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राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन (सरकार) के अधीन हो। राज्य संप्रभुतासम्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा किसी शासकीय इकाई या उसके किसी प्रभाग को भी 'राज्य' कहते हैं, जैसे भारत के प्रदेशों को भी 'राज्य' कहते हैं। राज्य आधुनिक विश्व की अनिवार्य सच्चाई है। दुनिया के अधिकांश लोग किसी-न-किसी राज्य के नागरिक हैं। जो लोग किसी राज्य के नागरिक नहीं हैं, उनके लिए वर्तमान विश्व व्यवस्था में अपना अस्तित्व बचाये रखना काफ़ी कठिन है। वास्तव में, 'राज्य' शब्द का उपयोग तीन अलग-अलग तरीके से किया जा सकता है। पहला, इसे एक ऐतिहासिक सत्ता माना जा सकता है; दूसरा इसे एक दार्शनिक विचार अर्थात् मानवीय समाज के स्थाई रूप के तौर पर देखा जा सकता है; और तीसरा, इसे एक आधुनिक परिघटना के रूप में देखा जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि इन सभी अर्थों का एक-दूसरे से टकराव ही हो। असल में, इनके बीच का अंतर सावधानी से समझने की आवश्यकता है। वैचारिक स्तर पर राज्य को मार्क्सवाद, नारीवाद और अराजकतावाद आदि से चुनौती मिली है। लेकिन अभी राज्य से परे किसी अन्य मज़बूत इकाई की खोज नहीं हो पायी है। राज्य अभी भी प्रासंगिक है और दिनों-दिन मज़बूत होता जा रहा है। राज्य का अर्थ यूरोपीय चिंतन में राज्य के चार मूल तत्व बताये जाते हैं - निश्चित भूभाग , जनसँख्या , सरकार और संप्रभुता। मैक्स वेबर ने राज्य को ऐसा समुदाय माना है जो निर्दिष्ट भूभाग में भौतिक बल के विधिसम्मत प्रयोग के एकाधिकार का दावा करता है। गार्नर ने राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत राज्य को ही बताया है वहीं आरजे गेटल ने राजनीति विज्ञान को राज्य का विज्ञान बताया है। भारतीय राजनीतिक चिन्तन में 'राज्य' के सात अंग गिनाये जाते हैं- राजा या स्वामी, मंत्री या अमात्य, सुहृद, देश, कोष, दुर्ग और सेना। (राज्य की भारतीय अवधारणा देखें।) कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताये हैं और ये उनका "सप्ताङ्ग सिद्धान्त " कहलाता है - राजा , आमात्य या मंत्री , पुर या दुर्ग , कोष , दण्ड, मित्र । राज्य का क्षेत्रफल बड़ा होता है। अर्थात बड़ा भूभाग से घिरा क्षेत्र। भारतीय संविधान में राज्य की परिभाषा (अनुच्छेद 12) भारतीय संविधान के भाग 3 में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं । आधुनिक राष्ट्र राज्य का उदय एवं विकास आधुनिक युग में राष्ट्र और राज्य प्राया एक से हो गए हैं राज्य की सीमाओं को ही राष्ट्रीय सीमाएं कहा जाता है। राज्य के हित को ही राष्ट्रीय हित मान लिया जाता है और विभिन्न राज्यों के परस्पर संबंधों को अंतरराष्ट्रीय संबंध कहा जाता है। राष्ट्र राज्य में वहां के सभी निवासी आ जाते हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या संस्कृति आदि से संबंध रखते हो बशर्ते कि वह अपने सामान्य इतिहास, सामान्य हित और सामान्य जीवन के महत्व के प्रति सजग हो और एक केंद्रीय सत्ता के प्रति निष्ठा रखते हो वस्तुतः आधुनिक राष्ट्र-राज्य का विकास मानव सभ्यता की बहुत लंबी इतिहास का परिणाम है इनकी निम्नलिखित अवस्थाएं स्वीकार की जाती है। कबीला राज्य- यह राज्य का सबसे पुराना रूप है जिसमें छोटे छोटे काबिले अपने अपने सरदार की शासन में रहते थे यह कबीले स्वजन समूह पर आधारित है समूहों पर आधारित थे कुछ कबीले खानाबदोश थे जिन्हें राज्य मानना ठीक नहीं होगा प्राच्य साम्राज्य- यह वही स्थिति है जब नीलगंगा पीली नदी आदि की उर्वर घाटियों में प्रारंभिक सभ्यता का विकास हुआ और शहर बन गए इन जगहों पर भिन्न-भिन्न सुजन समूहों के लोग आकर मिलजुल कर रहने लगे प्राचीन मिस्र बेबीलोन सीरिया भारत और चीन के साम्राज्य इसी श्रेणी में आते हैं। यूनानी नगर- राज्य जब ईजियन और भूमध्य सागर की ओर सभ्यता का विस्तार हुआ तब यूरोप प्रायद्वीप में भी राज्य का उदय हुआ। इस तरह यूनानी नगर राज्य अस्तित्व में आए क्योंकि वहां पर्वतों, घने जंगलों और समुद्र ने भूमि को अनेक घाटियों और द्वीपो में बांट दिया था। जिन की रक्षा करना सरल था परंतु समुद्री मार्ग से आपस में जुड़े हुए थे यहां छोड़ चुके नगर राज्य बस गए जिससे वहां निरंकुश निरंकुश शासक आदत में नहीं आए बल्कि यहां के नागरिक मिलजुलकर शासन चलाते थे। रोमन साम्राज्य- जब आंतरिक कला और बाय आक्रमणों के कारण यूनानी नगर राज्य नष्ट हो गए। तब यूरोप में रोम सारी सभ्यता का केंद्र बना और रोमन साम्राज्य विकसित हुआ। विभिन्न जातियों धर्म और प्रथाओं को मानने वाले लोगों पर शासन करने के लिए विस्तृत कानूनी प्रणाली विकसित की गई। साम्राज्य की शक्ति पर धर्म की छाप लगा दी गई। उनकी अदम्य शक्ति के नीचे व्यक्तियों की स्वतंत्रता दबकर रह गई। अंततः यह शक्तिशाली साम्राज्य अपने ही भार को ना संभाल पाने के कारण छिन्न भिन्न हो गया। सामन्ती राज्य- रोमन साम्राज्य के पतन के बाद केंद्रीय सत्ता लुप्त हो गई पांचवी शताब्दी ईस्वी से मध्यकाल का आरंभ हुआ जिसमें सारी शक्ति बड़े बड़े जमीदारों जागीरदारों और सामान सरदारों के हाथों में आ गई वैसे छोटे-छोटे राज्यों में राजा जिसकी सर्वोच्च मानी जाती थी परंतु शक्ति सामंत सरदारों के हाथ में ही रही। जनसाधारण के कृषि दासों के रूप में खेतों पर घोर परिश्रम करते थे। और उनका जीवन जमीदारों के अधीन था। सामंत सरदारों के अलावा धार्मिक तंत्र के उच्चाधिकारियों विशेषता पूर्व के हाथों में भी विस्तृत शक्तियां आ गई थी। चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगे और तब राजतंत्र की शक्ति को पुनर्जीवित किया गया। उन्हें दिनों वाणिज्य व्यापार और उद्योग के विकास के कारण भी जमीदारों की शक्ति को चुनौती दी जाने लगी। आधुनिक राष्ट्र राज्य- 15वीं और 16वीं शताब्दी से यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हुआ तब जमीदारों और धर्म अधिकारियों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और नए आर्थिक संबंधों के अलावा लोग राष्ट्रीय भाषा और संस्कृति की एकता तथा देश की प्राकृतिक सीमाओं इत्यादि के विचार से अस्थाई समूह के रूप में जुड़ गए थे। इस तरह पहले फ्रांस स्पेन इंग्लैंड स्विट्जरलैंड नीदरलैंड रूस इटली और जर्मनी में राष्ट्र राज्यों का विकास हुआ। प्रारंभिक राज्यों में राजतंत्र का बोलबाला था जिसमें सारी सत्ता किसी राजा के हाथों में रहती थी परंतु 18वीं शताब्दी में यूरोप में संवैधानिक शासन का उदय हुआ सर्वप्रथम इंग्लैंड में गौरव क्रांति के अंतर्गत शांतिपूर्ण तरीके से संसद के हाथों में अधिकार प्राप्त हो गए इसके लिए फ़्रांस मे फ्रांसीसी क्रांति के अंतर्गत हिंसा का सहारा लेना पड़ा 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान उपनिवेशवाद का सहारा लिया गया इस दौर में ब्रिटेन फ्रांस बेल्जियम और लैंड पुर्तगाल स्पेन इत्यादि ने एशिया अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के क्षेत्रों पर अपनी उपनिवेशवाद का जाल फैला कर उनका भरपूर दोहन किया दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात उपनिवेशवाद का पतन होना शुरू हो गया और विश्व के क्षितिज पर नए नए राष्ट्र राज्य उदित हुए। मैकियावेली की राज्य की अवधारणा कई राजनीतिक दार्शनिकों की मान्यता है कि सबसे पहले निकोलो मैकियावेली के लेखन में आधुनिक अर्थों में राज्य के प्रयोग को देखा जा सकता है। 1532 में प्रकाशित अपनी विख्यात रचना द प्रिंस में उन्होंने 'स्टेटो' (या राज्य) शब्द का प्रयोग भू-क्षेत्रीय सम्प्रभु सरकार का वर्णन करने के लिए किया। मैकियावेली की एक अन्य रचना 'द डिस्कोर्सिज़' की विषय-वस्तु अलग है, लेकिन बुनियादी वैचारिक आधार उसका भी द प्रिंस जैसा ही है। मैकियावेली के अनुसार राजशाही में केवल प्रिंस ही स्वाधीन है, पर गणराज्य में हर व्यक्ति प्रिंस है। उसे अपनी सुरक्षा, स्वतंत्रता और सम्पत्ति बचाने के लिए वैसे ही कौशल अपनाने का अधिकार है। मैकियावेली के अनुसार गणराज्य में प्रिंस जैसी ख़ूबियों को सामूहिक रूप से विकसित करने की ज़रूरत है, और ये ख़ूबियाँ मित्रता और परोपकार जैसे पारम्परिक सद्गुणों के आधार पर नहीं विकसित हो सकतीं। गणराज्य में हर व्यक्ति नाम और नामा हासिल करने के मकसद से दूसरे के साथ खुले मंच पर सहयोग करेगा। मैकियावेली मानते थे कि राजशाही के मुकाबले गणराज्य अधिक दक्षता से काम कर सकेगा, उसमें प्रतिरक्षा की अधिक क्षमता होगी और वह युद्ध के द्वारा अपनी सीमाओं का अधिक कुशलता से विस्तार कर सकेगा। मैकियावेली के अनुसार यह सब करने की प्रक्रिया में ही शक्तिशाली, अदम्य और आत्म-निर्भर व्यक्तियों की रचना हो सकेगी। ऐसे गणराज्यों को निरंकुशता में बदलने से कैसे रोका जा सकेगा? मैकियावेली इसके लिए दो शर्तें पेश करते हैं : हर गणराज्य को टिके रहने के लिए ऐसा प्रबंध करना होगा जिसमें हर व्यक्ति दूसरे के साथ सृजनात्मक ढंग से होड़ कर सके, किसी एक व्यक्ति को इतनी शक्ति अर्जित करने से रोकना होगा कि वह दूसरों पर प्रभुत्व जमा सके। उच्च- कुलीन अभिजनों या व्यापारिक प्रभुवर्ग और आम जनता के बीच प्रभुत्व को लेकर संघर्ष होता रहेगा जिनके गर्भ से गणराज्य को नयी ऊर्जा मिलेगी और अच्छे कानूनों का जन्म होगा, बशर्ते बेहतर राजनीतिक संस्थाओं के ज़रिये उन संघर्षों को काबू में रखा जा सके। कानून ऐसे होने चाहिए जिनकी जानकारी लोगों के सामने साफ़ कर सके कि गणराज्य में वे क्या-क्या बेखटके कर सकते हैं, और क्या करने पर उन्हें दण्ड भोगना होगा। आर्थिक समृद्धि की इजाज़त होनी चाहिए, पर निजी स्तर पर अत्यधिक सम्पत्ति अर्जित करने पर कानूनन रोक होनी चाहिए। नागरिक गुणों के विकास के लिए राज्य का एक धर्म होना चाहिए, पर मैकियावेली ईसाई धर्म को यह हैसियत देने के लिए तैयार नहीं थे। फ्लोरेंस की प्रतिरक्षा करने के अपने अनुभव के आधार पर मैकियावेली ने निष्कर्ष निकाला था, कि गणराज्य को आक्रमणों से बचाने के लिए नागरिकों की सेना होना चाहिए। क्वेंटिन स्किनर मानते हैं कि मैकियावेली ने जब राज्य की चर्चा की तो वे एक प्रिंस के राज्य की बात कर रहे थे। वह उस अर्थ में निर्वैयक्तिक नहीं था, जिस अर्थ में आज इसका प्रयोग किया जाता है। युरोपीय आधुनिकता के शुरुआती दौर में चर्च और राजा दोनों के पास ही राजनीतिक शक्ति होती थी और दोनों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ भी होती थीं। इससे चर्च और राजा के बीच युद्ध की भी सम्भावना बनी रहती थी। 1648 में तीस वर्षीय युद्ध के बाद वेस्टफ़ेलिया की संधि हुई। इसने चर्च की शक्ति कम की और राजा को उसके अपने क्षेत्र में प्राधिकार दिया। इसने अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रभु राज्यों के अस्तित्व को स्वीकार किया। हॉब्स की राज्य की अवधारणा दार्शनिक स्तर पर समाज के लिए राज्य की अनिवार्यता स्थापित करने का श्रेय सत्रहवीं सदी के विचारक थॉमस हॉब्स और उनकी रचना लेवायथन को जाता है। इस पुस्तक के पहले संस्करण के आवरण पर एक दैत्याकार मुकुटधारी व्यक्ति का चित्र उकेरा गया था जिसकी आकृति छोटी-छोटी मानवीय उँगलियों से बनी थी। इस दैत्याकार व्यक्ति के एक हाथ में तलवार थी, और दूसरे में राजदण्ड। दरअसल, हॉब्स इस भौतिकवादी और आनंदवादी विचार के प्रतिपादक थे कि मनुष्य का उद्देश्य अधिकतम आनंद और कम से कम पीड़ा भोगना है। अगर दूसरे के आनंद में मनुष्य को सुख मिल सकता है, तो हॉब्स के अनुसार वह परोपकार के लिए  भी सक्षम है। लेकिन, अगर संसाधन कम हुए या किसी किस्म का भय हुआ, तो मनुष्य आत्मकेंद्रित और तात्कालिक आग्रहों के अधीन हो कर परोपकार को मुल्तवी कर देगा। ऐसी स्थिति में उसे अपने ऊपर किसी सरकार का नियंत्रण चाहिए, वरना वह अपने सुख को अधिकतम और दुःख को न्यूनतम करने का अबाध प्रयास करते हुए सभ्यता और संस्कृति से हीन प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगा। जो कुछ उसके पास है, उसे खोने के डर से मनुष्य शक्ति के एक मुकाम से दूसरे मुकाम तक पहुँचने की कोशिशों में लगा रहेगा जिसका अंत केवल उसकी मृत्यु से ही हो सकेगा। अगर मज़बूत राज्य ने उसकी इन कोशिशों को संयमित न किया तो मानव जाति प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगी जहाँ हर व्यक्ति दूसरे के दुश्मन के रूप में परस्पर विनाशकारी गतिविधियों में लगा होगा। मनुष्य को नियंत्रित करने वाला यही परम शक्तिशाली और सर्वव्यापी राज्य हॉब्स के शब्दों में लेवायथन है। हॉब्स को कोई शक नहीं था कि अगर यह दैत्याकार हस्ती लेवायथन मनुष्य को शासित नहीं करेगी तो वह शांति और व्यवस्था हासिल करने के तर्कसंगत निर्णय पर नहीं पहुँच सकता। उस सूरत में मनुष्य एक-दूसरे को हानि न पहुँचाने के परस्पर अनुबंध पर भी नहीं पहुँच पायेगा। तर्कों की यह शृंखला हॉब्स को दिखाती है कि मनुष्य एक सामाजिक समझौते के तहत एक समाज रचता है जिसमें हर कोई अपना हित साधना चाहता है और इसीलिए दूसरों से करार करता है कि वह किसी दूसरे के हित पर चोट नहीं करेगा बशर्ते बदले में उसके हित पर चोट न की जाए। हॉब्स का विचार था कि इस समझौते का उल्लंघन न हो, इसलिए एक सम्प्रभु सत्ता की ज़रूरत पड़ेगी ताकि सार्वजनिक शांति और सुरक्षा की गारंटी की जा सके।  यह सम्प्रभु केवल ताकत के डर से ही अपनी सत्ता लागू नहीं करेगा। हॉब्स ने लेवायथन के दूसरे अध्याय ‘ऑफ़ द कॉमनवेल्थ’ में कई तरह के सम्भव संवैधानिक रूपों की चर्चा की है। लेकिन, सिद्धांततः हॉब्स अविभाजित सत्ता के पक्ष में नज़र आते हैं। इसके लिए उन्हें राजशाहीनुमा सत्ता की वकालत करने में भी कोई हर्ज नहीं लगता। हॉब्स की निगाह में यह सम्प्रभु निरंकुश नहीं होगा क्योंकि स्वयं को कायम रखने लायक परिस्थितियाँ सुनिश्चित करने के लिए उसे अपनी प्रजा को एक हद तक (आंतरिक खतरे और बाह्य अशांति से उसे सुरक्षित रखने के उद्देश्यों के मुताबिक) आज़ादी भी देनी होगी। भौतिक जिन्सों और समृद्धि का वितरण इस तरह सुनिश्चित करना होगा जिससे उस टकराव के अंदेशे हमेशा ठण्डे होते रहें जो परस्पर लेन-देन की प्रक्रिया से अक्सर पैदा होता रहता है। हॉब्स का विचार था कि धर्म निजी मामला है, पर उसके सार्वजनिक पहलुओं को पूरी तरह राज्य के मुखिया के फ़ैसले पर छोड़ देना चाहिए। राज्य का मुखिया ही चर्च का मुखिया होना चाहिए। बाइबिल जिन मामलों में स्पष्ट निर्देश नहीं देती, वहाँ राज्य के मुखिया का निर्देश अंतिम समझा जाना चाहिए। अपने इन्हीं विचारों के कारण हॉब्स ने कैथॅलिक चर्च को अंधकार के साम्राज्य की संज्ञा दी, क्योंकि वह अपने अनुयायियों से राज्य के प्रति वफ़ादारी से भी परे जाने वाली वफ़ादारियों की माँग करता है। उन्होंने शुद्धतावादियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी जो अंतःकरण के आधार पर राज्य के ख़िलाफ़ खड़े होने की अपील करते थे। हॉब्स का मतलब साफ़ था कि अगर शांति-व्यवस्था के साथ रहना है तो राजकीय प्राधिकार के उल्लंघन से बाज़ आना होगा। ज़रूरी नहीं कि राज्य की सम्प्रभुता का प्रतीक कोई व्यक्ति ही हो। वह किसी सभा और किसी संसद की सम्प्रभुता भी हो सकती है। इस लिहाज़ से हॉब्स के सिद्धांत में संसदीय सम्प्रभुता के लिए भी गुंजाइश है। हॉब्स द्वारा पेश किये गये राज्य संबंधी सिद्धांत ने बाद के युरोपीय चिंतकों को प्रभावित करना जारी रखा। इस प्रक्रिया में एक सामान्य समझ उभरी जिसके मुताबिक राज्य राजनीतिक संस्थाओं का एक ऐसा समुच्चय माना गया जो एक निश्चित सीमाबद्ध भू-क्षेत्र में मुश्तरका हितों के नाम पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। यह परिभाषा मैक्स वेबर की उस व्याख्या से बहुत प्रभावित है जो उन्होंने अपनी रचना ‘दि प्रोफ़ेशन ऐंड वोकेशन ऑफ़ पॉलिटिक्स’ में पेश की थी। इसमें वेबर ने आधुनिक राज्य के तीन पहलू बताये थे : उसकी भू-क्षेत्रीयता, हिंसा करने का उसका अधिकार और वैधता। वेबर का तर्क  था कि अगर किसी सुनिश्चित भू-भाग में रहने वाले समाज में कोई संस्था हिंसा का डर दिखा कर लोगों से किन्हीं नियम-कानूनों का पालन नहीं करायेगी तो अराजकता फैल जाएगी। वेबर ने इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश भी की है कि आख़िर लोग राज्य की बात क्यों मानते हैं? क्या केवल हिंसा के दम पर? या आज्ञापालन का कोई तर्क भी होता है? वेबर का जवाब यह है कि हिंसा का डर दिख़ाने के साथ-साथ राज्य अपने प्रभुत्व को वैध साबित करने की कवायद भी करता है ताकि आज्ञापालन का अहिंसक औचित्य प्रमाणित किया जा सके। मिशेल फूको की राज्य की अवधारण देखें, मिशेल फूको की राज्य की अवधारणा राज्य की मार्क्सवादी अवधारणा राज्य की प्राचीन भारतीय अवधारणा ''' सन्दर्भ 1. क्यू.आर.डी. स्किनर (1978), मैकियावेली, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड. 2. एस. पीटर डोनाल्डसन (1989), मैकियावेली ऐंड मिस्ट्री ऑफ़ स्टेट, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज. 3. क्वेंटिन स्किनर (1996), रीज़न ऐंड रेटरिक इन द फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ हॉब्स, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज. 4. एस. टर्नर 92000), द केम्ब्रिज कंपेनियन टु वेबर, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज. 5. जे. बरनौर और डी. रैसमुसेन (सम्पा.) (1998), द फ़ाइनल फ़ूको, एमआइटी प्रेस, केम्ब्रिज. 6. के. डायसन (1980), द स्टेट ट्रेडिशन इन वेस्टर्न युरोप, मार्टिन राबर्टसन, ऑक्सफ़र्ड. 7. डेविड हेल्ड (1998), पॉलिटिकल थियरी ऐंड मॉडर्न स्टेट, वर्ल्ड व्यू-माया पब्लिशर्स, नयी दिल्ली. 8. स्वाहा दासा (2011), ‘राज्य’, संकलित, राजीव भार्गव और .) इन्हें भी देखें राज्य की भारतीय अवधारणा मिशेल फूको की राज्य की अवधारणा राज्य की मार्क्सवादी अवधारणा संप्रभु राज्य सामाजिक संविदा का सिद्धान्त राष्ट्र भारत के राज्य बाहरी कड़ियाँ राज्य का अर्थ और परिभाषा क्या है राज्य ओर समाज में अंतर राज्य के जरूरी तत्व प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामशरण शर्मा) भारत के सभी राज्यों के जिले प्रशासनिक विभाग प्रशासन
1707
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शिमला भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के शिमला ज़िले में स्थित एक नगर है। यह राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा नगर है। यह शिमला ज़िले का मुख्यालय भी है। सन् 1864 से 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक यह भारत में ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी था। शिमला उत्तर भारत के सबसे लोकप्रिय हिल स्टेशन में से एक है और इसे "पहाड़ों की रानी" भी कहा जाता है। विवरण शिमला के दक्षिण-पूर्व में उत्तराखण्ड राज्य, उत्तर में मण्डी और कुल्लू, पूर्व में किन्नौर, दक्षिण में सिरमौर और पश्चिम में सोलन जिलों से घिरा हुआ है। 1864 में, शिमला को भारत में ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया था। राज के साथ साथ यह ब्रिटिश भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ का मुख्यालय और 1876 के बाद से पंजाब प्रान्त की भी ग्रीष्ममकालीन राजधानी थी। स्वतंत्रता के बाद, शिमला नगर पूर्वी पंजाब राज्य की राजधानी बन गया और बाद में हिमाचल प्रदेश के गठन पर इसे राज्य की राजधानी घोषित कर दिया गया। एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल, शिमला को अक्सर "पहाड़ों की रानी" के नाम से भी जाना जाता है। यह राज्य का प्रमुख वाणिज्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र है। 1815 से पहले क्षेत्र में कुछ बस्तियों के विवरण दर्ज हैं, जब ब्रिटिश सेना ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। हिमालय के घने जंगलों में स्थित इस क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियों ने शहर की स्थापना के लिए अंग्रेजों को आकर्षित किया। ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में, शिमला ने 1914 के शिमला समझौते और 1945 के शिमला सम्मेलन सहित कई महत्वपूर्ण राजनीतिक बैठकों की मेजबानी की। स्वतंत्रता के बाद, 28 रियासतों के एकीकरण के परिणामस्वरूप 1948 में हिमाचल प्रदेश राज्य अस्तित्व में आया। स्वतंत्रता के बाद भी, शहर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र बना रहा, और इसने 1972 के शिमला समझौते की मेजबानी। हिमाचल प्रदेश राज्य के पुनर्गठन के बाद, मौजूदा महासू जिले का नाम शिमला रखा गया। शिमला में अनेकों इमारतें स्थित हैं, जिनमें औपनिवेशिक युग के समय की ट्यूडरबेटन और नव-गॉथिक वास्तुकला के साथ-साथ कई मन्दिर और चर्च शामिल हैं। ये ब्रिटिशकालीन इमारतें तथा चर्च और शहर का प्राकृतिक वातावरण बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है। शहर के प्रमुख आकर्षणों में वाइसराय लॉज, क्राइस्ट चर्च, जाखू मन्दिर, माल रोड और रिज शामिल हैं, जो सभी एक साथ मिलकर शहर के केंद्र का निर्माण करते हैं। यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित ब्रिटिश-निर्मित कालका-शिमला रेलवे लाइन भी एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है। अपने कठोर इलाके के कारण, शिमला माउंटेन बाइकिंग रेस एमटीबी हिमालय की मेजबानी करता है, जो सर्वप्रथम 2005 में शुरू हुआ और दक्षिण एशिया में अपनी तरह का सबसे बड़ा आयोजन माना जाता है। शिमला में दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक आइस स्केटिंग रिंक भी है। एक प्रमुख पर्यटन केंद्र होने के अलावा, यह शहर कई कॉलेजों और शोध संस्थानों के साथ एक शैक्षिक केंद्र भी है। इतिहास वर्तमान शिमला नगर जहाँ स्थित है, वह तथा उसके आस-पास का अधिकांश क्षेत्र 18 वीं शताब्दी के अंत तक घने वनों से भरा हुआ था। पूरे क्षेत्र में बसावट के नाम पर केवल जाखू मन्दिर तथा इसके इर्द-गिर्द स्थित कुछ बिखरे हुए घर ही थे। श्यामला देवी, जिन्हें देवी काली का एक अवतार माना जाता है, के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम 'शिमला' रखा गया था। क्षेत्र पर 1806 में नेपाल के भीमसेन थापा ने आक्रमण कर कब्जा कर लिया था। तत्प्श्चात ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गोरखा युद्ध (1814-16) में नेपाल पर विजय प्राप्त करने के बाद सुगौली संधि के अंतर्गत इस क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। 30 अगस्त 1817 को इस क्षेत्र का सर्वेक्षण करने वाले गेरार्ड बंधुओं ने अपनी डायरी में शिमला को "एक मध्यम आकार का गाँव" बताया, जहाँ "यात्रियों को पानी पिलाने वाला एक फकीर रहता है।" 1819 में, लेफ्टिनेंट रॉस, जो हिल स्टेट्स में सहायक राजनीतिक एजेंट थे, ने शिमला में एक लकड़ी का कॉटेज स्थापित किया। इसके तीन साल बाद, उनके उत्तराधिकारी और स्कॉटिश सिविल सेवक चार्ल्स प्रैट कैनेडी ने 1822 में क्षेत्र में वर्तमान हिमाचल प्रदेश विधान सभा भवन के निकट क्षेत्र का पहला पक्का घर बनाया। धीरे धीरे क्षेत्र की ठंडी जलवायु, सुरम्य प्राकृतिक दृश्य, हिमाच्छादित पहाड़ियाँ, और चीड़ और देवदार के घने जंगल भारतीय गर्मियों के दौरान कई ब्रिटिश अधिकारीयों को आकर्षित करने लगे। और इस प्रकार 1826 तक, कुछ अधिकारियों ने तो अपनी पूरी छुट्टियां शिमला में ही बिताना शुरू कर दिया था। 1827 में, बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड एम्हर्स्ट शिमला के दौरे पर आये; जहाँ वह कैनेडी हाउस में रहे। इसके एक साल बाद, भारत में ब्रिटिश सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ लॉर्ड कॉम्बरमियर भी शिमला आये, और उसी स्थान पर रुके। अपने निवास के दौरान कॉम्बरमियर ने जाखू के पास एक तीन मील की सड़क और एक पुल का निर्माण करवाया था। 1830 में, अंग्रेजों ने केंथल और पटियाला के प्रमुखों से सोलन जिले के रवीन और कांगड़ा जिले के भारौली परगना के बदले शिमला के आस पास की जमीन का अधिग्रहण किया। इसके बाद शिमला का बहुत तेजी से विकास हुआ; 1830 में 30 घरों वाले इस नगर में 1881 में 1,141 घर बन चुके थे। 1832 में, शिमला ने अपनी पहली राजनीतिक बैठक देखी: तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड बैन्टिक और महाराजा रणजीत सिंह के दूतों के बीच। कर्नल चर्चिल को लिखे एक पत्र में बेंटिक ने लिखा: कॉम्बरमियर के उत्तराधिकारी अर्ल डलहौजी ने भी उसी वर्ष शिमला का दौरा किया। इस समय तक तो ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल और कमांडर-इन-चीफ नियमित रूप से शिमला आने-जाने लगे थे। इन लोगों के साथ मिलने जुलने के लिए कई युवा ब्रिटिश अधिकारी इस क्षेत्र में जाने लगे; और फिर उनके पीछे पीछे कई महिलाओं ने भी अपने रिश्तेदारों के लिए शादी के गठजोड़ की तलाश में शिमला आना शुरू किया। इस प्रकार शिमला पार्टियों और अन्य उत्सवों के लिए प्रसिद्ध हिल स्टेशन बन गया। इसी समय में उच्च वर्ग के परिवारों के विद्यार्थियों के लिए पास के क्षेत्र में आवासीय विद्यालय स्थापित किए गए। 1830 के दशक के अंत तक, शहर थिएटर और कला प्रदर्शनियों का केंद्र भी बन गया। आबादी बढ़ने के साथ-साथ, शहर भर में कई बंगले बनाए गए, और कस्बे में एक बड़ा बाजार स्थापित किया गया। बढ़ती यूरोपीय आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी संख्या में भारतीय व्यापारी, मुख्य रूप से सूद और पारसी समुदायों से, इस क्षेत्र में पहुंचने लगे। 9 सितंबर 1844 को क्राइस्ट चर्च की नींव रखी गई थी। इसके बाद, कई सड़कों को चौड़ा किया गया और 1851-52 में 560 फीट की एक सुरंग वाली हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क का निर्माण किया गया। यह सुरंग, जिसे अब धल्ली सुरंग के रूप में जाना जाता है, 1850 में एक मेजर ब्रिग्स द्वारा शुरू की गई थी और 1851-52 की सर्दियों में पूरी हुई थी। 1857 के विद्रोह से शहर के यूरोपीय निवासियों में खलबली मच गई, हालाँकि शिमला विद्रोह से अप्रभावित रहा था। 1863 में, भारत के तत्कालीन वायसराय, जॉन लॉरेंस ने ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी को शिमला में स्थानांतरित करने का फैसला किया। इस तथ्य के बावजूद कि कलकत्ता और इस अलग केंद्र के बीच 1,000 मील की दूरी थी, उन्होंने एक वर्ष में दो बार प्रशासन को स्थानांतरित करने की परेशानी उठाने का निर्णय लिया। लॉर्ड लिटन (भारत के वायसराय; 1876-1880) ने 1876 में शहर की योजना बनाने के प्रयास किए, जब वह पहली बार किराए के घर में रहे। उन्होंने ही ऑब्जर्वेटरी हिल पर बनाए गए वायसेग्रल लॉज के लिए योजना शुरू की। "अपर बाजार" नामक जिस क्षेत्र (जिसे आजकल द रिज के नाम से जाना जाता है) में मूल भारतीय आबादी रहती थी, एक आग की घटना की वजह से काफी प्रभावित हो गया। इसे ही यूरोपीय शहर का केंद्र बनाने की पूर्वी छोर की योजना के कारण बचे खुचे भारतीय लोगों को निचले इलाकों पर मध्य और निचला बाज़ारों में जाने के लिए मजबूर कर दिया गया। इसके बाद ऊपरी बाजार को साफ कर लाइब्रेरी और थिएटर जैसी कई सुविधाओं वाले पुलिस और सैन्य स्वयंसेवकों के साथ-साथ नगरपालिका प्रशासन के लिए एक टाउन हॉल का निर्माण किया गया था। गोरखा युद्ध के बाद सैनिक टुकड़ियों के सुरक्षित जगह पर आराम के लिये 1819 में शिमला की स्थापना की गई थी। शिमला इन्हीं कारणों से यह भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करता था। 1864 में शिमला को अंग्रेजों की राजधानी बनाया गया था। शिमला एक पर्यटक स्थल के रूप में भी मशहूर है। शिमला की खोज अंग्रेजों ने सन् 1819 में की थी। चार्ल्स कैनेडी ने यहाँ पहला ग्रीष्‍मकालीन घर बनाया था। जल्दी ही शिमला लॉर्ड विलियम बेन्टिन्क की नज़रों में आ गया, जो कि 1828 से 1835 तक भारत के गवर्नर जनरल थे। १९ वीं सदी के अतं में यहाँ ब्रिटिश वाइसरॉय के आवास (राष्ट्रपति निवास) का निर्माण हुआ था। आजकल इसमें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी है। भूगोल तथा जलवायु शिमला हिमालय की दक्षिण-पश्चिमी श्रेणियों पर पर स्थित है। यह समुद्र तल से की औसत ऊँचाई पर है और सात स्कन्धों वाले एक टीले पर फैला हुआ है। शिमला शहर पूर्व से पश्चिम तक लगभग लम्बा है। शिमला को सात पहाड़ियों के ऊपर बनाया गया था: इनवर्म हिल, ऑब्जर्वेटरी हिल, प्रॉस्पेक्ट हिल, समर हिल, बैंटोनी हिल, एलिसियम हिल और जाखू हिल। शिमला में उच्चतम बिंदु जाखू पहाड़ी है, जो की ऊँचाई पर है। यह शहर कालका के उत्तर में, चण्डीगढ़ के उत्तर-पूर्व में, मनाली के दक्षिण में, और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के उत्तर पूर्व में स्थित है। शिमला से दिल्ली और मनाली दोनों लगभग 7 घंटे की दूरी पर हैं। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार, यह शहर भूकम्पीय क्षेत्र 4 (हाई डैमेज रिस्क जोन) के अन्तर्गत आता है। कमजोर निर्माण तकनीक और बढ़ती आबादी पहले से ही भूकंप की आशंका वाले इस क्षेत्र के लिए एक गंभीर खतरा है। मुख्य शहर के समीप कोई भी जल निकाय स्थित नहीं हैं; निकटतम नदी सतलुज है, जो शहर से लगभग दूर बहती है। गिरि और पब्बर (दोनों यमुना की सहायक नदियाँ) अन्य नदियाँ हैं, जो शिमला जिले से होकर बहती हैं। शिमला योजना क्षेत्र में ग्रीन बेल्ट में फैला हुआ है। शहर और उसके आसपास में मुख्यतः चीड़, देवदार, बाँज और बुरांश के वन पाए जाते हैं। बिना आधारभूत संरचना के हर साल पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण पर्यावरणीय क्षरण के कारण शिमला की इकोटूरिज्म स्पॉट के रूप में इसकी पहचान लुप्त होने की कगार पर है। क्षेत्र की एक अन्य चिंता भूस्खलनों की लगातार बढ़ती संख्या है, जो अक्सर भारी बारिश के बाद होती है। कोपेन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार शिमला की जलवायु उपोष्णकटिबंधीय उच्चभूमि (Cwb) है। यह जलवायु मुख्यतः सर्दियों के मौसम में काफी ठंडी, और गर्मियों के मौसम में मध्यम रूप से गर्म रहती है। तापमान आमतौर पर एक वर्ष के दौरान से के बीच होता है। गर्मियों के मौसम में औसत तापमान के बीच, और सर्दियों में के बीच होता है। मासिक वर्षा में अंतर नवंबर में और अगस्त में के बीच होता है। यह आमतौर पर सर्दियों और वसंत के दौरान प्रति माह और जून के महीने में मानसून के आगमन के कारण के आसपास होती है। नगर की औसत वार्षिक वर्षा है, जो अधिकांश अन्य हिल स्टेशनों की तुलना में बहुत कम है, लेकिन मैदानी इलाकों की तुलना में बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में बर्फबारी, जो ऐतिहासिक रूप से दिसंबर के महीने में हुई है, हाल ही में (पिछले पंद्रह वर्षों में) हर साल जनवरी या फरवरी की शुरुआत में हो रही है। हाल के दिनों में प्राप्त अधिकतम बर्फबारी 18 जनवरी 2013 को थी। लगातार दो दिनों (17 और 18 जनवरी 2013) को, शहर में हिमपात हुआ। संस्कृति शिमला के लोगों को अनौपचारिक रूप से "शिमलावासी" के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ विभिन्न त्यौहारों को मनाया जाता है, जिनमें 3-4 दिनों तक चलने वाला शिमला समर फेस्टिवल प्रमुख है, जो कि हर वर्ष पीक पर्यटन सीजन के दौरान रिज पर आयोजित किया जाता है। इसका मुख्य आकर्षण देश भर के लोकप्रिय गायकों द्वारा प्रदर्शन है। 2015 से, 95.0 बिग एफएम और हिमाचल टूरिज्म द्वारा हर साल संयुक्त रूप से क्रिसमस से नए साल तक रिज पर सात-दिवसीय लंबे शीतकालीन कार्निवल का आयोजन किया जा है। शिमला में घूमने लायक कई जगहें हैं। मॉल और रिज जैसे स्थानीय हैंगआउट शहर के केंद्र में हैं। शहर की अधिकांश धरोहर इमारतें अपने मूल 'टुडोरबथन' वास्तुकला में संरक्षित हैं। पूर्व वायसेग्रल लॉज, जो अब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान है, और वाइल्डफ्लावर हॉल, जो अब एक प्रमुख होटल है, ऐसी कुछ प्रसिद्ध इमारतें हैं। राज्य संग्रहालय (1974 में निर्मित) में इस क्षेत्र के चित्रों, आभूषणों और वस्त्रों का संग्रह पाया जा सकता है। लक्कड़ बाजार, जो रिज से आगे को स्थित है, स्मृति चिन्हों और लकड़ी से बने शिल्पों के लिए प्रसिद्ध है। मुख्य शहर से 55 किलोमीटर (34.2 मील) की दूरी पर सतलुज नदी के तट पर तत्तापानी नामक गर्म सल्फर चश्मे स्थित हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे औषधीय महत्त्व रखते हैं। शिमला में कई मंदिर हैं और यहाँ अक्सर आसपास के ग्रामों और शहरों से भक्त दर्शन करने आते है। काली देवी को समर्पित एक मंदिर मॉल के पास ही स्थित है। हनुमान को समर्पित जाखू मंदिर शिमला में सबसे उच्चतम चोटी पर स्थित है। शहर से लगभग शिमला-कालका राजमार्ग पर संकट मोचन नामक एक और हनुमान जी का मंदिर स्थित है, जो इसके आसपास के क्षेत्रों में पाए जाने वाले कई बंदरों के लिए प्रसिद्ध है। यह है। नज़दीक ही स्थित तारा देवी का मंदिर वहां आयोजित होने वाले अनुष्ठान और त्योहारों के लिए जाना जाता है। अन्य प्रमुख धार्मिक स्थलों में बस टर्मिनल के पास स्थित एक गुरुद्वारा और रिज पर स्थित क्राइस्ट चर्च शामिल हैं। शिमला में निर्मित कला और शिल्प उत्पादों की पर्यटकों में अत्यधिक मांग रहती है। यहाँ उत्कृष्ट आभूषणों, कढ़ाई वाले शॉल और कपड़ों से लेकर चमड़े की वस्तुओं और मूर्तियां तक ​​कई चीज़ें बनाई जाती हैं। शिमला के आस पास चीड़ और देवदार के पेड़ भी बहुतायत में मिलते हैं। शिमला की सभी प्रमुख इमारतों में इन पेड़ों की लकड़ी का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। लकड़ी से बने शिमला के विभिन्न प्रकार के शिल्पों में छोटे बक्से, बर्तन, छवि नक्काशी और स्मृति चिह्न शामिल हैं। शिमला के कालीन भी सैलानियों के लिए एक बड़ा आकर्षण हैं। इनके निर्माण में विभिन्न पुष्प और अन्य रूपांकनों का उपयोग किया जाता है। ऊन का उपयोग कंबल और कालीन बनाने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ के रूमाल, हाथ के पंखे, दस्ताने और टोपी इस्यादि भी प्रसिद्ध हैं। शिमला में दक्षिण एशिया की एकमात्र प्राकृतिक आइस स्केटिंग रिंक भी है। इस स्थल पर अक्सर राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। आइस स्केटिंग का मौसम आमतौर पर दिसंबर की शुरुआत में शुरू होता है और फरवरी के अंत तक चलता है। शिमला आइस स्केटिंग क्लब, जो रिंक का प्रबंधन करता है, हर साल जनवरी में एक कार्निवल की मेजबानी करता है, जिसमें एक फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता और फिगर स्केटिंग इवेंट शामिल हैं। शिमला और उसके आसपास ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ते शहरी विकास के प्रभावों के कारण, पिछले कुछ वर्षों में हर सर्दियों में इन बर्फीले स्तरों की संख्या कम हो रही है। स्केटिंग रिंक के अतिरिक्त शहर में इंदिरा गांधी राज्य खेल परिसर जैसे क्रीड़ास्थल भी हैं। शहर से आगे नालदेहरा नौ-होल गोल्फ कोर्स है, जो भारत में अपनी तरह का सबसे पुराना है। कुफरी एक स्की रिसॉर्ट (केवल शीतकालीन) है जो मुख्य शहर से की दूरी पर स्थित है। शिमला की संस्कृति हालाँकि धार्मिक और अज्ञेय किन्नौरी लोगों तक खो जाती है, जो शहर की भीड़-भाड़ से दूर रहते हैं। जनसांख्यिकी 2011 की भारत की जनगणना के अनुसार, 35.34 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैले शिमला शहर की आबादी 169,578 है, और यहाँ 93,515 पुरुष और 76,426 महिलाऐं रहती हैं। 2011 की जनगणना के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार, शिमला महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या 171,817 है, जिसमें से पुरुषों की संख्या 94,797 और महिलाओं की संख्या 77,020 है। शहर की साक्षरता दर 93.63 प्रतिशत है, जबकि महानगरीय क्षेत्र की दर 94.14 प्रतिशत है। समय बीतने के साथ साथ नगर क्षेत्र में भी काफी वृद्धि हुई है। यह एक तरफ हीरानगर से धौली तक और दूसरी ओर तारा देवी से मलाणा तक फैला हुआ है। 2001 की भारत की जनगणना के अनुसार, शहर की जनसंख्या 142,161 थी, और यह नगर 19.55 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ था। 75,000 की अस्थायी आबादी तो पर्यटन जैसे सेवा उद्योगों के कारण ही गिनी जाती है। सबसे बड़ा जनसांख्यिकीय गुट 16-45 वर्ष का आयुवर्ग है, जो कुल जनसंख्या का 55% है। लगभग 28% आबादी 15 साल से छोटी है। नगर का निम्न लिंगानुपात - 2001 में प्रत्येक 1,000 लड़कों के लिए 930 लड़कियां - चिंता का कारण है, और समग्र रूप से हिमाचल प्रदेश राज्य के 974 बनाम 1,000 की तुलना में बहुत कम है। शहर की बेरोजगारी दर 1992 में 36% से घटकर 2006 में 22.6% हो गई है। इस गिरावट का श्रेय हाल के औद्योगीकरण, सेवा उद्योगों की वृद्धि और ज्ञान विकास को दिया जाता है। शिमला की साक्षरता दर 93.6% है। पुरुषों में यह दर 94.7% जबकि महिलाओं में 95.12% है। शिमला की अधिकांश आबादी हिमाचल प्रदेश की ही मूल निवासी है। 2011 जनगणना के अनुसार, शहर का बहुसंख्यक धर्म हिन्दू धर्म है, जिसका पालन लगभग 93.5% आबादी द्वारा किया जाता है। नगर में इस्लाम (2.29%), सिख धर्म (1.95%), बौद्ध धर्म (1.33%), ईसाई धर्म (0.62%), और जैन धर्म (0.10%) के अनुयायी भी रहते हैं। हिंदी शहर की सम्पर्क भाषा है - यह शहर में बोली जाने वाली और आधिकारिक उद्देश्यों के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली भाषा है। अंग्रेजी भी एक बड़ी आबादी द्वारा बोली जाती है, और शहर की दूसरी आधिकारिक भाषा है। हिंदी के अलावा, पहाड़ी भाषाएँ जातीय पहाड़ी लोगों द्वारा बोली जाती हैं, जो शहर में स्थानीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं। शहर की जातीय पंजाबी प्रवासी आबादी के बीच पंजाबी भाषा प्रचलित है, जिनमें से अधिकांश पश्चिम पंजाब के शरणार्थी हैं, जो 1947 में भारत के विभाजन के बाद शहर में बस गए थे। पर्यटन हिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है, जहां पूरे वर्ष ठण्‍डी हवाएं बहने का वरदान है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। इसके उत्तर में बर्फ मानों क्षितिज तक जमी हुई है। यहां ठण्‍डी हवाएं बहती है और ओक तथा रोडोडेंड्रॉन के वनों से गुजरती हैं। शिमला का सुखद मौसम, आसानी से पहुंच और ढेरों आकर्षण इसे उत्तर भारत का एक सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय स्‍थान बना देते हैं। रिज शहर के मध्य में एक बड़ा और खुला स्थान, जहां से पर्वत श्रंखलाओं का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है। यहां शिमला की पहचान बन चुका न्यू-गॉथिक वास्तुकला का उदाहरण क्राइस्ट चर्च और न्यू-ट्यूडर पुस्तकालय का भवन दर्शनीय है। मॉल शिमला का मुख्य शॉपिंग सेंटर, जहां रेस्तरां भी हैं। गेयटी थियेटर, जो पुराने ब्रिटिश थियेटर का ही रूप है, अब सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र है। कार्ट रोड से मॉल के लिए हि.प्र.प.वि.नि. की लिफ्ट से भी जाया जा सकता है। रिज के समीप स्थित लक्कड़ बाजार, लकड़ी से बनी वस्तुओं और स्मृति-चिह्नों के लिए प्रसिद्ध है। काली बाड़ी मंदिर यह मंदिर स्कैंडल प्वाइंट से जनरल पोस्ट ऑफिस से की ओर कुछ गज की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि यहां श्यामला देवी की मूर्ति स्थापित है। जाखू मंदिर (2.5 कि॰मी॰) 2455 मी. : शिमला की सबसे ऊंची चोटी से शहर का सुंदर नजारा देखा जा सकता है। यहां "भगवान हनुमान" का प्राचीन मंदिर है। रिज पर बने चर्च के पास से पैदल मार्ग के अलावा मंदिर तक जाने के लिए पोनी या टैक्सी द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। माना जाता है कि इस स्थान पर हनुमान जी ने लक्ष्मण जी के लिए जडी बुटी का पर्वत ले जाते समय विश्राम किया था। इसलिए भी यह मन्दिर प्रसिद्ध है। राज्य संग्रहालय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी प्रोस्पेक्ट हिल (5 कि॰मी॰) 2155 मी. : कामना देवी मंदिर को समर्पित यह हिल शिमला-बिलासपुर मार्ग पर बालुगंज से 15 मिनट की पैदल दूरी पर है। हिल से इस क्षेत्र का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। समर हिल (7 कि॰मी॰) 1983 मी. : शिमला-कालका रेलमार्ग पर एक सुंदर स्थान है। यहां के शांत वातावरण में पेड़ों से घिरे रास्ते हैं। अपनी शिमला यात्रा के दौरान राष्ट्पिता महात्मा गांधी राजकुमारी अमृत कौर के शानदार जार्जियन हाउस में रुके थे। यहां हिमाचल प्रदेश विश्वद्यालय है। चैडविक जलप्रपात (7 कि॰मी॰) 1586 मी. : घने जंगलों से घिरा यह स्थान समर हिल चौक से लगभग 45 मिनट की पैदल दूरी पर है। संकट मोचन (7 कि॰मी॰) 1975 मी. : शिमला-कालका सड़क मार्ग पर (रा.राज.-22) पर "भगवान हनुमान" का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां से शिमला शहर का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। यहां बस/टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है। तारादेवी (11 कि॰मी॰) 1851 मी. : शिमला-कालका सड़क मार्ग पर (रा.राज.-22) यह पवित्र स्थान के लिए रेल, बस और कार सेवा उपलब्ध है। स्टेशन/सड़क से पैदल अथवा जीप/टैक्सी द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। फागू यह शिमला के पास में स्थित एक शांत और खूबसूरत गांव है। इस गांव में आपको सेब के कई बागन मिल जाएंगे, इसके अलावा यह गांव अपने बर्फ से ढके हुए पहाड़ों के लिए भी प्रसिद्ध है। आप शिमला में जाकर यहां के गांव की प्राकृतिक सुंदरता के साक्षी हो सकते हैं, और गांव के लोगों के परंपरागत रहन-सहन से वाकिफ हो सकते हैं। कालका से शिमला के बीच के स्टेशन कालका टकसाल गुम्मन कोटी जाबली सनवारा धर्मपुर कुमारहट्टी बड़ोग सोलन सोलन ब्रूरी सलोगड़ा कंडाघाट कनोह कैथलीघाट शोधी तारादेवी जतोग समरहिल शिमला शिक्षा शहर में १४ आंगनबाड़ी और 63 प्राथमिक विद्यालय है। कई ब्रिटिश युग के स्कूल हैं। शहर में लोकप्रिय स्कूलों में बिशप कॉटन स्कूल, शिमला पब्लिक स्कूल, सेंट एडवर्ड स्कूल, तारा हॉल, डीएवी स्कूल, डीएवी न्यू शिमला, दयानंद पब्लिक स्कूल, ऑकलैंड स्कूल, लालपानी स्कूल प्रमुख हैं। केन्द्रीय विद्यालय, शिमला में बेहतरीन स्कूलों में से एक है। पहले यह हरकोर्ट बटलर स्कूल के नाम से जाना जाता था। शिमला में मेडिकल संस्थानों में इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज और दंत चिकित्सा महाविद्यालय हैं। इन्हें भी देखें शिमला ज़िला हिमाचल प्रदेश शिमला के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल वो पांच स्थान जो आपको बार बार शिमला आने के लिए कहेंगे। सन्दर्भ हिमाचल प्रदेश के शहर शिमला ज़िला शिमला ज़िले के नगर
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दुमका (Dumka) भारत के झारखंड राज्य के दुमका ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण दुमका झारखण्ड राज्य की उपराजधानी है साथ ही यह सन्थाल परगना प्रमंडल का मुख्यालय भी है। दुमका में दस प्रखंड हैं जो निम्नलिखित हैं : दुमका, गोपीकांदर, जामा, जरमुंडी, काठीकुंड, मसलिया, रामगढ़, रानेश्वर, शिकारीपाड़ा और सरैयाहाट। यहां के आदिवासियों में मुख्यत सन्थाल अदिवासी है। यहां पहाड़िया और मेलर घटवार जाति भी पाई जाती है। संथालों की बहुलता के कारण ही इस प्रमंडल का नाम सन्थाल परगना रखा गया है। 1855 में सन्थाल विद्रोह के बाद भागलपुर से काटकर इसे अलग जिला बनाया गया था। समय के साथ प्राचीन दुमका जिला से कटकर 5 और जिले बने है गोड्डा, देवघर, साहेबगंज, पाकुड़ और जामताड़ा। दुमका से 10 किलोमीटर कुमड़ाबाद नाम का गांव है, जो पूरी तरह नदी और पहाड़ से घेरा हुआ है, एक बड़ा सा राजमहल और आम के बड़े बड़े पेड़ सिर्फ इसी गांव में देखने को मिलेगा, सम्पूर्ण प्राकृतिक और मन को हरने वाला जगह है, यह बहुत दूर दूर से सैलानी आते है, ठण्ड के समय और नववर्ष में पिकनिक के लिए बहुत अच्छा जगह है। दुमका शब्द की उत्पत्ति दामिन -ई- कोह (अर्थात: पहाड़ का आंचल) शब्द से माना जाता है। इतिहास पाषाणकाल- खनन के प्राप्त औजारों से पता चला है कि यहां के मूल निवासी मोन-ख्मेर और मुंडा थे। प्राचीन इतिहास- इस जिले प्राचीन निवास पहाड़ी लोग थे। ग्रीक यात्री मेगास्थानीज ने इन्हें माली नाम से संबोधित किया। मध्यकालीन इतिहास- राजमहल की पहाड़ियों के घिरे होने के कारण दुमका जितना दुर्गम रहा है उतना है आर्थिक दृष्ट से अहम भी. 1539 में चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी की जीत के बाद यह क्षेत्र अफगानों के कब्जे में आ गया, लेकिन जब हुसैन कुली खान ने बंगाल पर जीत हासिल की तो यह क्षेत्र मुगल सम्राट अकबर के प्रभुत्व में आ गया। अंग्रेजी शासन- अंग्रेज प्रतिनिधि डॉ गैबरियल बोकलिटन ने शाहजहां से एक फरमान हासिल किया। 1742-1751- इस दौरान मराठा शासक राघोजी भोसले और पेशवा बालाजी राव यहां आते रहे. 1745: संथाल परगना के जंगलों और राजमहल की पहाड़ियों से राघोजी भोसले का दुमका में प्रवेश. 1769: बंगाल के बीरभूम जिले के अंतर्गत दुमका घाटवाली पुलिस थाना रह चुका है। 1775: दुमका को भागलपुर संभाग के अंतर्गत शामिल किया गया। 1865: दुमका को स्वतंत्र जिला बनाया गया। 1872: दुमका को संथाल परगना का मुख्यालय बनाया गया। 1889: यूरोपीय ईसाई उपदेशकों की गतिविधियाँ हुई। 1902: पहली नगरपालिका की स्थापना हुई। 1920: बसें व कार यहाँ चलने शुरु हुए। 1983: दुमका संथाल परगना का मुख्यालय बना। 2000: दुमका झारखंड राज्य की उप-राजधानी बना। लोग एवं संस्कृति शहरी आबादी भारत के किसी भी छोटे शहर की तरह की बसते और पर्व मनाते है। शहर में हर जाति धर्म और समुदाय के लोग बस्ते है। और आधुनिक जीवन जीते है। परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में मुख्यतः आदिवासी समाज के लोगो का बोलबाला है। जिनमे सन्थाल और पहाड़िया प्रमुख रहे हैं। यहाँ के आदिवासी भगवान सिंगबोंगा की पूजा करते है। ज्यादातर क्षेत्र वन से घिरे होने के वजह से यहाँ के लोग जंगलो पर आश्रित है, आदिवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाए जाने वाले पर्व में बन्धना, रास पर्व, सकरात, सोहराई आदि है। पर्यटन दुमका में पर्यटन के दृष्टिकोण से कई महत्वपूर्ण स्थान है। जैसे - वासुकिनाथ मन्दिर, मलूटी मन्दिर, मसानजोर डेम, बास्कीचक, सृष्टि पार्क। वासुकिनाथ दुमका शहर से 25 किमी की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ हरवर्ष सावन के महिने में देश विदेश से शिव भक्त आते है और गंगा जल अर्पित करते है। मलूटी मन्दिर - यह मंदिर दुमका - तारापीठ, रामपुरहाट मार्ग मे अवस्थित है। मलूटी को मंदिरों का गांव भी कहा जाता है। यहां एक समय मे 108 मन्दिर और 108 तालाब थे। यहां का मुख्य मंदिर माँ मौलिक्षा को समर्पित है जिसे माँ तारा(तारापीठ, रामपुरहाट प.बंगाल)की बहन माना जाता है। आज अधिकांश मन्दिर जीर्ण शीर्ण अवस्था मे है। मसानजोर डेम या कनाडा डेम दुमका शहर से 25km की दूरी पर मयूराक्षी नदी पर बनाया गया है। यहां की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। शिक्षा दुमका में कई प्रमुख शिक्षण संस्थान है, परन्तु अभी भी यहाँ एक ऐसा शिक्षण संस्थान नही है जिसे देश भर जाना जाता हो। यहां अंग्रेजों द्वारा निर्मित जिला स्कूल और 1954 में निर्मित संताल परगना कॉलेज (SP College) है। यहां सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के साथ साथ एक इंजीनियरिंग कॉलेज, 2 पॉलिटेक्निक, मिनी टूल रूम है। यहां एक मेडीकल कॉलेज भी का निर्माण किया जा रहा है। प्रमुख संस्थान - SP कॉलेज, AN Iकॉलेज, SP महिला कॉलेज, B.Ed कॉलेज, सिदो कान्हू विश्वविद्यालय, दुमका इंजीनियरिंग कॉलेज, राजकीय पॉलिटेक्निक, महिला पॉलिटेक्निक, औधौगिक प्रशिक्षण संस्थान(ITI), मेडिकल कॉलेज (निर्माणाधीन),डिसेंट चिल्ड्रेन स्कूल फसियाडंगाल,दुमका। इन्हें भी देखें दुमका ज़िला सन्दर्भ दुमका ज़िला झारखंड के शहर दुमका ज़िले के नगर
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चाईबासा (Chaibasa) भारत के झारखंड राज्य के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह ऐतिहासिक स्वतंत्रता सेनानी, बिरसा मुंडा, की जन्मभूमि भी है। उद्योग चाईबासा में अधिकांश रोजगार सरकारी संस्थाओं के कर्मचारियों के रूप में है। एसीसी (ACC) नामक सीमेन्ट बनाने वाली कम्पनी का कारखाना चैबासा से १८ किमी दूर झिनकपानी में स्थित है। एस आर रुंगटा समूह, ठाकुर प्रसाद साव ऐंड सन्स, साहा ब्रदर्स आदि कम्पनियाँ यहाँ पर बहुत सारा खनन कार्य करतीं हैं। चाईबासा में अनेकों लघुस्तरीय इस्पात निर्माता कम्पनियाँ स्थित हैं। शैक्षिक संस्थान महाविद्यालय जी सी जैन वाणिज्य महाविद्यालय महिला महाविद्यालय टाटा महाविद्यालय, चाईबासा चाईबासा इंजीनियरिंग महाविद्यालय, चाईबासा आईटीआई आईटीआई, चाईबासा राज आईटीआई इण्टर कॉलेज सूरजमल जैन डीएवी पब्लिक स्कूल डीपीएस इंटर कॉलेज कोल्हान इण्टर कॉलेज सेन्ट जेवियर इंटर कॉलेज, लुपुंगहुटु इन्हें भी देखें पश्चिमी सिंहभूम ज़िला चाईबासा (झारखंड विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) बाहरी कड़ियाँ चाईबासा जिला चाईबासा का लुपुंगहुटू: पेड़ की जड़ों से निकलती गर्म जलधारा सन्दर्भ झारखंड के शहर पश्चिमी सिंहभूम ज़िला पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "चाईबासा", "token_count": 1705, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%88%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BE" }
बोकारो () झारखंड राज्य का एक जिला है। यह शहर अपने सरकारी क्षेत्र के इस्पात उद्योग के लिये प्रसिद्ध है तथा "स्टील सिटी" के नाम से जाना जाता है। बोकारो छोटानागपुर पठार में स्थित है। अर्थव्यवस्था बोकारो के मुख्य अर्थव्यवस्था का आधार बोकारो इस्पात संयंत्र है। बोकारो के अधिकतर निवासी मानसूनी कृषि पर निर्भर रहती है | यहाँ के किसान मुख्यतया धान की खेती करते है |कुछ किसान जिनके पास सिचाई के लिए कुए है वे मौसमी सब्जी की भी खेती करते है | भौगोलिक स्थिति बोकारो भारत के पूर्वी हिस्से में 23°29′ ऊतर 86°09′ पूर्वी देशांतर के बीच बसा है। दामोदर नदी के दक्षिणी हिस्से में पारसनाथ की पहाड़ियों के बीच स्थित है। बोकारो के दझिण-पूरब दिशा में गरगा नदी स्थित है इसके अलावा गुवाई नदी भी हैं| जनसँख्या २००१ के जनगणना के अनुसार बोकारो जिला की जनसन्ख्या 26,75,961 है। दर्शनीय स्थल गरगा डैम, तेनुघाट डैम,हथिया पत्थर, नेहरू पार्क,ललपनिया छरछरिया झरना,लुगु बुरू इत्यादि। घूमने के लिए उपयुक्त मौसम : सितंबर से फ़रवरी तक इस क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाएँ : हिन्दी, उर्दू, बांग्ला [बोकारो जब भी आप घूमने आते ह आपके मन में सिर्फ स्टील प्लांट ही रहता है लकिन इसके अलावा भी बोकारो कई जगह देखने लायक ही लकिन इसके अधिक जानकारी नहीं होने के कारन ये स्थल गुमनामी में है मै एक ऐसा ही उधर शिम्फोर टावर के बारे में देना चाहता हु इसका निर्माण 1854 के आसपास अंगरेजों द्वारा किया गया था ये स्थल चंदनकियारी के बाबूडीह ग्राम में हैं इसकी उचाई लगभग 75 फ़ीट होगी ! इसके इतिहास के बारे इसके आसपास के लोगो को बहुत कम जानकारी , ये टावर उस समय टेलीफोन संचार के रूप जाना था |लकिन ये परियोजना अशफल रही |इसी तरह के टावर बेंगल से असम तक बनाये गए थे |के लिए गया जिस्का उपयोग शायद आज के आधुनिक मोबाइल टावर के तरह बनाने की योजना थी ...| शौक्षणिक परिदृश्य बोकारो में जबर्दस्त शैक्षणिक माहौल है। जन शिक्षण संस्थान बोकारो ने १५ से ३५ साल के युवाओं को हुनरमंद बनाने के लिए अभियान चला रखा है। इस संस्थान के चेयरमैन किशोर कुमार हैं। वह झारखंड में वर्षों सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद सामाजिक क्षेत्र से पूरी तरह जुड़ गए। वह खुद भी केंद्र सरकार के इस अभियान को सफल बनाने में जुटे रहते हैं। जन शिक्षण संस्थान बोकारो मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रायोजित जन शिक्षण संस्थान बोकारो जिले में सन् 2004 से संचालित है। इस संस्थान द्वारा जिले के विभिन्न भागों में मोबाइल सेंटर खोलकर समाज के अंतिम जन के युवाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए हुनरमंद बनाने का काम किया जाता है। इसके तहत मोमबत्ती निर्माण से लेकर फर्नीचर मेकिंग तक का प्रशिक्षण दिया जाता है। साथ ही प्रशिक्षित युवा अपने पैरों पर खड़े हो सकें, इस काम में उनकी मदद की जाती है। जन‍ शिक्षण संस्‍थान (जेएसएस) या इंस्‍टीट्यूट ऑफ पीपल्‍स एजुकेशन की शुरूआत बहुसंयोजक या बहु पहलू वयस्‍क शिक्षा कार्यक्रम के रूप में की गई है, जिसका लक्ष्‍य व्‍यावसायिक कौशल और जीवन की गुणवत्ता आने लाभानुभोगियों को सुधारना है। योजना का उद्देश्‍य शहरी / ग्रामीण जनसंख्‍या, विशेषकर नए साक्षरों, अर्ध साक्षर, अनु. जाति, अनु. जनजाति, महिला और बालिकाओं, झुग्‍गी - झोंपडियों के निवासियों, प्रवासी कामगारों आदि के लिए सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े और शैक्षिक रूप से अलाभ प्राप्‍त समूहों के लिए शैक्षिक, व्‍यावसायिक और व्‍यावसायिक विकास करना है। वर्तमान में देश में 221 जेएसएस हैं। वे असंख्‍य व्‍यावसायिक कार्यक्रम चलाते हैं, जिसकी विभिन्‍न कौशल के लिए अलग-अलग अवधि है। लगभग 380 व्‍यावसायिक पाठ्यक्रम इन संस्‍थानों द्वारा प्रस्‍तावित किए जाते हैं। ट्रेड/पाठ्यक्रम जिनके लिए प्रशिक्षण दिया जाता है, उनमें कटाई, सिलाई और परिधान बनाना, बुनाई और कढ़ाई, सौन्‍दर्य वर्धन और स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल, हस्‍तशिल्‍प, कला, चित्रांकन और चित्रकारी, इलेक्‍ट्रोनिक साफ्टवेयर की मरम्‍मत आदि शामिल हैं। लगभग 16.89 लाख व्‍यक्तियों को 2006-07 के दौरान आयोजित व्‍यावसायिक कार्यक्रमों एवं अन्‍य गतिविधियों द्वारा लाभ‍ मिला है। इग्नू का स्टडी सेंटर बोकारो में पहली बार इग्नू के सौजन्य से तारा कम्युनिटी कालेज का स्टडी सेंटर खुला है। इस सेंटर में एमसीए, बीसीए तथा पीजीडीसीए की पढ़ाई हो रही है। पहले बोकारो के छात्रों को इग्नू के इन कोर्सों के अध्ययन के लिए धनबाद अथवा हजारीबाग जाना पड़ता था। यह स्टडी सेंटर रणधीर वर्मा इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालाजी चला रहा है। स्वास्थय सेवाएँ बोकरो जेनरल अस्पताल (BGH) शहर अस्पताल है। बाहरी कड़ियाँ बोकारो स्टील सिटी बोकारो का आधिकारिक जालस्थल जन शिक्षण संस्थान, बोकारो झारखंड के शहर बोकारो ज़िला बोकारो ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बोकारो", "token_count": 6253, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B" }
उदितवाणी जमशेदपुर से प्रकाशित पहला हिन्दी दैनिक था। सन्दर्भ हिन्दी भाषा के समाचार पत्र जमशेदपुर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "उदितवाणी", "token_count": 160, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%80" }
केन्द्र शासित प्रदेश या संघ-राज्यक्षेत्र या संघक्षेत्र भारत के संघीय प्रशासनिक ढाँचे की एक उप-राष्ट्रीय प्रशासनिक इकाई है। भारत के राज्यों की अपनी चुनी हुई सरकारें होती हैं, लेकिन केन्द्र शासित प्रदेशों में सीधे-सीधे भारत सरकार का शासन होता है। भारत का राष्ट्रपति हर केन्द्र शासित प्रदेश का एक सरकारी प्रशासक या उप राज्यपाल नामित करता है। वर्तमान में भारत में 8 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। भारत की राजधानी नई दिल्ली जो कि दिल्ली नामक केन्द्र शासित प्रदेश भी था और पुडुचेरी को आंशिक राज्य का दर्जा दे दिया गया है। दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश-1992 के तौर पर पुनः परिभाषित किया गया है। दिल्ली व पुदुचेरी दोनो की अपनी चयनित विधानसभा, मंत्रिमंडल व कार्यपालिका हैं, लेकिन उनकी शक्तियाँ सीमित हैं - उनके कुछ कानून भारत के राष्ट्रपति के "विचार और स्वीकृति" मिलने पर ही लागू हो सकते हैं। भारत में वर्तमान में निम्नलिखित केन्द्र शासित क्षेत्र हैं :- दिल्ली - यह भारत का राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश भी है। अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह चण्डीगढ़ दादरा और नगर हवेली एवं दमन और दीव - 26 नवंबर 2019 को घोषित और 26 जनवरी 2020 से प्रभावी। लक्षद्वीप पुडुचेरी जम्मू और कश्मीर - 5 अगस्त 2019 को घोषित और 31 अक्टूबर 2019 से प्रभावी। लद्दाख - 5 अगस्त 2019 को घोषित और 31 अक्टूबर 2019 से प्रभावी। इन्हें भी देखें भारत के राज्य भारत के राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश और उनकी राजधानियाँ सन्दर्भ भारत के उपविभाग भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "केन्द्र-शासित प्रदेश", "token_count": 2009, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A4%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6" }
जमशेदपुर एवं धनबाद से प्रकाशित हिन्दी दैनिक। हिन्दी प्रकाशन
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "आवाज", "token_count": 101, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9C" }
नोबेल पुरस्कार पांच भिन्न पुरस्कार हैं, जो आल्फ़्रेद नोबेल की 1895 की वसीयत के अनुसार, "उन लोगों को दिए जाते हैं, जिन्होंने पिछले वर्ष के दौरान, मानव जाति को सबसे बड़ा लाभ प्रदान किया है।" आल्फ़्रेद नोबेल की 1896 में उनकी मृत्यु हो गई। अपनी वसीयत में, उन्होंने अपनी "शेष वसूली योग्य संपत्ति" को पांच पुरस्कारों को स्थापित करने के लिए उपयुक्त किया, जिसे "नोबेल पुरस्कार" के रूप में जाना जाने लगा। नोबेल पुरस्कार पहली बार 1901 में दिए गए थे। नोबेल पुरस्कार भौतिकी, रसायन विज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान या चिकित्सा, साहित्य और शान्ति के क्षेत्र में दिए जाते हैं (नोबेल ने शांति पुरस्कार को "उस व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है जिसने राष्ट्रों के बीच साहचर्य को अग्रसराने के लिए सर्वाधिक या श्रेष्ठ किया है, सेना खड़े होने का उन्मूलन या कमी, और शान्ति सम्मेलन की स्थापना और प्रचार")। 1968 में, स्वीडिश केन्द्रीय बैंक ने आल्फ़्रेद नोबेल की स्मृति में अर्थशास्त्र में पुरस्कार की स्थापना को वित्त पोषित किया, जिसे नोबेल संस्थान द्वारा भी प्रशासित किया जाता है। नोबेल पुरस्कार व्यापक रूप से अपने सम्बन्धित क्षेत्रों में उपलब्ध सबसे सम्मानजनक पुरस्कारों के रूप में माने जाते हैं। पुरस्कार समारोह प्रतिवर्ष होते हैं। प्रत्येक प्राप्तकर्ता (पुरस्कार विजेता) को एक स्वर्ण पदक, एक डिप्लोमा और एक मौद्रिक पुरस्कार प्राप्त होता है। 2021 में, मौद्रिक पुरस्कार 1,00,00,000 SEK है। एक पुरस्कार तीन से अधिक व्यक्तियों के बीच साझा नहीं किया जा सकता है, यद्यपि नोबेल शान्ति पुरस्कार तीन से अधिक लोगों के संगठनों को प्रदान किया जा सकता है। यद्यपि नोबेल पुरस्कार मरणोपरान्त नहीं दिए जाते हैं, यदि किसी व्यक्ति को पुरस्कार दिया जाता है और प्राप्त करने से पहले उसकी मृत्यु हो जाती है, तो पुरस्कार प्रदान किया जाता है। इतिहास अल्फ्रेड नोबेल का जन्म 21 अक्टूबर 1833 को स्टॉकहोल्म के स्वीडन में हुआ था। इनका ताल्लुक एक अभियंता परिवार से था जो बहुत ही समृद्ध था। आप एक रसायनज्ञ,अभियंता व् अविष्कारक है। 1894 में आपने बेफोर्स आयरन और स्टील मील ख़रीदा जिसे आपने एक महत्वपूर्ण हथियार निर्माता का केंद्र बनाया तथा आपने बैल्लेस्टिक मिसाइलो का भी सफल परीक्षण किया। नोबेल फाउंडेशन का प्रारम्भ २९ जून १९०० में हुआ। इसका उद्देश्य नोबेल पुरस्कारों का आर्थिक रूप से संचालन करना है। नोबेल के वसीहतनामे के अनुसार उनकी ९४% से ज्यादा वसीहत के मलिक वो लोग है जिन्होने मानव जाति के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उत्तम कार्य किया है। इसलिए प्रत्येक वर्ष उस वसीहत की ब्याज की राशि उन लोगो को ईनाम के रूप में दी जाती है। नोबेल फाउंडेशन में ५ लोगों की टीम है जिसका मुखिया स्वीडन की किंग ऑफ काउन्सिल द्वारा तय किया जाता है अन्य चार सदस्य पुरस्कार वितरक संस्थान के न्यासी (ट्रस्टियों) द्वारा तय किए जाते हैं। स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार सम्मान समारोह का मुख्य आकर्षण यह होता है कि सम्मानप्राप्त व्यक्ति स्वीडन के राजा के हाथों पुरस्कार प्राप्त करते है। २०२२ में प्रदान किए गए नोबेल पुरस्कार चिकित्सा- फिजियोलॉजी और मेडिसिन प्रोफेसर स्वंते पाबो इन्होने विलुप्त होमिनी और मानव विकास में जीनोम सम्बंधित खोज की है तथा निएंडरथल के जीनोम सिक्वेंसिंग की है। भौतिकी- एलेन आसपेक्ट, जॉन क्लॉसर, एंटन जिलिंगर इन्होंने क्वांटम यांत्रिकी में प्रयोग किए, कंप्यूटिंग और क्रिप्टोग्राफी में तेजी से विकसित नए एप्लिकेशन के लिए आधार तैयार किया है रसायन- कैरोलिन बर्टोज़ी, मोर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस क्लिक केमिस्ट्री और बायो-ऑर्थोगोनल केमिस्ट्री के विकास में अहम योगदान दिया है। जो भविष्य में चिकित्सा क्षेत्र के लिए एक नया रास्ता खोलेगा। साहित्य-एनी एर्नो साहस और नैदानिक तीव्रत के लिए जिसके साथ वह व्यक्तिगत स्मृति की जड़ों, व्यवस्थाओं और सामूहिक प्रतिबंधों को उजागर करती हैं। शांति- एलेस बियालियात्स्की, रूसी मानवाधिकार संगठन मेमोरियल (रूस), मानवाधिकार संगठन सेंटर फॉर सिविल लिबर्टीज (यूक्रेन) एलेस को यह पुरस्कार देश को समर्पित अपना जीवन लोकतंत्र की स्थापना व शांति विकास को बढ़ावा देने को मिला है। रूस- कम्युनिस्ट शासन के दौरान उत्पीड़न का शिकार हुए लोगो को समर्थन देना। अर्थशास्त्र- बेन एस. बर्नान, डगलस डब्ल्यू. डायमंड और फिलिप एच. बेन एस. बर्नान के, डगलस डब्ल्यू. डायमंड और फिलिप एच. को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया है। इन्हें नोबेल पुरस्कार ‘बैंकों और वित्तीय संकटों पर शोध के लिए’ दिया गया। साहित्य का नोबेल पाने वाले आज तक के सबसे कम उम्र के साहित्यिक रूडयार्ड किपलिंग रहे हैं। वर्ष 1907 में जब उन्हें ‘जंगल बुक’ के लिए नोबेल सम्मान मिला तब वह केवल 42 वर्ष के थे। २००९ में प्रदान किए गए नोबेल पुरस्कार - चिकित्सा- एलिजाबेथ ब्लैकबर्न (आस्ट्रेलियाइ मूल की), जैक जोस्ताक (ब्रिटिश मूल के) तथा कैरोल ग्रेडेर को गुणसूत्रों की प्रतिकृति तथा क्षरण से होने वाले बचाव के तरीके पर शोध के लिए भौतिकी- चार्ल्स के काव, विलियर्ड एस बॉयल और जॉर्ज ई स्मिथ (तीनों अमेरिकी वैज्ञानिक) को डिजीटल फोटोग्राफी में इस्तेमाल की जाने वाली प्रौद्योगिकी के निर्माण और दुनिया को फाइबर-ऑप्टिक नेटवर्क से जोड़ने में कामयाबी के लिए रसायन- वेंकटरामन् रामकृष्णन् (भारतीय मूल के अमेरिकी), टॉमस स्टाइत्स (अमेरिका) और अदा योनाथ (इज़राइल) को जीव कोषिकाओं में पाए जाने वाले अतिसूक्षम कण राइबोसोम संबंधी अनुसंधान के लिए। साहित्य- हर्ता म्यूलर (जर्मन उपन्यासकार) को शांति- बराक ओबामा (अमरीकी राष्ट्रपति) अर्थशास्त्र- ओलिवर विलियमसन और इलिनॉर ऑस्ट्रॉम (अमेरिका) को इथिकल कॉरपोरेट गवर्न्ेस और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन पर विशद् शोध के लिए सन्दर्भ बाहरी कडियाँ नॉवेल पुरुस्कार की सम्पूर्ण जानकारी 'टेस्ट ट्यूब बेबी' देने वाले को नोबेल नोबल पर चीनी बल नोबेल पुरस्कार विजेताओं की ५१ कहानियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - सुरेन्द्र तिवारी) नोबेल पुरस्कार का आधिकारिक जालक्षेत्र नोबेल शताब्दी सम्मान नोबेल पुरस्कार विज्ञान और अभियांत्रिकी पुरस्कार पुरस्कार
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सौराठ सभा बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगने वाला एक विशाल सभा है जिसमें वहाँ आए कन्याओं के पिता योग्य वर का चुनाव करते हैं।यह एक विशाल सांस्कृतिक धरोहर है जिसमें मंडन मिश्र, कवि कोकिल विद्यापति, अयाची मिश्र जैसे कई महान व्यक्तित्व का नाम उल्लेखनीय है। चुनाव से पहले सौराठ सभागाछी में उपस्थित लोगों के बीच बहुत प्रकार के चर्चाओं जिसमें मुख्य रूप से कुल, मूल और पाँजिका होता है; जिनके जितने बड़े कुल-मूल-पाँजि होते हैं उनका पूछ उतना ही अधिक होता है। हालांकि इस आधुनिकता के चमक-दमक ने अब लोगोंको केवल कुल-मूल-पाँजि से कहीं ऊपर लड़कों का व्यक्तिगत गुण, आचरण और रोजगार को मुख्य जाँच का विषय बना दिया है। परम्परानुसार यहाँ पहले (साबिक जमाने से) गुरुकुल से सीधे योग्य युवकोंको सौराठ सभागाछी में लाया जाता था और मैथिल ब्राह्मणों एवं कायस्थों के लिए शुरु किया गया इस सभामें लोग लाखोंके तादाद में पहुँचते थे और गुरुकुलोंके उन योग्य शिक्षित युवकोंके प्रतिभाको जाँच-बुझकर अपने स्वजनों के लायक उचित वर समझकर गुरुजनोंसे आज्ञा लेते थे और फिर विवाह कराने से पूर्व लड़कों के पैतृक परिवार के सात पुश्तों में और मातृक परिवारके पाँच पुश्तों में पहले कभी सीधा रक्त सम्बन्ध नहीं बने होने पर मात्र अधिकार निर्णय करबाते थे, ऐसे अधिकार निर्णय को एक तारके पत्तेपर मिथिलाक्षर में लाल स्याही से लिखवाया जाता था जिसे 'सिद्धान्त' कहा जाता है जिसमें पञ्जीकार स्वर्गीय लक्ष्मीदत्त मिश्र उर्फ भुट्टू मिश्र का नाम उल्लेखनीय है। पंजीकार भुट्टु मिश्र दरभंगा महाराज के सानिध्य में रहते थे। पंजी व्यवस्था की यह परम्परा आज भी मैथिलों में कायम है। इस समूचे संसार में शायद मैथिलों का यह वैवाहिक परंपरा सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि अधिकार निर्णय की अनूठी रीतिको बाद में विभिन्न वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से समुचित करार दिया है। इन्हें भी देखें पंजी (मिथिला) विवाह बाहरी कड़ियाँ मिथिला में लगता था विश्व का पहला मेट्रिमोनियल सभा ! Inside a 700-year-old ‘groom market’ in India’s Bihar state उत्सव
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वोल्फ़गांक आमडेयुस मोत्सार्ट (जर्मन: Wolfgang Amadeus Mozart) (27 जनवरी 1756 - 5 दिसंबर 1791) एक प्रसिद्ध जर्मन पाश्चात्य शास्त्रीय संगीतज्ञ थे। उन्होने लगभग ६०० संगीत रचनाएँ की। शास्त्रीय संगीतकारों में वे सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। ऑस्ट्रियन संगीतज्ञ पाश्चात्य शास्त्रीय संगीतकार‎ १७५६ में जन्म १७९१ में मृत्यु
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ढाका () बांग्लादेश की राजधानी है। बूढ़ी गंगा नदी के तट पर स्थित यह देश का सबसे बड़ा शहर है। राजधानी होने के अलावा यह बांग्लादेश का औद्यौगिक और प्रशासनिक केन्द्र भी है। यहाँ पर धान, गन्ना और चाय का व्यापार होता है। ढाका की जनसंख्या लगभग 1.1 करोड़ है (२००१ की जनसंख्या: ९,०००,०२)) जो इसे दुनिया के ग्यारहवें सबसे बड़ी जनसंख्या वाले शहर का दर्जा भी दिलाता है। ढाका का अपना इतिहास रहा है और इसे दुनिया में मस्जिदों के शहर के नाम से जाना जाता है। मुगल सल्तनत के दौरान इस शहर को १७ वीं सदी में जहांगीर नगर के नाम से भी जाना जाता था, यह न सिर्फ प्रादेशिक राजधानी हुआ करती थी बल्कि यहाँ पर निर्मित होने वाले मलमल के व्यापार में इस शहर का पूरी दुनिया में दबदबा था। आधुनिक ढाका का निर्माण एवं विकास ब्रिटिश शासन के दौरान उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ और जल्द ही यह कोलकाता के बाद पूरे बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर बन गया। भारत विभाजन के बाद १९४७ में ढाका पूर्वी पाकिस्तान की प्रशासनिक राजधानी बना तथा १९७२ में बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने पर यह राष्ट्रीय राजधानी घोषित हुआ। आधुनिक ढाका देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, एवं संस्कृति का मुख्य केन्द्र है। ढाका न सिर्फ देश का सबसे साक्षर (६३%) शहर है- - बल्कि बांग्लादेश के शहरों में सबसे ज्यादा विविधता वाला शहर भी है। हालांकि आधुनिक ढाका का शहरी आधारभूत ढांचा देश में सबसे ज्यादा विकसित है परंतु प्रदूषण, यातायात कुव्यवस्था, गरीबी, अपराध जैसी समस्यायें इस शहर के लिए बड़ी चुनौतियां हैं। सारे देश से लोगों का ढाका की ओर पलायन भी सरकार के लिए एक बड़ी समस्या का रूप लेता जा रहा है। इतिहास मुगल शासन काल में ढाका को जहांगीर नगर के नाम से जाना जाता था। उस समय यह बंगाल प्रांत की राजधानी था। वर्तमान ढाका का निर्माण 19वीं शताब्‍दी में अंग्रेजों के अधीन हुआ। जल्‍द ही कलकत्ता के बाद ढाका बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा नगर बन गया। बंटवारे के बाद ढाका पूर्वी पाकिस्‍तान की राजधानी बना। 1972 में यह बंगलादेश की राजधानी बना। भूगोल एवं मौसम प्रशासन जनसांख्यिकी संस्कृति यातायात पर्यटन स्थल राष्‍ट्रीय स्‍मारक: यह स्‍मारक साभर में स्थित है। यह स्‍थान ढाका शहर से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इस स्‍मारक का डिजाइन मोइनुल हुसैन ने तैयार किया था। यह स्‍मारक उन लाखो सैनिकों को समर्पित है जिन्‍होंने बंगलादेश की स्‍वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। लालबाग किला: इस किले का निर्माण बादशाह औरंगजेब के पुत्र शाहजादा मुहम्‍मद आजम ने करवाया था। यह किला भारत के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम (1857) का मूक गवाह है। 1857 में जब स्‍थानीय जनता ने ब्रिटिश सैनिकों के विरुद्ध विद्रोह किया था तब 260 ब्रिटिश सैनिकों ने यहीं शरण लिया था। इस किले में पारी बीबी का मकबरा, लालबाग मस्जिद, हॉल तथा नवाब शाइस्‍ता खान का हमाम भी देखने योग्‍य है। यह हमाम वर्तमान में एक संग्रहालय में तब्‍दील कर दिया गया है। 1857 का स्‍मारक (बहादुर शाह पार्क): 1857 के स्‍मारक स्‍थल को बहादुर शाह पार्क भी कहा जाता है। इस पार्क का निर्माण 1857 के युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में करवाया गया था। यहीं पर विद्रोही सैनिकों और उनके नागरिक सहयोगियों को ब्रिटिश सरकार ने सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया था। बंगबंधु स्‍मारक संग्रहालय: यह संग्रहालय धनमोनडी में स्थित है। पहले यह बंगलादेश के राष्‍ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजिबुर रहमान का आवास था। इस संग्रहालय में बंगबंधु के जीवन तथा उनके समय से संबंधित कई दुर्लभ वस्‍तुओं का संग्रह है। 1975 ई. में बंगबंधु की उनके परिवार सहित हत्‍या कर दी गई थी। लिबरेशन बार म्‍युजियम: यह म्‍युजियम सेगुन बगीचा क्षेत्र में स्थित है। इस संग्रहालय में बंगलादेश के स्‍वतंत्रता संग्राम से संबंधित वस्‍तुओं को रखा गया है। बंगलादेश का यह स्‍वतंत्रता संग्राम नौ महीने चला था। अहसान मंजिल संग्रहालय: यह संग्रहालय ढाका में बुढ़ी गंगा नदी के तट पर स्थित है। गुलाबी रंग का यह संग्रहालय पहले ढाका के नवाब का आवास था। अब इस इमारत का पुनर्निर्माण कर इसे संग्रहालय में तब्‍दील कर दिया गया है। यह संग्रहालय बंगलादेश की सांस्‍कृतिक समृद्धता का प्रतीक है। इस इमारत में 31 कमरें हैं। इसमें एक बड़ा सा गुम्‍बद भी है, जो दूर से ही दिख जाता है। इसमें 23 गैलरियां हैं। इन गैलरियों में चित्र, फर्नीचर तथा नवाब द्वारा उपयोग किए गए सामानों को प्रदर्शित किया गया है। कर्जन हाल: स्‍थापत्‍य की दृष्‍िट से अदभूत इस इमारत का नामाकरण्‍ा लार्ड कर्जन के नाम पर किया गया है। वर्तमान में इसमें ढाका विश्‍वविद्यालय का विज्ञान विभाग चलता है। ओल्‍ड हाई कोर्ट बिल्डिंग: ब्रिटिश काल में यह इमार ब्रिटिश गवर्नर का आवास हुआ करता था। इस इमारत में यूरोपिय और मुगल वास्‍तुशैली का सुंदर सम्मिश्रण है। ढाका जू: इसे मीरपुर जू के नाम से भी जाना जाता है। इस चिडियाघर में विभिन्‍न प्रकार के पशु और पक्षियों को रखा गया है। यहां विदेशी पशु-‍पक्षियों को भी देखा जा सकता है। इस जू में रॉयल बंगाल टाईगर भी है। राष्‍ट्रीय संग्रहालय: यह संग्रहालय शहर के शाहबंग क्षेत्र में स्थित है। इस संग्रहालय में हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रों तथा हस्‍तशिल्‍पों को रखा गया है। इस संग्रहालय के बगल में पब्लिक लाइब्रेरी है। बोटेनिकल गार्डन: यह गार्डन ढाका जू के नजदीक मीरपुर में स्थित है। यह 205 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। नेशनल पार्क: यह पार्क ढाका शहर से 40 किलोमीटर उत्तर में राजेंद्रपुर में है। यह पार्क 1600 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। इस पार्क में पिकनिक मनाने और नौकायन करने की सुविधा है। केंद्रीय शहीद मीनार: यह मीनार बंगाली राष्‍ट्रीयता का प्रतीक है। केंद्रीय शहीद मीनार 1952 में हुए भाषाई आंदोलन को समर्पित है। प्रत्‍येक वर्ष 21 फ़रवरी को हजारों लोग फूल लेकर यहां एकत्र होते हैं। इस दिन यहां उत्‍सव मनाया जाता है। यह उत्‍सव मध्‍य रात्रि तक चलता है। नेशनल पोएटस ग्रेभयार्ड: बंगलादेश के राष्‍ट्रकव‍ि काजी नजरुल इस्‍लाम की मृत्‍यु 29 अगस्‍त 1976 ई. को हुई थी। उनको इसी कब्रिस्‍तान में दफनाया गया था। यह कब्रिस्‍तान ढाका विश्‍वविद्यालय मस्जिद के निकट स्थित है। सुहरावर्दी उद्यान: यह एक एतिहासिक पार्क है। 7 मार्च 1971 को इसी पार्क में बंगलादेश के राष्‍ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजिबुर रहमान ने आजादी का बिगुल फुका था। इस हरे-भरे पार्क में शहीद हुए सैनिकों की याद में अखण्‍ड ज्‍योति जल रही है। राष्‍ट्रीय नेताओं का समाधिस्‍थल: यह समाधिस्‍थल सुहरावर्दी पार्क के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में है। इसी जगह पर बंगलादेश के महान नेताओं शेर-ए-बंगाल ए. के. फजलुल हक, हुसैन शहीद सुहरावर्दी तथा काजी नजीमुद्दीन को दफनाया गया है। बंग भवन: बंगलादेश के राष्‍ट्रपति का यह आवास है। पर्यटक इसे बाहर से देख सकते हैं। बलधा बागीचा: यह बागीचा बलधा के जमींदार नरेंद्र नारायण राय का था। उन्‍होंने 1903 ई. में इस पार्क की स्‍थापना की थी। इस पार्क में पौधों की कई लुप्‍तप्राय प्रजातियां विद्यमान है। इस कारण यह पार्क प्रकृति प्रेमियो, वनस्‍पतिशास्‍त्रियों तथा पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र में रहता है। संसद भवन: बंगलादेश में संसद को जातीय संसद कहा जाता है। इस कारण इस इमारत को जातीय भवन भी कहा जाता है। यह इमारत शेर-ए-बंगाल नगर में स्थित है। इस भवन की वास्‍तुशैली अदभूत है। इस भवन का डिजाइन प्रसिद्ध वास्‍तुशास्‍त्री लुईस आई. खान ने तैयार किया था। विज्ञान संग्रहालय: यह संग्रहालय विज्ञान क्षेत्र में हो रहे नए आविष्‍कारों को सीखने का प्रमुख केंद्र है। यह संग्रहालय अगरगांव में स्थित है। इंस्‍टीट्यूट ऑफ आर्ट एंड क्रार्फ्ट: यह इंस्‍टीट्यूट शाहबाग में स्थित है। इसमें लोक कलाओं से संबंधित वस्‍तुओं का अच्‍छा संग्रह है। सोनारगांव: यह ढाका से 29 किलोमीटर की दूरी पर है। यह बंगाल की प्राचीनतम राजधानी है। खेलकूद इन्हें भी देखें सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ ढाका सिटी कॉरपोरेशन ढाका स्टॉक एक्सचेंज ढाका विश्वविद्यालय वर्चुअल बांग्लादेश बांग्लादेश ऑनलाईन जालस्थल पर ढाका बांग्लादेश बांग्लादेश के शहर एशिया में राजधानियाँ
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भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची भारत की भाषाओं से संबंधित है। इस अनुसूची में 22भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया है । प्रारम्भ में 14 भाषाओ को संवैधानिक मान्यता दी गई थी बाद में इसमें, सिन्धी भाषा को 21वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1967 ,कोंकणी भाषा, मणिपुरी भाषा, और नेपाली भाषा को 71वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992ई. में जोड़ा गया। हाल में 92 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 2003 में बोड़ो भाषा, डोगरी भाषा, मैथिली भाषा, और संथाली भाषा शामिल किए गए। अनुसूची कश्मीरी भाषा सिन्धी भाषा पंजाबी भाषा हिन्दी भाषा बंगाली भाषा असमिया भाषा ओड़िया भाषा गुजराती भाषा मराठी भाषा कन्नड़ भाषा तेलगु भाषा तमिल भाषा मलयालम भाषा उर्दू भाषा संस्कृत भाषा नेपाली भाषा मणिपुरी भाषा कोंकणी भाषा बोडो भाषा डोंगरी भाषा मैथिली भाषा संथाली भाषा माँग वाली अन्य भाषाएँ भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में ४० अन्य भाषाओं को शामिल करने की माँग है। य़े भाषाएँ हैं: अवधी भाषा अंगिका भाषा बुंदेली भाषा बंजारा भाषा बज्जिका भाषा भूमिज भाषा भोजपुरी भाषा भोटी भाषा भोटीया भाषा छत्तीसगढ़ी भाषा धक्ती भाषा अंग्रेज़ी भाषा गढ़वाली भाषा गोंडी भाषा गोजरी भाषा हो भाषा कच्छी भाषा कामतापुरी भाषा कार्बी भाषा खासी भाषा कोडावा भाषा ककबरक भाषा कुमाऊँनी भाषा कुड़ुख भाषा कुड़माली भाषा लेप्चा भाषा लिंबू भाषा मिज़ो भाषा मगही मुंडारी भाषा नागपुरी भाषा निकोबारी भाषा हिमाचली भाषा पालि भाषा राजस्थानी भाषा कोशली / सम्बलपुरी भाषा शौरसेनी भाषा सराइकी भाषा टेनयीडी भाषा तुलू भाषा सन्दर्भ भारत का संविधान भारत की भाषाएँ
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सुवर्णरेखा या स्वर्णरेखा भारत के झारखण्ड, पश्चिम बङ्गाल और ओड़िशा राज्यों में बहने वाली एक नदी है। विवरण यह राँची नगर से 16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित नगड़ी गाँव में रानी चुआं नामक स्थान से निकलती है और उत्तर पूर्व की ओर बढ़ती हुई मुख्य पठार को छोड़कर प्रपात के रूप में गिरती है। इस प्रपात (झरना) को हुन्डरु जलप्रपात (hundrughagh) कहते हैं। प्रपात के रूप में गिरने के बाद नदी का बहाव पूर्व की ओर हो जाता है और मानभूम जिले के तीन संगम बिंदुओं के आगे यह दक्षिण पूर्व की ओर मुड़कर सिंहभूम में बहती हुई उत्तर पश्चिम से मिदनापुर जिले में प्रविष्टि होती है। इस जिले के पश्चिमी भूभाग के जंगलों में बहती हुई बालेश्वर जिले में पहुँचती है। यह पूर्व पश्चिम की ओर टेढ़ी-मेढ़ी बहती हुई बालेश्वर नामक स्थान पर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस नदी की कुल लंबाई 474 किलोमीटर है और लगभग 28928 वर्ग किलोमीटर का जल निकास इसके द्वारा होता है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ काँची एवं कर्कारी हैं। भारत का प्रसिद्ध एवं पहला लोहे तथा इस्पात का कारखाना इसके किनारे स्थापित हुआ। कारखाने के संस्थापक जमशेद जी टाटा के नाम पर बसा यहाँ का नगर जमशेदपुर या टाटानगर कहा जाता है। अपने मुहाने से ऊपर की ओर यह 16 मील तक देशी नावों के लिए नौगम्य (navigable) है। इन्हें भी देखें खड़कई नदी चौमुखा, ओड़िशा सन्दर्भ झारखण्ड की नदियाँ पश्चिम बंगाल की नदियाँ ओड़िशा की नदियाँ
