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जर्मनी में कुल नगर और कस्बों की संख्या 2,064 (1 अप्रैल 2013 के अनुसार) है। बर्लिन कोलोन स्टुटगार्ड म्यूनिख जर्मनी
2961
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "जर्मनी में शहरों की सूची", "token_count": 175, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80" }
यह पृष्ठ ऑस्ट्रेलिया के नगरों और कस्बों की सूची के लिए है। कैनबरा सिडनी ऑस्ट्रेलिया
2962
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "आस्ट्रेलिया में शहरों की सूची", "token_count": 139, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80" }
इटली की कुल जनसंख्या 50,000 है। रोम मिलान सन्दर्भ इटली के नगर
2964
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बग़दाद फलूजा समारा इराक़ के शहर इराक़
2966
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गोपालगंज (Gopalganj) भारत के बिहार राज्य के गोपालगंज ज़िले में स्थित एक नगर है। विवरण गोपालगंज सारन प्रमंडल अंतर्गत एक शहर एवं जिला है। गंडक नदी के पश्चिमी तट पर बसा यह भोजपुरी भाषी जिला ईंख उत्पादन के लिए जाना जाता है। मध्यकाल में चेरों राजाओं तथा अंग्रेजों के समय यह हथुवा राज का केंद्र रहा है। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख, बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री एवं भूतपूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद का गृह जिला है। थावे दुर्गा मंदिर , नेचुआ जलालपुर दुर्गा मंदिर, रामबृक्ष धाम,बुद्ध मंदिर, बेलवनवा हनुमान मंदिर,दिधवादुबौली सिंहासनी मंदिर,बहुरहवा शिव धाम(हथुआ),पुरानी किला(हथुआ),गोपाल मंदिर(हथुआ) प्रमुख दर्शनीय स्थल है। गोपालगंज उत्तर बिहार का अंतिम जिला है जो उत्तर प्रदेश के सीमा के समीप है। गोपालगंज मेंं 14 प्रखण्ड एव 234 पंचायत है । इतिहास वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर प्रस्थान किया। अग्नि ने उन्हे गंडक के पास अपने राज्य की स्थापना के लिए कहा जो विदेह कहलाया। आर्यों की एक शाखा सारन में बस गया। महाजनपद काल में यह प्रदेश कोशल गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह शक्तिशाली मगध के मौर्य, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। सारन में मिले साक्ष्य यह साबित करते हैं कि लगभग ३००० ईसा पूर्व में भी इस हिस्से में आबादी कायम थी। संभव है कि आर्यों के यहाँ आनेपर सत्ता संघर्ष हुआ हो। १३ वीं सदी में मुसलमान शासक ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा किया लेकिन इसके पूर्व चेरों साम्राज्य के राजा काफी समय यहाँ अपनी सत्ता तक कायम रखने में सक्षम रहे। शोरे के व्यापार के चलते सबसे पहले डचों का यहाँ आगमन हुआ लेकिन बक्सर युद्ध के बाद १७६५ में अंग्रेजों ने यहाँ अपना आधिपत्य कायम कर लिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गोपालगंज की भूमि आजादी की माँग के नारों के बीच उथल-पुथल भरा रहा। २ अक्टुबर १९७२ को यह सारन से अलग स्वतंत्र जिला बना। भूगोल गोपालगंज जिले का विस्तार २५० १२ से २६०३९ उत्तरी अक्षांश तथा ८३०५४ से ८४०५५ पूर्वी देशांतर के बीच है। गोपालगंज जिला के उत्तर में पूर्वी एवं पश्चिमी चंपारन, दक्षिण में सिवान एवं छपरा, पूर्व में मुजफ्फरपुर एवं पूर्वी चंपारन तथा पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला है। कुल क्षेत्रफल २०३३ वर्ग किलोमीटर है जहाँ लगभग २२ लाख लोग रहते हैं। गोपालगंज, बरौली, सिधवलिया, मीरगंज, भोरे , कटेया, सासामुसा एवं विजयीपुर यहाँ का मुख्य शहरी अधिवास है। नदियाँ - गंडक, झरही, दाहा, खनुआ, तथा सारन जनसांख्यिकी २०११ जनगणना के अनुसार - कुल जनसंख्या- 2,562,012 स्त्री-पुरुष अनुपात- 1021 / 1000 ग्रामीण जनसंख्या- 93.65% शहरी जनसंख्या- 6.35% प्रशासनिक विभाजन अनुमंडल - गोपालगंज एवं हथुआ प्रखंड - गोपालगंज, भोरे, माझा, उचकागाँव, कुचायकोट, कटेया, विजयपुर, बरौली, हथुआ, बैकुंठपुर, फुलवरिया, थावे, पंचदेवरी, एवं सिधवलिया कृषि एवं उद्योग गोपालगंज जिला एक समतल एवं उपजाऊ भूक्षेत्र है। गंडक नहर एवं इससे निकलने वाली वितरिकाएँ सिंचाई का मुख्य स्रोत है। चावल, गेहूँ, ईंख तथा मूंगफली जिले की प्रमुख फसलें हैं। चावल एवं रोटी ही लोगों का मुख्य भोजन है। गोपालगंज में कृषि आधरित उद्योग विकसित हुए हैं जिसमे चीनी मिल तथा दाल मिल के अलावे कुटीर उद्योग प्रमुख है। वर्तमान में ५ बड़े तथा ३० लघु उद्योग इकाईयाँ कार्यरत हैं। गोपालगंज, सिधवलिया, सासामुसा एवं हथुवा प्रमुख औद्योगिक केंद्र है। शिक्षा प्राथमिक विद्यालय- 290 माध्यमिक विद्यालय- 100 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय- 8 डिग्री महाविद्यालय:- सभी 5 अंगीभूत महाविद्यालय जय प्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के अंतर्गत आते हैं। व्यवसायिक शिक्षा:- पॉलिटेक्निक कॉलेज, औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र, एक्युप्रेशर काउंसिल, सैनिक स्कूल पर्यटन स्थल थावे: गोपालगंज में थावे स्थित हथुवा राजा द्वारा बनवाया गया दुर्गा मन्दिर सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी मात्र ५ किमी है। चैत्र महीने में यहाँ विशाल मेला लगता है। मंदिर के पास ही देखने योग्य एक विशाल पेड़ है जिसका वानस्पतिक वर्गीकरण नहीं किया जा सका है। मन्दिर की मूर्ति एवं विशाल पेड़ के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित है। दिघवा दुबौली: गोपालगंज से ४० किलोमीटर दक्षिण-पूरब तथा छपरा मशरख रेल लाईन पर ५६ किलोमीटर उत्तर में दिघवा-दुबौली एक गाँव है जहाँ पिरामिड के आकार के दो टीले हैं ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये टीले यहाँ शासन कर रहे चेरों राजा द्वारा बनवाए गए थे हुसेपुर: गोपालगंज से २४ किलोमीटर उत्तर-पचिम में झरनी नदी के किनारे हथवा महाराजा का बनवाया किला अब खंडहर की अवस्था में है। यह गाँव पहले हथुवा नरेश की गतिविधियों का केंद्र था। किले के चारों तरफ बने खड्ड अब भर चुके हैं। किले के सामने बने टीला हथुवा राजा की पत्नी द्वारा सती होने का गवाह है। लकड़ी दरगाह: पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर लकड़ी की बहुत अच्छी कासीगरी की गयी है। रब्बी-उस-सानी के ११ वें दिन होनेवाले उर्स पर यहाँ भाड़ी मेला लगता है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने ४० दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था। * कुचायकोट गोपालगंज जिला का सबसे बडा प्रखण्ड है। कुचायकोट प्रखण्ड में बेलवनवा हनुमान मन्दिर, नेचुआ जलालपुर रामबृक्ष धाम ,बुद्ध मंदिर,दुर्गा मंंदिर, कुचायकोट बंगलामुखी माँ मन्दिर,सूर्य मंदिर, बंगरा शिवं मंंदिर प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। भोरे गोपाल गंज जिला का एक प्रखण्ड है। भोरे से 2 किलोमीटर दक्षिण में शिवाला और रामगढ़वा डीह स्थित है। शिवाला में शिव का मंदिर व पोखरा है। रामगढ़वा डीह के बारे में यह मान्य़ता है कि यहाँ महाभारत काल के राजा भुरिश्वा की राजधानी थी। इस स्थान पर आज भी महलों के खण्डहरों के भग्नावशेष मिलते हैं तथा प्राचीन वस्तुएँ खुदाई के दौरान निकलती हैं। महाराज भुरिश्वा महाभारत के युद्ध में कौरवों के चौदहवें सेनापति थे। महाराज भुरिश्वा के नाम पर ही इस जगह का नाम भोरे पड़ गया। हथुआ: यह गोपालगंज जिले का एक अनुमंडल हैं. बीच हथुआ में स्थित गोपालमंदिर हैं जहा पर एक पोखरा और संगीत महाविद्यालय हैं और एक मैरिज हॉल भी हैं। यह गोपालमंडिर शाम 4 बजे खुलता हैं। यहां पर कई सारे महाविद्यालय तथा प्राथमिक विद्यालय एवं माध्यमिक विद्यालय भी है। यहां पर गोपेश्वर महाविद्यालय सैनिक स्कूल तथा डॉ राजेंद्र प्रसाद हाई स्कूल+2 तथा इंपीरियल स्कूल भी है जो कि हथुआ के राजा का है है जोकि अत्यंत ही पर्यटन स्थान है। यहां पर गली मंडी के आगे एक पुराने किला भी है जोकि अत्यंत खूबसूरत जगह है। यहां पर एक बोरावा शिव धाम जो की बड़ा कोईरोली में स्थित है। यहां पर एक और धाम है जिसका नाम है बेलवती धाम है जोकि महाइचा में स्थित है यह अत्यंत ही खूबसूरत पर्यटन स्थान है यहां पर अनेक देवी देवताओं के मंदिर तथा उनकी खूबसूरत मूर्तियां हैं। तथा यहां पर एक हथवा पैलेस भी है जिसमें 300 के आसपास रूम है जोकि अत्यंत खूबसूरत एवं पर्यटन का स्थान है। यातायात एवं संचार व्यवस्था सड़क मार्ग गोपालगंज जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 85 छपरा से सिवान होते हुए गोपालगंज जाती है। लखनऊ से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग 28 जिले से गुजरते हुए मुजफ्फरपुर और बरौनी जाती है। राजकीय राजमार्ग संख्या ४५, ४७, ५३ तथा ९० की कुल लंबाई ५२ किलोमीटर है। सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है। रेल मार्ग दिल्ली-गुवाहाटी रेलमार्ग से हटकर छपरा से कप्तानगंज के लिए जानेवाली रेललाईन पर गोपालगंज एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे के सोनपुर मंडल में पड़ता है। जिले में थावे एक महत्वपूर्ण रेल जंक्शन है। थावे से सिवान के बीच बड़ी लाईन मौजूद है जो गोरखपुर जाती है। हथुआ से फुलवरिया एक नई रेल लाइन की शुरुआत हुई है। यहाँ से सिवान, छपरा, भटनी, वाराणसी (बनारस), गोरखपुर तक की रेलवे सेवा है।;वायु मार्ग: गोपालगंज का नजदीकी हवाई अड्डा सबेया (हथुआ) में है, लेकिन यहाँ से विमान सेवाएँ उपलब्ध नहीं है। राज्य की राजधानी पटना में जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र नागरिक हवाई अड्डा है जहाँ से दिल्‍ली, कोलकाता, राँची आदि शहरों के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। गोपालगंज से छपरा पहुँचकर राष्ट्रीय राजमार्ग 19 द्वारा २१५ किलोमीटर दूर पटना हवाई अड्डा जाया जाता है। एक और नजदीकी हवाई अड्डा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में है, जो जिला मुख्यालय से लगभग १२० कि॰मी॰ है। डाक सेवा गोपालगंज में 41 डाकघर तथा 11 टेलिग्राफ केंद्र है जहाँ से सभी प्रकार की डाक सेवाएँ उपलब्ध हैं। बैंकिंग सेवा गोपालगंज में 8 राष्ट्रीयकृत तथा २ सहकारी बैक है। भारतीय स्टेट बैंक तथा केनरा बैंक, पंजाब नैशनल बैंक एटीएम,द गोपालगंज सेन्ट्रल कोऑपरेटिव बैंक,एचडीएफसी बैंक,तथा युको बैंक के एटीएम है। इन्हें भी देखें गोपालगंज ज़िला बाहरी कड़ियाँ गोपालगंज जिले का आधिकारिक बेवजाल बिहार पर्यटन के बेवजाल पर गोपालगंज जिला गोपालगंज में सड़क व्यवस्था सन्दर्भ गोपालगंज जिला बिहार के शहर गोपालगंज ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "गोपालगंज", "token_count": 12161, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%9C" }
मधेपुरा भारत के बिहार राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय मधेपुरा शहर है। सहरसा जिले के एक अनुमंडल के रूप में रहने के उपरांत ९ मई १९८१ को उदाकिशुनगंज अनुमंडल को मिलाकर इसे जिला का दर्जा दे दिया गया। यह जिला उत्तर में अररिया और सुपौल, दक्षिण में खगड़िया और भागलपुर जिला, पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले से घिरा हुआ है। वर्तमान में इसके दो अनुमंडल तथा ११ प्रखंड हैं। मधेपुरा धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध जिला है। चंडी स्थान, सिंहेश्वर स्थान, बाबा बिशु राउत मंदिर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से हैं। यहाँ का रेल कारखाना पूरे भारत में प्रसिद्ध है। इतिहास नामकरण मधेपुरा के नामकरण के संबंध में कई कहानियाँ हैं, हालाँकि इतिहासकारों द्वारा इसके नामकरण के संबंध में आम तौर पर दो स्वीकृत सिद्धांत हैं; एक मत यह है कि चूंकि मधेपुरा कोसी घाटी के मध्य में स्थित है, इसलिए इसे मध्यपुरा कहा जाता था, जो बाद में बदलकर मधेपुरा हो गया। दूसरा मत यह है कि कहा जाता है कि इस क्षेत्र में माधववंशियों (यादवों का शाखा) की बहुलता के कारण इसे माधवपुरा कहा जाता था जो कालान्तर में माधवपुरा से मधेपुरा बन गया। इतिहास प्राचीन काल में मधेपुरा मिथिला राज्य का हिस्सा था। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक काल में कोशी नदी के तट पर ऋषया श्रृंग का आश्रम था। ऋषया श्रृंग भगवान शिव के भक्त थे और वह आश्रम में भगवान शिव की प्रतिदिन उपासना किया करता था। श्रृंग ऋषि के आश्रम स्थल को श्रृंगेश्‍वर के नाम से जाना जाता था। कुछ समय बाद इस उस जगह का नाम बदलकर सिंघेश्‍वर हो गया। महाजनपद काल में मधेपुरा अंग महाजनपद का हिस्सा था। मौर्य वंश का भी यहां शासन रहा। इसका प्रमाण उदा-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ से मिलता है। गुप्त वंश के शासन काल में यह मिथिला प्रांत का हिस्सा रहा। मधेपुरा का इतिहास कुषाण वंश के शासनकाल से भी सम्बन्धित है। शंकरपुर प्रखंड के बसंतपुर तथा रायभीर गांवों में रहने वाले भांट समुदाय के लोग कुशान वंश के परवर्ती हैं। मुगल काल में मधेपुरा सरकार तिरहुत के अधीन रहा। उदा-किशुनगंज अंतर्गत सरसंडी गांव में अकबर के समय की एक मस्जिद आज मौजूद है। इसके अतिरिक्त, सिकंदर साह ने भी जिले का दौरा किया था, जो साहुगढ़ गांव से मिले सिक्कों से स्पष्ट होता है। ऐतिहासिक स्थल श्रीनगर मधेपुरा शहर से लगभग २२ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित श्रीनगर एक गांव है। इस गांव में दो किले हैं। माना जाता है कि इनसे से एक किले का इस्तेमाल राजा श्री देव रहने के लिए किया गया था। किले के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर दो विशाल कुंड स्थित है; पहले कुंड को हरसैइर और दूसर कुंड को घोपा पोखर् के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यहां एक मंदिर भी है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर में स्थित पत्थरों से बने स्तंभ इसकी खूबसूरती को और अधिक बढ़ाते हैं। बसन्तपुर मधेपुरा के दक्षिण से लगभग 24 किलोमीटर की दूरी पर बसंतपुर गांव स्थित है। यहां पर एक किला है जो कि पूरी तरह से विध्वंस हो चुका है। माना जाता है कि यह किला राजा विराट के रहने का स्थान था। बिराटपुर सोनबरसा रेलवे स्टेशन से लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर बिराटपुर गांव है। यह गांव देवी चंडिका के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि इस मंदिर का सम्बन्ध महाभारत काल से है। 11वीं शताब्दी में राजा कुमुन्दानंद के सुझाव से इस मंदिर के बाहर पत्थर के स्तम्भ बनवाए गए थे। इन स्तम्भों पर अभिलेख देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही यहां पर दो स्तूप भी है। मंदिर के पश्चिम से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा टीला है। भौगोलिक स्थिति कोशी नदी के मैदानों में स्थित इस जिले की स्थिति 25°. 34 - 26°.07’ उत्तरी अक्षांश तथा 86° .19’ से 87°.07’ पूर्वी देशान्तर के बीच है। इसके उत्तर में अररिया जिला तथा सुपौल जिला है तथा इसका उत्तरी छोर नेपाल से सिर्फ ६० कि॰मी॰ की दूरी पर है। पूर्व की दिशा में पूर्णियां जिला, पश्चिम में सहरसा तथा दक्षिण में खगड़िया तथा भागलपुर हैं। आवागमन वायु मार्ग यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से मधेपुरा 234 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रेल मार्ग मधेपुरा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दौरम मधेपुरा है। सड़क मार्ग भारत के कई प्रमुख शहरों शहरों से मधेपुरा सड़कमार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 31 से होते हुए मधेपुरा पहुंचा जा सकता है। दर्शनीय स्थल सिंहेश्वर स्थान यहाँ स्थित प्राचीन शिव मंदिर इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषया श्रृंग के आश्रम में एक प्राकृतिक शिवलिंग उत्पन्न हुई थी। उस स्थान पर बाद में एक खूबसूरत मंदिर बना। एक व्यापारी जिसका नाम हरि चरण चौधरी था, ने वर्तमान मंदिर का निर्माण लगभग 200 वर्ष पूर्व करवाया था। यह शिवलिंग एक विशाल चट्टान पर स्थित है, जो कि करीबन 15-16 फीट ऊंचा है। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है। बाबा बिशु राउत मंदिर मधेपुरा के चौसा प्रखंड सबसे अंतिम छोर पर अवस्थित बाबा बिशु राउत पचरासी धाम लोगो की आस्था का केंद्र है। यह मंदिर मधेपुरा से ६५ किलोमीटर व चौसा प्रखंड मुख्यालय से 7 किलोमीटर की दुरी पर है। लोकदेव के रूप में चर्चित बाबा बिशु राउत का मंदिर पशु पलकों के लिए पूजन का महत्पूर्ण केंद्र माना जाता है। पचरासी धाम में भव्य मेला का आयोजन लगभग २०० (अनुमानित ) वर्षों से किया जा रहा है। वर्ष 2015 में सूबे के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार मेला का उद्घाटन कर लोक देवता बाबा विशु की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया था। तत्कालीन पर्यटन मंत्री अशोक कुमार सिंह ने भी इसे पर्यटन का दर्जा देने की घोषणा की थी। इसके पूर्व लालू प्रसाद ने भी अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में कई बार इस मेला में पहुंच कर बाबा विशु राउत की प्रतिमा पर दुधाभिषेक करने के बाद आयोजित आम सभा में पचरासी स्थल को पर्यटन दर्जा देने की घोषणा किया था। दुर्गा मंदिर, उदाकिशुनगंज मनोकामना शक्ति पीठ के रुप में ख्याति प्राप्त उदाकिशुनगंज सार्वजनिक दुर्गा मंदिर न केवल धार्मिक और अध्यात्मिक बल्कि ऐतिहासिक महत्व को भी दर्शाता है। यहां सदियों से पारंपरिक तरीके से दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है। पूजा के दौरान कई देवी-देवताओं की भव्य प्रतिमा स्थापित की जाती है। मंदिर कमिटी और प्रशासन के सहयोग से विशाल मेले का भी आयोजन किया जाता है। अध्यात्म की स्वर्णिम छटा बिखेर रही सार्वजनिक दुर्गा मंदिर के बारे में कहा जाता है कि करीब 250 वर्षों से भी अधिक समय से यहां मां दुर्गा की पूजा की जा रही है। बड़े-बुजूर्गो का कहना है कि करीब 250 वर्ष पूर्व 18 वीं शताब्दी में चंदेल राजपूत सरदार उदय सिंह और किशुन सिंह के प्रयास से इस स्थान पर मां दुर्गा की पूजा शुरू की गयी थी। तब से यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहा है। उन्होंने कहा कि कोशी की धारा बदलने के बाद आनंदपुरा गांव के हजारमनी मिश्र ने दुर्गा मंदिर की स्थापना के लिए जमीन दान दी थी। उन्हीं के प्रयास से श्रद्धालुओं के लिए एक कुएं का निर्माण कराया गया था, जो आज भी मौजूद है। उदाकिशुनगंज निवासी प्रसादी मिश्र मंदिर के पुजारी के रुप में 1768 ई में पहली बार कलश स्थापित किया था। उन्हीं के पांचवीं पीढ़ी के वंशज परमेश्वर मिश्र उर्फ पारो मिश्र वर्तमान में दुर्गा मंदिर के पुजारी हैं ।प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है। महर्षि मेंही अवतरण भूमि, मझुआ यहाँ स्थित भव्य सत्संग आश्रम इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। यहाँ एक भव्य सत्संग आश्रम बना है, जो कि अत्यंत सुन्दर है. यहाँ संत शिशु सूरज जी बड़ी लगन से आश्रम का निर्माण करवाया। २०वी सदी के महान संत महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का जन्म मझुआ नामक गांव में हुआ था। इनका जन्म २८-०४-१८८५ ईस्वी को नानाजी के यहाँ हुआ. इनकी माता जी का नाम जनकवती देवी था. स्व श्री चुमन लाल जी व् स्व श्री जय कुमार लाल दास जी इनके मामा जी थे. श्री कामेश्वर लाल दास जी इनके ममेरे भाई हैं, जो की जयकुमार लाल दास जी के सुपुत्र है। प्रतिवर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्दसी के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है। प्रमुख व्यक्ति बी.पी. मंडल, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भी रहे जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक जालक्षेत्र इन्हें भी देखें मधेपुरा बिहार के जिले
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यूरोपीय संघ (अंग्रेज़ी: European Union)(EU) मुख्यत: यूरोप में स्थित 27 देशों का एक राजनैतिक एवं आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रो पर लागू होती है। इसका अभ्युदय 1 जनवरी 1993 में रोम की संधि द्वारा यूरोपिय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था। तब से इसमें सदस्य देशों की संख्या में लगातार बढोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से परिवर्तन भी शामिल किये गये। 1992 में मास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी। दिसम्बर 2009 में लिस्बन समझौता जिसके द्वारा इसमें और व्यापक सुधारों की प्रक्रिया 1 जनवरी 2008 से शुरु की गयी है। यूरोपिय संघ सदस्य राष्ट्रों को एकल बाजार के रूप में मान्यता देता है एवं इसके कानून सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होता है जो सदस्य राष्ट्र के नागरिकों की चार तरह की स्वतंत्रताएँ सुनिश्चित करता है:- लोगों, सामान, सेवाएँ एवं पूँजी का स्वतंत्र आदान-प्रदान. संघ सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए एक तरह की व्यापार, मतस्य, क्षेत्रीय विकास की नीति पर अमल करता है 1999 में यूरोपिय संघ ने साझी मुद्रा यूरो की शुरुआत की जिसे पंद्रह सदस्य देशों ने अपनाया। संघ ने साझी विदेश, सुरक्षा, न्याय नीति की भी घोषणा की। सदस्य राष्ट्रों के बीच श्लेगन संधि के तहत पासपोर्ट नियंत्रण भी समाप्त कर दिया गया। यूरोपिय संघ में लगभग ५० करोड़ नागरिक हैं, एवं यह विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 31% योगदानकर्ता है जो 2007 में लगभग (यूएस$1.66 नील) था। यूरोपीय संघ समूह आठ संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं विश्व व्यापार संगठन में अपने सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है। यूरोपीय संघ के 21 देश नाटो के भी सदस्य हैं। यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण संस्थानों में यूरोपियन कमीशन, यूरोपीय संसद, यूरोपीय संघ परिषद, यूरोपीय न्यायलय एवं यूरोपियन सेंट्रल बैंक इत्यादि शामिल हैं। यूरोपीय संघ के नागरिक हर पाँच वर्ष में अपनी संसदीय व्यवस्था के सदस्यों को चुनती है। यूरोपीय संघ को वर्ष 2012 में यूरोप में शांति और सुलह, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की उन्नति में अपने योगदान के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतिहास द्वीतिय विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में एकता के पक्ष में माहौल बनना शुरु हुआ जिसे लोग अति राष्ट्रवाद, (जिसने कई राष्ट्रों को नेस्तनाबूद कर दिया था) के फलस्वरूप उपजे परिस्थितियों से पलायन के रूप में भी देखते हैं। यूरोप के एकीकरण का सबसे पहला सफल प्रस्ताव 1951 में आया जब यूरोप के कोयला एवं स्टील उद्योग लाबी ने लामबंदी शुरु की। यह मुख्यतया सदस्य राष्ट्रों, खासकर फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी में कोयला और इस्पात उद्योगों को एकीकृत नियंत्रण में लाने का प्रयास था। ऐसा खासकर इसलिए सोचा गया ताकि इन दो राष्ट्रों में संघर्ष की स्थिति भविष्य में उत्पन्न न हो। इस लाबी के कर्ता धर्ता ने तभी इसे संयुक्त राज्य यूरोप की परिकल्पना के रूप में प्रचारित किया था। यूरोपीय संघ के अन्य संस्थापक राष्ट्रों में बेल्जियम, इटली, लक्जमबर्ग, एवं नीदरलैंड प्रमुख थे। इस सांगठनिक प्रयास के बाद बाद 1957 में दो संस्थायें गठित की गयी जिसमें यूरोपियन इकानामिक कम्यूनिटी एवं यूरोपीय परमाणु उर्जा कम्यूनिटी प्रमुख थे। इन संस्थाओं का उद्देश्य नाभीकिय उर्जा एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग करना था। 1967 में उपरोक्त तीनों संस्थाओं का विलय होकर एक संस्था का निर्माण हुआ जिसे यूरोपियन कम्यूनिटी के नाम से जाना गया। (EC). 1973 में इस समुदाय में डेनमार्क, आयरलैंड एवं ब्रिटेन का पदार्पण हुआ। नार्वे भी इसी समय इसमें शामिल होना चाहता था लेकिन जनमत संग्रह के विपरित परिणामों के कारण उसे सदस्यता से वंचित रहना पड़ा। 1979 में पहली बार यूरोपीय संसद का गठन हुआ और इसमें लोकतांत्रिक पद्धति से सदस्य चुने गये। यूनान, स्पेन एवं पुर्तगाल 1980 में यूरोपीय संघ के सदस्य बने। 1985 में श्लेगेन संधि संपन्न हुई जिसके बाद सदस्य राष्ट्रों के नागरिकों का एक-दूसरे के राष्ट्र में बगैर पासपोर्ट के आना जाना शुरु हुआ। 1986 में यूरोपीय संघ के सदस्यों ने सिंगल यूरोपियन एक्ट पर हस्ताक्षर किये और संघ का झंडा वजूद में आया। 1990 में पूर्वी जर्मनीका पश्चिमी जर्मनी में एकीकरण हुआ। मस्त्रिख की संधि 1 नवंबर 1993 से प्रभावी हुई। मस्त्रिख की संधि के बाद यूरोपियन कम्यूनिटिज अब आधिकारिक रूप से यूरोपियन कम्यूनिटी बन गया। जिसमें एकीकृत रूप से विदेश निती, पुलिस एवं न्याय व्यवस्था के मसलो पर एक जैजी नीतियाँ बनने लगीं। 1995 में इस संघ में आस्ट्रिया, स्वीडन एवं फिनलैंड भी आ जुड़े। 1997 में मस्त्रिख संधि का स्थान एम्स्टर्डम संधि ने ले लिया जिसके बाद विदेश नीति एवं लोकतंत्र संबंधी नीतियों में व्यापक परिवर्तन हुए। एम्स्टर्डम के पश्चात 2001 में नीस की संधि आई जिससे रोम एवं मिस्त्रिख में हुई संधियों में सुधार किया गया जिससे पूर्व में संध के विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ। 2002 में यूरो को 12 सदस्य राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्वीकार किया। 2004 में दस नये राष्ट्रों का इसमें और जुड़ाव हुआ जो ज्यादातर पूर्वी यूरोप के देश थे। 2007 के प्रारंभ में रोमानिया एवं बुल्गारिया ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की और स्लोवानिया ने यूरो को अपनाया। पहली जनवरी 2008 को माल्टा एवं साईप्रस ने भी यूरोपीय संघ में प्रवेश लिया। यूरोपीय संघ के गठन के लिए 2004 में रोम में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गये जिसका उद्देश्य पिछले सभी संधियों को नकार कर एकीकृत कर एकल दस्तावेज तैयार करना था। लेकिन ऐसा कभी संभव न हो सका क्योंकि इस उद्देश्य के लिए कराए गये जनमत सर्वेक्षण में फ्रांसिसी एवं डच मतदाताओं ने इसे नकार दिया। 2007 में एक बार फिर लिस्बन समझौता हुआ जिसमें पिछली संधियों को बगैर नकारे हुए उनमें सुधार किए गये। जनवरी २००९ से इस संधि के प्रावधानों को पूरी तरह लागू कर दिया गया। २० फरवरी २०१६ को ब्रितानी प्रधानमंत्री डैविड कैमरन ने ब्रिटेन की यूरोपीय संघ में सदस्यता पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। २३ जून को हुए इस जनमत संग्रह का परिणाम ब्रिटेन के युरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में आया। इसे यूरोपीय संघ की एकता के लिए गहरे आघात के रूप में देखा गया। लिस्बन संधी के अनुसार ब्रिटेन के पास अलगाव की प्रक्रिया पूरी करने के लिए दो वर्ष का समय है। सदस्य राष्ट्र यूरोपीय संघ में पहले 28 देश थे जिसमें ब्रिटेन 31 जनवरी 2020 को बाहर निकल गया इस घटना को ब्रेक्जिट (BrExit)कहते हैं। 27 संप्रभु राष्ट्र हैं जो सदस्य राष्ट्रों के तौर पर जाने जाते हैं:- आस्ट्रिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, साइप्रस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्तोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी, आयरलैंड, ईटली, लातीविया, लिथुआनिया, लक्जमबर्ग, माल्टा, नीदरलैंड, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवानिया, स्पेन, स्वीडन,.कोएशिया इस समय तीन राष्ट्र आधिकारिक तौर पर इसकी सदस्यता की प्रतीक्षा में हैं, मकदूनिया एवं तुर्की; पश्चिमी बाल्कन राष्ट्र अल्बानिया, बोस्निया हर्जोगोविना, मांटीनीग्रो एवं सर्बिया आधिकारिक तौर पर संभावित सदस्य देशों के रूप में चिन्हित किये गये हैं। यूरोपीय परिषद द्वारा यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए कोपेनहेगन पात्रता की शर्ते निर्धारित की गयी हैं, जिसके अनुसार: स्थायी लोकतंत्र जिसमें मानवाधिकारों एवं न्याय पर आधारित शासन व्यव्स्था हो; एक कार्यकारी बाजार व्यवस्था हो जो संघ के अंतर्गत प्रतियोगिता को बढावा देता हो; एवं संघ की नीतियों का पालन करने की वचनबद्धता शामिल है। पश्चिम यूरोप के चार राष्ट्रों ने संघ की सदस्यता न लेकर आंशिक रूप से संघ की आर्थिक व्यवस्था में शामिल हैं जिनमें आइसलैंड, लीकटेन्स्टीन एवं नार्वे प्रमुख हैं, एवं स्वीटजरलैंड ने भी द्वीपक्षीय समझौते के तहत ऐसा स्वीकार किया है। यूरो का प्रयोग एवं अन्य सहयोग कर सकते हैं। भौगोलिक स्थिति यूरोपीय संघ का भौगोलिक क्षेत्र 27 सदस्य देशों की भूमि है जिनमें कुछ अपवादीय स्थितियाँ शामिल हैं। यूरोपीय संघ का क्षेत्र पूरा यूरोप नहीं है चूँकि कुछ यूरोपीय देश जैसे स्वीटजरलैंड, नार्वे, एवं सोवियत रूस इसका हिस्सा नहीं हैं। कुछ सदस्य राष्ट्रों के भूमि क्षेत्र भी यूरोप का हिस्सा होते हुए भी संघ के भौगोलिक नक्शे में शामिल नहीं है, उदहारण के तौर पर चैनल एवं फरोर द्वीप के हिस्से। सदस्य देशों के वे हिस्से जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं वे भी यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा से परे माने गये हैं:- जैसे ग्रीनलैंड, अरूबा, नीदरलैंड के कुछ हिस्से और ब्रिटेन के वे सारे क्षेत्र जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं। कुछ खास सदस्य देशों का भौगोलिक क्षेत्र जो यूरोप का अंग नहीं है, फिर भी उन्हें यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में शामिल माना गया है, उदहारण के तौर पर अजोरा, कैनरी द्वीप, फ्रेंच गुयाना, गुडालोप, मदेरिया, मार्तीनीक एवं रेयूनियोन. यूरोपीय संघ की संयुक्त भौगोलिक सीमा 4422773 वर्ग किमी है। यूरोपीय संघ विश्व की भौगोलिक क्षेत्रीय सीमा के अनुसार सांतवी सबसे बड़ी है और इस सीमा के अंदर सबसे ऊँचा क्षेत्र आल्प्स पर्वत स्थित माउंट ब्लांक है जो समुद्रतल से 4807 मीटर ऊँचा है। यहाँ का भूक्षेत्र, यहाँ की जलवायु एवं यहाँ की अर्थव्यवस्था में इसकी 65993 किमी लंबी तटरेखा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो कनाडा के बाद सबसे लंबी तटरेखा है। यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में (यूरोप से बाहर के देशों को मिलाकर) जलवायु के लिहाज से यहाँ का मौसम ध्रुवीय जलवायु से लेकरशीतोष्ण कटिबंधिय का अनुभव किया जा सकता है, इसलिए पूरे संघ के औसत मौसम की बात करना बेमानी होती है। व्यवहारिक तौर पर यूरोपीय संघ के ज्यादातर क्षेत्र में मेडिटेरेनियन (दक्षिणी यूरोप), विषुवतीय (पश्चिमी यूरोप) एवं ग्रीष्म (पूर्वी यूरोप) जलवायु पाया जाता है। प्रशासन यूरोपीय संघ अपने कई प्रशासनिक एवं अन्य इकाइयों द्वारा संचालित होता है, जिनमें मुख्य रूप से काउंसिल ऑफ यूरोपियन यूनियन, यूरोपियन कमीशन, एवं यूरोपियन पार्लियामेंटसबसे प्रमुख हैं। यूरोपीय आयोग संघ के प्रमुख कार्यकारी अंग के तौर पर काम करता है और इसके दैनंदिन कामों की जिम्मेवारी इसी पर होती है जिसे इसके 27 कमीश्नर संचालित करते हैं जो 27 सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस आयोग के अध्यक्ष एवं सभी 27 प्रतिनिधि यूरोपीय परिषद द्वारा नामित किये जाते हैं। अध्यक्ष एवं सभी 27 प्रतिनिधियों की नियुक्ति पर यूरोपीय संसद की मंजूरी आवश्यक होती है। यूरोपीय परिषद (यूरोपियन काउंसिल) जिसे काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के नाम से भी जाना जाता है, के आधे सदस्य संघ की न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा होते है। न्यायिक कामों के अलावा परिषद विदेश एवं सुरक्षा नीतियों के कार्यान्वण एवं निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यूरोपीय संघ में उच्च स्तर के राजनैतिक निर्णय के लिए नेतृत्व यूरोपीय काउंसिल अर्थात यूरोपीय परिषद द्वारा किया जाता है। यूरोपीय परिषद की बैठक साल में चार बार होती है एवं इसकी अध्यक्षता उस साल यूरोपीय संघ का अध्यक्ष राष्ट्रप्रमुख करता है जिसका मुख्य कार्य यूरोपीय संघ की नीतियों के अनुरूप काम करना एवं भविष्य के लिए दिशा निर्देश जारी करना होता है। यूरोपीय संघ की अध्यक्षता का कार्य हर सदस्य देश के जिम्मे रोटेटिंग आधार पर छह महीने के लिए आता है, इस दौरान यूरोपियन काउंसिल एवं काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के हर बैठक की जिम्मेवारी उस सदस्य राष्ट्र पर होती है। अध्यक्षता के दौरान अध्यक्ष राष्ट्र अपने खास एजेंडों पर ध्यान देता है जिसमे आम तौर पर आर्थिक एजेंडा, यूरोपीय संघ में सुधार एवं संघ के विस्तार एवं एकीकरण के मुद्दे खास होते हैं। यूरोपीय संघ के न्यायिक प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा यूरोपीय संसद होती है। यूरोपीय संसद के सदस्य के ७८५ सदस्य हर पांच वर्ष में यूरोपीय संघ की जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं। हलांकि इन सदस्यों का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर होता है परंतु यूरोपीय संसद में वे अपनी राष्ट्रीयता के अनुसार न बैठकर दलानुसार बैठते हैं। हर सदस्य राष्ट्र के लिए सीटों की एक निश्चित संख्या आवंटित होती है। यूरोपीय संसद को संघ के विधायी शक्तियों के मामलों में यूरोपीय परिषद की तरह ही शक्तियां हासिल होती हैं और संसद वे संघ की खास विधायिकाओं को स्वीकृत या अस्वीकृत करने की शक्ति से लैस होते हैं। यूरोपीय संसद का अध्यक्ष न सिर्फ बाहरी मंचों पर संघ का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यूरोपीय संसद के स्पीकर का भी दायित्व निभाता है। अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव यूरोपीय संसद के सदस्य हर ढा़ई साल के अंतराल पर करते हैं। कुछेक मामलों को छोडकर ज्यादातर मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत करने का अधिकार युरोपियन कमीशन को होता है, ऐसा ज्यादातर रेग्यूलेशन, एवं संसद के अधिनियमों द्वारा किया जाता है जिसे सदस्य राष्ट्रों को अपने अपने देशों में लागू करने की बाध्यता होती है। राजनीति अक्सर यूरोपीय संघ की राजनीति को तीन तत्वों से सबसे ज्यादा संचालित माना जाता है जिसे "पिलर्स" या स्तंभ कहा जाता है। यूरोपीय कम्यूनिटी की पुरानी नीतियों को इसका पहला स्तंभ कहा जाता है, दूसरे स्तंभ के तौर पर संयुक्त विदेश एवं सुरक्षा नीति का नाम लिया जाता है जबकि तीसरा स्तंभ पहले तो न्यायिक एवं घरेलू मामलात हुआ करते थे लेकिन एम्सटर्डम एवं नीस के समझौतों के बाद पुलिस एवं आपराधिक मामलों में सहयोग पर ज्यादा केंद्रित हो गया है। मोटे तौर पर कहा जाए तो अंतर्षाट्रीय मामलों को देखते हुए दूसरा एवं तीसरा स्तंभ महत्वपूर्ण हो जाता है। इस समय यूरोपीय संघ के समक्ष दो सबसे बडे़ मुद्दे हैं, वे हैं यूरोपीय एकीकरण एवं विस्तार। खासकर विस्तार, नये राष्ट्रों का यूरोपीय संघ में समावेश बडा़ राजनैतिक मुद्दा है। नये राष्ट्रों के समावेश का समर्थन करने वालों का मानना है कि इससे लोकतंत्र का विस्तार होता है एवं यूरोपीय अर्थव्यवस्था को भी संबल मिलता है। जबकि विरोध करनेवालों का मानना है कि यूरोपीय संघ अपनी वर्तमान राजनैतिक क्षमताओं एवं सीमाओं से परे एवं अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर जा रहा है जो इसके हित में नहीं है। जहां तक जनमत और राजनैतिक दलों का सवाल है, इस बारे में वे खासे सशंकित हैं खासकर २००४ में एक साथ दस नये सदस्य देश बनने के पश्चात और यह आशंका तुर्की की उम्मीद्वारी के बाद और भी बलवती हो गयी है। एकीकरण एक दूसरा महत्वपूर्ण मसला है जहां अक्सर माना जाता है कि राष्ट्रीय भावनायें अक्सर यूरोपीय संघ के बृहत उद्देश्यों से टकराहट मोल लेती रहती है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच समन्वय का लक्ष्य अक्सर राष्ट्रीय शक्तियों को यूरोपीय संघ में विलयित करने को बाध्य करता है जिसकी आलोचना अक्सर यूरोस्केपिस्ट लोगों द्वारा संप्रभुता खोने का डर दिखाकर की जाती रहती है। सन २००४ में राष्ट्रीय नेताओं एवं यूरोपीय संघ के अधिकारियों द्वारा एक साझा यूरोपीय संविधान पर सहमति बनायी गयी थी लेकिन इसे दो सदस्य राष्ट्रों के जनमत सर्वेक्षण में खारिज कर दिये जाने के कारण लागू नहीं किया गया क्योंकि उन्हें डर था कि अन्य देशों में भी इसे खारिज कर दिया जाएगा। बाद में अक्टूबर २००७ में लिस्बन समझौते के बाद एक नया संविधान बनाया गया जिसमें ज्यादातर पुराने नियमों एवं प्रावधानों को ही रखा गया। प्रस्तावित समझौते का २००९ में प्रभावी होना तय किया गया है। यदि यह सर्वस्वीकृत रहा तो इससे यूरोपीय संसद की शक्तियां काफी बढ जायेगी। इस समझौते के लागू होने से उपर उल्लेख किये गये पिलर्स भी निष्प्रभावी हो जायेंगे। विदेश नीति के बहुत से मुद्दे इससे विभिन्न राष्ट्रों के बीच सुलझाये जाने की बजाय सीधे सीधे यूरोपीय संघ की संस्थाओं द्वारा निर्देशित एवं संचालित होंगे। विधि व्यवस्था यूरोपीय संघ का आधार विभिन्न ऐतिहासिक समझौते हैं, जिनसे पहले तो यूरोपीय संघ की स्थापना हुई और फिर उन समझौतों में तरह तरह के सुधार किये जाते रहे। ये समकझौते यूरोपीय संघ की बृहत नीतियों का आधार एवं उद्देश्य निर्धारित करती हैं तथा उन्हें आवश्यक विधायी शक्तियां प्रदान करती है। इन विधायी शक्तियों में किसी कानून को लागू करवाने की शक्ति जो सीधे-सीधे सभी सदस्य राष्ट्रों एवं उसके नागरिकों को प्रभावित करती है। भाषाएँ यूरोपीय संघ के २३ आधिकारिक एवं कार्यकारी भाषायें: बुल्गारियाई, चेक, डैनिश, डच, अंग्रेजी, एस्तोनियाई, फिनिश, फ्रेंच, जर्मन, यूनानी, हंगेरियाई, इतालवी, आयरिश, लातीवियाई, लिथुयानियाई, माल्टी, पोलिश, पुर्तगाली, रुमानियाई, स्लोवाक, स्लोवानियाई, स्पैनिश एवं स्वीडिश हैं। यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष संदर्भ सूची बाहरी कड़ियाँ EUROPA — यूरोपिय संघ का आधिकारिक जालस्थल यूरोप यूरोपीय संघ संगठन नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन अंतर्राष्ट्रीय संगठन नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
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विनयपत्रिका तुलसीदास रचित एक ग्रंथ है। यह ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है। विनय पत्रिका में 21 रागों का प्रयोग हुआ है। विनय पत्रिका का प्रमुख रस शांतरस है तथा इस रस का स्‍थाई भाव निर्वेद होता है। विनय पत्रिका अध्‍यात्मिक जीवन को परिलक्षित करती है। इस में सम्‍मलित पदों की संख्‍या 279 है। विनय पत्रिका तुलसीदास के 279 स्तोत्र गीतों का संग्रह है। प्रारम्भ के 63 स्तोत्र और गीतों में गणेश, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, सीता और विष्णु के एक विग्रह विन्दु माधव के गुणगान के साथ राम की स्तुतियाँ हैं। इस अंश में जितने भी देवी-देवताओं के सम्बन्ध के स्तोत्र और पद आते हैं, सभी में उनका गुणगान करके उनसे राम की भक्ति की याचना की गयी है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि तुलसीदास भले ही इन देवी-देवताओं में विश्वास रखते रहे हों, किंतु इनकी उपयोगिता केवल तभी तक मानते थे, जब तक इनसे राम भक्ति की प्राप्ति में सहयोग मिल सके। रामभक्ति के बारे में ‘विनयपत्रिका’ के ही एक प्रसिद्ध पद में उन्होंने कहा है –तुलसीदास जी एक बहुत ही महान कवि थे।। ‘तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो। जासों होय सनेह राम पद एतो मतो हमारो॥’ परंपरागत कथा तुलसीदासजी अब असीघाट पर रहने लगे, तब एक रात कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आऐ और उन्हें त्रास देने लगे। गोस्वामीजी ने हनुमान्‌जी का ध्यान किया। तब हनुमान्‌जी ने उन्हें विनय के पद रचने के लिए कहा; इस पर गोस्वामीजी ने विनय-पत्रिका लिखी और भगवान्‌ के चरणों में उसे समर्पित कर दिया। श्रीराम ने उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। ग्रंथ तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथ
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ब्रह्मा जी के पुत्र दरीची, दरीची के पुत्र महर्षि कूर्म ( कुर्मी )कश्यप के वंश से जो सूर्यवंश हुआ उसी के इक्षवा कुल में श्री राम का जन्म हुआ इन्हें रामचंद्र भी कहते हैं, रामायण के अनुसार,महाराजा प्रजापति दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र, सीता के पति व लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के भ्राता थे। हनुमान उनके परम भक्त है। लंका के राजा रावण का वध उन्होंने ही किया था। उनकी प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है क्योंकि उन्होंने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता तक का त्याग किया। वे भगवान विष्णु प्रजापति के अवतार माने जाते हैं।श्री राम का जन्म वैवस्वत मन्वंतर में 23 वे चतुर्युग के त्रेता में हुआ था । उन्होंने करीब 11000 वर्ष अयोध्या का शासन किया था , श्री राम विश्वामित्र के साथ यज्ञ की रक्षा के लिए छोटे भाई लक्षण के साथ गए और ताड़का आदि राक्षस मारे उसके बाद गुरु के साथ राजा जनक के यहा उनकी पुत्री सीता के स्वयंवर में पहुंच कर शिव के धनुष को तोड़ सीता से विवाह किया , जब उन्होंने अगला राजा बनाया जा रहा था तब उनके पिता के वचन के लिए 14 वर्ष वनवास जाना हुआ जहां पर लक्ष्मण ने शुर्पनखा के नाक कान काट दिए और उसके भाई खर दूषण का राम ने वध कर दिया माता सीता का अपहरण रावण द्वारा किया गया जिसकी खोज में जटायु पक्षी जो बात करता था जिसने रावण का प्रतिकार किया था का पिता के समान अंत्येष्ठि संस्कार किया आगे हनुमान सुग्रीव से मिले सुग्रीव ले भाई बाली का वध कर सुग्रीव को राजा बनाया हनुमान ने माता सीता की खोज की रावण के भाई विभीषण को शरण दी रावण और इसके 1लाख से अधिक पुत्र डेढ़ लाख से अधिक पौत्र को कुंभकरण ,मेघनाद सहित मार गिराए , रामेश्वर में शिवलिंग स्थापित किया जो की ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हैं नवरात्रि शक्ति की पूजा की समुद्र पर पुल बनाया और रावण को विभीषण के द्वारा अबताए रहस्य से जान कर मार गिराया पुष्पक विमान ले माता सीता को अग्नि परीक्षा करा लेकर शीघ्र भारत भैया के पास अयोध्या पहुंचे मेंषि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी।लेखक गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की थी। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामायण की रचनाएँ हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। स्वामी करपात्री ने रामायण मीमांसा में विश्व की समस्त रामायण का लेखा हैं , दक्षिण के क्रांतिकारी पेरियार रामास्वामी व ललई सिंह यादव की रामायण भी मान्यताप्राप्त है। भारत में श्री राम अत्यन्त पूजनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं तथा विश्व के कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं जैसे नेपाल, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि । इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। इनका परिवार, आदर्श थाईलैंडी परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। रामरघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा रघुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जाई पर बचन न जाई की थी। ब्राह्मणों के अनुसार राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया, इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके दो पुत्रों कुश व लव ने इनके राज्यों अयोध्या और कोशलपुर को संभाला। वैदिक धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, श्रीराम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं। रामायण भारतीयों के मन में बसता आया है, और आज भी उनके हृदयों में इसका भाव निहित है। भारत में किसी व्यक्ति को नमस्कार करने के लिए राम राम, जय सियाराम जैसे शब्दों को प्रयोग में लिया जाता है। ये भारतीय संस्कृति के आधार हैं।। राम और कृष्ण दोनो ही विष्णु का अवतार हैं अतः ये दोनो एक ही हैं। नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ 'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है। 'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं - "रमते कणे कणे इति रामः"। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं। आदि राम कबीर साहेब जी आदि राम की परिभाषा बताते है की आदि राम वह अविनाशी परमात्मा है जो सब का सृजनहार व पालनहार है। जिसके एक इशारे पर‌ धरती और आकाश काम करते हैं जिसकी स्तुति में तैंतीस कोटि देवी-देवता नतमस्तक रहते हैं। जो पूर्ण मोक्षदायक व स्वयंभू है।"एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा, एक राम का सकल उजियारा, एक राम जगत से न्यारा"।। अवतार रूप में प्राचीनता वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है; लेकिन वहां भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का तथा एक स्थल पर 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है। ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय में दो स्थलों पर (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है। [] में एक स्थल पर 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)। यहां 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है। जन्म रामायण में वर्णन के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथेपन तक संतान प्राप्ति नहीं हुई, "एक बार दशरथ मन माही, भई गलानि मोरे सुत नाही" तदोपरांत सम्राट दशरथ ने पुत्रेश्टी यज्ञ (पुत्र प्राप्ती यज्ञ) कराया जिसके फलस्वरूप उनके पुत्रों का जन्म हुआ। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। किंतु अपनी बहन से छोटे थे। भगवान राम की सगी बहन शांता थीं जो श्रीराम और उनके तीनों भाइयों की बड़ी बहन थीं। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या राम नवमी का पर्व मनाया संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। कुछ हिंदू ग्रंथों में, राम के बारे में कहा गया है कि वे त्रेता युग या द्वापर युग में रहते थे कि उनके लेखकों का अनुमान लगभग 5,000 ईसा पूर्व था। कुछ अन्य शोधकर्ता राम को कुरु और वृष्णि नेताओं की पुन: सूचियों के आधार पर 1250 ईसा पूर्व, के आसपास रहने के लिए अधिक उपयुक्त स्थान देते थे, जो अगर अधिक यथार्थवादी शासनकाल में दिए जाते हैं, तो उस अवधि के आसपास, राम के समकालीन, भरत और सत्त्व को स्थान देंगे। एक भारतीय पुरातत्वविद् हंसमुख धीरजलाल सांकलिया के अनुसार, जो प्रोटो- और प्राचीन भारतीय इतिहास में विशिष्ट है, यह सब "शुद्ध अटकलें" हैं। राम की महाकाव्य कहानी की रचना, रामायण अपने वर्तमान रूप में, आमतौर पर 7 वीं और चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की है। ऑक्सफोर्ड के संस्कृत के एक प्रोफेसर जॉन ब्रॉकिंगटन के अनुसार, रामायण पर उनके प्रकाशनों के लिए जाना जाता है, मूल पाठ संभवतः अधिक प्राचीन काल में मौखिक रूप से रचित और प्रसारित किया गया था, और आधुनिक विद्वानों ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में विभिन्न शताब्दियों का सुझाव दिया है। ब्रॉकिंगटन के विचार में, "भाषा, शैली और काम की सामग्री के आधार पर, लगभग पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व की तारीख सबसे अनुमानित अनुमान है"। भगवान राम के जन्म-समय पर पौराणिक शोध राम के कथा से सम्बद्ध सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में रामजी के-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है: चैत्रे नावमिके तिथौ।। नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।। अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (रामजी का जन्म हुआ)। यहां केवल बृहस्पति तथा चन्द्रमा की स्थिति स्पष्ट होती है। बृहस्पति उच्चस्थ है तथा चन्द्रमा स्वगृही। आगे पन्द्रहवें श्लोक में सूर्य के उच्च होने का उल्लेख है। इस प्रकार बृहस्पति तथा सूर्य के उच्च होने का पता चल जाता है। बुध हमेशा सूर्य के पास ही रहता है। अतः सूर्य के उच्च (मेष में) होने पर बुद्ध का उच्च (कन्या में) होना असंभव है। इस प्रकार उच्च होने के लिए बचते हैं शेष तीन ग्रह मंगल, शुक्र तथा शनि। इसी कारण से प्रायः सभी विद्वानों ने रामजी के जन्म के समय में सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि को उच्च में स्थित माना है। परम्परागत रूप से राम का जन्म त्रेता युग में माना जाता है। ब्राह्मण / हिन्दू धर्मशास्त्रों में, विशेषतः पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक चतुर्युगी में 43,20,000 वर्ष होते हैं, जिनमें कलियुग के 4,32,000 वर्ष तथा द्वापर के 8,64,000 वर्ष होते हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर युग से पहले हुआ था। चूंकि कलियुग का अभी प्रारंभ ही हुआ है (लगभग 5,500 वर्ष ही बीते हैं) और राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ तथा अवतार लेकर धरती पर उनके वर्तमान रहने का समय परंपरागत रूप से 11,000 वर्ष माना गया है। अतः द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष + राम की वर्तमानता के 11,000 वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक बीते 5,100 वर्ष = कुल 8,80,100 वर्ष। अतएव परंपरागत रूप से राम का जन्म आज से लगभग 8,80,100 वर्ष पहले माना जाता है। प्रख्यात मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ॰ पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से इस समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विन्ध्याचल तथा हिमालय की ऊंचाई को समान बताया गया है। विन्ध्याचल की ऊंचाई 5,000 फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊंचाई वर्तमान में 29,029 फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील है। दोनों की ऊंचाई का अंतर 24,029 फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार हिमालय 100 वर्षों में 3 फीट बढ़ता है। अतः 24,029 फीट बढ़ने में हिमालय को करीब 8,01,000 वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब 8,01,000 वर्ष पहले हिमालय की ऊंचाई विन्ध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डाॅ॰ वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से इस समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं। अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में डॉ॰ वर्तक ने मुख्यतः ग्रहगतियों के आधार पर गणित करके वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि 4 दिसंबर 7323 ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में 1:30 से 3:00 बजे के बीच श्री राम का जन्म हुआ होगा। डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद (2004 ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके रामजी का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व 3000 से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है। वस्तुतः 2013 ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था। इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी। बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा "ejplde431" सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में। अतः 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः राम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में अब यदि डॉ० पी० वी० वर्तक और डॉ० यज्ञदत्त शर्मा द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि सॉफ्टवेयर द्वारा प्रमाणित हो जाए तभी रामजी का वास्तविक समय प्रायः सर्वमान्य हो पाएगा अथवा प्रमाणित न हो पाने की स्थिति में नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुलेगा अथवा ब्राह्मण धर्म यानी हिन्दू धर्म ग्रंथों या शास्त्रों में वर्णित तिथि ही सर्वमान्य प्रमाण है। भगवान श्री राम के जीवन की प्रमुख घटनाएं बालपन और सीता-स्वयंवर पुराणों में श्री राम के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि श्री राम का जन्म वर्तमान भारत के अयोध्या नामक नगर में हुआ था। अयोध्या, जो कि भगवान राम के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र के पूर्वज रघु थे। भगवान राम बचपन से ही शान्‍त स्‍वभाव के वीर पुरूष थे। उन्‍होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्‍हें मर्यादा पुरूषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्‍हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र, जो ब्रह्म ऋषि बनने से पहले राजा विश्वरथ थे, उनकी तपोभूमि बिहार का बक्सर जिला है। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र वेदमाता गायत्री के प्रथम उपासक हैं, वेदों का महान गायत्री मंत्र सबसे पहले ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र के ही श्रीमुख से निकला था। कालांतर में विश्वामित्रजी की तपोभूमि राक्षसों से आक्रांत हो गई। ताड़का नामक राक्षसी विश्वामित्रजी की तपोभूमि में निवास करने लगी थी तथा अपनी राक्षसी सेना के साथ बक्सर के लोगों को कष्ट दिया करती थी। समय आने पर विश्वामित्रजी के निर्देशन प्रभु श्री राम के द्वारा वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही गुरु विश्‍वामित्र उन्हें ले गये। वहां के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक स्वयंवर समारोह आयोजित किया था। जहां भगवान शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्‍यंचा चढ़ाने वाले शूरवीर से सीता जी का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे। जब बहुत से राजा प्रयत्न करने के बाद भी धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना तो दूर उसे उठा तक नहीं सके, तब विश्‍वामित्र जी की आज्ञा पाकर श्री राम ने धनुष उठा कर प्रत्‍यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया। उनकी प्रत्‍यंचा चढ़ाने के प्रयत्न में वह महान धनुष घोर ध्‍‍वनि करते हुए टूट गया। महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्‍वनि को सुना तो वे वहां आ गये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटने पर रोष व्‍यक्‍त करने लगे। लक्ष्‍मण जी उग्र स्‍वभाव के थे। उनका विवाद परशुराम जी से हुआ। (वाल्मिकी रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता है।) तब श्री राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्‍त लोगों ने आशीर्वाद दिया। अयोध्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे। लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्‍त भावना और न्‍यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्‍थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्‍होंने राज्‍यभार राम को सौंपने का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा, उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्‍त करने वाले हैं। उस समय राम के अन्‍य दो भाई भरत और शत्रुघ्‍न अपने ननिहाल कैकेेय गए हुए थे। कैकेयी की दासी मन्थरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्‍हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्‍हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चा‍हते हैं। भगवान राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है। वनवास श्री राम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वन (वनवास) जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आए। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। जब राम वनवासी थे तभी उनकी पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम ने हनुमान, सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषों की सहायता से सीता को ढूंंढा। समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे तथा रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता जी को वापस ले कर आये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राजा दशरथ के तीन रानियां थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। भगवान राम कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। राज्य नियमों के अनुसार राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का पात्र होता है अत: श्री राम का अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होंने दो बार राजा दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो जीवन के किसी भी पल उनसे दो वर मांग सकती हैं। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी कि उनका पुत्र भरत ही अयोध्या का राजा बने, इसलिए उन्होंने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंधे राजा दशरथ को विवश होकर यह स्वीकार करना पड़ा। श्री राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। श्री राम की पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण जी भी वनवास गये थे। सीता जी का अपहरण वनवास के समय, रावण ने सीता जी का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, जब राम, सीता और लक्ष्मण कुटिया में थे तब एक स्वर्णिम हिरण की वाणी सुनकर, पर्णकुटी के निकट उस स्वर्ण मृग को देखकर देवी सीता व्याकुल हो गयीं। देवी सीता ने जैसे ही उस सुन्दर हिरण को पकड़ना चाहा वह हिरण या मृग घनघोर वन की ओर भाग गया। वास्तविकता में यह असुरों द्वारा किया जा रहा एक षडयंत्र था ताकि देवी सीता का अपहरण हो सके। वह स्वर्णमृग या सुनहरा हिरण राक्षसराज रावण का मामा मारीच था। उसने रावण के कहने पर ही सुनहरे हिरण का रूप धारण किया था ताकि वो योजना अनुसार राम - लक्ष्मण को सीता जी से दूर कर सकें और सीता जी का अपहरण हो सके। उधर षडयन्त्र से अनजान सीता जी उसे देख कर मोहित हो गईं और रामचंद्र जी से उस स्वर्ण हिरण को जीवित एवं सुरक्षित पकड़ने करने का अनुरोध किया ताकि उस अद्भुत सुन्दर हिरण को अयोध्या लौटने पर वहां ले जा कर पाल सकें । रामचन्द्र जी अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पड़े और लक्ष्मण जी से सीता की रक्षा करने को कहा। कपटी मारीच राम जी को बहुत दूर ले गया। श्री राम को दूर ले जाकर मारीच ने ज़ोर से "हे सीता ! हे लक्ष्मण !" की आवाज़ लगानी प्रारंभ कर दी ताकि उस आवाज़ को सुन कर सीता जी चिन्तित हो जाएं और लक्ष्मण को राम के पास जाने को कहें, जिससे रावण सीता जी का हरण सरलता पूर्वक कर सके । इस प्रकार छल या धोखे का अनुमान लगते ही अवसर पाकर श्री राम ने तीर चलाया और उस स्वर्णिम हिरण का रूप धरे राक्षस मारीच का वध कर दिया । दूसरी ओर सीता जी मारीच द्वारा लगाए अपने तथा लक्ष्मण के नाम के ध्वनियों को सुन कर अत्यंत चिन्तित हो गईं तथा किसी प्रकार के अनहोनी को समीप जानकर लक्ष्मण जी को श्री राम के पास जाने को कहने लगीं। लक्ष्मण जी राक्षसों के छल - कपट को समझते थे इसलिए लक्ष्मण जी देवी सीता को असुरक्षित अकेला छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, पर देवी सीता द्वारा बलपूर्वक अनुरोध करने पर लक्ष्मण जी अपनी भाभी की बातों को अस्वीकार नहीं कर सके। वन में जाने से पहले सीता जी की रक्षा के लिए लक्ष्मण जी ने अपने बाण से एक रेखा खींची तथा सीता जी से निवेदन किया कि वे किसी भी परिस्थिति में इस रेखा का उल्लंघन नहीं करें, यह रेखा मंत्र के उच्चारण पूर्वक खिंची गई है इसलिए इस रेखा को लांघ कर कोई भी इसके अन्दर नहीं आ पाएगा। लक्ष्मण जी ने देवी सीता की रक्षा के लिए जो अभिमंत्रित रेखा अपने बाण के द्वारा खिंची थी वह लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है। लक्ष्मण जी के घोर वन में प्रवेश करते ही तथा देवी सीता को अकेला पाकर पहले से षडयंत्र पूर्वक घात लगाकर बैठे रावण को सीता जी के अपहरण का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। रावण शीघ्र ही राम - लक्ष्मण - सीता के निवास स्थान उस पर्णकुटी या कुटिया में जहां परिस्थिति वश देवी सीता इस समय अकेली थीं, आ गया। उसने साधु का वेष धारण कर रखा था । पहले तो उसने उस सुरक्षित कुटिया में सीधे घुसने का प्रयास किया लेकिन लक्ष्मण रेखा खींचे होने के कारण वह कुटिया के अंदर जहां देवी सीता विद्यमान थीं, नहीं घुस सका। तब उसने दूसरा उपाय अपनाया, साधु का वेष तो उसने धारण किया हुआ ही था, सो वह कुटिया बाहरी द्वार पर खड़े होकर "भिक्षाम् देही - भिक्षाम् देही" का उद्घोष करने लगा। इस वाणी को सुन कर देवी सीता कुटिया के बाहर निकलीं (लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन किए बिना)। द्वार पर साधु को आया देख कर वो कुटिया के चौखट से ही (लक्ष्मण रेखा के भीतर से ही) उसे अन्न - फल आदि का दान देने लगीं। तब धूर्त रावण ने सीता जी को लक्ष्मण रेखा से बाहर लाने के लिए स्वयं के भूखे - प्यासे होने की बात बोल कर भोजन की मांग की। आर्यावर्त की परंपरा के अनुसार द्वार पर आये भिक्षुक एवं भूखे को खाली हाथ नहीं लौटाने की बात सोच कर वो भोजन - जल आदि लेकर भूल वश लक्ष्मण रेखा के बाहर निकल गई। जैसे ही सीता जी लक्ष्मण रेखा के बाहर हुई, घात लगाए रावण ने झटपट उनका अपहरण कर लिया। रावण सीता जी को पुष्पक विमान में बल पूर्वक बैठाकर ले जाने लगा। पुष्पक विमान में अपहृत होकर जाते समय सीता जी ने अत्यन्त उच्च स्वर में श्री राम और लक्ष्मण जी को पुकारा तथा अपनी सुरक्षा की गुहार लगायी। इस ऊंचे ध्वनि को सुनकर जटायु नामक एक विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों के समान स्पष्ट वाणी में बोल सकता था तथा पूर्व काल में राजा दशरथ का परम मित्र था, वन प्रदेश को छोड़कर आकाश मार्ग में उड़ कर पहुंचा। जटायु देखता है कि अधर्मी रावण एक सुन्दर युवती को अपहरण कर लेकर जा रहा है तथा वह युवती अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रही है। यह अन्याय देख कर जटायु रावण को चुनौती देता है तथा उस युवती को छोड़ देने की चेतावनी देता है लेकिन अहंकारी रावण भला कहां मानने वाला था सो रावण और जटायु में आकाश मार्ग में ही युद्ध छिड़ जाता है। बलशाली रावण अपने अमोघ खड्ग से जटायु के दोनों पंख काट देता है जिससे जटायु नि:सहाय हो कर पृथ्वी पर गिर जाता है। रावण पुष्पक विमान में सीता जी को लेकर आगे बढ़ने लगता है। सीता जी ने जब देखा कि उनकी रक्षा करने के लिए आए विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों की भांति बोल सकता था, रावण के खड्ग प्रहार करने से धराशायी हो गया है तब पुष्पक विमान में आकाशमार्ग अथवा वायुमार्ग से जाते समय सीता जी अपने आभूषण / गहने को उतार कर नीचे धरती पर फेंकने लगीं। भगवान राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बड़े भक्त बने। रावण का वध रामायण में सीता के खोज में सीलोन या लंका या श्रीलंका जाने के लिए 48 किलोमीटर लम्बे 3 किलोमीटर चोड़े पत्थर के सेतु का निर्माण करने का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसको रामसेतु कहते हैं। सीता को को पुनः प्राप्त करने के लिए राम ने हनुमान, विभीषण और वानर सेना की सहायता से रावण के सभी बंधु-बांधवों और उसके वंशजों को पराजित किया तथा लौटते समय विभीषण को लंका का राजा बनाकर अच्छे शासक बनने के लिए मार्गदर्शन किया। अयोध्या वापसी राम ने रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। राम, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर प्रस्थान किये । वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ। पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा। दैहिक त्याग जब रामचन्द्र जी का जीवन पूर्ण हो गया, तब वे यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में देह त्याग कर पुनः बैकुंठ धाम में विष्णु रूप में विराजमान हो गये। इन्हें भी देखें रामायण भगवान महावीर का साधना काल रामचरितमानस रामकथा : उत्पत्ति और विकास जैन धर्म में राम कृष्ण राम की प्रतिमा‎ सन्दर्भ बाहरी कड़ियां श्री राम जी पर आधारित वेबसाइट हिन्दू धर्म राम अयोध्याकुल विष्णु अवतार रामायण के पात्र
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मुहम्मद 570 ई - 8 जून 632 ई) इस्लाम के संस्थापक थें। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, वह एक पैगम्बर और ईश्वर के संदेशवाहक थे, जिन्हें इस्लाम के पैग़म्बर भी कहते हैं, जो पहले आदम , इब्राहीम , मूसा ईसा (येशू) और अन्य पैगम्बर द्वारा प्रचारित एकेश्वरवादी शिक्षाओं को प्रस्तुत करने और पुष्टि करने के लिए भेजे गए थे। इस्लाम की सभी मुख्य शाखाओं में उन्हें अल्लाह के अंतिम पैगम्बर के रूप में देखा जाता है, हालांकि कुछ आधुनिक संप्रदाय इस विश्वास से अलग भी नज़र आते हैं। मुसलमान यह विश्वास रखते हैं कि कुरान जिब्राईल (ईसाईयत में गैब्रियल) नामक एक फरिश्ते के द्वारा, मुहम्मद को ७वीं सदी के अरब में, लगभग ४० साल में याद-कंठस्‍थ कराया गया था। मुहम्मद , विश्वासियों को एकजुट करने में एक मुस्लिम धर्म स्थापित करने में, एक साथ इस्लामिक धार्मिक विश्वास के आधार पर कुरान के साथ-साथ उनकी शिक्षाओं और प्रथाओं के साथ नज़र आते हैं। लगभग 570 ई (आम-अल-फ़ील (हाथी का वर्ष)) में अरब के शहर मक्का में पैदा हुए, मुहम्मद की छह साल की उम्र तक उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था। ; वह अपने पैतृक चाचा अबू तालिब और अबू तालिब की पत्नी फातिमा बिन्त असद की देखभाल में थे। समय-समय पर, वह प्रार्थना के लिए कई रातों के लिए हिरा नाम की पर्वत गुफा में अल्लाह की याद में बैठते। बाद में 40 साल की उम्र में उन्होंने गुफा में जिब्रील अलै. को देखा, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह से अपना पहला इल्हाम प्राप्त हुआ। तीन साल बाद, 610 में, मुहम्मद ने सार्वजनिक रूप से इन रहस्योद्घाटनों का प्रचार करना शुरू किया, यह घोषणा करते हुए कि " ईश्वर एक है ", अल्लाह को पूर्ण "समर्पण" (इस्लाम) कार्यवाही का सही तरीका है (दीन), और वह इस्लाम के अन्य पैगम्बर के समान, ख़ुदा के पैगंबर और दूत हैं। मुहम्मद ने शुरुआत में कुछ अनुयायियों को प्राप्त किया,और मक्का में अविश्वासियों से शत्रुता का अनुभव किया। चल रहे उत्पीड़न से बचने के लिए,उन्होंने कुछ अनुयायियों को 615 ई में अबीसीनिया भेजा, इससे पहले कि वह और उनके अनुयायियों ने मक्का से मदीना (जिसे यस्रीब के नाम से जाना जाता था)से पहले 622 ई में हिजरत (प्रवास या स्थानांतरित)किया। यह घटना हिजरा या इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत को चिह्नित करता है,जिसे हिजरी कैलेंडर के रूप में भी जाना जाता है। मदीना में,मुहम्मद साहब ने मदीना के संविधान के तहत जनजातियों को एकजुट किया। दिसंबर 622 में,मक्का जनजातियों के साथ आठ वर्षों के अंतराल युद्धों के बाद,मुहम्मद साहब ने 10,000 मुसलमानों की एक सेना इकट्ठी की और मक्का शहर पर चढ़ाई की। विजय बहुत हद तक अनचाहे हो गई, 632 में विदाई तीर्थयात्रा से लौटने के कुछ महीने बाद, वह बीमार पड़ गए और वह इस दुनिया से विदा हो गए। रहस्योद्घाटन (प्रत्येक को आयह के नाम से जाना जाता है, (अल्लाह के इशारे), जो मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ने दुनिया से जाने तक प्राप्त करने की सूचना दी, कुरान के छंदों का निर्माण किया, मुसलमानों द्वारा शब्द" अल्लाह का वचन "के रूप में माना जाता है और जिसके आस-पास धर्म आधारित है। कुरान के अलावा, हदीस और सीरा (जीवनी) साहित्य में पाए गए मुहम्मद साहब की शिक्षाओं और प्रथाओं (सुन्नत) को भी इस्लामी कानून के स्रोतों के रूप में उपयोग किया जाता है, मुहम्मद 2 वक्त का खाना। खाते खाने में एक ही सब्जी लेते। परिचय मुहम्मद का जन्म मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार अरब के रेगिस्तान के शहर मक्का में 8 जून, 570 ई. मेंं हुआ। ‘मुहम्मद’ का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो'। इनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना है। मुहम्मद की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया, एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से ले कर इंडीज़ तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका, और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला। नाम और कुरान में प्रश्ंसा मोहम्मद (/mʊhæməd,-hɑːməd/) का अर्थ है "प्रशंसनीय" और कुरान में चार बार प्रकट होता है। कुरान दूसरे अपील में मुहम्मद को विभिन्न अपीलों से संबोधित करता है; भविष्यवक्ता, दूत, अल्लाह का अब्द (दास), उद्घोषक ( बशीर ), गवाह (शाहिद), अच्छी ख़बरें (मुबारशीर), चेतावनीकर्ता (नाथिर), अनुस्मारक (मुधाकीर), जो [अल्लाह की तरफ बुलाता है] (दायी) कहते हैं, तेजस्व व्यक्तित्व (नूर), और प्रकाश देने वाला दीपक (सिराज मुनीर)। मुहम्मद को कभी-कभी पते के समय अपने राज्य से प्राप्त पदनामों द्वारा संबोधित किया जाता है: इस प्रकार उन्हें में ढका हुआ (अल-मुज़ममिल) के रूप में जाना जाता है और झुका हुआ अल-मुदाथथिर) सुरा अल-अहज़ाब में 33:40 ईश्वर ने मुहम्मद को " भविष्यद्वक्ताओं की मुहर " या भविष्यवक्ताओं के अंतिम रूप में एकल किया। कुरान मुहम्मद को अहमद के रूप में भी संदर्भित करता है "अधिक प्रशंसनीय" (अरबी : أحمد, सूरा (, सूरा अस-सफ़ ). अबू अल-कासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुत्तलिब इब्न हाशिम नाम, कुन्या अबू से शुरू होता है, जो अंग्रेजी के पिता के अनुरूप है। मुहम्मद साहब की पत्नियां मुसलमानों का मानना ​​है कि मुहम्मद साहब की पत्नियां विश्वासियों के माता (अरबी: أمهات المؤمنين उम्महत अल-मुमीनिन) है। मुसलमानों ने सम्मान की निशानी के रूप में उन्हें संदर्भित करने से पहले या बाद में प्रमुख शब्द का प्रयोग किया। यह शब्द कुरान 33: 6 से लिया गया है: "पैगंबर अपने विश्वासियों की तुलना में विश्वासियों के करीब है, और उनकी पत्नियां उनकी माताओं (जैसे) हैं।" मुहम्मद साहब 25 वर्ष के लिए मोनोग्राम थे। अपनी पहली पत्नी खदीजा बिन्त खुवायलद की मृत्यु के बाद, उन्होंने नीचे दी गई पत्नियों से शादी करने के लिए आगे बढ़ दिया, और उनमें से ज्यादातर विधवा थे मुहम्मद के जीवन को पारम्परिक रूप से दो युगों के रूप में चित्रित किया गया है: पूर्व हिजरत (पश्चिमी उत्प्रवासन) में मक्का में 570 से 622 तक, और मदीना में, 622 से 632 तक अपनी मृत्यु तक। हिजरत (मदीना के प्रवास) के बाद उनके विवाह का अनुबंध किया गया था। मुहम्मद की तेरह "पत्नियों" से एक मारिया अल किबतिया, वास्तव में केवल उपपत्नी थीं; हालांकि, मुसलमानों में बहस होती है कि इन एक पत्नियां बन गईं हैं। उनकी 13 पत्नियों और में से केवल दो बच्चों ने उसे बोर दिया था, जो कि एक तथ्य है जिसे कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के करीब ईस्टर्न स्टडीज डेविड एस पॉवर्स के प्रोफेसर द्वारा "जिज्ञासु" कहा गया है। सूत्र वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है। पेट्रीसिया क्रोन, माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था। कुरान कुरान इस्लाम का केंद्रीय धार्मिक पाठ है। मुसलमानों का मानना ​​है कि यह मलक जिब्रील द्वारा मुहम्मद को अल्लाह की जानिब से भेज गया कलाम है। कुरान, हालांकि, मुहम्मद की कालानुक्रमिक जीवनी के लिए न्यूनतम सहायता प्रदान करता है; कुरान एक पवित्र किताब है जो इंसान को भलाई के मार्ग पर ले जाने का काम करती है, दुनिया के कई ऐसे रेह्स्यो के बारे में बताया गया है जिसके बारे में लोग अभी तक नहीं जान पाए हैं जैसे एक चीन्टी दूसरी चीन्टी से कैसे संपर्क करती है इसके बारे में क़ुरआन में बताया गया है कि चीटी अपने दोनों बालों जो उनके सर उगे होते है उनको रगडकर संपर्क करती। ऐसी ही कई रोचक और दिल का सुकून देने वाली बहुत सी बाते हैं। प्रारंभिक जीवनी मुख्य लेख: भविष्यवाणी जीवनी मुहम्मद के जीवन के बारे में महत्वपूर्ण स्रोत मुस्लिम युग (हिजरी - 8 वीं और 9वीं शताब्दी ई) की दूसरी और तीसरी शताब्दियों के लेखकों द्वारा ऐतिहासिक कार्यों में पाया जा सकता है। इनमें मुहम्मद की पारंपरिक मुस्लिम जीवनी शामिल हैं, जो मुहम्मद के जीवन के बारे में अतिरिक्त जानकारी प्रदान करती हैं। सबसे पुरानी जीवित सिरा (मुहम्मद की जीवनी और उद्धरण उनके लिए जिम्मेदार) इब्न इशाक का जीवन भगवान का मैसेंजर लिखित सी है। 767 सीई (150 एएच)। यद्यपि काम खो गया था, इस सीरा का इस्तेमाल इब्न हिशाम और अल-ताबररी द्वारा थोड़ी सी सीमा तक किया गया था। हालांकि, इब्न हिशम मुहम्मद की अपनी जीवनी के प्रस्ताव में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इब्न इशाक की जीवनी से मामलों को छोड़ दिया जो "कुछ लोगों को परेशान करेगा"। एक और प्रारंभिक इतिहास स्रोत मुहम्मद के अभियानों का इतिहास अल-वकिदी (मुस्लिम युग की मृत्यु 207), और उनके सचिव इब्न साद अल-बगदादी (मुस्लिम युग की मौत 230) का काम है। कई विद्वान इन शुरुआती जीवनी को प्रामाणिक मानते हैं, हालांकि उनकी सटीकता अनिश्चित है। हाल के अध्ययनों ने विद्वानों को कानूनी मामलों और पूरी तरह से ऐतिहासिक घटनाओं को छूने वाली परंपराओं के बीच अंतर करने का नेतृत्व किया है। कानूनी समूह में, परंपराएं आविष्कार के अधीन हो सकती थीं, जबकि ऐतिहासिक घटनाएं, असाधारण मामलों से अलग हो सकती हैं, केवल "प्रवृत्त आकार" के अधीन हो सकती हैं। हदीस अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में हदीस संग्रह, मौखिक और शारीरिक शिक्षाओं और मुहम्मद की परंपराओं के विवरण शामिल हैं। हदीस के ग्रन्थ सहीह अल-बुख़ारी, मुस्लिम इब्न अल-हजज, मुहम्मद इब्न ईसा -तिर्मिधि, अब्द अर-रहमान अल-नसाई, अबू दाऊद, इब्न माजह, मालिक इब्न अनस, अल-दराकुत्नी सहित अनुयायियों द्वारा मुहम्मद की मृत्यु के बाद संकलित किया गया था। कुछ पश्चिमी शिक्षाविदों ने सावधानीपूर्वक हदीस संग्रह को सटीक ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में देखा है। मैडलंग जैसे विद्वान बाद की अवधि में संकलित किए गए कथाओं को अस्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन इतिहास के संदर्भ में और घटनाओं और आंकड़ों के साथ उनकी संगतता के आधार पर उनका न्याय करते हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम विद्वान आमतौर पर जीवनी साहित्य की बजाय हदीस साहित्य पर अधिक जोर देते हैं, क्योंकि हदीस ट्रांसमिशन (इस्नद) की एक सत्यापित श्रृंखला बनाए रखते हैं; जीवनी साहित्य के लिए ऐसी श्रृंखला की कमी से उनकी आंखों में कम सत्यापन योग्य हो जाता है। पूर्व इस्लामी अरब अरब प्रायद्वीप काफी हद तक शुष्क और ज्वालामुखीय था, जो निकट ओएस या स्प्रिंग्स को छोड़कर कृषि को मुश्किल बना देता था। परिदृश्य कस्बों और शहरों के साथ बिखरा हुआ था; मक्का और मदीना के सबसे प्रमुख दो हैं। मदीना एक बड़ा समृद्ध कृषि समझौता था, जबकि मक्का कई आसपास के जनजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण वित्तीय केंद्र था। रेगिस्तानी स्थितियों में अस्तित्व के लिए सांप्रदायिक जीवन जरूरी था, कठोर पर्यावरण और जीवनशैली के खिलाफ स्वदेशी जनजातियों का समर्थन करना। जनजातीय संबद्धता, चाहे संबंध या गठजोड़ पर आधारित, सामाजिक एकजुटता का एक महत्वपूर्ण स्रोत था। स्वदेशी अरब या तो भयावह या आसन्न थे, पूर्व लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर यात्रा करते थे और अपने झुंडों के लिए पानी और चरागाह मांगते थे, जबकि बाद में व्यापार और कृषि पर ध्यान केंद्रित करते थे। नोमाडिक अस्तित्व भी हमलावर कारवां या oases पर निर्भर करता है; मनोदशा इसे अपराध के रूप में नहीं देखते थे। पूर्व इस्लामी अरब में, देवताओं या देवियों को व्यक्तिगत जनजातियों के संरक्षक के रूप में देखा जाता था, उनकी आत्मा पवित्र पेड़ों, पत्थरों, झरनों और कुओं से जुड़ी थी। साथ ही साथ वार्षिक तीर्थयात्रा की साइट होने के कारण, मक्का में काबा मंदिर में जनजातीय संरक्षक देवताओं की 360 मूर्तियां थीं। तीन देवी अल्लाह के साथ उनकी बेटियों के रूप में जुड़े थे: अल्लात, मनात और अल-उज्जा। ईसाई और यहूदी समेत अरब में एकेश्वरवादी समुदाय मौजूद थे। हनीफ - मूल पूर्व-इस्लामी अरब जिन्होंने "कठोर एकेश्वरवाद का दावा किया" - कभी-कभी पूर्व इस्लामी अरब में यहूदियों और ईसाइयों के साथ भी सूचीबद्ध होते हैं, हालांकि उनकी ऐतिहासिकता विद्वानों के बीच विवादित होती है। मुस्लिम परंपरा के मुताबिक, मुहम्मद खुद हनीफ और इब्राहीम अलै. के पुत्र ईस्माइल अलै. के वंशज थे। छठी शताब्दी का दूसरा भाग अरब में राजनीतिक विकार की अवधि थी और संचार मार्ग अब सुरक्षित नहीं थे। धार्मिक विभाजन संकट का एक महत्वपूर्ण कारण थे। यहूदी धर्म यमन में प्रमुख धर्म बन गया, जबकि ईसाई धर्म ने फारस खाड़ी क्षेत्र में जड़ ली। प्राचीन दुनिया के व्यापक रुझानों के साथ, इस क्षेत्र में बहुसंख्यक संप्रदायों के अभ्यास और धर्म के एक और आध्यात्मिक रूप में बढ़ती दिलचस्पी में गिरावट देखी गई। जबकि कई लोग विदेशी विश्वास में परिवर्तित होने के लिए अनिच्छुक थे, वहीं उन धर्मों ने बौद्धिक और आध्यात्मिक संदर्भ बिंदु प्रदान किए। मुहम्मद के जीवन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, कुरैशी जनजाति वह पश्चिमी अरब में एक प्रमुख शक्ति बन गई थी। उन्होंने hums के पंथ संघ का गठन किया, जो पश्चिमी अरब में कई जनजातियों के सदस्यों को काबा में बंधे और मक्का अभयारण्य की प्रतिष्ठा को मजबूत किया। अराजकता के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए, कुरैश ने पवित्र महीनों की संस्था को बरकरार रखा, जिसके दौरान सभी हिंसा को मना कर दिया गया था, और बिना किसी खतरे के तीर्थयात्रा और मेलों में भाग लेना संभव था। इस प्रकार, हालांकि, hums का संघ मुख्य रूप से धार्मिक था, लेकिन इसके लिए शहर के लिए भी महत्वपूर्ण आर्थिक परिणाम थे। जिंदगी बचपन और प्रारंभिक जीवन अबू अल-क़ासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुआलिब इब्न हाशिम, वर्ष 570 के बारे में पैदा हुआ था और उनका जन्मदिन रबी अल-औवाल के महीने में माना जाता है। वह कुरैशी जनजाति का हिस्सा बनू हाशिम कबीले का था, और मक्का के प्रमुख परिवारों में से एक था, हालांकि यह मुहम्मद के शुरुआती जीवनकाल में कम समृद्ध प्रतीत होता है। परंपरा हाथी के वर्ष के साथ मुहम्मद के जन्म के वर्ष को रखती है, जिसका नाम उस वर्ष मक्का के असफल विनाश के नाम पर रखा गया है, यमन के राजा, जिन्होंने हाथियों के साथ अपनी सेना को पूरक बनाया था। वैकल्पिक रूप से कुछ 20 वीं शताब्दी के विद्वानों ने 568 या 56 9 जैसे विभिन्न वर्षों का सुझाव दिया है। मुहम्मद के पिता अब्दुल्लाह का जन्म होने से लगभग छह महीने पहले उनकी मृत्यु हो गई थी। इस्लामी परंपरा के अनुसार, जन्म के तुरंत बाद उन्हें रेगिस्तान में एक बेडौइन परिवार के साथ रहने के लिए भेजा गया था, क्योंकि शिशु जीवन शिशुओं के लिए स्वस्थ माना जाता था; कुछ पश्चिमी विद्वान इस परंपरा की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। मुहम्मद अपनी पालक-मां, हलीमा बंट अबी धुआब और उसके पति के साथ दो वर्ष की उम्र तक रहे। छः वर्ष की आयु में, मुहम्मद ने अपनी जैविक मां अमिना को बीमारी से खो दिया और अनाथ बन गये। अगले दो सालों तक, जब तक वह आठ वर्ष का नहीं था, तब तक मुहम्मद बनू हाशिम वंश के अपने दादा अब्दुल-मुतालिब की अभिभावक के अधीन थे। तब वह बनू हाशिम के नए नेता, अपने चाचा अबू तालिब की देखभाल में आए। इस्लामी इतिहासकार विलियम मोंटगोमेरी वाट के अनुसार 6 वीं शताब्दी के दौरान मक्का में जनजातियों के कमजोर सदस्यों की देखभाल करने में अभिभावकों ने एक सामान्य उपेक्षा की थी, "मुहम्मद के अभिभावकों ने देखा कि वह मौत के लिए भूखे नहीं थे, लेकिन यह मुश्किल था उन्हें उनके लिए और अधिक करने के लिए, खासकर जब हाशिम के कबीले की किस्मत उस समय घट रही है। अपने किशोर व्यवस्था में, मुहम्मद वाणिज्यिक व्यापार में अनुभव हासिल करने के लिए सीरिया के व्यापारिक यात्रा पर अपने चाचा के साथ थे। इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि जब मुहम्मद या तो बारह या तो बारह के मक्का के कारवां के साथ थे, तो उन्होंने एक ईसाई भिक्षु या बहरी नाम से भक्त से मुलाकात की, जिसे भगवान के भविष्यवक्ता के रूप में मुहम्मद के करियर के बारे में बताया गया था। बाद के युवाओं के दौरान मुहम्मद के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है, उपलब्ध जानकारी खंडित है, जिससे इतिहास को किंवदंती से अलग करना मुश्किल हो गया है। यह ज्ञात है कि वह एक व्यापारी बन गया और " हिंद महासागर और भूमध्य सागर के बीच व्यापार में शामिल था।" अपने ईमानदार चरित्र के कारण उन्होंने उपनाम " अल-अमीन " (अरबी: الامين) का अधिग्रहण किया, जिसका अर्थ है "विश्वासयोग्य, भरोसेमंद" और "अल-सादिक" जिसका अर्थ है "सत्य" और निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में बाहर निकला गया। उनकी प्रतिष्ठा ने 40 वर्षीय विधवा ख़दीजा से 595 में एक प्रस्ताव को आकर्षित किया। मुहम्मद ने विवाह को सहमति दी, जो सभी खातों से एक खुश था। कई सालों बाद, इतिहासकार इब्न इशाक द्वारा एकत्रित एक वर्णन के अनुसार, मुहम्मद 605 सीई में काबा की दीवार में काले पत्थर की स्थापना के बारे में एक प्रसिद्ध कहानी के साथ शामिल थे। काले पत्थर, एक पवित्र वस्तु, काबा के नवीनीकरण के दौरान हटा दी गई थी। मक्का नेता इस बात से सहमत नहीं हो सकते कि कौन से कबीले को ब्लैक स्टोन को अपनी जगह पर वापस कर देना चाहिए। वे अगले आदमी है जो कि निर्णय करने के लिए गेट के माध्यम से आता है पूछने का फैसला किया; वह आदमी 35 वर्षीय मुहम्मद थे। यह घटना गैब्रियल द्वारा उनके पहले प्रकाशन के पांच साल पहले हुई थी। उसने एक कपड़े के लिए कहा और ब्लैक स्टोन को अपने केंद्र में रख दिया। कबीले नेताओं ने कपड़े के कोनों को पकड़ लिया और साथ में ब्लैक स्टोन को सही जगह पर ले जाया, फिर मुहम्मद ने पत्थर रख दिया, सभी के सम्मान को संतुष्ट किया। कुरान की शुरुआत मुहम्मद ने हर साल कई हफ्तों तक मक्का के पास जबल अल-नूर पर्वत पर ग़ार ए हिरा नाम की एक गुफा में अकेले प्रार्थना करना शुरू किया। इस्लामिक परंपरा का मानना ​​है कि उस गुफा में उनकी एक यात्रा के दौरान, वर्ष 610 में परी जिब्रिल अलै. ने उनके सामने प्रकट किया और मुहम्मद को उन छंदों को पढ़ने का आदेश दिया जो कुरान में शामिल किए जाएंगे। आम सहमति मौजूद है कि पहले कुरानिक शब्द प्रकट हुए थे सुराह 96:1 की शुरुआत। मुहम्मद अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त करने पर बहुत परेशान थे। घर लौटने के बाद, मुहम्मद को खदिजा रजी. और उसके ईसाई चचेरे भाई वारका इब्न नवाफल ने सांत्वना दी और आश्वस्त किया। उन्हें यह भी डर था कि अन्य लोग अपने दावों को बर्खास्त कर देंगे। शिया परंपरा कहती है कि मुहम्मद जिब्रिल अलै. की उपस्थिति में हैरान नहीं था या भयभीत नहीं थे; बल्कि उन्होंने परी का स्वागत किया, जैसे कि उसकी उम्मीद थी। प्रारंभिक प्रकाशन के बाद तीन साल की रोकथाम (एक अवधि जिसे वत्रा कहा जाता है) जिसके दौरान मुहम्मद उदास महसूस करते थे और आगे प्रार्थनाओं और आध्यात्मिक प्रथाओं को देते थे। जब रहस्योद्घाटन फिर से शुरू हुआ, तो उसे आश्वस्त किया गया और प्रचार करने का आदेश दिया गया: "तेरा अभिभावक-यहोवा ने तुम्हें त्याग दिया नहीं है, न ही वह नाराज है।" सहहि बुखारी ने मुहम्मद को अपने रहस्योद्घाटन का वर्णन करते हुए बताया कि "कभी-कभी यह घंटी बजने की तरह (प्रकट होता है)" होता है। आयेशा रजी. ने बताया, "मैंने पैगंबर को बहुत ही ठंडे दिन ईश्वरीय रूप से प्रेरित किया और देखा कि पसीना उसके माथे से गिर रहा है (जैसे प्रेरणा खत्म हो गई थी)"। वेल्च के अनुसार इन विवरणों को वास्तविक माना जा सकता है, क्योंकि बाद में मुसलमानों द्वारा जाली की संभावना नहीं है। मुहम्मद को भरोसा था कि वह इन संदेशों से अपने विचारों को अलग कर सकता है। कुरान के मुताबिक, मुहम्मद की मुख्य भूमिकाओं में से एक अपने eschatological सजा के अविश्वासियों को चेतावनी देना है ((Quran , Quran )। कभी-कभी कुरान ने स्पष्ट रूप से जजमेंट डे को संदर्भित नहीं किया लेकिन विलुप्त समुदायों के इतिहास से उदाहरण प्रदान किए और मुहम्मद के समान आपदाओं के समकालीन लोगों को चेतावनी दी ). मुहम्मद ने न केवल उन लोगों को चेतावनी दी जिन्होंने परमेश्वर के प्रकाशन को खारिज कर दिया, बल्कि उन लोगों के लिए अच्छी खबर भी दी जिन्होंने बुराई छोड़ दी, दिव्य शब्दों को सुनकर और परमेश्वर की सेवा की। मुहम्मद के मिशन में एकेश्वरवाद का प्रचार भी शामिल है: कुरान मुहम्मद को अपने भगवान के नाम की घोषणा और प्रशंसा करने का आदेश देता है और उसे मूर्तियों की पूजा करने या भगवान के साथ अन्य देवताओं को जोड़ने के लिए निर्देश नहीं देता है। प्रारंभिक कुरानिक छंदों के प्रमुख विषयों में मनुष्य के प्रति अपने निर्माता की ज़िम्मेदारी शामिल थी; मृतकों के पुनरुत्थान, भगवान के अंतिम निर्णय के बाद नरक में उत्पीड़न और स्वर्ग में सुख, और जीवन के सभी पहलुओं में ईश्वर (अल्लाह) के संकेतों के स्पष्ट वर्णन के बाद। इस समय विश्वासियों के लिए आवश्यक धार्मिक कर्तव्यों कम थे: भगवान में विश्वास, पापों की क्षमा मांगना, लगातार प्रार्थनाओं की पेशकश करना, विशेष रूप से उन लोगों की सहायता करना, धोखाधड़ी को अस्वीकार करना और धन के प्यार (वाणिज्यिक जीवन में महत्वपूर्ण माना जाता है) मक्का), शुद्ध होने और महिला बालहत्या नहीं कर रहा है। विरोध मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद की पत्नी खदीजा रजी. पहली बार मानते थे कि वह एक भविष्यवक्ता थे। उसके बाद मुहम्मद के दस वर्षीय चचेरे भाई अली इब्न अबी तालिब रजी., करीबी दोस्त अबू बकर रजी., और बेटे जैद रजी. को अपनाया गया। लगभग 613, मुहम्मद जनता के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया (Quran ). अधिकांश मक्का ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया और उनका मज़ाक उड़ाया, हालांकि कुछ उसके अनुयायी बन गए। इस्लाम के शुरुआती परिवर्तनों के तीन मुख्य समूह थे: छोटे भाइयों और महान व्यापारियों के पुत्र; वे लोग जो अपने जनजाति में पहले स्थान से बाहर हो गए थे या इसे प्राप्त करने में नाकाम रहे; और कमजोर, ज्यादातर असुरक्षित विदेशियों। इब्न साद रजी. के मुताबिक, मक्का में विपक्ष तब शुरू हुआ जब मुहम्मद ने उन छंदों को बचाया जो मूर्ति पूजा और मक्का के पूर्वजों द्वारा किए गए बहुविश्वास की निंदा करते थे। हालांकि, कुरान के exegesis का कहना है कि यह शुरू हुआ क्योंकि मुहम्मद सार्वजनिक प्रचार शुरू किया। जैसे ही उनके अनुयायियों में वृद्धि हुई, मुहम्मद शहर के स्थानीय जनजातियों और शासकों के लिए खतरा बन गया, जिनकी संपत्ति काबा पर विश्राम करती थी, मक्का धार्मिक जीवन का केंद्र बिंदु मुहम्मद ने उखाड़ फेंकने की धमकी दी थी। मक्का पारंपरिक धर्म के मुहम्मद की निंदा विशेष रूप से अपने जनजाति, कुरैशी के लिए आक्रामक थी, क्योंकि वे काबा के अभिभावक थे। शक्तिशाली व्यापारियों ने मुहम्मद को अपने प्रचार को त्यागने के लिए मनाने का प्रयास किया; उन्हें व्यापारियों के आंतरिक मंडल के साथ-साथ एक फायदेमंद विवाह में प्रवेश की पेशकश की गई थी। उन्होंने इन दोनों प्रस्तावों से इंकार कर दिया। मुहम्मद और उसके अनुयायियों की ओर छेड़छाड़ और बीमारियों के दौरान लंबे समय तक पारंपरिक अभिलेख। सुमायाह बिन खयायत, एक प्रमुख मक्का नेता अबू जहल का गुलाम, इस्लाम के पहले शहीद के रूप में प्रसिद्ध है; जब उसने अपनी आस्था छोड़ने से इनकार कर दिया तो उसके मालिक द्वारा भाले के साथ मारा गया। बिलाल रजी., एक और मुस्लिम दास, उमायाह बिन खल्फ ने यातना दी थी, जिन्होंने अपनी छाती पर भारी चट्टान लगाया था ताकि वह अपना रूपांतरण लागू कर सके। 