है, वह अब बल्लेबाजी नहीं कर सकता क्योंकि हमेशा दो बल्लेबाजों को एक साथ मैदान में रहना होता है। यह बल्लेबाज "नॉट आउट" कहलाता है। यदि दस बल्लेबाजों के आउट होने से पहले ही एक पारी समाप्त हो जाए तो दो बल्लेबाज "नॉट आउट" कहलाते हैं। एक पारी तीन कारणों से जल्दी ख़त्म हो सकती है: यदि बल्लेबाजी पक्ष का कप्तान घोषित कर दे की परी समाप्त हो गई है (जो एक सामरिक निर्णय होता है), या बल्लेबाजी पक्ष ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो और खेल को जीत लिया हो, या खेल ख़राब मौसम या समय ख़त्म हो जाने के कारण समाप्त कर दिया जाये| सीमित ओवरों के क्रिकेट में, जब अंतिम ओवर किया जा रहा हो तब भी दो बल्लेबाज बचे हो सकते हैं। ओवर ओवर या षटक ६ गेंदों का समुच्चय या समूह होता है। यह शब्द इस तरह से आया है क्योंकि अंपायर कहता है "ओवर" यानि पूरा। जब ६ गेंदें डाली जा चुकी होती हैं, तब दूसरा गेंदबाज दूसरे छोर पर आ जाता है और क्षेत्ररक्षक भी अपना स्थान बदल लेते हैं। एक गेंदबाज लगातार दो ओवर नहीं डाल सकता है, हालांकि एक गेंदबाज छोर को बिना बदले उसी छोर से कई ओवर डाल सकता है। बल्लेबाज साइड या छोर को बदल नहीं सकते हैं, इसलिए जो नॉन स्ट्राइकर था वह स्ट्राइकर बन जाता है और स्ट्राइकर अब नॉन स्ट्राइकर बन जाता है। अंपायर भी अपनी स्थिति को बदलते हैं ताकि जो अंपायर स्क्वेयर लेग की स्थिति में था वह विकेट के पीछे चला जाता है और इसका विपरीत भी होता है। टीम संरचना एक टीम में ११ खिलाड़ी होते हैं। प्राथमिक कुशलता के आधार पर एक खिलाड़ी को बल्लेबाज या गेंदबाज के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। एक अच्छी तरह से संतुलित टीम में आमतौर पर पाँच या छह विशेषज्ञ बल्लेबाज और चार या पाँच विशेषज्ञ गेंदबाज होते हैं। टीम में हमेशा एक विशेषज्ञ विकेट रक्षक होता है क्योंकि यह क्षेत्ररक्षण स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। प्रत्येक टीम का नेतृत्व कप्तान करता है जो सामरिक निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार होता है, जैसे बल्लेबाजी क्रम का निर्धारण करना, क्षेत्ररक्षकों के स्थान निर्धारित करना और गेंदबाजों की बारी तय करना। एक खिलाड़ी जो बल्लेबाजी और गेंदबाजी दोनों का विशेषज्ञ होता है हरफनमौला कहलाता है। जो बल्लेबाज और विकेट कीपर दोनों का काम करता है वह "विकेट कीपर/बल्लेबाज" कहलाता है, कभी कभी उसे हरफनमौला भी कहा जाता है, वास्तव में हरफनमौला खिलाड़ी कम ही देखने को मिलते हैं क्योंकि अधिकांश खिलाड़ी बल्लेबाजी या गेंदबाजी में से किसी एक पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। क्षेत्ररक्षण क्षेत्ररक्षण के पक्ष के सभी ग्यारह खिलाड़ी मैदान में एक साथ रहते हैं। उनमें से एक विकेट कीपर उर्फ"कीपर" होता है जो स्ट्राइकर बल्लेबाज के द्वारा बचाए जाने वाले विकेट के पीछे खड़ा रहता है। विकेट कीपिंग सामान्यत: एक विशेषज्ञ ही कर सकता है, उसका मुख्य कम उन गेंदों को पकड़ना होता है जो बल्लेबाज हिट नहीं करता है। जिससे की बल्लेबाज बाई के रन ना ले सके। वह विशेष दस्ताने पहनता हैं, (क्षेत्र रक्षकों में केवल उसी को ऐसा करने की अनुमति होती है) साथ ही अपने नीचले टांगों को कवर करने के लिए पैड भी पहनता है। चूँकि वह सीधे स्ट्राइकर के पीछे खड़ा रहता है, अत: उसके पास इस बात की बहुत अधिक संभावना होती है कि वो बल्लेबाज के बल्ले के किनारे से छू कर निकलती हुई बॉल को कैच करके बल्लेबाज को आउट कर सके। केवल वही एक ऐसा खिलाड़ी है जो बल्लेबाज को स्टम्पड आउट कर सकता है। वर्तमान गेंदबाज के अलावा शेष ९ क्षेत्र रक्षक कप्तान के द्वारा मैदान में चुने हुए स्थानों पर तैनात रहते हैं। ये स्थान तय नहीं होते हैं लेकिन ये विशेष और कभी कभी अच्छे नामों से जाने जाते हैं जैसे "स्लिप", "थर्ड मेन", "सिली मिड ऑन" और "लाँग लेग"| हमेशा कुछ असुरक्षित क्षेत्र रहते हैं। कप्तान क्षेत्ररक्षण पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य होता है क्योंकि वह सभी रणनीतियां निर्धारित करता है, जैसे किसे गेंदबाजी करनी चाहिए (और कैसे); और वह "क्षेत्र की सेटिंग" के लिए भी जिम्मेदार होता है। क्रिकेट के सभी रूपों में, यदि एक मैच के दौरान एक क्षेत्ररक्षक घायल या बीमार हो जाता है तो उसके स्थान पर किसी और को प्रतिस्थापित किया जा सकता है। प्रतिस्थापित खिलाड़ी गेंदबाज़ी, कप्तानी या विकेट कीपिंग नहीं कर सकता ह| यदि घायल खिलाड़ी ठीक होकर वापस मैदान में आ जाए तो अतिरिक्त खिलाड़ी को मैदान छोड़ना होता है। गेंदबाजी गेंदबाज अक्सर दौड़ कर गेंद डालने के लिए आते हैं, हालाँकि कुछ गेंदबाज एक या दो कदम ही दौड़ कर आते हैं और गेंद डाल देते हैं। एक तेज गेंदबाज को संवेग की जरुरत होती है जिसके कारण वह तेजी से और दूरी से दौड़ कर आता है। तेज गेंदबाज बहुत तेजी से गेंद को डाल सकता है और कभी कभी वह बल्लेबाज को आउट करने के लिए बहुत ही तेज गति की गेंद डालता है जिससे बल्लेबाज पर तीव्रता से प्रतिक्रिया करने का दबाव बन जाता है। अन्य तेज गेंदबाज गति के साथ साथ किस्मत पर भी भरोसा करते हैं। कई तेज गेंदबाज गेंद को इस तरह से डालते हैं कि वह हवा में "झूलती हुई" या "घूमती हुई" आती है। इस प्रकार की डिलीवरी बल्लेबाज को धोखा दे सकती है जिसके कारण उसके शॉट खेलने की टाइमिंग ग़लत हो जाती हैं, जिससे गेंद बल्ले के बाहरी किनारे को छूती हुई निकलती है और उसे विकेट कीपर या स्लिप क्षेत्र रक्षक के द्वारा केच किया जा सकता है। गेंदबाजों में एक अन्य प्रकार है "स्पिनर" जो धीमी गति से स्पिन करती हुई गेंद डालता है और बल्लेबाज को धोखा देने की कोशिश करता है। एक स्पिनर अक्सर “विकेट लेने के लिए” गेंद को थोड़ा ऊपर से डालता है और बल्लेबाज को ग़लत शॉट खेलने के लिए उकसाता है। बल्लेबाज को इस तरह की गेंदों से बहुत अधिक सावधान रहना होता है क्योंकि यह गेंद अक्सर बहुत ऊँची और घूर्णन करती हुई आती है और वो उस तरह से व्यवाहर नहीं करती है जैसा कि बल्लेबाज ने सोचा होता है और वो आउट हो सकता है। तेज़ गेंदबाज़ और स्पिनर के मध्य होते हैं "मध्यमगति के गेंदबाज़" जो अपनी सटीक गेंदबाजी से रनों की गति को कम करने पर भरोसा करते हैं और बल्लेबाजों का ध्यान भंग करते हैं। सभी गेंदबाजों को उनकी गति और शैली के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है। ज्यादा क्रिकेट शब्दावली के अनुसार वर्गीकरण (classifications) बहुत भ्रमित कर सकते हैं। इस प्रकार से एक गेंदबाज को एल एफ में वर्गीकृत किया जा सकता है जिसका अर्थ है बाएं हाथ का तेज गेंदबाज या एल बी जी में वर्गीकृत किया जा सकता है जिसका अर्थ है दायें हाथ का स्पिन गेंदबाज जो "लेग ब्रेक" या "गूगली" डाल सकता है। गेंदबाजी के दौरान कोहनी को किसी भी कोण पर रखा जा सकता है या मोड़ा जा सकता है लेकिन इस दौरान उसे सीधा नहीं किया जा सकता है। यदि कोहनी अवैध रूप से सीधी हो जाती है तो स्क्वेर लेग अम्पायर इसे नो बॉल (no-ball) घोषित कर सकता है। वर्तमान नियमों के अनुसार एक गेंदबाज अपनी भुजा को १५ डिग्री या उससे कम तक सीधा कर सकता है। बल्लेबाजी किसी भी एक समय पर, मैदान में दो बल्लेबाज होते हैं। एक स्ट्राइकर छोर पर रह कर विकेट की रक्षा करता है और संभव हो तो रन बनाता है। उसका साथी, जो नॉन स्ट्राइकर होता है वो उस छोर पर होता है जहाँ से गेंदबाजी की जाती है। बल्लेबाज बल्लेबाजी क्रम (batting order) में आते हैं, यह क्रम कप्तान के द्वारा निर्धारित किया जाता है, पहले दो बल्लेबाज "ओपनर" कहलाते हैं। उन्हें सामान्यत: सबसे खतरनाक गेंदबाजी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उस समय तेज गेंदबाज नई गेंद का उपयोग करते हैं। शीर्ष बल्लेबाजी के लिए आम तौर पर टीम में सबसे अधिक सक्षम बल्लेबाज को भेजा जाता है और गैर बल्लेबाजों को अंत में भेजा जाता है। पहले से निर्धारित किया गया बल्लेबाजी क्रम अनिवार्य नहीं है और जब भी एक विकेट गिर जाता है तो कोई भी खिलाड़ी जिसने बल्लेबाजी नहीं की है उसे भेजा जा सकता है। अगर एक बल्लेबाज मैदान छोड़ के जाता है (आम तौर पर चोट के कारण) और वापस नहीं लौट पता है तो वह वास्तव में "नॉट आउट" होता है और उसका बहार जाना आउट नहीं माना जाता है, परन्तु उसे बर्खास्त कर दिया जाता है क्योंकि उसकी पारी समाप्त हो चुकी होती है। प्रतिस्थापित बल्लेबाज को अनुमति नहीं होती है। एक कुशल बल्लेबाज सुरक्षात्मक और आक्रामक दोनों रूपों में कई प्रकार के "शॉट" या 'स्ट्रोक' लगा सकता है। मुख्य काम है गेंद को बल्ले की समतल सतह से हिट करना। यदि गेंद बल्ले के किनारे को छूती है तो यह "बाहरी किनारा" कहलाता है। बल्लेबाज हमेशा ही गेंद को जोर से हिट करने की कोशिश नहीं करता है, एक अच्छा खिलाड़ी एक हल्के चतुर स्ट्रोक से या केवल अपनी कलाई को हल्के से घुमा कर रन बना सकता है। लेकिन वह गेंद को क्षेत्ररक्षकों से दूर हिट करता है ताकि उसे रन बनाने का समय मिल सके। क्रिकेट में कई प्रकार के शॉट खेले जाते हैं। बल्लेबाज के द्वारा लगाये गए स्ट्रोक को गेंद के स्विंग या उसकी दिशा के अनुसार कई नाम दिए जा सकते हैं जैसे "कट (cut)” "ड्राइव","हुक" या "पुल". ध्यान दें कि बल्लेबाज को हर शॉट को नहीं खेलना होता है, यदि उसे लगता है कि गेंद विकेट से नहीं टकराएगी तो वह गेंद को विकेट कीपर तक जाने के लिए "छोड़" सकता है। इसके साथ ही, वह जब अपने बल्ले से गेंद को हिट करता है तो उसे रन लेने का प्रयास नहीं करना होता है। वह जानबूझकर अपने पैर का प्रयोग करके गेंद को रोक सकता है और उसे अपनी टांग से दूर कर सकता है लेकिन यह एल बी डबल्यू नियम के अनुसार जोखिम भरा हो सकता है। यदि एक घायल बल्लेबाज बल्लेबाजी करने के लिए फिट हो जाता है लेकिन भाग नहीं सकता हो तो अंपायर और क्षेत्ररक्षण टीम का कप्तान बल्लेबाजी पक्ष के एक अन्य सदस्य को दोड़ने (runner) की अनुमति दे सकता है। यदि संभव हो तो, इस धावक को अपने साथ बल्ला रखना होता है। इस धावक का एक मात्र काम होता है घायल बल्लेबाज के स्थान पर दोड़ना.इस धावक को वो सभी उपकरण पहनने और उठाने होते हैं जो एक बल्लेबाज ने पहने हैं। दोनों बल्लेबाजों के लिए धावक रखना संभव है। रन स्ट्राइकर बल्लेबाज की प्राथमिकता होती है गेंद को विकेट पर टकराने से रोकना. और दूसरी प्राथमिकता होती है बल्ले से गेंद को हिट कर के रन (runs) बनाना ताकि इससे पहले कि क्षेत्ररक्षण पक्ष की ओर से गेंद वापस आए, उसे और उसके सहयोगी को रन बनाने का समय मिल जाए. एक रन रजिस्टर करने के लिए, दोनों धावकों को अपने बल्ले से या शरीर के किसी भाग से क्रीज के पीछे की भूमि को छुना होता है। (बल्लेबाज दोड़ते समय बल्ला लिए होते हैं) प्रत्येक रन स्कोर में जुड़ जाता है। एक ही हिट पर एक से अधिक रन बनाये जा सकते हैं, एक हिट में एक से तीन रन आम हैं, मैदान का आकार इस प्रकार का होता है कि सामान्यत: चार या अधिक रन बनाना कठिन होता है। इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए, यदि गेंद मैदान की सीमा की भूमि को छूती है तो इसे चार रन गिना जाता है। और यदि गेंद सीमा को हवा में पार करके निकल जाती है तो इसे छ: रन गिना जाता है। यदि गेंद सीमा पार चली जाती है तो बल्लेबाज को भागने की जरुरत नहीं होती है। पाँच रन बहुत ही असामान्य हैं और आमतौर पर यह क्षेत्र रक्षक के द्वारा वापस फेंकी गई गेंद, "ओवर थ्रो" पर निर्भर करता है। यदि स्ट्राइकर विषम संख्या में रन बनाता है तो बल्लेबाजों का स्थान आपस में बदल जाता है और नॉन स्ट्राइकर अब स्ट्राइकर बन जाता है। केवल स्ट्राइकर ही व्यक्तिगत रूप से रन बनता है लेकिन सभी रन टीम के कुल स्कोर में जोड़े जाते हैं। रन लेने का फ़ैसला बल्लेबाज, जिसको गेंद की दिशा और गति का ज्ञान होता है, उसके द्वारा किया जाता है और इसको वह "हाँ", "ना" या "रुको" कहके बताता है। रन लेने में बहुत जोखिम होता है क्योंकि यदि एक क्षेत्र रक्षक विकेट को गिरा देता है, जब नजदीकी बल्लेबाज अपनी क्रीज से बाहर होता है तो (यानि उसके शरीर का कोई भाग या बल्ला पोप्पिंग क्रीज के संपर्क में नहीं है) बल्लेबाज रन आउट (run out) कहलाता है। एक टीम के स्कोर को उसके द्वारा बनाये गए रनों की संख्या और आउट हुए बल्लेबाजो की संख्या से प्रदर्शित किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि पाँच बल्लेबाज आउट हो गए हैं और टीम ने २२४ रन बनाये हैं तो कहा जाता है कि उन्होंने ५ विकेट की हानि पर २२४ रन बनाये हैं (इसे साधारणत: २२४ पर ५ और २२४/५ के रूप में लिखा जाता है, ऑस्ट्रेलिया में, ५ पर २२४ और ५/२२४)। अतिरिक्त क्षेत्ररक्षण पक्ष की और से की गई त्रुटियों के कारण बल्लेबाजी पक्ष को जो रन प्राप्त होते हैं वे अतिरिक्त (extras) कहलाते हैं। (ऑस्ट्रेलिया में "सनड्रिज" कहलाते हैं)। यह चार प्रकार से प्राप्त किये जा सकते हैं: नो बॉल एक ऐसी अतिरिक्त बॉल होती है जो गेंदबाज के द्वारा किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड के रूप में डाली जाती है; (अ) अनुपयुक्त भुजा एक्शन के कारण; (ब) पोप्पिंग क्रिज पर ओवर स्टेप्पिंग के कारण; (स) यदि उसका पैर रिटर्न क्रिज के बाहर हो; इस के लिए गेंदबाज को फ़िर से गेंद डालनी होती है। वर्तमान नियमों के अनुसार खेल के ट्वेंटी 20 (Twenty20) और ओ डी आई (ODI) प्रारूपों में फ़िर से डाली गई गेंद फ्री हिट होती है, अर्थात इस गेंद पर बल्लेबाज रन आउट के अलावा किसी और प्रकार से आउट नहीं हो सकता है। वाइड – दंड के रूप में दी गई एक अतिरिक्त गेंद होती है जो तब दी जाती है जब गेंदबाज ऐसी गेंद डालता है जो बल्लेबाज की पहुँच से बाहर हो। बाई बल्लेबाज को मिलने वाला अतिरिक्त रन है जब बल्लेबाज गेंद को मिस कर देता है और यह पीछे विकेट कीपर के पास से होकर निकल जाती है जिससे बल्लेबाज को परंपरागत तरीके से रन लेने का समय मिल जाता है (ध्यान दें कि एक अच्छे विकेट कीपर की निशानी है कि वह कम से कम बाईज दे। लेग बाई – अतिरिक्त दिया जाने वाला रन, जब गेंद बल्लेबाज के शरीर को हिट करती है लेकिन बल्ले को नहीं और यह क्षेत्ररक्षकों से दूर जाकर बल्लेबाज को परंपरागत तरीके से रन लेने का समय भी देती है। जब कोई गेंदबाज एक वाइड या नो बॉल डालता है, तो उसकी टीम को दंड भुगतना पड़ता है क्योंकि उन्हें एक अतिरिक्त गेंद डालनी पड़ती है जिससे बल्लेबाजी पक्ष को अतिरिक्त रन बनने का मौका मिल जाता है। बल्लेबाज को भाग कर रन लेना ही होता है ताकि वह बाईज और लेग बाईज का दावा कर सके। (सिवाय इसके जब गेंद चार रन के लिए सीमा पार चली जाती है) लेकिन ये रन केवल टीम के कुल स्कोर में जुड़ते हैं, स्ट्राइकर के व्यक्तिगत स्कोर में नहीं। व़िकेट पतन एक बल्लेबाज दस तरीके से आउट हो सकता है और कुछ तरीके इतने असामान्य हैं कि खेल के पूरे इतिहास में इसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं। आउट होने के सबसे सामान्य प्रकार हैं "बोल्ड", "केच", "एल बी डबल्यू", "रन आउट", "स्टंपड" और "हिट विकेट".असामान्य तरीके हैं "गेंद का दो बार हिट करना", "मैदान को बाधित करना", "गेंद को हेंडल करना" और "समय समाप्त". इससे पहले कि अंपायर बल्लेबाज के आउट होने की घोषणा करें सामान्यत: क्षेत्ररक्षण पक्ष का कोई सदस्य (आमतौर पर गेंदबाज) "अपील" करता है। यह "हाउज़ देट?" बोल कर या चिल्ला कर किया जाता है। इसका मतलब है "हाउ इस देट?" यदि अंपायर अपील से सहमत हैं, तो वह तर्जनी अंगुली उठा कर कहता है "आउट!"अन्यथा वह सिर हिला कर कहता है "नॉट आउट".अपील उस समय तेज आवाज में की जाती है जब आउट होने की परिस्थिति स्पष्ट न हो। यह एल बी डबल्यू की स्थिति में हमेशा होता है और अक्सर रन आउट और स्टंप की स्थिति में होता है। बोल्ड (Bowled); यदि गेंदबाज गेंद से विकेट पर हिट करता है जिससे की कम से कम एक विकेट गिर जाए और बेल अपने स्थान से हट जाए (ध्यान दें की यदि गेंद विकेट पर लगती है पर बेल अपने स्थान से नहीं हटती है तो वो नॉट आउट होता है)[11] केच (Caught);यदि बल्लेबाज ने बल्ले से या हाथ से गेंद को हिट किया और इसे क्षेत्र रक्षण टीम के किसी सदस्य ने केच कर लिया हो। [12] लेग बिफोर विकेट (Leg before wicket)(एल बी डब्ल्यू); यह जटिल है लेकिन इसका मूल अर्थ यह होता है कि यदि गेंद ने पहले बल्लेबाज की टांग को न छुआ होता तो वो आउट हो जाता[13] रन आउट (Run out) – क्षेत्ररक्षण पक्ष के एक सदस्य ने गेंद से विकेट को तोड़ दिया या गिरा दिया जब बल्लेबाज अपनी क्रीज़ पर नहीं था; यह सामान्यत: तब होता है जब बल्लेबाज रन लेने की कोशिश कर रहा होता है और सटीक थ्रो के द्वारा गेंद से विकेट तोड़ दिया जाता है।[14] स्टंपड (Stumped)– यह उसी के समान है है लेकिन इसमें विकेट को विकेट कीपर तोड़ता है जब बल्लेबाज गेंद को मिस कर के रन लेने के लिए अपनी क्रीज़ से बाहर चला जाता है; कीपर को गेंद को हाथ में लेकर विकेट को तोड़ना होता है। (यदि कीपर गेंद को विकेट पर फेंकता है तो यह रन आउट होता है)[15] हिट विकेट (Hit wicket); बल्लेबाज हिट विकेट से आउट हो जाता है जब बल्लेबाज गेंद को हिट करते समय या रन लेने की कोशिश करते समय अपने बल्ले, कपड़े, या किसी अन्य उपकरण से एक या दोनों बेलों को गिरा देता है।[16] दो बार गेंद को मारना (Hit the ball twice)–यह बहुत ही असामान्य है और यह खेल के जोखिम को ध्यान में रखते हुए और क्षेत्ररक्षकों की सुरक्षा के लिए शुरू किया गया है। बल्लेबाज कानूनी रूप से एक बार गेंद को खेल लेने के बाद सिर्फ इसे विकेट पर टकराने से रोकने के लिए दुबारा हिट कर सकता है।[17] क्षेत्र बाधित (Obstructed the field) ; एक और असामान्य बर्खास्तगी जिसमें एक बल्लेबाज जानबूझकर एक क्षेत्ररक्षक के रास्ते में आ जाए.[18] गेंद को पकड़ना (Handled the ball); एक बल्लेबाज जानबूझकर अपने विकेट को सुरक्षित करने के लिए हाथ का प्रयोग नहीं कर सकता है। (ध्यान दें कि अक्सर गेंद बल्लेबाज के हाथ को छूती है लेकिन यदि यह जान बूझ कर नहीं किया गया है तो नॉट आउट होता है; हालाँकि वह इसे अपने हाथ में पकड़ सकता है)[19] टाइम आउट (Timed out); यदि एक बल्लेबाज के आउट हो जाने के दो मिनट के अन्दर अगला बल्लेबाज मैदान पर न आए[20] अधिकांश मामलों में स्ट्राइकर ही आउट होता है। यदि गैर स्ट्राइकर आउट है तो वह रन आउट होता है, लेकिन वह मैदान को बाधित कर के, बॉल को पकड़ कर या समय समाप्त होने पर भी आउट हो सकता है। एक बल्लेबाज बिना आउट हुए भी मैदान को छोड़ सकता है। अगर उसे चोट लग जाए या वह घायल हो जाए तो वह अस्थायी रूप से जा सकता है, उसे अगले बल्लेबाज के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। इसे रिटायर्ड हर्ट (retired hurt) या रिटायर्ड बीमार (retired ill)के रूप में दर्ज किया जाता है। रिटायर्ड बल्लेबाज नॉट आउट होता है और बाद में फ़िर से आ सकता है। एक अछूता बल्लेबाज, रिटायर हो सकता है उसे रिटायर आउट (retired out)कहा जाता है; जिसका श्रेय किसी भी खिलाड़ी को नहीं जाता है। बल्लेबाज नो बॉल पर बोल्ड, केच, लेग बिफोर विकेट , स्टंप्ड</i>या हिट विकेट आउट नहीं हो सकता है। वो वाइड बॉल</i>पर बोल्ड, केच, लेग बिफोर विकेट , या बॉल को दो बार हिट करने पर आउट हो सकता है। इनमें से कुछ प्रकार के आउट गेंदबाज के द्वारा बिना गेंद डाले ही हो सकते हैं। नॉन-स्ट्राइकर बल्लेबाज भी रन आउट (run out by the bowler) हो सकता है यदि वह गेंदबाज के द्वारा गेंद डालने से पहले क्रीज को छोड़ दे और एक बल्लेबाज क्षेत्ररक्षण बाधित करने पर या रिटायर आउट होने पर किसी भी समय आउट हो सकता है। समय समाप्त , बिना डिलीवरी के होने वाली बर्खास्तगी है। आउट होने के किसी भी तरीके में, केवल एक ही बल्लेबाज एक गेंद पर आउट हो सकता है। पारी समाप्त एक पारी समाप्त होती है जब: ग्यारह में से १० बल्लेबाज आउट हो जाते हैं; इस स्थिति में टीम "आल आउट" कहलाती है। यदि टीम में केवल एक ही ऐसा बल्लेबाज बचा है जो बल्लेबाजी कर सकता है, बाकि बचे हुए एक या अधिक खिलाड़ी चोट, बीमारी या अनुपस्थिति के कारण उपलब्ध नहीं हैं तो भी टीम "ऑल आउट" कहलाती है। बल्लेबाजी करने वाली टीम को अंत में उस स्कोर तक पहुंचना होता है जो मैच को जीतने के लिए जरुरी है। ओवर की पूर्व निर्धारित संख्या में ही गेंदें डाली जाती हैं, (एक दिवसीय मैच में सामान्यत: ५० ओवर और ट्वेंटी 20 में सामान्यत:२० ओवर) एक कप्तान अपनी टीम की पारी को समाप्त घोषित (declares) कर सकता है जब उसके कम से कम दो बल्लेबाज नॉट आउट हों, (यह एक दिवसीय के मैच में लागु नहीं होता है।) परिणाम दोनों टीमों के द्वारा बनाये गए रनों की संख्या का अन्तर है।) यदि बाद में खेलने वाली टीम जीतने के लिए पर्याप्त रन बना लेती है तो कहा जाता है कि वह n विकेटों से जीत गई। जहां n बचे हुए विकेटों की संख्या है। उदहारण के लिए यदि कोई टीम केवल ६ विकेट खो कर विरोधी टीम के स्कोर को पार कर लेती है तो कहा जाता है कि वह "चार विकेट से मैच जीत गई है" दो पारी के मैच में एक टीम का पहली और दूसरी पारी का कुल स्कोर दुसरे पक्ष की पहली परी के कुल स्कोर से भी कम हो सकता है। तब कहा जाता है कि टीम एक पारी और n रनों से जीत गई है और उसे फ़िर से बल्लेबाजी करने की कोई जरुरत नहीं है: n दोनों टीमों कुल स्कोर के बीच का अंतर है। यदि अंत में बल्लेबाजी करने वाली टीम ऑल आउट हो जाती है और दोनों साइडों ने समान रन बनाये हैं, तो मैच टाई (tie) हो जाता है; यह नतीजा काफी दुर्लभ होता है। खेल के परंपरागत स्वरूप में, किसी भी पक्ष के जीतने से पहले यदि समय ख़त्म हो जाता है तो खेल को ड्रा (draw) घोषित कर दिया जाता है। अगर मैच में हर पक्ष के लिए केवल एक पारी है तो हर पारी के लिए की अधिकतम गेंदों की संख्या अक्सर निश्चित कर दी जाती है। इस तरह के मैच "सीमित ओवरों के मैच" या "एक दिवसीय मैच" कहलाते हैं और विकेटों की संख्या को ध्यान में न रखते हुए अधिक रन बनाने वाली टीम जीत जाती है। जिससे ड्रा नहीं हो सकता है। यदि इस प्रकार का मैच अस्थायी रूप से ख़राब मौसम के कारण बाधित हो जाता है तो एक जटिल गणितीय सूत्र जो डकवर्थ -लुईस पद्धति कहलाती है उसके मध्यम से एक नया लक्ष्य स्कोर फ़िर से आकलित किया जाता है। एक दिवसीय मैच को भी "परिणाम रहित " घोषित किया जा सकता है यदि किसी एक टीम के द्वारा पूर्व निर्धारित ओवर डाले जा चुके हैं और किसी परिस्थिती जैसे गीले मौसम के कारण आगे खेल को नहीं खेला जा सकता है। मैच के प्रकार व्यापक अर्थों में क्रिकेट एक बहु आयामी खेल है, इसे खेल के पैमानों के आधार पर मेजर क्रिकेट (major cricket) और माइनर क्रिकेट में विभाजित किया जा सकता है। एक और अधिक उचित विभाजन, विशेष रूप से मेजर क्रिकेट के शब्दों में, मैचों के बीच किया जाता है, जिसमें कुल दो पारियां होती हैं, प्रत्येक टीम को एक पारी खेलनी होती है। इसे पूर्व में प्रथम श्रेणी क्रिकेट (first-class cricket) के रूप में जाना जाता था, इसकी अवधि तीन से पाँच दिन होती है, (ऐसे मैचों के उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें समय की कोई सीमा नहीं रही है); बाद में इन्हें सीमित ओवरों के क्रिकेट (limited overs cricket) के रूप में जाना जाने लगा क्योंकि प्रत्येक टीम प्रारूपिक रूप से सीमित ५० ओवर में गेंदें डालती है, इसकी पूर्व निर्धारित अवधि केवल १ दिन होती है। (एक मेच की अवधि को ख़राब मौसम जैसे किसी कारण से भी बढाया जा सकता है।) आमतौर पर, दो पारी के मैच में प्रति दिन कम से कम ६ घंटे खेलने के समय (playing time) के रूप में दिए जाते हैं। सीमित ओवरों के मैच अक्सर ६ घंटे या अधिक में समाप्त हो जाते हैं। पेय के लिए संक्षिप्त अनौपचारिक अन्तराल के आलावा आम तौर पर भोजन और चाय के लिए औपचारिक अंतराल होते हैं। पारियों के बीच एक छोटा अन्तराल भी होता है। ऐतिहासिक रूप से, क्रिकेट का एक रूप जो सिंगल विकेट (single wicket) के नाम से जाना जाता था, बेहद सफल रहा था और 18 वीं और 19 वीं सदी में इन स्पर्धाओं में से अधिकांश को मुख्य क्रिकेट का दर्जा दिया गया था। इस रूप में, हालांकि प्रत्येक टीम में १ से ६ खिलाड़ी होते थे और एक समय में केवल एक बल्लेबाज होता था, उसे अपनी पारी की समाप्ति तक हर गेंद का सामना करना होता था। सीमित ओवरों के क्रिकेट की शुरुआत के बाद से सिंगल विकेट क्रिकेट को कभी कभी ही खेला गया है। टेस्ट क्रिकेट टेस्ट क्रिकेट (Test cricket) प्रथम श्रेणी क्रिकेट के सर्वोच्च मानक है। एक टेस्ट मैच उन देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली टीमों के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता है जो आईसीसी के पूर्ण सदस्य हैं। जनवरी 2005 में दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के बीच हालांकि शब्द "टेस्ट मैच" का प्रयोग काफी समय तक नहीं किया गया, ऐसा माना जाता है कि 1876-77 में ऑस्ट्रेलियाई मौसम (1876-77 Australian season) में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच इसकी शुरुआत हुई। इसके बाद आठ अन्य राष्ट्रीय दलों ने टेस्ट दर्जा हासिल किया: दक्षिण अफ्रीका (1889), वेस्ट इंडीज (1928), न्यूजीलैंड (1929), भारत (1932), पाकिस्तान (Pakistan)(1952), श्रीलंका (Sri Lanka)(1982), जिम्बाब्वे (1992) और बंगलादेश (2000)। बाद में २००६ में जिम्बाब्वे को टेस्ट दर्जे से निलंबित कर दिया गया, क्योंकि यह दूसरी टीमों से स्पर्धा नहीं कर पा रही थी। और अभी तक यह निलंबित है।[21] वेल्श खिलाड़ी इंग्लैंड के लिए खेलने के लिए पात्र हैं, यह इंग्लैंड और वेल्स की टीम के बीच प्रभावी है। वेस्ट इंडीज टीम में कई राज्यों के खिलाड़ी हैं, कैरेबियन, विशेषकर बारबाडोस, गुयाना, जमैका, त्रिनिडाड और टोबैगोसे और लीवर्ड द्वीप और विंड वार्ड द्वीप से खिलाड़ी इसमें शामिल हैं। दो टीमों के बीच आमतौर पर टेस्ट मैचों को मकान के एक समूह में खेला जाता है जिसे "श्रृंखला" कहा जाता है। मैच ५ दिनों तक चल सकते हैं, सामान्य रूप से एक श्रृंखला में ३ से ५ मैच हो सकते हैं। टेस्ट मैच जो दिए गए समय में ख़त्म नहीं होते हैं वह ड्रा हो जाते हैं। 1882 के बाद से इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट श्रृंखला एक ट्रॉफी के लिए खेली जाती है जिसे दी एशेस (The Ashes) के नाम से जाना जाता है। कुछ अन्य श्रृंखलाओं में भी व्यक्तिगत ट्रॉफियां है: उदाहरण के लिए, विस्डेन ट्रॉफी (Wisden Trophy) जिसके लिए इंग्लैंड और वेस्ट इंडीज के बीच स्पर्धा होती है; फ्रैंक वोरेल्ल ट्रॉफी (Frank Worrell Trophy) जिसके लिए ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज के बीच स्पर्धा होती है। सीमित ओवर एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सीमित ओवरों के क्रिकेट (Limited overs cricket) को कभी कभी एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि हर मैच के लिए एक दिन का समय ही निर्धारित किया जाता है। ट्वेन्टी-२० अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में, कभी कभी मैच दूसरे दिन भी जारी रहते हैं यदि वे ख़राब मौसम के कारण बाधित हो जायें या स्थगित कर दिए जायें. एक सीमित ओवरों के मैच का मुख्य उद्देश्य है परिणाम उत्पन्न करना और इसलिए एक परंपरागत ड्रा सम्भव नहीं होता है; लेकिन कई बार परिणाम घोषित नहीं हो पता जब स्कोर टाई हो जाए या ख़राब मौसम के कारण इसे बीच में ही रोकना पड़े.प्रत्येक टीम केवल एक ही पारी खेलती है और एक सीमित संख्या में ओवरों का सामना करती है। आमतौर पर, सीमा है 40 या 50 ओवर, ट्वेन्टी ट्वेन्टी क्रिकेट में प्रत्येक टीम को केवल 20 ओवरों का सामना करना होता है। एक सीमित ओवरों अंतर्राष्ट्रीय (Limited Overs international) के दौरान मानक सीमित ओवरों के क्रिकेट की शुरुआत इंग्लैंड में 1963 के मौसम में हुई, जब प्रथम श्रेणी के काउंटी क्लबों द्वारा एक नोक आउट कप पर स्पर्धा हुई। 1969 में एक राष्ट्रीय लीग प्रतियोगिता की स्थापना की गई थी। इसके पीछे अवधारणा थी कि अन्य मुख्य क्रिकेट देशों को शामिल किया जाए और पहला सीमित ओवरों का अंतर्राष्ट्रीय मैच १९७१ में खेला गया। 1975 में, प्रथम क्रिकेट वर्ल्ड कप इंग्लैंड में हुआ। सीमित ओवरों के क्रिकेट में कई बदलाव लाये गए जिसमें बहुल रंगों के किट का उपयोग और एक सफ़ेद गेंद से फ्लड लिट मैच शामिल हैं। ट्वेंटी २० सीमित ओवर का नया रूप है जिसका उद्देश्य है कि मैच ३ घंटे में ख़त्म हो जाए, सामान्यत: इसे शाम के समय में खेला जाता है। मूल विचार, जब अवधारणा इंग्लैंड में 2003 में पेश की गई, यह था कि कर्मचारियों को शाम के समय में मनोरंजन उपलब्ध कराया जा सके। यह व्यावसायिक रूप से सफल हुआ और इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया है। पहली ट्वेंटी 20 विश्व चैम्पियनशिप (Twenty20 World Championship) 2007 में आयोजित किया गई। अगली ट्वेंटी 20 विश्व चैम्पियनशिप इंग्लैंड में 2009 में आयोजित की जायेगी राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं प्रथम श्रेणी क्रिकेट (First-class cricket) में टेस्ट क्रिकेट शामिल है लेकिन इस शब्द का उपयोग सामान्यत: पूर्ण आइ सी सी सदस्यता वाले देशों में उच्चतम स्तर के घरेलु क्रिकेट के लिए किया जाता है। हालांकि इसके अपवाद हैं। प्रथम श्रेणी क्रिकेट 18 काउंटी क्लबों के द्वारा इंग्लैंड के बहुत से भाग में खेला जाता है जो काउंटी चैम्पियनशिप (County Championship) में हिस्सा लेते हैं। काउंटी चैंपियन (champion county) की अवधारणा 18 वीं शताब्दी के बाद से ही अस्तित्व में है, लेकिन सरकारी प्रतियोगिता 1890 तक स्थापित नहीं की गई थी। यॉर्कशायर काउंटी क्रिकेट क्लब (Yorkshire County Cricket Club) सबसे सफल क्लब रहा है जिसके पास 30 आधिकारिक शीर्षक हैं। ऑस्ट्रेलिया ने अपनी राष्ट्रीय प्रथम श्रेणी चैम्पियनशिप की स्थापना 1892-93 में की जब शेफील्ड शील्ड (Sheffield Shield) शुरू की गई थी। ऑस्ट्रेलिया में, प्रथम श्रेणी की टीमें विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। न्यू साउथ वेल्स (New South Wales) ने 2008 तक ४५ के साथ सबसे ज्यादा खिताब जीते हैं। राष्ट्रीय चैंपियनशिप ट्राफियां कई स्थानों पर स्थापित है रणजी ट्रॉफी (Ranji Trophy) (भारत), प्लुनकेट शील्ड (Plunket Shield) (न्यूजीलैंड), क्युरी कप (Currie Cup) (दक्षिण अफ्रीका) और शैल शील्ड (Shell Shield) (वेस्ट इंडीज)। इनमें से कुछ प्रतियोगिताओं का अद्यतन किया गया है और हाल के वर्षों में नए नाम दिए गए हैं। घरेलू सीमित ओवरों की प्रतियोगिताये इंग्लैंड के जिलेट कप (Gillette Cup) नोक आउट के साथ १९६३ में शुरू हुई। आमतौर पर देश नोक आउट और लीग दोनों प्रारूपों में मौसमी सीमित ओवरों की प्रतियोगिताओं को करते हैं। हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय ट्वेंटी 20 प्रतियोगिताये शुरू हुई हैं। ये सामान्यतया नोक आउट रूप में शुरू की गई हैं लेकिन कुछ मिनी लीग के रूप में भी हैं। क्रिकेट के अन्य प्रकार दुनिया भर में खेले जाने वाले इस खेल के असंख्य अनौपचारिक रूप हैं, जिसमें शामिल है इनडोर क्रिकेट, फ्रांसीसी क्रिकेट, बीच क्रिकेट, क्विक क्रिकेट और सभी प्रकार के कार्ड खेल और बोर्ड खेल जो क्रिकेट से प्रेरित हैं। इन रूपों में, अक्सर नियम बदल दिए जाते हैं ताकि सिमित स्रोतों में खेल को खेलने योग्य बनाया जा सके, या सहभागियों के लिए इसे अधिक मनोरंजक और आसन बनाया जा सके। इंडोर क्रिकेट (Indoor cricket) को एक जाल युक्त इनडोर क्षेत्र में खेला जाता है, यह बहुत औपचारिक है लेकिन अधिकांश आउटडोर रूप अनौपचारिक हैं परिवार और किशोर उपनगरीय क्षेत्रों में बेक यार्ड क्रिकेट (backyard cricket) खेलते हैं और भारत और पाकिस्तान में गलियों (लम्बी संकरी गलियों में खेला जाता है) में "गली क्रिकेट" या "टेप बॉल" खेला जाता है। इसमें ऐसे नियम होते हैं कि एक बाउंस में केच मान लिया जाता है ऐसे नियमों के कारण और स्थान की कमी के कारण बल्लेबाज को ध्यान से खेलना होता है। टेनिस की गेंद और और घर के बल्लों का उपयोग किया जाता है और कई प्रकार की चीजें विकेट के रूप में काम में ली जाती हैं, जाती हैं, उदाहरण के लिए, फ़्रेंच क्रिकेट (French cricket) में बैटर लेग, यह मूल रूप से फ्रांस में उत्पन्न नहीं हुआ और आम तौर पर छोटे बच्चों के द्वारा खेला जाता है। कभी कभी नियमों में सुधार किया जाता है: जैसे ऐसा स्वीकृत किया जा सकता है कि क्षेत्र रक्षक एक बाउंस के बाद एक हाथ से गेंद को केच कर सकते हैं। या यदि बहुत कम खिलाड़ी उपलब्ध हैं तो हर कोई क्षेत्र रक्षण कर सकता है और खिलाड़ी एक एक कर के बल्लेबाजी करते हैं। क्विक क्रिकेट (Kwik cricket) में गेंदबाज बल्लेबाज के तैयार होने का इन्तजार नहीं करता है, यह अधिक थका देने वाला खेल बच्चों के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह अक्सर अंग्रेजी स्कूलों में पी ई पाठ के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस खेल की गति बढ़ाने के लिए इसमें एक और संशोधन किया गया है ये हैं "टिप और रन", “टिप्टी रन” "टिप्सी रन" या "टिप्पी- गो" नियम. इसमें जब गेंद बल्ले को छूती है तो बल्लेबाज को भागना ही होता है चाहे यह स्पर्श जान बूझ कर न किया गया हो या बहुत ही कम हो। यह नियम, तत्काल खेल में ही देखा जा सकता है, इसमें बल्लेबाज के द्वारा गेंद को रोकने के अधिकार को हटा कर इसकी गति को बढ़ने की कोशिश की गई है। समोआ में क्रिकेट का एक रूप जो किलिक्ति (Kilikiti) कहलाता है, खेला जाता है इसमें हॉकी स्टिक (hockey stick) के आकर के बल्ले का उपयोग किया जाता है। मूल अंग्रेज़ी क्रिकेट में १७६० में हॉकी स्टिक के आकर के बल्ले को आधुनिक सीधे बल्ले से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जब गेंदबाजों ने इसे घुमाने के बजाय पिच करना शुरू कर दिया। एस्टोनिया में टीमें आइस क्रिकेट (Ice Cricket) टूर्नामेंट के लिए सर्दियों में इकठ्ठी होती हैं। खेल में कठोर सर्दी में गर्मी वाले सभी नियमों का पालन करना होता है। अन्यथा सभी नियम छह-एक-पक्ष के सामान होते हैं। इतिहास पुराने समय में कभी कभी क्रिकेट को इन रूपों में वर्णित किया जाता था जैसे एक गेंद को टकराता हुआ एक क्लब, या प्राचीन क्लब-गेंद, स्टूल -गेंद, ट्रेप-गेंद, स्टब-गेंद.[23] क्रिकेट को निश्चित रूप से 16 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में ट्यूडर समय से प्रचलित माना जाता है, लेकिन यह शायद इससे पहले भी उत्पन्न हो चुका था। इसकी उत्पत्ति का सबसे सामान्य सिद्धांत यह है कि यह मध्यकालीन अवधि के दौरान कैंट और सुस्सेक्स के बीच में वील्ड में कृषि और धातु कार्यों में लगे हुए समुदायों के बच्चों के द्वारा शुरू किया गया था। खेल के लिखित साक्ष्य क्रेग के नाम से जाने जाते हैं, जो १३०१[24] में न्युन्देन केंट में एडवर्ड I (Edward I (Longshanks)) के बेटे प्रिंस एडवर्ड (Prince Edward) के द्वारा खेला जाता था। इस पर सट्टा भी लगाया जाता था, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यह क्रिकेट का ही रूप था। "क्रिकेट" शब्द के लिए शब्दों की संख्या सक्भव स्रोत मणि जाती है। In the earliest known reference to the sport in 1598[25], it is called creckett. प्रबल मध्ययुगीन व्यापार कनेक्शन दक्षिण पूर्व इंग्लैंड और काउंटी ऑफ़ फ़्लैंडर्स (County of Flanders) के बीच मिलता है, जो बाद में डची ऑफ़ बरगंडी (Duchy of Burgundy) से सम्बंधित था, यह नाम संभवतया मध्यम डच (Middle Dutch)[26] क्रिक (-e) से व्युत्पन्न हुआ जिसका अर्थ है छड़ी; या पुराने अंग्रेजी (Old English) में क्रिस या क्रिसे जिसका अर्थ है बैसाखी.[27] पुराने फ्रांसीसी (Old French) में शब्द criquet का अर्थ प्रतीत होता है के प्रकार की छड़ी या क्लब.[28]शमूएल जॉनसन (Samuel Johnson) के शब्दकोश में, उन्होंने क्रिकेट को "cryce," से व्युत्पन्न किया है जिसका अर्थ है, सक्सोन, एक छड़ी ".[29] एक अन्य संभावित स्रोत है मध्यम डच शब्द krickstoel</i>जिसका अर्थ है एक लंबा नीचला स्टूल जिसका उपयोग चर्च (church) में घुटने टेकने के लिए किया जाता है, जो प्राचीन क्रिकेट में कम में लिए जाने वाले लंबे विकेट (wicket) के साथ दो स्टंप (stumps) के सामान प्रतीत होता है।[30]बॉन विश्वविद्यालय (Bonn University) के यूरोपीय भाषा के एक विशेषज्ञ Heiner Gillmeister के अनुसार, "क्रिकेट" हॉकी के लिए मध्यम डच वाक्यांश से व्युत्पन्न हुआ है, met de (krik ket)sen (अर्थात लकड़ी के पिछले हिस्से के साथ)। [31] 1598 में[25], 1550 के आसपासरॉयल ग्रामर स्कूल, गिल्डफोर्ड (Royal Grammar School, Guildford) में लड़कों के द्वारा खेले जा रहे एक खेल creckett का एक अदालती मामला सामने आया। यह इस खेल का सबसे पुराना निश्चित उल्लेख है। ऐसा लगता है कि यह मूलतः एक बच्चों का खेल था लेकिन १६१०[32] के आस पास के सन्दर्भ यह बताते हैं कि वयस्कों ने इसे खेलना शुरू कर दिया था और इसके ठीक बाद इंटर पेरिश गांव क्रिकेट (village cricket) के सन्दर्भ मिले। 1624 में, एक खिलाड़ी जेस्पर विनाल (Jasper Vinall) की मृत्यु हो गई जब सुस्सेक्स में दो पेरिश टीमों के बीच एक मैच के दोरान उसके सर पर चोट लगी। [33] 17 वीं सदी के दौरान, अनेक संदर्भ इंग्लैंड के पूर्व दक्षिण में क्रिकेट के विकास का संकेत देते हैं। इस सदी के अंत तक, यह उच्च दांव के लिए खेली जाने वाली एक संगठित गतिविधि बन गया था और ऐसा माना जाता है कि 1660 में पुनर्संस्थापन (Restoration) के बाद पहले पेशेवर प्रकट हुए. 1697 में ससेक्स में ऊँचे दांव पर यह खेल खेला गया जो एक "बड़ा क्रिकेट मैच" था जिसमें एक पक्ष में ११ खिलाड़ी थे, इसकी रिपोर्ट एक अखबार में छापी गई, इतने महत्वपूर्ण रूप में यह क्रिकेट का पहला ज्ञात सन्दर्भ है। खेल ने 18 वीं शताब्दी में प्रमुख विकास किया और यह इंग्लैंड का राष्ट्रीय खेल बन गया। शर्त नें उस विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई साथ ही अमीर समर्थकों ने अपनी XI खिलाड़ियों की टीम तैयार की। लंदन में १७०७ में क्रिकेट बहुत प्रसिद्ध था और फिन्सबरी में आर्टिलरी ग्राउंड (Artillery Ground) के मैच में बहुत बड़ी भीड़ इकठ्ठी होती थी। खेल के सिंगल विकेट (single wicket) रूप ने बहुत बड़ी संख्या में भरी भीड़ को आकर्षित किया। गेंदबाजी १७६० के आस पास शुरू हुई जब गेंदबाज ने गेंद को बल्लेबाज की ओर रोल या स्कीम करने के बजाय उसे पिच करना शुरू कर दिया। बाउंस होती हुई गेंद का सामना करने के लिए बल्ले के डिजाइन में क्रन्तिकारी परिवर्तन आया, पुराने हॉकी के आकार के बल्ले को आधुनिक सीधे बल्ले से प्रतिस्थापित करना अनिवार्य था। १७६० में हैम्ब्लडन कप (Hambledon Club) की स्थापना की गई, अगले २० सालों तक जब तक एम सी सी (MCC) की स्थापना हुई और १७८७ में लॉर्ड्स के पुराने ग्राउंड (Lord's Old Ground) की शुरुआत हुई, तब तक हैम्ब्लडन खेल का सबसे बड़ा क्लब था और इसका केन्द्र बिन्दु भी था। एमसीसी जल्दी ही खेल का प्रिमिअर क्लब बन गया और क्रिकेट के नियमों (Laws of Cricket) का संरक्षक बन गया। 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध भाग में नए नियम बनाये गए जिसमें तीन स्टम्प का विकेट और लेग बिफोर विकेट शामिल था। 19 वीं सदी में अंडर आर्म गेंदबाजी (underarm bowling) पहले राउंड आर्म गेंदबाजी (roundarm) में बदल गई और फ़िर ओवर आर्म गेंदबाजी (overarm bowling) में बदल गई। दोनों विकास विवादास्पद थे। काउंटी स्तर पर खेल के संगठन से काउंटी क्लबों का निर्माण शुरू हुआ। इसकी शुरुआत १८३९ में ससेक्स सी सी सी (Sussex CCC) से हुई, जिसने अंत में १८९० में आधिकारिक गठन काउंटी चैम्पियनशिप (County Championship) बनाया। इस बीच, ब्रिटिश साम्राज्य ने इस खेल के प्रसार में बहुत योगदान दिया। 19 वीं सदी के मध्य तक यह अच्छी तरह से भारत, उत्तरी अमेरिका, कैरिबियाई, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में स्थापित हो गया था। 1844 में, पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) और कनाडा (Canada) के बीच अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच हुआ। (हालांकि इनमें से किसी भी राष्ट्र को कभी भी टेस्ट खेलने वाले राष्ट्र के रूप में रेंक नहीं किया गया।) १८५९ में, इंग्लैंड की टीम के खिलाड़ी पहली बार उत्तरी अमेरिका के विदेशी दौरे पर गए थे और १८६२ में, इंग्लिश टीम ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया। 1876-77 में, एक इंग्लैंड की टीम ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध मेलबोर्न क्रिकेट मैदान में टेस्ट मैच (Test match) में भाग लिया। डब्लू जी ग्रेस (W G Grace) ने १८६५ में अपना लंबा केरियर शुरू किया; अक्सर कहा जाता है कि उसके केरियर ने खेल में क्रन्तिकारी परिवर्तन किया।इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच प्रतिद्वंद्विता ने 1882 में दी ऐशस (The Ashes) को जन्म दिया। यह टेस्ट क्रिकेट की सबसे प्रसिद्ध प्रतियोगिता थी। टेस्ट क्रिकेट 1888-89 में विस्तृत हो गया जब दक्षिण अफ्रीका ने इंग्लैंड के विरुद्ध खेला प्रथम विश्व युद्धसे पहले के दो दशक "क्रिकेट के स्वर्ण युग" के नाम से जाने जाते हैं। यह उदासीन नाम युद्ध की हानि के परिणामस्वरूप सामूहिक अर्थ में उत्पन्न हुआ। लेकिन इस अवधि में महान खिलाड़ी हुए और यादगार मैच खेले गए। विशेष रूप से काउंटी में आयोजित प्रतियोगिता और टेस्ट स्तर का विकास हुआ। युद्ध के दौरान के वर्षों में एक खिलाड़ी का बोलबाला रहा, डॉन ब्रेडमैन जो आंकडों के अनुसार अब तक के सबसे महानतम बल्लेबाज रहें हैं। इंग्लैंड की टीम ने १९३२-३३ में जो असफलता (Bodyline) झेली उसे दूर करने के लिए और कुशलता पाने के लिए उसने दृढ़ संकल्प कर लिया। 20 वीं सदी के दौरान भी टेस्ट क्रिकेट का विस्तार हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वेस्ट इंडीज, भारत और न्यूजीलैंड इसमें शामिल हो गए। और युद्ध काल के बाद पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश भी इस श्रेणी में शामिल हो गए। हालांकि, दक्षिण अफ्रीका को 1970 से 1992 तक सरकार की रंगभेद की नीति के कारण अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से प्रतिबंधित कर दिया गया थाक्रिकेट ने 1963 में एक नए युग में प्रवेश किया जब इंग्लिश काउंटी ने सीमित ओवरों (limited overs) की किस्म की शुरुआत की। चूँकि इसमें परिणाम निश्चित होता था, सीमित ओवरों के क्रिकेट आकर्षक था इससे मैचों की संख्या में वृद्धि हुई। पहला सीमित ओवरों का अंतर्राष्ट्रीय (Limited Overs International) मैच 1971 में खेला गया। नियंत्रक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने इसकी क्षमता को देखा और १९७५ में पहले सीमित ओवरों के क्रिकेट वर्ल्ड कप का मंचन किया। 21 वीं सदी में, सीमित ओवरों के एक नए रूप ट्वेंटी 20 (Twenty20), ने तत्काल प्रभाव उत्पन्न किया। महिला क्रिकेट महिलाओं का क्रिकेट पहली बार 1745 में सरे में दर्ज किया गया था। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय विकास शुरू हुआ और दिसंबर 1934 में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच पहला टेस्ट मैच खेला गया। अगले वर्ष, न्यूजीलैंड की महिलाएं उनसे जुड़ गईं, और 2007 में नीदरलैंड महिलाएं दसवीं महिला टेस्ट राष्ट्र बन गईं जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका महिलाओं के खिलाफ अपनी शुरुआत की। 1958 में, अंतर्राष्ट्रीय महिला क्रिकेट परिषद की स्थापना की गई (यह 2005 में आईसीसी के साथ विलय हो गई)। 1973 में, इंग्लैंड में एक महिला विश्व कप आयोजित होने पर पहले क्रिकेट विश्व कप का कोई भी आयोजन हुआ। 2005 में, इंटरनेशनल विमेन क्रिकेट काउंसिल को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के साथ मिलाकर एक एकीकृत निकाय बनाने के लिए क्रिकेट का प्रबंधन और विकास करने में मदद मिली। आईसीसी महिला रैंकिंग 1 अक्टूबर 2015 को महिलाओं के क्रिकेट के सभी तीन प्रारूपों को कवर किया गया था। अक्टूबर 2018 में सभी सदस्यों को टी 20 अंतर्राष्ट्रीय दर्जा देने के आईसीसी के फैसले के बाद, महिलाओं की रैंकिंग को अलग-अलग ओडीआई (पूर्ण सदस्यों के लिए) और टी 20 आई सूचियों में विभाजित किया गया था।[34] अंतर्राष्ट्रीय बहु-खेल आयोजनों में क्रिकेट 1900 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक के भाग के रूप में क्रिकेट खेला जाता था, जब इंग्लैंड और फ्रांस ने दो दिवसीय मैच जीता था।[35] 1998 में, राष्ट्रमंडल खेलों के भाग के रूप में क्रिकेट खेला जाता था, इस अवसर पर 50 ओवर प्रारूप में 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले ट्वेंटी -20 क्रिकेट के बारे में कुछ बात थी, जो कि दिल्ली में हुई थी, लेकिन उस वक्त भारत में बोर्ड ऑफ कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) खेल के छोटे प्रारूप के पक्ष में नहीं थे, और यह शामिल नहीं था। 2010 में गुआंगज़ौ, चीन और इंचियान, दक्षिण कोरिया में एशियाई खेलों में 2010 एशियाई खेलों में क्रिकेट खेला गया था। भारत ने दोनों बार छोड़ दिया। बाद में राष्ट्रमंडल खेलों और ओलंपिक खेलों के लिए और भी कॉल कराई गईं। राष्ट्रमंडल खेलों की महासंघ ने आईसीसी को 2014 और 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने के लिए कहा, लेकिन आईसीसी ने निमंत्रण को ठुकरा दिया। 2010 में, अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने क्रिकेट को एक खेल के रूप में मान्यता दी जिसे ओलंपिक खेलों में शामिल करने के लिए आवेदन किया जा सकता था, लेकिन 2013 में आईसीसी ने घोषणा की कि इस तरह के आवेदन करने के लिए इसका कोई इरादा नहीं है, मुख्य रूप से बीसीसीआई के विरोध के कारण। ईएसपीएनक्रिकइन्फो ने सुझाव दिया कि विपक्ष आय के संभावित नुकसान पर आधारित हो सकता है। अप्रैल 2016 में, आईसीसी के मुख्य कार्यकारी डेविड रिचर्डसन ने कहा कि ट्वेंटी 20 क्रिकेट में 2024 ग्रीष्मकालीन खेलों में शामिल होने का मौका हो सकता है, लेकिन आईसीसी के सदस्यता आधार द्वारा दिखाए गए सामूहिक समर्थन होना चाहिए, खासकर बीसीसीआई से, इसके लिए शामिल करने का एक मौका।[36][37] अंतर्राष्ट्रीय संरचना अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी), जिसका मुख्यालय दुबई में है, क्रिकेट की अंतर्राष्ट्रीय शासी निकाय है। इसे १९०९ में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों के द्वारा इंपीरियल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस के रूप में स्थापित किया गया था। १९६५ में इसे अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट सम्मेलन का नाम दिया गया १९८९ में इसे अपना वर्तमान नाम मिला। अई सी सी के १०४ सदस्य हैं; १० पूरे सदस्य जो अधिकारिक टेस्ट मेच खेलते हैं, ३४ सहयोगी सदस्य हैं और ६० संबद्ध सदस्य हैं।[1] आईसीसी क्रिकेट के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खासकर क्रिकेट विश्व कप के संगठन और शासन के लिए उत्तरदायी है, यह सभी स्वीकृत टेस्ट मैचों, एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय और ट्वेंटी २० अंतरराष्ट्रीय के लिए अंपायर और रेफरियों की नियुक्ति करता है। प्रत्येक राष्ट्र का एक राष्ट्रीय क्रिकेट बोर्ड है जो देश में खेले जाने वाले क्रिकेट मैचों को नियंत्रित करता है। क्रिकेट बोर्ड राष्ट्रीय टीम का भी चयन करता है और राष्ट्रीय टीम के लिए घर में और बाहर दौरों का आयोजन करता है। इन्हें भी देखें २०१६ आईसीसी विश्व ट्वेन्टी २० यूडीआरएस (UDRS) ईएसपीएन क्रिकइन्फो ट्वेन्टी-२० अंतर्राष्ट्रीय आईसीसी ट्वेंटी-20 विश्व कप क्वालीफायर महिला ट्वेन्टी २० अंतरराष्ट्रीय सन्दर्भ अग्रगामी पठन विज्डन क्रिकेटर्स अल्मनैक बाहरी कड़ियाँ * * , मेरिलेबोन क्रिकेट क्लब (Marylebone Cricket Club) (एमसीसी) द्वारा प्रकाशित * श्रेणी:क्रिकेट
क्रिकेट के खेल में कितने खिलाड़ी होते है?
ग्यारह
2,697
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96069c1b9
लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है कार्य ऊतकों को आक्सीजन पहुँचाना। पोषक तत्वों को ले जाना जैसे ग्लूकोस, अमीनो अम्ल और वसा अम्ल (रक्त में घुलना या प्लाज्मा प्रोटीन से जुडना जैसे- रक्त लिपिड)। उत्सर्जी पदार्थों को बाहर करना जैसे- यूरिया कार्बन, डाई आक्साइड, लैक्टिक अम्ल आदि। प्रतिरक्षात्मक कार्य। संदेशवाहक का कार्य करना, इसके अन्तर्गत हार्मोन्स आदि के संदेश देना। शरीर पी. एच नियंत्रित करना। शरीर का ताप नियंत्रित करना। शरीर के एक अंग से दूसरे अंग तक जल का वितरण रक्त द्वारा ही सम्पन होता है सम्पादन सारांश रहित लहू एक शारीरिक तरल ( संयोजी ऊतक द्रव ) है जो रक्त वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता ( एनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। इन्हें भी देखें रक्तदान सन्दर्भ श्रेणी:शारीरिक द्रव श्रेणी:प्राणी शारीरिकी *
मानव के शरीर में कितने प्रतिशत लहू है?
करीब पाँच लिटर
1,027
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4eb7216bf
बसरा इराक का तीसरा सबसे बड़ा नगर एवं महत्वपूर्ण बंदरगाह है। यह बसरा प्रान्त की राजधानी भी है। फारस की खाड़ी से 75 मील दूर तथा बगदाद से 280 मील दूर दक्षिण-पूर्वी भाग में दज़ला और फरात नदियों के मुहाने पर बसा हुआ है। स्थिति - 30 डिग्री 30मिनट उत्तरी अक्षांश तथा तथा 47 डिग्री 50 मिनट पूर्वी देशान्तर। बसरा से देश की 90 प्रतिशत वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। यहाँ से ऊन, कपास, खजूर, तेल, गोंद, गलीचे तथा जानवर निर्यात किए जाते हैं। जनसंख्या में अधिकांश अरब, यहूदी, अमरीकी, ईरानी तथा भारतीय हैं। इतिहास 636 ईसा बाद इस शहर का सर्वप्रथम खलीफा उमर ने बसाया था। "अरेबियन नाइट्स" नामक पुस्तक में इसकी संस्कृति, कला, तथा वाणिज्य के विषय में बड़ा सुंदर वर्णन किया गया है। सन् 1868 में तुर्कों के अधिकार करने पर इस नगर की अवनति होती गई। लेकिन ब्रिटेन का अधिकार जब प्रथम विश्वयुद्ध में हुआ उस समय उन्होंने इसको एक अच्छा बंदरगाह बनाया और कुछ ही समय में यह इराक का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह बन गया। यहाँ ज्वार के समय 26 फुट ऊपर तक पानी चढ़ता है। इन्हें भी देखें बसरा प्रान्त इराक के प्रान्त बाहरी कड़ियाँ , Arthur Jeffery, 1946 , Arthur Jeffery, 1936 श्रेणी:बसरा प्रान्त श्रेणी:इराक़ के मंडल श्रेणी:इराक़ के शहर
बसरा नगर किस देश में स्थित है?
इराक
5
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भौतिकी में, कोई साइन-आकार की तरंग, जितनी दूरी के बाद अपने आप को पुनरावृत (repeat) करती है, उस दूरी को उस तरंग का तरंगदैर्घ्य (wavelength) कहते हैं। 'दीर्घ' (= लम्बा) से 'दैर्घ्य' बना है। तरंगदैर्घ्य, तरंग के समान कला वाले दो क्रमागत बिन्दुओं की दूरी है। ये बिन्दु तरंगशीर्ष (crests) हो सकते हैं, तरंगगर्त (troughs) या शून्य-पारण (zero crossing) बिन्दु हो सकते हैं। तरंग दैर्घ्य किसी तरंग की विशिष्टता है। इसे ग्रीक अक्षर 'लैम्ब्डा' (λ) द्वारा निरुपित किया जाता है। इसका SI मात्रक मीटर है। किसी तरंग के तरंगदैर्घ्य (λ), तरंग के वेग (v) तथा तरंग की आवृति (f) में निम्नलिखित सम्बन्ध होता है- λ = v f {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} विद्युतचुम्बकीय माध्यम में तरंगदैर्घ्य λ ′ = λ 0 μ r ε r = c f 1 μ r ε r {\displaystyle \lambda ^{\prime }={\frac {\lambda _{0}}{\sqrt {\mu _{\rm {r}}\varepsilon _{\rm {r}}}}}={\frac {c}{f}}{\frac {1}{\sqrt {\mu _{\rm {r}}\varepsilon _{\rm {r}}}}}} डी-ब्रागली तरंगदैर्घ्य λ = h p = h m v 1 v b h b b x v b b x − v 2 c 2 {\displaystyle \lambda ={\frac {h}{p}}={\frac {h}{mv}}{\sqrt {1vbhbbxvbbx-{\frac {v^{2}}{c^{2}}}}}} विभिन्न रंग के प्रकाश की तरंगदैर्घ्य इन्हें भी देखें तरंग विद्युतचुम्बकीय तरंगें बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:तरंग
प्रकाश की तरंग दैर्ध्य की इकाई क्या है?
मीटर
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तुर्की यूरेशिया में स्थित एक देश है। इसकी राजधानी अंकारा है। इसकी मुख्य- और राजभाषा तुर्की भाषा है। ये दुनिया का अकेला मुस्लिम बहुमत वाला देश है जो कि धर्मनिर्पेक्ष है। ये एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है। इसके एशियाई हिस्से को अनातोलिया और यूरोपीय हिस्से को थ्रेस कहते हैं | तुर्की की भाषाएं, एकमात्र आधिकारिक भाषा तुर्की के अलावा, व्यापक कुरमानजी, आम तौर पर प्रचलित अल्पसंख्यक भाषाओं अरबी और ज़ज़ाकी और कम आम अल्पसंख्यक भाषाओं में शामिल हैं, जिनमें से कुछ को 1923 की लॉज़ेन संधि द्वारा दी जाती है। आधिकारिक भाषा तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 3 तुर्की को तुर्की की एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में परिभाषित करता है| अल्पसंख्यक भाषा अधिकार संविधान के अनुच्छेद 42 में तुर्की के नागरिकों को मातृभाषा के रूप में है| तुर्की के अलावा किसी अन्य भाषा को पढ़ाने के लिए शैक्षणिक संस्थानों को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया जाता है| भाषाओं की सूची निम्नलिखित तालिका तुर्की में लोगों के मातृभाषा को उनके वक्ताओं के प्रतिशत से सूचीबद्ध करती है। तुर्की भाषा तुर्की भाषा आधुनिक तुर्की और साइप्रस की प्रमुख भाषा है। पूरे विश्व में कोई 6.3 करोड़ लोग इस मातृभाषा के रूप में बोलते हैं। यह तुर्क भाषा परिवार की सबसे व्यापक भाषा है जिसका मूल मध्य एशिया माना जाता है। बाबर, जो मूल रूप से मध्य एशिया (आधुनिक उज़्बेकिस्तान) का वासी था, चागताई भाषा बोलता था जो तुर्क भाषा परिवार में ही आती है। पूरक भाषा शिक्षा 2015 में, तुर्की के शिक्षा मंत्रालय ने घोषणा की कि 2016-17 शैक्षणिक वर्ष के अनुसार, दूसरे कक्षा में शुरू होने वाले प्राथमिक विद्यालय के छात्रों को अरबी पाठ्यक्रम (दूसरी भाषा के रूप में) की पेशकश की जाएगी।[2] अरबी पाठ्यक्रम जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी जैसे वैकल्पिक भाषा पाठ्यक्रम के रूप में पेश किए जाएंगे। एक तैयार पाठ्यक्रम के मुताबिक, दूसरे और तीसरे ग्रेडर श्रवण-समझ और बोलकर अरबी सीखना शुरू कर देंगे, जबकि लेखन के लिए परिचय चौथे स्तर में इन कौशल में शामिल होगा और पांचवीं कक्षा के बाद के छात्र अपने सभी चार बुनियादी कौशल में भाषा सीखना शुरू कर देंगे।[3][4][5][6] श्रेणी:तुर्की की भाषाएँ
तुर्की की प्रमुख भाषा और राजभाषा क्या है?
तुर्की भाषा
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मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह ५१.५ करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा १० से ३० लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है। मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं। मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है। मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जा सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं। इतिहास मलेरिया मानव को ५०,००० वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है। इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं। जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से २७०० ईसा पूर्व का मिलता है। मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था। मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन १८८० मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है। इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे १९०७ का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया। इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था। इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकंदराबाद में काम करते हुए १८९८ में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था। इस कार्य हेतु उन्हे १९०२ का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियंत्रण कार्यों मे योगदान दिया। फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने १९०० में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया। मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब १६४० इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ। परन्तु छाल से कुनैन को १८२० तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अंततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया। बीसवीं सदी के प्रारंभ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था। यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है। इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। रोग का वितरण तथा प्रभाव मलेरिया प्रतिवर्ष ४० से ९० करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे १० से ३० लाख मौतें हर साल होती हैं, जिसका अर्थ है प्रति ३० सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं, वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी १९९२ के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है। यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले २० वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है। मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपलब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है। मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।[2] मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है। तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है। वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग ८५ से ९० % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं। मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं। सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है। डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है। उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं। अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है। १९६० के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा। सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि १९९५ के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अंतर नजर आता है (१,५२६ डालर बनाम ८,२६८ डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे १९६५ से १९९० के मध्य केवल प्रतिवर्ष ०.४% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह २.४% हुई। यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष १२ अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं। कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का ४०% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से ३० से ५०% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से ५०% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[3] एड्स और तपेदिक के मुकाबले २००७ के नवंबर माह में मलेरिया के लिए दुगने से भी ज्यादा ४६.९ करोड़ डालर की सहायता राशि खर्च की गई।[4] रोग के लक्षण मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। ४ से ६ घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर ३६ से ४८ घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[5] मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है। तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है। गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है। महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है। मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है। अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं। दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ मच्छरों के लिए बहुत आकर्षक होती हैं और मलेरिया से गर्भ की मृत्यु, निम्न जन्म भार और शिशु की मृत्यु तक हो सकते हैं। मुख्यतया यह पी. फ़ैल्सीपैरम के संक्रमण से होता है, लेकिन पी. विवैक्स भी ऐसा कर सकता है। पी. विवैक्स तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है। कारक मलेरिया परजीवी मलेरिया प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस गण के चार सदस्य मनुष्यों को संक्रमित करते हैं- प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये। इनमें से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम माना जाता है, यह मलेरिया के 80 प्रतिशत मामलों और 90 प्रतिशत मृत्युओं के लिए जिम्मेदार होता है।[6] यह परजीवी पक्षियों, रेँगने वाले जीवों, बन्दरों, चिम्पांज़ियों तथा चूहों को भी संक्रमित करता है।[7] कई अन्य प्रकार के प्लास्मोडियम से भी मनुष्य में संक्रमण ज्ञात हैं किंतु पी. नाउलेसी (P. knowlesi) के अलावा यह नगण्य हैं।[8] पक्षियों में पाए जाने वाले मलेरिया से मुर्गियाँ मर सकती हैं लेकिन इससे मुर्गी-पालकों को अधिक नुकसान होता नहीं पाया गया है।[9] हवाई द्वीप समूह में जब मनुष्य के साथ यह रोग पहुँचा तो वहाँ की कई पक्षी प्रजातियाँ इससे विनष्ट हो गयीं क्योंकि इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी।[10] मच्छर मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है, जोकि मलेरिया का संक्रमण फैलाने में भी मदद करती है। एनोफ़िलीज़ गण के मच्छर सारे संसार में फैले हुए हैं। केवल मादा मच्छर खून से पोषण लेती है, अतः यह ही वाहक होती है ना कि नर। मादा मच्छर एनोफ़िलीज़ रात को ही काटती है। शाम होते ही यह शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता। यह खड़े पानी के अन्दर अंडे देती है। अंडों और उनसे निकलने वाले लारवा दोनों को पानी की अत्यंत सख्त जरुरत होती है। इसके अतिरिक्त लारवा को सांस लेने के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे-लारवा-प्यूपा और फिर वयस्क होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले अन्य भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं, लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की आवश्यकता होती है। प्लास्मोडियम का जीवन चक्र मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर बनती है। युवा मच्छर संक्रमित मानव को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (अंग्रेजी:gametocytes, गैमीटोसाइट्स) मच्छर के पेट में नर और मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (अंग्रेजी:oocytes, ऊसाइट्स) बना लेते हैं जो मच्छर की अंतड़ियों की दीवार में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते हैं और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (अंग्रेजी:sporozoites, स्पोरोज़ॉट्स) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। मच्छर फिर जब स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।[11] मानव शरीर में ये बीजाणु फिर पलकर जननाणु बनाते हैं (नीचे देखें), जो फिर आगे संक्रमण फैलाते हैं। इसके अलावा मलेरिया संक्रमित रक्त को चढ़ाने से भी फैल सकता है, लेकिन ऐसा होना बहुत असाधारण है।[12] मानव शरीर में रोग का विकास मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में प्रथम चरण और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो बीजाणु (अंग्रेजी: sporozoites, स्पोरोज़ॉइट्स) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर यकृत की कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (अंग्रेजी: merozoites, मीरोज़ॉइट्स) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त में प्रवेश कर जातें हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।[13] इससे रोग का दूसरा चरण शुरु होता है। पी. विवैक्स और पी. ओवेल के कुछ बीजाणु यकृत को ही संक्रमित करके रुक जाते हैं और सुप्ताणु (अंग्रेजी: hypnozoites, हिप्नोज़ॉइट्स) के रूप में निष्क्रिय हो जाते हैं। ये 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह कर फिर अचानक अंशाणुओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।[14] लाल रक्त कोशिका में प्रवेश करके ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते हैं। ये वलय रूप में विकसित होकर फिर भोजाणु (अंग्रेजी: trophozoites, ट्रोफ़ोज़ॉइट्स) और फिर बहुनाभिकीय शाइज़ॉण्ट (अंग्रेजी: schizont) और फिर अनेकों अंशाणु बना देते हैं। समय समय पर ये अंशाणु पोषक कोशिकाओं को तोड़कर नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। ऐसे कई चरण चलते हैं। मलेरिया में बुखार के दौरे आने का कारण होता है हजारों अंशाणुओं का एकसाथ नई लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करना। मलेरिया परजीवी अपने जीवन का लगभग सभी समय यकृत की कोशिकाओं या लाल रक्त कोशिकाओं में छुपा रहकर बिताता है, इसलिए मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बचा रह जाता है। तिल्ली में नष्ट होने से बचने के लिए पी. फैल्सीपैरम एक अन्य चाल चलता है- यह लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक चिपकाऊ प्रोटीन प्रदर्शित करा देता है जिससे संक्रमित रक्त कोशिकाएँ को छोटी रक्त वाहिकाओं में चिपक जाती हैं और तिल्ली तक पहुँच नहीं पाती हैं।[15] इस कारण रक्तधारा में केवल वलय रूप ही दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरणों में यह छोटी रक्त वाहिकाओं की सतहों में चिपका रहता है। इस चिपचिपाहट के चलते ही मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या करता है। यद्यपि संक्रमित लाल रक्त कोशिका की सतह पर प्रदर्शित प्रोटीन पीएफईएमपी1 (Plasmodium falciparum erythrocyte membrane protein 1, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम इरिथ्रोसाइट मैम्ब्रेन प्रोटीन 1) शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र का शिकार बन सकता है, ऐसा होता नहीं है क्योंकि इस प्रोटीन में विविधता बहुत ज्यादा होती है। हर परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य रूपों में ये इस प्रोटीन को प्रदर्शित कर सकते हैं। वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से एक कदम आगे रहते हैं। कुछ अंशाणु नर-मादा जननाणुओं में बदल जाते हैं और जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जाता है। यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। निदान उपचार मलेरिया के कुछ मामले आपातकालीन होते है तथा मरीज को पूर्णतया स्वस्थ होने तक निगरानी मे रखना अनिवार्य होता है, किंतु अन्य प्रकार के मलेरिया में ऐसा आवश्यक नहीं हैं, इलाज बहिरंग विभाग में किया जा सकता है। उचित इलाज होने पर मरीज बिलकुल ठीक हो जाता है। कुछ लक्षणों का उपचार सामान्य दवाओं से किया जाता है, साथ में मलेरिया-रोधी दवाएँ भी दी जाती है। ये दवाएं दो प्रकार की होती हैं- पहली जो प्रतिरोधक होती हैं और रोग होने से पहले लिए जाने पर रोग से सुरक्षा करती हैं तथा दूसरी वे जिनका रोग से संक्रमित हो जाने के बाद प्रयोग किया जाता है। अनेक दवाएँ केवल प्रतिरोध या केवल उपचार के लिए इस्तेमाल होती हैं, जबकि अन्य कई दोनों तरह से प्रयोग में लाई जा सकती हैं। कुछ दवाएँ एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाती हैं और इनका प्रयोग साथ में किया जाता है। प्रतिरोधक दवाओं का प्रयोग अक्सर सामूहिक रूप से ही किया जाता है। कुनैन पर आधारित अनेक औषधियों को मलेरिया का अच्छा उपचार समझा जाता है। इसके अतिरिक्त आर्टिमीसिनिन जैसी औषधियाँ, जो आर्टिमीसिया एन्नुआ (अंग्रेजी:Artemisia annua) नामक पौधे से तैयार की जाती है, मलेरिया के इलाज में प्रभावी पाई गई हैं। कुछ अन्य औषधियों का प्रयोग भी मलेरिया के विरुद्ध सफल हुआ है। कुछ औषधियों पर प्रयोग जारी है। दवा के चुनाव में सबसे प्रमुख कारक होता है उस क्षेत्र में मलेरिया परजीवी किन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर चुका है। अनेक दवाएँ जिनका प्रयोग पहले मलेरिया के विरुद्ध सफल समझा जाता था आजकल सफल नहीं समझा जाता क्यों कि मलेरिया के परजीवी धीरे धीरे उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर चुके हैं। होम्योपैथी में मलेरिया का उपचार उपलब्ध है, हालांकि अनेक चिकित्सकों का मानना है कि मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी का इलाज एलोपैथिक दवाओं से ही किया जाना चाहिये, क्योंकि ये वैज्ञानिक शोध पर आधारित हैं। यहाँ तक कि ब्रिटिश होमियोपैथिक एसोसिएशन की सलाह यही है कि मलेरिया के उपचार के लिए होम्योपैथी पर निर्भर नहीं करना चाहिए।[16] आयुर्वेद में मलेरिया को विषम ज्वर कहा जाता है और इसके उपचार के लिये अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि मलेरिया के आज प्रभावी उपचार उपलब्ध है, लेकिन विश्व के अनेक अविकिसित क्षेत्रों में मलेरिया पीड़ित क्षेत्रों में या तो यह मिलता नहीं हैं या इतना महंगा होता है कि आम मरीज उसका उपयोग नहीं कर पाता है। मलेरिया की दवाओं की बढ़ती माँग को देखकर अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है, जो अनेक मृत्युओं का कारण बनता है। आजकल कम्पनियाँ नई तकनीकों का प्रयोग करके इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही हैं। रोकथाम तथा नियंत्रण मलेरिया का प्रसार इन कारकों पर निर्भर करता है- मानव जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों की जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों से मनुष्यों तक प्रसार और मनुष्यों से मच्छरों तक प्रसार। इन कारकों में से किसी एक को भी बहुत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र से मलेरिया को मिटाया जा सकता है। इसीलिये मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु दवाओं के साथ-साथ मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते हैं। अनेक अनुसंधान कर्ता दावा करते हैं कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा। 1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये (वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे)। किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी और मलेरिया आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पर मौजूद है। मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। इसके अतिरिक्त मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है। मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। एनोफिलीज़ मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियंत्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है। मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: SPf66) पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस, एसएएस02ए (अंग्रेजी: RTS,S/AS02A) टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है। आशा की जाती है कि पी. फैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:एपिकॉम्प्लैक्सा श्रेणी:कीड़ों द्वारा फैलाए जाने वाले रोग श्रेणी:मलेरिया श्रेणी:रोग श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
किसने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था?
चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन
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अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है।[1] जन्म अरस्तु का जन्म ३८४-३२२ ई. पू. में हुआ था और वह ६२ वर्ष तक जीवित रहे। उनका जन्म स्थान स्तागिरा (स्तागिरस) नामक नगर था। उनके पिता मकदूनिया के राजा के दरबार में शाही वैद्य थे। इस प्रकार अरस्तु के जीवन पर मकदूनिया के दरबार का काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके पिता की मौत उनके बचपन में ही हो गई थी। शिक्षा पिता की मौत के बाद 17 वर्षीय अरस्तु को उनके अभिभावक ने शिक्षा पूरी करने के लिए बौद्धिक शिक्षा केंद्र एथेंस भेज दिया। वह वहां पर बीस वर्षो तक प्लेटो से शिक्षा पाते रहे। पढ़ाई के अंतिम वर्षो में वो स्वयं अकादमी में पढ़ाने लगे। उनके द्वारा द लायिसियम नामक संस्था भी खोली गई |अरस्तु को उस समय का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति माना जाता था जिसके प्रशंसा स्वयं उनके गुरु भी करते थे। अरस्तु की गिनती उन महान दार्शनिकों में होती है जो पहले इस तरह के व्यक्ति थे और परम्पराओं पर भरोसा न कर किसी भी घटना की जाँच के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचते थे। प्लेटो के निधन के बाद 347 ईस्वी पूर्व में प्लेटो के निधन के बाद अरस्तु ही अकादमी के नेतृत्व के अधिकारी थे किन्तु प्लेटो की शिक्षाओं से अलग होने के कारण उन्हें यह अवसर नहीं दिया गया। एत्रानियस के मित्र शाषक ह्र्मियाज के निमंत्रण पर अरस्तु उनके दरबार में चले गये। वो वहाँ पर तीन वर्ष रहे और इस दौरान उन्होंने राजा की भतीजी ह्र्पिलिस नामक महिला से विवाह कर लिया। अरस्तु की ये दुसरी पत्नी थी उससे पहले उन्होंने पिथियस नामक महिला से विवाह किया था जिसके मौत के बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया था। इसके बाद उनके यहाँ नेकोमैक्स नामक पुत्र का जन्म हुआ। सबसे ताज्जुब की बात ये है कि अरस्तु के पिता और पुत्र का नाम एक ही था। शायद अरस्तु अपने पिता को बहुत प्रेम करते थे इसी वजह से उनकी याद में उन्होंने अपने पुत्र का नाम भी वही रखा था। सिकंदर की शिक्षा मकदूनिया के राजा फिलिप के निमन्त्रण पर वो उनके तेरह वर्षीय पुत्र को पढ़ाने लगे। पिता-पुत्र दोनों ही अरस्तु को बड़ा सम्मान देते थे। लोग यहाँ तक कहते थे कि अरस्तु को शाही दरबार से काफी धन मिलता है और हजारों गुलाम उनकी सेवा में रहते है हालांकि ये सब बातें निराधार थीं। एलेक्जैंडर के राजा बनने के बाद अरस्तु का काम खत्म हो गया और वो वापस एथेंस आ गये। अरस्तु ने प्लेटोनिक स्कूल और प्लेटोवाद की स्थापना की। अरस्तु अक्सर प्रवचन देते समय टहलते रहते थे इसलिए कुछ समय बाद उनके अनुयायी पेरीपेटेटिक्स कहलाने लगे। अरस्तु और दर्शन अरस्तु को खोज करना बड़ा अच्छा लगता था खासकर ऐसे विषयों पर जो मानव स्वभाव से जुड़े हों जैसे कि "आदमी को जब भी समस्या आती है वो किस तरह से इनका सामना करता है?” और "आदमी का दिमाग किस तरह से काम करता है?" समाज को लोगों से जोड़े रखने के लिए काम करने वाले प्रशासन में क्या ऐसा होना चाहिए जो सर्वदा उचित तरीके से काम करें। ऐसे प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए अरस्तु अपने आस पास के माहौल पर प्रायोगिक रुख रखते हुए बड़े इत्मिनान के साथ काम करते रहते थे। वो अपने शिष्यों को सुबह सुबह विस्तृत रूप से और शाम को आम लोगों को साधारण भाषा में प्रवचन देते थे। एलेक्सेंडर की अचानक मृत्यु पर मकदूनिया के विरोध के स्वर उठ खड़े हुए। उन पर नास्तिकता का भी आरोप लगाया गया। वो दंड से बचने के लिये चल्सिस चले गये और वहीं पर एलेक्सेंडर की मौत के एक साल बाद 62 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी। इस तरह अरस्तु महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य और सिकन्दर के गुरु बनकर इतिहास के पन्नो में महान दार्शनिक के रूप में अमर हो गये। कृतियां अरस्तु ने कई ग्रथों की रचना की थी , लेकिन इनमें से कुछ ही अब तक सुरक्षित रह पाये हैं। सुरक्षित लेखों की सूची इस प्रकार है। अरस्तु के प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम ' पेरिपोइएतिकेस ' है | पोलिटिक्स निकोमचेँ एथिक्स यूदेमियन एथिक्स रहेतोरिक पोएटिक्स मेटाफिजिक्स प्रोब्लेम्स हिस्ट्री ऑफ़ एनिमल्स पार्ट्स ऑफ़ एनिमल्स मूवमेंट ऑफ़ एनिमल्स प्रोग्रेशन ऑफ़ एनिमल्स जनरेशन ऑफ़ एनिमल्स सेंस एंड सेंसिबिलिया ऑन मेमोरी ऑन स्लीप ऑन ड्रीम्स ऑन दिविनेशन इन स्लीप ऑन लेनथ एंड शोर्तनेस ऑफ़ लाइफ ऑन यूथ, ओल्ड ऐज , लाइफ एंड डेथ एंड रेसिपिरेशन फिजिक्स ऑन दी हेअवेंस ऑन जेंराशन एंड करप्शन मेतेरोलोजी ऑन दी यूनिवर्स ऑन दी सोल सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भूगोलवेत्ता श्रेणी:यूनानी भूगोलवेत्ता श्रेणी:दार्शनिक श्रेणी:यूनान के दार्शनिक श्रेणी:पाश्चात्य दर्शन
अरस्तु का जन्म कहाँ हुआ था?
स्टेगेरिया
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तांबा (ताम्र) एक भौतिक तत्त्व है। इसका संकेत Cu (अंग्रेज़ी - Copper) है। इसकी परमाणु संख्या 29 और परमाणु भार 63.5 है। यह एक तन्य धातु है जिसका प्रयोग विद्युत के चालक के रूप में प्रधानता से किया जाता है। मानव सभ्यता के इतिहास में तांबे का एक प्रमुख स्थान है क्योंकि प्राचीन काल में मानव द्वारा सबसे पहले प्रयुक्त धातुओं और मिश्रधातुओं में तांबा और कांसे (जो कि तांबे और टिन से मिलकर बनता है) का नाम आता है। समस्थानिक कम क्षयशील समस्थानिक 63 तथा 65 के अलावा तांबे के कोई 2 दर्जन समस्थानिक हैं जो क्षयशील (रेडियोसमस्थानिक) हैं। गुण तांबा धातु विद्युत तथा उष्मा का सुचालक है। इस सुचालकता की श्रेणी में यह चाँदी के बाद दूसरे क्रम पर आता है। इसमें एक लालिमा जैसी चमक होती है। यह सामान्यतः जल से अभिक्रिया नहीं करता है पर वायव्य जारक से धीरे धीरे संयोग कर ऑक्साईड बनाता है। लेकिन लोहे में जंग लगने से बिल्कुल अलग इसका ऑक्साईड धातु के ऊपर एक परत बनाता है जो इसके और ऑक्सीकरण को रोकता है। यह परत स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी (न्यूयॉर्क) पर भी देखी जा सकती है। निष्कर्षण तांबे के प्रमुख अयस्कों में तांबा ग्लांस (Cu2S), ताम्र पाइराइट्स (CuFeS2), क्यूप्राइट (Cu2O) तथा मैकेलाईट (Cu(OH)2.CuCO3) के नाम आते हैं। पहले फेन प्लावन विधि से अयस्क का सांद्रण कर लिया जाता है। सांद्रित अयस्क को महीन चूर्ण करके उसे एक परवर्तनी भट्ठी में वायु प्रवाह की उपस्थिति में भर्जित करते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा क्यूप्रस सल्फाईड (Cu2S) और फेरस सल्फाईड (FeS) का मिश्रण प्राप्त होता है। अशुद्धियाँ आक्सीकृत होकर निल जाती हैं। इसके बाद इसे कोक के साथ वात्या भट्ठी में गर्म करते हैं जिससे फेरस सल्फाईड फेरस ऑक्साईड बनाता है तथा सिलिका के साथ अभिक्रिया करके धातुमल (फेरस सिलिकेट) बनाता हुआ निकल जाता है। इसके बाद इस को एक भट्ठी में गर्म करते हैं तो तांबे के सल्फाईड पहले आक्साइड में बदल जाते हैं तथा फिर बचे हुए सल्फाइड से अभिक्रिया करके सल्फर डाई ऑक्साईड तथा तांबा देते हैं। इस क्रिया से लगभग 99.99% ताँबा प्राप्त होता है| 2Cu2S + 3 O2 → 2Cu2O + 2 SO2 2Cu2O + Cu2S → 6Cu + SO2 चित्र Ankh, symbol for copper alchemical symbol for copper Prášková měď Fosforečnan měďnatý - Cu3(PO4)2 Oxid měďnatý - CuO Foods rich in copper Flame test Flame test on copper sulphate Flame test on copper sulphate seen through cobalt glass The flame test carried out on a copper halide. Copper extraction Crystals of native copper Mineral copper Native copper Native copper etched to show crystals Cuprite (copper ore) Dissolved copper from deep underground cools to form the Primary orebody Air or water oxidizes some of the orebody Water enriches copper below the oxidized zone creating Secondary enrichment zone (violet) The El Chino open-pit copper mine in New Mexico. Coppermine Chuquicamata, Chile Products Copper ingot from Zakros, Crete Repoussé from Tibet, 16th Century. Treccia in rame. Tubo in rame. Tubo in rame. Copper tube. श्रेणी:ताम्र श्रेणी:रासायनिक तत्व श्रेणी:संक्रमण धातु श्रेणी:आहारीय खनिज
´तांबा´ धातु का रासायनिक संकेत क्या है?
Cu
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अंटार्कटिका अंतरिक्ष से अंटार्कटिका का दृश्य। लाम्बर्ट अजिमुथाल प्रोजेक्शन पर आधारित मानचित्र। दक्षिणी ध्रुव मध्य में है। क्षेत्र (कुल) (बर्फ रहित) (बर्फ सहित) 14,000,000 किमी2 (5,000,000 वर्ग मील) 280,000 किमी2 (100,000 वर्ग मील) 13,720,000 किमी2 (5,300,000 वर्ग मील) जनसंख्या (स्थाई) (अस्थाई) 7वां शून्य ≈1,000 निर्भर 4 · Bouvet Island · French Southern Territories · Heard Island and McDonald Islands · South Georgia and the South Sandwich Islands आधिकारिक क्षेत्रीय दावें अंटार्कटिक संधि व्यवस्था 8 · Adelie Land · Antártica · Argentine Antarctica · Australian Antarctic Territory · British Antarctic Territory · Queen Maud Land · Peter I Island · Ross Dependency अनाधिकृत क्षेत्रीय दावें 1 Brazilian Antarctica दावों पर अधिकार के लिए सुरक्षित 2 · Russian Federation · United States of America टाइम जोन नहीं UTC-3 (केवल ग्राहम लैंड) इंटरनेट टाप लेवल डामिन .aq कालिंग कोड प्रत्येक बेस के पैतृक देश पर निर्भर अंटार्कटिका (या अन्टार्टिका) पृथ्वी का दक्षिणतम महाद्वीप है, जिसमें दक्षिणी ध्रुव अंतर्निहित है। यह दक्षिणी गोलार्द्ध के अंटार्कटिक क्षेत्र और लगभग पूरी तरह से अंटार्कटिक वृत के दक्षिण में स्थित है। यह चारों ओर से दक्षिणी महासागर से घिरा हुआ है। अपने 140 लाख वर्ग किलोमीटर (54 लाख वर्ग मील) क्षेत्रफल के साथ यह, एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के बाद, पृथ्वी का पांचवां सबसे बड़ा महाद्वीप है, अंटार्कटिका का 98% भाग औसतन 1.6 किलोमीटर मोटी बर्फ से आच्छादित है। औसत रूप से अंटार्कटिका, विश्व का सबसे ठंडा, शुष्क और तेज हवाओं वाला महाद्वीप है और सभी महाद्वीपों की तुलना में इसका औसत उन्नयन सर्वाधिक है।[1] अंटार्कटिका को एक रेगिस्तान माना जाता है, क्योंकि यहाँ का वार्षिक वर्षण केवल 200 मिमी (8 इंच) है और उसमे भी ज्यादातर तटीय क्षेत्रों में ही होता है।[2] यहाँ का कोई स्थायी निवासी नहीं है लेकिन साल भर लगभग 1,000 से 5,000 लोग विभिन्न अनुसंधान केन्द्रों जो कि पूरे महाद्वीप पर फैले हैं, पर उपस्थित रहते हैं। यहाँ सिर्फ शीतानुकूलित पौधे और जीव ही जीवित, रह सकते हैं, जिनमें पेंगुइन, सील, निमेटोड, टार्डीग्रेड, पिस्सू, विभिन्न प्रकार के शैवाल और सूक्ष्मजीव के अलावा टुंड्रा वनस्पति भी शामिल hai हालांकि पूरे यूरोप में टेरा ऑस्ट्रेलिस (दक्षिणी भूमि) के बारे में विभिन्न मिथक और अटकलें सदियों से प्रचलित थे पर इस भूमि से पूरे विश्व का 1820 में परिचय कराने का श्रेय रूसी अभियान कर्ता मिखाइल पेट्रोविच लाज़ारेव और फैबियन गॉटलिएब वॉन बेलिंगशौसेन को जाता है। यह महाद्वीप अपनी विषम जलवायु परिस्थितियों, संसाधनों की कमी और मुख्य भूमियों से अलगाव के चलते 19 वीं शताब्दी में कमोबेश उपेक्षित रहा। महाद्वीप के लिए अंटार्कटिका नाम का पहले पहल औपचारिक प्रयोग 1890 में स्कॉटिश नक्शानवीस जॉन जॉर्ज बार्थोलोम्यू ने किया था। अंटार्कटिका नाम यूनानी यौगिक शब्द ανταρκτική एंटार्कटिके से आता है जो ανταρκτικός एंटार्कटिकोस का स्त्रीलिंग रूप है और जिसका[3] अर्थ "उत्तर का विपरीत" है।"[4] 1959 में बारह देशों ने अंटार्कटिक संधि पर हस्ताक्षर किए, आज तक छियालीस देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। संधि महाद्वीप पर सैन्य और खनिज खनन गतिविधियों को प्रतिबन्धित करने के साथ वैज्ञानिक अनुसंधान का समर्थन करती है और इस महाद्वीप के पारिस्थितिक क्षेत्र को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है। विभिन्न अनुसंधान उद्देश्यों के साथ वर्तमान में कई देशों के लगभग 4,000 से अधिक वैज्ञानिक विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं।[5] इतिहास टॉलेमी के समय (1 शताब्दी ईस्वी) से पूरे यूरोप में यह विश्वास फैला था कि दुनिया के विशाल महाद्वीपों एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ्रीका की भूमियों के संतुलन के लिए पृथ्वी के दक्षिणतम सिरे पर एक विशाल महाद्वीप अस्तित्व में है, जिसे वो टेरा ऑस्ट्रेलिस कह कर पुकारते थे। टॉलेमी के अनुसार विश्व की सभी ज्ञात भूमियों की सममिति के लिए एक विशाल महाद्वीप का दक्षिण में अस्तित्व अवश्यंभावी था। 16 वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में पृथ्वी के दक्षिण में एक विशाल महाद्वीप को दर्शाने वाले मानचित्र आम थे जैसे तुर्की का पीरी रीस नक्शा। यहां तक कि 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, जब खोजकर्ता यह जान चुके थे कि दक्षिणी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया कथित 'अंटार्कटिका " का भाग नहीं है, फिर भी वो यह मानते थे कि यह दक्षिणी महाद्वीप उनके अनुमानों से कहीं विशाल था। यूरोपीय नक्शों में इस काल्पनिक भूमि का दर्शाना लगातार तब तक जारी रहा जब तक कि, एचएमएस रिज़ोल्यूशन और एडवेंचर जैसे पोतों के कप्तान जेम्स कुक ने 17 जनवरी 1773, दिसम्बर 1773 और जनवरी 1774 में अंटार्कटिक वृत को पार नहीं किया। कुक को वास्तव में अंटार्कटिक तट से 121 किलोमीटर (75 मील) की दूरी से जमी हुई बर्फ के चलते वापस लौटना पड़ा था। अंटार्कटिका को सबसे पहले देखने वाले तीन पोतों के कर्मीदल थे जिनकी कप्तानी तीन अलग अलग व्यक्ति कर रहे थे। विभिन्न संगठनों जैसे कि के अनुसार नैशनल साइंस फाउंडेशन,[6] नासा,[7] कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो[8] (और अन्य स्रोत),[9][10] के अनुसार 1820 में अंटार्कटिका को सबसे पहले तीन पोतों ने देखा था, जिनकी कप्तानी तीन अलग अलग व्यक्ति कर रहे थे जो थे, फैबियन गॉटलिएब वॉन बेलिंगशौसेन (रूसी शाही नौसेना का एक कप्तान), एडवर्ड ब्रांसफील्ड (ब्रिटिश शाही नौसेना का एक कप्तान) और नैथानियल पामर (स्टोनिंगटन, कनेक्टिकट का एक सील शिकारी)। फैबियन गॉटलिएब वॉन बेलिंगशौसेन ने अंटार्कटिका को 27 जनवरी 1820 को, एडवर्ड ब्रांसफील्ड से तीन दिन बाद और नैथानियल पामर से दस महीने (नवम्बर 1820) पहले देखा था। 27 जनवरी 1820 को वॉन बेलिंगशौसेन और मिखाइल पेट्रोविच लाज़ारेव जो एक दो-पोत अभियान की कप्तानी कर रहे थे, अंटार्कटिका की मुख्य भूमि के अन्दर 32 किलोमीटर तक गये थे और उन्होने वहाँ बर्फीले मैदान देखे थे। प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार अंटार्कटिका की मुख्य भूमि पर पहली बार पश्चिम अंटार्कटिका में अमेरिकी सील शिकारी जॉन डेविस 7 फ़रवरी 1821 में आया था, हालांकि कुछ इतिहासकार इस दावे को सही नहीं मानते। दिसम्बर 1839 में, संयुक्त राज्य अमेरिका की नौसेना द्वारा संचालित, संयुक्त राज्य अमेरिका अन्वेषण अभियान 1838-42 के एक भाग के तौर पर एक अभियान सिडनी, ऑस्ट्रेलिया से अंटार्कटिक महासागर (जैसा कि इसे उस समय जाना जाता था) के लिए रवाना हुआ था और इसने बलेनी द्वीपसमूह के पश्चिम में ‘अंटार्कटिक महाद्वीप’ की खोज का दावा किया था। अभियान ने अंटार्कटिका के इस भाग को विल्कीज़ भूमि नाम दिया गया जो नाम आज तक प्रयोग में आता है। 1841 में खोजकर्ता जेम्स क्लार्क रॉस उस स्थान से गुजरे जिसे अब रॉस सागर के नाम से जाना जाता है और रॉस द्वीप की खोज की (सागर और द्वीप दोनों को उनके नाम पर नामित किया गया है)। उन्होने बर्फ की एक बड़ी दीवार पार की जिसे रॉस आइस शेल्फ के नाम से जाना जाता है। एरेबेस पर्वत और टेरर पर्वत का नाम उनके अभियान में प्रयुक्त दो पोतों: एचएमएस एरेबेस और टेरर के नाम पर रखा गया है।[11] मर्काटॉर कूपर 26 जनवरी 1853 को पूर्वी अंटार्कटिका पर पहुँचा था।[12] निमरोद अभियान जिसका नेतृत्व अर्नेस्ट शैक्लटन कर रहे थे, के दौरान 1907 में टी. डब्ल्यू एजवर्थ डेविड के नेतृत्व वाले दल ने एरेबेस पर्वत पर चढ़ने और दक्षिण चुंबकीय ध्रुव तक पहँचने में सफलता प्राप्त की। डगलस मॉसन, जो दक्षिण चुंबकीय ध्रुव से मुश्किल वापसी के समय दल का नेतृत्व कर रहा थे, ने 1931 में अपने संन्यास लेने से पहले कई अभियानो का नेतृत्व किया।[13] शैक्लटन और उसके तीन सहयोगी दिसंबर 1908 से फ़रवरी 1909 के बीच कई अभियानों का हिस्सा रहे और वे रॉस आइस शेल्फ, ट्रांसांटार्कटिक पर्वतमाला (बरास्ता बियर्डमोर हिमनद) को पार करने और वाले दक्षिण ध्रुवीय पठार पर पहुँचने वाले पहले मनुष्य बने। नॉर्वे के खोजी रोआल्ड एमुंडसेन जो फ्राम नामक पोत से एक अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, 14 दिसम्बर 1911 को भौगोलिक दक्षिण ध्रुव पर पहँचने वाले पहले व्यक्ति बने। रोआल्ड एमुंडसेन ने इसके लिए व्हेल की खाड़ी और एक्सल हाइबर्ग हिमनद के रास्ते का प्रयोग किया।[14] इसके एक महीने के बाद दुर्भाग्यशाली स्कॉट अभियान भी ध्रुव पर पहुंचने में सफल रहा। 1930 और 1940 के दशक में रिचर्ड एवलिन बायर्ड ने हवाई जहाज से अंटार्कटिक के लिए कई यात्राओं का नेतृत्व किया था। महाद्वीप पर यांत्रिक स्थल परिवहन की शुरुआत का श्रेय भी बायर्ड को ही जाता है, इसके अलावा वो महाद्वीप पर गहन भूवैज्ञानिक और जैविक अनुसंधानों से भी जुड़ा रहा था।[15] 31 अक्टूबर 1956 के दिन रियर एडमिरल जॉर्ज जे डुफेक के नेतृत्व में एक अमेरिकी नौसेना दल ने सफलतापूर्वक एक विमान यहां उतरा था। अंटार्कटिका तक अकेला पहुँचने वाला पहला व्यक्ति न्यूजीलैंड का डेविड हेनरी लुईस था जिसने यहाँ पहुँचने के लिए 10 मीटर लम्बी इस्पात की छोटी नाव आइस बर्ड का प्रयोग किया था। भारत का अंटार्कटि‍क कार्यक्रम अंटार्कटि‍क में पहला भारतीय अभियान दल जनवरी 1982 में उतरा और तब से भारत ध्रुवीय विज्ञान में अग्रिम मोर्चे पर रहा है। दक्षिण गंगोत्री और मैत्री अनुसंधान केन्द्र स्थित भारतीय अनुसंधान केन्द्र में उपलब्ध मूलभूत आधार में वैज्ञानिकों को विभिन्न वि‍षयों यथा वातावरणीय विज्ञान, जैविक विज्ञान और पर्यावरणीय विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी अनुसंधान करने में सक्षम बनाया। इनमे से कई अनुसंधान कार्यक्रमों में अंटार्कटि‍क अनुसंधान संबंधी वैज्ञानिक समिति (एससीएआर) के तत्वावधान में सीधे वैश्विक परिक्षणों में योगदान किया है। अंटार्कटि‍क वातावरणीय विज्ञान कार्यक्रम में अनेक वैज्ञानिक संगठनों ने भाग लिया। इनमें उल्लेखनीय है भारतीय मौसम विज्ञान, राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय भू-चुम्बकत्व संस्था, कोलकाता विश्वविद्यालय, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला और बर्कततुल्ला विश्वविद्यालय आदि। इन वैज्ञानिक संगठनों में विशेष रूप से सार्वभौमिक भौतिकी (उपरी वातावरण और भू-चुम्बकत्व) मध्यवर्ती वातावरणीय अध्‍ययन और निम्न वातावरणीय अध्ययन (मौसम, जलवायु और सीमावर्ती परत)। कुल वैश्विक सौर विकीरण और वितरित सौर विकीरण को समझने के लिए विकीरण संतुलन अध्ययन किये जा रहे हैं। इस उपाय से ऊर्जा हस्तांतरण को समझने में सहायता मिलती है जिसके कारण वैश्विक वातावरणीय इंजन आंकड़े संग्रह का काम जारी रख पाता है। मैत्री में नियमित रूप से ओजोन के मापन का काम ओजोनसॉन्‍डे के इस्तेमाल से किया जाता है जो अंटार्कटि‍क पर ओजोन -छिद्र तथ्य और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में ओजोन की कमी के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को गति प्रदान करता है। आयनमंडलीय अध्ययन ने एंटार्कटिक वैज्ञानिक प्रयोगों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाया है। 2008-09 अभियान के दौरान कनाडाई अग्रिम अंकीय आयनोसॉन्‍डे (सीएडीआई) नामक अंकीय आयनोसॉन्‍डे स्थापित किया गया। यह हमें अंतरिक्ष की मौसम संबंधी घटनाओं का ब्यौरा देते हैं। मैत्री में वैश्विक आयनमंडलीय चमक और पूर्ण इलैक्ट्रोन अवयव अनुश्रवण प्रणाली (जीआईएसटीएम) स्थापित की गयी है जो पूर्ण इलैक्ट्रोन अवयव (आईटीसीई) और ध्रुवीय आयनमंडलीय चमक और उसकी अंतरिक्ष संबंधी घटनाओं पर निर्भरता के अभिलक्षणों की उपस्थिति की जानकारी देते हैं। जीआईएसटीएम के आंकड़े बृहत और मैसो स्तर के प्लाजामा ढांचे और उसकी गतिविधि को समझने में हमारी सहायता करते हैं। ध्रुवीय क्षेत्र और उसकी सुकमार पर्यावरणीय प्रणाली विभिन्न वैश्विक व्यवस्थाओं के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस प्रकार की पर्यावरणीय व्यवस्थाएं आंतरिक रूप से स्थिर होती हैं। क्योंकि पर्यावरण में मामूली सा परिवर्तन उन्हें अत्यधिक क्षति पहुंचा सकता है। यह याद है कि ध्रुवीय रचनाओं की विकास दर धीमी है और उसे क्षति से उबरने में अच्छा खासा समय लगता है। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा अंटार्कटि‍क में जैविक अध्ययन समुद्री हिमानी सूक्ष्‍म रचनाओं, सजीव उपजातियों, ताजे पानी और पृथ्‍वी संबंधी पर्यावरणीय प्रणालियों जैव विविधता और अन्य संबद्ध तथ्यों पर विशेष ध्यान देते हैं। क्रायो-जैव विज्ञान अध्ययन क्रायो जैव विज्ञान प्रयोगशाला का 15 फ़रवरी 2010 को उद्घाटन किया गया था ताकि जैव विज्ञान और रसायन विज्ञान के क्षेत्र के उन अनुसंधानकर्ताओं को एक स्थान पर लाया जा सके। जिनकी निम्न तापमान वाली जैव- वैज्ञानिक प्रणालियों के क्षेत्र में एक सामान रूचि हो। इस प्रयोगशाला में इस समय ध्रुवीय निवासियों के जीवाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। जैव वैज्ञानिक कार्यक्रमों की कुछ उपलब्धियों में शीतल आबादियों से बैक्‍टरि‍या की कुछ नई उपजातियों का पता लगाया गया है। अंटार्कटि‍क में अब तक पता लगाई गयी 240 नई उपजातियों में से 30 भारत से हैं। 2008-11 के दौरान ध्रुवीय क्षेत्रों से बैक्‍टरि‍या की 12 नई प्रजातियों का पता चला है। दो जीन का भी पता लगा है जो निम्न तापमान पर बैक्‍टरि‍या को जीवित रखते हैं। जैव प्रौद्योगिकी उद्योग के लिए कम उपयोगी तापमान पर सक्रिय कई लिपासे और प्रोटीज का भी पता लगाया है। अंटार्कटि‍क संबंधी पर्यावरणी संरक्षण समिति द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार मैत्री में पर्यावरणीय मापदंडों का अनुश्रवण किया जाता है। भारत ने अपने नये अनुसंधान केन्द्रित लार्जेमन्न पहाड़ियों पर पर्यावरणीय पहलुओं पर आधार रेखा आंकड़ें संग्रह संबंधी अध्ययन भी शुरू कर दिये हैं। इसकी प्रमुख उपलब्धियों में पर्यावरणीय मूल्यांकन संबंधी विस्तृत रिपोर्ट की तैयारी है। यह रिपोर्ट लार्जसन्न पर्वतीय क्षेत्र से पर्यावरणीय मानदंडों पर एकत्र किये गये आधार रेखा आंकड़े और पर्यावरणीय प्रयोगशालाओं में किये गये कार्य पर आधारित है। भारत एंटार्कटिक समझौता व्यवस्था की परिधि में दक्षिण गोदावरी हिमनदी के निकट संरक्षित क्षेत्र स्थापित करने में भी सफल रहा। जलवायु अंटार्कटिका पृथ्वी का सबसे ठंडा स्थान है। पृथ्वी पर सबसे ठंडा प्राकृतिक तापमान कभी २१ जुलाई १९८३ में अंटार्कटिका में रूसी वोस्तोक स्टेशन में -८९.२ डिग्री सेल्सियस (-१२८.६ °F) दर्ज था। अन्टार्कटिका विशाल वीरान बर्फीले रेगिस्तान है। जाड़ो में इसके आतंरिक भागों का कम से कम तापमान −८० °C (−११२ °F) और −९० °C (−१३० °F) के बीच तथा गर्मियों में इनके तटों का अधिकतम तापमान ५ °C (४१ °F) और १५ °C (५९ °F) के बीच होता है। बर्फीली सतह पर गिरने वाली पराबैंगनी प्रकाश की किरणें साधारणतया पूरी तरह से परावर्तित हो जाती है इस कारण अन्टार्कटिका में सनबर्न अक्सर एक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में है। अंटार्कटिका का पूर्वी भाग, पश्चिमी भाग की अपेक्षा अधिक उंचाई में स्थित होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक ठंडा है। इस दूरस्थ महाद्वीप में मौसम शायद ही कभी प्रवेश करता है इसीलिए इसका केंद्रीय भाग हमेशा ठंडा और शुष्क रहता है। महाद्वीप के मध्य भाग में वर्षा की कमी के बावजूद वहाँ बर्फ बढ़ी हुई समय अवधि के लिए रहती है। महाद्वीप के तटीय भागों में भारी हिमपात सामान्य बात है जहां ४८ घंटे में १.२२ मीटर हिमपात दर्ज किया गया है। यह दक्षिण गोलार्ध में स्थिति बनाये हुए हैं। सन्दर्भ इन्हें भी देखें उत्तरी ध्रुव बाहरी कड़ियाँ भारत कोश अमर उजाला श्रेणी:अंटार्कटिका श्रेणी:महाद्वीप श्रेणी:कॉमन्स पर निर्वाचित चित्र युक्त लेख
अंटार्कटिका का क्षेत्र क्या है?
140 लाख वर्ग किलोमीटर
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गणतन्त्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व है जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया था। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था। 26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई० एन० सी०) ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। यह भारत के तीन राष्ट्रीय अवकाशों में से एक है, अन्य दो स्‍वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती हैं। इतिहास सन् 1929 के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्तयोपनिवेश (डोमीनियन) का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा। 26 जनवरी 1930 तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसके पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। डॉ० भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। संविधान निर्माण में कुल 22 समितीयां थी जिसमें प्रारूप समिति (ड्राफ्टींग कमेटी) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष विधिवेत्ता डॉ० भीमराव आंबेडकर थे। प्रारूप समिति ने और उसमें विशेष रूप से डॉ. आंबेडकर जी ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण किया और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर दिवस को भारत में संविधान दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है। संविधान सभा ने संविधान निर्माण के समय कुल 114 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये। इसके दो दिन बाद संविधान 26 जनवरी को यह देश भर में लागू हो गया। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई। सन २०१९ मे, गुगल कंपनी ने इस अवसर पे अपने वेबसाईट के भारतीय आवृत्ती पर डुडल जाहीर कर दिया| [1] गणतंत्र दिवस समारोह 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय राष्ट्र ध्वज को फहराया जाता हैं और इसके बाद सामूहिक रूप में खड़े होकर राष्ट्रगान गाया जाता है। गणतंत्र दिवस को पूरे देश में विशेष रूप से भारत की राजधानी दिल्ली में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस अवसर के महत्व को चिह्नित करने के लिए हर साल एक भव्य परेड इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन (राष्ट्रपति के निवास) तक राजपथ पर राजधानी, नई दिल्ली में आयोजित किया जाता है। इस भव्य परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट, वायुसेना, नौसेना आदि सभी भाग लेते हैं। इस समारोह में भाग लेने के लिए देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कडेट कोर व विभिन्न विद्यालयों से बच्चे आते हैं, समारोह में भाग लेना एक सम्मान की बात होती है। परेड प्रारंभ करते हुए प्रधानमंत्री अमर जवान ज्योति (सैनिकों के लिए एक स्मारक) जो राजपथ के एक छोर पर इंडिया गेट पर स्थित है पर पुष्प माला डालते हैं| इसके बाद शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए लड़े युद्ध व स्वतंत्रता आंदोलन में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के बलिदान का एक स्मारक है। इसके बाद प्रधानमंत्री, अन्य व्यक्तियों के साथ राजपथ पर स्थित मंच तक आते हैं, राष्ट्रपति बाद में अवसर के मुख्य अतिथि के साथ आते हैं। परेड में विभिन्न राज्यों की प्रदर्शनी भी होती हैं, प्रदर्शनी में हर राज्य के लोगों की विशेषता, उनके लोक गीत व कला का दृश्यचित्र प्रस्तुत किया जाता है। हर प्रदर्शिनी भारत की विविधता व सांस्कृतिक समृद्धि प्रदर्शित करती है। परेड और जुलूस राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित होता है और देश के हर कोने में करोड़ों दर्शकों के द्वारा देखा जाता है। 2014 में, भारत के 64वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर, महाराष्ट्र सरकार के प्रोटोकॉल विभाग ने पहली बार मुंबई के मरीन ड्राईव पर परेड आयोजित की, जैसी हर वर्ष नई दिल्ली में राजपथ में होती है।[2] गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि भारतीय गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथियों की सूची: चित्रदीर्घा रात में चमकता हुआ राष्ट्रपति भवन। भारतीय वायु सेना की हवाई कलाबाजी प्रदर्शन टीम तिरंगा प्रदर्शित करते हुए। गणतंत्र दिवस पर सीमा सुरक्षा बल के जवान। इन्हें भी देखें गणराज्य गणतंत्र दिवस संविधान दिवस (भारत) स्वतंत्रता दिवस (भारत) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ गणतंत्र दिवस पर विशेष श्रेणी:राष्ट्रीय त्यौहार श्रेणी:भारत के प्रमुख दिवस
भारत में पहला गणतंत्र दिवस किस वर्ष मनाया गया था?
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दांत मुंह (या जबड़ों) में स्थित छोटे, सफेद रंग की संरचनाएं हैं जो बहुत से कशेरुक प्राणियों में पाया जाती है। दांत, भोजन को चीरने, चबाने आदि के काम आते हैं। कुछ पशु (विशेषत: मांसभक्षी) शिकार करने एवं रक्षा करने के लिये भी दांतों का उपयोग करते हैं। दांतों की जड़ें मसूड़ों से ढ़की होतीं हैं। दांत, अस्थियों (हड्डी) के नहीं बने होते बल्कि ये अलग-अलग घनत्व व कठोरता के ऊतकों से बने होते हैं। मानव मुखड़े की सुंदरता बहुत कुछ दंत या दाँत पंक्ति पर निर्भर रहती है। मुँह खोलते ही 'वरदंत की पंगति कुंद कली' सी खिल जाती है, मानो 'दामिनि दमक गई हो' या 'मोतिन माल अमोलन' की बिखर गई हो। दाड़िम सी दंतपक्तियाँ सौंदर्य का साधन मात्र नहीं बल्कि स्वास्थ्य के लिये भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। दंतप्रकार आदमी को दो बार और दो प्रकार के दाँत निकलते हैं -- दूध के अस्थायी दांत तथा स्थायी दांत। दूध के दाँत तीन प्रकार के और स्थायी दाँत चार प्रकार के होते हैं। इनके नाम हैं- (1) छेदक या कृंतक (incisor) -- काटने का दाँत, (2) भेदक या रदनक (canine)-- फाड़ने के दाँत, (3) अग्रचर्वणक (premolar) और (4) चर्वणक (molar) -- चबाने के दाँत। स्थायी दाँत ये चार प्रकार के होते हैं। मुख में सामने की ओर या जबड़ों के मध्य में छेदक दाँत होते हैं। ये आठ होते हैं, चार ऊपर, चार नीचे। इनके दंतशिखर खड़े होते हैं। रुखानी के आकार सदृश ये दाँत ढालू धारवाले होते हैं। इनका समतल किनारा काटने के लिये धारदार होता है। इनकी ग्रीवा सँकरी, तथा मूल लंबा, एकाकी, नुकीला, अनुप्रस्थ में चिपटा और बगल में खाँचेदार होता है। भेदक दाँत चार होते हैं, छेदकों के चारों ओर एक एक। ये छेदक से बड़े और तगड़े होते हैं। इनका दंतमूल लंबा और उत्तल, शिखर बड़ा, शंकुरूप, ओठ का पहलू उत्तल और जिह्वापक्ष कुछ खोखला और खुरदरा होता है। इनका छोर सिमटकर कुंद दंताग्र में समाप्त होता है और यह दंतपंक्ति की समतल रेखा से आगे निकला होता है। भेदक दाँत का दंतमूल शंकुरूप, एकाकी एवं खाँचेदार होता है। अग्रचर्वणक आठ होते हैं और दो-दो की संख्या में भेदकों के पीछे स्थित होते हैं। ये भेदकों से छोटे होते हैं। इनका शिखर आगे से पीछे की ओर सिमटा होता है। शिखर के माथे पर एक खाँचे से विभक्त दो पिरामिडल गुलिकाएँ होती हैं। इनमें ओठ की ओरवाली गुलिका बड़ी होती है। दंतग्रीवा अंडाकार और दंतमूल एक होता है (सिवा ऊपर के प्रथम अग्रचर्वणक के, जिसमें दो मूल होते हैं)। चर्वणक स्थायी दाँतों में सबसे बड़े, चौड़े शिखरयुक्त तथा चर्वण क्रिया के लिये विशेष रूप से समंजित होते हैं। इनकी संख्या 12 होती है -- अग्रचर्वणकों के बाद सब ओर तीन, तीन की संख्या में। इनका शिखर घनाकृति का होता है। इनकी भीतरी सतह उत्तल और बाहरी चिपटी होती है। दंत के माथे पर चार या पाँच गुलिकाएँ होती हैं। ग्रीवा स्पष्ट बड़ी और गोलाकार होती है। प्रथम चर्वणक सबसे बड़ा और तृतीय (अक्ल दाढ़) सबसे छोटा होता है। ऊपर के जबड़े के चर्वणकों में तीन मूल होते हैं, जिनमें दो गाल की ओर और तीसरा जिह्वा की ओर होता है। तीसरे चर्वणक के सूत्र बहुधा आपस में समेकित होते हैं। नीचे के चर्वणकों में दो मूल होते हैं, एक आगे और एक पीछे। दूध के दाँत रचना की दृष्टि से ये स्थायी दाँत से ही होते हैं, सिवा इसके कि आकार में अपेक्षाकृत छोटे होते हैं। इनकी ग्रीवा अधिक सँकरी होती है। द्वितीय चर्वणक दाँत सबसे बड़ा होता है। इसके दंतमूल भी छोटे और अपसारी होते हैं, क्योंकि इन्हीं के बीच स्थायी दाँतों के अंकुर रहते हैं। दूध के चर्वणकों का स्थान स्थायी अग्रचर्वणक लेते हैं। दाँतों की संख्या और प्रकार बताने के लिये दंतसूत्र का उपयोग होता है, यथा च अ भ छ छ भ अ च 3 2 1 2 2 1 2 3 --------------------------- 3 2 1 2 2 1 2 3 इसमें क्षैतिज रेखा के ऊपर ऊपरी जबड़े के दाँत और रेखा के नीचे निचले जबड़े के दिखाए हैं। शीर्ष में दाँई और बाँईं ओर वाले अक्षर—च, अ, भ और छ -- चर्वणक, अग्रचर्वणक, भेदक और छेदक प्रकार के दाँतों के तथा उनके नीचे के अंक उनकी संख्या के, सूचक हैं। आदमी के दूध के दाँत 20 होते हैं, यथा च भ छ छ भ च 2 1 2 2 1 2 ------------------- 2 1 2 2 1 2 इनमें चर्वणक का स्थान आगे चलकर स्थायी अग्रचर्वणक ले लेते हैं। स्थायी दाँतों का सूत्र है: च अ भ छ छ भ अ च 3 2 1 2 2 1 2 3 --------------------------------- 3 2 1 2 2 1 2 3 अर्थात कुल 32 दाँत होते हैं। इनमें चारों छोरों पर स्थित अंतिम चर्वणकों (M3) को अकिलदाढ़ भी कहते हैं। दन्त विकास दन्तविकास (Tooth development या odontogenesis) एक जटिल प्रक्रिया है जिसके द्वारा दाँतों का निर्माण होता है और वे बाहर निअकलकर मुंह में दिखाई देने लगते हैं। गर्भस्थ जीवन के छठे सप्ताह में मैक्सिलरी और मैंडिब्युलर चापों को ढकनेवाली उपकला में छिछले दंत खूंड़ बनते हैं। खूंड के बाहर की उपकला ओठ और भीतर के दंतांकुर बनाती है। दंतास्थि, दंतमज्जा और सीमेंट मेसोडर्म से बनते हैं। अन्य भाग एपिडर्म से। दंतोद्भेदन जब दंततंतु पर्याप्त मात्रा में चूने के लवणों से संसिक्त हो बाह्य जगत्‌ के दबाव उठाने योग्य हो जाते हैं, तब मसूड़ों से बाहर उनका उद्भव (eruption) होता है। दंतोद्भेदन की अवधि निश्चित है और आयु जानने का एक आधार है। यह क्रम इस प्रकार है -- दूध के दाँत नीचे के मध्य छेदक 6 से 9 मास, ऊपर के छेदक 8 से 10 मास, नीचे के पार्श्वछेदक 15 से 21 मास, प्रथम चर्वणक 15 से 21 मास, भेदक 16 से 20 मास, द्वितीय चर्वणक 20 से 24 मास .......... 30 मास तक, अर्थात्‌ छठे महीने से दाँत निकलने लगते हैं और ढाई वर्ष तक बीस दाँत आ जाते हैं। होल्ट ने लिखा है कि एक वर्ष के बालक में छ:, डेढ़ वर्ष में बारह और दो वर्ष में बीस दाँत मिलते हैं। स्थायी दाँत इनका कैल्सीकरण इस क्रम से होता है -- प्रथम चर्वणक: जन्म के समय, छेदक और भेदक: प्रथम छह मास में, अग्रचर्वणक: तृतीय या चौथे वर्ष, दवितीय चर्वणक: चौथे वर्ष, और तृतीय चर्वणक: दसवें वर्ष के लगभग। ऊपर के दाँतों में कैल्सीकरण कुछ विलंब से होता है। स्थायी दंतोद्भेदन का समयक्रम इस प्रकार है: प्रथम चर्वणक छठे वर्ष, मध्य छेदक सातवें वर्ष, पार्श्व छेदक आठवें वर्ष, प्रथम अग्रचर्वणक नौवें वर्ष, द्वितीय अग्रचर्वणक दसवें वर्ष, भेदक ग्यारहवें से बारहवें वर्ष, द्वितीय चर्वणक बारहवें से तेरहवें वर्ष तथा तृतीय चर्वणक सत्रहवें से पच्चीसवें वर्ष। छठे वर्ष, दूध के दाँतों का गिरना आरंभ होने तक, प्रत्येक बालक के जबड़ों में 24 दाँत हो जाते हैं -- दस दूध के और सभी स्थायी दाँतों के अंकुर (तृतीय चर्वणक को छोड़कर)। छह वर्ष के बच्चे के दाँत ये निचले जबड़े में दूध के दाँत हैं। जबड़े के भीतर के स्थायी दाँत रेखाच्छादित दिखाए गए हैं। दंतरचना दाँत के दो भाग होते हैं। मसूड़े (दंतवेष्टि) के बाहर रहनेवाला भाग दंतशिखर कहलाता है और जबड़े के उलूखल में स्थित, गर्त में संनिहित अंश को दंतमूल कहते हैं। शिखर और मूल का संधिस्थल दंतग्रीवा है। दाँत का मुख्य भाग दंतास्थित (डेंटीन, dentine) है। दंतास्थि विशेष रूप से आरक्षित न रहे तो घिस जाय, अतएव दंतशिखर में यह एनैमल नामक एक अत्यंत कड़े पदार्थ से ढकी रहती है। दंतमूल में दंतास्थित का आवरण सीमेंट करती है। सीमेंट और जबड़े की हड्डी को बीच दंतपर्यास्थित होती है, जो दाँत को बाँधती भी है और गर्त में दाँत के लिये गद्दी का भी काम करती है। दंतास्थि के अंदर दंतमज्जा होती है, जो उस खोखले हिस्से में रहती है जिसे दंतमज्जागुहा कहते हैं। इस गुहा में रुधिर और लसिकावाहिकाएँ तथा तंत्रिकाएँ होती हैं। ये दंतमूल के छोर पर स्थित एक छोटे से छिद्र से दाँत में प्रवेश करती हैं। दाँत एक जीवित वस्तु है, अतएव इसे पोषण और चेतना की आवश्यकता होती है। तंत्रिकाएँ दाँत को स्पर्शज्ञान प्रदान करती हैं। एनैमल दाँत का सबसे कठोर और ठोस भाग है। यह दंतशिखर को ढकता है। चर्वणतल पर इसकी परत सबसे मोटी और ग्रीवा के निकट अपेक्षाकृत पतली होती है। एनैमल की रचना षट्कोण प्रिज़्मों से होती है, जो दंतास्थि से समकोण पर स्थित होते हैं। एनैमल में चूने के फॉस्फेट, कार्बोनेट, मैग्नीशियम फास्फेट तथा अल्प मात्रा में कैलिसयम क्लोराइड होते हैं। दंतास्थित में घना एकरूप आधारद्रव्य, मेट्रिक्स (matrix) और उसमें लहरदार तथा शाखाविन्याससंयुक्त दंतनलिकाएँ होती हैं। ये नलिकाएँ एक दूसरे से समानांतर होती हैं और अंदर की ओर दंतमज्जागुहा में खुलती हैं। इनके अंदर दंत तंतु के प्रवर्ध होते हैं। दंतगुहा में जेली सी मज्जा भरी होती है। इसमें ढीला संयोजक ऊतक होता है, जिसमें रक्तवाहिका और तंत्रिकाएँ होती हैं। गुहा की दीवार के पास डेंटीन कोशिकाओं की परत होती है और इन्हीं कोशों के तंतु दंतनलिका में फैले रहते हैं। सीमेंट की रचना हड्डी सी होती है, पर इसमें रुधिरवाहिकाएँ नहीं होतीं। दंतस्वास्थ्य दाँत स्वस्थ रहें, इसके लिये उनकी देख रेख आवश्यक है। संक्षेप में दंतरक्षा की महत्वपूर्ण बातें ये हैं: सुबह शाम दंतमंजन या ब्रश से सफाई, भोजन के बाद मुँह धोना और दाँतों की सफाई, मसूड़ों की मालिश। टूथब्रश रखने का तरीका सीखना चाहिए और एक मास बाद ब्रश बदल देना चाहिए। दाँत खोदना खराब और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला करना अच्छी आदत है। दंतस्वास्थ्य के लिये संतुलित आहार और अच्छा पोषण, विशेषकर विटामिन ए, डी, सी तथा फ्लोरीनवाले भोजनों का उपयोग जरूरी है। दंतव्यायाम के लिये कड़ी चीजें, जैसे गन्ना, कच्ची सब्जियाँ, फल आदि खाना लाभप्रद है। बच्चों के दाँत निकलते समय स्वास्थ्य की गड़बड़ी पोषण के दोष से और उपसर्गजन्य होती है। माता का आहार अच्छा होना आवश्यक है। स्वस्थ दन्तविकास के लिये स्तनपान आवश्यक है, इससे जबड़े, मुँह और दाँत की बनावट पर प्रभाव पड़ता है। दंत स्वास्थ्य का मूल सूत्र है कि दंतचिकित्सक के पास दाँत उखड़वाने जाने से अच्छा है, दंत स्वस्थ बनाए रखने के लिये उससे मिलते रहना। दंतरोग स्वस्थ व्यक्ति में मुँह बंद करने पर दाढ़ के दाँत एक दूसरे पर बैठ जाते हैं और ऊपर दाँतों की आगे की पंक्ति निचली दंतपंक्ति से तनिक आगे रहती है। बहुत से लोगों में ऊपर के दाँत ओठ से बाहर निकले होते हैं, जो रूप और व्यक्तित्व दोनों ही नष्ट करते हैं। इसके अनेक कारणों में स्थायी दंतोद्भेन के समय अंगूठा चूसना, देखरेख में दोष, दूध के दाँत के गिरने में जल्दी या विलंब, स्थायी दाँत गिरने पर नकली दाँत न लगाना आदि कारण हैं। दाँतों के रूप-दोष के लिये दंतचिकित्सा में एक अलग शाखा है। दंतक्षरण (Dental Caries, दाँत में कीड़ा लगना) यह जुकाम सा ही प्रचलित रोग है। इससे दाँत खोखले हो जाते हैं, उनमें खाना भर जाता है, जिससे दर्द होता है, पानी लगता है। दर्द के कारण दाँत काम नहीं करते, उनपर मैल (टारटर) जमने लगता है और अंदर फँसे भोजन के कण सड़ते हैं। मसूड़ों में सूजन और पीप आने लगती है। दाँत की जड़ में फोड़ा भी बन सकता है। इस स्थिति की शीघ्र चिकित्सा आवश्यक है। गर्भावस्था में माता को संतुलित भोजन न मिलने पर, या माता को उपदंश रोग होने पर दंतरचना दोषपूर्ण हो जाती है। नकली दाँत तथा बचपन के दांत दाँत गिर जाने के बाद उनके स्थान पर नकली दाँत (denture) लगाए जा सकते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं, एक तो पूरे दाँत और दूसरे दंतशिखर मात्र। नकली दाँत बनाने का प्रचलन बहुत पुराना है। पहले हड्डी, हाथी दाँत, हिप्पो या आदमी के दाँत को सोने या हाथी दाँत के आधार पर बैठाकर लगाते थे। 18वीं शताब्दी से पोर्सिलेन के दाँतों का प्रचलन आरंभ हुआ। सन्‌ 1860 में आधार के लिये वल्कनाइज़्ड रबर का उपयोग होने लगा। अब तो प्लास्टिक के दाँत एक्रीलिकरेज़िन प्लास्टिक के ही आधार पर स्थापित किए जाते हैं। इन्हें भी देखें दांतो की सफाई कैसे करनी चाहिए दन्तचिकित्सा (Dentistry) दन्त-क्षय दातून दन्तमंजन दाँत का बुरुश सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ , University of Alberta श्रेणी:मानव शरीर श्रेणी:दाँत en:Tooth
मानव के शरीर में कितने दांत होते है?
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पनामा नहर (Spanish: Canal de Panamá) मानव निर्मित एक जलमार्ग अथवा जलयान नहर है जो पनामा में स्थित है और प्रशांत महासागर तथा (कैरेबियन सागर होकर) अटलांटिक महासागर को जोड़ती है। इस नहर की कुल लम्बाई 82 कि॰मी॰, औसत चौड़ाई 90 मीटर , न्यूनतम गहराई 12 मीटर है। यह नहर पनामा स्थलडमरूमध्य को काटते हुए निर्मित है और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रमुखतम जलमार्गों में से एक है। पनामा नहर पर वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका का नियंत्रण है। पनामा नहर जल पास या जल लोक पद्धति पर आधारित है। अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच की दूरी इस नहर से होकर गुजरने पर तकरीबन 8000 मील (12,875 कि॰मी॰) घट जाती है क्योंकि इसके न होने की स्थिति में जलपोतों को दक्षिण अमेरिका के हॉर्न अंतरीप से होकर चक्कर लगाते हुए जाना पड़ता था। पनामा नहर को पार करने में जलयानों को 8 घंटे का समय लगता हैं। इस नहर का निर्माण 14 अगस्त 1914 को पूरा हुआ और 15 अगस्त 1914 को यह जलपोतों के आवागमन हेतु खोल दी गई। अभी हाल ही में (14 अगस्त 2014 को) पनामा नहर के निर्माण की 100वीं बरसी मनाई गयी है।[1] जब यह नहर बनी थी तब इससे लगभग 1000 जलपोत प्रतिवर्ष गुजरते थे और अब सौ वर्षों बाद इनकी संख्या लगभग 42 जलपोत प्रतिदिन हो चुकी है। यह नहर अपने आप में अभियांत्रिकी की एक बड़ी उपलब्धि और विलक्षण उदाहरण भी मानी जाती है। यह नहर एक मीठे पानी की गाटुन झील से होकर गुजरती है और चूँकि इस झील का जलस्तर समुद्रतल से 26 मीटर ऊपर है, इसमें जलपोतों को प्रवेश करने के लिये तीन लॉक्स का निर्माण किया गया है जिनमें जलपोतों को प्रवेश करा कर और पानी भरकर उन्हें पहले ऊपर उठाया जाता है, ताकि यह झील से होकर गुजर सके। इन लॉक्स की वर्तमान चौड़ाई 35 मीटर है और यह समकालीन बड़े जलपोतों के लिये पर्याप्त नहीं है अतः इसके विस्तार का प्रोजेक्ट चल रहा है जिसके 2015 तक पूरा होने की उम्मीद है। पनामा नहर को अमेरिकन सोसायटी ऑफ सिविल इंजीनियर्स ने आधुनिक अभियांत्रिकी के सात आश्चर्यों में स्थान दिया है।[2] इतिहास आरंभिक प्रयास पनामा नहर के निर्माण की सबसे पहली योजना स्पेन के राजा और पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट चार्ल्स पंचम ने सन् 1534 में पास की और इस हेतु सर्वेक्षण के लिये निर्देश जारी किये ताकि स्पेनी व्यापारियों और सेना को पुर्तगालियों से बेहतर जलमार्ग मिल सके और वे इसका लाभ उठा सकें।[3][4] स्त्रतेजिक और व्यापारिक हितों की महत्वपूर्णता और दोनों नए खोजे गये महाद्वीपों के मध्य स्थित पनामा स्थलडमरूमध्य की कम चौड़ाई के बावजूद यहाँ व्यापारिक मार्ग बनाने का पहला प्रयास 1658 में स्काटलैण्ड राज्य द्वारा किया गया जो एक स्थल मार्ग था और खराब पर्यावरणीय दशाओं और उच्चावच की विषमता के कारण इसे 1700 में लगभग छोड़ ही दिया गया।[5] 1855 में विलियम कनिश नामक इंजीनियर ने संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के लिये काम करते हुए इस इलाके का सर्वेक्षण किया और रिपोर्ट प्रस्तुत की[6] पुनः 1877 अरमांड रेक्लस (Armand Reclus) नामक फ़्रांसीसी सैन्य अधिकारी (इंजीनियर) और लूसियान नेपोलियन नामक इंजीनियरों ने मिलकर नहर के निर्माण मार्ग का सर्वेक्षण किया[7] जिसके पीछे फ़्रांसीसियों द्वारा स्वेज़ नहर के निर्माण की उपलब्धियों का उत्साह था। निर्माण फ़्रांस द्वारा यहाँ नहर बनाए जाने का कार्य 1 जनवरी 1881 को फर्डिनेंड डी लेसप के नेतृत्व में शुरू हुआ जो स्वेज नहर का निर्माणकर्ता था। भूगर्भिक और जलवैज्ञानिक अध्ययनों के बिना आरम्भ किये गये इस कार्य में अन्य कई बाधाएं भी आयीं जिनमें यहाँ की असह्य जलवायवीय दशाओं और मच्छरों की बहुतायत के कारण बीमारियों तथा अन्य दुर्घटनाओं में तकरीबन 22,000 कर्मियों की जानें गयीं। अंततः 1889 में यह निर्माता कंपनी दिवालिया हो गयी और फर्डिनेंड डी लेसप के बेटे चार्ल्स डी लेसप को वित्तीय अनियमितताओं के आरप में (जिसे पनामा स्कैंडल कहा गया) पाँच वर्षों की कैद हो गयी। कंपनी को निरस्त कर दिया गया और काम रुक गया। 1894 में एक दूसरी कंपनी कुम्पनी नौवेल्ले दू कैनल डे पनामा (Compagnie Nouvelle du Canal de Panama) बनी लेकिन इसके प्रयास भी सफल नहीं हुए। अमेरिकी निर्माण बाद में अमेरिकी सरकार ने कोलंबिया सरकार के साथ संधि करते हुए इस क्षेत्र का अधिग्रहण (तब यह कोलंबिया देश के अंतर्गत था) किया और 1904 में अमेरिकी इंजीनियरों ने कार्य आरम्भ किया जिसमें इस नहर को तीन लॉक्स के साथ बनाने की शुरूआत हुई। अमेरिकियों ने काफ़ी आध्ययन और निवेश के बाद 1914 में इसे पूरा किया। एक तरह से देखा जाय तो वास्को डी बिल्बोया द्वारा पनामा डमरूमध्य के पार करने के लगभग 400 वर्षों के बाद इस नहर का निर्माण हो पाया। इस प्रोजेक्ट में अमरीकी सरकार ने लगभग $375,000,000 (वर्तमान सम्तुल्य्क $8,600,000,000) खर्च किये[8] तमाम परिवर्तनों, विवादों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में इसकी निष्पक्ष स्थिति को बनाये रखने हेतु लगभग 80 किलोमीटर लंबी इस नहर का प्रशासन 31 दिसम्बर 1999 को पनामा को सौंप दिया गया। संचालन संचालन के मामले में भी यह नहर अद्वितीय है क्योंकि यह दुनिया का अकेला ऐसा जलमार्ग है जहां किसी भी जहाज का कप्तान अपने जहाज का नियंत्रण पूरी तरह पनामा के स्थानीय विशेषज्ञ कप्तान को सौंप देता है।[1] प्रशांत और अटलांटिक महासागर के बीच बनी इस नहर से गुजरने के लिए हजारों टन भारी जहाज को लॉक में पानी भरकर 85 फीट ऊपर उठाया जाता है। पूरे लॉक तन्त्र को पार करने के लिये पहले जहाज को सबसे निचले लॉक में लाया जाता है, फिर लॉक को बंद कर उसमें शक्तिशाली पम्पों द्वारा पानी भरा जाता है। इस प्रकार पानी से जहाज ऊपर उठने लगता है। तत्पश्चात भारी और बेहद ताकतवर लोकोमोटिव इंजन जहाज को पार्श्वों से टकराने से बचाते हुए खींचते हैं और दूसरे लॉक में ले जाते हैं। फिर दूसरे लॉक में भी यही काम दुहराया जाता है, पानी भरना, जहाज को खींचना और आगे बढ़ना। तीन लॉकों के जरिए ऊपर उठने के बाद जहाज मीठे पानी की कृत्रिम झील, गाटून झील, से गुजरते हैं। दूसरे छोर पर पहुंचने के बाद जहाजों को फिर इसी प्रक्रिया के द्वारा 85 फीट नीचे ले जाकर महासागर में उतार दिया जाता है। यहाँ यातायात प्रबंधन के लिये पूर्णतया कम्प्यूटरीकृत सिस्टम लगा हुआ है जिससे इस नहर से गुजरने वाले जलपोतों का संचालन सुविधाजनक ढंग से किया जा सके।[9] नहर की क्षमता वर्तमान समय में दुनिया भर में व्यापार के लिए चलने वाले 5 प्रतिशत पानी के जहाज पनामा से होकर गुजरते हैं। फिलहाल पनामा नहर से सिर्फ वे ही जहाज गुजर पाते हैं जो 1050 फीट लंबाई, 110 फीट चौड़ाई और 41.2 फीट गहराई के भीतर आते हैं। हालाँकि आधुनिक जहाज आकार में काफी बड़े हो चुके हैंऔर इसी लिये यहाँ एक नया लॉक बनाया जा रहा है। नहर में तैयार किए जा रहे नए लॉक 12000 कंटेनरों वाले बड़े जहाजों के साइज के अनुरूप होंगे जिनके चैंबर 1400 फीट लंबे, 180 फीट चौड़े और 60 फीट गहरे बनाए जाने की योजना है और साथ ही नए लॉक में जलपोतों को खींचने के लिए लोकोमोटिव की जगह टगबोट लगाये जायेंगे।[1] पनामा नहर को चौड़ा करने के काम को तीसरे सेट के लॉक का प्रोजेक्ट भी कहा जाता है। इसके 2015 तक पूरा हो जाने पर पनामा नहर से पहले के मुकाबले ज्यादा बड़े आकार के जहाज गुजर सकेंगे जिससे कि इस मार्ग का ज्यादा इस्तेमाल हो सकेगा। नहर को चौड़ा करने और बड़े जहाजों के लिए नए लॉक बनाने का यह प्रोजेक्ट स्पेन और इटली की कंपनियों के नियंत्रण वाली 'ग्रूपो यूनिडोस पोर एल कनाल कंसोर्टियम' (जीयूपीसी) के पास है। उम्मीद है कि नए तीसरे सेट के लॉक तैयार हो जाने पर मार्ग की क्षमता दोगुनी हो जाएगी। प्रोजेक्ट के अंतर्गत नहर के दोनों सिरों अटलांटिक महासागर की तरफ और प्रशांत महासागर की तरफ एक एक नए लॉक कॉम्प्लेक्स बनाए जाने हैं। प्रत्येक में पानी जमा करने के तीन चैंबर होंगे जिनकी मदद से पोत विस्थापित किए जाएंगे।[1] विवाद और समस्याएँ 2014 में पनामा नहर चलाने वाली कंपनी एसीपी और नहर का विस्तार कर रही कंपनी जीयूपीसी के बीच वित्तीय आवश्यकताओं को लेकर विवाद हो गया था।[10] जीयूपीसी का कहना था कि संचालक कंपनी के दोषपूर्ण भूगर्भीय अध्ययन के कारण पनामा नहर को चौड़ा करने के काम में बजट को बढ़ाने का सवाल खड़ा हो गया है और पहले से पास बजट में यह कार्य नहीं पूरा किया जा सकता।[11] स्पेनी कंपनी साकिर के अनुसार जीयूपीसी ने पिछले हफ्ते औपचारिक रूप से एसीपी तक संदेश पहुंचा दिया था कि अगर निर्धारित अवधि में मंजूरी नहीं मिलती है तो काम रोक दिया जाएगा। इसके लियेसकिर ने 1.2 अरब यूरो अतिरिक्त देने की माँग की और ऐसा न होने पर काम रोक देने कि धमकी दे दी थी। बाद में मध्यस्थता के सिलसिले में आना पास्टोर कंपनियों के प्रतिनिधियों के अलावा पनामा के राष्ट्रपति रिकार्डो मार्टिनेली को भी उतरना पड़ा था और तब जाकर यह विवाद शांत हुआ।[12] इसी के साथ ही यहाँ से गुजरने वाले जलपोतों और लॉक्स में पानी भरे जाने तथा छोड़े जाने से गातुम झील की पर्यावरणीय गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अनुसार झील का पानी खारा होता जा रहा है और इसके जलजीवों और जैवविविधता पर खतरा मंडरा रहा है ऐसे में नए और बड़े लॉक्स का निर्माण स्थितियों को और बिगाड़ेगा।[11] पनामा सरकार पर यह आरोप भी लगे हैं कि इस नहर से होने वाली आय से यहाँ के निवासियों के लिये कुछ नहीं होता और ऐसा प्रतीत होता है कि नहर का विस्तार केवल बड़ी कंपनियों के हितों के लिये हो रहा है[11] प्रतिद्वंदिता में निकारागुआ नहर हाल ही में चीन की सहायता से निकारागुआ में भी नहर बनाये जाने की योजना है।[13] हालाँकि इसके बनाये जाने का पर्यावरणविद काफ़ी विरोध कर रहे हैं और यह भी माना जा रहा है कि इसमें खर्च ज्यादा होगा और लाभ कम।[14] ये भी देखें निकारागुआ नहर स्वेज नहर मानचेस्टर नहर कील नहर सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ — नहर कैसे काम करती है इसकी जानकारी Smithsonian Institution Libraries — इतिहास, चित्र और कहानियाँ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय अभिलेखीय संग्रह, इंजीनियर , द्वारा संग्रहीत श्रेणी:जलमार्ग श्रेणी:जहाज़ी नहर
पनामा नहर कहाँ स्तिथ है?
पनामा
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गणतन्त्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व है जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया था। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था। 26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई० एन० सी०) ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। यह भारत के तीन राष्ट्रीय अवकाशों में से एक है, अन्य दो स्‍वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती हैं। इतिहास सन् 1929 के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्तयोपनिवेश (डोमीनियन) का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा। 26 जनवरी 1930 तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसके पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। डॉ० भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। संविधान निर्माण में कुल 22 समितीयां थी जिसमें प्रारूप समिति (ड्राफ्टींग कमेटी) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष विधिवेत्ता डॉ० भीमराव आंबेडकर थे। प्रारूप समिति ने और उसमें विशेष रूप से डॉ. आंबेडकर जी ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण किया और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर दिवस को भारत में संविधान दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है। संविधान सभा ने संविधान निर्माण के समय कुल 114 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये। इसके दो दिन बाद संविधान 26 जनवरी को यह देश भर में लागू हो गया। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई। सन २०१९ मे, गुगल कंपनी ने इस अवसर पे अपने वेबसाईट के भारतीय आवृत्ती पर डुडल जाहीर कर दिया| [1] गणतंत्र दिवस समारोह 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय राष्ट्र ध्वज को फहराया जाता हैं और इसके बाद सामूहिक रूप में खड़े होकर राष्ट्रगान गाया जाता है। गणतंत्र दिवस को पूरे देश में विशेष रूप से भारत की राजधानी दिल्ली में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस अवसर के महत्व को चिह्नित करने के लिए हर साल एक भव्य परेड इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन (राष्ट्रपति के निवास) तक राजपथ पर राजधानी, नई दिल्ली में आयोजित किया जाता है। इस भव्य परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट, वायुसेना, नौसेना आदि सभी भाग लेते हैं। इस समारोह में भाग लेने के लिए देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कडेट कोर व विभिन्न विद्यालयों से बच्चे आते हैं, समारोह में भाग लेना एक सम्मान की बात होती है। परेड प्रारंभ करते हुए प्रधानमंत्री अमर जवान ज्योति (सैनिकों के लिए एक स्मारक) जो राजपथ के एक छोर पर इंडिया गेट पर स्थित है पर पुष्प माला डालते हैं| इसके बाद शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए लड़े युद्ध व स्वतंत्रता आंदोलन में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के बलिदान का एक स्मारक है। इसके बाद प्रधानमंत्री, अन्य व्यक्तियों के साथ राजपथ पर स्थित मंच तक आते हैं, राष्ट्रपति बाद में अवसर के मुख्य अतिथि के साथ आते हैं। परेड में विभिन्न राज्यों की प्रदर्शनी भी होती हैं, प्रदर्शनी में हर राज्य के लोगों की विशेषता, उनके लोक गीत व कला का दृश्यचित्र प्रस्तुत किया जाता है। हर प्रदर्शिनी भारत की विविधता व सांस्कृतिक समृद्धि प्रदर्शित करती है। परेड और जुलूस राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित होता है और देश के हर कोने में करोड़ों दर्शकों के द्वारा देखा जाता है। 2014 में, भारत के 64वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर, महाराष्ट्र सरकार के प्रोटोकॉल विभाग ने पहली बार मुंबई के मरीन ड्राईव पर परेड आयोजित की, जैसी हर वर्ष नई दिल्ली में राजपथ में होती है।[2] गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि भारतीय गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथियों की सूची: चित्रदीर्घा रात में चमकता हुआ राष्ट्रपति भवन। भारतीय वायु सेना की हवाई कलाबाजी प्रदर्शन टीम तिरंगा प्रदर्शित करते हुए। गणतंत्र दिवस पर सीमा सुरक्षा बल के जवान। इन्हें भी देखें गणराज्य गणतंत्र दिवस संविधान दिवस (भारत) स्वतंत्रता दिवस (भारत) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ गणतंत्र दिवस पर विशेष श्रेणी:राष्ट्रीय त्यौहार श्रेणी:भारत के प्रमुख दिवस
भारत में गणतंत्र दिवस कब मनाया जाता है?
