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युगांडा गणराज्य पूर्वी अफ्रीका में स्थित एक स्थलरुद्ध देश है। इसकी सीमा पूर्व में केन्या, उत्तर में सूडान, पश्चिम में कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य, दक्षिण पश्चिम में रवांडा और दक्षिण में तंजानिया से मिलती है। देश के दक्षिणी हिस्से में विक्टोरिया झील का एक बड़ा भाग शामिल है, जिससे केन्या और तंजानिया से सीमा निर्धारित होती है। युगांडा नाम बुगांडा राजशाही से लिया गया है, जिसमें देश का दक्षिणी ह्स्सिा, राजधानी कंपाला को शामिल कर, आता था। देश की एक तिहाई जनसंख्या अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा (2 डालर प्रतिदिन) से नीचे जीवनयापन करती है। परिचय यूगांडा पूर्वी मध्य-अफ्रीका का एक विषुवत्‌रेखीय देश है, जो पूर्णत: स्थलरुद्ध है। इसके उत्तर में सूडान, पशिचम में काँगो (लिओपोल्डविल) पूर्व में केन्या, दक्षिण-पश्चिम में रूआंडा, एवं दक्षिण में टैंगैन्यीका देश तथा विक्टोरिया झील स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ९३,९८१ वर्ग मील है, जिसका १३,६८९ वर्ग मील भाग जलग्रस्त एवं दलदली है। प्राकृतिक स्वरूप देश का अधिकांश भूभाग पठारी है, जो समुद्रतल से लगभग ४,००० फुट ऊँचा है। पश्चिमी सीमा पर रूबंजोरी पर्वत स्थित है, जिसका उच्चतम शिखर समुद्रतल से १६,७९१ फुट ऊँचा है, जककि पूर्वी सीमा पर स्थित ऐलगन पर्वत की अधिकतम ऊँचाई १४,१७८ फुट है। देश के मध्य में क्योगा एवं दक्षिण में विक्टोरिया झीलें स्थित हैं। जलवायु समुद्रतल से अधिक उँचाई पर स्थित इस देश का ताप अन्य विषुवत्रेखीय प्रदेशों की तुलना में न्यून है। औसत वार्षिक ताप उत्तर में १५° सें० एवं दक्षिण में २२° सें० है। वार्षिक तापांतर साधारण हैं। औसत वार्षिक वर्षा की मात्रा उत्तर में ३५ इंच एवं दक्षिण में ५९ इंच तक है। प्राकृतिक वनस्पति एवं जीवजंतु पश्चिम के उच्च प्रदेश में लंबी घास तथा वनों की प्रचुरता है। उत्तर के शुष्कतर क्षेत्र में छोटी घास ही अधिक मिलती है। देश के दक्षिणी भाग में प्राकृतिक वनस्पति साफ करके भूमि को कृषियोग्य बना लिया गया है, हिसमें केले की उपज मुख्य है। कहीं कहीं हाथी घास उगती है, जिसकी ऊँचाई १० फुट तक हो जाती है। पशुओं में हाथी, दरियाई घोड़ा, भैंसा, बंदर इत्यादि अधिक हैं। कुछ भागों में शेर, जिराफ तथा गैंड़े भी मिलते हैं। कृषि कृषि में कपास, कहवा, गन्ना तंबाकू तथा चाय की उपज महत्वपूर्ण है। अन्य फसलों में केला, मक्का और बाजरा उल्लेखनीय हैं। asasSAS उद्योग खनिज ताँबा उत्खनन तथा कपास एवं कहवा संबंधी उद्योग प्रमुख हैं। अन्य उद्योग धंधों के अंतर्गत वस्त्रनिर्माण, सीमेंट, मदिरा, चीनी, लकड़ी चीरने तथा साबुन निर्माण का काम होता है। सन्दर्भ युगांडा देश स्थलरुद्ध देश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "युगाण्डा", "token_count": 3491, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE" }
लिथुआनिया यूरोप महाद्वीप के उत्तरी भाग में बाल्टिक सागर के किनारे स्थित एक देश है। लिथुआनिया मार्च 1990 में USSR से स्वतंत्र हुआ, एवं जून 1990 में USSR से अलग हुआ था। यह तीन बाल्टिक देशों (लिथुआनिया, लातविया और ऍस्तोनिया) में से सबसे बड़ा है। इसकी राजधानी विल्नुस है। २०१२ में इसकी आबादी लगभग ३० लाख थी। लिथुआनियाई लोग एक बाल्टिक समुदाय हैं और लिथुआनियाई भाषा हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की बाल्टिक शाखा की केवल दो जीवित भाषाओं में से एक है (दूसरी लातवियाई है)। कहा जाता है कि लिथुआनियाई भाषा ने हमेशा शुद्धता व आदिम हिन्द-यूरोपी भाषा से निकटता बनाई रखी है और संस्कृत भाषा के बहुत समीप है। इतिहास १४वीं शताब्दी में लिथुआनिया यूरोप का सबसे बड़ा देश हुआ करता था। आधुनिक बेलारूस व युक्रेन के साथ-साथ पोलैन्ड और रूस के कई हिस्से लिथुआनिया महाड्यूक राज्य के भाग थे। १५६९ में लुबलिन संधि के तहत पोलैन्ड और लिथुआनिया एक द्विराष्ट्रीय 'पोलिश-लिथुआनियाई महाकुल' नामक परिसंघ में जुड़ गए। यह लगभग १५०-२०० वर्षों तक सलामत रहा लेकिन १७२२ से १७९५ काल में पड़ोसी देशों ने इसे धीरे-धीरे तोड़ दिया। लिथुआनिया के अधिकतर भूभाग पर रूसी साम्राज्य का अधिकार हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान १९१७ में रूस में अक्टूबर समाजवादी क्रांति हुई जिस से रूसी साम्राज्य टूटा और सोवियत संघ ने जन्म लिया। इस उथल-पुथल का लाभ उठाते हुए १६ फ़रवरी १९१८ को लिथुआनियाई राजनैतिक नुमाइन्दो ने 'लिथुआनिया के स्वतंत्रता विधेयक' पर हस्ताक्षर किये और लिथुआनिया को एक आज़ाद राष्ट्र घोषित कर दिया। १९४० में, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, सोवियत संघ ने लिथुआनिया पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लिथुआनियाई सोवियत समाजवादी गणतंत्र के नाम से गठित करके अपना भाग बना लिया। जल्द ही नात्ज़ी जर्मनी की फ़ौजों ने उन्हें निकालकर स्वयं लिथुआनिया पर नियंत्रण कर लिया। १९४४ में जब जर्मनी हारने लगा तो उसने अपनी सेनाएँ लिथुआनिया से हटा लीं और सोवियत संघ ने वापस लिथुआनिया पर अधिकार जमा लिया। १९९० में जब सोवियत संघ कमज़ोर पड़ा तो ११ मार्च १९९० को लिथुआनिया अपनी अलग स्वतंत्रता घोषित करने वाला पहला सोवियत गणतंत्र बना। आधुनिक लिथुआनिया यूरोपीय संघ, यूरोपीय परिषद और नाटो का सदस्य है और इसकी आर्थिक बढ़ौतरी का दर यूरोप के सबसे तेज़ देशों में से एक है। २००७-२०१० काल के विश्व आर्थिक मंदी का असर इस देश पर भी हुआ था लेकिन उसके बाद से अर्थव्यवस्था फिर से तेज़ी से विकसित हो रही है। इन्हें भी देखें विल्नुस सोवियत संघ लातविया सन्दर्भ यूरोप के देश लिथुआनिया
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "लिथुआनिया", "token_count": 3403, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE" }
आयरलैण्ड (; उत्तर पश्चिम यूरोप में एक द्वीप है। यह यूरोप का तीसरा सबसे बड़ा द्वीप है और दुनिया में बीसवां सबसे बड़ा द्वीप है। पूर्व में यूनाइटेड किंगडम है। सन्दर्भ यूरोप के द्वीप केल्टी राष्ट्र
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "आयरलैण्ड", "token_count": 314, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A4%B0%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1" }
सुरेश वाडकर(जन्म ७ अगस्त १९५५) एक भारतीय पार्श्वगायक हैं। वे मुख्यतः हिन्दी और मराठी फिल्मों में गाते हैं। इसके अलावा, उन्होंने, कई भोजपुरी, कोंकणी और ओड़िया गाने भी गाए हैं। उनका जन्म वर्ष १९५५ में कोल्हापुर में हुआ था। फिल्मों में गाने के अलावा वे शास्त्रीय संगीत में भी रुचि रखते हैं। वर्ष २०११ में उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायक की श्रेणी में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था। जीवनी प्रारम्भिक जीवन सुरेश वाडकर का जन्म 7 अगस्त, 1955 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ। उन्हें बचपन से ही गायकी का शौक था। 10 साल की आयु से ही उन्होंने अपने गुरु पंडित जियालाल वसंत से विधिवत संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था। संगीतकारी सुरेश ने 20 वर्ष की उम्र में एक संगीत प्रतियोगिता 'सुर श्रृंगार' में भाग लिया, जहां संगीतकार जयदेव और रवींद्र जैन बतौर निर्णायक मौजूद थे। सुरेश की आवाज से दोनों निर्णायक प्रभावित हुए, और उन्होंने उन्हें फिल्मों में पार्श्वगायन के लिए भरोसा दिलाया। रवींद्र जैन ने राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म पहेली में उनसे पहला फिल्मी गीत 'वृष्टि पड़े टापुर टुपुर' गवाया था। इसके बाद जयदेव ने उन्हें फिल्म गमन में 'सीने में जलन' गीत गाने का मौका दिया, जिससे उन्हें लोकप्रियता प्राप्त होने लगी। इसके बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए 1981 की फिल्म क्रोधी में 'चल चमेली बाग में', और प्यासा सावन में 'मेघा रे मेघा रे' नामक गीत लता मंगेशकर के साथ गाया। 1982 की फ़िल्म प्रेम रोग में उन्होंने 'मेरी किस्मत में तू नहीं शायद' और 'मैं हूं प्रेम रोगी' गीत गाए। इस फिल्म में ऋषि कपूर के साथ उनकी आवाज इतनी जमी कि उन्हें ऋषि कपूर की फिल्मों के गीतों के लिए चुना जाने लगा। अगले कुछ वर्षों में सुरेश ने कई बड़े संगीत निर्देशकों के लिए गीत गाए। इनमें 'हाथों की चंद लकीरों का' (कल्याणजी आनंदजी), 'हुजूर इस कदर भी न' (आर. डी. बर्मन), 'गोरों की न कालों की' (बप्पी लाहिड़ी), 'ऐ जिंदगी गले लगा ले' (इल्लायाराजा) और 'लगी आज सावन की' (शिव-हरि) जैसे कई गीत शामिल हैं। उन्होंने आर. डी. बर्मन और गुलजार के साथ मिलकर कुछ गैर फिल्मी गीतों के कई अलबम भी बनाए, लेकिन वे व्यावसायिक दृष्टि कामयाब नहीं हो पाई। उन्होंने लंबे अंतराल के बाद अपनी फिल्म 'माचिस' में उनसे 'छोड़ आए हम' और 'चप्पा चप्पा चरखा चले' जैसे गीत गाये। 2000 के दशक में सुरेश ने प्रमुखतः विशाल भारद्वाज के साथ काम किया, जिनमें फिल्म 'सत्या', 'ओमकारा', 'कमीने' और 'हैदर' के कुछ गीत प्रमुख हैं। सुरेश ने हिंदी और मराठी के अलावा कुछ गीत भोजपुरी और कोंकणी भाषा में भी गाए हैं। उन्होंने वर्ष 1998 में 'शिव गुणगान', 2014 में 'मंत्र संग्रह', 2016 में 'तुलसी के राम' नामक भक्ति एल्बम भी बनाए। निजी जीवन और परिवार सुरेश वाडकर का विवाह वर्ष १९८८ में पद्मा के साथ हुई थी, जो स्वयं एक प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक हैं उनकी दो बेटियाँ हैं, जिया और अनन्य। उनकी पत्नी, पद्मा मूलतः केरल से हैं, और व्यावसायिक तौरपर संगीत सिखाती हैं। उन्होंने भी कुछ गाने गाए हैं। नामांकरण तथा पुरस्कार 2007 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें महाराष्ट्र प्राइड अवार्ड से सम्मानित किया। वर्ष 2011 में उन्हें को मराठी फिल्म 'ई एम सिंधुताई सपकल' के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भी उन्हें प्रतिष्ठित लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मराठी फिल्म मी सिंधुताई सपकाळ के गाने:"हे भास्करा क्षितिजवारी या" के लिए २०११ में उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायक की श्रेणी में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Suresh Wadkar sings Marathi ghazal भारतीय गायक 1955 में जन्मे लोग जीवित लोग महाराष्ट्र के लोग
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सुरेश वाडकर", "token_count": 4833, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B6%20%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A4%B0" }
मराठी भारत के महाराष्ट्र प्रांत की इकलौती अधिकारिक राजभाषा है। महाराष्ट्र के बहुसंख्य लोग मराठी बोलते है। भाषाई परिवार के स्तर पर यह एक आर्य भाषा है। मराठी भारत की प्रमुख भाषाओं में से एक है। यह महाराष्ट्र और गोवा की राजभाषा है तथा पश्चिम भारत की सह-राज्यभाषा हैं। मातृभाषियों कि संख्या के आधार पर मराठी विश्व में दसवें और भारत में तिसरे स्थान पर है। इसे बोलने वालों की कुल संख्या लगभग १० करोड़ है। यह भाषा २३०० सालों से अस्तित्व में है और इसका मूल प्राकृत से है। भाषायी क्षेत्र मराठी भाषा भारत के अतिरिक्त मॉरिशस और इस्राइल में भी मराठी मूल के लोगों द्वारा बोली जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य देश भी हैं जहाँ मराठी मूल के लोग निवास करते है और वे इस भाषा का उपयोग करते है जिनमें प्रमुख हैं - अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ़्रीका, सिंगापुर, जर्मनी, संयुक्त राजशाही (ब्रिटेन), ऑस्ट्रेलिया,वेस्ट ईंडीज और न्यूज़ीलैंड। भारत में मराठी मुख्यतः महाराष्ट्र में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त यह गोवा, कर्णाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिल नाडु और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है। केन्द्र शासित प्रदेशों में यह दमन और दीव और दादर और नागर हवेली में बोली जाती है। जिनमें महाराष्ट्र और गोवा की यह राजभाषा है। मराठी भारत में एक आर्य भाषा है जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र में उपयोग की जाती है, मराठी भारत में लगभग 81.1 मिलियन मराठी लोगों द्वारा बोली जाती है। यह क्रमशः पश्चिमी भारत में महाराष्ट्र और गोवा राज्यों में आधिकारिक भाषा और सह-आधिकारिक भाषा है। मराठी भारत की 22 अनुसूचित भाषाओं में से एक है। 2019 में, 83.1 मिलियन मराठी बोलने वालों के साथ, मराठी दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं की सूची में दसवें स्थान पर है। भारत में मराठी बोलने वालों की संख्या हिंदी और बंगाली के बाद तीसरी है। मराठी भाषा में सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के कुछ प्राचीन साहित्य शामिल हैं, जो लगभग 600 वर्षों से हैं। मराठी की मुख्य बोली मानक मराठी है और इसे बोलिभाषा कहा जाता है। इतिहास मराठी कवि और लेखक मराठी साहित्य सर्वनाम पुरुषवाचक बोलियाँ वऱ्हाडी खानदेशी {{मुख्य|अहिराणी चंदगडी लिपि सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ मराठी के माध्यम से बैंकिंग हिन्दी सीखें भारतीय भाषा ज्योति (मराठी) - हिन्दी के माध्यम से मराठी सीखने का उत्तम ई-पुस्तक हिन्दी माध्यम से मराठी सीखें मराठी-हिन्दी शब्दकोश मराठी-अंग्रेजी शब्दकोश मराठी फॉन्ट संग्रह मराठी साहित्य : परिदृष्य (गूगल पुस्तक ; लेखक - राम पण्डित) मराठी-हिन्दी शब्दसंग्रह (राजभाषा ज्ञानधारा) मराठीविश्वकोश ऑनलाइन मराठी विश्वकोश बलई_डॉट_कॉम - मराठी विश्वकोश, प्रश्नकोश एवं शब्दकोश हिन्द-आर्य भाषाएँ विश्व की प्रमुख भाषाएं भारत की भाषाएँ महाराष्ट्र की भाषाएँ महाराष्ट्र की संस्कृति गोवा की भाषाएँ
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लमही (Lamhi) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह वाराणसी नगर से 3.7 मील दूर एक छोटा गाँव है, जहाँ हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था। इन्हें भी देखें मुंशी प्रेमचंद वाराणसी ज़िला बाहरी कड़ियाँ लमही पत्रिका कविता कोश पर सन्दर्भ वाराणसी ज़िला उत्तर प्रदेश के गाँव वाराणसी ज़िले के गाँव
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विष्णु सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं जिनको नारायण और हरि के नाम से भी जाना जाता है। वे वैष्णववाद के भीतर सर्वोच्च हैं, जो समकालीन हिन्दू धर्म के भीतर प्रमुख परंपराओं में से एक है। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा जी को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव जी को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। कल्की अवतार १०वां (आखिरी) अवतार है। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। पौराणिक कथा के अनुसार तुलसी भी भगवान् विष्णु को लक्ष्मी के समान ही प्रिय है और इसलिए उसे 'विष्णुप्रिया' के रूप में मान्यता प्राप्त है। विष्णु का निवास क्षीरसागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। जिवन के मुखय स्त्रोत व देवो के संहायक शब्द-व्युत्पत्ति और अर्थ 'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है। ('विष्' या 'विश्' धातु लैटिन में - vicus और सालविक में vas -ves का सजातीय हो सकता है।) निरुक्त (12.18) में यास्काचार्य ने मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति' के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है। वैकल्पिक रूप से 'विश्' धातु को भी 'प्रवेश' के अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ होता है। आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही माना है, तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है"। 'विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"। ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक (व्यापनशील) ही किया है। विष्णुसूक्त (ऋग्वेद-1.154.1 एवं 3) की व्याख्या में आचार्य सायण 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील (देव) तथा सर्वव्यापक करते हैं; तो श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध ही लेते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है और कई जगह परम विद्वान् के अर्थ में भी लिया है। इस प्रकार सुस्पष्ट परिलक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ व्यापनयुक्त (सर्वव्यापक) है। ऋग्वेद में विष्णु वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र 5 सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाय तो उनका महत्त्व बहुत बढ़कर सामने आता है। ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' (विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है। ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है :- लोकत्रय के शास्ता : तीन पाद-प्रक्षेप विष्णु की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं (अथवा तदाश्रित रहते हैं)। ‘त्रेधा विचक्रमाणः’ भी प्रकारान्तर से उनके तीन पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद भी उक्त तथ्य के परिचायक हैं। मधु से आपूरित उनके तीन पद-क्रम में से दो दृष्टिगोचर हैं, तीसरा सर्वथा अगोचर। इस तीसरे सर्वोच्च पद को पक्षियों की उड़ान और मर्त्य चक्षु के उस पार कहा गया है। यास्क के पूर्ववर्ती शाकपूणि इन तीन पाद-प्रक्षेपों को ब्रह्माण्ड के तीन भागों-- पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सूर्य की संचार गति के प्रतीक मानते हैं। यास्क के ही पूर्ववर्ती और्णवाभ उन्हें सूर्य के उदय, मध्याकाश में स्थिति तथा अस्त का वाची मानते हैं। तिलक महोदय इनसे वर्ष के त्रिधाविभाजन (प्रत्येक भाग में 4 महीने) का संकेत मानते हैं। यदि देखा जाय तो अधिकांश विद्वान् विष्णु को सूर्य-वाची मान कर उदयकाल से मध्याह्न पर्यन्त उसका एक पादप्रक्षेप, मध्याह्न से अस्तकाल पर्यन्त द्वितीय पादप्रक्षेप और अस्तकाल से पुनः अग्रिम उदयकाल तक तृतीय पाद-प्रक्षेप स्वीकारते हैं। इन्हीं पूर्वोक्त दो पाद-प्रक्षेपों को दृष्टिगोचर और तीसरे को अगोचर कहा गया है। लेकिन मैकडाॅनल सहित अन्य अनेक विद्वानों का भी कहना है कि इस अर्थ में तीसरे चरण को 'सर्वोच्च' कैसे माना जा सकता है? इसलिए वे लोग पूर्वोक्त शाकपूणि की तरह तीन चरणों को सौर देवता के तीनों लोकों में से होकर जाने का मार्ग मानते हैं। सूर्य की कल्पना का ही समर्थन करते हुए मैकडानल ने विष्णु द्वारा अपने 90 अश्वों के संचालित किये जाने का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्ये के चार-चार नाम हैं। इस प्रकार 4 की संख्या से गुणीकृत 90 अर्थात् 360 अश्वों को वे एक सौर वर्ष के दिनों से अभिन्न मानते हैं। वस्तुतः विष्णु के दो पदों से सम्पूर्ण विश्व की नियन्त्रणात्मकता तथा तीसरे पद से उनका परम धाम अर्थात् उनकी प्राप्ति संकेतित है। स्वयं ऋग्वेद में ही इन तीन पदों की रहस्यात्मक व्याख्या की गयी है। इसलिए इस पद को ज्ञानात्मक मानकर ऋग्वेद में ही स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु का परम पद ज्ञानियों द्वारा ही ज्ञातव्य है। विष्णु-धाम अर्थात् विष्णु का प्रिय आवास (वैकुण्ठ) वैसे तो विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है, किन्तु उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने ‘गिरि’ पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में ‘पर्वत के समान उन्नत लोक’ भी किया है। 'गिरि' को यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाय तो समस्या का समाधान हो जाता है। विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक ‘परम पद’ है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। उस ‘परम पद’ की विशेषता यह है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है। वहाँ अनेक शृंगों वाली गायें (अथवा किरणें) संचरण किया करती हैं। ‘गावः’ यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है। श्लेष से उसका अर्थ ‘गायें’ करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं ‘किरणें’ करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहुल्य सहज ही अनुमेय है। विष्णु के ‘परम पद’ में मधु का स्थायी उत्स (= स्रोत) है। यह ‘मधु’ देवताओं को भी आनन्दित करनेवाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाय पर वह हर स्थिति में परमानन्द का वाचक है, जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी करते हैं। उसी मंत्र में वहाँ पुण्यशाली लोगों का, तृप्ति (आनन्द, प्रसन्नता) का अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है। विष्णु-इन्द्र युग्म अर्थात् इन्द्र-सखा विष्णु की एक प्रमुख विशेषता उनका इन्द्र से मैत्रीभाव है। इन्द्र के साहचर्य में ही उनके तीन पाद-प्रक्षेपों का प्रवर्तन होता है। इन्द्र के साथ मिलकर वह शम्बर दैत्य के 99 किलों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार वह वृत्र के साथ संग्राम में भी इन्द्र की सहायता करते हैं। दोनों को कहीं-कहीं एक दूसरे की शक्तियों से युक्त भी बतलाया गया है। इस प्रकार विष्णु द्वारा सोमपान किया जाना और इन्द्र द्वारा तीन पाद-प्रक्षेप किया जाना भी वर्णित है। ऋग्वेद, मण्डल 6, सूक्त 69 में दोनों देवों का युग्मरूपेण स्तवन हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद के मण्डल 5, सूक्त 87 में इन्द्र के सहचर मरुद्गणों के साथ उनकी सहस्तुति प्राप्त होती है। परम वीर्यशाली 'विष्' धातु से व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ ‘व्यापक, गतिशील, क्रियाशील अथवा उद्यम-शील’ होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे लोगों द्वारा स्तुत होते हैं। कुत्सितों के लिए भयकारक   अपने वीर्य (बल) अथवा वीर कर्मों के कारण वे शत्रुओं के भय का कारण हैं। उनसे लोग उसी प्रकार भयभीत रहते हैं, जिस प्रकार किसी पर्वतचारी सिंह से। ‘परमेश्वराद्भीतिः’ आदि श्रुति-वचनों से सामान्य जनों का भी उनसे भय करना सिद्ध हो जाता है। उनसे भयभीत होना अकारण नहीं है। वे कुत्सितों (शत्रुओं) का वध आदि हिंसाकर्म करने वाले हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वे कुत्सित हिंसादिकर्ता (कुचरः) का ही वध करते है। इसलिए उनके लिए कहा गया है कि वे हत्यारे नहीं हैं। व्यापक तथा अप्रतिहत गति वाले विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। ‘उरुगाय’ का अर्थ आचार्य सायण द्वारा ‘महज्जनों द्वारा स्तूयमान’ अथवा ‘प्रभूततया स्तूयमान’ करने से भी विष्णु की महिमा विखण्डित नहीं होती। डाॅ.यदुनन्दन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ ‘विस्तीर्ण गति वाला’ करने के लिए हम इस लिए आग्रहवान् हैं, क्योंकि उसे ‘सभी लोकों में संचरण करने वाला’ कहा गया है। उनके पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकोपकारक विष्णु के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं तो वहीं पर आश्रित जनों का पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के प्रसादस्वरूप प्राप्त होता है, जिससे कि वे परम तृप्ति का अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, उनका वे सर्वविध कल्याण करते हैं, क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं। वे वरिष्ठ दाता हैं। त्रयात्मकता विष्णु के गुणों में भी त्रयात्मकता परिलक्षित होती है। वे तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले, तीनों लोकों को नाप लेने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। इसी प्रकार वह ‘त्रिधातु’ अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं। सर्जक-पालक-संहारक विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं। वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण में हैं। विष्णु भ्रूण-रक्षक भी हैं। गर्भस्थ बीज की रक्षा के लिए और सुन्दर बालक की उत्पत्ति के लिए विष्णु की प्रार्थना की जाती है।उनके पालक स्वरूप पर स्पष्ट बल देने के कारण ऋग्वेद में अहोरात्र अग्निरूप में भी उन्हें 'विष्णुर्गोपा परमं पाति..' अर्थात् सबके रक्षक-पालक कहा गया है। आचार्य सायण ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के बारहवें मन्त्र की व्याख्या में भी विष्णु को स्पष्ट रूप से 'पालन से युक्त' मानते हैं।.... इसलिए समग्र परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में विष्णु को परम हितैषी कहा गया है। सर्वोच्चता सर्वाधिक मन्त्रों में वर्णित होने के बावजूद इन्द्र को 'सुकृत' और विष्णु को 'सुकृत्तरः' कहा गया है। 'सुकृत्तरः' का आचार्य सायण ने 'उत्तम फल प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ' अर्थ किया है; श्रीपाद सातवलेकर जी ने 'उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ' अर्थ किया है और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी 'अतीव उत्तम कर्म वाला' अर्थ किया है। इन्द्र 'सुकृत' (उत्तम कर्म करने वाला) है तो विष्णु 'सुकृत्तरः' (उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ) हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि ऋग्वेद में ही यह मान लिया गया है कि विष्णु सर्वोच्च हैं। इसी प्रकार इन्द्र के राजा होने के बावजूद विष्णु की सर्वोच्चता ऋग्वेद में ही इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें विष्णु के लिए कहा गया है कि "वे सम्पूर्ण विश्व को अकेले धारण करते हैं" तथा इन्द्र के लिए कहा गया है कि वे राज्य (संचालन) करते हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि सृष्टि के सर्जक एवं पालक विष्णु ने संचालन हेतु इन्द्र को राजा बनाया है। इस सुसन्दर्भित परिप्रेक्ष्य में विष्णु की सर्वोच्चता से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रन्थों एवं बाद की पौराणिक मान्यताएँ भी स्वतः उद्भासित हो उठती हैं। ब्राह्मणों में विष्णु ब्राह्मण-युग में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान है। इस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब छीनकर इन्द्र को दे दी। वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है। पौराणिक मान्यताएँ ऋग्वेद तथा ब्राह्मणों में उपलब्ध संकेतों का पुराणों में पर्याप्त परिवर्धन हुआ-- कथात्मक भी, विवरणात्मक भी और व्याख्यात्मक भी। पुराणों ने इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से रहित (परे) हैं। वे जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। जिस समय दिन, रात, आकाश, पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को विष्णु जी ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है -- सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ। इन सन्दर्भों से विष्णु की सर्वोच्चता तथा सर्वनियन्ता होने की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है। माना गया है कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते। वैष्णवों के सिरमौर तथा 'पुराणों का तिलक' के रूप में मान्य भागवत महापुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ। इसी प्रकार अधिकांश पुराणों में विष्णु को परम ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। उनसे सम्बद्ध कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना; तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना; शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत तथा शिवपुराण जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। छिद्रान्वेषी लोग इन्हीं कथाओं का उपयोग मनमानी व्याख्या करके ईश्वर-विरोध के रूप में करते हैं। परन्तु, इन्हें सान्दर्भिक ज्ञान की दृष्टि से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्त्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है। विष्णु का स्वरूप विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :- कौस्तुभ मणि = जगत् के निर्लेप, निर्गुण तथा निर्मल क्षेत्रज्ञ स्वरूप का प्रतीक श्रीवत्स = प्रधान या मूल प्रकृति गदा = बुद्धि शंख = पंचमहाभूतों के उदय का कारण तामस अहंकार शार्ङ्ग (धनुष) = इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस अहंकार सुदर्शन चक्र = सात्विक अहंकार वैजयन्ती माला = पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों का संघात [वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा -- इन पाँच रत्नों से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक] बाण = ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय। खड्ग = विद्यामय ज्ञान {जो अज्ञानमय कोश (म्यान) से आच्छादित रहता है।} इस प्रकार समस्त सृजनात्मक उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं। श्रीविष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अतिप्रसिद्ध है :- शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किये हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत् के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान् श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। विष्णु-शिव एकता विष्णु की सर्वश्रेष्ठता का यह तात्पर्य नहीं है कि शिव या ब्रह्मा आदि उनसे न्यून हैं। ऊँच-नीच का भाव ईश्वर के पास नहीं होता। वह तो लीला में सृष्टि-संचालन हेतु सगुण (सरूप) होने की प्राथमिकता मात्र है। इसलिए वैष्णव हो या शैव -- सभी पुराण तथा महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ एक स्वर से घोषित करते हैं कि ईश्वर एक ही हैं। कहा गया है कि एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति (पालन) और संहार के लिए 'ब्रह्मा', 'विष्णु' और 'शिव' -- इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं। अनेकत्र विष्णु तथा शिव के एक ही होने के स्पष्ट कथन उपलब्ध होते हैं। विष्णु के अवतार 'अवतार' का शाब्दिक अर्थ है भगवान् का अपनी स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा भौतिक जगत् में मूर्त रूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना। अवतार की सिद्धि दो दशाओं में मानी जाती है -- एक तो अपने रूप का परित्याग कर कार्यवश नवीन रूप का ग्रहण; तथा दूसरा नवीन जन्म ग्रहण कर सम्बद्ध रूप में आना, जिसमें माता के गर्भ में उचित काल तक एक स्थिति की बात भी सन्निविष्ट है। इसमें अत्यल्प समय के लिए रूप बदलकर या किसी दूसरे का रूप धारणकर पुनः अपने रूप में आ जाना शामिल नहीं होता। अवतार का प्रयोजन श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के सुप्रसिद्ध सातवें एवं आठवें श्लोक में भगवान् ने स्वयं अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि -- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ। इसके अतिरिक्त भागवत महापुराण में एक विशिष्ट और अधिक उदात्त प्रयोजन की बात कही गयी है कि भगवान् तो प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश आदि से परे अचिन्त्य, अनन्त, निर्गुण हैं। तो यदि वे अवतार रूप में अपनी लीला को प्रकट नहीं करते तो जीव उनके अशेष गुणों को कैसे समझते? अतः जीवों के प्रेरणारूप कल्याण के लिए उन्होंने अपने को (अवतार रूप में) तथा अपनी लीला को प्रकट किया। इसलिए विभिन्न अवतार-कथाओं में कई विषम स्थितियाँ हैं जिससे जीव यह समझ सके कि परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग कैसा होता है! अवतारों की संख्या विष्णु के अवतारों की पहली व्यवस्थित सूची महाभारत में उपलब्ध होती है। महाभारत के शान्तिपर्व में अवतारों की कुल संख्या 10 बतायी गयी है (मूलपाठ) :- हंस: कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम ॥ वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च। रामो दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च ॥ अर्थात् (श्रीभगवान् स्वयं नारद से कहते हैं) हंस कूर्म मत्स्य वराह नरसिंह वामन परशुराम दशरथनन्दन राम यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि -- ये सब मेरे अवतार हैं। आगे यह भी कहा गया है कि ये भूत और भविष्य के सभी अवतार हैं। मूलपाठ में वर्णन छह अवतारों का है :- 1.वराह 2.नरसिंह 3.वामन 4.परशुराम 5.राम 6.कृष्ण चूँकि महाभारत बुद्ध के जन्म से पूर्व की अथवा बुद्ध के अवतारी होने की कल्पना से पहले की रचना है; अतः स्वाभाविक रूप से उसमें कहीं बुद्ध का नामोनिशान नहीं है। उसके बदले हंस को अवतार रूप में गिनने से दश की संख्या पूरी हो गयी है। महाभारत के दाक्षिणात्य पाठ में अवतार का वर्णन इस प्रकार है :- मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामनः। रामो रामश्च रामश्च कृष्णः कल्की च ते दश॥ यहाँ पूर्वोक्त अवतारों में से हंस को छोड़कर तीसरे राम अर्थात् बलराम को जोड़ देने से दश की संख्या पूरी हो गयी है। इस विवरण से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि महाभारत-काल तक दश से अधिक अवतारों की कल्पना भी नहीं की गयी थी; अन्यथा उन दश अवतारों को 'भूत और भविष्य के भी सभी अवतार' नहीं कहा गया रहता। बाद में अन्य अवतारों की भी कल्पना प्रचलित हुई और कुल अवतारों की गणना चौबीस तक पहुँच गयीं। दशावतार भागवत महापुराण में 22 तथा 24 अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत वाली दश ही रही है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड-257.40,41), लिंगपुराण (2.48.31,32), वराहपुराण (4.2), मत्स्यपुराण (2.85.6,7) आदि अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के वर्णन (अध्याय-2से16) में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक (नाममात्र के पाठ भेदों के साथ) प्रायः सर्वनिष्ठ है :- मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः। रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥ इस प्रकार विष्णु के दश अवतार ही बहुमान्यता प्राप्त हैं। इनके संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं : मत्स्यावतार : पूर्व कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी की तन्द्रावस्था में उनके मुख से निःसृत वेद को हयग्रीव दैत्य के द्वारा चुरा लेने पर भगवान् ने मत्स्यावतार लिया तथ मनु नामक राजा से कहा कि सातवें दिन प्रलयकाल आने पर समस्त बीजों तथा वेदों के साथ नौका पर बैठ जाएँ। उस समय सप्तर्षि के भी आ जाने पर भगवान् ने महामत्स्य के रूप में उस नौका को उन सबके साथ अनन्त जलराशि पर तैराते हुए उन सबको बचा लिया। पश्चात् हयग्रीव को मारकर वेद वापस ब्रह्मा जी को दे दिया। कूर्मावतार : असुरराज बलि के नेतृत्व में असुरों द्वारा देवताओं को परास्त कर शासन-च्युत कर देने पर भगवान् ने देवताओं को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा और जब मन्थन के समय मथानी (मन्दराचल) डूबने लगा तो कूर्म (कच्छप) रूप धारणकर उसे अपनी पीठ पर स्थित कर लिया। इसी मन्थन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। वराहावतार : वराहावतार में भगवान् विष्णु ने महासागर (रसातल) में डुबायी गयी पृथ्वी का उद्धार किया। वहीं भगवान ने हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध भी किया था। नरसिंहावतार : हिरण्याक्ष के वध के बाद विष्णुविरोधी हिरण्यकशिपु ने तपस्या के द्वारा अद्भुत वर पाया और देवताओं को परास्त कर अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित कर भगवद्भक्तों पर भीषण अत्याचार करने लगा। अपने पुत्र प्रह्लाद को विष्णु-भक्त जानकर उसने उसका विचार बदलने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन असफल होकर उसे मार डालना चाहा। तब अपने भक्त प्रहलाद को अनेक तरह से भगवान् विष्णु ने बचाया तथा वरदान की शर्त निभाते हुए नरसिंह रूप में आकर हिरण्यकशिपु का वध कर डाला। वामनावतार : प्रह्लाद के पौत्र, विरोचन के पुत्र असुर नरेश बलि द्वारा स्वर्गाधिपत्य प्राप्त कर लेने पर कश्यप जी के परामर्श से माता अदिति के पयोव्रत से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनके घर जन्म लेकर वामन रूप में बलि की यज्ञशाला में पधारकर तीन पग भूमि माँगी और फिर विराट रूप धारण कर दो पगों में पृथ्वी-स्वर्ग सब नापकर तीसरा पद रखने के लिए बलि द्वारा अपना सिर दिये जाने पर उसे सुतल लोक भेज दिया। परशुरामावतार: अन्यायी क्षत्रियों और विशेषतः हैहयवंश का नाश करने के लिए भगवान् ने परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया। ये महान् पितृभक्त थे। पिता की आज्ञा से इन्होंने अपनी माता का भी वध कर दिया था और पिता के प्रसन्न होकर वर माँगने के लिए कहने पर पुनः माता को जीवित करवा लिया था। अत्याचारी कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) के हजार हाथों को इन्होंने युद्ध में काट डाला था; और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि ऋषि (परशुराम जी के पिता) को बुरी तरह घायल कर हत्या कर देने पर इन्होंने अत्यन्त क्रोधित होकर उन सबका वध करके इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच कुण्ड भर दिये थे। फिर यज्ञ करके सारी पृथ्वी कश्यप जी को देकर महेन्द्र पर्वत पर चले गये। रामावतार: इस विश्व-विश्रुत अवतार में भगवान् ने महर्षि पुलस्त्य जी के पौत्र एवं मुनिवर विश्रवा के पुत्र रावण—जो कुयोगवश राक्षस हुआ—के द्वारा सीता का हरण कर लेने से वानर जातियों की सहायता से अनुचरों सहित रावण का वध करके आर्यावर्त को अन्यायी राक्षसों से मुक्त किया तथा आदर्श राज्य की स्थापना की। यह विशेष ध्यातव्य है कि मानवमात्र की प्रेरणा के लिए उच्चतम आदर्श-स्थापना का यह कार्य उन्होंने पूरी तरह मनुष्य-भाव से किया। रामकथा के लिए सर्वाधिक प्रमाणभूत एवं आधार ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायण में राम का चरित्र समर्थ मानव-रूप में ही चित्रित है। युद्धादि के समापन के बाद जब सभी देवता उन्हें ब्रह्म मानकर उनकी स्तुति करते हैं, तब भी वे कहते हैं कि -- आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्। सोऽहं यश्च यतश्चाहं भगवांस्तद् ब्रवीतु मे॥ अर्थात् मैं तो अपने को दशरथपुत्र मनुष्य राम ही मानता हूँ। मैं जो हूँ और जहाँ से आया हूँ, हे भगवन् (ब्रह्मा)! वह सब आप ही मुझे बताइए। तब ब्रह्मा जी उन्हें सब बताते हैं। लीला के लिए ही सही, पर पूरी तरह मनुष्यता का यह आदर्श अनुपम है; और जो प्रेरणा इससे मिलती है वह स्वयं को हर समय सर्वशक्तिमान् परात्पर ब्रह्म मानते हुए लीला करने से (जैसा कि बाद की रामायणों में वर्णित है) कभी नहीं मिल सकती है। कृष्णावतार: इस अवतार में भगवान् ने देवकी और वसुदेव के घर जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार में भगवान् ने विशिष्ट लीलाओं द्वारा सबको चकित करते हुए दुराचारी कंस का वध किया; और विख्यात महाभारत-युद्ध में गीता-उपदेश द्वारा अर्जुन को युद्ध हेतु तत्पर करके विभिन्न विषम उपायों का भी सहारा लेकर कौरवों के विध्वंश के बहाने पृथ्वी के लिए भारस्वरूप प्रायः समस्त राजाओं को ससैन्य नष्ट करवा दिया। यहाँ तक कि उनके बतलाये आदर्शों की अवहेलना कर मद्यपान में रमने वाले यदुवंश का भी विनाश करवा दिया। श्रीकृष्ण ने यह शिक्षा दी कि जीवन की राह सीधी रेखा में ही नहीं चलती। धर्म और अधर्म का निर्णय परिस्थिति और अन्तिम परिणाम के आधार पर होता है, न कि परम्परा के आधार पर। श्रीकृष्ण की बहुत सी लीलाएँ अनुकरणीय नहीं, चिन्तन के योग्य हैं। राम का चरित्र अनुकरण के योग्य है। राम के चरित्र का अनुकरण करके कृष्ण-चरित्र को समझ सकें, इसी में ज्ञान की सार्थकता है। कृष्ण-चरित्र का वर्णन अनेक पुराणों में है। परन्तु महाभारत के अन्तर्गत आये अंशों के अतिरिक्त शेष बाल-लीला एवं अन्य लीलाओं का प्राचीन रूप हरिवंशपुराण में है; उसके बाद का रूप विष्णुपुराण में तथा सर्वथा परिष्कृत रूप श्रीमद्भागवत पुराण के पूरे दशम स्कन्ध में है। बुद्धावतार: महाभारत में बुद्ध का अवतार के रूप में तो नहीं ही, व्यक्ति रूप में भी नामोनिशान नहीं है। हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में उनकी पहली उपस्थिति महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग माने जाने वाले हरिवंशपुराण में है, परन्तु विरोध के रूप में। भागवत महापुराण तक में उन्हें मोहित-भ्रमित करनेवाला ही माना गया है। परन्तु, अथर्ववेद की शाब्दिक स्पष्टता से लेकर महाभारत तक में हिंसा के अत्यधिक विरोध के बावजूद सनातन (हिन्दू) धर्म में इस कदर हिंसा व्याप्त हो गयी कि अहिंसा के प्रबल उपदेशक बुद्ध जयदेव के समय (12वीं शती) से पहले ही पूरी तरह भगवान् का सहज अवतार मानकर उनके उपदेशों को मान्यता दे दी गयी। गीतगोविन्दम् के प्रथम सर्ग में ही दशावतार-वर्णन के अन्तर्गत जयदेव जी ने बुद्ध की स्तुति में यही कहा है कि आपने श्रुतिवाक्यों (के बहाने) से यज्ञ में पशुओं की हत्या देखकर सदय हृदय होने से यज्ञ की विधियों की निन्दा की। कल्कि अवतार: यह भविष्य का अवतार है। कलियुग का अन्त समीप आ जाने पर जब अनाचार बहुत बढ़ जाएगा और राजा लोग लुटेरे हो जाएँगे, तब सम्भल नामक ग्राम के विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर भगवान् का कल्कि अवतार होगा। उनके द्वारा अधर्म का विनाश हो जाने पर पुनः धर्म की वृद्धि होगी। धर्म की वृद्धि होना ही सत्य युग (कृतयुग) का आना है। अन्य अवतार दशावतार के अतिरिक्त अन्य चौदह अवतारों के नाम (भागवत महापुराण की दोनों सूचियों को मिलाकर) इस प्रकार हैं :- कौमार सर्ग (सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार) - एक बार लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने चार ऋषियों के रूप में अवतार लिया। हयशीर्ष (हयग्रीव) - एक बार हयग्रीव ( महर्षि कश्यप और दनु का पुत्र ) नाम के दानव ने माता पार्वती की घोर तपस्या की और उनसे वरदान माँगा कि वह केवल हयग्रीव के हाथों ही मारा जाए। जब उसके अत्याचार बढ़ने लगे तो भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लेकर उसे मार डाला। नारद - पुराणों के अनुसार नारद भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। एक बार सप्तऋषियों में विवाद हो गया कि कौन श्रेष्ठ है, जिसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रतियोगिता का भी आयोजन किया। जब उस प्रतियोगिता का भी परिणाम नहीं निकला तो भगवान विष्णु ने नारद का रूप लेकर सप्तऋषियों को ज्ञान-उपदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है कि देवर्षियों में मैं नारद हूँ। हंस - हंस अवतार का सर्वप्रथम महाभारत में उल्लेख हुआ है। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एक बार सनकादि ऋषियों ने अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि इस सृष्टि की रचना कैसे हुई, इस सृष्टि का आदि कौन है तथा अंत कौन है ? सनकादि ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भगवान विष्णु ने एक बहुत बड़े हंस का रूप लिया और सभा में जाकर उन्होंने सनकादि ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर दिये। नर-नारायण - नर और नारायण के रूप में भगवान विष्णु ने जुड़वाँ संतों के रूप में ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति रुचि की पत्नी आकूति के गर्भ से जन्म लिया। कपिल - महर्षि कर्दम के तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कपिल के रूप में देवहूति के गर्भ से जन्म लिया। दतात्रेय - एक बार त्रिदेवियों को अपने सतीत्व का अहंकार हो गया था तो नारद मुनि ने उनसे अनुसूया के पतिव्रत धर्म की बात की जिससे उनके अहंकार को बहुत ठेस पहुँची। उन्होंने त्रिदेवों से इसके बारे में कहा। त्रिदेव एक ही समय में अत्रि ऋषि के आश्रम में आये। तीनों ने अनुसूया से बिना वस्त्र के भोजन करवाने को कहा। अनुसूया ने अत्रि ऋषि के चरणोदक से त्रिदेवों को बालक बनाया और उन्हें अपने पुत्र के समान स्नेह दिया और उन्हें स्तनपान भी कराया। अंत में त्रिदेवों ने अपने तेज से अनुसूया के गर्भ से जन्म लिया। शंकर के तेज से दुर्वासा , ब्रह्मा के तेज से चन्द्रदेव और विष्णु के तेज से दतात्रेय का जन्म हुआ। सुयज्ञ- स्वयंभू मनु के यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने आकूति के गर्भ से रूचि प्रजापति के पुत्र के रूप में जन्म लिया। ऋषभदेव - नाभिराज नाम के राजा की कोई संतान नहीं थी। वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे और अपने कुलगुरु से उन्होंने एक यज्ञ करवाया जिससे भगवान विष्णु प्रसन्न हो गये और नाभिराज को वरदान दिया कि वे उनकी पत्नी के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। समय आने पर भगवान विष्णु ने रानी मरूदेवी के गर्भ से पुत्र-रूप में जन्म लिया। पृथु - भूमण्डल पर सर्वप्रथम राजा वेन के पुत्र पृथु के रूप में जन्म लिया। धन्वन्तरि - समुद्र मन्थन में अंतिम रत्न के रूप में भगवान विष्णु धन्वन्तरी के रूप में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इन्हें आयुर्वेद का जनक माना गया है। मोहिनी - अमृत निकलने के बाद असुर अमृत कलश लेकर भागने लगे थे तो उन्हें रोकने के लिए भगवान विष्णु ने एक सुन्दर स्त्री का रूप लिया और असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पान करवाया। व्यास - धर्मग्रंथो के अनुसार वेदव्यास भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है। मैं कुमारी हूँ। मेरे पिता क्या कहेंगे?" पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" पाराशर ने फिर से माँग की तो सत्यवती बोली कि "मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकलती है"। तब ऋषि ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जाएगी।" इतना कहकर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया ताकि कोई और उन्हें उस हाल में न देखे। इस प्रकार पराशर व सत्यवती में प्रणय-संबंध स्थापित हुआ। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से वेद-वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कहकर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का विभाजन करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुए। विष्णुपुराण और भागवत पुराण के अनुसार वेदव्यास अमर हैं। श्रीहरि गजेन्द्रमोक्ष दाता - कुछ स्थानों पर इन्हें अवतार के रूप में वर्णित नहीं किया गया है, किन्तु अधिकतर स्थानों पर इन्हें अवतार बताया गया है। एक बार एक हाथी था जो सौ हथिनियों का पति और हजार गज पुत्रों का पिता था। एक बार वह नदी में स्नान करने गया। वहाँ एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। ऐसा कहा जाता है कि उसने हजार वर्षो तक संघर्ष किया किन्तु छूट नहीं पाया। अंत में उसने भगवान् नारायण का स्मरण किया और भगवान विष्णु (श्रीहरि) चतुर्भुज रूप में उसके सम्मुख आये और मगरमच्छ को मारकर उस गजराज को बचाया। गजराज से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे अपना पार्षद बना लिया। 108 नाम, महत्त्व और अर्थ 1. नारायण : ईश्वर, परमात्मा 2. विष्णु : हर जगह विराजमान रहने वाले 3. वषट्कार: यज्ञ से प्रसन्न होने वाले 4. भूतभव्यभवत्प्रभु: भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी 5. भूतकृत : सभी प्राणियों के रचयिता 6. भूतभृत : सभी प्राणियों का पोषण करने वाले 7. भाव : सम्पूर्ण अस्तित्व वाले 8. भूतात्मा : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों की आत्मा में वास करने वाले 9. भूतभावन : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों का पोषण करने वाले 10. पूतात्मा : शुद्ध छवि वाले प्रभु 11. परमात्मा : श्रेष्ठ आत्मा 12. मुक्तानां परमागति: मोक्ष प्रदान करने वाले 13. अव्यय: : हमेशा एक रहने वाले 14. पुरुष: : हर जन में वास करने वाले 15. साक्षी : ब्रह्मांड की सभी घटनाओं के साक्षी 16. क्षेत्रज्ञ: : क्षेत्र के ज्ञाता 17. गरुड़ध्वज: गरुड़ पर सवार होने वाले 18. योग: : श्रेष्ठ योगी 19. योगाविदां नेता : सभी योगियों का स्वामी 20. प्रधानपुरुषेश्वर : प्रकृति और प्राणियों के भगवान 21. नारसिंहवपुष: : नरसिंह रूप धरण करने वाले 22. श्रीमान् : देवी लक्ष्मी के साथ रहने वाले 23. केशव : सुंदर बाल वाले 24. पुरुषोत्तम : श्रेष्ठ पुरुष 25. सर्व : संपूर्ण या जिसमें सब चीजें समाहित हों 26. शर्व : बाढ़ में सब कुछ नाश करने वाले 27. शिव : सदैव शुद्ध रहने वाले 28. स्थाणु : स्थिर रहने वाले 29. भूतादि : सभी को जीवन देने वाले 30. निधिरव्यय : अमूल्य धन के समान 31. सम्भव : सभी घटनाओं में स्वामी 32. भावन : भक्तों को सब कुछ देने वाले 33. भर्ता : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के संचालक 34. प्रभव : सभी चीजों में उपस्थित होने वाले 35. प्रभु : सर्वशक्तिमान प्रभु 36. ईश्वर : पूरे ब्रह्मांड पर अधिपति 37. स्वयम्भू : स्वयं प्रकट होने वाले 38. शम्भु : खुशियां देने वाले 39. जगन्नाथ - जग के नाथ 40. पुष्कराक्ष : कमल जैसे नयन वाले 41. महास्वण : वज्र की तरह स्वर वाले 42. अनादिनिधन : जिनका न आदि है न अंत 43. धाता : सभी का समर्थन करने वाले 44. विधाता : सभी कार्यों व परिणामों की रचना करने वाले 45. धातुरुत्तम : ब्रह्मा से भी महान 46. अप्रेमय : नियम व परिभाषाओं से परे 47. हृषीकेशा : सभी इंद्रियों के स्वामी 48. पद्मनाभ : जिनके पेट से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई 49. अमरप्रभु : अमर रहने वाले 50. विश्वकर्मा : ब्रह्मांड के रचयिता 51. मनु : सभी विचार के दाता 52. त्वष्टा : बड़े को छोटा करने वाले 53.अनन्त : जिसका कोई अन्त नहीं 54. स्थविरो ध्रुव : प्राचीन देवता 55. अग्राह्य : मांसाहार का त्याग करने वाले 56. शाश्वत : हमेशा अवशेष छोड़ने वाले 57. कृष्ण : काले रंग वाले 58. लोहिताक्ष : लाल आँखों वाले 59. प्रतर्दन : बाढ़ के विनाशक 60. प्रभूत : धन और ज्ञान के दाता 61. त्रिककुब्धाम : सभी दिशाओं के भगवान 62. पवित्रां : हृदया पवित्र करने वाले 63. मंगलपरम् : श्रेष्ठ कल्याणकारी 64. ईशान : हर जगह वास करने वाले 65. प्राणद : प्राण देने वाले 66. प्राण : जीवन के स्वामी 67. ज्येष्ठ : सबसे बड़े प्रभु 68. श्रेष्ठ : सबसे महान 69. प्रजापति : सभी के मुख्य 70. कैटभभाजित : कैटभ का वध करने वाले 71. वासुदेव - राजा वसुदेव के पुत्र 72. माधव : देवी लक्ष्मी के पति 73. मधुसूदन : रक्षक मधु के विनाशक 74. ईश्वर : सबको नियंत्रित करने वाले 75. विक्रमी : सबसे साहसी भगवान 76. धन्वी : श्रेष्ठ धनुष- धारी 77. मेधावी : सर्वज्ञाता 78. विक्रम : ब्रह्मांड को मापने वाले 79. क्रम : हर जगह वास करने वाले 80. अनुत्तम : श्रेष्ठ ईश्वर 81. दुराधर्ष : सफलतापूर्वक हमला न करने वाले 82. कृतज्ञ : अच्छाई- बुराई का ज्ञान देने वाले 83. कृति : कर्मों का फल देने वाले 84. आत्मवान : सभी मनुष्य में वास करने वाले 85. सुरेश : देवों के देव 86. शरणम : शरण देने वाले 87. चक्रधारी - चक्र धारण करने वाले 88. विश्वरेता : ब्रह्मांड के रचयिता 89. प्रजाभव : भक्तों के अस्तित्व के लिए अवतार लेने वाले 90. अह्र : दिन की तरह चमकने वाले 91. सम्वत्सर : अवतार लेने वाले 92. व्याल : नाग द्वारा कभी न पकड़े जाने वाले 93. प्रत्यय : ज्ञान का अवतार कहे जाने वाले 94. सर्वदर्शन : सब कुछ देखने वाले 95. अज : जिनका जन्म नहीं हुआ 96. सर्वेश्वर : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी 97. सिद्ध : सब कुछ करने वाले 98. सिद्धि : कार्यों के प्रभाव देने वाले 99. सर्वादि : सभी क्रियाओं के प्राथमिक कारण 100. अच्युत : कभी न चूकने वाले 101. वृषाकपि: धर्म और वराह का अवतार लेने वाले 102. अमेयात्मा: जिनका कोई आकार नहीं है। 103. सर्वयोगविनि:  सभी योगियों के स्वामी 104. वसु : सभी प्राणियों में रहने वाले 105. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाले 106. सत्य : सत्य का समर्थन करने वाले 107. समात्मा: सभी के लिए एक जैसे 108. सममित: सभी प्राणियों में असीमित रहने वाले इन्हें भी देखें सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ जय श्री जगतगुरु, जय श्री गुरुदेव हिन्दू देवी-देवता
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पठानकोट (Pathankot) भारत के पंजाब राज्य के पठानकोट ज़िले में स्थित एक नगर है। विवरण सामरिक दृष्टि से पठानकोट भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक है। यहां पर वायुसेना स्टेशन, सेना गोला-बारूद डिपो एवं दो बख्तरबंद ब्रिगेड एवं बख्तरबंद इकाइयां हैं। जनवरी २०१६ में पठानकोट वायुसेना स्टेशन पर आतंकवादी हमला हुआ। यह टपरवेयर के बरतनों के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। पठानकोट का दूरभाष कोड ९१-१८६ और पिनकोड १४५००१ है। भूगोल पठानकोट शिवालिक शृंखलाओं में स्थित है। शहर 331 मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। जम्मू और कश्मीर राज्य की सीमा बहुत समीप है और उस राज्य के कठुआ नगर को कभी-कभी पठानकोट का जुड़वा शहर माना जाता है। पठानकोट से समीप के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा व डलहौजी पर्यटक स्थलों के लिए बसें जाती हैं। इतिहास 1849 से पहले यह नूरपुर की राजधानी था। 2011 में यह नगठित पठानकोट जिले की राजधानी बन गया। इन्हें भी देखें पठानकोट ज़िला २०१६ पठानकोट हमले सन्दर्भ पंजाब के शहर पठानकोट ज़िला पठानकोट ज़िले के नगर
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अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी या विद्यार्थी परिषद) एक भारतीय छात्र संगठन है। इसकी स्थापना ९ जुलाई, १९४९ को संघ कार्यकर्ता बलराज मधोक जी की अगुआई में की गयी थी। मुंबई के प्रोफेसर यशवंत केलकर जी इसके मुख्य कार्यवाहक बने। विद्यार्थी परिषद का नारा है - ज्ञान, शील और एकता। आज विद्यार्थी परिषद् न केवल भारत का बल्कि विश्व का सबसे बड़ा छात्र-संगठन है। यह संगठन छात्रों से प्रारंभ हो, छात्रों की समस्याओं के निवारण हेतु एक एकत्र छात्र शक्ति का परिचायक है। विद्यार्थी परिषद् के अनुसार, छात्रशक्ति ही राष्ट्रशक्ति होती है। विद्यार्थी परिषद् का मूल उद्देश्य राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है। स्थापना काल से ही संगठन ने छात्र हित और राष्ट्र हित से जुड़े प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है और देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व किया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने छात्र-हित से लेकर भारत के व्यापक हित से सम्बद्ध समस्याओं की ओर बार-बार ध्यान दिलाया है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठ और कश्मीर से धारा 370 को हटाने के लिए विद्यार्थी परिषद् समय-समय पर आन्दोलन चलाता रहा है। बांग्लादेश को तीन बीघा भूमि देने के विरुद्ध परिषद् ने ऐतिहासिक सत्याग्रह किया था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ बार-बार आवाज उठाती रही है। इसके अतिरिक्त अलगाववाद, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ हम लगातार संघर्षरत रहे हैं। बिहार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नाम सबसे ज्यादा रक्तदान करने का रिकॉर्ड है । इसके अलावा वैसे निर्धन मेधावी छात्र, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिय़े निजी कोचिंग संस्थानों में नहीं जा सकते, उनके लिये स्वामी विवेकानंद निःशुल्क शिक्षा शिविर का आयोजन किया जाता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) भारत के छात्र संगठन
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बागमती नदी (Bagmati River) नेपाल और भारत में बहने वाली एक नदी है। यह नेपाल में काठमाण्डु घाटी से निकलती है जहाँ राष्ट्रीय राजधानी, काठमाण्डु, और पाटन नगर इसके विपरीत तटों पर बसे हैं। फिर यह मधेश प्रदेश से गुज़रकर भारत के बिहार राज्य में प्रवेश करती है, जहाँ इसका विलय कोसी नदी से होता है। बागमती नदी हिन्दूओं और बौद्धधर्मियों के लिए एक पवित्र नदी है और इसके किनारे कई हिन्दू मन्दिर अवस्थित हैं। नेपाल का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल पशुपतिनाथ मंदिर भी इसी नदी के तट पर अवस्थित है। इसकी पवित्रता के कारण स्थानीय हिन्दू इसके किनारे अन्तिम संस्कार करते हैं और किरात समुदाय की समाधियाँ भी इसके किनारे की पहाड़ियों में होती हैं। यह नदी बलौर गांव से होकर गुजरती हैं नेपाल में सांस्कृतिक महत्व नेपाली सभ्यता में इस नदी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस नदी के किनारे में अवस्थित आर्य घाटौं पर राजा से लेकर रंक तक सभी का अन्तिम संस्कार किया जाता है। MP 12th Blueprint 2023 Bihar Board 12th Model Paper 2023 MP Board 10th Blueprint 2023 उद्गम और अपवाह बागमती नदी नेपाल में हिमालय की महाभारत श्रेणियों में स्थित बागद्वार से निकलती है। काठमाण्डु के टेकु दोभान मैं विष्णुमति नदी इसमें समाहित होती है। यह नदी बलौर से भी गुजरती है। यह नदी नेपाल में लगभग 195 किलोमीटर की यात्रा तय कर के बिहार के सीतामढ़ी जिले में समस्तीपुर-नरकटियागंज रेल लाइन पर स्थित ढेंग रेलवे स्टेशन के 2.5 किलोमीटर उत्तर में भारत में प्रवेश करती है। बिहार में इस नदी की कुल लम्बाई 394 किलोमीटर है। नेपाल में इस नदी का कुल जल ग्रहण क्षेत्र 7884 वर्ग किलोमीटर है। ढेंग और बैरगनियाँ स्टेशन को जोड़ने वाली रेल लाइन पर बने पुल संख्या 89, 90, 91, 91A और 91B से होकर यह नदी दक्षिण दिशा में चलती है जहाँ लगभग 2.5 किलोमीटर नीचे भारत का जोरियाही नाम का पहला गाँव पड़ता है। यहाँ से 5 किलोमीटर दक्षिण चल कर बागमती शिवहर जिले के बखार चंडिहा और अदौरी गाँव की सीमा में आती है।ढेंग से बखार की दूरी साढे़ 11 कि॰मी॰ है और यहीं से थोड़ा और नीचे चल कर खोरीपाकड़【[पूर्वी चंपारण]] देवापुर गाँव के पास उसके दाहिने किनारे पर लालबकेया नदी में मिलती है। इस लम्बाई में नदी की प्रवृत्ति पश्चिम से होकर बहने की है मगर लालबकेया से उसका संगम स्थल प्रायः स्थिर रहता है। नदी की इस लम्बाई में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुए हैं यद्यपि उसकी एक पुरानी धारा का जिक्र और रेखांकन जरूर मिलता है। बिहार के तराई क्षेत्रों में प्रवेश करने के बाद यह नदी बाढ़ के दिनों में अक्सर अपना प्रवाह मार्ग बदल लेती है। इस नदी में बाढ़ के कारण बिहार के सीतामढ़ी, मुजफ़्फ़रपुर, दरभंगा और मधुबनी ज़िलों में काफ़ी क्षति पहुँचाती है। इसकी सहायक नदियों में लाल बकेया नदी, लखनदेई नदी, चकनाहा नदी, जमुने नदी, सिपरीधार नदी, छोटी बागमती, कोला नदी आदि हैं। कोसी परियोजना के अन्तर्गत बागमती नदी को भी नियन्त्रित कर इस पर पुल और नये बाँध बनाए गए हैं। यह कमला नदी से मिलकर कोसी नदी में मिल जाती है। तराई के मैदानों को पार करती हुई बागमती नदी बिहार में प्रवेश करती है और 360 किलोमीटर दूरी तय करने के बाद दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई बूढ़ी गंडक नदी में मिल जाती है। जल ग्रहण क्षेत्र बिहार में इस नदी की कुल लम्बाई 394 किलोमीटर तथा जल ग्रहण क्षेत्र लगभग 6,500 वर्ग किलोमीटर होता है। इस तरह नदी उद्गम से गंगा तक कुल लम्बाई लगभग 589 किलोमीटर और कुल जल ग्रहण क्षेत्र 14,384 वर्ग किलोमीटर बैठता है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार बागमती के ऊपरी क्षेत्र काठमाण्डू के आस-पास सालाना औसत बारिश लगभग 1460 मिलीमीटर होती है जबकि चम्पारण में 1392 मि.मी., सीतामढ़ी में 1184 मि.मी., मुजफ्फरपुर में 1184 मि.मी., दरभंगा में 1250 मि.मी. और समस्तीपुर में 1169 मि.मी. होती है। सहायक नदियाँ विष्णुमति नदी लखनदेई नदी लाल बकेया नदी चकनाहा नदी जमुने नदी सिपरीधार नदी छोटी बागमती कोला नदी इन्हें भी देखें काठमाण्डु लखनदेई नदी सन्दर्भ मिथिलांचल की नदियाँ बिहार की नदियाँ भारत की नदियाँ नेपाल की नदियाँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बागमती नदी", "token_count": 5188, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%80" }
हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा सनातन (हिन्दुओं) का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है। पश्चात्कालीन हिदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब धन्वन्तरी उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं। एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है। हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया। आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, SIDCUL (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं। वर्तमान संसाद डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक है। हरिद्वार: पौराणिक माहात्म्य, इतिहास और वर्तमान हरिद्वार तीर्थ के रूप में बहुत प्राचीन तीर्थ है परंतु नगर के रूप में यह बहुत प्राचीन नहीं है। हरिद्वार नाम भी उत्तर पौराणिक काल में ही प्रचलित हुआ है। महाभारत में इसे केवल 'गंगाद्वार' ही कहा गया है। पुराणों में इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से वर्णित किया गया है। प्राचीन काल में कपिलमुनि के नाम पर इसे 'कपिला' भी कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ कपिल मुनि का तपोवन था। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ ने, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया। 'हरिद्वार' नाम का संभवतः प्रथम प्रयोग पद्मपुराण में हुआ है। पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के उपरोक्त प्रसंग में हरिद्वार की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए उसके सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने की बात कही गयी है:- हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा। तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।। तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः। प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।। तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्। कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।। यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला। एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।। उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्। अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।। अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है। महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद 'भीष्म-पुलस्त्य संवाद' के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार (हरिद्वार) को निःसन्दिग्ध रूप से स्वर्गद्वार के समान बताया गया है:- स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः। तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।। पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्। उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।। सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्। देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।। ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।। अर्थात् गंगाद्वार (हरिद्वार) स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है। यह स्थान बड़ा रमणीक है और यहाँ की गंगा हिन्दुओं द्वारा बहुत पवित्र मानी जाती है। कतिपय प्रमुख पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा बतायी गयी है:- सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।। अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। ह्वेनसांग भी सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन उसने 'मोन्यु-लो' नाम से किया है। मोन्यू-लो को आधुनिक मायापुरी गाँव समझा जाता है जो हरिद्वार के निकट में ही है। प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर यहाँ विद्यमान हैं। हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण मिले हैं उनमें कुछ महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा पर्याप्त प्राचीन स्थल माने जाते हैं। उसके पश्चात सवाई राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि भी बतायी जाती है, वर्तमान हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के बीचोंबीच स्थित है। यह छतरी निर्मित ऐतिहासिक भवनों में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। इसके बाद इसकी मरम्मत वगैरह होती रही है। उसके बाद से विगत लगभग तीन सौ - साढ़े तीन सौ वर्षों से यहां गंगा के किनारे मठ-मंदिर, धर्मशाला और कुछ राजभवनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। वर्तमान में हर की पैड़ी विस्तार योजना के अंतर्गत जम्मू और पुंछ हाउस और आनंद भवन तोड़ दिए गए हैं। उनके स्थान पर घाट और प्लेटफार्म विस्तृत कर बनाये गये हैं। इस प्रकार हरिद्वार में नगर-निर्माण की प्रक्रिया आज से प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई; किंतु तीर्थ के रूप में यह अत्यंत प्राचीन स्थल है। पहले यहाँ पर पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते थे अथवा स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करते थे तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास निकट के कस्बों कनखल, ज्वालापुर इत्यादि में थे। यहाँ का प्रसिद्ध स्थान 'हर की पैड़ी' है जहाँ गंगा का मंदिर भी है। हर की पैड़ी पर लाखों यात्री स्नान करते हैं और यहाँ का पवित्र गंगा जल देश के प्राय: सभी स्थानो में यात्रियों द्वारा ले जाया जाता है। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री इकट्ठे होते हैं। प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं तब यहां कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला भी लगता है। इनमें कई लाख यात्री इकट्ठे होते और गंगा में स्नान करते हैं। यहाँ अनेक मंदिर और देवस्थल हैं। माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। संभवत: यह १०वीं शताब्दी का बना होगा। इस मंदिर में माया देवी की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के तीन मस्तक और चार हाथ हैं। लोगों का विश्वास है कि यहाँ मरनेवाला प्राणी परमपद पाता है और स्नान से जन्म-जन्मांतर का पाप कट जाता है और परलोक में हरिपद की प्राप्ति होती है। प्रकृतिप्रेमियों के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शन प्रस्तुत करता है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री)। इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं -- हर अर्थात् शिव (केदारनाथ) और हरि अर्थात् विष्णु (बद्रीनाथ) तक जाने का द्वार। शहरी विकास मंत्रालय द्वारा 434 शहरों में स्वच्छता को लेकर हुए सर्वेक्षण में हरिद्वार 244 वें नंबर पर रहा। दर्शनीय धार्मिक स्थल अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पाँच तीर्थों की विशेष महिमा बतायी गयी है:- गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते। तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत।। अर्थात् गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है। इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी,अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है। इन स्थलों के अतिरिक्त भी हरिद्वार में अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं। सर्वाधिक दर्शनीय और महत्वपूर्ण तो यहाँ गंगा की धारा ही है। 'हर की पैड़ी' के पास जो गंगा की धारा है वह कृत्रिम रूप से मुख्यधारा से निकाली गयी धारा है और उस धारा से भी एक छोटी धारा निकालकर ब्रह्म कुंड में ले जायी गयी है। इसी में अधिकांश लोग स्नान करते हैं। गंगा की वास्तविक मुख्यधारा नील पर्वत के पास से बहती है। 'हर की पैड़ी' से चंडी देवी मंदिर की ओर जाते हुए ललतारो पुल से आगे बढ़ने पर गंगा की यह वास्तविक मुख्य धारा अपनी प्राकृतिक छटा के साथ द्रष्टव्य है। बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आए पत्थरों के असंख्य टुकड़े यहाँ दर्शनीय है। इस धारा का नाम नील पर्वत के निकट होने से नीलधारा है। नीलधारा (अर्थात् गंगा की वास्तविक मुख्य धारा) में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है। हर की पौड़ी 'पैड़ी' का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया। यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का मुख्य स्थान है। मुख्यतः यहीं स्नान करने के लिए लोग आते हैं। एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ धरती पर भगवान् विष्णु आये थे। धरती पर भगवान् विष्णु के पैर पड़ने के कारण इस स्थान को 'हरि की पैड़ी' कहा गया जो बोलचाल में 'हर की पौड़ी' बन गया है। इसे हरिद्वार का हृदय-स्थल माना जाता है। मान्यता है कि दक्ष का यज्ञ हरिद्वार के निकट ही कनखल में हुआ था। लिंगमहापुराण में कहा गया है:- यज्ञवाटस्तथा तस्य गंगाद्वारसमीपतः। तद्देशे चैव विख्यातं शुभं कनखलं द्विजाः।। अर्थात् '' (सूत जी कहते हैं) हे द्विजो ! गंगाद्वार के समीप कनखल नामक शुभ तथा विख्यात स्थान है; उसी स्थान में दक्ष की यज्ञशाला थी। यहीं सती भस्म हो गयी थी। मान्यता है कि इसके बाद शिव जी के कोप से दक्ष-यज्ञ-विध्वंस हो जाने के बाद यज्ञ की पूर्णता के लिए हरिद्वार के इसी स्थान पर भगवान विष्णु की स्तुति की गयी थी और यहीं वे प्रकट हुए थे। बाद में यह किंवदंती फैल गयी कि यहाँ पर भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं। वास्तव में वह निशान कहीं नहीं है, लेकिन इस स्थान की महिमा अति की हद तक प्रचलित है। हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है। संध्या समय गंगा देवी की हर की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्त्वपूर्ण अनुभव है। स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं। विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार-यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं। चण्डी देवी मन्दिर माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के 'नील पर्वत' के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई० में बनवाया गया था। स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया। मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं, लेकिन लंबी कतार का सामना करना पड़ता है। माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओर हनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है। मनसा देवी मन्दिर हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ। मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है और ढेर सारे यात्री उसके माध्यम से मंदिर तक की यात्रा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इस प्रणाली में लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से 187 सीढ़ियों के बाद लगभग 1 किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो थकावट का स्मरण भी न रहेगा और मन की प्रफुल्लता के क्या कहने ! हालाँकि धार्मिकता के ख्याल से प्रायः लोग गंगा-स्नान के बाद यहाँ की यात्रा करते हैं। माया देवी मन्दिर माया देवी (हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी) का संभवतः ११वीं शताब्दी में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं। वैष्णो देवी मन्दिर हर की पैड़ी से करीब 1 किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो देवी की अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण इस मंदिर में वैष्णो देवी की गुफा की अनुकृति का प्रयत्न किया गया है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता है। पवित्र गुफा को प्राकृतिक रूप देने की चेष्टा की गयी है। मार्ग की दुर्गमता को बनाये रखने का प्रयत्न हुआ है, हालाँकि गुफा का रास्ता तय करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। हाँ अकेले नहीं जा कर दो-तीन आदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं। यह मंदिर भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। भारतमाता मन्दिर वैष्णो देवी मन्दिर से कुछ ही आगे भारतमाता मन्दिर है। इस बहुमंजिले मन्दिर का निर्माण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि के द्वारा हुआ है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर इस का लोकार्पण हुआ था। अपने ढंग का निराला यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। इसके विभिन्न मंजिलों पर शूर मंदिर, मातृ मंदिर, संत मंदिर, शक्ति मंदिर, तथा भारत दर्शन के रूप में मूर्तियों तथा चित्रों के माध्यम से भारत की बहुआयामी छवियों को रूपायित किया गया है। ऊपर विष्णु मंदिर तथा सबसे ऊपर शिव मंदिर है। हरिद्वार आने वाले यात्रियों के लिए भारत माता मंदिर के दर्शन से एक भिन्न और उत्तम अनुभूति की प्राप्ति तथा देशभक्ति की प्रेरणा अनायास हो जाती है। सप्तर्षि आश्रम/सप्त सरोवर 'भारत माता मंदिर' से ऑटो द्वारा आगे बढ़कर आसानी से सप्तर्षि आश्रम तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने पर सड़क की दाहिनी ओर सप्त धाराओं में बँटी गंगा की निराली प्राकृतिक छवि दर्शनीय है। कहा जाता है कि यहाँ सप्तर्षियों ने तपस्या की थी और उनके तप में बाधा न पहुँचाने के ख्याल से गंगा सात धाराओं में बँटकर उनके आगे से बह गयी थी। गंगा की छोटी-छोटी प्राकृतिक धारा की शोभा बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आये पत्थरों के असंख्य टुकड़ों के रूप में स्वभावतः दर्शनीय है। यहाँ सड़क की दूसरी ओर 'सप्तर्षि आश्रम' का निर्माण किया गया है। यहाँ मुख्य मंदिर शिवजी का है और उसकी परिक्रमा में सप्त ऋषियों के छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। स्थान प्राकृतिक शोभा से परिपूर्ण है। अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और कुछ-कुछ दूरी पर सप्तर्षियों के नाम पर सात कुटिया बनी हुई है, जिनमें आश्रम के लोग रहते हैं। शान्तिकुंज/गायत्री शक्तिपीठ सुप्रसिद्ध मनीषी श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा स्थापित गायत्री परिवार का मुख्य केन्द्र 'शांतिकुंज' हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग में विशाल परिक्षेत्र में एक-दूसरे से जुड़े अनेक उपखंडों में बँटा आधुनिक युग में धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों का एक अन्यतम कार्यस्थल है। यहां का सुचिंतित निर्माण तथा अन्यतम व्यवस्था सभी श्रेणी के दर्शकों-पर्यटकों के मन को निश्चित रूप से मोहित करता है। यह संस्थान मुख्यत: श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तकों तथा उनकी प्रेरणा से चल रही पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी करता है। शोधकार्य भी इस संस्थान के अंतर्गत चलता रहता है। हरिद्वार जाने वाले यात्रियों के लिए इस संस्थान को देखे बिना हरिद्वार-यात्रा परिपूर्ण नहीं मानी जा सकती है, ऐसा अनुभव यहां आने वाले प्रत्येक यात्री को प्रायः होता ही है। कनखल हरिद्वार की उपनगरी कहलाने वाला 'कनखल' हरिद्वार से 3 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है। यहाँ विस्तृत आबादी एवं बाजार है। आबादी वाले तीर्थस्थलों में हरिद्वार का सबसे प्राचीन तीर्थ कनखल ही है। विभिन्न पुराणों में इसका नाम स्पष्टतः उल्लिखित है। गंगा की मुख्यधारा से 'हर की पैड़ी' में लायी गयी धारा कनखल में पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। महाभारत के साथ-साथ अनेक पुराणों में भी कनखल में गंगा विशेष पुण्यदायिनी मानी गयी है। इसलिए यहाँ गंगा-स्नान का विशेष माहात्म्य है। कनखल में ही दक्ष ने यज्ञ किया था, यह ऊपरिलिखित विवरण में दर्शाया जा चुका है। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है। पारद शिवलिंग कनखल में श्रीहरिहर मंदिर के निकट ही दक्षिण-पश्चिम में पारद शिवलिंग का मंदिर है। इसका उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 8 मार्च 1986 को किया था। यहाँ पारद से निर्मित 151 किलो का पारद शिवलिंग है। मंदिर के प्रांगण में रुद्राक्ष का एक विशाल पेड़ है जिस पर रुद्राक्ष के अनेक फल लगे रहते हैं जिसे देखकर पर्यटक आश्चर्यमिश्रित प्रफुल्लता का अनुभव करते हैं। दिव्य कल्पवृक्ष वन देवभूमि हरिद्वार के कनखल स्थित नक्षत्र वाटिका के पास हरितऋषि विजयपाल बघेल के द्वारा कल्पवृक्ष वन लगाया गया है। वैसे तो देवलोक के पेड़ कल्पतरु (पारिजात) को सभी तीर्थ स्थलों पर रोपित किया जा रहा है, परन्तु धरती पर कल्पवृक्ष वन के रूप में एकमात्र यही वन विकसित है, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु कल्पवृक्ष के दर्शन करके अपनी मनोकामना पूरी करते हैं। पतंजलि योगपीठ योगगुरु बाबा रामदेव का यह संस्थान भी कनखल क्षेत्र में ही अवस्थित है। पर्व गहन धार्मिक महत्व के कारण हरिद्वार में वर्ष भर में कई धार्मिक त्यौहार आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं :- कवद मेला, सोमवती अमावस्या मेला, गंगा दशहरा, गुघल मेला जिसमें लगभग २०-२५ लाख लोग भाग लेते हैं। इस के अतिरिक्त यहाँ कुंभ मेला भी आयोजित होता है बार हर बारह वर्षों में मनाया जाता है जब बृहस्पति ग्रह कुम्भ राशिः में प्रवेश करता है। कुंभ मेले के पहले लिखित साक्ष्य चीनी यात्री, हुआन त्सैंग (६०२ - ६६४ ई.) के लेखों में मिलते हैं जो ६२९ ई. में भारत की यात्रा पर आया था। भारतीय शाही राजपत्र (इम्पीरियल गज़टर इंडिया), के अनुसार १८९२ के महाकुम्भ में हैजे का प्रकोप हुआ था जिसके बाद मेला व्यवस्था में तेजी से सुधार किये गए और, 'हरिद्वार सुधार सोसायटी' का गठन किया गया और १९०३ में लगभग ४,००,००० लोगों ने मेले में भाग लिया। १९८० के दशक में हुए एक कुम्भ में हर-की-पौडी के निकट हुई एक भगदड़ में ६०० लोग मारे गए और बीसियों घायल हुए। १९९८ के महा कुंभ मेले में तो ८ करोड़ से भी अधिक तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए यहाँ आये। vhxhvl ljs d हरिद्वार में हिन्दू वंशावलियों की पंजिका वह जो अधिकतर भारतीयों व वे जो विदेश में बस गए को आज भी पता नहीं, प्राचीन रिवाजों के अनुसार हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियां हिन्दू ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है द्वारा हिन्दुओं के पवित्र नगर हरिद्वार में हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं। प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं। किसी के लिए किसी की अपितु सात वंशों की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से लेना असामान्य नहीं है। शताब्दियों पूर्व जब हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार की पावन नगरी की यात्रा की जोकि अधिकतर तीर्थयात्रा के लिए या/ व शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में विसर्जन जोकि शव- दाह के बाद हिन्दू धार्मिक रीति- रिवाजों के अनुसार आवश्यक है के लिए की होगी। अपने परिवार की वंशावली के धारक पंडित के पास जाकर पंजियों में उपस्थित वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहों, जन्मों व मृत्युओं के विवरण सहित नवीनीकृत कराने की एक प्राचीन रीति है। वर्तमान में हरिद्वार जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके नितांत अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं। यह खबर उनके नियत पंडित तक जंगल की आग की तरह फैलती है। आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है व लोग नाभिकीय परिवारों को तरजीह दे रहे हैं, पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवों, दादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहों, जन्मों और मृत्युओं जो कि विस्तृत परिवारों में हुई हों अपितु उन परिवारों जिनसे विवाह संपन्न हुए आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आयें। आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजी को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है। साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है। ऋषिकेश से हरिद्वार?। rishikesh to haridwar ऋषिकेश से हरिद्वार की यात्रा करने के लिए, आप परिवहन के विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकते हैं, जैसे कि रोडवेज, रेलवे या बसें। यहाँ विकल्प हैं: सड़क मार्ग द्वारा (By Road) : ऋषिकेश से हरिद्वार तक यात्रा करने का सबसे सुविधाजनक और सामान्य तरीका सड़क मार्ग है। दूरी लगभग 20 किलोमीटर (12.4 मील) है, और यातायात की स्थिति के आधार पर इसमें लगभग 30 मिनट से एक घंटे का समय लगता है। आप एक टैक्सी किराए पर ले सकते हैं, एक साझा ऑटो-रिक्शा ले सकते हैं, या दो शहरों के बीच चलने वाली सार्वजनिक बसों का भी उपयोग कर सकते हैं। ट्रेन द्वारा (By Train) : ऋषिकेश और हरिद्वार दोनों में एक रेलवे स्टेशन है। इन दोनों स्टेशनों के बीच ट्रेनें नियमित रूप से चलती हैं और यात्रा में लगभग 30 मिनट लगते हैं। आप ट्रेन के शेड्यूल की जांच कर सकते हैं और टिकट ऑनलाइन या रेलवे स्टेशन पर बुक कर सकते हैं। बस द्वारा (By Bus) : ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच नियमित बस सेवाएं हैं। बसों का संचालन उत्तराखंड रोडवेज और निजी ऑपरेटरों द्वारा किया जाता है। यातायात और बस के प्रकार के आधार पर यात्रा में आमतौर पर लगभग 30 मिनट से एक घंटे तक का समय लगता है। प्रशासनिक पृष्ठभूमि हरिद्वार जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौडी गढवाल जिला और दक्षिण में रुड़की, मुज़फ़्फ़रनगर और बिजनौर हैं। नवनिर्मित राज्य उत्तराखंड ने सम्मिलित किए जाने से पहले यह सहारनपुर डिविज़नल कमिशनरी का एक भाग था। पूरे जिले को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बनता है और यहाँ उत्तराखंड विधानसभा की ९ सीटे हैंद जो हैं - भगवानपुर, रुड़की, इकबालपुर, मंगलौर, लांधौर, लक्सर, बहादराबाद, हरिद्वार और लालडांग। जिला प्रशासनिक रूप से तीन तहसीलों हरिद्वार, रुड़की और लक्सर और छः विकास खण्डों भगवानपुर, रुड़की, नारसन, भद्रबाद, लक्सर और खानपुर में बँटा हुआ है। 'हरीश रावत' हरिद्वार लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद और 'मदन कौशिक' हरिद्वार नगर से उत्तराखंड विधानसभा सदस्य हैं। भूगोल हरिद्वार उन पहले शहरों में से एक है जहाँ गंगा पहाडों से निकलकर मैदानों में प्रवेश करती है। गंगा का पानी, अधिकतर वर्षा ऋतु जब कि उपरी क्षेत्रों से मिटटी इसमें घुलकर नीचे आ जाती है के अतिरिक्त एकदम स्वच्छ व ठंडा होता है। गंगा नदी विच्छिन्न प्रवाहों जिन्हें जज़ीरा भी कहते हैं की श्रृंखला में बहती है जिनमें अधिकतर जंगलों से घिरे हैं। अन्य छोटे प्रवाह हैं: रानीपुर राव, पथरी राव, रावी राव, हर्नोई राव, बेगम नदी आदि। जिले का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा है व राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्यान जिले की सीमा में ही आता है जो इसे वन्यजीवन व साहसिक कार्यों के प्रेमियों का आदर्श स्थान बनाता है। राजाजी इन गेटों से पहुंचा जा सकता है: रामगढ़ गेट व मोहंद गेट जो देहरादून से २५ किमी पर स्थित है जबकि मोतीचूर, रानीपुर और चिल्ला गेट हरिद्वार से केवल ९ किमी की दूरी पर हैं। कुनाओ गेट ऋषिकेश से ६ किमी पर है। लालधंग गेट कोट्द्वारा से २५ किमी पर है। २३६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घिरा हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है। इसके अक्षांश व देशांतर क्रमशः २९.९६ डिग्री उत्तर व ७८.१६ डिग्री पूर्व हैं। हरिद्वार समुन्द्र तल से २४९.७ मी की ऊंचाई पर उत्तर व उत्तर- पूर्व में शिवालिक पहाडियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित है। जलवायु तापमान ग्रीष्मकाल: १५ डिग्री से- ४२ डिग्री तक शीतकाल: ६ डिग्री से- १६.६ डिग्री तक जनसांख्यिकी २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार हरिद्वार जिले की जनसँख्या २,९५,२१३ थी। पुरुष ५४% व महिलाएं ४६% हैं। हरिद्वार की औसत साक्षरता राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक ७०% है: पुरुष साक्षरता ७५% व महिला साक्षरता ६४% है। हरिद्वार में, १२% जनसँख्या ६ वर्ष की आयु से कम है। हरिद्वार से यमुनोत्री की दूरी कितनी है? हरिद्वार से यमुनोत्री की कुल दूरी लगभग 238 किलोमीटर होती है। शैक्षणिक संस्थान हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में निम्नलिखित शिक्षा संस्थान है:- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की - ३० किमी भूतपूर्व रुड़की इंजीनियरी कॉलेज, जो २००२ मे एक आई॰आई॰टी बन चुका है, यह भारत में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्च शिक्षा का एक महत्वपूर्ण संस्थान है यह स्वतंत्र भारत का पहला तकनीकी वि.वि है जिसकी स्थापना 1847 मे हुई थी, यह संस्थान हरिद्वार से ३० मिनट की दूरी पर रुड़की में स्थित है। कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग (कोएर) - १४ किमी एक निजी अभियांतिकी संस्थान जो हरिद्वार और रुड़की के बीच राष्ट्रीय महामार्ग ५८ पर स्थित है। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय - ४ किमी कनखल में गंगा नदी के तट पर हरिद्वार-ज्वालापुर बाइपास सड़क पर स्थित। चिन्मय डिग्री कॉलेज हरिद्वार से १० किमी दूर स्थित शिवालिक नगर में बसा यह हरिद्वार के विज्ञान कोलेजों में से एक है। विश्व संस्कृत विद्यालय संस्कृत विश्विद्यालय, हरिद्वार जिसकी स्थापना उत्तराखंड सरकार द्वारा की गई थी विश्व का एकमात्र विश्वविद्यालय है जो पूर्णतः प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, पुस्तकों की शिक्षा को समर्पित है। इसके पाठ्यक्रम के अंतर्गत हिन्दू रीतियों, संस्कृति और परंपराओं की शिक्षा दी जाती है और इसका भव्य भवन प्राचीन हिन्दू वास्तुशिल्प पर आधारित है। दिल्ली पब्लिक स्कूल, रानीपुर क्षेत्र के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से यह एक है जो विश्वव्यापी दिल्ली पब्लिक स्कूल परिवार का भाग है। यह अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक उपलब्धियों, खेलों, पाठ्यक्रमेतर क्रियाकलापों के साथ-साथ सर्वोत्तम सुविधाओं, प्रयोगशालाओं और शैक्षणिक वातावरण के लिए जाना जाता है। डी॰ए॰वी सैन्टेनरी पब्लिक स्कूल जगजीत्पुर में स्थित यह विद्यालय शिक्षा के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों कों नैतिकता का पाठ भी सिखाता है ताकी यहाँ से निकला हर विद्यार्थी संसार के हर कोने को प्रकाशित कर सके। केन्द्रीय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल केन्द्रिय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल, हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना ७ जुलाई, १९७५ को की गई थी। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्धीकृत, इस विद्यालय में प्री-प्राइमरी से १२वीं तक २,००० से अधिक विद्यार्थी पढ़ते है। राष्ट्रीय ईंटर कॉलेज ,औरंगाबाद (आन्नेकी) हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र मे स्थित यह विद्यालय हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है। यहाँ छात्रो को शिक्षा के साथ साथ संस्कार भी सिखाये जाते है। नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र भेल, रानीपुर टाउनशिप: भेल का परिसर, जो की एक MAHARATNA पूएसयू है। यह १२ किमी² में फैला हुआ है। जटाशंकर परिवहन हरिद्वार अच्छी तरह सड़क मार्ग से राष्ट्रीय राजमार्ग ५८ से जुड़ा है, जो दिल्ली और मानापस को आपस में जोड़ता है। १९०४ ई. में लक्सर से देहरादून तक के लिए रेलमार्ग बना और तभी से हरद्वार की यात्रा सुगम हो गयी। मुख्य रेलवे स्टेशन हरिद्वार में ही स्थित है, जो भारत के सभी प्रमुख नगरों को हरिद्वार से जोड़ता है। निकटतम हवाई अड्डा जौली ग्रांट, देहरादून में है हवाई जहाज सेवा कुछ ही शहरों से जुड़ी है और संख्या भी कम है इनकी,इसलिए नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को प्राथमिकता दी जाती है। उद्योग जबसे राज्य सरकार की सरकारी संस्था, सिडकुल (उत्तराखंड राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड) द्वारा एकीकृत औद्योगिक एस्टेट की स्थापना इस ज़िले में की गई है, तबसे हरिद्वार बहुत तेजी से उत्तराखंड के महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है, जो देशभर के कई महत्वपूर्ण औद्योगिक घरानों को आकर्षित कर रहा है, जो यहाँ विनिर्माण सुविधाओं की स्थापना कर रहे हैं। हरिद्वार पहले से ही एक संपन्न औद्योगिक क्षेत्र में स्थित है जो बाईपास रोड के किनारे बसा है जहाँ पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, भेल की मुख्य सहायक इकाइयां स्थापित है जो यहाँ १९६४ में स्थापित की गयी थी और आज यहाँ ८,००० से अधिक लोग प्रयुक्त हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ हरिद्वार जिले का आधिकारिक जालस्थल हरिद्वार मानचित्र हरिद्वार के छायाचित्र हरिद्वार से यमुनोत्री कैसे पहुंचें {{गंगा जलधारा} हरिद्वार उत्तराखण्ड के नगर भारत के तीर्थ उत्तराखण्ड के नगर निगम हरिद्वार ज़िले के नगर
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सासाराम (Sasaram), जिसे सहसराम (Sahasram) भी कहा जाता है, भारत के बिहार राज्य के रोहतास ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। सूर वंश के संस्थापक अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी का मक़बरा सासाराम में है और देश का प्रसिद्ध 'ग्रांड ट्रंक रोड' भी इसी शहर से होकर गुज़रता है। सहसराम के समीप एक पहाड़ी पर गुफा में अशोक का लघु शिलालेख संख्या एक उत्कीर्ण हैं। इतिहास सासाराम को मूल रूप से शाह सेराय (अर्थ "राजा का स्थान") कहा जाता था क्योंकि यह अफगान राजा शेर शाह सूरी का जन्मस्थान है, जो दिल्ली पर शासन करते थे, उत्तरी भारत का बहुत बड़ा हिस्सा, अब पाकिस्तान और पूर्वी अफगानिस्तान के लिए पांच साल बाद मुगल सम्राट हुमायूं को पराजित करना शेर शाह सूरी की कई सरकारी प्रथाएं मुगलों और ब्रिटिश राज द्वारा कराधान, प्रशासन, और काबुल से बंगाल तक एक पक्की सड़क का निर्माण भी शामिल थीं। शेर शाह सूरी के 122 फुट (37 मी) लाल बलुआ पत्थर कब्र, भारत-अफगान शैली में निर्मित सासाराम में एक कृत्रिम झील के बीच में है। यह लोदी शैली से अत्यधिक उधार लेता है, और एक बार वह नीले और पीले रंग के टाइलों में आच्छादित था जो ईरानी प्रभाव का संकेत देते थे। बड़े पैमाने पर मुक्त खड़े गुंबद में बौद्ध स्तूप शैली का मौन काल का एक सौंदर्य पहलू भी है। शेरशाह के पिता हसन खान सूरी की कब्र सासाराम में भी है, और शेरगंज में हरे रंग के मैदान के मध्य में खड़ा है, जिसे सुखा रजा के रूप में जाना जाता है शेर शाह की कब्र के उत्तर-पश्चिम में एक किलोमीटर के बारे में अपने बेटे और उत्तराधिकारी, इस्लाम शाह सूरी की अपूर्ण और जीर्ण मस्तिष्क पर स्थित है। [2] सासाराम में भी एक बाउलिया है, जो स्नान के लिए सम्राट की कंसर्ट्स द्वारा इस्तेमाल किया गया पूल है। रोहतासगढ़ में शेर शाह सूरी का किला सासाराम में है। इस किले का 7 वें शताब्दी ईस्वी में एक इतिहास रहा है। यह राजा हरिश्चंद्र द्वारा अपने बेटे रोहितशवा के नाम पर बनाया गया था, जो उनके नाम की प्रख्यात राजा हरिश्चंद्र के पुत्र थे, जो उनकी सच्चाई के लिए जाना जाता था। यह चुरासन मंदिर, गणेश मंदिर, दिवाण-ए-ख़स, दिवाण-ए-आम, और विभिन्न अन्य संरचनाओं से अलग शताब्दियों के लिए स्थित है। किले ने राजा शासन के मुख्यालय के रूप में अकबर के शासनकाल के दौरान बिहार और बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य किया था। बिहार में रोहतस का किला उसी नाम के एक और किले के साथ उलझन में नहीं होना चाहिए, जोलहम, पंजाब के पास, जो अब पाकिस्तान है सूरतम में रोहतस का किला शेर शाह सूरी ने भी बनाया था, उस समय के दौरान जब हुमायूं हिंदुस्तान से निर्वासित हो गया था। देवी तारचंडी का एक मंदिर, दक्षिण में दो मील की दूरी पर है, और चंडी देवी के मंदिर के निकट चट्टान पर प्रताप धवल का एक शिलालेख है। देवी की पूजा करने के लिए बड़ी संख्या में हिंदुओं को इकट्ठा करना ध्वान कुंड, लगभग 36 किमी स्थित है इस शहर के दक्षिण-पश्चिम, आकर्षक पर्यटन स्थलों में से एक है और यह एक सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। गुप्ता धाम भी एक आकर्षक पर्यटक और धार्मिक स्थान है, जो इस जिले के चेनारी ब्लॉक में स्थित है। यह भी सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। यह जगह शिव-अराधाना का एक प्रसिद्ध केंद्र है। बड़ी संख्या में हिंदू भगवान शिव की पूजा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। दो झरने में 50-100 मेगावाट बिजली पैदा करने की पर्याप्त क्षमता है, अगर इसे ठीक से उपयोग किया जाए। रोहतास जिले के मुख्यालय सासाराम के पास कई स्मारकों हैं, जिनमें अकबरपुर, देवोमारंदे, रोहतास गढ़, शेरगढ़, ताराचंडी, ध्वान कुंड, गुप्त धाम, भालूनी धाम, ऐतिहासिक गुरुद्वारा और चन्दन शहीद के तख्ते, हसन खान सुर, शेर शाह, सलीम शामिल हैं। सासाराम के दक्षिण में रोहतास, एक बेटा रोहितशवा के नाम पर एक सत्यवाडी राजा हरिश्चंद्र का निवास स्थान है। सासाराम सम्राट अशोक स्तंभ (तेरह लघू शिलालेख में से एक) के लिए प्रसिद्ध है, चंदन शहीद के पास कामर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। श्री स्वामी परमश्र्वर नंद जी महाराज की समाधि, जिसे अस्वाइट आश्रम, दक्षिण कुटीया के नाम से भी जाना जाता है, जो सासाराम से 12 किमी (7.5 मील) पारम्पुरी (रायपुर चौरा) में स्थित है। यह (आडवाइट आश्रम) कई राज्यों में देश के करीब 24 शाखाएं हैं। मुख्यालय सासाराम में है, और इसे नवलाखा आश्रम के रूप में भी जाना जाता है। बाबू निशान सिंह जो 1857 के गदर आजादी के संघर्ष के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे बाबू कुंवर सिंह के सेनापति थे, सासाराम से आए थे। जैननाथ भवन एक महान मकान है जो 1 9 45 में बाबू हरिहर प्रसाद वर्मा और उनकी पत्नी उमा देवी वर्मा नामक एक मैजिस्ट्रेट द्वारा बनाया गया था। इस हवेली का नाम बाबू जैननाथ प्रसाद है, जो एक ज़मीन और अंग्रेजी में अभ्यास करने वाला पहला वकील था [अस्पष्ट]। उमर देवी वर्मा द्वारा स्थापित हरिहर उमा माध्यमिक विद्यालय नामक एक माध्यमिक विद्यालय, अभी भी मेरारी बाजार पर चलते हैं, हालांकि यह अब सरकार द्वारा प्रशासित है। अशोक का लघु शिलालेख सासाराम अशोक (तरह माइनर रॉक एडिट्स में से एक) के एक शिलालेख के लिए भी प्रसिद्ध है, जो चंदन शहीद के पास कैमूर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। यह शिलालेख सासाराम के निकट कैमूर रेंज के टर्मिनल स्पर के शीर्ष के पास स्थित है। दर्शनीय स्थल सहसराम में शेरशाह सूरी का शानदार मक़बरा बना हुआ है। इसे स्वयं शेरशाह सूरी ने अपने जीवन काल में बनवाया था। यह अपने समय की कला का श्रेष्ठतम नमूना है। एक विशाल झील के मध्य उठे हुए चबूतरे पर बना यह मक़बरा उसके 'व्यक्तित्व का प्रतीक' है। यह तुग़लक़ बादशाहों की इमारतों की सादगी और शाहजहाँ की इमारतों की स्त्रियोचित सुन्दरता के बीच की कड़ी है। यह भवन अपनी परिकल्पना में इस्लामी पर इसका भीतरी भाग हिन्दू वास्तुकला से सजाया-सँवारा गया है। इसे उत्तर भारत की श्रेष्ठ इमारतों में से एक कहा गया है। इस पर हिन्दू और इस्लामी कला का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। वस्तुतः अकबर के राज्यकाल के पूर्व हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य के समंवय का सबसे सुन्दर नमूना शेरशाह का मक़बरा है। शेर शाह सूरी का मकबरा शहर के मध्य में बना शेर शाह का मकबरा, भारत में पठान वास्तुकला के सबसे अच्छे नमूनों में से एक है, पत्थर की एक भव्य संरचना है, जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है, और सोलहवीं शताब्दी के मध्य में बनाई गई थी। . इसकी मंजिल से गुंबद के शीर्ष तक की ऊंचाई है और पानी के ऊपर इसकी कुल ऊंचाई फीट से अधिक है।मकबरे को बनाने वाले अष्टभुज का आंतरिक व्यास फीट और बाहरी व्यास फीट है। यह मकबरा भारत का दूसरा सबसे ऊंचा मकबरा है जो पर्यटकों को आकर्षित करता है। सासाराम में शेरशाह सूरी का मकबरा पत्थर की एक भव्य संरचना है जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है और एक बड़े पत्थर की छत से उठ रही है। यह छत पानी के किनारे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की उड़ान के साथ एक मंच पर तिरछी तरह टिकी हुई है। ऊपरी छत चार कोनों पर अष्टकोणीय गुंबददार कक्षों के साथ एक युद्धपोत पैरापेट दीवार से घिरा हुआ है, इसके चारों किनारों में से प्रत्येक पर दो छोटे प्रोजेक्टिंग खंभे वाली बालकनी हैं और पूर्व में एक द्वार के साथ छेद कर मकबरे के लिए एकमात्र दृष्टिकोण है। ऊपरी छत के बीच में एक कम अष्टकोणीय आधार पर मकबरे की इमारत खड़ी है। इमारत में एक बहुत बड़ा अष्टकोणीय कक्ष है जो चारों तरफ एक विस्तृत बरामदे से घिरा हुआ है। आंतरिक रूप से, बरामदा 24 छोटे गुंबदों की एक श्रृंखला से ढका हुआ है, प्रत्येक चार मेहराबों पर समर्थित है, लेकिन छत एक स्तंभित गुंबद है जो सफेद चमकता हुआ टाइलों के पैनलों से सजाया गया है जो अब बहुत फीका पड़ा हुआ है। मकबरे के कक्ष में आठों में से प्रत्येक पर तीन ऊंचे मेहराब हैं। वे बरामदे की छत से ऊँचे उठते हैं और भव्य और ऊँचे गुम्बद को सहारा देते हैं जो भारत के सबसे बड़े गुम्बदों में से एक है। मुख्य गुंबद के चारों ओर कक्ष की दीवारों के अष्टकोण के कोनों पर आठ स्तंभित गुंबद हैं। मकबरे का आंतरिक भाग पर्याप्त रूप से हवादार है और दीवारों के शीर्ष भाग पर बड़ी खिड़कियों के माध्यम से अलग-अलग पैटर्न में पत्थर की जाली से सुसज्जित है। पश्चिमी दीवार पर मिहराब के मेहराब के जंब और स्पैनड्रिल एक बार कुरान और शिलालेखों के छंदों से सुशोभित थे, ज्यामितीय पैटर्न में व्यवस्थित विभिन्न रंगों की चमकदार टाइलों के साथ और तामचीनी सीमाओं में संलग्न पत्थर में फूलों की नक्काशी के साथ। इस सजावट का अधिकांश हिस्सा पहले ही गायब हो चुका है। तामचीनी या ग्लेज़ेड टाइल कार्यों में समान सजावट के निशान गुंबद के आंतरिक भाग, दीवारों और बाहर के गुंबदों पर भी देखे जा सकते हैं। बाहरी दीवार पर मिहराब के ऊपर एक छोटे से धनुषाकार अवकाश में दो पंक्तियों में एक शिलालेख है, जो शेर शाह की मृत्यु के लगभग तीन महीने बाद उनके बेटे और उत्तराधिकारी सलीम या इस्लाम शाह द्वारा मकबरे को पूरा करने की रिकॉर्डिंग करता है, जिनकी मृत्यु एएच 952 (ईस्वी सन्) में हुई थी। 1545)। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा गुंबद है। शेर शाह के पिता हसन खान सूर का मकबरा भी कस्बे में स्थित है। इस मकबरे को सुखा रोजा के नाम से भी जाना जाता है। शिक्षा भारत में साक्षरता दर में बिहार सबसे कम दर है, लेकिन सासाराम इस प्रवृत्ति को साझा नहीं करता है और यह दूसरा सबसे साक्षर शहर है। रोज़गार के स्रोतों की कमी के कारण, उच्च शिक्षा के छात्र अक्सर रोजगार की खोज के लिए अन्य शहरों में स्थानांतरित करना चुनते हैं। चार सरकारी महाविद्यालय हैं, लेकिन कोई विश्वविद्यालय नहीं है, और अधिकतर छात्र उच्च शिक्षा के लिए अधिक विकसित शहरों जैसे बंगलौर, नई दिल्ली, पुणे, पटना और वाराणसी जाना पसंद करते हैं। क्षेत्र में स्थापित एक नया इंजीनियरिंग कॉलेज रहा है। हालांकि, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शासन के तहत साक्षरता दर में वृद्धि हुई है; और सासाराम बिहार में दूसरा सबसे साक्षर शहर है, जो बदले में बिहार में रोहतस को सबसे अधिक साक्षर जिले बना। * सावन सासराम [9] मेडिकल कालेजों नारायण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल महादा फुले मेडिकल कॉलेज और अस्पताल बर्दहि मुरादाबाद में, सासाराम सावन सासाराम इंजीनियरिंग महाविध्यालय कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट रोहतास शेरशाह कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग सादन सासाराम लॉ कॉलेज रोहतस लॉ कॉलेज सावन सासाराम सरकारी कॉलेज (विज्ञान / कला / वाणिज्य) श्री शंकर कॉलेज शांति प्रसाद जैन कॉलेज शेर शाह सुरी कॉलेज रोहतस महिला महाविद्यालय सावन सासाराम निजी कॉलेज ऑहुत भगवान राम म्हाददायालय आवागमन सासाराम सड़क और रेलवे दोनों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 9 (पुराना नंबर: एनएच 2) / (ग्रांड ट्रंक रोड) शहर से गुजरता है। स्थानीय परिवहन का मुख्य मोड बसों दोनों निजी ऑपरेटरों और राज्य सरकार द्वारा संचालित है। निजी बसें अधिक बार और अधिकतर स्थानीय बाजारों से जुड़ी हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 19 उत्तर-पश्चिम में वाराणसी, मिर्जापुर, इलाहाबाद, कानपुर और पूर्व में कोलकाता के माध्यम से गया, गयाबाड़ के माध्यम से धनबाद। विभिन्न राज्य के राजमार्गों में भी सासाराम को पटना, बिहार की राजधानी (बिक्रमगंज, पिरो, आरा के माध्यम से), बक्सर (कोरगढ़, कोछा, राजपुर के माध्यम से गंगा नदी के तट पर) से जुड़ा हुआ है। इन्हें भी देखें रोहतास ज़िला सन्दर्भ रोहतास जिला बिहार के शहर रोहतास ज़िले के नगर
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कांकरोली (Kankroli) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उदयपुर से उत्तर में है और राजसमन्द का जुड़वा शहर है। अवस्थिति कांकरोली शहर रणनीतिक रूप से राजस्थान के दक्षिण में स्थित है और उदयपुर से ६५ किमी दूर है। कांकरोली २५ डिग्री ४ '० "उत्तरी अक्षांश और ७३ डिग्री ५३' 0" पूर्व रेखांश और ५४७ मीटर की औसत ऊंचाई पर स्थित है। कांकरोली राजस्थान के राजसमंद जिले के प्रशासनिक प्रमुख क्वार्टर हैं। कांकरोली शहर उत्तर की ओर अरावली रेंज और पाली जिले से घिरा हुआ है, पूर्व में भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों और उदयपुर दक्षिण की ओर स्थित है। जलवायु जलवायु: ग्रीष्मकालीन: अधिकतम ,४२ ºC और न्यूनतम २७ ºC शीतकालीन: अधिकतम २५ ºC, न्यूनतम ९.५ ºC और औसत वर्षा ४२१ मिमी है। भाषा कांकरोली में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएं हिंदी, अंग्रेजी और राजस्थानी हैं। इतिहास खांखाजी चौहान राजपूत यहां के जागीरदार थे। खांखाजी के नाम से इस नगर का नाम खांखारोली हुआ जो बाद में कांकरोली हो गया। कांकरोली नाम अपभं रस से सुधर कर बना है। वर्षों पूर्व यहां रावतों की बस्ती थी और खाका गौत्र के रावतों को मेवाड़ महाराणा द्वारा डोली यानी जमीन दी जाने से खाकाडोली प्राचीन नाम था। ख का क और डोली की अंग्रेजों द्वारा कोमल रोली हो गया। आज भी गांवों के लोग खांकडोली उच्चारण करते है। मंदिर कांकरोली में चारभुजानाथ जी का मंदिर विद्यमान है जहां प्रतिवर्ष देवझुलनी एकादशी पर भव्य रथ की सवारी निकाली जाती है जिसका नेतृत्व छापली और कालागुमान के खांखावत चौहान राजपूत करते है। यहां प्रसिद्ध द्वारिकाधीश का मन्दिर भी है। कांकरोली को द्वारिकाधीश प्रभु की हवेली भी कहा जाता है। द्वारिकाधीश मंदिर भारत के वैष्णव मंदिरों के बीच महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। जन्माष्टमी (भगवान कृष्ण का जन्मदिन), अन्नकुट्टा, और झलजुल्नी ग्यारा यहां प्रसिद्ध त्यौहार हैं। भक्त कांकरोली जाते हैं और सितंबर के महीने के दौरान झील में धार्मिक स्नान करते हैं। झील यहां से १ कि.मी. दूर राजसमन्द झील स्थित है। राजसमंद झील (जिसे राजसममुरा झील भी कहा जाता है) १७ वीं शताब्दी में निर्मित, यह लगभग १.७५ मील (२.८२ किमी) चौड़ा, ४ मील (६.४ किमी) लंबा और ६० फीट (१८ मीटर) गहरा है। यह झील गोमाटी, केल्वा और ताली नदियों में लगभग १९६ वर्ग मील (५१० किमी २) के एक पकड़ क्षेत्र के साथ बनाई गई थी। राजसमंद के शहर और जिले का नाम राजसमंद झील के नाम पर रखा गया है। यह कृत्रिम झील १७ वीं शताब्दी के दौरान महाराणा राजा सिंह -१ द्वारा बनाई गई थी। राजसमंद जिला १० अप्रैल १९९१ को गठित किया गया था। व्यवसाय १९९१ में कांकरोली शहर उदयपुर जिले से संबंधित था, इसे जिला प्रमुख के रूप में अलग किया गया था। राजनगर और कांकरोली जुड़वां शहर हैं। कांकरोली शहर भारत में रेडियल टायर क्रांति के लिए भी प्रसिद्ध है। पहला रेडियल टायर १९८० के दशक के दौरान जे के टायर कारखाने से बाहर हो गया था। कांकरोली के पास एक महान शोध संस्थान हैरिशंकर सिंघानिया टायर और एलिस्टोमर रिसर्च इंस्टीट्यूट (HASETRI) भी है। इन्हें भी देखें राजसमन्द राजसमन्द जिला सन्दर्भ राजस्थान के शहर राजसमन्द ज़िला राजसमन्द ज़िले के नगर
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'> बीकानेर''' [[राजस्थान] एक बड़ा शहर है बीकानेर का पुराना नाम जांगल देश था। यांहा स्थानीय आदिवासी भील राजाओं का शासन था बिका नामक राजपूत सरदार ने स्थानीय आदिवासी भील राजा को मारकर इस नगर का नामकरण उन्हीं के नाम पर बीकानेर किया । बीकानेर राज्य महाभारत काल में जांगल देश था<ref></ref> बीकानेर की भौगोलिक स्तिथि ७३ डिग्री पूर्वी अक्षांश २८.०१ उत्तरी देशंतार पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई सामान्य रूप से २४३मीटर अथवा ७९७ फीट है इतिहास बीकानेर एक अलमस्त शहर है, अलमस्त इसलिए कि यहाँ के लोग बेफिक्र के साथ अपना जीवन यापन करते है। बीकानेर नगर की स्थापना के विषय मे दो कहानियाँ लोक में प्रचलित है। एक तो यह कि, नापा साँखला जो कि बीकाजी के मामा थे उन्होंने राव जोधा से कहा कि आपने भले ही राव सातल जी को जोधपुर का उत्तराधिकारी बनाया किंतु बीकाजी को कुछ सैनिक सहायता सहित सारुँडे का पट्टा दे दीजिये। वह वीर तथा भाग्य का धनी है। वह अपने बूते खुद अपना राज्य स्थापित कर लेगा। जोधाजी ने नापा की सलाह मान ली। और पचास सैनिकों सहित पट्टा नापा को दे दिया। बीकाजी ने यह फैसला राजी खुशी मान लिया। उस समय कांधल जी, रूपा जी, मांडल जी, नाथा जी और नन्दा जी ये पाँच सरदार जो जोधा के सगे भाई थे साथ ही नापा साँखला, बेला पडिहार, लाला लखन सिंह बैद, चौथमल कोठारी, नाहर सिंह बच्छावत, विक्रम सिंह राजपुरोहित, सालू जी राठी आदि कई लोगों ने राव बीका जी का साथ दिया। इन सरदारों के साथ राव बीका जी ने बीकानेर की स्थापना की। बीकानेर की स्थापना के पीछे दूसरी कहानी ये हैं कि एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे बीकाजी दरबार में देर से आये तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीरे धीरे बात करने लगे यह देख कर जोधा ने व्यँग्य में कहा “मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं"। इस पर बीका और कांधल ने कहाँ कि यदि आप की कृपा हो तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा – भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आये तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संबंध में एक लोक दोहा भी प्रचलित है-पन्द्रह सौ पैंतालवे, सुद बैसाख सुमेर थावर बीज थरपियो, बीका बीकानेर बीकानेर के राजा राव बीकाजी की मृत्यु के पश्चात राव नरा ने राज्य संभाला किन्तु उनकी एक वर्ष से कम में ही मृत्यु हो गयी। उसके बाद राव लूणकरण ने गद्दी संभाली। बीकानेर के राठौड़ राजाओं के नाम राय सिंह (1573-1612) कर्ण सिंह (1631-1669) अनूप सिंह (1669-1698) सरूपसिंह (1698-1700) सुजान सिंह (1700-1736) जोरावर सिंह (1736-1746) गजसिंह (1746-1787) राजसिंह (1787) प्रताप सिंह (1787) सुरत सिंह (1787-1828) रतन सिंह (1828-1851) सरदार सिंह (1851-1872) डूंगरसिंह (1872-1887) गंगासिंह (1887-1943) सार्दुल सिंह (1943-1950) करणीसिंह (1950-1988) नरेंद्रसिंह (1988-2022) भूगोल ऐतिहासिक बीकानेर राज्य के उत्तर में पंजाब का फिरोजपुर जिला, उत्तर-पूर्व में हिसार, उत्तर-पश्चिम में भावलपुर राज्य, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में जयपुर और दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर राज्य, पूर्व में हिसार तथा लोहारु के परगने तथा पश्चिम में भावलपुर राज्य थे। वर्तमान बीकानेर जिला राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। यह २७ डिग्री ११ और २९ डिग्री ०३ उत्तर अक्षांश और ७१ डिग्री ५४ और ७४ डिग्री १२ पूर्व देशांतर के मध्य स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ३२,२०० वर्ग किलोमीटर है। बीकानेर के उत्तर में गंगानगर तथा फिरोजपुर, पश्चिम में जैसलमेर, पूर्व में नागौर एंव दक्षिण में जोधपुर स्थित है। बीकानेर जिले के साथ पाकिस्तान से लगने वाली अन्तर्राष्ट्रीय सीमा की लंबाई 168 कि॰मी॰ है जोकि राजस्थान के राज्यों के साथ लगने वाली सबसे छोटी सीमा है। जलवायु यहाँ की जलवायु सूखी, पंरतु अधिकतर अरोग्यप्रद है। गर्मी में अधिक गर्मी और सर्दी में अधिक सर्दी पडना यहाँ की विशेषता है। इसी कारण मई, जून और जुलाई मास में यहाँ लू (गर्म हवा) बहुत जोरों से चलती है, जिससे रेत के टीले उड़-उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बन जाते हैं। उन दिनों सूर्य की धूप इतनी असह्महय हो जाती है कि यहाँ के निवासी दोपहर को घर से बाहर निकलते हुए भी भय खाते हैं। कभी-कभी गर्मी के बहुत बढ़ने पर अकाल मृत्यु भी हो जाती है। बहुधा लोग घरों के नीचे भाग में तहखाने बनवा लेते हैं, जो ठंडे रहते है और गर्मी की विशेषता होने पर वे उनमें चले जाते हैं। कड़ी भूमि की अपेक्षा रेत शीघ्रता से ठंड़ा हो जाता है। इसलिए गर्मी के दिनों में भी रात के समय यहाँ ठंडक रहती है। शीतकाल में यहाँ इतनी सर्दी पड़ती है कि पेड़ और पौधे बहुधा पाले के कारण नष्ट हो जाते है। बीकानेर में रेगिस्तान की अधिकता होने के कारण कुएँ का बहुत अधिक महत्व है। जहाँ कहीं कुआँ खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने का स्थान मिला, आरंभ में वहाँ पर बस्ती बस गई। यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ सर जुड़ा हुआ है, जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि। इससे आशय यही है कि इस स्थान पर कुएं अथवा तालाब हैं। कुएं के महत्व का एक कारण और भी है कि पहले जब भी इस देश पर आक्रमण होता था, तो आक्रमणकारी कुओं के स्थानों पर अपना अधिकार जमाने का सर्व प्रथम प्रयत्न करते थे। यहाँ के अधिकतर कुएं ३०० या उससे ज्यादा फुट गहरे हैं। इसका जल बहुधा मीठा एंव स्वास्थ्यकर होता है। वर्षा जैसलमेर को छोड़कर राजपूताना के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा बीकानेर में सबसे कम वर्षा होती है। वर्षा के अभाव में नहरे कृषि सिंचाई का मुख्य स्रोत है। वर्तमान में कुल २३७१२ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है। कृषि अधिकांश हिस्सा अनुपजाऊ एंव जलविहीन मरुभूमि का एक अंश है। जगह-जगह रेतीले टीलें हैं जो बहुत ऊँचे भी हैं। बीकानेर का दक्षिण-पश्चिम में मगरा नाम की पथरीली भूमि है जहाँ अच्छी वर्षा हो जाने पर किसी प्रकार पैदावार हो जाती है। उत्तर-पूर्व की भूमि का रंग कुछ पीलापन लिए हुए हैं तथा उपजाऊ है। यहाँ अधिकांश भागों में खरीफ फसल होती है। ये मुख्यत: बाजरा, मोठ, ज्वार,तिल और रुई है। रबी की फसल अर्थात गेंहु, जौ, सरसो, चना आदि केवल पूर्वी भाग तक ही सीमित है। नहर से सींची जानेवाली भूमि में अब गेंहु, मक्का, रुई, गन्ना इत्यादि पैदा होने लगे है। खरीफ की फसल यहाँ प्रमुख गिनी जाती है। बाजरा यहाँ की मुख्य पैदावार है। यहाँ के प्रमुख फल तरबूज एवं ककड़ी हैं। यहाँ तरबूज की अच्छी कि बहुतायत से होती है। अब नहरों के आ जाने के कारण नारंगी, नींबू, अनार, अमरुद, आदि फल भी पैदा होने लगे हैं। शाकों में मूली, गाजर, प्याज आदि सरलता से उत्पन्न किए जाते है। जंगल बीकानेर में कोई सधन जंगल नहीं है और जल की कमी के कारण पेड़ भी यहाँ कम है। साधारण तथा यहाँ 'खेजड़ा (शमी)' के वृक्ष बहुतायत में हैं। उसकी फलियाँ, छाल तथा पत्ते चौपाये खाते हैं। नीम, शीशम और पीपल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। रेत के टीलों पर बबूल के पेड़ पाए जाते हैं। थोड़ी सी वर्षा हो जाने पर यहाँ अच्छी घास हो जाती है। इन घासों में प्रधानत: 'भूरट' नाम की चिपकने वाली घास बहुतायत में उत्पन्न होती है। पशु-पक्षी यहाँ पहाड़ व जंगल न होने के कारण शेर, चीते आदि भयंकर जंतु तो नहीं पर जरख, नीलगाय आदि प्राय: मिल जाते है। घास अच्छी होती है, जिससे गाय, बैल, भैंस, घोड़े, ऊँट, भेड़, बकरी आदि चौपाया जानवर सब जगह अधिकता से पाले जाते हैं। ऊँट यहाँ बड़े काम का जानवर है तथा इसे सवारी, बोझा ढोने, जल लाने, हल चलाने आदि में उपयोग किया जाता है। पक्षियों में तीतर, बटेर, बटबड़, तिलोर, आदि पाए जाते हैं। धर्म राज्य में हिंदु एंव जैन धर्म को मानने वाले लोग की संख्या सबसे अधिक है। सिख और इस्लाम धर्म को मानने वाले भी अच्छी संख्या में है। यहाँ ईसाई एवं पारसी धर्म के अनुयायी बहुत कम हैं। हिंदुओं में वैष्णवों की संख्या अधिक है। जैन धर्म में श्वेताबर, दिगंबर और थानकवासी (ढूंढिया) आदि भेद हैं, जिनमें थानकवासियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में सुन्नियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में अधिकांश राजपूतों के वंशज हैं, जो मुसलमान हो गए। उनके यहाँ अब तक कई हिंदु रीति-रिवाज प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ अलखगिरी नाम का नवीन मत भी प्रचलित है तथा जसनाथी नाम का दूसरा मत भी हिंदुओं में विद्यमान है। मुख्य जातियाँ- जाट राजपूत ब्राह्मण गुर्जर गौड़ ब्राह्मण राजपुरोहित नाई सैनी चारण भाट सांसी-भंगी सोनार हिन्दू-दमामी(ढोली) मुस्लिम-दमामी(ढोली) भुट्टा कायस्थ बनिया/तेली जैन मोची धोबी नट/भांड रैगर बिश्नोई मेघवाल थोरी लौहार तेली-वैश्य(हिंदू/मुस्लिम) कंजर चमार गुज्जर कलाल जोगी कुम्हार भील(नाईक) बावरी सुथार लेखरा कायमखानी स्वामी सेवक भगत गोसाई भार्गव-ज्योतिषि महाजन बैरागी पुष्करणा ब्राह्मण अहीर सिद्ध भड़गूंजा छिंपा(हिंदू/मुस्लिम) राजनीति बीकानेर राजनीति के लिहाज से भी महत्वपूर्ण भुमिका निभाता है। राजस्थान के प्रथम नेता-प्रतिपक्ष जसवन्तसिहजी बीकानेर के ही थे। एक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र है और यहाँ से वर्तमान साँसद अर्जुन राम मेघवाल हैं जो भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध हैं। बीकानेर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में सात विधानसभा क्षेत्र आते हैं। खाजूवाला बीकानेर पश्चिम बीकानेर पूर्व कोलायत लूणकरनसर डूंगरगढ़ नोखा प्रशासन राजस्थान को प्रशासन की सुविधा के लिए जिन ७ मंडलों में विभाजित किया गया है उनमें से एक बीकानेर मंडल है। बीकानेर मंडल में बीकानेर, चूरू, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ जिले हैं। बीकानेर जिले का कुल क्षेत्रफल 27,244 वर्ग कि॰मी॰ है और 2011 जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 2367745 है। संस्कृति पोशाक शहरों में पुरुषों की पोशाक बहुधा लंबा अंगरखा या कोट, धोती और पगड़ी है। मुसलमान लोग बहुधा पाजामा, कुरता और पगड़ी, साफा या टोपी पहनते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी पगड़ी का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं, परंतु धीरे-धीरे अब पगड़ी के स्थान पर साफे या टोपी का प्रचार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण लोग अधिकतर मोटे कपड़े की धोती, बगलबंदी और फेंटा काम में लाते हैं। स्रियो की पोशाक लहंगा, चोली और दुपट्टा है। मुसलमान औरतों की पोशाक चुस्त पाजामा, लम्बा कुरता और दुपट्टा है उनमें से कई तिलक भी पहनती है। भाषा यहाँ के अधिकांश लोगों की भाषा मारवाड़ी है, जो राजपूताने में बोली जानेवाली भाषाओं में मुख्य है। यहाँ उसके भेद थली, बागड़ी तथा शेखावटी की भाषाएं हैं। उत्तरी भाग के लोग मिश्रित पंजाबी अथवा जाटों की भाषा बोलते हैं। यहाँ की लिपि नागरी है, जो बहुधा घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय दफ्तरों तथा कर्यालयों में अंग्रेजी एवं हिन्दी का प्रचार है। दस्तकारी भेड़ो की अधिकता के कारण यहाँ ऊन बहुत होता है, जिसके कबंल, लोईयाँ आदि ऊनी समान बहुत अच्छे बनते है। यहाँ के गलीचे एवं दरियाँ भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त हाथी दाँत की चूड़ियाँ, लाख की चूड़ियाँ तथा लाख से रंगी हुई लकड़ी के खिलौने तथा पलंग के पाये, सोने-चाँदी के ज़ेवर, ऊँट के चमड़े के बने हुए सुनहरी काम के तरह-तरह के सुन्दर कुप्पे, ऊँटो की काठियाँ, लाल मिट्टी के बर्त्तन आदि यहाँ बहुत अच्छे बनाए जाते हैं। बीकानेर शहर में बाहर से आने वाली शक्कर से बहुत सुन्दर और स्वच्छ मिश्री तैयार की जाती है जो दूर-दूर तक भेजी जाती है। साहित्य साहित्य की दृष्टि से बीकानेर का प्राचीन राजस्थानी साहित्य ज्यादातर चारण, संत और जैनों द्वारा लिखा गया था। चारण राजा के आश्रित थे तथा डिंगल शैली तथा भाषा में अपनी बात कहते थे। बीकानेर के संत लोक शैली में लिखतें थे। बीकानेर का लोक साहित्य भी काफी महत्वपूर्ण है। राजस्थानी साहित्य के विकास में बीकनेर के राजाओं का भी योगदान रहा है उनके द्वारा साहित्यकारों को आश्रय़ मिलता रहा था। राजपरिवार के कई सदस्यों ने खुद भी साहित्य में जौहर दिखलायें। राव बीकाजी ने माधू लाल चारण को खारी गाँव दान में दिया था। बारहठ चौहथ बीकाजी के समकलीन प्रसिद्ध चारण कवि थे। इसी प्रकार बीकाने के चारण कवियों ने बिठू सूजो का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका काव्य ‘राव जैतसी के छंद‘ डिंगल साहित्य में उँचा स्थान रखती है। बीकानेर के राज रायसिंह ने भी ग्रंथ लिखे थे उनके द्वारा ज्योतिष रतन माला नामक ग्रंथ की राजस्थानी में टीका लिखी थी। रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड राजस्थानी के सिरमौर कवि थे वे अकबर के दरबार में भी रहे थे वेलि क्रिसन रुक्मणी री नामक रचना लिखी जो राजस्थानी की सर्वकालिक श्रेष्ठतम रचना मानी जाती है। बीकानेर के जैन कवि उदयचंद ने बीकानेर गजल (नगर वर्णन को गजल कहा गया है)रचकर नाम कमाया था। वे महाराजा सुजान सिंह की तारीफ करते थे। ज्‍योतिषियों का गढ़ बीकानेर ज्‍योतिषियों का गढ़ है। यहाँ पूर्व राजघराने के राजगुरू गोस्‍वामी परिवार में अनेक विख्‍यात एवं प्रकांड ज्‍येातिषी एवं कर्मकांडी विद्वान हुए। ज्‍योतिष के क्षेत्र में दिवंगत पंडित श्री श्रीगोपालजी गोस्‍वामी का नाम देश-विदेश में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ज्‍योतिष और हस्‍तरेखा के साथ तंत्र, संस्‍कृत और राजस्‍थानी साहित्‍य के क्षेत्र में भी श्रीगोपालजी अग्रणी विशेषज्ञों में शुमार किए जाते थे। पंडित बाबूलालजी शास्‍त्री, Late. Shivchand G Purohit (Manu Maharaj, Sagar) के जमाने में बीकानेर में ज्‍योतिष विद्या ने नई ऊंचाइयों को देखा। इसके बाद हर्षा महाराज, अशोक थानवी, प्रेम शंकर शर्मा, अविनाश व्यास और प्रदीप पणिया जैसे कृष्‍णामूर्ति पद्धति के प्रकाण्‍ड विद्वानों ने दिल्‍ली, कलकत्ता, मुम्‍बई और गुजरात में अपने ज्ञान का लोहा मनवाया। इसके अलावा अच्‍चा महाराज, व्‍योमकेश व्‍यास और लोकनाथ व्‍यास जैसे लोगों ने ज्‍योतिष में एक फक्‍कड़ाना अंदाज रखा। संभ्रांतता से जुडे इस व्‍यवसाय में इन लोगों ने औघड़ की भूमिका का निर्वहन किया है। नई पीढ़ी के ये ज्‍योतिषी अब पुराने पड़ने लगे हैं। अधिक कुण्‍डलियाँ भी नहीं देखते और नई पीढ़ी में भी अधिक ज्ञान वाले लोगों को एकान्तिक अभाव नजर आता है। तांत्रिकों का स्‍थान बीकानेर में तंत्र से जुडे भी कई फिरके हैं। इनमें जैन एवं नाथ संप्रदाय तांत्रिक अपना विशेष प्रभाव रखते हैं। मुस्लिम तंत्र की उपस्थिति की बात की जाए तो यहाँ पर दो जिन्‍नात हैं। एक मोहल्‍ला चूनगरान में तो दूसरा गोगागेट के पास कहीं। गोगागेट के पास ही नाथ संप्रदाय को दो एक अखाड़े हैं। गंगाशहर और भीनासर में जैन समुदाय का बाहुल्‍य है। ऐसा माना जाता है कि जैन मुनियों को तंत्र का अच्‍छा ज्ञान होता है लेकिन यहाँ के स्‍थानीय वाशिंदों ने कभी प्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍हें तांत्रिक क्रियाएं करते हुए नहीं देखा है। उत्सव तथा मेले पर्व एवं त्योहार यहाँ हिंदुओं के त्योहारों में शील-सप्तमी, अक्षय तृतीया, रक्षा बंधन, दशहरा, दिवाली और होली मुख्य हैं। राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह यहाँ गनगौर, दशहरा, नवरात्रा, रामनवमी, शिवरात्री, गणेश चतुर्थी आदि पर्व भी हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। तीज का यहाँ विशेष महत्व है। गनगौर एवं तीज स्रियों के मुख्य त्योहार हैं। रक्षाबंधन विशेषकर ब्राह्मणों का तथा दशहरा क्षत्रियों का त्योहार है। दशहरे के दिन बड़ी धूम-धाम के साथ महाराजा की सवारी निकलती है। मुसलमानों के मुख्य त्योहार मुहरर्म, ईदुलफितर, ईद उलजुहा, शबेबरात, बारह रबीउलअव्वल आदि है। महावीर जयंती एवं परयुशन जैनों द्वारा मनाया जाता है। यहाँ के सिख देश के अन्य भागों की तरह वैशाखी, गुरु नानक जयंती तथा गुरु गोविंद जयंती उत्साह के साथ मनाते है। मेले बीकानेर के सामाजिक जीवन में मेलों का विशेष महत्व है। ज्यादातर मेले किसी धार्मिक स्थान पर लगाए जाते हैं। ये मेले स्थानीय व्यापार, खरीद-बिक्री, आदान-प्रदान के मुख्य केन्द्र हैं। महत्वपूर्ण मेले निम्नलिखित हैं- कतरियासर जसनाथ जी का मेला - कतरियासर गाँव में जसनाथ जी महाराज जो जसनाथ सम्प्रदाय के आराधना देव हैं इस सम्प्रदाय के लोग ज्यादातर जाट जाति के लोग हैं तथा अन्य जातियाँ के लोग भी हैं तथा कतरियासर गावँ में जसनाथ जी का भव्य मंदिर है जहाँ भव्य मेला लगता हैं भक्तगण बाड़मेर, नागौर, चुरू, जोधपुर, जैसलमेर, सीकर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, झुंझुनूं, हरियाणा तथा पंजाब व उत्तरप्रदेश से आते हैं यहाँ ओर विश्व प्रसिद्ध अग्नि नृत्य होता हैं जो धधकते अंगारो पर किया जाता हैं जो एक चमत्कार हैं जसनाथ जी महाराज का जो देखने लायक हैं अग्नि नृत्य के बीच फ़र्हे फ़र्हे(फतेह-फतेह) का घोष किया जाता हैं व साथ ही में सिंभुदड़ा का पाठन किया जाता हैं कतरियासर गाँव में जसनाथजी के मंदिर के अलावा सती माता काळलदेजी(जसनाथ जी महाराज की अर्धांगनी) का पवित्र मंदिर हैं जहाँ इनका भी भव्य मेला भरता हैं जसनाथ जी महाराज के 36 नियम हैं जिसमे पर्यावरण, वन्य जीव जंतुओं का संरक्षण, आदि के बारे में लोगों को जागरूक किया गया हैं कोलायत मेला - यह मेला प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्लपक्ष के अंतिम दिनों में श्री कोलायत जी में होता है और पूर्णिमा के दिन मुख्य माना जाता है। यहाँ कपिलेश्वर मुनि के आश्रम होने के कारण इस स्थान का महत्व बढ़ गया है। ग्रामीण लोग काफी संख्या में यहाँ जुटते है तथा पवित्र झील में स्नान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कपिल मुनि, जो ब्रह्मा के पुत्र हैं ने अपनी उत्तर-पूर्व की यात्रा के दौरान स्थान के प्राकृतिक सुंदरता के कारण तप के लिए उपर्युक्त समक्षा। मेले की मुख्य विशेषता इसकी दीप-मालिका है। दीपों को आटे से बनाया जाता है जिसमें दीपक जलाकर तालाब में प्रवाह कर दिया है। यहाँ हर साल लगभग एक लाख तक की भीड़ इकढ्ढा होती है। मुकाम मेला - नोखा तहसील में मुकाम नामक गाँव में एक भव्य मेला लगता है। यह मेला श्री जंभेश्वर जी की स्मृति में होता है, जिन्हें बिश्नोई संप्रदाय का स्थापक माना जाता है। फाल्गुन अमावस्या के दिन मेला भरता हैं। लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए देश के विभिन्न भागों से आते है। पर्यावरण एवं वन्य जीव प्रेमी बिश्नोई समाज के लिए मुकाम अंत्यत पवित्र स्थान हैं। देशनोक मेला - यह मेला चैत सुदी १-१० तक तथा आश्विन १-१० दिनों तक करणी जी की स्मृति में लगता है। ये एक चारण स्री हैं जिनके विषय में ऐसा माना जाता है कि इनमें दैविय शक्ति विद्यमान थी। देश के विभिन्न हिस्सों से इनका आशीर्वाद लेने के लिए लोगों ताँता लगा रहता है। यहाँ लगभग ३०,००० हजार लोगों तक की भीड़ इकठ्ठा होती है। नागिनी जी मेला - देवी नागिनी जी स्मृति में आयोजित यह मेला भादों के धावी अमावश में होता है। इसमें लगभग १०,००० श्रद्धालुगण आते है जिनमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक होती है। यहाँ के अन्य महत्वपूर्ण मेलो में कतरियासर का मरु मेला, तीज मेला, शिवबाड़ी मेला, नरसिंह चर्तुदशी मेला, सुजनदेसर मेला, केनयार मेला, जेठ भुट्टा मेला, कोड़मदेसर मेला, दादाजी का मेला, रीदमालसार मेला, धूणीनाथ का मेला आदि हैं। सीसा भैरू - तीन दिवसीय चलने वाले मेले का आयोजन भैरू भक्त मण्डल पारीक चौक सोनगिरी कुआं, डागा चौक अनेक स्थानों से लोगो का बाबा भैरूनाथ के दर्शन के लिए आते है शहर के साथ-साथ नापासर, नौखा ग्रामिण क्षेत्रों से पैदल यात्री जत्थों के साथ भैरूनाथ के जयकारे के साथ सीसाभैरव आते है इस मेले की विशेषता यह है कि यहाँ एक विशाल हवन का आयोजन किया जाता है। इसमें लगभग 5,००० श्रद्धालुगण आते है जिनमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक होती है। यह मेला भादों में होता है। देश के विभिन्न हिस्सों से इनका आशीर्वाद लेने के लिए लोगों ताँता लगा रहता है। लाधूनाथ जी मेला - राजस्थान के मशहूर लोक देवता एवं नायक समाज के प्रिय देवता श्री लादू नाथ जी महाराज का मेला बीकानेर जिले में मसूरी गाँव में भरा जाता है। यह राजस्थान के मशहूर संत एवं लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं इन्होंने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचनाएं की यह लोग देवता होने के साथ-साथ बहुत बड़े संत भी थे इन के मेले में नायक समाज के लोगों की अधिकता दिखाई देती है यह राजस्थान का तीसरा सबसे बड़ा मेला है इस मेले में कई समाज के लोग आते हैं श्री लादू नाथ जी महाराज एक चमत्कारी और बहुत बड़े संत के रूप में माने जाते हैं इनका मेला बड़ी धूम-धाम से और मनोरंजन का एक प्रमुख स्थान है। पर्यटन आकर्षण राव बीका महाराजा जोधा के चौदह पुत्रों में से एक था। राज्य का मुख्य नगर 'बीकानेर' राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में कुछ ऊँची भूमि पर समुद्र की सतह से ७३६ फुट की ऊँचाई पर बसा है। कुछ स्थानों से देखने पर यह नगर बहुत भव्य तथा विशाल दिखाई पड़ता है। नहर के चारों ओर शहर पनाह चारदिवारी, जो धेरे में साढ़े चार मील है और पत्थर की बनी है। इसकी चौड़ाई ६ फुट तथा ऊँचाई अधिक से अधिक ३० फुट है। इसमें पाँच दरवाजे हैं, जिनके नाम क्रमश: कोट, जस्सूसर, नत्थूसर, सीतला और गोगा है और आठ खिड़कियाँ भी बनी हैं। शहर पनाह का उत्तरी हिस्सा १९०० ई० में बना है। यह शहर पारंपरिक ढंग से बसा हुआ है। नगर के भीतर बहुत सी भव्य इमारतें हैं, जो बहुधा लाल पत्थरों से बनी है। इन पत्थरों पर खुदाई का काम उत्कृष्ट है। यहाँ राव लूणकरण (1541-1572ई.) द्वारा बीकानेर में लूणकरणसर झील का निर्माण कराया | रायसिंह (1572-1612 ई ) द्वारा जूनागढ़़ दुर्ग के निर्माण (1589-1594ई.) की कमान अपनेे मंंत्री कर्मचन्द को सौंप रखी थी, जिसके निर्देशन में दुर्गों का निर्माण हुआ, जूनागढ़ दुर्ग के मुख्य द्वार पर दो वीर शिरोमणि जयमल, फत्ता की मूर्तियाँ स्थापित हुई | इन मूर्तियों को लगवाने का श्रेय रायसिंह को दिया जाता है |अनूप सिंह ने बीकानेर में अनूप संग्रहालय को स्थापित किया तथा महाराज अनूप सिंह ने ही बीकानेर दुर्ग में अनूप महल का निर्माण कराया, बताया जाता है अनूप महल की दीवारों पर सोने की कलम से कार्य हुआ, महाराजा अनूप सिंह के बाद के शासकों का राज्याभिषेक इसी अनूप महल में सम्पन्न होता था | राजस्थान में सर्वप्रथम सिंचाई के लिए गंगनहर तथा गंगा गोल्डन जुबली म्युजियम का निर्माण महाराज गंगा सिंह ने कराया | लालगढ़ महल का निर्माण भी महाराज गंगा सिंह के द्वारा अपने पिता लालसिंह की स्मृति में कराया था, यह महल यूरोपियन पद्धति से निर्मित कराया गया | इस महल का वास्तुकार जैकफ था | बीकानेर के मंदिर गुरु जसनाथ जी मंदिर कतरियासर गुरु जंभेश्वर भगवान मंदिर मुकाम लक्ष्मी नाथ जी मंदिर बीकानेर वीर तेजाजी मंदिर चौधरी कॉलोनी बीकानेर रामदेव जी मंदिर सुजानदेसर चित्र शैली राजस्थानी चित्रकला की एक प्रभावी शैली का जन्म बीकानेर से हुआ जो राजस्थान का दूसरा बड़ा राज्य था। बीकानेर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। सुदूर मरुप्रदेश में राठौरवंशी राव जोधा के छठे पुत्र बीका द्वारा सन् १४८८ में बीकानेर की स्थापना की गई। बीकानेर २७ १२' और ३० १२' उत्तरी अक्षंश तथा ७२ १२' व ७५ ४१' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। बीकानेर राज्य के उत्तर में वहाबलपुर (पाकिस्तान), दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में लोहारु व हिसार जिला एवं उत्तर पूर्व में फिरोजपुर जिले से घिरी हुई थी। गजनेर व कोलायत यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। बीकानेर में शिक्षा बीकानेर में राजस्‍थान राज्‍य का शिक्षा निदेशालय स्थित है। रजवाडों की एक बिल्डिंग में वेटेरनरी कॉलेज के पास स्थित निदेशालय में सैकड़ो कर्मचारी काम करते हैं। कक्षा एक से बारहवीं तक की परीक्षाओं का संचालन और परीक्षा परिणाम, अध्‍यापकों के स्‍थानान्‍तरण सहित कई प्रकार की गति‍विधियाँ यहाँ वृहद् स्‍तर पर चलती रहती है। इसे राज्‍य की शिक्षा व्‍यवस्‍था का कुंभ कहा जा सकता है। शिक्षा विभाग से जुडे कार्मिकों को अपने सेवाकाल में एक बार तो यहाँ चक्‍कर लगाना पड़ ही जाता है। महाविद्यालय शिक्षा अकादमिक स्‍तर पर देखा जाए तो तीन महाविद्यालय मुख्‍य रूप से बीकानेर में है। एक है महारानी सुदर्शना महाविद्यालय और दूसरा है राजकीय डूंगर महाविद्यालय। तीसरा है गंगा शार्दुल राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय। करीब पचास साल पुराने तीनों महाविद्यालयों का अपना-अपना इतिहास है। इसके अलावा कई वोकेशनल कोर्सेज और डिग्री कॉलेज भी यहाँ है। पिछले कुछ सालों से बीकानेर में खुले इंजीनियरिंग कॉलेज ने राष्‍ट्रीय स्‍तर के सेमीनार करवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है। गैलरी आवागमन रेल मार्ग यहां पर पंहुचाने के लिए रेल मार्ग की कई शाखा है। हिसार-बीकानेर14698 में लगने वाला समय 02:50 am - 9:20 am किराया ₹60 रोजाना का, प्लेटफार्म न.05 HSR मे - प्लेटफार्म न.06 BKN पहुंचने पर, दूरी 307 km सन्दर्भ Patnaik, Naveen. (1990). A Desert Kingdom: The Rajputs of Bikaner. George Weidenfeld & Nicolson Ltd., London. बाहरी कड़ियाँ जिला प्रशासन आधिकारिक जालस्थल बीकानेर राजस्थान के शहर बीकानेर ज़िला बीकानेर ज़िले के नगर
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सिलीगुड़ी (Siliguri) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के जलपाईगुड़ी ज़िले और दार्जीलिंग ज़िले (दोनों) में स्थित एक शहर है। इस से 35 किमी पूर्व में जलपाईगुड़ी बसा हुआ है, और दोनों शहरों में विस्तार के कारण इनका एक बृहत-नगरीय क्षेत्र में विलय होता जा रहा है। विवरण रेल और राजपथ का अंतस्थ होने के कारण, सिलीगुड़ी नगर दार्जिलिंग एवं सिक्किम के व्यापार का केंद्र है। जूट व्यवसाय नगर का प्रमुख व्यवसाय है। यह महानन्दा नदी के किनारे हिमालय के चरणों में स्थित है और जलपाईगुड़ी से ४२ किमी दूरी पर स्थित है। यह उत्तरी बंगाल का प्रमुख वाणिज्यिक, पर्यटक, आवागमन, तथा शैक्षिक केन्द्र है।२०११ में इसकी जनसंख्या ७ लाख थी। गुवाहाटी के बाद यह पूर्वोत्तर भारत का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। यह पश्चिम बंगाल का महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन चुका है। इस नगर में लगभग २० हजार देसी और १५ हजार विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं। नेपाल, भूटान तथा बांग्लादेश आदि पड़ोसी देशों और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के लिये भी यह वायु, सड़क तथा रेल यात्रा का पड़ाव बिन्दु है। यह चाय, आवागमन, पर्यटन तथा इमारती लकड़ी के लिये प्रसिद्ध है। इन्हें भी देखें जलपाईगुड़ी ज़िला जलपाईगुड़ी सन्दर्भ पश्चिम बंगाल के शहर जलपाईगुड़ी ज़िला जलपाईगुड़ी ज़िले के नगर दार्जीलिंग ज़िला दार्जीलिंग ज़िले के नगर
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केपटाउन दक्षिण अफ्रीका की राजधानी है। केप टाउन दक्षिण अफ्रीका का दूसरा सबसे ज्‍यादा जनसंख्‍या वाला शहर है। यह वेस्‍टर्न केप की राजधानी है। यह दक्षिण अफ्रीका का संसद भवन भी है। यह जगह बंदरगाह, पर्वत और बाग आदि के लिए प्रसिद्ध है। टेबल मांउटेन, टेबल माउंटेन नेशनल पार्क, टेबल माउंटेन रोपवे, केप ऑफ गुड होप, चैपमैनस पीक, सिग्‍नल हिल, विक्‍टोरिया एंड अल्‍फ्रेड वाटरफ्रंट आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्‍थल हैं। इतिहास हजारों साल पहले केप टाउन आदिम जनजाति खोई का निवास स्‍थान हुआ करता था। 1652 ई. में यहां पहली बार यूरोपियनों ने प्रवेश किया था। सर्वप्रथम यहां डच लोग आए। इस जगह पर 1652 ई. में जान वान रिविक ने एक व्‍यापार केंद्र की स्‍थापना की। डचों के पीछे-पीछे जर्मन तथा फ्रेंच आए। यूरापियनों के आने के बाद केप टाउन धीरे-धीरे बसना शुरु हो गया। फिर स्‍टेल्‍लनबोसच, पर्ल तथा केप वाइनलैंड जैसे उपशहरों की स्‍थापना हुई। केप टाउन में ही देश का संसद भवन भी है। अब यह एक विश्‍वस्‍तरीय शहर है जो अपने मे प्राचीन सभ्‍यता-संस्‍कृति को संजोए हुए है। प्रमुख आकर्षण टेबल माउंटेन टेबल माउंटेन समतल सतह की कम ऊंचाई वाला एक पहाड़ है। यह पहाड़ 1086 मीटर ऊंचा है। यह केप टाउन के पश्‍िचमी भाग में स्थित है। इस पहाड़ पर से केप टाउन शहर का विहंगम दृश्‍य देखा जा सकता है। इस पहाड़ की चोटी पर जाने के लिए रोपवे लगा हुआ है। यह पहाड़ मुख्‍य रूप से टेबल माउंटेन नेशनल पार्क का एक हिस्‍सा है। टेबल माउंटेन नेशनल पार्क इस पार्क को पहले केप पेन्‍नीसुला नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता था। इस पार्क की स्‍थापना 29 मई 1998 ई. को की गई थी। इस पार्क की स्‍थापना का मुख्‍य उद्देश्‍य टेबल माउंटेन के पास के पर्यावरण को सुरक्षित रखना था। विशेषकर टेबल माउंटेन के जंगलों में पाए जाने वाले फेन्‍वॉस नामक जन्‍तु को सुरक्षित रखना। इस पार्क की देखभाल दक्षिण अफ्रीका नेशनल पार्क द्वारा की जाती है। इस पार्क के पास पर्यटन की दृष्‍िट से दो अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण स्‍थान टेबल माउंटेन और केप ऑफ गुड होप है। टेबल माउंटेन रोपवे यह रोपवे टेबल माउंटेन पर जाने के लिए बनाया गया है। यह केप टाउन के महत्‍वपूर्ण पर्यटन स्‍थलों में एक है। इस रोपवे का निचला स्‍टेशन ट्रेफलगर रोड से 302 मीटर की ऊंचाई पर है। जबकि इस रोपवे का ऊपरी स्‍टेशन 1067 मीटर की ऊंचाई पर है। ऊपरी स्‍टेशन से केप टाउन शहर का अदभूत नजारा दिखता है। केप ऑफ गुड होप किसी भी देश में बहुत कम ऐसे स्‍थान होते हैं, जिन्‍होंने इतिहास को बदल कर रख दिया हो। केप टाउन में स्थित केप ऑफ गुड होप एक ऐसा ही स्‍थान है। 1488 ई. में पुर्तगालियों ने इसी स्‍थान से अफ्रीका महादेश में कदम रखा था। इसके बाद से ही अफ्रीका का इतिहास बदल गया। यह अटलांटिक महासागर के पास स्थित है। केप टाउन आने वाले पर्यटक इस स्‍थान पर घूमने जरुर आते हैं। चैपमैनस पीक यह एक पहाड़ी है जो केप टाउन के दक्षिण में 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पहाड़ी तक एक सड़क जाती है, जिसे चैपमैनस पीक ड्राइव के नाम से जाना जाता है। 1915 से 1922 ई. के बीच बना यह सड़क अपने समय में इंजीनियरिंग का अदभूत नमूना है। यह एक खड़ी सड़क है। यह मार्ग कठिन होने के कारण यहां सावधानी पूर्वक गाड़ी चलाए। सिग्‍नल हिल यह एक सपाट सतह वाली पहाड़ी है, जो टेबल माउंटेन के नजदीक स्थित है। इस पहाड़ी को '''द लायंस फ्लैंक' के नाम से भी जाना जाता है। पर अब यह नाम अप्रचलित हो गया है। यह नून गन के लिए प्रसिद्ध है। बीचें समुद्र तट पर स्थित होने के कारण केप टाउन में बहुत सारे बीच हैं। ग्‍लेन बीच, कैंपस बे, क्लिफटन, सी प्‍वाइंट, सैंड वे, ब्‍लूबर्गस्‍ट्रैंड आदि यहां स्थित महत्‍वपूर्ण बीच हैं। इन बीचों पर हमेशा पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। यहां पर तैराकी का आनंद भी उठाया जा सकता है। विक्‍टोरिया एंड अल्‍फ्रेड वाटरफ्रंट केप टाउन स्थित विक्‍टोरिया एंड अल्‍फ्रेड वाटरफ्रंड पर्यटकों के सबसे पसंदीदा स्‍थलों में से है। यह एक ऐतिहासिक बंदरगाह है, जो अभी भी काम कर रहा है। यह बंदगाह रोबेन आइसलैंड और टेबल माउंटेन के बीच स्थित है। इस बंदगाह के आस-पास पर्यटकों के मनोरंजन का भी प्रबंध किया गया है। इस बंदरगाह का निर्माण 1860 ई. में रानी विक्‍टोरिया के पुत्र प्रिंस अल्‍फ्रेड ने करवाया था। टू ओसेन एक्‍वीरियम यह एक्‍वीरियम विक्‍टोरिया एंड अल्‍फ्रेड वाटर पार्क में स्थित है। इस एक्‍वीरियम में सात गैलरियां हैं। इसे 13 नवम्बर 1995 ई. को आम लोगों के लिए खोला गया था। लांग स्‍ट्रीट यह केप टाउन का मुख्‍य बाजार है, जो केप टाउन के सिटी बॉउल क्षेत्र में है। यहां थियेटर, बुकस्‍टोर, होटल, रेस्‍टोरेंट आदि काफी संख्‍या में है। कापसे कलोपसे यह एक मिनिस्‍ट्रेल त्‍योहार है जो केप टाउन में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस त्‍योहार में 13,000 से ऊपर मिनिस्‍ट्रेल अपने चेहरे को सफेद रंग से रंगे हुए भाग लेते हैं। वे विभिन्‍न रंग के छाते और वाद्ययंत्र लिए होते हैं। इस त्‍योहार को केप टाउन मिनिस्‍ट्रेल कार्निवल के नाम से भी जाना जाता है। यह त्‍योहार हर वर्ष 2 जनवरी को मनाया जाता है। क्रिस्‍टनबोच बोटेनिकल गार्डन यह गार्डेन न्‍यूलैंड में स्थित है। इस गार्डेन में विभिन्‍न प्रकार के पौधों का सुंदर संग्रह है। घूमने का समय: सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक। रोबेन ऑइसलैंड यह आइसलैंड केप टाउन से कुछ दूरी पर स्थित है। इसी स्‍थान पर नेल्‍सन मंडेला को यहीं पर नजरबंद रखा गया था। संसद भवन केप टाउन में ही दक्षिण अफ्रीका का संसद है। केप टाउन आने वाले पर्यटक इस भवन को देखने जरुर आते हैं। इस भवन में प्रवेश नि: शुल्‍क है। इसके अलावा बो-कैप म्‍यूजियम, डिस्ट्रिक सिक्‍स म्‍यूजियम आदि भी यहां देखने योग्‍य है। आवागमन केप टाउन में केप टाउन अंतर्राष्‍ट्रीय हवाई अड्डा है। यह दक्षिण अफ्रीका का दूसरा सबसे बड़ा हवाई अड्डा है। यहां दूसरे देशों से नियमित रूप से हवाई जहाज आते रहते हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सरकार Official website of the City of Cape Town Cape Gateway, official website of Western Cape Province Other Official Cape Town Tourism website Cape Town Information Centre अफ्रीका में राजधानियां दक्षिण अफ्रीका के तटीय शहर दक्षिण अफ्रीका की प्रांतीय राजधानियां पश्चिमी केप प्रान्त दक्षिण अफ़्रीका के नगर दक्षिण अफ़्रीका में बंदरगाह नगर अटलांटिक महासागर के बंदरगाह नगर