615 में, मुहम्मद के कुछ अनुयायी अकुम के इथियोपियाई साम्राज्य में चले गए और ईसाई इथियोपियाई सम्राट अमामा इब्न अबजर की सुरक्षा के तहत एक छोटी कॉलोनी की स्थापना की। इब्न साद ने दो अलग-अलग प्रवासन का उल्लेख किया। उनके अनुसार, अधिकांश मुसलमान हिजरा से पहले मक्का लौट आए, जबकि दूसरा समूह उन्हें मदीना में फिर से शामिल कर दिया। इब्न हिशम और तबारी, हालांकि, केवल इथियोपिया के प्रवासन के बारे में बात करते हैं। ये खाते इस बात से सहमत हैं कि मक्का के उत्पीड़न ने मुहम्मद के फैसले में एक प्रमुख भूमिका निभाई है ताकि यह सुझाव दिया जा सके कि उनके कई अनुयायी अबिसिनिया में ईसाइयों के बीच शरण लेते हैं। अल- ताबारी में संरक्षित' उआरवा के प्रसिद्ध पत्र के मुताबिक, मुसलमानों का बहुमत अपने मूल शहर लौट आया क्योंकि इस्लाम ने उमर और हमजाह जैसे कनवर्ट किए गए मक्काओं की ताकत और उच्च रैंकिंग हासिल की। हालांकि, मुसलमान इथियोपिया से मक्का तक लौटने के कारण पर एक पूरी तरह से अलग कहानी है। इस खाते के मुताबिक- अल-वकिदी द्वारा शुरू में उल्लेख किया गया था, फिर इब्न साद और तबारी द्वारा, लेकिन इब्न हिशाम द्वारा नहीं, इब्न इशाक द्वारा नहीं -मुहम्मद, जो अपने जनजाति के साथ आवास की उम्मीद कर रहे थे,एक कविता स्वीकार की तीन मक्का देवी के अस्तित्व को अल्लाह की बेटियां माना जाता है। मुहम्मद ने अगले दिन छंदों को जिब्रिल अलै. के आदेश पर वापस ले लिया, दावा किया कि छंद स्वयं शैतान द्वारा फुसफुसाए गए थे। इसके बजाय, इन देवताओं का एक उपहास पेश किया गया था। इस प्रकरण को "द स्टोरी ऑफ द क्रेन" के नाम से जाना जाता है, जिसे " शैतानिक वर्सेज " भी कहा जाता है। कहानी के अनुसार, इसने मुहम्मद और मक्का के बीच एक सामान्य सुलह का नेतृत्व किया, और एबीसिनिया मुसलमानों ने घर लौटना शुरू कर दिया। जब वे पहुंचे तो जिब्रिल अलै. ने मुहम्मद को सूचित किया था कि दो छंद रहस्योद्घाटन का हिस्सा नहीं थे, लेकिन शैतान ने उन्हें डाला था। उस समय के विद्वानों ने इन छंदों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता और कहानी को विभिन्न आधारों पर तर्क दिया। इस्लिक विद्वानों जैसे मलिक इब्न अनास, अल-शफीई, अहमद इब्न हनबल, अल-नासाई, अल बुखारी, अबू दाऊद, अल-इस्की द्वारा अल-वकिदी की गंभीर आलोचना की गई थी। नवावी और दूसरों को झूठा और फोर्जर के रूप में। बाद में, इस घटना को कुछ समूहों के बीच कुछ स्वीकृति मिली, हालांकि दसवीं शताब्दी के दौरान इसके लिए मजबूत आपत्तियां जारी रहीं। इन छंदों को अस्वीकार करने तक आपत्तियां जारी रहीं और कहानी अंततः एकमात्र स्वीकार्य रूढ़िवादी मुस्लिम स्थिति बन गई। 617 में, मखज़म के नेता और बानू अब्द-शम्स, दो महत्वपूर्ण कुरैश कुलों ने मुहम्मद की सुरक्षा को वापस लेने में दबाव डालने के लिए अपने व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी बनू हाशिम के खिलाफ सार्वजनिक बहिष्कार घोषित कर दिया। बहिष्कार तीन साल तक चला, लेकिन आखिर में गिर गया क्योंकि यह अपने उद्देश्य में विफल रहा। इस समय के दौरान, मुहम्मद केवल पवित्र तीर्थ महीनों के दौरान प्रचार करने में सक्षम थे, जिसमें अरबों के बीच सभी शत्रुताएं निलंबित कर दी गई थीं। इस्रा और मिराज इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि 620 में, मुहम्मद ने इस्रा और मिराज का अनुभव किया, एक चमत्कारिक रात्रि लंबी यात्रा देवदुत जिब्रिल के साथ हुई थी। यात्रा की शुरुआत में, कहा जाता है कि इस्रा, मक्का से "सबसे दूर की मस्जिद" के लिए एक बुर्राक़ जानवर पर यात्रा कर रहे थे। बाद में, मिराज के दौरान, मुहम्मद ने स्वर्ग और नरक का दौरा किया, और पहले के नबी, जैसे इब्राहीम , मूसा और यीशु के साथ बात की थी। मुहम्मद की पहली जीवनी के लेखक इब्न इशाक ने इस घटना को आध्यात्मिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया; बाद में इतिहासकार, जैसे अल-ताबारी और इब्न कथिर , इसे एक शारीरिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कुछ पश्चिमी विद्वान का कहना है कि इस्रा और मिराज यात्रा ने मक्का में पवित्र घेरे से स्वर्ग के माध्यम से दिव्य अल-बेत अल-मामूर (काबा का स्वर्गीय प्रोटोटाइप) तक यात्रा की; बाद की परंपराओं ने मुक्का से यरूशलेम जाने के रूप में मुहम्मद की यात्रा को इंगित किया। हिजरत से पिछले साल पहले मुहम्मद की पत्नी खदिजा रजी. और चाचा अबू तालिब दोनों की मृत्यु 619 में हुई, इस साल इस वर्ष " दुःख का वर्ष " कहा जाता है। अबू तालिब की मृत्यु के साथ, बानू हाशिम वंश के नेतृत्व ने मुहम्मद के एक दृढ़ दुश्मन अबू लहब को पारित किया। इसके तुरंत बाद, अबू लाहब ने मुहम्मद पर कबीले की सुरक्षा वापस ले ली। इसने मोहम्मद को खतरे में डाल दिया; कबीले संरक्षण की वापसी से संकेत मिलता है कि उसकी हत्या के लिए रक्त बदला ठीक नहीं किया जाएगा। मुहम्मद ने फिर अरब में एक और महत्वपूर्ण शहर ताइफ़ का दौरा किया, और एक संरक्षक को खोजने की कोशिश की, लेकिन उनका प्रयास विफल रहा और आगे उनहें शारीरिक खतरे में लाया। मुहम्मद को मक्का लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। मुक्ति इब्न आदि (और बनू नफाइल के जनजाति की सुरक्षा) नामक एक मक्का आदमी ने उसे अपने मूल शहर में सुरक्षित रूप से प्रवेश करने के लिए संभव बनाया। कई लोग व्यापार पर मक्का गए या काबा के तीर्थयात्रियों के रूप में गए। मुहम्मद ने अपने और अपने अनुयायियों के लिए एक नया घर तलाशने का अवसर लिया। कई असफल वार्ता के बाद, उन्हें यसरब (बाद में मदीना शहर) के कुछ लोगों के साथ आशा मिली। यसरब की अरब आबादी एकेश्वरवाद से परिचित थी और एक भविष्यवक्ता की उपस्थिति के लिए तैयार थी क्योंकि वहां एक यहूदी समुदाय मौजूद था। उन्होंने मक्का पर सर्वोच्चता हासिल करने के लिए, मुहम्मद और नए विश्वास के माध्यम से आशा की थी; तीर्थयात्रा की जगह के रूप में यसरब अपने महत्व के प्रति ईर्ष्यावान थे। इस्लाम में कनवर्ट मदीना के लगभग सभी अरब जनजातियों से आया; अगले वर्ष जून तक, पचास मुस्लिम तीर्थयात्रा के लिए मक्का आए और मुहम्मद से मिलते थे। रात को गुप्त रूप से उससे मिलकर, समूह ने " अल-अबाबा का दूसरा वचन " या ओरिएंटलिस्ट के विचार में, " युद्ध की शपथ " के रूप में जाना जाता है। अकबाह के प्रतिज्ञाओं के बाद, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को यसरब में जाने के लिए प्रोत्साहित किया। एबिसिनिया के प्रवासन के साथ, कुरैशी ने प्रवासन को रोकने का प्रयास किया। हालांकि, लगभग सभी मुस्लिम छोड़ने में कामयाब रहे। हिजरत Islam templates अंत में सन् 622 में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर हिजरी की शुरुआत होती है। मदीना में उनका स्वागत हुआ और कई संभ्रांत लोगों द्वारा स्वीकार किया गया। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान-सी थी और मुहम्मद के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। उस समय मदीना में तीन महत्वपूर्ण यहूदी कबीले थे। आरंभ में मुहम्मद ने जेरुसलम को प्रार्थना की दिशा बनाने को कहा था। सन् 630 में मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के साथ मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्के वालों ने हथियार डाल दिये। मक्का मुसलमानों के आधीन में आगया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। सन् 632 में मुहम्मद का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक लगभग सम्पूर्ण अरब इस्लाम कबूल कर चुका था। हिजरा 622 ई में मक्का से उनके अनुयायियों और मक्का से मदीना का प्रवास है। जून 622 में, उन्हें मारने के लिए एक साजिश की चेतावनी दी गई, मुहम्मद गुप्त रूप से मक्का से बाहर निकल गये और मक्का के उत्तर में 450 किलोमीटर (280 मील) उत्तर में अपने अनुयायियों को मदीना ले गये। मदीना में प्रवासन मदीना के बारह महत्वपूर्ण कुलों के प्रतिनिधियों से मिलकर एक प्रतिनिधिमंडल ने मुहम्मद को पूरे समुदाय के लिए मुख्य मध्यस्थ के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया; एक तटस्थ बाहरी व्यक्ति के रूप में उनकी स्थिति के कारण। यसरब में लड़ रहा था: मुख्य रूप से इस विवाद में अरब और यहूदी निवासियों को शामिल किया गया था, और अनुमान लगाया गया था कि 620 से पहले सौ साल तक चल रहा था। परिणामी दावों पर आवर्ती हत्याएं और असहमति, विशेष रूप से बुआथ की लड़ाई के बाद जिसमें सभी कुलों शामिल थे, ने उन्हें स्पष्ट किया कि रक्त-विवाद की आबादी की अवधारणा और आंखों की आंख अब तक काम करने योग्य नहीं थी जब तक कि विवादित मामलों में निर्णय लेने के लिए एक व्यक्ति नहीं था। मदीना के प्रतिनिधिमंडल ने खुद को और उनके साथी नागरिकों को मुहम्मद को अपने समुदाय में स्वीकार करने और शारीरिक रूप से उन्हें अपने आप में से एक के रूप में संरक्षित करने का वचन दिया। मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को मदीना में जाने के लिए निर्देश दिया, जब तक कि उनके लगभग सभी अनुयायियों ने मक्का छोड़ दिया। परंपरा के अनुसार, प्रस्थान पर चिंतित होने के कारण, मक्का ने मुहम्मद की हत्या करने की योजना बनाई। अली रजी. की मदद से, मुहम्मद ने उन्हें देखकर मक्का को मूर्ख बना दिया, और गुप्त रूप से अबू बकर रजी. के साथ शहर से फिसल गये। 622 तक, मुहम्मद एक बड़ी कृषि ओएसिस मदीना चले गए। मुहम्मद के साथ मक्का से प्रवास करने वाले लोग मुहाजिरीन (प्रवासियों) के रूप में जाने जाते थे। एक नई राजनीति की स्थापना पहली बातों में मुहम्मद ने मदीना के जनजातियों में लंबी शिकायतों को कम करने के लिए किया था, मदीना के आठ मेदिनी जनजातियों और मुस्लिम प्रवासियों के बीच मदीना के संविधान के रूप में जाना जाने वाला एक दस्तावेज तैयार करना था, "गठबंधन या संघ का एक प्रकार स्थापित करना"; सभी नागरिकों के इस निर्दिष्ट अधिकार और कर्तव्यों, और मदीना के विभिन्न समुदायों के संबंध (मुस्लिम समुदाय सहित अन्य समुदायों, विशेष रूप से यहूदी और अन्य " पुस्तक के लोग ")। मदीना, उम्मा के संविधान में परिभाषित समुदाय का धार्मिक दृष्टिकोण था, जो व्यावहारिक विचारों से भी आकार था और पुराने अरब जनजातियों के कानूनी रूपों को काफी हद तक संरक्षित करता था। मदीना में इस्लाम में परिवर्तित होने वाला पहला समूह महान नेताओं के बिना कुलों थे; इन कुलों को बाहर से शत्रुतापूर्ण नेताओं द्वारा अधीन कर दिया गया था। इसके बाद कुछ अपवादों के साथ मदीना की मूर्तिपूजा आबादी द्वारा इस्लाम की सामान्य स्वीकृति मिली। इब्न इशाक के मुताबिक, यह इस्लाम के लिए साद इब्न मुआद (एक प्रमुख मेदीन नेता) के रूपांतरण से प्रभावित था। मदीन जो इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुस्लिम प्रवासियों को आश्रय खोजने में मदद मिली, उन्हें अंसार (समर्थक) के रूप में जाना जाने लगा। तब मुहम्मद ने प्रवासियों और समर्थकों के बीच भाईचारे की स्थापना की और उन्होंने अली रजी. को अपने भाई के रूप में चुना। सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत प्रवासन के बाद, मक्का के लोगों ने मुस्लिम प्रवासियों की संपत्ति मदीना को जब्त कर ली। युद्ध बाद में मक्का और मुसलमानों के बीच टूट जाएगा। मुहम्मद ने कुरान के छंदों को मुसलमानों को मक्का से लड़ने की अनुमति दी (सूरा अल-हज , कुरान )। परंपरागत खाते के अनुसार, 11 फरवरी 624 को, मदीना में मस्जिद अल-क़िबलायत में प्रार्थना करते हुए, मुहम्मद को भगवान से खुलासा हुआ कि उन्हें प्रार्थना के दौरान यरूशलेम की बजाय मक्का का सामना करना चाहिए। मुहम्मद ने नई दिशा में समायोजित किया, और उनके साथ प्रार्थना करने वाले उनके साथी प्रार्थना के दौरान मक्का का सामना करने की परंपरा शुरू करते हुए उनके नेतृत्व का पीछा करते थे। मार्च 624 में, मुहम्मद ने मक्का व्यापारी कारवां पर छापे में लगभग तीन सौ योद्धाओं का नेतृत्व किया। मुसलमानों ने बद्र में कारवां के लिए हमला किया। योजना से अवगत, मक्का कारवां ने मुस्लिमों को छोड़ दिया। एक मक्का बल को कारवां की रक्षा के लिए भेजा गया था और मुसलमानों को यह शब्द प्राप्त करने के लिए मुकाबला करने के लिए चला गया था कि कारवां सुरक्षित था। बद्र की लड़ाई शुरू हुई। हालांकि तीन से एक से अधिक की संख्या में, मुसलमानों ने युद्ध जीता, जिसमें चौदह मुसलमानों के साथ कम से कम पचास मक्का मारे गए। वे अबू जहल समेत कई मक्का नेताओं की हत्या में भी सफल रहे। सत्तर कैदियों का अधिग्रहण किया गया था, जिनमें से कई को छुड़ौती मिली थी। मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने जीत को उनके विश्वास की पुष्टि के रूप में देखा और मुहम्मद ने एक अदृश्य मेजबानों की सहायता से जीत के रूप में जीत दर्ज की। इस अवधि के कुरानिक छंद, मक्का छंदों के विपरीत, सरकार की व्यावहारिक समस्याओं और लूट के वितरण जैसे मुद्दों से निपटा। जीत ने मदीना में मुहम्मद की स्थिति को मजबूत किया और अपने अनुयायियों के बीच पहले के संदेहों को दूर कर दिया। नतीजतन, उनका विरोध कम मुखर हो गया। जिन लोगों ने अभी तक परिवर्तित नहीं किया था, वे इस्लाम के अग्रिम के बारे में बहुत कड़वा थे। दो पगान, अवेस मणत जनजाति के असमा बंट मारवान और अमृत बी के अबू 'अफक । 'ऑफ जनजाति, मुसलमानों को taunting और अपमानित छंद बना दिया था। वे अपने या संबंधित कुलों से संबंधित लोगों द्वारा मारे गए थे, और मुहम्मद ने हत्याओं को अस्वीकार नहीं किया था। हालांकि, इस रिपोर्ट को कुछ लोगों द्वारा एक निर्माण के रूप में माना जाता है। उन जनजातियों के अधिकांश सदस्य इस्लाम में परिवर्तित हो गए, और थोड़ा मूर्तिपूजा विपक्ष बना रहा। मोहम्मद ने मदीना से तीन मुख्य यहूदी जनजातियों में से एक बनू क़ैनुक़ा से निष्कासित किया, लेकिन कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मुहम्मद की मृत्यु के बाद निष्कासन हुआ। अल- वकिदी के अनुसार, अब्द-अल्लाह इब्न उबाई ने उनके लिए बात करने के बाद, मुहम्मद ने उन्हें निष्पादित करने से रोका और आदेश दिया कि उन्हें मदीना से निर्वासित किया जाए। बद्र की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने अपने समुदाय को हेजाज़ के उत्तरी हिस्से से हमलों से बचाने के लिए कई बेदुईन जनजातियों के साथ पारस्परिक सहायता गठजोड़ भी किया। मक्का के साथ संघर्ष मक्का उनकी हार का बदला लेने के लिए उत्सुक थे। आर्थिक समृद्धि को बनाए रखने के लिए, मक्का को अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने की आवश्यकता थी, जिसे बदर में कम कर दिया गया था। आने वाले महीनों में, मक्का ने मदीना को हमला करने वाले दलों को भेजा जबकि मुहम्मद ने मक्का के साथ संबद्ध जनजातियों के खिलाफ अभियान चलाया और हमलावरों को मक्का कारवां पर भेज दिया। अबू सूफान ने 3000 पुरुषों की एक सेना इकट्ठी की और मदीना पर हमले के लिए तैयार किया। एक स्काउट ने एक दिन बाद मक्का सेना की उपस्थिति और संख्याओं के मुहम्मद को चेतावनी दी। अगली सुबह, युद्ध के मुस्लिम सम्मेलन में, एक विवाद सामने आया कि मक्का को कैसे पीछे हटाना है। मुहम्मद और कई वरिष्ठ आंकड़ों ने सुझाव दिया कि मदीना के भीतर लड़ना और भारी मजबूत गढ़ों का लाभ उठाना सुरक्षित होगा। युवा मुसलमानों ने तर्क दिया कि मक्का फसलों को नष्ट कर रहे थे, और गढ़ों में उलझन से मुस्लिम प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी। मुहम्मद अंततः युवा मुस्लिमों को स्वीकार कर लिया और युद्ध के लिए मुस्लिम बल तैयार किया। मुहम्मद ने उहूद (मक्का शिविर का स्थान) के पहाड़ पर अपनी सेना का नेतृत्व किया और 23 मार्च 625 को उहूद की लड़ाई लड़ी। हालांकि मुस्लिम सेना के शुरुआती मुठभेड़ों में लाभ था, अनुशासन की कमी रणनीतिक रूप से रखे तीरंदाजों का हिस्सा मुस्लिम हार का कारण बन गया; मुहम्मद के चाचा हमजा समेत 75 मुस्लिम मारे गए, जो मुस्लिम परंपरा में सबसे प्रसिद्ध शहीदों में से एक बन गए। मक्का ने मुसलमानों का पीछा नहीं किया, बल्कि, वे मक्का को जीत घोषित कर दिया। घोषणा शायद इसलिए है क्योंकि मुहम्मद घायल हो गए थे और मरे हुए थे। जब उन्होंने पाया कि मुहम्मद रहते थे, तो उनकी सहायता के लिए आने वाली नई ताकतों के बारे में झूठी जानकारी के कारण मक्का वापस नहीं लौटे। हमले मुस्लिमों को पूरी तरह से नष्ट करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहे थे। मुसलमानों ने मरे हुओं को दफनाया और उस शाम मदीना लौट आए। नुकसान के कारणों के बारे में जमा प्रश्न; मुहम्मद ने कुरान के छंदों को 3: 152 दिया जो दर्शाता है कि हार दो गुना थी: आंशिक रूप से अवज्ञा के लिए सजा, आंशिक रूप से दृढ़ता के लिए एक परीक्षण। अबू सुफ़ियान ने मदीना पर एक और हमले की दिशा में अपना प्रयास निर्देशित किया। उन्होंने मदीना के उत्तर और पूर्व में भिक्षु जनजातियों से समर्थन प्राप्त किया; मुहम्मद की कमजोरी, लूट के वादे, कुरैश प्रतिष्ठा की यादें और रिश्वत के माध्यम से प्रचार का उपयोग करना। मुहम्मद की नई नीति उनके खिलाफ गठजोड़ को रोकने के लिए थी। जब भी मदीना के खिलाफ गठबंधन गठित किए गए, तो उन्होंने उन्हें तोड़ने के लिए अभियानों को भेजा। मुहम्मद ने मदीना के खिलाफ शत्रुतापूर्ण इरादे से पुरुषों के बारे में सुना, और गंभीर तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की। एक उदाहरण बनू नादिर के यहूदी जनजाति के प्रधान काब इब्न अल-अशरफ की हत्या है। अल-अशरफ मक्का गए और कविताओं को लिखा जो मकर के दुःख, क्रोध और बद्री की लड़ाई के बाद बदला लेने की इच्छा रखते थे। लगभग एक साल बाद, मुहम्मद ने मदीना से बनू नादिर को सीरिया में प्रवासन करने के लिए मजबूर कर दिया; उन्होंने उन्हें कुछ संपत्ति लेने की इजाजत दी, क्योंकि वह अपने गढ़ों में बनू नादिर को कम करने में असमर्थ थे। मुहम्मद ने भगवान के नाम पर उनकी बाकी संपत्ति पर दावा किया था क्योंकि यह रक्तपात से प्राप्त नहीं हुआ था। मुहम्मद ने विभिन्न अरब जनजातियों को व्यक्तिगत रूप से आश्चर्यचकित कर दिया, जिससे भारी दुश्मनों ने उन्हें दुश्मनों को खत्म करने के लिए एकजुट हो गया। मुहम्मद के खिलाफ एक कन्फेडरेशन रोकने की कोशिशें असफल रहीं, हालांकि वह अपनी ताकतों को बढ़ाने में सक्षम था और कई संभावित जनजातियों को अपने दुश्मनों से जुड़ने से रोक दिया था। मदीना की घेराबंदी निर्वासित बानू नादिर की मदद से, कुरैश के सैन्य नेता अबू सूफान ने 10,000 लोगों की एक शक्ति जताई। मुहम्मद ने लगभग 3,000 पुरुषों की एक सेना तैयार की और उस समय अरब में अज्ञात रक्षा का एक रूप अपनाया; मुसलमानों ने एक खाई खोद दी जहां मदीना घुड़सवार हमले के लिए खुली थी। इस विचार को फ़ारसी में इस्लाम, सलमान फारसी में परिवर्तित करने के लिए श्रेय दिया जाता है। मदीना की घेराबंदी 31 मार्च 627 को शुरू हुई और दो सप्ताह तक चली। अबू सुफ़ियान की सेना किलेबंदी के लिए तैयार नहीं थी, और एक अप्रभावी घेराबंदी के बाद, गठबंधन ने घर लौटने का फैसला किया। कुरान 33: 9-27. छंद में सुर अल-अहज़ाब में इस लड़ाई पर चर्चा करता है। [88] युद्ध के दौरान, मदीना के दक्षिण में स्थित बनू कुरैजा के यहूदी जनजाति ने मुहम्मद के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मक्का सेनाओं के साथ वार्ता में प्रवेश किया। यद्यपि मक्का सेनाओं को सुझावों से प्रभावित किया गया था कि मुहम्मद को अभिभूत होना निश्चित था, लेकिन अगर संघ उन्हें नष्ट करने में असमर्थ था तो वे आश्वासन चाहते थे। लंबे समय तक वार्ता के बाद कोई समझौता नहीं हुआ, आंशिक रूप से मुहम्मद के स्काउट्स द्वारा तबाही के प्रयासों के कारण। गठबंधन की वापसी के बाद, मुसलमानों ने विश्वासघात के बनू कुरैजा पर आरोप लगाया और उन्हें 25 दिनों तक अपने किलों में घेर लिया। अंततः बानू कुरैजा ने आत्मसमर्पण कर दिया; इब्न इशाक के मुताबिक, इस्लाम में कुछ धर्मों के अलावा सभी पुरुष मारे गए थे, जबकि महिलाएं और बच्चे दास थे। [ वलीद एन अराफात और बराकत अहमद ने इब्न इशाक की कथा की सटीकता पर विवाद किया है। अराफात का मानना ​​है कि इस घटना के 100 वर्षों बाद बोलते हुए इब्न इशाक के यहूदी स्रोतों ने यहूदी इतिहास में पहले नरसंहार की यादों के साथ इस खाते को स्वीकार किया; उन्होंने नोट किया कि इब्न इशाक को उनके समकालीन मलिक इब्न अनास द्वारा अविश्वसनीय इतिहासकार माना गया था, और बाद में इब्न हजर द्वारा "विषम कहानियों" का एक ट्रांसमीटर माना गया था। अहमद का तर्क है कि केवल कुछ जनजाति मारे गए थे, जबकि कुछ सेनानियों को केवल गुलाम बना दिया गया था। वाट को अराफात के तर्क "पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं" मिलते हैं, जबकि मीर जे किस्टर ने अराफात और अहमद के तर्कों की व्याख्या का खंडन किया है। मदीना की घेराबंदी में, मक्का ने मुस्लिम समुदाय को नष्ट करने के लिए उपलब्ध ताकत प्रदान की। विफलता के परिणामस्वरूप प्रतिष्ठा का एक महत्वपूर्ण नुकसान हुआ; सीरिया के साथ उनका व्यापार गायब हो गया। खाई की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने उत्तर में दो अभियान किए, दोनों बिना किसी लड़ाई के समाप्त हो गए। इन यात्राओं में से एक (या कुछ शुरुआती खातों के अनुसार कुछ साल पहले) लौटने के दौरान, मुहम्मद की पत्नी आइशा रजी. के खिलाफ व्यभिचार का आरोप लगाया गया था। आइशा रजी. को आरोपों से दूर कर दिया गया जब मुहम्मद ने घोषणा की कि उन्हें आइशा रजी. की निर्दोषता की पुष्टि करने और निर्देशन के आरोपों को चार प्रत्यक्षदर्शी (सूरा 24, अन-नूर) द्वारा समर्थित किया गया है। हुदैबिया की संधि यद्यपि मुहम्मद ने हज को आदेश देने वाले कुरान के छंद दिए थे, मुसलमानों ने कुरैश शत्रुता के कारण इसे नहीं किया था। शाववाल 628 के महीने में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को बलिदान जानवरों को प्राप्त करने और मक्का को एक तीर्थयात्रा (उम्रह) तैयार करने का आदेश दिया और कहा कि भगवान ने उन्हें इस दृष्टिकोण की पूर्ति का वादा किया था जब वह पूरा होने के बाद अपने सिर को हिला रहे थे हज 1,400 मुसलमानों की सुनवाई पर, कुरैशी ने उन्हें रोकने के लिए 200 घुड़सवार भेज दिए। मुहम्मद ने उन्हें एक और कठिन मार्ग लेकर उन्हें उखाड़ फेंक दिया, जिससे उनके अनुयायियों को मक्का के बाहर अल-हुदायबिया पहुंचने में मदद मिली। वाट के अनुसार, हालांकि तीर्थयात्रा बनाने का मुहम्मद का निर्णय उनके सपने पर आधारित था, लेकिन वह मूर्तिपूजक मक्काओं का भी प्रदर्शन कर रहा था कि इस्लाम ने अभयारण्यों की प्रतिष्ठा को खतरा नहीं दिया था, कि इस्लाम एक अरब धर्म था। मक्का से यात्रा करने वाले उत्सवों के साथ बातचीत शुरू हुई। हालांकि, ये जारी रहे, अफवाहें फैल गईं कि मुस्लिम वार्ताकारों में से एक उथमान बिन अल-एफ़ान कुरैशी द्वारा मारा गया था। मुहम्मद ने तीर्थयात्रियों को मक्का के साथ युद्ध में उतरने पर प्रतिज्ञा करने के लिए कहा था (या मुहम्मद के साथ रहना, जो भी निर्णय लिया)। इस प्रतिज्ञा को "स्वीकृति का वचन" या " पेड़ के नीचे प्रतिज्ञा " के रूप में जाना जाने लगा। उथमान की सुरक्षा के समाचारों को जारी रखने के लिए वार्ता की अनुमति दी गई, और दस साल तक चलने वाली संधि पर अंततः मुसलमानों और कुरैशी के बीच हस्ताक्षर किए गए। संधि के मुख्य बिंदुओं में शामिल थे: शत्रुता का समापन, मुहम्मद की तीर्थयात्रा का स्थगित अगले वर्ष, और किसी भी मक्का को वापस भेजने के लिए समझौता जो उनके संरक्षक से अनुमति के बिना मदीना में आ गया। कई मुसलमान संधि से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि, कुरानिक सुर " अल-फाथ " (विजय) (कुरान 48: 1-29) ने उन्हें आश्वासन दिया कि अभियान को विजयी माना जाना चाहिए। बाद में यह हुआ कि मुहम्मद के अनुयायियों ने संधि के पीछे लाभ को महसूस किया। इन लाभों में मुसलमानों को मुहम्मद की पहचान करने के लिए मिलिना को सैन्य गतिविधि की समाप्ति के रूप में पहचानने की आवश्यकता शामिल थी, जिसमें मदीना को ताकत हासिल करने की अनुमति मिली, और तीर्थयात्रा अनुष्ठानों से प्रभावित मक्का की प्रशंसा। संघर्ष पर हस्ताक्षर करने के बाद, मुहम्मद खैबर के यहूदी ओएसिस के खिलाफ अभियान चलाए, जिसे खैबर की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। यह संभवतः बानू नादिर के आवास के कारण था जो मुहम्मद के खिलाफ शत्रुता को उत्तेजित कर रहे थे, या हुदैबिया के संघर्ष के असंगत परिणाम के रूप में दिखाई देने वाली प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए। मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद ने कई शासकों को पत्र भी भेजे, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए कहा (सटीक तारीख स्रोतों में अलग-अलग दी गई है)। उन्होंने बीजान्टिन साम्राज्य (पूर्वी रोमन साम्राज्य), फारस के खोसरू, यमन के मुखिया और कुछ अन्य लोगों के हेराकेलियस को दूत भेजे। हुदैबिया के संघर्ष के बाद के वर्षों में, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में ट्रांसजॉर्डियन बीजान्टिन मिट्टी पर अरबों के खिलाफ अपनी सेनाओं को निर्देशित किया। अंतिम वर्ष मक्का पर विजय हुदैबिय्याह का संघर्ष दो साल तक लागू किया गया था। बानू खुजा के जनजाति के साथ मुहम्मद के साथ अच्छे संबंध थे, जबकि उनके दुश्मन बानू बकर ने मक्का के साथ सहयोग किया था। बकर के एक समूह ने खुजा के खिलाफ रात की छाप छोड़ी, उनमें से कुछ को मार डाला। मक्का ने बानू बकर को हथियार से मदद की और कुछ सूत्रों के मुताबिक, कुछ मक्का ने भी लड़ाई में हिस्सा लिया। इस घटना के बाद, मुहम्मद ने मक्का को तीन शर्तों के साथ एक संदेश भेजा, उनसे उनमें से एक को स्वीकार करने के लिए कहा। ये थे: या तो मक्का खूजाह जनजाति के बीच मारे गए लोगों के लिए रक्त धन का भुगतान करेंगे, वे स्वयं बानू बकर से वंचित हो जाएंगे, या उन्हें हुदाय्याह के नल की घोषणा करनी चाहिए। मक्का ने जवाब दिया कि उन्होंने अंतिम स्थिति स्वीकार कर ली है। जल्द ही उन्होंने अपनी गलती को महसूस किया और मुहम्मद द्वारा अस्वीकार किया गया अनुरोध, हुदैबिय्याह संधि को नवीनीकृत करने के लिए अबू सूफान को भेजा। मुहम्मद ने अभियान की तैयारी की शुरुआत की। 630 में, मुहम्मद ने 10,000 मुस्लिम धर्मों के साथ मक्का पर चढ़ाई की। कम से कम हताहतों के साथ, मुहम्मद ने मक्का का नियंत्रण जब्त कर लिया। उन्होंने पिछले पुरुषों के लिए माफी घोषित की, दस लोगों और महिलाओं को छोड़कर जो "हत्या या अन्य अपराधों के दोषी थे या युद्ध से उछल गए थे और शांति को बाधित कर दिया था"। इनमें से कुछ बाद में क्षमा कर दिए गए थे। अधिकांश मक्का इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुहम्मद काबा के आसपास और आसपास अरब देवताओं की सभी मूर्तियों को नष्ट कर दिया। इब्न इशाक और अल-अज़राकी द्वारा एकत्रित रिपोर्टों के मुताबिक, मुहम्मद ने व्यक्तिगत रूप से मैरी और जीसस के चित्रों या भित्तिचित्रों को बचाया, लेकिन अन्य परंपराओं से पता चलता है कि सभी चित्र मिटा दिए गए थे। कुरान मक्का की विजय पर चर्चा करता है। अरब पर विजय मक्का की विजय के बाद, मुहम्मद हौजिन की संघीय जनजातियों से सैन्य खतरे से डर गए थे, जो मुहम्मद के आकार को एक सेना को बढ़ा रहे थे। बनू हवाज़िन मक्का के पुराने दुश्मन थे। वे बनू याकिफ़ (ताइफ़ शहर में रहने वाले) से जुड़े थे जिन्होंने मक्का की प्रतिष्ठा के पतन के कारण मक्का विरोधी नीति को अपनाया था। मुहम्मद हुनैन की लड़ाई में हवाजिन और थाकिफ जनजातियों को हराया। उसी वर्ष, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में अपनी पिछली हार और मुस्लिमों के खिलाफ शत्रुता की रिपोर्ट के कारण उत्तरी अरब के खिलाफ हमला किया। बड़ी कठिनाई के साथ उन्होंने 30,000 पुरुषों को इकट्ठा किया; जिनमें से आधे दूसरे दिन अब्द-अल्लाह इब्न उबाय के साथ लौट आये, जो मुहम्मद उन पर डूबने वाले हानिकारक छंदों से परेशान थे। यद्यपि मोहम्मद तबुक में शत्रुतापूर्ण ताकतों से जुड़ा नहीं था, फिर भी उन्होंने इस क्षेत्र के कुछ स्थानीय प्रमुखों को जमा कर लिया। उन्होंने पूर्वी अरब में किसी भी शेष मूर्तिपूजक मूर्तियों के विनाश का भी आदेश दिया। पश्चिमी अरब में मुस्लिमों के खिलाफ होने वाला अंतिम शहर ताइफ था। मुहम्मद ने शहर के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जब तक वे इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए सहमत नहीं हुए और पुरुषों को उनकी देवी अल-लात की मूर्ति को नष्ट करने की अनुमति दी। </ref> तबूक की लड़ाई के एक साल बाद, बनू थाकिफ ने मंत्रियों को मुहम्मद को आत्मसमर्पण करने और इस्लाम को अपनाने के लिए भेजा। मुहम्मद को अपने हमलों के खिलाफ सुरक्षा और युद्ध की लूट से लाभ उठाने के लिए कई बेदूइन प्रस्तुत किए गए। हालांकि, बेडरूम इस्लाम की प्रणाली के लिए विदेशी थे और स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते थे: अर्थात् उनके गुण और पितृ परंपराओं का कोड। मुहम्मद को एक सैन्य और राजनीतिक समझौते की आवश्यकता होती है जिसके अनुसार वे "मुसलमानों और उनके सहयोगियों पर हमले से बचने के लिए, और मुस्लिम धार्मिक टैक्स जकात का भुगतान करने के लिए मदीना की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं।" विदाई तीर्थयात्रा यह भी देखें: ग़दीर ए ख़ुम की घटना 632 में, मदीना के प्रवास के दसवें वर्ष के अंत में, मुहम्मद ने अपनी पहली सच्ची इस्लामी तीर्थयात्रा पूरी की, वार्षिक महान तीर्थयात्रा के लिए प्राथमिकता स्थापित की, जिसे हज के नाम से जाना जाता है। धू अल-हिजजाह मुहम्मद के 9 वें स्थान पर मक्का के पूर्व में अराफात पर्वत पर अपने विदाई उपदेश दिया गया। इस उपदेश में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को कुछ पूर्व इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन न करने की सलाह दी। मिसाल के तौर पर, उन्होंने कहा कि एक सफेद पर काले रंग की कोई श्रेष्ठता नहीं है, न ही एक काले रंग की शुद्धता और अच्छी क्रिया के अलावा एक सफेद पर कोई श्रेष्ठता है। उन्होंने पूर्व जनजातीय व्यवस्था के आधार पर पुराने रक्त विवादों और विवादों को समाप्त कर दिया और नए इस्लामी समुदाय के निर्माण के प्रभाव के रूप में पुरानी प्रतिज्ञाओं को वापस करने के लिए कहा। अपने समाज में महिलाओं की भेद्यता पर टिप्पणी करते हुए, मुहम्मद ने अपने पुरुष अनुयायियों से "महिलाओं के लिए अच्छा होने का उपदेश दिया, क्योंकि वे आपके घरों में शक्तिहीन बंधुआ (अवान) हैं। आप उन्हें अल्लाह के विश्वास में लाये, और अल्लाह ने आप को अपने यौन संबंधों को वचन के साथ वैध बना दिया, तो अपनी इंद्रियों को काबू में रखो, और मेरे शब्दों को सुनें ... "उन्होंने उनसे कहा कि वे अपनी पत्नियों को अनुशासन देने के हकदार थे लेकिन दयालुता से ऐसा करना चाहिए। उन्होंने पितृत्व के झूठे दावों या मृतक के साथ ग्राहक संबंधों को मना कर विरासत के मुद्दे को संबोधित किया और अपने अनुयायियों को अपनी संपत्ति को विवादास्पद उत्तराधिकारी को देने से मना कर दिया। उन्होंने प्रत्येक वर्ष चार चंद्र महीने की पवित्रता को भी बरकरार रखा। सुन्नी तफ़सीर के अनुसार, इस घटना के दौरान निम्नलिखित कुरानिक आयात वितरित की गई: "आज मैंने आपके धर्म को पूरा किया है, और आपके लिए मेरे पक्षों को पूरा किया है और इस्लाम को आपके लिए धर्म के रूप में चुना है" (कुरान 5: 3)। शिया तफ़सीर के अनुसार, यह मुहम्मद के उत्तराधिकारी के रूप में खुम के तालाब में अली इब्न अबी तालिब की नियुक्ति को संदर्भित करता है, यह कुछ दिनों बाद हुआ जब मुसलमान मक्का से मदीना लौट रहे थे। मौत और मक़बरा विदाई तीर्थयात्रा के कुछ महीने बाद, मुहम्मद बीमार पड़ गए और बुखार, सिर दर्द और कमजोरी के साथ कई दिनों तक पीड़ित हो गए। सोमवार, 8 जून 632, मदीना में 62 वर्ष या 63 वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी आइशा रजी. के घर में उनकी मृत्यु हो गई। अपने सिर के साथ आइशा रजी. की गोद में आराम करने के बाद, उसने उससे अपने आखिरी सांसारिक सामान (सात सिक्कों) का निपटान करने के लिए कहा, फिर अपने अंतिम शब्द बोलते हुए कहा: इस्लाम के विश्वकोष के मुताबिक, मुहम्मद की मौत को मेडिनन बुखार शारीरिक और मानसिक थकान से उत्तेजित होने के कारण माना जा सकता है। अकादमिक रीसाइट हैलामाज और फतेह हरपी का कहना है कि अर-रफीक अल-आला भगवान का जिक्र कर रहे हैं। उन्हें दफनाया गया जहां वह आइशा रजी. के घर में मर गए। उमायद खलीफ अल-वालिद प्रथम के शासनकाल के दौरान, मुहम्मद की मकबरे की साइट को शामिल करने के लिए अल-मस्जिद-ए-नबवी (पैगंबर की मस्जिद) का विस्तार किया गया था। मकबरे के ऊपर ग्रीन डोम 13 वीं शताब्दी में मामलुक सुल्तान अल मंसूर कलकवुन द्वारा बनाया गया था, हालांकि 16 वीं शताब्दी में ग्रीन रंग जोड़ा गया था, जो ओटोमन सुल्तान सुलेमान द मैग्नीफिशेंट के शासनकाल में था। मुहम्मद के समीप कब्रिस्तानों में से उनके साथी (सहाबा), पहले दो मुस्लिम खलीफा अबू बकर रजी. और उमर रजी. हैं, और एक खाली व्यक्ति जो मुसलमानों का मानना ​​है कि यीशु का इंतजार है। जब बिन सौद ने 1805 में मदीना लिया, मुहम्मद की मकबरा अपने सोने और गहने के गहने से छीन ली गई थी। वहाबीवाद के अनुयायियों, बिन सऊद के अनुयायियों ने अपनी पूजा को रोकने के लिए मदीना में लगभग हर मकबरे गुंबद को नष्ट कर दिया, और मुहम्मद में से एक को बच निकला है। इसी तरह की घटनाएं 1925 में हुईं जब सऊदी मिलिशिया ने पीछे हटना शुरू किया- और इस बार शहर को रखने में कामयाब रहे। इस्लाम की वहाबी व्याख्या में, अनियमित कब्रों में दफनाया जाना है। हालांकि सौदी द्वारा फंसे हुए, कई तीर्थयात्रियों ने मयूरत-एक अनुष्ठान का दौरा किया-मकबरे के लिए। मुहम्मद के बाद मुहम्मद का उत्तराधिकार केंद्रीय मुद्दा है जिसने मुस्लिम समुदाय को मुस्लिम इतिहास की पहली शताब्दी में कई डिवीजनों में विभाजित किया। उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले, मुहम्मद ने गदिर खुम में एक उपदेश दिया जहां उन्होंने घोषणा की कि अली इब्न अबी तालिब उनके उत्तराधिकारी होंगे। उपदेश के बाद, मुहम्मद ने मुसलमानों को अली रजी. के प्रति निष्ठा देने का आदेश दिया। शिया और सुन्नी दोनों स्रोत इस बात से सहमत हैं कि अबू बकर रजी., उमर इब्न अल-खत्ताब रजी. और उस्मान इब्न अफ़ान रजी. इस घटना में अली रजी. के प्रति निष्ठा देने वाले कई लोगों में से थे। हालांकि, मुहम्मद की मृत्यु के बाद, मुस्लिमों का एक समूह साकिफा में मिला, जहां उमर रजी. ने अबू बकर रजी. के प्रति निष्ठा का वचन दिया था। अबू बकर रजी. ने राजनीतिक शक्ति ग्रहण की, और उनके समर्थकों को सुन्नी के रूप में जाना जाने लगा। इसके बावजूद, मुसलमानों के एक समूह ने अली रजी. को अपना निष्ठा रखा। इन लोगों, जो शिया के नाम से जाना जाने लगा, ने कहा कि अली रजी. के राजनीतिक नेता होने का अधिकार लिया जा सकता है, फिर भी वह मुहम्मद के बाद धार्मिक और आध्यात्मिक नेता थे। आखिरकार, अबू बकर रजी. और दो अन्य सुन्नी नेताओं, उमर रजी. और उस्मान रजी. की मौत के बाद, सुन्नी मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व के लिए अली रजी. गए। अली रजी. की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र हसन इब्न अली रजी. ने शासकीय रूप से शिया के अनुसार राजनीतिक रूप से और दोनों सफल हुए। हालांकि, छह महीने बाद, उन्होंने मुवाइया इब्न अबू सूफान के साथ एक शांति संधि की, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि, अन्य स्थितियों में, मुवाया के पास राजनीतिक शक्ति होगी जब तक कि वह यह नहीं चुनता कि वह कौन सफल होगा। मुआविया ने संधि तोड़ दी और अपने बेटे यजीद को उनके उत्तराधिकारी बना दिया, इस प्रकार उमायाद वंश बना दिया। हालांकि यह चल रहा था, हसन रजी. और, उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई हुसैन इब्न अली रजी., कम से कम शिया के अनुसार, धार्मिक नेताओं बने रहे। इस प्रकार, सुन्नी के मुताबिक, जो भी राजनीतिक सत्ता धारण करता था उसे मुहम्मद के उत्तराधिकारी माना जाता था, जबकि शिया ने बारह इमाम (अली रजी., हसन रजी., हुसैन रजी. और हुसैन रजी. के वंशज) मुहम्मद के उत्तराधिकारी थे, भले ही वे राजनीतिक शक्ति नहीं रखते। इन दो मुख्य शाखाओं के अतिरिक्त, मुहम्मद के उत्तराधिकार के संबंध में कई अन्य राय भी बनाई गईं। इस्लामी सामाजिक सुधार विलियम मोंटगोमेरी वाट के मुताबिक, मुहम्मद के लिए धर्म एक निजी और व्यक्तिगत मामला नहीं था, बल्कि "अपनी व्यक्तित्व की कुल प्रतिक्रिया जिसकी कुल स्थिति में वह खुद को मिली थी। वह [न केवल] ... धार्मिक और बौद्धिक पहलुओं पर प्रतिक्रिया दे रहा था स्थिति के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दबावों के लिए भी समकालीन मक्का विषय थे। " बर्नार्ड लुईस का कहना है कि इस्लाम में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक परंपराएं हैं - मोहम्मद में एक राजनेता के रूप में और मुहम्मद मक्का में एक विद्रोही के रूप में। उनके विचार में, इस्लाम नए समाजों के साथ पेश होने पर, एक क्रांति के समान, एक महान परिवर्तन है। इतिहासकार आम तौर पर सहमत हैं कि सामाजिक सुरक्षा , पारिवारिक संरचना, दासता और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों जैसे अरब समाज की स्थिति में इस्लामी सामाजिक परिवर्तन। उदाहरण के लिए, लुईस के अनुसार, इस्लाम "पहली बार अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार से वंचित, पदानुक्रम को खारिज कर दिया, और प्रतिभा के लिए खुले करियर का एक सूत्र अपनाया"। मुहम्मद के संदेश ने अरब प्रायद्वीप में समाज और समाज के नैतिक आदेशों को बदल दिया; समाज ने अनुमानित पहचान, विश्व दृश्य और मूल्यों के पदानुक्रम में परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित किया। आर्थिक सुधारों ने गरीबों की दुर्दशा को संबोधित किया, जो पूर्व इस्लामी मक्का में एक मुद्दा बन रहा था। कुरान को गरीबों के लाभ के लिए एक भत्ता कर (ज़कात) का भुगतान करने की आवश्यकता है; चूंकि मुहम्मद की शक्ति में वृद्धि हुई, उन्होंने मांग की कि जनजातियां जो उनके साथ सहयोग करने की कामना करती हैं, विशेष रूप से जकात को लागू करें। दिखावट मुहम्मद के वर्णन के बारे में अल बुखारी की किताब साहिह अल बुखारी में अध्याय 61 में दिए गए विवरण, हदीस 57 और हदीस 60, उनके दो साथी द्वारा चित्रित किया गया है: मोहम्मद इब्न ईसा में- तिर्मिधि की पुस्तक शामाइल अल-मुस्तफा में दिए गए विवरण, अली इब्न अबी तालिब और हिंद इब्न अबी हला को जिम्मेदार ठहराया गया है: मुहम्मद के कंधों के बीच "पैग़म्बर की मुहर" (मुहर ए नबुव्वत) को आमतौर पर एक कबूतर के अंडा के आकार के उठाए गए तिल के रूप में वर्णित किया जाता है। मुहम्मद का एक अन्य विवरण उम्म माबाद द्वारा प्रदान किया गया था, वह एक महिला जो मदीना की यात्रा पर मिली थी: इन तरह के विवरण अक्सर सुलेख पैनलों (हिला या तुर्की, हिली में) में पुन: उत्पन्न किए जाते थे, जो 17 वीं शताब्दी में तुर्क साम्राज्य में अपने स्वयं के एक कला रूप में विकसित हुआ था। गृहस्थी मुहम्मद का जीवन पारंपरिक रूप से दो अवधियों में परिभाषित किया जाता है: मक्का में पूर्व-हिजरा (प्रवासन) (570 से 622 तक), और मदीना में पोस्ट-हिजरा (622 से 632 तक)। कहा जाता है कि मुहम्मद की कुल में तेरह पत्नियां थीं (हालांकि दो में संदिग्ध खाते हैं, रेहाना बिंत जयद और मारिया अल-क़िबतिया, पत्नी या उपनिवेश के रूप में। )) मदीना के प्रवास के बाद तेरह विवाह का ग्यारह हुआ। 25 साल की उम्र में, मुहम्मद ने अमीर खदीजा बिंत खुवेलीड से विवाह किया जो 40 साल का था। शादी 25 साल तक चली और वह खुश था। मुहम्मद इस विवाह के दौरान किसी और महिला के साथ शादी में नहीं गए थे। खदीजा (रजी.) की मौत के बाद, खवला बिंत हाकिम ने मुहम्मद को सुझाव दिया कि उन्हें उस्मान विधवा सावा बिंत जमा, उम्म रुमान और मक्का के अबू बकर की बेटी आइशा (रजी.) से शादी करनी चाहिए। कहा जाता है कि मुहम्मद दोनों से शादी करने की व्यवस्था के लिए कहा गया है। खदीजा (रजी.) की मृत्यु के बाद मुहम्मद के विवाहों को ज्यादातर राजनीतिक या मानवीय कारणों से अनुबंधित किया गया था। महिलाएं या तो युद्ध में मारे गए मुस्लिमों की विधवा थीं और उन्हें संरक्षक के बिना छोड़ दिया गया था, या महत्वपूर्ण परिवारों या कुलों से संबंधित थे जिन्हें गठबंधन के सम्मान और मजबूत करने के लिए जरूरी था। परंपरागत स्रोतों के मुताबिक, आइशा (रजी.) मुहम्मद से प्रार्थना करते समय छः या सात वर्ष का था, विवाह के साथ नौ या दस वर्ष की आयु में युवावस्था तक पहुंचने तक शादी नहीं हो रही थी। इसलिए वह शादी में एक कुंवारी थीं। आधुनिक मुस्लिम लेखक जो आइशा की उम्र की गणना के अन्य स्रोतों के आधार पर गणना करते हैं, जैसे कि ऐशा और उनकी बहन असमा के बीच उम्र अंतर के बारे में हदीस, का अनुमान है कि वह तेरह से अधिक थीं और शायद अपने विवाह के समय किशोरों के उत्तरार्ध में। मदीना के प्रवास के बाद, मुहम्मद , जो उसके अर्धशतक में थे, ने कई और महिलाओं से विवाह किया। मुहम्मद ने घर के कामों का प्रदर्शन किया जैसे भोजन, सिलाई कपड़े और जूते की मरम्मत करना। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पत्नियों को बातचीत करने का आदी माना था; उन्होंने उनकी सलाह सुनी, और पत्नियों ने बहस की और यहां तक ​​कि उनके साथ तर्क भी दिया। कहा जाता है कि खदीजा (रजी.) मुहम्मद (रुक्यायाह बिन मुहम्मद, उम्म कुलथम बिंत मुहम्मद, जैनब बिंत मुहम्मद, फातिमाह जहर) और दो बेटे (अब्द-अल्लाह इब्न मुहम्मद और कासिम इब्न मुहम्मद, जो बचपन में दोनों की मृत्यु हो गई) के साथ चार बेटियां थीं। उसकी बेटियों में से एक, फातिमा, उसके सामने मृत्यु हो गई। कुछ शिया विद्वानों का तर्क है कि फातिमा (रजी.) मुहम्मद की एकमात्र बेटी थीं। मारिया अल-क़िबतिया ने उन्हें इब्राहिम इब्न मुहम्मद नाम का एक पुत्र बनाया, लेकिन जब वह दो साल का था तब बच्चा मर गया। मुहम्मद की पत्नियों में से नौ ने उसे बचा लिया। सुन्नी परंपरा में मुहम्मद की पसंदीदा पत्नी के रूप में जाने जाने वाले आइशा (रजी.) दशकों तक जीवित रहे और इस्लाम की सुन्नी शाखा के लिए हदीस साहित्य बनाने वाले मुहम्मद की बिखरी हुई कहानियों को इकट्ठा करने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फातिमा (रजी.) के माध्यम से मुहम्मद के वंशज शरीफ , सिड्स या सय्यियस के रूप में जाने जाते हैं। ये अरबी में आदरणीय खिताब हैं, शरीफ का अर्थ 'महान' है और कहा जाता है या कहा जाता है या 'भगवान' या 'सर' कहता है। मुहम्मद के एकमात्र वंश के रूप में, उन्हें सुन्नी और शिया दोनों का सम्मान किया जाता है, हालांकि शिआ उनके भेद पर अधिक जोर और मूल्य डालते हैं। जयद इब्न हरिथा एक दास था जिसे मुहम्मद ने खरीदा, मुक्त किया, और फिर अपने बेटे के रूप में अपनाया। उसके पास एक गीली नर्स भी थी। बीबीसी सारांश के मुताबिक, "मुहम्मद ने दासता को खत्म करने की कोशिश नहीं की, और खुद को दास, बेचा, कब्जा कर लिया, और मालिकों का स्वामित्व किया। लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि दास मालिक अपने दासों को अच्छी तरह से मानते हैं और गुलामों को मुक्त करने के गुण पर बल देते हैं। मुहम्मद ने मनुष्यों के रूप में दासों का इलाज किया और स्पष्ट रूप से सर्वोच्च सम्मान में कुछ लोगों को रखा। विरासत मुस्लिम परंपरा अल्लाह की एकता के प्रमाणन के बाद, मुहम्मद की भविष्यवाणी में विश्वास इस्लामी विश्वास का मुख्य पहलू है। हर मुस्लिम शहादा में घोषित करता है: "मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, और मैं प्रमाणित करता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के संदेशवाहक हैं।" शहादा इस्लाम का मूल धर्म या सिद्धांत है। इस्लामी विश्वास यह है कि आदर्श रूप से शहादा पहला शब्द है जो नवजात शिशु सुनेंगे; बच्चों को तुरंत इसे पढ़ाया जाता है और इसे मृत्यु पर सुनाया जाएगा। मुसलमान प्रार्थना (सलात) और प्रार्थना के लिए कॉल (अज़ान में शाहदाह दोहराते हैं। इस्लाम में परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले गैर-मुसलमानों को इन पंक्तियों को पढ़ना आवश्यक है। इस्लामी विश्वास में, मुहम्मद को अल्लाह द्वारा भेजे गए अंतिम भविष्यवक्ता के रूप में जाना जाता है। कुरान 10:37 कहता है कि "... यह (कुरान) इसकी पुष्टि (रहस्योद्घाटन) है जो इससे पहले चला गया, और पुस्तक की पूर्ण व्याख्या - जिसमें दुनिया के अल्लाह से कोई संदेह नहीं है। " इसी प्रकार कुरान 46:12 कहता है "... और इससे पहले मूसा अलैहिस्सलाम की पुस्तक एक गाइड और दया के रूप में थी। और यह पुस्तक पुष्टि करता है (यह) ...", जबकि 2: 136 इस्लाम के विश्वासियों को आज्ञा देता है " : हम अल्लाह में विश्वास करते हैं और जो हमें बताया गया है, और जो इब्राहीम अलै. और इस्माईल अलै., इसहाक अलै. और याकूब अलै. और जनजातियों के लिए प्रकट हुआ था, और जो मूसा अलै. और ईसा (यीशु) अलै. ने प्राप्त किया था, और जो भविष्यवक्ताओं ने उनके भगवान से प्राप्त किया था। हम नहीं करते उनमें से किसी के बीच भेद, और उसके लिए हमने आत्मसमर्पण कर दिया है। " मुस्लिम परंपरा मुहम्मद को कई चमत्कारों या अलौकिक घटनाओं के साथ श्रेय देती है। उदाहरण के लिए, कई मुस्लिम टिप्पणीकारों और कुछ पश्चिमी विद्वानों ने सूरह 54: 1-2 का अर्थ दिया है, मुहम्मद को कुरैशी के मद्देन में चंद्रमा को विभाजित करते हुए, जब उन्होंने अनुयायियों को सताया था। इस्लाम के पश्चिमी इतिहासकार डेनिस ग्रिल का मानना ​​है कि कुरान मुहम्मद प्रदर्शन चमत्कारों का अत्यधिक वर्णन नहीं करता है, और मुहम्मद का सर्वोच्च चमत्कार "कुरान" के साथ ही पहचाना जाता है। इस्लामी परंपरा के अनुसार, मुहम्मद पर ताइफ के लोगों ने हमला किया था और बुरी तरह घायल हो गये। परंपरा में एक देवदूत प्रकट होता है और हमलावरों के खिलाफ प्रतिशोध की पेशकश करता है, मुहम्मद ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और ताइफ के लोगों के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की। सुन्नह या सुन्नत मुहम्मद के कार्यों और कहानियों का प्रतिनिधित्व करता है (हदीस के नाम से जाना जाने वाली रिपोर्टों में संरक्षित), और धार्मिक अनुष्ठानों, व्यक्तिगत स्वच्छता, मृतकों के दफन से लेकर मनुष्यों और ईश्वर के बीच प्रेम को शामिल करने वाले रहस्यमय प्रश्नों से लेकर गतिविधियों और मान्यताओं की विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है। सुन्नतों को पवित्र मुसलमानों के लिए अनुकरण का एक आदर्श माना जाता है और मुस्लिम संस्कृति को प्रभावित करने के लिए एक बड़ी डिग्री है। अभिवादन कि मुहम्मद ने मुसलमानों को एक-दूसरे की पेशकश करने के लिए सिखाया था, "आप पर शांति हो" (अरबी: अस्सलामु अलैकुम) दुनिया भर में मुस्लिमों द्वारा उपयोग की जाती है। दैनिक इस्लामिक अनुष्ठानों जैसे कि दैनिक प्रार्थनाओं, उपवास और वार्षिक तीर्थयात्रा के कई विवरण केवल सुन्नत में पाए जाते हैं, कुरान में नहीं। मुहम्मद के नाम लिखने के बाद पारंपरिक रूप से जोड़ा गया, "ईश्वर उन्हें सम्मान दे और उन्हें शांति प्रदान करे" का सुलेख प्रस्तुत करता है। ﷺ। सुन्नतो ने इस्लामिक कानून के विकास में विशेष रूप से पहली इस्लामी शताब्दी के अंत तक योगदान दिया। मुस्लिम रहस्यवादी, जो सूफ़ी के नाम से जाना जाता है, जो कुरान के आंतरिक अर्थ और मुहम्मद की आंतरिक प्रकृति की तलाश में थे, उन्होंने इस्लाम के पैगंबर को न केवल एक भविष्यद्वक्ता के रूप में बल्कि एक परिपूर्ण इंसान के रूप में भी देखा। सभी सूफी आदेश मुहम्मद को आध्यात्मिक वंश की अपनी श्रृंखला का पता लगाते हैं। मुसलमानों ने परंपरागत रूप से मुहम्मद के लिए प्यार और पूजा व्यक्त की है। मुहम्मद के जीवन की कहानियां, उनके मध्यस्थता और उनके चमत्कार (विशेष रूप से " चंद्रमा का विभाजन ") ने लोकप्रिय मुस्लिम विचार और कविता में प्रवेश किया है। मिस्र के सूफी अल-बुसीरी (1211-1294) द्वारा मुहम्मद, क़सीदा अल-बुर्दा जो अरबी में अरबी शैली में लिखा गया और मशहूर भी है। और व्यापक रूप से मानसिक शांति और आध्यात्मिक शक्ति रखने के लिए आयोजित किया जाता है। कुरान मुहम्मद को "दुनिया के लिए दया (रमत)" के रूप में संदर्भित करता है (कुरान 21: 107 )। ओरिएंटल देशों में दया के साथ बारिश के सहयोग ने मुहम्मद को बारिश बादल के रूप में आशीर्वाद देने और भूमि पर फैलाने, मृत दिल को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया है, जैसे वर्षा बारिश पृथ्वी को पुनर्जीवित करती है (उदाहरण के लिए, सिंधी कविता शाह 'अब्द अल-लतीफ)। मुहम्मद इनका जन्मदिन इस्लामी दुनिया भर में एक प्रमुख दावत के रूप में मनाया जाता है, वहाबी- सशस्त्र सऊदी अरब को छोड़कर जहां इन सार्वजनिक समारोहों को हतोत्साहित किया जाता है। जब मुस्लिम मुहम्मद का नाम कहते हैं या लिखते हैं, तो वे आम तौर पर इसका पालन करते हैं और भगवान उन्हें सम्मान दे सकते हैं (अरबी: लाहु अलैही व म)। अनौपचारिक लेखन में, इसे कभी-कभी पीबीयूएच या एसएडब्ल्यू के रूप में संक्षिप्त किया जाता है; मुद्रित पदार्थ में, एक छोटा सा सुलेख चित्र आमतौर पर उपयोग किया जाता है (ﷺ)। आलोचना 7 वीं शताब्दी के बाद से मुहम्मद की आलोचना अस्तित्व में रही है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीनों ने एकेश्वरवाद प्रचार करने के लिए और अरब के यहूदी जनजातियों द्वारा बाइबिल के वर्णनों और आंकड़ों के अनचाहे विनियमन के लिए अपमानित किया था, यहूदी विश्वास का विघटन, और खुद को किसी भी चमत्कार किए बिना " आखिरी भविष्यद्वक्ता " के रूप में घोषित करना और न ही हिब्रू बाइबिल में किसी भी व्यक्तिगत आवश्यकता को दिखाने के लिए एक झूठे दावेदार से इज़राइल के भगवान द्वारा चुने गए एक सच्चे भविष्यद्वक्ता को अलग करना ; इन कारणों से, उन्होंने उन्हें अपमानजनक उपनाम हे- मेशगाह ( हिब्रू : מְשֻׁגָּע , "मैडमैन" या "कब्जा") दिया। मध्य युग के दौरान विभिन्न पश्चिमी और बीजान्टिन ईसाई विचारकों ने मुहम्मद को विकृत माना, अपमानजनक व्यक्ति, एक झूठा भविष्यद्वक्ता, और यहां तक ​​कि एंटीक्राइस्ट माना, क्योंकि वह अक्सर ईसाईजगत में एक विद्रोही के रूप में देखे गए थे। मुहम्मद की आलोचना में मुहम्मद की ईमानदारी के संदर्भ में एक भविष्यद्वक्ता, उनकी नैतिकता और उनके विवाह होने का दावा शामिल था। 7 वीं शताब्दी के बाद से आलोचना का अस्तित्व है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीन लोगों ने उपेक्षित एकेश्वरवाद के लिए निंदा की थी। मध्य युग के दौरान वह अक्सर ईसाई धर्म में एक विद्रोही के रूप में देखा जाता था, और / या राक्षसों के पास था। मुहम्मद के विवाह आइशा 20 वीं शताब्दी के बाद से, विवाद का एक आम मुद्दा मुहम्मद और आइशा के विवाह के बारे में उठाया गया है, जिसे पारंपरिक इस्लामिक स्रोतों में हज़रात आइशा की उम्र नौ वर्ष की, या इब्न हिशम के अनुसार दस वर्ष की, या फिर जब शादी तक पहुंचने के अपने युवावस्था पर शादी हुई थी। अमेरिकी इतिहासकार डेनिस स्पेलबर्ग का कहना है कि "दुल्हन की उम्र के इन विशिष्ट संदर्भों में आइशा के पूर्व-मेनारच्चिल दर्जा को और मजबूत किया जाता है।" मुस्लिम लेखकों ने अपनी बहन अस्मा के बारे में उपलब्ध अधिक विस्तृत जानकारी के आधार पर आयशा की आयु की गणना की है। वह तेरह से अधिक थी और शायद उनकी शादी के दौरान सत्रह और उन्नीस के बीच थी। इस्लामिक अध्ययन के यूके के प्रोफेसर कॉलिन टर्नर, में कहा गया है कि जब एक बूढ़े आदमी और एक जवान लड़की के बीच विवाह हो जाती है, तो एक बार जब तक प्रौढ़ व्यक्ति उम्र के होने के बारे में सोचता है, तब तक वह बीमारियों में रूढ़िवादी थे, और इसलिए मुहम्मद विवाह को उनके समकालीनों द्वारा अनुचित नहीं माना जाता। तुलनात्मक धर्म पर ब्रिटिश लेखक करेन आर्मस्ट्रांग ने पुष्टि की है कि "मुहम्मद की आइशा से शादी में कोई अनौचित्य नहीं था। एक गठबंधन को मुहैया कराने के लिए अनुपस्थिति में किए गए विवाह अक्सर वयस्कों और नाबालिगों के बीच अनुबंधित होते थे जो अब भी आयशा से भी छोटे थे। अभ्यास यूरोप में अच्छी तरह से शुरुआती आधुनिक काल में जारी रहा। " गैलरी मुहम्मद पर बनी फिल्में द मेसेज (1976 फ़िल्म) उमर (टीवी सीरियल) मुहम्मद द मेसेंजर ऑफ़ गॉड (फ़िल्म) यह भी देखें मुहम्मद के अभियानों की सूची मुहम्मद की पत्नियाँ इस्लाम का उदय इब्राहिम सज़ाह सफिय्या बिन्ते हुयेय रेहाना बिन्त ज़ैद हाशिम इब्न अब्द मुनाफ अब्द अल-मुत्तलिब अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब अबू ताहिर अल-जनाबी अल-फ़ील मूहाम्मद: द फाइनाल लिगेसी द सेटेनिक वर्सेज़ अहल अल-बैत इस्लामी पौराणिक कथाएँ अल-लात मुहम्मद का वंश वृक्ष अबू सुफ़ियान हिंद बिंत उतबाह इस्लामी शब्दावली शब-ए-क़द्र शार्ली एब्डो द मेसेज इस्लाम से पहले का अरब टिप्पणियाँ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Muhammad, article on Encyclopædia Britannica Online Muhammad: Legacy of a Prophet — PBS Site इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद Muḥammad, in The Oxford Encyclopedia of the Islamic World मुहम्मद 570 में जन्मे लोग 632 में निधन अहल अल-बैत इस्लाम मदीना के लोग मक्का के लोग इस्लाम का इतिहास इस्लाम के पैग़म्बर धर्म प्रवर्तक
2981
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बेंजामिन उम्कापा अफ्रीका के देश तंजानिया के राष्ट्रपति थे, 1995 से 2005 तक। राजनीतिज्ञ
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भारत के महानगरों की सूची दिल्ली आगरा हैदराबाद कानपुर मोकामा मोकामा मोकामा मुंबई जोधपुर वाराणसी चेन्नई बंगलोर इंदौर ग्वालियर पटना औरंगाबाद अहमदाबाद अहमदनगर अमृतसर लखनऊ पुर चंडीगढ़ महानगर सासाराम
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अंडमान बंगाल की खाड़ी में स्थित भारत के अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह का उत्तरी भाग है। अंडमान अपने आंचल में मूंगे (कोरल) की दीवारों, साफ-स्वच्छ सागर तट, पुरानी यादों से जुड़े खंडहर और अनेक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां संजोए हैं। इस द्वीपसमूह में कुल 572 द्वीप हैं। अंडमान का लगभग 86 प्रतिशत क्षेत्रफल जंगलों से ढका हुआ है। समुद्री जीवन, इतिहास और जलक्रीड़ाओं में रुचि रखने वाले सैलानियों को यह द्वीप बहुत रास आता है। Kya andwan me train chalti hai मुख्य आकर्षण सेलुलर जेल अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव 1897 में रखी गई थी। इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल-जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहाँ एक संग्रहालय भी है जहाँ उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे। कार्बिन कोव्स समुद्रतट हरे-भरे वृक्षों से घिरा यह बीच एक मनोरम स्थान है। यहां समुद्र में डुबकी लगाकर पानी के नीचे की दुनिया का अवलोकन किया जा सकता है। यहां से सूर्यास्त का अद्भुत नजारा काफी आकर्षक प्रतीत होता है। यह बीच अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए लोकप्रिय है। रॉस द्वीप यह द्वीप ब्रिटिश वास्तुशिल्प के खंडहरों के लिए प्रसिद्ध है। रॉस द्वीप 200 एकड़ में फैला हुआ है। फीनिक्स उपसागर से नाव के माध्यम से चंद मिनटों में रॉस द्वीप पहुंचा जा सकता है। सुबह के समय यह द्वीप पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग के समान है। पिपोघाट फार्म 80 एकड़ में फैला पिपोघाट फार्म दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के लिए जाना जाता है। यहां एशिया का सबसे प्राचीन लकड़ी चिराई की मशीन छातास सा मिल है। बेरन द्वीप यहां भारत का एकमात्र सक्रिय है ज्वालामुखी है। यह द्वीप लगभग 3 किलोमीटर में फैला है। यहां का ज्वालामुखी 28 मई 2005 में फटा था। तब से अब तक इससे लावा निकल रहा है। डिगलीपुर उत्तरी अंडमान द्वीप में स्थित प्रकृति प्रेमियों को बहुत पसंद आता है। यह स्थान अपने संतरों, चावलों और समुद्री जीवन के लिए प्रसिद्ध है। यहां की सेडल पीक आसपास के द्वीपों से सबसे ऊंचा प्वाइंट है जो 732 मीटर ऊंचा है। अंडमान की एकमात्र नदी कलपोंग यहां से बहती है। वाइपर द्वीप यहां किसी जमाने में गुलाम भारत से लाए गए बंदियों को पोर्ट ब्लेयर के पास वाइपर द्वीप पर उतारा जाता था। अब यह द्वीप एक पिकनिक स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। यहां के टूटे-फूटे फांसी के फंदे निर्मम अतीत के साक्षी बनकर खड़े हैं। सिंक व रडिस्किन द्वीप यहां के स्वच्छ निर्मल पानी का सौंदर्य सैलानियों का मन मोह लेता है। इन द्वीपों में कई बार तेरती हुई डाल्फिन मछलियों के झुंड देखे जा सकते हैं। सीसे की तरह साफ पानी के नीचे जलीय पेड़-पौधे व रंगीन मछलियों को तेरते देखकर पर्यटक अपनी बाहरी दुनिया को अक्सर भूल जाते हैं। आवागमन वायु मार्ग- पोर्ट ब्लेयर से चैन्नई, कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, बंगलूरू और भुवनेश्वर की दिन भर में 18 उड़ाने हैं। सभी प्रमुख एयर लाईन्स अपनी सेवाएं दे रही हैं। जल मार्ग- कोलकाता, चैन्नई और विशाखापट्टनम से पानी के जहाज पोर्ट ब्लेयर जाते हैं। जाने में दो-तीन दिन का समय लगता है। पोर्ट ब्लेयर से जहाज छूटने का कोई निश्चित समय नहीं है। नाम की उत्पत्ति विद्वानों का मानना है के "अण्डमान" शब्द "हनुमान" का एक और रूप है और संस्कृत मूल से मलय भाषा से होते हुए प्रचलित हो गया है। मलय में रामायण के "हनुमान" पात्र को "हन्डुमान" कहते हैं। इन्हें भी देखें अंडमान के निवासी सेल्यूलर जेल द्वीपसमूह बाहरी कड़ियाँ अंडमान निकोबार: जिसे जापान ने अंग्रेजों से छीनकर 'नेताजी' को दे दिया अंग्रेजों के विरुद्ध अंडमानी आदिवासी संघर्ष Andaman District (official site) Andaman Andaman Association, Lonely Islands सेल्युलर कारागार सन्दर्भ अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
2991
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पोर्ट ब्लेयर (Port Blair) भारत के अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह केन्द्रशासित प्रदेश की राजधानी है। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण अण्डमान द्वीप पर स्थित है और प्रशासनिक दृष्टि से दक्षिण अण्डमान ज़िले में आता है। दर्शनीय स्थल यह क्षेत्र पहाड़ी भूरचना है। टिम्बर जैसी लकड़ियाँ यहाँ प्रचुरता से पायी जाती हैं, हरियाली भी भरपूर है। यहाँ समुद्र का पानी देखने में नीला है। बंगाल की खाड़ी के इस जल क्षेत्र में अनंत लैगून मिल जाएंगे, जिनमें रंगबिरंगी मछलियाँ अठखेलियाँ करती मिलेंगी। सेल्यूलर जेल, मानव विकास के इतिहास को चित्रित करता संग्रहालय (एंथ्राॉपोलॉजिकल म्यूजियम), समुद्र संग्रहालय, लघु उघोग संग्रहालय, मिनी ज़ू, चैथम सा मिल, कोरबाइन कोव बीच, मैरीन पार्क, वाइपर आइलैंड, सिपीघाट वाटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स। अन्य स्थल सिपीघाट फार्म (पोर्ट ब्लेयर से 14 किलोमीटर) चिरिया टापू (30 किलोमीटर) वांडूर बीच (30 किलोमीटर) जॉली ब्वॉय क्लक एंड रेड स्किन आइलैंड आवागमन हवाई जहाज से जाने वाले पर्यटकों के लिए इंडियन की सेवाएं उपलब्ध हैं। चोई, कोलकाता से ये पकड़ी जा सकती हैं। समुद्री जहाज से भी यहाँ आया जाता है। चोई से तीन जहाज यहाँ आते हैं, दूरी करीब 1190 किलोमीटर है। कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर की दूरी 1255 किलोमीटर और विजयवाड़ा से 1200 किलोमीटर है। विशाखापटनम से भी राजधानी पोर्ट ब्लेयर के लिए जहाज जाता है। कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली से राजधानी पोर्ट ब्लेयर आने के लिए सीधी विमान सेवाएं हैं। यहाँ आने के लिए समुद्री जहाज सौगात जैसी लगती है! हालांकि यहाँ यात्रा की कुछ बंदिशें हैं यानी कुछ चुने हुए द्वीपों में पर्यटन की अनुमति है। यही बात खूबसूरत तटों और मूंगों वाली विस्तृत जल क्षेत्र के लिए हैं। इन्हें भी देखें अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह दक्षिण अण्डमान द्वीप सन्दर्भ अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह के नगर दक्षिण अण्डमान ज़िले के नगर भारत की बंदरगाहें अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
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पिपली भारत के हरियाणा प्रान्त का शहर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 पर बसा यह कस्बा कुरुक्षेत्र का द्वार है तथा यहाँ का बस अड्डा कुरुक्षेत्र हाईवे बस अड्डा के नाम से भी जाना जाता है। हरियाणा के शहर कुरुक्षेत्र
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हाफलांग (Haflong) भारत के असम राज्य के डिमा हासाओ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। यह शहर अपने सुहाने मौसम और प्राकृतिक दृश्यों के लिए माना जाता है। इन्हें भी देखें डिमा हासाओ ज़िला सन्दर्भ डिमा हासाओ ज़िला असम के नगर डिमा हासाओ ज़िले के नगर
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डिब्रूगढ़ (Dibrugarh) भारत के असम राज्य के डिब्रूगढ़ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। अहोम भाषा की बुरंजी ऐतिहासिक कृतियों में शहर का नाम ती-फाओ (Ti-Phao) दिया गया है, जिसका अर्थ "स्वर्ग-स्थल" है। विवरण डिब्रूगढ़ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा हुआ है और हिमालय की शृंखलाओं के समीप है। यह पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है और एक ऐतिहासिक शहर है। डिब्रूगढ़ शहर असम के दो मुख्य शहर मैं से एक हैं जिसे एशियाई विकास बैंक से आर्थिक सहायता मिली है। पर्यटन स्थल डिब्रूगढ़ चाय बागानों की एक यात्रा असम की चाय दुनिया भर में जानी जाती है। शहर भर में कई चाय के बागान हैं, जो ब्रिटिश के समय से हैं। यहाँ भारी संख्या में पर्यटक आते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी भारत में ब्रह्मपुत्र नदी विशाल नदियों में से एक मानी जाती है। हर साल यह हिमालय से वृहद रूप में नीचे आती है, शहरों और जंगलों को बाढ़ से ढक लेती है। डिब्रूगढ़ भी ब्रह्मपुत्र के बेहिसाब प्रवाह का एक बड़ा हिस्सा देखता है। फिर भी यह शहर की सुंदरता को बढ़ाती है। डिब्रूगढ़ सतराओं की धार्मिक यात्रा डिब्रूगढ़ के सतरा डिब्रूगढ़ पर्यटन के अभिन्न रूप हैं। अहोम राजाओं द्वारा पीछे छोड़ दी गई सांस्कृतिक धरोहरों सामाजिक, सांस्कृतिक और साथ ही धार्मिक संस्थाओं को सतरा कहा जाता है। यही सतरा ही डिब्रूगढ़ पर्यटन के प्रमुख आकर्षण हैं। दिन्जोय सतरा, कोली आई थान और दिहिंग सतरा घूमे बगैर अधूरी मानी जाती है। कोली आई थान असम में सबसे पुराना 'थान' माना जाता है, वहीं दिन्जोय सतरा और दीहिंग सतरा दोनों इतिहास और विरासत के साथ प्रभावकारी रूप से स्‍थापित हैं। आज ये सतरा असम की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के मूर्त रूप बन गए हैं। यातायात डिब्रूगढ़ ट्रेनों, विमानों और सड़क परिवहन के माध्‍यम से देश के बाकी हिस्सों से अच्छी तरह जुड़ा है। दिलचस्प बात है कि, देश के पूरबी शहर में डिब्रूगढ़ एक ऐसा शहर है जहां रेलवे स्टेशन है। यहां पर एक हवाई अड्डा भी है। मौसम डिब्रूगढ़ में साल भर एक सुखद मौसम रहता है। यहां का जलवायु पर्यटकों को वर्ष के किसी भी समय इस जगह की यात्रा करने के लिए संभव बनाता है। इन्हें भी देखें डिब्रूगढ़ ज़िला सन्दर्भ असम के नगर डिब्रूगढ़ ज़िला डिब्रूगढ़ ज़िले के नगर
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उन घरों या स्थानों को धर्मशाला कहते हैं जहाँ तीर्थयात्रियों को निःशुल्क या अत्यन्त कम शुल्क पर ठहरने की व्यवस्था होती है। प्राचीन काल से ये भारत में प्रचलित हैं। हिन्दू धर्म भारतीय संस्कृति
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बक्सर (Buxar) भारत के बिहार राज्य के बक्सर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। यहाँ की अर्थ-व्यवस्था मुख्य रूप से खेतीबारी पर आधारित है। यह शहर मुख्यतः धर्मिक स्थल के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में इसका नाम 'व्याघ्रसर' था। क्योंकि उस समय यहाँ पर बाघों का निवास हुआ करता था तथा एक बहुत बड़ा सरोवर भी था जिसके परिणामस्वरुप इस जगह का नाम व्याघ्रसर पड़ा। बक्सर पटना से लगभग ७५ मील पश्चिम और मुगलसराय से ६० मील पूर्व में पूर्वी रेलवे लाइन के किनारे स्थित है। यह एक व्यापारिक नगर भी है। यहाँ बिहार का एक प्रमुख कारागृह हैं जिसमें अपराधी लोग कपड़ा आदि बुनते और अन्य उद्योगों में लगे रहते हैं। सुप्रसिद्ध बक्सर की लड़ाई शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ की तथा अंग्रेज मेजर मुनरो की सेनाओं के बीच यहाँ ही १७६४ ई॰ में लड़ी गई थी जिसमें अंग्रेजों की विजय हुई। इस युद्ध में शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ के लगभग २,००० सैनिक डूब गए या मारे थे। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें लाखों व्यक्ति इकट्ठे होते हैं। इतिहास इसका इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। बक्सर में गुरु विश्वामित्र का आश्रम था। यहीं पर राम और लक्ष्मण का प्रारम्भिक शिक्षण-प्रशिक्षण हुआ। प्रसिद्ध ताड़का राक्षसी का वध राम द्वारा यहीं पर किया गया था। 1764 ई॰ का 'बक्सर का युद्ध' भी इतिहास प्रसिद्ध है। इसी नाम का एक ज़िला शाहबाद (बिहार में) का अनुमंडल है। बक्सर के युद्ध (1764) के परिणामस्वरूप निचले बंगाल का अंतिम रूप से ब्रिटिश अधिग्रहण हो गया। मान्यता है कि एक महान पवित्र स्थल के रूप में पहले इसका मूल नाम 'वेदगर्भ' था। कहा जाता है कि वैदिक मंत्रों के बहुत से रचयिता इस नगर में रहते थे। इसका संबंध भगवान राम के प्रारंभिक जीवन से भी जोड़ा जाता है। उत्खनन मौर्यकाल की अनेक सुंदर लघु मूर्तियाँ बक्सर उत्खनन में प्राप्त हुई थीं जो अब पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं। जनसँख्या 2011 की जनगणना के अनुसार बक्सर ज़िले की कुल जनसंख्या लगभग 1,707,643 है। इन्हें भी देखें बक्सर की लड़ाई मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नहीं पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी जनवरी 1764 में मीर कासिम उस से मिला उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे। इन्हें भी देखें बक्सर का युद्ध बक्सर ज़िला सन्दर्भ बक्सर जिला बिहार के शहर बक्सर ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बक्सर", "token_count": 3542, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B0" }
रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण (संक्षेप में आर॰के॰ लक्ष्मण; २४ अक्टूबर १९२१ – २६ जनवरी २०१५) भारत के प्रमुख हास्यरस लेखक और व्यंग-चित्रकार थे। उन्हें द कॉमन मैन नामक उनकी रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए उनके प्रतिदिन लिखी जानी वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट" के लिए जाना जाता है जो वर्ष १९५१ में आरम्भ हुई थी। लक्ष्मण ने अपना कार्य स्थानीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अंशकालिक कार्टूनकार के रूप में अपना कैरियर आरम्भ किया था। जबकि कॉलेज छात्र के रूप में उन्होंने अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण की कहानियों को द हिन्दू में चित्रित किया। उनका पहला पूर्णकालिक कार्य मुम्बई में द फ्री प्रेस जर्नल में राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में आरम्भ किया था। उसके बाद उन्होंने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कार्य करना आरम्भ कर दिया और कॉमन मैन के चरित्र ने उन्हें प्रसिद्धि दी। जन्म और बाल्यावस्था आर॰के॰ लक्ष्मण का जन्म मैसूर में सन् १९२१ में हुआ। उनके पिता प्रधानाचार्य थे और लक्ष्मण उनकी छः सन्तानों में सबसे छोटे थे। उनके एक बड़े भाई आर॰के॰ लक्ष्मण उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। लक्ष्मण पाइड पाइपर ऑफ़ डेल्ही (दिल्ली का चितकबरा मुरलीवाला) से प्रसिद्ध हुए। उन्हें प्रसिद्धि मिलने से पूर्व ही द स्ट्रैंड, पंच, बायस्टैंडर, वाइड वर्ल्ड और टिट-बिट्स जैसी पत्रिकाओं में चित्रकारी का कार्य कर चुके थे। शीघ्र ही उन्होंने अपने ऊपर, फूलों पर, अपने घर की दिवारों पर और विद्यालय में अपने अध्यापकों का विरूप-चित्रण आरम्भ कर दिया; उनकी पीपल का पता चित्रित करने की एक अध्यापक ने प्रशंसा की और उन्हें एक कलाकार नज़र आने लगा। इसके अलावा उनपर एक शुरुआती प्रभाव विश्व-प्रसिद्ध ब्रितानी कार्टूनकार डेविड लो का पड़ा। व्यवसाय आरम्भ में लक्ष्मण का प्रारम्भिक कार्य स्वराज्य और ब्लिट्ज़ नामक पत्रिकाओं सहित समाचार पत्रों में रहा। उन्होंने मैसूर महाराजा महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण कि कहानियों को द हिन्दू में चित्रित करना आरम्भ कर दिया तथा स्थानीय तथा स्वतंत्र के लिए राजनीतिक कार्टून लिखना आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण कन्नड़ हास्य पत्रिका कोरवंजी में भी कार्टून लिखने का कार्य किया। यह पत्रिका १९४२ में डॉ॰ एम॰ शिवरम स्थापित की थी, इस पत्रिका के संस्थापक एलोपैथिक चिकित्सक थे तथा बैंगलोर के राजसी क्षेत्र में रहते थे। उन्होंने यह मासिक पत्रिका विनोदी, व्यंग्य लेख और कार्टून के लिए यह समर्पित की। शिवरम अपने आप में प्रख्यात कन्नड हास्य रस लेखक थे। उन्होंने लक्ष्मण को भी प्रोत्साहित किया। लक्ष्मण ने मद्रास के जैमिनी स्टूडियोज में ग्रीष्मकालीन रोजगार आरम्भ कर दिया। उनका प्रथम पूर्णकालिक व्यवसाय मुम्बई की द फ्री प्रेस जर्नल के राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में की थी। इस पत्रिका में बाल ठाकरे उनके साथी काटूनकार थे। लक्ष्मण ने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बॉम्बे से जुड़ गये तथा उसमें लगभग पचास वर्षों तक कार्य किया। उनका "कॉमन मैन" चरित्र प्रजातंत्र के साक्षी के रूप में चित्रित हुआ। व्यक्तिगत जीवन लक्ष्मन का पहला विवाह भारतनाट्यम नर्तकी और फ़िल्म अभिनेत्री कुमारी कमला लक्ष्मण के साथ हुआ। कुमारी कमला ने अपना फ़िल्मी कैरियर बाल-कलाकार के रूप में आरम्भ किया था। उनके तलाक के समय तक उनकी कोई सन्तान नहीं थी तथा लक्ष्मण ने दूसरा विवाह कर लिया। उनकी दुसरी पत्नी का नाम भी कमला लक्ष्मण ही था। वो एक लेखिका तथा बाल-पुस्तक लेखिका थीं। लक्ष्मण ने "द स्टार आई नेवर मेट" नामक कार्टून शृंखला और फ़िल्म पत्रिका फिल्मफेयर में अपनी दूसरी पत्नी कमला लक्ष्मण का "द स्टार आई ऑनली मेट" शीर्षक से कार्टून चित्रित किया। दम्पती के एक पुत्र हुआ। सितम्बर २००३ में, उनके बायें भाग को लकवा मार गय। उन्होंने आंशिक रूप से इसके प्रभावों से मुक्ति प्राप्त कर लिया। २० जून २०१० की शाम को लक्ष्मण को मुम्बई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ति करवाया गया और बाद में पुणे स्थानान्तरित किया गया। अक्टूबर २०१२ में लक्ष्मण ने पुणे में अपना ९१वाँ जन्मदिन मनाया। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे, वैज्ञानिक जयन्त नार्लीकर तथा सिम्बायोसिस विश्वविद्यालय के कुलपति एस॰बी॰ मजुमदार ने भी इसमें भाग लिया। सम्मान एवं पुरस्कार बी डी गोयनका पुरस्कार - दि इन्डियन एक्सप्रेस द्वारा। दुर्गा रतन स्वर्ण पदक - हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा। पद्म विभूषण - भारत सरकार पद्म भूषण - भारत सरकार रमन मैग्सेसे पुरस्कार (१९८४) कृतियाँ दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश द बेस्ट ऑफ लक्षमण सीरीज होटल रिवीयेरा द मेसेंजर सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया द टनल ऑफ टाईम (आत्मकथा) मल्टी-मीडिया इंडिया थ्रू थे आईज ऑफ़ आर. के. लक्ष्मण-देन टू नाउ (सीडी रोम) लक्ष्मण रेखास-टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन आर. के. लक्ष्मण की दुनिया- सब टीवी पर एक शो सन्दर्भ टिप्पणी सन्दर्भ पुस्तकें 1921 में जन्मे लोग २०१५ में निधन भारतीय कार्टूनिस्ट मैसूर के लोग मैगसेसे पुरस्कार विजेता पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता पद्म विभूषण धारक