26 जनवरी
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युक्रेन पूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी सीमा पूर्व में रूस, उत्तर में बेलारूस, पोलैंड, स्लोवाकिया, पश्चिम में हंगरी, दक्षिणपश्चिम में रोमानिया और माल्दोवा और दक्षिण में काला सागर और अजोव सागर से मिलती है। देश की राजधानी होने के साथ-साथ सबसे बड़ा शहर भी कीव है। युक्रेन का आधुनिक इतिहास 9वीं शताब्दी से शुरू होता है, जब कीवियन रुस के नाम से एक बड़ा और शक्तिशाली राज्य बनकर यह खड़ा हुआ, लेकिन 12 वीं शताब्दी में यह महान उत्तरी लड़ाई के बाद क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया। 19वीं शताब्दी में इसका बड़ा हिस्सा रूसी साम्राज्य का और बाकी का हिस्सा आस्ट्रो-हंगेरियन नियंत्रण में आ गया। बीच के कुछ सालों के उथल-पुथल के बाद 1922 में सोवियत संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक बना। 1945 में यूक्रेनियाई एसएसआर संयुक्त राष्ट्रसंघ का सह-संस्थापक सदस्य बना। सोवियत संघ के विघटन के बाद युक्रेन फिर से स्वतंत्र देश बना। नाम की उत्पत्ति यूक्रेन के नाम की व्युत्पत्ति के बार में अलग अलग परिकल्पनाये हैं। सबसे व्यापक और पुरानी परिकल्पना के अनुसार, इसका मतलब है "परदेश" हैं, जबकि हाल ही के कुछ अध्ययन में इसका एक अलग ही अर्थ "मातृभूमि" या "क्षेत्र, देश" का दावा किया जा रहा हैं।[1] अधिकतर इंग्लिश बोलने बाले देशो में इसे "द यूक्रेन" के नाम से ही जाना जाता हैं। इतिहास 19वी शताब्दी,प्रथम विश्व युद्ध, और क्रांति 19 वीं सदी में, ऑस्ट्रिया और रूस के बीच में यूक्रेन की स्थिति एक ग्रामीण क्षेत्र जैसी ही थी। इन देशो में होते तेजी से शहरीकरण और आधुनिकीकरण के बीच यूक्रेन में भी राष्ट्रवाद, बुद्धिजीवीवर्ग का उदय हुआ जिनमे प्रमुख नाम राष्ट्रीय कवि तारस शेवचेन्को (1814-1861) तथा राजनीतिक विचारक मिखाइलो द्राहोमनोव (1841-1895) का रहा। रूस-तुर्की युद्ध (1768-1774) के बाद, रूस के शासको ने यूक्रेन में रह रहे तुर्कीयों की जन्संख्या में कमी लाने के लिए, विशेष कर क्रीमिया में जर्मन आव्रजन को प्रोत्साहित किया, जिसका लाभ आगे चल कर कृषिक्षेत्र में हुआ 19 वीं सदी की शुरुआत में, यूक्रेन से रूसी साम्राज्य के सुदूर क्षेत्रों में लोगो का पलायन किया गया था। 1897 की जनगणना के मुताबिक, साइबेरिया में 223,000 और मध्य एशिया में 102,000 यूक्रेनियन थे।[2] जबकि 1906 में ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के उद्घाटन के बाद अतिरिक्त 1.6 मिलियन लोगो को यूक्रेन के बाहर बसाया गया। यूक्रेन के बाहर यूक्रेनी की इतनी बड़ी आबादी के कारण, सुदूर पूर्वी क्षेत्र, "ग्रीन यूक्रेन" के रूप में जाना जाने लगा। 19वीं सदी में राष्ट्रवादी और समाजवादी पार्टियों का उदय हुआ। ऑस्ट्रियन गैलिसिया, हैब्सबर्ग्ज़ की अपेक्षाकृत उदार नियम के तहत, राष्ट्रवादी आंदोलन का केंद्र बन गया। प्रथम विश्व युद्ध में यूक्रेन ने केन्द्रीय शक्तियों, की ओर से ऑस्ट्रिया के तहत, तथा ट्रिपल इंटेंट, की ओर से रूस के तहत में प्रवेश किया। 35 लाख यूक्रेनियन, इम्पीरियल रूसी सेना के साथ लड़ाई लड़ी है, जबकि 250,000 ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेना के लिए लड़ाई लड़ी। ऑस्ट्रो-हंगेरियन अधिकारियों रूसी साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए यूक्रेनी सेना की स्थापना की। जिसे यूक्रेनी गैलिशियन् सेना का नाम दिया गया, जोकि विश्व युद्ध के बाद भी (1919-23) में बोल्शेविक और पोल्स के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे। यहाँ तक की ऑस्ट्रिया में रुशियो के साथ उदार भावना रखने वालो को कठोरता के साथ दमन किया गया।[3] प्रथम विश्व युद्ध ने दोनों साम्राज्यो को नष्ट कर दिया। जहाँ 1917 की रूसी क्रांति में बोल्शेविक के तहत सोवियत संघ के संस्थापना हुई, वही यूक्रैन में भी, उग्र कम्युनिस्ट और समाजवादी प्रभाव के बीच स्वाधीनता के लिए एक यूक्रेनी राष्ट्रीय आंदोलन उभरा। कई यूक्रेनी राज्यों का उथान हुआ जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक (UNR ) के रूप में हुई यूक्रेन के उन राज्यो में जहा कभी रूसी साम्राज्य का राज था वह यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य (या सोवियत यूक्रेन) की स्थापना; जबकि पूर्व ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के क्षेत्र में पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और हुतसुल गणराज्य का गठन हुआ। आगे चल कर 22 जनवरी, 1919 को कीव में सेंट सोफिया स्क्वायर पर यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक के बीच जलूक अधिनियम (एकीकरण अधिनियम) के तहत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। जिसने आगे चल कर गृहयुद्ध को जन्म दिया रूसी गृहयुद्ध के समय ही एक बागी आंदोलन जिसे ब्लैक आर्मी नाम दिया गया जो आगे चल कर "यूक्रेन के क्रांतिकारी विद्रोही सेना" कहलाई, जिसका नेतृत्व नेस्टर मखनो कर रहे थे[4] जो की यूक्रेनी क्रांति के दौरान 1918 से 1921 तक स्वशासित राज्य के निर्माड़ के लिए, ट्रोट्स्की के सफ़ेद सेना से, देनीकिन के नेतृत्व में जबकि तसर्रिस्ट के नेतृत्व में लाल सेना से लड़ते रहे हालकि इनका प्रयास अगस्त 1921 में उत्तरार्द्ध में ख़तम हो चूका था। पोलैंड ने पोलिश-यूक्रेनी युद्ध में पश्चिमी यूक्रेन को हराया, लेकिन कीव में बोल्शेविक के खिलाफ विफल रहे। रीगा की शांति के अनुसार, पश्चिमी यूक्रेन को पोलैंड में सम्मलित कर लिया गया, जिसे मार्च 1919 में यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत सत्ता की स्थापना के साथ ही, यूक्रेन के आधे क्षेत्र, में पोलैंड, बेलारूस और रूस का अधिकार हो गया, जबकि दनिएस्टर नदी के बाएं किनारे पर मोलदावियन स्वायत्तता राष्ट्र का निर्माड़ हो गया। यूक्रेन दिसंबर 1922 में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ के एक संस्थापक सदस्य बन गया।[5] द्वितीय विश्व युद्ध सितंबर 1939 में पोलैंड पर आक्रमण के बाद, जर्मन और सोवियत सेना ने पोलैंड के क्षेत्र को आपस में बाट लिया। इस प्रकार, यूक्रेनी जनसंख्या बहुल पूर्वी गालिसिया और वोल्होनिया क्षेत्र फिर से यूक्रेन के बाकी हिस्सों के साथ जुड़ गया। और इतिहास में पहली बार, यह राष्ट्र एकजुट हुआ था।[6][7] 1940 में, सोवियत संघ ने बेस्सारबिया और उत्तरी बुकोविना पर अपना कब्ज़ा किया। यूक्रेनी एसएसआर ने बेस्सारबिया के उत्तरी और दक्षिणी जिलों, उत्तरी बुकोविना और हर्त्सा क्षेत्र को अपने में शामिल तो कर किया, लेकिन मोल्डावियन स्वायत्त सोवियत समाजवादी गणराज्य के पश्चिमी भाग को नव निर्मित मोल्डावियन सोवियत समाजवादी गणराज्य को सौंप दिया। यूएसएसआर को उसके विजित इन क्षेत्रो पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1947 के पेरिस शांति संधियों द्वारा मान्यता दिया गया। 22 जून 1941 को जर्मन सेना ने सोवियत संघ पर हमला किया, और करीब चार वर्ष के युद्ध की शुरुआत हो गई। शुरूआत में धुरी राष्ट्र ने बढ़त बनाई पर लाल सेना ने उन्हें रोक दिया। कीव के युद्ध में, इसके भयंकर प्रतिरोध के कारण, शहर को "हीरो शहर" के रूप में प्रशंसित किया गया। 600,000 से ज्यादा सोवियत सैनिक (या सोवियत की पश्चिमी मोर्चा का एक चौथाई) मारे गए या बंदी बना लिया गए।[8][9] यद्यपि अधिकांश यूक्रेनियन, लाल सेना और सोवियत प्रतिरोध के साथ-साथ में लड़े,[10] पश्चिमी यूक्रेन में एक स्वतंत्र यूक्रेनी विद्रोही सेना आंदोलन (यूपीए, 1942) आगे आया। कुछ यूपीए प्रभागों ने स्थानीय पोल्स जातीय का नरसंहार भी किया, जिससे प्रतिहिंसा का माहौल खड़ा हो गया। युद्ध के बाद भी, यूपीए 1950 के दशक तक यूएसएसआर से लड़ते रहा। इसी समय, यूक्रेनी लिबरेशन आर्मी, एक और राष्ट्रवादी आंदोलन सेना, नाजियों के के साथ-साथ लड़ती रही। सोवियत सेना के लिए लड़ते यूक्रेनियनों की संख्या, 4.5 मिलियन से 7 मिलियन के करीब थी।[10] [11] यूक्रेन में प्रो-सोवियत कट्टरपंथी गोरिल्ला प्रतिरोध की संख्या 47,800 अपने अधिग्रहण के शूरूआत में से लेकर 1944 में अपने चरम पर 500,000 तक होने का अनुमान है। जिनमे लगभग 50% संख्या स्थानीय यूक्रेनियन की थी। आम तौर पर, यूक्रेनी विद्रोही सेना के आंकड़े अविश्वसनीय होते हैं, पर इनकी संख्या 15,000 से लेकर 100,000 सैनिकों तक के बीच रही होगी।[12][13] यूक्रेनी एसएसआर में अधिकांश भर्ती, यूक्रेन (Reichskommissariat) के भीतर से ही की गई थी, ताकि इसके संसाधनों और जर्मन आबादी का उपयोग (शोषण) किया जा सके। कुछ पश्चिमी यूक्रेनियन द्वारा, जो 1939 में ही सोवियत संघ में शामिल हुए थे, जर्मनी का मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया गया। हलाकि क्रूर जर्मन शासन ने अंततः अपने ही समर्थकों को खिलाफत की ओर मोड़ दिया, जिन्होंने कभी स्टालिनिस्ट नीतियों के खिलाफ खड़े होकर इनका साथ दिया था।.[14] नाजियों ने सामूहिक खेत व्यवस्था को संरक्षित रखने के बजाय, यहूदियों के खिलाफ नरसंहार चालू कर दिया,यहाँ से जर्मनी में काम करने के लिए लाखों लोगों को भेज गया, और जर्मन उपनिवेशण के लिए एक वंशानुक्रम कार्यक्रम शुरू किया गया उन्होंने कीव नदी पर भोजन के परिवहन को अवरुद्ध कर दिया।[15] द्वितीय विश्व युद्ध की अधिकतर लड़ाई पूर्वी मोर्चो पर हुई। कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग 93% जर्मन की जनहानि यहाँ हुई थी।[16] युद्ध के दौरान यूक्रेनी आबादी का कुल नुकसान का अनुमान 5 से 8 मिलियन के बीच था,[17][18] जिनमे नाजियों द्वारा मारे गए, लगभग डेढ़ लाख यहूदि भी शामिल थे।[19] अनुमानित 8.7 मिलियन सोवियत सैनिकों जोकि नाजियों के खिलाफ लड़ाई में उतरे थे,[20][21][22] में 1.4 मिलियन स्थानीय यूक्रेनियन थे। विजय दिवस, दस यूक्रेनी राष्ट्रीय छुट्टियों में से एक के रूप में मनाया जाता है।[23] द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूक्रेन को युद्ध से भारी क्षति हुई थी, और इसे पुनर्वास के लिए अधिक प्रयासों की आवश्यकता थी। 700 से अधिक शहरों और कस्बे और 28,000 से अधिक गांव नष्ट हो चुके थे।[24] 1946-47 में आये सूखे और युद्धकाल में नष्ट हुए बुनियादी सुविधाओं के कारण आये अकाल से स्थिति और बिगड़ गई। अकाल से हुए मौत की संख्या लाखो में थी।[25][26][27] 1945 में, यूक्रेनी एसएसआर संयुक्त राष्ट्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक था।[28] युद्ध के बाद के नए विस्तारित सोवियत संघ में जाति संहार को बढ़ावा मिला। 1 जनवरी 1953 तक, 20% से अधिक वयस्कों के "विशेष निर्वासन" में रूस के बाद यूक्रेनियन का ही स्थान था।[29] इसके अलावा, यूक्रेन के 450,000 से अधिक जर्मन मूल और 200,000 से अधिक क्रीमिया तातारों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया।[29] 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद, निकिता ख्रुश्चेव सोवियत संघ के नए नेता बने। 1938-49 में यूक्रेनी एसएसआर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख सचिव रह चुके ख्रुश्चेव यहाँ के गणराज्य से भली-भांति परिचित थे; संघ के नेता बनते ही, उन्होंने यूक्रेनी और रूसी राष्ट्रों के बीच दोस्ती को बढ़ावा दिया। 1954 में, पेरेसास्लाव की संधि की 300 वीं वर्षगांठ को व्यापक रूप से मनाया गया। क्रीमिया को रूसी एसएफएसआर से यूक्रेनी एसएसआर को स्थानांतरित कर दिया गया।[30] 1950 तक, यूक्रेन ने उद्योग और उत्पादन में युद्ध के पूर्व के स्तर को पार कर लिया।[31] 1946-1950 की पंचवर्षीय योजना के दौरान, सोवियत बजट का लगभग 20%, सोवियत यूक्रेन में निवेश किया गया था, जोकि युद्ध-पूर्व योजना से 5% अधिक था। नतीजतन, यूक्रेनी जनबल 1940 से 1955 तक 33.2% बढ़ गया, जबकि इसी अवधि में औद्योगिक उत्पादन में 2.2 गुना की वृद्धि हुई। सोवियत यूक्रेन जल्द ही औद्योगिक उत्पादन में यूरोप को पीछे छोड़ दिया[32], और साथ ही सोवियत में हथियार उद्योग और उच्च तकनीक अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस तरह की एक महत्वपूर्ण भूमिका के परिणामस्वरूप स्थानीय अभिजात वर्ग को एक बड़ा प्रभाव हासिल हो गया। सोवियत नेतृत्व के कई सदस्य यूक्रेन से आए, जिसमे सबसे खास तौर पर लियोनिद ब्रेझ़नेव थे। बाद में जिन्होंने ख्रुश्चेव को हटा कर 1964 से 1982 तक सोवियत नेता बन रहे। कई प्रमुख सोवियत खिलाड़ी, वैज्ञानिक और कलाकार यूक्रेन से आए थे। 26 अप्रैल 1986 को, चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र के एक रिएक्टर में विस्फोट हुआ, परिणामस्वरूप चेर्नोबिल दुर्घटना, इतिहास का सबसे खराब परमाणु रिएक्टर दुर्घटना मन जाता हैं।[33] दुर्घटना के समय, 7 मिलियन लोग उस क्षेत्रों में रहते थे, जिसमें यूक्रेन के 2.2 मिलियन लोग शामिल थे।[34] दुर्घटना के बाद, एक नया शहर स्लावुतच, प्रदूषित क्षेत्र के बाहर बनाया गया और संयंत्र के कर्मचारियों का वह बसाया गया, जिसे आगे चल कर सन 2000 में सेवा मुक्त कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक रिपोर्ट के अनुसार 56 मौते प्रत्यक्ष से दुर्घटना के समय हुई, तथा आगे चल कर 4,000 अतिरिक्त मृत्यु कैंसर के कारण हुई।[35] स्वतंत्रता २०१४ की क्राँति एवं रूस का सैन्य दखल नवंबर २०१२ में यूरोपीय संघ के साथ अंतिम समय में एक व्यापारिक समझौता रद्द कर रूस के साथ जाने पर के बाद यूक्रेन की राजधानी कीव में सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हो गए। लाखों लोगों ने इंडिपेंडेंट स्क्वेयर पर प्रदर्शन किया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प हुई जिसमें 70 से अधिक मारे गए और लगभग 500 घायल हो गए।[36] 23 फ़रवरी 2014 को यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के ऊपर महाभियोग लगाए जाने के बाद यूक्रेन की संसद ने स्पीकर ओलेक्जेंडर तुर्चिनोव को अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के कार्यो की जिम्मेदारी सौंप दी।[37][38] यानुकोविच देश छोड़कर भाग गए। 26 फ़रवरी 2014 को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी बिल्डिंगो पर को कब्जा कर लिया।[36] रूसी सैनिकों ने क्रीमिया के हवाई अड्डों, एक बंदरगाह और सैन्य अड्डे पर भी कब्जा कर लिया जिससे रूस और यूक्रेन के बीच आमने-सामने की जंग जैसे हालात बन गए।[39] २ मार्च को रूस की संसद ने भी राष्ट्रपति पुतिन के यूक्रेन में रूसी सेना भेजने के निर्णया का अनुमोदन कर दिया।[40] दुनिया भर में इस संकट से चिंता छा गई और कई देशों के राजनयिक अमले हरकत में आ गए। यही नहीं, 3 मार्च को दुनिया भर के शेयर बाजार गिर गए। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के कदम को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया।[41] उन्होंने फोन पर रूसी राष्ट्रपति से डेढ़ घंटा बात की।[42]। 4 मार्च को रूस के राष्ट्रपति ने सेनाएँ वापिस बुलाने की घोषणा कर दी।[43] भूगोल 603,628 वर्ग किलोमीटर (233,062 वर्ग मील) के क्षेत्रफल और 2782 किलोमीटर (1729 मील) लम्बी तटरेखा के साथ, यूक्रेन दुनिया का 46वां सबसे बड़ा देश है (मेडागास्कर से पहले, दक्षिण सूडान के बाद)। यह पूर्णतः यूरोपियाई सीमा के अंदर आने वाला सबसे बड़ा देश है एवं यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। [44] सूर्यास्त में क्रीमिया के काला सागर तट पर लैस्पि की खाड़ी समुद्र के स्तर से 1200 मीटर ऊपर स्थित ऐ-पेट्री की चोटी ग्रेट व्हाइट पेलिकन डेन्यूब यूक्रेन के कृषिक्षेत्र एक परिदृश्य, ख़ेर्सोन ओब्लास्त क्रीमिया के काला सागर तट पर कोक्टेबल के पास त्यखाया खाड़ी का दृश्य Kinburn sandbar, Ochakiv Raion, Mykolaiv Oblast बालखोवइतिन, ज़ुईव्सकई क्षेत्रीय परिदृश्य पार्क, दोनेत्स्क ओब्लास्ट मिट्टी उत्तर-पश्चिम से दक्षिण तक यूक्रेन की मिट्टी तीन प्रमुख भागो में विभाजित किया जा सकता है: बलुआ पॉडजॉलीज़ेड मिट्टी क्षेत्र, अत्यंत उपजाऊ काली मिटटी(Chernozem) का मध्यक्षेत्र, तथा भूरा और लवणता उक्त मिट्टी के क्षेत्र।[45] इनमे से सबसे प्रमुख काली मिटटी हैं जोकि यूक्रेन के दो तिहाई हिस्सो में पाई जाती हैं। यह अत्यंत ही उपजाऊ मिटटी होती है इसे दुनिया कि सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक माना जाता हैं और "पाव का टोकरी" के नाम से प्रसिद्ध हैं।[46] जैव विविधता यूक्रेन जानवरों, कवक, सूक्ष्मजीवों और पौधों की विभिन्नतओ का घर है। जीव-जंतु यूक्रेन का प्राणि क्षेत्र दो भागो में बता हुआ हैं पहला पश्चिमी क्षेत्र जहा यूरोप कि सीमा स्थित हैं यहाँ मिश्रित वनों की विशिष्ट प्रजातियों देखने को मिलती हैं और दूसरा पूर्वी यूक्रेन की ओर का क्षेत्र हैं जहां मैदान में रहने वाली प्रजातियों पनपती हैं देश के वन क्षेत्रों में जंगली बिल्ली, भेड़िये, जंगली सूअर और नेवला मुख्य रूप से पाए जाते है इनके अलावा यह अन्य की प्रकार के जीव पाया जाते हैं, वही कार्पेथियन पहाड़ियां जोकि कई स्तनधारियों का घर हैं जिनमे भूरे भालू, ऊदबिलाव तथा मिंक प्रमुख हैं कवक कवक की 6,600 से अधिक ज्ञात प्रजातियों को यूक्रेन में दर्ज किया गया है, लेकिन अभी कई संख्या में अज्ञात प्रजातिया भी है। जलवायु यूक्रेन में ज्यादातर समशीतोष्ण जलवायु रहती है, इसके अपवाद क्रिमीआ के दक्षिणी तट हैं जहाँ उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है।[47] यहाँ की जलवायु अटलांटिक महासागर से आने वाली मामूली गर्म तथा नम हवा से प्रभावित होती है। औसत वार्षिक तापमान 7 °C (41.9–44.6 °F) उत्तर की ओर, से लेकर 11–13 °C (51.8–55.4 °F)दक्षिण में रहती हैं।[48] वर्षण (बूंदा बांदी, बारिश, ओले के साथ वर्षा, बर्फ, कच्चा ओला और ओलों इत्यादि) का वितरण भी असमान्य है; यह पश्चिम और उत्तर में सबसे अधिक जबकि पूर्व और दक्षिण पूर्व में सबसे कम है। पश्चिमी यूक्रेन में, विशेष रूप कार्पथियान पहाड़ों में वर्षा 1,200 मिलीमीटर (47.2 में) के आसपास प्रतिवर्ष होता है जबकि क्रिमीआ और काला सागर के तटीय क्षेत्रों के आसपास 400 मिलीमीटर होती है। राजनीति यूक्रेन एक गणराज्य है जिसमे अलग विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के साथ एक मिश्रित अर्द्ध संसदीय, अर्द्ध राष्ट्रपति प्रणाली लागु हैं। शासन प्रणाली 24 अगस्त 1991 में अपनी स्वतंत्रता के साथ ही यूक्रेन ने 28 जून 1996 को संविधान लागु कर अर्द्ध-राष्ट्रपति गणतंत्र की पद्धति अपना ली, हलाकि 2004 में इसमें कई संशोधन किये गए जिससे इसका झुकाओ संसदीय प्रणाली की और बढ़ गया, हलाकि इसका विरोध सारे देश में किया गया और अंत में यूक्रेनी कोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को सारे संविधान में किये गए संशोधनों को ख़ारिज कर पुनः 1996 वाले संविधान को लागु कर दिया 2004 का संवैधानिक संशोधन तथा 2010 पर कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक बहस का एक प्रमुख विषय बन गया कि न तो 1996 के संविधान और न ही 2004 के संविधान, "संविधान पूर्ववत करें" करने की क्षमता प्रदान करता हैं, 21 फरवरी 2014 को राष्ट्रपति विक्टर यानुकोवायच और विपक्षी नेताओं के बीच पुनः 2004 के संविधान की वापसी के लिये एक समझौता हुआ। यह समझौता यूरोपीय संघ की मध्यस्थता के बाद हुआ, जिसके बाद सारे देश में विरोध पनपने लगा। नवम्बर 2013 में शुरू हुआ हिंसक झड़प एक सप्ताह तक चला जिसमें कई प्रदर्शनकारी मारे गए। इस सौदे में 2004 के संविधान में देश के लौटने , गठबंधन सरकार का गठन , जल्दी चुनाव का आवाहन तथा जेल से पूर्व प्रधानमंत्री यूलिया Tymoshenko की रिहाई भी शामिल थी। समझौते के एक दिन बाद, यूक्रेन की संसद ने समझौता खारिज कर दिया और अपनी वक्ता ऑलेक्ज़ेंडर Turchynov को अंतरिम राष्ट्रपति और Arseniy Yatsenyuk को यूक्रेन के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया। विदेश संबंध प्रशासनिक विभाग सेना सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन को अपने विरासत में 780,000 सैन्य बल, के साथ दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी परमाणु हथियार शस्त्रागार मिला है। मई 1992 में, यूक्रेन ने लिस्बन में अपने सभी परमाणु हथियारों को नष्ट करने हेतु रूस को सौपने और परमाणु अप्रसार संधि पर एक गैर परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में शामिल होने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। यूक्रेन ने 1994 में संधि की पुष्टि की, और 1996 तक देश में उपस्थित सभी परमाणु हथियारों से मुक्त हो गया।[49] यूक्रेन, वर्तमान में अनिवार्य भरती आधारित सैन्य को एक पेशेवर स्वयंसेवक सेना में के रूप में परिवर्तित करने के लिए योजना बना रही है।[50] यूक्रेन शांति अभियानों में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है। यूक्रेनी सैनिक, यूक्रेनी-पोलिश बटालियन के रूप में कोसोवो में तैनात किए गए हैं।[51]एक यूक्रेनी सैनिक टुकड़ी को लेबनान में "अनिवार्य संघर्ष विराम समझौते" को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतरिम सेना के भूमिका के रूप में तैनात किया गया था। 2003-05 में, यूक्रेनी की सैनिक इकाई को पोलिश नियंत्रण में इराक में बहुराष्ट्रीय बल के रूप में तैनात किया गया था। अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही, यूक्रेन अपने आप को एक तटस्थ राष्ट्र घोषित करता रहा हैं। 1994 तक देश की रूस, नाटो, और अन्य सीआईएस देशों के साथ सीमित सैन्य साझेदारी है। 2000 के दशक में यूक्रेन सरकार का नाटो की ओर झुकाव बढ़ गया और 2002 में आपस में प्रगण सहयोग स्थापित करने हेतु नाटो-यूक्रेन कार्य योजना पर हस्ताक्षर किए गए। अभी तक रूस के दवाब के कारण यूक्रेन के नाटो में जुड़ने के आसार काम ही दिखाई देते रहे हैं। हलाकि 2008 बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन के दौरान नाटो ने घोषणा की कि यूक्रेन, जब परिग्रहण के लिए सभी मानदंडों को पूरा कर लेगा, वह अंततः नाटो का सदस्य बन जाएगा।[52] अर्थव्यवस्था निगमों परिवहन ऊर्जा इंटरनेट यूक्रेन इंटरनेट के क्षेत्र में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है जोकि 2007-08 के वित्तीय संकट से अप्रभावित रहा है। जून, 2014 तक, वहाँ 18.2 करोड़ डेस्कटॉप इंटरनेट उपयोगकर्ताओं थे, जोकि कुल वयस्क आबादी का 56% है. इस क्षेत्र का केंद्र-बिंदु, 25 से 34 वर्षीय आयु वर्ग,की और हैं जोकि जनसंख्या का 29% प्रतिनिधित्व करता है।[53] दुनिया के सबसे तेजी से इंटरनेट का उपयोग करने वाले शीर्ष दस देशों के बीच, यूक्रेन 8 वें स्थान पर है।[54] पर्यटन यूक्रेन, विश्व पर्यटन संगठन श्रेणी के अनुसार आने वाले पर्यटकों की संख्या से यूरोप में 8 वें स्थान पर है,[55] क्योंकि यहाँ कई पर्यटकों के आकर्षणो का केंद्र हैं: पहाड़ स्कीइंग, लंबी पैदल यात्रा और मछली पकड़ने के लिए शैलानी यहाँ बड़ी मात्रा में आते हैं काला सागर का तट गर्मियों में गंतव्य के रूप में लोकप्रिय हैं ; विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति भंडार; चर्चों, महल खंडहरो, पार्क स्थलों तथा विभिन्न आउटडोर गतिविधि के लिए प्रशिद्ध हैं अपनी कई ऐतिहासिक स्थलों तथा आतिथ्य बुनियादी सुविधाओं के साथ कीव, लविवि , ओडेसा और कम्यानेट्स-पोडिलसकइ यूक्रेन के प्रमुख पर्यटन केंद्रों में से एक हैं। क्रीमिया की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन हुआ करता था लेकिन 2014 में रूसी विलय के बाद आगंतुक संख्या में एक बड़ी गिरावट आई है।[56] जनसांख्यिकी जनसंख्या में गिरावट शहरीकरण यूक्रेन में कुल 457 शहर हैं, जिनमे से १७६ ओब्लास्ट वर्ग, 279 छोटे रायोन-स्तरीय शहरों, और दो शहर विशेष कानूनी दर्ज है। 'यूक्रेन में सबसे बड़े शहर या कस्बे' भाषा धर्म स्वास्थ्य शिक्षा संस्कृति यूक्रेन रूढ़िवादी ईसाई धर्म, को की देश में प्रमुख धर्म हैं से बहुत प्रभावित हैं। यूक्रेन की संस्कृति अपने पूर्वी और पश्चिमी पड़ोसी देशो से भी बहुत प्रभावित है इसका उदाहरण वहा की स्थापत्य कला, संगीत और कला में देखने को मिल सकता हैं। कम्युनिस्ट युग का यूक्रेन के कला और लेखन पर काफी गहरा प्रभाव रहा हैं। 1932 में स्टालिन ने सोवियत संघ में समाजवादी यथार्थवाद राज्यनीति का गठन किया जिसने वहा के रचनात्मकता पर बुरा असर डाला। 1980 के दशक glasnost (खुलापन) पेश किया गया और सोवियत कलाकार और लेखक फिर से खुद को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो गए। ईस्टर एग की परंपरा, जो की वहा pysanky के रूप में जाना जाता हैं, यूक्रेन की जड़ों में बसा हुआ है। यहाँ पर रंग-बिरंगे ईस्टर एग बनाये जाते हैं जोकि वहा के पारंपरिक विरासत हैं बुनाई और कढ़ाई दस्तकार वस्त्र कला, यूक्रेनी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं विशेषकर यूक्रेनी शादी की परंपराओं में। यूक्रेनी कढ़ाई, बुनाई और फीता बनाने पारंपरिक कला वहा के लोक पोशाक और पारंपरिक समारोह में देखा जा सकता है। राष्ट्रीय पोशाक बुना जाता है और इसे अत्यधिक सजाया जाता हैं। हस्तनिर्मित करघे के साथ बुनाई अभी भी Krupove गांव, जोकि Rivne Oblast में स्थित हैं प्रचलित है। यह गांव राष्ट्रीय शिल्प निर्माण के दो मशहूर हस्तियों का जन्मस्थान है। नीना Myhailivna और Uliana Petrivna, जिनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हैं। इस पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के लिए गांव में एक स्थानीय बुनाई केंद्र, एक संग्रहालय तथा बुनाई स्कूल खोलने की योजना बनाई जा रही है। साहित्य यूक्रेनी साहित्य का इतिहास 11 वीं सदी से है, उस समय के लेखन मुख्य रूप से पूजन पद्धति संबंधी थे तथा पुराने चर्च स्लावोनिक भाषा में लिखा गया था। साहित्यिक गतिविधि को मंगोल आक्रमण के दौरान अचानक गिरावट का सामना करना पड़ा। यूक्रेनी साहित्य फिर से 14 वीं सदी में विकसित होना शुरू किया और 16 वीं सदी छाप की शुरूआत के बाद , Cossack युग की शुरुआत के साथ में काफी फला-फूला, वहा की कला में रूसी और पोलिश कलाओ का प्रभुत्व दिखा। यह उन्नति 17वीं और 18वीं शताब्दी में वापस स्थगित हो गए, जब यूक्रेनी भाषा में प्रकाशित करने को गैरकानूनी और निषिद्ध कर दिया गया। बहरहाल, 18वीं सदी में आधुनिक साहित्यिक यूक्रेनी फिर से उभर कर सामने आया। वास्तुकला संगीत और सिनेमा संगीत एक लंबे इतिहास के साथ यूक्रेनी संस्कृति का एक प्रमुख हिस्सा है। पारंपरिक लोक संगीत से, पारंपरिक और आधुनिक रॉक संगीत तक, यूक्रेन कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त संगीतकारों का घर है। जिनमे किरिल कराबिट्स, ओकेयन एलजी और रुस्लाना शामिल हैं। पारंपरिक यूक्रेनी लोक संगीत के धुन ने पश्चिमी संगीत और आधुनिक जैज़ संगीत को भी प्रभावित किया हैं। 1960 के दशक के मध्य से, पश्चिमी-प्रभावित पॉप संगीत की लोकप्रियता यूक्रेन में बढ़ रही है। लोक गायक और हार्मोनियम वादक मारियाना सदोवस्का प्रमुख कलाकार हैं। यूक्रेन का यूरोपीय सिनेमा पर भी प्रभाव है यूक्रेनी निर्देशक अलेक्जेंडर दोवजहेंको, अक्सर महत्वपूर्ण सोवियत फिल्म निर्माताओं में याद किये जाते है। उन्होंने अपनी खुद की सिनेमाई शैली का आविष्कार किया, यूक्रेनी काव्य सिनेमा, जोकि उस समय के समाजवादी मार्गदर्शक सिद्धांतों से एकदम अलग थे। महत्वपूर्ण और सफल प्रस्तुतियों के बावजूद, यहाँ के फिल्म उद्योग में यूरोपीय और रूसी प्रभाव को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। यूक्रेनी निर्माता, अंतरराष्ट्रीय सह-निर्माण में सक्रिय हैं और यूक्रेनी अभिनेता, निर्देशक और चालक दल नियमित रूप से रूसी (पूर्व में सोवियत) फिल्मों में दिखाई देते रहते हैं। पत्रकारिता खेल यूक्रेन को सोवियत के शारीरिक शिक्षा पर जोर से काफी लाभ हुआ। इस तरह की नीतियों से यहाँ कई स्टेडियम, स्विमिंग पूल, जिम्नॅशिअम और कई अन्य पुष्ट सुविधाएं विरासत में यूक्रेन को मिले। यहाँ का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल है। यहाँ के शीर्ष पेशेवर लीग में Vyscha LIHA ( "प्रीमियर लीग") का नाम है। कई यूक्रेनियन्स ने सोवियत राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लिए भी खेला हैं यहाँ की राष्ट्रीय टीम 2006 के फीफा विश्व कप में क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे, और अंततः चैंपियन इटली से हार का सामना करना पड़ा यूक्रेनियन का मुक्केबाजी में भी अच्छा प्रदर्शन रहा हैं जिनमे Vitali और Wladimir क्लिट्सचको भाइयों को विश्व हैवीवेट चैंपियन का दर्ज हासिल है। शतरंज यूक्रेन में एक लोकप्रिय खेल है। यहाँ के Ruslan Ponomariov पूर्व विश्व चैंपियन रह चुके है। यहाँ यूक्रेन में 85 ग्रैंडमास्टर तथा 198 अंतर्राष्ट्रीय मास्टर्स हैं। यूक्रेन 1994 के शीतकालीन ओलंपिक में अपने ओलंपिक करियर की शुरुआत की। अब तक ओलंपिक में यूक्रेन शीतकालीन ओलंपिक की तुलना में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक (पांच मैचों में 115 पदक) में बहुत अधिक सफल रहा है। यूक्रेन वर्तमान में स्वर्ण पदकों की संख्या से 35 वें स्थान पर है। भोजन परंपरागत यूक्रेनी आहार में मुर्गी-सुअर का मांस, मांस, मछली और मशरूम शामिल है। यहाँ आलू, अनाज, ताजा, उबला हुआ या मसालेदार सब्जिया भी बहुत खाये जाते हैं। यहाँ का लोकप्रिय पारंपरिक व्यंजन, Varenyky (मशरूम, आलू, गोभी, पनीर, चेरी के साथ उबला हुआ पकौड़ी), nalysnyky (पनीर, खसखस, मशरूम, मछली के अंडे या मांस के साथ पेनकेक्स),और Pierogi (उबला हुआ आलू और पनीर या मांस के साथ भरा पकौड़ी) शामिल हैं। यूक्रेनी व्यंजन में चिकन कीव और कीव केक भी शामिल हैं। यूक्रेनियन पेय पदार्थो में फल जूस, दूध, छाछ, चाय और कॉफी, बीयर, वाइन और horilka शामिल हैं। Pierogi Borscht Paska टिप्पणी अ. रूस और कजाखस्तान पहले और दूसरे सबसे बड़े देश हैं लेकिन दोनों यूरोपीय और एशियाई महाद्वीपों में फैले हैं। रूस यूक्रेन से अधिक यूरोपियाई क्षेत्रफल रखने वाला एकमात्र देश है। सन्दर्भ श्रेणी:युक्रेन श्रेणी:यूरोप के देश
युक्रेन का क्षेत्रफल कितना है?
603,628 वर्ग किलोमीटर
11,823
hindi
5aeacd81a
एक सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट (सीपीयू ) बुनियादी गणित, तार्किक , नियंत्रण और इनपुट / आउटपुट ( आई / ओ) के संचालन के निर्देश के द्वारा निर्दिष्ट प्रदर्शन से एक कंप्यूटर प्रोग्राम के निर्देशों से बाहर किया जाता है कि एक कंप्यूटर के भीतर इलेक्ट्रॉनिक विद्युत्-परिपथ तंत्र है। अवधि कम से कम १९६० के दशक के बाद से कंप्यूटर उद्योग में इस्तेमाल किया गया है। परंपरागत रूप से, शब्द " सीपीयू " एक प्रोसेसर के लिए , और अधिक विशेष रूप से अपने प्रसंस्करण इकाई और नियंत्रण इकाई (मुद्रा) को संदर्भित करता है, इस तरह के मुख्य स्मृति और मैं / हे विद्युत्-परिपथ तंत्र के रूप में बाह्य घटकों से एक कंप्यूटर के इन मूल तत्वों भेद| रूप, डिज़ाइन और सीपीयू के कार्यान्वयन के अपने इतिहास के पाठ्यक्रम में बदल गया है , लेकिन उनके मौलिक ऑपरेशन लगभग अपरिवर्तित बनी हुई है। एक सीपीयू के प्रमुख घटक अंकगणितीय तर्क इकाई (ALU) कि गणित और तर्क संचालन करता है शामिल हैं , प्रोसेसर रजिस्टरों कि ALU के लिए आपूर्ति ऑपरेंड और ALU आपरेशन के परिणामों , और एक नियंत्रण इकाई है कि स्मृति से निर्देश मिलता है और " कार्यान्वित " उन्हें स्टोर ALU, रजिस्टरों और अन्य घटकों के समन्वित संचालन निर्देशन द्वारा। अधिकांश आधुनिक सीपीयू माइक्रोप्रोसेसरों हैं, जिसका अर्थ है कि वे एक एकल एकीकृत परिपथ (आईसी) चिप पर समाहित कर रहे हैं। एक आईसी कि एक सीपीयू भी स्मृति, परिधीय इंटरफेस है, और एक कंप्यूटर के अन्य घटकों को शामिल कर सकते हैं शामिल हैं, इस तरह के एकीकृत उपकरणों विभिन्न एक चिप (समाज) पर माइक्रोकंट्रोलर या सिस्टम कहा जाता है। कुछ कंप्यूटर एक मल्टी कोर प्रोसेसर है, जो दो या अधिक सीपीयू "कोर " कहा जाता है , जिसमें एक चिप है रोजगार ; इस संदर्भ में , एकल चिप्स कभी कभी "कुर्सियां ​​" के रूप में करने के लिए भेजा जाता है। ऐरे प्रोसेसर या वेक्टर प्रोसेसर एकाधिक प्रोसेसर है कि कोई इकाई केंद्रीय माना के साथ समानांतर में काम करते हैं, लोगों की है। इतिहास इस तरह ENIAC के रूप में कंप्यूटर शारीरिक रूप से विभिन्न कार्यों , जिसके कारण इन मशीनों "तय कार्यक्रम कंप्यूटर" के नाम से जाना प्रदर्शन करने के लिए बिजली के नये तार लगाना किया जाना था। चूंकि शब्द " सीपीयू " आम तौर पर सॉफ्टवेयर ( कंप्यूटर प्रोग्राम ) के निष्पादन के लिए एक उपकरण के रूप में परिभाषित किया गया है , जल्द से जल्द उपकरणों है कि ठीक ही सीपीयू कहा जा सकता है संग्रहित -प्रोग्राम कंप्यूटर के आगमन के साथ आया था। एक संग्रहीत -प्रोग्राम कंप्यूटर के विचार पहले से ही जे प्रेस्पर एकर्ट और जॉन विलियम मौछ्ल्य् के ENIAC के डिजाइन में मौजूद था , लेकिन शुरू में छोड़ा गया था इतना है कि यह जल्दी ही समाप्त हो सकता है। ३० जून , १९४५ को, पहले ENIAC बनाया गया था, गणितज्ञ जॉन वॉन नुमन्न् कागज एडवैक पर एक रिपोर्ट का पहला मसौदा हकदार वितरित की। यह एक संग्रहीत -प्रोग्राम कंप्यूटर की रूपरेखा है कि अंततः अगस्त १९४९ में पूरा कर लिया जाएगा था। एडवैक निर्देश (या संचालन) विभिन्न प्रकार की एक निश्चित संख्या में प्रदर्शन करने के लिए डिजाइन किया गया था। गौरतलब है कि एडवैक के लिए लिखा कार्यक्रमों के बजाय उच्च गति कंप्यूटर स्मृति में संग्रहीत करने के लिए कंप्यूटर के भौतिक तारों द्वारा निर्दिष्ट किया गया। इस ENIAC की एक गंभीर सीमा है, जो काफी समय और प्रयास एक नए कार्य को करने के लिए कंप्यूटर फिर विन्यस्त करें करने के लिए आवश्यक था पर काबू पाने। वॉन न्यूमैन के डिजाइन के साथ, प्रोग्राम है कि एडवैक दौड़ा स्मृति की सामग्री को बदल कर बस को बदला जा सकता है। एडवैक , हालांकि, पहले संग्रहीत -प्रोग्राम कंप्यूटर नहीं था; मैनचेस्टर छोटे पैमाने पर प्रायोगिक मशीन , एक छोटे से प्रोटोटाइप संग्रहीत -प्रोग्राम कंप्यूटर जून १९४८ को २१ इसके पहले कार्यक्रम में भाग गया और मैनचेस्टर मार्क १ १६-१७ की रात के दौरान अपनी पहली कार्यक्रम में भाग गया जून १९४९| प्रारंभिक सीपीयू एक बड़ा और कभी कभी विशिष्ट कंप्यूटर के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया कस्टम डिजाइन थे। हालांकि, एक विशेष आवेदन के लिए कस्टम सीपीयू डिजाइनिंग की इस पद्धति काफी हद तक बड़ी मात्रा में उत्पादन बहुउद्देश्यीय प्रोसेसर के विकास के लिए रास्ता दिया है। इस मानकीकरण असतत ट्रांजिस्टर अधिसंसाधित्र और अधिग्रहण के युग में शुरू हुआ और तेजी से एकीकृत सर्किट (आईसी) को लोकप्रिय बनाने के साथ तेजी आई है। आईसी अनुमति दी गई है तेजी से जटिल सीपीयू नैनोमीटर के आदेश पर बनाया गया है और निर्मित किया जा करने के लिए सहनशीलता करने के लिए। दोनों लघुरूपण और सीपीयू के मानकीकरण दूर समर्पित कंप्यूटिंग मशीनों की सीमित आवेदन परे आधुनिक जीवन में डिजिटल उपकरणों की उपस्थिति में वृद्धि हुई है। आधुनिक माइक्रोप्रोसेसरों इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ऑटोमोबाइल से सेलफोन के लिए और कभी कभी भी खिलौनों में लेकर में दिखाई देते हैं। वॉन नुमन्न् सबसे अधिक बार क्योंकि एडवैक के अपने डिजाइन की संग्रहीत -प्रोग्राम कंप्यूटर के डिजाइन के साथ श्रेय दिया जाता है , और डिजाइन वॉन नुमन्न् वास्तुकला के रूप में जाना गया है, जबकि उसे पहले दूसरों , ऐसे कोन्रद ज़ुसे के रूप में सुझाव दिया है और इसी तरह के विचारों को लागू किया था। हार्वर्ड मार्क मैं , जो एडवैक से पहले पूरा कर लिया गया की तथाकथित हार्वर्ड वास्तुकला,भी इलेक्ट्रॉनिक स्मृति छिद्रित कागज टेप के बजाय का उपयोग कर एक संग्रहीत - प्रोग्राम डिजाइन का उपयोग किया। वॉन नुमन्न् और हार्वर्ड आर्किटेक्चर के बीच मुख्य अंतर यह है कि बाद पूर्व दोनों के लिए एक ही स्मृति अंतरिक्ष का उपयोग करता है, जबकि , भंडारण और सीपीयू निर्देश और डेटा का उपचार अलग करती है। अधिकांश आधुनिक सीपीयू मुख्य रूप से डिजाइन में वॉन नुमन्न् हैं, लेकिन हार्वर्ड वास्तुकला के साथ सीपीयू विशेष रूप से एम्बेडेड अनुप्रयोगों के रूप में अच्छी तरह देखा जाता है ; उदाहरण के लिए , अत्मेल् AVR माइक्रोकंट्रोलर हार्वर्ड वास्तुकला प्रोसेसर हैं। रिले और वैक्यूम ट्यूब ( थर्मिओनिक ट्यूब) आमतौर पर स्विचन तत्वों को एक उपयोगी कंप्यूटर हजारों या स्विचन उपकरणों के हजारों के दसियों की आवश्यकता के रूप में इस्तेमाल किया गया। एक प्रणाली के समग्र गति स्विच की गति पर निर्भर है। एडवैक तरह ट्यूब कंप्यूटर, असफलताओं के बीच आठ घंटे औसत हो जाती थी जैसे रिले कंप्यूटर जबकि ( धीमी है, लेकिन पहले) हार्वर्ड मार्क मैं बहुत मुश्किल से ही विफल रहे। अंत में, ट्यूब आधारित सीपीयू प्रमुख क्योंकि महत्वपूर्ण गति लाभ आम तौर पर बर्दाश्त विश्वसनीयता समस्याओं पल्ला झुकना बन गया। इन जल्दी तुल्यकालिक सीपीयू के सबसे आधुनिक शास्त्रीय डिजाइन की तुलना में कम घड़ी दरों पर भाग गया। घड़ी संकेत १०० किलोहर्ट्ज़ से 4 मेगाहर्ट्ज से लेकर आवृत्तियों इस समय में बहुत आम थे, स्विचिंग उपकरणों के साथ वे बनाए गए थे की गति से काफी हद तक सीमित कर दिया। ट्रांजिस्टर सीपीयू CPU की डिजाइन जटिलता में वृद्धि हुई है के रूप में विभिन्न प्रौद्योगिकियों के छोटे और अधिक विश्वसनीय इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में मदद की। पहले इस तरह के सुधार ट्रांजिस्टर के आगमन के साथ आया था। १९५० के दशक और १९६० के दशक के दौरान ट्रांजिस्टर सीपीयू नहीं रह वैक्यूम ट्यूब और रिले की तरह , भारी अविश्वसनीय , और नाजुक स्विचिंग तत्वों के बाहर का निर्माण किया जाना था। इस सुधार के और अधिक जटिल और विश्वसनीय सीपीयू एक या कई मुद्रित सर्किट असतत (व्यक्ति) घटकों से युक्त बोर्डों पर बनाया गया था के साथ। 350px|अंगूठाकार|Fujitsu मुख्यालय में प्रदर्शन पर SPARC64 VIIIfx प्रोसेसर के साथ बोर्ड १९६४ में, आईबीएम अपने सिस्टम / ३६० कंप्यूटर वास्तुकला है कि अलग अलग गति और प्रदर्शन के साथ ही कार्यक्रम चलाने में सक्षम कंप्यूटर की एक श्रृंखला में इस्तेमाल किया गया था की शुरुआत की। जब ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर एक दूसरे , यहां तक ​​कि एक ही निर्माता द्वारा बनाई गई उन के साथ असंगत थे यह एक समय में महत्वपूर्ण था। इस सुधार की सुविधा के लिए , आईबीएम एक माइक्रो प्रोग्राम (अक्सर " माइक्रोकोड " कहा जाता है) , जो अभी भी आधुनिक CPUs में बड़े पैमाने पर उपयोग में देखता है कि अवधारणा का उपयोग किया। सिस्टम / 360 वास्तुकला इतना लोकप्रिय है कि दशकों के लिए मेनफ्रेम कंप्यूटर बाजार पर हावी है और एक विरासत है कि अभी भी आईबीएम ज़-शृंखला की तरह समान आधुनिक कंप्यूटर द्वारा जारी रखा है छोड़ दिया था। १९६५ में, डिजिटल उपकरण निगम (डीईसी) वैज्ञानिक और अनुसंधान बाजारों के उद्देश्य से एक और प्रभावशाली कंप्यूटर पेश किया, पीडीपी -८| ट्रांजिस्टर आधारित कंप्यूटरों उनके पूर्ववर्तियों पर कई विशिष्ट लाभ के लिए किया था। वृद्धि की विश्वसनीयता और कम बिजली की खपत को सुविधाजनक बनाने के अलावा, ट्रांजिस्टर भी सीपीयू एक ट्यूब या रिले की तुलना में एक ट्रांजिस्टर से कम स्विचिंग समय की वजह से बहुत अधिक गति से संचालित करने की अनुमति दी। दोनों वृद्धि की विश्वसनीयता के साथ ही स्विचिंग तत्वों के नाटकीय रूप से वृद्धि की गति (जो लगभग विशेष रूप से थे इस समय तक ट्रांजिस्टर) के लिए धन्यवाद, मेगाहर्ट्ज़ के दसियों में CPU घड़ी दरों में इस अवधि के दौरान प्राप्त किया गया। इसके अतिरिक्त , जबकि असतत ट्रांजिस्टर और आईसी सीपीयू भारी प्रयोग में थे, SIMD जैसे नए उच्च प्रदर्शन डिजाइन ( एकल निर्देश एकाधिक डेटा ) वेक्टर प्रोसेसर प्रकट करने के लिए शुरू किया। ये जल्दी प्रयोगात्मक डिजाइन बाद में क्रे इंक और फ्जित्सु लिमिटेड द्वारा किए गए उन लोगों की तरह विशेष सुपर कंप्यूटर के युग को जन्म दिया। छोटे पैमाने पर एकीकरण सीपीयू इस अवधि के दौरान , एक कॉम्पैक्ट अंतरिक्ष में कई परस्पर ट्रांजिस्टर के निर्माण की एक विधि विकसित किया गया था। एकीकृत सर्किट (आईसी ) की अनुमति ट्रांजिस्टर की एक बड़ी संख्या के लिए एक एकल अर्धचालक पदार्थ आधारित मर जाते हैं, या "चिप" पर निर्मित किया जाएगा। पहले ही बहुत बुनियादी गैर विशेष डिजिटल जैसे न ही सर्किट फाटकों पर आईसीएस में छोटी थे। इन "इमारत ब्लॉक" आईसीएस पर आधारित सीपीयू आम तौर पर " छोटे पैमाने पर एकीकरण " ( एसएसआई) उपकरणों के रूप में करने के लिए भेजा जाता है। अपोलो मार्गदर्शन कंप्यूटर में इस्तेमाल लोगों के रूप में लघु उद्योग आईसीएस , आम तौर पर कुछ स्कोर ट्रांजिस्टर करने के लिए निहित। एसएसआई आईसीएस के बाहर एक पूरे सीपीयू बनाने के लिए आवश्यक व्यक्तिगत चिप्स के हजारों है, लेकिन अभी भी बहुत कम जगह और पहले असतत ट्रांजिस्टर डिजाइन की तुलना में बिजली की खपत है। आईबीएम के सिस्टम / ३७० फॉलो ऑन सिस्टम / ३६० के लिए लघु उद्योग आईसीएस के बजाय ठोस तर्क प्रौद्योगिकी असतत -ट्रांजिस्टर मॉड्यूल का इस्तेमाल किया। डीईसी के पीडीपी -८ / मैं और KI10 पीडीपी -१० भी व्यक्ति पीडीपी -८ और पीडीपी -१० लघु उद्योग आईसीएस करने के लिए , और उनके बेहद लोकप्रिय पीडीपी -११ लाइन द्वारा इस्तेमाल के लिए मूल रूप से लघु उद्योग आईसीएस के साथ बनाया गया था ट्रांजिस्टर से बंद है, लेकिन अंततः के साथ लागू किया गया था इन एक बार LSI घटक व्यावहारिक बन गया। बड़े पैमाने पर एकीकरण सीपीयू ली बोय्सेल् प्रकाशित एक १९६७ " घोषणापत्र ", जो कि कैसे बड़े पैमाने पर एकीकरण सर्किट की एक अपेक्षाकृत छोटी संख्या (LSI) से एक ३२-बिट मेनफ्रेम कंप्यूटर के बराबर का निर्माण करने के लिए वर्णित सहित प्रभावशाली लेख| समय, LSI चिप्स, जो एक सौ या अधिक फाटक के साथ चिप्स का निर्माण करने का एक ही तरीका है , एक राज्यमंत्री प्रक्रिया है (यानी , PMOS तर्क, NMOS तर्क , या CMOS तर्क ) का उपयोग कर उन्हें बनाने के लिए किया गया था। हालांकि, कुछ कंपनियों द्विध्रुवी चिप्स के बाहर प्रोसेसर का निर्माण करने के लिए है क्योंकि द्विध्रुवी जंक्शन ट्रांजिस्टर इतना राज्यमंत्री चिप्स की तुलना में तेजी थे जारी रखा; उदाहरण के लिए, डाटापॉइंट १९८० के दशक तक टीटीएल चिप्स के बाहर प्रोसेसर का निर्माण किया। उच्च गति कंप्यूटर के निर्माण के लोग चाहते थे , उन्हें तेजी से हो तो १९७० के दशक में वे छोटे पैमाने पर एकीकरण (एसएसआई) और मध्यम पैमाने पर एकीकरण (एमएसआई) ७४०० श्रृंखला टीटीएल फाटक से सीपीयू का निर्माण किया। समय, राज्यमंत्री आईसीएस इतनी धीमी है कि वे केवल कुछ आला अनुप्रयोगों है कि कम बिजली की आवश्यकता में उपयोगी माना गया था। शास्त्रीय प्रौद्योगिकी उन्नत, ट्रांजिस्टर की संख्या बढ़ रही आईसीएस पर रखा गया है, व्यक्ति एक पूरा सीपीयू के लिए आवश्यक आईसीएस की मात्रा कम हो। एमएसआई और LSI आईसीएस सैकड़ों करने के लिए मायने रखता है ट्रांजिस्टर वृद्धि हुई है, और फिर हजारों। १९६८ तक , एक पूरा सीपीयू बनाने के लिए आवश्यक आईसीएस की संख्या आठ विभिन्न प्रकार के २४ आईसीएस, प्रत्येक आईसी के साथ मोटे तौर पर १००० MOSFETs युक्त करने के लिए कम कर दिया गया था। अपने लघु उद्योग और MSI पूर्ववर्तियों के साथ विपरीत में, पीडीपी -११ के पहले LSI कार्यान्वयन केवल चार LSI एकीकृत सर्किट से बना एक सीपीयू निहित। माइक्रोप्रोसेसर १९७० के दशक में (अपनी नई यादृच्छिक तर्क डिजाइन पद्धति के साथ-साथ आत्म गठबंधन फाटक के साथ सिलिकॉन गेट राज्यमंत्री आईसीएस) मौलिक आविष्कारों फेडरिको फग्गिन् से हमेशा के लिए डिजाइन और सीपीयू के कार्यान्वयन के लिए बदल दिया। पहली व्यावसायिक रूप से उपलब्ध माइक्रोप्रोसेसर १९७० में इंटेल ( ४००४ ) , और पहली बार व्यापक रूप से इस्तेमाल माइक्रोप्रोसेसर १९७४ में इंटेल ( ८०८० ) की शुरूआत के बाद से , सीपीयू के इस वर्ग के लगभग पूरी तरह से अन्य सभी सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट कार्यान्वयन के तरीकों से आगे निकल गया है। समय की मेनफ्रेम और मिनी कंप्यूटर निर्माताओं मालिकाना आईसी विकास कार्यक्रमों का शुभारंभ किया अपने पुराने कंप्यूटर आर्किटेक्चर के उन्नयन के लिए , और अंत में उत्पादित अनुदेश संगत माइक्रोप्रोसेसरों है कि उनके पुराने हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के साथ पिछड़े संगत कर रहे थे निर्धारित किया है। आगमन और सर्वव्यापी पर्सनल कंप्यूटर के अंतिम सफलता के साथ संयुक्त, अवधि सीपीयू अब माइक्रोप्रोसेसरों के लिए लगभग विशेष रूप से लागू किया जाता है। कई सीपीयू ( चिह्नित कोर) एक एकल प्रसंस्करण चिप में जोड़ा जा सकता है। CPU की पिछली पीढ़ियों के लिए एक या अधिक सर्किट बोर्डों पर असतत घटकों और कई छोटे एकीकृत सर्किट (आईसीएस ) के रूप में लागू किया गया। माइक्रोप्रोसेसरों , दूसरे हाथ पर , आईसीएस की एक बहुत छोटी संख्या पर निर्मित सीपीयू कर रहे हैं आमतौर पर सिर्फ एक। कुल मिलाकर छोटे सीपीयू आकार, एक ही मरने पर लागू किया जा रहा का एक परिणाम के रूप में, क्योंकि भौतिक कारकों में तेजी से कमी आई है स्विचिंग समय गेट परजीवी समाई तरह मतलब है। इस तुल्यकालिक माइक्रोप्रोसेसरों अनुमति दी गई है घड़ी मेगाहर्ट्ज़ के दसियों से कई गीगाहर्ट्ज़ को लेकर दर है। इसके अतिरिक्त , के रूप में एक आईसी पर बेहद छोटे ट्रांजिस्टर का निर्माण करने की क्षमता में वृद्धि हुई है , जटिलता और एक एकल CPU में ट्रांजिस्टर की संख्या कई गुना बढ़ गई है। यह व्यापक रूप से मनाया प्रवृत्ति मूर के कानून है, जो सीपीयू के विकास (और अन्य आईसी) जटिलता के एक काफी सटीक कारक साबित हो गया है द्वारा वर्णित है। जटिलता , आकार , निर्माण, और सामान्य सीपीयू के रूप १९५० के बाद से काफी बदल दिया है , वहीं यह है कि बुनियादी डिजाइन और समारोह में सभी ज्यादा नहीं बदला है उल्लेखनीय है।लगभग सभी आम सीपीयू आज बहुत सही वॉन नुमन्न् संग्रहीत कार्यक्रम मशीनों के रूप में वर्णित किया जा सकता है। ऊपर उल्लिखित मूर के नियम सही पकड़ जारी है, चिंताओं एकीकृत परिपथ ट्रांजिस्टर प्रौद्योगिकी की सीमाओं के बारे में पैदा हुई है। इलेक्ट्रॉनिक फाटक के चरम लघुरूपण इलेक्ट्रोमाइग्रेशन और उपडेवढ़ी रिसाव की तरह घटना का प्रभाव बहुत अधिक महत्वपूर्ण बनने के लिए पैदा कर रहा है। इन नए चिंताओं शोधकर्ताओं जैसे क्वांटम कंप्यूटर के रूप में कंप्यूटिंग के नए तरीकों , साथ ही समानता और अन्य तरीकों कि शास्त्रीय वॉन नुमन्न् मॉडल की उपयोगिता का विस्तार के उपयोग का विस्तार करने की जांच करने के लिए कारण कई कारकों में से एक हैं। ऑपरेशन सबसे CPU की मौलिक आपरेशन, भौतिक रूप से वे लेने के बावजूद , संग्रहीत निर्देश है कि एक कार्यक्रम में कहा जाता है के एक दृश्य पर अमल करने के लिए है। निर्देश क्रियान्वित किया जा करने के लिए कंप्यूटर स्मृति के कुछ प्रकार में रखा जाता है। लगभग सभी सीपीयू उनके संचालन में लाने, व्याख्या करना और निष्पादित कदम है, जो सामूहिक रूप से अनुदेश चक्र के रूप में जाना जाता है का पालन करें। एक निर्देश के निष्पादन के बाद , पूरी प्रक्रिया को अगले निर्देश चक्र सामान्य रूप से कार्यक्रम काउंटर में वृद्धि होती मूल्य की वजह से अगले -इन- अनुक्रम अनुदेश दिलकश साथ दोहराता है। अगर एक कूद अनुदेश मार डाला गया था , इस कार्यक्रम के काउंटर निर्देश है कि करने के लिए कूद गया था और कार्यक्रम के क्रियान्वयन सामान्य रूप से जारी की पते को रोकने के लिए संशोधित किया जाएगा। और अधिक जटिल CPUs में , कई निर्देश दिलवाया जा सकता है, डीकोड , और एक साथ मार डाला। यह खंड वर्णन करता है जो आम तौर पर " क्लासिक RISC पाइपलाइन" है, जो सरल कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में इस्तेमाल किया सीपीयू के बीच काफी आम है, के रूप में जाना जाता है। यह काफी हद तक सीपीयू कैश की महत्वपूर्ण भूमिका है, और इसलिए पाइपलाइन का उपयोग चरण ध्यान नहीं देता। कुछ निर्देश बजाय परिणाम डेटा सीधे उत्पादन से कार्यक्रम काउंटर में हेरफेर ; इस तरह के निर्देश आम तौर पर "कूदता" कहा जाता है और छोरों, सशर्त कार्यक्रम के क्रियान्वयन ( एक सशर्त कूद के उपयोग के माध्यम से) जैसे कार्यक्रम व्यवहार की सुविधा है, और कार्यों का अस्तित्व। कुछ प्रोसेसर में, कुछ अन्य निर्देश एक " झंडे" रजिस्टर में बिट्स के राज्य बदल जाते हैं। ये झंडे , प्रभावित करने के लिए कैसे एक कार्यक्रम में व्यवहार करता है इस्तेमाल किया जा सकता है, क्योंकि वे अक्सर विभिन्न कार्यों के परिणाम से संकेत मिलता है। उदाहरण के लिए, इस तरह के प्रोसेसर में एक " की तुलना" अनुदेश दो मूल्यों और सेट का मूल्यांकन करता है या साफ करता है झंडे में बिट्स संकेत मिलता है जो एक अधिक से अधिक या कि क्या वे बराबर हैं रजिस्टर; इन झंडों से एक तो एक बाद में कूद अनुदेश द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता कार्यक्रम प्रवाह निर्धारित करने के लिए। लाना पहला कदम है, लाने, एक अनुदेश कार्यक्रम स्मृति से (जो एक नंबर या संख्या के अनुक्रम का प्रतिनिधित्व करती है ) को पुन: प्राप्त करना शामिल है। कार्यक्रम की स्मृति में शिक्षा का स्थान (पता) एक कार्यक्रम काउंटर (पीसी) है, जो एक संख्या है कि अगले निर्देश का पता पहचानती दिलवाया जा दुकानों से निर्धारित होता है। बाद एक निर्देश दिलवाया है , पीसी निर्देश की लंबाई से वृद्धि होती है तो यह है कि यह क्रम में अगले निर्देश का पता शामिल होंगे। अक्सर, कौड़ी होना करने के लिए अनुदेश अपेक्षाकृत धीमी गति से स्मृति से प्राप्त किया जाता है , जबकि शिक्षा के लिए इंतजार कर लौट जा स्टाल करने के लिए सीपीयू के कारण। यह समस्या काफी हद तक कैश और पाइपलाइन आर्किटेक्चर (देखें नीचे) द्वारा आधुनिक प्रोसेसर में संबोधित किया है। व्याख्या करना अनुदेश कि सीपीयू स्मृति से लाना निर्धारित करता है जो सीपीयू करना होगा। व्याख्या करना कदम, शिक्षा डिकोडर के रूप में जाना विद्युत्-परिपथ तंत्रद्वारा किया जाता है, शिक्षा का संकेत है कि सीपीयू के अन्य भागों पर नियंत्रण में बदल जाती है। रास्ते में जो शिक्षा व्याख्या की है सीपीयू अनुदेश सेट वास्तुकला (आईएसए) द्वारा परिभाषित किया गया है। अक्सर , बिट्स (जो है, एक "क्षेत्र ") अनुदेश के भीतर के एक समूह , सेशनकोड कहा जाता है, जो इंगित करता है ऑपरेशन , प्रदर्शन किया जा रहा है, जबकि शेष क्षेत्रों आमतौर पर इस तरह ऑपरेंड के रूप में संचालन के लिए आवश्यक पूरक जानकारी प्रदान करते हैं। उन ऑपरेंड एक निरंतर मूल्य ( एक तत्काल मूल्य कहा जाता है) के रूप में निर्दिष्ट किया जा सकता है, या एक मूल्य के एक प्रोसेसर रजिस्टर या स्मृति पता हो सकता है, जैसा कि कुछ संबोधित मोड द्वारा निर्धारित के स्थान के रूप में। कुछ CPU में डिजाइन अनुदेश डिकोडर एक यंत्रस्थ , अपरिवर्तनीय सर्किट के रूप में कार्यान्वित किया जाता है। अन्य लोगों में, एक माइक्रो प्रोग्राम सीपीयू विन्यास संकेतों के सेट है कि कई घड़ी दालों के ऊपर क्रमिक रूप से लागू कर रहे हैं में दिए गए निर्देशों का अनुवाद करने के लिए प्रयोग किया जाता है। कुछ मामलों में स्मृति है कि माइक्रो प्रोग्राम दुकानों यह तरीका है जिसमें सीपीयू निर्देश डीकोड बदलने के लिए संभव बनाने रीराइटेबल है। निष्पादित लाने के लिए और समझाना कदम के बाद, निष्पादित कदम किया जाता है। सीपीयू वास्तुकला के आधार पर, यह एक एकल कार्रवाई या कार्रवाई के एक दृश्य से मिलकर कर सकते। प्रत्येक कार्य के दौरान, सीपीयू के विभिन्न भागों तो वे सब या आम तौर पर एक घड़ी नाड़ी के जवाब में प्रदर्शन कर सकते हैं वांछित ऑपरेशन का हिस्सा है और फिर कार्रवाई पूरा हो गया है , विद्युत जुड़े हुए हैं। बहुत बार परिणाम बाद के निर्देश के द्वारा त्वरित पहुँच के लिए एक आंतरिक सीपीयू रजिस्टर करने के लिए लिखा जाता है। अन्य मामलों में परिणाम धीमी है, लेकिन कम खर्चीला है और उच्च क्षमता के मुख्य स्मृति के लिए लिखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक अतिरिक्त अनुदेश क्रियान्वित किया जा रहा है, अंकगणितीय तर्क इकाई (ALU ) आदानों (संख्या अभिव्यक्त किया जा सकता है) संकार्य सूत्रों की एक जोड़ी से जुड़े हैं, ALU एक अतिरिक्त कार्रवाई करने के लिए कॉन्फ़िगर किया गया है , इसलिए है कि योग के अपने संकार्य आदानों अपने उत्पादन में दिखाई देगा, और ALU उत्पादन है कि राशि प्राप्त होगा भंडारण (जैसे, एक रजिस्टर या स्मृति ) से जुड़ा है। जब घड़ी नाड़ी होती है , योग भंडारण करने के लिए स्थानांतरित कर दिया जाएगा और , अगर परिणामस्वरूप योग है (यानी, यह ALU के उत्पादन शब्द आकार से बड़ा है ) बहुत बड़ी है, एक अंकगणितीय ओवरफ्लो ध्वज स्थापित किया जाएगा। संरचना और कार्यान्वयन एक सीपीयू के विद्युत्-परिपथ तंत्र में यंत्रस्थ बुनियादी कार्यों प्रदर्शन कर सकते हैं का एक सेट है , एक अनुदेश सेट बुलाया। इस तरह के आपरेशनों उदाहरण के लिए शामिल हो सकता है , जोड़ने या दो नंबर घटाकर दो नंबरों की तुलना, या एक कार्यक्रम के एक अलग हिस्से के लिए कूद। प्रत्येक बुनियादी आपरेशन बिट्स, मशीन भाषा सेशनकोड के रूप में जाना एक विशेष संयोजन का प्रतिनिधित्व करती है ; एक मशीन भाषा कार्यक्रम में दिए गए निर्देशों को क्रियान्वित करते हुए , सीपीयू जो आपरेशन द्वारा ' डिकोडिंग " सेशनकोड प्रदर्शन करने का फैसला किया। एक पूरी मशीन भाषा अनुदेश एक सेशनकोड के होते हैं और कई मामलों में , अतिरिक्त बिट्स कि ऑपरेशन के लिए तर्क निर्दिष्ट (उदाहरण के लिए , संख्या एक अतिरिक्त ऑपरेशन के मामले में अभिव्यक्त किया जा सकता है)। जटिलता पैमाने ऊपर जा रहे हैं , एक मशीन भाषा प्रोग्राम है कि सीपीयू कार्यान्वित मशीन भाषा निर्देशों का एक संग्रह है। प्रत्येक शिक्षा के लिए वास्तविक गणितीय आपरेशन अंकगणितीय तर्क इकाई या ALU रूप में जाना जाता है सीपीयू प्रोसेसर के भीतर एक संयोजन तर्क सर्किट द्वारा किया जाता है। सामान्य तौर पर, एक सीपीयू स्मृति से यह दिलकश , इसके ALU का उपयोग कर एक कार्रवाई करने के लिए , और फिर स्मृति के लिए परिणाम भंडारण के द्वारा एक निर्देश कार्यान्वित। ऐसे सीपीयू चल बिन्दु इकाई द्वारा किया जाता चल बिन्दु संख्या पर स्मृति और इसे वापस भंडारण, संचालन शाखाओं में बंटी , और गणितीय कार्य से डेटा लोड के लिए उन लोगों के रूप में पूर्णांक गणित और तर्क संचालन , विभिन्न अन्य मशीन निर्देश मौजूद हैं, के लिए निर्देश ( FPU के अलावा )। नियंत्रण विभाग सीपीयू के नियंत्रण इकाई विद्युत्-परिपथ तंत्र विद्युत संकेतों का उपयोग करता है कि पूरे कंप्यूटर प्रणाली को निर्देशित करने के लिए संग्रहीत कार्यक्रम निर्देश बाहर ले जाने के लिए होता है। नियंत्रण इकाई कार्यक्रम निर्देशों पर अमल नहीं करता है; दरअसल, यह प्रणाली के अन्य भागों का निर्देशन ऐसा करने के लिए। नियंत्रण इकाई दोनों ALU और स्मृति के साथ संचार। अंकगणितीय तर्क इकाई अंकगणितीय तर्क इकाई (ALU) प्रोसेसर है कि पूर्णांक गणित और तर्क बिटवाइज़ संचालन करता है के भीतर एक डिजिटल सर्किट है। ALU को जानकारी डेटा शब्दों पर (बुलाया ऑपरेंड ) संचालित करने के लिए , पिछले परिचालन से स्थिति की जानकारी , और यह दर्शाता है जो कार्रवाई करने के लिए नियंत्रण इकाई से एक कूट रहे हैं। अनुदेश निष्पादित किया जा रहा है पर निर्भर करता है, ऑपरेंड आंतरिक सीपीयू रजिस्टर या बाह्य स्मृति से आ सकती है , या वे ALU खुद के द्वारा उत्पन्न स्थिरांक हो सकता है। जब सभी इनपुट संकेतों बसे और ALU विद्युत्-परिपथ तंत्र के माध्यम से प्रचारित किया है , प्रदर्शन के आपरेशन के परिणाम ALU के उत्पादन पर प्रकट होता है। परिणाम दोनों एक डेटा शब्द है, जो एक रजिस्टर या स्मृति में संग्रहित किया जा सकता है, और स्थिति की जानकारी है कि आम तौर पर एक विशेष, आंतरिक सीपीयू रजिस्टर इस उद्देश्य के लिए आरक्षित में संग्रहित किया जाता है के होते हैं। स्मृति प्रबंधन इकाई सबसे उच्च अंत माइक्रोप्रोसेसरों (डेस्कटॉप , लैपटॉप, कंप्यूटर सर्वर में ) एक स्मृति प्रबंधन इकाई है , भौतिक RAM पतों में तार्किक पतों के अनुवाद स्मृति संरक्षण और पेजिंग क्षमताओं, आभासी स्मृति के लिए उपयोगी प्रदान करते हैं। सरल प्रोसेसर, विशेष रूप से माइक्रोकंट्रोलर आमतौर पर एक MMU शामिल नहीं हैं। पूर्णांक रेंज हर सीपीयू एक विशिष्ट तरीके से संख्यात्मक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, कुछ जल्दी डिजिटल कंप्यूटर संख्या के रूप में परिचित दशमलव (आधार 10) अंक प्रणाली मूल्यों का प्रतिनिधित्व किया, और दूसरों को इस तरह के त्रिगुट (तीन आधार) के रूप में अधिक असामान्य अभ्यावेदन कार्यरत है। लगभग सभी आधुनिक CPUs इस तरह के एक "उच्च" या "कम" वोल्टेज के रूप में द्विआधारी के रूप में संख्या, प्रत्येक अंक के साथ कुछ दो महत्वपूर्ण भौतिक मात्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किया जा रहा प्रतिनिधित्व करते हैं। संख्यात्मक प्रतिनिधित्व करने के लिए संबंधित आकार और पूर्णांक संख्या है कि एक सीपीयू का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं कि सटीक है। एक बाइनरी सीपीयू के मामले में, इस बिट्स ( एक द्विआधारी इनकोडिंग पूर्णांक के महत्वपूर्ण अंक ) कि सीपीयू एक ऑपरेशन , जो आमतौर पर "शब्द का आकार" , " थोड़ा चौड़ाई ", "डाटा कहा जाता है में प्रक्रिया कर सकते हैं की संख्या से मापा जाता है, पथ चौड़ाई "," पूर्णांक परिशुद्धता ", या" पूर्णांक आकार "। एक सीपीयू के पूर्णांक आकार निर्धारित पूर्णांक की सीमा मूल्यों यह सीधे पर काम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक ८ बिट सीपीयू सीधे आठ बिट्स, जो २५६ असतत पूर्णांक मूल्यों की एक श्रृंखला है द्वारा प्रतिनिधित्व पूर्णांकों हेरफेर कर सकते हैं। पूर्णांक रेंज भी स्मृति स्थानों सीपीयू सीधे संबोधित कर सकते हैं कि संख्या ( एक पते में एक विशिष्ट स्थान स्मृति का प्रतिनिधित्व करने वाले एक पूर्णांक मान है ) को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक द्विआधारी सीपीयू ३२ बिट का उपयोग करता है, तो एक स्मृति पते का प्रतिनिधित्व करने के लिए तो यह सीधे २^३२ स्मृति स्थानों को संबोधित कर सकते हैं। इस सीमा को नाकाम करने के लिए और विभिन्न अन्य कारणों के लिए , कुछ सीपीयू उपयोग तंत्र (जैसे बैंक स्विचिंग के रूप में) है कि अतिरिक्त स्मृति की अनुमति देने को संबोधित करने की। बड़ा शब्द आकार के साथ सीपीयू अधिक विद्युत्-परिपथ तंत्र की आवश्यकता होती है और इसके परिणामस्वरूप, शारीरिक रूप से बड़े होते हैं अधिक लागत, और अधिक बिजली की खपत (और इसलिए अधिक गर्मी उत्पन्न)। नतीजतन, छोटे ४ या ८ बिट माइक्रोकंट्रोलर सामान्यतः आधुनिक अनुप्रयोगों में इस्तेमाल किया जाता है , भले ही बहुत बड़ा शब्द आकार के साथ सीपीयू (जैसे १६, ३२ , ६४, यहां तक ​​कि १२८- बिट ) उपलब्ध हैं। जब उच्च प्रदर्शन की आवश्यकता है, हालांकि, एक बड़ा शब्द आकार (बड़ा डेटा पर्वतमाला और पते के रिक्त स्थान) के लाभों को नुकसान पल्ला झुकना सकता है। एक सीपीयू आंतरिक डेटा रास्तों शब्द आकार की तुलना में कम आकार और लागत कम करने के लिए हो सकता है। उदाहरण के लिए, भले ही IBM प्रणाली / ३६० अनुदेश सेट एक ३२-बिट अनुदेश सेट, सिस्टम / ३६० मॉडल ३० और मॉडल ४० गणित तार्किक इकाई में ८ बिट डेटा रास्तों था, इसलिए है कि एक ३२- बिट जोड़ने के लिए आवश्यक चार था चक्र, ऑपरेंड से प्रत्येक ८ बिट के लिए एक, और , भले ही मोटोरोला ६८क् अनुदेश सेट एक ३२-बिट अनुदेश सेट, मोटोरोला ६८००० और मोटोरोला था ६८०१० , गणित तार्किक इकाई में १६-बिट डेटा रास्तों था तो एक ३२ कि बिट दो चक्रों आवश्यक जोड़ें। फायदे के दोनों कम और उच्च बिट लंबाई द्वारा बर्दाश्त के कुछ हासिल करने के लिए, कई निर्देश सेट पूर्णांक और चल बिन्दु डेटा के लिए अलग सा चौड़ाई, कि शिक्षा डिवाइस के विभिन्न भागों के लिए अलग सा चौड़ाई करने के लिए सेट को लागू करने सीपीयू की इजाजत दी है। उदाहरण के लिए, IBM प्रणाली / ३६० अनुदेश सेट मुख्य रूप से ३२ सा हो गया था , लेकिन अधिक से अधिक सटीकता और चल बिन्दु संख्या में सीमा की सुविधा के लिए ६४-बिट चल बिन्दु मूल्यों का समर्थन किया। सिस्टम / ३६० मॉडल ६५ दशमलव और अचल बिंदु द्विआधारी अंकगणितीय के लिए एक ८ बिट योजक और चल बिन्दु गणित के लिए एक ६०-बिट योजक था। कई बाद सीपीयू डिजाइन समान मिश्रित थोड़ा चौड़ाई का उपयोग करें, विशेष रूप से जब प्रोसेसर सामान्य प्रयोजन के उपयोग जहां पूर्णांक और चल बिन्दु क्षमता का एक उचित संतुलन की आवश्यकता है के लिए है। घड़ी की दर अधिकांश सीपीयू तुल्यकालिक सर्किट, जो वे एक घड़ी संकेत रोजगार उनकी अनुक्रमिक संचालन गति का मतलब कर रहे हैं। घड़ी संकेत एक बाहरी थरथरानवाला सर्किट है कि दालों एक आवधिक वर्ग तरंग के रूप में एक दूसरे के अनुरूप एक संख्या उत्पन्न द्वारा निर्मित है। घड़ी दालों की आवृत्ति दर है जिस पर एक सीपीयू निर्देश निष्पादित और इसके परिणामस्वरूप, तेजी से घड़ी , और अधिक निर्देश सीपीयू एक दूसरे पर अमल करेंगे निर्धारित करता है। सीपीयू के समुचित संचालन को सुनिश्चित करने के लिए, घड़ी की अवधि के माध्यम से सीपीयू (चाल ) प्रचार करने के लिए सभी संकेतों के लिए आवश्यक अधिक से अधिक समय से अधिक है। अच्छी तरह से ऊपर सबसे ज्यादा मामले प्रचार में देरी एक मूल्य के लिए घड़ी की अवधि स्थापित करने में, यह पूरी तरह से सीपीयू और उसके चारों ओर बढ़ती है और गिरने घड़ी संकेत के "किनारों " डेटा चालें डिजाइन करने के लिए संभव है। यह दोनों एक डिजाइन परिप्रेक्ष्य और एक घटक गिनती के नजरिए से , सीपीयू काफी सरल बनाने का लाभ दिया है। हालांकि, यह भी नुकसान यह है कि पूरे सीपीयू अपनी धीमी तत्वों पर इंतजार करना होगा वहन करती है, भले ही इसके बारे में कुछ भागों में बहुत तेजी से कर रहे हैं। यह सीमा काफी हद तक बढ़ सीपीयू समानता के विभिन्न तरीकों के लिए मुआवजा दिया गया है हालांकि, वास्तु सुधार अकेले विश्व स्तर पर तुल्यकालिक CPU की कमियों के सभी का समाधान नहीं है। उदाहरण के लिए, एक घड़ी संकेत किसी अन्य बिजली के संकेत की देरी के अधीन है। तेजी से जटिल सीपीयू में उच्च घड़ी दरों इसे और अधिक कठिन पूरी यूनिट भर चरण ( सिंक्रनाइज़) में घड़ी संकेत रखने के लिए बनाते हैं। यह कई आधुनिक CPUs कई समान घड़ी का संकेत है कि आवश्यकता के लिए प्रेरित किया एक भी संकेत काफी खराबी के सीपीयू पैदा करने के लिए पर्याप्त देरी से बचने के लिए प्रदान किया जा सके। एक अन्य प्रमुख मुद्दा है, घड़ी दरों नाटकीय रूप से वृद्धि के रूप में , गर्मी की राशि है कि सीपीयू द्वारा छितराया हुआ है। लगातार बदलते घड़ी है कि क्या वे उस समय इस्तेमाल किया जा रहा है कि परवाह किए बिना स्विच करने के लिए कई घटकों का कारण बनता है। सामान्य तौर पर, एक घटक है कि स्विच कर रहा है एक स्थिर राज्य में एक तत्व की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है। इसलिए, घड़ी की दर बढ़ जाती है, ताकि ऊर्जा की खपत करता है , सीपीयू ठंडा समाधान के रूप में अधिक गर्मी लंपटता की आवश्यकता के लिए सीपीयू के कारण। अनावश्यक घटकों की स्विचिंग के साथ काम करने की एक विधि घड़ी गट है, जो अनावश्यक घटकों ( प्रभावी ढंग से उन्हें अक्षम ) के लिए घड़ी संकेत बंद मोड़ शामिल है कहा जाता है। हालांकि, इस बार लागू करना मुश्किल माना जाता है और इसलिए बहुत कम बिजली डिजाइन के बाहर आम उपयोग में नहीं देखा है है। एक उल्लेखनीय हाल सीपीयू डिजाइन व्यापक घड़ी गट का उपयोग करता है कि आईबीएम पोवेर पि सी आधारित क्सीनन एक्सबॉक्स ३६० में प्रयोग किया जाता है ; इस तरह, एक्सबॉक्स ३६० की बिजली की आवश्यकताओं को बहुत कम हो जाता है। एक वैश्विक घड़ी संकेत के साथ समस्याओं में से कुछ को संबोधित करने का एक और तरीका है घड़ी संकेत को हटाने की पूरी तरह है। जबकि वैश्विक घड़ी संकेत हटाने कई मायनों में डिजाइन की प्रक्रिया में काफी अधिक जटिल बना देता है, अतुल्यकालिक डिजाइन समान तुल्यकालिक डिजाइन के साथ तुलना में बिजली की खपत और गर्मी लंपटता में लाभ चिह्नित ले। जबकि कुछ असामान्य , पूरे अतुल्यकालिक सीपीयू एक वैश्विक घड़ी संकेत के उपयोग के बिना बनाया गया है। इस के दो उल्लेखनीय उदाहरण एआरएम से शिकायत ताबीज और मइपस् र३००० संगत मिनि मइपस् हैं। बल्कि पूरी तरह से घड़ी संकेत को हटाने की तुलना में , कुछ सीपीयू डिजाइन डिवाइस के कुछ भागों अतुल्यकालिक हो सकता है, इस तरह के सुपेर अदिश पाइपलाइनिंग के साथ संयोजन के रूप में अतुल्यकालिक ALUs का उपयोग कर कुछ गणित प्रदर्शन लाभ प्राप्त करने के लिए के रूप में अनुमति देते हैं। हालांकि यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि पूरी तरह से अतुल्यकालिक डिजाइन उनके तुल्यकालिक समकक्षों की तुलना में एक तुलनीय या बेहतर स्तर पर प्रदर्शन कर सकते हैं नहीं है, यह है कि वे कम से कम सरल गणित संचालन में उत्कृष्टता प्राप्त कर स्पष्ट है। यह उनके उत्कृष्ट बिजली की खपत और गर्मी लंपटता गुणों के साथ संयुक्त, उन्हें एम्बेडेड कंप्यूटर के लिए बहुत उपयुक्त बनाता है। समानता एक सीपीयू पिछले अनुभाग में की पेशकश की बुनियादी आपरेशन का विवरण सरलतम रूप है कि एक सीपीयू ले जा सकते हैं वर्णन करता है। सीपीयू के इस प्रकार, आमतौर पर के रूप में उप अदिश के लिए भेजा, पर चल रही है और एक समय में डेटा के एक या दो टुकड़े पर एक निर्देश कार्यान्वित, कि घड़ी चक्र के अनुसार कम से कम एक निर्देश है (आईपीसी &lt; १)। इस प्रक्रिया उपअदिश सीपीयू में एक अंतर्निहित अक्षमता को जन्म देता है। के बाद से ही एक निर्देश एक समय में मार डाला है , पूरे सीपीयू अगले निर्देश के लिए आगे बढ़ने से पहले पूरा करने के लिए है कि शिक्षा के लिए इंतज़ार करना होगा। नतीजतन, उपअदिश सीपीयू निर्देश जो निष्पादन पूरा करने के लिए एक से अधिक घड़ी चक्र लेने पर " लटका " हो जाता है। यहां तक ​​कि एक दूसरे निष्पादन इकाई जोड़ने ( देखें नीचे ) के प्रदर्शन में ज्यादा सुधार नहीं करता है ; के बजाय एक मार्ग लटका दिया जा रहा है, अब दो रास्ते रख दिया जाता है और अप्रयुक्त ट्रांजिस्टर की संख्या में वृद्धि हुई है। इस डिजाइन, जिसमें सीपीयू के निष्पादन संसाधनों एक समय में केवल एक निर्देश पर काम कर सकते हैं , केवल संभवतः अदिश प्रदर्शन (घड़ी चक्र के अनुसार एक निर्देश , आईपीसी = १) पहुँच सकते हैं। हालांकि, प्रदर्शन लगभग हमेशा उपअदिश है (घड़ी चक्र के अनुसार कम से कम एक अनुदेश , आईपीसी &lt; १)। प्रयास अदिश और बेहतर प्रदर्शन को प्राप्त करने के डिजाइन के तरीके है कि CPU कम रैखिक व्यवहार करते हैं और समानांतर में और अधिक करने के लिए पैदा की एक किस्म में हुई है। जब सीपीयू में समानता की चर्चा करते हुए , दो शब्दों आम तौर पर इन डिजाइन तकनीकों वर्गीकृत करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं: शिक्षा स्तर समानता (आईएलपी) है, जो दर है जिस पर दिए गए निर्देशों का एक सीपीयू के भीतर क्रियान्वित कर रहे हैं बढ़ाने के लिए करना चाहता है (जो है, पर मर निष्पादन संसाधनों के उपयोग को बढ़ाने के लिए) कार्य - स्तर समानता (TLP) है, जो प्रयोजनों के धागे या प्रक्रियाओं है कि एक सीपीयू एक साथ निष्पादित कर सकते हैं कि संख्या में वृद्धि करने के लिए। प्रत्येक पद्धति दोनों तरीके जिसमें वे लागू कर रहे हैं , साथ ही रिश्तेदार प्रभावशीलता वे एक आवेदन के लिए CPU के प्रदर्शन को बढ़ाने में खर्च में अलग है। प्रदर्शन प्रदर्शन या एक प्रोसेसर की गति पर निर्भर करता है कई अन्य कारकों के अलावा, घड़ी दर (आम तौर पर हर्ट्ज के गुणकों में दी गई है) और घड़ी (आईपीसी) प्रति निर्देश है, जो एक साथ प्रति सेकंड (आईपीएस) के निर्देश के कारक हैं कि सीपीयू प्रदर्शन कर सकते हैं। कई सूचना दी आईपीएस मूल्यों कुछ शाखाओं के साथ कृत्रिम अनुदेश दृश्यों पर "पीक" निष्पादन दरों का प्रतिनिधित्व किया है , जबकि यथार्थवादी वर्कलोड निर्देश और अनुप्रयोगों , जिनमें से कुछ में लंबा समय लग दूसरों की तुलना में निष्पादित करने के लिए की एक मिश्रण से मिलकर बनता है। स्मृति पदानुक्रम का प्रदर्शन भी बहुत प्रोसेसर प्रदर्शन , मुश्किल से मइपस् गणना में माना जाता है एक मुद्दा प्रभावित करता है। क्योंकि इन समस्याओं के विभिन्न मानकीकृत परीक्षण , अक्सर कहा जाता है इस तरह के रूप में इस स्पेचइन्त् उद्देश्य के लिए "मानक " आमतौर पर इस्तेमाल किया अनुप्रयोगों में वास्तविक प्रभावी प्रदर्शन को मापने के लिए प्रयास करने के लिए विकसित किया गया है। कंप्यूटर के प्रसंस्करण के प्रदर्शन मल्टी कोर प्रोसेसर है, जो अनिवार्य रूप से एक एकीकृत सर्किट में दो या दो से अधिक व्यक्ति प्रोसेसर ( इस अर्थ में कोर कहा जाता है) प्लग है का उपयोग कर की वृद्धि हुई है। आदर्श रूप में, एक दोहरे कोर प्रोसेसर लगभग दो बार के रूप में एक सिंगल कोर प्रोसेसर के रूप में शक्तिशाली होगा। अभ्यास में, प्रदर्शन लाभ अब तक छोटे , अपूर्ण सॉफ्टवेयर एल्गोरिदम और कार्यान्वयन की वजह से है के बारे में केवल 50%। एक प्रोसेसर में कोर की संख्या बढ़ाने से (अर्थात् दोहरे कोर , क्वाड-कोर , आदि) काम का बोझ है कि नियंत्रित किया जा सकता बढ़ जाती है। इसका मतलब यह है कि प्रोसेसर अब कई अतुल्यकालिक घटनाओं, के बीच में आता है, आदि जब अभिभूत जो सीपीयू पर एक टोल ले जा सकते हैं संभाल कर सकते हैं। इन कोर हर मंजिल एक अलग काम संभालने के साथ , एक प्रसंस्करण संयंत्र के रूप में अलग-अलग मंजिलों के बारे में सोचा जा सकता है। कभी कभी, इन कोर उन्हें आसन्न कोर के रूप में एक ही कार्य संभाल लेंगे अगर एक सिंगल कोर जानकारी को संभालने के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसी हाइपर-थ्रेडिंग और उन कोर के रूप में आधुनिक सीपीयू, है, जो वास्तविक CPU संसाधनों के बंटवारे को शामिल करते हुए , बढ़ उपयोग पर निशाना प्रदर्शन के स्तर और हार्डवेयर के उपयोग की निगरानी की विशेष क्षमताओं के कारण धीरे-धीरे एक अधिक जटिल काम बन गया। एक प्रतिक्रिया के रूप में, कुछ सीपीयू अतिरिक्त हार्डवेयर तर्क है कि एक सीपीयू के विभिन्न भागों की वास्तविक उपयोग पर नजर रखता है और सॉफ्टवेयर के लिए सुलभ विभिन्न काउंटरों प्रदान करता है को लागू; एक उदाहरण इंटेल के प्रदर्शन काउंटर मॉनिटर तकनीक है। सन्दर्भ [1] [2] [3] [4] [5] [6]
CPU का पूर्ण प्रपत्र क्या है?
सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट
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पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) (उर्दू: پاکستان تحريک انصاف, "न्याय आंदोलन के लिए पाकिस्तान आंदोलन") पाकिस्तान की एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल है, जिसे इमरान ख़ान द्वारा 1996 में स्थापित किया गया था। पीटीआई पाकिस्तान की सबसे तेजी से उभरती राजनीतिक पार्टी है, और उसने एक त्रि-पार्टी प्रणाली बनाई है, जिसमें यह वामपंथी पीपुल्स पार्टी और रूढ़िवादी पीएमएल-एन दोनों का विरोध करती है। पार्टी का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य बनाना है, जहाँ राज्य नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए ज़िम्मेदार हो। यह विचारों की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत आयकर को खत्म करने और पाकिस्तान में धार्मिक भेदभाव को खत्म करने को बढ़ावा देती है। 1996 में इसकी स्थापना के तुरंत बाद, पार्टी को शुरुआती कम सफलता मिली थी। खान ने पाकिस्तानी आम चुनाव, 2002 में अपनी पहली सीट जीती। पार्टी ने 2008 के चुनाव का बहिष्कार किया, लेकिन 2013 में इसे 7.5 मिलियन से ज्यादा वोट मिले, जिससे वोटों की संख्या में तीसरा और सीटों की संख्या में तीसरा स्थान हासिल हुआ। यद्यपि यह राष्ट्रीय स्तर पर सरकार का विरोध करती रही है, लेकिन पार्टी खैबर पख्तूनख्वा की प्रांतीय सरकार को नियंत्रित करती रही, जो जातीय पश्तूनों के बीच अपने समेकित समर्थन का प्रतिबिंब है। पार्टी खुद को एक 'विरोधी स्थिति' आंदोलन 'समतावादी इस्लामी लोकतंत्र की वकालत करती है।[2][3][4] यह मुख्यधारा की पाकिस्तानी राजनीति की एकमात्र गैर-पारिवारिक पार्टी होने का दावा करती है। पाकिस्तान और विदेशों में 10 मिलियन से अधिक सदस्यों के साथ, यह सदस्यता के मामलें में पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है। 2013 के चुनाव परिणामों के मुताबिक, पीटीआई नेशनल असेंबली में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, और खैबर पख्तुनख्वा की शासी पार्टी के रूप में उभरी थी। 2018 के आम चुनाव में यह एक सशक्त पार्टी बन कर उभरी है। पुराने शासी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन पर लगे संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के कमजोर नेतृत्व के चलते ख़ान, प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार और पाकिस्तान जनता के चहेते बन कर उभरे हैं। कहा जाता है कि उन पर पाकिस्तानी सेना का भी हाथ है। २७ जुलाई २०१८ को आये प्रारंभिक परिणामों में पार्टी को ११५ सीटें मिली हैं। इतिहास पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ की स्थापना 25 अप्रैल 1996 को पाकिस्तान के लाहौर में इमरान ख़ान ने की थी।[8] शुरुआत में एक सामाजिक आंदोलन के रूप में स्थापित, जून 1996 में पाकिस्तान की पहली केंद्रीय कार्यकारी समिति तहरीक-ए-इंसाफ़ इमरान खान के नेतृत्व में बनाई गई थी, जिसमें नेयमुल हक, अहसान रशीद, हाफिज खान, मोहाहिद हुसैन, महमूद अवान और नौशेरवान बुर्की संस्थापक सदस्यों के रूप में थे।[9] पीटीआई धीरे-धीरे बढ़ने लगी लेकिन इसे तत्काल लोकप्रियता हासिल नहीं हुई। खान ने पीटीआई को एक पार्टी के रूप में लॉन्च किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि पाकिस्तान के लोगों की सच्ची आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व किया गया है। पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ का संविधान 24 जनवरी 1999 को लाहौर की केंद्रीय कार्यकारी समिति द्वारा अनुमोदित किया गया था। अक्टूबर 2002 में, खान ने राष्ट्रीय चुनावों में भाग लिया और अपने गृह शहर मियांवाली से सांसद (एमपी) चुने गये। हालाँकि, ख़ान पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक आदेश के गहरे आलोचक रहे, जिसे वह भ्रष्ट, अक्षम और नैतिक रूप से पाकिस्तान के संस्थापक सिद्धांतों के विरूध्द बताते रहे। विरोध में, खान ने अपनी राजनीतिक पार्टी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक जमीनी अभियान शुरू किया। 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद और नवाज शरीफ, सऊदी अरब से निर्वासन से लौट आए, राष्ट्रपति मुशर्रफ पर लोकतांत्रिक चुनाव कराने के दबाव में वृद्धि हुई। पीटीआई, कई राजनीतिक दलों के साथ, अखिल दलों डेमोक्रेटिक मूवमेंट में शामिल हो गई, जिसने आगे चलकर सैन्य शासन का विरोध किया। 2008 के आम चुनाव में पीपीपी की जीत हुई। पीटीआई ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था। आसिफ अली जरदारी के राष्ट्रपति शासन के दौरान, इमरान ख़ान की लोकप्रियता सत्तारूढ़ प्रशासन की घरेलू और विदेश नीति के साथ असंतोष के बीच बढ़ी। पीटीआई ने कर्ज, निर्भरता और विवाद से मुक्त एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर पाकिस्तान बनाने का वादा किया। पाकिस्तान में: एक व्यक्तिगत इतिहास, पीटीआई चेयरमैन खान का तर्क है कि मुख्य रूप से राजनेताओं, सामंती नेताओं और सैन्य नौकरशाहों से बने एक स्वार्थी और भ्रष्ट शासक अभिजात वर्ग ने पाकिस्तान को नष्ट कर दिया और आपदा के कगार पर ले आया है। पीटीआई ने कहा कि यह धार्मिक, जातीय, भाषाई, और प्रांतीय पृष्ठभूमि के बावजूद सभी पाकिस्तानियों का प्रतिनिधित्व करेगी। विचारधारा पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ की विचारधारा एक आधुनिक इस्लामी गणराज्य बनाने का है जो समुदाय सहयोग के माध्यम से व्यक्तियों के कल्याण की वकालत करता है। पीटीआई सभी धार्मिक, जातीय और नस्लीय समुदायों के लिए राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक सद्भाव और आर्थिक समृद्धि के लिए पाकिस्तान को स्थापित करना चाहता है। पीटीआई के पास पारंपरिक सामाजिक और धार्मिक मूल्यों और पाकिस्तान की सांस्कृतिक और जातीय विविधता को आम लक्ष्यों और मोहम्मद इकबाल और इस्लामिक लोकतांत्रिक संस्कृति के मोहम्मद अली जिन्ना के दृष्टिकोण पर आधारित सामाजिक समाज, कल्याण और कानून के शासन के आधार पर एक समाज के लिए आकांक्षाओं को मिश्रित करने का एजेंडा है। । मोहम्मद इकबाल के काम ने इमरान ख़ान को "इस्लामी सामाजिक राज्य" पर विचार-विमर्श में प्रभावित किया है।[3] पार्टी घोषणापत्र में जवाबदेही की एक मजबूत प्रणाली स्थापित करने और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए पाकिस्तान की राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता को बहाल करने के लिए विश्वसनीय नेतृत्व प्रदान करने की इच्छा शामिल है।[3] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ पाकिस्तान की सीनेट की आधिकारिक वेबसाइट- दलानुसार आसनों की सूची पाकिस्तान की क़ौमी असेम्बली की आधिकारिक वेबसाइट-सम्पूर्ण सदस्य-सूची : www.southasianmedia.net श्रेणी:पाकिस्तान के राजनैतिक दल
राजनितिक दल ´पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़´ के संस्थापक कौन है?
इमरान ख़ान
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क्ष-विकिरण (एक्स-रे से निर्मित) विद्युत चुम्बकीय विकिरण का एक रूप है। एक्स-रे का तरंग दैर्घ्य 0.01 से 10 नैनोमीटर तक होता है, जिसकी आवृत्ति 30 पेटाहर्ट्ज़ से 30 एग्ज़ाहर्ट्ज़ (3 × 1016 हर्ट्ज़ से 3 × 1019 हर्ट्ज़ (Hz)) और ऊर्जा 120 इलेक्ट्रो वोल्ट से 120 किलो इलेक्ट्रो वोल्ट तक होती है। एक्स-रे का तरंग दैर्ध्य, पराबैंगनी किरणों से छोटा और गामा किरणों से लम्बा होता है। कई भाषाओं में, एक्स-विकिरण को विल्हेम कॉनराड रॉन्टगन के नाम पर रॉन्टगन विकिरण कहा जाता है, जिन्हें आम तौर पर इसके आविष्कारक होने का श्रेय दिया जाता है और जिन्होंने एक अज्ञात प्रकार के विकिरण को सूचित करने के लिए इसे एक्स-रे नाम दिया था।[1]:1–2 भेदन क्षमता के आधार पर लगभग 0.12 से 12 किलो इलेक्ट्रो वोल्ट (keV) (10 से 0.10 नैनोमीटर (nm) तरंगदैर्ध्य) वाली एक्स-रे को "मृदु" एक्स-रे के रूप में और लगभग 12 से 120 किलो इलेक्ट्रो वोल्ट (0.01 से 0.10 नैनोमीटर) तरंगदैर्घ्य वाले एक्स-रे को "दृढ़" एक्स-रे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। दृढ़ एक्स-रे ठोस वस्तुओं को भेद सकती हैं और इनका सबसे ज्यादा इस्तेमाल नैदानिक रेडियोग्राफी और क्रिस्टलोग्राफी में वस्तुओं की अंदरूनी तस्वीरें लेने के लिए किया जाता है। परिणामस्वरूप, लक्षणालंकार की दृष्टि से एक्स-रे शब्द का इस्तेमाल स्वयं इस विधि के अलावा इस विधि के इस्तेमाल से उत्पन्न एक रेडियोग्राफिक तस्वीर को संदर्भित करने के लिये भी किया जाता है। इसके विपरीत, कहा जाता है कि मृदु एक्स-रेे बड़ी मुश्किल से किसी पदार्थ को पूरी तरह से भेद सकती हैं; उदाहरण के लिए, जल में 600 इलेक्ट्रो वोल्ट (~ 2 नैनोमीटर) तरंगदैर्घ्य वाली एक्स-रे का क्षीणनदैर्घ्य 1 माइक्रोमीटर से भी कम होता है। एक्स-रे एक प्रकार का आयनशील विकिरण हैं और इनका अनावरण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। हाल के दशकों में एक्स-रे और गामा किरणों के बीच के विभेद में बदलाव आया है। मूलतः, एक्स-रे नलियों से उत्सर्जित होने वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण का तरंगदैर्घ्य रेडियोधर्मी नाभिक (गामा किरणों) से उत्सर्जित विकिरण के तरंगदैर्घ्य से लंबा था।[2] पुरातन साहित्य तरंगदैर्घ्य के आधार पर एक्स और गामा विकिरण के बीच अंतर स्थापित करता था जहां विकिरण, गामा किरणों के रूप में परिभाषित, 10−11 मीटर जैसे किसी एकपक्षीय तरंगदैर्घ्य से छोटा था।[3] हालांकि, अपेक्षाकृत छोटे तरंगदैर्घ्य वाले सतत स्पेक्ट्रम "एक्स-रे" स्रोतों, जैसे - रैखिक त्वरकों और अपेक्षाकृत लंबे तरंगदैर्घ्य वाले "गामा किरण" उत्सर्जकों की खोज होने के कारण तरंगदैर्घ्य के समूह बड़े पैमाने पर परस्पर आच्छादित हो गए। आजकल सामान्यतः विकिरण के दो प्रकारों को उनके मूल के आधार पर अलग किया जाता है: एक्स-रे नाभिक के बाहर स्थित इलेक्ट्रॉनों द्वारा उत्सर्जित होती हैं जबकि गामा किरणें नाभिक द्वारा उत्सर्जित होती हैं।[2][4][5][6] माप और अनावरण की इकाइयां एक्स-रे की आयनशील क्षमता की माप को अनावरण कहा जाता है: कूलम्ब प्रति किलोग्राम (सी/किग्रा (C/kg)), आयनशील विकिरण अनावरण की एसआई (SI) इकाई है और यह एक किलोग्राम पदार्थ में एक कूलम्ब आवेश वाली प्रत्येक ध्रुवाभिसारिता का निर्माण करने के लिए आवश्यक विकिरण की मात्रा है। रॉन्टगन (आर), अनावरण की एक अप्रचलित पारंपरिक इकाई है, जो एक घन सेंटीमीटर शुष्क वायु में एक स्थिरविद्युत इकाई आवेश वाली प्रत्येक ध्रुवाभिसारिता का निर्माण करने के लिए आवश्यक विकिरण की मात्रा है। 1.00 रॉन्टगन = 2.58×10−4 सी/किग्रा हालांकि पदार्थ (विशेष रूप से सजीव ऊतक) पर आयनशील विकिरण का प्रभाव उत्पन्न आवेश की अपेक्षा उनमें जमा ऊर्जा की मात्रा से बहुत करीब से संबंधित होता है। इस अवशोषित ऊर्जा की माप को अवशोषित मात्रा कहा जाता है: ग्रे (Gy), जिसकी इकाई जूल/किलोग्राम है, अवशोषित मात्रा की एसआई इकाई है और यह एक किलोग्राम मात्रा वाले किसी भी प्रकार के पदार्थ में एक जूल ऊर्जा को जमा करने के लिए आवश्यक विकिरण की मात्रा है। रैड (अप्रचलित) समतुल्य पारंपरिक इकाई है, जो प्रति किलोग्राम पर जमा की गई 10 मिलीजूल ऊर्जा के बराबर होती है। 100 रैड = 1.00 ग्रे. समतुल्य मात्रा, मानव ऊतक पर विकिरण के जैविक प्रभाव की माप है। जहां तक एक्स-रे का सवाल है, यह अवशोषित मात्रा के बराबर होता है। सीवर्ट (Sv), समतुल्य मात्रा की एसआई इकाई है, जो एक्स-रे के लिए संख्यानुसार ग्रे (Gy) के बराबर होता है। रॉन्टगन इक्विवैलेंट मैन (rem), समतुल्य मात्रा की पारंपरिक इकाई है। जहां तक एक्स-रे का सवाल है, यह रैड या 10 मिलीजूल प्रति किलोग्राम के बराबर होता है। 1.00 Sv = 100 rem. मेडिकल एक्स-रे, मानव निर्मित विकिरण अनावरण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिनका परिमाण 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका में 58% था, लेकिन चूंकि अधिकांश विकिरण अनावरण, प्राकृतिक (82%) होते हैं, इसलिए मेडिकल एक्स-रे का परिमाण, कुल अमेरिकी विकिरण अनावरण का केवल 10 प्रतिशत होता है।[7] दंत एक्स-रे की वजह से सूचित मात्रा काफी भिन्न दिखाई देती है। स्रोत के आधार पर, एक मानव की एक विशिष्ट दंत एक्स-रे की वजह से शायद 3,[8] 40,[9] 300,[10] या अधिक से अधिक 900[11] एमरेम्स (mrems) (30 से 9,000 μSv) के एक अनावरण का परिणाम प्राप्त होता है। चिकित्सीय भौतिकी एक्स-रे, एक्स-रे नली से उत्पन्न होती हैं, जो एक उच्च वेग के लिये एक गर्म कैथोड द्वारा मुक्त इलेक्ट्रॉनों की गति बढ़ाने के लिये एक उच्च वोल्टेज का प्रयोग करने वाली एक वैक्यूम ट्यूब है। उच्च वेग वाले इलेक्ट्रॉन, एनोड नामक एक धात्विक लक्ष्य से टकराते हैं, जिससे एक्स-रे का निर्माण होता है।[14] चिकित्सीय एक्स-रे नलियों में लक्ष्य आम तौर पर टंगस्टन या रेनियम (5%) और टंगस्टन (95%) का एक अति प्रतिरोधी मिश्र धातु होता है, लेकिन कभी-कभी अधिक विशेष अनुप्रयोगों के लिए मॉलिब्डेनम होता है, जैसे - मैमोग्राफी में जब मृदु एक्स-रे की जरूरत पड़ती है। क्रिस्टलोग्राफी में, एक तांबे का लक्ष्य सबसे आम है, जिसके साथ अक्सर कोबाल्ट का प्रयोग किया जाता है जब नमूने में लौह पदार्थ की प्रतिदीप्ति से अन्यथा एक समस्या उत्पन्न हो सकती है। उत्पन्न एक्स-रे के फोटॉन की अधिकतम ऊर्जा घटित इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा द्वारा सीमित होती है, जो नली के वोल्टेज के बराबर होता है, इसलिए 80 केवी वाली एक नली 80 किलो इलेक्ट्रो वोल्ट अधिक ऊर्जा वाली एक्स-रे का निर्माण नहीं कर सकती है। जब इलेक्ट्रॉन, लक्ष्य पर प्रहार करते हैं, तब दो अलग-अलग परमाण्विक प्रक्रियाओं द्वारा एक्स-रे का निर्माण होता है: एक्स-रे प्रतिदीप्ति: यदि इलेक्ट्रॉन में पर्याप्त ऊर्जा है तो यह एक धात्विक परमाणु के भीतरी इलेक्ट्रॉन आवरण के बाहर एक कक्षीय इलेक्ट्रॉन पर दस्तक दे सकता है और परिणामस्वरूप अधिक ऊर्जा स्तरों के इलेक्ट्रॉन तब रिक्त स्थान को भर देते हैं और एक्स-रे फोटॉन उत्सर्जित होने लगते हैं। इस प्रक्रिया से एक्स-रे की आवृतियों के एक उत्सर्जन वर्णक्रम की उत्पत्ति होती है, जिसे कभी-कभी वर्णक्रमीय रेखाओं के रूप में संदर्भित किया जाता है। उत्पन्न वर्णक्रमीय रेखाएं प्रयुक्त लक्ष्य (एनोड) तत्व पर निर्भर करती हैं और इस प्रकार इन्हें अभिलाक्षणिक रेखाएं कहते हैं। आमतौर पर ये ऊपरी आवरणों से के-आवरण (K shell) (के-रेखाएं कहते हैं), एल आवरण (एल रेखाएं कहते हैं) और इसी तरह की अन्य आवरण में अवस्थांतर हैं। ब्रेम्सस्ट्रॉलंग (Bremsstranhlung): यह इलेक्ट्रॉनों द्वारा मुक्त विकिरण है क्योंकि उन्हें उच्च-जेड (प्रोटॉन संख्या) नाभिक के पास सशक्त बिजली क्षेत्र द्वारा विखेर दिया जाता है। इन एक्स-रे का एक सतत वर्णक्रम होता है। एक्स-रे की तीव्रता, एक्स-रे नली पर वोल्टेज, संयोग इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा पर शून्य से, घटती आवृति के साथ रैखिक रूप में बढ़ती जाती है। इसलिए एक नली के परिणामी उत्पाद में नली के वोल्टेज पर शून्य तक गिरने वाला एक सतत ब्रेम्सस्ट्रॉलंग वर्णक्रम और साथ में अभिलाक्षणिक रेखाओं पर कई स्पाइक होते हैं। नैदानिक एक्स-रे नलियों में प्रयुक्त वोल्टेज और इस तरह एक्स-रे की उच्चतम ऊर्जा लगभग 20 से 150 केवी तक होती है।[15] चिकित्सीय नैदानिक अनुप्रयोगों में, कम ऊर्जा वाली (मृदु) एक्स-रे अवांछित होती हैं क्योंकि शरीर उन्हें पूरी तरह अवशोषित कर लेता है, जिससे मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए, एक पतली धात्विक शीट, अक्सर एल्यूमीनियम की शीट या चादर, जिसे एक्स-रे फिल्टर कहा जाता है, को आम तौर पर एक्स-रे नली की खिड़की पर रखा जाता है, जो वर्णक्रम में कम ऊर्जा वाले घटकों को फिल्टर करती है। इसे बीम का सख्तीकरण कहते हैं। एक्स-रे के उत्पादन की ये दोनों प्रक्रियाएं बहुत अक्षम हैं, इनकी उत्पादन क्षमता केवल एक प्रतिशत के आसपास है और इसलिए, एक्स-रे की एक प्रयोग करने योग्य प्रवाह का उत्पादन करने के लिए, इनपुट के रूप में प्रविष्ट की जाने वाली विद्युत् शक्ति के एक उच्च प्रतिशत को अपशिष्ट ऊष्मा के रूप में मुक्त किया जाता है। एक्स-रे नली का डिजाइन ऐसा होना चाहिए कि यह इस अतिरिक्त ऊष्मा को फैला सके। विकृति विज्ञान के एक व्यापक वर्णक्रम की पहचान करने के लिए एक्स-रे के इस्तेमाल से प्राप्त रेडियोग्राफ का इस्तेमाल किया जा सकता है। चूंकि चिकित्सीय अनुप्रयोगों में जिन शारीरिक संरचनाओं का चित्रण किया जा रहा होता है, वे एक्स-रे के तरंगदैर्घ्य की तुलना में बड़ी होती हैं, अतः एक्स-रे को तरंगों के बजाय कणों के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है। (यह एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी के विपरीत है, जहां उनकी तरंग जैसी प्रकृति अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि तरंगदैर्ध्य, चित्रित की जा रही संरचनाओं के आकारों के तुलनीय होता है।) मानव या पशु अस्थियों के एक्स-रे का एक चित्र बनाने के लिए, लघु एक्स-रे स्पंदन, शरीर या अंग को प्रकाशित करते हैं और इसके पीछे रेडियोग्राफिक फिल्म रखी होती है। उपस्थित कोई भी अस्थियां प्रकाश विद्युत् प्रक्रियाओं द्वारा एक्स-रे के अधिकांश फोटॉन को अवशोषित कर लेती हैं। इसकी वजह यह है कि अस्थियों में मृदु ऊतकों की तुलना में उच्च इलेक्ट्रॉन घनत्व होता है। [ध्यान दें कि अस्थियों में कैल्शियम (20 इलेक्ट्रॉन प्रति परमाणु), पोटैशियम (19 इलेक्ट्रॉन प्रति परमाणु), मैग्नेशियम (12 इलेक्ट्रॉन प्रति परमाणु) और फॉस्फरस (15 इलेक्ट्रॉन प्रति परमाणु) की मात्रा का प्रतिशत उच्च होता है। मांस से होकर गुजरने वाली एक्स-रे फोटोग्राफिक फिल्म में एक गुप्त तस्वीर छोड़ जाती हैं। जब फिल्म को डेवलप किया जाता है, उस समय उच्च एक्स-रे अनावरण के समतुल्य तस्वीर के भाग गहरे रंग के होते हैं, जो फिल्म पर अस्थियों की सफ़ेद छाया छोड़ जाते हैं। धमनियों और शिराओं (एंजियोग्राफी) सहित, हृदयवाहिनी तंत्र की एक छवि उत्पन्न करने के लिए, एक इच्छित संरचनात्मक क्षेत्र की एक आरंभिक छवि ली जाती है। इस क्षेत्र के भीतर की रक्त वाहिनियों में आयोडीनीकृत विपरीत रंग प्रविष्ट करने के बाद इसी क्षेत्र की तब एक दूसरी छवि ली जाती है। इन दोनों चित्रों को तब डिजिटल रूप में घटाया जाता है, जिससे केवल रक्त वाहिनियों की रूपरेखा वाला आयोडीनीकृत रंग शेष रह जाता है। इसके बाद रेडियोलॉजिस्ट या शल्य-चिकित्सक प्राप्त की गई इस छवि की तुलना सामान्य संरचनात्मक चित्रों से करता है, ताकि यह ज्ञात किया जा सके कि क्या रक्तवाहिनी को कोई क्षति पहुंची है या इसमें कोई अवरोध है। एक्स-रे का एक विशेषीकृत स्रोत, जो अनुसंधान में व्यापक रूप से प्रयुक्त स्रोत बनता जा रहा है, सिंक्रोटॉन विकिरण है, जिसे कण त्वरकों द्वारा उत्पन्न किया जाता है। इसकी अद्वितीय विशेषताएं - एक्स-रे नलियों के परिमाण से कहीं अधिक एक्स-रे उत्पादों का परिमाण, व्यापक एक्स-रे स्पेक्ट्रा, उत्कृष्ट समान्तरण और रैखिक ध्रुवीकरण हैं।[16] ब्व्फ्गेत डिटेक्टर फोटोग्राफिक प्लेट विभिन्न तरीकों के आधार पर एक्स-रे का पता लगाया जाता है। सबसे अधिक आम तौर पर जाने जाने वाले तरीके - फोटोग्राफिक प्लेट, कैसेट में फोटोग्राफिक फिल्म और दुर्लभ पृथ्वी स्क्रीन हैं। छवि में समाविष्ट होने वाले तत्वों की परवाह किए बिना इन सभी को "इमेज रिसेप्टर" (आईआर) (IR) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। डिजिटल कंप्यूटर के आगमन और डिजिटल इमेजिंग के आविष्कार से पहले अधिकांश रेडियोग्राफिक चित्र उत्पन्न करने के लिए फोटोग्राफिक प्लेटों का इस्तेमाल किया जाता था। इन चित्रों को बिलकुल कांच के प्लेटों पर उत्पन्न किया जाता था। फोटोग्राफिक फिल्मों ने बड़े पैमाने पर इन प्लेटों की जगह ले ली और चिकित्सीय चित्रों को उत्पन्न करने के लिए एक्स-रे प्रयोगशालाओं में इसका इस्तेमाल किया जाता था। और अधिक हाल के वर्षों में, चिकित्सीय और दन्त चिकित्सीय अनुप्रयोगों में फोटोग्राफिक फिल्म की जगह कम्प्यूटरीकृत और डिजिटल रेडियोग्राफी का इस्तेमाल हो रहा है, हालांकि औद्योगिक रेडियोग्राफी प्रक्रियाओं में अभी भी फिल्म प्रौद्योगिकी का काफी इस्तेमाल होता है (जैसे - वेल्डेड सीम्स का निरीक्षण करने के लिए). फोटोग्राफिक प्लेट ज्यादातर इतिहास की बातें हैं और उनकी जगह लेने वाली "इंटेंसिफाइंग स्क्रीन" भी इतिहास में फ़ीकी पड़ती जा रही है। धातु चांदी (पहले रेडियोग्राफिक और फोटोग्राफिक उद्योगों के लिए आवश्यक था) एक गैर नवीकरणीय संसाधन है। इस प्रकार यह लाभदायक है कि इसे अब डिजिटल (डीआर/DR) और कंप्यूटरीकृत (सीआर/CR) प्रौद्योगिकी द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है। जहां फोटोग्राफिक फिल्मों के लिए गीली प्रसंस्करण सुविधाओं की जरूरत पड़ती थी, वहीं इन नई प्रौद्योगिकियों के लिए यह सब जरूरी नहीं है। इन नई तकनीकों के इस्तेमाल से चित्रों के डिजिटल संग्रहीकरण से भी भंडारण स्थान की बचत होती है। चूंकि फोटोग्राफिक प्लेट, एक्स-रे के प्रति संवेदनशील होते हैं, अतः वे चित्र को रिकॉर्ड करने का एक साधन प्रदान करते हैं, लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा एक्स-रे अनावरण (रोगी के लिए) की भी जरूरत पड़ती है, इसलिए इंटेंसिफाइंग स्क्रीन को तैयार किया गया। वे रोगी को बहुत कम मात्रा प्रदान करते हैं, क्योंकि स्क्रीन, एक्स-रे प्राप्त करती है और इसकी तीव्रता बढ़ाती है, ताकि इसे इंटेंसिफाइंग स्क्रीन के आगे रखे गए फिल्म पर रिकॉर्ड किया जा सके। रोगी के जिस अंग से एक्स-रे को प्रवाहित करना है, उसे एक्स-रे स्रोत और इमेज रिसेप्टर के बीच रखा जाता है जिससे शरीर के केवल उसी विशेष अंग की आतंरिक संरचना की छाया उत्पन्न हो सके। ये एक्स-रे आंशिक रूप से अस्थि जैसे घने ऊतकों द्वारा अवरूद्ध ("क्षीण") हो जाती हैं और मृदु ऊतकों से बड़ी आसानी से गुजर जाती हैं। जिन-जिन क्षेत्रों से होकर ये एक्स-रे गुजरती हैं, वे क्षेत्र डेवलप करने पर गहरा रंग धारण कर लेते हैं, जिससे अस्थियां आस-पास के ऊतकों की तुलना में थोड़ी हल्के रंग की दिखाई पड़ती हैं। बेरियम या आयोडीन युक्त विपरीत यौगिकों, जो रेडियोपेक होते हैं, को जठरांत्र पथ (बेरियम) में अंतर्ग्रहित किया जा सकता है या इन वाहिनियों को उजागर करने के लिए धमनी या शिराओं में प्रविष्ट किया जा सकता है। इन विपरीत यौगिकों में उच्च परमाण्विक संख्यायुक्त तत्व होते हैं जो (अस्थि की तरह) अनिवार्य रूप से एक्स-रे को अवरूद्ध कर देते हैं और इसलिए एक बार खोखले अंग या वाहिनी को और अधिक आसानी से देखा जा सकता है। एक गैर विषैले विपरीत पदार्थ की खोज में, कई प्रकार के उच्च परमाणु संख्या वाले तत्वों का मूल्यांकन किया जाता था। उदाहरणार्थ, हमारे पूर्वजों ने पहली बार जिस निरूपण का प्रयोग किया, वह चाक था और इसका प्रयोग एक शव की नलिकाओं पर किया गया था। दुर्भाग्य से, कुछ चुने हुए तत्व हानिकारक साबित हुए - उदाहरण के लिए, थोरियम का प्रयोग निरूपण के एक माध्यम (थोरोट्रास्ट) के रूप में किया जाता था - जो कुछ मामलों में विषैला बन गया (थोरियम के विषैले प्रभाव की वजह से चोट और कभी-कभी मौत भी हो जाती थी). आधुनिक निरूपण पदार्थ में सुधार हुआ है और जबकि यह निर्धारित करने का कोई तरीका नहीं है कि किसमें निरूपण के प्रति संवेदनशीलता है, "एलर्जी जैसी प्रतिक्रियाओं" की घटना बहुत कम है। (इस जोखिम की तुलना पेनिसिलिन के साथ जुड़े जोखिम से की जा सकती है।) फोटोस्टिमुलेबल फॉस्फर (पीएसपी) एक उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ आम तरीका फोटोस्टिमुलेटेड ल्यूमिनेसेन्स (पीएसएल (PSL)) का इस्तेमाल है जिसकी शुरुआत 1980 के दशक में फुजी (Fuji) ने की थी। आधुनिक अस्पतालों में फोटोग्राफिक प्लेट की जगह फोटोस्टिमुलेबल फॉस्फर प्लेट का इस्तेमाल किया जाता है। प्लेट पर एक्स-रे प्रवाहित करने के बाद, फॉस्फर पदार्थ के उत्साहित इलेक्ट्रॉन तब तक क्रिस्टल जालक के "रंग केन्द्रों" में "फंसे" रहते हैं जब तक प्लेट की सतह से गुजरने वाले लेज़र बीम द्वारा उन्हें उत्तेजित नहीं कर दिया जाता. लेज़र उत्तेजना के दौरान मुक्त प्रकाश को एक फोटोमल्टीप्लायर ट्यूब द्वारा इकठ्ठा कर लिया जाता है और परिणामी संकेत को कंप्यूटर प्रौद्योगिकी द्वारा एक डिजिटल इमेज में परिवर्तित कर दिया जाता है, जो इस प्रक्रिया को इसका आम नाम, कंप्यूटरीकृत रेडियोग्राफी, प्रदान करता है (जिसे डिजिटल रेडियोग्राफी के रूप में भी संदर्भित किया जाता है). पीएसपी (PSP) प्लेट को फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है, और उन्हें इस्तेमाल करने के लिए मौजूदा एक्स-रे उपकरण में कोई संशोधन करने की ज़रूरत नहीं होती. गीजर काउंटर (रेडियोसक्रियता प्रदर्शित करने वाला यंत्र) प्रारंभ में, सबसे आम पता लगाने वाले तरीके गैसों के आयनीकरण पर आधारित थे, जैसे कि गीजर-मुलर काउंटर में: एक सील्ड वॉल्यूम, आम तौर पर एक सिलिंडर, जिसके साथ एक अभ्रक, बहुलक या पतली धात्विक खिड़की में गैस, बेलनाकार कैथोड और एक तार एनोड होता है; कैथोड और एनोड के बीच उच्च वोल्टेज प्रवाहित किया जाता है। जब एक एक्स-रे फोटॉन सिलिंडर में प्रवेश करती है, तो यह गैर का आयनीकरण करती है और आयनों व इलेक्ट्रॉनों का निर्माण करती है। इस प्रक्रिया में इलेक्ट्रॉन, एनोड की तरफ तेजी से बढ़ते हैं, जिसकी वजह से उनके प्रक्षेपवक्र के साथ आगे चलकर आयनीकरण होता है। टाउन्सएन्ड ऐवेलैन्च (Townsend avalanche) के नाम से जाने जानी वाली इस प्रक्रिया का पता एक आकस्मिक धारा के रूप में लगाया जाता है जिसे एक "गिनती" या "घटना" कहा जाता है। ऊर्जा वर्णक्रम की जानकारी प्राप्त करने के लिए, विभिन्न फोटॉन को अलग करने के लिए सबसे पहले एक विवर्तनीय क्रिस्टल का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस विधि को वेवलेंथ डिस्पर्सिव एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोपी (डब्ल्यूडीएक्स/WDX या डब्ल्यूडीएस/WDS) कहा जाता है। फैलानेवाले तत्वों के साथ अक्सर स्थिति के प्रति संवेदनशील डिटेक्टरों का इस्तेमाल किया जाता है। स्वाभाविक रूप से ऊर्जा का समाधान करने वाले अन्य पहचान उपकरणों, जैसे - पूर्वचर्चित समानुपातिक काउंटर, का इस्तेमाल किया जा सकता है। दोनों में से किसी भी मामले में, उपयुक्त पल्स-प्रोसेसिंग (एमसीए/MCA) उपकरणों का उपयोग, बाद के विश्लेषण के लिए डिजिटल स्पेक्ट्रा के निर्माण की अनुमति देता है। कई अनुप्रयोगों के लिए, काउंटर को सील नहीं किया जाता है लेकिन इनमें लगातार शुद्ध गैस भरी जाती है, इस प्रकार संदूषण या गैस क्षय की समस्या कम हो जाती है। इन्हें "प्रवाह काउंटर" कहा जाता है। सिंटिलेटर सोडियम आयोडाइड (NaI) जैसे कुछ पदार्थ एक एक्स-रे फोटॉन को एक दृश्यमान फोटॉन में "बदल" सकते हैं; एक फोटोमल्टीप्लायर जोड़कर एक इलेक्ट्रॉनिक डिटेक्टर का निर्माण किया जा सकता है। इन डिटेक्टरों को "सिंटिलेटर", फिल्मस्क्रीन या "सिंटिलेशन काउंटर" कहते हैं। इनके उपयोग का मुख्य लाभ यह है कि रोगी पर एक्स-रे की बहुत कम मात्रा प्रवाहित करने पर भी एक पर्याप्त चित्र प्राप्त किया जा सकता है। छवि तीव्रीकरण एक एक्स-रे इमेज इंटेंसिफायर के इस्तेमाल से प्राप्त प्रतिदीप्तिदर्शन के इस्तेमाल से खोखले अंगों (जैसे - छोटी या बड़ी अंत का बेरियम एनीमा) के विपरीत अध्ययनों या एंजियोग्राफी जैसी "वास्तविक-जीवन" प्रक्रियाओं में भी एक्स-रे का इस्तेमाल किया जाता है। एंजियोप्लास्टी, धमनीय तंत्र का चिकित्सीय हस्तक्षेप, संभावित रूप से इलाज योग्य घावों की पहचान करने के लिए बहुत ज्यादा एक्स-रे-संवेदी निरूपण पर भरोसा करते हैं। डायरेक्ट सेमीकंडक्टर डिटेक्टर 1970 के दशक के बाद से, नए सेमीकंडक्टर डिटेक्टरों को विकसित किया गया है (लिथियम युक्त सिलिकॉन या जर्मेनियम, एसआई (एलआई)/Si (Li) या जीई (एलआई)/Ge(Li)). एक्स-रे के फोटॉन को अर्धचालक में इलेक्ट्रॉन-छिद्र जोड़े में बदल दिया जाता है और एक्स-रे का पता लगाने के लिए इकठ्ठा किया जाता है। जब तापमान पर्याप्त रूप से कम हो जाता है (डिटेक्टर को पेल्टियर प्रभाव द्वारा या इससे भी ठन्डे तरल नाइट्रोजन द्वारा ठंडा किया जाता है), तब एक्स-रे ऊर्जा वर्णक्रम का प्रत्यक्ष निर्धारण करना संभव होता है; इस विधि को एनर्जी डिस्पर्सिव एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोपी (ईडीएक्स/EDX या ईडीएस/EDS) कहा जाता है; इसका इस्तेमाल अक्सर छोटे एक्स-रे प्रतिदीप्ति स्पेक्ट्रोमीटर में किया जाता है। इन डिटेक्टरों को कभी-कभी "सॉलिड स्टेट डिटेक्टर" भी कहा जाता है। कैडमियम टेल्यूराइड (CdTe) आधारित डिटेक्टरों और जस्ता के मिश्रण से तैयार मिश्र धातु, कैडमियम जस्ता टेल्यूराइड, की संवेदनशीलता बहुत बढ़ जाती है जो एक्स-रे की कम मात्रा का इस्तेमाल करने की अनुमति प्रदान करती है। चिकित्सीय चित्रण (मेडिकल इमेजिंग) में व्यावहारिक अनुप्रयोग की शुरुआत 1990 के दशक में हुई थी। वर्तमान में मैमोग्राफी और सीने की रेडियोग्राफी के लिए वाणिज्यिक विशाल क्षेत्र के फ़्लैट पैनल एक्स-रे डिटेक्टरों में आकारहीन सेलेनियम का इस्तेमाल किया जाता है। वर्तमान अनुसंधान और विकास, पिक्सेल डिटेक्टरों के इर्द-गिर्द केन्द्रित है, जैसे - सर्न (CERN) का ऊर्जा संकल्पक मेडिपिक्स डिटेक्टर. ध्यान दें: एक एक्स-रे बीम में रखने पर एक मानक अर्धचालक डायोड, जैसे - 1N4007 विद्युत-प्रवाह की बहुत थोड़ी मात्रा उत्पन्न करेगा। चिकित्सीय चित्रण (मेडिकल इमेजिंग) सर्विस कर्मियों द्वारा एक बार इस्तेमाल किया गया एक परीक्षण उपकरण एक छोटा सा प्रोजेक्ट बॉक्स था जिसमें इस तरह के कई डायोड श्रृंखलाबद्ध रूप में निहित थे, जिसे एक शीघ्र निदान के रूप में एक ऑसिलोस्कोप से जोड़ा जा सकता था। पारंपरिक अर्धचालक संरचना से उत्पन्न सिलिकॉन ड्रिफ्ट डिटेक्टर (एसडीडी (SDD)) अब एक लागत प्रभावी और उच्च संकल्पक शक्ति विकिरण माप प्रदान करते हैं। एसआई (एलआई)/Si (Li) जैसे पारंपरिक एक्स-रे डिटेक्टरों के विपरीत, इन्हें तरल नाइट्रोजन से ठंडा करने की जरूरत नहीं पड़ती है। सिंटिलेटर प्लस सेमीकंडक्टर डिटेक्टर (इनडायरेक्ट डिटेक्शन) विशाल अर्धचालक सारणी डिटेक्टरों के आगमन से एक्स-रे से दृश्य प्रकाश में बदलने के लिए सिंटिलेटर स्क्रीन का इस्तेमाल करके डिटेक्टर सिस्टमों को डिजाइन करना संभव हो गया है जिसे तब एक सारणी डिटेक्टर में विद्युतीय संकेतों में बदल दिया जाता है। आजकल चिकित्सा, दंत चिकित्सा, पशु चिकित्सा और औद्योगिक अनुप्रयोगों में अप्रत्यक्ष फ्लैट पैनल डिटेक्टरों (एफपीडी/FPD) का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। सारणी प्रौद्योगिकी, कई फ़्लैट पैनल डिस्प्ले में इस्तेमाल होने वाले आकारहीन सिलिकॉन टीएफटी (TFT) सारणियों का एक भिन्नरूप है जैसा कंप्यूटर लैपटॉप में होता है। सारणी में सिलिकॉन की एक पतली परत से ढंकी हुई कांच की एक चादर होती है जो एक आकारहीन या अव्यवस्थित स्थिति में होती है। एक सूक्ष्म स्तर पर, सिलिकॉन को एक ग्राफ कागज़ के एक पत्रक पर ग्रिड की तरह, बहुत ज्यादा क्रमबद्ध सारणी में व्यवस्थित लाखों ट्रांजिस्टरों के साथ अंकित किया जाता है। इनमें से प्रत्येक थिन फिल्म ट्रांजिस्टर (टीएफटी/TFT) को एक प्रकाश-अवशोषक फोटोडायोड के साथ संलग्न किया जाता है जिससे एक अकेले पिक्सेल (चित्र तत्व) का निर्माण होता है। फोटोडायोड पर प्रहार करने वाले फोटॉन, विद्युत आवेश के दो वाहकों में रूपांतरित हो जाते हैं, जिन्हें इलेक्ट्रॉन-छिद्र युग्म कहा जाता है। चूंकि उत्पन्न आवेश वाहकों की संख्या आने वाले प्रकाश फोटॉन की तीव्रता के साथ बदलती जाएगी, अतः एक विद्युतीय पद्धति का निर्माण होता है जो तेजी से एक वोल्टेज में बदल सकता है और उसके बाद एक डिजिटल संकेत में बदल सकता है, जिसे एक कंप्यूटर द्वारा एक डिजिटल चित्र उत्पन्न करने के लिए रूपांतरित किया जाता है। हालांकि सिलिकॉन में उत्कृष्ट इलेक्ट्रॉनिक गुण होते हैं, लेकिन फिर भी यह विशेष रूप से एक्स-रे के फोटॉन का एक अच्छा अवशोषक नहीं है। इसी वजह से, एक्स-रे सबसे पहले गैडोलिनियम ऑक्सीसल्फाइड या सीज़ियम आयोडाइड जैसे पदार्थों से बने सिंटिलेटर पर गिरती हैं। सिंटिलेटर, एक्स-रे को अवशोषित कर उन्हें दृश्य प्रकाश फोटॉन में बदल देता है जो उसके बाद फोटोडायोड सारणी पर से गुजरता है। मानव आंख के लिए दर्शनीयता आम तौर पर मानव आंख के लिए अदृश्य मानी जाने वाली एक्स-रे को विशेष परिस्थितियों में देखा जा सकता है।[17] रॉन्टगन के 1895 के युगांतरकारी शोध-पत्र के कुछ समय बाद किये गये एक प्रयोग में ब्राड़ेस ने जानकारी दी कि अंधकार अनुकूलन कर लेने और अपनी आंख को एक एक्स-रे नलिका के पास रखने पर, उन्होंने एक धुंधली "नीली-धूसर" चमक देखी, जो स्वयं आंख से ही उत्पन्न हुई लगती थी।[18] यह सुनने पर रॉन्टगन ने अपनी रिकॉर्ड पुस्तकों की समीक्षा की और पाया कि उन्होंने इस प्रभाव को देखा था। रॉन्टगन ने इसी तरह की एक नीली चमक देखी थी, जो स्वतः आंख से ही निकलती हुई प्रतीत हो रही थी, लेकिन केवल एक प्रकार की नली का इस्तेमाल करने पर इस प्रभाव को देखने की वजह से उन्होंने अपने इस अवलोकन को गलत मान लिया। बाद में उन्हें एहसास हुआ कि इस प्रभाव को उत्पन्न करने वाली नली एकमात्र ऐसी नली थी जिसमें इस चमक को स्पष्ट रूप से दिखाई देने लायक बनाने की काफी क्षमता थी और उसके बाद प्रयोग को तत्काल दोहराए जाने की सम्भावना थी। एक्स-रे, वास्तव में अन्धकार-अनुकूलित नग्न आंख द्वारा धुंधले रूप में दिखाई दे सकती हैं, इस ज्ञान को आज के दौर में काफी हद तक भुलाया जा चुका है; ऐसा शायद उस क्रिया को न दोहराने की इच्छा की वजह से हो सकता है जिस क्रिया को अब आयनशील विकिरण के साथ एक बेतहाशा खतरनाक और संभवतः हानिकारक प्रयोग के रूप में देखा जाता था। आंख में दृश्यता को उत्पन्न करने वाली सटीक विधि ज्ञात नहीं है: ऐसा पारंपरिक संसूचन (रेटिना में रॉडोप्सिन के अणुओं की उत्तेजना), रेटिनल तंत्रिका कोशिकाओं की प्रत्यक्ष उत्तेजना, या गौणतः उत्पन्न दृश्य प्रकाश के पारंपरिक रेटिनल संसूचन के साथ नेत्रगोलक में उदाहरणतः फॉस्फरेसेंस के एक्स-रे प्रवेश के माध्यम से द्वितीयक संसूचन की वजह से हो सकता है। हालांकि एक्स-रे को अन्य प्रकार से नहीं देखा सकता है, लेकिन यदि एक्स-रे पुंज की तीव्रता काफी अधिक हो तो वायु के अणुओं के आयनीकरण को देखा जा सकता है। ईएसआरएफ (European Synchrotron Radiation Facility के के विग्लर की पुंजरेखा, ऐसी ही उच्च तीव्रता का एक उदाहरण है।[19] चिकित्सीय उपयोग एक्स-रे अस्थियों की संरचनाओं की पहचान कर सकती हैं, रॉन्टगन के इस खोज के बाद से चिकित्सीय चित्रण (मेडिकल इमेजिंग) में इनका इस्तेमाल करने के लिए एक्स-रे का विकास किया गया है, इस विषय पर उनके प्राथमिक शोध-पत्र के एक महीने के भीतर इसका इस्तेमाल किया गया था।[20] रेडियोलॉजी, चिकित्सा का एक विशेष क्षेत्र है। रेडियोलॉजिस्ट, नैदानिक चित्रण (डायग्नोस्टिक इमेजिंग) के लिए रेडियोग्राफी और अन्य तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। यह शायद एक्स-रे प्रौद्योगिकी का सबसे आम उपयोग है। ये एक्स-रे विशेष रूप से कंकाल तंत्र की विकृति का पता लगाने में काफी उपयोगी हैं लेकिन मृदु ऊतक में कुछ रोगी प्रक्रियाओं का पता लगाने के लिए भी ये उपयोगी होती हैं। कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं - सीने का बहुत आम एक्स-रे, जिसका इस्तेमाल निमोनिया, फेफड़ों के कैंसर या फुफ्फुसीय शोफ़ जैसे फेफड़ों के रोगों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है; और पेट का एक्स-रे, जो आंत अवरोध, मुक्त वायु (आंत वेधन) और मुक्त तरल (जलोदर में) का पता लगा सकता है। एक्स-रे का इस्तेमाल अक्सर (लेकिन हमेशा नहीं) दिखाई देने योग्य गुर्दे की पथरियों और पित्तपथरियों (जो शायद ही कभी रेडियोपेक होते हैं) जैसी विकृतियों का पता लगाने के लिए भी किया जा सकता है। परंपरागत साधारण एक्स-रे, मस्तिष्क या मांसपेशी जैसे मृदु ऊतकों की छवि लेने में बहुत कम उपयोगी होती हैं। मृदु ऊतकों की छवि लेने के विकल्प - कंप्यूटरीकृत अक्षीय टोमोग्राफी (कैट (CAT) या सीटी (CT) स्कैनिंग)[21], चुम्बकीय अनुनाद चित्रण (एमआरआई/MRI) या अल्ट्रासाउंड हैं। बाद वाले दो विकल्प, आयनशील विकिरण के लिए व्यक्ति के अधीन नहीं हैं। साधारण एक्स-रे और सीटी (CT) स्कैन के अलावा, चिकित्सक एक एक्स-रे परीक्षण पद्धति के रूप में प्रतिदीप्तिदर्शन का उपयोग करते हैं। इस विधि के अंतर्गत अक्सर दवा के रूप में एक चिकित्सीय निरूपण पदार्थ (अंतःशिरा, मुंह या गुदावस्ति के माध्यम से) दिया जाता है। उदाहरणों में कार्डियक कैथेटराइजेशन (परिहृद् धमनी अवरोध की जांच) और बेरियम स्वालो (ग्रासनली के विकारों की जांच) शामिल हैं। 2005 के बाद से अमेरिकी सरकार ने एक्स-रे को एक कैंसरजनक के रूप में सूचीबद्ध किया है।[22]. एक इलाज के रूप में एक्स-रे के उपयोग को रेडियोथेरपी के नाम से जाना जाता है और कैंसर के प्रबंधन (उपशमन सहित) के लिए इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है; इसके लिए केवल चित्रण की तुलना में कहीं अधिक विकिरण ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। चिकित्सीय नैदानिक एक्स-रे के जोखिम अध्ययन के आधार पर, एक्स-रे, जांच करने का एक अपेक्षाकृत सुरक्षित तरीका है और इसका विकिरण अनावरण या जोखिम अपेक्षाकृत कम है। हालांकि, प्रयोगात्मक और महामारी विज्ञान के आंकड़े इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं करते हैं कि विकिरण की एक सीमा रेखा वाली मात्रा से नीचे कैंसर का ज्यादा खतरा नहीं रहता है।[23] नैदानिक एक्स-रे का परिमाण, मानव-निर्मित और विश्वव्यापी प्राकृतिक संसाधनों के कुल वार्षिक विकिरण अनावरण का 14% है।[24] अनुमान है कि 75 वर्ष की आयु तक के लोगों में अतिरिक्त विकिरण से कैंसर होने के संचयी जोखिम में 0.6-1.8% की वृद्धि होगी। [25] अवशोषित विकिरण की मात्रा, एक्स-रे परीक्षण के प्रकार और उसमें भाग लेने वाले शरीर के अंग पर निर्भर करती है।[26] सीटी (CT) और प्रतिदीप्तिदर्शन, साधारण एक्स-रे का इस्तेमाल करने के बजाय विकिरण की अत्यधिक मात्रा को आवश्यक बना देते हैं। वर्धित जोखिम को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, सीने का एक सामान्य एक्स-रे या दन्त चिकित्सीय एक्स-रे, पृष्ठभूमि विकिरण से एक समान मात्रा के लिए एक व्यक्ति का अनावरण करेगा जिसके प्रति हम 10 दिनों की समयावधि में प्रतिदिन अनावृत (स्थान के आधार पर) होते हैं।[27] ऐसी प्रत्येक एक्स-रे संपूर्ण जीवन-काल में कैंसर के जोखिम में 1 प्रति 1,000,000 से भी कम की वृद्धि करेगी। एक उदर या सीने का सीटी (CT), पृष्ठभूमि विकिरण के 2-3 वर्षों के बराबर होगा, जो 1 प्रति 10,000 और 1 प्रति 1,000 के बीच जीवनपर्यंत कैंसर जोखिम में वृद्धि करेगा। [27] ये संख्या हमारे जीवनकाल के दौरान किसी भी कैंसर के विकसित होने की लगभग 40% संभावना की तुलना में बहुत कम है।[28] नैदानिक एक्स-रे के प्रति अनावृत पिता के बच्चों में इसके होने की बहुत ज्यादा सम्भावना रहती है जो ल्यूकेमिया के संपर्क में आते हैं, खास तौर पर यदि अनावरण गर्भाधान के काफी करीब हो या निचले गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल (जीआई/GI) पथ या निचले उदर का दो या दो से अधिक एक्स-रे शामिल हो। [29] विकिरण का खतरा अजन्मे बच्चों में ज्यादा होता है, इसलिए गर्भवती रोगियों में, जांच (एक्स-रे) के लाभों को अजन्मे बच्चों को होने वाले संभावित खतरों के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। [30][31] अमेरिका में, प्रति वर्ष लगभग 62,000,000 सीटी (CT) स्कैन किए जाते हैं, जिसमें से बच्चों पर 4,000,000 से ज्यादा स्कैन किए जाते हैं।[26] अनावश्यक एक्स-रे (खास तौर पर सीटी (CT) स्कैन) से बचने से विकिरण की मात्रा और कैंसर से जुड़े किसी भी खतरे में कमी आएगी.[32] एक्स-रे से बचाव उच्च घनत्व (11340 किलोग्राम प्रति घन मीटर), रोकने की शक्ति, स्थापन में आसानी और कम लागत की वजह से सीसा, एक्स-रे के खिलाफ सबसे आम कवच है। पदार्थ में एक्स-रे जैसे एक उच्च ऊर्जा फोटॉन की अधिकतम सीमा अनंत होती है; फोटॉन द्वारा पारगमित पदार्थ में प्रत्येक स्थान पर, अंतःक्रिया की सम्भावना रहती है। इस प्रकार बहुत ज्यादा दूरी रहने पर अंतःक्रिया की बहुत कम सम्भावना रहती है। इसलिए फोटॉन पुंज का कवच घातांकीय होता है (और साथ में क्षीणन लंबाई, पदार्थ की विकिरण लम्बाई के बहुत करीब होती है); कवच की मोटाई को दोगुना करने से कवच का प्रभाव अपने वर्ग के बराबर हो जाएगा. सेकण्ड इंटरनैशनल काँग्रेस ऑफ़ रेडियोलॉजी की सिफारिशों से, निम्नलिखित तालिका से एक्स-रे की ऊर्जा के कार्य में कांच के कवच की अनुशंसित मोटाई का पता कहलता है।[33] अन्य उपयोग एक्स-रे के अन्य उल्लेखनीय उपयोगों में शामिल हैं एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी जिसमें एक क्रिस्टल के अणुओं के बिल्कुल पास-पास स्थित जालक के स्वरूप को प्रकट करने के लिए सबसे पहले उस जालक के माध्यम से एक्स-रे के विवर्तन से उत्पन्न पद्धति को रिकॉर्ड किया जाता है और उसके बाद उसका विश्लेषण किया जाता है। डीएनए (DNA) की दोहरी पेचदार संरचना की खोज करने के लिए रोजालिंड फ्रैंकलिन ने फाइबर विवर्तन नामक एक संबंधित तकनीक का इस्तेमाल किया था।[34] एक्स-रे खगोल विज्ञान, जो खगोल विज्ञान की एक अवलोकनमूलक शाखा है, जो खगोलीय वस्तुओं से एक्स-रे उत्सर्जन के अध्ययन से संबंधित है। एक्स-रे सूक्ष्मदर्शीय विश्लेषण, जो बहुत छोटी-छोटी वस्तुओं के चित्र उत्पन्न करने के लिए मृदु एक्स-रे पट्टी में विद्युत् चुम्बकीय विकिरण का इस्तेमाल करता है। एक्स-रे प्रतिदीप्ति, यह एक ऐसी तकनीक है जिसमें एक नमूने के अंतर्गत एक्स-रे को उत्पन्न किया जाता है और उनकी पहचान की जाती है। नमूने की संरचना की पहचान करने के लिए एक्स-रे की बहिर्गामी ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है। औद्योगिक रेडियोग्राफी में औद्योगिक पुर्जों, खास तौर पर वेल्ड्स, के निरीक्षण के लिए एक्स-रे का इस्तेमाल होता है। पेंटिंग के दौरान या बाद में संरक्षणकर्ताओं द्वारा अण्डरड्रॉइंग और पेंटिमेंटी या परिवर्तनों को प्रकट करने के लिए पेंटिंग या चित्रकलाओं का अक्सर एक्स-रे निकाला जाता है। श्वेत सीसे जैसे कुछ रंग एक्स-रे द्वारा निर्मित चित्रों में अच्छी तरह दिखाई देते हैं विमान में सामानों को लादने से पहले सुरक्षा सम्बन्धी खतरों से बचने के लिए सामानों के अंदरूनी भागों का निरीक्षण करने के लिए हवाई अड्डों के सुरक्षा सामान स्कैनरों में एक्स-रे का इस्तेमाल होता है। देश की सीमाओं पर ट्रकों के अंदरूनी भागों का निरीक्षण करने के लिए सीमा सुरक्षा ट्रक स्कैनरों में एक्स-रे का इस्तेमाल होता है। एक्स-रे फाइन आर्ट फोटोग्राफी मार्करों के आरोपण के आधार पर अस्थियों की गतिविधि का पता लगाने के लिए रॉन्टगन स्टीरियोफोटोग्रामेट्री का इस्तेमाल किया जाता है। एक्स-रे फोटोइलेक्ट्रॉन स्पेक्ट्रोस्कोपी, एक रासायनिक विश्लेषण तकनीक है जो प्रकाश विद्युतीय प्रभाव पर निर्भर करती है, जो आम तौर पर सतह विज्ञान में कार्यरत है। इतिहास खोज एक्स-रे के खोजकर्ता का श्रेय आम तौर पर जर्मन भौतिकशास्त्री विल्हेम रॉन्टगन को दिया जाता है क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले व्यवस्थित रूप में इनका अध्ययन किया था, हालांकि इनके प्रभावों को देखने वाले वह पहले व्यक्ति नहीं हैं। "एक्स-रे" के रूप में उनका नामकरण भी उन्होंने ही किया है, हालांकि उनकी खोज के बाद कई दशकों तक कुछ लोग उन्हें "रॉन्टगन किरणों" के रूप में संदर्भित करते थे। पहली बार नलियों में निर्मित कैथोड किरणों अर्थात् ऊर्जावान इलेक्ट्रॉन पुंजों की छानबीन करने वाले वैज्ञानिकों ने 1875 के आसपास क्रूक्स नली नामक प्रयोगात्मक विसर्जन नलियों से एक्स-रे को निकलते हुए देखा था। क्रूक्स नलियां, कुछ किलोवोल्ट और 100 केवी (kV) के बीच कहीं भी एक उच्च डीसी (DC) वोल्टेज द्वारा नली में अवशिष्ट हवा के आयनीकरण के द्वारा मुक्त इलेक्ट्रॉनों का निर्माण करती थीं। यह वोल्टेज काफी उच्च वेग से कैथोड से आते हुए इलेक्ट्रॉनों की गति को बढ़ा देते थे जिससे वे नली की कांच की दीवार या एनोड से टकराते समय एक्स-रे का निर्माण करते थे। कई आरंभिक क्रूक्स नलियां बेशक एक्स-रे को विकीर्ण करती थीं, क्योंकि आरंभिक शोधकर्ताओं ने उन प्रभावों को देखा था जिनका श्रेय उन्हें दिया जा सकता था, जिसका विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है। विल्हेम रॉन्टगन ने ही सबसे पहले 1895 में उनका व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया था।[35] इवान पुल्युई, विलियम क्रूक्स, जोहान विल्हेम हिटोर्फ़, यूजेन गोल्डस्टीन, हेनरिच हर्ट्ज़, फिलिप लेनार्ड, हर्मन वॉन हेल्महोल्ट्ज़, निकोला टेस्ला, थॉमस एडिसन, चार्ल्स ग्लोवर बार्क्ला, मैक्स वॉन लौए और विल्हेम कॉनरैड रॉन्टगन की गिनती एक्स-रे के प्रमुख आरंभिक शोधकर्ताओं में की जाती है। जोहान हिटोर्फ़ क्रूक्स नली के एक सह-आविष्कारक और आरंभिक शोधकर्ता के रूप में जाने जाने वाले जर्मन भौतिकशास्त्री जोहान हिटोर्फ़ (1824–1914) ने जब नली के पास अनावृत फोटोग्राफिक प्लेटों को रखा, तब उन्होंने देखा कि छाया द्वारा उनमें से कुछ प्लेटों में दरारें पड़ गईं, हालांकि उन्होंने इस प्रभाव की छानबीन नहीं की। इवान पुल्युई यूक्रेन में जन्मे और यूनिवर्सिटी ऑफ विएना में प्रयोगात्मक भौतिकी के व्याख्याता के रूप में कार्यरत पुल्युई ने वैक्यूम डिस्चार्ज ट्यूब के गुणों की जांच करने के लिये उनके अनेक डिज़ाइन तैयार किए। [36] प्राग पॉलीटेक्नीक में प्रोफेसर के पद पर हुई नियुक्ति के बाद भी उन्होंने अपना कार्य जारी रखा और 1886 में उन्होंने देखा कि नलियों से निकलने वाले पदार्थों के सामने आने पर सील्ड फोटोग्राफिक प्लेट्स डार्क हो गए। 1896 के आरंभिक दौर में, रॉन्टगन द्वारा अपनी पहली एक्स-रे तस्वीर प्रकाशित करने के बस कुछ सप्ताह बाद, पुल्युई ने पेरिस और लन्दन की पत्रिकाओं में उच्च-गुणवत्ता वाले एक्स-रे चित्रों को प्रकाशित किया।[36] हालांकि पुल्युई ने वर्ष 1873 से 1875 तक स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय में रॉन्टगन के साथ अध्ययन किया था, लेकिन उनके जीवनी लेखक गाइडा (1997) का दावा है कि उनका परवर्ती शोध स्वतंत्र रूप से किया गया था।[36] निकोला टेस्ला अप्रैल 1887 में, निकोला टेस्ला ने उच्च वोल्टेज और खुद डिजाइन की गई नलियों के साथ-साथ क्रूक्स नलियों का उपयोग करके एक्स-रे की जांच करनी शुरू की। उनके तकनीकी प्रकाशनों से इस बात का संकेत मिलता है कि उन्होंने एक विशेष एकल इलेक्ट्रोड एक्स-रे नली का आविष्कार और विकास किया था[37][38] जो अन्य एक्स-रे नलियों से अलग थी जिनमें कोई लक्ष्य इलेक्ट्रोड नहीं होता था। टेस्ला के उपकरण के पीछे के सिद्धांत को ब्रेम्सस्ट्रॉलंग प्रक्रिया के नाम से जाना जाता है, जिसमें पदार्थ से होते हुए आवेशित कणों (जैसे - इलेक्ट्रॉन) के गुजरने पर एक उच्च-ऊर्जा द्वितीयक एक्स-रे उत्सर्जन की उत्पत्ति होती है। 1892 तक टेस्ला ने ऐसे कई प्रयोग किए, लेकिन उन्होंने इन उत्सर्जनों को वर्गीकृत नहीं किया जिन्हें बाद में एक्स-रे के नाम से जाना गया। टेस्ला ने इस घटना को "अदृश्य" प्रकार की विकिरण ऊर्जा के रूप में सामान्यीकृत किया।[39][40] टेस्ला ने न्यूयॉर्क ऐकडमी ऑफ़ साइंसेस के सामने अपने 1897 के एक्स-रे व्याख्यान में विभिन्न प्रयोगों के विषय में अपने तरीकों के तथ्यों का वर्णन किया।[41] इसके अलावा इसी व्याख्यान में टेस्ला ने एक्स-रे उपकरण के निर्माण और सुरक्षित संचालन की विधि का वर्णन किया। वैक्यूम उच्च क्षेत्र उत्सर्जन द्वारा उनके एक्स-रे प्रयोग के माध्यम से उन्होंने एक्स-रे अनावरण से जुड़े जैविक खतरों से वैज्ञानिक समुदाय को सचेत भी किया।[42] फर्नांडो सैनफोर्ड स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के भौतिकी के बुनियादी प्रोफ़ेसर फर्नांडो सैनफोर्ड (1854–1948) ने 1891 में एक्स-रे को उत्पन्न किया और उनका पता लगाया. 1886 से 1888 तक उन्होंने बर्लिन की हर्मन हेल्महोल्ट्ज़ प्रयोगशाला में अध्ययन किया था, जहां वे वैक्यूम नलियों में उत्पन्न होने वाले कैथोड किरणों से परिचित हुए जब अलग-अलग इलेक्ट्रोड से एक वोल्टेज प्रवाहित किया गया जैसा कि हेनरिच हर्ट्ज़ और फिलिप लेनार्ड ने इसके पहले इसका अध्ययन किया था। द फिज़िकल रिव्यू को 6 जनवरी 1893 को लिखे गए उनके पत्र को विधिवत प्रकाशित किया गया (जिसमें उन्होंने "इलेक्ट्रिक फोटोग्राफी" के रूप में अपनी खोज का वर्णन किया था) और सैन फ्रांसिस्को इग्ज़ैमनर में विदाउट लेंस ऑर लाईट, फोटोग्राफ्स टेकेन विथ प्लेट एण्ड ऑब्जेक्ट इन डार्कनेस (Without Lens or Light, Photographs Taken With Plate and Object in Darkness) नामक एक लेख छपा गया।[43] फिलिप लेनार्ड हेनरिच हर्ट्ज़ का फिलिप लेनार्ड नामक एक छात्र यह देखना चाहता था कि कैथोड किरणें, हवा में क्रूक्स नली से होकर गुजर सकती हैं या नहीं। उसने एक क्रूक्स नली (जिसे बाद में "लेनार्ड नली" के नाम से जाना गया) का निर्माण किया जिसके अंत में एक "खिड़की" थी जो पतली एल्यूमीनियम से बनी हुई थी जिसके सामने का हिस्सा कैथोड की तरफ था ताकि कैथोड किरणें इससे टकरा सके। [44] उन्होंने देखा कि उसमें से कुछ निकला जिसके फोटोग्राफिक प्लेटों के प्रति अनावृत की वजह से प्रतिदीप्ति उत्पन्न हुई। उन्होंने विभिन्न पदार्थों के माध्यम से इन किरणों की भेदन शक्ति को मापा. इससे यह सूचना मिली है कि इनमें से कम से कम कुछ "लेनार्ड किरणें" वास्तव में एक्स-रे थीं।[45] हर्मन वॉन हेल्महोल्ट्ज़ ने एक्स-रे के गणितीय समीकरणों को सूत्रबद्ध किया। रॉन्टगन की खोज और घोषणा से पहले उन्होंने एक प्रकीर्णन सिद्धांत की कल्पना की। इसे प्रकाश के विद्युत् चुम्बकीय सिद्धांत के आधार पर तैयार किया गया था।[46] हालांकि, उन्होंने वास्तविक एक्स-रे के साथ काम नहीं किया। विल्हेम रॉन्टगन 8 नवम्बर 1895 को लेनार्ड और क्रूक्स नलियों के साथ प्रयोग करते समय जर्मन भौतिकी प्रोफेसर विल्हेम रॉन्टगन का सामना एक्स-रे से हुआ और उन्होंने इन पर अध्ययन करना शुरू कर दिया। उन्होंने "ऑन ए न्यू काइंड ऑफ़ रे: ए प्रिलिमिनरी कम्युनिकेशन (On a new kind of ray: A preliminary communication) " नामक एक आरंभिक रिपोर्ट तैयार किया और 28 दिसम्बर 1895 को उन्होंने इस रिपोर्ट को वुर्ज़बर्ग के फिज़िकल-मेडिकल सोसाइटी पत्रिका को सौंप दिया। [47] एक्स-रे पर लिखा गया यह पहला शोध-पत्र था। रॉन्टगन ने यह सूचित करने के लिए विकिरण को "एक्स" के रूप में संदर्भित किया कि यह एक अज्ञात प्रकार का विकिरण था। यह नाम इससे जुड़ गया, हालांकि (रॉन्टगन की आपत्तियों के बावजूद) उनके कई सहयोगियों ने उन किरणों का नामकरण रॉन्टगन किरणों के रूप में करने का सुझाव दिया था। उन्हें अभी भी जर्मन सहित कई भाषाओं में इसी तरह के नाम से संदर्भित किया जाता है। रॉन्टगन को अपनी खोज के लिए भौतिकी में प्रथम नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी खोज के विवरणों को लेकर काफी मतभेद हैं क्योंकि रॉन्टगन अपनी मौत के समय अपने लैब नोट्स जला दिए थे, लेकिन यह उनके जीवनी लेखकों की मनगढ़ंत कहानी हो सकती है:[48] रॉन्टगन, एक क्रूक्स नली और बेरियम प्लेटिनोसायनाइड से पेंट किए गए एक प्रतिदीप्त परदे के साथ कैथोड किरणों की छानबीन में लगे हुए थे जिसे उन्होंने एक काले कर्बोर्ड में लपेट दिया था ताकि नली से निकलने वाली दृश्य रोशनी कोई हस्तक्षेप न करे. उन्होंने लगभग 1 मीटर दूरी पर परदे से एक धुंधली हरी चमक निकलती हुई देखी. उन्हें लगा कि नली से आने वाली कुछ अदृश्य किरणें कार्डबोर्ड से होकर गुजर रही थी जिससे परदा चमकने लगा था। उन्होंने पाया कि वे उनकी मेज पर रखी किताबों और कागजों से होकर भी गुजर सकती थी। रॉन्टगन ने तुरंत व्यवस्थित रूप से इन अज्ञात किरणों की छानबीन शुरू कर दी। अपनी प्रारंभिक खोज के दो महीने बाद, उन्होंने अपना शोध-पत्र प्रकाशित किया। रॉन्टगन ने एक फोटोग्राफिक प्लेट पर एक्स-रे की वजह से बनी अपनी पत्नी के हाथ की तस्वीर को देखकर इसके चिकित्सीय उपयोग की खोज की। उनकी पत्नी के हाथ की तस्वीर, एक्स-रे के इस्तेमाल से बनी मानव शरीर के किसी भी अंग की अब तक की पहली तस्वीर थी। थॉमस एडीसन 1895 में, थॉमस एडीसन ने एक्स-रे के सामने आने पर पदार्थों के प्रतिदीप्त होने की क्षमता की जांच की और कैल्शियम टंगस्टेट को इनमें से सबसे अधिक प्रभावशाली पदार्थ पाया। मार्च 1896 के आसपास, उनके द्वारा विकसित किया गया फ्लुओरोस्कोप, चिकित्सीय एक्स-रे के परीक्षणों के लिए एक मानक बन गया। फिर भी, एडीसन ने क्लेयरेंस मैडिसन डाली नामक अपने एक ग्लासब्लोवर की मौत के बाद 1903 के आसपास एक्स-रे अनुसन्धान को बंद कर दिया। डाली को अपने हाथों पर एक्स-रे नलियों का परीक्षण करने की आदत थी जिसकी वजह से उनके हाथों में इतना घातक कैंसर हो गया था कि उसकी जान बचाने के व्यर्थ प्रयास में उनके दोनों हाथ काटने पड़े. न्यूयॉर्क के बफैलो में 1901 पैन-अमेरिकन एक्सपॉज़ीशन में एक हत्यारे ने एक .32 कैलिबर रिवॉल्वर से काफी नजदीक से राष्ट्रपति विलियम मैककिनले पर दो बार गोली चलाई. पहली गोली निकाल ली गई थी, लेकिन दूसरी गोली उनके पेट में कहीं घुसी रह गई थी। मैककिनले कुछ समय के लिए जीवित थे और उनके अनुरोध पर थॉमस एडिसन "उस खोई हुई गोली का पता लगाने के लिए एक एक्स-रे मशीन लेकर बफैलो पहुंच गए। यह मशीन वहां पहुंच तो गई लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका ... क्योंकि जीवाणुजनित संक्रमण की वजह से हुए सेप्टिक के कारण मैककिनले की मौत हो गई थी।"[49] फ्रैंक ऑस्टिन और फ्रॉस्ट ब्रदर्स संयुक्त राज्य अमेरिका में निर्मित प्रथम चिकित्सीय एक्स-रे को पुल्युई की डिजाइन वाली एक विसर्जन नली का उपयोग करके प्राप्त किया गया था। रॉन्टगन की खोज को पढने के बाद जनवरी 1896 में डार्टमाउथ कॉलेज के फ्रैंक ऑस्टिन ने भौतिकी प्रयोगशाला में सभी विसर्जन नलियों का परीक्षण किया जिसमें से केवल पुल्युई नली से एक्स-रे की उत्पत्ति हुई थी। यह नली के भीतर, प्रतिदीप्त पदार्थ के धारित नमूनों के इस्तेमाल किए जाने वाले अभ्रक के एक तिर्यक "लक्ष्य" के पुल्युई के अंतर्वेशन का एक परिणाम था। 3 फ़रवरी 1896 को गिलमैन फ्रॉस्ट, कॉलेज में मेडिसिन के प्रोफ़ेसर और उनके भाई एडविन फ्रॉस्ट, भौतिकी के प्रोफ़ेसर, ने एडविन द्वारा कुछ सप्ताह पहले एक फ्रैक्चर के लिए इलाज किए गए एडी मैककार्थी की कलाई को एक्स-रे के सामने अनावृत किया और रॉन्टगन के कार्य में भी दिलचस्पी लेने वाले हॉवर्ड लैंगिल नामक एक स्थानीय फोटोग्राफर से प्राप्त जेलाटिन फोटोग्राफिक प्लेटों पर टूटी अस्थि के परिणाम चित्र को एकत्र किया।[20] 20वीं सदी और उसके बाद एक्स-रे के कई अनुप्रयागों ने तुरंत काफी दिलचस्पी पैदा की। कार्यशालाओं में एक्स-रे को उत्पन्न करने के लिए क्रूक्स नलियों के विशिष्ट संस्करणों का निर्माण होने लगा और लगभग 1920 तक इन पहली पीढ़ी के ठन्डे कैथोड या क्रूक्स एक्स-रे नलियों का इस्तेमाल होता रहा। क्रूक्स नलियों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था। उनमें बहुत कम मात्रा में गैस (एक सी हवा) रखनी पड़ती थी क्योंकि पूरी तरह खाली नली में धारा प्रवाहित नहीं होगी। हालांकि समय बीतने के साथ एक्स-रे की वजह से कांच में गैस को अवशोषित करने की क्षमता आ गई जिसकी वजह से नली से "अधिक दृढ" एक्स-रे तब तक उत्पन्न होती रही, जब तक कि बहुत जल्द ही उन्होंने कार्य करना बंद नहीं कर दिया। हवा को बहाल करने के लिए उपकरणों के साथ अपेक्षाकृत बड़ी और कई बार इस्तेमाल होनी वालीनलियां प्रदान की गईं थीं, जिन्हें "सॉफ्टनर्स" के नाम से जाना जाता था। ये अक्सर एक छोटी पक्षीय नली का रूप धारण कर लेतीं थीं, जिसमें अभ्रक का एक छोटा सा टुकड़ा होता था: जो एक ऐसा पदार्थ है जो अपनी संरचना के भीतर तुलनात्मक रूप से बहुत बड़ी मात्रा में हवा को जकड़ लेता है। एक छोटा सा विद्युतीय हीटर अभ्रक को गर्म करता था और इसकी वजह से हवा की एक छोटी सी मात्रा मुक्त होती थी, इस प्रकार यह नली की क्षमता को बहाल करता था। हालांकि अभ्रक की जीवन काल बहुत सीमित था और बहाली प्रक्रिया को नियंत्रित करना काफी मुश्किल था। 1904 में, जॉन एम्ब्रोस फ्लेमिंग ने थर्मियोनिक डायोड वाल्व (वैक्यूम ट्यूब) का आविष्कार किया। यह एक गर्म कैथोड का इस्तेमाल करता था जो धारा को एक वैक्यूम में प्रवाहित होने की अनुमति देता था। इस विचार को बहुत जल्द एक्स-रे नलियों और कूलिज नलियों के नाम से जाने जाने वाले गर्म कैथोड एक्स-रे नलियों में लागू किया गया जिसने लगभग 1920 तक परेशानी पैदा करने वाली ठंडी कैथोड नलियों की जगह ले ली। दो साल बाद, भौतिकशास्त्री चार्ल्स बार्क्ला ने पता लगाया कि एक्स-रे को गैसों द्वारा विखेरा जा सकता है और यह भी कि प्रत्येक तत्व में एक अभिलाक्षणिक एक्स-रे होती है। उन्हें अपनी खोज के लिए भौतिकी में 1917 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। मैक्स वॉन लौए, पॉल निपिंग और वॉल्टर फ्रेडरिच ने 1912 में पहली बार क्रिस्टलों द्वारा एक्स-रे के विवर्तन को देखा था। पॉल पीटर एवाल्ड, विलियम हेनरी ब्रैग और विलियम लॉरेंस ब्रैग के आरंभिक कार्यों के साथ इस खोज ने एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी के क्षेत्र को जन्म दिया। अगले वर्ष विलियम डी. कूलिज ने कूलिज नली का आविष्कार किया जो एक्स-रे की निरंतर उत्पत्ति की अनुमति देती थीं; इस तरह की नली का इस्तेमाल आज भी किया जाता है। चिकित्सीय प्रयोजनों (विकिरण चिकित्सा के क्षेत्र में विकास करने के लिए) के लिए एक्स-रे के उपयोग के अग्रदूत इंग्लैण्ड के बर्मिंघम में रहने वाले मेजर जॉन हॉल-एडवर्ड्स थे। 1908 में, एक्स-रे त्वचाशोथ के प्रसार की वजह से उन्हें अपना बायां हाथ कटवाना पड़ा था।[50] एक्स-रे माइक्रोस्कोप का आविष्कार 1950 के दशक में हुआ था। 23 जुलाई 1999 को शुरू किए गए चन्द्रा एक्स-रे ऑब्ज़र्वेटरी को ब्रह्माण्ड में बहुत हिंसक प्रक्रियाओं के खोज की अनुमति दी जा रही है जिससे एक्स-रे की उत्पत्ति होती है। दृश्य प्रकाश के विपरीत, जो ब्रह्माण्ड का एक अपेक्षाकृत स्थिर दृश्य है, एक्स-रे का ब्रह्माण्ड अस्थिर है, यह काले विवरों, गांगेय टक्करों और नवतारों, न्यूट्रॉन तारों से अलग होते हुए तारों का दर्शन कराता है जो प्लाज्मा के परतों का निर्माण करते हैं जो तब अंतरिक्ष में विस्फोट पैदा करते हैं। 1980 के दशक में रीगन प्रशासन के स्ट्रेटजिक डिफेन्स इनिशिएटिव के हिस्से के रूप में एक एक्स-रे लेज़र उपकरण का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया, लेकिन इस उपकरण (एक थर्मोन्यूक्लियर विस्फोट द्वारा संचालित, एक तरह का लेज़र "विस्फोटक", या मृत्यु-किरण) के पहले और एकमात्र परीक्षण ने अनिर्णायक परिणाम प्रदान किए। तकनीकी और राजनैतिक कारणों से सम्पूर्ण परियोजना (एक्स-रे लेज़र सहित) का वित्तपोषण बंद कर दिया गया (हालांकि बाद में अलग-अलग प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करके नैशनल मिसाइल डिफेन्स के रूप में द्वितीय बुश प्रशासन द्वारा इसे पुनर्जीवित किया गया था). इन्हें भी देखें बैकस्कैटर एक्स-रे प्रतिदीप्तिदर्शन गीजर यंत्र उच्च ऊर्जा एक्स-रे एन-रे न्यूट्रॉन विकिरण रेडियोग्राफ़ रेडियोलॉजिक टेक्नोलॉजिस्ट रेडियोलॉजी रेसोनंट इनइलास्टिक एक्स-रे स्कैटरिंग (आरआईएक्सएस/RIXS) छोटे कोण एक्स-रे बिखरने (SAXS) एक्स-रे अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी एक्स-रे खगोल विद्या एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी एक्स-रे फिल्टर एक्स-रे पीढ़ी एक्स-रे मशीन एक्स-रे मार्कर एक्स-रे सूक्ष्मदर्शी एक्स-रे नैनोप्रोब एक्स-रे प्रकाशिकी एक्स-रे दृष्टि एक्स-रे वेल्डिंग नोट्स सन्दर्भ एक्स रे परिचय करने के लिए गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर. बाहरी कड़ियाँ एक सरल ट्यूटोरियल 5 मेडपिक्स चिकित्सा छवि डेटाबेस - लाइफ मैगज़ीन द्वारा स्लाइड शो श्रेणी:रेडियोग्राफी श्रेणी:एक्स-रे श्रेणी:विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम श्रेणी:आईएआरसी (IARC) समूह 1 कार्सिनजन श्रेणी:चिकित्सा भौतिकी
x-ray की तरंग दैर्ध्य क्या होती है?