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अगरतला (Agartala) भारत के त्रिपुरा राज्य की राजधानी है। यह पश्चिम त्रिपुरा ज़िले का मुख्यालय भी है। इसकी स्थापना 1850 में महाराज राधा कृष्ण किशोर माणिक्य बहादुर द्वारा की गई थी। बांग्लादेश से केवल दो किमी दूर स्थित यह नगर सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है। अगरतला त्रिपुरा के पश्चिमी भाग में स्थित है और हावड़ा नदी शहर से होकर गुजरती है। विवरण अगरतला उस समय प्रकाश में आया जब माणिक्य वंश ने इसे अपनी राजधानी बनाया। 19वीं शताब्दी में कुकी के लगातार हमलों से परेशान होकर महाराज कृष्ण माणिक्य ने उत्तरी त्रिपुरा के उदयपुर स्थित रंगामाटी से अपनी राजधानी को अगरतला स्थानान्तरित कर दिया। राजधानी बदलने का एक और कारण यह भी था कि महाराज अपने साम्राज्य और पड़ोस में स्थित ब्रिटिश बांग्लादेश के साथ संपर्क बनाने चाहते थे। आज अगरतला जिस रूप में दिखाई देता है, दरअसल इसकी परिकल्पना 1940 में महाराज वीर बिक्रम किशोर माणिक्य बहादुर ने की थी। उन्होंने उस समय सड़क, मार्केट बिल्डिंग और नगरनिगम की योजना बनाई। उनके इस योगदान को देखते हुए ही अगरतला को ‘बीर बिक्रम सिंह माणिक्य बहादुर का शहर’ भी कहा जाता है। शाही राजधानी और बांग्लादेश से नजदीकी होने के कारण अतीत में कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने अगरतला का भ्रमण किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर कई बार अगरतला आए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि त्रिपुरा के राजाओं से उनके काफी गहरे संबंध थे। पर्यटन स्थल 1901 में निर्मित उज्जयंत पैलेस, अगरतला का मुख्य स्मारक है जो मुगल-यूरोपीय मिश्रित शैली में निर्मित है। 800 एकड़ में फैला यह विशाल परिसर अब राज्य की विधान सभा के रूप में प्रयुक्त होता है। इसमें बगीचे और मानव-निर्मित झीलें है। आमतौर पर इसे जनता के लिए नहीं खोला जाता परंतु यदि आप सायं 3 से 4 बजे के बीत मुख्य द्वार पर जाएं तो आप यहां प्रवेश के लिए प्रवेश-पास प्राप्त कर सकते हैं। पैलेस के मैदान में नारंगी रंग के दो मंदिर अर्थात् उम्मेनश्वर मंदिर और जगन्नाथ मंदिर स्थित है, जिनमें कोई भी व्यक्ति दर्शानार्थ जा सकता है। एयरपोर्ट रोड पर लगभग 1 कि॰मी॰ उत्तर में वेणुबन विहार नामक एक बौद्ध मंदिर है। गेदू मियां मस्जिद, जो अनोखे तकीके से क्राकरी के टूटे हुए टुकड़ों से बनी है, भी मनोरम दर्शनीय है। एचजीबी रोड पर स्थित स्टेट म्यूजियम में एथनोग्राफिकल और आर्कियोलॉजी संबंधी वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। यह सोमवार से शनिवार तक प्रात: 10 से सायं 5 बजे तक खुलता है, इसमें प्रवेश निशुल्क है। पर्यटन कार्यालय के पीछे स्थित ट्राइबल म्यूजियम त्रिपुरा के 19 आदिवासी समूहों की स्मृति के रूप में बनाया गया है। पुराना अगरतला पूर्व में 5 कि॰मी॰ दूर है। यहां चौदह मूर्तियों वाला मंदिर है जहां जुलाई माह में श्रद्धालु कड़छी-पूजा के लिए एकत्र होते हैं। यहां आटोरिक्शा, बस और जीप द्वारा पहुंचा जा सकता है। उज्जयन्त महल इस महल को महाराजा राधा किशोर माणिक्य ने बनवाया था। अगरतला जाने पर इस महल को जरूर घूमना चाहिए। इसका निर्माण कार्य 1901 में पूरा हुआ था और फिलहाल इसका इस्तेमाल राज्य विधानसभा के रूप में किया जा रहा है। नीरमहल मुख्य शहर से 53 किमी दूर स्थित इस खूबसूतर महल को महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य ने बनवाया था। रुद्रसागर झील के बीच में स्थित इस महल में महाराजा गर्मियों के समय ठहरते थे। महल निर्माण में इस्लामिक और हिंदू वास्तुशिल्प का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है, जिससे इसे काफी ख्याति भी मिली है। जगन्नाथ मंदिर अगरतला के सर्वाधिक पूजनीय मंदिरों में से एक जन्नाथ मंदिर अपनी अनूठी वास्तुशिल्पीय शैली के लिए जाना जाता है। यह एक अष्टभुजीय संरचना है और मंदिर के पवित्र स्थल के चारों ओर आकर्षक प्रधक्षण पठ है। महाराजा बीर बिक्रम कॉलेज जैसा कि नाम से ही जाहिर है, इस कॉलेज को महाराजा बीर बिक्रम सिंह ने बनवाया था। 1947 में इस कॉलेज को बनवाने पीछे महाराजा कि मंशा स्थानीय युवाओं को व्यवसायिक और गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना था। लक्ष्मीनारायण मंदिर इस मंदिर में हिंदू धर्म को मानने वाले नियमित रूप से जाते हैं। साथ ही यह अगरतला का एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। इस मंदिर को कृष्णानंद सेवायत ने बनवाया था। रवीन्द्र कानन राज भवन के बगल में स्थित रवीन्द्र कानन एक बड़ा सा हरा-भरा गार्डन है। यहां हर उम्र के लोग आते हैं। कुछ तो यहां मौज मस्ती के मकसद से आते हैं, वहीं कुछ इसका इस्तेमाल प्ले ग्राउंड के तौर पर भी करते हैं। पिछले कुछ सालों में चावल, तिलहन, चाय और जूट के नियमित व्यापार से अगरतला पूर्वोत्तर भारत के एक व्यवसायिक गढ़ के रूप में भी उभरा है। शहर में कुछ फलते-फूलते बाजार हैं, जिन्हें घूमना बेकार नहीं जाएगा। इन बाजारों में बड़े पैमाने पर हस्तशिल्प और ऊन से बने वस्त्र आपको मिल जाएंगे। वेणुवन विहार यह अगरतला के केन्द्र से लगभग २ किमी की दूरी पर स्थित एक बौद्ध मन्दिर है। वेणुवन विहार, त्रिपुरा राज्य के सबसे प्रमुख आकर्षणों में से एक है। इस विहार की संरचना में विशिष्ट त्रिपुरी शैली की वास्तुकला का प्रभाव है। इस विहार में लाल रंग का गर्भगृह है जो भगवान बुद्ध को समर्पित है। बहुत पहले वर्मा में बनायी जाने वाली भगवान बुद्ध और बोधिसत्व की विशिष्ट धातु की मूर्तियों के लिए वेणुवन का यह विहार बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच जाना जाता है। यह स्थान घने पेड़ों की झाड़ियों से घिरा हुआ है। 'बुद्ध पूर्णिमा' वेणुवन विहार में संपूर्ण उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इसमें मुख्य रूप से 'चकमा' और 'मोग' लोग शामिल हैं। इन्हें भी देखें त्रिपुरा हावड़ा नदी पश्चिम त्रिपुरा ज़िला सन्दर्भ त्रिपुरा के शहर पश्चिम त्रिपुरा ज़िला पश्चिम त्रिपुरा ज़िले के नगर भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ
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मुज़फ़्फ़रपुर भारत के बिहार राज्य के तिरहुत प्रमण्डल के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह बूढ़ी गण्डक नदी के किनारे बसा हुआ है। विवरण मुज़फ़्फ़रपुर उत्तरी बिहार का एक प्रमुख शहर है। अपने सूती वस्त्र उद्योग,लाह (लाख)की चूड़ियों, शहद तथा आम और लीची जैसे फलों के उम्दा उत्पादन के लिये यह जिला पूरे विश्व में जाना जाता है, खासकर यहाँ की शाही लीची का कोई जोड़ नहीं है। यहाँ तक कि भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भी यहाँ से लीची भेजी जाती है। बिहार के जर्दालु आम, मगही पान और कतरनी धान को जीआइ टैग (ज्योग्रफिकल इंडिकेशन) मिल चुका है। अब शाही लीची को भी जल्द जीआइ मिल जाएगा। 2017 मे मुज़फ़्फ़रपुर स्मार्ट सिटी के लिये चयनित हुआ है। अपने उर्वरक भूमि और स्वादिष्ट फलों के स्वाद के लिये मुज़फ़्फ़रपुर देश विदेश मे "स्वीटसिटी" के नाम से जाना जाता है। मुज़फ़्फ़रपुर थर्मल पावर प्लांट देशभर के सबसे महत्वपूर्ण बिजली उत्पादन केंद्रो मे से एक है। इतिहास प्राचीन काल में मुजफ्फरपुर मिथिला (तिरहुत) राज्य का अंग था। बाद में मिथिला में वज्जि गणराज्य की स्थापना हुई। तीसरी सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से यह पता चलता है कि यह क्षेत्र काफी समय तक महाराजा हर्षवर्धन के शासन में रहा। उनकी मृत्यु के बाद स्थानीय क्षत्रपों का कुछ समय शासन रहा तथा आठवीं सदी के बाद यहाँ बंगाल के पाल वंश के शासकों का शासन शुरु हुआ जो 1019 तक जारी रहा। तिरहुत पर लगभग 11 वीं सदी में चेदि वंश का भी कुछ समय शासन रहा। सन 1211 से 1226 बीच गैसुद्दीन एवाज़ तिरहुत का पहला मुसलमान शासक बना। चम्पारण के सिमराँव वंश के शासक हरसिंह देव के समय 1323 ईस्वी में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक ने इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया लेकिन उसने सत्ता मिथिला के शासक कामेश्वर ठाकुर को सौंप दी। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया जो तबतक जारी रहा जबतक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोदी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया। इसके बाद विभिन्न मुग़ल शासकों और बंगाल के नवाबों के प्रतिनिधि इस क्षेत्र का शासन चलाते रहे। पठान सरदार दाऊद खान को हराने के बाद मुगलों ने नए बिहार प्रांत का गठन किया जिसमें तिरहुत को शामिल कर लिया गया। 1764 में बक्सर की लडाई के बाद यह क्षेत्र सीधे तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के अधीन हो गया। सन 1875 में प्रशासनिक सुविधा के लिये तिरहुत का गठन कर मुजफ्फरपुर जिला बनाया गया। मुजफ्फरपुर ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अत्यंत महत्वपूरण भूमिका निभाई है। महात्मा गाँधी की दो यात्राओं ने इस क्षेत्र के लोगों में स्वाधीनता के चाह की नयी जान फूँकी थी। खुदीराम बोस, जुब्बा साहनी तथा पण्डित सहदेव झा जैसे अनेक क्रांतिकारियों की यह कर्मभूमि रही है। 1930 के नमक आन्दोलन से लेकर 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के समय तक यहाँ के क्रांतिकारियों के कदम लगातार आगे बढ़ते रहे। मुजफ्फरपुर का वर्तमान नाम ब्रिटिस काल के राजस्व अधिकारी मुजफ्फर खान के नाम पर पड़ा है। 1972 तक मुजफ्फरपुर जिले में शिवहर, सीतामढी तथा वैशाली जिला शामिल था। मुजफ्फरपुर को इस्लामी और हिन्दू सभ्यताओं की मिलन स्थली के रूप में भी देखा जाता रहा है। दोनों सभ्यताओं के रंग यहाँ गहरे मिले हुये हैं और यही इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान भी है। भूगोल क्षेत्रफलः 3172 किमी२ नदियाँ: गंडक, बूढी गंडक, बागमती तथा लखनदेई मौसम मुजफ्फरपुर का मौसम गर्मियों में, अप्रैल से जून, महीनों के बीच अत्यंत गर्म एवं नम रहता है (28/40 °C,90% अधिकतम्)। इसके मुकाबले सर्दियां काफ़ी सुखद एवं शीतल होती हैं। राजनीतिक विभाजन अनुमंडलः पूर्वी अनुमंडल तथा पश्चिमी अनुमंडल प्रखंडः १६ औराई, बोचहाँ, गायघाट, कटरा, मीनापुर, मुरौल, मुसहरी, सकरा, काँटी, कुढनी, मोतीपुर, पारु, साहेबगंज, सरैयाबंदरा मरवां पंचायतों की संख्या: ३८७ गाँवों की संख्या: १८११ भारत के बड़े गाव में से एक जजुआर कटरा ब्लाक में है शिक्षण संस्थान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय लंगट सिंह महाविद्यालय मुजफ्फरपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी दर्शनीय स्थल बसोकुंड: जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली के निकट बसोकुंड में लिच्छवी कुल में हुआ था। यह स्थान जैन धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत पवित्र है। यहाँ अहिंसा एवं प्राकृत शिक्षा संस्थान भी है। जुब्बा साहनी पार्क: भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जुब्बा साहनी ने १६ अगस्त १९४२ को मीनापुर थाने के इंचार्ज लियो वालर को आग में जिंदा झोंक दिया था। बाद में पकड़े जाने पर उन्हें ११ मार्च १९४४ को फांसी दे दी गयी। जिले के इस महान स्वतंत्रता सेनानी की याद में बनाया गया पार्क दर्शनीय है। बा‍बा गरीबनाथ मंदिर: मुजफ्फरपुर के इस शिव मंदिर को देवघर के समान आदर प्राप्त है। सावन के महीने में यहाँ शिवलिंग का जलाभिषेक करने वालों भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। देवी मंदिर: कोठिया मजार (कांटी) शिरूकहीं शरीफ (कांटी):-तेगे अली शाह का मज़ार। शहीद खुदीराम स्‍मारक: मज़ार हज़रत दाता कम्मल शाह मज़ार हज़रत दाता मुज़फ़्फ़रशाह इन्ही के नाम से जिला का नाम है चामुडा स्थान, कटरा। सूफी मौलाना इब्राहिम रहमानी मजार इस्लामपुर छह्न्न्मास्तिका मन्दिर (कांटी) मां मनोकामना मन्दिर (प्रतापपुर) बाबाजी मनोकामनामहादेव ब्रह्म (प्रतापपुर) आवागमन हवाई मार्ग यहाँ का सबसे नजदीकी पताही हवाई अड्डा जो ४ किलोमीटर पर अवस्थित है लम्बे समय से बंद परा है। सामान्य हवाई अड्डा ८० किलोमीटर दूर पटना में स्थित है। एक अन्य हवाई अड्डा दरभंगा में स्थित है जो सैनिक उद्देश्यों के लिए बना है। रेल मार्ग मुजफ्फरपुर भारतीय रेल के पूर्व मध्य रेलवे क्षेत्र के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह शहर रेलमार्ग से भारत के महत्वपूर्ण शहरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से गोरखपुर और हाजीपुर या मोतिहारी होते हुए मुजफ्फरपुर पहुंचा जा सकता है। मुजफ्फरपुर उतर-पूर्व भारतीय राज्‍यों से भी ट्रेन माध्‍यम से जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग मुजफ्फरपुर बिहार के अन्‍य शहरों से सड़क के माध्‍यम से अच्‍छी तरह से जुड़ा हुआ है। हाजीपुर से प्रारंभ होकर सोनबरसा (सीतामढी) जानेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग ७७ मुजफ्फरपुर होकर जाती है। लखनऊ से बरौनी को जोडनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मुजफ्फरपुर से गुजरती है। इसके अलावे राष्ट्रीय राजमार्ग ५७ तथा १०२ एवं राजकीय राजमार्ग ४६ तथा ४८ भी यहाँ से गुजरती है। राजधानी पटना से मुजफ्फरपुर (78 कि॰मी॰) के लिए हाजीपुर होकर नियमित बस सेवाएं हैं। पड़ोसी जिलों के लिए भी मुजफ्फरपुर से अच्छी बस सेवा उपलब्ध है। जलमार्ग जिले के पश्चिमी सीमा से गुजरनेवाली गंडक नदी नौका गम्य है लेकिन मानसून के दिनों में यह परिवहन योग्य नहीं रहती। इन्हें भी देखें मैथिली मिथिला मुज़फ्फरपुर ज़िला वातावरण इस शहर मे प्रदूषण एक बड़ी समस्या है इस शहर का नाम देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों मे शुमार है कचड़ा प्रबंधन और जल निकासी एक बड़ी समस्या है बारिश के दिनों मे यहाँ के लोगो को जल जमाव जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है अंग्रेजी में जिले का आधिकारिक जालस्थल मुजफ्फरपुर स संबंधित इतिहास सन्दर्भ मुज़फ्फरपुर जिला बिहार के शहर मुज़फ्फरपुर ज़िले के नगर
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मधुबनी भारत के बिहार प्रान्त में दरभंगा प्रमंडल अंतर्गत एक जिला है। दरभंगा एवं मधुबनी को मिथिला संस्कृति का द्विध्रुव माना जाता है। मैथिली यहाँ की प्रमुख भाषा है। विश्वप्रसिद्ध मिथिला पेंटिंग एवं मखाना के पैदावार की वजह से मधुबनी को विश्वभर में जाना जाता है। इस जिला का गठन 1972 में दरभंगा जिले के विभाजन के उपरांत हुआ था।मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है। वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया। उनकी ये पहल निःशुल्क अर्थात श्रमदान के रूप में की गई थी। श्रमदान स्वरूप किये गए इस अदभुत कलाकृतियों को विदेशी पर्यटकों व सैनानियों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है। नामाकरण उत्तर बिहार के पूर्णिया जिले में स्थित है मधुरौट शाखा के मधुवंशी यादव क्षत्रियों का नज़रगंज राजघराना जिसका पूरे बंगाल प्रेसिडेंसी में एक अलग रूतबा था।इन यदुवंशियों इतिहास मथुरा से शुरू होने के कारण ही मधुरौट वंश कहलाया, महाराज मधु के नाम से ये मधुवंशी या माधव वंशी भी कहलाते हैं, द्वारकाधीश के पूर्वज और महराज यदु के पीढ़ी में जन्मे महाराज मधु बहुत ही प्रतापी राजा थे। उन्होंने हीं मथुरा शहर की स्थापना की थी तथा इनके प्रताप के कारण हीं द्वारकाधीश भगवान् श्रीकृष्णचंद्र को माधव भी कहा जाता है। कालांतर में यादव राजस्थान तथा मथुरा से विस्थापित होते हुए बिहार में प्रवेश किया अपने पूर्वज महाराज मधु के नाम पर मधुबनी तथा मधेपुरा जैसे इलाके आबाद करते हुए पूर्णियां के नज़रगंज राजघराना का स्थापना कर वहीं बस गए। मधुबनी जिले के प्राचीनतम ज्ञात निवासियों में किरात, भार, थारु जैसी जनजातियाँ शामिल है। वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर कूच किया और इस क्षेत्र में विदेह राज्य की स्थापना की। विदेह के राजा मिथि के नाम पर यह प्रदेश मिथिला कहलाने लगा। रामायणकाल में मिथिला के राजा सिरध्वज जनक की पुत्री सीता का जन्म मधुबनी की सीमा पर स्थित सीतामढी में हुआ था। विदेह की राजधानी जनकपुर, जो आधुनिक नेपाल में पड़ता है, मधुबनी के उत्तर-पश्चिमी सीमा के पास है। बेनीपट्टी के पास स्थित फुलहर के बारे में ऐसी मान्यता है कि यहाँ फुलों का बाग था जहाँ से सीता फुल लेकर गिरिजा देवी मंदिर में पूजा किया करती थी। पंडौल के बारे में यह प्रसिद्ध है कि यहाँ पांडवों ने अपने अज्ञातवाश के कुछ दिन बिताए थे। विदेह राज्य का अंत होने पर यह प्रदेश वैशाली गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया। उत्तरी भाग जिसके अंतर्गत मधुबनी, दरभंगा एवं समस्तीपुर का उत्तरी हिस्सा आता था, ओईनवार राजा कामेश्वर सिंह के अधीन रहा। ओईनवार राजाओं ने मधुबनी के निकट सुगौना को अपनी पहली राजधानी बनायी। १६ वीं सदी में उन्होंने दरभंगा को अपनी राजधानी बना ली। ओईनवार शासकों को इस क्षेत्र में कला, संस्कृति और साहित्य का बढावा देने के लिए जाना जाता है। MP Board 12th Blueprint 2023 Bihar Board 12th Model Paper 2023 MP Board 10th Blueprint 2023 १८४६ इस्वी में ब्रिटिस सरकार ने मधुबनी को तिरहुत के अधीन अनुमंडल बनाया। १८७५ में दरभंगा के स्वतंत्र जिला बनने पर यह इसका अनुमंडल बना। स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के खादी आन्दोलन में मधुबनी ने अपना विशेष पहचान कायम की और १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में जिले के सेनानियों ने जी जान से शिरकत की। स्वतंत्रता के पश्चात १९७२ में मधुबनी को स्वतंत्र जिला बना दिया गया। भौगोलिक स्थिति मधुबनी के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में दरभंगा, पुरब में सुपौल तथा पश्चिम में सीतामढी जिला है। कुल क्षेत्रफल ३५०१ वर्ग किलोमीटर है जो भूकंप क्षेत्र ५ में पड़ता है। नदियों का यहाँ जाल बिछा है जो बरसात के दिनों में हर साल लोगों के तबाही का कारण बनती है। वर्ष २००७ में आए भीषण बाढ में 331 पंचायत (110 पूर्ण रूप से तथा 221 आंशिक रूप से) तथा 836 गाँवों के 372599 परिवार बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। समूचा जिला एक समतल एवं उपजाऊ क्षेत्र है। औसत सालाना १२७३ मिमी वर्षा का अधिकांश मॉनसून से प्राप्त होता है। नदियाँ: कमला, करेह, बलान, भूतही बलान, गेहुंआ, सुपेन, त्रिशुला, जीवछ, कोशी और अधवारा समूह। अधिकांश नदियाँ बरसात के दिनों में उग्र रूप धारण कर लेती है। कोशी नदी जिले की पूर्वी सीमा तथा अधवारा या छोटी बागमती पश्चिमी सीमा बनाती है। प्रशासनिक विभाजन यह जिला 5 अनुमंडल, 21 प्रखंडों, 399 पंचायतों तथा 1111 गाँवों में बँटा है। विधि व्यवस्था संचालन के लिए 18 थाने एवं 2 जेल है। पूर्ण एवं आंशिक रूप से मधुबनी जिला 2 संसदीय क्षेत्र एवं 11 विधान सभा क्षेत्र में विभाजित है। अनुमंडल- मधुबनी, बेनीपट्टी, झंझारपुर, जयनगर एवं फुलपरास प्रखंड- मधुबनी सदर (रहिका), पंडौल, बिस्फी, जयनगर, लदनिया, लौकहा, झंझारपुर, बेनीपट्टी, बासोपट्टी, राजनगर, मधेपुर, अंधराठाढ़ी, बाबूबरही, खुटौना, खजौली, घोघरडीहा, मधवापुर, हरलाखी, लौकही, लखनौर, फुलपरास, कलुआही कृषि एवं उद्योग मधुबनी मूलतः एक कृषि प्रधान जिला है। यहाँ की मुख्य फसलें धान, गेहूं, मक्का, मखाना आदि है। भारत में मखाना के कुल उत्पादन का 80% मधुबनी में होता है। आधारभूत संरचना का अभाव एवं निम्न शहरीकरण (मात्र 3.65%) उद्योगों के विकाश में बाधा है। अभी मधुबनी पेंटिंग की 76 पंजीकृत इकाईयाँ, फर्नीचर उद्योग की 13 पंजीकृत इकाईयाँ, 3 स्टील उद्योग, 03 प्रिंटिंग प्रेस, 03 चूरा मिल, 01 चावल मिल तथा 3000 के आसपास लघु उद्योग इकाईयाँ जिले में कार्यरत है। पशुपालन एवं डेयरी को आधार बनाकर इनपर आधारित उद्योग लगाया जा सकता है लेकिन अभी तक मात्र ३० दुग्ध समीतियाँ ही कार्यरत है। मछली, मखाना, आम, लीची तथा गन्ना जैसे कृषि उत्पाद के अलावे मधुबनी से पीतल की बरतन एवं हैंडलूम कपड़े का राज्य में तथा बाहर निर्यात किया जाता है। शैक्षणिक संस्थान शिक्षा के प्रसार के मामले में मधुबनी एक पिछड़ा जिला है। साक्षरता मात्र 58.62% है जिसमें स्त्रियों की साक्षरता दर महज 26.54% है। आधारभूत संरचना के अभाव को शिक्षा क्षेत्र में पिछड़ेपन का मुख्य कारण माना जाता है। जिले में शिक्षण संस्थानों की कुल संख्या इस प्रकार है: प्राथमिक विद्यालयः 901 मध्य विद्यालयः 382 माध्यमिक विद्यालयः 119 डिग्री कॉलेजः 27 स्थिति में सुधार हेतु बिहार शिक्षा परियोजना के अधीन अभी 98 प्राथमिक विद्यालय खोले गए हैं तथा 83 प्राथमिक विद्यालयों को मध्य विद्यालय में उत्क्रमित किया जा रहा है। मधुबनी जिले के तमाम कॉलेज ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा से संवद्ध हैं जबकि आबादी को देखते हुए जिले में एक विश्वविद्यालय की सख्त आवश्यकता है। इसके अलावा यहां मेडिकल कॉलेज और अन्य इंजीनियरिंग कॉलेज भी नहीं है। मधुबनी के लोग पढ़ाई लिखाई में काफी जहीन माने जाते हैं और उन्होंने राज्य और देश के अंदर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। कम साक्षरता के बावजूद यहां के लोग बड़ी संख्या में आईएएस, आईपीएस और अन्य सेवाओं में चुनकर जाते रहे हैं। लेकिन पढ़ वहीं पाते हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं और जुनूनी है साथ ही जिनका जागरुक समाजिक परिवेश है। मधुबनी में वैसे तो एक नवोदय विद्यालय है लेकिन उसकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है। मधुबनी को कम से कम ५ डिग्री कॉलेज, एक मेडिकल कॉलेज और पांच इंजिनयरींग कॉलेजों की सख्त आवश्यकता है। यहां के बच्चे जमीन बेचकर कर्नाटक, महाराष्ट्र और अन्य सूबों में डिग्री पाने जाते हैं जिसकी गुणवत्ता भी संदिग्ध होती है साथ ही राज्य का राजस्व भी दूसरे राज्य में चला जाता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इस जिले से इतने कद्दावर नेताओं के संसद और विधानसभा पहुंचने के बाद भी जनता को ठगने का सिलसिला जारी है और शिक्षा अभी तक राजनीतिक एजेंडे पर नहीं आ पाई है। शायद देश के अन्य हिस्सों का भी कमोवेश यहीं हाल है। राम कृष्ण महाविद्यालय, मधुबनी जगदीश नंदन सिंह महाविद्यालय देवनारायण यादव महाविद्यालय मिथिला चित्रकला संस्थान रमा प्रसाद दत्त जनता उच्च विद्यालय कला एवं संस्कृति मधुबनी मिथिला संस्कृति का अंग एवं केंद्र विंदु रहा है। राजा जनक और सीता का वास स्थल होने से हिंदुओं के लिए यह क्षेत्र अति पवित्र एवं महत्वपूर्ण है। मिथिला पेंटिंग के अलावे मैथिली और संस्कृत के विद्वानों ने इसे दुनिया भर में खास पहचान दी है। प्रसिद्ध लोककलाओं में सुजनी (कपडे की कई तहों पर रंगीन धागों से डिजाईन बनाना), सिक्की-मौनी (खर एवं घास से बनाई गई कलात्मक डिजाईन वाली उपयोगी वस्तु) तथा लकड़ी पर नक्काशी का काम शामिल है। सामा चकेवा एवं झिझिया मधुबनी का लोक नृत्य है। मैथिली, हिंदी तथा उर्दू यहाँ की मुख्‍य भाषा है। यह जिला महाकवि कालीदास, मैथिली कवि विद्यापति तथा वाचस्पति जैसे विद्वानों की जन्मभूमि रही है। मधुबनी पेंटिंगः पर्व त्योहारों या विशेष उत्सव पर यहाँ घर में पूजागृह एवं भित्ति चित्र का प्रचलन पुराना है। १७वीं शताब्दी के आस-पास आधुनिक मधुबनी कला शैली का विकास माना जाता है। मधुबनी शैली मुख्‍य रूप से जितवारपुर (ब्राह्मण बहुल) और रतनी (कायस्‍थ बहुल) गाँव में सर्वप्रथम एक व्‍यवसाय के रूप में विकसित हुआ था। यहाँ विकसित हुए पेंटिंग को इस जगह के नाम पर ही मधुबनी शैली का पेंटिग कहा जाता है। इस पेंटिग में पौधों की पत्तियों, फलों तथा फूलों से रंग निकालकर कपड़े या कागज के कैनवस पर भरा जाता है। मधुबनी पेंटिंग शैली की मुख्‍य खासियत इसके निर्माण में महिला कलाकारों की मुख्‍य भूमिका है। इन लोक कलाकारों के द्वारा तैयार किया हुआ कोहबर, शिव-पार्वती विवाह, राम-जानकी स्वयंवर, कृष्ण लीला जैसे विषयों पर बनायी गयी पेंटिंग में मिथिला संस्‍कृति की पहचान छिपी है। पर्यटकों के लिए यहाँ की कला और संस्‍कृति खासकर पेंटिंग कौतुहल का मुख्‍य विषय रहता है। मैथिली कला का व्‍यावसायिक दोहन सही मायने में १९६२ में शुरू हुआ जब एक कलाकार ने इन गाँवों का दौरा किया। इस कलाकार ने यहां की महिला कलाकारों को अपनी पेंटिंग कागज पर उतारने के लिए प्रेरित किया। यह प्रयोग व्‍यावसायिक रूप से काफी कारगर साबित हुई। आज मधुबनी कला शैली में अनेकों उत्‍पाद बनाए जा रहे हैं जिनका बाजार फैलता ही जा रहा है। वर्तमान में इन पेंटिग्‍स का उपयोग बैग और परिधानों पर किया जा रहा है। इस कला की मांग न केवल भारत के घरेलू बाजार में बढ़ रही है वरन विदेशों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। अन्य उत्पादों में कार्ड, परिधान, बैग, दरी आदि शामिल है। चित्रकला मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है। वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया। उनकी ये पहल निःशुल्क अर्थात श्रमदान के रूप में किया गया। श्रमदान स्वरूप किये गए इस अदभुत कलाकृतियों को विदेशी पर्यटकों व सैनानियों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है। माना जाता है ये चित्र राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के दौरान महिला कलाकारों से बनवाए थे। पहले तो सिर्फ ऊंची जाति की महिलाओं (जैसे ब्राह्मणों) को ही इस कला को बनाने की इजाजत थी लेकिन वक्त के साथ ये सीमाएँ भी खत्म हो गईं। आज मिथिलांचल के कई गांवों की महिलाएँ इस कला में दक्ष हैं। अपने असली रूप में तो ये पेंटिंग गांवों की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में देखने को मिलती थी, लेकिन इसे अब कपड़े या फिर पेपर के कैनवास पर खूब बनाया जाता है। समय के साथ साथ चित्रकार कि इस विधा में पासवान जाति के समुदाय के लोगों द्वारा राजा शैलेश के जीवन वृतान्त का चित्रण भी किया जाने लगा। इस समुदाय के लोग राजा सैलेश को अपने देवता के रूप में पूजते भी हैं। इस चित्र में खासतौर पर कुल देवता का भी चित्रण होता है। हिन्दू देव-देवताओं की तस्वीर, प्राकृतिक नजारे जैसे- सूर्य व चंद्रमा, धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी और विवाह के दृश्य देखने को मिलेंगे। मधुबनी पेंटिंग दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन या अल्पना। चटख रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। कुछ हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। यह जानकर हैरानी होगी की इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग किया जाता है। और दूध। भित्ति चित्रों के अलावा अल्पना का भी बिहार में काफी चलन है। इसे बैठक या फिर दरवाजे के बाहर बनाया जाता है। पहले इसे इसलिए बनाया जाता था ताकि खेतों में फसल की पैदावार अच्छी हो लेकिन आजकल इसे घर के शुभ कामों में बनाया जाता है। चित्र बनाने के लिए माचिस की तीली व बाँस की कलम को प्रयोग में लाया जाता है। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता है। समय के साथ मधुबनी चित्र को बनाने के पीछे के मायने भी बदल चुके हैं, लेकिन ये कला अपने आप में इतना कुछ समेटे हुए हैं कि यह आज भी कला के कद्रदानों की चुनिन्दा पसंद में से है। चित्रण से पूर्व हस्त नर्मित कागज को तैयार करने के लिऐ कागज पर गाय के गोबर का घोल बनाकर तथा इसमें बबूल का गोंद डाला जाता है। सूती कपड़े से गोबर के घोल को कागज पर लगाया जाता है और धूप में सुखाने के लिए रख दिया जाता है। मधुबनी चित्रकला दीवार, केन्वास एवं हस्त निर्मित कागज पर वर्तमान समय में चित्रकारों द्वारा बनायी जाती हैं। मधुबनी भित्ति चित्र में मिट्टी (चिकनी) व गाय के गोबर के मिश्रण में बबूल की गोंद मिलाकर दीवारों पर लिपाई की जाती है। गाय के गोबर में एक खास तरह का रसायन पदार्थ होने के कारण दीवार पर विशेष चमक आ जाती है। इसे घर की तीन खास जगहों पर ही बनाने की परंपरा है, जैसे- पूजास्थान, कोहबर कक्ष (विवाहितों के कमरे में) और शादी या किसी खास उत्सव पर घर की बाहरी दीवारों पर। मधुबनी पेंटिंग में जिन देवी-देवताओं का चित्रण किया जाता है, वे हैं- मां दुर्गा, काली, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गौरी-गणेश और विष्णु के दस अवतार इत्यादि। इन तस्वीरों के अलावा कई प्राकृतिक और रम्य नजारों की भी पेंटिंग बनाई जाती है। पशु-पक्षी, वृक्ष, फूल-पत्ती आदि को स्वस्तिक की निशानी के साथ सजाया-संवारा जाता है। पर्यटन स्थल राजनगर- राजनगर मधुबनी जिले का एक एतिहासिक महत्व जगह है। यह एक जमाने में महाराज दरभंगा की उप-राजधानी हुआ करता था। यह महाराजा रामेश्वर सिंह के द्वारा बसाया गया था। उन्होंने यहां एक भव्य नौलखा महल का निर्माण करवाया लेकिन १९३४ के भूकंप में उस महल को काफी क्षति पहुंची और अभी भी यह भग्नावशेष के रूप में ही है। इस महल में एक प्रसिद्ध और जाग्रत देवी काली का मंदिर है जिसके बारे में इलाके के लोगों में काफी मान्यता और श्रद्धा है। जब इस नगर को रामेश्वर सिंह बसा रहे थे उस वक्त वे महाराजा नहीं, बल्कि परगने के मालिक थे। राजा के छोटे भाई और संबंधियों को परगना दे दिया जाता था जिसके मालिक को बाबूसाहब कहा जाता था। बाद में अपने भाई महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की मृत्यु के बाद, रामेश्वर सिंह, दरभंगा की गद्दी पर बैठे। लेकिन १९३४ के भूकंप ने राजनगर के गौरव को ध्वस्त कर दिया। हलांकि यहां का भग्नावशेष अवस्था में मौजूद राजमहल और परिसर अभी भी देखने लायक है। राजनगर, मधुबनी जिला मुख्यालय से करीब ७ किलोमीटर उत्तर में है और मधुबनी-जयनगर रेलवे लाईन यहां से होकर गुजरती है। यह मधुबनी-लौकहा रोड पर ही स्थिति है और यातायात के साधनों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यहां प्रखंड मुख्यालय, कॉलेज, हाईस्कूल, पुलिस स्टेशन, सिनेमा हॉल आदि है। एक जमाने में नदी कमला इसके पूरव से होकर बहती थी। अब उसने अपनी धारा करीब ७ किलोमीटर पूरव खिसका ली है और भटगामा-पिपराघाट से होकर बहती है। राजनगर से उत्तर खजौली, दक्षिण मधुबनी, पूरव बाबूबरही और पश्चिम रहिका ब्लाक है। यहां से बलिराजगढ़ की दूरी २० किलोमीटर है, जो मौर्यकाल से भी पुराना ऐतिहासिक किला माना जाता है। सौराठ: मधुबनी-जयनगर रोड पर स्थित इस गाँव में सोमनाथ महादेव का मंदिर है। यहाँ मैथिल ब्राह्मणों की प्रतिवर्ष होनेवाली सभा में विवाह तय किए जाते हैं। इस गाँव में तथा अन्यत्र रहने वाले पंजीकार इस क्षेत्र के ब्राह्मणों की वंशावली रखते हैं और विवाह तय करने में इनकी अहम भूमिका होती है। कपिलेश्वरनाथ: मधुबनी से ९ किलोमीटर दूर इस स्थान पर अति पूज्य कपिलेश्वर शिव मंदिर है। प्रत्येक सोमवार तथा सावन के महीने में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा होती है। महाशिवरात्रि को यहाँ मेला भी लगता है। बाबा मुक्तेश्वरनाथ स्थान: भगवान शिव को समर्पित श्री श्री १०८ बाबा मुक्तेश्वरनाथ (मुक्तेश्वर स्थान) शिव मंदिर एक हिन्दू धर्म - स्थल है जो बिहार राज्य के मधुबनी जिला अन्तर्गत्त अंधराठाढ़ी प्रखंड के देवहार ग्राम में स्थित है। बलिराज गढ़ : यहां प्राचीन किला का एक भग्नावशेष है जो करीब ३६५ बीघे में फैला हुआ है। यह स्थान जिला मुख्यालय से करीब ३४ किलोमीटर उत्तर-पूर्व में मधुबनी-लौकहा सड़के के किनारे स्थित है। यह नजदीकी गांव खोजपुर से सड़क मार्ग से जुड़ा है जहां से इसकी दूरी १। ५ किलोमीटर के करीब है। इसके उत्तर में खोजपुर, दक्षिण में बगौल, पूरब में फुलबरिया और पश्चिम में रमणीपट्टी गांव है। इस किले की दीवार काफी मोटी है और ऐसा लगता है कि इसपर से होकर कई रथ आसानी से गुजर जाते होंगे। यह स्थान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है और यहां उसके कुछ कर्मचारी इसकी देखभाल करते हैं। पुरातत्व विभाग ने दो बार इसकी संक्षिप्त खुदाई की है और इसकी खुदाई करवाने में मधुबनी के पूर्व सीपीआई सांसद भोगेंद्र झा और स्थानीय कुदाल सेना के संयोजक सीताराम झा का नाम अहम है। यहां सलाना रामनवमी के अवसर पर चैती दुर्गा का भव्य आयोजन होता है जिसमें भारी भीड़ उमड़ती है। इसकी खुदाई में मौर्यकालीन सिक्के, मृदभांड और कई वस्तुएं बरामद हुई हैं। लेकिन पूरी खुदाई न हो सकने के कारण इसमें इतिहास का वहुमूल्य खजाना और ऐतिहासिक धरोहर छुपी हुई है। कई लोगों का मानना है कि बलिराज गढ़ मिथिला की प्राचीन राजधानी भी हो सकती है क्योंकि वर्तमान जनकपुर के बारे में कोई लोगों को इसलिए संदेह है क्योंकि वहां की इमारते काफी नई हैं। दूसरी बात ये कि रामायण अन्य विदेशी यात्रियों के विवरण से संकेत मिलता है कि मिथिला की प्राचीन राजधानी होने के पर बलिराजगढ़ का दावा काफी मजबूत है। इसके बगल से दरभंगा-लौकहा रेल लाईन भी गुजरती है और नजदीकी रेलवे हाल्ट बहहड़ा यहां से मात्र ३ किलोमीटर की दूरी पर है। इसके अगल-बगल के गांव भी ऐतिहासिक नाम लिए हुए हैं। रमणीपट्टी के बारे में लोगों की मान्यता है कि यहां राजा का रनिवास रहा होगा। फुलबरिया, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है फूलो का बाग रहा होगा। बगौल भी बिगुल से बना है जबकि कुछ ही दूरी पर नवनगर नामका गांव है। जो गरही गाँव इसके नजदीक में है। बलिराज गढ़ में हाल तक करीब ५० साल पहले तक घना जंगल हुआ करता था और पुराने स्थानीय लोग अभी भी इसे वन कहते हैं जहां पहले कभी खूंखार जानवर विचरते थे। वहां एक संत भी रहते थे जिनके शिष्य से धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने दीक्षा ली थी। कुल मिलाकर, बलिराजगढ़ अभी भी एक व्यापक खुदाई का इंतजार कर रहा है और इतिहास की कई सच्चाईयों को दुनिया के सामने खोलने के लिए बेकरार है। इस के नजदीक एक उच्च विद्यालय नवनगर में है जो इस दश किलो मिटर के अन्तर्गत एक उच्च विद्यालय है जो नवनगर में शिक्षा के लिए जाना जाता है। भगवती स्थान उचैठ: भगवती स्थान उचैठ  मधुबनी जिला के बेनीपट्टी अनुमंडल से मात्र ४ किलोमीटर की दुरी पर पश्चिम दिशा की ओर स्थित है|  यह स्थान मिथिला में एक प्रसिद्द  सिद्धपीठ के नाम से जाना जाता है | भगवती मन्दिर के गर्भगृह में माँ दुर्गा सिंह पर कमल के आसन पर विराजमान हैं | दुर्गा माँ सिर्फ कंधे तक ही दिखाई देती हैं , कंधे से उपर इनका सिर नहीं है | इसलिए इन्हें छिन्नमस्तिका दुर्गा भी कहा जाता है | माँ दुर्गा मन्दिर के पास ही एक बहुत बड़ा स्मशान है , जहां बड़ी संख्या में तन्त्र साधक आज भी साधना में लीन रहते हैं |इस स्थान पर जो साधक जिस मनोकामना से माँ दुर्गा की दर्शन करते हैं , वो वहां से खाली हाथ वापस नहीं आते हैं | कहा जाता है कि भगवान राम जनकपुर की यात्रा के समय यहाँ रुके थे | :-महाकवि कालीदास को दिया था वरदान : कहतें हैं दुर्गा मन्दिर से पूर्व दिशा की ओर एक संस्कृत पाठशाला थी | संस्कृत पाठशाला और मंदिर के बीच एक नदी बहती थी |  कालीदास एक महामूर्ख व्यक्ति था | कालीदास का विवाह राजकुमारी विद्द्योतमा से  छल द्वारा करा दिया गया था  | विद्द्योतमा परम विदुषी महिला थी |  वह ये नहीं जानती थी कि कालीदास महामूर्ख है | जब उसे यह बात मालुम हो गयी तो उसने कालीदास का तिरस्कार किया और ये भी कह  दिया कि जब तक उन्हें  संस्कृत का ज्ञान नहीं हो जाता वापस घर ना आयें |  कालीदास अपनी पत्नी से अपमानित होकर उचैठ भगवती स्थान आ गए और वहां के आवासीय संस्कृत पाठशाला में रशोइया का कार्य करने लगे| समय बीतने लगा | कुछ दिनों के बाद वर्षा ऋतू शुरू हो गयी  | एक दिन घनघोर वर्षा होने लगी रात-दिन वर्षा होने के कारण नदी में बाढ़ आ गयी |फिर भी वर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही थी | नदी में पानी की धारा भी तेज गति से बहने लगी | शाम भी होने वाली थी | मंदिर की साफ़ सफाई , पूजा पाठ , धुप दीप , आरती सारी  व्यबस्था पाठशाला के छात्र ही करते थे | शाम हो गयी थी | मंदिर में दिया भी जलाना था , लेकिन भयंकर वर्षा और नदी में पानी की तेज धारा के कारण वे लोग मंदिर जाने में असमर्थ हो गए थे | सभी छात्रों ने मुर्ख कालीदास  को ही मंदिर में दिया जलाने को कहने लगा , कालीदास मन्दिर जाने के लिए तैयार हो गया | छात्रों ने कालीदास से यह भी कहा कि मंदिर में दिया बाती दिखाने के बाद कोई निशान लगाना नहीं भूलना | कालीदास मंदिर जाने के लिए बिना कुछ सोचे नदी में कूद गया | किसी तरह तैरते डूबते वे मंदिर पहुंच गए | मंदिर के भीतर गए और दीप जलाए | उनहोंने मन में सोचा कि निशान लगाने के लिए तो कुछ लाये नहीं | सोच ही रहा था कि उनकी नजर दीप जलने वाली स्थान पर पड़ी | जलने वाली दीप के उपर काली स्याही उभर गयी थी | उसने सोचा इसी से ही निशान लगाउंगा | फिर उसने अपनी दाहिने हथेली को स्याही पर रगड़ा| अब वह निशान देने के लिए जगह खोजने लगा | मंदिर के चारों ओर सभी जगह काली स्याही का निशान पहले से ही लगा हुआ था | निशान लगाने के लिए कोई स्थान नहीं देख उसने सोचा क्यों न भगवती के मुखमंडल पर ही निशान लगा दिया जाय क्योंकि वहां पहले से कोई निशान नहीं लगा हुआ है | यह सोचकर जैसे ही अपना श्याही लगा हुआ दाहिना हाथ भगवती के मुखमंडल की ओर निशान लगाने के लिए बढ़ाया तो भगवती प्रकट होकर कालीदास के हाथ पकड़ कर कहने लगी अरे महामुर्ख तुझे निशान लगाने के लिए मंदिर के अंदर और कोई स्थान नहीं मिला |  हम तुम पर बहुत प्रसन्न हैं जो तुम इस विकराल समय में नदी तैर कर मंदिर में दिया जलाने के लिए आये हो | मांग कोई वर मुझसे मांग | कालीदास भगवती के  वचन को सुन सोचने लगा कि मुर्ख होने के कारण ही अपनी पत्नी से तिरस्कृत हूँ | अतः उसने भगवती से विद्द्या की याचना की | माँ ने तथास्तु कहते हुए कही कि आज रात भर में जितने भी पुस्तक को तुम छू सकते हो छू लो सभी पुस्तकें  तुम्हे याद हो जायेगी | यह कहते हुए माँ अंतर्ध्यान हो गयी | वह वापस पाठशाला आया | खाना बना कर सभी छात्रों को खिलाया | अब वह छात्रों  के नीचे वर्ग की पुस्तक से लेकर उच्च वर्ग तक सभी पुस्तकों को रात भर में स्पर्श कर  लिया | पुस्तक स्पर्श करते ही माँ की कृपा से सारा पुस्तक उन्हें कंठस्त हो गया | उन्होंने काव्य पुस्तक भी लिखी | यथा कुमार संभव , रघुवंश और मेघदूत आदि | गिरिजा - शिव मंदिर : मधुबनी का प्राचीन नाम ‘मधुवन’ था |त्रेतायुग के राजा जनक जिनका राज्य काफी विस्तारित था ,की राजधानी जनकपुर के नाम से प्रसिद्ध है |कहते भी हैं - ‘मधुवन’में राम खेलत होली | जगत जननी सीता फुल लोढ़ने राजा फुलवाड़ी  गिरजा स्थान जो वर्तमान में फुलहर के नाम से प्रसिद्ध है , नित्य जाया करती थी | जनकपुर राज्य के चारों दिशाओं में चार शिवलिंग (मंदिर ) थे |पूरब में विशौल ,पश्चिम में धनुषा , उत्तर में शिवजनकं मंदिर , और दक्षिण में गिरिजा - शिव मंदिर अवस्थित था जो आज भी मौजूद है | कहा जाता है कि राम-लक्ष्मण को धनुष की शिक्षा विशौल के पास ही जंगल में दिया गया था |विशौल के ठीक १० किलोमीटर पश्चिम में गिरजा स्थान है |राम लक्ष्मण एक दिन फुलवाड़ी का दर्शन गिरजा स्थान आये जहां सीता जी की नजर राम पर और राम की नजर सीता जी पर पड़ी तो गिरजा पूजन के समय जगत-जननी जानकी जी के हाथ से पुष्प माला गिर गया वे लगाकर हंस पड़ी |तुलसी कृत रामायण में वर्णित चौपाई “खसत माल  मुड़त मुस्कानी”साक्षी है |वही राम और सीता एक दुसरे से प्रेमातुर हो गए | पति-पत्नी का मिलन युग युगांतर तक होता रहा | यह प्रमाण रामायण से मिलता है | कल्याणेश्वर महादेव मंदिर : गिरिजास्थान से कुछ ही दूरी पर कल्याणेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। महाशिवरात्रि के मौके पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां जुटते हैं। डोकहर राज राजेश्वरी मंदिर : मधुबनी से १२ किलोमीटर उत्तर बहरवन बेलाही गाँव मे माता राज राजेश्वरी का मंदिर है। भवानीपुर: पंडौल प्रखंड मुख्यालय से ५ किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में उग्रनाथ महादेव (उगना) शिव मंदिर है। बिस्फी में जन्में मैथिली के महान कवि विद्यापति से यह मंदिर जुड़ा है। मान्यताओं के अनुसार विद्यापति शिव के इतने अनन्य भक्त थे कि स्वयं शिव ने ही उगना बनकर उनकी सेवा करने लगे। कोइलख - कोइलख एक प्रमुख गाँव है जो माँ काली के लिए प्रसिद्ध है यहाँ जो मनोकामना मांगी जाती है वो जरुर पूरी होती है। गोसाउनी घर : मधुबनी के पुलिस लाइन के रूप में राजा माधवन सिंह का गोसाउनी घर भी मौजूद है |मधुबनी जिला मुख्यालय से 2 किलोमीटर की दुरी पर महंथ  भौड़ा  ग्राम स्थान  है |किवदंती है की राजा माधवन भगवती की पूजा अर्चना,साधना में इतने लीन रहते थे की पूजा आसनी, धरती से सवा हाथ ऊपर उठ जाया करती थी |मधुबनी जिला प्राचीन इतिहास की धरोहर है |यह राजा शिवसिंह ,लखिमा रानी विद्यापति , जयदेव् ,अयाची  वाचस्पति जैसे महा पंडितों की जन्म स्थली है | मंगरौनी ग्राम सारे विश्व में तंत्र-मन्त्र  मधुबनी  जिला मुख्यालय से एक किलोमीटर की दुरी पर अवस्थित मंगरौनी गाँव की देन है | मंगरौनी ग्राम में भगवती ‘बुढ़िया माय’का एक मंदिर आज भी मौजूद है | जयदेव का जन्म कवि कोकिल विद्यापति से पूर्व जयदेव का जन्म हुआ |मैथिली एवं संस्कृत साहित्य में मिथिला की गौरवपूर्ण इतिहास की झलक मिलती है |कवि चन्दा झा का रामायण ,वाचस्पति की ‘भवमती’ टीका  प्राचीन गाथा में संस्कृत भाषा में गीत गोविन्द आदि मधुबनी के गौरवमय इतिहास को प्रमाणित करते हैं | बाबा  चन्देश्वरनाथ स्थान: भगवान शिव को समर्पित श्री श्री १०८ बाबा चन्देश्वर नाथ (चन्देश्वर स्थान) शिव मंदिर एक हिन्दू धर्म - स्थल है जो बिहार राज्य के मधुबनी जिला अन्तर्गत्त अंधराठाढ़ी प्रखंड के हररी ग्राम में स्थित है। शिलानाथ धाम (महादेव जी,पार्वती मंदिर सहित अन्य कई देवी देवता) शिलानाथ धाम जयनगर प्रखंड के अंतर्गत पड़ता है,इस स्थान पे दुल्लीपट्टी होकर जाना पड़ता यहां हर साल सावन महिना में लाखों-लाख श्रद्धालुओ की भीड़ आती है,जो जयनगर में कमलानदी घाट पे स्नान करके कांवर पे जल उठाकर भगवान शिव का दर्शन करते है,शिलानाथ धाम पे बारह मास छतीसों दिन भक्त आते है महादेव का पूजा अर्चना करते हैएकादश रुद्र मंगरौनी :- मधुबनी के उत्तर में अवस्थित रूद्र के ग्यारह लिंगो का मंदिर है जो मंगरौनी कुटी के नाम से भी जाना जाता है ! उमानाथ महादेव जितवारपुर :-''' यह कलाग्राम जितवारपुर में मनोकामना लिंग के रुप में विराजमान है आवागमन सड़क मार्ग मधुबनी बिहार के सभी मुख्य शहरों से राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। मुजफ्फरपुर से फारबिसगंज होते हुए पूर्णिया जानेवाला राष्ट्रीय राजमार्ग ५७ मधुबनी जिला होते हुए जाती है। यह सड़क स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का अगल चरण है जिसे ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर कहा जाता है। इसकी योजना वाजपेयी सरकार के वक्त बनी थी। इस सड़क के बन जाने से मधुबनी, दरभंगा बल्कि पूरे मिथिला क्षेत्र की ही तकदीर बदल जाएगी। इस सड़क के तहत कोसी पर बनने वाले पुल की लंबाई (संभवत:इसके साथ रेल पुल भी बनाई जाएगी) करीब २२ किलोमीटर होने की संभावना है जिसमें कोसी के पाट के अलावा उसके पूरव और पश्चिम में निचली जमीन के ऊपर कई-कई किलोमीटर तक वो पुल फैली हुई होगी। यह सड़क चार लेन की बन रही है और इसके बनने से मधुबनी का संपर्क सहरसा, सुपौल, पूर्णिया और मिथिला के पूर्वी इलाके से एक बार फिर जुड़ जाएगा जो सन १९३४ के भूंकंप से पहले कायम था। पूरा इलाका समाजिक और आर्थिक रूप से एक इकाई में बदल जाएगा। इस पुल के महज बनने मात्र से इस इलाके की राजनीतिक चेतना किस मोड़ लेगी इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। कुछ लोगों की राय में इस पुल के बनने से एक अखिल मिथिला राज्य की मांग जोड़ पकड़ सकती है जिसका आन्दोलन अभी खंडित अवस्था में है। मधुबनी से गुजरने वाली दूसरी सड़क ५५ किलोमीटर लंबी राष्ट्रीय राजमार्ग १०५ है जो दरभंगा को मधुबनी के जयनगर से जोड़ता है। राजधानी पटना से सड़क मार्ग के माध्‍यम से अच्‍छी तरह से जुड़ा हुआ है। रेल मार्ग मधुबनी भारतीय रेल के पूर्व मध्य रेलवे क्षेत्र के समस्तीपुर मंडल में पड़ता है। दिल्ली-गुवाहाटी रूट पर स्थित समस्तीपुर जंक्शन से बड़ी गेज की एक लाईन मधुबनी होते हुए नेपाल सीमा पर जयनगर को जोड़ती है। मधुबनी से गुजरने वाली एक अन्य रेल लाईन सकरी से घोघरडिहा होते हुए फॉरबिसगंज को जोड़ती है। १९९६ के बाद रेल अमान परिवर्तन होने से दरभंगा होते हुए दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए यहाँ से सीधी ट्रेनें उपलब्ध है। इसके अलावा एक रेललाईन दरभंगा से सकरी और झंझारपुर होते हुए लौकहा तक नेपाल की सीमा को जोड़ती है। जिले में सकरी और झंझारपुर दो रेल के जंक्शन हैं। लौकरा रेलवे लाईन के निर्माण में कांग्रेस के वरिष्ट नेता ललित नारायण मिश्र अहम योगदान है जिनका कार्यक्षेत्र मधुबनी ही था। वे झंझारपुर से सांसद हुआ करते थे। हवाई मार्ग यहाँ से सबसे नजदीकी नागरिक हवाई अड्डा दरभंगा में स्थित है। दरभंगा हवाई अड्डा( कोड- DBR) से अंतर्देशीय उड़ाने उपलब्ध है। इंडियन, स्पाइस जेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, कोलकाता। मुंबई औरके लिए उपलब्ध हैं। सन्दर्भ इन्हें भी देखें मधुबनी चित्रकला मधुबनी प्रखण्ड (पश्चिमी चंपारण) मधुबनी, अररिया बाहरी कड़ियाँ मधुबनी जिले का आधिकारिक बेवजाल मधुबनी पेंटिंग पर जानकारी बिहार के शहर मधुबनी जिला मिथिला मधुबनी ज़िले के नगर
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बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है। वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया। उनकी ये पहल निःशुल्क अर्थात् श्रमदान के रूप में किया गया। श्रमदान स्वरूप किये गए इस अदभुत कलाकृतियों को विदेशी पर्यटकों व सैनानियों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है। इतिहास माना जाता है ये चित्र राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के दौरान महिला कलाकारों से बनवाए थे। मिथिला क्षेत्र के कई गांवों की महिलाएँ इस कला में दक्ष हैं। अपने असली रूप में तो ये पेंटिंग गांवों की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में देखने को मिलती थी, लेकिन इसे अब कपड़े या फिर पेपर के कैनवास पर खूब बनाया जाता है। समय के साथ साथ चित्रकार कि इस विधा में पासवान जाति के समुदाय के लोगों द्वारा राजा शैलेश के जीवन वृतान्त का चित्रण भी किया जाने लगा। इस समुदाय के लोग राजा सैलेश को अपने देवता के रूप में पूजते भी हैं। विशेषता इस चित्र में खासतौर पर कुल देवता का भी चित्रण होता है। हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीर, प्राकृतिक नजारे जैसे- सूर्य व चंद्रमा, धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी और विवाह के दृश्य देखने को मिलेंगे। मधुबनी पेंटिंग दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन या अल्पना। विधियाँ चटख रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। कुछ हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। यह जानकर हैरानी होगी की इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग किया जाता है। और दूध। भित्ति चित्रों के अलावा अल्पना का भी बिहार में काफी चलन है। इसे बैठक या फिर दरवाजे के बाहर बनाया जाता है। पहले इसे इसलिए बनाया जाता था ताकि खेतों में फसल की पैदावार अच्छी हो लेकिन आजकल इसे घर के शुभ कामों में बनाया जाता है। चित्र बनाने के लिए माचिस की तीली व बाँस की कलम को प्रयोग में लाया जाता है। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता है। समय के साथ मधुबनी चित्र को बनाने के पीछे के मायने भी बदल चुके हैं, लेकिन ये कला अपने आप में इतना कुछ समेटे हुए हैं कि यह आज भी कला के कद्रदानों की चुनिन्दा पसंद में से है। हस्त निर्मित पेपर चित्रण से पूर्व हस्त नर्मित कागज को तैयार करने के लिऐ कागज पर गाय के गोबर का घोल बनाकर तथा इसमें बबूल का गोंद डाला जाता है। सूती कपड़े से गोबर के घोल को कागज पर लगाया जाता है और धूप में सुखाने के लिए रख दिया जाता है। प्रकार मधुबनी चित्रकला दीवार, केन्वास एवं हस्त निर्मित कागज पर वर्तमान समय में चित्रकारों द्वारा बनायी जाती हैं। भित्ति चित्र मधुबनी भित्ति चित्र में मिट्टी (चिकनी) व गाय के गोबर के मिश्रण में बबूल की गोंद मिलाकर दीवारों पर लिपाई की जाती है। गाय के गोबर में एक खास तरह का रसायन पदार्थ होने के कारण दीवार पर विशेष चमक आ जाती है। इसे घर की तीन खास जगहों पर ही बनाने की परंपरा है, जैसे- पूजास्थान, कोहबर कक्ष (विवाहितों के कमरे में) और शादी या किसी खास उत्सव पर घर की बाहरी दीवारों पर। मधुबनी पेंटिंग में जिन देवी-देवताओं का चित्रण किया जाता है, वे हैं- मां दुर्गा, काली, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गौरी-गणेश और विष्णु के दस अवतार इत्यादि। इन तस्वीरों के अलावा कई प्राकृतिक और रम्य नजारों की भी पेंटिंग बनाई जाती है। पशु-पक्षी, वृक्ष, फूल-पत्ती आदि को स्वस्तिक की निशानी के साथ सजाया-संवारा जाता है। आकर्षण एवं उपलब्धियां 27 सितंबर २०१९ को मधुबनी रेलवे स्टेशन पर एक भव्य कार्यक्रम  के अंतर्गत मिथिला पेंटिंग को इसे विश्व कीर्तिमान में शामिल करने का निर्णय किया गया । मधुबनी के रेलवे स्टेशन पर बीते कुछ बर्षों में रेलवे क्राफ्ट वाला समूह एवं स्थानीय कलाकारों द्वारा लार्जेस्ट मिथिला आर्ट गैलरी का निर्माण किया गया हैं जिससे यंहा का सौन्दर्य दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ हैं, यहाँ दुनिया के अलग-अलग  शहरों से लोग इसे देखने आ रहे हैं! जापान में भी मधुबनी पेंटिंग के इतिहास से जुड़ी एक संग्रहालय है। 2018-2019 में भारतीय रेल के समस्तीपुर मंडल में एक ट्रेन पर मधुबनी पेंटिंग कर चलाया गया था ,जिसे विश्व में बहुत प्रसंसा मिली।।दरभंगा मधुबनी के 50-60 कलाकारों ने मिलकर ,अपने अथक मेहनत से इसपे सुंदर पेंटिंग कर सजाया था। इनमे कुछ मुख्य कलाकार खुशबु चौधरी ,प्रीति झा, अंजली झा, अमरज्योति ,रागिनी, मुनकी,आयुषी है। संदर्भ भारतीय चित्रकला बिहार मिथिला
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वैशाली बिहार प्रान्त के वैशाली जिला में स्थित एक गाँव है। ऐतिहासिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध यह गाँव मुजफ्फरपुर से अलग होकर १२ अक्टुबर १९७२ को वैशाली के जिला बनने पर इसका मुख्यालय हाजीपुर बनाया गया। मगही,वज्जिका यहाँ की मुख्य भाषा है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वैशाली में ही विश्व का सबसे पहला गणतंत्र यानि "रिपब्लिक" कायम किया गया था। भगवान महावीर की जन्म स्थली होने के कारण जैन धर्म के मतावलम्बियों के लिए वैशाली एक पवित्र स्थल है। भगवान बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ, यह उनकी कर्म भूमि भी थी। महात्मा बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। अतिमहत्त्वपूर्ण बौद्ध एवं जैन स्थल होने के अलावा यह जगह पौराणिक हिन्दू तीर्थ एवं पाटलीपुत्र जैसे ऐतिहासिक स्थल के निकट है। मशहूर राजनर्तकी और नगरवधू आम्रपाली, अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध था, और इस शहर को समृद्ध बनाने में एक बड़ी मदद की। आज वैशाली पर्यटकों के लिए भी बहुत ही लोकप्रिय स्थान है। वैशाली में आज दूसरे देशों के कई मंदिर भी बने हुए हैं। इतिहास वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता, जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता॥रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पे शीश नवाओ,राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ|| (रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ) वैशाली का नामाकरण महाभारत काल एक राजा ईक्ष्वाकु वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले ३४ राजाओं का उल्लेख है, जिसमें प्रथम नमनदेष्टि तथा अंतिम सुमति या प्रमाति थे। इस राजवंश में २४ राजा हुए। राजा सुमति अयोध्या नरेश भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। ईसा पूर्व सातवीं सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए १६ महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्त्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यहाँ का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा और गणतंत्र की स्थापना हुई। विश्‍व को सर्वप्रथम गणतंत्र का ज्ञान करानेवाला स्‍थान वैशाली ही है। आज वैश्विक स्‍तर पर जिस लोकशाही को अपनाया जा रहा है, वह यहाँ के लिच्छवी शासकों की ही देन है। प्राचीन वैशाली नगर अति समृद्ध एवं सुरक्षित नगर था जो एक-दूसरे से कुछ अन्तर पर बनी हुई तीन दीवारों से घिरा था। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि नगर की किलेबन्दी यथासम्भव इन तीनों कोटि की दीवारों से की जाए ताकि शत्रु के लिए नगर के भीतर पहुँचना असम्भव हो सके। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार पूरे नगर का घेरा १४ मील के लगभग था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में जब पाटलीपुत्र (आधुनिक पटना) राजधानी के रूप में विकसित हुआ, तब वैशाली इस क्षेत्र में होने वाले व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केन्द्र था। भगवान बुद्ध ने वैशाली के समीप कोल्‍हुआ में अपना अन्तिम सम्बोधन दिया था। इसकी याद में महान मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। महात्‍मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग १०० वर्ष बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद् का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की याद में दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। वैशाली के समीप ही एक विशाल बौद्ध मठ है, जिसमें महात्‍मा बुद्ध उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियाँ हाजीपुर (पुराना नाम - उच्चकला) के पास एक स्तूप में रखी गयी थी। वैशाली को महान भारतीय दरबारी आम्रपाली की भूमि के रूप में भी जाना जाता है, जो कई लोक कथाओं के साथ-साथ बौद्ध साहित्य में भी दिखाई देती है। आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई थी। मनुदेव संघ के शानदार लिच्छवी कबीले के प्रसिद्ध राजा थे, जिन्होंने वैशाली में अपने नृत्य प्रदर्शन को देखने के बाद आम्रपाली के पास रहना चाहा। वैशाली को चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म स्थल का गौरव भी प्राप्त है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए वैशाली काफी महत्त्‍वपूर्ण है। यहीं पर ५९९ ईसा पूर्व में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍म कुंडलपुर (कुंडग्राम) में हुआ था। वज्जिकुल में जन्में भगवान महावीर यहाँ २२ वर्ष की उम्र तक रहे थे। इस तरह वैशाली हिन्दू धर्म के साथ-साथ भारत के दो अन्य महत्त्वपूर्ण धर्मों का केन्द्र था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के अनुयायियों के अलावा ऐतिहासिक पर्यटन में दिलचस्‍पी रखने वाले लोगों के लिए भी वैशाली महत्त्‍वपूर्ण है। वैशाली की भूमि न केवल ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है वरन् कला और संस्‍कृति के दृष्टिकोण से भी काफी धनी है। वैशाली जिला के चेचर (श्वेतपुर) से प्राप्त मूर्तियाँ तथा सिक्के पुरातात्विक महत्त्व के हैं। पूर्वी भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन के पूर्व वैशाली मिथिला के कर्नाट वंश के शासकों के अधीन रहा लेकिन जल्द ही यहाँ बख्तियार खिलजी का शासन हो गया। तुर्क-अफगान काल में बंगाल के एक शासक हाजी इलियास शाह ने १३४५ ई॰ से १३५८ ई॰ तक यहाँ शासन किया। बाबर ने भी अपने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट के पार अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजा था। १५७२ ई॰ से १५७४ ई॰ के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। १८वीं सदी के दौरान अफगानों द्वारा तिरहुत कहलानेवाले इस प्रदेश पर कब्जा किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय वैशाली के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। बसावन सिंह, बेचन शर्मा, अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बैकण्ठ शुक्ला, योगेन्द्र शुक्ला जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई के दौरान १९२०, १९२५ तथा १९३४ में महात्मा गाँधी का वैशाली में आगमन हुआ था। वैशाली की नगरवधू आचार्य चतुरसेन के द्वारा लिखी गयी एक रचना है जिसका फिल्मांतरण भी हुआ, जिसमें अजातशत्रु की भूमिका अभिनेता श्री सुनील दत्त द्वारा निभायी गयी है। जलवायु एवं भूगोल वैशाली की जलवायु मानसूनी प्रकार की है। वास्तव में तत्कालीन वैशाली का विस्तार आजकल के उत्तर प्रदेश स्थित देवरिया एवं कुशीनगर जनपद से लेकर के बिहार के गाजीपुर तक था। इस प्रदेश में पतझड़ वाले वृक्ष पाये जाते हैं। जिनमें आम, महुआ, कटहल, लीची, जामुन, शीशम, बरगद, शहतूत आदि की प्रधानता है। भौगोलिक रूप से यह एक मैदानी प्रदेश है जहाँ अनेक नदियाँ बहती हैं, इसका एक बड़ा हिस्सा तराई प्रदेश में गिना जाता है। दर्शनीय स्थल अशोक स्‍तम्भ सम्राट अशोक ने वैशाली में हुए महात्‍मा बुद्ध के अन्तिम उपदेश की याद में नगर के समीप सिंह स्‍तम्भ की स्‍थापना की थी। पर्यटकों के बीच यह स्‍थान लोकप्रिय है। दर्शनीय मुख्य परिसर से लगभग ३ किलोमीटर दूर कोल्हुआ यानी बखरा गाँव में हुई खुदाई के बाद निकले अवशेषों को पुरातत्व विभाग ने चारदीवारी बनाकर सहेज रखा है। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिला इँटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। एकाश्म स्‍तम्भ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से हुआ है। इस स्‍तम्भ के ऊपर घण्टी के आकार की बनावट है (लगभग १८.३ मीटर ऊँची) जो इसको और आकर्षक बनाता है। अशोक स्तम्भ को स्थानीय लोग इसे भीमसेन की लाठी कहकर पुकारते हैं। यहीं पर एक छोटा-सा कुण्ड है, जिसको रामकुण्ड के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व विभाग ने इस कुण्ड की पहचान मर्कक-हद के रूप में की है। कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटागारशाला है। सम्भवत: कभी यह भिक्षुणियों का प्रवास स्थल रहा है। बौद्ध स्‍तूप दूसरे बौद्ध परिषद् की याद में यहाँ पर दो बौद्ध स्‍तूपों का निर्माण किया गया था। इन स्‍तूपों का पता १९५८ की खुदाई के बाद चला। भगवान बुद्ध के राख पाये जाने से इस स्‍थान का महत्त्‍व काफी बढ़ गया है। यह स्‍थान बौद्ध अनुयायियों के लिए काफी महत्त्‍वपूर्ण है। बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बने आठ मौलिक स्तूपों में से एक है। बौद्ध मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात कुशीनगर के मल्ल शासकों प्रमुखत: राजा श्री सस्तिपाल मल्ल जो कि भगवान बुद्ध के रिश्तेदार भी थे के द्वारा उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेष को आठ भागों में बाँटा गया, जिसमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था। शेष सात भाग मगध नरेश अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, बेटद्वीप के एक ब्राह्मण तथा पावा एवं कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुए थे। मूलत: यह पाँचवी शती ई॰ पूर्व में निर्मित ८.०७ मीटर व्यास वाला मिट्टी का एक छोटा स्तूप था। मौर्य, शुंग व कुषाण कालों में पकी इँटों से आच्छादित करके चार चरणों में इसका परिवर्तन किया गया, जिससे स्तूप का व्यास बढ़कर लगभग १२ मीटर हो गया। अभिषेक पुष्‍करणी प्राचीन वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पूर्व बनवाया गया पवित्र सरोवर है। ऐसा माना जाता है कि इस गणराज्‍य में जब कोई नया शासक निर्वाचित होता था तो उनको यहीं पर अभिषेक करवाया जाता था। इसी के पवित्र जल से अभिशिक्त हो लिच्छिवियों का अराजक गणतांत्रिक संथागार में बैठता था। राहुल सांकृत्यायन ने अपने उपन्यास "सिंह सेनापति" में इसका उल्लेख किया है। विश्व शान्ति स्तूप अभिषेक पुष्करणी के नजदीक ही जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्‍व शान्तिस्‍तूप स्थित है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियाँ और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शान्ति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढ़ियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा दिखायी देती है। शान्ति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की भिन्न-भिन्न मुद्राओं की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं। बावन पोखर मंदिर बावन पोखर के उत्तरी छोर पर बना पाल कालीन मंदिर में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित है। राजा विशाल का गढ़ यह वास्‍तव में एक छोटा टीला है, जिसकी परिधि एक किलोमीटर है। इसके चारों तरफ दो मीटर ऊँची दीवार है जिसके चारों तरफ ४३ मीटर चौड़ी खाई है। समझा जाता है कि यह प्राचीनतम संसद है। इस संसद में ७,७७७ संघीय सदस्‍य इकट्ठा होकर समस्‍याओं को सुनते थे और उस पर बहस भी किया करते थे। यह भवन आज भी पर्यटकों को भारत के लोकतांत्रिक प्रथा की याद दिलाता है। कुण्‍डलपुर (कुंडग्राम) यह जगह भगवान महावीर का जन्‍म स्‍थान होने के कारण काफी लोकप्रिय है। यह स्‍थान जैन धर्मावलम्बियों के लिए काफी पवित्र माना जाता है। वैशाली से इसकी दूरी ४ किलोमीटर है। इसके अलावा वैशाली महोत्‍सव, वैशाली संग्रहालय तथा हाजीपुर के पास की दर्शनीय स्थल एवं सोनपुर मेला आदि भी देखने लायक है। यातायात सड़क मार्ग पटना, हाजीपुर अथवा मुजफ्फरपुर से यहाँ आने के लिए सड़क मार्ग सबसे उपयुक्‍त है। वाहनों की उपलब्धता सीमित है इसलिए पर्यटक हाजीपुर या मुजफ्फरपुर से निजी वाहन भाड़े पर लेकर भ्रमण करना ज्यादा पसंद करते हैं। वैशाली से पटना समेत उत्तरी बिहार के सभी प्रमुख शहरों के लिए बसें जाती हैं। रेल मार्ग वैशाली का नजदीकी रेलवे जंक्शन हाजीपुर है जो पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है। यह जंक्शन वैशाली से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्‍ली, मुम्बई, चेन्‍नई, कोलकाता, गुवाहाठी तथा अमृतसर के अतिरिक्त भारत के महत्त्वपूर्ण शहरों के लिए यहाँ से सीधी ट्रेन सेवा है। हवाई मार्ग वैशाली का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा राज्य की राजधानी पटना (५५ किलोमीटर) में स्थित है। जय प्रकाश नारायण अन्तर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिशर, जेटएयरवेज, इंडिगो आदि विमानस ेवाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ आनेवाले पर्यटक दिल्‍ली, कोलकाता, काठमांण्ु, बागडोगरा, राँची, बनारस और लखनऊ से फ्लाइट ले सकते हैं। हवाई अडड्े से हाजीपुर होते हुए निजी अथवा सार्वजनिक वाहन से वैशाली तक जाया जा सकता है। इसके आअावा गोरखपुर से भी ट्रेन आदि द्वारा भी आसानी से वैशाली पंुचँा जा सकता है|। प्रमुख शहर की दूरी पटना- ५५ किलोमीटर, हाजीपुर- ३५ किलोमीटर, मुजफ्फरपुर- ३७ किलोमीटर, बोधगया- १६३ किलोमीटर, राजगीर- १४५ किलोमीटर, नालंदा- १४० किलोमीटर लालगंज एक नजर में जनसंख्‍या :- २७,१८,४२१ (२००१ की जनगनणना अनुसार) पुरुषों की संख्या:- १४,१५,६०३स्त्रियों की संख्या:- १३,०२,८१८ जनसंख्या का घनत्वः- १,३३५ साक्षरता दरः- ५०.४९% समुद्र तल से ऊँचाई- ५२ मीटर तापमान- ४४ डिग्री सेल्सियस-२१ डिग्री सेल्सियस (गर्मियों में), २३ डिग्री सेल्सियस - ६ डिग्री सेल्सियस (सर्दियों में) सालाना वर्षा- १२० से॰मी॰ भ्रमण समय एवं सुझाव वैशाली सालोभर जाया जा सकता है किन्तु सितम्बर से मार्च का समय सबसे उपयुक्त है। वैशाली अपने हस्‍तशिल्‍प के लिए विख्‍यात है। कार्तिक के महीने में लगनेवाले एशिया के सबसे बड़ा पशु मेला सोनपुर मेले से यादगार के तौर पर यहाँ से हस्तशिल्‍प का सामान खरीदा जा सकता है। प्रसिद्ध मधुबनी कला की पेंटिंग भी खरीदी जा सकती है। सन्दर्भ बिहार वैशाली जिला
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हाजीपुर (Hajipur) भारत के बिहार राज्य के वैशाली ज़िले में स्थित एक नगर(जिला) है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण 12 अक्टूबर 1972 को मुजफ्फरपुर से अलग होकर वैशाली के स्वतंत्र जिला बनने के बाद हाजीपुर इसका मुख्यालय बना। ऐतिहासिक महत्त्व के होने के अलावा आज यह शहर(जिला) भारतीय रेल के पूर्व-मध्य रेलवे मुख्यालय है, इसकी स्थापना 8 सितम्बर 1996 को हुई थी। , राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों तथा केले, आम और लीची के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। हाजीपुर एक लोकसभा निर्वाचनक्षेत्र भी है। नामकरण आज का हाजीपुर शहर महाजनपद काल में गाँव मात्र होने के बावजूद महत्त्वपूर्ण था। गंगा तट पर स्थित बस्ती का पुराना नाम उच्चकला था। मध्यकाल में बंगाल के गवर्नर‍ हाजी इलियास शाह के 13 वर्षों के शासनकाल में यह कस्बाई का रूप लेने लगा। ऐसा माना जाता है कि गंडक तट पर विकसित हुए शहर का वर्तमान नाम उसी शासक के नाम पर पड़ा है। इतिहास गंगा और गंडक नदी के तट पर बसे इस शहर का धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है। हिन्दू पुराणों में गज (हाथी) और ग्राह (मगरमच्छ) की लड़ाई में प्रभु विष्णु के स्वयं यहाँ आकर गज को बचाने और ग्राह को शापमुक्त करने का वर्णन है। कौनहारा घाट के पास कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए १६ महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्त्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जिसंघ द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। वज्जिकुल में जन्में भगवान महावीर की जन्म स्थली शहर से ३५ किलोमीटर दूर कुंडलपुर (वैशाली) में है। महात्मा बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ था। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियाँ इस शहर (पुराना नाम- उच्चकला) में जमींदोज है। हर्षवर्धन के शासन के बाद यहाँ कुछ समय तक स्थानीय क्षत्रपों का शासन रहा तथा आठवीं सदी के बाद यहाँ बंगाल के पाल वंश के शासकों का शासन शुरू हुआ। तिरहुत पर लगभग 11वीं सदी में चेदि वंश का भी कुछ समय शासन रहा। तुर्क-अफगान काल में 1211 से 1226 बीच गयासुद्दीन एवाज़ तिरहुत का पहला मुसलमान शासक बना। 1323 में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक का राज आया। इसी दौरान बंगाल के एक शासक हाजी इलियास शाह ने 1345 ई से 1358 ई तक यहाँ शासन किया। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया, जो तब तक जारी रहा जब तक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोधी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया। बाबर ने अपने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट पर एक किला होने का जिक्र 'बाबरनामा' में किया है। 1572 ई॰ से 1542 ई॰ के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। 18 वीं सदी के दौरान अफ़ग़ानों द्वारा शहर पर कब्जा किया गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हाजीपुर के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। वसाबन सिंह, बेचन शर्मा, अक्षयवट राय, सीताराम सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हिस्सा लिया। ७ दिसम्बर १९२० तथा १५ और १६ अक्टुबर १९२५ को महात्मा गाँधी का हाजीपुर आगमन हुआ था। पुनः बिहार में भीषण भूकम्प के बाद १४ मार्च १९३४ को बापू का तीसरी बार हाजीपुर आना हुआ। जलवायु, भूगोल और जनसांख्यिकी जलवायु वैशाली जिले का यह शहर उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु क्षेत्र में है। ७° से ४५° सेंटीग्रेड वार्षिक तापान्तर तथा १०५० मिलीलीटर सालाना वर्षा के साथ यह आर्द्र क्षेत्र मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी मानसूनी वर्षा पर निर्भर करता है। मई-जून में 'लू' का चलना तथा दिसम्बर-जनवरी के महीनों में 'शीतलहर' का प्रकोप आमतौर पर देखा जाता है। मानसून का आगमन जून के मध्य में होता है। स्थानीय जलवायु धान, गेहूँ के अलावे मक्का, तिलहन तथा दलहन फसलों के लिए उपयुक्त है। भौगोलिक स्थिति दक्षिण में गंगा और पश्चिम में गंडक नदी से घिरा यह स्थान अपनी सामरिक और व्यापारिक गतिविधियों के लिए इतिहास प्रसिद्ध रहा है। वर्तमान शहर पटना से २० कि॰मी॰, मुजफ्फरपुर से ५४ कि॰मी॰ और वैशाली से ३५ कि॰मी॰ की दूरी पर है। उत्तर बिहार को पटना से जोडने वाली गंगा नदी पर सड़क पुल बनने के बाद हाजीपुर का महत्त्व बढ गया। सिवान, छपरा और सारण को हाजीपुर को जोडने के लिए गंडक नदी पर १८१७ में बना सड़क पुल तथा जगजीवन रेल पुल है। एक नये सड़क पुल का निर्माण हाल ही में हुआ है जबकि गंडक पर नये रेल पुल का काम चल रहा है। हाजीपुर को पटना से रेलमार्ग द्वारा जोड़ने के लिए गंगा नदी पर दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल का निर्माण हो चुका है और रेलों का आवागमन भी हो रहा है। पटना, पाटलिपुत्र जंक्शन से पहलेजा ब रास्ता सोनपुर तथा हाजीपुर की ओर रेल मार्ग द्वारा आया-जाया जा सकता है। जलोढ मिट्टी और उर्वर भूमि के कारण यहाँ बागवानी कृषि का अच्छा विकास हुआ है। मालभोग, चीनिया और अलपान केले तथा आम की मालदह, सीपिया, कृष्णभोग, लड़ुई मिठुआ, दसहरी किस्मों के लिए हाजीपुर की अच्छी ख्याति है। इसके अतिरिक्त रसीले शाही लीची का स्वाद यहाँ की गर्मियों को उबाऊ नहीं बनने देता। सोनपुर में लगनेवाले हरिहरक्षेत्र मेले के समय हाजीपुर महत्त्वपूर्ण सम्पर्क शहर बन जाता है। जनसांख्यिकी शहर की आबादी में हिन्दू और मुस्लिम की प्रधानता है। शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी या उर्दू भाषा का प्रयोग होता है। 1901 ई॰ में हाजीपुर की आबादी 21398 थी, जो 2011 में बढ़कर 147,688 हो गयी। वर्तमान में शहर में पुरुषों की संख्या 78,047(53%) तथा स्त्रियों की संख्या 69,641(47%) है। 14.15% जनसंख्या 0-6 आयुवर्ग में है। साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत के करीब (60%) है। 8 सितम्बर 1996 को पूर्व मध्य रेलवे क्षेत्र का मुख्यालय बनने के बाद, रेलवे तथा राष्ट्रीय स्तर के अन्य संस्थानों के सरकारी तथा गैर-सरकारी सेवकों का अस्थायी निवास बनने से हाजीपुर के जनसांख्यीय परिदृश्य में बदलाव आया है। शहर की आबादी में वैशाली तथा पड़ोसी जिले को स्थानीय लोगों की बहुतायत है। हाजीपुर नगर क्षेत्र 39 वार्डों में बँटा है। नागरिक सुविधाओं तथा स्थानीय सड़कों का देखभाल हाजीपुर नगर परिषद् करती है। दर्शनीय स्थल महात्मा गाँधी सेतु ५ किलोमीटर ५७५ मीटर लम्बी प्रबलित कंक्रीट से गंगा नदी पर बना महात्मा गाँधी सेतु पुल है जो १९८२ में बनकर तैयार हुआ और भारत की तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा राष्ट्र को समर्पित किया गया था। यह देश का तीसरा सबसे लंबा नदी पुल है। लगभग १२१ मीटर लम्बे स्पैन का प्रत्येक पाया बॉक्स-गर्डर किस्म का प्रीटेंशन संरचना है जो देखने में अद्भुत है। ४६ पाये वाले इस पुल से गंगा को पार करने पर केले की खेती का विहंगम दृश्य दिखायी देता है। इस पुल से पटना महानगर के विभिन्न घाटों तथा भूचिन्ह (लैंडमार्क) का अवलोकन किया जा सकता है। इस पुल को उत्तर बिहार की लाइफ लाइन भी कहा जाता है। उत्तर बिहार को सड़क मार्ग से राजधानी से जोड़ने वाला एक मात्र पुल आज खुद बहुत ही जर्जर स्थिति में है। कौनहारा घाट गंगा और गंडक के पवित्र संगम स्थल की महिमा भागवत पुराण में वर्णित है। गज-ग्राह की लडाई में स्वयं श्रीहरि विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान और शापग्रस्त ग्राह को मुक्ति दी थी। इस संग्राम में कौन हारा? ऐसी चर्चा सुनते सुनाते इस स्थान का नाम 'कौनहारा (कोनहारा)' पड़ गया। बनारस के प्रसिद्ध मनिकर्णिका घाट की तरह यहाँ भी श्मशान की अग्नि हमेशा प्रज्वलित रह्ती है। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर शरीर की अंत्येष्टि क्रिया मोक्षप्रदायनी है। नेपाली छावनी मंदिर एक नेपाली सेनाधिकारी मातबर सिंह थापा द्वारा १८वीं सदी में पैगोडा शैली में निर्मित शिवमंदिर कौनहारा घाट के समीप है। यह अद्वितीय मंदिर नेपाली वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। काष्ट फलकों पर बने प्रणय दृश्य का अधिकांश भाग अब नष्टप्राय है या चोरी हो गया है। कला प्रेमियों के अलावे शिव भक्तों के बीच इस मंदिर की बड़ी प्रतिष्ठा है। काष्ठ पर उत्कीर्ण मिथुन के भित्ति चित्र के लिए यह विश्व का इकलौता पुरातात्विक धरोहर है। दुर्भाग्यवश, देखरेख एवं रखरखाव के अभाव में अद्भुत कलाकृतियों को दीमक अपना ग्रास बना रहा है। मंदिर के पूरब में एक मुस्लिम संत हज़रत जलालुद्दीन अब्दुल की मज़ार भी है। रामचौरा मंदिर नगर के दक्षिणी भाग में स्तूपनुमा अवशेष पर बना रामचौरा मंदिर हिन्दू आस्था का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। ऎसी मान्यता है कि अयोध्या से जनकपुर जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने यहाँ विश्राम किया था। उनके चरण चिह्न प्रतीक रूप में यहाँ मौजूद है। पुरातत्वविदों का मानना है कि बुद्धप्रिय आनंद की अस्थि को रखे गये स्तूप के अवशेष स्थल पर ही इस मंदिर का निर्माण किया गया था। पतालेश्वर स्थान नगर के रक्षक भगवान शिव पतालेश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं। पतालेश्वर स्थान नाम से मशहूर स्थानीय हिन्दुओं का सबसे महत्त्वपूर्ण पूजास्थल शहर के दक्षिण में रामचौरा के पास रामभद्र में स्थित है। १८९५ में धरती से शिवलिंग मिलने के बाद यहाँ मन्दिर निर्माण हुआ। भीड़ भरे माहौल से दूर बने इस शिव मन्दिर का स्थापत्य साधारण लेकिन आकर्षक है। लगभग २२८०० वर्गफ़ीट में बने इस मन्दिर का वर्तमान स्वरूप १९३२-३४ के बीच अस्तित्व में आया। मन्दिर परिसर में बने विवाह मंडप में सालोंभर विवाह-संस्कार संपन्न कराये जाते हैं, जिसकी आधिकारिक मान्यता भी है। संगी जामा मस्जिद शेख हाजी इलियास द्वारा निर्मित किले के अवशेष क्षेत्र के भीतर बनी संगी जामा मस्जिद हाजीपुर में मुगलकाल की महत्त्वपूर्ण इमारत है। शहजादपुर अन्दरकिला में जी॰ ए॰ इंटर स्कूल के पास पत्थर की बनी तीन गुम्बदों वाली यह आकर्षक मस्जिद आकार में २५•८ मीटर लम्बी और १०•२ मीटर चौड़ी है। मस्जिद के प्रवेश पर लगे प्रस्तर में इसे अकबर काल में मख्सूस शाह एवं सईद शाह द्वारा १५८७ ई॰ (१००५ हिजरी) में निर्मित बताया गया है। मस्जिद के पास जिलाधिकारी आवास के निकट हाजी इलियास तथा हाजी हरमेन की मज़ार बनी है। मामू-भाँजा की मज़ार मुगलशासक औरंगजेब के मामा शाईस्ता खान ने हज़रत मोहीनुद्दीन उर्फ दमारिया साहेब और कमालुद्दीन साहेब की मज़ार हाजीपुर से ५ किलोमीटर पूरब मीनापुर, जढुआ में बनवायी थी। सूफी संतो की यह मजार स्थानीय लोगों में मामू-भगिना या मामा-भाँजा की मज़ार के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं बाबा फरीद के शिष्य ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के मज़ार की अनुकृति भी बनी है। सालाना उर्स के मौके पर इलाके के मुसलमानों का यहाँ भाड़ी जमावड़ा होता है। इसके पास ही मुगल शासक शाह आलम ने लगभग १८० वर्ष पूर्व करबला का निर्माण कराया था, जो मुसलमानों के लिए पवित्र स्थल है। गाँधी आश्रम हाजीपुर रेलवे स्टेशन के समीप स्थित गाँधी आश्रम महात्मा गाँधी के तीन बार हाजीपुर पधारने के दौरान उनसे जुड़ी स्मृतियों का स्थल है। एक पुस्तकालय के अतिरिक्त गाँधीजी के चरखा प्रेम और खादी जीवन को बढ़ावा देने हेतु द्वारा संचालित परिसर है। स्थानीय विक्रय केन्द्र पर खादी वस्त्र, मधु, कच्ची घानी सरसों तेल आदि उपलब्ध है। हाजीपुर औद्योगिक क्षेत्र में खादी और ग्रामोद्योग का केन्द्रीय पूनी संयंत्र भी है, जहाँ खादी वस्त्र तैयार किये जाते हैं। हरिहरक्षेत्र मेला गज-ग्राह घटना की याद में कौनहारा घाट के सामने सोनपुर में हरिहरक्षेत्र मेला लगता है। स्थानीय लोगों में 'छत्तर मेला' के नाम से मशहूर है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र गंडक-स्नान से शुरू होनेवाले मेले का आयोजन पक्ष भर चलता है। सोनपुर मेला की प्रसिद्धि एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में है। हाथी-घोड़े से लेकर रंग-बिरंगे पक्षी तक मेले में खरीदे-बेचे जाते हैं। आनेवाले जाड़े के लिए गर्म कम्बल से लेकर लकड़ी के फर्नीचर तक स्थानीय लोगों की जरुरतों को पूरा करती हैं। तमाशे, लोकनृत्य, लोककलाएँ और प्रदर्शनियाँ देशी-विदेशी पर्यटकों की कौतूहल को शान्त करती हैं। मेले के दौरान पर्यटक या तो हाजीपुर के किसी होटल में रुक सकते हैं या बिहार पर्यटन विकास निगम की सुविधाजनक तम्बू को भाड़े पर लेकर गंडक तट की बालूका राशि पर डेरा डाल सकते हैं। वैशाली महोत्सव प्रतिवर्ष वैशाली महोत्सव का आयोजन जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म दिवस पर बैसाख पूर्णिमा को किया जाता है। भगवान महावीर का जन्म वैशाली के वज्जिकुल में बसोकुंड (बसाढ) ग्राम में हुआ था। अप्रैल के मध्य में आयोजित होनेवाले इस राजकीय उत्सव में देशभर के संगीत और कलाप्रेमी हिस्सा लेते हैं। वैशाली में अशोक का स्तम्भ, अभिषेक पुष्करिणी, विश्व शान्ति स्तूप, चौमुखी महादेव मंदिर को भी आयोजन के दौरान देखा जा सकता है। स्थानीय संस्कृति महत्त्वपूर्ण सामरिक अवस्थिति के चलते अतीत में बाहरी लोगों के आकर बसने से यहाँ मिली-जुली स्थानीय संस्कृति पनपी है। हिन्दू और मुसलमान दोनों यहाँ के गौरवशाली अतीत और आपसी सहिष्णुता पर नाज़ करते हैं। कृषियोग्य उर्वर भूमि और मृदु जलवायु के चलते प्राचीन काल से ही यह स्थान सघन आबादी का क्षेत्र रहा है। बिहार की राजधानी पटना से जुड़ाव और भूगोलीय निकटता ने यहाँ की घटनाओं और अवसरों के महत्त्व को कई गुणा बढ़ा दिया है। बोली एवं पहनावा: हिन्दी प्रमुख भाषा है किंतु पश्चिमी मैथिली यहाँ की स्थानीय बोली है, जो मुजफ्फरपुर, सीतामढी, शिवहर और समस्तीपुर के अतिरिक्त नेपाल के सर्लाही जिले में भी बोली जाती है। युवक और युवतियाँ सभी आधुनिक भारतीय पहनावे पहनते हैं, लेकिन गाँव में रहनेवाले अधिकांश व्यस्क स्त्री-पुरुष धोती या साड़ी पहनना ही पसन्द करते हैं। पर्व-त्योहार: हिन्दूओं और मुस्लिमों के सभी पर्व मिलजुल कर मनाये जाते हैं। कई राष्ट्रीय त्यौहार जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गाँधी जयन्ती यहाँ खूब हर्षोल्लास से मनाये जाते हैं। यहाँ के धार्मिक त्यौहारों में छठ, होली, दिवाली, दुर्गा पूजा, ईद उल फितर, मुहर्रम, महावीर जयन्ती, महाशिवरात्रि, बुद्ध पूर्णिमा, जितिया,कृष्णाष्टमी, सतुआनी, श्रावणी घड़ी और मकर संक्रांति जैसे पर्व हैं। कार्तिक में चार दिवसीय छठपूजा तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर शहर में शिव और पार्वती की विवाह यात्रा की बड़ी धूम होती है। मुहर्रम के अवसर पर ताजिए के साथ निकलने वाले जुलूस में हिन्दू और मुसलमान दोनों हिस्सा लेते हैं। मनोरंजन के साधन शहर के 5 सिनेमा हॉल मनोरंजन के सबसे बड़े साधन हैं। नेशनल सिनेमा (राजेन्द्र चौक) शहर का सबसे पुराना हॉल है, जो १९४० के दशक में बना था। हिन्दी और भोजपुरी फिल्मों के अलावे कभी-कभी हॉलीवुड फिल्मों का हिन्दी रुपान्तरण सिनेमा में दिखाये जाते हैं। लोग क्रिकेट और फुटबॉल के शौकीन हैं। स्थानीय अक्षयवट राय स्टेडियम टूर्नामेंट का मुख्य केन्द्र है। टाऊन हॉल में होनेवाले नाटक के मंचन अथवा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम कुछ लोगों के उच्चस्तरीय मनोरंजन का साधन है। हाजीपुर में सिनेमाघरों की संख्या 5 हैं नेशनल सिनेमा गणेश सिनेमा कार्निवाल शंकर सिनेमा एस आर एस सिनेमा हाजीपुर के शिक्षा संस्थान विद्यालय: सरकारी विद्यालय: जी॰ ए॰ इंटर स्कूल, श्री मुल्कजादा सिंह उच्च विद्यालय दीग्घी, राज्य सम्पोषित बालिका उच्च विद्यालय, टाऊन मिडल स्कूल, प्रेम उच्च विद्यालय निजी विद्यालय: गुरु वशिष्ठ विद्याययन, संतपॉल हाईस्कूल (बागमली एवं इज़रा), संत जेवियर स्कूल, इंडियन पब्लिक स्कूल, ज्ञानज्योति उच्च विद्यालय, ऑक्सफोर्ड हाईस्कूल, पी॰ के॰ झा आवासीय विद्यालय, एस॰ के॰ एस॰ सेमिनरी, अक्षरा विद्यालय , संत जॉन्स हाई स्कूल महाविद्यालय राजनारायण महाविद्यालय, देवचंद महाविद्यालय, जमुनीलाल राय महाविद्यालय, वैशाली महिला महाविद्यालय, सतेंद्रनारायण महाविद्यालय, राव विरेंद्र सिंह इंटर महाविद्यालय एकारा, वी॰ एस॰ इंटर महाविद्यालय, सुखलाल मुखलाल महाविद्यालय जढुआ सभी महाविद्यालय बाबासाहब भीमराव अंबेदकर बिहार विश्वविद्यालय मुज़फ्फरपुर की अंगीभूत इकाई है। विश्वविद्यालय डॉ. सी. वी. रमन विश्वविद्यालय, वैशाली, बिहार यह हाजीपुर से 20 किमी एवम सराय से 10 किमी उत्तर राष्ट्रीय राजमार्ग 22 के पास भगवानपुर गांव में स्थित है। यह भारत सरकार की विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता प्राप्त है। यह बिहार की निजी विश्वविद्यालय में शुमार है। यह ऐसेक्टस ग्रुप ऑफ यूनिवर्सिटीज, भोपाल का अंग है।] व्यवसायिक संस्थान औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान दिग्घीकला, होटल प्रबंधन, पोषाहार एवं पोषाहार संस्थान राष्ट्रीय राजमार्ग १९, केंद्रीय प्लास्टिक इंजिनियरिंग एवं तकनीकि संस्थान औद्योगिक क्षेत्र, केंद्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान औद्योगिक क्षेत्र, कृषि विज्ञान केंद्र जन शिक्षण संस्थान शहीद महेश्वर स्मारक संस्थान यातायात सुविधाएँ सड़क सेवा: हाजीपुर बिहार के सभी मुख्य शहरों से राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा 3 राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। महात्मा गाँधी सेतु पार कर पटना से जुडा़ राष्ट्रीय राजमार्ग 31 हाजीपुर होकर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर तक जाती है। हाजीपुर से मुजफ्फरपुर तथा सीतामढी़ होकर सोनबरसा तक जानेवाली 142 किलोमीटर लम्बी सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग 22 है। राष्ट्रीय राजमार्ग 322 शहर को चकसिकन्दर, जन्दाहा, चकलालशाही होते हुए किसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित मुसरीघरारी से जोड़ती है। राजकीय राजमार्ग द्वारा यह वैशाली (राजकीय राजमार्ग-74), महुआ (राजकीय राजमार्ग-49) तथा महनार (राजकीय राजमार्ग-93) से जुडा़ है। हाजीपुर का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः बसों, ऑटोरिक्शा और साइकिल रिक्शा पर आश्रित है। 20 किलोमीटर दूर राज्य की राजधानी पटना को जोड़नेवाली यातायात की ज़रुरतें बसें और ऑटोरिक्शा पूरा करती हैं। स्थानीय भ्रमण हेतु हाजीपुर स्टेशन से टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है, जो निजी मालिकों द्वारा संचालित हैं। इनका किराया आपसी मोलजोल के आधार पर तय होता है और 10 से 15 रु/कि॰मी॰ तक हो सकता है। लम्बी दूरी की बसें सिलीगुडी, बेतिया, रक्सौल, मोतिहारी, सिवान, छपरा, समस्तीपुर, सीता़मढी़, मुजफ्फरपुर के लिए उपलब्ध हैं। रेल सेवा: हाजीपुर भारतीय रेल के नक्शे का एक महत्त्वपूर्ण जंक्शन है। यहाँ पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है। दिल्ली-गुवाहाटी रूट पर स्थित रेल लाईनें शहर को छपरा, मुजफ्फरपुर और बरौनी से जोड़ती है। वैशाली होते हुए लौरिया (चंपारण) को जोड़नेवाली एक अन्य रेल लाईन प्रस्तावित है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्त्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है। हाजीपुर से पटना को जोड़ने के लिए नदी पर पुल का निर्माण हो चुका है, 8 अगस्त 2015 को पुल पर इंजन परीक्षण सम्पन्न हुआ, अक्टूबर महिना से इस पर सवारी गाड़ी चलने लगी है। दिल्ली के लिए डिब्रुगढ राजधानी एक्सप्रेस (22436), ग़रीबरथ एक्सप्रेस (12203), वैशाली एक्सप्रेस (12553), स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस (12561), लिच्छवी एक्सप्रेस (14005), सद्भावना एक्सप्रेस (14007, 14015), शहीद एक्सप्रेस (14673), लोहित एक्सप्रेस (15621), आम्रपाली एक्सप्रेस (15707) के अतिरिक्त अन्य गाड़ियाँ जाती है। कोलकाता के लिए बाघ एक्सप्रेस (13020), पूर्वांचल एक्सप्रेस (15048), गोरखपुर कोलकाता एक्सप्रेस (15050), बलिया सियालदह एक्सप्रेस (13106) मुम्बई के लिए लोकमान्य तिलक एक्सप्रेस (11062, 11066), लोकमान्य जनसाधारण एक्सप्रेस (15267) चेन्नई के लिए: राप्ती सागर एक्सप्रेस (12521) अहमदाबाद के लिए: साबरमती एक्सप्रेस (19166), मुज़फ्फरपुर-अहमदाबाद एक्सप्रेस (15269) गुवाहाटी के लिए: डिब्रुगढ राजधानी एक्सप्रेस (12436), अवध-असाम एक्सप्रेस (15610), लोहित एक्सप्रेस (15622) जम्मू के लिए अमरनाथ एक्सप्रेस (15097), लोहित एक्सप्रेस (5622) अमृतसर के लिए ग़रीबरथ एक्सप्रेस (12203), सहरसा-अमृतसर जनसाधारण एक्सप्रेस (14603,15209), आम्रपाली एक्सप्रेस (15707), शहीद एक्सप्रेस (14673), सरयू-यमुना एक्सप्रेस (14649) राँची के लिए मौर्य एक्सप्रेस (15028) पुणे के लिए दरभंगा-पुणे एक्सप्रेस (11034) अंबाला के लिए मुज़फ्फरपुर-अंबालाकैंट एक्सप्रेस (14523) हाजीपुर होकर चलती है। वायु सेवा: निकटस्थ हवाई अड्डा हाजीपुर से 21 किलोमीटर दूर पटना में स्थित है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संचालित लोकनायक जयप्रकाश हवाईक्षेत्र, पटना (IATA कोड- PAT) अंतरदेशीय तथा सीमित अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए बना है। इंडियन, किंगफिशर, जेट एयर, स्पाइस जेट तथा इंडिगो की उड़ानें दिल्ली, कोलकाता, गुवाहाटी और राँची के लिए उपलब्ध हैं। हाजीपुर से टैक्सी, बस या ऑटो द्वारा हवाई अड्डा तक कभी भी जाया जा सकता है। इन्हें भी देखें वैशाली ज़िला बाहरी कड़ियाँ वैशाली जिले का अधिकारिक अंतर्जाल पूर्व मध्य रेलवे का अधिकारिक अंतर्जाल बिहार पर्यटन का अधिकारिक अंतर्जाल सिपेट का अधिकारिक अंतर्जाल नाइपर हाजीपुर का अधिकारिक अंतर्जाल होटल प्रबंधन संस्थान हाजीपुर का अधिकारिक अंतर्जाल सन्दर्भ बिहार के शहर वैशाली जिला वैशाली ज़िले के नगर