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फ़्रान्स या फ्रांस (आधिकारिक तौर पर फ़्रान्स गणराज्य ; फ़्रान्सीसी: République française) पश्चिम यूरोप में स्थित एक देश है किन्तु इसका कुछ भूभाग संसार के अन्य भागों में भी हैं। पेरिस इसकी राजधानी है। यह यूरोपीय संघ का सदस्य है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह यूरोप महाद्वीप का सबसे बड़ा देश है, जो उत्तर में बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, पूर्व में जर्मनी, स्विट्ज़रलैण्ड, इटली, दक्षिण-पश्चिम में स्पेन, पश्चिम में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्यसागर तथा उत्तर पश्चिम में इंग्लिश चैनल द्वारा घिरा है। इस प्रकार यह तीन ओर सागरों से घिरा है। लौह युग के दौरान, अभी के महानगरीय फ्रांस को कैटलिक से आये गॉल्स ने अपना निवास स्थान बनाया। रोम ने 52 ईसा पूर्व में इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया। फ्रांस, गत मध्य युग में सौ वर्ष के युद्ध (1337 से 1453) में अपनी जीत के साथ राज्य निर्माण और राजनीतिक केंद्रीकरण को मजबूत करने के बाद एक प्रमुख यूरोपीय शक्ति के रूप में उभरा। पुनर्जागरण के दौरान, फ्रांसीसी संस्कृति विकसित हुई और एक वैश्विक औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित हुआ, जो 20 वीं सदी तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी थी। 16 वीं शताब्दी में यहाँ कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट (ह्यूजेनॉट्स) के बीच धार्मिक नागरिक युद्धों का वर्चस्व रहा। फ्रांस, लुई चौदहवें के शासन में यूरोप की प्रमुख सांस्कृतिक, राजनीतिक और सैन्य शक्ति बन कर उभरा। 18 वीं शताब्दी के अंत में, फ्रेंच क्रांति ने पूर्ण राजशाही को उखाड़ दिया, और आधुनिक इतिहास के सबसे पुराने गणराज्यों में से एक को स्थापित किया, साथ ही मानव और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा के प्रारूप का मसौदा तैयार किया, जोकि आज तक राष्ट्र के आदर्शों को व्यक्त करता है। 19वीं शताब्दी में नेपोलियन ने वहाँ की सत्ता हथिया कर पहले फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना की, इसके बाद के नेपोलियन युद्धों ने ही वर्तमान यूरोप महाद्वीपीय के स्वरुप को आकार दिया। साम्राज्य के पतन के बाद, फ्रांस में 1870 में तृतीय फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना हुई, हलाकि आने वाली सभी सरकार लचर अवस्था में ही रही। फ्रांस प्रथम विश्व युद्ध में एक प्रमुख भागीदार था, जहाँ वह विजयी हुआ, और द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्र में से एक था, लेकिन 1940 में धुरी शक्तियों के कब्जे में आ गया। 1944 में अपनी मुक्ति के बाद, चौथे फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना हुई जिसे बाद में अल्जीरिया युद्ध के दौरान पुनः भंग कर दिया गया। पाँचवां फ्रांसीसी गणतंत्र, चार्ल्स डी गॉल के नेतृत्व में, 1958 में बनाई गई और आज भी यह कार्यरत है। अल्जीरिया और लगभग सभी अन्य उपनिवेश 1960 के दशक में स्वतंत्र हो गए पर फ्रांस के साथ इसके घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य संबंध आज भी कायम हैं। फ्रांस लंबे समय से कला, विज्ञान और दर्शन का एक वैश्विक केंद्र रहा है। यहाँ पर यूरोप की चौथी सबसे ज्यादा सांस्कृतिक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल मौजूद है, और दुनिया में सबसे अधिक, सालाना लगभग 83 मिलियन विदेशी पर्यटकों की मेजबानी करता है। फ्रांस एक विकसित देश है जोकि जीडीपी में दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तथा क्रय शक्ति समता में नौवीं सबसे बड़ा है। कुल घरेलू संपदा के संदर्भ में, यह दुनिया में चौथे स्थान पर है। फ्रांस का शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, जीवन प्रत्याशा और मानव विकास की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में अच्छा प्रदर्शन है। फ्रांस, विश्व की महाशक्तियों में से एक है, वीटो का अधिकार और एक आधिकारिक परमाणु हथियार संपन्न देश के साथ ही यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में से एक है। यह यूरोपीय संघ और यूरोजोन का एक प्रमुख सदस्यीय राज्य है। यह समूह-8, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो), आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी), विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और ला फ्रैंकोफ़ोनी का भी सदस्य है। इतिहास फ्रांस शब्द लातीनी भाषा के फ्रैन्किया (Francia) से आया है, जिसका अर्थ फ्रांक्स की भूमि या फ्रांकलैंड है। आधुनिक फ्रांस की सीमा प्राचीन गौल की सीमा के समान ही है। प्राचीन गौल में सेल्टिक गॉल निवास करते थे। गौल पर पहली शताब्दी में रोम के जुलिअस सीज़र ने जीत हासिल की थी। तदोपरांत गौल ने रोमन भाषा (लातिनी, जिससे फ्रांसीसी भाषा विकसित हुई) और रोमन संस्कृति को अपनाया। ईसाइयत दूसरी शताब्दी और तीसरी शताब्दी में पहुँची और चौथी और पाँचवीं शताब्दी तक स्थापित हो गई। चौथी सदी में जर्मनिक जनजाति, मुख्यतः फ्रैंक्स ने गौल पर कब्जा जमाया। इस से फ्रांसिस नाम दिखाई दिया। आधुनिक नाम "फ्रांस" पेरिस के आसपास के फ्रांस के कापेतियन राजाओं के नाम से आता है। फ्रैंक्स यूरोप की पहली जनजाति थी, जिसने रोमन साम्राज्य के पतन के बाद आरियानिज्म को अपनाने की बजाए कैथोलिक ईसाई धर्म को स्वीकार किया। वर्दन संधि (843) के बाद शारलेमेग्ने का साम्राज्य तीन भागों में विभाजित हो गया। इनमें सबसे बड़ा क्षेत्र पश्चिमी फ्रांसिया था, जो आज के फ्रांस के बराबर था। ह्यूग कापेट के फ्रांस के राजा बनने तक कारोलिंगियन राजवंश ने ९८७ तक फ्रांस पर राज किया। उनके वंशजों ने अनेक युद्धों और पूर्वजों की विरासत के साथ देश को एकीकृत किया। १७ वीं सदी और लुई चौदहवें के शासनकाल के दौरान फ्रांस सबसे अधिक शक्तिशाली था। उस समय फ्रांस की यूरोप में सबसे बड़ी आबादी थी। देश का यूरोपीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर एक बड़ा प्रभाव था। फ्रांसीसी भाषा अंतरराष्ट्रीय मामलों में कूटनीति की आम भाषा बन गई। फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने १८ वीं सदी में बड़ी वैज्ञानिक खोज की। फ्रांस ने अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में अनेक स्थानों पर विजय आधिपत्य जमाया। फ्रांस में फ़्रांसीसी क्रांति से पहले १७८९ तक राजशाही मौजूद थी। राजा लुई चौदहवें और उनकी पत्नी, मेरी अन्तोइनेत्ते १७९३ में मार डाला गया। हजारों की संख्या में अन्य फ्रांसीसी नागरिक भी मारे गए थे। नेपोलियन बोनापार्ट ने १७९९ में गणतंत्र पर नियंत्रण ले लिया। बाद में उन्होंने खुद को पहले साम्राज्य (१८०४-१८१४) का महाराज बनाया। उसकी सेनाओं ने महाद्वीपीय यूरोप के अधिकांश भाग पर विजय प्राप्त की। १८१५ में वाटरलू की लड़ाई में नेपोलियन के अंतिम हार के बाद, दूसरी राजशाही आई। बाद में लुई-नेपोलियन बोनापार्ट ने १८५२ में द्वितीय साम्राज्य बनाया। लुई-नेपोलियन को १८७० के फ्रांसीसी जर्मन युद्ध में हार के बाद हटा दिया गया था। उसके शासन का स्थान तीसरे गणराज्य ने लिया। फ्रांस के १८ वीं और १९ वीं सदी में एक बड़ा औपनिवेशिक साम्राज्य बनाया। इस साम्राज्य में पश्चिम अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ हिस्से भी शामिल थे। इन क्षेत्रों की संस्कृति और राजनीति फ्रांस के प्रभाव में रही। कई भूतपूर्व उपनिवेशों में फ्रांसीसी भाषा आधिकारिक भाषा हैं। भूगोल महानगरीय फ्रांस पश्चिमी यूरोप में स्थित है। इसकी सीमा बेल्जियम, लक्सेम्बर्ग, जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, मोनाको, अंडोरा और स्पेन से मिलती है। फ्रांस की सीमा से लगी हुई दो पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, पूर्व में आल्प्स और दक्षिण में प्रेनिस। फ्रांस से प्रवाहित होने वाली कई नदियों में से दो नदियाँ प्रमुख हैं, सेन और लवार। फ्रांस के उत्तर और पश्चिम में निचली पहाड़ियों और नदी घाटियाँ हैं। यह देश समतल एवं साथ-साथ पहाड़ी भी है। उत्तर में स्थित पैरिस तथा ऐक्विटेन बेसिन बृहद् मैदान के ही भाग हैं। पश्चिम की ओर ब्रिटैनी, यूरोप की उत्तर-पश्चिमी, उच्च पेटीवाली भूमि से संबंधित है। पूर्व की ओर प्राचीन चट्टानों के भूखंडों का क्रम मिलता है, जैसे मध्य का पठार तथा आर्डेन (Ardennes) पर्वत। इस देश के दक्षिण में पिरेनीज़ तथा ऐल्प्स-जूरा पर्वतों का समूह पाया जाता है। इसका दक्षिण-पूर्वी भाग पहाड़ी व ऊबड़ खाबड़ है जो ६,००० फुट से भी अधिक ऊँचा है। फ्रांस में अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मौसम का प्रभाव पाया जाता है। उत्तर और पश्चिम में अंध महासागर का मौसम पर गहरा प्रभाव है, जिसकी वजह से क्षेत्र का तापमान साल भर एक जैसा रहता है। पूर्व में सर्दियों ठंडी और मौसम अच्छा है। गर्मी गर्म और तूफानी रहती है। दक्षिण में गर्मी गर्म और सूखी रहती है। सर्दियों का मौसम ठंडा और नमी वाला रहता है। प्राकृतिक आधार पर इसे आठ भागों में बाँट सकते हैं। १. पैरिस बेसिन - यह देश का अति महत्वपूर्ण भाग है, जो यातायात साधनों द्वारा देश के हर भाग से जुड़ा है। यह बेसिन एक कटोरी के रूप में है, जो बीच में गहरा तथा चारों ओर ऊँचा होता गया है। इस भाग को पुन: (१) मध्य का बेसिन, (२) शैपेन एवं वरगंडी के कगार, (३) लोरेन के कगार, (४) पूर्वी प्रदेश तथा रोन घाटी और (५) ल्वार (Loir) प्रदेश तथा नॉरमैंडी, भागों में विभाजित किया गया है। २. उत्तर-पश्चिमी प्रदेश - यह एक समतल भाग है। यहाँ पर नॉरमैंडी तथा ब्रिटैनी पहाड़ियाँ अवश्य कुछ ऊँचा नीचा धरातल प्रस्तुत करती हैं। यहाँ दो समांतर श्रेणियाँ दक्षिण-पश्चिम में दाउनिनैज खाड़ी के उत्तर-दक्षिण में फैली हैं। उत्तरी श्रेणी मॉट्स डे आरी कहलाती है, जिसका सर्वोच्च शिखर सेंट माईकेल (१,२८५ फुट) है। यही ब्रिटैनी का सबसे ऊँचा भाग है। ३. ऐक्विटेन बेसिन - यह त्रिभुजाकार निम्न भूमि है। इसके सागरतटीय भाग में रेत के टीले मिलते हैं। इसका आंतरिक प्रदेश 'लैडीज़' कहलाता है, जो प्राय: बंजर सा है। ४. मध्य का पठार - इस भाग की औसत ऊँचाई २,५०० फुट से भी अधिक है। इसकी ऊँचाई दक्षिण-पूर्व को उठती जाती है और रोन की घाटी में समाप्त हो जाती है। इसकी पूर्वी सीमा पर सेवेन (Cevennes) पर्वत स्थित है। यहाँ क्लेयरमॉन्ट के निकटवर्ती क्षेत्र में अब भी शंकु के आकार की ७० पहाड़ियाँ हैं, जिनका उद्गार प्राचीन समय में हुआ था। पुएज डी डोम ज्वालामुखी चोटी सागरतल से ४,८०५ फुट ऊँची है। ५. पूर्वी सीमाप्रदेश - इस प्रदेश में बोज़ तथा आर्डेन पर्वतों का क्रम फैला है। दोनों के बीच में राइन घाटी स्थित है। बोज़ पर्वत १७५ मील की लंबाई में श्रेणी के रूप में फैला है। यहाँ की वर्षा का पानी जमीन के अंदर चला जाता है तथा जमीन के ऊपर धाराएँ कम दिखाई देती हैं। ६. रोन सेऑन घाटी - यह मध्य के पठार तथा ऐल्प्स-जूरा-श्रेणियों के मध्य में स्थित है। यह मॉन्टेग्निज डेला कोटि डे ओर, सेऑन तथा ल्वार के खड्ड से प्रारंभ होती है और सेन नदी के उद्गम स्थान तक चली जाती है। ७. भूमध्य सागरीय प्रदेश - राइन डेल्टा के पूर्वी भाग में सीधी खड़ी चट्टानें सागरतट के पास तक आ गई हैं। मार्सेई के पश्चिम में अनेक दलदल मिलते हैं। राइन डेल्टा के पश्चिमी तट पर पिरेनीज़ तक तथा पश्चिम की ओर गैरोनि तक लैग्विडॉक का प्रसिद्ध क्षेत्र पाया जाता है। इस क्षेत्र को सेवेन की श्रेणी काटती है। इसका तट निम्न तथा रेतीला है। ८. पश्चिमी ऐल्प्स तथा जूरा प्रदेश - फ्रांस की दक्षिणपश्चिमी सीमाएँ पिनाइन, ग्रेनाइन, कोटियान तथा मैरिटाइम ऐल्प्स द्वारा बनी है। सवॉय पर १५,७७५ फुट ऊँचा माउंट ब्लैक स्थित है। समुद्र की ओर औसत ऊँचाई बराबर घटती जाती है। इस भाग में कई प्रमुख दर्रे हैं। जूरा पर्वत फ्रांस में सबसे ऊँचा है। इसकी प्रमुख चोटियाँ क्रेट डि ला नीगे (Cret de La Neige) ५,५०० फुट तथा मॉन्ट डि ओर (Mont de Or) ५,६६० फुट हैं। जलवायु यहाँ की जलवायु समुद्री है, जिसका प्रभाव सागर से दूर जाने पर कम होता जाता है। यूरोपीय विचार से पश्चिमी तटीय भाग में निम्न ताप, पर्याप्त वर्षा, शीतल गरमियाँ तथा ठंडी सर्दियाँ जलवायु की विशेषताएँ हैं। पूर्वी तथा मध्य के भाग में महाद्वीपीय जलवायु मिलती है, जहाँ ग्रीष्म में गर्मी, पर्याप्त वर्षा एवं सर्दियों में कड़ी सर्दी पड़ती है। दक्षिणी फ्रांस में, पर्वतीय भागों को छोड़कर शेष में, भूमध्य सागरीय जलवायु मिलती है, जहाँ ठंडी सर्दियाँ, गरम गरमियाँ तथा कम वर्षा होती है। पैरिस का औसत ताप १० डिग्री सेल्सियस तथा वर्षा २२ इंच है। वर्षा ब्रिटैनी, उत्तरी तटीय भाग तथा पहाड़ी भागों में अधिक होती है। खनिज - कोयला, लोरेन तथा मध्यवर्ती जिलों में मिलता है। कोयला कम होते हुए भी फ्रांस को कोयले में विश्व में तीसरा स्थान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त यहाँ ऐंटिमनी, बॉक्साइट, मैग्नीशियम, पाइराइट तथा टंग्स्टन, नमक, पोटाश, फ्लोरस्पार भी मिलता है। उद्योग - लोरेन तथा मध्यवर्तीय भाग में स्थित लौह इस्पात उद्योग सबसे प्रमुख उद्योग है। उद्योगों के लिए पिरेनीज़ तथा ऐल्प्स से पर्याप्त विद्युत् प्राप्त हो जाती है। लील (Lille), ऐल्सैस तथा नॉरमैंडी में बाहर से रूई मँगाकर सूती कपड़े बनाए जाते हैं। ऊनी वस्त्रों के लिए रूबे (Roubaix) तथा टूरक्वै (Tourcoing) प्रमुख जिले हैं। लेयॉन में रेशमी कपड़ा बनता है। इसके अलावा जलयान निर्माण, स्वचालित यंत्र, चित्रमय परदे, सुगंधित द्रव्य, चीनी मिट्टी के बरतन, शराब, आभूषण, शृंगार की वस्तुओं, फीते, लकड़ी की वस्तुओं के उत्पादन में तो फ्रांस ने विश्व के अन्य देशों को पीछे छोड़ दिया है। राजनीति और सरकार फ्रेंच पाँचवें गणतंत्र के फ्रेंच संविधान के द्वारा देश में सरकार की एक अर्द्ध राष्ट्रपति प्रणाली निर्धारित की गई है। इसमें राष्ट्र ने अपने को "एक अविभाज्य, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक गणराज्य" घोषित किया है। इसमें कहा गया है कि फ्रांस १७८९ की घोषणा के अनुसार, मनुष्य के अधिकार की जिस तरह से घोषणा उससे जुड़ा हुआ है। फ्रांस में 8 मई 2017 को एमनुअल मैक्रोन को नए राष्ट्रपति निर्वाचित किये गए हैं। प्रशासनिक विभाग (क्षेत्र) फ्रांस अनेक (प्रशासनिक) क्षेत्रों में विभाजित है, इनमें से २२ क्षेत्र महानगर फ्रांस के अंतर्गत आते हैं: कोर्स के अन्य 21 महानगरीय क्षेत्रों की तुलना में एक अलग स्थिति है। यह région et département d'outre-mer कहा जाता है। फ्रांस के चार विदेशी क्षेत्र भी है: {| | valign="top" | गुआदेलूप (कैरिबियन में) फ्रेंच गयाना (दक्षिण अमेरिका में) मार्टीनिक (कैरिबियन में) रीयूनियन (हिंद महासागर में) |} ये चार विदेशी क्षेत्रों की महानगरीय वाले के रूप में एक ही स्थिति है। वे अलास्का और हवाई के विदेशी अमेरिकी राज्यों की तरह हैं। इसके बाद फ्रांस १०० विभागों में विभाजित है। यह विभाग ३४२ भागो (अर्रोंदिस्सेमेंट्स) में विभाजित हैं। ये अर्रोंदिस्सेमेंट्स ४०३२ भागों (कान्तोंस) में विभाजित है। इस छोटा उपखंड कम्यून है। १ जनवरी २००८ को, फ्रांस में ३६,७८१ कम्यून्स की गिनती की गई थी। इनमें से ३६.५६९ महानगरीय फ्रांस में हैं और इनमें से २१२ विदेशी फ्रांस में हैं। अर्थव्यवस्था जी-7 (पूर्व में जी-8) जैसे प्रमुख औद्योगिक देशों के समूह का सदस्य फ़्रांस को क्रय-शक्ति समता के आधार पर दुनिया का नौवां सबसे बड़ा और यूरोपीय संघ की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में दर्जा प्राप्त है। 2015 में दुनिया की 500 सबसे बड़ी कंपनियों में से 31 के साथ, फ़्रांस फॉर्च्यून ग्लोबल 500 में जर्मनी और ब्रिटेन से आगे चौथे स्थान पर है। 1993 में फ्रांस ने 11 अन्य यूरोपीय संघ के सदस्य के साथ मिल कर, एक नई मुद्रा यूरो को अपना कर अपनी पुरानी मुद्रा फ्रेंच फ्रैंक (₣) की जगह यूरो सिक्कों और बैंक नोटों को देश में लागु कर दिया। फ्रांस में एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। जहाँ सरकारी हस्तक्षेप के साथ व्यापक निजी उद्यम के साथ ही कई शासकीय उद्यम भी उपस्थित है। प्रशासन रेलवे, बिजली, विमान, परमाणु ऊर्जा और दूरसंचार के बहुसंख्य स्वामित्व के साथ कई बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण रखती है। हलाकि 1990 के दशक के शुरूआती दौर से ही यह इन क्षेत्रों पर नियंत्रण काम कर रहा है। प्रशासन धीरे-धीरे सरकारी उद्यम को निजी उद्यम की तरह ढालने की कोशिश कर रही है और साथ ही टेलेकॉम, एयर फ़्रांस, साथ ही बीमा, बैंकिंग और रक्षा उद्योगों में अपनी हिस्सेदारी को बेच रही है। फ़्रांस में यूरोपीय कंसोर्टियम एयरबस के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण एयरोस्पेस उद्योग संचालित है, जिसका अपना एक राष्ट्रीय स्पेसपोर्ट, सेंटर स्पेयरियल गुयानास है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनुसार, 2009 में फ्रांस दुनिया का छठा सबसे बड़ा निर्यातक तथा विनिर्मित वस्तुओं का चौथा सबसे बड़ा आयातक था। 2008 में, फ्रांस ओईसीडी देशों के बीच, 118 अरब डॉलर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का तीसरा सबसे बड़ा प्राप्तकर्ता था, यह लक्ज़मबर्ग (जहां विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अनिवार्य रूप से वहाँ स्थित बैंकों के लिए मौद्रिक स्थानान्तरण था) और अमेरिका ($ 316 बिलियन) के पीछे लेकिन ब्रिटेन (96.9 अरब डॉलर), जर्मनी (25 अरब डॉलर) या जापान (24 अरब डॉलर) से ऊपर था। उसी वर्ष, फ्रांस की कंपनियों ने फ्रांस के बाहर 220 अरब डॉलर का निवेश किया, फ्रांस को ओईसीडी में दूसरा सबसे बड़ा बाहरी निवेशक, अमेरिका (311 अरब डॉलर) के पीछे, वही ब्रिटेन (111 अरब डॉलर), जापान (128 अरब डॉलर) और जर्मनी ($ 157 बिलियन) से आगे था। यहाँ वित्तीय सेवाओं, बैंकिंग और बीमा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पेरिस स्टॉक एक्सचेंज (फ्रेंच: ला बोर्स डे पेरिस) एक पुरानी संस्था है, जिसका निर्माण लुइस XV द्वारा 1724 में किया गया था। 2000 में, पेरिस, एम्स्टर्डम और ब्रुसेल्स के स्टॉक एक्सचेंजों को विलय कर यूरोनेक्स्ट नाम दिया गया। 2007 में यूरोनेक्स्ट, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज के साथ विलय कर दुनिया के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज, एनवाईएसई यूरोनेक्स्ट का निर्माण किया। यूरोनेक्स्ट पेरिस, एनवाईएसई यूरोनेक्स्ट समूह की फ्रांसीसी शाखा, लंदन स्टॉक एक्सचेंज के पीछे यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज बाजार है। फ्रांस यूरोपीय एकल बाजार का हिस्सा है जो 500 मिलियन से अधिक उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है। कई घरेलू वाणिज्यिक नीतियाँ यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्यों और यूरोपीय संघ के कानूनों के बीच समझौते से निर्धारित होती हैं। फ़्रांस ने 2002 में आम यूरोपीय मुद्रा, यूरो की शुरुआत की। यह यूरोजोन का सदस्य है जो लगभग 330 मिलियन नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। फ्रांसीसी कंपनियों ने बीमा और बैंकिंग उद्योगों में अपना प्रमुख स्थान बनाए रखा है: यहाँ की एएक्सए दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कंपनी है। बीएनपी परिबास और क्रेडिट एग्रीओल प्रमुख फ्रांसीसी बैंक हैं, जो 2010 में (परिसंपत्तियों के आधार पर) दुनिया के पहले और छठे सबसे बड़े बैंकों के रूप में जाने जाते हैं, जबकि सोसिएट गेनेराल ग्रुप को 2009 में दुनिया का आठवां सबसे बड़ा स्थान दिया गया था। कृषि यहाँ कृषि प्रमुख उद्योग है। यूरोप में कृषिगत वस्तुओं के निर्यात में नीदरलैंड्स के बाद इसका ही स्थान है। कृषि योग्य क्षेत्र अधिकांश उत्तरी भाग में स्थित है। कृषि में गेहूँ, जौ, जई, चुकंदर, पटुआ, आलू तथा अंगूर का स्थान प्रमुख है। पर्यटन 2012 में अमेरिका (67 मिलियन पर्यटक) और चीन (58 मिलियन पर्यटक) से कही आगे, 83 मिलियन विदेशी पर्यटकों के साथ, फ्रांस को पर्यटन स्थल के रूप में प्रथम स्थान दिया गया हैं। इस 83 मिलियन लोगो के आँकड़े में 24 घंटे से कम समय तक रहने वाले लोगों जैसे की उत्तरी यूरोपीय लोग स्पेन या इटली जाने के लिए फ्रांस को पार करते हैं को शामिल नहीं किया गया हैं। यात्रा की कम अवधि के कारण यह पर्यटन से आय में तीसरा है यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में फ्रांस की 37 स्थल हैं इसके अलावा समुद्र तटों और समुद्र के किनारे के रिसॉर्ट, स्की रिसोर्ट और ग्रामीण क्षेत्रों की सुंदरता और शांति का लोग आनंद लेते हैं। फ़्रांस, सेंट जेम्स और लॉरडेस जाने वाले धार्मिक तीर्थयात्रियों से भी भरा रहता है, जिनकी संख्या एक साल में कई लाख तक पहुँच सकती है। फ्रांस, विशेष रूप से पेरिस में, दुनिया के बड़े और प्रसिद्ध संग्रहालय हैं, जिनमे से कुछ जैसे की लौवर, जो कि दुनिया में सबसे अधिक देखे जाने वाली कला संग्रहालय है, म्यूसी डी'ओर्से, जोकि प्रभावितवाद को समर्पित है, मोंसोरो महल-समकालीन कला संग्रहालय और ब्यूबुर्ग, जोकि समकालीन कला को समर्पित हैं। डिज़नीलैंड पेरिस यूरोप का सबसे लोकप्रिय थीम पार्क है, २००९ में डिजनीलैंड पार्क और वॉल्ट डिज़नी स्टूडियोज पार्क में आने वाले आगंतुक की संख्या १५ मिलियन थी। फ्रांस के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में: (प्रति वर्ष 2003 की रैंकिंग आगंतुकों के अनुसार): एफिल टॉवर (6.2 मिलियन), लौवर म्यूजियम (5.7 मिलियन), वर्सेल्स पैलेस (2.8 मिलियन), म्यूसी डी'ओर्से (2.1 मिलियन ), आर्क डे ट्रायम्फे (1.2 मिलियन), सेंटर पोम्पिडौ (1.2 मिलियन), मोंट सेंट-मिशेल (1 मिलियन), शैटे डी चंबर्ड (711,000), सैंट-चैपल (683,000), शैटॉ डु हौथ-केनग्सबर्ग (54 9, 000), पु दे डोमे (500,000), म्यूसी पिकासो (441,000), कार्कासन (362,000) शामिल हैं। 2018 में, फ्रांस ने 88 मिलियन लोगों का स्वागत किया। स्पेन 82 मिलियन आगंतुकों के साथ दूसरा सबसे लोकप्रिय गंतव्य था, इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (77 मिलियन), चीन (61 मिलियन) और इटली (59 मिलियन) थे। जनसांख्यिकी जनवरी 2020 तक फ्रांस की जनसंख्या लगभग 70 मिलियन अनुमानित हैं, जिसमे 64.8 मिलियन लोग महानगरीय फ्रांस में रहते हैं। फ्रांस विश्व में 20वां सबसे आबादी वाला देश है और यूरोप में तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। 2006 से 2011 तक जनसंख्या वृद्धि औसतन + 0.6% प्रति वर्ष थी। इसमें आप्रवासी भी प्रमुख योगदानकर्ता हैं; 2010 में, मेट्रोपॉलिटन फ्रांस में पैदा हुए 27% नवजात शिशुओं के माता या पिता फ्रांस के बाहर पैदा हुए थे, जबकि कम से कम 24% शिशुओं के माता या पिता यूरोप के बाहर पैदा हुए थे (विदेशी क्षेत्रों में पैदा हुए माता-पिता को भी फ्रांस में पैदा हुए माना जाता है)। फ्रांस एक बेहद शहरीकृत देश है, इसके सबसे बड़े शहरों में पेरिस (12,405,426), ल्यों (2,237,676), मार्सैय (1,734,277), तुलूज़ (1,291,517), बोर्दो (1,178,335), लिली (1,175,828), नीस (1,004,826) आदि हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से भारी मात्रा में प्रवासन यहाँ की 20 वीं शताब्दी की सबसे बड़ी राजनीतिक मुद्दा रही थी। सन्दर्भ इन्हें भी देखें फ्रांस का इतिहास फ्रांसीसी भाषा फ्रांस की क्रांति फ़्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य बाहरी कड़ियाँ फ्रांस – सपनों के भीतर का सच (सुचिता भट) चलते चलते : फ़्रांस भारत और खेती -(विवेक जी) शब्दकोश शब्दकोश फ़्रांसीसी भाषा -हिन्दी फोन बुक फ्रेंच भाषा फोन बुक मौसम पूर्वानुमान फ्रांस: आसान नहीं डगर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मैक्रों की - BBC हिन्दी यूरोप के देश फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र फ़्रांस
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इथियोपिया (गिइज़: ኢትዮጵያ, इत्योप्प्या) अफ्रीका के सींग में स्थित एक स्थल-रुद्ध देश है जो सरकारी तौर पर इथियोपिया संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में जाना जाता है। यह अफ़्रीका का दूसरा सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला देश है और इसमें 11 करोड़ से अधिक लोग बसे हुए हैं। क्षेत्रफल के हिसाब से यह अफ़्रीका का दसवाँ सबसे बड़ा देश है। इसकी राजधानी अदीस अबाबा है। इथियोपिया सूडान से दक्षिणपूर्व में, इरिट्रिया से दक्षिण में, जिबूती और सोमालिया से पश्चिम में, केन्या से उत्तर में और दक्षिण सूडान से पूर्व में स्थित है। यह दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला स्थल-रुद्ध देश है। विवरण इथियोपिया अपने इतिहास के अधिकांश के लिए एक राजशाही थी और इथियोपिया वंश 2 शताब्दी ई.पू. के लिए अपनी जड़ों [6] इथियोपिया भी एक मानव वैज्ञानिकों को ज्ञात आज अस्तित्व का सबसे पुराना स्थलों की। होने निशान मानवता का सबसे पुराना निशान के कुछ मिले। [7] यह क्षेत्र हो सकता है जिसमें से होमोसेक्सुअल sapiens पहले मध्य पूर्व और अंक के लिए बाहर सेट से परे [8] [9] [10] जब अफ्रीका ने बर्लिन सम्मेलन में यूरोपीय शक्तियों द्वारा विभाजित किया गया था। इथियोपिया केवल एक में से एक था दोनों देशों है कि अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखा। यह एक राष्ट्र लीग के केवल चार अफ्रीकी सदस्यों में से एक था। इतालवी व्यवसाय का एक संक्षिप्त अवधि के बाद, इथियोपिया में संयुक्त राष्ट्र का एक चार्टर सदस्य बन गया। जब अन्य अफ्रीकी देशों में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, उनमें से कई इथियोपिया ध्वज के रंग को अपनाया है और कई अंतरराष्ट्रीय अदीस अबाबा अफ्रीका पर ध्यान केंद्रित संगठनों के स्थान बन गया। आधुनिक इथियोपिया और इसकी वर्तमान सीमा की ओर दक्षिण में उत्तर विस्तार में महत्वपूर्ण क्षेत्रीय कमी का परिणाम होते हैं, कई migrations और वाणिज्यिक एकीकरण के साथ ही सम्राट Menelik द्वितीय और रास Gobena द्वारा विशेष रूप से विजय, के कारण. 1974 में, Haile Selassie के नेतृत्व राजवंश के रूप में सिविल युद्ध तेज परास्त किया गया था। तब से, इथियोपिया सरकारी प्रणालियों की एक किस्म को देखा है। इथियोपिया एक गुट निरपेक्ष (एनएएम) आंदोलन, जी -77 और अफ्रीकी एकता संगठन (OAU) के संस्थापक सदस्यों में से एक है। आज, अदीस अबाबा अभी भी अफ्रीकी संघ के मुख्यालय, नील नदी बेसिन आयोग, [11] वाणिज्य पान अफ्रीकी चैम्बर (PACCI) और [12] UNECA. देश एक अफ्रीका और अदीस अबाबा में सबसे शक्तिशाली सेनाओं में से एक है महाद्वीपीय अफ्रीकी अतिरिक्त बल (ASF) के मुख्यालय है। इथियोपिया कुछ अफ्रीकी देशों के लिए अपने स्वयं के वर्णमाला है एक है [13] इथियोपिया भी अपने खुद के समय प्रणाली और अनूठा कैलेंडर, ग्रेगोरियन कैलेंडर के पीछे सात से आठ साल की है।. यह अफ्रीका में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की संख्या सबसे अधिक है। [14] देश के प्राकृतिक विरोधाभासों का देश झरने और साथ है, ज्वालामुखी हॉट स्प्रिंग्स. इथियोपिया अफ्रीका के सर्वोच्च पहाड़ों में से कुछ के रूप में समुद्र के स्तर से नीचे दुनिया का सबसे कम अंक में से कुछ भी है। अफ्रीका में सबसे बड़ी गुफा इथियोपिया में Sof उमर में स्थित है और देश के उत्तरी क्षेत्र में Dallol एक सबसे पृथ्वी पर स्थानों साल कहीं दौर से एक है। वहाँ कुल मिलाकर आज कर रहे हैं लगभग 80 इथियोपिया में विभिन्न जातीय समूहों के दो ओरोमो और Amhara, जो दोनों के एफ्रो एशियाई भाषाओं में बात की जा रही सबसे बड़ी के साथ. देश भी अपनी ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने के लिए प्रसिद्ध है, रॉक कटाकर गिराय हुआ चर्चों और वह जगह है जहां कॉफी की फलियों के रूप में जन्म लिया। वर्तमान में, इथियोपिया शीर्ष कॉफी और अफ्रीका में शहद उत्पादक देश है और सबसे बड़ी अफ्रीका में पशुधन आबादी के लिए घर है। इथियोपिया सब दुनिया के प्रमुख Abrahamic धर्मों में से तीन के पास ऐतिहासिक संबंध है। यह एक विश्व में पहले ईसाई देशों में से एक था, होने आधिकारिक तौर पर 4 शताब्दी में राज्य धर्म के रूप में ईसाई धर्म अपनाया. यह एक ईसाई बहुमत है और आबादी का एक तिहाई मुसलमान हैं। इथियोपिया इस्लामी इतिहास में पहली हिजरा और अफ्रीका में सबसे पुराना Negash पर मुस्लिम निपटान की साइट है। 1980 इथियोपिया इथियोपिया में बसता यहूदियों का एक बड़ा आबादी तक. देश में भी Rastafari धार्मिक आंदोलन के आध्यात्मिक देश है। इथियोपिया, जो अफ्रीका की दूसरी सबसे बड़ी पनबिजली क्षमता है [15] कुल नील जल प्रवाह का 85% से अधिक स्रोत है और अमीर मिट्टी होते हैं, लेकिन यह फिर भी 1980 के दशक में अकाल की एक शृंखला, प्रतिकूल भू राजनीति और नागरिक युद्ध द्वारा exacerbated लिया, हजारों की सैकड़ों की मौत हो जाती है [16] धीरे धीरे, लेकिन, देश के लिए ठीक हो शुरू हो गया है और आज इथियोपिया पूर्वी अफ्रीका (जीडीपी) [17] के रूप में इथियोपिया की अर्थव्यवस्था का भी है कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। तेजी दुनिया में बढ़ रहा है। यह हॉर्न और पूर्वी अफ्रीका में. [18] [19] [20] [21] एक क्षेत्रीय महाशक्ति देश राजनीतिक रूप से नाजुक बनी हुई है। इन्हें भी देखें इथियोपियाई साहित्य सन्दर्भ अफ़्रीका के देश इथियोपिया स्थलरुद्ध देश संघीय गणराज्य
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अल्बानिया गणराज्य (अल्बानियाई: Republika e Shqipërisë) उत्तरपूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी भू सीमाएं उत्तर में कोसोवो, उत्तर पश्चिम में मोन्टेनेग्रो, पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण में यूनान से मिलती हैं। तटीय सीमाएं दक्षिण पश्चिम में आड्रियाटिक सागर और आयोनियन सागर से मिलती हैं। अल्बानिया एक संसदीय लोकतंत्र और अवस्थांतर अर्थव्यवस्था है। अल्बानिया की राजधानी, तिराना, लगभग ८,९५,००० निवासियों वाला नगर है जो देश की ३६ लाख की जनसंख्या का चौथाई भाग है और यह नगर अल्बानिया का वित्तीय केन्द्र भी है। मुक्त बाजार सुधारों के कारण विदेशी निवेश के लिए देश की अर्थव्यस्था खोल दी गई है मुख्यतः ऊर्जा के विकास और परिवहन आधारभूत ढांचे में। अल्बानिया संयुक्त राष्ट्र, नाटो, यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन, यूरोपीय परिषद, विश्व व्यापार संगठन, इस्लामिक सम्मेलन संगठन इत्यादि का सदस्य है और भूमध्य क्षेत्र संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक था। अल्बानिया जनवरी २००३ से यूरोपीय संघ में विलय के लिए एक संभावित प्रत्याशी रहा है और इसने औपचारिक रूप से २८ अप्रैल, २००९ को यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए आवेदन किया। अल्बानिया में 26 नवंबर 2019,मंगलवार को भूकंप आया अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण के अनुसार 6.4 तीव्रता के साथ आये भूकंप का केन्द्र राजधानी तिराना से 30 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में था। इसके बाद 5.1 और 5.4 की तीव्रता वाले झटके महसूस किए गए।भूकंप से सबसे ज़्यादा नुक़सान दुर्रेस में हुआ है। कुर्बिन में भूकंप आने पर घबरा कर अपने घर से बाहर छलांग लगा देने के कारण तथा उत्तरी शहर लेज्हा में सड़क के टूटने से एक अन्य व्यक्ति की मौत हो गई। अल्बानिया के राष्ट्रपति इलिर मेटा ने कहा कि थुमाने में स्थिति काफी गंभीर है। लोगों को बचाने की पूरी कोशिश की जा रही है। अल्बानिया के प्रधानमंत्री एदी रमा ने कहा कि सभी सरकारी एजेंसियां सतर्क हैं और दुर्रेस और थुमाने में लोगों की जान बचाने के लिए काम कर रही हैं। इससे पहले साल 1979 में 6.9 तीव्रता के भूकंप में 136 लोगों की जान गई थी और क़रीब एक हज़ार लोग घायल हुए थे। इतिहास दूसरी से चौथी सदी तक यह क्षेत्र रोमन साम्राज्य का भाग था। इसके अगले १००० वर्षों तक यह यूनानी भाषा बोलने वाले ओस्ट्रोमीरिज का भाग था। स्कान्दरबर्ग, जिसे बाद में अल्बानिया के राष्ट्रीय नायक होने का गौरव प्राप्त हुआ, ने अपनी मृत्यु तक तुर्कों को अल्बानिया से खदेड़े रखा। इसके बाद लगभग ५०० वर्षों का तुर्क आधिपत्य काल आया, जिसका अन्त बाल्कन युद्ध के बाद हुआ और अल्बानिया १९१२ में एक स्वतन्त्र देश बना। प्रथम बाल्कन युद्ध के बाद अल्बानिया ने ऑटोमन साम्राज्य से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। देश में स्थिति अभी भी अशांत थी। द्वितीय विश्व युद्घ के दौरान इटली ने इसपर अधिकार कर लिया, लेकिन इसका लगातार एन्वर होक्ज़ा के नेतृत्व में साम्यवादी विरोध जारी रहा और इतालवियों के देश छोड़ने के बाद साम्यवादियों ने सत्ता सम्भाली। १९९० में एन्वर होक्ज़ा की मृत्यु के पाँच वर्षों बाद तक, अल्बानिया एक पृथक्कृत देश था। देश में बहुदलीय व्यस्था को सुदृढ़ किया जा रहा है, लेकिन देश में अभी भी बहुत सी आर्थिक समस्याएं बनीं हुई हैं, जैसे निवेश की कमी और आधारभूत ढाँचे की कमी और अपर्याप्त बिजली आपूर्ती। इसके अतिरिक्त यहाँ भ्रष्टाचार, 'काली' अर्थव्यस्था और संगठित अपराध की भी भारी समस्या है। २००५ में इन समस्याओं का समाधान करने के लिए पहल की गई लेकिन उससे बहुत अधिक उत्साहवर्धक परिणाम नहीं निकले। १९९७ में देश में सशस्त्र विद्रोह हो गया और सैन्य हथियार लूट लिए गए। इसका कारण था जिन कम्पनियों में लोगों ने पैसा निवेश किया था वह ढह गईं और अल्बानियाईयों का पैसा डूब गया। इटली के नेतृत्व में नाटो सेनाएं यहाँ तैनात की गईं ताकी शांति और कानून व्यस्था बनी रहे। सत्तारूढ राष्ट्रपति साली बेरिशा को अपदस्त होने के लिए बाध्य किया गया और इस बीच समाजवादी नेता फ़ातोस नानो को छोड़ा गया। संसदीय चुनावों के बाद समाजवादी सत्ता में आए। सितम्बर १९९८ में एक प्रमुख नेता आज़ेम हज्दारी की हत्या का प्रयास किया गया जिसके बाद दंगे भड़क उठे। फ़ातोस नानो विदेश भाग गए और उनके स्थान पर एक अन्य समाजवादी नेता पान्देली माज्को सत्ता में आए। अल्बानिया नाटो और यूरोपीय संघ का सदस्य बनना चाहता है और इसने अफ़्गानिस्तान और ईराक में अमेरिकी सेना का समर्थन किया है। यूरोपीय संघ, विश्व बैंक इत्यादि ने अल्बानिया की समस्याओं को लेकर इसकी आलोचना की है, लेकिन पिछ्ले कुछ वर्षों में यहाँ विकास हुआ है जिसके बाद यूरोपीय संघ ने अल्बानिया के साथ अब तक की स्थिति के उलट अधिक सहयोग किया है। होक्ज़ा की सत्ता ढहने के बाद से अल्बानिया पर साली बेरिशा के अधीन लोकतन्त्रवादियों का शासन है। २००५ के आम चुनावों में समाजवादियों की हार हुई और लोकतन्त्रवादियों को पुनः सत्ता प्राप्त हुई और इस हार के बाद फ़ातोस नानो ने पार्टी चेयरमैन का पद त्याग दिया और तिराना के मेयर एदि रामा नए चेयरमैन बने। राजनीति अल्बानिया में राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख होता है, जिसका चुनाव कुवेन्दी पॉपुल्लर या विधानसभा द्वारा किया जाता है। विधानसभा के १५५ सदस्यों का चुनाव प्रति पाँच वर्ष में होने वाले चुनावों द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा सरकार के मन्त्रियों का चुनाव किया जाता है जिनका मुखिया अल्बानिया का प्रधानमन्त्री होता है। अल्बानिया में १८ वर्ष से ऊपर के सभी अल्बानियाई नागरिक मतदान कर सकते हैं। कार्यकारी शाखा राष्ट्र प्रमुखः देश का राष्ट्रपति सरकार प्रमुखः प्रधानमन्त्री मन्त्रीपरिषदः मन्त्रीपरिषद प्रधानमन्त्री द्वारा सुझाई जाती है, राष्ट्रपति द्वारा नामित होती है और संसद द्वारा स्वीकृत की जाती है। विधान शाखा एकविधायी विधानसभा या कुवेन्दी (Kuvendi)(१४० सीटें; १०० सदस्य लोकप्रिय मतों द्वारा और ४० सदस्य आनुपातिक मतों द्वारा चुने जाते हैं जिनका कार्यकाल ४ वर्षों का होता है। चुनावः पिछले चुनाव ३ जुलाई, २००५ को हुए थे, अगले २००९ में। न्यायिक शाखा संवैधानिक न्यायालय, उच्चतम न्यायालय (चेयरमैन का चुनाव जन सभा द्वारा चार वर्षीय अवधि के लिए किया जाता है) और विभिन्न जिला स्तरीय न्यायालय। प्रभाग अल्बानिया ३६ प्रभागों में विभक्त है, जिन्हें अल्बानिया में रेथे (rrethe) कहा जाता है। राजधानी तिराना को विशेष दर्जा प्राप्त है। ये प्रभाग हैं: भूगोल अल्बानिया का क्षेत्रफल २८,७४८ वर्ग किलोमीटर है। इसकी तटरेखा ३६२ किलोमीटर लंबी है और एड्रियाटिक और आयोनियन सागरों साथ लगती हुई है। पश्चिम की निम्नभूमि एड्रियाटिक सागर की ओर मुखातिब है। देश का ७०% भूपरिदृश्य पर्वतीय है और बाहर से अभिगमन प्रायः दुर्गम है। सबसे ऊँचा पर्वत कोराब पर्वत, दिब्रा जिले में स्थित है और २,७५३ मीटर (९,०३० फुट) ऊँचा है। देश की ऊँचे क्षेत्रों में ठंडी सर्दियों और गर्मियों के साथ जलवायु महाद्वीपीय है। राजधानी तिराना के अतिरिक्त, जिसकी जनसंख्या ८,००,००० है, अन्य प्रमुख नगर हैं डूरेस (Durrës), कोर्से (Korçë), इल्बासन (Elbasan), श्कोदर (Shkodër), जिरोकास्तर (Gjirokastër), व्लोरे (Vlorë) और कूकेस (Kukës) हैं। बाल्कन प्रायद्वीप की तीन सबसे विशाल और गहरी टेक्टोनिक झीलें आंशिक रूप से अल्बानिया में पड़ती हैं। देश के उत्तर्पश्चिम में स्थित श्कोदेर झील की सतह ३७० किमी२ से ५३० किमी२ तक है, जिसमें से एक तिहाई अल्बानिया में और शेष मोंटेनेग्रो में आता है। झील से लगता अल्बानियाई तट ५७ किमी का है। ऑर्चिड झील देश के दक्षिण-पश्चिम में है यह अल्बानिया और मैसिडोनिया के बीच विभाजित है। इसकी अधिकतम गहराई २८९ मीटर है यहाँ पर विभिन्न प्रकार के अनूठे वनस्पति और जीव पाए जाते हैं, जैसे "जीवित जीवाश्म" और कई विलुप्त प्रजातियां। अपने प्राकृतिक और एतिहासिक महत्त्व के कारण ऑर्चिड झील यूनेस्को के संरक्षण में है। अर्थव्यवस्था अल्बानिया, पूर्वी यूरोपीय मानकों के आधार पर एक निर्धन देश है। वर्ष २००८ में इसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (पी पी एस में व्यक्त-व्यय शक्ति मानक) यूरोपीय संघ के औसत का २५ प्रतिशत था। फिर भी, अल्बानिया ने आर्थिक विकास की क्षमता दिखाई है, जबसे अधिक से अधिक व्यापार प्रतिष्ठान यहाँ स्थानांतरित हो रहे हैं और वर्तमान वैश्विक लागत-कटौती के चलते उपभोक्ता वस्तुएँ उभरते बाज़ारी व्यापारियों द्वारा यहाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। यूरोप में केवल अल्बानिया और साइप्रस ही ऐसे दो देश हैं जिन्होंने २००९ की प्रथम तिमाही में आर्थिक विकास दर्ज किया है। देश में तेल और प्राकृतिक गैस के कुछ भण्डार पाए जाते हैं, लेकिन तेल उत्पादन केवल ६,४२५ बैरल प्रतिदिन है। प्राकृतिक गैस का उत्पादन, जो लगभग ३ करोड़ घन मीटर है, घरेलू माँग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। अन्य प्राकृतिक सन्साधन हैं कोयला, बॉक्साइट, ताँबा और लौह अयस्क। कृषि क्षेत्र सबसे प्रमुख है, जिसमें देश की ५८% कार्यशक्ति लगी हुई है और इससे सकल घरेलू उत्पाद का २१% भाग उत्पन्न होता है। अल्बानिया पर्याप्त मात्रा में गेहूँ, मक्काम तंबाकू, मछली (विश्व में १३ वें स्थान पर) और जैतून का उत्पादन करता है। जनसांख्यिकी अल्बानिया एक सजातीय देश है: ९४% लोग मूल अल्बानियाई हैं, जो दो मुख्य समूहों में बँटे हैं - घेस (उत्तर) और तोस्क (दक्षिण) और भौगोलिक रूप से श्कुम्बिन नदी इस क्षेत्रों को अलग करती है। अन्य जातीय समूह हैं यूनानी (२%), आर्मेनियाई (३%), जिप्सी, सर्ब और मैसिडोनियाई (१%)। १९१३ के हुए बिभाजन के बाद से बहुत से अल्बानियाई पड़ोसी देशों जैसे कोसोवो, मैसिडोनिया के पश्चिम में, उत्तरी यूनान इत्यादि में रहते हैं। १९१२-१३ में लंदन में हुए राजदूत सम्मेलन में हुई सन्धि के कारण अल्बानिया के पड़ोसी देशों को अल्बानिया का ४०% भूभाग और जनसंख्या दिए गए। यूरोप में अल्बानिया की प्रवासन दर सर्वाधिक है, लगभग एक तिहाई अल्बानियाई विदेशों में रहते हैं, २००६ में लगभग ९,००,०००, जिनमें से अधिकांश मुख्यतः दो सीमाई देशों - इटली और यूनान में बसे हुए हैं। इसका एक प्रमुख कारण अल्बानिया का शेष यूरोप की तुलना में जीवन स्तर कम होना है। परिणाम स्वरूप देश की कुल जनसंख्या में भी १९९१ और २००१ के बीच जन्म दर के सन्तुलित रहने के पश्चात भी १,००,००० की गिरावट आई है। अभी भी देश में प्रवासन जारी है भले ही आधिकारिक आँकड़ो में इसमें कमी दर्शायी जाती हो। धर्म बड़ी संख्या में अल्बानियाई लोग या तो नास्तिक हैं या अज्ञेयवादी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, अल्बानिया में धार्मिक कार्यकलापों में लगे हुए लोगों का प्रतिशत २५ से ४० के बीच है, अर्थात् ६०% से ७५% तक अल्बानियाई अधार्मिक हैं (या कम से कम सार्वजनिक रूप से धार्मिक प्रदर्शनों में नहीं हैं)। यद्यपि अल्बानियाई बहुत अधिक धार्मिक नहीं हैं, लेकिन लगभग ७०% लोग सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से मुसलमान है, अल्बानियाई ऑर्थडॉक्स २०% और कैथलिक १०% हैं। आज के अल्बानिया में धार्मिक बनावट की बहुत कम भूमिका है और लम्बे समय से यहाँ ईसाई और मुसलमान शान्तिपूर्ण रूप से रहते आए हैं। भाषा अल्बानिया की प्रमुख भाषा है अल्बानियाई, जो एक हिन्द यूरोपीय भाषा है। यह अल्बानिया के अतिरिक्त मैसिडोनिया, मोंटेनेग्रो, कोसोवो और इटली के अर्बेरेश (Arbëresh) और यूनान के अर्वानितेस (Arvanites) में बोली जाती है। इसकी दो मुख्य बोलियाँ हैं: घेग, जो श्कुम्बिन नदी के उत्तर में बोली जाती है तोस्क, जो दक्षिणी अल्बानिया में बोली जाती है, श्कुम्बिन नदी के दक्षिण में १९०९ में इस भाषा को औपचारिक रूप से लातिन लिपि में लिखा जाने लगा और द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त से लेकर १९६८ तक कोसोवो, मैसिडोनिया और मोंटेनेग्रो में रह रहे अल्बानियाईयों में इसे आधिकारिक रूप से प्रयुक्त किया। १९७२ में साम्यवाद के उत्त्थान के बाद से इस भाषा को और गति मिली और यह आज अल्बानिया की आधिकारिक भाषा है। संस्कृति संगीत अल्बानियाई लोक संगीत तीन समूहों में विभाजित है, अन्य महत्वपूर्ण संगीत क्षेत्र श्कोदर और तिराना के आसपास हैं; प्रमुख समूह हैं उत्तर के घेग और दक्षिण के लैब्स और तोस्क। उत्तरी और दक्षिणी परंपराओं में अन्तर है, उत्तरी संगीत "ऊबड़ और वीरतापूर्ण" और दक्षिणी संगीत "शांतिपूर्ण, मृदुल और असाधारण रूप से सुंदर" है। इन दो अलग शैलियों का एकीकरण तब होता है "जब दोनों, कलाकार और श्रोता ध्यानपूर्वक संगीत को देशभक्ति की अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम के रूप में प्रयुक्त करते हैं और मौखिक रूप से इतिहास का वर्णन करते हैं"। अल्बानियाई लोक संगीत का प्रथम संकलन प्जीतर दुन्गु (Pjetër Dungu) द्वारा १९४० में किया गया था। खानपान अल्बानिया का भोजन अन्य भूमध्य और बाल्कन देशों के ही समान, अपने इतिहास से दृढ़ता से प्रभावित है। अलग अलग समय में, अल्बानिया पर यूनान, इटली और ऑटोमन तुर्को ने अधिकार किया और प्रत्येक ने अल्बानियाई खानपान पर अपनी छाप छोड़ी। अल्बानिया के लोगों का मुख्य भोजन दोपहर का भोजन है और इसमें आमतौर हरी सब्जियों के सलाद जैसे टमाटर, खीरे, हरी मिर्च और जैतून का तेल, सिरका और नमक लिया जाता है। दोपहर के भोजन में प्रमुख व्यंजन रे रूप में सब्जियाँ और मांस भी सम्मिलित है। तटीय क्षेत्रों जैसे डूरेस, व्लोरे और सारान्दे में समुद्री-आहार भी विशेष रूप से प्रचलित है। लम्बे समय से अल्बानिया में यह परम्परा रही है कि किसी सामाजिक सभा का संयोजक, जिसे पापि मूएजर (Papi Muejer) कहा जाता है, वहाँ उपस्थित लोगों के लिए किसी स्थानीय मधुशाला में प्रथम बार की मदिरा खरीदता है। वेशभूषा शिक्षा साम्यवादी शासन से पहले, अल्बानिया में निरक्षरता दर ८५% थी। प्र्थम और द्वितीय विश्व युद्धों के बीच विद्यालय बहुत कम थे। १९४४ में साम्यवादी अधिग्रहण वाली सरकार ने निरक्षरता को समाप्त करने की ठानी। विनियामक इतने कड़े कर दिए गए की १२ से ४० वर्ष तक के आयुवर्ग में जो कोई भी पढ़ना या लिखना नहीं जानता था, के लिए विद्यालय जाना अनिवार्य कर दिया गया। संघर्ष के इस दौर के बाद से देश में साक्षरता की दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। आज अल्बानिया की साक्षरता दर ९८.७% है, पुरूष साक्षरता ९९.२% और महिला साक्षरता दर ९८.३% है। १९९० के बाद से जनसंख्या के तेज़ी से नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन के कारण शिक्षा का भी पलायन हुआ है और हज़ारों शिक्षक अपने विद्यार्थियों के पीछे-२ नगरीय क्षेत्रों में चले गए हैं। स्वास्थ्य समाजवाद के पतन के बाद से देश में स्वास्थ सेवाएं निरंतर चरमराई है, लेकिन २००० के बाद से इस क्षेत्र में आधिनिकीकरण किया गया है। आरंभिक २००० में देशभर में कुल ५१ अस्पताल थे जिन्में एक सैन्य अस्पताल और विशेषज्ञ सुविधाएं भी सम्मिलित हैं। अल्बानिया ने सफ़लतापूर्वक मलेरिया का उन्मूलन किया है। जीवन प्रत्याशा ७७.४३ वर्ष है, जो विश्व में ५१ वें स्थान पर है और बहुत से अन्य यूरोपीय देशों जैसे हंगरी और चेक गणराज्य से अधिक है। आयुर्विज्ञान विद्यालय, तिराना विश्वविद्यालय का चिकित्सा संकाय, तिराना में है। देश के कई अन्य नगरों में भी नर्सिंग विद्यालय हैं। प्रसिद्ध अल्बानियाई अनवर होजा रोमन साम्राज्य के इलिरियाई सम्राट (प्रमुखतः क्लौडियस द्वितीय औरिलियन, डियोक्लेटियन, प्रोबस) २५ से अधिक ऑटोमन मन्त्री पोप क्लीमेन्ट एकादशम (१७००) नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सरकार अल्बानिया का राष्ट्रपति अल्बानियाई सरकार (मन्त्री परिषद) अल्बानिया की सन्सद अल्बानियाई सम्वैधानिक न्यायालय अल्बानियाई सांख्यिकी सन्स्थान राजय प्रमुख और मन्त्री परिषद के सदस्य पर्यटन राष्ट्रीय पर्यटन संगठन देशाटन और पर्यटन के लिए आधिकारिक जालपृष्ठ पर्यटन, इतिहास अल्बानिया के लिए मार्गदर्शक (चित्रों सहित) अन्य wikt:अल्बानिया (विक्षनरी) यूरोप के देश बाल्कन
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कोयम्बतूर (Coimbatore) या कोयंबुत्तूर भारत के तमिल नाडु राज्य के कोयम्बतूर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसा शहर मुख्य रूप से एक औद्योगिक नगरी है। शहर रेल और सड़क और वायु मार्ग से अच्छी तरह पूरे भारत से जुड़ा है। कोयंबुत्तूर एक महत्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। दक्षिण भारत के मैनचेस्टर के नाम से प्रसिद्ध कोयंबुत्तूर एक प्रमुख कपड़ा उत्पादन केंद्र है। नीलगिरी की तराई में स्थित यह शहर पूरे साल सुहावने मौसम का अहसास कराता है। दक्षिण से नीलगिरी की यात्रा करने वाले पर्यटक कोयंबुत्तूर को आधार शिविर की तरह प्रयोग करते हैं। कपड़ा उत्पादन कारखानों के अतिरिक्त भी यहां बहुत कुछ है जहां सैलानी घूम-फिर सकते हैं। यहां का जैविक उद्यान, कृषि विश्‍वविद्यालय संग्रहालय और वीओसी पार्क विशेष रूप से पर्यटकों को आकर्षित करता है। कोयंबुत्तूर में बहुत सारे मंदिर भी हैं जो इस शहर के महत्त्व को और भी बढ़ाते हैं। प्रमुख आकर्षण वीओसी पार्क वीओसी पार्क कोयंबटूर का मुख्य आकर्षण है। इस उद्यान का नाम मशहूर स्वतंत्रता सैनानी वी.ओ. चिदंबरम के नाम पर पड़ा। यूं तो यह पार्क सभी आयु वर्ग के लोगों को पसंद आता है लेकिन बच्चों को यह उद्यान खास तौर से लुभाता है। यहां पर एक एक्वेरियम भी है जहां विभिन्न प्रजातियों की मछलियों को देखा जा सकता हैं। इसके अलावा यहां एक छोटा चिड़ियाघर और टॉय ट्रेन भी है जिनका आनंद उठाया जा सकता है। कृषि विश्‍वविद्यालय तमिलनाडु कृषि विश्‍वविद्यालय कोयंबटूर के रोचक पर्यटक स्थलों में से एक है। रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर दूर स्थित यह विश्‍वविद्यालय एशिया के सर्वश्रेष्ठ कृषि विश्‍वविद्यालयों में से एक है। यहां का मुख्य आकर्षण यहां का जैविक उद्यान है। करीब 300 हैक्टेयर में फैले इस उद्यान में विविध प्रजाति के पेड़-पौधों का अच्छा संग्रह है। पेरुर मंदिर पेरुर कोयंबटूर से 6 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा शहर है। इसका मुख्य आकर्षण पेरुर मंदिर है जो सात कोंगु शिवालयम में से एक है। मंदिर की बाहरी इमारत मदुरै के शासकों ने 17वीं शताब्दी में बनवाई थी लेकिन अंदर का मुख्य मंदिर उससे काफी पुराना है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर के प्रवेश द्वार के पास स्तंभ के नीचे उकेरी गई एक सैनिक की प्रतिमा यहां का मुख्य आकर्षण है। इस सिपाही की वर्दी औरंगजेब के सैनिकों के समान है। मरुधमलाई मंदिर कोयंबटूर रेलवे स्टेशन से 12 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर भगवान सुब्रमण्यम को समर्पित है। यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण इस मंदिर के मुख्य देवता दंडयुथपाणी हैं। इनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने यहां कई चमत्कार किए थे। थाई पूसम और तिरुकर्तीगई उत्सव यहां बहुत धूम-धाम से मनाए जाते हैं। सिरुवनी वॉटरफॉल शहर से 37 किलोमीटर दूर स्थित है सिरुवनी जलप्रपात और बांध। इनकी खूबसूरती से यहां आने वाले दर्शक मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहते। इसी सुंदरता के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों पर्यटक यहां घूमने आते हैं। सिरुवनी के पानी का भी अलग ही स्वाद है। इसलिए यहां आने पर इसे जरूर चखना चाहिए। अन्नामलई वन्यजीव अभयारण्य पोल्लाची के पास स्थित अन्नामलई वन्यजीव अभयारण्य कोयंबटूर से कुछ दूरी पर स्थित एक रोमांचक स्थान है। समुद्र तल से 1400 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह अभयारण्य विभिन्न प्रकार के जानवरों और पक्षियों का घर है। इनमें से कुछ प्रमुख जीव और पक्षी हैं- हाथी, गौर, बाघ, चीता, भालू, भेड़िया, रॉकेट टेल ड्रॉन्गो, बुलबुल, काले सिर वाला पीलक, बतख और हरा कबूतर। अन्नामलई के अमरावती सरोवर में बड़ी संख्या में मगरमच्छ भी देखे जा सकते हैं। अन्नामलई अभयारण्य में कई ऐसी खूबसूरत जगहें भी हैं जो प्रकृति से रूबरू कराती हैं जैसे करैन्शोला, अनैकुंती शोला, हरे-भरे पहाड़, झरने, बांध और सरोवर। यहां आकर प्रकृति को करीब से जानने का मौका मिलता है। तिरुमूर्ति मंदिर उदुमपेट से 20 किलोमीटर दूर पलानी-कोयंबटूर राजमार्ग पर तिरुमूर्ति मंदिर स्थित है। यह मंदिर तिरुमूर्ति पहाड़ी के नीचे तिरुमूर्ति बांध के पास है। एक बारामासी जलधारा श्री अमरलिंगेश्‍वर मंदिर के पास बहती है। पास ही स्थित एक झरना इस स्थान की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। यहां से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर अमरावती बांध के पास क्रोकोडाइल फार्म है जिसकी सैर भी की जा सकती है। आवागमन वायु मार्ग कोयंबटूर हवाई अड्डा शहर से 12 किलोमीटर दूर है और मुंबई, चेन्नई और कोजीकोड से जुड़ा हुआ है। रेल मार्ग कोयंबटूर शहर में दो रेलवे स्टेशन हैं जिनमें से कोयंबटूर जंक्शन मुख्य स्टेशन है। कई महत्वपूर्ण ट्रेनें इस शहर से होकर गुजरती हैं। इनमें से कुछ हैं- त्रिवेंद्रम-नई दिल्ली केरल एक्सप्रेस, त्रिवेंद्रम-निजामुद्दीन एक्सप्रेस, कोयंबटूर-निजामुद्दीन कोंगु एक्सप्रेस, चेन्नई-कोयंबटूर इंटरसिटी एक्सप्रेस आदि। सड़क मार्ग सड़क मार्ग के जरिए कोयंबटूर बंगलुरु, चेन्नई, एर्नाकुलम, कोट्टायम, पुदुचेरी, रामेश्‍वरम और तिरुवनंतपुरम से जुड़ा हुआ है। इन्हें भी देखें कोयम्बतूर ज़िला बाहरी कड़ियाँ Coimbatore travels Latest Coimbatore News RSS Feed for coimbatore Catch Kovai on your Mobile Coimbatore District Administration Municipal Corporation Coimbatore Digest Coimbatore Portal . सन्दर्भ तमिल नाडु के शहर कोयम्बतूर ज़िला कोयम्बतूर ज़िले के नगर दक्षिण भारत चेन्नई रेलवे मंडल तमिलनाडु
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रवांडा नरसंहार तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। 1994 में 6 अप्रैल को किगली में हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान रवांडा के राष्ट्रपति हेबिअरिमाना और बुरुन्डियान के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या कर दी गई, जिसके बाद ये संहार शुरू हुआ। करीब 100 दिनों तक चले इस नरसंहार में 5 लाख से लेकर दस लाख लोग मारे गए। तब ये संख्या पूरे देश की आबादी के करीब 20 फीसदी के बराबर थी। इस संघर्ष की नींव खुद नहीं पड़ी थी, बल्कि ये रवांडा की हुतू जाति के प्रभाव वाली सरकार जिसने इस जनसंहार को प्रायोजित किया था। इस सरकार का मकसद विरोधी तुत्सी आबादी का देश से सफाया था। इसमें ना सिर्फ तुत्सी लोगों का कत्ल किया गया, बल्कि तुत्सी समुदाय के लोगों के साथ जरा सी भी सहानुभूति दिखाने वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। नरसंहार को सफल बनाने वालों में रवांडा सेना के अधिकारी, पुलिस विभाग, सरकार समर्थित लोग, उग्रवादी संगठन और हुतु समुदाय के लोग शामिल थे। हुतु और तुत्स समुदाय में लंबे समय से चली आ रही आला दर्जे की दुश्मनी एक बड़ी वजह थी। जुलाई के मध्य में इस संहार पर काबू पाया गया। हालांकि, हत्या और बलात्कार की इन वीभत्स घटनाओं ने अफ्रीका की आबादी के बड़े हिस्से के लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है, इस घटना का असर लोगों के दिलो दिमाम पर आज भी बरकरार है। इस संहार के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम समेत तमाम देशों को उनकी निष्क्रियता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र यहां शांति स्थापना करने में नाकाम रहा। वहीं, पर्यवेक्षकों ने इस नरसंहार को समर्थन देने वाली फ्रांस की सरकार की भी जमकर आलोचना की। मानवाधिकार की पैरोकार अधिकांश पश्चिमी देश इस पूरे मसले को खामोशी से देखते रहे। आधुनिक शोध इस बात पर बल देते हैं सामान्य जातीय तनाव इस नरसंहार की वजह न देकर इसकी वजह युरोपीय उपनिवेशवादी देशों अपने स्वार्थों के लिये हुतू और तुत्सी लोगों को कृत्रिम रूप से विभाजित किया जाना है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें रवांडा अफ्रीकी महासंघ बाहरी कड़ियाँ अफ़्रीका का इतिहास अफ्रीका में नरसंहार
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मीना कुमारी (1 अगस्त, 1933 - 31 मार्च, 1972) (अस्ल नाम-महज़बीं बानो) भारत की एक मशहूर हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्मों में इनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है। मीना कुमारी को भारतीय सिनेमा की ट्रैजेडी क्वीन (शोकान्त महारानी) भी कहा जाता है। अभिनेत्री होने के साथ-साथ मीना कुमारी एक उम्दा शायारा एवम् पार्श्वगायिका भी थीं। इन्होंने वर्ष 1939 से 1972 तक फ़िल्मी पर्दे पर काम किया। जन्म व बचपन मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं। उनके पिता अली बक्श पारसी रंगमंच के एक मँझे हुए कलाकार थे और उन्होंने फ़िल्म "शाही लुटेरे" में संगीत भी दिया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो), भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद जुनियर और छोटी बहन मधु (बेबी माधुरी) भी फिल्म अभिनेत्री थीं। कहा जाता है कि दरिद्रता से ग्रस्त उनके पिता अली बक़्श उन्हें पैदा होते ही अनाथाश्रम में छोड़ आए थे चूँकि वे उनके डाॅक्टर श्रीमान गड्रे को उनकी फ़ीस देने में असमर्थ थे।हालांकि अपने नवजात शिशु से दूर जाते-जाते पिता का दिल भर आया और तुरंत अनाथाश्रम की ओर चल पड़े।पास पहुंचे तो देखा कि नन्ही मीना के पूरे शरीर पर चीटियाँ काट रहीं थीं।अनाथाश्रम का दरवाज़ा बंद था, शायद अंदर सब सो गए थे।यह सब देख उस लाचार पिता की हिम्मत टूट गई,आँखों से आँसु बह निकले।झट से अपनी नन्हीं-सी जान को साफ़ किया और अपने दिल से लगा लिया।अली बक़्श अपनी चंद दिनों की बेटी को घर ले आए।समय के साथ-साथ शरीर के वो घाव तो ठीक हो गए किंतु मन में लगे बदकिस्मती के घावों ने अंतिम सांस तक मीना का साथ नहीं छोड़ा। टैगोर परिवार से संबंध मीना कुमारी की नानी हेमसुन्दरी मुखर्जी पारसी रंगमंच से जुड़ी हुईं थी। बंगाल के प्रतिष्ठित टैगोर परिवार के पुत्र जदुनंदन टैगोर (1840-62) ने परिवार की इच्छा के विरूद्ध हेमसुन्दरी से विवाह कर लिया। 1862 में दुर्भाग्य से जदुनंदन का देहांत होने के बाद हेमसुन्दरी को बंगाल छोड़कर मेरठ आना पड़ा। यहां अस्पताल में नर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने एक उर्दू के पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी (जो कि ईसाई था) से शादी करके ईसाई धर्म अपना लिया। हेमसुन्दरी की दो पुत्री हुईं जिनमें से एक प्रभावती, मीना कुमारी की माँ थीं। फ़िल्मी सफर शुरुआती फिल्में (1939-52) महजबीं पहली बार 1939 में फिल्म निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म "लैदरफेस" में बेबी महज़बीं के रूप में नज़र आईं। 1940 की फिल्म "एक ही भूल" में विजय भट्ट ने इनका नाम बेबी महजबीं से बदल कर बेबी मीना कर दिया। 1946 में आई फिल्म बच्चों का खेल से बेबी मीना 13 वर्ष की आयु में मीना कुमारी बनीं। मार्च 1947 में लम्बे समय तक बीमार रहने के कारण उनकी माँ की मृत्यु हो गई। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं जिनमें हनुमान पाताल विजय, वीर घटोत्कच व श्री गणेश महिमा प्रमुख हैं। उभरती सितारा (1952-56) 1952 में आई फिल्म बैजू बावरा ने मीना कुमारी के फिल्मी सफ़र को नई उड़ान दी। मीना कुमारी द्वारा अभिनीत गौरी के किरदार ने उन्हें घर-घर में प्रसिद्धि दिलाई। फिल्म 100 हफ्तों तक परदे पर रही और 1954 में उन्हें इसके लिए पहले फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1953 तक मीना कुमारी की तीन फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं। परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूँकि इस फिल्म में भारतीय नारी की आम जिंदगी की कठिनाइयों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू छाया रहा और लगातार दूसरी बार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के लिए चयनित किया गया। 1954 से 1956 के बीच मीना कुमारी ने विभिन्न प्रकार की फिल्मों में काम किया। जहाँ चाँदनी चौक (1954) और एक ही रास्ता (1956) जैसी फिल्में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करती थीं, वहीं अद्ल-ए-जहांगीर (1955) और हलाकू (1956) जैसी फिल्में तारीख़ी किरदारों पर आधारित थीं। 1955 की फ़िल्म आज़ाद, दिलीप कुमार के साथ मीना कुमारी की दूसरी फिल्म थी। ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन के नाम से प्रसिद्ध दिलीप और मीना के इस हास्य प्रधान फ़िल्म ने दर्शकों की खूब वाहवाही लूटी। मीना कुमारी के उम्दा अभिनय ने उन्हें फ़िल्मफ़ेयर ने फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया। फ़िल्म आज़ाद के गाने "अपलम चपलम" और "ना बोले ना बोले" आज भी प्रचलित हैं। ट्रैजेडी क्वीन 1957 में मीना कुमारी दो फिल्मों में पर्दे पर नज़र आईं। प्रसाद द्वारा कृत पहली फ़िल्म मिस मैरी में कुमारी ने दक्षिण भारत के मशहूर अभिनेता जेमिनी गणेशन और किशोर कुमार के साथ काम किया। प्रसाद द्वारा कृत दूसरी फ़िल्म शारदा ने मीना कुमारी को भारतीय सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन बना दिया। यह उनकी राज कपूर के साथ की हुई पहली फ़िल्म थी। जब उस ज़माने की सभी अदाकाराओं ने इस रोल को करने से मन कर दिया था तब केवल मीना कुमारी ने ही इस रोल को स्वीकार किया था और इसी फिल्म ने उन्हें उनका पहला बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिलवाया। 1958:फिल्म सहारा के लिए (लेखराज भाखरी द्वारा निर्देशित), मीना कुमारी को फिल्मफेयर नामांकन मिला। फ़िल्म यहूदी, बिमल रॉय द्वारा निर्देशित थी जिसमें मीना कुमारी, दिलीप कुमार, सोहराब मोदी, नजीर हुसैन और निगार सुल्ताना ने अभिनय किया। यह रोमन साम्राज्य में यहूदियों के उत्पीड़न के बारे में, पारसी - उर्दू रंगमंच में एक क्लासिक, आगा हाशर कश्मीरी द्वारा यहूदी की लड़की पर आधारित थी। यह फ़िल्म मुकेश द्वारा गाए गए प्रसिद्ध गीत "ये मेरा दीवानापन है" के साथ बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। फरिश्ता - मुख्य नायक के रूप में अशोक कुमार और मीना कुमारी ने अभिनय किया। फिल्म को औसत से ऊपर दर्जा दिया गया था। फ़िल्म सवेरा सत्येन बोस द्वारा निर्देशित की गई, जिसमें मीना कुमारी और अशोक कुमार प्रमुख भूमिकाओं में थे। 1959: देवेन्द्र गोयल द्वारा निर्देशित और निर्मित, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ में राजेंद्र कुमार और हनी ईरानी के साथ मीना कुमारी दिखीं। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही और मीना कुमारी को उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर नामांकन मिला। चार दिल चार राहें का निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया, जिसमें स्टार मीना कुमारी, राज कपूर, शम्मी कपूर, कुमकुम और निम्मी थे। फिल्म को आलोचकों से गर्म समीक्षा मिली। शरारात - एक 1959 की रोमांटिक ड्रामा फिल्म थी, जिसे हरनाम सिंह रवैल द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया था, जिसमें मीना कुमारी, किशोर कुमार, राज कुमार और कुमकुम मुख्य भूमिकाओं में थे। किशोर कुमार द्वारा गाए गया यादगार गीत "हम मतवाले नौजवान" आज भी याद किया जाता है। 1960: दिल अपना और प्रीत पराई, किशोर साहू द्वारा लिखित और निर्देशित एक हिंदी रोमांटिक ड्रामा थी। इस फिल्म में मीना कुमारी, राज कुमार और नादिरा ने मुख्य भूमिका निभाई। फिल्म एक सर्जन की कहानी बताती है जो एक पारिवारिक मित्र की बेटी से शादी करने के लिए बाध्य है, जबकि उसे एक सहकर्मी नर्स से प्यार है, जिसे मीना कुमारी ने निभाया है। यह मीना कुमारी के करियर के प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन द्वारा दिया गया है, और हिट गीत, "अजीब दास्तान है ये" लता मंगेशकर द्वारा गाया गया है। 1961 के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में इसने सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक श्रेणी के लिए नौशाद के लोकप्रिय संगीत महाकाव्य मुग़ल-ए-आज़म को हराकर खलबली मचा दी। बहाना - कुमार द्वारा निर्देशित, मीना कुमारी, सज्जन, अनवर की स्टार कास्ट थी। कोहिनूर - एस. यू. सनी द्वारा निर्देशित मीना कुमारी, दिलीप कुमार, लीला चिटनिस और कुमकुम के साथ बनाई गई फ़िल्म थी। यह एक मज़ाइया फ़िल्म थी और काफी हिट रही। 1961: भाभी की चूड़ीयां एक पारिवारिक ड्रामा थी जिसका निर्देशन सदाशिव कवि ने मीना कुमारी और बलराज साहनी के साथ किया था। यह मीना कुमारी के प्रसिद्ध फिल्मों में से एक है। यह फिल्म लता मंगेशकर के प्रसिद्ध गीत "ज्योति कलश छलके" के साथ भारतीय बॉक्स ऑफिस पर वर्ष की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्मों में से एक थी। ज़िन्दगी और ख्वाब - मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार अभिनीत एस. बनर्जी निर्देशित भारतीय बॉक्स ऑफ़िस पर हिट रही। प्यार का सागर का निर्देशन मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार के साथ देवेंद्र गोयल ने किया था। 1962 और उसके बाद 1962: साहिब बीबी और गुलाम, गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अल्वी द्वारा निर्देशित फिल्म थी। यह बिमल मित्र के बंगाली उपन्यास "साहेब बीबी गोलम" पर आधारित है। फिल्म में मीना कुमारी, गुरु दत्त, रहमान, वहीदा रहमान और नाज़िर हुसैन हैं। इसका संगीत हेमंत कुमार का है और गीत शकील बदायुनी के हैं। इस फिल्म को वी. के. मूर्ति और गीता दत्त द्वारा गाए गए प्रसिद्ध गीत "ना जाओ सईयां छुड़ा के बइयां" और "पिया ऐसो जिया में" के लिए भी जाना जाता है। फिल्म ने चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते, जिसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी शामिल है। इस फिल्म को 13 वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए नामित किया गया था, जहाँ मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया था। साहिब बीबी और गुलाम को ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुना गया था। फणी मजूमदार द्वारा निर्देशित आरती में मीना कुमारी, अशोक कुमार, प्रदीप कुमार और शशिकला निर्णायक भूमिका में हैं। कुमारी को इस फिल्म के लिए बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। मैं चुप रहुंगी - ए. भीमसिंह द्वारा निर्देशित मीना कुमारी और सुनील दत्त के साथ मुख्य भूमिका में, वर्ष की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से एक थी और मीना कुमारी को उनके प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर नामांकन मिला। 1963: दिल एक मंदिर, सी. वी. श्रीधर द्वारा निर्देशित थी जिसमें मीना कुमारी, राजेंद्र कुमार, राज कुमार और महमूद मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन द्वारा दिया गया है। यह बॉक्स ऑफिस पर एक बड़ी हिट थी। फ़िल्म अकेली मत जाइयो को नंदलाल जसवंतलाल ने निर्देशित किया था। यह मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार के साथ एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है। किनारे किनारे को चेतन आनंद ने निर्देशित किया था और इसमें मीना कुमारी, देव आनंद और चेतन आनंद ने मुख्य भूमिकाओं थे। 1964: सांझ और सवेरा - हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसमें मीना कुमारी, गुरुदत्त और महमूद ने अभिनय किया था। यह फ़िल्म गुरु दत्त की अंतिम फ़िल्म थी। बेनज़ीर - एस. खलील द्वारा निर्देशित एक मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी, जिसमें मीना कुमारी, अशोक कुमार, शशि कपूर और तनुजा ने अभिनय किया था। मीरा कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार द्वारा अभिनीत और किदार शर्मा द्वारा निर्देशित चित्रलेखा 1934 के हिंदी उपन्यास पर आधारित थी, जो इसी नाम से भगवती चरण वर्मा द्वारा मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले बीजगुप्त और राजा चंद्रगुप्त मौर्य (340 ईसा पूर्व -298 ईसा पूर्व) के बारे में थी। फिल्म का संगीत और बोल रोशन और साहिर लुधियानवी के थे और "संसार से भीगे फिरते हो" और "मन रे तू कहे" जैसे गीतों के लिए प्रसिद्ध थे। मीना कुमारी और सुनील दत्त द्वारा अभिनीत वेद-मदन द्वारा निर्देशित गजल एक मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी, इसमें साहिर लुधियानवी के गीतों के साथ मदन मोहन का संगीत था, जिसमें मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाए गए "रंग और नूर की बारात", लता मंगेशकर द्वारा गाया गया "नगमा ओ ​शेर की सौगात" जैसे उल्लेखनीय फ़िल्म-ग़ज़ल शामिल हैं। मैं भी लड़की हूँ का निर्देशन ए. सी. तिरूलोकचंदर ने किया था। फिल्म में मीना कुमारी नवोदित अभिनेता धर्मेंद्र के साथ हैं। 1965: काजल ने राम माहेश्वरी द्वारा निर्देशित जिसमें मीना कुमारी, धर्मेंद्र, राज कुमार, पद्मिनी, हेलेन, महमूद और मुमताज़ हैं। यह फिल्म 1965 की शीर्ष 20 फिल्मों में सूचीबद्ध थी। मीना कुमारी ने काजल के लिए अपना चौथा और आखिरी फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। फिल्म मूल रूप से गुलशन नंदा के उपन्यास "माधवी" पर आधारित थी। मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार के साथ कालिदास के निर्देशन में बनी भीगी रात, लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी द्वारा दो अलग-अलग संस्करणों में गाए गए प्रसिद्ध गीत "दिल जो ना कह सका" के साथ वर्ष की सबसे बड़ी हिट में से एक थी। । नरेंद्र सूरी द्वारा निर्देशित फिल्म पूर्णिमा में मुख्य भूमिकाओं में मीना कुमारी और धर्मेंद्र थे। 1966: फूल और पत्थर, ओ. पी. रल्हन द्वारा निर्देशित फ़िल्म, जिसमें मीना कुमारी और धर्मेंद्र ने मुख्य भूमिकाओं में अभिनय किया। यह फिल्म एक स्वर्ण जयंती हिट बन गई और धर्मेंद्र के फिल्मी सफर में मील का पत्थर साबित हुई यह फ़िल्म उस वर्ष की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्म थी। फिल्म में मीना कुमारी के प्रदर्शन ने उन्हें उस वर्ष के लिए फिल्मफेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में नामांकित किया। फिल्म पिंजरे की पंछी का निर्देशन सलिल चौधरी ने किया था, जिसमें मुख्य भूमिकाओं में मीना कुमारी, बलराज साहनी और महमूद थे। 1967: मझली दीदी का निर्देशन हृषिकेश मुखर्जी और मीना कुमारी के साथ धर्मेंद्र ने अभिनय किया। यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए 41 वें अकादमी पुरस्कारों में भारत की प्रविष्टि थी। फिल्म बहू बेगम का निर्देशन एम. सादिक ने किया था, जिसमें मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और अशोक कुमार थे। फिल्म में संगीत रोशन और गीत साहिर लुधियानवी द्वारा दिया गया है। नूरजहाँ, मोहम्मद सादिक द्वारा निर्देशित, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार अभिनीत एक ऐतिहासिक फिल्म थी, जिसमें हेलन और जॉनी वॉकर छोटी भूमिकाओं में थे। इसमें महारानी नूरजहाँ और उनके पति, मुगल सम्राट जहाँगीर की महाकाव्य प्रेम कहानी का वर्णन किया गया है। फिल्म चंदन का पलना इस्माइल मेमन द्वारा निर्देशित किया गया, जिसमें मीना कुमारी और धर्मेंद्र ने अभिनय किया। ग्रहण के बाद (English: After the Eclipse), एस सुखदेव द्वारा निर्देशित 37 मिनट की एक रंगीन डॉक्यूमेंट्री थी जो वाराणसी के उपनगरीय इलाके में शूट की गई, इसमें अभिनेता शशि कपूर की आवाज के साथ मीना कुमारी की आवाज भी थी। 1968: बहारों की मंज़िल एक सस्पेंस थ्रिलर है जिसका निर्देशन याकूब हसन रिज़वी ने किया, जिसमें मीना कुमारी, धर्मेंद्र, रहमान और फरीदा जलाल शामिल हैं। यह फिल्म साल की प्रमुख हिट फिल्मों में से एक थी। फिल्म अभिलाषा का निर्देशन अमित बोस ने किया था। कलाकारों में मीना कुमारी, संजय खान और नंदा शामिल हैं। 70 का दशक 70 के दशक की शुरुआत में, मीना कुमारी ने अंततः अपना ध्यान अधिक 'अभिनय उन्मुख' या चरित्र भूमिकाओं पर केन्द्रित कर दिया। उनकी अंतिम छह फिल्में- जबाव, सात फेरे, मेरे अपने, दुश्मन, पाकीज़ा और गोमती के किनारे में से केवल पाकीज़ा में उनकी मुख्य भूमिका थी। मेरे अपने और गोमती के किनारे में, हालांकि उन्होंने एक मुख्य नायिका की भूमिका नहीं निभाई, लेकिन उनकी भूमिका वास्तव में कहानी का केंद्रीय चरित्र थी। 1970: फ़िल्म जवाब मीना कुमारी, जीतेंद्र, लीना चंदावरकर और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत, रमन्ना द्वारा निर्देशित फिल्म थी। सात फेरे का निर्देशन सुधीर सेन ने किया था, जिसमें मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और मुकरी मुख्य भूमिकाओं में थे। 1971: गुलज़ार द्वारा लिखित और निर्देशित, मेरे अपने में मीना कुमारी, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के साथ देवेन वर्मा, पेंटाल, असित सेन, असरानी, ​​डैनी डेन्जोंगपा, केश्टो मुखर्जी, ए. के. हंगल, दिनेश ठाकुर, महमूद और योगिता बाली हैं। दुलाल गुहा द्वारा निर्देशित दुश्मन, जिसमें मुख्य भूमिकाओं में मुमताज के साथ मीना कुमारी, रहमान और राजेश खन्ना हैं। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर "सुपर-हिट" रही। 1972: सावन कुमार टाक द्वारा निर्देशित गोमती के किनारे में मीना कुमारी, संजय खान और मुमताज़ ने अभिनय किया। यह फ़िल्म मीना कुमारी की मृत्यु के बाद 22 नवंबर 1972 को रिलीज हुई। पाकीज़ा का समापन (1956-72) 1954 में, फ़िल्म आज़ाद की शूटिंग के दौरान, मीना कुमारी और कमाल अमरोही दक्षिण भारत में थे, और यहाँ कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के साथ अपनी अगली फिल्म के कथानक की रूपरेखा तैयार करना शुरू किया और इसे पाकीज़ा कहने का फैसला किया। मीना कुमारी ने फिल्म को पूरा करने के लिए ठान लिया था और वह अपने जीने के लिए सीमित समय से अच्छी तरह वाकिफ थी, अपने तेजी से बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद, उन्होंने अपने प्रदर्शन को अंतिम रूप दिया। पाकीज़ा का 3 फरवरी 1972 को मध्य बॉम्बे के मराठा मंदिर थिएटर में एक भव्य प्रीमियर हुआ, और प्रिंट एक अलंकृत पालकी पर रखे जा रहे थे। प्रीमियर के दौरान मीना कुमारी कमाल अमरोही के बगल में बैठी थीं. जब मोहम्मद ज़हूर खय्याम ने मीना कुमारी को "शाहकर बन गया" (यह अनमोल है) के साथ बधाई दी, तो वह रो पड़ी। पूरी फिल्म देखने के बाद, कुमारी ने एक दोस्त से कहा कि उन्हें यकीन है कि उनके पति भारत में सबसे बेहतरीन फिल्म निर्माता हैं। फ़िल्म अंततः अगले दिन, 4 फरवरी 1972 को रिलीज़ हुई। पाकीज़ा ने 33 सप्ताह तक सफलतापूर्वक चलने का आनंद लिया और अपनी रजत जयंती भी मनाई। मीना कुमारी ने मरणोपरांत पाकीज़ा के लिए अपना बारहवां और अंतिम फिल्मफेयर नामांकन प्राप्त किया। बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन अवार्ड्स ने 1973 में मीना कुमारी को पाकीज़ा के लिए विशेष पुरस्कार प्रदान किया। पार्श्वगायक के रूप में करियर मीना कुमारी एक पार्श्व गायिका भी थीं। उन्होंने 1945 तक बहन जैसी फिल्मों के लिए एक बाल कलाकार के रूप में गाया। एक नायिका के रूप में, उन्होंने दुनिया एक सराय (1946), पिया घर आजा (1948), बिछड़े बालम (1948) और पिंजरे के पंछी (1966) जैसी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी। उन्होंने पाकीज़ा (1972) के लिए भी गाया, हालांकि, इस गाने का फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया था और बाद में इसे पाकीज़ा-रंग बा रंग (1977) एल्बम में रिलीज़ किया गया था। निजी जीवन कमाल अमरोही से विवाह वर्ष 1951 में फिल्म तमाशा के सेट पर मीना कुमारी की मुलाकात उस ज़माने के जाने-माने फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही से हुई जो फिल्म महल की सफलता के बाद निर्माता के तौर पर अपनी अगली फिल्म अनारकली के लिए नायिका की तलाश कर रहे थे।मीना का अभिनय देख वे उन्हें मुख्य नायिका के किरदार में लेने के लिए राज़ी हो गए।दुर्भाग्यवश 21 मई 1951 को मीना कुमारी महाबलेश्वरम के पास एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गईं जिससे उनके बाहिने हाथ की छोटी अंगुली सदा के लिए मुड़ गई। मीना अगले दो माह तक बम्बई के ससून अस्पताल में भर्ती रहीं और दुर्घटना के दूसरे ही दिन कमाल अमरोही उनका हालचाल पूछने पहुँचे। मीना इस दुर्घटना से बेहद दुखी थीं क्योंकि अब वो अनारकली में काम नहीं कर सकती थीं। इस दुविधा का हल कमाल अमरोही ने निकाला, मीना के पूछने पर कमाल ने उनके हाथ पर अनारकली के आगे 'मेरी' लिख डाला।इस तरह कमाल मीना से मिलते रहे और दोनों में प्रेम संबंध स्थापित हो गया। 14 फरवरी 1952 को हमेशा की तरह मीना कुमारी के पिता अली बख़्श उन्हें व उनकी छोटी बहन मधु को रात्रि 8 बजे पास के एक भौतिक चिकित्सकालय (फिज़्योथेरेपी क्लीनिक) छोड़ गए। पिताजी अक्सर रात्रि 10 बजे दोनों बहनों को लेने आया करते थे।उस दिन उनके जाते ही कमाल अमरोही अपने मित्र बाक़र अली, क़ाज़ी और उसके दो बेटों के साथ चिकित्सालय में दाखिल हो गए और 19 वर्षीय मीना कुमारी ने पहले से दो बार शादीशुदा 34 वर्षीय कमाल अमरोही से अपनी बहन मधु, बाक़र अली, क़ाज़ी और गवाह के तौर पर उसके दो बेटों की उपस्थिति में निक़ाह कर लिया। 10 बजते ही कमाल के जाने के बाद, इस निक़ाह से अपरिचित पिताजी मीना को घर ले आए।इसके बाद दोनों पति-पत्नी रात-रात भर बातें करने लगे जिसे एक दिन एक नौकर ने सुन लिया।बस फिर क्या था, मीना कुमारी पर पिता ने कमाल से तलाक लेने का दबाव डालना शुरू कर दिया। मीना ने फैसला कर लिया की तबतक कमाल के साथ नहीं रहेंगी जबतक पिता को दो लाख रुपये न दे दें।पिता अली बक़्श ने फिल्मकार महबूब खान को उनकी फिल्म अमर के लिए मीना की डेट्स दे दीं परंतु मीना अमर की जगह पति कमाल अमरोही की फिल्म दायरा में काम करना चाहतीं थीं।इसपर पिता ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा कि यदि वे पति की फिल्म में काम करने जाएँगी तो उनके घर के दरवाज़े मीना के लिए सदा के लिए बंद हो जाएँगे। 5 दिन अमर की शूटिंग के बाद मीना ने फिल्म छोड़ दी और दायरा की शूटिंग करने चलीं गईं।उस रात पिता ने मीना को घर में नहीं आने दिया और मजबूरी में मीना पति के घर रवाना हो गईं। अगले दिन के अखबारों में इस डेढ़ वर्ष से छुपी शादी की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं। पति से अलगाव और शराब की लत अपनी शादी के बाद, कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को अपने फ़िल्मी करियर को जारी रखने की अनुमति दी, लेकिन इस शर्त पर कि वे अपने मेकअप रूम में उनके मेकअप आर्टिस्ट के अलावा किसी और पुरूष को नहीं बुलाएंगी और हर शाम 6:30 बजे तक केवल अपनी कार में ही घर लौटेंगी| मीना कुमारी सभी शर्तों से सहमत थीं, लेकिन समय बीतने के साथ वे उन्हें तोड़ती रहीं। साहिब बीबी और गुलाम के निर्देशक अबरार अल्वी ने सुनाया कि कैसे कमाल अमरोही अपने जासूस और दाएं हाथ के आदमी बाकर अली को मेकअप रूम में मीना पर निगाह रखने के लिए रखते थे, और एक शाम जब एक शॉट पूरा करने के लिए शेड्यूल से परे काम कर रही थी, तब उन्हें बिलखती हुई मीना का सामना करना पड़ा था। 1963 में, साहिब बीबी और गुलाम को बर्लिन फिल्म समारोह में भारतीय प्रविष्टि के रूप में चुना गया और मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री सत्य नारायण सिन्हा ने दो टिकटों की व्यवस्था की, एक मीना कुमारी के लिए और दूसरा उनके पति के लिए, लेकिन कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के साथ जाने से इनकार कर दिया जिस कारण बर्लिन की यात्रा कभी नहीं हुई। इरोस सिनेमा में एक प्रीमियर के दौरान, सोहराब मोदी ने मीना कुमारी और कमाल अमरोही को महाराष्ट्र के राज्यपाल से मिलवाया। सोहराब मोदी ने कहा "यह प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं, और यह उनके पति कमाल अमरोही हैं"। बधाई देने से पहले, कमाल अमरोही ने कहा, "नहीं, मैं कमाल अमरोही हूं और यह मेरी पत्नी, प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं"। यह कहते हुए कमाल अमरोही सभागार से चले गए। मीना कुमारी ने अकेले प्रीमियर देखा। मीना कुमारी को उनकी शादी में शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ा। उनकी जीवनी के लेखक विनोद मेहता बताते हैं कि हालांकि अमरोही ने इस तरह के आरोपों से बार-बार इनकार किया, उन्होंने छह अलग-अलग स्रोतों से जाना कि वह वास्तव में एक पीड़ित थी। 1972 में उनकी मृत्यु के बाद, साथी अभिनेत्री नरगिस ने उनके बारे में एक निबंध लिखा, जो एक उर्दू पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। नरगिस ने उल्लेख किया कि मैं चुप राहुंगी के एक आउटडोर शूट पर, जब वे दोनों बगल के कमरे साझा कर रहीं थीं, उन्होंने स्वयं भी बगल के कमरे से शोर सुना। अगले दिन, वह एक सूजी हुई आंखों वाली कुमारी से मिली, जो शायद पूरी रात रोई थी। इस तरह की अफवाहों को फ़िल्म पिंजरे के पंछी के मूहर्त पर उनका आधार मिला। 5 मार्च 1964 को, कमाल अमरोही के सहायक, बाकर अली ने मीना कुमारी को थप्पड़ मार दिया जब उन्होंने गुलज़ार को अपने मेकअप रूम में प्रवेश करने की अनुमति दी। कुमारी ने तुरंत अमरोही को फिल्म के सेट पर आने के लिए बुलाया लेकिन वह कभी नहीं आए। इसके बजाय, अमरोही ने मीना को घर आने के लिए कहा ताकि वे तय कर सकें के आगे क्या करना है। इसने न केवल मीना कुमारी को नाराज़ किया बल्कि उनके पहले से तनावपूर्ण संबंधों में अंतिम तिनके के रूप में भी काम किया। मीना सीधे अपनी बहन मधु के घर गईं। जब कमाल अमरोही उन्हें वापस लाने के लिए वहां गए, तो बार-बार मनाने के बाद भी उन्होंने अमरोही से बात करने से इनकार कर दिया। उसके बाद, न तो अमरोही ने मीना को वापस लाने की कोशिश की और न ही मीना कुमारी वापस लौटीं। कुमारी की मृत्यु के बाद अपने कार्यक्रम फूल खिले हैं गुलशन गुलशन पर जब तबस्सुम ने कमाल अमरोही से मीना कुमारी के बारे में पूछा तब अमरोही ने मीना को "एक अच्छी पत्नी नहीं बल्कि एक अच्छी अभिनेत्री के रूप में याद किया, जो खुद को घर पर भी एक अभिनेत्री मानती थी।" स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है। शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी। मृत्यु फ़िल्म पाक़ीज़ा के रिलीज़ होने के तीन हफ़्ते बाद मीना कुमारी की तबीयत बिगड़ने लगी। 28 मार्च 1972 को उन्हें बम्बई के सेंट एलिज़ाबेथ अस्पताल में दाखिल करवाया गया। 31 मार्च 1972, गुड फ्राइडे वाले दिन दोपहर 3 बजकर 25 मिनट पर महज़ 38 वर्ष की आयु में मीना कुमारी ने अंतिम सांस ली। पति कमाल अमरोही की इच्छानुसार उन्हें बम्बई के मज़गांव स्थित रहमताबाद कब्रिस्तान में दफनाया गया। मीना कुमारी इस लेख को अपनी कब्र पर लिखवाना चाहती थीं: मीना के पति कमाल अमरोही की 11 फरवरी 1993 को मृत्यु हुई और उनकी इच्छनुसार उन्हें मीना के बगल में दफनाया गया। सम्मान और श्रद्धांजलि उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद, साथी अभिनेत्री नरगिस ने एक उर्दू पत्रिका में एक निजी निबंध लिखा - शमा , जिसका शीर्षक है मीना - मौत मुबारक हो । अक्टूबर 1973 में, उन्होंने मीनाजी की याद में मीना कुमारी मेमोरियल फॉर द ब्लाइंड की स्थापना की और इस ट्रस्ट की वे अध्यक्ष भी थीं। 1979 में, मीना कुमारी की अमर कहानी , दिवंगत अभिनेत्री को समर्पित एक फिल्म थी। सोहराब मोदी द्वारा इसे निर्देशित किया गया था और राज कपूर और राजेंद्र कुमार जैसे विभिन्न फिल्मी हस्तियों के विशेष साक्षात्कार लिए गए थे। फिल्म के लिए संगीत खय्याम द्वारा संगीतबद्ध किया गया था। अगले वर्ष, शायरा (वैकल्पिक रूप से साहिरा शीर्षक) जारी की गई थी। यह मीना कुमारी पर एक लघु वृत्तचित्र थी और एस सुख देव द्वारा गुलज़ार के साथ निर्देशित की गई थी। इस डॉक्यूमेंट्री का निर्माण कांता सुखदेव ने किया था। उनके सम्मान में अंकित मूल्य 500 पैसे का एक डाक टिकट 13 फरवरी 2011 को भारतीय डाक द्वारा जारी किया गया था। 2010 में, फिल्मफेयर ने साहिब बीबी और गुलाम और पाकीज़ा में कुमारी के प्रदर्शन को बॉलीवुड की "80 प्रतिष्ठित प्रदर्शनों" की सूची में शामिल किया। उनकी दो फिल्में बैजू बावरा और दो बीघा जमीन को ब्रिटिश फिल्म संस्थान के एक सर्वेक्षण में सबसे महान फिल्मों में माना गया है। भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष के अवसर पर, सीएनएन-आईबीएन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में, पाकीज़ा, साहिब बीबी और गुलाम और दो बीघा ज़मीन को अब तक की 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल किया गया। हिंदुस्तान टाइम्स सहित विभिन्न प्रकाशनों ने उन्हें बॉलीवुड के शीर्षतम सेक्स प्रतीकों में से एक का उल्लेख किया। 2012 में, बांद्रा, मुंबई में बैंडस्टैंड प्रोमेनेड का एक खंड, वॉक ऑफ द स्टार्स, हिंदी फिल्म उद्योग के फिल्म कलाकारों को सम्मानित करने के लिए खोला गया था। मीना कुमारी के ऑटोग्राफ के साथ-साथ अन्य कलाकारों की मूर्तियों, हस्त-चिह्नों और ऑटोग्राफ को भी चित्रित किया गया था। हालांकि, वॉक ऑफ द स्टार्स को 2014 में भंग कर दिया गया था। मई 2018 में, जयपुर के जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में, मीना कुमारी के जीवन को दर्शाने वाले नाटक, अजीब दास्तां है ये का मंचन किया गया था। 1 अगस्त 2018 को, सर्च इंजन Google ने मीना कुमारी को उनकी 85 वीं जयंती पर डूडल के साथ याद किया। जीवनियाँ मीना कुमारी पर पहली जीवनी अक्टूबर 1972 में विनोद मेहता द्वारा उनकी मृत्यु के बाद लिखी गई थी। कुमारी की आधिकारिक जीवनी, इसे मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी शीर्षक दिया गया था। जीवनी मई 2013 में फिर से प्रकाशित हुई थी। मोहन दीप द्वारा लिखा गया निंदनीय सिम्पली सकेन्डलॉस लेख 1998 में प्रकाशित एक अनौपचारिक जीवनी थी। यह मुंबई के हिंदी दैनिक दोपहर का सामना में एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया गया था। मीना कुमारी की एक और जीवनी, आखरी अधाई दिन को मधुप शर्मा ने हिंदी में लिखा था। पुस्तक 2006 में प्रकाशित हुई थी। फिल्म में मीना कुमारी हमेशा बड़े पैमाने पर फिल्म निर्माताओं के बीच रुचि का विषय रही हैं। 2004 में, उनकी फिल्म साहिब बीबी और गुलाम का एक आधुनिक रूपांतर प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस द्वारा किया जाना था, जिसमें ऐश्वर्या राय और बाद में प्रियंका चोपड़ा को उनकी छोटी बहू की भूमिका को चित्रित करना था। हालांकि, फिल्म को निर्देशक ऋतुपॉर्नो घोष द्वारा बाद में इसे एक धारावाहिक के रूप में बनाया गया, जिसमें अभिनेत्री रवीना टंडन ने इस भूमिका को निभाया। 2015 में, यह बताया गया कि तिग्मांशु धूलिया को हिंदी सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन पर एक फिल्म बनानी थी, जो विनोद मेहता की किताब "मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी" का स्क्रीन रूपांतरण होना था। अभिनेत्री कंगना रनौत को कुमारी को चित्रित करने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन प्रामाणिक तथ्यों की कमी और मीना कुमारी के सौतेले बेटे ताजदार अमरोही के कड़े विरोध के बाद फिल्म को फिर से रोक दिया गया था। 2017 में, निर्देशक करण राजदान ने भी उन पर एक आधिकारिक बायोपिक निर्देशित करने का फैसला किया। इसके लिए, उन्होंने माधुरी दीक्षित और विद्या बालन से फ़िल्मी पर्दे पर मीना कुमारी की भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया, लेकिन कई कारणों के कारण, दोनों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बाद में उन्होंने अभिनेत्री सन्नी लियोन की ओर रुख किया, जिन्होंने इस किरदार में बहुत दिलचस्पी दिखाई। ऋचा चड्ढा, जया प्रदा और जान्हवी कपूर सहित कई अन्य अभिनेत्रियों ने भी शानदार आइकन की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की। 2018 में, निर्माता और पूर्व बाल कलाकार कुट्टी पद्मिनी ने गायक मोहम्मद रफ़ी और अभिनेता-निर्देशक जे पी चंद्रबाबू के साथ एक वेब श्रृंखला के रूप में मीना कुमारी पर एक बायोपिक बनाने की घोषणा की। पद्मिनी ने मीना कुमारी के साथ फिल्म दिल एक मंदिर में काम किया है और इस बायोपिक के साथ दिवंगत अभिनेत्री को सम्मानित करना चाहती हैं। 2019 में, संजय लीला भंसाली ने कुमारी की 1952 की क्लासिक बैजू बावरा के रीमेक की घोषणा की, जिसमें आलिया भट्ट ने गौरी के चरित्र को दोहराया, एक भूमिका जो मूल रूप से कुमारी द्वारा निभाई गई थी। अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने भी उसी फिल्म में कुमारी की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की। फिल्म की शूटिंग जो अक्टूबर 2021 से शुरू होनी थी, अभी तक शुरू नहीं हुई है। 2020 में, ऑलमाइटी मोशन पिक्चर्स ने मीना कुमारी के जीवन पर एक वेब श्रृंखला की घोषणा की, जो पत्रकार अश्विनी भटनागर द्वारा लिखित स्टारिंग.. महजबीन के रूप में मीना कुमारी पर आधारित है। इसके बाद ताजदार अमरोही की आपत्ति आई जिन्होंने पत्रकार पर दिवंगत अभिनेत्री की जीवनी न केवल उनकी सहमति के बिना लिखने का आरोप लगाया बल्कि कमाल अमरोही को एक पीड़ा के रूप में चित्रित करने का भी आरोप लगाया। भटनागर ने बाद में स्पष्ट किया कि पुस्तक में कभी भी अमरोही का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा और यह मुख्य रूप से मीना कुमारी के पेशेवर जीवन पर केंद्रित थी। बाद में उन्होंने तर्क दिया कि कुमारी एक सार्वजनिक हस्ती थीं और कोई भी कला का एक काम बनाने की अनुमति देने के अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। श्रृंखला जिसके बाद एक फीचर फिल्म होगी, निर्माता प्रभलीन कौर संधू द्वारा निर्देशित की जाएगी। 2021 में, हीरामंडी की कास्टिंग के दौरान, फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली ने स्पष्ट रूप से मीना कुमारी की पाकीज़ा को इस वेब श्रृंखला के निर्माण के पीछे अपनी प्रेरणा बताया, जो लाहौर के दरबारियों के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। अभिनेत्री आलिया भट्ट ने गंगूबाई काठियावाड़ी में एक वेश्या की भूमिका की तैयारी के लिए मीना कुमारी की फिल्में देखने का भी उल्लेख किया। फरवरी 2022 में, म्यूजिक लेबल सारेगामा और अभिनेता बिलाल अमरोही (कमल अमरोही के पोते) ने फिल्म पाकीजा के निर्माण की पृष्ठभूमि में कुमारी और उनके फिल्म निर्माता पति कमाल अमरोही की प्रेम कहानी पर एक वेब श्रृंखला की घोषणा की। यूडली फिल्मों द्वारा निर्देशित श्रृंखला के 2023 में शूरु होने की उम्मीद है। अगले महीने, यह बताया गया कि कृति सैनॉन को टी-सीरीज़ द्वारा नियोजित एक बायोपिक में कुमारी की भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया गया है। हालांकि, अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है। मीना की फ़िल्में नामांकन और पुरस्कार फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार बंगाल फ़िल्म पत्रकार संगठन पुरस्कार सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ मीना कुमारी की जीवनी (अंग्रेजी में) मीना कुमारी की रचनाएँ कविता कोश में फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता हिन्दी अभिनेत्री 1932 में जन्मे लोग १९७२ में निधन
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "मीना कुमारी", "token_count": 42061, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80" }
टाटा स्टील द्वारा निर्मित जुबली पार्क जमशेदपुर न्यायलय परिसर के समीप स्थित यह पार्क जमशेदपुर पर्यटन के प्रमुखा आकर्षणों में से एक है। शहर के इस केन्द्रीय पार्क के निर्माण की शुरुआत 1937 में श्री एस लैंकस्टर के निर्देशन में शुरू किया गया था परन्तु बीच में इसमें कई बाधाएँ आई। 1955 के अगस्त महीने में इस पार्क का निर्माण टाटा स्टील के आनेवाले 50 वीं वर्षगाँठ को ध्यान में रखकर फिर से शुरू किया गया और इसबार जिम्मेवारी श्री जी एच क्रुम्बिगेल और बी एस निर्दय को दिया गया जो पहले मैसूर और दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन के निर्माण कार्य की देख रेख कर चुके थे। पूरा बाग लगभग 500 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है तथा इसके उत्तर में दलमा अभयारण्य की सुरम्य दलमा पहाड़ का दृश्य तथा दक्षिण में टाटा स्टील के कारखाने का दृश्य देखने को मिलता है। लगभग दो वर्षों के अंतराल में बनाया गया यह बाग भारत के सबसे खूबसूरत बागों में से एक है। बाग की मुख्य धुरी जमशेदपुर के संस्थापक जमशेदजी टाटा की मूर्ति है और उसके गिर्द फैली है रोज गार्डन, मुगल गार्डन, मुख्य झील, मनोरंजन पार्क और टाटा स्टील वन्य जीव उद्यान और झील के बीचोबीच स्थित कृत्रिम टापू। इसके अलावा मनोरंजन पार्क तथा बच्चों के पार्क में स्केटिंग केन्द्र तथा कैफेटेरिया की सुविधा भी मौजूद है। झील में नौका विहार का आनंद भी लिया जा सकता है। मुगल गार्डन में तीन मुख्य फव्वारों के साथ साथ सैकड़ों छोटे संगीतमय फव्वारे रात को खास रोशनी के इंतजाम से जगमगा उठते हैं। संस्थापक दिवस 3 मार्च को बाग में खास रोशनी का इंतजाम और समारोह को देखने के लिये हजारों प्रय्टक आस पास के इलाके से यहाँ आते हैं। इन्हें भी देखें जमशेदपुर साकची झारखंड टाटा स्टील बाहरी कड़ियाँ जमशेदपुर झारखंड पर्यटन उद्यान
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "जुबली पार्क जमशेदपुर", "token_count": 2345, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%20%E0%A4%9C%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0" }
कर्नाटक संगीत या संस्कृत में कर्णाटक संगीतं भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है, जो उत्तरी भारत की शैली हिन्दुस्तानी संगीत से काफी अलग है। कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है। जैसा कि आमतौर पर भारतीय संगीत मे होता है, कर्नाटक संगीत के भी दो मुख्य तत्व राग और ताल होता है। कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिंदुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की 'त्रिमूर्ति' कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं। कर्नाटक गायन शैली के प्रमुख रूप वर्णम: इसके तीन मुख्य भाग पल्लवी, अनुपल्लवी तथा मुक्तयीश्वर होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिंदुस्तानी शैली के ठुमरी के साथ की जा सकती है। जावाली: यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। भरतनाट्यम के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफी तेज होती है। तिल्लाना: उत्तरी भारत में प्रचलित तराना के समान ही कर्नाटक संगीत में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है। इन्हें भी देखें कर्नाटक संगीत की शब्दावली बाहरी कड़ियाँ संगीतम श्रीहरिदास संकीर्तन स्रवंति श्री अन्नमाचारि पदसौरभं - १ श्री अन्नमाचारि पदसौरभं - २ सुनादम् - कर्नाटक संगीत में दक्षता विकसित कराने वाला सॉफ्टवेयर भारतीय शास्त्रीय संगीत संगीत शैलियाँ भारतीय संगीत
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संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में २६ दिसम्बर २००४ के दी जापान के कोबे शहर में आयोजित प्रांभिक घोषणा की गयी कि हिंद महासागर क्षेत्र में सूनामी की पूर्व चेतावनी देने वाले तंत्र का विकास किया जाना चाहिये। २००४ की सूनामी कई देशों में आई जैसे श्रीलंका, भारत, इंडोनेशिया और जापान और लगभग 1,00,000 लोगों की जान चली गई है और लगभग 5,00,000 लोग बेघर हो गए। हिन्द महासागर