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उत्पादक और अंतिम उपभोक्ता के बीच मार्ग की संख्या के संबंध में तटस्थ है; जहां बिक्री कर प्रत्येक चरण में कुल मूल्य पर लगाया जाता है (हालांकि अमेरिकी और कई अन्य देशों में बिक्री कर सिर्फ अंतिम उपभोक्ता को अंतिम बिक्री पर लगाया जाता है और अंतिम उपयोगकर्ता उपयोग कर, इस तरह वहां थोक या उत्पादन स्तर पर कोई बिक्री कर नहीं दिया जाता), इसका परिणाम एक सोपान है (नीचे के कर ऊपर के करों पर लगाए जाते हैं)। वैट एक अप्रत्यक्ष कर है, इस रूप में कि कर को ऐसे किसी से एकत्र किया जाता है जो कर का पूरा खर्च नहीं उठाता. मौरिस लौरे फ्रेंच कर प्राधिकरण के संयुक्त निदेशक, Direction générale des impôts प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 10 अप्रैल 1954 को वैट पेश किया, हालांकि जर्मन उद्योगपति डॉ॰ विल्हेम वॉन सीमेंस ने 1918 में इस अवधारणा का प्रस्ताव दिया था। शुरू में बड़े पैमाने के कारोबारों पर लक्ष्यित, समय के साथ सभी व्यावसायिक क्षेत्रों को शामिल करने के लिए इसका विस्तार किया गया। फ्रांस में यह देश के वित्त का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है, जो देश के राजस्व में 52% का योगदान करता है।[1] उत्पादों और सेवाओं के निजी अंतिम उपभोक्ता, खरीद पर वैट को वसूल नहीं सकते, लेकिन उद्योग उन माल और सेवाओं पर जिन्हें वे आगे की आपूर्ति या सेवा प्रदान करने के लिए खरीदते हैं, जिसे सीधे या परोक्ष रूप से अंतिम उपयोगकर्ता को बेचा जाएगा, वैट को वसूल सकते हैं। इस तरह, आपूर्ति की आर्थिक श्रृंखला में प्रत्येक स्तर पर लगाया गया कुल कर, मूल्य का एक निरंतर अंश है जो एक व्यवसाय द्वारा अपने उत्पादों में जोड़ा जाता है और कर संग्रह की लागत का अधिकांश, राज्य के बजाय कारोबार द्वारा वहन किया जाता है। वैट का आविष्कार इसलिए किया गया क्योंकि बहुत अधिक बिक्री करों और शुल्कों ने धोखाधड़ी और तस्करी को प्रोत्साहित किया। आलोचकों का कहना है कि इससे मध्यम वर्गीय और कम आय वाले घरों पर असंगत रूप से कर का बोझ बढ़ जाता है। बिक्री कर से तुलना मूल्य योजित कर, उत्पादन के हर चरण में योजित मूल्य पर कर लगा कर बिक्री कर के सोपान असर से बचाता है। पारंपरिक बिक्री कर की बजाय मूल्य योजित कराधान को दुनिया भर में पसंद किया जा रहा है। सिद्धांत रूप में, मूल्य योजित कर उन सभी वाणिज्यिक गतिविधियों पर लागू होते हैं जिसमें माल का उत्पादन और वितरण तथा सेवाओं का प्रावधान शामिल होता है। एक व्यवसाय के प्रत्येक लेनदेन में माल में जुड़े मूल्य पर वैट का मूल्यांकन और एकत्रण किया जाता है। इस अवधारणा के तहत सरकार को प्रत्येक लेनदेन के सकल मार्जिन पर कर दिया जाता है। भारत जैसे कई विकासशील देशों में, बिक्री कर/वैट एक महत्वपूर्ण राजस्व स्रोत हैं चूंकि उच्च बेरोज़गारी और न्यून प्रति व्यक्ति आय, अन्य आय स्रोतों को अपर्याप्त बना देती है। हालांकि, कई उप-राष्ट्रीय सरकारों द्वारा इसका विरोध होता है चूंकि इससे उनके द्वारा एकत्रित कुल राजस्व संग्रह में कमी होती है साथ ही साथ स्वायत्तता का कुछ नुकसान भी होता है। बिक्री कर आमतौर पर उपभोक्ताओं को केवल अंतिम बिक्री पर लगाए जाते हैं: प्रतिपूर्ति की वजह से, वैट का अंतिम कीमतों पर वैसा ही समग्र आर्थिक प्रभाव पड़ता है। मुख्य अंतर, सिर्फ अतिरिक्त लेखांकन का है जिसे उन लोगों द्वारा करने की आवश्यकता होती है जो आपूर्ति श्रृंखला के बीच में आते हैं, वैट की इस कमी को, उत्पादन श्रृंखला के प्रत्येक सदस्य पर, उनकी और ग्राहकों की इस श्रृंखला में स्थिति को ध्यान ना देकर और उनकी स्थिति की जांच करने और प्रमाणित करने के प्रयास को ख़त्म कर, समान कर के प्रयोग द्वारा संतुलित किया जाता है। जब वैट प्रणाली में कुछ छूट हो तो, यदि कोई हो, जैसा की न्यूजीलैंड में GST के साथ, वैट का भुगतान करना और भी आसान हो जाता है। एक सामान्य आर्थिक विचार यह है कि यदि बिक्री कर 10% से अधिक हो जाता है तो लोग बड़े पैमाने पर करापवंचन गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं (जैसे इंटरनेट पर खरीददारी करना, एक कारोबार होने का नाटक करना, थोक में खरीदना, एक नियोक्ता के माध्यम से उत्पादों की खरीद आदि)। दूसरी ओर, कुल वैट दर, अभिनव संग्रह प्रणाली के कारण व्यापक चोरी के बिना 10% से अधिक हो सकती है। तथापि, क्योंकि अपने संग्रह की विशेष व्यवस्था के कारण, वैट काफी आसानी से विशिष्ट धोखाधड़ी का निशाना बन जाती है जैसे कैरोज़ल फ्रॉड जो राज्यों के लिए कर आमदनी में कमी के मामले में बहुत महंगा हो सकता है। वैट का सिद्धांत वैट लागू करने के लिए मानक तरीका यह सिद्धांत है कि एक व्यापार उत्पाद की कीमत से पूर्व में चुकाए गए सभी कर को घटाते हुए कुछ प्रतिशत का अधिकार रखता है। यदि वैट दर 10% है, तो एक संतरे का रस निर्माता प्रति गैलन कीमत £5 के 10% (£ 0.50) को संतरे के किसान द्वारा पूर्व में भुगतान किये गए कर से घटा कर देगा (शायद £ 0.20)। इस उदाहरण में, संतरे का रस निर्माता £0.30 कर देयता होगा। प्रत्येक व्यवसाय के आपूर्तिकर्ताओं के लिए अपने करों का भुगतान करने के लिए एक मजबूत प्रोत्साहन होता है, जिससे एक खुदरा बिक्री कर की तुलना में वैट दर, कम कर चोरी के साथ ऊंची हो जाती है। इस सरल सिद्धांत के पीछे इसके कार्यान्वयन में भिन्नताएं हैं, जैसा कि अगले भाग में चर्चा की गई है वैट के लिए आधार संग्रह की पद्धति से, वैट लेखा आधारित या बीजक आधारित हो सकता है।[2] संग्रह की चालान विधि के तहत, प्रत्येक विक्रेता अपने उत्पाद पर वैट दर लगाता है और खरीदार को एक विशेष बीजक देता है जो लगाए गए कर की राशि को इंगित करता है। खरीदार जो अपनी बिक्री पर वैट के दायरे में हैं, इन बीजकों का प्रयोग वैट की अपनी देनदारी के प्रति एक क्रेडिट (छूट) प्राप्त करने के लिए करते हैं। पारित बीजक और प्राप्त बीजक पर दिखाए गए कर के अंतर को तब सरकार को दिया जाता है (या नकारात्मक देनदारी के मामले में एक वापसी का दावा किया जाता है)। लेखा आधारित तरीके में, ऐसा कोई विशेष बीजक प्रयोग नहीं किया जाता है। इसके बजाय, कर की गणना योजित मूल्य पर की जाती है, जिसे राजस्व और स्वीकार्य खरीद के बीच एक अंतर के रूप में मापा जाता है। अधिकांश देशों में आज बीजक विधि का उपयोग किया जाता है, एकमात्र अपवाद है जापान जहां लेखा पद्धति का उपयोग करता है। संग्रह के समय द्वारा[3], वैट (साथ ही साथ सामान्य रूप में लेखांकन) या तो प्रोद्भवन या नकद आधारित हो सकता है। नकद आधारित लेखांकन, लेखांकन का एक बहुत ही सरल रूप है। जब वस्तु या सेवा की बिक्री के लिए एक भुगतान प्राप्त होता है, एक संचय बनता है और राजस्व को निधियों की प्राप्ति की तिथि में दर्ज किया जाता है - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिक्री कब की गई। चेक तब लिखे जाते हैं जब बिल देने के लिए धन उपलब्ध हो और व्यय को चेक की तारीख में दर्ज किया जाता है - इसकी बिना परवाह किये कि खर्च कब किया गया। प्राथमिक ध्यान, बैंक में नकदी की राशि पर केंद्रित होता है और माध्यमिक ध्यान यह सुनिश्चित करने में कि सभी बिलों का भुगतान कर दिया गया है। राजस्व को उस समय अवधि के साथ जब उन्हें अर्जित किया गया, तुलना करने में अधिक प्रयास नहीं किया जाता, या खर्चों को उस अवधि से मिलान करने में जब उन्हें व्यय किया गया। प्रोद्भवन आधारित लेखांकन, राजस्व का मिलान उस अवधि से करता है जब उन्हें अर्जित किया गया और खर्चों का मिलान उस अवधि से करता है जब उन्हें व्यय किया गया। हालांकि यह नकदी आधारित लेखांकन से ज्यादा जटिल है, यह आपके व्यवसाय के बारे में अधिक जानकारी प्रदान करता है। प्रोद्भवन आधार आपको, प्राप्तियों को ट्रैक करने में सक्षम करता है (उधार की बिक्री पर ग्राहकों की बकाया राशि) और देय (उधार खरीद पर दुकानदारों को दी जाने वाली राशि)। प्रोद्भवन आधार आपको उन्हें कमाने में किए गए व्यय के लिए राजस्व के मिलान में मदद करता है, आपको और अधिक सार्थक वित्तीय रिपोर्ट देता है। उदाहरण किसी भी वस्तु के निर्माण और बिक्री पर गौर करें, जिसे हम इस मामले में एक विजेट कहेंगे. बिना किसी कर के एक विजेट निर्माता कच्चे माल पर £1.00 खर्च करता है और उन का उपयोग एक विजेट बनाने में करता है। विजेट को एक विजेट के खुदरा विक्रेता को £1.20 की थोक कीमत पर बेचा जाता है, £0.20 के लाभ के साथ. विजेट खुदरा विक्रेता इसके बाद विजेट को £1.50 में एक विजेट उपभोक्ता को विजेट बेचता है, जहां वह £0.30 का मुनाफा कमाता है। उत्तरी अमेरिका के (कनाडाई प्रांतीय और अमेरिकी राज्य) बिक्री कर के हिसाब से एक 10% बिक्री कर के साथ: निर्माता कच्चे माल के लिए $1.00 अदा करता है, यह प्रमाणित करते हुए कि वह अंतिम उपभोक्ता नहीं है। निर्माता यह जांच करते हुए कि खुदरा व्यापारी एक उपभोक्ता नहीं है $1.20 कीमत लेता है, $0.20 का समान लाभ छोड़ते हुए. खुदरा व्यापारी, उपभोक्ता से $1.65 ($1.50 + $1.50x10%) लेता है और सरकार को $0.15 भुगतान करता है, $0.30 का लाभ छोड़ते हुए. अतः उपभोक्ता ने शून्य कर योजना की तुलना में, 10% ($0.15) अतिरिक्त भुगतान किया और सरकार ने इस राशि को एकत्र कर लिया। खुदरा विक्रेता ने टैक्स में सीधे कुछ नहीं खोया और खुदरा विक्रेताओं को अतिरिक्त कागजी कार्रवाई करनी होती है ताकि उनके द्वारा इकट्ठा किये गए बिक्री कर को सही ढंग से सरकार तक पहुंचाया जा सके। आपूर्तिकर्ता और निर्माताओं पर सही प्रमाणपत्र की आपूर्ति करने का प्रशासनिक बोझ रहता है और यह जांच करना कि उनके ग्राहक (खुदरा) उपभोक्ता नहीं हैं। एक मूल्य योजित कर के हिसाब से 10% वैट के साथ: निर्माता, कच्चे माल के लिए $1.10 ($1 + $1x10%) देता है और कच्चे माल का विक्रेता सरकार को $0.10 देता है। निर्माता, खुदरा विक्रेता से $1.32 ($1.20 + $1.20x10 $%) लेता है और सरकार को $0.02 ($0.12 घटे $0.10) देता है, $0.20 का समान लाभ छोड़ते हुए. खुदरा विक्रेता, उपभोक्ता से $1.65 ($1.50 + $1.50x10%) लेता है और सरकार को $0.03 ($0.15 घटे $0.12) देता है, $0.30 का मुनाफा छोड़ते हुए (1.65-1.32-.03)। यानी उपभोक्ता ने शून्य कर योजना की तुलना में, 10% ($0.15) अतिरिक्त भुगतान किया और सरकार ने यह रकम कराधान में एकत्र की। कारोबार ने कर में सीधे कुछ नहीं खोया। उन्हें खरीदारों से जो अंतिम उपयोगकर्ता नहीं हैं, प्रमाणपत्र के लिए अनुरोध की जरुरत नहीं है, लेकिन उन्हें अतिरिक्त लेखांकन करना होगा ताकि वे सही ढंग से सरकार को, जो उन्होंने वैट से एकत्रित किया (आउटपुट वैट, उनकी आय का 11वां हिस्सा) और जो उन्होंने वैट में खर्च किया (इनपुट वैट, उनके खर्च का 11वां हिस्सा) के बीच के अंतर को दे सकें. ध्यान दें कि प्रत्येक मामले में प्रदत्त वैट, लाभ या योजित मूल्य के 10% के बराबर है। बिक्री कर व्यवस्था की तुलना में वैट प्रणाली का लाभ यह है कि उद्योग, खपत को, यह प्रमाणित करते हुए कि यह एक उपभोक्ता नहीं है, छिपा नहीं सकते (जैसे कि बर्बाद सामग्री)। उदाहरण और वैट की सीमा उपरोक्त उदाहरण में, हमने माना कि कर की शुरूआत से पहले और बाद में विजेट की उतनी ही संख्या में निर्माण हुआ और बिक्री हुई। यह वास्तविक जीवन में सच नहीं है। आपूर्ति और मांग के मूल तत्व सुझाते हैं कि कोई भी कर किसी के लिए लेनदेन की कीमत को बढ़ा देता है, चाहे वह क्रेता हो या विक्रेता. कीमत में बढ़ोतरी से या तो मांग वक्र बायी तरफ जाता है, या आपूर्ति वक्र ऊपर की तरफ. दोनों ही कार्यात्मक रूप से बराबर हैं। नतीजतन, खरीदे गए सामान की मात्रा घट जाती है और/या जिस कीमत इसे बेचा जाता है वह बढ़ जाती है। ऊपर के उदाहरण में आपूर्ति और मांग का यह बदलाव शामिल नहीं है, सरलता के लिए और क्योंकि ये प्रभाव हर प्रकार की वस्तु के लिए भिन्न हैं। उपरोक्त उदाहरण मानता है कि कर गैर विरूपणयोग्य है। बाकी सभी करों की तरह, एक वैट, इसके बिना होता, इसे विरूपित करता है। क्योंकि किसी के लिए कीमत बढ़ जाती है, माल की मात्रा घट जाती है। तदनुसार, कुछ लोग अधिक द्वारा बदतर हो जाते हैं जहां सरकार कर की आय से बेहतर हो जाती है। यानी, आपूर्ति और मांग परिवर्तन के कारण टैक्स में होने वाले फायदे की तुलना में कहीं ज्यादा हानि होती है। इसे डेडवेट हानि के रूप में जाना जाता है। अर्थव्यवस्था द्वारा खो दी गई आय, सरकार की आय से अधिक होती है; कर अक्षम है। सरकार की आय (कर राजस्व) की पूरी राशि हो सकता है एक डेडवेट ड्रैग ना हो, अगर कर राजस्व को लाभदायक खर्च के लिए इस्तेमाल किया जाय या सकारात्मक बाह्यता हो - दूसरे शब्दों में, सरकारें बस कर आय का उपभोग करने की बजाय कहीं अधिक कुछ कर सकतीं हैं। जबकि विरूपण होते हैं, वैट जैसे उपभोग कर, अक्सर बेहतर माने जाते हैं क्योंकि वे प्रोत्साहन को निवेश के लिए विरूपित करते हैं, अन्य प्रकार के अधिकांश कराधान की तुलना में बचत और कार्य कम होता है - दूसरे शब्दों में, एक वैट उत्पादन के बजाय खपत को हतोत्साहित करता है। एक कर युक्त बाजार में आपूर्तिमांग विश्लेषण ऊपर चित्र में, डेडवेट हानि: टैक्स इन्कम बॉक्स द्वारा गठित त्रिकोण का क्षेत्र, मूल आपूर्ति वक्र और मांग वक्र सरकार की कर आय: धूसर आयत जिसमें लिखा है "tax" बदलाव के बाद कुल उपभोक्ता अधिशेष: हरा क्षेत्र बदलाव के बाद कुल निर्माता अधिशेष: पीला क्षेत्र आलोचनाएं "मूल्य योजित कर" की आलोचना की गई चूंकि इसका बोझ निजी अंतिम उत्पादों के उपभोक्ताओं पर निर्भर करता है और इसलिए यह एक प्रतिगामी कर है (अमीरों की तुलना में गरीब, अपनी आय के प्रतिशत के रूप में अधिक भुगतान करते हैं), हालांकि यह समझना चाहिए कि सभी कंपनी कर अंत में उपभोक्ताओं पर एक कर के रूप में पहुंचते हैं। बचाव पक्षों का दावा है कि आय के माध्यम से कराधान को निकाल देना एक मनमाना मानक है और मूल्य योजित कर वास्तव में एक आनुपातिक कर है और इसमें अधिक आमदनी वाले लोग अधिक भुगतान करते हैं उसी दर पर जिस पर वे खपत अधिक करते हैं। दोनों ही मापन, वैट को एक प्रगतिशील आयकर बनाने के बजाय अधिक प्रतिगामी बनाते हैं। एक वैट प्रणाली का प्रभावी प्रतिगामी गुण, बढ़ भी सकता है क्योंकि माल के विभिन्न वर्गों पर अलग-अलग दरों से कर लगाए जाते हैं। इसलिए वैट अधिकांश रूप से एक फ्लैट कर है और व्यवहार में प्रतिगामी हो सकता है। एक मूल्य योजित कर से प्राप्त राजस्व अक्सर अपेक्षा से कम होते हैं क्योंकि वे कठिन हैं और उनका प्रबंधन और संग्रह करना महंगा होता है। कई देशों में, जहां व्यक्तिगत आय कर और कंपनियों के लाभ कर का संग्रह ऐतिहासिक रूप से कमजोर रहा है, वहां वैट संग्रह अन्य करों के मुकाबले अधिक सफल रहा है। वैट कई क्षेत्राधिकारों में और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है चूंकि व्यापार उदारीकरण के कारण टैरिफ स्तर दुनिया भर में गिरा है और अनिवार्य रूप से वैट ने खोये हुए टैरिफ राजस्व को प्रतिस्थापित किया है। लागत और मूल्य योजित कर का विरूपण, आर्थिक अक्षमताओं और प्रवर्तन मुद्दों (जैसे तस्करी) के उच्च आयात शुल्क से कम है, यह विवादित है, लेकिन सिद्धांत के अनुसार मूल्य योजित कर कहीं ज़्यादा कारगर हैं। कुछ उद्योगों (उदाहरण के लिए, छोटे पैमाने की सेवाएं) में वैट का अधिक परिहार पाया जाता है, विशेष रूप से जहां नकद लेनदेन प्रबल होता है और इसे बढ़ावा देने के लिए वैट की आलोचना की जा सकती है। सरकार के दृष्टिकोण से, तथापि, वैट, बेहतर हो सकता है क्योंकि यह कम से कम कुछ मूल्य योजन को पकड़ सकता है। उदाहरण के लिए, एक बढ़ई नकदी के लिए एक गृहस्वामी को, जो आमतौर पर एक इनपुट वैट का वापस दावा नहीं कर सकता, सेवाएं उपलब्ध करा सकता है (यानी, बिना एक रसीद और बिना वैट के)। इसलिए गृहस्वामी को कम लागत लगेगी और बढ़ई अन्य करों से बच सकता है (लाभ या पेरोल कर)। सरकार को, तथापि, अभी भी कई अन्य इनपुट (लकड़ी, पेंट, गैसोलिन, उपकरण, आदि) के लिए जो बढ़ई को बेचा गया है वैट प्राप्त होगा और बढ़ई इन इनपुट पर वैट को पुनः प्राप्त करने में असमर्थ होगा। जबकि, पूर्ण अनुपालन करने की तुलना में कुल आय कम होगी, यह अन्य संभाव्य कराधान प्रणाली के अंतर्गत आय से कम नहीं होगी। क्योंकि निर्यात सामान्य तौर पर ज़ीरो-रेटेड होते हैं (और वैट वापस या अन्य करों के खिलाफ ऑफसेट), यह अक्सर वहां, जहां वैट में धोखाधड़ी होती है। यूरोप में, समस्याओं का मुख्य स्रोत कैरोज़ल फ्रॉड कहा जाता है। मूल्यवान वस्तुओं की एक बड़ी मात्रा (अक्सर माइक्रोचिप्स या मोबाइल फोन) एक सदस्य राज्य से दूसरे में ले जाई जाती है। इन लेनदेन के दौरान, कुछ कंपनियां वैट की देनदार होती हैं, दूसरों को वैट को पुनः प्राप्त करने का अधिकार होता है। पहली कंपनियां, जो 'मिसिंग ट्रेडर्स' कहलाती हैं बिना भुगतान किये दिवालिया हो जाती हैं। कंपनियों का दूसरा समूह, सीधे राष्ट्रीय कोष से पैसा 'पंप' कर सकता है। इस प्रकार की धोखाधड़ी 1970 के दशक में बेनेलक्स देशों में उत्पन्न हुई। आज, ब्रिटिश कोष एक बड़ा शिकार है।[4] एक देश के भीतर इसी प्रकार की धोखाधड़ी की अन्य संभावनाएं हैं। इससे बचने के लिए स्वीडन जैसे कुछ देशों में, एक लिमिटेड कंपनी का प्रमुख स्वामी करों के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है। इसे, बिना संपत्ति के एक बेरोजगार व्यक्ति को औपचारिक मालिक बना कर रोका जाता है। वैट प्रणाली यूरोपीय संघ यूरोपीय संघ वैल्यू एडेड टैक्स ("EU वैट") एक मूल्य योजित कर है जो यूरोपीय संघ वैल्यू एडेड टैक्स क्षेत्र में सदस्य देशों को शामिल करता है। XX यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के लिए इसमें शामिल होना अनिवार्य है। एक उपभोग कर के रूप में, EU वैट, EU वैट क्षेत्र में माल और सेवाओं की खपत पर कर लगाता है। EU वैट का प्रमुख मुद्दा वहां पूछता है, जहां आपूर्ति और खपत होती है, इस प्रकार यह निर्धारण करता है कि कौन सा सदस्य देश वैट एकत्र करेगा और वैट का दर कितना लगाया जाएगा. प्रत्येक सदस्य देश के राष्ट्रीय वैट कानून को, EU वैट कानून के प्रावधानों का पालन करना चाहिए जो डाईरेक्टिव 2006/112/EC में वर्णित हैं। यह डाईरेक्टिव EU वैट के बुनियादी ढांचे को स्पष्ट करता है, पर सदस्य देशों को वैट कानून के क्रियान्वयन में थोड़े लचीलेपन की अनुमति देता है। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ के भिन्न सदस्य देशों में, वैट की भिन्न दरों की अनुमति दी गई है। लेकिन निर्देश 2006/112 के अनुसार सदस्य देशों में वैट की मानक दर कम से कम 15% होनी चाहिए और एक या दो घटित दरें 5% से कम नहीं होनी चाहिए। कुछ सदस्य देशों में, कुछ निश्चित आपूर्तियों पर 0% वैट दर है - इन सदस्य देशों ने इसे, EU एसेसन ट्रीटी के के हिस्से के रूप में स्वीकार किया होगा (उदाहरण के लिए बेल्जियम में समाचार पत्र और कुछ पत्रिकाएं)। यूरोपीय संघ में व्यवहार में मौजूदा अधिकतम दर 25% है, हालांकि सदस्य देश उच्चतर ब्याज दरें निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं। वैट जिसे एक व्यवसाय द्वारा लगाया जाता है और इसके ग्राहकों द्वारा दिया जाता है, उसे "आउटपुट वैट" कहते हैं (अर्थात, इसके उत्पादन की आपूर्ति पर वैट)। प्राप्त आपूर्तियों पर एक व्यवसाय द्वारा अन्य व्यवसायों को दिया जाने वाला वैट "इनपुट वैट" कहलाता है, (वैट इसके इनपुट आपूर्ति पर)। आम तौर पर एक उद्योग उस सीमा तक इनपुट वैट को वापस वसूल सकता है जितना इसके कर योग्य आउटपुट पर इनपुट वैट मना जा सकता है (यानि, बनाया करते थे)। इनपुट वैट को आउटपुट वैट के विपरीत स्थापित करके वसूला जाता है जिसके लिए व्यवसाय का सरकार के खाते में होना आवश्यकता है, या, अगर वहां एक आधिक्य है, तो सरकार से एक चुकौती का दावा करते हुए. वैट डाईरेक्टिव (1 जनवरी 2007 से पूर्व, छठा वैट डाईरेक्टिव के रूप में उद्धृत है) के अनुसार कुछ वस्तुओं और सेवाओं को वैट से मुक्त होना चाहिए (उदाहरण के लिए, डाक सेवा, चिकित्सा सेवा, ऋण, बीमा, सट्टेबाजी) और कुछ अन्य वस्तुओं और सेवाओं को वैट से मुक्त होना चाहिए लेकिन उन आपूर्तियों पर वैट का विकल्प एक यूरोपीय संघ के सदस्य देश के अधीन हो (जैसे कि भूमि और कुछ वित्तीय सेवाएं)। इनपुट वैट जो आपूर्ति को मुक्त करने के लिए आरोप्य है, प्राप्य नहीं है, यद्यपि एक व्यवसाय अपनी कीमतों में वृद्धि कर सकता है, ताकि ग्राहक प्रभावी तरीके से 'चिपके' वैट की लागत वहन करे (प्रभावी दर, शीर्षक दर से कम होगी और पहले के कर इनपुट और छूट के स्तर पर श्रम के बीच संतुलन पर निर्भर होगी)। नॉर्डिक देश MOMS (Danish: merværdiafgift</i>पूर्व में m er<b data-parsoid='{"dsr":[18942,18951,3,3]}'>oms ætningsafgift),Norwegian: merverdiavgift (bokmål) या meirverdiavgift (nynorsk) (संक्षिप्त MVA), Swedish: mervärdesskatt(पूर्व में mervärdesomsättningsskatt), Icelandic: virðisaukaskattur (संक्षिप्त VSK) या Finnish: arvonlisävero (संक्षिप्त ALV), वैट के लिए नॉर्डिक शब्द हैं। दूसरे देशों के बिक्री कर और वैट की तरह, यह एक प्रतिगामी अप्रत्यक्ष कर है। डेनमार्क में, आम तौर पर वैट एक दर से लागू है और कुछ अपवादों के साथ अन्य देशों की तरह, दो या दो से अधिक दर में विभाजित नहीं है (उदाहरण के लिए जर्मनी), जहां घटित दरें आवश्यक वस्तुओं पर लागू होती हैं जैसे, खाद्य पदार्थ. वर्तमान में डेनमार्क में वैट की मानक दर 25% है। यह दर डेनमार्क को, सबसे उच्च मूल्य योजित कर वाले देशों में से एक बनाती है, जहां उसके साथ हैं नार्वे और स्वीडन. कई सेवाएं कर योग्य नहीं हैं, जैसे निजी व्यक्तियों का सार्वजनिक परिवहन, स्वास्थ्य सेवाएं, समाचार पत्र प्रकाशन, परिसर का किराया, (पट्टादाता, यद्यपि, स्वेच्छा से वैट दाता के रूप में दर्ज करा सकता है, आवासीय परिसरों के अलावा) और ट्रैवेल एजेंसी परिचालन. फिनलैंड में वैट की मानक दर 22% है, लेकिन जुलाई 2010 में इसे एक प्रतिशत बढ़ाकर 23% किया जाएगा, अन्य सभी वैट दर के साथ, शून्य दर को छोड़कर.[5] इसके अतिरिक्त, दो घटित दरें उपयोग में हैं: 17% (अक्टूबर 2009 में खाने के लिए 12% तक कम होगा और जुलाई 2010 से रेस्तरां का खाना भी शामिल होगा), जो भोजन और पशु खाद्य पर लागू है और 8% जो यात्री परिवहन सेवाओं, सिनेमा प्रदर्शन, शारीरिक व्यायाम सेवा, किताबें, फार्मास्यूटिकल्स, व्यावसायिक, सांस्कृतिक और मनोरंजन कार्यक्रम के प्रवेश शुल्क और सुविधाओं पर लागो होता है। फिनिश वैट अधिनियम में परिभाषित परिस्थितियों के अतर्गत कुछ वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति को मुक्त किया गया है: अस्पताल और चिकित्सा देखभाल; समाज कल्याण सेवा; शिक्षा, वित्तीय और बीमा सेवा; लॉटरी और पैसे के खेल; वैध मुद्रा के रूप में प्रयुक्त बैंक नोट और सिक्के के साथ लेनदेन; निर्माण भूमि सहित भू संपत्ति; अंधे व्यक्तियों द्वारा किया गया कुछ लेनदेन और बहरे लोगों के लिए व्याख्या सेवा. इन कर मुक्त सेवाओं या वस्तुओं का विक्रेता, वैट के अधीन नहीं है और बिक्री पर कर का भुगतान नहीं करता है। ऐसे विक्रेता इसलिए वैट को काट नहीं सकते जो उनके निवेश की खरीद की कीमतों में शामिल है। आइसलैंड में वैट दो स्तरों में विभाजित है: अधिकांश माल और सेवाओं के लिए 24.5%, लेकिन कुछ विशेष वस्तुओं और सेवाओं के लिए 7%. 7% स्तर, होटल और डाक बंगले में ठहराव पर लागू होता है, रेडियो स्टेशनों के लिए लाइसेंस शुल्क (RÚV नाम का), समाचार पत्र और पत्रिकाएं, किताबें; गर्म पानी, घरों को गरम करने के लिए बिजली और तेल, मानव उपभोग के लिए खाद्य (पर शराब नहीं), टोल रोड और संगीत के लिए अभिगम. नार्वे में वैट तीन स्तरों में विभाजित है: 25% सामान्य वैट, 14% (पूर्व में 13%, 1 जनवरी, 2007 को वृद्धि) भोजन और रेस्तरां से बाहर जाने वाले खाद्य पर (रेस्तरां में खाने पर 25% है), 8% व्यक्ति परिवहन, मूवी टिकट और होटल में ठहराव पर. पुस्तकों और समाचार पत्रों को वैट से मुक्त रखा गया है, जबकि 80% की सदस्यता दर से कम वाली पत्र-पत्रिकाओं पर कर लगाया गया है। स्वालबार्ड में, स्वालबर्ड संधि में एक खंड के कारण कोई वैट नहीं है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को वैट से बाहर रखा गया है। स्वीडन में वैट तीन स्तर में विभाजित है: 25% अधिकांश माल और सेवाओं के लिए जिसमें रेस्तरां बिल शामिल है, होटल में ठहराव (पर नाश्ता पर 25%) और खाद्य पदार्थों के लिए 12% (रेस्तरां से घर लाने वाले खाद्य समेत) और छपी हुई सामग्री, सांस्कृतिक सेवाएं और निजी व्यक्तियों के परिवहन के लिए 6%. कुछ सेवाएं कर योग्य नहीं हैं, जैसे, बच्चों और वयस्कों की शिक्षा अगर सार्वजनिक उपयोगिता है और स्वास्थ्य एवं दंत चिकित्सा, लेकिन एक निजी स्कूल में वयस्कों के लिए पाठ्यक्रम के मामले में शिक्षा पर 25% का कर है। नृत्य कार्यक्रम पर (मेहमानों के लिए) 25%, संगीत और स्टेज शो 6% और कुछ प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर 0% है। MOMS ने 1967 में OMS को प्रतिस्थापित किया (डेनमार्क "omsætningsafgift ", स्वीडिश "omsättningsskatt "), जो विशेष रूप से खुदरा विक्रेताओं के लिए लागू एक कर था। वर्ष टैक्स स्तर OMS/MOMS 19629%OMS196710%MOMS196812.5%MOMS197015%MOMS197718%MOMS197820.25%MOMS198022%MOMS199225%MOMS भारत भारत में वैट ने 1 अप्रैल 2005 को बिक्री कर को प्रतिस्थापित किया। भारत के 28 राज्यों में से, आठ ने वैट को नहीं अपनाया. हरियाणा ने इसे 1 अप्रैल 2004 को पहले से ही अपना लिया था। भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप के कारण, राज्यों को अपनी वैट दर निर्धारित करने की शक्ति है। OECD (2008, 112-13) अनुमोदन स्वरूप चंचल कुमार शर्मा (2005) का हवाला देते हुए जवाब देता है कि क्यों भारत में एक संघीय वैट लागू करना मुश्किल साबित हुआ है। किताब में लिखा है: "यद्यपि, व्यापक आधार वाले संघीय वैट प्रणाली के कार्यान्वयन को, 1990 के दशक के आरम्भ से ही भारत के लिए सबसे अधिक वांछनीय उपभोग कर के रूप में माना गया है, ऐसे सुधारों में क्षेत्रीय सरकारों के वित्त के लिए गंभीर समस्याएं शामिल होंगी. इसके अतिरिक्त, मौजूदा आर्थिक सुधारों के संदर्भ में भारत में वैट को लागू करना भारत की संघीय व्यवस्था के लिए उलटा आयाम सिद्ध होगा. एक तरफ आर्थिक सुधारों ने खर्च की जिम्मेदारियों के विकेन्द्रीकरण के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, जो बदले में वित्तीय जवाबदेही को बनाए रखने के लिए, राजस्व उगाही शक्ति के अधिक विकेन्द्रीकरण की मांग करते हैं। दूसरी ओर, वैट लागू करने से (भारत को एक एकीकृत बाजार बनाने के लिए) राज्यों को राजस्व घाटा होगा और अधिक केंद्रीकरण के साथ उनकी स्वायत्तता में कमी होगी" (शर्मा, 2005, जैसा OECD, 2008, 112-13 में उद्धृत है) चंचल कुमार शर्मा (2005:929) जोर देकर कहते हैं: "राजनीतिक मजबूरियों ने सरकार को वैट का एक असंगत मॉडल पेश करने के लिए प्रेरित किया" 'भारतीय वैट प्रणाली अपूर्ण' है, इस हद तक कि यह 'वैट के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाती है'. भारत के पास लगता है एक 'बेकार वैट' है, क्योंकि जिन कारणों से वैट को शैक्षिक समर्थन मिलता है, वैट की भारतीय शैली में उनकी अवहेलना की गई है, अर्थात्: राज्यों में माल की आवाजाही में विरूपण को दूर करना; कर ढांचे में एकरूपता. चंचल कुमार शर्मा (2005:929) स्पष्ट रूप से कहते हैं, "स्थानीय अथवा राज्य स्तर के कर, जैसे चुंगी, प्रवेश कर, पट्टा कर, श्रमिक अनुबंध कर, मनोरंजन कर और विलासिता कर को नई शासन व्यवस्था में एकीकृत नहीं किया गया है जो वैट के मूल तत्वों के विरुद्ध जाता है जिसके अनुसार कर ढांचे में एकरूपता होनी चाहिए. यह तथ्य कि, अंतर-राज्यीय व्यापार के लिए किसी टैक्स क्रेडिट की अनुमति नहीं दी जाएगी, गंभीरता से एक वैट प्रणाली लागू करने के बुनियादी लाभ को नजरअंदाज करता है, यानी राज्यों में माल की आवाजाही में विरूपण को दूर करना." "यहां तक की वैट की सफलता के लिए सबसे ज़रूरी शर्त, अर्थात् [केन्द्रीय बिक्री कर (CST)] के उन्मूलन, को टाल दिया गया है। CST को स्रोत के आधार पर लगाया जाता है और निर्यातक राज्य द्वारा एकत्रित किया जता है; आयातक राज्य के उपभोक्ता इस भार को वहन करते हैं। CST भारतीय बाजार को एकीकृत करने के लिए, कर अवरोध पैदा करता है और उत्पादन की लागत पर सोपानी प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, अंतर-राज्यीय बिक्री पर इनपुट टैक्स क्रेडिट की मनाही और अंतर-राज्यीय हस्तांतरण से वस्तुओं के मुक्त प्रवाह पर असर पड़ेगा." (शर्मा, 2005:922) भारत में सबसे बड़ी चुनौती, शर्मा (2005) दावा करते हैं कि, एक बिक्री कर प्रणाली को विकसित करने की है जो, दक्षता से बिना समझौता किये या लागू करने की समस्याओं को बिना उत्पन्न किये, उपराष्ट्रीय स्तरों को कर की दर तय करने के लिए स्वायत्तता प्रदान करे. आंध्र प्रदेश का अनुभव भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश में, आंध्र प्रदेश मूल्य संवर्धित कर अधिनियम, 2005, 1 अप्रैल 2005 को लागू हुआ और इसमें छह अनुसूचियां शामिल हैं। अनुसूची I में आम तौर पर कर से मुक्त सामान शामिल हैं। अनुसूची II, निर्यात जैसे ज़ीरो रेटेड लेनदेन के साथ सम्बंधित है और अनुसूची III 1% की दर से लगने वाले कर योग्य माल की चर्चा करता है, यानी बुलियन और कीमती पत्थरों से बने गहने. 4% से लगने वाले कर योग्य वस्तुओं को अनुसूची IV के तहत सूचीबद्ध किया गया है। अनाज और राष्ट्रीय महत्व के माल जैसे लोहा और इस्पात, इस शीर्षक के अंतर्गत सूचीबद्ध हैं। अनुसूची V मानक दर वस्तुओं से संबंधित है जो 12.5% पर कर योग्य हैं। सभी वस्तुएं जो अधिनियम के अन्य भागों में सूचीबद्ध नहीं हैं, इस शीर्षक के अंतर्गत आतीं हैं। अनुसूची VI में वे माल शामिल हैं जिन पर विशेष दर से कर लगता है, जैसे कुछ शराब और पेट्रोलियम उत्पाद. यह अधिनियम वैट पंजीकरण के लिए सीमा निर्धारित करता है - 12 महीने की कर अवधि के, Rs.40.00 लाख से अधिक के कर योग्य कारोबारी, अनिवार्य रूप से वैट व्यापारियों के रूप में पंजीकृत हैं। 12 महीने की कर अवधि में, Rs.5.00 से 40.00 लाख के कर योग्य कमाई वाले कारोबारी, टर्नओवर टैक्स (TOT) के रूप में पंजीकृत हैं। हालांकि कारोबारियों का पहला वर्ग इनपुट टैक्स क्रेडिट के लिए योग्य है, बाद का डीलर वर्ग नहीं है। एक व्यापारी वैट अनुसूचियों में विनिर्दिष्ट दर पर कर देता है। एक TOT डीलर की सभी बिक्री, 1% के कर योग्य है। एक वैट व्यापारी को खरीद और बिक्री बताने वाली एक मासिक घोषणा जमा करनी होती है। एक TOT डीलर को कुल विक्रय राशि बताते हुए, तिमाही घोषणा जमा करना होता है। जबकि एक वैट व्यापारी, व्यापार के लिए देश में कहीं से भी माल खरीद सकता है, एक TOT डीलर को आन्ध्र प्रदेश राज्य के बाहर खरीददारी की मनाही है। यह अधिनियम भारत में सबसे अधिक उदार वैट कानून प्रतीत होता है। इसने पंजीकरण प्रक्रिया को सरल किया है और व्यापार लेनदेन के लिए सभी स्तरों पर इनपुट टैक्स क्रेडिट प्रदान करता है (कुछ अपवादों को छोड़कर)। आंध्र प्रदेश में पंजीकरण की एक अनूठी विशेषता है स्वैच्छिक वैट पंजीकरण और छोटे उद्यमों के लिए इनपुट टैक्स क्रेडिट की सुविधा. यथा 1 अप्रैल 2005 यह अधिनियम उपलब्ध माल के लिए संक्रमणकालीन राहत (TR) प्रदान करता है। हालांकि, ये वस्तुएं 1 अप्रैल 2005 से 31 मार्च 2006 के बीच किसी पंजीकृत डीलरों से खरीदी गई हों. कई विकसित देशों द्वारा प्रदान किये गए 3 माह के TR की तुलना में यह एक साहसिक कदम है। यह अधिनियम न केवल निर्यातकों के लिए कर वापसी प्रदान करता है (निर्यात वाली वस्तुओं के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री पर दिए कर की वापसी), बल्कि यह उन मामलों में भी कर वापसी प्रदान करता है, जहां इनपुट पर 12.5% की दर से और आउटपुट पर 4% की दर से कर लगा हो। आंध्र प्रदेश में वैट अधिनियम, वाणिज्यिक कर विभाग द्वारा प्रबंधित होता है (वैट और अन्य करों को संग्रह करने का विभाग) जिसके लिए वैटIS नाम के एक नेटवर्क सॉफ्टवेयर पैकेज का इस्तेमाल किया जाता है। कर्मियों को इस अधिनियम के लागू होने से पहले ही प्रशिक्षित किया गया। वैटIS का इस्तेमाल प्राप्त दस्तावेजों और प्रपत्रों को संसाधित करने और पंजीकरण प्रमाण पत्र और कर मांग नोटिस उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। सफल होने के लिए वैट, स्वैच्छिक कर अनुपालन पर निर्भर करता है। चूंकि वैट स्व-मूल्यांकन में विश्वास करता है, व्यापारियों के लिए समुचित रिकार्ड बनाए रखना, टैक्स बीजक जारी करना, सही टैक्स रिटर्न दाखिल करना आदि आवश्यक है। देखा जा रहा है कि भारत में इसका विपरीत हो रहा है। कारोबार अभी भी परंपरागत आधार पर चलाया जाता है। नकद लेनदेन प्रतिदिन के काम हैं। असंगठित क्षेत्र बाजार पर हावी है। उच्च कर अनुपालन की आशा और कमतर चोरी, आंध्र प्रदेश में अभी दूर है। यह तथ्य बकाएदारों (14%), क्रेडिट रिटर्न (35%) और शून्य रिटर्न (20%) के उच्च प्रतिशत में परिलक्षित होता है। यानी, वैट डीलरों का लगभग 70% इस समय किसी भी कर का भुगतान नहीं कर रहा है। क्रेडिट रिटर्न दाखिल करना FMCG, उपभोक्ता टिकाऊ वस्तु, औषधियां और उर्वरक में बड़े पैमाने पर है। इस क्षेत्र में मार्जिन कम (2-5% के बीच) है। राजस्व की उपज के लिए मूल्य संवर्धन अभी पर्याप्त नहीं है। निर्माताओं द्वारा दिया जाने वाला क्रेडिट, समस्या का शमन करता है। सवाल यह है, एक ठेठ खरीद और बिक्री के मामले में, क्या निवेश कर से अधिक उत्पादन कर हो सकता है? जब खरीद, बिक्री से लगातार अधिक होती है, तो क्या उत्पादन कर निवेश कर से अधिक हो सकता है? अगर कोई वैट व्यापारी अपनी खरीद और बिक्री को संतुलित करता है, तो क्या राज्य के लिए एक शुद्ध कर हो सकता है? क्या कोई एक गणितीय मॉडल या प्रतिमान है जो मूल्य योजित कर को क्रेडिट रिटर्न दे सकता है और जो क्रेडिट रिटर्न के प्रतिशत को कम कर सकता है? इन सवालों का कोई तौयार जवाब नहीं हैं। बिक्री के लिए रखे गए माल के खरीद मूल्य पर इनपुट कर पर प्रतिबंध लगना ही, एकमात्र उपचार दिखता है। बल्कि, क्रेडिट रिटर्न का सामना करने के लिए एक दो स्तरीय प्रणाली को अपनाया जा सकता है - निर्माताओं को पूर्ण इनपुट टैक्स की अनुमति देना और व्यापारियों को बिक्री के लिए रखे माल के खरीद मूल्य पर इनपुट टैक्स को सीमित करना। अंतर राज्यीय बिक्री के मामले में और 12.5% पर कर योग्य उत्पादों के मामले में इनपुट टैक्स को 4% पर सीमित करना एक समाधान लगता है। मैक्सिको Impuesto al Valor Agregado (IVA, "मूल्य योजित कर स्पेनिश में) एक कर है जो मैक्सिको और लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में लागू होता है। चिली में इसे Impuesto al Valor Agregado कहा जाता है और पेरू में mpuesto General a las Ventas या IGV . IVA से पहले, impuesto a las ventas ("बिक्री कर") नाम का एक समान कर मेक्सिको में लागू किया गया था। सितम्बर, 1966 में IVA को लागू करने का प्रथम प्रयास हुआ, जब राजस्व विशेषज्ञों ने घोषणा की कि IVA, बिक्री कर के एक आधुनिक समकक्ष के रूप में होगा जैसा फ्रांस में हुआ। अप्रैल और मई, 1967 में अंतर अमेरिकी राजस्व प्रशासक केंद्र के सम्मेलन में, मैक्सिकन प्रतिनिधित्व ने घोषणा की कि वर्तमान समय में एक मूल्य योजित कर मेक्सिको में संभव नहीं होगा। नवंबर, 1967, में अन्य विशेषज्ञों ने घोषणा की कि हालांकि, यह सर्वाधिक समान अप्रत्यक्ष करों में से एक है, मैक्सिको में इसका क्रियान्वयन नहीं हो सकता है। इन बयानों के उत्तर में, निजी क्षेत्र में सदस्यों के प्रत्यक्ष नमूने लिए गए साथ ही साथ यूरोप के उन देशों की यात्राएं की गईं जहां इस कर को लागू किया गया था या जल्द ही लागू होने वाला था। 1969 में, व्यापारिक-राजस्व कर को मूल्य योजित कर से प्रतिस्थापित करने का प्रथम प्रयास किया गया। 29 दिसम्बर, 1978 को संघीय सरकार ने 1 जनवरी 1980 को शुरू होने वाले कर के आधिकारिक आवेदन पत्र को ओफ़िशिअल जर्नल ऑफ़ द फेडरेशन (Diario Oficial de Federación) में प्रकाशित किया। यथा 01/01/2010, 15% के सामान्य वैट दर को बढ़ाकर 16% किया जाएगा. इस दर को पूरे मेक्सिको में लागू किया जाएगा, सिवाय उन मैक्सिकन क्षेत्रों के जो कैलिफोर्निया, एरिज़ोना, न्यू मेक्सिको और टेक्सास के अमेरिकी राज्यों की सीमा से लगे हैं, जहां वैट (IVA) कर 10% है (यथा 01/01/2010 11% किया जाएगा)। 0% आधार पर मुख्य छूट किताबों, खाद्य और दवाइयों के लिए होगी। चिकित्सा डॉक्टरों के ध्यान की तरह कुछ सेवाओं को मुक्त रखा गया है। न्यूजीलैंड माल और सेवा कर (GST), एक मूल्य संवर्धित कर है जिसे 1986 में न्यूजीलैंड में शुरू किया गया, जो वर्तमान में 12.5% है। कुछ चीज़ों के लिए छूट देने के लिए यह उल्लेखनीय है। ऑस्ट्रेलिया माल और सेवा कर (GST), एक मूल्य संवर्धित कर है जिसे 2000 में ऑस्ट्रेलिया में शुरू किया गया, जो संघीय सरकार द्वारा एकत्रित किया जाता है लेकिन राज्य सरकारों को दिया जाता है। ऑस्ट्रेलियाई संविधान, व्यक्तिगत राज्यों की सीमा कर या बिक्री कर को एकत्र करने की क्षमता को प्रतिबंधित करता है। जबकि, वर्तमान दर 10% है, ऐसी कई घरेलू उपभोक्ता वस्तुएं हैं जो प्रभावी ढंग से शून्य-दर हैं (GST-फ्री) जैसे ताजा खाद्य, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं, साथ ही साथ सरकारी शुल्क और वैसे शुल्क जो खुद एक कर के रूप में हैं, उनसे छूट. कनाडा माल और सेवा कर (GST) एक मूल्य योजित कर है जिसे 7% की दर से 1991 में शुरू किया गया। वर्तमान दर 5% है और प्रांतीय बिक्री कर के अलावा लगाई जाती है, सिवाय अलबर्टा के, जहां कोई प्रांतीय बिक्री कर नहीं है; और न्यू ब्रुन्ज़विक, न्यू फाउंडलैंड और नोवा स्कॉशिया, जहां एक संगत बिक्री कर (5% GST + 8% PST = 13% HST) (GST और प्रांतीय बिक्री कर सम्मिलित) एकत्र किया जाता है। माल के लिए विज्ञापित कीमतें आम तौर पर करों को शामिल नहीं करतीं; इसके बजाय, टैक्स की गणना नकदी रजिस्टर पर की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका ज़्यादातर राज्यों में अंतिम खरीदार पर लगने वाला खुदरा बिक्री कर है, अन्य व्यवसायों को बिक्री पर, वैट के विपरीत, कोई कर नहीं हैं। राज्य बिक्री कर 0% -13% के बीच होते हैं और नगरपालिकाएं अक्सर एक अतिरिक्त स्थानीय बिक्री कर जोड़ती हैं।[6] कई दुकानों में, प्राइस टैग और/अथवा विज्ञापित कीमतों में कर शामिल नहीं होते; इनको ग्राहक के भुगतान करने से पहले नकदी रजिस्टर पर जोड़ा जाता है। कई राज्यों में, सेवाओं के लिए कोई बिक्री कर नहीं लिया जाता है। पूरे अमेरिका में लगाए जाने वाले अधिकांश बिक्री कर और अन्य देशों के मूल्य योजित कर में यह सबसे महत्वपूर्ण अंतर है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, मिशिगन राज्य ने अपने सामान्य व्यापार कराधान के फार्म के रूप में, "सिंगल बिज़नेस टैक्स" (SBT) नाम से ज्ञात, एक वैट फार्म का उपयोग किया। अमेरिका में केवल इसी राज्य ने वैट का प्रयोग किया। जब इसे 1975 में अपनाया गया, इसने एक कंपनी आयकर सहित सात व्यापार कर को प्रतिस्थापित किया। 9 अगस्त 2006 को मिशिगन विधानमंडल ने सिंगल बिज़नेस टैक्स को निरस्त करने के लिए मतदाता-पहल कानून को मंजूरी दी, जो 1 जनवरी 2009 से प्रभावी हो गया।[7] अक्टूबर 2009 में, सभा अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी के यह कहने के बाद कि आवश्यक राजस्व जुटाने में संघीय सरकार की मदद के लिए एक नया राष्ट्रीय वैट "मेज पर है",[8] अमेरिकंस फॉर टैक्स रिफ़ॉर्म जैसे समूहों ने जनता से आग्रह किया कि वे इस प्रभावी मापन का विरोध करने के लिए, कांग्रेस के अपने सदस्यों से संपर्क करें। [9] कर की दरें यूरोपीय संघ के देश गैर यूरोपीय संघ के देश नोट 1: HST कुछ प्रांतों में एकत्र किया जाने वाला एक संयुक्त संघीय/प्रांतीय वैट है। बाकी कनाडा में, GST 5% संघीय वैट है और अगर कोई क्षेत्रीय बिक्री कर (PST) है तो यह एक अलग गैर वैट कर है। नोट 2: कोई वास्तविक "घटित दर" नहीं, लेकिन नए आवास के लिए आम तौर पर उपलब्ध छूट, कर को प्रभावी ढंग से 4.5% तक कम कर देती है। नोट 3: ये कर हांगकांग और मकाओ में लागू नहीं हैं, जो विशेष प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं। नोट 4: घटित दर 1 मार्च 2007 तक 14% थी, जब इसे 7% कर दिया गया। घटित दर हीटिंग लागत, मुद्रित सामग्री, रेस्तरां बिल, होटल ठहराव और अधिकाँश खाद्य पर लागू होता है। नोट 5: भारत के 28 राज्यों में से 2 में वैट लागू नहीं है। नोट 6: ऐलात को छोड़कर, जहां वैट को बढ़ाया नहीं गया।[16] नोट 7: इसराइल में वैट को धीरे-धीरे कम किये जाने की प्रक्रिया जारी है। मार्च 2004 में, इसे 18% से 17% कर दिया गया, सितंबर 2005 में 16.5% और 1 जुलाई 2006 को अपनी वर्तमान दर पर निश्चित किया गया था। निकट भविष्य में इसे और कम करने की योजना है, लेकिन वे इजरायल की संसद में राजनीतिक परिवर्तन पर निर्भर हैं। नोट 8: द्वीप सरकार के बजट में एक बड़े बजट घाटे को नियंत्रित करने के लिए 3% के माल और बिक्री कर को 6 मई 2008 को पेश किया जाएगा. नोट 9: बजट 2005 में, सरकार ने घोषणा की कि GST को जनवरी 2007 में शुरू किया जाएगा. कई विवरणों की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है लेकिन यह कहा गया है कि आवश्यक वस्तुओं और छोटे व्यवसायों को मुक्त अथवा शून्य दर पर रखा जाएगा. यथा जून 2007, दरों को अभी तक निश्चित नहीं किया गया है। नोट 10: फिलीपींस के राष्ट्रपति के पास 1 जनवरी 2006 के बाद कर को 12% तक बढ़ाने की शक्ति है। कर को 1 फरवरी को 12% कर दिया गया। वैट पंजीकृत वैट पंजीकृत का अर्थ है वैट प्रयोजनों के लिए पंजीकृत, यानि एक देश के एक आधिकारिक वैट दाता रजिस्टर में शामिल. प्राकृतिक व्यक्ति और कानूनी संस्थाएं, दोनों ही वैट पंजीकृत हो सकती हैं। वैट का उपयोग करने वाले देशों ने एक कैलेंडर वर्ष के दौरान प्राकृतिक व्यक्तियों/कानूनी संस्थाओं द्वारा प्राप्त पारिश्रमिक के लिए विभिन्न द्वार स्थापित किये हैं (या एक अलग अवधि) जिसे पार करने पर वैट पंजीकरण अनिवार्य है। प्राकृतिक व्यक्ति/कानूनी संस्थाएं जो वैट पंजीकृत हैं, वे कुछ ख़ास सामानों/सेवाओं पर वैट की गणना करने के लिए बाध्य हैं जिन्हें वे आपूर्ति करते हैं और एक विशेष राज्य के बजट में वैट भुगतान करते हैं। वैट पंजीकृत व्यक्ति/संस्थाएं, किसी विशेष देश के विधायी नियमों के तहत वैट कटौती की हकदार हैं। वैट की शुरुआत नकदी अर्थव्यवस्था को कम कर सकती है क्योंकि ऐसे कारोबार जो अन्य वैट पंजीकृत व्यवसाय के साथ क्रय-विक्रय करना चाहते हैं उन्हें खुद वैट पंजीकृत होना होगा। इन्हें भी देखें प्रतिगामी कर प्रगतिशील कर वैट पहचान संख्या दुनिया भर की कर की दरों की सूची जफ्फा केक - इसकी गैर-वैट स्थिति को ब्रिटेन के कोर्ट मामले में चुनौती दी गई थी, यह निर्धारित करने के लिए कि जफ्फा केक एक केक है या एक बिस्कुट. वैट 3 चैनल द्वीप समूह से मूल्य-योजित-कर-मुक्त आयात - कम मूल्य के उत्पाद चैनल द्वीप समूह से बिना वैट भुगतान के यूरोपीय संघ में आयात किये जा सकते हैं मिसिंग ट्रेडर फ्रॉड (कैरोज़ल वैट फ्रॉड) फ्लैट कर माल और सेवा कर सकल प्राप्ति कर आयकर भूमि मूल्य कर लाइन सेवा पर राजस्व बिक्री कर टर्नओवर टैक्स एकल कर नोट्स सन्दर्भ Check date values in: |accessdate=, |date=, and |archivedate= (help)CS1 maint: discouraged parameter (link) अहमद, एहतशाम और निकोलस स्टर्न. 1991. द थिओरी एंड प्रैक्टिस ऑफ़ टैक्स रिफ़ॉर्म इन डेवलपिंग कंट्रीज़ (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस)। बर्ड, रिचर्ड एम. और P.-P. गेनड्रोन .1998 "डुअल वैटs एंड क्रॉस बोर्डर ट्रेड: टू प्रॉब्लम्स, वन सलूशन?" अंतरराष्ट्रीय टैक्स और सार्वजनिक वित्त, 5: 429-42. बर्ड, रिचर्ड एम. और P.-P. गेनड्रोन .2000 "Cवैट, VIवैट एंड डुअल वैट; वर्टिकल 'शेयरिंग' एंड इंटरस्टेट ट्रेड", अंतरराष्ट्रीय टैक्स और सार्वजनिक वित्त, 7: 753-61. कीन, माइकल और एस. स्मिथ .2000. 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GST का पूर्ण प्रपत्र क्या है?
वस्तु और सेवा कर
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मिसिसिप्पी नदी (अंग्रेज़ी: Mississippi river, मिसिसिप्पी रिवर) उत्तर अमेरिका के महाद्वीप का सब से बड़ा नदी मंडल है।[1][2] यह पूरी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के क्षेत्र के भीतर बहती है। इस नदी का स्रोत मिनेसोटा राज्य की इटास्का झील में है जहाँ से यह घुमावों के साथ दक्षिण की ओर चलती है। २,३२० मील (३,७३० किमी) का सफ़र तय करके यह मेक्सिको की खाड़ी में नदीमुख (डॅल्टा) बनाकर विलय हो जाती है।[3] मिसिसिप्पी को बहुत सी उपनदियाँ पानी प्रदान करती हैं और इसका जलसंभर में ३१ अमेरिकी राज्य और दक्षिणी कनाडा का कुछ भूभाग आता हैं। यह नदी विश्व की चौथी सब से लम्बी नदी है और पानी के प्रति-घंटे बहाव की मात्रा में दसवी सब से बड़ी है। मिसिसिप्पी ने संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में बहुत अहम भूमिका निभाई है।[4] मिसिसिप्पी के किनारे मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले १०,००० सालों से रहते थे। बहुत से शिकार-जुगाड़ का जीवन बसर करते थे, लेकिन इनमें से कुछ कृषि आधारित समाजों में भी रहते थे। यूरोपियाई उपनिवेशीकरण के बाद बहुत से यूरोपीय मूल के लोग यहाँ आकर बस गए और ज़्यादातर मूल आदिवासियों को खदेड़ दिया या मार डाला गया। कुछ काल के लिए तो यह महान नदी यूरोपियाई लोगों के यहाँ से आगे पश्चिम में फैलने में बाधा बनी रही लेकिन धीरे-धीरे इस नावी यातायात के लिए प्रयोग किया जाने लगा। यह नदी अपने बहाव से अपने जलसंभर क्षेत्र में इतनी उपजाऊ मिटटी डालती है के इसे विश्व के सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता है। इस नदी को अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी भागों के बीच की सीमा रेखा माना जाता है। अमेरिकी संस्कृति में किसी वस्तु के बारे में बात करते हुए इस तरह की चीज़ें कहना आम है के "फ़लाना कारख़ाना मिसिसिप्पी से पश्चिम में सब से बड़ा है" या "फ़लाना पर्वत मिसिसिप्पी से पूर्व में सब से ऊंचा है।"[5] नाम की उत्पत्ति मिसिसिप्पी का नाम एक मूल अमेरिकी आदिवासी भाषा से आता है जिसे आनिश्नाबे या ओजिब्वे कहते हैं। इसमें इस नदी को मिसि-ज़िइबी कहा जाता था, जिसका अर्थ है "महान नदी"। यह नाम फ़्रांसिसी स्रोतों ने बिगाड़कर "मिसिसिप्पी" कर दिया। इन्हें भी देखें संयुक्त राज्य अमेरिका पश्चिमी संयुक्त राज्य सन्दर्भ श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका की नदियाँ श्रेणी:विश्व की नदियाँ श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
मिसिसिप्पी नदी किस महाद्वीप में बहती है?
उत्तर अमेरिका
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संसार की सबसे लम्बी नदी नील है जो अफ्रीका की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया से निकलकर विस्तृत सहारा मरुस्थल के पूर्वी भाग को पार करती हुई उत्तर में भूमध्यसागर में उतर पड़ती है। यह भूमध्य रेखा के निकट भारी वर्षा वाले क्षेत्रों से निकलकर दक्षिण से उत्तर क्रमशः युगाण्डा, इथियोपिया, सूडान एवं मिस्र से होकर बहते हुए काफी लंबी घाटी बनाती है जिसके दोनों ओर की भूमि पतली पट्टी के रूप में शस्यश्यामला दिखती है। यह पट्टी संसार का सबसे बड़ा मरूद्यान है।[1] नील नदी की घाटी एक सँकरी पट्टी सी है जिसके अधिकांश भाग की चौड़ाई १६ किलोमीटर से अधिक नहीं है, कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई २०० मीटर से भी कम है। इसकी कई सहायक नदियाँ हैं जिनमें श्वेत नील एवं नीली नील मुख्य हैं। अपने मुहाने पर यह १६० किलोमीटर लम्बा तथा २४० किलोमीटर चौड़ा विशाल डेल्टा बनाती है।[2] घाटी का सामान्य ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। मिस्र की प्राचीन सभ्यता का विकास इसी नदी की घाटी में हुआ है। इसी नदी पर मिस्र देश का प्रसिद्ध अस्वान बाँध बनाया गया है। नील नदी की घाटी का दक्षिणी भाग भूमध्य रेखा के समीप स्थित है, अतः वहाँ भूमध्यरेखीय जलवायु पायी जाती है। यहाँ वर्ष भर ऊँचा तापमान रहता है तथा वर्षा भी वर्ष भर होती है। वार्षिक वर्षा का औसत २१२ से. मी. है। उच्च तापक्रम तथा अधिक वर्षा के कारण यहाँ भूमध्यरेखीय सदाबहार के वन पाये जाते हैं। नील नदी के मध्यवर्ती भाग में सवाना तुल्य जलवायु पायी जाती है जो उष्ण परन्तु कुछ विषम है एवं वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत कम है। इस प्रदेश में सवाना नामक उष्ण कटिबन्धीय घास का मैदान पाया जाता है। यहाँ पाये जाने वाले गोंद देने वाले पेड़ो के कारण सूडान विश्व का सबसे बड़ा गोंद उत्पादक देश है। उत्तरी भाग में वर्षा के अभाव में खजूर, कँटीली झाड़ीयाँ एवं बबूल आदि मरुस्थलीय वृक्ष मिलते हैं। उत्तर के डेल्टा क्षेत्र में भूमध्यसागरीय जलवायु पायी जाती है जहाँ वर्षा मुख्यतः जाड़े में होती है। चित्र दीर्घा एक क्रूज़बोट से नील का मिस्र में लक्ज़र एवं आस्वान के बीच दृश्य नील में आस्वान के निकट एक ढो (नाव) नील में काहिरा के निकट ज़मालेक क्षेत्र में एक नाव नील के निकट दलदल युगांडा में नील नील में नाव, १९००ई। मीडिया नील नदी घाटी का दृश्य नील नदी घाटी के निवासी टीका टिप्पणी 'मिस्र ही नील है और नील ही मिस्र है' (Egypt is Nile and Nile is Egypt)- हेरोडोटस सन्दर्भ श्रेणी:दक्षिण सूडान की नदियाँ श्रेणी:सूडान की नदियाँ श्रेणी:मिस्र की नदियाँ श्रेणी:युगांडा की नदियाँ श्रेणी:विश्व की नदियाँ श्रेणी:अफ़्रीका श्रेणी:नील नदी श्रेणी:अफ़्रीका की नदियाँ श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
संसार की सबसे लम्बी नदी कौन सी है?