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नागालैण्ड (नागालैंड) भारत का एक उत्तर पूर्वी राज्य है। इसकी राजधानी कोहिमा है, जबकि दीमापुर राज्य का सबसे बड़ा नगर है। नागालैण्ड की सीमा पश्चिम में असम से, उत्तर में अरुणाचल प्रदेश से, पूर्व मे बर्मा से और दक्षिण मे मणिपुर से मिलती है। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, इसका क्षेत्रफल 16,579 वर्ग किलोमीटर है, और जनसंख्या 19,80,602 है, जो इसे भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक बनाती है। नागालैण्ड राज्य में कुल 16 जनजातियाँ निवास करती हैं। प्रत्येक जनजाति अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों, भाषा और पोशाक के कारण दूसरी से भिन्न है। हालाँकि, भाषा और धर्म दो सेतु हैं, जो इन जनजातियों को आपस में जोड़ते हैं। अंग्रेजी राज्य की आधिकारिक भाषा है। यह शिक्षा की भाषा भी है, और अधिकाँश निवासियों द्वारा बोली जाती है। नागालैंड भारत के उन तीन राज्यों में से एक है, जहाँ ईसाई धर्म के अनुयायी जनसंख्या में बहुमत में हैं। राज्य ने 1950 के दशक में विद्रोह और साथ ही अंतर-जातीय संघर्ष देखा है। हिंसा और असुरक्षा ने नागालैंड के आर्थिक विकास को सीमित कर दिया था, क्योंकि इसे कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के लिए अपने दुर्लभ संसाधनों को प्रतिबद्ध करना था। हालाँकि पिछले डेढ़ दशक में, राज्य में हिंसा काफी कम हुई है, जिससे राज्य की वार्षिक आर्थिक विकास दर 10% के करीब पहुंची है, और यह पूर्वोत्तर क्षेत्र में सबसे तेजी से विकसित होने वाला राज्य बन पाया है। नागालैण्ड की स्थापना 1 दिसम्बर 1963 को भारत के 16वें राज्य के रूप मे हुई थी। असम घाटी के किनारे बसे कुछ क्षेत्रों को छोड़कर राज्य का अधिकतर हिस्सा पहाड़ी है। राज्य के कुल क्षेत्रफल का केवल 9% हिस्सा समतल जमीन पर है। नागालैण्ड में सबसे उँची चोटी माउंट सरामति है जिसकी समुंद्र तल से उँचाई 3840 मी है। यह पहाड़ी और इसकी शृंखलाएँ नागालैंड और बर्मा के बीच प्राकृतिक अवरोध का निर्माण करती हैं। यह राज्य वनस्पतियों और जीवों की समृद्ध विविधता का घर है। इतिहास इस राज्य का इतिहास बर्मा और असम से मिलता-जुलता है लेकिन कुछ मतों के अनुसार इस राज्य का नाम अंग्रेज़ों ने नागा (यह नाग लोगो की भूमि है हिन्दी मे) के अनुसार रखा था।भारत में नाग लोगो की संख्या बहुमत में है ये नाग लोग वैसे तो पूरे भारत में निवास करते हैं परंतु महाराष्ट्र और नागालैंड में इनके नाम से राज्य एवं जिले का नाम पड़ा है। सन 1832 में कैप्टन जेनकींस और पेंबर्टन के रूप में पहले यूरोपियन नागालैंड में आये थे। नागालैंड भारत का 1 दिसंबर 1963 में सोलवा राज्य बना। राज्य का दर्जा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रज़ो ने बहुत से नागा लोगों को युद्ध में लड़ने के लिए फ्रांस और यूरोप भेजा। जो लोग युद्ध में लड़ने बाहर गये और जब वे लोग भारत वापस आए तो उन्होने नागा नॅश्नलिस्ट मूवमेंट की स्थापना की थी। भारत की आजादी के दौरान नागालेंड असम के अंतर्गत था लेकिन नागा लोग अपना विकास चाहते थे। इसी कारण से वे किसी केन्द्रीय सरकार से जुड़ना चाहते थे। सन् 1955 में भारत सरकार ने भारतीय सेना की एक टुकड़ी नागालेंड भेजी और सन् 1957 में भारत सरकार और नागा लोगों के बीच विलय की बातचीत शुरू हुए जिसके अन्तर्गत नागालैंड 1 दिसम्बर 1963 को भारत का 16वाँ राज्य बना। धर्म जिले नागालैंड में 11 जिले हैं - कैफाइर जिला कोहिमा जिला ज़ुन्हेबोटो जिला दीमापुर जिला ट्वेनसांग जिला पेरेन जिला फेक जिला मोकोक्चुुन्ग जिला मोन जिला लॉन्गलेन्ग जिला वोखा जिला संस्कृति नागालैंड मे 16 जनजातियाँ पाई जाती है, अंगामी, आओ, चख़ेसंग, चांग, दिमासा कचारी, खियमनिंगान, कोनयाक, लोथा, फोम, पोचुरी, रेंगमा, संगतम, सूमी, इंचुंगेर, कुकी और ज़ेलियांग। बाहरी कड़ियाँ नागालैंड : जिसके सफर में आत्माएं तक ठिठककर रह जाती हैं! (हिन्दी नेस्ट) इन्हें भी देखें नागालैंड का इतिहास सन्दर्भ भारत के राज्य नागालैण्ड
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मेघालय पूर्वोत्तर भारत का एक राज्य है जिसका शाब्दिक अर्थ है बादलों का घर । 2016 के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 32,11,474 है एवं विस्तार 220 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है, जिसका लम्बाई से चौड़ाई अनुपात लगभग 3:1 का है। राज्य का दक्षिणी छोर मयमनसिंह एवं सिलहट बांग्लादेशी विभागों से लगता है, पश्चिमी ओर रंगपुर बांग्लादेशी भाग तथा उत्तर एवं पूर्वी ओर भारतीय राज्य असम से घिरा हुआ है। राज्य की राजधानी शिलांग है। भारत में ब्रिटिश राज के समय तत्कालीन ब्रिटिश शाही अधिकारियों द्वारा इसे "पूर्व का स्काटलैण्ड" संज्ञा दी गयी थी। मेघालय पहले असम राज्य का ही भाग था, 21 जनवरी 1972 को असम के खासी, गारो एवं जैन्तिया पर्वतीय जिलों को काटकर नया राज्य मेघालय अस्तित्व में लाया गया। यहाँ की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा अन्य मुख्यतः बोली जाने वाली भाषाओं में खासी, गारो, प्नार, बियाट, हजोंग एवं बांग्ला आती हैं। इनके अलावा यहाँ हिंदी भी कुछ कुछ बोली समझी जाती है जिसके बोलने वाले मुख्यतः शिलांग में मिलते हैं। भारत के अन्य राज्यों से अलग यहाँ मातृवंशीय प्रणाली चलती है, जिसमें वंशावली माँ (महिला) के नाम से चलती है और सबसे छोटी बेटी अपने माता पिता की देखभाल करती है तथा उसे ही उनकी सारी संपत्ति मिलती है। यह राज्य भारत का आर्द्रतम क्षेत्र है, जहाँ वार्षिक औसत वर्षा दर्ज हुई है। राज्य का 70% से अधिक क्षेत्र वनाच्छादित है। राज्य में मेघालय उपोष्णकटिबंधीय वन पर्यावरण क्षेत्रों का विस्तार है, यहाँ के पर्वतीय वन उत्तर से दक्षिण के अन्य निचले क्षेत्रों के उष्णकटिबन्धीय वनों से पृथक हैं। ये वन स्तनधारी पशुओ, पक्षियों तथा वृक्षों की जैवविविधता के मामलों में विशेष उल्लेखनीय हैं। मेघालय में मुख्य रूप से कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था(अग्रेरियन) है जिसमें वाणिज्यिक वन उद्योग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ की मुख्य फसल में आलू, चावल, मक्का, अनान्नास, केला, पपीता एवं दालचीनी, हल्दी आदि बहुत से मसाले, आदि हैं। सेवा क्षेत्र में मुख्यतः अचल संपत्ति एवं बीमा कम्पनियाँ हैं। वर्ष 2012 के लिये मेघालय का सकल राज्य घरेलू उत्पाद अनुमानित था। राज्य भूगर्भ संपदाओं की दृष्टि से खनिजों से सम्पन्न है किंतु अभी तक इससे संबंधित कोई उल्लेखनीय उद्योग चालू नहीं हुए हैं। राज्य में लगभग लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग बने हैं। यह बांग्लादेश के साथ व्यापार के लिए एक प्रमुख लॉजिस्टिक केंद्र भी है। नामकरण मेघालय शब्द का शब्दिक अर्थ है: मेघों का आलय या घर। यह संस्कृत मूल से निकला है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के प्राध्यापक एमेरिटस डॉ॰एस पी॰चटर्जी द्वारा की गई थी। इस नाम पर आरम्भ में इसके नाम पर काफ़ी विरोध हुआ, क्योंकि अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की भांति, जिनके नाम उनके निवासियों से संबंधित थे, जैसे मिज़ोरम: मिज़ो जनजाति, नागालैण्ड: नागा लोग, असम: असोम या अहोम लोग के नाम पर है; किन्तु मेघालय शब्द से स्थानीय गारो, खासी या जयंतिया जनजातियों का नाम कहीं सम्बन्धित नहीं होता है। किन्तु कालान्तर में इसे अपना लिया गया। इतिहास प्राचीन अपने अन्य पड़ोसी पूर्वोत्तर-भारतीय राज्यों के साथ ही, मेघालय भी पुरातात्त्विक रुचि का केन्द्र रहा है। यहाँ लोग नवपाषाण युग से निवास करते आ रहे हैं। अब तक खोजे गए नवपाषाण स्थल प्रायः ऊँचे स्थानों पर मिले हैं, जैसे यहाँ के खासी और गारो पर्वत एवं पड़ोसी राज्यों में भी। यहाँ नवपाषाण शैली की झूम कृषि शैली अभी तक अभ्यास में है। यहाँ के हाईलैंड पठार खनिज संपन्न मृदा के साथ साथ प्रचुर वर्षा होने पर भी बाढ़ से रोकथाम करने में सहायक होते हैं। मानव इतिहास में मेघालय का महत्त्व धान की फसल के घरेलु व्यवसायीकरण से जुड़ा हुआ है। चावल के उद्गम से जुड़े प्रतिस्पर्धी सिद्धांतों में आयन ग्लोवर के सिद्धांत के अनुसार, "भारत 20,000 से अधिक पहचान वाली प्रजातियों के साथ घरेलु चावल की सबसे बड़ी विविधता का केंद्र है और पूर्वोत्तर भारत घरेलु चावल की उत्पत्ति का इकलौता क्षेत्र है जो सबसे अनुकूल है।" मेघालय की पहाड़ियों में की गयी सीमित पुरातात्विक शोध सुझाती है कि यहाँ मानव का निवास प्राचीन काल से रहा है। भारत 20,000 से अधिक पहचान वाली प्रजातियों के साथ घरेलु चावल की सबसे बड़ी विविधता का केंद्र है और उसमें पूर्वोत्तर क्षेत्र घरेलु चावल की उत्पत्ति का अकेला सबसे अनुकूल क्षेत्र है। आधुनिक इतिहास मेघालय का गठन असम राज्य के दो बड़े जिलों संयुक्त खासी हिल्स एवं जयन्तिया हिल्स को असम से अलग कर 21 जनवरी, 1972 को किया गया था। इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने से पूर्व 1970 में अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया था। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के अधीन आने से पूर्व गारो, खासी एवं जयंतिया जनजातियों के अपने राज्य हुआ करते थे। कालांतर में ब्रिटिश ने 1935 में तत्कालीन मेघालय को असम के अधीन कर दिया था। तब इस क्षेत्र को ब्रिटिश राज के साथ एक संधि के तहत अर्ध-स्वतंत्र दर्जा मिला हुआ था। 16 अक्तूबर 1905 में लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल के विभाजन होने पर मेघालय नवगठित प्रांत पूर्वी बंगाल एवं असम का भाग बना। हालाँकि इस विभाजन के 1912 में वापस पलट दिये जाने पर मेघालय असम का भाग बना। 3 जनवरी 1921 को भारत सरकार के 1919 के अधिनियम की धारा 52ए के अनुसरण में, गवर्नर-जनरल-इन-काउन्सिल ने मेघालय के खासी राज्य के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों को पिछड़े क्षेत्र घोषित कर दिया था। इसके बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने भारत सरकार के अधिनियम 1935 के तहत इसे अधिनियमित किया। इस अधिनियम के अंतर्गत पिछड़े क्षेत्रों को दो श्रेणियों,- अपवर्जित एवं आंशिक अपवर्जित में पुनर्समूहीकृत किया। 1947 में स्वतंत्रता के समय, वर्तमान मेघालय में असम के दो जिले थे और यह क्षेत्र असम राज्य के अधीन होते हुए भी सीमित स्वायत्त क्षेत्र था। 1960 में एक पृथक पर्वतीय राज्य की मांग उठने लगी। 1969 के असम पुनर्संगठन (मेघालय) अधिनियम के अन्तर्गत मेघालय को स्वायत्त राज्य बनाया गया। यह अधिनियम 2 अप्रैल 1970 को प्रभाव में आया और इस तरह असम से मेघालय नाम के एक स्वायत्त राज्य का जन्म हुआ। भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के अनुसार इस स्वायत्त राज्य के पास एक 37 सदस्यीय विधान सभा बनी। 1971 में संसद ने पूर्वोत्तर पुनर्गठन अधिनियम पास किया जिसके अन्तर्गत्त मेघालय को 21 जनवरी 1972 को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ और अपनी स्वयं की मेघालय विधान सभा बनी। भूगोल मेघालय पूर्वोत्तर भारत की सात बहनों वाले राज्य में से एक है। यह एक पर्वतीय राज्य है जिसमें घाटियों और पठारों तथा ऊँची-नीची भूमि वाले क्षेत्र हैं। यहाँ पर भूगर्भीय सम्पदा भी प्रचुर उपलब्ध है। यहाँ मुख्यतः आर्कियन पाषाण संरचनाएं हैं। इन पाषाण शृंखलाओं में कोयला, चूना पत्थर, यूरेनियम और सिलिमैनाइट जैसे बहुमूल्य खनिजों के भंडार हैं। मेघालय में बहुत सी नदियाँ भी हैं जिनमें से अधिकांश वर्षा आश्रित और मौसमी हैं। गारो पर्वतीय क्षेत्र की कुछ महत्त्वपूर्ण नदियाँ हैं: गनोल, दारिंग, सांडा, बाड्रा, दरेंग, सिमसांग, निताई और भूपाई। पठार के पूर्वी (जयन्तिया) एवं मध्य भागों (खासी) में ख्री, दिगारू, उमियम, किन्शी (जादूकता), माओपा, उम्नगोट और मिन्डटू नदियाँ हैं। दक्षिणी खासी पर्वतीय क्षेत्र में इन नदियों द्वारा गहरी गॉर्ज रूपी घाटियां एवं ढेरों नैसर्गिक जल प्रपात निर्मित हुए हैं। पठार क्षेत्र की ऊँचाई से के बीच है। पठार के मध्य भाग में खासी पर्वतमाला के भाग हैं जिनकी ऊँचाई अधिकतम है। इसके बाद दूसरे स्थान पर जयंतिया पर्वतमाला वाला पूर्वी भाग आता है। मेघालय का उच्चतम स्थान शिलाँग पीक है, जहाँ बड़ा वायु सेना स्टेशन है। यह खासी पर्वत का भाग है और यहाँ से शिलाँग शहर का मनोहारी एवं विहंगम दृश्य दिखाई देता है। शिलांग पीक की ऊँचाई है। पठार के पश्चिमी भाग गारो पर्वत में है और अधिकतर समतल है। गारो पर्वतमाला का उच्चतम शिखर नोकरेक पीक है जिसकी ऊँचाई है। जलवायु कुछ क्षेत्रों में वार्षिक औसत वर्षा के साथ मेघालय पृथ्वी पर आर्द्रतम स्थान अंकित है। पठार का पश्चिमी भाग, जिसमें गारो पर्वतों के निचले भाग आते हैं वर्ष पर्यंत उच्च तापमान में रहता है। ऊँचाईयों वाले शिलाँग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रायः कम तापमान रहता है। इस क्षेत्र का अधिकतम तापमान यदा कदा ही से ऊपर जाता होगा, जबकि शीतकालीन उप-शून्य तापमान यहाँ सामान्य हैं। राजधानी शिलाँग के दक्षिण में खासी पर्वत स्थित सोहरा (चेरापूंजी) कस्बा एक कैलेंडर माह में सर्वाधिक वर्षा का कीर्तिमान धारक है, जबकि निकटवर्ती मौसिनराम ग्राम वर्ष भर में विश्व की सर्वाधिक वर्षा का कीर्तिमान धारक है। वन्य जीवन राज्य का लगभग 70% से अधिक भाग वनाच्छादित है, जिसमें से सघन प्राथमिक उपोष्णकटिबंधीय वन हैं। मेघालयी वन एशिया के प्रचुरतम वनस्पति निवासों में से एक हैं। इन वनों को भरपूर वर्षा उपलब्ध रहती है और यहाँ प्रचुर मात्रा में वनस्पति एवं वन्य जीव अपनी विविधता के संग मिलते हैं। मेघालय के वनों का एक लघु भाग भारत के पवित्र वृक्षों (सैक्रेड ग्रोव्स) के नाम से जाना जाता है। प्राचीन वनों के कुछ छोटे भाग हैं जिन्हें समुदायों द्वारा सैंकड़ों वर्षों से धार्मिक एवं सांस्कृत विश्वास के कारण संरक्षित किया जाता रहा है। ये वन भाग धार्मिक कृत्यों हेतु रक्षित रहते हैं और किसी भी प्रकार के शोषण से सुरक्षित रखे जाते हैं। इन पवित्र ग्रोव्स में बहुत से दुर्लभ पादप एवं पशु आते हैं। पश्चिम गारो हिल्स में नोकरेक बायोस्फ़ेयर रिज़र्व एवं दक्षिण गारो हिल्स में बालफकरम राष्ट्रीय उद्यान को मेघालय के सर्वाधिक जैवविविधता बहुल स्थलों में गिना जाता हैं। मेघालय में तीन वन्य जीवन अभयारण्य हैं: नोंगखाईलेम, सिजू अभयारण्य एवं बाघमारा अभयारण्य, जहां कीटभोजी घटपर्णी (पिचर प्लांट) नेपेन्थिस खासियाना का पौधा मिलता है जिसे स्थानीय भाषा में "मे'मांग कोकसी" कहते हैं। यहाँ के मौसम और स्थलीय स्थितियों में विविधता के कारण मेघालय के वनों में पुष्पों की प्रजातियों का बाहुल्य है। इनमें परजीवी, अधिपादप, रसभरे पौधों और झाड़ियों की बड़ी विविध प्रजातियां मिलती हैं। यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण वृक्ष किस्मों में से दो हैं साल का पेड (शोरिया रोबस्टा) और टीक (टेक्टोना ग्रैंडिस) हैं। मेघालय फल, सब्जियों, मसालों और औषधीय पौधों की ढेरों किस्म का घर है। मेघालय अपने विभिन्न प्रकार के 325 से अधिक किस्मों के ऑर्किड्स के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें से सर्वाधिक पाई जाने वाली किस्में खासी पर्वतों के मासस्माई, माल्मलुह और सोहरारीम जंगलों में पाई जाती है। . मेघालय में स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों एवं कीट, कृमियों की भी अनेक किस्में पायी जाती हैं। स्तनधारियों की महत्त्वपूर्ण प्रजातियों में हाथी, भालू, लाल पाण्डा, सिवेट, नेवले, रासू, कृंतक, गौर, जंगली भैंस, हिरण, जंगली सूअर और कई नरवानर गण और साथ ही चमगादड़ की प्रचुर प्रजातियां भी मिलती हैं। मेघालय की चूनापत्थर गुफाएँ जैसे सीजू की गुफाओं में देश की कई लुप्तप्राय एवं दुर्लभ चमगादड़ प्रजातियाँ मिलती हैं। यहाँ के लगभग सभी जिलों में हूलॉक जिब्बन भी दिखाई देता है। यहाँ के सामान्यतया पाये जाने वाले सरीसृपों में छिपकलियाँ, मगरमच्छ और कछुए आते हैं। मेघालय में बड़ी संख्या में सर्पों की प्रजातियाँ मिलती हैं, जिनमें अजगर, कॉपरहैड, ग्रीन ट्री रेसर, नाग, कोरल स्नेक तथा वाइपर्स भी आते हैं। मेघालय के वनों में पक्षियों की 660 प्रजातियाँ मिलती हैं जिनमें से अधिकाँश हिमालय की तलहटी क्षेत्रों, तिब्बत एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया की स्थानिक हैं। यहाँ पायी जाने वाली पक्षी प्रजातियों में से 34 विश्वव्यापी लुप्तप्राय (एनडेन्जर्ड) प्रजाति सूची एवं 9 लुप्तप्राय प्रजाति सूची में आती हैं। मेघालय में प्रायः दिखाई देने वाली पक्षी प्रजातियों में फैसियनिडी, एनाटिडी, पोडिसिपेडिडी, सिकोनाईडी, थ्रेस्कियोर्निथिडी, आर्डेडी, पेलिकनिडी, फैलाक्रोकोरैसिडी, एन्हिन्जिडी, फ़ैल्कोनिडी, एसिपिट्रिडी, ओटिडिडी, आदि बहुत सी किस्में हैं। इन प्रत्येक किस्म में बहुत सी प्रजातियाँ हैं। ग्रेट इण्डियन हॉर्नबिल मेघालय का सबसे बड़ा पक्षी है। अन्य क्षेत्रीय पक्षियों में सलेटी मयूर-तीतर, बड़े भारतीय तोते (इण्डियन पैराकीट), हरे कबूतर एवं ब्लू जे पक्षी आते हैं। मेघालय 250 से अधिक तितलियों का भी गृह स्थान है जो भारत में पायी जाने वाली कुल प्रजातियों का लगभग एक-चौथाई है। जनसांख्यिकी जनसंख्या स्थानीय जातियाँ 2011 : खासी: 34% गारो: 30.5% जयन्तिया: 18.5% बंगाली: 7.5% नेपाली: 3.5% हैजोंग: 1.2% बियाट: 1.1% कोच: 1.0% तीवा (लालुंग): 0.9% राभा: 0.8% कूकी: 0.5% शेख: 0.3% अन्य: 0.2% मेघालय की जनसंख्या का अधिकाँश भाग जनजातीय लोग हैं। इनमें खासी सबसे बड़े समूह हैं, इसके बाद गारो और फिर जयंतिया लोग आते हैं। ये उन लोगों में से थे जिन्हें अंग्रेज लोग "पहाड़ी जनजाति" कहा करते थे। इनके अलावा अन्य समूहों में बियाट, कोच, संबंधित राजबोंगशी, बोरो, हाजोंग, दीमासा, कुकी, लखार, तीवा (लालुंग), करबी, राभा और नेपाली शामिल हैं। जनगणना.2011 की प्रावधानिक रिपोर्ट के अनुसार, सभी सात उत्तर-पूर्वी राज्यों में से मेघालय में 27.82% की उच्चतम, दशक की जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई। 2011 तक मेघालय की जनसंख्या 29,64,007 हो जाने का अनुमान है; जिसमें से 14,92,668 महिलाएँ एवं 14,71,339 पुरुष होने का अनुमान है। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 986 महिलाएँ रहा जो राष्ट्रीय औसत 940 से कहीं अधिक है। यहाँ का शहरी महिला लिंगानुपात 985 ग्रामीण लिंगानुपात 972 से अधिक है। कार्मिक जनसंख्या मेघालय की कुल जनसंख्या में से 11,85,619 लोग कार्यसाधक गतिविधियों में संलग्न हैं। 77.7% कार्यकर्त्ता अपने इन कार्यों को मुख्य कार्य बताते हैं (6 माह या अधिक से संलग्न) जबकि 22.3% लोग आंशिक रूप से (6 माह से कम) हैं। इन 11,85,619 कार्यकर्त्ताओं में से 4,11,270 कृषक रूप में (स्वामी या सह-स्वामी) संलग्न हैं, जबकि 1,14,642 कार्यकर्त्ता कृषक मजदूर रूप में संलग्न हैं। धर्म मेघालय भारत के उन तीन राज्यों में से एक है जहाँ ईसाई बाहुल्य है। यहाँ की लगभग 75% जनसंख्या ईसाई धर्म का अनुसरण करती है जिनमें प्रेस्बिटेरियन, बैपटिस्ट और कैथोलिक आम संप्रदायों में आते हैं। मेघालय में लोगों का धर्म उनकी जाति से निकटता से संबंधित है। गारो जनजाति के 90% और खासी जनजाति के लगभग 80% लोग ईसाई है, जबकि हजोंग जनजाति के 97% से अधिक, कोच के 98.53% और राभा जनजातियों के 94.60% लोग हिंदू हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार मेघालय में रहने वाली 6,89,639 गारो जनसंख्या में से अधिकाँश ईसाई हैं, और दूरदराज के इलाकों में रहने वाले कुछ लोग ही सोंगसेरेक धर्म का पालन करते हैं। 11,23,490 खासी लोगों में से अधिकाँश ईसाई थे, 2,02,978 स्वदेशी नियाम खासी / शॉनोंग / नियाम्त्रे, 17,641 हिंदू थे और 2,977 मुस्लिम थे। मेघालय में कई कम जनसंख्या वाली जनजातियाँ भी हैं, जिनमें हाजोंग (३१,३८१ - ९७.२३% हिंदू), कोच (३१,३८१ -९८.५३% हिंदू), राभा (२८,१५३ - ९४.६०% हिंदू), मिकिर (११,३९९ - ५२% ईसाई और ३०% हिंदू) शामिल हैं, तीवा (लालंग) (८,८ - ९६.१५% ईसाई) और बियाट (१०,०८५ - ९७.३०% ईसाई)। स्वदेशी से ईसाईयत को धर्मान्तरण ब्रिटिश काल में १९वीं शताब्दी से आरम्भ हुआ। १८३० में अमेरिकन बापटिस्ट फ़ारेन मिशनरी सोसायटी पूर्वोत्तर में सक्रिय हुई और स्वदेशी से इनका धर्मान्तरण ईसाईयत को किये जाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। कालान्तर में उन्हें चेरापुञ्जी, मेघालय तक अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने का प्रस्ताव भी मिला किन्तु पर्याप्त संसाधनों की कमी के कारण उन्होंने मना कर दिया। वैल्श प्रेसबाईटेरियन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और चेरापुञ्जी मिशन क्षेत्र में कार्य आरम्भ कर दिया। १९०० के आरम्भ तक प्रोटेस्टैण्ट ईसाई मिशन भी मेघालय में सक्रिय होने लगे थे। विश्व युद्ध के आरम्भ होने के कारण यहां के प्रचारकों को इस कार्य को छोड़ कर यूरोप एवं अमेरिका में अपने घरों को लौटने पर बाध्य होना पड़ा। यही वह काल था जब कैथोलिकन मत ने मेघालय व पडोसी क्षेत्रों में अपनी जड़ें फ़ैलानी आरम्भ की थीं। २०वीं श्ताब्दी में यूनियन क्रिश्चियन कालेज ने बड़ापानी, शिलांग में अपना संचालन शुरू किया। वर्तमान में प्रेसबाईटेरियन और कैथोलिक ही यहां के सर्वाधिक प्रचलित ईसाई मत हैं। भाषाएं राज्य की आधिकारिक एवं सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा यहां की अन्य प्रधान भाषाएं हैं खासी और गारो। खासी (जिसे खसी, खसिया या क्यी भी कहते हैं) ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाओं के मोन-ख्मेर परिवार की एक शाखा है। २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार खासी भाषा को बोलने वाले ११,२८,५७५ लोग मेघालय में रहते हैं। खासी भाषा के बहुत से शब्द की इण्डो-आर्य भाषाएं जैसे नेपाली, बांग्ला एवं असमिया से लिये गए हैं। इसके अलावा खासी भाषा की अपनी कोई लिपि नहीं है और यह भारत में अभी तक चल रही मोन-ख्मेर भाषाओं में से एक है। गारो भाषा का तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार की सदस्य कोच एवं बोडो भाषाओं से निकट सामीप्य है। गारो भाषा अधिकांश जनसंख्या द्वारा बोली जाती है और इसकी कई बोलियां प्रचलित हैं, जैसे अबेंग या अम्बेंग, अटोंग, अकावे (या अवे), मात्ची दुआल, चोबोक, चिसक मेगम या लिंगंगम, रुगा, गारा-गञ्चिंग एवं माटाबेंग। इनके अलावा मेघालय में बहुत सी अन्य भाषाएं भी बोली जाती हैं, जैसे प्नार भाषा पश्चिम एवं पूर्वी जयन्तिया पर्वत पर पर बहुत से लोगों द्वारा बोली ज्ती हैं। यह भाषा खासी भाषा से संबंधित है। अन्य भाषाओं के अलावा वार जयन्तिया (पश्चिम जयन्तिया पर्वत), मराम एवं लिंगंगम (पश्चिम खासी पर्वत), वार पिनर्सिया (पूर्वी खासी पर्वत), के लोगों द्वारा बहुत सी बोलियां भी बोली जाती हैं। री-भोई जिले के तीवा लोगों द्वारा तीवा भाषा बोली जाती है। मेघालय के असम से लगते दक्षिण-पूर्वी भागों में बसने वाले बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बियाट भाषा बोली जाती है। नेपाली भाषा राज्य के लगभग सभी भागों में बोली जाती है। विभिन्न जातीय और जनसांख्यिकीय समूहों में अंग्रेजी एक समान भाषा के रूप में बोली जाती है। शहरी क्षेत्रों में अधिकतर लोग अंग्रेजी बोल सकते हैं; ग्रामीण निवासियों की क्षमता में भिन्नता मिलती है। जिले मेघालय में वर्तमान में ११ जिले हैं। जयन्तिया हिल्स मंडल: पश्चिम जयन्तिया हिल्स (जोवाई) पूर्व जयन्तिया हिल्स (खलीहृयत)खासी हिल्स मंडल पूर्वी खासी हिल्स (शिलांग) पश्चिम खासी हिल्स (नोंग्स्टोइन) दक्षिण पश्चिम खासी हिल्स (मावकिर्वाट) री भोई जिला (नोंगपोह) गारो हिल्स मंडल: उत्तर गारो हिल्स (रेसुबेलपाड़ा) पूर्वी गारो हिल्स (विलियमनगर) दक्षिण गारो हिल्स (बाघमारा, मेघालय) पश्चिम गारो हिल्स (तुरा) दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स (अम्पति जयन्तिया हिल जिला २२ फ़रवरी १९७२ को सृजित किया गया था। इसका कुल भौगोलिक क्षेत्रफ़ल है और यहां की जनसंख्या २,९५,६९२ है। यहां का जिला मुख्यालय जोवाई में स्थित है। जयन्तिया हिल्स जिला राज्य में कोयले का सबसे बड़ा उत्पादक जिला है। जिले भर में कोयले की खानें दिखाई देती हैं। इसके अलावा यहां चूनेपत्थर का खनन भी वृद्धि पर है क्योंकि सीमेण्ट उद्योग यहां जोरों पर है और उसमें चूनेपत्थर की ऊंची मांग है। हाल के कुछ वर्षों में ही इस बड़े जिले को दो छोटे जिलों: पश्चिम जयतिया एवं पूर्वी जयन्तिया हिल्स में बांट दिया गया था। पूर्वी खासी हिल्स जिले को खासी हिल्स में से २८ अक्तूबर १९७६ को निकाल कर नया जिला बनाया गया था। जिले का विस्तार में है और यहां की जनसंख्या ६,६०,९२३ है। ईस्ट खासी हिल्स जिले का मुख्यालय राज्य की राजधानी शिलांग में है। री-भोइ जिले की स्थापना ईस्ट खासी जिले को विभाजित कर ४ जून १९९२ को हुई थी। री-भोई जिले का कुल क्षेत्रफ़ल है और यहां की कुल जनसंख्या १,९२,७९५ है। जिले का मुख्यालय नोंगपोह में है। यहां की भूमि पर्वतीय है और वनाच्छादित है। री-भोई जिला अपने अनानासों के लिये प्रसिद्ध है और राज्य में अनानास का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र है।पश्चिम खासी हिल्स जिला राज्य का सबसे बड़ा जिला है औ इसका क्षेत्रफ़ल है और जिले की जनसंख्या २,९४,११५ है। यह जिला खासी हिल्स जिले से काटकर २८ अक्तूबर १९७६ को बनाया गया था। जिले का मुख्यालय नोंगस्टोइन में है।ईस्ट गारो हिल्स जिले की स्थापना १९७६ में की गयी थी और इसकी जनसंख्या २००१ की जनगणना अनुसार २,४७,५५५ है। इस जिले का विस्तार में है। जिले का मुख्यालय विलियमनगर में है जिसे पहले सिमसानगिरि बोला जाता था। नोंगलबीबरा जिले का एक कस्बा है जहां बड़ी संख्या में कोयले की खानें हैं। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग ६२ द्वारा कोयला ग्वालपाड़ा और जोगीघोपा को भेजा जाता है।पश्चिम गारो हिल्स जिला राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित है और इसका भौगोलिक विस्तार में है। २००१ की जनगणनानुसार जिले की जनसंख्या ५,१५,८१३ है और जिले का मुख्यालय तुरा में है।द्क्षिण गारो हिल्स जिला १८ जून १९९२ को तत्कालीन पश्चिम गारो हिल्स जिले को विभाजित कर बनाया गया था। जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्र है और वर्ष २००१ की जनगणनानुसार यहां की जनसंख्या ९९,१०० है। जिले का मुख्यालय बाघमारा में है।वर्ष २०१२ के स्थितिनुसार राज्य में ११ जिले, १६ नगर व कस्बे और अनुमानित ६,०२६ ग्राम थे। शिक्षा मेघालय में विद्यालय राज्य सरकार, निजी संगठनों एवं धार्मिक संस्थानों द्वारा संचालित होते हैं। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। अन्य भारतीय भाषाएं जैसे असमिया, बंगाली, हिन्दी, गारो, खासी, मीज़ो, नेपाली और उर्दु वैकल्पिक विषयों की श्रेणी में पढ़ाई जाती हैं। माध्यमिक शिक्षा की शिक्षा बोर्ड्स से सम्बद्ध है जैसे काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आईसीएसई), केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई), राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (ओपन स्कूल) और मेघालय शिक्षा बोर्ड। १०+२+३ शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत्त, माध्यमिक शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त विद्यार्थी प्रायः २ वर्ष कनिष्ठ महाविद्यालय (जूनियर स्कूल) में शिक्षण लेते हैं जिसे प्री-युनिवर्सिटी कहते हैं, या फ़िर उच्चतर माध्यमिक शिक्षा सुविधा वाले किसी मेघालय शिक्षा बोर्ड या केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड से सम्बद्ध विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। विद्यार्थी तीन में से किसी एक विधा को चुनते हैं: कला, वाणिज्य या विज्ञान। दो वर्ष का कार्यक्रम सफ़लतापूर्वक पूर्ण करने के उपरान्त विद्यार्थी किसी सामान्य या व्यावसायिक स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश ले सकते हैं। विश्वविद्यालय सीएमजे विश्वविद्यालय, शिलांग भारतीय चार्टर्ड वित्तीय विश्लेषक संस्थान विश्वविद्यालय, मेघालय महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, मेघालय, नोंगपोह मार्टिन लूथर क्रिश्चियन युनिवर्सिटी, मेघालय पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (नेहू), शिलांग टेक्नो ग्लोबल युनिवर्सिटी, मेघालय प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन विश्वविद्यालय, मेघालय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेघालय (यूएसटीएम), मेघालय विलियम कैरी युनिवर्सिटी, मेघालय महाविद्यालय अचेंग रांगमानपा कालेज, महेन्द्रगंज डॉन बास्को कालेज, तुरा नार्थ ईस्ट एड्वेण्टिस्ट कालेज, थाडलास्केन कियांग नांगबाह गवर्नमेंट कालेज, जोवाई एड लबान कालेज, शिलांग लेडी कियाने कालेज, शिलांग नोंगतलांग कालेज, नोंगतलांगनोंगस्टोएन कालेज, नोंगस्टोएन री-भोई कालेज, नोंगपोह सेंट एन्थोनी कालेज, शिलांग सेंट एड्मंड कालेज, शिलांग सेंट मैरी कालेज, शिलांग शंकरदेव कालेज, शिलांग सेंग खासी कालेज, शिलांग शिलांग कालेजशिलांग कामर्स कालेज सोहरा गवर्नमेंट कालेज, चेरापुंजीड कालेज, शिलांग टिकरीकिल्ला कालेज तुरा गवर्नमेंट कालेज, तुरा वूमेन्स कालेज, शिलांग </div> इनके अलावा बहुत से अन्य संस्थान जैसे: भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिलांग, रीजनल इन्स्टीट्यूट आफ़ साइंस एण्ड टेक्नोलाजी, नार्थ ईस्ट इंदिरा गांधी रीजनल इन्स्टीट्यूट आफ़ हैल्थ एण्ड मेडिकल साइंसेज, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इंडियन इन्स्टीट्यूट आफ़ प्रोफ़ैशनल स्टडीज, राष्ट्रीय फैशन टेक्नालॉजी संस्थान एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद एवं होम्योपैथी संस्थान भी राज्य में स्थित हैं। सरकार एवं राजनीति मेघालय के वर्तमान राज्यपाल गंगा प्रसाद राज्य के प्रमुख हैं। राज्य सरकार मेघालय विधान सभा में वर्तमान में ६० सदस्य होते हैं। मेघालय राज्य के दो प्रतिनिधि लोक सभा हेतु निर्वाचित होते हैं, प्रत्येक एक शिलांग और एक तुरा निर्वाचन क्षेत्र से। यहां का एक प्रतिनिधि राज्य सभा में भी जाता है। राज्य के सृजन से ही यहां गौहाटी उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र रहा है। १९७४ से ही गौहाटी उच्च न्यायालय की एक सर्किट बेञ्च यहां स्थापित है। मार्च २०१३ में मेघालय उच्च न्यायालय को गौहाटी उच्च न्यायालय से विलग कर दिया गया और अब राज्य का अपना उच्च न्यायालय है। स्थानीय स्व-सरकार राष्ट्र की ग्रामीण जनता को स्थानीय स्व-सरकार उपलब्ध कराने हेतु भारतीय संविधान में प्रायोजन किये गये हैं। इनके अनुसार पंचायती राज संस्थान की स्थापना की गयी है। पूर्वोत्तर राज्यों के भिन्न रीति रिवाजों एवं मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए, क्षेत्र के लिये एक अलग राजनीतिक एवं प्रशासनिक ढांचे का निर्माण किया गया है क्षेत्र की कुछ जनजातियों की अपनी पारम्परिक राजनीतिक प्रणालियां हैं। इनके चलते यह महसूस किया गया कि पंचायती राज प्रणाली यहां लागू की जाने से विवाद उत्पन्न करेगी। गोपीनाथ बोरदोलोई की अध्यक्षता में बनी एक उपसमिति की सिफ़ारिशों को संविधान में संलग्न किया गया। इसके तहत मेघालय सहित पूर्वोत्तर के कई ग्रामीण क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों का गठन कर उनका अपना संविधान लागू किया गया। मेघालय में ऐसी एडीसी परिषदें निम्न हैं:खासी हिल ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउन्सिलगारो हिल ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउन्सिलजयन्तिया हिल ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउन्सिल अर्थ व्यवस्था मेघालय में मुख्य रूप से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों में ही लगभग मेघालय की दो-तिहाई जनशक्ति कार्यरत है। हालांकि इस क्षेत्र का राज्य की एनएसडीपी में योगदान मात्र एक-तिहाई ही है। राज्य में कृषि की कम उत्पादकता का प्रमुख कारण गैर-टिकाऊ कृषि परम्पराएं हैं। इन्हीं कारणों से कृषि में जनसंख्या के बड़े भाग के संलग्न होने के बावजूद भी राज्य को अन्य भारतीय राज्यों से भोजन आयात करना पड़ता है। बुनियादी ढांचे की बाधाओं ने राज्य की अर्थव्यवस्था को भारत के बाकी भागों के मुकाबले उस तेजी से उच्च आय की नौकरियां सृजित करने से रोक रखा है। मेघालय का वर्ष २०१२ का सकल राज्य घरेलू उत्पाद वर्तमान मूल्यों पर अनुमानित था। २०१२ में भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, राज्य की लगभग १२% जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे थी जिसमें से ग्रामीण क्षेत्रों में १२.५% एवं शहरी क्षेत्रों में ९.३% जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे थी। कृषि मेघालय मूलतः एक कृषि प्रधान राज्य है जिसकी ८०% जनसंख्या अपनी आजीविका हेतु पूर्ण रूपेण कृषि पर ही निर्भर है। मेघालय के कुल भौगोलिक क्षेत्रफ़ल का लगभग १०% कृषि में प्रयोग किया जाता है। राज्य में कृषि प्रायः आधुनिक तकनीकों के अभाव या अति-सीमित प्रयोग के साथ होती है जिसके परिणामस्वरूप कम उत्पादन और कम उत्पादकता ही हाथ आती है। अतः इन कारणों से कृषि में लगी अधिकांश जनसंख्या के बावजूद भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि उत्पादन का योगदान कम है, और कृषि में लगी अधिकांश जनसंख्या गरीब ही रहती है। खेती वाले क्षेत्र का एक भाग यहां की परंपरागत स्थानांतरण कृषि, जिसे स्थानीय भाषा में लोग झूम कृषि कहते हैं, के तहत है। मेघालय में वर्ष २००१ में २,३०,००० टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था। धान यहां की मुख्य खाद्यान्न फ़सल है जो राज्य के कुल खाद्यान्न उत्पादन का ८०% उत्तरदायी है। इसके अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण खाद्यान्नों में मक्का, गेहूं और कुछ अन्य अनाज एवं दालें भी उगायी जाती हैं। इनके अलावा यहां आलू, अदरख, हल्दी, काली मिर्च, सुपारी, तेजपत्ता, पान, शार्ट स्टेपल सूत, सन, मेस्ता, सरसों और कैनोला का भी उत्पादन किया जाता है। धान और मक्का जैसे प्रधान खाद्य फ़सलों के अलाव मेघालय बागों की फ़सलों जैसे सन्तरों, नींबू, अनानास, अमरूद, लीची, केले, कटहल और कई फ़ल जैसे आड़ू, आलूबुखारे एवं नाशपाती के उत्पादन में भी योगदान देता है।अनाज और मुख्य खाद्यान्न उत्पादन यहां की कुल कृषि भूमि का ६०% घेर लेता है। १९७० के दशक के मध्य में उच्चोत्पादन देने वाली फ़सल की किस्मों के प्रयोग आरम्भ किये जाने से खाद्यान उत्पादन में उल्लेखनीय सुधार आया था। धान की उच्चोत्पादन वाली किस्मों जैसे मसूरी, पंकज, आईआर-८, आरसीपीएल एवं अन्य बेहतर किस्मों की शृंखला-विशेषकर आईआर-३६ जो रबी के मौसम के अनुकूल है, के प्रयोग से एक बड़ी सफ़लता प्राप्त की गयी, जिसके उप्रान्त वर्ष में तीन फ़सलें बोई जाने लगी थीं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा धान की शीत सहिष्णु किस्मों जैसे मेघा-१ एवं मेघा-२ के विकास कर यहां प्रयोग किये जाने से पुनः बड़ी सफ़लता मिली थी। परिषद के शिलांग के निकट उमरोई स्थित पूर्वोत्तर क्षेत्र केन्द्र द्वारा इन किस्मों को १९९१-९२ में उच्च ऊँचाई क्षेत्रों के लिए विकसित की गयी थी, जहां तब तक कोई उच्चोत्पादन किस्म नहीं होती थीं। आज राज्य यह दावा कर सकता है कि धान उत्पादन के कुल क्षेत्र का लगभग ४२% क्षेत्र उच्चोत्पादन किस्मों द्वारा रोपा जाता है और इनकी औसत उत्पादकता है। ऐसा ही हाल मक्का और धान उत्पादन के लिये भी रहा है जहां एचवाईवी के प्रयोग किये जाने से उत्पादन १९७१-७२ में से मक्का और गेहूं से हो गया। कैनोला, सरसों, अलसी, सोयाबीन,अरण्डी और तिल जैसे तिलहन यहां लगभग पर उगाए जाते हैं। कैनोला और सरसों यहां के सबसे महत्वपूर्ण तिलहन हैं, जो यहां के लगभग ६.५ हजार टन के कुल तिलहन उत्पादन के दो-तिहाई से अधिक भाग देते हैं। कपास, सन और मेस्टा जैसी फ़सलें ही यहां की मुख्य नकदी फसलों में आती हैं और गारो पर्वत में उगाए जाते हैं। हाल के वर्षों में इनके उत्पादन में गिरावट आयी है जो इनको बोई जाने वाली कृषि भूमि में होती कमी से भी दिखाई देता है। मेघालय की जलवायु यहां फ़ल, सब्जियों, पुष्पों, मसालों, मशरूम जैसी फ़लदार फ़सलों के अलावा चिकित्सकीय पौधों की विभिन्न किस्मों की उपज में बहुत सहायक है। ये उच्च मूल्य फ़सल आंकी जाती हैं, किन्तु घरेलु उपयोगी फ़सलों की अत्यावश्यकता यहां के किसानों को इनकी खेती अपनाने से रोकती है। कुछ मुख्य फ़लदार फ़सलों में यहां रसीले फ़ल, अनानास, पपीते और केले आते हैं। इनके साथ साथ ही बड़ी मात्रा में यहां सब्जियां जैसे फ़ूलगोभी, बंदगोभी और मूली, आदि भी उगायी जाती हैं। पूरे राज्य भर में सुपारी के बाग खूब दिखायी देते हैं, विशेषकर गुवाहाटी से शिलांग राजमार्ग के किनारे के क्षेत्र में। इनके अलावा अन्य उद्यान फ़सलें जैसे चाय, कॉफ़ी और काजू यहां काफ़ी समय बाद पहुंचे किन्तु अब इनका प्रचलन भी बढ रहा है। मसालों, पुष्पों और मशरूमों की बड़ी किस्मों का उत्पादन राज्य भर में किया जाता है। उद्योग मेघालय में प्राकृतिक सम्पदा का बाहुल्य है। इनमें कोयला, चूनापत्थर, सिलिमैनाइट, चीनी मिट्टी और ग्रेनाइट आते हैं। मेघालय भर में वृहत स्तर के वनाच्छादन, समृद्ध जैव विविधता और प्रचुर जल सोत हैं। यहां निम्नस्तरीय औद्योगिकीकरण एवं अपेक्षाकृत खराब बुनियादी ढांचा राज्य की अर्थव्यवस्था के हित में इन प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए बाधा के रूप में कार्य करता है। हाल के वर्षों में ९०० एमटीडी(मीट्रिक टन प्रतिदिन) से अधिक उत्पादन क्षमता वाले दो बड़े सीमेंट निर्माण संयंत्र जयन्तिया हिल्स जिले में लुम्श्नौंग और नौङ्ग्स्निङ्ग में लगे हैं एवं इस जिले में उपलब्ध उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर के समृद्ध भण्डार का उपयोग करने के लिए कई और निर्माण प्रक्रिया में हैं। विद्युत अवसंरचना मेघालय के ऊंचे पर्वतों, गहरी घाटियों और प्रचुर वर्षा के कारण यहां बड़ी मात्रा में अप्रयुक्त जलविद्युत क्षमता संचित है। यहां की मूल्यांकित उत्पादन क्षमता ३००० मेगावाट से अधिक है। राज्य में वर्तमान स्थापित क्षमता १८५ मेगावाट है, किन्तु राज्य स्वयं ६१० मेगावॉट का उपभोग करता है, अर्थात् दूसरे शब्दों में, यह बिजली आयात करता है। राज्य की आर्थिक वृद्धि के साथ साथ ही बिजली की बढ़ती मांग भी जुडी है। राज्य में जलविद्युत से उत्पन्न बिजली निर्यात करने एवं उससे मिलने वाली आय से अपनी आंतरिक विकास योजनाओं के लिए आय अर्जित करने की पर्याप्त क्षमता है। राज्य में भी कोयले के भी बड़े भण्डार हैं, जो कि यहां ताप विद्युत संयंत्र की संभावना को भी बल देते हैं। बहुत सी परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। नंगलबीबरा में प्रस्तावित ताप-विद्युत परियोजना के प्रचालन में आने पर ७५१ मेगावाट विद्युत अतिरिक्त उत्पादन की संभावना है। पश्चिम खासी हिल्स में एक २५० वॉट की परियोजना लगाने का भी प्रस्ताव है। राज्य सरकार अपना विद्युत उत्पादन २०००-२५०० मेगावॉट तक वर्धन करने का लक्ष्य रखता है जिसमें से ७००-९८० मेगावॉट ताप-विद्युत होगी तथा १४००-१५२० मेगावॉट जल-विद्युत होंगीं। राज्य सरकार ने अपने क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश में तेजी लाने हेतु एक साझा लागत वाले सार्वजनिक-निजी साझेदारी मॉडल की रूपरेखा तैयार की है। विद्युत उत्पादन, परिवर्तन और वितरण मेघालय एनर्जी कॉरपोरेशन लिमिटेड को सौंपा गया है, जिसे बिजली आपूर्ति अधिनियम १९४८ के तहत गठित किया गया था। वर्तमान में पांच जल विद्युत स्टेशन और एक मिनी जल विद्युत संयंत्र हैं जिसमें उमियम हाइडल परियोजना, उमट्रू हाइडल परियोजना, माइंट्डू-लेशका-१ हाइडल परियोजना और सनपानी माइक्रो हाइडल (एसईएसयू) परियोजना सम्मिलित हैं। भारत की १२वीं पंचवर्षीय योजना में, राज्य में अधिक जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित करने का एक प्रस्ताव है जो इस प्रकार से हैं: किन्शी (४५० मेगावॉट), उमंगी -१ (५४ मेगावॉट), उमियम-उमत्रु-वी ३६ मेगावॉट), गणोल (२५ मेगावॉट) , माफू (१२० मेगावॉट), नोंगकोलाइट (१२० मेगावॉट), नोंगना (५० मेगावॉट), रंगमो (६५ मेगावॉट), उमंगोट (२६० मेगावॉट), उमदुना (५७ मेगावॉट), मित्तु-लेशका-२ (६०), सेलिम (१७० मेगावॉट) और मावेली (१४० मेगावॉट)।</div> इनमें से जेपी समूह ने खासी पर्वत में किन्शी और उमंगोट परियोजनाओं के निर्माण के लिए बीड़ा उठाया है।. शिक्षा अवसंरचना मेघालय की साक्षरता दर ६२.५६ है जिसके साथ यह भारत का २७वां साक्षर राज्य है। यह दर २०११ में ७५.५ तक पहुंच गयी। वर्ष २००६ के आंकड़ों के अनुसार यहाँ ५८५१ प्राथमिक विद्यालय, १७५९ माध्यमिक विद्यालय एवं ६५५ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। २००८ में, ५,१८,००० विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ रहे थे और २,३२,००० उच्च प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ रहे थे। राज्य अपने विद्यालयों में गुणवत्ता, पहुंच, बुनियादी ढांचे और शिक्षकों के प्रशिक्षण का ध्यान रखता है और उत्तरदायी है। शिलांग स्थित उच्च शिक्षा संस्थान भी हैं जैसे भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) एवं प्रौद्योगिकी एवं प्रबन्धन विश्वविद्यालय (यूएसटीएम) जो प्रथम भारतीय विश्वविद्यालय है जिसने क्लाउड कम्प्यूटिंग अभियान्त्रिकी को अध्ययन के क्षेत्र में स्थान दिया है। आईआईएम शिलांग राष्ट्र के सर्वोच्च श्रेणी के प्रबन्धन संस्थानों में से एक है। स्वास्थ्य अवसंरचना राज्य में १३ सरकारी औषधालय, २२ सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, ९३ प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं ४०८ उप-केन्द्र हैं। यहाँ ३७८ चिकित्सक, ८१ भेषजज्ञ, ३३७ स्टाफ़ नर्सें एवं ७७ लैब तकनीशियन हैं। राज्य सरकार द्वारा तपेदिक, कुष्ठ रोग, कैंसर और मानसिक रोग के उपचार हेतु एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया है। हालांकि मृत्यु दर में लगातार गिरावट आयी है किन्तु राज्य के स्वास्थ्य विभाग के स्थिति पत्र (स्टेटस पेपर) के अनुसार जीवन प्रत्याशा में सुधार और स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी ढांचे में पर्याप्त वृद्धि के अभाव में राज्य की जनसंख्या का लगभग ४२.३% भाग स्वास्थ्य देखरेख से अभी भी अछूता है। यहां बहुत से अस्पताल निर्माणाधीन हैं, जो सरकारी व निजी दोनों ही प्रकार के हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं: सिविल अस्पताल, गणेश दास अस्पताल, के जे पी सायनोड अस्पताल, पूर्वोत्तर इंदिरा गांधी क्षेत्रीय स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संस्थान (एन.ई.आई.जी.आर.आई.एच.एम.एस), नार्थ ईस्ट इन्स्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद (एनईआईएएच), आर.पी चेस्ट अस्पताल, वुडलैण्ड अस्पताल, नज़ारेथ अस्पताल एवं क्रिश्चियन अस्पताल, आदि। शहरी क्षेत्र नगर पालिकाएं: शिलांग, तुरा, जोवाई नगर बोर्ड:विलियमनगर, रेसुबेलपाड़ा, बाघमारा छावनी बोर्ड: शिलांग छावनी (उमरोई ) कस्बा समितियां: नोंग्सटोइन, नोंगपोह,मैरांग जनगणना नगर: मवलाई , मैडानार्टिंग, नोंगथम्माय, नोंगमइनसोंग, पिन्थोरउम्ख्रा, सोहरा/चेरापुंजी पिनुर्सला छोटे कस्बे: खलीहृयत, मावकिर्वाट, अम्पति शिलांग शहरी समूह के तहत क्षेत्र: शिलांग, शिलांग छावनी/उमरोई, मावलाई, मैडानार्टिंग, नोंगथम्माइ, नोंगमइनसोंग, पिन्थोरुमख्रा। शहरी क्षेत्रों का नया प्रस्ताव नगर महापालिका: 1 शिलांग (शिलांग छावनी,/उमरोई, मवलाई , मदनर्टिंग, नोंगथिम्माई, नोंगमइनसोंग, पिन्थोरुमख्रा सहित)नगरपालिकाएं: 3 तुरा, जोवाई, विलियमनगर।नगर बोर्ड: 9 रेसुबेलपाडा, बाघमारा, नोइंगस्टोइन, नोंगपोह, मैडानार्टिंग, नोंगथाइमाय, नोंगमिनसोंग, पिन्थोरुमख्रा, आदिकस्बा समितियां: 1 पिनुर्स्ला संस्कृति एवं समाज मेघालय की मुख्य जनजातियां हैं खासी, गारो और जयन्तिया। प्रत्येक जनजाति की अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराएं, पहनावा और अपनी भाषाएं हैं। सामाजिक संस्थान मेघालय के अधिकांश लोग और प्रधान जनजातियां मातृवंशीय प्रणाली का अनुसरण करते हैं, जहां विरासत और वंश महिलाओं के साथ चलता है। कनिष्ठतम पुत्री को ही सारी संपत्ति मिलती है और वही बुजुर्ग माता-पिता और किसी भी अविवाहित भाई बहन की देखभाल भी किया करती है। कुछ मामलों में, जहां परिवार में कोई बेटी नहीं है या अन्य कारणों से, माता-पिता किसी और बेटी को नामांकित कर सकते हैं जैसे कि अपनी पुत्रवधू को, और घर के उत्तराधिकार और अन्य सभी संपत्तियों का अधिकार उसे ही मिलता है। खासी और जयन्तिया जनजाति के लोग पारम्परिक मातृवंशीय प्रणाली का पालन करते जिसमें खुन खटदुह (अर्थात कनिष्ठतम पुत्री) घर की सारी सम्पत्ति की अधिकारी एवं वृद्ध माता-पिता की देखभाल की उत्तरदायी होती है। हालांकि पुरुष वर्ग, विशेषकर मामा इस सम्पत्ति पर परोक्ष रूप से पकड बनाए रहते हैं, क्योंकि वे इस सम्पत्ति के फ़ेरबदल, क्रय-विक्रय आदि के सम्बन्ध में लिये जाने वाले महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सम्मिलित होते हैं। परिवार में कोई पुत्री न होने की स्थिति में खासी और जयन्तिया (जिन्हें सिण्टेंग भी कहा जाता है) में आइया रैप आइङ्ग का रिवाज होता है, जिसमें परिवार किसी अन्य परिवार की कन्या को दत्तक बना कर अपना लेता है, और इस तरह वह का ट्राई आइङ्ग (परिवार की मुखिया) बन जाती है। इस अवसर पर पूरे समुदाय में धार्मिक अनुष्ठान होते हैं व उत्सव मनाया जाता है। गारो वंश प्रणाली में, सबसे छोटी पुत्री को स्वतः रूप से परिवार की संपत्ति विरासत में मिलती है, यदि एक और पुत्री का नाम माता-पिता द्वारा नहीं निर्धारित किया जाता है। उसके बाद उसे नोकना, अर्थात् "घर के लिए" नामित किया जाता है। यदि किसी परिवार में कोई बेटियां नहीं हैं, तो चुनी हुई पुत्रवधू (बोहारी) या एक दत्तक पुत्री (डरागता) को घर में रखते हैं और उसे ही गृह सम्पत्ति मिल जाती है। मेघालय में विश्व की सबसे बड़ी जीवित मातृवंशीय संस्कृति प्रचलन में है। पारम्परिक राजनीतिक संस्थान तीनों प्रधान जनजातियाँ, खासी, गारो एवं जयन्तिया समुदायों के अपने अपने पारम्परिक राजनीतिक संस्थान हैं जो सैंकड़ों वर्षों से चलते चले आ रहे हैं। ये राजनीतिक संस्थान गांव स्तर, कबीले स्तर और राज्य स्तर जैसे विभिन्न स्तरों पर काफी विकसित और कार्यरत हैं।. खासियों की पारम्परिक राजनीतिक प्रणाली में प्रत्येक कुल या वंश की अपनी स्वयं की परिषद होती है जिसे दोरबार कुर कहते हैं और यह वंश के मुखिया की अध्यक्षता में संचालित होती है। यह परिषद या दोरबार वंश के आंतरिक मामलों की देखरेख करती है। इसी प्रकार प्रत्येक ग्राम की एक स्थानीय सभा होती है जिसे दोरबार श्वोंग कहते हैं, अर्थात् ग्राम परिषद। इसका संचालन भी ग्राम मुखिया कीअध्यक्षता में होता है। अन्तर-ग्राम मुद्दों पर निकटवर्ती ग्राम के लोगों से गठित एक राजनीतिक इकाई निर्णय लेती है। स्थानीय राजनीतिक इकाइयाँ रेड्स कहलाती हैं और ये सर्वोच्च राजनीतिक संस्थान साइमशिप के अधीन कार्य करती हैं। ये साइमशिप बहुत सी रे्ड्स का संघ होती है और इनका साईम या सीईएम (राजा) के नाम से जाना जाने वाला एक निर्वाचित प्रमुख होता है। साइम ने एक निर्वाचित राज्य विधानसभा के माध्यम से खासी राज्य पर शासन करते हैं जिसे दरबार हिमा के नाम से जाना जाता है। सीईएम के पास उनके मंत्रियों से गठित एक मंत्रिमण्डल होता है जिनकी राय व सलाह से वह अपनी कार्यपालक का उत्तरदायित्त्व पूर्ण करता है। । इनके राज्य में कर एवं चुंगियां भी वसूली जाती हैं और करों को पिनसुक तथा टोल को क्रोंग कहा जाता था। क्रोंग राज्य का प्रधान आय स्रोत हुआ करती है। २०वीं शताब्दी के आरम्भ में राजा दखोर सिंह यहां का साइम हुआ करता था। जयन्तिया लोगों में भी त्रिस्तरीय राजनीतिक प्रणाली होती है जो खासी लोगों के लगभग समान ही होती है और इसमें भी रेड्स और साइम हुआ करते हैं। रेड्स की अध्यक्षता डोलोइस करते हैं जो रेड्स स्तर पर कार्यपालक एवं रीति रिवाजों के साथ देख रेख किया करते हैं। प्रत्येक निर्वाचित स्तर की अपनी परिषद या दरबार हुआ करते हैं। गारो समूह परम्परागत राजनीतिक प्रणाली में, गारो ग्रामों के एक समूह का एक राजा हुआ करता है जिसे ए-किंग कहते हैं। ए-किंग निक्माज़ के अधीन कार्य करता है। यह निक्मा गारों लोगों की एकमात्र राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्राधिकारी होता है और यही सब न्यायिक और विधायी कार्य भी किया करता है। ये विभिन्न निक्माज़ विभिन्न ए-किंग्स के मुद्दों को सुलझाने हेतु मुल कर कार्य किया करते हैं। गारो लोगों के बीच कोई सुव्यवस्थित परिषद या दरबार नहीं हुआ करते हैं। उत्सव एवं त्योहार खासी नृत्य खासी जीवन की संस्कृति का मुख्य रिवाज है, और राइट्स आफ़ पैसेज का एक भाग भी है। नृत्यों का आयोजन श्नोंग (ग्राम), रेड्स(ग्राम समूह) और हिमा(रेड्स का समूह) में किया जाता है। इनके उत्सवों में से कुछ हैं: का शाद सुक माइनसिएम, का पोम-ब्लांग नोंगक्रेम, का शाद शाङ्गवियांग, का-शाद काइनजो खास्केन, का बाम खाना श्नोंग, उमसान नोंग खराई और शाद बेह सियर।जयन्तिया जयन्तिया हिल्स के लोगों के उत्सव अन्य जनजातियों की ही भांति उनके जीवन व संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। ये प्रकृति और अपने लोगों के बीच सन्तुलन एवं एकजुटता को मनाते हैं। जयन्तिया लोगों के उत्सवों में से कुछ हैं: बेहदियेनख्लाम, लाहो नृत्य एवं बुआई का त्योहार। गारो गारों लोगों के लिये उत्सव उनके सांस्कृतिक विरासत का भाग हैं। ये अपने धार्मिक अवसरों, प्रकृति और मौसम और साथ ही सामुदायिक घटनाएं जैसे झूम कृषि अवसरों को मनाते हैं। गारों समुदाय के प्रमुख त्योहारों में डेन बिल्सिया, वङ्गाला, रोंगचू गाला, माइ अमुआ, मङ्गोना, ग्रेण्डिक बा, जमाङ्ग सिआ, जा मेगापा, सा सट रा चाका, अजेयोर अहोएया, डोरे राटा नृत्य, चेम्बिल मेसारा, डो'क्रुसुआ, सराम चा'आ और ए से मेनिया या टाटा हैं जिन्हें ये बडी चाहत से मनाया करते हैं। हैजोंग हैजोंग लोग अपने पारम्परिक त्योहारों के साथ साथ हिन्दू त्योहार भी मनाते हैं। गारो पर्वत की पूरी समतल भूमि में हैजोंग लोगों का निवास है, ये कृषक जनजाति हैं। इनके प्रमुख पारम्परिक उत्सवों में पुस्ने, बिस्वे, काटी गासा, बास्तु पुजे और चोर मगा आते हैं। बियाट बियाट लोगों के कई प्रकार के त्योहार एवं उत्सव होते हैं; नल्डिंग कूट, पम्चार कूट, लेबाङ्ग कूट, फ़वाङ्ग कूट, आदि। हालांकि अपने भूतकाल की भांति अब ये नल्डिंग कूट के अलावा इनमें से कोई त्योहार अब नहीं मनाते हैं। नल्डिंग कूट (जीवन का नवीकरण) हर वर्ष जनवरी के माह में आता है और तब ये लोग गायन, नृत्य और पारम्परिक खेल आदि खेलते हैं। इनका पुजारी - थियांपु चुङ्ग पाठियान नामक देवता की अर्चना कर के उससे इनकी खुशहाली एवं समृद्धि को इनके जीवन के हल पहलु में भर देने की प्रार्थना करता है। आध्यात्मिकता दक्षिण मेघालय में मावसिनराम के निकट मावजिम्बुइन गुफाएं हैं। यहां गुफा की छत से टपकते हुए जल में मिले चूने के जमाव से प्राकृतिक बना हुआ एक शिवलिंग है। १३वीं शताब्दी से चली आ रही मान्यता अनुसार यह हाटकेश्वर नामक शिवलिंग जयन्तिया पर्वत की गुफा में रानी सिंगा के समय से चला आ रहा है। जयन्तिया जनजाति के दसियों हजारों सदस्य प्रत्येक वर्ष यहां हिन्दू त्योहार शिवरात्रि में भाग लेते हैं एवं जोर शोर से मनाते हैं। जीवित जड सेतु मेघालय में जीवित जड पुलों का निर्माण भी मिलता है। यहां फ़ाइकस इलास्टिका (भारतीय रबर वृक्ष) की हवाई जडों को धीरे धीरे जोड कर सेतु तैयार किये जाते हैं। ऐसे सेतु मावसिनराम की घाटी के पूर्व में पूर्वी खासी हिल्स के क्षेत्र में एवं पूर्वी जयन्तिया हिल्स जिले में भी मिल जाते हैं। इनका निर्माण खासी एवं जयन्तिया जनजातियों द्वारा किया जाता रहा है ऐसे सेतु शिलांग पठार के दक्षिणी सीमा के साथ लगी पहाडी भूमि पर भी मिल जाते हैं। हालांकि ऐसी संस्कृतिक धरोहरों में से बहुत से सेतु अब ध्वंस हो चुके हैं, जो भूस्खलन या बाढ की भेंट चढ गये या उनका स्थान अधिक मजबूत आधुनिक स्टील सेतुओं ने ले लिया। परिवहन १९४७ में भारत के विभाजन से पूर्वोत्तर की मूल अवसंरचना को काफ़ी धक्का पहुंचा जिसका एक कारण यह भी था कि इस क्षेत्र का मात्र २% भाग ही देश के शेष हिस्से से लगता था। भूमि का एक बहुत ही संकरा सा भाग पूर्वोत्तर को मुख्यभूमि में सिलिगुड़ी गलियारे के द्वारा पश्चिम बंगाल से जुड़ा हुआ है। मेघालय भूमि से घिरा राज्य है जहां दूर दूर तक छोटी बडी बस्तियां व आबादी बसी हुई है। अतः यहां परिवहन का एकमात्र साधन सडक ही है। हालांकि राजधानी शिलांग सडकों द्वारा भली भांति जुडी हुई है, अधिकांश अन्य भाग इस मामले में पीछे ही हैं। राज्य की सडकों का एक बड़ा भाग अभी भी कच्चा ही है। मेघालय में अधिकांश आवाजाही निकटवर्ती राज्य असम की राजधानी गुवाहाटी से ही होती है जो शिलांग से १०३ किमी पर स्थित है। गुवाहाटी समूचे देश से नियमित रेल और वायु सेवा द्वारा भली प्रकार से जुडा हुआ है।</p>जब मेघालय को १९७२ में असम से काट कर एक स्वायत्त राज्य के रूप में अलग किया गया था, तब इसे १७४ किमी के राष्ट्रीय राजमार्ग सहित २७८६.६८ किमी की कुल सडकें विरासत में मिली थीं। तब राज्य का सडक घनत्व १२.४२ वर्ग किमी प्रति १०० वर्ग किमी राज्य क्षेत्रफ़ल था। २००४ तक के आंकड़ों के अनुसार कुल सडक लम्बाई ९३५० किमी तक पहुंच गयी थी, जिसमें ५,८५७ किमी पक्की व पेव्ड भी थी। मार्च २०११ तक के आंकडों के अनुसार सडक घनत्व ४१.६९ वर्ग किमी पहुंच चुका था, हालांकि इस मामले में मेघालय राष्ट्रीय औसत ७४ किमी प्रति १०० वर्ग किमी से नीचे ही रहा। राज्य के लोगों को बेहतर सेवा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से मेघालय लोक सेवा आयोग (मेघालय पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेण्ट) वर्तमान सडकों एवं सेतुओं के सुधार और उन्नयन हेतु निरन्तर प्रयासरत है एवं अनेक कदम उठा रहा है। सड़क मार्ग मेघालय में सडक जाल की कुल लम्बाई किमी है, जिसमें से किमी तारकोल की सडक है एवं शेष किमी सडक रोड़ी की है। मेघालय राज्य असम में सिल्चर, मिजोरम में आईजोल और त्रिपुरा में अगरतला से राष्ट्रीय राजमार्गों से भली-भांति जुड़ा हुआ है। बहुत सी निजी बसें एवं टैसी संचालक गुवाहाटी से शिलांग यात्रियों को लाते ले जाते हैं। यह मार्ग लगभग ढाई घंटे का है। शिलांग से मेघालय के सभी प्रधान नगरों, पूर्वोत्तर की अन्य राजधानियों एवं असम के नगरों के लिये दिवस एवं रात्रि बस सेवाएं उपलब्ध हैं। रेल मार्ग मेघालय में रेलमार्ग का एकमात्र मार्ग तक है जहां से गुवाहाटी तक नियमित रेल सेवा चलती है। यह सेवा ३० नवंबर २०१४ को आरम्भ हुई थी। राज्य में एक औपचारिक पर्वतीय रेल चेरा कम्पनीगंज स्टेट रेलवे पहले चला करती थी। शिलांग से पर निकटतम रेलवे स्टेशन है जो पूर्वोत्तर क्षेत्र को ब्रॉडगेज लाइन द्वारा देश के शेष भाग से जोड़ा करता है। गुवाहाटी से रेलवे लाइन को बायर्नीहाट () तक जोड़ने का प्रस्ताव विचाराधीन है जो आगे शिलांग तक विस्तृत की जायेगी। वायु मार्ग राज्य की राजधानी शिलांग का विमानक्षेत्र उमरोई में स्थित है। यह शिलांग मुख्य शहर से पर गुवाहाटी-शिलांग राजमार्ग पर स्थित है। इसका नया टर्मिनल भवन की लागत से बना है जिसका उद्घाटन जून २०११ में हुआ था। एअर इंडिया क्षेत्रीय अपनी उड़ान शिलांग विमानक्श्झेत्र से कोलकता तक प्रतिदिन भरता है। एक हैलीकॉप्टर सेवा भी शिलांग से गुवाहाटी और तुरा के लिये चलती है। तुरा के निकट बाल्जेक विमानक्षेत्र २००८ में प्रचालन में आया था। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण इसकी देख रेख कर रहा है। प्राधिकरण विमानक्षेत्र को एटीआर ४२ एवं एटीआर ७२ सीटर के लिये विकसित कर रहा है। असम में अन्य निकटवर्ती विमानक्षेत्रों में बोरझार, गुवाहाटी विमानक्षेत्र(IATA: GAU) शिलांग से लगभग पर स्थित है। पर्यटन बहुत पहले विदेशी पर्यटकों को उन क्षेत्रों में प्रवेश पूर्व अनुमति लेनी होती थी, जिनसे मिल कर अब मेघालय बना है। हालांकि प्रतिबन्ध १९५५ में हटा लिए गए थे। राज्य के पर्वतों, पठारी ऊंची-नीची भूमि, कोहरे व धूंध से भरे इलाकों और नैसर्गिक दृश्यों आदि को देखते हुए मेघालय की तुलना स्कॉटलैण्ड से की जाती रही है और इसे पूर्व का स्कॉटलैण्ड (स्कॉटलैण्ड ऑफ़ द ईस्ट) भी कहा गया है। राज्य में देश के सबसे घने प्राथमिक वन उपस्थित हैं और इस कारण से यह भारत के सबसे महत्त्वपूर्भ पारिस्थित्तिक क्षेत्रों में से एक गिना जाता रहा है। मेघालयी उपोष्णकटिबंधीय वनों में पादप एवं जीव जगत की वृहत किस्में पायी जाती है। राज्य में २ राष्ट्रीय उद्यान एवं ३ वन्य जीवन अभयारण्य हैं।मेघालय बहुत से साहसिक पर्यटन जैसे पर्वतारोहण, रॉक क्लाइम्बिंग, ट्रेकिंग, हाइकिंग, गुफा भ्रमण एवं जल-क्रीड़ा के अवसर भी प्रदान करता है। राज्य में कई ट्रेकिंग मार्ग भी उपलब्ध हैं जिनमें से कुछ में तो दुर्लभ जानवरों से भी सामना संभव होता है। उमियम झील में जल क्रीड़ा (वॉटर स्पोर्ट्स) परिसर हैं, जहां रो-बोट्स, पैडलबोट्स, सेलिंग नौकाएं, क्रूज-बोट, वॉटर स्कूटर और स्पीडबोट जैसी सुविधाएं हैं भी मिलती हैं। चेरापुंजी पूर्वोत्तर भारत के सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल में से एक है। यह राजधानी शिलांग से दक्षिण दिशा में स्थित है तथा एक मनोहारी प्राकृतिक अवलोकन वाले सड़क मार्ग द्वारा यह राजधानी शिलांग से जुड़ा हुआ है। चेरापुंजी के निकटस्थ ही जीवित जड़ सेतु पर्यटकों के लिये आकर्षण हैं। प्रसिद्ध दोहरा जड़ीय सेतु अन्य बहुत से इस प्रकार के सेतुओं सहित पर्यटकों को स्तंभित कर देने वाला आकर्षण है। इस प्रकार के बहुत से सेतु नोंगथिम्मई, माइन्टेंग एवं टाइनरोंग में मिल जाते हैं। जड़ सेतु मिलने वाले अन्य स्थानों में मावैलनोंग के पर्यटन ग्राम के निकट रिवाई ग्राम, पायनर्सिया और विशेषकर पश्चिम जयन्तिया हिल्स जिले के रांगथाइल्लाइंग एवं मावकिरनॉट गाँव हैं, जहाँ निकटवर्ती गांवों में बहुत से जड़ सेतु देखने को मिल जाते हैं।जलप्रपात एवं नदियाँराज्य के प्रमुख एवं प्रसिद्ध जलप्रपातों में एलिफ़ैण्ट फ़ॉल्स, शाडथम प्रपात, वेइनिया प्रपात, बिशप प्रपात, नोहकालिकाई प्रपात, लांगशियांग प्रपात एवं स्वीट प्रपात, क्रिनोलाइन जलप्रपात, काइनरेम जलप्रपात, नोहस्गिथियांग जलप्रपात, बीदों जलप्रपात, मार्गरेट जलप्रपात और स्प्रैड इगल जलप्रपात कुछ हैं। इनके अलावा यहाँ विशेषकर मॉनसून के काल में ढेरों झरने मिलते हैं। मावसिनराम के निकट स्थित जकरेम के गर्म जल के झरने में औषधीय एवं चिकित्सकीय गुण पाये जाने की मान्यता है।पश्चिम खासी हिल्स जिले में स्थित नोंगखनम द्वीप मेघालय का सबसे बड़ा एवं एशिया का दूसरा सबसे बड़ा नदी द्वीप है। यह नोंगस्टोइन से १४ किमी॰ दूर स्थित है। यह द्वीप किन्शी नदी के फान्लियान्ग और नाम्लियान्ग नदियों में विभाजित हो जाने से बना है। रेतीली तटरेखा वाली फान्लियान्ग नदी बहुत ही सुन्दर झील बनाती है। इसके आगे आगे जाते हुए फान्लियान्ग नदी एक गहरी घाटी में गिरने से पूर्व एक ६० मी॰ ऊँचे जलप्रपात से गिरती है। यह प्रपात शादथम फ़ॉल्स नाम से प्रसिद्ध है। पवित्र वृक्ष मेघालय अपने पवित्र वृक्षों के लिये भी प्रसिद्ध है। ये वन, उद्यान या प्राकृतिक सम्पदा का छोटा या बड़ा भाग होते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग कई पीढियों से किसी स्थानीय देवता को समर्पित कर उसके प्रतीक के रूप में पूजते रहे हैं। ये प्राचीन काल से मान्यता रही है और इनके अनुसार इन वृक्षों में पवित्र आत्मा का निवास होता है। ऐसे स्थान भारत पर्यन्त मिल जाएंगे और इनका अनुरक्षण एवं देखभाल स्थानीय लोग करते हैं, तथा इनकी पत्तियों व अन्य भागों को या इनमें निवास करने वाले जीव जन्तुओं को किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचाना या तोड़ना निषेध होता है। मावफ्लांग सैकरेड फ़ॉरेस्ट (मावफलांग पवित्र वन) जिसे "लॉ लिंगडोह" भी कहा जाता है, मेघालय के सैकरेड फ़ॉरेस्ट्स में से एक है। यह शिलाँग से लगभग २५ कि॰मी॰ पर मावफलांग में स्थित है। यह एक नैसर्गिक दश्य वाला पवित्र स्थान है जहां पवित्र रुद्राक्ष भी मिल जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्र मेघालय का ग्रामीण जीवन एवं ग्राम पूर्वोत्तर की पर्वतीय जीवनशैली का दर्शन कराते हैं। ऐसा एक गांव भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित है, जिसे मावलिन्नॉंग कहते हैं। इसके बारे में पत्रिका डिस्कवर इण्डिया में विस्तृत लेख निकला था। यह गांव पर्यटन के लिये जाना जाता है और यहां एक जीवित जड़ सेतु, हाइकिंग ट्रेल और चट्टान संरचनाएं हैं। झील मेघालय में बहुत से प्राकृतिक एवं कृत्रिम झीलें व सरोवर हैं। गुवाहाटी-शिलाँग राजमार्ग पर स्थित उमियम झील (जिसे बड़ापानी झील भी कहते हैं: उम=बड़ा+यम =पानी) यहां आने वाले पर्यटकों के लिये एक बड़ा आकर्षण है। मेघालय में बहुत से उद्यान भी हैं, थांगखरान्ग पार्क, ईको पार्क, बॉटैनिकल गार्डन एवं लेडी हैदरी पार्क इनमें से कुछ हैं। शिलांग से ९६ कि॰मी॰ दूर स्थित डॉकी बांग्लादेश का द्वार है। यहां से मेघालय और बांग्लादेश सीमा के कुछ सर्वोच्च पर्वतों के नैसर्गिक दृश्य दिखाई देते हैं। बलफकरम राष्ट्रीय उद्यान अपने प्राचीन आवास और दृश्यों के साथ यहां का एक प्रमुख आकर्षण है। गारो पर्वत पर स्थित नोकरेक राष्ट्रीय उद्यान में भरपूर वन्य जीवन मिलता है जिसकाअपना ही आनन्द है। गुफाएं मेघालय में अनुमानित ५०० प्राकृतिक चूनापत्थर एवं बलुआपत्थर की गुफाएं हैं, जो राज्य भर में फ़ैली हुई हैं। इनमें से उपमहाद्वीप की अधिकांश सबसे लम्बी और सबसे गहरी गुफाएं हैं। इनमें क्रेम लियाट प्रा सबसे लम्बी और सायन्रियांग पामियंग सबसे गहरी गुफा है। ये दोनों ही जयन्तिया पर्वत में स्थित है। बहुत से देशों जैसे यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, आयरलैंड एवं संयुक्त राज्य से ढेरों गुफा प्रेमी यहां दशकों से आते रहते हैं और इन गुफाओं में अन्वेषण करते रहते हैं। जीवित जड़ सेतु मेघालय अपने जीवित जड़ सेतुओं के लिये भी प्रसिद्ध है। ये एक प्रकार के निलंबन सेतु होते हैं जिनका निर्माण रबड़ के पेड़ की जड़ों एवं मूलों को आपस में गूंथ कर आमने सामने के नदी तटों के आरपार किया जाता है। ऐसे सेतु चेरापुंजी, नोंगतलांग, कुडेंग रिम एवं कुडेंग थिम्माई गांवों में देखने को मिल जाते हैं। इस प्रकार का एक दोहरा सेतु नोंग्रियाट ग्राम में मिलता है।मेघालय में अन्य पर्यटक आकर्षण इस प्रकार से हैं:जाकरेम: शिलाँग से ६४ कि॰मी॰ दूर गंधक मिश्रित गर्म जल के स्रोतों वाला स्वास्थ्य लाभाकारी एक रिज़ॉर्ट है। इसके जल में आयूष्य गुण बताये जाते हैं।रानीकोर: शिलाँग से १४० कि॰मी॰ दूर यह नैसर्गिक दृश्यों की भूमि है। रानीकोर मेघालय का मछली पकड़ने का प्रसिद्धतम स्थान है जहाँ कार्प एवं मीठे जल की अन्य मछलियां प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।डॉकी: शिलाँग से ९६ कि॰मी॰ दूर यह सीमावर्ती क्षेत्र है जहाम से बांग्लादेश अवलोकन किया जा सकता है। वसंत ऋतु में यहां की उम्नगोट नदी में रंगीन नाव उत्सव भी यहां का एक आकर्षण है। क्शाएद डैन थ्लेन प्रपात: यह सोहरा के निकट स्थित है। खासी भाषा में इसका शाब्दिक अर्थ है वह स्थान जहाँ एक कल्पित दैत्य को मार दिया गया था। इस थ्लेन नामक दैत्य को मारे जाने के कुल्हाड़ी के चिह्न आज भी जैसे के तैसे दिखाई देते हैं। डियेनजियेई शिखर: शिलाँग पठार के पश्चिम में स्थित डियेंगजियेई शिखर शिलाँग पीक से मात्र २०० मी॰ ही छोटा है। इस पर्वत के शिखर पर एक बड़ा प्याले के आकार का गड्ढा है जिसे एक विलुप्त प्रागैतिहासिक ज्वालामुखी का क्रेटर बताया जाता है। ड्वार्कसुइड: पथरीले व रेतीले तटों वाला एक चौड़ा सुन्दर सरोवर है जो उमरोई-भोरिम्बॉन्ग मार्ग पर चलने वाली जलधारा के निकट बना है। इसे ड्वार्कसुइड या डेविल्स डोरवे अर्थात् शैतान का द्वार भी कहा जाता है। कायलांग रॉक: मैरांग से ११ कि॰मी॰ पर स्थित लाखों वर्ष पुराना एक सीधा सपाट लाल पत्थर का शिखर है। इसकी ऊँचाई सागर सतह से ५४०० फ़ीट है। सैकरेड फ़ॉरेस्ट मावफ़लांग': शिलाँग से २५ कि॰मी॰ दूर स्थित मावफ़्लांग में पवित्रतम सैकरेड ग्रोव है। प्राचीन काल से संजोये व सुरक्षित रखे गये इस ग्रोव में पादप जगत की प्रचुर किस्में, शताब्दियों से जमी हुई धरण की मोटी पर्तें एवं वृक्षों पर अधिपादपों(एपिफ़ाइट्स) की भारी वृद्धि मिलती हैं। इन अधिपादपों में सूरण कुल, पाइपर्स, फ़र्न एवं ऑर्किड्स की किस्में मिलती हैं। प्रमुख मुद्दे राज्य के प्रमुख मुद्दों में बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों का प्रवेश, हिंसा की घटनाएं, राजनीतिक अस्थिरता, खेतों के लिये काट कर जलाने की प्रथा के चलते वनों की अवैध कटाई आते हैं। स्थानीय निवासी खासियों और बांग्लादेशी मुसलमानों के बीच झड़पों एवं हिंसा की अनेक वारदातें होती रहती हैं। अवैध आप्रवासन बांग्लादेश की सीमा से लगते हुए राज्यों में अवैध अप्रवासन एक प्रमुख मुद्दा बन गया है - पश्चिम में पश्चिम बंगाल, उत्तर में मेघालय और असम, पूर्व में त्रिपुरा, मणिपुर एवं मिज़ोरम। भारतीय अर्थ-व्यवस्था के उन्नत होने के कारण लाखों बांग्लादेशी यहां घुसपैठ करते रहे हैं।इन बांग्लादेशी प्रवासियों का यहां घुसपैठ करने का मुख्य उद्देश्य वहां की हिंसा, गरीबी, बेरोजगारी और साथ ही इस्लामिक बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे धार्मिक अत्याचार से बचाव ही होता है। मेघालय में दर्जनों राजनीतिक एवं नागरिक स्मूहों व दलों की लम्बे समय से यह मांग रही है कि इस घुसपैठ पर रोक लगायी जाए या कम से कम इसे नियन्त्रित स्तर तक ही अनुमत किया जाए अन्यथा इससे इन राज्यों की अर्थ एवं कानून व्यवस्था पर बुरा प्रभाव व अवांछित भार पड़ता है। बांग्लादेश और मेघालय की सीमा लगभग ४४० किलोमीटर लम्बी है जिसमें से ३५० कि॰मी॰ पर बाड़ लगी हुई है, किन्तु सीमा की लगातार अन्वरत गश्त संभव नहीं है अतः इसमें घुसपैठ की संभावनाएं हैं। इसे पूर्णतया बाड़ लगाने एवं प्रवेश को अनुमति या अनुज्ञा पत्र द्वारा नियन्त्रित करने के प्रयास जारी हैं। तत्कालीन मुख्य मंत्री मुकुल संगमा ने अगस्त २०१२ में केन्द्र सरकार को पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में हो रही अवैध घुसपैठ को नियन्त्रण से बाहर होने से पूर्व पर्याप्त प्रयास करने की मांग की थी। हिंसा वर्ष २००६ से २०१३ के अन्तराल में शून्य से २८ नागरिक प्रतिवर्ष मेघालय( या शून्य से १ व्यक्ति प्रति १ लाख व्यक्ति) में मारे गये थे, जिन्हें राज्य के प्राधिकारियों द्वारा आतंक-संबंधी साभिप्राय हिंसा ्में वर्गीकृत किया गया है। विश्व की साभिप्राय हिंसा के कारण होने वाली मत्यु की औसत वार्षिक दर हाल के वर्षों में ७.९ प्रति १ लाख व्यक्ति रही है। आतंक-संबन्धी हत्याएं प्रायः जनजातीय समूहों में और बांग्लादेशी प्रवासियों का विरोध करते हुए होती रही हैं। राजनीतिक संकल्प और वार्ता के साथ-साथ, विभिन्न ईसाई संगठनों ने भी हिंसा को रोकने और समूहों के बीच चर्चा की प्रक्रिया में सहायक होने के लिए पहल की है। राजनीतिक अस्थिरता राज्य की स्थापना के बाद से यहां २३ सरकारें बन चुकी हैं, जिनका औसत कार्यकाल १८ माह से कम ही है। मात्र ३ सरकारें ३ वर्ष से अधिक चली हैं। इस राजनीतिक अस्थिरता का दुष्प्रभाव राज्य की अर्थ-व्यवस्था पर पड़ता रहा है। हालांकि हाल के वर्षों में राजनीतिक स्थिरता में वृद्धि दिखाई दे रही है और आशा है कि ये राज्य के लिये लाभदायक होगी। २००८ में चुनी गयी सरकार के ५ वर्ष पूरे होने पर अन्तिम विधान सभा २०१३ में चुनी गयी थी जिसका कार्यकाल प्रगति पर है। झूम कृषि मेघालय में झूम कृषि अर्थात् वृक्ष काटो एवं जलाओ और कृषि भूमि पाओ -- का अभ्यास पुरातन समय से चलता आ रहा है। यह यहां की लोककथाओं के द्वारा सांस्कृतिक रूप से स्थानीय लोगों की कृषि शैली में बस चुका है। इस लोककथा के अनुसार वायु के देवता ने ओलावृष्टि एवं तूफ़ान के देवता के साथ मिलकर आकाशीय वृक्ष (देवताओं के वृक्ष) को झकझोड़कर हिला दिया जिससे उसके बहुत से बीज पृथ्वी पर आ गिरे और एक दो’ अमिक नामक पक्षी ने उन्हें खेतों में बो दिया। ये असल में धान के बीज थे। ईश्वर ने इस तरह से मानव को धान के बीज देकर इन्हें झूम कृषि के निर्देश दिये, साथ ही ये भी कहा कि प्रत्येक फसल पर अपनी उपज का एक भाग मुझे समर्पित किया करोगे। मेघालय के गारो पर्वतों की एक अनु लोककथा के अनुसार बोने-निरेपा-जाने-नितेपा नामक व्यक्ति ने मिसि-कोकडोक नामक एक शिला के निकट की भूमि को साफ़ करके वहां धान और बाजरे की खेती की और अच्छी उपज पायी। तब उसने यह तकनीक अन्य लोगों को भी बतायी, और वर्ष के प्रत्येक माह का नाम इस कृषि के एक चरण के नाम पर रख दिया, इससे स्थानीय लोगों को इसके नाम का अभ्यास सरल रूप से सुलभ हो जाये।आधुनिक काल में यह स्थानांतरण वाली कृषि परम्परा मेघालय की जैवविविधता के लिये बड़ा खतरा बन गयी है। २००१ के एक उपग्रह चित्र के चित्र से ज्ञात होता है कि ये स्थानांतरण कृषि जारी है और सघन वनों के क्षेत्र, संरक्षित जीवमंडलों से भी इसके कारण छंटते जा रहे हैं। झूम कृषि न केवल प्राकृतिक जैवविविधता के लिये खतरा है, बल्कि ये कृषि का न्यून-उपज वाला हानिकारक तरीका है। मेघालय में अधिकांश जनसंख्या के कृषि पर आधारित होने के आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए ये माना जा रहा है कि ये यहां के लिये एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।Pakrasi, K., Arya, V. S., & Sudhakar, S. (2014), Biodiversity hot-spot modeling and temporal analysis of Meghalaya using Remote sensing technique, International Journal of Environmental Sciences, Vol 4, Number 5, pp 772-785 स्थानांतरण कृषि केवल भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में ही नहीं की जाती, वरन दक्षिण-पूर्व एशिया में भर में इसका चलन है। मीडिया राज्य में कुछ प्रमुख मीडिया पत्र इस प्रकार से हैं:मेघालय टाइम्स: मेघालय टाइम्स अभी नया नया आरम्भ हुआ अंग्रेज़ी समाचार पत्र है। यह तेजी से बढ़ता हुआ पत्र है और इसकी लोकप्रियता राज्य भर में बहुत कम समय में ही फ़ैल गयी है।सालन्टेनी जानेरा: सालन्टेनी जानेरा राज्य का प्रथम गारो दैनिक समाचार पत्र है।शिलाँग समय: ्शिलाँग समय राज्य का प्रथम हिन्दी दैनिक समाचार पत्र है। शिलाँग टाइम्स: शिलाँग टाइम्स राज्य के सबसे पुराने अंग्रेज़ी समाचार पत्रों में से एक है।द मेघालय गार्जियन: द मेघालय गार्जियन राज्य के सबसे पुराने समाचार पत्रों में से एक है। पिछले कई वर्षों में राज्य में बहुत से सामयिक, साप्ताहिक और दैनिक पत्र आरम्भ हुए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार से हैं: द तुरा टाइम्स: द तुरा टाइम्स तुरा से प्रकाशित होने वाला प्रथम अंग्रेज़ी दैनिक है। सालन्टिनी कु’रान्ग: सालन्टिनी कु’रान्ग तुरा टाइम्स का गारो संस्करण है। प्रिंगप्रांगिनी आस्की गारो भाषा का नवीनतम प्रकाशित समाचार पत्र है। यू नोंगसैन हिमा:यू नोंगसैन हिमा खासी भाषा का सबसे पुराना प्रकाशित पत्र है। इसकी स्थापना १९६० में हुई थी। वर्तमाण में यह राज्य का सर्वाधिक परिचालित दैनिक पत्र है। (एबीसी जुलाई - दिसम्बर २०१३) राज्य में प्रकाशित साप्ताहिक रोजगार समाचार पत्र: शिलाँग वीकली एक्स्प्रेस: साप्ताहिक समाचार पत्र जिसका आरम्भ २०१० में हुआ था। एक्लेक्टिक नॉर्थईस्ट'' इन्हें भी देखें पूर्वोत्तर भारत में पर्यटन पूर्वोत्तर भारत पूर्वोत्तर भारतीय खाना सन्दर्भ Ya बाहरी कड़ियाँ सरकारी मेघालय सरकार आधिकारिक जालस्थल मेघालय पर्यटन विभाग: आधिकारिक जालस्थल सामान्य जानकारी मेघालय ब्रिट्टैनिका विश्वकोश में प्रविष्टि मेघालय भारत के राज्य
1749