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भारत के राष्ट्रपति, भारत गणराज्य के कार्यपालक अध्यक्ष होते हैं। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उनके नाम से किये जाते हैं। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उनमें निहित हैं। वह भारतीय सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी हैं। सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला, युद्ध/शान्ति की घोषणा करने वाला होता है। वह देश के प्रथम नागरिक हैं। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है। सिद्धान्ततः राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। पर कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल के नाम से भी जाना जाता है। राष्ट्रपति अधिकतम कितनी भी बार पद पर रह सकते हैं इसकी कोई सीमा तय नहीं है। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो बार अपना कार्यकाल पूरा किया है। प्रतिभा पाटिल भारत की 12वीं तथा इस पद को सुशोभित करने वाली पहली महिला राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 25 जुलाई 2007 को पद व गोपनीयता की शपथ ली थी। वर्तमान में द्रौपदी मुर्मू भारत के 15वीं राष्ट्रपति हैं। इतिहास 15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटेन से स्वतन्त्र हुआ था और अन्तरिम व्यवस्था के तहत देश एक राष्ट्रमण्डल अधिराज्य बन गया। इस व्यवस्था के तहत भारत के गवर्नर जनरल को भारत के राष्ट्रप्रमुख के रूप में स्थापित किया गया, जिन्हें ब्रिटिश इंडिया में ब्रिटेन के अन्तरिम राजा - जॉर्ज VI द्वारा ब्रिटिश सरकार के बजाय भारत के प्रधानमन्त्री की सलाह पर नियुक्त करना था। यह एक अस्थायी उपाय था, परन्तु भारतीय राजनीतिक प्रणाली में साझा राजा के अस्तित्व को जारी रखना सही मायनों में सम्प्रभु राष्ट्र के लिए उपयुक्त विचार नहीं था। आजादी से पहले भारत के आखरी ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड माउण्टबेटन ही भारत के पहले गवर्नर जनरल बने थे। जल्द ही उन्होंने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को यह पद सौंप दिया, जो भारत के इकलौते भारतीय मूल के गवर्नर जनरल बने थे। इसी बीच डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान का मसौदा तैयार हो चुका था और 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से संविधान को स्वीकार किया गया था। इस तिथि का प्रतीकात्मक महत्व था क्योंकि 26 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन से पहली बार पूर्ण स्वतन्त्रता को आवाज दी थी। जब संविधान लागू हुआ और डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भारत के पहले राष्ट्रपति का पद संभाला तो उसी समय गवर्नर जनरल और राजा का पद एक निर्वाचित राष्ट्रपति द्वारा प्रतिस्थापित हो गया। इस कदम से भारत की एक राष्ट्रमण्डल अधिराज्य की स्थिति समाप्त हो गया। लेकिन यह गणतन्त्र राष्ट्रों के राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहा। क्योंकि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने तर्क किया की यदि कोई भी राष्ट्र ब्रिटिश सम्राट को "राष्ट्रमण्डल के प्रधान" के रूप में स्वीकार करे पर आवश्यक नहीं है कि वह ब्रिटिश सम्राट को अपने राष्ट्रप्रधान की मान्यता दे, उसे राष्ट्रमण्डल में रहने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्णय था जिसने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नए-स्वतन्त्र गणराज्य बने कई अन्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों के राष्ट्रमण्डल में रहने के लिए एक मिसाल स्थापित किया। राष्ट्रपति का चुनाव भारत के राष्ट्रपति का चुनाव अनुच्छेद 55 के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा होता है। राष्ट्रपति को भारत के संसद के दोनो सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं (विधान सभाओं) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। मत आवण्टित करने के लिए एक फार्मूला इस्तेमाल किया गया है ताकि हर राज्य की जनसंख्या और उस राज्य से विधानसभा के सदस्यों द्वारा मत डालने की संख्या के बीच एक अनुपात रहे और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों और राष्ट्रीय सांसदों के बीच एक समानुपात बनी रहे। अगर किसी उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त नहीं होती है तो एक स्थापित प्रणाली है जिससे हारने वाले उम्मीदवारों को प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है और उनको मिले मत अन्य उम्मीदवारों को तबतक हस्तान्तरित होता है, जब तक किसी एक को बहुमत नहीं मिलता। राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक योग्यताएँ: भारत का कोई नागरिक जिसकी उम्र 35 साल या अधिक हो वह पद का उम्मीदवार हो सकता है। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार को लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता होना चाहिए और सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण किया हुआ नहीं होना चाहिए। परन्तु निम्नलिखित कुछ कार्यालय-धारकों को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने की अनुमति दी गई है: वर्तमान राष्ट्रपति वर्तमान उपराष्ट्रपति किसी भी राज्य के राज्यपाल संघ या किसी राज्य के मन्त्री। राष्‍ट्रप‍ति के निर्वाचन सम्‍बन्‍धी किसी भी विवाद में निणर्य लेने का अधिकार उच्‍चतम न्‍यायालय को है। राष्ट्रपति पर महाभियोग अनुच्छेद 61 राष्ट्रपति के महाभियोग से संबंधित है। भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति मात्र महाभियोजित होता है, अन्य सभी पदाधिकारी पद से हटाये जाते हैं। महाभियोजन एक विधायिका सम्बन्धित कार्यवाही है जबकि पद से हटाना एक कार्यपालिका सम्बन्धित कार्यवाही है। महाभियोजन एक कड़ाई से पालित किया जाने वाला औपचारिक कृत्य है जो संविधान का उल्लघंन करने पर ही होता है। यह उल्लघंन एक राजनैतिक कृत्य है जिसका निर्धारण संसद करती है। वह तभी पद से हटेगा जब उसे संसद में प्रस्तुत किसी ऐसे प्रस्ताव से हटाया जाये जिसे प्रस्तुत करते समय सदन के १/४ सदस्यों का समर्थन मिले। प्रस्ताव पारित करने से पूर्व उसको 14 दिन पहले नोटिस दिया जायेगा। प्रस्ताव सदन की कुल संख्या के 2/3 से अधिक बहुमत से पारित होना चाहिये। फिर दूसरे सदन में जाने पर इस प्रस्ताव की जाँच एक समिति के द्वारा होगी। इस समय राष्ट्रपति अपना पक्ष स्वंय अथवा वकील के माध्यम से रख सकता है। दूसरा सदन भी उसे उसी 2/3 बहुमत से पारित करेगा। दूसरे सदन द्वारा प्रस्ताव पारित करने के दिन से राष्ट्रपति पद से हट जायेगा। न्यायिक शक्तियाँ संविधान का 72वाँ अनुच्छेद राष्ट्रपति को न्यायिक शक्तियाँ देता है कि वह दंड का उन्मूलन, क्षमा, आहरण, परिहरण, परिवर्तन कर सकता है। क्षमादान – किसी व्यक्ति को मिली संपूर्ण सजा तथा दोष सिद्धि और उत्पन्न हुई निर्योज्ञताओं को समाप्त कर देना तथा उसे उस स्थिति में रख देना मानो उसने कोई अपराध किया ही नहीं था। यह लाभ पूर्णतः अथवा अंशतः मिलता है तथा सजा देने के बाद अथवा उससे पहले भी मिल सकती है। लघुकरण – दंड की प्रकृति कठोर से हटा कर नम्र कर देना उदाहरणार्थ सश्रम कारावास को सामान्य कारावास में बदल देना परिहार – दंड की अवधि घटा देना परंतु उस की प्रकृति नहीं बदली जायेगी विराम – दंड में कमी ला देना यह विशेष आधार पर मिलती है जैसे गर्भवती महिला की सजा में कमी लाना प्रविलंबन – दंड प्रदान करने में विलम्ब करना विशेषकर मृत्यु दंड के मामलों में राष्ट्रपति की क्षमाकारी शक्तियां पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करती हैं। उन्हें एक अधिकार के रूप में मांगा नहीं जा सकता है। ये शक्तियां कार्यपालिका प्रकृति की है तथा राष्ट्रपति इनका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेगा। न्यायालय में इनको चुनौती दी जा सकती है। इनका लक्ष्य दंड देने में हुई भूल का निराकरण करना है जो न्यायपालिका ने कर दी हो। शेरसिंह बनाम पंजाब राज्य 1983 में सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय दिया की अनु 72, अनु 161 के अंतर्गत दी गई दया याचिका जितनी शीघ्रता से हो सके उतनी जल्दी निपटा दी जाये। राष्ट्रपति न्यायिक कार्यवाही तथा न्यायिक निर्णय को नहीं बदलेगा वह केवल न्यायिक निर्णय से राहत देगा याचिकाकर्ता को यह भी अधिकार नहीं होगा कि वह सुनवाई के लिये राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित हो वीटो शक्तियाँ विधायिका की किसी कार्यवाही को विधि बनने से रोकने की शक्ति वीटो शक्ति कहलाती है संविधान राष्ट्रपति को तीन प्रकार के वीटो देता है। पूर्ण वीटो – निर्धारित प्रकिया से पास बिल जब राष्ट्रपति के पास आये (संविधान संशोधन बिल के अतिरिक्त) तो वह् अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति की घोषणा कर सकता है किंतु यदि अनु 368 (सविधान संशोधन) के अंतर्गत कोई बिल आये तो वह अपनी अस्वीकृति नहीं दे सकता है। यद्यपि भारत में अब तक राष्ट्रपति ने इस वीटो का प्रयोग बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के नहीं किया है माना जाता है कि वह ऐसा कर भी नहीं सकता (ब्रिटेन में यही पंरपंरा है जिसका अनुसरण भारत में किया गया है)। निलम्बनकारी वीटो – संविधान संशोधन अथवा धन बिल के अतिरिक्त राष्ट्रपति को भेजा गया कोई भी बिल वह संसद को पुर्नविचार हेतु वापिस भेज सकता है किंतु संसद यदि इस बिल को पुनः पास कर के भेज दे तो उसके पास सिवाय इसके कोई विकल्प नहीं है कि उस बिल को स्वीकृति दे दे। इस वीटो को वह अपने विवेकाधिकार से प्रयोग लेगा। इस वीटो का प्रयोग अभी तक संसद सदस्यों के वेतन बिल भत्ते तथा पेंशन नियम संशोधन 1991 में किया गया था। यह एक वित्तीय बिल था। राष्ट्रपति रामस्वामी वेंकटरमण ने इस वीटो का प्रयोग इस आधार पर किया कि यह बिल लोकसभा में बिना उनकी अनुमति के लाया गया था। पॉकेट वीटो – संविधान राष्ट्रपति को स्वीकृति अस्वीकृति देने के लिये कोई समय सीमा नहीं देता है यदि राष्ट्रपति किसी बिल पर कोई निर्णय ना दे (सामान्य बिल, न कि धन या संविधान संशोधन) तो माना जायेगा कि उस ने अपने पॉकेट वीटो का प्रयोग किया है यह भी उसकी विवेकाधिकार शक्ति के अन्दर आता है। पेप्सू बिल 1956 तथा भारतीय डाक बिल 1984 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इस वीटो का प्रयोग किया था। राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति राष्ट्रपति संसद का अंग है। कोई भी बिल बिना उसकी स्वीकृति के पास नहीं हो सकता अथवा सदन में ही नहीं लाया जा सकता है। राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियाँ अनु 74 के अनुसार अनु 78 के अनुसार प्रधान मंत्री राष्ट्रपति को समय समय पर मिल कर राज्य के मामलों तथा भावी विधेयकों के बारे में सूचना देगा, इस तरह अनु 78 के अनुसार राष्ट्रपति सूचना प्राप्ति का अधिकार रखता है यह अनु प्रधान मंत्री पर एक संवैधानिक उत्तरदायित्व रखता है यह अधिकार राष्ट्रपति कभी भी प्रयोग ला सकता है इसके माध्यम से वह मंत्री परिषद को विधेयकों निर्णयों के परिणामों की चेतावनी दे सकता है जब कोई राजनैतिक दल लोकसभा में बहुमत नहीं पा सके तब वह अपने विवेकानुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति करेगा निलंबन वीटो/पॉकेट वीटो भी विवेकी शक्ति है संसद के सदनो को बैठक हेतु बुलाना अनु 75 (3) मंत्री परिषद के सम्मिलित उत्तरदायित्व का प्रतिपादन करता है राष्ट्रपति मंत्री परिषद को किसी निर्णय पर जो कि एक मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से लिया था पर सम्मिलित रूप से विचार करने को कह सकता है। लोकसभा का विघटन यदि मंत्रीपरिषद को बहुमत प्राप्त नहीं है संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति रामजस कपूर वाद तथा शेर सिंह वाद में निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसदीय सरकार में वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद में है। 42, 44 वें संशोधन से पूर्व अनु 74 का पाठ था कि एक मंत्रिपरिषद प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में होगी जो कि राष्ट्रपति को सलाह सहायता देगी। इस अनुच्छेद में यह नहीं कहा गया था कि वह इस सलाह को मानने हेतु बाध्य होगा या नही। केवल अंग्रेजी पंरपरा के अनुसार माना जाता था कि वह बाध्य है। 42 वे संशोधन द्वारा अनु 74 का पाठ बदल दिया गया राष्ट्रपति सलाह के अनुरूप काम करने को बाध्य माना गया। 44वें संशोधन द्वारा अनु 74 में फिर बदलाव किया गया। अब राष्ट्रपति दी गयी सलाह को पुर्नविचार हेतु लौटा सकता है किंतु उसे उस सलाह के अनुरूप काम करना होगा जो उसे दूसरी बार मिली हो। इन्हें भी देखें भारत के राष्ट्रपतियों की सूची भारतीय राष्ट्रपति चुनाव, २०१७ बाहरी कड़ियाँ हमें राष्ट्रपति कैसा चाहिए? – डॉ॰ वेदप्रताप वैदिक Educational Video - भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एवं निर्वाचन प्रक्रिया सन्दर्भ भारत सरकार भारत का संविधान
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जॉर्ज फ़र्नान्डिस (३ जून १९३० - २९ जनवरी २०१९) एक भारतीय राजनेता थे। वे श्रमिक संगठन के भूतपूर्व नेता, तथा पत्रकार थे। वे राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने समता मंच की स्थापना की। वे भारत के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में रक्षा मंत्री, संचारमंत्री, उद्योगमंत्री, रेलमंत्री आदि के रूप में कार्य कर चुके हैं। लंबे समय तक बीमार रहने के बाद उनका निधन २९ जनवरी २०१९ रोज मंगलवार को हो गया। २०२० में इन्हें (मरणोपरांत) पद्म विभूषण दिया गया है। चौदहवीं लोकसभा में जॉर्ज फ़र्नान्डिस मुजफ़्फ़रपुर से जनता दल के टिकट पर सांसद चुने गए थे। वे १९९८ से २००४ तक की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की केन्द्रीय सरकार में रक्षा मंत्री थे। उन्के के घने मित्र फज़लुर रहमान मुबारकपुरी जो की रेशमी नगरी नगरपालिका मुबारकपुर आज़मगढ़ के मूल निवासी हैँ आज भी समाज में एक अच्छे स्वाभिमान बेहतरीन छवि के मालिक हैँ इन्हें के छोटे लडके अरशद जमाल नगरपालिका मुबारकपुर में लगभग 20 वर्षो से सभासद के पद रूप में कार्यरत हैँ जीवन परिचय जॉर्ज फर्नांडीस का जन्‍म 3 जून 1930 को मैंगलोर के मैंग्‍लोरिन-कैथोलिक परिवार में हुआ था। वे अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। परिवार के नजदीकी सदस्‍य इन्‍हें 'गैरी' कहकर बुलाते थे। इन्‍होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा मैंगलौर के स्‍कूल से पूरी की। इसके बाद मैंगलौर के सेंट अल्‍योसिस कॉलेज से अपनी 12वीं कक्षा पूरी की। घर की पारम्परा के अनुसार उन्हे 16 वर्ष की आयु में बैंगलोर के सेंट पीटर सेमिनरी में धार्मिक शिक्षा के लिए भेजा गया। 19 वर्ष की आयु में वे सेमिनरी छोड़ भाग गए और मैंगलौर के रोड ट्रांसपोर्ट कंपनी तथा होटल एवं रेस्‍तरां में काम करने लगे। 1949 में जॉर्ज मैंगलोर छोड़ मुम्बई काम की तलाश में आ गए। मुम्बई में इनका जीवन बहुत कठिनाइयों से भरा रहा। एक समाचारपत्र में प्रूफरीडर की नौकरी मिलने से पहले वे फुटपाथ पर रहा करते थे और चौपाटी स्‍टैंड की बेंच पर सोया करते थे लेकिन रात में ही एक पुलिस वाला आकर उन्‍हें उठा देता था जिसके कारण उन्‍हें जमीन पर सोना पड़ता था। 1950 में वे राममनोहर लोहिया के करीब आए और उनके जीवन से काफी प्रभावित हुए। उसके बाद वे सोशलिस्‍ट ट्रेड यूनियन के आन्दोलन में शामिल हो गए। इस आन्दोलन में उन्‍होंने मजदूरों, कम पैसे में कम्पनियों में काम करने वाले कर्मचारियों तथा होटलों और रेस्तरांओं में काम करने वाले मजदूरों के लिए आवाज उठाई। इसके बाद वे 1950 में श्रमिकों की आवाज बन गए। सन 1961 तथा 1968 में मुम्बई सिविक का चुनाव जीतकर वे मुम्बई महानगरपालिका के सदस्‍य बन गए। इसके साथ ही वे लगातार निचले स्‍तर के मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए आवाज उठाते रहे और राज्‍य में सही तरीकों से कार्य करते रहे। इस तरह के लगातार आन्दोलनों के कारण वे राजनेताओं की नजर में आ गए। 1967 के लोकसभा चुनाव में उन्‍हें संयुक्‍त सोसियलिस्ट पार्टी की ओर से मुम्बई दक्षिण की सीट से टिकट दिया गया जिसमें वे 48.5 फीसदी वोटों से जीते। इसके कारण उनका नाम 'जॉर्ज द जेंटकिलर' रख दिया गया। उनके प्रतिद्वन्द्वी पाटिल को यह हार बर्दाश्त नहीं हुई और उन्‍होंने राजनीति छोड़ दी। 1960 के बाद जॉर्ज मुम्बई में हड़ताल करने वाले लोकप्रिय नेता बने। इसके बाद राजनीति में बहुत बदलाव आया और 1969 में वे संयुक्‍त सोसियालिस्ट पार्टी के महासचिव चुन लिए गए और 1973 में पार्टी के चेयरमैन बने। 1974 में जॉर्ज ने ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन का अध्‍यक्ष बनने के बाद भारत की बहुत बड़ी रेलवे के खिलाफ हड़ताल शुरू की। वे 1947 से तीसरे वेतन आयोग को लागू करने की मांग कर रहे थे और आवासीय भत्‍ता बढ़ाने की भी मांग कर रहे थे। १९७७ में, आपातकाल हटा दिए जाने के बाद, फ़र्नान्डिस ने अनुपस्थिति में बिहार में मुजफ्फरपुर सीट जीती और उन्हें इंडस्ट्रीज के केंद्रीय मंत्री नियुक्त किया गया। केंद्रीय मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने निवेश के उल्लंघन के कारण, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों आईबीएम और कोका-कोला को देश छोड़ने का आदेश दिया। वह १९८९ से १९९० तक रेल मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कोंकण रेलवे परियोजना के पीछे प्रेरणा शक्ति थी। वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार (१९९८-२००४) में रक्षा मंत्री थे, जब कारगिल युद्ध भारत और पाकिस्तान और भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किए एक अनुभवी समाजवादी, फ़र्नान्डिस को बराक मिसाइल घोटाले और तहलका मामले सहित कई विवादों से डर लगा था। जॉर्ज फ़र्नान्डिस ने १९६७ से २००४ तक ९ लोकसभा चुनाव जीते। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय रेल हड़ताल, १९७४ कांटी थर्मल पावर स्टेशन आपातकाल (भारत) समता पार्टी उदय मंडल बाहरी कड़ियाँ जॉर्ज फ़र्नांडिस कुछ कर गुज़रने को बेचैन रहते थे (२९ जनवरी, २०१८) साथियो, भूलो मत संघर्ष के प्रतीक जॉर्ज फ़र्नान्डिस अभी जिंदा हैं जॉर्ज फ़र्नांडीस: विवादों का पुलिंदा जॉर्ज फर्नांडिस को याद करेंगे तो याद आएगा कोका कोला, बड़ौदा डायनामाइट और रेल हड़ताल 1930 में जन्मे लोग २०१९ में निधन भारत के रक्षा मंत्री भारत के रेल मंत्री राज्यसभा सदस्य चौथी लोक सभा के सदस्य‎ ६ठी लोक सभा के सदस्य ७वीं लोक सभा के सदस्य ९वीं लोक सभा के सदस्य १०वीं लोक सभा के सदस्य ११वीं लोक सभा के सदस्य १२वीं लोक सभा के सदस्य १३वीं लोक सभा के सदस्य १४वीं लोक सभा के सदस्य भारतीय राजनीतिज्ञ
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होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। इतिहास होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं। कहानियाँ होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है। होलिका दहन की मुख्य कथा होली से सम्बन्धित मुख्य कथा के अनुसार एक नगर में हिरण्यकश्यप नाम का दानव राजा रहता था। वह सभी को अपनी पूजा करने को कहता था, लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का उपासक भक्त था। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है। प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है। मानव समर्थ नहीं है। यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता। यह बात सुनकर अहंकारी हिरण्यकश्यप क्रोध से लाल पीला हो गया और नौकरों सिपाहियों से बोला कि इसको ले जाओ मेरी आँखों के सामने से और जंगल में सर्पों में डाल आओ। सर्प के डसने से यह मर जाएगा। ऐसा ही किया गया। परंतु प्रहलाद मरा नहीं, क्योंकि सर्पों ने डसा नहीं। प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। परंपराएँ होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत में भगवन विष्णु जी ने धूलि का वंदन किया था। इसलिए होली के इस त्यौहार को धुलेंडी के नाम से भी मनाया जाता है। धुलेंडी होली के अगले दिन मनाया जाता है जिसमें लोग एक दूसरे पर धुल और कीचड़ लगाते हैं और इसे धूल स्नान कहा जाता है। होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं। होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन (खाद्य पदार्थ) पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता। विशिष्ट उत्सव भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं। आधुनिक काल में होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है। प्रचलित संस्कृति में साहित्य प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं। संगीत भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। रंगों का उपयोग प्राचीन काल में लोग चन्दन और गुलाल से ही होली खेलते थे। समय के साथ इनमें भी बदलाव देखने को मिला है। कई लोगों द्वारा प्राकृतिक रंगों का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे त्वचा या आँखों पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव न पड़े। टीवी9 भारतवर्ष द्वारा घर पर होली के रंग बनाने एवं रासायनिक रंगों से दूर रहने की सलाह दी गई है। इन्हें भी देखें होली लोकगीत होलिका दहन विभिन्न देशों में होली उत्सव हिन्दू पर्व वैष्णव पंथ वसंत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ होली संस्कृति हिन्दू त्यौहार भारतीय पर्व उत्तम लेख भारत में त्यौहार
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एथलेटिक्स अंजू बाबी जार्ज मिल्खा सिंह पी टी उषा कर्णम मल्लेश्वरी हाकी धनराज पिल्लै ध्यानचंद बिलियर्डस गीत सेठी फुटबाल बाइचिंग भूटिया बैडमिंटन गोपीचंद टेनिस लियेंडर पेस महेश भूपति सानिया मिर्ज़ा क्रिकेट अनिल कुंबले कपिल देव सचिन तेंदुलकर दिलीप वेंगसरकर विराट कोहली वीरेन्द्र सहवाग इन्हें भी देखें भारतीय व्यक्तित्व भारत के खिलाड़ी
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भारत के आँध्रप्रदेश में विश्व टेनिस अशोसियेशन द्वारा हर वर्ष आयोजित की जाने वाली टेनिस प्रतियोगिता। बाहरी कड़ियाँ हैदराबाद ओपन टेनिस हैदराबाद
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मुंबई में सेक्स और उससे संबंधित विषयों के बारे में लोगों की जानकारी बढ़ाने के लिए भारत का पहला सेक्स संग्रहालय है। इस संग्रहालय में सेक्स के बारे में भारत की प्राचीन परंपरा की भी लोगों को जानकारी दी गई है। संग्रहालय की दीवारों पर कामसूत्र का चित्रण किया गया है। आदमी और औरतों के संबंधों के बारे में जानकारी देने के लिए महाराष्ट्र की कलाविधा वरली का भी सहारा लिया गया है। इस संग्रहालय का एक हिस्सा एड्स की जानकारी देने के लिए रखा गया है। बाहरी कड़ियाँ भारत में संग्रहालय मुम्बई
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मानसून या पावस, मूलतः एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आने वाली हवाओं को कहते हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा करातीं हैं। ये ऐसी मौसमी पवन होती हैं, जो दक्षिणी एशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक, प्रायः चार माह सक्रिय रहती है। इस शब्द का प्रथम प्रयोग ब्रिटिश भारत में (वर्तमान भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश) एवं पड़ोसी देशों के संदर्भ में किया गया था। ये बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से चलने वाली बड़ी मौसमी हवाओं के लिये प्रयोग हुआ था, जो दक्षिण-पश्चिम से चलकर इस क्षेत्र में भारी वर्षाएं लाती थीं। हाइड्रोलोजी में मानसून का व्यापक अर्थ है- कोई भी ऐसी पवन जो किसी क्षेत्र में किसी ऋतु-विशेष में ही अधिकांश वर्षा कराती है। यहां ये उल्लेखनीय है, कि मानसून हवाओं का अर्थ अधिकांश समय वर्षा कराने से नहीं लिया जाना चाहिये। इस परिभाषा की दृष्टि से संसार के अन्य क्षेत्र, जैसे- उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, उप-सहारा अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया एवं पूर्वी एशिया को भी मानसून क्षेत्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये शब्द हिन्दी व उर्दु के मौसम शब्द का अपभ्रंश है। मानसून पूरी तरह से हवाओं के बहाव पर निर्भर करता है। आम हवाएं जब अपनी दिशा बदल लेती हैं तब मानसून आता है।. जब ये ठंडे से गर्म क्षेत्रों की तरफ बहती हैं तो उनमें नमी की मात्र बढ़ जाती है जिसके कारण वर्षा होती है। नामकरण एवं परिभाषा हिन्दी में प्रयुक्त मानसून, अंग्रेज़ी शब्द मॉनसून से आया है, और जिसको अंग्रेजी ने पुर्तगाली शब्द monção (मॉन्साओ) से लिया है, जिसका मूल उद्गम अरबी शब्द मौसिम (موسم "मौसम") है। यह शब्द हिन्दी एवं उर्दु के अतिरिक्त विभिन्न उत्तर भारतीय भाषाओं में भी प्रयोग किया जाता है, जिसकी एक कड़ी आरंभिक आधुनिक डच शब्द मॉनसन से भी मिलती है।. इस परिभाषा के अनुसार विश्व की प्रधान वायु प्रणालियां सम्मिलित की जाती हैं, जिनकी दिशाएं ऋतुनिष्ठ बदलती रहती हैं। अधिकांश ग्रीष्मकालीन मानसूनों में प्रबल पश्चिमी घटक होते हैं और साथ ही विपुल मात्रा में प्रबल वर्षा की प्रवृत्ति भी होती है। इसका कारण ऊपर उठने वाली वायु में जल-वाष्प की प्रचुर मात्रा होती है। हालांकि इनकी तीव्रता और अवधि प्रत्येक वर्ष में समान नहीं होती है। इसके विपरीत शीतकालीन मानसूनों में प्रबल पूर्वी घटक होते हैं, साथ ही फैलने और उतर जाने तथा सूखा करने की प्रवृत्ति होती है। विश्व के मानसून विश्व की प्रमुख मानसून प्रणालियों में पश्चिमी अफ़्रीका एवं एशिया-ऑस्ट्रेलियाई मानसून आते हैं। इस श्रेणी में उत्तरी अमरीका और दक्षिण अमरीकाई मॉनसूनों को सम्मिलित करने में कुछ मतभेद अभी भी जारी हैं। दक्षिण एशियाई भारतीय मानसून भारत में मानसून हिन्द महासागर व अरब सागर की ओर से हिमालय की ओर आने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएं भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती हैं तो भारत तथा आसपास के देशों में भारी वर्षा होती है। ये हवाएं दक्षिण एशिया में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र का मानसून उसकी जलवायु पर निर्भर करता है। भारत के संबंध में यहां की जलवायु ऊष्णकटिबंधीय है और ये मुख्यतः दो प्रकार की हवाओं से प्रभावित होती है - उत्तर-पूर्वी मानसून व दक्षिणी-पश्चिमी मानसून। उत्तर-पूर्वी मानसून को प्रायः शीत मानसून कहा जाता है। यह हवाएं मैदान से सागर की ओर चलती हैं, जो हिन्द महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती हैं। यहां अधिकांश वर्षा दक्षिण पश्चिम मानसून से होती है। भारत में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर से कर्क रेखा निकलती है। इसका देश की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है। ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतुओं में से वर्षा ऋतु को प्रायः मानसून भी कह दिया जाता है। सामान्यत: मानसून की अवधि में तापमान में तो कमी आती है, लेकिन आर्द्रता (नमी) में अच्छी वृद्धि होती है। आद्रता की जलवायु विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। यह वायुमंडल में मौजूद जलवाष्प की मात्र से बनती है और यह पृथ्वी से वाष्पीकरण के विभिन्न रूपों द्वारा वायुमंडल में पहुंचती है। पूर्व एशियाई पूर्व एशियाई मानसून इंडो-चीन, फिलिपींस, चीन, कोरिया एवं जापान के बड़े क्षेत्रों में प्रभाव डालता है। इसकी मुख्य प्रकृति गर्म, बरसाती ग्रीष्मकाल एवं शीत-शुष्क शीतकाल होते हैं। इसमें अधिकतर वर्षा एक पूर्व-पश्चिम में फैले निश्चित क्षेत्र में सीमित रहती है, सिवाय पूर्वी चीन के जहां वर्षा पूर्व-पूर्वोत्तर में कोरिया व जापान में होती है। मौसमी वर्षा को चीन में मेइयु, कोरिया में चांग्मा और जापान में बाई-यु कहते हैं। ग्रीष्मकालीन वर्षा का आगमन दक्षिण चीन एवं ताईवान में मई माह के आरंभ में एक मानसून-पूर्व वर्षा से होता है। इसके बाद मई से अगस्त पर्यन्त ग्रीष्मकालीन मानसून अनेक शुष्क एवं आर्द्र शृंखलाओं से उत्तरवर्ती होता जाता है। ये इंडोचाइना एवं दक्षिण चीनी सागर (मई में) से आरंभ होक्र यांग्तज़े नदी एवं जापान में (जून तक) और अन्ततः उत्तरी चीन एवं कोरिया में जुलाई तक पहुंचता है। अगस्त में मानसून काल का अन्त होते हुए ये दक्षिण चीन की ओर लौटता है। अफ़्रीका पश्चिमी उप-सहारा अफ़्रीका का मानसून को पहले अन्तर्कटिबन्धीय संसृप्ति ज़ोन के मौसमी बदलावों और सहारा तथा विषुवतीय अंध महासागर के बीच तापमान एवं आर्द्रता के अंतरों के परिणामस्वरूप समझा जाता था। ये विषुवतीय अंध महासागर से फरवरी में उत्तरावर्ती होता है और फिर लगभग २२ जून तक पश्चिमी अफ़्रीका पहुंचता है और अक्टूबर तक दक्षिणावर्ती होते हुए पीछे हटता है। शुष्क उत्तर-पश्चिमी व्यापारिक पवन और उनके चरम स्वरूप हारमट्टन, ITCZ में उत्तरी बदलाव से प्रभावित होते हैं और परिणामित दक्षिणावर्ती पवन ग्रीष्मकाल में वर्षाएं लेकर आती हैं। सहेल और सूडान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र अपने मरुस्थलीय क्षेत्र में होने वाली अधिकांश वर्षा के लिये इस शैली पर ही निर्भर रहते हैं। उत्तरी अमेरिका उत्तर अमेरिकी मानसून (जिसे लघुरूप में NAM भी कहते हैं) जून के अंत या जुलाई के आरंभ से सितंबर तक आता है। इसका उद्गम मेक्सिको से होता है और संयुक्त राज्य में मध्य जुलाई तक वर्षा उपलब्ध कराता है। इसके प्रभाव से मेक्सिको में सियेरा मैड्र ऑक्सीडेन्टल के साथ-साथ और एरिज़ोना, न्यू मेक्सिको, नेवाडा, यूटाह, कोलोरैडो, पश्चिमी टेक्सास तथा कैलीफोर्निया में वर्षा और आर्द्रता होती है। ये पश्चिम में प्रायद्वीपीय क्षेत्रों तथा दक्षिणी कैलीफोर्निया के तिर्यक शृंखलाओं तक फैलते हैं, किन्तु तटवर्ती रेखा तक कदाचित ही पहुंचते हैं। उत्तरी अमरीकी मानसून को समर, साउथवेस्ट, मेक्सिकन या एरिज़ोना मानसून के नाम से भी जाना जाता है। इसे कई बार डेज़र्ट मानसून भी कह दिया जाता है, क्योंकि इसके प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांश भाग मोजेव और सोनोरैन मरुस्थलों के हैं। सन्दर्भ बहिर्गामी कड़ियाँ मानसून उत्पत्ति सम्बन्धी जेट-स्ट्रीम संकल्पना (जागरण जोश) वर्षा के उपर एक शिक्षण केन्द्रित्त निबंध (मृत कडी गूगल कॅश देखें) मौसम भारत की जलवायु ऋतु वर्षण वर्षा पवन स्थानीय पवन अरबी शब्द बाढ़ जलवायु जलवायु प्रतिरूप पुर्तगाली शब्द हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
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पारो (जोंगखा; སྤ་རོ་) भूटान की पारो घाटी में स्थित एक नगर और पारो जिले का मुख्यालय है। यह एक ऐतिहासिक नगर है जिसमें कई पवित्र स्थल और ऐतिहासिक इमारतें बिखरी हुई हैं। भूटान का एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, पारो हवाई अड्डा भी यहीं स्थित है। भूटान के आबाद स्थान
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वर्ण वैश्य हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत एक वर्ण है। जाति वैश्य शब्द के अंतर्गत कई भारतीय जातियाँ आती हैं। वर्णव्यवस्था
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रामेश्वरम (Rameswaram), जिसे तमिल लहजे में "इरोमेस्वरम" भी कहा जाता है, भारत के तमिल नाडु राज्य के रामनाथपुरम ज़िले में एक तीर्थ नगर है, जो हिन्दू धर्म के पवित्रतम चार धाम तीर्थस्थलों में से एक है। यह रामेश्वरम द्वीप (पाम्बन द्वीप) पर स्थित है, जो भारत की मुख्यभूमि से पाम्बन जलसन्धि द्वारा अलग है और श्रीलंका के मन्नार द्वीप से 40 किमी दूर है। भौगोलिक रूप से यह मन्नार की खाड़ी पर स्थित है। चेन्नई और मदुरई से रेल इसे पाम्बन पुल द्वारा मुख्यभूमि से जोड़ती है। रामायण की घटनाओं में रामेश्वरम की बड़ी भूमिका है। यहाँ श्रीराम ने भारत से लंका तक का राम सेतु निर्माण करा था, ताकि सीता की सहायता के लिए रावण के विरुद्ध आक्रमण करा जा सके। यहाँ श्रीराम ने शिव की उपासना करी थी और आज नार के केन्द्र में खड़ा शिव मन्दिर उशी घटनाक्रम से समबन्धित है। नगर और मन्दिर दोनों शिव व विष्णु भक्तों के लिए श्रद्धा-केन्द्र हैं। विवरण उत्तर भारत में काशी (वाराणसी या बनारस) की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। धार्मिक हिंदुओं के लिए वहां की यात्रा उतना की महत्व रखती है, जितना कि काशी की। रामेश्वरम चेन्नई से कोई ६०० किमी दक्षिण में है। रामेश्वरम एक सुन्दर टापू है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी इसको चारों ओर से घेरे हुए हैं। यहाँ पर रामायण से संबंधित अन्य धार्मिक स्थल भी हैं। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम ज़िले का तीसरा सबसे बड़ा शहर है जिसकी देखरेख १९९४ में स्थापित नगरपालिका करती है। पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त यहाँ पर श्रीलंका के जाफ़ना के राजा, चोल और अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर की भी उपस्थिति रही है। श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान विस्थापित तमिलों, ईसाई मिशनरियों और रामसेतु को तोड़कर नौवहन का रास्ता तैयार करने के लिए भी यह शहर चर्चा में रहा है। जिला मुख्यालय, रामनाथपुरम से यह कोई ५० किलोमीटर पूर्व की दिशा में पड़ता है। पर्यटन तथा मत्स्यव्यापार यहाँ के वासियों की मुख्य आजीविका है। द्वीप इस हरे-भरे टापू की शकल शंख जैसी है। कहते हैं, पुराने जमाने में यह टापू भारत के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों और पानी से घिरकर टापू बन गया। जिस स्थान पर वह जुडा हुआ था, वहां इससमस ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बाद में आज से लगभग चार सौ बरस पहले कृष्णप्पा नायकन नाम के एक छोटे से राजा ने उसे पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया। अंग्रेजो के आने के बाद उसपुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चूका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से जोड़ता है। इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों। रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का मशहूर मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो पुल या सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ - जहाँ उन्होंने धनुष से इशारा किया था। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यहीं से कोलंबो को जहाज जाते थे। १९६४ (संभवतः) में आए भीषण तूफानके बाद अब यह स्थान बहकर समाप्त हो गया है। रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूरब में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। कहते हैं, हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है। तीर्थ और मान्यता यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण रामनाथ स्वामी (या रामेश्वर) मंदिर है जो एक शिव ज्योतिर्लिंग (प्रकाश का स्तंभ) भी है। कथाओं के अनुसार जब श्रीराम ने लंका के राजा रावण का वध कर सीता जी को मुक्त किया तो गंधमादन पर्वत पर स्थित ऋषियों ने श्रीराम पर ब्राहमण (रावण की) वध का आरोप लगाने लगे। उनकी सलाह के अनुसार इस पाप को धोने के लिए श्रीराम ने यहाँ पर शिव की पूजा करने का निर्णय लिया था। लेकिन रेत से लिंग कैसे बने इस दुविधा के लिए उन्होंने हनुमान को कैलाश पर्वत (हिमालय) से शिवलिंग लाने को कहा। जब हनुमान के लिंङग लाने में देर हुई तो सीता जी ने रेत का लिंग बना दिया और राम जी ने उसकी आराधना की। हनुमान जब वापस आए तो ग़ुस्सा हुए, समझाने के लिए श्रीराम ने पुराने लिंग के स्थान पर हनुमान द्वारा लाए लिंग को लगाने को कहा। हनुमान के लाख प्रयास करने के बाद भी लिंग न हिला। इसलिए श्रीराम ने ये विधि स्थापित की कि पहले इस (रेत के) लिंग की पूजा होगी तब जाकर कैलाश पर्वत वाले लिंग की। इसके बाद से ऐसा ही होता आ रहा माना जाता है। प्रमुख हस्तियाँ अवुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम इन्हें भी देखें रामेश्वरम द्वीप (पाम्बन द्वीप) रामायण मन्नार की खाड़ी रामनाथपुरम ज़िला सन्दर्भ रामनाथपुरम ज़िला तमिल नाडु के शहर रामनाथपुरम ज़िले के नगर हिन्दू पवित्र शहर पवित्र शहर भारत में हिन्दू तीर्थस्थल पाक जलसन्धि मन्नार की खाड़ी रामायण में स्थान
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रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी (८ अगस्त १९१५- ११ जुलाई २००३) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। १९३७ में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने १९५८ में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भारत पाकिस्तान विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जा मिले। इसके पश्चात अंबाला और अमृतसर में भी अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली महाविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने। १९५७ से १९६३ तक मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह (फॉरेन लॅग्वेजेस पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। यहां उन्होंने करीब दो दर्जन रूसी किताबें जैसे टालस्टॉय आस्ट्रोवस्की इत्यादि लेखकों की किताबों का हिंदी में रूपांतर किया। १९६५ से १९६७ तक दो सालों में उन्होंने नयी कहानियां नामक पात्रिका का सम्पादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन) से भी जुड़े रहे। १९९३ से ९७ तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समीति के सदस्य रहे। भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। भीष्म साहनी हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई थे। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था। प्रमुख रचनाएँ उपन्यास - झरोखे, तमस, बसंती, मय्यादास की माडी़, कुन्तो, नीलू निलिमा नीलोफर कहानी संग्रह - मेरी प्रिय कहानियां, भाग्यरेखा, वांगचू, निशाचर नाटक - हानूश (१९७७), माधवी (१९८४), कबिरा खड़ा बजार में (१९८५), मुआवज़े (१९९३) आत्मकथा - बलराज माय ब्रदर बालकथा- गुलेल का खेल संदर्भ बाहरी कड़ियाँ लोग अमन चाहते हैं: भीष्म साहनी की मृत्यु से कुछ ही समय पहले लिये गया बीबीसी साक्षात्कार (आडियो भी उपलब्ध) १९९८ पद्म भूषण भीष्म साहनी हिन्दी कथाकार हिन्दी उपन्यासकार साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार शलाका सम्मान हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित 1915 में जन्मे लोग २००३ में निधन
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गंगा सतलुज के मैदान में बसा तथा दक्षिण में थार रेगिस्तान को छूता हुआ भिवानी, हरियाणा प्रदेश (भारत) का एक प्रमुख शहर तथा भिवानी जिले का प्रमुखालय है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हरियाणा का सबसे बड़ा जिला हुआ करता था, परन्तु चरखी दादरी भिवानी से अलग होकर एक नया जिला बन गया जिसके कारण अब सिरसा जिला सबसे बड़ा जिला बन गया है। यह प्रदेश अपने ऐतिहासिक तथा धार्मिक दृष्टव्य स्थलों के लिए प्रसिद्द है। इसके अलावा, भिवानी नगर शिक्षा, चिकित्सा एवं खेल कूद के लिए भी जाना जाता है। भिवानी हरियाणा के तीन मुख्यमंत्रियों की जन्मस्थली रह चुका है, चौ॰ बंसीलाल, बाबू गुप्ता एवं हुकुम चंद। भिवानी जिले को 22 दिसम्बर 1972 को हिसार से अलग कर दिया गया था। इस में छ: तहसील हैं - भिवानी, बवानी खेड़ा, तोशाम, चरखी दादरी, लोहारू और सिवानी। वर्त्तमान में चरखी दादरी को नया जिला बना दिया गया है भिवानी के उत्तर में हिसार, पूर्व में रोहतक, दक्षिण में महेंद्रगढ़, दक्षिण पूर्व में रेवाड़ी तथा पशिम और दक्षिण पश्चिम में राजस्थान है। ये हरियाणा के सबसे नीचे जल स्तर के जिलों में आता है। खासकर लोहारू और चरखी दादरी की ओर पानी की अत्यधिक कमी है। शिक्षा शिक्षा के मामले में भिवानी बहुत उन्नत शहर है। यहाँ हरियाणा शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय स्थापित है। इसके अलावा भिवानी में लगभग दस प्रौद्योगिकी संस्थान है जिनमें से Technological Institute of Textiles and Sciences तो पूरे उत्तर भारत में अपने जैसा अकेला है। तत्पश्चात यहाँ के अनेक और महाविद्यालय भिवानी की महिमा बढा रहे हैं। यहाँ के अधिकतर महाविद्यालय महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय से संलग्न हैं। शहर के प्रमुख विद्यालयों में हलवासिया विद्या विहार, उत्तमी बाई, भिवानी पब्लिक स्कूल, वैश्य मॉडल, वैश्य सीनिअर, बाल भवन और डी॰ए॰वी॰ स्कूल उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा, दादरी के डी॰आर॰के॰, आर॰ई॰डी॰ और एपीजे तथा बहल के बी॰आर॰सी॰एम॰ भी प्रसिद्द हैं। देश का विख्यात औद्योगिक महाविद्यालय, BITS पिलानी (राजस्थान) भिवानी से अधिक दूरी पर नहीं है तथा वहाँ अनेक विद्यालय शैक्षिक भ्रमण पर अपने छात्रों को ले जाते हैं। उद्योग और व्यापार यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र भी है, जिसका अधिकांश व्यापार राजस्थान राज्य के साथ होता है। कपास की ओटाई एवं धुनाई, तेल की मिलें एवं निर्माण की लघु इकाईयां यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं। यातायात भिवानी यातायात के ज़रिये आस पास के सम्पूर्ण क्षेत्र से भली भाँती जुड़ा हुआ है। हाल ही में भिवानी के बस अड्डे को शहर के भीड़ भाड़ से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया है जिससे सड़क यातायात और भी सुगम हो गया है। भिवानी से मुख्यतः पाँच तरफ सड़कें निकलती हैं, हिसार, तोशाम, लोहारू, चरखी दादरी और रोहतक। देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए लगभग हर समय सड़क और रेल यातायात उपलब्ध है। भिवानी एक बड़ा रेल-जंक्शन है और यहाँ से तीन दिशाओं में रेलवे लाइन निकलती हैं जिनमें से एक उत्तर की ओर जाती हुयी पंजाब चली जाती है। यहाँ किसी समय पर एक हवाई अड्डा भी बनाया गया था जो आज कल बंद है। भिवानी शहर से निकलने वाली रेलगाड़ियों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें। इतिहास आईने-अकबरी में भिवानी का ज़िक्र मिलता है। कहा जाता है की ये नगर राजपूत राजा नीम ने अपनी रानी भानी के नाम पर बसाया था। कालांतर में इसका नाम स्थानीय बोली के अनुरूप बिगड़ कर भ्याणी और बाद में भिवानी पड़ गया। परन्तु कुछ लोगों का मानना है की यहाँ हिन्दू धर्म की देवी माता भवानी ने अपने चरण रखे थे और उससे इसका नाम बिगड़ कर भिवानी पड़ा। मुग़ल काल में यह एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक नगर था और आज भी हरियाणा और राजस्थान के बीच उद्योग का केंद्र है। लोग भिवानी की अधिकांश जनसंख्या हिन्दू धर्म का अनुसरण करती है। इनमें से भी अधिकतर जाट सम्प्रदाय के लोग है। तत्पश्चात राजपूत, खाती बनिए, ब्रह्मण आदि जातियां भी भिवानी में प्रमुख है। मुस्लिम लोगों की जनसंख्या तुलनात्मक रूप से कम है परन्तु नगण्य नहीं है। विविधता होने के बावजूद यहाँ कभी धर्म अथवा जाती को लेकर कोई ख़ास मतभेद नहीं हुआ है। अपितु लोग समभाव एवं भाईचारे का प्रतीक चिह्न हैं। भिवानी की कार्यालयी भाषा हिंदी है तथा बोली हरियाणवी है। कुछ लोग यहाँ शुद्ध हिंदी भी बोलते हैं और कहीं कहीं उर्दू का भी प्रभाव देखने को मिलता है। भिवानी में एक बड़ी जनसंख्या में बिहार तथा उत्तर प्रदेश से लोगों का आप्रवासन होता है जो रोज़गार के लिए यहाँ आते हैं। भिवानी का सामान्य पहनावा पुरुषों में कुर्ता-पजामा, धोती, पैंट-शर्ट, तथा सर पर खंडूवा है। स्त्रियाँ कमीज़, दामन, सूट, सलवार, तथा कुर्ती पहनती हैं। विवाह के अवसर पर सामान्यतः बड़े बुजुर्ग पारंपरिक पहनावे में आते हैं। समय के साथ भिवानी में भी हरियाणा के अन्यत्र स्थानों की भांति पाश्चात्य पहनावा प्रचलित होता जा रहा है। जैसे पुरुषों में जींस आदि तथा स्त्रियों में टॉप आदि। भिवानी के लोग अत्यधिक धार्मिक होते हैं तथा कुछ हद तक कट्टरपंथी हिंदुत्व का अनुसरण करते हैं। अधिकांश राजपूत तथा जाट घरों में आज भी मांसाहार को त्यज समझा जाता है तथा सुध्ह एवं सात्विक जीवन बिताया जाता है। धर्म भिवानी को मंदिरों का नगर और भारत की छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ मंदिरों की अधिकता बहुत ज्यादा है। इनमें से शहर के बीचो-बीच स्थापित घंटाघर का मंदिर और नज़दीक के गाँव देवसर का मंदिर बहुत प्रसिद्द हैं। इसके पश्चात, बैंक कालोनी में उपस्थित ब्यास राधा-स्वामी भी धार्मिक पीठ है जहाँ लोग दूर दूर से सत्संग के लिए आते हैं। भारत का प्रतिनिधित्व किया और मेडल भी जीते। स्व॰ कप्तान हवा सिंह की याद में बनाया गया बोक्सिंग ट्रेनिंग सेंटर देश को अच्छे खिलाडी प्रदान कर रहा है। इसके अलावा SAI (Sports Authority of India) का छात्रावास भिवानी में ही स्थित है। भिवानी का बहु-उद्देश्यीय खेल परिसर "भीम स्टेडियम" भी विख्यात है जिसमें तैराकी, क्रिकेट, फूटबाल, बास्केटबाल, वोलीबाल, जिम्नास्टिक, एथलेटिक्स, बॉक्सिंग, आदि हर प्रकार के भीतरी और बाहरी खेलों के उपकरणों से लैस सुविधायें युवाओं को उपलब्ध करायी जाती हैं। अपने बॉक्सर खिलाड़ियों की अधिकता की वजह से भिवानी को छोटा क्यूबा भी कहा जाता है। जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार इस शहर की जनसंख्या 1,69,424 है, इस ज़िले की कुल जनसंख्या 14,24,554 है। हरियाणा के शहर भिवानी ज़िला भिवानी के लोग भिवानी ज़िले के नगर
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कैथल हरियाणा प्रान्त का एक महाभारत कालीन ऐतिहासिक शहर है। इसकी सीमा करनाल, कुरुक्षेत्र, जीन्द और पंजाब के पटियाला जिले से मिली हुई है। पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना युधिष्ठिर ने की थी। इसे वानर राज हनुमान का जन्म स्थान भी माना जाता है। इसीलिए पहले इसे कपिस्थल के नाम से जाना जाता था। आधुनिक कैथल पहले करनाल जिले का भाग था। लेकिन 1973 ई. में यह कुरूक्षेत्र में चला गया। बाद में हरियाणा सरकार ने इसे कुरूक्षेत्र से अलग कर 1 नवम्बर 1989 ई. को स्वतंत्र जिला घोषित कर दिया। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 152 पर स्थित है। इतिहास कैथल से कई ऐतिहासिक और पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। पुराणों के अनुसार, पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना युधिष्ठिर ने की थी तथा इसे वानर राज हनुमान का जन्म स्थान माना जाता है। इस कारण से इस नगर का प्राचीन नाम कपिस्थल पड़ा, जो कालांतर में कैथल हो गया। वैदिक सभ्यता के समय में कपिस्थल कुरू साम्राज्य का एक प्रमुख भाग था जैसा कि मानचित्र में देखा जा सकता है। इतिहास के अनुसार यह भारत की पहली महिला शासक रजिया सुल्तान (इल्तुतमिश की पुत्री) के साम्राज्य का एक भाग था। 13 नवंबर 1240 को रजिया यहीं मृत्यु को प्राप्त हुई। दिल्ली में विद्रोह के बाद रजिया सुल्तान को वहाँ से भागना पड़ा। कैथल में दिल्ली की व्रिदोही सेनाओं ने उसे पकड़ लिया और एक भयंकर युद्ध में रजिया सुल्तान मारी गई थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार यहाँ के स्थानीय लोगों ने उसे मार डाला था। मृत्यु के बाद उन्हें यहीं दफना दिया गया और आज भी उसकी कब्र यहाँ मौजूद है। रजिया सुल्तान के अलावा इस पर सिक्ख शासकों का शासन भी रहा है। यहाँ के शासक देसू सिंह को सिख गुरु हर राय जी ने सम्मानित किया था जिसके बाद यहाँ के शासकों को "भाई" की उपाधि से संबोधित किया जाने लगा। सन् 1843 तक कैथल पर भाई उदय सिंह का शासन रहा जो कि यहाँ के आंतिम शासक साबित हुए। १४ मार्च १८४३ को उनकी मृत्यु हुई। १० अप्रैल १८४३ को अंग्रेजों ने यहाँ पर हमला कर दिया। भाई उदय सिंह की माता साहब कौर तथा उनकी विधवा पत्नी सूरज कौर ने वीर योद्धा टेक सिंह के साथ अंग्रेजों से संघर्ष किया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। किन्तु ५ दिन के पश्चात् पटियाला के महाराजा ने अपना समर्थन वापिस ले लिया औेर १५ अप्रैल १८४३ को कैथल ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हो गया। टेक सिंह को काले पानी की सज़ा सुनाई गई। कैथल का किला पुराना शहर एक किले के रूप में है। किले के चारों ओर सात तालाब तथा आठ दरवाजे हैं। दरवाजों का नाम है - सीवन गेट, माता गेट, प्रताप गेट, डोगरा गेट, चंदाना गेट, रेलवे गेट, कोठी गेट, क्योड़क गेट। कैथल से 3 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव प्यौदा स्थित है जिसने भाई साहब को कर देने से मना कर दिया था और बुजुर्गों की एक कहावत भी है इसमें भाई साहब की मां कहती थे की बेटा पैर पेशार ले फिर भाई साहब कहते थे की मां पैर कैसे पेशारू आगे प्यौदा अडा है? गांव प्यौदा ने भाई साहब को कर नहीं दिया था जनसांख्यिकी 2001 की जनगणना के अनुसार इस शहर की जनसंख्या 1,17,226 और इस ज़िले की कुल जनसंख्या 9,45,631 है। प्रशासन कैथल जिले में चार तहसील हैं - कैथल, गुहला, पुंडरी व कलायत। राजौंद, ढांड व सीवन उप-तहसील हैं। कैथल जिले में कुल २७७ गाँव तथा २५३ पंचायत हैं। अर्थव्यवस्था यहाँ कृषि में गेहूँ और चावल की प्रधानता है। अन्य फ़सलों में तिलहन, गन्ना और कपास शामिल हैं। कैथल के उद्योगों में हथकरघा बुनाई, चीनी और कृषि उपकरणों का निर्माण शामिल है। शिक्षा कैथल में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से संबद्ध कई महाविद्यालय हैं। जिनमें हरियाणा कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट और आर.के.एस. डी. कॉलेज शामिल हैं। 2018 में कैथल जिले में स्थित मुंदड़ी गाँव में महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। आवागमन वायु मार्ग कैथल के सबसे नजदीक चण्डीगढ़ तथा दिल्ली हवाई अड्डा है। चण्डीगढ़, दिल्ली से पर्यटक कार, बस और टैक्सी द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग 65 व राष्ट्रीय राजमार्ग 1 द्वारा आसानी से कैथल तक पहुंच सकते हैं। रेल मार्ग रेलमार्ग से कैथल पहुंचने के लिए पर्यटकों को पहले कुरूक्षेत्र (दिल्ली - अंबाला मार्ग) या नरवाना (दिल्ली - जाखल मार्ग) आना पड़ता है। कुरूक्षेत्र से नरवाना रेलमार्ग से कैथल रेलवे स्टेशन तक पहुंच सकते हैं। सड़क मार्ग दिल्ली से पर्यटक कार, बस और टैक्सी द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग 1 द्वारा करनाल तक, तदुपरांत कैथल तक पहुंच सकते हैं। चण्डीगढ़ से राष्ट्रीय राजमार्ग 65 से सीधा कैथल तक पहुंच सकते हैं। पंजाब से संगरुर व पटियाला से भी सड़क मार्ग द्वारा कैथल तक आ सकते हैं। अगस्त 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैथल-राजगढ़ हाईवे के निर्माण कार्य का शिलान्यास किया जो कि 166 किलोमीटर लंबा होगा तथा इसकी लागत 1394 करोड़ रुपए आएगी तथा इसे ३० महीनों में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। कलायत, नरवाना, बरवाला, हिसार और सिवानी से गुज़रने वाले इस हाईवे में 23 अंडरपास और लगभग 21 किलोमीटर लंबी सर्विस रोड होगी। पर्यटन अंजनी का टीला कैथल को हनुमान का जन्मस्थल माना जाता है। हनुमान की माता अंजनी को समर्पित अंजनी का टीला यहाँ के दर्शनीय स्थानों में से एक है। बिदक्यार (वृद्ध केदार) झील वामन पुराण में वर्णित वृद्ध केदार तीर्थ को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। कालांतर में इसका नाम बिगड़कर बिदक्यार हो गया है। कई वर्षों तक उपेक्षित पड़ी रही इस झील को आजकल एक सुंदर रूप प्रदान करके एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है। झील की सैर करना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है क्योंकि वह यहां पर शानदार पिकनिक मना सकते हैं। नवग्रह कुंड वृद्ध केदार झील किसी विशेष आकार में नहीं है। यह कई ओर से पुराने शहर (किले) को घेरे हुए है और कई स्थानों पर किले से दूर स्वतंत्रतापूर्वक फैली हुई है। इसके विभिन्न तटों, किनारों व कोनों पर कई मंदिर एवं घाट हैं जिनमें नवग्रह कुंड विशिष्ट स्थान रखते हैं। जो सूर्य कुंड, चंद्र कुंड, मंगल कुंड, बुध कुंड, बृहस्पति कुंड, शुक्र कुंड, शनि कुंड, राहु कुंड, और केतु कुंड है। ग्यारह रुद्री मंदिर ग्यारह रुद्री मंदिर भी यहाँ का एक प्रमुख आकर्षण है जिसकी गणना प्रसिद्ध तीर्थ कुरुक्षेत्र की ४८ कोस भूमि की परिक्रमा के अंतर्गत होती है। रजिया सुल्तान की कब्र रजिया सुल्तान की कब्र यहाँ मौजूद है। उनकी कब्र बहुत खूबसूरत है और इसके पास एक मस्जिद भी बनी हुई है। बाद में सम्राट अकबर ने उनकी कब्र को दोबारा बनवाया और इसके पास एक किले का निर्माण भी कराया था। पर्यटकों में यह स्थान बहुत लोकप्रिय है। इसे देखने के लिए पर्यटक दूर-दराज से यहां आते हैं। फ़्ल्गू ॠषि तीर्थ कैथल में स्थित फल्गू ऋषि तालाब बहुत खूबसूरत है। यह तालाब ऋषि फलगू को समर्पित है। यह फरल गाँव मे स्थित है। इसके पास पुन्डरी तालाब भी है। यह तालाब महाभारत कालीन है। तालाबों के पास कई खूबसूरत मन्दिर भी हैं जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इनमें सरस्वती मन्दिर, कपिल मुनि मन्दिर, बाबा नारायण दास मन्दिर प्रमुख हैं। इनके अलावा पर्यटक यहां पर शाह विलायत, शेख शहिबुद्दीन और शाह कमाल की कब्रें भी देख सकते हैं। ईंटों से बने मन्दिर खजुराहो के मंदिरों की शैली में बने ईंटों के मन्दिर कैथल के निकट कलायत में स्थित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार 7वीं शताब्दी में यहां पर राजा शालिवाहन का राज था। उसे श्राप मिला था कि वह रात में मर जाएगा, लेकिन किसी कारणवश वह नहीं मरा और श्राप से भी मुक्त हो गया। तब राजा ने खुश होकर यहां पर पांच मन्दिरों का निर्माण कराया था। अब इन पांच मन्दिरों में से केवल दो मन्दिर बचे हुए हैं जो कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अनुरक्षित हैं। यह मन्दिर बहुत खूबसूरत हैं। इन मन्दिरों को देखने के लिए दूर-दराज से पर्यटक आते हैं। गुरुद्वारा नीम साहिब कैथल में कई गुरुद्वारे हैं जिनमें गुरूद्वारा नीम साहिब, गुरूद्वारा टोपियों वाला और सिटी गुरूद्वारा प्रमुख हैं। यह सभी गुरूद्वारे बहुत खूबसूरत हैं और गुरूद्वारा टोपियों वाला शहर के बीच स्थित, सामाजिक सद्भाव के जीवंत उदाहरण, इस गुरूद्वारे में रामायण तथा गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ एक साथ होता है। प्रसिद्ध व्यक्तित्व शमशेर सिंह सुरजेवाला, प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ मनोज कुमार (मुक्केबाज़), कॉमनवेल्थ खेलों के स्वर्ण पदक विजेता मुक्केबाज चरणदास शोरेवाला, हरियाणा के भूतपूर्व वित्तमंत्री जय प्रकाश, हरियाणा के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, चौदहवीं लोकसभा के सांसद परम बीर सिंह, भूतपूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर सन्दर्भ Official site of the Kaithal District administration : https://web.archive.org/web/20051211025029/http://kaithal.nic.in/ https://web.archive.org/web/20071215014638/http://www.thedelhicity.com/DelhiGuide/Dgu_mem/raziaya_sultans_tomb.htm https://web.archive.org/web/20150416175757/http://kaithal.nic.in/history.htm कैथल कैथल कैथल कैथल ज़िला कैथल ज़िले के नगर
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रेवाड़ी (Rewari) भारत के हरियाणा राज्य के रेवाड़ी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। नामोत्पत्ति और इतिहास रेवाड़ी अपने आप में बहु आयामी प्रतिभाओ, महान कलाकारों, कवियों, साहित्यकारों, शूरवीरो, धार्मिक स्थलों, शैक्षणिक प्रतिष्ठानों, प्रकृतिं सौंदर्य से ओतप्रोत दक्षिणी हरियाणा का एक ऎसा स्थान है जहाँ आकर मन को सुकून और पवित्रता का बोध होता है। प्राचीन भारत में महाभारत काल के दौरान, रेवत नामक एक राजा था जिसकी पुत्री का नाम रेवती था।उसे सब रेवा कहकर बुलाते थे और उसके नाम पर एक शहर 'रेवा वाडी' नामक एक शहर की स्थापना की थी। वाडी और वाडा का मतलब हिंदी में पड़ोस (छोटे और बड़े, क्रमशः) और कई अन्य भारतीय भाषाओं में है। जब रेवा ने श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी से शादी की, तब राजा ने अपनी बेटी को 'रेवा वाडी' दान दिया। समय के दौरान, 'रेवा वाडी' का नाम रेवाड़ी बन गया। मन्यता है कि बलराम भगवान की राजधानी और उनके बाद कृष्ण भगवान के प्रपौत्र महाराज बज्रभान नेे यदुवंशी शासन को आगे बढ़ाया। रेवाड़ी एक ऐतिहासिक शहर है। जो खाने के हिसाब से यहाँ की रेवड़ियाँ बहुत मशहूर हैं। यहाँ पर भारत की सबसे पहली गौशाला सन1878 में बनाई गई थी जो कि राजा राव युधिष्ठिर यादव द्वारा बनाई गई थी। यहां पे जाने माने कलाकार अक्षय कुमार जिनागल भी रहते हैं। इन्हें भी देखें रेवाड़ी ज़िला रेवाड़ी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, हरियाणा सन्दर्भ हरियाणा के शहर रेवाड़ी ज़िला रेवाड़ी ज़िले के नगर
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बहादुरगढ़ (Bahadurgarh) भारत के हरियाणा राज्य के झज्जर ज़िले में स्थित एक नगर है। विवरण बहादुरगढ़ दिल्ली के टिकरी बॉर्डर से केवल 2 किलोमीटर आगे हरियाणा के झज्जर जिले में स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का एक मुख्य औद्योगिक शहर है। बहादुरगढ में हरियाणा सरकार द्वारा स्थापित हरियाणा राज्य औद्योगिक और बुनियादी ढांचा विकास निगम (एचएसआईआईडीसी) के दो सेक्टर है। शहर में हुडा के 6 रिहायशी सेक्टर हैं। बहादुरगढ एनसीआर का एक विकासशील शहर है। बहादुरगढ़ शहर मे मैटरो रेल कि सुविधा भी है जोकी इसे दिल्ली राजधानो क्षेत्र से जोड़ती है। इन्हें भी देखें झज्जर ज़िला सन्दर्भ हरियाणा के शहर झज्जर ज़िला झज्जर ज़िले के नगर दिल्ली के नगर
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नारीवाद, समाजिक और राजनैतिक आन्दोलनों तथा विचारधाराओं की एक श्रेणी है, जो राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से लैंगिक समानता को परिभाषित करने, स्थापित करने और प्राप्त करने के एक लक्ष्य को साझा करते हैं। प्रसिद्ध स्त्रीवादी चिंतक कवि गोलेन्द्र पटेल ने नारीवाद के संदर्भ में कहा है कि “स्त्री-दृष्टि में स्त्री-विमर्श वह मानवीय चिंतन धारा है जो स्त्री-चेतना को जागृत कर , उसकी स्वतंत्रता की वकालत करती है , इसे ही स्त्री की भाषा में नारीवाद कहते हैं। नारीवाद की यह धारणा है कि समाज, पुरूष-दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता है और इन पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय होता है। इसका लक्ष्य महिलाओं के लिए पुरुषों के समान शैक्षिक, वृत्तिक और पारस्परिक अवसर और परिणाम स्थापित करना शामिल है जो पुरुषों के समान हो। नारीवादी सिद्धांतों का उद्देश्य लैंगिक असमानता की प्रकृति एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति और शक्ति संतुलन के सिद्धांतों पर इसके असर की व्याख्या करना है। स्त्री विमर्श संबंधी राजनैतिक प्रचारों का ज़ोर, प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा पर रहता है। स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि कानूनी अधिकारों का आधार लिंग न बने। आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं। हालाँकि ज़मीनी स्तर पर स्त्रीवादी विमर्श हर देश एवं भौगोलिक सीमाओं मे अपने स्तर पर सक्रिय रहती हैं और हर क्षेत्र के स्त्रीवादी विमर्श की अपनी खास समस्याएँ होती हैं। सिद्धान्त नारीवादी सिद्धांत, सैद्धांतिक या दार्शनिक क्षेत्रों में नारीवाद का विस्तार है। इसमें नृविज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, महिला अध्ययन, साहित्यिक आलोचना,, कला इतिहास, मनोविश्लेषण और दर्शन जैसे कई अंतर्गत विषय शामिल है। नारीवादी सिद्धांत का लक्ष्य लैंगिक असमानता को समझना है और लैंगिक राजनीति, शक्ति संबंधों और लैंगिकता पर ध्यान केंद्रित करना है। इन सामाजिक और राजनीतिक संबंधों की आलोचना करते हुए, नारीवादी सिद्धांत का ज्यादातर हिस्सा महिलाओं के अधिकारों और हितों को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। नारीवादी सिद्धांत में खोजे गए विषयों में भेदभाव, रूढ़िवादिता, वस्तुनिष्ठता (विशेष रूप से यौन वस्तुकरण), उत्पीड़न और पितृसत्ता शामिल हैं। साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में, ऐलेन शोलेटर ने तीन चरणों वाले नारीवादी सिद्धांत के विकास का वर्णन किया है। पहले वह "नारीवादी आलोचना" कहती है, जिसमें नारीवादी पाठक साहित्यिक घटनाओं के पीछे की विचारधाराओं की जांच करती है। दूसरे को शॉल्डर "गाइनोक्रिटिसिज्म" कहती है, जिसमें "महिला पाठात्मक अर्थ की निर्माता है"। आखिरी चरण को वे "लिंग सिद्धांत" कहती है, जिसमें "वैचारिक शिलालेख और यौन/लिंग प्रणाली के साहित्यिक प्रभाव का पता लगाया जाता है"। यह 1970 के दशक में फ्रांसीसी नारीवादियों द्वारा लिखा गया था, जिन्होंने क्रीचर फेमिनाइन (जो 'महिला या स्त्री लेखन' के रूप में अनुवादित है) की अवधारणा विकसित की थी। हेलेन सिक्सस का तर्क है कि लेखन और दर्शन एक दूसरे के साथ-साथ फुलेउरेंथ्रिक हैं और अन्य फ्रांसीसी नारीवादियों जैसे लुस इरिगेराय ने "शरीर से लेखन" को एक विध्वंसक अभ्यास के रूप में महत्व दिया है। एक नारीवादी मनोविश्लेषक और दार्शनिक, और ब्राचा एटिंगर, कलाकार और मनोविश्लेषक, जूलिया क्रिस्टेवा के काम ने विशेष रूप से नारीवादी सिद्धांत को प्रभावित किया है और विशेष रूप से नारीवादी साहित्यिक आलोचना। हालांकि, जैसा कि विद्वान एलिजाबेथ राइट बताते हैं, "इनमें से कोई भी फ्रांसीसी नारीवादी खुद को नारीवादी आंदोलन के साथ संरेखित नहीं करती है जैसा कि अंग्रेजीभाषी दुनिया में दिखाई दिया था"। अधिकतर हालिया नारीवादी सिद्धांत, जैसे कि लिसा ल्यूसिल ओवेन्स द्वारा नारीवाद को सार्वभौमिक मुक्ति आंदोलन के रूप में चित्रित करने पर ध्यान केंद्रित किया है। नारीवादी आन्दोलन और विचारधाराऐं कई अतिव्यापी नारीवादी आंदोलनों और विचारधाराओं ने वर्षों में विकसित हुये है। राजनैतिक आन्दोलन नारीवाद की कुछ शाखाएँ बृहद समाज के राजनीतिक झुकाव को बारीकी से नजर रखती हैं, जैसे उदारवाद और रूढ़िवाद, या पर्यावरण पर ध्यान केंद्रण। उदारवादी नारीवाद, समाज की संरचना को बदले बिना राजनीतिक और कानूनी सुधार के माध्यम से पुरुषों और महिलाओं की व्यक्तिवादी समानता की तलाश करता है। (कैथरीन रोटेनबर्ग) ने तर्क दिया है कि उदारवदी नारीवाद में नवउदारवादी चोले द्वारा नारीवाद के उस स्वरूप को सामूहिकता के बजाय व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग किया जा रहा है और सामाजिक असमानता से अलग हो रहे है। इसके कारण वह तर्क देती है कि उदारवादी नारीवाद पुरुष प्रभुत्व, शक्ति या विशेषाधिकार की संरचनाओं के किसी भी निरंतर विश्लेषण की पेशकश नहीं कर सकता है। भौतिकवादी विचारधारा रोज़मेरी हेनेसी और क्रिस इंग्राहम का कहना है कि नारीवाद का भौतिकवादी रूप पश्चिमी मार्क्सवादी विचार से विकसित हुआ हैं, और कई अलग-अलग (लेकिन अतिव्यापी) आंदोलनों के लिए प्रेरित किया है, जो सभी पूंजीवाद की आलोचना में शामिल हैं और महिलाओं के लिए विचारधारा के संबंधों पर केंद्रित हैं। मार्क्सवादी नारीवाद का तर्क है कि पूंजीवाद महिलाओं के उत्पीड़न का मूल कारण है, और घरेलू जीवन और रोजगार में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पूंजीवादी विचारधाराओं का एक परिणाम है। अफ्रीकी-मूल की और उत्तर-औपनिवेशिक विचारधाराएँ सारा अहमद का तर्क है कि अफ्रीकी मूल का और उत्तर-औपनिवेशिक नारीवाद "पश्चिमी नारीवादी विचार के कुछ आयोजन परिसरों" के लिये एक चुनौती पेश करती है। अपने अधिकांश इतिहास के दौरान, पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका की मध्यम वर्ग की श्वेत महिलाओं द्वारा नारीवादी आंदोलनों और सैद्धांतिक विकास का नेतृत्व किया गया था। हालाँकि अन्य जातियों की महिलाओं ने वैकल्पिक नारीवाद का प्रस्ताव रखा है। 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन और अफ्रीका, कैरिबियन, लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों और दक्षिण पूर्व एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद के पतन के साथ इस प्रवृत्ति में तेजी आई। उस समय से, विकासशील देशों और पूर्व उपनिवेशों में रहने वाली महिलाएं, जो रंग या विभिन्न जातीयता की हैं या गरीबी में रह रही हैं, ने अतिरिक्त नारीवाद का प्रस्ताव दिया है। सामाजिक निर्माणवादी विचारधाराएँ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विभिन्न नारीवादियों ने तर्क दिया कि लिंग की भूमिका सामाजिक रूप से निर्मित है, और यह कि संस्कृतियों और इतिहासों में महिलाओं के अनुभवों को सामान्य बताना असंभव है। उत्तर-संरचनात्मक नारीवाद, उत्तर-संरचनावाद और विखंडन के दर्शन पर बहस करने के लिए यह तर्क देता है कि लिंग की अवधारणा सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से प्रवचन के माध्यम से बनाई गई है। उत्तर आधुनिक नारीवादियों ने लिंग के सामाजिक निर्माण और वास्तविकता की विवेकी प्रकृति पर भी जोर दिया। ट्रान्सजेंडर लोग ट्रांसजेंडर लोगों पर नारीवादी विचार भिन्न हैं। कुछ नारीवादी ट्रांस महिलाओं को महिलाओं के रूप में नहीं देखते हैं, उनका मानना है कि जन्म के समय उनके लिंग के कारण उन्हें अभी भी पुरुष विशेषाधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, कुछ नारीवादी "ट्रांसजेंडरवाद" को विचारों के कारण अस्वीकार करते हैं कि लिंग के बीच सभी व्यवहारिक मतभेद समाजीकरण का परिणाम हैं। इसके विपरीत, कई नारीवादियों और ट्रांसनारीवादियों का मानना है कि लिंग परिवर्तित महिलाओं की मुक्ति नारीवादी लक्ष्यों का एक आवश्यक हिस्सा है। नारीवाद की तीसरी लहर, ट्रान्स अधिकारों का अधिक समर्थन करते हैं। ट्रांसनारीवाद में एक प्रमुख अवधारणा ट्रांसस्रीद्वेष की है, जहाँ लिंग परिवर्तित महिलाओं या स्त्रीलिंग लिंग गैर अनुरूपता के प्रति तर्कहीन डर, घृणा, या भेदभाव किया जाता है। सांस्कृतिक आन्दोलन स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप नारीवाद के छोटे पहलू साँस्कृतिक नारीवाद पर्यावरणीय नारीवाद समतामूलक नारीवाद समलैंगिक नारीवाद उदारवादी नारीवाद वैय्क्तिक नारीवाद मार्कसवादी नारीवाद अथवा समाजवादी नारीवाद भौतिक नारीवाद बहु-साँस्कृतिक नारीवाद विखंडनवादी नारीवाद आध्यात्मिक नारीवाद प्रतिक्रियाएँ लोगों के विभिन्न समूहों की नारीवाद को लेकर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया है, और इसके समर्थकों और आलोचकों में दोनों पुरुष और महिलाएं शामिल हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालय के छात्रों का, जिनमें दोनो लड़के और लड़कियाँ दोनो शामिल है, स्वंय को नारीवादी के रूप में बताने के बजाय नारीवादी विचारों को लेकर समर्थन करना अधिक सामान्य है। नारीवाद के समर्थक प्रो-फेमिनिज़्म, उन नारीवाद के समर्थन को कहते है जोकि नारीवादी आंदोलन के सदस्य नहीं होते है। इस शब्द का उपयोग अक्सर उन पुरुषों के संदर्भ में किया जाता है जो नारीवाद का सक्रिय समर्थन करते हैं। नारी-समर्थक पुरुष समूहों की गतिविधियों में स्कूलों में लड़कों और युवा पुरुषों के साथ हिंसा रोकने जैसे कार्य, कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न कार्यशालाओं की पेशकश करना, सामुदायिक शिक्षा अभियान चलाना और हिंसा में लिप्त पुरुष अपराधियों की काउंसलिंग शामिल है। प्रो-फेमिनिस्ट पुरुष, पुरुषों के स्वास्थ्य सम्बंधित कार्यक्रम जैसे: पोर्नोग्राफी के खिलाफ सक्रियता, जिसमें पोर्नोग्राफी विरोधी कानून, पुरुषों का अध्ययन और स्कूलों में लिंग इक्विटी पाठ्यक्रम का विकास आदि में भी शामिल होते है। कभी-कभी नारीवादी और महिला संगठन साथ आकर, घरेलू हिंसा और बलात्कार संकट केंद्रों में सहयोग करते है। नारीवाद विरोधी और नारीवाद की आलोचना धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद नारीवाद एवं लोक कथाएं नारीवाद एवं लोक कथाएं, महिलाओं के हक व समानता की बात करता है | जो नारी को पुरुष की भांति हक दिलाने व उनको बेहतर बनाने को प्रोत्साहित करता है| किंतु नारीवाद एवं लोक कथाएं कहीं ना कहीं कठपुतली की भांति कार्य करती है | नारी को कैसा होना चाहिए, कितनी समानता चाहिए और नारी को पुरुषों के समान अधिकार की बात कही जाती है | लोक कथाएं भी नारी की चेतना को जगाने के लिए अन्य नारियों की कथाएं समाज में सुनाई जाती हैं | ताकि उन्हें भी उन सा बनने की प्रेरणा मिले, किंतु भविष्य की नारियों के अपने भी सपने हो सकते हैं | जो उन परिस्थितियों की महिलाओं से भिन्न हो | नारियों के साथ कठपुतली जैसा व्यवहार कब तक ! माता-पिता की परवरिश में समानता होने से ही कहीं ना कहीं ऐसी असमानता खत्म हो सकती है | इसकी शुरुआत अपने घर परिवार से किया जाना चाहिए | इतिहास हमें गलतियां ना दोहराने और उनसे कुछ सीखने की शिक्षा देता है , न कि उसे जीने की शिक्षा देता है | महिलाओं को नारीवाद शब्द के द्वारा समाज में अधिकार दिलाने की बात रखी जा रही है तथा उनकी तुलना पुरुषों से भी की जा रही है | पुरुषों के समान उनकी अभिव्यक्ति कहां तक जायज है , इसलिए उन्हें स्वयं को समझने और आत्मनिर्भर बनने के लिए किसी खाके की नहीं खुले विचार की आवश्यकता है | हमारा ध्यान यहां केंद्रित होना चाहिए की भोजन शिक्षा और नौकरी यह सभी मनुस्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में निहित है | यदि हम इन्हीं में उलझे रहे तो समाज में नारी के सम्मान की चर्चा कब करेंगे ? नारी को हमेशा पुरुषों के खाके में रखकर सम्मान और अधिकार क्यों दिलाना, जबकि दोनों प्राकृतिक रूप से सामान है | अब वक्त यह समझने का है कि स्त्री - पुरुष की अपनी प्रकृति हैं | ना की किसी एक से प्रकृति का सृजन होता है | समाज का सृजन नारी - पुरुष के सामान होने से हुआ | किसी एक के बिना समाज अधूरा है | इसलिए महिलाओं को महिला रहने दिया जाए तथा पुरुष के समान तुलनात्मक रूप ना दिया जाए | तब नारीवाद सशक्त होगा और लोककथाएं सदैव जीवंत व जाग्रत होंगी जो समाज को आगे बढ़ने में गति प्रदान करेगा | महिला - पुरुष मनुष्य हैं और शारीरिक और मानसिक रूप से भिन्न तो उनकी तुलना करना ही क्यों है ? यहां समानता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, एक महिला को महिला के रूप में किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा समाज में उनका अपना क्या दायित्व है वह यह स्वयं चुन सकती हैं | सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां निम्न हैं | ‘’ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’’ इसमें एक स्त्री के शौर्य भाव को समाज में क्यों प्रस्तुत नहीं किया गया, ‘मर्दानी’ शब्द उच्च और ‘जनानी’ शब्द निम्न क्यों हो गया | तो हमें जरूरत है आज उन शब्दों के मस्तक से शौर्य का तिलक हटा सभी का करने को | ‘’ खूब लड़ी जनानी वह तो झांसी वाली रानी थी '' वीर रस का भाव सिर्फ पुरुष का नहीं स्त्री का भी हो सकता है , नारियों की पुरुषों से तुलना बंद करना होगा | नारियों की भी अपनी प्रकृति और अपनी विशेषताएं हैं , जिसे वह जीवित रखना व निखारना  चाहती हैं | नारीवाद और लोक कथाएं तब सफल होंगी , जब वह नारी को उनके रूप विशेषता और शौर्य के यशगान को नारी के संदर्भ में तुलना रहित प्रस्तुत करने लगेगा | नारी स्वरूप स्वयं का है, ना कि किसी की परछाई का रूप है | इस भाव मात्रा से अन्य मुद्दे स्वयं ही समाप्त हो जाएंगे क्योंकि तब स्त्री को एक नारी ही नहीं मनुष्य का दर्जा मिल चुका होगा , जिसकी लड़ाई वो सदियों से लड़ती आ रही है | समाज का लगभग आधा हिस्सा महिलाएं हैं| तो उन्हें मनुष्य का दर्जा मिलते ही आधी समस्या समाप्त हो जाएगी , और नारी की स्वयं की चेतना जगाने वह समाज को उस चेतना को समझने मात्र से आधी समस्या समाप्त हो जाएगी | इन्हें भी देखें प्रथम-तरंग नारीवाद द्वितीय-तरंग नारीवाद देवकी जैन साहित्य बाहरी कड़ियाँ संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ कुछ नारीवादी संगठन फेमेनिस्ट मेजोरिटी नाराल-प्रो च्वाइस अमरीका विमेन लिविंग अंडर मुस्लिम ला कमिटी फार एशियन वुमन स्त्री विमर्श पर कुछ स्रोत सन्दर्भ सामाजिक आंदोलन मई २०१३ के लेख जिनमें स्रोत नहीं हैं नारीवाद
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ज़्याक शिराक (फ़्रांसिसी: , अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि: [ʒak.ʃi.ˈʁak]) फ्राँस के राष्ट्रपति हैं। अपने राजनीतिक जीवन में वे दो बार देश के प्रधानमंत्री भी रह चुके हैं। उन्होने 1976 में अपनी पार्टी आरपीआर की स्थापना की थी और 18 वर्षों तक पेरिस के मेयर पद पर आसीन रहे। शिराक मतदाताओं के बीच लोकप्रिय रहे हैं। जनरल डि गॉल से प्रेरित होकर सार्वजनिक जीवन में आए शिराक 1960 के अंत तक वित्त मंत्री बन गए थे। और वे देश की और यूरोपीय संसदों दोनों में रह चुके हैं। खाने का विशेष शौक, दिल को छूने वाली मुस्कुराहट औरतों के साथ उनके संबंध, उनसे प्रेम करने वाली पत्नी और बेटियाँ, सूमो कुश्ती में उनका विशेष रुझान - सबने उनकी लंबे समय से लोकप्रिय छवि बनाने में मदद की है। उम्र और विभिन्न कांडों के बावजूद राष्ट्रपति पद के लिए दोबारा चुना जाना उनके अनुभव भरे जीवन की सफलता का गवाह है। शिराक की नैतिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं उनका एक उपनाम है 'कमेलियन बोनापार्ट' यानि 'गिरगिट'। 1997 में बगैर किसी प्रत्यक्ष कारण के शिराक ने नेशनल असेंब्ली ख़त्म कर दी जिसकी दक्षिण पंथी बहुमत के तीन साल बाकी थे। तुरंत बाद उनके समर्थक चुनाव हार गए। और राष्ट्रपति पद के आखिरी पाँच सालों में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। ज़्याक शिराक पर पेरिस के मेयर होने के दौरान पार्टी के लिए ग़लत तरीकों से पैसे उगाहने का आरोप है। लेकिन लगातार सबूत देने की माँग को वे यह कह कर टालते रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और चाहते हुए भी राष्ट्रपति का पद उन्हे गवाही देने से रोकता है। इन्हें भी देखें सन्दर्भ टीका-टिप्पणी ग्रन्थसूची फ़्राँस के राजनीति फ्रांस के राष्ट्रपति
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लल्लेश्वरी या लल्ल-द्यद (1320-1392) के नाम से जाने जानेवाली चौदवहीं सदी की एक भक्त कवियित्री थी जो कश्मीर की शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी थीं। लल्ला का जन्म श्रीनगर से दक्षिणपूर्व मे स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था। वैवाहिक जीवन सु:खमय न होने की वजह से लल्ला ने घर त्याग दिया था और छब्बीस साल की उम्र में गुरु सिद्ध श्रीकंठ से दीक्षा ली। कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। काव्य फूल चन्द्रा द्वारा लल्लेश्वरी के कुछ वाख का अनुवाद नीचे प्रस्तुत हैः 1 प्रेम की ओखली में हृदय कूटा प्रकृति पवित्र की पवन से। जलायी भूनी स्वयं चूसी शंकर पाया उसी से।। 2 हम ही थे, हम ही होंगे हम ही ने चिरकाल से दौर किये सूर्योदय और अस्त का कभी अन्त नहीं होगा शिव की उपासना कभी समाप्त नहीं होगी !! इन्हें भी देखें रूप भवानी बाहरी कड़ियाँ ललद्यद के वाख की व्याख्या Lal Ded's Vakhs, Verses 1-65 Lal Ded's Vakhs, Verses 66-138 सन्दर्भ विस्तृत पठन लल्ला योगेश्वरी, आनंद कौल, इंडियन ऐन्टीक्वायरी से पुनर्मुद्रण, भाग. L, LIX, LX, LXI, LXII. लल्ला-वाक्यानि, सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियरसन एवं डॉ॰ लियोनल डी.बार्नेट, डी.लिट, (आर.ए.एस. मोनोग्राफ, भाग XVII, लंदन 1920).ISBN 1-84664-701-0. वाख लल्ला ईश्वरी, भाग I तथा II (उस्दु संस्करण :ए.के.वान्चू एवं अंग्रेज़ी : सर्वानंद चारगी, 1939). Lal Ded by Jayalal Kaul, 1973, Sahitya Akademi, New Delhi. The Ascent of Self: A Reinterpretation of the Mystical Poetry of Lalla-Ded by B. N. Parimoo, Motilal Banarsidass, Delhi. ISBN 81-208-0305-1. Lal Ded: Her life and sayings by Nil Kanth Kotru, Utpal publications, Srinagar, ISBN 81-85217-02-5. Lalleshwari : spiritual poems by a great Siddha yogini, by Swami Muktananda and Swami Laldyada. 1981, SYDA Foundation, ASIN: B000M1C7BC. Lal Ded: Her life & sayings, by Swami Laldyada. Utpal Publications, 1989, ISBN 81-85217-02-5. Naked Song, by Laldyada, Lalla, Coleman Barks (Translator), 1992, Maypop Books, ISBN 0-9618916-4-5. जयश्री ओडिन, To the other shore: Lalla's life and poetry. Hillsboro Beach: Vitasta (1999). ISBN 81-86588-06-X जयश्री ओडिन, Mystical Verses of Lalla. Delhi: Motilal Banarsidass (2009)। ISBN 9788120832558 लल्लेश्वरी पर लेखों के संग्रह हिन्दू संत कश्मीरी शैव हिन्दू कवि कश्मीरी कवि भारतीय लेखिका 1320 में जन्मे लोग १३९२ में निधन भारतीय शैव --> हिन्दू धर्म कश्मीरी साहित्यकार कश्मीर के लोग
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विक्रम सेठ (जन्म 20 जून, 1952) भारतीय साहित्य में एक जाने माने नाम है। मुख्य रूप से ये उपन्यासकार और कवि हैं। इनकी पैदाइश और परवरिश कोलकाता में हुई। दून स्कूल और टानब्रिज स्कूल में इनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इन्होंने दर्शनशास्त्र राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का अध्यन किया, बाद में इन्होंने नानजिंग विश्वविद्यालय में क्लासिकल चीनी कविता का भी अध्यन किया। उन्हें उनके चार प्रमुख उपन्यासों के लिये जाना जाता है: द गोल्डेन गेट (1986), ए सूटेबल ब्वाय (1993) सानेट एन इक्वल म्यूजिक (1999) वे भारत के सर्वोच्च न्यायलय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ के पुत्र हैं। भाषा में रुचि विक्रम सेठ ने विशेष रूप से चीनी भाषा का अध्ययन किया। सम्लैंगिकता सेठ सम्लैंगिकता का समर्थन करते हैं और वे स्वयं सम्लैंगिक हैं। कविता मैपिंग्स (1980) फ्राम हेवेन लेक (1983) द हम्बल एडमिनिस्ट्रेटर्स गार्डन (1985) आल यू हू स्लीप टुनाइट (1990), बीस्टली टेल्स (1991) थ्री चाइनीज पोएट्स (1992) द फ़्रॉग ऐण्ड द नाइटिंगेल द माउज़ ऐण्ड द स्नेक सम्मान 2007 में इन्हें भारत सरकार द्वारा भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म श्री से सम्मानित किया गया। बाहरी कड़ियाँ The Literary Encyclopedia's article on Vikram Seth सन्दर्भ पद्मश्री,2007 भारतीय अंग्रेज़ी लेखक साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत अंग्रेज़ी भाषा के साहित्यकार समलैंगिक पुरुष 1952 में जन्मे लोग जीवित लोग कोलकाता के लोग
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गोपालदास नीरज (4 जनवरी 1925 - 19 जुलाई 2018), हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक, एवं कवि सम्मेलनों के मंचों पर काव्य वाचक एवं फ़िल्मों के गीत लेखक थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया, पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। संक्षिप्त जीवनी गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, में इटावा जिले के ब्लॉक महेवा के निकट पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये। 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया। मेरठ कॉलेज ,मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे। कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा। किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। पद्म भूषण से सम्मानित कवि, गीतकार गोपालदास 'नीरज' ने दिल्ली के एम्स में 19 जुलाई 2018 की शाम लगभग 8 बजे अन्तिम सांस ली। अपने बारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है: इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में। न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥ प्रमुख कविता संग्रह हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश के अनुसार नीरज की कालक्रमानुसार प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं: संघर्ष (1944) अन्तर्ध्वनि (1946) विभावरी (1948) प्राणगीत (1951) दर्द दिया है (1956) बादर बरस गयो (1957) मुक्तकी (1958) दो गीत (1958) नीरज की पाती (1958) गीत भी अगीत भी (1959) आसावरी (1963) नदी किनारे (1963) लहर पुकारे (1963) कारवाँ गुजर गया (1964) फिर दीप जलेगा (1970) तुम्हारे लिये (1972) नीरज की गीतिकाएँ (1987) पुरस्कार एवं सम्मान गोपालदास नीरज को कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए, जिनका विवरण इस प्रकार है: विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार फिल्म फेयर पुरस्कार गोपालदास नीरज को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया- 1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चंदा और बिजली) 1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान) 1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर) इसमें वह 1970 का पुरस्कार जीते। मन्त्रीपद का विशेष दर्जा उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अभी हाल सितम्बर में ही गोपालदास नीरज को भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया था। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ कवि नीरज गोपालदास 'नीरज' हिन्दी साहित्य काव्य संकलन गोपालदास ‘नीरज’- जन्म दिवस (प्रवासी दुनिया) भारतीय कवि फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता पद्मश्री प्राप्तकर्ता पद्म भूषण हिन्दी ग़ज़लकार 1925 में जन्मे लोग उत्तर प्रदेश के लोग २०१८ में निधन