नील
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मोलस्का या चूर्णप्रावार प्रजातियों की संख्या में अकशेरूकीय की दूसरी सबसे बड़ी जाति है। ८०,००० जीवित प्रजातियां हैं और ३५,००० जीवाश्म प्रजातियां मौजूद हैं। कठिन खोल की मौजूदगी के कारण संरक्षण का मौका बढ़ जाता है। वे अव्वलन द्विदेशीय सममित हैं।इस संघ के अधिकांश जंतु विभिन्न रूपों के समुद्री प्राणी होते हैं, पर कुछ ताजे पानी और स्थल पर भी पाए जाते हैं। इनका शरीर कोमल और प्राय: आकारहीन होता है। वे कोई विभाजन नहीं दिखाते और द्विपक्षीय सममिति कुछ में खो जाता है। शरीर एक पूर्वकाल सिर, एक पृष्ठीय आंत कूबड़, रेंगने बुरोइंग या तैराकी के लिए संशोधित एक उदर पेशी पैर है। शरीर एक कैल्शियम युक्त खोल स्रावित करता है जो एक मांसल विरासत है चारों ओर यह आंतरिक हो सकता है, हालांकि खोल कम या अनुपस्थित है, आमतौर पर बाहरी है। जाति आम तौर पर ९ या १० वर्गीकरण वर्गों में बांटा गया है, जिनमें से दो पूरी तरह से विलुप्त हैं। मोलस्क का वैज्ञानिक अध्ययन 'मालाकोलोजी' कहा जाता है।ये प्रवर में बंद रहते हैं। साधारणतया स्त्राव द्वारा कड़े कवच का निर्माण करते हैं। कवच कई प्रकार के होते हैं। कवच के तीन स्तर होते हैं। पतला बाह्यस्तर कैलसियम कार्बोनेट का बना होता है और मध्यस्तर तथा सबसे निचलास्तर मुक्ता सीप का बना होता है। मोलस्क की मुख्य विशेषता यह है कि कई कार्यों के लिए एक ही अंग का इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिए, दिल और गुर्दे प्रजनन प्रणाली है, साथ ही संचार और मल त्यागने प्रणालियों के महत्वपूर्ण हिस्से हैं बाइवाल्वस में, गहरे नाले दोनों "साँस" और उत्सर्जन और प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण है जो विरासत गुहा, में एक पानी की वर्तमान उत्पादन। प्रजनन में, मोलस्क अन्य प्रजनन साथी को समायोजित करने के लिए लिंग बदल सकते हैं। ये स्क्विड और ऑक्टोपोडा से मिलते जुलते हैं पर उनसे कई लक्षणों में भिन्न होते हैं। इनमें खंडीभवन नहीं होता।[1] विविधता मोलस्क की प्रजातियों में रहने वाले वर्णित अनुमान ५०,००० से अधिकतम १२०,००० प्रजातियों का है। डेविड निकोल ने वर्ष १९६९ में उन्होंने लगभग १०७,००० में १२,००० ताजा पानी के गैस्ट्रोपॉड और ३५,००० स्थलीय का संभावित अनुमान लगाया था।[2] सामान्यीकृत मोलस्क क्योंकि मोलस्क के बीच शारीरिक विविधता की बहुत बड़ी सीमा होने के कारण कई पाठ्यपुस्तकों में इन्हे अर्चि-मोलस्क, काल्पनिक सामान्यीकृत मोलस्क, या काल्पनिक पैतृक मोलस्क कहा जाता है। इसके कई विशेषताएँ अन्य विविधता वाले जीवों में भी पाये जाते है। सामान्यीकृत मोलस्क द्विपक्षीय होते है। इनके ऊपरी तरफ एक कवच भी होता है, जो इन्हे विरासत में मिला है। इसी के साथ-साथ कई बिना पेशी के अंग शरीर के अंगों में शामिल हो गए। गुहा यह मूल रूप से ऐसे स्थान पर रहना पसंद करते है, जहां उन्हे प्रयाप्त स्थान और समुद्र का ताजा पानी मिल सके। परंतु इनके समूह के कारण यह भिन्न-भिन्न स्थानो में रहते है। खोल यह उनको विरासत में मिला है। इस प्रकार के खोल मुख्य रूप से एंरेगोनाइट के बने होते है। यह जब अंडे देते है तो केल्साइट का उपयोग करते है। पैर इनमें नीचे की और पेशी वाले पैर होते है, जो अनेक परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न कार्यों को करने के काम आते है। यह किसी प्रकार के चोट लगने पर श्लेष्म को एक स्नेहक के रूप में स्रावित करता है, जिससे किसी भी प्रकार की चोट ठीक हो सके। इसके पैर किसी कठोर जगह पर चिपक कर उसे आगे बढ़ने में सहायता करते है। यह ऊर्ध्वाधर मांसपेशियों के द्वारा पूरी तरह से खोल के अंदर आ जाता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:जीव विज्ञान श्रेणी:प्राणी संघ
किसने स्थलीय का संभावित अनुमान लगाया था?
डेविड निकोल
1,711
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विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। इतिहास 1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा का आयोजन किया गया था। इसी चर्चा के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया। 1987 में इसके केंद्र को बदलते रहने का सुझाव सामने आया और उसके बाद से ही इसके आयोजन के लिए अलग अलग देशों को चुना जाता है।[1] इसमें हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं और इसमें कई सरकारी, सामाजिक और व्यावसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं। विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने के लिए कवि अभय कुमार ने धरती पर एक गान लिखा था, जिसे 2013 में नई दिल्ली में पर्यावरण दिवस के दिन भारतीय सांस्कृतिक परिषद में आयोजित एक समारोह में भारत के तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने इस गाने को पेश किया। आयोजन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:आधार श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय दिवस श्रेणी:पर्यावरण
पहला विश्व पर्यावरण दिवस किस वर्ष मनाया गया था?
5 जून 1974
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विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। इतिहास 1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा का आयोजन किया गया था। इसी चर्चा के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया। 1987 में इसके केंद्र को बदलते रहने का सुझाव सामने आया और उसके बाद से ही इसके आयोजन के लिए अलग अलग देशों को चुना जाता है।[1] इसमें हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं और इसमें कई सरकारी, सामाजिक और व्यावसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं। विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने के लिए कवि अभय कुमार ने धरती पर एक गान लिखा था, जिसे 2013 में नई दिल्ली में पर्यावरण दिवस के दिन भारतीय सांस्कृतिक परिषद में आयोजित एक समारोह में भारत के तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने इस गाने को पेश किया। आयोजन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:आधार श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय दिवस श्रेणी:पर्यावरण
विश्व पर्यावरण दिवस किस दिन मनाया जाता है?
5 जून
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भौतिकी में वेग का अर्थ किसी दिशा में चाल होता है। यह एक सदिश राशि है। एक वस्तु का वेग अलग-अलग दिशाओं में अलग अलग हो सकता है। किसी वस्तु के स्थिति बदलने की दर को वेग कहते हैं। चाल यदि दिशा के साथ लिखी जाए तो वो वेग के तुल्य ही होती है, उदाहरण के लिए 60 किमी/घण्टा उत्तर की तरफ। वेग गतिकी का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो यांत्रिकी की एक शाखा है जिसमे वस्तुओ के गति का अध्ययन किया जाता है। वेग एक सदिश भौतिक मात्रा है ; दोनों परिमाण और दिशा इसे परिभाषित करने के लिए आवश्यक हैं। वेग के अदिश निरपेक्ष मूल्य ( परिमाण ) चाल को SI ( मैट्रिक ) प्रणाली में मीटर प्रति सेकेण्ड (मी/से॰) में मापा जाता है। उदाहरण के लिए , "5 मीटर प्रति सेकेण्ड" एक अदिश है, जबकि "5 मीटर प्रति सेकेण्ड पूर्वी दिशा में" सदिश राशि है। चाल और वेग श्रेणी:शब्दार्थ श्रेणी:भौतिकी श्रेणी:गतिविज्ञान
वेग की SI इकाई क्या है?
मीटर प्रति सेकेण्ड
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कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। भारत में कृषि सिंधु घाटी सभ्यता के दौर से की जाती रही है। १९६० के बाद कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति के साथ नया दौर आया। सन् २००७ में भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं सम्बन्धित कार्यों (जैसे वानिकी) का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में हिस्सा 16.6% था। उस समय सम्पूर्ण कार्य करने वालों का 52% कृषि में लगा हुआ था। इतिहास भारत में कृषि में 1960 के दशक के मध्य तक पारंपरिक बीजों का प्रयोग किया जाता था जिनकी उपज अपेक्षाकृत कम थी। उन्हें सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती थी। किसान उर्वरकों के रूप में गाय के गोबर आदि का प्रयोग करते थे। १९६० के बाद उच्च उपज बीज (HYV) का प्रयोग शुरु हुआ। इससे सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ गया। इस कृषि में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ने लगी। इसके साथ ही गेहूँ और चावल के उत्पादन में काफी वृद्धी हुई जिस कारण इसे हरित क्रांति भी कहा गया। उत्पादन भारत में विभिन्न वर्षों में दाल-गेहूँ का उत्पादन (दस करोड़ टन में)- 1970-71 12-24 1980-81 11-36 1990-91 14-55 2000-01 11-70 2008-10 12-60 कृषि औजार भारत में कृषि में परंपरागत औजारों जैसे फावड़ा, खुरपी, कुदाल, हँसिया, बल्लम, के साथ ही आधुनिक मशीनों का प्रयोग भी किया जाता है। किसान जुताई के लिए ट्रैक्टर, कटाई के लिए हार्वेस्टर तथा गहाई के लिए थ्रेसर का प्रयोग करते हैं। अवलोकन २०१० एफएओ विश्व कृषि सांख्यिकी, के अनुसार भारत के कई ताजा फल और सब्जिया, दूध, प्रमुख मसाले आदि को सबसे बड़ा उत्पादक ठहराया गया है। रेशेदार फसले जैसे जूट, कई स्टेपल जैसे बाजरा और अरंडी के तेल के बीज आदि का भी उत्पादक है। भारत गेहूं और चावल की दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत, दुनिया का दूसरा या तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है कई चीजो का जैसे सूखे फल, वस्त्र कृषि-आधारित कच्चे माल, जड़ें और कंद फसले, दाल, मछलीया, अंडे, नारियल, गन्ना और कई सब्जिया। २०१० मई भारत को दुनिया का पॉचवा स्थान हासिल हुआ जिसके मुताबिक उसने ८०% से अधिक कई नकदी फसलो का उत्पादन् किया जैसे कॉफी और कपास आदि। २०११ के रिपोर्ट के अनुसार, भारत को दुनिया में पाँचवे स्थान पर रखा गया जिसके मुताबिक व सबसे तेज़ वृद्धि के रूप में पशुधन उत्पादक करता है। २००८ के एक रिपोर्ट ने दावा किया कि भारत की जनसंख्या, चावल और गेहूं का उत्पादन करने की क्षमता से अधिक तेजी से बढ़ रही है। अन्य सुत्रो से पता चलता है कि, भारत अपनी बढती जनसंख्या को अराम से खिला सकता है और साथ ही साथ चावल और गेहूं को निर्यात भी कर सकता है। बस, भारत को अपनी बुनियादी सुविधाओं को बढाना होगा जिससे उत्पादक भी बढे जैसे अन्य देश ब्राजील और चीन ने किया। भारत २०११ में लगभग २लाख मीट्रिक टन गेहूँ और २.१ करोड़ मीट्रिक टन चावल का निर्यात अफ्रीका, नेपाल, बांग्लादेश और दुनिया भर के अन्य देशों को किया। जलीय कृषि और पकड़ मत्स्यपालन भारत में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों के बीच है। १९९० से २०१० के बीच भारतीय मछली फसल दोगुनी हुई, जबकि जलीय कृषि फसल तीन गुना बढ़ा। २००८ में, भारत दुनिया का छठा सबसे बड़ा उत्पादक था समुद्री और मीठे पानी की मत्स्य पालन के क्षेत्र में और दूसरा सबसे बड़ा जलीय मछली कृषि का निर्माता था। भारत ने दुनिया के सभी देशों को करीब ६,00,000 मीट्रिक टन मछली उत्पादों का निर्यात किया। भारत ने पिछ्ले ६० वर्षो मैं कृषि विभाग में कई सफलताए प्राप्त की है। ये लाभ मुख्य रूप से भारत को हरित क्रांति, पावर जनरेशन, बुनियादी सुविधाओं, ज्ञान में सुधार आदि से प्राप्त हुआ। भारत में फसल पैदावार अभी भी सिर्फ ३०% से ६०% ही है। अभी भी भारत में कृषि प्रमुख उत्पादकता और कुल उत्पादन लाभ के लिए क्षमता है। विकासशील देशों के सामने भारत अभी भी पीछे है। इसके अतिरिक्त, गरीब अवसंरचना और असंगठित खुदरा के कारण, भारत ने दुनिया में सबसे ज्यादा खाद्य घाटे से कुछ का अनुभव किया और नुकसान भी भुगतना पड़ा। भारत मे सिंचाई भारत में सिंचाई का मतलब खेती और कृषि गतिविधियों के प्रयोजन के लिए भारतीय नदियों, तालाबों, कुओं, नहरों और अन्य कृत्रिम परियोजनाओं से पानी की आपूर्ति करना होता है। भारत जैसे देश में, ६४% खेती करने की भूमि, मानसून पर निर्भर होती है। भारत में सिंचाई करने का आर्थिक महत्व है - उत्पादन में अस्थिरता को कम करना, कृषि उत्पादकता की उन्नती करना, मानसून पर निर्भरता को कम करना, खेती के अंतर्गत अधिक भूमि लाना, काम करने के अवसरों का सृजन करना, बिजली और परिवहन की सुविधा को बढ़ाना, बाढ़ और सूखे की रोकथाम को नियंत्रण में करना। पहल विपणन के विकास के लिए निवेश की आवश्यकता स्तर, भंडारण और कोल्ड स्टोरेज बुनियादी सुविधाओं को भारी होने का अनुमान है। हाल ही में भारत सरकार ने पूरी तरह से कृषि कार्यक्रम का मूल्यांकन करने के लिए किसान आयोग का गठन किया। हालांकि सिफारिशों का केवल एक मिश्रित स्वागत किया गया है। नवम्बर २०११ में, भारत ने संगठित खुदरा के क्षेत्र में प्रमुख सुधारों की घोषणा की। इन सुधारों में रसद और कृषि उत्पादों की खुदरा शामिल हुई। यह सुधार घोषणा प्रमुख राजनीतिक विवाद का कारण भी बना। यह सुधार योजना, दिसंबर २०११ में भारत सरकार द्वारा होल्ड पर रख दिया गया था ॥ वित्त वर्ष २०१३-१४ के अंत में भारत में कृषि की स्थिति[1] वर्ष 2013-14 में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 4.7 प्रतिशत वर्ष 2013-14 में 264.4 मिलियन टन खाद्यान का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में 32.4 मिलियन टन तिलहन का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में 19.6 मिलियन टन दलहन का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में मुंगफली का सबसे अधिक 73.17 प्रतिशत उत्‍पादन हुआ अंगूर, केला, कसाबा, मटर और पपीता के उत्‍पादन के क्षेत्र में विश्‍व में भारत का पहला स्‍थान है वर्ष 2013-14 में खाद्यान के तहत क्षेत्र 4.47 प्रतिशत से बढ़कर 126.2 मिलियन हैक्‍टर हो गया वर्ष 2013-14 में तिलहन का क्षेत्र 6.42 प्रतिशत से बढ़कर 28.2 मिलियन हैक्‍टर हुआ 01 जून 2014 को केन्‍द्रीय पूल में खाद्यान्न का भंडारण 69.84 मिलियन टन 2013 में खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता 15 प्रतिशत बढ़कर 229.1 मिलियन टन हो गई वर्ष 2013 में प्रति व्‍यक्ति कुल खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता बढ़कर 186.4 किलोग्राम हो गई वर्ष 2013-14 में कृषि निर्यात में 5.1 प्रतिशत की वृद्धि वर्ष 2013-14 में समुद्री उत्‍पादों के निर्यात में 45 प्रतिशत वृद्धि दर रही वर्ष 2012-13 में दूध उत्‍पादन 132.43 मिलियन टन की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचा वर्ष 2013-14 में कुल सकल घरेलू उत्‍पाद में पशुधन क्षेत्र की 4.1 प्रतिशत भागीदारी रही वर्ष दर वर्ष भारत में दूध उत्‍पादन की वृद्धि दर 4.04 प्रतिशत है जबकि विश्‍व में यह औसत 2.2 प्रतिशत है वर्ष 2013-14 में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण 7,00,000 करोड़ रुपये के लक्ष्‍य से अधिक वर्ष 2013-14 में सकल घरेलू उत्‍पाद में कृषि और इसके सहयोगी क्षेत्रों की हिस्‍सेदारी 13.9 प्रतिशत से घटी किसानों की संख्‍या घटी, वर्ष 2001 में 12.73 करोड़ किसान थे जिनकी संख्‍या घटकर 2011 में 11.87 करोड़ रह गई। उत्पादन में भारत का स्थान पहला स्थान: गन्ना, बाजरा, जूट, अरंडी, आम, केला, अंगूर, कसाबा, मटर, अदरक, पपीता और दूध दूसरा स्थान: गेहूँ, चावल, फल और सब्जियाँ, चाय, आलू, प्याज, लहसुन, चावल, बिनौला तीसरा स्थान: उर्वरक कृषि संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पन्तनगर चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार लाला लाजपतराय पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार यशवन्त सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, काँके कृषि संबंधित अनुसंधान केन्द्र, राष्ट्रीय ब्यूरो एवं निदेशालय/परियोजना निदेशालय समतुल्य विश्वविद्यालय 1.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल 3.भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर 4.केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान, मुंबई संस्थान 1.केन्द्रीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक 2.विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा 3.भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर 4.केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान, राजामुंद्री 5.भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ 6.गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयम्बटूर 7.केन्द्रीय कपास संस्थान, नागपुर 8.केन्द्रीय जूट एवं संबद्ध रेशे अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर 9.भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी 10. भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर 11. केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ 12. केन्द्रीय शीतोष्ण बागवानी संस्थान, श्रीनगर 13. केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर 14. भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी 15. केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला 16. केन्द्रीय कंदी फसलें अनुसंधान संस्थान, त्रिवेन्द्रम 17. केन्द्रीय रोपण फसलें अनुसंधान संस्थान, कासरगोड 18. केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पोर्ट ब्लेअर 19. भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान, कालीकट 20. केन्द्रीय मृदा और जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून 21. भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल 22. केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल 23. पूर्वी क्षेत्र के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, मखाना केन्द्र सहित, पटना 24. केन्द्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद 25. केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर 26. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, गोवा 27. पूर्वोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, बारापानी 28. राष्ट्रीय अजैविक दबाव प्रबन्धन संस्थान, मालेगांव, महाराष्ट्र 29. केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल 30. केन्द्रीय कटाई उपरांत अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थान, लुधियाना 31. भारतीय प्राकृतिक रेज़िन और गोंद संस्थान, रांची 32. केन्द्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, मुंबई 33. राष्ट्रीय जूट एवं संबद्ध रेशे प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, कोलकाता 34. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 35. केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मखदुम 36. केन्द्रीय भैंस अनुसंधान संस्थान, हिसार 37. राष्ट्रीय पशु पोषण और कायिकी संस्थान, बेंगलौर 38. केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर 39. केन्द्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, कोच्चि 40. केन्द्रीय खारा जल जीवपालन अनुसंधान संस्थान, चैन्नई 41. केन्द्रीय अंतः स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर 42. केन्द्रीय मात्स्यिकी प्रौद्योगिकी संस्थान, कोच्चि 43. केन्द्रीय ताजा जल जीव पालन संस्थान, भुवनेश्वर 44. राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान एवं प्रबन्धन अकादमी, हैदराबाद राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र 1.राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्यौगिकी अनुसंधान केन्द्र, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय समन्वित कीट प्रबन्धन केन्द्र, नई दिल्ली 3.राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र, मुजफ्फरपुर 4.राष्ट्रीय नीबू वर्गीय अनुसंधान केन्द्र, नागपुर 5.राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र, पुणे 6.राष्ट्रीय केला अनुसंधान केन्द्र, त्रिची 7.राष्ट्रीय बीज मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर 8.राष्ट्रीय अनार अनुसंधान केन्द्र, शोलापुर 9.राष्ट्रीय आर्किड अनुसंधान केन्द्र, पेकयांग, सिक्किम 10. राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान केन्द्र, झांसी 11. राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केन्द्र, बीकानेर 12. राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केन्द्र, हिसार 13. राष्ट्रीय मांस अनुसंधान केन्द्र, हैदराबाद 14. राष्ट्रीय शूकर अनुसंधान केन्द्र, गुवाहाटी 15. राष्ट्रीय याक अनुसंधान केन्द्र, वेस्ट केमंग 16. राष्ट्रीय मिथुन अनुसंधान केन्द्र, मेदजीफेमा, नगालैंड 17. राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान केन्द्र, नई दिल्ली राष्ट्रीय ब्यूरो 1.राष्ट्रीय पादप आनुवंशिकी ब्यूरो, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय कृषि के लिए महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीव ब्यूरो, मऊ, उत्तर प्रदेश 3.राष्ट्रीय कृषि के लिए उपयोगी कीट ब्यूरो, बेंगलौर 4.राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो, नागपुर 5.राष्ट्रीय पशु आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो, करनाल 6.राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो, लखनऊ निदेशालय/प्रायोजना निदेशालय 1.मक्का अनुसंधान निदेशालय, नई दिल्ली 2.धान अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 3.गेहूँ अनुसंधान निदेशालय, करनाल 4.तिलहन अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 5.बीज अनुसंधान निदेशालय, मऊ 6.ज्वार अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 7.मूंगफली अनुसंधान निदेशालय, जूनागढ़ 8.सोयाबीन अनुसंधान निदेशालय, इंदौर 9.तोरिया और सरसों अनुसंधान निदेशालय, भरतपुर 10. मशरूम अनुसंधान निदेशालय, सोलन 11. प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय, पुणे 12. काजू अनुसंधान निदेशालय, पुत्तुर 13. तेलताड़ अनुसंधान निदेशालय, पेडावेगी, पश्चिम गोदावरी 14. औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय, आणंद 15. पुष्पोत्पादन अनुसंधान निदेशालय, नई दिल्ली 16. कृषि पद्धतियां अनुसंधान प्रयोजना निदेशालय, मोदीपुरम 17. जल प्रबन्धन अनुसंधान निदेशालय, भुवनेश्वर 18. खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर 19. गोपशु प्रायोजना निदेशालय, मेरठ 20. खुर एवं मुंहपका रोग प्रायोजना निदेशालय, मुक्तेश्वर 21. कुक्कुट पालन प्रायोजना निदेशालय, हैदराबाद 22. पशु रोग निगरानी एवं जीवितता प्रयोजना निदेशालय, हैब्बल, बेंगलूर 23. कृषि सूचना एवं प्रकाशन निदेशालय (दीपा), नई दिल्ली 24. शीत जल मात्स्यिकी अनुसंधान निदेशालय, भीमताल, नैनीताल 25. कृषक महिला अनुसंधान निदेशालय, भुवनेश्वर इन्हें भी देखें भारतीय कृषि का इतिहास भारतीय किसान भारत में सिंचाई व्यवस्था भारत में पशुपालन मानसून बाहरी कड़ियाँ —सुनील अमर (in English) (based in India) (in English) (based in India) (३ जुलाई २०१७) सन्दर्भ श्रेणी:भारत में कृषि श्रेणी:भारत
भारत में कृषि में किस दशक के मध्य तक पारंपरिक बीजों का प्रयोग किया जाता था?
1960
371
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एफ़िल टॉवर (French: Tour Eiffel, /tuʀ ɛfɛl/) फ्रांस की राजधानी पैरिस में स्थित एक लौह टावर है। इसका निर्माण १८८७-१८८९ में शैम्प-दे-मार्स में सीन नदी के तट पर पैरिस में हुआ था। यह टावर विश्व में उल्लेखनीय निर्माणों में से एक और फ़्रांस की संस्कृति का प्रतीक है। एफ़िल टॉवर की रचना गुस्ताव एफ़िल के द्वारा की गई है और उन्हीं के नाम पर से एफ़िल टॉनर का नामकरन हुआ है। एफ़िल टॉवर की रचना १८८९ के वैश्विक मेले के लिए की गई थी। जब एफ़िल टॉवर का निर्माण हुआ उस वक़्त वह दुनिया की सबसे ऊँची इमारत थी। आज की तारीख में टॉवर की ऊँचाई ३२४ मीटर है, जो की पारंपरिक ८१ मंज़िला इमारत की ऊँचाई के बराबर है। बग़ैर एंटेना शिखर के यह इमारत फ़्रांस के मियो (French: Millau) शहर के फूल के बाद दूसरी सबसे ऊँची इमारत है। यह तीन मंज़िला टॉवर पर्यटकों के लिए साल के ३६५ दिन खुला रहता है। यह टॉवर पर्यटकों द्वारा टिकट खरीदके देखी गई दुनिया की इमारतों में अव्वल स्थान पे है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ताज महल जैसे भारत की पहचान है, वैसे ही एफ़िल टॉवर फ़्रांस की पहचान है। इतिहास १८८९ में, फ़्रांसीसी क्रांति के शताब्दी महोत्सव के अवसर पर, वैश्विक मेले का आयोजन किया गया था। इस मेले के प्रवेश द्वार के रूप में सरकार एक टावर बनाना चाहती थी। इस टावर के लिए सरकार के तीन मुख्य शर्तें थीं: टावर की ऊँचाई ३०० मिटर होनी चाहिए टावर लोहे का होना चाहिए टावर के चारों मुख्य स्थंभ के बीच की दूरी १२५ मिटर होनी चाहिए। सरकार द्वारा घोषित की गईं तीनों शर्तें पूरी की गई हो ऐसी १०७ योजनाओं में से गुस्ताव एफ़िल की परियोजना मंज़ूर की गई। मौरिस कोच्लिन (French: Maurice Koechlin) और एमिल नुगिएर (French: Émile Nouguier) इस परियोजना के संरचनात्मक इंजिनियर थे और स्ठेफेंन सौवेस्ट्रे (French: Stephen Sauvestre) वास्तुकार थे। ३०० मजदूरों ने मिलके एफ़िल टावर को २ साल, २ महीने और ५ दिनों में बनाया जिसका उद्घाटन ३१ मार्च १८८९ में हुआ और ६ मई से यह टावर लोगों के लिए खुला गया। हालाँकि एफ़िल टावर उस समय की औद्योगिक क्रांति का प्रतीक था और वैश्विक मेले के दौरान आम जनता ने इसे काफी सराया, फिर भी कुछ नामी हस्तियों ने इस इमारत की आलोचना की और इसे "नाक में दम" कहके बुलाया। उस वक़्त के सभी समाचार पत्र पैरिस के कला समुदाय द्वारा लिखे गए निंदा पत्रों से भरे पड़े थे। विडंबना की बात यह है की जिन नामी हस्तियों ने शुरुआती दौर में इस टावर की निंदा की थी, उन में से कई हस्तियाँ ऐसी थीं जिन्होंने बदलते समय के साथ अपनी राय बदली। ऐसी हस्तियों में नामक संगीतकार शार्ल गुनो (French: Charles Gounod) जिन्होंने १४ फ़रवरी १८८७ के समाचार पत्र "Le Temps " में एफ़िल टावर को पैरिस की बेइज़त्ति कहा था, उन्होंने बाद में इससे प्रेरित होकर एक "concerto " (यूरोपीय संगीत का एक प्रकार) की रचना की। शुरुआती दौर में एफ़िल टावर को २० साल की अवधि के लिए बनाया गया था जिसे १९०९ में नष्ट करना था। लेकिन इन २० साल के दौरान टावर ने अपनी उपयोगिता वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में साबित करने के कारण आज भी एफ़िल टावर पैरिस की शान बनके खड़ा है। प्रथम विश्व युद्ध में हुई मार्न की लड़ाई में भी एफ़िल टावर का बख़ूबी इस्तेमाल पैरिस की टेक्सियों को युद्ध मोर्चे तक भेजने में हुआ था। आकार एफ़िल टावर एक वर्ग में बना हुआ है जिसके हर किनारे की लंबाई १२५ मीटर है। ११६ ऐटेना समेत टावर की ऊँचाई ३२४ मीटर है और समुद्र तट से ३३,५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भूमितल टावर के चारों स्तंभ चार प्रमुख दिशाओं में बने हुए हैं और उन्हीं दिशाओं के अनुसार स्तंभों का नामकरण किया गया है जैसे कि ः उत्तर स्तंभ, दक्षिण स्तंभ, पूरब स्तंभ और पश्चिम स्तंभ। फ़िलहाल, उत्तर स्तम्भ, दक्षिण स्तम्भ और पूरब स्तम्भ में टिकट घर और प्रवेश द्वार है जहाँ से लोग टिकट ख़रीदार टावर में प्रवेश कर सकते हैं। उत्तर और पूरब स्तंभों में लिफ्ट की सुविधा है और दक्षिण स्तम्भ में सीढ़ियां हैं जो की पहेली और दूसरी मंज़िल तक पहुँचाती हैं। दक्षिण स्तम्भ में अन्य दो निजी लिफ्ट भी हैं जिनमें से एक सर्विस लिफ्ट है और दूसरी लिफ्ट दूसरी मंज़िल पर स्थित ला जुल्स वेर्नेस (French: Le Jules Vernes) नामक रेस्टोरेंट के लिए है। munendra kumar panday पहली मंज़िल ५७ मीटर की ऊंचाई पर स्थित एफ़िल टावर की प्रथम मंज़िल का क्षेत्रफल ४२०० वर्ग मीटर है जोकि एक साथ ३००० लोगों को समाने की क्षमता रखता है। मंज़िल की चारों ओर बाहरी तरफ एक जालीदार छज्जा है जिसमें पर्यटकों की सुविधा के लिए पैनोरमिक टेबल ओर दूरबीन रखे हुए हैं जिनसे पर्यटक पैरिस शहर के दूसरी ऐतिहासिक इमारतों का नज़ारा देख सकते हैं। गुस्ताव एफ़िल की ओर से श्रद्धांजलि के रूप में पहली मंज़िल की बाहरी तरफ १८ वीं और १९ वीं सदी के महान वैज्ञानिकों का नाम बड़े स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है जो नीचे से दिखाई देता है। बच्चों के लिए एक फ़ॉलॉ गस (French: Suivez Gus) नामक प्रदर्शनी है, जिसमें खेल-खेल में बच्चों को एफ़िल टावर के बारे में जानकारी दी जाती है। बड़ों के लिए भी कई तरह के प्रदर्शनों का आयोजन होता है जैसे कि: तस्वीरों का, एफ़िल टावर का इतिहास और कभी-कभी सर्दियों में आइस-स्केटिंग भी होती है। कांच की दीवार वाला 58 Tour Eiffel नामक रेस्टोरेंट भी है, जिनमें से पर्यटक खाते हुए शहर की खूबसूरती का लुत्फ़ उठा सकते हैं। साथ में एक कैफ़ेटेरिया भी है जिसमें ठंडे-गरम खाने पीने की चीजें मिलती हैं। दूसरी मंज़िल ११५ मी. की ऊंचाई पर स्थित एफ़िल टावर की दूसरी मंज़िल का क्षेत्रफल १६५० वर्ग मिटर है जो कि एक साथ १६०० लोगों को समाने की क्षमता रखता है। दूसरी मंज़िल से पैरिस का सबसे बेहतर नज़ारा देखने को मिलता है, जब मौसम साफ़ हो तब ७० की. मी. तक देख सकते है। इसी मंज़िल पर एक कैफ़ेटेरिया और सुवनिर खरीदने की दुकान स्थित है। दूसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल भी है जहाँ से तीसरी मंज़िल के लिए लिफ्ट ले सकते है। यहाँ, ला जुल्स वेर्नेस नामक रेस्टोरेंट स्थित है, यहाँ सिर्फ़ एक निजी लिफ्ट के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। जिन प्रवासियों ने दूसरी मंज़िल तक की टिकट खरीदी है ऐसे प्रवासी अगर तीसरी मंज़िल का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो उनके लिए एक टिकट घर भी है जहाँ से वे तीसरी मंज़िल की टिकट ख़रीद सकते हैं। तीसरी मंज़िल २७५ मी. की ऊँचाई पर एफ़िल टावर की तीसरी मंज़िल का क्षेत्रफल ३५० वर्ग मिटर है जो कि एक साथ ४०० लोगों को समाने की क्षमता रखता है। दूसरी से तीसरी मंज़िल तक सिर्फ़ लिफ्ट के द्वारा ही जा सकते है। इस मंज़िल को चारों ओर से कांच से बंद किया है। यहाँ गुस्ताव एफ़िल की ऑफ़िस भी स्थित है जिन्हे कांच की कैबिन के रूप में बनाया गया है ताकि प्रवासी इसे बाहर से देख सके। इस ऑफ़िस में गुस्ताव एफ़िल की मोम की मूर्ति रखी है। तीसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल है जहाँ पर सीढ़ियों से जा सकते है। इस उप-मंज़िल की चारों ओर जाली लदी हुई है और यहाँ पैरिस की खूबसूरती का नज़ारा लेने के लिए कई दूरबीन रखे हैं। इस के ऊपर एक दूसरी उप मंज़िल है जहाँ जाना निषेध है। यहाँ रेडियो और टेलिविज़न की प्रसारण के ऐन्टेने है। अन्य जानकारी पर्यटक पिछले कई सालों से हर साल तक़रीबन ६५ लाख से ७० लाख प्रवासियों ने एफ़िल टावर की सैर की है। सबसे ज़्यादा २००७ में ६९,६० लाख लोगों ने टावर में प्रवेश किया था। १९६० के दशक से जब से मास टूरिज़म का विकास हुआ है तब से पर्यटकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। २००९ में हुए सर्वे के अनुसार उस साल जितने पर्यटक आए थे, उनमें से ७५% परदेसी थे जिनमे से ४३% पश्चिम यूरोप से ओर २% एशिया से थे। रात की रोशनी हर रात को अंधेरा होने के बाद १ बजे तक (और गर्मियों में २ बजे तक) एफ़िल टावर को रोशन किया जाता है ताकि दूर से भी टावर दिख सके। ३१ दिसम्बर १९९९ की रात को नई सदी के आगमन के अवसर पर एफ़िल टावर को अन्य २० ००० बल्बों से रोशन किया गया था जिससे हर घंटे क़रीब ५ मिनट तक टावर झिलमिलाता है। चूंकि लोगों ने इस झिलमिलाहट को काफ़ी सराया इसलिए आज की तारीक़ में भी यह झिलमिलाहट अंधेरे होने के बाद हर घंटे हम देख सकते हैं। पहेली मंज़िल का नवीकरण २०१२ से २०१३ तक पहली मंज़िल का नवीकरण की प्रक्रिया होने वाली है जिसके फलस्वरूप वह ज़्यादा आधुनिक और आकर्षिक हो जाएगी। कई तरह के बदलाव होंगे जिनमे से मुख्य आकर्षण यह होगा कि उसके फ़र्श का एक हिस्सा कांच का बनाया जाएगा जिसपर खड़े होकर पर्यटक ६० मिटर नीचे की ज़मीन देख सकेंगे। चित्र दीर्घा ट्रोकैडेरो से दृश्य तीसरी मंज़िल से। नीचे से एफ़िल टॉवर की एक नज़र। २००५ में एफ़िल टॉवर की एक नज़र। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जून १९४५, ट्रोकैडेरो से दृश्य। एफ़िल टॉवर का सूर्योदय की नज़र। बाहरी कड़ियाँ |- !Records |- |- |Precededby वाशिंगटन स्मारक | विश्व के सर्वोच्च निर्माण 1889—1931 300.24m | Succeededby क्रिस्लर बिल्डिंग |- |} टॉवर, एफिल टॉवर, एफिल टॉवर, एफिल टॉवर, एफिल टॉवर, एफिल टॉवर, एफिल श्रेणी:फ़्रान्स में पर्यटन आकर्षण श्रेणी:पेरिस में स्थापत्य
एफ़िल टॉवर की ऊंचाई कितनी है?
३२४ मीटर
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मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह ५१.५ करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा १० से ३० लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है। मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं। मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है। मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जा सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं। इतिहास मलेरिया मानव को ५०,००० वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है। इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं। जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से २७०० ईसा पूर्व का मिलता है। मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था। मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन १८८० मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है। इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे १९०७ का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया। इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था। इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकंदराबाद में काम करते हुए १८९८ में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था। इस कार्य हेतु उन्हे १९०२ का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियंत्रण कार्यों मे योगदान दिया। फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने १९०० में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया। मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब १६४० इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ। परन्तु छाल से कुनैन को १८२० तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अंततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया। बीसवीं सदी के प्रारंभ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था। यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है। इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। रोग का वितरण तथा प्रभाव मलेरिया प्रतिवर्ष ४० से ९० करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे १० से ३० लाख मौतें हर साल होती हैं, जिसका अर्थ है प्रति ३० सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं, वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी १९९२ के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है। यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले २० वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है। मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपलब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है। मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।[2] मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है। तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है। वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग ८५ से ९० % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं। मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं। सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है। डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है। उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं। अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है। १९६० के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा। सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि १९९५ के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अंतर नजर आता है (१,५२६ डालर बनाम ८,२६८ डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे १९६५ से १९९० के मध्य केवल प्रतिवर्ष ०.४% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह २.४% हुई। यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष १२ अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं। कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का ४०% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से ३० से ५०% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से ५०% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[3] एड्स और तपेदिक के मुकाबले २००७ के नवंबर माह में मलेरिया के लिए दुगने से भी ज्यादा ४६.९ करोड़ डालर की सहायता राशि खर्च की गई।[4] रोग के लक्षण मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। ४ से ६ घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर ३६ से ४८ घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[5] मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है। तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है। गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है। महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है। मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है। अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं। दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ मच्छरों के लिए बहुत आकर्षक होती हैं और मलेरिया से गर्भ की मृत्यु, निम्न जन्म भार और शिशु की मृत्यु तक हो सकते हैं। मुख्यतया यह पी. फ़ैल्सीपैरम के संक्रमण से होता है, लेकिन पी. विवैक्स भी ऐसा कर सकता है। पी. विवैक्स तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है। कारक मलेरिया परजीवी मलेरिया प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस गण के चार सदस्य मनुष्यों को संक्रमित करते हैं- प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये। इनमें से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम माना जाता है, यह मलेरिया के 80 प्रतिशत मामलों और 90 प्रतिशत मृत्युओं के लिए जिम्मेदार होता है।[6] यह परजीवी पक्षियों, रेँगने वाले जीवों, बन्दरों, चिम्पांज़ियों तथा चूहों को भी संक्रमित करता है।[7] कई अन्य प्रकार के प्लास्मोडियम से भी मनुष्य में संक्रमण ज्ञात हैं किंतु पी. नाउलेसी (P. knowlesi) के अलावा यह नगण्य हैं।[8] पक्षियों में पाए जाने वाले मलेरिया से मुर्गियाँ मर सकती हैं लेकिन इससे मुर्गी-पालकों को अधिक नुकसान होता नहीं पाया गया है।[9] हवाई द्वीप समूह में जब मनुष्य के साथ यह रोग पहुँचा तो वहाँ की कई पक्षी प्रजातियाँ इससे विनष्ट हो गयीं क्योंकि इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी।[10] मच्छर मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है, जोकि मलेरिया का संक्रमण फैलाने में भी मदद करती है। एनोफ़िलीज़ गण के मच्छर सारे संसार में फैले हुए हैं। केवल मादा मच्छर खून से पोषण लेती है, अतः यह ही वाहक होती है ना कि नर। मादा मच्छर एनोफ़िलीज़ रात को ही काटती है। शाम होते ही यह शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता। यह खड़े पानी के अन्दर अंडे देती है। अंडों और उनसे निकलने वाले लारवा दोनों को पानी की अत्यंत सख्त जरुरत होती है। इसके अतिरिक्त लारवा को सांस लेने के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे-लारवा-प्यूपा और फिर वयस्क होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले अन्य भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं, लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की आवश्यकता होती है। प्लास्मोडियम का जीवन चक्र मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर बनती है। युवा मच्छर संक्रमित मानव को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (अंग्रेजी:gametocytes, गैमीटोसाइट्स) मच्छर के पेट में नर और मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (अंग्रेजी:oocytes, ऊसाइट्स) बना लेते हैं जो मच्छर की अंतड़ियों की दीवार में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते हैं और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (अंग्रेजी:sporozoites, स्पोरोज़ॉट्स) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। मच्छर फिर जब स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।[11] मानव शरीर में ये बीजाणु फिर पलकर जननाणु बनाते हैं (नीचे देखें), जो फिर आगे संक्रमण फैलाते हैं। इसके अलावा मलेरिया संक्रमित रक्त को चढ़ाने से भी फैल सकता है, लेकिन ऐसा होना बहुत असाधारण है।[12] मानव शरीर में रोग का विकास मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में प्रथम चरण और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो बीजाणु (अंग्रेजी: sporozoites, स्पोरोज़ॉइट्स) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर यकृत की कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (अंग्रेजी: merozoites, मीरोज़ॉइट्स) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त में प्रवेश कर जातें हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।[13] इससे रोग का दूसरा चरण शुरु होता है। पी. विवैक्स और पी. ओवेल के कुछ बीजाणु यकृत को ही संक्रमित करके रुक जाते हैं और सुप्ताणु (अंग्रेजी: hypnozoites, हिप्नोज़ॉइट्स) के रूप में निष्क्रिय हो जाते हैं। ये 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह कर फिर अचानक अंशाणुओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।[14] लाल रक्त कोशिका में प्रवेश करके ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते हैं। ये वलय रूप में विकसित होकर फिर भोजाणु (अंग्रेजी: trophozoites, ट्रोफ़ोज़ॉइट्स) और फिर बहुनाभिकीय शाइज़ॉण्ट (अंग्रेजी: schizont) और फिर अनेकों अंशाणु बना देते हैं। समय समय पर ये अंशाणु पोषक कोशिकाओं को तोड़कर नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। ऐसे कई चरण चलते हैं। मलेरिया में बुखार के दौरे आने का कारण होता है हजारों अंशाणुओं का एकसाथ नई लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करना। मलेरिया परजीवी अपने जीवन का लगभग सभी समय यकृत की कोशिकाओं या लाल रक्त कोशिकाओं में छुपा रहकर बिताता है, इसलिए मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बचा रह जाता है। तिल्ली में नष्ट होने से बचने के लिए पी. फैल्सीपैरम एक अन्य चाल चलता है- यह लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक चिपकाऊ प्रोटीन प्रदर्शित करा देता है जिससे संक्रमित रक्त कोशिकाएँ को छोटी रक्त वाहिकाओं में चिपक जाती हैं और तिल्ली तक पहुँच नहीं पाती हैं।[15] इस कारण रक्तधारा में केवल वलय रूप ही दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरणों में यह छोटी रक्त वाहिकाओं की सतहों में चिपका रहता है। इस चिपचिपाहट के चलते ही मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या करता है। यद्यपि संक्रमित लाल रक्त कोशिका की सतह पर प्रदर्शित प्रोटीन पीएफईएमपी1 (Plasmodium falciparum erythrocyte membrane protein 1, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम इरिथ्रोसाइट मैम्ब्रेन प्रोटीन 1) शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र का शिकार बन सकता है, ऐसा होता नहीं है क्योंकि इस प्रोटीन में विविधता बहुत ज्यादा होती है। हर परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य रूपों में ये इस प्रोटीन को प्रदर्शित कर सकते हैं। वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से एक कदम आगे रहते हैं। कुछ अंशाणु नर-मादा जननाणुओं में बदल जाते हैं और जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जाता है। यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। निदान उपचार मलेरिया के कुछ मामले आपातकालीन होते है तथा मरीज को पूर्णतया स्वस्थ होने तक निगरानी मे रखना अनिवार्य होता है, किंतु अन्य प्रकार के मलेरिया में ऐसा आवश्यक नहीं हैं, इलाज बहिरंग विभाग में किया जा सकता है। उचित इलाज होने पर मरीज बिलकुल ठीक हो जाता है। कुछ लक्षणों का उपचार सामान्य दवाओं से किया जाता है, साथ में मलेरिया-रोधी दवाएँ भी दी जाती है। ये दवाएं दो प्रकार की होती हैं- पहली जो प्रतिरोधक होती हैं और रोग होने से पहले लिए जाने पर रोग से सुरक्षा करती हैं तथा दूसरी वे जिनका रोग से संक्रमित हो जाने के बाद प्रयोग किया जाता है। अनेक दवाएँ केवल प्रतिरोध या केवल उपचार के लिए इस्तेमाल होती हैं, जबकि अन्य कई दोनों तरह से प्रयोग में लाई जा सकती हैं। कुछ दवाएँ एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाती हैं और इनका प्रयोग साथ में किया जाता है। प्रतिरोधक दवाओं का प्रयोग अक्सर सामूहिक रूप से ही किया जाता है। कुनैन पर आधारित अनेक औषधियों को मलेरिया का अच्छा उपचार समझा जाता है। इसके अतिरिक्त आर्टिमीसिनिन जैसी औषधियाँ, जो आर्टिमीसिया एन्नुआ (अंग्रेजी:Artemisia annua) नामक पौधे से तैयार की जाती है, मलेरिया के इलाज में प्रभावी पाई गई हैं। कुछ अन्य औषधियों का प्रयोग भी मलेरिया के विरुद्ध सफल हुआ है। कुछ औषधियों पर प्रयोग जारी है। दवा के चुनाव में सबसे प्रमुख कारक होता है उस क्षेत्र में मलेरिया परजीवी किन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर चुका है। अनेक दवाएँ जिनका प्रयोग पहले मलेरिया के विरुद्ध सफल समझा जाता था आजकल सफल नहीं समझा जाता क्यों कि मलेरिया के परजीवी धीरे धीरे उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर चुके हैं। होम्योपैथी में मलेरिया का उपचार उपलब्ध है, हालांकि अनेक चिकित्सकों का मानना है कि मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी का इलाज एलोपैथिक दवाओं से ही किया जाना चाहिये, क्योंकि ये वैज्ञानिक शोध पर आधारित हैं। यहाँ तक कि ब्रिटिश होमियोपैथिक एसोसिएशन की सलाह यही है कि मलेरिया के उपचार के लिए होम्योपैथी पर निर्भर नहीं करना चाहिए।[16] आयुर्वेद में मलेरिया को विषम ज्वर कहा जाता है और इसके उपचार के लिये अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि मलेरिया के आज प्रभावी उपचार उपलब्ध है, लेकिन विश्व के अनेक अविकिसित क्षेत्रों में मलेरिया पीड़ित क्षेत्रों में या तो यह मिलता नहीं हैं या इतना महंगा होता है कि आम मरीज उसका उपयोग नहीं कर पाता है। मलेरिया की दवाओं की बढ़ती माँग को देखकर अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है, जो अनेक मृत्युओं का कारण बनता है। आजकल कम्पनियाँ नई तकनीकों का प्रयोग करके इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही हैं। रोकथाम तथा नियंत्रण मलेरिया का प्रसार इन कारकों पर निर्भर करता है- मानव जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों की जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों से मनुष्यों तक प्रसार और मनुष्यों से मच्छरों तक प्रसार। इन कारकों में से किसी एक को भी बहुत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र से मलेरिया को मिटाया जा सकता है। इसीलिये मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु दवाओं के साथ-साथ मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते हैं। अनेक अनुसंधान कर्ता दावा करते हैं कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा। 1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये (वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे)। किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी और मलेरिया आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पर मौजूद है। मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। इसके अतिरिक्त मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है। मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। एनोफिलीज़ मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियंत्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है। मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: SPf66) पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस, एसएएस02ए (अंग्रेजी: RTS,S/AS02A) टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है। आशा की जाती है कि पी. फैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:एपिकॉम्प्लैक्सा श्रेणी:कीड़ों द्वारा फैलाए जाने वाले रोग श्रेणी:मलेरिया श्रेणी:रोग श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
मलेरिया संक्रमण का इलाज किस दवा से किया जाता?
कुनैन
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होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।[1] पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[2] राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[3] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[4] गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।[5] इतिहास होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[6] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[7] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[8] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[9] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[10] कहानियाँ होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[11] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[12] प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[13] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[14] परंपराएँ होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[15] होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[16] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[16] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं। होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता। विशिष्ट उत्सव भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[17] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[18] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[19] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[20] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[21] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[22] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[23] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[24] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[25], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[26] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[27] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं। साहित्य में होली प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर[ख], जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[28] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[29] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[8] आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[30] संगीत में होली भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री।[31] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। आधुनिकता का रंग होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[32] लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[33] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[34] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।[35] टीका टिप्पणी क. कीर्णौःपिष्टातकौधैः कृतदिवसमुखैः कुंकुमसिनात गौरेः हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिखैः शेखरैः कैकिरातैः। एषा वेषाभिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा कौशाम्बी शातकुम्भद्रवखजितजनेवैकपीता विभाति। -'रत्नावली', 1.11 ख. फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी। भाई करी मन की 'पद्माकर' ऊपर नाई अबीर की झोरी। छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी। नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी। सन्दर्भ इन्हें भी देखें होली लोकगीत बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:होली श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:हिन्दू त्यौहार श्रेणी:भारतीय पर्व श्रेणी:उत्तम लेख श्रेणी:भारत में त्यौहार
हिन्दू धर्म में रंगों के त्यौहार का नाम क्या है?
होली
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फेडेरल रिपब्लिक ऑफ नाईजीरिया या नाईजीरिया संघीय गणराज्य पश्चिम अफ्रीका का एक देश है। इसकी सीमाएँ पश्चिम में बेनीन, पूर्व में चाड, उत्तर में hiकैमरून और दक्षिण में गुयाना की खाड़ी से लगती हैं। इस देश के बड़े शहरों में राजधानी अबुजा, भूतपूर्व राजधानी लागोस के अलावा इबादान, कानो, जोस और बेनिन शहर शामिल हैं। नाइजीरिया पश्चिमी अफ्रीका का एक प्रमुख देश है। पूरे अफ्रीका महाद्वीप में इस देश की आबादी सबसे अधिक है। नाइजीरिया की सीमा पश्चिम में बेनिन, पूर्व में चाड और कैमरून और उत्तर में नाइजर से मिलती हैं। इतिहास नाइजीरिया के प्राचीन इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहां सभ्‍यता की शुरुआत ईसा पूर्व 9000 में हुई थी। जैसा कि पुरातात्विक अभिलेखों में दिखाया गया है। नाइजीरिया के सबसे शुरुआती शहर कानो और कत्स्यिना उत्तरी शहर थे जो लगभग 1000 ईस्वी में शुरू हुए थे। लगभग 1400 ईस्वी के आसपास, ओयो के योरूबा साम्राज्य की स्थापना दक्षिण पश्चिम में हुई थी और 17 वीं से 19 वीं शताब्दी तक इसकी सफलता ऊंचाई तक पहुंच गयी। इसी समय, यूरोपीय व्यापारियों ने अमेरिका के दास व्यापार के लिए बंदरगाहों की स्थापना शुरू कर दी। लेकिन 19 वीं शताब्दी में यह ताड़ के तेल और लकड़ी जैसे सामानों के व्यापार में बदल गया था। 1885 ईस्वी में, अंग्रेजों ने नाइजीरिया पर प्रभाव का एक क्षेत्र दावा किया और 1886 में, रॉयल नाइजर कंपनी की स्थापना हुई। 1900 में, क्षेत्र ब्रिटिश सरकार द्वारा नियंत्रित हो गया और 1 914 में यह उपनीवेस और संरक्षित बन गया। 1900 के दशक के मध्य और विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, नाइजीरिया के लोगों ने आजादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। अक्टूबर 1960 में, यह तब आया जब इसे संसदीय सरकार के साथ तीन क्षेत्रों के संघ के रूप में स्थापित किया गया था। 1963 ईस्वी में, नाइजीरिया ने खुद को एक संघीय गणराज्य घोषित किया और एक नया संविधान तैयार किया जिसके बाद 1960 के दशक के दौरान, नाइजीरिया की सरकार अस्थिर थी क्योंकि इसमें कई सरकारी उथल-पुथल थीं; इसके प्रधान मंत्री की हत्या कर दी गई थी और गृह युद्ध शुरू हो गया था। गृहयुद्ध के बाद, नाइजीरिया ने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित किया और 1977 में, सरकारी अस्थिरता के कई वर्षों बाद, देश ने एक नया संविधान तैयार किया। नाइजीरिया सरकार नाईजीरिया संघीय गणराज्यसूत्रवाक्य: "एकता और शक्ति, शांति और प्रगति"राजभाषा अंग्रेजीराजधानी अबुजाराष्ट्रपति ओलुसेंगुन ओबासांजोक्षेत्रफल - कुल - % जल 31 वाँ स्थान 923,768 वर्ग कि मी 1.4%जनसँख्या - कुल (2004) - घनत्व9 वाँ स्थान 133,881,703 147/वर्ग कि मी; आज़ादी - इंग्लैंड से 1 अक्टूबर, 1960 मुद्रा नाइरासमय क्षेत्र ग्रिनविच मानक समय +1राष्ट्रगीत जागो नाईजीरिया वासी देश पुकारेइंटरनेट डोमेन.ngकालिंग कोड234 नाइजीरिया की सरकार को संघीय गणराज्य माना जाता है और इसमें अंग्रेजी आम कानून, इस्लामी कानून (उत्तरी राज्यों में) और पारंपरिक कानूनों के आधार पर कानूनी व्यवस्था है। नाइजीरिया की कार्यकारी शाखा राज्य के मुखिया और सरकार के मुखिया से बना है- दोनों राष्ट्रपति द्वारा भरे जाते हैं। इसमें एक द्विपक्षीय राष्ट्रीय असेंबली भी है जिसमें सीनेट और प्रतिनिधि सभा शामिल हैं। नाइजीरिया की न्यायिक शाखा सर्वोच्च न्यायालय और अपील की संघीय न्यायालय से बना है। नाइजीरिया को 36 राज्यों और स्थानीय प्रशासनो में बांटा गया है। राजनीतिक भ्रष्टाचार राजनीतिक भ्रष्टाचार 1970 ईस्वी के दशक के उत्तरार्ध में और 1980 के दशक में और 1983 में बना रहा, दूसरी गणराज्य सरकार जिसे उसे नष्ट कर दिया गया था। 1989 में, तीसरा गणराज्य शुरू हुआ और 1990 के दशक की शुरुआत में, सरकार भ्रष्टाचार बनी रही और सरकार को फिर से उखाड़ फेंकने के कई प्रयास हुए। अंत में 1995 में, नाइजीरिया ने नागरिक शासन में संक्रमण करना शुरू कर दिया। 1999 में एक नया संविधान और उसी वर्ष मई में, नाइजीरिया राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य शासन के वर्षों के बाद एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गया। 2007 में, राष्ट्रपति ओबासंजो के रूप में पद छोड़ दिया। उमरू यार अदुआ फिर नाइजीरिया के राष्ट्रपति बने और उन्होंने देश के चुनावों में सुधार करने, अपनी अपराध समस्याओं से लड़ने और आर्थिक विकास पर काम करना जारी रखने की कसम खाई। लेकिन 5 मई, 2010 को, यार्ड अदुआ की मृत्यु हो गई और गुडलुक जोनाथन 6 मई को नाइजीरिया के राष्ट्रपति बने। नाइजीरिया भूगोल और जलवायु नाइजीरिया एक बड़ा देश है जिसमें विविध स्थलाकृति है। अमेरिका के राज्य कैलिफोर्निया राज्य के आकार के लगभग दोगुना है और बेनिन और कैमरून के बीच स्थित है। दक्षिण की भूमि नीची है जो देश के मध्य भाग में पहाड़ियों और पठारों में ऊंचा है। दक्षिणपूर्व में पहाड़ हैं जबकि उत्तर मुख्य रूप से मैदानी इलाके होते हैं। नाइजीरिया का वातावरण भी भिन्न होता है लेकिन भूमध्य रेखा के निकट स्थानों के कारण केंद्र और दक्षिण उष्णकटिबंधीय हैं, जबकि उत्तर शुष्क है। यातायात अर्थव्यवस्था हालांकि नाइजीरिया में राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्याएं थीं और बुनियादी ढांचे की कमी थी, यह प्राकृतिक संसाधनों जैसे तेल और हाल ही में इसकी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ से बढ़ने लगी है। हालांकि, तेल अकेले विदेशी मुद्रा आय का 9 5% प्रदान करता है। नाइजीरिया के अन्य उद्योगों में कोयले, टिन, कोलम्बिट, रबर उत्पाद, लकड़ी, छुपाएं और खाल, कपड़ा, सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री, खाद्य उत्पाद, जूते, रसायन, उर्वरक, मुद्रण, मिट्टी के बरतन और स्टील शामिल हैं। नाइजीरिया के कृषि उत्पाद कोको, मूंगफली, कपास, ताड़ के तेल, मक्का, चावल, ज्वारी, बाजरा, कसावा, याम, रबड़, मवेशी, भेड़, बकरियां, सूअर, लकड़ी और मछली हैं। शिक्षा पर्यटन अजुमिनी ब्‍लू रिवर रोज अजुमिनी ब्‍लू रिवर अबिआ राज्‍य में स्थित है। अपनी खूबसूरती के कारण यह नदी पर्यटक स्‍थल के रूप में मशहूर हो रही है। पर्यटकों को यहां के साफ नीले पानी में नौका विहार का आनंद लेना बहुत लुभाता है। यहां के तटों पर आराम करने के लिए सुविधाएं उपलब्‍ध कराई जाती हैं। द लॉन्‍ग जुजु श्राइन ऑफ अरोचुकवा यह एक प्रसिद्ध पर्यटक सथान है। गुफा में स्थित जुजु की ऊंची प्रतिमा यहां का मुख्‍य आकर्षण है। इस गुफा के बारे में माना जाता है यहां पर एक लंबा धातु का पाइप है जिसके जरिए भगवान लोगों से बात करते थे। यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र है। यहां पर प्रबंधकीय शाखा भी है जहां पर मुख्‍य पुजारी रहते हैं। यंकारी राष्‍ट्रीय उद्यान यह उद्यान नाइजीरिया का सबसे विकसित राष्‍ट्रीय उद्यान है। यह उद्यान यहां पाए जाने वाले विभिन्‍न प्रकार के जानवरों के कारण प्रसिद्ध है। ये वन्‍य जीव नवंबर से मई के बीच अधिक दिखाई पड़ते हैं। इस दौरान पानी की तलाश में ये गजी नदी के किनारे पर आते हैं। यहां दिखाई देने वाले प्रमुख्‍य जानवरों में हाथी, मगरमच्‍छ, गैंडे, बंदर, वॉटरहॉग, बबून, वॉटरबक और बुशबक शामिल हैं। यंकारी राष्‍ट्रीय उद्यान का मुख्‍य आकर्षण विक्‍की वॉर्म स्प्रिंग है। यह गर्म पानी का झरना है जहां पूरे दिन तैराकी का आनंद उठाया जा सकता है। चाड झील यह झील नाइजीरिया के बोर्नो प्रांत में स्थित है। योजनापूर्वक बनाई गई यह झील न केवल इस प्रांत की आवश्‍यकताओं की पूर्ति करती है बल्कि नाइजीरिया के तीन पड़ोसी देशों नाइजर, कैमरून और चाड की आवश्‍यकताओं को भी पूरा करती है। यह झील कृषि में सहायता करने के साथ-साथ पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। यहां पर बोटिंग का आनंद उठा सकते हैं। चीफ नाना पेलेस, कोको चीफ नाना ओलोमु 19वीं शताब्‍दी में नाइजीरिया के बहुत बड़े उद्यमी थे। अपनी उपलब्धियों को दर्शाने के लिए उन्‍होंने इस भव्‍य महल का निर्माण करवाया था। इस महल में उनके ब्रिटेन की महारानी से संपर्क और अंग्रेज व्‍यापारिया के साथ उनके संबंधों से संबंधित दस्‍तावेज व अन्‍य सामग्री रखी गई है। डेल्‍टा राज्‍य में स्थित इस भवन को अब राष्‍ट्रीय स्‍मारक का दर्जा हासिल है। इन्हें भी देखें अफ्रीका बाहरी कड़ियाँ (अभिव्यक्ति) श्रेणी:देश श्रेणी:अफ़्रीका के देश श्रेणी:पश्चिम अफ्रीका के देश श्रेणी:संघीय गणराज्य श्रेणी:नाईजीरिया
नाइजीरिया की राजधानी का नाम क्या है?