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राजधानी वह नगरपालिका होती है, जिसे किसी देश, प्रदेश, प्रान्त या अन्य प्रशासनिक ईकाई अथवा क्षेत्र में सरकार की गद्दी होने का प्राथमिक दर्जा हासिल होता है। राजधानी मिसाली तौर पर एक शहर होता है, जहाँ संबंधित सरकार के दफ़्तर और सम्मेलन -ठिकाने स्थित होते हैं और आम तौर पर अपने क़ानून या संविधान द्वारा निर्धारित होती है। परिभाषाएँ शब्द राजधानी संस्कृत से आया है। राजधानी आम तौर पर संघटक क्षेत्र का सब से बड़ा शहर होता है परन्तु लाज़िमी तौर पर नहीं। अनोखे राजधानी इंतज़ाम बहुत सारे सूबों की दो से ज़्यादा राजधानियाँ हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन की कोई राजधानी नहीं है। चिली: चाहे देश का राष्ट्रिय महा-सम्मेलन बालपारायसो में होता है परन्तु राजधानी सैन्टियागो है। चेक गणराज्य: प्राग एक ही संवैधानिक राजधानी है। ब्रनो में देश की तीनों इचाचासर्व-उच्च अदालतों स्थित हैं जो इसको चेक अदालती शाखा की यथार्थ राजधानी बनाते हैं। फ़िनलैंड: गर्मियाँ के दौरान पर राष्ट्रपति नानतली में कुलतारांता में निवास करता है और सरकार की सभी राष्ट्रपति बैठकों भी वहाँ ही होती हैं। फ़्रांस: फ़्रांसीसी संविधान किसी भी शहर को राजधानी के तौर पर मान्यता नहीं देता। क़ानून मुताबिक़ पैरिस संसद के दोनों सदनों (राशटरी सभा और सैनेट) का ठिकाना है लेकिन उनके सांझे महांसंमेलन "वरसेये के शाही-महल में होते हैं। संकट की घड़ी में संवैधानिक ताकतों किसी ओर सहर में बदली जा सकतीं हैं जिससे संसदों के टिकाने राष्ट्रपती और मंत्री-मंडल वाले स्थानों पर ही रह सकें। सन्दर्भ
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प्रभात खबर झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में दैनिक रूप से प्रकाशित होने वाला एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है। यह अखबार भारत के कई राज्यों में प्रसारित होता है, जिनमें बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कुछ हिस्से शामिल हैं। इसकी स्थापना अगस्त 1984 में झारखंड की राजधानी रांची में हुई थी। अखबार सामाजिक मुद्दों की रिपोर्टिंग और चारा घोटाला जैसे घोटालों का खुलासा करने के लिए उल्लेखनीय है। अखबार ने 1992 में चारा घोटाले की रिपोर्ट करना शुरू किया। धमकियां मिलने के बावजूद, अखबार ने घोटाले पर 70 रिपोर्टें लिखीं और चार या पांच पत्रकारों ने कहानी की रिपोर्टिंग की। इतिहास 1984 में झारखंड की राजधानी रांची में गायन रंजन द्वारा प्रभात खबर का पहला संस्करण लॉन्च किया गया था। 1989 में वायर रोप बनाने वाली अग्रणी कंपनी उषा मार्टिन ग्रुप ने प्रभात खबर का अधिग्रहण किया। अखबार ने 1992 में चारा घोटाले की रिपोर्ट करना शुरू किया। धमकियां मिलने के बावजूद, अखबार ने घोटाले पर 70 रिपोर्टें लिखीं और चार या पांच पत्रकारों ने कहानी की रिपोर्टिंग की। 1995 में प्रभात खबर ने झारखंड के इस्पात शहर जमशेदपुर में लॉन्च के साथ अपनी महत्वाकांक्षी विस्तार योजना शुरू की। प्रभात खबर का 1996 में पटना, 1999 में धनबाद, 2000 में कोलकाता, 2004 में देवघर, 2006 में सिलीगुड़ी, 2010 में मुजफ्फरपुर, 2011 में भागलपुर और गया संस्करण लॉन्च किया गया। 2001 में प्रभात खबर ने गुणवत्तापूर्ण पत्रकारों को विकसित करने के लिए प्रभात खबर इंस्टीट्यूट ऑफ मीडिया स्टडीज नाम से मीडिया संस्थान शुरू किया। 2008 में प्रभात खबर ने रांची और जमशेदपुर में एफएम रेडियो चैनल 104.8 रेडियो धूम के लॉन्च के साथ इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया में प्रवेश किया। प्रभात खबर ने 2012 में ग्रामीण आबादी को लक्षित एक साप्ताहिक समाचार पत्रिका पंचायतनामा का शुभारंभ किया। प्रभात खबर रांची, जमशेदपुर, धनबाद, देवघर, पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, कोलकाता और सिलीगुड़ी से छपी और प्रसारित होती है। इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) 2017 के अनुसार, 13.49 मिलियन की पाठक संख्या के साथ, प्रभात खबर सभी भाषाओं में दसवां सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला समाचार पत्र है, और भारत में छठा सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला हिंदी समाचार पत्र है। इन्हें भी देखें भारत में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ प्रभात खबर का जालघर प्रभात खबर का 30 वर्ष का सफर! हिन्दी भाषा के समाचार पत्र
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "प्रभात खबर", "token_count": 3117, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%A4%20%E0%A4%96%E0%A4%AC%E0%A4%B0" }
राष्ट्रीय मैटलर्जी प्रयोगशाला, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की भारत में फैली ३८ प्रयोगशालाओं में से एक है। इस प्रयोगशाला की आधारशिला २१ नवम्बर १९४६ को भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा रखी गयी थी। प्रयोगशाला का उद्घाट्न २६ नवम्बर १९५० को जवाहर लाल नेहरु ने किया था। यह जमशेदपुर के बर्मामाइन्स क्षेत्र में स्थित है। राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला ने खनिज प्रसंस्करण, लोहा और इस्पात बनाने, लौह धातुओं और गैर-लौह धातुओं के निष्कर्षण (विशेष रूप से मैग्नीशियम) के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1970 के दशक की शुरुआत में CSIR-NML में एशिया की सबसे बड़ी विसर्पण-परीक्षण (क्रीप टेस्ट) सुविधा भी स्थापित की गई थी और आज भी यह एशिया की दूसरी सबसे बड़ी क्रीप-परीक्षण प्रयोगशाला है। बाहरी कड़ियाँ राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला - आधिकारिक जालस्थल सरकारी संस्थान जमशेदपुर झारखंड विज्ञान प्रयोगशाला
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला", "token_count": 1310, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE" }
हो आस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार की कोल या मुंडा शाखा की एक भाषा है, जो भूमिज और मुण्डारी भाषा से संबंधित हैं। हो भाषा झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, असम, एवं उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में लगभग १०,७७,००० हो (कोल) आदिवासी समुदाय द्वारा बोली जाती है। विशेषकर यह भाषा झारखण्ड के सिंहभूम इलाके में बोली जाती है । झारखंड में इस भाषा को द्वितीय राज्य भाषा के रूप में शामिल किया गया है। हो भाषा को लिखने के लिए वारंग क्षिति लिपि का उपयोग किया जाता है, जिसका आविष्कार ओत् गुरु कोल लको बोदरा द्वारा किया गया था ओट कोल लाको बोदरा खुद को कोल मानते थे इसीलिए उनके नाम के आगे कोल शब्द जुड़ा है। इसका प्रमाण आपको उनकी लिखी गई बहुत सी किताबो में मिल जायेगा। इसे लिखने के लिए देवनागरी, रोमन, उड़िया और तेलुगु लिपि का भी उपयोग किया जाता है। इन्हें भी देखें ह्वारङ क्षिति (हो भाषा की लिपि) हो (जनजाति) मुण्डा भाषाएँ ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाएँ बाहरी कड़ियाँ हो-हिन्दी शब्दकोश सन्दर्भ मुण्डा भाषाएँ ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाएँ भारत की संकटग्रस्त भाषाएँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हो भाषा", "token_count": 1420, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%20%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE" }
टाटा ग्रुप एक निजी व्यवसायिक समूह है जिसका मुख्यालय मुंबई में स्थित है। वर्तमान में इसके अध्यक्ष रतन टाटा हैं। टाटा ग्रुप के चेयरमेन रतन टाटा ने 28 दिसम्बर 2012 को सायरस मिस्त्री को टाटा समूह का उत्तराधिकारी नियुक्त किया। रतन टाटा पिछले 50 सालों से टाटा समूह से जुड़े हैं वे 21 सालों तक टाटा ग्रुप के अध्यक्ष रहे। रतन टाटा ने जे आर डी टाटा के बाद 1991 में कार्यभार संभाला। टाटा परिवार का एक सदस्य ही हमेशा टाटा समूह का अध्यक्ष रहा है। इसका कार्यक्षेत्र अनेक व्यवसायों व व्यवसाय से सम्बंधित सेवाओं के क्षेत्र में फैला हुआ है - जैसे: अभियांत्रिकी, सूचना प्रौद्योगिकी, संचार, वाहन, रासायनिक उद्योग, ऊर्जा, सॉफ्टवेयर, होटल, इस्पात एवं उपभोक्ता सामग्री। नमक से एयरलाइन समूह टाटा ग्रुप की सफलता को इसके आंकडे बखूबी बयां करते हैं। 2005-06 में इसकी कुल आय $967229 मिलियन थी। ये समस्त भारत कि GDP के 2.8 % के बराबर है। 2004 के आंकड़ों के अनुसार टाटा ग्रुप में करीब 2 लाख 46 हज़ार लोग काम करते हैं। market capitalization का आंकड़ा $57.6 बिलियन को छूता है। टाटा समूह कि कुल 96 कम्पनियां 7 अलग अलग व्यवसायिक क्षेत्रों में सक्रिय हैं। इन 96 में से केवल 28 publicly listed कम्पनियाँ हैं। टाटा ग्रुप ६ महाद्वीपों के 40 से भी अधिक देशों में सक्रिय है। टाटा समूह दुनिया के 140 से भी अधिक देशों को उत्पाद व सेवाएँ निर्यात करता है। इसके करीब 65.8% भाग पर टाटा के Charitable Trust का मालिकाना हक है। टिस्को (TISCO), जिसे अब टाटा स्टील (Tata steel) के नाम से जाना जाता है, की स्थापना 1907 में भारत के पहले लोहा व इस्पात कारखाने के तौर पर हुई थी। इसकी स्थापना जमशेदपुर में हुई थी जिसे लोग टाटा नगर भी पुकारते हैं। इस्पात (steel) व लोहे का असल उत्पादन 1912 में शुरू हुआ। यह दुनिया में सबसे किफायती दरों पर इस्पात का निर्माण करता है। इसका मुख्य कारण है कि समूह की ही एक अन्य कंपनी इसे कच्चा माल, जैसे कोयला और लोहा आदि, उपलब्ध कराती है। 1910 में टाटा जलविद्युत शक्ति आपूर्ति कम्पनी (Tata Hydro-Electric Power Supply Company) की स्थापना हुई। 1917 में टाटा आईल मिल्स (Tata Oil Mill) की स्थापना के साथ ही समूह ने घरेलू वस्तुयों के क्षेत्र में कदम रखा और साबुन, कपडे धोने के साबुन, डिटर्जेंट्स (detergents), खाना पकाने के तेल आदि का निर्माण शुरू किया। 1932 में टाटा एयरलाइन्स (Tata Airlines) की शुरुआत हुई। टाटा केमिकल्स (Tata Chemicals) का आगमन 1939 में हुआ। टेल्को (TELCO), जिसे अब टाटा मोटर्स (TataMotors) के नाम से जाना जाता है, ने 1945 में रेल इंजनों और अन्य मशीनी उत्पादों का निर्माण शुरू किया। जनवरी 2007 का महीना टाटा ग्रुप के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाएगा। टाटा स्टील ने यूनाइटेड किंगडम (UK) में स्थित कोरस समूह (Corus Group) की सफल बोली लगा कर उसे हासिल किया। कोरस समूह दुनिया की सबसे बड़ी लोहा व इस्पात निर्माण कंपनी है। बोली के अप्रत्याशित 9 दौर चले जिसके अंत में टाटा ग्रुप ने कोरस का 100 प्रति शत हिस्सा 608 पाउंड प्रति शेयर (नकद) के हिसाब से कुल 12. 04 बिलियन डालर में खरीदने में सफलता पाई। यह किसी भी भारतीय कंपनी के द्वारा किया गया सबसे बड़ा अधिग्रहण है। टाटा पावर भारत में निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक है। यह मुंबई एवं दिल्ली के कुछ हिस्सों को बिजली प्रदान करती है। टाटा केमिकल्स और टाटा पिगमेन्ट्स (Tata Pigments) का भी अपने अपने क्षेत्रों में काफी नाम है। सेवा क्षेत्र में भी टाटा ग्रुप की कई कम्पनियां होटल, बीमा व जीवन बीमा उद्योग में सक्रिय हैं। टाटा समूह प्रबंधन व आर्थिक सलाहकार सेवाओं में भी काफी सफल साबित हुआ है। शेयरों व निवेष की दुनिया में भी टाटा का खासा नाम है। जहाँ तक शिक्षा का सवाल है, तो इस के लिए तो केवल टाटा मैक्ग्रा (Tata Mcgraw) का नाम लेने मात्र से ही इस क्षेत्र में टाटा ग्रुप की सफलता को बयां किया जा सकता है। पर टाटा का शिक्षा से जुड़ाव केवल इस मशहूर प्रकाशन कंपनी तक ही सीमित नहीं है। अनेक सरकारी संस्थानों व कम्पनियों की शरुआत टाटा द्वारा ही की गयी, जैसे - भारतीय विज्ञाना संस्थान (Indian Institute of Science), टाटा मूलभूत अनुसंधान केन्द्र (Tata Institute of Fundamental Research), टाटा समाज विज्ञान संस्थान (Tata Institute of Social Sciences) और टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान (Tata Energy Research Institute)। यहाँ तक की भारत की आधिकारिक विमान सेवा एयर इन्डिया का भी जन्म टाटा एयरलाइन्स के रूप में हुआ था। इसके अलावा टाटा मैनेजमेन्ट ट्रेनिंग सेन्टर, पुणे और नेशनल सेन्टर फार पर्फार्मिंग आर्ट्स भी ऐसे संस्थान हैं जिनका श्रेय टाटा ग्रुप को दिया जाना चाहिए। टाटा का नाम चाय में टाटा चाय (Tata Tea) और घड़ियों में टाइटन (Titan) से जुड़ा है। Tata Trent (Westside) और टाटा स्काय (Tata Sky) भी अपने अपने क्षेत्रों के ऐसे नाम हैं जो टाटा समूह का ही हिस्सा हैं। सूचना व संचार के क्षेत्र में भी टाटा का नाम INCAT, Nelco, Nelito Systems, TCS और Tata Elxsi से जुड़ा है। इसके अलावा साफ्टवेयर बनाने वाली भी कम्पनियां हैं जो टाटा का हिस्सा हैं- जैसे - टाटा इंटरैक्टिव सिस्टम्स (Tata Interactive Systems), टाटा इन्फोटेक (Tata Infotech), टाटा टटेक्नालोजीज लि (Tata Technologies Ltd), टाटा टेलीसर्विसेस, टाटानेट (Tatanet) आदि। टाटा ने 2005 में बरमूडा से संचालित कनेडियन कंपनी टेलीग्लोब (Teleglobe) से भारतीय दूरसंचार क्षेत्र की विशाल कंपनी विदेश संचार निगम लिमिटेड (VSNL) को हासिल किया। टाटा ग्रुप का उद्देश्य समझदारी, जिम्मेदारी, एकता और बेहतरीन काम से समाज में जीवन के स्तर को उंचा उठाना है। टाटा समूह (Tata Group) के नाम से जाने जाने वाले इस परिवार का हर सदस्य इन मूल्यों का अनुसरण करता है। भारत के शिक्षा, विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में टाटा का योगदान अति महत्वपूर्ण है। इसके बारे में विस्तार से लिखा जा चुका है और लगभग हर भारतीय इस बात का सम्मान करता है। टाटा का नीले रंग का चिन्ह (Logo) निरंतर प्रवाह की और तो इशारा करता ही है, यह कल्प-तरु या बोधि वृक्ष (Tree of Knowledge) का भी प्रतीक है। इसे एक ऐसा वृक्ष भी माना जा सकता है जिसके नीचे हर कोई शरण पा सकता है, सकून पा सकता है। टाटा परिवार का विदेशों में प्रसार मार्च २००८ टाटा मोटर्स ने फोर्ड से जैगुआर और लैंड रोवर को ख़रीदा। जनवरी २००७ टाटा स्टील ने कोरस स्टील को ख़रीदा। जून २००६ अमरीकी कंपनी ८ ओक्लॉक कॉफी कंपनी का क़रीब १००० करोड़ रुपए में अधिग्रहण किया। अगस्त २००६ अमरीकी कंपनी ग्लेसॉ (उर्जा कंपनी) के ३० प्रतिशत शेयर खरीदे जुलाई २००५ टेलीग्लोब इंटरनेशनल को २३.९ करोड़ डॉलर में अधिग्रहित किया। अक्टूबर २००५ टाटा टी ने तीन करोड़ २० लाख डॉलर में गुड अर्थ क्राप का अधिग्रहण किया। अक्टूबर २००५ ब्रिटेन के आईएनसीएटी इंटरनेशनल को ४११ करोड़ रुपए में खरीदा। अक्टूबर २००५ सिडनी स्थित कंपनी एफएनएस को अधिग्रहित किया। नवंबर २००५ बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनी कोमीकॉर्न को क़रीब १०८ करोड़ में खरीदा। दिसम्बर २००५ थाईलैंड की मिलेनियम स्टील का अधिग्रहण १८०० करोड़ रुपए में किया। दिसम्बर २००५ ब्रिटेन की ब्रूनर मोंड ग्रुप के ६३.५ प्रतिशत शेयर ५०८ करोड़ रुपए में लिए। मार्च २००४ कोरियाई कंपनी देवू कमर्शियल वेहिकल्स का ४५९ करोड़ रुपए में अधिग्रहण किया। अगस्त २००४ सिंगापुर की नैटस्टील को १३०० करोड़ रुपए में खरीदा। फरवरी २०००''' १८७० करोड़ रुपए में ब्रिटेन की टेटली टी को खरीदा इतिहास टाटा ग्रुप एक भारतीय बहुराष्ट्रीय संगठन होल्डिंग कंपनी है जिसका मुख्यालय मुंबई, महाराष्ट्र, भारत में है। यह जमशेदजी टाटा द्वारा 1868 में स्थापित किया गया था और कई वैश्विक कंपनियों को खरीदने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई थी। यह भारत का सबसे बड़ा समूह है 2015-2016 में, टाटा कंपनियों का राजस्व 103.51 अरब डॉलर था। [3] ये कंपनियां 660,000 लोगों को सामूहिक रूप से रोजगार देती हैं। [3] प्रत्येक टाटा कंपनी या उद्यम अपने स्वयं के बोर्ड निदेशक और शेयरधारकों के मार्गदर्शन और पर्यवेक्षण के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से संचालित होता है मार्च 2016 तक लगभग 116 अरब डॉलर के संयुक्त बाजार पूंजीकरण के साथ 30 सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध टाटा उद्यम हैं। [3] टाटा स्टील, टाटा मोटर्स, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, टाटा पावर, टाटा केमिकल्स, टाटा ग्लोबल बेवरिजेज, टाटा टेलीसर्विसेज, टाइटन, टाटा कम्युनिकेशंस और ताज ग्रुप शामिल हैं। टाटा ग्रुप ने 2.20 बिलियन (5 करोड़ डॉलर) का दान किया बोस्टन, मैसाचुसेट्स में संस्थान के परिसर में शैक्षिक और आवासीय भवन बनाने के लिए हार्वर्ड बिजनेस स्कूल (एचबीएस) नई इमारत को टाटा हॉल कहा जाता है और इसका उपयोग संस्थान के कार्यकारी शिक्षा कार्यक्रमों के लिए किया जाता है। [15] यह राशि अंतरराष्ट्रीय दाता से हार्वर्ड बिजनेस स्कूल को सबसे बड़ी दी गई राशि है। रतन टाटा- रतन टाटा, टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष [16] एक टाटा प्रोजेक्ट ने कॉम्पैक्ट, इन-होम वाटर-शुिफिकेशन डिवाइस विकसित करने में टाटा समूह की कंपनियों (टीसीएस, टाइटन इंडस्ट्रीज और टाटा केमिकल्स) को एक साथ लाया। इसे टाटा स्काच कहते हैं, जिसका अर्थ है "हिंदी में स्वच्छ", और 1000 रुपये से कम (यूएस $ 21) का खर्च आएगा। हिंद महासागर में 2004 के सुनामी से उत्पन्न विचार, जो बिना स्वच्छ पेयजल के हजारों लोगों को छोड़ देता है इस उपकरण में फिल्टर हैं, जो पांच साल के परिवार के लिए लगभग एक वर्ष तक रहता है। यह उन लोगों के लिए एक कम लागत वाले उत्पाद उपलब्ध है जिनके पास अपने घरों में सुरक्षित पेयजल तक पहुंच नहीं है। [17] इस डिवाइस का लाभ यह है कि इसे बिजली के उपयोग की आवश्यकता नहीं है। [18] टीसीएस ने भी एक अभिनव सॉफ्टवेयर पैकेज का डिज़ाइन किया और दान किया, जो कि अशिक्षित वयस्कों को सिखाने का दावा करता है कि 40 घंटों में कैसे पढ़ा जाए। टीसीएस के लिए कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के वैश्विक प्रमुख पंकज बलिगा ने कहा, "जो लोग हमारे साक्षरता कार्यक्रम के माध्यम से रहे हैं, वे सभी स्कूल में हैं।" [17] 1 9 12 में टाटा समूह ने कार्यस्थल में शामिल करने के लिए सामुदायिक परोपकार के अपने सीईओ की अवधारणा का विस्तार किया उन्होंने दुनिया में लगभग किसी भी अन्य कंपनी से पहले, आठ घंटे का कार्यदिवस लगाया। 1 9 17 में, उन्होंने टाटा कर्मचारियों के लिए एक चिकित्सा-सेवा नीति की सिफारिश की। आधुनिक पेंशन प्रणाली, श्रमिक मुआवजा, मातृत्व लाभ, और लाभ-साझाकरण योजनाओं को व्यवस्थित करने के लिए कंपनी दुनिया भर में पहली बार थी। [17] टाटा समूह के धर्मार्थ ट्रस्ट विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं को निधि देते हैं, उदाहरण के लिए, टाटा स्काच और टीसीएस परियोजना। उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, नेशनल सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के रूप में ऐसे पोषित संस्थानों की स्थापना की और अभी भी समर्थन किया। प्रत्येक टाटा समूह की कंपनी अपने ऑपरेटिंग आय से 4 प्रतिशत से ज्यादा ट्रस्टों को चैनल देती है, और टाटा परिवार के हर पीढ़ी ने अपने लाभ का बड़ा हिस्सा उन्हें छोड़ दिया है। [17] मुंबई के हमलों के बाद, पुनर्निर्माण के लिए होटल बंद होने के बावजूद हमला हुआ ताज होटल कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया गया। लगभग 1600 कर्मचारियों को कर्मचारी, आउटरीच केन्द्रों के माध्यम से भोजन, पानी, स्वच्छता और प्राथमिक चिकित्सा प्रदान की गई। रतन टाटा व्यक्तिगत रूप से प्रभावित सभी कर्मचारियों के परिवारों का दौरा किया। कर्मचारियों के रिश्तेदारों को बाहर के क्षेत्रों से मुंबई भेजा गया था और सभी को तीन हफ्तों तक इंतजाम किया गया था। टाटा ने रेलवे कर्मचारियों, पुलिस कर्मचारी और पैदल चलने वालों के लिए मुआवजा भी शामिल किया। हमले के बाद बाजार विक्रेताओं और दुकान के मालिकों को देखभाल और सहायता दी गई थी टाटा समूह के सोशल साइंस के साथ एक मनश्चिकित्सीय संस्था की स्थापना की गई थी, जो उन लोगों से परामर्श करने की जरूरत थी जो मददगार थे और मदद की ज़रूरत थी। टाटा ने आतंकवादी हमलों के पीड़ितों के 46 बच्चों की शिक्षा भी दी। [1 9] [20] 2013 में, टाटा रिलीफ कमेटी और सर रतन टाटा ट्रस्ट के सहयोगी संगठन, हिमोत्तोटन सोसायटी के माध्यम से, राज्य के तीन जिलों में प्रभावित स्थानीय समुदायों को राहत देने के लिए उत्तराखंड सरकार के करीबी सहयोग में काम किया। राहत गतिविधियों, जिसमें भोजन और घरेलू सामग्री का प्रावधान शामिल था, 65 से अधिक गांवों और 3,000 परिवारों को शामिल किया गया था। राहत के पहले चरण में समूह 100 से अधिक गांवों तक पहुंचने की उम्मीद कर रहा है। टाटा समूह प्रभावित समुदायों और क्षेत्रों के आर्थिक, पारिस्थितिकी और संसाधनों की स्थिरता के लिए दीर्घकालिक उपायों को भी लागू करने की योजना बना रहा है। यह योजना टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस), मुंबई में स्थित स्थानीय संगठनों और समुदायों के सहयोग से प्रभावित क्षेत्रों के सर्वेक्षणों पर आधारित होगी। [21] [22] 2017 में, टाटा फुटबॉल अकादमी ने फुटबॉल क्लब बनाने की बोली जीती है इन्हें भी देखें जमशेदजी टाटा टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज टाटानगर टाटा मोटर्स सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ टाटा : एक कॉरपोरेट ब्राण्ड का विकास टाटा समूह की कम्पनियाँ टाटा समूह के बारे में एशिया की दस प्रमुख कंपनियों में टाटा समूह Fortune Magazine 2002 profile Jamsetji Tata A section of the Tata family Tree Information about holding by Pallonji in Tata sons PUCL Report on Kalinganagar भारतीयों के जीवन में रचा बसा टाटा जमशेदपुर उद्योग टाटा समूह व्यापार भारतीय उद्यमी समुह
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "टाटा समूह", "token_count": 16439, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B9" }
पुणे भारत के महाराष्ट्र राज्य का एक महत्त्वपूर्ण शहर है। पुणे भारत का छठवां सबसे बड़ा शहर व महाराष्ट्र का दूसरा सबसे बड़ा शहर है।. यह शहर महाराष्ट्र के पश्चिम भाग, मुला व मुठा इन दो नदियों के किनारे बसा है और पुणे जिला का प्रशासकीय मुख्यालय है। सार्वजनिक सुखसुविधा व विकास के हिसाब से पुणे महाराष्ट्र मे मुंबई के बाद अग्रसर है। )अनेक नामांकित शिक्षणसंस्थायें होने के कारण इस शहर को 'पूरब का ऑक्सफोर्ड' भी कहा जाता है। पुणे में अनेक प्रौद्योगिकी और ऑटोमोबाईल उपक्रम हैं, इसलिए पुणे भारत का ”डेट्राइट” जैसा लगता है। काफी प्राचीन ज्ञात इतिहास से पुणे शहर महाराष्ट्र की 'सांस्कृतिक राजधानी' माना जाता है। मराठी भाषा इस शहर की मुख्य भाषा है। पुणे शहर मे लगभग सभी विषयों के उच्च शिक्षण की सुविधा उपलब्ध है। पुणे विद्यापीठ, राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, आयुका, आगरकर संशोधन संस्था, सी-डैक जैसी आन्तरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान यहाँ है। पुणे फिल्म इन्स्टिट्युट भी काफी प्रसिद्ध है। पुणे महाराष्ट्र व भारत का एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक केन्द्र है। टाटा मोटर्स, बजाज ऑटो, भारत फोर्ज जैसे उत्पादनक्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग यहाँ है। 1990 के दशक मे इन्फोसिस, टाटा कंसल्टंसी सर्विसे, विप्रो, सिमैंटेक, आईबीएम जैसे प्रसिद्ध सॉफ्टवेअर कंपनियों ने पुणे मे अपने केन्द्र खोले और यह शहर भारत का एक प्रमुख सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगकेन्द्र के रूप मे विकसित हुआ। नाम पुणे यह नाम 'पुण्यनगरी' नाम से आया समझा जाता है। यह शहर ई.स. 8 के शतक मे 'पुन्नक' (या 'पुण्यक') नाम से जाना जाता था, ऐसा सन्दर्भ मिलता है। ई.स. 11 के शतक मे 'कसबे पुणे' या 'पुनवडी' नाम से जाना जाने लगा। मराठा साम्राज्य के काल खण्ड मे शहर का नाम 'पुणे' मे रूप मे उपयोग मे लाया जाने लगा। ब्रिटिश ने उसे 'पूना' कह कर सम्बोधित करने की शुरूवात की। अब यह पुणे, इस आधिकारिक नाम से जाना जाता है। इतिहास आठवी शताब्दी मे पुणे को "पुन्नक " नाम से जाना जाता था। शहर का सबसे पुराना वर्णन ई.स. 758 का है, जब उस काल के राष्ट्रकूट राज मे इसका उल्लेख मिलता है। मध्ययुग काल का एक प्रमाण जंगली महाराज मार्ग पर पाई जाने वाली पातालेश्वर गुफा है, जो आठ्वी सदी की मानी जाती है। 17वीं शताब्दी मे यह शहर निजामशाही, आदिलशाही, मुगल ऐसे विभिन्न राजवंशो का अंग रहा। सतरहवी शताब्दी में शहाजीराजे भोसले को निजामशाहा ने पुणे की जमीनदारी दी थी। इस जमींदारी मे उनकी पत्नी जिजाबाई ने ई.स. 1627 में शिवनेरी किले पर छत्रपति शिवाजीराजे भोसले को जन्म दिया। शिवाजी महाराज ने अपने साथियों के साथ पुणे परिसर में मराठा साम्राज्य की स्थापना की। इस काल मे पुणे में शिवाजी महाराज का वर्चस्व था। आगे पेशवा के काल मे ई.स. 1749 सातारा को छत्रपति की गद्दी और राजधानी बना कर पुणे को मराठा साम्राज्य की 'प्रशासकीय राजधानी' बना दी गई। पेशवा के काल मे पुणे की काफी तरक्की हुई। ई.स. 1818 तक पुणे मे मराठों का राज्य था। मराठा साम्राज्य पुणे छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन व मराठा साम्राज्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। ई.स. 1635-36 के दरमयान जब जिजाबाई व शिवाजी महाराज पुणे आवास के लिए आए, तबसे पुणे के इतिहास में एक नए पर्व का जन्म हुआ। शिवाजी महाराज व जिजामाता पुणे में लाल महल मे रहते थे। पुणे के ग्रामदेवता- कसबा गणपती की स्थापना जिजाबाई ने की थी। 17वीं शतब्दी के प्रारम्भ में, छत्रपती शाहू के प्रधानमन्त्री, थोरले बाजीराव पेशवे को पुणे को अपना स्थाई आवास बनाना था। छत्रपति शाह महाराज ने इसकी अनुमति दी व पेशवा ने मुठा नदी के किनारे शनिवार वाड़ा बनाया। खरडा इस ऐतिहासिक किले पर मराठों एवं निज़ाम के बीच ई.स. 1795 के बीच युध्द हुआ। ई.स. 1817 को पुणे के पास खडकी ब्रिटिश व मराठों में युध्द हुआ। मराठो को इस युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा व ब्रिटिश ने पुणे को अपने कबजे में कर लिया। ब्रिटिश ने पुणे के महत्व को समझते हुए शहर के पूर्व मे खडकी कँटोन्मेंट (लष्कर छावनी) की स्थापना की। ई.स. 1858 में पुणे महानगरपालिका की स्थापना हुई। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पुणे मे अनेक नामांकित शिक्षण संस्थाओ की स्थापना हुई। स्वातन्त्रा संग्राम भारतीय स्वातन्त्रा संग्राम में पुणे के नेताओं और समाज सुधारकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। महात्मा ज्योतिबा फुले और सावरकर जैसे नेताओं के कारण पुणे राष्ट्र के नक्शे पर अपने महत्व को दर्शाता रहा। महादेव गोविन्द रानडे, रा.ग. भाण्डारकर, विठ्ठल रामजी शिन्दे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोखण्डे जैसे समाजसुधारक व राष्ट्रीय ख्याती के नेता पुणे से थे। भूगोल पुणे का स्थान 18°31'22.45" उत्तर अक्षांश, 73° 52' 32.69 पूर्व रेखांश है। पुणे का मध्यबिन्दु (Zero milestone) पुणे जी.पी.ओ पोस्ट ऑफिस के बाहर है। जी.पी.ओ. पुणे सह्याद्रि पर्वत के पूर्व और समुद्रतल से 560 मी (1,837 फूट) की ऊचाँई पर है। भीमा नदीकी उपनदियाँ मुला व मुठा के संगम पर यह शहर बसा है। पवना व इन्द्रायणी ये नदियाँ पुणे शहर के उत्तर-पश्चिम दिशा मे बहती है। शहर का सर्वोच्च बिन्दु वेताल टेकडी (समुद्रतल से 800 मी) है और शहर के पास का सिंहगड किले की ऊचाँई 1300 मी. है। पुणे शहर कोयना भूकम्प क्षेत्र मे आता है जो पुणे शहर से 100 कि॰मी॰ दक्षिण दिशा मे है। पुणे में मध्यम व छोटे भूकम्प आए है। कात्रज, में 17 मई, 2004 को 3.2 रि. स्केल का भूकंप आया था। पेठ पुणे शहर के पूर्व में नदी किनारे पेठ के अनुसार बढता गया, जो नए उपनगर है और जुडते हुए शहर का विस्तार करते चले गए है। पेठ के नाम सप्ताह के दिनो के नाम और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पर रखे गए। पुणे के पेठ के नाम इस प्रकार हैं: पुणे ये १७ पेठ का शहर है। कसबा पेठ, रविवार पेठ, सोमवार पेठ, मंगलवार पेठ, बुधवार पेठ, गुरुवार पेठ, शुक्रवार पेठ, शनिवार पेठ, गंज पेठ (महात्मा फुले पेठ), सदाशिव पेठ, नवी (सदाशिव) पेठ, नारायण पेठ, भवानी पेठ, नाना पेठ, रास्ता पेठ, गणेश पेठ, घोरपडे पेठ। वातावरण पुणे शहर मे गर्मी, (मौनसून) वर्षा व शीत ऋतु होती है। मार्च से मई (तापमान 25°- 29° से.) सबसे गर्म महीने हैं। मई महीने में बारिश शुरु होती है। जून महीने मे अरब सागर से मानसून की हवाएँ शुरू होती है। पुणे में वार्षिक 722 मि.मी. बारिश होती है। जुलाई महिने में सबसे ज्यादा बारिश होती है। बारिश मे तापमान 20°- 28° से. होता है। मानसून के बाद अक्तूबर महीने मे दिन मे तापमान बढ़ता है मगर रात को ठंढ़ होती है। सर्दी नवंबर से फरवरी महीनों मे रहती है। इस समय पुणे भेट करने के लिए सर्वोत्तम समय है। इस समय दिन का तापमान 29°से तो रात्रि का तापमान 10°से नीचे होता है। दिसंबर व जनवरी महीनों में तापमान 5-6°से तक नीचे जाता है। पुणे का अधिकतम तापमान 43.3°से, 20 अप्रैल, 1987/7 मई, 1889 को और (1781-1940 के बीच के वर्षो मे) न्यूनतम तापमान 1.7°से 17 जनवरी 1935 को दर्ज किया गया। जनवरी 1991 मे पुणे का तापमान 2.8°से था। जैवविविधता पुणे शहर के डाक कार्यालय से 25 कि॰मी॰ दूर त्रिज्या के परिसर मे साधारणतः 1,000 पुष्प-वनस्पति की प्रजातियाँ, १०४ फुलपाखर की प्रजातियाँ, 350 पक्षियो की प्रजातियाँ और 64 स्तनधारी प्राणियों की प्रजातियाँ पाई गई है। अर्थव्यवस्था पुणे एक महत्वपुर्ण औद्योगिक केंद्र है। महाराष्ट्र राज्य मे मुंबई महानगर के बाद पुणे ही सर्वाधिक औद्योगिक शहर है। विश्व मे सर्वाधिक दुपहिए बनाने वाली कंपनी बजाज ऑटो पुणे मे है। भारत मे सर्वाधिक प्रवासी वाहन और औद्योगिक वाहन बनाने वाली कंपनी टाटा मोटर्स, कायनेटिक, डाइमलर-क्रायस्लर (मर्सिडिस-बेंज), फोर्स मोटर्स (बजाज टेंपो) जैसे उद्योग पुणे मे स्थित है। पुणे के अभियांत्रिकी उद्योग - भारत फोर्ज (विश्व की दुसरी सबसे बडी फोर्जिंग कंपनी), कमिन्स इंजिन्स, अल्फा लव्हाल, सँडविक एशिया, थायसन ग्रुप (बकाऊ वूल्फ),केएसबी पंप, फिनोलेक्स, ग्रीव्हज् इंडिया, फोर्ब्स मार्शल, थर्मेक्स इत्यादी। विद्युत व गृहपयोगी वस्तू निर्माता व्हर्लपूल और एल.जी. के उत्पादन कारखाने, फ्रिटो-लेज, कोका-कोला के अन्न प्रक्रिया उद्योग पुणे मे स्थित है। अनेक मध्यम व छोटे उद्योग पुणे मे है। अन्तरराष्ट्रीय हवाईमार्ग से पुणे को जोडने के बाद से जिले मे अनेक उद्योग निर्यात करने लगे है। पुणे मे सूचना प्रौद्योगिकी के प्रतिष्ठान भी काफी है। 2022 तक, पुणे में आईटी क्षेत्र लगभग 4-5 लाख लोगों को रोजगार देता है। हिंजवडी स्थित राजीव गांधी आय.टी पार्क, मगरपट्टा सायबरसिटी, तलवडे एम.आय.डी.सी. सॉफ्टवेर पार्क, मॅरिसॉफ्ट आय.टी. पार्क (कल्याणीनगर), आय.सी.सी. इत्यादी आय.टी पार्क्स मे आय.टी उद्योग भरपूर चालू है। महत्वपूर्ण भारतीय सॉफ्टवेर कंपनियाँ - इन्फोसिस, टाटा, फ्ल्युएंट, क्सांसा, टी.सी.एस., टेक महिंद्रा, विप्रो, पटनी, सत्यम, सायबेज, के.पी.आय.टी. कमिन्स, दिशा, पर्सिस्टंट सिस्टम्स, जियोमेट्रिक सॉफ्टवेयर, नीलसॉफ्ट व कॅनबे पुणे मे है। महत्वपूर्ण बहुराष्ट्रीय सॉफ्टवेर कंपनियाँ -बी.एम.सी. सॉफ्टवेयर, एनव्हिडिया ग्राफिक्स, एच.एस.बी.सी. ग्लोबल टेक्नोलॉजिस, आय.बी.एम., रेड हॆट, सिमेन्स, ई.डी.एस., युजीएस, आयफ्लेक्स, कॉग्नीझंट, सिमांटेक, सनगार्ड, वर्संट, झेन्सार टेक्नालॉजीस, टी-सिस्टम और एसएएस, आयपीड्रम। कई कंपनियों ने युवा पेशेवरों के उच्च घनत्व, सौहार्दपूर्ण मौसम और मुंबई में इसकी निकटता के कारण पुणे में अपने कार्यालय स्थापित किए हैं: इंफोसिस टीसीएस टेक महिंद्रा विप्रो Amdocs एक्सेंचर एटोस सिंटेल कैपजेमिनी iNautix / BNY मेलन ज़ेनसर टेक Synechron आईबीएम सिमेंटेक एल एंड टी इन्फोटेक साइबेज सॉफ्टवेयर पीटीसी आईटी कंपनी प्यून टीसीएस इन्फोसिस भारत की सबसे बड़ी आईटी फर्मों में से एक है और कई लोगों द्वारा इसे पहली कंपनी माना जाता है जिसने देश में प्रौद्योगिकी / आईटी क्रांति को गति दी। इन्फोसिस के पास 10.93 बिलियन डॉलर का राजस्व है और भारत और दुनिया भर में 200,000 से अधिक कर्मचारियों को नियुक्त करता है। इन्फोसिस के 89% कर्मचारी भारत से बाहर हैं, जिनमें से 79% सॉफ्टवेयर पेशेवर हैं। पुणे में इन्फोसिस का मुख्य कार्यालय राजीव गांधी इन्फोटेक पार्क में स्थित है और यह पुणे के हिंजेवाड़ी में सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक है। प्रशासन नागरिक प्रशासन पुणे शहर की व्यवस्था पुणे महानगरपालिका करती है। महानगरपालिका का कार्य नागरिक प्रशासन व मूलभूत सेवा-सुविधा प्रदान करना है। प्रशासकीय प्रमुख के कार्यकारी अधिकार महाराष्ट्र सरकार द्वारा नांमांकित आय. ए. एस्‌. अधिकारी दर्जा के महापालिका आयुक्त के पास होता है। महानगरपालिका मतदान द्वारा चुनी गए नगरसेवक बनाते है। नगरसेवकों का नेतृत्व महापौर के पास होता है। महापौर केवल एक नाममात्र का पद है, इस पद का अधिकार कम ही रहता है। पुणे में 48 महापालिका प्रभाग के विभाग है, प्रत्येक विभाग के कामकाज सहायक आयुक्त देखते है। राज्य के सभी छोटे-बडे राजकीय पक्ष अपने उम्मीदवारो को निर्वाचित पद के लिए नामांकित करते है। जिला प्रशासन पुणे शहर पुणे जिले का मुख्यालय भी है। जिले का प्रमुख जिलाधिकारी होता है व उसका काम सातबारा, जमीन जायदाद के नामकरण का रखरखाव, राज्य सरकार के लिए सारावसूली, करवसुली व चुनावो की व्यवस्था करना होता है। महानगर पुलिस तंत्र पुणे पुलिस का प्रमुख पोलिस आयुक्त होता है; जो राज्य के गृह मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया गया एक आय. पी. एस्‌. अधिकारी होता है। पुणे पुलिस व्यवस्था महाराष्ट्र राज्य के गृहमंत्रालय के अंतर्गत आती है। यातायात व्यवस्था पुणे शहर भारत के अन्य महत्वपूर्ण शहरो से सड़्क, रेल्वे व हवाईमार्ग से जुडा हुआ है। पुणे का विमानतल से पहले केवल देश के अन्य शहरो के लिए उडाने थी, मगर सिंगापूर व दुबई के लिए उडाने आने के बाद इसे अन्तरराष्ट्रीय दर्जा प्राप्त हुआ है। नया ग्रीनफिल्ड पुणे अन्तरराष्ट्रीय विमानतल प्रकल्प महाराष्ट्र सरकार द्वारा शुरू करने पर यह चाकण व राजगुरुनगर गाँवो के बीच चांदूस व शिरोली के पास (पुणे से ४० कि॰मी॰) होने की संभावना है। इस परियोजना की जिम्मेदारी महाराष्ट्र औद्योगिक विकास महामंडल को सौपी गई है। शहर मे पुणे व शिवाजीनगर यह दो महत्वपूर्ण रेल्वे स्थानक है। पुणे व लोणावला के बीच उपनगरी रेल है जिससे पिंपरी, खडकी व चिंचवड यह उपनगर शहर से जुड़्ते है। पुणे की उपनगरी रेल लोणावला तक और मुंबई की कर्जत तक चलती है। रेल्वे प्रशासन लोणावला व कर्जत/खोपोली शहर को जोडने की योजना बना रहा है। जिससे पुणे-मुंबई के दरम्यान आने वाले सभी स्थानो को एक्साथ जोडा जाएगा। कर्जत-पनवेल रेलवे बनने के बाद पुणे-मुंबई शहरो के बीच का अंतर 29 कि॰मी॰ से कम हो जाएगा। पुणे व मुंबई के बीच मुंबई-पुणे द्रुतगती महामार्ग बनाया गया है। जिससे दोनो शहरो के दरमयान केवल तीन घंटे का अंतर रह गया है। शासकीय व निजी बससेवा पुणे को मुंबई, हैदराबाद, नागपुर व बंगलूरू शहरो से जोड़्ती है। महाराष्ट्र राज्य परिवहन मंडल (एस.टी) की बससेवा पुणे को महाराष्ट्र के ग्रामीण भागो से जोडती है। पुणे शहर 2010 तक महत्वपूर्ण आई.टी केंद्र बनने के मार्ग पर है। पुणे की चक्रमाती बढत के साथ यहाँ वाहनो की संख्या मे भी काफी बढत हुई है। 2005 मे पुणे मे 146 वर्ग कि.मी क्षेत्रफल मे 2,00,000 कार (मोटारगाडिया) व 10,00,000 दुपहिए वाहन थे, ऐसा एक अभ्यास से पता किया गया। पुणे के उपनगर कल्याणीनगर, विमाननगर, मगरपट्टा, पिंपरी, चिंववड, बाणेर, वाकड, औंध, हिंजेवाडी, बिबवेवाडी, वानवडी, निगडी-प्राधीकरण काफी तेजी से बढ रहे है पर अंदरूनी रास्ते उतने तेजी से नही बढ रहे है। सार्वजनिक यातायात व्यवस्था के लिए पुणे व पिंपरी-चिंचवड महापालिका द्वारा नियंत्रित पी.एम.टी. व पी.सी.एम.टी. उपकरण है। रिक्शा शहर मे यातायात का प्रमुख साधन है। जनजीवन पुणे शहर भारत का सबसे तेज विकसित होने वाला शहर है। पुणे कि जनसंख्या बडी तेजी से बढ रही है। सन १९९१ कि जनगणना के अनुसार पुणे कि जनसंख्या ११ लाख थी। सन २००१ के अनुसार २५ लाख हुई। अब २०११ के अनुसार जनसंख्या ५० लाख के उपर जाने कि संभावना है। पुणे शहर मे सॉफ्टवेयर व वाहननिर्मिती के व्यवसायो के निरंतर विकास से नोकरी की तलाश मे भारत के अन्य प्रांत के लोगो यहाँ बसते आए है। २००३ से यहाँ निर्माण-क्षेत्र के काफी तेजी आई है। पुणे भारत का सातवां सबसे बडा शहर है। भारत में पुणे से बडे शहर मुंबई, कोलकत्ता, दिल्ली, चेनई, बेंगलोर, हैदराबाद और अहमदाबाद है। पुणे के बाद सूरत, जयपुर, लखनऊ और कानपुर यह शहर आते है। पुणे मे रहने वालो को पुणेकर कहकर भी संबोधित किया जाता है। शहर की मुख्य भाषा मराठी है और अंग्रेजी व हिंदी भाषा बोलते हुए अकसर लोग मिलते है। पुणे के भगिनी शहर यह शहर पुणे के भगिनी शहर है - त्रोम्सो, नॉर्वे ब्रेमेन, जर्मनी सान होज़े, संयुक्त राज्य अमेरिका फेरबँक्स, अलास्का, संयुक्त राज्य अमेरिका usa पर्यटन यहां कई पर्यटक आकर्षण हैं। जिनमें से कुछ हैं:- शनिवार वाड़ा आगाखान महल पार्वती हिल मंदिर कटराज सर्प उद्यान कोणार्क ओशो आश्रम संस्कृति पुणे को महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। पुणे की मराठी को मराठी भाषा का मानक-रुप (standard) माना जाता है। पुणे मे वर्ष भर सांस्कृतिक कार्यक्रम के रेलचेल होते रहते है। पुणे मे संगीत, कला, साहित्य की भरमार है। गणेशोत्सव 1894 मे लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरु किया। भाद्रपद (अगस्त नही तो सितंबर) महीने मे आने वाले इन दस दिनो की अवधि मे पुणे शहर चैतन्यमय होता है। देश-परदेश से लोग इस उत्सव मे भाग लेने पुणे आते है। जगह-जगह छोटे-बडे गणेश मंडल के मंडपो को सजाया जाता है। इस उत्सव के दरमयान महाराष्ट्र पर्यटन विकास महामण्डल पुणे उत्सव नामक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कराता है, जिसमे संगीत, नृत्य, मैफिली, नाटक और खेल समाविष्ट होते है। दस दिवस चलने वाला यह उत्सव गणेश विसर्जन के साथ समाप्त होता है। अनन्त चतुरदशी के सुबह शुरु होने वाला विसर्जन अगले दिन तक चलता रहता है। प्रमुख पाँच मण्डल है - कसबा गणपती (यह पुणे के ग्राम देवता है) ताम्बडी जोगेश्वरी गुरूजी तालीम तुलशीबाग केसरी वाडा (यह मण्डल तिलक पंचांग के अनुसार गणेशोत्सव को सजाता है) ये पांच गणपतियों के साथ साथ दगडूशेठ हलवाई गणपती को भी पुणे का प्रमुख गणपति माना जाता है। पुणे मे गणेशोत्सव मण्डल प्राणप्रतिष्ठा की गई मूर्ति विसर्जीत कर के उत्सव मूर्ति वापस ले जाते है। विसर्जन के दरमयान ढोल, लेझीम जैसे अनेक पथके होते है। अनेक विद्यालय अपने पथके सिखाते है। सवाई गन्धर्व संगीत महोत्सव दिसम्बर महिने मे अभिजात संगीत मैफली का कार्यक्रम पुणे मे होता है जिसे सवाई गन्धर्व संगीत महोत्सव कह कर सम्बोधित किया जाता है। तीन रातो तक चलने वाला इस उत्सव मे सुप्रसिध्द हिन्दुस्तानी व कर्नाटक संगीतज्ञ भाग लेते है। शास्त्रीय संगीत प्रेमियो के लिए उत्सव एक पर्व के समान होता है। रंगभूमि मराठी रंगभूमि मराठी संस्कृति का अविभाज्य भाग है। मराठी नाटक प्रायोगिक व व्यावसायिक दोनो होते है। पुणे मे मराठी नाटक काफी लोकप्रिय है। टिलक स्मारक मन्दिर, बालगंधर्व रंगमन्दिर, भरत नाट्य मन्दिर, यशवन्तराव चव्हाण नाट्यगृह, सुदर्शन रंगमंच व पिम्परी चिंचवड नाट्यगृह पुणे व आसपास के महत्वपूर्ण नाट्यगृह है। फिल्म पुणे मे अनेक मल्टिप्लेक्स है जिसमे मराठी, हिंदी व हॉलीवूड फिल्मे दिखाई जाती है। पुणे रेलवे स्थानक के पास आयनॉक्स, विद्यापीठ रास्ते पर ई-स्क्वेअर, सातारा रस्ता व कोथरूड के पास सीटीप्राईड, कल्याणीनगर के पास गोल्ड ऍडलॅब्स और आकुर्डी के पास फेम गणेश विजन है। मराठी फिल्मे मुख्यतः प्रभात और सीटीप्राईड चित्रपटगृह मे प्रदर्शित होती है। धर्म-अध्यात्म चतु:श्रृंगी मन्दिर शहर के उत्तर-पश्चिम डोंगर-उतार पर है। मन्दिर 90 फुट ऊँचा 125 फुट लम्बा है व इसका व्यवस्थापन चतु:श्रृंगी देवस्थान करता है। नवरात्री के दरमयान मन्दिर मे विशेष भीड़ होती है। शहर मे पर्वती देवस्थान भी काफी प्रसिध्द है। पुणे के पास आलन्दी व देहू देवस्थान काफी प्रसिध्द है। आलन्दी में सन्त ज्ञानेश्वर की समाधि और देहू पर सन्त तुकाराम का वास्तव्य है। हर वर्ष वारकरी सम्प्रदाय के लोग इन सन्तो की पालखी लेकर पण्ढरपुर जाते है। आषाढी एकादशी के मुहूर्त पर पण्ढरपुर पहुँचते है। पुणे में भारतीय ज्यु लोगो की बडी बसती है। ओहेल डेविड इस्त्राएल के बाहर एशिया का सबसे बडा सिनेगॉग (ज्यु का प्रार्थनास्थल) है। पुणे मेहेरबाबा का जन्मस्थान और रजनीश के रहने का स्थान था। रजनीश के आश्रम मे देश-परदेश के पर्यटक आते है। आश्रम मे ओशो झेन बाग व बडा ध्यानगृह है। पुणे मे पाषाण नामक गाव है। जहा सोमेशवर का प्राचीन मन्दिर है जिसका निर्माण जिजामाता ने किया था। इन्हें भी देखें पुणे महानगर क्षेत्र पुणे ज़िला बाहरी कड़ियाँ पुणे शहर के प्रसिद्ध मंदिर पुणे प्राइम ‘महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे - भाग १ सन्दर्भ पुणे ज़िला महाराष्ट्र के शहर पुणे ज़िले के नगर भारत के महानगर भारत में भूतपूर्व राजधानियाँ
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रायगढ़ (Raigarh) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है, जो ज़िले का मुख्यालय भी है। यह ओड़िशा की सीमा के पास स्थित है। नामोत्पत्ति रायगढ़ राजा मदनसिंह चाॅदा ने महानदी के पार बूनगा के पास "राय" नामक गढ़ की स्थापना की। यहीं से रायगढ़ की उत्पत्ती हुई। and raigarh is famous city. इन्हें भी देखें रायगढ़ जिला, छत्तीसगढ़ सन्दर्भ रायगढ़ जिला, छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ के नगर रायगढ़ ज़िले, छत्तीसगढ़ के नगर
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चेन्नई () (पूर्व नाम मद्रास) बंगाल की खाड़ी के कोरोमंडल तट पर स्थित यह दक्षिण भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षिक केंद्रों में से सबसे प्रमुख है। चेन्नई भारतीय राज्य तमिलनाडु की राजधानी है। 2011 की भारतीय जनगणना (चेन्नई नगर की नई सीमाओं के लिए समायोजित) के अनुसार, यह चौथा सबसे बड़ा नगर है और भारत में चौथा सबसे अधिक आबादी वाला नगरीय ढांचा है। आस-पास के क्षेत्रों के साथ नगर चेन्नई मेट्रोपॉलिटन एरिया है, जो दुनिया की जनसंख्या के अनुसार 36 वां सबसे बड़ा नगरीय क्षेत्र है। [ चेन्नई विदेशी पर्यटकों द्वारा सबसे ज्यादा जाने-माने भारतीय नगरो में से एक है यह वर्ष 2015 के लिए दुनिया में 43 वें सबसे अधिक का दौरा किया गया था। लिविंग सर्वेक्षण की गुणवत्ता ने चेन्नई को भारत में सबसे सुरक्षित नगर के रूप में दर्जा दिया। चेन्नई भारत में आने वाले 45 प्रतिशत स्वास्थ्य पर्यटकों और 30 से 40 प्रतिशत घरेलू स्वास्थ्य पर्यटकों को आकर्षित करती है। जैसे, इसे "भारत का स्वास्थ्य पूंजी" कहा जाता है एक विकासशील देश में बढ़ते महानगरीय नगर के रूप में, चेन्नई पर्याप्त प्रदूषण और अन्य सैन्य और सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करता है। चेन्नई में भारत की तीसरी सबसे बड़ी प्रवासी जनसंख्या 2009 में 35 लाख थी, 2011 में 85 लाख थी और 2018 तक डेढ़ करोड से अधिक का अनुमान है। राजस्थान का मारवाड़ी समुदाय यहाँ व्यापारी वर्ग में मुखत: हे चेन्नई में मारवाड़ी समुदाय की 50000 से अधिक दुकान हे , मारवाड़ीयो का रामदेवजी का वरघोड़ा मुख्य पर्व हे जिसमें प्रतिवर्ष २ लाख से ज़्यादा मारवाड़ी लोग एकत्रित होते हे ये मिंट स्ट्रीट ,आदियाप्पा, गोविंदप्पा, nsc बोस रोड ओर नेनियप्पा से गुज़रते हे 2015 में यात्रा करने के लिए पर्यटन गाइड प्रकाशक लोनली प्लैनेट ने चेन्नई को दुनिया के शीर्ष दस नगरो में से एक का नाम दिया है। चेन्नई को ग्लोबल सिटीज इंडेक्स में एक बीटा स्तरीय नगर के रूप में स्थान दिया गया है और भारत का 2014 का वार्षिक भारतीय सर्वेक्षण में भारत टुडे द्वारा भारत का सबसे अच्छा नगर रहा। 2015 में, चेन्नई को आधुनिक और पारंपरिक दोनों मूल्यों के मिश्रण का हवाला देते हुए, बीबीसी द्वारा "सबसे गर्म" नगर (मूल्य का दौरा किया, और दीर्घकालिक रहने के लिए) का नाम दिया गया। नेशनल ज्योग्राफिक ने चेन्नई के भोजन को दुनिया में दूसरा सबसे अच्छा स्थान दिया है; यह सूची में शामिल होने वाला एकमात्र भारतीय नगर था। लोनाली प्लैनेट द्वारा चेन्नई को दुनिया का नौवां सबसे अच्छा महानगर भी नामित किया गया था। चेन्नई मेट्रोपॉलिटन एरिया भारत की सबसे बड़ी नगर अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। चेन्नई को "भारत का डेट्रोइट" नाम दिया गया है, जो नगर में स्थित भारत के ऑटोमोबाइल उद्योग का एक-तिहाई से भी अधिक है। जनवरी 2015 में, प्रति व्यक्ति जीडीपी के संदर्भ में यह तीसरा स्थान था। चेन्नई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत एक स्मार्ट नगर के रूप में विकसित किए जाने वाले 100 भारतीय नगरो में से एक के रूप में चुना गया है। भारत में ब्रिटिश उपस्थिति स्थापित होने से पहले ही मद्रास का जन्म हुआ। माना जाता है कि मद्रास नामक पुर्तगाली वाक्यांश "मैए डी डीस" से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है "भगवान की मां", बंदरगाह नगर पर पुर्तगाली प्रभाव के कारण। कुछ स्रोतों के अनुसार, मद्रास को फोर्ट सेंट जॉर्ज के उत्तर में एक मछली पकड़ने वाले गांव मद्रासपट्टिनम से लिया गया था। हालांकि, यह अनिश्चित है कि क्या नाम यूरोपियों के आने से पहले उपयोग में था। ब्रिटिश सैन्य मानचित्रकों का मानना ​​था कि मद्रास मूल रूप से मुंदिर-राज या मुंदिरराज थे। वर्ष 1367 में एक विजयनगर युग शिलालेख जो कि मादरसन पट्टणम बंदरगाह का उल्लेख करता है, पूर्व तट पर अन्य छोटे बंदरगाहों के साथ 2015 में खोजा गया था और यह अनुमान लगाया गया था कि उपर्युक्त बंदरगाह रोयापुरम का मछली पकड़ने का बंदरगाह है। चेन्नई नाम की जन्मजात, तेलुगू मूल का होना स्पष्ट रूप से इतिहासकारों द्वारा साबित हुई है। यह एक तेलुगू शासक दमारला चेन्नाप्पा नायकुडू के नाम से प्राप्त हुआ था, जो कि नायक शासक एक दमनदार वेंकटपति नायक था, जो विजयनगर साम्राज्य के वेंकट III के तहत सामान्य रूप में काम करता था, जहां से ब्रिटिश ने नगर को 1639 में हासिल किया था। चेन्नई नाम का पहला आधिकारिक उपयोग, 8 अगस्त 1639 को, ईस्ट इंडिया कंपनी के फ्रांसिस डे से पहले, सेन्नेकेसु पेरुमल मंदिर 1646 में बनाया गया था। 1 99 6 में, तमिलनाडु सरकार ने आधिकारिक तौर पर मद्रास से चेन्नई का नाम बदल दिया। उस समय कई भारतीय नगरो में नाम बदल गया था। हालांकि, मद्रास का नाम नगर के लिए कभी-कभी उपयोग में जारी है, साथ ही साथ नगर के नाम पर स्थानों जैसे मद्रास विश्वविद्यालय, आईआईटी मद्रास, मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मद्रास मेडिकल कॉलेज, मद्रास पशु चिकित्सा कॉलेज, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज। चेन्नई (तमिल: சென்னை ), भारत में बंगाल की खाड़ी के कोरोमंडल तट पर स्थित तमिलनाडु की राजधानी, भारत का चोथा बड़ा नगर तथा तीसरा सबसे बड़ा बन्दरगाह है। इसकी जनसंख्या ८३ लाख ४० हजार है। यह नगर अपनी संस्कृति एवं परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। ब्रिटिश लोगों ने १७वीं शताब्दी में एक छोटी-सी बस्ती मद्रासपट्ट्नम का विस्तार करके इस नगर का निर्माण किया था। उन्होंने इसे एक प्रधान नगर एवं नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित किया। बीसवीं शताब्दी तक यह मद्रास प्रेसिडेंसी की राजधानी एवं एक प्रमुख प्रशासनिक केन्द्र बन चुका था। चेन्नई में ऑटोमोबाइल, प्रौद्योगिकी, हार्डवेयर उत्पादन और स्वास्थ्य सम्बंधी उद्योग हैं। यह नगर सॉफ्टवेयर, सूचना प्रौद्योगिकी सम्बंधी उत्पादों में भारत का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक नगर है। चेन्नई एवं इसके उपनगरीय क्षेत्र में ऑटोमोबाइल उद्योग विकसित है। चेन्नई मंडल तमिलानाडु के जीडीपी का ३९% का और देश के ऑटोमोटिव निर्यात में ६०% का भागीदार है। इसी कारण इसे दक्षिण एशिया का डेट्रॉएट भी कहा जाता है। चेन्नई सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है, यहाँ वार्षिक मद्रास म्यूज़िक सीज़न में सैंकड़ॊ कलाकार भाग लेते हैं। चेन्नई]] में रंगशाला संस्कृति भी अच्छे स्तर पर है और यह भरतनाट्यम का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यहाँ का तमिल चलचित्र उद्योग, जिसे कॉलीवुड भी कहते हैं, भारत का द्वितीय सबसे बड़ा फिल्म उद्योग केन्द्र है। नामकरण मद्रास नाम मद्रासपट्नम से लिया गया है। मद्रासपट्नम ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा सन् १६३९ में चुना गया स्थायी निवास स्थल है। इसके दक्षिण में चेन्नपट्नम नामक गाँव स्थित था। कुछ समय बाद इन दोनों गाँवों के संयोग से मिलकर बने नगर को "मद्रास" नाम दिया गया। परन्तु उसी जगह के निवासी इसे "चेन्नपट्नम" या "चेन्नपुरी" कहते थे। सन् १९९६ में नगर का नाम बदल कर "चेन्नै" रखा गया (हिन्दी में "चेन्नई" भी लिखा जाता है), क्योंकि "मद्रास" शब्द को पुर्तगी नाम माना जाता था। यह माना जाता है कि इस नगर का पुर्तगी नाम "माद्रे-डि-सॉइस" नामक पुर्तगी सरकारी अफ़सर के नाम से लिया गया था, जो लगभग सन् १५५० में इस जगह को अपने स्थायी निवास बनाने वाले पहले लोगों में शामिल थे। पर कुछ लोग यह मानते हैं कि "मद्रास" शब्द ही तमिल मूल का है, तथा "चेन्नई" शब्द किसी अन्य भाषा का हो सकता है। इतिहास चेन्नई एवं आस-पास का क्षेत्र पहली सदी से ही महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक, सैनिक, एवं आर्थिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यह दक्षिण भारत के बहुत से महत्त्वपूर्ण राजवंशों यथा, पल्लव, चोल, पांड्य, एवं विजयनगर इत्यादि का केन्द्र बिन्दु रहा है। मयलापुर नगर जो अब चेन्नई नगर का हिस्सा है, पल्लवों के जमाने में एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह हुआ करता था। आधुनिक काल में पुर्तगालियों ने १५२२ में यहाँ आने के बाद एक और बंदरगाह बनाया जिसे साओ तोमे कहा गया। पुर्तगालियों ने अपना बसेरा आज के चेन्नई के उत्तर में पुलीकट नामक स्थान पर बसाया और वहीं डच इस्ट इंडिया कंपनी की नींव रखी। २२ अगस्त १६३९, को संत फ्रांसिस दिवस के मौके पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने विजयनगर के राजा पेडा वेंकट राय से कोरोमंडल तट चंद्रगिरी में कुछ जमीन खरीदी। इस इलाके में दमरेला वेंकटपति, जो इस इलाके के नायक थे, उनका शासन था। उन्होंने ब्रितानी व्यापारियों को वहाँ एक फैक्ट्री एवं गोदाम बनाने की अनुमति दी। एक वर्ष वाद, ब्रितानी व्यापारियों ने सेंट जॉर्ज किला बनवाया जो बाद में औपनिवेशिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु बन गया। १७४६ में, मद्रास एवं सेंट जॉर्ज के किले पर फ्रासिंसी फौजों ने अपना कब्जा जमा लिया। बाद में ब्रितानी कंपनी का इस क्षेत्र पर नियंत्रण पुनः १७४९ में एक्स ला चैपल संधि (१७४८) की बदौलत हुआ। इस क्षेत्र को फ्रांसिसियों एवं मैसूर के सुल्तान हैदर अली के हमलों से बचाने के लिए इस पूरे क्षेत्र की किलेबंदी कर दी गयी। अठारहवीं सदी के अंत होते-होते ब्रिटिशों ने लगभग पूरे आधुनिक तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक के हिस्सों को अपने अधीन कर लिया एवं मद्रास प्रेसिडेंसी की स्थापना की जिसकी राजधानी मद्रास घोषित की गयी। ब्रिटिशों की हुकुमत के अधीन चेन्नई नगर एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक नगरीय क्षेत्र एवं जलसेना केन्द्र बनकर उभरा। भूगोल चेन्नई भारत के दक्षिण पूर्वी तट पर तमिलनाडु प्रदेश के उत्तरी पूर्वी तटीय क्षेत्र में स्थित है। इस तटीय क्षेत्र को पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र भी कहा जाता है। इस क्षेत्र की समुद्र तल से औसत ऊँचाई ६.७ मीटर है और सबसे ऊँचा स्थान ६० मीटर की ऊँचाई पर है। मरीना बीच के नाम से प्रसिद्ध चेन्नई के समुद्र तट का विस्तार १२ किलोमीटर तक है। नगर के मध्य में बहने वाली कूवम नदी और दक्षिण से बहने वाली अड्यार नदी आज की तारीख में बहुत ही ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं। अड्यार नदी कूवम से कम प्रदूषित है और इसके तट पर अनेक पशु-पक्षियों का बसेरा है। इन दोनों नदियों को बकिंघम नहर के द्वारा जोड़ा गया है। यह नहर अपनी ४ किलोमीटर की दूरी सागर तट के सामानान्तर तय करती है। नगर के पश्चिमी भाग में कई झीलें हैं, जिनमें से रेड हिल्स, शोलावरम और चेम्बरामबक्क्म से पेय जल की आपूर्ति होती है। चेन्नई का भूमिगत जल भी प्रदूषित होता जा रहा है। चेन्नई नगर को उत्तर, मध्य, दक्षिण और पश्चिमी चेन्नई नामक चार भागों में बँटा है। है। उत्तरी चेन्नई एक औद्योगिक क्षेत्र है। मध्य चेन्नई नगर का व्यावसायिक केंद्र है। यहाँ पर स्थित पेरिज कार्नर, जिसे स्थानीय लोग पेरिज भी कहते हैं, एक प्रमुख व्यावसायिक क्षेत्र है। दक्षिण और पश्चिमी चेन्नई सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र बनता जा रहा है। बढ़ती आबादी के कारण नगर विभिन्न दिशाओं में बढ़ता जा रहा है। जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक विकास हो रहा है वह हैं- पुराना महाबलीपुरम रोड, दक्षिणी ग्रांड ट्रंक रोड और पश्चिम में अंबात्तुर, कोयमबेडु और श्रीपेरम्बदूर की दिशा के क्षेत्र। चेन्नई की नगर सीमा में एक राष्ट्रीय उद्यान भी है, जिसे गुंडी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। चेन्नई में वार्षिक तापमान लगभग एक समान होता है। इसका कारण चेन्नई का सागर तट पर एवं थर्मल इक्वेटर पर स्थित होना है। वर्ष भर मौसम आम तौर पर गर्म एवं उमस भरा होता है। मई एवं जून का प्रथम सप्ताह वर्ष का सबसे गर्म समय होता है। इस समय जब तापमान ३८-४२ डिग्री सेल्सियस के आस-पास पहुँच जाता है, तो स्थानीय लोग इसे अग्नि नक्षत्रम या कथिरि वेय्यी कहते है। वर्ष का सबसे ठंडा महीना जनवरी का होता है, जब न्यूनतम तापमान १८-२० डिग्री सेल्सियस तक पँहुच जाता है। अब तक यहाँ का सबसे न्यूनतम तापमान १५.८ डिग्री सेल्सियस और उच्चतम तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। चेन्नई में वर्ष में औसतन १,३०० मिलीमीटर वर्षा होती है। मुख्यतः वर्षा सितम्बर से दिसम्बर के मध्य होती है। देश के अन्य भागों से विपरीत चेन्नई में वर्षा मानसून के लौटने के दौरान उत्तर-पूर्वी हवाओं के चलते होती है। बंगाल की खाड़ी में आने वाले चक्रवात कई बार चेन्नई भी पहुँच जाते है। सन २००५ में आज तक की सबसे ज्यादा वर्षा २,५७० मिलीमीटर दर्ज की गई थी। नवम्बर २, २०१७ को श्रीलंका के नजदीक बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के कारण चेन्नई में लगातार पांच घंटे बारिश हुई थी जिसके कारण अनेक इलाकों में पानी भर गया था। प्रशासनिक एवं उपयोगी सेवाएं चेन्नई नगर का प्रशासन चेन्नई नगर निगम के पास है। १६८८ में स्थापित हुआ यह निगम भारत में ही नहीं, ब्रिटेन के बाहर किसी भी राष्ट्रमंडल देश में सबसे पहला नगर निगम है। इसमें १५५ पार्षद है, जो चेन्नई के १५५ वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका चुनाव सीधे चेन्नई की जनता ही करती है। ये लोग अपने आप में से ही एक महापौर एवं एक उप-महापौर चुनते हैं जो छः समितियों का संचालन करता है। चेन्नई, तमिल नाडु राज्य की राजधानी होने से राज्य की कार्यपालिका और न्यायपालिका के मुख्यालय नगर में मुख्य रूप से फोर्ट सेंट जॉर्ज में सचिवालय इमारत में और शेष कार्यालय नगर में विभिन्न स्थानों पर अनेक इमारतों में स्थित हैं। मद्रास उच्च न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र तमिल नाडु राज्य और पुदुचेरी तक है। यह राज्य की सर्वोच्च न्याय संस्था है और चेन्नई में ही स्थापित है। चेन्नई में तीन लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र हैं – चेन्नई उत्तर, चेन्नई मध्य और चेन्नई दक्षिण और १८ विधान-सभा निर्वाचन क्षेत्र हैं। चेन्नई का महानगरीय क्षेत्र कई उपनगरों तक व्याप्त है, जिसमें कांचीपुरम जिला और तिरुवल्लुर जिला के भी क्षेत्र आते हैं। बडए उपनगरों में वहां की टाउन-नगर पालिकाएं हैं और छोटे क्षेत्रों में टाउन-परिषद हैं जिन्हें पंचायत कहते हैं। नगर का क्षेत्र जहां १७४ कि॰मी॰² (६७ मील²) है, वहीं उपनगरीय क्षेत्र ११८९ कि॰मी॰² (४५८ मील²) तक फैले हुए हैं। चेन्नई महानगर विकास प्राधिकरण (सी.एम.डी.ए) ने नगर के निकट उपग्रह-नगरो के विकास के उद्देश्य से एक द्वितीय मास्टर प्लान का ड्राफ़्ट तैयार किया है। निकटस्थ उपग्रह नगरो में महाबलिपुरम (दक्षिण में), चेंगलपट्टु और मरियामलै नगर दक्षिण-पश्चिम में, श्रीपेरंबुदूर, तिरुवल्लुर और अरक्कोणम पश्चिम में आते हैं। ग्रेटर चेन्नई पुलिस विभाग तमिल नाडु पुलिस का ही एक अनुभाग है, जो नगर में कानून एवं सुरक्षा व्यवस्था की देखरेख में संलग्न है। नगर की पुलिस के अध्यक्ष पुलिस आयुक्त, चेन्नई हैं और प्रशासनिक नियंत्रण राज्य गृह मंत्रालय के पास है। इस विभाग में ३६ उप-भाग और १२१ पुलिस-स्टेशन है। नगर खा यातायात चेन्नई सिटी ट्रैफिक पुलिस द्वारा नियंत्रित होता है। महानगर के उपनगर चेन्नई मेट्रोपॉलिटन पुलिस के अधीन आते हैं, एवं बाहरी जेले कांचीपुरम एवं तिरुवल्लुर पुलिस विभागों के अन्तर्गत्त हैं। चेन्नई नगर निगम और उपनगरीय नगरपालिकाएं नागरिक सुविधाएं मुहैया कराती हैं। अधिकांश क्षेत्रों में कूड़ा-प्रबंधन नील मेटल फैनालिका एन्वायरनमेंट मैनेजमेंट; एक निजी कंपनी और कुछ अन्य क्षेत्रों में नगर निगम देखता है। जल-आपूर्ति एवं मल-निकास (सीवेज ट्रीटमेंट) चेन्नई मेट्रोपॉलिटन वॉटर सप्लाई एंड सीवेज बोर्ड देखाता है। विद्युत आपूर्ति तमिल नाडु विद्युत बोर्ड प्रबंध करता है। नगर की दूरभाष सेवा छः मोबाइल और चार लैंडलाइन कंपनियों के द्वारा प्रबंध होता है, और यही कंपनियां तथा सिफी और हैथवे ब्रॉडबैंड सेवा द्वारा इंटरनेट भी उपलब्ध कराती हैं। नगर के क्षेत्र से कोई मुख्य नदी नहीं गुजरती है, अतः चेन्नई में वार्षिक मानसून वर्षा के जल को सरोवरों में सहेज कर रखने का इतिहास रहा है। नगर की बढ़ती आबादी और भूमिगत जल के गिरते स्तर के कारण नगर को जल अभाव का सामना करना पड़ा है। इस दिशा में वीरानम झील परियोजना भी कारगर नहीम सिद्ध हुई है। नई वीरानम परियोजना ने काफ़ी हद तक इस समस्या का समाधान किया है और शाहर की सुदूर स्रोतों पर निर्भरता घटी है। हाल के वर्षों में भारी मानसीनी वर्षाओं के चलते अन्ना नगर में जल पुनर्चक्रीकरण को सहारा मिला है और इससे नगर में जलाभावों की काफ़ी कमी आयी है। इसके साथ साथ तेलुगु गंगा परियोजना जैसे नई परियोजनाओं द्वारा आंध्र प्रदेश से कृष्णा नदी का जल भी पहुचाया जा रहा है, जिसने इस संकट को लगभग समाप्त ही कर दिया है। नगर में सागरीय जल के अलवणीकरण-संयंत्र की स्थापना भी प्रगति पर है, जिससे सागर के जल को भी जलापूर्ति में प्रयोग किया जा सकेगा। संस्कृति चेन्नई भारत की सांस्कृतिक एवं संगीत राजधानी है। नगर शास्त्रीय नृत्य-संगीत कार्यक्रमों और मंदिरों के लि प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष चेन्नई में पंच-सप्ताह मद्रास म्यूज़िक सीज़न कार्यक्रम का आयोजन होता है। यह १९२७ में मद्रास संगीत अकादमी की स्थापना की वर्षगांठ मानने के साथ आयोजित होता है। इसमें नगर और निकट के सैंकड़ों कलाकारों के शास्त्रीय कर्नाटक संगीत के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। एक अन्य उत्सम चेन्नई संगमम प्रत्येक वर्ष जनवरी में तमिल नाडु राज्य की विभिन्न कलाओं को दर्शाता है। चेन्नई को भरतनाट्यम के लिए भी जाना जाता है। यह दक्षिण-भारत की प्रसिद्ध नृत्य शैली है। नगर के दक्षिणी भाग में तटीय क्षेत्र में कलाक्षेत्र नामक स्थान भरतनाट्यम का प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र है। चेन्नई में भारत के कुछ सर्वोत्तम कॉयर्स हैं, जो क्रिसमस के अवसर पर अंग्रेज़ी और तमिल में विभिन्न कैरल कार्यक्रम करते हैं। मद्रास म्यूज़िकल असोसियेशन भारत के सबसे पुराने और प्रतिष्ठावान क्वायर्स में से एक हैं और इन्होंने विश्व भर में कार्यक्रम दिये हैं। चेन्नई तमिल चलचित्र उद्योग, जिसे कॉलीवुड भी कहते हैं, का आधार नगर है। यह उद्योग कोडमबक्कम में स्थित है, जहां अधिकांश फिल्म स्टूडियों हैं। इस उद्योग के द्वारा आजकल १५० से अधिक फिल्में वार्षिक बनायी जाती हैं और इनके साउण्डट्रैक के एल्बम भी नगर को संगीतमय करते हैं। इस उद्योग से जुड़े कुछ व्यक्तियों के नामों में इलैयाराजा, के बालाचंदर, शिवाजी गणेशन, एम जी रामचंद्रन, रजनीकांत, कमल हसन, मणि रत्नम और एस शंकर हैं। ए आर रहमान ने चेन्नई को अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलायी है। रहमान को २००९ में स्लमडॉग मिलेनियर के लिए दो ऑस्कर सम्मान मिले थे। चेन्नई में रंगमंच पर तमिल नाटक मंचित किये जाते हैं, जिनमें राजनीतिक, व्यंग्य, हास्य, पौराणिक, आदि सभी रसों का मिश्रण होता है। इनके अलावा अंग्रेज़ी नाटकों का भी मंचन आयोजित होता है। नगर के उत्सवों में जनवरी माह में आने वाला पंच-दिवसीय पोंगल प्रमुख है। इसके अलावा सभी मुख्य त्यौहार जैसे दीपावली, ईद, क्रिसमस आदि भी हर्षोल्लास से मनाये जाते हैं। तमिल व्यंजनों में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही व्यंजनों का सम्मिलन है। नगर में विभिन्न स्थानों पर अल्पाहार या टिफिन भी उपलब्ध है, जिसमें पोंगल, दोसा, इडली, वड़ा, आदि मिलते हैं, जिसको गर्मा गर्म या ठंडी कॉफी के साथ परोसा जाता है। अर्थव्यवस्था चेन्नई दक्षिण भारत के प्रमुख व्यवसाय-वाणिज्य एवं यातायात का केन्द्र है। १९वीं शताब्दी के अन्त में औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना चेन्नई में हुई। चेन्नई के निकट पेराम्बूर में भारत सरकार द्वारा एशिया का सबसे विशाल रेलवे डिब्बा निर्माण का कारखाना इन्टीग्रल कोच बिल्डिंग फैक्टरी स्थापित किया गया है। यहाँ के उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग, रासायनिक उद्योग, कागज एवं कागज से निर्मित वस्तुओं के उद्योग, मुद्रण यंत्र एवं इससे सम्बन्धित उद्योग, चमड़ा, डीजल इंजन, मोटरगाड़ी, साइकिल, सीमेन्ट, चीनी, दियासलाई, रेल के डिब्बे तैयार करने के उद्योग आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा संचालित विभिन्न प्रकार के उद्योग एवं कारखाने चेन्नई में अवस्थित हैं। इनमें इण्टिग्रल कोच फैक्टरी, हिन्दुस्तान टेलीप्रिन्टर, चेन्नई रिफाईनरी एवं चेन्नई फर्टिलाइजर आदि प्रमुख हैं। मद्रास पेट्रोकेमिकल्स में पेट्रो-रसायन पदार्थ का उत्पादन होता है। जनसांख्यिकी चेन्नई के वासी को अंग्रेज़ी में चेन्नैयाइट और हिन्दी में प्रायः मद्रासी कह दिया जाता है। २००१ में भारत की जनगणना के अनुसार चेन्नई नगर की जनसंख्या ४३.४ लाख थी जबकि कुल महानगरीय जनसंख्या ७०.४ लाख थी। २००६ की अनुमानित महानगरीय जनसंख्या ४५ लाख आयी है। २००१ में नगर का जनसंख्या घनत्व २४,६८२ वर्ग कि॰मी॰ (६३,९२६ प्रति वर्ग मील) था, जबकि महानगरीय क्षेत्र का घनत्व ५,९२२ प्रति वर्ग कि॰मी॰ था, जिससे यह विश्व के सर्वोच्च जनसंख्या वाले नगरो में गिना जाने लगा। यहां का लिंग अनुपात ९५१ स्त्रियां/१००० पुरुष है, जो राष्ट्रीय औसत ९४४ से कुछ अधिक ही है। नगर की औसत साक्षरता दर ८०.१४% है, जो राष्ट्रीय औसत दर ६४.५% से कहीं अधिक है। नगर में झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों की जनसंख्या भारत के अन्य महानगरों के मुकाबले चौथे स्थान पर आती है, जिसमें ८,२०,००० लोग (कुल जनसंख्या का १८.६%) लोग हैं। यह संख्या भारत की कुल जनसंख्या का ५% है। २००५ में नगर में अपराध दर ३१३.३ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो भारत के सभी प्रधान नगरो में हुए अपराधों का ६.२% है। ये आंकड़े २००४ से ६१.८% बढ़े हैं। चेन्नई में तमिल लोग बहुसंख्यक हैं। यहां की मुख्य भाषा तमिल ही है। व्यापार, शिक्षा और अन्य अधिकारी वर्ग के व्यवसायों एवं नौकरियों में अंग्रेज़ी मुख्यता से बोली जाती है। इनके अलावा कम किंतु गणनीय संख्या तेलुगु तथा मलयाली लोगों की भी है। चेन्नई में तमिल नाडु के अन्य भागों व भारत के सभी भागों से आये लोगों की भी अच्छी संख्या है। २००१ के आंकड़ों के अनुसार नगर के ९,३७,००० प्रवासियों (चेन्नई की कुल जनसंख्या का २१.५७%) में से; ७४.५% राज्य के अन्य भागों से आये थे, २३.८% देश के अन्य भागों से तथा १.७% विदेशियों की जनसंख्या थी। कुल जनसंख्या में ८२.२७% हिन्दू, ८.३७% मुस्लिम, ७.६३% ईसाई और १.०५% जैन हैं। यातायात चेन्नई दक्षिण भारत के प्रवेशद्वार की भांति प्रतीत होता है, जिसमें अन्ना अन्तर्राष्ट्रीय टर्मिनल एवं कामराज अन्तर्देशीय टार्मिनल सहित चेन्नई अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भारत का तीसरा व्यस्ततम विमानक्षेत्र है। चेन्नई नगर दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया, मध्य पूर्व, यूरोप एवं उत्तरी अमरीका के प्रधान बिन्दुओं पर ३० से अधिक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विमान सेवाओं से जुड़ा हुआ है। यह विमानक्षेत्र देश का दूसरा व्यस्ततम कार्गो टर्मिनस है। वर्तमान विमानक्षेत्र में अधिक आधुनिकीकरण और विस्तार कार्य प्रगति पर हैं। इसके अलावा श्रीपेरंबुदूर में नया ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट लगभग २००० करोड़ रु. की लागत से बनना तय हुआ है। नगर में दो प्रधान सागरपत्तन (बंदरगाह) हैं, चेन्नई पोर्ट जो सबसे बड़े कृत्रिम बंदरगाहों में एक है, तथा एन्नोर पोर्ट। चेन्नई पोर्ट बंगाल की खाड़ी में सबसे बड़ा बंदरगाह और भारत का दूसरा सबसे बड़ा सागरीय-व्यापार केन्द्र है, जहां ऑटोमोबाइल, मोटरसाइकिल, सामान्य औद्योगिक माल और अन्य थोक खनिज की आवाजाही होती है। मुम्बई के बाद भारत का यही सबसे बड़ा पत्तन है। इस कृत्रिम बन्दरगाह में जलयानों के लंगर डालने के लिए कंक्रीट की मोटी दीवारें सागर में खड़ी करके एक साथ दर्जनों जलयानों के ठहराने योग्य पोताश्रय बना लिया गया है। दक्षिणी भारत का सारा दक्षिण-पूर्वी भाग (तमिलनाडु, दक्षिणी आन्ध्रप्रदेश तथा कर्नाटक राज्य) इसकी पृष्ठभूमि है। यहाँ मुख्य निर्यात मूँगफली और इसका तेल, तम्बाकू, प्याज, कहवा, अबरख, मैंगनीज, चाय, मसाला, तेलहन, चमड़ा, नारियल इत्यादि हैं तथा आयात में कोयला, पेट्रोलियम, धातु, मशीनरी, लकड़ी, कागज, मोटर-साइकिल, रसायन, चावल और खाद्यान्न, लम्बे रेशे वाली कपास, रासायनिक पदार्थ, प्रमुख हैं। एक छोटा बंदरगाह रोयापुरम में भी है, जो स्थानीय मछुआरों और जलपोतों द्वारा प्रयोग होता है। पूर्वी तट पर चेन्नई की महत्त्वपूर्ण स्थिति ने प्राकृतिक सुविधा के अभाव में भी कृत्रिम व्यवस्था द्वारा एक पत्तन का विकास पाया है। एक बन्दरगाह होने के कारण कोलकाता, विशाखापट्टनम, कोलम्बों, रंगून, पोर्ट ब्लेयर आदि स्थानों से समुद्री मार्ग द्वारा सम्बद्ध है। आज रेलमार्गों और सड़कों का मुख्य जंक्शन होने के कारण यह नगर देश के विभिन्न नगरो से जुड़ा हुआ है। यह वायु मार्ग द्वारा बंगलोर, कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली, हैदराबाद आदि देश के विभिन्न नगरो से जुड़ा हुआ है। चेन्नई देश के अन्य भागों से रेल द्वारा भी भली-भांति जुड़ा हुआ है। यहां से पाँच मुख्य राष्ट्रीय राजमार्ग नगर को मुंबई, कोलकाता, तिरुचिरापल्ली, तिरुवल्लुर, तिंडिवनम और पुदुचेरी को जोड़ते हैं। चेन्नई मोफस्सिल बस टर्मिनस, चेन्नई से सभी अन्तर्राज्यीय बस सेवाओं का अड्डा है। यह एशिया का सबसे बड़ा बस-अड्डा है। सात सरकारी यातायात निगम अन्तर-नगरीय और अन्तर्राज्यीय बस सेवाएं संचालित करते हैं। बहुत सी निजी बस सेवाएं भी चेन्नई को अन्य नगरो से सुलभ कराती हैं। चेन्नई दक्षिण रेलवे का मुख्यालय है। नगर में दो मुख्य रेलवे टार्मिनल हैं। चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन, जहां से सभी बड़े नगरो जैसे मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोच्चि, कोयंबतूर, तिरुवनंतपुरम, इत्यादि के लिए रेल-सुविधा उपलब्ध हैं। चेन्नई एगमोर रेलवे स्टेशन से प्रायः तमिलनाडु के नगरो की रेल सेवाएं ही उपलब्ध हैं। कुछ निकटवर्ती राज्य के नगरो की भी रेलगाड़ियां यहां से चलती हैं। नगर में लोक यातायात हेतु बस, रेल, ऑटोरिक्शा आदि सर्वसुलभ यातायात हैं।चेन्नई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे पुराना है। इसमें चार ब्रॉड गेज रेल क्षेत्र हैं जो नगर में दो स्थानों चेन्नई सेंट्रल और चेन्नई बीच रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। इन टर्मिनल से नगर में निम्न सेक्टरों के लिए नियमित सेवाएं उपलब्ध हैं: चेन्नई सेंट्रल/चेन्नई बीच - अरक्कोणम - तिरुट्टनी (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – पश्चिम लाइन) चेन्नई सेंट्रल/ चेन्नई बीच – गुम्मिडीपूंडी - सुलुरपेट (चेन्नई उपनगरीय रेलवे) चेन्नई बीच – तांबरम - चेंगलपट्टू - तिरुमलैपुर (कांचीपुरम) (चेन्नई उपनगरीय रेलवे – दक्षिण लाइन) चौथा सेक्टर भूमि से उच्च स्तर पर है और चेन्नई बीच को वेलाचेरी से जोड़ता है और शेष जाल से भी जुड़ा हुआ है। चेन्नई मेट्रो चेन्नई मेट्रो चेन्नई के लिए अनुमोदित एक त्वरित यातायात सेवा है। इसके प्रथम चरण में दो लाइने प्रयोग में है एवम् अन्य लाइनों का कार्य निर्माणाधीन है यह पूरी परियोजना पहले चरण के दो गलियारों की लागत १४,६०० करोड़ रुपये है। जो ५०.१ कि॰मी॰ लंबे है २००७ के अनुंआन से ९५९६ करोड लागत आयी थी।[3]. मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन (MTC) नगर में बस यातायात संचालित करता है। निगम का २७७३ बसों का बेड़ा २८८ मार्गों पर ३२.५ लाख यात्रियों को दैनिक परिवहन उपलब्ध कराता है। नगर के बहुत से मार्गों पर मैक्सी कैब नाम से वैन और सवारी भाड़े पर ऑटोरिक्शा भी चलते हैं, जो बस सेवा का विकल्प देते हैं। चेन्नई की यातायात संरचना अच्छा संपर्क उपलब्ध कराती है, किंतु बढती हुई जनसंख्या को देखते हुए यातायात संकुलन (कंजेशन) और प्रदूषण की समस्याएं भी खड़ी हो गयी हैं। प्रशासन ने इन समस्याओं के समाधान स्वरूप फ्लाईओवर तथा ग्रेड-सेपरेटर निर्माण किये हैं, जिसका शुभारंभ १९७३ में जेमिनी फ्लाईओवर से नगर की सबसे महत्त्वपूर्ण सड़क अन्ना सालै से हुआ था। और हाल ही में तैयार हुआ इस शृंखला की नवीनतम कड़ी काठीपाड़ा फ़्लाईओवर है। शिक्षा चेन्नई में सरकारी एवं निजी दोनो प्रकार के विद्यालय है। शिक्षा का माध्यम तमिल अथवा अंग्रेजी होता है। अधिकांश विद्यालय तमिलनाडु राज्य शिक्षा मंडल या केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) से जुड़े है। नगर में कुल १,३८९ विद्यालय है जिस में से ७३१ प्राथमिक, २३२ माध्यमिक और ४२६ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। इंजीनियरिंग शिक्षा के लिये चेन्नई में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, १७९४ में स्थापित कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग गिन्डी, १९४९ में स्थापित मद्रास प्रौद्योगिकी संस्थान (Madras Institute of Technology) और एस आर एम विश्वविद्यालय जाने माने संस्थान है। अधिकांश इंजीनियरिंग महाविद्यालय अन्ना विश्वविद्यालय से संबंधित है। मद्रास मेडिकल कॉलेज, स्तेनली मेडिकल कॉलेज, किलपौक मेडिकल कॉलेज और एस आर एम मेडिकल कॉलेज एवं अनुसंधान संस्थान चेन्नई के प्रमुख चिकित्सीय महाविद्यालय है। विज्ञान, कला एवं वाणिज्य क्षेत्र में शिक्षा प्रदान कराने वाले अधिकांश महाविद्यालय मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्धित है। मद्रास विश्वविद्यालय की नगर में तीन परिसर है। मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, लोयोला कॉलेज, द न्यू कॉलेज और पेट्रीसियन कॉलेज कुछ प्रसिद्ध स्वशासी महाविद्यालय है। चेन्नई में कई अनुसंधान केन्द्र भी है। खेल-कूद चेन्नई नगर विविध खेलो के लिये प्रसिद्ध है। नगर ने भारत को कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी दिये हैं। एस वेन्कट राघवन और कृष्णम्माचारी श्रीकांत ने क्रिकेट में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। इंगलैंड के प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी नासिर हुसैन का जन्म भी चेन्नई में हुआ था। एम आर एफ़ पेस फ़ाउंडेशन एक प्रसिद्ध तेज गेंदबाजी सिखाने की संस्था है जो सन १९८७ से चेन्नई में संचालित हो रही है। इंडियन प्रीमियर लीग में चेन्नई के स्थानीय टीम का नाम चेन्नई सुपर किंग्स है जिसके कप्तान महेन्द्र धोनी है। चेपुक में स्थित एम ए चिदंबरम स्टेडियम भारत के सबसे पुराने क्रिकेट के मैदानो में से एक है। मेयर राधाकृष्णन स्टेडियम हॉकी का एक लोकप्रिय मैदान है। यहां एशिया कप एवं चैम्पियन ट्रॉफ़ी जैसी प्रमुख हॉकी प्रतियोगिताएं आयोजित हो चुकीं है। प्रिमियर हॉकी लीग में चेन्नई का प्रतिनिधि चेन्नई वीरन्स नामक टीम करती है। चेन्नई ओपन चेन्नई में आयोजित होने वाली एक प्रसिद्ध टेनिस प्रतियोगिता है। यह भारत की एक मात्र ए टी पी प्रतियोगिता है। विजय अमृतराज और रमेश कृष्णन प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी है जो चेन्नई से संबंध रखते है। सन १९९५ में चेन्नई दक्षिण एशियन गेम्स का मेजबान रहा है। जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम फ़ुटबॉल एवं एथलेटिक स्पर्धाओं के लिये उपयोग होता है। कई अंतरंग स्पर्धाए जैसे वॉलीबॉल, बास्केटबॉल और टेबल टेनिस का आयोजन इसी स्टेडियम में होता है। जल क्रीड़ा स्पर्धाओं का आयोजन वेलाचेरी अक्वेटिक कॉम्पलेक्स में होता है। कार दौड़ प्रतियोगिताओं में चेन्नई का नाम भारत में सर्वप्रथम लिया जाता है। श्रीपेरम्बदूर में स्थित इरुन्गट्टुकोट्टाइ में एक रेस ट्रेक जो अन्तराष्ट्रीय कार दौड़ प्रतियोगिता के लिये उपयोग में लिया जाता है। घुड़दौड़ गिंडी रेस कोर्स में आयोजित होती है। मद्रास बोट क्लब नौकायान प्रतियोगिता का आयोजन करता है। चेन्नई में दो गोल्फ़ के मैदान है: कॉस्मोपालिटन क्लब और जिमखाना क्लब। विश्वप्रसिद्ध शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथ आनंद का बचपन भी चेन्नई में बीता है। २००६ के राष्ट्रमंडल खेलो में टेबल टेनिस में स्वर्ण जीतने वाले शरथ कमाल और दो बार की विश्व कैरम विजेता मारिया इरुदयम भी चेन्नई के निवासी है। पर्यटन चेन्नई को सुपर प्रसारित नगर कहते हैं यहाँ अनेक दर्शनीय स्थल हैं जिनमें मद्रास विश्वविद्यालय, चेपॉक महल, मत्स्य पालन केन्द्र, कपिलेश्वर और पार्थसारथी का मंदिर, अजायबघर और चिड़ियाघर आदि प्रमुख हैं। चेन्नई का एक अन्य महत्वपूर्ण आकर्षण है सेंट जॉर्ज फोर्ट। इसे सन्‌ १६४० में ईस्ट इंडिया कंपनी के फ्रांसिंस डे ने बनाया था। यह किला ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारिक केंद्र था। १५० वर्षों तक यह युद्धों और षड्यंत्रों का केंद्र बना रहा। इस किले में पुरानी सैनिक छावनी, अधिकारियों के मकान, सेंट मेरी गिरजाघर एवं रॉबर्ट क्लाइव का घर है। सेंट मेरी गिरजाघर अँगरेजों द्वारा भारत में बनवाया गया सबसे पुराना चर्च माना जाता है। चेन्नई का मरीना बीच पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण है। यह विश्व का दूसरा सबसे लंबा समुद्र तट है। इसके दो सौ से तीन सौ गज चौड़े रेतीले तट पर शाम को इतनी अधिक भीड़ होती है कि लगता है मानो सारा नगर वहीं आ गया है। सारे दिन की थकान को चेन्नई वासी शाम को मरीना बीच की अथाह जल राशि में बहा देना चाहते हों। पर्यटकों की सुविधा के लिए मेरीना बीच पर एक स्वीमिंग पूल है जो दुर्घटनाओं को घटने से रोकता है क्योंकि यहाँ समुद्र की गहराई और लहरों का तेज प्रवाह खतरनाक है। शार्क मछलियों की अधिकता भी है, अतः स्नान या तैरने के लिए स्वीमिंग पूल का ही लाभ लेना चाहिए। इसी के पास एक मछलीघर भी है, जिसमें तरह-तरह की देशी-विदेशी मछलियाँ दर्शनार्थ रखी गई हैं। मरीना तट का उत्तरी भाग पूर्व मुख्यमंत्री अन्नादुरै के समाधि-स्थल के रूप में विकसित किया गया है। यहाँ लोगों को श्रद्धानवत होते देखा जा सकता है। साथ ही एम.जी.आर. स्मारक भी है जिसका प्रवेश द्वार दो विशाल हाथी दाँत के रूप में बनाया गया है। यहाँ एक मशाल हमेशा प्रज्वलित रहती है। चेन्नई का स्नेक पार्क भी पर्यटकों को प्रभावित करता है। यह अपनी तरह का एक अलग ही पार्क है जिसका निर्माण रोमुलस व्हिटेकर नामक अमेरिकी ने किया था। यह पाँच सौ से भी ज्यादा खतरनाक भारतीय साँपों का जीवित संग्रहालय कहा जा सकता है। रेंगते हुए ये विषधर भय मिश्रित रोमांच पैदा करते हैं। यहाँ पर साँपों के अलावा सरीसृप वर्ग के अन्य जीव जैसे मगरमच्छ, घड़ियाल इत्यादि भी रखे गए हैं। चेन्नई महानगर की कलात्मक संस्कृति के दर्शन पैंथियान रोड स्थित नेशनल आर्ट गैलरी में सहज ही किए जा सकते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से संपूर्ण दक्षिण भारत एक तीर्थ है जहाँ वास्तुकला और मूर्तिकला के अद्वितीय उदाहरण हैं। इन मंदिरों में भव्यता और कलाशिल्प देखने योग्य है। उत्तर भारत से एकदम अलग शैली के मंदिर होने के बावजूद श्रद्धा और भक्ति में ये समस्त भारतीय आस्तिकों को आकर्षित करते हैं। तिरुषैलिफेनी स्थित पार्थ सारथि मंदिर के लिए उल्लेख है कि इसका निर्माण आठवीं शताब्दी में राजा पल्लव ने करवाया था। इस देवस्थान की दीवारों पर सुंदर कलाकृतियाँ अंकित हैं। दूसरा आकर्षक मंदिर है द्रविड़ शिल्पकला में निर्मित मिलापोर स्थित कालीश्वर मंदिर। यहाँ माता पार्वती की उपासना की गाथा अंकित है। समुद्र की रेत से तपता यह क्षेत्र अत्यंत गरम जलवायु लिए हुए है जो केले, नारियल और पाम के पेड़ों से खूबसूरत लगता है। चित्र दीर्घा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ चेन्नई पर्यटन चेन्नई प्रशासन का आधिकारिक जालस्थल चेन्नई नगर निगम - आधिकारिक जालस्थल चेन्नई महानगर विकास प्राधिकरण का जालस्थल . चेन्नई तमिलनाडु भारत के महानगर तमिल नाडु के शहर कॉमन्स पर निर्वाचित चित्र युक्त लेख चेन्नई ज़िला कोरोमंडल तट
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वर्जिन एटलान्टिक ऐरवेज़, सामान्य तौर पर वर्जिन एटलान्टिक, एक हवाई सेवा है जो ग्रेट ब्रिटेन से अन्य जगहों पर अन्तरमहाद्वीप उडानें चलाती है। इसका मुख्यालय ग्रेट ब्रिटेन के क्रॉले में है। बहरी कड़ियाँ वर्जिन एटलान्टिक ऐरवेज़ (EN)
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "वर्जिन एटलान्टिक", "token_count": 366, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A8%20%E0%A4%8F%E0%A4%9F%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95" }