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प्राग (चेक: प्राहा; जर्मन: प्राग; ) चेक गणराज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह यूरोपीय संघ का 14वां सबसे बड़ा शहर है। प्राग कभी बोहेमिया की ऐतिहासिक राजधानी हुआ करती थी। वल्टावा नदी के उत्तर-पश्चिम में स्थित यह शहर 1.3 मिलियन लोगों का घर है, जबकि इसके महानगरीय क्षेत्र की 2.6 लाख की आबादी होने का अनुमान है। शहर में समशीतोष्ण जलवायु है, अर्थात: गर्म गर्मियाँ और बेहद ठंड सर्दियाँ। प्राग एक समृद्ध इतिहास के साथ मध्य यूरोप का एक राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र रहा है। रोमनकाल के दौरान स्थापित और गॉथिक, पुनर्जागरण और बारोक युग में समृद्ध प्राग, बोहेमिया साम्राज्य की राजधानी थी और कई पवित्र रोमन सम्राटों का मुख्य निवास स्थल थी, जिसमें मुख्यत: चार्ल्स चतुर्थ (शा.1346-1378) शामिल थे। यह हाब्सबर्ग राजशाही और उसके ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण शहर था। शहर ने दोनों विश्व युद्धों और युद्ध के बाद के कम्युनिस्ट युग के दौरान बोहेमियन और यूरोपीय धर्मसुधार, तीस साल का युद्ध और 20वीं शताब्दी के इतिहास में चेकोस्लोवाकिया की राजधानी के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई है।. इतिहास अपने अस्तित्व के हजारों वर्षों के दौरान, यह शहर उत्तर में स्थित प्राग के किले से दक्षिण में व्यास्राद के किले तक फैलते हुए, एक आधुनिक यूरोपीय देश, और यूरोपीय संघ के एक सदस्य देश, चेक गणराज्य की राजधानी बन गया। भूगोल प्राग वल्टावा नदी के किनारे पर स्थित है। प्राग बोहेमियन बेसिन के केंद्र में 50°05"एन और 14°27"ई अक्षांश पर स्थित है, इस प्रकार यह लगभग फ्रैंकफर्ट (जर्मनी); पेरिस (फ्रांस); और वैंकूवर (कनाडा) के समान अक्षांश में स्थित है। जलवायु प्राग में आर्द्र महाद्वीपीय जलवायु (कोपेन डीएफबी) है। सर्दियों में बहुत कम धूप के साथ औसत तापमान जमने के बिन्दु के पास तक पहुच जाता हैं। नवंबर के मध्य से मार्च के मध्य तक हिमपात आम बात है, और 20 सेमी (8 इंच) तक बर्फ जमा हो जाना सामान्य हैं। ग्रीष्मकाल के दौरान आमतौर पर अधिक धूप होती है और अधिकतम तापमान 24 डिग्री सेल्सियस (75 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंच जाता हैं। यद्यपि गर्मियों में रात में भी काफी ठंड हो जाती हैं। प्राग (और बोहेमिया के अधिकांश निचले क्षेत्र में) में वर्षा कम होती है (मात्र 500 मिमी[20 इंच] प्रति वर्ष) क्योंकि यह सूडेट्स और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं की बारिश की छाया में स्थित है। जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार, शहर के लगभग 14% निवासियों विदेशी है, जोकि देश के उच्चतम अनुपात है। 1378 के बाद से प्राग की जनसंख्या वृद्धि; संस्कृति शहर पारंपरिक रूप से यूरोप के सांस्कृतिक केंद्रों में से एक है, जहाँ कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्थानों में नेशनल थिएटर (नॉरदनी डिवाडलो) और एस्टेट्स थियेटर (स्टोवोवस्के या टिलोवो या नोस्टीकोवो डिवाडलो) शामिल हैं, जहां मोजार्ट डॉन गियोवानी और ला क्लेमेन्ज़ा डि टिटो के कार्यक्रम हुए थे। अन्य प्रमुख सांस्कृतिक संस्थान में रूडोल्फिनम हैं जोकि चेक फिलहारमोनिक ऑर्केस्ट्रा और म्यूनिसिपल हाउस का घर है जोकि प्राग सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा के लिये प्रसिद्ध है। यूरोप में कम लागत वाली हवाईयात्रों की वृद्धि के साथ, प्राग एक लोकप्रिय सप्ताहांत शहर गंतव्य बन गया है। जिससे पर्यटक अपने कई संग्रहालयों और सांस्कृतिक स्थलों के साथ-साथ अपने प्रसिद्ध चेक बियर और भोजन का लुफ़्त उठाते है। शहर में एडॉल्फ लॉस (विला म्युलर), फ्रैंक ओ. गेहरी (डांस हाउस) और जीन नोवेल (गोल्डन एंजल) सहित कई प्रसिद्ध आर्किटेक्ट्स द्वारा बनाये गये भवन हैं। अर्थव्यवस्था प्राग की अर्थव्यवस्था का चेक जीडीपी का 25% है, जिससे यह देश की सबसे ज्यादा क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था है। यूरोस्टैट के मुताबिक, 2007 तक, इसकी सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति क्रय-शक्ति समता €42,800 थी। 2016 में प्राग युरो की जीडीपी के अनुसार शहर की सूची में 6वें स्थान पर था। चित्र दीर्घा सन्दर्भ चेक गणराज्य यूरोप में राजधानियाँ चेकोस्लोवाकिया
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पेशावर पाकिस्तान का एक शहर है। यह ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रान्त की राजधानी है। पेशावर उल्लेख पुराने पुस्तकों में "पुरुषपुर" के नाम से मिलता है। इस उपमहाद्वीप के प्राचीन शहरों में से एक है। पेशावर पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत और कबायली इलाकों के वाणिज्यिक केंद्र है। पेशावर में पश्तो भाषा बोली जाती है लेकिन जब उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है इसलिए उर्दू भी माना जाता है। बाहरी कड़ियाँ पेशावर का पोरटल वेबसायट पाकिस्तान के शहर पाकिस्तान की राजधानियां पाकिस्तान के महानगर
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राबड़ी देवी (जन्म: 1956 गोपालगंज) स्वतन्त्र भारत में बिहार प्रान्त की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी 25 जुलाई 1997 को बिहार की मुख्यमन्त्री उस समय बनीं जब बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में उनके पति को जेल जाना पड़ा था। राबड़ी देवी ने तीन कार्यकाल में मुख्यमन्त्री पद सम्भाला| मुख्यमन्त्री के रूप में उनका पहला कार्यकाल सिर्फ़ 2 साल का रहा जो 25-07-1997 - 11-02-1999 तक चल सका। दूसरे और तीसरे कार्यकाल में उन्होंने मुख्यमन्त्री के तौर पर अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया। उनके दूसरे और तीसरे कार्यकाल की अवधि क्रमशः सन् 09-03-1999 - 02-03-2000 और 11-03-2000 - 06-03-2005 रहा। सन् 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में राबड़ी देवी वैशाली के राघोपुर क्षेत्र से निर्वाचित हुईं। राबड़ी का जन्म शिवप्रसाद चौधरी के घर बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ था। 17 साल की उम्र में उनका विवाह सन् 1973 में लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ। राबड़ी के सात बेटियाँ और दो बेटे (तेज प्रताप यादव तथा तेजस्वी यादव) हैं। बिहार की मुख्यमंत्री रहते हुए उन पर दफ्तर न जाने और विधानसभा में सवालों का जवाब न देने का आरोप लगता रहा है। पन्द्रहवीं लोकसभा के लिये हो रहे चुनाव प्रचार के दौरान एक आम सभा में राबड़ी देवी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल यूनाइटेड(जदयू)के प्रदेश अध्यक्ष लल्लन सिंह के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी की। मीडिया में इसको लेकर उनकी खूब किरकिरी हुई। और जनता दल यूनाइटेड(जदयू) के प्रदेश अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ लल्लन सिंह ने पटना के सीजेएम कोर्ट में राबड़ी देवी के खिलाफ 13 अप्रैल 2009 को मानहानि का मुकदमा दायर किया। राबड़ी के खिलाफ आदर्श चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप भी लगा। बिहार विधानसभा चुनाव, 2010 में, राबड़ी देवी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा: राघोपुर और सोनपुर विधानसभा सीटें, लेकिन दोनों को हार गई, जबकि राष्ट्रीय जनता दल को भारी हार का सामना करना पड़ा, केवल 22 सीटों पर जीत दर्ज की गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सारण निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इन्हें भी देखें साधु यादव रबड़ी सन्दर्भ 1959 में जन्मे लोग जीवित लोग बिहार के मुख्यमंत्री
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इस्लामाबाद पाकिस्तान की राजधानी है। भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान को एक राजधानी नगर की आवश्यकता थी। ना तो लाहौर और न ही कराची जैसे नगर इस हेतु सही पाए गए अंतः एक नए नगर की स्थापना का निर्णय लिया गया जो पूरी तरह से नियोजित हो। इस कार्य हेतु फ़्रांसीसी नगर नियोजक तथा वास्तुकार ली कार्बूजियर की सेवा ली गई। इन्हीं महोदय ने भारत में चंडीगढ़ की स्थापना की योजना बनाई थी। इस कारण ये दोनों नगर देखने में एक जैसे लगते हैं। २००९ के अनुमान अनुसार इस नगर की जनसंख्या ६,७३,७६६ है। इतिहास 1958 तक कराची पाकिस्तान की राजधानी रहा। कराची की बहुत तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और अर्थशास्त्र के कारण राजधानी को किसी दूसरे नगर में स्थानांतरित करने कि सोची गई। 1958 में तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब ख़ान ने रावलपिंडी के पास इस स्थान का चयन किया और यहां इस नगर के निर्माण करने का आदेश दिया। अस्थाई तौर पर राजधानी को रावलपिंडी स्थानांतरित किया गया और 1960 में इस्लामाबाद में विकास कार्य आरम्भ हुआ। 1968 में राजधानी को इस्लामाबाद स्थानांतरित कर दिया गया। भूगोल इस्लामाबाद में इस्लामाबाद राजधानी क्षेत्र में मार्गलह हिल्स के पैर में पोठवार पठार के किनारे पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 507 मीटर (1663 फीट) है। यह बहुत रावलपिंडी के करीब है। भाषा इस्लामाबाद की ७०% जनसंख्या पंजाबी बोलती है। उर्दू, पश्तो, सिन्धी और अंग्रेजी इत्यादि भी यहाँ बोली जाती है। पार्क इसलामाबाद पार्कों का नगर है। कुछ मुख्य पार्क हैं: शकरपड़ीआं, दामन कोह, फ़ातमा जिनाह पार्क, जाने पशाने पार्क है। चित्र दीर्घा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक जालपृष्ठ पाकिस्तान एशिया में राजधानियाँ इस्लामाबाद
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नागासाकी (長崎市) जापान का एक शहर है। यह वही शहर है जो बम गिरने से तबाह हुआ था। नागासाकी का मतलब "लम्बा प्रायद्वीप" है। वह दक्षिण पश्चिम क्यूशू द्वीप में समुद्र के किनारे पर है। वह दूसरा शहर है जिसपर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1945 में अमरीका ने परमाणु बम गिराया था। नागासाकी की आबादी (२००४) ४,४७,४१९ है और उसका क्षेत्रफल ४०६.३५ km² है। सन्दर्भ जापान के नगर कॉमन्स पर निर्वाचित चित्र युक्त लेख
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डेनमार्क या डेनमार्क राजशाही (डैनिश: Danmark या Kongeriget Danmark) स्कैंडिनेविया, उत्तरी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी भूसीमा केवल जर्मनी से मिलती है, जबकी उत्तरी सागर और बाल्टिक सागर इसे स्वीडन से अलग करते हैं। यह देश जूटलैंड प्रायद्वीप पर हज़ारों द्वीपों में फैला हुआ है। डेनमार्क ने लंबे समय तक बाल्टिक सागर को जाने वाले मार्गों को नियंत्रित किया है और इस जलराशी को डैनिश खाड़ी के नाम से जाना जाता है। इसके छोटे आकार के विपरीत इसकी समुद्री सीमा बहुत लम्बी है लगभग ७,३१४ किमी। डेनमार्क अधिकांशतः एक समतल देश है और समुद्र तल से अधिकतम ऊँचाई वाला स्थान केवल १७० मीटर ऊँचा है। फ़रो द्वीप समूह और ग्रीनलैंड डेनमार्क के अधीनस्थ है। २००८ के वैश्विक शांति सूचकांक के अनुसार डेनमार्क, आइसलैंड के बाद विश्व का सबसे शांत देश है। २००८ के ही भ्रष्टाचार दृष्टिकोण सूचकांक के अनुसार यह विश्व के सबसे कम भ्रष्ट देशों में से है और न्यूज़ीलैंड और स्वीडन के साथ पहले स्थान पर है। मोनोक्ल पत्रिका के २००८ के एक सर्वेक्षण के अनुसार इसकी राजधानी कॉपनहेगन रहने योग्य सर्वाधिक उपयुक्त नगर है। वर्ष २००९ में देश की अनुमानित जनसंख्या ५५,१९,२५९ है। इतिहास पुरातात्विक खोजों के प्राचीनतम चिह्न १,३०,०००-१,१०,००० ईपू के हैं। मानव उपस्थिति के चिह्न १२,५०० ईपू के हैं और ३९०० ईपू के बाद से कृषि गतिविधियों के साक्ष्य मिले हैं। डेनमार्क के लोग उसी नस्ल के हैं जिसके स्कैन्डिनेविया वाइकिंग्स थे। स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में डेनमार्क ८वीं सदी में अस्तित्व में आया। डेनिश समुद्री-खोजियों ने वाइकिंग्स के साथ उत्तरी यूरोप, मुख्यतः इंग्लैंड पर चढ़ाई की थी। १०वीं सदी में डेनमार्क के राजा हैराल्ड ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और पूरे डेनमार्क का ईसाईकरण कर दिया गया। १०१३ में, राजा स्वीन, जो हैराल्ड का पुत्र था, ने इंग्लैंड पर विजय पाई। स्वीन के पुत्र, कानौटोस महान ने 1821 में वर्तमान ब्रिटेन, डेनमार्क और पूरे स्कैंडिनेविया को एकीकृत कर उत्तरी यूरोप में एक विशाल राज्य का निर्माण किया। 1850 में कानौटोस द्वितीय के प्राधिकरण में, डेनमार्क ने नार्वे और आइसलैंड और फ़रो द्वीप समूह के ऊपर चढ़ाई की और सफलता पाई । 1916 में महारानी मार्गरेट प्रथम, जो ओलाफ़ की माता थीं, ने स्वीडन को जीत लिया। और तब तीनों साम्राज्यों (डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन नार्वे और आइसलैंड और फ़रो द्वीप समूह) को एकीकृत करने का प्रयास किया गया जिससे अंततः १३९७ में काल्मर संघ परिणित हुआ। संघ में डेनमार्क के पास अधिक सत्ता शक्ति थी। 1934 में डेनमार्क ने ग्रीनलैंड का औपनिवेशीकरण आरंभ किया, जिसपर 1937 तक अधिकार कर लिया गया। 1940 के आरंभ में स्वीडन ने स्वायत्ता प्राप्त की और १५२३ में प्रथम राजा, गुस्ताव ए के द्वारा स्वतंत्रता प्रप्त की। नेपोलियाई युद्धों में, डेनमार्क नपोलियन की ओर था और १८१३ की कील संधि में नार्वे को स्वीडन से हार बैठा। १८६४ में जर्मन बिस्मार्क ने अपनी जर्मनी के एकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने के लिए, आस्ट्रिया और प्रुसिया से गठबंधन कर डेनमार्क के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१९१९) के दौरान डेनमार्क तटस्थ देश था। १९३९ में डेनमार्क ने हिटलर के साथ एक १०-वर्षीय संधि की, लेकिन वह कुछ महीनों बाद हुए जर्मन आक्रमण से बच गया। नाज़ी अधिकरण के दौरान आइसलैंड स्वतंत्र हो गया, जिसपर १३८० से डेनमार्क का अधिकार था। १९४५ में डेनमार्क को ब्रिटिश सैनिको द्वारा स्वतंत्र करवाया गया। उसी वर्ष डेनमार्क ने सयुंक्त राष्ट्र और १९४९ में नाटो की सदस्यता ग्रहण की। १९५३ में संविधान में संशोधन किया गया जिसमें महिलाओं को संसद में भागीदारी करने का अधिकार दिया गया। १९७२ में आयरलैंड और ब्रिटेन के साथ डेनमार्क ईईसी का सदस्य बना और १९७३ में पूर्ण और समान सदस्य बना। ग्रीनलैंद को १९७९ में स्वायत्ता दी गई। १९९२ में डेनमार्कवासियों ने मास्टिक्ट संधि को खारिज कर दिया लेकिन अगले ही वर्ष कुछ बदलावों के बाद उस संधि को स्वीकार कर लिया। २८ सितंबर, २००० के एक जनमत संग्रह में अधिसंख्य लोगों ने यूरो क्षेत्र से जुड़ने के विरोध में मतदान किया जिसके परिणामस्वरूप यहाँ की मुद्रा अभी भी डैनिश क्राउन है। १९ मार्च, २००९ को, यहाँ की संसद ने ६२-५३ के बहुमत से समलैंगिकों जोड़ो को डेनमार्क और बाहर से बच्चे गोद लेने का अधिकार दिया। भूगोल जूटलैंड प्रायद्वीप, डेनमार्क की मुख्य भूमि है जिसकी लंबाई ३०० किमी है। मुख्यभूमि डेनमार्क का पश्चिमी तट निम्न है, लेकिन बंदरगाह रेत के टीलों से ढके हुए है जो लगभग ३० मीटर तक ऊँचे हैं। वे सर्दियों के तूफ़ानों और बहुत तेज हवाओं के संपर्क में रहते हैं। इसके विपरीत, बाल्टिक से लगता पूर्वी तट अपेक्षाकृत ऊँचा है जहाँ पर बहुत से कोल्पोसीस (kolposeis) हैं। कुल मिलाकर, डेनमार्क बड़े-छोटे ४०५ द्वीपों को मिलाकर बना है जिनमें से ७५ अबसासित हैं। यहाँ बहुत-सी लेकिन छोटी-२ नदियाँ हैं। पूरे डेनमार्क में बहुत सी छोटी-२ झीलें भी हैं। डैनिश रिलीफ़ हिम युग के दौरान बना था, इसलिए यह देश अधिकांशतः चपटा है। देश का सबसे ऊँचा पहाड़ केवल १७० मीटर ऊँचा है। मेक्सिको की खाड़ी से आने वाली धाराओं के कारण यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण है। पूरे वर्षभर तेज़ हवाएँ बहती हैं, मुख्यतः सर्दियों में और इसलिए डेनमार्क विश्व के उन कुछ देशों में है जो पवन ऊर्जा का उपयोग करते हैं। वर्षा पूरे वर्षभर और समान रूप से होती है। औसत वर्षाकाल १२१ दिनों का है। डेनमार्क का सबसे बड़ा नगर है कोपनहेगन जहाँ की जनसंख्या ११,००,००० है। दूसरा सबसे बड़ा नगर है आर्हस (२,८५,०००) और फिर है ओडेन्सी (१,४५,०००)। अर्थव्यवस्था डेनमार्क एक कृषि उपयुक्त देश है क्योंकि यहाँ की भू-रचना इस प्रकार की है जो कृषि कार्यो के लिए उपयुक्त है। डेनमार्कवासियों का जीवन स्तर बहुत ऊँचा है। देश की निम्नभूमि, ग्रामीण परंपराएं, भागीदारी की शक्ति और कृषि के आधुनिक ढंग और औज़ार यहाँ खेती और पशुपालन की ऊँची दर के प्रमुख कारण हैं। यहाँ मुख्यतः अनाज (जैसे जौ, जई, गेहूँ) उगाया जाता है और सुअरों, बकरियों और घोड़ों का पालन किया जाता है। यहाँ की फ़सल पैदावार यूरोप में सर्वाधिक है जबकि कृषि शिक्षा का स्तर भी बहुत ऊँचा है। मछलीपालन का भी यहाँ की अर्थव्यस्था में बहुत योगदान है। विश्व सूचना प्रौद्योगिकी प्रतिवेदन २००८-२००९ के अनुसार तकनीकी रूप से उन्न्त देशों की सूची में डेनमार्क, स्वीडन के साथ आठ वर्षो से निरंतर शीर्ष पर है। यह एक पूँजीवादी मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यस्था है और एक कल्याणकारी राज्य भी है। उद्योग एवं व्यापार कृषि और पशुपालन के अतिरिक्त यहाँ आधुनिक, विकसित उद्योग-धंधे भी हैं जैसे खाद्य उद्योग, रसायन उद्योग, वस्त्र उद्योग, वैद्युतीय उद्योग, धातुकर्म और जहाज़रानी। मुख्य उत्पाद हैं बीयर, कागज़ और काठ उत्पाद। यहाँ खनिज पदार्थ बहुत कम पाए जाते हैं। उत्तरी सागर में थोड़ी मात्रा में कच्चा तेल निकाला जाता है, लेकिन वह देश की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है। व्यापार संतुलन आमतौर पर देनदारियों और जहाज़रानी विनिमय द्वारा अंतर्लम्ब है। डेनमार्क मुख्यतः कृषि और पशुधन उत्पाद, जहाजः निर्माण और पवन चक्कियों संबंधी मशीनरी का निर्यात करता है। अपनी सामरिक स्थिति के कारण पूर्वी और पश्चिमी यूरोप का बहुत सा समुद्री यातायात यहाँ से होकर गुजरता है। वाणिज्यिक लेनदेन मुख्यतः स्वीडन, जर्मनी और ब्रिटेन करते हैं। बाकी के यूरोप की तुलना में बेरोजगारी दर (४.८%) अपेक्षाकृत रूप से कम है। पर्यटन हाल के वर्षों में पर्यटन उद्योग का डेनमार्क की अर्थव्यवस्था में महत्व बढ़ा है। वर्ष १९९९ में ३० लाख विदेशी पर्यटक डेनमार्क आए थे, जिनमें से एक तिहाई यानी १० लाख जर्मन थे। वस्तुत पर्यटन उद्योग से प्राप्त होने वाला राज्स्व ३ अरब अमेरिकी डॉलर है। जनसांख्यिकी वर्ष २००९ के अनुमानानुआर डेनमार्क की जनसंख्या ५५,००,५१० है। यहाँ के निवासी नस्लीय रूप से जर्मन हैं। केवल ४% लोग अप्रवासी हैं। २००९ के अनुमानानुसार यहाँ जीवन प्रत्याशा ७८.३ वर्ष है (पुरुष ७५.९६ और महिला ८०.७८) धर्म यहाँ की ९८% जनसंख्या प्रोटेस्टेन्ट है और रोमन कैथोलिक ईसाई केवल १% हैं। भाषा डेनमार्क की आधिकारिक भाषा है डैनिश। यह हिन्द यूरोपीय और जर्मनेक भाषा परिवार की भाषा है। यह स्वीडिश, जर्मन, नार्वेजियाई और आइस्लैंडिक भाषाओं से मिलती-जुलती है। संस्कृति साहित्य डेनमार्क मे साहित्यिक उत्पादन मध्य काल में आरंभ हुआ और यह फ़्रांसीसी, जर्मन और अंग्रेज़ी से प्रभावित है। डेनिश मध्य काल का सबसे प्रमुख साहित्य है जेस्टा डानोरम जो आरंभिक १३वीं सदी से है। प्रशासनिक प्रभाग डेनमार्क पाँच भागों में विभक्त है। यह क्षेत्र १ जनवरी, २००७ को १३ पुरानी काउंटियों, दो नगरों और एक क्षेत्रीय नगर निगम को बदलकर स्थपित किए गए थे। पिछला प्रशासकीय विभाग ३१ दिसंबर, २००६ तक प्रभावी था। प्रत्येक क्षेत्र राष्ट्रपति द्वारा शासित होता है। ये पाँच क्षेत्र हैं: डैनिश राजधानी क्षेत्र (Hovedstaden) मध्य जूटलैंड (Midtjylland) उत्तरी जूटलैंड (Nordjylland) जीलान्डी (Sjælland) दक्षिणी डेनमार्क (Syddanmark) प्रशासन डेनमार्क राजशाही एक संवैधानिक राजशाही है। जैसा की डेनमार्क के संविधान में निर्धारित है, यहाँ का शासक अपने कार्यकलापों के लिए उत्तरदाई नहीं है और उसके द्वारा निर्धारित व्यक्ति पुनीत होता है। औपचारिक रूप से शासक प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और अनियुक्ति करता/ती है। प्रधानमंत्री का चुनाव प्रथानुसार संसदीय दलों के नेताओं के बीच बातचीत के द्वारा किया जाता है। वर्तमान में यहाँ की शासक कै महारानी मार्गरेट द्वितीय और प्रधानमंत्री है लार्स रास्मुसेन लोके (Lars Rasmussen Loke) चुनाव डेनमार्क में १८ वर्ष से ऊपर के सभी डैनिश नागरिक मतदान कर सकते हैं। चुनाव २००७ अंतिम संसदीय चुनावों में, जो १३ नवंबर, २००७ को हुए थे, सत्तारूढ़ गठबंधन को लगातार तीसरी बार जीत मिली थी। चुनाव परिणाम संसद (Folketing), १३ नवम्बर २००७ उत्तराधिकार पर जनमत संग्रह अधिनियम २००९ ७ जून, २००९ को डैनिश मतदाताओं ने राजा के उत्तराधिकारी चुने जानें के ढंग पर इस पक्ष में मतदान किया की इसमें केवल पुरुषों के अतिरिक्त महिलाओं और बच्चों को भी सम्मिलित किया जाए। कुल ५९.३७% लोगों मे मतदान किया और ८५.३५% ने पक्ष और १४.६५% ने विपक्ष में मतदान किया। कुल २३,९९,९१३ मत पड़े जिसमें से १८,५८,१८० पक्ष में और ३,१८,९२९ विपक्ष में थे और २,२२,८०४ बेकार मत थे। परिवहन डेनमार्क में गाड़ियाँ बायी ओर चलती हैं। नोट्स और संदर्भ बाहरी कड़ियाँ डेनमार्क पर्यटन (बहुभाषीय) डेनमार्क संबंधी आँकड़े डेनमार्क के बारे में जानकारियाँ यूरोप के देश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "डेनमार्क", "token_count": 13966, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95" }
{{ज्ञानसन्दूक देश |native_name = इंडोनेशिया गणराज्य का एकात्मक राज्य |conventional_long_name = Negara Kesatuan Republik Indonesia |common_name = Indonesia |image_flag = Flag of Indonesia.svg |image_coat = National emblem of Indonesia Garuda Pancasila.svg |image_map = LocationIndonesia.svg |national_motto = Bhinneka Tunggal Ika(पुरानी जावा)अनेकता में एकता | national_anthem = "इंडोनेशिया राया(इण्डोनेशिया राया)"{{small|(English: "महान इंडोनेशिया (इण्डोनेशिया)]]")}} |official_languages = इंडोनेशियाई |capital = जकार्ता |demonym = इंडोनेशियाई (इण्डोनेशियाई) |latd=6 |latm=10.5 |latNS=S |longd=106 |longm=49.7 |longEW=E |largest_city = जकार्ता |government_type = अध्यक्षीय गणराज्य |leader_title1 = राष्ट्रपति |leader_name1 = जोको विडोडो |leader_title2 = उप राष्ट्रपति |leader_name2 = मारुफ़् आमिन |area_rank = 10वाँ |area_magnitude = |area_km2 = 19,19,440 |area_sq_mi = 7,35,355 |percent_water = 4.85 |population_estimate = 23,75,12,352 |population_estimate_year = जुलाई २००८ अनु. 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27 करोड़ है, यह दुनिया का चौथा सबसे अधिक आबादी और दुनिया में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। देश की राजधानी जकार्ता है। देश की जमीनी सीमा पापुआ न्यू गिनी, पूर्वी तिमोर और मलेशिया के साथ मिलती है, जबकि अन्य पड़ोसी देशों सिंगापुर, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और भारत का अंडमान और निकोबार द्वीप समूह क्षेत्र शामिल है। इतिहास ईसा पूर्व ४थी शताब्दी से ही इंडोनेशिया द्वीपसमूह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक क्षेत्र रहा है। बुनी अथवा मुनि सभ्यता इंडोनेशिया की सबसे पुरानी सभ्यता है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक ये सभ्यता काफी उन्नति कर चुकी थी। ये हिंदू एवं बौद्ध धर्म मानते थे और ऋषि परंपरा का अनुकरण करते थे। अगले दो हजार साल तक इंडोनेशिया एक हिंदू और बौद्ध देशों का समूह रहा। यहाँ हिंदू राजाओं का राज था। किर्तानेगारा और त्रिभुवना जैसे राजा यहाँ सदियों पहले राज करते थे। श्रीविजय के दौरान चीन और भारत के साथ व्यापारिक सम्बंध थे। स्थानीय शासकों ने धीरे-धीरे भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रारुप को अपनाया और कालांतर में हिंदू और बौद्ध राज्यों का उत्कर्ष हुआ। इंडोनेशिया का इतिहास विदेशियों से प्रभावित रहा है, जो क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की वजह से खिंचे चले आए। मुस्लिम व्यापारी अपने साथ इस्लाम लाए। विदेशी व्यापारी मुस्लिम यहाँ आकर व्यापार के साथ अपना धर्म भी फैला रहे थे जिसके कारण यहाँ की पारंपरिक हिंदू और बौद्ध संस्कृति को पुर्णत: समाप्त हो गई, परंतु इंडोनेशिया के लोग भले ही आज इस्लाम को मानते हों किंतु यहाँ आज भी हिंदू धर्म समाप्त नहीं हुआ है यहाँ के इस्लामी संस्कृति पर हिंदु धर्म का प्रभाव दिखता है। लोगों और स्थानों के नाम आज भी अरबी एवं संस्कृत में रखे जाते हैं यहाँ आज भी पवित्र कुरान को संस्कृत भाषा में पढ़ी व पढ़ाई जाती है। यूरोपिय शक्तियाँ यहाँ के मसाला व्यापार में एकाधिकार को लेकर एक-दूसरे से लड़ीं। तीन साल के इटालियन उपनिवेशवाद के बाद (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद) इंडोनेशिया को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। नामोत्पत्ति इसका और साथ के अन्य द्वीप देशों का नाम भारत के पुराणों में दीपांतर (दीपान्तर) भारत (अर्थात सागर पार भारत) है। यूरोप के लेखकों ने 150 वर्ष पूर्व इसे इंडोनेशिया (इण्डोनेशिया) (इंद= भारत + नेसोस = द्वीप के लिये) दिया और यह धीरे धीरे लोकप्रिय हो गया। की हजर देवान्तर‎ (देवांतर) पहला देशी था जिसने अपने राष्ट्र के लिये इंडोनेशिया (इण्डोनेशिया) नाम का प्रयोग किया। कावी भाषा में लिखा भिन्नेक तुंग्गल इक (भिन्नता में एकत्व) देश का आदर्श वाक्य है। दीपांतर (दीपान्तर)'' नाम अभी भी प्रचलित है इंडोनेशिया अथवा जावा भाषा के शब्द नुसान्तर में। इस शब्द से लोग बृहद इंदोनेशिया समझते हैं। अर्थव्यवस्था इंडोनेशिया एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है, जिसमें निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र दोनों की भूमिका है। इंडोनेशिया दक्षिण-पूर्वी एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जी-२० अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। सन २०१० में, इंडोनेशिया का अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (नाममात्र) लगभग 910 अरब डॉलर था। सकल घरेलू उत्पाद में सबसे अधिक 44.4% योगदान कृषि क्षेत्र का है, इसके बाद सेवा क्षेत्र 37.1% एवं उद्योग 19.5% योगदान करती है। २०१० से, सेवा क्षेत्र ने अन्य क्षेत्रों से अधिक रोजगार दिए। हालाँकि, कृषि क्षेत्र सदियों तक प्रमुख नियोक्ता था। इंडोनेशिया विश्व की 8वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और 2050 तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और महाशक्ति बन सकता है। विश्व व्यापार संगठन ने ये अनुमान लगाया था कि 2020 में चीन को पीछे छोड़ कर इंडोनेशिया विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक बन जाएगा लेकिन फिलहाल चीन ही विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश है । तेल और गैस, इलेक्ट्रिकल उपकरण, प्लाय-वुड, रबड़ एवं वस्त्र मुख्य निर्यात रहेंगे। रसायन, ईंधन एवं खाद्य पदार्थ भी मुख्य निर्यात रहेंगे विश्व व्यापार संगठन के अनुसार इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था 4 खरब डॉलर की है। भाषा यहाँ की मुख्य भाषा है इंडोनेशियाई भाषा। अन्य भाषाओं में जावा, बाली, भाषा सुंडा, भाषा मदुरा आदि भी हैं। प्राचीन भाषा का नाम कावी था जिसमें देश के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ हैं। अंग्रेजी एवं अरबी भाषा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। चुनौतियाँ लेकिन इसके बाद से इंडोनेशिया का इतिहास उथलपुथल भरा रहा है, चाहे वह प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हो, भ्रष्टाचार की वजह से, अलगाववाद या फिर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न चुनौतियाँ हों। 26 दिसंबर (दिसम्बर) 2004 में आयी सुनामी लहरों की विनाशलीला से यह देश सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। यहाँ के आचे प्रांत में लगभग डेढ़ लाख लोग मारे गये थे और हजारों करोड़ की संपत्ति (सम्पत्ति) का नुकसान हुआ था। प्राचीन राजवंश श्रीविजय राजवंश शैलेन्द्र राजवंश संजय राजवंश माताराम राजवंश केदिरि राजवंश सिंहश्री मजापहित साम्राज्य सन्दर्भ यह भी देखिए wikt:इंडोनिशया (विक्षनरी) बाहरी कड़ियाँ हिन्द महासागर के द्वीपसमूह दक्षिण-पूर्व एशियाई देश दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र
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मेदिनीपुर (Medinipur) या मिदनापुर (Midnapore) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में स्थित एक शहर है। यह कंगसाबती नदी के किनारे बसा हुआ है। इन्हें भी देखें पश्चिम मेदिनीपुर ज़िला सन्दर्भ पश्चिम मेदिनीपुर ज़िला पश्चिम बंगाल के शहर पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले के नगर
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नायरोबी पूर्व अफ़्रीका के कीनिया देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह कीनिया के दक्षिणी भाग में अथी नदी के किनारे 1,795 मीटर (5,889 फ़ुट) की ऊँचाई पर स्थित है। सन् 2011 में इसकी आबादी 33.6 लाख थी, जिसके आधार पर यह महान अफ़्रीकी झील क्षेत्र का (तंज़ानिया की राजधानी दार अस सलाम के बाद) दूसरा सबसे बड़ा नगर है। इन्हें भी देखें कीनिया सन्दर्भ कीनिया अफ़्रीका में राजधानियाँ कीनिया के आबाद स्थान
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नालंदा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला है नालंदा जिला मगध का क्षेत्र हैं इस क्षेत्र के लोग मगही बोलते हैं जिसका मुख्यालय बिहार शरीफ है। नालंदा अपने प्राचीन् इतिहास के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ विश्व कि सबसे प्राचीन् नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी मौज़ूद है, जहाँ सुदूर देशों से छात्र अध्ययन के लिये भारत आते थे। बुद्ध और महावीर कई बार नालन्दा में ठहरे थे। माना जाता है कि महावीर ने मोक्ष की प्राप्ति पावापुरी में की थी, जो नालन्दा जिला में स्थित है। बुद्ध के प्रमुख छात्रों में से एक, शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा में हुआ था। नालंदा पूर्व में अस्थामा तक पश्चिम में तेल्हारा तक दक्षिण में गिरियक तक उत्तर में हरनौत तक फैला हुआ है। विश्‍व के प्राचीनतम् विश्‍वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंँचल में समेटे नालन्‍दा बिहार का एक प्रमुख पर्यटन स्‍थल है। यहाँ पर्यटक विश्‍वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल देखने आते हैं। इसके अलावा इसके आस-पास में भी भ्रमण (घूमने) के लिए बहुत से पर्यटक स्‍थल है। राजगीर, पावापुरी, गया तथा बोध-गया यहां के नजदीकी पर्यटन स्‍थल हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को यहाँ उपदेश दिया था। भगवान महावीर भी यहीं रहे थे। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था। नालंदा में राजगीर में कई गर्म पानी के झरने है, इसका निर्माण् बिम्बिसार ने अपने शासन काल में करवाया था, राजगीर नालंदा का मुख सहारे है, ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुण्ड और लंगटे कुण्ड यहाँ पर है, कई विदेशी मन्दिर भी है यहाँ चीन का मन्दिर, जापान का मन्दिर आदि। नालंदा जिले में जामा मस्जिद भी है जॊ कि बिहार शरीफ में पुल पर स्थित है। यह बहुत ही पुराना और विशाल मस्जिद है। नालन्दा महाविहार नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय के अवशेषों की खोज अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की थी। माना जाता है कि इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना 450 ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्‍त ने की थी। इस विश्‍वविद्यालय को इसके बाद आने वाले सभी शासक वंशों का सर्मथन मिला। महान शासक हर्षवर्द्धन ने भी इस विश्‍वविद्यालय को दान दिया था। हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों का भी इसे संरक्षण मिला। केवल यहाँ के स्‍थानीय शासक वंशों ने ही नहीं वरण् विदेशी शासकों से भी इसे दान मिला। इस विश्‍वविद्यालय का अस्तित्‍व 12वीं शताब्‍दी तक बना रहा। 12‍वीं शताब्‍दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्‍वविद्यालय को जल‍ा डाला। जो कुत्तुबुद्ददीन का सिपह-सलाहकार प्रमुख आकर्षण नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र था तथा इसकी स्थापना पांँचवी शताब्दी ई० में हुई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष बोधगया से 62 किलोमीटर दूर एवं पटना से 90 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं। माना जाता है कि बुद्ध कई बार यहां आए थे। यही वजह है कि पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था तथा उसने यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। उसने प्राचीनकाल के इस विश्वविद्यालय के अनूठेपन का वर्णन किया था। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी। गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित इन मठों का संरक्षण किया। यह किसी आंँगन के चारों ओर लगे कक्षों की पंक्तियों के समान दिखाई देते हैं। सम्राठ अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था। हाल ही में विस्तृत खुदाई यहां संरचनाओं का पता लगाया गया है। यहां पर सन् 1951 में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। इसके नजदीक बिहारशरीफ है, जहां मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है। छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी यहां से दो किलोमीटर दूर बडागांव में स्थित है। यहां आने वाले नालंदा के महान खंडहरों के अलावा 'नव नालंदा महाविहार संग्रहालय भी देख सकते हैं। प्राचीन विश्‍वविद्यालय के अवशेषों का परिसर 14 हेक्‍टेयर क्षेत्र में इस विश्‍वविद्यालय के अवशेष मिले हैं। खुदाई में मिले सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्‍थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में स्थित थे। जबकि मंदिर या चैत्‍य पश्‍िचम दिशा में। इस परिसर की सबसे मुख्‍य इमारत विहार-1 थी। वर्तमान समय में भी यहां दो मंजिला इमारत मौजूद है। यह इमारत परिसर के मुख्‍य आंगन के समीप बना हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्‍था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्‍थापित है। यह प्रतिमा भग्‍न अवस्‍था में है। यहां स्थित मंदिर नं 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्‍य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्‍तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्‍तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ बनी हुई है। ये मूर्त्तियाँ विभिन्‍न मुद्राओं में बनी हुई है। नालन्‍दा पुरातत्‍वीय संग्रहालय विश्‍व‍विद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातत्‍वीय संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्‍त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्‍न प्रकार की मूर्तियों का अच्‍छा संग्रह है। साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियांँ और प्रथम शताब्‍दी का दो जार भी इसी संग्रहालय में रखा हुआ है। इसके अलावा इस संग्रहालय में तांँबे की प्‍लेट, पत्‍थर पर टंकन (खुदा) अभिलेख, सिक्‍के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। खुलने का समय: सुबह 10 बजे से शाम 7 बजे तक। शुक्रवार को बंद। नव नालन्‍दा महाविहार यह एक शिक्षा संस्‍थान है। इसमें पाली साहित्‍य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा अनुसंधान होता है। यह एक नया संस्‍थान है। इसमें दूसरे देशों के छात्र भी पढ़ाई के लिए यहां आ‍ते हैं। ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल यह एक नवर्निर्मित भवन है। यह भवन चीन के महान तीर्थयात्री ह्वेनसांग की याद में बनाया गया है। इसमें ह्वेनसांग से संबंधित वस्‍तुओं तथा उनकी मूर्ति देखा जा सकता है। निकटवर्ती स्‍थल सिलाव यह गांँव नालन्‍दा और राजगीर के मध्‍य स्थित है। यहां बनने वाली प्रसिद्ध मिठाई खाजा का स्‍वाद लिया जा सकता है। सूरजपुर बड़गांव यहां भगवान सूर्य का प्रसिद्ध मंदिर तथा एक झील है। यहां वर्ष में दो बार मेले का आयोजन होता है। एक चैत (मार्च-अप्रैल) तथा दूसरा कार्तिक (अक्‍टूबर- नवंबर) महीने में। इन दोनों महीनों में यहां प्रसिद्ध छठ त्‍योहार मनाया जाता है। दूर-दूर से लोग छठ उत्‍सव मनाने यहांँ आते हैं। आवागमन वायु मार्ग यहांँ से निकट हवाई अड्डा जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा (पटना) मेें है।जो 89 किलोमीटर दूर है। कलकत्ता, रांँची,मुंबई, दिल्‍ली तथा लखनऊ से पटना के लिए सीधी हवाई सेवा है। रेल मार्ग नालन्‍दा में रेलवे स्‍टेशन है। लेकिन यहां का प्रमुख रेलवे स्‍टेश्‍ान राजगीर है। राजगीर जाने वाली सभी ट्रेने नालंदा होकर जाती है। सड़क मार्ग नालंदा सड़क मार्ग द्वारा राजगीर (12 किमी), बोध-गया (110 किमी), गया (95 किमी), पटना (90 किमी), पावापुरी (26 किमी) तथा बिहार शरीफ (13 किमी) से अच्‍छी तरह जुड़ा है । यहाँ विश्व की प्राचीन अभिलेख (पुस्तकें) का संग्रह स्थित था जो कि आक्रमण में नष्ट हो गया ! इन्हें भी देखें नालन्दा महाविहार (प्राचीन विश्वविद्यालय) नालन्दा विश्वविद्यालय भारत के प्राचीन विश्वविद्यालय बनारस तक्षशिला विश्वविद्यालय तक्षशिला विक्रमशिला विश्वविद्यालय सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ विश्व धरोहर एक प्राचीन आभा नालंदा की मूल मनुस्मृतियां नव नालंदा महाविहार, बिहार राज्य, भारत NY टाइम्स नालंदा के पुनरुद्धार की योजना नालंदा से जुड़े ग्राम ढूंढे गए नालंदा जिले की आधिकारिक जालस्थल नालंदा विश्‍वविद्यालय, जहाँ ज्ञान प्राप्‍त किए बिना शिक्षा अधूरी मानी जाती थी (ई-विश्वा) नालंदा विश्वविद्यालय की वेबसाइट प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय (अंग्रेजी में) पांचवी शताब्दी की स्थापनाएं बौद्ध विश्वविद्यालय पूर्व बौद्ध मंदिर भारत में अवशेष बिहार में शिक्षा बिहार का इतिहास जैन धर्म से जुड़े स्थान भारत के विश्वविद्यालय बौद्ध तीर्थ स्थल इस्लाम द्वारा नष्ट किए गए शहर Anti-Buddhism भारत में धार्मिक हिंसा पूजा स्थल पर मैसेकर Massacres in India भारत के प्राचीन शहर बिहार के पुरातात्विक स्थल बिहार नालंदा बिहार के जिले
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नर्मदा नदी (Narmada River), जिसे स्थानीय रूप से कही-कही रेवा नदी (Reva River) भी कहा जाता है, भारत के 5वीं सबसे लम्बी नदी और पश्चिम-दिशा में बहने वाली सबसे लम्बी नदी है। यह मध्य प्रदेश राज्य की भी सबसे बड़ी नदी है। नर्मदा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बहती है। इसे अपने जीवनदायी महत्व के लिए "मध्य प्रदेश और गुजरात की जीवनरेखा" भी कहा जाता है। नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के अनूपपुर ज़िले के अमरकंटक पठार में उत्पन्न होती है। फिर 1,312 किमी (815.2 मील) पश्चिम की ओर बहकर यह भरूच से 30 किमी (18.6 मील) पश्चिम में खम्भात की खाड़ी में बह जाती है, जो अरब सागर की एक खाड़ी है। कुछ स्रोतों में इसे उत्तर भारत और दक्षिण भारत की प्रारम्परिक विभाजक माना जाता है। प्रायद्वीप भारत में केवल नर्मदा और ताप्ती नदी ही दो मुख्य नदियाँ हैं जो पूर्व से पश्चिम बहती हैं। नर्मदा विंध्य पर्वतमाला और सतपुड़ा पर्वतमाला द्वारा सीमित एक रिफ़्ट घाटी में बहती है और अन्य ऐसी नदियों की भांति ही एक ज्वारनदीमुख में सागर में बह जाती है। ताप्ती नदी, मही नदी और छोटा नागपुर पठार में बहने वाली दामोदर नदी भी रिफ़्ट घाटियों में बहती है, लेकिन वे अन्य पर्वतीय श्रेणियों के बीच मार्ग बनाती हैं। नर्मदी नदी के कुल मार्ग का 1,077 किमी (669.2 मील) भाग मध्य प्रदेश में, 74 किमी (46.0 मील) महाराष्ट्र में, 39 किमी (24.2 मील) महाराष्ट्र-गुजरात की राज्य सीमा पर, और 161 किमी (100.0 मील) गुजरात में है। उद्गम एवं मार्ग नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर स्थित अमरकंटक में नर्मदा कुंड से हुआ है। नदी पश्चिम की ओर सोनमुद से बहती हुई, एक चट्टान से नीचे गिरती हुई कपिलधारा नाम की एक जलप्रपात बनाती है। घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलो और चट्टानों को पार करते हुए रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला (25 किमी (15.5 मील)) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। बंजर नदी बाईं ओर से जुड़ जाता है। नदी आगे एक संकीर्ण लूप में उत्तर-पश्चिम में जबलपुर पहुँचती है। शहर के करीब, नदी भेड़ाघाट के पास करीब 9 मीटर का जल-प्रपात बनाती हैं जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं, आगे यह लगभग 3 किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी 80 मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र 18 मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। आगे इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है। संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नदी अपनी पहली जलोढ़ मिट्टी के उपजाऊ मैदान में प्रवेश करती है, जिसे "नर्मदाघाटी" कहते हैं। जो लगभग 320 किमी (198.8 मील) तक फैली हुई है, यहाँ दक्षिण में नदी की औसत चौड़ाई 35 किमी (21.7 मील) हो जाती है। वही उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो की नर्मदापुरम के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालांकि, कन्नोद मैदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहां दक्षिण की ओर से कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमे: शेर, शक्कर, दुधी, तवा (सबसे बड़ी सहायक नदी) और गंजल साहिल हैं। हिरन, बारना, चोरल , करम और लोहर, जैसी महत्वपूर्ण सहायक नदियां उत्तर से आकर जुड़ती हैं। हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। ओंकारेश्वर द्वीप, जोकि भगवान शिव को समर्पित हैं, मध्य प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण नदी द्वीप है। सिकता और कावेरी, खण्डवा मैदान के नीचे आकर नदी से मिलते हैं। दो स्थानों पर, नेमावर से करीब 40 किमी पर मंधार पर और पंसासा के करीब 40 किमी पर ददराई में, नदी लगभग 12 मीटर (39.4 फीट) की ऊंचाई से गिरती है। बड़वाह मे आगरा-मुंबई रोड घाट, राष्ट्रीय राजमार्ग 3, से नीचे नर्मदा बड़वाह मैदान में प्रवेश करती है, जो कि 180 किमी (111.8 मील) लंबा है। बेसिन की उत्तरी पट्टी केवल 25 किमी (15.5 मील) है। यह घाटी साहेश्वर धारा जल-प्रपात पर जा कर ख़त्म होती है। मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा जिले और नर्मदा जिला के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच जिला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालो से बाह कर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग 1.5 किमी (0.9 मील), भरूच के पास और 3 किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 21 किमी (13.0 मील) तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलिन हो जाती है। हिन्दू धर्म में महत्व नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है,इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक (जिला शहडोल, मध्यप्रदेश जबलपुर-विलासपुर रेल लाईन-उडिसा मध्यप्रदेश ककी सीमा पर) के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा १२ वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया। महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में १०,००० दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है :' प्रलय में भी मेरा नाश न हो। मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊँ, यह अवधि अब समाप्त हो चुकी है। मेरा हर पाषाण (नर्मदेश्वर) शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो। विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है। कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है। मेरे (नर्मदा) के तट पर शिव-पार्वती सहित सभी देवता निवास करें। सभी देवता, ऋषि मुनि, गणेश, कार्तिकेय, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि ने नर्मदा तट पर ही तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की। दिव्य नदी नर्मदा के दक्षिण तट पर सूर्य द्वारा तपस्या करके आदित्येश्वर तीर्थ स्थापित है। इस तीर्थ पर (अकाल पड़ने पर) ऋषियों द्वारा तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की। तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे (नर्मदा के) तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। इस आदित्येश्वर तीर्थ पर हमारा आश्रम अपने भक्तों के अनुष्ठान करता है। किंवदंती (लोक कथायें) नर्मदा नदी को लेकर कई लोक कथायें प्रचलित हैं एक कहानी के अनुसार नर्मदा जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है और राजा मैखल की पुत्री है। उन्होंने नर्मदा से शादी के लिए घोषणा की कि जो राजकुमार गुलबकावली के फूल उनकी बेटी के लिए लाएगा, उसके साथ नर्मदा का विवाह होगा। सोनभद्र यह फूल ले आए और उनका विवाह तय हो गया। दोनों की शादी में कुछ दिनों का समय था। नर्मदा सोनभद्र से कभी मिली नहीं थीं। उन्होंने अपनी दासी जुहिला के हाथों सोनभद्र के लिए एक संदेश भेजा। जुहिला ने नर्मदा से राजकुमारी के वस्त्र और आभूषण मांगे और उसे पहनकर वह सोनभद्र से मिलने चली गईं। सोनभद्र ने जुहिला को ही राजकुमारी समझ लिया। जुहिला की नियत भी डगमगा गई और वह सोनभद्र का प्रणय निवेदन ठुकरा नहीं पाई। काफी समय बीता, जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा का सब्र का बांध टूट गया। वह खुद सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं। वहां जाकर देखा तो जुहिला और सोनभद्र को एक साथ पाया। इससे नाराज होकर वह उल्टी दिशा में चल पड़ीं। उसके बाद से नर्मदा बंगाल सागर की बजाय अरब सागर में जाकर मिल गईं। एक अन्य कहानी के अनुसार सोनभद्र नदी को नद (नदी का पुरुष रूप) कहा जाता है। दोनों के घर पास थे। अमरकंटक की पहाडिय़ों में दोनों का बचपन बीता। दोनों किशोर हुए तो लगाव और बढ़ा। दोनों ने साथ जीने की कसमें खाई, लेकिन अचानक दोनों के जीवन में जुहिला आ गई। जुहिला नर्मदा की सखी थी। सोनभद्र जुहिला के प्रेम में पड़ गया। नर्मदा को यह पता चला तो उन्होंने सोनभद्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन सोनभद्र नहीं माना। इससे नाराज होकर नर्मदा दूसरी दिशा में चल पड़ी और हमेशा कुंवारी रहने की कसम खाई। कहा जाता है कि इसीलिए सभी प्रमुख नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं,लेकिन नर्मदा अरब सागर में मिलती है। ग्रंथों में उल्लेख रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोशमें भी नर्मदा को 'सोमोद्भवा' कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। इन्हें भी देखें अमरकंटक भेड़ाघाट विंध्य पर्वतमाला खम्भात की खाड़ी सन्दर्भ मध्य प्रदेश की नदियाँ महाराष्ट्र की नदियाँ गुजरात की नदियाँ भारत की नदियाँ खंभात की खाड़ी
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हवाना (स्पेनिश: ला हबाना [la aβana]) क्यूबा की राजधानी, सबसे बड़ा शहर, प्रांत, प्रमुख बंदरगाह, और प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। शहर की आबादी लगभग 2.1 मिलियन है, और यह कुल 728.26 किमी2 (281.18 वर्ग मील) में फैले क्षेत्र के साथ यह कैरीबियाई क्षेत्र का सबसे अधिक आबादी वाला शहर और चौथा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। शहर ज्यादातर पश्चिम और दक्षिण खाड़ी की ओर फैला हुआ है, शहर से लगे तीन मुख्य बंदरगाहों है: मारिमेलेना, गुआनाबाकोआ और एटारस। मंदगति के साथ अलमेन्डर्स नदी शहर में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, खाड़ी के पश्चिम में कुछ मील की दूरी पर फ्लोरिडा के दहाने में प्रवेश करती है। 16वीं शताब्दी में स्पेनिश द्वारा हवाना शहर की स्थापना की गई थी और इसकी रणनीतिक स्थिती होने के कारण यह अमेरिका की स्पेनिश विजय के लिए एक फ़ौजों की चौकी के रूप में कार्य करता था, जो खजाने को स्पेन भेजने वाले स्पेनिश जहानों के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु बन गया। स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय ने 1592 में हवाना को शहर का खिताब दिया। पुराने शहर की रक्षा के लिए दीवारों और किलों का निर्माण किया गया था। 1898 में हवाना के बंदरगाह में अमेरिकी युद्धपोत मेन का डूबना स्पेनिश-अमेरिकी युद्ध का तत्कालिन कारण बना था। समकालीन हवाना को एक ही में स्थित तीन शहरों के रूप में वर्णित किया जा सकता है: ओल्ड हवाना, वेदडो और नए उपनगरीय जिलें। यह शहर क्यूबा सरकार का केंद्र है, और विभिन्न मंत्रालयों, व्यवसायों के मुख्यालय और 90 से अधिक राजनयिक कार्यालयों का घर है। वर्तमान महापौर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ क्यूबा (पीसीसी) के मार्टा हर्नैन्डेज़ हैं। 2009 में, शहर/प्रांत की देश में तीसरी सबसे ज्यादा आय थी। शहर सालाना दस लाख से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है; हवाना के लिए आधिकारिक जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 2010 में शहर में 1,176,627 अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आए थे, जोकि 2005 से 20% में वृद्धि हुई थी। 1982 में, ओल्ड हवाना को यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया था। शहर अपने इतिहास, संस्कृति, वास्तुकला और स्मारकों के लिए भी जाना जाता है। क्यूबा के विशिष्ट होने के नाते, हवाना एक उष्णकटिबंधीय जलवायु का अनुभव करते हैं। मई 2015 में, हवाना को बेरूत, दोहा, डरबन, कुआलालंपुर, ला पास और विगान के साथ तथाकथित न्यू 7 वंडर्स शहरों में से एक के रूप में चुना गया था। भूगोल हवाना फ्लोरिडा कुंजी के दक्षिण में क्यूबा के उत्तरी तट पर स्थित है, जहां मेक्सिको की खाड़ी अटलांटिक महासागर में शामिल हो जाती है। शहर ज्यादातर खाड़ी से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैला हुआ है, जो एक संकीर्ण इनलेट के माध्यम से प्रवेश करते हुए तीन मुख्य बंदरगाहों मारिमेलेना, गुआनाबाकोआ, और एटारस में विभाजित हो जाता है। मंदगति के साथ अलमेन्डर्स नदी शहर में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, खाड़ी के पश्चिम में कुछ मील की दूरी पर फ्लोरिडा के दहाने में प्रवेश करती है। छोटे पहाड़ियों जिस पर शहर बसा हुआ है, गहरे नीले पानी से धीरे-धीरे ऊपर कि ओर बढ़ता जाता है। 200 फुट ऊंची (60 मीटर) एक चूना पत्थर का टीला है जो पूर्व से ढलान लेता हुआ ला कैबाना और एल मोरो की ऊंचाई में जाकर समाप्त होता है जहाँ पर औपनिवेशिक किलेबंदी स्थल मौजुद है। एक अन्य उल्लेखनीय टीला, पश्चिम की पहाड़ी है जहाँ हवाना विश्वविद्यालय और प्रिंस कैसल स्थित है। क्यूबा की तरह हवाना, एक उष्णकटिबंधीय जलवायु है जो व्यापार हवाओं के बेल्ट में और गर्म अपतटीय धाराओं से द्वीप की स्थिति से घिरा हुआ है। कोपेन जलवायु वर्गीकरण के तहत, हवाना में एक उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु है, जो एक उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु की सीमा से लगा हुआ होता है। औसत तापमान जनवरी और फरवरी में 22 डिग्री सेल्सियस (72 डिग्री फारेनहाइट) से अगस्त में 28 डिग्री सेल्सियस (82 डिग्री फारेनहाइट) तक होता है। सालाना 1,200 मिमी (47 इंच) औसत बारिश के साथ यहाँ जून और अक्टूबर में बारिश सबसे अधिक होती है वही दिसंबर से अप्रैल तक हल्की बूंदाबांदी होती है। तूफान कभी-कभी द्वीप पर आते रहते हैं, लेकिन आम तौर पर यह दक्षिण तट पर ज्यादा प्रभावशील रहते हैं। अर्थव्यवस्था हवाना में विविधतापूर्ण अर्थव्यवस्था है, जिसमें पारंपरिक क्षेत्र जैसे विनिर्माण, निर्माण, परिवहन और संचार और नए या पुनरुद्धार किए गए जैसे जैव प्रौद्योगिकी और पर्यटन उद्योग शामिल हैं। पारंपरिक चीनी उद्योग, जिस पर द्वीप की अर्थव्यवस्था तीन शताब्दियों तक आधारित रही है, द्वीप पर आज भी केंद्रित है और निर्यात अर्थव्यवस्था के कुछ तीन-चौथाई हिस्से को नियंत्रित करती है। इसके अलावा कुछ विनिर्माण सुविधाएं, मांस पैकिंग संयंत्र, और रासायनिक और दवा संचालन भी हवाना में केंद्रित हैं। जहाज निर्माण, वाहन निर्माण, मादक पेय पदार्थ (विशेष रूप से रम), कपड़ा, और तम्बाकू उत्पादों, विशेष रूप से विश्व प्रसिद्ध हबानोस सिगार के उत्पादन के साथ-साथ अन्य खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से, सिनफ्युगोस और मटांजास के बंदरगाहों को क्रांतिकारी सरकार के तहत विकसित किया गया था। हवाना बंदरगाह, आज भी क्यूबा का प्रमुख बंदरगाह बना हुआ है; 50% क्यूबा का आयात और निर्यात हवाना के माध्यम से ही होता हैं। बंदरगाह से, मछली पकड़ने के उद्योग का भी संचालन होता है। संस्कृति हवाना में, देश के अग्रणी सांस्कृतिक केंद्र से लेकर विभिन्न प्रकार की विशेषताओं से भरा हुआ है जिनमें संग्रहालय, महल, सार्वजनिक स्थल, रास्ते, चर्च, किलें (16वीं से 18वीं शताब्दी में अमेरिका के सबसे बड़े किले परिसर सहित), बैले और कला और संगीत त्योहारों से प्रौद्योगिकी की प्रदर्शनी आदि शामिल हैं। ओल्ड हवाना के मरम्मत के बाद से यह क्यूबा क्रांति से जुड़े अवशेषों के संग्रहालय समेत कई नए आकर्षण के लिये प्रसिद्ध है। सरकार ने सांस्कृतिक गतिविधियों पर विशेष जोर दिया, जिनमें से कई नि:शुल्क हैं या केवल न्यूनतम शुल्क लिया जाता हैं। शहर सालाना दस लाख से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है; हवाना के लिए आधिकारिक जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 2010 में शहर में 1,176,627 अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आए थे, जोकि 2005 से 20% में वृद्धि हुई थी। सन्दर्भ क्यूबा के शहर दक्षिण अमेरिकी देशों की राजधानियाँ दक्षिण अमेरिका के आबाद स्थान
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हवाना", "token_count": 7966, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE" }
गोदावरी नदी (Godavari River) भारत के प्रायद्वीपीय भाग की एक प्रमुख नदी है। यह नदी दूसरी प्रायद्वीपीय नदियों में से सबसे बड़ी नदी है। इसे दक्षिण गंगा भी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति पश्चिमी घाट में त्रयंबक पहाड़ी से हुई है। यह महाराष्ट्र में नाशिक ज़िले से निकलती है। इसकी लम्बाई प्रायः 1465 किलोमीटर है। इस नदी का पाट बहुत बड़ा है। गोदावरी की उपनदियों में प्रमुख हैं प्राणहिता, इन्द्रावती, मंजिरा। यह महाराष्ट, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से बहते हुए राजमंड्री नगर के समीप बंगाल की खाड़ी मे जाकर मिलती है। नदी की गहराई इस गोदावरी नदी के एक काफी गहरी, एक सबसे बड़ी गहराई है, इसकी औसत गहराई 17 फीट (5 मीटर) और अधिकतम गहराई 62 फीट (89मीटर) है। यह केवल की गहराई 28 फीट (8.4) और मतलब गहराई 45 फीट (14 मीटर) है। 123 फीट (36 मीटर) से दूर बढ़ती है। मुख्य धाराएँ गोदावरी की सात शाखाएँ मानी गई हैं- गौतमी वसिष्ठा कौशिकी आत्रेयी वृद्धगौतमी तुल्या भारद्वाजी नामकरण कुछ विद्वानों के अनुसार, इसका नामकरण तेलुगु भाषा के शब्द 'गोद' से हुआ है, जिसका अर्थ मर्यादा होता है। एक बार महर्षि गौतम ने घोर तपस्या किया। इससे रुद्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने एक बाल के प्रभाव से गंगा को प्रवाहित किया। गंगाजल के स्पर्श से एक मृत गाय पुनर्जीवित हो उठी। इसी कारण इसका नाम गोदावरी पड़ा। गौतम से संबंध जुड जाने के कारण इसे गौतमी भी कहा जाने लगा। इसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। गोदावरी की सात धारा वसिष्ठा, कौशिकी, वृद्ध गौतमी, भारद्वाजी, आत्रेयी और तुल्या अतीव प्रसिद्ध है। पुराणों में इनका वर्णन मिलता है। इन्हें महापुण्यप्राप्ति कारक बताया गया है- सप्तगोदावरी स्नात्वा नियतो नियताशन:। महापुण्यमप्राप्नोति देवलोके च गच्छति ॥ वनस्पति और जीव गोदावरी भी लुप्तप्राय फ्रिंज-लिप हुए कार्प का एक घर है (लाबेयो फ़िम्ब्रिटस)। गोदावरी डेल्टा में स्थित कोरिंगा मैन्ग्रोव वन देश में दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है। यहाँ विभिन्न प्रकार की मछली और क्रस्टेशियंस के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। नदी की द्रोणी में स्थित कुछ अन्य वन्यजीव अभ्यारण्य निम्न हैं। कोरिंगा वन्य अभयारण्य पापीकोंडा राष्ट्रीय उद्यान इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान इटारनगरम वन्य अभयारण्य कावल वन्य अभयारण्य किन्नरसानी वन्य अभयारण्य मंजीरा वन्य अभयारण्य पोचाराम वन और वन्य अभयारण्य प्राणहिता वन्य अभयारण्य ताडोबा अंधारी बाघ परियोजना पेंच राष्ट्रीय उद्यान बोर वन्य अभयारण्य नवेगाव राष्ट्रीय उद्यान नागजीरा वन्य अभयारण्य गौतला वन्य अभयारण्य टिपेश्वर वन्य अभयारण्य पैंगांग वन्य अभयारण्य इन्हें भी देखें कृष्णा नदी प्रायद्वीपीय भारत सन्दर्भ भारत की नदियाँ कर्नाटक की नदियाँ महाराष्ट्र की नदियाँ आन्ध्र प्रदेश की नदियाँ छत्तीसगढ़ की नदियाँ तेलंगाना की नदियाँ महाराष्ट्र का पर्यावरण
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "गोदावरी नदी", "token_count": 3825, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%80" }
सौराष्ट्र भारत के गुजरात प्रान्त का एक उपक्षेत्र है जो ज्यादातर अर्धमरुस्थलीय है। सौराष्ट्र, वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र या सौराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। विष्णुपुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है। भागवत पुराण में उल्लेख किया गया है कि प्राचीन आभीर सौराष्ट्र साम्राज्य और अवंती साम्राज्य के शासक थे और वे वेदों के अनुयायी थे, जो अपने सर्वोच्च देवता के रूप में विष्णु की पूजा करते थे। इतिहास इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर सौराष्ट्र ही की विभूति था। रैवतकपर्वत गिरनार पर्वतमाला का ही एक भाग था। अशोक, रुद्रदामन तथा गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के समय के महत्त्वपूर्ण अभिलेख जूनागढ़ के निकट एक चट्टान पर अंकित हैं, जिससे प्राचीन काल में इस प्रदेश के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन के अभिलेख में सुराष्ट्र पर शक क्षत्रपों का प्रभुत्व बताया गया है। जान पड़ता है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति 'कठ' जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया। इतिहास के अधिकांश काल में सौराष्ट्र पर गुजरात नरेशों का अधिकार रहा और गुजरात के इतिहास के साथ ही इसका भाग्य बंधा रहा। दर्शनीय स्थल गिर का जंगल और सिंहदर्शन सोमनाथ ज्योतिर्लिंग द्वारिकापुरी पोरबंदर (सुदामा मन्दिर और महात्मा गांधी जी का जन्मस्थान) प्रभास (भगवान श्रीकृष्ण का देहत्याग स्थल) पुरास्थल गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में भादर नदी के समीप स्थित रंगपुर की खुदाई 1953-1954 ई. में ए. रंगनाथ राव द्वारा की गई। यहाँ पर पूर्व हड़प्पा कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यहाँ मिले कच्ची ईंटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ धान की भूसी के ढेर मिले हैं। यहाँ उत्तरवर्ती हड़प्पा संस्कृति के भी साक्ष्य पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। सौराष्ट्र के नाम सौराष्ट्र के कई भागों के नाम हमें इतिहास में मिलते हैं। हालार (उत्तर-पश्चिमी भाग), सोरठ-काठियावाड़ (पश्चिमी भाग), गोहिलवाड़ (दक्षिण-पूर्वी भाग) आदि। सौराष्ट्र के उपक्षेत्र हालार, गोहिलवाड, घेड, बरडा, गिर, प्रभास, सोरठ, झालावाड इत्यादि उपक्षेत्र सौराष्ट्र में कुछ खास विस्तार के स्थानीय नाम है। अधिक इसी क्षेत्र में बब्बर शेर या सिंह पाया जाता है। सौराष्ट्र के बारे में एक प्राचीन कहावत प्रसिद्ध है–'सौराष्ट्र पंचरत्नानि नदीनारीतुरंगमाः चतुर्थः सोमनाथश्च पंचमम् हरिदर्शनम्'; इस श्लोक में सौराष्ट्र की मनोहर नदियों–जैसे चन्द्रभागा, भद्रावती, प्राची-सरस्वती, शशिमती, वेत्रवती, पलाशिनी और सुवर्णसिकता; घोघा आदि प्रदेशों की लोक-कथाओं में वर्णित सुन्दर नारियों, सुन्दर अरबी जाति के तेज़ घोड़ों और सोमनाथ और कृष्ण की पुण्यनगरी द्वारिका के मन्दिरों को सौराष्ट्र के रत्न बताया गया है। भारत के पारंपरिक क्षेत्र गुजरात के क्षेत्र
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सौराष्ट्र", "token_count": 4157, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8C%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0" }
चंबा भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक नगर है। हिमाचल प्रदेश का चंबा अपने रमणीय मंदिरों और हैंडीक्राफ्ट के लिए सर्वविख्यात है। रवि नदी के किनारे 996 मीटर की ऊँचाई पर स्थित चंबा पहाड़ी राजाओं की प्राचीन राजधानी थी। चंबा को राजा साहिल वर्मन ने 920 ई. में स्थापित किया था। इस नगर का नाम उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री चंपावती के नाम पर रखा। चारों ओर से ऊंची पहाड़ियों से घिरे चंबा ने प्राचीन संस्कृति और विरासत को संजो कर रखा है। प्राचीन काल की अनेक निशानियां चंबा में देखी जा सकती हैं। जाब 'जाब', चंबा का अरबी नाम है। इसके जाफ, हाब, आब और गाँव नाम भी हैं। इसकी प्राचीन राजधानी ब्रह्मपुर (वयराटपट्टन) थी। हुएनत्सांग ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह अलखनंदा और करनाली नदियों के बीच बसा है। कुछ काल बाद इस प्रदेश की राजधानी चंबा हो गई। 15 अप्रैल 1948 में इसका विलयन भारत सरकार द्वारा शासित हिमाचल प्रदेश में हो गया। अरब लेखकों ने सामान्यत: चंबा के सूर्यवंशी राजपूत शासकों को 'जाब' की उपाधि के साथ लिखा है। हब्न रुस्ता का मत है कि यह शासन सालुकि वंश के थे परंतु राजवंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। ८४६ ई. में सर्वप्रथम हब्न खुर्रदद्बी ने 'जाब' का प्रयोग किया, पर ऐसा लगता है कि इस शब्द की उत्पत्ति अरब साहित्य में इससे पूर्व हो चुकी थी। इस प्रकार यह प्रामाणिक माना जाता है कि चंबा नगर ९ वीं शताब्दी के प्रथम दशक में विद्यमान था। इब्न रुस्ता ने लिखा है कि चंबा के शासक प्राय: गुर्जरों और प्रतिहारों से शत्रुता रखते थे। मुख्य आकर्षण- चंपावती मंदिर यह मंदिर राजा साहिल वर्मन की पुत्री को समर्पित है। यह मंदिर शहर की पुलिस चौकी और कोषागार भवन के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि चंपावती ने अपने पिता को चंबा नगर स्थापित करने के लिए प्रेरित किया था। मंदिर को शिखर शैली में बनाया गया है। मंदिर में पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है और छत को पहिएनुमा बनाया गया है। लक्ष्मीनारायण मंदिर यह मंदिर पांरपरिक वास्तुकारी और मूर्तिकला का उत्कृष्‍ट उदाहरण है। चंबा के 9 प्रमुख मंदिरों में यह मंदिर सबसे विशाल और प्राचीन है। कहा जाता है कि सवसे पहले यह मन्दिर चम्बा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इस मन्दिर को राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्थापित कर दिया गया। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर राजा साहिल वर्मन ने 10 वीं शताब्दी में बनवाया था। यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है। भूरी सिंह संग्रहालय यह संग्रहालय 14 सितंबर 1908 ई. को खुला था। 1904-1919 तक यहां शासन करने वाले राजा भूरी सिंह के नाम पर इस संग्रहालय का नाम पड़ा। भूरी सिंह ने अपनी परिवार की पेंटिग्स का संग्रह संग्रहालय को दान कर दिया था। चंबा की सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस संग्रहालय में बसहोली और कांगड़ा आर्ट स्कूल की लघु पेंटिग भी रखी गई हैं। भांदल घाटी यह घाटी वन्य जीव प्रेमियों को काफी लुभाती है। यह खूबसूरत घाटी 6006 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह घाटी चंबा से 53 किमी .दूर सलूणी से जुड़ी हुई है। यहां से ट्रैकिंग करते हुए जम्मू-कश्मीर पहुंचा जा सकता है। रास्ते में आपको प्रकृति का मनमोहक नजारा देखने को मिलेगा। जम्मू कश्मीर के रास्ते में आपको पधरी जोत नामक पर्यटक स्थल भी देखने को मिलेगा जन्हा आप प्रकृति की सुंदरता महसूस कर सकते हैं। भरमौर चंबा की इस प्राचीन राजधानी को पहले ब्रह्मपुरा नाम से जाना जाता था। 2195 मीटर की ऊँचाई पर स्थित भरमौर घने जंगलों से घिरा है। किवदंतियों के अनुसार 10 वीं शताब्दी में यहां 84 संत आए थे। उन्होंने यहां के राजा को 10 पुत्र और एक पुत्री चंपावती का आशीर्वाद दिया था। यहां बने मंदिर को चौरासी नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी देवी, गणेश और नरसिंह मंदिर चौरासी मंदिर के अन्तर्गत ही आतें हैं। भरमौर से कुगती पास और कलीचो पास की ओर जाने के लिए उत्तम ट्रैकिंग रूट है। तथा विश्व में केवल भरमौर में धर्मराज जी का मंदिर मौजूद है जिन्हे हम यमराज के नाम से भी जानते। किवदंतियों के अनुसार माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म,समुदाय,देश से सम्बन्ध रखता हो मृत्यु के बाद उसे इस मन्दिर में आना ही होगा इसी मंदिर में हर आत्मा के कर्मों का हिसाब होगा और उसके कर्मानुसार उसे स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होगी चौगान यह खुला घास का मैदान है। लगभग 1 किलोमीटर लंबा और 75 मीटर चौड़ा यह मैदान चंबा के बीचों बीच स्थित है। चौगान में प्रतिवर्ष मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में स्थानीय निवासी रंग बिरंगी वेशभूषा में आते हैं। इस अवसर पर यहां बड़ी संख्या में सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। लेकिन अब चौगान तीन चार हिसों में बंट चूका है वजरेश्वरी मंदिर यह प्राचीन मंदिर एक हजार साल पुराना माना जाता है। प्रकाश की देवी वजरेश्वरी को समर्पित यह मंदिर नगर के उत्तरी हिस्से में स्थित जनसाली बाजार के अंत में स्थित है। शिखर शैली में निर्मित इस मंदिर का छत लकड़ी से बना है और एक चबूतरे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है। सूई माता मंदिर चंबा के निवासियों के लिए अपना जीवन त्यागने वाली यहां की राजकुमारी सूई को यह मंदिर समर्पित है। यह मंदिर शाह मदार हिल की चोटी पर स्थित है। यहाँ सूई माता नें कुछ समय के लिए विश्राम किया था। यहाँ सूई माता की याद में यहां हर साल सूई माता का मेला चैत महीने से शुरू होकर बैसाख महीने तक चलता है। यह मेला महिलाओं और बच्चों द्वारा मनाया जाता है। मेले में रानी के गीत गाए जाते हैं और रानी के बलिदान को श्रद्धांजलि‍ देने के लिए लोग सूई मन्दिर से रानी के वलिदान स्थल मलूना तक जाते हैं। चामुन्डा देवी मंदिर यह मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां से चंबा की स्लेट निर्मित छतों और रावी नदी व उसके आसपास का सुन्दर नजारा देखा जा सकता है। मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है और देवी दुर्गा को समर्पित है। मंदिर के दरवाजों के ऊपर, स्तम्भों और छत पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। मंदिर चंबा से तीन किलोमीटर दूर चंबा-जम्मुहार रोड़ के दायीं ओर है। भारतीय पुरातत्व विभाग मंदिर की देखभाल करता है। हरीराय मंदिर भगवान विष्णु का यह मंदिर 11 शताब्दी में बना था। कहा जाता है कि यह मंदिर सालबाहन ने बनवाया था। मंदिर चौगान के उत्तर पश्चिम किनारे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है। हरीराय मंदिर में चतुमूर्ति आकार में भगवान विष्णु की कांसे की बनी अदभुत मूर्ति स्थापित है। केसरिया रंग का यह मंदिर चंबा के प्राचीनतम मंदिरों में एक है। लखन मंदिर भरमौर... यह हिमाचल प्रदेश का शिखर शैली में बना बहुत पुराना मंदिर है। देवी लक्ष्मी को यहां महिसासुरमर्दिनी रूप में दिखाया गया है। मंदिर में स्थापित देवी की पीतल की प्रतिमा राजा मेरू वर्मन के उस्ताद कारीगर मुग्गा ने बनाई थी। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश का प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थल है। यहां हर साल मणिमहेश यात्रा का आयोजन होता है। रंगमहल यह प्राचीन और विशाल महल सुराड़ा मोहल्ले में स्थित है। महल में अब हिमाचल एम्पोरियम बना दिया गया है। इस महल की नींव राजा उमेद सिंह ने (1748-1768) डाली थी। महल का दक्षिणी हिस्सा राज श्री सिंह ने 1860 में बनवाया था। यह महल मुगल और ब्रिटिश शैली का मिश्रित उदाहरण है। यह महल यहां के शासकों का निवास स्थल था। अखंड चंडी महल चंबा के शाही परिवारों का यह निवास स्थल राजा उमेद सिंह ने 1748 से 1764 के बीच बनवाया था। महल का पुनरोद्धार राजा शाम सिंह के कार्यकाल में ब्रिटिश इंजीनियरों की मदद से किया गया। 1879 में कैप्टन मार्शल ने महल में दरबार हॉल बनवाया। बाद में राजा भूरी सिंह के कार्यकाल में इसमें जनाना महल जोड़ा गया। महल की बनावट में ब्रिटिश और मुगलों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। 1958 में शाही परिवारों के उत्तराधिकारियों ने हिमाचल सरकार को यह महल बेच दिया। बाद में यह महल सरकारी कॉलेज और जिला पुस्तकालय के लिए शिक्षा विभाग को सौंप दिया गया। खजियार खजियार चम्बा की सबसे खूबसूरत जगह है।यह चम्बा से 22 कि. मी की दूरी पर है। लाखो की तादाद में हर वर्ष लोग यहाँ घूमने के लिए आते है। यहाँ एक झील है जो की काफी पुरानी है। और जिसका दृश्य लोगों के मन को भाता है। इस झील पर लगी हुए घास इतनी उपजाओ है। की लोग इस घास को उखाड़ के अपने घर के अगन में उगते है। मशहूर चौगान चम्बा की घास भी यही से लायी गयी है और हर साल खजियार की इस घास को चम्बा के चौगान में उगाया जाता है। कूंरा ज़िला मुख्यालय से 53 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है। उक्त गाँव में भी गद्दी समुदाय के लोग रहते हैं। बताया जाता है कि महभारत काल के दौरान जब कौरवों ने पांडवों की वनवास दिया था तो इस दौरान पांडवों ने माता कुन्ती के साथ दोपहर का भोजन किया था, जिनके नाम पर ही उक्त गाँव का नाम पहले कुन्तापुरी पड़ा था जिसको लोगों ने धीरे धीरे अपनी सहजता के हिसाब के बोलने के लिए कूंरा का नाम दे दिया। कूंरा पंचायत की करीब 1400 जनसँख्या है। यहां पांडवों का बनाया हुआ एक शिव मंदिर है। इसके साथ है पांडवों द्वारा बनाई गई पत्थरों की कई मूर्तियां मौजूद हैं। छतराड़ी सड़क के माध्यम से चंबा से 45 किलोमीटर दूर छतराड़ी के इस प्रसिद्ध गांव है। गांव के ज्यादातर गद्दी लोगों का निवास है। भेड़ और बकरियों के पालन में लगे हुए बहुत हैं। इस गांव में 6000 फीट (1,800 मीटर) की ऊँचाई पर स्थित है, यह शक्ति देवी की अपनी उल्लेखनीय पहाड़ी शैली के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। आवागमन वायुमार्ग- चंबा जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट पंजाब के अमृतसर में है जो चंबा से 240 किलोमीटर दूर है। अमृतसर से चंबा जाने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएं ली जा सकती हैं। दिल्ली से गगल एयरपोर्ट पहुंचा जा सकता है जहां से नूरपुर या सिहुंता से होकर लाहड़ू नामक स्थान पर पहुंचते हैं। यहां से हम वाया बनीखेत या फिर वाया जोत सड़क से होते हुए चम्बा आसानी से पहुंच सकते हैं। यहां से मात्र हमें 180 किलोमीटर वाया रोड़ जाना है। रेलमार्ग- चंबा से 140 किलोमीटर दूर पठानकोट नजदीकी रेलवे स्टेशन है। पठानकोट दिल्ली और मुम्बई से नियमित ट्रैनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। यहां से बस या टैक्सी के द्वारा चंबा पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग- चंबा सड़क मार्ग से हिमाचल के प्रमुख शहरों व दिल्ली, धर्मशाला और चंडीगढ़ से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें चंबा के लिए नियमित रूप से चलती हैं। हिमाचल प्रदेश हिमाचल प्रदेश के शहर भारत के नगर साँचे चंबा ज़िला चंबा ज़िले के नगर