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अवुल पकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम (), जो मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति नाम से भी जाने जाते हैं, भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे। वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति, जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता (इंजीनियर) के रूप में विख्यात थे। उन्होंने सिखाया जीवन में चाहें जैसे भी परिस्थिति क्यों न हो पर जब आप अपने सपने को पूरा करने की ठान लेते हैं तो उन्हें पूरा करके ही रहते हैं। अब्दुल कलाम मसऊदी के विचार आज भी युवा पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। इन्होंने मुख्य रूप से एक वैज्ञानिक और विज्ञान के व्यवस्थापक के रूप में चार दशकों तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) संभाला व भारत के नागरिक अंतरिक्ष कार्यक्रम और सैन्य मिसाइल के विकास के प्रयासों में भी शामिल रहे। इन्हें बैलेस्टिक मिसाइल और प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास के कार्यों के लिए भारत में 'मिसाइल मैन' के रूप में जाना जाता है। इन्होंने 1974 में भारत द्वारा पहले मूल परमाणु परीक्षण के बाद से दूसरी बार 1998 में भारत के पोखरान-द्वितीय परमाणु परीक्षण में एक निर्णायक, संगठनात्मक, तकनीकी और राजनैतिक भूमिका निभाई। कलाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी व विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दोनों के समर्थन के साथ 2002 में भारत के राष्ट्रपति चुने गए। पांच वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षा, लेखन और सार्वजनिक सेवा के अपने नागरिक जीवन में लौट आए। इन्होंने भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किये। प्रारंभिक जीवन 15 अक्टूबर 1931 को धनुषकोडी गाँव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्ग मुस्लिम अंसार परिवार में इनका जन्म हुआ। इनके पिता जैनुलाब्दीन न तो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे। इनके पिता मछुआरों को नाव किराये पर दिया करते थे। अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे। अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए। पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम की पंचायत के प्राथमिक विद्यालय में उनका दीक्षा-संस्कार हुआ था। उनके शिक्षक इयादुराई सोलोमन ने उनसे कहा था कि जीवन मे सफलता तथा अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिए तीव्र इच्छा, आस्था, अपेक्षा इन तीन शक्तियो को भलीभाँति समझ लेना और उन पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए। पांचवी कक्षा में पढ़ते समय उनके अध्यापक उन्हें पक्षी के उड़ने के तरीके की जानकारी दे रहे थे, लेकिन जब छात्रों को समझ नही आया तो अध्यापक उनको समुद्र तट ले गए जहाँ उड़ते हुए पक्षियों को दिखाकर अच्छे से समझाया, इन्ही पक्षियों को देखकर कलाम ने तय कर लिया कि उनको भविष्य में विमान विज्ञान में ही जाना है। कलाम के गणित के अध्यापक सुबह ट्यूशन लेते थे इसलिए वह सुबह 4 बजे गणित की ट्यूशन पढ़ने जाते थे। अब्दुल कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा जारी रखने के लिए अख़बार वितरित करने का कार्य भी किया था। कलाम ने 1950 में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलजी से अंतरिक्ष विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। स्नातक होने के बाद उन्होंने हावरक्राफ्ट परियोजना पर काम करने के लिये भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। 1962 में वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आये जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी 3 के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे जुलाई 1982 में रोहिणी उपग्रह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था। वैज्ञानिक जीवन 1972 में वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से जुड़े। अब्दुल कलाम को परियोजना महानिदेशक के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल हुआ। 1980 में इन्होंने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया था। इस प्रकार भारत भी अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन गया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी इन्हें प्रदान किया जाता है। कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी नियंत्रित प्रक्षेपास्त्र (गाइडेड मिसाइल्स) को डिजाइन किया। इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था। कलाम जुलाई 1992 से दिसम्बर 1999 तक रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहकार तथा सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव थे। उन्होंने रणनीतिक प्रक्षेपास्त्र प्रणाली का उपयोग आग्नेयास्त्रों के रूप में किया। इसी प्रकार पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण भी परमाणु ऊर्जा के साथ मिलाकर किया। इस तरह भारत ने परमाणु हथियार के निर्माण की क्षमता प्राप्त करने में सफलता अर्जित की। कलाम ने भारत के विकासस्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए एक विशिष्ट सोच प्रदान की। यह भारत सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे। 1982 में वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में वापस निदेशक के तौर पर आये और उन्होंने अपना सारा ध्यान "गाइडेड मिसाइल" के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। जुलाई 1992 में वे भारतीय रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुये। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 में पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ। राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे। इन्हें भारतीय जनता पार्टी समर्थित एन॰डी॰ए॰ घटक दलों ने अपना उम्मीदवार बनाया था जिसका वामदलों के अलावा समस्त दलों ने समर्थन किया। 18 जुलाई 2002 को कलाम को नब्बे प्रतिशत बहुमत द्वारा भारत का राष्ट्रपति चुना गया था और इन्हें 25 जुलाई 2002 को संसद भवन के अशोक कक्ष में राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई। इस संक्षिप्त समारोह में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य तथा अधिकारीगण उपस्थित थे। इनका कार्याकाल 25 जुलाई 2007 को समाप्त हुआ। अब्दुल कलाम व्यक्तिगत ज़िन्दगी में बेहद अनुशासनप्रिय थे। यह शाकाहारी थे। इन्होंने अपनी जीवनी विंग्स ऑफ़ फायर भारतीय युवाओं को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले अंदाज में लिखी है। इनकी दूसरी पुस्तक 'गाइडिंग सोल्स- डायलॉग्स ऑफ़ द पर्पज ऑफ़ लाइफ' आत्मिक विचारों को उद्घाटित करती है इन्होंने तमिल भाषा में कविताऐं भी लिखी हैं। यह भी ज्ञात हुआ है कि दक्षिणी कोरिया में इनकी पुस्तकों की काफ़ी माँग है और वहाँ इन्हें बहुत अधिक पसंद किया जाता है। {{Quote box |quoted=true |bgcolor=#F5F6CE|salign=right| quote = 2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है। यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है। इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।| source = अब्दुल कलाम|align=left|width=200px}} यूं तो अब्दुल कलाम राजनीतिक क्षेत्र के व्यक्ति नहीं थे लेकिन राष्ट्रवादी सोच और राष्ट्रपति बनने के बाद भारत की कल्याण संबंधी नीतियों के कारण इन्हें कुछ हद तक राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। इन्होंने अपनी पुस्तक इण्डिया 2020 में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। यह भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर राष्ट्र बनते देखना चाहते थे और इसके लिए इनके पास एक कार्य योजना भी थी। परमाणु हथियारों के क्षेत्र में यह भारत को सुपर पॉवर बनाने की बात सोचते रहे थे। वह विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी तकनीकी विकास चाहते थे। कलाम का कहना था कि 'सॉफ़्टवेयर' का क्षेत्र सभी वर्जनाओं से मुक्त होना चाहिए ताकि अधिकाधिक लोग इसकी उपयोगिता से लाभांवित हो सकें। ऐसे में सूचना तकनीक का तीव्र गति से विकास हो सकेगा। वैसे इनके विचार शांति और हथियारों को लेकर विवादास्पद हैं। राष्ट्रपति दायित्व से मुक्ति के बाद कार्यालय छोड़ने के बाद, कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंग, भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद, भारतीय प्रबंधन संस्थान इंदौर व भारतीय विज्ञान संस्थान,बैंगलोर के मानद फैलो, व एक विजिटिंग प्रोफेसर बन गए। भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुवनंतपुरम के कुलाधिपति, अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और भारत भर में कई अन्य शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों में सहायक बन गए। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अन्ना विश्वविद्यालय में सूचना प्रौद्योगिकी, और अंतरराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पढ़ाया। मई 2012 में, कलाम ने भारत के युवाओं के लिए एक कार्यक्रम, भ्रष्टाचार को हराने के एक केंद्रीय विषय के साथ, "मैं आंदोलन को क्या दे सकता हूँ" का शुभारंभ किया।उन्होंने यहाँ तमिल कविता लिखने और वेन्नई नामक दक्षिण भारतीय स्ट्रिंग वाद्य यंत्र को बजाने का भी आनंद लिया। कलाम कर्नाटक भक्ति संगीत हर दिन सुनते थे और हिंदू संस्कृति में विश्वास करते थे। इन्हें 2003 व 2006 में "एमटीवी यूथ आइकन ऑफ़ द इयर" के लिए नामांकित किया गया था। 2011 में आई हिंदी फिल्म आई एम कलाम में, एक गरीब लेकिन उज्ज्वल बच्चे पर कलाम के सकारात्मक प्रभाव को चित्रित किया गया। उनके सम्मान में वह बच्चा छोटू जो एक राजस्थानी लड़का है खुद का नाम बदल कर कलाम रख लेता है।2011 में, कलाम की कुडनकुलम परमाणु संयंत्र पर अपने रुख से नागरिक समूहों द्वारा आलोचना की गई। इन्होंने ऊर्जा संयंत्र की स्थापना का समर्थन किया। इन पर स्थानीय लोगों के साथ बात नहीं करने का आरोप लगाया गया। इन्हें एक समर्थ परमाणु वैज्ञानिक होने के लिए जाना जाता है पर संयंत्र की सुरक्षा सुविधाओं के बारे में इनके द्वारा उपलब्ध कराए गए आश्वासनों से नाखुश प्रदर्शनकारी इनके प्रति शत्रुतापूर्ण थे। निधन 27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंग में 'रहने योग्य ग्रह' पर एक व्याख्यान दे रहे थे जब उन्हें जोरदार कार्डियक अरेस्ट (दिल का दौरा) हुआ और ये बेहोश हो कर गिर पड़े। लगभग 6:30 बजे गंभीर हालत में इन्हें बेथानी अस्पताल में आईसीयू में ले जाया गया और दो घंटे के बाद इनकी मृत्यु की पुष्टि कर दी गई।अस्पताल के सीईओ जॉन साइलो ने बताया कि जब कलाम को अस्पताल लाया गया तब उनकी नब्ज और ब्लड प्रेशर साथ छोड़ चुके थे। अपने निधन से लगभग 9 घण्टे पहले ही उन्होंने ट्वीट करके बताया था कि वह शिलोंग आईआईएम में लेक्चर के लिए जा रहे हैं। कलाम अक्टूबर 2015 में 84 साल के होने वाले थे। मेघालय के राज्यपाल वी॰ षडमुखनाथन; अब्दुल कलाम के हॉस्पिटल में प्रवेश की खबर सुनते ही सीधे अस्पताल में पहुँच गए। बाद में षडमुखनाथन ने बताया कि कलाम को बचाने की चिकित्सा दल की कोशिशों के बाद भी शाम 7:45 पर उनका निधन हो गया। अंतिम संस्कार मृत्यु के तुरंत बाद कलाम के शरीर को भारतीय वायु सेना के हेलीकॉप्टर से शिलांग से गुवाहाटी लाया गया। जहाँ से अगले दिन 28 जुलाई को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का पार्थि‍व शरीर मंगलवार दोपहर वायुसेना के विमान सी-130जे हरक्यूलिस से दिल्ली लाया गया। लगभग 12:15 पर विमान पालम हवाईअड्डे पर उतरा। सुरक्षा बलों ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ कलाम के पार्थिव शरीर को विमान से उतारा। वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल व तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने इसकी अगवानी की और कलाम के पार्थिव शरीर पर पुष्पहार अर्पित किये। इसके बाद तिरंगे में लिपटे कलाम के पार्थि‍व शरीर को पूरे सम्मान के साथ, एक गन कैरिज में रख उनके आवास 10 राजाजी मार्ग पर ले जाया गया। यहाँ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित अनेक गणमान्य लोगों ने इन्हें श्रद्धांजलि दी। भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन के मौके पर उनके सम्मान के रूप में सात दिवसीय राजकीय शोक की घोषणा की। 29 जुलाई की सुबह वायुसेना के विमान सी-130जे से भारतीय ध्वज में लिपटे कलाम के शरीर को पालम एयर बेस पर ले जाया गया जहां से इसे मदुरै भेजा गया, विमान दोपहर तक मदुरै हवाई अड्डे पर पहुंचा। उनके शरीर को तीनों सेनाओं के प्रमुखों और राष्ट्रीय व राज्य के गणमान्य व्यक्तियों, कैबिनेट मंत्री मनोहर पर्रीकर, वेंकैया नायडू, पॉन राधाकृष्णनऔर तमिलनाडु और मेघालय के राज्यपाल के॰ रोसैया और वी॰ षडमुखनाथन ने हवाई अड्डे पर प्राप्त किया। एक संक्षिप्त समारोह के बाद कलाम के शरीर को एक वायु सेना के हेलिकॉप्टर में मंडपम भेजा गया। मंडपम से कलाम के शरीर को उनके गृह नगर रामेश्वरम एक आर्मी ट्रक में भेजा गया। अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उनके शरीर को स्थानीय बस स्टेशन के सामने एक खुले क्षेत्र में प्रदर्शित किया गया ताकि जनता उन्हें आखिरी श्रद्धांजलि दे सके।https://en.m.wikipedia.org/w/index.php?title=Special:ZeroRatedMobileAccess&from=A._P._J._Abdul_Kalam&to=http://www.thehindu.com/news/national/live-kalams-body-to-be-flown-to-rameswaram-from-delhi/article7476407.ece%3Fhomepage%3Dtrue 30 जुलाई 2015 को पूर्व राष्ट्रपति को पूरे सम्मान के साथ रामेश्वरम के पी करूम्बु ग्राउंड में दफ़ना दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी, तमिलनाडु के राज्यपाल और कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्रियों सहित 3,50,000 से अधिक लोगों ने अंतिम संस्कार में भाग लिया।https://en.m.wikipedia.org/w/index.php?title=Special:ZeroRatedMobileAccess&from=A._P._J._Abdul_Kalam&to=http://www.thehindu.com/news/nation-bids-adieu-to-abdul-kalam/article7480951.ece%3Fhomepage%3Dtrue प्रतिक्रिया कलाम के निधन से देश भर में और सोशल मीडिया में पूर्व राष्ट्रपति को श्रद्धांजलि देने के लिये अनेक कार्य किये गए। भारत सरकार ने कलाम को सम्मान देने के लिए सात दिवसीय राजकीय शोक की घोषणा की। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, गृह मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य नेताओं ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर शोक व्यक्त किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "उनका (कलाम का) निधन वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक बड़ी क्षति है। वह भारत को महान ऊंचाइयों पर ले गए। उन्होंने हमें मार्ग दिखाया।" पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिन्होंने कलाम के साथ प्रधानमंत्री के रूप में सेवा की थी। उन्होंने कहा, "उनकी मृत्यु के साथ हमारे देश ने एक महान मनुष्य को खोया है जिसने, हमारे देश की रक्षा प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया है। मैंने प्रधानमंत्री के रूप में कलाम के साथ बहुत निकटता से काम किया है। मुझे हमारे देश के राष्ट्रपति के रूप में उनकी सलाह से लाभ हुआ। उनका जीवन और काम आने वाली पीढ़ियों तक याद किया जाएगा। " दलाई लामा ने अपनी संवेदना और प्रार्थना व्यक्त की और कलाम की मौत को "एक अपूरणीय क्षति" बुला, अपना दुख व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा, "अनेक वर्षों में, मुझे कई अवसरों पर कलाम के साथ बातचीत करने का मौका मिला। वह एक महान वैज्ञानिक, शिक्षाविद और राजनेता ही नहीं, बल्कि वे एक वास्तविक सज्जन थे, और हमेशा मैंने उनकी सादगी और विनम्रता की प्रशंसा की है। मैंने सामान्य हितों के विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर हमारी चर्चाओं का आनंद लिया, लेकिन विज्ञान, अध्यात्म और शिक्षा के साथ मुख्य रूप से हमारे बीच चिंतन किया जाता था।" दक्षिण एशियाई नेताओं ने अपनी संवेदना व्यक्त की और दिवंगत राजनेता की सराहना की। भूटान सरकार ने कलाम की मौत के शोक के लिए देश के झंडे को आधी ऊंचाई पर फहराने के लिए आदेश दिया, और श्रद्धांजलि में 1000 मक्खन के दीपक की भेंट किए। भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने कलाम के प्रति अपना गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा, "वे एक महान नेता थे जिनकी सभी ने प्रशंसा की विशेषकर भारत के युवाओं के वे प्रशंसनीय नेता थे जिन्हें वे जनता का राष्ट्रपति बुलाते थे।" बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी व्याख्या करते हुए कहा, "एक महान राजनेता प्रशंसित वैज्ञानिक और दक्षिण एशिया के युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत के संयोग" उन्होंने कलाम की मृत्यु को "भारत के लिए अपूरणीय क्षति से भी परे बताया।" उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सबसे प्रसिद्ध बेटे, पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर हमें गहरा झटका लगा है। ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम अपने समय के सबसे महान ज्ञानियों में से एक थे। वह बांग्लादेश में भी बहुत सम्मानित थे। उनकी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की वृद्धि करने के लिए अमूल्य योगदान के लिए वे सभी के द्वारा हमेशा याद किये जायेंगे। वे दक्षिण एशिया की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत थे जो उनके सपनों को पंख देते थे।" बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की प्रमुख खालिदा जिया ने कहा, "एक परमाणु वैज्ञानिक के रूप में, उन्होंने लोगों के कल्याण में स्वयं को समर्पित किया।"अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी, ने कलाम को, "लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणादायक शख्सियत बताया" ये नोट करते हुए "हमे अपने जीवन से बहुत कुछ सीखना है।" नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने भारत के लिए कलाम के वैज्ञानिक योगदानों को याद किया। "नेपाल ने एक अच्छा दोस्त खो दिया है और मैंने एक सम्मानित और आदर्श व्यक्तित्व को खो दिया है।" पाकिस्तान के राष्ट्रपति, ममनून हुसैन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर उनके प्रति दु: ख, शोक व संवेदना व्यक्त की। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने कहा, "कलाम दृढ़ विश्वास और अदम्य भावना के आदमी थे। मैंने उन्हें दुनिया के एक उत्कृष्ट राजनेता के रूप में देखा था। उनकी मौत भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है।" इंडोनेशियाई राष्ट्रपति सुसीलो बम्बनग युधोयोनो, मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक, सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग , संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायद अल नहयान सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय नेताओं, , और संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और दुबई के शासक ने भी कलाम को श्रद्धांजलि अर्पित की। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत सरकार, भारत के सभी लोगों के लिए और मृतक नेता ले प्रियजनों के लिए अपनी गंभीर संवेदना व्यक्त की और अपनी सहानुभूति और समर्थन से अवगत कराते हुए कहा, "कलाम को हमारे देशों के बीच लगातार मैत्रीपूर्ण संबंधों के एक प्रतिपादक के रूप में याद किया जाएगा, उन्होंने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए व्यक्तिगत योगदान दिया। उन्होंने पारस्परिक रूप से लाभप्रद रूसी-भारतीय सहयोग जोड़ने के लिए बहुत कुछ किया।" संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा," अमेरिकी लोगों की ओर से, मैं पूर्व भारतीय राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम के निधन पर भारत के लोगों के लिए अपनी गहरी संवेदना का विस्तार करना चाहता हूँ। एक वैज्ञानिक और राजनेता, कलाम ने अपनी विनम्रता से घर में और विदेशों में सम्मान कमाया और भारत के सबसे महान नेताओं में से एक बने। भारत-अमेरिका के मजबूत संबंधों के लिए, डा कलाम ने सदा वकालत की। 1962 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के दौरान नासा के साथ अंतरिक्ष सहयोग को गहरा करने के लिए काम किया। भारत के 11 वें राष्ट्रपति के रूप में इनके कार्यकाल के दौरान अमेरिका-भारत संबंधों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई। उपयुक्त रूप से नामित "पीपुल्स प्रेसिडेंट" (जनता के राष्ट्रपति) ने सार्वजनिक सेवा, विनम्रता और समर्पण से दुनिया भर के लाखों भारतीयों और प्रशंसकों को एक प्रेरणा प्रदान की।" व्यक्तिगत जीवन कलाम अपने व्यक्तिगत जीवन में पूरी तरह अनुशासन का पालन करने वालों में से थे। ऐसा कहा जाता है कि वे क़ुरान और भगवद् गीता दोनों का अध्ययन करते थे। कलाम ने कई स्थानों पर उल्लेख किया है कि वे तिरुक्कुरल का भी अनुसरण करते हैं, उनके भाषणों में कम से कम एक कुरल का उल्लेख अवश्य रहता था। राजनीतिक स्तर पर कलाम की चाहत थी कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका का विस्तार हो और भारत ज्यादा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये। भारत को महाशक्ति बनने की दिशा में कदम बढाते देखना उनकी दिली चाहत थी। उन्होंने कई प्रेरणास्पद पुस्तकों की भी रचना की थी और वे तकनीक को भारत के जनसाधारण तक पहुँचाने की हमेशा वक़ालत करते रहते थे। बच्चों और युवाओं के बीच डाक्टर क़लाम जी अत्यधिक लोकप्रिय थे। वह भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के कुलपति भी थे। वे सदाय स्मित करते थे चाहे वो दफतर का नौकर ही क्यूँ न हो। वे जीवनभर शाकाहारी रहे। किताबें कलाम ने साहित्यिक रूप से भी अपने विचारों को चार पुस्तकों में समाहित किया है, जो इस प्रकार हैं: 'इण्डिया 2020 ए विज़न फ़ॉर द न्यू मिलेनियम', 'माई जर्नी' तथा 'इग्नाटिड माइंड्स- अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया'। इन पुस्तकों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस प्रकार यह भारत के एक विशिष्ट वैज्ञानिक थे, जिन्हें 40 से अधिक विश्वविद्यालयों और संस्थानों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्राप्त हो चुकी है। कलाम साहब की प्रमुख पुस्तकें निम्नवत हैं: चिंतनपरक रचनायें इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग द पावर विदीन इंडिया : (पेंग्विन बुक्स, 2003) ISBN 0-14-302982-7 इंडिया- माय-ड्रीम : (एक्सेल बुक्स, 2004) ISBN 81-7446-350-X एनविजनिंग अन एमपावर्ड नेशन: टेक्नालजी फार सोसायटल ट्रांसफारमेशन : (टाटा मैक्ग्राहिल प्रकाशन, 2004) ISBN 0-07-053154-4 आत्मकथात्मक रचनायें विंग्स ऑफ फायर: एन आटोबायोग्राफी ऑफ एपीजे अब्दुल कलाम : सह लेखक - अरुण तिवारी, (ओरियेंट लांगमैन, 1999) ISBN 81-7371-146-1 साइंटिस्ट टू प्रेसिडेंट : (ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, 2003) ISBN 81-212-0807-6 माय जर्नी (मेरी जीवनयात्रा), प्रभात पेपरबैक्स, नयी दिल्ली जीवनी अन्य लेखकों द्वारा कलाम की जीवनी अथवा जीवन के विविध पहलुओं पर पुस्तकें लिखी गयीं हैं, जिनमें कुछ प्रमुख निम्नवत हैं: इटरनल क्वेस्ट: लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ डाक्टर अबुल पकिर जैनुलाआबदीन अब्दुल कलाम एस चंद्रा कृत - (पेंटागन पब्लिशर्स, 2002) ISBN 81-86830-55-3 प्रेसिडेंट एपीजे अब्दुल कलाम आर॰ के॰ पूर्ति - (अनमोल पब्लिकेशन्स, 2002) ISBN 81-261-1344-8 ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम: द विजनरी ऑफ इंडिया' के॰ भूषण एवं जी॰ कात्याल -(एपीएच पब्लिशिंग कार्पोरेशन, 2002) ISBN 81-7648-380-X पुरस्कार एवं सम्मान कलाम के 79 वें जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाया गया था। इसके आलावा उन्हें लगभग चालीस विश्वविद्यालयों द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की गयी थीं भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया जो उनके द्वारा इसरो और डी आर डी ओ में कार्यों के दौरान वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिये तथा भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में कार्य हेतु प्रदान किया गया था 1997 में कलाम साहब को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया जो उनके वैज्ञानिक अनुसंधानों और भारत में तकनीकी के विकास में अभूतपूर्व योगदान हेतु दिया गया था वर्ष 2005 में स्विट्ज़रलैंड की सरकार ने कलाम के स्विट्ज़रलैंड आगमन के उपलक्ष्य में 26 मई को विज्ञान दिवस घोषित किया। नेशनल स्पेस सोशायटी ने वर्ष 2013 में उन्हें अंतरिक्ष विज्ञान सम्बंधित परियोजनाओं के कुशल संचलन और प्रबंधन के लिये वॉन ब्राउन अवार्ड से पुरस्कृत किया। इन्हें भी देखें भारत के राष्ट्रपतियों की सूची भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान इंडिया 2020 इग्नाइटेड माइंडस विंग्स ऑफ़ फ़ायर'' सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अदम्य साहस, गूगल पुस्तक। भारत के राष्ट्रपतियों का आधिकारिक जालस्थल डाक्टर कलाम की पुस्तकों की सूची डाक्टर कलाम की कवितायें 1931 में जन्मे लोग २०१५ में निधन कलाम, अब्दुल तमिलनाडु के लोग कलाम, अब्दुल कलाम, अब्दुल कलाम, अब्दुल भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता विज्ञान और इंजीनियरिंग में पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता
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राजगृह महाराष्ट्र के मुंबई में नेता भीमराव आम्बेडकर का घर व स्मारक है। प्राचीन बौद्ध साम्राज्य के संदर्भ में इसे राजगृह (अब राजगीर) नाम दिया गया था। तीन मंजिला इमारत का भूतल आम्बेडकर के स्मारक के रूप में एक विरासत संग्रहालय की मेजबानी करता है। उपरी मंजिलो पर आम्बेडकर परिवार रहता है। यह स्थान भारतीयों, विशेषकर आम्बेडकरवादी बौद्धों और दलितों के लिए एक पवित्र स्थल है। आम्बेडकर 15-20 वर्षों तक राजगृह में रहे। हर साल 6 दिसंबर को मुंबई के शिवाजी पार्क में चैत्य भूमि से पहले लाखों लोग राजगृह आते हैं। आम्बेडकर ने इस घर में अपने 50,000 से अधिक पुस्तकों का संग्रह किया था, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय बन गया था। इमारत को एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में नामित करने की योजना कानूनी और तकनीकी मुद्दों के कारण गिर गई, लेकिन 2013 में हवेली एक विरासत स्मारक बन गई। सन्दर्भ भीमराव आंबेडकर मुम्बई मुंबई के दर्शनीय स्थल महाराष्ट्र में पर्यटन आकर्षण
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इंटरनेट एवं प्रिंट दोनो पर उपलब्ध हिन्दी समाचार पत्र दैनिक जागरण भारत के कई शहरों से एक साथ प्रकाशित, भारत का सर्वाधिक पढा जाने वाला अखबार नवभारत टाइम्स टाइम्स समूह का समाचारपत्र नई दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान नई दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीयसहारा सहारा समूह का प्रकाशन प्रभातखबर राँची, जमशेदपुर, धनबाद एवं देवघर झारखंड से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका राजस्थान के सभी प्रमुख शहरों के साथ साथ चेन्नई से प्रकाशित अमर उजाला हरिभूमि रोहतक हरियाणा से प्रकाशित धरातल टीवी सिरसा, हरियाणा से प्रकाशित शुभम संदेश रांची, झारखंड से प्रकाशित आम मत, जयपुर, राजस्थान से प्रकाशित दैनिक भास्कर, राजस्थान, मध्यप्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित समाचार जगत, जयपुर, राजस्थान से प्रकाशित दैनिक नवज्योति, जयपुर, अजमेर, कोटा और बीकानेर, राजस्थान से प्रकाशित जन आस टाइम्स, जयपुर, राजस्थान से प्रकाशित DHARMARTHI धर्मार्थी मासिक पत्रिका भोपाल मध्य प्रदेश से प्रकाशित Jaidwar जयद्वार साप्ताहिक समाचार पत्र भोपाल से प्रकाशित इन्हें भी देखें अन्तरजालीय हिन्दी समाचार स्थल हिन्दी
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सोनारी जमशेदपुर के उत्तरपूर्व में बसा एक क्षेत्र है। खासतौर से यहाँ जमशेदपुर का स्थानीय हवाई अड्डा होने के कारण जाना जाता है। सोनारी क्षेत्र के कागलनगर में झारखंड की दो प्रमुख नदियों स्वर्णरेखा और खड़कई नदियों का संगम स्थल है जिसे दुमुहानी के नाम से जाना जाता है। हर वर्ष खासतौर पर मकर संक्राति के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ जमती है और लोग यहाँ दुमुहानी में पवित्र स्नान करते हैं। यह जमशेदपुर के प्रमुख पिकनिक स्थल के रूप में भी खासा प्रसिद्ध है। इन्हें भी देखें जमशेदपुर झारखंड बाहरी कड़ियाँ जमशेदपुर झारखंड दोमुहानी स्वर्णरेखा नदी के ऊपर एक नया पुल बना है जो बहुत ही सुन्दर है, ये पुल सोनारी और डोबो को जोड़ती है। जो सराईकेला जिला में पडती है, यही सड़क आगे करीब 7 से 10 km के दुरी में NH 33 को जोड़ती है। जमशेदपुर शहर के स्थानीय क्षेत्र
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राष्ट्रीय खनन शोध संस्थान या इंडियन स्कूल ऑफ माइंस भारत के खनन संबंधी शोध संस्थानों में सबसे प्रमुख है। यह संस्थान नवनिर्मित झारखंड प्रान्त के धनबाद नामक शहर में स्थित है। बहिर्गामी कडीयाँ राष्ट्रीय खनन शोध संस्थान वेबसाइट (अंग्रेज़ी)
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "राष्ट्रीय खनन शोध संस्थान", "token_count": 378, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%A8%20%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A7%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8" }
बलूचिस्तान (उर्दू: بلوچستان , बलोची: بلۏچستان‎) पाकिस्तान का पश्चिमी प्रान्त है। बलूचिस्तान नाम का क्षेत्र बड़ा है और यह ईरान (सिस्तान व बलूचिस्तान प्रान्त) तथा अफ़गानिस्तान के सटे हुए क्षेत्रों में बँटा हुआ है। यहाँ की राजधानी क्वेटा है। यहाँ के लोगों की प्रमुख भाषा बलूच या बलूची के नाम से जानी जाती है। 1944 में बलूचिस्तान के स्वतन्त्रता का विचार जनरल मनी के विचार में आया था पर 1947 में ब्रिटिश इशारे पर इसे पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। 1970 के दशक में एक बलूच राष्ट्रवाद का उदय हुआ जिसमें बलूचिस्तान को पाकिस्तान से स्वतन्त्र करने की माँग उठी। यह प्रदेश पाकिस्तान के सबसे कम जनसंख्या वाले इलाकों में से एक है। इतिहास इसके पूर्वी किनारे पर सिन्धु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ। कुछ विद्वानों का मानना है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। पर इसके साक्ष्य नगण्य हैं। सिन्धु घाटी की लिपि को न पढ़े जाने के कारण संशय अब तक बना हुआ है। पर सिन्धु सभ्यता के अवशेष आज के बलूचिस्तान में कम ही पाये जाते हैं। बलूची लोगों का माना है कि उनका मूल निवास सीरिया के इलाके में थे और उनका मूल सेमेटिक (अफ़्रो-एशियाटिक) है। आज का दक्षिणी बलूचिस्तान ईरान के कामरान प्रांत का हिस्सा था जबकि उत्तर पूर्वी भाग सिस्तान का अंग है। सन् 652 में मुस्लिम खलीफ़ा उमर ने कामरान पर आक्रमण के आदेश दिए और यह इस्लामी खिलाफ़त (ख़िलाफ़त) का अंग बन गया। पर उमर ने अपना साम्राज्य कामरान तक ही सीमित रखा। अली के खिलाफ़त में पूरा बलूचिस्तान, सिन्धु नदी के पश्चिमी छोर तक, खिलाफत के अन्तर्गत आ गया। इस समय एक और विद्रोह भी हुआ था। सन् 663 में हुए विद्रोह में कलात राशिदुन खिलाफ़त के हाथ से निकल गया। बाद में उम्मयदों ने इसपर कब्जा कर लिया। इसके बाद यह मुगल हस्तक्षेप का भी विषय रहा पर अन्त में ब्रिटिश शासन में शामिल हो गया। 1944 में इसे स्वतन्त्र करने का विचार भी अंग्रेजों के मन में आया था पर 1947 में यह स्वतन्त्र पाकिस्तान का अंग बन गया। सत्तर के दशक में यहाँ पाकिस्तानी शासन के विरुद्ध मुक्ति अभियान भी चला था। जिसे कुचल दिया गया। इस्लाम का आगमन 654 ईस्वी में, सिस्तान के राज्यपाल (गवर्नर) अब्दुलरहमान इब्न समराह और ससादीद फारस और बीजान्टिन साम्राज्य की कीमत पर नए उभरे रशीदुन खिलाफत ने ज़ारञ्ज में एक विद्रोह को कुचलने के लिये एक इस्लामी सेना भेजी, जो अब दक्षिणी अफगानिस्तान में है। जराञ्ज पर विजय प्राप्त करने के बाद, सेना के एक स्तम।भ ने हिन्दू कुश पर्वत शृङ्खला में काबुल और गजनी पर विजय प्राप्त करते हुए उत्तर की ओर धकेल दिया, जबकि एक अन्य स्तम्भ उत्तर-पश्चिमी बलूचिस्तान में क्वेटा जिले से होकर गया और डावर और कान्दबील (बोलन) के प्राचीन शहरों तक क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। यह प्रलेखित है कि आज के प्रान्त के भीतर आने वाली प्रमुख बस्तियाँ, 654 में रशीदुन खिलाफत द्वारा नियन्त्रित हो गयीं, सिवाय अच्छी तरह से संरक्षित पर्वतीय शहर क़ाइक़ान को छोड़कर, जो अब कलात है। अली की खिलाफ़त के दौरान, दक्षिणी बलूचिस्तान के मकरान क्षेत्र में विद्रोह छिड़ गया। 663 में, उमय्यद खलीफा मुआविया प्रथम के शासनकाल के दौरान, उनके मुस्लिम शासन ने उत्तर-पूर्वी बलूचिस्तान और कलात पर नियंत्रण खो दिया, जब कलात में विद्रोह के खिलाफ लड़ाई में हारिस इब्न मारा और उनकी सेना का एक बड़ा हिस्सा मर गया। सरकार एवं राजनीति पाकिस्तान के अन्य प्रान्तों की भाँति बलूचिस्तान में संसदीय प्रणाली है। प्रान्त का औपचारिक प्रमुख राज्यपाल होता है, जिसे प्रान्तीय मुख्यमन्त्री के सुझाव पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री, प्रान्त का मुख्य कार्यकारी, सामान्ययः प्रान्तीय विधानसभा में सबसे बड़े राजनीतिक दल या दलों के गठबन्धन का नेता होता है। बलूचिस्तान की एक सदनीय प्रान्तीय विधानसभा में 65 सीटें हैं, जिनमें से 11 महिलाओं के लिये तथा 3 अ-मुसलमानों के लिये आरक्षित हैं। सरकार की न्यायिक शाखा बलूचिस्तान उच्च न्यायालय द्वारा सञ चालित की जाती है, जो क्वेटा में स्थित है और एक मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में है। प्रमुख पाकिस्तान-व्यापी राजनीतिक दलों (जैसे पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) के अलावा, बलूचिस्तान राष्ट्रवादी दल (जैसे नेशनल पार्टी और बलूचिस्तान नेशनल पार्टी (मेंगल)) प्रान्त में प्रमुख राजनीतिक दल हैं। प्रशासनिक प्रभाग प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए, प्रान्त को सात मण्डलों में विभाजित किया गया है - कलात, मकरान, नसीराबाद, क्वेटा, सिबी, झोब और रखशन। मण्डल स्तर को 2000 ईस्वी में समाप्त कर दिया गया था, किन्तु 2008 के निर्वाचन के पश्चात् बहाल कर दिया गया था। प्रत्येक मण्डल एक आयुक्त के अधीन है। सात मण्डलों को आगे 33 जनपदों में विभाजित किया गया है : दिसम्बर 2021 तक, आठ मण्डल हैं। आठवें मण्डल, लोरलाई मण्डल को विभाजित कर ज़ोब मण्डल बनाया गया था। इस प्रान्त में 35 जनपद हैं : जनसाङ्ख्यिकी पहाड़ी क्षेत्रों और जल के अभाव के कारण बलूचिस्तान का जनसङ्ख्या घनत्व कम है। मार्च 2012 में, प्रारम्भिक जनगणना के आँकड़ों से ज्ञात हुआ है कि बलूचिस्तान की जनसङ्ख्या 1,31,62,222 तक पहुँच गयी थी, जिसमें खुजदार, केच और पञ्जगुर जनपद सम्मिलित नहीं थे, 1998 में 55,01,164 से 139.3% की वृद्धि हुई, जो पाकिस्तान की कुल जनसङ्ख्या का 6.85% है। उस समय पाकिस्तान के किसी भी प्रान्त द्वारा जनसङ्ख्या में यह सबसे बड़ी वृद्धि थी। बलूचिस्तान की जनसङ्ख्या का आधिकारिक अनुमान 2003 में लगभग 70.45 लाख से बढ़कर 2005 में 78 लाख हो गयी। 2017 की जनगणना में बलूचिस्तान की जनसङ्ख्या 1,23,44,408 थी। भाषाएँ एवं जातीयता 2017 की जनगणना के प्रारम्भिक परिणामों के अनुसार, प्रान्त में सबसे अधिक देशी वक्ताओं वाली भाषाएँ बलूची हैं, जो जनसङ्ख्या का 35.49% बोली जाती हैं, और पश्तो, जिनकी हिस्सेदारी 35.34% है, 1998 की जनगणना में एक उल्लेखनीय वृद्धि है, जब यह 29.6% रहा। पास्थुन मुख्य रूप से बलूचिस्तान के उत्तर में निवास करते हैं और क्वेटा में बहुमत बनाते हैं। दूसरी ओर बलूच पूरे बलूचिस्तान में पाए जाते हैं, लेकिन प्रान्त के पश्चिम और दक्षिण में सबसे अधिक केन्द्रित हैं। ब्रहुई, जिसे पहले जनगणना में बलूची के रूप में गिना जाता था, मुख्य रूप से बलूचिस्तान के मध्य भाग में 17.12% बोली जाती है। अन्य भाषाओं में सिन्धी (4.6%), सराइकी (2.7%), पंजाबी (1.1%), और उर्दू (0.81%) सम्मिलित हैं। बलूचिस्तान के 21 जनपदों में बलूची समुदाय बहुमत में है और बलूचिस्तान के 9 जनपदों में पश्तो समुदाय बहुमत में है। 4 जनपदों में ब्रहुई बहुमत में है। लासबेला जनपद में, जनसङ्ख्या का एक बड़ा अल्पसंख्यक लसी बोलता है, जो सिन्धी भाषा की एक बोली है। एथनोलॉग के अनुसार, बलूची भाषा बोलने वाले परिवार, जिनकी प्राथमिक बोली मकरानी 13%, रुखशानी 10%, सुलेमानी 7% और खेतरानी 3% है। बोली जाने वाली अन्य भाषाएँ लसी, उर्दू, पंजाबी, हज़ारगी, सिन्धी, सराइकी, देहवारी, दारी, ताजिक, हिन्दको, उज़्बेक और हिन्दकी है। पाकिस्तान में अफगानों से सम्बन्धित 2005 की जनगणना से पता चला है कि कुल 7,69,268 अफगान शरणार्थी अस्थायी रूप से बलूचिस्तान में रह रहे थे। हालाँकि, वर्तमान में बलूचिस्तान में सम्भवतः कम अफगान रह रहे हैं, जितने शरणार्थी 2013 में स्वदेश लौटे थे। 2015 तक, UNHCR के अनुसार केवल 3,27,778 पञ्जीकृत अफगान शरणार्थी हैं। पन्थ 2017 की जनगणना के अनुसार, बलूचिस्तान की लगभग सम्पूर्ण जनसङ्ख्या मुस्लिम थी। प्रान्त में हिन्दू और ईसाई अल्पसङ्ख्यक भी थे। प्रान्त में हिन्दू जनसङ्ख्या लगभग 49,133 (अनुसूचित जातियों सहित) थी। श्री हिङ्गलाज माता मन्दिर जो पाकिस्तान में सबसे बड़ा हिन्दू तीर्थस्थल है, बलूचिस्तान में स्थित है। प्रान्त में 26,462 व्यक्तियों का ईसाई अल्पसङ्ख्यक भी था। इन्हें भी देखें बलोच लोग बलूचिस्तान संघर्ष तुर्बत की हत्याएँ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Baloch Society of North America Balochvoice.com Balochwarna.org Balochtawar.net Globalsecurity.org - Baluchistan Insurgency A Cultural Anthropology of Baluchis (CAIS) Sibi District बलोचिस्तान पाकिस्तान के प्रान्त
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अकोला (Akola) भारत के महाराष्ट्र राज्य के विदर्भ क्षेत्र में एक नगर है। यह अकोला ज़िले का मुख्यालय भी है और मोर्णा नदी के किनारे बसा हुआ है। विवरण अकोला ज़िले के कातेपुर्णा अभयारण्य में दुर्लभ चौसिंगा हिरन पाए जाते हैं। अकोला जिल्ला कपास के उत्पादन में प्रथम स्थान पर है, इसीलिए इसे "कॉटन सिटी" कहा जाता है। उद्योग और व्यापार ताप्ती नदी घाटी क्षेत्र में स्थित व महत्त्वपूर्ण सड़क तथा रेल जंक्शन वाला अकोला एक वाणिज्यिक केन्द्र है। जहाँ मुख्यत: कपास का व्यापार होता है। यहाँ वस्त्र तथा वनस्पति तेल उद्योग भी स्थापित हैं, पूर्व में अनेक स्थानीय मुस्लिम राज्यों ने इसे बारी-बारी से अपने राज्य में शामिल किया। कृषि और खनिज कपास, ज्वार और मूंगफली आसपास के क्षेत्रों में उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सले हैं। इस क्षेत्र के उद्योग कृषि आधारित हैं। जिनमें कपास ओटना और गांठ बनाना, तेल प्रसंस्करण तथा बीड़ी निर्माण उद्योग महत्वपूर्ण हैं। पारस में एक ताप विद्युत गृह भी है। शिक्षण संस्थान अकोला एक महत्वपूर्ण शैक्षिक केंद्र है और यहाँ अमरावती विश्वविद्यालय से संबद्ध कई महाविद्यालय हैं, जिनमें अकोला कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी अकोला इंजीनियरिंग कॉलेज और राधा देवी गोयनका कॉलेज शामिल हैं। शासकीय वैद्यकीय महाविद्यालय व डॉक्टर पंजाब राव देशमुख कृषि विद्यापीठ भी यहीं स्थित है। जनसंख्या अकोला ज़िले की कुल जनंसख्या 2018 की जनगणना के अनुसार 16, 29, 305है। चित्रदीर्घा इन्हें भी देखें मोर्णा नदी अकोला दुर्ग विदर्भ अकोला ज़िला सन्दर्भ अकोला ज़िला महाराष्ट्र के शहर अकोला ज़िले के नगर
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इटारसी (Itarsi) मध्य प्रदेश प्रान्त का एक शहर है जो कि नर्मदापुरम जिले के अन्तर्गत आता हैं। इटारसी के नाम के उत्पत्ति ईंट और रस्सी शब्द के संयोग से हुई है इसका कारण प्राचीन काल में इन उद्योगों की बहुतायत होना। व्यावसायिक दृष्टि से, एक बड़ी कृषि मंडी, आयुध निर्माणी, एवम् रेलवे के कारखानो से। यह नर्मदापुरम जिले में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। बोरी अभयारण और तवा बाँध निकट के कुछ दर्शन-योग स्थान है। इटारसी की कुछ प्रमुख बिभुतियों में श्री हरिशंकर परसाई एवं श्री विपिन जोशी का नाम सर्वोपरि है। इटारसी में केसर मल्टी लॉजिस्टिक हब की स्थापना ने यहां व्यापारियों के लिए एक्सपोर्ट की बड़ी सुविधा दे दी है भूगोल इटारसी 22°37′N 77°45′E / 22.62°N 77.75°E अक्षानंस पे स्थित है तथा इसकी समुद्र तल से औसत ऊँचाई ३०४ मीटर है। जन सांख्यिकी २००१ के जनगणना के अनुसार इटारसी के कुल आबादी ९९,७८३ रही थी जिसमें से ५२% पुरुष और ४८% महिलाएँ सम्मिलित थी। वर्तमान में इटारसी की जनसंख्या 1 लाख 17 हजार के आसपास हो गई है। प्रशासन इटारसी मुख रूप से तहसील के श्रेणी में आती जिसका मुख्यालय नर्मदापुरम जिला है। यह नर्मदापुरम विधानसभा एवं नर्मदापुरम- नरसिंहपुर संसदीय क्षेत्र अंतर्गत आती है। वर्तमान नगर पालिका अध्यक्ष श्री pankaj chourey जी है। यातायात इटारसी रेल एवं सड़क से जुड़ा हुआ है। रेल इटारसी जंक्शन रेल द्वारा बडी आसानी से पहुँचा जा सकता है। दिल्ली-चेन्नई मेन लाइन एवं मुम्बई-जबलपुर मुख्य मार्ग में इटारसी स्टेशन पड़ता है। दिल्ली से रेल द्वारा १०-१४ घंटे लगते हैं। इटारसी शहर पश्चिम मध्य रेल्वे का मुख्य स्टेशन एवं सबसे बड़ा जंक्शन है। यहां से हर रोज लगभग 350 गाड़िया गुजरती हैं। सड़क यात्रा इटारसी सड़क द्वारा भी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। सरकारी और निजी बसें भोपाल के लिये उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 69 से जुड़ा है। नामकरण ऐसा माना जाता है कि यहाँ ईंट और रस्सी बनाई जाती थी। दर्शनीय स्थल भगवान शिव का एतिहसिक तिलक सिंदूर मंदिर तवा डेम की सुरम्य वादियां बूड़ी माता मंदिर बड़ा हनुमान मंदिर (फाटक वाले) श्री दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर रेलवे स्टेशन के सामने स्थापित वर्ष 1941 के पूर्व। स्वप्नेश्वर हनुमान मंदिर विंध्येश्वरी माता मंदिर (महर्षि नगर) द्वारकाधीश मंदिर बालाजी मंदिर पशुपतिनाथ मंदिर ग्रामीण क्षेत्र इटारसी के आस पास निम्न ग्रामीण क्षेत्र जुडे़ हैं- सनखेड़ा गुर्रा तारारोडा मलोथर पथरोटा देहरी सोनासाँवरी बोरतलाई बम्हनगाँव मेहरागाँव भीलाखेडी़ जुझारपुर रैसलपुर भट्टी साकेत सोनतलाई कोठा इटारसी से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र पत्रिका दैनिक भास्कर नव भारत दैनिक जागरण राज एक्सप्रेस औद्योगिक संस्थान विद्युत इंजन शेड डीजल इंजन शेड ऑर्डीनैन्स फैक्ट्री इटारसी ऑइल एंड फ्लोर मिल विद्यालय/स्कूल प्राथमिक शिक्षा के लिए काफी संस्थान अग्रणी है पश्चिम मध्य रेल्वे सीनियर हाई सेकेंडरी स्कूल केन्द्रीय विद्यालय ओ ई एफ केन्द्रीय विद्यालय सी पी ई शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय श्री टैगौर विद्या मंदिर गुरुनानक पब्लिक स्कूल सरस्वती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एम जी एम स्कूल फ्रेन्ड्स स्कूल आदर्श हाई सेकेंडरी स्कूल नया यार्ड एम॰जी॰एम॰ स्कूल इटार्सी महाविद्यालय/कॉलेज एम जी एम शासकीय महाविद्यालय शासकीय कन्या महाविद्यालय वर्धमान कॉलेज राजीव गाँधी महाविद्यालय साँईकृपा महाविद्यालय शासकीय पॉलीटेक्निक महाविद्यालय इटारसी इन्हें भी देखें नर्मदापुरम नर्मदापुरम जिला बाहरी कड़ियाँ इटारसी का सेटेलाइट चित्र नर्मदांचल - विश्वजाल पर इटारसी-होशंगाबाद का कोना इटारसी पैसेंजर निरस्त होने से आक्रोश इटारसी.भारत होशंगाबाद ज़िला मध्य प्रदेश के शहर होशंगाबाद ज़िले के नगर
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कुल्लू (Kullu) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के कुल्लू ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह कुल्लू घाटी में ब्यास नदी के किनारे बसा हुआ है। कुल्लू उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। विवरण कुल्‍लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। हिमाचल प्रदेश में बसा एक खूबसूरत पर्यटक स्‍थल है कुल्‍लु। बरसों से इसकी खूबसूरती और हरियाली पर्यटकों को अपनी ओर खींचती आई है। विज नदी के किनारे बसा यह स्‍थान अपने यहां मनाए जाने वाले रंगबिरंगे दशहरा के लिए प्रसिद्ध है। यहां 17वीं शताब्‍दी में निर्मित रघुनाथजी का मंदिर भी है जो हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्‍थान है। सिल्‍वर वैली के नाम से मशहूर यह जगह केवल सांस्‍कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए ही नहीं बल्कि एडवेंचर स्‍पोर्ट के लिए भी प्रसिद्ध है। कुल्‍लू गर्मी के मौसम में लोगों का एक मनपसंद गंतव्‍य है। मैदानों में तपती धूप से बच कर लोग हिमाचल प्रदेश की कुल्‍लू घाटी में शरण लेते हैं। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है। रघुनाथजी मंदिर इस मंदिर का निर्माण राजा जगत सिंह ने 17वीं शताब्‍दी में करवाया था। कहा जाता है कि एक बार उनसे एक भयंकर भूल हो गई थी। उस गलती का प्रायश्चित करने के लिए उन्‍होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। यहां श्री रघुना‍थ अपने रथ पर विराजमान हैं। इस मंदिर में स्‍थापित रघुनाथ जी की प्रतिमा राजा जगत सिंह ने अयोध्‍या से मंगवाई थी। आज भी इस मंदिर की शोभा देखते ही बनती है। बिजली महादेव मंदिर कुल्‍लू से 1४ किलोमीटर दूर पहाडी मथान नामक स्थान बना यह मंदिर यहां का प्रमुख धार्मिक स्‍थल है। मंदिर तक पहुंचने के लिए कठिन चढ़ाई चढ़नी होती है। यहां का मुख्‍य आकर्षण 100 मी. लंबी ध्वज़(छड़ी) है। इसे देखकर ऐसा ल्रगता है मानो यह सूरज को भेद रही हो। इस ध्वज़ (छड़ी) के बारे में कहा जाता है बिजली कड़कने पर इसमें जो तरंगे उठती है वे भगवान का आशीर्वाद होता है। इस ध्वज पर लग़भग हर साल बिजली गिरती है। कभी-कभी मंदिर के अन्दर शिवलिन्ग पर भी बिजली गिरती है जिस से शिवलिन्ग खऩ्डित हो जाता है। पुजारी खऩ्डित शिवलिन्ग को मक्खन से जोडता है जिस से शिवलिन्ग फिर सामान्य हो जाता है। इस मंदिर से कुल्‍लू और पार्वती घाटी का खुबसूरत नजारा देखा जा सकता है। बिजली महादेव मंदिर हलैनी यह मंदिर बिजली महादेव रोड में हलैनी नामक एक गांव में पड़ता है। जो लगभग कुल्लू शहर से 17की.म. की दूरी पर है। इस मंदिर की खास विशेषता यह है यहां पर एक दियार का पेड़ है। जो उल्टा है ।जिसका सिर जमीन में धसा हुआ है और जड़े उपर की तरफ है। बताया जाता किसी काल में भगवान् बिजली महादेव ने बिजली महादेव(मथान) से यहां फेंका था। कुल्‍लु दशहरा कुल्‍लु का दशहरा पूरे देश में प्रसि‍द्ध है। इसकी खासियत है कि जब पूरे देश में दशहरा खत्‍म हो जाता है तब यहां शुरु होता है। देश के बाकी हिस्‍सों की तरह यहां दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्‍सव हिमाचल के लोगों की संस्‍कृति और धार्मिक आस्‍था का प्रतीक है। उत्‍सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहां के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्‍वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं। वॉटर और एडवेंचर स्‍पोर्ट कुल्‍लु घाटी में अनेक जगह हैं जहां मछली पकड़ने का आनंद उठाया जा सकता है। इन जगहों में पिरडी, रायसन, कसोल नागर और जिया प्रमुख हैं। इसके साथ ही ब्यास् नदी में वॉटर राफ्टिंग का मजा लिया जा सकता है। इन सबके अलावा यहां ट्रैकिंग भी की जा सकती है। कुल्‍लु के आसपास दर्शनीय स्‍थल नग्गर यह स्‍थान करीब 1400 वर्षों तक कुल्‍लु की राजधानी रही है। यहां 16वीं शताब्‍दी में बने पत्‍थर और लकड़ी के आलीशान महल आज होटल में बदल चुके हैं। इन होटलों का संचालन हिमाचल पर्यटन निगम करता है। यहां रूसी चित्रकार निकोलस रोएरिक की एक चित्र दीर्घा है। इन सबके अलावा यहां विष्‍णु, त्रिपुरा सुंदरी और भगवान कृष्‍ण के प्राचीन मंदिर भी हैं। जगतसुख जगतसुख कुल्‍लु की सबसे प्राचीन राजधानी है। यह विज नदी के बायीं ओर नागर और मनाली के बीच स्थित है। यहां दो प्राचीन मंदिर हैं। पहला छोटा सा गौरीशंकर मंदिर और दूसरा संध्‍या देवी का मंदिर है। देव टिब्‍बा समुद्र से 2953 मी. की ऊंचाई पर स्थित इस जगह को इंद्रालिका के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्‍ठ ने अर्जुन को पशुपति अस्‍त्र पाने के लिए तप करने का परामर्श दिया था। इसी स्‍थान पर अर्जुन ने इंद्र से यह अस्‍त्र पाने के लिए तप किया था। बंजार यहां श्रृंग ऋषि का प्रसिद्ध मंदिर है। इन्‍हीं ऋषि की याद में यहां प्रति वर्ष मई के महीने में एक उत्‍सव का आयोजन किया जाता है। ठहरने के लिए पीडब्‍ल्‍यूडी का रेस्‍ट हाउस उपलब्‍ध है। कुछ दूरी पर ही जलोरी पास हे जो बन्जार से सिर्फ् १९ किलोमीट‍र दूर् हे जो गर्मियों में भी बर्फ् की चादर से लिप्त रह्ता हे। यहां से कुछ दू‍री प‍र सरयोलसर नाम की झील है, जो देवदार के उंचे-उंचे पेडों के हरे भरे जंगल से घिरी हुई है जो बेह्द सुन्दर है और यहां पर एक नदी बहती है, जिसका नाम तीर्थन नदी है। मणिकर्ण यह स्‍थान कुल्‍लु से 43 किलोमीटर दूर है। यह जगह गर्म पानी के झरने के लिए प्रसिद्ध है। हजारों लोग इस पवित्र गर्म पानी में डुबकी लगाते हैं। यहां का पानी इतना गर्म होता है कि इसमें दाल और सब्‍जी पकायी जा सकती हैं। यह हिंदुओं और सिक्‍खों का प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल है। यहां गुरुद्वारे के साथ रामचंद्र और शिवजी का प्राचीन मंदिर भी है। रुमसू यह स्‍थान कुल्‍लु से 25 कि॰मी॰ दूर नग्गर से पूर्व की और 7 कि॰मी॰ जाकर है। एस गाँव से होकर चन्द्राखनी और मलाणा जाते है। इस गाँव में बहुत सारे देवी देवता है पर इनमे प्रमुख भगवान शुभ नारायण है। आवागमन वायु मार्ग कुल्लू-मनाली विमानक्षेत्र निकटतम हवाई अड्डा है, जो कुल्‍लू से 10 किलोमीटर दूर भुंतर में है। यहाँ के लिए दिल्‍ली से नियमित उड़ानें हैं। भुंतर से कुल्‍लू घाटी के लिए बस और टैक्सियां मिल जाती हैं। रेल मार्ग निकटतम रेलहेड कालका, चंडीगढ़ और पठानकोट हैं जहां से कुल्‍लू सड़क के रास्‍ते पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 3 यहाँ से गुज़रता है। कुल्‍लू दिल्‍ली, अंबाला, चंडीगढ़, शिमला, देहरादून, पठानकोट, धर्मशाला और डलहौजी समेत हिमाचल और देश के अन्‍य भागों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। इन जगहों से कुल्‍लु के लिए नियमित रूप से बसें चलती हैं। इन्हें भी देखें कुल्लू ज़िला हिमाचल प्रदेश सन्दर्भ हिमाचल प्रदेश के शहर कुल्लू ज़िला कुल्लू ज़िले के नगर हिमाचल प्रदेश में पर्यटन आकर्षण हिमाचल प्रदेश में हिल स्टेशन
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कोच्चि (Kochi), जिसे कोचीन भी कहा जाता था, भारत के केरल राज्य के एर्नाकुलम ज़िले में लक्षद्वीप सागर से तटस्थ स्थित एक बड़ा बंदरगाह नगर है। कोच्चि को काफ़ी समय से प्रायः एर्नाकुलम भी कहा जाता है, जिसका अर्थ नगर का मुख्यभूमि भाग इंगित करता है। कोच्चि नगर निगम (जनसंख्या ६,७७,३८१) राज्य का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला शहर है। यह कोच्चि महानगरीय क्षेत्र के विस्तार सहित (जनसंख्या २१ लाख) केरल राज्य का सबसे बड़ा शहरी आबादी क्षेत्र है। कोच्चि नगर ग्रेटर कोच्चि क्षेत्र का ही एक भाग है, और इसे भारत सरकार द्वारा द्वितीय दर्जे वाला शहर वर्गीकृत किया गया है। नगर की देख-रेख व अनुरक्षण दायित्त्व १९६७ में स्थापित हुआ कोच्चि नगर निगम करता है। इसके अलावा पूरे क्षेत्र के सर्वांगीण विकास का भार ग्रेटर कोचीन डवलपमेंट अथॉरिटी (GCDA) एवं गोश्री आईलैण्ड डवलपमेंट अथॉरिटी (GIDA) पर है। कोच्चि १४वीं शताब्दी से ही भारत की पश्चिमी तटरेखा का मसालों का व्यापार केन्द्र रहा है और इसे अरब सागर की रानी के नाम से जाना जाता था। १५०३ में यहाँ पुर्तगालियों का आधिपत्य हुआ और यह उपनिवेशीय भारत की प्रथम यूरोपीय कालोनी बना। १५३० में गोवा के चुने जाने तक यह पुर्तगालियों का यहां का प्रधान शक्ति केन्द्र रहा। कालांतर में कोच्चि राज्य के रजवाड़े में परिवर्तित होने के साथ ही यह डच एवं ब्रिटिश के नियंत्रण में आ गया। आज केरल में कुल अन्तर्देशीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आगमन संख्या में प्रथम स्थान बनाये हुए है। नीलसन कम्पनी के आउटलुक ट्रैवलर पत्रिका के लिये किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कोच्चि आज भी भारत के सर्वश्रेष्ठ पर्यटक आकर्षणों में छठवें स्थान पर बना हुआ है। मैकिन्से ग्लोबल संस्थान द्वारा किये गए एक शोध के अनुसार, कोच्चि २०२५ तक के विश्व के सकल घरेलु उत्पाद में ५०% योगदान देने वाले ४४० उभरते हुए शहरों में से एक था। भारतीय नौसेना के दक्षिणी नौसैनिक कमान का केन्द्र तथा भारतीय तटरक्षक का राज्य मुख्यालय भी इसी शहर में स्थित है, जिसमें एयर स्क्वैड्रन ७४७ नाम की एक वायु टुकड़ी भी जुड़ी है। नगर के वाणिज्यिक सागरीय गतिविधियों से सम्बन्धित सुविधाओं में कोच्चि बंदरगाह, अन्तर्राष्ट्रीय कण्टेनर ट्रांस्शिपमेण्ट टर्मिनल, कोचीन शिपयार्ड, कोच्चि रिफ़ाइनरीज़ का अपतटीय (ऑफ़शोर) सिंगल बॉय मूरिंग (एस.पी.एम), एवं कोच्चि मैरीना भी हैं। कोच्चि में ही कोचीन विनिमय एक्स्चेंज, इंटरनेशनल पॅपर एक्स्चेंज भी स्थित हैं, तथा हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एच.एम.टी), सायबर सिटी, एवं किन्फ़्रा हाई-टेक पाक एवं बड़ी रासायनिक निर्माणियां जैसे फ़र्टिलाइज़र्स एण्ड कैमिकल्स त्रावणकौर (फ़ैक्ट), त्रावणकौर कोचीन कैमिकल्स (टीसीसी), इण्डियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (आई.आर.ई.एल), हिन्दुस्तान ऑर्गैनिक कैमिकल्स लिमिटेड (एच.ओ.सी.एल) कोच्चि रिफ़ाइनरीज़ के साथ साथ ही कई विद्युत कंपनियां जैसे टी.ई.एल.के एवं औद्योगिक पार्क भी बने हैं जिनमें कोचीन एपेशल इकॉनोमिक ज़ोन एवं इन्फ़ोपार्क कोच्चि प्रमुख हैं। कोच्चि में ही प्रमुख राज्य न्यायपीठ केरल एवं लक्षद्वीप उच्च न्यायालय एवं कोचीन युनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी भी स्थापित हैं। इसी नगर में केरल का नेशनल लॉ स्कूल, नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ़ एडवांस्ड लीगल स्टडीज़ को भी स्थान मिला है। व्युत्पत्ति प्राचीन विदेशी घुमन्तु७ओं तथा व्यापारीगणों द्वारा कोच्चि को विभिन्न नामों से इंगित किया गया है जैसे Cocym, Cochym, कोचीन, एवं Kochi आदि। कोचीन यहूदी समुदाय द्वारा इसे कोचिन (Kogin/קוגין) भी बोला जाता था, जैसा कि सायनागोग की मुहर में भी दिखाई देता है और ये मुहर अभी भी उस समुदाय के पास रखी है। "कोच्चि" नां का उद्गम एक मलयालम शब्द कोचु आझी से प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है एक छोटी खादई या झील या लैगून। एक अन्य धारणा के अनुसार कोच्चि का उद्गम कॅची से है जिसका अर्थ है बंदरगाह। इतालवी अन्वेषकों निकोलो कॉण्टी (१५वीं शताब्दी) तथा फ़्रा पाओलीन (१७वीं शताब्दी) के अनुसार कोच्ची शब्द का उद्गम इसी नाम की एक छोटी नदी से है जो बैकवाटर्स को सागर से जोड़ती थी। पहले पुर्तगालियों के आगमन और फ़िर ब्रिटिश आगमन से कोचीन नाम को लगभग आधिकारिक पदवी मिल गई थी। १९९६ में नगर को अपने मूल मलयालम नाम के एक निकटवर्त्ती आंग्लीकृत रूप कोच्चि मिला। इस नाम को कोचीन नगर निगम ने अमान्य कर अस्वीकार कर दिया और निगम अभी तक "कोचीन" नाम ही चला रहा है। इतिहास कोची भारतीय मसाला व्यापार का केन्द्र कई शताब्दियों से रहा है, जिसकी जानकारी यवनों (प्राचीन यूनानियों एवं रोमवासियों) के साथ साथ यहूदियों, सीरियाइयों, अरबों तथा चीनियों को प्राचीन काल से ही थी। कोची का महत्त्व १३४१ में पेरियार नदी में आयी बाढ़ के कारण कोदुंगलूर (क्रैंगनोर) के निकटस्थ मुज़िरिस बंदरगाह के नष्ट होने के बाद से बहुत बढ़ गया था। कोची के सबसे पुराने ज्ञात उल्लेख चीनी यात्री मा हुआन की एडमिरल ज़ेंग हे के अधीन की गई उनकी १५वीं शताब्दी की यात्राओं के वर्णन में मिलता है। १४४० में यहां आये इतालवी यात्री निक्कोलो दा कॉण्टी ने भी कोची शहर का उल्लेख अपने वृत्तान्तों में किया है। इतिहासविदों के अनुसार कोची राज्य का मूल राज्य १२वीं शताब्दी में चेर वंश के पतन उपरांत ही यहां अस्तित्त्व में आगया था। इस राज्य का अधिकार वंशानुगत था और इन्हें स्थानीय लोगों द्वारा पेरम्पदप्पु शासक कहा गया था। कोची की मुख्यभूमि १८वीं शताब्दी तक इस राज्य या रजवाड़ेकी राजधानी बनी रही तथा कोची का राजा ही वर्तमान कोच्चि नगर क्षेत्र तथा निकटवर्त्ती क्षेत्रों पर अधिकार रखता था। हालांकि बाद के काफ़ी समय से राज्य में विदेशी आधिपत्य रहा एवं राजा को केवल नाममात्र का अधिकार प्राप्त रहा था। पुर्तगाली अन्वेषक पैड्रो अल्वरेज़ कैब्राल ने भारत में प्रथम यूरोपीय उपनिवेश १५०० में कोची में बसाया। १५०३ से १६६३ तक, फ़ोर्ट कोच्चि (फ़ोर्ट ईमैन्युअल) पुर्तगाली साम्राज्य के अधीन रहा। ये पुर्तगाली आधिक्पत्य-काल सेंट थोमस ईसाइयों एवं कोचीन यहूदियों के लिये बेहद विपत्ति काल रहा, क्योंकि तत्कालीन पुर्तगाल-अधीन भारत में साम्राज्य आधिपत्य विवाद आदि बढ़ रहे थे। कोची में प्रथम पुर्तगाली अन्वेषक वास्को डा गामा की कब्र भी बनी हुई है, जिसने भारत की खोज हेतुप्रथम सफ़ल अभियान किया था। उसे सेंट फ़्रांसिस गिरजाघर में दफ़नाया गया था। बाद में उसके अवशेष १५३९ में पुर्तगाल लौटा दिये गए। पुर्तगाली शासन के बाद यहा डच शासन आया, जिन्हों ने यहां के स्थानी कालीकट के ज़मोरिन के साथ संधि कर कोची पर आक्रमण किया व अधिकार कर लिया था। १७७३ में मैसूर राज्य के शासक हैदर अली द्वारा अपने राज्य के मालाबार क्षेत्र में विस्तार के अन्तर्गत्त कोची पर अधिकार कर उसे मैसूर के अधीन कर लिया गया था। इस समय तक कोची की वंशानुगत प्रधानमंत्री पालियथ अचान भी पदच्युत हो गए। इसी बीच डच लोगों ने यूनाइटेड डच प्रोविन्स पर युद्ध की आशंका के चलते, १८१४ की आंग्र-डच संधि कर ली, जिसके अन्तर्गत्त कोची को बांग्का द्वीप के बदले संयुक्त राजशाही के अधीन दे दिया गया। वैसे इस संधि के पूर्व में भी यहां ब्रिटिश उपस्थिति के साक्ष्य मिलते हैं। १८६६ में फ़ोर्ट कोच्चि नगर पालिका बन गया, और इसका प्रथम म्युनिसिपल काउन्सिल ईटिंग कान्टेस्ट १८८३ में आयोजित हुआ। १८९६ में कोचीन के महाराजा ने एर्णाकुलम एवं मट्टनशेरी में दो अन्य परिषदों के गठन कर स्थानीय प्रशासन का आरम्भ किया। १९०७ में मद्रास प्रेसिडेन्सी के तत्कालीन राज्यपाल (गवर्नर) सर अर्थर लॉली, उनके भ्राता बेल्बी लॉली, मद्रास गवर्नर (१८९१-९६) कोचीन एवं त्रावणकौर के आधिकारिक भ्रमण पर निकले और २५ जनवरी से १४ फ़रवरी तक यहां का भ्रमण किया। २६ जनवरी को कोचीन के राजा ने इनसे भेंट की व इनके सम्मान में एर्णाकुलम में रात्रिभोज का आयोजन किया। १९२५ में आम जनता के दबाव के कारण कोची विधान सभा का गठन किया गया। २०वीं शताब्दी के आरंभ तक बंदरगाह पर व्यापार व आवागमन काफ़ी हद तक बढ़ गया, जिसके चलते इसके विकास की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। १९२० में एक हार्बर इंजीनियर रॉबर्ट ब्रिस्टो को तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेन्सी के गवर्नर लॉर्ड विलिंग्डन के आदेश पर बुलाया गया। २१ वर्ष के बाद कोचीन बंदरगाह प्रायद्वीप का सुरक्षिततम बंदरगाह बन गया, जहां जहाज नवनिर्मित हार्बर बना था और भाप की क्रेन स्थापित थीं। १९४७ में ब्रिटिश राज से भारत के स्वतंत्र होने पर, कोचीन प्रथम रजवाडआ था जिसने स्वेच्छा से भारतीय संघ में बने रहने का चुनाव किया। १९४९ में कोचीन एवं त्रावणकौर के विलय उपरांत त्रावणकोर-कोचीन राज्य अस्तित्त्व में आया। तब त्रावणकोर का राजा त्रावणकोर-कोचीन संघ का राजप्रमुख बना और १९५६ तक रहा। त्रावणकोर-कोचीन को तब मद्रास राज्य के मालाबार जिले में विलय कर दिया गया। और अन्ततः भारत सरकार के राज्य पुनर्गठन अधिनियम १९५६ में एक नये राज्य क जन्म हुआ  — केरल — जिसमें त्रावणकोर-कोचीन (सिवाय चार दक्षिणी तालुल के, जो तमिल नाडु में विलय किये गए), मालाबार जिला के साथ साथ कसरगोड एवं दक्षिण कन्नड़ जिले सम्मिलित थे। ९ जुलाई, १९६० को मट्टनशेरी ने एक प्रस्ताव पारित कर सरकार को भेजा— जिसमें तत्कालीन फ़ोर्ट कोची, मट्टनशेरी एवं एर्णाकुलम की नगरपालिका क्षेत्रों को विलय कर एक नगर निगम की स्थापना की जाने का निवेदन था। सरकार ने प्रस्तावित विलय की संभावनाएं तलाशने हेतु एक आयोग का गठन किया। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केरल विधान सभा ने नगर निगम की स्थापना की स्वीकृति दे दी। केरल राज्य की स्थापना के ठीक एक वर्ष बाद, १ नवंबर, १९६७ को, कोचीन नगर निगम की स्थापना की गई। यह विलय एर्णाकुलम, मट्टनशेरी, एवं फ़ोर्ट कोची की नगर पालिकाओं के बीच हुआ था। इनके अलावा इस नगर निगम में विलिंग्डन द्वीप, चार पंचायतें (पाल्लुरुती, वेन्नल, वयत्तिल एवं एडपल्ली) तथा दो छोटे द्वीप गुण्डु एवं रमणतुरुत भी शामिल थे। कोची एवं एर्णाकुलम जिलों को १ अप्रैल, १९५८ को तत्कालीन त्रावणकोर-कोची-म्लाबार रजवाड़ों से काट कर निकाला गया था। जिले का अधिकांश भाग कोची राज्य से ही लिया गया था। शहर के आर्थिक विकास ने भारत सरकार द्वारा १९९० के दशक के आरम्भ में लाये गए आर्थिक सुधारों के बाद से तेज गति पकड़ी। वर्ष २००० आने तक सेवा क्षेत्र ने भी इस आर्थिक प्रगति को भरपूर बल दिया। सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित विभिन्न पार्कों की स्थापना के साथ साथ अन्य जहाजपत्तन एवं बंदरगाह आधारित अवसंरचना विकास के चलते नगर में अचल-सम्पत्ति व्यापार को बड़ी हवा दी। बाद के वर्षों में कोच्चि ने त्वरित व्यावसायीकरण अनुभव किया और परिणामस्वरूप ये नगर आज केरल राज्य के बड़े वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका है। भूगोल एवं जलवायु भूगोल कोच्चि की भौगोलिक स्थिति भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट निर्देशांक पर है, और इसका क्षेत्रफ़ल है। नगर में यहां के प्रसिद्ध बैकवॉटर्स हैं, और प्रायदीप के उत्तरी छोर तक जाते हैं। इसके पश्चिम में लक्षद्वीप सागर है तथा पूर्वी ओर शेष मुख्यभूमि का शहरी विस्तार है। यहां का अधिकांश क्षेत्र समुद्र सतह (की ऊंचाई) पर ही बना है और इसकी तटरेखा ४८ किमी है। कोच्चि शहर की वर्तमान नगरपालिका सीमाओं में उत्तर-पूर्वी ओर मुख्यभूमि एर्णाकुलम, फ़ोर्ट कोची तथा एडापल्ली, कलामशेरी एवं कक्कनाड के उपनगरीय क्षेत्र; दक्षिण-पूर्व में तिरुपुनितरा हैं एवं वेम्बनाड झील में निकटस्थ द्वीपसमूह भी है। इसके अधिकांश द्वीप अति लघु आकार के हैं और इनका क्षेत्रफ़ल ६ किमी2 से लेकर 1 किमी2 से भी कम (1,500 से लेकर २५० एकड़ से कम तक)। राज्य सरकार एवं जीसीडीए की योजना है कि कोच्चि महानगरीय क्षेत्र की सीमा में स्थित माला एवं कोडंगलूर को त्रिशूर जिले में, अंगमाली, पेरंबवूर, पिरावुम एवं कोलनशेरी को एर्णाकुलम जिले में, तालयोलपेरंबु एवं वाइकोम को कोट्टयम एवं चेरतला को अलापुझा जिले में जोड़ दिये जाएं। इस तरह नवनिर्मित महानगरीय क्षेत्र को नवगठित कोच्चि मेट्रोपॉलिटन रीजनल डवलपमेण्ट अथॉरिटी (कोच्चि महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण) के अधीन दे दिया जायेगा। हालांकि द हिन्दु की एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकार को इस विषय में अभी कोई पक्का निर्णय लेना बाकी है। यहां की मृदा में एल्यूवियम, टेरी की भूरी बालू, आदि के कण मिलते हैं। हाइड्रोमॉर्फ़िक क्षारीय मृदाएं भी बैकवाटर्स की निकटस्थ भूमि में मिलती हैं। यहां मिलने वाले प्रधान पाषाण आर्केइयन-बेसिक डाइक, चार्नोकाइट्स एवं ग्निसेज़ प्रकार के हैं। एक पारिस्थितिकी संवेदन क्षेत्र मंगलवनम पक्षी अभयारण्य नगर के केन्द्रीय भाग में स्थित है। इसमें मैन्ग्रोव की ढेरों प्रजातियां मिलती हैं तथा बड़ी संख्य़ा में प्रवासी पक्षियों की आवास-भूमि है। कोच्चि की जल आपूर्ति अधिकांशतः भूमिगत जल एवं जिले में बहने वाली दो नदियों, पेरियार एवं मुवत्तपुझा पर ही निर्भर हैं। पेरियार नदी नगर के उत्तरी भाग की आपूर्ति करती है तथा मुवत्तपुझा नदी जेएननुर्म परियोजना के अन्तर्गत्त पश्चिमी कोच्ची, पूर्वी कोच्चि एवं चेरतल ताल्लुक के भागों की आपूर्ति जापान वॉटर प्रोजेक्ट स्कीम के अन्तर्गत्त करती है। जलवायु कोप्पन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार, कोच्चि में उष्णकटिबन्धीय मॉनसून जलवायु (Am) है। कोच्चि का भूमध्यरेखा से सामीप्य तथा इसकी तटीय स्थिति के परिणामस्वरूप यहां मौसमी तापमान में थोड़ा ही परिवर्तन होता है, एवं उच्च स्तर की आर्द्रता भी रहती है। यहां वार्षिक तापमान के बीच रहता है एवं अंकित अधिकतम तापमान , एवं न्यूनतम तापमान है। पश्चिमी घाट के हवाई ओर स्थित होने के कारण जून से सितंबर तक दक्षिण-पश्चिम मानसून कोच्चि में तेज वर्षा लाता है। अक्तूबर से दिसम्बर पर्यन्त, कोच्चि में उत्तर-पूर्वी मानसून के कारण हल्की वर्षा होती यहां की सालाना वर्षा है तथा सालाना औसत वर्षा के १२५ दिन होते हैं। नागर प्रशासन नगर प्रशसन कोच्चि नगर निगम के अधीन है, जिसकी ब्गडोर मह्पौर के हाथ में रहती है। प्रशासनिक उद्देश्य से नगर क्षेत्र को ७४ वार्ड्स में बांटा हुआ है, जहां प्रत्येक वार्ड से निगम परिषद के सदस्य चुन कर पांछ वर्ष के लिये आते हैं। पहले कोचीन क्षेत्र में फ़ोर्ट कोची, मट्टनशेरी, एवं एर्णाकुलम इस क्षेत्र की तीन नगरपालिकाएं हुआ करती थीं, जिन्हें बाद में विलय कर कोचीन नगर निगम की स्थापना की गई। निगम का मुख्यालय एर्णाकुलम में है तथा मण्डलीय कार्यालय पाल्लरुति, इडपल्ली, वडुथल एवं वयतिल्ला में स्थित हैं। नगर का सामान्य प्रशासन क्र्मिक विभाग परिषद स्टैंडिंग समिति अनुभाग द्वारा देखा जाता है। अन्य विभागों में नगर योजना, स्वास्थ्य, अभियांत्रिकी, कर एवं लेखा विभाग आते हैं। नगर में अपशिष्ट निपटान और सीवेज प्रबंधन के लिये भी निगम ही उत्तरदायी है। नगर में दैनिक अपशिष्ट लगभग ६०० टन होता है जिसक एक बड़ा भाग ब्रह्मपुरम सॉएल्ड वेस्ट प्लांट द्वारा कार्बनिक खाद में बदल दिया जाता है। पेय जल की आपूर्ति पेरियार नदी से केरल जल प्राधिकरण (केरल वॉटर अथॉरिटी) द्वारा कोची वॉटर वर्क्स विभाग के सहयोग से की जाती है। नगर की विद्युत आपूर्ति केरल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड द्वारा की जाती है}। ग्रेटर कोचीन क्षेत्र के विकास के उत्थान एवं उस पर नियंत्रण रखने का कार्य ग्रेटर कोचीन डवलपमेण्ट अथॉरिटी (जीसीडीए तथा गोश्री आईलैण्ड डवलपमेण्ट अथॉरिटी (जीआईडीए) द्वारा किया जाता है। दोनों ही सरकारी संस्थाएं हैं तथा नगर के अवसंरचना विकास में कार्यशील हैं। विधि एवं व्यवस्था कोच्चि में ही राज्य का केरल उच्च न्यायालय भी स्थित है। राज्य की विधि व्यवस्था केरल सिटी पोलीस की देखरेख में रहती है। इस संस्था के सर्वोत्तम अधिकारी पुलिस आयुक्त हैं, जो एक भारतीय पुलिस सेवा (आई.पी.एस) अधिकारी होते हैं। नगर को व्यवस्था हेतु पांच भागों में बांटा गया है, जिनमें से प्रत्येक का एक सर्किल अधिकारी होता है। सामान्य व्याय व्यवस्था के अतिरिक्त पोलीस सेवा यातायात पोलीस, नार्कोटिक्स प्रकोष्ठ, रॉएट हॉर्स, सशस्त्र रिज़र्व कैम्प्स, जिला अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो तथा महिला पोलीस स्टेशन भी चलाती है। यहां केरल सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत १९ पुलिस स्टेशन हैं। । इनके अलावा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की एक भ्रष्टाचार विरोधी शाखा भी नगर में स्थित है। केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की तीन स्क्वैड्रन्स नगर की विभिन्न राज्य व केन्द्र सरकारी भारी उद्योगों, विमानक्षेत्र एवं बंदरगाह क्षेत्रों को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं। अन्य प्रमुख केन्द्र सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रीय अन्वेषण एजेन्सी, डायरेक्टरेट ऑफ़ रेवेन्यु इन्टेलिजेन्स, भारतीय कस्टम्स विभाग नगर में एक प्रमुख बंदरगाः होने के कारण स्थित हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी), कोच्ची के आंकड़ों के अनुसार भारतीय पैनल कोड के अन्तर्गत्त अपराधों में २००९ के मुकाबले २०१० में 193.7 % बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। पूरे राज्य में अपराध दर 424.1 के मुकाबले 1,897.8 दर्ज की गई है। हालांकि कोच्चि पुलिस अधिकारियों का कहना है कि हत्या व अपहरण जैसे बड़े अपराधों में नगर में राज्य के अन्य शहरों की अपेक्षा कमी अंकित की गई है। वर्षाकाल में तमिल नाडु राज्य के तिरुनेलवेली के निकटवर्ती तिरुट्टु ग्राम (चोरों का गांव) से बड़ी संख्या में योजनाबद्ध तरीके बड़ी संख्या में चोरों के समूह नगर में आते हैं व चोरियां करते हैं। हाल के समय में केरल पुलिस ने कोच्चि के विभिन्न आवासी संघों (रेज़िडेन्ट एसोसियेशन्स) की सहायता से इन चोरियों की रोकथाम हेतु प्रयास तेज किये हैं। इस गांव के चोरों के उत्पातों से प्रभावित होकर फ़िल्म निर्देशक जॉन एन्टोनी ने एक मलयालम फ़िल्म 'तिरुट्टु ग्रामम ' का निर्माण अभिनेता मम्मूटी के साथ किया है। इस फ़िल्म में मम्मूटी ने एक अभ्यस्त लुटेरे चोर की भूमिका की है। अर्थ व्यवस्था कोच्ची को केरल राज्य की वाणिज्यिक राजधानी माना जाता रहा है। कोच्ची में ही कोचीन स्टॉक एक्स्चेंज भी स्थापित है, जो कि केरल का एकमात्र स्टॉक एक्स्चेंज है। भारत का चौथा सबसे बड़ा निजी-सेक्टर का बैंक यहीं अल्युवा में स्थित है। एक बड़ा ऑनलाइन ट्रेडिंग केन्द्र होने के कारण ही यहां सेबी ने अपना स्थानीय कार्यालय भी खोला है। विद्युत, ताजा जल, लम्बी तटरेखा, बैकवाटर्स, अच्छी बैंकिंग सुविधाओं, एक बड़े बंदरगाह की उपस्थिति, कण्टेनर ट्रांस-शिपमेंट टर्मिनल एवं एक अन्तर्राष्ट्रीय हवाई हब ऐसे कुछ कारक हैं जिन्होंने नगर की एवं निकटवर्ती इलाकों की औद्योगिक प्रगति में त्वरण का कार्य किया है। हाल के वर्षों में नगर ने भारी निवेश अनुभव किया है; जिसके चलते कोच्चि भारत के तेजी से प्रगति करते द्वितीय वर्ग महानगरों में गिना जाने लगा है। कोच्चि महानगरीय क्षेत्र से उपजा राजस्व राज्य की आय में भारी योगदान देता है। यह जिला राज्य के सकल घरेलु उत्पाद का सर्वाधिक, १४.४७% योगदान देता है। निर्माण एवं विनिर्माण से ३७%, व्यापार, पर्यटन एवं हॉस्पिटैलिटी मिलाकर और २०% योगदान देते हैं। यहां के प्रधान व्यापारों में निर्माण, विनिर्माण, जहाज-निर्माण, सीफ़ूड एवं मसालों का निर्यात, परिवहन एवं जहाजरानी, सूचना प्रौद्योगिकी, पर्यटन, चिकित्सा सेवाएं एवं बैंकिंग हैं। कोच्ची को विश्व बैंक द्वारा संसार के प्रधान औद्योगिक नगरों में वरीयता क्रम से १८वां स्थान दिया गया है। हालांकि २००९ के एक रैंकिंग ऑफ़ ईज़ टू स्टार्ट अ विज़नेस (व्यापार आरम्भ करने में सहायक) नगरों की भारत में १७ वरीय शहरों में कोच्चि को अंतिम द्वितीय कठिनतम नगर अर्थात १७ में से १६वां का स्थान प्राप्त हुआ था। यह स्थान कोलकाता से ऊपर था, जो १७वें स्थान पर था। केरल के अधिकांश क्षेत्रों की भांति जी, कोच्चि में भी अप्रवासी भारतीय परिवारगणों द्वारा भेजे गए पैसे ही परिवार की आय-स्रोत हैं। नगर केन्द्र से 17 कि.मी (11 मील) की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित एलूर केरल राज्य का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है, जहां 250 से अधिक उद्योग एवं निर्माणियां स्थापित हैं। इन इकाइयों में विभिन्न प्रकार के मदों, जैसे रसायन, पेट्रोरसायन उत्पाद, कीटनाशक, रेयर अर्थ धातु-उत्पाद, उर्वरक, जस्ता एवं क्रोमियम यौगिक एवं चर्म उत्पादों का निर्माण/ उत्पादन होता है। केरल की सबसे पुरानी उर्वरक एवं रसायन उत्पादन निर्माणी फ़र्टिलाइज़र्स एण्ड कॅमिकल्स त्रावणकोर लि. (FACT) भी कोच्चि में ही स्थित है। दक्षिण भारत की सबसे बड़ी तेल-शोधन सुविधा अम्बलामुगळ में बी.पी.सी.एल की कोच्चि रिफ़ाइनरीज़ में उपलब्ध है। पेट्रोनेट इण्डिया ने अब तक ऊर्जा एवं ईंधन की आवश्यकता के लिये प्राकृतिक गैस के आयात एवं भण्डारण हेतु कोच्चि एल.एन.जी टर्मिनल का निर्माण कार्य लगभग पूरा ही कर लिया है। इनके सिवाय नगर में विभिन्न केन्द्र सरकारी कार्यालय जैसे कोकोनट डवलपमेण्ट बोर्ड, क्वायर बोर्ड ऑफ़ इण्डिया तथा मैरीन प्रोडक्ट्स एक्स्पोर्ट डवलपमेण्ट अथॉरिटी (MPEDA) के मुख्यालय भी स्थित हैं। नगर केन्द्र से 19.9 किमी दूर स्थित कलामश्शेरी केरल का औद्योगिक केन्द्र कहा जा सकता है। यहां बड़ी औद्योगिक निर्माणियां जैसे फ़र्टिलाईज़र एण्ड कैमिकल्स त्रावणकोर (फ़ैक्ट), एच.एम.टी, इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग जैसे इन्फ़ोपार्क, किन्फ़्रा हाईटेक पार्क आदि भी शहर के उपशहरी क्षेत्र में स्थित हैं। नीरा डवलपमेण्ट सेण्टर का मुख्यालय भी कलामश्शेरी में ही स्थित है। इसके अलावा यहां कोचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय भी स्थित है। केरल के अन्य स्थानों की ही भांति यहां की स्थानीय अर्थ-व्यवस्था में पर्यटन का भी विशेष योगदान है। कोच्चि जहाम स्थित है, वह एर्णाकुलम जिला केरल में भ्रमण करने वाले कुल स्थानीय पर्यटकों की संख्या के अनुसार प्रथम स्थान पर है, और इस प्रकार से नगर की अर्थ-व्यवस्था में इसका योगदान गहरा है। फ़ोर्ट कोच्चि स्थित पर्यटक एन्क्लेव परिसर एवं अन्य पर्यटन स्थलों, ऐतिहासिक स्मारकों तथा इमारतों, संग्रहालयों, आदि के साथ–साथ वेम्बनाड झील तथा बैकवाटर्स जैसे प्राकृतिक आकर्षणों के कारण नगर ढेरों पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। स्थानीय निवासियों के लिये नगर में बड़ी संख्या में स्थित अस्पतालों एवं चिकित्सा सुविधाओं के माध्यम से रोज़गार का प्रधान स्रोत उपलब्ध होता है। कोच्चि बंदरगाह अन्तर्राष्ट्रीय जलयात्रियों के लिये नियमित रूप से उपयोग होने वाला बड़ा केन्द्र है। नगर में देश की प्रथम मैरीना सुविधा उपलब्ध होने से कोच्चि मरीना बड़ी संख्या में यॉट-चालकों का आकर्षण बना रहता है। कोच्चि की अर्थ-व्यवस्था में एक बड़ा योगदान यहां की तेजी से फ़लती-फ़ूलती रियल-एस्टेट उद्योग का भी है। यहां बहुत से छोटे-बड़े रिअल-एस्टेट व्यापारियों ने खूब कमाया है और ऊंचे लक्ष्य प्राप्त किये हैं। भारती नौसेना की दक्षिण नवल कमान का मुख्यालय कोच्चि नगर में स्थित है। यह भारतीय नौसेना का प्राथमिक प्रशिक्षण केन्द्र है। कोचीन शिपयार्ड का नगर में बड़ा आर्थिक योगदान है। तोप्पुमपाडी स्थित मछली-पकड़ने के तट पर छोटे तौर पर ये व्यवसाय चालू है तथा स्थानीय एवं आयात बाजार हेतु मत्स्य आपूर्ति करता है। कोच्चि के वर्ष पर्यन्त चलने वाले हार्बर की क्षमताओं का अधिक उपयोग करने हेतु एक अन्तर्राष्ट्रीय क्रूज़ टर्मिनल तथा कई मैरीनाज़ का निर्माण कार्य प्रगति पर है। o १ निर्यात एवं इससे सम्बद्ध अन्य कार्यकलापों का भी नगर की अर्थ-व्यवस्था में आर्थिक योगदान रहा है। वर्तमान में अपने विलिंगडन द्वीप स्थित टर्मिनल से कण्टेनर कार्गो के आयात एवं निर्यात आवागमन संभाल रहा है। वल्लारपड़म स्थित अन्तर्राष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल भारत का सबसे बड़ा कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल है। कोचीन पोर्ट ट्रस्ट की पुट्टुवाइप के निकट एक बाहरी बंदरगाह निर्माण की भी योजना है। कोच्चि की व्यापार पर एतिहासिक निर्भरता रही है जो आधुनिक काल में भी जारी है। आज भी कोच्चि अन्तर्राष्ट्रीय पेप्पर एक्स्चेंज के गृहस्थान की पदवी बनाए हुए है, जहां से काली मिर्च (पेप्पर) का वैश्विक स्तर पर व्यापार होता रहा है एवं अभी भी जारी है। भारतीय मसाला बोर्ड (स्पाइस बोर्ड ऑफ़ इण्डिया) एवं विश्व मसाला संघ (इण्टरनेशनल स्पाइस ऑर्गनाइज़ेशन) के मुख्यालय भी यहीं स्थित हैं। राज्य सरकार द्वारा बढ़ावा दिये गए सूचना प्रौद्योगिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाओं से संबद्ध उद्योगों का प्रसार भी यहां अपने उत्कर्ष पर है। सागर-निहित केबल्स के कारण सस्ती नेटवर्क बैण्डविड्थ एवं अन्य भारतीय शहरों की अपेक्षा सस्ती प्रचालन लागत इस नगर के इन उद्योग प्रसार हेतु एक बड़ी सहायक उपलब्धि रही है। नगर के बाहरी क्षेत्रों में विभिन्न प्रौद्योगिकी एवं औद्योगिक पार्क हैं। इनमें सरकार द्वारा बढ़ावा दिये गए इन्फ़ोपार्क, कोचीन विशेष आर्थिक क्षेत्र (कोचीन स्पेशल एकोनॉमिक ज़ोन) एवं किन्फ़्रा एक्स्पोर्ट प्रमोशन इण्डस्ट्रियल पार्क आदि कुछ प्रमुख हैं। इनके अलावा विभिन्न औद्योगिक परिसरों के निर्माण कार्य प्रगति पर है। कक्कनाड में स्मार्ट सिटी प्रस्ताव के तहत चल रही एक प्रमुख परियोजना है। कलामश्शेरी में चल रही साइबर सिटी परियोजना भी एक एकीकृत टाउनशिप एस.ई.ज़ेड है, जिसकी प्रसार योजना निजी क्षेत्र के अन्तर्गत्त चल रही है। कोच्चि में इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर उद्योग समूह है, जिसमें कुछ प्रमुख कंपनियाँ वी-गार्ड इण्डस्ट्रीज़, ओ.ई.एन इण्डिया लिमिटेड, एफ़सीआई-ओईएन कनेक्टर्स एवं एसएफ़ओ टेक्नोलॉजीज़ हैं। केरल सरकार द्वारा ३४० एकड़ के विस्तार में विस्तृत एक इलेक्ट्रॉनिक सिटी नाम के औद्योगिक पार्क की भी योजना बतायी गई है। यह परियोजना अन्य इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर उद्योगों में सहायक होगी। एक निजी संचालक एनईएसटी (NeST) 30 एकड़ (12 हेक्टे.) के क्षेत्र में एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन) का निर्माण कर रहा है, जो विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर हेतु बनायी जा रही है। कोचीन अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (सी.आई.ए) नेदुम्बश्शेरी के निकट ही एक ऍरोट्रोपॉलिस निर्माण की योजना बना रहा है। आवागमन वायु कोच्चि का वायु द्वार है कोच्चि अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र जो नगर से लगभग उत्तर में नेदुम्बश्शेरी में स्थित है व अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों का यहीं से आवागमन होता है। यह भारत में सरकारी निधि के बिना बनाये जाने वाला प्रथम विमानक्षेत्र है एवं विश्व का प्रथम पूर्ण सौर-ऊर्जा संचालित विमानक्षेत्र है। कोचीन अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र से मध्य-पूर्व एशिया, मलेशिया एवं सिंगापुर के प्रमुख गंतव्यों सहित भारत के प्रमुख शहरों तथा लक्षद्वीप जैसे पर्यटक-प्रिय गंतव्यों के लिये उड़ाल उपलब्ध हैं। कोच्चि में ही एयर इण्डिया एक्स्प्रेस सेवा का मुख्यालय भी स्थित है। के टर्मिनल क्षेत्र एवं २२०० (अन्तर्राष्त्रीय तथा देशीय) यात्री क्षमता के साथ, ये राज्य का सबसे बड़ा तथा व्यस्ततम विमानक्षेत्र है। अन्तर्राष्ट्रीय यात्री ट्रैफ़िक की गणना से यह भारत का चौथा व्यस्ततम व्यावयायी तथा अन्य दृष्टि से सातवां व्यस्ततम विमानक्षेत्र है। सड़क कोच्चि निकटवर्ती नगरों एवं पड़ोसी राज्यों से अनेक राजमार्गों द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। यह राष्त्रीय राजमार्गों के उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम गलियारे की एक कड़ी है। राष्ट्रीय राजमार्ग कोच्चि में राष्ट्रीय राजमार्ग ५४४, राष्ट्रीय राजमार्ग ९६६ए), राष्ट्रीय राजमार्ग ९६६बी एवं राष्ट्रीय राजमार्ग ६६ निकलते हैं। राज्य राजमार्ग केरल राज्य के विभिन्न राज्य राजमार्ग कोच्चि को राज्य के अन्य भागों से जोड़ते हैं। रा.रा १५, एत्तुमन्नूर-एर्णाकुलम मार्ग, नगर को कोट्टायम से जोड़ता है। रा.रा ४१, पलारिवत्तम-थेक्कड़ी मार्ग, जिले के पूर्वी भागों को मार्ग सुलभ कराता है। राज्य रा ६३, वाइपीन पालिपुरम मार्ग एवं राज्य रा ६६, अलपुझा – थोप्पुमपाड़ी मार्ग तटीय मार्ग हैं, जो बैकवाटर्स एवं सागर के बीच जाती संकरी भीमि पट्टी पर आवागमन सुलभ कराते हैं। नगर की सड़कें नगर का प्रमुख मार्ग तट के समानांतर चलने वाला महात्मा गांधी मार्ग एर्णाकुलम में १९२५ में निर्मित हुआ था। अन्य प्रमुख मार्गों में चित्तूर मार्ग, बानेर्जी मार्ग, शण्मुघम मार्ग (मैरीन ड्राइव में), कोच्चि बाइपास, कल्लूर कदावन्तरा मार्ग, पार्क एवेन्यु, सीपोर्ट-एयरपोर्ट मार्ग एवं एस.ए.मार्ग हैं। राज्य सरकार द्वारा कोच्चि नगर हेतु एक नवीन रिंग-मार्ग प्रस्तावित है, जिसके लिये नैटपैक (NATPAC) द्वारा एक परियोजना अध्ययन प्रगति पर है। सार्वजनिक परिवहन सड़क नगर के भीतर के लिये परिवहन का प्राथमिक रूप से बड़े स्तर पर निजी बस सेवाओं पर आधारित है। राज्य द्वारा संचालित बस सेवा भी तिरु-कोच्चि सर्विस नाम से नगर बस सेवा प्रदान करती है। नगर के बस टर्मिनलों में एर्णाकुलम टाउन, एर्णाकुलम जेट्टी प्रधान हैं तथा कलूर में निजी बस टर्मिनल भि है। वायतिला में एक एकीकृत ट्रांज़िट टर्मिनल मोबिलिटी हब नाम से निर्माणाधीन है। यह टर्मिनल नगर केन्द्र से सुदूर गंतव्यों हेतु बस सेवा के लिये केन्द्र का कार्य करता है। इसके अलावा यहां अन्य सार्वजनिक परिवहन सुविधाएं उपलब्ध हैं। कोच्चि भारत के चुने हुए उन नगरों में से है, जहां JNNURM नगर परिवहन विकास परियोजना के तहत न्यू जनरेशन वातानुकूलित निम्न-तल (लो-फ़्लोर) तथा गैर-वातानुकूलित अर्ध निम्न-तल (नॉन ए.सी सेमी लो-फ़्लोर) बस सेवाएं उपलब्ध हैं। केरलअर्बन रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (KURTC) तथा कई निजी संचालक भी पड़ोसी नगरों जैसे काकनाड, पोर्ट कोच्चि, नेदुम्बश्शेरी, पेरम्बवूर, अलुवा, मुवट्टुपुझा, कोटमंगलम एवं चेर्थला आदि को नियमित सेवाएं प्रदान करते हैं। कार टैसी तथातिपहिया रिक्शा (ऑटो) सेवा दिन भर किराये पर उपलब्ध रहते हैं। सड़क अवसंरचना के विकास का यातायात मात्रा में वृद्धि के साथ कदम मिलाकर न चल पाना ही कोच्चि शहर की राज्य के अन्य शहरों की ही भांति प्रमुख समस्याओं में से एक है। रेल नगर में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं – एर्णाकुलम जंक्शन एवं एर्णाकुलम टाउन (जिन्हें स्थानीय लोग क्रमशः साउथ तथा नॉर्थ रेलवे स्टेशन कहा करते हैं)। कोच्चि का मुख्य रेलवे नियंत्रण भारतीय रेल के दक्षिणी रेलवे ज़ोन द्वारा संचालित होता है व तिरुवनंतपुरम रेलवे मण्डल के अधीण आता है। साउथ स्टेशन दक्षिण भारत के व्यस्ततम रेलवे स्टेशनों में से एक है, जहां से प्रतिदिन १२८ अनुसूचित रेलगाड़ियां चलती हैं (अक्तू २०१० के अनुसार)। नॉर्थ स्टेशन नगर के उत्तरी छोर पर स्थित है, जहां अधिकतर वह गाड़ियां रुकती हैं, जो साउथ स्टेशन पर नहीं रुकती हैं। इनके अलावा कई अन्य गाड़ियों के ल्लिये एक अतिरिक्त स्टेशन का कार्य भी सुलभ करता है। एक अन्य ऐतिहासिक रेलवे स्टेशन: एर्णाकुलम टर्मिनस (स्टेशन कोड: ERG) केरल उच्च न्यायालय के पीछे स्थित है। भारत की महान हस्तियों जैसे महात्मा गांधी तथा ब्रिटिश वाइसरॉय आदि कोचीन शहर इसी स्टेशन से पहुंचे थे। ये टर्मिनल नगर को रेल सेवा प्रदान करने वाला प्रथम स्टेशन था, किन्तु १९६० के दशक के आरम्भ से ही इसका प्रयोग समाप्त कर दिया गया। वर्तमान में ये स्टेशन दक्षिणी रेलवे के लिये माल डिपो का कार्य सुलभ कराता है। कोच्चि मेट्रो कोच्चि मेट्रो मेट्रो त्वरित यातायात प्रणाली (एम.आर.टी.एस) के अन्तर्गत कोच्चि नगर के लिये मेट्रो रेल सेवा है। इसके आरम्भ से नगर व निकटवर्ती इलाकों में की परिवहन की यातायात संकुलन समस्या का समाधान संभव हुआ है। इस परियोजना की आरम्भिक लागत है। २०१७ में इसका निर्माण पूरा हुआ कोच्चि मेट्रो सेवा में २२ स्टेशन है एवं ये सेवा कोच्चि के डाउनटाउन क्षेत्रों से निकलते हुए अलुवा एवं पेट्टाह के निचले इलाकों से हो कर गुजरती है। जल कोच्चि भारत के प्रधान बंदरगाहों में से एक गिना जाता है, जिसका आंशिक कारण हिन्द महासागर में बने बंदरगाहों में से सुरक्षिततम बंदरगाह होना भी है। इस बंदरगाह का प्रशासन कोचीन पोर्ट ट्रस्ट नामक एक सांविधिक स्वायत्त निकाय के अधीन है। यह बंकरिंग, माल यातायात एवं यात्री जहाज के संभाल एवं निपटान तथा भण्डारण स्थान सुविधा उपलब्ध कराता है। यह बंदरगाह तीन द्वीपों का समूह है, जिनमें से एक विलिंग्डन द्वीप कृत्रिम है। यहाम से कोलंबो एवं लक्षद्वीप के लिये भी जहाजों का संचालन किया जाता है। नगर में स्थित विभिन्न बोट जेट्टियों से केरल शिपिंग एण्ड इनलैण्ड नैविगेशन कार्पोरेशन, केरल स्टेट वाटर ट्रांस्पोर्ट डिपार्टमेंट एवं कई निजी संस्थाओं द्वारा नाव सेवाएं भी संचालित की जाती हैं। एर्णाकुलम-वाइपिन, वाइपिन-फ़ोर्ट कोच्चि के बीच यातियों तथा वाहनों की जलमार्ग आवाजाही हेतु जंकर फ़ेरी सेवा उपलब्ध है। फिर भी गोश्री ब्रिजेज़ के निर्माण से (जिनके द्वारा कोच्चि के द्वीपों को जोड़ा गया है) फेरी परिवहन के प्रयोग में भारी कमी आयी है। नगर की बोट जेट्टियों में पार्क एवेन्यु के निकट एर्णाकुलम मेन बोट जेट्टी, बैनर्जी मार्ग के निकट हाई कोर्ट जेट्टी, विलिंग्डन द्वीप के निकट एम्बार्केशन जेट्टी तथा फ़ोर्ट कोच्चि जेट्टी प्रमुख हैं। जनसांख्यिकी कोच्चि की 601,574 की जनसंख्या में, कोच्चि शहर में केरल राज्य का सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व, ६३४० व्यक्ति प्रति कि.मी2 है। , कोच्चि की महानगरीय जनसंख्या 2,117,990 है। यहां का लिंगानुपात (महिला से पुरुष अनुपात) 1,028:1,000 है, जो भारत के राष्ट्रीय औसत 933:1,000 से कहीं अधिक है। कोच्चिकी साक्षरता दर 97.5% है। यहां की महिला साक्षरता दर पुरुषों से 1.1% पीछे है, जो भारत में अन्यत्र सर्वेक्षण हुए ऐसे अंतरों में सबसे कम है। कोच्चि के लोगों के प्रमुख धर्मों में हिन्दू, ईसाई एवं इस्लाम धर्म हैं। इनके अलावा बहुत कम संख्या में जैन, सिख, पारसी तथा बौद्ध धर्म के कोग भी मिलते हैं। हालांकि कुल संख्या का ४७% लोग हिन्दू ही हैं, फिर भी कोच्चि के ३५% ईसाई लोग इसे भारत के सर्वाधिक ईसाई धर्म के लोगों वाला शहर निश्चित करते हैं। नगर के अधिकांश निवासी मलयाली हैं, फिर भी अन्य जाति के लोग जैसे तमिल, गुजराती, यहूदी, आंग्ल-भारतीय, सिख एवं कोंकणी लोग भी अच्छी संख्या में यहां रहते हैं। यहां संचार का तथा विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मलयाली भाषा है। वैसे बहुत से विद्यालय अंग्रेज़ी माध्यम का विकल्प भी देते हैं। उच्च शिक्षा का माध्यम निर्विरोध रूप से अंग्रेज़ी ही है, तथा व्यावसायिक समूहों की भाषा भी अंग्रेज़ी ही है। इनके अलावा तमिल तथा हिन्दी भी अच्छी समझि जाती है, किन्तु उतनी बोली नहीं जाती है। विकासशील विश्व के अन्य तेजी से बढ़ते नगरों की भांति ही कोच्चि भी बड़े तौर पर शहरीकरण की समस्या से जूझ रहा है। नगर को घर की कीमत एवं उपलब्धता, घर की आय एवं शहरी गृह सघनता के आधार पर भारत के नगरों में दसवां स्थान मिला है। सरकार की नगर को २०१६ तक झुग्गी-झोंपड़ी मुक्त बनाने की योजना थी। राष्‍ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्‍यूरो के आंकड़ों के अनुसार, कोच्चि आपराधिक दर्ज आकड़ों में भारत में चौथा स्थान मिलता है। वर्ष २००९ में नगर में अपराध दर ६४६.३ दर्ज हुई, जो राष्त्रीय दर १८१.४ के मुकाबले कहीं अधिक है। किन्तु बाद में कोच्चि पुलिस आयुक्त ने स्पष्ट किया कि ऐसे आंकड़े भारत के अन्य शहरों के मुकाबले कोच्चि में अवस्क आपराधिक मामले अधिक दर्ज किये जाते हैं। राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (SCRB) की रिपोर्ट से इस तथ्य को अधिक समर्थन मिलता है। उनके अनुसार केरल राज्य में महिला अपराध मामले कोच्चि नगर में न्यूनतम हैं। वर्ष २०११ की इन्स्टिट्यूट ऑफ़ कंपिटीटिवनेस (CII) की लिवेबिअलिटी रिपोर्ट के अनुसार, कोच्चि रहने योग्य शहरों में राज्य में प्रथम एवं भारत में छठे स्थान पर आता है। नीलसन कंपनी के २००९ के अध्ययन के अनुसार कोच्चि भारत में दस सर्वोच्च समृद्ध नगरों में सातवें स्थान पर आता है। भारत के नगरों की स्वच्छ भारत रैंकिंग में चौथा सबसे स्वच्छ नगर का स्थान मिला है। नगर को भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के स्मार्ट सिटि मिशन के अन्तर्गत्त, चुने हुए १०० स्मार्ट शहर बनने वाले नगरों में चुना गया है। स्वास्थ्य सेवाएं बड़ी संख्या में तृतीयक/चतुष्क स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ, कोच्चि में भारत की सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाओं में से अधिकांश उपलब्ध हैं। यह केरल राज्य पर्यन्त अच्छी चिकित्सा सुविधाएं चाहने वाले लोगों के लिये प्रधान स्थान है। हाल के समय में इन सुविधाओं ने भारत के साथ साथ मध्य पूर्व, अफ़्रीकी देशों एवं यहां तक कि यूरोप तथा संयुक्त राज्य के रोगियों को आकर्षित किया है, क्योंकि यहां की चिकित्सा सेवाएं उन्नत एवं अपेक्षाकृत सस्ती हैं। कोच्चि केरल राज्य का अकेला शहर है जहां सफ़ल हृदय प्रत्यारोपण सम्पन्न हुआ है। अमृता इन्स्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ एण्ड रिसर्च सेण्टर, सनराइज़ अस्पताल, स्पेश्लिस्ट अस्पताल, मेडिकल ट्रस्ट अस्पताल, पीवीएस मेमोरियल अस्पताल, लेकशोर अस्पताल, लीज़ी अस्पताल, ऍस्टर मेडसिटी, राजगिरि इन्स्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ कोच्चि में उपलब्ध कुछ अत्योत्तम, उन्नत तृतूयक/चतुष्क सुविधाएं हैं। नगर में उपलब्ध अन्य प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों में एर्णाकुलम मेडिकल सेण्टर, किम्स अस्पताल, गौतम अस्पताल, रेनई मेडसिटी, लॉर्ड्स अस्पताल, कोच्चि मेडिकल कॉलेज, एवं सराफ़ अस्पताल हैं। भारत में स्थित कुछ प्रतिष्ठित उर्वरता केन्द्रों में से कुछ जैसे– विजया अस्पताल, बाउर्न हॉल क्लीनिक एवं CIMAR – कोच्चि में स्थित हैं। जनरल अस्पताल ,एर्णाकुलम कोच्चि का एकमात्र अच्छा सरकारी अस्पताल है। संस्कृति पिछली कुछ शताब्दियों के निरन्तर प्रवास के कारण कोच्चि नगर की जनसंख्या में केरल के सभी भागों का तथा भारत के भाग्पों का भी मिश्रण होता गया है। इसमें भारत-पर्यन्त संस्कृति इस नगर में विभिन्न जाति, राज्य, धर्मों के लोगों में दिखाई देती है। कोच्चि में विभिन्नता वाले, बहुसंस्कृतीय तथा धर्म-निर्पेक्ष समुदाय हैं, जैसे मलयाली, कोंकणी, गुजराती, बंगाली, मराठी, पंजाबी, तमिल, बिहारी, आंग्ल-भारतीय तथा कुछ यहूदी परिवार भी हैं, जो शांतिपूर्वक एवं धार्मिक सहिष्णुता के साथ रहते हैं। नगर में कभी यहूदी वर्ग बड़ी संख्या में रहा करता था, जिसे मालाबार यहूदेन कहा जाता था, और अब कोचिन ज्यूज़ कहलते हैं— जिनका कोच्चि के व्यापार एवं आर्थिक ढांचे में महत्त्वपूर्ण स्थान था। केरल के प्रथम आर्कडायोसीज़ आर्कडायोसीज़ ऑफ़ वॅरापॉली एवं डायोसीज़ ऑ कोचीन के रोमन कैथोलिक कैथेड्रल कोच्चि में ही बने हैं। सायरो-मालाबार गिरजाघर, २२ सुइ इयुरिस में से एक के ईस्टर्न कैथोलिक चर्च एवं सेंट थोमस क्रिस्चियन समुदाय के लोगों का एक प्रमुख स्थान एर्णाकुलम में है। ईसाई समुदाय के प्रमुख प्रार्थनास्थलों में से कुछ सेण्ट मैरीज़ सायरो-मालाबार कैथोलिक कॅथेड्रल, एर्नाकुलम, से.फ़्रांसिस असिसी रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, बैसेलिका ऑफ़ अवर लेडी ऑफ़ रैन्सम, वल्लारपाडम-एर्नाकुलम, सांता क्रूज़ बैसेलिका रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, फोर्ट कोच्चि, से.ऍन्थोनी’ज़ श्राइन, कल्लूर, से.जॉर्ज फ़ोरेन चर्च, इडपल्ली, आदि। मुख्य आकर्षण डच महल यह महल मूल रूप से पुर्तगालियों द्वारा बनवाया गया और कोचीन के राजा वीर केरला वर्मा को भेंट किया गया था। बाद में डच का इस पर अधिकार हो गया। उन्होंने 1663 में किले की मरम्मत कराई और किले को नया रूप दिया। इस किले में कोचीन के कई राजाओं का राज्याभिषेक हुआ था। इस किले में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों से संबंधित पेंटिंग्‍स बनी हुई है। महाल बोलघाट्टी महल इस महल को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं। डच लोगों द्वारा बनवाया गया यह महल बोलघट्टी द्वीप पर स्थित है। इस महल को अब एक लक्जरी होटल में तब्दील कर दिया गया है। बोलघट्टी में एक गोल्फ कोर्स भी है। यहां पर लोग पिकनिक मनाने भी आते है। हिल महल 19वीं शताब्दी में कोच्चि के राजा द्वारा यह महल बनवाया गया था। अब इसे केरला पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। संग्रहालय में चित्रकारी, नक्काशी और राजकीय वंश से संबंधित वस्तुओं को रखा गया हैं। बेशन बंगला इन्डो-युरोपियन शैली में बना यह बंगला 1667 ई. में बनवाया गया था। डच किले के स्ट्रोमबर्ग बेशन में स्थित होने के कारण इसका नाम बेशन बंगला पड़ा। इसकी छत में टाइलें लगी हुईं हैं और बरांमदा लकड़ी का बना हुआ है। मरीन ड्राइव कोच्चि के समुद्र तट के किनारे बना यह सड़क पर्यटकों के साथ स्थानीय लोगों को भी बहुत भाता है। यहां से समुद्र का नजारा बेहद आकर्षक लगता है। 140 मीटर लंबे इस सड़क को बेहद खूबसूरत ढंग से सजाया गया है। रेड कारपेट अल्ट्रा टाइल से बनी इस सड़क को शानमुगम रोड के नाम से भी जाना जाता है। मरीन ड्राइव के आसपास का इलाका बेहद खूबसूरत है। यहां हमेशा फिल्‍म की शुटिंग भी होती रहती है। चेराई बीच कोच्चि से 25 किमी दूर चेराई बीच की सुंदरता देखते ही बनती है। नारियल और खजूर के पेड़ों के अलावा पारंपरिक केरला के मकान इस बीच की खूबसूरती में चार चांद लगाते है। यहां डोल्फिन मछलियों को देखा जा सकता है। सेन्ट फ्रान्सिस चर्च (संत फ्रान्सिस गिरिजाघर) 1503 ई. में बना यह चर्च भारत का सबसे पुराना यूरोपियन चर्च है। प्रोटेस्टेंट डच द्वारा इसे 1779 में पुन:स्थापित किया गया। 1795 में अंग्रेजों ने इसे एंजलिकन चर्च में तब्दील कर दिया। कहा जाता है कि वास्को डि गामा को इस चर्च में दफनाया गया था। बाद में उसके अवशेष को पुर्तगाल ले जाया गया था। ऐतिहासिक संग्रहालय इडापल्ली में स्थित इस संग्रहालय में केरल के इतिहास को मूर्ति के माध्यम से दर्शाया गया है। संग्रहालय के बाहर परशुराम की प्रतिमा है। उसे देखकर लगता है जैसे वह आगंतुकों का अभिनंदन कर रही हो। कहा जाता है कि परशुराम ने ही केरल की स्थापना की थी। पल्लिपुरम किला यह किला यूरोपियन की प्राचीनतम स्मारकों में एक है। इसे 1503 में पुर्तगालियों ने बनवाया था। डच ने 1661 में इस किले पर अधिकार कर लिया और त्रावनकोर के राज्य को 1789 में बेच दिया था। परीक्षित थंपुरान संग्रहालय इस संग्रहालय में 19वीं शताब्दी की पेंटिंग, प्राचीन मुद्राएं, पत्थरों की मूर्तियां, पेंटिंग की प्रतिलिपियां, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि को रखा गया है। कोचीन के शाही परिवारों से जुड़ी अनेक वस्तुएं भी आपको यहां देखने को मिल जाएगीं। कांजिरामट्टम मस्जिद कोच्चि से 30 किमी की दूरी पर यह पवित्र मस्जिद स्थित है। कहा जाता है कि मुस्लिम संत शेख फरीद की कब्रगाह पर इसका निर्माण हुआ है। जनवरी में यहां चंदनाकूदम पर्व आयोजित किया जाता है। कालाडी यह स्थान आठवीं शताब्दी के महान भारतीय दार्शनिक आदि‍ शंकराचार्य की जन्मभूमि है। शंकराचार्य की याद में यहां दो मंदिर बनाए गए हैं। एक मंदिर दक्षिणामूर्ति और दूसरा देवी शारदा को समर्पित है। गम्यता वायुमार्ग- कोचीन का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भारत के प्रमुख शहरों से सीधा जुड़ा हुआ है। इंडियन एयरवेज और जेट एयरवेज आदि की फ्लाइट से कोच्चि पहुंचा जा सकता है। रेलमार्ग- एरनाकुलम में दो रेलवे स्टेशन हैं। एक उत्तर और दूसरा दक्षिण में। यहां से कोच्चि जाने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएं ली जा सकती हैं। एरनाकुलम भारत के अनेक शहरों से रेलगाड़ियों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग- कोच्चि सड़क मार्ग से अनेक पर्यटन केन्द्रों और शहरों से जुड़ा हुआ है। बैंगलोर से कोच्चि की दूरी 565 किमी, कोयंबटूर से 223 किमी, गोवा से 848 किमी, मद्रास से 694 किमी और मैसूर से 470 किमी है। राज्य परिवहन निगम की बसें कोच्चि के लिए नियमित रूप से चलती हैं। प्रसिद्ध वस्तुएं कोच्चि और उसके आसपास के क्षेत्रों से अनेक यादगार और लोकप्रिय वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। मट्टनचेरी, जिव स्ट्रीट और एम जी रोड़ खरीददारी के लिए प्रसिद्ध हैं। मट्टनचेरी से मसाले, चाय, काफी और स्मारिकाएं खरीदी जा सकती हैं। इसके साथ ही मुखोटे, पीतल की आकृतियां और लकड़ियों से बने श्रृंगार के बक्से खरीदे जा सकते हैं। यहां से प्राचीन काल के बर्तन भी खरीदे जा सकते हैं। मालाबार में मसालों की दुकानों से ताजे मसालों की खरीददारी की जा सकती है। भ्रमण समय सितंबर से मई की अवधि कोच्चि के पर्यटन के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। सन्दर्भ Ma Huan: Ying Yai Sheng Lan, The Overall Survey of the Ocean's Shores, translated by J.V.G. Mills, 1970 Hakluyt Society, reprint 1997 White Lotus Press. ISBN 974-8496-78-3 Plunkett, R, Cannon, T, Davis, P, Greenway, P & Harding, P (2001), Lonely Planet South India, Lonely Planet, ISBN 1-86450-161-8 Manorama Yearbook 2003 (English Edition) ISBN 81-900461-8-7 Robert Charles Bristow - Cochin Saga, Paico Pub. House; [2d ed.] edition (1967), Unemployment in Kerala at the turn of the century Insights from the CDS gulf migration studies - K. C. Zachariah, S. Irudaya Rajan Kochi Rajyacharithram by KP Padmanabha Menon. P(1914) Akhilavijnanakosam Malayalam Encyclopedia — D C Books Multimedia Series.</div> बाहरी कड़ियां कोच्चि नगर निगम की आधिकारिक वेबसाइट केरल सरकार - एर्नाकुलम प्रवेशद्वार भारत सरकार - एर्नाकुलम प्रवेशद्वार अरब सागर का रत्न‘ कहलाता है कोच्चि भारत के तटीय वासस्थान भारत की रियासतें भूतपूर्व पुर्तगाली उपनिवेश केरल के शहर हिन्द महासागर एर्नाकुलम ज़िला एर्नाकुलम ज़िले के नगर भारत में बंदरगाह नगर