रीवा (Rewa) भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रीवा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और राज्य की राजधानी, भोपाल, से पूर्वोत्तर में और जबलपुर से उत्तर में स्थित है। इस से दक्षिण में कैमूर पर्वतमाला है और इस क्षेत्र में विन्ध्याचल की पहाड़ियाँ भी स्थित हैं। विवरण रीवा शहर मध्य प्रदेश प्रांत के विंध्य पठार का एक हिस्से का निर्माण करता है और टोंस,बीहर.,बिछिया नदी एवं उसकी सहायता नदियों द्वारा सिंचित है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश राज्य, पश्चिम में सतना एवं पूर्व तथा दक्षिण में सीधी जिले स्थित हैं। इसका क्षेत्रफल २,५०९ वर्ग मील है। यह पहले एक बड़ी बघेल वंश की रियासत थी। यहाँ के निवासियों में गोंड एवं कोल ब्राह्मण विभिन्न क्षत्रिय वैश्य जाति के लोग भी शामिल हैं जो पहाड़ी भागों के साथ-साथ मुख्य नगर में रहते हैं। जिले में जंगलों की अधिकता है, जिनसे लाख, लकड़ी एवं जंगली पशु प्राप्त होते हैं। रीवा के जंगलों में ही सफेद बाघ की नस्ल पाई गई हैं। जिले की प्रमुख उपज धान है। जिले के ताला नामक जंगल में बांधवगढ़ का ऐतिहासिक किला है। रीवा मूल रूप से गोंड,कोल आदिवासियों का निवास स्थान रहा है।बाद में जब बाहरी गुजरात से सोलंकी राजपूत मध्य प्रदेश आयें,तब इनके साथ कुछ परिहार राजपूत एवं कुछ मुस्लिम भी आये परन्तु कुछ समय पश्चात सोलंकी राजा व्याघ्र देव ने सोलंकी से बघेल तथा परिहार से वरग्राही (श्रेष्ठता को ग्रहण करने वाला) वंश की स्थापना की। बघेल तथा वरग्राही परिहार आज बड़ी संख्या में संपूर्ण विंध्य क्षेत्र में पाए जाते हैं, जो प्रारंभ से एक दूसरे के अति विश्वस्त हैं। प्राचीन इतिहास के अनुसार रीवा राज्य के वर्ग्राही परिहारो ने रीवा राज्य के लिए अनेक युद्ध लड़े जिनमें- नएकहाई युद्ध, बुंदेलखंडी युद्ध, लाहौर युद्ध, चुनार घाटी मिर्जापुर युद्ध, कोरिया युद्ध, मैहर युद्ध, कृपालपुर युद्ध, प्रमुख हैं। बघेल वंश की स्थापना व्याघ्र देव ने की जिसके कारण इन्हें व्याघ्र देव वंशज भी कहा जाता है। चूँकि इन दोनों वंश की स्थापना होने के बाद इन दोनों राजपूतो का ज्यादा विस्तार नही हो पाया, जिसके कारण इन वंशो के बारे में ज्यादा जानकरी प्राप्त नही हुई। इन्हें अग्निकुल का वंशज माना जाता है। भूतपूर्व रीवा रियासत की स्थापना लगभग १४०० ई. में बघेल राजपूतों द्वारा की गई थी। मुगल सम्राट अकबर द्वारा बांधवगढ़ नगर को ध्वस्त किए जाने के बाद रीवा महत्त्वपूर्ण बन गया और १५९७ ई, में इसे भूतपूर्व रीवा रियासत की राजधानी के रूप में चुना गया। सन १९१२ ई. में यहाँ के स्थानीय शासक ने ब्रिटिश सत्ता से समझौता कर अपनी सम्प्रभुता अंग्रेज़ों को सौंप दी। यह शहर ब्रिटिश बघेलखण्ड एजेंसी की राजधानी भी रहा।यहाँ विश्व का सबसे पहला सफेद शेर मोहन पाया गया। जिसकी मृत्यु हो चुकी है। रीवा जिले के निकट 13 किलोमीटर (निपानिया-तमरा मार्ग) महाराजा मार्तण्ड सिंह बघेल व्हाइट टाइगर सफारी एवं चिड़ियाघर मुकुंदपुर का निर्माण किया गया है- जहाँ सफेद शेरों को संरक्षण दिया जा रहा है। रीवा जिले में बघेली एक प्रमुख भाषा है। हाल ही में यहाँ पर कृष्णा राज कपूर ऑडीटोरियम का निर्माण कराया गया है । रीवा के पर्यटन एवं दार्शनिक स्थल गोविंदगढ़ का किला, रीवा रीवा का किला, रीवा बघेल संग्रहालय, रीवा किला रानीपुर करचुलियाँ, रीवा पुरवा जलप्रपात, रीवा गोविंदगढ़ झील, रीवा भैरोबाबा की प्रतिमा, गुढ़, रीवा सिटी संग्रहालय, रीवा वेंकट भवन, रीवा चिराहुलानाथ मंदिर, रीवा रानी तलाब, रीवा मुकुंदपुर जंगल सफारी, रीवा रीवा जिले मे पर्यटन की डदृष्टि से काफी संभावनाए हैं, और सरकार लगातार इस क्षेत्र मे अपना प्रयास कर रही हैं, जिससे रीवा मे पर्यटन स्थलो को बढ़ाए जाए। यातायात रेल रीवा रेल मार्ग से देश के कई बड़े शहरों से जुड़ा है जिससे की रीवा आसानी से पंहुचा जा सकता है। जैसे- दिल्ली,राजकोट, सूरत,नागपुर,जबलपुर,कानपुर,प्रयागराज,इंदौर,भोपाल,मैहर,बिलासपुर इत्यादि। रीवा रेेेेल्वे स्टेशन हैं, जहा सेे भोपाल, इंदौर,दिल्ली,जबलपुर,बिलासपुर,चिरमिरी,राजकोट,नागपुर केे लिए ट्रेन चलती हैै| सड़क रीवा सड़क मार्ग से निम्न शहरों से आसानी से पहुँचा जा सकता है और नियमित बसों का संचालन: भोपाल,इंदौर,जबलपुर,नागपुर,बिलासपुर,रायपुर,ग्वालियर,इलाहाबाद(प्रयागराज),बनारस,अमरकंटक,शहडोल,मैहर, सतना आदि शहरों से है। वायु रीवा में एक हवाईपट्टी है जहाँ से भोपाल के लिए फ्लाइट चलती है इसको हवाई अड्डा बनाने के घोषणा हो चुकी है जिससे विंध्य क्षेत्र भी व्यापार और पर्यटन स्थलों को टूटिस्ट आसानी से दर्शन कर सकेंगे। रीवा गान "रीवा गान" अरिन कुमार शुक्ला द्वारा लिखा गया गीत है। अरिन कुमार शुक्ला रीवा के ही निवासी है तथा उनकी उम्र 15 वर्ष है। अरिन कुमार शुक्ला इस छोटी उम्र मे भी 9 पुस्तकों का लेखन कर चुके है। उनकी सभी पुस्तके अमेज़न पर विक्रय हो रही है। रीवा गान - बिछिया-बीहड़-महिरा की कल कल मे है, घंटाघर-घोडा चौक की पल पल मे है। बघेली की मीठी सी धानी मे है, विंध्य की हस्ती, पुरानी राजधानी मे है। चचाई-पुरवा-कयोटि की आबरू, विंध्य की उचाइयों से हुई रूबरू। और रीवा की तारीफ मे क्या कहूँ क्या कहूँ। महामृत्युंजय के मंत्रोंच्चारण मे है, राम-हर्षण की स्तुति के कारण मे है। गोविंदगढ़ी के घुमड़ते तालाबों मे है, माँ मैहर मे उमड़ते सैलाबों मे है। बीरबल ने पाया है जिसे, तानसेन ने गाया है जिसे। और रीवा की तारीफ मे क्या कहूँ क्या कहूँ। चिराहुलनाथ स्वामी की ध्वजा मे है, चित्रकूट-गुप्त काशी की रजा मे है। रानी तालाब की मस्त मस्ती मे है, देउर कोठर की मिटती हस्ती मे है। दहाड़ मोहन की हमेशा ज़िंदा रहे, रीवा तारों मे हमेशा चुनिंदा रहे। और रीवा की तारीफ मे क्या कहूँ क्या कहूँ। चित्र दीर्घा इन्हें भी देखें रीवा ज़िला सन्दर्भ मध्य प्रदेश के शहर रीवा ज़िला रीवा ज़िले के नगर
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अलवर भारत के राजस्थान राज्य का एक नगर है।अलवर नगर दिल्ली से 150 किमी  दक्षिण में और जयपुर से 150 किमी उत्तर में स्थित है। यह भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आता है व राजस्थान में अलवर जिले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। अलवर कई किलों, झीलों, हेरिटेज हवेलियों और प्रकृति भंडार के साथ पर्यटन का एक केंद्र है । यह नगर राजस्थान के जयपुर अंचल के अंतर्गत आता है। दिल्ली के निकट होने के कारण यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल है। राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब १६० कि॰मी॰ की दूरी पर है। अलवर अरावली की पहाडियों के मध्य में बसा है। अलवर के प्राचीन नाम 'मत्स्यनगर', 'अरवलपुर', 'उल्वर', ' शालवापुर', 'सलवार', 'हलवार ' रहे हैं। यह चारदीवारी और खाई से घिरे नगर में एक पर्वतश्रेणी की पृष्ठभूमि के सामने शंक्वाकार छन्द की पहाड़ी पर स्थित बाला क़िला इसकी विशिष्टता है। 1775 में इसे अलवर रजवाड़े की राजधानी बनाया गया था। वर्तमान में अलवर राजस्थान का महत्त्वपूर्ण औधोगिक नगर हैं तथा आठवाँ बड़ा नगर हैं। अलवर को राजस्थान का सिंह द्वार भी कहते हैं। अलवर अहीर (यादव) बाहुल्य जिला है। अलवर क्षेत्र का इतिहास अलवर एक ऐतिहासिक नगर है और इस क्षेत्र का इतिहास महाभारत से भी अधिक पुराना है। लेकिन महाभारत काल से इसका क्रमिक इतिहास प्राप्त होता है। महाभारत युद्ध से पूर्व यहाँ राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। राजा विराट ने अपनी पिता की मृत्यु हो जाने के बाद मत्स्यपुरी से ३५ मील पश्चिम में विराट (अब बैराठ) नामक नगर बसाकर इस प्रदेश की राजधानी बनाया। इसी विराट नगरी से लगभग ३० मील पूर्व की ओर xxxx video स्थित पर्वतमालाओं के मध्य सरिस्का में पाण्डवों ने अज्ञातवास के समय निवास किया था। तीसरी शताब्दी के आसपास यहाँ प्रतिहार वंशीय क्षत्रियों का अधिकार हो गया। इसी क्षेत्र में राजा बाधराज ने मत्स्यपुरी से ३ मील पश्चिम में एक नगर तथा एक गढ़ बनवाया। वर्तमान राजगढ़ दुर्ग के पूर्व की ओर इस पुराने नगर के चिह्न अब भी दृष्टिगत होते हैं। पाँचवी शताब्दी के आसपास इस प्रदेश के पश्चिमोत्तरीय भाग पर राज ईशर चौहान के पुत्र राजा उमादत्त के छोटे भाई मोरध्वज का राज्य था जो सम्राट पृथ्वीराज से ३४ पीढ़ी पूर्व हुआ था। इसी की राजधानी मोरनगरी थी जो उस समय साबी नदी के किनारे बहुत दूर तक बसी हुई थी। इस बस्ती के प्राचीन चिह्न नदी के कटाव पर अब भी पाए जाते हैं। छठी शताब्दी में इस प्रदेश के उत्तरी भाग पर भाटी क्षत्रियों का अधिकार था। राजौरगढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि सन् ९५९ में इस प्रदेश पर गुर्जर प्रतिहार वंशीय सावर के पुत्र मथनदेव का अधिकार था, जो कन्नौज के भट्टारक राजा परमेश्वर क्षितिपाल देव के द्वितीय पुत्र श्री विजयपाल देव का सामन्त था। पृथ्वीराज चौहान और मंगल निकुम्भ ने ब्यावर के राजपूतों की लड़कियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। सन् १२०५ में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चौहानों से यह देश छीन कर पुन: निकुम्भ राजपूतों को दे दिया। १ जून १७४० रविवार को मौहब्बत सिंह की रानी बख्त कुँवर ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रताप सिंह रखा गया। इसके पश्चात् सन् १७५६ में मौहब्बत सिंह बखाड़े के युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। राजगढ़ में उसकी विशाल छतरी बनी हुई है। मौहब्बत सिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र प्रतापसिंह ने १७७५ ई. को अलवर राज्य की स्थापना की। अलवर को मेव नाहर खा के वंसज अलावल खां ने अपनी राजधानी बनाया था, उसके नाम पर ही इसका नाम अलवर पडा! ब्रिटिश गैज़ेटर के अनुसार अलवर का क्षेत्र इन निम्नलिखित मुस्लिम शाखाओ के प्रभुत्व के अनुसार बटा हुआ था। 1. वई क्षेत्र - इस क्षेत्र पर शेखावत राजपूतो का प्रभुत्व था आज का थाना गाज़ी का क्षेत्र कहलाता है। 2. नरुखंड़ - इस क्षेत्र पर नरुका और राजावत राजपूतो का प्रभुत्व हुआ करता था। अलवर के सभी राजा इस क्षेत्र से थे और इस क्षेत्र के अधिकांस युवा फौज बन कर देश की सेवा कर रहे हैं 3. मेवात क्षेत्र - इस क्षेत्र पर मेव जाति(मुस्लिम), मेव जाति अधिक पाई जाती है। । मेवो में जाट राजपूत समेत मिणाओ का मिश्रण है। राजा नाहर खां के वंसजो का काफी समय तक अलवर पर शासन रहा। हसन खां मेवाती इनमे प्रमुख नाम है। जिन्होंने अलवर के किले का निर्माण कराया। राणा सांगा के साथ मिलकर खानवा के मेदान पर बाबर से टकराया और 12 हजार मेवो के साथ शहीद हो गया। सन 1716 में सौंख के एक शक्तिशाली जाट राजा हठी सिंह तोमर ने संपूर्ण मेवात क्षेत्र को जीतकर मुगल सत्ता का दमन किया और हिंदुओं की रक्षा करी । राजा हठी सिंह ने ब्रज से मुगलों को जड़ से समाप्त कर दिया था । अलवर के पर्यटन स्थल पूरे अलवर को एक दिन में देखा जा सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं, कि अलवर में देखने लायक ज्यादा कुछ नहीं है। अलवर ऐतिहासिक इमारतों से भरा पड़ा है। यह दीगर बात है कि इन इमारतों के उत्थान के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है। इसका जीता जागता उदाहरण है नगर की सिटी पैलेस इमारत। इस पूरी इमारत पर सरकारी दफ्तरों का कब्‍जा है, कहने मात्र के लिए इसके एक तल पर संग्राहलय बना दिया गया है, विजय मंदिर पैलेस पर अधिकार को लेकर कानूनी लडाई चल रही है। इसी झगडे के कारण यह बंद पड़ा है, बाला किला पुलिस के अधिकार में है। फतहगंज के मकबरे की स्थिति और भी खराब है, सब कुछ गार्डो के हाथों में है, वे चाहें तो आपको घूमने दें, या मना कर दें। घूमने के लिहाज से अलवर की स्थिति बहुत सुविधाजनक नहीं, पर अलवर का सौन्दर्य पर्यटकों को बार-बार यहां आने के लिए प्रेरित करता है। यह गुज्जर किला है। फतहगंज गुम्बद फतहगंज का मकबरा पाँच मंजिला है और दिल्ली में स्थित अपनी समकालीन सभी इमारतों में सबसे उच्च कोटि का है। खूबसूरती के मामले में यह हूमाँयु के मकबरे से भी सुन्दर है। यह भरतपुर रोड के नजदीक, रेलवे लाइन के पार पूर्व दिशा में स्थित है। यह मकबरा एक बगीचे के बीच में स्थित है और इसमें एक स्कूल भी है। यह प्राय ९ बजे से पहले भी खुल जाता है। इसे देखने के बाद रिक्शा से मोती डुंगरी जा सकते हैं। मोती डुंगरी का निर्माण १८८२ में हुआ था। यह १९२८ तक अलवर के शाही परिवारों का आवास रहा। महाराजा जयसिंह ने इसे तुड़वाकर यहां इससे भी खूबसूरत इमारत बनवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने यूरोप से विशेष सामान मंगाया था, लेकिन दुर्भाग्यवश जिस जहाज में सामान आ रहा था, वह डूब गया। जहाज डूबने पर महाराज जयसिंह ने इस इमारत को बनवाने का इरादा छोड़ दिया। इमारत न बनने से यह फायदा हुआ कि पर्यटक इस पहाड़ी पर बेरोक-टोक चढ़ सकते हैं और नगर के सुन्दर दुश्य का आनंद ले सकते हैं। पुर्जन विहार यह एक खूबसूरत बाग है, जिसके बीच में एक बड़ा हरित हाऊस है जिसे शिमला कहा जाता है। महाराज शियोधन सिंह ने १८६८ में इस बगीचे को बनवाया और महाराज मंगल सिंह ने १८८५ में शिमला का निर्माण कराया। इस बगीचे में अनेक छायादार मार्ग हैं और कई फव्वारे लगे हुए हैं। आगे दिया शीर्षक कंपनी बाग़ इसी का वर्णन है। कम्पनी बाग कम्पनी बाग साल के बारह मास खुला रहता है। शिमला (हरित हाउस) में घूमने का समय सुबह 9 से शाम 5 बजे तक है। कम्पनी बाग देखने के बाद आप चर्च रोड की तरफ जा सकते हैं। यहां सेंट एन्ड्रयू चर्च है लेकिन यह अक्सर बंद रहता है। इस रोड के अंतिम छोर पर होप सर्कल है, यह नगर का सबसे व्यस्त स्थान है और यहां अक्सर ट्रैफिक जाम रहता है। इसके पास ही बहुत सारी दुकानें हैं और बीच में ऊपर एक शिव मंदिर है। होप सर्कल से सात सड़के विभिन्न स्थलों तक जाती है। एक घंटाघर तक जाती है जहाँ पर कलाकंद बाजार भी है। एक सड़क त्रिपोलिया गेट से सिटी पैलेस कॉम्पलेक्स तक जाती है। त्रिपोलिया में कई छोटे-मोटे मंदिर हैं। सिटी पैलेस की तरफ जाते हुए रास्ते में सर्राफा बाजार और बजाजा बाजार पड़ते हैं। यह दोनों बाजार अपने सोने के आभूषणों के लिए प्रसिद्ध है। सिटी पैलेस सिटी पैलेस एक खूबसूरत परिसर है: गेट के पीछे एक मैदान में कृष्ण मंदिर हैं। इसके बिल्कुल पीछे मूसी रानी की छतरी और अन्य दर्शनीय स्थल हैं। इस महल का निर्माण १७९३ में राजा बख्तावर सिंह ने कराया था। पर्यटक इसकी खूबसूरती की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। पूरी इमारत में जिलाधीश और पुलिस सुपरिटेण्डेन्ट आदि के सरकारी दफ्तरों का कब्‍जा है। वैसे इस इमारत के सबसे ऊपरी तल पर तीन हॉल्स में विभक्त संग्रहालय भी है जिसे देखने का समय सुबह १० बजे से शाम ५ बजे तक है, शुक्रवार को अवकाश रहता है। पहले हॉल में शाही परिधान और मिट्टी के खिलौने रखे हैं, दूसरे हॉल में मध्य एशिया के अनेक जाने-माने राजाओं के चित्र लगे हुए हैं। इस हॉल में तैमूर से लेकर औरंगज़ेब तक के चित्र लगे हुए हैं। तीसरे हॉल में आयुद्ध सामग्री प्रदर्शित है। इस हॉल का मुख्य आकर्षण अकबर और जहांगीर की तलवारें हैं। इसी संग्रहालय की 'एक मियान में दो तलवार' यहाँ का विशेष आकर्षण है। सिटी पैलेस के बिल्कुल पीछे एक छोटा खूबसूरत जलाशय है, जिसे सागर कहते हैं। इसके चारों तरफ दो मंजिला खेमों का निर्माण किया गया है। तालाब के पानी तक सीढियाँ बनी हैं। इस जलाशय का प्रयोग स्नान के लिए किया जाता था। यहां कबूतरों को दाना खिलाने की परंपरा है। जलाशय के साथ मंदिरों की एक शृंखला भी है। दायीं तरफ राजा बख्तावर सिंह का स्मारक और शहीदों की याद में बना संगमरमर का स्मारक भी है। इसका नाम राजा बख्तावर सिंह की पत्नी मूसी रानी के नाम पर रखा गया है, जो राजा बख्तावर सिंह की चिता के साथ सती हो गई थी। विजय मंदिर झील महल यह खूबसूरत महल १९१८ में बनाया गया था। यह महाराजा जयसिंह का आवास था। इसका ढांचा परंपरागत इमारतों से बिल्कुल अलग है। इसके अंदर एक राम मंदिर भी है। सामने से पूरी तरह दिखाई नहीं देता लेकिन इसके पीछे वाली झील से इस महल का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है। महल को देखने के बाद झील के साथ वाले मार्ग से बाल किला पहुंचा जा सकता है। ऑटो वाले इन दोनों स्थलों तक पहुंचाने के लिए २०० रु लेते हैं। पारिवारिक ङागडे के कारण यह महल आजकल बंद है, यहां पर्यटकों को घूमने की अनुमति नहीं है। बाला किला, अलवर सिटी पैलैस परिसर अलवर के पूर्वी छोर की शान है। इसके ऊपर अरावली की पहाड़ियाँ हैं, जिन पर बाला किला बना है। बाला किले की दीवार पूरी पहाड़ी पर फैली हुई है जो हरे-भरे मैदानों से गुजरती है। पूरे अलवर नगर में यह सबसे पुरानी इमारत है, जो लगभग ९२८ ई० में निकुम्भ राजपूतों द्वारा बनाई गई थी। अब इस किले में देख नहीं सकते, क्योंकि इसमे पुलिस का वायरलैस केन्द्र है। अलवर अन्‍तर्राज्‍यीय बस अड्डे से यहां तक अच्छा सड़क मार्ग है। दोनों तरफ छायादार पेड़ लगे हैं। रास्ते में पत्थरों की दीवारें दिखाई देती हैं, जो बहुत ही सुन्दर हैं। किले में जयपोल के रास्ते प्रवेश किया जा सकता है। यह सुबह ६ बजे से शाम ७ बजे तक खुला रहता है। कर्णी माता का मंदिर इसी के रास्ते में है और श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए यह मंगलवार और शनिवार की रात को ९ बजे तक खुला रहता है। किले में प्रवेश करने के लिए तब पुलिस सुपरिटेण्डेन्ट की अनुमति की आवश्यकता नहीं पडती। पर्यटकों को केवल संतरी के पास रखे रजिस्टर में अपना नाम लिखना होता है। इसके बाद वह किले में घूम सकते हैं। आपातकाल के समय आप पर्यटक सुपरिटेण्डेन्ट के कार्यालय में फोन कर सकते हैं। जय समन्द झील हरी-भरी पहाडियां केवल अलवर में ही नहीं है, इसके पास के इलाकों में भी अनेक खूबसूरत झीलें और पहाडियां हैं। यहां घूमने का सबसे उपयुक्त समय मानसून है। नगर के सबसे करीब जय समन्द झील है। इसका निर्माण अलवर के महाराज जय सिंह ने १९१० में पिकनिक के लिए करवाया था। उन्होंने इस झील के बीच में एक टापू का निर्माण भी कराया था। झील के साथ वाले रोड पर केन से बने हुए घर बड़ा ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यह झील का सबसे सुन्दर नजारा है। जय समन्द रोड बहुत ही परेशान करने वाला है। अत: जय समन्द, सिलीसेड और अलवर घूमने के लिए ऑटो के स्थान पर टैक्सी लीजिए। यह चार-पांच घंटे में आपको अंतर्राज्यीय बस अड्डे से अलवर पहुंचा देगी। इसके लिए टैक्सी वाले पर्यटकों से ४००-५०० रु लेते हैं। झील के पास रूकने की कोई व्यवस्था नहीं है। सिलीसेढ झील सिलीसेड झील अलवर की सबसे प्रसिद्ध और सुन्दर झील है। इसका निर्माण महाराव राजा विनय सिंह ने १८४५ में करवाया था। इस झील से रूपारल नदी की सहायक नदी निकलती है। मानसून में इस झील का क्षेत्रफल बढ़कर १०.५ वर्ग किमी हो जाता है। झील के चारों ओर हरी-भरी पहाडियां और आसमान में सफेद बादल मनोरम दृश्य प्रस्तुत करते हैं। इस झील को राजस्थान का नंदनकानन भी कहते हैं इस झील की भराव क्षमता लगभग २८ फीट हैं। वर्षा ऋतु में यहाँ पर बहुत पर्यटक आते हैं। इस झील के पूर्व दिशा में एक अन्य झील जयसमंद स्थित है। कुंडला कुण्डला गाँव चारों ओर से पर्वत से घिरा हुआ है। यहाँ का दृष्य बहुत हरा-भरा रहता है। इस स्‍थान को गरबा जी भी कहा जाता है । यह स्‍थाना पर्वतारोहियों के लिये भी विख्‍यात है । विभिन्‍न प्रकार की कैडैट्स यहां पर पर्वत रोहण के लिए आते हैं । यहां पर एक झरना भी है । जिसमें नहा कर लोग आनंद की अनुभूति करते हैं । झिलमिलदेह झील अजबगढ दौसा अलवर वाया अजबगढ थानागाजी रोड़ पर यह झील चारों ओर से अरावली श्रृंखलाओं से घिरे अजबगढ बाँध के एकदम निचे ( नहर क्षेत्र में ) स्थित है यहाँ पर एक छोटा सा घाट बना हुआ है जहाँ पर लोग कूद कूद कर नहाने का मोका नहीं गवाँते है। लेकिन वर्तमान में वर्षा के अभाव की वजह से यह झील अपना अस्तित्व बचाने की मुश्किल में है। इस झील के एक तरफ भारत की जानी पहचानी पाँच सीतारा होटल अम्नबाघ होटल है जो विदेशी पर्यटकों को अजबगढ भानगढ की ऐतिहासिक धरा पर बुलाने के लिए विश्व विख्यात है। वर्षाती दिनों में यदि अजबगढ बाँध पूर्ण रूप से भर जाए तो यहाँ का दृश्य मुम्बई और शिमला दोनों के मिश्रण जैसा हो जाता है क्योंकि अजबगढ बाँध समुद्र जैसा दृश्य दिखाने व इसके अन्दर पुरानी छत्तरीयाँ टापू की तरह और बाँध के ऊपरी छोर पर अजबगढ के 27 गुवाड़ा (गाँव) बसे हुए है जिसमें गुवाड़ा बिरकड़ी की सीमाओं में पाँच सीतारा होटल अमनबाग है जो प्रकृति की छँटाओं का आनंद लेने का अनोखा स्थान है। इसके अलावा अलवर में नैहड़ा की छतरी जिसमें मुख्यतः अजबगढ प्रतापगढ व थानागाजी के ऐतिहासिक खण्डर व किले महल शामिल है, ऐतिहासिक नगर भानगढ, पवित्र पूजनिय धाम नारायणी माता व ऋषि पाराशर महाराज का मंदिर है जो एक आस्था के साथ प्रकृति के सोन्द्रय लिय क्षेत्रीय लोगों के दिलों में बसा हुआ है। यहाँ का सुप्रसिद्ध नारायणी माता का मंदिर सती धाम है जिसकी शक्ति का आभास वहाँ जाते ही हो जाता है क्योंकि माँ की शक्ति की वजह से मंदिर के आगे आज भी पवित्र जल धारा बहती है जो नदी नाले से नहीं बल्कि समतल धरा से अपने आप निकल रही है, खास बात यह है कि यह धारा रूकी हुई नहीं बल्कि लगातार गतिशील है राजस्थान में यह धाम श्रद्धा के लिए व मनोकामना के लिए सुप्रसिद्ध है। अलवर की संस्कृति पहनावा अलवर में धोती- कुर्ता तथा साफा (सिर पे पहनने का) पुरुषों का पहनावा है जो कि एक रौबदार पहनावा है। तथा स्त्रीयां लहंगा-लूगड़ी पहनती हैं। संगीत अलवर में भपंग वाद्ययंत्र राजस्थानी लोकगीत की पहचान है। यह मेवाती संगीत संस्कृति की धरोहर है। इस वाद्ययंत्र के उस्ताद जहुर खान मेवाती माने जाते हैं। इनकी कहानी बहुत ही रोचक है। सालों पहले एक दिन मेवाती जी बीडी बेच रहे थे और ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए भपंग बजा रहे थे। उस समय अभिनेता दिलीप कुमार अलवर में शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने मेवाती जी को भपंग बजाते हुए सुन लिया। उनसे प्रभावित होकर दिलीप जी उन्हें बॉलीवुड ले गए। वहां उन्होंने अनेक फिल्मों का पार्श्‍व संगीत तैयार किया जिनमें गंगा-जमुना, नया दौर और आंखे प्रमुख हैं। उन्होंने देश से बाहर भी अपनी कला का प्रदर्शन किया। अब वह अलवर में ही रहे हैं और वहीं भपंग बजाने की शिक्षा देते रहे। भपंग बजाने वाले सभी कलाकार मुस्लिम होते हुए भी शिव भक्त हैं: वह यह मानते हैं कि इस वाद्ययंत्र की उत्पति शिव के डमरू से हुई है। मानसून का जादू मानसून में अलवर की पहाडियां हरियाली से भर जाती हैं, झील पानी से भरी होती हैं और पहाडियों से गिरते जल स्रोत अलवर की निराली छटा पेश करते हैं। अलवर से दक्षिण-पश्चिम की तरफ 45 किलोमीटर दूर तालवृक्ष नाम की जगह है। वर्षा ऋतु के समय यहां घूमने का अपना ही आनंद है। सरिस्का-अलवर रोड पर कुशलगढ से 10 किलोमीटर का रास्ता प्राकतिक सौन्दर्य से भरा पड़ा है। इसी रास्ते पर गंगा-मन्दिर है और गर्म-ठंडे पानी के जलस्त्रोत है। अलवर से 25 किलोमीटर दूर नतनी का बरन गांव हैं। यहां से 6 किलोमीटर दूर नालदेश्वर नामक जगह है। यह दोनों जगह अपनी हरियाली के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर प्राकृतिक रूप से बना हुआ शिवलिंग भी है। सिलीसेड झील से 10 किलोमीटर दूर गर्भ जी और डेहरा गांव के निकट चुहाड सिद्ध नाम के ङारने हैं। इनसे थोडी ही दूरी पर विजय मंदिर पैलेस स्थित है। ठहरने का स्थान अलवर में रूकने के लिए बहुत सारे होटल हैं और यह सस्ते भी हैं। लेकिन इनमें से परिवारों के रूकने के लिए कुछ ही होटल उपयुक्त हैं। अलवर में रूकने के लिए अनेक वैभवशाली होटल भी हैं जहां ज्यादा पैसे देकर अनेक और भव्य सुविधाओं का लाभ लिया जा सकता है। यह सभी होटल अलवर के कुछ किलोमीटर के दायर में ही हैं। विरासत अलवर की सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक विरासत नीमराना-रन द हिल फोर्ट केसरोली अलवर से १२ किमी दूर है। इस किले का निर्माण १४वीं सदी में किया गया था। अब यह एक होटल में बदल चुका है, इसमें २१ कमरें हैं। इन कमरों के नाम बड़े ही राजसी शैली में रखे गए हैं जसे हिंडोला महल और सितारा महल। जब अलवर में पर्यटकों की संख्या कम होती है तो १ मई से ३१ अगस्त तक यहां आने वालों को २०-४० प्रतिशत की छुट दी जाती है। इस समय कमरे को सुबह ९ बजे से शाम ५ बजे तक के लिए किराए पर लिया जा सकता है और इस पर होटल ६० प्रतिशत की छूट भी देता है। होटल ऊंटो की सवारी के लिए भी प्रबन्ध करता है। इसे भारत की सबसे पुरानी ऐतिहासिक विरासत कहा जाता है जहां आप रूक सकते हैं। यह होटल एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इसका परकोटा २१४ फुट ऊंचा है। इसका निर्माण यदुवंशी राजपूतों ने १४वीं सदी में करवाया था। इन यदुवंशी राजाओं ने १४वीं सदी के मध्य में जब फिरोजशाह तुगलक का शासन था तब इस्लाम को अपना लिया था। अलवर से लगभग ७ किलोमीटर दूर होटल बुर्ज हवेली है। यह हवेली अलवर की सबसे नवीन विरासतों में से एक है। इस हवेली को जून २००५ में होटल में परिवर्तित का दिया गया। यह २४० वर्ष पुरानी है और अलवर-राजगढ मार्ग पर बुर्ज गांव में स्थित है। इस होटल में सभागार, तरणताल और रेस्तरां आदि सुविधाएं दी जाती है। इसके अलावा यहां पर राजस्थानी, भारतीय, चाइनीज और कॉन्टिनेंटल व्यंजन परोसे जाते हैं। इनके अलावा सर्किट हाऊस भी एक विकल्प है जहां पर ठहरा जा सकते हैं। यह महाराज जयसिंह की विरासत है, सर्किट हाऊस अलवर की दक्षिण दिशा में रघु मार्ग और नेहरू मार्ग के बीच में स्थित है। यहां ठहरने के लिए आपको जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति की आवश्यकता पडती है। अनुमति प्राप्त करने के लिए आपको जिला मजिस्ट्रेट को फैक्स करना होता है। इसका फैक्स न. है २३३६१०१, टेलिफोन न. है २३३७५६५, इसके अलावा सिलीसेड में आर.टी.डी.सी. का होटल लेक पैलेस भी अच्छा विकल्प है। इसके अलावा और भी विकल्प है। खानपान नगर में खाने के बहुत सारे विकल्प है। बेकरी की कुछ दुकानें है लेकिन वहां पर केवल आईसक्रीम, पेस्ट्री और पिज्जा ही मिलते हैं। जिनका सेवन सब लोग नहीं कर सकते। नगर में बहुत से अच्छे रेस्तरां है।जिनमें से एक है प्रेम पवित्र भोजनालय। यह अपने राजस्थानी व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध है विशेष तौर पर पालक पनीर कढी-पकौडी, गट्टे की सब्‍जी और मिस्सी रोटी के लिए। भोजन की विविधता इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप कहां ठहरते हैं। मोती डुंगरी बस टर्मिनल के पास अच्छे भोजनालय है। यहां पर अनेक व्यंजनों का आनंद लिया जा सकता है। इन सबके अलावा अलवर का मिल्क केक भी बहुत प्रसिद्ध है। स्थानीय लोग इसे कलाकंद के नाम से पुकारते हैं। कलाकंद के लिए ठाकुर दास एण्ड सन्स की दुकान पूरे अलवर नगर में प्रसिद्ध है।अलवर का कलाकंद पूरे देश में बहुत पसंद किया जाता है। खरीदारी फोर्ट-पैलेस की अपनी दुकान है। इसका नाम नीमराना शॉप है। इस दुकान पर आप कपड़े, मोमबत्तियां आदि वस्तुएं खरीद सकते हैं। फोर्ट पैलेस के बिल्कुल नीचे दो दुकानें हैं। एक का नाम अमिका आर्टस है और दूसरी का श्याम सिल्वर क्राफ्ट। इन दुकानों से राजस्थानी स्मारिकाओं की खरीदारी की जा सकती है। अगर आप परंपरागत आभूषणों की खरीदारी करना चाहते हैं तो पुराने बाजार चले जाइए। यहां ३५-४० दुकानें हैं। यहां से मनपसंद आभूषणों की खरीदारी की जा सकती हैं। इन दुकानों की हाथ की बनी हुई पायल बहुत ही प्रसिद्ध है। स्थिति अलवर राजस्थान के उतर-पूर्व में अरावली की पहाडियों के बीच में स्थित है और दिल्ली के पास है। दूरी अलवर जयपुर से १४८ किलोमीटर और दिल्ली से १५६ किलोमीटर दूर है। यात्रा में लगने वाला समय: जयपुर से तीन घंटे, दिल्ली से साढे तीन घंटे मार्ग जयपूर से राष्ट्रीय राजमार्ग ८ द्वारा शाहपूरा और अमेर होते हुए अलवर पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग ८ द्वारा धारूहेडा और मानेसर होते हुए अलवर पहुंचा जा सकता है। भ्रमण समय अलवर घूमने के लिए सबसे अच्छा मौसम अक्टूबर से मार्च का है लेकिन मानसून के समय भी अलवर घूमने जाया जा सकता है। उस समय अलवर की छटा देखने लायक होती है। आवागमन वायु मार्ग अलवर के सबसे नजदीक हवाई अड्डा सांगनेर है। यहां से अलवर पहुंचाने के लिए टैक्सी वाले ७००-८०० रू लेते हैं। रेल मार्ग रेलमार्ग द्वारा भी आसानी से अलवर पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से दिल्ली-जयपुर, अजमेर-शताब्दी, जम्मू-दिल्ली और दिल्ली-जैसलमेर एक्सप्रेस द्वारा आसानी से अलवर रेलवे स्टेशन पहुंचा जा सकता है। यहां से आगे की यात्रा आप टैक्सी द्वारा कर सकते हैं। अगर आपने होटल में आरक्षण करवा रखा है तो होटल की गाडी आपको स्टेशन पर लेने आएगी। सडक मार्ग दिल्ली से अलवर (राष्ट्रीय राजमार्ग ८ से) धारूहेडा पहुँच कर बाएं भिवाडी की ओर मुडिए, थोड़ा आगे दायें भिवाडी-अलवर टोल मार्ग से आसानी से अलवर पहुंचा जा सकता है। टॉल रोड पर चलने के लिए राजस्व नहीं देना पड़ता है। दिल्ली से गुड़गाँव, सोहना, फिरोजपुर झिरका, नौगाँव होकर भी अलवर पहुंचा जा सकता है। हालांकि यह दोनों राष्ट्रीय राजमार्ग नहीं हैं, पर दोनों ही मार्ग अब अच्छे हैं। दोनों ही से दूरी लगभग समान १६० कि॰मी॰है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ राजस्थान में अलवर का अतीत भी बड़ा भव्य है (प्रभासाक्षी) अलवर अलवर ज़िला अलवर ज़िले के नगर
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कालाहांडी उड़ीसा के कलाहान्डी जिले का एक शहर है। ओड़िशा का वर्तमान कलाहान्डी जिला प्राचीन काल में दक्षिण कोसल का हिस्सा था। आजादी के बाद इसे ओड़िशा में शामिल कर लिया गया। उत्तर दिशा से यह नवपाडा और बालंगीर, दक्षिण में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और पूर्व में बूध एवं रायगढ़ जिलों से घिरा हुआ है। पूर्वी सीमा पर स्थित भवानीपटना जिला मुख्यालय है। 8197 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस जिले में जूनागढ़, करलापट, खरियर, अंपानी, बेलखंडी, योगीमठ और पातालगंगा आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। आकर्षण अमाथागुडा अमाथागुडा किला तेल नदी के दाएं तट पर स्थित है। यह क्षतिग्रस्त किला कितना पुराना है और कब बना था, इस बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन इसकी स्थिति देखकर इतना जरूर कहा जा सकता है कि इसका अपने काल में बहुत अधिक सामरिक महत्व रहा होगा। किले के निकट ही तेल नदी पर एक पुराना पुल बना है। पुल से कुछ मीटर दूर एक नया पुल है जिसका एक हिस्सा 1977 में तेल नदी में आने वाली बाढ़ से बह गया था। असुरगढ़ किला असुरगढ़ के बाहरी हिस्से में स्थित इस किले के बारे में कहा जाता है कि एक जमाने में यह गोसिंहा दैत्य का निवास स्थल था। इस असुर के कारण ही इस स्थान का नाम असुरगढ़ पड़ा था। त्रिभुजाकार में बना यह किला वर्तमान में क्षतिग्रस्त अवस्था में है। इसके पूर्वी द्वार पर देवी गंगा को समर्पित एक मंदिर बना हुआ है। इसी प्रकार अन्य द्वारों पर काला पहाड़, वैष्णवी और बुद्धराजा को समर्पित मंदिर बने हुए हैं। किले के भीतर देवी डोकरी मंदिर है। देवी डोकरी किले की मुख्य देवी है। असुरगढ़ जिला मुख्यालय भवानीपटना से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। श्री रामकृष्ण आश्रम यह आश्रम कालाहांडी के मदनपुर-रामपुर ब्लॉक में स्थित है। आश्रम में रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्‍नी शारदामनी देवी व स्वामी विवेकानंद के विचारों की शिक्षा दी जाती है। आश्रम में बताया जाता है कि किस प्रकार मोक्ष प्राप्त किया जाए और जनसमुदाय के कल्याण हेतु किस प्रकार कार्य किया जाए। आश्रम दो हिस्सों में बंटा हुआ है। मुख्य आश्रम में एक मंदिर, आदिवासी छात्रों का हॉस्टल, वृद्धाश्रम, डिस्पेंसरी, पुस्तकालय और साधुओं और कर्मचारियों के लिए कमरे बने हुए हैं। आश्रम ध्यान लगाने के लिए एक आदर्श स्थान है। जूनागढ़ कालाहांडी से 26 किलोमीटर दूर स्थित जूनागढ़ एक जमाने में कालाहांडी रियासत की राजधानी थी। यह स्थान अपने किले और मंदिरों के लिए खासा चर्चित है। यहां के मंदिरों में उडिया भाषा में अनेक अभिलेख खुदे हुए हैं। सती स्तंभ यहां का मुख्य आकर्षण है। जूनागढ़ राउरकेला से 180 किलोमीटर दूर है और भुवनेश्वर में यहां का करीबी एयरपोर्ट है। बेलखंडी यह स्थान तेल और उत्तेई नदी के संगम पर स्थित है। यह स्थान धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ पुरातत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां होने वाली खुदाई से 12वीं शताब्दी की एक इमारत का पता चला है। साथ ही सप्‍त मातृका और उमाशंकर महेश्वर की प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई हैं। इस स्थान से प्राप्त अनेक बहुमूल्य और प्राचीन वस्तुओं को मंदिर परिसर के साथ बने एक संग्रहालय में रखा गया है। बेलखंडी भवानीपटना से 67 किलोमीटर की दूरी पर है। अंपानी जिला मुख्यालय से 77 किलोमीटर दूर स्थित अंपानी हिल्स से प्रकृति के सुंदर नजार देखे जा सकते हैं। यहां का जंगली वातावरण पर्यटकों को काफी लुभाता है। यहां की हलादीगुंदी घाटी पहाड़ियों की सुंदरता को और बढ़ा देती है। हिरण, सांभर, पेंथर आदि जानवरों को यहां उन्मुक्त विचरण करते हुए देखा जा सकता है। अंपानी से 5 किलोमीटर दूर स्थित गुडाहांडी में प्रागैतिहासिक कालीन गुफाओं को देखा जा सकता है। फुरली झरना यह खूबसूरत झरना भवानीपटना से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 30 फीट की ऊंचाई से गिरते इस झरने का जल बेहद आकर्षक प्रतीत होता है। झरने के चारों तरफ की हरियाली इसे पिकनिक के लिए एक बेहतरीन जगह बनाती है। आवागमन वायु मार्ग जिला मुख्यालस से 25 किलोमीटर दूर उत्केला में एक वायुपट्टी है। भुवनेश्वर एयरपोर्ट यहां से 418 किलोमीटर की दूरी पर है। रेल मार्ग दक्षिण पूर्व रेलवे का राजपुर-विजियानगरम ब्रोड गैज रेलमार्ग इस जिले के 5 रेलवे स्टेशनों को देश के अनेक हिस्सों से जोड़ता है। रायपुर, विजियानगर, राउरकेला, बालांगीर, संभलपुर, केसिंगा, नरला रोड और खरियर रोड आदि रेलवे स्टेशनों से कालाहांडी जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग भवानीपटना जिला मुख्यालय राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है। कटक, भुवनेश्वर, राउरकेला, संभलपुर आदि शहरों से यहां के लिए नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Blog of Kalahandia Kalahandia, an e-Group Club Map of Kalahandi Map of Kalahandi Important Phone Numbers Antodaya Kalahandi Indravati Project Sahabhagi Vikash Abhiyan ओड़िशा के शहर भारत की रियासतें कलाहांडी ज़िला
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "कलाहांडी", "token_count": 6079, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%80" }
रेलवे स्टेशन रेलगाड़ियों के रुकने का एवं यात्रियों के लिए ट्रैन या रेल पर चढ़ने उतरने का स्थान होता है।। लौह पथ गामिनी विश्रामालय एक ट्रेन स्टेशन, रेलवे स्टेशन, रेलरोड स्टेशन या डिपो एक रेलवे सुविधा या क्षेत्र है जहां ट्रेनें नियमित रूप से यात्रियों, माल या दोनों को लोड या अनलोड करने के लिए रुकती हैं। इसमें आम तौर पर कम से कम एक प्लेटफॉर्म, एक ट्रैक और एक स्टेशन बिल्डिंग होती है जो टिकट बिक्री, प्रतीक्षा कक्ष और सामान / माल सेवा जैसी सहायक सेवाएं प्रदान करती है। यदि कोई स्टेशन सिंगल-ट्रैक लाइन पर है, तो ट्रैफिक की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने के लिए इसमें अक्सर एक पासिंग लूप होता है। ऐसे स्थान जहां यात्री कभी-कभी ट्रेन में चढ़ते या छोड़ते हैं, कभी-कभी एक छोटा प्लेटफॉर्म और एक प्रतीक्षा शेड होता है, लेकिन कभी-कभी एक संकेत से अधिक नहीं दर्शाया जाता है, उन्हें विभिन्न रूप से "स्टॉप", "फ्लैग स्टॉप", "हॉल्ट्स" कहा जाता है। या "अनंतिम रुकने वाले स्थान"। स्टेशन जमीनी स्तर पर, भूमिगत या ऊंचे हो सकते हैं। रेल लाइनों या अन्य परिवहन साधनों जैसे बसों, ट्रामों या अन्य रैपिड ट्रांजिट सिस्टम को इंटरसेक्ट करने के लिए कनेक्शन उपलब्ध हो सकते हैं। सन्दर्भ रेलवे Railway Station को हिंदी में क्या कहते हैं? रेलवे स्टेशन को हिंदी में "लौह पथ गामिनी विराम बिंदु" और "लौह पथ गामिनी विश्राम स्थल" कहा जाता है। देशी भाषा में इसे कई बार "रेलगाड़ी पड़ाव स्थल" भी कहा जाता है। रेलवे का इतिहास (Railway’s History) भारतीय रेलवे का इतिहास बहुत प्राचीन है और यह देश की विकास की गति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रेलवे का विकास 16 वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुआ था। 1853 में भारत की पहली रेलगाड़ी बॉम्बे (आज के मुंबई) और ठाणे के बीच 34 किलोमीटर की दूरी पर चलने लगी। इस रेलगाड़ी का नाम "विक्टोरिया" रखा गया था। इसके बाद, अन्य शहरों में भी रेलवे लाइनें बनीं और रेलगाड़ियां चलने लगीं। यह ब्रिटिश शासनकाल में रेलवे का निर्माण मुख्य रूप से व्यापार, शिक्षा, स्थानीय प्रशासन और सेना की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से हुआ। रेलवे ने लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए, उन्हें अधिक यात्रा सुविधाएं प्रदान कीं और व्यापार को बढ़ावा दिया। समय के साथ, रेलवे का नेटवर्क और रेलगाड़ीयों की संख्या बढ़ती गई। नई लाइनें खोली गईं और अधिक शहरों को रेलवे से जोड़ा गया। भारतीय रेलवे ने तकनीकी उन्नति की और इलेक्ट्रिक इंजनों का उपयोग किया। आज, भारतीय रेलवे विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है जिसमें लाखों किलोमीटरों की लंबाई पर रेलगाड़ियां चलती हैं। रेलवे के माध्यम से लोग दूर दराज के स्थानों तक जा सकते हैं और अपने लक्ष्यों को पूरा कर सकते हैं। भारतीय रेलवे ने अपनी सेवाएं और सुविधाएं भी मोडर्नीज़ेशन की हैं। ऑनलाइन टिकट बुकिंग, मोबाइल एप्लिकेशन, इलेक्ट्रॉनिक बोर्डिंग पास जैसी तकनीकी सुविधाएं लागू की गई हैं। इस प्रकार, भारतीय रेलवे का इतिहास एक गर्वनिदेश है जो देश के परिवहन के क्षेत्र में विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
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राँची एक्सप्रेस झारखंड प्रान्त से प्रकाशित हिन्दी दैनिक है। बाहरी कड़ियाँ समाचार पत्र
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हॉङ्कॉङ (), आधिकारिक तौर पर हॉङ्कॉङ विशेष प्रशासनिक क्षेत्र है इसके उत्तर में गुआङ्दोङ और पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में दक्षिण चीन सागर मौजूद है। हॉङ्कॉङ एक वैश्विक महानगर और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र होने के साथ-साथ एक उच्च विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। "एक देश, दो नीति" के अंतर्गत और बुनियादी कानून के अनुसार, इसे सभी क्षेत्रों में "उच्च स्तर की स्वायत्तता" प्राप्त है, केवल विदेशी मामलों और रक्षा को छोड़कर, जो जनवादी गणराज्य चीन सरकार की जिम्मेदारी है। हॉङ्कॉङ की अपनी मुद्रा, कानून प्रणाली, राजनीतिक व्यवस्था, अप्रवास पर नियंत्रण, सड़क के नियम हैं और मुख्य भूमि चीन से अलग यहां की रोजमर्रा के जीवन से जुड़े विभिन्न पहलु हैं। एक व्यापारिक बंदरगाह के रूप में आबाद होने के बाद हॉङ्कॉङ १८४२ में यूनाइटेड किंगडम का विशेष उपनिवेश बन गया। १९८३ में इसे एक ब्रिटिश निर्भर क्षेत्र के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया गया। १९९७ में जनवादी गणराज्य चीन को संप्रभुता हस्तांतरित कर दी गई। अपने विशाल क्षितिज और गहरे प्राकृतिक बंदरगाह के लिए प्रख्यात, इसकी पहचान एक ऐसे महानगरीय केन्द्र के रूप में बनी जहां के भोजन, सिनेमा, संगीत और परंपराओं में जहां पूर्व में पश्चिम का मिलन होता है। शहर की आबादी ९५% हान जाति के और अन्य ५% है। ७० लाख लोगों की आबादी और १,०५४ वर्ग किमी (४०७ वर्ग मील) जमीन के साथ हॉङ्कॉङ दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। इतिहास हॉङ्ग कॉङ्ग को ब्रिटेन से चीन ने सन् १८४३ मे खरीदा गया था। चीन ने हॉङ्ग कॉङ्ग को ब्लैक वार जीतने के बाद लिया था। उसके बाद न्यू कोव लंच और लैंडो ने उसे ९९ वर्ष कि लीस पर छोड़ा था। उसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान ने उसे ले लिया था। बाद मे जापानी सैनिक मारे गये थे। जापान हार गया था व हॉङ्ग कॉङ्ग मे क्रांति आ गयी थी। चीन में, युद्ध के बाद, कुओमिंटैंग और कम्युनिस्ट हॉङ्ग कॉङ्ग प्रवासन के खिलाफ लड़े थे। बाद में कई कम्युनिस्ट सरकार में हॉङ्ग कॉङ्ग स्थानांतरित हो गया। १९ दिसंबर, १९८४ को चीन और ब्रिटेन के बीच हांगकांग ट्रांसफर एक्सचेंज (चीन-ब्रिटिश संयुक्त घोषणा) पर हस्ताक्षर किए गए। हॉङ्ग कॉङ्ग में हिंसक प्रदर्शनों और शांति का दौर खत्म होता नहीं दिख रहा है। विवादित प्रत्यर्पण बिल विरोध से शुरू हुए इन प्रदर्शनों को दो महीने से ज्यादा का वक्त हो का है। अब लोग लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं। दो दिन से प्रदर्शनकारियों हॉङ्ग कॉङ्ग एयरपोर्ट को अपने कब्जे में ले रखा है। उधर चीन की सरकार प्रदर्शनकारियों की निंदा की है और यह भी कहा है कि वह चुप नहीं बैठेगा। हालांकि, यह सब ऐसे ही नहीं हो रहा है। इसमें कई महत्वपूर्ण प्रसंग हैं, जो दशकों पुराने हैं। ९९ साल की लीज पर किया गया था चीन के हवाले वास्तव में, हॉङ्ग कॉङ्ग अन्य चीनी शहरों से काफी अलग है। १५० साल के ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के बाद हॉङ्ग कॉङ्ग को ९९ साल की लीज पर चीन को सौंप दिया गया। हॉङ्ग कॉङ्ग द्वीप पर १८४२ से ब्रिटेन का नियंत्रण रहा। जबकि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान का इस पर अपना नियंत्रण था। यह एक व्यस्त व्यापारिक बंदरगाह बन गया और १९५० में विनिर्माण का केंद्र बनने के बाद इसकी अर्थव्यवस्था में बड़ा उछाल आया। चीन में अस्थिरता, गरीबी या उत्पीड़न से भाग रहे लोग इस क्षेत्र की ओर रुख करने लगे। १९८४ में हुआ था सौदा पिछली सदी के आठवें दशक की शुरुआत में जैसे-जैसे ९९ साल की लीज की समयसीमा पास आने लगी ब्रिटेन और चीन ने हॉङ्ग कॉङ्ग के भविष्य पर बातचीत शुरू कर दी। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने तर्क दिया कि हॉङ्ग कॉङ्ग को चीनी शासन को वापस कर दिया जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने १९८४ में एक सौदा किया कि एक देश, दो प्रणाली के सिद्धांत के तहत हॉङ्ग कॉङ्ग को १९९७ में चीन को सौंप दिया जाएगा। इसका मतलब यह था कि चीन का हिस्सा होने के बाद भी हॉङ्ग कॉङ्ग ५० वर्षों तक विदेशी और रक्षा मामलों को छोड़कर स्वायत्तता का आनंद लेगा। विवाद की जड़ १९९७ में जब हॉङ्ग कॉङ्ग को चीन के हवाले किया गया था तब बीजिंग ने एक देश-दो व्यवस्था की अवधारणा के तहत कम से कम २०४७ तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी व्यवस्था को बनाए रखने की गारंटी दी थी। लेकिन २०१४ में हांगकांग में ७९ दिनों तक चले अंब्रेला मूवमेंट के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों पर चीनी सरकार कार्रवाई करने लगी। विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों को जेल में डाल दिया गया। आजादी का समर्थन करने वाली एक पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बीजिंग का कब्जा हॉङ्ग कॉङ्ग का अपना कानून और सीमाएं हैं। साथ ही खुद की विधानसभा भी है। लेकिन हांगकांग में नेता, मुख्य कार्यकारी अधिकारी को १,२०० सदस्यीय चुनाव समिति चुनती है। समिति में ज्यादातर बीजिंग समर्थक सदस्य होते हैं। क्षेत्र के विधायी निकाय के सभी ७० सदस्य, विधान परिषद, सीधे हॉङ्ग कॉङ्ग के मतदाताओं द्वारा नहीं चुने जाते हैं। बिना चुनाव चुनी गईं सीटों पर बीजिंग समर्थक सांसदों का कब्जा रहता है। चीनी पहचान से नफरत हॉङ्ग कॉङ्ग में ज्यादातर लोग चीनी नस्ल के हैं। चीन का हिस्सा होने के बावजूद हॉङ्ग कॉङ्ग के अधिकांश लोग चीनी के रूप में पहचान नहीं रखना चाहते हैं। खासकर युवा वर्ग। केवल ११ फीसद खुद को चीनी कहते हैं। जबकि ७१ फीसद लोग कहते हैं कि वे चीनी नागरिक होने पर गर्व महसूस नहीं करते हैं। यही कारण है कि हॉङ्ग कॉङ्ग में हर रोज आजादी के नारे बुलंद हो रहे हैं और प्रदर्शनकारियों ने चीन समर्थित प्रशासन की नाक में दम कर रखा है। हॉङ्गकॉङ्ग में हिंसक प्रदर्शनों और शांति का दौर खत्म होता नहीं दिख रहा है। विवादित प्रत्यर्पण बिल विरोध से शुरू हुए इन प्रदर्शनों को दो महीने से ज्यादा का वक्त हो का है। अब लोग लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं। दो दिन से प्रदर्शनकारियों हॉङ्ग कॉङ्ग विमानपत्तन को अपने कब्जे में ले रखा है। उधर चीन की सरकार प्रदर्शनकारियों की निंदा की है और यह भी कहा है कि वह चुप नहीं ठेगा। हालांकि, यह सब ऐसे ही नहीं हो रहा है। इसमें कई महत्वपूर्ण प्रसंग हैं, जो दशकों पुराने हैं। ९९ साल की लीज पर किया गया था चीन के हवाले वास्तव में, हॉङ्ग कॉङ्ग अन्य चीनी शहरों से काफी अलग है। १५० साल के ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के बाद हॉङ्ग कॉङ्ग को ९९ साल की लीज पर चीन को सौंप दिया गया। हॉङ्ग कॉङ्ग द्वीप पर १८४२ से ब्रिटेन का नियंत्रण रहा। जबकि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान का इस पर अपना नियंत्रण था। यह एक व्यस्त व्यापारिक बंदरगाह बन गया और १९५० में विनिर्माण का केंद्र बनने के बाद इसकी अर्थव्यवस्था में बड़ा उछाल आया। चीन में अस्थिरता, गरीबी या उत्पीड़न से भाग रहे लोग इस क्षेत्र की ओर रुख करने लगे। १९८४ में हुआ था सौदा पिछली सदी के आठवें दशक की शुरुआत में जैसे-जैसे ९९ साल की लीज की समयसीमा पास आने लगी ब्रिटेन और चीन ने हॉङ्ग कॉङ्ग के भविष्य पर बातचीत शुरू कर दी। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने तर्क दिया कि हॉङ्ग कॉङ्ग को चीनी शासन को वापस कर दिया जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने १९८४ में एक सौदा किया कि एक देश, दो प्रणाली के सिद्धांत के तहत हॉङ्ग कॉङ्ग को १९९७ में चीन को सौंप दिया जाएगा। इसका मतलब यह था कि चीन का हिस्सा होने के बाद भी हॉङ्ग कॉङ्ग ५० वर्षों तक विदेशी और रक्षा मामलों को छोड़कर स्वायत्तता का आनंद लेगा। विवाद की जड़ १९९७ में जब हॉङ्ग कॉङ्ग को चीन के हवाले किया गया था तब बीजिंग ने एक देश-दो व्यवस्था की अवधारणा के तहत कम से कम २०४७ तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी व्यवस्था को बनाए रखने की गारंटी दी थी। लेकिन २०१४ में हॉङ्ग कॉङ्ग में ७९ दिनों तक चले अंब्रेला मूवमेंट के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों पर चीनी सरकार कार्रवाई करने लगी। विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों को जेल में डाल दिया गया। आजादी का समर्थन करने वाली एक पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बीजिंग का कब्जा हॉङ्ग कॉङ्ग का अपना कानून और सीमाएं हैं। साथ ही खुद की विधानसभा भी है। लेकिन हांगकांग में नेता, मुख्य कार्यकारी अधिकारी को १,२०० सदस्यीय चुनाव समिति चुनती है। समिति में ज्यादातर बीजिंग समर्थक सदस्य होते हैं। क्षेत्र के विधायी निकाय के सभी ७० सदस्य, विधान परिषद, सीधे हॉङ्ग कॉङ्ग के मतदाताओं द्वारा नहीं चुने जाते हैं। बिना चुनाव चुनी गईं सीटों पर बीजिंग समर्थक सांसदों का कब्जा रहता है। चीनी पहचान से नफरत हॉङ्ग कॉङ्ग में अधिकतर लोग चीनी नस्ल के हैं। चीन का हिस्सा होने के बावजूद हॉङ्ग कॉङ्ग के अधिकांश लोग चीनी के रूप में पहचान नहीं रखना चाहते हैं। खासकर युवा वर्ग। केवल ११ फीसद खुद को चीनी कहते हैं। जबकि ७१ फीसद लोग कहते हैं कि वे चीनी नागरिक होने पर गर्व महसूस नहीं करते हैं। यही कारण है कि हॉङ्ग कॉङ्ग में हर रोज आजादी के नारे बुलंद हो रहे हैं और प्रदर्शनकारियों ने चीन समर्थित प्रशासन की नाक में दम कर रखा है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ चीन हॉङ्ग कॉङ्ग के साथ अपनी सीमा मिटा रहा है चीनी जनवादी गणराज्य के विशेष प्रशासनिक क्षेत्र हाँगकाँग
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भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थित बरेली जनपद राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तक के राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचों-बीच स्थित है। प्राचीन काल से इसे बोलचाल में बांस बरेली का नाम दिया जाता रहा और अब यह बरेली के नाम से ही पहचाना जाता है। इस जनपद का शहर महानगरीय है। यह उत्तर प्रदेश में आठवां सबसे बड़ा नगर और भारत का ५०वां सबसे बड़ा शहर है। बरेली उत्तराखंड राज्य से सटा जनपद है। इसकी बहेड़ी तहसील उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर की सीमा के निकट है।रामगंगा नदी के तट पर बसा यह शहर प्राचीन रुहेलखंड का राजधानी मुख्यालय रहा है। बरेली का राज्य दर्जा प्राप्त महात्मा ज्योतिबा फूले रुहेलखंड विश्विद्यालय होने की वजह से उच्च शिक्षा के लिए इस विश्वविद्यालय का अधिकार क्षेत्र बरेली और मुरादाबाद मंडल के जिन नौ जिलों तक विस्तारित है, वे जिले ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौर में रुहेलखंड का हिस्सा रहे। ऐसे में आज भी बरेली को रुहेलखंड का मुख्यालय ही माना जाता है।महाभारत काल में बरेली जनपद की तहसील आंवला का हिस्सा पांचाल क्षेत्र हुआ करता था। ऐसे में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व भी है। धार्मिक महत्व के चलते बरेली का खास स्थान है। नाथ सम्प्रदाय के प्राचीन मंदिरों से आच्छादित होने के कारण बरेली को नाथ नगरी भी कहा जाता है। शहर में विश्व प्रसिद्ध दरगाह आला हजरत स्थापित है,जो सुन्नी बरेलवी मुसलमानों की आस्था का प्रमुख केंद्र है।इसलिए बरेली को "बरेली शरीफ"/शहर ए आला हज़रत भी कहते हैं।ख्वाजा क़ुतुब भी यहीँ है। और खानकाह नियाजिया भी इसी शहर में है। राधेश्याम रामायण के प्रसिद्ध रचयिता पंडित राधेश्याम शर्मा कथावाचक इसी शहर के थे। मठ तुलसी स्थल भी इसी शहर में है। देश-प्रदेश के प्राचीन और प्रमुख महाविद्यालयों में शुमार बरेली कॉलेज का भी ऐतिहासिक महत्व है। देश के भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान और भारतीय पक्षी अनुसंधान संस्थान इस शहर के इज्जतनगर में बड़े कैंपस में स्थापित हैं। बॉलीवुड फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री प्रियंका चौपड़ा और पर्दे की कलाकर दिशा पाटनी बरेली से ही हैं।चंदा मामा दूर के...जैसी बाल कविता के रचयिता साहित्यकार निरंकार देव सेवक भी बरेली के ही थे। बरेली पत्रकारिता के शीर्ष स्तम्भ चन्द्रकान्त त्रिपाठी की कर्मस्थली है। वर्तमान में बरेली से संतोष गंगवार सांसद है। संतोष गंगवार 8वी बार सांसद बने है। वही आंवला से विधायक धर्मपाल सिंह यूपी की योगी सरकार में पशुधन कल्याण मंत्री है। इसके अलावा धर्मपाल जी के पास अल्पसंख्यक और हज विभाग भी है। यहां मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार अनूप कुमार मिश्रा है जो पिछले 16 सालो से एबीपी नेटवर्क में कार्य कर रहे है। बरेली में प्रमुख समाचार पत्रों में अमर उजाला, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमृत विचार, आज, जनमोर्चा है। इसके अलावा डिजिटल प्लेटफार्म में दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, स्वाभिमान टीवी, डेली इनसाइडर, न्यूज टुडे नेटवर्क है। बरेली में कई निजी मेडिकल कालेज है। जिसमे श्री राम मूर्ति मेडिकल कालेज, रुहेलखंड मेडिकल कालेज, राजश्री मेडिकल कालेज, गंगाचरण आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज के अलावा बांस मंडी में।सरकारी मेडिकल कालेज भी है। इसके अलावा यहां के मेयर डॉ उमेश गौतम है, जिनका अपना मिशन अस्पताल है और इनवर्तिज यूनिवर्सिटी है। आने वाले वक्त में बरेली को महानगर का दर्जा प्राप्त होगा। बरेली शहर कि जनसंख्या करीब 15 लाख के करीब है। इतिहास प्राचीन इतिहास वर्तमान बरेली क्षेत्र प्राचीन काल में पांचाल राज्य का हिस्सा था। महाभारत के अनुसार तत्कालीन राजा द्रुपद तथा द्रोणाचार्य के बीच हुए एक युद्ध में द्रुपद की हार हुयी, और फलस्वरूप पांचाल राज्य का दोनों के बीच विभाजन हुआ। इसके बाद यह क्षेत्र उत्तर पांचाल के अंतर्गत आया, जहाँ के राजा द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मनोनीत हुये। अश्वत्थामा ने संभवतः हस्तिनापुर के शासकों के अधीनस्थ राज्य पर शासन किया। उत्तर पांचाल की तत्कालीन राजधानी, अहिच्छत्र के अवशेष बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित रामनगर के समीप पाए गए हैं। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध ने एक बार अहिच्छत्र का दौरा किया था। यह भी कहा जाता है कि जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में कैवल्य प्राप्त हुआ था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में, बरेली अब भी पांचाल क्षेत्र का ही हिस्सा था, जो कि भारत के सोलह महाजनपदों में से एक था। चौथी शताब्दी के मध्य में महापद्म नन्द के शासनकाल के दौरान पांचाल मगध साम्राज्य के अंतर्गत आया, तथा इस क्षेत्र पर नन्द तथा मौर्य राजवंश के राजाओं ने शासन किया। क्षेत्र में मिले सिक्कों से मौर्यकाल के बाद के समय में यहाँ कुछ स्वतंत्र शासकों के अस्तित्व का भी पता चलता है। क्षेत्र का अंतिम स्वतंत्र शासक शायद अच्युत था, जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, जिसके बाद पांचाल को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था। छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुप्त राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर मौखरियों का प्रभुत्व रहा। सम्राट हर्ष (६०६-६४७ ई) के शासनकाल के समय यह क्षेत्र अहिच्छत्र भुक्ति का हिस्सा था। चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग ने भी लगभग ६३५ ई में अहिच्छत्र का दौरा किया था। हर्ष की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में लम्बे समय तक अराजकता और भ्रम की स्थिति रही। आठवीं शताब्दी की दूसरी तिमाही में यह क्षेत्र कन्नौज के राजा यशोवर्मन (७२५- ५२ ईस्वी) के शासनाधीन आया, और फिर उसके बाद कई दशकों तक कन्नौज पर राज करने वाले अयोध राजाओं के अंतर्गत रहा। नौवीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति बढ़ने के साथ, बरेली भी उनके अधीन आ गया, और दसवीं शताब्दी के अंत तक उनके शासनाधीन रहा। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद क्षेत्र के प्रमुख शहर, अहिच्छत्र का एक समृद्ध सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रभुत्व समाप्प्त होने लगा। राष्ट्रकूट प्रमुख लखनपाल के शिलालेख से पता चलता है कि इस समय तक क्षेत्र की राजधानी को भी वोदमायुत (वर्तमान बदायूं) में स्थानांतरित कर दिया गया था। स्थापना तथा मुगल काल लगभग १५०० ईस्वी में क्षेत्र के स्थानीय शासक राजा जगत सिंह कठेरिया ने जगतपुर नामक ग्राम को बसाया था, जहाँ से वे शासन करते थे - यह क्षेत्र अब भी वर्तमान बरेली नगर में स्थित एक आवासीय क्षेत्र है। १५३७ में उनके पुत्रों, बांस देव तथा बरल देव ने जगतपुर के समीप एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम उन दोनों के नाम पर बांस-बरेली पड़ गया। इस दुर्ग के चारों ओर धीरे धीरे एक छोटे से शहर ने आकार लेना शुरू किया। १५६९ में बरेली मुगल साम्राज्य के अधीन आया, और अकबर के शासनकाल के दौरान यहाँ मिर्जई मस्जिद तथा मिर्जई बाग़ का निर्माण हुआ। इस समय यह दिल्ली सूबे के अंतर्गत बदायूँ सरकार का हिस्सा था। १५९६ में बरेली को स्थानीय परगने का मुख्यालय बनाया गया था। इसके बाद विद्रोही कठेरिया राजपूतों को नियंत्रित करने के लिए मुगलों ने बरेली क्षेत्र में वफादार अफगानों की बस्तियों को बसाना शुरू किया। शाहजहां के शासनकाल के दौरान बरेली के तत्कालीन प्रशासक, राजा मकरंद राय खत्री ने १६५७ में पुराने दुर्ग के पश्चिम में लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक नए शहर की स्थापना की। इस शहर में उन्होंने एक नए किले का निर्माण करवाया, और साथ ही शाहदाना के मकबरे, और शहर के उत्तर में जामा मस्जिद का भी निर्माण करवाया। मकरंदपुर, आलमगिरिगंज, मलूकपुर, कुंवरपुर तथा बिहारीपुर क्षेत्रों की स्थापना का श्रेय भी उन्हें, या उनके भाइयों को दिया जाता है। १६५८ में बरेली को बदायूँ प्रांत की राजधानी बनाया गया। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान और उसकी मृत्यु के बाद भी क्षेत्र में अफगान बस्तियों को प्रोत्साहित किया जाता रहा। इन अफ़गानों को रुहेला अफ़गानों के नाम से जाना जाता था, और इस कारण क्षेत्र को रुहेलखण्ड नाम मिला। रुहेलखण्ड राज्य औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद दिल्ली के मुगल शासक कमजोर हो गये तथा अपने राज्य के जमींदारों, जागीरदारों आदि पर उनका नियन्त्रण घटने लगा। उस समय इस क्षेत्र में भी अराजकता फैल गयी तथा यहाँ के जमींदार स्वतन्त्र हो गये। इसी क्रम में, रुहेलखण्ड भी मुगल शासन से स्वतंत्र राज्य बनकर उभरा, और बरेली रुहेलखण्ड की राजधानी बनी। १७४० में अली मुहम्मद रुहेलखण्ड शासक बने, और उनके शासनकाल में रुहेलखण्ड की राजधानी बरेली से आँवला स्थानांतरित की गयी। १७४४ में अली मुहम्मद ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया, और राजधानी अल्मोड़ा पर कब्ज़ा कर लिया, और सात महीनों तक उनकी सेना अल्मोड़ा में ही रही। इस समय में उन्होंने वहां के बहुत से मंदिरों को नुकसान भी पहुंचाया। हालाँकि अंततः क्षेत्र के कठोर मौसम से तंग आकर, और कुमाऊँ के राजा द्वारा तीन लाख रुपए के हर्जाने के भुगतान पर, रुहेला सैनिक वापस बरेली लौट गये। इसके दो वर्ष बाद मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह ने क्षेत्र पर आक्रमण किया, और अली मुहम्मद को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाया गया। एक वर्ष बाद, १७४८ में अली मुहम्मद वहां से रिहा हुए, और वापस आकर फिर रुहेलखण्ड के शासक बने, परन्तु इसके एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी, और उन्हें राजधानी आँवला में दफना दिया गया। अली मुहम्मद के पश्चात उनके पुत्रों के संरक्षक, हाफ़िज़ रहमत खान रुहेलखण्ड के अगले शासक हुए। इसी समय में फर्रुखाबाद के नवाब ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण कर दिया, परन्तु हाफ़िज़ रहमत खान ने उनकी सेना को पराजित कर नवाब को मार दिया। इसके बाद वह उत्तर की ओर सेना लेकर बढ़े, और पीलीभीत और तराई पर कब्ज़ा कर लिया। फर्रुखाबाद के नवाब की मृत्यु के बाद अवध के वज़ीर सफदरजंग ने उनकी संपत्ति को लूट लिया, और इसके कारण रुहेलखण्ड और फर्रुखाबाद ने एक साथ संगठित होकर सफदरजंग को हराया, इलाहाबाद की घेराबन्दी की, और अवध के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। इसके परिमाणस्वरूप वजीर ने मराठों से सहायता मांगी, और उनके साथ मिलकर आँवला के समीप स्थित बिसौली में रुहेलाओं को पराजित किया। उन्होंने चार महीने तक पहाड़ियों की तलहटी में रुहेलाओं को कैद रखा; लेकिन अहमद शाह दुर्रानी के आक्रमण के समय उपजे हालातों में दोनों के बीच संधि हो गयी, और हाफिज खान पुनः रुहेलखण्ड के शासक बन गये। १७५४ में जब शुजाउद्दौला अवध के अगले वज़ीर बने, तो हाफिज भी रुहेलखण्ड की सेना के साथ उन पर आक्रमण करने निकली मुगल सेना में शामिल हो गये, लेकिन वज़ीर ने उन्हें ५ लाख रुपये देकर खरीद लिया। १७६१ में हाफ़िज़ रहमत खान ने पानीपत के तृतीय युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान तथा अवध के नवाबों का साथ दिया, और उनकी संयुक्त सेनाओं ने मराठों को पराजित कर उत्तर भारत में मराठा साम्राज्य के विस्तार को अवरुद्ध कर दिया। अहमद शाह के आगमन, और शुजाउद्दौला के ब्रिटिश सत्ता से संघर्षों का फायदा उठाकर हाफ़िज़ ने उन वर्षों के दौरान इटावा पर कब्ज़ा किया, और लगातार अपने शहरों को मजबूत करने के साथ-साथ और नए गढ़ों की स्थापना करते रहे। १७७० में, नजीबाबाद के रुहेला शासक नजीब-उद-दौला सिंधिया और होल्कर मराठा सेना के साथ आगे बढ़े, और उन्होंने हाफ़िज़ खान को हरा दिया, जिस कारण हाफ़िज़ को अवध के वज़ीर से सहायता मांगनी पड़ी। शुजाउद्दौला ने मराठों को ४० लाख रुपये का भुगतान किया, और वे रुहेलखण्ड से वापस चले गए। इसके बाद, अवध के नवाब ने हाफ़िज़ खान से इस मदद के लिए भुगतान करने की मांग की। जब हाफ़िज़ उनकी यह मांग पूरी नहीं कर पाए, तो उन्होंने ब्रिटिश गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स और उनके कमांडर-इन-चीफ, अलेक्जेंडर चैंपियन की सहायता से रुहेलखण्ड पर आक्रमण कर दिया। १७७४ में दौला और कंपनी की संयुक्त सेना ने हाफ़िज़ को हरा दिया, जो मीराँपुर कटरा में युद्ध में मारे गए, हालाँकि अली मुहम्मद के पुत्र, फ़ैजुल्लाह ख़ान युद्ध से बचकर भाग गए। कई वार्ताओं के बाद उन्होंने १७७४ में ही शुजाउद्दौला के साथ एक संधि की, जिसके तहत उन्होंने सालाना १५ लाख रुपये, और ९ परगनों को अपने शासनाधीन रखा, और शेष रुहेलखण्ड वज़ीर को दे दिया। १७७४ से १८०० तक रुहेलखण्ड प्रांत अवध के नवाब द्वारा शासित था। अवध राज में सआदत अली को बरेली का गवर्नर नियुक्त किया गया था। १८०१ तक, ब्रिटिश सेना का समर्थन करने के लिए संधियों के कारण सब्सिडी बकाया हो गई थी। कर्ज चुकाने के लिए, नवाब सआदत अली खान ने १० नवंबर १८०१ को हस्ताक्षरित संधि में रुहेलखण्ड को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया। कम्पनी शासन १८०१ में बरेली समेत पूरा रुहेलखण्ड क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिपत्य में आया था, और तत्कालीन गवर्नर जनरल के भाई हेनरी वेलेस्ली को बरेली में स्थित आयुक्तों के बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। १८०५ में एक पिंडारी, अमीर खान ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण किया, लेकिन उसे बाहर खदेड़ दिया गया। इसके बाद इस क्षेत्र को दो जिलों में व्यवस्थित किया गया - मुरादाबाद तथा बरेली, जिनमें से बाद वाले जिले का मुख्यालय बरेली नगर में था। नगर में इस समय कई नए आवासीय और व्यावसायिक क्षेत्रों का गठन किया गया, और इसे नैनीताल, पीलीभीत, मुरादाबाद तथा फर्रुखाबाद से जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण हुआ। १८११ में नगर के दक्षिण की ओर नकटिया नदी के पश्चिम में बरेली छावनी की स्थापना की गयी, जहाँ एक छोटे से दुर्ग का निर्माण किया गया था। छावनी क्षेत्र में उस समय पूरे नगर से कहीं अधिक भवन थे। कम्पनी शासनकाल के दौरान, जिले भर में कम्पनी के विरुद्ध असंतोष की भावना थी। १८१२ में राजस्व की मांग में भारी वृद्धि, और फिर १८१४ में एक नए गृह कर के लागू होने से अंग्रेजों के खिलाफ काफी आक्रोश हुआ। "व्यापार अभी भी ठप्प पड़ा था, दुकानें बंद हो गईं और कई लोग करों के उन्मूलन की मांग के साथ न्यायालय के पास इकट्ठे हुए।" मजिस्ट्रेट डेम्बलटन, जो पहले से ही अलोकप्रिय थे, ने एक कोतवाल को मूल्यांकन करने का आदेश देकर स्थिति को और बिगाड़ दिया। फलस्वरूप कैप्टन कनिंघम के नेतृत्व में सिपाहियों और विद्रोही जनता के बीच हुई झड़प में, लगभग तीन से चार सौ लोग मारे गए। १८१८ में ग्लिन को बरेली के मजिस्ट्रेट और कार्यवाहक न्यायाधीश, और साथ ही बुलंदशहर के संयुक्त मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात किया गया था। बरेली जिले के कुछ हिस्सों से १८१३-१४ में शाहजहाँपुर जिले का, जबकि १८२४ में बदायूँ जिले का गठन किया गया। १८५७ का विद्रोह बरेली १८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र था। मेरठ से शुरू हुए विद्रोह की खबर १४ मई १८५७ को बरेली पहुंची। इस समय उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में दंगे हुए, और बरेली, बिजनौर और मुरादाबाद में मुसलमानों ने मुस्लिम राज्य के पुनरुद्धार का आह्वान किया। ३१ मई को जब अंग्रेज सिपाही चर्च में प्रार्थना कर रहे थे, तब तोपखाना लाइन में सूबेदार बख्त खान के नेतृत्व में १८वीं और ६८वीं देशज रेजीमेंट ने विद्रोह कर दिया, और सुबह ११ बजे कप्तान ब्राउन का मकान जला दिया गया। इसके बाद ६८वीं पैदल सेना ने अपनी लाइन के पास के यूरोपियनों पर आक्रमण किया। छोटी-छोटी टुकड़ियां अलग-अलग बंगलों की ओर चल पड़ीं जबकि बाकी बचे सिपाहियों ने इधर-उधर भागना चाहने वाले अंग्रेजों को पकड़ने का प्रबंध किया। इस हमले से डरे-सहमे यूरोपियन लोग घुड़सवारों की लाइन की ओर दौड़े और वहां जाते ही नेटिव घुड़सवार रेजिमेंट को विद्रोहियों पर आक्रमण करने का आदेश दिया गया, पर उस रेजिमेंट ने भी विद्रोह कर दिया। छावनी में विद्रोह सफल होने की सूचना शहर में फैलते ही जगह-जगह अंग्रेजों पर हमले शुरू हो गए, और शाम चार बजे तक बरेली पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो चुका था। इस दिन १६ अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया गया, जिनमें ब्रिगेडियर सिवाल्ड, कप्तान ब्राउन, सार्जेंट वाल्डन, कैप्टन कर्बी, लेफ्टिनेंट फ्रेजर, सेशन जज रेक्स, कर्नल ट्रूप, कैप्टन रॉबर्टसन और जेलर हैंस ब्रो आदि शामिल थे। बचे हुए लोग नैनीताल की तरफ भाग गए, जिनमें से लगभग बत्तीस अधिकारी नैनीताल तक सही-सलामत पहुंच सके। अंग्रेजी निशान उतार फेंककर बरेली में स्वतंत्रता का हरित ध्वज फहराते ही नेटिव तोपखाने के मुख्य सूबेदार बख्त खान ने सारी नेटिव सेना का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। फिर उन्होंने अंतिम रुहेला शासक हाफ़िज़ रहमत खान के पोते, खान बहादुर खान के नाम का जयघोष करके दिल्ली के बादशाह के सूबेदार की हैसियत से रुहेलखंड का शासन भी अपने हाथ में लिया। बरलेी में स्थित यूरोपियनों के घर-द्वारो को जलाकर, लूटकर भस्म करने के बाद फिर कैद किए गए यूरोपियनों को खानबहादुर ने अपने सामने बुलवायां और उनकी जांच के लिए एक कोर्ट नियुक्त किया। इन अपराधियों में बदायूँ प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दामाद- डाॅ ‘हे’, बरेली के सरकारी काॅलेज के प्रिंसिपल डाॅ. कर्सन और बरेली के जिला मजिस्ट्रेट भी थे। अलग-अलग आरोपों के कारण इन सभी को फांसी का दंड सुनाया गया और छह यूरोपियन लोगों को तुरंत फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस तरह अपना सिंहासन पक्का जमाने के बाद खान बहादुर ने सारा रुहेलखंड स्वतंत्र होने का समाचार दिल्ली भेजा और फिर बख्त खान के नेतृत्व में सभी सैनिक दिल्ली की ओर चल दिए। विद्रोह के सफल होने के बाद पहली जून को विजय जुलूस निकाला गया और कोतवाली के समीप एक ऊंचे चबूतरे पर खान बहादुर खान को बैठाकर उनकी ताजपोशी की गई, और जनता की उपस्थिति में उन्हें बरेली का नवाब घोषित कर दिया गया। इसके बाद खानबहादुर ने सारा रुहेलखंड स्वतंत्र हो जाने का समाचार दिल्ली भेजा। ११ माह तक बरेली आजाद रहा। इस अवधि के दौरान खान बहादुर खां ने शोभाराम को अपना दीवान बनाया, १ जून १८५७ को बरेली में फौज का गठन किया गया, और स्वतंत्र शासक के रूप में बरेली से चांदी के सिक्के जारी किए। १३ मई १८५८ को ब्रिटिश सेना की ९वीं रेजिमेंट ऑफ़ फुट के कमांडर, कॉलिन कैंपबेल, प्रथम बैरन क्लाइड ने बरेली पर आक्रमण कर दिया, और ९३ वीं (सदरलैंड) हाईलैंडर्स के कप्तान विलियम जॉर्ज ड्रमंड स्टुअर्ट की सहायता से लड़ाई में विजय प्राप्त कर ब्रिटिश शासन बहाल किया। कुछ विद्रोहियों को पकड़ लिया गया और उन्हें मौत की सजा दी गई। परिमाणस्वरूप १८५७ का विद्रोह बरेली में भी विफल हो गया। खान बहादुर खान नेपाल भाग निकले, लेकिन नेपाल नरेश जंग बहादुर ने उन्हें हिरासत में लेकर अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया। 1 जनवरी 1858 को उन्हें मुकदमे के लिए बरेली लाकर छावनी में रखा गया। मुकदमा 1 फरवरी को शुरू हुआ, जिसमें उन्हें मौत की सजा सुनाई गई और २४ फरवरी १८६० को कोतवाली में फांसी दे दी गई। उन्हें पुरानी जिला जेल के सामने दफन किया गया जहां आज भी उनकी मजार है। खान बहादुर खान के अतिरिक्त २५७ अन्य क्रांतिकारियों को भी कमिश्नरी के समीप एक बरगद के पेड़ के नीचे फांसी दे दी गयी। ब्रिटिश राज १८५८ में जब बरेली पुनः ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया, तो छावनी क्षेत्र में नियमित ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों की तैनाती की गयी। छावनी तब मुख्य रूप से तीन भागों में बंटी हुई थी; पूर्वी भाग में भारतीय इन्फैंट्री लाइनें स्थित थी, मध्य भाग में ब्रिटिश इन्फैंट्री लाइनें और एक भारतीय बटालियन थी, जबकि अर्टिलरी लाइनों को पश्चिमी भाग में तैनात किया गया था। छावनी तथा नगर के बीच काफी खली क्षेत्र था, जिस पर रेस कोर्स या पोलो ग्राउंड में अतिक्रमण किये बिना २ या अधिक बटालियनें रह सकती थी। अगले कुछ सालों में इस क्षेत्र पर सिविल लाइन्स क्षेत्र बसाया गया, जिसमें तब केवल ब्रिटिश अफसर रहा करता थे। भूगोल जलवायु बरेली की जलवायु आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय जलवायु (कोपेन जलवायु वर्गीकरण: सीएफए) है। यहाँ का वार्षिक औसत तापमान २५°C है। वर्ष के सबसे गर्म माह, जून में औसत तापमान ३२.८°C रहता है, जबकि १५°C औसत तापमान के साथ जनवरी वर्ष का सबसे ठंडा महीना होता है। बरेली में औसतन १०३८.९ मिमी वर्षा होती है। जुलाई में सर्वाधिक - औसतन ३०७.३ मिमी औसत वर्षा होती है, जबकि नवंबर में सबसे कम - लगभग ५.१ मिमी औसत वर्षा होती है। वर्ष भर में औसतन ३७.७ दिन वर्षा होती है - सबसे अधिक १०.३ दिनों तक अगस्त में, और सबसे कम ०.५ दिनों तक नवंबर में। हालांकि पूरे साल बारिश होती है, परन्तु फिर भी गर्मियों में सर्दियों की तुलना में वर्षा अधिक होती है। जनसांख्यिकी २०११ की भारत की जनगणना के अनुसार बरेली नगर की जनसंख्या ९,०३,६६८ है, जिसमें नगर निगम के अधिकार क्षेत्र के बाहर स्थित कुछ हिस्सों की जनसंख्या जोड़ने पर यह ९,०४,७९७ हो जाती है। २००१ में नगर की जनसंख्या ७,२०,३१५ थी तथा २००१-२०११ के दशक में नगर की जनसंख्या वृद्धि दर २.३१ % रही। बरेली नगर, बरेली छावनी तथा इसके आस-पास बसे कुछ छोटे-मोटे नगर मिलकर बरेली महानगर क्षेत्र का निर्माण करते हैं, २०११ की जनगणना के अनुसार जिसकी जनसंख्या ९,८५,७५२ है। जनसंख्या के आधार पर बरेली राज्य का आठवाँ तथा देश का ५०वां सबसे बड़ा नगर है। कुल १०६.४३ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले बरेली नगर में २०११ की जनगणना के अनुसार १,६६,४४७ परिवार निवास करते हैं, तथा नगर का जनसंख्या घनत्व ८५०१ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो कि राज्य के औसत घनत्व – ८२८ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक है। कुल जनसंख्या में से पुरुषों की संख्या ४,७७,५१५ (कुल जनसंख्या का ५२.८ %) है, जबकि महिलाओं की संख्या ४,२७,२८२ (कुल जनसंख्या का ४७.२ %) है, और इस प्रकार नगर का लिंगानुपात ८९५ महिलाएं प्रति १००० पुरुष है, जो कि राज्य के औसत लिंगानुपात – ९१२ महिलाएं प्रति १००० पुरुष से कम है। २००१ में नगर का लिंगानुपात ८९६ महिलाएं प्रति १००० पुरुष था तथा २००१-२०११ के दशक में नगर में इसमें एक अंक की गिरावट आयी। शहर में ० से ६ वर्ष की उम्र के बच्चों की संख्या १,०७,३२३ है, जो नगर की कुल जनसंख्या का ११.८८ % है। कुल बच्चों में से ५६,५२३ लड़के हैं, जबकि शेष ५०,८०० लड़कियां हैं। २०११ की जनगणना के अनुसार नगर की कुल जनसंख्या में से ७१,२१६ लोग (कुल जनसंख्या का ०.८ %) अनुसूचित जातियों से सम्बन्ध रखते हैं। इनमें ३७,७६३ पुरुष हैं, और ३३,४५३ महिलाएं हैं। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्ध रखने वाले लोगों की संख्या २,७७१ (कुल जनसंख्या का ०.००३ %) है; पुरुषों की संख्या १,४५८ है, जबकि महिलाओं की संख्या १,३५३ है। नगर में स्थित झुग्गियों की संख्या २४,९११ है। इन झुग्गियों में १,४४,०९७ लोग निवास करते हैं, जो शहर की कुल जनसंख्या का लगभग १५.९३ % है। बरेली में साक्षर लोगों की संख्या ५,४३,५१५ हैं जिनमें ३,०५,८०५ पुरुष हैं जबकि २,३७,७१० महिलाएं हैं, और इस प्रकार नगर की औसत साक्षरता दर ६८.२५ % है, जो कि राज्य की औसत साक्षरता दर – ७९ % से कम है। पुरुष और महिला साक्षरता दर क्रमशः ७२.७४ % और ६३.२३ % है। २०११ की जनगणना के अनुसार बरेली की कुल जनसंख्या में से ३,०३,३९२ लोग कार्य गतिविधियों में संलग्न हैं, जिनमें १,९७,९२५ पुरुष और ३७,८११ महिलाएं हैं। इनमें से २,३५,७३६ लोगों ने (कुल क्रमिकों का ७७.७ %) अपने काम को मुख्य कार्य (६ महीने से अधिक समय तक रोजगार या कमाई प्रदान करने वाले कार्य) के रूप में वर्णित किया, जबकि शेष ६७,६५६ लोग (कुल क्रमिकों का २२.३ %) ६ महीने से कम समय के लिए आजीविका प्रदान करने वाली सीमांत गतिविधि में शामिल हैं। नगर में १३,९४९ लोग कृषि से जुड़े हुए हैं - ४,७६६ लोग कृषक (भूमि मालिक या सह-स्वामी) हैं, जबकि ९,१७३ लोग इनके खेतों में काम करने वाले मजदूर हैं। इसके अतिरिक्त २७,८५५ लोग घरेलू उद्योग में लिप्त हैं, जबकि १,९३,९३२ लोगों ने अन्य कार्यों को अपनी आजीविका का साधन बताया। ५८.५८ % अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म बरेली शहर में बहुसंख्यक धर्म है। इस्लाम धर्म शहर में दूसरा सबसे लोकप्रिय धर्म है, जिसके लगभग ३८.८० % अनुयायी हैं। बरेली में, ईसाई धर्म का ०.७८ % लोगों द्वारा, जैन धर्म का ०.०५ % लोगों द्वारा, सिख धर्म का ०.९० % लोगों द्वारा और बौद्ध धर्म का ०.९० % लोगों द्वारा द्वारा पालन किया जाता है। इसके अतिरिक्त, शहर की कुल जनसंख्या में से लगभग ०.०३ % लोग उपरोक्त से अलग किसी 'अन्य धर्म' का, जबकि लगभग ०.