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asdfasdनटवरलाल की गिनती भारत के प्रमुख ठगों और धोखेबाजों में होती है। बिहार के [[सीवान] जिले के जीरादेई गाँव में जन्में नटवरलाल ने बहुत से ठगी की घटनाओं से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को वर्षों परेशान रखा। भारत के मशहूर ठग नटवरलाल का असली नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था । इसका जन्म 1912 में बिहार राज्य के सीवान नाम के जिले के बंगरा गाँव में हुआ था। नटवरलाल एक प्रसिद्ध भारतीय शख्स था जिसने ठगी करते हुए ताजमहल, लाल किला, राष्ट्रपति भवन और संसद भवन तक को कई बार सरकारी कर्मचारी बनकर बेच दिया था। प्रारम्भिक जीवन नटवरलाल का जन्म सिवान के बांगरा गाँव में एक रईस जमींदार रघुनाथ श्रीवास्तव के घर पर हुआ था । मिथिलेश कुमार से नटवर लाल बनने की दो अलग कहानियां हैं। पहल कहानी के मुताबिक बिहार के सीवान जिले के बंगरा गांव का रहनेवाला मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव, धनी जमींदार रघुनाथ प्रसाद का बड़ा बेटा था। मिथिलेश पढ़ने में एक औसत छात्र था। पढ़ाई के बजाय फुटबॉल और शतरंज में उसकी रूचि ज्यादा थी। कहते हैं कि मैट्रिक के परीक्षा में फेल होने पर मिथिलेश को उसके पिता ने बहुता मारा. जिसके बाद वह कलकत्ता भाग गया। उस समय उसकी जेब में सिर्फ पांच रुपए थे। कलकत्ता में मिथिलेश ने बिजली के खंभे के नीचे पढ़ाई की, बाद में सेठ श्री केशवराम जी नाम के एक व्यक्ति ने मिथिलेश को अपने बेटे को पढ़ाने के लिए रख लिया। मिथिलेश ने सेठजी से अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए पैसे उधार मांगे, जिसे सेठजी ने देने से मना कर दिया। सेठजी के मना करने से मिथिलेश इतना चिढ़ गया कि उसने रुई की गांठ खरीदने के नाम पर सेठजी से 4.5 लाख ठग लिए। दूसरी कहानी ये कहती है कि एक बार मिथिलेश को उसके पड़ोसी सहाय ने बैंक ड्राफ्ट जमा करने के लिए भेजा। वहां जाकर मिथिलेश ने सहाय के हस्ताक्षर को हूबहू कॉपी किया। उस समय मिथिलेश को पहली बार लगा कि वो जालसाजी का काम कर सकता है। उस दिन के बाद से मिथिलेश कुछ दिनों तक अपने पड़ोसी के खाते से पैसे निकालता रहा। जब मिथिलेश के पड़ोसी को इस बात की भनक लगी, तब तक मिथिलेश खाते से 1000 रुपए निकाल चुका था। पता चलने के बाद मिथिलेश कलकत्ता चला गया और वहां जाकर वाणिज्य (कॉमर्स) में स्नातक (ग्रेजुएशन) किया। साथ ही शेयर बाजार में दलाली का काम करने लगा। जालसाजी के किस्से उसने सैकड़ों लोगों को धोखा दिया और 50 से अधिक छद्म नामों का इस्तेमाल किया। वह हमेशा ठगी के लिए शहर बदलता रहता था। लोगों को धोखा देने के लिए उपन्यासों से पढ़कर आइडिया इस्तेमाल करता था। ठगी में नटवर लाल इतना शातिर था कि उसने 3 बार ताजमहल, दो बार लाल किला, एक बार राष्ट्रपति भवन और एक बार संसद भवन तक को बेच दिया था। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के फर्जी हस्ताक्षर करके नटवर लाल ने संसद को बेच दिया था। जिसे समय संसद को बेचा था, उस समय सारे सांसद वहीं मौजूद थे। कहते हैं कि नटवर लाल के 52 नाम थे, उन्ही में से एक नाम नटवर लाल था। सरकारी कर्मचारी का भेष धरकर नटवर लाल ने विदेशियों को ये सारे स्मारक बेचे थे। इसकी ठगी पर ‘मिस्टर नटवर लाल’ फिल्म भी बन चुकी है। जिसमें अमिताभ बच्चन ने इसका रोल निभाया है। वह प्रसिद्ध हस्तियों के हस्ताक्षर बनाने में भी माहिर था। यह भी कहा जाता है कि उसने कई बड़े उद्योगपतियों को भी धोखा दिया था, वह एक बड़ी रकम नकद उनसे यह कहकर लेता था कि वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है। उसने कई दुकानदारों को लाखों रुपयों का चूना लगाया । दुकानदारों से बड़ी संख्या में सामान लेकर उन्हें नकली चेक और डिमांड ड्राफ्ट द्वारा भुगतान करता था। दिल्ली का कनॉट प्लेस. सुरेंद्र शर्मा की घड़ी की दुकान थी। एक दिन सफेद कमीज और पैंट पहने एक बूढ़ा आदमी घड़ी की दुकान में जाता है और खुद का परिचय तत्कालीन वित्तमंत्री नारायण दत्त तिवारी का पर्सनल स्टाफ डी.एन. तिवारी रूप में देता है और दुकानदार से कहता है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं, इसलिए उन्होंने पार्टी के सभी वरिष्ठ लोगों को समर्थन के लिए दिल्ली बुलाया है और इस बैठक में शामिल होने वाले सभी लोगों को वो घड़ी भेंट करना चाहते हैं तो मुझे आपकी दुकान से 93 घड़ी चाहिए। दुकानदार को पहले तो इस आदमी की बातों पर शक हुआ लेकिन एक साथ इतनी घड़ियों को बेचने के लालच से खुद को रोक नहीं पाया। अगले दिन वो बूढ़ा आदमी घड़ी लेने दुकान पहुंचा। दुकानदार को घड़ी पैक करने की बात कह एक स्टाफ को अपने साथ नॉर्थ ब्लॉक (नॉर्थ ब्लॉक वो जगह है, जहां प्रधानमंत्री से लेकर बड़े-बड़े अफसरों का ऑफिस होता है) ले गया. वहां उसने स्टाफ को भुगतान के तौर पर 32,829 रुपए का बैंक ड्राफ्ट दे दिया. दो दिन बाद जब दुाकनदार ने ड्राफ्ट जमा किया तो बैंक वालों ने बताया कि वो ड्राफ्ट फर्जी है। फिर दुकानदार को समझ आया कि वो बूढ़ा आदमी नटवर लाल था और इसके बाद वित्तमंंत्री वीपी सिंह तो कभी वाराणसी के जिला जज का नाम तो कभी यूपी के सीएम के नाम पर नटवर लाल अलग-अलग शहर में दुकानदारों का चूना लगाता रहा। नटवरलाल को नौ बार गिरफ्तार किया गया था लेकिन हर बार वह जेल से भागने में सफल रहा। उसे जालसाजी के 14 मामलों के लिए दोषी ठहराया गया था और 113 साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन उसने मुश्किल से 20 साल जेल में बिताए। आखिरी बार जब उसे 1996 में गिरफ्तार किया गया था तो उस समय उसकी उम्र 84 साल थी। लेकिन वह पुलिस को चकमा देने में फिर से कामयाब रहा।उस समय वह व्हीलचेयर का उपयोग करता था और उसे कानपुर जेल से दिल्ली इलाज के लिए अस्पताल ले जाया जा रहा था।नई दिल्ली रेलवे स्टेशन मौका पाकर वह गायब हो गया। इसके बाद उसे 24 जून 1996 को पुलिस द्वारा अंतिम बार देखा गया था। उस तारीख के बाद उसे फिर कभी नहीं देखा गया।नटवर लाल को अपने किए पर कोई शर्म नहीं थी। वह अपने आपको रॉबिन हुड मानता था, कहता था कि मैं अमीरों से लूट कर गरीबों को देता हूं। उसका कहना था कि मैंने कभी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। लोगों से बहाने बनाकर पैसे मांगे और लोग पैसे दे गए। इसमें मेरा क्या कसूर है? आखिरी बार नटवर लाल बिहार के दरभंगा रेलवे स्टेशन पर देखा गया था। पुलिस में पुराने थानेदार ने जो सिपाही के जमाने से नटवर लाल को जानता था, उसे पहचान लिया। नटवर लाल ने भी देख लिया कि उसे पहचान लिया गया है। सिपाही अपने साथियों को लेने थाने के भीतर गया और नटवर लाल गायब था। यह बात अलग है कि पास खड़ी मालगाड़ी के डिब्बे से नटवर लाल के उतारे हुए कपड़े मिले और गार्ड की यूनीफॉर्म गायब थी। नटवरलाल पत्रकारों के भी बहुत प्रिय थे...एक बार पत्रकारों ने उनसे जीवन की किसी अविस्मरणीय घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि जब मैं पटना जेल में था तो मुझे जेल में IPS अधिकारियों के कई क्लास लेने पड़े ठगी के विषय के ऊपर!! मृत्यु नटवरलाल के वकील द्वारा 2009 में अदालत में यह कहते हुए अर्जी डाली गई कि नटवरलाल की मृत्यु 25 जुलाई 2009 को चुकी है इसलिए उसके खिलाफ लम्बित केस खारिज़ कर दिए जाए । नटवार लाल के छोटे भाई गंगाप्रसाद जोकि गोपालगंज में रहता है का भी कहना था कि नटवारलाल का अन्तिम संस्कार रांची में कर दिया गया है ।परन्तु आज तक इसके कोई पुख्ता सबूत या सरकारी दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं । परिवार नटवारलाल के जीवन में दो पत्नियां एवं एक बेटी थी । HSK
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जीरादेई भारत के बिहार प्रान्त में सीवान जिले में स्थित एक छोटा गाँव है जो भारत के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की जन्मस्थली होने के कारण जाना जाता है। जीरादेइ एक विधान सभा भी है। इसके बगल मैं यूपी बॉर्डर पार्ता हैं
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अबुजा अफ्रीकी देश नाईजीरिया की राजधानी है। राजधानियाँ नाइजीरिया के शहर संघीय राजधानी क्षेत्र (नाइजीरिया)
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मिर्ज़ापुर (Mirzapur) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्ज़ापुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण पर्यटन की दृष्टि से मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश का काफी महत्वपूर्ण जिला माना जाता है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक वातावरण बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। मिर्ज़ापुर में स्थित विंध्याचल धाम भारत के प्रमुख हिन्दू धार्मिक स्थलों में से एक है। इसके अतिरिक्त सीताकुण्ड, लाल भैरव मंदिर, मोती तालाब, टांडा जलप्रपात, विल्डमफ़ाल झरना, तारकेश्‍वर महादेव, महा त्रिकोण, शिवपुर, चुनार किला, गुरूद्वारा गुरू दा बाघ और रामेश्‍वर, देवरहा बाबा आश्रम, अड़गड़ानंद आश्रम व अन्य छोटे बड़े जल प्रपातों आदि के लिए प्रसिद्ध है। मिर्ज़ापुर भदोही, वाराणसी, सोनभद्र, इलाहाबाद से घिरा हुआ है। भारत का अंतराष्ट्रीय मानक समय मिर्ज़ापुर जिले के अमरावती चौराहा स्थान से लिया गया है। मिर्ज़ापुर ग़ुलाबी पत्थरों (पिंकस्टोन) के लिये बहुत विख्यात है, प्राचीन समय में इस पत्थर का प्रयोग मौर्य वंश के राजा सम्राट् अशोक के द्वारा बौद्ध स्तुप एवं अशोक स्तम्भ (वर्तमान में भारत का राष्ट्रीय चिन्ह) को बनाने में किया गया था। मिर्ज़ापुर के लोगों की मूल भाषा मिर्ज़ापुरी है तथा हिन्दी एवं भोजपुरी भी चलन में है। मिर्ज़ापुर में एक मेडिकल कॉलेज संचालन में है तथा एक इंजीनियरिंग कॉलेज निर्माणाधीन है। यहां पर दो इंजीनियरिंग कॉलेज भी है|यहा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर भी स्थित, जो बरकछा मे पहाडी के ऊपर हैं, जिसमे प्रमुख वेटनरी विद्यालय स्थित हैं, ज्याहा पशू की बहोत बडी हॉस्पिटल हैं, ओर ऐसी बहोत सी फॅकल्टीस हैं, जिसमे १००० से ज्यादा विद्यार्थी अध्यापन करते हैं। नाम जनपद के नाम को लेकर कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। कुछ प्राचीन लोककथाओं के अनुसार विंध्याचल, अरावली एवं नीलगिरी से घिरे हुए क्षेत्र को विंध्यक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। समयांतराल विंध्यक्षेत्र में विभिन्न क्षेत्रों का अलग अलग नामकरण हुआ। जैसे की मांडा के समीप के क्षेत्र पम्पापुर के नाम से, वर्तमान का अमरावती क्षेत्र गिरिजापुर के नाम से तथा आसपास का क्षेत्र सप्त सागर के नाम से विख्यात हुआ। 17वीं शताब्दी में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में तेज़ी से अपने पाँव पसार रही थी, कलकत्ता से लेकर दिल्ली तक कंपनी का कारोबार फैलता ही जा रहा था तब कंपनी के अफसरों को मध्य भारत में भी अपना व्यापार फ़ैलाने की आवश्यकता महसूस हुयी इसी सन्दर्भ अफसरों ने गंगा के रास्ते में पड़ने वाले लगभग सभी नगरीय क्षेत्रों का गहन अध्ययन किया। तमाम क्षेत्रों में विंध्याचल एवं गंगा की बाँहों में फैला विंध्यक्षेत्र अंग्रेजी अफसरों को भा गया। 1735 ईसवी में लार्ड मर्क्यूरियस वेलेस्ले नाम के एक अँगरेज़ अफसर ने इस क्षेत्र की स्थापना मिर्ज़ापुर नाम से की। मिर्ज़ा शब्द अंग्रेजी शब्दकोश में 1595 ईसवी से जुड़ा जिसका शाब्दिक अर्थ है "राजाओ का क्षेत्र"। इस शब्द की व्युत्पत्ति अमीर (English: Emir) एवं ज़ाद (Persian) को मिलाकर बनाए शब्द अमीरजादा से हुयी। पर्शिया में अमीरजादा के लिए एक शब्द मोरजा भी है। अतः अंग्रेज़ों ने अपने क्षेत्र विस्तार के समय मिर्ज़ा शब्द को उपाधि की तरह उपयोग किया तथा क्षेत्र का नाम "मिर्ज़ापुर" रख जिसका अर्थ हुआ राजाओं का क्षेत्र। कुछ स्थानों पर अपभ्रंश के रूप में "मीरजापुर" नाम भी चलन में है। भूगोल मिर्जापुर की स्थिति पर है। यहां की औसत ऊंचाई 80 मीटर (265 फीट) है। जनसंख्या उत्तर प्रदेश के एक जिले मिर्जापुर का एक आधिकारिक जनगणना 2011 विवरण, उत्तर प्रदेश में जनगणना संचालन निदेशालय द्वारा जारी किया गया है। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के जनगणना अधिकारियों ने भी महत्वपूर्ण व्यक्तियों की गणना की। 2011 में, मिर्जापुर की जनसंख्या 2,496, 9 70 थी जिसमें से पुरुष और महिला क्रमशः 1,312,302 और 1,184,668 थी। 2001 की जनगणना में, मिर्जापुर की 2,116,042 आबादी थी, जिसमें पुरुष 1,115,24 9 और शेष 1,000,793 महिलाएं थीं। मिर्जापुर जिला आबादी कुल उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का 1.25 प्रतिशत है। 2001 की जनगणना में, मिर्जापुर जिले के लिए यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश का 1.27 प्रतिशत था। 2001 के अनुसार आबादी की तुलना में आबादी की तुलना में जनसंख्या में 18.00 प्रतिशत का परिवर्तन हुआ था। भारत की पिछली जनगणना में, मिर्जापुर जिला ने 1991 की तुलना में इसकी आबादी में 27.44 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। जानकारी तालिका आवागमन वायु मार्ग सबसे निकटतम हवाई अड्डा बाबतपुर (वाराणसी विमानक्षेत्र) है। मिर्जापुर से वाराणसी 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिल्ली, आगरा, मुम्बई, चेन्नई, बंगलौर, लखनऊ और काठमांडू आदि से वायुमार्ग द्वारा मिर्जापुर पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग मिर्जापुर रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। कुछ महत्वपूर्ण ट्रेनें जैसे कालका मेल, पुरूषोतम एक्सप्रेस, मगध एक्सप्रेस, गंगा ताप्‍ती, त्रिवेणी, महानगरी एक्सप्रेस, हावड़-मुम्बई, संघमित्रा एक्सप्रेस आदि द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग मिर्जापुर सड़कमार्ग द्वारा सम्पूर्ण भारत से जुड़ा हुआ है। लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, दिल्ली और कलकत्ता आदि जगह से सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता हैं। (जौनपुर से भदोही वाया मीरजापुर) ग्रांड ट्रंक रोड (शेरशाह सूरी रोड) जो वाराणसी से लेकर कन्याकुमारी तक जाती है जिसे मिर्ज़ापुर के बाद रीवां रोड के नाम से भी जानते हैं। मिर्ज़ापुर का दक्षिणी छोर मध्यप्रदेश को भी जोड़ता है। प्रमुख आकर्षण तारकेश्‍वर महादेव विन्ध्याचल के पूर्व में स्थित तारकेश्‍वर महादेव का जिक्र पुराण में भी किया गया है। मंदिर के समीप एक कुण्ड स्थित है। माना जाता है कि तराक नामक असुर ने मंदिर के समीप एक कुण्ड खोदा था। भगवान शिव ने ही तारक का वध किया था। इसलिए उन्हें तारकेश्‍वर महादेव भी कहा जाता है। कुण्ड के समीप काफी सारे शिवलिंग स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्‍वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुण्ड और भगवान शिव के मंदिर का निर्माण किया था। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कहा जाता है कि तारकेश्‍वर में देवी लक्ष्मी निवास करती हैं। देवी लक्ष्मी यहां अन्य रूप में देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में रहती है। महा त्रिकोण कहा जाता है कि महा त्रिकोण की परिक्रमा करने से भक्तों की इच्छा पूरी होती है। मंदिर स्थित विन्ध्यावशनी देवी के दर्शन करने के पश्चात् भक्त संकट मोचन मंदिर जाते हैं। इस मंदिर को कालीखोह के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर विन्ध्याचल रेलवे स्टेशन के दक्षिण दिशा की ओर स्थित है। देवी काली और संकट मोचन के दर्शन करने के बाद भक्त अपनी परिक्रमा संत करनागिरी बावली के दर्शन करके पूरी करते हैं। कालीखोह के आस-पास अन्य कई मंदिर जैसे आनन्द भैरव, सिद्धनाथ भैरव, कपाल भैरव और भैरव आदि स्थित है। विन्ध्याचल मंदिर और परिक्रमा पूरी करने के पश्चात् मन को बेहद सुकून प्राप्त होता है। यह पूरी यात्रा महा त्रिकोण के नाम से प्रसिद्ध है। विन्ध्याचल में त्रिकोण यात्रा का काफी महत्त्व है। त्रिकोण का सही क्र्म है- सर्वप्रथम गंगास्नान के पश्चात् तट पर स्थित विन्ध्यवासिनी देवी का दर्शन। तत्पश्चात् कालीगोह स्थित मां काली का दर्शन। वहां से अष्टभुजी की यात्रा, और फिर लौट कर विन्ध्यवासिनी आकर पुनः दर्शन। इस प्रकार लगभग चौहद किलोमीटर की यह यात्रा होती है। ये तीनों स्थल स्पष्ट रूप से त्रिभुज के तीनों कोणों पर अवस्थित हैं। इस यात्रा का अतिशय महत्त्व है। तन्त्र शास्त्रों में इसे बाह्यत्रिकोण की यात्रा के रूप में मान्यता है। इसी पर आधारित अन्तः त्रिकोण की यात्रा भी होती है। शिवपुर पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम चन्द्र ने अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध विन्ध्याचल क्षेत्र में ही किया था। माना जाता है कि भगवान श्री राम भगवान शिव के उपासक थे। इस जगह पर भगवान राम ने पश्चिम दिशा की ओर भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की थी। इसी कारण यह जगह रामेश्‍वर नाम से प्रसिद्ध हुई और इस जगह को शिवपुर के नाम से जाना जाता है। सीता कुंड अष्टभुजा मंदिर के पश्चिम दिशा की ओर सीता जी ने एक कुंड खुदवाया था। उस समय से इस जगह को सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। कुंड के समीप ही सीता जी ने भगवान शिव की स्थापना की थी। जिस कारण यह स्थान सीतेश्‍वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सीता कुंड के पश्चिम दिशा की तरफ भगवान श्री राम चंद्र ने एक कुंड खोदा था। जिसे राम कुण्ड के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त शिवपुर स्थित लक्ष्मण जी ने रामेश्‍वर लिंग के समीप शिवलिंग की स्थापना की थी, जो कि लक्ष्मणेश्‍वर के नाम से प्रसिद्ध है। चुनार किला चुनार स्थित चुनार किला कैमूर पर्वत की उत्तरी दिशा में स्थित है। इस प्रसिद्ध किले का निर्माण शेरशाह द्वारा करवाया गया था। इस किले के चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें मौजूद है। यहां से सूर्यास्त का नजारा देखना बहुत मनोहारी प्रतीत होता है। कहा जाता है कि एक बार इस किले पर अकबर ने कब्‍जा कर लिया था। उस समय यह किला अवध के नवाबों के अधीन था। किले में सोनवा मण्डप, सूर्य धूपघड़ी और विशाल कुंआ मौजूद है। गुरूद्वारा बाग श्री गुरू तेग बहादुर जी का यह गुरूद्वारा मिर्जापुर जिले स्थित वाराणसी के दक्षिण से 40 किलोमीटर की दूरी पर अहरौड़ गांव में स्थित है। यह गुरूद्वारा नौवें सिख गुरू, तेग बहादुर को समर्पित है। यह गुरूद्वारा, गुरूद्वारा बाग साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि 1666 में वाराणसी की यात्रा के दौरान गुरू जी इस जगह पर आए थे। इस गुरूद्वारे में एक वर्गाकार हॉल और कई छोटे-छोटे कमरें हैं। गुरूद्वारे की इमारत बेहद खूबसूरत है। गुरूद्वारे के ठीक पीछे एक छोटा सा बगीचा स्थित है। 1742 में प्रकाशित पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब की हस्तलिपि आज भी यहां संरक्षित है। इसके अतिरिक्त, गुरूद्वारा बाग साहिब में हाथ से लिखी हुई पोथी, जिसपर गुरू गोविन्द सिंह के हस्ताक्षर हुए हैं, मौजूद है। यह पोथी लोगों के सामने केवल गुरू तेग बहादुर और गुरू गोविन्द सिंह की जयन्ती पर ही प्रदर्शित की जाती है। पुण्यजल नदी मिर्जापुर और विन्ध्याचल के मध्य बहने वाली इस नदी को पुण्यजल अथवा ओझल के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार सभी यज्ञों में अश्वमेघ यज्ञ और सभी पर्वतों में हिमालय पर्वत प्रसिद्ध है उसी प्रकार सभी तीर्थो में ओझल सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस नदी का जल गंगा नदी के जल के समान ही पवित्र माना जाता है। यह जगह देवी काली का मंदिर, महालक्ष्मी, महासरस्वती और तराकेश्‍वर महादेव के मंदिर से घिरी हुई है। टंडा जलप्रपात टंडा जलप्रपाल शहर से लगभग सात मील की दूरी पर स्थित है। टंडा जलप्रपात से कुछ दूरी पर खजूरी बांध और विन्ध्याम झरना भी स्थित है। विन्ध्याम झरना वन विभाग के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं। झरने के पास ही पार्क और वन विहार का निर्माण भी किया गया है। प्राकृतिक सुंदरता का अनुभव करने के लिए काफी संख्या में पर्यटक इस जगह पर आते हैं। कांतित शरीफ ख्वाजा इस्माइल चिस्ती का मकबरा, कांतित शरीफ में स्थित है। प्रत्येक वर्ष हिन्दू व मुस्लिम दोनों मिलकर उर्स का पर्व मनाते हैं। मकबरे के समीप ही मुगल काल की एक मस्जिद स्थित है। यह मस्जिद काफी लंबी है। जिस कारण इसे लॉगी पहलवान मस्जिद के नाम से जाना जाता है। गुरूद्वारा गुरू दा बाघ मिर्जापुर स्थित गुरूद्वारा गुरू दा बाघ काफी प्रमुख गुरूद्वारों में से है। इस गुरूद्वारे का निर्माण दसवें सिख गुरू, गुरू गोविन्द सिंह की याद में करवाया गया था। गुरूद्वारा गुरू दा बाघ शहर से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रामेश्‍वर महादेव मंदिर रामेश्‍वर मंदिर मिर्जापुर जिले के विन्ध्याचल में स्थित है। यह जगह राम गया घाट पर, मिर्जापुर से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान राम ने इस जगह पर शिवलिंग की स्थापना की थी। कुशियारा जलप्रपात कुशियारा, सिरसी बांध, विंढम फाल, सिद्धनाथ की दरी, खड़ंजा फाल जैसे प्रमुख जलप्रपात है, जहां पूरे वर्ष सैलानी आते है। शिक्षा बापू उपरौध इंटरमीडिएट कालेज लालगंज,मिर्जापुर* [Rajiv Gandhi South Campus (BHU) Barkachha Mirzapur] Maa Vindhyavasini Medical college अंबिका देवी सीनियर सेकेंडरी स्कूल, पंवारी कलां, मीरजापुर G. D. Binani Postgraduate College, Mirzapur K. B. Postgraduate College, Mirzapur Kamla Aryakanya Postgraduate College, Mirzapur Smt. Indira Gandhi Govt. Postgraduate College, Lalganj, Mirzapur Swami Govindashram Postgraduate College, Mirzapur / Govt polytechnic mirzapur ,Mirzapur श्री नरोत्तम सिंह पदम सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय मंगरहाँ सीखड़ मिर्ज़ापुर https://web.archive.org/web/20191031200326/http://nspsgpgc.org/ वनस्थली स्नातकोत्तर महाविद्यालय अहरौरा ,मिर्ज़ापुर श्री शंकराश्रम महा विद्यापीठ इंटर मीडिएट कॉलेज सीखड़ मिर्ज़ापुर आदर्श इण्टर कालेज अदलहाट, मिर्ज़ापुर नव ज्योति इंटर कॉलेज गरौड़ी अदलहाट, मिर्जापुर सरदार पटेल इंटर कॉलेज कोलना, चुनार, मिर्ज़ापुर नगर पालिका इंटर कालेज अहरौरा, मिर्ज़ापुर श्री गांधी विद्यालय इंटर कालेज कछवा,मिर्ज़ापुर बाबु हिन्छ्लाल यादव इंटर कालेज गोड़सर छानबे ,मिर्ज़ापुर बाबूलाल जायसवाल इन्टर कॉलेज, मुकेरी बाजार, मिर्जापुर गवर्मेंट इन्टर कॉलेज, महुवरिया मिर्जापुर गवर्मेंट गर्ल्स इन्टर कॉलेज, महुवरिया मिर्जापुर आर्यकन्या इन्टर कॉलेज, मिर्जापुर राजस्थान इन्टर कॉलेज, मिर्जापुर इन्हें भी देखें मिर्ज़ापुर ज़िला के गोलेन्द्र पटेल, हिन्दी साहित्य की नई पीढ़ी के प्रमुख स्तम्भों में से एक एवं कवि हैं। बाहरी कड़ियाँ मिर्ज़ापुर तथा विन्ध्य क्षेत्र की विरासत को संजोने के लिए निजी परियोजना मिर्ज़ापुर का डच जालस्थल मिर्ज़ापुर शहर का जालस्थल विन्ध्यक्षेत्र संरक्षण संस्थान सन्दर्भ मिर्ज़ापुर ज़िला उत्तर प्रदेश के नगर मिर्ज़ापुर ज़िले के नगर
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लालकृष्ण आडवाणी, (जन्म: 8 नवम्बर 1927) भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। भारतीय जनता पार्टी को भारतीय राजनीति में एक प्रमुख पार्टी बनाने में उनका योगदान सर्वोपरि कहा जा सकता है। वे कई बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। जनवरी 2008 में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने लोकसभा चुनावों को आडवाणी के नेतृत्व में लड़ने तथा जीत होने पर उन्हें प्रधानमन्त्री बनाने की घोषणा की थी। भारतीय जनता पार्टी के जिन नामों को पूरी पार्टी को खड़ा करने और उसे राष्ट्रीय स्तर तक लाने का श्रेय जाता है उसमें सबसे आगे की पंक्ति का नाम है लालकृष्ण आडवाणी। लालकृष्ण आडवाणी कभी पार्टी के कर्णधार कहे गए, कभी लौह पुरुष और कभी पार्टी का असली चेहरा। कुल मिलाकर पार्टी के आजतक के इतिहास का अहम अध्याय हैं लालकृष्ण आडवाणी। जीवन वृत्त आठ नवंबर, 1927 को वर्तमान पाकिस्तान के कराची में लालकृष्ण आडवाणी का जन्म हुआ था। उनके पिता श्री के डी आडवाणी और माँ ज्ञानी आडवाणी थीं। विभाजन के बाद भारत आ गए आडवाणी ने 25 फ़रवरी 1965 को 'कमला आडवाणी' को अपनी अर्धांगिनी बनाया। आडवाणी के दो बच्चे हैं। लालकृष्ण आडवाणी की शुरुआती शिक्षा लाहौर में ही हुई पर बाद में भारत आकर उन्होंने मुम्बई के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज से लॉ में स्नातक किया। आज वे भारतीय राजनीति में एक बड़ा नाम हैं। गांधी के बाद वो दूसरे जननायक हैं जिन्होंने हिन्दू आन्दोलन का नेतृत्व किया और पहली बार बीजेपी की सरकार बनावाई। लेकिन पिछले कुछ समय से अपनी मौलिकता खोते हुए नज़र आ रहे हैं। जिस आक्रामकता के लिए वो जाने जाते थे, उस छवि के ठीक विपरीत आज वो समझौतावादी नज़र आते हैं। हिन्दुओं में नई चेतना का सूत्रपात करने वाले आडवाणी में लोग नब्बे के दशक का आडवाणी ढूंढ रहे हैं। अपनी बयानबाज़ी की वजह से उनकी काफी फज़ीहत हुई। अपनी किताब और ब्लॉग से भी वो चर्चा में आए। आलोचना भी हुई। राजनैतिक जीवन वर्ष 1951 में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की। तब से लेकर सन 1957 तक आडवाणी पार्टी के सचिव रहे। वर्ष 1973 से 1977 तक आडवाणी ने भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष का दायित्व सम्भाला। वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद से 1986 तक लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के महासचिव रहे। इसके बाद 1986 से 1991 तक पार्टी के अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व भी उन्होंने सम्भाला। 1990 राम रथ यात्रा इसी दौरान वर्ष 1990 में राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान उन्होंने सोमनाथ से अयोध्या के लिए राम रथ यात्रा निकाली। हालांकि आडवाणी को बीच में ही गिरफ़्तार कर लिया गया पर इस यात्रा के बाद आडवाणी का राजनीतिक कद और बड़ा हो गया। 1990 की रथयात्रा ने लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता को चरम पर पहुँचा दिया था। वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया है उनमें आडवाणी का नाम भी शामिल है। पार्टी भूमिका लालकृष्ण आडवाणी तीन बार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रह चुके हैं। आडवाणी चार बार राज्यसभा के और पांच बार लोकसभा के सदस्य रहे। वर्ष 1977 से 1979 तक पहली बार केन्द्रीय सरकार में कैबिनेट मन्त्री की हैसियत से लालकृष्ण आडवाणी ने दायित्व सम्भाला। आडवाणी इस दौरान सूचना प्रसारण मन्त्री रहे। आडवाणी ने अभी तक के राजनीतिक जीवन में सत्ता का जो सर्वोच्च पद सम्भाला है वह है एनडीए शासनकाल के दौरान उपप्रधानमन्त्री का। लालकृष्ण आडवाणी वर्ष 1999 में एनडीए की सरकार बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्रीय गृहमन्त्री बने और फिर इसी सरकार में उन्हें 29 जून 2002 को उपप्रधानमन्त्री पद का दायित्व भी सौंपा गया। भारतीय संसद में एक अच्छे सांसद के रूप में आडवाणी अपनी भूमिका के लिए कभी सराहे गए तो कभी पुरस्कृत भी किए गए। आडवाणी पुस्तकें, संगीत और सिनेमा में विशेष रुचि रखते हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ लालकृष्ण आडवाणी का जालघर लालकृष्ण आडवाणी का सफरनामा (वेबदुनिया) रथ यात्रा निकालकर भारत में की थी हिन्दुत्व की राजनीति की शुरुआत, 92 के हुए आडवाणी भारतीय राजनीतिज्ञ जीवित लोग भारत के विभाजन में विस्थापित लोग भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष भारत के उप प्रधानमंत्री पद्म विभूषण धारक 1927 में जन्मे लोग
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "लालकृष्ण आडवाणी", "token_count": 5315, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%20%E0%A4%86%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%80" }
डॉ अनुराधा पौडवाल (जन्म 27 अक्टूबर 1954) हिन्दी सिनेमा की एक प्रमुख पार्श्वगायिका हैं। वे १९९० के दशक में अत्यन्त लोकप्रिय रहीं। इन्होंने फिल्म कैरियर की शुरुआत की फ़िल्म अभिमान से, जिसमें इन्होंने जया भादुड़ी के लिए एक श्लोक गाया। यह श्लोक उन्होंने संगीतकार सचिन देव वर्मन के निर्देशन में गाया था। उसके बाद उन्होंने 1974 में अपने पति संगीतकार अरुण पौडवाल के संगीत निर्देशन में 'भगवान समाये संसार में' फ़िल्म में मुकेश ओर महेंद्र कपूर के साथ गाया। अनुराधा पौडवाल का जन्म 27 अक्टूबर 1954 को कर्नाटक के उत्तर कन्नड जिले के करवार में एक कोंकणी परिवार में हुआ था। किन्तु उनका पालन-पोषण मुंबई में हुआ था। उनका विवाह अरुण पौडवाल से हुई थी जो प्रसिद्ध संगीतकार एसडी बर्मन के सहायक थे। अरुण स्वयं एक संगीतकार थे। नब्बे के दशक में अनुराधा पौडवाल अपने करियर के शिखर पर थीं, उसी समय उनके पति अरुण की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उनके एक बेटा आदित्य पौडवाल और बेटी कविता पौडवाल है। अनुराधा ने 1973 में आई अमिताभ और जया की फिल्म 'अभिमान' से अपना करियर शुरू किया था जिसमें उन्होंने एक श्लोक गीत गया था। एक समय लगभग हर फिल्म में अनुराधा का गाना होता था। लेकिन अब लंबे समय से गायन से दूर हैं। आखिरी बार उन्होंने 2006 में आई फिल्म 'जाने होगा क्या' में गाने गाए थे। अनुराधा ने कभी शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण नहीं लिया, ये कहते हुए कि उन्होंने कई बार कोशिश की पर बात नहीं बनी। उन्होंने लताजी को सुनते सुनते और खुद घंटो अभ्यास करते करते ही अपने सुर बनाए। लता मंगेशकर अनुराधा पौडवाल के लिए भगवान से कम नहीं है, क्योंकि वह अपनी सभी सफलताओं का श्रेय लता जी को ही देती हैं। उनका कहना है कि “मैंने कई गुरुओं के सानिध्य में संगीत सीखा। लेकिन, लता जी की आवाज़ मेरे लिए एक प्रेरणा स्रोत थी जिसने एक संस्थान के रूप में मेरा मार्गदर्शन किया।” उन्होंने अन्य संगीतकारों (राजेश रोशन, जे देव, कल्याणजी आनन्दजी) के साथ भी अच्छी जोड़ी बनाई। अनुराधा को फिल्म 'हीरो' के गानो की सफलता के बाद लोकप्रियता मिली और उनकी गिनती शीर्ष गायिकाओं में की जाने लगी| इस फिल्म में उन्होंने लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ जोड़ी बनाई। हीरो की सफलता के बाद इस जोड़ी ने कई और फिल्मों में सफल गाने दिए जैसे, 'मेरी जंग', 'बटवारा', 'राम लखन' और आखरी में 'तेज़ाब'। इसके बाद उन्होंने टी-सीरीज़ के गुलशन कुमार के साथ हाथ मिलाया और कई नये चेहरों को बॉलीवुड में दाखिला दिलाया। इनमे से कुछ हैं उदित नारायण, सोनू निगम, कुमार सानू, अभिजीत, अनु मलिक और नदीम श्रवण। अपनी सफलता के चरम पर उन्होंने केवल टी-सीरीज़ के साथ काम करने की घोषणा कर दी, जिसका लाभ अल्का याग्निक को मिला। अनुराधा पौडवाल ने फिल्मों से हटकर भक्ति गीतों पर ध्यान देना शुरू किया और इस क्षेत्र में बहुत से सफल भजन गाए। कुछ समय तक काम करने के बाद उन्होंने एक विश्राम ले लिया और 5 साल बाद फिर पार्श्व गायन में आ गयीं हालाँकि उनका लौटना उनके लिए बहुत सफल साबित नहीं रहा। दि. 12 सितम्बर 2020 को उन पर दुःखों का पहाड़ तब टूटा, जब उनका पुत्र आदित्य पौडवाल किडनी की बामारी के चलते मात्र 35 वर्ष की उम्र में चल बसा। पुरस्कार अनुराधा पौडवाल को संगीत के क्षेत्र में किये उनके श्रेष्ठ योगदान के लिये कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित किया जा चुका है। उन्‍हें भारत सरकार की तरफ से साल 2017 में पद्मश्री से सम्‍मानित किया गया है। इसके अलावा उन्‍हें 4 बार फिल्‍म फेयर पुरस्‍कार से और एक बार राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित किया जा चुका है। 2010 : मध्य प्रदेश सरकार द्वारा लता मंगेशकर पुरस्कार 2011 : मदर टेरेसा अवॉर्ड 2013 : महाराष्ट्र सरकार द्वारा मोहम्मद रफी पुरस्कार 2017 : भारत सरकार द्वारा पद्मश्री फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार सन्दर्भ 1952 में जन्मे लोग भारतीय फिल्म पार्श्वगायक जीवित लोग पद्मश्री प्राप्तकर्ता राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार विजेता
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अनुराधा पौडवाल", "token_count": 5107, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%BE%20%E0%A4%AA%E0%A5%8C%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2" }
प्रमुख भारतीय पार्श्वगायक और गायिकायें। इन्हें भी देखें :श्रेणी:गायिका :श्रेणी:गायक सन्दर्भ बॉलीवुड
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "भारतीय पार्श्वगायक", "token_count": 173, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%95" }
दक्षिण कोरिया के श्री ली जोंग वुक विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशक थे, 2003 से 2006 तक।
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{{Infobox Indian politician | image = Rajendra Prasad (Indian President), signed image for Walter Nash (NZ Prime Minister), 1958 (16017609534).jpg | image size = 350px | caption = भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद | bi | death_date = 28 फ़रवरी 1963 | death_place = पटना, बिहार,भारत | office = प्रथम भारत के राष्ट्रपति | term_start = 26 जनवरी 1950 | term_end = 14 मई 1962 | predecessor = स्थिति की स्थापना चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के गवर्नर जनरल के रूप में | successor = सर्वपल्ली राधाकृष्णन | vicepresident = सर्वपल्ली राधाकृष्णन | primeminister = पण्डित जवाहर लाल नेहरू | party = भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस | religion = हिन्दू | ethnicity = Indo-Aryan | nationality = भारतीय | spouse = राजवंशी देवी (मृत्यु 1961) | Grandson = सचिन कुमार प्रसाद | alma_mater = कलकत्ता विश्वविद्यालय | profession = | other_names = देश रत्न, अजातशत्रु | notable_awards = भारत रत्न (1962) | signature = Autograph of Rajendra Prasad.svg | }} डॉ राजेन्द्र प्रसाद (3 दिसम्बर 1884 – 28 फरवरी 1963) भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व भी निभाया था। सम्मान से उन्हें प्रायः 'राजेन्द्र बाबू' कहकर पुकारा जाता है। प्रारंभिक जीवन राजेन्द्र बाबू का जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारण (अब सीवान) के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादीऔर माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था। बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्यकाल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी। लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था।. सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।]] हिन्दी एवं भारतीय भाषा-प्रेम यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब भी वे प्रधान मन्त्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन काकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता (illness) के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अतः उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गान्धीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयं सेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1928 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने 'सर्चलाईट' और 'देश' जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था। 1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांTग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गए। भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया। सरलता राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।" सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।" विरासत सितम्बर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ। उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं। कृतियाँ राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (1946) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में बाबू (1954), इण्डिया डिवाइडेड (1946), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (1922), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र'' इत्यादि उल्लेखनीय हैं। भारत रत्न सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें भारत रत्‍न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस भूमिपुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी। निधन अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हम सभी को इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ भारत के पूर्व राष्ट्रपति: राजेन्द्र प्रसाद राजेंद्र प्रसाद का जीवन परिचय राजेन्द्र प्रसाद का जीवन-चरित कांग्रेस पार्टी: राजेन्द्र प्रसाद Major Events of Dr. Rajendra Prasad (राजेन्द्र स्मृति संग्रहालय) भारत के राष्ट्रपति 1884 में जन्मे लोग १९६३ में निधन भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
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री भोई भारत के मेघालय प्रान्त का एक शहर है। शहर
2862
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कोरापुट (Koraput) भारत के ओड़िशा राज्य के कोरापुट ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण कोरापुट दक्षिणी उड़ीसा में पूर्वी घाट की पहाड़ियों में बसा हुआ है। यहाँ के हरे-भरे घास के मैदान, जंगल, झरने, तंग घाटियां आदि सैलानियों को खूब आकर्षित करती हैं। 8534 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला यह जिला बंगाल की खाड़ी से काफी निकट है। देवमाली जिले की सबसे ऊंची चोटी है जिसकी ऊंचाई 5484 फीट है। दुगुमा, बागरा और खांडाहाटी झरनों से यह जिला और जीवंत हो उठता है। कोरापुट में बने मंदिर, मठ, मध्य काल के स्मारक, आदि अतीत की कहानी कहते प्रतीत होते हैं। इन्हें देखने के लिए पर्यटकों का यहां नियमित आना-जाना लगा रहता है। प्रमुख आकर्षण सवर श्रीक्षेत्र भगवान जगन्नाथ का यह आधुनिक मंदिर समुद्र तल से 2900 फीट की ऊंचाई पर एक पहाड़ी के शिखर पर बना हुआ है। मंदिर के पास ही एक जनजाति संग्रहालय है, जहां पर्यटकों को आदिवासी संस्कृति और विरासत के विषय में जानकारी दी जाती है। दुदुमा झरना मत्स्य तीर्थ के नाम से विख्यात यह खूबसूरत झरना 175 मीटर की ऊंचाई से गिरता है। यहां के हरे-भरे और शांत क्षेत्र में एक हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट विकसित किया गया है। यहां पिकनिक मनाने वालों का सदैव जमावडा लगा रहता है। दुदुमा झरने से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा-सा गांव गुरूवार को लगने वाले बाजार के लिए प्रसिद्ध है। गुप्‍तेश्‍वर मंदिर भगवान शिव का यह प्रसिद्ध गुफा मंदिर चूना पत्थर की एक पहाड़ी पर स्थित है। कोलाब नदी के किनारे यह पहाड़ी प्राकृतिक दृश्यावली से भरपूर है। मंदिर के पवित्र लिंगम को गुप्‍तेश्‍वर कहा जाता है जिसका अर्थ छिपे हुए भगवान होता है। छत्तीसगढ़ में इसे गुप्‍त केदार के नाम से जाना जाता है। शिवरात्रि के मौके पर यहां बड़ी संख्या में शिवभक्तों का आगमन होता है। दुमुरीपुट यह गांव कोरापुट और सुनादेब के मध्य राष्ट्रीय राजमार्ग 43 के निकट स्थित है। यहां का श्रीराम मंदिर भगवान हनुमान की विशाल मूर्ति के लिए चर्चित है। यह मूर्ति उड़ीसा की सबसे विशाल हनुमान की मूर्ति मानी जाती है। राम नवमी पर्व के मौके पर यहां बड़ी संख्या में राम और हनुमान भक्तों का आगमन होता है। नंदपुर जेपोर की यह प्राचीन राजधानी बतरीसा सिंहासन के लिए प्रसिद्ध है। 1.8 मीटर ऊंची गणपति की प्रतिमा इस स्थान का प्राचीन वैभव दर्शाती प्रतीत होती है। सरबेश्‍वर मंदिर और उनमें खुदे अभिलेख भी इस स्थान की अद्वितीयता को बयां करते हैं। कोलाब बांध कोलाब नदी पर बना यह बांध समुद्र तल से 3000 फीट की ऊंचाई पर है। इस बांध के जल से हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर उत्पन्न की जाती है। प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण इस स्थान में नौकायन और पिकनिक का आनंद भी लिया जा सकता है। जेपोर जेपोर नगर में यहां के प्रारंभिक शासकों द्वारा बनवाया गया किला देखा जा सकता है। यह किला चारों तरफ से ऊंची दीवारों से घिरा है। इसका प्रवेशद्वार काफी ऊंचा है। यहां के डेढ मील चौड़े जलकुंड को जगन्नाथ सागर के नाम से जाना जाता है। यह जलकुंड जलक्रीड़ाओं में रूचि रखने वालों के लिए उचित जगह है। जेपोर कोरापुट जिले के व्यापार केन्द्र के रूप में विकसित हुआ है और यहां का पेपर मास्क क्राफ्ट काफी लोकप्रिय है। आवागमन वायु मार्ग विशाखापट्टनम विमानक्षेत्र कोरापुट का नजदीकी एयरपोर्ट है। यह एयरपोर्ट देश के अनेक बड़े शहरों से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। यह एयरपोर्ट कोरापुट से करीब 202 किलोमीटर की दूरी पर है। रेल मार्ग कोरापुट रेलमार्ग द्वारा विशाखापट्टनम, भुवनेश्वर, दिल्ली, चेन्नई और कोलकता आदि शहरों से जुड़ा है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 26 और राष्ट्रीय राजमार्ग 326 कोरापुट से होकर जाते हैं जो इसे अनेक शहरों से जोड़ते हैं। राज्य परिवहन निगम की नियमित बसें कोरापुट के लिए चलती रहती हैं। इन्हें भी देखें कोरापुट ज़िला सन्दर्भ कोरापुट ज़िला ओड़िशा के शहर कोरापुट ज़िले के नगर नक्सल प्रभावित जिले‎
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "कोरापुट", "token_count": 5136, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%9F" }
ढेंकानाल ज़िला भारत के ओड़िशा राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय ढेंकानाल है। यह भारत के अत्यंत पिछड़े जिलों में से एक है। यहाँ भारतीय जनसंचार संस्थान की एक शाखा है जिसकी वज़ह से इसे देश के अन्य स्थानों पर जाना जाता है। इन्हें भी देखें ढेंकानाल ओड़िशा ओड़िशा के जिले सन्दर्भ ओड़िशा के जिले
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "ढेंकानाल जिला", "token_count": 458, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A2%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B2%20%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE" }
कटक (କଟକ) भारत के ओड़िशा राज्य के कटक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। कटक महानदी के किनारे बसा हुआ है। यह १९७२ तक लगभग सहस्र वर्षों तक उत्कल/ओडिशा की राजधानी थी। विवरण कटक ओड़िशा का एक प्राचीन नगर है, जो रौप्य नगर (Silver City) के नाम से भी जाना जाता है। इसका इतिहास एक हजार वर्ष से भी ज्‍यादा पुराना है। करीब नौ शताब्दियों तक कटक ओड़िशा की राजधानी रहा और आज यहां की व्‍यावयायिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। केशरी वंश के समय यहां बने सैनिक शिविर कटक के नाम पर इस शहर का नाम रखा गया था। यहां के किले, मंदिर और संग्रहालय पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। कटक वर्तमान ओड़िशा की मध्ययुगीन राजधानी था, जिसे पद्मावती भी कहते थे। यह नगर महानदी और उसकी सहायक नदी काठजोड़ी के मिलन स्थल पर बना है। इतिहास कटक शहर की स्थापना केशरी राजवंश के सम्राट नृप केशरी ने सन 989 ई. में की थी। सन 1002 ई. में सम्राट मर्कट केशरी ने शहर को बाढ़ से रक्षा करने के लिए पत्थर की दीवार बनाई थी। करीब 1000 वर्षों तक कटक औड़िशा की राजधानी रही। गंग वंशी तथा सूर्य वंशी साम्राज्य की राजधानी भी कटक रहा है। ओड़िशा के आखिरी हिन्दु राजा मुकुंददेव के उपरांत कटक शहर पहले इस्लामी और बाद में शाहजहां के शासन काल में मुगल सल्तनत के अधीन रहा, जहाँ इसे एक उच्च स्तरीय प्रांत की मान्यता मिली थी। 1750 तक ओड़िशा मराठाओं के अधीन आने के साथ साथ कटक भी उनके अधीन आ गया। इसके उपरांत सन 1803 ई. में कटक अंग्रेजों के अधीन आया। 1826 में यह ओड़िशा प्रांत की राजधानी बनी। देश के स्वाधीन होने के उपरांत सन 1972 में ओड़िशा की राजधानी कटक से भुवनेश्वर में स्थानांतरित कर दिया गया। मुख्य पर्यटन स्थल बारबाटी किला यह कटक का सबसे प्रमुख पर्यटक स्‍थल है। महानदी के किनारे बना यह किला खूबसूरती से तराशे गए दरवाजों और नौ मंजिला महल के लिए प्रसिद्ध है। इसका निर्माण गंग वंश ने 14वीं शताब्‍दी में करवाया था। युद्ध के समय नदी के दोनों किनारों पर बने किले इस किले की रक्षा करते थे। वर्तमान में इस किले के साथ एक अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍टेडियम है। पांच एकड़ में फैले इस स्‍टेडियम में 30000 से भी ज्‍यादा लोग बैठ सकते हैं। यहां खेल प्रतियोगिताओं और सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों का अयोजन होता रहता है। परमहंसनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर कटक के बाहरी हिस्‍स्‍से में स्थित है। यहां एक बहुत बड़ा छिद्र है जहां से स्‍वयं पानी निकलता है। यह विशाल छिद्र इस मंदिर की मुख्‍य विशेषता है। इसे अनंत गर्व कहा जाता है। धवलेश्वर मंदिर महानदी के एक टापू में स्थित धवलेश्वर मंदिर भगवान शिव की आराधना के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर एक पर्यटक आकर्षण है। नौवाणिज्य संग्रहालय महानदी के किनारे ओड़िशा की प्राचीन नौवाणिज्य विरासत को दिखाता नौवाणिज्य संग्रहालय कटक का एक प्रमुख पर्यटन केन्द्र है। बालियात्रा मैदान के निकट बने इस संग्रहालय को देखने लोगों की काफी भीड़ जमा होती है। यहाँ श्रीलंका, इंड़ोनेसिया आदि देशों के साथ ओड़िशा (कलिंग) की प्राचीन सामुद्रिक संबंधों का सुन्दर व्यौरा देखने को मिलता है। नेताजी के जन्मस्थान संग्रहालय नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मस्थान में उनके इतिहास और उनकी विरासत को दिखाता हुआ एक सुन्दर संग्रहालय बना है, जो सुभाष के नेताजी बनने तक के सफर को दर्शाता है। आनन्द भवन संग्रहालय ओड़िशा के वीरपुत्र बीजू पट्टनायक के जन्मस्थान आनन्द भवन अब एक संग्रहालय में बदल दिया गया है। बारबाटी दूर्ग के किनारे में स्थित यह संग्रहालय बीजू पट्टनायक के गौरवमय व्यक्तित्व की पराकाष्ठा को दर्शाता है। कदम-ई-रसूल यहां भारत की सबसे अलग मस्जिद है। मुसलमानों की धार्मिक आस्‍था को ध्‍यान में रखकर करवाया था। हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही इस स्‍थान का आदर करते हैं। मुख्‍य परिसर के अंदर तीन खूबसूरत मस्जिदें हैं। इनके गुंबद और कमरे बहुत ही आकर्षक हैं। यहां नवाबत खाना नाम का एक कमरा भी है जिसका निर्माण 18वीं शताब्‍दी में किया गया था। एक गुबद के पर पैगंबर मोहम्‍मद के पद चिह्न एक गोल पत्‍थर पर अंकित किए गए हैं। नदी किनारे दीवार 11वीं शताब्‍दी में राजा मराकत केशरी ने नदी पर पत्‍थर की दीवार बनवाई थी। इस दीवार के कारण यह शहर बाढ़ों के कहर से बचा रह सका। इसी वजह से इस शहर को राजधानी बनाया गया था। यह तत्‍कालीन इं‍जीनियरिंग का बेहतरीन नमूना है। यह दिखाती है कि उस समय तकनीक कितनी उन्‍न‍त थी। लालबाग महल काठजोड़ी के किनारे बना यह महल कटक के गौरवमय इतिहास का साक्षी रहा है। बारबाटी दुर्ग के बाद यह शासन का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। 17वीं सदी में बना यह महल कई प्रमुख राजाओं का निवासस्थान रहा है। 1942 से 1960 तक यह ओड़िशा के राज्यपाल का निवास भी रहा है। सलीपुर ब्रांच संग्रहालय ब्रांच संग्रहालय की स्‍थापना 1979 में की गई थी। इस संग्रहालय में मूर्तियों, शस्‍त्रों, टैराकोटा का प्रदर्शन किया गया है। इनके अलावा यहां वाद्य यंत्र और कागज तथा ताड़ पत्र पर लिखी पांडुलिपियां भी देखी जा सकती हैं। समय: सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक, सोमवार और सार्वजनिक अवकाश के दिन बंद रहता है। रेवेंशा विश्वविद्यालय रेवेंशा विश्वविद्यालय ओड़िशा का सबसे पुराना शिक्षानुष्ठान है। सन 1868 में बनाए गये इस कालेज को सन 2006 ई. में विश्वविद्यालय की मान्यता मिली। इन सबके अलावा चुडंगगड़ दूर्ग, मधुसूदन संग्रहालय, स्वराज आश्रम, कनिका राजवाटी आदि इसके महत्वपूर्ण पर्यटन स्थान हैं। उत्सव बालियात्रा कटक का प्रसिद्ध महोत्सव है। प्राचीन नौवाणिज्य परंपरा को दर्शाता यह समारोह 8 दिनों तक चलता है, जिसमें रोज लाखों की भीड़ जमा रहती है। यह कटक का सबसे परिचित उत्सव है। इसके अलावा दूर्गापूजा, दीपावली, होली, रमजान, ईद आदि विविध उत्सव मनाया जाता है। कटक के त्योहारों एक खुबी इसकी सांस्कृतिक एकता है। धर्म के बंधन से दूर सभी एक साथ त्योहार में रम जाते हैं। आवागमन वायु मार्ग - यहां का नजदीकी हवाई अड्डा भुवनेश्‍वर का बीजू पटनायक हवाई अड्डा (30 किलोमीटर) है। रेल मार्ग - कटक दिल्‍ली, कोलकता, मुंबई समेत सभी प्रमुख शहर से जुड़ा है। देश के विभिन्‍न भागों से यहां के लिए नियमित ट्रेनें चलती हैं। सड़क मार्ग - कटक भुवनेश्‍वर, कोणार्क, पुरी, कोलकता और देश के बाकी हिस्‍सों से सड़कों के जरिए जुड़ा है। राष्ट्रीय राजमार्ग १६ यहाँ से गुज़रता है। अन्य यहाँ पर भारतीय चावल अनुसंधान केन्द़ है। इन्हें भी देखें कटक ज़िला सन्दर्भ कटक ज़िला ओड़िशा के शहर कटक ज़िले के नगर
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गंजाम (Ganjam) भारत के ओड़िशा राज्य के गंजाम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय नहीं है और ज़िला मुख्यालय छत्रपुर में है। गंजाम से राष्ट्रीय राजमार्ग 16 गुज़रता है। शहर से कुछ दूर पूर्व में बंगाल की खाड़ी का तट है। जनसांख्यिकी भारत की जनगणना २०११ के अनुसार पालिका क्षेत्र की जनसंख्या ११,७४७ है जिसमे ६,०७१ पुरुष व ५,६७६ महिलाएँ हैं। ०-६ आयुवर्ग की जनसंख्या १,२७७ है जो कुल जनसंख्या का १०.८७% है। यहाँ की लिंगानुपात दर ९३५ महिलाएँ प्रति १००० पुरुष हैं जो कि राज्य की औसत से ९७९ से कम है। साक्षरता दर ८५.३०% है जो कि राज्य की दर ७२.८७% से अधिक है। धर्म यहाँ की कुल जनसंख्या में ९९.१९% हिन्दू, ०.७२% ईसाई, ०.०६% मुस्लिम, ०.०२% सिक्ख तथा ०.०१% जैन धर्म के अनुयायी हैं। ०.०१% लोगों ने अपने धर्म का उल्लेख नहीं किया है। इन्हें भी देखें गंजाम ज़िला सन्दर्भ गंजाम ज़िला ओड़िशा के शहर गंजाम ज़िले के नगर
2868
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जगतसिंहपुर (Jagatsinghpur) भारत के ओड़िशा राज्य के जगतसिंहपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। इन्हें भी देखें जगतसिंहपुर ज़िला सन्दर्भ जगतसिंहपुर ज़िला ओड़िशा के शहर जगतसिंहपुर ज़िले के नगर
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भद्रक (Bhadrak) भारत के ओड़िशा राज्य के भद्रक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। इन्हें भी देखें भद्रक ज़िला सन्दर्भ भद्रक ज़िला ओड़िशा के शहर भद्रक ज़िले के नगर
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सम्बलपुर (Sambalpur) भारत के ओड़िशा राज्य का पाँचवा सबसे बड़ा नगर है। यह महानदी के किनारे बसा हुआ है और सम्बलपुर ज़िले का मुख्यालय है। विवरण सम्बलपुर का नाम 'समलेश्वरी देवी' के नाम पर पड़ा है जो शक्तिरूपा हैं और इस क्षेत्र में पूज्य देवी हैं। संबलपुर, भुवनेश्वर से ३२१ किमी की दूरी पर है। इतिहास में इसे 'संबलक', 'हीराखण्ड', 'ओडियान' (उड्डियान), 'ओद्र देश', 'दक्षिण कोशल' और 'कोशल' आदि नामों से संबोधित किया गया है। महानदी इस जिले को विभक्त करती है। यह जिला तरंगित समतल है, जिसमें कई पहाड़ियाँ हैं। इनमें से सबसे बड़ी पहाड़ी ३०० वर्ग मील में फैली हुई है। जिले में महानदी के पश्चिमी भाग में सघन खेती होती है और पूर्वी भाग के अधिकांश में जंगल हैं। जिले में हीराकुद पर बाँध बनाकर सिंचाई के लिए जल एवं उद्योगों के लिए विद्युत् प्राप्त की जा रही है। महानदी और इब नदी के संगमस्थल के समीप हीराकुड में स्वर्णबालू एवं हीरा पाया गया है। संबलपुर, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों के बीच स्थित है और दोनों प्रान्तों को जोड़ता है। महानदी के बायें किनारे पर स्थित यह नगर कभी हीरों के व्यवसाय का केन्द्र था। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त सूती और रेशमी बुनावट (टशर रेशम) की वस्त्र-कारीगरी (इकत), आदिवासी समृद्ध विरासत और प्रचुर जंगल भूमि के लिए प्रसिद्ध है। नगर की पृष्ठभूमि में वनाच्छादित पहाड़ियाँ स्थित हैं, जिनके कारण नगर सुंदर लगता है। संबलपुर ओड़िशा के जादूई पश्चिमी भाग का प्रवेश द्वार के रूप में सेवारत है। यह राज्य के उत्तरी प्रशासकीय मंडल का मंडल मुख्यालय है - जो एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक और शिक्षा केन्द्र हैं। इतिहास प्रागैतिहासिक युग में दर्ज बस्तियों के साथ संबलपुर भारत के प्राचीन स्थानों में से एक है। वहाँ प्रागैतिहासिक कलाकृतियों की खोज की है जो इस ओर इशारा करते हैं। कुछ इतिहासकार इसे टॉलेमी द्वारा दूसरी शताब्दी के रोमन पाठ "जियोग्राफिया, एक प्राचीन एटलस और एक ग्रंथ कार्टोग्राफी" में वर्णित "संबालाका" शहर की पहचान करते हैं। यह उल्लेख किया गया है कि शहर हीरे का उत्पादन करता है। 4 वीं शताब्दी सीई में, गुप्त सम्राट ने "दक्षिण कोशल" के क्षेत्र पर विजय प्राप्त की, जिसमें वर्तमान समय में संबलपुर, विलासपुर और रायपुर शामिल थे। बाद में 6 वीं शताब्दी की शुरुआत में, चालुक्य राजा पुलकेशिन II ने कहा कि तत्कालीन पांडुवामसी राजा बलार्जुन शिवगुप्त को हराकर दक्षिण कोसल पर विजय प्राप्त की थी। दक्षिण कोसल पर शासन करने वाला अगला राजवंश सोमबम्सी वंश था। सोमवंशी राजा जनमेजय- I महाभागगुप्त (लगभग 882–922 ई।) ने कोसाला के पूर्वी भाग को समेकित किया जिसमें आधुनिक अविभाजित संबलपुर और बोलनगीर जिले शामिल थे और तटीय आधुनिक ओडिशा पर भूमा-कार राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उदयोतकेसरी (सी। १०४०-१०६५ ई.पू.) के बाद, सोमवंशी साम्राज्य में धीरे-धीरे गिरावट आई। राजवंश ने उत्तर-पश्चिम में नागाओं और दक्षिण में गंगा से अपने प्रदेश खो दिए। सोमवंशी के पतन के बाद यह क्षेत्र थोड़े समय के लिए तेलुगु चोदास के अधीन आ गया। दक्षिण कोसल के अंतिम तेलुगु चोदा राजा सोमेश्वर तृतीय थे, जिन्हें कलचुरी राजा जजलदेव-प्रथम ने लगभग 1119 ईस्वी में हराया था। कलचुरी का उत्कल (वर्तमान में तटीय ओडिशा) के गंगा राजवंश के साथ एक आंतरायिक संघर्ष था। अंतत: कलचुरियों ने अनंगभूमि देव- III (1211–1238 C.E.) के शासनकाल के दौरान संबलपुर सोनपुर क्षेत्र को गंगा में खो दिया। गंगा साम्राज्य ने संबलपुर क्षेत्र पर 2 और सदियों तक शासन किया। हालाँकि उन्हें उत्तर से बंगाल की सल्तनत और दक्षिण के विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस लगातार संघर्ष ने संबलपुर पर गंगा की पकड़ को कमजोर कर दिया। अंतत: उत्तर भारत के एक चौहान राजपूत रमई देव ने पश्चिमी उड़ीसा में चौहान शासन की स्थापना की। संबलपुर नागपुर के भोंसले के अंतर्गत आया जब मराठा ने 1800 में संबलपुर को जीत लिया। 1817 में तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद, ब्रिटिश सरकार ने संबलपुर को चौहान राजा जयंत सिंह को लौटा दिया, लेकिन अन्य रियासतों पर उनका अधिकार हटा लिया गया। जनवरी 1896 में, ओडिया भाषा को समाप्त करके, हिंदी को संबलपुर की आधिकारिक भाषा बना दिया गया था, जिसके बाद लोगों द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शन को फिर से बहाल कर दिया गया था। 1905 में बंगाल के विभाजन के दौरान संबलपुर और आस-पास के ओडिया भाषी इलाकों को बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत ओडिशा डिवीजन के साथ समामेलित किया गया था। बंगाल का ओडिशा विभाजन 1912 में बिहार और ओडिशा के नए प्रांत का हिस्सा बन गया और अप्रैल 1936 में मद्रास प्रेसीडेंसी से अविभाजित गंजाम और कोरापुट जिलों को मिलाकर ओडिशा का अलग प्रांत बन गया। 15 अगस्त 1947 को भारतीय स्वतंत्रता के बाद, ओडिशा एक भारतीय राज्य बन गया। पश्चिमी ओडिशा की रियासतों के शासकों ने जनवरी 1948 में भारत सरकार को मान्यता दी और ओडिशा राज्य का हिस्सा बन गए। 1825 से 1827 तक, लेफ्टिनेंट कर्नल गिल्बर्ट (1785-1853), बाद में लेफ्टिनेंट जनरल सर वाल्टर गिल्बर्ट, फर्स्ट बैरोनेट, जीसीबी, संबलपुर मुख्यालय में दक्षिण पश्चिम फ्रंटियर के लिए राजनीतिक एजेंट थे। उन्होंने संबलपुर में एक अज्ञात कलाकार द्वारा अपने प्रवास के दौरान कुछ चित्र बनाए जो वर्तमान में ब्रिटिश लाइब्रेरी और विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय के साथ हैं। वज्रयान बौद्ध धर्म यद्यपि यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार राजा इन्द्रभूति के अधीन उडिय़ाना या ओड्रा देश में विकसित हुआ था, वहाँ एक पुराना और प्रसिद्ध विद्वानों का विवाद है कि क्या उडिय़ाना या ओड्रा स्वात घाटी, ओडिशा या किसी अन्य स्थान पर था। संबलपुर के सबसे पुराने राजा इंद्रभूति ने वज्रयान की स्थापना की, जबकि उनकी बहन, जिनका विवाह लंकापुरी (सुवर्णपुर) के युवराज जलेंद्र से हुआ था, ने सहजयाना की स्थापना की। बौद्ध धर्म के इन नए तांत्रिक पंथों में छह तांत्रिक अभिचार (प्रथाओं) जैसे कि मारना, स्तम्भन, सम्मोहन, विदवेशन, उचेतन और वाजीकरण के साथ मंत्र, मुद्रा और मंडल का परिचय दिया गया। तांत्रिक बौद्ध संप्रदायों ने समाज के सबसे निचले पायदान की गरिमा को ऊंचे तल तक ले जाने के प्रयास किए। इसने आदिम मान्यताओं को पुनर्जीवित किया और व्यक्तिगत भगवान के लिए एक सरल और कम औपचारिक दृष्टिकोण, महिलाओं के प्रति एक उदार और सम्मानजनक रवैया और जाति व्यवस्था को नकारने का अभ्यास किया। सातवीं शताब्दी के ए डी के बाद से, विषम प्रकृति के कई लोकप्रिय धार्मिक तत्वों को महायान बौद्ध धर्म में शामिल किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अंततः वज्रायण, कालचक्रयान और सहजयाना तांत्रिक बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई। तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार उदियाने में विकसित हुआ, एक देश जो दो राज्यों, सम्भला और लंकापुरी में विभाजित था। सम्भल की पहचान संबलपुर और लंकापुरी के साथ सुबरनपुरा (सोनेपुर) से की गई है। इन्हें भी देखें हीराकुद सम्बलपुर ज़िला सन्दर्भ सम्बलपुर ज़िला ओड़िशा के शहर सम्बलपुर ज़िले के नगर
2873
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बैरगढ भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है। शहर
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जाजपुर (Jajpur) भारत के ओड़िशा राज्य के जाजपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। इन्हें भी देखें जाजपुर ज़िला सन्दर्भ जाजपुर ज़िला ओड़िशा के शहर जाजपुर ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "जाजपुर", "token_count": 293, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0" }
खोर्धा या खोर्द्धा भारत के ओड़िशा प्रान्त का एक जिला है। इसका मुख्यालय खुर्दा शहर है। प्रारम्भ में खुरदा के नाम से मशहूर उड़ीसा का खोरधा जिला 2889 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। दया और कूआंखाइ ईहां से बहने वाली प्रमुख नदियां हैं। इस जिले का निर्माण 1 अप्रैल 1993 को पुरी और नयागढ़ जिले को काटकर किया गया था। उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर इस जिले के अन्तर्गत ही आती है। खोरधा आरम्भ में उड़ीसा शासकों की राजधानी थी। यह जिला कुटीर उद्योगों, चरखा मिल, केबल फैक्ट्री, रेलवे कोच रिपेयरिंग फैक्ट्री और तेल उद्योग के लिए लोकप्रिय है। अत्री, बानपुर, बरूनई हिल, चिलिका, हीरापुर और नंदनकानन अभयारण्य जिले के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। भूगोल यह भी खुर्दा जिले का जिला मुख्यालय है। दया और कुआखाई नदियों खुर्दा के माध्यम से प्रवाह होती है। वन क्षेत्र : ६१८.६७ वर्ग किमी की है। जलवायु तापमान: 41.4 (अधिकतम ), 9.5 (न्यूनतम) [2] वर्षा: 1443 मिमी (औसत) अर्थव्यवस्था यह अपने पीतल के बर्तन कुटीर उद्योगों , केबल फैक्टरी , कताई मिलों , घड़ी की मरम्मत कारखाना , रेलवे कोच मरम्मत कारखाना , ऑयल इंडस्ट्रीज , कोका कोला बॉटलिंग संयंत्र और छोटे धातु उद्योगों के लिए प्रसिद्ध है। प्रभाग संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों : २ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों : ६ उप प्रभागों : २ गांव : १५६१ ब्लाक : १० ग्राम पंचायत : १६८ तहसील : ८ कस्बा: ५ नगर पालिका : २ नगर निगम : १ N.A.C : २ पर्यटक आकर्षण और निकटवर्ती स्थान आरीकमा : बोलगड ब्लॉक के तहत गांव आरीकमा जंगल में मां कोशालशूणी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। अट्रि: यह अपने सल्फर - पानी के झरने और प्रभु हटकेश्वर (भगवान शिव) को समर्पित एक मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। बाणपुर : मां भागबती के लिए (हिंदू देवी मां दुर्गा के अवतार में से एक) मंदिर प्रसिद्ध है। बरूणेइ : यह मंदिर प्रसिद्ध बरूणेइ पहाड़ियों पर स्थित है। यह भुवनेश्वर से २८ किलोमीटर की दूरी पर है। खंडगिरि और उदयगिरी : ये जुड़वां पहाड़ियो भुवनेश्वर में स्थित हैं। इन जुड़वां पहाड़ियों में ११७ गुफा रहे हैं। लिंगराज मंदिर: लिंगराज मंदिर ओडिशा में सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध शिव मंदिर है। शिखर चंडी : यह नंदनकानन की ओर भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित है। पहाड़ी के ऊपर देवी चंडी को समर्पित एक मंदिर है, जो इस जगह का मुख्य आकर्षण है। मां उगरा तारा नंदनकानन चिड़ियाघर : यह भुवनेश्वर से २० किमी की दूरी पर स्थित ओडिशा के एक प्रसिद्ध चिड़ियाघर है। डेरास और झुमका : ये भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित दो सुंदर पिकनिक स्पॉट हैं। वे एक घने जंगल से घिरा दो बांध हैं। विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र खोर्धा जिला निम्नलिखित ८ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजीत है। जयदेव भुवनेश्वर सेंट्रल भुवनेश्वर उत्तर एकाम्र जटणि खुर्दा चिलिका इन्हें भी देखें खोर्धा ओड़िशा ओड़िशा के जिले सन्दर्भ ओड़िशा के जिले