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तिनसुकिया (Tinsukia) भारत के असम राज्य के तिनसुकिया ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का प्रशासनिक मुख्यालय तथा नगर निगम बोर्ड है। यह असम राज्य का एक प्रमुख क्षेत्रीय व्यापारिक केंद्र भी है। यह असम कि राजधानी गुवाहाटी से 486 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पूर्व में और अरुणाचल प्रदेश की सीमा से 84 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। असम के व्यापारिक राजधानी के रूप में प्रसिद्ध इस नगर में असमिया और अन्य भाषाई विशेषकर हिंदीभाषी, बंगाली, नेपाली और सिख लोग रहते हैं। कई नए मॉल और भवनों के निर्माण के साथ शहर एक आधुनिक शहर का रूप लेता जा रहा है। तिनसुकिया एक औद्योगिक और वाणिज्यिक केंद्र है जहाँ कृषि उत्पादों जैसे चाय, संतरे, अदरक और धान के भारी पैदावार के साथ साथ अनेक उद्यम भी प्रतिष्ठित हैं। तिनसुकिया में असम का सबसे बड़ा रेलवे जंक्शन है और यह जिले को देश के कई महत्वपूर्ण स्थलों से जोड़ता है। भौगलिक स्थिति तिनसुकिया शहर २७°३०′ उ ९५°२२′ पू / २७.५° उ ९५.३७° पू पर स्थित है। यह शहर ११६ मीटर (३८० फीट) की औसत ऊंचाई पर अवस्थित है। इतिहास पुराने समय में तिनसुकिया को बेंगमारा के नाम से जाना जाता था तथा मूल रूप से यह चांगमाई पथार के रूप में जाना जाता था। यह मटक राज्य की राजधानी थी जिसे स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंघा ने स्थापित किया था। स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंघा जो मेज़ारा भी कहलाता था एक योग्य प्रशासक के रूप में जाना जाता था। सर्वानन्द सिंघा नाम उसने राजा बनने के बाद अपनाया. सर्वानन्द सिंघा के निर्देश अनुसार उनके मंत्री गोपीनाथ बरबरुवा उर्फ़ गोधा बरबरुवा ने त्रिकोणीय आकार में एक तालाब का निर्माण किया जो तिनकोनिया पुखुरी के नाम से जाना जाता है। १८८४ में जब डिब्रू-सादिया रेल लाइन बिछाई गई थी तब इस तालाब के निकट एक स्टेशन का निर्माण किया गया था जो तिनसुकिया स्टेशन कहलाता था। बाद में इसी तिनसुकिया नाम से यह शहर जाना जाने लगा. १८वीं सदी के बाद के हिस्से और 19वीं सदी के प्रारंभिक भाग के दौरान असम के इतिहास में मटक राजवंश का एक अलग ही स्थान है। मटक लोगों ने असम के इतिहास में पहली बार सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात किया था जिसे के मोमारिया विद्रोह रूप में जाना जाता है। इस विद्रोह से उन्होंने पराक्रमी अहोम साम्राज्य को हिलाकर असम के इतिहास को बदल डाला था। १८४१ में कप्तान हेमिल्टन वेच द्वारा तैयार नक्शे के अनुसार वर्तमान डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिले के एक बड़े हिस्से को "मोमारिया जनजाति के बेंगमारा देश” के रूप में पहचान की गई थी जिसकी राजधानी बेंगमारा में थी। असम के इतिहास में उत्तर पूर्व कोने में इस क्षेत्र बेंगमारा को बाद में “सौमार का मटक देश” नाम से लोकप्रियता मिली. मटक राज्य के पहले राजा स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंघा थे। सर्वानन्द सिंघा ने गुहिजान नदी के किनारे स्थित रंगागोड़ा में अपनी राजधानी को स्थापित किया। १७९१ ई. में उन्होंने बेंगमारा में अपनी राजधानी को स्थानांतरित कर दिया. स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंघा के दिनों में कई तालाबें खोदे गए। जैसे चावलधोवा पुखुरी, कदमनि पुखुरी, दा धरुवा पुखुरी, माहधोवा पुखुरी, बाटोरपुखुरी, लोगोनीपुखुरी, नापुखुरी, देवीपुखुरी, कुम्भीपुखुरी, रुपहीपुखुरी आदि. इसके अलावा मटक क्षेत्र के विभिन्न भागों में कई प्राचीन रास्ते निर्माण किये गए। गोधा बरबरुआ रोड, रंगागोड़ा रोड, राजगोढ़ सड़क और हाथिआली रोड क्षेत्र के मुख्य सड़क थे। प्रमुख आगंतुक महात्मा गांधी ने तिनसुकिया का दौरा किया और २० मार्च १९३४ को कचुजान क्षेत्र में एक जनसभा को संबोधित किया। १९३४ में जवाहर लाल नेहरू ने तिनसुकिया, डिगबोई, दूमदूमा आदि का दौरा किया। जलवायु तिनसुकिया में गर्मी, सर्दी और मौसमी चक्र बनाने वाले मानसून के द्वारा एक नम उष्णकटिबंधीय जलवायु पेश करती है। तिनसुकिया में ग्रीष्मकाल मार्च से मई के महीनों के दौरान आम तौर पर रहती है। इन महीनों में २४ डिग्री सेल्सियस (न्यूनतम) और ३१ डिग्री सेल्सियस (अधिकतम) का तापमान रहता है। वर्षा गर्मियों के महीनों के दौरान होती रहती हैं और नमी (आद्रता) के इस मौसम के दौरान अपने चरम पर पहुँच जाती है। मानसून (जून से सितंबर) के महीने तिनसुकिया में भारी वर्षा लाते हैं। तिनसुकिया में सर्दियाँ अक्टूबर से फरवरी के महीने के दौरान होती हैं। सर्दियाँ मौसम सुखद परन्तु धूलभरे रहते हैं और इस समय के दौरान इस क्षेत्र में तापमान लगभग २४ डिग्री सेल्सियस (अधिकतम) ११ डिग्री सेल्सियस (न्यूनतम) के बीच रहता है। परिवहन तिनसुकिया हवाई मार्ग, राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलवे से जुड़ा हुआ शहर है। यह गुवाहाटी, असम के राज्य की राजधानी से सड़क मार्ग से ४८६ किमी दूर है। निकटतम हवाई अड्डा मोहनबाड़ी, डिब्रूगढ़ में है जो तिनसुकिया से लगभग ४० किमी दूर है। यहाँ से दिल्ली, गुवाहाटी, कोलकाता और पूर्वोत्तर राज्यों कि राजधानियों के लिए दैनिक और साप्ताहिक हिसाब से हवाई यात्रा उपलब्ध हैं। तिनसुकिया शहर बहुत अच्छी तरह से रेलवे से जुड़ा हुआ है। यह भारतीय रेल के पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के अंतर्गत आती है। इस शहर मे दो रेलवे स्टेशन है- न्यु तिनसुकिया जंक्शन और दूसरा है तिनसुकिया जंक्शन। ज्यादातर गाड़ियाँ न्यु तिनसुकिया स्टेशन से ही रवाना होती है। नई तिनसुकिया रेलवे स्टेशन से कई महत्वपूर्ण ट्रेन जैसे - डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस, ब्रह्मपुत्र मेल, कामरूप एक्सप्रेस, कामख्या एक्सप्रेस, चेन्नई एक्सप्रेस, लेडो इंटर सिटी एक्सप्रेस आदि चलते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 15 तिनसुकिया से होकर गुजरती है और यह अन्य राष्ट्रीय राजमार्गों जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग 315 और राष्ट्रीय राजमार्ग 315ए से जुडी हुई है। ३७ नंबर राष्ट्रीय राजमार्ग तिनसुकिया को राज्य के अन्य शहरों जैसे डिब्रूगढ़, जोरहाट, नौगाँव, गुवाहाटी आदि से जोडती है। इन शहरों के लिए दिन और रात्रि दोनों समय डीलक्स बसे चलती रहती है। अरुणाचल प्रदेश तथा राज्य के विभिन्न जगहों पर जाने के लिए असम राज्य परिवहन निगम द्वारा संचालित बसें, प्राइवेट बसें, विंगर और छोटे वाहन नियमित रूप से चलती हैं। स्थानीय परिवहन में ऑटो रिक्शा, ट्रैकर्स, रिक्शा आदि बुनियादी साधन हैं। जनसांख्यिकी २०११ में भारत की जनगणना के आधार में, तिनसुकिया की आबादी १,२५,२१६ है। पुरुषों की जनसंख्या ५५% और महिलाओं की ४५% है। तिनसुकिया की औसत साक्षरता दर ७०.१५% है जो के राष्ट्रीय औसत ६४.८४% से अधिक है। पुरुष साक्षरता दर ७७.८९% है और महिला साक्षरता ६३.५४% है। तिनसुकिया में, जनसंख्या का तमाम विवरण इस प्रकार है- व्यावसायिक केंद्र तिनसुकिया असम के वाणिज्य राजधानी के रूप में माना जाता है। यह शहर पूर्वी और दक्षिण पूर्वी अरुणाचल प्रदेश सहित दुलियाजान, नाहरकटिया, नामरूप, डूमडूमा, मार्घेरिटा, लेडो, जागुन, सदिया जैसे जगहों पर सामान आपूर्ति का केंद्र है। दैनिक जरूरत का हर सामान जैसे कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण, कंप्यूटर हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर, अच्छी गुणवत्ता की चाय, खाद्य सामग्री, सब्जियां, मांस-मछली, अंडे यहाँ से विभिन्न स्थानों पर भेजी जाती हैं। यह शहर लकड़ी से संबंधित उत्पादों के लिए जाना जाता था परन्तु सरकार के नयी वन-नीति के कारण लकड़ी उद्योग प्राय: दम तोड़ चुका है। लकड़ी की कई फेक्ट्रियां जैसे किटप्लाई आदि बंद हो चुके हैं और कई बंद होने के कगार पर हैं। चैंबर रोड यहाँ के वाणिज्यिक केंद्र की हृदयस्थली है। आकर्षण के केंद्र शिव धाम: शिव धाम, भगवान शिव को समर्पित एक बड़ा मंदिर है, जिसके परिसर के भीतर स्थित एक बड़ा तालाब है। तिनसुकिया से २.५ कि॰मी॰ दूर ३७ नम्बर हाईवे के किनारे स्थित यह मंदिर शिवरात्रि के समय लोगों के आकर्षण का केंद्र रहता है। रेलवे हेरिटेज पार्क: न्यू तिनसुकिया रेलवे जंक्शन के प्रांगण में स्थित यह पार्क तिनसुकिया का प्रमुख आकर्षण है। इस पार्क में एक संग्रहालय है जो १९वीं सदी के विविध संग्रहों और रेलवे के अन्वेषकों को दर्शाती है। दिल्ली और कोलकाता के बाद तिनसुकिया केवल तीसरा ऐसा शहर है जहाँ ऐसा संग्रहालय है। इस पार्क में ब्रिटेन निर्मित छोटी लाइन भाप इंजन, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना द्वारा इस्तेमाल किये गये रेलवे पहियों और १८९९ में बनाये गए छोटी गेज के डब्बे जो टिपोंग कोलियरी से कोयले की ढुलाई के लिए इस्तेमाल किये जाते थे जैसी चीजें प्रदर्शित की गयीं है। यहाँ लोगों के मनोरंजन के लिए टॉय-ट्रेन और बच्चों के खेलने और मनोरंजन के कई साधन हैं। नौपुखुरी पार्क: नौपुखुरी तिनसुकिया के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में स्थित नौ तालाबों का एक समूह है। यह राजा सर्वानन्द सिंघा की अवधि के दौरान बनाया गया एक ऐतिहासिक स्थान है। इसे मारुत नंदन कानन नाम से भी पुकारा जाता है। यहाँ एक सुन्दर उद्यान है और बच्चों के खेलने और मनोरंजन के कई साधन हैं। होटलों की सूची होटल हाईवे, रेलवे फ्लाईओवर के पास, ए.टी. रोड होटल बैलेरीना, प्रकाश बाजार, ए.टी. रोड होटल सेंटर प्वाइंट, सुपर मार्किट, जी.एन.बी. रोड होटल प्रेसिडेंट, रेलवे स्टेशन के पास होटल मद्रास, डेली बाज़ार, जी.एन.बी. रोड होटल रिट्ज, रंगागड़ा रोड होटल रॉयल हाइनेस, जी.एन.बी. रोड पद्मिनी रिसोर्ट, रंगागड़ा रोड (तिनसुकिया से ५ कि.मी.) होटल अरोमा रेजीडेंसी, रंगागड़ा रोड होटल ईस्ट इंटरनेशनल, चिरवापट्टी होटल ज्योति, रंगागड़ा रोड होटल मिड टाउन, ए.टी. रोड अस्पतालों की सूची लोकप्रिय गोपीनाथ बरदलै सिविल अस्पताल, बरदलैनगर सिटी हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर, जी.एन.बी. रोड लाइफलाइन हॉस्पिटल, जी.एन.बी. रोड जीवनज्योति हॉस्पिटल, पर्बतिया आदित्य हॉस्पिटल और डायगोनोसिस, रंगागड़ा रोड पाइनवुड हॉस्पिटल, सुबचनि रोड डे’ज नर्सिंग होम, तामुलबारी अपोलो क्लिनिक, रंगागड़ा रोड स्वस्तिक नर्सिंग होम प्रमुख बाजार विशाल मेगा मार्ट रंगघर काम्प्लेक्स डेली बाज़ार प्रकाश बाजार सुपर मार्किट शांति सुपर मार्किट न्यू मार्किट ए.टी.सी. मॉल टी.डी.ए. प्लाजा शिक्षा स्कूलों की सूची विवेकानंद केंद्र विद्यालय, तिनसुकिया सेनाईराम उच्च माध्यमिक विद्यालय (१९३७ में स्थापित) ए न्यू हाई स्कूल गुरु तेग बहादुर अकादमी आवर एबीसी अकादमी, बरगुडी कोर्ट तीनाली सेंट स्टीफ़न 'हाई स्कूल', बोरदोलोई नगर भागवत विद्या मंदिर हाई स्कूल, श्रीपुरिया डॉन बॉस्को हाई स्कूल, तिनसुकिया डॉन बॉस्को हाई स्कूल हिन्दी इंग्लिश हाई स्कूल होली चाइल्ड गर्ल्स/बॉयज हाई स्कूल बेबीज नर्सरी स्कूल बड्स नर्सरी स्कूल बडिंग बड्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल हिंदुस्तानी विद्यालय पाइनवुड स्कूल बिमला प्रसाद चालिहा नगर स्कूल आदर्शा प्राथमिक स्कूल सार्वजनीन बालिका विद्यालय सार्वजनीन हिन्दी बालिका विद्यालय सोमारज्योति विद्यालय बंगाली गर्ल्स हाई स्कूल रेलवे हाई स्कूल तिनसुकिया बंगीय विद्यालय (एच.एस.) बरगुडी हाई स्कूल तिनसुकिया इंग्लिश अकादमी जातीय विद्यालय केन्द्रीय विद्यालय, तिनसुकिया तिनसुकिया रेलवे हाई स्कूल कॉलेजों की सूची तिनसुकिया कॉलेज विमेंस कॉलेज इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (विमेंस कॉलेज शाखा) कृष्णकांत हंडीकै राज्यिक मुक्त विश्वविद्यालय (तिनसुकिया कॉलेज एवं तिनसुकिया कॉमर्स कॉलेज शाखा) जी.एस. लोहिया गर्ल्स कॉलेज तिनसुकिया लॉ कॉलेज तिनसुकिया कॉमर्स कॉलेज (श्रीपुरिया) अन्य जानकारी इस शहर का पिनकोड-७८६१२५ (तिनसुकिया), ७८६१२६(बरगुडी) एवं ७८६१९२ (हिजुगुड़ी, न्यु तिनसुकिया) है। एस टी डी कोड -+९१(०३७४) है। इन्हें भी देखें तिनसुकिया ज़िला सन्दर्भ असम के नगर तिनसुकिया ज़िला तिनसुकिया ज़िले के नगर
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नासिक (Nasik) या नाशिक (Nashik) भारत के महाराष्ट्र राज्य के नाशिक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय और महाराष्ट्र का चौथा सबसे बड़ा नगर है। नाशिक गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है। यह महाराष्ट्र के उत्तर पश्चिम में, मुम्बई से १५० किमी और पुणे से २०५ किमी की दुरी में स्थित है। यह शहर प्रमुख रूप से हिन्दू तीर्थयात्रियों का प्रमुख केन्द्र है। इस शहर का सबसे प्रमुख भाग पंचवटी है। इसके अलावा यहां बहुत से मंदिर भी है। नाशिक में त्योहारों के समय में बहुत अधिक संख्या में भीड़ दिखाई पड़ती है। इतिहास नाशिक शक्तिशाली सातवाहन वंश के राजाओं की राजधानी थी। मुगल काल के दौरान नासिक शहर को गुलशनबाद के नाम से जाना जाता था। इसके अतिरिक्त नाशिक शहर ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में भी अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने १९३२ में नाशिक के कालाराम मंदिर में अस्पृश्योंको प्रवेश के लिये आंदोलन चलाया था। मुख्य आकर्षण नाशिक आस्था का शहर है। यहां आपको बहुत से सुंदर मंदिर और घाट देखने को मिलेगें। यहां विभिन्न त्योहारों को बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। यहां ज्‍यादातर भगवान के प्रति आस्‍था रखने वाले पर्यटक अधिक संख्‍या में आर्कषित होते है। कुंभ मेला नाशिक में लगने वाला कुंभ मेला, जिसे यहाँ सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है, शहर के आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र है। भारतीय पंचांग के अनुसार सूर्य जब कुंभ राशी में होते है, तब प्रयागराज में कुंभमेला लगता है और सूर्य जब सिंह राशी में होते है, तब नाशिक में सिंहस्थ होता है। इसे कुंभमेला भी कहते है। अनगिनत श्रद्धालु इस मेले में आते हैं। यह मेला बारह साल में एक बार लगता है। इस मेले का आयोजन महाराष्ट्र पर्यटन निगम द्वारा किया जाता है। भारत में यह धार्मिक मेला चार जगहों पर लगता है। यह जगह नाशिक, प्रयागराज, उज्जैन और हरिद्वार में हैं। प्रयागराज में लगने वाला कुंभ का मेला सबसे बड़ा धार्मिक मेला है। इस मेले में हर बार विशाल संख्या में भक्त आते हैं। इस मेले में आए लाखों श्रद्धालु गोदावरी नदी में स्नान करते हैं। यह माना जाता है कि इस पवित्र नदी में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति मिलती है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष आने वाले शिवरात्रि के त्योहार को भी यहां बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। हजारों की संख्या में आए तीर्थयात्री इस पर्व को भी पूरे उमंग और उत्साह के साथ मनाते हैं। इस त्योहार में आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए राज्य सरकार कुछ विशेष प्रकार का प्रबंध करती है। यहां दर्शन करने आए तीर्थयात्रियों के रहने के लिए बहुत से गेस्ट हाउस और धर्मशाला की सुविधा मुहैया कराई जाती है। यहां स्थित घाट बहुत ही साफ और सुंदर है। त्योहारों के समय यहां सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाते हैं। पंचवटी पंचवटी नाशिक के उत्तरी भाग में स्थित है। माना जाता है कि भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय के लिए पंचवटी में रहे थे। इस कारण भी पंचवटी प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में पंचवटी में जिस जगह से सीता का अपहरण किया गया था वह जगह पांच बरगद के पेडों के समीप है। सीता गुम्फा गुम्फा का शब्दिक अर्थ गुफा होता है। सीता गुम्फा पंचवटी में पांच बरगद के पेड़ के समीप स्थित है। यह नाशिक का एक अन्य प्रमुख आकर्षण जगह है। इस गुफा में प्रवेश करने के लिए संकरी सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने सीताहरण इसी जगह से किया था। सुंदरनारायण मंदिर यह मंदिर नाशिक में अहिल्याबाई होल्कर सेतु के किनारे स्थित है। इस मंदिर की स्थापना गंगाधर यशवंत चंद्रचूड ने १७५६ में की थी। इस मंदिर में भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। भगवान विष्णु को सुंदरनारायण के नाम से भी जाना जाता है। मोदाकेश्वर गणेश मंदिर मोदाकेश्वर गणेश मंदिर नाशिक में स्थित एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर में स्थित मूर्ति में बारे में ऐसा माना जाता है कि यह मूर्ति स्वयं ही धरती से निकली थी। इसे शम्भु के नाम से भी जाना जाता है। महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध मीठा व्यंजन मोदक है जो नारियल और गुड़ को मिलाकर बनाया जाता है। मोदक भगवान गणेश का भी प्रिय व्यंजन है। रामकुंड] रामकुंड गोदावरी नदी पर स्थित है, जो असंख्य तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां भक्त स्नान के लिए आते हैं। अस्थि विसर्जन के लिये यह कुंड एक पवित्र स्थान माना जाता है। यह माना जाता है कि जब भगवान श्री राम नासिक आए थे तो उन्होंने यही स्नान किया था। यह एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। कालाराम मंदिर नाशिक में पंचवटी स्थित कालाराम मंदिर वहां के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण गोपिकाबाई पेशवा ने १७९४ में करवाया था। हेमाडपंती शैली में बने इस मंदिर की वास्तुकला बहुत ही खूबसूरत है। इस मंदिर की वास्तुकला त्र्यंबकेश्वर मंदिर के ही सामान है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मंदिर काले पत्थरों से बनाया गया है। शिरडी शिरडी एक छोटा सा गांव है जो कोपरगाव तालुका (जिल्हा अहमदनगर) में स्थित है। शिरडी भारत के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। इस मंदिर के पुजारी महालसापति इन्हें साईं बाबा कहकर बुलाते थे। इसके अतिरिक्त यह मंदिर अपने अदभूत चमत्कारों के लिए भी काफी प्रसिद्ध था। सोमेश्वर मंदिर सोमेश्वर मंदिर नाशिक में स्थित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर में महादेव सोमेश्‍वर की प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर गंगापुर रोड़ पर स्थित है। नाशिक शहर से इस मंदिर की दूरी लगभग 6 कि.मी है। विभिन्न त्योहार नाशिक में त्योहारों को पूरे उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है। अगस्त के महीने में आने वाली श्रवण पूर्णिमा और महापर्व श्रवण अमावस्या तथा सितम्बर के महीने आने वाली भद्रापद अमावस्या सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके अलावा गणेश चतुर्थी, दशहरा, दीवाली, होली और अन्य सभी त्योहारों को भी उतने ही खुशी और उल्लास के साथ मनाया जाता हैं। नाशिक में स्थित कीर्ति कला मंदिर में कृष्णा जयंती महोत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस मंदिर में हर वर्ष प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा बेहतरीन प्रदर्शन किया जाता है। खाना परम्परागत खाने के शौकीन लोगों के लिए नाशिक में बहुत ही कम रेस्तरां है। सबसे बेहतर खाने के लिए आप ताज रेजिडेंसी से स्थित रेस्तरां में जा सकते हैं। इसके अलावा यहां चौबीस घंटे कॉफी शॉप की सुविधा भी है। होटल नटराज में स्थित आमंत्रण रेस्तरां में आप शुद्ध शाकाहारी राजस्थानी थाली का भी स्वाद ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप यहां चाइनीज, कोंटिनेंटल, मुगलई, तंदूरी, दक्षिणी और फास्ट फूड का भी मजा ले सकते हैं। आवागमन निकटवर्ती अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा - मुम्बई, नाशिक शहर से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर। निकटवर्ती घरेलू हवाई अड्डा - मुम्बई, नाशिक शहर से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर। निकटवर्ती रेलवे स्थानक - नाशिक रोड़, नाशिक शहर से लगभग 9 कि॰मी॰ की दूरी पर। निकटवर्ती बस स्थानक- नाशिक शहर में सिटी बस स्टेंड। बसमार्ग- सरकारी बस स्टैंड (यह आसिद बस स्टैंड के नाम से भी जाना जाता है) दादर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित है। इसके अलावा प्राइवेट एसी/ बिना एसी की बसें भी उपलब्ध है। इसके लिए आपको पहले से ही स्थानीय पर्यटक कार्यालय (जो दादर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित है) में बुकिंग करानी होगी। टैक्सी- हवाई अड्डे से आपको प्री-पेड टैक्सी आसानी से मिल जाएगी। आपको नाशिक घूमने के लिए रेलवे स्टेशन के सामने से टैक्सी आसानी से मिल जाएगी जो के पूरा नासिक घुमाने के लिए 2500 रुपए लेगी और यही टैक्सी आपको इन्हीं पैसों में शिर्डी शाम को छोड़ देगी यदि आपको नासिक ही घूमना है तब आपको 1400 रुपए तक टैक्सी मिल जाएगी रेलमार्ग- नाशिक पहुंचने के लिए आप मुंबई से नागपूर, कलकत्ता, बिहार तथा उत्तर प्रदेश की ओर जानेवाली किसी भी ट्रेन के द्वारा सीधा नाशिक रोड स्‍टेशन उतर सकते है। दिल्‍ली/नई दिल्‍ली/हज.निज़ामुद्दीन से यात्रा करने वालों के लिए हजरत निजाम़द्दीन से 3 रेल रोजाना एवं 1 द्वि साप्‍ताहिक रेल सुविधा उपलब्‍ध है। रोज चलने वाली रेलों में12172हावड़ा-लोकमान्‍य तिलक टर्मिनस द्विसाप्‍ताहिक रेल है जो हजरत निजामुद्दीन से बुधवार शनिवार को 00-10 पर चलकर शाम को 7-43 (लगभग 19 घंटे में) पर नासिक रोड पहुँचती है। यह हरिद्वार से रुड़की मेरठ होते हुए निजामुद्दीन चल कर आगरा केंट,झाँँसी,भोपाल, भुसावल होते हुए नासिक पहुँचती है। इसी प्रकार रोज चलने वाली 12618 मंगला एक्‍स प्रात: नौ बजे चल कर मथुरा आगरा केंट होते हुए भोपाल भुुसावल होते हुए सुबह 5 बजे नासिक (20 घंटे) पहुँचती है। इसी मार्ग पर12138पंजाब मेल नई दिल्‍ली से सुबह 5-15 बजे चल कर नासिक दूसरेे दिन 02-48 पर पहुँचती है। एक अन्‍य रेल11058अमृतसर छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई एक्‍सप्रेस अमृतसर से चल कर रात्रि 9-15 हजरत निजामुद्दीन से चल कर उपरोक्‍त मार्ग से ही नासिक दूसरी रात 22-58लगभग(26 घंटे) नासिक होते हुए छ.शि.टर्मि; मुंबई पहुँचती है। राजस्‍थान जाने वालों के लिए सुबह कोटा से रोजाना चलने वाली कोटा-निजामुद्दीन जनशताब्‍दी रेल से सुबह 5-55 सेे चल कर मथुरा 10-15 पर उतर कर 11-08 पर मंगला एक्‍सप्रेस पकड़ी जा सकती है। इसी प्रकार लौटने के लिए मंगला एक्‍सप्रेस सबसे सुविधाजनक गाड़ी है, इसलिए नासिक रोड से शाम 5 बजे के लगभग इस गाड़ी से यात्रा कर मथुरा सुबह 11 बजे के लगभग उतर कर 15-30 पर निजामुद्दीन-कोटा जनशताब्‍दी रेल से यात्रा की जा सकती है। मंगला एक्‍सप्रेस रेल के विलम्‍ब से चलने पर भी मथुरा से पश्चिम मध्‍य रेल्‍वे की कई रेल हैं जो भरतपुर-सवाईमाधोपुर-कोटा की ओर जाकर नागदा-रतलाम होते हुए बड़ौदा-मुंबई की ओर यात्रा कर सकते है। जयपुर के लिए सवाई माधोपुर, उज्‍जेन इन्‍दौर के लिए नागदा या रतलाम उतरा जा सकता है। जनशताब्‍दी रेल मथुरा से न मिलने पर उसके बाद, फिरोजपुर जनता एक्‍सप्रेस, पश्चिम एक्‍सप्रेस, निजामुद्दीन-उदयपुर मेवाड़, गुजरात सम्‍पर्क क्रांति, युवा एक्‍सप्रेस आदि गाडि़या मिल सकती हैं। इन्हें भी देखें नाशिक ज़िला गोदावरी नदी कुंभ मेला सन्दर्भ नाशिक ज़िला महाराष्ट्र के शहर नाशिक ज़िले के नगर
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भरतपुर (Bharatpur) भारत के राजस्थान राज्य के भरतपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण भरतपुर राजस्थान का एक प्रमुख शहर होने के साथ-साथ देश का सबसे प्रसिद्ध पक्षी उद्यान भी है। 29 वर्ग कि॰मी॰ में फैला यह उद्यान पक्षी प्रेमियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है। विश्‍व धरोहर सूची में शामिल यह स्थान प्रवासी पक्षियों का भी बसेरा है। और यह अपने समय में जाटों का गढ़ हुआ करता था। यहाँ के मंदिर, महल व किले जाटों के कला कौशल की गवाही देते हैं। राष्ट्रीय उद्यान के अलावा भी देखने के लिए यहाँ अनेक जगह हैं इसका नामकरण राम के भाई भरत के नाम पर किया गया है। लक्ष्मण इस राज परिवार के कुलदेव माने गये हैं। इसके पूर्व यह जगह सोगडिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था जिसको महाराजा सूरजमल ने जीता और 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली भरतपुर राज्य भरतपुर नाम से यह एक स्वतंत्र राज्य भी था जिसकी नींव महाराजा सूरजमल ने डाली। महाराजा सूरजमल के समय भरतपुर राज्य की सीमा आगरा,अलवर,धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी,पलवल, गुरुग्राम (गुड़गाँव), तथा मथुरा तक के विस्तृत भू-भाग पर फैली हुई थी। भरतपुर के महाराजाओं की सूची भरतपुर वंश के पूर्वज सिनसिनवार गोत्र के जाट थे, गोकुला, ? - 1670 राजाराम (भरतपुर), 1670 - 1688 चूड़ामन, 1695 - 1721 बदन सिंह, 1722 - 1756 महाराजा सूरजमल, 1756 - 1767 महाराजा जवाहर सिंह, 1767 - 1768 महाराजा रतन सिंह, 1768 - 1769 महाराजा केहरी सिंह, 1769 - 1771 महाराजा नवल सिंह, 1771 - 1776 महाराजा रणजीत सिंह, 1776 - 1805 महाराजा रणधीर सिंह, 1805 - 1823 महाराजा बलदेव सिंह, 1823 - 1825 महाराजा बलवन्त सिंह, 1825 - 1853 महाराजा जशवन्त सिंह, 1853 - 1893 महाराजा राम सिंह, 1893 - 1900 (Exiled) महारानी गिरिराज कौर, regent 1900-1918 महाराजा किशन सिंह, 1900 - 1929 महाराजा ब्रजेन्द्र सिंह, 1929-1947 (Joined the Indian Union) महाराजा विश्वेन्द्र सिंह, वर्तमान महाराजाcabinet minister of rajasthsan(dismissed from position in 2020) मुख्य आकर्षण भरतपुर राष्ट्रीय उद्यान भरतपुर राष्ट्रीय उद्यान केवलादेव घना के नाम से भी जाना जाता है। केवलादेव नाम भगवान शिव को समर्पित मंदिर से लिया गया है जो इस उद्यान के बीच में स्थित है। घना नाम घने वनों की ओर संकेत करता है जो एक समय इस उद्यान को घेरे हुए था। यहाँ करीब ३७५ प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं जिनमें यहाँ रहने वाले और प्रवासी पक्षी शामिल हैं। यहाँ भारत के अन्य भागों से तो पक्षी आते ही हैं साथ ही यूरोप, साइबेरिया, चीन, तिब्बत आदि जगहों से भी प्रवासी पक्षी आते हैं। पक्षियों के अलावा साम्भर, चीतल, नीलगाय आदि पशु भी यहाँ पाये जाते हैं। गंगा महारानी मंदिर यह मंदिर शहर का सबसे सुंदर मंदिर है। वास्तुकला की राजपूत, मुगल और दक्षिण भारतीय शैली का खूबसूरत मिश्रण गंगा महारानी मंदिर का निर्माण भरतपुर के शासक महाराजा बलवंत सिंह ने करवाया था। मंदिर की दीवारों और खम्भों पर की गयी बारीक और सुंदर नक्काशी दर्शनीय है। मंदिर को पूरा होने में 91 वर्ष समय लगा। यहाँ पूरे देश तथा विदेशों से हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। केवल श्रद्धा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि अपने अद्भुत वास्तुशिल्प के कारण भी यह मंदिर लोगों को आकर्षित करता है। देवी गंगा की मूर्ति के अलावा भरतपुर के इस मंदिर में मगरमच्छ की एक विशाल मूर्ति है जिन्हें देवी गंगा का वाहन भी माना जाता है। हर साल भक्त हरिद्वार से गंगाजल लाकर देवी के चरणों के पास रखे विशाल रजत पात्र में डालते हैं। माना जाता है कि जब देवी गंगा अपना दिव्य आशीर्वाद इस जल में डालती है तब यह जल भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में बाँट दिया जाता है। बाँके बिहारी मंदिर बाँके बिहारी मंदिर भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। माना जाता है कि यहाँ भगवान कृष्ण भक्तों की सभी आकांक्षाओं को पूरा करते हैं। भरतपुर का बाँके बिहारी मंदिर भारत के उन मंदिरों में से एक है जहाँ हमेशा सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी रहती है। आरती से पहले भगवान की प्रतिमा को वस्त्र और आभूषणों से सजाया जाता है। मुख्य कक्ष के बाहर बरामदे की दीवारों पर भगवान कृष्ण के बचपन को दर्शाते चित्र देखे जा सकते हैं। मंदिर की दीवारों और छतों पर अनेक देवी-देवताओं की सुंदर तस्वीरें बनायी गयी हैं। लक्ष्मण मंदिर लक्ष्मण मंदिर का निर्माण महाराजा बलवंत सिंह ने 1870 में करवाया था। उनके पिता महाराजा बलदेव सिंह श्री संत दास के सम्पर्क में आये और तब उन्होंने इस मंदिर की नींव रखी। श्री संत दास लक्ष्मण जी के भक्त थे और जीवनपर्यंत उनके प्रति समर्पित रहे। इस मंदिर की नींव रखने के बाद महाराजा बलदेव सिंह ने बलवंत सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। मंदिर को पूरा कराने का श्रेय महाराजा बलवंत सिंह को जाता है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में लक्ष्मण जी और उर्मिला जी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं, इनके अलावा राम, भरत, शत्रुघ्न तथा हनुमान जी की छोटी मूर्तियाँ भी यहाँ देखे जा सकते हैं। ये सभी प्रतिमाएँ अष्टधातु से बनी हैं। यह मंदिर पत्थरों पर की गयी खूबसूरत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। लोहागढ़ किला महाराजा सूरजमल ने एक अभेद्य किले की परिकल्पना की थी, जिसके अन्तर्गत शर्त यह थी कि पैसा भी कम लगे और मजबूती में बेमिशाल हो। राजा साहब ने इस विषय पर मंत्रियों, दरबारियों तथा विद्वतजनों से गहन विचार-विमर्श किया, तत्कालीन युद्ध के साधनों एवम् उनकी मारक क्षमता का ध्यान रखते हुए किला बनाने का निर्णय लिया गया, जिसके फलस्वरूप किले के दोनों तरफ मजबूत दरवाजे जिनमें नुकीले लोहे की सलाखें लगायी गयी। उस समय तोपों तथा बारुद का प्रचलन अत्यधिक था, जिससे किलों की मजबूत से मजबूत दीवारों को आसानी से ढहाया जा सकता था। इसलिए पहले किले की चौड़ी-चौड़ी मजबूत पत्थर की ऊँची-ऊँची प्राचीरें बनायी गयी, अब इन पर तोपों के गोलों का असर नहीं हो इसके लिए इन दीवारों के चारों ओर सैकड़ों फुट चौड़ी कच्ची मिट्टी की दीवार बनायी गयी और नीचे सैकड़ों फुट गहरी और चौड़ी खाई बनाकर उसमें पानी भरा गया, जिससे दुश्मन के द्वारा तोपों के गोले दीवारों पर दागने के बाद वो मिट्टी में धँसकर दम तोड़ दे और अगर नीचे की ओर प्रहार करे तो पानी में शान्त हो जाए और पानी को पार कर सपाट दीवार पर चढ़ना तो मुश्किल ही नहीं असम्भव था। मुश्किल वक्त में किले के दरवाजों को बन्द करके सैनिक सिर्फ पक्की दीवारों के पीछे और दरवाजों पर मोर्चा लेकर पूरे किले को आसानी से अभेद्य बना लेते थे। जिस किले में लेशमात्र भी लोहा नहीं लगा और अपनी अभेद्यता के बल पर लोहगढ़ कहलाया। जिसने समय-समय पर दुश्मनों के दाँत खट्टे किये और अपना लोहा मनवाने में शत्रु को मजबूर किया। ऐसे थे भरतपुर के दूरदर्शी राजा। लोहागढ़ किले का निर्माण 18वीं शताब्दी के आरम्भ में जाट शासक महाराजा सूरजमल ने करवाया था। यह किला भरतपुर के जाट शासकों की हिम्मत और शौर्य का प्रतीक है। अपनी सुरक्षा प्रणाली के कारण यह किला लोहागढ़ के नाम से जाना गया। किले के चारों ओर गहरी खाई हैं जो इसे सुरक्षा प्रदान करती है। यद्यपि लोहागढ़ किला इस क्षेत्र के अन्य किलों के समान वैभवशाली नहीं है लेकिन इसकी ताकत और भव्यता अद्भुत है। किले के अन्दर महत्त्वपूर्ण स्थान हैं— किशोरी महल, महल खास, मोती महल और कोठी खास। सूरजमल ने मुगलों और अंग्रेजों पर अपनी जीत की याद में किले के अन्दर जवाहर बुर्ज और फतेह बुर्ज बनवाये। यहाँ अष्टधातु से निर्मित एक द्वार भी है जिसमें हाथियों के विशाल चित्र बने हुए हैं। आस-पास के दर्शनीय स्थल डीग के महल भरतपुर से 34 कि॰मी॰ उत्तर में डीग नामक बागों का खूबसूरत नगर है। शहर के मुख्य आकर्षणों में मनमोहक उद्यान, सुन्दर फव्वारा और भव्य जलमहल शामिल है। यह शहर बड़ी संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। डीग के राजमहलों में निर्मित गोपाल भवन का निर्माण सन् 1780 में किया गया था। खूबसूरत बागीचों से सजे इस भवन से गोपाल सागर का नज़ारा देखा जा सकता है। भवन के दोनों ओर दो छोटी इमारतें हैं, जिन्हें सावन भवन और भादो भवन के नाम से पुकारा जाता है। डीग का किला भरतपुर के आसपास घूमना तब तक अधूरा है जब तक डीग किला नहीं देख लिया जाता। राजा सूरजमल ने इस किले का निर्माण कुछ ऊँचाई पर करवाया था। किले का मुख्य आकर्षण यहाँ की घड़ी मिनार है, जहाँ से न केवल पूरे महल को देखा जा सकता है बल्कि नीचे शहरों का नजारा भी लिया जा सकता है। इसके ऊपर एक बंदूक रखी है जो आगरा किले से यहाँ लायी गयी थी। खाई, ऊँची दीवारों और द्वारों से घिरे इस किले के अवशेष मात्र ही देखे जा सकते हैं। पक्षी विहार एवं केवलादेव घना राष्ट्रीय उद्यान एशिया में पक्षियों के समूह प्रजातियों वाला सर्वश्रेष्ठ उद्यान के लिए प्रसिद्ध है। भरतपुर की गर्म जलवायु में सर्दियाँ बिताने प्रत्येक वर्ष साइबेरिया के दुर्लभ सारस यहाँ आते हैं। एक समय में भरतपुर के राजकुँवरों की शाही शिकारगाह रहा यह उद्यान विश्व के उत्तम पक्षी विहारों में से एक है जिसमें पानी वाले पक्षियों की चार सौ से अधिक प्रजातियों की भरमार है। गर्म तापमान में सर्दियाँ बिताने अफगानिस्तान, मध्य एशिया, तिब्बत से प्रवासी चिड़ियों की मोहक किस्में तथा आर्कटिक से साइबेरियन, साइबेरिया से भूरे पैरों वाले हंस और चीन से धारीदार सिर वाले हंस जुलाई-अगस्त में आते हैं और अक्टूबर-नवम्बर तक उनका प्रवास काल रहता है। उद्यान के चारों ओर जलकौओं, स्पूनबिल, लकलक बगुलों, जलसिंह इबिस और भूरे बगूलों का समूह देखा जा सकता है। इन्हें भी देखें भरतपुर ज़िला भरतपुर राष्ट्रीय उद्यान केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान सन्दर्भ भरतपुर ज़िले के नगर
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विजयवाड़ा भारत के आंध्रप्रदेश राज्य में स्थित राज्य का दुसरा बड़ा शहर है जो कृष्णा नदी के तट पर स्थित नगर है भारत का कनक दुर्गा माता मंदिर सबसे प्राचीन मंदिर है जो विजयवाड़ा में स्थित है विवरण विजयवाड़ा आंध्र प्रदेश के पूर्व-मध्य में कृष्णा नदी के तट पर स्थित है। दो हज़ार वर्ष पुराना यह शहर बैजवाड़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह नाम देवी कनकदुर्गा के नाम पर है, जिन्हें स्थानीय लोग विजया कहते हैं। यह क्षेत्र मंदिरों और गुफाओं से भरा हुआ है। यहाँ भगवान मालेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य इस मंदिर में आए थे और उन्होंने यहाँ श्रीचक्र स्थापित किया था। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग भी विजयवाड़ा आया था। विजयवाड़ा के पास में एक पहाड़ी पर स्थित विक्टोरिया म्यूजियम में एक काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी बुद्ध की विशालकाय मूर्ति है।पैगम्बर मुहम्मद के पवित्र अवशेष के रूप में इस स्थल की मुसलमानों में लोगप्रियता है। यहाँ पाँचवी सदी की भोगलराजपुरम की गुफाओं में तीन गुफा मंदिर हैं, जिसमें भगवान नटराज, विनायक और अन्य मूर्तियाँ हैं। अर्द्धनारीश्वर की यहाँ मिली मूर्ति दक्षिण भारत अपने तरह की इकलौती मूर्ति मानी जाती है। यहाँ की गुफाओं में उंद्रावल्ली की प्रमुख गुफा है, जो सातवीं सदी में बनाई गई थी। शयन करते विष्णु की एक शिला से निर्मित मूर्ति यहाँ की कला का श्रेष्ठ नमूना है। विजयवाड़ा के दक्षिण में 12 किलोमीटर दूर मंगलगिरि की पहाड़ी पर विष्णु के अवतार भगवान नरसिंह का विख्यात मंदिर है। विजयवाड़ा से 45 किलोमीटर दूर गंडीवाड़ा में जैन और बौद्धों के अनेक पवित्र अवशेष मिले हैं। बौद्ध स्तूपों के अवशेषों वाली 99 छोटी समाधियाँ यहाँ का एक अन्य विशिष्ट स्थल है। इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है। इन्हें भी देखें विजयवाड़ा ज़िला सन्दर्भ आन्ध्र प्रदेश के नगर कृष्णा जिला कृष्णा ज़िले के नगर
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लुधियाना (Ludhiana) भारत के पंजाब राज्य के लुधियाना ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ऐतिहासिक नगर सतलुज नदी के किनारे सन् 1480 में बसाया गया था। इसका नाम लोधी वंश के ऊपर रखा गया। नामोत्पत्ति व इतिहास इसका प्राचीन नाम लोधी-आना था, जो कि लोधी राजपूतों के नाम पर था। सतलुज नदी के किनारे स्थित यह शहर 1480 में दिल्ली की लोधी राजपूतों द्वारा स्थापित किया गया था। प्रथम सिख युद्ध (1845) में लुधियाना में एक बड़ी लड़ाई लड़ी गयी थी। लुधियाना अब पंजाब का सबसे अधिक आबादी वाला महानगरीय शहर है। यहाँ का प्रमुख व्यापार कपड़ा निर्माण, ऊनी वस्त्र, मशीन टूल्स, मोपेड, तथा सिलाई मशीनों के इंजीनियरिंग केंद्र हैं। इसके होज़री माल की पूर्व और पश्चिम के सभी बाजारों में काफी मांग है, और यह ऊनी वस्त्र, मशीन टूल्स, मोपेड, सिलाई मशीन और मोटर पार्ट्स को पूरी दुनिया में निर्यात करता है। विशव प्रसिद्ध पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना में स्थित है। इसमें बड़े अनाज बाजार हैं, और यह ग्रामीण ओलंपिक के लिए भी प्रसिद्ध है। इस जगह के आसपास स्थित कई गुरुद्वारों का ऐतिहासिक महत्व है। एक और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक लोधी किला है, जो लगभग 500 वर्ष पुराना है, और मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी द्वारा सतलुज नदी के तट पर बनाया गया था। भूगोल पंजाब के मध्यवर्ती स्थित शहरों में से एक, लुधियाना सतलज नदी के किनारे पर स्थित है। यह रोपर और फतेहगढ़ साहिब की सीमाओं और पश्चिम में, फरीदकोट के क्षेत्रों को अपनी सीमाओं पर छूता है। दक्षिण की ओर से संगरूर और पटियाला का जिला है। इसकी स्थलाकृति एक जलोढ़ मैदान के प्रतिनिधि है और जिले को सतलज बाढ़ के मैदान में विभाजित करती है। (लुधियाना का इंटरैक्टिव मानचित्र) इतिहास लुधियाना का इतिहास 1481 तक एक लंबा रास्ता तय करता है जब यह मीर होता नामक एक छोटा गांव था। प्रारंभ में १९४९ तक योध्श द्वारा शासित हुए, बाद में यह राजा समुद्रगुप्त और राजपूतों के अधीन आया। मूल लुधियानाविया वास्तव में 9 वीं शताब्दी में बहुत बाद में बसे। १९ वीं शताब्दी की शुरुआत में, यह एक छोटी अवधि के लिए महाराजा रणजीत सिंह (१८०६) के शासनकाल के तहत किया गया है। उस समय के दौरान, यह एक महत्वपूर्ण ब्रिटिश छावनी बन गया, जो पहले 1809 में अंग्रेजों ने किया था। उन्होंने महाराजा के नियंत्रण को सतलज नदी के दाहिनी किनार तक सीमित कर दिया और ब्रिटिश सैनिकों को स्थायी रूप से लुधियाना में तैनात किया गया। लुधियाना में रुचि के स्थान गुरुद्वारा मंजी साहिब, आलमगीर लुधियाना से 10 किमी की दूरी पर, गुरुद्वारा इस जगह की याद दिलाता है जहां मुस्लिम भक्तों नबी खान और गनी खान ने गुरु गोबिंद सिंह को युद्ध के दौरान सुरक्षा के लिए भेजा था। गुरु गोबिंद सिंह जी (1666-1708), सिख गुरुओं के अंतिम, शांतिवादी सिख पंथ को एक मार्शल समुदाय में बदल दिया। उन्होंने 'खालसा' के रूप में जानेवाली अच्छी तरह से संगठित सिख सेना में दीक्षा की शुरूआत की। वहां एक सरोवर है जहां यह माना जाता है कि गुरुजी ने वंहा धरती मैं तीर कर पानी निकला था। पीर-आई-दस्तीगिर मंदिर लुधियाना के उत्तर-पश्चिम में किले में पीर-ई-दस्तगीर का मंदिर भी शामिल है, जिसे अब्दुल कादिर गैलानी भी कहा जाता है, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों तीर्थयात्रीों को आकर्षित करता है। फिल्लौर क़िला यह किला महाराज रणजीत सिंह के बहादुर जनरल दीवान मोहकम चंद ने बनाया था। यह अब पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय संग्रहालय 1962 में स्थापित विश्व प्रसिद्ध पंजाब कृषि विश्वविद्यालय शहर के बाहरी इलाके में स्थित है। यह लैंड ग्रांट कॉलेज ऑफ अमेरिका के बाद पैटर्न है। पंजाब के ग्रामीण इतिहास का संग्रहालय विश्वविद्यालय के परिसर में है। संग्रहालय की इमारत ग्रामीण पंजाब के पारंपरिक घरों के समान है। एक 100 यार्ड लंबा मार्ग, दोनों तरफ पानी के चैनलों से घूमता है, संग्रहालय के पतले नक्काशीदार दरवाजे की ओर जाता है। पुराने कांस्य के बर्तन, खेती के उपकरण आदि के प्रदर्शन हैं। गुरुद्वारा चरण कमल लुधियाना से 35 किमी गांव माछीवाड़ा गांव में स्थित यह गुरुद्वार एक ऐसी जगह का स्मरण करता है जहां एक विशाल मुगल सेना के खिलाफ एक गुरिल्ला युद्ध लड़ते हुए श्री गुरु गोबिंद सिंह ने विश्राम किया था। गुरुद्वारा नानकसर जगराओं यह लुधियाना से 38 किमी दूर स्थित है, सिख संत के एक उल्लेखनीय स्मारक है। घंटा घर यह लुधियाना के बीच बाजार में स्थित है,जो की बहुत ही सुन्दर बाजार है। यहाँ प्रत्येक रविवार को एक भीड़ बाजार लगता है,जहाँ कम मूल्यो पर सामान मिलता है। आवागमन श्रीनगर से कन्याकुमारी जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 5 और पकिस्तान सीमा के समीप स्थित फ़िरोज़पुर से तिब्बत सीमा तक जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 44 दोनो यहाँ से गुज़रते हैं। इन्हें भी देखें लुधियाना ज़िला सन्दर्भ पंजाब के शहर लुधियाना ज़िला लुधियाना ज़िले के नगर
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राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है। राजस्थान को पर्यटन नगरी के नाम से भी जाना जाता हैं। यहाँ कम जनसंख्या घनत्व के कारण जनसंख्या की दृष्टि से भारत का सातवाँ सबसे बड़ा राज्य है। जयपुर राजस्थान का सबसे बड़ा और सबसे अधिक जनसंख्या वाला और राज्य का राजधानी क्षेत्र है। जोधपुर, कोटा और बीकानेर इसके बाद में आते हैं। भिवंडी, अलवर और उदयपुर जनसंख्या की दृष्टि से हाल में सबसे तेजी से वृद्धि वाले नगर हैं। वर्ष 2031 तक राजस्थान में 5 नगर 10 लाख से अधिक संख्या को प्राप्त करने की सम्भावना है जिनमें से 3 नगरों की जनसंख्या 20 लाख और एक नगर की जनसंख्या 50 लाख से अधिक होने की सम्भावना है। 2021 - 2031 में श्रेणीवार नगर: {| class="wikitable" text-align:left; margin:0 0 0 1em;" |- ! क्र॰सं॰ ! नगर श्रेणी ! 2031 ! 2021 ! टिप्पणी |- valign="top" | 1 | 100,000 से अधिक जनसंख्या वाले | 35 | 35 | नगर पालिका सन्दर्भ राजस्थान से सम्बन्धित सूचियाँ राजस्थान के शहर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "राजस्थान के शहर", "token_count": 1176, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0" }
सहरसा (Saharsa) भारत के बिहार राज्य के सहरसा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले और कोसी प्रमंडल का मुख्यालय भी है। यह कोसी नदी के समीप पूर्व में बसा हुआ है। विवरण ज़िले के रूप में सहरसा की स्थापना 1 अप्रैल 1954 को हुई थी जबकि 2 अक्टुबर 1972 से यह कोशी प्रमण्डल का मुख्यालय है। यहाँ कन्दाहा में सूर्य मंदिर एवं प्रसिद्ध माँ तारा स्थान महिषी ग्राम में स्थित है। प्राचीन काल से यह स्थान आदि शंकराचार्य तथा यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ के लिए भी विख्यात रहा है। इसी के बगल में स्थित बनगांव में बाबा लक्ष्मीनाथ गोसाईं का प्रसिद्ध मंदिर है। पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष एवं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल का जन्मस्थल भी यहीं है। == इतिहास kunal Kumar gupta सहरसा मिथिला राज्य का हिस्सा था। बाद में मिथिला मगध साम्राज्य के विस्तारवाद का शिकार हो गया। बनमनखी-फारबिसगंज रोड पर सिकलीगढ में एवं किशनगंज पुलिस स्टेशन के पास मौर्य स्तंभ मिलने से यह बात प्रमाणित है। १९५६ में प्रसिद्ध इतिहासकार आर के चौधुरी के निर्देशन में हो रहे खुदाई के दौरान गोढोघाट एवं पटौहा में आहत सिक्के मिले हैं। मगध साम्राज्य में बिम्बिसार के समय बौद्ध धर्म के राजधर्म बनने पर यहाँ भी बौद्ध प्रभाव बढने लगा। जिले का बिराटपुर, बुधियागढी, बुधनाघाट, पितहाही और मठाई जैसी जगहों पर बौद्ध चिह्न मिले हैं। ७वीं सदी में जब आदि शंकराचार्य भारत भ्रमण पर निकले और शास्त्रार्थ द्वारा हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना करने लगे तब उनका आगमन सहरसा जिले के महिषी ग्राम में हुआ। कहा जाता है जब आदि शंकराचार्य ने यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया तब उनकी विदुषी पत्नी भारती ने उन्हे चुनौती दी तथा शंकराचार्य को पराजित कर दिया। भूगोल सहरसा जिला कोशी प्रमंडल एवं जिला का मुख्यालय शहर है। इसके उत्तर में मधुबनी एवं सुपौल, दक्षिण में खगड़िया, पूर्व में मधेपुरा एवं पश्विम में दरभंगा और समस्तीपुर जिला स्थित है। जिले का कुल क्षेत्रफल 1,661.3 वर्ग कि०मी० है। नेपाल की ओर से आने वाली नदियों में प्रायः हर साल आने वाली बाढ और भूकंप जैसी भौगोलिक आपदाओं से प्रभावित होता रहा है। बाढ के दिनों में नाव दुर्घटना से प्रतिवर्ष दर्जनों लोग काल के गाल में समा जाते हैं। वर्ष २००८ में कोशी बाँध टूटने से उत्पन्न बाढ लाखों लोगों के लिए तबाही एवं मौत का पर्याय बन गयी। ज़िले की प्रमुख नदियाँ कोशी, धेमरा एवं कोशी की वितरिकाएँ हैं। नगर के प्रमुख अधिवास सहरसा, सिमरी बख्तियारपुर, महिषी सौरबजार एवं नौहट्टा हैं। जनसांख्यिकी 2011 की भारत जनगणना के अनुसार इस नगर की कुल जनसंख्या 1,56,540 थी, जिसमें से 83,291 पुरुष और 73,249 स्त्रियाँ थीं। इसका साक्षरता दर 75.63% था। कुल जनसंख्या में से 25,748 निवासी 6 वर्ष से कम आयु के बच्चे थे। प्रशासनिक विभाजन सहरसा जिले के अंतर्गत २ अनुमंडल एवं १० प्रखंड हैं। अनुमंडल- सहरसा सदर (७ प्रखंड) एवं सिमरी बख्तियारपुर (३ प्रखंड) प्रखंड- कहरा, सत्तर कटैया, सौर बाजार, पतरघट, महिषी, सोनबरसा, नौहट्टा (सभी सहरसा अनुमंडल अंतर्गत), सिमरी बख्तियारपुर, सल्खुआ एवं बनमा ईटहरी पर्यटन स्थल चौसठ योगिनी रक्त काली मंदिर या मतस्यगंधा मंदिर कोसी भर में प्रसिद्ध है l यहाँ सैकड़ों लोग प्रतिदिन पूजा और संध्या काल में घुमने आते हैं। यहां चौसठ योगिनी मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है। के अंदर एक स्थान पर 108 मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। इसमें माँ काली की एक बहुत बड़ी प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर के उत्तर दिशा में एक पुरानी झील का निर्माण किया गया था जो वर्षो से वीरान पड़ा था। पिछले वर्ष 2017 में तत्कालीन जिला पदाधिकारी के द्वारा झील का पुनर्निर्माण करवाया गया, जिससे मंदिर के सौन्दर्य में चार चांद लग गया। पर्यटकों को झील में बोटिंग की सुविधा भी प्रदान की गई। तारा स्थान (महिषी) - सहरसा से १६ किलोमीटर पश्विम स्थित महिषी ग्राम में स्थित अति प्राचीन तारा स्थान लोगों की श्रद्धा का सबसे बड़ा केंद्र है। यहाँ माँ तारा के साथ एकजटा और नील सरस्वती प्रतिमाएँ पूजित हैं। मंडन-भारती स्थान (महिषी) - महिषी प्रखंड में स्थित यह स्थान अद्वैतवाद के प्रवर्त्तक शंकराचार्य एवं मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती के बीच हुए शास्त्रार्थ का गवाह है। सूर्य मंडिर (कन्दाहा) - भारत प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश रहा है। इस संस्कृति के कुछेक पहलू अभी भी अच्छी तरह से ज्ञात नहीं है। इन्हीं में से एक प्राचीन सूर्य मंदिर के रूप में सहरसा जिले के कन्दाहा गाँव में मौजूद है। मिथिलान्तार्गत कोशी एवं धर्ममूला नदी के बीच अवस्थित एक छोटा सा गाँव कन्दाहा की पुण्यमयी धराधाम में अवस्थित संपूर्ण विश्व की अद्वितीय सुर्यमूर्ती जो कि द्वापर युगीन है, की एक अनोखी गाथा है। सर्वप्रथम इस प्राचीन धरोहर को संजोकर रखनेवाला कन्दाहा गाँव का प्राचीन नाम कंदर्पदहा था, जिसका शाब्दिक अर्थ है- कंदर्प (कामदेव) का जहां दहन हुआ हो। पुराणों के अनुसार श्री शिवजी के द्वारा कामदेव का दहन इसी कन्दाहा की धरती पर किया गया था ,अतः इस जगह का नाम कंदर्पदहा पड़ा जो कालांतर में कन्दाहा में परिणत हो गया। मूर्तिपरिचय कन्दाहा की सूर्यमूर्ति प्रथम राशि मेष की है, जिसका प्रमाण सिंहाशन पर मेष का चिह्न होना है। पांच फीट की सूर्यमूर्ति आठ फीट के सिंहासन में सात घोड़ों के रथ पर अपनी दोनों पत्नियों, संज्ञा एवं छाया, जिनको विभिन्न पुरानों में विभिन्न नाम दिया गया है के साथ विराजमान हैं, जिसका संचालन सारथि अरुण कर रहे हैं। साथ ही, बाएं भाग में संवत्सर चक्र भी विद्यमान है। भगवन सूर्य के दो हाथ हैं ,जिसमें कमल का फूल दृष्टिगोचर होता है ,जिसमे बायाँ हाथ मुग़ल आतताइयों द्वारा खंडित कर दिया गया था। सिंहासन की अद्भुत कलाकृति तो देखते ही बनता है। सूर्यमूर्ति के दायें भाग में अष्टभुज गणेश एवं बाएं भाग में शिवलिंग और सामने श्री सुर्ययंत्र रखा हुआ है। गर्भगृह के द्वार पर चौखट पर उत्कीर्ण कलाकृति एवं लिपि भी अपने आप में बेमिसाल है। लेकिन दुर्भाग्यवश सभी मूर्तियों को मुगलों द्वारा कुछ न कुछ क्षति पहुचाई गयी है। सूर्य मन्दिर कंदहा गाँव सहरसा मुख्यालय से पश्चिम १२ किमी पर सतरवार (गोरहो) चौक से तीन किमी उत्तर पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है जहाँ हजारों भक्तजन आते है और भगवान् भास्कर की पूजा अर्चना कर मनचाहा फल पाते हैं। महाभारत और सूर्य पुराण के अनुसार इस सूर्य मंदिर का निर्माण 'द्वापर युग' में हो चुका था। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र 'शाम्ब' किसी त्वचा रोग से पीड़ित थे जो मात्र यहाँ के सूर्य कूप के जल से ठीक हो सकती थी। यह पवित्र सूर्य कूप अभी भी मंदिर के निकट अवस्थित है। इस के पवित्र जल से अभी भी त्वचा रोगों के ठीक होने की बात बताई जाती है। यह सूर्य मंदिर सूर्य देव की प्रतिमा के कारण भी अद्भुत माना जाता है। मंदिर के गर्भ गृह में सूर्य देव विशाल प्रतिमा है, जिसे इस इलाके में ' बाबा भावादित्य' के नाम से जाना जाता है। प्रतिमा में सूर्य देव की दोनों पत्नियों 'संग्य' और 'kalh' को दर्शाया गया है। साथ ही 7 घोड़े और १४ लगाम के रथ को भी दर्शाया गया है। इस प्रतिमा की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह बहुत ही मुलायम काले पत्थर से बनी है। यह विशेषता तो कोणार्क एवं देव के सूर्य मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती। परन्तु सबसे अद्भुत एवं रहस्यमयी है मंदिर के चौखट पर उत्कीर्ण लिपि जो अभी तक नहीं पढ़ी जा सकी है। परन्तु दुर्भाग्य से इस प्रतिमा को भी औरंगजेब काल में अन्य अनेक हिन्दू मंदिरों की तरह ही क्षतिग्रस्त कर दिया गया। इसी कारण से प्रतिमा का बाँया हाथ, नाक और जनेऊ का ठीक प्रकार से पता नहीं चल पाता है। इस प्रतिमा के अन्य अनेक भागों को भी औरंगजेब काल में ही तोड़कर निकट के सूर्य कूप में फेंक दिया गया था, जो १९८५ में सूर्य कूप की खुदाई के बाद मिले हैं। १९८५ के बाद यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन आ गया। पुरातत्व विभाग ने मंदिर की देख रेख के लिए एक कर्मचारी को नियुक्त कर रखा है। परन्तु सरकार की तरफ से इस मंदिर के जीर्णोधार एवं विकास के प्रति उपेक्षा ही बरती गयी है। वह तो यहाँ के कुछ ग्रामीणों की जागरूकता एवं सहयोग के कारण मंदिर अपने वर्तमान स्वरुप में मौजूद है। इनमे नुनूं झा एवं जयप्रकाश वर्मा समेत अनेक ग्रामीणों का सहयोग सराहनीय रहा है। इस मंदिर को बिहार सरकार के तरफ से प्रथम सहयोग तब मिला जब अशोक कुमार सिंह पर्यटन मंत्री बने। उन्होंने इस मंदिर के विकाश के लिए २००३ में ३००००० (तीन लाख) रु० का अनुदान दिया। परन्तु यह रकम मंदिर के विकास के लिए प्रयाप्त नहीं थी। फिर भी इस रकम से मंदिर परिसर को दुरुस्त किया गया। साथ ही मुख्य द्वार का निर्माण हो सका। परन्तु अभी भी इस मंदिर एवं इस पिछड़े गाँव के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है, जिससे कि इस अद्भुत मंदिर की गिनती बिहार के मुख्य पर्यटन स्थल के रूप में हो सके। कारु खिरहरी मंदिर लक्ष्मीनाथ गोंसाई स्थल (बनगाँव) देवन वन शिव मंदिर(देवन) शिव मंदिर (नौहट्टा) दुर्गा मंदिर (उदाही) बाबा बटेश्वर धाम (बलवाहाट) नीलकंठ मंदिर (चैनपुर) चंड़ीस्थान मंदिर (बिराटपुर) नगर स्थापना पुराणों के अनुसार द्वापर युग में श्री कृष्ण की पटरानी जाम्बवती के पुत्र साम्ब अतीव सुन्दर थे जिनके द्वारा श्री कृष्ण से मिलने आये महर्षि दुर्वाशा का तिरस्कार कर दिया गया और क्रोधित महर्षि दुर्वाषा साम्ब को कुष्ठ रोग से रूपक्षीण होने का शाप दे बैठे। अब संपूर्ण यदुवंशी परिवार व्यथित हो गए। दैवयोग से नारद जी के आने पर उनके द्वारा साम्ब से सूर्य का तप करने को कहा गया और तत्पश्चात साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के किनारे सूर्य का कठोर ताप किया और जिसके फलस्वरूप भगवान् सूर्य प्रसन्न होकर उन्हें रोगमुक्त कर दिए। रोगमुक्त करने के साथ ही भगवान् भास्कर ने साम्ब को बारहों राशि में सूर्यमूर्ति की स्थापना का आदेश भी दिया। इसी क्रम में प्रथम मेष राशि के सूर्य की स्थापना हेतु तत्कालीन ज्योतिषियों की गणना के द्वारा श्री शिवजी की तपस्थली इसी कन्दाहा गाँव का चयन हुआ और द्वापर युग में श्रीकृष्ण पुत्र साम्ब के द्वारा कन्दाहा (कन्दर्पदहा ) में प्रथम राशि मेष के सूर्य की स्थापना हुई और ऋषि मुनियों द्वारा युगांतर से इनकी पूजा होती आ रही है। युगों बाद चौदहवीं सदी में जब मिथिला राज्य के क्षितिज पर ओईनवार वंशीय ब्राह्मण भवसिंहदेव राजा के रूप में उदित हुए और और दैवयोग से रोगग्रस्त हो गए तो उनके दरबारपंडित (लेखक रुद्रानंद झा के पूर्वज) पंडित बेचू झा की सलाह पर सूर्य भगवान् का पूजन एवं अनुष्ठान आरम्भ हुआ ,इस क्रम में महाराजा द्वारा सूर्यमंदिर के प्रांगन में अवस्थित सूर्य-कूप के औषधीय गुण संपन्न जल से स्नान एवं सेवन किया गया जिससे महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए एवं सुयोग्य दो पुत्र नरसिंहदेव एवं हरिसिंहदेव को प्राप्त कर अत्यंत हर्षित होकर जीर्ण पड़े मंदिर का जीर्णोद्धार एवं मूर्ती की पुनर्स्थापना कर भगवान् आदित्य के नाम से अपना नाम जोड़कर भवदित्य सूर्य का नाम दिया और तब से भवादित्य सूर्य के नाम से कंदहा में भगवान् सूर्य की पूजा अर्चना होने लगी। यातायात सुविधाएँ सड़क और रेल माग दोनो से ये जुड़ा हुआ है। यह राष्ट्रीय और राज्य सड़क मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग 31 यहाँ से गुज़रता है। सहरसा भारतीय रेलमार्ग की बड़ी लाइन द्वारा देश की राजधानी दिल्ली , कोलकाता, अमृतसर ,रांची जैसे बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है। भारत की सबसे पहली गरीब रथ ट्रैन तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा सहरसा से ही चलायी गयी थी। सहरसा जिले में पिछले 24 वर्षों से ओवरब्रिज निर्माण की मांग की जा रही है। बंगाली बाजार रेल एवं सड़क ओवरब्रिज बन जाने से सहरसा में जाम की समस्या से छुटकारा मिलेगा। शिक्षा एवं चिकित्सा यहाँ शिक्षा के लिये बहुत सारी निजी और सरकारी स्कूल और कॉलेज है: सहरसा कॉलेज सहरसा (M.L.T. College,Saharsa) राजेंद्र मिश्र महाविद्यालय,सहरसा (R.M. College,Saharsa) S.N.S.R.K.S College, Saharsa East & West Teacher's Training College, Saharsa केंद्रीय विद्यालय सहरसा जवाहर नवोदय विद्यालय , बरियाही राजकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय , सहरसा राजकीय पॉलिटेक्निक महाविद्यालय , सहरसा बी एन एम होमियोपैथी महाविद्यालय एवं हॉस्पिटल ,सहरसा मंडन भारती एग्रीकल्चर महाविद्यालय, अगवानपुर लार्ड बुद्धा कोसी मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, बैजनाथपुर श्री नारायण मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, सहरसा ए एन एम एंड सदर अस्पताल, सहरसा इन्हें भी देखें सहरसा ज़िला कोसी नदी सन्दर्भ सहरसा जिला बिहार के शहर सहरसा ज़िले के नगर
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खुदाबक़्श ओरियेन्टल लाइब्रेरी भारत के सबसे प्राचीन पुस्तकालयों में से एक है ।यह बिहार प्रान्त के पटना शहर में स्थित है। मौलवी खुदाबक़्श खान के द्वारा सम्पत्ति ए॰ं पुस्तकों के निज़ी दान से शुरू हुआ यह पुस्तकालय देश की बौद्धिक सम्पदाओं में काफी प्रमुख है। भारत सरकार ने संसद में 1969 में पारित ए॰ विधेयक द्वारा इसे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित किया। यह स्वायत्तशासी पुस्तकालय जिसके अवैतनिक अध्यक्ष बिहार के राज्यपाल होते हैं, पूरी तरह भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय के अनुदानों से संचालित है। इतिहास खुदाबक़्श पुस्तकालय की शुरुआत मौलवी मुहम्मद बक़्श जो छपरा के थे उनके निजी पुस्तकों के संग्रह से हुई थी। वे स्वयं कानून और इतिहास के विद्वान थे और पुस्तकों से उन्हें खास लगाव था। उनके निजी पुस्तकालय में लगभग चौदह सौ पांडुलिपियाँ और कुछ दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। 1876 में जब वे अपनी मृत्यु-शैय्या पर थे उन्होंने अपनी पुस्तकों की ज़ायदाद अपने बेटे को सौंपते हुये ए॰ पुस्तकालय खोलने की ईच्छा प्रकट की। इस तरह मौलवी खुदाबक़्श खान को यह सम्पत्ति अपने पिता से विरासत में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने लोगों को सम्रपित किया। खुदाबक़्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गयी पुस्तकों के अलावा और भी पुस्तकों का संग्रह किया तथा 1888 में लगभग अस्सी हजार रुपये की लागत से ए॰ दोमंज़िले भवन में इस पुस्तकालय की शुरुआत की और 1891 में 29 अक्टूबर को जनता की सेवा में समर्पित किया। उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फारसी और अंग्रेजी की चार हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ मौज़ूद थीं। क़ुरआन की प्राचीन प्रतियां और हिरण की खाल पर लिखी क़ुरानी पृष्ठ भी मौजूद हैं। खुदाबक्श खान उनका जन्म सीवान शहर से (तत्कालीन सारण जििले में) 5 किलोमीटर दूर गांव ऊखई पूरब पट्टी में 2 अगस्त 1842 को अपने माता-पिता के घर हुआ था। खुदा बक्ष के पूर्वजों राजा आलमगीर की सेवा में थे। वे किताब के काम को रखने और राज्य के रिकॉर्ड लिखने का काम कर रहे थे। उनके पिता पटना में एक प्रसिद्ध वकील थे। वह हाथ से लिखी किताबों को इकट्ठा करने का बहुत शौकिया था और वह ऐसी किताबों को खरीदने पर अपनी आय का बड़ा हिस्सा खर्च कर रहा था। उनके पिता उखाई से पटना में खुदा बख्श लाए। उन्होंने 185 9 में पटना हाई स्कूल से बहुत अच्छे अंक के साथ अपनी मैट्रिक पास कर दी। उनके पिता ने उन्हें उच्च अध्ययन के लिए कलकत्ता भेज दिया। लेकिन वह खुद को नए पर्यावरण में समायोजित नहीं कर सका और उसे अक्सर स्वास्थ्य समस्याएं थीं। वह पटना लौट आया और पटना विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन शुरू कर दिया। उन्होंने 1868 में अपनी कानून शिक्षा पूरी की और पटना में अभ्यास शुरू किया। कम समय में, वह एक प्रसिद्ध वकील बन गया। उनके पिता 1876 में समाप्त हो गए, लेकिन उनकी इच्छा में उन्होंने अपने बेटे से 1700 के करीब अपनी किताबों के संग्रह और संग्रह में अधिक योगदान देने के साथ सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित करने के लिए कहा है। उनके पिता का उद्देश्य उनके बहुमूल्य संग्रह के लोगों को लाभ देना था। 1877 में वह पटना नगर निगम के पहले उपाध्यक्ष बने। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें 18 9 1 में "खान बहादुर" का खिताब दिया गया। 1 9 03 में उन्हें "सीआईबी" के उपाधि से सम्मानित किया गया। खुदा बख्श की सबसे बड़ी उपलब्धि अपने पिता के अनमोल संग्रह से सार्वजनिक पुस्तकालय बना रही थी और किताबों का अपना मूल्यवान संग्रह बना रही थी, जिसे बाद में "ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी" के रूप में नामित किया गया था, जिसने पुस्तकालय के लिए एक अलग विशेष इमारत का निर्माण शुरू किया था, जो था दो साल में पूरा लाइब्रेरी का उद्घाटन 18 9 1 में बंगाल सर चार्ल्स इलियट के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने किया था। उस समय पुस्तकालय में लगभग 4000 हाथ लिखित पुस्तकें थीं। 18 9 5 में, उन्हें आसफ़ जाही राजवंश के हैदराबाद के निज़ाम के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। लगभग तीन वर्षों तक वहां रहने के बाद, वह फिर पटना लौट आया और अभ्यास शुरू कर दिया। लेकिन जल्द ही वह पक्षाघात से पीड़ित था और उसने अपनी गतिविधि को केवल लाइब्रेरी तक ही सीमित कर दिया। उनकी बीमारी के कारण, वह अपनी गतिविधियों को पूरा नहीं कर सका। उन्हें रु। 8000 अपने कर्ज का भुगतान करने और पुस्तकालय के सचिव और रु। 200 को उन्हें पेंशन के रूप में मंजूरी दे दी गई थी। वह पक्षाघात से ठीक नहीं हो सका और सिवान के महान पुत्र की मृत्यु 3 अगस्त 1 9 08 को हुई। इन्हें भी देखें मौलवी खुदाबक़्श खान पटना बिहार सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ खुदाबक़्श लाइब्रेरी का आधिकारिक जालस्थल (अँग्रेजी में) पटना बिहार पुस्तकालय
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "खुदाबक़्श लाइब्रेरी", "token_count": 6019, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%B6%20%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80" }
स्लोवाकिया युरोप महाद्वीप मे स्थित एक देश है। १ जनवरी १९९३ को चेकोस्लोवाकिया से अलग होने के बाद इस गणराज्य का निर्माण हुआ था। यहाँ की राजधानी ब्रातिस्लावा है। इतिहास पुरातात्विक अवशेषों के अध्ययन से यह पता लगा है कि 1000 ईसा पूर्व से पहले स्लोवाकिया में बंजारे रहते थे जो एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते थे। तत्पश्चात इलीरियन और सेल्ट जाति के लोग यहाँ स्थायी रूप से बसे। लगभग 100 ईसा पूर्व में जर्मन सेनाओं ने इन जातियों को यहाँ से खदेड़ा और स्वयं यहाँ बस गए। रोमन साम्राज्य ने इस इलाके पर कब्ज़ा करने की कोशिश की लेकिन जर्मन जातियों को हारने में असफल रहे। छठी शताब्दी तक स्लाव लोग यहाँ बस चुके थे। सन् 833 में स्लोवाकिया के क्षेत्र पर मोरावियाई साम्राज्य ने कब्ज़ा कर लिया था। सन् 863 में ईसाई मिशनरी (धर्म-प्रचारक) देश के लोगों का धर्म-परिवर्तन करने में सफल रहे, जो आज तक कायम है। सन् 907 में मोरावियाई साम्राज्य के बिखर गया और सन् 1018 में स्लोवाकिया हंगेरियाई साम्राज्य का भाग बन गया। इस समय में क्षेत्र की आर्थिक उन्नति हुई और क्षेत्र में खदानों से सोना, चांदी, एवं तांबा निकाला गया। परन्तु सन् 1237 में पूर्व से तातार लोगों ने हमला कर दिया और अर्थव्यवस्था इससे डूब गयी। इन हमलों से बचाव के लिए साम्राज्य ने जर्मन लोगों को स्लोवाकिया के कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में बसने के लिए भेजा। इससे जर्मन लोगों का यहाँ आना शुरू हुआ जिसके नतीजतन कई खनन वाले शहरों में जर्मन लोग प्रमुख जनजातीय समूह बन गए। चौदवीं और सोलहवीं शताब्दी में हंगेइरियाई साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह हुए। इसके बाद तुर्कियों ने हंगरी पर कब्ज़ा कर लिया, परन्तु 1686 में हंगेरियन साम्राज्य ने उन्हें हरा दिया और स्लोवाकिया पर फिर हंगेरियन साम्राज्य का प्रभुत्व था। भूगोल स्लोवाकिया पूर्वी यूरोप में स्थित है। यह सभी तरफ़ से ज़मीन से घिरा है (अर्थात इसकी किसी सीमा पर समुद्र या महासागर नहीं है)। इसका कुल क्षेत्रफल 49,035 वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में पोलैंड है, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में चेक गणराज्य एवं ऑस्ट्रिया। डैन्यूब नदी राष्ट्र की राजधानी ब्रातिस्लावा से गुज़रती है और हंगरी के साथ स्लोवाकिया की सीमा का काम करती है। देश का लगभग 30% इलाका पहाड़ी है। जनसांख्यिकी 2008 के अनुसार, स्लोवाकिया की जनसंख्या 54,12,254 है और जनसंख्या घनत्व है 110 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर। 45% जनसंख्या 5,000 से कम जनसंख्या वाले गाँवों में रहती है। साक्षरता दर 99.6% है और औसत आयु 38.3 वर्ष। देश में 51.41% स्त्रियाँ हैं और 48.59% पुरुष। राष्ट्र के 86% लोग स्लोवाक हैं, 10% हंगेरियाई, 1.7% रोमा, 1.4% चेक, 0.3% रूसिन, 0.1% जर्मन, 0.1% पोलिश, 0.1% यूक्रेनीयाई और 0.07% मोरावियाई। स्लोवाकिया में 69% लोग रोमन कैथलिक हैं, 10% प्रोटेस्टेंट, 4% यूनानी कैथलिक और 0.9% कट्टरवादी ईसाई (ओर्थोडोक्स ईसाई)। स्लोवाकिया में 4,000 से भी कम यहूदी हैं। सरकार स्लोवाकिया एक संसदीय गणतंत्र है। इसके राष्ट्रीय परिषद में 150 सदस्य होते हैं जिन्हें हर 4 साल में आम चुनाव द्वारा चुना जाता है। सन् 2002 तक सांसद राष्ट्रपति का चुनाव किया करते थे और राष्ट्रपति बनने के लिए उम्मीदवार को कम-से-कम 90 सांसदों के मत हासिल करने होते थे। 2002 में स्लोवाकिया के संविधान में संशोधन किया गया और अब राष्ट्रपति आम चुनावों द्वारा चुने जाते हैं। राष्ट्रीय परिषद में बहुमत से सरकार बनती है और इस सरकार के प्रमुख प्रधानमन्त्री होते हैं। स्लोवाकिया 8 प्रशासनिक क्षेत्रों और 79 ज़िलों में बँटा हुआ है। न्याय प्रणाली स्लोवाकिया में 55 ज़िला न्यायालय हैं, 8 क्षेत्रीय न्यायालय (उच्च न्यायालय) हैं; और एक सर्वोच्च न्यायालय है। इसके अतिरिक्त एक संवैधानिक न्यायालय भी है। अर्थव्यवस्था 2008 में स्लोवाकिया का सकल घरेलू उत्पाद 95 अरब डॉलर था। 1 जनवरी 2009 को स्लोवाकिया यूरोज़ोन का भाग बन गया और यूरो ने स्लोवाकी क्राउन की जगह ले ली। परिवहन स्लोवाकिया चारों तरफ से भूमि से घिरा हुआ देश है। यहाँ जलमार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता। संसार से जुड़ने के लिए यह वायु और सड़क मार्ग पर निर्भर है। ब्रातिस्लावा हवाई अड्डा यहाँ का एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा और राजधानी का प्रवेशद्वार है। यह आस्ट्रिया की राजधानी वियना के वियना अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र से बहुत नजदीक स्थित है। सन्दर्भ ग्रन्थसूची यूरोप के देश स्लोवाकिया स्थलरुद्ध देश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "स्लोवाकिया", "token_count": 5700, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE" }
क्रिकेट के खेल में गेंदबाज़ गेंद फेंकने की जिम्मेदारी लेता है और गेंद फेंकने की इस क्रिया या कला को गेंदबाज़ी कहा जाता है। सबसे तेज गेंद अभी तक शोएब़ अख्तर द्वारा फरवरी २००३ में फेंकी गेंद को सबसे तेज़ गेंद (१००.२३ मील प्रति घंटा या १६१.३ किलोमीटर प्रति घंटा) माना जाता है। प्रमुख गेंदबाज यह भी देखिये दायें हाथ का गेंदबाज बायें हाथ का गेंदबाज तेज गति का गेंदबाज मध्यम तेज गति का गेंदबाज लेग ब्रेक फिरकी गेंदबाज ऑफ ब्रेक फिरकी गेंदबाज क्रिकेट
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "गेंदबाज", "token_count": 699, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C" }
गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डा बिहार के गया एवं बोधगया शहरों के बीच अवस्थित है। फिलहाल यह हवाई अड्डा देश में सिर्फ कोलकाता से सीधे सीधे जुड़ा हुआ है। बौद्ध पर्यटन को देखते हुये सन 2004 में भारत सरकार ने इस हवाई-अड्डे का विकास सुनिश्चित किया और अब यह शहर श्रीलंका की राजधानी कोलंबो और थाईलैंड की राजधानी बैंकाक से सीधे हवाई संपर्क में है। श्रीलंकन एअरलाइंस की जहाजें हफ़्ते में तीन बार बरास्ता गया दिल्ली के लिये जाती है। जबकि इंडियन एअरलाइंस की जहाज हफ़्ते में चार दिन बैंकाक से उड़ान भरकर बरास्ता कोलकाता गया तक आती है। सन्दर्भ बिहार के विमानक्षेत्र भारत के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डा", "token_count": 905, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%B9%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%85%E0%A4%A1%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE" }
आरा भारत प्रांत के बिहार राज्य का एक प्रमुख शहर है। यह भोजपुर जिले का मुख्यालय है। राजधानी पटना से इसकी दूरी महज ५५ किलोमीटर है। देश के दूसरे भागों से ये सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। यह नगर वाराणसी से १३६ मील पूर्व-उत्तर-पूर्व, पटना से ३७ मील पश्चिम, गंगा नदी से १४ मील दक्षिण और सोन नदी से आठ मील पश्चिम में स्थित है। यह पूर्वी रेलवे की प्रधान शाखा तथा आरा-सासाराम रेलवे लाइन का जंक्शन है। डिहरी से निकलने वाली सोन की पूर्वी नहर की प्रमुख 'आरा नहर' शाखा भी यहाँ से होकर जाती है। आरा को १८६५ में नगरपालिका बनाया गया था। गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र तथा वितरणकेंद्र है। रेल मार्ग और पक्की सड़क द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से सीधा जुड़ा हुआ है। बहुधा सोन नदी की बाढ़ों से अधिकांश नगर क्षतिग्रस्त हो जाता है। इतिहास आरा अति प्राचीन शहर है। पहले यहां मयूरध्वज नामक राजा का शासन था। महाभारत कालीन अवशेष यहां बिखरे पड़े हैं। ये 'आरण्य क्षेत्र' के नाम से भी जाना जाता था। कहा जाता है आरा का प्राचीन नाम आरण्य था। आरा अति प्राचीन ऐतिहासिक नगर है जिसकी प्राचीनता का संबंध महाभारत काल से है। पांडवों ने भी अपना गुप्तवास काल यहां बिताया था। जेनरल कनिंघम के अनुसार युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित कहानी का संबंध, जिसमें अशोक ने दानवों के बौद्ध होने के संस्मरण स्वरूप एक बौद्ध स्तूप खड़ा किया था, इसी स्थान से है। आरा के पास मसाढ़ ग्राम में प्राप्त जैन अभिलेखों में उल्लिखित 'आरामनगर' नाम भी इसी नगर के लिए गया है। पुराणों में लिखित मयूरध्वज की कथा से भी इस नगर का संबंध बताया जाता है। बुकानन ने इस नगर के नामकरण में भौगोलिक कारण बताते हुए कहा कि गंगा के दक्षिण ऊँचे स्थान पर स्थित होने के कारण, अर्थात्‌ आड़ या अरार में होने के कारण, इसका नाम 'आरा' पड़ा। १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता युद्ध के प्रमुख सेनानी बाबू कुंवर सिंह की कार्यस्थली होने का गौरव भी इस नगर को प्राप्त है। आरा स्थित 'द लिटिल हाउस' एक ऐसा भवन है, जिसकी रक्षा अंग्रेज़ों ने १८५७ के विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह से लड़ते हुए की थी। आरा १९७१ के पांचवीं लोकसभा चुनाव तक शाहाबाद संसदीय क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। १९७७ के दौरान आरा को अलग संसदीय क्षेत्र के रूप में मान्यता मिली और तब आरा अस्तित्व में आया। शिक्षा यहाँ वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय और अनेक महाविद्यालय हैं। जैन बाला विश्राम नामक पुराना छात्राओं का स्कूल भी यहां है। हरप्रसाद दास जैन कॉलेज, महाराजा कॉलेज, सहजानंद ब्रह्मर्षि कॉलेज, जगजीवन कॉलेज, महंत महादेवानंद महिला कॉलेज अंगीभूत कॉलेज हैं। हित नारायण क्षत्रिय +२ उच्च विद्यालय (१९१७) है। इसके अलावे भी कई छोटे-मोटे कॉलेज और स्कूल शहर की शैक्षणिक पहचान दिलाते हैं। डेढ़ दशक पहले यहां वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। आऱा ने जगजीवन राम, राम सुभग सिंह, अंबिका शरण सिंह, रामानंद तिवारी जैसे नेता दिये। दर्शनीय स्थल आरा के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में प्रमुख हिन्दू मंदिर, पुराने शैक्षणिक संस्थान और ऐतिहासिक इमारत हैं:- माँ आरण्य देवी मंदिर बुढ़वा महादेव मंदिर चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर बड़ी मठिया मंदिर बाबू वीर कुंवर सिंह रमना मैदान वीर कुंवर सिंह पार्क हरप्रसाद दास जैन कॉलेज महाराजा कॉलेज बाबू वीर कुंवर सिंह किला, जगदीशपुर काली मंदिर, बखोरापुर सिन्हा गंगा घाट वसिष्ठ नारायण सिंह सेतु (कोईलवर) गंगा-सोन संगम वीर कुंवर सिंह सेतु (आरा-छपरा) पूर्वी गुमटी फ्लाईओवर बस स्टैंड फ्लाईओवर क्लेक्ट्रैट पोखरा सूर्य मंदिर जनसंख्या २०११ की जनगणना के अनुसार आरा शहर की कुल जनसंख्या २,६१,४३० है। सन्दर्भ बिहार के शहर भोजपुर जिला, बिहार भोजपुर ज़िले, बिहार के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "आरा", "token_count": 4967, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%BE" }
कपिल देव रामलाल निखंज (जन्म ६ जनवरी १९५९) भारत के पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी हैं। भारत के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ियों में उनकी गणना होती है। वे भारतीय क्रिकेट के कप्तान के पद पर रह चुके हैं। १९८३ के क्रिकेट विश्वकप में वे भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान थे। और उनके नेतृत्व में टीम ने विश्वकप जीतने का गौरव प्राप्त किया। वे विस्डेन द्वारा वर्ष २००२ में "सदी के भारतीय क्रिकेटर" चुने गये। वे १० माह के लिये भारतीय क्रिकेट टीम के प्रशिक्षक भी रहे थे। कपिल देव का जन्म चंडीगढ़ में हुआ। उनका विवाह रोमी भाटिया से सन् १९८० में हुआ। उनकी बेटी अमिया देव का जन्म १६ जनवरी १९९६ को हुआ। क्रिकेट उन्होंने अपने क्रिकेट जीवन की आरंभ १९७५ में हरियाणा की ओर से गौरव के विरुद्ध घरेलू क्रिकेट से करी। वह एक आल-राॅउन्डर थे। जोकि दायें हाथ से बल्लेबाजी एवं तेज गेंदबाजी भी करते थे। उनका अन्तर्राष्ट्रीय पदार्पण पोकिस्तान के विरुद्ध फैसलाबाद में १६ अक्टूबर १९७८ को हुआ। यह श्रृंखला उनके लिए कुछ अच्छी नहीं रही। परन्तु आने वाले समय में उन्होंने अपने प्रदर्शन से भारतीय क्रिकेट टीम में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। श्रीलंका के विरुद्ध १९८२-८३ में उन्होंने अपनी कप्तानी में प्रवेश किया। जब उन्हें विश्वकप की कप्तानी का अवसर मिला। तो वह एक औसत खिलाडी ही थे। परन्तु अपने आश्चर्यजनक प्रदर्शन, नेतृव क्षमता तथा अपनी टीम के सहयोग से भारत को प्रथम विश्वकप जिताया। और रातों-रात ही भारतीय इतिहास का चमकता सितारा बन गये। मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में उन्होंने १९९२ के विश्वकप में अपना अंतिम अन्तर्राष्ट्रीय मैच खेला। उन्होंने अपने क्रिकेट जीवन में एक दिवसीय क्रिकेट में २२५ और टेस्ट क्रिकेट में १३१ मैच खेले। उन्होंने एक दिवसीय क्रिकेट में २३.७९ की औसत से ३७८३ रन तथा टेस्ट क्रिकेट में ३१.०५ की औसत से ५२४८ रन बनाये। उन्होंने गेंदबाजी करते हुए एक दिवसीय तथा टेस्ट क्रिकेट में क्रमशः २५३ तथा ४३४ विकेट लिये। १९८३ के विश्वकप में जिमबाब्वे के विरुद्ध उनकी १७५ रन की अविस्मरणीय पारी खेली। जिसके कारण भारत वह मैच जीता। उन्होंने एक दिवसीय क्रिकेट में १ और टेस्ट क्रिकेट में ८ शतक लगाए हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात् कपिल देव ने १९९४ में अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया। १९९९ में उन्हें भारतीय क्रिकेट टीम का प्रशिक्षक चुना गया। इस अवधि में भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। जिसमें वे मात्र एक टेस्ट मैच जीते और आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका के विरुद्ध दो बड़ी श्रृंखला हारे। मनोज प्रभाकर द्वारा सट्टेबाजी में फंसाये जाने के बाद उन्होंने अपने प्रशिक्षक के पद को त्याग दिया। २००५ में उन्होंने खुशी नामक एक राष्ट्रीय सरकारी संगठन की स्थापना करी। अभी वे उसके अध्यक्ष हैं। खुशी दिल्ली में कम विशेषाधिकृत बच्चों के लिये तीन विद्यालय चलाती है। २४ सितम्बर २००८ को उन्होंने भारतीय प्रादेशिक सेना में भाग लिया। और उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में चुना गया। पुरस्कार १९७९ - ८० - अर्जुन पुरस्कार १९८२ - पद्मश्री १९८३ - विस्डेन क्रिकेटर आफ द ईयर १९९१ - पद्मभूषण २००२ - विस्डेन इन्डियन क्रिकेटर आफ द सेन्चुरी व्यापार में रुचि २००५ में कपिल देव ने जिकौम इलेक्ट्रॉनिक्स में ५% दाव लिया। चंडीगढ़ के कपिल्स इलेवेन रेस्टोरेंट के वे मालिक हैं। उन्होंने इकबाल, चैन कुली की मैन कुली तथा मुझसे शादी करोगी जैसी फिल्मों में छोटे पात्र भी निभाए हैं। सन्दर्भ 1959 में जन्मे लोग जीवित लोग भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी १९९१ पद्म भूषण चंडीगढ़ के खिलाड़ी दाहिने हाथ के बल्लेबाज़ हरफनमौला खिलाड़ी भारतीय बल्लेबाज़ दाहिने हाथ के गेंदबाज भारतीय क्रिकेट कप्तान भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट कोच अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "कपिलदेव", "token_count": 5174, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5" }
हँड़िया को आदिवासियों का वोदका कहा जा सकता है, यह चावल की बनी शराब का नाम है जो आदिवासियों के जीवन का अटूट अंग है। यह झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ और भारत के अन्य आदिवासी इलाकों में काफी लोकप्रिय है। आदिवासी आम तौर शाम घिरने के बाद गीत संगीत के बीच हँडिया पी कर दिन की बातों को भुला कर अगले दिन की तैयारी में जुट जाते हैं यह लोग, यह सोच कर कि शायद नया दिन उनके लिए कुछ नया लेकर आए. हँड़िया बनाने के लिये चावल को पानी और ख़मीर पैदा करने वाले कुछ तत्वों के साथ लगभग चौबीस घंटे छोड़ दिया जाता है, जिसके बाद यह सेवन करने योग्य हो जाता है। जैसा कि आम तौर पर हर तरह की शराब के साथ बात लागू होती है, हँड़िया का सेवन भी अल्प मात्रा में करने पर स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक माना जाता है। लेकिन अधिक सेवन से नशे के साथ साथ ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थय का नुकसान होता है। आदिवासी समाज में इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिये सामाजिक मुहिम चलाये गये। उन्नीसवीं सदी में सबसे मज़बूत आंदोलन बिरसा मुंडा द्वारा छेड़ी गयी थी।
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हँड़िया", "token_count": 1371, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE" }