अबुजा
225
hindi
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गाड़ी, मोटरवाहन , कार, मोटरकार या ऑटोमोबाइल एक पहियों वाला वाहन है, जो यात्रियों के परिवहन के काम आता है; और जो अपना इंजन या मोटर भी स्वयं उठाता है। इस शब्द की अधिकांश परिभाषाओं के अनुसार मोटरवाहन मुख्य रूप से सड़कों पर चलाने के लिए हैं, एक से आठ लोगों कों बैठाने के लिए हैं, आमतौर पर जिनके चार पहिये होते हैं, जिनका निर्माण मुख्य रूप से सामान[1] के उपेक्षा लोगों के परिवहन के लिए किया जाता है। मोटरकार शब्द का प्रयोग विद्युतिकृत रेल प्रणाली के सन्दर्भ में, एक ऐसी कार के लिए प्रयुक्त होता है, जो एक छोटा लोकोमोटिव होने के साथ ही, इसमे लोगों और सामान के लिए जगह भी होती है। ये लोकोमोटिव कार उपनगरीय मार्गों में अंतर्नगरीय रेल प्रणालियों में इस्तेमाल की जाती हैं। 2002 तक, 590 मिलियन यात्री करें दुनिया भर में थी (मोटे तौर पर एक कार प्रति ग्यारह लोग).[2] इतिहास यद्यपि निकोलस-यूसुफ Cugnot (Nicolas-Joseph Cugnot) को अक्सर पहली स्वयं चलने वाली मेकेनिकल वाहन या ऑटोमोबाइल को 1769 में बनाने का श्रेय दिया जाता है, जो एक मौजूदा घोड़ों के संकर्षण वाहन से किया, पर ये विवादित है और कुछ का यह दावा है, Cugnot के तीन व्हीलर कभी चल नही पायी और स्थिर थी। कुछ दावा करते हैं, फ़र्दिनान्द Verbiest (Ferdinand Verbiest), जो एक सदस्य थे चीन के ईसाई मीशन पर (Jesuit mission in China), उन्होंने पहली भाप द्वारा चले वाले वाहन का निर्माण किया 1672, जो छोटे पैमाने पर की गई थी और चीन के सम्राट के लिए एक खिलौना के रूप में था, जो एक ड्राइवर या एक यात्री उठाने में असमर्थ था, लेकिन ये मुमकिन है की वो पहला निर्माण था एक भाप-वाहन का ('ऑटो मोबाइल ')[3][4].निःसंदेह रिचर्ड तेरिवेतिक्क ने (Richard Trevithick) निर्माण और प्रदर्शन किया पुफ्फिंग डेविल रोड लोकोमोटिव का 1801 में, कई लोगों का ये मानना था की ये पहला प्रदर्शन था भाप द्वारा चले वाली सड़क वाहन का, हालाँकि ये असमर्थ थी देर तक स्टीम प्रेशर को बना के रखने में और जिसका हम कोई भी उचित प्रयोग नही कर सकते थे। रूस में 1780 में इवान कुलिबिं (Ivan Kulibin) ने ह्यूमन पेदाल्लेद वाहन पर भाप इंजन द्वारा काम शुरू किया। वह उस पर 1791 में काम खत्म कर दिया.इसकी कुछ विशेषताओं में शामिल था फ्ल्य्व्हील (flywheel),ब्रेक (brake),गियर बॉक्स (gear box), और बेअरिंग (bearing), जो एक आधुनिक ऑटोमोबाइल की भी विशेषताएं हैं। उनके डिजाइन में तीन पहिये थे। दुर्भाग्य वश, उनके और भी आविष्कारों के तरह, सरकार संभावित बाजार को देखने में विफल रही और इसे आगे विकसित नहीं था।[5][6][7][8][9][10][11][12][13][14] फ्रंकोईस इसाक डी रिवाज़ (François Isaac de Rivaz), एक स्विस आविष्कारक थे जिन्होंने पहला आंतरिक दहन इंजन, को डिजाईन किया 1806 में, जिसमें तेल मिश्रण था हाइड्रोजन और आक्सीजन का और इसका इस्तेमाल विश्व की पहली वाहन, अल्बित रुदिमेंतारी, का विकास करने में हुआ .ये डिजाइन बहुत सफल नहीं रही, यही किस्सा इन लोगो के मामले में भी रहा जैसे शमूएल ब्राउन (Samuel Brown), शमूएल मोरे (Samuel Morey) और एटीन लेनोइर (Étienne Lenoir), जहाँ प्रत्यक ने वाहन बनाया (carriages, गाड़ियां, या नौकाओं को लेके) जो संचालित थे उद्दंड आंतरिक दहन इंजनो द्वारा .[15] नवम्बर 1881 में फ़्रेंच आविष्कारक Gustave Trouvé (Gustave Trouvé) ने प्रदर्शन किया तीन पहियों वाला आटोमोबाइल जो बिजली द्वारा चलती थी। ये अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी था विद्युत का पेरिस में .[16] यद्यपि कई अन्य जर्मन इंजीनियर (Gottlieb Daimler (Gottlieb Daimler), विल्हेम Maybach (Wilhelm Maybach) और Siegfried माक्र्स (Siegfried Marcus)) इस समय इस्सी समस्या पर कार्य कर रहें थे, कार्ल बेन्ज़ को आमतौर पर आधुनिक ऑटोमोबाइल के आविष्कारक के रूप में स्वीकार किया गया है।[15] कार्ल बेंज ने 1885 में जर्मनी के मैनहेम (Mannheim) सेहर में, अपने ही चार स्ट्रोक साइकिल गैसोलीन एनगिने (four-stroke cycle gasoline engine) द्वारा संचालित एक ऑटोमोबाइल बनाई, जिसे अगले साल जनवरी मे पटेंट दिया गया उसके प्रमुख कंपनी, बेंज &amp; Cie. (Benz &amp; Cie.) के तत्वावधान में, जिसकी स्थापना 1883 में हुई थी। यह एकइन्तेग्रल (integral) डिजाईन था जिसमें किस्सी भी मौजूदा घटकों का प्रयोग किए बिना अन्य नए प्रौद्योगिकीय तत्वों का इस्तमाल किया एक नई अवधारणा बनने के लिए .यही इसे पेटेंट योग्य बनाया .उन्होंने 1888 में अपने उत्पादन वाहनों को बचना शुरू किया। 1879 मे बेन्ज़ को उसकी पहली इंजन के लए पटेंट दिया गया, जिसको उसने 1878 मे डिजाईन किया था। उसके अन्य कई आविष्कारों मे भी आंतरिक दहन इंजन के इस्तेमाल को सम्भव बनाया, उनकी पहली motorwagon (Motorwagon) 1885 मे बनाया गया था और उन्हें इसके आविष्कार और ऍप्लिकेशन के लिए पटेंट से समानित किया गया था जनवरी 29, 1886 mein .जुलाई 3 (July 3)1886 में बेन्ज़ ने अपने वाहन का प्रचार शुरू किया और लगभग 25 बेन्ज़ के वाहन बीके 1888 और 1893 के बिच, इसी समय उनकी पहली चौपहिया गाड़ी आई जो एक सहूलियत वाहन के रूप में दर्शायी गई .वे भी अपने ही चार स्ट्रोक इंजन डिजाईन के द्वारा संचलित थे। फ़्रांस के एमिले रॉजर (Émile Roger), जो पहले से ही लाइसेंस के तहत बेंज इंजनों का निर्माण करते थे, अब बेन्ज़ ऑटोमोबाइल को अपने प्रोडक्ट लाइन में शामिल कर लिया .क्योंकि फ्रांस प्रारंभिक ऑटोमोबाइल के लिए अधिक खुला था, इसी लिए रॉजर फ्रांस में ज्यादा बनता और बेचता था बेन्ज़ के जर्मनी में बेचने के अपेक्षा . 1896 में बेन्ज़ ने पहला आंतरिक-दहन फ्लैट इंजन (flat engine) का डिजाईन किया और पेटेंट कराया जिसे जर्मन में बोक्सेर्मोटर बोला गया .उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों के दौरान, बेंज दुनिया का सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनी जो 572 वाहन का 1899 में उत्पादन किया और इस्सी संख्या के कारण , बेन्ज़ एंड कई एक सयुंक्त - स्टॉक कंपनी (joint-stock company) बनी . 1890 में Daimler और Maybach ने Daimler Motoren Gesellschaft (Daimler Motoren Gesellschaft) (Daimler मोटर कंपनी, DMG) की स्थापना की कान्न्स्तात्त (Cannstatt) में, Daimler नाम के तहत, उन्होंने अपनी पहली ऑटोमोबाइल 1892 में बेचा, जो एक घोडे से चलने वाली स्तागेकोच जिसे किस्सी और निर्माता नें बनाया था, जिसमें उन्होंने अपने डिजाईन किए हुए इंजन लगा दी थी। 1895 तक दैम्लेर और मय्बच ने 30 वाहने बनाई, जिन्हें वे दैम्लेर वोर्क्स या होटल हेर्मन्न में बनाई, जहाँ वोह अपनी दुकान की स्थापना की अपने समर्थकों के जाने. क बाद .बेन्ज़ और मय्बच और दैम्लेर टीम, एक दूसरे क पहले क अविष्कारों से अवगत नही थे। वो कभी भी साथ काम नही किए थे क्यूंकि जब दोनों कंपनियां एक हुई, तो दैम्लेर और मय्बच DMG के हिस्से नही थे। दैम्लेर का देहांत 1900 में हुआ और उसी वर्ष क अंत में माय्बैक ने एक इंजन डिजाईन किया जिसका नाम था, Daimler-मर्सिडीज, उसे स्थापित किया गया एक विशेष मॉडल में जो एमिल Jellinek (Emil Jellinek) द्वारा बनाया गया था। यह उत्पादन काफ़ी चोटी संख्या में जेल्लिनेक ने की थी अपने देश क बाज़ार क लिए .दो साल बाद, 1902 में, एक नई मॉडल DMG ऑटोमोबाइल का उत्पादन किया गया जिसका नाम मर्सिडीज रखा गया माय्बैक इंजन के ऊपर जो 35 HP उत्पन्न करती थी। शीघ्र ही माय्बैक ने DMG छोड़ दी और अपना ख़ुद का एक व्यपार शुरू किया। Daimler ब्रांड नाम का अधिकार अन्य निर्माताओं को बेच दिया गया . कार्ल बेन्ज़ ने DMG और बेंज &amp; Cie.के बीच सहयोग बनाये रखने का प्रस्ताव रखा, जब जर्मनी की आर्थिक परिस्थितियाँ ख़राब होने लगी प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत, पर DMG के निर्दर्शक इससे शुरू में मानने से इनकार कर दिए .दोनों कंपनियों के बीच बातचीत के कई साल बाद शुरू हुए जब ये हालत और भी बदतर हो गये और 1924 में उन्होंने एक आपसी सहयोग का दस्तावेज बनाया जिसकी मान्यता साल 2000 तक थी। दोनों उद्यमों ने standardize किया अपना डिजाईन, उत्पादन, खरीद और बिक्री और वोह सयुंक्त रूप से विज्ञापन और मार्केटिंग करते थे अपने ऑटोमोबाइल मॉडलों का, पर वो अपने ब्रांड बरक़रार रखे हुए थे। 28 जून 1926 को बेंज &amp; Cie. और DMG अंततः मर्ज होके Daimler-बेंज कम्पनी बनी और अपने सभी मोटर वाहनों का नामकरन किया, मर्सिडीज बेंज, एक ऐसे ब्रांड के तौर पर जिसने समानित किया सबसे महत्वपूर्ण मॉडल DMG औतोमोबिलेस का, बाद में माय्बैक डिजाईन को जन गाया 1902 मर्सिडीज-35hp के तौर पे बेन्ज़ के नाम के साथ . 1929 में बेन्ज़ की मृत्यु तक वोह दैम्लेर - बेन्ज़ के निदेशक मंडल के सदस्य बने रहे और कभी कभी उनके दोनों पुत्र भी कंपनी के काम काज में हाथ बताते थे। 1890 में, फ्रांस के Emile Levassor (Émile Levassor) और आर्मंड Peugeot (Armand Peugeot) ने दैम्लेर इंजन को लेकर वाहनों का उत्पादन शुरू किया और इस प्रकार फ्रांस में ऑटोमोबाइल उद्योग की नीव डाली . 1877 में, रोचेस्टर, न्यूयॉर्क (Rochester, New York) के जॉर्ज Selden (George Selden) ने सबसे पहला डिजाईन बनाया एक अमेरिकी ऑटोमोबाइल का जिसमे गैसोलीन आंतरिक दहन इंजन थी, जिन्होंने उसके पेटेंट के लिए दरख्वास्त डाली 1879 में, पर ये दरख्वास्त खारिज हो गई क्योंकि इस वाहन का निर्माण कभी हुआ ही नही न ही कभी काम में आया . सोलाह सालों के विलंब के बाद और कई श्रृंखलाओं को उसके आवेदन में जोड़ने के बाद, 5 नवम्बर 1895, में seldon को अमेरिकन पेटेंट दिया गाया () उसके दो स्ट्रोक (two-stroke) ऑटोमोबाइल इंजन के लिए, जो ज्यादा बाधक साबित हुई बजाये प्रोत्साहित करने के, अमेरिका में, वाहनों के विकास में . इनकी पेटेंट को चुनौती हेनरी फोर्ड और अन्य ने दी और 1911 में वापिस ले ली गई . ब्रिटेन में कई प्रयास किए गएँ भाप करें बनने की पर सब कुछ ही हद तक सफल रहे, थॉमस Rickett (Thomas Rickett) के साथ जिन्होंने 1860 में उत्पादन भी शुरू किया था।[17]Santler (Santler) Malvern की पहचान ग्रेट ब्रिटन के वेटरन कर क्लब ने की, सबसे पहले पेट्रोल से चलने वाला कर बनने के लिए, 1894 में,[18] जसके उपरांत फ्रेडरिक विलियम Lanchester (Frederick William Lanchester) ने 1895 में ये बनाया, पर दोनों एक सामान्य थे। [18] ग्रेट ब्रिटेन में पहली वाहनों का उत्पादन किया दैम्लेर मोटर कंपनी (Daimler Motor Company) जिसकी स्थापना हैरी जे लॉसन (Harry J. Lawson) ने 1896 में की, जब उन्होंने इंजन के नाम को इस्तेमाल करने का हक खरीद लिया था। लॉसन की कंपनी ने 1897 में अपनी पहली ऑटोमोबाइल बनाया और इसका नाम Daimler रखा .[18] 1892, जर्मन इंजीनियररुडोल्फ डीजल (Rudolf Diesel) को "नई रशनल दहन इंजन" के लिए .1897 में उन्होंने पहली डीजल इंजन (Diesel Engine).[15] बनाया.भाप, बिजली और गैसोलीन-शक्ति से चलने वाली वाहने दशकों तक एक दूसरी की पर्तिद्वंदी रही और 1910 में गैसोलीन आंतरिक दहन इंजन इस होड़ में सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्त करी . यद्यपि विभिन्न पिस्तोंलेस रोटरी इंजन (pistonless rotary engine) डिजाइन पारंपरिक पिस्टन (piston) और क्रन्क्शफ़्त (crankshaft) के साथ प्रतिस्पर्धा करने का प्रयास किया, केवल मज़्दा (Mazda) जिसका संस्करण वान्केल इंजन (Wankel engine) को बहुत सिमित सफलता प्राप्त हुई . उत्पादन बड़े पैमाने पर किफायती मोटरवाहनों का विनिर्माण, उत्पादन लाइन (production-line) के माध्यम से करने की शुरुआत रेंसम ओल्ड्स ने अपने ओल्ड्समोबाइल कारखाने से १९२० में की। १९१४ में शुरुआत करते हुए, हेनरी फोर्ड द्वारा ये अवधारणा काफ़ी विस्तारित की गई। परिणामस्वरूप, फोर्ड की कारें पन्द्रह मिनट के अंतराल में उत्पादन लाइन से बनकर बाहर आ जाती थीं, जो पिछले तरीकों से काफ़ी तेज थी। जहाँ उत्पादन आठ गुना बढ़ गया (जहाँ पहले १२.५ श्रमिक घंटे लगते थे और बाद में सिर्फ़ १ घंटा ३३ मिनट) और वहीं मानवशक्ति भी कम लग रही थी।[19] यह काफी सफल रहा, पर प्रलेप (पेंट) एक रुकावट बन गया। केवल 'जापान ब्लैक' प्रलेप ही जल्दी सूखता था, जिसके कारण, १९१४ के पहले उपलब्ध विविध रंगों को नजरअंदाज करने पर कंपनी को मजबूर होना पड़ा, जब तक की १९२६ में, जल्दी सूखने वाले प्रलेप 'डुको लेकर' का विकास नही हो गया। यही फोर्ड की अप्रमाणित टिप्पणी "कोई भी रंग जब तक वो काला हो" का स्रोत बना।[19] १९१४ में, एक उत्पादन लाइन में कार्य करने वाला श्रमिक अपने चार महीने के वेतन से फोर्ड की कार 'मॉडल टी' खरीद सकता था।[19] फोर्ड की जटिल सुरक्षा प्रक्रियाएं, जो विशेष रूप से हर श्रमिक को एक सुनिश्चित स्थान प्रदान करती थी, जिसके कारण वह इधर उधर घूम नही पाते थे, जिसके कारण घायल होने की दर बहुत हद तक कम हो गयी। उच्च मजदूरी और उच्च दक्षता की इस आर्थिक और सामाजिक प्रणाली को "फोिर्डस्म (Fordism)" कहा गया और अधिकतर प्रमुख उद्योगों ने इसका अनुसरण किया। इस समानुक्रम लाइन से जो दक्षता में लाभ हुआ वह अमेरिका के आर्थिक वृद्धि के समय ही हुआ। समानुक्रम लाइन में श्रमिकों को एक निश्चित गति से दोहरावदार क्रियाएँ करनी पड़ती थी, जिसके कारण प्रति श्रमिक उत्पादन बढ़ गया, जबकि अन्य राष्ट्र कम उत्पादक विधियों का इस्तेमाल कर रहे थे। मोटर वाहन उद्योग (automotive industry) में, उनकी सफलता सब पे हावी थी, और जल्द ही पूरे विश्व में स्थापना हुई, 1911 में फोर्ड फ्रांस और ब्रिटेन फोर्ड, फोर्ड डेनमार्क 1923, फोर्ड जर्मनी 1925 और 1921 में,सित्रोएँ (Citroen) पहला यूरोपीयन निर्माता था जिसने इस उत्पादन पद्धति को अपनाया . जल्द ही, कंपनियों को असेम्बली लाइन कार्य विधि अपनानी पड़ी और जिन्होंने ये नही किया उन कम्पनियों को काफी नुक्सान का सामना करन पड़ा, 1930 तक, 250 कम्पनियाँ गायब हो गई .[19] मोटर वाहन प्रौद्योगिकी विकास तेजी से चल रही थी और इसका श्रेय दुनिया भर के छोटे निर्माताओं को जाता है। प्रमुख घटनाक्रमों में शामिल थी बिजली इग्निशन (ignition) और बिजली के सेल्फ स्टार्टर (दोनों लायी गयीं थी चार्ल्स केत्तेरिंग (Charles Kettering) द्वारा, कादिल्लाक (Cadillac) मोटर कंपनी के लिए 1910 - 1911 में की) इन्देपेंदेंट सुस्पेंसन (suspension), और चार पहिया ब्रेक. 1927 में माना गया . 1920 के दशक से, लगभग सभी कारें बाजार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए थोक में बनाई गई, इसलिए उनकी मार्केटिंग योजनायें ऑटोमोबाइल डिजाईन से काफ़ी प्रभावित थी। वो अल्फ़्रेड पी.स्लोअन (Alfred P. Sloan) थे जिन्होंने यह विचार स्थापित किया की एक कंपनी को अलग अलग करें बने चाहिए, ताकि खरीदार की आर्थिक अवस्था में सुधार के साथ वोह आगे बढ़ सके . इस तेज परिवर्तन के परिणामस्वरूप, जहाँ बनी हुई छोटे छोटे भाग एक दूसरे के साथ बटने से, उत्पादन बड़े मात्र में हुई, वोह भी कम कीमत पे हर एक भाग का .उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में, ला साल्ले (LaSalle), जिसने बेचा कादिल्लाक (Cadillac) ने, इस्तमाल किया सस्ते यांत्रिक भागों का ओल्ड्स मोबाइल (Oldsmobile) द्वारा बना हुआ ;उसी तरह चेर्वोले ने अपनी हुड, दरवाजों, छत साझा और खिड़कियाँ बांटी पोंतिअक (Pontiac) के साथ ; और 1990 तक, कॉर्पोरेट ड्राइव ट्रेन्स (drivetrain) और साझा प्लेटफार्म (platforms)(इंटर चंगाब्ले ब्रेक (brake), सुस्पेंसन और अन्य भाग) एक आम बात बन गई थी। फिर भी, केवल प्रमुख निर्मतायें ही सक्छम थे इतने उच्चे दम पर निर्माण करने के लिए, क्योंकि कंपनियां जो दशकों से उत्पादन में थी, जैसे अप्पेर्सन (Apperson),कोल (Cole), दोर्रिस (Dorris),हायनेस (Haynes), या प्रेमिएर (Premier), भी यह सेह न सकी, लगभग कुछ दो सौ अमेरिकन कार निर्माता थे 1920 में, जिनमें से केवल 43 बची १९३० तक और ग्रेट डिप्रेशन (Great Depression) के साथ, केवल 17 ही बच पाई .[19] यूरोप में भी लगभग येसा ही होगा .1924 में, कावले (Cowley) में, मौरिस (Morris) ने अपनी उत्पादन लाइन की स्थापना की और जल्द ही फोर्ड को बेच दिया, हालाँकि 1923 में शुरू हुई, फोर्ड की सीधा एकीकरण (vertical integration), जिसने खरीदा होत्च्किस (Hotchkiss)(की इंजन), व्रिग्ले (Wrigley)(की गियर बॉक्स), और ओस्बेर्तों (Osberton) (के रादिअतोर्स), उस समय, साथ ही पर्तियोगी, जैसे wolseley (Wolseley),1925 में मोरिस के पास 41% कुल ब्रिटिश कार उत्पादन थी। अधिकांश छोटे ब्रिटिश कार अस्सेम्ब्लेर्स, अब्बे (Abbey) से लेकर एक्स्ट्रा (Xtra) तक वापिस चले गएँ .सित्रोएँ ने फ्रांस में भी यही किया, जहाँ कार की बात होती है 1919 में, उनके और दूसरी सस्ते कारों के बीच जैसे रेनोल्ट (Renault) की 10 CV (10CV) और पयूगेत (Peugeot) की 5 CV (5CV), उन्होंने 550,000 कारों का निर्माण किया 1925 तक और इसमें मोर्स (Mors),हरतु (Hurtu), और अन्य कई इस कार बनने के होड़ में जीत नही पायें.[19] जर्मनी की पहली सामूहिक-निर्मित कार, ओपेल 4PS"लौब्फ्रोस्च" (4PS Laubfrosch) (ट्री फरोग), बन के टायर हुई रुस्सेल्शेइम (Russelsheim) में 1924 में और ये जल्दही ओपेल को शीर्ष कार निर्माता बना दी जर्मनी में 37.5 % मार्केट शेयर के साथ.[19] उर्जा और प्रोपुल्सन तकनीक पर चलती है। पर . अधिकांश ऑटोमोबाइल जिनका आज हम प्रयोग करते हैं चलती है गैसोलीन (gasoline) द्वारा (जिसे हम पेट्रोल भी कहते हैं) या डीजल आंतरिक दहन इंजन, जो वायु प्रदूषण (air pollution) फैलाने के लिए भी जाने जाते हैं और इन्हे जलवायु परिवर्तन (climate change) और ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी दोषी ठहराया गया है।[20] तेल की बढती कीमत, सख्त पर्यावरण कानून और ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) एमिस्सिओं पर पबंधियों ने हमे दूसरे ऊर्जा प्रणालियों को ढूँढने पर मजबूर कर दिया .मौजूदा प्रौद्योगिकियों को सुधरने और हटाने के प्रयास में हमने दूसरे विकास किए जैसे हाइब्रिड वाहन (hybrid vehicle), और बिजली (electric) और हाइड्रोजन वाहन (hydrogen vehicle)s जो हवा में प्रदूषण नही फैलाते थे। डीजल डीजल इंजन कारें लंबे समय से यूरोप में प्रसीध थीं जिसका पहला मॉडल लाया गया 1930 के दशक में मर्सिडीज बेंज (Mercedes Benz) और Citroën (Citroën) द्वारा .मुख्य लाभ डीजल इंजनों में ये थी की उनमें 50% फुएल बर्न efficiency ज्यादा थी जब तुलना किया गया सबसे अच्छी गसोलिने इंजन से, जिसकी 27 %[21] थी। एक कमी का प्रयोग करने में यह है की soot particulates मौजूद थे exhaust गैस में, पर इसको हटाने के लिए निर्माताओं ने का प्रयोग किया। अधिकाँश डीजल से चलने वाली करें biodiesel से भी चलती थी, कुत्च मामूली संशोधनों के बाद या बिना किसी संशोधन के. गैसोलीन पेट्रोल इंजन का फायदा डीजल इंजन की तुलना में यह है की वोह हल्का है और उच्च घूर्णी गति पर काम कर सकती है और उन्हें हमेशा मान्यता मिलता है र्ट्स कर की इंजन में, उनके अच्छे प्रदर्शन के लिए .एक सौ वर्ष से अधिक गैसोलीन इंजनों के सतत विकास ने उनके कार्यकुशलता में काफ़ी सुधर लायी है और प्रदूषण फैलाना भी कम कर दिया है।कार्बोरेटर (carburetor) 1980 के दशक तक लगभग सभी सड़क पर चलने वाली कार इंजनों में इस्तेमाल किया जाता था, इसका इस्तमाल ख़तम हुआ जब बेहतर नियंत्रण मिल पाया फुएल और हवा के मिश्रण पर, जिसे पाया गया फुएल इंजेक्शन (fuel injection) द्वारा .अप्रत्यक्ष फुएल इंजेक्शन सबसे पहले विमान इंजन में इस्तमाल हुआ 1909 में, रेसिंग कार के इंजन में इसका इस्तमाल 1930 के सतक में हुआ और सड़क कारों में 1950 के दशक से इस्तेमाल किया गया था।[21]गैसोलीन डायरेक्ट इंजेक्शन (GDI) (Gasoline Direct Injection (GDI)) अब वाहनों के उत्पादन में इस्तमाल किया जाने लगा था, मिसाल के तौर पे, 2007 (मार्क द्वितीय) BMW मिनी (BMW Mini) में .exhaust गैस की सफाई exhaust system mein catalytic कनवर्टर लगा के भी की जा सकती थी। स्वच्छ हवा कानून बहुत सारे कर इंडस्ट्रीज, जो बहुत महत्वपूर्ण बाजार थी, दोनों काताल्य्स्ट्स और फुएल इंजेक्शन को सार्वभौमिक फिटिंग बना दिया था। सबसे आधुनिक गैसोलीन इंजन भी सक्षम हैं चलने के, 15% इथेनॉल (ethanol) जो मिली हुई थी गसोलिने के साथ चलने की - पुराने वेहिकल में सिअल्स और होसेस होती थी जिन्हें एथेनॉल नुकसान पहुंचा सकता था। एक छोटी सी परिवर्तन के बाद, गसोलीन से चलने वाले वेहिकल, 85% इथेनॉल सांद्रता पर चला सकते हैं .00% इथेनॉल विश्व के कुछ भागों में प्रयोग किया जाता है (जैसे ब्राजील), लेकिन वाहनों को शुद्ध गैसोलीन पर शुरू किया जाना चाहिए और इथेनॉल पर स्विच तब करना चाहिए जब इंजन चल रही हो .ज्यादातर गसोलीन से चलने वाली करें LPG (LPG) से भी चलती हैं, जहाँ एक LPG tank (LPG tank) को फुएल स्टोरेज के लिए और LPG मिक्सेर कार्बुएरेशन के लिए इस्तमाल किया जाता है।LPG कम जहरीले उत्सर्जन निकला करती थ और यह एक लोकप्रिय ईंधन थी फोर्क लिफ्ट ट्रकों के लिए जो इमारतों के अन्दर संचालित की जाती थी। . बायो अल्कोहोल्स और बायो गसोलीन इथेनॉल (Ethanol), अन्य, अल्कोहोल फुएल (alcohol fuel)(बायो बुतानोल (biobutanol)) और बायो गसोलीन (biogasoline), मोटर वाहन ईंधन का व्यापक इस्तेमाल किया है। अधिकांश अल्कोहोल्स कम ऊर्जा देती है प्रति लीटर अपेक्षा गसोलीन के, इसी से उससे गसोलीन के साथ मिलाया जाता है। अल्कोहोल्स कई कारणों के लिए इस्तेमाल किया जाता है - ओकटाइन बढ़ाने के लिए, उत्सर्जन में सुधार करने के लिए और एक वैकल्पिक पेट्रोलियम निर्धारित फुएल के जगह पे, क्योंकि वे कृषि फसलों से बनाया जा सकता है। ब्राज़ील का इथेनॉल कार्यक्रम (ethanol program) देश के 20% फुएल जरोरत पूरा करता है, जिसमें शामिल है दुसरे लाकों करें जो सुध एतानोल पर चलती हैं . बिजली सबसे पहली बिजली की गाड़ी (electric car) बनी 1832 के आस पास, जो आंतरिक दहन से चलने वाली गाड़ियों से पहले आ गई थी। [22] कुछ समय तक, इलेक्ट्रिक्स को श्रेष्ट मन जाता था उसके मूक प्रकृति की वजह से, जब उनकी तुलना की जाती थी बहुत शोर मचने वाले गसोलिने इंजन से .यह लाभ हटाया गया हीराम पर्सी मैक्सिम (Hiram Percy Maxim) के आविष्कार मफलर (muffler) के द्वारा 1897 में .इसके बाद आंतरिक दहन शक्ति कारों का दो महत्वपूर्ण लाभ था:1) लॉन्ग रेंज और 2) च्च विशिष्ट ऊर्जा (पेट्रोल की कम वजन वेर्सुस बैटरी के वजन).बैटरी इलेक्ट्रिक वाहन (battery electric vehicle) को बनने से वोह प्रतिद्वंद्वी होते आंतरिक दहन मॉडल के और उन्हें इंतज़ार करना पड़ा जब तक आधुनिक अर्धचालक (semiconductor) नियंत्रण और सुधार बैटरी की शुरुआत नही हुई. क्योंकि वे एक उच्च टर्क (torque) वितरित कर सकते कम रेवोलुशन्स पर, बिजली कारों को इतना जटिल ड्राइव ट्रेन की जरुरत नही पड़ती थी और न ही ट्रांस्मिसन जो आंतरिक दहन कारों को चाहिए था। कुछ 2000 के बाद के बिजली कर डिजाईन जैसे, वेंचुरी फेटिश (Venturi Fétish) जो सक्षम थे 0 - 60 के तेजी से चलने के लिए;mph (mph) (96किमी / घंटा (km/h)) 4.0 &amp;nsbp ;सेकंड्स, जिसमें सबसे उच्च गति थी 130mph (210km/h). दूसरों का रेंज था 250 ;मील (mile)(400km) EPA (EPA) पर हाई वे साइकिल को आवश्कता था 3-1/2 ;घंटे पुरी तरह से चार्ज करने के लिए .[23] आंतरिक दहन के बराबर ईंधन दक्षता को ठीक तरह से परिभाषित नही किया गया है पर कुछ प्रेस रिपोर्ट ने इसके आस पास तक बताया है . भाप एस्टीम पॉवर, ज्यादातर इस्तेमाल करती थी आयल - या गैस - हेतेद बायलर, इसका इस्तेमाल किया गया 1930 के दशक तक, पर इसका प्रमुख नुकसान यह था की यह कर को बिजली नही दे सकती थी जब तक बायलर प्रेशर नही मिलती थी (यद्यपि नए मॉडल ये पा सकते थे मिनटों के अन्दर).इसे का लाभ यह है की ये बहुत कम उत्सर्जन देता है और इसके चलते दहन प्रक्रिया को नियंत्रित किया जा सकता है बहुत सावधानी से .इसका नुकसान शामिल करती है कमजोर हीट कार्यकुशलता और विस्तार जरूरतें बिजली औक्स्लारिज़ के.[24] हवा एक कोम्प्रेस्सेद हवा कर एक वैकल्पिक ईंधन कार है जो उपयोग करता है कोम्प्रेस्सेद हवा (compressed air).कार केवल हवा, या संयुक्त हवा द्वारा संचालित किया जा सकता है (जैसे हाइब्रिड इलैक्ट्रिक वाहन में) गसोलिने /डीजल /एथेनॉल या बिजली संयंत्र के रूप में और रीजेंरातिव ब्रेकिंग (regenerative braking) द्वारा .इसके बजाय हवा के साथ ईंधन के मिश्रण किया जाए और उसे जलाया जाए पिस्टन चलने के लिए गरम फैलती हुई हवा से ;कोम्प्रेस्सेद हवा करें ने इस्तेमाल किया फैलना (expansion) कोम्प्रेस्सेद हवा का अपने पिस्टन को चलने में .कई प्रोटोटाइप पहले से ही उपलब्ध हैं और दुनिया भर में बिक्री के लिए 2008 के अंत तक अनुसूचित किया गया है। इस प्रकार के कर जरी करने वाली कंपनियों में शामिल हैं टाटा मोटर्स और मोटर विकास अंतरराष्ट्रीय (Motor Development International) (MDI). गैस टरबाइन 1950 के दशक में वहाँ बहुत कम रूचि थी गैस टरबाइन (gas turbine) जेट) इंजनों के इस्तेमाल में और कई निर्माताओं ने जैसे रोवर (Rover) और क्रिसलर (Chrysler) प्रोटोटाइप का उत्पादन किया। हालाँकि पावेर उनिट्स बहुत कोम्पक्ट था, उच्च ईंधन की खपत और दूसरे थ्रोत्तले की जवाब में देर के चलते और इंजन ब्रेकिंग के कमी का मतलब ये था की कोई भी कार उत्पादन तक नही पहुँच पाई . रोटरी (वान्केल) इंजन रोटरी वान्केल इंजन (Wankel engine) को शुरू किया गया सड़क कारों में NSU (NSU) द्वारा, साथ Ro 80 (Ro 80) के और बाद में ये देखा गया सित्रोएँ GS बिरोटर (Citroën GS Birotor) और कई मज़्दा (Mazda) मॉडल में .उनके प्रभावशाली स्मूथनेस के बावजूद, उनके ख़राब निर्भरता और ईंधन की अर्थव्यवस्था उनके गायब होने का कारण थी। मज़्दा, जो शुरू हुई R100 (R100) फिर RX-2 (RX-2), इन इंजनों पर, अनुसंधान जारी रखा, इससे पहले की परेशानियाँ काफ़ी हद तक झुझी जा सकी RX-7 (RX-7) और RX-8 (RX-8) के मदद से . रॉकेट और जेट कारें एक रॉकेट कार (rocket car) रिकार्ड हासिल की है ड्रैग रेसिंग (drag racing) में .हालाँकि, उनमें से सबसे तेज कारों को उपयोग किया जाता था भूमि रिकार्ड की गति (Land Speed Record) सेट करने में और आगे बढ़नेवाला जेट विमानों से उत्सर्जित रॉकेट (rocket), टुर्बो जेट (turbojet) द्वारा, या सबसे आधुनिक और सबसे टुर्बो फेन (turbofan) इंजन द्वारा.यह ठ्रुस्त SSC (ThrustSSC) कार जो इस्तेमाल कर रही कर दो रोल-रोयस स्पे (Rolls-Royce Spey) टुर्बो फंस री हीत (reheat) के साथ सक्षम था ध्वनि की गति (speed of sound) को पार करने में, ग्राउंड लेवल पर 1997 में. सुरक्षा यातायात सड़क दुर्घटनाएं दर्शाती है की 25% दुनिया भर की यातायात चोटों से होने वाली मौत (का मुख्या कारण है), अनुमानित किया गया है 1.2 मिलियन मौत (2004) तक प्रति वर्ष हुई .[25] मोटर दुर्घटना (Automobile accident) लगभग उतना ही पुराना है जितना मोटर वाहन ख़ुद .सबसे पुराणी उदाहरण है मर्री वर्ड (Mary Ward) जो सबसे पहली प्रलेखित ऑटोमोबाइल घातक बनी 1869 में, Parsonstown, आयरलैंड (Parsonstown, Ireland) में,[26] और हेनरी ब्लिस (Henry Bliss) जो संयुक्त राज्य (United State) के पहले पैदल यात्री (pedestrian) जो ऑटोमोबाइल घटना में 1899 में न्यू यार्क में,[27] कारों में बहुत सुरक्षा समस्याये थी - उदाहरण के तौर पे, उनमें मानव ड्राईवर होते हैं जो गलतियाँ कर सकते हैं, पहियों कर्षण खो सकते हैं ब्रेक लगाने के समय, घुमाने और तेज करने वाली बालें काफी ज्यादा हो सकती हैं और मेकनिकल सिस्टम विफल भी हो सकती हैं .Collisions बहुत गंभीर या घातक परिणाम वाले हो सकते हैं .कुछ वाहनों का सेण्टर ऑफ़ ग्रैविटी (center of gravity) ज्यादा होता है और उनकी प्रवृत्ति उलटने की बढ़ जाती है। शुरू की सुरक्षा अनुसंधान ब्रेक की निर्भरता पर ज्यादा धयान देती रे और ईंधन प्रणाली की flammability को कम करने पर केंद्रित थी। उदाहरण के तौर पे, आधुनिक इंजन डिब्बों नीचे से खुली हुई हैं ताकि ईंधन वपोर्स, जो भरी होती हैं हवा से, निकल जाए खुली हवा में .ब्रेक ह्य्द्रौलिक और दुआल सर्किट वाली होती हैं ताकि पूरी तारा से ब्रेक फ़ैल होने की संभावना बहुत कम हो .व्यवस्थित अनुसंधान दुर्घटना सुरक्षा पर शुरू हुई 1958 में फोर्ड मोटर कंपनी (Ford Motor Company) में .तब से, अधिकांश अनुसंधान केंद्रित हैं अवशोषित करने में एक्स्तेर्नल क्रेश एनर्जी को crushable पैनलों के साथ और कम करने में मानव शरीर की गति को पेस्सेंजेर कोम्पर्त्मेंट में .यह परिलक्षित है अधिकतर कारों में जो अभी बनाईं जाती है। उल्लेखनीय कटौती मौत और चोट लगने में, आई है सुरक्षा पेटी (Safety belt) के आने से और कानून भी बनाई गई है इससे पहनने के लिए कई देशों में .एयर बग्स (Airbags) और विशेषीकृत बच्चे संयम प्रणालियों ने उस में सुधार किया है। संरचनात्मक परिवर्तन जैसे साइड इम्पक्ट सुरक्षा सलाखायें दरवाजों में और साइड पैनल कारों के कम की काफ़ी हद तक प्रभाव जो वेहिकल के साइड से पड़ती थी। कई कारें अब रडार या सोनार डिटेक्टरों को कार के पीछे लगाया की ड्राइवर को चेतावनी दी जा सके अगर चालक किसी बाधा या फुटपाथ पर जा रहें हो तो .कुछ वाहन निर्माताओं ने ऐसी यंत्रों का निर्माण किया अपनी गाड़ियों में जिससे हम आने वाली बाधाओं का अनुमान या कोई और दूसरी वाहन अगर सामने हो तो उसका पता लगा सकते थे और इस प्रकिया का इस्तेमाल ब्रेक लगाने के लिए किया जा सकता था अगर टकराव टला नही जा सकता था तो .वहां पर बहुत सिमित प्रयास भी किया गया था प्रयोग करने का हेड उप डिसप्ले (heads up display) और थर्मल इमेजिंग (thermal imaging), यह टेक्निक सैन्य विमान में प्रयोग किया जाता था ताकि रात को सड़क साफ़ दीखाई दे . नई ऑटोमोबाइल में सुरक्षा के लिए स्टैण्डर्ड टेस्ट भी किए जाते थे, जैसे EuroNCAP (EuroNCAP) और अमेरिका NCAP टेस्ट.[28] कई परीक्षण संगठनों द्वारा चलाए जा रहे थे जैसे IIHS (IIHS) जिसे बिमा कंपनियां समर्थन दे रही थी। [29] तकनीकी प्रगति के बावजूद, कार दुर्घटनाओं से जीवन का नुकसान फिर भी हो रहा था ; लगभग 40,000 लोग हर साल मर रहें थे संयुक्त राज्य अमेरिका में, यही अकडा यूरोप में भी था। यह आंकड़ा सालाना बढ़ती आबादी और यात्राओं के साथ बढती जाएगी, अगर इस और कोई कदम नही बढाया गया तो, लेकिन दर प्रति व्यक्ति (per capita) और प्रति मील यात्रा करना लगातार कम हो रहें थे। मरने वालों की संख्या लगभग दोगुना होने की उम्मीद है, दुनिया भर में 2020 तक .काफी हद तक दुर्घटनाओं का परिणाम चोट लगना या विकलांगता (disability) होती है। सबसे ज्यादा र्घटना आंकड़ों को चीन और भारत में सूचित किया गया है। यूरोपीय संघ ने एक कठोर कार्यक्रम लागू किया है मरने वालों की संख्या आधी करने के लिए 2010 तक और सदस्य देशों ने इन उपायों को लागू करना शुरू भी कर दिया है। स्वचालित नियंत्रण (Automated control) को गंभीरता से प्रत्सवित किया है और सफलतापूर्वक अपनाया गया है। शौलदार -बेल्टेड यात्रियों ने बर्दाश्त की एक 32 g (g) इमर्जेंसी स्टाप (जो 64 गुना सफे इंटर -वेहिकल gap को कम कर दी) और अगर उच्च गति सड़कें थी तो स्टील रेल कको लाया गया इमर्जेंसी ब्रेक मारने के लिए .सड़क के दोनों सुरक्षा संशोधनों को बहुत महंगा पाया गया अधिकाँश पैसा लगाने वाले अधिकारियों द्वारा, हालांकि इन संशोधनों को उपयोग में लाया जा सकता था उन वाहनों की संख्या में वृद्धि करने के लिए जिन्हें हाई स्पीड हाई वे (highway) पे चला सके .यह स्पष्ट हो गया की अक्सर नज़रंदाज़ किया गया सड़क डिजाइन (road design) और यातायात नियंत्रण (traffic control) को जो बहुत बड़ा हिस्सा बनी कार व्रेच्क्स में ;अस्पष्ट यातायात संकेत, अपर्याप्त संकेत प्रकाश प्लेसिंग, ख़राब योजना (मुड़े हुए पुल दृष्टिकोण जो सर्दियों में बर्फीले हो जाते हैं, उद्धरण के तौर पे), भी योगदान बनी इनमें . अर्थशास्त्र और प्रभाव लागत और उपयोग के लाभ ऑटोमोबाइल उपयोग की लागत, जिसमें शामिल है लागत:वाहन प्राप्त करना,मरम्मत (repair), रखरखाव (maintenance), ईंधन (fuel), मूल्यह्रास (depreciation), पार्किंग शुल्क (parking fee), टायर (tire) बदलने, करों (tax) और बीमा (insurance) प्राप्त करने की,[30] और इन सब को नापा गया है विकल्प की लागत के खिलाफ और हमे जो फायदा हुआ है जितना हमने सोचा था और जितना हमे मिला - वाहन के इस्तेमाल में .लाभों में शामिल है -परिवहन की मांग, गतिशीलता, स्वतंत्रता और सुविधा.[31] लागत और समाज को लाभ उसी प्रकार से समाज की लागत ऑटोमोबाइल के इस्तेमाल करने पे, इन सब को भी शामिल करती है जैसे:सड़कों की वयवस्था (maintaining road),भूमि का उपयोग (land use),प्रदूषण,सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health),स्वास्थ्य देखभाल (health care), और छुटकारा पा लेना वाहन से उसके जीवन के अंत में, यह संतुलित किया जा सकता है जब हम ऑटोमोबाइल से होने वाली समाज के लाभ को देखें .इस सामाजिक लाभ में शामिल हो सकते हैं:अर्थव्यवस्था लाभ, जैसे नौकरी और धन सृजन, ऑटोमोबाइल उत्पादन और रखरखाव, परिवहन व्यवस्था, सामाजिक खुश हाली जिसे हम पा सकते हैं आराम और यात्रा के अवसरों से और revenue generation कर अवसर से .इंसानों की क्षमता लचीलेपन के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जन, काफी दूर तक समाज की प्रवृति को दर्शाता है।[32] समाज और पर्यावरण पर प्रभाव रिवहन एक प्रमुख योगदानकर्ता है वायु प्रदूषण (air pollution) ज्यादातर औद्योगिक देश में.अमेरिकी भूतल परिवहन नीति परियोजना (American Surface Transportation Policy Project) के अनुसार लगभग आधे अमेरिकांस अस्वास्थ्यकर हवा में साँस ले रहे हैं। उनके अध्ययन दर्शाता है की वायु गुणवत्ता दर्जनों महानगरीय क्षेत्र में बदतर हो गई है, पिछले दशक से .[33] संयुक्त राज्य अमेरिका में औसत यात्री कार निकलती है 1,450lbs (5 टन (tonne)) कार्बन डाइऑक्साइड के, साथ में छोटी मात्रा में कार्बन मोनोऑक्साइड, ह्य्द्रोकार्बोंस और नाइट्रोजन भी थे। [34] रेसिदेंट्स ऑफ़ लो -डेन्सिटी, रेसिदेंतिअल -केवल स्प्रव्लिंग समुदाय के मरने की संभावना ज्यादा थी कार टक्कर (car collision) में, जिसमें 1.2 मिलियन लोग दुनिया भर में मारें हर वर्ष और इसका 40 गुना ज्यादा घायल हुए .[25] स्प्रव्ल एक विस्तार कारण थी निष्क्रियता और मोटापेका, जो बाद में जा के कई तरह के बिमारियों का कारण बन सकती थी। [35] सकारात्मक को सुधरने में और नकारात्मक प्रभाव को कम करती है ईंधन कर (Fuel tax) काम कर सकता है एक प्रोत्साहन के रूप में ज्यादा कुशल उत्पादन के लिए, तो कम प्रदुषण, कार डिजाईन (उदाहरण हाइब्रिड वेहिकल (hybrid vehicles) और वैकल्पिक ईंधन (alternative fuel) के विकास के लिए .उचे ईंधन कर खरिदारों को प्रोत्साहित करती है की वोह हलकी, छोटी और अधिक फुएल कुशल कारें, या फी कार ही न चलायें .औसत तौर पर, आज की ऑटोमोबाइल 75 प्रतिशत फिर से बनाई जा सकती है और पुनर्नवीनीकरण इस्पात का उपयोग हम ऊर्जा प्रयोग और प्रदूषण कम करने में कार सकते हैं .[36] संयुक्त राज्य में कांग्रेस, फेदेराल्ली अनिवार्य बनाई ईंधन दक्षता, जिसपे नियमित रूप से बहस हुआ, हालाँकि यात्री कार मानकों को इससे ज्यादा नही सुधार जा सका जो मानक 1985 में बना दिया गया था उससे . हलकी ट्रक मानकों में भी बहुत जल्दी परिवर्तन आया है और इन्हे बताया गया 2007 में.[37]वैकल्पिक ईंधन वाहनों (Alternative fuel vehicles) एक और विकल्प है जो कम प्रदूषण फैलाने वाली है, अपेक्षा पारंपरिक पेट्रोलियम (petroleum) से चलने वाली वाहनों के . भविष्य कार प्रौद्योगिकियों ऑटोमोबाइल प्रोपुल्सन (Automobile propulsion) प्रौद्योगिकी विकास के अंतर्गत आता है गसोलिने /बिजली (gasoline/electric) और प्लग -इन हाइब्रिड (plug-in hybrid), बैटरी इलैक्ट्रिक वाहन (battery electric vehicle),हाइड्रोजन कारें (hydrogen car),बियो फुएल (biofuel), और अन्य वैकल्पिक ईंधनों (alternative fuel). अनुसंधान भविष्य के वैकल्पिक ईंधन के रूपों में शामिल करती है विकास, फुएल सेल्स (fuel cells),होमो गेनिओउस चार्ज कोम्प्रेस्सिओं इग्निशन (HCCI) (Homogeneous Charge Compression Ignition (HCCI)),स्टर्लिंग इंजन (stirling engine)[38], और यहाँ तक की स्तोरेड उर्जा कोम्प्रेस्सेद हवा की या तरल नाइट्रोजन (liquid nitrogen) भी इस्तेमाल किया। नई सामग्री, जो इस्पात कार निकायों की जगह ले ली, शामिल करती है दुरालुमिनियम (duraluminum),फिब्रेर ग्लास (fiberglass),कार्बन फाइबर (carbon fiber), और कार्बन नानो ट्यूब (carbon nanotube). टेलीमैटिक्स (Telematics) टेक्निक ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को कर शेयर कराया, पे -अस-यू -गो (pay-as-you-go) बसिस पर, इन सब स्कीमों द्वारा जैसे सिटी कार क्लब (City Car Club),UK में, मोबिलिटी (Mobility)मैन लैण्ड एउरोप (mainland Europe) और जिप कार (Zipcar)US में . ऑटोमोबाइल के विकल्प ऑटोमोबाइल इस्तेमाल के कुछ पहलुओं के लिए स्थापित की वकाल्पिक जिसमें शामिल था पुब्लिक ट्रांसिट (public transit)(बसें (bus),त्रोल्ले बस (trolleybus), ट्रेने,सब वे (subway),मोनो रेल (monorail),ट्राम वे (tramway)),साइकिल चलाना (cycling),चलना (walking),रोलर बाल्डिंग (rollerblading), स्केट बोर्डिंग (skateboarding) और वेलो मोबाइल (velomobile) का इस्तेमाल .कार-शेयर (Car-share) व्यवस्था और कार पूलइंग (carpool) भी तेजी से लोकप्रिय होते जा रहीं थी ;कार शरिंग में US बाज़ार के नेता ने अनुभव किया डबल डिजिट में लाभ और इसकी सदस्यता बढ़ा 2006 और 2007 के बीच, जो एक पेशकश थी जहाँ शहरी निवासियों ने ख़ुद का कार खरीदने के बजाये शेयर की पड़ोसियों के साथ, भीड़ भाद वाले इलाके में .[39]बाइक-शेयर (Bike-share) सिस्टम कुछ यूरोपीय शहरों में कोशिश की गई है, जिनमें कोपेनहेगन और एम्स्टर्डम भी हैं .इसी तरह के कार्यक्रमों को अमेरिका के कई शहरों में प्रयोग किया गया है।[40] अद्दिशनल इन्दीविसुअल परिवहन के तरीके जैसे, व्यक्तिगत रैपिड ट्रांजिट (personal rapid transit) एक वैकल्पिक के रूप में औतोमोबिलेस के जगह प्रयोग किया जा सकता है अगर सामाज इससे स्वीकार कार ली तो .[41] इन्हें भी देखें मोटरवाहन इंजीनियरी कार वर्गीकरण (Car classification) कार दान (Car donation) ड्राइविंग (Driving) ऑटोमोबाइल उत्पादन के देशों की सूची (List of countries by automobile production) प्रति व्यक्ति वाहनों द्वारा देशों की सूची (List of countries by vehicles per capita) ऑटोमोबाइल की सूचियाँ (Lists of automobiles) समाज ऑटोमोटिव इंजीनियर्स के (Society of Automotive Engineers) स्थायी परिवहन (Sustainable transport) अमेरिकी ऑटोमोबाइल उत्पादन के आंकड़े (U.S. Automobile Production Figures) -प्रत्येक उत्पादन के आंकड़े 1899 से 2000 तक . V2G (V2G) V2V (V2V) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (विश्व का पहला हिन्दी आटोमोबाइल पोर्टल) श्रेणी:Vehicles श्रेणी:यान्त्रिकी
सबसे पहली कार का आविष्कार कब हुआ था?
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अंगूठाकार|भारतीय मोर अंगूठाकार|लाल पांडा भारत में दुनिया के कुछ सबसे अधिक जैव विविधता वाले क्षेत्र हैं। भारत की राजनीतिक सीमाएँ इकोज़ोन के एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करती हैं - जिसमें रेगिस्तान, ऊंचे पहाड़, पहाड़ी इलाक़ा, उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण वन, दलदली भूमि, मैदान, घास के मैदान, नदियों के आसपास के क्षेत्र, साथ ही द्वीपसमूह शामिल है। यह 4 जैव विविधता वाले प्रमुख क्षेत्र की मेजबानी करता है: हिमालय, पश्चिमी घाट, इंडो-बर्मा क्षेत्र और सुन्दालैंड (द्वीपों के निकोबार समूह सहित)।[1] इन प्रमुख क्षेत्र में कई स्थानिक प्रजातियां पाई जाती हैं।[2] भारत का अधिकांश इकोज़ोन भाग, हिमालय की ऊपरी, इण्डोमालय क्षेत्र पर स्थित है, जो कि पियरएक्टिक इकोज़ोन का हिस्सा है; 2000 से 2500 मीटर के समोच्च को भारत-मलयान और पल्लिक्टिक क्षेत्रों के बीच की ऊँचाई सीमा माना जाता है। भारत महत्वपूर्ण जैव विविधता प्रदर्शित करता है। सत्रह विशालविविध देशों में से एक, यह सभी स्तनधारी के 7.6%, सभी पक्षियो के 12.6%, सभी सरीसृप के 6.2%, सभी उभयचरों के 4.4%, सभी मछलियों के 11.7% और सभी फूलों वाले पौधों की प्रजातियों के 6.0% फीसदी हिस्सो का घर है। यह क्षेत्र गर्मियों के मानसून से भी काफी प्रभावित है, जो वनस्पति और आवास में बड़े मौसमी बदलाव का कारण बनता है। भारत, इंडोमालयन बायोग्राफिकल ज़ोन का एक बड़ा हिस्सा बनाता है और कई प्रकार के फूलों और जीवों के रूप में हिमालयी समृद्धि दिखाई देती है, केवल कुछ ही गुण है जो भारतीय क्षेत्र के लिए अद्वितीय हैं। अद्वितीय रूपों में सरीसृप परिवार का उरोपेल्टिडे शामिल हैं जो केवल पश्चिमी घाट और श्रीलंका में पाए जाते हैं। क्रेटेशियस शो से जीवाश्म का सेशेल्स और मेडागास्कर द्वीपों से श्रृंखला से जुड़ते हैं।[3] क्रेटेशियस फॉना में सरीसृप, उभयचर और मछलियां और एक विलुप्त प्रजाति जो इस फिजियोलॉजिकल कड़ी का प्रदर्शन करती है, वह है बैंगनी मेंढक शामिल हैं। भारत और मेडागास्कर के अलग होने के समय का अनुमान पारंपरिक रूप से लगभग 88 मिलियन वर्ष लगाया जाता है। हालांकि, ऐसे सुझाव हैं कि मेडागास्कर और अफ्रीका के कड़ी उस समय भी मौजूद थे जब भारतीय उपमहाद्वीप यूरेशिया से जुड़ा हुआ था। भारत को एशिया में कई अफ्रीकी प्रजातियों के आवाजाही के लिए एक जहाज के रूप में सुझाया गया है। इन प्रजातियों में पांच मेंढक परिवार (मायोबात्रचिडा सहित), तीन कैसिलियन परिवार, एक लैक्रिटिड छिपकली और पोतामोप्सिडे परिवार के ताजे पानी के घोंघे शामिल हैं।[4] मध्य पाकिस्तान के बुगती हिल्स से एक तीस मिलियन वर्ष पुराने ओग्लोसिन युग के जीवाश्म के दांत की पहचान एक लेमुर जैसे प्रलुप्त प्रजाती से की गई है, जिसने विवादास्पद सुझावों को संकेत दिया है कि लेमर्स की उत्पत्ति एशिया में हुई हो सकती है।[5][6] भारत से प्राप्त लेमुर जीवाश्म, लेमुरिया नामक एक लुप्त महाद्वीप के सिद्धांतों का नेतृत्व करते है। हालांकि इस सिद्धांत को खारिज कर दिया गया जब महाद्वीपीय प्रवाह और प्लेट टेक्टोनिक्स अच्छी तरह से स्थापित हो गए। भारत की वनस्पतियों और जीवों का अध्ययन और अभिलेखन लोक परंपरा में शुरुआती समय से किया गया है और बाद में शोधकर्ताओं द्वारा और अधिक औपचारिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण (देखें: भारत में प्राकृतिक इतिहास) का अनुसरण किया गया है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से खेल कानूनों की रिपोर्ट की जाती है।[7] कुल क्षेत्र का 5% हिस्सा औपचारिक रूप से संरक्षित क्षेत्रों के तहत वर्गीकृत है। भारत एशियाई हाथी, बंगाल टाइगर, एशियाई शेर, तेंदुए और भारतीय गैंडों सहित कई प्रसिद्ध बड़े स्तनधारियों का घर है। इन जानवरों में से कुछ भारतीय संस्कृति से जुडे हुए है, जो अक्सर देवताओं से जुड़े होते हैं। भारत में वन्यजीव पर्यटन के लिए ये बड़े स्तनधारी महत्वपूर्ण हैं, और इनके संरक्षण के लिये कई राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्य बनाया गया हैं। इन करिश्माई जानवरों की लोकप्रियता ने भारत में संरक्षण के प्रयासों में बहुत मदद की है। बाघ विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहा है, और 1972 में शुरू किया गया प्रोजेक्ट टाइगर, बाघ और उसके आवासों के संरक्षण के लिए एक बड़ा प्रयास था।[8] हाथी परियोजना, हालांकि कम ज्ञात है, 1992 में शुरू हुआ और हाथी संरक्षण के लिए काम करता है।[9] भारत के अधिकांश गैंडे आज काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में रहते हैं। कुछ अन्य प्रसिद्ध भारतीय स्तनपायी जीव हैं: जंगली भैंस, नीलगाय, गौर और हिरण और मृग की कई प्रजातियां। कुत्ते के परिवार के कुछ सदस्य जैसे भारतीय भेड़िया, बंगाल लोमड़ी, सुनहरा सियार और सोनकुत्ता या जंगली कुत्ते भी व्यापक रूप से पाये जाते हैं। यह धारीदार लकड़बग्धा का भी घर है। कई छोटे जानवर जैसे कि मकाक, लंगूर और नेवला की प्रजातियां विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों के करीब या अंदर रहने की क्षमता के कारण अच्छी तरह से जानी जाती हैं। विविधता भारत के अकशेरुकी और छोटे कीटो के बारे में अपर्याप्त जानकारी है, इनमें महत्वपूर्ण कार्य केवल कीड़े के कुछ समूहों विशेष रूप से तितलियों, ओडोनेट्स, हाइमनोप्टेरा, बड़े कोलॉप्टेरा और हेटरोप्टेरा में किया गया है। ''द फौना ऑफ़ ब्रिटिश इण्डिया, इनक्लुडिंग सीलोन एंडा बर्मा'' नामक श्रृंखला के प्रकाशन के बाद से जैव विविधता का दस्तावेजीकरण करने के कुछ ठोस प्रयास किए गए हैं। भारतीय जलाशयों में लगभग 2,546 प्रकार की मछलियाँ (विश्व की लगभग 11% प्रजातियाँ) पाई जाती हैं। 197 उभयचरों की प्रजातियाँ (कुल विश्व का 4.4%) और 408 से अधिक सरीसृप प्रजातियाँ (कुल विश्व का 6%) भारत में पाया जाता है। इन समूहों के बीच उभयचरों में उच्चतम स्तर की स्थानिकता पाई जाती है। भारत में लगभग 1,250 पक्षियों की प्रजातियाँ हैं, जिनमें कुछ वर्गीकरण व्यवहार के आधार पर विविधताएँ हैं, यह विश्व की कुल प्रजातियों का लगभग 12% है।[10] भारत में स्तनधारियों की लगभग 410 प्रजातियाँ ज्ञात हैं, जोकि विश्व की प्रजातियों का लगभग 8.86% है।[11] भारत में किसी भी अन्य देश की तुलना में बिल्ली की प्रजातियों की सबसे बड़ी संख्या उपस्थित है।[12] विश्व संरक्षण निगरानी केंद्र के अनुसार भारत, फूलों के पौधों की लगभग 15,000 प्रजातियों का घर है। जैव विविधता के आकर्षण के केंद्र पश्चिमी घाट पश्चिमी घाट पहाड़ियों की एक श्रृंखला है जो प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी किनारे के समानान्तर है। समुद्र से उनकी निकटता और भौगोलिक प्रभाव के माध्यम से, यह उच्च वर्षा प्राप्त करते हैं। इन क्षेत्रों में नम पर्णपाती वन और वर्षा वन हैं। यह क्षेत्र उच्च प्रजाति की विविधता के साथ-साथ उच्च स्तर की व्यापकता को दर्शाता है। लगभग 77% उभयचर और 62% सरीसृप प्रजातियाँ यहाँ पाई जाती हैं जो कहीं और नहीं पाई जाती हैं।[13] यह क्षेत्र मलयन क्षेत्र में जैव-भौगोलिक संपन्नता को दर्शाता है, और सुंदर लाल होरा द्वारा प्रस्तावित सतपुड़ा परिकल्पना से पता चलता है कि मध्य भारत की पहाड़ी श्रृंखलाओं का कभी पूर्वोत्तर भारत के जंगलों और भारत-मलायण क्षेत्र से संबंध स्थापित रहा हो। होरा ने सिद्धांत का समर्थन करने के लिए धार धारा मछलियों का उदाहरण दिया।[14] बाद के अध्ययनों से सुझाव दिया है कि होरा के मूल मॉडल प्रजातियों, संसृत विकास के एक प्रदर्शन था बजाय प्रजातीकरण से अलगाव के।[13] हाल ही के फ़ाइलोज़ोग्राफ़िक अध्ययनों ने आणविक दृष्टिकोण का उपयोग करके समस्या का अध्ययन करने का प्रयास किया है।[15] प्रजातियों में भी अंतर हैं, जो विचलन और भूवैज्ञानिक इतिहास के समय पर निर्भर हैं।[16] श्रीलंका के साथ ही यह क्षेत्र विशेष रूप से सरीसृपों और उभयचरों में मेडागास्कन क्षेत्र के साथ कुछ जीव समानताएं दिखाता है। उदाहरणों में सिनाफोसिस सांप, बैंगनी मेंढक और श्रीलंकाई छिपकली जीनस नेशिया शामिल हैं जो मेडागास्कन जीनस एकोनियस के समान दिखाई देता है।[17] मैडागास्कन क्षेत्र की कई पुष्प कड़िया भी मौजूद हैं।[18] एक वैकल्पिक परिकल्पना में यह सुझाव भी दिया गया कि ये प्रजातियाँ मूल रूप से भारत के बाहर विकसित हुई होगीं।[19] यहाँ भी कुछ जैव भौगोलिक अपवाद मौजूद हैं, जिसमें कुछ प्रजातियाँ श्रीलंका में तो मौजूद है, लेकिन पश्चिमी घाट में अनुपस्थित हैं। इनमें कीट समूह के पौधे जैसे जीनस नेपेंथेस शामिल हैं। पूर्वी हिमालय पूर्वी हिमालय भूटान, पूर्वोत्तर भारत, और मध्य, मध्य और पूर्वी नेपाल क्षेत्र को मिला कर बना है। यह क्षेत्र भूगर्भीय रूप से युवा है और उच्च ऊंचाई में भिन्नता दर्शाता है। यहाँ लगभग 163 विश्व स्तर पर खतरे की प्रजातियाँ, जिसमें एक सींग वाले गैंडे (राइनोसेरोस यूनिकॉर्निस), वाइल्ड एशियन वाटर बफेलो (बुबलस बुबलिस (अर्नी)) और 45 स्तनधारी, 50 पक्षियाँ, 17 सरीसृप, 12 उभयचर, 3 अकशेरुकी और 36 पौधों शामिल हैं, पाये जाते है।[20][21] रिलीफ ड्रैगनफ्लाई (एपियोफ्लेबिया सेलावी) एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो जापान में पाए जाने वाले जीनस में केवल अन्य प्रजातियों के साथ यहां पाई जाती है। यह क्षेत्र हिमालयन न्यूट (टायलटोट्रिटोन वर्चुकोस) का भी घर है, जो भारतीय सीमा के भीतर पाया जाने वाला एकमात्र सैलामैंडर प्रजाति है।[22] विलुप्त और जीवाश्म रूप तृतीयक काल के दौरान, भारतीय टेबललैंड, जो आज भारतीय प्रायद्वीप है, एक बड़ा द्वीप था। एक द्वीप बनने से पहले यह अफ्रीकी क्षेत्र से जुड़ा हुआ था। तृतीयक अवधि के दौरान यह द्वीप एक उथले समुद्र द्वारा एशियाई मुख्य भूमि से अलग हो गया था। हिमालय क्षेत्र और तिब्बत का बड़ा हिस्सा इस समुद्र के नीचे है। एशियाई उपमहाद्वीप में भारतीय उपमहाद्वीप के जुड़ने से महान हिमालय पर्वतमाला बनी और आज के उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में समुद्र तल को बढ़ा दिया। एक बार एशियाई मुख्य भूमि से जुड़े होने के बाद, कई प्रजातियां भारत में चली गईं। कई उथल-पुथल में हिमालय का निर्माण हुआ। सिवालिकों का गठन अंतिम था और इन श्रेणियों में तृतीयक काल के जीवाश्मों की सबसे बड़ी संख्या पाई जाती है।[23] शिवालिक के जीवाश्म में मैस्टोडॉन, दरियाई घोड़ा, गैंडा, सिवाथेरियम, बड़े चार सींग वाली जुगाली करनेवाला, जिराफ, घोड़े, ऊंट, जंगली भैंसों, हिरण, मृग, गोरिल्ला, सूअर, चिम्पांजी, आरेंगूटान, बबून्स, लंगूर, मकाक, चीतों, कृपाण दांतेदार बिल्लियों, शेर, बाघ, स्लोथ भालू, जंगली बैल, तेंदुए, भेड़िये, जंगली कुत्ता, भारतीय सेही, खरगोश और कई अन्य स्तनधारियों शामिल हैं।[23] कई जीवाश्म पेड़ की प्रजातियां इंटरट्रिपियन बेड में पाई गई हैं, [24] जिसमें यूरोकिन से ग्रेवोक्सिलीन और केरल में मध्य मियोसीन से हेरिटेरोक्सिलीन केरलेंसिस और अरुणाचल प्रदेश के एमियो-प्लियोसीन से हेरिटियरोक्सिलॉन अरुनाचलेंसिस और कई अन्य स्थानों पर हैं। भारत और अंटार्कटिका से ग्लोसोप्टेरिस फर्न जीवाश्मों की खोज ने गोंडवानालैंड की खोज की और महाद्वीपीय बहाव को अच्छी तरह से समझा जा सका। फॉसिल साइकैड्स [25] भारत से जाने जाते हैं जबकि सात साइकैड प्रजातियाँ भारत में जीवित रहती हैं। [26] [27] टाइटनोसॉरस इंडिकस संभवत: 1877 में नर्मदा घाटी में रिचर्ड लिडेकेकर द्वारा खोजा गया पहला डायनासोर था। यह क्षेत्र भारत में जीवाश्म विज्ञान के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक रहा है। भारत से जाना जाने वाला एक और डायनासोर राजासोरस नर्मदेंसिस है,[28] जो एक भारी-भरकम और कठोर मांसाहारी एबेलिसॉरिड (थेरोपॉड) डायनासोर है, जो वर्तमान नर्मदा नदी के पास के इलाके में बसा हुआ था। यह लंबाई में 9 मीटर और ऊँचाई पर 3 मीटर और खोपड़ी पर एक डबल-क्रेस्टेड मुकुट के साथ कुछ हद तक क्षैतिज था। सेनोज़ोइक युग के कुछ साँप के जीवाश्म भी पाये गये हैं।[29] कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि दक्कन लावा बहाव और उत्पादित गैसें वैश्विक रूप से डायनासोर के विलुप्त होने के लिए जिम्मेदार थीं, हालांकि यह संबंध विवादित रहा हैं।[30] [31] हिमालयिकैटस सबथ्यूनेसिस, प्रोटोकेटिडे परिवार का सबसे पुराना व्हेल जीवाश्म (ईओसीन) है, जोकि लगभग 53.5 मिलियन वर्ष पुराना और हिमालय की तलहटी में सिमला पहाड़ियों में पाया गया था। तृतीयक काल (जब भारत एशिया से अलग एक द्वीप था) के दौरान यह क्षेत्र पानी के भीतर (टेथिस समुद्र में) रहता था। यह व्हेल आंशिक रूप से भूमि पर भी रहने में सक्षम हो सकती है।[32][33] भारत के अन्य व्हेल जीवाश्म में लगभग 43-46 मिलियन वर्ष पुराने रेमिंगटनोसीटस शामिल हैं। कई छोटे स्तनधारी जीवाश्म इंटरट्रैपियन बेड में दर्ज किए गए हैं, हालांकि बड़े स्तनधारी ज्यादातर अज्ञात हैं। एकमात्र प्रमुख प्राचीन जीवाश्म म्यांमार के नजदीकी क्षेत्र से आए हैं। इन्हें भी देखें: भारत का भूविज्ञान हाल ही में विलुप्त हुए भोजन और खेल के लिए शिकार और प्रपाशन के साथ-साथ मनुष्यों द्वारा भूमि और वन संसाधनों का शोषण हाल के दिनों में भारत में कई प्रजातियों के विलुप्त होने का कारण बना है। संभवतः सिंधु घाटी सभ्यता के समय लुप्त होने वाली पहली प्रजाति जंगली मवेशियों की थी, बॉश प्रागिजियस घुमंतू या जंगली ज़ेबू, जो सिंधु घाटी और पश्चिमी भारत से विलुप्त हो गई, जिसका कारण संभवतः घरेलू मवेशियों के साथ अंतर-प्रजनन, और निवास स्थान के नुकसान के कारण जंगली आबादी का विखंडन होगा।[34] उल्लेखनीय स्तनपायी जो देश के भीतर विलुप्त हो गए या कगार पर है, उनमें भारतीय / एशियाई चीता, जावन गैंडा और सुमात्रान गैंडा शामिल हैं।[35] जबकि इन बड़ी स्तनपायी प्रजातियों में से कुछ के विलुप्त होने की पुष्टि हो गई है, कई छोटे जानवर और पौधों की प्रजातियां हैं जिनकी स्थिति निर्धारित करना कठिन है। कई प्रजातियों को उनके विवरण के बाद से नहीं देखा गया है। लिंगमबक्की जलाशय के निर्माण से पहले जॉग फॉल्स के स्प्रे ज़ोन में उगने वाली घास की एक प्रजाति हुब्बार्डिया हेप्टेन्यूरॉन को विलुप्त माना जाता था, लेकिन कुछ कोल्हापुर के पास फिर से खोजा गया।&lt;ref - दिसम्बर 2002. अभिगमन तिथि: अक्टूबर 2006.&lt;/ref&gt; पक्षियों की कुछ प्रजातियां हाल के दिनों में विलुप्त हो गई हैं, जिनमें गुलाबी सिर वाला बतख (रोडोनैसा कैरोफिलैसिया) और हिमालयन बटेर (ओफ्रीसिया सुपरसिलियोसा) शामिल हैं। हिमाचल प्रदेश के रामपुर के पास एलन ऑक्टेवियन ह्यूम द्वारा एकत्र किए गए एक एकल नमूने से पहले ज्ञात एक योद्धा, एक्रोसिफलस ऑरिनस की एक प्रजाति को थाईलैंड में 139 साल बाद फिर से खोजा गया था। इसी प्रकार, जॉर्डन के प्रांगण (राइनोप्टिलस बिटोरक्वाटस), का नाम प्राणी विज्ञानी थॉमस सी. जेरडोन के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने इसे 1848 में खोजा गया था, इसे विलुप्त होने के बाद बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के एक पक्षी विज्ञानी भारत भूषण द्वारा 1986 में फिर से खोज लिया गया था। एक अनुमान के द्वारा भारत में प्रजातिय समूहों की संख्या नीचे दी गई है। अल्फ्रेड, 1998 पर आधारित है।[36] वर्गीकरण समूहवैश्विक प्रजातियाँभारतीय प्रजातियाँ% भारत मेंप्रोटिस्टाप्रोटोजोआ3125025778.24कुल (प्रॉटिस्टा)3125025778.24एनिमालियामिस़ोजोआ711014.08पोरिफेरा456248610.65निडारिया99168428.49टिनोफोरा1001212प्लांटीहेल्मेन्थिस1750016229.27नेमेर्टिनिया600रोटिफेरा250033013.2गैस्ट्रोट्रिका30001003.33कीनोरिन्चा1001010निमेटोडा3000028509.5निमेटोमोर्फा250एकेंथोसिफेला80022928.62सिपुन्कुला1453524.14मोलस्का6653550707.62एकियूरा1274333.86एनेलिडा127008406.61ओनिकोफोरा10011आर्थोपोडा987949683896.9क्रुस्टेशिया3553429348.26इनसेक्टा853000534006.83आर्कनिडा734407.9सिंगोनिडा6002.67पौरोपोडा360चिलोपोडा30001003.33डिप्लोपोडा75001622.16सिम्फिलिया12043.33मेरोस्टोमेटा4250फोरोनिडा11327.27ब्रायोज़ोआ (एक्टोप्रोक्टा)40002005एन्डोप्रोक्टा601016.66ब्रेकियोपोडा30031पोगोनोफोरा80प्राईपुलिडिया8पेन्टास्टोमिडा70चैटोगनाथा1113027.02टार्डिग्रेडा514305.83एकिनोडर्मेटा622376512.29हेमिकोर्डेटा1201210कोर्डेटा48451495210.22प्रोटोकार्डेटा (सेफलोकार्डेटा + उरोकार्डेटा)21061195.65पिसीज़21723254611.72एम्फिबिया75333504.63रेप्टिलिया58174567.84एवीज़9026123213.66मैमिलिया46293908.42कुल (एनिमैलिया)11969038687417.25कुलयोग (प्रोटोस्टिका+एनिमैलिया)12281538713187.09 वर्गीकरण सूची और सूचकांक यह अनुभाग भारत में पाए जाने वाले विभिन्न वर्ग की प्रजातियों की सूचियों के लिंक प्रदान करता है। पशु अकशेरुकी मोलस्क भारत के गैर-समुद्री घोंघे की सूची आर्कनिडा भारत की मकड़ियाँ इन्सेक्ट (कीड़े) ओडोनेटा लेपिडोप्टेरा भारत के तितलियाँ भारत में पतंगें हिमेनोप्टेरा भारत की चींटियाँ कशेरुकी भारत की मछलियाँ भारत के उभयचर भारत के सरीसृप भारत के सांप दक्षिण एशिया के पक्षियों भारत में पक्षियों भारत के स्तनधारी इन्हें भी देखें दक्षिण एशिया के स्थानिक पक्षी भारत में विद्रोह भारतीय प्राकृतिक इतिहास भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद कर्नाटक के फ्लोरा और जीव भारतीय राज्य पक्षियों की सूची भारत के लुप्तप्राय स्तनधारी भारत की वनस्पतियां ब्रिटिश इंडिया के फाउना, जिसमें सीलोन और बर्मा शामिल हैं । भारतीय वन्यजीव ग्रेट निकोबार बायोस्फीयर रिजर्व, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, भारत अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के स्थानिक पक्षी, भारत इंडिया नेचर वॉच चेन्नई में बर्डिंग बर्डवॉचर्स बैंगलोर के फील्ड क्लब टेम्पल रीफ सन्दर्भ आगे पढ़े ; ENVIS केंद्र: वन्यजीव और संरक्षित क्षेत्र (द्वितीयक डेटाबेस); भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) , लाइफसाइक्लोपीडिया ऑफ लाइफ और कैटलॉग ऑफ लाइफ 2010 चेकलिस्ट के आंकड़ों के आधार पर। ; भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ; एनविस; CPR पर्यावरण शिक्षा केंद्र भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय के उत्कृष्टता केंद्र है। बाहरी कड़ियाँ , एक समुदाय द्वारा संचालित, भारत की जैव विविधता के दस्तावेज के लिए मीडियाविकि आधारित पहल श्रेणी:भारत के प्राणी श्रेणी:Pages with unreviewed translations
भारत में लगभग कितने पक्षियों की प्रजातियाँ हैं?
सभी पक्षियो के 12.6%
871
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आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।[1] इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। आर्यभट का जन्म-स्थान यद्यपि आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है, हालाँकि आरंभिक बौद्ध ग्रन्थ अश्माका को दक्षिण में, दक्षिणापथ या दक्खन के रूप में वर्णित करते हैं, जबकि अन्य ग्रन्थ वर्णित करते हैं कि अश्माका के लोग अलेक्जेंडर से लड़े होंगे, इस हिसाब से अश्माका को उत्तर की तरफ और आगे होना चाहिए। [2] एक ताजा अध्ययन के अनुसार आर्यभट, केरल के चाम्रवत्तम (१०उत्तर५१, ७५पूर्व४५) के निवासी थे। अध्ययन के अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था जो कि श्रवणबेलगोल के चारों तरफ फैला हुआ था और यहाँ के पत्थर के खम्बों के कारण इसका नाम अस्मका पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन बस्ती का हिस्सा था, इसका प्रमाण है भारतापुझा नदी जिसका नाम जैनों के पौराणिक राजा भारता के नाम पर रखा गया है। आर्यभट ने भी युगों को परिभाषित करते वक्त राजा भारता का जिक्र किया है- दसगीतिका के पांचवें छंद में राजा भारत के समय तक बीत चुके काल का वर्णन आता है। उन दिनों में कुसुमपुरा में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहाँ जैनों का निर्णायक प्रभाव था और आर्यभट का काम इस प्रकार कुसुमपुरा पहुँच सका और उसे पसंद भी किया गया।[3] हालाँकि ये बात काफी हद तक निश्चित है कि वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा उच्च शिक्षा के लिए गए थे और कुछ समय के लिए वहां रहे भी थे।[4] भास्कर I (६२९ ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। यह वह समय था जिसे भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, विष्णुगुप्त के पूर्व बुद्धगुप्त और कुछ छोटे राजाओं के साम्राज्य के दौरान उत्तर पूर्व में हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था। आर्यभट अपनी खगोलीय प्रणालियों के लिए सन्दर्भ के रूप में श्रीलंका का उपयोग करते थे और आर्यभटीय में अनेक अवसरों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है। कृतियाँ आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।[5] उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[6] आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं। उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं। आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I. ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार.[2] एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।[2] आर्यभटीय मुख्य लेख आर्यभटीय आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नहीं दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है: (1) गीतिकपाद: (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है। (२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु -छाया), सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है। (३) कालक्रियापाद (२५ छंद): समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं। (४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं। इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ते हैं। आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा। आर्यभट का योगदान भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'स्वर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है। उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।[ख] आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी,यह उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है। आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832: 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है। गणित स्थानीय मान प्रणाली और शून्य स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी।[7] उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।[8] हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना। [9] अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π आर्यभट ने पाई ( π {\displaystyle \pi } ) के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं: चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्। अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥ १०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। (१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६ इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।[10] आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था।[11] आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.८२० ई.) बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था।[2] क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है- त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः इसका अनुवाद यह है: किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है।[12] आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री"। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है "खोह" या "खाई" (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ "खोह" या खाई" ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।[13] अनिश्चित समीकरण प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं: वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है। अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। kuṭṭaka कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है।[14] डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया। बीजगणित आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किये हैं।[15] 1 2 + 2 2 + ⋯ + n 2 = n ( n + 1 ) ( 2 n + 1 ) 6 {\displaystyle 1^{2}+2^{2}+\cdots +n^{2}={n(n+1)(2n+1) \over 6}} और 1 3 + 2 3 + ⋯ + n 3 = ( 1 + 2 + ⋯ + n ) 2 {\displaystyle 1^{3}+2^{3}+\cdots +n^{3}=(1+2+\cdots +n)^{2}} खगोल विज्ञान आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं। सौर प्रणाली की गतियाँ प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है। अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्। अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९) जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है। अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्। लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०) "उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं। लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था। आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की। इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र। [16] पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है: चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र[2] ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है।[17] आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है।[18] ग्रहण उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।[2] आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।[19] नक्षत्रों के आवर्तकाल समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी। सूर्य केंद्रीयता आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं।[20][21] एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है "यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,".[22] हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था।[23] यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।[24] हालाँकि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिड्स(चौथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र(पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्ज़न्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है। विरासत भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).[25] आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही। आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया,[26] जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया।चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है। अंतर्विद्यालयीय आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है।[27] बैसिलस आर्यभट, इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है।[28] टिप्प्णियाँ क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम। अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०) ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9) (अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।) इन्हें भी देखें आर्यभटीय आर्यभट की संख्यापद्धति आर्यभट की ज्या सारणी भास्कराचार्य श्रीनिवास रामानुजन् आर्यभट द्वितीय सन्दर्भ अन्य सन्दर्भ CS1 maint: discouraged parameter (link) वाल्टर यूजीन क्लार्क, द Āryabhaṭīya</i>ऑफ Āryabhaṭa, गणित और खगोल विज्ञान पर एक प्राचीन भारतीय कार्य, शिकागो विश्वविद्यालय प्रेस (१९३०); पुनः प्रकाशित: केस्सिंगेर प्रकाशन (२००६), आइएसबीएन ९७८-१४२५४८५९९३. काक, सुभाष सी.(२०००)'भारतीय खगोल विज्ञान का 'जन्म और प्रारंभिक विकास' में शुक्ला, कृपा शंकर. आर्यभट: भारतीय गणितज्ञ और खगोलविद. नई दिल्ली: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, १९७६ बाहरी कड़ियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक-दीनानाथ साहनी) श्रेणी:५वीं शताब्दी के गणितज्ञ श्रेणी:६वीं शताब्दी के गणितज्ञ श्रेणी:भारतीय खगोलविद श्रेणी:भारतीय गणितज्ञ श्रेणी:मध्यकालीन खगोलविद श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
आर्यभट का जन्म कहाँ हुआ था?
कुसुमपुर
202
hindi
af30436d6
आन्द्रे अगासी का जन्म 29 अप्रैल 1970 अमेरिका देश के नेवाडा प्रदेश के लास वेगास शहर में हुआ था। वे एक नामी टेनिस खिलाड़ी हैं। भूतपूर्व नंबर एक खिलाड़ी रहे आंद्रे अगासी ने कुल ८ ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट जीते और साथ ही ओलम्पिक में स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया। वह उन पाँच खिलाड़ी में से एक हैं जिन्होंने एक वर्ष में चारों ग्रैंड स्लैम जीते हैं। वह ओपन एरा में सभी ग्रैंड स्लैम जीतने वाले एकमात्र खिलाड़ी हैं। अगासी, आन्द्रे अगासी, आन्द्रे अगासी, आन्द्रे
आन्द्रे अगासी का जन्म किस शहर में हुआ था?
लास वेगास
69
hindi
0a2966553
सूचना प्रौद्योगिकी (en:information technology) आंकड़ों की प्राप्ति, सूचना (इंफार्मेशन) संग्रह, सुरक्षा, परिवर्तन, आदान-प्रदान, अध्ययन, डिजाइन आदि कार्यों तथा इन कार्यों के निष्पादन के लिये आवश्यक कंप्यूटर हार्डवेयर एवं साफ्टवेयर अनुप्रयोगों से सम्बन्धित है। सूचना प्रौद्योगिकी कंप्यूटर पर आधारित सूचना-प्रणाली का आधार है। सूचना प्रौद्योगिकी, वर्तमान समय में वाणिज्य और व्यापार का अभिन्न अंग बन गयी है। संचार क्रान्ति के फलस्वरूप अब इलेक्ट्रानिक संचार को भी सूचना प्रौद्योगिकी का एक प्रमुख घटक माना जाने लगा है और इसे सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (Information and Communication Technology, ICT) भी कहा जाता है। एक उद्योग के तौर पर यह एक उभरता हुआ क्षेत्र है। कारक अर्धचालक प्रौद्योगिकी: इंटीग्रेट परिपथों का लघुकरण, कम्प्यूटिंग शक्ति में वृद्धि, उन्नत क्षमता युक्त एकीकृत परिपथों का विकास सूचना भण्डारण: आंकडा भण्डारण क्षमता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। नेटवर्किंग: प्रकाशीय तंतुओं (आप्टिकल फाइबर) का तकनीकी में अत्यधिक विकास होने के कारण नेटवर्किंग सस्ती, तेज और आसान हो गयी है। साफ्टवेयर तकनीकी: नित नए-नए और उपयोगी साफ्टवेयरों के आने से सूचना प्रौद्योगिकी और अधिक उपयोगी बन गयी है। सूचना प्रौद्योगिकी का महत्त्व सूचना प्रौद्योगिकी, सेवा अर्थतंत्र (Service Economy) का आधार है। पिछड़े देशों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एक सम्यक तकनीकी (appropriate technology) है। गरीब जनता को सूचना-सम्पन्न बनाकर ही निर्धनता का उन्मूलन किया जा सकता है। सूचना-संपन्नता से सशक्तिकरण (empowerment) होता है। सूचना तकनीकी, प्रशासन और सरकार में पारदर्शिता लाती है, इससे भ्रष्टाचार को कम करने में सहायता मिलती है। सूचना तकनीक का प्रयोग योजना बनाने, नीति निर्धारण तथा निर्णय लेने में होता है। यह नये रोजगारों का सृजन करती है। सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न घटक कंप्यूटर हार्डवेयर प्रौद्योगिकी इसके अन्तर्गत माइक्रो-कम्प्यूटर, सर्वर, बड़े मेनफ्रेम कम्प्यूटर के साथ-साथ इनपुट, आउटपुट एवं संग्रह (storage) करने वाली युक्तियाँ (devices) आतीं हैं। कंप्यूटर साफ्टवेयर प्रौद्योगिकी इसके अन्तर्गत प्रचालन प्रणाली (Operating System), वेब ब्राउजर, डेटाबेस प्रबन्धन प्रणाली (DBMS), सर्वर तथा व्यापारिक/वाणिज्यिक साफ्टवेयर आते हैं। दूरसंचार व नेटवर्क प्रौद्योगिकी इसके अन्तर्गत दूरसंचार के माध्यम, प्रक्रमक (Processor) तथा इंटरनेट से जुडने के लिये तार या बेतार पर आधारित साफ्टवेयर, नेटवर्क-सुरक्षा, सूचना का कूटन (क्रिप्टोग्राफी) आदि हैं। मानव संसाधन तंत्र प्रशासक (System Administrator), नेटवर्क प्रशासक (Network Administrator) आदि सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभाव सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी धरती को एक गाँव बना दिया है। इसने विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को जोड़कर एक वैश्विक अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। यह नवीन अर्थव्यवस्था अधिकाधिक रूप से सूचना के रचनात्मक व्यवस्था व वितरण पर निर्भर है। इसके कारण व्यापार और वाणिज्य में सूचना का महत्व अत्यधिक बढ गया है। इसीलिए इस अर्थव्यवस्था को सूचना अर्थव्यवस्था (Information Economy) या ज्ञान अर्थव्यवस्था (Knowledge Economy) भी कहने लगे हैं। वस्तुओं के उत्पादन (manufacturing) पर आधारित परम्परागत अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती जा रही है और सूचना पर आधारित सेवा अर्थव्यवस्था (service economy) निरन्तर आगे बढती जा रही है। सूचना क्रान्ति से समाज के सम्पूर्ण कार्यकलाप प्रभावित हुए हैं - शिक्षा (e-learning), स्वास्थ्य (e-health), व्यापार (e-commerce), प्रशासन, सरकार (e-govermance), उद्योग, अनुसंधान व विकास, संगठन, प्रचार, धर्म, आदि सब के सब क्षेत्रों में कायापलट हो गया है। आज का समाज सूचना समाज कहलाने लगा है। सूचना प्रौद्योगिकी का भविष्य सूचना के महत्व के साथ सूचना की सुरक्षा का महत्व भी बढ़ेगा। सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े कार्यों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, विशेष रूप से सूचना सुरक्षा एवं सर्वर के विशेषज्ञों की मांग बढ़ेगी। इतिहास सूचना प्रौद्योगिकी विभिन्न कालखण्डों में अपने समय की सूचना से सम्बन्धित समस्याओं (इन्पुट, प्रसंस्करण, आउटपुट, संचार आदि) को हल करने की जिम्मेदारी सम्भालती है। अतः इसके इतिहास को चार मूल कालखण्डों में बांटा जा सकता है- (१) यांत्रिक युग के पूर्व (Premechanical) (२) यांत्रिक युग (Mechanical) (३) विद्युतयांत्रिक युग (Electromechanical), तथा (४) एलेक्ट्रॉनिक युग (Electronic) भारत में सूचना प्रौद्योगिकी सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारत में सूचना प्रौद्योगिकी सूचना तंत्र अन्तरजाल सूचना अभिकलन (कम्प्युटिंग) आंकड़ा प्रसंस्करण स्वास्थ्य सूचना प्रौद्योगिकी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) सूचना प्रबंधन ज्ञान समाज संगणक विज्ञान (Computer Science) बाहरी कड़ियाँ (हिन्दी शब्द, परिभाषा एवं सचित्र व्याख्या) *
सूचना प्रौद्योगिकी किस पर आधारित सूचना-प्रणाली का आधार है?