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नबरंगपुर (Nabarangpur) भारत के ओड़िशा राज्य के नबरंगपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण समुद्र तल से 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित नवरंगपुर पूर्व में कालाहांडी, दक्षिण में कोरापुट और पश्चिम व उत्तर दिशा में छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। 5135 वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला 1992 में गठित हुआ था। यहां से बहने वाली इन्द्रवती नदी नवरंगपुर और कोरापुट जिले को अलग करती है। यह जिला भरपूर खनिजों के साथ-साथ वन्यजीवों के लिए भी प्रसिद्ध है। पेंथर, तेंदुए, टाईगर, हेना, भैंस, काला भालू, बिसन, सांभर और बार्किंग डीयर जैसे पशुओं को यहां देखा जा सकता है। यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में मां पेन्द्रानी मंदिर, शहिद मीनार, खटिगुडा बांध, मां भंडाराघरानी मंदिर और भगवान जगन्नाथ मंदिर शामिल हैं। साथ ही यहां का रथयात्रा पर्व सैलानियों को खूब लुभाता है। प्रमुख स्थल पोडागढ़ इस ऐतिहासिक स्थल की खुदाई से पत्थरों पर खुदे अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों में नल साम्राज्य की राजधानी पुष्करी के अभिलेख भी शामिल हैं। केलिया, पापडाहांडी और उमरकोट पोडागढ़ के निकटवर्ती दर्शनीय स्थल हैं। खटिगुडा बांध इन्द्रवती नदी पर बना यह बांध नवरंगपुर के खटिगुडा में स्थित है। इन्द्रवती नदी की उत्पत्ति थुआमल रामपुर के निकट से होती है। पहाड़ियों से घिरा दूर-दूर फैला बांध का नीला जल एक अनोखा दृश्य उपस्थित करता है। यह बांध नबरंगपुर से 20 किलोमीटर दूर है। शहीद मीनार यह मीनार नवरंगपुर के पपडाहांडी ब्लॉक में स्थित है। यह मीनार उन देशभक्तों को समर्पित है, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। 24 अगस्त के दिन बड़ी संख्या में लोग यहां उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित होते हैं। केलिया महादेव मंदिर यह मंदिर केलिया में एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। देबगांव ताल्लुक में बना यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को उड़ीसा के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में शामिल किया जाता है। मां पेन्द्रानी मंदिर मां पेन्द्रानी को समर्पित यह मंदिर राजा चैतन्य देव द्वारा बनवाया गया था। उमरकोट में स्थित यह लोकप्रिय मंदिर बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित करता है। मां पेन्द्रानी कोरापुट, कालाहांडी और बालंगीर में सर्वाधिक पूजी जाती हैं। श्री नीलकंठेश्वर मंदिर चंपक के पेड़ों से घिरा यह लोकप्रिय मंदिर पपडाहांडी में स्थित है। मंदिर अत्यंत कलात्मक शैली में बना है और इसकी तुलना भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से की जाती है। बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक चिन्हों को भी यहां देखा जा सकता है। आवागमन वायु मार्ग विशाखापट्टनम विमानक्षेत्र यहां का नजदीकी एयरपोर्ट है जो देश के अनेक बड़े शहरों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा है। यह एयरपोर्ट नवरंगपुर से करीब 300 किलोमीटर की दूरी पर है। रेल मार्ग कोरापुट रेलवे स्टेशन यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों से जुड़ा हुआ है। कोरापुट यहां से 66 किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 26 नबरंगपुर को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है। उड़ीसा और पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों से यहां के लिए नियमित बसें चलती रहती हैं। इन्हें भी देखें नबरंगपुर ज़िला सन्दर्भ नबरंगपुर ज़िला ओड़िशा के शहर नबरंगपुर ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "नबरंगपुर", "token_count": 4377, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0" }
नयागढ़ (Nayagarh) भारत के ओड़िशा राज्य के नयागढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण पूर्वी उड़ीसा में 3954 वर्ग किलोमीटर में फैले नयागढ़ जिले का 40 प्रतिशत हिस्सा जंगलों से घिरा है। बुधबुधियानी का सिंचाई पावर प्रोजेक्ट और गर्म पानी का झरना यहां का मुख्य आकर्षण है। इसके साथ ही यह स्थान चमड़े की कारीगरी, पीतल आदि धातुओं के उपकरणों और चीनी मिल के लिए प्रसिद्ध है। बरतुंगा नदी यहां बहने वाली प्रमुख नदी हे। बारामुल, कंतिलो, ओदागांव, जामुपटना, सारनकुल, रानापुर और कुअनरिया आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। यहां से गुजरने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 5 इसे देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है। भूगोल नयागढ़ की स्थिति पर है। यहाँ की औसत ऊंचाई 178 मीटर (583 फीट) है। प्रमुख आकषण शरणकुल यह स्थान नयागढ़ से 20 किलोमीटर दूर नयागढ़- ओडगांव रोड पर स्थित है। भगवान लाडुकेश्वर मंदिर यहां का मुख्य आकर्षण है, जिन्हें लाडुबाबा नाम से जाना जाता है। शरणकुल शैव भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है। शिवरात्रि पर्व मनाने के लिए उड़ीसा के अनेक हिस्सों से लोगों का यहां आगमन होता है। अन्य धार्मिक स्थल ओडगांव यहां से 5 किलोमीटर दूर है। ओडगांव ओडगांव भगवान रघुनाथ जी के मंदिर के लिए काफी प्रसिद्ध है। भगवान राम को समर्पित इस मंदिर में रामनवमी पर्व काफी धूमधाम से मनाई जाती है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1903 के आसपास हुआ था। मान्यता है कि उड़ीसा के लोकप्रिय कवि उपेन्द्र भांजा ने यहां ध्यान लगाया था और राम तरक मंत्र में निपुणता हासिल की थी। यहां होने वाली रामलीला बहुत लोकप्रिय है। सारनकुल से यह स्थान मात्र 5 किलोमीटर दूर है। कण्टिलो महानदी के किनारे स्थित कण्टिलो नीलमाधब मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर दो पहाड़ियों के शिखर पर बना है और इसके चारों तरफ की हरियाली पर्यटकों पर्यटकों को बहुत भाती है। भगवान नारायणी का मंदिर भी यहां देखा जा सकता है। कण्टिलो नयागढ़ से 33 किलोमीटर की दूर है। अनेक धातुओं से बने यहां के बर्तन भी बड़े प्रसिद्ध हैं। कुआंरिया बांध यह बांध नयागढ़ के दसपल्ला के निकट स्थित है। महानदी की सहायक कुआंरिया नदी पर बने इस बांध को बनवाने का मुख्य उद्देश्य इस पिछडे क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था करना था। बांध के आसपास की प्राकृतिक सुंदरता के कारण यह पिकनिक स्थल बन गया है। बांध के निकट कुआंरिया हिरण उद्यान भी देखा जा सकता है। श्री गोपाल जी मठ यह मठ निम्बार्क समुदाय के लिए एक पवित्र स्थल माना जाता है। कांतिलो के निकट स्थित यह मठ नयागढ़ से 25 किलोमीटर की दूरी पर है। मठ में श्रीगोपाल की प्रतिमा भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, राधा-कृष्ण और हनुमान के साथ देखी जा सकती है। यह प्रतिमाएं अष्ठ धातुओं से बनी हैं। यहां का मुख्य प्रवेश नक्कासियों से सुसज्‍जित है और लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। ताराबालो भुवनेश्वर से 75 किलोमीटर दूर नयागढ़ जिले में स्थित ताराबालो गर्म पानी के झरनों का समूह है। 8 एकड़ में फैले इन झरनों के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। प्रकृति के शांत वातावरण में सुकून से समय बिताने के लिए यह एक आदर्श जगह है। बारमुल महानदी के किनारे स्थित बारमुल एक शांत गांव है। महानदी की एक खूबसूरत तंगघाटी गांव की प्रमुख विशेषता है। यहां से सूर्यास्त और सूर्योदय के मनोरम नजारे देखना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। बंगाल टाईगर, तेंदुए, भालू, हाथी, सांभर, हिरन आदि जानवरों को यहां के प्राकृतिक वातावरण में विचरण करते देखा जा सकता है। अनेक दुर्लभ और लुप्तप्राय पक्षियों की प्रजातियों भी यहां दिखाई देती हैं। नवंबर से अप्रैल का यहां आने के लिए उत्तम माना जाता है। आवागमन वायु मार्ग भुवनेश्वर का बीजू पटनायक एयरपोर्ट यहां का निकटतम एयरपोर्ट। यह एयरपोर्ट देश के अनेक बड़े शहरों से जुड़ा है। रेल मार्ग खुरदा रोड जंक्शन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो इसे देश के अनेक हिस्सों से जोड़ता है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 57 नयागढ़ को उड़ीसा और अन्य पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों को सड़क मार्ग से जोड़ता है। यहां के लिए अनेक शहरों से राज्य परिवहन निगम की बसें चलती रहती हैं। इन्हें भी देखें कण्टिलो नयागढ़ ज़िला सन्दर्भ नयागढ़ ज़िला ओड़िशा के शहर नयागढ़ ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "नयागढ़", "token_count": 5525, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%A2%E0%A4%BC" }
नुआपड़ा भारत के ओड़ीसा प्रान्त का एक शहर है। यह नुआपड़ा जिला मुख्यालय है। विवरण पश्चिमी ओड़ीशा का नुआपड़ा जिला मध्य प्रदेश के रायपुर और ओड़ीशा के बरगढ़, बलांगिर व कालाहांडी जिलों से घिरा हुआ है। 3407.05 वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला 1993 तक कालाहांडी का हिस्सा था, लेकिन प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से इसे कालाहांडी से अलग एक नए जिले के रूप में गठित कर दिया गया। पतोरा जोगेश्वर मंदिर, राजीव उद्यान, पातालगंगा, योगीमठ, बूढ़ीकोमना, खरीयार, गौधस जलप्रताप आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। प्रमुख आकर्षण पतोरा जोगेश्वर मंदिर यह पश्चिमी ओड़ीसा और छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय शिव पीठों में एक है। मारागुडा घाटी के मारागुडा गांव में स्थित इस मंदिर में 6 फीट ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। इसके निकट ही राम मंदिर भी बना हुआ है। 40 फीट ऊंची हनुमान की मूर्ति यहां का मुख्य आकर्षण है। पातालगंगा हिन्दुओं का यह पवित्र तीर्थस्थान खरियार से 41 किलोमीटर और बोडेन से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इसके गर्म जल में स्नान करता है, उसे मुक्ति मिलती है। पातालगंगा में स्नान करने को पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के बराबर माना जाता है। कहा जाता है कि जब भगवान राम अपने वनवास के दौरान इस क्षेत्र से गुजर रहे तो सीता को प्यास लगी है। सीता की प्यास बुझाने के लिए राम ने धरती पर बाण चलाया और पातालगंगा की उत्पत्ति हुई। योगीमठ योगीमठ लोकप्रिय प्रागैतिहासिक कालीन गुफा है। इस गुफा में पुरापाषाण काल के अनेक चित्र पत्थरों पर बने हुए हैं। यहां बनी सांड की आकृति काफी आकर्षक है। कृषि और पशुओं के चित्र आज भी उस काल के जीवन आंखों के सामने उपस्थित कर देते हैं। बूढ़ीकोमना बूढ़ीकोमना खरियार से 73 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान की लोकप्रियता यहां बने भगवान पातालेश्वर शिव के मंदिर के कारण है। त्रिरथ शैली में बने इस मंदिर के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया है। वर्तमान में यह मंदिर क्षतिग्रस्त अवस्था में है। खरियार खरियार नगर के बीचों बीच बना प्राचीन दधीबामन मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर को स्थानीय लोग बडागुडी नाम से भी पुकारते हैं। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ मंदिर, हनुमान मंदिर, देवी लक्ष्मी मंदिर और रक्तांबरी मंदिर यहां के अन्य लोकप्रिय आकर्षण हैं। खरियार में अमेरिकन इवेन्जलिकल मिशन की गतिविधियों होती रहती हैं। गौधस जलप्रपात नुआपड़ा से 30 किलोमीटर दूर स्थित इस जलप्रपात की कुल ऊंचाई 30 मीटर है। यह झरना गर्मियों के दिनों में सूख जाता है। इसके निकट ही भगवान शिव का मंदिर देखा जा सकता है। बैसाखी पर्व के मौके पर यहां दूर-दूर से भक्तों का आगमन होता है। सुनादेब वन्यजीव अभयारण्य 600 वर्ग किलोमीटर में फैला यह अभयारण्य नुआपड़ा जिले में छत्तीसगढ़ की सीमा के निकट स्थित है। इसे बारहसिंहा का आदर्श स्थान माना जाता है। साथ ही टाईगर, तेंदुए, हेना, बार्किंग डीयर, चीतल, गौर, स्लोथ बीयर और पक्षियों की विविध प्रजातियां देखी जा सकती हैं। आवागमन वायु मार्ग नूआपाडा का नजदीकी एयरपोर्ट रायपुर विमानक्षेत्र में है। यह एयरपोर्ट 120 किलोमीटर की दूरी पर है और देश के अनेक बड़े शहरों से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा है। रेल मार्ग नुआपड़ा रोड रेलवे स्टेशन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो नुआपड़ा नगर से 3 किलोमीटर दूर है। यह रेलवे स्टेशन दक्षिण पूर्व रेलवे के विसाखा पटनम-रायपुर रेल लाइन पर स्थित है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 353 और राज्य राजमार्ग 3 नुआपड़ा को अन्य शहरों से जोड़ता है। राज्य परिवहन की अनेक बसें नुआपड़ा के लिए चलती रहती हैं। इन्हें भी देखें नुआपड़ा ज़िला सन्दर्भ नुआपड़ा ज़िला ओड़िशा के शहर नुआपड़ा ज़िले के नगर
2884
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केंदुझाड़गढ भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है। केंदुझाड़गढ़
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केन्दरपाड़ा भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है। केन्दरपाड़ा
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देवगढ़ (Deogarh) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक शहर है। इन्हें भी देखें राजसमन्द ज़िला सन्दर्भ राजस्थान के शहर राजसमन्द ज़िला राजसमन्द ज़िले के नगर
2888
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बौद भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है। शहर
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सुल्तानगंज (अंग्रेजी: Sultanganj) भारत के बिहार राज्य के भागलपुर जिला में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है। यह गंगानदी के तट पर बसा हुआ है। यहाँ बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। उत्तरवाहिनी गंगा होने के कारण सावन के महीने में लाखों काँवरिये देश के विभिन्न भागों से गंगाजल लेने के लिए यहाँ आते हैं। यह गंगाजल झारखंड राज्य के देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ को चढाते हैं। बाबा बैद्यनाथ धाम भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में एक माना जाता है। सुल्तानगन्ज हिन्दू तीर्थ के अलावा बौद्ध पुरावशेषों के लिये भी विख्यात है। सन १८५३ ई० में रेलवे स्टेशन के अतिथि कक्ष के निर्माण के दौरान यहाँ से मिली बुद्ध की लगभग ३ टन वजनी ताम्र प्रतिमा आज बर्मिन्घम म्यूजियम में रखी है। धार्मिक महत्व सुल्तानगंज एक प्राचीन बौद्ध धर्म का केन्द्र है जहाँ कई बौद्ध विहारों के अलावा एक स्तूप के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। सुल्तानगंज में बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध और प्राचीन मन्दिर है। सुल्तानगंज से एक विशाल गुप्तकालीन कला की बौद्ध प्रतिमा मिली है, जो वर्तमान में बर्मिघम (इंग्लैण्ड) के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह बुद्ध प्रतिमा दो टन से भी अधिक भारी तथा दो मीटर ऊँची है। इस प्रतिमा में महात्मा बुद्ध के शीश पर कुंचित केश तो हैं परन्तु उसके चारों ओर प्रभामण्डल नहीं है। यह ताम्र प्रतिमा नालंदा शैली की प्रतीत होती है जबकि सुप्रसिद्ध इतिहासकार राखाल दास बनर्जी ने इसे पाटलिपुत्र शैली में निर्मित्त माना है। सांख्यकीय आँकड़े 2001 की जनगणना के अनुसार सुल्तानगंज की कुल जनसंख्या 41,812 थी। इसमें 54% पुरुष तथा 46% स्त्रियाँ थीं। यहाँ की औसत सक्षरता दर 52% थी जो कि राष्ट्रीय औसत (59.5%) से कम थी। उस समय पुरुषों का साक्षरता अनुपात 60% तथा महिलाओं का 43% आँका गया था। कुल जनसंख्या में 17% बच्चे 6 वर्ष से कम आयु के थे।. प्रमुख दर्शनीय स्थल सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा (उत्तर दिशा में बहने वाली गंगा) के साथ एक बहुश्रुत किंवदन्ती भी प्रसिद्ध है। कहते हैं जब भगीरथ के प्रयास से गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ तो उनके वेग को रोकने के लिये साक्षात भगवान शिव अपनी जटायें खोलकर उनके प्रवाह-मार्ग में आकर उपस्थित हो गये। शिवजी के इस चमत्कार से गंगा गायब हो गयीं। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने उन्हें अपनी जाँघ के नीचे बहने का मार्ग दे दिया। इस कारण से पूरे भारत में केवल यहाँ ही गंगा उत्तर दिशा में बहती है। कहीं और ऐसा नहीं है। चूंकि शिव स्वयं आपरूप से यहाँ पर प्रकट हुए थे अत: श्रद्धालु लोगों ने यहाँ पर स्वायम्भुव शिव का मन्दिर स्थापित किया और उसे नाम दिया अजगवीनाथ मन्दिर। अर्थात एक ऐसे देवता का मन्दिर जिसने साक्षात उपस्थित होकर यहाँ वह चमत्कार कर दिखाया जो किसी सामान्य व्यक्ति से सम्भव न था। जो भी लोग यहाँ सावन के महीने में काँवर के लिये गंगाजल लेने आते हैं वे इस मन्दिर में आकर भगवान शिव की पूजा अर्चना और जलाभिषेक करना कदापि नहीं भूलते। इस दृष्टि से यह मन्दिर यहाँ का अति महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। यातायात के साधन सुल्तानगंज पूरे वर्ष भर भागलपुर, पटना और मुँगेर जिले से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा रहता है। पूर्व रेलवे की लूप लाइन से होकर यात्री किओल और कोलकाता भी सुगमता पूर्वक आ-जा सकते हैं। अब तो एक नई रेलवे लाइन देवघर के लिये भी प्रारम्भ हो गयी है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ भारतीय हिन्दू मन्दिर अजगबीनाथ सुल्तानगंज इन्हें भी देखें सुल्तानग की बुद्ध प्रतिमा वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर
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पेरू दक्षिणी अमरीका महाद्वीप में स्थित एक देश है। इसकी राजधानी लीमा है। प्रमुख नदी अमेज़ॉन और मुद्रा न्यूवो सोल है। यहाँ तीन तरह की जलवायु पाई जाती है- एँडीज़ में सर्द, तटवर्ती मैदानों में खुश्क-सुहानी और वर्षा वाले जंगलों में गर्म और उमस वाली। यह देश इंका नाम की प्राचीन सभ्यता के लिए भी जाना जाता है। पेरू की भाषा स्पेनिश और क्वेशुका हैं तथा ९० प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का पालन करते हैं। प्रमुख उद्योग मछली और खनन हैं। यहाँ सभी प्रकार की धातुओं का प्रचुर खनिज भंडार है तथा अनाज, फल और कोको की खेती होती है। पर्यटन उद्योग भी यहाँ की आय का एक प्रमुख साधन है। इतिहास कोलंबियन पूर्व पेरू पेरू में मानव उपस्थिति के साक्ष्य 9,000 ईसा पूर्व तक के देखे गये है। लौरिकोचा, पचैकैम, जुइनिन और तेलमाचाय की गुफाओं में शिकार उपकरण खोजे गए हैं। ये पैराकास और चिल्का के तटीय क्षेत्रों और कैलेज़ोन डी हुयलास के पहाड़ी क्षेत्र में भी स्थित थे। बाद के वर्षों में, बसने वालों ने कपास और मकई जैसे पौधों की खेती की शुरुआत कर अपनी जीवन शैली को बदल दिया और उन्होंने अल्पाका, गिनी पिग और लामा जैसे घरेलू जानवरों को भी पालना शुरू कर किया। उन्होंने बर्तन, टोकरी, बुनाई और ऊन और सूती कताई में भी महारत हासिल कर ली। इन अभ्यासों ने उन्हें एंडियन पहाड़ों और तट के किनारे घरों और नए समुदायों का निर्माण करने में मदद की। इस प्रकार, लीमा से 200 किमी उत्तर में कैरल के नाम का पहला अमेरिकी शहर का निर्माण हुआ। इस अवधि को उत्तरी चिको सभ्यता के रूप में जाना जाता था। और इस अवधी के लगभग 30 पिरामिड संरचनाएं आज भी उपस्थित है। इन घटनाओं के बाद पुरातत्व सभ्यताओं ने इनका अनुशरण करते हुए पूरे पेरू में एंडियन और तटीय इलाकों में विकसित हुए। इन संस्कृतियों में से एक क्युप्स्निक संस्कृति थी, जो लगभग 1000 से 200 ईसा पूर्व तक रही। यह संस्कृति वर्तमान में पेरू के प्रशांत तट पर समृद्ध थी और प्रारंभिक पूर्व-इंका सभ्यता के लिये एक आदर्श थी। क्युप्स्निक संस्कृति के बाद चाविन सभ्यता का जन्म हुआ जो 1500 से 300 ईसा पूर्व तक रहा। यह एक राजनीतिक व्यक्ति की बजाय कम या ज्यादा धार्मिक विचारधारा थी। उनका आध्यात्मिक केंद्र चाविन दे हुंतार में था। यह सभ्यता ईसाई सहस्राब्दी की शुरुआत में खत्म हो गई। हजारों सालों तक पहाड़ी क्षेत्रों और तट दोनों में अन्य कई संस्कृतियां बनती और नष्ट होती रही। इनमें से कुछ संस्कृतियों में वारी, पराकास, नाज़का और प्रसिद्ध मोच और चिमु शामिल थे। मोचे अपने चतुर धातुकर्म, सुंदर इमारतों, शुष्क क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए सिंचाई प्रणाली का प्रयोग और बर्तनों की कलाकृति के लिए जाने जाते थे। दूसरी तरफ चिमू, इंका सभ्यता से पहले सबसे अच्छे शहर के निर्माणकर्ता थे और वे 1150 से 1450 तक समृद्ध थे। उनकी राजधानी चान चान में वर्तमान के त्रुहियो के बाहर थी। पहाड़ी क्षेत्रों में, तियाआआआनाको समाज, बोलिविया और पेरू दोनों में टिटिकाका झील के नजदीक, और वर्तमान दिन अयाकुचो शहर के पास वारी संस्कृति ने 500 से 1000 ईस्वी के बीच विशाल शहरी गांवों और व्यापक राष्ट्र स्थापित किया। उस समय तक, इंका धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। अधिकांश संस्कृतियां इंक के प्रति अपने निष्ठा जताने को तैयार नहीं थीं, लेकिन अंत में उनको साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। इंका साम्राज्य (1438-1532) इंका 15वीं शताब्दी में एक शक्तिशाली राष्ट्र बन कर उभरा और उसने पूर्व-कोलंबियाई अमेरिका में सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया और उसकी राजधानी कुज़्को में थी। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार और एकीकृत करते हुए अपने पड़ोसी राज्यों को अपने में सम्मलित कर लिया। 15वीं शताब्दी के मध्य में महान सम्राट पाचकुति के शासन में साम्राज्य विस्तार की गति में वृद्धि हुई। अपने और उसके बेटे टोपा इंका युपान्की के शासन काल में इंका ने एंडियन क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। पाचकुति ने अपने दूरदराज के साम्राज्य को नियंत्रित करने के लिए कानूनों का एक व्यापक संहिता भी प्रस्तुत किया, जबकि सूर्य के देवता के रूप में अपने पूर्ण अस्थायी और आध्यात्मिक अधिकार को मजबूत करते हुए, जिन्होंने एक शानदार पुनर्निर्मित कुस्को से शासन किया। इस युग के दौरान, इंका द्वारा पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के पूर्व में अमेज़ॅन वर्षावन से लेकर पश्चिम में प्रशांत महासागर और दक्षिण कोलंबिया से लेकर चिली तक जैसे बड़े हिस्से को एकीकृत करने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया गया। इन प्रयोगो में शांतिपूर्ण समझौतों से लेकर उनपर सशस्त्र विजय शामिल थे। क्वेशुआ, साम्राज्य की औपचारिक भाषा थी और साम्राज्य को तवांतिनुयू के रूप में जाना जाता था, जिसका अर्थ "चार एकीकृत प्रांत" या "चार क्षेत्र" होता है। हारे हुए समुदायों को भव्य राजधानी में श्रमदान और सम्मान प्रदान करना होता था। १६वीं शताब्दि में उत्तराधिकार को लेकर दो भाइयों अताहुल्पा और हूस्कर के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया और उसी समय 1530 के दशक में पेरू के तट पर स्पेनिश विजयविदो को आगमन हुआ। स्पेनिश विजय और औपनिवेशिक शासन (1532-1824) 1532 में, स्पेनिश विजयविद फ्रांसिस्को पिज़्ज़ारो के नेतृत्व में पेरू के चांदी और सोने में समृद्ध साम्राज्य को जीतने के उद्देश्य से पहुंचे। उस समय अताहुल्पा ने अपने भाई को हराकर सत्ता हासिल कर चुका था। पिज्जारो ने कजामार्का में इंका राजा, अताहुल्प को हरा दिया उसे पकड़ कर मौत की सजा दे दी गई। आखिरकार स्पेनिश सैनिकों ने नवंबर 1533 में कुज़्को पर भी कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने ह्यूना कैपेक के बेटे मैनको इंका युपांक्की को नए कठपुतली राजा के रूप में नियुक्त कर दिया। पिज्जारो ने वर्ष 1535 में अपने नए अधिग्रहीत क्षेत्रों की राजधानी के रूप में लीमा शहर को विकसित किया। मैनको इंका कुज़्को से भाग निकला और उसकी घेराबंदी की योजना बनाई जो कुछ महीनों तक चली, लेकिन सफल नहीं हुई। मैनको ने 1537 में ओलंटैटाम्बो में एक महत्वपूर्ण रक्षात्मक युद्ध जीता, लेकिन उसे पीछे हटना पड़ा। उसने जंगलो में विल्काबम्बा नाम की बस्ती से नव-इंका राष्ट्र की स्थापन की जोकि 1572 तक चला। 1541 में लीमा में डिएगो अल्माग्रो द्वारा पिज़्ज़ारो की हत्या कर दी गई, जोकि उसका पूर्व सहयोगी था। स्पेन ने 1542 में पेरू की गवर्नरशाही का गठन किया। इसमें ब्राजील अलावा दक्षिण अमेरिका के अधिकांश क्षेत्रों शामिल थे। इस अवधि के दौरान, पेरू की स्थानीय आबादी यूरोपीय बीमारियों की वजह से बहुत तेजी से कम होने लगी। स्थानीय लोगों को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित कराया गया और यूरोप के जंमीदार वर्ग के जमीनों में जबरन श्रम कराया जाता था। गवर्नर फ्रांसिस्को टोलेडो 1569 में जीते हुए क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए पेरू आए। उन्होंने वहां व्यापक सुधार किया, जिससे स्थानीय लोगों जिनके पास जमीन नहीं थी के शोषण को सुव्यवस्थित किया। यह दो सौ साल तक चला। 1700 के दशक की शुरुआत में, स्पैनिश साम्राज्य को और मजबूती प्रदान करने के लिए कुछ और सुधार लागु किए गए। यह सब स्थानीय अभिजात वर्ग के क्रेओल के खर्च से किया गये थे। हालांकि, इसका अनुमानित प्रभाव नहीं हुआ, क्योंकि उस समय तक सभी स्पेनिश उपनिवेशों में आजादी के लिए क्रांति पनपने लगी थी। स्वतंत्रता और आधुनिक पेरू पेरू की आजादी की क्रांति स्पेनिश-अमेरिकी भूमि मालिकों और उनकी सेना, वेनेजुएला के सिमोन बोलिवार और अर्जेंटीना के जोसे डी सैन मार्टिन के नेतृत्व से शुरू हुआ। सैन मार्टिन ने लगभग 4,200 सैनिकों की एक सेना का नेतृत्व किया। इस अभियान में युद्धपोतों भी शामिल थे जिसके लिये चिली द्वारा वित्त दिया गया था और अगस्त 1820 में वालपाराइसो से इसकी शुरुआत की गई। 28 जुलाई, 1821 को सैन मार्टिन ने निम्नलिखित शब्दों के साथ पेरू की आजादी की घोषणा की थी, 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, पेरू के राजधानी शहर लीमा ने समृद्धि का एक युग का आनंद लिया है। इस युग के दौरान लीमा में सबसे प्रतिष्ठित इमारतें बनाई गई, अधिकांशतः भव्य नवनिर्मित डिजाइन में जिसमें प्रारंभिक औपनिवेशिक युग की प्रतिलिपि थी। बैरनको और मिराफ्लोरेस जैसे तटीय आवासों को जोड़ने के लिए बड़े बुल्ववर्ड भी बनाए गए। 20वीं शताब्दी के मध्य तक, पेरू लोकतांत्रिक प्रशासन और सैन्य अत्याचारों के अंतःस्थापित कड़ी के साथ आर्थिक और राजनीतिक अशांति में उलझा रहा। जनरल जुआन वेलास्को ने सैन्य शासन लागू किया था, जिन्होंने मीडिया और तेल का राष्ट्रीयकृत किया और कृषि में कई सुधार किए। 1980 के दशक में गणतंत्र शासन वापस आ गया। हालांकि, देश मुद्रास्फीति के बहुत उच्च स्तर के साथ एक गंभीर आर्थिक आपदा में डूब चुका था। साथ ही, दो आतंकवादी समूह पनप चुके थे जिससे पेरू में काफी हिंसा फैल गई। 1990 के दशक में, तत्कालीन राष्ट्रपति अल्बर्टो फुजीमोरी ने कई कानूनों लागू किये जिससे वहां की आतंकवादी गतिविधियां समाप्त होने लगी। उन्होंने पेरू को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संरचना में फिर से एकीकृत किया। इसी दौर में ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों, खासकर लीमा में प्रवासन का दौर चालू हो गया था। इसके परिणामस्वरूप राजधानी में एक जनसांख्यिकीय विस्फोट हुआ। इस अवधि के दौरान कुज़्को और अरेक्विपा जैसे अन्य बड़े शहर भी तेजी से बढ़ने लगे। भूगोल पेरू, पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के 1,285,216 किमी2 (496,225 वर्ग मील) क्षेत्र में फैला हुआ है। यह उत्तर में इक्वाडोर और कोलंबिया, पूर्व में ब्राजील, दक्षिण-पूर्व में बोलीविया, दक्षिण में चिली, और पश्चिम में प्रशांत महासागर से घिरा हुआ है। एंडीज़ पर्वत प्रशांत महासागर के समानांतर स्थित हैं; ये भौगोलिक दृष्टि से देश का वर्णन करने के लिए परंपरागत रूप से उपयोग किए जाने वाले तीन क्षेत्रों को परिभाषित करते हैं। पश्चिम में कोस्टा (तट), एक संकीर्ण मैदान है, जो मौसमी नदियों द्वारा बनाए गए घाटियों को छोड़कर काफी हद तक शुष्क है। सिएरा (पहाड़ी क्षेत्र) एंडीज का क्षेत्र है; इसमें अल्टीप्लानो पठार के साथ-साथ देश की सबसे ऊंची चोटी, हुआस्करन 6,768 मीटर (22,205 फीट) शामिल है। तीसरा क्षेत्र सेल्वा (जंगल) है, जो अमेज़न वर्षावन द्वारा कवर सपाट इलाके का एक विस्तृत विस्तार है जो पूर्व में फैला हुआ है। देश का लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र, इस क्षेत्र के भीतर स्थित है। अधिकांश पेरूवियन नदियाँ एंडीज़ के शिखर में निकलती हैं और तीन में से एक बेसिन में समाती हैं। प्रशांत महासागर की तरफ जाने वाली नदी तीव्र ढलानवाली और छोटी होती हैं, जो केवल अंतःस्थापित होती हैं। अमेज़न नदी की सहायक नदियों में बहुत अधिक प्रवाह होता है, और सिएरा से बाहर निकलने के बाद लंबे और कम ढलानवाली होती हैं। टिटिकाका झील में समाने वाली नदियां आम तौर पर छोटी होती हैं और इनका बड़ा प्रवाह होता है। पेरू की सबसे लंबी नदियों में उकायाली, मारनॉन, पुतुमायो, यवारि, हुलागा, उरुबांबा, मंतरो और अमेज़न आदि हैं। टिटिकाका झील, पेरू की सबसे बड़ी झील है, यह एंडीज़ में पेरू और बोलीविया के बीच स्थित है, और दक्षिण अमेरिका की भी सबसे बड़ी झील है। पेरू के तटीय क्षेत्र में सबसे बड़े जलाशयों में पोचोस, टिनजोन, सैन लोरेन्ज़ो और एल फ्रैइल जलाशय आदि हैं। प्रशासन और राजनीति 1933 के संविधान के आधार पर पेरू, राष्ट्रपति द्वारा शासित किया जाता है। देश 3 मुख्य शाखाओं द्वारा प्रशासित किया जाता है: कार्यकारी, विधान, और न्यायिक। 18 से 70 वर्ष के बीच नागरिक मत देने के पात्र होते हैं। राष्ट्रपति राज्य और सरकार का मुखिया है और आधिकारिक वैश्विक मामलों में देश का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रपति 5 साल की अवधि के लिए चुने जाते हैं और पुन: चयन के लिए अयोग्य होते हैं। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रिपरिषद को गठन करते हैं। सदनीय कांग्रेस पांच साल के लिये, चुने गए 120 प्रतिनिधियों से बना होता है। न्यायिक शाखा को गणराज्य के सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रशासनित किया जाता है। दूसरे स्तर पर सुपीरियर कोर्ट आते है, इनके नीचे प्रथम दृष्टांत और शांति के न्यायालय आते हैं। न्यायपालिका तकनीकी रूप से स्वतंत्र है, हालांकि राजनीतिक हस्तक्षेप अभी भी आम बात हैं। समग्र 28 न्यायिक जिलें हैं। पेरूवियन सेना में थलसेना, नौसेना और वायु सेना शामिल है। पेरू के अधिकांश वैदेशिक संबंध, पड़ोसी देशों के साथ हुए क्षेत्रीय संघर्षों के कारण प्रभावित है। 20वीं शताब्दी के दौरान, इसके कई सीमा मुद्दों का समाधान हो चुका है। पेरू संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी राज्य संगठन, और राष्ट्रों के एंडियन समुदाय जैसे कई मान्यता प्राप्त संगठनों का एक सक्रिय सदस्य है। प्रशासनिक विभाग (प्रांत) पेरू 25 क्षेत्रों (प्रांत) और लीमा प्रांत (राजधानी क्षेत्र) में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक निर्वाचित सरकार होती है जो राष्ट्रपति और परिषद से बना होता है और चार साल की अवधी का होता है। ये सरकारें क्षेत्रीय विकास की योजना बनाती हैं, सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं को कार्यान्वित करती हैं, आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं और सार्वजनिक संपत्ति का प्रबंधन करती हैं। लीमा प्रांत को नगर परिषद द्वारा प्रशासित किया जाता है। लोकप्रिय भागीदारी में सुधार के लिए क्षेत्रीय और नगर पालिकाओं को सत्ता में लाने का कारण था। एनजीओ ने विकेंद्रीकरण प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अभी भी स्थानीय राजनीति को प्रभावित करती है। क्षेत्र (प्रदेश) अमेज़ॅनस एंकैश अपुरिमक एरेकिपा अयाकुचो कजमार्का कैलाओ कुज़्को हुआकावेलिका हुआनुको आईसीए जूनिन ला लिबर्टाड लैम्बेक लीमा क्षेत्र लोरेटो माद्रे डी डियोस मोकेगुआ पासको पियुरा पुनो सैन मार्टिन टैक्ना टम्ब्स उकायाली राजधानी क्षेत्र लीमा प्रांत अर्थव्यवस्था पेरू दक्षिण अमेरिकी क्षेत्र में सबसे व्यवसायिक अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। 2007 में इसका जीडीपी $198 बिलियन थी जोकी इसे अनुमानित क्रय शक्ति (पीपीपी) के आधार पर दुनिया की 49वां सबसे बड़ा देश बनाती है। उस वर्ष के दौरान, यहां लगभग 9% की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर दर्ज की गई थी। वर्तमान में पेरू की अर्थव्यवस्था दुनिया में 48वी सबसे बड़ी है। प्रमुख उद्योगों में खनन और परिष्करण खनिजों, इस्पात और धातु निर्माण, मछली पकड़ने और मछली प्रसंस्करण, कपड़ा, और खाद्य प्रसंस्करण शामिल हैं। सेवा क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद का 65% हिस्सा का प्रतिनिधित्व करता है; इसके बाद विनिर्माण 26.4% और 8.5% के साथ कृषि आते है। 1990 के दशक के मध्य में पेरूवियन अर्थव्यवस्था ने एक मजबूत विकास का अनुभव किया। जिसमें से विभिन्न निजीकरण क्षेत्रों में 46% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अर्थव्यवस्था में गत 1990 के दशक से 2000 के उत्तरार्ध के बीच स्थिरता देखी गई, जिसके लिये ज्यादातर एल निनो घटना, वैश्विक वित्तीय संकट और बढ़ती व्यापार स्थितियों को जिम्मेदार ठहराया गया। 2002 के मध्य तक, लगभग सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किये गये। मत्स्य पालन-निर्यात उद्योग में काफी सुधार हुआ और एंटामिना तांबा-जिंक खदान में एक पंजीकृत विस्तार किया गया जिसके बाद खनिजों और धातुओं के निर्यात क्षेत्र के व्यापार में सुधार किया गया। 2006 के अंत में नेट अंतरराष्ट्रीय रिजर्व $17 बिलियन और 2007 में $20 बिलियन से अधिक पहुंच गया, जोकि 2001 से करीब 11 बिलियन डॉलर अधिक था। १२ अप्रैल २००६ में, पेरू ने संयुक्त राज्य के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जो संयुक्त राज्य अमेरिका-पेरू व्यापार संवर्धन के रूप में जाना जाता है। नवंबर 2008 में, यह चीन-पेरू मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया गया। पेरूवियन सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए हैं जिसमें अगले 5 वर्षों में बहुत ही उत्कृष्ट आर्थिक विकास दृष्टिकोण शामिल हैं। संस्कृति पेरू की संस्कृति, अमेरिकी आदिवासी और हिस्पैनिक संस्कृतियों के बीच के संबंधों से प्रभावित रही है। पेरू की सांस्कृतिक विविधता ने विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों को अस्तित्व में रखने की अनुमति दी है। आजादी के बाद पेरू संस्कृति कई बौद्धिक स्तरों के माध्यम से औपनिवेशिक हिस्पैनिक से यूरोपीय स्वछंदतावाद की ओर गई हैं। आम तौर पर, पेरू तीन सामाजिक वर्गों में बना है। ऊपरी वर्ग अल्पसंख्यक है और आमतौर पर लीमा में स्थित है। वे पूरी आबादी का लगभग 3% बनाते हैं। पेशेवर और कर्मचारी मध्यम वर्ग के हैं। वे आबादी का लगभग 60% हिस्सा हैं। निचला वर्ग देश के किसानों/ग्रामीण लोगों (कैंपेसिनो) का बना हुआ है। पेरूवियन का वास्तुकला स्वदेशी कल्पना से प्रभावित यूरोपीय शैलियों के लिए संयोजक है। शुरुआती औपनिवेशिक काल के दौरान कुज़्को के सांता क्लारा और कैथेड्रल इसके दो परिचित उदाहरण हैं। औपनिवेशिक के बाद सफल अवधि बारोक है। बारोक अवधि का उदाहरण कुज्को विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को डी लीमा का कॉन्वेंट, और अरेक्विपा, कॉम्पेनिया और सैन अगुस्टिन के सांता रोजा के चर्चों का केंद्र है। पेरूवियन संगीत में लोक संगीत पूरी तरह से लिप्त है। ऐसे नृत्य हैं जो शिकार (एलली-पुली, choq'elas और गुडी-दादा), कृषि कार्य और युद्ध (जैसे chiriguano, chatripuli और केनेकेनास) के समय किये जाते थे। पेरू में सबसे अधिक किये जाने वाला नृत्य मारिनरा नॉर्टिना है। ऐसे कई नृत्यरूप भी हैं जो ईसाई प्रभाव को व्यक्त करते हैं। पेरू में एंडियन नृत्य के दो लोकप्रिय उदाहरण वेननो या हुयनो और कशुआ हैं। हुयनो बंद जगहों में जोड़ों द्वारा किया जाता है। कशुआ आमतौर पर खुली जगहों में समूहों में किया जाता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ पेरू में मिला ममी का ख़ज़ाना गुजरात और पेरू का संबंध? पेरू दक्षिण अमेरिका के देश स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र
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थिम्फू या थिम्पू (ज़ोंगखा भाषा:ཐིམ་ཕུ), पर्वतीय राष्ट्र भूटान की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है, और आसपास की घाटी भूटान के ज़ोंगखाओं मे से एक थिम्फू जिला है। 1955 में थिम्पू को भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा के स्थान पर राजधानी बनाया गया था, और 1961 में भूटान के तीसरे ड्रुक ग्याल्पो जिग्मे दोरजी वांगचुक ने थिम्पू को भूटान साम्राज्य की राजधानी घोषित किया था। शहर रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है, जिसे भूटान में वांग चू या थिम्फू चू के नाम से जाना जाता है। थिम्फू दुनिया की पाँचवीं सबसे ऊँची राजधानी है और जिसकी ऊँचाई 2,248 मीटर (7,375 फुट) से लेकर 2,648 मीटर (8,688 फुट) तक है। थिम्फू का अपना कोई हवाई अड्डा नहीं है और निकततम और भूटान का एकमात्र हवाई अड्डा यहाँ से लगभग 54 किलोमीटर (34 मील) की दूरी पर पारो में स्थित है। भूटान के राजनीतिक और आर्थिक केंद्र के रूप में थिम्फू, एक प्रमुख कृषि और पशुधन आधार है, जिसका देश के जीएनपी में 45% योगदान है। पर्यटन हालाँकि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक है, लेकिन उसे कड़ाई से विनियमित किया जाता है ताकि परंपरा, विकास और आधुनिकीकरण के बीच संतुलन बना रहे। थिम्फू में भूटान के अधिकांश महत्वपूर्ण राजनीतिक भवन स्थित हैं, जिसमें राष्ट्रीय सभा जो कि भूटान के नवगठित लोकतन्त्र प्रणाली का सदन है, और शहर के उत्तर में स्थित भूटान नरेश का आधिकारिक निवास डेचनचोलिंग महल शामिल है। थिम्पू "थिम्पू संरचना योजना", एक शहरी विकास योजना द्वारा समन्वित है जो 1998 में घाटी के नाजुक पारिस्थितिकी की रक्षा के उद्देश्य से विकसित हुई थी। यह विकास विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक से वित्तीय सहायता के साथ चल रहा है। भूटान की संस्कृति पूरी तरह से इसके साहित्य, धर्म, रीति-रिवाजों, राष्ट्रीय परिधान संहिता, मठों, संगीत, और नृत्य, और मीडिया में परिलक्षित होती है। षेचू एक महत्वपूर्ण त्योहार है जब मुखौटा नृत्य, जिसे लोकप्रिय रूप से चाम नृत्य के नाम से जाना जाता है, थिम्फू में ताशिचो ज़ोंग के आंगन में किया जाता है। यह हर साल सितंबर या अक्टूबर में आयोजित होने वाला एक चार दिवसीय त्योहार है, जो भूटानी कैलेंडर के अनुसार चलता है। इतिहास 1960 से पहले, थिम्फू छोटे छोटे पुरवाओं में बंटा हुआ था जिनमें मोतिथांग, चांगान्ग्खा, चांग्लीमिथांग, लांगछुपाखा, और तबा शामिल हैं और आधुनिक थिम्फू के जिलों की रचना करते हैं। आज जहाँ चांग्लीमिथांग खेल का मैदान स्थित है वहाँ पर 1885 में एक लड़ाई लड़ी गई थी जिसमें उगयेन वांगचुक की निर्णायक जीत ने उन्हें भूटान के पहले राजा के रूप में स्थापित कर दिया। उस समय के बाद से शहर में इस खेल के मैदान का बड़ा महत्व है; यहाँ फुटबॉल, क्रिकेट और तीरंदाजी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। आधुनिक चांग्लीमिथांग स्टेडियम का निर्माण 1974 में किया गया था। वांगचू राजवंश के सुधारवादी राजाओं के शासनकाल में, देश ने लगातार शांति बनी रही और देश प्रगति को ओर अग्रसर रहा। तीसरे भूटान नरेश जिग्मे दोरजी वांगचुक ने पुरानी छद्म सामंती व्यवस्थाओं में सुधार करते हुए कृषिदासता को समाप्त कर भूमि का किसानों में पुनर्वितरण किया और कराधान में सुधार किया। उन्होंने कई कार्यकारी, विधायी और न्यायपालिका सुधारों की शुरुआत की। सुधार जारी रहे और 1952 में राजधानी को पुनाखा से थिम्पू में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया गया। चौथे नरेश, जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने देश को विकास के लिए खोला और भारत ने इस प्रक्रिया में भूटान को वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता प्रदान करने के साथ आवश्यक प्रोत्साहन भी दिया । 1961 में, थिम्पू आधिकारिक रूप से भूटान की राजधानी बन गई। भूटान 1962 में कोलम्बो योजना, 1969 में सार्वभौम डाक संघ में शामिल हो गया और 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया। थिम्पू में राजनयिक मिशनों और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग संगठनों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप महानगर के रूप में थिम्पू का तेजी से विस्तार हुआ। चौथे राजा, जिन्होंने 1953 में राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) का गठन किया, ने 1998 में जनता द्वारा चुने गए मंत्रियों की एक परिषद को सभी कार्यकारी शक्तियों को सौंप दिया। उन्होंने राजा पर अविश्वास मत देने की एक प्रणाली शुरू की, जिसने संसद को सम्राट को हटाने का अधिकार दिया। थिम्पू में राष्ट्रीय संविधान समिति ने 2001 में भूटान साम्राज्य के संविधान का मसौदा तैयार करना शुरू किया। 2005 में, भूटान के चौथे राजा ने अपने राज्य की बागडोर अपने बेटे युवराज जिग्मे खेसर भाग्यल वांगचुक को सौंपने के अपने फैसले की घोषणा की। राजा का राज्याभिषेक नवीकृत चांग्लीमिथांग स्टेडियम थिम्पू में हुआ और वांगचुक राजवंश की स्थापना के शताब्दी वर्ष के साथ हुआ। 2008 में, इसने पूर्ण सकल राजतंत्र से संसदीय लोकतांत्रिक संवैधानिक राजतंत्र में परिवर्तन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, और थिम्फू नई सरकार का मुख्यालय बन गया। "सकल राष्ट्रीय खुशी" (GNH) के राष्ट्रीय परिभाषित उद्देश्य के साथ सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में वृद्धि प्राप्त करने का संकल्प लिया गया। भूगोल जलवायु जनसाँख्यिकी शहरी संरचनाएं नगर आयोजना शहरी विस्तार वास्तुकला अर्थव्यवस्था सरकार एवं लोक प्रशासन कानून-व्यवस्था स्वास्थ्य सेवा संस्कृति धर्म शिक्षा परिवहन जुडवा शहर मनोकवारी, इंडोनेशिया होक्काइडो, जापान खेल मीडिया थिम्फू (; ), पहले थिम्बु के नाम से जाना जाता था। यह भूटान का सबसे बड़ा शहर तथा भूटान देश की राजधानी भी है।। थिम्फू भूटान के पश्चिमी केन्द्रीय भाग में स्थित हैं। थिम्पू, भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है। भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा थी जिसे १९६१ में बदलकर थिंपू को राजधानी बनाया गया। यह नगर, रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है जिसे भूटान में 'वांग चू' या 'थिम्पू चू' के रूप में जाना जाता है। थिम्फु दुनिया में चौथी सबसे ऊँची राजधानी है (2,248 मीटर से 2,648 मीटर तक)। थिम्पू का अपना हवाई अड्डा नहीं है, लेकिन लगभग 54 किलोमीटर दूर पारो हवाई अड्डा है जो थिम्पू से सड़क से जुड़ा है। थिम्फू वास्तव में एक कस्बे के रूप में तब तक मौजूद नहीं था जब तक कि यह 1961 में भूटान की राजधानी नहीं बन गया। थिम्पू में 1962 में पहला वाहन दिखाई दिया और शहर 1970 के दशक के अन्त तक बहुत कुछ गाँव जैसा था। 1990 के बाद से जनसंख्या नाटकीय रूप से बढ़ी है, और अब अनुमानतः 90,000 होने का अनुमान है। यहाँ का ताशी छो डोज़ोंग (पहाड़ी दुर्ग) पारम्परिक दुर्ग और मठ है जिसे जिसे शाही सरकार के कार्यालयों के रूप में उपयोग किया जा रहा है। यह पारम्परिक भूटानी वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूना है। शाही महल के आस-पास के खेत कृषि को दी जाने वाली उच्च प्राथमिकता को दर्शाते हैं। क्षेत्र में प्रमुख फसलें चावल, मक्का और गेहूं हैं। 1966 में एक जलविद्युत संयंत्र का संचालन शुरू हुआ। शहर में हवाई जहाज उतारने की एक पट्टी है। भारत-भूटान राष्ट्रीय राजमार्ग (1968 को खोला गया) थिम्फू को भारत के भूटान के मुख्य प्रवेश द्वार, फंटशोलिंग से जोड़ता है। इतिहास सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ भूटान एशिया में राजधानियाँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "थिम्फू", "token_count": 9178, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%82" }
चंदन दास मशहूर गज़ल गायक हैं।ुन्के प्रमुख गाने इस प्रकार है--आ भी जाओ के जिन्दगी कम है, कल खाब मे देखा सखी मैने पिया का गाओ रे, जब मेरी हकीकत जा जा कर, जब कोइ फैसला कीजिये, साथ छूटेगा कैसे मेरा आपका। सन्दर्भ गायक
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "चंदन दास", "token_count": 317, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8" }
केदारनाथ (Kedarnath) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल मण्डल के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले के मुख्यालय, रुद्रप्रयाग से 86 किमी दूर है। यह केदारनाथ धाम के कारण प्रसिद्ध है, जो हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए पवित्र स्थान है। यहाँ स्थित केदारनाथ मंदिर का शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है, और हिन्दू धर्म के चारधाम और पंच केदार में गिना जाता है।। विवरण श्रीकेदारनाथ का मंदिर ३,५९३ मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊँचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इस बारे में आज भी पूर्ण सत्य ज्ञात नहीं हैं। सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा। राजा केदार ने सात महाद्वीपों पर शासन और वे एक बहुत पुण्यात्मा राजा थे। उनकी एक पुत्री दो पुत्र थे । पुत्रका नाम कार्तिकेय (मोहन्याल) व गणेश था । गणेश बुद्दि व कार्तिकेय (मोहन्याल) शक्ति के राजा देवता के रुपमे संसार प्रसिद्द है ।उनकी एक पुत्री थी वृंदा जो देवी लक्ष्मी की एक आंशिक अवतार थी। वृंदा ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की थी। वृंदा के नाम पर ही इस स्थान को वृंदावन भी कहा जाता है। यहाँ तक पहुँचने के दो मार्ग हैं। पहला १४ किमी लंबा पक्का पैदल मार्ग है जो गौरीकुण्ड से आरंभ होता है। गौरीकुण्ड उत्तराखंड के प्रमुख स्थानों जैसे ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून इत्यादि से जुड़ा हुआ है। दूसरा मार्ग है हवाई मार्ग। अभी हाल ही में राज्य सरकार द्वारा अगस्त्यमुनि और फ़ाटा से केदारनाथ के लिये पवन हंस नाम से हेलीकाप्टर सेवा आरंभ की है और इनका किराया उचित है। सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण मंदिर बंद कर दिया जाता है और केदारनाथ में कोई नहीं रुकता। नवंबर से अप्रैल तक के छह महीनों के दौरान भगवान केदा‍रनाथ की पालकी गुप्तकाशी के निकट उखिमठ नामक स्थान पर स्थानांतरित कर दी जाती है। यहाँ के लोग भी केदारनाथ से आस-पास के ग्रामों में रहने के लिये चले जाते हैं। वर्ष २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार केदारनाथ की जनसंख्या ४७९ है, जिसमें ९८% पुरुष और २% महिलाएँ है। साक्षरता दर ६३% है जो राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक है (पुरुष ६३%, महिला ३६%)। ०% लोग ६ वर्ष से नीचे के हैं। भ्रमण यहां स्थापित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केदारनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगतगुरु शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी। उन्हीं ने वर्तमान मंदिर बनवाया था। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे। श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है। यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं। केदारनाथ आने के लिए कोटद्वार जो कि केदारनाथ से २६० किलोमीटर तथा ऋर्षिकेश जो कि केदारनाथ से २२९ किलोमीटर दूर है तक रेल द्वारा आया जा सकता है। सड़क मार्ग द्वारा गौरीकुण्ड तक जाया जा सकता है जो कि केदारनाथ मंदिर से १४ किलोमीटर पहले है। यहां से पैदल मार्ग या खच्चर तथा पालकी से भी केदारनाथ जाया जा सकता है। नजदीक हवाई अड्डा जौली ग्रांट २४६ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, यहां से केदारनाथ के लिए हवाई सेवा हाल ही में शुरू हुई है जो सुलभ है। आवागमन हिमालय के पवित्र तीर्थों के दर्शन करने हेतु तीर्थयात्रियों को रेल, बस, टैक्सी आदि के द्वारा हरिद्वार आना चाहिए। हरिद्वार से उत्तराखंड की यात्राओं के लिए साधन उपलब्ध होते हैं। हरिद्वार से केदारनाथ की दूरी 247 किलोमीटर है। हरिद्वार से गौरीकुण्ड 233 किलोमीटर की यात्रा मोटरमार्ग से की जाती है, जबकि गौरी कुण्ड से केदारनाथ तक 14 किलोमीटर की दूरी पैदल मार्ग से जाना पड़ता है। पैदल चलने में असमर्थ व्यक्ति के लिए गौरी कुण्ड से घोड़ा, पालकी, पिट्ठू आदि के साधन मिलते हैं। यह यात्रा हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, तिलवाड़ा, अगस्त्यमुनि कुण्ड, गुप्तकाशी, नाला, फाटा, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड, रामबाढ़ा और गरुड़चट्टी होते हुए श्रीकेदारनाथ तक पहुँचती है। इतिहास केदारनाथ भारत के उत्तराखंड राज्य में एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यह हिंदुओं का अत्यधिक धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। "केदारनाथ का इतिहास" हिंदू पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से निकटता से जुड़ा हुआ है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, केदारनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में एक है, जिन्हें भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास माना जाता है। कहानी यह है कि कुरुक्षेत्र युद्ध (जैसा कि भारतीय महाकाव्य महाभारत में वर्णित है) के बाद, पांडवों ने युद्ध के दौरान किए गए अपने पापों, विशेषकर अपने रिश्तेदारों की हत्या के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगी। हालाँकि, शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे और उन्होंने एक बैल (नंदी) का रूप धारण किया और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में छिप गए। माफी मांगने के लिए दृढ़ संकल्पित पांडवों ने शिव का पीछा किया और अंततः उन्हें मंदाकिनी और गंगा नदियों के संगम पर पाया। उन्हें पहचानकर, शिव ने जमीन में गोता लगाया, लेकिन भीम (पांडवों में से एक) ने बैल की पूंछ पकड़ ली। शिव ने उनकी दृढ़ता और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें क्षमा कर दी और पांच अलग–अलग स्थानों पर अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए, जिन्हें अब पंच केदार के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि बैल का कूबड़ केदारनाथ में प्रकट हुआ था, जहां भगवान शिव के सम्मान में एक मंदिर बनाया गया था। माना जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में महान भारतीय दार्शनिक और धर्मशास्त्री आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था। उन्हें कई हिंदू मठ संस्थानों की स्थापना करने और पूरे भारत में हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया जाता है। मंदिर की वास्तुकला हिंदू और तिब्बती शैलियों का मिश्रण दर्शाती है। चित्रदीर्घा इन्हें भी देखें केदारनाथ रुद्रप्रयाग ज़िला बाहरी कड़ियाँ केदारनाथ का आधिकारिक जालस्थल श्री केदारनाथ जी की आरती केदारनाथ यात्रा मार्गदर्शिका History of Kedarnath सन्दर्भ उत्तराखण्ड के नगर रुद्रप्रयाग जिला रुद्रप्रयाग ज़िले के नगर भारत के तीर्थ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "केदारनाथ नगर", "token_count": 8148, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5%20%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0" }
बेतवा नदी (Betwa River), जिसका प्राचीन नाम वेत्रवती (Vetravati) था, भारत के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना नदी की उपनदी है। यह मध्य प्रदेश में रायसेन ज़िले के कुम्हारागाँव से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झाँसी, ललितपुर आदि ज़िलों से होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं, किन्तु झाँसी के निकट यह काँप के मैदान में धीमे-धीमें बहती है। इसकी सम्पूर्ण लंबाई 590 किलोमीटर है। यह बुंदेलखण्ड पठार की सबसे लम्बी नदी है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सांची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं। लोगों का मानना है कि,आल्हा की लडाई में इतना खून बहाया गया की पूरी नदी लाल हो गयी थी उस समय से अब तक यहां लाल रंग का मौरंग पाया जाता है।बीना नदी इसकी एक प्रमुख उपनदी है। लोक संस्कृति में भारतीय नौसेना ने बैटवा नदी के सम्मान में एक फ्रिगेट्सको आईएनएस बेतवा नाम दिया है। इन्हें भी देखें बीना नदी यमुना नदी बाहरी कड़ियाँ बेतवा नदी (इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)) सन्दर्भ मध्य प्रदेश की नदियाँ उत्तर प्रदेश की नदियाँ यमुना नदी की उपनदियाँ
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ओक्लाहोमा () संयुक्त राज्य के दक्षिण मध्य क्षेत्र में एक राज्य है। इसे 1907 में 46वें राज्य के रूप में संघ में भर्ती किया गया था। इसकी सीमा पूर्व में अर्कांसस और मिसौरी से, उत्तर में केन्सास से, कॉलोराडो से उत्तर-पश्चिम में, न्यू मेक्सिको से दूर पश्चिम में और टेक्सास से दक्षिण में लगती है। ओक्लाहोमा सिटी राज्य की राजधानी है। राज्य का ज्यादातर हिस्सा 1803 में अमेरिका ने फ्रांस से खरीदा था। 1889 तक यह इलाका मूल अमेरिकी लोगों के लिये आरक्षित था। उसके बाद केंद्रीय सरकार ने यहाँ बसने के लिये लोगों को अनुमति दी। राज्य का ज्यादातर हिस्सा ग्रेट प्लेन और प्रेरी में आता है। अलास्का और कैलिफ़ोर्निया के बाद ओक्लाहोमा में सर्वाधिक मूल अमरीकी बसते हैं। हालांकि अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा का दर्जा प्राप्त है पर कुछ मूल अमरीकी भाषाओं को कुछ काउंटी में अधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। 2016 के अनुमान मुताबिक राज्य की जनसंख्या 39,23,561 है। इस हिसाब से इसका सारे अमेरिकी राज्यों में 28वां स्थान हुआ। क्षेत्र के हिसाब से इसका 20वां स्थान है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य
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वेद, प्राचीन भारत वर्ष के पवित्र साहित्य हैं जो धरती के प्राचीनतम सनातन हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन एवं वर्णाश्रम धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है जानना,अतः वेद का शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान' । इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। इन्हें देववाणी के रूप में माना गया है| इसीलिए ये ' श्रुति' कहलाते हैं| वेदों को परम सत्य माना गया है| उनमें लौकिक अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान भरा पड़ा है| प्रत्येक वेद के चार अंग हैं| वे हैं वेदसंहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद्| आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार हैं :- ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या १०४६२,मंडल की संख्या १० तथा सूक्त की संख्या १०२८ है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या ४३२००० है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि। यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये १९७५ गद्यात्मक मन्त्र हैं। सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में लगे सुर को गाने के लिये १८७५ संगीतमय मंत्र। अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये ५९७७ कवितामयी मन्त्र हैं। चारों वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है| यज्ञ करने में चार प्रकार के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है| यथा- • होता • उद्गाता •अध्वर्यु • ब्रह्मा | को अपौरुषेय (जिसे किसी पुरुष के द्वारा न किया जा सकता हो, (अर्थात् ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे; के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। क्योंकि इन्हें सुनकर के लिखा गया था। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, अर्थात वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद मंत्रों की व्याख्या करने के लिए अनेक ग्रंथों जैसे ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद की रचना की गई। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ स्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्त्व बना हुआ है। वेदों को समझना प्राचीन काल से ही पहले भारतीय और बाद में संपूर्ण विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों - शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र - पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदांत व दस उपनिषद् - इशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य माधवीय वेदार्थदीपिका बहुत मान्य हैं। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अतः वे इसमें लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं - लेकिन ये भारतीय परंपरा और गुरुओं की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर कई विद्वानों में असहमति बनी रही है। वेदों में अनेक वैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होते हैं। कालक्रम मुख्य लेख वैदिक सभ्यता वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और "वेदांग" ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेयता कुछ विद्वान वैदिक काल की अवधि 1500-600 ईसा पूर्व मानते हैं तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं। जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो 1000 ईसा पूर्व से लेकर 200 ई.पूर्व तक है। कुछ विद्वान इन्हे ताम्र पाषाण काल (4000 ईसा पूर्व) का मानते हैं। वेदों के बारे में यह मान्यता भी प्रचलित है कि वेद सृष्टि के आरंभ से हैं और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। वेदों में किसी भी मत, पंथ या सम्प्रदाय का उल्लेख न होना यह दर्शाता है कि वेद विश्व में सर्वाधिक प्राचीनतम साहित्य है। वेदों की प्रकृति विज्ञानवादी होने के कारण पश्चिमी जगत में इनका डंका बज रहा है। वैदिक काल, वेद ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, संपूर्ण उत्तर भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, बुद्ध और पाणिनी के काल में भी वेदों का बहुत अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था यह भी प्रमाणित है। माइकल विटजेल भी एक समय अवधि देता है 1500 से 500-400 ईसा पूर्व, माइकल विटजेल ने 1400 ईसा पूर्व माना है, उन्होंने विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1200 ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया। मैक्समूलर ऋग्वेद का रचनाकाल 1200 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के काल के मध्य मानता है। दयानन्द सरस्वती चारों वेदों का काल 1960852976 वर्ष हो चुके हैं यह (1876 ईसवी में) मानते है। वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल (322-185 ई० पू०) में बौद्ध धर्म (600 ई० पू०) के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है। इसी काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। इसी काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो व्याकरणाचार्य कात्यायन और पतञ्जलि उत्तर मौर्य काल में हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रही। माइकल विटजेल ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि "वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखे बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि जैक गूडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों कि एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पाद" कहते हैं। वैदिक काल में पुस्तकों को ताड़ के पेड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं। प्राचीन विश्वविद्यालय वेद, वैदिक अनुष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वेदांग कहलाते थे, ये वेदांग प्राचीन विश्वविद्यालयों जैसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला में पाठ्यक्रम का हिस्सा थे। वेद-भाष्यकार प्राचीन काल में माना जाता है कि ब्रह्मा , विष्णु , महेश (शिव), ने ही सारे संसार का संचालन किया है और सारे देवता उसमें सहायक होते हैं। भगवान शिव ने सात ऋषियों को वेद ज्ञान दिया। इसका उल्लेख गीता में हुआ है। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। व्यास ऋषि ने गीता में कई बार वेदों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक्र किया है। अध्याय 2 में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वेदों की अलंकारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगेंगे। मध्यकाल में सायण आचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे। आधुनिक काल में राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज और दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज लगभग एक ही समय (1800-1900 ईसवी) में वेदों के सबसे बड़े प्रचारक बने। दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद और ऋग्वेद का लगभग सातवें मंडल के कुछ भाग तक भाष्य किया। सामवेद और अथर्ववेद का भाष्य पं० हरिशरण सिद्धान्तलंकार ने किया है। वैदिक संहिताओं के अनुवाद में रमेशचंद्र दत्त बंगाल से, रामगोविन्द त्रिवेदी एवं जयदेव वेदालंकार के हिन्दी में एवं श्रीधर पाठक का मराठी में कार्य भी लोगों को वेदों के बारे में जानकारी प्रदान करता रहा है। इसके बाद गायत्री तपोभूमि के श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी वेदों के भाष्य प्रकाशित किये हैं - इनके भाष्य सायणाधारित हैं। अन्य भी वेदों के अनेक भाष्यकार हैं। वेदों का प्रकाशन वेदों का प्रकाशन शंकर पाण्डुरंग ने सायण भाष्य के अलावा अथर्ववेद का चार खण्ड में प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक ने ओरायन और द आर्कटिक होम इन वेदाज़ नामक दो ग्रंथ वैदिक साहित्य की समीक्षा के रूप में लिखे। बालकृष्ण दीक्षित ने सन् 1877 ई० में कोलकाता से सामवेद पर अपने ज्ञान का प्रकाशन कराया। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने सातारा में चारों वेदों की संहिता का श्रमपूर्वक प्रकाशन कराया। तिलक विद्यापीठ, पुणे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वेद के सायण भाष्य के प्रकाशन को भी प्रामाणिक माना जाता है। विदेशी प्रयास सत्रहवीं सदी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के भाई दारा शूकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया (सिर्र ए अकबर,سرّ اکبر महान रहस्य) जो पहले फ्रांसिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। मैक्स मूलर जैसे यूरोपीय विद्वान ने भी संस्कृत और वैदिक साहित्य पर बहुत अध्ययन किया है। लेकिन यूरोप के विद्वानों का ध्यान हिन्द आर्य भाषा परिवार के सिद्धांत को बनाने और उसको सिद्ध करने में ही लगा हुआ है। शब्दों की समानता को लेकर बने इस सिद्धांत में ऐतिहासिक तथ्यों और काल निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही पड़ता है। इस कारण से वेदों की रचना का समय १८००-१००० ईसा पूर्व माना जाता है जो संस्कृत साहित्य और हिन्दू सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन आर्य जातियों के प्रयाण के सिद्धांत के तहत और भाषागत दृष्टि से यही काल इन ग्रंथों की रचना का मान लिया जाता है। वेदों का काल वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 2074) को 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदों को संरक्षित करने अथवा अच्छी तरह से समझने के लिये वेदों से ही वेदांगों का आविष्कार किया गया। इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे ५००० से ७००० साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं। वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक व ब्रह्मांड के अनंत राज बताते हैं जो साधारण समझ से परे हैं। वेद की पुरातन नीतियां व ज्ञान इस दुनिया को न केवल समझाते हैं अपितु इसके अलावा वे इस दुनियां को पुनः सुचारू तरीके से चलाने में मददगार साबित हो सकते हैं। वेदों का महत्व प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम (हिन्दू) धर्म के अनुसार वैदिक काल में ब्रह्मा से लेकर वेदव्यास तथा जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने शब्द, प्रमाण के रूप में इन्हीं को माना है और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किया है। पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहते हैं। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परम्परा रही है <ref>शतपथ ब्राह्मण के अनुसार - अग्नेर्वाऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः, यानि अग्नि ऋषि से ऋक्, वायु ऋषि से यजुस् और सूर्य ऋषि से सामवेद का ज्ञान मिला। अंगिरस ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान मिला। इससे ब्रह्मा जैसे ऋषियोंने चारो वेदौंकी शिक्षाको स्वयं साक्षात्कार कर अन्य विद्वानों में फैलाया। श्रुतिपरंपरा में वेदग्रहणकालमें ब्रह्मा के चतुर्मुख होने का वर्णन आया है </ref>। अतः फलस्वरूप एक ही वेद का स्वरुप भी मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् के रुप में चार ही माना गया है। इतिहास (महाभारत), पुराण आदि महान् ग्रन्थ वेदों का व्याख्यान के स्वरूप में रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए। वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है। वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य कहा गया है कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्" और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् समग्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद के रूप में वेद ही धर्म व धर्मशास्त्र का मूल आधार है। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता को जानने का वेद ही तो एकमात्र साधन है। मानव-जाति और विशेषतः वैदिकों ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान केवल वेदों से मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम ग्रन्थ (पुस्तक) माना जाता है। भारतीय भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है। यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया। विवेचना प्राचीन काल में, भारत में ही, इसकी विवेचना के अंतर के कारण कई मत बन गए थे। मध्ययुग में भी इसके भाष्य (व्याख्या) को लेकर कई शास्त्रार्थ हुए। वैदिक सनातन वर्णाश्रमी इसमें वर्णित चरित्रों देव को पूज्य और मूर्ति रूपक आराध्य समझते हैं जबकि दयानन्द सरस्वती सहित अन्य कईयों का मत है कि इनमें वर्णित चरित्र (जैसे अग्नि, इंद्र आदि) एकमात्र ईश्वर के ही रूप और नाम हैं। इनके अनुसार देवता शब्द का अर्थ है - (उपकार) देने वाली वस्तुएँ, विद्वान लोग और सूक्त मंत्र (और नाम) न कि मूर्ति-पूजनीय आराध्य रूप। वैदिक विवाद आर्यन आक्रमण थ्योरी पुरी तरह अब खंडित हो जाने से कोई वैदिक विवाद नही है। सरल बात है कि आर्य आर्यावर्त या भारतवर्ष के मूल वासी हैं। तथा निराधार आर्यन आगमन कि थ्योरी अंग्रेज़ों ने गढी थी। कुछ देशभक्त जैसे बाल गंगाधर तिलक भी इन सच्चाई ढंग से लिखने लगे। उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वे तो जो कुछ लिखे, अंग्रेजों के वैदिक अनुवाद का अध्ययन करके ही लिखे वैदिक वांगमय का वर्गीकरण वैदिकौं का यह सर्वस्वग्रन्थ 'वेदत्रयी' के नाम से भी विदित है। पहले यह वेद ग्रन्थ एक ही था जिसका नाम यजुर्वेद था- एकैवासीद् यजुर्वेद चतुर्धाः व्यभजत् पुनः वही यजुर्वेद पुनः ऋक्-यजुस्-सामः के रूप मे प्रसिद्ध हुआ जिससे वह 'त्रयी' कहलाया। बाद में वेद को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वेद के तीन या चार विभाग किए गए। तब उनको ऋग्यजुसामके रुप में वेदत्रयी अथवा बहुत समय बाद ऋग्यजुसामाथर्व के रूप में चतुर्वेद कहलाने लगे। मंत्रों का प्रकार और आशय यानि अर्थ के आधार पर वर्गीकरण किया गया। इसका आधार इस प्रकार है - वेदत्रयी वैदिक परम्परा दो प्रकार की है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनों परम्पराओं में वेदत्रयी परम्परा प्राचीन काल में प्रसिद्ध थी। विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती हैं: पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं - वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद वेद का गायन भाग - सामवेद पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजुः' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ‘'साम'’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यजुर्वेद गद्यसंग्रह है, अत: इस यजुर्वेद में जो ऋग्वेद के छंदोबद्ध मंत्र हैं, उनको भी यजुर्वेद पढ़ने के समय गद्य जैसा ही पढ़ा जाता है। चतुर्वेद द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों मे संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। बाद में जब अथर्व भी वेद के समकक्ष हो गया, तब ये 'त्रयी' के स्थान पर 'चतुर्वेद' कहलाने लगे । गुरु के रुष्ट होने पर जिन्होने सभी वेदों को आदित्य से प्राप्त किया है उन याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति मे वेदत्रयी के बाद और पुराणों के आगे अथर्व को सम्मिलित कर बोला वेदाsथर्वपुराणानि इति। वर्तमान काल में वेद चार हैं- लेकिन पहले ये एक ही थे। वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। परंतु इन चारों को मिलाकर एक ही 'वेद ग्रंथ' समझा जाता था।