हॉकी एक ऐसा खेल है जिसमें दो टीमें लकड़ी या कठोर धातु या फाईबर से बनी विशेष लाठी (स्टिक) की सहायता से रबर या कठोर प्लास्टिक की गेंद को अपनी विरोधी टीम के नेट या गोल में डालने की कोशिश करती हैं। हॉकी का प्रारम्भ वर्ष 2010 से 4,000 वर्ष पूर्व मिस्र में हुआ था। इसके बाद बहुत से देशों में इसका आगमन हुआ पर उचित स्थान न मिल सका। भारत में इसका आरम्भ 150 वर्षों से पहले हुआ था। 11 खिलाड़ियों के दो विरोधी दलों के बीच मैदान में खेले जाने वाले इस खेल में प्रत्येक खिलाड़ी मारक बिंदु पर मुड़ी हुई एक छड़ी (स्टिक) का इस्तेमाल एक छोटी व कठोर गेंद को विरोधी दल के गोल में मारने के लिए करता है। बर्फ़ में खेले जाने वाले इसी तरह के एक खेल आईस हॉकी से भिन्नता दर्शाने के लिए इसे मैदानी हॉकी कहते हैं। चारदीवारी में खेली जाने वाली हॉकी, जिसमें एक दल में छह खिलाड़ी होते हैं और छह खिलाड़ी परिवर्तन के लिए रखे जाते हैं। हॉकी के विस्तार का श्रेय, विशेषकर भारत और सुदूर पूर्व में, ब्रिटेन की सेना को है। अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के आह्वान के फलस्वरूप 1971 में विश्व कप की शुरुआत हुई। हॉकी की अन्य मुख्य अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं हैं- ओलम्पिक, एशियन कप, एशियाई खेल, यूरोपियन कप और पैन-अमेरिकी खेल। दुनिया में हॉकी निम्न प्रकार से खेली जाती है। फील्ड हॉकी बर्फ हॉकी रोलर हॉकी इतिहास हॉकी खेल का उद्गम सदा से ही विवाद का विषय रहा है। एक मत के अनुसार ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व हॉकी का खेल फारस में खेला जाता था। यह खेल आधुनिक हॉकी से भिन्न था। कुछ समय बाद यह खेल कुछ परिवर्तित होकर यूनान (वर्तमान ग्रीस) पहुंचा जहां यह इतना प्रचलित हुआ कि यह यूनान की ओलंपिक प्रतियोगिता में खेला जाने लगा। धीरे-धीरे रोमवासियों में भी इस खेल के प्रति रुझानर रोम भी यूनान के ओलंपिक में इसे खेलने लगा। हॉकी की शुरुआत आरंभिक सभ्यताओं के युग से मानी जाती है। हॉकी खेलने के अरबी, यहूदी, फ़ारसी और रोमन तरीक़े रहे और दक्षिण अमेरिका के एज़टेक इंडियनों द्वारा छड़ी से खेले जाने वाले एक खेल के प्रमाण भी मिलते हैं। आरंभिक खेलों हर्लिंग और शिंटी जैसे खेलों के रूप में भी हॉकी को पहचाना गया है। मध्य काल में छड़ी से खेला जाने वाला एक फ़्रांसीसी खेल हॉकी प्रचलित था और अंग्रेज़ी शब्द की उत्पत्ति शायद इसी से हुई है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में भारत में इस खेल के विस्तार का श्रेय मुख्य रूप से ब्रिटिश सेना को जाता है और एक स्वाभाविक परिणाम के रूप में यह खेल छावनी नगरों व उसके आसपास तथा युद्धप्रिय समझे जाने वाले लोगों और सैनिकों के बीच फला-फूला हैं। सैनिक छावनियों वाले सभी नगर, जैसे लाहौर, जालंधर, लखनऊ, झांसी, जबलपुर भारतीय हॉकी के गढ़ थे। मगर इस खेल को विभाजन-पूर्व भारत की कृषि प्रधान भूमि के मेहनती और बलिष्ठ पंजाबियों ने स्वाभाविक रूप से सीखा। अंग्रेज़ी विद्यालयों में हॉकी खेलना 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ और दक्षिण-पूर्वी लंदन के ब्लैकहीथ में पुरुषों के पहले हॉकी क्लब का विवरण 1861 की एक विवरण-पुस्तिका में मिलता है। पुरुषों की मैदानी हॉकी को 1908 और 1920 में ओलम्पिक खेलों में खेला गया और 1928 से इसे स्थायी तौर पर ओलम्पिक में शामिल कर लिया गया। आधुनिक युग में पहली बार ओलंपिक में हॉकी २९ अक्टूबर, १९०८ में लंदन में खेली गई। इसमें छह टीमें थीं। १९२४ में ओलपिंक में अंतर्राष्ट्रीय कारणों से यह खेल शामिल नहीं हो सका। ओलंपिक से हॉकी के बाहर हो जाने के बाद जनवरी, १८८४ में अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन) की स्थापना हुई। हॉकी का खेल एशिया में भारत में सबसे पहले खेला गया। पहले दो एशियाई खेलों में भारत को खेलने का अवसर नहीं मिल सका, किन्तु तीसरे एशियाई खेलों में भारत को पहली बार ये अवसर हाथ लगा। हॉकी में भारत का प्रदर्शन काफ़ी अच्छा रहा है। भारत ने हॉकी में अब तक ओलंपिक में आठ स्वर्ण, एक और दो कांस्य पदक जीते हैं। इसके बाद भारत ने हॉकी में अगला स्वर्ण पदक १९६४ और अंतिम स्वर्ण पदक १९८० में जीता। १९२८ में एम्सटर्डम में हुए ओलंपिक में भारत ने नीदरलैंड को ३-० से हराकर पहला स्वर्ण पदक जीता था। १९३६ के खेलों में जर्मनी को ८-१ से मात देकर विश्व में अपनी खेल क्षमता सिद्ध की। १९२८, १९३२ और १९३६ के तीनों मुकाबलों में भारतीय टीम का नेतृत्व हॉकी के जादूगर नाम से प्रसिद्ध मेजर ध्यानचंद ने किया। १९३२ के ओलपिंक में हुए ३७ मैचों में भारत द्वारा किए गए ३३० गोल में ध्यानचंद ने अकेले १३३ गोल किए थे। भारत का खेल दिवस मेजर ध्यानचंद के जन्मदिवस पर मनाया जाता है। महिला हॉकी विक्टोरियाई युग में खेलों में महिलाओं पर प्रतिबंध होने के बावजूद महिलाओं में हॉकी की लोकप्रियता बहुत बढ़ी। यद्यपि 1895 से ही महिला टीमें नियमित रूप से मैत्री प्रतियोगिताओं में भाग लेती रही थीं, लेकिन गंभीर अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की शुरुआत 1970 के दशक तक नहीं हुई थी। 1974 में हॉकी का पहला महिला विश्व कप आयोजित किया गया और 1980 में महिला हॉकी ओलम्पिक में शामिल की गई। 1927 में अंतर्राष्ट्रीय नियामक संस्था, इंटरनेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ विमॅन्स हॉकी एसोसिएशन का निर्माण हुआ था। 1901 में अमेरिका में कांसटेंस एम.के. एप्पेलबी द्वारा इस खेल की शुरुआत हुई और मैदानी हॉकी धीरे-धीरे यहाँ की महिलाओं में लोकप्रिय मैदानी टीम खेल बन गई व विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा क्लबों में खेली जाने लगी। नियम लंदन स्थित एक क्लब टेडिंगटन ने कई मुख्य परिवर्तनों की शुरुआत की, जिसमें हाथों का प्रयोग या छड़ी को कंधों से ऊपर उठाने पर प्रतिबंध, रबर की घनाकार गेंद के स्थान पर गोलाकार स्वरूप के प्रयोग शामिल थे। सबसे महत्त्वपूर्ण था मारक चक्र को अपनाना, जिसे 1886 में लंदन में स्थापित तत्कालीन हॉकी एसोसिएशन ने अपने नियमों में शामिल किया था। दल के सामान्य संयोजन में पांच खिलाड़ी फ़ॉरवर्ड, तीन हाफ़बैक, दो फुलबैक और एक गोलकीपर होते हैं। एक खेल में 35 मिनट के दो भाग होते हैं, जिनमें 5 से 10 मिनट का अंतराल होता है। केवल चोट लगने की दशा में खेल रोका जाता है। गोलकीपर मोटे मगर हल्के पैड पहनता है और उसे 30 गज़ के घेरे (डी) में गेंद को पैर से मारने अथवा उसे पैरों या शरीर की मदद से रोकने की इजाज़त होती है। अन्य सभी खिलाड़ी गेंद को केवल स्टिक से ही रोक सकते हैं। मैदान के केंद्र से पास-बैक द्वारा, जिसमें एक खिलाड़ी अपनी टीम के अन्य खिलाड़ीयों की ओर गेंद फेंकता है, गेंद पुनः उस तक पहुँचाई जाती है[2], खेल प्रारंभ होता है। किसी को चोट लगने पर या तकनीकी कारण से खेल रुकने पर, दोनों दलों द्वारा क्रमशः एक-एक पेनल्टी करने पर या खिलाड़ीयों के कपड़ों में गेंद के उलझने पर खेल को फिर से शुरू करने के लिए फ़ेस-ऑफ़ या बुली का प्रयोग किया जाता है। फ़ेस-ऑफ़ में दोनों टीमों के एक-एक खिलाड़ी आमने-सामने खड़े होते है और गेंद उनके बीच मैदान पर होती है। एक के बाद एक ज़मीन पर आघात करने के बाद दोनों खिलाड़ी एक-दूसरे की स्टिक को आपस में तीन बार टकराते हैं, प्रत्येक खिलाड़ी गेंद को मारने का प्रयास करता है और इस प्रकार खेल फिर से शुरू हो जाता है। गेंद के मैदान से बाहर जाने की दशा में खेल को फिर से शुरू करने के विभिन्न तरीक़े हैं। हॉकी में कई तरह की ग़लतियाँ (फ़ाउल) होती हैं। किसी खिलाड़ी को मैदान में गेंद से आगे रहकर और विरोधी दल के दो खिलाड़ीयों से कम खिलाड़ीयों के आगे रहकर लाभ उठाने से रोकने के लिए बनाए गए ऑफ़ साइड नियम को 1996 के ओलम्पिक खेलों के बाद समाप्त कर दिया गया। गेंद से खेलते वक़्त हॉकी को कंधों से ऊपर उठाना नियमों के विरुद्ध है। गेंद को हॉकी से रोकना उसी तरह की ग़लती है, जैसे गेंद को शरीर या पैरों से रोकना। अंडरकटिंग के साथ ही विरोधी की हॉकी में अपनी हॉकी फंसाकर (हुकिंग) गेंद को तेज़ी से ऊपर उछालते हुए खेल को ख़तरनाक बनाना भी ग़लत है। अंत में अवरोधन का नियम है: एक खिलाड़ी को अपनी स्टिक या शरीर के किसी भी भाग को अपने विरोधी और गेंद के बीच लाकर अवरोध खड़ा करने अथवा विरोधी व गंद के बीच दौड़कर बाधा डालने की अनुमति नहीं है। अधिकतर ग़लतियों की सज़ा विरोधी दल को, जिस स्थान पर नियम तोड़ा गया, वहाँ से एक फ़्री हिट के रूप में दी जाती है। खेल के प्रत्येक भाग के लिए एक निर्णायक (रेफ़री) होता है। गेंद:- हॉकी में इस्तेमाल होने वली यह गेंद मूलतः क्रिकेट की गेंद थी[3], लेकिन प्लास्टिक की गेंद भी अनुमोदित है। इसकी परिधि लगभग 30 सेमी होती है। हॉकी स्टिक:- हॉकी स्टिक लगभग एक मीटर लंबी और 340 से 790 ग्राम होती है। स्टिक का चपटा छोर ही गेंद को मारने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मैदान यह खेल चौकोर मैदान पर 11 खिलाड़ियों वाले दो दलों के बीच खेला जाता है। यह मैदान 91.40 मीटर लंबा और 55 मीटर चौड़ा होता है, इसके केंद्र में एक केंद्रीय रेखा व 22.80 मीटर की दो अन्य रेखाएँ खिंची होती हैं। गोल की चौड़ाई 3.66 मीटर व ऊँचाई 2.14 मीटर होती है। भारत में हॉकी भारत में यह खेल सबसे पहले कलकत्ता में खेला गया। भारत टीम का सर्वप्रथम वहीं संगठन हुआ। 26 मई को सन 1928 में भारतीय हाकी टीम प्रथम बार ओलिम्पिक खेलों में सम्मिलित हुई और विजय प्राप्त की। 1932 में लॉस एंजेलिस ओलम्पिक में जब भारतीयों ने मेज़बान टीम को 24-1 से हराया। तब से अब तक की सर्वाधिक अंतर से जीत का कीर्तिमान भी स्थापित हो गया। 24 में से 9 गोल दी भाइयों ने किए, रूपसिंह ने 11 गोल दागे और ध्यानचंद ने शेष गोल किए। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में इन भाइयों के नेतृत्व में भारतीय दल ने पुनः स्वर्ण 'पदक जीता' जब उन्होंने जर्मनी को हराया। बर्लिन ओलम्पिक में ध्यानचंद असमय बाहर हो गये और द्वितीय विश्व युद्ध ने भी इस विश्व स्पर्द्धा को बाधित कर दिया। आठ वर्ष के बाद ओलम्पिक की पुनः वापसी पर भारत की विश्व हॉकी चैंपियन की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक असाधारण कार्य, जो विश्व में कोई भी अब तक दुहरा नहीं पाया है। अन्य टीमों के उभरने के संकेत सर्वप्रथम मेलबोर्न में दिखाई दिए, जब भारत को पहली बार स्वर्ण पदक के लिए संघर्ष करना पड़ा। पहले की तरह, टीम ने अपनी ओर एक भी गोल नहीं होने दिया और 38 गोल दागे, मगर बलबीर सिंह के नेतृत्व में खिलाड़ीयों को सेमीफ़ाइनल में जर्मनी के ख़िलाफ़ और फ़ाइनल में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ संघर्ष करना पड़ा। सेमीफ़ाइनल में कप्तान के गोल ने निर्णय किया, जबकि वरिष्ठ रक्षक आर.एस. जेंटल के बनाए गोल ने भारत की अपराजेयता को बनाए रखा। 1956 के मेलबोर्न ओलम्पिक के फ़ाइनल में भारत और पाकिस्तान को 1960 में रोम ओलम्पिक में पाकिस्तान ने फ़ाइनल में 1-0 से स्वर्ण जीतकर भारत की बाज़ी पलट दी। भारत ने पाकिस्तान को 1964 के टोकियो ओलम्पिक में हराया। 1968 के मेक्सिको ओलम्पिक में पहली बार भारत फ़ाइनल में नहीं पहुँचा और केवल कांस्य पदक जीत पाया। मगर मेक्सिको के बाद, पाकिस्तान व भारत का आधिपत्य टूटने लगा। 1972 के म्यूनिख़ ओलम्पिक में दोनों में से कोई भी टीम स्वर्ण पदक जीतने में सफल नहीं रही और क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान तक ही पहुँच सकी। मुख्य रूप से भारत में, हॉकी के पारंपरिक केंद्रों के अलावा अन्य स्थानों पर लोगों की रुचि में तेज़ी से गिरावट आई और इस पतन को रोकने के प्रयास भी कम ही किए गए। इसके बाद भारत ने केवल एक बार 1980 के संक्षिप्त मॉस्को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता। टीम का अस्थिर प्रदर्शन जारी रहा। इसके बाद 1998 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक की प्राप्ति भारतीय हॉकी का एकमात्र बढ़िया प्रदर्शन था। ऐसे बहुत कम मौक़े रहे, जब कौशल ने शारीरिक सौष्ठव को हराया, अन्यथा यह बारंबार बहुत कम अंतर से हार और गोल चूक जाने का मामला रहा है। यद्यपि भारत अब विश्व हॉकी में एक शक्ति के रूप में नहीं गिना जाता, पर हाल के वर्षों में यहाँ ऐसे कई खिलाड़ी हुए हैं, जिनके कौशल की बराबरी विश्व में कुछ ही खिलाड़ी कर पाते हैं। अजितपाल सिंह, वी. भास्करन, गोविंदा, अशोक कुमार, मुहम्मस शाहिद, जफ़र इक़बाल, परगट सिंह, मुकेश कुमार और धनराज पिल्ले जैसे खिलाड़ीयों ने अपनी आक्रामक शैली की धाक जमाई है। भारत में हॉकी के गौरव को पुनर्जीवित करने के गंभीर प्रयास हुए हैं। भारत में तीन हॉकी अकादमियां कार्यरत हैं- नई दिल्ली में एयर इंडिया अकादमी, रांची (झारखंड) में विशेष क्षेत्र खेल अकादमी ऐर राउरकेला, (उड़ीसा) में स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (सेल) अकादमी। इन अकादमियों में प्रशिक्षार्थी हॉकी को प्रशिक्षण के अलावा औपचारिक शिक्षा भी जारी रखते हैं और मासिक वृत्ति भी पाते हैं। प्रत्येक अकादमी ने योग्य खिलाड़ी तैयार किए हैं, जिनसे आने वाले वर्षों में इस खेल में योगदान की आशा है। क्रिकेट के प्रति दीवानगी के बावजूद विद्यालयों और महाविद्यालयों में हॉकी के पुनरुत्थान से नई पीढ़ी में इस खेल के प्रति रुचि जाग्रत हुई है। प्रतिवर्ष राजधानी में होने वाली नेहरू कप हॉकी प्रतियोगिता जैसी प्रतिस्पर्द्धाओं में उड़ीसा, बिहार और पंजाब के विद्यालयों, जैसे सेंट इग्नेशियस विद्यालय, राउरकेला; बिरसा मुंडा विद्यालय, गुमला और लायलपुर खालसा विद्यालय, जालंधर द्वारा उच्च स्तरीय हॉकी का प्रदर्शन देखा गया है। २०१० राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने रजत पदक हासिल किया। ओलम्पिक में भारत हॉकी के खेल में भारत ने हमेशा विजय पाई है। इस स्‍वर्ण युग के दौरान भारत ने 24 ओलम्पिक मैच खेले और सभी 24 मैचों में जीत कर 178 गोल बनाए तथा केवल 7 गोल छोड़े। भारत के पास 8 ओलम्पिक स्‍वर्ण पदकों का उत्‍कृष्‍ट रिकॉर्ड है। भारतीय हॉकी का स्‍वर्णिम युग 1928-56 तक था जब भारतीय हॉकी दल ने लगातार 6 ओलम्पिक स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त किए। 1928 तक हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल बन गई थी और इसी वर्ष एमस्टर्डम ओलम्पिक में भारतीय टीम पहली बार प्रतियोगिता में शामिल हुई। भारतीय टीम ने पांच मुक़ाबलों में एक भी गोल दिए बगैर स्वर्ण पदक जीता। जयपाल सिंह की कप्तानी में टीम ने, जिसमें महान खिलाड़ी ध्यानचंद भी शामिल थे, अंतिम मुक़ाबले में हॉलैंड को आसानी से हराकर स्वर्ण पदक जीता। भारतीय हॉकी संघ के इतिहास की शुरुआत ओलम्पिक में अपनी स्‍वर्ण गाथा शुरू करने के लिए की गई। इस गाथा की शुरुआत एमस्‍टर्डम में 1928 में हुई और भारत लगातार लॉस एंजेलस में 1932 के दौरान तथा बर्लिन में 1936 के दौरान जीतता गया और इस प्रकार उसने ओलम्पिक में स्‍वर्ण पदकों की हैटट्रिक प्राप्‍त की। किशनलाला के नेतृत्व में दल ने लंदन में स्वर्ण पदक जीता। भारतीय हॉकी दल ने 1975 में विश्‍व कप जीतने के अलावा दो अन्‍य पदक (रजत और कांस्‍य) भी जीते। भारतीय हॉकी संघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) की सदस्‍यता प्राप्‍त की। भारत को 1964 टोकियो ओलम्पिक और 1980 मॉस्‍को ओलम्पिक में दो अन्‍य स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त हुए। 1962 में कांस्य पदक और 1980 में स्वर्ण पदक प्राप्त किया और देश का नाम ऊँचा कर दिया। सन्दर्भ इन्हें भी देखें [[ध्यानचंद सिंह ]] बलबीर सिंह बाहरी कड़ियाँ हॉकी जानिये (गूगल पुस्तक) खेल भारतीय खेल हॉकी
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हॉकी", "token_count": 19085, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%89%E0%A4%95%E0%A5%80" }
मैदानी हॉकी अथवा फ़ील्ड हॉकी (Field hockey) अथावा सामान्यतः हॉकी, हॉकी परिवार का टीम का खेल है। खेल का उद्भव मध्यकाल में स्कॉटलैण्ड, नीदरलैण्ड और इंग्लैण्ड में माना जाता है। यह खेल घास के मैदान अथवा कृत्रिम घास के मैदान पर खेला जा सकता है। प्रत्येक टीम में गोलकीपर सहित ग्याहरह खिलाड़ी होते हैं। खिलाड़ी गोल और दृढ़ जैसी रबर की गेंद पर प्रहार करने के लिए लकड़ी अथवा फायबर काँच की बनी यष्टिक (स्टिक) का प्रयोग करते हैं। यष्टिक की लम्बाई खिलाड़ी की व्यक्तिगत लम्बाई पर निर्भर करती है। मैदानी हॉकी में बायें हाथ की कोई यष्टिक नहीं होती और यष्टिक के एक ओर से ही मारा जा सकता है। इसकी पोशाक में शिन-गार्ड्स (घुटने के नीचे सामने की ओर बाँधी जाने वाली गद्दी), क्लीट, स्कर्ट या नीकर और जर्सी शामिल हैं। २१वीं सदी तक आते-आते यह वैश्विक रूप से खेला जाने लगा। इसका प्रचलन मुख्य रूप से पश्चिमी यूरोप, भारतीय उपमहाद्वीप और ऑस्ट्रेलिया में हुआ। हॉकी पाकिस्तान का राष्ट्रीय खेल है और सामान्यतः भारत के भी राष्ट्रीय खेल के रूप में गिना जाता है यद्यपि आधिकारिक रूप से भारत का कोई राष्ट्रीय खेल नहीं है। शब्द "फील्ड हॉकी" प्राथमिक रूप से कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्वी यूरोप और विश्व के अन्य हिस्सो में लोकप्रिय हुआ जहाँ आइस हॉकी खेला जाता है। इतिहास हॉकी लाठी (स्टिक) व गेंद से खेले जाने वाले प्राचीनतम खेलों में से एक है। ऐतिहासिक तथ्य हमें बताते हैं कि यह काफी प्राचीन सभ्यताओं में भी खेला जाता था। आधुनिक हाकी मध्य १८वीं शताब्दी में उभर कर आई पर यह १९वीं शताब्दी में ही ढंग से स्थापित हो पाई जब ब्लैक हीथ नाम का क्लब दक्षिण-पूर्व लंदन में बना। पहले यह घास पर खेला जाता था और फिर १९७० से कृत्रिम घास(प्‍लास्टिक टर्फ) पर खेला जाने लगा जिसने खेल के काफी पहलुओं में बदलाव ला दिया। अब एशियाई देशों का बोलबाला कम हो गया। खेल की गति, खेलने के सामान में बदलाव आने से नये नये नियम, योजनायें बनने लगीं और स्थापित हो गईं। खेल का मैदान पहले हॉकी मैदान में उपयोग किये जाने वाले पैमाने शाही नियमों के अनुसार होते थे। अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) के गठन के पश्चात मीट्रिक मापन को आधिकारिक रूप से स्वीकार किया गया। अब मीट्रिक मापन की इकाइयों के साथ कोष्ठक में शाही इकाइयों का उपयोग किया जाता है। मैदान  91.40 मीटर × 55 मीटर (100 × 60 यार्ड)  के आयताकार क्षेत्र का होता है। दोनों छोर पर गोल पोस्ट होते हैं जिनकी ऊँचाई 2.14 मीटर (7 फीट) होती है और 3.66 मीटर (12 फुट) चौड़ाई होती है,  यह खिलाडी के लिए लक्ष्य होता है। इसके साथ 23.90 मीटर (25 यार्ड ) दोनों छोर पर लाइन होती हैं और इतनी ही लम्बाई की लाइन मैदान के मध्य में(सेंटर लाइन) रहती है।  पेनल्टी स्ट्रोक के लिए एक 0.15 मीटर  (6 इंच) के व्यास का एक स्पॉट होता है जो की गोल पोस्ट के मध्य से 6.40 मीटर (7 यार्ड) पर स्थित होता है। 'शूटिंग सर्किल' बेस लाइन से 15 मीटर (16 यार्ड ) की दूरी पर होता है। परंपरागत घास पिचों सबसे हॉकी के साथ कम आधुनिक हॉकी में आम दूर जा रहा है सिंथेटिक सतहों पर निभाई. 1970 के दशक के बाद से, रेत आधारित पिचों के रूप में वे नाटकीय रूप से इस खेल की गति गति इष्ट थे। हालांकि, हाल के वर्षों में वहाँ "जल आधारित" कृत्रिम तृखाच्छादित मैदान की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। पानी आधारित सिंथेटिक तृखाच्छादित मैदान गेंद सक्षम करने के लिए अधिक से अधिक मूल रेत आधारित सतहों पर जल्दी से स्थानांतरित कर दिया है और यह इस विशेषता है कि उन्हें पसंद की सतह अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय लीग प्रतियोगिताओं के लिए बनाया गया है। पानी आधारित सतहों भी कम रेत आधारित किस्म की तुलना में घर्षण और इसलिए खिलाड़ियों जब वे सतह के साथ संपर्क में आने के लिए चोट के स्तर को कम. एफआईएच अब प्रस्ताव कर रहे हैं कि नए सतहों एक संकर किस्म है जो कम पानी की आवश्यकता होती है किया जाना चाहिए रखा जा रहा है। इस पानी आधारित सिंथेटिक क्षेत्र के उच्च पानी की आवश्यकताओं की नकारात्मक पारिस्थितिक प्रभाव के कारण है। सामान प्रत्येक खिलाड़ी एक "छड़ी", या तो सामान्य रूप से 36.5 या 37.5 इंच लंबी है, लेकिन वे उन्हें कम और लंबे समय तक वहन करें और परंपरागत लकड़ी का बना लेकिन अब अक्सर शीसे रेशा के साथ बनाया है, केवलर और एक गोल संभाल, पर चपटा के साथ कार्बन फाइबर कंपोजिट, छोड़ दिया और नीचे एक हुक के साथ तरफ. लाठी धातु हॉकी में उपयोग से मना किया है। नोट: बाएं हाथ के चिपक मौजूद नहीं है। वहाँ पारंपरिक एक मामूली (वक्र धनुष कहा जाता है, या जेली ऊपर से) छड़ी के चेहरे पक्ष के नीचे करने के लिए और दूसरा 'हील' संभाल के शीर्ष करने के लिए किनारे पर (आमतौर पर कोण के हिसाब से बनाया गया था जो में हिस्सा संभाल लकड़ी के सिर के भाग के विवाह में सम्मिलित किया गया था) है, जो गेंद के संबंध में लकड़ी सिर की स्थिति में सहायता प्रदान की और गेंद को आसानी से और अधिक सटीक हड़ताली बनाया है। लकड़ी के तल पर हुक केवल हाल ही में तंग (वक्र भारतीय शैली) है कि हम आजकल गया था। अब एक मोड़ पुराने अंग्रेजी '' था चिपक, यह बहुत मुश्किल रिवर्स पर छड़ी का उपयोग करने के लिए. इस कारण खिलाड़ियों के लिए अब तंग घुमावदार प्रयोग चिपक जाता है। इसे हाल ही में पता चला कि चेहरे की गहराई बढ़ती आसान dragflick से उच्च गति लाने के लिए और आसान कर दिया स्ट्रोक निष्पादित करने के लिए बनाया धनुष. सबसे पहले, के बाद यह सुविधा शुरू की गई थी, हॉकी नियम बोर्ड की एक सीमा रखा मिमी धनुष की अधिकतम गहराई पर 50 छड़ी की लंबाई लेकिन अनुभव से अधिक जल्दी से इस अत्यधिक होने के लिए प्रदर्शन किया। नए नियमों को अब बिजली के साथ जो गेंद flicked किया जा सकता है सीमा के रूप में 25 मिमी के तहत तो इस वक्र की सीमा. [] हॉकी गेंद को संपादित गेंद गोलाकार है, कठिन है और प्लास्टिक की एक काग कोर पर कभी कभी () बनाया है और अक्सर indentations के साथ कवर करने के लिए hydroplaning पैदा कर सकता है कि कम है एक असंगत गेंद गीली सतहों पर गति. [] जनरल खिलाड़ी उपकरणों को संपादित कई खिलाड़ियों मुँह गार्ड पहनने के प्रभावों से गेंद या छड़ी से दांतों और मसूड़ों की रक्षा करना. कुछ स्थानीय नियमों को उनके उपयोग की आवश्यकता है। कई खिलाड़ियों को भी पिंडली रक्षकों पहनते हैं और फिर इन उपकरणों के कुछ क्षेत्रों में जाने की आवश्यकता हो सकती है। कई खिलाड़ियों खगोल दस्ताने पहनना: एक गद्देदार दस्ताना जो (जमीन के साथ संपर्क में आने से घर्षण से हाथ खासकर कि रेत आधारित खगोल पिचों के) और कुछ भी एक गेंद या एक छड़ी से प्रभाव के खिलाफ की रक्षा की रक्षा के लिए बनाया गया है। कुछ प्रतियोगिताओं काले चश्मे आंखों की रक्षा के लिए आवश्यकता होती है। रक्षकों कभी कभी कम कोने मास्क का उपयोग करें; सकता है इन छोटे कोनों से एक खींचें झाड़ के प्रभाव को कम करने के लिए डिजाइन किए हैं, हालांकि वे गारंटी सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं। एक गोलकीपर बनाता है एक दस्ताना बचाने के लिए. यहाँ एक उपकरण पहना goalkeeper.The 2007 नियम पुस्तिका के लिए विशिष्ट है गियर प्रमुख goalkeepers के बारे में परिवर्तन देखा है। एक पूरी तरह सुसज्जित गोलकीपर एक हेलमेट, लेग गार्ड और kickers पहनना चाहिए. आमतौर पर वे व्यापक अतिरिक्त सीने गार्ड, गद्देदार शॉर्ट्स, भारी गद्देदार हाथ संरक्षक, ऊसन्धि संरक्षक, गर्दन गार्ड, बांह गार्ड सहित सुरक्षा उपकरण पहनते हैं और सभी खिलाड़ियों की तरह, एक लकड़ी ले जाना चाहिए. हालांकि, इस तरह के एक खिलाड़ी को 23 मीटर लाइन को पार नहीं कर सकते हैं, अगर इस क्षेत्र गोलकीपर है, जब घड़ी बंद कर दिया है के दूसरे छोर पर जा रहा है एक दंड स्ट्रोक लेने के लिए एकमात्र अपवाद. गोलकीपर भी इस कार्यवाही के लिए अपने हेलमेट निकाल सकते हैं। हालांकि, अगर गोलकीपर elects केवल एक (हेलमेट और एक अलग रंग का शर्ट पहनने के लिए), वे 23 मीटर लाइन पार अगर वे खेल के मैदान से बाहर सुरक्षित अपने (हेलमेट और इसे रखा हटा दिया है) हो सकता है। अगर बिना उन्हें खेलने के चक्र के लिए रिटर्न के लिए हेलमेट, इस खिलाड़ी को अभी भी है "goalkeeping" विशेषाधिकारों की जगह अवसर रहा है, वह यह है कि वे अपनी छड़ी का उपयोग करने गेंद whilst इसे घेरे में है खेलने के लिए सीमित नहीं हैं। हेलमेट दंड कोनों और दंड स्ट्रोक की रक्षा whilst पहना होना चाहिए. अब यह भी संभव टीमों के एक पूर्ण ग्यारह आउटफील्ड खिलाड़ी हैं - और सब पर कोई गोलकीपर के लिए. कोई खिलाड़ी एक हेलमेट या अन्य उपकरणों goalkeeping पहनते हैं और न ही हो सकता है किसी भी खिलाड़ी को अपनी छड़ी के साथ के अलावा अन्य गेंद खेलने के लिए सक्षम हो जाएगा. यह एक रणनीतिक लाभ, या शुरू करने के लिए खेलने के लिए अनुमति है या अगर कोई गोलकीपर किट उपलब्ध है पेशकश इस्तेमाल किया जा सकता सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ खेल
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आमिर ख़ान (नस्तालीक़: عامر خان) (जन्म आमिर हुसैन ख़ान ; मार्च 14, 1965) एक भारतीय फ़िल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लिखनेवाले, कभी कभी गायक और आमिर ख़ान प्रोडक्सनस के संस्थापक-मालिक है। अपने चाचा नासिर हुसैन की फ़िल्म यादों की बारात (1973) में एक बाल कलाकार की भूमिका में नज़र आए थे और ग्यारह साल बाद ख़ान का करियर फ़िल्म होली (1984) से आरम्भ हुआ उन्हें अपने चचेरे भाई मंसूर ख़ान के साथ फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक (1988) के लिए अपनी पहली व्यवसायिक सफलता मिली और उन्होंने फ़िल्म में एक्टिंग के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ मेल नवोदित पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ नवोदित पुरूष कलाकार के लिए फ़िल्मफेयर पुरस्कार) जीता। पिछले आठ नामांकन के बाद 1980 और 1990 के दौरान, ख़ान को राजा हिन्दुस्तानी (1996), के लिए पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला जो अब तक की उनकी एक बड़ी व्यवसायिक सफलता थी। उन्हें बाद में फिल्मफेयर कार्यक्रम में दूसरा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार और लगान में उनके अभिनय के लिए 2001 में कई अन्य पुरस्कार मिले और अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। अभिनय से चार साल का सन्यास लेने के बाद, केतन मेहता की फ़िल्म द रायजिंग (2005) से ख़ान ने वापसी की। २००७ में, वे निर्देशक के रूप में फ़िल्म तारे ज़मीन पर का निर्देशन किया, जिसके लिए उन्हें फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया। कई कमर्शियल सफल फ़िल्मों का अंग होने के कारण और बहुत ही अच्छा अभिनय करने के कारण, वे हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख अभिनेता बन गए हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि आमिर ख़ान बांद्रा के होली फेमिली अस्पताल, मुंबई, भारत में एक ऐसे मुस्लिम परिवार में जन्म लिए जो भारतीय मोशन पिक्चर में दशकों से सक्रिय थे। उनके पिता, ताहिर हुसैन एक फ़िल्म निर्माता थे जबकि उनके दिवंगत चाचा, नासिर हुसैन, एक फ़िल्म निर्माता के साथ-साथ एक निर्देशक भी थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद के वंशज होने के कारण, उनकी जड़ें अफगानिस्तान के हेरात शहर में देखे जा सकते हैं। वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति, डॉ॰जाकिर हुसैन के भी वंशज हैं और भारत की अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, डॉ॰नजमा हेपतुल्ला के दूसरे भतीजे भी हैं। फ़िल्म करियर ख़ान ने अपना फ़िल्मी करियर की शुरुआत एक बाल कलाकार के रूप में नासिर हुसैन द्बारा गृह निर्मित, निर्माण व निर्देशित फ़िल्म यादों की बारात (1973) और मदहोश (1974) से की। ग्यारह साल बाद, उन्हें एडल्ट अभिनय डेब्यू का मौका मिला जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह थी केतन मेहता की होली (1984). ख़ान का पहला मुख्य किरदार 1988 के दौरान फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक में नज़र आया, जिसे उनके भतीजे और नासिर हुसैन के बेटे मंसूर ख़ान ने निर्देशित किया था।क़यामत से क़यामत तक बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही और इसने ख़ान के करियर को एक लीडिंग अभिनेता के तौर पर आगे बढाया.एक टिपिकल 'चॉकलेट अभिनेता' के रूप में उन्हें किशोरों का आदर्श माना जाने लगा। उसके बाद वे '80 और '90 की शुरुआत में कई फ़िल्मों में दिखे: दिल (1990), जो साल का सबसे बड़ा व्यवसायिक हिट रही, दिल है कि मानता नहीं (1991), जो जीता वही सिकंदर (1992), हम हैं राही प्यार के (1993) (जिसके लिए उन्होंने पटकथा भी लिखा) और रंगीला (1995).इनमे से अधिकतर फ़िल्में आलोचनात्मक व व्यवसायिक दृष्टि से सफल रहीं। दूसरी सफल फ़िल्में अंदाज अपना अपना, जिसमें सह-अभिनेता सलमान ख़ान थे। इसके रिलीज़ के समय फ़िल्म असफल रही परन्तु बाद में इसने अच्छी स्थिति बना ली। ख़ान साल में एक या दो फ़िल्में ही करते हैं, जो मेनस्ट्रीम हिन्दी सिनेमा अभिनेता के लिए कुछ अलग बात है। उनकी 1996 में एकमात्र रिलीज़ थी धर्मेश दर्शन द्वारा निर्देशित व्यवसायिक ब्लॉकबस्टर राजा हिन्दुस्तानी जिसमें उनके विपरीत करिश्मा कपूर थी। इस फ़िल्म से उन्हें पिछले 8 नामांकनों के बाद पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला जो 1990 साल का बहुत बड़ी हिट थी और तीसरा सर्वाधिक कमाई करने वाला भारतीय फ़िल्म रही। ख़ान के कैरियर ने इस समय तक ठहराव पा लिया था और उनकी ज्यादातर फ़िल्में आने वाले समय में कम सफल रही। 1997 में उन्होंने अजय देवगन और जूही चावला के विपरीत फ़िल्म इश्क में काम किया, जो आलोचकों के लिए ख़राब परन्तु बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। १९९८ में, ख़ान मध्यम सफल फ़िल्म ग़ुलाम में नज़र आए, जिसमें उन्होंने पार्श्व गायन भी किया। जॉन मेथ्यु मथान की सरफ़रोश (1999) ख़ान की 1999 के दौरान पहला रिलीज़ था थोडी सफल और बॉक्स ऑफिस पर औसत रही, जबकि फ़िल्म को आलोचकों ने सराहा. एक समर्पित, इमानदार और भ्रष्टता से दूर पुलिस के रूप में ख़ान का अभिनय सीमा पार आतंक को रोकना था, जिसकी तारीफ हुई। उन्होंने दीपा मेहता की कलात्मक फ़िल्म अर्थ में काम किया। 1999 के दौरान पहली रिलीज़ थी जो थोड़ी सफल और बॉक्स ऑफिस पर औसत रही, जबकि फ़िल्म को आलोचकों ने सराहा. नए शताब्दी में उनकी पहली रिलीज़,मेला थी जिसमें उन्होंने वास्तविक जीवन के भाई फैसल ख़ान, के साथ काम किया, यह एक बॉक्स-ऑफिस और आलोचकों की नज़र में हिटबोम्ब (bomb) साबित हुई। ख़ान ने अपना निर्माण कंपनी, आमिर ख़ान प्रोडक्शन बनाकर अपने पुराने दोस्त आशुतोष गोवारिकर की स्वप्निल फ़िल्म लगान को वित्तीय सहायता किया। यह फ़िल्म 2001 में रिलीज़ हुई, जिसमें आमिर ख़ान मुख्य अभिनेता थे। यह फ़िल्म आलोचकों और कॉमर्शियल की नज़र से सफल रही और इसे सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म के लिए 74 वें एकेडमी पुरस्कार में भारत के आधिकारिक सूची (India's official entry) में चुन लिया गया। फलतः यह चुन लिया गया और अन्य चार विदेशी फ़िल्मों के साथ उसी वर्ग में नामांकन हुआ, लेकिन नो मेंस लैंड से हार गया। इसके अलावा फ़िल्म को कई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल्स में सराहा गया, साथ ही बॉलीवुड के कई पुरस्कार मिले जिनमें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी शामिल है। ख़ान अपना दूसरा फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता जबकि ऑस्कर में लगान को निराशा मिला। परन्तु चीज़ें हमारा उत्साह बनाये रखती है, कि सारा देश हमारे साथ है।" लगान की सफलता के बाद उसी साल आगे दिल चाहता है जिसमें ख़ान के साथ थे अक्षय खन्ना और सैफ अली ख़ान, प्रीटी जिंटा. इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन नए नए आए फरहान अख्तर ने किया। आलोचकों के अनुसार, इस फ़िल्म में युवा वर्ग का सही चित्रांकन किया गया जो वे आज हैं। इसके चरित्र नए, मनभावन और सार्वभौमिक थे। यह फ़िल्म मध्यम सफल रही और शहरों में ज़्यादा चली. ख़ान ने अपने निजी कारणों के कारण 4 साल का संन्यास लिया और 2005 में केतन मेहता की मंगल पांडे - द राइज़िंग फ़िल्म में एक सिपाही और एक शहीद के वास्तविक जीवन पर आधारित जो १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम या “भारतीय आज़ादी की पहली लड़ाई” को बढाया था, में अभिनय किया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की पुरस्कार विजेता फ़िल्म, रंग दे बसंती, 2006 में ख़ान का पहला रिलीज़ था। उन्हें आलोचकों की तारीफ मिली, सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए फिल्मफेयर आलोचना और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता। यह फ़िल्म साल की सबसे कमाई करने वाली फ़िल्म रही, और इसे ऑस्कर में भारत के आधिकारिक प्रवेश सूची में चुना गया.जबकि फ़िल्म को नामिति के तौर पर नहीं चुना गया, इसे इंग्लैंड में BAFTA पुरस्कार के दौरान सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म का नामांकन मिला। ख़ान की अगली फ़िल्म, फना (2006) की भी तारीफ की गई, और 2006 की सर्वाधिक कमाई करने वाला भारतीय फ़िल्म रही। उनकी 2007 की फ़िल्म, तारे ज़मीन पर (एक शिक्षक के बारे में जो डाइस्लेक्सिक से ग्रस्त बच्चे से दोस्ती व सहायता करता है), जिसे ख़ान ने निर्माण किया और अभिनय भी किया, उनका निर्देशन के क्षेत्र में पहला कदम था। यह फ़िल्म आमिर ख़ान प्रोडक्शन्स की दूसरी फ़िल्म थी, जिसे सराहना और दर्शकों दोनों से अच्छा रेस्पॉन्स मिला। उन्हें फ़िल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, एक अच्छे निर्देशक और कहानी लेखक के रूप में जगह बने। २००८ में, ख़ान ने अपने भतीजे इमरान ख़ान को फ़िल्म जाने तू या जाने ना में लॉन्च किया। यह फ़िल्म आलोचनात्मक व व्यवसायिक दृष्टि से काफी सफल रही। निजी जीवन क़यामत से क़यामत तक, के वर्षों में, ख़ान ने रीना दत्ता के साथ विवाह किया। उनके अभिभावक ने इस विवाह को मंजूर नहीं किया क्योंकि वह मुस्लिम नहीं थी। इस कारण से, ख़ान की शादी अभिभावक और प्रेस-मीडिया दोनों से छिपी रही। एक लोकप्रिय गाना पापा कहतें हैं क़यामत से क़यामत तक में दत्ता ने छोटी सी भूमिका निभाया था। ख़ान की शादी की ख़बर ने भी सामने आने पर मीडिया में हंगामा मचा दिया। रीना दत्ता ने शोर नहीं किया और ट्रेवल एजेंसी में काम जारी रखा। उनके दो बच्चे जुनैद और बेटी, इरा और वे दुनिया की नज़र से दूर ही रहे। रीना ने ख़ान के कैरियर में लगान के लिए निर्माता के रूप में काम किया। दिसम्बर २००२ में, आमिर ने तलाक के लिए अर्ज़ी दी, रीना से अपने १५ वर्ष की विवाहित जिंदगी को समाप्त करते हुए, दोनों बच्चों को अपने अधिकार में लेते हुए 28 दिसम्बर 2005 को आमिर ने किरण राव से शादी की जो आशुतोष गोवारिकर की फ़िल्म लगान के दौरान उनकी सह निर्देशक थी। हाल ही में भाई फैसल ने उन्हें मीडिया में बदनाम यह कहते हुए किया कि वह उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे हैं और उन्हें दवा लेने को मजबूर किया। फैसल को मानसिक बिमारी से त्रस्त बताया गया। 31 अक्टूबर 2007 को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फैसल की अस्थाई अभिरक्षा उनके पिता, ताहिर हुसैन को दी। ख़ान के परिवार ने सार्वजनिक बयान देकर इस मामले में समर्थन किया। कथन पर उसकी पूर्व पत्नी, रीना दत्ता द्वारा भी हस्ताक्षर किया गया। जबकि उन्हें कई भारतीय पुरस्कार मिले हैं, ख़ान शायद ही किसी भारतीय पुरस्कार समारोह में जाते हैं और कहते हैं कि उन्हें इस तरह चुनाव जीतने के तरीके पर भरोसा नहीं है।..वे लगान के ऑस्कर में नामांकन के लिए सबसे पहले पहुंचे। 2007 में, ख़ान को लन्दन में मैडम तुसाद का मोम का पुतला बनने के लिये बुलाया गया था। ख़ान ने यह कह कर मना कर दिया कि मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है, यदि लोग मुझे देखना चाहते हैं तो मेरी फ़िल्म देखें। साथ ही मैं इतनी सारी चीजें नहीं कर सकता. मेरे पास इतनी ही ताकत है। " पुरस्कार और नामांकन फिल्मोग्राफी अभिनेता पार्श्व गायन निर्माता लेखक / निदेशक इन्हें भी देखें भारतीय अभिनेताओं की सूची |- !colspan="3" style="background: #DAA520;"|फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार |- |- |- |- |- |- |- |- |- |- |- |- |- |- सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ 1965 में जन्मे लोग जीवित लोग हिन्दी अभिनेता भारतीय फ़िल्म अभिनेता फ़िल्म निर्माता भारतीय मुस्लिम मुंबई के लोग सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार पद्मश्री प्राप्तकर्ता गूगल परियोजना आंबेडकरवादी आमिर ख़ान की आधिकारिक साइट आमिर ख़ान के असहिस्णुता पर बयान पर हुआ विवाद
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का एक , हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है। प्रारंभिक प्रोत्साहन हिंदू अनुशासन के माध्यम से चरित्र प्रशिक्षण प्रदान करना था और हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए हिंदू समुदाय को एकजुट करना था। संगठन भारतीय संस्कृति और नागरिक समाज के मूल्यों को बनाए रखने के आदर्शों को बढ़ावा देता है और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को "मजबूत" करने के लिए हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरोपीय अधिकार-विंग समूहों से प्रारंभिक प्रेरणा मिली। धीरे-धीरे, आरएसएस एक प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी छतरी संगठन में उभरा, कई संबद्ध संगठनों को जन्म दिया जिसने कई विचारधाराओं, दानों और क्लबों को अपनी वैचारिक मान्यताओं को फैलाने के लिए स्थापित किया। इतिहास संस्थापना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर सन् १९२५ में विजयादशमी के दिन डॉ॰ केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी। सबसे पहले ५० वर्ष बाद १९७५ में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो तत्कालीन जनसंघ पर भी संघ के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल हटने के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ और केन्द्र में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व में मिलीजुली सरकार बनी। १९७५ के बाद से धीरे-धीरे इस संगठन का राजनैतिक महत्व बढ़ता गया और इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनैतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनैतिक शाखा के रूप में देखा जाता है। संघ की स्थापना के ७५ वर्ष बाद सन् २००० में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन०डी०ए० की मिलीजुली सरकार भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई। सरसंघचालक डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार उपाख्य डॉक्टरजी (१९२५ - १९४०) माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी (१९४० - १९७३) मधुकर दत्तात्रय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस (१९७३ - १९९३) प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (१९९३ - २०००) कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी (२००० - २००९) डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत (२००९ -) संरचना संघ में संगठनात्मक रूप से सबसे ऊपर सरसंघचालक का स्थान होता है जो पूरे संघ का दिशा-निर्देशन करते हैं। सरसंघचालक की नियुक्ति मनोनयन द्वारा होती है। प्रत्येक सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। वर्तमान में संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत हैं। संघ के ज्यादातर कार्यों का निष्पादन शाखा के माध्यम से ही होता है, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर सुबह या शाम के समय एक घंटे के लिये स्वयंसेवकों का परस्पर मिलन होता है। वर्तमान में पूरे भारत में संघ की लगभग पचपन हजार से ज्यादा शाखा लगती हैं। वस्तुत: शाखा ही तो संघ की बुनियाद है जिसके ऊपर आज यह इतना विशाल संगठन खड़ा हुआ है। शाखा की सामान्य गतिविधियों में खेल, योग, वंदना और भारत एवं विश्व के सांस्कृतिक पहलुओं पर बौद्धिक चर्चा-परिचर्चा शामिल है। संघ की रचनात्मक व्यवस्था इस प्रकार है: केंद्र क्षेत्र प्रान्त विभाग जिला तालुका/तहसील/महकमा नगर खण्ड मण्डल ग्राम शाखा शाखा शाखा किसी मैदान या खुली जगह पर एक घंटे की लगती है। शाखा में व्यायाम, खेल, सूर्य नमस्कार, समता (परेड), गीत और प्रार्थना होती है। सामान्यतः शाखा प्रतिदिन एक घंटे की ही लगती है। शाखाएँ निम्न प्रकार की होती हैं: प्रभात शाखा: सुबह लगने वाली शाखा को "प्रभात शाखा" कहते है। सायं शाखा: शाम को लगने वाली शाखा को "सायं शाखा" कहते है। रात्रि शाखा: रात्रि को लगने वाली शाखा को "रात्रि शाखा" कहते है। मिलन: सप्ताह में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "मिलन" कहते है। संघ-मण्डली: महीने में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "संघ-मण्डली" कहते है। पूरे भारत में अनुमानित रूप से ५५,००० से ज्यादा शाखा लगती हैं। विश्व के अन्य देशों में भी शाखाओं का कार्य चलता है, पर यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से नहीं चलता। कहीं पर "भारतीय स्वयंसेवक संघ" तो कहीं "हिन्दू स्वयंसेवक संघ" के माध्यम से चलता है। शाखा में "कार्यवाह" का पद सबसे बड़ा होता है। उसके बाद शाखाओं का दैनिक कार्य सुचारू रूप से चलने के लिए "मुख्य शिक्षक" का पद होता है। शाखा में बौद्धिक व शारीरिक क्रियाओं के साथ स्वयंसेवकों का पूर्ण विकास किया जाता है। जो भी सदस्य शाखा में स्वयं की इच्छा से आता है, वह "स्वयंसेवक" कहलाता हैं। सम्बद्ध संगठन संघ परिवार भी देखें अनेक संगठन हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित हैं और स्वयं को संघ परिवार के सदस्य बताते हैं। अधिकांश मामलों में, इन संगठनों के शुरूआती वर्षों में इनके प्रारम्भ और प्रबन्धन हेतु प्रचारकों (संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक) को नियुक्त किया जाता था। संघ दुनिया के लगभग 80 से अधिक देशों में कार्यरत है। संघ के लगभग 50 से ज्यादा संगठन राष्ट्रीय ओर अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है ओर लगभग 200 से अधिक संघठन क्षेत्रीय प्रभाव रखते हैं। जिसमे कुछ प्रमुख संगठन है जो संघ की विचारधारा को आधार मानकर राष्ट्र और सामाज के बीच सक्रिय है। जिनमे कुछ राष्ट्रवादी, सामाजिक, राजनैतिक, युवा वर्गों के बीच में कार्य करने वाले, शिक्षा के क्षेत्र में, सेवा के क्षेत्र में, सुरक्षा के क्षेत्र में, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में, संतो के बीच में, विदेशो में, अन्य कई क्षेत्रों में संघ परिवार के संघठन सक्रिय रहते हैं। सम्बद्ध संगठनों में कुछ प्रमुख संगठन ये हैं - भारतीय जनता पार्टी (भा० ज० पा०) सहकार भारती भारतीय किसान संघ भारतीय मजदूर संघ सेवा भारती राष्ट्र सेविका समिति अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद विश्व हिन्दू परिषद हिन्दू स्वयंसेवक संघ स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर विद्या भारती वनवासी कल्याण आश्रम मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बजरंग दल लघु उद्योग भारती भारतीय विचार केन्द्र विश्व संवाद केन्द्र राष्ट्रीय सिख संगत हिन्दू जागरण मंच (हि० जा० म०) विवेकानन्द केन्द्र संघ शिक्षण वर्ग ये वर्ग बौद्धिक और शारीरिक रूप से स्वयंसेवकों को संघ की जानकारी तो देते ही हैं साथ-साथ समाज, राष्ट्र और धर्म की शिक्षा भी देते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं: दीपावली वर्ग - ये वर्ग तीन दिनों का होता है। ये वर्ग तालुका या नगर स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दीपावली के आस पास आयोजित होता है। शीत शिविर या (हेमंत शिविर) - ये वर्ग तीन दिनों का होता है, जो जिला या विभाग स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दिसंबर में आयोजित होता है। निवासी वर्ग - ये वर्ग शाम से सुबह तक होता है। ये वर्ग हर महीने होता है। ये वर्ग शाखा, नगर या तालुका द्वारा आयोजित होता है। संघ शिक्षा वर्ग - प्राथमिक वर्ग, प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष और तृतीय वर्ष - कुल चार प्रकार के संघ शिक्षा वर्ग होते हैं। "प्राथमिक वर्ग" एक सप्ताह का होता है, "प्रथम" और "द्वितीय वर्ग" २०-२० दिन के होते हैं, जबकि "तृतीय वर्ग" 25 दिनों का होता है। "प्राथमिक वर्ग" का आयोजन सामान्यतः जिला करता है, "प्रथम संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: प्रान्त करता है, "द्वितीय संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: क्षेत्र करता है। परन्तु "तृतीय संघ शिक्षा वर्ग" हर साल नागपुर में ही होता है। बौद्धिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है। शारीरिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है। कार्य सामाजिक सेवा और सुधार हिन्दू धर्म में सामाजिक समानता के लिये संघ ने दलितों व पिछड़े वर्गों को मन्दिर में पुजारी पद के प्रशिक्षण का पक्ष लिया है। उनके अनुसार सामाजिक वर्गीकरण ही हिन्दू मूल्यों के हनन का कारण है। महात्मा गांधी ने १९३४ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर की यात्रा के दौरान वहाँ पूर्ण अनुशासन देखा और छुआछूत की अनुपस्थिति पायी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और जाना कि वहाँ लोग एक साथ रह रहे हैं तथा एक साथ भोजन कर रहे हैं। राहत और पुनर्वास राहत और पुर्नवास संघ कि पुरानी परंपरा रही है। संघ ने १९७१ के उड़ीसा चक्रवात और १९७७ के आंध्र प्रदेश चक्रवात में रहत कार्यों में महती भूमिका निभाई है। संघ से जुडी सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से परेशान ५७ अनाथ बच्चों को गोद लिया हे जिनमे ३८ मुस्लिम और १९ हिंदू है। उपलब्धियाँ संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है जिसकी शुरुआत सन १९२५ से होती है। उदाहरण के तौर पर सन १९६२ के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन १९६३ के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। केवल दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये। दादरा, नगर हवेली, और गोवा का वि-उपनिवेशीकरण दादरा, नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में संघ की निर्णायक भूमिका रही। 21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। इसी प्रकार संघ के स्वयंसेवक 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे। गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से जवाहरलाल नेहरू के इनकार करने पर जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया, जिसका परिणाम जगन्नाथ राव जोशी सहित संघ के कार्यकर्ताओं को दस वर्ष की सजा हुई। हालत बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा स्वतन्त्र हुआ। आपातकाल के विरुद्ध आन्दोलन २५ जून १९७५ को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल थोप दिया। उस समय इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी नीतियों, भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति आंदोलन’ चल रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्ण समर्थन मिल जाने से यह आंदोलन एक शक्तिशाली, संगठित देशव्यापी आंदोलन बन गया। इस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ टक्कर लेकर उसे धूल चटा सकती थी। इस संभावित प्रतिकार को ध्यान में रखते हुए इन्दिरा गांधी ने संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा अन्य छोटी-मोटी २१ संस्थाओं को प्रतिबन्धित किया गया। किन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा किसी की ओर से विरोध का एक भी स्वर नहीं उठा। इससे उत्साहित हुई इंदिरा गांधी ने सभी प्रांतों के पुलिस अधिकारियों को संघ के कार्यकर्ताओं की धरपकड़ तेज करने के आदेश दे दिये। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने उस चुनौती को स्वीकार करके समस्त भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का बीड़ा उठाया और एक राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलन के प्रयास में जुट गए। थोड़े ही दिनों में देशभर की सभी शाखाओं के तार भूमिगत केन्द्रीय नेतृत्व के साथ जुड़ गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत नेतृत्व (संघचालक, कार्यवाह, प्रचारक) एवं संघ के विभिन्न अनुषांगिक संगठनों जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद एवं मजदूर संघ इत्यादि लगभग ३० संगठनों ने भी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु अपनी ताकत झोंक दी। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों, निष्पक्ष बुद्धिजीवियों एवं विभिन्न विचार के लोगों को भी एक मंच पर एकत्र कर दिया। संघ ने नाम और प्रसिद्धि से दूर रहते हुए राष्ट्रहित में काम करने की अपनी कार्यपद्धति को बनाए रखते हुए यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा घोषित ‘लोक संघर्ष समिति’ तथा ‘युवा छात्र संघर्ष समिति’ के नाम से ही चलाया। संगठनात्मक बैठकें, जन जागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, सम्पर्क की योजना, सत्याग्रहियों की तैयारी, सत्याग्रह का स्थान, प्रत्यक्ष सत्याग्रह, जेल में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता/सहयोग,प्रशासन और पुलिस की रणनीति की टोह लेने के लिए स्वयंसेवकों का गुप्तचर विभाग आदि अनेक कामों में संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अपने संगठन कौशल का परिचय दिया। इस आंदोलन में भाग लेकर जेल जाने वाले सत्याग्रही स्वयंसेवकों की संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा थी। सभी आयुवर्ग के स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी से पूर्व और बाद में पुलिस के लॉकअप में यातनाएं सहीं। उल्लेखनीय है कि उस समय पूरे भारत में संघ के प्रचारकों की कुल संख्या १३५६ थी (अनुषांगिक संगठनों के प्रचारक इसमें शामिल नहीं हैं) जिनमें से मात्र १८९ को ही पुलिस पकड़ सकी, शेष भूमिगत रहकर आन्दोलन का संचालन करते रहे। स्वयंसेवकों ने विदेशों में भी जाकर इमरजेंसी को वापस लेने का दबाव बनाने का सफल प्रयास किया। विदेशों में इन कार्यकर्ताओं ने ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ तथा ‘फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ के नाम से विचार गोष्ठियों तथा साहित्य वितरण जैसे अनेक कामों को अंजाम दिया। बाद में इंदिरा गांधी ने संघ के भूमिगत नेतृत्व एवं जेलों में बन्द नेतृत्व के साथ एक प्रकार की राजनीतिक सौदेबाजी करने का विफल प्रयास किया था। उन्होने कहा– ‘‘संघ से प्रतिबन्ध हटाकर सभी स्वयंसेवकों को जेलों से मुक्त किया जा सकता है, यदि संघ इस आंदोलन से अलग हो जाए’’। परन्तु संघ ने आपातकाल हटाकर लोकतंत्र की बहाली से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया। संघ ने इंदिरा गान्धी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया गया – ‘‘देश की जनता के इस आंदोलन का संघ ने समर्थन किया है, हम देशवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते, हमारे लिए देश पहले है, संगठन बाद में’’। अन्त में देश में हो रहे प्रचण्ड विरोध एवं विश्वस्तरीय दबाव के कारण आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। इंदिरा गान्धी ने समझा था कि बिखरा हुआ विपक्ष एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सकेगा, परन्तु संघ ने इस चुनौती को भी स्वीकार करके सभी विपक्षी पार्टियों को एकत्र करने जैसे अति कठिन कार्य को भी कर दिखाया। संघ के दो वरिष्ठ अधिकारियों प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैय्या) और दत्तोपंत ठेंगडी ने प्रयत्नपूर्वक चार बड़े राजनीतिक दलों को अपने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर एक मंच पर आने को तैयार करा लिया। सभी दल जनता पार्टी के रूप में चुनाव के लिए तैयार हो गए। चुनाव के समय जनसंघ को छोड़कर किसी भी दल के पास कार्यकर्ता नाम की कोई चीज नहीं थी, सभी के संगठनात्मक ढांचे शिथिल पड़ चुके थे, इस कमी को भी संघ ने ही पूरा किया. लोकतंत्र की रक्षा हेतु संघर्षरत स्वयंसेवकों ने अब चुनाव के संचालन का बड़ा उत्तरदायित्व भी निभाया। अन्ततः जनता विजयी हुई और देश को पुनः लोकतंत्र मिल गया। आलोचनाएँ और आरोप महात्मा गाँधी की १९४८ में संघ के पूर्व सदस्य नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी थी जिसके बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोडसे संघ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक भूतपूर्व स्वयंसेवक थे। बाद में एक जाँच समिति की रिपोर्ट आ जाने के बाद संघ को इस आरोप से बरी किया और प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया। संघ के आलोचकों द्वारा संघ को एक अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन बताया जाता रहा है एवं हिंदूवादी और फ़ासीवादी संगठन के तौर पर संघ की आलोचना भी की जाती रही है। जबकि संघ के स्वयंसेवकों का यह कहना है कि सरकार एवं देश की अधिकांश पार्टियाँ अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में लिप्त रहती हैं। विवादास्पद शाहबानो प्रकरण एवं हज-यात्रा में दी जानेवाली सब्सिडी इत्यादि सरकारी नीति उसके अनुसार इसके प्रमाण हैं। संघ का यह मानना है कि ऐतिहासिक रूप से हिंदू स्वदेश में हमेशा से ही उपेक्षित और उत्पीड़ित रहे हैं और वह सिर्फ़ हिंदुओं के जायज अधिकारों की ही बात करता है जबकि उसके विपरीत उसके आलोचकों का यह आरोप है कि ऐसे विचारों के प्रचार से भारत की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद कमज़ोर होती है। संघ की इस बारे में मान्यता है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति का नाम है, किसी विशेष पूजा पद्धति को मानने वालों को हिन्दू कहते हों ऐसा नहीं है। हर वह व्यक्ति जो भारत को अपनी जन्म-भूमि मानता है, मातृ-भूमि व पितृ-भूमि मानता है (अर्थात्‌ जहाँ उसके पूर्वज रहते आये हैं) तथा उसे पुण्य भूमि भी मानता है (अर्थात्‌ जहां उसके देवी देवताओं का वास है); हिन्दू है। संघ की यह भी मान्यता है कि भारत यदि धर्मनिरपेक्ष है तो इसका कारण भी केवल यह है कि यहां हिन्दू बहुमत में हैं। इस क्रम में सबसे विवादास्पद और चर्चित मामला अयोध्या विवाद रहा है जिसमें बाबर द्वारा सोलहवीं सदी में निर्मित एक बाबरी मसजिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण करना है। भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में भगवा ध्वज अपनाने का पक्षधर आरम्भ में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे के स्थान पर भगवा ध्वज को स्वीकार करने का पक्षधर था। संघ ने, अपने मुखपत्र "ऑर्गनाइज़र" के १७ जुलाई १९४७ दिनांक के "राष्ट्रीय ध्वज" शीर्षक वाले संपादकीय में, "भगवा ध्वज" को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार करने की मांग की। संघ की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे (सदा वत्सल मातृभूमि, आपके सामने शीश झुकाता हूँ।) संघ की प्रार्थना है। यह संस्कृत में है और इसकी अन्तिम पंक्ति हिन्दी में है। संघ की शाखा या अन्य कार्यक्रमों में इस प्रार्थना को अनिवार्यतः गाया जाता है और ध्वज के सम्मुख नमन किया जाता है। लड़कियों/स्त्रियों की शाखा राष्ट्र सेविका समिति और विदेशों में लगने वाली हिन्दू स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना अलग है। ख्यातिप्राप्त स्वयंसेवक रामनाथ कोविंद अटल बिहारी वाजपेयी एकनाथ रानडे नरेंद्र मोदी मनोहर पर्रिकर नितिन गडकरी राजनाथ सिंह मुरली मनोहर जोशी वेंकैया नायडू विजय रूपाणी देवेंद्र फडणवीस राम माधव अमित शाह संघ साहित्य के प्रकाशक निम्नलिखित प्रकाशन संघ की योजना द्वारा संचालित नहीं है, निजी हैं। इन प्रकाशनों ने भी उच्च कोटि का संघ साहित्य बड़ी संख्या में प्रकाशित किया है। सुरुचि प्रकाशन , देशबन्धु गुप्ता मार्ग , झण्डेवाला, नई दिल्ली-५५ लोकहित प्रकाशन , संस्कृति भवन ; राजेन्द्र नगर, लखनऊ-४ राष्ट्रोत्थान साहित्य , केशव शिल्प ; केम्पगौड़ा नगर, बंगलौर-१९ भारतीय विचार साधना डॉ॰ हेडगेवार भवन महाल, नागपुर-४४०००२ मोती बाग ; ३०९, शनिवार पेठ, पुणे-४११०३० मंगलदास बाड़ी, डॉ॰ भडकम्कर मार्ग नाज सिनेमा परिसर, मुम्बई-४०००४ ज्ञान गंगा प्रकाशन , भारती भवन, बी-१५, न्यू कालोनी, जयपुर-३०२००१ अर्चना प्रकाशन , एच.आई.जी.-१८, शिवाजी नगर, भोपाल-४६२०१६ साधना पुस्तक प्रकाशन , राम निवास ; बलिया काका मार्ग, जूनाढोर बाजार के सामने, कांकरिया, अमदाबाद -३८००२८ सातवलेकर स्वाध्याय , पो - किलापारडी , मण्डल जिला-वलसाड, गुजरात-३९६१२५ साहित्य निकेतन , ३-४/८५२, बरकतपुरा, हैदराबाद-५०००२७ स्वस्तिश्री प्रकाशन , ४४/९, नवसहयाद्री सोसाइटी , नवसहयाद्री पोस्टास मोर पुणे-४११०५२ जागृति प्रकाशन , एफ. १०९, सेक्टर-२७ , नोएडा (गौतम बुद्ध नगर) उ.प्र. २०१३०१ सूर्य भारती प्रकाशन , २५९६, नई सड़क, दिल्ली-११०००६ चित्र दीर्घा सन्दर्भ इन्हें भी देखें हिंदुत्व विश्व हिंदू परिषद बजरंग दल भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालकों की सूची बाहरी कड़ियाँ संघ का आधिकारिक जालस्थल Archieves of RSS राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास पांचजन्य - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र (हिन्दी साप्ताहिक) Organiser (आर्गनाइजर) - आर एस एस का मुखपत्र (अंग्रेजी साप्ताहिक) साधना (राष्ट्रीय विचारों का गुजराती साप्ताहिक) हिन्दू स्वयंसेवकसंघ, यूएसए की पत्रिका " तत्त्व " (अंग्रेजी में) श्री गोलवलकर गुरुजी - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समर्पित हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी जालघर राष्ट्र का संगठन : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ - संघ का परिचय देता हुआ लेख गीत गंगा - दस से भी अधिक भारतीय भाषाओं में सैकडों राष्ट्रभक्ति गीत एवं एम् पी-३ सामाजिक कार्यों की फसल उगा रहा है संघ संघ की प्रेरणा से भारतवर्ष में चल रहे हैं सेवा-कार्य दीप जो जलता रहा " श्री श्री गुरूजी जन्‍मशताब्‍दी वर्ष पर विशेष " संघ दृष्टि और राष्ट्रीय सुरक्षा (स्वदेश) समाज बदलने का बीड़ा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तब और अब : भाग-1, भाग-२, भाग-३ हिन्दुत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू संगठन
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दिलीप कुमार (11 दिसंबर, 1922 - 7 जुलाई, 2021) ; (जन्म का नाम: मुहम्मद यूसुफ़ ख़ान), हिन्दी फ़िल्मों के एक प्रसिद्ध अभिनेता थे जो भारतीय संसद के उच्च सदन राज्य सभा के सदस्य रह चुके है। दिलीप कुमार को भारत तथा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में गिना जाता है, उन्हें दर्शकों द्वारा 'अभिनय सम्राट' के नाम से पुकारा जाता है, वे आज़ादी से लेकर ६० के दशक तक भारत के सबसे लोकप्रिय अदाकार थे। वे हिंदी सिनेमा के आज तक के सबसे कामयाब अदाकार हैं। उनके फ़िल्मों की कामयाबी दर लगभग अस्सी (८०) फ़ीसदी से ऊपर रही है छह दशकों के कार्यकाल में। उन्हें दुनिया में पहली बार परदे पर 'मेथड एक्टिंग' को इजाद करने का श्रेय भी दिया जाता है जिसके कारण वे तमाम पीढ़ियों के अदाकार के प्रेरणाश्रोत रहे। दिलीप कुमार को भारत का दूसरा एवं तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण और पद्म भूषण प्राप्त है । उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ भी प्राप्त है। अभिनेेत्री और निर्माता देविका रानी ने उन्हें फिल्मों में काम दिया और उन्हीं के सुझाव पर उन्होंने अपना स्टेज नाम 'दिलीप कुमार' रखा। इसका एक कारण उस वक्त तक सिनेमा की बदनाम स्थिति थी और पिता का डर भी था। अपने करियर के शुरुआती वर्षों में कई सफल त्रासद या दु:खद भूमिकाएं करने के कारण उन्हें मीडिया में 'ट्रेजिडी किंग' भी कहा जाता था। व्यापार विश्लेषकों के अनुसार उनकी बहुत सी फ़िल्में इसलिए भी कामयाब हुईं क्योंकि जनता सिर्फ़ उनकी अदाकारी देखने आया करती थी फिर चाहे उन चलचित्रों में खास मनोरंजन के तत्व ना भी हों। इस प्रकार के वाक्या और किसी भी अदाकार के साथ नही हुएं हैं। उन्होंने बहुत सी बड़े पैमाने पर कामयाब फ़िल्मों में अदाकारी की है जो आजतक सबसे सफल चलचित्रों में गिनी जातीं हैं जैसे मुग़ल-ए-आज़म (१९६०), गंगा जमना (१९६१), इत्यादि। उन्होंने अपने करियर के दूसरे पड़ाव में भी कई अत्यंत कामयाब फिल्में दीं जब वह वृद्ध किरदार की भूमिका में भी प्रमुख किरदार निभा रहे थे। ऐसा वाक्या भी उनके अतिरिक्त किसी अदाकार के साथ नहीं हुआ है। उन्होंने फिल्मों में अदाकारी को रंगमंच से अलग किया और उसे नई परिभाषा दी जिसका प्रभाव उनके बाद के कलाकारों पर रहा। १९९८ में आई किला उनके करियर की आखिरी फ़िल्म थी। उन्हें वर्ष १९९४ में भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने अभिनय और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार लाने के लिए उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज़ दिया गया जिसे प्राप्त करने वाले वे इकलौते भारतीय हैं। आरंभिक जीवन दिलीप कुमार के जन्म का नाम मुहम्मद युसुफ़ खान था। उनका जन्म ब्रिटिश भारत के पेशावर (अब पाकिस्तान मे) में हुआ था। उनके पिता मुंबई आ बसे थे, जहाँ उन्होने हिन्दी फ़िल्मों में काम करना शुरू किया। उन्होंने अपना नाम उस समय बड़ी चालाकी से परिवर्तित कर मुस्लिम नाम (यूसुफ खान) से हिंदू नाम (दिलीप कुमार) रख लिया जिससे की उन्हे हिन्दी फिल्मों में अधिक पहचान मिल सके और उनका नाम एक हीरो की छवि के रूप में ऊपर जा सके। करियर उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' थी, जो 1944 में आई।1949 में बनी फ़िल्म अंदाज़ की सफलता ने उन्हे प्रसिद्धी दिलाई, इस फ़िल्म में उन्होने राज कपूर के साथ काम किया। दिदार (1951) और देवदास (1955) जैसी फ़िल्मो में दुखद भूमिकाओं के मशहूर होने के कारण उन्हे ट्रेजिडी किंग कहा गया। मुगले-ए-आज़म (1960) में उन्होने मुग़ल राजकुमार जहांगीर की भूमिका निभाई। यह फ़िल्म पहले श्वेत और श्याम थी और 2004 में रंगीन बनाई गई। उन्होने 1961 में गंगा जमुना फ़िल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। 1970, 1980 और 1990 के दशक में उन्होने कम फ़िल्मो में काम किया। इस समय की उनकी प्रमुख फ़िल्मे थी: विधाता (1982), दुनिया (1984), कर्मा (1986), इज्जतदार (1990) और सौदागर (1991)। 1998 में बनी फ़िल्म किला उनकी आखरी फ़िल्म थी। उन्होने रमेश सिप्पी की फ़िल्म शक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। इस फ़िल्म के लिए उन्हे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला। वे आज भी प्रमुख अभिनेताओ जैसे शाहरूख खा़न के प्रेरणास्रोत्र है। कुमार की पहली फिल्म 1944 में आई ज्वार भाटा थी, जिसपर किसी का ध्यान नहीं गया। दो और असफल फिल्मों के बाद, यह उनकी चौथी फिल्म जुगनू (1947) थी, जिसमें उन्होंने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया, जो बॉक्स ऑफिस पर उनकी पहली बड़ी हिट बन गई। उनकी अगली प्रमुख हिट 1948 की फ़िल्में शहीद और मेला थीं। जुगनू और शहीद दोनों अपने-अपने रिलीज के वर्ष की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्में थीं। उन्हें 1949 में महबूब खान की अंदाज़ के साथ एक अभिनेता के रूप में उनकी सफल भूमिका मिली, जिसमें उन्होंने राज कपूर और नरगिस के साथ अभिनय किया। अपनी रिलीज़ के समय, अंदाज़ तब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फ़िल्म थी, जब तक कि उसी वर्ष कपूर की बरसात ने इसका रिकॉर्ड नहीं तोड़ा। शबनम बॉक्स ऑफिस पर एक और हिट थी जिसे 1949 में भी रिलीज़ किया गया था। 1950 का दशक: निर्णायक वर्ष कुमार ने 1950 के दशक में जोगन (1950), बाबुल (1950), दीदार (1951), तराना (1951), दाग (1952), अमर (1954), उरण खटोला (1955), इंसानियत (1955), देवदास (1955), नया दौर (1957), यहुदी (1958), मधुमती (1958) और पैघम (1959) जैसी कई बॉक्स ऑफिस हिट फिल्मों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाईं। इनमें से कई फिल्मों ने "ट्रेजेडी किंग" के रूप में उनकी स्क्रीन छवि स्थापित की। कई दुखद भूमिकाएँ निभाने के कारण कुमार को कुछ समय के लिए अवसाद का सामना करना पड़ा और अपने मनोचिकित्सक की सलाह पर उन्होंने हल्की-फुल्की भूमिकाएँ भी निभाईं। महबूब खान के बड़े बजट की फिल्म आन ने टेक्नीकलर में शूट की जाने वाली उनकी पहली फिल्म थी जिसे लंदन में भव्य प्रीमियर के साथ पूरे यूरोप में व्यापक रूप से प्रदर्शित किया गया था। आन उस समय घरेलू स्तर पर और विदेशों में सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। आज़ाद (1955) में एक चोर के रूप में और कोहिनूर (1960) में एक शाही राजकुमार के रूप में उन्हें हल्की भूमिकाओं के साथ और भी सफलता मिली। इस समय तक, उन्होंने अपने पात्रों द्वारा बोली जाने वाली पंक्तियों को असंख्य भाव और अर्थ देते हुए अपने संवादों को गुनगुनाने की अपनी विशिष्ट शैली विकसित कर ली थी। वह फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार (दाग के लिए) जीतने वाले पहले अभिनेता थे और उन्होंने इसे और सात बार जीता। उन्होंने वैजयंतीमाला, मधुबाला, नरगिस, निम्मी, मीना कुमारी और कामिनी कौशल सहित कई शीर्ष अभिनेत्रियों के साथ लोकप्रिय ऑन-स्क्रीन जोड़ी बनाई। 1950 के दशक में उनकी 9 फिल्मों को दशक की शीर्ष 30 सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में स्थान दिया गया था। 1950 के दशक में, कुमार प्रति फिल्म ₹1 लाख (2020 में ₹90 लाख या US$120,000 के बराबर) चार्ज करने वाले पहले भारतीय अभिनेता बने। 1960 का दशक: मुगल-ए-आज़म और फिल्म निर्माण में उद्यम 1960 में, उन्होंने के. आसिफ की बड़े बजट की ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आज़म में शहज़ादा सलीम की भूमिका निभाई, जो 15 वर्षों तक भारतीय फिल्म इतिहास में सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म थी, जब तक कि 1975 की फिल्म शोले ने इसे पीछे नहीं छोड़ दिया। यदि मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किया जाता है, तो मुगल-ए-आज़म 2010 के दशक की शुरुआत में सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी, जो 2011 में ₹1000 करोड़ से अधिक के बराबर थी। फिल्म को मूल रूप से ब्लैक एंड व्हाइट में शूट किया गया था, जिसमें केवल दो गाने और क्लाइमेक्स के दृश्य रंगीन थे। इसकी मूल रिलीज़ के 44 साल बाद, 2004 में इसे पूरी तरह से रंगीन और नाटकीय रूप से फिर से रिलीज़ किया गया और एक बार फिर बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। 1961 में, कुमार ने गंगा जमुना में अपने भाई नासिर खान के साथ शीर्षक भूमिकाएँ निभाते हुए लिखा, निर्मित और अभिनय किया। कुमार ने अपनी प्रोडक्शन कंपनी सिटीजन्स के तहत फिल्म का निर्माण किया और यह उनके द्वारा निर्मित एकमात्र फिल्म थी। फिल्म को हिंदी में दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, बोस्टन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में पॉल रेवरे सिल्वर बाउल, प्राग में चेकोस्लोवाक कला अकादमी से विशेष सम्मान डिप्लोमा और कार्लोवी वेरी इंटरनेशनल फिल्म महोत्सव में विशेष पुरस्कार मिला। 1962 में, ब्रिटिश निर्देशक डेविड लीन ने उन्हें अपनी फिल्म लॉरेंस ऑफ अरेबिया (1962) में "शेरिफ अली" की भूमिका की पेशकश की, लेकिन कुमार ने फिल्म में प्रदर्शन करने से इनकार कर दिया। भूमिका अंततः मिस्र के अभिनेता उमर शरीफ के पास गई। कुमार ने अपनी बहुत बाद में जारी आत्मकथा में टिप्पणी की, "उन्हें लगा कि उमर शरीफ ने इस भूमिका को उनसे कहीं बेहतर तरीके से निभाया है जो वे खुद कर सकते थे।" परियोजना रद्द होने से पहले, कुमार को एक फिल्म में एलिजाबेथ टेलर के साथ एक प्रमुख भूमिका के लिए भी विचार किया जा रहा था, जिस पर लीन काम कर रहे थे। उनकी अगली फिल्म लीडर (1964) बॉक्स ऑफिस पर औसत से कम कमाई करने वाली थी। इस फिल्म की कहानी लिखने का श्रेय भी कुमार को ही दिया गया। उनकी अगली फिल्म दिल दिया दर्द लिया (1966), वहीदा रहमान के साथ थी। 1967 में, कुमार ने हिट फिल्म राम और श्याम में जन्म के समय अलग हुए जुड़वा बच्चों की दोहरी भूमिका निभाई। 1968 में, उन्होंने मनोज कुमार और वहीदा रहमान के साथ आदमी में अभिनय किया, जो बॉक्स ऑफिस पर औसत कमाई करने वाली फिल्म थी। उसी वर्ष, उन्होंने वैजयंतीमाला के साथ संघर्ष में अभिनय किया। 1970 का दशक 1970 के दशक में कुमार के करियर में गिरावट आई और 1970 की फिल्म गोपी उनकी एकमात्र बॉक्स ऑफिस सफलता थी। इस फिल्म ने उनकी पत्नी सायरा बानो के साथ देखा गया। उसी वर्ष, उन्हें उनकी पहली और एकमात्र बंगाली फिल्म सगीना महतो में फिर से जोड़ा गया। 1972 में, उन्होंने एक बार फिर दास्तान में जुड़वां भाइयों के रूप में दोहरी भूमिकाएँ निभाईं, जो बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। सगीना महतो का एक हिंदी रीमेक, जिसका शीर्षक सगीना था, 1974 में उन्हीं कलाकारों के साथ बनाई गई थी, जिन्होंने अपनी भूमिकाओं को दोहराया था। 1976 में, उन्होंने बैराग में एक पिता और जुड़वां बेटों के रूप में ट्रिपल भूमिकाएँ निभाईं, जो बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रही। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एम जी रामचंद्रन के प्रदर्शन को एंगा वीट्टू पिल्लई में राम और श्याम में उनकी भूमिका से बेहतर माना। वह बैराग में अपने प्रदर्शन को राम और श्याम की तुलना में बहुत अधिक मानते हैं। हालांकि बैराग और गोपी में उनके प्रदर्शन को समीक्षकों द्वारा सराहा गया, लेकिन उन्होंने 1970 से 1980 तक अभिनेता राजेश खन्ना और संजीव कुमार के लिए प्रमुख भूमिकाओं में अभिनय करने के लिए कई फिल्म प्रस्ताव खो दिए। उन्होंने 1976 से 1981 तक फिल्मों से पांच साल का अंतराल लिया। 1980 का दशक: पुनरुत्थान 1981 में, उन्होंने एक चरित्र अभिनेता के रूप में परिपक्व बुजुर्ग भूमिकाएँ निभाते हुए फिल्मों में वापसी की। उनकी वापसी वाली फिल्म स्टार-जड़ित ऐतिहासिक महाकाव्य क्रांति थी जो साल की सबसे बड़ी हिट थी। मनोज कुमार, शशि कपूर, हेमा मालिनी और शत्रुघ्न सिन्हा सहित कलाकारों की टुकड़ी के साथ दिखाई देने पर, उन्होंने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के लिए एक क्रांतिकारी लड़ाई के रूप में शीर्षक भूमिका निभाई। क्रांति के बाद के चरण में, कुमार ने विधाता (1982), शक्ति (1982), दुनिया (1984), आदि जैसी फिल्मों की एक श्रृंखला में "एंग्री ओल्ड मैन" की भूमिका निभाने के लिए खुद को फिर से मजबूत किया। 1982 में, उन्होंने विधाता के साथ पहली बार निर्देशक सुभाष घई के साथ काम किया, जिसमें उन्होंने संजय दत्त, संजीव कुमार और शम्मी कपूर के साथ अभिनय किया। विधाता साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। उस वर्ष बाद में उन्होंने रमेश सिप्पी की शक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ अभिनय किया, जो बॉक्स ऑफिस पर औसत कमाई करने वाली थी, लेकिन उन्हें समीक्षकों की प्रशंसा मिली और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए उनका आठवां और अंतिम फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1984 में, उन्होंने अनिल कपूर के साथ यश चोपड़ा की मशाल में अभिनय किया, जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही, लेकिन उनके प्रदर्शन को समीक्षकों द्वारा सराहा गया। वह दुनिया (1984) में ऋषि कपूर और धर्म अधिकारी (1986) में जितेंद्र के साथ भी दिखाई दिए। सुभाष घई की एक्शन फिल्म कर्मा अभिनेत्री नूतन के साथ पहली बार देखा गया हालांकि उन्हें 1950 के दशक में शिकवा नामक एक अधूरी फिल्म में भी जोड़ा गया था। उन्होंने 1989 की एक्शन फिल्म कानून अपना अपना में फिर से नूतन के साथ अभिनय किया, जिसमें संजय दत्त भी नज़र आये। 1990 का दशक: निर्देशन की शुरुआत और अंतिम फिल्में 1990 में, उन्होंने एक्शन थ्रिलर इज्जतदार में गोविंदा के साथ सह-अभिनय किया। 1991 में, कुमार ने सौदागर में साथी दिग्गज अभिनेता राज कुमार के साथ अभिनय किया, निर्देशक सुभाष घई के साथ उनकी तीसरी और आखिरी फिल्म थी। 1959 में आई पैघम के बाद राज कुमार के साथ यह उनकी दूसरी फिल्म थी। सौदागर कुमार की अंतिम सफल फिल्म थी। 1994 में, उन्होंने फिल्मों में उनके योगदान के लिए फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड जीता। 1991 में, निर्माता सुधाकर बोकाडे, जिन्होंने पहले इज्जतदार में कुमार के साथ काम किया था, ने कलिंग नामक एक फिल्म की घोषणा की, जो कुमार के निर्देशन की पहली फिल्म होगी, जब उन्होंने कथित तौर पर गंगा जमुना (1961) और दिल दिया दर्द लिया (1967) का निर्देशन किया था। कुमार को राज बब्बर, राज किरण, अमितोज मान और मीनाक्षी शेषाद्री सहित कलाकारों के साथ शीर्षक भूमिका में अभिनय करने के लिए भी तैयार किया गया था। कई वर्षों तक विलंबित रहने के बाद, कलिंग को अंततः 1996 में बंद कर दिया गया और 70% फिल्मांकन पूरा हो गया। 1998 में, कुमार ने बॉक्स ऑफिस फ्लॉप किला में अपनी आखिरी फिल्म प्रदर्शित की, जहां उन्होंने एक दुष्ट जमींदार के रूप में दोहरी भूमिका निभाई, जिसकी हत्या कर दी गई और उसके जुड़वां भाई के रूप में जो उसकी मौत के रहस्य को सुलझाने की कोशिश करता है। 2000s-2021 2001 में, कुमार अजय देवगन और प्रियंका चोपड़ा के साथ असर - द इम्पैक्ट नामक फिल्म में दिखाई देने वाले थे, जिसे कुमार के गिरते स्वास्थ्य के कारण स्थगित कर दिया गया था। वह अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के साथ सुभाष घई की युद्ध फिल्म मदर लैंड में भी दिखाई देने वाले थे, लेकिन खान द्वारा इस परियोजना को छोड़ने का फैसला करने के बाद इस फिल्म को भी बंद कर दिया गया था। उनकी क्लासिक फ़िल्में मुग़ल-ए-आज़म और नया दौर क्रमशः 2004 और 2008 में पूरी तरह से रंगीन और सिनेमाघरों में फिर से रिलीज़ हुईं। एक अप्रकाशित फिल्म जिसे उन्होंने शूट किया था और आग का दरिया शीर्षक से पूरा किया था, 2013 में एक नाटकीय रिलीज के लिए निर्धारित की गई थी, लेकिन आज तक रिलीज नहीं हुई है। कुमार 2000 से 2006 तक भारत की संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा के सदस्य थे। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए नामित किया गया था। कुमार ने अपने MPLADS फंड के एक महत्वपूर्ण हिस्से का उपयोग बैंडस्टैंड प्रोमेनेड और बांद्रा में लैंड्स एंड पर बांद्रा किले में उद्यानों के निर्माण और सुधार के लिए किया। व्यक्तिगत जीवन तराना की शूटिंग के दौरान कुमार को मधुबाला से प्यार हो गया था। वे सात साल तक रिश्ते में रहे लेकिन नया दौर अदालत के मामले में कुमार ने मधुबाला और उसके पिता के खिलाफ गवाही दी, जिससे उनका रिश्ता खत्म हो गया। मुगल-ए-आजम (1960) के बाद उन्होंने फिर कभी साथ काम नहीं किया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में, वैजयंतीमाला को पत्रिकाओं द्वारा कुमार से जोड़ा गया, जिन्होंने उनके साथ किसी भी अन्य अभिनेत्री की तुलना में सबसे अधिक अभिनय किया, जिसके परिणामस्वरूप उनके बीच शानदार ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री हुई। अपने होम प्रोडक्शन गंगा जमना (1961) के लिए काम करते हुए, कुमार ने कथित तौर पर साड़ी के उस शेड को चुना जिसे वैजयंतीमाला हर दृश्य में पहनती थी। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। सायरा बचपन से ही अपने पसंदीदा अभिनेता दिलीप कुमार से विवाह करना चाहती थीं। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। 1981 में कुछ समय के लिए असमा रहमान से दूसरी शादी भी की थी। असमा हैदराबाद की रहने वाली थीं। दिलीप कुमार की मुलाकात उनसे एक क्रिकेट मैच के दौरान उनकी बहनों ने कराई थी। वर्ष 2000 से 2006 तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। 1980 में उन्हें सम्मानित करने के लिए मुंबई का शेरिफ घोषित किया गया। 1991 में भारत सरकार ने उन्हें तीसरे सर्वाेच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण और 2015 में दूूसरे सर्वाेच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया। 1995 में उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1998 में उन्हे पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ भी प्रदान किया गया। मृत्यु दिलीप कुमार का 7 जुलाई 2021 को 98 वर्ष की आयु में सुबह 7:30 बजे हिंदुजा अस्पताल, मुंबई में निधन हो गया। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। वह टेस्टिकुलर कैंसर और फुफ्फुस बहाव के अलावा कई उम्र से संबंधित बिमारियों से पीड़ित थे। महाराष्ट्र सरकार ने उसी दिन जुहू मुस्लिम कब्रिस्तान में राजकीय सम्मान के साथ उनके अंतिम संस्कार को मंजूरी दी। अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट में कहा कि कुमार को एक सिनेमाई किंवदंती के रूप में याद किया जाएगा, जबकि राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा कि "उन्हें उपमहाद्वीप में प्यार किया गया था"। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी उनके निधन पर शोक व्यक्त किया और शौकत खानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल के लिए एक ट्वीट में धन जुटाने के उनके प्रयासों को याद किया। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भी कुमार और उनके परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त की। पुरस्कार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार 1983 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - शक्ति 1968 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - राम और श्याम 1965 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - लीडर 1961 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - कोहिनूर 1958 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - नया दौर 1957 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - देवदास 1956 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - आज़ाद 1954 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - दाग 2014 - किशोर कुमार सम्मान - अभिनय के क्षेत्र में यह भी देखें दिलीप कुमार अभिनीत फिल्मे सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ रॉटेन टमेटोज़ पर दिलीप कुमार बॉलीवुड हँगामा पर दिलीप कुमार 1922 में जन्मे लोग २०२१ में निधन दादासाहेब फाल्के पुरस्कार विजेता हिन्दी अभिनेता हिन्दी सिनेमा राज्यसभा सदस्य किशोर कुमार सम्मान प्राप्तकर्ता पद्म विभूषण धारक
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sike yeah thats right गिल्ली डंडा पूरे भारत में काफी प्रसिद्ध खेल है। इसे सामान्यतः एक बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल या क्रिकेट के बल्ले के बराबर होती है। इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं जो किनारों से थोड़ी नुकीली या घिसी हुई होती है। यह दो प्रकार से खेला जाता है (1) गड्डा खोदकर (2)गोला(गुण्डा) बनाकर! खेल का उद्देश्य डंडे से गिल्ली को मारना है। गिल्ली को ज़मीन पर रखकर डंडे से किनारों पर मारते हैं जिससे गिल्ली हवा में उछलती है। गिल्ली को हवा में ही ज़मीन पर गिरने से पहले फिर डंडे से मारते हैं। जो खिलाड़ी सबसे ज्यादा दूर तक गिल्ली को पहुँचाता है वह विजयी होता है। इस खेल के लिये कम से कम दो खिलाड़ियो की आवश्यकता होती है। गड्डे वाला खेल प्रारम्भ करने के लिये पहले जमीन पर एक छोटा सा लम्बा गड्ढा करते है। जिसे घुच्ची कहते है! फिर उस पर गिल्ली रख कर डन्डे से उछालते है। यदि सामने खड़ा खिलाड़ी गिल्ली को हवा मे ही पकड़ लेता है तो खिलाड़ी आ उट हो जाता है. किन्तु यदि ऐसा नही होता तो सामने खड़ा खिलाड़ी गिल्ली को डन्डे पर मारता है जो कि जमीन के गड्ढे पर रखा होता है, यदि गिल्ली डंडे पर लग जाती है तो खिलाड़ी हार जाता है अन्यथा पहला खिलाड़ी फिर गिल्ली को डन्डे से उसके किनारे पर मारता है जिससे गिल्ली हवा मे उछलती है, इसे फिर डन्डे से मारते है और गिल्ली को दूर फेकने को प्रयास करते है। यदि गिल्ली को हवा मे लपक लिया जाये तो खिलाड़ी हार जाता है, अन्यथा दुसरा खिलाड़ी गिल्ली को वही से डन्डे पर मारता है, डन्डे पर लगने की स्थिति मे दूसरे की बारी आती है। यदि गिल्ली को मारते समय डंडा जमीन से छू जाता है तो खिलाड़ी को गिल्ली को इस प्रकार मारना होता है कि उसका डंडे वाला हाथ उसके एक पैर के नीचे रहे। इसे हुच्चको कहते है। गिल्ली को किनारे से मारने का प्रत्येक खिलाड़ी को तीन बार मौका मिलता है। इस खेल मे अधिकतम खिलाड़ियो कि सन्ख्या निर्धारित नही होती है। (2)इसे जमीन पर गोला बनाकर खेला जाता है पहले निर्धारित किया जाता है कि खेल कितने डन्डे का होगा फिर चम्पा उड़ाया जाता है जिससे पता चलता है कौन प्रथम और कौन द्वितीय स्थान पर खोलेगा ((जो सबसे दूर मारेगा वह पहले खेलेगा)) फिर गिल्ली को जमीन उछाल कर डन्डे से मारा जाता है डन्डे की लं.कम से कम 1 हाथ होनी चाहिए और गिल्ली को ज्यादा से ज्यादा दूर मारने का प्रयास किया जाता है फिर डण्डा माँगा जाता है!जैसे 10 फीट मे 10 डन्डा डन्डे हमेशा 10-15-20-25-30-35-40-45-50-55....ही माँगना है 6-9-4-13-27-ये सब नही माँगना है अगर दूसरे खिलाड़ी को सन्देह होता है तो वह नाप सकता है अगर नापने पर कम पड़ जाता है तो आपको कुछ नही मिलेगा जैसे आपने 80 माँगा और 79 या साढ़े 79 आता है या इससे भी कम! फिर जैसे आप 100 डन्डा पर खेल रहे तो जो पहले 100 डन्डा पूरा कर लेगा वह जीत जाएगा! फिर दूसरे खिलाड़ी को आप दौड़ा सकते है जिसे फिल्डिंग कहते है अब आप अपने 1 पैर को ऊपर करके गिल्ली को पैर के नीचे से हाथ से दूर फेकना होता है यदि खिलाड़ी गिल्ली को कैच कर लेता है तो पारी का अंत हो जाता है यदि ऐसा नही होता है तो दूसरा खिलाड़ी गिल्ली को गोले पचाने का प्रयास करेगा और आप को डन्डे से रोकना है यदि गोले के अंदर रह गई यदि गोले की लकीर पर रह गई या आप गिल्ली को 3 से ज्यादा बार मार या छू देते है तो पारी समाप्त और बाहर निकल गई तो आपको गिल्ली को जमीन से उछाल कर डन्डे से दूर मारना है यदि मारते समय डन्डा जमीन से घिसटता है तो उसे घिसटा कहते है इस पर दूसरा खिलाड़ी 5 पैर गिल्ली के पास से गोले की तरफ आ सकता है चाहे तुरन्त या बाद में! दूसरे खिलाड़ी को पारी समाप्त करने के लिए गिल्ली को गोले मे डालना या कैच पकड़ना होगा! आप गिल्ली को चाहे जिस दिशा में मार सकते है! [[[हिमाँशु शुक्ला मिल्कीपुर फैजाबाद]]] सावधानी इस खेल में आँख में चोट लगने की संभावना रहती है। अत: यह खेल बहुत ही सावधानीपूर्वक और खुले स्थान पर खेलना चाहिए। सन्दर्भ भारत में खेल मौखिक प्रशस्ति पत्र परियोजना
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सचिन तेंदुलकर - भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी सचिन पिलगांवकर - हिंदी फ़िल्म अभिनेता, निर्माता व निर्देशक सचिन पायलट - भारतीय संसद सदस्य सचिन देव बर्मन - हिन्दी और बांग्ला फिल्मों के विख्यात संगीतकार व गायक
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नेवार समुदाय से सम्बन्धित सभी चीजों को 'नेवारी' कहते हैं। नेपाल भाषा को भी कुछ लोग नेवारी कहते हैं।
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नारायण कार्तिकेयन(जन्म: १४ जनवरी १९७७, मद्रास मेें) भारत के एकमात्र फॉरमूला वन चालक थे। पिछले कई वर्षों में फॉरमूला थ्री में शिरकत करने के पश्चात वर्ष २००५ में नारायण कार्तिकेयन ने आस्ट्रेलियन ग्रान्ड प्रिक्स से अपने फॉरमूला वन कैरियर की शुरूआत की। यद्यपि वह १५वें स्थान पर आये तब भी उनका उभर कर आना सराहनीय है। वर्ष २०११ मैं नारायण ने हिस्पेनिय रेसिंग टीम के लिए ड्राइविंग की है। 2013 में हिस्पेनिय रेसिंग टीम की फॉरमूला वन में लिस्ट न होने के कारण वह दोबारा ड्राइविंग नहीं कर पाए। भारत सरकार ने उन्हे 2010 में देश का चौथा उच्चतम नागरिक सम्मान पद्म श्री दिया। पूर्व कैरियर कार्तिकेयन का जन्म मद्रास (तमिल नाडु मैं) मैं हुआ। कार्तिकेयन ने विद्यालय सिक्षा स्टेन्स एंग्लो इंडियन हाइयर सेकोण्डारी स्कूल, कोयम्बटूर से ग्रहण की। उनकी मोटोर्स्पोर्ट मैं जिज्ञासा छोटी उम्र मैं ही शुरू हो गयी थी क्यूंकी उनके पिता पूर्व दक्षिण भारतीय राष्ट्रीय रैलि विजेता थे (७ बार)। भारत का पहला फॉर्मूला वन ड्राईवर बनने के सपने के साथ नारायण ने अपनी पहली रेस श्रीपेरुंपुडुर मैं फॉर्मूला मारुति मैं की। वह फिर एल्फ विनफील्ड रेसिंग स्कूल, फ़्रांस मैं गए और अपनी प्रतिभा पिलोते एल्फ कॉम्पटिशन मैं फॉर्मूला रेनॉल्ट कार्स के लिए सेमी फ़ाईनलिस्ट बनकर १९९२ मैं दिखाई। इन्हें भी देखें पद्मश्री पुरस्कार (२०१०–२०१९) सन्दर्भ फ़ॉर्मूला वन रेसर 1977 में जन्मे लोग जीवित लोग पद्मश्री प्राप्तकर्ता पद्मश्री,2010
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डेविस कप दुनिया की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में से एक है। इस प्रतियोगिता ने अभी भी अपनी इस चमक को बरकरार रखा है। डेविस कप एक अंतर्राष्ट्रीय पुरुष टेनिस स्पर्द्धा है जो कि दलों द्वारा खेली जाती है। डेविस कप प्रतिवर्ष नॉक आउट ढंग से खेला जाता है। इसे "टेनिस का विश्व कप" भी कहा जाता है खेल टेनिस HISTORY एक दूसरे के खिलाफ प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ ब्रिटिश और अमेरिकियों को पछाड़ते हुए टूर्नामेंट के लिए विचार शायद पहली बार जेम्स ड्वाइट ने यूएस नेशनल लॉन टेनिस एसोसिएशन के पहले अध्यक्ष द्वारा कल्पना की थी जब यह 1881 में बना था। अमेरिकी खिलाड़ियों के खिलाफ विकास का आकलन करने के लिए बेताब प्रसिद्ध ब्रिटिश चैंपियन, उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को ठीक से स्वीकृत मैच में शामिल करने के लिए अथक प्रयास किया, लेकिन ऐसा करने में असफल रहे। फिर भी उन्होंने अमेरिका के लिए शीर्ष अंतरराष्ट्रीय (विशेष रूप से ब्रिटिश) प्रतिभा को लुभाने की कोशिश की और शीर्ष अमेरिकी खिलाड़ियों के सेमी-ऑफिशियल टूर को ग्रेट ब्रिटेन में मंजूरी दी। [३] ग्रेट ब्रिटेन और यूनाइटेड स्टेट्स के बीच टेनिस के मोर्चे पर राजनयिक संबंध इस तरह मजबूत हुए कि, 1890 के दशक के मध्य तक, दोनों देशों के खिलाड़ियों के बीच प्रतिवर्ष पारस्परिक यात्राओं का आयोजन किया गया, और अमेरिकी विलियम लारेड और आयरिशमैन हेरोल्ड महोनी के बीच एक मैत्रीपूर्ण प्रयासों के कारण हुई। दोनों देशों के बीच एक आधिकारिक टीम प्रतियोगिता को औपचारिक रूप दें। [४] 1900 में पहले डेविस कप मैच से पहले कुछ समय के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का मंचन किया गया था। 1892 से, इंग्लैंड और आयरलैंड एक वार्षिक राष्ट्रीय-टीम-आधारित प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा कर रहे थे, जो एकल का मिश्रण करते हुए मानक डेविस कप प्रारूप बन जाएगा। युगल मैच, और 1895 में इंग्लैंड ने एक राष्ट्रीय टीम प्रतियोगिता में फ्रांस के खिलाफ खेला। [5] 1896 में ब्रिटिश द्वीप समूह के लारेड दौरे के दौरान, जहां उन्होंने विंबलडन चैंपियनशिप सहित कई टूर्नामेंटों में भाग लिया, वह वार्षिक इंग्लैंड बनाम आयरलैंड मैच के लिए एक दर्शक भी थे। वह यह बताने के लिए वापस लौटे कि ब्रिटेन ने अगली गर्मियों में अमेरिका में तीन का एक समूह भेजने पर सहमति व्यक्त की थी, जो अमेरिकी संयोगवश पहली ब्रिटिश लॉन टेनिस "टीम" का प्रतिनिधित्व करेगा, जो कि कुछ ही हफ्ते पहले लारेन के अपने ब्रिटिश दौरे के लिए रवाना होने से पहले था। एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए विचार अमेरिकी लॉन टेनिस के प्रमुख आंकड़ों के बीच भी चर्चा की गई थी - जिनमें से एक टेनिस पत्रकार ईपी था फिशर - नियाग्रा-ऑन-द-लेक, ओंटारियो में एक टूर्नामेंट में। ड्वाइट एफ। डेविस इस टूर्नामेंट में उपस्थित थे, और इस विचार को हवा मिली थी क्योंकि यह टूर्नामेंट की लोकप्रिय पत्रिका में चर्चा की गई थी, और डेविस के नाम का उल्लेख किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में किया गया था जो शायद खेल के लिए कुछ कर सकता है ... कुछ डाल दिया बड़ा पुरस्कार, या कप '[6] लारेड और फिशर ने कई मौकों पर उस गर्मियों में मुलाकात की और अगली गर्मियों में शिकागो में आयोजित होने वाले एक अंतरराष्ट्रीय मैच के विचार पर चर्चा की, जिसमें सर्वश्रेष्ठ अमेरिकियों में से छह के खिलाफ सर्वश्रेष्ठ ब्रिटिश खिलाड़ियों में से छह, एकल और युगल मैचों के मिश्रण में थे। शिकागो ट्रिब्यून में दो लेखों में इस पर खुलकर चर्चा की गई थी, लेकिन यह सामने नहीं आया। [[] [in] फिर भी, निम्नलिखित गर्मियों में, ग्रेट ब्रिटेन - हालांकि लॉन टेनिस एसोसिएशन के आधिकारिक तत्वावधान में नहीं - ने कई अमेरिकी टूर्नामेंटों में प्रतिस्पर्धा करने के लिए अपने तीन सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों को भेजा। उनके रिश्तेदार खराब प्रदर्शन ने ड्वाइट और अन्य प्रमुख अधिकारियों और अमेरिकी लॉन टेनिस के आंकड़ों को आश्वस्त किया कि एक उचित रूप से स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए समय सही था। जुलाई 1898 में न्यूकैसल में इसका मंचन किया जाना था, लेकिन यह आयोजन कभी नहीं हुआ क्योंकि अमेरिकी पर्याप्त रूप से मजबूत टीम नहीं बना सके। 1899 में अमेरिका के लिए एक पारस्परिक यात्रा ने केवल एक ही ब्रिटिश खिलाड़ी को विदेश यात्रा कराई, क्योंकि कई खिलाड़ी विदेशी सशस्त्र संघर्षों में शामिल थे। यह 1899 की गर्मियों में, इस मोड़ पर था, कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी टेनिस टीम के चार सदस्य - ड्वाइट डेविस शामिल थे - सर्वोत्तम पश्चिम-तट की प्रतिभा को चुनौती देने के लिए राज्यों में यात्रा की, और उनकी वापसी पर, यह स्पष्ट रूप से डेविस को हुआ। यदि क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली टीमें इस तरह की महान भावनाओं को जगा सकती हैं, तो प्रतियोगिता में राष्ट्रीय टीमों को सफल बनाने वाली टेनिस प्रतियोगिता सफल क्यों नहीं होगी। उन्होंने इस विचार के साथ जेम्स ड्वाइट से संपर्क किया, जो कि अस्थायी रूप से सहमत था, और उन्होंने श्रेवे, क्रम्प एंड लो से एक उपयुक्त स्टर्लिंग सिल्वर पंचबोली ट्रॉफी का आदेश दिया, इसे अपने स्वयं के फंड से $ 1,000 में खरीदा। [१०] बदले में उन्होंने विलियम बी। डर्गिन, कॉनकॉर्ड के न्यू हैम्पशायर के एक शास्त्रीय ढंग से डिज़ाइन किए गए डिज़ाइन को इंग्लिशमैन रॉलैंड रोड्स द्वारा तैयार किया। [११] प्रतियोगिता के लिए ट्रॉफी का दान देने से परे, हालांकि, डेविस ने अपने नाम के साथ टूर्नामेंट का विकास करने वाले लोगों की भागीदारी को नगण्य बताया, फिर भी एक लगातार मिथक सामने आया है कि डेविस ने एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए विचार तैयार किया है और इसके मिश्रण का प्रारूप तैयार किया है। सिंगल्स और डबल्स मैच। अनुसंधान ने इसे मिथक कहा है, [१२] विलियम वैब एलिस और एब्नेर डौबले के मिथकों के लिए एक अत्यधिक जटिल दीर्घकालिक विकास के भीतर एकल व्यक्ति के प्रयासों के अतिशयोक्ति के समान, जिन्हें गलत तरीके से रग्बी और आविष्कार करने का श्रेय दिया गया है। क्रमशः बेसबॉल। फिर भी 1920 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में 1925 से 1929 तक अमेरिकी सचिव और 1929 से 1932 तक फिलीपींस के गवर्नर-जनरल के रूप में काम करते हुए डेविस संयुक्त राज्य अमेरिका में एक प्रमुख राजनेता बन गए। Prakash