कंप्यूटर
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मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह ५१.५ करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा १० से ३० लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है। मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं। मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है। मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जा सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं। इतिहास मलेरिया मानव को ५०,००० वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है। इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं। जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से २७०० ईसा पूर्व का मिलता है। मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था। मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन १८८० मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है। इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे १९०७ का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया। इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था। इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकंदराबाद में काम करते हुए १८९८ में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था। इस कार्य हेतु उन्हे १९०२ का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियंत्रण कार्यों मे योगदान दिया। फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने १९०० में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया। मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब १६४० इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ। परन्तु छाल से कुनैन को १८२० तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अंततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया। बीसवीं सदी के प्रारंभ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था। यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है। इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। रोग का वितरण तथा प्रभाव मलेरिया प्रतिवर्ष ४० से ९० करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे १० से ३० लाख मौतें हर साल होती हैं, जिसका अर्थ है प्रति ३० सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं, वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी १९९२ के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है। यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले २० वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है। मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपलब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है। मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।[2] मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है। तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है। वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग ८५ से ९० % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं। मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं। सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है। डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है। उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं। अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है। १९६० के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा। सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि १९९५ के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अंतर नजर आता है (१,५२६ डालर बनाम ८,२६८ डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे १९६५ से १९९० के मध्य केवल प्रतिवर्ष ०.४% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह २.४% हुई। यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष १२ अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं। कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का ४०% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से ३० से ५०% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से ५०% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[3] एड्स और तपेदिक के मुकाबले २००७ के नवंबर माह में मलेरिया के लिए दुगने से भी ज्यादा ४६.९ करोड़ डालर की सहायता राशि खर्च की गई।[4] रोग के लक्षण मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। ४ से ६ घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर ३६ से ४८ घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[5] मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है। तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है। गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है। महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है। मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है। अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं। दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ मच्छरों के लिए बहुत आकर्षक होती हैं और मलेरिया से गर्भ की मृत्यु, निम्न जन्म भार और शिशु की मृत्यु तक हो सकते हैं। मुख्यतया यह पी. फ़ैल्सीपैरम के संक्रमण से होता है, लेकिन पी. विवैक्स भी ऐसा कर सकता है। पी. विवैक्स तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है। कारक मलेरिया परजीवी मलेरिया प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस गण के चार सदस्य मनुष्यों को संक्रमित करते हैं- प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये। इनमें से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम माना जाता है, यह मलेरिया के 80 प्रतिशत मामलों और 90 प्रतिशत मृत्युओं के लिए जिम्मेदार होता है।[6] यह परजीवी पक्षियों, रेँगने वाले जीवों, बन्दरों, चिम्पांज़ियों तथा चूहों को भी संक्रमित करता है।[7] कई अन्य प्रकार के प्लास्मोडियम से भी मनुष्य में संक्रमण ज्ञात हैं किंतु पी. नाउलेसी (P. knowlesi) के अलावा यह नगण्य हैं।[8] पक्षियों में पाए जाने वाले मलेरिया से मुर्गियाँ मर सकती हैं लेकिन इससे मुर्गी-पालकों को अधिक नुकसान होता नहीं पाया गया है।[9] हवाई द्वीप समूह में जब मनुष्य के साथ यह रोग पहुँचा तो वहाँ की कई पक्षी प्रजातियाँ इससे विनष्ट हो गयीं क्योंकि इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी।[10] मच्छर मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है, जोकि मलेरिया का संक्रमण फैलाने में भी मदद करती है। एनोफ़िलीज़ गण के मच्छर सारे संसार में फैले हुए हैं। केवल मादा मच्छर खून से पोषण लेती है, अतः यह ही वाहक होती है ना कि नर। मादा मच्छर एनोफ़िलीज़ रात को ही काटती है। शाम होते ही यह शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता। यह खड़े पानी के अन्दर अंडे देती है। अंडों और उनसे निकलने वाले लारवा दोनों को पानी की अत्यंत सख्त जरुरत होती है। इसके अतिरिक्त लारवा को सांस लेने के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे-लारवा-प्यूपा और फिर वयस्क होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले अन्य भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं, लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की आवश्यकता होती है। प्लास्मोडियम का जीवन चक्र मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर बनती है। युवा मच्छर संक्रमित मानव को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (अंग्रेजी:gametocytes, गैमीटोसाइट्स) मच्छर के पेट में नर और मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (अंग्रेजी:oocytes, ऊसाइट्स) बना लेते हैं जो मच्छर की अंतड़ियों की दीवार में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते हैं और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (अंग्रेजी:sporozoites, स्पोरोज़ॉट्स) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। मच्छर फिर जब स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।[11] मानव शरीर में ये बीजाणु फिर पलकर जननाणु बनाते हैं (नीचे देखें), जो फिर आगे संक्रमण फैलाते हैं। इसके अलावा मलेरिया संक्रमित रक्त को चढ़ाने से भी फैल सकता है, लेकिन ऐसा होना बहुत असाधारण है।[12] मानव शरीर में रोग का विकास मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में प्रथम चरण और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो बीजाणु (अंग्रेजी: sporozoites, स्पोरोज़ॉइट्स) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर यकृत की कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (अंग्रेजी: merozoites, मीरोज़ॉइट्स) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त में प्रवेश कर जातें हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।[13] इससे रोग का दूसरा चरण शुरु होता है। पी. विवैक्स और पी. ओवेल के कुछ बीजाणु यकृत को ही संक्रमित करके रुक जाते हैं और सुप्ताणु (अंग्रेजी: hypnozoites, हिप्नोज़ॉइट्स) के रूप में निष्क्रिय हो जाते हैं। ये 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह कर फिर अचानक अंशाणुओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।[14] लाल रक्त कोशिका में प्रवेश करके ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते हैं। ये वलय रूप में विकसित होकर फिर भोजाणु (अंग्रेजी: trophozoites, ट्रोफ़ोज़ॉइट्स) और फिर बहुनाभिकीय शाइज़ॉण्ट (अंग्रेजी: schizont) और फिर अनेकों अंशाणु बना देते हैं। समय समय पर ये अंशाणु पोषक कोशिकाओं को तोड़कर नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। ऐसे कई चरण चलते हैं। मलेरिया में बुखार के दौरे आने का कारण होता है हजारों अंशाणुओं का एकसाथ नई लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करना। मलेरिया परजीवी अपने जीवन का लगभग सभी समय यकृत की कोशिकाओं या लाल रक्त कोशिकाओं में छुपा रहकर बिताता है, इसलिए मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बचा रह जाता है। तिल्ली में नष्ट होने से बचने के लिए पी. फैल्सीपैरम एक अन्य चाल चलता है- यह लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक चिपकाऊ प्रोटीन प्रदर्शित करा देता है जिससे संक्रमित रक्त कोशिकाएँ को छोटी रक्त वाहिकाओं में चिपक जाती हैं और तिल्ली तक पहुँच नहीं पाती हैं।[15] इस कारण रक्तधारा में केवल वलय रूप ही दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरणों में यह छोटी रक्त वाहिकाओं की सतहों में चिपका रहता है। इस चिपचिपाहट के चलते ही मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या करता है। यद्यपि संक्रमित लाल रक्त कोशिका की सतह पर प्रदर्शित प्रोटीन पीएफईएमपी1 (Plasmodium falciparum erythrocyte membrane protein 1, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम इरिथ्रोसाइट मैम्ब्रेन प्रोटीन 1) शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र का शिकार बन सकता है, ऐसा होता नहीं है क्योंकि इस प्रोटीन में विविधता बहुत ज्यादा होती है। हर परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य रूपों में ये इस प्रोटीन को प्रदर्शित कर सकते हैं। वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से एक कदम आगे रहते हैं। कुछ अंशाणु नर-मादा जननाणुओं में बदल जाते हैं और जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जाता है। यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। निदान उपचार मलेरिया के कुछ मामले आपातकालीन होते है तथा मरीज को पूर्णतया स्वस्थ होने तक निगरानी मे रखना अनिवार्य होता है, किंतु अन्य प्रकार के मलेरिया में ऐसा आवश्यक नहीं हैं, इलाज बहिरंग विभाग में किया जा सकता है। उचित इलाज होने पर मरीज बिलकुल ठीक हो जाता है। कुछ लक्षणों का उपचार सामान्य दवाओं से किया जाता है, साथ में मलेरिया-रोधी दवाएँ भी दी जाती है। ये दवाएं दो प्रकार की होती हैं- पहली जो प्रतिरोधक होती हैं और रोग होने से पहले लिए जाने पर रोग से सुरक्षा करती हैं तथा दूसरी वे जिनका रोग से संक्रमित हो जाने के बाद प्रयोग किया जाता है। अनेक दवाएँ केवल प्रतिरोध या केवल उपचार के लिए इस्तेमाल होती हैं, जबकि अन्य कई दोनों तरह से प्रयोग में लाई जा सकती हैं। कुछ दवाएँ एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाती हैं और इनका प्रयोग साथ में किया जाता है। प्रतिरोधक दवाओं का प्रयोग अक्सर सामूहिक रूप से ही किया जाता है। कुनैन पर आधारित अनेक औषधियों को मलेरिया का अच्छा उपचार समझा जाता है। इसके अतिरिक्त आर्टिमीसिनिन जैसी औषधियाँ, जो आर्टिमीसिया एन्नुआ (अंग्रेजी:Artemisia annua) नामक पौधे से तैयार की जाती है, मलेरिया के इलाज में प्रभावी पाई गई हैं। कुछ अन्य औषधियों का प्रयोग भी मलेरिया के विरुद्ध सफल हुआ है। कुछ औषधियों पर प्रयोग जारी है। दवा के चुनाव में सबसे प्रमुख कारक होता है उस क्षेत्र में मलेरिया परजीवी किन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर चुका है। अनेक दवाएँ जिनका प्रयोग पहले मलेरिया के विरुद्ध सफल समझा जाता था आजकल सफल नहीं समझा जाता क्यों कि मलेरिया के परजीवी धीरे धीरे उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर चुके हैं। होम्योपैथी में मलेरिया का उपचार उपलब्ध है, हालांकि अनेक चिकित्सकों का मानना है कि मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी का इलाज एलोपैथिक दवाओं से ही किया जाना चाहिये, क्योंकि ये वैज्ञानिक शोध पर आधारित हैं। यहाँ तक कि ब्रिटिश होमियोपैथिक एसोसिएशन की सलाह यही है कि मलेरिया के उपचार के लिए होम्योपैथी पर निर्भर नहीं करना चाहिए।[16] आयुर्वेद में मलेरिया को विषम ज्वर कहा जाता है और इसके उपचार के लिये अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि मलेरिया के आज प्रभावी उपचार उपलब्ध है, लेकिन विश्व के अनेक अविकिसित क्षेत्रों में मलेरिया पीड़ित क्षेत्रों में या तो यह मिलता नहीं हैं या इतना महंगा होता है कि आम मरीज उसका उपयोग नहीं कर पाता है। मलेरिया की दवाओं की बढ़ती माँग को देखकर अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है, जो अनेक मृत्युओं का कारण बनता है। आजकल कम्पनियाँ नई तकनीकों का प्रयोग करके इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही हैं। रोकथाम तथा नियंत्रण मलेरिया का प्रसार इन कारकों पर निर्भर करता है- मानव जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों की जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों से मनुष्यों तक प्रसार और मनुष्यों से मच्छरों तक प्रसार। इन कारकों में से किसी एक को भी बहुत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र से मलेरिया को मिटाया जा सकता है। इसीलिये मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु दवाओं के साथ-साथ मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते हैं। अनेक अनुसंधान कर्ता दावा करते हैं कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा। 1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये (वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे)। किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी और मलेरिया आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पर मौजूद है। मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। इसके अतिरिक्त मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है। मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। एनोफिलीज़ मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियंत्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है। मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: SPf66) पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस, एसएएस02ए (अंग्रेजी: RTS,S/AS02A) टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है। आशा की जाती है कि पी. फैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:एपिकॉम्प्लैक्सा श्रेणी:कीड़ों द्वारा फैलाए जाने वाले रोग श्रेणी:मलेरिया श्रेणी:रोग श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
दुनिया में सबसे पहले मलेरिया के बारे में किसने खोजा था?
चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन
3,061
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युनेस्को विश्व विरासत स्थल ऐसे खास स्थानों (जैसे वन क्षेत्र, पर्वत, झील, मरुस्थल, स्मारक, भवन, या शहर इत्यादि) को कहा जाता है, जो विश्व विरासत स्थल समिति द्वारा चयनित होते हैं; और यही समिति इन स्थलों की देखरेख युनेस्को के तत्वाधान में करती है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य विश्व के ऐसे स्थलों को चयनित एवं संरक्षित करना होता है जो विश्व संस्कृति की दृष्टि से मानवता के लिए महत्वपूर्ण हैं। कुछ खास परिस्थितियों में ऐसे स्थलों को इस समिति द्वारा आर्थिक सहायता भी दी जाती है। अब तक (2006 तक) पूरी दुनिया में लगभग 830 स्थलों को विश्व विरासत स्थल घोषित किया जा चुका है जिसमें 644 सांस्कृतिक, 24 मिले-जुले और 138 अन्य स्थल हैं। प्रत्येक विरासत स्थल उस देश विशेष की संपत्ति होती है, जिस देश में वह स्थल स्थित हो; परंतु अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का हित भी इसी में होता है कि वे आनेवाली पीढियों के लिए और मानवता के हित के लिए इनका संरक्षण करें। बल्कि पूरे विश्व समुदाय को इसके संरक्षण की जिम्मेवारी होती है। इतिहास सम्मेलन पूर्व सन 1959 में, मिस्र कि सरकार ने आस्वान बांध बनवाने का निश्चय किया। इससे प्राचीन सभ्यता के अबु सिंबल जैसे अनेक बहुमुल्य रत्नोँ के खजाने से भरी घाटी का बाढ में बह जाना निश्चित था। तब युनेस्को ने मिस्र और सूडान सरकारों से अपील करने के अलावा, इसके रक्षोपाय एक विश्वव्यापी अभियान चलाया। इससे यह तय हुआ कि अबु सिंबल और फिले मंदिर को भिन्न पाषाण टुकड़ों में अलग करके, एक ऊँचे स्थान पर ले जाकर पुनः स्थापित किया। इस परियोजना की लागत लगभग $80 मिलियन थी, जिसमें से $40 मिलियन 50 भिन्न देशों से इकठ्ठा किया गया था। इसे व्यापक तौर पर, पूर्ण सफलता माना गया था और इससे प्रेरित अनेकों और अभियान चले (जैसे वेनिस और उसके लैगून का संरक्षण इटली में, मोहन-जो-दड़ो पाकिस्तान में और इंडोनेशिया में बोरोबोदर मंदिर प्रांगण). तब युनेस्को ने अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल परिषद के साथ पहल करके, एक सम्मेलन किया, जो मानवता के सार्वजनिक साँस्कृतिक धरोहरों का संरक्षण करेगा। सम्मेलन एवं पृष्ठभूमि सर्वप्रथम संयुक्त राज्य ने सांस्कृतिक संरक्षण को प्राकृतिक संरक्षण के साथ सँयुक्त करने का सुझाव दिया। 1965 में एक व्हाइट हाउस सम्मेलन में एक “विश्व धरोहर ट्रस्ट” कि माँग उठी, जो विश्व के सर्वोत्तम प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थलों को वर्तमान पीढी और समस्त भविष्य नागरिकता हेतु संरक्षित करे”. अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने 1968 में ऐसे ही प्रस्ताव दिये और जो 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के मानविय पर्यावरण पर स्टॉकहोम, स्वीडन में सम्मेलन में प्रस्तुत हुए. सभी शामिल पार्टियों ने एक समान राय पर सहमति दी और “विश्व के प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहरों पर सम्मेलन” को युनेस्को के सामान्य सभा ने 16 नवंबर 1972 को स्वीकृति दी। नामांकन प्रक्रिया किसी भी देश को प्रथम तो अपने महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों की एक सूची बनानी होती है। इसे आजमाइशी सूची कहते हैं। यह आवश्यक है, क्योंकि वह राष्ट्र ऐसी किसी सम्पदा को नामंकित नहीं भी कर सकता है, जिसका नाम उस सूची में पहले ही सम्मिलित ना हुआ हो। दूसरे, वह इस सूची में से किसी सम्पदा को चयनित कर नामांकन फाइल में डाल सकता है। विश्व धरोहर केन्द्र इस फाइल को बनाने में सलाह देता और सहायता करता है, जो किसी भी विस्तार तक हो सकती है। इस बिंदु पर, वह फाइल स्वतंत्र रूप से दो संगठनों द्वारा आंकलित की जाती है: अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल परिषद और विश्व संरक्षण संघ. यह संस्थाएं फिर विश्व धरोहर समिति से सिफारिश करती है। समिति वर्ष में एक बार बैठती है और यह निर्णय लेती है, कि प्रत्येक नामांकित सम्पदा को विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित करना है या नहीं। कभी यह समिति अपना निर्णय सुरक्षित भी राखी सकती है, राष्ट्र पार्टी से और सूचना निवेदन करते हुए. किसी स्थल को इस सूची में सम्मिलित होने के लिये, दस मानदण्ड पार करने होते हैं। चयन मानदंड यह मानदण्ड अपनी मौलिकता रखने हेतु अभी अंग्रेजी में दिये गये हैं, सही अनुवाद उपलब्ध होने पर हिन्दी में बदल दिये जायेंगे। सन 2004 के अंत तक, सांस्कृतिक धरोहर हेतु छः मानदण्ड थे और प्राकृतिक धरोहर हेतु चार मानदण्ड थे। सन 2005 में, इसे बदल कर कुल मिलाकर दस मानदण्ड बना दिये गये। किसी भी नामांकित स्थल को न्यूनतम एक मानदण्ड तो पूरा करना ही चाहिये।[1] सांस्कृतिक मानदंड प्राकृतिक मानदंड साँख्यिकी वर्तमान में 851 विश्व धरोहर स्थल हैं, जो 142 राष्ट्र पार्टियों में स्थित हैं। इनमें से, 660 सांस्कृतिक हैं और 25 मिली जुली सम्पदाएं हैं। अधिक विस्तार से देखें तो राष्ट्र पार्टियों का वर्गीकरण पाँच भूगोलीय मण्डलों में होता है: अफ्रीका, अरब राज्य (जिसमें उत्तरी अफ्रीका और मध्य-पूर्व एशिया आते हैं), एशिया-प्रशांत (जिसमें ऑस्ट्रेलिया और ओशनिया भी आते हैं), यूरोप और उत्तरी अमरीका (विशेषतया संयुक्त रज्य और कनाडा), तथा दक्षिण अमरीका और कैरीबियन. यह ध्यान योग्य है, कि रूस और कॉकेशस राष्ट्र यूरोप और उत्तरी अमरीका मण्डल में आते हैं। युनेस्को भूगोलीय मण्डल गठन में, प्रशासन पर अधिक बल दिया गया है, बजाय उनकी भूगोलीय स्थिति के. इसी कारण से गोघ द्वीप, जो दक्षिण अटलांटिक महासागर में स्थित है, यूरोप और उत्तरी अमरीका मण्डल का भाग है, क्योंकि इसका नामांकन यूनाइटेड किंगडम ने किया था। निम्न सारणी स्थलों का विस्तार से नामांकन बताती है, उनके मण्डल और वर्गों के हिसाब से: विश्व धरोहर स्थलों की सूची अफ्रीका में विश्व धरोहर स्थलों की सूची अमरीका में विश्व धरोहर स्थलों की सूची एशिया एवं ऑस्ट्रेलेशिया में विश्व धरोहर स्थलों की सूची अरब राज्यों में विश्व धरोहर स्थलों की सूची यूरोप में विश्व धरोहर स्थलों की सूची खतरे में विश्व धरोहर स्थलों की सूची विश्व धरोहर स्थलों के समिति सत्र विश्व धरोहर समिति वर्ष में कई बार बैठती है, जिसमें वर्तमान अस्तित्व में विश्व धरोहरों के प्रबंधन के उपाय चर्चित होते हैं और साथ ही रुचिर राष्ट्रों के नामांकन भी स्वीकार कियी जाते हैं। विश्व धरोहर समिति सत्र वार्षिक होता है, जहां IUCN और/या ICOMOS द्वारा प्रस्तुत होने पर और राष्ट्र-पार्टियों से विमर्श कर के, स्थलों को आधिकारिक रूप से विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित घोषित किया जाता है। यह वार्षिक सत्र विश्व के भिन्न शहरों में से एक में हो सकता है। पैरिस, फ्रांस में हुए सत्र को छोड़कर (जहाँ युनेस्को मुख्यालय स्थित है) केवल उन राष्ट्र पार्टियों को भविष्य के सत्र की मेजबानी करनी का अधिकार है, जो इस समिति के सदस्य हैं, या उनका सदस्यता सत्र समिति के भविष्य सत्र से पहले ही समाप्त ना हो रहा हो इन्हें भी देखें भारत के विश्व धरोहर स्थल राष्ट्र पार्टियों पर आधारित विश्व धरोहर स्थलों की संरक्षण विषयों की सूची धरोहर पंजिकाओं की सूची नोट बाह्य कडि़याँ ` — आधिकारिक ब्यौरेवार वेबसाइट अंग्रेजी और फ्रेंच में — Official searchable List of all Inscribed Properties — Official KML version of the List for Google Earth and NASA Worldwind — Official 1972 Convention Text in 7 languages — Fully indexed and crosslinked with other documents — Dealing with urban sites only — World Heritage sites in panographies - 360 degree imaging — Weblog and Information on World Heritage Issues — Unofficial list with links and map of sites — Documentation of World Heritage Sites — Unofficial and incomplete World Heritage List in Google Earth () — Preserving the beauty of our planet’s natural and cultural diversity through the dynamic media of photography, film, music and other artistic expressions. श्रेणी:युनेस्को श्रेणी:धरोहर संगठन श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संगठन
विश्व धरोहर समिति का गठन किस वर्ष किया गया था?
16 नवंबर 1972
2,372
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पृथ्वी पर पाए जाने वाले तत्वों में कार्बन या प्रांगार एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस रासायनिक तत्त्व का संकेत C तथा परमाणु संख्या ६, मात्रा संख्या १२ एवं परमाणु भार १२.००० है। कार्बन के तीन प्राकृतिक समस्थानिक 6C12, 6C13 एवं 6C14 होते हैं। कार्बन के समस्थानिकों के अनुपात को मापकर प्राचीन तथा पुरातात्विक अवशेषों की आयु मापी जाती है।[1] कार्बन के परमाणुओं में कैटिनेशन नामक एक विशेष गुण पाया जाता है जिसके कारण कार्बन के बहुत से परमाणु आपस में संयोग करके एक लम्बी शृंखला का निर्माण कर लेते हैं। इसके इस गुण के कारण पृथ्वी पर कार्बनिक पदार्थों की संख्या सबसे अधिक है। यह मुक्त एवं संयुक्त दोनों ही अवस्थाओं में पाया जाता है।[2] इसके विविध गुणों वाले कई बहुरूप हैं जिनमें हीरा, ग्रेफाइट काजल, कोयला प्रमुख हैं। इसका एक अपरूप हीरा जहाँ अत्यन्त कठोर होता है वहीं दूसरा अपरूप ग्रेफाइट इतना मुलायम होता है कि इससे कागज पर निशान तक बना सकते हैं। हीरा विद्युत का कुचालक होता है एवं ग्रेफाइट सुचालक होता है। इसके सभी अपरूप सामान्य तापमान पर ठोस होते हैं एवं वायु में जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस बनाते हैं। हाइड्रोजन, हीलियम एवं आक्सीजन के बाद विश्व में सबसे अधिक पाया जाने वाला यह तत्व विभिन्न रूपों में संसार के समस्त प्राणियों एवं पेड़-पौधों में उपस्थित है। यह सभी सजीवों का एक महत्त्वपूर्ण अवयव होता है, मनुष्य के शरीर में इसकी मात्रा १८.५ प्रतिशत होती है और इसको जीवन का रासायनिक आधार कहते हैं। कार्बन शब्द लैटिन भाषा के कार्बो शब्द से आया है जिसका अर्थ कोयला या चारकोल होता है। कार्बन की खोज प्रागैतिहासिक युग में हुई थी। कार्बन तत्व का ज्ञान विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं को भी था। चीन के लोग ५००० वर्षों पहले हीरे के बारे में जानते थे और रोम के लोग लकड़ी को मिट्टी के पिरामिड से ढककर चारकोल बनाते थे। लेवोजियर ने १७७२ में अपने प्रयोगो द्वारा यह प्रमाणित किया कि हीरा कार्बन का ही एक अपरूप है एवं कोयले की ही तरह यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस उत्पन्न करता है। कार्बन का बहुत ही उपयोगी बहुरूप फुलेरेन की खोज १९९५ ई. में राइस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर इ स्मैली तथा उनके सहकर्मियों ने की। इस खोज के लिए उन्हें वर्ष १९९६ ई. का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। कार्बन के यौगिक कार्बन के असंख्य यौगिक हैं जिन्हें कार्बनिक रसायन के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं। कार्बन के अकार्बनिक यौगिक यद्यपि कार्बन के यौगिकों का वर्णन कार्बीनिक रसायन का मुख्य विषय है किन्तु अकार्बीनिक रसायन में कार्बन के आक्साइडों तथा कार्बन डाइसल्फाइड का वर्णन किया जाता है। कार्बन के आक्साइड- कार्बन के तीन आक्साइड ज्ञात हैं - (1) कार्बन मोनोक्साइड CO तथा (2) कार्बन डाइआक्साइड CO2 ये दोनों गैसें हैं और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। (3) कार्बन आक्साइड C3O3 या ट्राइकार्बन आक्साइड अरुचिकर गैस है। कार्बन डाइआक्साइड CO2- रंगहीन गंधहीन गैस जो जल के अतिरिक्त ऐसीटोन तथा एथेनाल में भी विलेय है। यह वायुमण्डल में 03% तक (आयतन के अनुसार) पाई जाती है और पौधों द्वारा प्रकाशसंश्लेषण के समय आत्मसात कर ली जाती है। इसे धातु कार्बोनेटों पर अम्ल की क्रिया द्वारा या भारी धातु कार्बोनेटों को गर्म करके प्राप्त किया जाता है। उच्च ताप पर द्रवीभूत होती है। प्रयोगशाला में संगमरमर पर HHCl की क्रिया द्वारा निर्मित CCO3 + 2HHCl - CHCl2 +H2O +CO2 इसका अणु रैखिक है अत: इसकी संरचना O =C =O है। यह दहन में सहायक नहीं है। यल में विलयित होकर कार्वोनिक अम्ल H2CO3 बनाती है। आवर्त सारणी में कार्बन व कार्बन समूह का स्थान सन्दर्भ श्रेणी:कार्बन श्रेणी:रासायनिक तत्व श्रेणी:बहुपरमाणुक अधातु श्रेणी:अधातु श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
कार्बन का परमाणु भार कितना है?
12
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शतरंज (चैस) दो खिलाड़ियों के बीच खेला जाने वाला एक बौद्धिक एवं मनोरंजक खेल है। किसी अज्ञात बुद्धि-शिरोमणि ने पाँचवीं-छठी सदी में यह खेल संसार के बुद्धिजीवियों को भेंट में दिया। समझा जाता है कि यह खेल मूलतः भारत का आविष्कार है, जिसका प्राचीन नाम था- 'चतुरंग'; जो भारत से अरब होते हुए यूरोप गया और फिर १५/१६वीं सदी में तो पूरे संसार में लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गया। इस खेल की हर चाल को लिख सकने से पूरा खेल कैसे खेला गया इसका विश्लेषण अन्य भी कर सकते हैं। शतरंज एक चौपाट (बोर्ड) के ऊपर दो व्यक्तियों के लिये बना खेल है। चौपाट के ऊपर कुल ६४ खाने या वर्ग होते है, जिसमें ३२ चौरस काले या अन्य रंग ओर ३२ चौरस सफेद या अन्य रंग के होते है। खेलने वाले दोनों खिलाड़ी भी सामान्यतः काला और सफेद कहलाते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी के पास एक राजा, वजीर, दो ऊँट, दो घोडे, दो हाथी और आठ सैनिक होते है। बीच में राजा व वजीर रहता है। बाजू में ऊँट, उसके बाजू में घोड़े ओर अंतिम कतार में दो दो हाथी रहते है। उनकी अगली रेखा में आठ पैदल या सैनिक रहते हैं। चौपाट रखते समय यह ध्यान दिया जाता है कि दोनो खिलाड़ियों के दायें तरफ का खाना सफेद होना चाहिये तथा वजीर के स्थान पर काला वजीर काले चौरस में व सफेद वजीर सफेद चौरस में होना चाहिये। खेल की शुरुआत हमेशा सफेद खिलाड़ी से की जाती है।[1] खेल की शुरुआत शतरंज सबसे पुराने व लोकप्रिय पट (बोर्ड) में से एक है, जो दो प्रतिद्वंदीयों द्वारा एक चौकोर पट (बोर्ड) पर खेला जाता है, जिसपर विशेष रूप से बने दो अलग-अलग रंगों के सामन्यात: सफ़ेद व काले मोहरे होते हैं। सफ़ेद पहले चलता है, जिसके बाद खेलाडी निर्धारित नियमों के अनुसार एक के बाद एक चालें चलते हैं। इसके बाद खिलाड़ी विपक्षी के प्रमुख मोहरें, राजा को शाह-मात (एक ऐसी अवस्था, जिसमें पराजय से बचना असंभव हो) देने का प्रयास कराते हैं। शतरंज 64 खानों के पट या शतरंजी पर खेला जाता है, जो रैंक (दर्जा) कहलाने वाली आठ अनुलंब पंक्तियों व फाइल (कतार) कहलाने वाली आठ आड़ी पंक्तियों में व्यवस्थित होता है। ये खाने दो रंगों, एक हल्का, जैसे सफ़ेद, मटमैला, पीला और दूसरा गहरा, जैसे काला, या हरा से एक के बाद दूसरे की स्थिति में बने होते हैं। पट्ट दो प्रतिस्पर्धियों के बीच इस प्रकार रखा जाता है कि प्रत्येक खिलाड़ी की ओर दाहिने हाथ के कोने पर हल्के रंग वाला खाना हो। सफ़ेद हमेशा पहले चलता है। इस प्रारंभिक कदम के बाद, खिलाड़ी बारी बारी से एक बार में केवल एक चाल चलते हैं (सिवाय जब "केस्लिंग" में दो टुकड़े चले जाते हैं)। चाल चल कर या तो एक खाली वर्ग में जाते हैं या एक विरोधी के मोहरे वाले स्थान पर कब्जा करते हैं और उसे खेल से हटा देते हैं। खिलाड़ी कोई भी ऐसी चाल नहीं चल सकते जिससे उनका राजा हमले में आ जाये। यदि खिलाड़ी के पास कोई वैध चाल नहीं बची है, तो खेल खत्म हो गया है; यह या तो एक मात है - यदि राजा हमले में है - या एक गतिरोध या शह - यदि राजा हमले में नहीं है।  हर शतरंज का टुकड़ा बढ़ने की अपनी शैली है।[2]   वर्गों की पहचान बिसात का प्रत्येक वर्ग एक अक्षर और एक संख्या के एक विशिष्ट युग्म द्वारा पहचाना जाता है। खड़ी पंक्तियों|पंक्तियों (फाइल्स) को सफेद के बाएं (अर्थात वज़ीर/रानी वाला हिस्सा) से सफेद के दाएं ए (a) से लेकर एच (h) तक के अक्षर से सूचित किया जाता है। इसी प्रकार क्षैतिज पंक्तियों (रैंक्स) को बिसात के निकटतम सफेद हिस्से से शुरू कर 1 से लेकर 8 की संख्या से निरूपित करते हैं। इसके बाद बिसात का प्रत्येक वर्ग अपने फाइल अक्षर तथा रैंक संख्या द्वारा विशिष्ट रूप से पहचाना जाता है। सफेद बादशाह, उदाहरण के लिए, खेल की शुरुआत में ई1 (e1) वर्ग में रहेगा. बी8 (b8) वर्ग में स्थित काला घोड़ा पहली चाल में ए6 (a6) अथवा सी6 (c6) पर पहुंचेगा. प्यादा या सैनिक खेल की शुरुआत सफेद खिलाड़ी से की जाती है। सामान्यतः वह वजीर या राजा के आगे रखे गया पैदल या सैनिक को दो चौरस आगे चलता है। प्यादा (सैनिक) तुरंत अपने सामने के खाली वर्ग पर आगे चल सकता है या अपना पहला कदम यह दो वर्ग चल सकता है यदि दोनों वर्ग खाली हैं। यदि प्रतिद्वंद्वी का टुकड़ा विकर्ण की तरह इसके सामने एक आसन्न पंक्ति पर है तो प्यादा उस टुकड़े पर कब्जा कर सकता है। प्यादा दो विशेष चाल, "एन पासांत" और "पदोन्नति-चाल " भी चल सकता है। हिन्दी में एक पुरानी कहावत पैदल की इसी विशेष चाल पर बनी है- " प्यादा से फर्जी भयो, टेढो-टेढो जाय !"[3] राजा राजा किसी भी दिशा में एक खाने में जा सकता है, राजा एक विशेष चाल भी चल सकता है जो "केस्लिंग"  कही  जाती है और इसमें हाथी भी शामिल है। अगर राजा को चलने बाध्य किया और किसी भी तरफ चल नहीं सकता तो मान लीजिये कि खेल समाप्त हो गया। नहीं चल सकने वाले राजा को खिलाड़ी हाथ में लेकर बोलता है- 'मात' या 'मैं हार स्वीकार करता हूँ'। वजीर या रानी वज़ीर (रानी) हाथी और ऊंट की शक्ति को जोड़ता है और ऊपर-नीचे, दायें-बाएँ तथा टेढ़ा कितने भी वर्ग जा सकता है, लेकिन यह अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं लगा सकता है। मान लीजिए पैदल सैनिक का एक अंक है तो वजीर का ९ अंक है। ऊंट केवल अपने रंग वाले चौरस में चल सकता है। याने काला ऊँट काले चौरस में ओर सफेद ऊंट सफेद चौरस में। सैनिक के हिसाब से इसका तीन अंक है।  ऊंट किसी भी दिशा में टेढ़ा कितने भी वर्ग चल सकता है, लेकिन अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं सकता है। घोड़ा घोड़ा "L" प्रकार की चाल या डाई घर चलता है जिसका आकार दो वर्ग लंबा है और एक वर्ग चौड़ा होता है। घोड़ा ही एक टुकड़ा है जो दूसरे टुकड़ो पर छलांग लगा सकता है। सैनिक के हिसाब से इसका तीन अंक है। हाथी हाथी किसी भी पंक्ति में दायें बाएँ या ऊपर नीचे कितने भी वर्ग सीधा चल सकता है, लेकिन अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं लगा सकता। राजा के साथ, हाथी भी राजा के "केस्लिंग" ; के दौरान शामिल है। इसका सैनिक के हिसाब से पांच अंक है। अंत कैसे होता है? अपनी बारी आने पर अगर खिलाड़ी के पास चाल के लिये कोई चारा नहीं है तो वह अपनी 'मात' या हार स्वीकार कर लेता है। कैसलिंग कैसलिंग के अंतर्गत बादशाह को किश्ती की ओर दो वर्ग बढ़ाकर और किश्ती को बादशाह के दूसरी ओर उसके ठीक बगल में रखकर किया जाता है।[4] कैसलिंग केवल तभी किया जा सकता है जब निम्नलिखित शर्तें पूरी हों: बादशाह तथा कैसलिंग में शामिल किश्ती की यह पहली चाल होनी चाहिए; बादशाह तथा किश्ती के बीच कोई मोहरा नहीं होना चाहिए; बादशाह को इस दौरान कोई शह नहीं पड़ा होना चाहिए न ही वे वर्ग दुश्मन मोहरे के हमले की जद में होने चाहिए, जिनसे होकर कैसलिंग के दौरान बादशाह को गुजरना है अथवा जिस वर्ग में अंतत: उसे पहुंचना है (यद्यपि किश्ती के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है); बादशाह और किश्ती को एक ही क्षैतिज पंक्ति (रैंक) में होना चाहिए.[5] अंपैसां यदि खिलाड़ी ए (A) का प्यादा दो वर्ग आगे बढ़ता है और खिलाड़ी बी (B) का प्यादा संबंधित खड़ी पंक्ति में 5वीं क्षैतिज पंक्ति में है तो बी (B) का प्यादा ए (A) के प्यादे को, उसके केवल एक वर्ग चलने पर काट सकता है। काटने की यह क्रिया केवल इसके ठीक बाद वाली चाल में की जा सकती है। इस उदाहरण में यदि सफेद प्यादा ए2 (a2) से ए4 (a4) तक आता है, तो बी4 (b4) पर स्थित काला प्यादा इसे अंपैसां विधि से काट कर ए3 (a3) पर पहुंचेगा. समय की सीमा आकस्मिक खेल आम तौर पर 10 से 60 मिनट, टूर्नामेंट खेल दस मिनट से छह घंटे या अधिक समय के लिए। भारत में शतरंज यह भी देखें, चतुरंग शतरंज छठी शताब्दी के आसपास भारत से मध्य-पूर्व व यूरोप में फैला, जहां यह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया है। ऐसा कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं है कि शतरंज छट्ठी शताब्दी के पूर्व आधुनुक खेल के समान किसी रूप में विद्यमान था। रूस, चीन, भारत, मध्य एशिया, पाकिस्तान और स्थानों पर पाये गए मोहरे, जो इससे पुराने समय के बताए गए हैं, अब पहले के कुछ मिलते-जुलते पट्ट खेलों के माने जाते हैं, जो बहुधा पासों और कभी-कभी 100 या अधिक चौखानों वाले पट्ट का प्रयोग कराते थे। शतरंज उन प्रारम्भिक खेलों में से एक है, जो चार खिलाड़ियों वाले चतुरंग नामक युद्ध खेल के रूप में विकसित हुआ और यह भारतीय महाकाव्य महाभारत में उल्लिखित एक युद्ध व्यूह रचना का संस्कृत नाम है। चतुरंग सातवीं शताब्दी के लगभग पश्चिमोत्तर भारत में फल-फूल रहा था। इसे आधुनिक शतरंज का प्राचीनतम पूर्वगामी माना जाता है, क्योंकि इसमें बाद के शतरंज के सभी रूपों में पायी जाने वाली दो प्रमुख विशेषताएँ थी, विभिन्न मोहरों की शक्ति का अलग-अलग होना और जीत का एक मोहरे, यानि आधुनिक शतरंज के राजा पर निर्भर होना। रुद्रट विरचित काव्यालंकार में एक श्लोक आया है जिसे शतरंज के इतिहासकार भारत में शतरंज के खेल का सबसे पुराना उल्लेख तथा 'घोड़ की चाल' (knight's tour) का सबसे पुराना उदाहरण मानते हैं- सेना लीलीलीना नाली लीनाना नानालीलीली। नालीनालीले नालीना लीलीली नानानानाली ॥ १५ ॥ चतुरंग का विकास कैसे हुआ, यह स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि चतुरंग, जो शायद 64 चौखानों के पट्ट पर खोला जाता था, क्रमश: शतरंज (अथवा चतरंग) में परिवर्तित हो गया, जो उत्तरी भारत,पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के दक्षिण भागों में 600 ई के पश्चात लोकप्रिय दो खिलाड़ियों वाला खेल था। एक समय में उच्च वर्गों द्वारा स्वीकार्य एक बौद्धिक मनोरंजन शतरंज के प्रति रुचि में 20 वीं शताब्दी में बहुत बृद्धि हुयी। विश्व भर में इस खेल का नियंत्रण फेडरेशन इन्टरनेशनल दि एचेस (फिडे) द्वारा किया जाता है। सभी प्रतियोगिताएं फीडे के क्षेत्राधिकार में है और खिलाड़ियों को संगठन द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार क्रम दिया जाता है, यह एक खास स्तर की उत्कृष्टता प्राप्त करने वाले खिलाड़ियों को "ग्रैंडमास्टर" की उपाधि देता है। भारत में इस खेल का नियंत्रण अखिल भारतीय शतरंज महासंघ द्वारा किया जाता है, जो 1951 में स्थापित किया गया था।[6] भारतीय विश्व खिलाड़ी भारत के पहले प्रमुख खिलाड़ी मीर सुल्तान खान ने इस खेल के अंतराष्ट्रीय स्वरूप को वयस्क होने के बाद ही सीखा, 1928 में 9 में से 8.5 अंक बनाकर उन्होने अखिल भारतीय प्रतियोगिता जीती। अगले पाँच वर्षों में सुल्तान खान ने तीन बार ब्रिटिश प्रतियोगिता जीती और अंतराष्ट्रीय शतरंज के शिखर के नजदीक पहुंचे। उन्होने हेस्टिंग्स प्रतियोगिता में क्यूबा के पूर्व विश्व विजेता जोस राऊल कापाब्लइंका को हराया और भविष्य के विजेता मैक्स यूब और उस समय के कई अन्य शक्तिशाली ग्रैंडमास्टरों पर भी विजय पायी। अपने बोलबाले की अवधि में उन्हें विश्व के 10 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक माना जाता था। सुल्तान ब्रिटिश दल के लिए 1930 (हैंबर्ग), 1931 (प्राग) और 1933 (फोकस्टोन) ओलंपियाड में भी खेले। मैनुएल एरोन ने 1961 में एशियाई स्पारद्धा जीती, जिससे उन्हें अंतर्र्श्तृय मास्टर का दर्जा मिला और वे भारत के प्रथम आधिकारिक शतरंज खिताबधारी व इस खेल के पहले अर्जुन पुरस्कार विजेता बने। 1979 में बी. रविकुमार तेहरान में एशियाई जूनियर स्पारद्धा जीतकर भारत के दूसरे अंतर्र्श्तृय मास्टर बने। इंग्लैंड में 1982 की लायड्स बैंक शतरंज स्पर्धा में प्रवेश करने वाले 17 वर्षीय दिव्येंदु बरुआ ने विश्व के द्वितीय क्रम के खिलाड़ी विक्टर कोर्च्नोई पर सनसनीखेज जीत हासिल की। विश्वनाथन आनंद के विश्व के सर्वोच्च खिलाड़ियों में से एक के रूप में उदय होने के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी उपलब्धियां हासिल की। 1987 में विश्व जूनियर स्पर्धा जीतकर वह शतरंज के पहले भारतीय विश्व विजेता बने। इसके बाद उन्होने विश्व के अधिकांश प्रमुख खिताब जीते, किन्तु विश्व विजेता का खिताब हाथ नहीं आ पाया। 1987 में आनंद भारत के पहले ग्रैंड मास्टर बने। आनंद को 1999 में फीडे अनुक्रम में विश्व विजेता गैरी कास्पारोव के बाद दूसरा क्रम दिया गया था। विश्वनाथन आनंद पांच बार (2000, 2007, 2008, 2010 और 2012 में) विश्व चैंपियन रहे हैं।[7][8] इसके पश्चात भारत में और भी ग्रैंडमास्टर हुये हैं, 1991 में दिव्येंदु बरुआ और 1997 में प्रवीण थिप्से, अन्य भारतीय विश्व विजेताओं में पी. हरिकृष्ण व महिला खिलाड़ी कोनेरु हम्पी और आरती रमास्वामी हैं। ग्रैंडमास्टर विश्वनाथन आनंद को 1998 और 1999 में प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। आनंद को 1985 में प्राप्त अर्जुन पुरस्कार के अलावा, 1988 में पद्म श्री व 1996 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार मिला। सुब्बारमान विजयलक्ष्मी व कृष्णन शशिकिरण को भी फीडे अनुक्रम में स्थान मिला है।[9] विश्व के कुछ प्रमुख खिलाड़ी गैरी कास्पारोव विश्वनाथन आनंद व्लादिमीर क्रैमनिक कोनेरु हम्पी नन्दिता बी मैग्नस कार्लसन आधुनिक कम्प्यूटर के प्रोग्राम (१) चेसमास्टर (२) फ्रिट्ज अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ - International Correspondence Chess Federation] समाचार सन्दर्भ इन्हें भी देखें चतुरंग बाहरी कड़ियाँ - online chess database and community - online database - chess and mathematics - chess and art श्रेणी:खेल श्रेणी:शतरंज
किस देश ने शतरंज के गेम का अविष्कार किया था?
भारत
206
hindi
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यह सूची भारतीय राष्ट्रीय चिन्हों की है। राष्‍ट्रीय ध्‍वज राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में समान अनुपात में तीन क्षैतिज पट्टियां हैं: गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर, सफेद बीच में और हरा रंग सबसे नीचे है। ध्वज की लंबाई-चौड़ाई का अनुपात 3:2 है। सफेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्र है। शीर्ष में गहरा केसरिया रंग देश की ताकत और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का संकेत है। हरा रंग देश के शुभ, विकास और उर्वरता को दर्शाता है। इसका प्रारूप सारनाथ में अशोक के सिंह स्तंभ पर बने चक्र से लिया गया है। इसका व्यास सफेद पट्टी की चौड़ाई के लगभग बराबर है और इसमें 24 तीलियां हैं। राष्ट्रीय ध्वज श्री पिंगली वेंकैया जी ने डिजाइन किया था।भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप 22 जुलाई 1947 को अपनाया। राष्ट्रभाषा भारत की कोई भी घोषित राष्ट्रभाषा नहीं है।[1][2][3] भारत सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है तथा राज्य सरकारें अपनी आधिकारिक भाषा चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। केंद्र सरकार ने अपने कार्यों के लिए हिन्दी[4] और अंग्रेजी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। राष्‍ट्रीय पक्षी भारतीय मोर, पावों क्रिस्‍तातुस, भारत का राष्‍ट्रीय पक्षी एक रंगीन, हंस के आकार का पक्षी पंखे आकृति की पंखों की कलगी, आँख के नीचे सफेद धब्‍बा और लंबी पतली गर्दन। इस प्रजाति का नर मादा से अधिक रंगीन होता है जिसका चमकीला नीला सीना और गर्दन होती है और अति मनमोहक कांस्‍य हरा 200 लम्‍बे पंखों का गुच्‍छा होता है। मादा भूरे रंग की होती है, नर से थोड़ा छोटा और इसमें पंखों का गुच्‍छा नहीं होता है। नर का दरबारी नाच पंखों को घुमाना और पंखों को संवारना सुंदर दृश्‍य होता है। [5] राष्‍ट्रीय पुष्‍प कमल (निलम्‍बो नूसीपेरा गेर्टन) भारत का राष्‍ट्रीय फूल है। यह पवित्र पुष्‍प है और इसका प्राचीन भारत की कला और गाथाओं में विशेष स्‍थान है और यह अति प्राचीन काल से भारतीय संस्‍कृति का मांगलिक प्रतीक रहा है।[6] भारत पेड़ पौधों से भरा है। वर्तमान में उपलब्‍ध डाटा वनस्‍पति विविधता में इसका विश्‍व में दसवां और एशिया में चौथा स्‍थान है। अब तक 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया गया उसमें से भारत के वनस्‍पति सर्वेक्षण द्वारा 47,000 वनस्‍पति की प्रजातियों का वर्णन किया गया है। राष्‍ट्रीय पेड़ भारतीय बरगद का पेड़ फाइकस बैंगा‍लेंसिस, जिसकी शाखाएं और जड़ें एक बड़े हिस्‍से में एक नए पेड़ के समान लगने लगती हैं। जड़ों से और अधिक तने और शाखाएं बनती हैं। इस विशेषता और लंबे जीवन के कारण इस पेड़ को अनश्‍वर माना जाता है और यह भारत के इतिहास और लोक कथाओं का एक अविभाज्‍य अंग है। आज भी बरगद के पेड़ को ग्रामीण जीवन का केंद्र बिन्‍दु माना जाता है और गांव की परिषद इसी पेड़ की छाया में बैठक करती है।[7] राष्‍ट्र–गान भारत का राष्‍ट्र गान अनेक अवसरों पर बजाया या गाया जाता है। राष्‍ट्र गान के सही संस्‍करण के बारे में समय समय पर अनुदेश जारी किए गए हैं, इनमें वे अवसर जिन पर इसे बजाया या गाया जाना चाहिए और इन अवसरों पर उचित गौरव का पालन करने के लिए राष्‍ट्र गान को सम्‍मान देने की आवश्‍यकता के बारे में बताया जाता है। सामान्‍य सूचना और मार्गदर्शन के लिए इस सूचना पत्र में इन अनुदेशों का सारांश निहित किया गया है।[8] राष्‍ट्र गान - पूर्ण और संक्षिप्‍त संस्‍करण स्‍वर्गीय कवि रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा "जन गण मन" के नाम से प्रख्‍यात शब्‍दों और संगीत की रचना भारत का राष्‍ट्र गान है। इसे इस प्रकार पढ़ा जाए: जन-गण-मन अधिनायक, जय हे भारत-भाग्‍य-विधाता, पंजाब-सिंधु गुजरात-मराठा, द्रविड़-उत्‍कल बंग, विन्‍ध्‍य-हिमाचल-यमुना गंगा, उच्‍छल-जलधि-तरंग, तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे, गाहे तव जय गाथा, जन-गण-मंगल दायक जय हे भारत-भाग्‍य-विधाता जय हे, जय हे, जय हे जय जय जय जय हे। उपरोक्‍त राष्‍ट्र गान का पूर्ण संस्‍करण है और इसकी कुल अवधि लगभग 52 सेकंड है। राष्‍ट्रीय नदी गंगा[9] भारत की सबसे लंबी नदी है जो पर्वतों, घाटियों और मैदानों में 2,510 किलो मीटर की दूरी तय करती है। यह हिमालय के गंगोत्री ग्‍लेशियर में भागीरथी नदी के नाम से बर्फ के पहाड़ों के बीच जन्‍म लेती है। इसमें आगे चलकर अन्‍य नदियां जुड़ती हैं, जैसे कि अलकनंदा, यमुना, सोन, गोमती, कोसी और घाघरा। गंगा नदी का बेसिन विश्‍व के सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र के रूप में जाना जाता है और यहां सबसे अधिक घनी आबादी निवास करती है तथा यह लगभग 1,000,000 वर्ग किलो मीटर में फैला हिस्‍सा है। नदी पर दो बांध बनाए गए हैं - एक हरिद्वार में और दूसरा फरक्‍का में। गंगा नदी में पाई जाने वाली डॉलफिन एक संकटापन्‍न जंतु है, जो विशिष्‍ट रूप से इसी नदी में वास करती है। गंगा नदी को हिन्‍दु समुदाय में पृथ्‍वी की सबसे अधिक पवित्र नदी माना जाता है। मुख्‍य धार्मिक आयोजन नदी के किनारे स्थित शहरों में किए जाते हैं जैसे वाराणसी, हरिद्वार और इलाहाबाद। गंगा नदी बंगलादेश के सुंदर वन द्वीप में गंगा डेल्‍टा पर आकर व्‍यापक हो जाती है और इसके बाद बंगाल की खाड़ी में मिलकर इसकी यात्रा पूरी होती है। राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चिह्न भारत का राजकीय प्रतीक है। इसको सारनाथ में मिली अशोक लाट से लिया गया है। मूल रूप इसमें चार शेर हैं जो चारों दिशाओं की ओर मुंह किए खड़े हैं। इसके नीचे एक गोल आधार है जिस पर एक हाथी के एक दौड़ता घोड़ा, एक सांड़ और एक सिंह बने हैं। ये गोलाकार आधार खिले हुए उल्टे लटके कमल के रूप में है। हर पशु के बीच में एक धर्म चक्र बना हुआ है। राष्‍ट्र के प्रतीक में जिसे २६ जनवरी १९५० में भारत सरकार द्वारा अपनाया गया था केवल तीन सिंह दिखाई देते हैं और चौथा छिपा हुआ है, दिखाई नहीं देता है। चक्र केंद्र में दिखाई देता है, सांड दाहिनी ओर और घोड़ा बायीं ओर और अन्‍य चक्र की बाहरी रेखा बिल्‍कुल दाहिने और बाई छोर पर। घंटी के आकार का कमल छोड़ दिया जाता है। प्रतीक के नीचे सत्यमेव जयते देवनागरी लिपि में अंकित है। शब्‍द सत्‍यमेव जयते शब्द मुंडकोपनिषद से लिए गए हैं, जिसका अर्थ है केवल सच्‍चाई की विजय होती है। राष्‍ट्रीय जलीय जीव मीठे पानी की डॉलफिन [10] भारत का राष्‍ट्रीय जलीय जीव है। यह स्‍तनधारी जंतु पवित्र गंगा की शुद्धता को भी प्रकट करता है, क्‍योंकि यह केवल शुद्ध और मीठे पानी में ही जीवित रह सकता है। प्‍लेटेनिस्‍टा गेंगेटिका नामक यह मछली लंबे नोकदार मुंह वाली होती है और इसके ऊपरी तथा निचले जबड़ों में दांत भी दिखाई देते हैं। इनकी आंखें लेंस रहित होती हैं और इसलिए ये केवल प्रकाश की दिशा का पता लगाने के साधन के रूप में कार्य करती हैं। डॉलफिन मछलियां सबस्‍ट्रेट की दिशा में एक पख के साथ तैरती हैं और श्रिम्‍प तथा छोटी मछलियों को निगलने के लिए गहराई में जाती हैं। डॉलफिन मछलियों का शरीर मोटी त्‍वचा और हल्‍के भूरे-स्‍लेटी त्‍वचा शल्‍कों से ढका होता है और कभी कभार इसमें गुलाबी रंग की आभा दिखाई देती है। इसके पख बड़े और पृष्‍ठ दिशा का पख तिकोना और कम विकसित होता है। इस स्‍तनधारी जंतु का माथा होता है जो सीधा खड़ा होता है और इसकी आंखें छोटी छोटी होती है। नदी में रहने वाली डॉलफिन मछलियां एकल रचनाएं है और मादा मछली नर मछली से बड़ी होती है। इन्‍हें स्‍थानीय तौर पर सुसु कहा जाता है क्‍योंकि यह सांस लेते समय ऐसी ही आवाज निकालती है। इस प्रजाति को भारत, नेपाल, भूटान और बंगलादेश की गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र नदियों में तथा बंगलादेश की कर्णफूली नदी में देखा जा सकता है। नदी में पाई जाने वाली डॉलफिन भारत की एक महत्‍वपूर्ण संकटापन्‍न प्रजाति है और इसलिए इसे वन्‍य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में शामिल किया गया है। इस प्रजाति की संख्‍या में गिरावट के मुख्‍य कारण हैं अवैध शिकार और नदी के घटते प्रवाह, भारी तलछट, बेराज के निर्माण के कारण इनके अधिवास में गिरावट आती है और इस प्रजाति के लिए प्रवास में बाधा पैदा करते हैं। राजकीय प्रतीक भारत का राजचिन्ह,[11] सारनाथ स्थित अशोक के सिंह स्तंभ की अनुकृति है, जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। मूल स्तंभ में शीर्ष पर चार सिंह हैं, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं। इसके नीचे घंटे के आकार के पदम के ऊपर एक चित्र वल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक सांड तथा एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियां हैं, इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काट कर बनाए गए इस सिंह स्तंभ के ऊपर 'धर्मचक्र' रखा हुआ है। भारत सरकार ने यह चिन्ह 26 जनवरी 1950 को अपनाया। इसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा दिखाई नहीं देता। पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं तथा बाएं छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे हैं। आधार का पदम छोड़ दिया गया है। फलक के नीचे मुण्डकोपनिषद का सूत्र 'सत्यमेव जयते' देवनागरी लिपि में अंकित है, जिसका अर्थ है- 'सत्य की ही विजय होती है'। राष्‍ट्रीय पंचांग राष्‍ट्रीय कैलेंडर शक संवत[12] पर आधारित है, चैत्र इसका माह होता है और ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ साथ 22 मार्च 1957 से सामान्‍यत: 365 दिन निम्‍नलिखित सरकारी प्रयोजनों के लिए अपनाया गया: भारत का राजपत्र, आकाशवाणी द्वारा समाचार प्रसारण, भारत सरकार द्वारा जारी कैलेंडर और लोक सदस्‍यों को संबोधित सरकारी सूचनाएं राष्‍ट्रीय कैलेंडर ग्रेगोरियम कैलेंडर की तिथियों से स्‍थायी रूप से मिलती-जुलती है। सामान्‍यत: 1 चैत्र 22 मार्च को होता है और लीप वर्ष में 21 मार्च को। राष्‍ट्रीय पशु राजसी बाघ[13], तेंदुआ टाइग्रिस धारीदार जानवर है। इसकी मोटी पीली लोमचर्म का कोट होता है जिस पर गहरी धारीदार पट्टियां होती हैं। लावण्‍यता, ताकत, फुर्तीलापन और अपार शक्ति के कारण बाघ को भारत के राष्‍ट्रीय जानवर के रूप में गौरवान्वित किया है। ज्ञात आठ किस्‍मों की प्रजाति में से शाही बंगाल टाइगर (बाघ) उत्‍तर पूर्वी क्षेत्रों को छोड़कर देश भर में पाया जाता है और पड़ोसी देशों में भी पाया जाता है, जैसे नेपाल, भूटान और बांग्‍लादेश। भारत में बाघों की घटती जनसंख्‍या की जांच करने के लिए अप्रैल 1973 में प्रोजेक्‍ट टाइगर (बाघ परियोजना) शुरू की गई। अब तक इस परियोजना के अधीन 27 बाघ के आरक्षित क्षेत्रों की स्‍थापना की गई है जिनमें 37, 761 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र शामिल है। राष्‍ट्रीय गीत वन्‍दे मातरम गीत [14] बंकिम चन्‍द्र चटर्जी द्वारा संस्‍कृत में रचा गया है; यह स्‍वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। इसका स्‍थान जन गण मन के बराबर है। इसे पहली बार 1896 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के सत्र में गाया गया था। 24 जनवरी 1950 को इस गीत को मान्यता प्रदान की गयी थी। इसका पहला अंतरा इस प्रकार है: वंदे मातरम्, वंदे मातरम्! सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्यश्यामलाम्, मातरम्! वंदे मातरम्! शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्, सुखदाम् वरदाम्, मातरम्! वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥ राष्‍ट्रीय फल एक गूदे दार फल, जिसे पकाकर खाया जाता है या कच्‍चा होने पर इसे अचार आदि में इस्‍तेमाल किया जाता है, यह मेग्‍नीफेरा इंडिका का फल अर्थात आम [15] है जो उष्‍ण कटिबंधी हिस्‍से का सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण और व्‍यापक रूप से उगाया जाने वाला फल है। इसका रसदार फल विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है। भारत में विभिन्‍न आकारों, मापों और रंगों के आमों की 100 से अधिक किस्‍में पाई जाती हैं। आम को अनंत समय से भारत में उगाया जाता रहा है। कवि कालीदास ने इसकी प्रशंसा में गीत लिखे हैं। अलेक्‍सेंडर ने इसका स्‍वाद चखा है और साथ ही चीनी धर्म यात्री व्‍हेन सांग ने भी। मुगल बादशाह अकबर ने बिहार के दरभंगा में 1,00,000 से अधिक आम के पौधे रोपे थे, जिसे अब लाखी बाग के नाम से जाना जाता है। राष्‍ट्रीय खेल जब हॉकी[16] के खेल की बात आती है तो भारत ने हमेशा विजय पाई है। हमारे देश के पास आठ ओलम्पिक स्‍वर्ण पदकों का उत्‍कृष्‍ट रिकॉर्ड है। भारतीय हॉकी का स्‍वर्णिम युग 1928-56 तक था जब भारतीय हॉकी दल ने लगातार 6 ओलम्पिक स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त किए। भारतीय हॉकी दल ने 1975 में विश्‍व कप जीतने के अलावा दो अन्‍य पदक (रजत और कांस्‍य) भी जीते। अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्ट्रीय हॉकी संघ (एफआईएच) की सदस्‍यता प्राप्‍त की। इस प्रकार भारतीय हॉकी संघ के इतिहास की शुरूआत ओलम्पिक में अपनी स्‍वर्ण गाथा आरंभ करने के लिए की गई। इस दौरे में भारत ने 21 मैचों में से 18 मैच जीते और प्रख्‍यात खिलाड़ी ध्‍यानचंद सभी की आंखों में बस गए जब भारत के कुल 192 गोलों में से 100 गोल उन्‍होंने अकेले किए। यह मैच एमस्‍टर्डम में 1928 में हुआ और भारत लगातार लॉस एंजेलस में 1932 के दौरान तथा बर्लिन में 1936 के दौरान जीतता गया और इस प्रकार उसने ओलम्पिक में स्‍वर्ण पदकों की हैटट्रिक प्राप्‍त की। स्‍वतंत्रता के बाद भारतीय दल ने एक बार फिर 1948 लंदन ओलम्पिक, 1952 हेलसिंकी गेम तथा मेलबॉर्न ओलम्पिक में स्‍वर्ण पदक जीत कर है‍टट्रिक प्राप्‍त की। इस स्‍वर्ण युग के दौरान भारत ने 24 ओलम्पिक मैच खेले और सभी 24 मैचों में जीत कर 178 गोल बनाए (प्रति मैच औसतन 7.43 गोल) तथा केवल 7 गोल छोड़े। भारत को 1964 टोकियो ओलम्पिक और 1980 मॉस्‍को ओलम्पिक में दो अन्‍य स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त हुए। मुद्रा चिन्ह भारतीय रुपए का प्रतीक चिन्ह [17] अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदान-प्रदान तथा आर्थिक संबलता को परिलक्षित कर रहा है। रुपए का चिन्ह भारत के लोकाचार का भी एक रूपक है। रुपए का यह नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के अक्षर 'आर (R)' को मिला कर बना है, जिसमें एक क्षैतिज रेखा भी बनी हुई है। यह रेखा हमारे राष्ट्रध्वज तथा बराबर (=) के चिन्ह को प्रतिबिंबित करती है। भारत सरकार ने 15 जुलाई 2010 को इस चिन्ह को स्वीकार कर लिया है। यह चिन्ह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट डिजाइन श्री डी. उदय कुमार ने बनाया है। इस चिन्ह को वित्त मंत्रालय द्वारा आयोजित एक खुली प्रतियोगिता में प्राप्त हजारों डिजायनों में से चुना गया है। इस प्रतियोगिता में भारतीय नागरिकों से रुपए के नए चिन्ह के लिए डिजाइन आमंत्रित किए गए थे। भारतीय रुपये को एक विशेष प्रतीक मिलने के बाद अब यह अन्य प्रायद्वीपीय मुद्राओं (श्री लंका, पाकिस्तान, इंडोनेशिया) से अलग एवं विशिष्ट बन चुकी है । सन्दर्भ श्रेणी:भारत के राष्ट्रीय प्रतीक श्रेणी:भारत
भारत के राष्ट्रीय पशु का नाम क्या है?
बाघ
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हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। "सूत्र" भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए। प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधना षड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं। हिन्दू दर्शन का विहंगम दृश्य छह दर्शन उपनिषन्मूलक होने के कारण इनमें वेदांतदर्शन सबसे अधिक प्राचीन है। किंतु ब्रह्मसूत्र में अन्य दर्शनों का खंडन है तथा उसका प्राचीनतम भाष्य आदि शंकराचार्य का है (8 वीं शताब्दी)। अन्य दर्शन सूत्रों के भाष्य ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रचे गए। सांख्यसूत्र संभवतः लुप्त हो गया। ईश्वरकृष्ण (5वीं शताब्दी) की "सांख्यकारिका" सांख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी द्वैतवाद है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन सत्ताएँ हैं। "प्रकृति" जड़ है और जगत् का सूक्ष्म कारण है। वह सत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति के साथ पुरुष का संपर्क होने से सर्ग का आरंभ होता है। सर्ग पुरुष का बंधन है। तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। अपने शुद्ध चेतन कर्तृत्व भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है। योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है। न्याय और वैशेषिक प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) की "तत्वचिंतामणि" से नवद्वीप में नव्य न्याय की परंपरा का आरंभ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में 16 पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो नि:श्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है। वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। विशेष अथवा 'परमाणु' उसका मुख्य विषय है। परमाणु सृष्टि का मूल उपादान कारण है। ईश्वर को न्याय-वैशेषिक-दशर्न सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में संपूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के 16 पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना जिसका प्रतिनिधित्व "न्यायमुक्तावली" आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं। षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को "मीमांसा" कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी "वेदांत" है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही (प्रथम शताब्दी में) हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के "मीमांसासूत्र" तथा "ब्रह्मसूत्र" भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा की सातवीं शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया। अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। उसी समय कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। इनके बाद पार्थसारथि मिश्र (14वीं शताब्दी) तथा माधवचार्य (14वीं शताब्दी) ने पूर्वमीमांसा दर्शन का विस्तार किया। माधवाचार्य विजयनगर के राजा वुक्का के मंत्री थे। बाद में सन्यास लेकर विद्यारण्य के नाम से शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और "पंचदशी" नामक प्रद्धि वेदांत ग्रंथ की रचना की। वेदांतमत की प्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर जिन चार पीठों की स्थापना की उनमें शृंगेरी पीठ दक्षिण में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। अन्य तीन पीठ पुरी, बदरिकाश्रम और द्वारका में हैं। शंकराचार्य ने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्यों की रचना की। शंकराचार्य के बाद वाचस्पति मिश्र (9वीं शताब्दी), श्री हर्ष (12वं शताब्दी) आदि आचार्यों ने वेदांत परंपरा का विस्तार किया। पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। इसके अनुसार वेदमंत्रों का मुख्य अर्थ विधि अथवा कर्म के आदेश में है। जिन मंत्रों में विधिवाचक क्रिया नहं है वे "अर्थवाद" हैं तथा देवताओं आदि की प्ररोचना करते हैं। यदि यज्ञादि कर्म से एक दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है जिसे "अपूर्व" कहते हैं। यही अपूर्व कर्मफल का नियामक है। पूर्वमीमांसा में ईश्वर मान्य नहीं है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। नित्य शब्द का कल्प कल्प में यथापूर्व स्फोट होता है और अपूर्व की शक्ति से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति होती है। पूर्वमीमांसा की आत्मा वैशेषिक के समान चेतनातीत है। न्याय दर्शन के चर प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि दो प्रमाण और मीमांसा दर्शन में माने जाते हैं। उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अत: वे 'वेदांत' कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम "वेदांत" ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं हैं; इन सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है। गीता का कर्मवाद गीतादर्शन भी वैदिक षडदर्शनों के समकालीन है। गीता का कर्मयोग उपनिषदों के ब्रह्मवाद के बाद एक महत्वपूर्ण मौलिक दर्शन है। सभी वैदिक दर्शनों ने कर्मयोग का महत्व स्वीकार किया है। व्यावहारिक होने के कारण उसे प्रतिनिधि भारतीय जीवनदर्शन कहा जा सकता है। गीता के कर्मयोग में अध्यात्म और जीवन का अद्भुद समन्वय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वैदिक कर्मकांड और उपनिषदों के ब्रह्मवाद का समन्वय है। अध्यात्म और कर्म का यह समन्वय अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के वेदांत तथा बौद्ध और जैन धर्म के सन्यासवाद के प्रभाव स भारतीय जनता में विरक्ति और निवृत्ति का प्रभाव इतना बढ़ रहा था कि समाज के लिए घातक बन जाता। ऐसी स्थिति में गीता ने कर्मयोग का संदेश देकर देश को एक संजीवन मंत्र प्रदान किया। अध्यात्म को स्वीकार कर गीता ने सन्यास को एक नई परिभाषा दी। "सन्यास" का सामान्य अर्थ "त्याग" है। किंतु इस त्याग में प्राय: भ्रांति हो जाती है। भोजन, शयन आदि प्राकृतिक कर्मों का त्याग किया जा सकता है। काम्य कर्मों का भी त्याग संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संग्रह के लिए निष्काम कर्म करना जीवन का आदर्श है। यही मोक्ष का साधन है। गीता का यह निष्काम कर्मयोग अधिकांश भारतीय दर्शनों ने अपनाया है। ज्ञानयोग उसका आध्यात्मिक आधार है और भक्तियोग उसका भावात्मक दर्शन है। वेदान्त के सम्प्रदाय वेदांत के इन अनेक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैतमत सबसे प्राचीन है। यह संभवत: सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उपनिषदों पर आश्रित है। उनके अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् का विक्षेप और जीव के ब्रह्मभाव का आवरण करती है। अज्ञान का निवारण होने पर जीव को अपने ब्रह्मभाव का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। ब्रह्म सच्चिदानंद है। ब्रह्म की सत्ता और चेतना तथा उसका आनंद अनंत है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्त की अवस्थाओं से परे तथा बाह्य और आंतरिक विषयों से अतीत अनुभव में ब्रह्म का प्रकाश होता है। विषयातीत होने के कारण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। संख्यातीत होने के कारण उसे "अद्वैत" कहा जाता है। त्याग और प्रेम के व्यवहारों में यह अद्वैत भाव विभासित होता है। समाधि में इसका आंतरिक साक्षात्कार होता है। अद्वैत भाव को सिद्ध करने के लिए ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है। ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर दोनों का अद्वैत सिद्ध हो जाता है। उपादान के परिणाम की आशंका को विवर्तवाद के द्वारा दूर किया गया है। विवर्तकारण अविकार्य होता है। उसका कार्य मिथ्या होता है जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम। रज्जु सर्प और स्वप्न प्रातिभासिक सत्य हैं। जगत् व्यावहारिक सत्य है। मोक्ष पर्यंत वह मान्य है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है जो मोक्ष में शेष रह जाता है। माया से युक्त ब्रह्म "ईश्वर" कहलाता है। वह सृष्टि का कर्ता है किंतु वह पारमार्थिक सत्य नहीं है। ब्रह्मानुभव का साधन ज्ञान है। कर्म के साध्य शाश्वत नहीं होते। "ब्रह्म" कर्म के द्वारा साध्य नहीं है। कर्म और भक्ति मोक्ष के सहकारी कारण हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन मोक्षसाधना के तीन चरण हैं। मोक्ष में आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत आनंद से आप्लावित रहती है। यह मोक्ष जीवनकाल में प्राप्य है तथा जीवन के व्यवहार से इसकी पूर्ण संगति है। शंकराचार्य के लगभग 300 वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्रों की नवीन व्याख्या के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। रामानुजकृत "श्रीभाष्य" के आधार पर यह 'श्रीसंप्रदाय' कहलाता है। रामानुज शंकर के मायावाद को नहीं मानते। उनके अनुसार जीव, जगत् और ब्रह्म तीनों पारमार्थिक सत्य हैं। जगत् ब्रह्म का विवर्त नहीं वरन् ब्रह्म की वास्तविक रचना है। ब्रह्म और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं। जीव ब्रह्म का अंश है। मोक्ष में जगत् का विलय नहीं होता और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। ब्रह्म निर्विशेष और निर्गुण नहीं वरन् सविशेष्य और सगुण है। ब्रह्म ही स्वतंत्र सत्ता है। जीव और जगत् उसके अपृथक्सिद्ध विशेषण हैं। ब्रह्म से पृथक् उनका अस्तित्व संभव नहीं है। अत: रामानुज का मत भी अद्वैत ही है। जीव और जगत् के विशेषणों से युक्त ब्रह्म का इनके सथ विशिष्ट अद्वैतभाव है। ब्रह्म इनका अंतर्यामी स्वामी है। रामानुज के मत में भक्ति मोक्ष का मुख्य साधन है। भगवान के गुणों का ज्ञान भक्ति का प्रेरक है। साधारण जन और शूद्रों के लिए प्रपत्ति अर्थात् शरणागति सर्वोत्तम मार्ग हैं। रामानुज के कुछ वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में ही निंबार्काचार्य ने द्वैताद्वैत मत की प्रतिष्ठा की। ब्रह्मसूत्रों पर "वेदांत-पारिजात-सौरभ" नाम से उनका भाष्य इस मत का आधार है। रामानुज के समान निंबार्क भी जीव और जगत् को सत्य तथा ब्रह्म का आश्रित मानते हैं। रामानुज के मत में अद्वैत प्रधान है। निंबार्क मत में द्वैत का अनुरोध अधिक है। रामानुज के अनुसार जीव और ब्रह्म में स्वरूपगत साम्य है, उनकी शक्ति में भेद हैं। निंबार्क के मत में उनमें स्वरूपगत भेद है। निंबार्क के अद्वैत का आधार जीव की ब्रह्म पर निर्भरता है। निंबार्क का ब्रह्म सगुण ईश्वर है। कृष्ण के रूप में उसकी भक्ति ही मोक्ष का परम मार्ग है। यह भक्ति भगवान के अनुग्रह से प्राप्त होती है। भक्ति से भगवान का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। रामानुज और निंबार्क दोनो के मत में विदेह मुक्ति ही मान्य है। निंबार्क के बाद 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत मत का प्रतिपादन किया। वे पूर्णप्रज्ञ तथा आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत और निंबार्क के द्वैताद्वैत का खंडन करके द्वैतवाद की स्थापना की है। उनके अनुसार भेद और अभेद दोनों की एकत्र स्थति संभव नहीं है। शंकराचार्य का मायावाद भी उन्हें मान्य नहीं है। जगत् मिथ्या नहीं यथार्थ है। सत् और असत् से भिन्न माया की तीसरी अनिर्वचनीय कोटि संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और जगत् तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। भेद के पाँच प्रकार हैं। ईश्वरजीव, ईश्वर-जगत्, जीव-जगत्, जीव-जीव और जड़ पदार्थों में परस्पर भेद है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है। उपादान करण प्रकृति है। ईश्वर उसका नियामक है। ईश्वर की भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में परस्पर भेद रहता है। वे ईश्वर से भिन्न रहकर अपनी सामथ्र्य के अनुसार ईश्वर की विभूति में भाग लेते हैं। 15वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। इस मत का आधार "ब्रह्मसूत्रों" पर लिखित वल्लभाचार्य का "अणुभाष्य" है। वे माया से अलिप्त शुद्ध ब्रह्म का अद्वैत भाव मानते हैं। यह ब्रह्म निर्गुण नहीं, सगुण है तथा माया के संबंध से रहित है। ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति से जगतृ के रूप में व्यक्त होता है। चित् और आनंद का तिरोधान होने के कारण जगत् में केवल सत् रूप से ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। जीव और ब्रह्म स्वरूप से एक हैं। अग्नि के स्फुर्लिगों की भांति जीव ब्रह्म का अंश है, विशेषण नहीं। इस प्रकार सर्वत्र अद्वैत है, कहीं भी द्वैत नहीं। मर्यादा और पुष्टि दो प्रकार की भक्ति मोक्ष का साधन हैं। 16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने अचिंत्य भेदाभेद का प्रवर्तन किया। उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गौडीय वैष्णव संप्रदाय का प्रतिष्ठापन किया। इनके अनुसार भगवान की शक्ति अचिंत्य है। वह विरोधी गुणों का समन्वय कर सकती है। भेदाभेद का चिंतन न करके मोक्ष की साधना करना ही जीवन का धर्म है। मोक्ष का अर्थ भगवान की प्रीति का निरंतर अनुभव है। इस प्रकार वैदिक युग के उत्तरकाल में उपनिषदों में जिस वेदांत का उदय हुआ उसका नवीन उत्थान सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत आदि संप्रदायों के रूप में हुआ। उपनिषदों का वेदांत पश्चिमी और उत्तरी भारत की देन है। अद्वैत आदि संप्रदायों का उदय दक्षिण से हुआ। इनके प्रवर्तक दक्षिण देशों के निवासी थे। चैतन्य का मत बंगाल से उदित हुआ। किंतु इन सभी संप्रदायों ने वृदांवन आदि उत्तरी स्थानों में अपने पीठ बनाए। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर पीठ स्थापित किए। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी प्रदेशों के लोग इन संप्रदायों में सम्मिलित हुए। सिद्धांत में भिन्न होते हुए भी वेदांत के ये विभिन्न संप्रदाय भारतवर्ष की आंतरिक एकता के सूत्र बने। शैव तथा शाक्त दर्शन पाशुपत देखें वैदिक और अवैदिक दर्शनों के अतिरिक्त भारतीय दर्शन परंपरा में एक तीसरी धारा शैव तथा शाक्त संप्रदायों की प्रवाहित होती रही है। कुछ रहस्यमय साधना के रूप में होने के कारण यह वैदिक और अवैदिक धाराओं के संगम में कुछ सरस्वती के समान गुप्त रही है। किंतु प्रत्यक्ष उपासना के रूप में भी शिव की मान्यता बहुत है। प्राचीन ऐतिहासिक खोजों से शिव की प्राचीनता प्रमाणित होती है। गाँव गाँव में शिव के मंदिर हैं। प्रति सप्ताह और प्रति पक्ष में शिव का व्रत होता है। महादेव पार्वती का दिव्य दांपत्य भारतीय परिवारों में आदर्श के रूप से पूजित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद के रुद्र के रूप में शिव का वर्णन है। किंतु प्राय: शिव को अवैदिक लोकदेवता माना जाता है। दक्ष के यज्ञघ्वंस के प्रसंग के द्वारा शिव की अवैदिकता का समर्थन किया जाता है पौराणिक युग में भी त्रिदेवों की तुलना के प्रसंग में विरोध के आभास मिलते हैं। किंतु आगे चलकर शिव एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गए। शैव संप्रदाय प्राय: गुप्त तंत्रों के रूप में रहे हैं। उनका बहुत कम साहित्य प्रकाशित है। प्रकाशित साहित्य भी प्रतीकात्मक होने के कारण दुरूह है। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हें शैव परंपरा के षड्दर्शन कह सकते हैं। शैव सिद्धात का प्रचार दक्षिण में तमिल देश में है। इसका आधार आगम ग्रंथों में है। 14वीं शताब्दी में नीलकंठ ने "ब्रह्मसूत्रों" पर शैवभाष्य की रचना कर वेदांत परंपरा के साथ शैवमत का समन्वय किया। पाशुपत मत, 'नकुलीश पाशुपत' के नाम से प्रसिद्ध है। पाशुपत सूत्र इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ है। कालामुख और कापालिक संप्रदाय कुछ भयंकर और रहस्यमय रहे हैं। काश्मीर शैव मत अद्वैत वेदांत के समान है। तांत्रिक होते हुए भी इनका दार्शनिक साहित्य विपुल है। इसकी स्पंद और प्रत्यभिज्ञा दो शाखाएँ हैं। एक का आधार वसुगुप्त की स्पंदकारिका और दूसरी का आधार उनके शिष्य सोमानंद (9वीं शती) का "प्रत्यभिज्ञाशास्त्र" है। जीव और परमेश्वर का अद्वैत दोनों शाखाओं में मान्य है। परमेश्वर "शिव" वेदांत के ब्रह्म के ही समान हैं। वीरशैव मत दक्षिण देशों से प्रचलित है। इनके अनुयायी शिवलिंग धारण करते हैं। अत: इन्हें "लिंगायत" भी कहते हैं। 12वीं शताब्दी में वसव ने इस मत का प्रचार किया। वीरशैव मत एक प्रकार का विशिष्टाद्वैत है। शक्ति विशिष्ट विश्व को परम तत्व मानने के कारण इसे शक्ति विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। उत्तर और दक्षिण में प्रचलित शैव संप्रदाय भी उत्तर वेदांत संप्रदायों की भाँति भारत की धार्मिक एकता के सूत्र हैं। कैलास से रामेश्वरम् तक पूजित शिव भारतीय एकता के मंगल देवता है। दोनों की यात्राओं के द्वारा भारतीय एकता का व्यावहारिक अनुष्ठान होता है। शक्तिपूजा का स्रोत संभवत: प्राचीन भारत के मातृतंत्र में है। भारतीय परिवारों में देवी की महिमा बहुत है। स्त्रियों के नाम में प्राय: उत्तरपद के रूप में "देवी" शब्द का प्रयोग होता है। शक्ति के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, काली आदि के रूप में देवी की उपासना होती है। "शक्ति" इच्छारूप है। शिवसूत्र में इच्छाशक्ति को उमा कुमारी का रूप दिया है (इच्छा शक्तिः उमा कुमारी)। पर तत्व के चिन्मय रूप में इच्छाशक्ति का समन्वय शक्ति दर्शन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय दर्शन श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:अधिदर्शन
हिन्दू मान्यता के अनुसार वैदिक परम्परा के कुल कितने दर्शन हैं?
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