एकैवासीत्यजुर्वेदस्तंचतुर्धाःव्यवर्तयत् - गरुड पुराण लक्षणतः त्रयी होते हुये भी वेद एक ही था, फिर उसको चार भागों में बाँटा गया। एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय - महाभारत अन्य नाम वेदों को सुनने से फैलने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद रखने के कारण व सृष्टिकर्ता ब्रहमाजी द्वारा भी अपौरुषेय वाणी के रुप में प्राप्त करने के कारण श्रुति, स्वतः प्रमाण के कारण आम्नाय, पुरुष (जीव) भिन्न ईश्वरकृत होने से अपौरुषेय इत्यादि नाम भी दिये जाते हैं। वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को ‘'श्रुति'’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘'आम्नाय’' भी है। वेदों की रक्षार्थ महर्षियों ने अष्ट विकृतियों की रचना की है -जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः | अष्टौ विकृतयः प्रोक्तो क्रमपूर्वा महर्षयः || जिसके फलस्वरुप प्राचीन काल की तरह आज भी ह्रस्व, दीर्घ, प्लूत और उदात्त, अनुदात्त स्वरित आदि के अनुरुप मन्त्रोच्चारण होता है। साहित्यिक दृष्टि से इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं। पहले भाग मन्त्रभाग (संहिता) के अलावा अन्य तीन भाग को वेद न मानने वाले भी हैं लेकिन ऐसा विचार तर्कपूर्ण सिद्ध होते नहीं देखा गया हैं। अनादि वैदिक परम्परा में मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद एक ही वेद के चार अवयव है। कुल मिलाकर वेद के भाग ये हैं :- संहिता मन्त्रभाग- यज्ञानुष्ठान मे प्रयुक्त व विनियुक्त भाग। ब्राह्मण-ग्रन्थ - यज्ञानुष्ठान में प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायुक्त गद्यभाग में कर्मकाण्ड की विवेचना। आरण्यक - यज्ञानुष्ठान के आध्यात्मपरक विवेचनायुक्त भाग अर्थ के पीछे के उद्देश्य की विवेचना। उपनिषद - ब्रह्म माया व परमेश्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन वाला भाग। जैसा की कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रखण्ड में ही ब्राह्मण है। शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में ही ईशावास्योपनिषद है। उपर के चारों खंड वेद होने पर भी कुछ लोग केवल 'संहिता' को ही वेद मानते हैं। वर्गीकरण का इतिहास द्वापरयुग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। पिप्लाद, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक -चार शिष्यों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की शिक्षा दी। इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीन वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे वैदिक ग्रन्थ, चरण, शाखा, प्रतिशाखा और अनुशाखा के माध्यम से अनेक रूपों में विस्तारित हो गये व उन्हीं प्रचारक ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन अनेक विद्वानों का मानना है कि वेद आरंभ से ही चार हैं। शाखा पूर्वोक्त चार शिष्यों ने शुरु में जितने शिष्यों को अनुश्रवण कराया वे चरण समूह कहलाये। प्रत्येक चरण समूह में बहुत सी शाखाएं होती हैं और इसी तरह प्रतिशाखा, अनुशाखा आदि बन गए। वेद की अनेक शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका बतायी गयी हैं। ऋषि पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1001, अर्थववेद की 9 अतः इस प्रकार 1131 शाखाएं हैं परन्तु आज 12 शाखाओं के ही मूल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वेद की प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है: 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक 4. उपनिषद्। कुछ लोग इनमें संहिता को ही वेद मानते हैं। शेष तीन भाग को वेदों के व्याख्या ग्रन्थ मानते हैं। अलग अलग शाखाओं में मूल संहिता तो वही रहती है लेकिन आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर आ जाता है। कई मंत्र भागों में भी उपनिषद मिलता है जैसा कि शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में इशावास्योपनिषद। पुराने समय में जितनी शाखाएं थी उतने ही मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते थे। इतनी शाखायें होने के बाबजूद भी आजकल कुल ९ शाखाओं के ही ग्रंथ मिलते हैं। अन्य शाखाओं में किसी के मन्त्र, किसी के ब्राह्मण, किसी के आरण्यक तो किसी के उपनिषद ही पाया जाता है। इतना ही नही, कई शाखाओं के तो केवल उपनिषद ही पाए जाते हैं, तभी तो उपनिषद अधिक मिलते हैं। वेदों के विषय वैदिक ऋषियौ ने वेदों को जनकल्याणमे प्रवृत्त पाया। निस्संदेह जैसा कि -:यथेमां वाचं कल्याणिमावदानि जनेभ्यः वैसा ही वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् वेदौं की प्रवृत्तिः जनकल्यण के कार्य मे है। वेद शब्द विद् धातु में घं प्रत्यय लगने से बना है। संस्कृत ग्रथों में विद् ज्ञाने और विद्‌ लाभे जैसे विशेषणों से विद् धातु से ज्ञान और लाभ के अर्थ का बोध होता है। वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं। ग्रंथों के हिसाब से इनका विवरण इस प्रकार है - ऋग्वेद ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं 10647 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है। यजुर्वेद इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें 15 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है। सामवेद यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है। अथर्ववेद इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह 20 काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है। उपवेद, उपांग प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ दर्शऩ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है। धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं। गन्धर्वेद - गायन कला। आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान। वेद के अंग वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द, और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं जिन्हें ६ अंग कहते हैं। अंग के विषय इस प्रकार हैं - शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण। निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किस लिये आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय हैं। व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक। छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश। ५.कल्प - यज्ञ के लिए विधिसूत्र। इसके अन्तर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र |वेदोक्त कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करनेमे इनका महत्व है। ६.ज्योतिष - समय का ज्ञान और उपयोगिता| आकाशीय पिंडों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से । इसमें वेदांगज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेदके अलग अलग थे | अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांगज्योतिषों में दो ग्रन्थ ही पाए जा रहे हैं -एक आर्च पाठ और दुसरा याजुस् पाठ | इस ग्रन्थ में सोमाकर नामक विद्वानके प्राचीन भाष्य मिलता है साथ ही कौण्डिन्न्यायन संस्कृत व्याख्या भी मिलता है। वैदिक स्वर प्रक्रिया वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित के नाम से अभिहित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है। स्वरों को अधिक या न्यून रूप से बोले जाने के कारण इनके भी दो-दो भेद हो जाते हैं। जैसे उदात्त-उदात्ततर, अनुदात्त-अनुदात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त। इनके अलावा एक और स्वर माना गया है - श्रुति - इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो जाता है। इस प्रकार कुल स्वरों की संख्या ७ हो जाती है। इन सात स्वरों में भी आपस में मिलने से स्वरों में भेद हो जाता है जिसके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन हो जाता है। यद्यपि इन स्वरों के अंकण और टंकण में कई विधियाँ प्रयोग की जाती हैं और प्रकाशक-भाष्यकारों में कोई एक विधा सामान्य नहीं है, अधिकांश स्थानों पर अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे एक आड़ी लकीर तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर एक खड़ी रेखा बनाने का नियम है। उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं है। इससे अंकण में समस्या आने से कई लेखक-प्रकाशक स्वर चिह्नों का प्रयोग ही नहीं करते। ये स्वर इतने क्षमतावान होते है कि सही प्रयोग न होने पर मन्त्रों के अर्थों को भी बदल देते हैं। वैदिक छंद वैदिक मंत्रों में प्रयुक्त छंद कई प्रकार के हैं जिनमें मुख्य हैं - गायत्री - सबसे प्रसिद्ध छंद।आठ वर्णों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता में भी इसको सर्वोत्तम बताया गया है (ग्यारहवें अध्याय में)। इसी में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र ढला है। त्रिष्टुप - ११ वर्णों के चार पाद - कुल ४४ वर्ण। अनुष्टुप - ८ वर्णों के चार पाद, कुल ३२ वर्ण। वाल्मीकि रामायण तथा गीता जैसे ग्रंथों में भई इस्तेमाल हुआ है। इसी को श्लोक भी कहते हैं। जगती - ८ वर्णों के ६ पाद, कुल ४८ वर्ण। बृहती- ८ वर्णों के ४ पाद कुल ३२ वर्ण पंक्ति- ४ या ५ पाद कुल ४० अक्षर २ पाद के बाद विराम होता है पादों में अक्षरों की संख्याभेद से इसके कई भेद हैं उष्णिक- इसमें कुल २८ वर्ण होते हैं तथा कुल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में १२ वर्ण होते हैं दो पद के बाद विराम होता है बढे हुए अक्षरों के कारण इसके कई भेद होते हैं वेद की शाखाएँ इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं का विस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा, यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखा और अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः- ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा। यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा। सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा। अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा। उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है-शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं। अन्य मतों की दृष्टि में वेद जैसा कि उपर लिखा है, वेदों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है। वेदों का वास्तविक अर्थ समझने के लिए इनके भितर से ही वेदांङ्गो का निर्माण किया गया | इसकी वजह इनमें वर्णित अर्थों को जाना नही जा सकता | सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अनेक देवों के सदृश्य को लेकर हुआ है। वेदों के वास्तविक अर्थ वही कर सकता है जो वेदांग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिष का ज्ञाता है। यूरोप के संस्कृत विद्वानों की व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है। प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चुनौती देकर कई ऐसे मत प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं लेकिन कई रूपों में भिन्न हैं। इनका मुख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया है। उनमे से जिसका अपना अविच्छिन्न परम्परा से वेद,शाखा,और कल्पसूत्रों से निर्देशित होकर एक अद्वितीय ब्रह्मतत्वको ईश्वर मानकर किसी एक देववाद मे न उलझकर वेदवाद में रमण करते हैं वे वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म मननेवाले है वे ही वेदों को सर्वोपरि मानते है। इसके अलावा अलग अलग विचार रखनेवाले और पृथक् पृथक् देवता मानने वाले कुछ सम्प्रदाय ये हैं-: जैन - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है। ये वेदों को श्रेष्ठ नहीं मानते पर अहिंसा के मार्ग पर ज़ोर देते हैं। बौद्ध - इस मत में महात्मा बुद्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृष्णा को दुःखों का कारण बताया है। वेदों में लिखे ध्यान के महत्व को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं। ये भी वेद नही मानते | शैव - वेदों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले। अपनेको वैदिक धर्म के मानने वाले शिव को एकमात्र ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं, लेकिन शैव लोग शंकर देव के रूप (जिसमें नंदी बैल, जटा, बाघंबर इत्यादि हैं) को विश्व का कर्ता मानते हैं। वैष्णव - विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले। वैदिक ग्रन्थौं से अधिक अपना आगम मत को सर्वोपरी मानते है। विष्णु को ही एक ईश्वर बताते हैं और जिसके अनुसार सर्वत्र फैला हुआ ईश्वर विष्णु कहलाता है। शाक्त अपनेको वेदोक्त मानते तो है लेकिन् पूर्वोक्त शैव,वैष्णवसे श्रेष्ठ समझते है, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वतीके रुपमे नवकोटी दुर्गाको इष्टदेवता मानते है वे ही सृष्टिकारिणी है ऐसा मानते है। सौर जगतसाक्षी सूर्य को और उनके विभिन्न अवतारों को ईश्वर मानते हैं। वे स्थावर और जंगमके आत्मा सूर्य ही है ऐसा मानते है। गाणपत्य गणेश को ईश्वर समझते है। साक्षात् शिवादि देवों ने भी उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त किया है, ऐसा मानते हैं। सिख - इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है, लेकिन वेदों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं। आर्य समाज - ये निराकार ईश्वर के उपासक हैं। ये वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। ये मानते हैं कि वेद आदि सृष्टि में अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा आदि ऋषियों के अन्तस् में उत्पन्न हुआ। वेदों को अंतिम प्रमाण स्वीकार करते हैं। और वेदों के अनन्तर जिन पुराण आदि की रचना हुई इनको वेद विरुद्ध मानते हुए अस्वीकार करते हैं। रामायण तथा महाभारत के इतिहास को स्वीकार करते हैं। इस समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द हैं जिन्होंने वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया। ये अर्वाचीन वैदिक है। यज्ञ: यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को लेकर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है। यज्ञ में आग के प्रयोग को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है। देवता:देव शब्द का लेकर ही कई विद्वानों में असहमति रही है। वेदोक्त निर्गुण- निराकार और सगुण- साकार मे से अन्तिम पक्षको मानने वाले कई मतों में (जैसे- शैव, वैष्णव और शाक्त सौर गाणपत,कौमार) इसे महामनुष्य के रूप में विशिष्ट शक्ति प्राप्त साकार चरित्र समझते हैं और उनका मूर्ति रूप में पूजन करते हैं तो अन्य कई इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य) के ही नाम बताते हैं। परोपकार (भला) करने वाली वस्तुएँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्गदर्शन करने वाले मंत्रों को देव कहा गया है। उदाहरणार्थ अग्नि शब्द का अर्थ आग न समझकर सबसे आगे यानि प्रथम यानि परमेश्वर समझते हैं। देवता शव्द का अर्थ दिव्य, यानि परमेश्वर (निराकार, ब्रह्म) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जैसे पृथ्वी आदि। इसी मत में महादेव, देवों के अधिपति होने के कारण ईश्वर को कहते हैं। इसी तरह सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु और सत्य होने के कारण ब्रह्मा कहलाता है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महादेव किसी चरित्र के नाम नहीं बल्कि ईश्वर के ही नाम है। व्याकरण और निरुक्तके वलपर ही वैदिक और लौकिक शब्दौंके अर्थ निर्धारण कीया जाता है। इसके अभावमे अर्थके अनर्थ कर बैठते है। इसी प्राकर गणेश (गणपति), प्रजापति, देवी, बुद्ध, लक्ष्मी इत्यादि परमेश्वर के ही नाम हैं। वेदादि शास्त्रौंमे आए विभन्न एक ही परमेश्वरके है। जैसा की उपनिषदौंमे कहा गया है- एको देव सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा | कुछ लोग ईश्वरके सगुण- निर्गुण स्वरुपमे झगडते रहते है। इनमेसे कोई मूर्तिपूजा करते है और कोई ऐसे लोग है जो मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं। अश्वमेध: राजा द्वारा न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना अश्वमेध यज्ञ कहलाता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि मेध शब्द में अध्वरं का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है अहिंसा। अतः मेध का भी अर्थ कुछ और रहा होगा। इसी प्रकार अश्व शब्द का अर्थ घोड़ा न रहकर शक्ति रहा होगा। श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाषयों के अनुसार अश्व शब्द का अर्थ शक्ति, गौ'' शब्द का अर्थ पोषण है। इससे अश्वमेध का अर्थ घोड़े का बलि से इतर होती प्रतीत होती है।सोम:''' कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं लेकिन कई अनुवादों के अनुसार इसे कूट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये शराब जैसा कोई पेय नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है। इन्हें भी देखें वैदिक साहित्य सर्वानुक्रमणी वैदिक काल वैदिक धर्म वैदिक संस्कृति वैदिक सभ्यता वैदिक कला वैदिक संस्कृत वैदिक शाखाएँ ऋषि सन्दर्भ बाहरी कडियाँ चारों वेद, हिन्दी अर्थ सहित (आर्यसमाज, जामनगर) चार वेद, हिन्दी अर्थ सहित महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय - यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है। ऋग्वेद, हिन्दी अर्थ सहित (रामगोविन्द त्रिवेदी, १९५४) ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं। वेद-विद्या_डॉट_कॉम पुराण विषय अनुक्रमणिका - यहाँ वेदों आदि में आये हुए शब्दों के अर्थ एवं सन्दर्भ दिये हुए हैं। वेद - हिन्दू धर्म के महान पक्षों पर सुविचारित सामग्री वेद-पुराण - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। हिन्दू धर्म संस्कृत साहित्य वेद वैदिक धर्म
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सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है। सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस देश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी "सिंहल" कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी "सिंहल" है। लिपि अनेक भारतीय भाषाओं की लिपियों की तरह सिंहल भाषा की लिपि भी ब्राह्मी लिपि का ही परिवर्तित विकसित रूप हैं। सिंहल भाषा को दो रूप मान्य हैं - (1) शुद्ध सिंहल तथा (2) मिश्रित सिंहल शुद्ध सिंहल को केवल बत्तीस अक्षर मान्य रहे हैं- अ, आ, ऍ, ऐ, इ, ई, उ, ऊ, ऒ, ओ, ऎ, ए क, ग ज ट ड ण त द न प ब म य र ल व स ह क्ष अं। सिंहल के प्राचीनतम व्याकरण ग्रन्थ सिदत्संगरा (Sidatsan̆garā (1300 AD)) का मत है कि ऍ तथा ऐ -- अ, तथा आ की ही मात्रा वृद्धि वाली मात्राएँ हैं। वर्तमान मिश्रित सिंहल ने अपनी वर्णमाला को न केवल पाली वर्णमाला के अक्षरों से समृद्ध कर लिया है, बल्कि संस्कृत वर्णमाला में भी जो और जितने अक्षर अधिक थे, उन सब को भी अपना लिया है। इस प्रकार वर्तमान मिश्रित सिंहल में अक्षरों की संख्या चौवन (54) है। अट्ठारह अक्षर "स्वर" तथा शेष छत्तीस अक्षर व्यंजन माने जाते हैं। व्याकरण दो अक्षर (पूर्व अक्षर तथा पर अक्षर) जब मिलकर एकरूप होते हैं, तो यह प्रक्रिया "संधि" कहलाती है। शुद्ध सिंहल में संधियों के केवल दस प्रकार माने गए हैं। किंतु आधुनिक सिंहल में संस्कृत शब्दों की संधि अथवा संधिच्छेद संस्कृत व्याकरणों के नियमों के ही अनुसार किया जाता है। "एकाक्षर" अथवा "अनेकाक्षरों" के समूह पदों को भी संस्कृत की ही तरह चार भागों में विभक्त किया जाता है - नामय, आख्यात, उपसर्ग तथा निपात। सिंहल में हिंदी की ही तरह दो वचन होते हैं - "एकवचन" तथा "बहुवचन"। संस्कृत की तरह एक अतिरिक्त "द्विवचन" नहीं होता। इस "एकवचन" तथा "बहुवचन" के भेद को संख्या भेद कहते हैं। जिस प्रकार "वचन" को लेकर "हिंदी" और "सिंहल" का साम्य है उसी प्रकार हम कह सकते हैं कि "लिंग" के विषय में भी हिंदी और शुद्ध सिंहल समानधर्मा है। पुरुष तीन ही हैं - प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष। तीनों पुरुषों में व्यवहृत होने वाले सर्वनामों के आठ कारक हैं, जिनकी अपनी-अपनी विभक्तियाँ हैं। "कर्म" के बाद प्राय: "करण" कारक की गिनती होती है, किंतु सिंहल के आठ कारकों में "कर्म" तथा "करण" के बीच में "कर्तृ" कारक की गिनती की जाती है। "संबोधन" कारक नहीं होने से "कर्तृ" कारक के बावजूद कारकों की गिनती आठ ही रहती है। वाक्य का मुख्यांश "क्रिया" को ही मानते हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में कोई भी कथन बनता ही नहीं है। यों सिंहल व्याकरण अधिकांश बातों में संस्कृत की अनुकृति मात्र है। तो भी उसमें न तो संस्कृत की तरह "परस्मैपद" तथा "आत्मनेपद" होते हैं और न लट् लोट् आदि दस लकार। सिंहल में क्रियाओं के ये आठ प्रकार माने गए हैं- (1) कर्ता कारक क्रिया (2) कर्म कारक क्रिया, (3) प्रयोज्य क्रिया, (4) विधि क्रिया, (5) आशीर्वाद क्रिया, (6) असंभाव्य, (7) पूर्व क्रिया, तथा (8) मिश्र क्रिया। सिंहल भाषा बोलने-चालने के समय हमारी भोजपुरी आदि बोलियों की तरह प्रत्ययों की दृष्टि से बहुत ही आसान है, किंतु लिखने-पढ़ने में उतनी ही दुरूह। बोलने-चालने में यनवा (या गमने) क्रियापद से ही जाता हूँ, जाते हैं, जाता है, जाते हो, (वह) जाता है, जाते हैं इत्यादि ही नहीं, जाएगा, जाएंगे आदि सभी क्रियास्वरूपों का काम बन जाता है। लिंगभेद हिंदी के विद्यार्थियों के लिए टेढ़ी खीर माना जाता है। सिंहल भाषा इस दृष्टि से बड़ी सरल है। वहाँ "अच्छा" शब्द के समानार्थी "होंद" शब्द का प्रयोग आप "लड़का" तथा "लड़की" दोनों के लिए कर सकते हैं। प्रत्येक भाषा के मुहावरे उसके अपने होते हैं। दूसरी भाषाओं में उनके ठीक-ठीक पर्याय खोजना बेकार है। तो भी अनुभव साम्य के कारण दो भिन्न जातियों द्वारा बोली जाने वाली दो भिन्न भाषाओं में एक जैसी मिलती-जुलती कहावतें उपलब्ध हो जाती हैं। सिंहल तथा हिंदी के कुछ मुहावरों तथा कहावतों में पर्याप्त एकरूपता है। सिंहल-भाषा एवं साहित्य का इतिहस उत्तर भारत की एक से अधिक भाषाओं से मिलती-जुलती सिंहल भाषा का विकास उन शिलालेखों की भाषा से हुआ है जो ई. पू. दूसरी तीसरी शताब्दी के बाद से लगातार उपलब्ध है। भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्ष बाद अशोकपुत्र महेंद्र सिंहल द्वीप पहुँचे, तो "महावंश" के अनुसार उन्होंने सिंहल द्वीप के लोगों को द्वीप भाषा में ही उपदेश दिया था। महामति महेंद्र अपने साथ "बुद्धवचन" की जो परंपरा लाए थे, वह मौखिक ही थी। वह परंपरा या तो बुद्ध के समय की "मागधी" रही होगी, या उनके दो सौ वर्ष बाद की कोई ऐसी "प्राकृत" जिसे महेंद्र स्थविर स्वयं बोलते रहे होंगे। सिंहल इतिहास की मान्यता है कि महेंद्र स्थविर अपने साथ न केवल त्रिपिटक की परंपरा लाए थे, बल्कि उनके साथ उसके भाष्यों अथवा उसकी अट्ठकथाओं की परंपरा भी। उन अट्ठकथाओं का बाद में सिंहल अनुवाद हुआ। वर्तमान पालि अट्ठकथाएँ मूल पालि अट्ठकथाओं के सिंहल अनुवादों के पुन: पालि में किए गए अनुवाद हैं। कुछ प्रमुख सिंहल शब्द और उनके अर्थ सन्दर्भ इन्हें भी देखें सिंहल लिपि सिंहल साहित्य हेलु भाषा (सिंहल प्राकृत) बाहरी कड़ियाँ हिंदी-सिंहल वार्तालाप पुस्तिका Technical Glossary of Sinhala (from dept of Official languages) Technical Terms in Sinhala -mainly for Computer science, nanotechnology and quantum physics Language Technology Research LaboratoryUniversity of Colombo School of Computing सिंहल ब्लॉग संकलक हिन्दी-सिंहल-हिन्दी आनलाइन शब्दकोश Similarities between "Aryan" Sinhala and "Dravidian" Tamilstarted by Ponniyin Selvan हिन्द-आर्य भाषाएँ विश्व की प्रमुख भाषाएं श्रीलंका की भाषाएँ
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चंद्रिका कुमारतुंगे श्रीलंका की राष्ट्रपति थी, 1994 से 2005 तक। चंद्रिका कुमार तुंगे की माता का नाम सिरीमावो भंडारनायके था जो कि विश्व की प्रथम महिला प्रधानमंत्री हुई। राजनीतिज्ञ श्रीलंका के राष्ट्रपति
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पर्सी महेंद्र "महिन्द्रा राजपक्षे", (सिंहल මහින්ද රාජපක්ෂ, तमिल: மகிந்த ராசபக்ச, जन्म:18 नवम्बर 1945), श्रीलंका के पूर्व और छठे राष्ट्रपति और श्रीलंकाई सशस्त्र बलों के सर्वोच्च सेनापति (कमांडर इन चीफ) हैं। पेशे से वकील, राजपक्षे श्रीलंका की संसद के लिए सबसे पहले सन 1970 में चुने गए थे। 6 अप्रैल 2004 से अपने 2005 में राष्ट्रपति चुने जाने तक वो श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने 19 नवंबर, 2005 को श्रीलंका के राष्ट्रपति के रूप में छह वर्ष के कार्यकाल के लिए शपथ ली। 27 जनवरी, 2010 को राजपक्षे पुनः एक बार अपने दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए। सन्दर्भ इन्हें भी देखें बाहरी कड़ियाँ राजनीतिज्ञ राष्ट्रमण्डल पदासीन
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "महिन्द राजपक्ष", "token_count": 982, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7" }
गैरी कास्परोव (रूसी: Га́рри Ки́мович Каспа́ров, जन्म: १३ अप्रैल १९६३) एक रूसी ग्रांडमास्टर, पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता है। जन्म और बचपन कास्पारोव का जन्म बाकू, आज़रबाइजान, सोवियत संघ में १३ अप्रैल १९६३ को हुआ था। वह ६ वर्ष की उम्र में शतरंज खेलने लगा। १३ वर्ष की उम्र होने से पहले वे सोवियत युव चैंपियन बन गए और अपना पहला अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट १६ वर्ष की उम्र में जीत गए। १९८० में कास्पारोव ग्रेंडमास्टर बन गए। १९७३ से १९७८ तक वे पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन मिखेल बौट्विन्निक के मार्गदर्शन में पढा। विश्व शतरंज चैंपियन १९८५ विश्व शतरंज चैंपियनशिप में उन्होंने ऐनैटोली कार्पोव को पराजित करके इतिहास में सबसे कम उम्र का विश्व शतरंज चैंपियन बन गए। वर्ष 2000 में उन्होंने व्लादिमीर क्रैमनिक के खिलाफ शास्त्रीय विश्व शतरंज चैंपियनशिप हार गए। डीप ब्लू के खिलाफ मैच १९९७ और १९९८ में गैरी कास्पारोव ने आईबीएम ( इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) के डीप ब्लू नामक कंप्यूटर के खिलाफ दो शतरंज मैच खेले। उन्होंने पहला मैच जीता: ६ खेलों में से उन्होंने ३ जीते, २ ड्रॉ किए और १ हार गए। हालाँकि वे दूसरा मैच हार गए: ६ खेलों में से उन्होंने १ जीता, ३ ड्रॉ किए और २ हार गए। डीप जूनियर के खिलाफ मैच २००३ में कास्पारोव ने डीप जूनियर नामक कम्प्यूटर के खिलाफ एक शतरंज मैच खेला जिसका परिणाम ३-३ ड्रॉ था। सन्दर्भ शतरंज खिलाड़ी रूस के लोग विश्व चैम्पियन रूस के शतरंज खिलाड़ी
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इतिहास के पन्नों में टीपू सुल्तान के नाम पर भले ही विवाद चली आ रही है किन्तु टीपू सुल्तान का नाम मिटा पाना असम्भव है। 20 नवंबर 1750 में कर्नाटक के देवनाहल्ली में जन्मे टीपू का पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था। उनके पिता का नाम हैदर अली और माँ का फकरुन्निसाँ था। उनके पिता मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो 1761 में मैसूर के शासक बने। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हो गए। जीवनी 18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। अपने पिता हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे। अपने पिता की तरह ही वह भी अत्याधिक महत्वाकाँक्षी कुशल सेनापति और चतुर कूटनीतिज्ञ थे यही कारण था कि वह हमेशा अपने पिता की पराजय का बदला अंग्रेजों से लेना चाहते थे, अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। टीपू सुल्तान की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे अपने पिता के समय में ही उन्होंने प्रशासनिक सैनिक तथा युद्ध विधा लेनी प्रारम्भ कर दी थी परन्तु उनका सबसे बड़ा अवगुण जो उनकी पराजय का कारण बना वह फ्रांसिसियों पर बहुत अधिक निर्भरता और भरोसा । वह अपने पिता के समान ही निरंकुश थे । वह कट्टर व धर्मान्त मुस्लमान थे। उनके चरित्र के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी मतभेद है। मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू रक्षा के लिए। कुछ ऐसे भी विद्वान है जिन्होंने टीपू सुल्तान के चरित्र की काफी प्रशंसा की है। वस्तुत: टीपू एक परिश्रमी शासक मौलिक सुधारक और अच्छे योद्धा थे। इन सारी बातों के बावजूद वह अपने पिता के समान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी थे, यह उनका सबसे बड़ागुण था। टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा, क्योंकि उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था, यह सामान्य धारणा है कि जाम-ए-जहाँ नुमा, 1823 में स्थापित पहला उर्दू अखबार था। वह गुलामी को खत्म करने वाले पहले शासक थे। कुछ मौलवियों ने इस उपाय को थोड़ा बहुत बोल्ड और अनावश्यक माना। टीपू अपनी बन्दूकों से चिपक गए। उन्होंने पूरे जोश के साथ उस लाइन को लागू करने के फैसले को लागू कर दिया जिसमें उनके देश में प्राप्त स्थिति को इस उपाय की आवश्यकता थी। टीपू सुल्तान का सामन्तवाद के प्रति दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे एक बार में समाप्त कर दिया और नतीजा यह है कि आज भी कर्नाटक के किसान - विशेष रूप से पूर्व मैसूर क्षेत्र में - उत्तरी भारत के किसानों से अलग हैं। जमीन के टिलर टीपू के दिनों से ही अपनी पकड़ के मालिक थे। इस उपाय के परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र में एक विकसित प्रान्त है। कर्नाटक के किसान भूमि मालिक हैं और उनके बेटों और बेटियों ने शिक्षा में अच्छा किया है। टीपू सुल्तान भी अपने राज्य के ब्राह्मण पुरोहितों के प्रति निष्ठावान थे और उनके सहयोग की माँग करते थे - यहाँ तक कि उनके द्वारा देवताओं के आशीर्वाद के लिए विशेष प्रार्थना करने का भी अनुरोध किया जाता था। 1791 में श्रीगंगातट के जगतगुरु स्वामी को लिखे उनके पत्र हिन्दू विषयों के साथ उनके उत्कृष्ट सम्बन्धों के प्रमाण हैं। इस दावे के लिए टीपू के कुछ 30 पत्रों को भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षित किया गया है। दक्षिण भारत के विल्क्स हिस्टोरिकल स्केच। गांधीजी ने उन सभी इतिहास की पुस्तकों का विमोचन किया, जो टीपू सुल्तान को हिंदुओं धर्मांतरण के लिए मजबूर करती थी। वह सोचते थे कि कन्नड़ भाषा में टीपू के पत्र हिंदुओं के प्रति उनकी उदारता का जीवंत प्रमाण हैं। गांधीजी ने टीपू द्वारा वक्फों (ट्रस्टों) को हिंदू मंदिरों के समानांतर स्थापित किया। उनके महल वेंकटरमन श्रीनिवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों के करीब खड़े थे। वह विशेष रूप से मैसूर के शासक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शेर के जीवन का एक दिन सियार के 100 साल के जीवन से बेहतर होता है। टीपू का सुसंस्कृत मन था। मोहिबुल हसन के अनुसार, वह बहुमुखी थे और हर तरह के विषयों पर बात कर सकते थे। वह कन्नड़ और हिंदुस्तानी (उर्दू) बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ज्यादातर फ़ारसी में बात की जो उन्होंने आसानी से लिखी थी। उन्हें विज्ञान, चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष और इंजीनियरिंग में दिलचस्पी थी, लेकिन धर्मशास्त्र और सूफीवाद उनके पसन्दीदा विषय थे। कवियों और विद्वानों ने उसके दरबार को सुशोभित किया, और वह उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के शौकीन थे। वह सुलेख में बहुत रुचि रखते थे, और उनके द्वारा आविष्कृत सुलेख के नियमों पर ""रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी"" नामक फारसी में एक ग्रन्थ मौजूद है। उन्होंने ज़बरजद नामक ज्योतिष पर एक किताब भी लिखी। उनकी लाइब्रेरी की अनेक पुस्तकें पैगम्बर मोहम्मद, उनकी बेटी फातिमा और उनके बेटों, हसन और हुसैन के नाम को कवर के मध्य में और चार कोनों पर चार खलीफाओं के नाम के साथ ले जाती हैं। उनकी निजी लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिन्दी पाण्डुलिपियों के 2,000 से अधिक संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, हिन्दू धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से सम्बन्धित हैं। तृतीय मैसूर युद्ध मंगलोर की संन्धि से भी अंग्रेजों और मैसूर युद्ध समाप्त नहीं हो पाया दोनों पक्ष इस सन्धि को चिरस्थाई नहीं मानते थे। 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बना । वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में सामर्थ नहीं था लेकिन उस समय की परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उनका प्रमुख शत्रु था इसलिए अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम के साथ सन्धि कर ली इस पर टीपू ने भी फ्रांसीसियो से मित्रता के लिए हाथ बढ़ाया ताकि दक्षिण में अपना वर्चस्व स्थापित करें। कार्नवालिस जानता था कि टिपु के साथ उसका युद्ध अनिवार्य है इसलिए वह महान शक्तियों के साथ मित्रता स्थापित करना चाहता था। उसने निजाम और मराठों के साथ सन्धि कर एक संयुक्त मोर्चा कायम किया और इसके बाद उसने टीपू के खिलाफ युद्ध कि घोषणा कर दी इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारम्भ हुआ यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा प्रारमँभ में अंग्रेज असफल रहे लेकिन अन्त में उनकी विजय हुई। मार्च 1792 ई. में श्री रंगापटय कि सन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और 30 लाख पौंड संयुक्त मोर्चे को दण्ड स्वरूप दिया इसका सबसे बड़ा हिस्सा कृष्ण ता पन्द नदी के बीच का प्रदेश निजाम को मिला। कुछ हिस्सा मराठों को भी प्राप्त हुआ जिससे उसकी राज्य की सीमा तंगभद्रा तक बढ़ गई, शेष हिस्सों पर अंग्रेजों का अधिकार रहा टीपू सुल्तान ने जायतन के रूप में अपने दो पुगों को भी कार्नवालिस को सुपुर्द किया। इस पराजय से टीपु सुल्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी उनका राज्य कम्पनी राज्य से घिर गया तथा समुद्र से उनका सम्पर्क टुट गया। आलोचकों का कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी की और टीपू का पूर्ण विनाश नहीं कर के भारी भूल की अगर वह टीपु की शक्ति को कुचल देता तो भविष्य में चतुर्थ मैसुर युद्ध नहीं होता लेकिन वास्तव में कार्नवालिस ने ऐसा नहीं करके अपनी दूरदर्शता का परिचय दिया था उस समय अंग्रेजी सेना में बिमारी फैली हुई थी और युरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध की सम्भावना थी। ऐसी स्थिति में टीपू फ्रांसिसीयों की सहायता ले सकते थे अगर सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेज ब्रिटिश राज्य में मिला लेते तो मराठे और निजाम भी उससे जलने लगते इसलिए कार्नवालिस का उद्देश्य यह था कि टीपू की शक्ति समाप्त हो जाए और साथ ही साथ कम्पनी के मित्र भी शक्तिशाली ना बन सके इसलिए उन्होंने बिना अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाये टीपू की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया। चतुर्थ अंग्रेज मैसूर युद्ध टीपु सुल्तान रंगापट्टी की अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और अपनी बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को पराजित कर दूर करना चाहते थे, प्रकृति ने उन्हें ऐसा मौका भी दिया लेकिन भाग्य ने टीपु का साथ नहीं दिया। जिस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध चल रहा था ,इस अंतरराष्ट्रीय विकट परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए टीपू ने विभिन्न देशों में अपना राजदुत भेजे। फ्रांसीसियों को उसने अपने राज्य में विभिन्न तरह की सुविधाएं प्रदान कर अपने सैनिक संगठन में उन्होने फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये और कुछ फ्रांसीसियों ने अप्रैल 1798 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध टीपू की सहायता की। फलत: अंग्रेज और टीपु के बीच संघर्ष आवश्यक हो गया। इसी समय लार्ड वेलेजली बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। उन्होनें टीपू कि शक्ति को कुचलने का निश्चय किया टीपु के विरुद्ध उसने निजाम और मराठों के साथ गठबंधन करने कि चेष्टा की निजाम को मिलाने में वह सफल हुए लेकिन मराठों ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया 1798 में निजाम के साथ वेलेजली ने सहायक सन्धि की और यह घोषणा कर दी जीते हुए प्रदेशों में कुछ हिस्सा मराठों को भी दिया जाएगा। पुर्ण तैयारी के साथ वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया इस तरह मैसुर का चौथा युद्ध प्रारंभ हुआ। और टीपू सुल्तान वीरता के साथ आखिर तक युद्ध करते करते मृत्यु को प्राप्त हुए। मैसूर पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया इस् प्रकार 33 वर्ष पुर्व मैसुर में जिस मुस्लिम शक्ति का उदय हुआ था सिर्फ उसका अन्त ही नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज मैसुर युद्ध का नाटक ही समाप्त हो गया। मैसुर जो 33 वर्षों से लगातार अंग्रेजों कि प्रगति का शत्रु बना था अब वह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया था। अंग्रेज और निजाम ने मिल कर मैसुर का बंटवारा कर लिया। मराठों को भी उत्तर पश्चिम में कुछ प्रदेश दिये गये लेकिन उन्होंने लेने से इनकार कर दिया,शेष मैसुर पुराने हिन्दु राजवंश के एक नाबालिग लड़के को सन्धि के साथ दिया जिसके अनुसार मैसुर की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर आ गया वहाँ ब्रिटिश सेना तैनात किया गया सेना का खर्च मैसुर के राजा ने देना स्वीकार किया। इस नीति से अंग्रेजों को काफी लाभ पहुँचा मैसुर राज्य बिल्कुल छोटा पड़ गया और दुश्मन का अन्त हो गया ब्रिटिश कम्पनी की शक्ति में काफी वृद्धि हुई । फलत: मैसुर चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया इसका फायदा उन्होनें भविष्य में उठाया जिससे ब्रिटिश शक्ति के विकास में काफी सहायता मिली और एक दिन उसने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया । टीपू सुल्तान की धार्मिक नीति हिन्दू संस्थाओं के लिए उपहार 1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने शृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान सम्पत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए। शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें। शृंगेरी मन्दिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था। यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे। टीपू सुल्तान ने अन्य हिन्दू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चाँदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे। 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए। इनमें से कई को चाँदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए। ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है। ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया। श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चाँदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया। मान्यता है कि ये दान हिंदू शासकों के साथ गठबंधन बनाने का एक तरीका थे। मृत्यु 4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू सुल्तान की बहुत धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा हत्या कर दी गयी। हत्या के बाद उनकी तलवार अंग्रेज अपने साथ ब्रिटेन ले गए। टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेजों के हाथ आ गया। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Tipu Sultan Killed Seringapatam (अंग्रेजी में) Tipu Sultan remembered on his 212th martyrdom anniversary – TCN News The Tiger of Mysore – Dramatised account of the British campaign against Tipu Sultan by G. A. Henty, from Project Gutenberg Biography by Dr. K. L. Kamat Coins of Tipu Sultan Illuminated Qurʾān from the library of Tippoo Ṣāḥib, Cambridge University Digital Library UK Family Finds Tipu Sultan's Gun, Sword In Attic Tipu's Legacy. Freedom Fighter, Tipu Sultan's Belongings राजा मैसूर के लोग भारतीय स्वतंत्रता सेनानी
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अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। वाजपेयी जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक पूर्वाधिकारी हैं, परंतु एक कवि के रूप में आपकी प्रसिद्धि अधिक है। आपका जन्म 16 जनवरी 1941 को दुर्ग (छ०ग०) में हुआ। 'कहीं नहीं वहीं' काव्य संग्रह के लिए सन् 1994 में आपको भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। वाजपेयी महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं। वर्तमान में आप ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हैं। भोपाल में भारत भवन की स्थापना में भी आपने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अशोक वाजपेयी के अबतक (जनवरी 2020 तक) प्रकाशित काव्य संग्रह हैं:- शहर अब भी संभावना है एक पतंग अनंत में अगर इतने से तत्पुरुष कहीं नहीं वहीं बहुरि अकेला थोड़ी-सी जगह घास में दुबका आकाश आविन्यो जो नहीं है अभी कुछ और समय के पास समय कहीं कोई दरवाजा दुःख चिट्ठीरसा है पुनर्वसु विवक्षा कुछ रफू कुछ थिगड़े इस नक्षत्रहीन समय में कम से कम हार-जीत काव्य संकलन प्रतिनिधि कविताएँ कवि ने कहा खुल गया है द्वार एक सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अशोक वाजपेयी। Board of Trustees: Ashok Vajpeyi-Eminent Poet INDIA’S GREAT MASTERS : A PHOTOGRAPHIC JOURNEY INTO THE HEART OF CLASSICAL MUSIC शब्दांकन पर अशोक वाजपेयी। अशोक वाजपेयी की रचनाएँ कविताकोश में। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार हिन्दी साहित्यकार जीवित लोग 1941 में जन्मे लोग
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जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी 1903 – 20 मार्च 1970) भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। उनकी कप्तानी में 1928 के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।। ओपनिवेशिक भारत में जयपाल सिंह मुंडा सर्वोच्च सरकारी पद पर थे । जीवन यात्रा जयपाल सिंह छोटा नागपुर (अब झारखंड) राज्य की मुंडा जनजाति के थे। मिशनरीज की मदद से वह ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए। वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया। उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने बिहार के शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस संबंध में पत्र लिखा. परंतु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. 1938 की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया. इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया. 1938 जनवरी में उन्होंने आदिवासी महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की जिसने बिहार से इतर एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग की। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय तब आया जब उन्होंने संविधान सभा में बेहद वाकपटुता से देश की आदिवासियों के बारे में सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखी। संविधान सभा में 'अनुसूचित जनजाति' की जगह आदिवासियों को 'मूलवासी आदिवासी' करने की बात कही। इन्हें भी देखें झारखंड झारखंड आंदोलन छोटानागपुर मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा बाहरी कड़ियां जयपाल सिंह मुंडा : संविधान सभा में आदिवासियों की बुलंद आवाज सन्दर्भ भारतीय (आदिवासी) भारतीय राजनीतिज्ञ झारखंड के लोग आदिवासी साहित्यकार भारत के हॉकी खिलाड़ी भारत के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता 1903 में जन्मे लोग १९७० में निधन
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "जयपाल सिंह मुंडा", "token_count": 3152, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2%20%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9%20%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%BE" }
सर आइज़ैक न्यूटन इंग्लैंड के एक वैज्ञानिक थे। जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण का नियम और गति के सिद्धान्त की खोज की। वे एक महान गणितज्ञ, भौतिक वैज्ञानिक, ज्योतिष एवं दार्शनिक थे। इनका शोध प्रपत्र ‘प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांतों ’ सन् 1687 में प्रकाशित हुआ, जिसमें सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण एवं गति के नियमों की व्याख्या की गई थी और इस प्रकार चिरसम्मत भौतिकी (क्लासिकल भौतिकी) की नींव रखी। उनकी फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका, 1687 में प्रकाशित हुई, यह विज्ञान के इतिहास में अपने आप में सबसे प्रभावशाली पुस्तक है, जो अधिकांश साहित्यिक यांत्रिकी के लिए आधारभूत कार्य की भूमिका निभाती है। इस कार्य में, न्यूटन ने सार्वत्रिक गुरुत्व और गति के तीन नियमों का वर्णन किया जिसने अगली तीन शताब्दियों के लिए भौतिक ब्रह्मांड के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। न्यूटन ने दर्शाया कि पृथ्वी पर वस्तुओं की गति और आकाशीय पिंडों की गति का नियंत्रण प्राकृतिक नियमों के समान समुच्चय के द्वारा होता है, इसे दर्शाने के लिए उन्होंने ग्रहीय गति के केपलर के नियमों तथा अपने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बीच निरंतरता स्थापित की, इस प्रकार से सूर्य केन्द्रीयता और वैज्ञानिक क्रांति के आधुनिकीकरण के बारे में पिछले संदेह को दूर किया। यांत्रिकी में, न्यूटन ने संवेग तथा कोणीय संवेग दोनों के संरक्षण के सिद्धांतों को स्थापित किया। प्रकाशिकी में, उन्होंने पहला व्यावहारिक परावर्ती दूरदर्शी बनाया और इस आधार पर रंग का सिद्धांत विकसित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को कई रंगों में अपघटित कर देता है जो दृश्य स्पेक्ट्रम बनाते हैं। उन्होंने शीतलन का नियम दिया और ध्वनि की गति का अध्ययन किया। गणित में, अवकलन और समाकलन कलन के विकास का श्रेय गोटफ्राइड लीबनीज के साथ न्यूटन को जाता है। उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का भी प्रदर्शन किया और एक फलन के शून्यों के सन्निकटन के लिए तथाकथित "न्यूटन की विधि" का विकास किया और घात श्रेणी के अध्ययन में योगदान दिया। वैज्ञानिकों के बीच न्यूटन की स्थिति बहुत शीर्ष पद पर है, ऐसा ब्रिटेन की रोयल सोसाइटी में 2005 में हुए वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण के द्वारा प्रदर्शित होता है, जिसमें पूछा गया कि विज्ञान के इतिहास पर किसका प्रभाव अधिक गहरा है, न्यूटन का या एल्बर्ट आइंस्टीन का। इस सर्वेक्षण में न्यूटन को अधिक प्रभावी पाया गया।. न्यूटन अत्यधिक धार्मिक भी थे, हालाँकि वे एक अपरंपरागत ईसाई थे, उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान, जिसके लिए उन्हें आज याद किया जाता है, की तुलना में बाइबिल हेर्मेनेयुटिक्स पर अधिक लिखा। जीवन प्रारंभिक वर्ष आइजैक न्यूटन का जन्म 4 जनवरी 1643 को नई शैली और पुरानी शैली की तिथि 25 दिसंबर 1642</small>लिनकोलनशायर के काउंटी में एक हेमलेट, वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ में वूलस्थ्रोप मेनर में हुआ। न्यूटन के जन्म के समय, इंग्लैंड ने ग्रिगोरियन केलेंडर को नहीं अपनाया था और इसलिए उनके जन्म की तिथि को क्रिसमस दिवस 25 दिसंबर 1642 के रूप में दर्ज किया गया। न्यूटन का जन्म उनके पिता की मृत्यु के तीन माह बाद हुआ, वे एक समृद्ध किसान थे उनका नाम भी आइजैक न्यूटन था। पूर्व परिपक्व अवस्था में पैदा होने वाला वह एक छोटा बालक था; उनकी माता हन्ना ऐस्क्फ़ का कहना था कि वह एक चौथाई गेलन जैसे छोटे से मग में समा सकता था। जब न्यूटन तीन वर्ष के थे, उनकी माँ ने दुबारा शादी कर ली और अपने नए पति रेवरंड बर्नाबुस स्मिथ के साथ रहने चली गई और अपने पुत्र को उसकी नानी मर्गेरी ऐस्क्फ़ की देखभाल में छोड़ दिया। छोटा आइजैक अपने सौतेले पिता को पसंद नहीं करता था और उसके साथ शादी करने के कारण अपनी माँ के साथ दुश्मनी का भाव रखता था। जैसा कि 19 वर्ष तक की आयु में उनके द्वारा किये गए अपराधों की सूची में प्रदर्शित होता है: "मैंने माता और पिता स्मिथ के घर को जलाने की धमकी दी." बारह वर्ष से सत्रह वर्ष की आयु तक उन्होंने द किंग्स स्कूल, ग्रान्थम में शिक्षा प्राप्त की (जहाँ पुस्तकालय की एक खिड़की पर उनके हस्ताक्षर आज भी देखे जा सकते हैं) उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और अक्टूबर 1659 वे वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ आ गए. जहाँ उनकी माँ, जो दूसरी बार विधवा हो चुकी थी, ने उन्हें किसान बनाने पर जोर दिया। वह खेती से नफरत करते थे। किंग्स स्कूल के मास्टर हेनरी स्टोक्स ने उनकी माँ से कहा कि वे उन्हें फिर से स्कूल भेज दें ताकि वे अपनी शिक्षा को पूरा कर सकें। स्कूल के एक लड़के के खिलाफ बदला लेने की इच्छा से प्रेरित होने की वजह से वे एक शीर्ष क्रम के छात्र बन गए। जून 1661 में, उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक सिजर-एक प्रकार की कार्य-अध्ययन भूमिका, के रूप में भर्ती किया गया। उस समय कॉलेज की शिक्षाएँ अरस्तु पर आधारित थीं। लेकिन न्यूटन अधिक आधुनिक दार्शनिकों जैसे डेसकार्टेस और खगोलविदों जैसे कोपरनिकस, गैलीलियो और केपलर के विचारों को पढना चाहता था। 1665 में उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय की खोज की और एक गणितीय सिद्धांत विकसित करना शुरू किया जो बाद में अत्यल्प कलन के नाम से जाना गया। अगस्त 1665 में जैसे ही न्यूटन ने अपनी डिग्री प्राप्त की, उसके ठीक बाद प्लेग की भीषण महामारी से बचने के लिए एहतियात के रूप में विश्वविद्यालय को बंद कर दिया। यद्यपि वे एक कैम्ब्रिज विद्यार्थी ke रूप में प्रतिष्ठित नहीं थे, इसके बाद के दो वर्षों तक उन्होंने वूल्स्थोर्पे में अपने घर पर निजी अध्ययन किया और कलन, प्रकाशिकी और गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर अपने सिद्धांतों का विकास किया। 1667 में वह ट्रिनिटी के एक फेलो के रूप में कैम्ब्रिज लौट आए। बीच के वर्ष अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि न्यूटन और लीबनीज ने अत्यल्प कलन का विकास अपने अपने अद्वितीय संकेतनों का उपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप से किया। न्यूटन के आंतरिक चक्र के अनुसार, न्यूटन ने अपनी इस विधि को लीबनीज से कई साल पहले ही विकसित कर दिया था, लेकिन उन्होंने लगभग 1693 तक अपने किसी भी कार्य को प्रकाशित नहीं किया और 1704 तक अपने कार्य का पूरा लेखा जोखा नहीं दिया. इस बीच, लीबनीज ने 1684 में अपनी विधियों का पूरा लेखा जोखा प्रकाशित करना शुरू कर दिया. इसके अलावा, लीबनीज के संकेतनों तथा "अवकलन की विधियों" को महाद्वीप पर सार्वत्रिक रूप से अपनाया गया और 1820 के बाद में , ब्रिटिश साम्राज्य में भी इसे अपनाया गया। जबकि लीबनीज की पुस्तिकाएं प्रारंभिक अवस्थाओं से परिपक्वता तक विचारों के आधुनिकीकरण को दर्शाती हैं, न्यूटन के ज्ञात नोट्स में केवल अंतिम परिणाम ही है। न्यूटन ने कहा कि वे अपने कलन को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था वे उपहास का पात्र बन जायेंगे. न्यूटन का स्विस गणितज्ञ निकोलस फतियो डे दुइलिअर के साथ बहुत करीबी रिश्ता था, जो प्रारम्भ से ही न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। 1691 में दुइलिअर ने न्यूटन के फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका के एक नए संस्करण को तैयार करने की योजना बनायी, लेकिन इसे कभी पूरा नहीं कर पाए.बहरहाल, इन दोनों पुरुषों के बीच सम्बन्ध 1693 में बदल गया। इस समय, दुइलिअर ने भी लीबनीज के साथ कई पत्रों का आदान प्रदान किया था। 1699 की शुरुआत में, रोयल सोसाइटी (जिसके न्यूटन भी एक सदस्य थे) के अन्य सदस्यों ने लीबनीज पर साहित्यिक चोरी के आरोप लगाये और यह विवाद 1711 में पूर्ण रूप से सामने आया। न्यूटन की रॉयल सोसाइटी ने एक अध्ययन द्वारा घोषणा की कि न्यूटन ही सच्चे आविष्कारक थे और लीबनीज ने धोखाधड़ी की थी। यह अध्ययन संदेह के घेरे में आ गया, जब बाद पाया गया कि न्यूटन ने खुद लीबनीज पर अध्ययन के निष्कर्ष की टिप्पणी लिखी। इस प्रकार कड़वा न्यूटन बनाम लीबनीज विवाद शुरू हो गया, जो बाद में न्यूटन और लीबनीज दोनों के जीवन में 1716 में लीबनीज की मृत्यु तक जारी रहा। न्यूटन को आम तौर पर सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का श्रेय दिया जाता है, जो किसी भी घात के लिए मान्य है। उन्होंने न्यूटन की सर्वसमिकाओं, न्यूटन की विधि, वर्गीकृत घन समतल वक्र (दो चरों में तीन के बहुआयामी पद) की खोज की, परिमित अंतरों के सिद्धांत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भिन्नात्मक सूचकांक का प्रयोग किया और डायोफेनताइन समीकरणों के हल को व्युत्पन्न करने के लिए निर्देशांक ज्यामिति का उपयोग किया। उन्होंने लघुगणक के द्वारा हरात्मक श्रेढि के आंशिक योग का सन्निकटन किया, (यूलर के समेशन सूत्र का एक पूर्वगामी) और वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आत्मविश्वास के साथ घात शृंखला का प्रयोग किया और घात शृंखला का विलोम किया। उन्हें 1669 में गणित का ल्युकेसियन प्रोफेसर चुना गया। उन दिनों, कैंब्रिज या ऑक्सफ़ोर्ड के किसी भी सदस्य को एक निर्दिष्ट अंग्रेजी पुजारी होना आवश्यक था। हालाँकि, ल्युकेसियन प्रोफेसर के लिए जरुरी था कि वह चर्च में सक्रिय न हो। (ताकि वह विज्ञान के लिए और अधिक समय दे सके) न्यूटन ने तर्क दिया कि समन्वय की आवश्यकता से उन्हें मुक्त रखना चाहिए और चार्ल्स द्वितीय, जिसकी अनुमति अनिवार्य थी, ने इस तर्क को स्वीकार किया। इस प्रकार से न्यूटन के धार्मिक विचारों और अंग्रेजी रूढ़ीवादियों के बीच संघर्ष टल गया। प्रकाशिकी 1670 से 1672 तक, न्यूटन का प्रकाशिकी पर व्याख्यान दिया. इस अवधि के दौरान उन्होंने प्रकाश के अपवर्तन की खोज की, उन्होंने प्रदर्शित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को रंगों के एक स्पेक्ट्रम में वियोजित कर देता है और एक लेंस और एक दूसरा प्रिज्म बहुवर्णी स्पेक्ट्रम को संयोजित कर के श्वेत प्रकाश का निर्माण करता है। उन्होंने यह भी दिखाया कि रंगीन प्रकाश को अलग करने और भिन्न वस्तुओं पर चमकाने से रगीन प्रकाश के गुणों में कोई परिवर्तन नहीं आता है। न्यूटन ने वर्णित किया कि चाहे यह परावर्तित हो, या विकिरित हो या संचरित हो, यह समान रंग का बना रहता है। इस प्रकार से, उन्होंने देखा कि, रंग पहले से रंगीन प्रकाश के साथ वस्तु की अंतर्क्रिया का परिणाम होता है नाकि वस्तुएं खुद रंगों को उत्पन्न करती हैं। यह न्यूटन के रंग सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। इस कार्य से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, किसी भी अपवर्ती दूरदर्शी का लेंस प्रकाश के रंगों में विसरण (रंगीन विपथन) का अनुभव करेगा और इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अभिदृश्यक के रूप में एक दर्पण का उपयोग करते हुए, एक दूरदर्शी का निर्माण किया, ताकि इस समस्या को हल किया जा सके. दरअसल डिजाइन के निर्माण के अनुसार, पहला ज्ञात क्रियात्मक परावर्ती दूरदर्शी, आज एक न्यूटोनियन दूरबीन के रूप में जाना जाता है, इसमें तकनीक को आकार देना तथा एक उपयुक्त दर्पण पदार्थ की समस्या को हल करना शामिल है। न्यूटन ने अत्यधिक परावर्तक वीक्षक धातु के एक कस्टम संगठन से, अपने दर्पण को आधार दिया, इसके लिए उनके दूरदर्शी हेतु प्रकाशिकी कि गुणवत्ता की जाँच के लिए न्यूटन के छल्लों का प्रयोग किया गया। फरवरी 1669 तक वे रंगीन विपथन के बिना एक उपकरण का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। 1671 में रॉयल सोसाइटी ने उन्हें उनके परावर्ती दूरदर्शी को प्रर्दशित करने के लिए कहा। उन लोगों की रूचि ने उन्हें अपनी टिप्पणियों ओन कलर के प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित किया, जिसे बाद में उन्होंने अपनी ऑप्टिक्स के रूप में विस्तृत कर दिया। जब रॉबर्ट हुक ने न्युटन के कुछ विचारों की आलोचना की, न्यूटन इतना नाराज हुए कि वे सार्वजनिक बहस से बाहर हो गए। हुक की मृत्यु तक दोनों दुश्मन बने रहे। [27] न्यूटन ने तर्क दिया कि प्रकाश कणों या अतिसूक्षम कणों से बना है, जो सघन माध्यम की और जाते समय अपवर्तित हो जाते हैं, लेकिन प्रकाश के विवर्तन को स्पष्ट करने के लिए इसे तरंगों के साथ सम्बंधित करना जरुरी था। (ऑप्टिक्स बीके।II, प्रोप्स. XII-L). बाद में भौतिकविदों ने प्रकाश के विवर्तन के लिए शुद्ध तरंग जैसे स्पष्टीकरण का समर्थन किया। आज की क्वाण्टम यांत्रिकी, फोटोन और तरंग-कण युग्मता के विचार, न्यूटन की प्रकाश के बारे में समझ के साथ बहुत कम समानता रखते हैं। 1675 की उनकी प्रकाश की परिकल्पना में न्यूटन ने कणों के बीच बल के स्थानान्तरण हेतु, ईथर की उपस्थिति को मंजूर किया। ब्रह्म विद्यावादी हेनरी मोर के संपर्क में आने से रसायन विद्या में उनकी रुचि पुनर्जीवित हो गयी। उन्होंने ईथर को कणों के बीच आकर्षण और प्रतिकर्षण के वायुरुद्ध विचारों पर आधारित गुप्त बलों से प्रतिस्थापित कर दिया. जॉन मेनार्ड केनेज, जिन्होंने रसायन विद्या पर न्यूटन के कई लेखों को स्वीकार किया, कहते हैं कि "न्युटन कारण के युग के पहले व्यक्ति नहीं थे: वे जादूगरों में आखिरी नंबर पर थे।" रसायन विद्या में न्यूटन की रूचि उनके विज्ञान में योगदान से अलग नहीं की जा सकती है। (यह उस समय हुआ जब रसायन विद्या और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट भेद नहीं था।) यदि उन्होंने एक निर्वात में से होकर एक दूरी पर क्रिया के गुप्त विचार पर भरोसा नहीं किया होता तो वे गुरुत्व का अपना सिद्धांत विकसित नहीं कर पाते। (आइजैक न्यूटन के गुप्त अध्ययन भी देखें) 1704 में न्यूटन ने आप्टिक्स को प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपने प्रकाश के अतिसूक्ष्म कणों के सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या की.उन्होंने प्रकाश को बहुत ही सूक्ष्म कणों से बना हुआ माना, जबकि साधारण द्रव्य बड़े कणों से बना होता है और उन्होंने कहा कि एक प्रकार के रासायनिक रूपांतरण के माध्यम से "सकल निकाय और प्रकाश एक दूसरे में रूपांतरित नहीं हो सकते हैं,....... और निकाय, प्रकाश के कणों से अपनी गतिविधि के अधिकांश भाग को प्राप्त नहीं कर सकते, जो उनके संगठन में प्रवेश करती है?" न्यूटन ने एक कांच के ग्लोब का प्रयोग करते हुए, (ऑप्टिक्स, 8 वां प्रश्न) एक घर्षण विद्युत स्थैतिक जनरेटर के एक आद्य रूप का निर्माण किया। यांत्रिकी और गुरुत्वाकर्षण 1677 में, न्यूटन ने फिर से यांत्रिकी पर अपना कार्य शुरू किया, अर्थात्, गुरुत्वाकर्षण और ग्रहीय गति के केपलर के नियमों के सन्दर्भ के साथ, ग्रहों की कक्षा पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव और इस विषय पर हुक और फ्लेमस्टीड का परामर्श। उन्होंने जिरम में डी मोटू कोर्पोरम में अपने परिणामों का प्रकाशन किया। (१६८४) इसमें गति के नियमों की शुरुआत थी जिसने प्रिन्सिपिया को सूचित किया। फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (जिसे अब प्रिन्सिपिया के रूप में जाना जाता है) का प्रकाशन एडमंड हेली की वित्तीय मदद और प्रोत्साहन से 5 जुलाई 1687 को हुआ। इस कार्य में न्यूटन ने गति के तीन सार्वभौमिक नियम दिए जिनमें 200 से भी अधिक वर्षों तक कोई सुधार नहीं किया गया है। उन्होंने उस प्रभाव के लिए लैटिन शब्द ग्रेविटास (भार) का इस्तेमाल किया जिसे गुरुत्व के नाम से जाना जाता है और सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण के नियम को परिभाषित किया। इसी कार्य में उन्होंने वायु में ध्वनि की गति के, बॉयल के नियम पर आधारित पहले विश्लेषात्मक प्रमाण को प्रस्तुत किया। बहुत अधिक दूरी पर क्रिया कर सकने वाले एक अदृश्य बल की न्यूटन की अवधारणा की वजह से उनकी आलोचना हुई, क्योंकि उन्होंने विज्ञान में "गुप्त एजेंसियों" को मिला दिया था। प्रिन्सिपिया के साथ, न्यूटन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. उन्हें काफी प्रशंसाएं मिलीं, उनके एक प्रशंसक थे, स्विटजरलैण्ड में जन्मे निकोलस फतियो दे दयुलीयर, जिनके साथ उनका एक गहरा रिश्ता बन गया, जो 1693 में तब समाप्त हुआ जब न्यूटन तंत्रिका अवरोध से पीड़ित हो गए। बाद का जीवन 1690 के दशक में, न्यूटन ने कई धार्मिक शोध लिखे जो बाइबल की साहित्यिक व्याख्या से सम्बंधित थे। हेनरी मोर के ब्रह्मांड में विश्वास और कार्तीय द्वैतवाद के लिए अस्वीकृति ने शायद न्यूटन के धार्मिक विचारों को प्रभावित किया। उन्होंने एक पांडुलिपि जॉन लोके को भेजी जिसमें उन्होंने ट्रिनिटी के अस्तित्व को विवादित माना था, जिसे कभी प्रकाशित नहीं किया गया। बाद के कार्य [39]दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स अमेनडेड (1728) और ओब्सरवेशन्स अपोन दी प्रोफिसिज ऑफ़ डेनियल एंड दी एपोकेलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन (1733)[40] का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। उन्होंने रसायन विद्या के लिए भी अपना बहुत अधिक समय दिया (ऊपर देखें)। न्यूटन 1689 से 1690 तक और 1701 में इंग्लैंड की संसद के सदस्य भी रहे. लेकिन कुछ विवरणों के अनुसार उनकी टिप्पणियाँ हमेशा कोष्ठ में एक ठंडे सूखे को लेकर ही होती थीं और वे खिड़की को बंद करने का अनुरोध करते थे। 1696 में न्यूटन शाही टकसाल के वार्डन का पद संभालने के लिए लन्दन चले गए, यह पद उन्हें राजकोष के तत्कालीन कुलाधिपति, हैलिफ़ैक्स के पहले अर्ल, चार्ल्स मोंतागु के संरक्षण के माध्यम से प्राप्त हुआ। उन्होंने इंग्लैंड का प्रमुख मुद्रा ढल्लाई का कार्य संभाल लिया, किसी तरह मास्टर लुकास के इशारों पर नाचने लगे (और एडमंड हेली के लिए अस्थाई टकसाल शाखा के उप नियंता का पद हासिल किया) 1699 में लुकास की मृत्यु न्यूटन शायद टकसाल के सबसे प्रसिद्ध मास्टर बने, इस पद पर न्यूटन अपनी मृत्यु तक बने रहे.ये नियुक्तियां दायित्वहीन पद के रूप में ली गयीं थीं, लेकिन न्यूटन ने उन्हें गंभीरता से लिया, 1701 में अपने कैम्ब्रिज के कर्तव्यों से सेवानिवृत हो गए और मुद्रा में सुधार लाने का प्रयास किया तथा कतरनों तथा नकली मुद्रा बनाने वालों को अपनी शक्ति का प्रयोग करके सजा दी. 1717 में टकसाल के मास्टर के रूप में "ला ऑफ़ क्वीन एने" में न्यूटन ने अनजाने में सोने के पक्ष में चांदी के पैसे और सोने के सिक्के के बीच द्वि धात्विक सम्बन्ध स्थापित करते हुए, पौंड स्टर्लिंग को चांदी के मानक से सोने के मानक में बदल दिया। इस कारण से चांदी स्टर्लिंग सिक्के को पिघला कर ब्रिटेन से बाहर भेज दिया गया। न्यूटन को 1703 में रोयल सोसाइटी का अध्यक्ष और फ्रेंच एकेडमिक डेस साइंसेज का एक सहयोगी बना दिया गया। रॉयल सोसायटी में अपने पद पर रहते हुए, न्यूटन ने रोयल खगोलविद जॉन फ्लेमस्टीड को शत्रु बना लिया, उन्होंने फ्लेमस्टीड की हिस्टोरिका कोलेस्तिस ब्रिटेनिका को समय से पहले ही प्रकाशित करवा दिया, जिसे न्यूटन ने अपने अध्ययन में काम में लिया था। अप्रैल 1705 में क्वीन ऐनी ने न्यूटन को ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक शाही यात्रा के दौरान नाइट की उपाधि दी। यह नाइट की पदवी न्यूटन को टकसाल के मास्टर के रूप में अपनी सेवाओ के लिए नहीं दी गयी थी और न ही उनके वैज्ञानिक कार्य के लिए दी गयी थी बल्कि उन्हें यह उपाधि मई 1705 में संसदीय चुनाव के दौरान उनके राजनितिक योगदान के लिए दी गयी थी। न्यूटन की मृत्यु लंदन में 31 मार्च 1727 को हुई, [पुरानी शैली 20 मार्च 1726] और उन्हें वेस्टमिंस्टर एब्बे में दफनाया गया था। उनकी आधी-भतीजी, कैथरीन बार्टन कोनदुइत, ने लन्दन में जर्मीन स्ट्रीट में उनके घर पर सामाजिक मामलों में उनकी परिचारिका का काम किया; वे उसके "बहुत प्यारे अंकल" थे, ऐसा जिक्र उनके उस पत्र में किया गया है जो न्यूटन के द्वारा उसे तब लिखा गया जब वह चेचक की बीमारी से उबर रही थी। न्यूटन, जिनके कोई बच्चे नहीं थे, उनके अंतिम वर्षों में उनके रिश्तदारों ने उनकी अधिकांश संपत्ति पर अधिकार कर लिया और निर्वसीयत ही उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, न्यूटन के शरीर में भारी मात्रा में पारा पाया गया, जो शायद उनके रासायनिक व्यवसाय का परिणाम था। पारे की विषाक्तता न्यूटन के अंतिम जीवन में सनकीपन को स्पष्ट कर सकती है। मृत्यु के बाद प्रसिद्धि फ्रेंच गणितज्ञ जोसेफ लुईस लाग्रेंज अक्सर कहते थे कि न्यूटन महानतम प्रतिभाशाली था और एक बार उन्होंने कहा कि वह "सबसे ज्यादा भाग्यशाली भी था क्योंकि हम दुनिया की प्रणाली को एक से ज्यादा बार स्थापित नहीं कर सकते." अंग्रेजी कवि अलेक्जेंडर पोप ने न्यूटन की उपलब्धियों के द्वारा प्रभावित होकर प्रसिद्ध स्मृति-लेख लिखा: Nature and nature's laws lay hid in night; God said "Let Newton be" and all was light. न्यूटन अपनी उपलब्धियों का बताने में खुद संकोच करते थे, फरवरी 1676 में उन्होंने रॉबर्ट हुक को एक पत्र में लिखा: If I have seen further it is by standing on ye shoulders of Giants[50] हालांकि आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि उपर्युक्त पंक्तियां, नम्रता के साथ कहे गए एक कथन के अलावा [51] या बजाय [52], हुक पर एक हमला थीं (जो कम ऊंचाई का और कुबडा था). उस समय प्रकाशिकीय खोजों को लेकर दोनों के बीच एक विवाद चल रहा था। बाद की व्याख्या उसकी खोजों पर कई अन्य विवादों के साथ भी उपयुक्त है, जैसा कि यह प्रश्न कि कलन की खोज किसने की, जैसा कि ऊपर बताया गया है। बाद में एक इतिहास में, न्यूटन ने लिखा: मैं नहीं जानता कि मैं दुनिया को किस रूप में दिखाई दूंगा लेकिन अपने आप के लिए मैं एक ऐसा लड़का हूँ जो समुद्र के किनारे पर खेल रहा है और अपने ध्यान को अब और तब में लगा रहा है, एक अधिक चिकना पत्थर या एक अधिक सुन्दर खोल ढूँढने की कोशिश कर रहा है, सच्चाई का यह इतना बड़ा समुद्र मेरे सामने अब तक खोजा नहीं गया है। स्मारक न्यूटन का स्मारक (1731) वेस्टमिंस्टर एब्बे में देखा जा सकता है, यह गायक मंडल स्क्रीन के विपरीत गायक मंडल के प्रवेश स्थान के उत्तर में है। इसे मूर्तिकार माइकल रिज्ब्रेक ने (1694-1770) सफ़ेद और धूसर संगमरमर में बनाया है, जिसका डिजाइन वास्तुकार विलियम कैंट (1685-1748) द्वारा बनाया गया है। इस स्मारक में न्यूटन की आकृति पत्थर की बनी हुई कब्र के ऊपर टिकी हुई है, उनकी दाहिनी कोहनी उनकी कई महान पुस्तकों पर रखी है और उनका बायां हाथ एक गणीतिय डिजाइन से युक्त एक सूची की और इशारा कर रहा है। उनके ऊपर एक पिरामिड है और एक खगोलीय ग्लोब राशि चक्र के संकेतों तथा 1680 के धूमकेतु का रास्ता दिखा रहा है। एक राहत पैनल दूरदर्शी और प्रिज्म जैसे उपकरणों का प्रयोग करते हुए, पुट्टी का वर्णन कर रहा है। आधार पर दिए गए लेटिन शिलालेख का अनुवाद है: यहाँ नाइट, आइजैक न्यूटन, को दफनाया गया, जो दिमागी ताकत से लगभग दिव्य थे, उनके अपने विचित्र गणितीय सिद्धांत हैं, उन्होंने ग्रहों की आकृतियों और पथ का वर्णन किया, धूमकेतु के मार्ग बताये, समुद्र में आने वाले ज्वार का वर्णन किया, प्रकाश की किरणों में असमानताओं को बताया और वो सब कुछ बताया जो किसी अन्य विद्वान ने पहले कल्पना भी नहीं की थी, रंगों के गुणों का वर्णन किया। वे मेहनती, मेधावी और विश्वासयोग्य थे, पुरातनता, पवित्र ग्रंथों और प्रकृति में विश्वास रखते थे, वे अपने दर्शन में अच्छाई और भगवान के पराक्रम की पुष्टि करते हैं और अपने व्यवहार में सुसमाचार की सादगी व्यक्त करते हैं। मानव जाति में ऐसे महान आभूषण उपस्थित रह चुके हैं! वह 25 दिसम्बर 1642 को जन्मे और 20 मार्च 1726/ 7 को उनकी मृत्यु हो गई।--जी एल स्मिथ के द्वारा अनुवाद, दी मोंयुमेंट्स एंड जेनिल ऑफ़ सेंट पॉल्स केथेड्रल, एंड ऑफ़ वेस्टमिंस्टर एब्बे (1826), ii, 703–4. 