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बजरंग दल एक हिन्दुत्व संगठन है। जो विश्व हिन्दू परिषद (विहिप या VHP) की युवा शाखा है। यह आरएसएस के संगठनों के परिवार का सदस्य है। संगठन की विचारधारा हिन्दुत्व (हिन्दू राष्ट्रवाद) पर आधारित है। 8 अक्टूबर 1984 को उत्तर प्रदेश में स्थापित, यह तब से पूरे भारत में फैल गया है। हालाँकि इसका सबसे महत्वपूर्ण आधार देश का उत्तरी और मध्य भाग है। यह समूह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं (शाखाओं) के समान लगभग 2,500 अखाड़े चलाता है। "बजरंग" नाम हिन्दू राम भक्त हनुमान पर आधारित है। बजरंग दल का नारा है, सेवा, सुरक्षा और संस्कृति । दल का एक मुख्य लक्ष्य अयोध्या में भगवान श्री रामजन्मभूमि मन्दिर, मथुरा में भगवान श्री कृष्णजन्मभूमि मन्दिर और वाराणसी में काशी विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण करना है, जो वर्तमान में विवादित पूजा स्थल हैं। बजरंग दल मुस्लिम जनसांख्यिकीय वृद्धि, ईसाई धर्मांतरण, गोहत्या और हिंदू संस्कृति में पश्चिमी प्रभाव का विरोध करता है। विचारधारा और एजेण्डा बजरंग दल के विरुद्ध विहिप की गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए प्रस्तावों का समर्थन किया है। सौंदर्य प्रतियोगिता विरोधी आन्दोलन में गुजरात शाखा सबसे आगे है। इसका एक अन्य उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम विवाह को रोकना है। संगठन दहेज और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को मिटाने की दिशा में काम करता है। सोशल मीडिया की मौजूदगी बजरंग दल सोशल मीडिया पर सक्रिय है। फेसबुक की सुरक्षा टीम ने इसे संभावित खतरनाक संगठन के रूप में टैग किया है जो पूरे भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कार्रवाई करना अनिवार्य रूप से अपना कर्तव्य समझकर करता है । भले ही राजनीतिक और सुरक्षा कारणों से संगठन को फेसबुक पर फैलने दिया गया हो। फेसबुक ने बजरंग दल के खिलाफ कार्रवाई करने से परहेज किया है क्योंकि इसका सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ संबंध है और क्योंकि "बजरंग दल में दरार पड़ने से कंपनी की व्यावसायिक संभावनाएं और भारत में उसके कर्मचारी दोनों खतरे में पड़ सकते हैं", द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने २०२० वर्ष की शुरुआत में इस विषय पर पुन:अपनी रिपोर्ट की पुष्टि करते हुए लिखा। विवाद 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राव सरकार द्वारा बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन एक साल बाद प्रतिबंध हटा दिया गया था। ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW) ने 1998 के दक्षिण-पूर्वी गुजरात में ईसाइयों पर हमलों के दौरान बजरंग दल के शामिल होने की सूचना दी थी जहाँ संघ परिवार के संगठनों द्वारा दर्जनों चर्च और प्रार्थना हॉल जला दिए गए थे। एचआरडब्ल्यू के अनुसार, बजरंग दल 2002 में गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ दंगों में शामिल हुआ था । अप्रैल 2006 में, बम बनाने की प्रक्रिया में नांदेड़ में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए थे। बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के एक समूह पर 2003 के परभानी मस्जिद विस्फोटों का आरोप था। गिरफ्तार लोगों ने पूछताछ में बताया कि वे देश भर में कई विस्फोटों का बदला लेना चाहते थे। नई दिल्ली टेलीविजन लिमिटेड (एनडीटीवी) ने बाद में नांदेड़ में एक पुलिस पर अपराध की जांच पर लीपापोती करने का आरोप लगाया। सेकुलर सिटीजन फोरम और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL), नागपुर की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि मृतकों में से एक के घर पर मस्जिदों के नक्शे पाए गए, और २४ अगस्त २०० in को कानपुर में । विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया को अप्रैल 2003 में अजमेर में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को त्रिशूल बांटने और प्रतिबंधात्मक आदेशों की अवहेलना करने के बाद गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने दावा किया कि भारतीय राज्य राजस्थान में आने वाले विधानसभा चुनाव त्रिशूल के मुद्दे पर लड़े जाएंगे और चुनावी लाभ के लिए सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी पर मुसलमानों को "गिराने" के लिए हमला किया। उन्होंने घटना को प्राप्त चुनावी प्रचार पर संतोष व्यक्त किया। बजरंग दल पर आरोप लगाया गया है कि वह गुजरात के कुछ हिस्सों में मुस्लिमों को जमीन बेचने की अनुमति नहीं देता, व्यापारियों पर हमला करता है जो मुस्लिमों को बेचते हैं, मुस्लिम घरों पर हमला करते हैं और घर या फ्लैट की बिक्री को मजबूर करते हैं। यह अहमदाबाद और वडोदरा की तरह गुजरात के बड़े शहरों में एक यहूदी बस्ती का निर्माण करता है। कई अवसरों पर, "सोशल पुलिस" के रूप में अभिनय करते हुए, बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने वेलेंटाइन डे पर बिना शादी के जोड़ों को पकड़ा और उन्हें अपनी इच्छा के खिलाफ सिंदूर या टाई राखी लगाने के लिए मजबूर किया। कार्यकर्ताओं ने अक्सर हिंसा, उपहार की दुकानों और रेस्तरां पर हमला करने और वैलेंटाइन डे पर जोड़ों को धमकी देने के लिए प्रेरित किया है। सितंबर 2008 में, कर्नाटक में बजरंग दल द्वारा न्यूलाइफ क्रिश्चियन चर्चों और प्रार्थना हॉलों के खिलाफ, हिंदू देवताओं को बदनाम करने और न्यूलाइफ मिशनरियों द्वारा किए गए धार्मिक धर्मांतरण के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की एक ताजा लहर का निर्देशन किया गया था। बाद में, संयोजक महेंद्र कुमार को सार्वजनिक रूप से घोषणा करने के बाद भी गिरफ्तार किया गया था कि वे हमलों के लिए जिम्मेदार नहीं थे क्योंकि भारत की केंद्रीय सरकार ने राज्य सरकार की कड़ी आलोचना की थी। इसके अलावा, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी भाजपा शासित राज्यों कर्नाटक और ओडिशा में धार्मिक हिंसा के लिए उन्हें दोषी ठहराया है । हालांकि, कुछ पुलिस रिपोर्टों में दावा किया गया है कि बजरंग दल के व्यक्ति शामिल नहीं था और यह हमले अन्य समूहों द्वारा किए गए थे। हालांकि, उनके कार्यकर्ताओं की गवाही बिल्कुल विपरीत है, क्योंकि उन्होंने हमलों का वर्णन किया है और खुले तौर पर अधिक हिंसा की चेतावनी दी है। 14 फरवरी 2011 से, उत्तर प्रदेश प्रांत में, कानपुर शहर में वेलेंटाइन डे मनाने वाले लोगों पर निर्देशित हिंसा की एक ताजा लहर चल रही थी। "अपराधियों", को अपने कान पकड़ने और "पश्चिमी छुट्टी" मनाने के लिए दंड के रूप में उठक बैठक करने के लिए मजबूर किया जाता है। सांप्रदायिक हिंसा और भेदभाव को शांत करने के लिए पुलिस को बुलाया गया। आलोचना यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेण्ट ऑफ़ स्टेट की वार्षिक रिपोर्ट में अन्तरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतन्त्रता पर 2000 और विश्व रिपोर्ट (2000) के लिए ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस संगठन को एक हिन्दू चरमपन्थी समूह के रूप में लेबल किया है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर एमेरिटस और साउथ एशियन स्टडीज़ के पॉल आर ब्रास ने बजरंग दल को नाजी जर्मनी के स्टरमाबिटेइलंग के भारतीय समकक्ष के रूप में वर्णित किया। बजरंग दल को अन्य हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों जैसे हिंदू महासभा से भी आलोचना मिली है। इस्लामिक आतंकवाद के प्रसार पर अंकुश लगाने के अपने प्रयास में इस्लामिक कट्टरपन्थियों की तरह ही हिंसक तरीकों को अपनाने के लिए बजरंग दल की आलोचना की गई है, इसे महासभा द्वारा किया गया एक प्रतिशोधात्मक कदम माना जाता है। इसके अलावा, भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी भी बजरंग दल की आलोचना में सामने आए हैं। वाजपेयी ने कहा कि बजरंग दल ने "केवल भाजपा को शर्मिन्दा किया" और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से "उन पर लगाम लगाने" का आग्रह किया। ओडिशा में धार्मिक हिंसा के बाद, भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने बजरंग दल को हिंसा के साथ जुड़ने की सलाह दी, इस तथ्य के साथ कि यह दिल्ली में यूपीए सरकार पर दबाव बनाए। प्रतिबन्ध की माँग हालाँकि हाल तक प्रतिबन्ध की कोई माँग नहीं थी, सत्तारूढ़ कांग्रेस से प्रतिबन्ध लगाने की बहुत माँग है जो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के विरोध में आरोपित है, और विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों से भी है जिसमें सरकार के स्वामित्व वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) शामिल है। हालाँकि, सत्तारूढ़ सरकार ने सबूतों की कमी के डर से प्रतिबन्ध नहीं लगाने का फैसला किया। इसके अलावा, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी सुझाव दिया कि बजरंग दल पर प्रतिबन्ध टिकाऊ नहीं है। सितम्बर 2008 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) ने बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद (विहिप) पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की जो INC के अनुसार देश विरोधी गतिविधियों में शामिल है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा कि "न केवल सिमी के खिलाफ श्वेत पत्र लाया जाना चाहिए" ( स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया ) "लेकिन बजरंग दल और विहिप जैसी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल सभी संगठन"। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने कहा, "आतंकवादी गतिविधियों में शामिल उन संगठनों की जाँच होनी चाहिए, सवाल यह है कि बजरंग दल पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए"। मुस्लिम मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली, जो "आतंकवाद के खिलाफ आन्दोलन" में शामिल हैं, ने भी कानपुर विस्फोट के मद्देनजर इस संगठन पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। नागरिक अधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और जावेद आनन्द द्वारा शुरू की गई मासिक पत्रिका सांप्रदायिकता का मुकाबला अगस्त 2008 में बजरंग दल पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाने की माँग की थी। लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता रामचन्द्र पासवान ने बजरंग दल को साम्प्रदायिक संगठन बताते हुए कहा, "बजरंग दल और विहिप को तुरन्त प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए।" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, केन्द्रीय मन्त्री रामविलास पासवान, पूर्व प्रधानमन्त्री एचडी देवगौड़ा और उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री मायावती ने बजरंग दल और श्री राम सेना पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की है। इस सम्बन्ध में, देवेगौड़ा ने प्रधानमन्त्री को एक पत्र भेजा और कर्नाटक और ओडिशा में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध "निर्मम हिंसा" करने का आरोप लगाया। 5 अक्टूबर 2008 को, NCM ने कर्नाटक में ईसाई संस्थानों पर हमलों में कथित भूमिका के लिए बजरंग दल और विहिप पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफारिश की। हालाँकि, सत्तारूढ़ राज्य सरकार है अल्पसंख्यक आयोग की सिफारिशों और इस सुझाव का समर्थन नहीं करता। 5 अक्टूबर 2008 को, भारतीय प्रधानमन्त्री ने ओडिशा और कर्नाटक में ईसाइयों और ईसाई संस्थानों पर लगातार हमलों पर बजरंग दल और विहिप पर सम्भावित प्रतिबन्ध पर चर्चा करने के लिए एक विशेष कैबिनेट बैठक बुलाई। बजरंग दल, और इसके ओडिशा अध्यक्ष प्रताप चंद्र सारंगी पर ग्राहम स्टेंस हत्याकांड के साथ सम्बन्ध होने का आरोप लगाया गया है। हालाँकि, आरोपों के लिए कोई सबूत स्थापित नहीं किया गया है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सरकारी वेबसाइट मानवाधिकार रिपोर्ट देखें 2002 के गुजरात दंगों में बजरंग दल की भूमिका का जिक्र इस्लामोफ़ोबिया हिन्दू संगठन संघ परिवार हिन्दुत्व
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किशोरी आमोनकर (जन्म: 10 अप्रैल, 1931) (मृत्यु :3 अप्रेल 2017 - 84 वर्ष) हिंदुस्तानी संगीत की विख्यात गायिका थीं जिनका सम्बन्ध अतरौली जयपुर घराने से हैं। इनकी माता श्रीमती मोगुबाई कुर्डीकर भी इसी घराने की मशहूर शास्त्रीय गायिका थीं।। इनको[पद्म विभूषण]] से सम्मनित किया गया है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ किशोरी अमोनकर के शास्त्रीय संगीत में भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती थी श्रीमती आमोनकर के गाने के कई नमूने यहाँ उपलब्ध हैं- हिन्दुस्तानी संगीत पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता 1932 में जन्मे लोग २०१७ में निधन पद्म विभूषण धारक भारतीय शास्त्रीय गायिका
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पण्डित जसराज (जन्म - २८ जनवरी १९३० - १७ अगस्त २०२०) भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों में से एक थे। जसराज का संबंध मेवाती घराने से था। जसराज जब चार वर्ष उम्र में थे, तभी उनके पिता पण्डित मोतीराम का देहान्त हो गया था और उनका पालन पोषण बड़े भाई पण्डित मणीराम के संरक्षण में हुआ। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ (IAU) ने 11 नवंबर, 2006 को खोजे गए हीन ग्रह 2006 VP32 (संख्या -300128) को पण्डित जसराज के सम्मान में 'पण्डितजसराज' नाम दिया है। जसराज ने संगीत दुनियाँ में 80 वर्ष से अधिक बिताए और कई प्रमुख पुरस्कार प्राप्त किए। शास्त्रीय और अर्ध-शास्त्रीय स्वरों के उनके प्रदर्शनो को एल्बम और फिल्म साउंडट्रैक के रूप में भी बनाया गया हैं। जसराज ने भारत, कनाडा और अमेरिका में संगीत सिखाया है। उनके कुछ शिष्य उल्लेखनीय संगीतकार भी बने हैं। उनकी मृत्यु 17 अगस्त 2020 को अमेरिका के न्यू जर्सी में हुई। परिवार जसराज का जन्म हिसार में हुआ था। पण्डितजी के परिवार में उनकी पत्नी मधु जसराज, पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा हैं। 1962 में जसराज ने फिल्म निर्देशक वी. शांताराम की बेटी मधुरा शांताराम से विवाह किया, जिनसे उनकी पहली मुलाकात 1960 में मुंबई में हुई थी। जीवन-यात्रा प्रशिक्षण जसराज को उनके पिता पंडित मोतीराम ने मुखर संगीत में दीक्षा दी और बाद में उनके बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण ने उन्हे तबला संगतकार में प्रशिक्षित किया। वह अपने सबसे बड़े भाई, पंडित मनीराम के साथ अपने एकल गायन प्रदर्शन में अक्सर शामिल होते थे। जसराज ने 14 साल की उम्र में एक गायक के रूप में प्रशिक्षण शुरू किया, इससे पहले तक वे तबला वादक ही थे। जब उन्होने तबला त्यागा तो उस समय संगतकारों द्वारा सही व्यवहार नहीं किया गया। उन्होंने 22 साल की उम्र में गायक के रूप में अपना पहला स्टेज कॉन्सर्ट किया। मंच कलाकार बनने से पहले, जसराज ने कई वर्षों तक रेडियो पर एक 'प्रदर्शन कलाकार' के रूप में काम किया। तकनीक और शैली शास्त्रीय संगीत हालाँकि जसराज मेवाती घराने से ताल्लुक रखते हैं, जो संगीत का एक स्कूल है और 'ख़याल' के पारंपरिक प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है। जसराज ने ख़याल गायन में कुछ लचीलेपन के साथ ठुमरी, हल्की शैलियों के तत्वों को जोड़ा है। जसराज के करियर के शुरुआती दौर में उन्हें संगीत के अन्य विद्यालयों या घरानों के तत्वों को अपनी गायकी में शामिल किए जाने पर उनकी आलोचना की गई थी। हालांकि, संगीत समीक्षक एस॰ कालिदास ने कहा कि घरानों में तत्वों की यह उधारी अब आम तौर पर स्वीकार कर ली गई है। जसराज ने जुगलबंदी का एक उपन्यास रूप तैयार किया, जिसे 'जसरंगी' कहा जाता है, जिसे 'मूर्छना' की प्राचीन प्रणाली की शैली में किया गया है जिसमें एक पुरुष और एक महिला गायक होते हैं जो एक समय पर अलग-अलग राग गाते हैं। उन्हें कई प्रकार के दुर्लभ रागों को प्रस्तुत करने के लिए भी जाना जाता है जिनमें अबिरी टोडी और पाटदीपाकी शामिल हैं। अर्ध-शास्त्रीय और लोकप्रिय संगीत शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के अलावा, जसराज ने अर्ध-शास्त्रीय संगीत शैलियों को लोकप्रिय बनाने के लिए भी काम किया है, जैसे हवेली संगीत, जिसमें मंदिरों में अर्ध-शास्त्रीय प्रदर्शन शामिल हैं। चित्र दीर्घा पुरस्कार व सम्मान वे अन्य कई पुरस्कारों के अतिरिक्त प्रतिष्ठित पद्मभूषण से भी सम्मानित हो चुके हैं। मंगल और बृहस्पति के बीच एक हीन ग्रह का नाम पंडित जसराज के सम्मान में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा रखा गया है। सुमित्रा चरत राम अवार्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट (2014) मारवाड़ संगीत रत्न पुरस्कार (2014) संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (2010) स्वाति संगीता पुरस्करम् (2008) पद्म विभूषण (2000) संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1987) पद्म श्री (1975) संगीत काला रत्न मास्टर दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार लता मंगेशकर पुरस्कार महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार बाहरी कड़ियाँ पण्डित जसराज के बारे में विस्तार से जानकारी उनके अपने जाल पर सन्दर्भ भारतीय शास्त्रीय गायक हिन्दुस्तानी संगीत गायक शास्त्रीय संगीत 1930 में जन्मे लोग पद्म विभूषण धारक जीवित लोग पंजाब के लोग
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झारखंड विधानसभा झारखंड राज्य की एकल विधायिका है। झारखंड विधानसभा के सदस्यों की सूची (वर्तमान) विधानसभाओं की सूची इन्हें भी देखें झारखण्ड के मुख्यमन्त्रियों की सूची झारखंड के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र झारखण्ड के उप मुख्यमंत्रियों की सूची सन्दर्भ भारत के राज्यों की विधायिकायें झारखंड की राजनीति
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जिबूती पूर्वी अफ्रीका में बसा एक देश है, जिसकी सीमाएं उत्तर में इरीट्रिया से, पश्चिम और दक्षिण में इथियोपिया से और दक्षिण पूर्व में सोमालिया से मिलती है। इसके अलावा लाल सागर और गल्फ ऑफ अदन से मिलती देश की सीमाएं हैं। महज 23 हजार वर्ग किमी में फैले इस देश की आबादी पांच लाख से कुछ ज्यादा है। इसकी राजधानी जिबूती है। देश की आबादी का पांचवा हिस्सा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के लिए तय 1.25 डालर प्रति दिन से कम आय अर्जित करता है। यह भी देखिए जिबूती (विक्षनरी) जिबूती अरब लीग के देश अफ़्रीका के देश
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विक्षनरी एक वेब आधारित बहुभाषी शब्दकोश है, जिसमें कोई भी शब्द जोड़ सकता है या लिख सकता है। यह विकिमीडिया संस्थान द्वारा संचालित किया जाता है। यह भी विकिपीडिया की तरह मीडियाविकि सॉफ्टवेयर का उपयोग करता है, इस कारण आप भी इसमें कोई भी सम्पादन कर सकते हैं और अनुपलब्ध शब्दों को जोड़ कर इसे बड़ा कर सकते हैं। अभी यह हिन्दी भाषा के शब्दकोश के साथ साथ 171 अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध है। इतिहास यह परियोजना हेतु प्रस्ताव डेनियल एलस्टोन और विचार, विकिपीडिया के सह-संस्थापक लेरी सेंगर का था। इसे 12 दिसम्बर 2002 को लिया गया था। पहली बार गैर अंग्रेजी विक्षनरी का निर्माण 28 मार्च 2004 को हुआ था। इस दिन फ्रांसीसी और पोलिश भाषा में इसका निर्माण हुआ था। इसके निर्माण के साथ यह धीरे धीरे अन्य भाषाओं में बनने लगा था। 1 मई 2004 तक इसे अस्थाई रूप में wiktionary.wikipedia.org नामक स्थान पर रखा गया था। उसके बाद इसे इसके नाम वाले पते पर डाला गया। नवम्बर 2016 तक इसके सभी भाषाओं के संस्करण में ढाई करोड़ शब्द जुड़ चुके थे। पचास लाख शब्दों के साथ अंग्रेजी विक्षनरी सबसे आगे रहा। इसके बाद मालागासी 39 लाख और फ्रांसीसी 30 लाख शब्दों के साथ क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर थे। कुल इकतालीस भाषाओं की परियोजनाओं ने एक लाख शब्दों की सीमा को पार कर लिया था। यह भी देखिए शब्दकोश विक्शनरी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ विकिमीडिया परियोजनाएँ
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पॉल वुल्फोवित्ज़ ने अमरीका और दुनिया के सार्वजनिक जीवन मे तीस से भी ज्यादा साल एक अध्यापक और अन्य दूसरे रूपों में गुज़ारे हैं जिसमें छ: अमरीकी राष्ट्रपतियों के अधीन चौबीस साल की सरकारी सेवा भी शामिल है। मार्च 2001 में एक बार फिर अमरीका के अट्ठाइसवें रक्षा सचिव के रूप में उनकी वापसी हुई। पेंटागन के इस दूसरे सबसे महत्वपूर्ण पद के लिये वुल्फोवित्ज़ डोनाल्ड रम्सफील्ड के साथ वे अमरीकी सेना के लिये महत्वपूर्ण नीति निर्माण की प्रक्रिया को अंज़ाम देते हैं। ग्यारह सितंबर के हमलों के बाद पॉल वुल्फोवित्ज़ ने पूरे विश्व में आतंकवाद के खिलाफ़ अमरीकी रणनीति तैयार करने से लेकर ईराक़ और अफ़गानिस्तान के हमलों के लिये नीति तैयार करने में अति विशिष्ट भूमिका निभाई है। 1989 में राष्ट्रपति बुश ने उन्हें पेंटागन में वापिस बुलाया और उन्होंने तत्कालीन रक्षा सचिव डिक चेनी को खाड़ी युद्ध के संचालन एवं उसके लिये पैसे का जुगाड़ करने में काफी मदद की। राष्ट्रपति रीगन के शासनकाल में वुल्फोवित्ज़ ने तीन साल तक इंडोनेशिया में अमरीका के राजदूत की भूमिका भी अदा की। इस दौरना श्री वुल्फोवित्ज़ की छवि काफी अच्छी रही थी और इस्लामी दुनिया से सार्थक संवाद में उन्होंने काफी अच्छी भूमिका निभाई। इंडोनेशिया जाने से पहले वुल्फोवित्ज़ केन्द्रीय सरकार के नीति निर्धाण एवं योजना कार्यान्वयन विभाग के प्रमुख पद पर तीन साल तक और लगभग ढाई साल तक पूर्वी एशिया और प्रशांत महासगरीय देशों के मामले के समीति के सचिव पद पर कार्य कर चुके थे। चीन के साथ अमरीका के संबंध सुधारने मे वुल्फोवित्ज़ काफी आगे रहे थे और जापान तथा कोरिया के मामलों में भी अमरीकी सरकार उनपर काफी निर्भ रही थी। कोरिया और फिलिपींस में लोकतंत्र संबंधी आंदोलोनों में भी वे काफी प्रभावी साबित हुये। पॉल वुल्फोवित्ज़ के सराकारी दायरों से बाहर की भूमिका मुख्य रूप से एक प्राध्यापक के रूप में रही है। 1994 से 2001 के बीच वे जान हापकिन्स विश्वविद्यालय में डीन एवं प्रोफ़ेसर के रूप में उन्होंने काम किया। प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अमरीका की रक्षा नीति से संबंधित बहसों में जमकर भाग लिया और कई बहसों के आयोजक बने। इससे पहले श्री पॉल वुल्फोवित्ज़ येल विश्वविद्यालय में 1970 से 1973 के बीच राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक भी रह चुके थे। श्री पॉल वुल्फोवित्ज़ ने सुरक्षा संबंधी मामलों पर काफी कुछ लिखा भी है। उन्होंने गणित में अपने स्नातक की उपाधि 1965 में कोर्नेल विश्वविद्यालय से प्राप्त की और 1972 में शिकागो विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि हासिल की। अमेरीका के अर्थशास्त्री आधार
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अल्जीरिया (, अल-जज़ायर; ; बर्बर: ⴷⵣⴰⵢⴻⵔ जायेर), अधिकारिक तौर पर अल्जीरिया का जन-लोकतंत्रीय गणराज्य और जिसको रसमी तौर पर लोकतंत्रीय और लोग-प्यारा अलजीरियायी गणराज्य भी कहा जाता है, अफ़्रीका के मघरेब क्षेत्र में स्थित एक देश है जिसकी राजधानी और सबसे अधिक आबादी वाला शहर अल्जीयर्स है। वर्तमान अल्जीरिया का क्षेत्र बहुत सारी प्राचीन सभ्यताएँ, जैसे अतेर्यायी और कैपसियन, की पृष्ठभूमि थी। इस इलाक़े पर बहुत सल्तनतों और राज्य-कुलों का शासन रहा है जिस में नुमिदियायी, करथागिन्यायी, रोमन, वंडल, बिज़ांतीन, अरबी उमय्यद, बर्बर फ़ातिमीद और अलमोहाद और पीछे के तुर्की ओटोमन शामिल हैं। आळ्जीरिया 48 सूबों और 1541 प्रगणों वाला अर्द्ध राष्ट्रपति प्रधान गणराज्य है। 3.7 करोड़ से अधिक आबादी से यह विश्व का 34वाँ सबसे बढ़ आबादी वाला देश है। भाषायी तौर पर यह अरबी मुल्क है जिसकी कुछ स्थानिक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। इसकी अर्थ व्यवस्था तेल-आधारित है जो डच रोग (अर्थ-शात्र की एक धारणा) से प्रभावित है। सोनातराच, जो कि राष्ट्रीय तेल-कंपनी है, अफ्रीका में सबसे बड़ी है। इसकी सेना अफ्रीका और अरब-जगत में मिस्र के बाद सबसे बड़ी है और रूस और चीन इसके युद्धनैतिक एहतियाती मुल्क और सस्तर पूर्तिकर्ता हैं। 2,381,741 वर्ग कि॰मी के क्षेत्रफ़ल से यह दुनिया का दसवाँ सबसे बड़ा मुल्क है। इसकी सीमाएँ उत्तर-पूर्व में ट्यूनीशिया, पूर्व में लीबिया, पश्चिम में मोरक्को, दक्षिण-पश्चिम में पश्चिमी सहारा, मारिटेनिया और माली, दक्षिण-पूर्व में नाइजर और उत्तर में भू-मध्य सागर से लगती हैं। अन्दाज़े के अनुसार 2012 तक इसकी कुल आबादी 3.79 करोड़ है। यह अफ़्रीकी संघ, अरब संगठन, तेल निरयाती मुल्कों का संगठन और संयुक्त राष्ट्र का सदस्य और अरब मघरेब संघ का संस्थापिक सदस्य है। पोषाख व वेशभूषा देश का नाम अल्जीयर्स शहर से आया है। सबसे अधिक प्रचलित नाम-उतपत्ति शहर का नाम अल-जज़ायर (الجزائر, "द्वीप/टापू") से जोड़ती है, जो इस सहर के पुराने नाम जज़ायर बनी मज़घाना (جزائر بني مزغنة, "मज़घाना कबीले के टापू") का कतरे हुआ रूप है, जिसको अल-इदरीसी जैसे मध्य-काली भुगोल-शास्त्री के ईस्तेमाल करते थे। कुछ ओर लोग इसकी उत्पत्ति "Ldzayer" से मानते हैं जो इस देश का मघरेबी अरबी और बर्बर में नाम है जो शायद ज़िरीद राज-कुल के राजा और अल्जीयर्स के संस्थापक धान इब्न-मंद के साथ सम्बन्धित है। इतिहास पूर्व इतिहास पुराने समय में अल्जीरिया को सल्तनत नोमेडिया कहा जाता था। उसके लोग नोमेडियन कहते थे। इस साम्राज्य के संबंध उस समय के प्राचीन यूनान और रोमन राष्ट्रों के साथ थे। इस क्षेत्र उपजाऊ क्षेत्र के रूप में जाना जाता था और यहाँ के लोग गढ़ सवारी विशेषज्ञ थे। उत्तरी अफ्रीका के स्थानीय लोग अंततः बर्बर बने। 1000 में कर्ताजना जनजातियों तट के साथ समुदाय बसाने शुरू कर दिया। बर्बर जनजातियों ने अवसर पाकर कर्ताजनों से आज़ादी पा ली और बर्बर सामराज्य की स्थापना हुई। 200 में इस क्षेत्र में रोमन साम्राज्य ने क़ब्ज़ा कर लिया। लेकिन जब 476 ई॰ में पश्चिमी रोमन राज्य का पतन हुआ तो बर्बर फिर से आज़ाद हो गए। बाद में यहाँ वन्दाल जनजातियों ने क़ब्ज़ा कर लिया जो बिज़ांतीनों आगमन तक क़ायम रहा। बिज़ांतीनों यहाँ 8 वीं शताब्दी तक मौजूद रहे तो अरब यहाँ क़ाबिज़ हो गए। मध्य युगीन यह भी देखिए अल्जीरिया (विक्षनरी) सन्दर्भ अल्जीरिया अफ़्रीका के देश भूतपूर्व फ़्रांसीसी उपनिवेश अरबी-भाषी देश व क्षेत्र
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अल्जीरिया", "token_count": 4488, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE" }
अण्डोरा , अधिकारिक रूप से प्रिंसिपालिटी ऑफ़ अंडोरा को प्रिंसिपालिटी ऑफ़ वैली ऑफ़ अंडोरा के नाम से भी जाना जाता है, यह दक्षिण-पश्चिम यूरोप का घिरा हुआ एक सूक्ष्म राज्य है, जो पूर्वी पायरेनीस पर्वत पर स्थित है और स्पेन और फ्रांस की बॉर्डर भी इससे जुड़ी हुई है। इसका निर्माण 988 चार्टर में किया गया था और वर्तमान प्रिंसिपालिटी की रचना 1278 में की गयी। अण्डोरा यूरोप का एक देश है जो पाइरेनी पर्वत के दक्षिणी चोटियों में स्थित है और फ्रांस द्वारा उत्तर और पूर्व में और स्पेन द्वारा दक्षिण और पश्चिम तक घिरा हुआ है। यह यूरोप के सबसे छोटे राज्यों में से एक है। इसकी राजधानी अण्डोरा ला वेला है। अंडोरा देश यूरोप का छठा सबसे छोटा देश है और दुनिया का 16 वाँ सबसे छोटा देश है , जिसका क्षेत्रफल 468 वर्ग किलोमीटर (181 वर्ग मील) और जनसंख्या तक़रीबनतक़रीबन 78,000 है। इसकी राजधानी अंडोरा ला वेल्ला, यूरोप की सबसे ऊँची राजधानी है, जो समुद्री सतह से तक़रीबन 1,023 मीटर (2,356 फीट) ऊँची है। अंडोरा की अधिकारिक भाषा कैटलन है, इसके साथ-साथ यहाँ स्पेनिश, पुर्तगाली और फ्रेंच भाषा का प्रयोग भी किया जाता है। यहां तो कोई एयरपोर्ट नहीं है, लेकिन इनके पास तीन प्राइवेट हेलीपैड जरूर हैं। इस देश से 12 किलोमीटर दूर इसका सबसे करीबी एयरपोर्ट है।अंडोरा टूरिज्म सर्विस के अनुसार हर साल तक़रीबन 10.2 मिलियन प्रवासी अंडोरा देखने के लिए आते हैं। यह देश यूरोपियन संघ का सदस्य तो नहीं है, लेकिन इसकी अधिकारिक मुद्रा यूरो ही है। 1993 से अंडोरा यूनाइटेड नेशन का सदस्य है। दी लांसेट के अनुसार, 2013 में अंडोरा के लोंगो की जीवन प्रत्याशा 81 वर्ष थी, जो अब तक की तुलना में सबसे ज्यादा है। नाम अण्डोरा , अधिकारिक रूप से प्रिंसिपालिटी ऑफ़ अंडोरा को प्रिंसिपालिटी ऑफ़ वैली ऑफ़ अंडोरा के नाम से भी जाना जाता है , एक सिद्धांत के अनुसार अंडोरा शब्द की उत्पत्ति अरबिक अल-दुर्रा से हुई है, जिसका अर्थ “मोती” से है। शहर और नगर देश की राजधानी और सबसे बड़ा नगर अण्डोरा ला वेला है और देश का सबसे छोटा शहर अरिंसल है, जिसकी जनसंख्या केवल 1,555 है। अण्डोरा की पल्लियाँ अण्डोरा की पल्लियो कि सूची निम्न है- अण्डोरा में सात पल्लियाँ हैं अण्डोरा ला वेला कनिल्लो पल्ली एन्कम्प पल्ली एस्कल्देस-एङोर्दन्य पल्ली ला मसाना पल्ली ओर्दिनो पल्ली संत जूलिया डी लोरिया पल्ली नोट : अण्डोरा में इलाको को पल्लियाँ कहते हैं। यह भी देखिए अन्डोरा (विक्षनरी) सन्दर्भ यूरोप के देश इबेरिया प्रायद्वीप स्थलरुद्ध देश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अण्डोरा", "token_count": 3267, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%BE" }
आज़रबाइजान(अन्य वर्तनी:अज़रबैजान या अज़रबाइजान) (), कॉकेशस के पूर्वी भाग में एक गणराज्य है, पूर्वी यूरोप और एशिया के मध्य में बसा हुआ। भौगोलिक रूप से यह एशिया का ही भाग है। इसके सीमांत देश हैं: अर्मेनिया, जॉर्जिया, रूस, ईरान, तुर्की और इसका तटीय भाग कैस्पियन सागर से लगता हुआ है। यह १९९१ तक भूतपूर्व सोवियत संघ का भाग था। अज़रबैजान एक धर्मनिरपेक्ष देश है और वर्ष २००१ से काउंसिल का सदस्य है। अधिकांश जनसंख्या इस्लाम धर्म की अनुयायी है और यह देश इस्लामी सम्मेलन संघ का सदस्य राष्ट्र भी है। यह देश धीरे-धीरे औपचारिक लेकिन सत्तावादी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है। नामोत्पत्ति "अज़रबैजान" नाम के उद्गम को लेकर कई प्रकार की अवधारणाएँ है। सबसे प्रचलित प्रमेय यह है कि यह नाम "अट्रोपटन" शब्द से निकला है। अट्रोपट फ़ारसी अकामीनाईड राजवंश के समय में एक क्षत्रप था, जिसे सिकंदर महान ने आक्रमण करके परास्त किया और अट्रोपटन को स्वाधीनता मिली। उस समय यह क्षेत्र मीदिया अट्रोपाटिया या अट्रोपाटीन के नाम से जाना जाता था। इस नाम की मूल उत्पत्ति की जड़ें प्राचीन ईरानी पंथ, पारसी धर्म में मानी जाती हैं। आवेस्ता के एक दस्तावेज़ में इस बात का उल्लेख है "âterepâtahe ashaonô fravashîm ýazamaide", प्राचीन फ़ारसी में जिसका शाब्दिक अनुवाद है "पवित्र अटारे-पटा के फ़्रावशी की हम वंदना करते हैं"। अट्रोपटनों ने अट्रोपटन (वर्तमान ईरानी अज़रबैजान) क्षेत्र पर शासन किया। "अट्रोपटन" नाम स्वयं एक प्राचीन-ईरानी, संभवतः मीदन, का यूनानी ध्वन्यात्मक युग्म है, जिसका अर्थ है "पवित्र अग्नि द्वारा रक्षित"। इतिहास अज़रबैजान में प्रारंभिक मानव बस्तियों के चिह्न पाषाण युग के बाद के दिनों के हैं। ५५० ईसापूर्व में एक्यूमेनिडा राजवंश ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की थी, जिससे पारसी धर्म का उदय हुआ और बाद में यह क्षेत्र सिकंदर महान के साम्राज्य का भाग बना और बाद में उसके उत्तराधिकारी, सेलियूसिडा साम्राज्य का। अल्बानियाई कॉकेशन लोगों ने चौथी शताबदी ईसापूर्व में इस क्षेत्र में एक स्वतंत्र राजशाही की स्थापना की, लेकिन ९५-६७ ईसापूर्व में टिगरानीस २ महान ने इसपर अधिकार कर लिया। यह भी देखिए अज़रबैजान (विक्षनरी) सन्दर्भ अज़रबैजान एशिया के देश यूरोप के देश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अज़रबाइजान", "token_count": 2950, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8" }
ब्राज़ील दक्षिण अमरीका का सबसे विशाल एवं महत्त्वपूर्ण देश है। यह देश ५० उत्तरी अक्षांश से ३३० दक्षिणी अक्षांश एवँ ३५० पश्चिमी देशान्तर से ७४० पश्चिमी देशान्तरों के मध्य विस्तृत है। दक्षिण अमरीका के मध्य से लेकर अटलांटिक महासागर तक फैले हुए इस संघीय गणराज्य की तट रेखा ७४९१ किलोमीटर की है। यहाँ की अमेज़न नदी, विश्व की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है। इसका मुहाना (डेल्टा) क्षेत्र अत्यंत उष्ण तथा आर्द्र क्षेत्र है जो एक विषुवतीय प्रदेश है। इस क्षेत्र में जन्तुओं और वनस्पतियों की अतिविविध प्रजातियाँ वास करती हैं। ब्राज़ील का पठार विश्व के प्राचीनतम स्थलखण्ड का अंग है। अतः यहाँ पर विभिन्न भूवैज्ञानिक कालों में अनेक प्रकार के भूवैज्ञानिक संरचना सम्बंधी परिवर्तन दिखाई देते हैं। ब्राज़ील के अधिकांश पूर्वी तट एवं मध्य अमेरिका की खोज अमेरिगो वाससक्की ने की एवं इसी के नाम से नई दुनिया अमेरिका कहलाई। सन् १५०० के बाद यहाँ उपनिवेश बनने आरंभ हुए। यहाँ की अधिकांश पुर्तगाली बस्तियों का विकास १५५० से १६४० के मध्य हुआ। २४ जनवरी १९६४ को इसका नया संविधान बना। इसकी प्रमुख भाषा पुर्तगाली है। व्युत्पत्ति ऐसा लगता है कि "ब्राजील" शब्द ब्राजीलवुड के पुर्तगाली शब्द से आता है, जोकि एक पेड़ है जो ब्राजील के तट के साथ भरपूर मात्रा में पाया जाता है। मूल पुर्तगाली अभिलेखों में भूमि का आधिकारिक पुर्तगाली नाम "पवित्र क्रांति की भूमि" (टेरा दा सांता क्रूज़) था, लेकिन यूरोपीय नाविकों और व्यापारियों ने ब्राजीलवुड के व्यापार की वजह से इसे आमतौर पर "ब्राजील की भूमि" (टेरा डू ब्राज़िल) ही कहते थे। कुछ शुरुआती नाविकों ने इसे "तोते की भूमि" भी कहा करते थे। पैराग्वे की आधिकारिक भाषा गुआरानी भाषा में, ब्राजील को "पिंडोरमा" कहा जाता है। यह नाम वहाँ की स्थानीय आबादी का नाम था, जिसका अर्थ है "पाम के पेड़ों की भूमि"। इतिहास भूगोल ब्राजील दक्षिण अमेरिका के पूर्वी तट के साथ एक बड़ा क्षेत्र है और इसमें महाद्वीप के अधिकांश आंतरिक क्षेत्र शामिल हैं, और यह चिली और एक्वाडोर को छोड़ कर बाकी सभी दक्षिण अमेरिकी देशो के साथ भूमि-सीमा साझा करता है। इसकी सीमा दक्षिण में उरुग्वे; दक्षिण-पश्चिम में अर्जेंटीना और पैराग्वे; पश्चिम में बोलीविया और पेरू; उत्तर-पश्चिम में कोलंबिया; और उत्तर में वेनेजुएला, गुयाना, सूरीनाम और फ्रांस (फ्रेंच गुयाना के फ़्रान्सीसी विदेशी क्षेत्र) के साथ लगा हुआ है। इसमें फर्नांडो डी नोरोन्हा, रोकास एटोल, सेंट पीटर और पॉल रॉक्स, और ट्रिंडेड और मार्टिम वाज़ जैसे कई महासागर द्वीपसमूह शामिल हैं। अपने आकार, संरचना, जलवायु और प्राकृतिक संसाधन के साथ ब्राजील भौगोलिक दृष्टि से बहुत विविध हैं। अपने अटलांटिक द्वीपों सहित, ब्राजील अक्षांश 6°N 34°S और 28°74°W अक्षांश में स्थित है। अपने 8,515,767.049 किमी2 (3,287,956 वर्ग मील) के कुल क्षेत्रफल, जिसमें 55,455 किमी2 (21,411 वर्ग मील) जलक्षेत्र समैत, के साथ ब्राजील दुनिया का पांचवाँ सबसे बड़ा देश है, और अमेरिका में तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है। अधिकांश इलाके 200 मीटर (660 फीट) और 800 मीटर (2,600 फीट) की ऊंचाई के बीच स्थित है। मुख्य ऊपरी क्षेत्र, अधिकांश देश के दक्षिणी भाग पर स्थित है। पठार के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में कम, गोलाकार पहाड़ियों, घुमावदार इलाके हैं। ब्राजील में नदियों की घनी और जटिल प्रणाली स्थित है, जो दुनिया के सबसे व्यापक में से एक है, जिसमें आठ प्रमुख जल निकासी घाटी हैं, इनमें से सभी अटलांटिक में जा कर मिलते हैं। प्रमुख नदियों में अमेज़ॅन (दुनिया की दूसरी सबसे लंबी नदी और पानी की मात्रा के मामले में सबसे बड़ी), पराना और इसकी प्रमुख सहायक इगुआकू (जिसमें इगाज़ू फॉल्स शामिल है), नेग्रो, साओ फ्रांसिस्को, ज़िंगू, मदीरा और तपजोस नदियों आदि शामिल है। जलवायु ब्राजील की जलवायु में बड़े क्षेत्र और विभिन्न स्थलाकृति में मौसम की स्थिति की विस्तृत श्रृंखला शामिल है, हालांकि अधिकांश देश में उष्णकटिबंधीय जलवायु है। कोपेन प्रणाली के अनुसार, ब्राजील छह प्रमुख जलवायु मौसम देखे जा सकता है: मरुस्थल, भूमध्य रेखीय, उष्णकटिबंधीय, अर्ध-शुष्क, महासागरीय और उपोष्णकटिबंधीय। विभिन्न जलवायु स्थितियां भिन्न-भिन्न पर्यावरण निर्माण करती हैं जिसमें उत्तर में भूमध्य रेखीय और पूर्वोत्तर में अर्ध-शुष्क मरूस्थली, से लेकर दक्षिण में समशीतोष्ण शंकुधारी जंगलों और मध्य ब्राजील में उष्णकटिबंधीय सवाना तक शामिल हैं। औसतन तापमान 25 डिग्री सेल्सियस (77 डिग्री फारेनहाइट) रहता है और मौसम के बीच की रात और दिन के बीच तापमान में भिन्नता साफ देखी जा सकती है। मध्य ब्राजील की वर्षा में अधिक मौसमी होती है, जो एक सवाना जलवायु की विशेषता है। यह क्षेत्र अमेज़न बेसिन के रूप में फैला हुआ है लेकिन इसकी जलवायु बहुत अलग है क्योंकि यह एक उच्च ऊंचाई पर दक्षिण की ओर स्थित है। पूर्वोत्तर में, मौसमी वर्षा और भी चरम है। अर्ध-शुष्क जलवायु क्षेत्र में आमतौर पर बारिश से 800 मिलीमीटर (31.5 इंच) से कम होती है, जिनमें से अधिकतर आम तौर पर वर्ष के तीन से पांच महीने की अवधि में ही गिरते हैं और कभी-कभी इससे भी कम जिससे कभी-कभी सूखे की स्थिति भी बन जाती हैं। जैव विविधता और पर्यावरण ब्राजील के बड़े क्षेत्र में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं, जैसे की अमेज़ॅन वर्षावन, जो दुनिया में सबसे बड़ी जैविक विविधता के लिये जाना जाता है, अटलांटिक वन और सेराडो के साथ, जोकि सबसे बड़ी जैव विविधता को बनाए रखते हैं। दक्षिण में, ऐरोकेरिया शंकुवन शीतोष्ण स्थितियों के तहत बढ़ता है। ब्राजील के समृद्ध वन्यजीवन प्राकृतिक आवासों की विविधता को दर्शाता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्राजील में पौधे और पशु प्रजातियों की कुल संख्या चार मिलियन, जिनमें अधिकतर अकशेरुकी है। बड़े स्तनधारियों में मांसाहारी प्यूमा, जगुआर, ऑसेलॉट, दुर्लभ झाड़ी कुत्तों, और लोमड़ी, और शाकाहारी में पैकरीस, टैपिर्स, एंटेटर, स्‍लॉथ, ओपॉसम और आर्माडिलो शामिल हैं। हिरण दक्षिण में भरपूर मात्रा में होती है, और उत्तरी वर्षा वनों में न्यू वर्ल्ड बंदरों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। पर्यावरणीय मुद्दों में वैश्विक रुचि के कारण पर्यावरण के लिए चिंताएं बढ़ी है। ब्राजील के अमेज़ॅन डेल्टा लाल-बेल वाली पिरान्हा सहित मछली प्रजातियों की एक बेहद विविध श्रृंखला का घर है। एक क्रूर ताजे पानी की मछली के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के बावजूद, लाल-बेल वाली पिरान्हा वास्तव में एक आम तौर पर डरपोक स्कैनेंजर होती है। जैव विविधता कृषि, पशुधन, वानिकी और मत्स्य पालन में योगदान दे सकती है। हालांकि, आर्थिक फसलों जैसे सोयाबीन और कॉफी, या जानवरों जैसे मुर्गियों को अन्य देशों से आयात की जाती हैं, देशी प्रजातियों का आर्थिक उपयोग अभी भी बहुत कम है। ब्राजील के सकल घरेलू उत्पाद में, वन क्षेत्र केवल 1% से अधिक और मछली पालन 0.4% का प्रतिनिधित्व करता है। सरकार और राजनीति राष्ट्रपति प्रणाली के साथ सरकार का रूप लोकतांत्रिक संघीय गणराज्य का है। राष्ट्रपति दोनों राज्य और संघ सरकार का प्रमुख होता हैं और चार साल की अवधि के लिए चुना जाता हैं, और वह लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए फिर से चुनाव लड़ सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो हैं, जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति मिशेल तेमेर के महाभियोग के बाद पद सम्भाला था। राष्ट्रपति राज्य के मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं, जो सरकार चलाने में सहायता करते हैं। विधानसभा ब्राजील में किसी भी राजनीतिक इकाई के कानून का मुख्य स्रोत हैं। नेशनल कांग्रेस फेडरेशन के द्विपक्षीय विधायिका है, जिसमें चैंबर ऑफ डेप्युटीज और फेडरल सीनेट शामिल हैं। न्यायिक अधिकारी न्यायिक कर्तव्यों का पालन लगभग विशेष रूप से करते हैं। डेमोक्रेसी इंडेक्स 2010 के अनुसार ब्राजील एक लोकतांत्रिक देश है। कार्यकारी और विधायी शाखाओं के सभी सदस्य सीधे चुने जाते हैं। न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारी प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद नियुक्त किये जाते है। अपने अधिकांश लोकतांत्रिक इतिहास में, ब्राज़ील में बहु-पार्टी प्रणाली, आनुपातिक प्रतिनिधित्व उपस्थित रहा है। मतदान 18 से 70 वर्ष के बीच साक्षरों और अशिक्षितों के लिए वैकल्पिक और 16 या 18 से 70 के बीच अनिवार्य है। प्रशासनिक विभाग ब्राज़ील के 28 केन्द्रीय राज्य तथा एक केन्द्रीय ज़िला है - ब्राज़ील 26 राज्य, एक संघीय जिला (जिसमें राजधानी शहर, ब्रासिलिया) और नगर पालिका से मिलकर बना एक संघ हैं। राज्यों में स्वायत्त प्रशासन हैं, वे अपना कर खुद एकत्र करते हैं और संघीय सरकार द्वारा एकत्रित करों का कुछ हिस्सा भी प्राप्त करते हैं। उनके पास एक राज्यपाल और एक एकसदनी विधायी निकाय है जो सीधे उनके मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं। उनके पास आम न्याय के लिए कानून के स्वतंत्र न्यायालय भी हैं। इसके बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में राज्यों के अपने कानून बनाने के लिए बहुत कम स्वायत्तता है। उदाहरण के लिए, आपराधिक और नागरिक कानूनों को केवल संघीय द्विपक्षीय कांग्रेस द्वारा वोट दे कर बनाया जा सकता है और पूरे देश में लागू है। ब्राज़ील के २६ राज्य निम्न है- एक्री, अलागोआस, अमापा, आमेज़ोनास, बहिया, कीरा, एस्पिरितो सान्तो, गोइयास, मरान्हाओ, मातो ग्रोसो, मातो ग्रोसो दो सुल, मिनास जेरेस, पारा, परेबा, परेना, पेरनाम्बुको, पियाउई, रियो डि जेनेरो, रियो ग्रांडो दो नार्टे, रियो ग्रांडो दो सुल, रोन्डोनिया, रोरैमा, सान्ता कैटरीना, साओ पाउलो, सर्जिपे और टोकैनिस। अर्थव्यवस्था 2017 के अनुमानों के अनुसार ब्राजील लैटिन अमेरिका की सबसे बड़ी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था है, यह दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और क्रय-शक्ति समता (पीपीपी) में आठवां सबसे बड़ा अर्थव्यवस्था है। बिखरे हुए प्राकृतिक संसाधनों के साथ ब्राजील की मिश्रित अर्थव्यवस्था है। पिछले दशकों में तेजी से विकास के बाद, देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार के घोटाले और राष्ट्रव्यापी विरोधों के बीच 2014 से मंदी का दौर है। आईएमएफ डेटा के अनुसार 2017 में ब्राजील को 77वें स्थान पर रखते हुए प्रति व्यक्ति इसकी जीडीपी (पीपीपी) $15,919 थी। कृषि, खनन, विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में सक्रिय ब्राजील में 107 मिलियन से अधिक (दुनिया भर में 6वां स्थान) की श्रम शक्ति और 6.2% की बेरोजगारी (दुनिया भर में 64वें स्थान पर) है। देश अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय और वस्तुओं के बाजारों में अपनी उपस्थिति का विस्तार कर रहा है, और ब्रिक्स नामक पाँच उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह देशों में से एक है। ब्राजील पिछले 150 वर्षों से कॉफी का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। ब्राजील की विविध अर्थव्यवस्था में कृषि, उद्योग और सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। वानिकी, लकडी कटाई और मछली पकड़ने जैसे कृषि संबद्ध क्षेत्रों का 2007 में सकल घरेलू उत्पाद में 5.1% का योगदान था। ब्राजील संतरे, कॉफी, चीनी गन्ना, कसावा और सिसाल, सोयाबीन और पपीता के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। ब्राजील में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार बाजार है। इसके प्रमुख निर्यात उत्पादों में विमान, विद्युत उपकरण, ऑटोमोबाइल, इथेनॉल, कपड़ा, जूते, लौह अयस्क, स्टील, कॉफी, नारंगी का रस, सोयाबीन और गोमांस शामिल हैं। कुल मिलाकर, निर्यात के मामलें में ब्राजील का दुनिया भर में 23वां स्थान है। ऑटोमोबाइल, स्टील और पेट्रोकेमिकल्स, कंप्यूटर, विमान और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उद्योग का सकल घरेलू उत्पाद में 30.8% का हिस्सा है। उद्योग साओ पाउलो, रियो डी जेनेरियो, कैंपिनास, पोर्टो एलेग्रे और बेलो होरिज़ोंटे के महानगरीय क्षेतों में अत्यधिक केंद्रित है। पर्यटन ब्राजील में पर्यटन एक बढ़ता हुआ क्षेत्र है और देश के कई क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख उद्योग है। 2015 में देश में 6.36 मिलियन आगंतुक आये थे, जो दक्षिण अमेरिका में मुख्य गंतव्य और मेक्सिको के बाद लैटिन अमेरिका में दूसरे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक आगमन के रूप में श्रेणीगत थे। 2010 में अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों से राजस्व 6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जोकि 2008-2009 के आर्थिक संकट से उबरने का संकेत था। प्राकृतिक क्षेत्र इसके सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं, अवकाश और मनोरंजन, मुख्य रूप से सूर्य और समुद्र तट, और रोमांचक यात्रा, साथ ही साथ सांस्कृतिक पर्यटन के साथ पारिस्थितिकता का संयोजन देखने को मिलता है। सबसे लोकप्रिय स्थलों में अमेज़ॅन वर्षावन, पूर्वोत्तर क्षेत्र के समुद्र तटों और डन्स, मध्य-पश्चिमी क्षेत्र में पैंटानल, रियो डी जेनेरो और सांता कातारीना के समुद्र तट, मिनास जेरायज़ के सांस्कृतिक पर्यटन और साओ पाउलो शहर के व्यापार यात्राएं शामिल हैं। जनसांख्यिकी 2008 पीएनएडी द्वारा दर्ज ब्राजील की जनसंख्या लगभग 190 मिलियन थी (22.31 निवासियों प्रति वर्ग किलोमीटर या 57.8 वर्ग वर्ग मील), पुरुषों के अनुपात में 0.95:1 और 83.75% जनसंख्या शहरी है। जनसंख्या दक्षिणपूर्वी (79.8 मिलियन निवासियों) और पूर्वोत्तर (53.5 मिलियन निवासियों) क्षेत्रों में काफी केंद्रित है, जबकि दो सबसे व्यापक मध्य-पश्चिम और उत्तर क्षेत्रों, जो ब्राजील के क्षेत्रफल का 64.12% हैं, में कुल 29.1 मिलियन निवासी रहते है। 1940 और 1970 के बीच मृत्यु दर में गिरावट होने के कारण ब्राजील की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, हालांकि जन्म दर में भी मामूली गिरावट आई है। 2008 में, निरक्षरता दर 11.48% और युवाओं में (15-19 साल की आयु) 1.74% थी। पूर्वोत्तर में यह उच्चतम (20.30%) था, जिसमें ग्रामीण गरीबों का एक बड़ा हिस्सा था। 2008 के घरेलू नमूने (पीएनएडी) द्वारा राष्ट्रीय शोध के अनुसार, 48.43% आबादी (लगभग 92 मिलियन) ने खुद को श्वेत के रूप में वर्णित किया; 43.80% (लगभग 83 मिलियन) परडो (भूरे), 6.84% (लगभग 13 मिलियन) अश्वेत के रूप में; 0.58% (लगभग 1.1 मिलियन) एशियाई के रूप में; और 0.28% (लगभग 536 हजार) अमेरिकी आदिवासी (आधिकारिक तौर पर इंडिजेना, स्वदेशी कहें जाते है), जबकि 0.07% (लगभग 130 हजार) ने अपनी वंश घोषित नहीं की थी। 2007 में, नेशनल इंडियन फाउंडेशन ने अनुमान लगाया था कि ब्राजील में 67 अलग-अलग असंबद्ध जनजातियां हैं, जो 2005 में 40 के अनुमान से ज्यादा थीं। ब्राजील में दुनिया में सबसे ज्यादा असंबद्ध लोगों की संख्या है। देश का मुख्य धर्म रोमन कैथोलिक है। ब्राजील में दुनिया की सबसे बड़ी कैथोलिक आबादी है। 2000 जनसांख्यिकीय जनगणना के अनुसार (पीएनएडी सर्वेक्षण धर्म के बारे में पूछताछ नहीं करता है), 73.57% आबादी रोमन कैथोलिक धर्म का पालन करती है; 15.41% प्रोटेस्टेंटिज्म; 1.33% कार्डेसिस्ट भावनावाद; 1.22% अन्य ईसाई संप्रदाय; 0.31% अफ्रीका-ब्राजील के धर्म; 0.13% बौद्ध धर्म; 0.05% यहूदी धर्म; 0.02% इस्लाम; 0.01% आदिवासी धर्म; 0.5 9% अन्य धर्म, अविकसित या अनिश्चित; जबकि 7.35% का कोई धर्म नहीं है। शहर संस्कृति पुर्तगाली साम्राज्य के साथ अपने मजबूत औपनिवेशिक संबंधों के कारण ब्राजील की मूल संस्कृति पुर्तगाली संस्कृति काफी प्रभावित है। अन्य प्रभावों में, पुर्तगाली ने पुर्तगाली भाषा, रोमन कैथोलिक धर्म और औपनिवेशिक वास्तुशिल्प शैलियों की शुरुआत की। हालांकि, संस्कृति अफ्रीकी, स्वदेशी और गैर-पुर्तगाली यूरोपीय संस्कृतियों और परंपराओं से भी काफी प्रभावित है। ब्राजील की संस्कृति में इतालवी, जर्मन और अन्य यूरोपीयों के साथ-साथ जापानी, यहूदी और अरब आप्रवासियों के द्वारा लाये संस्कृति भी देखने को मिलते है जो 19वीं और 20वीं सदी के दौरान ब्राजील के दक्षिण और दक्षिणपूर्व में बड़ी संख्या में पहुंचे थे। स्वदेशी इण्डियन प्रजाति ब्राजील की भाषा और व्यंजन को प्रभावित किया; और अफ्रीकीओं ने भाषा, व्यंजन, संगीत, नृत्य और धर्म को प्रभावित किया है। ब्राजील की कला 16वीं शताब्दी के बाद से विभिन्न शैलियों में विकसित हुई है जो बरोक (19वीं शताब्दी की शुरुआत तक ब्राजील में प्रमुख शैली) से लेकर प्राकृतवाद, आधुनिकतावाद, अभिव्यंजनावाद, क्यूबिज्म, अतियथार्थवाद और अमूर्तवाद तक फैला हुआ था। ब्राजील के सिनेमा 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्म लिया और 1960 के दशक तक अंतरराष्ट्रीय प्रशंसा का एक नया स्तर प्राप्त कर लिया था। ब्राज़ील में सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल है। फीफा विश्व रैंकिंग के अनुसार ब्राज़ील राष्ट्रीय फुटबॉल टीम दुनिया में सबसे अच्छी रैंकिंग में है, और विश्व कप टूर्नामेंट में पांच बार जीत चुका है। इन्हें भी देखें ब्राज़ील (विक्षनरी) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ प्रशासनिक ब्राजीलियाई संघीय सरकार ब्राजील की आधिकारिक पर्यटक गाइड ब्राजीलियाई भूगोल और सांख्यिकी संस्थान सामान्य जानकारी ब्राज़ील "एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका" प्रविष्टि ब्राज़ील "यूसीबी पुस्तकालयों गोवपब्स" पर देश प्रोफाइल यू.एस. लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस (1997) ब्राज़ील बीबीसी समाचार से ब्राजील के लिए प्रमुख विकास पूर्वानुमान, अंतर्राष्ट्रीय वायदा से दक्षिण अमेरिका के देश पुर्तगाली-भाषी देश व क्षेत्र संघीय गणराज्य
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फ़िजी जो कि आधिकारिक रूप से फ़िजी द्वीप समूह गणराज्य (फ़िजीयाई: Matanitu Tu-Vaka-i-koya ko Viti) के नाम से जाना जाता है, दक्षिण प्रशान्त महासागर के मेलानेशिया मे एक द्वीप देश है। यह न्यू ज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैंड से करीब 2000 किमी उत्तर-पूर्व मे स्थित है। इसके समीपवर्ती पड़ोसी राष्ट्रों मे पश्चिम की ओर वनुआतु, पूर्व में टोंगा और उत्तर मे तुवालु हैं। 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान डच एवं अंग्रेजी खोजकर्तओं ने फ़िजी की खोज की थी। 1970 तक फ़िजी एक अंग्रेजी उपनिवेश था। प्रचुर मात्रा मे वन, खनिज एवं जलीय स्रोतों के कारण फ़िजी प्रशान्त महासागर के द्वीपों मे सबसे उन्नत राष्ट्र है। वर्तमान मे पर्यटन एवं चीनी का निर्यात इसके विदेशी मुद्रा के सबसे बड़े स्रोत हैं। यहाँ की मुद्रा फ़िजी डॉलर है। फ़िजी के अधिकांश द्वीप 15 करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ (आरम्भ) हुए ज्वालामुखीय गतिविधियों से गठित हुए। इस देश के द्वीपसमूह में कुल 322 द्वीप हैं, जिनमें से 106 स्थायी रूप से बसे हुए हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ लगभग 500 क्षुद्र द्वीप हैं जो कुल मिला कर 18,300 वर्ग किमी के क्षेत्रफल का निर्माण करते हैं। द्वीपसमूह के दो प्रमुख द्वीप विती लेवु और वनुआ लेवु हैं जिन पर देश की लगभग 8,50,000 आबादी का 87% निवास करती है। नामकरण फिजी द्वीप का मुख्य द्वीप विती लेवु के नाम से जाना जाता है और इसी नाम का उच्चारण इनके पड़ोसी द्वीप टोंगा के निवासी " फिसी " के रूप में करते थे जिसके कारण इसका नाम फिजी पड़ा है। यूरोपीय लोगों को फिजीवासियों के बारे मे सर्वप्रथम कैप्टन कुक के महासागरीय अभियानों के दौरान उनके दल के सदस्य रहे लेखको के लेखों के द्वारा पता चला। यह लेखक फिजीवासियों से पहले पहल टोंगा द्वीप पर मिले थे। इन लेखों में फिजी के मूल निवासियों को दुर्जेय योद्धा और क्रूर आदमखोरों के रूप में वर्णित किया गया था साथ ही उन्हें प्रशांत क्षेत्र में श्रेष्ठ वाहिकाओं (पोतों) के निर्माता लेकिन औसत नाविक के रूप मे भी दर्शाया गया है। वे अपने घर को विती कहते थे, लेकिन टोंगाओं ने इसे फिसी कहा और कैप्टन कुक ने जो एक विदेशी थे इनका उच्चारण फिजी किया और अब इन द्वीपों के नाम इसी नाम से जाना जाता है। इतिहास फिजी के पहले निवासियों का आगमन यूरोपीय अन्वेषकों से बहुत पहले ही हो गया था जो कि सत्रहवीं शताब्दी में फिजी आये थे। मिट्टी के बर्तनों की खुदाई से पता चलता है कि 1000 ई.पू के आसपास भी फिजी में निवासी रहा करते थे, हालाँकि अभी भी उनके फिजी प्रवास के विषय मे कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। डच अन्वेषक हाबिल टैस्मान सन 1643 में जब दक्षिणी महाद्वीप की तलाश में निकले थे तब उन्होनें फिजी का दौरा किया था। उन्नीसवीं सदी तक यूरोपीय स्थायी रूप से द्वीप पर नहीं बसे थे। 1874 में ब्रिटेन ने इस द्वीप को अपने नियंत्रण मे लेकर इसे अपना एक उपनिवेश बना लिया। ब्रिटिश लोग भारतीय मजदूरों को यहाँ ठेके पर गन्ने के खेतों में काम करने के लिये ले आये। सन 1970 में इस देश को ब्रिटेन ने स्वतंत्रता दी। सन 1987 में देश का लोकतांत्रिक शासन दो सैन्य विद्रोहों से बाधित हुआ क्योंकि पहले तख्तापलट में ऐसा माना गया की तत्कालीन सरकार मे भारतीय फ़ीजियों का प्रभुत्व था तथा दूसरे में ब्रिटिश राजशाही और गवर्नर जनरल की जगह एक गैर कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति हुई। इसके बाद देश का नाम परिवर्तित करके 'फिजी गणराज्य' कर दिया गया (1997 में इसे बदलकर फ़िजी द्वीप समूह गणराज्य कर दिया गया)। इस तख्तापलट के कारण भारतीयों ने बडी़ संख्या मे देश छोड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप मेलानेशियाई लोगों का बहुमत हो गया। 1990 में नए संविधान के द्वारा राजनीतिक व्यवस्था मे फिजी मूल के लोगों का वर्चस्व स्थापित किया गया। रंगभेद विरोधी समूह (GARD) का गठन एकतरफा थोपे गये संविधान का विरोध करने और 1970 के संविधान की बहाली के लिये किया गया। 1987 के तख्तापलट को अंजाम देने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल सितिवेनी रेबूका नए संविधान के तहत हुये चुनाव के बाद 1992 में प्रधानमंत्री बने। तीन साल बाद, सितिवेनी रेबूका ने संविधान समीक्षा आयोग की स्थापना की, जिसके फलस्वरूप 1997 में एक नया संविधान अस्तित्व में आया साथ ही इस संविधान को फिजी भारतीय और फिजी स्वदेशी समुदायों के नेताओं का समर्थन भी मिला। फिजी को एक बार फिर से राष्ट्रमंडल के एक राष्ट्र के रूप में सवीकृति मिल गयी। नई सहस्राब्दी में देश ने फिर ने फिर से एक तख्तापलट देखा। इस तख्तापलट में जॉर्ज स्पीट ने तत्कालीन प्रधान मंत्री महेंद्र चौधरी, की सरकार को उखाड़ फेंका जो 1997 के संविधान के बाद निर्वाचित हुयी थी। कमोडोर फ्रैंक बैनीमरामा ने राष्ट्रपति मारा के इस्तीफे जो संभवतः मजबूरी में दिया गया था के बाद कार्यकारी शक्ति ग्रहण कर लीं। सन 2000 में सुवा की महारानी एलिजाबेथ बैरकों में हुए दो सैनिक विद्रोहों ने फिजी को हिला कर रख दिया जब विद्रोही सैनिकों ने शहर में हुड़दंग मचा दिया। उच्च न्यायालय ने संविधान की बहाली का आदेश दिया और, सितंबर 2001 में, लोकतंत्र को बहाल करने के लिए आम चुनाव आयोजित किये गये, जो अंतरिम प्रधानमंत्री लेसीनिया करासे की सोकोसोको दुआवाता नी लेवेनिवानुआ पार्टी ने जीते। सन 2005 में, बहुत विवादों के बीच, करासे सरकार ने एकता आयोग बनाने का एक प्रस्ताव रखा जिसके अन्तर्गत सन 2000 के तख्तापलट के पीड़ितों को मुआवजा दिलाने के साथ इसके उत्तरदायी लोगों के लिए माफी की सिफारिश की गयी थी। इस प्रस्ताव का सेना और विशेष रूप से सेना के कमांडर फ्रैंक बैनीमारामा ने पुरजोर विरोध किया। फ्रैंक बैनीमारामा ने आलोचकों के साथ सहमति जताई कि वर्तमान सरकार के समर्थकों जिन्होने तख्तापलट में एक निर्णायक भूमिका निभाई को क्षमा दान देना अनुचित है। उन्होने सरकार पर अपने हमले मई से जुलाई तक लगातार जारी रखे जिसके कारण उनके संबंध सरकार से जो पहले से तनावपूर्ण थे और तनावपूर्ण हो गये। नवम्बर 2006 के अंत और दिसम्बर, 2006 के शुरू में, तख्तापलट फिजी d' état के लिये बैनीमारामा मुख्य रूप से उत्तरदायी था। बैनीमारामा ने अपनी मांगों की सूची करासे सरकार को सोंप दी जिसके बाद करासे सरकार संसद में एक विधेयक लेकर आयी जिसमे 2000 में तख्तापलट के प्रयास मे शामिल लोगों को क्षमादान देने की पेशकश की गयी थी। उस ने करासे को 4 दिसम्बर तक इन माँगों को स्वीकार करने या अपने पद से इस्तीफा देने का अल्टीमेटम दे दिया। करासे ने माँगों को स्वीकार करने या इस्तीफा देने से साफ् इनकार कर दिया। 5 दिसम्बर को राष्ट्रपति रातु जोसेफा इलोइलो, जिन्होने बैनीमारामा से मुलाकात के बाद संसद भंग करने के एक कानूनी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये। अपने आकार के हिसाब से, फिजी का सशस्त्र बलों का बेड़ा काफी बड़ा है और संयुक्त राष्ट्र के दुनिया के विभिन्न भागों में चल रहे शांति अभियानों मे इसने प्रमुख योगदान दिया है। इसके अलावा, इराक में 2003 के अमेरिकी नेतृत्व वाले आक्रमण के बाद इसके कई भूतपूर्व सैनिक इराक के सुरक्षा क्षेत्र की सेवा मे तैनात हैं। राजनीति फिजी की राजनीति आम तौर पर एक संसदीय प्रतिनिधि लोकतांत्रिक गणराज्य के दायरे में काम करती है। इसके तहत प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया, और राष्ट्रपति राष्ट्र का मुखिया होता है। देश मे बहुदलीय प्रणाली है। कार्यकारी शक्तियों का प्रयोगाधिकार सरकार के पास है। विधायी शक्तियाँ सरकार और संसद दोनों में निहित हैं। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका से स्वतंत्र है। आजादी के बाद से अब तक फिजी मे चार तख्तापलट हो चुके हैं, दो 1987 में, एक 2000 में और एक 2006 के अंत में। 1987 के बाद से सेना या तो शासन मे है या उसका निर्वाचित सरकारों पर पूरा प्रभाव है। फिजी चार राजनैतिक प्रभागों मे विभाजित है: मध्य पूर्वी उत्तरी पश्चिमी इन प्रभागों को आगे 14 जिलों मे बाँटा गया है। भूगोल फिजी में 322 द्वीप हैं (जिनमें से 106 बसे हुए हैं) इसके अतिरिक्त 522 क्षुद्रद्वीप हैं। द्वीप के दो सबसे महत्वपूर्ण द्वीप हैं विती लेवु और वनुआ लेवु। ये द्वीप पहाड़ी हैं, जिनमे 1300 मीटर (4250 फुट) तक की चोटियां हैं, जो उष्णकटिबंधीय वनों से आच्छादित हैं। राजधानी सुवा विती लेवू मे स्थित है और देश की लगभग तीन चौथाई आबादी का घर है। अन्य महत्वपूर्ण शहरों में शामिल हैं नान्दी (अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा यहाँ स्थित है) और लौतोका (एक बड़ी चीनी मिल और समुद्री-पत्तन यहाँ स्थित हैं)। वनुआ लेवु के मुख्य शहरों में लाबासा और सावुसावु प्रमुख हैं। अन्य द्वीपों या द्वीप समूहों में शामिल हैं तावेउनी और कन्दावु जो क्रमशः तीसरा और चौथा सबसे बड़ा द्वीप हैं इसके अलावा मामानुका समूह (नान्दी से थोड़ा बाहर) और यसावा समूह लोकप्रिय पर्यटन स्थलों मे हैं, लोमाईविती समूह, सुवा से बाहर है और दूरस्थ लाउ समूह। रोटुमा, द्वीपसमूह के उत्तर में कुछ 500 किलोमीटर (310 मील) की दूरी पर स्थित है और इसे फिजी मे एक विशेष प्रशासनिक दर्जा हासिल है। फिजी के निकटतम पड़ोसी टोंगा है। फिजी में उष्णकटिबंधीय जलवायु है और वर्ष भर मौसम गर्म बना रहता है। अर्थव्यवस्था फिजी मे प्रचुर मात्रा मे वन, खनिज और मतस्य संसाधन हैं जिसके कारण यह् प्रशांत द्वीप क्षेत्र की तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित अर्थव्यवस्थाओं मे से एक है। फिजी ने 1960 व 1970 के दशक में तेजी से वृद्धि की लेकिन 1980 के दशक की शुरुआत में अर्थव्यवस्था मे ठहराव आ गया, 1987 के तख्तापलट ने तो इसे और मंदा कर दिया। तख्तापलट के बाद के वर्षों में आर्थिक उदारीकरण के चलते कपड़ा उद्योग का विकास बडी़ तेज गति से हुआ है साथ ही चीनी उद्योग से जुडी़ जमीन के पट्टों की अनिश्चितता के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था ने अपनी वृद्धि दर कायम रखी है। गन्ना किसानों के पट्टों की अवधि समाप्त हो जाने से चीनी के उत्पादन में रियायती मूल्य के बावजूद गिरावट आयी है। चीनी के लिए यूरोपीय संघ द्वारा सब्सिडी का प्रावधान किया गया है और सबसे अधिक लाभान्वित होने वालों मे मॉरिशस के बाद फिजी दूसरे स्थान पर है। शहरीकरण और सेवा क्षेत्र के विस्तार ने, हाल के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में योगदान किया है। तेजी से बढ़ रहा चीनी का निर्यात और पर्यटन उद्योग विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत हैं। फिजी राजस्व के लिए पर्यटन पर निर्भर ह॥ चीनी प्रसंस्करण सारी औद्योगिक गतिविधियों का एक तिहाई बनता है। लंबे समय की समस्याओं मे कम निवेश और अनिश्चित संपदा अधिकार शामिल हैं। फिजी में राजनीतिक उथलपुथल ने अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव डाला है, जो वर्ष 2000 में 2.8% से घटी और 2001 में केवल 1 % की दर से बढ़ी है। पर्यटन क्षेत्र में तेजी से बढोत्तरी हुई है फिर भी यह अभी 2002 के तख्तापलट के पहले के स्तर को छू पाने मे नाकाम रही है। हालाँकि मुद्रास्फीति कम है फिर भी फिजी के रिजर्व बैंक ने ऋण द्वारा वित्तपोषित, अत्यधिक उपभोग के भय के कारण नीति सूचक दर फरवरी 2006 में 1 % से बढा़कर 3.25 % कर दी है। कम ब्याज दरों ने अब तक निर्यात के लिए अधिक निवेश नहीं जुटाया है लेकिन आवास क्षेत्र मे, तेजी से गिर रही वाणिज्यिक बंधक दर के चलते उछाल आया है। सुवा में 1984 में खोली गयी रिजर्व बैंक की चौदह मंजिला इमारत फिजी की सबसे उँची इमारत है। सुवा का केन्द्रीय वाणिज्यिक केंद्र जो नवंबर 2005 में खोला गया था योजना के मुताबिक सबसे उँची इमारत होनी थी लेकिन अंत में इसके डिजाइन में परिवर्तन कर दिया गया और इसके चलते रिजर्व बैंक अभी भी सबसे उँची इमारत है। संस्कृति फिजी की समृद्ध संस्कृति स्वदेशी, भारतीय, चीनी और यूरोपीय परंपरा का मिश्रण है। संस्कृति अनेक पहलुओं से मिलकर बनी है, जिनमे सामाजिक व्यवस्था, परंपरा, भाषा, भोजन, वेशभूषा, विश्वास प्रणाली, वास्तुकला, कला, शिल्प, संगीत, नृत्य और खेल आदि शामिल हैं। आबादी का अधिकांश स्वदेशी संस्कृति से प्रेरित है और इसकी पालना वो अपने दिन प्रतिदिन के जीवन में करता है। स्वदेशी संस्कृति पर भारतीय और चीनी संस्कृति के, साथ ही यूरोपीय संस्कृति का भी काफी प्रभाव है। इस सभ्यताओं के मिश्रण ने फिजी की संस्कृति को एक अद्वितीय और राष्ट्रीय पहचान दिलाई है। भाषा यहाँ अंग्रेजी, फ़ीजी हिन्दी आदि कई भाषाएँ बोली एवं प्रयोग की जाती हैं। फिजी मे बोली जाने वाली हिन्दी अवधी भाषा का ही स्वरूप है। फिजी मे अवध क्षेत्र का बहुत प्रभाव है, यहाँ रामायण का बोली पर भी बहुत गहरा प्रभाव है। अवध में प्रयुक्त शब्दावली आज भी ज्यो कि त्यों यहाँ प्रचलित है, जैसे सब्जी पेठा/सीताफल को कोहंडा कहा जाता है, पूड़ी को सोहारी, पैर को गोड़ आदि कहा जाता है। इसका मूल कारण वहाँ गिरमिटिया के रूप में पहुंचे भारतीय अवध क्षेत्र के थे। राष्ट्रकवि पंडित कमला प्रसाद मिश्र, हिंदी सेवी व मंत्री स्व. श्री विवेकानंद शर्मा, प्रोफेसर सतेंदर नंदन आदि सभी की जड़े भारतीय अवध क्षेत्र में है। इनके पूर्वज फैज़ाबाद, सुल्तानपुर, जौनपुर, आदि जनपदों से गए थे। इसी कारण यहाँ की भाषा अवधी के रूप में विकसित हुई है और आज स्थानीय प्रभाव के कारण फिजी हिंदी के रूप में प्रचलित है। फिजी के मूल निवासी पोलिनेशियाई और मेलाशियाई लोगों का मिश्रण हैं, जो सदियों पहले दक्षिण प्रशांत के मूल स्थान से यहाँ आये थे। 1879 से 1916 के बीच ब्रिटिश 61000 मजदूरों को भारत से यहाँ गन्ने के खेतों मे काम करने के लिये यहाँ लाये थे इसके बाद 1920 और 1930 के दशक मे हजारों भारतीय स्वेच्छा से यहां आये। आज यही भारतीय फिजी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। भारतीय फिजियों की जनसंख्या मे तेजी से वृद्धि हुई है। फिजी के मूल निवासी पूरे देश में रहते हैं, जबकि भारतीय मूल के फिजी नागरिक दोनो प्रमुख द्वीपों के शहरी क्षेत्रों और गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के पास रहते हैं। स्वदेशी मूल के लगभग सभी ईसाई हैं, जिनमे दो तिहाई मेथोडिस्ट है। भारतीय फ़ीजियों में 77 प्रतिशत हिंदू हैं, 16 प्रतिशत मुस्लिम, 6 प्रतिशत ईसाई के साथ कुछ सिख भी हैं। 'द इकोनोमिस्ट' के अनुसार 1977 में 255000 की संख्या के साथ फिजी मूल के नागरिक अल्पसंख्यक हो गये थे। 600000 की कुल जनसंख्या में से लगभग आधे नागरिक भारतीय मूल के थे, जबकि शेष चीनी, यूरोपीय और मिश्रित वंश के हैं। राष्ट्रीय जनगणना हर दस वर्ष मे आयोजित की जाती है। अंतिम बार इसे 1996 में आयोजित किया गया था, लेकिन 2006 की जनगणना को 2007 तक स्थगित कर दिया गया। वित्त मंत्री रातु जोन कुबुआबोला ने 27 अक्टूबर 2005 को घोषणा की, कि "मंत्रिमंडल ने फैसला लिया है कि जनगणना और आम चुनाव एक ही वर्ष मे कराना देश के हित में नहीं है, क्योंकि लोग चुनावों की ओर ध्यान की वजह से जनगणना अधिकारी से पूर्ण सहयोग नहीं कर पायेंगे"। सांख्यिकी कार्यालय ने उनके इस कथन का समर्थन ये कहते हुये किया कि चुनाव, जनगणना से लोगों का ध्यान हटा देंगे जिसकी वजह से जनगणना का कार्य दुष्कर हो जायेगा। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ यह भी देखिए पीजी (विक्षनरी) फ़ीजी हिन्दी गिरमिटिया तोताराम सनाढ्य हिरनगाँव फिजी राज्य के प्रमुखों की सूची देश फ़िजी द्वीप देश ओशिआनिया के देश प्रशांत महासागर के द्वीपसमूह हिन्दुस्तानी-भाषी देश व क्षेत्र
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जॉर्जिया (საქართველო, "साखार्थ्वेलो") — पूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। ट्रांसकाकेशिया क्षेत्र के केंद्रवर्ती तथा पश्चिमी अंश में कृष्ण सागर के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित एक राज्य है। सन् 1991 तक यह जॉर्जियाई सोवियत समाजवादी गणतंत्र के रूप में सोवियत संघ के 15 गणतंत्रों में से एक था। जॉर्जिया की सीमा उत्तर में रूस से, पूर्व में अज़रबैजान से और दक्षिण में आर्मीनिया तथा तुर्की से मिलती है। यह भी देखिए जॉर्जिया (विक्षनरी) सन्दर्भ Georgia TVNews (english, german, russian, georgian) बाहरी कड़ियाँ जॉर्जिया के राष्ट्रपति जॉर्जिया की सरकार जॉर्जिया के विदेश मामलों के मंत्रालय जॉर्जिया के पर्यटन विभाग और रिसॉर्ट्स जॉर्जिया में अमेरिकी वाणिज्य मंडल राज्य और कैबिनेट सदस्यों के चीफ सामान्य जानकारी Georgia पर UCB Libraries GovPubs जॉर्जिया प्रोफ़ाइल से BBC News आधुनिक वैज्ञानिक जांच की एसोसिएशन – (AMSI) यूरोप के देश नैऋत्य जंबुद्वीप एशिया के देश जॉर्जिया स्थलरुद्ध देश
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पादरी वर्ग को पोप कहा जाता है रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च धर्म गुरु, रोम के बिशप एवं वैटिकन के राज्याध्यक्ष को पोप कहते हैं। 'पोप' का शाब्दिक अर्थ 'पिता' होता है। यह लैटिन के "पापा" (papa) से व्युत्पन्न हा है जो स्वयं ग्रीक के पापास् (πάπας, pápas) से व्युत्पन्न है। इस समय pope frncis naye इस पद पर आसीन हैं। रोमन काथलिक चर्च के परमाधिकारी को संत पापा (पिता) 'होली फादर' अथवा पोप कहते हैं। ईसा से अपने महाशिरूय संत पीटर को अपने चर्च का आधार तथा प्रधान 'चरवाहा' नियुक्त किया था और उनको यह भी सुस्पष्ट आश्वासन दिया था कि उनपर आधारित चर्च शताब्दियों तक बना रहेगा। अत: ईसा के विधान से संत पीटर का देहांत रोम में हुआ था, इसलिये प्रारंभ ही से संत पीटर के उत्तराधिकारी होने के कारण रोम के बिशप समूचे चर्च के अध्यक्ष तथा पृथ्वी पर ईसा के प्रतिनिधि माने गए थे। इतिहास इसका साक्षी है कि रोम के बिशप के अतिरिक्त किसी ने कभी संत पीटर का उत्तराधिकारी होने का दावा नहीं किया। किंतु प्राच्य चर्च के अलग होते जाने से तथा प्रोटेस्टैंट धर्म के उद्भव से पोप के अधिकारी के विषय में शताब्दियों तक वाद विवाद होता रहा, अंततोगत्वा वैटिकन की प्रथम अधिकार रखते हैं। वे ईसा की शिक्षा के सर्वोच्च व्याख्याता हैं और चर्च के परमाधिकारी की हैसियत से धर्मशिक्षा की व्याख्या करते समय भ्रमातीत अर्थात्‌ अचूक हैं। पोप वैटिकन राज्य के अध्यक्ष हैं तथा उनके देहांत पर कार्डिनल उनके उत्तराधिकारी को चुनते हैं इन्हें भी देखें पोप जॉन पॉल जोज़फ़ रैत्सिंगर पोप
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पोप जॉन पॉल प्रथम पोप जॉन पॉल द्वतीय id:Paulus#Paus Katolik Roma
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रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (अंग्रेज़ी:DRDO, डिफेंस रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट ऑर्गैनाइज़ेशन) भारत की रक्षा से जुड़े अनुसंधान कार्यों के लिये देश की अग्रणी संस्था है। यह संगठन भारतीय रक्षा मंत्रालय की एक आनुषांगिक ईकाई के रूप में काम करता है। इस संस्थान की स्थापना १९५८ में भारतीय थल सेना एवं रक्षा विज्ञान संस्थान के तकनीकी विभाग के रूप में की गयी थी। वर्तमान में संस्थान की अपनी इक्यावन प्रयोगशालाएँ हैं जो इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा उपकरण इत्यादि के क्षेत्र में अनुसंधान में कार्यरत हैं। पाँच हजार से अधिक वैज्ञानिक और पच्चीस हजार से भी अधिक तकनीकी कर्मचारी इस संस्था के संसाधन हैं। यहां राडार, प्रक्षेपास्त्र इत्यादि से संबंधित कई बड़ी परियोजनाएँ चल रही हैं। इतिहास १९५८ में पूर्व-कार्यरत भारतीय सेना की प्रौद्योगिकी विकास अधिष्ठान (टीडीई) तथा रक्षा विज्ञान संस्थान (डीएसओ) के साथ प्रौद्योगिकी विकास और उत्पादन का निदेशालय (डीटीडीपी) के एकीकरण से गठन किया गया और साथ ही रक्षासंगठन एवं अनुसंधान संगठन का गठन किया गया था। उस समय डीआरडीओ १० प्रतिष्ठानों अथवा प्रयोगशालाओं वाला छोटा संगठन था। इसके बाद आगे के वर्षों में संगठन ने विविध विषय शिक्षणों, अनेक प्रयोगशालाओं, उपलब्धियों आदि में बहु-दिशात्मक विकास किया है। आज, डीआरडीओ में ५० से अधिक प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं जो भिन्न प्रकार के शिक्षणों जैसे वैमानिकी, आयुध, इलेक्ट्रॉनिक्स, युद्धक वाहन, इंजीनियरिंग प्रणाली, उपकरण, मिसाइल, उन्नत कंप्यूटिंग और सिमुलेशन, विशेष सामग्री, नौसेना प्रणालियों, जीवन विज्ञान, प्रशिक्षण, सूचना प्रणालियों और कृषि को सुरक्षा देने वाली रक्षा प्रौद्योगिकियों का विकास करने में तत्परता से संलग्न हैं। वर्तमान में, संगठन वैज्ञानिकों, ५००० से अधिक वैज्ञानिकों और २५,००० अन्य वैज्ञानिक, तकनीकी और समर्थन के कर्मियों द्वारा कार्यरत है। मिसाइलों, हथियारों, हल्के लड़ाकू विमानों, रडार, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणालियों इत्यादि के विकास के लिए अनेक प्रमुख परियोजनाएं उपयोग के लिए उपलब्ध हैं तथा ऐसी अनेक प्रौद्योगिकियों में पहले ही महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की गई हैं। लक्ष्य संगठन की दृष्टि (विज़न) है: विश्व-स्तरीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकीय आधार स्थापित कर भारत को समृद्ध बनाना और अपनी रक्षा सेना को अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्धी प्रणालियों और समाधानों से लैसकर उन्हें निर्णायक लाभ प्रदान करना। इसके अलावा डीआरडीओ के ध्येय इस प्रकार से हैं: अपनी रक्षा सेवाओं के लिए अत्याधुनिक सेंसर, शस्त्र प्रणालियां, मंच और सहयोगी उपकरण अभिकल्पित करना, विकसित करना और उत्पादन के लिए तैयार करना। संग्रामी प्रभावकारिता अधिकतम करने और सैनिकों की बेहतरी को बढ़ावा देने के लिए रक्षा सेवाओं को तकनीकी समाधान प्रदान करना। अवरचना तथा गुणवत्तापूर्ण प्रतिबद्ध श्रमशक्ति विकसित करना और मजबूत प्रौद्योगिकी आधार निर्मित करना। संगठन ने अनेक उन्नत रक्षा प्रणालियां विकसित कर चुके डीआरडीओ ने रक्षा प्रौद्योगिकियों के एक व्यापक वर्णक्रम में विशेषज्ञता अर्जित कर ली है। संगठन की आधारभूत योग्यता वाले क्षेत्रों में शामिल हैं: संश्लिष्ट सेंसरों, शस्त्र प्रणालियों तथा मंचों का प्रणाली अभिकल्प एवं एकीकरण; संश्लिष्ट उच्च-स्तरीय सॉफ्टवेयर पैकेजों का विकास; कार्यात्मक सामग्रियों का विकास; परीक्षण एवं मूल्यांकन; प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एवं समावेशन। इसके अतिरिक्त, रक्षा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, गुणवत्ता आश्वासन एवं सुरक्षा, परियोजना एवं प्रौद्योगिकी प्रबंधन के लिए प्रासंगिक क्षेत्रों में मौलिक/प्रयुक्त अनुसंधान के लिए विशेषज्ञता तथा अवरचना भी निर्मित की गई है। यह विभिन्न प्रकार की आधूनिक सेवाओं को प्रदान करता है तथा पोजीशनिंग सिस्टम (GPS) प्रदान करता है संगठन इसका मुख्यालय दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के निकट ही, सेना भवन के सामने डी आर डी ओ भवन में स्थित है। इसकी एक प्रयोगशाला महात्मा गाँधी मार्ग पर उत्तर पश्चिमी दिल्ली में स्थित है। संगठन का नेतृत्व रक्षा मंत्री, भारत सरकार, जो रक्षा मंत्रालय में सामान्य अनुसंधान और विकास के निदेशक तथा रक्षा अनुसंधान और विकास विभाग (डीडीआर व डी) के सचिव भी हैं, के वैज्ञानिक सलाहकार द्वारा किया जाता है। मुख्यालय स्तर पर, उनकी सहायता अनुसंधान एवं विकास (सीसीआर व डी), प्रौद्योगिकी और निगमित निदेशालय के मुख्य नियंत्रक द्वारा की जाती है। निगमित निदेशालय के अधिकारी, वित्तीय और संपदा प्रशिक्षण, नागरिक कार्य और संपदा, राज भाषा, विजिलेंस, इत्यादि के क्षेत्र/कार्य को तय करते हैं तथा प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला निदेशालय तथा मुख्य नियंत्रक तथा वैज्ञानिक सलाहकार से आरएम के बीच एक इंटरफेस के रूप में काम करते हैं। अतिरिक्त वित्तीय सलाहकार संगठन के उद्देश्यों के मुताबिक धनराशि की उचित उपयोगिता पर संगठन को परामर्श देता है। DRDO की मुख्य संस्थाएं एडवांस्ड नूमेरिकल रिसर्च एण्ड एनलिसिस ग्रुप (anurag ) – हैदराबाद एडवांस्ड सिस्टम्स लैब्रटोरी – हैदराबाद एरियल डेलीवेरी रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट ईस्टैब्लिश्मन्ट – आगरा ऐरोनोटिकल डेवलपमेंट ईस्टैब्लिश्मन्ट – बेंगलुरू अर्नमेंट्स रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट ईस्टैब्लिश्मन्ट – पुणे सेंटर फॉर ऐरबोर्न सिस्टम – बेंगलुरू सेंटर फॉर आर्टिफिसियल इन्टेलिजन्स एण्ड रोबाटिक्स – बेंगलुरू सेंटर फॉर फायर एक्सप्लोसिव एण्ड एनवायरनमेंट सैफ्टी – दिल्ली कम्बैट वीइकल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट ईस्टैब्लिश्मन्ट – चेन्नई डिफेन्स फूड रिसर्च लैब्रटोरी – मैसूर टर्मिनल बलिस्टिक रिसर्च लैब्रटोरी – चंडीगढ़ देखें नाभिकीय कमान *न्यूक्लियर ट्रायड सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ भारतीय रक्षा प्रौद्योगिकी | bhartiya raksha prodyogiki in Hindi आधिकारिक जालस्थल भारत में अनुसंधान संस्थाएँ दिल्ली के बस स्टॉप रिंग मार्ग के बस स्टॉप दिल्ली के स्थल भारत सरकार के संस्थान हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन", "token_count": 7925, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%20%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B8%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A0%E0%A4%A8" }
सम्मोहन से कोई कुछ भी करवा सकता है कहना या सोचना गलत होगा। यह एक सरल और सामान्य प्रक्रिया है जिसके समझने में जटिलता है, ये कोई दैवीय शक्ति या काला जादू नहीं है। यह Sycology से सम्मंधित (related) है। सम्मोहन (Hypnosis) वह कला है जिसके द्वारा मनुष्य उस अर्धचेतनावस्था में लाया जा सकता है जो समाधि, या स्वप्नावस्था, से मिलती-जुलती होती है, किन्तु सम्मोहित अवस्था में मनुष्य की कुछ या सब इन्द्रियाँ उसके वश में रहती हैं। वह बोल, चल और लिख सकता है; हिसाब लगा सकता है तथा जाग्रतावस्था में उसके लिए जो कुछ सम्भव है, वह सब कुछ कर सकता है, किन्तु यह सब कार्य वह सम्मोहनकर्ता के सुझाव पर करता है।कभी कभी यह सम्मोहन बिना किसी सुझाव के भी काम करता है और केवल लिखाई और पढ़ाई में भी काम करता है जैसे के फलाने मर्ज की दवा यहाँ मिलती है इस प्रकार के हिप्नोसिस का प्रयोग भारत में ज्यादा होता है। जैसे की किसी के शरीर पे चोट लगी है और उसको बहुत दर्द हो रहा है; तो उसको सम्मोहीत करके उसका ध्यान किसी और दूसरी जगह पे ले जाया जा सकता है और उसका दर्द कम कर सकते है। इतिहास भारत में अति प्राचीन काल से सम्मोहन तथा इसी प्रकार की अन्य रहस्यमय, अद्भुत प्रभावोत्पादक, गुप्त क्रियाएँ प्रचलित हैं। अन्य पूर्वी देशों में भी ये अज्ञात नहीं रही हैं। यह निश्चय है कि यदि सबने नहीं तो इनमें से अधिकांश ने इन क्रियाओं का ज्ञान भारत से प्राप्त किया, जैसे तिब्बत ने। नटों, साधुओं तथा योगियों में इन क्रियाओं के जाननेवाले पाए जाते हैं। इन विशिष्ट मण्डलों के लोगों को छोड़कर अन्य मनुष्यों में इनका ज्ञान बहुत थोड़ा, या कुछ भी नहीं, रहता। अनधिकारी के ज्ञाता होने से अनिष्ट की आशंका समझ, पूर्वी देशों में इस विषय के समर्थ लोगों ने इसे सर्वथा गोपनीय रखा। इस कारण आज भी इस सम्बन्ध में जो कुछ निश्चित रूप से लिखा जा सकता है वह यूरोप की देन है, जहाँ इसका वैज्ञानिक अध्ययन करने की चेष्टा की गई है। अठारहवीं सदी के मध्य में फ्रांज़ ए. मेस्मर नामक वियना के एक चिकित्सक ने सर्वप्रथम सम्मोहन का अध्ययन प्रारम्भ किया। इन्होंने कुछ सफलता तथा बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की, किन्तु इस सम्बन्ध में जिन सिद्धान्तों की इन्होंने कल्पना की वे गलत सिद्ध हुए। जो सिद्धान्त आजकल स्वीकृत हैं, उनका विवेचन लीबाल्ट (Liebault) तथा वेर्नहाइम (Bernheim) नामक दो फ्रांसीसी डाक्टरों ने किया था। इनके अनुसार सम्मोहन का अनिवार्य प्रवर्तक सुझाव या प्रेरणा का संकेत होता है। स्वरूप यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि सम्मोहनकर्ता जादूगर, अथवा दैवी शक्तियों का स्वामी, नहीं होता। मनुष्यों में से अधिकांश प्रेरणा या सुझाव के प्रभाव में आ जाते हैं। यदि कोई आज्ञा, जैसे "आप खड़े हो जाँए" या "कुर्सी छोड़ दें", हाकिमाना ढंग से दी जाए, तो बहुत से लोग इसका तुरन्त पालन करते हैं। यह तो सभी ने अनुभव किया है कि यदि हम किसी को उबासी लेते देखते हैं, तो इच्छा न रहने पर भी स्वयं उबासी लेने लग जाते हैं। दूसरों के हँसने पर स्वयं भी हँसते या मुस्कराते हैं तथा दूसरों को रोते देखकर उदास हो जाते हैं। जो लोग दूसरों के सुझावों को इच्छा न रहते हुए भी मान लेते हैं, वे सरलता से सम्मोहित हो जाते हैं। सम्मोहित व्यक्ति के व्यवहार में निम्नलिखित समरूपता पाई जाती है : आज्ञाकारिता कुछ लोगों का मत है कि जो मनुष्य पूर्ण रूप से सम्मोहित हो जाता है वह सम्मोहनकर्ता की दी हुई सब आज्ञाओं का पालन करता है, किन्तु कुछ अन्य का कहना है कि सम्मोहित व्यक्ति के विश्वासों के अनुसार यदि आज्ञा अनैतिक या अनुचित हुई, तो वह उसका पालन नहीं करता और जाग जाता है। मिथ्या प्रतीति तथा भ्रम सम्मोहनकर्ता यदि कहता है कि दो और दो सात होते है, तो सम्मोहित व्यक्ति इसे मान लेता है। यदि सम्मोहनकर्ता कहता है कि तुम घोड़ा हो, तो वह व्यक्ति हाथों और घुटनों के बल चलने लगता है। मतिविभ्रम सम्मोहित व्यक्ति को ऐसी वस्तुएँ जो उपस्थित नहीं है दिखाई तथा सुनाई जा सकती है और उनका स्पर्श व अनुभव कराया जा सकता है। इस अवस्था में यह भी मनवाया जा सकता है कि वह वस्तु उपस्थित नहीं है जो वास्तव में उपस्थित है। यदि प्रेरणा दी जाए कि जिस कुर्सी पर सम्मोहित व्यक्ति बैठा है वह वहाँ नहीं है, तो वह व्यक्ति मुँह के बल जमीन पर लुढ़क जाएगा। ज्ञानेन्द्रियों पर प्रभाव सम्मोहनकर्ता के सुझाव पर सम्मोहित व्यक्ति के शरीर का कोई भाग सुन्न हो जा सकता है, यहाँ तक कि उस भाग को जलाने पर भी उसे वेदना न हो। इन्द्रियों को तीव्र बनानेवाली प्रेरणा भी कार्यकारी हो सकती है, जिससे सम्मोहित व्यक्ति असाधारण बल का प्रयोग कर सकता है, या कही हुई बात को भी दूर से सुन सकता है। परासम्मोहन विस्मृति साधारणतया सम्मोहनावस्था में हुई सब बातों को सम्मोहित व्यक्ति भूल जाता है। सम्मोहनोत्तर प्रेरणा व्यक्ति की सम्मोहनावस्था में दिए हुए सुझावों या आज्ञाओं का, पूर्ण चेतनता प्राप्त करने पर भी, वह पालन करता है। यदि उससे कहा गया है कि चैतन्य होने के दस मिनट बाद नहाना, तो उतना समय बीतने पर वह अपने आप ऐसा ही करता है। दैनिक जीवन में सम्मोहन प्रतिदिन के जीवन में सम्मोहन के अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। राजनीतिक या धार्मिक नेता अपने भाषणों से लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। आत्मसम्मोहन भी सम्भव है। किसी चमकीली वस्तु पर दृष्टि स्थिर रखकर यह अवस्था उत्पन्न की जा सकती है। अत्यधिक उत्तेजना, भय आदि से मनुष्य सम्मोहित अवस्था जैसा व्यवहार करने लगता है, या उत्तेजना के क्षण के पहले या बाद की घटनाओं को भूल जाता है। वह कौन है, उसका पिछला जीवन क्या था, यह भी भुलाया जा सकता है। आकस्मिक शारीरिक चोट, मानसिक क्षोभ, अथवा उत्तेजना के कारण, हाथ पैर रहते कभी कभी मनुष्य लूले या लँगड़े के सदृश व्यवहार करने लगता है, दृष्टि का लोप हो जाता है, अथवा वह नीन्द में ही चलने फिरने लग सकता है। दृष्टि विभ्रम, या जाग्रत अवस्था में स्वप्न देखने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। धार्मिक उत्तेजना से सम्मोहित होकर कुछ लोग अनजाने अर्धचेतनावस्था में हो जाते हैं और कल्पित होकर कुछ लोग अनजाने अर्धचेतनावस्था में हो जाते हैं और कल्पित दृश्य या वस्तुएँ देखते या सुनते हैं। बाद में उन्हें विश्वास हो जाता है कि यह सब वास्तविक था। कुछ लोग सम्मोहन में कुशल होते हैं। अन्य लोग इनके प्रभाव में आकर, अर्धचेतनावस्था में कुर्सी, मेज आदि इधर उधर हटा देते हैं या हिलाते हैं, अनुपस्थित वस्तु देखते या सुनते हैं। श्रद्धा से रोगमुक्ति का आधार भी सम्मोहन ही है। भीड़ मे दूसरों से प्रभावित होकर मनुष्य सम्मोहित व्यक्ति के सदृश आचरण करने लगता है। भावातिरेक में भीड़ों के विवेकहीन आचरण का यही कारण है। उपयोग सम्मोहन का उपयोग कुछ रोगों को दूर करने में तथा प्रसव में किया जाता है। कुछ चिकित्सकों ने शल्यचिकित्सा में भी इसे वेदनाहर पाया है। सम्मोहन की कार्यपद्धति से मानस तथा मानसिक रोगों के अध्ययन में सहायता मिलती है। साथ ही साथ कुछ मनोचिकित्सकों के द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को सम्मोहित कर उसके जीवन के वह पल उसकी श्मृति से मिटा दिये जाते हैं जिन्हें वह भूलना चहता हो। व इस क्रिया के द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को उसके (पुर्वजन्म) को याद करा दिया जाता है। किन्तु इस बात का कोई ठोस आधार नहीं है। सन्दर्भ किसी सम्मोहनकर्ता के द्वारा किसी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क पर नियन्त्रण करने व उससे स्वयं के कहे अनुसार व्यवहार कराने की क्रिया को सम्मोहन कहा जाता है। जिसका उपयोग आधुनिक युग में विभिन्न चिकित्सकिय कार्यों के लिए किया जाता है। बाहरी कड़ियाँ योग से पाएँ सम्मोहन शक्ति (वेबदुनिया) सम्मोहन उपचार की एक विधि (समय अलाइव) सम्मोहन से प्रसव आसान (बीबीसी हिन्दी) कैसे होती है आत्म-सम्मोहन चिकित्सा (वेबदुनिया) सम्मोहन मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ
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