८१ % लोग किसी विशेष धर्म का पालन नहीं करते हैं। नगर में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएँ हिन्दी तथा उर्दू हैं, जो कि उत्तर प्रदेश राज्य की आधिकारिक भाषाएँ भी हैं। शेष भारत की ही तरह यहाँ भी अंग्रेजी भाषा अच्छी तरह बोली-समझी जाती है। नगर क्षेत्र में मुख्यतः मानक हिन्दी का ही चलन है, हालाँकि आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में खड़ीबोली तथा कुछ हद तक ब्रजभाषा का भी प्रभाव मिलता है। नगर में अन्य कम बोली जाने वाली भाषाओं में पंजाबी और कुमाऊँनी प्रमुख हैं, जो इन क्षेत्रों से आये अप्रवासी समुदायों द्वारा बोली जाती हैं। परिवहन बरेली नगर रेलवे तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के महत्त्वपूर्ण भागों से सम्बद्ध है। ये भारत की राजधानी नई दिल्ली से 265km है और उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से 256km है। यह शहर आसपास के बड़े शहरों से अच्छे से जुड़ा हुआ है यहां से बस व रेल से निम्न शहरों मे आसानी से पहुंचा जा सकता है यथा दिल्ली लखनऊ कानपुर वाराणसी नोयडा गाजियाबाद अलवर जयपुर आगरा मुंबई कोलकाता पटना चेन्नई बेंगलोर हैदराबाद आदि रेल मार्ग बरेली में छह रेलवे स्टेशन हैं:- बरेली जंक्शन (स्टेशन कोड: बीई) बरेली सिटी (स्टेशन कोड: बीसी) इज्जतनगर (स्टेशन कोड: आईज़ेडएन) चनेहटी / बरेली कैंट (स्टेशन कोड: सीएचटीआई) रामगंगा (स्टेशन कोड: आरजीबी) सी॰ बी॰ गंज (स्टेशन कोड: सीबीजे) इनमें से चार स्टेशन - बरेली जंक्शन, रामगंगा, चनेहटी तथा सी॰ बी॰ गंज उत्तर रेलवे के मुरादाबाद मण्डल के अंतर्गत, जबकि शेष दो उत्तर-पूर्व रेलवे के इज्जतनगर मण्डल के अंतर्गत आते हैं, जिसका मुख्यालय इज्जत नगर में ही स्थित है। बरेली जंक्शन, तथा सी॰ बी॰ गंज लखनऊ-मुरादाबाद रेलवे लाइन पर, रामगंगा बरेली-चंदौसी लूप पर जबकि बरेली सिटी तथा इज्जतनगर बरेली-काठगोदाम रेलवे लाइन पर स्थित हैं। बरेली जंक्शन नगर का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है। वाराणसी को लखनऊ से जोड़ने के बाद अवध व रुहेलखण्ड रेलवे ने लखनऊ के पश्चिम में रेलवे सेवाओं का विस्तार करना शुरू किया। इसी क्रम में लखनऊ से संडीला और फिर हरदोई तक रेलवे लाइन का निर्माण १८७२ में पूरा हुआ। १८७३ में बरेली तक की लाइन पूरी हुई, और उसी वर्ष इस रेलवे स्टेशन का निर्माण हुआ। इससे पहले १८७२ में मुरादाबाद से चंदौसी को जोड़ने वाली एक लाइन भी बन चुकी थी, और फिर १८७३ में ही इसे भी बरेली तक बढ़ा दिया गया। रामपुर होते हुए बरेली-मुरादाबाद कॉर्ड १८९४ में बनकर तैयार हुआ था। कालांतर में इसे मुख्य लाइन, तथा पुरानी लाइन को चंदौसी लूप कहा जाने लगा। १८९४ में एक ब्रांच लाइन चंदौसी से अलीगढ़ तक बनाई गयी थी। १८८४ में दो मीटर गेज सेक्शन बनाए गए; भोजीपुरा से बरेली (१२ मील लम्बा) १ अक्टूबर १८८४ को खोला गया, और पीलीभीत से भोजीपुरा (२४ मील) १५ नवंबर १८८४ को खोला गया। ये दोनों बरेली-पीलीभीत प्रांतीय राज्य रेलवे का हिस्सा थे। १ जनवरी १८९१ को इसका विलय लखनऊ-सीतापुर प्रांतीय राज्य रेलवे के साथ कर लखनऊ-बरेली रेलवे की स्थापना की गयी थी। सन् १८८३-८४ में भोजीपुरा और काठगोदाम के बीच भी रेलमार्ग बिछाया गया था। ६६ मील लंबा यह रेलमार्ग "रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे" द्वारा संचालित एक निजी रेलमार्ग था। रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे द्वारा बरेली से दक्षिण की ओर भी रेलमार्ग बिछाया गया - कासगंज एक्सटेंशन लाइन नामक यह रेलमार्ग १८८५ में सोरों तक, और १९०६ में कासगंज तक बनकर तैयार हुआ था। वायु मार्ग बरेली में एक विमानक्षेत्र स्थित है; नैनीताल रोड पर इज्जत नगर में स्थित त्रिशूल वायुसेना बेस नामक यह विमानक्षेत्र वास्तव में भारतीय वायु सेना द्वारा नियंत्रित एक सैन्य हवाई अड्डा है। इस विमानक्षेत्र का एक सिविल एन्क्लेव पीलीभीत बाय-पास रोड पर मयूर वन चेतना केंद्र के पास बनाया गया है, जहाँ से केंद्र सरकार की उड़ान योजना के तहत लखनऊ और दिल्ली व [मुंबई] और बेंगलुरु के लिए उड़ानों का संचालन है। एएआई और डीजीसीए के निर्देशानुसार, हवाई अड्डे पर एटीआर के साथ ७२ सीटर और एयरबस विमान संचालित है बरेली विमानक्षेत्र का उद्घाटन उत्तर प्रदेश राज्य के नागरिक उड्डयन मंत्री नंद गोपाल नंदी और केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार द्वारा १० मार्च २०१९ को किया गया था। आंतरिक परिवहन बरेली नगर में सिटी बस सेवा शुरुआत उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम द्वारा कुतुबखाना - रेलवे जंक्शन मार्ग पर की गई थी। वर्ष १९६० में कुल ४ बसें नगरीय मार्गों पर चलती थी, और १९६४ में ६ नयी बसें लायी गयी, जिससे इनकी कुल संख्या बढ़कर १० हो गयी। १९६३-६४ तक बस सेवाओं का विस्तार कोहाड़ापीर से भोजीपुरा और फतेहगंज तक किया जा चुका था। १९७० के दशक के अंत तक छह निजी बसें यूपीएसआरटीसी के नियंत्रण में चल रही थी, जिनमें प्रतिदिन औसतन ५००० यात्री सफर करते थे। परन्तु धीरे-धीरे शहर की सड़कों पर ट्रैफिक बढ़ने और छोटे वाहनों के आ जाने से रोडवेज की यह बस सेवा घाटे में जाने लगी, और फिर वर्ष १९९० में इसे बन्द कर दिया गया। बन्द होने से पहले इस सेवा के अंतर्गत बसें कुतुबखाना से जंक्शन, सदर कैंट, सेंथल, नवाबगंज, फरीदपुर और फतेहगंज पश्चिमी को संचालित होती थीं। सरकार, प्रशासन तथा सुविधाएं नगर प्रशासन बरेली के नगरपालिका बोर्ड का गठन २४ जून १८५८ को १८५० के उत्तर-पश्चिम प्रांत और अवध अधिनियम XXVI के तहत किया गया था। तब यह एक नगरपालिका समिति थी, जिसका गठन जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में मनोनीत सदस्यों द्वारा होता था। नौ मनोनीत सदस्यों में से सात ब्रिटिश होते थे। जिलाधिकारी भी एक अंग्रेज ही होते थे। बाद में, १८६८ के उत्तर-पश्चिम प्रांत और अवध नगर सुधार अधिनियम ('६८ का अधिनियम VI) ने वैकल्पिक सिद्धांत की सिफारिश की। यह विधिवत लागू किया गया था। हालाँकि, जिला मजिस्ट्रेट फिर भी इस समिति के अध्यक्ष बने रहे। वर्ष १८६८ तक सदस्यों को सरकार द्वारा नामित किया जाता रहा था, जब वैकल्पिक सिद्धांत को आंशिक रूप से अपना नहीं लिया गया / २७ सदस्य चुनाव प्रक्रिया द्वारा आते थे, और ९ को नामांकित किया जाता था। यह प्रणाली १९०० तक जारी रही जब १९०० के अधिनियम के तहत, नामित सदस्यों की संख्या ६ हो गई और निर्वाचित सदस्य १८ हो गए। १९१६ के नगरपालिका अधिनियम द्वारा नामांकित सदस्यों को घटाकर ३ किया गया और निर्वाचित सदस्यों को बढ़ाकर १९ किया गया। १९६३ में इसमें फिर फेरबदल हुए; कुल ४८ सदस्यीय समिति के सभी सदस्य अब निर्वाचित होकर आते थे, और नामांकन की प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। आम तौर पर बोर्ड का कार्यकाल ४ वर्ष का होता है।। बैंकिंग का व्यवसाय १८८२ में शुरू हुआ था, भारतीय स्टेट बैंक की तीन शाखाएं (पूर्व में इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया) १९२३ में खोली गई थीं, शहर के स्वामित्व वाले 'बरेली कॉर्पोरेशन बैंक' की स्थापना १९२८ में हुई थी और इसे आसपास के शहरों जैसे शाहजहांपुर, पीलीभीत और आगरा में भी खोला गया था। इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा और पंजाब नेशनल बैंक की शाखाएं बाद में आईं। कानून व्यवस्था बरेली नगर बरेली पुलिस ज़ोन और बरेली पुलिस रेंज के अंतर्गत आता है। बरेली ज़ोन का नेतृत्व एक अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) के स्तर के भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) अधिकारी करते हैं, जबकि बरेली रेंज के मुखिया एक पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) रैंक के आईपीएस अधिकारी होते हैं। बरेली जिला पुलिस का नेतृत्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) करते हैं, जो जिले की कानून और व्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं। इस कार्य में एसएसपी की सहायता चार अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के अधिकारी करते हैं - एसपी सिटी नगरीय क्षेत्रों में थानों के कामकाज और कानून-व्यवस्था की देखभाल करते हैं, जबकि एसपी रूरल ग्रामीण क्षेत्रों में थानों की कार्यप्रणाली और कामकाज के साथ-साथ कानून व्यवस्था की देखभाल करते हैं। एसपी ट्रैफिक पूरे जिले में ट्रैफिक व्यवस्था का ध्यान रखते हैं और एसपी क्राइम उन जघन्य आपराधिक जांच की देखरेख करते हैं, जिनके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता हो। इन चारों के तहत, पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) स्तर के सर्कल अधिकारी (सीओ) आते हैं जो उनके अधीन आवंटित थानों की जिम्मेदारियों का ख्याल रखते हैं। ५ सर्किल अधिकारी एसपी रूरल के अंतर्गत आते हैं, ४ सर्किल अधिकारी एसपी सिटी के अंतर्गत आते हैं। सीओ ट्रैफिक एसपी ट्रैफिक के तहत आता है। इसके अतिरिक्त बरेली में एक सीओ लाइंस भी हैं। बरेली कोतवाली में एक एसएचओ तैनात हैं और अन्य थाने एसओ द्वारा संचालित हैं। थानों में उनके तहत विभिन्न चौकियां हैं जहां हेड कॉन्स्टेबल और कांस्टेबल अपने अधीन क्षेत्रों में राउंड पर रहने के लिए बीट अधिकारियों के साथ तैनात हैं। बरेली जिले में कुल २९ थाने हैं। इसके अतिरिक्त पुलिस लाइन या रिजर्व लाइनों में, पुलिस के रिजर्व बल रिजर्व उपकरणों के साथ तैनात रहते हैं। वे सीधे एसएसपी को रिपोर्ट करते हैं। सीओ एलआईयू द्वारा स्थानीय इंटेलिजेंस का ध्यान रखा जाता है, और इनकी पुलिस और मजिस्ट्रेटी को नियमित रूप से इनपुट देने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बरेली में दो पुलिस कंट्रोल रूम हैं - डिस्ट्रिक्ट कंट्रोल रूम बरेली के ग्रामीण क्षेत्रों की और सिटी कंट्रोल रूम शहरी क्षेत्रों की देखभाल करता है। इसके अतिरिक्त वे पूरे जिले में समन्वय और संचार माध्यमों को पूरा करने में मदद करते हैं। महिलाओं से संबंधित अपराधों और मुद्दों पर त्वरित कार्यवाही के लिए बरेली में सीओ १ के तहत एक महिला थाना भी है। चिकित्सा बरेली में ३४३ निजी अस्पातल है, जबकि १५ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, और १८ अर्बन हेल्थ पोस्ट है और तीन मेडिकल कॉलेज है। इनके अतिरिक्त नगर में एक जिला अस्पताल, एक जिला महिला अस्पताल और एक मानसिक चिकित्सालय भी है। संस्कृति बरेली कथावाचक राधेश्याम की जन्मस्थली है, जिन्होंने अपनी राधेश्याम रामायण यहीं लिखी थी। बरेली में जन्मे अन्य लोगों में शायर वसीम बरेलवी, कवि धीरेन्द्र वर्मा, पाकिस्तानी लेखिका खादिजा मस्तूर, उपन्यासकार खालिद जावेद तथा कवियित्री डोरोथी बनर्जी प्रमुख हैं। पर्व / त्यौहार बरेली में लगने वाले प्रमुख मेलों में रामगंगा का चौबारी मेला, बरेली क्लब में लगने वाला उत्तरायणी मेला, नरियावल का मेला और कैण्ट का दशहरा मेला इत्यादि प्रमुख हैं। चौबारी मेला प्रतिवर्ष चौबारी ग्राम के समीप रामगंगा तट पर लगता है। यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा-स्नान के अवसर पर लगता है। इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण नखाड़ घोड़ो का बाजार होता है, जिसमें दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग अपने घोड़ों का सौदा करने और खरीदने आते हैं। तीन दिवसीय उत्तरायणी मेला भी प्रतिवर्ष बरेली क्लब मैदान में 'उत्तरायणी जनकल्याण समिति' द्वारा आयोजित किया जाता है। मेला १३ से १५ जनवरी तक मकर संक्रान्ति के अवसर पर लगता है। मेले का मुख्य आकर्षण यहाँ कुमाऊँनी तथा गढ़वाली भाषा में होने वाले सांस्कृतिक आयोजन हैं, जिनमें पहाड़ी क्षेत्र के कई प्रमुख कलाकार प्रदर्शन देते हैं। चौबारी मेले के बाद नगर का दूसरा सबसे बड़ा मेला नरियावल स्थित माता शीतला के मंदिर परिसर में गुप्त नवरात्र के अवसर पर लगता है। यह मेला लगभग १५ दिनों तक चलता है, जिसमें आस पास के गांवों के ग्रामीणों के अतिरिक्त दूर-दराज के जनपदों से भी श्रद्धालु मां के दर्शन और पूजन को आते हैं। मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडव कुंती के साथ एक रात्रि यहां पर पहुंचे थे। उस समय गांव का नाम नरबलगढ़ था तथा नरबलि नामक एक दैत्य यहाँ निवास करता था, जो प्रतिदिन गांव से एक मानव की बलि लेता था। यह बात जब पांडवों को पता चली, तो भीम ने इसका विरोध कर दैत्य को युद्ध के लिए ललकारा, जिसने भीम की चुनौती को स्वीकार कर लिया। युद्ध से पहले भीम ने अपने भाइयों के साथ यहां माता शीतला की पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लिया, और फिर युद्ध में नरबल को मार दिया। अर्थव्यवस्था यह शहर कृषि उत्पादों का व्यापारिक केंद्र है और यहाँ कई उद्योग, चीनी प्रसंस्करण, कपास ओटने और गांठ बनाने आदि भी हैं। लकड़ी का फ़र्नीचर बनाने के लिए यह नगर काफ़ी प्रसिद्ध है। इसके निकट दियासलाई, लकड़ी से तारपीन का तेल निकालने के कारख़ाने हैं। यहाँ पर सूती कपड़े की मिलें तथा गन्धा बिरोजा तैयार करने के कारख़ाने भी है। १८२० के दशक में बरेली के तत्कालीन मजिस्ट्रेट ग्लिन ने गुलाम याह्या को बरेली के 'कारीगरों, निर्माण और उत्पादन के उनके साधनों के नाम, और उनकी पोशाक और शिष्टाचार' के बारे में लिखने के लिए कहा था। याह्या के शोध के अनुसार बरेली और उसके आसपास रहने वाले लोगों की आजीविका के सबसे लोकप्रिय साधन थे - कांच का निर्माण, कांच की चूड़ियों का निर्माण, लाख की चूड़ियों का निर्माण, क्रिम्पिंग, चने भूनना, तारें बनाना, चारपाइयां बुनना, सोने और चांदी के धागों का निर्माण, किराने की दुकानें चलाना, आभूषण बनाना और कबाब बेचना। शहर में व्यापार और वाणिज्य, परिवहन और अन्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का त्वरित विकास बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में रुहेलखण्ड व कुमाऊँ रेलवे के निर्माण के बाद हुआ। सदी के पहले दशक में ही नगर में नेशनल ब्रेवरी कम्पनी, एक माचिस की फैक्ट्री, एक बर्फ की फैक्ट्री और एक भाप-चालित आटा चक्की की स्थापना हुई। १९१९ में इज्जत नगर में इंडियन वूल प्रोडक्ट्स लिमिटेड की स्थापना हुई, जहाँ बड़े स्तर पर कत्था निकाला जाता था। नगर के केन्द्र से ८ किमी दूर स्थित सी॰ बी॰ गंज में भी इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन (१९२४ में स्थापित) और वेस्टर्न इंडियन मैच कम्पनी (विमको; १९३८ में स्थापित) जैसे कई उद्योग स्थापित हुए थे। नेकपुर में १९३२ में एचआर शुगर फैक्ट्री की स्थापना हुई थी। इस सब की बदौलत बरेली १९४० के दशक में क्षेत्र का एक प्रमुख औद्योगिक तथा व्यापारिक क्षेत्र बनकर उभरा, शहर के कोने-कोने में कई बैंकों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना हुई। भारत की स्वतन्त्रता के बाद बरेली का औद्योगिक विकास जारी रहा, और शहामतगंज तथा नई बस्ती में खांड़सारी, फर्नीचर, अभियंत्रण, तेल निष्कर्षण तथा बर्फ से संबंधित लघु उद्योग आकार लेने लगे। १९५६ में सी॰ बी॰ गंज, १९६० में परसाखेड़ा और १९६४ में भोजीपुरा में यूपी स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (यूपीएसआइडीसी) द्वारा औद्योगिक क्षेत्र बसाए गए। सी॰ बी॰ गंज और इज्जत नगर इस समय तक क्रमशः नगर के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र तथा औद्योगिक-सह-परिवहन केन्द्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे, जबकि शहामतगंज तथा किले की मंडियां बरेली तथा आस-पास के क्षेत्र की सबसे बड़ी मंडियां थी। १९६० और १९७० के दशक तक कुतुबखाना-रेलवे जंक्शन रोड पर स्थित आवासीय क्षेत्रों के इर्द-गिर्द कई बाज़ार बनने लगे, जिनमें सुभाष मार्किट, चौपुला, पंजाबी तथा किशोर मार्किट प्रमुख थे। १९७१ की जनगणना के अनुसार बरेली प्रथम श्रेणी का सिटी बोर्ड था, और महत्व के आधार पर इसे राज्य में ९वें स्थान पर रखा गया था। यहाँ की अर्थव्यवस्था औद्योगिक सह-सेवा क्षेत्र पर निर्भर थी; बड़ी संख्या में श्रमिक उन गतिविधियों में लगे हुए थे, जो उद्योग या तृतीयक क्षेत्रों से निकटता से संबंधित थे। १९९० के दशक का अंत होते होते नगर में कई उद्योग बन्द हो गए। अप्रैल १९९८ में इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन फैक्ट्री (आइटीआर) और सितंबर १९९८ में नेकपुर की चीनी मिल बंद हो गई। उप्र. शुगर कारपोरेशन के अधीन इस गन्ना फैक्ट्री को वर्ष १९९६ में ही लक्ष्य से अधिक उत्पादन करने के लिए गोल्ड मेडल मिला था। १५ जुलाई १९९९ फतेहगंज पश्चिमी स्थित रबड़ फैक्ट्री भी बंद हो गई। फैक्ट्री के उत्पाद पूरे एशिया के देशों में प्रसिद्ध थे, और लगभग दो हजार लोग इस फैक्ट्री में सेवाएं दे रहे थे। सीबीगंज स्थित विमको फैक्ट्री, जहां से पूरे देश भर में माचिस की सप्लाई होती थी, वर्ष २०१४ में बंद हो गई। शिक्षा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही, बरेली राजनीतिक जागरूकता और राजनीतिक प्रेरणा का केंद्र रहा है। नगर में ३ विश्वविद्यालय हैं: महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय और इन्वर्टिस विश्वविद्यालय। इसके अतिरिक्त मार्च २०२० में तीन अन्य संस्थानों को (सिद्घि विनायक, फ्यूचर इंस्टीट्यूट और एसआरएमएस को) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा निजी विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र दिया गया, जिससे यहाँ स्थित विश्वविद्यालयों की संख्या ६ हो गयी। बरेली में स्थित उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में इज्जतनगर में स्थित भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान तथा केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान शामिल हैं। नगर में तीन निजी मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें राजश्री, एसआरएमएस और रुहेलखंड शामिल हैं। इसके अलावा गंगाशील आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज भी है, लेकिन कोई भी सरकारी मेडिकल कॉलेज नहीं है। बरेली में करीब दो दर्जन प्रबन्धन तथा प्रौद्योगिकी महाविद्यालय हैं। २८९४ बेसिक स्कूल, ४१६ माध्यमिक विद्यालय, ५२ सीबीएसई, ७ आईसीएससी स्कूल हैं। १९७५ में स्थापित महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय नगर का एकमात्र राजकीय विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय का अधिकार क्षेत्र बरेली और मुरादाबाद मंडल के नौ जिलों तक विस्तारित है; इन ९ जिलों के सभी राजकीय महाविद्यालय इसी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं। बरेली कॉलेज नगर का सबसे पुराना महाविद्यालय है। १८३७ में स्थापित इस महाविद्यालय को १८५० में राजकीय महाविद्यालय का दर्जा दिया गया था। अपनी स्थापना के समय यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था, बाद में आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया। वर्तमान काल में यह रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। पर्यटन माना जाता है कि बरेली के पास स्थित प्राचीन दुर्ग नगर अहिच्छत्र में बुद्ध का आगमन हुआ था। यह जगह बरेली शहर से लगभग 40 किमी है। यहीं पर एक बहुत पुराना किला भी है। बरेली के मन्दिरों, मस्जिदो,दरगाहो की सूची 1 धोपेश्वर नाथ यह मन्दिर सदर बाजार में स्थित बहुत खूबसूरत है एवं यह भगवान शिव को समर्पित है 2 तपेश्वरनाथ भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर रेलवे स्टेशन के नजदीक है 3 त्रिवटीनाथ तीन वट वृक्षों के बीच शिवलिंग निकलने से इस मंदिर का नाम त्रिवटीनाथ पड़ा। यह मंदिर बरेली शहर के बीचोबीच स्थित है जो अपने सुंदर परिवेश से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है। 4 मणिनाथ यह भी 2 किमी पर स्थित है 5 वनखण्डीनाथ 6अलखनाथ भगवान शिव को समर्पित यह शहर का सबसे बड़ा मंदिर है इस मंदिर में कई बगीचे एवं मुख्य द्वार पर भगवान हनुमान की विशाल प्रतिमा लगी हुई है 7 पशुपति नाथ यह है मंदिर छोटा सा परंतु देखने में बहुत खूबसूरत है इस मंदिर की खास बात यह है कि यह बीच तालाब में बना हुआ है 8.दरगाह आला हजरत दरगाह-ए-अला हज़रत अहमद रजा खान (1856-1921) की दरगाह है,जो 19वीं शताब्दी के हनीफी इस्लामी विद्वान दरगाह का गुंबद हजरत अल्लामा शाह महमूद जान कादरी द्वारा मैचस्टिक्स के उपयोग के साथ तैयार किया गया था[4] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ बरेली जिले का आधिकारिक जालघर विस्तृत पठन उत्तर प्रदेश के नगर बरेली बरेली ज़िला बरेली ज़िले के नगर
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जमशेदपुर महिला महाविद्यालय () जमशेदपुर का एक कालेज है। यह शहर के बिष्टुपुर क्षेत्र में गोपाल मैदान (जिसे पहले रीगल ग्राउंड के नाम से जाना जाता था), के पास स्थित है। यह महाविद्यालय रांची विश्वविद्यालय से संबद्ध है। प्रमुख विभाग विज्ञान नामांकन प्रक्रिया महाविधालय प्रशासन प्राचार्या श्रीमति श्रीलता मोहंती जमशेदपुर झारखंड शिक्षण संस्थान
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सरहुल (संताली: ᱵᱟᱦᱟ) मध्य-पूर्व भारत के आदिवासी समुदायों का एक प्रमुख पर्व है, जो झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व को मुख्य रूप से मुण्डा, भूमिज, हो, संथाल और उराँव आदिवासियों द्वारा मनाया जाता है, और यह उनके महत्वपूर्ण उत्सवों में से एक है। यह उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन, चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। यह नए साल की शुरुआत की निशानी है। हालांकि इस त्योहार की कोई निश्चित तारीख नहीं होती क्योंकि विभिन्न गांवों में इसे विभिन्न दिनों पर मनाया जाता है। इस वार्षिक उत्सव को बसंत ऋतु के दौरान मनाया जाता है और इसमें पेड़ों और प्रकृति के अन्य तत्वों की पूजा शामिल होती है। इस समय, साल (शोरिया रोबस्टा) पेड़ों को आने लगते हैं। झारखण्ड में, इससे एक राजकीय अवकाश घोषित किया गया है। परिचय सरहुल का शाब्दिक अर्थ है 'साल वृक्ष की पूजा', सरहुल त्योहार धरती माता को समर्पित है - इस त्योहार के दौरान प्रकृति की पूजा की जाती है। सरहुल कई दिनों तक मनाया जाता है, जिसमें मुख्य पारंपरिक नृत्य सरहुल नृत्य किया जाता है। आदिवासियों का मानना ​​है कि वे इस त्योहार को मनाए जाने के बाद ही नई फसल का उपयोग मुख्य रूप से धान, पेड़ों के पत्ते, फूलों और फलों का उपयोग कर सकते हैं। भूमिज इस पर्व को 'हादी बोंगा' के नाम से और संथाल इसे 'बाहा बोंगा' के नाम से मनाते हैं। इसे 'बा: परब' और 'खाद्दी परब' के नाम से भी जाना जाता है। त्योहार की क्रिया त्योहार के दौरान साल के फूलों, फलों और महुआ के फलों को जायराथान या सरनास्थल पर लाए जाते हैं, जहां पाहान या लाया (पुजारी) और देउरी (सहायक पुजारी) जनजातियों के सभी देवताओं की पूजा करता है। "जायराथान" पवित्र सरना वृक्ष का एक समूह है जहां आदिवासियों को विभिन्न अवसरों में पूजा होती है। यह ग्राम देवता, जंगल, पहाड़ तथा प्रकृति की पूजा है जिसे जनजातियों का संरक्षक माना जाता है। नए फूल तब दिखाई देते हैं जब लोग गाते और नृत्य करते हैं। देवताओं की साल और महुआ फलों और फूलों के साथ पूजा की जाती है। आदिवासी भाषाओं में साल (सखुआ) वृक्ष को 'सारजोम' कहा जाता है। देवताओं की पूजा करने के बाद, गांव के पुजारी (लाया या पाहान) एक मुर्गी के सिर पर कुछ चावल अनाज डालता है स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि यदि मृगी भूमि पर गिरने के बाद चावल के अनाज खाते हैं, तो लोगों के लिए समृद्धि की भविष्यवाणी की जाती है, लेकिन अगर मुर्गी नहीं खाती, तो आपदा समुदाय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसके अलावा, आने वाले मौसम में पानी में टहनियाँ की एक जोड़ी देखते हुए वर्षा की भविष्यवाणी की जाती है। ये उम्र पुरानी परंपराएं हैं, जो पीढ़ियों से अनमोल समय से नीचे आ रही हैं। सभी झारखंड में जनजाति इस उत्सव को महान उत्साह और आनन्द के साथ मनाते हैं। जनजातीय पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को रंगीन और जातीय परिधानों में तैयार करना और पारंपरिक नृत्य करना। वे स्थानीय रूप में चावल से बनाये गये 'हांडिया' पीते हैं। आदिवासी पीसे हुए चावल और पानी का मिश्रण अपने चेहरे पर और सिर पर साल फुल (सारजोम बाहा) लगाते हैं, और फिर जायराथान के आखड़ा में नृत्य करते हैं। हालांकि एक आदिवासी त्योहार होने के बावजूद, सरहुल भारतीय समाज के किसी विशेष भाग के लिए प्रतिबंधित नहीं है। अन्य विश्वास और समुदाय जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई लोग नृत्य करने वाले भीड़ को बधाई देने में भाग लेते हैं। सरहुल सामूहिक उत्सव का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहां हर कोई प्रतिभागी है। आदिवासी मुंडा, भूमिज, हो और संथाल लोग इस त्योहार को हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। इन्हें भी देखें सरना धर्म झारखण्ड के आदिवासी त्योहार सरहुल नृत्य सन्दर्भ झारखंड लोकपर्व पर्व
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दक्षिण एशिया एक अनौपचारिक शब्दावली है जिसका प्रयोग एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग के लिये किया जाता है। सामान्यतः इस शब्द से आशय हिमालय के दक्षिणवर्ती देशों से होता है। भारत, पाकिस्तान, श्री लंका और बांग्लादेश को दक्षिण एशिया के देश या भारतीय उपमहाद्वीप के देश कहा जाता है जिसमें नेपाल और भूटान को भी शामिल कर लिया जाता है। सन् (2007) अफगानिस्तान भी इसका सदस्य देश बन चुका है। अब दक्षिण एशिया में आठ देश अवस्थित हैं। दक्षिण एशिया के देशों का एक संगठन दक्षेस भी है जिसके सदस्य देश निम्नवत हैं: जलवायु इस विशाल क्षेत्र की जलवायु उत्तर में शीतोष्ण करने के लिए दक्षिण में उष्णकटिबन्धीय मानसून से इस क्षेत्र के लिए क्षेत्र से काफी भिन्न है। विविधता भी है लेकिन इस तरह के समुद्र तट से निकटता और मानसून एस के मौसमी प्रभाव जैसे कारकों से, ऊँचाई न केवल से प्रभावित है। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) दक्षिण एशिया के आठ देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है। संगठन के सदस्य देशों की जनसंख्या (लगभग १.५ अरब) को देखा जाए तो यह किसी भी क्षेत्रीय संगठन की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली है। इसकी स्थापना 8 दिसम्बर 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी। अप्रैल [[२००७|2007 में संघ के 14 वें शिखर सम्मेलन में अफ़गानिस्तान इसका आठवाँ सदस्य बन गया। यह भी देखें सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ दक्षिण एशिया
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जयनगर निम्न में से कोई हो सकता है: जयनगर, बिहार - बिहार के मधुबनी जिले का एक शहर। जयनगर मजिलपुर - कोलकाता नगर का एक क्षेत्र।
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औरंगाबाद – महाराष्ट्र का एक प्रमुख शहर है। यह अजंता की गुफाओं के लिये दुनिया भर में मशहूर है। औरंगाबाद बिहार प्रान्त में भी एक शहर है जो राजधानी पटना से कुछ ही दूरी पर है।
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जयपुर शहर भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान की राजधानी है। जयपुर राजस्थान का जोधपुर महानगर के बाद दूसरा बड़ा शहर है। जयपुर को पिंक सिटी अथवा गुलाबी नगरी भी कहते है, इसको सबसे पहले स्टैनली रीड ने पिंक सिटी बोला था । जयपुर की स्थापना आमेर के महाराजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने की थी। यूनेस्को द्वारा जुलाई 2019 में जयपुर को वर्ल्ड हेरिटेज सिटी का दर्जा दिया गया है<ref>{{cite news|url=https://aajtak.intoday.in/story/rajasthan-pink-city-jaipur-world-heritage-site-unesco-prime-minister-narendra-modi-chief-minister-ashok-gehlot-atrc-1-1099225.html|title=पिंक सिटी जयपुर को UNESCO ने घोषित किया वर्ल्ड हेरिटेज, मोदी-गहलोत गदगद|accessdate=9 जुलाई 2019|publ जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से सजा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली, आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। संघीय राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह 111 फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शहर के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वैधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। 19वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या 1,80,000 थी जो अब बढ़ कर 2001 के आंकड़ों के अनुसार 13,7,119 और 2012 के बाद 20 लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा। इस प्रकार के धरोहर होना हमारे भारत देश के लिए एक गर्व की बात है । भारत सरकार को ऐसे धरोहरों को साज सजावट का पूरा ख्याल रखना चाहिए इतिहास सत्रहवीं शताब्दी में जब मुगल अपनी ताकत खोने लगे, तो समूचे भारत में अराजकता सिर उठाने लगी, ऐसे दौर में राजपूताना की आमेर रियासत,जिसके राजा भारमल जयचंद के पौत्र थे, एक बडी ताकत के रूप में उभरी। जाहिर है कि महाराजा सवाई जयसिंह जो भारमल के पुत्र थे को तब मीलों के दायरे में फ़ैली अपनी रियासत संभालने और सुचारु राजकाज संचालन के लिये आमेर छोटा लगने लगा और इस तरह से इस नई राजधानी के रूप में जयपुर की कल्पना की गई। इस शहर की नींव पहले पहल कहां रखी गई, इसके बारे में मतभेद हैं, किंतु कुछ इतिहासकारों के अनुसार तालकटोरा के निकट स्थित शिकार की होदी से इस शहर के निर्माण की शुरुआत हुई। कुछ इसे ब्रह्मपुरी और कुछ आमेर के पास एक स्थान 'यज्ञयूप' स्थल से मानते हैं। पर ये निर्विवाद है संबसे पहले चन्द्रमहल बना और फिर बाज़ार और साथ में तीन चौपड़ें | सवाई जयसिंह ने यह शहर बसाने से पहले इसकी सुरक्षा की भी काफी चिंता की थी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही सात मजबूत दरवाजों के साथ किलाबंदी की गई थी। जयसिंह ने हालाँकि मराठों के हमलों की चिंता से अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए चारदीवारी बनवाई थी, लेकिन उन्हें शायद मौजूदा समय की सुरक्षा समस्याओं का भान नहीं था। इतिहास की पुस्तकों में जयपुर के इतिहास के अनुसार यह देश का पहला पूरी योजना से बनाया गया शहर था और स्थापना के समय राजा जयसिंह ने अपनी राजधानी आमेर में बढ़ती आबादी और पानी की समस्या को ध्यान में रखकर ही इसका विकास किया था। नगर के निर्माण का काम १७२७ में शुरू हुआ और प्रमुख स्थानों के बनने में करीब चार साल लगे। यह शहर नौ खंडों में विभाजित किया गया था, जिसमें दो खंडों में राजकीय इमारतें और राजमहलों को बसाया गया था। प्राचीन भारतीय शिल्पशास्त्र के आधार पर निर्मित इस नगर के प्रमुख वास्तुविद थे एक बंगाली ब्राह्मण विद्याधर (चक्रवर्ती), जो आमेर दरबार की 'कचहरी-मुस्तफी' में आरम्भ में महज़ एक नायब-दरोगा (लेखा-लिपिक) थे, पर उनकी वास्तुकला में गहरी दिलचस्पी और असाधारण योग्यता से प्रभावित हो कर महाराजा ने उन्हें नयी राजधानी के लिए नए नगर की योजना बनाने का निर्देश दिया। यह शहर प्रारंभ से ही 'गुलाबी' नगर नहीं था बल्कि अन्य सामान्य नगरों की ही तरह था, लेकिन 1876 में जब वेल्स के राजकुमार आए तो महाराजा रामसिंह (द्वितीय) के आदेश से पूरे शहर को गुलाबी रंग से जादुई आकर्षण प्रदान करने की कोशिश की गई थी। उसी के बाद से यह शहर 'गुलाबी नगरी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सुंदर भवनों के आकर्षक स्थापत्य वाले, दो सौ वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले जयपुर में जलमहल, जंतर-मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला, हवामहल और आमेर का किला राजपूतों के वास्तुशिल्प के बेजोड़ नमूने हैं। स्थापत्य नियोजित तरीके से बसाये गये इस जयपुर में महाराजा के महल, औहदेदारों की हवेली और बाग बगीचे, ही नहीं बल्कि आम नागरिकों के आवास और राजमार्ग बनाये गये। गलियों का और सडकों का निर्माण वास्तु के अनुसार और ज्यामितीय तरीके से किया गया,नगर को सुरक्षित रखने के लिये, इस नगर के चारों ओर एक परकोटा बनवाया गया। पश्चिमी पहाडी पर नाहरगढ का किला बनवाया गया। पुराने दुर्ग जयगढ में हथियार बनाने का कारखाना बनवाया गया, जिसे देख कर आज भी वैज्ञानिक चकित हो जाते हैं, इस कारखाने और अपने शहर जयपुर के निर्माता सवाई जयसिंह की स्मृतियों को संजोये विशालकाय जयबाण तोप आज भी सीना ताने इस नगर की सुरक्षा करती महसूस होती है। महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर को नौ आवासीय खण्डों में बसाया, जिन्हें चौकडी कहा जाता है, इनमे सबसे बडी चौकडी सरहद में राजमहल,रानिवास,जंतर मंतर,गोविंददेवजी का मंदिर, आदि हैं, शेष चौकडियों में नागरिक आवास, हवेलियां और कारखाने आदि बनवाये गये। प्रजा को अपना परिवार समझने वाले सवाई जयसिंह ने सुन्दर शहर को इस तरह से बसाया कि यहां पर नागरिकों को मूलभूत आवश्यकताओं के साथ अन्य किसी प्रकार की कमी न हो, सुचारु पेयजल व्यवस्था, बाग-बगीचे, कल कारखाने आदि के साथ वर्षाजल का संरक्षण और निकासी का प्रबंध भी करवाया.सवाई जयसिंह ने लम्बे समय तक जयपुर में राज किया, इस शहर में हस्तकला,गीत संगीत,शिक्षा और रोजगार आदि को उन्होने खूब प्रोत्साहित किया। अलग २ समय में वास्तु के अनुरुप ईसरलाट,हवामहल,रामनिवास बागऔर विभिन्न कलात्मक मंदिर, शिक्षण संस्थानों आदि का निर्माण करवाया गया। बाजार- जयपुर प्रेमी कहते हैं कि जयपुर के सौन्दर्य को को देखने के लिये कुछ खास नजर चाहिये, बाजारों से गुजरते हुए, जयपुर की बनावट की कल्पना को आत्मसात कर इसे निहारें तो पल भर में इसका सौन्दर्य आंखों के सामने प्रकट होने लगता है। लम्बी चौडी और ऊंची प्राचीर तीन ओर फ़ैली पर्वतमाला सीधे सपाट राजमार्ग गलियां चौराहे चौपड भव्य राजप्रसाद, मंदिर और हवेली, बाग बगीचे,जलाशय और गुलाबी आभा से सजा यह शहर इन्द्रपुरी का आभास देने लगता है,जलाशय तो अब नहीं रहे, किन्तु कल्पना की जा सकती है, कि अब से कुछ दशक पहले ही जयपुर परकोटे में ही सिमटा हुआ था, तब इसका भव्य एवं कलात्मक रूप हर किसी को मन्त्र-मुग्ध कर देता होगा। आज भी जयपुर यहां आने वाले सैलानियों को बरसों बरस सहेज कर रखने वाले रोमांचकारी अनुभव देता है। जयपुर का बदलाव जयपुर की रंगत अब बदल रही है। हाल ही में जयपुर को विश्व के दस सबसे खूबसूरत शहरों में शामिल किया गया है। महानगर बनने की ओर अग्रसर जयपुर में स्वतन्त्रता के बाद कई महत्वाकांक्षी निर्माण हुए। एशिया की सबसे बडी आवासीय बस्ती मानसरोवर, राज्य का सबसे बड़ा सवाई मानसिंह चिकित्सालय, विधानसभा भवन, अमर जवान ज्योति, एम.आई.रोड, सेन्ट्रल पार्क और विश्व के प्रसिद्ध बैंक इसी कड़ी में शामिल हैं। पिछले कुछ सालों से जयपुर में मेट्रो संस्कॄति के दर्शन होने लगे हैं। चमचमाती सडकें, बहुमंजिला शापिंग माल, आधुनिकता को छूती आवासीय कालोनियां, आदि महानगरों की होड करती दिखती हैं। पुराने जयपुर और नये जयपुर में नई और पुरानी संस्कॄति के दर्शन जैसे इस शहर के विकास और इतिहास दोनों को स्पष्ट करते हैं। जयपुर कितना भी बदले पर इसके व्यंजनों का जायका बदस्तूर कायम है। जयपुर के व्यंजन में प्रसिद्ध दाल बाटी चूरमा, केर सांगरिया की सब्जी, मालपुआ इत्यादि है। दर्शनीय स्थल शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंददेवजी का मंदिर, [[श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर|श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं, जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान, राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं। सिटी पैलेस राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्रहालय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ाऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी। जंतर मंतर, वेधशाला एक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए (?) किया जाता है। हवा महल ईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी। हवा महल में कुल 953 खिड़कियां हैं| इन खिडकियों से जब हवा एक खिड़की से दूसरी खिड़की में होकर गुजरती हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पंखा चल रहा हैं| आपको हवा महल में खड़े होकर शुद्ध और ताज़ी हवा का पूर्ण एहसास होगा| गोविंद देवजी का मंदिर भगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जय-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था। सरगासूली (ईसरलाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। रामनिवास बाग एक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं। गुड़िया घर (समयः 12 बजे से सात बजे तक)- पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं। बी एम बिड़ला तारामण्डल (समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनोखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुधवार को यह बंद रहता है। गलता तीर्थ एक प्राचीन तीर्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है। चूलगि‍र‍ि जैन मंदिर - जयपुर-आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैं मोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिर मोती डूंगरी एक छोटी पहाडी है इस पर एक छोटे महल का न‍िर्माण क‍िया गया है इसके चारों और क‍िले के समान बुर्ज हैं । यहां स्थ‍ित प्राचीन श‍िवालय है जो वर्ष में केवल एक बार श‍िवरात्रि के द‍िन आमजन के ल‍िए पूजा के ल‍िए खोला जाता है । यह क‍िला स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। इसकी तलहटी में जयपुर का सर्वपूजनीय गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी जयपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं । स्टैच्यू सर्किल - चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं। अन्य स्थल आमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं। गैटोर सिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। अन्य बगीचों में, विद्याधर का बाग बहुत ही अच्छे ढ़ग से संरक्षित बाग है, इसमें घने वृक्ष, बहता पानी व खुले मंडप हैं। इसे शहर के नियोजक विद्याधर ने निर्मित किया था। आमेर आमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। मावठा झील के शान्त पानी से यह महल सीधा उभरता है और वहाँ सुगम रास्ते द्वारा पहुंचा जा सकता है। सिंह पोल और जलेब चौक तक अक्सर पर्यटक हाथी पर सवार होकर जाते हैं। चौक के सिरे से सीढ़ियों की पंक्तियाँ उठती हैं, एक शिला माता के मंदिर की ओर जाती है और दूसरी महल के भवन की ओर। यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। चौमू तहसील के पास गोविंदगढ़ कस्बे में "तोरण बावडी" अपनी कलात्मक वास्तुकला के लिए जानी जाती है एवं सिंगोद कला गांव में पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं यहां पर प्राचीनतम वैष्णव जैन मंदिर एवम ग्रामीण पर्यटन देखने को मिलता है । विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (?), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर (पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयपुर में आतंकवाद - १३ मई २००८ को जयपुर में श्रृंखलाबद्ध सात बम विस्फोट किए गए। विस्फोट १२ मिनट की अवधि के भीतर जयपुर के विभिन्न स्थानों पर हुए‍। आठवाँ बम निष्क्रिय पाया गया। घटना में ८० से अधिक लोगों कि मृत्यु व डेढ़ सौ से अधिक घायल हुए। जयपुर (सुइसी / डीएपीपीएएआर /) [2] [3] [4] उत्तरी भारत में राजस्थान और राजस्थान का सबसे बड़ा शहर है। यह 18 नवंबर 1726 को महाराजा जय सिंह द्वितीय, आमेर के शासक द्वारा स्थापित किया गया था जिसके बाद शहर का नाम लिया गया था। [5] 2011 तक, शहर की आबादी 3.1 मिलियन है, जिससे देश में यह दसवां सबसे अधिक आबादी वाला शहर बन गया है। जयपुर को भी भारत के गुलाबी शहर के रूप में जाना जाता है। [6] जयपुर भारतीय राजधानी नई दिल्ली से 260 किलोमीटर (162 मील) स्थित है। जयपुर आगरा (240 किमी, 14 9 मील) के साथ पश्चिमी स्वर्ण त्रिभुज पर्यटन सर्किट का एक हिस्सा है। [7] जयपुर भारत में लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और राजस्थान के अन्य पर्यटन स्थलों जैसे जोधपुर (348 किमी, 216 मील), जैसलमेर (571 किमी, 355 मील), उदयपुर (421 किमी, 262 मील) के लिए प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। और माउंट आबू (520 किमी, 323 मील) विषय वस्तु [छिपाएं] 1 इतिहास 2 जलवायु 3 वास्तुकला 4 जनसांख्यिकी 5 प्रशासन और राजनीति 6 अर्थव्यवस्था 7 मीडिया 8 संस्कृति 8.1 भोजन 8.2 बोली 9 रुचि के स्थान 10 खेल 11 शिक्षा 12 परिवहन 12.1 रोड 12.2 रेल 12.3 एयर 13 संचार 14 आगे पढ़ने 15 भी देखें 16 सन्दर्भ 17 बाहरी लिंक इतिहास [संपादित करें] मुख्य लेख: जयपुर का इतिहास जय सिंह द्वितीय, जयपुर के संस्थापक जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5] जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है। वर्ष 1727 में स्थापित, शहर का नाम महाराजा जय सिंह द्वितीय है, जो इस शहर के प्राथमिक आयोजक थे। वह एक कच्छवाहा राजपूत था और 16 99 और 1744 के आसपास के क्षेत्र में इस क्षेत्र पर शासन किया था। सवाई राम सिंह के शासन के दौरान, शहर को 1876 में राजकुमार ऑफ वेल्स, बाद में एडवर्ड VII, का स्वागत करने के लिए गुलाबी चित्रित किया गया था। [8] कई रास्ते गुलाबी रंग में पेंट किए गए, जयपुर को एक विशिष्ट रूप दिया गया और गुलाबी शहर का नाम दिया गया। [10] 1 9वीं सदी में, शहर तेजी से बढ़ गया और 1 9 00 तक इसकी आबादी 160,000 थी। विस्तृत बुलेवार्ड्स को पक्का किया गया था और इसके मुख्य उद्योग धातुओं और संगमरमर का काम थे, 1868 में स्थापित कला विद्यालय द्वारा विकसित किया गया था। इस शहर में तीन कॉलेज थे, जिनमें संस्कृत कॉलेज (1865) और लड़कियों के स्कूल (1867) के दौरान खोला गया था महाराजा राम सिंह II का शासनकाल। [11] [12] जलवायु जयपुर में गर्म रेगिस्तान की जलवायु और एक गर्म अर्ध शुष्क जलवायु के बीच की सीमा पर स्थित है कोपेन जलवायु वर्गीकरण "बीडब्ल्यूएच / बीएएस" [13] में सालाना 650 मिलीमीटर (26 इंच) से अधिक बारिश होती है, लेकिन मानसून के महीनों में ज्यादातर बारिश होती है जून और सितंबर के बीच गर्मियों के दौरान अप्रैल से लेकर शुरुआती जुलाई तक तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस (86 डिग्री फारेनहाइट) का औसत दैनिक तापमान रहता है। मानसून के दौरान बार-बार, भारी बारिश और झंझट पड़ते हैं, लेकिन बाढ़ आम नहीं है नवंबर से फरवरी के सर्दियों के महीनों हल्के और सुखद होते हैं, औसत तापमान 10-15 डिग्री सेल्सियस (50-59 डिग्री फारेनहाइट) से लेकर थोड़ा और नमी और ठंडे लहरों से ठंड के पास तापमान बढ़ जाता है। [14] वास्तुकला नहरगढ़ किले से देखा जाने वाला आइम किला 1727 में विद्याधर भट्टाचार्य ने भारतीय वास्तु शास्त्र के अनुसार शहर की योजना बनाई थी। [17] पूर्व, पश्चिम, ए का सामना कर रहे तीन गेट हैं इन्हें भी देखें राजस्थान राजस्थान के शहर सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ राजस्थान विश्वविद्यालय का जालस्थल - अंग्रेजी में Building Jaipur: The Making of an Indian City (गूगल पुस्तक ; By Vibhuti Sachdev, Giles Henry Rupert Tillotson] राजस्थान कि राजधानी जयपुर जयपुर के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य शहर जयपुर ज़िला हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना जयपुर ज़िले के नगर
1785
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वल्लभभाई झावेरभाई पटेल (३१ अक्टूबर १८७५ – १५ दिसम्बर १९५०) भारत के एक स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता तथा राजनेता थे। उन्हें लोग सरदार पटेल के नाम जानते हैं। 'सरदार' का अर्थ है "प्रमुख"। उन्होंने भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई। स्वतंत्र भारत में देशी रियसतों के एकीकरण की महान चुनौती को उन्होंने सफलतापूर्वक हल किया। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गृह मंत्री के रूप में कार्य किया। जीवन परिचय पटेल का जन्म नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल (पाटीदार)/कुर्मी जाति में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लन्दन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया। खेड़ा संघर्ष स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान 1918 में खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खण्ड (डिविजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल, गांधीजी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। बारडोली सत्याग्रह बारडोली सत्याग्रह, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में गुजरात में हुआ एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व वल्लभभाई पटेल ने किया । उस समय प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। सरकार ने इस सत्याग्रह आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए, पर अंतत: विवश होकर उसे किसानों की मांगों को मानना पड़ा। एक न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने संपूर्ण मामलों की जांच कर 22 प्रतिशत लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की। किसान संघर्ष एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के अंर्तसबंधों की व्याख्या बारदोली किसान संघर्ष के संदर्भ में करते हुए गांधीजी ने कहा कि इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुंचा रही है और हम सबको स्वराज की मंजिल तक पहुंचाने में ये संघर्ष सीधे स्वराज के लिए संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं। आजादी के बाद यद्यपि अधिकांश प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ पटेल के पक्ष में थीं, गांधी जी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल जी ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और इसके लिये नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधान मंत्री एवं गृह मंत्री का कार्य सौंपा गया। किन्तु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के सम्बन्ध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी। गृह मंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों (राज्यों) को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाये सम्पादित कर दिखाया। केवल हैदराबाद स्टेट के आपरेशन पोलो के लिये उनको सेना भेजनी पडी। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिये उन्हे भारत का लौह पुरूष के रूप में जाना जाता है। सन १९५० में उनका देहान्त हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अन्दर बहुत कम विरोध शेष रहा। देसी राज्यों (रियासतों) का एकीकरण स्वतंत्रता के समय भारत में 562 देसी रियासतें थीं। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 प्रतिशत था। सरदार पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही वीपी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। वहाँ के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत विलय चाहती थी। नवाब के विरुद्ध बहुत विरोध हुआ तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गयी। नवाब भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा। हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वहाँ के निजाम ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे। अन्ततः भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में प्रवेश कर गयी। तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर 1948 में भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गयी। 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री मोदीजी और गृहमंत्री अमित शाह जी के प्रयास से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त हुआ। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और सरदार पटेल का अखण्ड भारत बनाने का स्वप्न साकार हुआ। 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के रूप में दो केन्द्र शासित प्रेदश अस्तित्व में आये। अब जम्मू-कश्मीर केन्द्र के अधीन रहेगा और भारत के सभी कानून वहाँ लागू होंगे। पटेल जी को कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि है। गांधी, नेहरू और पटेल स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू व प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल में आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी परंतु सरदार पटेल वकालत में पं॰ नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे, "मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।" पं॰ नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी। पं॰ नेहरू अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे तथा समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। देश की स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री के साथ प्रथम गृह, सूचना तथा रियासत विभाग के मंत्री भी थे। सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गई थी। एक बार उन्होंने सुना कि बस्तर की रियासत में कच्चे सोने का बड़ा भारी क्षेत्र है और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निजाम सरकार खरीदना चाहती है। उसी दिन वे परेशान हो उठे। उन्होंने अपना एक थैला उठाया, वी.पी. मेनन को साथ लिया और चल पड़े। वे उड़ीसा पहुंचे, वहां के 23 राजाओं से कहा, "कुएं के मेढक मत बनो, महासागर में आ जाओ।" उड़ीसा के लोगों की सदियों पुरानी इच्छा कुछ ही घंटों में पूरी हो गई। फिर नागपुर पहुंचे, यहां के 38 राजाओं से मिले। इन्हें सैल्यूट स्टेट कहा जाता था, यानी जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। इसी तरह वे काठियावाड़ पहुंचे। वहां 250 रियासतें थी। कुछ तो केवल 20-20 गांव की रियासतें थीं। सबका एकीकरण किया। एक शाम मुम्बई पहुंचे। आसपास के राजाओं से बातचीत की और उनकी राजसत्ता अपने थैले में डालकर चल दिए। पटेल पंजाब गये। पटियाला का खजाना देखा तो खाली था। फरीदकोट के राजा ने कुछ आनाकानी की। सरदार पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर अपनी लाल पैंसिल घुमाते हुए केवल इतना पूछा कि "क्या मर्जी है?" राजा कांप उठा। आखिर 15 अगस्त 1947 तक केवल तीन रियासतें-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद छोड़कर उस लौह पुरुष ने सभी रियासतों को भारत में मिला दिया। इन तीन रियासतों में भी जूनागढ़ को 9 नवम्बर 1947 को मिला लिया गया तथा जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 13 नवम्बर को सरदार पटेल ने सोमनाथ के भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया, जो पंडित नेहरू के तीव्र विरोध के पश्चात भी बना। 1948 में हैदराबाद भी केवल 4 दिन की पुलिस कार्रवाई द्वारा मिला लिया गया। न कोई बम चला, न कोई क्रांति हुई, जैसा कि डराया जा रहा था। जहां तक कश्मीर रियासत का प्रश्न है इसे पंडित नेहरू ने स्वयं अपने अधिकार में लिया हुआ था, परंतु यह सत्य है कि सरदार पटेल कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर बेहद क्षुब्ध थे। नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था। भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, "रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।" यद्यपि विदेश विभाग पं॰ नेहरू का कार्यक्षेत्र था, परन्तु कई बार उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में उनका जाना होता था। उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता। 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा। 1950 में नेपाल के संदर्भ में लिखे पत्रों से भी पं॰ नेहरू सहमत न थे। 1950 में ही गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा "क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।" नेहरू इससे बड़े नाराज हुए थे। यदि पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती। गृहमंत्री के रूप में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) बनाया। अंग्रेजों की सेवा करने वालों में विश्वास भरकर उन्हें राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा। यदि सरदार पटेल कुछ वर्ष जीवित रहते तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता। सरदार पटेल जहां पाकिस्तान की छद्म व चालाकी पूर्ण चालों से सतर्क थे वहीं देश के विघटनकारी तत्वों से भी सावधान करते थे। विशेषकर वे भारत में मुस्लिम लीग तथा कम्युनिस्टों की विभेदकारी तथा रूस के प्रति उनकी भक्ति से सजग थे। अनेक विद्वानों का कथन है कि सरदार पटेल बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन के टाइम्स ने लिखा था "बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं। यदि पटेल के कहने पर चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल के हालात आज जैसे न होते। पटेल सही मायनों में मनु के शासन की कल्पना थे। उनमें कौटिल्य की कूटनीतिज्ञता तथा महाराज शिवाजी की दूरदर्शिता थी। वे केवल सरदार ही नहीं बल्कि भारतीयों के हृदय के सरदार थे। लेखन कार्य एवं प्रकाशित पुस्तकें निरन्तर संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले सरदार पटेल को स्वतंत्र रूप से पुस्तक-रचना का अवकाश नहीं मिला, परंतु उनके लिखे पत्रों, टिप्पणियों एवं उनके द्वारा दिये गये व्याख्यानों के रूप में बृहद् साहित्य उपलब्ध है, जिनका संकलन विविध रूपाकारों में प्रकाशित होते रहा है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो सरदार पटेल के वे पत्र हैं जो स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में दस्तावेज का महत्व रखते हैं। 1945 से 1950 ई० की समयावधि के इन पत्रों का सर्वप्रथम दुर्गा दास के संपादन में (अंग्रेजी में) नवजीवन प्रकाशन मंदिर से 10 खंडों में प्रकाशन हुआ था। इस बृहद् संकलन में से चुने हुए पत्र-व्यवहारों का वी० शंकर के संपादन में दो खंडों में भी प्रकाशन हुआ, जिनका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। इन संकलनों में केवल सरदार पटेल के पत्र न होकर उन-उन संदर्भों में उन्हें लिखे गये अन्य व्यक्तियों के महत्वपूर्ण पत्र भी संकलित हैं। विभिन्न विषयों पर केंद्रित उनके विविध रूपेण लिखित साहित्य को संकलित कर अनेक पुस्तकें भी तैयार की गयी हैं। उनके समग्र उपलब्ध साहित्य का विवरण इस प्रकार है:- हिन्दी में सरदार पटेल : चुना हुआ पत्र-व्यवहार (1945-1950) - दो खंडों में, संपादक- वी० शंकर, प्रथम संस्करण-1976, (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद) सरदारश्री के विशिष्ट और अनोखे पत्र (1918-1950) - दो खंडों में, संपादक- गणेश मा० नांदुरकर, प्रथम संस्करण-1981 (वितरक- नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद) भारत विभाजन (प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली) गांधी, नेहरू, सुभाष आर्थिक एवं विदेश नीति मुसलमान और शरणार्थी कश्मीर और हैदराबाद अंग्रेजी में Sardar Patel's correspondence, 1945-50. (In 10 Volumes), Edited by Durga Das [Navajivan Pub. House, Ahmedabad.] The Collected Works of Sardar Vallabhbhai Patel (In 15 Volumes), Ed. By Dr. P.N. Chopra & Prabha Chopra (Konark Publishers PVT LTD, Delhi) पटेल का सम्मान अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र रखा गया है। गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में सरदार पटेल विश्वविद्यालय सन १९९१ में मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित अन्य संस्थान एवं स्मारक सरदार पटेल स्मारक ट्रस्ट सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय स्मारक, अहमदाबाद सरदार सरोवर बाँध, गुजरात सरदार पटेल पुलिस, सुरक्षा एवं आपराधिक न्याय विश्वविद्यालय, जोधपुर सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद सरदार वल्लभभाई पटेल पुलिस संग्रहालय, कोल्लम सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सूरत सरदार पटेल प्रौद्योगिकी संस्थान, वसाड सरदार पटेल प्रौद्योगिकी संस्थान, मुम्बई सरदार पटेल इंजीनियरिंग कॉलेज, मुम्बई सरदार पटेल विद्यालय, नयी दिल्ली सरदार वल्लभभाई पटेल चौक (उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कटरा गुलाब सिंह में) सरदार पटेल स्टेडियम सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम, अहमदाबाद वल्लभभाई पटेल वक्ष संस्थान स्टैच्यू ऑफ यूनिटी इसकी ऊँचाई 240 मीटर है, जिसमें 58 मीटर का आधार है। मूर्ति की ऊँचाई 182 मीटर है, जो स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से लगभग दोगुनी ऊँची है। 31 अक्टूबर 2013 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137वीं जयन्ती के मौके पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार वल्लभ भाई पटेल के एक नए स्मारक का शिलान्यास किया। यहाँ लौह से निर्मित सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक विशाल प्रतिमा लगाने का निश्चय किया गया, अतः इस स्मारक का नाम 'एकता की मूर्ति' (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है। प्रस्तावित प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप 'साधू बेट' पर स्थापित किया गया है जो केवाडिया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के बीच स्थित है। 2018 में तैयार इस प्रतिमा को प्रधानमंत्री मोदी जी ने 31 अक्टूबर 2018 को राष्ट्र को समर्पित किया। यह प्रतिमा 5 वर्षों में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुई है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारत का राजनीतिक एकीकरण बारडोली सत्याग्रह एन. गोपालस्‍वामी अयंगर सोमनाथ मन्दिर वी पी मेनोन स्टैच्यू ऑफ यूनिटी बाहरी कड़ियाँ एकता की ब्रह्ममूर्ति सरदार वल्लभभाई पटेल (गूगल पुस्तक) पटेल ने कैसे किया रियासतों को एक करने का करिश्मा (प्रभासाक्षी) गांधीजी ने नेहरू को ही देश का नेतृत्व क्यों सौंपा? (डॉ॰ सतीश चन्द्र मित्तल) देसी रियासतों को भारत में मिलाने वाले लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को नमन भारतीय स्वतंत्रता सेनानी गुजरात के लोग गुजरात १८७५ जन्म १९५० में निधन भारत के गृह मंत्री भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भारत के उप प्रधानमंत्री
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "वल्लभ भाई पटेल", "token_count": 21496, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AD%20%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%88%20%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2" }
ब्रह्मा सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव है। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं। व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके पाँच मुख थे, लेकिन पांचवा मुख भगवान शंकर ने क्रोध में आकर काट दिया क्योंकि ब्रह्मा जी द्वारा असत्य बोला गया था। इसके बाद से उनके चार मुख ही है जो चार दिशाओं में देखते हैं। ब्रह्मा जी ब्रह्म का ही एक स्वरूप है । हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था। सरस्वती ब्रह्मा जी की पत्नी हैं। ब्रह्मा के सर्वप्रथम 4 मानस पुत्र हुए - सनकादिक ऋषि,फिर 10 अंगों से 10 ऋषि मानस पुत्र हुए नारद दक्ष वशिष्ठ अत्रि आदि। मैथुनी सृष्टि को बनाने के लिए आधे अंग से मनु और आधे अंग से शतरूपा को उत्पन्न किया जो सृष्टि के आदि पुरुष व महिला है।। बहुत से पुराणों में ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि उनसे बड़े किसी देव (ब्रह्म) की मौजूदगी और शक्ति (देवी दुर्गा) पर निर्भर करती है। ये हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं। ब्रह्मन् लिंगहीन हैं परन्तु ब्रह्मा पुलिंग हैं। प्राचीन ग्रंथों में इनका सम्मान किया जाता है पर इनकी पूजा बहुत (श्राप के कारण) कम होती है। भारत और थाईलैण्ड में इन पर समर्पित मंदिर हैं। राजस्थान के पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर और बैंकॉक का इरावन मंदिर () इसके उदाहरण हैं। ब्रह्मा जी आयु श्रीमद्भागवत के अनुसार ब्रह्मा जी का 51 वां वर्ष चल रहा है, 100 वर्ष आयु भगवान ब्रह्मा की बताई गई है। संसार में तीनों देवताओं को अजर-अमर बताया गया है जबकि वास्तविकता कुछ ओर है, ब्रह्मा जी कुल आय unlimited (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग बताई गई है, ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 इन्द्रों का शासन काल समाप्त हो जाता है। एक इंद्र का शासन काल बहत्तर चतुर्युग का होता है। इसलिए वास्तव में ब्रह्मा जी का एक दिन (72 गुणा 14) = 1008 चतुर्युग का होता है तथा इतनी ही रात्रि, परन्तु इस को एक हजार चतुर्युग मानकर चलते हैं।) महीना = 30 गुणा 2000 = 60000 (साठ हजार) चतुर्युग. वर्ष = 12 गुणा 60000 = 720000 (सात लाख बीस हजार) चतुर्युग की। व्युत्पत्ति हिंदू त्रिमूर्ति में भगवान ब्रह्मा इक्कीस ब्रह्मांडो के स्वामी है। भगवान ब्रह्मा,सृष्टि के तीन गुणों सत्व रजस् और तमस् में से रजस् गुण प्रधान है। इसी प्रकार, भगवान विष्णु सतोगुण और भगवान शिव तमोगुण प्रमुख हैं। हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ब्रह्मा ने अपने मन से १० पुत्रों को जन्म दिया जिन्हें मानसपुत्र कहा जाता है। भागवत पुरान के अनुसार ये मानसपुत्र ये हैं- अत्रि, अंगरिस, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष, और नारद हैं। इन ऋषियों को प्रजापति भी कहते हैं। इतिहास वैदिक साहित्य विष्णु और शिव के साथ ब्रह्मा के सबसे पुराने उल्लेखों में से एक पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित मैत्रायणी उपनिषद् के पांचवे पाठ में है। ब्रह्मा का उल्लेख पहले कुत्सायना स्तोत्र कहलाए जाने वाले छंद ५.१ में है। फिर छंद ५.२ इसकी व्याख्या करता है। सर्वेश्वरवादी कुत्सायना स्तोत्र कहता है कि हमारी आत्मा ब्रह्मन् है और यह परम सत्य या ईश्वर सभी प्राणियों के भीतर मौजूद है। यह आत्मा का ब्रह्मा और उनकी अन्य अभिव्यक्तियों के साथ इस प्रकार समीकरण करता है: तुम ही ब्रह्मा हो, तुम ही विष्णु हो, तुम ही रूद्र (शिव) हो, तुम ही अग्नि, वरुण, वायु, इंद्र हो, तुम सब हो। छंद ५.२ में विष्णु और शिव की तुलना गुण की संकल्पना से की गई है। यह कहता है कि ग्रन्थ में वर्णित गुण, मानस और जन्मजात प्रवृत्तियां सभी प्राणियों में होती हैं। मैत्री उपनिषद का यह अध्याय दावा करता है कि ब्रह्माण्ड अंधकार (तमस) से उभरा है। जो पहले आवेग (रजस) के रूप में उभरा था पर बाद में पवित्रता और अच्छाई (सत्त्व) में बदल गया। फिर यह ब्रह्मा की तुलना रजस से इस प्रकार करता है: हालांकि मैत्री उपनिषद ब्रह्मा की तुलना हिन्दू धर्म के गुण सिद्धांत के एक तत्व से करता है, पर यह उन्हें त्रिमूर्ति का भाग नहीं बताता है। त्रिमूर्ति का उल्लेख बाद के पुराणिक साहित्य में मिलता है। पौराणिक साहित्य भागवत पुराण में कई बार कहा गया है कि ब्रह्मा वह है जो "कारणों के सागर" से उभरता है।. यह पुराण कहता है कि जिस क्षण समय और ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ था, उसी क्षण ब्रह्मा हरि (विष्णु, जिनकी प्रशंसा भागवत पुराण का मुख्य उद्देश्य है) की नाभि से निकले एक कमल के पुष्प से उभरे थे। यह पुराण कहता है कि ब्रह्मा निद्रा में हैं, गलती करते हैं और वे ब्रह्माण्ड की रचना के समय अस्थायी रूप से अक्षम थे। जब वे अपनी भ्रान्ति और निद्रा से अवगत हुए तो उन्होंने एक तपस्वी की तरह तपस्या की, हरि को अपने हृदय में अपना लिया, फिर उन्हें ब्रह्माण्ड के आरंभ और अंत का ज्ञान हो गया, और फिर उनकी रचनात्मक शक्तियां पुनर्जीवित हो गईं। भागवत पुराण कहता है कि इसके बाद उन्होंने प्रकृति और पुरुष: को जोड़ कर चकाचौंध कर देने वाली प्राणियों की विविधता बनाई। भागवत पुराण माया के सृजन को भी ब्रह्मा का काम बताता है। इसका सृजन उन्होंने केवल सृजन करने की खातिर किया। माया से सब कुछ अच्छाई और बुराई, पदार्थ और आध्यात्म, आरंभ और अंत से रंग गया। पुराण समय बनाने वाले देवता के रूप में ब्रह्मा का वर्णन करते हैं। वे मानव समय की ब्रह्मा के समय के साथ तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि महाकल्प (जो कि एक बहुत बड़ी ब्रह्मांडीय अवधि है) ब्रह्मा के एक दिन और एक रात के बराबर है। ब्रह्मा के बारे में विभिन्न पुराणों की कथाएँ विविध और विसंगत हैं। उदाहरण के लिए स्कन्द पुराण में पार्वती को "ब्रह्माण्ड की जननी" कहा गया है। यह ब्रह्मा, देवताओं और तीनों लोकों को बनाने का श्रेय भी पार्वती को देता है। यह कहता है कि पार्वती ने तीनों गुणों (सत्त्व, रजस और तपस) को पदार्थ (प्रकृति) में जोड़ कर ब्रह्माण्ड की रचना की। पौराणिक और तांत्रिक साहित्य ब्रह्मा के रजस गुण वाले देव के वैदिक विचार को आगे बढ़ाता है। यह कहता है कि उनकी पत्नी सरस्वती में सत्त्व (संतुलन, सामंजस्य, अच्‍छाई, पवित्रता, समग्रता, रचनात्मकता, सकारात्मकता, शांतिपूर्णता, नेकता गुण) है। इस प्रकार वे ब्रह्मा के रजस (उत्साह, सक्रियता, न अच्छाई न बुराई पर कभी-कभी दोनों में से कोई एक, कर्मप्रधानता, व्यक्तिवाद, प्रेरित, गतिशीलता गुण) को अनुपूरण करती हैं। ब्रह्मा के अवतार विष्णुपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में ब्रह्मा के सात अवतारों का वर्णन है और रामायण के जामवंत जी को भी ब्रह्मा का अंश कहा गया है। महर्षि वाल्मीकि महर्षि कश्यप महर्षि बछेस चंद्रदेव बृहस्पति कालिदास महर्षि खट जामवंत इन्हें भी देखें ब्रह्म पुराण हिन्दू देवता सृष्टा देवता
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भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान, भाषा के स्वरूप, अर्थ और सन्दर्भ का विश्लेषण करता है। भाषा के दस्तावेजीकरण और विवेचन का सबसे प्राचीन कार्य ६ठी शताब्दी के महान भारतीय वैयाकरण पाणिनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ अष्टाध्यायी में किया है। भाषा विज्ञान के अध्येता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। भाषाविज्ञान, भाषा को भाषा ही जानकर उसका वैज्ञानिक अध्ययन करता है। भाषा विज्ञान के अनेक नाम भाषा-सम्बन्धी इस अध्ययन को यूरोप में आज तक अनेक नामों और संज्ञाओं से अभिहित किया जाता रहा है। सर्वप्रथम इस अध्ययन को फिलोलॉजी (Philology) शब्द के आगे विशेषण के रूप में एक शब्द जोड़ा गया- (Comparative) तब इसे ‘‘कम्पैरेटिव फिलोलॉजी’’ (Comparative Philology) कह कर पुकारा गया। उन्नीसवीं शताब्दी तक व्याकरण तथा भाषा-विषयक अध्ययन को प्रायः एक ही समझा जाता था। अतः इसे विद्वानों ने 'कम्पैरेटिव ग्रामर' नाम भी दिया। फ्रांस में इसको लैंगिस्तीक् (Linguistique) नाम दिया गया। फ्रांस में भाषा सम्बन्धी कार्य अधिक होने के कारण उन्नीसवीं सदी में सम्पूर्ण यूरोप में ही "Linguistique" अथवा "Linguistics" नाम ही प्रचलित रहा है। इसके अतिरिक्त 'साइंस ऑफ लैंग्वेज', ‘ग्लौटोलेजी’ (Glottology) आदि अन्य नाम भी इस विषय को प्रकट करने के लिए काम में आये। आज इन सभी नामों में से ‘‘लिंग्विस्टिक्स’’, ‘‘फिलोलॉजी’’ (Philology) मात्र ही प्रयोग में लाए जाते हैं। भारतवर्ष में इन सभी यूरोपीय नामों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में जो नाम प्रयोग में लाए जाते हैं वे इस प्रकार हैं- ‘‘भाषा-शास्त्र’’, ‘‘भाषा-तत्त्व’’, ‘‘भाषा-विज्ञान’’, तथा ‘‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’’ आदि। इन सभी नामों में से सर्व प्रचलित नाम ‘‘भाषा-विज्ञान’’ है। इन नाम में प्राचीन और नवीन सभी नामों का समाहार-सा हुआ जान पड़ता है। अतः यही नाम इस शास्त्र के लिए सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। इतिहास अपने वर्तमान स्वरूप में भाषा विज्ञान पश्चिमी विद्वानों के मस्तिष्क की देन कहा जाता है। अति प्राचीन काल से ही भाषा-सम्बन्धी अध्ययन की प्रवृत्ति साहित्य में पाई जाती है। ‘शिक्षा’ नामक वेदांग में भाषा सम्बन्धी सूक्ष्म चर्चा उपलब्ध होती है। ध्वनियों के उच्चारण, अवयव, स्थान, प्रयत्न आदि का इन ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। ‘प्रातिशाख्य’ एवं निरूक्त में शब्दों की व्युत्पत्ति, धातु, उपसर्ग-प्रत्यय आदि विषयों पर वैज्ञानिक विश्लेषण भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन कहा जा सकता है। भर्तृहरि के ग्रन्थ ‘वाक्यपदीय’ के अन्तर्गत ‘शब्द’ के स्वरूप का सूक्ष्म, गहन एवं व्यापक चिन्तन उपलब्ध होता है। वहाँ शब्द को ‘ब्रह्म’ के रूप में परिकल्पित किया गया है और उसकी ‘अक्षर’ संज्ञा बताई गई है। प्रकारान्तर से यह एक भाषा-अध्ययन समबन्धी ग्रन्थ ही है। साहित्य में दर्शन एवं साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों में भी हमें ‘शब्द’ ’अर्थ’, ‘रस’ ‘भाव’ के सूक्ष्म विवेचन के अन्तर्गत भाषा वैज्ञानिक चर्चाओं के ही संकेत प्राप्त होते हैं। संस्कृत-साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध होने वाली भाषा-विचार-विषयक सामग्री ही निश्चित रूप से वर्तमान भाषा-विज्ञान की आधारशिला कही जा सकती है। आधुनिक विषय के रूप में भाषा-विज्ञान का सूत्रपात यूरोप में सन 1786 ई0 में सर विलियम जोन्स नामक विद्वान द्वारा किया गया माना जाता है। संस्कृत भाषा के अध्ययन के प्रसंग में सर विलियम जोन्स ने ही सर्वप्रथम ग्रीक और लैटिन भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए इस संभावना को व्यक्त किया था कि संभवतः इन तीनों भाषाओं के मूल में कोई एक भाषा रूप ही आधार बना हुआ है। अतः इन तीनों भाषाओं (भाषा, ग्रीक और लैटिन) के बीच एक सूक्ष्म संबंध सूत्र अवश्य विद्यमान है। भाषाओं का इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन ही आधुनकि भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का पहला कदम बना। सामान्य परिचय 'भाषा-विज्ञान' नाम में दो पदों का प्रयोग हुआ है। 'भाषा' तथा 'विज्ञान'। भाषा-विज्ञान को समझने से पूर्व इन दोनों शब्दों से परिचित होना आवश्यक प्रतीत होता है। ‘भाषा’ शब्द संस्कृत की ‘‘भाष्’’ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है-व्यक्त वाक् (व्यक्तायां वाचि)। ‘विज्ञान’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग तथा ‘ज्ञा’ धातु से ‘ल्युट्’ (अन) प्रत्यय लगाने पर बनता है। सामान्य रूप से ‘भाषा’ का अर्थ है ‘बोलचाल की भाषा या बोली’ तथा ‘विज्ञान’ का अर्थ है ‘विशेष ज्ञान’, किन्तु ‘भाषा-विज्ञान’ शब्द में प्रयुक्त इन दोनों पदों का स्पष्ट और व्यापक अर्थ समझ लेने पर ही हम इस नाम की सारगर्भिता को जानने में सफल होंगे। अतः हम यहाँ इन दोनों पदों के विस्तृत अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। मानव एक सामाजिक प्राणी है। समाज में अपने भावों और विचारों को एक दूसरे तक पहुंचाने की आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जाती रही है। इस प्रकार भाषा का अस्तित्त्व मानव समाज में अति प्राचीन सिद्ध होता है। मानव के सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का प्रकाशन करने के लिए, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को जानने के लिए भाषा एक महत्त्वपूर्ण साधन का कार्य करती है। हमारे पूर्वपुरुषों से सभी साधारण और असाधारण अनुभव हम भाषा के माध्यम से ही जान सके हैं। हमारे सभी सद्ग्रन्थों और शास्त्रों से मिलने वाला ज्ञान भाषा पर ही निर्भर है। महाकवि दण्डी ने अपने महान ग्रन्थ ‘काव्यादर्श’ में भाषा की महत्ता सूचित करते हुए लिखा हैः- इदधतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्। यदि शब्दाह्नयं ज्योत्तिरासंसारं न दीप्यते॥ अर्थात् यह सम्पूर्ण भुवन अन्धकारपूर्ण हो जाता, यदि संसार में शब्द-स्वरूप ज्योति अर्थात् भाषा का प्रकाश न होता। स्पष्ट ही है कि यह कथन मानव भाषा को लक्ष्य करके ही कहा गया है। पशु-पक्षी भावों को प्रकट करने के लिए जिन ध्वनियों का आश्रय लेते हैं वे उनके भावों का वहन करने के कारण उनके लिए भाषा हो सकती हैं किन्तु मानव के लिए अस्पष्ट होने के कारण विद्वानों ने उसे ‘अव्यक्त वाक्’ कहा है, जो भाषा-विज्ञान की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखती। क्योंकि ‘अव्यक्त वाक्’ में शब्द और अर्थ दोनों ही अस्पष्ट बने रहते हैं। मनुष्य भी कभी-कभी अपने भावों को प्रकट करने के लिए अंग-भंगिमा, भ्रू-संचालन, हाथ-पाँव-मुखाकृति आदि के संकेतों का प्रयोग करते हैं परन्तु वह भाषा के रूप में होते हुए भी ‘व्यक्त वाक्’ नहीं है। मानव भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह ‘व्यक्त वाक्’ अर्थात् शब्द और अर्थ की स्पष्टता लिए हुए होती है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि के अनुसार ‘व्यक्त वाक्’ का अर्थ भाषा के वर्णनात्मक होने से ही है। यह सत्य है कि कभी-कभी संकेतों और अंगभंगिमाओं की सहायता से भी हमारे भाव और विचारों का प्रेषण बड़ी सरलता से हो जाता है। इस प्रकार वे चेष्टाएँ भाषा के प्रतीक बन जाती हैं किन्तु मानव भावों को प्रकट करने का सबसे उपयुक्त साधन वह वर्णनात्मक भाषा है जिसे ‘व्यक्त वाक्’ की संज्ञा प्रदान की गई है। इस में विभिन्न अर्थों को प्रकट करने के लिए कुछ निश्चित् उच्चरित या कथित ध्वनियों का आश्रय लिया जाता है। अतः भाषा हम उन शब्दों के समूह को कहते हैं जो विभिन्न अर्थों के संकेतों से सम्पन्न होते हैं। जिनके द्वारा हम अपने मनोभाव सरलता से दूसरों के प्रति प्रकट कर सकते हैं। इस प्रकार भाषा की परिभाषा करते हुए हम उसे मानव-समाज में विचारों और भावों का आदान-प्रदान करने के लिए अपनाया जाने वाला एक माध्यम कह सकते हैं जो मानव के उच्चारण अवयवों से प्रयत्नपूर्वक निःसृत की गई ध्वनियों का सार्थक आधार लिए रहता है। वो ध्वनि-समूह शब्द का रूप तब लेते हैं जब वे किसी अर्थ से जुड़ जाते हैं। सम्पूर्ण ध्वनि-व्यापार अर्थात् शब्द-समूह अपने अर्थ के साथ एक ‘यादृच्छिक’ सम्बंध पर आधारित होता है। ‘यादृच्छिक’ का अर्थ है पूर्णतया कल्पित। संक्षेप में विभिन्न अर्थों में व्यक्त किये गए मुख से उच्चरित उस शब्द समूह को हम भाषा कहते हैं जिसके द्वारा हम अपने भाव और विचार दूसरों तक पहुँचाते हैं। भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लाभ भाषा-विज्ञान के अध्ययन से हमें अनेक लाभ होते हैं, जैसे- 1. अपनी चिर-परिचित भाषा के विषय में जिज्ञासा की तृप्ति या शंकाओं का निर्मूलन। 2. ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक संस्कृति का परिचय। 3. किसी जाति या सम्पूर्ण मानवता के मानसिक विकास का परिचय। 4. प्राचीन साहित्य का अर्थ, उच्चारण एवं प्रयोग सम्बन्धी अनेक समस्याओं का समाधान। 5. विश्व के लिए एक भाषा का विकास। 6. विदेशी भाषाओं को सीखने में सहायता। 7. अनुवाद करने वाली तथा स्वयं टाइप करने वाली एवं इसी प्रकार की मशीनों के विकास और निर्माण में सहायता। 