1978 से 1988 तक, हेरी एकलेस्तन के द्वारा डिजाइन की गयी न्यूटन की एक छवि इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए D £1 शृंखला के बैंक नोटों पर प्रदर्शित की गयी, (अंतिम £1 नोट जो इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए). न्यूटन को नोट के पिछली ओर हाथ में एक पुस्तक पकडे हुए दर्शाया गया है, साथ ही एक दूरदर्शी, एक प्रिज्म और सौर तंत्र का एक मानचित्र भी है। एक सेब पर खड़ी हुई आइजैक न्यूटन की एक मूर्ति, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में देखी जा सकती है। ref>[43] ^ "न्यूटन के चुनाव के लिए रानी की 'बहुत बड़ी सहायता' थी उसे नाईट की उपाधि देना, यह सम्मान उन्हें न तो विज्ञान में योगदान के लिए दिया गया और न ही टकसाल के लिए उनके द्वारा दी गयी सेवओं के लिए दिया गया। बल्कि 1705 में चुनाव में दलीय राजनीती में योगदान के लिए दिया गया।" वेस्टफॉल 1994 पी 245 धार्मिक विचार nyutn mhan इतिहासकार स्टीफन डी. स्नोबेलेन का न्यूटन के बारे में कहना है कि "आइजैक न्यूटन एक विधर्मी थे। लेकिन ... उन्होंने अपने निजी विश्वास की सार्वजनिक घोषणा कभी नहीं की- जिससे इस रूढ़िवादी को बेहद कट्टरपंथी जो समझा गया। उन्होंने अपने विश्वास को इतनी अच्छी तरह से छुपाया कि आज भी विद्वान उनकी निजी मान्यताओं को जान नहीं पायें हैं।" स्नोबेलेन ने निष्कर्ष निकाला कि न्यूटन कम से कम एक सोशिनियन सहानुभूति रखते थे, (उनके पास कम से कम आठ सोशिनियन किताबें थीं ओर उन्होंने इन्हें पढ़ा), संभवतया एरियन ओर लगभग निश्चित रूप से एक ट्रिनिटी विरोधी थे। —तीन पुर्वजी रूप जो आज यूनीटेरीयनवाद कहलाते हैं। उनकी धार्मिक असहिष्णुता के लिए विख्यात एक युग में, न्यूटन के कट्टरपंथी विचारों के बारे में कुछ सार्वजनिक अभिव्यक्तियां हैं, सबसे खास है, पवित्र आदेशों का पालन करने के लिए उनके द्वारा इनकार किया जाना, ओर जब वे मरने वाले थे तब उन्हें पवित्र संस्कार लेने के लिए कहा गया ओर उन्होंने इनकार कर दिया। स्नोबेलेन के द्वारा विवादित एक दृष्टिकोण में, टीसी फ़ाइजनमेयर ने तर्क दिया कि न्यूटन ट्रिनिटी के पूर्वी रुढिवादी दृष्टिकोण को रखते थे, रोमन कैथोलिक, अंग्रेजवाद और अधिकांश प्रोटेसटेंटों का पश्चिमी दृष्टिकोण नहीं रखते थे। उनके अपने दिन में उन पर एक रोसीक्रुसियन होने का आरोप लगाया गया। (जैसा कि रॉयल सोसाइटी और चार्ल्स द्वितीय की अदालत में बहुत से लोगों पर लगाया गया था।) यद्यपि गति और गुरुत्वाकर्षण के सार्वत्रिक नियम न्यूटन के सबसे प्रसिद्ध अविष्कार बन गए, उन्हें ब्रह्माण्ड को देखने के लिए एक मशीन के तौर पर इनका उपयोग करने के खिलाफ चेतावनी दी गयी, जैसे महान घडी के समान। उन्होंने कहा, "गुरुत्व ग्रहों की गति का वर्णन करता है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि किसने ग्रहों को इस गति में स्थापित किया। भगवान सब चीजों का नियंत्रण करते हैं और जानते हैं कि क्या है और क्या किया जा सकता है।" उनकी वैज्ञानिक प्रसिद्धि उल्लेखनीय है, साथ ही उनका प्रारंभिक चर्च के पादरियों व बाइबल का अध्ययन भी उल्लेखनीय है। न्यूटन ने शाब्दिक आलोचना पर लिखा, सबसे विशेष है। एन हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ टू नोटेबल करप्शन ऑफ़ स्क्रिप्चर उन्होंने 3 अप्रैल ई. 33 को यीशु मसीह का क्रूसारोपण भी किया, जो एक पारंपरिक रूप से स्वीकृत तारीख़ के साथ सहमत है। उन्होंने बाइबल के अन्दर छुपे हुए संदेशों को खोजने का असफल प्रयास किया। उनके अपने जीवनकाल में, न्यूटन ने प्राकृतिक विज्ञान से अधिक धर्म के बारे में लिखा.वह तर्कयुक्त विश्वव्यापी दुनिया में विश्वास करते थे, लेकिन उन्होंने लीबनीज और बरुच स्पिनोजा में निहित हाइलोजोइज्म को अस्वीकार कर दिया.इस प्रकार, आदेशित और गतिशील रूप से सूचित ब्रह्माण्ड को समझा जा सकता था और इसे एक सक्रिय कारण के द्वारा समझा जाना चाहिए.उनके पत्राचार में, न्यूटन ने दावा किया कि प्रिन्सिपिया में लिखते समय "मैंने एक नज़र ऐसे सिद्धांतों पर रखी, ताकि देवता में विश्वास रखते हुए मनुष्य पर विचार किया जा सके." उन्होंने दुनिया की प्रणाली में डिजाइन का प्रमाण देखा: ग्रहीय प्रणाली में ऐसी अद्भुत एकरूपता को पसंद के प्रभाव की अनुमति दी जानी चाहिए।" लेकिन न्यूटन ने जोर दिया कि अस्थायित्व की धीमी वृद्धि के कारण दैवी हस्तक्षेप अंत में प्रणाली के सुधार के लिए आवश्यक होगा. इसके लिए लीबनीज ने उन पर निंदा लेख किया: "सर्वशक्तिमान ईश्वर समय समय पर अपनी घड़ी को समाप्त करना चाहता है: अन्यथा यह स्थानांतरित करने के लिए बंद कर दिया जायेगा. ऐसा लगता है कि उसके पास इसे एक सतत गति बनाने के लिए पर्याप्त दूरदर्शिता नहीं थी।" न्यूटन की स्थिति को उनके अनुयायी शमूएल क्लार्क द्वारा एक प्रसिद्ध पत्राचार के द्वारा सख्ती से बचाने का प्रयास किया गया। धार्मिक विचार पर प्रभाव न्यूटन और रॉबर्ट बोयल के यांत्रिक दर्शन को बुद्धिजीवी क़लमघसीट द्वारा रूढ़ीवादियों और उत्साहियों के लिए एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में पदोन्नत किया गया और इसे रूढ़िवादी प्रचारकों तथा असंतुष्ट प्रचारकों जैसे लेटीट्युडीनेरियन के द्वारा हिचकिचाकर स्वीकार किया गया। इस प्रकार, विज्ञान की स्पष्टता और सरलता को नास्तिकता के खतरे तथा अंधविश्वासी उत्साह दोनों की भावनात्मक और आध्यात्मिक अतिशयोक्ति का मुकाबला करने के लिए एक रास्ते के रूप में देखा गया, और उसी समय पर, अंग्रेजी देवत्व की एक दूसरी लहर ने न्यूटन की खोजों का उपयोग एक "प्राकृतिक धर्म" की संभावना को प्रर्दशित करने के लिए किया। पूर्व-आत्मज्ञान के खिलाफ किये गए हमले "जादुई सोच," और ईसाईयत के रहस्यमयी तत्व, को ब्रह्माण्ड के बारे में बोयल की यांत्रिक अवधारणा से नींव मिली. न्यूटन ने गणितीय प्रमाणों के माध्यम से बोयल के विचारों को पूर्ण बनाया और शायद अधिक महत्वपूर्ण रूप से वे उन्हें लोकप्रिय बनाने में बहुत अधिक सफल हुए. न्यूटन ने एक हस्तक्षेप भगवान द्वारा नियंत्रित दुनिया को एक ऐसी दुनिया में बदल डाला जो तर्कसंगत और सार्वभौमिक सिद्धांतों के साथ भगवान के द्वारा कलात्मक रूप से बनायीं गयी है। ये सिद्धांत सभी लोगों के लिए खोजने हेतु उपलब्ध हैं, ये लोगों को इसी जीवन में अपने उद्देश्यों को फलदायी रूप से पूरा करने की अनुमति देते हैं, अगले जीवन का इन्तजार नहीं करते हैं और उन्हें उनकी अपनी तर्कसंगत शक्तियों से पूर्ण बनाते हैं। न्यूटन ने भगवान को मुख्य निर्माता के रूप में देखा, जिसके अस्तित्व को सभी निर्माणों की भव्यता के चेहरे में नकारा नहीं जा सकता है। उनके प्रवक्ता, क्लार्क, ने लीबनीज के धर्म विज्ञान को अस्वीकृत कर दिया, जिसने भगवान को "l'origine du mal " के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया, इसके लिए भगवान को उसके निर्माण में योगदान से हटा दिया, चूँकि जैसा कि क्लार्क ने कहा था ऐसा देवता केवल नाम से ही राजा होगा, लेकिन नास्तिकता से एक कदम दूर होगा. लेकिन अगली सदी में न्यूटन की प्रणाली की सफलता का अनदेखा धर्म विज्ञानी परिणाम, लीबनीज के द्वारा बताई गयी आस्तिकता की स्थिति को मजबूत बनाएगा. दुनिया के बारे में समझ अब साधारण मानव के कारण के स्तर तक आ गयी और मानव, जैसा कि ओडो मर्कवार्ड ने तर्क दिया, बुराई के सुधार और उन्मूलन के लिए उत्तरदायी बन गया। दूसरी ओर, लेटीट्युडीनेरियन और न्यूटोनियन के विचारों के परिणाम बहुत दूरगामी थे, एक धार्मिक गुट यांत्रिक ब्रह्मांड की अवधारणा को समर्पित हो गया, लेकिन इसमें उतना ही उत्साह और रहस्य था कि प्रबुद्धता को नष्ट करने के लिए कठिन संघर्ष किया गया। दुनिया के अंत के बारे में दृष्टिकोण एक पांडुलिपि जो उन्होंने 1704 में लिखी, जिसमें उन्होंने बाइबल से वैज्ञानिक जानकारी निकालने के अपने प्रयास का वर्णन किया है, उनका अनुमान था कि दुनिया 2060 से पहले समाप्त नहीं होगी। इस भविष्यवाणी में उहोने कहा कि, "इसमें में यह नहीं कह रहा कि अंतिम समय कौन सा होगा, लेकिन मैं इससे उन काल्पनिक व्यक्तियों के अटकलों को बंद करना चाहता हूँ जो अक्सर अंत समय के बारे में भविष्यवाणी करते हैं और इस भविष्यवाणी के असफल हो जाने पर पवित्र भविष्यद्वाणी बदनाम होती है।" आत्मज्ञानी दार्शनिक आत्मज्ञानी दार्शनिकों ने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के एक छोटे इतिहास को चुना-गैलिलियो, बोयल और मुख्य रूप से न्यूटन- यह चुनाव दिन के प्रत्येक भौतिक और सामाजिक क्षेत्र के लिए प्राकृतिक नियम और प्रकृति की एकल अवधारणा के उनके अनुप्रयोग के मार्गदर्शन और जमानत के रूप मैं किया गया। इस संबंध में, इस पर निर्मित सामाजिक संरंचनाओं और इतिहास के अध्याय त्यागे जा सकते थे। प्राकृतिक और आत्मज्ञानी रूप से समझने योग्य नियमों पर आधारित ब्रह्माण्ड के बारे में यह न्यूटन की ही संकल्पना थी जिसने आत्मज्ञान विचारधारा के लिए एक बीज का काम किया। लोके और वॉलटैर ने आंतरिक अधिकारों की वकालत करते हुए प्राकृतिक नियमों की अवधारणा को राजनितिक प्रणाली पर लागू किया; फिजियोक्रेट और एडम स्मिथ ने आत्म-रूचि और मनोविज्ञान की प्राकृतिक अवधारणा को आर्थिक प्रणाली पर लागू किया तथा समाजशास्त्रियों ने प्रगति के प्राकृतिक नमूनों में इतिहास को फिट करने की कोशिश के लिए तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की आलोचना की. मोनबोडो और सेमयूल क्लार्क ने न्यूटन के कार्य के तत्वों का विरोध किया, लेकिन अंततः प्रकृति के बारे में उनके प्रबल धार्मिक विचारों को सुनिश्चित करने के लिए इसे युक्तिसंगत बनाया। न्यूटन और जालसाजी शाही टकसाल के प्रबंधक के रूप में, न्यूटन ने अनुमान लगाया कि दुबारा ढलाई किये जाने वाले सिक्कों में 20% जाली थे। जालसाजी एक बहुत बड़ा राजद्रोह था, जिसके लिए फांसी की सजा थी। इस के बावजूद, सबसे ज्वलंत अपराधियों को पकड़ना बहुत मुश्किल था; यद्यपि, न्यूटन इस कार्य के लिए सही साबित हुए. भेष बदल कर शराबखाने और जेल में जाकर उन्होंने खुद बहुत से सबूत इकट्ठे किये। सरकार की शाखाओं को अलग करने और अभियोजन पक्ष के लिए स्थापित सभी बाधाओं हेतु, अंग्रेजी कानून में अभी भी सत्ता के प्राचीन और दुर्जेय रिवाज थे। न्यूटन को शांति का न्यायाधीश बनाया गया और जून 1698 और क्रिसमस 1699 के बीच उन्होंने गवाह, मुखबिरों और संदिग्धों के 200 परिक्षण करवाए। न्यूटन ने अपनी प्रतिबद्धता को जीता और फरवरी 1699 में उनके पास दस कैदी रिहाई का इन्तजार कर रहे थे।[103] राजा के वकील के रूप में न्यूटन का एक मामला विलियम चलोनेर के खिलाफ था। चलोनेर की योजना थी कैथोलिक के जाली षड्यंत्र को तय करना और फिर अभागे षड़यंत्रकारी में बदल देना जिसको वह बंधक बना लेता था। चलोनेर ने अपने आप को पर्याप्त समृद्ध सज्जन बना लिया। संसद में अर्जी देते हुए चलोनर ने टकसाल में नकली सिक्के बनाने के लिए उपकरण भी उपलब्ध कराये. (ऐसा आरोप दूसरो ने उस पर लगाया) उसने प्रस्ताव दिया कि उसे टकसाल की प्रक्रियाओं का निरीक्षण करने की अनुमति दी जाए ताकि वह इसमें सुधार के लिए कुछ कर सके। उसने संसद में अर्जी दी कि सिक्कों की ढलाई के लिए उसकी योजना को स्वीकार कर लिया जाये ताकि जालसाजी न की जा सके, जबकि उसी समय जाली सिक्के सामने आये। न्यूटन ने चलोनर पर जालसाजी का परीक्षण किया और सितम्बर 1697 में उसे न्यू गेट जेल में भेज दिया। लेकिन चलोनर के उच्च स्थानों पर मित्र थे, जिन्होंने उसे उसकी रिहाई के लिए मदद की। न्यूटन ने दूसरी बार निर्णायक सबूत के साथ उस पर परिक्षण किया। चलोनेर को उच्च राजद्रोह का दोषी पाया गया था और उसे 23 मार्च 1699 को तिबुर्न गेलोज में फांसी दे कर दफना दिया गया। न्यूटन के गति के नियम गति के प्रसिद्द तीन नियम न्यूटन के पहला नियम (जिसे जड़त्व के नियम भी कहा जाता है) के अनुसार एक वस्तु जो स्थिरवस्था में है वह स्थिर ही बनी रहेगी और एक वस्तु जो समान गति की अवस्था में है वह समान गति के साथ उसी दिशा में गति करती रहेगी जब तक उस पर कोई बाहरी बल कार्य नहीं करता है। न्यूटन के दूसरे नियम के अनुसार एक वस्तु पर लगाया गया बल \vec{, समय के साथ इसके संवेग \vec{ में परिवर्तन की दर के बराबर होता है। गणितीय रूप में इसे निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है चूंकि दूसरा नियम एक स्थिर द्रव्यमान की वस्तु पर लागू होता है, (dm /dt = 0), पहला पद लुप्त हो जाता है और त्वरण की परिभाषा का उपयोग करते हुए प्रतिस्थापन के द्वारा समीकरण को संकेतों के रूप में निम्नानुसार लिखा जा सकता है पहला और दूसरा नियम अरस्तु की भौतिकी को तोड़ने का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें ऐसा माना जाता था कि गति को बनाये रखने के लिए एक बल जरुरी है। वे राज्य में व्यवस्था की गति का एक उद्देश्य है राज्य बदलने के लिए हैं कि एक ही शक्ति की जरूरत है। न्यूटन के सम्मान में बल की SI इकाई का नाम न्यूटन रखा गया है। न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इसका अर्थ यह है कि जब भी एक वस्तु किसी दूसरी वस्तु पर एक बल लगाती है तब दूसरी वस्तु विपरीत दिशा में पहली वस्तु पर उतना ही बल लगती है। इसका एक सामान्य उदाहरण है दो आइस स्केट्स एक दूसरे के विपरीत खिसकते हैं तो विपरीत दिशाओं में खिसकने लगते हैं। एक अन्य उदाहरण है बंदूक का पीछे की और धक्का महसूस करना, जिसमें बन्दूक के द्वारा गोली को दागने के लिए उस पर लगाया गया बल, एक बराबर और विपरीत बल बंदूक पर लगाता है जिसे गोली चलाने वाला महसूस करता है। चूंकि प्रश्न में जो वस्तुएं हैं, ऐसा जरुरी नहीं कि उनका द्रव्यमान बराबर हो, इसलिए दोनों वस्तुओं का परिणामी त्वरण अलग हो सकता है (जैसे बन्दूक से गोली दागने के मामले में)। अरस्तू के विपरीत, न्यूटन की भौतिकी सार्वत्रिक हो गयी है। उदाहरण के लिए, दूसरा नियम ग्रहों तथा एक गिरते हुए पत्थर पर भी लागू होता है। दूसरे नियम की सदिश प्रकृति बल की दिशा और वस्तु के संवेग में परिवर्तन के प्रकार के बीच एक ज्यामितीय सम्बन्ध स्थापित करती है। न्यूटन से पहले, आम तौर पर यह माना जाता था कि सूर्य के चारों और घूर्णन कर रहे एक ग्रह के लिए एक अग्रगामी बल आवश्यक होता है जिसकी वजह से यह गति करता रहता है। न्यूटन ने दर्शाया कि इस के बजाय सूर्य का अन्दर की और एक आकर्षण बल आवश्यक होता है। (अभिकेन्द्री आकर्षण) यहाँ तक कि प्रिन्सिपिया के प्रकाशन के कई दशकों के बाद भी, यह विचार सार्वत्रिक रूप से स्वीकृत नहीं किया गया। और कई वैज्ञानिकों ने डेसकार्टेस के वोर्टिकेस के सिद्धांत को वरीयता दी. न्यूटन का सेब न्यूटन अक्सर खुद एक कहानी कहते थे कि एक पेड़ से एक गिरते हुए सेब को देख कर वे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बनाने के लिए प्रेरित हो पाए। बाद में व्यंग्य करने के लिए ऐसे कार्टून बनाये गए जिनमें सेब को न्यूटन के सर पर गिरते हुए बताया गया और यह दर्शाया गया कि इसी के प्रभाव ने किसी तरह से न्यूटन को गुरुत्व के बल से परिचित कराया. उनकी पुस्तिकाओं से ज्ञात हुआ कि 1660 के अंतिम समय में न्यूटन का यह विचार था कि स्थलीय गुरुत्व का विस्तार होता है, यह चंद्रमा के वर्ग व्युत्क्रमानुपाती होता है; हालाँकि पूर्ण सिद्धांत को विकसित करने में उन्हें दो दशक का समय लगा। जॉन कनदयुइत, जो रॉयल टकसाल में न्यूटन के सहयोगी थे और न्यूटन की भतीजी के पति भी थे, ने इस घटना का वर्णन किया जब उन्होंने न्यूटन के जीवन के बारे में लिखा: 1666 में वे कैम्ब्रिज से फिर से सेवानिवृत्त हो गए और अपनी मां के पास लिंकनशायर चले गए। जब वे एक बाग़ में घूम रहे थे तब उन्हें एक विचार आया कि गुरुत्व की शक्ति धरती से एक निश्चित दूरी तक सीमित नहीं है, (यह विचार उनके दिमाग में पेड़ से नीचे की और गिरते हुए एक सेब को देख कर आया) लेकिन यह शक्ति उससे कहीं ज्यादा आगे विस्तृत हो सकती है जितना कि पहले आम तौर पर सोचा जाता था। उन्होंने अपने आप से कहा कि क्या ऐसा उतना ऊपर भी होगा जितना ऊपर चाँद है और यदि ऐसा है तो, यह उसकी गति को प्रभावित करेगा और संभवतया उसे उसकी कक्षा में बनाये रखेगा, वे जो गणना कर रहे थे, इस तर्क का क्या प्रभाव हुआ। सवाल गुरुत्व के अस्तित्व का नहीं था बल्कि यह था कि क्या यह बल इतना विस्तृत है कि यह चाँद को अपनी कक्षा में बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है। न्यूटन ने दर्शाया कि यदि बल दूरी के वर्ग व्युत्क्रम में कम होता है तो, चंद्रमा की कक्षीय अवधि की गणना की जा सकती है और अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। उन्होंने अनुमान लगाया कि यही बल अन्य कक्षीय गति के लिए जिम्मेदार है और इसीलिए इसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नाम दे दिया। एक समकालीन लेखक, विलियम स्तुकेले, सर आइजैक न्यूटन की ज़िंदगी को अपने स्मरण में रिकोर्ड करते हैं, वे 15 अप्रैल 1726 को केनसिंगटन में न्यूटन के साथ हुई बातचीत को याद करते हैं, जब न्यूटन ने जिक्र किया कि "उनके दिमाग में गुरुत्व का विचार पहले कब आया। जब वह ध्यान की मुद्रा में बैठे थे उसी समय एक सेब के गिरने के कारण ऐसा हुआ। क्यों यह सेब हमेशा भूमि के सापेक्ष लम्बवत में ही क्यों गिरता है? ऐसा उन्होंने अपने आप में सोचा। यह बगल में या ऊपर की ओर क्यों नहीं जाता है, बल्कि हमेशा पृथ्वी के केंद्र की ओर ही गिरता है।" इसी प्रकार के शब्दों में, वोल्टेर महाकाव्य कविता पर निबंध (1727) में लिखा, "सर आइजैक न्यूटन का अपने बागानों में घूम रहे थे, पेड़ से गिरते हुए एक सेब को देख कर, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की प्रणाली के बारे में पहली बार सोचा। विभिन्न पेड़ों को "वह" सेब के पेड़ होने का दावा किया जाता है जिसका न्यूटन ने वर्णन किया है। दी किंग्स स्कूल, ग्रान्थम दावा करता है कि यह पेड़ स्कूल के द्वारा खरीद लिया गया था, कुछ सालों बाद इसे जड़ सहित लाकर प्रधानाध्यापक के बगीचे में लगा दिया गया। नेशनल ट्रस्ट जो वूलस्थ्रोप मेनर का मालिक है, का वर्तमान स्टाफ इस पर विवाद करता है, ओर दावा करता है कि वह पेड़ उनके बगीचे में उपस्थित है जिस के बारे में न्यूटन ने बात की। मूल वृक्ष का वंशज ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के मुख्य द्वार के बाहर उगा हुआ देखा जा सकता है, यह उस कमरे के नीचे है जिसमें न्यूटन पढाई के समय रहता था। ब्रोग्डेल में राष्ट्रीय फलों का संग्रह उन पेड़ों से ग्राफ्ट की आपूर्ति कर सकता है, जो फ्लॉवर ऑफ़ केंट के समान दिखाई देता है, जो एक मोटे गूदे की पकाने की किस्म है। न्यूटन के लेखन मेथड ऑफ़ फ़्लक्सियन्स (1671) ऑफ़ नेचर ओब्वियस लॉस एंड प्रोसेसेज इन वेजिटेशन (अप्रकाशित सी.1671-75) डे मोटू कोर्पोरम इन जिरम (1684) फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (1687) ऑप्टिक्स (1704) टकसाल में मास्टर के रूप में रिपोर्टें (1701-25) एरिथमेटिका युनीवरसेलिस (1707) दी सिस्टम ऑफ़ दी वर्ल्ड, ऑप्टिकल लेक्चर्स, ''दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स , (संशोधित) और डी मुंडी सिस्टमेट (1728 में मरणोपरांत प्रकाशित की गयी), "डेनियल पर प्रेक्षण और डी एपोकलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन" (1733) धर्म-ग्रन्थ के दो उल्लेखनीय भ्रष्टाचारों का ऐतिहासिक लेखा जोखा (1754) इन्हें भी देखें अल्बर्ट आइंस्टीन गैलीलियो गैलिली न्यूटन की डिस्क न्यूटन फ्राक्टाल न्यूटन का झूला न्यूटन की असमानताएं न्यूटन के गति के नियम. न्यूटन के संकेतन न्यूटन बहुभुज न्यूटन बहुपद न्यूटन का प्रतिक्षेपक न्यूटन के धार्मिक विचार न्यूटन श्रृंखला न्यूटन की परिक्रामी कक्षाओं की प्रमेय न्यूटन (इकाई) न्यूटन-कोट्स सूत्र न्यूटन- यूलर समीकरण न्युटोनियन वाद श्रोडिंगर-न्यूटन समीकरण वैज्ञानिक क्रांति स्पालडिंग जेंटलमेन्स सोसाइटी पादटिप्पणी और सन्दर्भ सन्दर्भ [124]यह अच्छी तरह से प्रलेखित काम, विशेष रूप से, पुर्वाचार्य सम्बन्धी न्यूटन के ज्ञान के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है। अतिरिक्त अध्ययन बर्डी, जेसन सुकरात. दी कैल्कुलस वार्स: न्यूटन, लीबनीज और ग्रेटेस्ट मेथेमेटिकल क्लेश ऑफ आल टाइम (2006). 277 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज बेर्लिन्सकी, डेविड. न्यूटन'स गिफ्ट: हाओ सर आइजैक न्यूटन अनलोक्ड दी सिस्टम ऑफ दी वर्ल्ड (2000). 256 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज आई एस बी एन 0-684-84392-7 बक्वाल्ड, जेड़ जेड़. और कोहेन, आई। बर्नार्ड, संस्करण.आइजैक न्यूटन की नेचुरल फिलोसोफी. एमआईटी प्रेस, 2001. 354 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज अंश और पाठ्य की खोज के लिए यह साइट देखें. कोहेन, आई। बर्नार्ड और स्मिथ, जॉर्ज ई., संस्करण. दी कैम्ब्रिज कम्पेनियन टू न्यूटन (2002). 500 पीपी.केवल दार्शनिक मुद्दों पर केंद्रित; 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[148]केयेन्स ने न्यूटन में काफी रूचि ली और न्यूटन के कई निजी कागजात पर कब्जा कर लिया। न्यूटन, आइजैक आई बर्नार्ड कोहेन द्वारा संपादित नेचुरल फिलोसोफी, में पत्र और कागजात .हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1958,1978. आई एस बी एन 0-674-46853-8. न्यूटन, आइजैक (1642-1727) दी प्रिन्सिपिया: एक नया अनुवाद, आई बर्नार्ड कोहेन के द्वारा निर्देशित आई एस बी एन 0-520-08817-4 कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (1999). शाप्ले, हरलो, एस रेप्पोर्ट और एच राइटऐ ट्रेजरी ऑफ साइंस ; "न्युटोनिया" पीपी.147-9;"डिस्कवरीज" पी पी. 150-4.हार्पर एंड ब्रदर्स, न्यूयॉर्क, (1946). (ऐ एह व्हाइट द्वारा संपादित; मूलतः 1752 में प्रकाशित) न्यूटन और धर्म डोब्ब्स, बेट्टी जो टेटर दी जानूस फेसेस ऑफ जीनियस:न्यूटन के विचार में रसायन विद्या की भूमिका (1991), रसायन विद्या को एरियन वाद से सम्बंधित करता है। बल, जेम्स ई. और रिचर्ड एच. Popkin, eds. न्यूटन और धर्म: सन्दर्भ, प्रकृति और प्रभाव. (1999), 342 पी पी. पीपी. xvii +325. नयी खुली पांडुलिपियों का उपयोग करने वाले 13 कागजात रामाती, अय्वल. 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दफ़ला नागलैंड प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है। विश्व की भाषाएँ
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कंगारू आस्ट्रेलिया में पाया जानेवाला एक स्तनधारी पशु है। यह आस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय पशु भी है। कंगारू शाकाहारी, धानीप्राणी (मारसूपियल, marsupial) जीव हैं जो स्तनधारियों में अपने ढंग के निराले प्राणी हैं। इन्हें सन्‌ 1773 ई. में कैप्टन कुक ने देखा और तभी से ये सभ्य जगत्‌ के सामने आए। इनकी पिछली टाँगें लंबी और अगली छोटी होती हैं, जिससे ये उछल उछलकर चलते हैं। पूँछ लंबी और मोटी होती है जो सिरे की ओर पतली होती जाती है। कंगारू स्तनधारियों के शिशुधनिन भाग (मार्सूपियल, marsupialia) के जीव हैं जिनकी विशेषता उनके शरीर की थैली है। जन्म के पश्चात्‌ उनके बच्चे बहुत दिनों तक इस थैली में रह सकते हैं। इनमें सबसे बड़े, भीम कंगारू (जायंट कंगारू) छोटे घोड़े के बराबर और सबसे छोटे, गंध कंगारू (मस्क कंगारू) खरहे से भी छोटे होते हैं। प्रजातियाँ कंगारू केवल आस्ट्रलिया में ही पाए जाते हैं। वहाँ इनकी 21 प्रजातियों (जीनस, genus) का अब तक पता चल सका है जिनमें 158 जातियाँ तथा उपजातियाँ सम्मिलित हैं। इनमें कुछ प्रसिद्ध कंगारू इस प्रकार हैं : न्यू गिनी में डोरकोपसिस (Dorcopsis) जाति के कंगारू मिलते हैं जो कुत्ते के बराबर होते हैं। इनकी पूँछ और टाँगें छोटी होती हैं। इन्हीं के निकट संबंधी तरुकुरंग (डेंड्रोलेगस कंगारू, Dendrolagus kangaroos) हैं जो पेड़ों पर भी चढ़ जाते हैं। इनके कान छोटे और पूँछ पतली तथा लंबी होती है। पैडीमिलस (pademelous) नामक कंगारू डोलकोपसिस के बराबर होने पर भी छोटे सिरवाले होते हैं। ये न्यु गिनी से टैक्मेनिया तक फैले हुए हैं। प्रोटेमनोडन (Protemnodon) जाति के कई कंगारू बहुत प्रसिद्ध हैं जो घास के मैदानों में रहते हैं। ये रात में चराई करके दिन का समय किसी झाड़ी में बिताते हैं। इनकी पूँछ, कान और टाँगें लंबी होती हैं। मैकरोपस (Macropus) जाति का महान्‌ धूम्रवर्ण कंगारू (ग्रेट ग्रे कंगारू) भी बहुत प्रसिद्ध है। यह घास के मैदान का निवासी है। इसी का निकट संबंधी लाल कंगारू भी किसी से कम प्रसिद्ध नहीं है, यह आस्ट्रेलिया के मध्य भाग के निचले पठारों पर रहता है। शैलधाकुरंग (पेट्रोग्रोल, Petrogole) और ओनीकोगोल (Onychogole) प्रजाति के शैल वैलेबी (रॉक वैलेबी, Rock Wallaby) और नखपुच्छ (नेल टेल) वैलेबी नाम के कंगारू बहुत सुंदर और छोटे कद के होते हैं। इनमें से पूर्वोंक्त प्रजातिवाले कंगारू पहाड़ की खोहों में और दूसरे घास के मैदानों में रहते हैं। पैलार्किस्टिस (Palorchistes) जाति के प्रातिनूतन भीम कंगारू (प्लाइस्टोसीन जायंट कंगारू, pliestocene giant kangaroo) काफी बड़े (लगभग छोटे घोड़े के भार के) होते हैं। इनका मुख्य भोजन घास पात और फल फल है। इनका सिर छोटा, जबड़ा भारी और टाँगें छोटी होती हैं। शारीरिक विशेषताएँ कंगारू के पैरों में अँगूठे नहीं होते। इनकी दूसरी और तीसरी अँगुलियाँ पतली और आपस में एक झिल्ली से जुड़ी रहती हैं, चौथी और पाँचवीं अँगुली बड़ी होती हैं। चौथी में पुष्ट नख रहता है। कंगारू की पूँछ लंबी और भारी होती है। उछलते समय वे इसी से अपना संतुलन बनाए रहते हैं और बैठते समय इसी को टेककर इस प्रकार बैठे रहते हैं मानों कुर्सी पर बैठे हों। वे अपनी अगली टाँगों और पूँछ को टेककर पिछली टाँगों को आगे बढ़ाते हैं और उछलकर पर्याप्त दूरी तक पहुँच जाते हैं। कंगारू का मुखछिद्र छोटा होता है जिसका पर्याप्त भाग ओठों से छिपा रहता है। मुख में निचले कर्तनकदंत (इनसाइज़र्स, incisors) आगे की ओर पर्याप्त बढ़े रहते हैं, जिनसे ये अपना मुख्य भोजन, घास पात, सुगमता से कुतर लेते हैं। इनकी आँखें भूरी और औसत कद की, कान गोलाई लिए बड़े और घूमनेवाले होते हैं, जिन्हें हिरन आदि की भाँति इधर-उधर घुमाकर ये दूर आहट पा लेते हैं। इनके शरीर के रोएँ पर्याप्त कोमल होते हैं और कुछ के निचले भाग में घने रोओं की एक और तह भी रहती है। कंगारू की थैली उसके पेट के निचले भाग में रहती है। यह थैली आगे की ओर खुलती है और उसमें चार थन रहते हैं। जाड़े के आरंभ में इनकी मादा एक बार में एक बच्चा जनती है, जो दो चार इंच से बड़ा नहीं होता। प्रारंभ में बच्चा माँ की थैली में ही रहता है। वह उसको लादे हुए इधर-उधर फिरा करती है। कुछ बड़े हो जाने पर भी बच्चे का सबंध माँ की थेली से नहीं छूटता और वह तनिक सी आहट पाते ही भागकर उसमें घुसजाता है। किंतु और बड़ा हो जाने पर यह थेली उसके लिए छोटी पड़ जाती है और वह माँ के साथ छोड़कर अपना स्वतंत्र जीवन बिताने लगता है। आस्ट्रेलिया के लोग कंगारू का मांस खाते हैं और उसकी पूँछ का रसा बड़े स्वाद से पीते हैं। वैसे तो यह शांतिप्रिय शाकाहारी जीव है, परंतु आत्मरक्षा के समय यह अपनी पिछली टाँगों से भयंकर प्रहार करता है। इन्हें भी देखें धानीप्राणी लाल कंगारू मैक्रोपोडीडाए सन्दर्भ धानीप्राणी ऑस्ट्रेलिया के स्तनधारी मैक्रोपोडीडाए
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रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केन्द्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है। रंगोली का इतिहास रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं। रंगोली का उद्देश्य रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। अल्पना जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं। आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सज्जा के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्रायः सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं। और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं। हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है। विभिन्न प्रांतों की रंगोली रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के 'कोलम' में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है। राजस्थान का मांडना जो मंडन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। कुमाऊँ के'लिख थाप' या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर। रंगोली के प्रमुख तत्त्व रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतीक पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। नई पीढी पारंपरिक रूप से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है। रंगोली के प्रमुख प्रतीकों में कमल का फूल, इसकी पत्तियाँ, आम, मंगल कलश, मछलियाँ, अलग अलग तरह की चिड़ियाँ, तोते, हंस, मोर, मानव आकृतियाँ और बेलबूटे लगभग संपूर्ण भारत की रंगोलियों में पाए जाते हैं। विशेष अवसरों पर बनाई जाने वाली रंगोलियों में कुछ विशेष आकृतियाँ भी जुड़ जाती हैं जैसे दीपावली की रंगोली में दीप, गणेश या लक्ष्मी। रंगोली का दूसरा प्रमुख तत्त्व प्रयोग आने वाली सामग्री है। इसमें वही सामग्री प्रयुक्त होती है जो आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला अमीर-गरीब सभी के घरों में प्रचलित है। सामान्य रूप से रंगोली बनाने की प्रमुख सामग्री है- पिसे हुए चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी, लकड़ी का बुरादा आदि। रंगोली का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पृष्ठभूमि है। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफ़ या लीपी हुई ज़मीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आँगन के मध्य में, कोनों पर, या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्यद्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप के आधार, पूजा की चौकी और यज्ञ की वेदी पर भी रंगोली सजाने की परंपरा है। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है। अतिथि सत्कार और पर्यटन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इसका व्यावसायिक रूप भी विकसित हुआ है। इसके कारण इसे होटलों जैसे स्थानों पर सुविधाजनक रंगों से भी बनाया जाने लगा है पर इसका पारंपरिक आकर्षण, कलात्मकता और महत्त्व अभी भी बने हुए हैं। रंगोली की रचना रंगोली दो प्रकार से बनाई जाती है। सूखी और गीली। दोनों में एक मुक्तहस्त से और दूसरी बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाती है। बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाने वाली रंगोली के लिए पहले सफेद रंग से जमीन पर किसी विशेष आकार में निश्चित बिंदु बनाए जाते हैं फिर उन बिंदुओं को मिलाते हुए एक सुंदर आकृति आकार ले लेती है। आकृति बनाने के बाद उसमें मनचाहे रंग भरे जाते हैं। मुक्तहस्त रंगोली में सीधे जमीन पर ही आकृति बनाई जाती है। पारंपरिक मांडना बनाने में गेरू और सफ़ेद खड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाज़ार में मिलने वाले रंगोली के रंगों से रंगोली को रंग बिरंगा बनाया जा सकता है। रंगोली बनाने के झंझट से मुक्ति चाहने वालों के लिए अपनी घर की देहरी को सजाने के लिए 'रेडिमेड रंगोली' स्टिकर भी बाज़ार में मिलते हैं, जिन्हें मनचाहे स्थान पर चिपकाकर रंगोली के नमूने बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी हुई आकृतियाँ भी मिलती हैं, जिसे जमीन पर रखकर उसके ऊपर रंग डालने से जमीन पर सुंदर आकृति उभरकर सामने आती है। अगर रंगोली बनाने का अभ्यास नहीं है तो इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ साँचे ऐसे भी मिलते हैं जिनमें आटा या रंग का पाउडर भरा जा सकता है। इसमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। इन्हें ज़मीन से हल्का सा टकराते ही निश्चित स्थानों पर रंग झरता है और सुंदर नमूना प्रकट हो जाता है। रंगोली बनाने के लिए प्लास्टिक के स्टेंसिल्स का प्रयोग भी किया जाता है। गीली रंगोली चावल को पीसकर उसमें पानी मिलाकर तैयार की जाती है। इस घोल को ऐपण, ऐपन या पिठार कहा जाता है। इसे रंगीन बनाने के लिए हल्दी का प्रयोग भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त रंगीन रंगोली बाज़ार में मिलने वाले पोस्टर, क्रेयॉन, फ़ेब्रिक और एक्रिलिक रंगों से भी बनाई जाती हैं। पानी और रंगोली आजकल रंगोली के लिए कलाकारों ने पानी को भी माध्यम बना लिया है। इसके लिए एक टब या टैंक में पानी को लेकर स्थिर व समतल क्षेत्र में पानी को डाल दिया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि पानी को हवा या किसी अन्य तरह के संवेग से वास्ता न पड़े। इसके बाद चारकोल के पावडर को छिड़क दिया जाता है। इस पर कलाकार अन्य सामग्रियों के साथ रंगोली सजाते हैं। इस तरह की रंगोली भव्य नजर आती है। भरे हुए पानी पर फूलों की पंखुडियों और दियों की सहायता से भी रंगोली बनाई जाती है। पानी सतह पर रंगों को रोकने के लिए चारकोल की जगह, डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ रंगोलियाँ पानी के भीतर भी बनाई जाती हैं। इसके लिए एक कम गहरे बर्तन में पानी भरा जाता है फिर एक तश्तरी या ट्रे पर अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में इसपर हल्का सा तेल स्प्रे कर के धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। तेल लगा होने के कारण रंगोली पानी में फैलती नहीं। महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली वंदना जोशी को रंगोली बनाने में महारत हासिल है। वह पानी के ऊपर रंगोली बनाने वाली विश्व की पहली महिला हैं और वह ७ फरवरी २००४ को दुनिया की सबसे बड़ी रंगोली बनाकर गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं। पानी पर रंगोली बनाने वाले दूसरे प्रमुख कलाकार राजकुमार चन्दन हैं। वे देवास में मीता ताल के १७ एकड़ जल पर विशालकाय रंगोली बनाने का अद्भुत काम कर चुके हैं। विश्वास और मान्यताएँ तमिल नाडु में यह मिथक प्रचलित है कि मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने भगवान तिरुमाल से विवाह की विनती की। लम्बी साधना के बाद वो भगवान तिरुमाल में विलीन हो गईं। इसलिए इस महीने में अविवाहित लड़कियाँ सूर्योदय से पहले उठकर भगवान तिरुमाल के स्वागत के लिए रंगोली सजाती हैं। रंगोली के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय ग्रंथ 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है- एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा कि वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना या रंगोली की शुरुआत हुई। इसी सन्दर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संबंध में और भी पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी रंगोली का उल्लेख है। दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे यह मान्यता है कि चींटी को खाना खिलाना चाहिए। यहाँ यह माना जाता है कि कोलम के बहाने अन्य जीव जन्तु को भोजन मिलता है जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है। रंगोली को झाडू या पैरों से नहीं हटाया जाता है बल्कि इन्हें पानी के फव्वारों या कीचड़ सने हाथों से हटाया जाता है। मिथिलांचल में ऐसा कोई पर्व-त्योहार या (उपनयन-विवाह जैसा कोई) समारोह नहीं जब घर की दीवारों और आंगन में चित्रकारी नहीं की जाती हो। प्रत्येक अवसर के लिए अलग ढँग से "अरिपन" बनाया जाता है जिसके अलग-अलग आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। विवाह के अवसर पर वर-वधू के कक्ष में दीवारों पर बनाए जाने वाले "कोहबर" और "नैना जोगिन" जैसे चित्र, जो वास्तव में तंत्र पर आधारित होते हैं, चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान हैं। रंगोली में निहित परंपरा और आधुनिकता रंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है। इसमें विभिन्न अवसरों पर शुभ चिह्नों के साथ अनेक प्रकार के चित्रों से दीवारों की सजावट की जाती है। तीसरे प्रकार के चित्रांकन कागज़ों अथवा कपड़ों पर होते हैं। कुमाऊँ में इसे ज्यूँति, राजस्थान में फड़ या पड़क्यें कहा जाता है। ज्यूँति में जहाँ जीवमातृकाओं और देवताओं के चित्र बने होते हैं वहीं फड़ में राजाओं और लोकदेवताओं की वंशावली चित्रित होती है। आंध्र-प्रदेश की कलमकारी और उड़ीसा के पट्टचित्र भी इसी लोक कला के उदाहरण हैं इससे पता चलता है कि लोक संस्कृति हाथ से चित्रित करने की यह परंपरा अत्यंत व्यापक और प्राचीन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के मूल में कितनी कलात्मकता और लालित्य निहित है। यह कलात्मकता और लालित्य आज भी रूप बदलकर शुभ अवसरों पर दिखाई पड़ता है। सम्पन्नता के विकास के साथ आजकल इसे सजाने के लिए शुभ अवसरों के आने की प्रतीक्षा नहीं की जाती बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को रंगोली सजाकर शुभ बना लिया जाता है। चाहे किसी चीज का लोकार्पण हो या होटलों के प्रचार-प्रसार की बात हो, रंगोली की सजावट आवश्यक समझी जाती है। इसके अतिरिक्त आजकल कलाकारों ने रंगोली प्रर्दशनी और रंगोली प्रतियोगिताएँ भी शुरू कर दी है। कुछ रंगोलियाँ ऐसी भी होती हैं जो देखने में एक कलाकृति की भाँति दिखाई देती हैं। इनमें आधुनिकता और परंपरा का समावेश आसानी से लक्षित किया जा सकता है। रंगोली बनाने की प्रतियोगिताएँ और रेकार्डों का भी अद्भुत क्रम शुरू हुआ है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड तक रंगोली पहुँचाने वाली पहली महिला विजय लक्ष्मी मोहन थीं, जिन्होंने सिंगापुर में ३ अगस्त २००३ को यह रेकार्ड बनाया। २००९ तक यह रेकार्ड हर साल टूटता रहा है। इसके अतिरिक्त पानी पर रंगोली बनाने के रेकार्ड भी गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल हो चुके हैं। चित्र दीर्घा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ रंगोली के नमूने रंगोली की परंपरा हिन्दू धर्म लोक कला रंगोली
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "रंगोली", "token_count": 22109, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80" }
मास्को या मॉस्को ( / मोस्कवा), रूस की राजधानी एवं यूरोप का सबसे बडा शहर है। मॉस्को का शहरी क्षेत्र विश्व के सबसे बडे शहरी क्षेत्रों में गिना जाता है। मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है। यह मोस्कवा नदी के तट पर बसा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से यह पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रही है। मास्को को संसार के अरबपतियों का नगर भी कहा जाता है जहाँ विश्व के सबसे अधिक अरबपति बसते हैं। २००७ में मास्को को लगातार दूसरी बार विश्व का सबसे महँगा नगर भी घोषित किया गया था। इतिहास मास्को नगरी का नाम मोस्कवा नदी पर रखा गया है। १२३७-३८ के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने सारा नगर जला दिया और लोगों को मार दिया। मास्को ने दुबारा विकास किया और १३२७ में व्लादिमीर - सुज्दाल रियासत की राजधानी बनाई गई। वोल्गा नदी के शुरूवात पर स्थित होने के कारण यह नगर अनुकूल था और इस कारण धीरे धीरे शहर बड़ा होने लगा। मास्को एक शांत और संपन्न रियासत बन गया और सारे रूस से लोग आकर यहाँ बसने लगे। १६५४-५६ के प्लेग ने मास्को की आधी जनसंख्या को समाप्त कर दिया। १७०३ में बाल्टिक तट पर पीटर महान द्वारा सैंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद, १७१२ से मास्को रूस की राजधानी नहीं रही। १७७१ का प्लेग मध्य रूस का अन्तिम बड़ा प्लेग था, जिसमे केवल मास्को के ही १००००० व्यक्तियों के प्राण गए। १९०५ में, अलेक्जेंडर अद्रिनोव मास्को के पहले महापौर बने। १९१७ के रुसी क्रांति के पश्चात, मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया। मई ८,१९६५ को, नाजी जर्मनी पर विजय की २०वीं वर्षगांठ के अवसर पर मास्को को हीरो सिटी की उपाधि प्रदान की गयी। अर्थव्यवस्था मास्को यूरोप की सबसे बड़ी शहरी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यह रूस के सकल घरेलू उत्पाद का करीब २४% योगदान करता है। २००८ में मास्को की अर्थव्यवस्था ८.४४ ट्रिलियन रूबल थी | मास्को में औसत मासिक वेतन ४१६०० रूबल है। २०१० में, मास्को में बेरोजगारी दर सिर्फ १% थी, जो रूस के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों में सबसे कम है। मास्को रूस का निर्विवादित रूप से मुख्य आर्थिक केंद्र है। यहाँ रूस के सबसे बड़े बैंक और कंपनियाँ स्थित हैं जिनमे रूस की सबसे बड़ी कंपनी गेज्प्रोम भी शामिल है। मास्को की रूस की खुदरा बिक्री में १७% एवं सभी निर्माण गतिविधियों में १३% हिस्सेदारी है। चेर्किजोव्सकी बाजार, ३ करोड़ डॉलर की दैनिक बिक्री एवं दस हजार विक्रेताओं के साथ यूरोप का सबसे बड़ा बाजार है। यह बाजार प्रशासनिक रूप से १२ भागों में बँटा है और शहर के एक बड़े भूभाग पर स्थित है।२००८ में, मास्को में ७४ अरबपति थे और यह न्यूयोर्क, ७१ अरबपति, से ऊँचे पायदान पर है। शिक्षा देखें, मास्को राज्य विश्वविद्यालय मास्को में १६९६ उच्चतर विद्यालय एवं ९१ महाविद्यालय हैं। इनके अलावा, २२२ अन्य संस्थान भी उच्च शिक्षा उपलब्ध करातें हैं, जिनमे ६० प्रदेश विश्वविद्यालय एवं १७५५ में स्थापित लोमोनोसोव मास्को स्टेट विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। विश्वविद्यालय में २९ संकाय एवं ४५० विभाग हैं जिनमे ३०००० पूर्वस्नातक एवं ७००० स्नातकोत्तर छात्र पढते हैं। साथ ही विश्वविद्यालय में, उच्चतर विद्यालय के करीब १०००० विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं करीब २००० शोधार्थी कार्य करते हैं। मास्को स्टेट विश्वविद्यालय पुस्तकालय, रूस के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ लगभग ९० लाख पुस्तकें हैं। शहर में ४५२ पुस्तकालय हैं, जिनमे से १६८ बच्चों के लिए हैं। १८६२ में स्थापित रुसी स्टेट पुस्तकालय, रूस का राष्ट्रीय पुस्तकालय है। स्थापत्य मास्को का स्थापत्य विश्व प्रसिद्ध है। मास्को सेंट बेसिल केथेड्रल, क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल और सेवेन सिस्टर्स के लिए प्रसिद्ध है। लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा | हालाँकि, शहर के समग्र रूप में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुआ है, खासकर जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ | स्टालिन की शहर के लिए योजना में चौड़े रास्तों और सडकों का जाल शामिल था जिनमे कई सड़कें १० लेन तक चौड़ी थीं | इससे शहर का यातायात सुगम हो गया, पर इसके लिए बहुत सारी एतिहासिक इमारतों को हटाना पड़ा | स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान सेवेन सिस्टर्स (सात बहनें) माना जा सकता है। सेवेन सिस्टर्स सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं। सात टावरों को शहर के सभी ऊँचे स्थानों से देखा जा सकता है। ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊँची इमारतों में से हैं। ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण १९६७ में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊँची मुक्त खड़ी भूमि संरचना थी | आज बुर्ज खलीफा दुबई, केंतून टॉवर ग्वांगझू और सी.एन. टॉवर टोरोंटो के बाद चौथे स्थान पर है। हर नागरिक और उसके परिवार को अनिवार्य आवास उपलब्ध कराने की सोवियत नीति एवं मास्को की आबादी के तेजी से विकास के कारण, विशाल एवं नीरस आवासीय परिसरों का निर्माण किया गया | इन परिसरों को इनकी शैली, आयु, मजबूती एवं निर्माण सामग्री के आधार पर विभेदित किया जा सकता है। इनमे से अधिकतर का निर्माण स्टालिन युग के पश्चात हुआ और इनकी निर्माण शैलियाँ नेताओं (ब्रेज्हेनेव, ख्रुश्चेव इत्यादि) के नाम से जानी जाती हैं। आमतौर पर इन परिसरों का रखरखाव खराब है। जनसांख्यिकी बाहरी कड़ियाँ विकी ट्रैवल पर मॉस्को के बारे में मॉस्को-डॉट कॉम आधिकारिक जालस्थल रूसी सरकार के पर्यटन मंत्रालय के जालस्थल पर मॉस्को आधिकारिक मॉस्को प्रशासन मीडिया द मॉस्को टाईम्स - मॉस्को का एक बडा अंग्रेजी अखबार द मॉस्को न्यूज - मॉस्को के सबसे पुराने अंग्रेजी अखबारों में से एक मौसम सूचना अगले छह दिनों के मास्को का मौसम— moscow.the.by मानचित्र चित्र एवँ वीडियो सन्दर्भ यूरोप के नगर रूस के नगर यूरोप में राजधानियाँ
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ओस्लो युरोप महादेश में स्थित नार्वे देश की राजधानी एवं वहां का सबसे बडा़ शहर है। इसे सन १६२४ से १८७९ तक क्रिस्टैनिया के नाम से जाना जाता था। आधुनिक ओस्लो की स्थापना ३ जनवरी १८३८ को एक नगर निगम के रूप में की गयी थी। परिचय नामाकरण इतिहास भौगोलिक स्थिती एवं जलवायु मुख्य आकर्षण | |- | |- | |- | |- | |- | |} राजनीति एवं शासन प्रशासनिक विभाजन अर्थव्यवस्था जनसांख्यिकी उच्च शिक्षण संस्थान ओस्लो विश्वविद्यालय (Universitetet i Oslo) परिवहन व्यवस्था | |- | |- | |} वायु परिवहन समुद्री परिवहन ट्रेन लोक परिवहन सडक मीडीया खेलकूद महत्वपूर्ण शहरी यूरोप में राजधानियाँ नॉर्वे
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जकार्ता इंडोनेशिया की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। इसका पुुुरा नाम बटाबिया है ।जकार्ता जावा के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ६६१कि.मी. है एवं २०१० की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या लगभग ९५,८०,००० है। जकार्ता देश का आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक केंद्र है। जकार्ता जनसँख्या के मामले में इंडोनेशिया एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रथम एवं विश्व में दसवें स्थान पर है। जकार्ता की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई और यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक बंदरगाह गया। जकार्ता डच ईस्ट इंडीज़ की राजधानी था और १९४५ में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी यह इंडोनेशिया की राजधानी बना रहा। प्रशासन अधिकारिक रूप से, जकार्ता एक नगर नहीं, एक प्रान्त है, जिसे इंडोनेशिया की राजधानी होने का विशेष दर्जा प्राप्त है। यहाँ महापौर के स्थान पर राज्यपाल होते हैं। जकार्ता को कई उपक्षेत्रों में विभाजित किया गया है, जिनके अपने प्रशासनिक तंत्र हैं। जकार्ता को पांच कोटा अथवा कोटामाद्य (नगरपालिका) में विभाजित किया गया है, जिनके अध्यक्ष महापौर होते हैं। जकार्ता की पांच नगरपालिकाएं: मध्य जकार्ता पश्चिमी जकार्ता दक्षिणी जकार्ता पूर्वी जकार्ता उत्तरी जकार्ता अर्थव्यवस्था जकार्ता की अर्थव्यवस्था वित्तीय सेवाओं, व्यापार और विनिर्माण पर आश्रित है। यहाँ के उद्योगों में इलेक्ट्रानिक, ऑटोमोटिव, रसायन, यांत्रिक अभियांत्रिकी और जैव चिकित्सा मुख्य है। २००९ में, करीब १३% आबादी की आय १०००० डॉलर से अधिक है। २००७ में, जकार्ता की आर्थिक वृद्धि दर ६.४४% थी, जो २००६ में ५.९५% थी। २००७ में, सकल घरेलू उत्पाद ५६६ ट्रिलियन रूपिया (५६ बिलियन डॉलर) था। सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक योगदान वित्तीय एवं व्यापारिक सेवाओं (२९%) का है, इसके बाद होटल एवं रेस्त्रां (२०%) और विनिर्माण उद्योग (१६%) का है। २००७ में लागू कानून ने भीख देना, नदियों एवं हाईवे के किनारों पर झुग्गी बस्तियों का निर्माण करना एवं सार्वजनिक यातायात के साधनों में थूकना और धूम्रपान करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अनाधिकृत लोगों द्वारा कार की सफाई करने पर और चौराहों पर यातायात निर्देशन के लिए धन लेने वालों पर जुर्माना लगाया जायेगा| पर्यटन जकार्ता मुख्य रूप से प्रशासनिक एवं व्यापारिक नगर है। इसे, पुराने शहर को छोड़कर, पर्यटन केंद्र के रूप में कम ही देखा जाता है। पुराना शहर एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थान है। हालाँकि, जकार्ता प्रशासन की इसे सेवा एवं पर्यटन केंद्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश है। नगर में कई नए पर्यटन बुनियादी सुविधाएँ, मनोरंजन केंद्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के होटल एवं रेस्त्रां का निर्माण किया जा रहा है। जकार्ता में कई ऐतिहासिक स्थल एवं सांस्कृतिक विरासतें हैं। राष्ट्रीय स्मारक, नगर के मध्य में स्थित सेंट्रल पार्क, मर्डेका स्क्वायर, के मध्य में स्थित है। राष्ट्रीय स्मारक के पास महाभारत पर आधारित अर्जुन विजय रथ मूर्ति एवं फुव्वारा स्थित है। मध्य जकार्ता में स्थित विस्मा ४६ इमारत, जकार्ता एवं इंडोनेशिया की सबसे ऊँची इमारत है। ज्यादातर विदेशी पर्यटक पड़ोसी आसियान देशों, जैसे मलेशिया और सिंगापुर, के होते हैं, जो जकार्ता ख़रीददारी करने के उद्देश्य से आते हैं। जकार्ता सस्ते परन्तु उचित गुणवत्ता के सामान जैसे कपड़े, शिल्प एवं फैशन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है। शिक्षा जकार्ता में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमे इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सबसे बड़ा है। इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सरकारी स्वामित्व वाला विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना २ फ़रवरी १९५० को हुई थी। यह बारह संकायों में विभाजित है: चिकित्सा संकाय, दन्त चिकित्सा संकाय, गणित एवं प्राकृतिक विज्ञान संकाय, विधि संकाय, मनोविज्ञान संकाय, अभियांत्रिकी संकाय, अर्थशास्त्र संकाय, जन स्वास्थ्य संकाय, समाज एवं राजनीति शास्त्र संकाय, मानविकी संकाय, अभिकलित्र विज्ञान संकाय और उपचर्या संकाय| सबसे बड़ा नगर एवं राजधानी होने के कारण, जकार्ता में इंडोनेशिया के सभी हिस्सों से विद्यार्थी आते हैं। आधारभूत शिक्षा के लिए कई प्राथमिक एवं माध्यमिक शालायें हैं, जो सार्वजनिक, निजी एवं अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में वर्गीकृत की गई हैं। एशिया में राजधानियाँ इण्डोनेशिया के आबाद स्थान राजधानी ज़िले और क्षेत्र
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बेतिया (Bettiah) भारत के बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारण ज़िले में स्थित एक नगर है। यह इसी नाम के सामुदायिक विकास खंड का मुख्यालय भी है। विवरण बेतिया का प्रशासन महापौर-परिषद व्यवस्था से करा जाता है। साथ ही यह बेतिया राज की राजधानी है । पश्चिमी चंपारण जिला का मुख्यालय भी है। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है। इसके पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला पड़ता है। 'बेतिया' शब्द 'बेंत' (cane) से व्युत्पन्न है जो कभी यहाँ बड़े पैमाने पर उत्पन्न होता था (अब नहीं)। अंग्रेजी काल में बेतिया राज दूसरी सबसे बड़ी ज़मींदारी थी जिसका क्षेत्रफल १८०० वर्ग मील थी। इससे उस समय २० लाख रूपये लगान मिलता था। इसका उत्तरी भाग ऊबड़-खाबड़ तथा दक्षिणी भाग समतल तथा उर्वर है। यह हरहा नदी की प्राचीन तलहटी में स्थित प्रमुख नगर है। यह मुजफ्फरपुर से १२४ किमी दूर है तथा पहले बेतिया जमींदारी की राजधानी था। यहाँ के दर्शनीय स्थल:-[१] बेतिया राज का महल [२] उदयपुर पक्षी उद्यान [३] सागर पोखरा [४]काली मंदिर [५] दुर्गा मंदिर [६] सरया मन दर्शनीय है। महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी। १९७४ के संपूर्ण क्रांति में भी बेतिया की अहम भुमिका थी। यहां के अमवा मझार गांव के रहने वाले श्यामाकांत तिवारी ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर पूरे जिले में आंदोलन को फैलाया। यह एक कृषि प्रधान क्षेत्र है जहाँ गन्ना, धान और गेहूँ सभी उगते हैं। यह गाँधी की कर्मभूमि और ध्रुपद गायिकी के लिए प्रसिध है। बेतिया से मुंबई फ़िल्म उद्योग का सफ़र तय कर चुके मशहूर फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा ने इस क्षेत्र के लोगों की सरकारी नौकरी की तलाश पर 'कथा माधोपुर' की रचना की। यातायात वायु मार्ग- यहाँ का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा महारानी जानकी कुँअर राजकीय हवाई अड्डा है जो 3 किलोमीटर दूरी पर है | दुसरी तरफ 204 किलोमीटर की दूरी पटना में है। तीसरी तरफ हवाई अड्डा गोरखपुर में है। रेल मार्ग- बेतिया यहाँ का सबसे नज़दीकी रेलवे स्‍टेशन है जहां से भारत के अधिकांश शहरों के लिए ट्रेन उपलब्‍ध है। यह बडी लाईन के द्वारा भारतिय रेल तंत्र से जुडा हुआ है।इसके दोहरीकरण की योजना है! मुजफ्फरपुर से मोतिहारी होते हुए नरकटियागंज तक मार्ग का विद्युतीकरण हो चुका है। दोहरीकरण होना बाकी है जिसके लिए सरकार ने सहमति दे दी है... सड़क मार्ग- यहाँ के सरकारी बस अड्डे से राजधानी पटना के अलावा देश के और भी जगहों के लिए बसें खुलती है। इन्हें भी देखें बगहा वाल्मीकि राष्ट्रीय अभयारण्य बेतिया राज पश्चिमी चम्पारण ज़िला सन्दर्भ बिहार के शहर पश्चिमी चम्पारण जिला पश्चिमी चम्पारण ज़िले के नगर
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बाबूलाल मराण्डी (जन्म 11 जनवरी 1958) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य हैं। वह झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और वर्तमान में झारखंड विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। वह झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वह 12वीं, 13वीं, 14वीं और 15वीं लोकसभा में मरांडी से सांसद भी रहे। वह 1998 से 2000 में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री थे। प्रारम्भिक जीवन इनका जन्म 11 जनवरी 1958 को वर्तमान झारखण्ड के गिरिडीह जिले के कोदाईबांक नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम छोटे लाल मराण्डी तथा माता का नाम श्रीमती मीना मुर्मू है। उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर किया।कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मराण्डी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। संघ से पूरी तरह जुड़ने से पहले मरांडी ने गाँव के स्‍कूल में कुछ सालों तक कार्य किया। इसके बाद वे संघ परिवार से जुड़ गए। उन्‍हें झारखण्ड क्षेत्र के विश्‍व हिन्‍दू परिषद का संगठन सचिव बनाया गया। 1983 में वह दुमका जाकर सन्थाल परगना डिवीजन में कार्य करने लगे। 1989 में इनकी शादी शान्ति देवी से हुई। एक बेटा भी हुआ अनूप मराण्डी, जिसकी 27 अक्टूबर 2007 को झारखण्ड के गिरिडीह क्षेत्र में हुए नक्‍सली हमले में मौत हो गई। 1991 में मराण्डी भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। 1996 में वह फिर शिबू शोरेन से हारे। इसके बाद भाजपा ने 1998 में उन्हें विधानसभा चुनाव के दौरान झारखण्ड भाजपा का अध्‍यक्ष बनाया। पार्टी ने उनके नेतृत्‍व में झारखण्ड क्षेत्र की 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर कब्‍जा किया। 1998 के चुनाव में उन्होंने शिबू शोरेन को सन्थाल से हराकर चुनाव जीता था, जिसके बाद एनडीए की सरकार में बिहार के 4 सांसदों को कैबिनेट में जगह दी गई। इनमें से एक बाबूलाल मराण्डी थे। 2000 में बिहार से अलग होकर झारखण्ड राज्‍य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्‍व में बाबूलाल मराण्डी ने राज्‍य की पहली सरकार बनाई। उस समय के राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार मराण्डी राज्‍य को बेहतर तरीके से विकसित कर सकते थे। राज्‍य की सड़कें, औद्योगिक क्षेत्र तथा राँची को ग्रेटर राँची बना सकते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई सराहनीय कदम उठाये। छात्राओं के लिए साइकिल की व्यवस्था, ग्राम शिक्षा समिति बनाकर स्थानीय विद्यालयों में पारा शिक्षकों की बहाली, आदिवासी छात्र छात्राओं के लिए प्लेन पायलट की प्रशिक्षण, सभी गाँवों, पंचायतों और प्रखण्डों में आवश्यकतानुसार विद्यालयों का निर्माण, राज्य में सड़कें, बिजली और पानी की उचित व्यवस्था के लिए अन्य योजनाओं की शुरुआत की। जनता को विश्वास होने लगा था झारखण्ड राज्य विकास की ओर अग्रेसित हो रहा है। हालाँकि मराण्डी उनके इस विश्‍वास को कम समय में पूरा नहीं कर सके और उन्‍हें जदयू के हस्‍तक्षेप के बाद सत्ता छोड़ अर्जुन मुण्डा को सत्ता सौंपनी पड़ी। इसके बाद उन्‍होंने राज्‍य में एनडीए को विस्‍तार (विशेषकर राँची में) देने का कार्य किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्‍होंने कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि अन्‍य उम्‍मीदवार हार गए। मराण्डी ने 2006 में कोडरमा सीट सहित भाजपा की सदस्‍यता से भी इस्तीफा देकर 'झारखण्ड विकास मोर्चा' नाम से नई राजनीतिक दल बनाया। भाजपा के 5 विधायक भी भाजपा छोड़कर इसमें शामिल हो गए। इसके बाद कोडरमा उपचुनाव में वे निर्विरोध चुन लिए गए। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्‍होंने अपनी पार्टी की ओर से कोडरमा सीट से चुनाव लड़कर बड़ी जीत हासिल की। राजनीतिक जीवन -1991 में भाजपा के महामंत्री गोविन्दाचार्य ने भाजपा में शामिल किया -1991 में पहली बार झामुमो के शिबू सोरेन के विरुद्ध दुमका लोकसभा से खड़े हुए, हार मिली। -1996 में महज 5000 वोट से शिबू सोरेन से हारे -1996 में पार्टी ने उन्हें वनांचल भाजपा का अध्यक्ष नियुक्त किया -1998 के लोकसभा चुनाव में उन्हें शिबू सोरेन को हराने में सफलता पाई -1999 के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन की पत्नी रूपी सोरेन को दुमका से हराया -1999 में अटल सरकार में उन्हें वन पर्यावरण राज्य मन्त्री बनाया गया -2000 में झारखण्ड के पहले मुख्यमन्त्री चुने गए -2003 में दल के आन्तरिक विरोध के कारण उन्हें मुख्यमन्त्री पद त्यागना पड़ा। -2006 में झारखण्ड विकास मोर्चा नामक दल का गठन किया। -2019 में धनवार विधानसभा जेवीएम पार्टी से इलेक्शन लड़े और बड़ी जीत हासिल किए इसके बाद श्री मरांडी ने अपनी जेवीएम पार्टी को भारतीय जनता पार्टी में विलय कर बीजेपी में ज्वॉइन हो गए सन्दर्भ 1958 में जन्मे लोग जीवित लोग झारखण्ड के मुख्यमंत्री १४वीं लोक सभा के सदस्य १५वीं लोकसभा के सदस्य भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बाबूलाल मरांडी", "token_count": 6054, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%20%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%80" }
विदर्भ महाराष्ट्र प्रांत का एक उपक्षेत्र है। इस उपक्षेत्र में कुल 11 जिले है। महाराष्ट्र में कोयला खदान और मूल्यवान मँगणिज कि खदाने विदर्भ में हि बहुतायत में पाये जाते हैं। कोयला खदानो कि वजह से हि विदर्भ में चंद्रपूर, कोराडी, खापरखेडा, मौदा और तिरोडा में औष्णिक विद्युत निर्माण संयंत्र पाये जाते हैं। जिससे संपुर्ण महाराष्ट्र विद्युत आपूर्ती में लाभान्वित होता है। इसके अलावा महाराष्ट्र कि ज्यादातर वनसंपदा विदर्भ क्षेत्र में हि मौजूद है। इसके व्यतिरिक्त चावल उत्पादन में तुमसर मंडी विदर्भ में हि है जो महाराष्ट्र में सबसे बड़ी कृषी उत्पाद कि मंडी का सम्मान पाती है। प्रसिद्ध बासमती चावल का उत्पादन भी इसी क्षेत्र में होता है। विदर्भ के हि चंद्रपूर जिले में महाराष्ट्र के कुल सिमेंट कारखानो में सर्वाधिक कारखाने अकेले चंद्रपूर जिले में है। विदर्भ में मराठी और हिन्दी बोली जाती हैं। विदर्भ सन 1956 तक मध्यप्रदेश प्रांत का उपक्षेत्र हुआ करता था। विदर्भ अब महाराष्ट्र प्रदेश में आता है, महाराष्ट्र में हरितक्रांती और श्वेत क्रांती गोरराजवंशी वसंतराव नाईक रणसोत ने लायी, वे विदर्भ के ही थे , जलक्रांती के नायक सुधाकरराव नाइक भी विदर्भ से आते है। विदर्भ से मारोतराव कन्नमवार , वसंंतराव नायक, सुधाकरराव नायक और देवेंद्र फडणवीस के रूप में मुख्यमंत्री मिले। और प्रतिभा देविसींग शेखावत के रुपमे देश को महिला राष्ट्रपती मिलने का सौभाग्य भी मिला। महाराष्ट्र का भूगोल विदर्भ, महाराष्ट्र राज्य का उत्तर पूर्वी प्रादेशिक क्षेत्र है, वर्तमान में इस क्षेत्र के अंतर्गत नागपुर और अमरावती दो डिवीजन है जिनके अंतर्गत महाराष्ट्र के नागपुर, अमरावती, चंद्रपुर, अकोला, वर्धा, बुलढाना, यवतमाल, भंडारा, गोंदिया, वाशिम, गढ़चिरौली जिले आते हैं। नागपुर साल 1853 से 1861 तक 'नागपुर प्रॉविंस' की राजधानी रहा. इसके बाद मध्य प्रांत और बरार का साल 1950 तक. इसके बाद मध्य प्रदेश राज्य का जन्म हुआ और नागपुर एक बार फिर इसकी राजधानी बना. लेकिन 1960 में महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के बाद इस शहर ने यह रुतबा खो दिया और तब से इसके रुतबे को वापस लाने के लिए एक आंदोलन जारी है. वर्मा इसीलिए कहते हैं, "हम एक नए राज्य की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि नागपुर के खोए हुए दर्जे को वापस बहाल करने की मांग कर रहे हैं." इतिहास ग्यारहवीं शताब्दी में विदर्भ , धार के सम्राट परमार भोज के अधिन मालवा साम्राज्य का अंग था। इसलिये पँवार नरेश भोज को विदर्भराज कहाँ जाता था। भोज परमार के बाद भी विदर्भ पर भोज वंशीयो का राज्य रहा। संदर्भ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "विदर्भ", "token_count": 3354, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD" }
तीस हजारी दिल्ली का एक "थाना क्षेत्र" है यहाँ दिल्ली जिला न्यायालय होने की वजह से तीस हजारी मशहूर है। तीस हजारी, दिल्ली, दिल्ली मेट्रो रेल की रेड लाइन (दिल्ली मेट्रो) रेड लाइन शाखा का एक स्टेशन भी है। दिल्ली के क्षेत्र
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "तीस हजारी", "token_count": 337, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%20%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80" }
अम्बाला (Ambala) भारत के हरियाणा राज्य के अम्बाला ज़िले में स्थित एक नगर व नगरपालिका है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली, से लगभग 200 किमी उत्तर में है। यहाँ सिन्धु नदी का जलसम्भर क्षेत्र और गंगा नदी का जलसम्भर मिलता है, और अम्बाला पंजाब राज्य की सीमा से सटा हुआ है। राज्य सीमा के पार समीप ही पटियाला नगर है। अम्बाला लम्बे काल से भारतीय सेना की एक प्रमुख छावनी रही है iऔर दो भागों में विभाजित है - अम्बाला छावनी और अम्बाला नगर, जो एक-दूसरे से लगभग 8 किमी दूर हैं। अम्बाला दो नदियों से घिरा है, उत्तर में घग्गर नदी और दक्षिण में टांगरी नदी। श्रीनगर से कन्याकुमारी जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 44 यहाँ से गुज़रता है। भौगोलिक स्थिति के कारण पर्यटन कें क्षेत्र में भी अम्बाला का महत्वपूर्ण स्थान है। नामोत्पत्ति अम्बाला नाम की उत्पत्ति शायद महाभारत की अम्बालिका के नाम से हुई होगी। आज के जमाने में अम्बाला अपने विज्ञान सामग्री उत्पादन व मिक्सी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। अम्‍बाला को विज्ञान नगरी कह कर भी पुकारा जाता है कयोंकि यहां वैज्ञानिक उपकरण उद्योग केंद्रित है। भारत के वैज्ञानिक उपकरणों का लगभग चालीस प्रतिशत उत्‍पादन अम्‍बाला में ही होता है। एक अन्‍य मत यह भी है कि यहां पर आमों के बाग बगीचे बहुत थे, जिससे इस का नाम अम्‍बा वाला अर्थात् अम्‍बाला पड़ गया। इतिहास अम्बाला की स्थापना अम्बा नामक राजपूत शाशक ने की कुछ लोगों का मानना है। अम्बाला अंबिका माता का मंदिर होने के कारण इसका नाम अंबाला पड़ा कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ आम की पैदावार अधिक होती थी इस लिए इसे अम्बवाला कहा जाता था, जो अब अंबाला बन गया। भूगोल अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रो के बीच जल विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लम्बाई 1,800 कि०मी० है। यहाँ से चण्डीगढ़ 47 किमी उत्तर, कुरुक्षेत्र 50 किमी दक्षिण, शिमला 148 किमी पूर्वोत्तर, अमृतसर 260 किमी पश्चिमोत्तर और दिल्ली198 किमी दक्षिण में स्थित हैं। शिक्षा अम्बाला छावनी में सनातन धर्म कालेज, आर्य कन्‍या महाविद्यालय, गांधी स्मारक कॉलेज तथा राजकीय महाविद्यालय स्थित हैं। एस डी कॉलेज में कार्यालय प्रबंधन के अध्‍यापन की व्‍यवस्‍था बी ए, बी कॉम तथा डिप्‍लोमा स्‍तर पर उपलब्‍ध है। इस विषय के अध्‍यापन की सुविधा मात्र सनातन धर्म कॉलेज, अम्‍बाला छावनी में ही है। संस्कृत के गहन अध्ययन के लिये अम्‍बाला छावनी में श्री दीवान कृष्ण किशोर सनातन धर्म आदर्श संस्कृत महाविद्यालय भी विद्यमान है। अम्‍बाला शहर में एम डी एस डी गर्ल्‍ज कॉलेज, डी ए वी कॉलेज तथा आत्‍मा नन्‍द जैन कॉलेज स्थित हैं। अम्बाला शहर में श्री आत्मानन्द जैन सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन सीनियर मॉडल स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन विजय वल्लभ स्कूल, गंगा राम सनातन धर्म स्कूल, एन एन एम डी स्कूल, डी ए वी पब्लिक स्कूल, पी के आर जैन स्कूल, चमन वाटिका, आर्य समाज सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, स्प्रिन्ग्फ़ील्ड स्कूल और भी कई स्कूल हैं। अम्बाला शहर में दो राजकीय बहुतकनीकी संस्थान हैं। अम्बाला से २० मील दूर मुलाना में एम एम विश्वविधालय है। कृषि और खनिज अंबाला के पास आमों की खेती की जाती है। यातायात और परिवहन यह शहर अमृतसर और दिल्ली से सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। शहर से संलग्न अंबाला छावनी में रेलों के एक बड़े जंक्शन के साथ एक हवाई अड्डा भी है। साथ ही यह भारत की सबसे बड़ी छावनियों में से एक है। उद्योग और व्यापार अंबाला एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। वैज्ञानिक उपकरणों, सिलाई मशीनों, मिश्रण यंत्रों (मिक्सर) और मशीनी औज़रों के निर्माण तथा कपास की ओटाई, आटा मिलों व हथकरघा उद्योग की दृष्टि से अंबाला छावनी व शहर, दोनों उल्लेखनीय हैं। एक महत्त्वपूर्ण कृषि मंडी होने के साथ अंबाला में एक सरकारी धातु कार्यशाला भी है। पर्यटन अम्‍बाला में भारत की पश्चिमोत्‍तर सीमा पर भारत का प्रमुख वायु सेना मुख्‍यालय भी स्थित है। यहां पर पटेल पार्क, नेता जी सुभाष चंद्र पार्क, इन्दिरा पार्क तथा महावीर उद्यान स्थित हैं। इस पार्कों में स्‍थानीय नागरिक सुबह और शाम घूमने जाते हैं। मनोरंजन हेतु यहां पर निगार, कैपिटल, निशात तथा नावल्‍टी सिनेमाघर विद्यमान हैं। सेंट पॉल कैथेड्रल भी दर्शनीय है। अम्‍बाला से वैसे तो अनेक लघु पत्रपत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। पश्चिमोत्‍तर भारत का एक प्रमुख हिन्‍दी दैनिक पंजाब केसरी भी अम्‍बाला से प्रकाशित होता है। अम्‍बाला छावनी, अम्‍बाला सदर तथा अम्‍बाला शहर तीन पृथक व स्‍तंत्रत स्‍थानीय निकाय यहां पर लोक प्रशासन हेतु स्‍थापित हैं। अंबाला शहर में प्रसिद्ध अम्बिका देवी मंदिर स्थित है। जोकि अंबाला शहर बैस स्टैंड से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है । नवरात्रि में यहां बड़े मेले लगते है और मां अंबिका के दर्शनार्थ पंजाब,उत्तरप्रदेश और स्थानीय लोग आते है। अंबिका देवी का सम्बन्ध महाभारत काल से है। अंबिका देवी मन्दिर के समीप ही नोरंगराय तालाब स्थित है जिसके बीचोबीच विष्णु जी के अवतार वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित है । जहा वामन द्वादशी तिथि को बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इन्हें भी देखें अम्बाला ज़िला अम्बाला छावनी अम्बाला कैंट जंक्शन रेलवे स्टेशन अम्बाला लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र अम्बाला एयर फ़ोर्स स्टेशन सन्दर्भ हरियाणा के शहर अम्बाला ज़िला अम्बाला ज़िले के नगर भारतीय सेना की छावनियाँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अम्बाला", "token_count": 7010, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE" }