8. भाषा, लिपि आदि में सरलता, शुद्धता आदि की दृष्टि से परिवर्तन-परिवर्द्धन में सहायता। इन सभी लाभों की दृष्टि से आज के युग में भाषा-विज्ञान को एक अत्यन्त उपयोगी विषय माना जा रहा है और उसके अध्ययन के क्षेत्र में नित्य नवीन विकास हो रहा है। भाषाविज्ञान : कला है या विज्ञान? भाषा एक प्राकृतिक वस्तु है जो मानव को ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली हुई है। भाषा का निर्माण मनुष्य के मुख से स्वाभाविक रूप में निःसृत ध्वनियों (वर्णों) के द्वारा होता है। भाषा का सामान्य ज्ञान इसके बोलने और सुनने वाले सभी को हो जाता है। यही भाषा का सामान्य ज्ञान कहलाता है। इसके आगे, भाषा कब बनी, कैसे बनी ? इसका प्रारम्भिक एवं प्राचीन स्वरूप क्या था ? इसमें कब-कब, क्या-क्या परिवर्तन हुए और उन परिवर्तनों के क्या कारण हैं ? अथवा कुल मिलाकर भाषा कैसे विकसित हुई ? उस विकास के क्या कारण हैं ? कौन सी भाषा किस दूसरी भाषा से कितनी समानता या विषमता रखती है ? यह सब भाषा का विशेष ज्ञान या ‘भाषा-विज्ञान’ कहा जाएगा। इसी भाषा-विज्ञान के विशेष रूप अर्थात् भाषा विज्ञान को आज अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण विषय मान लिया गया है। भाषा-विज्ञान जब अध्ययन के विषयों में बड़ी-बड़ी कक्षाओं के पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया तो सर्वप्रथम यह एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि भाषा-विज्ञान को कला के अन्तर्गत गिना जाए या विज्ञान में। अर्थात् भाषा-विज्ञान कला है अथवा विज्ञान है। अध्ययन की प्रक्रिया एवं निष्कर्षों को लेकर निश्चय किया जाने लगा कि वस्तुतः उसे भौतिक विज्ञान, एवं रसायन विज्ञान आदि की भाँति विशुद्ध विज्ञान माना जाए अथवा चित्र, संगीत, मूर्ति, काव्य आदि कलाओं की भाँति कला के रूप में स्वीकार किया जाए। भाषा-विज्ञान कला नहीं है कला का सम्बन्ध मानव-जाति वस्तुओं या विषयों से होता है। यही कारण है कि कला व्यक्ति प्रधान या पूर्णतः वैयक्तिक होती है। व्यक्ति सापेक्ष होने के साथ-साथ किसी देश विशेष और काल-विशेष का भी कला पर प्रभाव रहता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी काल में कला के प्रति जो मूल्य रहते हैं उनमें कालान्तर में नये-नये परिवर्तन उपस्थित हो जाते हैं तथा वे किसी दूसरे देश में भी मान लिए जाएँ, यह भी आवश्यक नहीं है। एक व्यक्ति को किसी वस्तु में उच्च कलात्मक अभिव्यक्ति लग रही है। किन्तु दूसरे को वह इस प्रकार की न लग रही हो। अतः कला की धारणा प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न हुआ करती है। कला का सम्बन्ध मानव हृदय की रागात्मिक वृत्ति से होता है। उसमें व्यक्ति की सौन्दर्यानुभूति का पुट मिला रहता है। कला का उद्देश्य भी सौन्दर्यानुभूति कराना, या आनन्द प्रदान करना है, किसी वस्तु का तात्विक विश्लेषण करना नहीं। कला के स्वरूप की इन सभी विशेषताओं की कसौटी पर परखने से ज्ञात होता है कि भाषा-विज्ञान कला नहीं है। क्योंकि उसका सम्बन्ध हृदय की सरसता-वृत्ति से न होकर बुद्धि की तत्त्वग्राही दृष्टि से होता है। भाषा-विज्ञान का उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति कराना या मनोरंजन कराना भी नहीं है। वह तो हमारे बौद्धिक चिन्तन को प्रखर बनाता है। भाषा के अस्तित्व का तात्त्विक मूल्यांकन करता है। उसका दृष्टिकोण बुद्धिवादी है। भाषा-विज्ञान के निष्कर्ष किसी व्यक्ति, राष्ट्र या काल के आधार पर परिवर्तित नहीं होते हैं तथा भाषा-विज्ञान के अध्ययन का मूल आधार जो भाषा है वह मानवकृत पदार्थ नहीं है। अतः भाषा-विज्ञान को हम कला के क्षेत्र में नहीं गिन सकते। भाषा-विज्ञान की उपयोगिता इसमें है कि वह भाषा सिखाने की कला का ज्ञान कराता है। इसी कारण स्वीट ने व्याकरण को भाषा को कला तथा विज्ञान दोनों कहा है। भाषा का शुद्ध उच्चारण, प्रभावशाली प्रयोग कला की कोटि में रखे जा सकते हैं। भाषाविज्ञान : विज्ञान है भाषा-विज्ञान को कला की सीमा में नहीं रखा जा सकता, यह निश्चय हो जाने पर यह प्रश्न उठता है कि क्या भाषा-विज्ञान, भौतिक-शास्त्र, रसायन-विज्ञान आदि विषयों की भाँति पूर्णतः विज्ञान है ? अनेक विद्वानों की धारणा में भाषा-विज्ञान विशुद्ध विज्ञान नहीं है। उनकी धारणा के अनुसार अभी भाषा-विज्ञान के सभी प्रयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं हुए हैं और उसके निष्कर्षों को इसीलिए अंतिम निष्कर्ष नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही भाषा-विज्ञान के सभी निष्कर्ष विज्ञान की भाँति सार्वभौमिक और सार्वकालिक भी नहीं है। जिस प्रकार गणित शास्त्र में 2 + 2 = 4 सार्वकालिक, विकल्परहित निष्कर्ष है जो सर्वत्र स्वीकार किया जाता है, भाषा-विज्ञान के पास इस प्रकार के विकल्प-रहित निर्विवाद निष्कर्ष नहीं है। विज्ञान में तथ्यों का संकलन और विश्लेषण होता है और ध्वनि के नियम अधिकांशतः विकल्परहित ही हैं, अतः कुछ विद्वानों के अनुसार भाषा-विज्ञान को मानविकी (कला) एवं विज्ञान के मध्य में रखा जा सकता है। विचार करने पर हम देखते हैं कि विज्ञान की आज की दु्त प्रगति में प्रत्येक विशेष ज्ञान अपने आगामी ज्ञान के सामने पुराना और अवैज्ञानिक सिद्ध होता जा रहा है। नित्य नवीन आविष्कारों के आज के युग में वैज्ञानिक दृष्टि नित्य सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और नवीन से नव्यतर होती चली जा रही है। आज के विकसित ज्ञान-क्षेत्र को देखते हुए कई वैज्ञानिक मान्यताएँ पुरानी और फीकी पड़ गई है। न्यूटन का प्रकाश सिद्धान्त भी अब सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा है। इससे यह सिद्ध होता हो जाता है कि नूतन ज्ञान के प्रकाश में पुरातन ज्ञान भी विज्ञान के क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। अतः विशुद्ध ज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर भाषा-विज्ञान को हम विज्ञान के ही सीमा-क्षेत्र में पाते हैं। भाषा-विज्ञान निश्चय ही एक विज्ञान है जिसके अन्तर्गत हम भाषा का विशेष ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह सही है कि अभी तक भाषा-विज्ञान का वैज्ञानिक स्तर पर पूर्णतः विकास नहीं हो पाया है। यही कारण है कि प्रसिद्ध ग्रिम-नियम के आगे चल कर ग्रासमान और वर्नर को उसमें सुधार करना पड़ा है। उक्त सुधारों से पूर्व ग्रिम का ध्वनि नियम निश्चित् नियम ही माना जाता था और सुधारों के बाद भी वह निश्चित् नियम ही माना जाता है। इस प्रकार नये ज्ञान के प्रकाश में पुराने सिद्धान्तों का खण्डन होने से विज्ञान का कोई विरोध नहीं है। वास्तव में यही शुद्ध विज्ञान है। सन् 1930 के बाद जहाँ वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान को पुनः महत्त्व प्राप्त हुआ, वहाँ तब से लेकर आज तक द्रुत गति में विकास हुआ है। जब से ध्वनि के क्षेत्र में यंत्रों की सहायता से नये-नये परीक्षण प्रारम्भ हुए हैं तथा प्राप्त निष्कर्ष पूरी तरह नियमित होने लगे हैं, तब से ही भाषा-विज्ञान धीरे-धीरे प्रगति करता हुआ विज्ञान की श्रेणी में माना जाने लगा है। विज्ञान की एक बड़ी विशेषता है उसका प्रयोगात्मक होना। अमेरिकी विद्वान् बलूम फील्ड़ (सन् 1933 ई0) के बाद अमेरिकी भाषा विज्ञानियों ने ध्वनि-विज्ञान एवं रूप-विज्ञान आदि के साथ भाषा-विज्ञान की एक नवीन पद्धति के रूप में प्रायोगिक भाषा-विज्ञान का बड़ी तीव्रता के साथ विकास किया है। इस पद्धति के अन्तर्गत भाषा-विज्ञान प्रयोगशालाओं का विषय बनता जा रहा है और उसके लिए अनेक यंत्रों का अविष्कार हो गया है। यह देख कर निश्चित रूप में इस विषय को विज्ञान ही कहा जाएगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। आजकल जबकि समाज-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि शास्त्रीय विषयों के लिए जहाँ विज्ञान शब्द का प्रयोग करने की परम्परा चल पड़ी है तब शुद्ध कारण-कार्य परम्परा पर आधारित भाषा-विज्ञान को विज्ञान कहना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। भाषा-विज्ञान की परिभाषा डॉ॰ श्यामसुन्दर दास ने अपने ग्रन्थ भाषा रहस्य में लिखा है- भाषा-विज्ञान भाषा की उत्पत्ति, उसकी बनावट, उसके विकास तथा उसके ह्रास की वैज्ञानिक व्याख्या करता है। मंगल देव शास्त्री (तुलनात्मक भाषाशास्त्र) के शब्दों में- भाषा-विज्ञान उस विज्ञान को कहते हैं जिसमें (क) सामान्य रूप से मानवी भाषा (ख) किसी विशेष भाषा की रचना और इतिहास का और अन्ततः (ग) भाषाओं या प्रादेशिक भाषाओं के वर्गों की पारस्परिक समानताओं और विशेषताओं का तुलनात्मक विचार किया जाता है। डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के ‘भाषा-विज्ञान’ ग्रन्थ में यह परिभाषा इस प्रकार दी गई है- जिस विज्ञान के अन्तर्गत वर्णनात्मक, ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन के सहारे भाषा की उत्पत्ति, गठन, प्रकृति एवं विकास आदि की सम्यक् व्याख्या करते हुए, इन सभी के विषय में सिद्धान्तों का निर्धारण हो, उसे भाषा विज्ञान कहते हैं। ऊपर दी गई सभी परिभाषाओं पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उनमें परस्पर कोई अन्तर नहीं है। डॉ॰ श्यामसुन्दर दास की परिभाषा में जहाँ केवल भाषाविज्ञान पर ही दृष्टि केन्द्रित रही है वहीँ मंगलदेव शास्त्री एवं भोलानाथ तिवारी ने अपनी परिभाषाओं में भाषा विज्ञान के अध्ययन के प्रकारों को भी समाहित कर लिया है। परिभाषा वह अच्छी होती है जो संक्षिप्त हो और स्पष्ट हो। इस प्रकार हम भाषा-विज्ञान की एक नवीन परिभाषा इस प्रकार दे सकते हैं- “जिस अध्ययन के द्वारा मानवीय भाषाओं का सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, उसे भाषा-विज्ञान कहा जाता है।” दूसरे शब्दों में भाषा-विज्ञान वह है जिसमें मानवीय भाषाओं का सूक्ष्म और व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। व्याकरण और भाषा-विज्ञान में अन्तर (क) व्याकरण शास्त्र में किसी भाषा विशेष के नियम बताए जाते हैं अतः उसका दृष्टिकोण एक भाषा पर केन्द्रित रहता है किन्तु भाषा-विज्ञान में तुलना के लिए अन्य भाषाओं के नियम, अध्ययन का आधार बनाए जाते हैं। इस प्रकार व्याकरण का क्षेत्र सीमित है और भाषा-विज्ञान का व्यापक। (ख) व्याकरण वर्णन-प्रधान है। वह किसी भाषा के नियम तथा साधु रूप सामने रख देता है। व्याकरण भाषा के व्यावहारिक पक्ष का संकेत करता है उसके कारण व इतिहास की कोई विवेचना नहीं करता। संस्कृत की गम् धातु (गतः) से हिन्दी में गया बना है। परन्तु ‘जाना’, ‘जाता’ आदि शब्द ‘या’ धातु से बने हैं। इसी कारण गया शब्द को भी इसी के साथ जोड़ दिया गया है। व्याकरण की दृष्टि से कभी ‘एक दश’ शुद्ध शब्द रहा होगा परन्तु कालान्तर में ‘द्वादश’ की नकल पर ‘एकादश’ का प्रचलन हो गया। व्याकरण तो प्रचलित रूप बतला कर चुप हो जाएगा पर भाषा-विज्ञान इससे भी आगे जाएगा, वह बताएगा कि इसके पीछे मुण्डा आदि आसपास की भाषाओं का प्रभाव है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान व्याकरण का भी व्याकरण है। (ग) भाषा-विज्ञान जहाँ भाषा के विकास का कारण समझाता है वहाँ व्याकरण प्रचलित शब्द को ‘साधु प्रयोग’ कहकर भाषा-विज्ञान का अनुगमन करता जाता है। इस प्रकार व्याकरण भाषा विज्ञान का अनुगामी है। भाषा-विज्ञान में ध्वनि-विचार के अन्तर्गत हिन्दी के अधिकांश शब्द व्यंजनांत माने जाने लगे हैं जैसे ‘राम’ शब्द का उच्चारण ‘राम’ न होकर राम् है किन्तु व्याकरण अभीतक अकारांत मानता चला आ रहा है। (घ) भाषा-विज्ञान में भाषा के जो परिवर्तन उसका विकास माने जाते हैं वे व्याकरण में उसकी भ्रष्टता कहे जाते हैं। यही कारण है कि संस्कृत के बाद प्राकृत (= बिगड़ी हुई) आदि नाम दिये गये। भाषा-विज्ञान ‘धर्म’ शब्द के ‘धम्म’ या ‘धरम’ हो जाने को उसका विकास कहता है और व्याकरण उसे विकार कहता है। साहित्य और भाषा-विज्ञान भाषा के प्रचलित वर्तमान स्वरूप को छोड़ कर शेष सारी अध्ययन सामग्री भाषा-विज्ञान को साहित्य से ही उपलब्ध होती है। यदि आज हमारे सामने संस्कृत, ग्रीक और अवेस्ता साहित्य न होता तो भाषा-विज्ञान कभी यह जानने में सफल न होता कि ये तीनों भाषाएँ किसी एक मूल भाषा से निकली हैं। इसी प्रकार आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का हिन्दी साहित्य हमारे सामने न होता तो भाषा-विज्ञान हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन किस प्रकार कर पाता। भाषा-विज्ञान किसी प्रकार से भी भाषा का अध्ययन करे उसे पग-पग पर साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है। बुन्देलखण्ड के नटखट बालकों के मुंह से यह सुन कर- ओना मासी धम बाप पढ़े ना हम व्याकरण कहता है कि यह क्या बला है, प्राचीन साहित्य का अध्ययन ही उसे बतलाएगा कि शाकटायन के प्रथम सूत्र ‘ऊँ नमः सिद्धम्’ का ही यह बिगड़ा हुआ रूप है। साहित्य भी भाषा-विज्ञान की सहायता से अपनी अनेक समस्याओं का समाधान खोजने में सफल हो जाता है। डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने भाषा-विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर जायसीकृत ‘पद्मावत’ के बहुत से शब्दों को उनके मूल रूपों से जोड़ कर उनके अर्थों को स्पष्ट किया है। साथ ही शुद्ध पाठ के निर्धारण में भी इससे पर्याप्त सहायता ली है। अतः साहित्य और भाषा-विज्ञान दोनों एक दूसरे के सहायक हैं। मनोविज्ञान और भाषा-विज्ञान भाषा हमारे भावों-विचारों अर्थात् मन का प्रतिबिम्ब होती है अतः भाषा की सहायता से बहुत से समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। विशेष रूप से अर्थविज्ञान तो मनोविज्ञान पर पूरी तरह से आधारित है। वाक्य-विज्ञान के अध्ययन में भी मनोविज्ञान से पर्याप्त सहायता मिलती है। कभी-कभी ध्वनि-परिवर्तन का कारण जानने के लिए भी मनोविज्ञान हमारी सहायता करता है। भाषा की उत्पत्ति तथा प्रारम्भिक रूप की जानकारी में भी बाल-मनोविज्ञान तथा अविकसित लोगों का मनोविज्ञान हमारी सहायता करता है। मनोविज्ञान को भी अपनी चिकित्सा-पद्धति में रोगी की ऊलजलूल बातों का अर्थ जानने के लिए भाषा-विज्ञान से सहायता लेनी पड़ती है। अतः भाषा-विज्ञान की सहायता से एक मनोविज्ञानी रोगी की मनोग्रन्थियों का पता लगाने में सफल हो सकता है। भाषा-विज्ञान और मनोविज्ञान के घनिष्ठ सम्बन्धों के कारण ही आजकल भाषा मनोविज्ञान (Linguistic Psychology) या साइकोलिंगिंवस्टिक्स (Psycholinguistics) नामक एक नयी अध्ययन-पद्धति का विकास हो रहा है। शरीर-विज्ञान और भाषा-विज्ञान भाषा मुख से निकलने वाली ध्वनि को कहते हैं अतः भाषा-विज्ञान में हवा भीतर से कैसे चलती है, स्वरयंत्र, स्वरतंत्री, नासिकाविवर, कौवा, तालु, दाँत, जीभ, ओंठ, कंठ, मूर्द्धा तथा नाक के कारण उसमें क्या परिवर्तन होते हैं तथा कान द्वारा कैसे ध्वनि ग्रहण की जाती है, इन सबका अध्ययन करना पड़ता है। इसमें शरीर-विज्ञान ही उसकी सहायता करता है। लिखित भाषा का ग्रहण आँख द्वारा होता है और इस प्रक्रिया का अध्ययन भी भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत ही होता है। इसके लिए भी उसे शरीर विज्ञान का ऋणी होना पड़ता है। भूगोल और भाषा-विज्ञान भाषा-विज्ञान और भूगोल का भी-गहरा सम्बन्ध है। कुछ लोगों के अनुसार किसी स्थान की भौगोलिक परिस्थितियों का उसकी भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी स्थान में बोली जाने वाली भाषा में वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, जीव-जन्तु एवं अन्न आदि के लिए शब्द अवश्य मिलते हैं परन्तु यदि उनमें से किसी की समाप्ति हो जाए तो उसका नाम वहाँ की भाषा से भी जुदा हो जाता हैं। ‘सोमलता’ शब्द का प्रयोग आज हमारी भाषा में नहीं होता। इस लोप का कारण सम्भवतः भौगोलिक ही है। किसी स्थान में एक भाषा का दूर तक प्रसार न होना, भाषा में कम विकास होना तथा किसी स्थान में बहुत सी बोलियों का होना भी भौगोलिक परिस्थितियों का ही परिणाम होता है। दुर्गम पर्वतों पर रहने वाली जातियों का परस्पर कम सम्पर्क होने के कारण उनकी बोली प्रसार नहीं कर पाती। नदियों के आर-पार रहने वाले लोगों की बोली-भाषा सामान्य भाषा से हट कर भिन्न होती है। देशों, नगरों, नदियों तथा प्रान्तों आदि के नामों का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन करने में भूगोल बड़ी मनोरंजक सामग्री प्रदान करता है। अर्थ-विचार के क्षेत्र में भी भूगोल भाषा-विज्ञान की सहायता करता है। ‘उष्ट्र’ का अर्थ भैंसा से ऊँट कैसे हो गया तथा ‘सैंधव’ का अर्थ घोड़ा और नमक ही क्यों हुआ, आदि समस्याओं पर विचार करने में भी भूगोल सहायता करता है। भाषा-विज्ञान की एक शाखा भाषा-भूगोल की अध्ययन-पद्धति तो ठीक भूगोल की ही भाँति होती है। इसी प्रकार किसी स्थान के प्रागौतिहासिक काल के भूगोल का अध्ययन करने में भाषा-विज्ञान भी पर्याप्त सहायक होता है। इतिहास और भाषा-विज्ञान इतिहास का भी भाषा-विज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इतिहास के तीन रूपों (१) राजनीतिक इतिहास, (२) धार्मिक इतिहास, (३) सामाजिक इतिहास-को लेकर यहाँ भाषा-विज्ञान से उसका सम्बन्ध दिखलाया जा रहा है- (क) राजनीतिक इतिहास : किसी देश में अन्य देश का राज्य होना उन दोनों ही देशों की भाषाओं को प्रभावित करता है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के कई हजार शब्दों का प्रवेश तथा अंग्रेजी भाषा में कई हजार भारतीय भाषाओं के शब्दों का प्रवेश भारत की राजनीतिक पराधीनता या दोनों देशों के परस्पर सम्बन्ध का परिणाम है। हिन्दी में अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली शब्दों के आने के कारणों को जानने के लिए भी हमें राजनीतिक इतिहास का सहारा लेना पड़ता है। (ख) धार्मिक इतिहास : भारत में हिन्दी-उर्दू-समस्या धर्म या साम्प्रदायिकता की ही देन है। धर्म का भाषा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। धर्म का रूप बदलने पर भाषा का रूप भी बदल जाता है। यज्ञ का लोक-धर्म से उठ जाना ही वह कारण है जिससे आज हमारी भाषा से यज्ञ-सम्बन्धी अनेक शब्दों का लोप हो चुका है। व्यक्तियों के नामों पर भी धर्म का प्रभाव पड़ता है। हिन्दू की भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता होगी तो एक मुसलमान की भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों की प्रचुरता देखने को मिलेगी। इसी प्रकार बहुत-सी प्राचीन धार्मिक गुत्थियों को भाषा-विज्ञान की सहायता से सुलझाया जा सकता है। धर्म के बल पर कभी-कभी कोई बोली अन्य बोलियों को पीछे छोड़कर विशेष महत्त्व पा जाती है। मध्य युग में अवधी और ब्रज के विशेष महत्त्व का कारण हमें धार्मिक इतिहास में ही प्राप्त होता है। (ग) सामाजिक इतिहास : सामाजिक व्यवस्था तथा हमारी परम्पराएँ भी भाषा को प्रभावित करती हैं। भाषा की सहायता से किसी जाति के सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। भारतीय समाज में पारिवारिक सम्बन्धों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसलिए भारतीय भाषाओं में, माँ-बाप, बहन-भाई, चाचा, मौसा, फूफा, बुआ, मौसी, साला, बहनोई, साढ़ू, साली, सास-ससुर जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है किन्तु यूरोपीय समाज में इन सभी सम्बन्धों के लिए केवल अंकल, आंट, मदर, फादर, ब्रदर, सिस्टर जैसे शब्द ही है जिनमें कुछ ‘इन लॉ’ आदि शब्द जोड़ जाड़ कर अभिव्यक्ति की जाती है। अतः भाषा-विज्ञान के अध्ययन में सामाजिक इतिहास पूरी सहायता करता है। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में शब्दों का किस प्रकार निर्माण हो जाया करता है इस पर भाषा-विज्ञान प्रकाश डालता है। किसी समाज की भाषा में मिलने वाले शब्दों से उसकी समाज-व्यवस्था का परिचय प्राप्त होता है। समाज में संयुक्त-परिवार व्यवस्था है, विशाल कुटुम्ब व्यवस्था है या एकल परिवार व्यवस्था है इस बात का उसमें व्यवहार किए गए शब्दों से पता चलता है। भाषाविज्ञान तथा ज्ञान के अन्य क्षेत्र भाषाविज्ञान के अध्ययन में तर्कशास्त्र, भौतिकशास्त्र एवं मानव-शास्त्र जैसे अन्य ज्ञान के क्षेत्र भी बड़ी सहायता पहुंचाते हैं। मनुष्य में अनेक प्रकार के अंधविश्वास घर कर लेते हैं जिनका उसकी भाषा पर प्राभाव पड़ता है। भारतीय सामज में स्त्रियाँ अपने पति का नाम घुमा-फिराकर लेती है, सीधा-स्पष्ट नहीं। रात्रि में विशाल कीड़ों का नाम नहीं लिया जाता है। वे अपने लड़के का नाम मांगे (मांगा हुआ), छेदी (उसकी नाक छेद कर), बेचू (उसे दो-चार पैसे में किसी के हाथ बेच कर), घुरहू (कूड़ा), कतवारू (कूड़ा) अलिचार (कूड़ा) या लेंढ़ा (रड्डी), आदि रखते हैं। अंधविश्वासों के अतिरिक्त अन्य बहुत सी सामाजिक-मनोविज्ञान से सम्बद्ध गुत्थियों के स्पष्टीकरण के लिए मानव-विज्ञान की शाखा-प्रशाखाओं का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार ज्ञान के अनेक क्षेत्र- संस्कृति-अध्ययन, शिक्षाशास्त्र, सांख्यिकी, पाठ-विज्ञान - आदि भाषा विज्ञान से गहरा सम्बन्ध रखते हैं। भाषाविज्ञान के क्षेत्र मानव की भाषा का जो क्षेत्र है वही भाषा-विज्ञान का क्षेत्र है। संसारभर के सभ्य-असभ्य मनुष्यों की भाषाओं और बोलियों का अध्ययन भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान केवल सभ्य-साहित्यिक भाषाओं का ही अध्ययन नहीं करता अपितु असभ्य-बर्बर-असाहित्यिक बोलियों का, जो प्रचलन में नहीं है, अतीत के गर्त में खोई हुई हैं, उन भाषाओं का भी अध्ययन इसके अन्तर्गत होता है। भाषा-विज्ञान के अध्ययन के विभाग विषय-विभाजन की दृष्टि से भाषाविज्ञान को भाषा-संरचना (व्याकरण) एवं 'अर्थ का अध्ययन' (semantics) में बांटा जाता है। इसमें भाषा का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण और वर्णन करने के साथ ही विभिन्न भाषाओं के बीच तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाता है। भाषाविज्ञान के दो पक्ष हैं- तात्त्विक और व्यवहारिक। तात्त्विक भाषाविज्ञान में भाषा का ध्वनिसम्भार (स्वरविज्ञान और ध्वनिविज्ञान (फ़ोनेटिक्स)), व्याकरण (वाक्यविन्यास व आकृति विज्ञान) एवं शब्दार्थ (अर्थविज्ञान) का अध्ययन किया जाता है। व्यवहारिक भाषाविज्ञान में अनुवाद, भाषा शिक्षण, वाक-रोग निर्णय और वाक-चिकित्सा, इत्यादि आते हैं। इसके अतिरिक्त भाषाविज्ञान का ज्ञान-विज्ञान की अन्यान्य शाखाओं के साथ गहरा संबंध है। इससे समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, गणनामूलक भाषाविज्ञान (computational lingustics), आदि इसकी विभिन्न शाखाओं का विकास हुआ है। भाषाविज्ञान के गौण क्षेत्र निम्नलिखित हैं- 1. भाषा की उत्पत्ति : भाषा-विज्ञान का सबसे प्रथम, स्वाभाविक, महत्त्वपूर्ण किन्तु विचित्र प्रश्न भाषा की उत्पत्ति का है। इस पर विचार करके विद्वानों ने अनेक सिद्धान्तों का निर्माण किया है। यह एक अध्ययन का रोचक विषय है जो भाषा के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। 2. भाषाओं का वर्गीकरण : भाषा के प्राचीन विभाग (वाक्य, रूप, शब्द, ध्वनि एवं अर्थ) के आधार पर हम संसार भर की सभी भाषाओं का अध्ययन करके उन्हें विभिन्न कुलों या वर्गों में विभाजित करते हैं। 3. अन्य क्षेत्र : भाषा के अध्ययन के भाषा-भूगोल, भाषा-कालक्रम विज्ञान, भाषा पर आधारित प्रागैतिहासिक खोज, लिपि-विज्ञान, भाषा की प्रकृति, भाषा के विकास के कारण आदि अन्य अनेक क्षेत्र हैं। तात्त्विक भाषाविज्ञान के प्रक्षेत्र स्वनविज्ञान (Phonetics) : मानव के स्वर-यंत्र द्वारा उत्पन्न स्वनियों का अध्ययन स्वनिमविज्ञान (Phonology) : किसी भाषा के स्वनिमों का अध्ययन रूपविज्ञान (morphology) : शब्दों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन वाक्यविन्यास या वाक्यविज्ञान (syntax) : वाक्य का निर्माण करने वाली शाब्दिक इकाइयों (lexical units) के बीच परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन अर्थविज्ञान (semantics) : शब्दों एवं कथनों के अर्थ का अध्ययन शैली (style) प्रायोगिक भाषाविज्ञान (pragmatics) वाक्य-विज्ञान : भाषा में सारा विचार-विनिमय वाक्यों के आधार पर किया जाता है। भाषा-विज्ञान के जिस विभाग में इस पर विचार किया जाता है उसे वाक्य-विचार या वाक्य-विज्ञान कहते हैं। इसके तीन रूप हैं- (१) वर्णनात्मक (descriptive) (२) ऐतिहासक वाक्य-विज्ञान (Historical) (३) तुलनात्मक वाक्य-विज्ञान (Comparative) वाक्य-रचना का सम्बंध बोलनेवाले समाज के मनोविज्ञान से होता है। इसलिए भाषा-विज्ञान की यह शाखा बहुत कठिन है। रूप-विज्ञान : वाक्य की रचना पदों या रूपों के आधार पर होती है। अतः वाक्य के बाद पद या रूप का विचार महत्त्वपूर्ण हो जाता है। रूप-विज्ञान के अन्तर्गत धातु, उपसर्ग, प्रत्यय आदि उन सभी उपकरणों पर विचार करना पड़ता है जिनसे रूप बनते हैं। शब्द-विज्ञान : रूप या पद का आधार शब्द है। शब्दों पर रचना या इतिहास इन दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। किसी व्यक्ति या भाषा का विचार भी इसके अन्तर्गत किया जाता है। कोश-निर्माण तथा व्युत्पत्ति-शास्त्र शब्द-विज्ञान के ही विचार-क्षेत्र की सीमा में आते हैं। भाषा के शब्द समूह के आधार पर बोलने वाले का सांस्कृतिक इतिहास जाना जा सकता है। ध्वनि-विज्ञान : शब्द का आधार है ध्वनि। ध्वनि-विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनियों का अनेक प्रकार से अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत ध्वनि-शास्त्र (Phonetics) एक अलग से उपविभाग है जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने वाले अंगों-मुख-विवर, नासिका-विवर, स्वर तंत्री, ध्वनि यंत्र के साथ-साथ सुनने की प्रक्रिया का भी अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के दो रूप हैं-ऐतिहासिक और दूसरा तुलनात्मक। ग्रिम नियम का सम्बन्ध इसी से है। अर्थ-विज्ञान : वाक्य का बाहरी अंग ध्वनि पर समाप्त हो जाता है यह भाषा का बाहरी कलेवर है इसके आगे उसकी आत्मा का क्षेत्र प्रारम्भ होता है जिसे हम अर्थ कहते हैं। अर्थ-रहित शब्द आत्मारहित शरीर की भाँति व्यर्थ होता है। अतः अर्थ भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। अर्थ-विज्ञान में शब्दों के अर्थों का विकास तथा उसके कारणों पर विचार किया जाता है। भाषाविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ अथवा प्रकार किसी भी अध्ययन को हम वैज्ञानिक तब कहते हैं जब उसमें एक निश्चित प्रक्रिया को अपना कर चलते हैं। भाषा विज्ञान भी किसी भाषा के कारण-कार्यपरक युक्तिपूर्ण विवेचन-विश्लेषण के लिए कुछ निश्चित प्रक्रियाओं में बंध कर चलता है। इन्हीं प्रक्रियाओं के आधार पर अभी तक भाषा-विज्ञान के पाँच प्रकार के अध्ययन हमें प्राप्त होते हैं- सामान्यतया भाषा का अध्ययन निम्नांकित दृष्टियों से किया जाता है : वर्णनात्मक पद्धति वर्णात्मक पद्धति द्वारा एक ही काल की किसी एक भाषा के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है। इसके लिए इसमें उन सिद्धांतों पर प्रकाश डाला जाता, जिनके आधार पर भाषा-विशेष की रचनागत विशेषताओँ को स्पष्ट किया जा सके। ध्यातव्य है कि इस पद्धति में एक साथ विभिन्न कालों को भाषा का समावेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर काल की भाषा के विश्लेषण के लिए पृथक्-पृथक् सिद्धांतों का प्रयोजन पड़ेगा। पाणिनि न केवल भारत के, अपितु संसार के सबसे बड़े भाषाविज्ञानी हैं, जिन्होंने वर्णनात्मक रूप में भाषा का विशद एवं व्यापक अध्ययन किया। कात्यायन एवं पतंजलि भी इसी कोटि में आते हैं। ग्रीक विद्वानों में थ्रैक्स, डिस्कोलस तथा इरोडियन ने भी इस क्षेत्र में उल्लेख्य कार्य किया था। पाणिनि से पूर्ण प्रभावित होकर ब्लूमफील्ड (अमरीका) ने सन् १९३२ ई. में 'लैंग्वेज' नामक अपना ग्रन्थ प्रकाशित करवाकर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। इधर पश्चिमी देशों - विशेषकर अमरीका में वर्णनात्मक भाषाविज्ञान का आशातीत विकास हुआ है। ऐतिहासिक पद्धति या कालक्रमिक पद्धति (diachronic linguistics) किसी भाषा मे विभिन्न कालों में परिवर्तनों पर विचार करना एवं उन परिवर्तनों के सम्बन्ध में सिद्धांतो का निर्माण ही ऐतिहासिक भाषाविज्ञान (Historical linguistics) का उद्देश्य होता है। वर्णनात्मक पद्धति का मूल अन्तर यह है कि वर्णनात्मक पद्धति जहाँ एककालिक है, वहाँ ऐतिहासिक पद्धति द्विकालिक। संकृत भाषा की प्राचीनता ने ऐतिहासिक पद्धति की ओर भाषाविज्ञानियों का ध्यान आकृष्ट किया। 'फिलॉलोजी' का मुख्य प्रतिपाद्य प्राचीन ग्रन्थों की भाषाओं का तुलनातमक अध्ययन ही था। मुख्यतः संस्कृत, जर्मन, ग्रीक, लॉतिन जैसी भाषाओं पर ही विद्वानों का ध्यान केन्द्रित रहा। फ्रेडरिक औगुस्ट वुल्फ ने सन् १७७७ ई. में ही ऐतिहासिक पद्धति की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया था। वस्तुतः, किसी भी भाषा के विकासात्मक रूप को समझने के लिए ऐतिहासिक पद्धति का सहारा लेंना ही पड़ेगा। पुरानी हिन्दी अथवा मध्यकालीन हिन्दी और आधुनिक हिन्दी में क्या परिवर्तन हुआ है, इसे ऐतिहासिक पद्धति द्वारा ही स्पष्ट किया जा सकता है। तुलनात्मक पद्धति तुलनात्मक पद्धति द्वारा दो या दो से अधिक भाषाओं की तुलना की जाती है। इसे मिश्रित पद्धति भी कह सकते हैं, क्योंकि विवरणात्मक पद्धति तथा ऐतिहासिक पद्धति दोनों का आधार लिया जाता है। विवरण के लिए किसी एक काल को निश्चित करना होता है और तुलना के लिए कम-से-कम दो भाषाओं की अपेक्षा होती है। इस प्रकार, तुलनात्मक पद्धति को वर्णनात्मक पद्धति और ऐतिहासिक पद्धति का योग कहा जा सकता है। तुलनात्मक पद्धति किन्हीं दो भाषाओं पर लागू हो सकती है। जैसे, भारतीय भाषाओं - भोजपुरी आदि में भी परस्पर तुलना की जाती है या फिर हिन्दी-अंगरेजी, हिन्दी-रूसी, हिन्दी-फारसी का भी तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। अर्थात् इसमें क्षेत्रगत सीमा नहीं है। विलियम जोन्स (१७४६-१७९४तक), फ्रांस बॉप्प (१७९१-१८६७), मैक्समूलर (१८२३-१९००), कर्टिअस (१८२०-१८८५), औगुस्ट श्लाइखर (१८२३-१८६८) प्रभृति विद्वानों ने तुलनात्मक भाषाविज्ञान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। पर, अबतक तुलनात्मक भाषाविज्ञान में उन सिद्धांतों की बड़ी कमी है, जिनके आधार पर दो भिन्न भाषाओं का वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं बन सका। संरचनात्मक (गठनात्मक) पद्धति संरचनात्मक पद्धति वर्णनात्मक पद्धति की अगली कड़ी है। अमरीका में इस पद्धति का विशेष प्रचार हो रहा है। इसमें यांत्रिक उपकरणों को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है, जिससे अनुवाद करने में विशेष सुविधा होगी। जैलिग हैरिस ने 'मेथेड्स इन स्ट्रक्चरल लिंग्युस्टिक्स ' नामक पुस्तक लिखकर इस पद्धति को विकसित किया। भाषाविज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष विज्ञान की अन्य शाखाओं के समान भाषाविज्ञान के भी प्रयोगात्मक पक्ष हैं, जिनके लिये प्रयोग की प्रणालियों और प्रयोगशाला की अपेक्षा होती है। भिन्न-भिन्न यांत्रिक प्रयोगों के द्वारा उच्चारणात्मक स्वनविज्ञान (articulatory phonetics), भौतिक स्वनविज्ञान (acoustic phonetics) और श्रवणात्मक स्वनविज्ञान (auditory phonetics) का अध्ययन किया जाता है। इसे प्रायोगिक स्वनविज्ञान, यांत्रिक स्वनविज्ञान या प्रयोगशाला स्वनविज्ञान भी कहते हैं। इसमें दर्पण जैसे सामान्य उपकरण से लेकर जटिलतम वैद्युत उपकरणों का प्रयोग हो रहा है। परिणामस्वरूप भाषाविज्ञान के क्षेत्र में गणितज्ञों, भौतिकशास्त्रियों और इंजीनियारों का पूर्ण सहयोग अपेक्षित हो गया है। कृत्रिम तालु और कृत्रिम तालु प्रोजेक्टर की सहायता से व्यक्तिविशेष के द्वारा उच्चारित स्वनों के उच्चारण स्थान की परीक्षा की जाती है। कायमोग्राफ स्वानों का घोषणत्व और प्राणत्व निर्धारण करने अनुनासिकता और कालमात्रा जानने के लिये उपयोगी है। लैरिंगो स्कोप से स्वरयंत्र (काकल) की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। एंडोस्कोप लैरिंगोस्कोप का ही सुधरा रूप है। ऑसिलोग्राफ की तरंगें स्वनों के भौतिक स्वरूप को पर्दे पर या फिल्म पर अत्यंत स्पष्टता से अंकित कर देती है। यही काम स्पेक्टोग्राफ या सोनोग्राफ द्वारा अधिक सफलता से किया जाता है। स्पेक्टोग्राफ जो चित्र प्रस्तुत करता है उन्हें पैटर्न प्लेबैक द्वारा फिर से सुना जा सकता है। स्पीचस्ट्रेचर की सहायता से रिकार्ड की हुई सामग्री को धीमी गति से सुना जा सकता है। इनके अतिरिक्त और भी छोटे बड़े यंत्र हैं, जिनसे भाषावैज्ञानिक अध्ययन में पर्याप्त सहायता ली जा रही है। फ्रांसीसी भाषावैज्ञानिकों में रूइयो ने स्वनविज्ञान के प्रयोगों के विषय में (Principes phonetique experiment, Paris, 1924) ग्रंथ लिखा था। लंदन में प्रो॰ फर्थ ने विशेष तालुयंत्र का विकास किया। स्वरों के मापन के लिये जैसे स्वरत्रिकोण या चतुष्कोण की रेखाएँ निर्धारित की गई हैं, वैसे ही इन्होंने व्यंजनों के मापन के लिये आधार रेखाओं का निरूपण किया, जिनके द्वारा उच्चारण स्थानों का ठीक ठीक वर्णन किया जा सकता है। डेनियल जांस और इडा वार्ड ने भी अंग्रेजी स्वनविज्ञान पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। फ्रांसीसी, जर्मन और रूसी भाषाओं के स्वनविज्ञान पर काम करने वालों में क्रमश: आर्मस्ट्राँग, बिथेल और बोयानस मुख्य हैं। सैद्धांतिक और प्रायोगिक स्वनविज्ञान पर समान रूप से काम करनेवाले व्यक्तियों में निम्नलिखित मुख्य हैं: स्टेटसन (मोटर फोनेटिक्स 1928), नेगस (द मैकेनिज्म ऑव दि लेरिंग्स,1919) पॉटर, ग्रीन और कॉप (विजिबुल स्पीच), मार्टिन जूस (अकूस्टिक फोनेटिक्स, 1948), हेफनर (जनरल फोनेटिक्स 1948), मौल (फंडामेंटल्स ऑव फोनेटिक्स, 1963) आदि। इधर एक नया यांत्रिक प्रयास आरंभ हुआ है जिसका संबंध शब्दावली, अर्थतत्व तथा व्याकरणिक रूपों से है। यांत्रिक अनुवाद के लिए वैंद्युत कम्प्यूटरों का उपयोग वैज्ञानिक युग की एक विशेष देन है। यह अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अत्यंत रोचक और उपादेय विषय है। भौगोलिक भाषाविज्ञान नृजातीय भाषाविज्ञान अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विस्तृत विवेचन के लिये अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान''' देखें। सन्दर्भ इन्हें भी देखें उपभाषा विज्ञान समाजभाषाविज्ञान भाषा-परिवार भाषा दर्शन बाहरी कड़ियाँ भाषाविज्ञान की शब्दावली (अंग्रेजी से हिन्दी) भाषाविज्ञान परिभाषा-कोश, प्रथम खण्ड (वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग) भाषाविज्ञान परिभाषा-कोश, द्वितीय खण्ड (वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग) आधुनिक भाषा विज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राजमणि शर्मा) भाषाविज्ञान की भूमिका (गूगल पुस्तक; लेखक - देवेन्द्रनाथ शर्मा) - इसके अन्त में बहूपयोगी "भाषाविज्ञान की शब्दावली" दी हुई है। भाषा विज्ञान : सैद्धान्तिक चिन्तन (गूगल पुस्तक ; लेखक - रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव) भाषा विज्ञान प्रवेशिका एवं हिन्दी भाषा (गूगल पुस्तक ; जयन्ती प्रसाद नौटियाल) भाषा अध्ययन (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवेन्द्र किशोर वर्मा, दिलिप सिंह) भाषा का संसार (गूगल पुस्तक ; लेखक - दिलिप सिंह) भारतीय भाषाविज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक-आचार्य किशोरीलाल वाजपेयी) भाषाविज्ञान, हिन्दी भाषा और लिपि (गूगल पुस्तक; लेखक - डॉ रामकिशोर शर्मा) भाषाविज्ञान (महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक) कॉर्पस भाषाविज्ञान (डॉ॰ काजल बाजपेयी) भारतीय भाषाओं के संसाधन के स्रोत भारतीय भाषाओं के संसाधन उपकरण sem project/project/hin_corp_unicode/hin_corp_unicode/910_utf.txt भाषाविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ अथवा प्रकार Glossary Of Hindi Urdu & English Linguistic Terminology 2 Vol (Google Books By Umberto Nardella) An Academic Linguistics Forum Glottopedia, MediaWiki-based encyclopedia of linguistics, under construction The Virtual Linguistics Campus Linguistic sub-fields - according to the Linguistic Society of America The Linguist List, a global online linguistics community with news and information updated daily. Glossary of linguistic terms "Linguistics" section - A Bibliography of Literary Theory, Criticism and Philology, ed. J. A. García Landa (University of Zaragoza, Spain) Linguistics and language-related wiki articles on Scholarpedia and *Citizendium तुलनात्मक भाषाविज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक - भोलानाथ तिवारी, पांडुरंग दामोदर गुणे) द्वितीय भाषा-शिक्षण में भाषाविज्ञान की भूमिका Pseudolinguistics भाषा-विज्ञान
1790
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "भाषाविज्ञान", "token_count": 54364, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8" }
मैथिली मुख्यतः भारत के उत्तर-पूर्व बिहार ,झारखंड, उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असाम और नेपाल देश के साथ विभिन्न देश की भाषा है। बिहार के 21 जिलों में (मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर,खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, सुपौल, मधेपुरा, मुंगेर, भागलपुर, सहरसा, पूर्णिया, सीतामढ़ी, शिवहर, वैशाली, बाँका, लखीसराय, जमुई और बेगूसराय) और नेपाल के सात जिलों में (धनुषा जिला, महोत्तरी जिला, सिराहा जिला, सर्लाही जिला, सप्तरी जिला, सुनसरी जिला और मोरंग जिला) यह प्रमुख रूप से बोली जाती है। इसका क्षेत्र लगभग 30,000 वर्गमील में व्याप्त है। मैथिली भाषा का सांस्कृतिक केंद्र भारत में मधुबनी, दरभंगा,सितामढ्ढी, सहरसा, मुज्जफपुर, देवघर,भागलपुर और नेपाल में जनकपुर है। बांग्ला भाषा, असमिया और उड़िया के साथ-साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में हिंदी से मिलती जुलती है। मैथिली लिपि अन्य स्वतंत्र साहित्यिक भाषाओं की तरह मैथिली की अपनी प्राचीन लिपि है जिसे "तिरहुता" या मिथिलाक्षर कहते हैं। इसका विकास नवीं शताब्दी ईo में शुरू हो गया था। आजकल छपी हुई पुस्तकों में अधिकांश देवनागरी का ही प्रयोग होने लगा है। मैथिली साहित्य का काल विभाजन मैथिली के साहित्य को तीन कालों में विभक्त किया जाता है - आदिकाल (1000 ई. - 1600 ई.), मध्यकाल (1600 ई. -1860 ई.), और आधुनिक काल (1860 ई. से ........)। प्रथम काल में गीतिकाव्य, द्वितीय में नाटक और तृतीय में गद्य की प्रधानता रही है। आदिकाल मैथिली का सबसे प्राचीन साहित्य बौद्ध तांत्रिकों के अपभ्रंश दोहों और भाषा गीतों में पाया जाता है। इनकी भाषा मिथिला के पूर्वीय भाग की बोली का प्राचीन रूप है तथापि बँगला, उड़िया और असमिया भी अपना आदि-साहित्य इन्हीं को मानती हैं। इसके बाद इसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग मिथिला में कार्णाट राजाओं का उदय हुआ। उन्होंने मैथिल संगीत की परंपरा स्थापित की जिसके कारण काणाटिवंश के हरसिंह देव का काल स्वर्णयुग (लगभग 1324 ई0) कहलाया। उनके समकालीन ज्योतिरीश्वर ठाकुर का "वर्णन-रत्नाकर" नामक एक महान गद्यकाव्य मिलता है। इसमें विभिन्न विषयों पर कवियों के उपयोगार्थ उपमाओं और वर्णनों को सजाकर रखा गया है। (हाल ही में उन्हीं का "धूर्तसमागम" नामक नाटक और मैथिली गीत भी उपलब्ध हुए हैं।) ज्यातिरीश्वर के उपरांत विद्यापति ठाकुर का युग आता है (1350-1450)। इस युग में मिथिला में ओइनिवार वंश का राज्य था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण प्रेम के संगीत की परंपरा चलाई, उसी में मैथिल कोकिल विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली काव्यधारा की विशेषत: गीतिकाव्य की एक अनोधी परंपरा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वीय भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया। विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल में, उड़ीसा में और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रचीं। इस साहित्य की परंपरा आधुनिक काल तक चली आई है। 20वीं शताब्दी में विश्वकवि रवींद्र ने "भानुसिंहेर पदावली" के नाम से कई सुंदर ब्रजबुलीद पद लिखे। विद्यापति की परंपरा मिथिला में भी चली। न केवल इनके राधाकृष्ण संबंधी श्रृंगारिक गीत, किंतु शक्ति और शिव विषयक कविताओं का भी (जिनहें क्रमश: गोसाउनिक गीत और नचारी कहते हैं) लोग अभ्यास करने लगे। विद्यापति के समकालीन कवियों में अमृतकर, चंद्रकला, भानु, दशावधान, विष्णुपुरी, कवि शेखर यशोधर, चतुर्भुज और भीषम कवि उल्लेखनीय हैं। विद्यापति के परवर्ती कवियों में, महाराज कंसनारायण (लगभग 1527 ई0) के दरबार में रहनेवाले कवियों का नाम लिया जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध लोकप्रिय कवि गोविंद हुए। ये गोविंददास से भिन्न थे और इनकी पदावली "कंसनारायण पदावली" में मिलती है। विद्यापति परंपरा के परकालीन कविर्यो में महिनाथ ठाकुर, लोचन झा, हर्षनाथ झा और चंदा झा के नाम गिनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल में तीन कवि प्रसिद्ध हुए जिन्होंने विद्यापति के शिव और शक्ति विषयक पदों का विशेष अनुकरण किया। उनके नाम हैं सिंह नरसिंह, भूपतींद्र मल्ल और जगतप्रकाश मल्ल। मध्य काल मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमणों के कारण मिथिला में कई वर्षो तक अराजकता रही। ओइनिवार वंश के नष्ट होने के बाद मिथिला के अधिकतर विद्वान कवि और संगीतज्ञ नेपाल के राजदरबारों में संरक्षण के लिये चले गए। वहाँ के मल्ल राजाओं की काव्य और नाटक का बड़ा शौक था। इसलिए मध्ययुगीन मैथिली साहित्य का एक बड़ा अंश नेपाल में ही लिखा गया। नेपाल में रचित साहित्य में नाट्य साहित्य मुख्य था। पहले संस्कृत के नाटकों में मैथिली गानों का संनिवेश करना आरंभ हुआ। क्रमश: उनमें संस्कृत और प्राकृत का व्यवहार कम होने लगा और मैथिली में ही संपूर्ण नाटक लिखे जाने लगे। अंत में संस्कृत नाटक की भी रूपरेखा छोड़ दी गई और एक अभिनव गीतिनाट्य की परंपरा स्थापित हुई। इनमें संगीत की प्रधानता रहती थी। अधिकांश कथानक संकेत में ही व्यक्त होता था और गद्य का व्यवहार नहीं होता था। राजसभाओं में ही ये नाटक अभिनीत होते थे। रंगमंच खुला रहता था और अभिनय दिन में होता था। कथानक नवीन नहीं हुआ करते थे- बहुधा पुराने पौराणिक आख्यान या नाटक को ही फिर से गीतिनाट्य का रूप देकर अथवा केवल संशोधन करके ही उपस्थित कर देते थे। नेपाली नाटककारों की कार्यभूमि मुख्यत: तीन स्थानों में रही- भक्तपुर, काठमांडू और पाटन। भक्तपुर में सबसे अधिक नाटक लिखे गए और अभिनीत हुए। मुख्य नाटककार पाँच हुए- जगज्योतिर्मल्ल, जगत्प्रकाश मल्ल, जितामित्र मल्ल, भूपतींद्र मल्ल और रणजित मल्ल। इनमें सबसे अधिक नाटक रणजित मल्ल ने लिखे। इनके बनाए 19 नाटकों का पता अब तक लगा है। काठमांडू में सबसे प्रसिद्ध नाटककार वंशमणि झा हुए। पाटन में सबसे बड़े कवि और नाटककार सिद्धिनरसिंह मल्ल (1620-1657) हुए। नेपाली नाटकों की परम्परा 1768 ईस्वी में नष्ट हो गई जब महाराज पृथ्वीनारायण शाह ने वहाँ के मल्ल राजाओं को हराकर गुरखों का राज्य स्थापित किया। मध्यकाल-2 (1600-1660) मैथिली नाटक मिथिला के राजदरबारों में गीतिनाट्य परंपरा बन रही थी जिसको 'कीर्तनिया नाटक' कहते हैं। कीर्तनिया नाटक का आरम्भ प्राय: शिव या कृष्ण के चरित्र का कीर्तन करने से हुआ। परंतु वे धार्मिक नाटक नहीं होते थे। कीर्तनिया का अभिनय रात को होता था तथा इसका अपना विशेष संगीत हुआ करता था जिसे नादी कहते हैं। कीर्तनिया नाटकों के आरंभ में भी केवल मैथिली गानों को संस्कृत नाटकों में रखा जाता था। ये गान संस्कृत श्लोंकों या वाक्यों का अर्थमात्र ललित भाषा में स्पष्ट करते थे। हाँ, कभी कभी स्वतंत्र गान का भी उपयोग होता था। क्रमश: लगभग संपूर्ण नाटक मैथिली गानमय होने लगा। कीर्तनिया नाटककारों को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता हैं-1350-1700 तक, 1700-1900 तक और 1900-1950 तक। पहले काल में विद्यापति का गोरक्षविजय, गोविंद कवि नलचरितनाट, रामदास का अनंदविजय, देवानन्द का उषाहरण, उमापति का पारिजातहरण और रमापति का रुकमणि परिणय गिने जा सकते हैं। इसमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध उमापति उपाध्याय (18वीं शताब्दी) हुए। दूसरे काल के मुख्य नाटककार हैं- लाल कवि, नंदीपति, गाकुलानंद, जयानंद कान्हाराम, रत्नपाणि, भानुनाथ और हर्षनाथ। इनमें लाल कवि का गौरी स्वयंवर और हर्षनाथ का उषाहरण तथा माघवानंद अधिक प्रसिद्ध और साहित्यक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। तीसरे काल के लेखक विश्वनाथ झा, "बालाजी", चंदा झा और राजपंडित बलदेव मिश्र हैं। इनके नाटकों में प्राचीन कवियों के गानों और पदों की ही पुनरुक्ति अधिक हैं, नाटकीय संघर्ष का नितांत अभाव है। मध्यकाल-3 (1600-1690ई.) मैथिली नाटक (असम में) सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मैथिली नाटक का एक रूप असम में भी विकसति हुआ, सुखन जिसे अंकिया-नाट कहते हैं। यह उपर्युक्त दोनों नाटकों की परंपराओं से भिन्न प्रकार का हुआ। इसमें लगभग संपूर्ण नाटक गद्यमय ही होता था। सूत्रधार पूरे पूरे नाटक में अभिनय करता था। अभिनय से अधिक वर्णनचमत्कार या पाठ की ओर ध्यान था। इन नाटकों का उद्देश्य मनोविनोद मात्र नहीं था, वरन् वैष्णव धर्म का प्रचार करना था। अधिकतर ये नाटक कृष्ण की वात्सल्यमय लीलाओं का वर्णन करते थे। इनमें एक ही अधिक अंकर नहीं होते थे। अंकिया नाटककारों में शंकरदेव (1449-1558), माधवदेव और गोपालदेव के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध शंकर देव हुए। इनका रुक्मणीहरण नाटक असम में सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। मध्यकाल-4 (1600-1890) गद्य साहित्य- इस काल के प्राचीन दानपत्र एवं पत्रों से मैथिली गद्य के स्वरूप का विकास जाना जा सकता है। इनसे उस समय के दास प्रथा संबंधी विषयों का पूर्ण ज्ञान होता हैं। विद्यापति परंपरा के अतिरिक्त जो गीतिकाव्यकार हुए उनमें भज्जन कवि, लाल कवि, कर्ण श्याम प्रभृंति मुख्य हैं। पद्य का एक नया विकास लंबे काव्य, महाकाव्य, चरित और सम्मर के रूप में हुआ इनके लेखकों में कृष्णजन्म कर्ता मनवोध, नंदापति रतिपति और चक्रपाणि उल्लेखनीय हैं। तीसरी धारा काव्यकर्ताओं की वह हुई जिसमें संतों ने (विशेषकर वैष्णव संतों ने) गीत लिखे। इनमें सबसे प्रसिद्ध साइब रामदास हुए। इनकी 'पदावली' का रचनाकाल 1746 ई. है। आधुनिक काल सन् 1860 ई में मिथिला में आधुनिक जीवन का सूत्रपात हुआ। सिपाही विद्रोह से जो अराजकता छा गई थी वह दूर हुई। पश्चिमी शिक्षा का प्रचार होने लगा, रेल और तार का व्यवहार आरंभ हुआ, स्वायत्त शासन की सुविधा हुई तथा मुद्रणालयों की स्थापना होने लगी। इसी समय कतिपय साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं की स्थापना हुई जो नव जाग्रति के कार्य को पूर्ण करने में संलग्न हुई। फलस्वरूप लोगों की अभिरुचि प्राचीन साहित्य के अन्वेषण और अध्ययन की और गई और नवीन युग के अनुरूप साहित्य की नींव पड़ी। नवयुग के निर्माण में कवीश्वर चंदा झा (मृत्यु 1907 ई।) का नाम सबसे महत्वपर्ण है। इनके महाकाव्य "रामायण" की रचना से मैथिली भाषा का गौरव ऊँचा हुआ। आधुनिक युग गद्य का युग है। मैथिली समाचारपत्रों ने गद्य के विकास में महत्वपूर्ण सहायता दी। इसीलिये मैथिलहितसाधन, मिथ्थिलामोद, मिथिलामिहिर और मिथिला के नाम मैथिली गद्य के इतिहास में अमर हैं। मैथिली लेखशैली की वैज्ञानिक पद्धति का निर्ण म0 भ0 डॉ॰ श्री उमेश मिश्र, रमानाथ झा और वैयाकरणों के द्वारा (विशेषत: दीनबंधु झा द्वारा) हो जाने से आधुनिक गद्य का रूप परिपक्व हो गया है। किन्तु मैथिली के सर्वांगीण विकास मे बाबू भोलालाल दास का जो योगदान है वह अप्रतिम है। उन्होने न केवल मैथिली को विश्वविद्यालय के अध्यापन क्षेत्र मे प्रवेश दिलवाया अपितु मैथिली मे लिखने हेतु अन्यान्य लेखको को प्रेरित किया और मैथिली मे अनेक कथाकारो और निबन्धकारो के जन्मदाता साबित हुए। मैथिली के प्रथम व्याकरणाचार्य और बाल साहित्यकार अगर बाबू भोलालाल दास को माना जाय तो कोइ अतिशयोक्ति नही होगी। यह भी उन्ही की देन है कि मैथिली भारतीय सन्विधान की ८वीं अनुसूची मे स्थान प्राप्त कर सका। उपन्यास और कहानी आधुनिक युग की प्रमुख देन है। इन क्षेत्रों में पहले अनुवाद अधिक हुए, जिनमें परमेश्वर झा के सामंतिनी आख्यान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आरम्भ में रासबिहारीलाल दास, जनार्दन झा, भोला झा और पुण्यानंद झा की कृतियों प्रसिद्ध हुईं। इधर आकर हरिमोहन झा ने "कन्यादान" और "द्विरागमन" में मैथिली उपन्यास को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। व्यंग्य, चामत्कारिक भाषा और सजीव चित्रण इनकी विशेषताएँ हैं। "सरोज यात्री", "व्यास", झा प्रभृति गत दशक के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। इन्होंने सामाजिक जीवन के निकटतम पहलुओं को दिखलाने की चेष्टा की है। 21 वीं सदी में गौरीनाथ का उपन्यास दाग खासा चर्चित रहा है। "गल्पलेखकों में विद्यासिंधु", "सरोज", "किरण", "भुवन" आदि उल्लेखनीय कलाकर (हरिमोहन झा हास्य रस की अत्यंत ह्रदयग्राही कहानियाँ लिखते हैं)। यंगानंद सिंह, नगेंद्रकुमार, मनमोहन, उमानाथ झा और उपेंद्रनाथ झा हमारे उच्च श्रेणी के कहानीकार है। रमाकर, शेखर, यात्री और अमर कल्पनाशील कहानियाँ लिखते हैं। निबंध के स्वरूप आदि में देशोन्नति की भावना व्याप्त है। गंगानंद सिंह, भुवन जी, उमेंश मिश्र प्रभृति गंभीर लेख लिखते हैं। भाषा और साहित्य पर लिखनेवालों में दीनबंधु झा, डॉ॰ सुभद्र झा, गंगापति सिंह, नरेंद्रनाथ दास प्रभृति अग्रगझय हैं। दार्शनिक गद्य क्षेमधारी सिंह, डॉ॰ सर गंगानाथ झा आदि ने लिखा है। आधुनिक मैथिली काव्य की दो मुख्य धाराएँ है, एक प्राचीनतावादी और दूसरी नवीनतावादी। प्राचनतावादी कवि महाकाव्य, खंडकाव्य, परंपरागत गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य आदि लिखते हैं। इनमें मुख्य कवि चंदा झा, रघुनंवदनदास, लालदास, बदरीनाथ झा, दत्तबंधु, गणनाथ झा, सीताराम झा, ऋद्धिनाथ झा और जीवन झा हैं। नवीन धारा में देशभक्ति का काव्य, आधुनिक गतिकाव्य, वर्णनात्मक और हास्यत्मक काव्य गिनाए जा सकते हैं। इनमें यदुवर और राधवाचार्य, भुवन, सुमन, मोहन और यात्री, एवं अमर तथा हरिमोहन झा उल्लेखनीय हैं। मैथिली के गौरवर्पूण इतिहास में पध के साथ साथ गध साहित्य का अनुपम योगदान है। यहाँ के ग्रामीणोँ में गोनु झा के चतुराई की कहानियाँ अत्यन्त लोकप्रिय है। यहाँ की भुमि देवस्पर्श की धनी है। यहाँ की भुमि राम सिया के पावन विवाह की साक्षी बनी। यहाँ इस विवाह से संबंधित लोक गीत अति लोकप्रिय हैं। नाटक की पुरानी परंपराएँ समाप्त हो गई हैं और जीवन झा ने प्रचुर आधुनिक गद्य का समावेश कर नवीन नाटक की नींव डाली है। आनन्द झा और ईशनाथ झा के नाटकों का स्थान आधुनिक काल में महत्वपूर्ण है। इधर एकांकी नाटकों का विशेष प्रचार हुआ है। इनके लेखकों में तंंत्रनाथ झा और हरिमोहन झा के नाम प्रमुख हैं। मैथिली के अन्य आधुनिक साहित्यकार अमृतकर बिष्णुपुरी गोविन्द दास नृपति जगज्योतिर्मल्ल उमापति नरसिंह लोचन चतुर चतुर्भुज रघुनाथदास महाकवि मनबोध लक्ष्मीनाथ गोसाई भानुनाथ झा चन्दा झा रामजी चौधरी हर्षनाथ झा लालदास कविवर जीवन झा कुमार गंगानन्द सिंह मुन्शी रघुन्दन झा जनार्दन झा,जनसीदन ललित नारायण मिश्र भवप्रीतनन्द ओझा रामवृक्ष बेनीपुरी त्रिपुरारि कुमार शर्मा कुशेश्वर कुमर सीता राम झा कविवर बदरीनाथ झा पुलकित लाल दास मधुर छेदी लाल द्विजवर बाबू छेमधारी सिंह अच्युतानन्द दत्त भोला लाल दास महावीर झा वीर श्रीवल्लभ झा    श्यामनन्द झा जयनारायण झा डा० कांचीनाथ झा बाबू भुवनेश्वर सिंह भुवन बाबू लझ्मी सिंह ईशनाथ झा काशीकान्त मधुप हरिमोहन झा राजकमल चौधरी कविचूड़ामणि मधुप रामधारी सिंह दिनकर तंत्रनाथ स्नेहलता कालीकान्त झा बूच शिवकुमार झा टिल्लू चंद्रशेखर कामति बाल मुकुन्द जीवनाथ झा सुरेन्द झा सुमन रमेश चन्द्र झा वैधनाथ मिश्र यात्री,नागार्जुन आरसी प्रसाद सिंह वैध नाथ मल्लिक उपेन्द ठाकुर राम इकबाल सिंह ,राकेश, आनन्द झा जयनारायण मल्लिक राजलछ्मी राघवाचार्य उपेन्द नाथ व्यास ब्रजकिशोर सिंह रमाकर रामचरित्र पाण्डे फणीश्वर नाथ "रेणु सुधांशु शेखर गोविन्द झा रामाकृष्ण किशुन चन्दर मिश्र अमर चन्दभानु सिंह दीनानाथ पाठक भवनाथ दीपक मधुरानन्द चौधरी दुर्गानाथ झा राजकमल चौधरी गोपाल गोपेश केदारनाथ लाभ भोलानाथ झा धुमकेतु मायानन्द धीरेश्वर धीरेन्द सोमन डोम सोमदेव रामानन्द रेणु मन्नत नाथ हंसराज रवीन्द्र नाथ ठाकुर कीतिनारायण जीवकान्त मैथिली पुत्र प्रदीप गौरीकान्त चौधरी गनेश गुंजन कुलानन्द मिश्र मो. फजलुर रहमान हाशमी विलट पासवान विहंगम मार्कण्डेय प्रवासी विधानाथ विदित बुध्दिनाथ पधनारायण मोहन भारद्वाज उदय चन्द विनोद कलानन्द भट्ट डा.अमरेश पाठक मंत्रेश्वर झा उपेन्द दोसी शान्ति सुमन डॉ. भीमनाथ झा 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मिश्र "कनक" आरसी प्रसाद सिंह त्रिपुरारि विनीत ठाकुर संतोष कुमार मिश्रा चन्दा झा जीवन झा सीताराम झा बाबू भोलालाल दास सुरेन्द्र झा सुमन काशीकान्त मिश्र मधुप मणिपद्म राजकमल चौधरी हरिमोहन झा ललित सोमदेव चन्द्र्नाथ मिश्र 'अमर' रामदेव झा भीमनाथ झा धीरेन्द्र बलराम राज मोहन झा प्रभास कुमार चौधरी धूमकेतु जीवकान्त गंगेश गुंजन महाप्रकाश डॉ. तारानंद वियोगी अशोक शिवशंकर श्रीनिवास प्रदीप बिहारी विभूति आनंद नारायण जी डॉ. सुरेंद्र लाल दास उदय चंद्र झा विनोद दिलीप कुमार झा डॉ. शेफालिका वर्मा जगदीश प्रसाद कर्न उषा किरण खान गजेन्द्र ठाकुर बेचन ठाकुर राम विलास साहु दुर्गानन्द मण्डल धीरेन्द्र कुमार डॉ. बिभा कुमारी नारायण यादव मुन्नी कामत कपिलेश्वर राउत शिव कुमार प्रसाद : डॉ.बचेश्वर झा गौरीनाथ श्रीधरम शुभेंदु शेखर कुणाल गौतम गोविन्द (1995 से वर्तमान) डॉ. शिव कुमार प्रसाद धीरेन्द्र कुमार प्रदीप पुष्प लालदेव कामत दीनानाथ प्रसाद 'जुवराज' किशन कारीगर जय प्रकाश मण्डल उमेश पासवान मो. सद्रे आलम गौहर रघुनाथ मुखिया बद्रनाथ राय रबीन्द्र नारायण मिश्र पं. बाल गोविन्द आर्य जगदीश प्रसाद मण्डल मन्त्रेश्वर झा प्रीतम कुमार निषाद डॉ. योगेन्द्र पाठक 'वियोगी' नाटक ओकरा आंगनक बारहमासा : यह नाटक मैथिली का सबसे प्रसिद्ध नाटक है। इसके नाटककार महेन्द्र मलन्गिया जी हैं। ओ खाली मुँह देखै छै गाम नै सुतैये खिच्चैर कमला कातक राम, लक्ष्मण आ सीता देह पर कोठी खसा दिअ चीनिक लड्डू बसात भफाइत चाहक जिनगी : एहि नाटकक रचयिता- शुधांशु शेखर चौधरी छैथ छुतहा घैल ओरिजनल काम काठक लोक डाक बाबू काजे तोहर भगवान विदापत मिथिलाक बेटी : नाटकार- जगदीश प्रसाद मण्डल स्वयंवर : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल झमेलिया बिआह : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल पंचवटी एकांकी संचयन : नाटककार- जगदीश प्रसाद मण्डल बाप भेल पित्ती : एहि नाटकक रचयिता छैथ- बेचन ठाकुर पत्रिका अंतिका - सं. अनलकांत आरंभ - सं. राज मोहन झा शिखा - सं. अग्निपुष्प, कुणाल गामघर (साप्ताहिक) - सम्पादक : राम भरोस कपारी भ्रमर आँजुर (मासिक) - सम्पादक : राम भरोस कपारी भ्रमर कोसी सन्देश- सं. अर्द्धनारीश्वर विदेह-सदेह- सं. गजेन्द्र ठाकुर समय साल- घर-बाहर मिथिला दर्शन सन्दर्भ इन्हें भी देखें मैथिली कविता बाहरी कड़ियाँ विदेह - प्रथम मैथिली पाक्षिक इ पत्रिका मैथिली मैthhथिली साहित्य
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रामायण (संस्कृत : रामायणम् = राम + आयणम् ; शाब्दिक अर्थ : 'राम की जीवन-यात्रा'), वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य है जिसमें श्रीराम की गाथा है। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। संस्कृत साहित्य परम्परा में रामायण और महाभारत को इतिहास कहा गया है और दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रन्थ हैं। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। इसमें कुल लगभग २४,००० श्लोक हैं। सातवां उत्तरकांड प्रक्षिप्त है, तत्वमार्तंड में भी उत्तरकांड को प्रक्षिप्त माना गया है । उसके बाद की संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य पर इस महाकाव्य का बहुत अधिक प्रभाव है तथा रामकथा को लेकर अनेकों 'रामायण' रचे गये। रचनाकाल मान्यतानुसार रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य श्री निश्चलानन्द सरस्वती प्रभृति संतों के अनुसार श्रीराम अवतार श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था जिसके अनुसार श्रीरामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में विचार पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है। इस महाकाव्य के ऐतिहासिक विकास और संरचनागत परतों को जानने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। आधुनिक विद्वान इसका रचनाकाल ७ वीं से ४ वीं शताब्दी ईसा पूर्व मानते हैं। कुछ विद्वान तो इसे तीसरी शताब्दी ई तक की रचना मानते हैं। कुछ भारतीय कहते हैं कि यह ६०० ईपू से पहले लिखा गया। उसके पीछे तर्क यह है कि महाभारत, बौद्ध धर्म के बारे में मौन है जबकि उसमें जैन, शैव, पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। महाभारत, रामायण के पश्चात रचित है, अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिये। भाषा-शैली के अनुसार भी रामायण, पाणिनि के समय से पहले का होना चाहिये। मौलिक विशेषताएं शैली रामायण इतिहास की शैली से संबंधित है , जो अतीत की घटनाएं ( पुराणवृत्त ) की कथा है । इस शैली में मानव जीवन के लक्ष्य शिक्षाएँ भी शामिल हैं । इसमें आदर्श पिता, आदर्श सेवक, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श राजा जैसे आदर्श पात्रों का चित्रण किया गया है। महाभारत की तरह , रामायण सिद्धांत और नैतिक तत्वों को बढ़ावा दिया गया, कथा रूप में प्राचीन हिंदू ऋषियों की शिक्षाओं को प्रस्तुत किया गया है। प्राचीन विद्या संक्षेप में रामायण-कथा हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के मानव अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। अन्ततः श्रीराम ने राक्षसों के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनर्स्थापना की। रामायण में सात काण्ड हैं - बालकाण्ड, अयोध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड,सुन्दरकाण्ड, लङ्काकाण्ड और उत्तरकाण्ड। बालकाण्ड अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमन्त्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में आकर जब राम शिवधनुष को देखकर उठाने का प्रयत्न करने लगे तब वह बीच से टूट गया और जनकप्रतिज्ञा के अनुसार राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। अयोध्याकाण्ड राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा।तब मंथरा,जो कैकेयी की दासी थी,उसने कैकेयी की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा। प्रयाग पहुंच कर राम ने भारद्वाज मुनि से भेंट की। वहां से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुंचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। अरण्यकाण्ड कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच राम के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। किष्किन्धाकाण्ड राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। उस पर्वत पर अपने मन्त्रियों सहित सुग्रीव रहता था। सुग्रीव ने, इस आशंका में कि कहीं बालि ने उसे मारने के लिये उन दोनों वीरों को न भेजा हो, हनुमान को राम और लक्ष्मण के विषय में जानकारी लेने के लिये ब्राह्मण के रूप में भेजा। यह जानने के बाद कि उन्हें बालि ने नहीं भेजा है हनुमान ने राम और सुग्रीव में मित्रता करवा दी। सुग्रीव ने राम को सान्त्वना दी कि जानकी जी मिल जायेंगीं और उन्हें खोजने में वह सहायता देगा साथ ही अपने भाई बालि के अपने ऊपर किये गये अत्याचार के विषय में बताया। राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम की नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुंचा दिया जहां पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। सुन्दरकाण्ड हनुमान ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया। हनुमान सीता के पास पहुँचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे वापस समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया। लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड) जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ मेरु पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुऐ और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। उत्तरकाण्ड उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानरसेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। अभ्यागतों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। रामराज्य एक आदर्श बन गया। उपरोक्त बातों के साथ ही साथ गोस्वामी तुलसीदास जी ने उत्तरकाण्ड में श्री राम-वशिष्ठ संवाद, नारद जी का अयोध्या आकर रामचन्द्र जी की स्तुति करना, शिव-पार्वती संवाद, गरुड़ मोह तथा गरुड़ जी का काकभुशुण्डि जी से रामकथा एवं राम-महिमा सुनना, काकभुशुण्डि जी के पूर्वजन्म की कथा, ज्ञान-भक्‍ति निरूपण, ज्ञानदीपक और भक्‍ति की महान महिमा, गरुड़ के सात प्रश्‍न और काकभुशुण्डि जी के उत्तर आदि विषयों का भी विस्तृत वर्णन किया है। जहाँ तुलसीदास जी ने उपरोक्त वर्णन लिखकर रामचरितमानस को समाप्त कर दिया है वहीं आदिकवि वाल्मीकि अपने रामायण में उत्तरकाण्ड में रावण तथा हनुमान के जन्म की कथा, सीता का निर्वासन, राजा नृग, राजा निमि, राजा ययाति तथा रामराज्य में कुत्ते का न्याय की उपकथायें, लवकुश का जन्म, राम के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान तथा उस यज्ञ में उनके पुत्रों लव तथा कुश के द्वारा महाकवि वाल्मीकि रचित रामायण गायन, सीता का रसातल प्रवेश, लक्ष्मण का परित्याग, ५१५ ५१८ का भी वर्णन किया है। वाल्मीकि रामायण में उत्तरकाण्ड का समापन राम के महाप्रयाण के बाद ही हुआ है। उत्तरकांड को लेकर कई तरह के विवाद भी है। ऐसा माना जाता हैं की उत्तरकांड मूल वाल्मीकि रामायण का हिस्सा नहीं हैं। और इसमें कई कहानियां बाद में जोड़ी गई जो अलग अलग लेखकों द्वारा लिखी गई कहानियों को जोड़ कर तैयार किया गया हैं। उत्तरकांड मूल रामायण का हिस्सा नहीं हैं इसको लेकर कई विद्वान एकमत हैं। आदर्श पुरुष के गुण वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के सत्रह गुण बताए गए हैं, जो लोगों में नेतृत्व क्षमता बढ़ाने व किसी भी क्षेत्र में अगुवाई करने के अहम सूत्र हैं। वाल्मीकि जी ने नारद जी से प्रश्न किया कि सम्प्रति इस लोक में ऐसा कौन मनुष्य है जो गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रत होने के साथ साथ सदाचार से युक्त हो। जो सब प्राणियों का हितकारक हो, साथ ही विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन हो। कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥१-१-२ चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः। विद्वान् कः कस्समर्थश्च कैश्चैकप्रियदर्शनः॥१-१-३ आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः। कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥१-१-४ उत्तर में नारद जी कहते हैं कि इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न श्री राम में ये सभी गुण हैं। श्रीराम के सोलह गुण, जो आदर्श पुरुष में होने चाहिए- गुणवान् वीर्यवान् ( वीर ) धर्मज्ञ ( धर्म को जानने वाला) कृतज्ञ ( दूसरों द्वारा किये हुए अच्छे कार्य को न भूलने वाला) सत्यवाक्य ( सत्य बोलने वाला) दृढव्रत ( दृढ व्रती ) चरित्रवान् सर्वभूतहितः ( सभी प्राणियों के हित करने वाला) विद्वान् समर्थ सदैक प्रियदर्शन ( सदा प्रियदर्शी ) आत्मवान् ( धैर्यवान ) जितक्रोध (जिसने क्रोध को जीत लिया हो) द्युतिमान् (कान्तियुक्त ) अनसूयक (ईर्ष्या को दूर रखने वाला) बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ( जिसके रुष्ट होने पर युद्ध में देवता भी भयभीत हो जाते हैं) रामायण की टीकाएँ वाल्मीकि रामायण के तीन पाठ प्राप्त होते हैः- (१) दाक्षिणात्य पाठ (२) गौडीय पाठ (३) पश्चिमोत्तरीय पाठ या काश्मीरिक संस्करण (अमृत कतक टीका) इन तीन पाठों में केवल पाठभेद ही नहीं प्राप्त होते अपितु कहीं-कहीं इसके सर्ग भी भिन्न-भिन्न हैं। रमायण की ३० टीकाएँ प्राप्त होती है। प्रमुख टीकाएँ निम्नलिखित हैं- रामायण की सीख रामायण के सारे चरित्र अपने धर्म का पालन करते हैं। राम एक आदर्श पुत्र हैं। पिता की आज्ञा उनके लिये सर्वोपरि है। पति के रूप में राम ने सदैव एकपत्नीव्रत का पालन किया। राजा के रूप में प्रजा के हित के लिये स्वयं के हित को हेय समझते हैं। विलक्षण व्यक्तित्व है उनका। वे अत्यन्त वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। सीता का पातिव्रत महान है। सारे वैभव और ऐश्वर्य को ठुकरा कर वे पति के साथ वन चली गईं। रामायण भातृ-प्रेम का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ बड़े भाई के प्रेम के कारण लक्ष्मण उनके साथ वन चले जाते हैं वहीं भरत अयोध्या की राज गद्दी पर, बड़े भाई का अधिकार होने के कारण, स्वयं न बैठ कर राम की पादुका को प्रतिष्ठित कर देते हैं। कौशल्या एक आदर्श माता हैं। अपने पुत्र राम पर कैकेयी के द्वारा किये गये अन्याय को भूला कर वे कैकेयी के पुत्र भरत पर उतनी ही ममता रखती हैं जितनी कि अपने पुत्र राम पर। हनुमान एक आदर्श भक्त हैं, वे राम की सेवा के लिये अनुचर के समान सदैव तत्पर रहते हैं। शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण को उनकी सेवा के कारण ही प्राणदान प्राप्त होता है। रावण के चरित्र से सीख मिलती है कि अहंकार नाश का कारण होता है। रामायण द्वारा प्रेरित अन्य साहित्यिक महाकाव्य वाल्मीकि रामायण से प्रेरित होकर सन्त तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसे महाकाव्य की रचना की जो कि वाल्मीकि के द्वारा संस्कृत में लिखे गये रामायण का हिंदी संस्करण है। रामचरितमानस में हिंदू आदर्शों का उत्कृष्ट वर्णन है इसीलिये इसे हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ होने का श्रेय मिला हुआ है और प्रत्येक हिंदू परिवार में भक्तिभाव के साथ इसका पठन पाठन किया जाता है। रामायण से ही प्रेरित होकर मैथिलीशरण गुप्त ने पंचवटी तथा साकेत नामक खंडकाव्यों की रचना की। रामायण में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के उल्लेखनीय त्याग को शायद भूलवश अनदेखा कर दिया गया है और इस भूल को साकेत खंडकाव्य रचकर मैथिलीशरण गुप्त जी ने सुधारा है। राम सम्बन्धी कथानक से प्रेरित होकर श्रीभागवतानंद गुरु ने संस्कृत महाकाव्य श्रीराघवेंद्रचरितम् की रचना की जो अद्भुत एवं गुप्त कथाप्रसंग से भरा हुआ है। इस ग्रंथ में 20 से अधिक प्रकार के रामायणों की कथा का समावेश है। नेपाल के राजदरबार से सम्मानित कविवर श्री राधेश्याम जी की राधेश्याम रामायण, प्रेमभूषण जी की प्रेम रामायण, महर्षि कम्बन की कम्ब रामायण के अलावा और भी अनेक साहित्यकारों ने रामायण से प्रेरणा ले कर अनेक कृतियों की रचना की है। इन्हें भी देखें श्रीराम विभिन्न भाषाओं में रामायण रामायण और चित्रकला श्री रामचरित मानस महाभारत महाकाव्य टीका-टिप्पणी    क.    ‘रामायण’ का संधि विच्छेद करने है ‘राम’ + ‘अयन’। ‘अयन’ का अर्थ है ‘यात्रा’ इसलिये रामायण का अर्थ है राम की यात्रा।    ख.    इसमें ४,८०,००२ शब्द हैं जो महाभारत का चौथाई है।    ग.    पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित एवं रामचरितमानस में राम के विष्णु का अवतार होने का स्पष्ट उल्लेख है, किन्तु वाल्मीकि रामायण में केवल इसका संकेत मात्र ही है।    घ.    काकभुशुण्डि की विस्तृत कथा का वर्णन तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के दोहा क्रमांक ९६ से दोहा क्रमांक ११५ तक में किया है।    ङ.    रामचरितमानस = राम + चरित + मानस, रामचरितमानस का अर्थ है राम के चरित्र का सरोवर। रामचरितमानस के बालकाण्ड के दोहा क्रमांक ३५ से दोहा क्रमांक ४२ में तुलसीदास जी ने इस सरोवर के स्वरूप का वर्णन किया है।    च.    “आचार्य चतुरसेन” ने अपने ग्रंथ ‘वयं रक्षामः’ में राक्षसजाति एवं राक्षस संस्कृति का विस्तृत वर्णन किया है। संदर्भ ग्रन्थसूची रामचरितमानस, टीकाकार: हनुमानप्रसाद पोद्दार, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (प्रथम एवं द्वितीय खंड), सचित्र, हिंदी अनुवाद सहित, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर कवितावली, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर रामायण के कुछ आदर्श पात्र, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर वाल्मीकीय रामायण, प्रकाशक: देहाती पुस्तक भंडार, दिल्ली बाहरी कड़ियाँ विकिस्रोत से रामायण वाल्मीकि रामायण धर्मग्रन्थ हिन्दू धर्म रामायण उत्तम लेख महाकाव्य
1799
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अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश के "अवध क्षेत्र" (लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबंकी, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, अयोध्या, जौनपुर, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशाम्बी, अम्बेडकर नगर, गोंडा,बस्ती, बहराइच,बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती तथा फतेहपुर) में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी एक शाखा बघेलखंड में बघेली नाम से प्रचलित है। 'अवध' शब्द की व्युत्पत्ति "अयोध्या" से है। इस नाम का एक सूबा के राज्यकाल में था। तुलसीदास ने अपने "मानस" में अयोध्या को 'अवधपुरी' कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम 'कोसल' भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है। भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 7 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, आजमगढ़,सिद्धार्थनगर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार प्रांत के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के कई जिलों - बांके जिला, बर्दिया जिला, दांग जिला, कपिलवस्तु जिला, पश्चिमी नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कंचनपुर जिला आदि में यह काफी प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। अवधी भाषी क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार अवधी प्रमुख रूप से भारत, नेपाल और फिजी में बोली जाती है। भारत में अवधी मुख्यतः उत्तर प्रदेश राज्य में बोली जाती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ जिलों में बोली जाती है। उत्तर प्रदेश के अवधी भाषी जिले: अमेठी, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, कौशांबी, अम्बेडकर नगर, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, अयोध्या, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बस्ती एवं फतेहपुर। नेपाल के अवधी भाषी जिले कपिलवस्तु, बर्दिया, डांग, रूपनदेही, नवलपरासी, कंचनपुर, बांके आदि तराई नेपाल के जिले। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। परिचय गठन की दृष्टि से हिंदी क्षेत्र की उपभाषाओं को दो वर्गों-पश्चिमी और पूर्वी में विभाजित किया जाता है। अवधी पूर्वी के अंतर्गत है। पूर्वी की दूसरी उपभाषा छत्तीसगढ़ी है। अवधी को कभी-कभी बैसवाड़ी भी कहते हैं। परंतु बैसवाड़ी अवधी की एक बोली मात्र है जो उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली,फतेहपुर और सिंगरौली जिले के कुछ भागों में बोली जाती है। तुलसीदास कृत रामचरितमानस एवं मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत सहित कई प्रमुख ग्रंथ इसी बोली की देन है। इसका केन्द्र अयोध्या है। अयोध्या लखनऊ से १२० किमी की दूरी पर पूर्व में है। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', पं महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, राममनोहर लोहिया, कुंवर नारायण, दिवाकर द्विवेदी की यह जन्मभूमि है। उमराव जान, आचार्य नरेन्द्र देव और राम प्रकाश द्विवेदी की कर्मभूमि भी यही है। रमई काका की लोकवाणी भी इसी भाषा में गुंजरित हुई। हिंदी के रीतिकालीन कवि द्विजदेव के वंशज अयोध्‍या का राजपरिवार है। इसी परिवार की एक कन्‍या का विवाह दक्षिण कोरिया के राजघराने में अरसा पहले हुआ था। हिंदी के वरिष्‍ठ आलोचक विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने अवधी भाषा और व्‍याकरण पर महत्‍त्‍वपूर्ण पुस्‍तक लिखी है। फाह्यान ने भी अपने विवरण में अयोध्‍या का जिक्र किया है। आज की अवधी प्रवास और संस्‍कृतिकरण के चलते खड़ी बोली और अंग्रेजी के प्रभाव में आ रही है। अवधी के पश्चिम में पश्चिमी वर्ग की बुंदेली और ब्रज का, दक्षिण में छत्तीसगढ़ी का और पूर्व में भोजपुरी बोली का क्षेत्र है। इसके उत्तर में नेपाल की तराई है । व्याकरण हिंदी खड़ीबोली से अवधी की विभिन्नता मुख्य रूप से व्याकरणात्मक है। इसमें कर्ता कारक के परसर्ग (विभक्ति) "ने" का नितांत अभाव है। अन्य परसर्गों के प्राय: दो रूप मिलते हैं- ह्रस्व और दीर्घ। (कर्म-संप्रदान-संबंध : क, का; करण-अपादान : स-त, से-ते; अधिकरण : म, मा)। संज्ञाओं की खड़ीबोली की तरह दो विभक्तियाँ होती हैं- विकारी और अविकारी। अविकारी विभक्ति में संज्ञा का मूल रूप (राम, लरिका, बिटिया, मेहरारू) रहता है और विकारी में बहुवचन के लिए "न" प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (यथा रामन, लरिकन, बिटियन, मेहरारुन)। कर्ता और कर्म के अविकारी रूप में व्यंजनान्त संज्ञाओं के अंत में कुछ बोलियों में एक ह्रस्व "उ" की श्रुति होती है (यथा रामु, पूतु, चोरु)। किंतु निश्चय ही यह पूर्ण स्वर नहीं है और भाषाविज्ञानी इसे फुसफुसाहट के स्वर-ह्रस्व "इ" और ह्रस्व "ए" (यथा सांझि, खानि, ठेलुआ, पेहंटा) मिलते हैं। संज्ञाओं के बहुधा दो रूप, ह्रस्व और दीर्घ (यथा नद्दी नदिया, घोड़ा घोड़वा, नाऊ नउआ, कुत्ता कुतवा) मिलते हैं। इनके अतिरिक्त अवधी क्षेत्र के पूर्वी भाग में एक और रूप-दीर्घतर मिलता है (यथा कुतउना)। अवधी में कहीं-कहीं खड़ीबोली का ह्रस्व रूप बिलकुल लुप्त हो गया है; यथा बिल्ली, डिब्बी आदि रूप नहीं मिलते बेलइया, डेबिया आदि ही प्रचलित हैं। सर्वनाम में खड़ीबोली और ब्रज के "मेरा तेरा" और "मेरो तेरो" रूप के लिए अवधी में "मोर तोर" रूप हैं। इनके अतिरिक्त पूर्वी अवधी में पश्चिमी अवधी के "सो" "जो" "को" के समानांतर "से" "जे" "के" रूप प्राप्त हैं। क्रिया में भविष्यकाल रूपों की प्रक्रिया खड़ीबोली से बिलकुल भिन्न है। खड़ीबोली में प्राय: प्राचीन वर्तमान (लट्) के तद्भव रूपों में- गा-गी-गे जोड़कर (यथा होगा, होगी, होंगे आदि) रूप बनाए जाते हैं। ब्रज में भविष्यत् के रूप प्राचीन भविष्यत्काल (लट्) के रूपों पर आधारित हैं। (यथा होइहैंउ भविष्यति, होइहोंउ भविष्यामि)। अवधी में प्राय: भविष्यत् के रूप तव्यत् प्रत्ययांत प्राचीन रूपों पर आश्रित हैं (होइबाउ भवितव्यम्)। अवधी की पश्चिमी बोलियों में केवल उत्तमपुरुष बहुवचन के रूप तव्यतांत रूपों पर निर्भर हैं। शेष ब्रज की तरह प्राचीन भविष्यत् पर। किंतु मध्यवर्ती और पूर्वी बोलियों में क्रमश: तव्यतांत रूपों की प्रचुरता बढ़ती गई है। क्रियार्थक संज्ञा के लिए खड़ीबोली में "ना" प्रत्यय है (यथा होना, करना, चलना) और ब्रज में "नो" (यथा होनो, करनो, चलनो)। परंतु अवधी में इसके लिए "ब" प्रत्यय है (यथा होब, करब, चलब)। अवधी में निष्ठा एकवचन के रूप का "वा" में अंत होता है (यथा भवा, गवा, खावा)। भोजपुरी में इसके स्थान पर "ल" में अंत होनेवाले रूप मिलते हैं (यथा भइल, गइल)। अवधी का एक मुख्य भेदक लक्षण है अन्यपुरुष एकवचन की सकर्मक क्रिया के भूतकाल का रूप (यथा करिसि, खाइसि, मारिसि)। य-"सि" में अंत होनेवाले रूप अवधी को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलते। अवधी की सहायक क्रिया में रूप "ह" (यथा हइ, हइं), "अह" (अहइ, अइई) और "बाटइ" (यथा बाटइ, बाटइं) पर आधारित हैं। ऊपर लिखे लक्षणों के अनुसार अवधी की बोलियों के तीन वर्ग माने गए हैं : पश्चिमी, मध्यवर्ती और पूर्वी। पश्चिमी बोली पर निकटता के कारण ब्रज का और पूर्वी पर भोजपुरी का प्रभाव है। इनके अतिरिक्त बघेली बोली का अपना अलग अस्तित्व है। विकास की दृष्टि से अवधी का स्थान ब्रज, कन्नौजी और भोजपुरी के बीच में पड़ता है। ब्रज की व्युत्पत्ति निश्चय ही शौरसेनी से तथा भोजपुरी की मागधी प्राकृत से हुई है। अवधी की स्थिति इन दोनों के बीच में होने के कारण इसका अर्धमागधी से निकलना मानना उचित होगा। खेद है कि अर्धमागधी का हमें जो प्राचीनतम रूप मिलता है वह पाँचवीं शताब्दी ईसवी का है और उससे अवधी के रूप निकालने में कठिनाई होती है। पालि भाषा में बहुधा ऐसे रूप मिलते हैं जिनसे अवधी के रूपों का विकास सिद्ध किया जा सकता है। संभवत: ये रूप प्राचीन अर्धमागधी के रहे होंगे। अवधी साहित्य प्राचीन अवधी साहित्य की दो शाखाएँ हैं : एक भक्तिकाव्य और दूसरी प्रेमाख्यान काव्य। भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदास का "रामचरितमानस" (सं. 1631) अवधी साहित्य की प्रमुख कृति है। इसकी भाषा संस्कृत शब्दावली से भरी है। "रामचरितमानस" के अतिरिक्त तुलसीदास ने अन्य कई ग्रंथ अवधी में लिखे हैं। इसी भक्ति साहित्य के अंतर्गत लालदास का "अवधबिलास" आता है। इसकी रचना संवत् 1700 में हुई। इनके अतिरिक्त कई और भक्त कवियों ने रामभक्ति विषयक ग्रंथ लिखे। संत कवियों में बाबा मलूकदास भी अवधी क्षेत्र के थे। इनकी बानी का अधिकांश अवधी में है। इनके शिष्य बाबा मथुरादास की बानी भी अधिकतर अवधी में है। बाबा धरनीदास यद्यपि छपरा जिले के थे तथापि उनकी बानी अवधी में प्रकाशित हुई। कई अन्य संत कवियों ने भी अपने उपदेश के लिए अवधी को अपनाया है। प्रेमाख्यान काव्य में सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ मलिक मुहम्मद जायसी रचित "पद्मावत" है जिसकी रचना "रामचरितमानस" से 34 वर्ष पूर्व हुई। दोहे चौपाई का जो क्रम "पद्मावत" में है प्राय: वही "मानस" में मिलता है। प्रेमाख्यान काव्य में मुसलमान लेखकों ने सूफी मत का रहस्य प्रकट किया है। इस काव्य की परंपरा कई सौ वर्षों तक चलती रही। मंझन की "मधुमालती", उसमान की "चित्रावली", आलम की "माधवानल कामकंदला", नूरमुहम्मद की "इंद्रावती" और शेख निसार की "यूसुफ जुलेखा" इसी परंपरा की रचनाएँ हैं। शब्दावली की दृष्टि से ये रचनाएँ हिंदू कवियों के ग्रंथों से इस बात में भिन्न हैं कि इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की उतनी प्रचुरता नहीं है। प्राचीन अवधी साहित्य में अधिकतर रचनाएँ देशप्रेम, समाजसुधार आदि विषयों पर और मुख्य रूप से व्यंग्यात्मक हैं। कवियों में प्रतापनारायण मिश्र, बलभद्र दीक्षित "पढ़ीस", वंशीधर शुक्ल, चंद्रभूषण द्विवेदी "रमई काका", गुरु प्रसाद सिंह "मृगेश" और शारदाप्रसाद "भुशुंडि" विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रबंध की परंपरा में "रामचरितमानस" के ढंग का एक महत्वपूर्ण आधुनिक ग्रंथ द्वारिकाप्रसाद मिश्र का "कृष्णायन" है। इसकी भाषा और शैली "मानस" के ही समान है और ग्रंथकार ने कृष्णचरित प्राय: उसी तन्मयता और विस्तार से लिखा है जिस तन्मयता और विस्तार से तुलसीदास ने रामचरित अंकित किया है। मिश्र जी ने इस ग्रंथ की रचना द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि प्रबंध के लिए अवधी की प्रकृति आज भी वैसी ही उपादेय है जैसी तुलसीदास के समय में थी। अवधी लोक साहित्य अवधी लोक साहित्य की एक समृद्ध परम्परा है। अवधी लोक साहित्य पर कई शोध हुए हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं- अवधी लोक साहित्य -डा॰ सरोजिनी रोहतगी (१९७१) अवधी लोक गायन प्राचीन काल में अवधी साहित्य केवल पद्द के रूप में फला फूला है। अतः अवधी लोक गायकी भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अवधी कलाकारों को बिरहा, नौटंकी नाच, अहिरवा नृत्य, कंहरवा नृत्य, चमरवा नृत्य, कजरी आदि नाट्य विधाओं का आविष्कारक माना जाता है तथा इसमें इन्हे अभी भी महारत हासिल है। अवधी की गारी तो पूरे अवध में प्रसिद्ध है, इसे शादी-ब्याह में महिलाओं द्वारा गाया जाता है।अवधी के सुप्रसिद्ध गायक दिवाकर द्विवेदी है। अवधी भाषा का संघर्ष विश्व भर में 6 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा अवधी को अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल सकी है। इसी प्रकार फिजी में अवधी भाषा को फिजी हिंदी के रूप में प्रस्तुत करके भारत सरकार ने फिजी में भी अवधी के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया है। अवधी भाषा को अब हिन्दी के साथ साथ भोजपुरी से भी खतरा बढ़ रहा है। किन्तु इन्हीं सब के बीच नेपाल ने प्रांत संख्या ५ में अवधी को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान करके अवधी साहित्यकारों की कलम में जान फूंकने का कार्य किया है। इससे भारत के अवधी भाषी भी काफी उत्साहित हैं। इन्हें भी देखें अवधी साहित्य अवधी दिवस सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अवधी कविता कोश अवधी ग्रन्थावली (गूगल पुस्तक) अवधी ग्रन्थावली, भाग - २ (गूगल पुस्तक ; लेखक - जगदीश पीयूष) एसआईएल इंटरनेशनल पर अवधी की प्रविष्टि अवधी किताबें विश्व की भाषाएँ हिन्दी की बोलियाँ हिन्द-आर्य भाषाएँ उत्तर प्रदेश की भाषाएँ
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नवीन पटनायक (जन्म 16 अक्टूबर 1946) भारतीय राज्य ओडिशा के १४वें और वर्तमान मुख्यमंत्री हैं। वे बीजू जनता दल के संस्थापक मुखिया हैं और वे लेखक भी हैं। व्यक्तिगत जीवन नवीन पटनायक का जन्म ओडिशा के कटक नगर में 16 अक्टूबर 1946 को कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक तथा माँ ज्ञान पटनायक थे। उनकी शिक्षा दून विद्यालय में हुई और बाद में उन्होंने किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली से कला में स्नातक की शिक्षा पूर्ण की। नवीन पटनायक एक लेखक भी हैं और उन्होंने अपना युवाकाल लगभग रजनीति और ओडिशा से दूर ही व्यतीत किया। वर्ष 1997 में नवीन पटनायक ने उनके पिता का निधन होने के बाद राजनीति में कदम रखा और एक वर्ष बाद ही अपने पिता बीजू पटनायक के नाम पर बीजू जनता दल की स्थापना की। बीजू जनता दल ने उसके बाद विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की और भाजपा के साथ सरकार बनाई जिसमें वे स्वयं मुख्यमंत्री बने। उन्होंने 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई' और 'गरीब समर्थक नीतियां' अपने ही ढ़ंग से आरम्भ किया। उन्होंने नौकरशाही का ठीक से प्रबन्धन कर राज्य के विकास के अपने पिता के सपने को अपने विकास का आधार बनाया। इसी तरह उन्होंने ओडिशा में लोकप्रियता हासिल की और लगातार चार बार पूर्ण जनाधार के साथ मुख्यमंत्री बनने में सफल हुये। नवीन पटनायक का नाम ओडिशा के इतिहास में सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बनने का कीर्तिमान है। वो अभी तक अविवाहित हैं। राजनैतिक जीवन नवीन पटनायक ने सन् 1999 में जनता दल के नेता और उनके पिता बीजू पटनायक के निधन के बाद ओडिशा की राजनीति में कदम रखा। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ ओडिशा डायरी पर नवीन पटनायक सहित ओडिशा के प्रसिद्ध लोग ओडिशा सरकार के आधिकारीक जालस्थल पर ओडिशा के प्रसिद्ध लोग बीबीसी के अनुसार ओडिशा के आकस्मिक राजनीतिज्ञ। 1946 में जन्मे लोग जीवित लोग ओड़िशा के मुख्यमंत्री ११वीं लोक सभा के सदस्य
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भारतीय गणराज्य में अठाईस राज्यों और आठ में से तीन केन्द्र-शासित प्रदेशों की प्रत्येक सरकार के मुखिया मुख्यमन्त्री कहा जाता है। भारत के संविधान के अनुसार राज्य स्तर पर राज्यपाल कानूनन मुखिया होता है लेकिन वास्तव में कार्यकारी प्राधिकारी मुख्यमन्त्री ही होता है। राज्य विधान सभा चुनावों के बाद राज्यपाल सामान्यतः सरकार बनाने के लिए बहुमत वाले दल (अथवा गठबन्धन) को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री को नियुक्त करता है जिसकी कैबिनेट विधानसभा के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार होती है। यदि विधानसभा में विश्वासमत प्राप्त हो तो मुख्यमन्त्री का कार्यकाल सामान्यतः अधिकतम पाँच वर्ष का होता है; इसके अतिरिक्त मुख्यमन्त्री के कार्यकाल की संख्याओं की कोई सीमा नहीं होती। वर्तमान में जम्मू और कश्मीर के मुख्यमन्त्री का कार्यालय रिक्त है। वर्तमान में पदस्थ 30 मुख्यमन्त्रियों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी एकमात्र महिला मुख्यमंत्री हैं। मार्च 2000 से ( ओडिशा के नवीन पटनायक सबसे लम्बे समय से पदस्थ मुख्यमन्त्री हैं। सबसे अधिक 8 बार बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार हैं l अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू (जन्म 1979) सबसे युवा मुख्यमन्त्री हैं। भारतीय जनता पार्टी के 10 पदस्थ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 4 पदस्थ है l इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य दल के पदस्थ मुख्यमन्त्रियों की संख्या एक से अधिक नहीं है। वर्तमान भारतीय मुख्यमंत्री सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय राज्यों के वर्तमान उपमुख्यमंत्रियों की सूची भारत से सम्बन्धित सूचियाँ भारतीय राजनीति भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्री
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "भारतीय राज्यों के वर्तमान मुख्यमंत्रियों की सूची", "token_count": 2206, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80" }