पानीपत (अँग्रेज़ी: Panipat) भारत के हरियाणा राज्य के पानीपत ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। कोरवो और पांडुवो में मध्य महाभारत का युद्ध पानीपत के लिए हुआ था , पांडुवों ने चार अन्य गांवों के साथ पानीपत की मांग कौरवों से की थी पर कौरवों ने सुई की नोक के बराबर भी हिस्सा देने से मना कर दिया था l सन् 1526, 1556 और 1761 में तीन महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए थे। पानीपत की भाषा हरियाणवी हैं। पानीपत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का एक हिस्सा हैं। विवरण पानीपत एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। पानीपत का प्राचीन नाम 'पाण्डवप्रस्थ' था। यह दिल्ली-चंडीगढ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के अन्तर्गत आता है और दिल्ली से ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पानीपत को पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के साथ ही बसाया था, पानीपत का किला अर्जुन द्वारा बनवाया गया था (एच ए बरारी) तब पानीपत को पनप्रस्त या पांडवप्रस्त के नाम से जाना जाता था । पानीपत को दोबारा राजा दंडपाणी ने ईसा से 707 साल पहले फिर बसाया इसका नाम पानीपथ पड़ा (सर सैय्यद अहमद खान) । पांडवों का पानीपत में लिखा है कि पानीपत नगर पहले सिर्फ किले के अंदर बसा था । यह किला पांडवों द्वारा निर्मित था जो 1857 तक मौजूद था । जिसे 1857 की क्रांति के बाद ढाया गया जिसके अवशेष आज भी मौजूद है । किले पर एक तोप भी थी जिसे बाद में दिल्ली ले जाया गया । Asiatic society of india बंगाल के 1868 के रिसर्च पेपर में पानीपत हस्तीनापुर और अन्य कई महाभारतकालीन किलो की ईंटो की बनावट पर शोध करके लिखा है कि ईंटों के साइज माप और बनावट से यह किला भी महाभारत काल का बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार पानीपत के किले पर भगवान हरिहर का मंदिर था जिसे गुलाम वंश का शासन होने पर तोड़ा गया था, बाद में भगवान हरिहर की प्रतिमा देवी मंदिर के पास सरोवर से खुदाई में मिली । किले पर कई जैन मंदिर भी थे । जैन धर्म के संबंधित साहित्य के अनुसार उस समय पानीपत को पानीपथ दुर्ग भी कहा जाता था । पानीपत के लिए एक ही लड़ाई हुई जिसे महाभारत का युद्ध कहा जाता है । पानीपत के आखिरी हिंदू राजा जो तोमर (तंवर) वंश का था को परिवार सहित बलबन के समय धोखे से मार दिया गया । किले में काम करने वाले कुम्हारों ने जो परिवार सहित किले में थे राजा की गर्भवती पोत्रवधु को छिपा लिया इस कारण उसकी जान बच गई यह ज्वालापुर (हरिद्वार के पास) के राजा की बेटी थी जिसे कुछ समय बाद किसी तरह से कुम्हारों ने उसके मायके ज्वालापुर पहुंचा दिया । वहां उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अमर सिंह था । जिसे किशोर अवस्था में पता चला कि वह तो पानीपत के राजा का पौत्र है तो वह पानीपत आया । जहां पर उसे उसकी अपनी जायदाद लौटने का लालच दिया या जान का हवाला, पानीपत के शेख सरफुद्दीन कलंदर ने अमर सिंह को कलमा पढ़वा कर धर्म परिवर्तन कर दिया और उसे नया नाम अमीरुल्ला खान दिया और बल्बन के नाम उसकी जमीन उसे देने का परवाना लिख दिया । पर बलबन तो पहले ही अमर सिंह के परिवार की जमीन पानीपत पर कब्जा करने में सहायता करने वाले तीन परिवारों के दे चुका था तो अमर सिंह के हाथ पूरा पानीपत न आकर सिर्फ चौथा भाग से भी कम ही आया । आज भी पानीपत में राजस्व विभाग के अनुसार जमीन की चार पट्टियाँ है । जो बलवन के समय से चली आ रही है । 1 अंसार पट्टी 2 अफगान पट्टी 3 पानीपत तरफ मखदूम ज़ादगान पट्टी 4 पानीपत तरफ राजपूतान पट्टी पानीपत में शेख शरफुद्दीन कलंदर जो पहले दिल्ली में काज़ी था बाद में पानीपत आया ने उस समय 300 राजपूतों को मुसलमान बनाया । The Memoirs of Sufis Written in India में लिखा है कि पानीपत में शेख शरफुद्दीन कलंदर जो पहले दिल्ली में काज़ी था बाद में पानीपत आया ने उस समय 300 राजपूतों को मुसलमान बनाया । 1526 में पानीपत में इब्राहिम लोधी के साथ विदेशी आक्रमणकारी बाबर के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए ग्वालियर का राजा विक्रमजित तोमर शहीद हो गया उसकी समाधी पानीपत में वर्तमान जीटी रोड पर आजकल सरकारी अस्पताल बना है के पास बनी हुई थी जिसे अंग्रेजो ने 1866 में खुर्दबुर्द कर दिया जीटी रोड बनाते समय उसका नामोनिशान मिटा दिया गया । यह क्षेत्र को गंज शहीदा कहलाता था । यही राजा विक्रमजीत कोहिनूर हीरे का मालिक था । राजा विक्रमजीत के पानीपत में शहीद होने के उपरांत हमायूं ने आगरा में राजा जी की विधवा रानी से कोहिनूर हीरा छीन लिया । गुरु नानक देव जी भी पहली उदासी में दिल्ली बनारस जाते हुए पानीपत आए थे और नगर के बाहर एक कुएं पर रुके थे । इस स्थान पर आज एक गुरुद्वारा साहब बना हुआ है । आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद जी भी लुधियाना से दिल्ली जाते हुए कुछ समय के लिए पानीपत में ठहरे थे । वे डाक गाड़ी ( जिसमे घोड़े जुते होते थे ) से पानीपत आए । डाक गाड़ी पानीपत के पालिका बाजार के पास लाल बत्ती की तरफ स्थान पर रुकती थी । जहाँ वर्तमान में एक छोटा डाक खाना बना हुआ है । डाक गाड़ी रुकने पर स्वामी दयानंद ने पानीपत नगर के कुछ लोगो से वार्तालाप किया और अपने कार्य को बताया । 1761 में जब मराठे पानीपत आए तो उन्होंने भगवान शंकर जी के मन्दिर में अपनी कुल देवी की स्थापना कर पूजा अर्चना की, यही शंकर जी का मंदिर आज देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है । बाद में 1765 के आसपास मराठों ने यहां पर बड़ी पहाड़ मोहल्ले में रामचन्द्र जी का मंदिर भी बनवाया, जिसके नाम एक 51 एकड़ जमीन (लगान फ्री) भी की । पानीपत के मथुरादास ने शंकर जी के मन्दिर के पास एक सरोवर का निर्माण करवाया । 1803 में इस इलाके में अंग्रेजो ने काबिज होने के बाद पानीपत जो जिला मुख्यालय बनाया जिसका हेडक्वार्टर पांडव कालीन किला ही बना और किले पर ही कार्यालय बनाए गए । स्किनर हॉर्स के कर्नल जेम्स स्किनर की जमींदारी पानीपत में थी उसने अपने नाम से एक बसाया स्किनर पुर जिसे आज सिकंदरपुर गढ़ी ने नाम से जाना जाता है । बाद में कर्नल स्किनर के परिवार से इन गांव की जमींदारी पानीपत के एक धनवान परिवार ने खरीद ली । भारत के मध्य-युगीन इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली तीन प्रमुख लड़ाईयां यहां लड़ी गयी थी। प्राचीन काल में पांडवों एवं कौरवों के बीच महाभारत का युद्ध इसी के पास कुरुक्षेत्र में हुआ था, अत: इसका धार्मिक महत्व भी बढ़ गया है। महाभारत युद्ध के समय में युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच स्थान माँगे थे उनमें से यह भी एक था। आधुनिक युग में यहाँ पर तीन इतिहासप्रसिद्ध युद्ध भी हुए हैं। प्रथम युद्ध में, सन्‌ 1526 में बाबर ने भारत की तत्कालीन शाही सेना को हराया था। द्वितीय युद्ध में, सन्‌ 1556 में अकबर ने उसी स्थल पर अफगान आदिलशाह के जनरल हेमू को परास्त किया था। तीसरे युद्ध में, सन्‌ 1761 में, अहमदशाह दुर्रानी ने मराठों को हराया था। यहाँ अलाउद्दीन द्वारा बनवाया एक मकबरा भी है। इसे बुनकरों की नगरी भी कहा जाता है। नगर में पीतल के बरतन, छुरी, काँटे, चाकू बनाने तथा कपास ओटने का काम होता है। यहाँ शिक्षा एवं अस्पताल का भी उत्तम प्रबंध है। स्वतंत्रता आंदोलन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पानीपत की ऐतिहासिक भूमिका रही है। यहां के लोगो ने सबसे पहले अंग्रेजो को लगा देना बंद किया था। सबसे पहले गांव मांडी , नौल्था सहित आसपास के 16 गावों के नंबरदारो ने भूमि लगान इकठ्ठा करने से मना कर दिया और अंग्रेजो के कर्मचारियों के गावों में घुसने पर स्मपूर्ण रोक लगा दी और इक्कठे होकर सभी संग्राम में भाग लेने पहले रोहतक गए और उसके बाद अंग्रेजो से लड़ने दिल्ली वहां से 22 दिन बाद वापिस आए। शिक्षा श्री सोम सन्तोश एजुकेशनल सोसाइटी, पानीपत - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था। एलीमेंट्री एंड टेक्निकल स्किल कौंसिल ऑफ़ इंडिया - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा, नि:शुल्क ब्यूटी एंड वैलनेस एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था। गर्ग सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, पानीपत दीक्षा एजुकेशनल एंड वेलफेयर सोसाइटी, पानीपत गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था। युवा एकता पानीपत संस्था जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिन प्रतिदिन सामाजिक कार्य कर रही हैं । सामान्य महाविद्यालय एस डी कालेज, पानीपत आई बी कालेज, पानीपत आर्य कालेज, पानीपत राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,मांडी पानीपत अभियांत्रिकी संस्थान पानीपत इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्सटाईल एंड इंजिनयरिंग, समालखा एशिया पैसिफ़िक इंस्टीट्यूट आफ़ इन्फ़ार्मेशन टेक्नालजी, पानीपत एन सी कालेज आफ़ इंजिनयरिंग, इसराना स्कूल राजकीय आदर्श संस्कृति विद्यालय जी टी रोड एमएएसडी पब्लिक स्कूल बाल विकास विद्यालय, माडल टाऊन केन्द्रीय विद्यालय, एनएफ़एल - अब बंद डाक्टर एम के के आर्ये माडल स्कूल एस डी विद्या मंदिर, हूड्डा डी ए वी स्कूल, थर्मल सेंट मेरी स्कूल एस डी सीनीयर सेकेंडरी स्कूल आर्य सीनियर सेकेंडरी स्कूल आर्य बाल भारती पब्लिक स्कूल एस डी माडर्न सीनियर सेकेंडरी स्कूल एस डी बालिका विद्यालय राणा पब्लिक स्कूल (शिव नगर) प्रयाग इंटरनेशनल स्कूल देवी मंदिर पानीपत के धार्मिक स्थान देवी मंदिर पानीपत शहर, हरियाणा में स्थित है। देवी मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है। यह मंदिर पानीपत शहर का मुख्य मंदिर है तथा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। मराठो के आगमन  से पहले यह शंकर जी का मंदिर था|  सन  1700  के आसपास पानीपत के मथुरा दास नमक बनिए ने यहाँ पर एक पक्के सरोवर का निर्माण करवाया   जिसे आजकल देवी तालाब कहते है यह देवी मंदिर के  किनारे  पर बना है | 1761  में मराठो ने इस प्रांगण में अपनी कुल देवी की स्थापना की  थी यह मंदिर एक तालाब के किनारे स्थित है जोकि अब सुख गया है और इस सुखे हुए तालाब में एक उपवन का निर्माण किया गया है जहां बच्चे व बुर्जग सुबह-शाम टहलने आते है। इस पार्क में नवरात्रों के दौरान रामलीला का आयोजन भी किया जाता है जोकि लगभग 100 वर्षों से किया जाता रहा है। देवी के मंदिर में सभी देवी-देवताओं कि मूर्तियां है तथा मंदिर में एक यज्ञशाला भी है। मंदिर का पुनः निर्माण किया गया है जो कि बहुत ही सुन्दर तरीके से किया गया है, जो भारतीय वास्तुकला की एक सुन्दर छवि को दर्शाता है। इस मंदिर में भक्त दर्शन के लिए लगभग पुरे भारत से आते है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है इस मंदिर का निर्माण 18वीं शाताब्दी में किया गया था। 18वीं शताब्दी के दौरान, मराठा इस क्षेत्र में सत्तारूढ़ थे, मराठा योद्धा सदाशिवराव भाऊ अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए यहां आये थे। सदाशिवराव भाऊ अफगान से आया अहमदशाह अब्दाली जोकि आक्रमणकारी था, उसके खिलाफ युद्ध के लिए यहां लगभग दो महीने रूके थे। ऐसा माना जाता है कि सदाशिवराव को देवी की मूर्ति तालाब के किनारे मिली थी, तब सदाशिवराय ने यहां मंदिर बनाने का फैसला किया। ऐसा माना जाता है कि जब मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो देवी की मूर्ति को रात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा गया था परन्तु सुबह मूर्ति उसी स्थान मिली थी जहां से उसे पाया गया था, तब यह निर्णय लिया गया कि मंदिर उसी स्थान पर बनाया जाये जहां देवी की मूर्ति मिली है। देवी मंदिर में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर दुर्गा पूजा व नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर को फूलो व रोशनी से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है। पानीपत के ही गाँव सींक पाथरी मे एक और मंदिर है जिसको पाथरी वाली माता के नाम से जाना जाता है। गावं सींक में महाभारत कालीन यक्ष का प्राचीन मंदिर है इसी स्थान पर वही तालाब भी है जहाँ यक्ष ने युधिष्टर से सवाल किये थे महाभारत के समय गावं पाथरी के स्थान पर गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी का निवास था गावं चुलकाना में प्राचीन श्याम जी का मंदिर है गावं मांडी पानीपत में प्राचीन गुगा वीर का मंदिर है इस स्थान पर नौवीं को मेला लगता है और इनामी दंगल का आयोजन होता है पानीपत में भगवन हरिहर का मंदिर होता था जिसकी प्रतिमा देवी तालाब की खुदाई से प्राप्त हुई थी पहली उदासी के समय  गुरु नानक देव जी भी पानीपत आये थे। वही आज पहली पातशाही गुरुद्वारा बना हुआ है। इन्हें भी देखें पानीपत ज़िला मांडी पानीपत Notable Persons अर्जुन, पांडु प्रस्त के संस्थापक किले का निर्माण किया दण्डपाणी, पांडु प्रस्त से पानीपत नामकरण किया 707 बी.सी. पहले रामचन्द्र लाल ,एक भारतीय गणितज्ञ, जन्म 1821,पानीपत भगवान दास केला , पत्रकार ,संपादक , राजा महेंद्र प्रताप के समाचार पत्र "प्रेम" के संपादक, जन्म 21अक्टूबर 1890 गांव बबैल, पानीपत चौधरी रामकिशन घनगस - जन्म 10 अक्तूबर 1944, गांव मांडी के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वर्गीय चौधरी रामकिशन घनगस भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है, वे जाट महासभा हरियाणा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे थे । देशबन्धु गुप्ता, राजनीतिक स्वतंत्रता सेनानी, संपादक दैनिक तेज, सलीम पानीपती- मौलाना सलीम पानीपती का जन्म पानीपत में हुआ। सलीम पानीपत उर्दू के प्रोफेसर, संपादक,शायर और प्रसिद्ध गद्यकार थे। सलीम साहब जीवन के बारे में मुंशी प्रेमचंद ने अपनी "किताब कलम,तलवार और त्याग" में लिखा है। पंडित समर सिंह मलिक -आजादी के बाद विधायक बने गांव सींक के निवासी थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए काशी गए इस लिए जाट होकर पंडित कहलाए आर्य समाजी थे। बाहरी कड़िया पानीपत का आधिकारिक जाल स्थल -अंग्रेजी में सन्दर्भ हरियाणा के शहर पानीपत ज़िला पानीपत ज़िले के नगर
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सोनीपत (Sonipat) भारत के हरियाणा राज्य के सोनीपत ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। स्थापना व इतिहास नई दिल्ली से उत्तर में 43 किमी दूर स्थित इस नगर की स्थापना संभवतः लगभग 1500 ई.पू. में आरंभिक आर्यों ने की थी। यमुना नदी के तट पर यह शहर फला-फूला, जो अब 15 किमी पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गई है। हिन्दू महाकाव्य महाभारत में इसका 'स्वर्णप्रस्थ' के रूप में उल्लेख है। शहर में 'अब्दुल्ल नसीरुद्दीन की मस्जिद' (1272 में निर्मित), 'ख़्वाजा ख़िज़्र का मक़बरा (1522 या 1525 ईसवी में निर्मित)' और पुराने क़िले के अवशेष है।यहाँ पर हिन्दुओं का बाबा धाम मंदिर प्रसिद्ध है। सोनीपत दिल्ली से अमृतसर को जोड़ने वाले रेलमार्ग पर स्थित है। लोग काम के लिए रोज़ाना सोनीपत से दिल्ली आते-जाते हैं। जिला सोनीपत 22 दिसम्बर 1972 को अस्तित्व में आया उस समय गोहाना और सोनीपत दो तहसीले थी। सोनीपत एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों के अनुसार 1500 ईसवी पूर्व इस नगर की स्थापना आर्यों द्वारा की गई थी और इसका नाम राजा सैन के नाम से सोनपत और बाद में सोनीपत बना। महाभारत काल में इस नगर का नाम स्वर्णप्रस्त था। कहा जाता है कि पांडवों ने महाभारत युद्ध को रोकने के लिए जिन पांच पतों की मांग की थी उनमें स्वर्णप्रस्त भी एक था। शेष चार पत थे पानीपत, इन्द्रपत या इन्द्रप्रस्त, बागपत, तिलपत। कहा जाता है कि पांडवों का खजाना भी इसी नगर में था। वर्ष 1871 में यहां स्थित टीले पर की गई खुदाई से प्राप्त 1200 ग्रीकों बैक्टेरियन्ज अवशेषों से प्रमाणित होता है की यह नगर सांतवीं शताब्दी तक ग्रीकों बैक्टेरियन्ज शासित रहा है। खुदाई के दौरान यहां से यौधेय काल के सिक्के तथा महाराजा हर्षवर्धन की तांबे से बनी एक मोहर प्राप्त हुई थी। वर्ष 1866 में यहां से शोरा की मिट्टी से बनी पक्की प्रतिमा प्राप्त हुई थी। 11वीं शताब्दी में इस नगर पर जागीरदार दिपालहर का शासन था। 1037 ईसवीं में गजनी के सुल्तान मसूद ने दिल्ली विजय पर जाते हुए रास्ते में जागीरदार दिपालहर को हराया था। सोनीपत नगर एक ऊचें टीले पर बसा हुआ है जो पूर्व नगरों के ध्वस्त होने से बना है। पहले यमुना नदी इस नगर के साथ लगती हुई बहती थी परन्तु अब रास्ता बदलकर 17 किलोमीटर दूर बहने लगी है। नगर के उत्तर में शेरशाह सूरी के वंशज पठान का खिजर खां का मकबरा है। जिस पर कलात्मक कार्य दर्शनीय है। नगर के मध्य में एक विशाल दुर्ग के अवशेष देखने का मिलते है। इस दुर्ग के निकट ही एक ऐतिहासिक दरगाह सैयद नसिरूदीन (मामा भांजा) है। जिस का इस क्षेत्र में विशेष महत्व है। इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। कहते है कि इस दरगाह की स्थापना एक गौड ब्राह्मण हिन्दू राजा द्वारा शिव मन्दिर में की गई थी। शिक्षा राजीव गांधी एजुकेशन सिटी सोनीपत के कुंडली में "राजीव गांधी एजुकेशन सिटी (RGEC)", उच्च शिक्षा संस्थानों की एक हब विकसित करने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) ने पहले से ही अपने दिल्ली परिसर के विस्तार के लिए 50 एकड़ जमीन का कब्जा ले लिया है। कई अन्य विश्वविद्यालयों ने भी अपने परिसर स्थापित करने के लिए अपनी परियोजनाओं को शुरू कर दिया है। विश्वविद्यालय दीनबंधु छोटू राम यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ूड एंड टेक्नोलॉजी ओ.प. जिंदल ग्लोबल कॉलेज भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ूड टेक्नोलॉजी इंटरप्रेनियरशिप एंड मैनेजमेंट अशोका विश्वविद्यालय औद्योगिक विकास दिल्ली से निकटता होने के कारण सोनीपत के औद्योगिक विकास का सहयोग मिला है। कृषि सोनीपत ज़िला एक मैदानी इलाक़ा है। जिनके 83 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। गेहूँ और चावल प्रमुख फ़सलें है, अन्य फ़सलों में ज्वार, दलहन, गन्ना, बाजरा, तिलहन और सब्ज़ियां शामिल हैं। सिंचाई कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा नहरों और नलकूपों द्वारा सिंचित है। उद्योग सोनीपत देश के अग्रणी साइकिल निर्माताओं में से एक है। इसके अतिरिक्त अन्य उद्योगों के मशीनी उपकरण, सूती वस्त्र, होज़री, शक्कर, इस्पात पुनर्ढ़लाई, सिलाई मशीन के पुर्जे, परिवहन उपकरण तथा पुर्ज़े, क़ालीन, हथकरघा वस्त्र और हस्तशिल्प में पीतल व तांबे की वस्तुएं शामिल हैं। जनसांख्यिकी 2001 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या नगरपालिका क्षेत्र की 2,16,213 थी। सोनीपत ज़िले की कुल जनसंख्या 12,78,830 थी। 2011 की जनगणना के अनुसार सोनीपत की कुल जनसंख्या 278,149 थी, जिनमे 148,364 पुरुष तथा 129,785 महिलाए है। इन्हें भी देखें सोनीपत ज़िला सोनीपत लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र सोनीपत विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, हरियाणा अहीर माजरा सन्दर्भ हरियाणा के शहर सोनीपत ज़िला सोनीपत ज़िले के नगर
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ज़िंदर भारत के हरियाणा प्रान्त का एक जिला है। शहर
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तरन तारन साहिब (Tarn Taran Sahib) भारत के पंजाब राज्य के तरन तारन ज़िले में स्थित एक नगर है। इस शहर का सिख धर्म में विशेष महत्व है। शहर की स्थापना पाँचवे गुरु, गुरु अर्जन देव जी, ने की थी। इन्हें भी देखें तरन तारन ज़िला गुरु अर्जन देव जी सन्दर्भ पंजाब के शहर तरन तारन ज़िला तरन तारन ज़िले के नगर
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हंस (Swan) अनैटिडाए कुल के जलपक्षियों के सिग्नस (Cygnus) वंश के पक्षी होते हैं। वर्तमान विश्व में इसकी 6 जीवित जातियाँ हैं, हालांकि इसकी कई अन्य जातियाँ भी थीं जो विलुप्त हो चुकी हैं। हंस का बत्तख और कलहंस से जीववैज्ञानिक सम्बन्ध है, लेकिन हंस इन दोनों से आकार में बड़े और लम्बी गर्दन वाले होते हैं। नर और मादा हंस आमतौर पर जीवन-भर के लिए जोड़ा बनाते हैं। सांस्कृतिक महत्व अपनी सुंदरता और लम्बी यात्राओं के लिए हंसों को कई संस्कृतियों में महत्व मिला है। भारतीय साहित्य में इसे बहुत विवेकी पक्षी माना जाता है। और ऐसा विश्वास है कि यह नीर-क्षीर विवेक (पानी और दूध को अलग करने वाला विवेक) से युक्त है। यह विद्या की देवी सरस्वती का वाहन है। ऐसी मान्यता है कि यह मानसरोवर में रहते हैं। हंसों को आजीवन जोड़ा बनाने के लिए भी प्रेम-सम्बन्ध और विवाह का प्रतीक माना गया है। जातियाँ इन्हें भी देखें अनैटिडाए ऐन्सरीफोर्मीस जलपक्षी सन्दर्भ साधारण पक्षी नाम
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कोबे जापानी खिलौना नागरी के नाम से विख्यात हैं चित्र दीर्घा जापान के नगर
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शेरबहादुर देउवा (जन्म: 13 जून, 1946) नेपाली कांग्रेस सभापति एवम् नेपालके पूर्व प्रधानमंत्री प्रधानमन्त्री हैं। उन्होने नेपाल के 40वें प्रधानमंत्री के रूप में सन २०१७ में शपथ ली है।। वे 1995 से 1997 तक, फिर 2001 से 2002 तक, और 2004 से 2005 तक नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। देउवा का जन्म एक क्षत्रिय(राजपूत) जाति में हुआ है। बीबीसी पर प्रसारित कॉमन क्वेश्चन प्रोग्राम में पांच साल पहले प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउवा से सवाल पूछने के लिए मशहूर हुए सागर ढकाल संसदीय चुनाव लड़ने की तैयारी के साथ डडेल्धुरा पहुंच गए हैं. उन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि वह प्रधानमंत्री के खिलाफ डडेल्धुरा से संसदीय चुनाव लड़ेंगे। सागर, जिन्होंने घोषणा की है कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र से प्रधान मंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे, उसी की तैयारी के लिए दडेलधुरा पहुंच गए हैं, उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी दी। उन्होंने सोशल नेटवर्क पर देउवा की ओर इशारा करते हुए लिखा, 'मैं इस पोस्ट के माध्यम से अपने दादाजी से अनुरोध करना चाहूंगा कि मेरे पोते के साथ डडेल्धुरा लोकल नाइट बस में मेरे प्रतिद्वंद्वी माननीय प्रधान मंत्री शेर बहादुर दादाजी के साथ हाथ पकड़ें। मैंने सुना है कि डडेल्धुरा के एक गरीब गांव से राजनीति में आए मेरे दादाजी ने मेरे जन्म से ही जमीन पर पैर नहीं रखा है।चुरलुम पारिवारिक जीवन में अकल्पनीय रूप से डूब गया है। डडेल्धुरा भी पांच साल में एक बार जाना पड़ता है। इस बार मैं उसे नीचे गिराने की कोशिश करूंगा। जमीन पर पोते के नेतृत्व में दादाजी का नेतृत्व किया जाएगा। प्रारंभिक राजनीतिक कैरियर देउवा ने अपने छात्र राजनीतिक जीवन की शुरुआत १९६५ में १९ वर्ष की आयु में की। उन्होंने १९६५ से १९६८ तक सुदूर-पश्चिमी छात्र समिति, काठमांडू के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। देउवा नेपाल छात्र संघ के संस्थापक सदस्य थे, जो नेपाली कांग्रेस का एक सहयोगी संगठन था। १९६० और १९७० के दशक में पंचायत व्यवस्था के खिलाफ काम करने के लिए उन्हें रुक-रुक कर नौ साल की जेल हुई। उन्होंने 1980 के दशक में नेपाली कांग्रेस की राजनीतिक सलाहकार समिति के समन्वयक के रूप में भी कार्य किया। व्यक्तिगत जीवन देउवा का जन्म दूर-पश्चिमी नेपाल (वर्तमान गण्यपधुरा ग्रामीण नगरपालिका) के डडेल्धुरा जिले के एक दूरदराज के गांव आशिग्राम में हुआ था। उन्होंने डॉ आरजू राणा देउवा से शादी की है। देउवा के पास कला और कानून में स्नातक की डिग्री है और उनके पास राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री है। नवंबर 2016 में, देउवा को भारत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था। 1990 के बाद का जन आंदोलन 1990 के जन आंदोलन के बाद, देउवा 1991 में डडेल्धुरा से प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए; एक सीट जिसके बाद से उन्होंने हर चुनाव में कब्जा किया है। उन्होंने गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाले कैबिनेट में गृह मंत्री के रूप में कार्य किया। कोइराला द्वारा संसद भंग करने और 1994 के मध्यावधि चुनावों में उनकी सरकार के हारने के बाद, देउवा नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता चुने गए। मनमोहन अधिकारी ने 1995 में संसद को फिर से भंग करने की कोशिश की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया, देउवा को 1995 में प्रधान मंत्री नियुक्त किया गया और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया। उनका प्रशासन, जो माओवादी विद्रोह की शुरुआत का गवाह था, मार्च 1997 में गिर गया और लोकेंद्र बहादुर चंद ने उनका उत्तराधिकारी बना लिया, जिन्होंने अल्पसंख्यक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया। गिरिजा प्रसाद कोइराला के प्रधान मंत्री के रूप में इस्तीफे के बाद, देउवा ने सुशील कोइराला को हराकर नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बने और जुलाई 2001 में दूसरी बार प्रधान मंत्री नियुक्त किए गए। प्रधान मंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल शाही नरसंहार के तुरंत बाद शुरू हुआ। और माओवादी विद्रोह के चरम के दौरान, और देउवा का प्राथमिक कार्य विद्रोहियों के साथ बातचीत करना था। नवंबर 2001 में माओवादियों द्वारा बातचीत से हटने और सेना पर हमला करने के बाद, देउवा के संकट से निपटने के तरीके पर सवाल खड़ा हो गया। 2002 की शुरुआत में, नेपाली कांग्रेस की केंद्रीय समिति ने देउवा को आपातकाल की स्थिति को नवीनीकृत नहीं करने का निर्देश दिया। देउवा ने मई 2002 में संसद को भंग करने का अनुरोध करते हुए नए चुनाव कराने और अपनी अलग पार्टी, नेपाली कांग्रेस (डेमोक्रेटिक) पार्टी की स्थापना करने का अनुरोध किया। अक्टूबर 2002 में, जब देउवा ने चुनाव स्थगित करने की मांग की, तो राजा ज्ञानेंद्र ने उन्हें अक्षम होने के कारण बर्खास्त कर दिया। दो वर्षों में दो अन्य सरकारों के बाद, ज्ञानेंद्र ने 2004 में देउवा को प्रधान मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त किया। लेकिन इसके तुरंत बाद, उन्हें 1 फरवरी 2005 को राजा द्वारा फिर से पद से हटा दिया गया, जिन्होंने संविधान को निलंबित कर दिया और प्रत्यक्ष अधिकार ग्रहण किया। देउवा को जुलाई 2005 में भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत दो साल जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में 13 फरवरी 2006 को भ्रष्टाचार विरोधी संस्था द्वारा उन्हें सजा देने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था। सितंबर 2007 में, देउवा ने अपनी अलग पार्टी को भंग कर दिया और नेपाली कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए। '2008 संविधान सभा चुनाव 10 अप्रैल 2008 को हुए संविधान सभा के चुनाव में, देउवा को नेपाली कांग्रेस द्वारा दादेलधुरा -1 और कंचनपुर -4 दोनों निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था। उन्होंने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की, और अपनी कंचनपुर -4 सीट छोड़ दी, जहां उनकी जगह यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के हरीश ठकुल्ला ने ले ली, जिसे उन्होंने उप-चुनाव के बाद आम चुनाव में हराया था। 15 अगस्त 2008 को संविधान सभा में आयोजित प्रधान मंत्री के लिए बाद के वोट में, देउवा को नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था, लेकिन यूसीपीएन (माओवादी) के पुष्प कमल दहल ने उन्हें हराया था। देउवा को 113 वोट मिले, जबकि दहल को 464 वोट मिले। 2008 में एथेंस, ग्रीस में आयोजित सोशलिस्ट इंटरनेशनल की 23 वीं कांग्रेस में, देउबा को संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया, जो 2012 तक सेवा कर रहा था। 2009 में, दहल के नेतृत्व वाली सरकार के पतन और पार्टी अध्यक्ष गिरिजा प्रसाद कोइराला के बीमार स्वास्थ्य के बाद, देउवा ने फिर से प्रधान मंत्री बनने के लिए नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बनने के लिए अपनी उम्मीदवारी रखी, लेकिन था रामचंद्र पौडेल ने पराजित किया। २०१६–वर्तमान सुशील कोइराला की मृत्यु के बाद, देउवा पार्टी के तेरहवें आम सम्मेलन में नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, उन्होंने अपने अंतर-पार्टी प्रतिद्वंद्वी राम चंद्र पौडेल को हराकर लगभग 60% वोट प्राप्त किए। अगस्त 2016 में, देउवा ने पुष्प कमल दहल के साथ नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (माओवादी केंद्र) की गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए 2017 के अंत में आम चुनावों की अगुवाई में नौ महीने के लिए एक समझौता किया। समझौते के अनुसार, वह था 7 जून 2017 को चौथे कार्यकाल के लिए प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली। देउवा उस सरकार के प्रभारी थे जिसने 2017 में विभिन्न चरणों में सभी तीन स्तरों (संसदीय, प्रांतीय और स्थानीय) के चुनाव सफलतापूर्वक आयोजित किए। उन्होंने 15 फरवरी 2018 को इस्तीफा दे दिया। 2017 के चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के नेता केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया है। चुनावी इतिहास वह 1991, 1994, 1999 और 2017 में डडेलधुरा 1 से नेपाली कांग्रेस के टिकट पर प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए। उन्होंने 2008 और 2013 के संविधान सभा चुनावों में डडेलधुरा 1 से जीत हासिल की। उन्होंने 2008 के सीए चुनाव में दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और जीता और अपनी कंचनपुर 4 सीट छोड़ दी। सन्दर्भ नेपाली राजनेता नेपाल के प्रधानमन्त्री 1946 में जन्मे लोग जीवित लोग
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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (, इसरो) भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान है जिसका मुख्यालय कर्नाटक राज्य के बंगलौर में है। संस्थान का मुख्य कार्यों में भारत के लिये अंतरिक्ष सम्बधी तकनीक उपलब्ध करवाना व उपग्रहों, प्रमोचक यानों, साउन्डिंग राकेटों और भू-प्रणालियों का विकास करना शामिल है। 1962 में एक समिति जिसका नाम 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) के रूप में इसकी स्थापना की गई थी। परंतु 15 अगस्त 1969 को एक संगठन के रूप में इसका पुनर्गठन किया गया और इसे वर्तमान नाम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) कहकर बुलाया जाने लगा। भारत का पहला उपग्रह, आर्यभट्ट, 19 अप्रैल 1975 को सोवियत संघ के रॉकेट की सहायता अंतरिक्ष में छोड़ा गया था। इसका नाम महान गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था । इसने 5 दिन बाद काम करना बन्द कर दिया था। लेकिन यह अपने आप में भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। 7 जून 1979 को भारत का दूसरा उपग्रह भास्कर जो 442 किलो का था, पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया। 1980 में रोहिणी उपग्रह पहले भारत-निर्मित प्रक्षेपण यान एसएलवी-3 द्वारा कक्षा में स्थापित किया गया। इसरो ने बाद में दो अन्य रॉकेट विकसित किए। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) और भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) । जनवरी 2014 में इसरो सफलतापूर्वक जीसैट -14 का एक जीएसएलवी-डी 5 प्रक्षेपण में एक स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया गया। इसरो के वर्तमान निदेशक डॉ एस सोमनाथ हैं। आज भारत न सिर्फ अपने अंतरिक्ष संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है बल्कि दुनिया के बहुत से देशों को अपनी अंतरिक्ष क्षमता से व्यापारिक और अन्य स्तरों पर सहयोग कर रहा है। इसरो ने 22 अक्टूबर 2008 को चंद्रयान-1 भेजा जिसने चन्द्रमा की परिक्रमा की। इसके बाद 24 सितम्बर 2014 को मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला मंगलयान (मंगल आर्बिटर मिशन) भेजा। सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश किया और इस प्रकार भारत अपने पहले ही प्रयास में सफल होने वाला पहला राष्ट्र बना। दुनिया के साथ ही एशिया में पहली बार अंतरिक्ष एजेंसी में एजेंसी को सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा तक पहुंचने के लिए इसरो चौथे स्थान पर रहा। भविष्य की योजनाओं मे शामिल जीएसएलवी एमके III के विकास (भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए) ULV, एक पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान, मानव अंतरिक्ष, आगे चंद्र अन्वेषण, ग्रहों के बीच जांच, एक सौर मिशन अंतरिक्ष यान के विकास आदि। इसरो को शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए साल 2014 के इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के लगभग एक वर्ष बाद इसने 29 सितंबर 2015 को एस्ट्रोसैट के रूप में भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित किया। जून 2016 तक इसरो लगभग 20 अलग-अलग देशों के 57 उपग्रहों को लॉन्च कर चुका है, और इसके द्वारा उसने अब तक 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का इतिहास भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने इसरो की खोज 1945 में की थी।1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई। 1960-1970 भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त किया जापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। ये इंग्लैंड और रूस की तर्ज पर बनाये गये। फिर भी पहले दिन से ही, अंतरिक्ष कार्यक्रम की विकासशील देशी तकनीक की उच्च महत्वाकांक्षा थी और इसके चलते भारत ने ठोस इंधन का प्रयोग करके अपने अनुसंधित रॉकेट का निर्माण शुरू कर दिया, जिसे रोहिणी की संज्ञा दी गई। भारत अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देशी तकनीक की आवश्यकता, एवं कच्चे माल एवं तकनीक आपूर्ति में भावी अस्थिरता की संभावना को भांपते हुए, प्रत्येक माल आपूर्ति मार्ग, प्रक्रिया एवं तकनीक को अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न किया। जैसे जैसे भारतीय रोहिणी कार्यक्रम ने और अधिक संकुल एवं वृहताकार रोकेट का प्रक्षेपण जारी रखा, अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ता चला गया और इसे परमाणु उर्जा विभाग से विभाजित कर, अपना अलग ही सरकारी विभाग दे दिया गया। परमाणु उर्जा विभाग के अंतर्गत इन्कोस्पार कार्यक्रम से 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया, जो कि प्रारम्भ में अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत कार्यरत था और परिणामस्वरूप जून, 1972 में, अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई। 1970-2000 2003 के दशक में डॉ॰ साराभाई ने टेलीविजन के सीधे प्रसारण के जैसे बहुल अनुप्रयोगों के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कृत्रिम उपग्रहों की सम्भव्यता के सन्दर्भ में नासा के साथ प्रारंभिक अध्ययन में हिस्सा लिया और अध्ययन से यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, प्रसारण के लिए यही सबसे सस्ता और सरल साधन है। शुरुआत से ही, उपग्रहों को भारत में लाने के फायदों को ध्यान में रखकर, साराभाई और इसरो ने मिलकर एक स्वतंत्र प्रक्षेपण वाहन का निर्माण किया, जो कि कृत्रिम उपग्रहों को कक्ष में स्थापित करने, एवं भविष्य में वृहत प्रक्षेपण वाहनों में निर्माण के लिए आवश्यक अभ्यास उपलब्ध कराने में सक्षम था। रोहिणी श्रेणी के साथ ठोस मोटर बनाने में भारत की क्षमता को परखते हुए, अन्य देशो ने भी समांतर कार्यक्रमों के लिए ठोस रॉकेट का उपयोग बेहतर समझा और इसरो ने कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एस.एल.वी.) की आधारभूत संरचना एवं तकनीक का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। अमेरिका के स्काउट रॉकेट से प्रभावित होकर, वाहन को चतुर्स्तरीय ठोस वाहन का रूप दिया गया। इस दौरान, भारत ने भविष्य में संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया। भारत की अंतरिक्ष में प्रथम यात्रा 1975 में रूस के सहयोग से इसके कृत्रिम उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण से शुरू हुयी। 1979 तक, नव-स्थापित द्वितीय प्रक्षेपण स्थल सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से एस.एल.वी. प्रक्षेपण के लिए तैयार हो चुका था। द्वितीय स्तरीय असफलता की वजह से इसका 1979 में प्रथम प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया था। 1980 तक इस समस्या का निवारण कर लिया गया। भारत का देश में प्रथम निर्मित कृत्रिम उपग्रह रोहिणी-प्रथम प्रक्षेपित किया गया। अमेरीकी प्रतिबंध सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया। 1992 में भारतीय संस्था इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गयी। इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने इस सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया । सोवियत संघ क्रायोजेनिक लिक्वीड राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नही हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था। इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुये भी सोवियत संघ से बेहतर स्वदेशी तकनीक दो सालो के अथक शोध के बाद विकसित कर ली। 5 जनवरी 2014 को, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान की डी5 उड़ान में किया प्रक्षेपण यान 1960 और 1970 के दशक के दौरान, भारत ने अपने राजनीतिक और आर्थिक आधार के कारण से स्वयं के प्रक्षेपण यान कार्यक्रम की शुरूआत की। 1960-1970 के दशक में, देश में सफलतापूर्वक साउंडिंग रॉकेट कार्यक्रम विकसित किया गया। और 1980 के दशक से उपग्रह प्रक्षेपण यान-3 पर अनुसंधान का कार्य किया गया। इसके बाद ने पीएसएलवी जीएसएलवी आदि रॉकेट को विकसित किया। हिंदुस्तान से जुड़ी कुछ अनसुनी और रोचक बातें एक भारतीय होने के नाते आपको भारत से जुड़ी यह बातें जरूर जान लेनी चाहिए वैसे तो भारत कि हर बात खास और रोमांचक होती है। चाहे वह बात भारत के इतिहास के बारे में हो या फिर संस्कृति के बारे में उपग्रह प्रक्षेपण यान स्थिति: <span style="color:red;">सेवा समाप्त</font color="red"> उपग्रह प्रक्षेपण यान या एसएलवी (SLV) परियोजना भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा 1970 के दशक में शुरू हुई परियोजना है जो उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकी विकसित करने के लिए की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान परियोजना एपीजे अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान का उद्देश्य 400 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचना और 40 किलो के पेलोड को कक्षा में स्थापित करना था। अगस्त 1979 में एसएलवी-3 की पहली प्रायोगिक उड़ान हुई, परन्तु यह विफल रही। संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान स्थिति: <span style="color:red;">सेवा समाप्त</font color="red"> संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (Augmented Satellite Launch Vehicle) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक पांच चरण ठोस ईंधन रॉकेट था। यह पृथ्वी की निचली कक्ष में 150 किलो के उपग्रहों स्थापित करने में सक्षम था। इस परियोजना को भू-स्थिर कक्षा में पेलोड के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए 1980 के दशक के दौरान भारत द्वारा शुरू किया गया था। इसका डिजाइन उपग्रह प्रक्षेपण यान पर आधारित था ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान स्थिति: <span style="color:Green;">सक्रिय</font color="Green"> ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान या पी.एस.एल.वी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा संचालित एक उपभोजित प्रक्षेपण प्रणाली है। भारत ने इसे अपने सुदूर संवेदी उपग्रह को सूर्य समकालिक कक्षा में प्रक्षेपित करने के लिये विकसित किया है। पीएसएलवी के विकास से पूर्व यह सुविधा केवल रूस के पास थी। पीएसएलवी छोटे आकार के उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में भी भेजने में सक्षम है। अब तक पीएसएलवी की सहायता से 70 अन्तरिक्षयान (30 भारतीय + 40 अन्तरराष्ट्रीय) विभिन्न कक्षाओं में प्रक्षेपित किये जा चुके हैं। इससे इस की विश्वसनीयता एवं विविध कार्य करने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है। भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान स्थिति: <span style="color:Green;">सक्रिय</font color="Green"> भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (अंग्रेज़ी:जियोस्टेशनरी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, लघु: जी.एस.एल.वी) अंतरिक्ष में उपग्रह के प्रक्षेपण में सहायक यान है। जीएसएलवी का इस्तेमाल अब तक बारह लॉन्च में किया गया है, 2001 में पहली बार लॉन्च होने के बाद से 29 मार्च 2018 को जीएसएटी -6 ए संचार उपग्रह ले जाया गया था। ये यान उपग्रह को पृथ्वी की भूस्थिर कक्षा में स्थापित करने में मदद करता है। जीएसएलवी ऐसा बहुचरण रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक भार के उपग्रह को पृथ्वी से 36000 कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा की सीध में होता है। ये रॉकेट अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके तीसरे यानी अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है। रॉकेट की यह आवश्यकता केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं।इसलिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट का निर्माण मुश्किल होता है। अधिकतर काम के उपग्रह दो टन से अधिक के ही होते हैं। इसलिए विश्व भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर निश्चित कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही इसकी की प्रमुख विशेषता है। हालांकि भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 (जीएसएलवी मार्क 3) नाम साझा करता है, यह एक पूरी तरह से अलग लॉन्चर है। भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्क 3 स्थिति: <span style="color:Green;">सेवा मे भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 : Geosynchronous Satellite Launch Vehicle mark 3, or GSLV Mk3, जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लाँच वहीकल मार्क 3, या जीएसएलवी मार्क 3), जिसे लॉन्च वाहन मार्क 3 (LVM 3) भी कहा जाता है, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक प्रक्षेपण वाहन (लॉन्च व्हीकल) है। उपग्रह कार्यक्रम भारत का पहला उपग्रह आर्यभट्ट सोवियत संघ द्वारा कॉसमॉस-3एम प्रक्षेपण यान से 19 अप्रैल 1975 को कपूस्टिन यार से लांच किया गया था। इसके बाद स्वदेश में बने प्रयोगात्मक रोहिणी उपग्रहों की श्रृंखला को भारत ने स्वदेशी प्रक्षेपण यान उपग्रह प्रक्षेपण यान से लांच किया। वर्तमान में, इसरो पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक बड़ी संख्या चल रहा है। इन्सैट शृंखला इन्सैट (भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली) इसरो द्वारा लांच एक बहुउद्देशीय भूस्थिर उपग्रहों की श्रृंखला है। जो भारत के दूरसंचार, प्रसारण, मौसम विज्ञान और खोज और बचाव की जरूरत को पूरा करने के लिए है। इसे 1983 में शुरू किया गया था। इन्सैट एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ी घरेलू संचार प्रणाली है। यह अंतरिक्ष विभाग, दूरसंचार विभाग, भारत मौसम विज्ञान विभाग, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन का एक संयुक्त उद्यम है। संपूर्ण समन्वय और इनसैट प्रणाली का प्रबंधन, इनसैट समन्वय समिति के सचिव स्तर के अधिकारी पर टिकी हुई है। भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह शृंखला भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह (आईआरएस) पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक श्रृंखला है। इसे इसरो द्वारा बनाया, लांच और रखरखाव किया जाता है। आईआरएस श्रृंखला देश के लिए रिमोट सेंसिंग सेवाएं उपलब्ध कराता है। भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह प्रणाली आज दुनिया में चल रही नागरिक उपयोग के लिए दूरसंवेदी उपग्रहों का सबसे बड़ा समूह है। सभी उपग्रहों को ध्रुवीय सूर्य समकालिक कक्षा में रखा जाता है। प्रारंभिक संस्करणों 1(ए, बी, सी, डी) नामकरण से बना रहे थे। लेकिन बाद के संस्करण अपने क्षेत्र के आधार पर ओशनसैट, कार्टोसैट, रिसोर्ससैट नाम से नामित किये गए। राडार इमेजिंग सैटेलाइट इसरो वर्तमान में दो राडार इमेजिंग सैटेलाइट संचालित कर रहा है। रीसैट-1 को 26 अप्रैल 2012 को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान(PSLV) से सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र,श्रीहरिकोटा से लांच किया गया था। रीसैट-1 एक सी-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) पेलोड ले के गया। जिसकी सहायता से दिन और रात दोनों में किसी भी तरह के ऑब्जेक्ट पर राडार किरणों से उसकी आकृति और प्रवत्ति का पता लगाया जा सकता था। तथा भारत ने रीसैट-2 जो 2009 में लांच हुआ था। इसराइल से 11 करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीद लिया था। 11 दिसंबर 2019 को इसरो ने पीएसएलवी सी-48 रॉकेट के साथ रीसैट-2बीआर1 लॉन्च किया। अन्य उपग्रह इसरो ने भूस्थिर प्रायोगिक उपग्रह की श्रृंखला जिसे जीसैट श्रृंखला के रूप में जाना जाता को भी लांच किया। इसरो का पहला मौसम समर्पित उपग्रह कल्पना-1 को 12 सितंबर 2002 को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान द्वारा लांच किया गया था। इस उपग्रह को मेटसैट-1 के रूप में भी जाना जाता था। लेकिन फरवरी 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पेस शटल कोलंबिया में मारी गयी भारतीय मूल की नासा अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला की याद में इस उपग्रह का नाम कल्पना-1 रखा। इसरो ने 25 फरवरी, 2013 12:31 यूटीसी पर सफलतापूर्वक भारत-फ्रांसीसी उपग्रह सरल लांच किया। सरल एक सहकारी प्रौद्योगिकी मिशन है। यह समुद्र की सतह और समुद्र के स्तर की निगरानी के लिए इस्तेमाल की जाती है। जून 2014 में, इसरो ने पीएसएलवी-सी23 प्रक्षेपण यान के माध्यम से फ्रेंच पृथ्वी अवलोकन उपग्रह स्पॉट-7 (714 किलो) के साथ सिंगापुर का पहला नैनो उपग्रह VELOX-I, कनाडा का उपग्रह CAN-X5, जर्मनी का उपग्रह AISAT लांच किये। यह इसरो का चौथा वाणिज्यिक प्रक्षेपण था। गगन उपग्रह नेविगेशन प्रणाली गगन अर्थात् जीपीएस ऐडेड जियो ऑगमेंटिड नैविगेशन को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया और इसरो ने 750 करोड़ रुपये की लागत से मिलकर तैयार किया है। गगन के नाम से जाना जाने वाला यह भारत का उपग्रह आधारित हवाई यातायात संचालन तंत्र है। अमेरिका, रूस और यूरोप के बाद 10 अगस्त 2010 को इस सुविधा को प्राप्त करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया। पहला गगन नेविगेशन पेलोड अप्रैल 2010 में जीसैट-4 के साथ भेजा गया था। हालाँकि जीसैट-4 कक्षा में स्थापित नहीं किया जा सका। क्योंकि भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान डी3 मिशन पूरा नहीं हो सका। दो और गगन पेलोड बाद में जीसैट-8 और जीसैट-10 भेजे गए। आईआरएनएसएस उपग्रह नेविगेशन प्रणाली आईआरएनएसएस भारत द्वारा विकसित एक स्वतंत्र क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका नाम भारत के मछुवारों को समर्पित करते हुए नाविक रखा है। इसका उद्देश्य देश तथा देश की सीमा से 1500 किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से में इसके उपयोगकर्ता को सटीक स्थिति की सूचना देना है। आईआरएनएसएस दो प्रकार की सेवाओं प्रदान करेगा। (1)मानक पोजिशनिंग सेवा और (2)प्रतिबंधित या सीमित सेवा। प्रतिबंधित या सीमित सेवा मुख्यत: भारतीय सेना, भारतीय सरकार के उच्चाधिकारियों व अतिविशिष्ट लोगों व सुरक्षा संस्थानों के लिये होगी। आईआरएनएसएस के संचालन व रख रखाव के लिये भारत में लगभग 16 केन्द्र बनाये गये हैं। सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से आईआरएनएसएस-1ए उपग्रह ने 1 जुलाई 2013 रात 11:41 बजे उड़ान भरी। प्रक्षेपण के करीब 20 मिनट बाद रॉकेट ने आईआरएनएसएस-1ए को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया। वर्तमान में सभी 7 उपग्रह को उनकी कक्षा में स्थापित किया जा चुका है। और 4 उपग्रह बैकअप के तौर पर भेजे जाने की योजना है। दक्षिण एशिया उपग्रह 5 मई 2017 को दक्षिण एशिया उपग्रह को श्रीहरिकोटा उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र से प्रक्षेपित कर दिया गया। यह उपग्रह पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सभी सार्क (SAARC) देशों के लिए एक उपहार के समान था। इस उपग्रह के द्वारा पडोसी देशों के हॉटलाइन से जल्दी संपर्क बनाने, टी.वी. प्रसारण,भारतीय सीमा पर हलचल को रोकना आदि कार्य किए जा सकते हैं। अंतरिक्ष में भारत का 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण रिकॉर्ड अंतरिक्ष में भारत की सबसे बड़ी कामयाबी, ISRO ने एक साथ रिकॉर्ड 104 सैटेलाइट का प्रक्षेपण कर रचा इतिहास। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रक्षेपण यान पीएसएलवी ने 15/02/2017 श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केन्द्र से एक एकल मिशन में रिकार्ड 104 उपग्रहों का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। यहां से करीब 125 किलोमीटर दूर श्रीहरिकोटा से एक ही प्रक्षेपास्त्र के जरिये रिकॉर्ड 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण सफलतापूर्वक किया गया। जानकारी के अनुसार, इन 104 उपग्रहों में भारत के तीन और विदेशों के 101 सैटेलाइट शामिल है। भारत ने एक रॉकेट से 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इस तरह का इतिहास रचने वाला पहला देश बन गया है। प्रक्षेपण के कुछ देर बाद पीएसएलवी-सी37 ने भारत के काटरेसैट-2 श्रृंखला के पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह और दो अन्य उपग्रहों तथा 103 नैनो उपग्रहों को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित कर दिया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सफल अभियान को लेकर इसरो को बधाई दी है। इसरो के अनुसार, पीएसएलवी-सी37-काटरेसेट 2 श्रृंखला के सेटेलाइट मिशन के प्रक्षेपण के लिए उलटी गिनती बुधवार सुबह 5.28 बजे शुरू हुई। मिशन रेडीनेस रिव्यू कमेटी एंड लांच ऑथोराइजेशन बोर्ड ने प्रक्षेपण की मंजूरी दी थी। अंतरिक्ष एजेंसी का विश्वस्त ‘ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान’ (पीएसएलवी-सी 37) अपने 39वें मिशन पर अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ताओं से जुड़े रिकॉर्ड 104 उपग्रहों को प्रक्षेपित किया। प्रक्षेपण के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या में रॉकेट से उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। भारत ने इससे पहले जून 2015 में एक बार में 57 उपग्रहों को प्रक्षेपण किया था। यह उसका दूसरा सफल प्रयास है। इसरो के वैज्ञानिकों ने एक्सएल वैरियंट का इस्तेमाल किया है जो सबसे शक्तिशाली रॉकेट है और इसका इस्तेमाल महत्वाकांक्षी चंद्रयान में और मंगल मिशन में किया जा चुका है।दोनों भारतीय नैनो-सेटेलाइट आईएनएस-1ए और आईएनएस-1बी को पीएसएलवी पर बड़े उपग्रहों का साथ देने के लिए विकसित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों की नैनो-सेटेलाइटों का प्रक्षेपण इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स कॉपरेरेशन लिमिटेड की व्यवस्था के तहत किया जा रहा है। मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम मुख्य लेख- भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन अपने मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए 124 अरब के बजट का प्रस्ताव किया। अंतरिक्ष आयोग के अनुसार जो बजट की सिफारिश की है। उसकी अंतिम मंजूरी के 7 साल के बाद ही एक मानव रहित उड़ान लांच की जाएगी। अगर घोषित समय-सीमा में बजट जारी किया गया। तो भारत सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश बन जाएगा। जो स्वदेश में ही सफलतापूर्वक मानव मिशन कर चुके है। भारत सरकार ने अक्टूबर 2016 तक मिशन को मंजूरी नहीं दी है। इसरो ने मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के लिए क्रांतिक प्रौद्योगिकियों पर विकास क्रियाकलाप शुरू किए हैं। मार्च 2012 के आँकड़ों के अनुसार इस दिशा में आवंटित निधि 145 करोड़ हैं। विभिन्‍न तकनीकी क्रियाकलापों लिए आवंटित निधि मुख्‍य शीर्षों के तहत है- क्रू माड्यूल प्रणाली (61 करोड़), मानव अनुकूल और प्रमोचक राकेट (27 करोड़), राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थानों के साथ अध्‍ययन (36 करोड़) और वायु गतिकी विशिष्‍टीकरण एवं मिशन अध्‍ययन जैसे अन्‍य क्रियाकलाप के लिये (21 करोड़)। प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मुख्य लेख- स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट (एसआरई या सामान्यतः एसआरई-1) एक प्रयोगात्मक भारतीय अंतरिक्ष यान है। जो पीएसएलवी सी7 रॉकेट का उपयोग कर तीन अन्य उपग्रहों के साथ लांच किया गया था। यह पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश करने से पहले 12 दिनों के लिए कक्षा में रहा और 22 जनवरी को 4:16 जी.एम.टी. पर बंगाल की खाड़ी में नीचे उतरा। स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट-1 का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रह को पृथ्वी पर बापस उतरने की क्षमता का प्रदर्शन करना था। इसका यह भी उद्देश्य था। कि थर्मल सुरक्षा, नेविगेशन, मार्गदर्शन, नियंत्रण, गिरावट और तैरने की क्रिया प्रणाली, हाइपरसोनिक एयरो-ऊष्मा का अच्छी तरह से अध्ययन, संचार ब्लैकआउट का प्रबंधन और बापसी के संचालन का परीक्षण करना था। इसरो निकट भविष्य में एसआरई-2 और एसआरई-3 लांच करने की योजना बना रहा है। जो भविष्य के मानव मिशन के लिए उन्नत पुनः प्रवेश प्रौद्योगिकी के परीक्षण करेंगे। अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण और अन्य सुविधाएं इसरो मानवयुक्त वाहन पर उड़ान के लिए दल को तैयार करने के लिए बंगलौर में एक अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना करेगी। केंद्र में चयनित अंतरिक्ष यात्रियों को शून्य गुरुत्वाकर्षण में अस्तित्व, बचाव और वापिस के संचालन में प्रशिक्षित करने के लिए सिमुलेशन सुविधाओं का उपयोग किया जायेगा। चालक दल के वाहन के विकास भविष्य में आने वाली परियोजनाएं इसरो ने निकट भविष्य में कई नई पीढ़ी के पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों को लॉन्च करने की योजना बनाई है। इसरो नए लॉन्च वाहनों और अंतरिक्ष यान के विकास भी करेगा। इसरो ने कहा है कि वह मंगल और निकट के पृथ्वी ऑब्जेक्ट्स पर मानव रहित मिशन भेजेगा। इसरो ने 2012-17 के दौरान 58 मिशनों की योजना बनाई है। आगामी लॉन्च आगामी उपग्रह अन्य ग्रहों पर अन्वेषण भविष्य के प्रक्षेपण यान पुन: प्रयोज्य लॉन्च वाहन-प्रौद्योगिकी प्रदर्शनकार (आरएलवी-टीडी) टू स्टेज टू ऑर्बिट (टीएसटीओ) पूरी तरह से पुन: उपयोग योग्य लॉन्च वाहन को साकार करने की ओर यह पहला कदम है। इसमें प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मिशन की एक श्रृंखला की कल्पना की गई है। इस प्रयोजन के लिए एक विंग रीज्युलेबल लॉन्च वाहन टेक्नोलॉजी डेमॉन्स्ट्रेटर (आरएलवी-टीडी) कॉन्फ़िगर किया गया है। आरएलवी-टीडी विभिन्न तकनीकों जैसे, हाइपरसोनिक फ्लाईट, स्वायत्त लैंडिंग, पॉवर क्रूज फ्लाईट और एयर-श्वास प्रणोदन का उपयोग करते हुए हाइपरसॉनिक उड़ान के लिए उड़ान परीक्षण के रूप में कार्य करेगा। सबसे पहले प्रदर्शन परीक्षणों की श्रृंखला हाइपरसोनिक फ्लाइट प्रयोग (हेक्स) है। भारत के भविष्य की अंतरिक्ष शटल का एक मानव रहित संस्करण, 20 मई 2015 को थुम्बा में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) पर अंतिम रूप दिया गया। "आरएलवी-टीडी का 'अंतरिक्ष विमान' हिस्सा लगभग तैयार है। अब हम उसकी बाहरी सतह पर विशेष टाइलें लगाने की प्रक्रिया में हैं जो पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश के दौरान तीव्र गर्मी को बर्दाश्त करने के लिए आवश्यक है," वीएसएससी के निदेशक एम चंद्रनाथन ने कहा। इसरो ने फरवरी 2016 के लिए श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट के पहले लॉन्चपैड से प्रोटोटाइप टेस्ट फ्लाइट करने की योजना बनाई। लेकिन निर्माण की समाप्ति के आधार पर तारीख को अंतिम रूप दिया गया। प्रस्तावित आरएलवी दो भागों में बनाया गया है; एक मानवयुक्त अंतरिक्ष विमान का एक एकल चरण , दूसरा बूस्टर रॉकेट ठोस ईंधन का उपयोग करने के लिए। बूस्टर रॉकेट एक्सपेंडेबल है, इसका उडान के बद्द उपयोग नहीं किया जायेगा। जबकि आरएलवी पृथ्वी पर वापस आ जाएगा और मिशन के बाद एक सामान्य हवाई जहाज की तरह जमीन उतरेगा। प्रोटोटाइप- 'आरएलवी-टीडी' का वजन लगभग 1.5 टन है और यह 70 किलोमीटर की ऊंचाई तक उड़ सकता है। हेक्स (हाइपरसोनिक फ्लाईट एक्सपेरिमेंट) को सफलतापूर्वक 1:30 GMT, 23 मई 2016 को पूरा किया गया। एकीकृत प्रक्षेपण यान एकीकृत प्रक्षेपण यान (यूएलवी या यूनिफाइड लॉन्च वाहन), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकासित किया जा रहा एक प्रक्षेपण वाहन है। परियोजना के मुख्य उद्देश्य मॉड्यूलर आर्किटेक्चर को डिज़ाइन करना है जो कि पीएसएलवी, जीएसएलवी एमके 1/2 और जीएसएलवी 3 आदि राकेट को लांचरों के एक परिवार के साथ प्रतिस्थापन करेगा। अन्य ग्रहों पर अन्वेषण पृथ्वी की कक्षा से बाहर के इसरो के मिशन में चंद्रयान-1 (चंद्रमा) और मंगल ऑर्बिटर मिशन मिशन (मंगल ग्रह) शामिल हैं। इसरो चंद्रयान-२ के साथ, वीनस और निकट-पृथ्वी वस्तुओं जैसे क्षुद्रग्रहों और धूमकेतु जैसे मिशनों का अनुसरण करने की योजना बना रहा है। चंद्रयान-२ मंगलयान-2 बजट 2012-17 १२वीं पंचवर्षीय योजना, 2012-17 के दौरान इसरो ने ५८ अंतरिक्ष मिशनों के संचालन की योजना बनाई हैं, जिसके लिए अनंतिम रूप से ३९,७५० करोड़ रुपये के योजना परिव्‍यय की व्‍यवस्‍था की गई है। २०१२-१३ के दौरान ५,६१५ करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई। महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ 1962: परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा अंतरिक्ष अनुसंधान के लिये एक राष्ट्रीय समिति का गठन और त्रिवेन्द्रम के समीप थुम्बा में राकेट प्रक्षेपण स्थल के विकास की दिशा में पहला प्रयास प्रारंभ। 1963: थुंबा से (21 नवंबर, 1963) को पहले राकेट का प्रक्षेपण 1965: थुंबा में अंतरिक्ष विज्ञान एवं तकनीकी केन्द्र की स्थापना। 1967: अहमदाबाद में उपग्रह संचार प्रणाली केन्द्र की स्थापना। 1972: अंतरिक्ष आयोग एवं अंतरिक्ष विभाग की स्थापना। 1975: पहले भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का (April 19, 1975) को प्रक्षेपण। 1976: उपग्रह के माध्यम से पहली बार शिक्षा देने के लिये प्रायोगिक कदम। 1979: एक प्रायोगिक उपग्रह भास्कर - १ का प्रक्षेपण। रोहिणी उपग्रह का पहले प्रायोगिक परीक्षण यान एस एल वी-3 की सहायता से प्रक्षेपण असफल। 1980: एस एल वी-3 की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापन। 1981: 'एप्पल' नामक भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। नवंबर में भास्कर - २ का प्रक्षेपण। 1982: इन्सैट-1A का अप्रैल में प्रक्षेपण और सितंबर अक्रियकरण। 1983: एस एल वी-3 का दूसरा प्रक्षेपण। आर एस - डी2 की कक्षा में स्थापना। इन्सैट-1B का प्रक्षेपण। 1984: भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना। 1987: ए एस एल वी का SROSS-1 उपग्रह के साथ प्रक्षेपण। 1988: भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस-1A का प्रक्षेपण. इन्सैट-1C का जुलाई में प्रक्षेपण। नवंबर में परित्याग। 1990: इन्सैट-1D का सफल प्रक्षेपण। 1991: अगस्त में दूसरा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1B का प्रक्षेपण। 1992: SROCC-C के साथ ए एस एल वी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई महीने में। पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-2A का सफल प्रक्षेपण। 1993: इन्सैट-2B का जुलाईमहीने में सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी द्वारा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1E का दुर्घटनाग्रस्त होना। 1994: मईमहीने में एस एस एल वी का चौथा सफल प्रक्षेपण। 1995: दिसंबर महीने में इन्सैट-2C का प्रक्षेपण। तीसरे दूर संवेदी उपग्रह का सफल प्रक्षेपण। 1996: तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-P3 का पी एस एल वी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण। 1997: जून महीने में प्रक्षेपित इन्सैट-2D का अक्टूबर महीने में खराब होना। सितंबर महीने में पी एस एल वी की सहायता से भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1D का सफल प्रक्षेपण। 1999: इन्सैट-2E इन्सैट-2 क्रम के आखिरी उपग्रह का फ्रांस से सफल प्रक्षेपण। भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-P4 श्रीहरिकोटा परिक्षण केन्द्र से सफल प्रक्षेपण। पहली बार भारत से विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण : दक्षिण कोरिया के किटसैट-3 और जर्मनी के डी सी आर-टूबसैट का सफल परीक्षण। 2000: इन्सैट-3B का २२ मार्च, २००० को सफल प्रक्षेपण। 2001: जी एस एल वी-D1, का प्रक्षेपण आंशिक सफल। 2002: जनवरी महीने में इन्सैट-3C का सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी-C4 द्वारा कल्पना-1 का सितंबर में सफल प्रक्षेपण। २००४: जी एस एल वी एड्यूसैट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। २००८: २२ अक्टूबर को चन्द्रयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण २०१३: ५ नवम्बर को मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण 2014 : २४ सितम्बर को मंगलयान (प्रक्षेपण के २९८ दिन बाद) मंगल की कक्षा में स्थापित, भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी-डी5) का सफल प्रक्षेपण (5 जनवरी 2014), आईआरएनएसएस-1बी (04 अप्रैल 2014) व 1 सी(16 अक्‍टूबर 2014) का सफल प्रक्षेपण, जीएसएलवी एमके-3 की सफल पहली प्रायोगिक उड़ान(18 दिसंबर 2014) 2015 - २९ सितंबर को खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली वेधशाला एस्ट्रोसैट का सफल प्रक्षेपण किया। २०१६ - २३ मई को पूरी तरह भारत में बना अपना पहला पुनर्प्रयोज्य अंतरिक्ष शटल (रियूजेबल स्पेस शटल) प्रमोचित किया। २०१६ - २२ जून : पीएसएलवी सी-34 के माध्यम से रिकॉर्ड २० उपग्रह एक साथ छोड़े गए। २०१६ - २८ अगस्त: वायुमंडल प्रणोदन प्रणाली वाला स्‍क्रेमजेट इंजन का पहला प्रायोगिक परीक्षण सफल। २०१६ - ०८ सितंबर: स्वदेश में विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज(सीयूएस) का पहली बार प्रयोग करते हुए जीएसएलवी-एफ05 की सफल उड़ान के साथ इनसैट-3डीआर अंतरिक्ष में स्थापित। १५ फरवरी २०१७ - एक साथ १०४ उपग्रह प्रक्षेपित करके विश्व कीर्तिमान बनाया। PSLV-C37/Cartosat2 शृंखला उपग्रह मिशन में कार्टोसैट-२ के अलावा १०१ अन्तरराष्ट्रीय लघु-उपग्रह (नैनो-सैटेलाइट) और दो भारतीय लघु-उपग्रह INS-1A तथा INS-1B थे। 22 जुलाई, 2023 - चन्द्रयान-२ का सफल प्रक्षेपण 23 अगस्त 2023''' - चंद्रयान-3 का सफल अवतरण इन्हें भी देखें भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 (जीएसएलवी मार्क 3) चंद्रयान मंगलयान भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान ( पीएसएलवी) भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम नासा भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली दक्षिण एशिया उपग्रह स्काईरूट एयरोस्पेस </div> सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ इसरो का आधिकारिक वेबसाइट हिन्दी में* (अँग्रेजी में) भारत के प्रमुख शोध संस्थान Research Institutes In India इसरो की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ The Coolest Missions from India's Space Program भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम : हाल के सफल अभियान बड़ी कामयाबी, इसरो ने रॉकेट तकनीक से बनाया कृत्रिम 'दिल' (अप्रैल २०१६) इसरो की सस्ती लांचिंग से घबराए अमेरिकी उद्यमी (नई दुनिया ; अप्रैल २०१६) विश्व के प्रमुख अंतरिक्ष संगठन
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सर दोराबजी टाटा (१८५९-१९३३ ई०) जमशेदजी टाटा के सबसे बड़े पुत्र थे। परिचय सर दोराबजी जमशेदजी टाटा (१८५९ - १९३३ ई०) जमशेदजी नौसरवान जी के ज्येष्ठ पुत्र थे जो २९ अगस्त १८५९ ई. को बंबई में जन्मे। माँ का नाम हीराबाई था। १८७५ ई. में बंबई प्रिपेटरी स्कूल में पढ़ने के उपरांत इन्हें [इंग्लैंड]] भेजा गया जहाँ दो वर्ष वाद ये कैंब्रिज के गोनविल और कायस कालेज में भरती हुए। १८७९ ई. में बंबई लौटे और तीन वर्ष बाद बंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की। अपने योग्य और अनुभवी पिता के निर्देशन में आपने भारतीय उद्योग और व्यापार का व्यापक अनुभव प्राप्त किया। पिता की मृत्यु के बाद आप उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। 1904 में अपने पिता जमशेदजी टाटा की मृत्यु के बाद अपने पिता के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया। लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ। वे टाटा समूह के पहले चैयरमैन बने और 1908 से 1932 तक चैयरमैन बने रहे। साकची को एक आदर्श शहर के रूप में विकसित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही है जो बाद में जमशेदपुर के नाम से जाना गया। 1910 में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा नाईटहुड से सम्मानित किया गया था। पिता की योजनाओं के अनुसार झारखण्ड में इस्पात का भारी कारखाना स्थापित किया और उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी किया। १९४५ ई. तक वह भारत में अपने ढंग का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया जिसमें १,२०,००० स्त्री और पुरुष काम करते थे और जिसकी पूँजी ५४,०००,००० पौंड थी। सर दोराब जी ने एक ओर जहाँ भारत में औद्योगिक विकास के निमित्त पिता द्वारा सोची अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया, वहीं दूसरी ओर समाजसेवा के भी कार्य किए। पत्नी की मृत्य के बाद 'लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट' की स्थापना की जिसका उद्देश्य रक्त संबंधी रोगों के अनुसंधान ओर अध्ययन में सहायता करना था। शिक्षा के प्रति भी इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। जीवन के अंतिम वर्ष में इन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने नाम से स्थाति ट्रस्ट को सार्वजनिक कार्यों के लिये सौंप दी। यह निधि १९४५ में अनुमानत: २,०००,००० पौंड थी जिसमें से आठ लाख पौंड की धनराशि विभिन्न दान कार्यो में तथा कैंसर के इलाज के लिए स्थापित टाटा मेमोरियल हास्पिटल, टाटा इंस्टिट्यटू ऑव सोशल साइंसेज और टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के कार्यों में खर्च की जा चुकी है। अपनी सेवाओं के लिए इन्हें १९१० ई. में 'नाइट' की उपाधि भी मिली। १९१५ में ये इंडियन इंडस्ट्रियल कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए, तथा १९१८ ई. तक इंडियन इंडस्ट्रियल कमीशन के सदस्य रहे। इनका विवाह 1897 में मेहरबाई से हुआ था जिनसे कोई संतान न हुई। उपर्युक्त ट्रस्ट की स्थापना के बाद ये अप्रैल, १९३२ में यूरोप गए। ३ जून १९३२ को किसिंग्रन में इनकी मत्यु हुई। इनका अवशेष इंगलैंड ले जाया गया जहाँ व्रकवुड के पारसी कब्रगाह में पत्नी की बगल में वह दफना दिया गया। टाटा परिवार
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केपटाउन प्रिटोरिया जोहांसबर्ग दक्षिण अफ़्रीका के नगर
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कुआलालामपुर पिनांग मलेशिया
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लिस्बन पुर्तगाल
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यह भूटान के नगरों की सूची है। 1-नगर :थिम्फू नगर की जनसंख्या :98,676 जिले का नाम:थिम्फू 2-नगर :पुनाखा नगर की जनसंख्या :21,500 जिले का नाम :पुनाखा 3-नगर :तसिरंग (Tsirang) नगर की जनसंख्या :18,667 जिले का नाम:चिरांग 4-नगर :फुंतशोलिंग नगर की जनसंख्या :17,043 जिले का नाम: चूखा 5-नगर :पेमागटशेल नगर की जनसंख्या :13,864 जिले का नाम: पेमागटशेल 6-नगर :सर्पांग नगर की जनसंख्या :10,416 जिले का नाम : गेलेजफुग 7-नगर : वांग्दी फोडरंग ( Wangdi Phodrang) नगर की जनसंख्या :7,507 जिले का नाम : वांग्दी फोडरंग 8-नगर : सामद्रूप जोंगखार नगर की जनसंख्या :7,507 जिले का नाम: सामद्रूप जोंगखार 9-नगर :समतसे (Samtse ) नगर की जनसंख्या:5,479 जिले का नाम: सांची ( , Samchi) 10-नगर :जकर (Jakar) नगर की जनसंख्या:4,829 जिले का नाम: बुमथांग सन्दर्भ भूटान श्रेणी :भूटान के नगर
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यह सूची रूस के नगरों की है। 2002 रूसी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, रूस में शहरों और कस्बों की कुल संख्या 1,108 हैं। मास्को लेनिनग्राद सेंट पीट्सबर्ग वोल्गाग्राद रूस के नगर
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