यह लेख भारत के एक नगर के बारे में है, अन्य के लिये देखें हैदराबाद (बहुविकल्पी) हैदराबाद (तेलुगु: హైదరాబాదు, उर्दू: حیدر آباد) भारत के राज्य तेलंगाना कि राजधानी है। यह नगर दक्कन के पठार पर मूसी नदी के किनारे स्थित है। की औसत ऊंचाई के साथ, हैदराबाद का अधिकांश भाग कृत्रिम झीलों के आसपास पहाड़ी इलाके में स्थित है, जिसमें हुसैन सागर झील भी शामिल है, जो शहर के केंद्र के उत्तर में शहर की स्थापना से पहले की है। हैदराबाद शहर की आबादी 6.9 मिलियन है, हैदराबाद मेट्रोपॉलिटन रीजन में लगभग 9.7 मिलियन के साथ, यह भारत का चौथा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है और भारत में छठा सबसे अधिक आबादी वाला शहरी समूह है। 74 बिलियन अमेरिकी डॉलर के उत्पादन के साथ, हैदराबाद भारत के समग्र सकल घरेलू उत्पाद में पांचवां सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। 1956 से, हैदराबाद शहर ने भारत के राष्ट्रपति के शीतकालीन कार्यालय को रखा है। 20वीं शताब्दी के दौरान दक्कन का पठार और पश्चिमी घाट के बीच हैदराबाद के केंद्रीय स्थान और औद्योगिकीकरण ने प्रमुख भारतीय अनुसंधान, विनिर्माण, शैक्षिक और वित्तीय संस्थानों को आकर्षित किया। 1990 के दशक के बाद से, शहर फार्मास्यूटिकल्स और जैव प्रौद्योगिकी के भारतीय केंद्र के रूप में उभरा है। सूचना प्रौद्योगिकी के लिए समर्पित विशेष आर्थिक क्षेत्रों और हाईटेक सिटी के गठन ने अग्रणी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हैदराबाद में परिचालन स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया है। शहर में स्थित तेलुगु फिल्म उद्योग देश का दूसरा सबसे बड़ा चलचित्र निर्माता है। कहा जाता है कि किसी समय में इस ख़ूबसूरत शहर को क़ुतुबशाही परम्परा के पांचवें शासक मुहम्मद कुली क़ुतुबशाह ने अपनी प्रेमिका भागमती को उपहार स्वरूप भेंट किया था। हैदराबाद को 'निज़ाम का शहर' तथा 'मोतियों का शहर' भी कहा जाता है। यह भारत के सर्वाधिक विकसित नगरों में से एक है और भारत में सूचना प्रौधोगिकी एवं जैव प्रौद्यौगिकी का केन्द्र बनता जा रहा है। हुसैन सागर से विभाजित, हैदराबाद और सिकंदराबाद जुड़वां शहर हैं। हुसैन सागर का निर्माण सन १५६२ में इब्राहीम कुतुब शाह के शासन काल में हुआ था और यह एक मानव निर्मित झील है। चारमीनार, इस क्षेत्र में प्लेग महामारी के अंत की यादगार के तौर पर मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने १५९१ में, शहर के बीचों बीच बनवाया था। गोलकुंडा के क़ुतुबशाही सुल्तानों द्वारा बसाया गया यह शहर ख़ूबसूरत इमारतों, निज़ामी शानो-शौक़त और लजीज खाने के कारण मशहूर है और भारत के मानचित्र पर एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में अपनी अलग अहमियत रखता है। निज़ामोन के इस शहर में आज भी हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द्र से एक-दूसरे के साथ रहकर उनकी खुशियों में शरीक होते हैं। अपने उन्नत इतिहास, संस्कृति, उत्तर तथा दक्षिण भारत के स्थापत्य के मौलिक संगम, तथा अपनी बहुभाषी संस्कृति के लिये भौगोलिक तथा सांस्कृतिक दोनों रूपों में जाना जाता है। यह वह स्थान रहा है जहां हिन्दू और मुसलमान शांतिपूर्वक शताब्दियों से साथ साथ रह रहे हैं। निजामी ठाठ-बाट के इस शहर का मुख्य आकर्षण चारमीनार, हुसैन सागर झील, बिड़ला मंदिर, सालार जंग संग्रहालय आदि है, जो देश-विदेश इस शहर को एक अलग पहचान देते हैं। यह भारतीय महानगर बंगलौर से 574 किलोमीटर दक्षिण में, मुंबई से 750 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में तथा चेन्नई से 700 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। किसी समय नवाबी परम्परा के इस शहर में शाही हवेलियां और निज़ामों की संस्कृति के बीच हीरे जवाहरात का रंग उभर कर सामने आया तो कभी स्वादिष्ट नवाबी भोजन का स्वाद। इस शहर के ऐतिहासिक गोलकुंडा दुर्ग की प्रसिद्धि पार-द्वार तक पहुंची और इसे उत्तर भारत और दक्षिणांचल के बीच संवाद का अवसर सालाजार संग्रहालय तथा चारमीनार ने प्रदान किया है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार इस महानगर की जनसंख्या ६८ लाख से अधिक है।हैदराबाद के भारत में विलय के लिए भारतीय सेना ने आपरेशन पोलो चलाया था।सरदार पटेल की ढृढता,दूरदर्शी सोच एवं साहस से हैदराबाद का भारत में विलय हुआ। स्थापना गोलकोंडा का पुराना क़िला राज्य की राजधानी के लिए अपर्याप्त सिद्ध हुआ और इसलिए लगभग 1591 में क़ुतुबशाही वंश में पांचवें, मुहम्मद कुली क़ुतुबशाह ने पुराने गोलकोंडा से कुछ मील दूर "मूसा नदी" {जो आज मूसी नदी के नाम से जाना जाता है} के किनारे हैदराबाद नामक नया नगर बनाया। चार खुली मेहराबों और चार मीनारों वाली भारतीय-अरबी शैली की भव्य वास्तुशिल्पीय रचना चारमीनार, क़ुतुबशाही काल की सर्वोच्च उपलब्धि मानी जाती है। यह वह केंद्र है, जिसके आसपास बनाई गई मक्का मस्जिद 10 हज़ार लोगो को समाहित कर सकती है। हैदराबाद अपने सौंदर्य और समृद्धि के लिए जाना जाता है। चारमीनार के बगल में लाड-बाजार, गुलजार हौज, मशहूर विक्रय केंद्र है। इतिहास नामंकरण हैदरबाद नाम के पीछे कई धारणायें हैं। एक प्रसिद्ध धारणा है कि इस शहर को बसाने के बाद मुहम्मद कुली कुतुब शाह एक स्थानीय बंजारा लड़की भागमती से प्रेम कर बैठा। लड़की से विवाह के बाद लड़की को इस्लाम स्वीकार कराया गया और इस्लामी संस्कृति के अनुसार उसका नया नाम भागमती से बदल कर हैदर महल कर दिया गया - और शहर का भी नया नाम हैदराबाद (अर्थात : "हैदर के नाम पर बसाया गया शहर") प्रारंभिक और मध्यकालीन इतिहास 1851 में हैदराबाद के उपनगरों में मेगालिथिक दफन स्थलों और केयर्न सर्कल की खोज, निज़ाम की सेवा में एक पॉलीमैथ फिलिप मीडोज टेलर ने इस बात का सबूत दिया था कि जिस क्षेत्र में शहर खड़ा है वह पाषाण युग से बसा हुआ है। पश्चिम हैदराबाद के रायदुर्ग में बीएन रेड्डी हिल्स में प्राकृतिक चट्टान निर्माण के नीचे नवपाषाण काल ​​(6000 वर्ष पुराने) के उपकरण खोजे गए हैं। शहर के पास खुदाई करने वाले पुरातत्वविदों ने 500 ईसा पूर्व के लौह युग के स्थलों का पता लगाया है। आधुनिक हैदराबाद और उसके आसपास के क्षेत्र में चालुक्य वंश का शासन 624 ई. से 1075 ई. तक था। 11 वीं शताब्दी में चालुक्य साम्राज्य के चार भागों में विघटन के बाद, गोलकुंडा-अब हैदराबाद का हिस्सा- 1158 से काकतीय वंश के नियंत्रण में आ गया, जिसकी सत्ता का स्थान वारंगल में था- आधुनिक के उत्तर-पूर्व में 148 किमी (92 मील) हैदराबाद। काकतीय शासक गणपतिदेव 1199-1262 ने अपने पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा के लिए एक पहाड़ी की चोटी पर चौकी का निर्माण किया- जिसे बाद में गोलकोण्डा किला के नाम से जाना गया। गोलकुंडा सल्तनत के शासक परिवार, "कुतुब शाही" राजवंश का संस्थापक मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह था। १५१२ में स्वतंत्र सल्तनत बनने से पहले यह राजवंश बहमनी सल्तनत के आधीन था। १५९१ में इस राजवंश के एक शासक मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने मूसी नदी के तट पर हैदराबाद शहर की स्थापना की। यह स्थान परिवर्तन, पुराने मुख्यालय गोलकोण्डा में राजवंश को हो रही पानी की कमी के कारण करना पड़ा । कहा जाता है कि, इससे पहले कि प्लेग की महामारी उसकी नये बसाये शहर में फैल पाती, उस पर काबू पाया जा सका, इसलिये उसने उसी साल, चारमीनार बनवाने का भी आदेश दिया। १६वीं शताब्दी और शुरुआती १७वीं शताब्दी में, जैसे जैसे कुतुब शाही राजवंश की शक्ति और सत्ता बढ़ती गई, हैदराबाद हीरों के व्यापार का केंद्र बनता गया। महारानी एलीजाबेथ के राजमुकुट में जड़ा विश्व में सर्वाधिक प्रसिद्ध कोह-ए-नूर, गोलकुंडा की हीरों की खानें से ही निकला है। कुतुब शाही राजवंश ने हैदराबाद में हिन्दुस्तानी - फ़ारसी और हिन्दुस्तानी-इस्लामी साहित्य के विकास में भी सहयोग किया। कुछ सुल्तान स्थानीय तेलगू संस्कृति के संरक्षक भी माने जाते हैं। १६वीं शताब्दी में शहर गोलकुंडा की जनसंख्या के बसने के लिये बढ़ा और फलतः कुतुब शाही शासकों की राजधानी बन गया। हैदराबाद अपने बागों और सुखद मौसम के लिये जाना जाने लगा। कुतुब शाही काल में प्रधान मंत्री मीर मोमिन अस्टाराबादी ने चारमीनार और चार कमान के स्थान सहित हैदराबाद शहर की योजना विकसित की। १६८७ में, मुगल शासक औरंगजेब ने हैदराबाद पर अधिकार कर लिया। इस कम समय के मुगल शासन के दौरान, हैदराबाद का सौभाग्य क्षय होने लगा। जल्द ही, मुगल शासक के द्वारा नियुक्त शहर के सूबेदार ने अधिक स्वायत्ता पा ली। आधुनिक इतिहास १७२४ में असफ़ जाह प्रथम, जिसे मुगल सम्राट ने "निज़ाम-उल-मुल्क" का खिताब दिया था, ने एक विरोधी अधिकारी को हैदराबाद पर अधिकार स्थापित करने में हरा दिया। इस तरह आसफ़ जाह राजवंश का प्रारंभ हुआ, जिसने हैदराबाद पर भारत की अंग्रेजों से स्वतंत्रता के एक साल बाद तक शासन किया। आसफ़ जाह के उत्तराधिकारीयों ने हैदराबाद स्टेट पर राज्य किया, वे निज़ाम कहलाते थे। इन सात निजामों के राज्य में हैदराबाद सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों भांति विकसित हुआ। हैदराबाद राज्य की आधिकारिक राजधानी बन गया और पुरानी राजधानी गोलकुंडा छोड़ दी गयी। बड़े बड़े जलाशय जैसे कि निज़ाम सागर, तुंगबाद्र, ओसमान सागर, हिमायत सागर और भी कई बनाये गये। नागार्जुन सागर परियोजना के लिये सर्वे भी इसी समय शुरु किया गया, जिसे भारत सरकार ने १९६९ में पूरा किया। हैदराबाद के लगभग सभी प्रमुख सार्वजनिक इमारतों और संस्थानों, जैसे उस्मानिया जनरल अस्पताल, हैदराबाद उच्च न्यायालय, जुबली हॉल, गवर्नमेंट निज़ामिआ जनरल हॉस्पिटल, मोजाम जाही बाजार, कचिगुडा रेलवे स्टेशन, असफिया लाइब्रेरी (राज्य केंद्रीय पुस्तकालय), निज़ाम शुगर फैक्ट्री, टाउन हॉल (असेंबली हॉल), हैदराबाद संग्रहालय अब राज्य संग्रहालय के रूप में जाना जाता है और कई अन्य स्मारक इस शासनकाल के दौरान बनाए गए थे। आजादी के बाद जब १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ, ब्रिटिश शासन से हुई शर्तों के तहत हैदराबाद ने; जिसका प्रतिनिधित्व मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल और 'निज़ाम' कर रहे थे, स्वतंत्र होने को चुना, एक मुक्त शासक की भांति या ब्रिटिश साम्राज्य की रियासत की भांति भारत ने हैदराबाद स्टेट पर आर्थिक नाकेबंदी लगा दी। परिणामतः हैदराबाद स्टेट को एक विराम समझौता करना पड़ा | भारत की स्वतंत्रता के करीब एक साल बाद, १७ सितम्बर १९४८ के दिन निज़ाम ने अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर किये। १ नवम्बर १९५६ को भारत का भाषायी आधार पर पुर्नसंगठन किया गया। हैदराबाद स्टेट के प्रदेश नये बने आन्ध्र प्रदेश, मुंबई (बाद में महाराष्ट्र) और कर्नाटक राज्यों में तेलुगुभाषी लोगों के अनुसार बांट दिये गये। इस तरह हैदराबाद नए बने राज्य आंध्र प्रदेश की राजधानी बना। भारत का संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को प्रभावी हुआ, ने हैदराबाद राज्य को भारत के भाग बी राज्यों में से एक बना दिया, जिसमें हैदराबाद शहर राजधानी बना रहा। अपनी 1955 की रिपोर्ट में भाषाई राज्यों पर विचार, भारतीय संविधान की मसौदा समिति के तत्कालीन अध्यक्ष बी आर अम्बेडकर ने अपनी सुविधाओं और रणनीतिक केंद्रीय स्थान के कारण हैदराबाद शहर को भारत की दूसरी राजधानी के रूप में नामित करने का प्रस्ताव दिया। भूगोल और पर्यावरण हैदराबाद शहर दक्षिण भारत के तेलंगाना राज्य में स्थित है। यह देक्कन क्षेत्र में है जो, समुद्र तट से ५४१ मीटर, ६२५किमी२ क्षेत्र ऊपर स्थित है। ग्रेटर हैदराबाद को कवर करता है, जो इसे भारत के सबसे बड़े महानगरीय क्षेत्रों में से एक बनाता है। की औसत ऊंचाई के साथ, हैदराबाद मुख्य रूप से भूरे और गुलाबी ग्रेनाइट के ढलान वाले इलाके में स्थित है, जो छोटी पहाड़ियों से युक्त है, सबसे ऊंची बंजारा हिल्स है। शहर में कई झीलें हैं जिन्हें कभी सागर कहा जाता है, जिसका अर्थ है "समुद्र"। उदाहरणों में मुसी पर बांधों द्वारा बनाई गई कृत्रिम झीलें शामिल हैं, जैसे हुसैन सागर (शहर के केंद्र के पास 1562 में निर्मित), उस्मान सागर और हिमायत सागर। 1996 तक, शहर में 140 झीलें और 834 पानी के टैंक (तालाब) थे। मूल हैदराबाद शहर मूसी नदी के किनारे स्थापित हुआ था। इसे अब ऐतिहासिक पुराना शहर कहा जाता है, जहां चारमीनार, मक्का मस्जिद आदि बने हैं, वह नदी के दक्षिणी किनारे पर बसा है। नगर का केन्द्र नदी के उत्तर में स्थानांतरित हो गया है। यहां कई सरकारी इमारतें व मुख्य स्थल बने हैं, खासकर हुसैन सागर झील के दक्षिण में। इस नगर की त्वरित प्रगति साथ जुड़े सिकंदराबाद व अन्य पड़ोसी क्षेत्रों सहित हुई है, जिससे यह महानगरों की श्रेणी में आ गया है। यहां का मौसम इस प्रकार से है: ग्रीष्म काल (मई): औसत अधिकतम तापमान: 40 डिग्री से० औसत न्यूनतम : 25 डिग्री से० हेमन्त काल (दिसंबर): औसत अधिकतम तापमान 28 डिग्री से०, औसत न्यूनतम: 13 डिग्री से० अधिकतम अंकित : 45.6 शिग्री से०, न्यूनतम अंकित:6.1 डिग्री से० वार्षिक वर्षा: 79 से.मी. भुगर्भीय प्रणाली: आर्कियन मृदा: लाल बलुआ, साथ ही काली कॉटन मृदा के क्षेत्र भि हैं। निकटवर्ती भूभाग: पथरीला/पहाड़ी (हैदराबाद के निकटवर्ती क्षेत्र अपनी संदर पाषाण बनावट के लिये प्रसिद्ध हैं।) जलवायु: उष्णकटिबन्धीय नम एवं शुष्क स्वास्थ्य पर्यटन यदि किसी को कोई बड़ी स्वास्थ्य समस्या है, तो हैदराबाद, उभरता हुआ सर्वश्रेष्ठ स्थानों में से एक है, उपचार हेतु। नगर पहले ही औषधि का केन्द्र है, जहां औषधियों का कई करोड़ का व्यापार है। यहां कई सस्ते व अच्छे अस्पताल भी हैं। नागरिक प्रशासन हैदराबाद का प्रशासन District Magistrate या Collector द्वारा प्रशासित है जो एक IAS अधिकारी होते हैं। इसके अलावा शहर के साफ - सफाई के लिए एक नगरपालिका भी है जिसे ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम कहते हैं। इस पालिका के अध्यक्ष यहां के महापौर हैं, जिन्हें कई कार्यपालक क्षमताएं निहित हैं। पालिका की मुख्य क्षमता नगरमहापालिका आयुक्त, एक आइ ए एस के पास है, जो तेलंगाना सरकार द्वारा नियुक्त होता है। हैदराबाद एक सौ 50 म्युनिसिपल वार्ड्स में बंटा हुआ है। प्रत्येक वार्ड का एक कॉर्पोरेटर होता है, जो पालिका के चुनावों में चयनित होता है। हैदराबाद में एक जिला है, जो जिला मैजिस्ट्रेट के अधीन आता है। इन्हें कलेक्टर भी कहा जाता है। कलेक्टर संपत्ति आंकड़ों व राजस्व संग्रहण का प्रभारी होता है। यही नगर में होने वाले चुनावों की प्रक्रिया का निरीक्षण भी करता है। महानगरीय क्षेत्र में रंगारेड्डी जिला भी आता है, जो पूर्व हैदराबाद में से काट कर बना था। अन्य महानगरों की भांति, यहां भी एक पुलिस आयुक्त, आई पी एस होता है। हैदराबाद पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। हैदराबाद में पांच पुलिस मंडल हैं, प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यहां की यातायात पुलिस भी हैदराबाद पुलिस के अधीन, अर्ध-स्वायत्तता प्राप्त संस्था है। यहां एक राज्य उच्च न्यायालय है। इसके साथ ही दो निचले न्यायालय भी हैं। ये हैं: स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट: नागरिक (दीवानी) मामलों हेतु, व सैशन कोर्ट: आपराधिक (फौजदारी) मामलों हेतु। जीएचएमसी क्षेत्र में 24 राज्य विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र शामिल हैं, जो लोकसभा के पांच निर्वाचन क्षेत्रों (भारत की संसद का निचला सदन) का निर्माण करते हैं। हैदराबाद लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र के अलावा, हैदराबाद की राजधानी और उसके आसपास चार अन्य लोकसभा क्षेत्र हैं - मल्काजगिरि, सिकंदराबाद, चेवेल्ला और मेदक। आधिकारिक रूप से भारत सरकार हैदराबाद को महानगर मानती है। अर्थ व्यवस्था हैदराबाद आंध्र प्रदेश की वित्तीय एवं आर्थिक राजधानी भी है। यह शहर राज्य के सकल घरेलू उत्पाद, कर एवं राजस्व का सर्वाधिक अंशदाता है। 1990 के दशक से इस शहर का आर्थिक प्रारूप बदल कर, एक प्राथमिक सेवा नगर से बहु-सेवा वर्णक्रम स्वरूप हो गया है, जिसमें व्यापार, यातायात, वाणिज्य, भण्डारण, संचार, इत्यादि सभी सम्मिलित हैं। सेवा उद्योग मुख्य अंशदाता है, जिसमें शहरी श्रमशक्ति कुल शक्ति का 90% है। हैदराबाद को मोतीयों का नगर भी कहा जाता है। और सूचना प्रौद्योगिकी में तो इसने बंगलौर को भी पछाड़ दिया है। मोतिओं का बाजार चार मीनार के पास स्थित है। मोतिओं से बने आभूषण चारकमान बाज़ार से या अन्य मुख्य बाज़ारों से भी लिये जा सकते हैं। चांदी के उत्पाद (बर्तन व मूर्तियां, इत्यादि), साड़ियां, निर्माल एवं कलमकारी पेंटिंग्स व कलाकृतियां, अनुपम बिदरी हस्तकला की वस्तुएं, लाख की रत्न जड़ित चूड़ियां , रेशमी व सूती हथकरघा वस्त्र यहां बनते हैं, व इनका व्यापार सदियों से चला आ रहा है। आंध्र प्रदेश को पूर्व हैदराबाद राज्य से कई बड़े शिक्षण संस्थान, अनुसंधान प्रयोगशालाएं, अनेकों निजी एवं सार्वजनिक संस्थान मिले हैं। मूल शोध हेतु अवसंरचना सुविधाएं यहां देश की सर्वश्रेष्ठ हैं, जिसके कारण ही एक बड़ी संख्या में शिक्षित लोग देश भर से यहां आकर बसे हुए हैं। हैदराबाद औषधीय उद्योग का भी एक प्रमुख केन्द्र है, जहां डॉ० रेड्डीज़ लैब, मैट्रिक्स लैबोरेटरीज़, हैटरो ड्रग्स लि०, डाइविस लैब्स औरोबिन्दो फार्मा लि० तथा विमता लैब्स जैसी बड़ी कम्पनियां स्थापित हैं। जीनोम वैली एवं नैनोटैक्नोलॉजी पार्क, जैसी परियोजनाओं द्वारा, जैव प्रौद्योगिकी की अत्यधिक संरचनाएं यहां स्थापित होने की भरपूर आशा है। हैदराबाद में भी, भारत के कई अन्य शहरों की ही भांति, भू-संपदा व्यापार (रियल एस्टेट) भी खूब पनपा है। इसके लिये सूचना प्रौद्योगिकी को धन्यवाद है, जिसके कारण यहां की प्रगति कुछ ही वर्षों में चहुमुखी हो गयी है। शहर में कई बड़े शॉपिंग मॉल भी बने हैं। सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग हैदराबाद शहर, अपनी सूचना प्रौद्योगिकी एवं आई टी एनेबल्ड सेवाएं, औषधि, मनोरंजन उद्योग (फिल्म) के लिये प्रसिद्ध है। कई कॉल सेंटर, बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बी पी ओ) कम्पनियां, जो सूचना प्रौद्योगिकी व अन्य तकनीकी सेवाओं से संबंधित हैं, यहां 1990 के दशक में स्थापित की गयीं, जिन्होंने इसे भारत क्के कॉल सेंटर सेटप शहरों में से एक बनाया। एक उप-शहर भी बसाया गया है- हाईटेक सिटी, जहां कई सू.प्रौ, एवं आई टी ई एस कम्पनियों ने अपने प्रचालन आरम्भ किये। सूचना प्रौ. के इस त्वरित विस्तार की कारण कभी-कभी इस शहर को साइबराबाद भि कहा गया है। साथ ही इसे बंगलौर के बाद द्वितीय साइबर वैली भी कह जाता है। इस शहर में डिजिटल मूलसंरचना में काफी निवेश हुआ है। इस निवेश से कई बड़ी कंपनियों ने अपने परिसर भी बसाये हैं। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने केन्द्र शहर में खोले हैं। ऐसे मुख्य केन्द्र माधापुर व गाचीबावली में अधिक हैं। हैदराबाद से आईटी का निर्यात वित्त वर्ष 2019-20 में ₹ 128,807 करोड़ (यूएस $ 15 बिलियन) भारत में दूसरे स्थान पर रहा, जो वित्त वर्ष 2018-19 में ₹ 109,219 करोड़ ($ 14 बिलियन, 17% सीएजीआर) से बेहतर है। 2020 तक, हैदराबाद में आईटी क्षेत्र में छह लाख कर्मचारी हैं। हैदराबाद विश्व की फॉर्चून 500 कम्पनियों को भी आकर्षित कर यहां निवेश करा चुका है। इंटलेक्ट इंकॉ, की सेमिइंडिया में अच्छी डिल होने के बाद से हैदराबाद एक वैश्विक शहर बन गया है। यहीं पर भारत की प्रथम फैब सिटी, जिसमें सिलिकॉन चिप उत्पादन सुविधा हो, 3 बिलियन डॉलर के ए॰ एम॰ डी॰-सेमीइंडिया कॉनसॉर्शियम के निवेश से स्थापित हो रही है भू सम्पदा यहां के शहरीकरण, व लोगों के छोटे शहरों को व्यवसाय के लिये छोड़कर यहां बसने से, यहां की जनसंख्या में एक बड़ी वृद्धि हुई है। इसी का परिणाम है ग्रेटर हैदराबाद, जिसमें पड़ोसी गांव भी शामिल हैं। इनके साथ ही यहां एक मुद्रिका मार्ग, बाहरी मुद्रिका मार्ग, कई सेतु व नीःशुल्क-पथ भी हैं। इस कारण कई बाहरी क्षेत्र अपनी सीमाएं खोते जा रहे हैं, व भू संपदा के भाव ऊंचे उठते जा रहे हैं। साथ ही यहां अनेकों गगन चुंबी अट्टालिकाएं उठतीं जा रहीं हैं। आवागमन सड़क हैदराबाद शेष भारत से राष्ट्रीय राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। मुख्य राजमार्ग हैं:- एन एच 7, एन ए 9 एवं एन एच 202 (आंध्र प्रदॆश सड़क राज्य परिवन निगम) आदि। 1932 में निज़ाम राज्य रेल-सड़क यातायात प्रभाग की इकाई के रूप में स्थापित हुआ था, जिसमें आरंभिक 27 बसें थीं, जो अब बढ़कर 19,000 का आंकड़ा पार कर चुकी है। यहां एशिया का तीसरा सबसे बड़ा बसों का बेड़ा है। इसमें 72 बस प्लेटफॉर्म हैं, जहां इतनी ही बसें एक ही समय में यात्रियों को चढ़ा सकतीं हैं। इसका आधिकारिक नाम है महत्मा गांधी बस स्टेशन, जिसे स्थानीय लोग इमलीवन बस स्टेशन कहते हैं। राज्य परिवहन निगम पॉइंट से पॉइंट बस सेवा प्रदान करता है, जो सभी मुख्य नगरों को जोड़ती है। शहर में निगम की 4000 से अधिक बसें दौड़तीं हैं। पीले रंग का ऑटोरिक्शा, जिसे ऑटो कहा जाता है, अधिकतर प्रयुक्त टैक्सी सेवा है। हाल ही में कार व मोटरसाइकिल टैक्सी सेवाएं भी आरंभ हुईं हैं। रेल सेवा यहां लाइट रेल यातायात प्रणाली है, जिसे मल्टी मॉडल टआंस्पोर्ट सिस्टम (एम एम टी एस) कहते हैं। यह रेल व सड़क यातायात को जोड़ता है। दक्षिण मध्य रेलवे का मुख्यालय सिकंदराबाद में स्थित है। तीन मुख्य रेलवे स्टेशन हैं:- सिकंदराबाद जंक्शन, हैदराबाद डेकन रेलवे स्टेशन (या नामपल्ली) और काचिगुडा रेलवे स्टेशन। नवंबर 2017 के बाद से हैदराबाद मेट्रो, एक नई तेजी से पारगमन प्रणाली शुरू हुई। 2012 तक, शहर में 3.5 मिलियन से अधिक वाहन चल रहे हैं, जिनमें से 74% दोपहिया वाहन, 15% कारें और 3% तीन-पहिया हैं। शेष 8% में बसों, माल वाहन और टैक्सी शामिल हैं। अपेक्षाकृत कम सड़क कवरेज के साथ वाहनों की बड़ी संख्या-सड़कों पर कुल शहर क्षेत्र का केवल 9 .5% हिस्सा है : 79-ने व्यापक यातायात की भीड़ का नेतृत्व किया है, खासकर जब से 80% यात्रियों और 60% माल ढुलाई जाती है सड़क से। : 3 इनर रिंग रोड, बाहरी रिंग रोड, हैदराबाद एलिवेटेड एक्सप्रेसवे, भारत का सबसे लंबा फ्लाईओवर, और विभिन्न इंटरचेंज, ओवरपास और अंडरपास को भीड़ को कम करने के लिए बनाया गया था। शहर के भीतर अधिकतम गति सीमा दोपहिया वाहनों और कारों के लिए 50 किमी / घंटा (31 मील प्रति घंटे), ऑटो रिक्शा के लिए 35 किमी / घंटा (22 मील प्रति घंटे) और हल्के वाणिज्यिक वाहनों और बसों के लिए 40 किमी / घंटा (25 मील प्रति घंटे) है। वायु सेवा पहले बेगमपेट हवाई अड्डा अन्तर्देशीय व अन्तर्राजीय विमान सेवा देता था। एक नया विमानक्षेत्र राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा शम्साबाद में बन चुका है। पहले सभी बड़े शहरों की भांति यहां वयु यातायात संकुलन समस्या होती थी, परंतु नया हवाई अड्डा बन जाने से वह दूर हो चुकी है। यहां ट्रैफिक संकुलन की समस्या सड़कों पर बहुत दिखायी देती है। यह ऑटो, कार, इत्यादि की अत्यधिक संख्या के कारण होती है। इससे निबटाने के लिये अनेकों सेतु, फ्लाईओवर निर्माण हुए, परंतु यह वैसी की वैसी बनी हुई है। आंध्र प्रदेश सरकार ने इससे निबटने के लिये दिल्ली व कोलकाता की भांति ही यहां भी मैट्रो ट्रेन शुरु करने की मंजूरी दे दी है। इसके पूर्ण हो जाने पर आशा है, कि यह समस्या काफी हद तक सुलझ जाये गी। जनसांख्यकी जब जीएचएमसी 2007 में बनाया गया था, तो नगरपालिका के कब्जे वाला क्षेत्र 175 किमी 2 (68 वर्ग मील) से बढ़कर 625 किमी 2 (250 वर्ग मील) हो गया था। नतीजतन, जनसंख्या में 87% की वृद्धि हुई, 2001 की जनगणना में 3,637,483 से, 2011 की जनगणना में 6,809,970 तक, जिनमें से 24% भारत में कहीं और से प्रवासी हैं, : 2 हैदराबाद देश का चौथा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। 2011 तक, जनसंख्या घनत्व 18,480 / km2 (47,900 / वर्ग मील) है। [106] उसी 2011 की जनगणना में, हैदराबाद अर्बन एग्रीग्लोमेशन की आबादी 9,700,000 थी, जो इसे देश का छठा सबसे अधिक आबादी वाला शहरी समूह बना रहा था। 2006 में नगर की जनसंख्या 36 लाख आकलित की गयी थी जबकि बृहत्तर महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या 61 लाख से अधिक आकलित की गयी है। धार्मिक तथा सांस्कृतिक रूप से यह शहर हिन्दू, मुस्लिम व ईसाइयों से जुड़ा हुआ है। यहां बोली जाने वाली मुख्य भाषाएं हैं- तेलुगु, हिन्दी, उर्दू व दक्कनी। यहां जनजातीय मूल के लोगों की भी खासी जनसंख्या है, जो कि काम की तलाश में यहां आव्रजित हुए हैं। यहां बनजारे भी मिलते हैं, जो अपनी एक भिन्न संस्कृति व भाषा वाले हैं। उनकी भाषा को Gorboli कहा जाता है, जो यूरोप में रोमा लोगों द्वारा बोली जाने वाली रोमा भाषा से निकट संबंध रखती है। तेलुगु, हिन्दी व दक्कनी मूल जनसंख्या की स्थानीय भाषाएं हैं। व्यापार में पर्याप्त मात्रा में अंग्रेज़ी भी बोली जाती है। भारत के विभिन्न भागों के लोगों ने हैदराबाद को अपना गृहनगर बनाया है। भाषा और धर्म "हैदराबादी" के रूप में संदर्भित, हैदराबाद के निवासी मुख्य रूप से तेलुगु और उर्दू बोलने वाले लोग हैं, जिनमें अल्पसंख्यक बंगाली, गुजराती (मेमन सहित), कन्नड़ (नावाथी सहित), मलयालम, मराठी, मारवाड़ी, ओडिया, पंजाबी, सिंधी, तमिल और उत्तर हैं। परदेशी समुदाय। हैदराबाद उर्दू की एक अनूठी बोली का घर है, जिसे हैदराबादी उर्दू कहा जाता है, जो एक प्रकार की दखिनी है, और अधिकांश हैदराबादी मुसलमानों की मातृभाषा है, एक अद्वितीय समुदाय, जो हैदराबाद के इतिहास, भाषा, व्यंजन और संस्कृति का बहुत अधिक सम्मान करता है, और विभिन्न राजवंश जिन्होंने पहले शासन किया था। हिंदू बहुसंख्यक हैं। मुसलमान बहुत बड़े अल्पसंख्यक हैं, और पूरे शहर में मौजूद हैं और पुराने शहर में और उसके आसपास हैं। यहां ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी समुदाय और प्रतिष्ठित मंदिर, मस्जिद और चर्च भी देखे जा सकते हैं। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार, ग्रेटर हैदराबाद का धार्मिक मेकअप था: हिंदू (64.9%), मुस्लिम (30.1%), ईसाई (2.8%), जैन (0.3%), सिख (0.3%) और बौद्ध (0.1%) ); 1.5% किसी भी धर्म का वर्णन नहीं करता है। संस्कृति हैदराबाद अनेक विभिन्न संस्कृतियों व परंपराओं का मिलन-स्थल है। ऐतिहासिक रूप से यह वह शहर रहा है, जहां उत्तर व दक्षिण भारत की भिन्न सांस्कृतिक व भाषिक परंपराएं मिश्रित होती हैं। अतः यह दक्षिण का द्वार या उत्तर का द्वार कहा जाता है। यहां दक्षिण भारतीय संस्कृति के बीच हैदराबाद की मुस्लिम संस्कृति भी अंतर्विष्ट है। यह एक अनुपम विश्वबन्धु नगर (कॉस्मोपॉलिटन) है, जहां ईसाइयत, हिन्दू धर्म, इस्लाम, जैनधर्म व जरथुष्ट्र धर्म को मानने वाले लोग रहते हैं। हैदराबादियों ने अपनी खुद की एक भिन्न संस्कृति विकसित कर ली है, जिसमें प्राचीन तेलुगु लोगों की हिन्दू परंपराओं तथा सदियों पुरानी इस्लामी परंपराओं का मिश्रण है। तेलुगु, उर्दू व हिन्दी यहां की प्रमुख भाषाएं हैं (यद्यपि बाद की दो अपने मानक स्वरूप में नहीं पायी जातीं और दक्कनी बोली की ओर अग्रसर रहती हैं)। यहां बोली जाने वाली तेलुगु भाषा में अनेक उर्दू शब्द भी मिल सकते हैं। तथा यहां बोली जाने वाली उर्दू भी मराठी व तेलुगु से प्रभावित है, जिससे एक बोली बनी है जिसे हैदराबादी उर्दू या दक्कनी कहा जाता है। यहां का प्रसिद्ध उस्मानिया विश्वविद्यालय भारत का पहला उर्दू माध्यम विश्वविद्यालय है। यहां की एक बड़ी जनसंख्या अंग्रेजी बोलने में भी कुशल है। हैदराबाद की लगभग सभी संस्कृतियों की महिलाएं या तो परंपरागत भारतीय परिधान साड़ी पहनती हैं, या सलवार कमीज़ (विशेषकर युवा जनसंख्या)। मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा भाग बुरका या हिजाब पहनता है। पुरुष प्रायः आज का सुविधा का परिधान पैंट-शर्ट पहनते हैं, परंतु लुंगी व शर्ट, धोती कुर्ता (दोनों हिन्दू) तथा कुर्ता पाजामा (प्रायः मुस्लिम) भी बहुत पहना जाता है। प्रमुख व्यंजन अपने लजीज मुगलई भोजन के साथ-साथ हैदराबाद निजामी तहजीब के कारण भी दुनिया भर में मशहूर है। स्वादप्रेमियों के लिए तो हैदराबाद जन्नत के समान है। यहां की लजीज बिरयानी और पाया की खूशबू दूर-दूर से पर्यटकों को हैदराबाद खींच लाती है। इस पर हैदराबाद के नवाबी आदर-सत्कार व खान-पान को देखकर आपको भी लगेगा कि वाकई में आप किसी निजाम के शहर में आ गए हैं। हैदराबादी व्यंजन में परंपरागत आंध्र और तेलंगाना व्यंजन पर व्यापक इस्लामी प्रभाव है। हैदराबादी व्यंजनों के यहां कई रेस्त्रां हैं। शहर के सभी होटलों में एक या इससे ज्यादा रेस्त्रां हैं जो लोकप्रिय है। बावर्ची, पाराडाइड, हैदराबाद हाउस हैदराबादी व्यंजनों को उपलब्ध कराने वाले कुछ मशहूर रेस्त्रां हैं। हैदराबाद का सबसे प्रमुख व्यंजन हैदराबादी बिरयानी है। अन्य व्यंजनों में ख़ुबानी का मीठा, फेनी, पाया नाहरी और हलीम (रमजान के महीने का प्रमुख मांसाहारी व्यंजन)। भारतीय मिठाई की दुकानें घी की मिठाइयों के लिए मशहूर हैं। पुल्ला रेड्डी मिठाइयां शुद्ध घी की मिठाइयों के लिए प्रसिद्ध है। नामपल्ली का कराची बेकरी फल बिस्कुटों, ओस्मानिया बिस्कुट और दिलखुश के लिए मशहूर हैं। पुराने शहर के अजीज बाग पैलेस में रहने वाला परिवार बादाम की जैली बनाता है। शिक्षा और शोधकार्य आरंभ में हैदराबाद में मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध दो महाविद्यालय थे। लेकिन 1918 में निज़ाम ने उस्मानिया विश्वविद्यालय की स्थापना की और अब यह भारत के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक है। हैदराबाद विश्वविद्यालयों की स्थापना 1974 में हुई। एक कृषि विश्वविद्यालय और कई ग़ैर सरकारी संस्थान, जैसे अमेरिकन स्टडीज़ रिसर्च सेंटर और जर्मन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओरिएंटल रिसर्च भी हैं। हैदराबाद में सार्वजनिक व निजी सांस्कृतिक संगठन बड़ी संख्या में हैं, जैसे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त नाट्य, साहित्य व ललित कला अकादमियां । सार्वजनिक सभागृह रबींद्र भारती नृत्य व संगीत महोत्सवों के लिए मंच प्रदान करता है और सालार जंग संग्रहालय में दुर्लभ वस्तुओं का संगृह है, जिनमें संगेयशब, आभूषण, चित्र और फ़र्नीचर शामिल हैं। क्षेत्रीय केन्द्र हैदराबाद क्षेत्रीय केन्द्र की स्थापना जनवरी, 1987 में की गई थी। दो उत्तरी तटीय ज़िले श्रीकाकुलम और विजयनगरम को छोड़कर यह क्षेत्रीय केन्द्र पूरे आंध्र प्रदेश को समाहित करता है। इस क्षेत्रीय केन्द्र का औपचारिक उद्घाटन इग्नू के संस्थापक वी. सी प्रोफ़ेसर जी. रामा रेड्डी द्वारा 2 फ़रवरी 1987 को किया गया था। कुछ ही वर्षों में इसने 60 अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की और 120 से ज़्यादा कार्यक्रम अध्ययन केन्द्रों में उपलब्ध कराने लगा। हिन्दी संस्थान हैदराबाद केंद्र की स्थापना वर्ष 1976 में हुई। शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अंतर्गत यह केंद्र स्कूलों/कॉलेजों एवं स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के हिन्दी अध्यापकों के लिए 1 से 4 सप्ताह के लघु अवधीय नवीकरण कार्यक्रमों का आयोजन करता है, जिसमें हिन्दी अध्यापकों को हिन्दी के वर्तमान परिवेश के अंतर्गत भाषाशिक्षण की आधुनिक तकनीकों का व्यावहारिक ज्ञान कराया जाता है। वर्तमान में हैदराबाद केंद्र का कार्यक्षेत्र आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गोवा, महाराष्ट्र एवं केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी एवं अण्डमान निकोबार द्वीप समूह हैं। हैदराबाद केंद्र पर हिन्दी शिक्षण पारंगत पाठ्यक्रम भी संचालित किया जाता है। मीडिया हैदराबाद ऑप्टिकल फाइबर केबल के एक बड़े नेटवर्क द्वारा कवर किया जाता है। शहर के टेलीफोन प्रणाली चार लैंडलाइन कंपनियों द्वारा सेवित है, यथा: बीएसएनएल, टाटा इंडिकॉम, रिलायंस और एयरटेल। कई कंपनियों के द्वारा ब्रॉडबैंड इंटरनेट का उपयोग प्रदान किया जाता है। शहर में प्रसारित एफएम रेडियो चैनल क्रमश: रेडियो मिर्ची, आकाशवाणी इंद्रधनुष एफएम, विविध भारती, आकाशवाणी, रेडियो सिटी, बिग एफएम, एस एफएम और एयर ज्ञानवाणी एफएम आदि है। राज्य के स्वामित्व वाली दूरदर्शन दो स्थलीय टेलीविजन चैनलों और हैदराबाद से एक उपग्रह टेलीविजन चैनल प्रसारित करता है। साथ ही सन नेटवर्क के मिथुन, तेजा के अलावा मां टीवी, ईटीवी उर्दू, ईटीवी (भारत) सहित हैदराबाद से प्रसारित कई कई अन्य निजी क्षेत्रीय टेलीविजन चैनलों में प्रमुख है राज नेटवर्क का वीसा, ज़ी टीवी का ज़ी तेलुगु, सन नेटवर्क का मिथुन संगीत, मिथुन समाचार चैनल, टी वी 5, आप तक आदि है। हैदराबाद से अंग्रेजी, तेलुगू और उर्दू भाषाओं में कई अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। तेलुगु दैनिक समाचार पत्रों में प्रमुख है एनाडु, वार्ता, आंध्र ज्योति, प्रजाशक्ति, आंध्र भूमि और आंध्र प्रभा। यहाँ से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्रों में प्रमुख हैं डेक्कन क्रॉनिकल, बिजनेस स्टैंडर्ड, हिंदू, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस आदि। जबकि यहाँ से प्रकाशित प्रमुख उर्दू दैनिक समाचार पत्रों में सियासत दैनिक, मुंसिफ दैनिक, एत्तेमाद उर्दू दैनिक, रहनुमाई, डेक्कन और दैनिक मिलाप आदि। इन प्रमुख समाचार पत्रों के अलावा, वहां से कई प्रमुख पत्रिकाएं प्रकाशित होती है, जिसमें प्रमुख है- चंदामामा, वनिता, विपुला, चतुरा, नव्या, आंध्र प्रभा, आंध्र ज्योति, स्वाति आदि तथा फिल्मी पत्रिकाओं में ज्योति चित्रा संतोषम, सुपरहिट, चित्रांजलि, सितारा आदि शामिल हैं। हैदराबाद तेलुगू फिल्म उद्योग की मातृभूमि है। सरधी स्टूडियो, अन्नपूर्णा स्टूडियो, रामानायिडु स्टूडियो, रामकृष्ण स्टूडियो, पदमालया स्टूडियो, रामोजी फिल्म सिटी इस शहर का उल्लेखनीय फिल्म स्टूडियो हैं। सिनेमा हैदराबाद भारत के दूसरे सबसे बड़े चलचित्र उद्योग का गृह भी है:- तेलुगु सिनेमा। यहां प्रतिवर्ष सैंकडों फिल्में बनायीं जातीं हैं। खेलकूद हैदराबाद में अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल हैं। क्रिकेट के साथ-साथ हॉकी की भी लोकप्रियता यहाँ कम नहीं है। 2005 में प्रीमियर हॉकी लीग में हैदराबाद सुल्तान्स विजयी हुये थे। हैदराबाद को हाल ही में एक नया क्रिकेट स्टेडियम विशाखा इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम मिला है, जिसका नाम परिवर्तित करके राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम रखा गया है। इन्डोर खेलों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से यहाँ एक इन्डोर स्टेडियम भी बनाया गया है। वर्ष 2002 में 'राष्ट्रीय खेल' के मेजबान के रूप में इस शहर का चयन किया गया था और देश में विश्व स्तरीय स्टेडियम हेतु पहल की गई थी। बाद में इस स्टेडियम को 2003 में आयोजित एफ्रो एशियाई खेलों की मेजबानी का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज हैदराबाद में अंतरराष्ट्रीय मानक के कई बड़े और विविध स्टेडियम हैं। इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम हैं सनराइजर्स हैदराबाद। हैदराबाद के प्रसिद्ध खिलाड़ी अब्बास अली बेग, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी सी॰ के॰ नायडू, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी आबिद अली, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी अबू तय्यब यह्या मोहम्मद, जूनियर टेबल टेनिस खिलाड़ी अरशद अय्यूब, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी गगन नारंग, विश्व स्तर के निशानेबाज ग़ुलाम अहमद , पूर्व भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान मीर कासिम अली , पूर्व भारतीय टेबल टेनिस चैंपियन मिताली राज, भारतीय महिला क्रिकेट टीम की खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन, पूर्व भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान नंदानूरी मुकेश कुमार, ओलंपियन और पूर्व भारतीय हॉकी खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद, बैडमिंटन खिलाड़ी पी॰ कृष्णा मूर्ति, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी साइना नेहवाल, बैडमिंटन खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा, टेनिस खिलाड़ी शिव लाल यादव, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी और क्रिकेट टीम के चयनकर्ता सैयद मोहम्मद हादी, ओलंपिक टेनिस खिलाड़ी वी वी एस लक्ष्मण, भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी वेंकटपति राजू, पूर्व भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी कोनेरु हम्पी, अंतर्राष्ट्रीय शतरंज खिलाड़ी स्टेडियम हैदराबाद शहर में बनाया गया प्रारंभिक स्टेडियम लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम है, जो पूर्व में फतेह मैदान के रूप में जाना जाता था और यह हाल तक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का संचालन करता रहा है। इस मैदान पर पहला क्रिकेट मैच 19 नवम्बर 1955 को खेला गया था। उप्पल में राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के निर्माण के साथ अब इस मैदान पर क्रिकेट मैच आयोजित किए जाने की संभावना नहीं है किन्तु हैदराबादी लोगों की प्रबल इक्षा है कि यहां पर क्रिकेट मैच का आयोजन किया जाना चाहिए, सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। आकर्षण चार मीनार – नगर का मुख्य चिन्ह, जिसमें चार भव्य मीनारें हैं। शहर के बीचोंबीच बनी इस भव्य इमारत का निर्माण कुली कुतुब शाही नवाब ने कराया था। यह कहा जाता है कि हैदराबाद में प्लेग जैसी भयानक महामारी पर विजय पाने की खुशी में नवाब ने चारमीनार का निर्माण कराया था। चारमीनार से लगा हुआ ही एक प्रसिद्ध चूड़ी बाजार है, जहां आपको अनगिनत वैरायटियों की सुंदर चूड़ियां देखने को मिल जाएगी। फलकनुमा पैलेस – नवाब विकार-अल-उमरा द्वारा बनवाया हुआ, स्थापत्यकला का अनोख उदाहरण है। गोलकुंडा किला – शहर के किनारे स्थित, गोलकुंडा का किला, भारत के प्रसिद्ध व भव्य किलों में से एक है। चौमोहल्ला पैलेस- यह आसफ जाही वंश का स्थान था, जहां निज़ाम अपने शाही आगन्तुकों का सत्कार किया करते थे। 1750 में निज़ाम सलाबत जंग ने इसे बनवाया था, जो इस्फहान शहर के शाह महल की तर्ज़ पर बना है। यहां एक महलों का समूह है, जो दरबार हॉल के रूप में प्रयुक्त होते थे। सलारजंग संग्रहालय – यह पुरातन वस्तुओं का एक व्यक्ति संग्रह वाला सबसे बड़ा संग्रहालय है। कई शताब्दियों के संग्रह यहां मिलते हैं। मक्का मस्जिद – यह पत्थर की बनी है, व चारमीनार के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह अपने आकार, स्थापत्य एवं निर्माण में अद्वितीय है। बिडला मंदिर (हैदराबाद, तेलंगाना) – यह हिन्दू मंदिर, नगर में एक ऊंचे पहाड़ पर स्थित है, जहां से नगर का नज़ारा दिखाई देता है, व पूरे नगर से यह दिखाई देता है। यह श्वेत संगमर्मर का बना है। बिडला तारामंडल – नगर के बीच में नौबत पहाड पर स्थित, तारामंडल खगोल विज्ञान को नगर का नमन है। चिलकुर बालाजी – श्री वेंकटेश्वर स्वामी को समर्पित यह मंदिर मेहंदीपटनम से 23 कि॰मी॰ दूर है। इसे वीसा-बालाजी भी कहते हैं, क्योंकि लोगों की यह मान्यता है, कि अमरीकी वीज़ा का इंटरव्यू इनकी कृपा से सकारात्मक परिणाम देता है। नेहरू प्राणी संग्रहालय- हैदराबाद के इस प्राणी संग्रहालय की विशेषता है इसकी लॉयन सफारी तथा सफेद शेर, इसके अलावा यहां आपको अफ्रीका तथा ऑस्ट्रेलिया के भी कई वन्य प्राणी देखने को मिल जाएंगे। कई एकड़ में फैले इस प्राणी संग्रहालय में आप अपने वाहन से भी घूम सकते हैं। हैदराबाद की बुद्ध प्रतिमा – यह हुसैन सागर नामक कृत्रिम झील हैदराबाद को सिकंदराबाद से अलग करती है। इसके अंदर, बीच में गौतम बुद्ध की एक 18 मी. ऊंची प्रतिमा स्थापित है। इस द्वीप पर जिस पत्थर पर यह बनी है, उसे स्थानीय लोग जिब्राल्टर का पत्थर कहते हैं। लाड बाजार - यहां चूड़ी बाज़ार है, जो चार मीनार के पश्चिम में है। कमल सरोवर - जुबली हिल्स पर स्थित, तालाब के चारों ओर बना एक सुंदर बगीचा है, जिसे एक इतालवी अभिकल्पक द्वारा बनाया हुआ बताया जाता है। यह वर्तमान में हैदराबाद नगरपालिक निगम द्वारा अनुरक्षित है। यह कुछ दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों का घर भी है। पुरानी हवेली - निज़ाम का आधिकारिक निवास। क़ुतुब शाही मक़बरे - कुतुबशाही वंश के शासकों के मकबरे यहां स्थित हैं, यह गोलकोंडा किले के निकट शाइकपेट में है। पैगाह मक़बरे - पैगाह मकबरा का संबंध पैगाह के शाही परिवार से है, जिसे शम्स उल उमराही परिवार के नाम से भी जाना जाता है। हैदराबाद के उपनगर पीसाल बंदा में स्थित इस मकबरे को मकबरा शम्स उल उमरा के नाम से भी जाना जाता है। इस मकबरे के निर्माण का काम 1787 में नवाब तेगजंग बहादुर ने शुरू करवाया था और फिर बाद में इसके निर्माण कार्य में उनके बेटे आमिर ए कबीर प्रथम ने हाथ बंटाया। संघी मंदिर - भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित एक मंदिर है। स्नो वर्ल्ड - यह एक मनोरंजन पार्क है, जो कि इस उष्णकटिबंधीय शहर में लोगों बहुत कम तापमान व हिम का अनुभव देता है। वर्गल सरस्वती देवी मंदिर - यह हैदराबाद से 50 किलोमीटर दूरी पर मेडचल महामार्ग पर स्थित मंदिर है। यह एक बड़ी शिला पर स्थित है। इस मार्ग पर आरटीसी बसें उपलब्ध हैं। माधापुर - हैदराबाद के अनेक सूचना-प्रौद्योगिकी तथा सूचना-प्रौद्योगिकी-समर्थीकृत-सेवाओं संबधित कार्यालयों का स्थान है। रामोजी फिल्म सिटी संसार का सबसे बड़ा समाकलित फ़िल्म स्टूडियो सम्मिश्र है जो लगभग 2000 एकड़ में फैला है। यह एशिया के सबसे लोकप्रिय पर्यटन एवं मनोरंजन केंद्रों में से एक है। 1996 में उद्घाटित यह हैदराबाद से 25 किलोमीटर दूर विजयनगर राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-9) पर स्थित है। इन्हें भी देखें हैदराबाद राज्य नानकरामगुडा फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट् हाईटेक सिटी खाजागुडा सन्दर्भ बाहरी कड़ियां हैदराबाद के लिए एक गाइड(अंग्रेजी में) हैदराबाद गाइड हैदराबाद मेट्रो हैदराबाद मानचित्र हैदराबाद तेलंगाना के नगर हैदराबाद के निज़ाम हैदराबाद ज़िला
1805
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रायपुर (Raipur) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित एक नगर है। यह राज्य की राजधानी है और रायपुर ज़िले का मुख्यालय है। रायपुर छत्तीसगढ़ राज्य का सबसे बड़ा शहर होने के साथ-साथ राज्य का एक महत्वपूर्ण औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्र है। छत्तीसगढ़ के विभाजन के पूर्व रायपुर मध्य प्रदेश राज्य का अंग था। रायपुर को स्वच्छ सर्वेक्षण 2021 मे भारत का 6वां सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है। रायपुर को व्यापार के लिए देश के सबसे अच्छे शहरों मे से एक माना जाता है। रायपुर खनिज संपदा से भरपूर है। यह देश मे स्टील एवं लोहे के बड़े बाजारों मे से एक है। लगभग 200 स्टील रोलिंग मिल, 195 स्पन्ज आयरन प्लांट, कम से कम 6 स्टील प्लांट, 60 प्लाइवुड कारखाने, 35 फेरो-अलॉय प्लांट, और 500 कृषि उद्योग हैं। रायपुर मे 800 से अधिक राइस मिल प्लांट हैं। इतिहास पुराने भवन एवं किलों के अवशेष पर आधारित कुछ इतिहासविदों की मान्यतानुसार यह शहर ९वीं सदी से अस्तित्व में है।यहां प्राचीन गोंड राजाओं का शासन था, ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह १४ वीं सदी में बसा था। जनसांख्यिकी 2011 की जनगणना के अनुसार: जनसंख्या - 10,10,087 लिंगानुपात - 946 साक्षरता दर - 86.90% पुरुष साक्षरता दर 92.39% महिला साक्षरता दर 81.10% भूगोल एवं जलवायु रायपुर खारुन नदी के तट में बसा छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा शहर है। रायपुर एक बड़े मैदान (छत्तीसगढ़ का मैदान) के मध्य में स्थित है जो "धान का कटोरा" भी कहा जाता है। रायपुर के पूर्व में महानदी नदी बहती है। उत्तर-पश्चिम में मैकाल की पहाड़ियां हैं। उत्तरी ओर छोटा नागपुर का पठार और दक्षिण में बस्तर का पठार है। रायपुर मुम्बई-हावड़ा रेल लाइन पर है और यह सभी मह्त्वपूर्ण शहरों से जुड़ा है। राष्ट्रीय राजमार्ग ६ शहरो से गुज़रता है और ४३ शहर को विशाखापट्नम से जोड़ता है। रायपुर मुम्बई, दिल्ली एव्म अन्य शहरों से हवाई मा‍र्ग से जुड़ा हुआ है। रायपुर का हवाई अड्डा 'माना में है। तापमान: गर्मी में ४५ से २९ सेल्सिअस सर्दी में २७ से १० सेल्सिअस वर्षा लगभग १२० से मी (जुलाई से सितम्बर) नवा रायपुर 01 नवंबर सन् 2000 में बने छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर का प्रशासनिक केन्द्र 'नया रायपुर' हैं। यह एक विश्व स्तरीय परियोजना है जिसमे कि वर्तमान रायपुर से 25 किमी दूर एक नए शहर का सृजन किया गया है। इस के लिए एक बड़े क्षेत्र की भूमि का अर्जन या अधिग्रहण किया गया है। नया रायपुर का कुल क्षेत्रफल 80,000 हेक्टेयर है। नये रायपुर में 225 किमी पक्की सड़क है। नया रायपुर के परसदा क्षेत्र मेंअन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बनाया गया है। अर्थव्यवस्था रायपुर संपूर्ण छ्त्तीसगढ़ एवं उड़ीसा के लिये थोक की मंडी है। इसके अलावा यह एक औद्योगिक नगर है। शिक्षा रायपुर में मुख्य विश्वविद्यालय: पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय हिदायतुल्ला विधि विश्वविद्यालय एवं कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नय आयुष्य एवं चिकित्सा विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए NIT राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान सहित चार अभियांत्रिकी महाविद्यालय हैं : शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, रायपुर इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नॉलाजी, दिशा इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नालाजी एंड मैनेजमेंट नए चिकित्सा विश्वविद्यालय के अधीन रायपुर के चार चिकित्सा महाविद्यालय है: जवाहर लाल नेहरु स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय होम्योपैथिक महाविद्यालय शासकीय दंत चिकित्सा महविद्यालय इसके अलावा विज्ञान, कला, वाणिज्य के अध्ययन हेतु कई महाविद्यालय है। शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, शासकीय छ्त्तीसगढ महाविद्यालय है। भविष्य में इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट भी केन्द्र सरकार द्वारा प्रारंभ किया जाना है। रायपुर में अधिकांश शासकीय विद्यालय राज्य परीक्षा बोर्ड से और निजी विद्यालय सी बी एस ई से सम्बद्ध हैं। यहां एक शासकीय मुक्त विश्व विद्यालय भी है जिसे पंडित सुंदर लाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है। पर्यटन स्थल रायपुर के पर्यटन स्थलों में नगरघड़ी है। यह हर घंटे छत्तीसगढ़ी लोक धुनें सुनाती है। बूढ़ा तालाब, यह शहर का सबसे बड़ा तालाब है जिसे स्वामी विवेकानंद सरोवर के नाम से भी जाना जाता है, इस तालाब के बीचोबीच एक छोटे से द्वीप पर उद्यान है। माता कौशल्या मंदिर भारत में इकलौता मंदिर है जो श्री राम की माता कौशल्या जी के नाम से है, ये रायपुर के चंदखुरी में स्थित हैं,दूधधारी मंदिर हिन्दूओं के आराध्य भगवान राम का करीब ५०० साल पुराना मंदिर है। महंत घासी दास संग्रहालय तथा राजीव गांधी ऊर्जा पार्क जो एक नागरिक वन है, यहां के अन्य दर्शनीय स्थल हैं। यहां सभी झूले सौर ऊर्जा से संचालित हैं। यहां माता कौशल्या का मंदिर भी स्थित है । यह मंदिर रायपुर में चंद्रखुरी में स्थित है जिसमें माता कौशल्या की मूर्ति भी स्थित है । चारों ओर से सरोवर से घिरे इस मंदिर को लोग दूर दूर से देखने आते हैं । वर्ष 2021 में इसका नवीनीकरण भी किया गया जिसके बाद दर्शकों की मानो भीड़ सी लग गई। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का बहुत महत्व है , यह मंदिर लोगों को आनन्द और शांति प्रदान करती है । माता कौशल्या से जुड़ी एक बात तथ्य यह भी है की चूंकि माता कौशल्या श्री राम जी के माता हैं और श्री राम जी को लोग स्वयं ईश्वर मानते हैं , ऐसा माना जाता है की माता कौशल्या का जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ है , माता कौशल्या छत्तीसगढ़ की बेटी हुई अर्थात छत्तीसगढ़ को माता कौशल्या का मायके माना जाता है , अतः भगवान श्री राम छत्तीसगढ़ वासियों के लिए भांजा हैं । इसलिए छत्तीसगढ़ में लोग अपने भांजे - भांजियों को भगवान स्वरूप मानते हैं और मामा - मामी अपने भांजे- भांजी के चरण स्पर्श करते हैं । उनसे कोई काम नहीं कराते। लोगों की मान्यता है की ऐसा करने से पुण्य प्राप्त होता है। मनोरंजन रायपुर में मनोरंजन के लिए पुराने सिनेमाघरों के साथ मल्टीप्लेक्स थियेटर भी हैं। आकाशवाणी का मीडियम वेव पर एक रेडियो स्टेशन २ अक्टूबर १९६४ से कार्य कर रहा है। नई पीढ़ी के लिये ऐफ ऐम बैंड पर नए चैनल्स लाये गए हैं, जिनमें विविध भारती या विज्ञापन प्रसारण सेवा १ जनवरी २००१ को शुरू हुई है। तीन नए रेडियो स्टेशन सन् २००७ में शुरू हुए हैं; इनमें रेडियो मिर्ची, रेडियो रंगीला तथा रेडियो माई एफ एम का चैनल हैं। वर्ष २००९ में बिना किसी औपचारिक उद्घाटन के एक और नया रेडियो चैनल रेडियो तड़का भी आ गया है। सभी का प्रसारण रायपुर से होता है। टेलीविजन चैनलों में १९७७ में शुरू हुआ, दूरदर्शन का चैनल सर्व प्रथम है। अब तो दूरदर्शन का डीडी न्यूज़ चैनल भी रायपुर में देखा जा सकता है। सहारा समय, ई टीवी न्यूज, जी छत्तीसगढ़ २४ घंटे, वॉच न्यूज के साथ केबल टीवी के एम० चैनल और ग्रैन्ड चैनल है। इसके अलावा एयरपोर्ट रोड पर एक उर्जा पार्क तथा जी० ई० रोड पर ग्राम सरोना में स्थित नंदन वन है यहां जंगली जानवरों को भी देखा जा सकता है। वर्ष २००९ व २०१० में मेट्रो शहरों के अनुसार शॉपिंग मॉल भी बने हैं। तेलीबांधा में सिटी मॉल व तेलीबांधा के आगे जी.ई. रोड पर मैग्नेटों मॉल, आमानाका के आगे जी.ई. रोड पर आर. के. मॉल तथा देवेन्द्र नगर में छत्तीसगढ़ सिटी सेन्टर बना है। परिवहन रेलवे रायपुर भारतीय रेलवे के हावड़ा-नागपुर-मुंबई मार्ग पर स्थित है। यह भारत के सभी मुख्य शहरों (नई दिल्ली, मुंबई, पुणे, भोपाल, कोलकाता, बैंगलोर, चेन्नई, अमृतसर, इंदौर, रांची, पटना, लखनऊ, बनारस, सूरत, भुवनेश्वर आदि) शहरों से रेलवे मार्ग के द्वारा अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। हवाई अड्डा स्वामी विवेकानन्द एअरपोर्ट (माना एअरपोर्ट) रायपुर का निकटतम हवाई अड्डा है। रोचक तथ्य 1995 में स्थापित की गई रायपुर नगर की नगरघड़ी में छत्तीसगढ़ की 24 लोकधुनों को संयोजित कर लोक संस्कृति को बढ़ावा देने की दिशा में किया गया प्रयास शायद पूरे विश्व में एक अनूठा है। रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष श्री श्याम बैस के प्रयासों से शुरू की गई नगरघड़ी ग्लोबल एक्सेस पोजिशिन तकनीक से समय बताती है। नगरघड़ी में हर घंटे बजनेवाली लोकधुन पूरे छत्तीसगढ़ राज्य की लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति है। ११ सितंबर २००८ को छत्तीसगढ़ के पहले अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का शुभारंभ किया गया। ६० हजार की क्षमता वाला यह स्टेडियम कोलकात्ता ईडन गार्डन के बाद देश का दूसरा बड़ा स्टेडियम है। यह स्टेडियम रायपुर से लगभग २० किलोमीटर दूर ग्राम परसदा, मंदिरहसौद में है। इसकी लागत १०० करोड़ आंकी गई है। रायपुर बिलासपुर मार्ग पर डॉ॰ खूबचंद बघेल ट्रांसपोर्टनगर नगर विकसित किया गया है। ९८ एकड़ क्षेत्र में विकसित किए गया यह ट्रांसपोर्टनगर बहुत ही योजनाबध्द ढ़ग से विकसित किया गया है। यहां एक साथ ३००० ट्रकों की पार्किंग की जा सकती है। यही कारण है कि इसे देश के सर्वसुविधायुक्त ट्रांसपोर्टनगर के रूप में माना जा रहा है। छत्तीसगढ़ के पुरखों की संस्कृति और लोकाचार के सबंध में एक खुले संग्रहालय का नाम है पुरखौती मुक्तांगन। छत्तीसगढ़ की संस्कृति, परंपरा, पुरातत्व, पर्यावरण और जीव-सृष्टि की सन्निधि में विकास की कल्पना को साकार करने हेतु पुरखौती मुक्तांगन रायपुर से लगभग 20 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित ग्राम-उपरवारा की लगभग 200 एकड़ भूमि में स्थित है। इन्हें भी देखें नया रायपुर रायपुर ज़िला बाहरी कड़ियाँ रायपुर ज़िला प्रशासन Raipur का इतिहास सन्दर्भ रायपुर ज़िला छत्तीसगढ़ के नगर रायपुर ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "रायपुर", "token_count": 12215, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0" }
सुभद्रा कुमारी चौहान (१६ अगस्त १९०४-१५ फरवरी १९४८) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। झाँसी की रानी (कविता) उनकी प्रसिद्ध कविता है। वे राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं। स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। जीवन परिचय उनका जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे कविताएँ रचने लगी थीं। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। इलाहाबाद के क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल में महादेवी वर्मा उनकी जूनियर और सहेली थीं। १९१९ में खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। १९२१ में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। वे दो बार जेल भी गई थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है। वे एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। डॉo मंगला अनुजा की पुस्तक सुभद्रा कुमारी चौहान उनके साहित्यिक व स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डालती है। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में उनके कविता के जरिए नेतृत्व को भी रेखांकित करती है। १५ फरवरी १९४८ को एक कार दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया था। कथा साहित्य 'बिखरे मोती' उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंछलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम्ब के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल १५ कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं! उन्मादिनी शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह १९३४ में छपा। इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल ९ कहानियां हैं। इन सब कहानियों का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है। 'सीधे साधे चित्र' सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है। इसमें कुल १४ कहानियां हैं। रूपा, कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला - ८ कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं। हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल ४६ कहानियां लिखी और अपनी व्यापक कथा दृष्टि से वे एक अति लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है। सम्मान सेकसरिया पारितोषिक (१९३१) 'मुकुल' (कविता-संग्रह) के लिए सेकसरिया पारितोषिक (१९३२) 'बिखरे मोती' (कहानी-संग्रह) के लिए (दूसरी बार) भारतीय डाकतार विभाग ने ६ अगस्त १९७६ को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में २५ पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया है। भारतीय तटरक्षक सेना ने २८ अप्रैल २००६ को सुभद्राकुमारी चौहान की राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नए नियुक्त एक तटरक्षक जहाज़ को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है। कृतियाँ कहानी संग्रह बिखरे मोती -१९३२ उन्मादिनी -१९३४ सीधे-साधे चित्र -१९४७ सीधे-साधे चित्र -१९८३ (पूर्व प्रकाशित एवं संकलित-असंकलित समस्त कहानियों का संग्रह; हंस प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित।) कविता संग्रह मुकुल त्रिधारा मुकुल तथा अन्य कविताएँ - (बाल कविताओं को छोड़कर पूर्व प्रकाशित एवं संकलित-असंकलित समस्त कविताओं का संग्रह; हंस प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित।) बाल-साहित्य झाँसी की रानी कदम्ब का पेड़ सभा का खेल सुभद्रा जी पर केन्द्रित साहित्य मिला तेज से तेज (सुधा चौहान लिखित लक्ष्मण सिंह एवं सुभद्रा कुमारी चौहान की संयुक्त जीवनी; हंस प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित।) प्रसिद्ध पंक्तियाँ यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥  सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।  मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन सुख या शान्ति नहीं होगी  यही बात तुम भी कहते थे  सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी। आ रही हिमाचल से पुकार, है उदधि गरजता बार-बार, प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार, सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत, वीरों का कैसा हो वसंत? इन्हें भी देखें महादेवी वर्मा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ कविता कोश में सुभद्रा कुमारी चौहान विकिस्रोत पर खूब लड़ी मर्दानी वह की रचयिता की कविताई (दैनिक जागरण) राष्ट्र-प्रेम का पर्याय : सुभद्रा कुमारी चौहान (देशबन्धु) हिन्दी कथाकार हिन्दी कवयित्रियाँ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के कवि हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना भारतीय महिला साहित्यकार 1904 में जन्मे लोग १९४८ में निधन
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इम्फाल (ꯏꯝꯐꯥꯜ) भारत के मणिपुर राज्य की राजधानी है। इस ऐतिहासिक नगर के केन्द्र में भूतपूर्व मणिपुर राज्य की गद्दी, कंगला महल, के खण्डहर उपस्थित हैं। इम्फाल नगर इम्फाल पश्चिम ज़िले और इम्फाल पूर्व ज़िले दोनों में विस्तारित है, और शहर की अधिकांश आबादी इसके पश्चिमी भाग में निवास करती है। इम्फाल भारत सरकार द्वारा अनुसूचित स्मार्ट नगरों में से एक है। पर्यटन श्री गोविन्ददेव जी मन्दिर यह मन्दिर मणिपुर के पूर्व शासकों के महल के निकट ही है, व वैष्णवों का पावन तीर्थ स्थल है। यह दो स्वर्ण गुम्बदों सहित एक सरल किन्तु सुन्दर निर्माण है। इसमें एक पक्का प्रांगण तथा सभागार भी है। यहां के मुख्य देवता श्री राधा-कृष्ण हैं, जिनके साथ ही बलराम और कृष्ण के मन्दिर एक ओर हैं, तो दूसरी ओर जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा के मन्दिर हैं। शहीद मीनार इम्फाल के पोलोग्राउण्ड के पूर्वी ओर यह मीनार बीर टिकेन्द्रजीत पार्क में खड़ी है। यह ब्रिटिश सेना के विरुद्ध १८९१ के युद्ध के मणिपुरी शहीदों की याद में बनी है। यह मीनार फोटो खींचने वालों का मुख्य आकर्षण है। युद्ध स्मारक द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए भारतीय व ब्रिटिश सैनिकों की समाधियाँ व कब्रें। मणिपुर ज़ू इम्फाल का चिड़ियाघर। सिंगदा ९२१ मीटर की ऊंचाई पर यह सुन्दर पिकनिक स्थल इम्फाल से १६ किलोमीटर दूर है। लांगथबल यह भारत-बर्मा सीमा से ६ किलोमीटर दूर है। इन्हें भी देखें इम्फाल पश्चिम ज़िला इम्फाल पूर्व ज़िला सन्दर्भ मणिपुर के शहर इम्फाल पश्चिम ज़िला इम्फाल पश्चिम ज़िले के नगर इम्फाल पूर्व ज़िला इम्फाल पूर्व ज़िले के नगर मणिपुर में पर्यटन भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ
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अइज़ोल (Aizawl) भारत के मिज़ोरम राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा नगर है। यहाँ पर राज्य के सभी प्रशासनिक भवन जैसे महत्वपूर्ण सरकारी भवन, विधानसभा तथा सचिवालय स्थित है। इतिहास १८७१-७२ के दौरान मिज़ो मुखिया खालकोम के उपद्रवी व्यवहार के कारण ब्रिटिश लोगों ने एक चौकी बनायी जो कि बाद में अइज़ोल ग्राम कहलायी। मिज़ो आदिवासियों के विरुद्ध ब्रिटिश सैन्य अभियान के दौरान १८९० में असम पुलिस के अधिकारी डेैली ने ४०० जवानों के साथ ब्रिटिश टुकड़ी को मदद भेजी। डेैली की अनुशंसा पर अइज़ोल की चौकी को और अधिक मजबूत बनाया गया। टुकड़ी ने यहाँ पर सुदृढ़ घेरेबंदी की तथा भवन बनवाये। मेजर लोच के नेतृत्व में १८९२-९५ में अइज़ोल से सिलचर तक सड़क मार्ग बनावाया गया। भारतीय वायु सेना ने मार्च १९६६ में मिज़ो नेशनल फ्रण्ट विद्रोह के दौरान नगर में हवाई हमलें किये जिसके कारण विद्रोहियों को लुंगलेई तक पीछे हटना पड़ा। १९६६ तक अइज़ोल एक बड़ा गाँव था मगर विदोह के बाद मिज़ो गाँवों का पुनर्गठन हुआ जिसके फलस्वरूप यह पहले कस्बा फिर एक नगर बना। १९७२ तक यह नगर असम का भाग था मगर मिज़ोरम के पहले केन्द्र शासित प्रदेश तत्पश्चात 20 फरवरी १९८७ को भारतीय संविधान के ५३वें संशोधन, १९८६ के फलस्वरूप राज्य बनने पर नगर यहाँ की राजधानी बना। भूगोल यह नगर कर्क रेखा के उत्तर में स्थित है। यह नगर समुद्र तल से ११३२ मीटर (३७१५ फीट) की ऊँचाई पर स्थित है तथा त्लावंग नदी घाटी पश्चिम में तथा तुईरिअल नदी घाटी पूर्व में स्थित है। जलवायु अइज़ोल की स्थिति व ऊँचाई के कारण यहाँ पर उपोष्णकटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। कोपेन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार यहाँ पर आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है मगर वर्षा बहुत होती है। ग्रीष्मकाल में तापमान के मध्य रहता है तथा शीतकाल में यह के मध्य रहता है। नगर दृश्य जनसांख्यिकी २०११ की जनगणना के अनुसार अइज़ोल नगर की जनसंख्या २९३,४१६ है, जिसमें पुरुष १४४,९१३ (४९.३९%) तथा महिलाएँ १४८,५०३ है। साक्षरता दर ९८.३६% तथा लिंगानुपात १०२५ महिला प्रति १००० पुरुष है। ६ वर्ष से कम उम्र के बच्चों के मध्य लिंगानुपात ९८३ महिला प्रति १००० पुरुष है। विभिन्न आदिवासी समूहों के मिज़ो लोग नगर की जनसंख्या में बहुसंख्यक हैं। नगर में ईसाई धर्म के अनुयायी बहुसंख्यक हैं। ये कुल जनसंख्या का ९३.६३% बनाते हैं। इसके बाद हिन्दू हैं जो कि कुल जनसंख्या के ४.१४% हैं। तत्पश्चात मुस्लिम १.५२%, बौद्ध ०.४५%, अन्य ०.०९%, सिक्ख ०.०३% तथा जैन ०.०२% हैं। ०.११% लोगों ने अपने धर्म का उल्लेख नहीं किया है। इनर लाइन परमिट सरकारी कर्मचारी के अतिरिक्त मिज़ोरम में प्रवेश हेतु घरेलू पर्यटकों को इनर लाइन परमिट (आईएलपी) की आवश्यकता पड़ती है। आईएलपी को सम्बन्धित अधिकारियों से नयी दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, गुवाहाटी, शिलांग तथा सिलचर में प्राप्त किया जा सकता है। यह अइज़ोल के निकटतम लेंगपुई विमानक्षेत्र पर पधारने के बाद भी प्राप्त किया जा सकता है। विदेशी नागरिकों को अपने आगमन से २४ घण्टे के अंदर मिज़ोरम के पुलिस अधीक्षक के कार्यालय में पंजीकरण करवाना पड़ता है। परन्तु चीन, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के नागरिकों को राज्य में प्रवेश से पूर्व भारत के गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी पड़ती है। यातायात हवाई मार्ग अइज़ोल हवाई मार्ग द्वारा लेंगपुई विमानक्षेत्र से जुड़ा है, जो कि इसका निकटतम विमानक्षेत्र है। यह विमानक्षेत्र कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, गुवाहाटी के लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलोई अन्तरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र, शिलांग विमानक्षेत्र तथा इम्फ़ाल विमानक्षेत्र द्वारा जुड़ा है। तीन विमान कम्पनियाँ एयर इण्डिया, जेट एयरवेज तथा स्पाइस जेट लेंगपुई विमानक्षेत्र से नियमित रूप से हवाई सेवा का संचालन करती है। २०१२ में पवन हंस नामक हेलिकॉप्टर सेवा प्रारम्भ हुई जो नगर को लुंगलेई, लॉङ्गतलाई, सइहा, चॉङ्गते, सेरछिप, चम्फाई, कोलासिब, खवज़ोल, नगोपा तथा ह्नाहथिआल को जोड़ती है। रेलमार्ग अइज़ोल का सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन बैराबी है। भारत सरकार ने बैराबी-सैरंग रेलमार्ग पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है जिससे अइज़ोल सहित पूरे राज्य को बेहतर रेल सम्पर्क सुविधा प्राप्त होगी। इस परियोजना को २०२० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके साथ ही नगर में बेहतर सम्पर्क हेतु ज़ेमबाक से कुलिकावन तक ५ किमी लम्बी अइज़ोल मोनोरेल का भी प्रस्ताव है। सड़क मार्ग अइज़ोल असम के सिलचर से राष्ट्रीय राजमार्ग ५४ द्वारा, त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से राष्ट्रीय राजमार्ग ४० द्वारा तथा मणिपुर की राजधानी इम्फाल से राष्ट्रीय राजमार्ग १५० द्वारा जुड़ा है। मीडिया समाचारपत्र मिज़ो और अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले अइज़ोल कुछ समाचारपत्र निम्नलिखित हैं: वनग्लैनी द ज़ोज़म टाइम्स द अइज़ोल पोस्ट खापुई अव मिज़ो अर्सी मिज़ो एक्सप्रेस ज़ावलैदी ज़ोज़म वीकली ज़ोरम थलिर्तु सकेइबनेइ एंटलंग रेडियो आकाशवाणी अपने स्टूडियो से नियमित रूप से कार्यक्रम प्रसारित करता है। एफएम ज़ोअवी यहाँ का प्रसिद्ध रेडियो स्टेशन है। दर्शनीय स्थल अइज़ोल के प्रमुख दर्शनीय स्थल निम्न हैं: बड़ा बाज़ार मिज़ोरम राज्य संग्रहालय रिएक दुर्तलांग पहाड़ियाँ हमुइफांग बेरावातलंग बकतवांग गाँव सोलोमन मन्दिर खुआंगचेरा पुक फॉकलैण्ड अमयुज़मेंट पार्क शिक्षा यहाँ पर सरकारी व निजी दोनों ही विद्यालय हैं। उच्च शिक्षा के लिये भी कई कॉलेज हैं। २००१ में स्थापित मिज़ोरम विश्विद्यालय से यहाँ के सभी कॉलेज सम्बद्ध हैं। पछुंगा विश्वविद्यालय कॉलेज यहाँ का सबसे पुराना शिक्षण संस्थान है जो कि १९५८ में स्थापित हुआ था। इसके पश्चात १९७५ में अइज़ोल कॉलेज की स्थापना हुई। मिज़ोरम विधि कॉलेज यहाँ के विद्यार्थियों को कानून की शिक्षा उपलब्ध करवाता है। भारतीय पत्रकारिता संस्थान तथा राष्ट्रीय प्रौद्यिगिकी संस्थान मिज़ोरम भी यहाँ के प्रमुख शिक्षण संस्थान हैं। फल्कावन में चिकित्सा कॉलेज भी खोलने का प्रस्ताव है। खेल फुटबॉल यहाँ का सर्वप्रिय खेल है। यहाँ के कई खिलाड़ी राष्ट्रीय लीगों में खेलते हैं। यहाँ के प्रसिद्ध खेल मैदान व क्लब निम्नलिखित हैं: खेल मैदान राजीव गाँधी स्टेडियम, मुआलपुई में स्थित २०,००० दर्शक क्षमता वाला स्टेडियम हवला इण्डोर स्टेडियम: यहाँ का सबसे बड़ा इण्डोर स्टेडियम है, जहाँ बास्केटबॉल, बैडमिण्टन और बॉक्सिंग के लिये सुविधा उपलब्ध है। लाममुआल स्टेडियम एक मंजिला खेल मैदान है जहाँ ५००० दर्शकों के बैठने के लिये स्थान है। क्लब सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अइज़ोल विकास प्राधिकरण अइज़ोल का आधिकारिक जालस्थल रीजेंसी अइज़ोल का आधिकारिक जालस्थल अइज़ोल अइज़ोल ज़िला मिज़ोरम के नगर अइज़ोल ज़िले के नगर मिज़ोरम में हिल स्टेशन
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अइज़ोल", "token_count": 8962, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%87%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%8B%E0%A4%B2" }
आसनसोल (Asansol) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम बर्धमान ज़िले में स्थित एक शहर है। यह कोलकाता के बाद राज्य का सबसे बड़ा शहर है। छोटानागपुर पठार के मध्य में राज्य की झारखण्ड से सटी पश्चिमी सीमा पर स्थित यह नगर खनिज पदार्थों में धना है। आसनसोल दामोदर नदी के किनारे बसा हुआ है और बहुत समय से एक महत्वपूर्ण रेलवे जंक्शन रहा है। विवरण आसनसोल भारत के उन 11 शहरों में से एक है जो विश्व के 100 सबसे तेजी से विकसित हो रहे शहरों की सूची में हैं। प्रदेश की राजधानी कोलकाता से 200 किलोमीटर दूर दामोदर नदी की घाटी में स्थित इस नगर के अर्थव्यवस्था का आधार कोयला एवं स्टील हैं। यहाँ कार्यबल की संख्या अधिक है और, मामूली प्रति व्यक्ति आय के उच्च शैक्षिक संस्थानों, अच्छी परिवहन कनेक्शन, कई आवास परिसरों और उद्योग, संस्थाओं, परिवहन और वाणिज्य के लिए उपयुक्त भूमि है। इसका भीतरी भाग बांकुरा और पुरुलिया जिलों और उत्तर बंगाल, ओड़िशा और झारखण्ड राज्यों के कुछ हिस्सों से जुड़ा हुआ है। यहाँ सेनेरैल साइकिल का भारत प्रसिद्ध कारखाना है। भारतीय रेल ने आसनसोल जंक्शन रेलवे स्टेशन पर अपने यात्रियों और वहां के आम लोगों के उपयोग के लिए अपना पहला रेल भोजनालय "रेस्टोरेंट ऑन व्हील्स" शुरू किया। नामोत्पत्ति आसनसोल का नाम दो शब्दों को जोड़कर बना है। "आसन" एक तीस मीटर ऊँचा वृक्ष है जो दामोदर नदी के तट पर पाया हाता है और "सोल" का अर्थ "भूमि" है। इन्हें भी देखें पश्चिम बर्धमान ज़िला सन्दर्भ पश्चिम बर्धमान ज़िला पश्चिम बंगाल के शहर पश्चिम बर्धमान ज़िले के नगर
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विलियमनगर (Williamnagar), जिसे पहले सिमसांग्रे (Simsanggre) के नाम से जाना जाता था, भारत के मेघालय राज्य के पूर्व गारो हिल्स ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। इन्हें भी देखें पूर्व गारो हिल्स ज़िला सन्दर्भ मेघालय के शहर पूर्व गारो हिल्स ज़िला पूर्व गारो हिल्स ज़िले के नगर
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तुएनसांग (Tuensang) भारत के नागालैण्ड राज्य के तुएनसांग ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण यह पूर्व में स्थित बर्मा देश से कुछ ही दूरी पर है। नागालैण्ड का सबसे ऊँचा पहाड़, सारामाती पर्वत, तुएनसांग के काफ़ी पास है और भारत-बर्मा सीमा पर स्थित है। ट्वेनसांग शहर की स्थापना १९४७ में की गई थी और इसका नाम पास में बसे हुए इसी नाम के ट्वेनसांग गाँव पर रखा गया। इन्हें भी देखें सारामाती पर्वत तुएनसांग ज़िला सन्दर्भ तुएनसांग ज़िला नागालैण्ड के नगर तुएनसांग ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "तुएनसांग", "token_count": 747, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97" }
प्रान्त एक प्रादेशिक इकाई है, जो कि लगभग हमेशा ही एक देश या राज्य के अन्तर्गत एक प्रशासकीय खण्ड होता है। शब्द व्युत्पत्ति अंग्रेजी शब्द "प्रान्त" लगभग 1330 से साक्ष्यांकित है और इसकी व्युत्पत्ति तेरहवीं शताब्दी के प्राचीन फ़रासी शब्द "province" से हुई जो कि स्वयं लातिन शब्द "प्रोविन्सिया" से लिया गया है, जिसका अभिप्राय, विशेष रूप से, किसी विदेशी प्रदेश में एक मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से है। एक सम्भावित लातिन व्युत्पत्ति "प्रो (Pro-)" ("की ओर से") और "विन्सियर (vincere)" ("विजय के लिए" अथवा "नियन्त्रण लेना") हो सकती है। इस प्रकार एक "प्रान्त" एक क्षेत्र या ऐसा प्रकार्य होता था जिसे अपनी सरकार की ओर से एक रोमन मजिस्ट्रेट अपने नियन्त्रण में ले लेता था। यह हालाँकि, रोमन क़ानून के अन्तर्गत अधिकार क्षेत्र के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले इस लातिन शब्द के प्रारम्भिक प्रयोग से मेल नहीं खाता। भूविज्ञान भूविज्ञान में शब्द "प्रान्त" का प्रयोग ऐसे भौतिक-भौगोलीय क्षेत्र के लिए किया जाता है जो वर्तमान जल-स्तरीय अथवा ऐतिहासिक जल-स्तरीय (जो अब तलछट स्तर से ऊपर हो) रूप में अपने आस-पास के क्षेत्रों अथवा "प्रान्तों" से स्पष्ट रूप से अलग हो। यह शब्द आम तौर से किसी क्रेटन के खण्डों या क्षेत्रों, जो किसी काल विशेष की स्ट्रेटीग्राफी से पहचानी जाये, से सम्बन्ध रखता है, उदाहरण के लिए, जिसे किसी प्रमुख भूगर्भीय काल खण्ड से पहचाना जा सके। इतिहास और संस्कृति फ्रांस में अभी भी "एन प्रोविंस " उक्ति का अर्थ अब तक "पेरिस क्षेत्र के बाहर" से ही निकाला जाता है। समतुल्य उक्तियाँ इस्तेमाल की जाती हैं, पेरू में ("ऍन प्रौविन्सियस " "लीमा शहर से बाहर"), मेक्सिको में ("ला प्रोविन्सिया, " "मेक्सिको शहर से बाहर की भूमि"), रोमानिया में ("इन प्रोविन्सी " "बुकारेस्ट क्षेत्र से बाहर"), पोलैंड में ("prowincjonalny " "प्रांतीय") तथा बुल्गारिया में ("в провинцията, " "v provintsiyata " "провинциален, " "provintsialen, " "प्रान्तों में")। फ्रांसीसी क्रांति से पहले फ्रांस कई शासन क्षेत्रों में बँटा हुआ था (उदाहरण के लिए केप्शीयन की शाही संपदा के चारों ओर बना आइल-डि-फ्रांस), इनमें से अनेक को "प्रान्त" माना जाता था, हालाँकि इस शब्द का प्रयोग बोल-चाल की भाषा में ऐसे क्षेत्रों के लिए भी किया जाता था जो मात्र किसी जमींदारी (châtellenie) जितने ही होते थे। हालाँकि साधारणत: "प्रान्त" द्वारा सांकेतिक क्षेत्र ग्रैन्ड्स गवर्नमेंट्स की जातीं थीं जो आम तौर पर मध्यकालीन सामंतों की रियासतें अथवा भूमि संकलन होते थे। आजकल "प्रान्त " शब्द के स्थान पर कई बार एन रीजन (en région), शब्द का प्रयोग होने लगा है, "रीजन " (région) शब्द का प्रयोग अब शासन के द्वितीय स्तर पर आधिकारिक रूप से किया जाने लगा है। इटली में "इन प्रोविन्सिया " (in provincia) का अर्थ साधारणत: (रोम, मिलान, नेपल्स आदि जैसे) "बड़े राजधानी क्षेत्रों से बाहर के क्षेत्र" से होता है। ऐतिहासिक यूरोपीय प्रान्त - जो कई छोटे क्षेत्रों से मिल कर बनते थे, उन्हें फ्रांसीसियों द्वारा पेस (pays) और स्विस लोगों द्वारा कैनटांस (cantons) कहा जाता था और जिनमें से हरेक की स्थानीय सांस्कृतिक पहचान और केंद्रीय बाज़ार का क़स्बा होता था - इन्हें पूर्व औद्योगिक, पूर्व आधुनिक यूरोप में फ़र्नांड ब्रौडेल द्वारा उचित आकार की राजनीतिक इकाई के रूप में व्यक्त किया जाता था। वह पूछते थे "क्या यह प्रान्त इसके वासियों की सच्ची जन्मभूमि थी?" यहाँ तक कि केंद्रीय रूप से संगठित फ्रांस, जो एक प्रारंभिक राष्ट्र राज्य था, दबाव में स्वायत्त प्रांतीय टुकड़ों में टूट सकता था, जैसा कि अनवरत फ्रांसीसी धर्म-युद्ध (1562-98) में हुआ। 19वीं और 20वीं सदी के इतिहासकारों की दृष्टि में, यूरोप में केन्द्रीय शासन आधुनिकता और राजनीतिक परिपक्वता के चिन्ह थे। 20वीं शताब्दी के अंत में, जब यूरोपीय संघ ने राष्ट्रों-राज्यों को साथ ले लिया तो, अभिकेन्द्रीय शक्तियों के कारण देशों के लिए अधिक स्थानीय और समस्त यूरोपीय संघ के विभिन्न घटकों को समाहित करने वाले प्रांतीय रूप से शासित इकाई की अधिक लचीली प्रणालियों को अपनाना आवश्यक हो गया। फ्रांसिस्को फ्रांको के पश्चात् स्पेन "स्वायत्तता का राज्य" बन गया, जो औपचारिक रूप से तो एक इकाई के रूप में है परन्तु वास्तव में वह स्वायत्त संप्रदायी राज्यों के संघ के रूप में कार्य करता है, जिसमें से प्रत्येक, अपने भिन्न अधिकारों का प्रयोग करते हैं। (देखें: स्पेन की राजनीति) जहाँ सर्बिया, जो कि भूतपूर्व युगोस्लाविया का हिस्सा था, ने कोसोवो प्रान्त में अलगाववादियों से युद्ध किया, वहीं यूनाइटेड किंगडम ने "शक्ति हस्तांतरण" के राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत स्कॉट्लैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में स्थानीय संसदों की व्यवस्था करवाई। ब्रिटेन के कॉर्नवाल, फ्रांस के ब्रिटनी, लेंग्युडॉक एवं कोर्सिका, स्पेन के कटालोनिया एवं बास्क देश, इटली के लोम्बार्डी, बेल्जियम के फ्लेंडर्स तथा पूर्वी यूरोप के अब्खाज़िया, चेचन्या एवं कुर्दिस्तान में सशक्त स्थानीय राष्ट्रवाद उभर आया अथवा विकसित हो गया। कानूनी पहलू कई राज्य-संघों एवं महा-संघों में प्रान्त अथवा राज्य स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय या केन्द्रीय सरकारों के अधीन नहीं होते हैं। दरअसल अपने कुछ विशिष्ट संवैधानिक कार्यों में प्रान्तों को ही प्रमुख माना गया है। संविधान में केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों के कार्य अथवा अधिकार क्षेत्र स्पष्ट रूप से पहचाने जाते हैं। वे कार्य जो स्पष्ट रूप से नहीं पहचाने जाते हैं, "अवशिष्ट शक्तियाँ अथवा अधिकार" कहे जाते हैं। एक विकेन्द्रीकृत संघीय प्रणाली (उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया) में इन अवशिष्ट शक्तियों पर प्रान्त अथवा राज्य का अधिकार होता है, पर केंद्रीकृत संघीय प्रणाली में (उदाहरण के लिए कनाडा) वे केंद्र शासन में रहती हैं। इनमे से कुछ विशेष अधिकार वास्तव में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, कनाडा के प्रान्त कुछ महत्वपूर्ण मामलों, जैसे संपत्ति, नागरिक अधिकार, शिक्षा, सामाजिक जनकल्याण एवं चिकित्सा सेवाओं में प्रभुसत्ता रखते हैं। संघों के विकास ने केंद्रीय प्रभुत्व एवं "राज्यों" के अधिकारों के बीच एक अपरिहार्य रस्सा-कशी प्रारंभ कर दी है। संघीय संविधानों में उत्तरदायित्वों का ऐतिहासिक विभाजन अनिवार्य रूप से अनेकों अतिव्यापनों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, जब केंद्रीय सरकारें, जो कि विदेशी मामलों के लिए जिम्मेदार होती हैं, ऐसे क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध करती हैं जो राज्यों अथवा प्रान्तों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जैसे कि पर्यावरण या चिकित्सा मानक, तब राष्ट्रीय स्तर पर किये गए ऐसे अनुबंध अधिकार-क्षेत्र की अतिव्याप्ति एवं विरोधाभासी कानूनों का कारण बनते हैं। यह अतिव्याप्ति आंतरिक विवादों की सम्भावना बनाती है तथा ऐसे संवैधानिक संशोधनों तथा न्यायिक निर्णयों का कारण बनती है जिनसे शक्ति-संतुलन में परिवर्तन आता है। हालाँकि विदेश नीति से सम्बन्धित मामले साधारणत: प्रान्त अथवा राज्य की क्षमता से बाहर होते हैं, फिर भी कुछ राज्य संवैधानिक विशिष्टाधिकार एवं आधारभूत हितों के मामलों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने की क़ानूनी रूप से आज्ञा देते हैं। उप-राष्ट्रीय सत्ताओं की रूचि परम-कूटनीति में बढ़ती जा रही है, फिर चाहे वह किसी क़ानूनी रूप-रेखा में की जाने वाली हो अथवा केंद्रीय शासन द्वारा अनौपचारिक रूप से स्वीकार किये जाने से। फ्रांस एवं चीन जैसे एकल राज्यों में प्रान्त राष्ट्रीय एवं केंद्रीय सरकारों के अधीन हैं। सिद्धांत रूप में, केंद्र सरकार को अपने अधीन प्रान्तों को बनाने अथवा समाप्त करने का अधिकार है। वर्तमान प्रान्त सभी दूसरे स्तर की राजनीतिक इकाइयों को "प्रान्त" नहीं कहा जाता है। अरब देशों में दूसरे स्तर की सरकार को मुहाफ़ज़ाह कहा जाता है जिसका अभिप्राय राज्यपाल द्वारा शासित क्षेत्र अथवा "गवर्नरेट" होता है। पोलैंड में, "प्रान्त" के समकक्ष रूप को "województwo ", जिसे अंग्रेजी में "वाइवोदेशिप (voivodeship)" उच्चरित करते हैं। पेरू में प्रान्त सरकार की क्षेत्रीय इकाइयाँ होती हैं, देश पच्चीस क्षेत्रों में बँटा है जो कि 194 प्रान्तों में प्रविभाजित हैं। चिली में भी इससे मिलता जुलता स्वरुप अपनाया गया है, यह 15 क्षेत्रों में विभाजित और 53 प्रान्तों में प्रविभाजित है जिसमें से हर एक राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल द्वारा शासित है। ऐतिहासिक दृष्टि से, न्यूजीलैंड भी प्रान्तों में विभाजित था जिनमे से हर एक का अपना अधीक्षक एवं प्रांतीय परिषद थीं और उनके द्वारा महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ निर्वाहित की जाती थीं। हालाँकि, जब यह एक उपनिवेश के रूप में था तब यह कभी राज्य-संघ के रूप में विकसित नहीं हो पाया; इसके विपरीत, 1876 में प्रान्तों की समाप्ति कर दी गयी। पुरानी प्रान्तीय सीमाओं का प्रयोग अभी भी कुछ सार्वजनिक अवकाशों का निर्धारण करने में किया जाता है। इन वर्षों में, जब भी केन्द्रीय सरकार ने उप-राष्ट्रीय स्तर पर विशेष उद्देश्य के लिए एजेंसियों को बनाया है, इसके लिए अक्सर पुरानी प्रान्तीय सीमाओं का ही प्रयोग किया जाता है। वर्तमान उदाहरण में वे 16 क्षेत्र शामिल हैं जिनमें न्यूज़ीलैंड विभाजित है और साथ ही 21 जिला स्वास्थ्य बोर्ड भी हैं। कई बार प्रान्त शब्द का प्रयोग सम्मिलित रूप से उन ग्रामीण और आँचलिक भागों के लिए किया जाता है जो "मुख्य केन्द्रों" - ऑकलैंड, वेलिंगटन, क्राइस्टचर्च, हैमिल्टन तथा डुनेडिन - से बाहर हैं। आधुनिक प्रान्त कई देशों में, एक प्रान्त अपेक्षाकृत छोटे, असंवैधानिक स्तर के उप राष्ट्रीय स्तर की सरकार वाले स्थान होते हैं, जिनका आकार यूनाइटेड किंगडम की काउंटी से लेकर संयुक्त राज्य अमरीका के राज्य[2 ] तक हो सकता है, इनमें एक स्वायत्त सरकार तथा राज्य-संघ अथवा महा-संघ के मूल तत्व होते हैं, अक्सर इनका आकार बड़ा होता है। चीन में, एक प्रान्त एकात्मक राज्य के भीतर एक उप राष्ट्रीय क्षेत्र है, इसका मतलब है कि एक प्रान्त केन्द्र सरकार द्वारा बनाया या समाप्त किया जा सकता है। फिलीपींस, बेल्जियम, स्पेन एवं इटली में "प्रान्त" सरकार की एक स्पष्ट इकाई है और कनाडा, कांगो और अर्जेंटीना में एक बड़ा स्वायत्त क्षेत्रीय घटक है। इटली और चिली में, प्रान्त किसी क्षेत्र का एक प्रशासनिक उप-मण्डल है, जो राज्य का प्रथम स्तरीय प्रशासनिक उप-सम्भाग होता है। इतालवी प्रान्त में कम्यूनी (कम्युन्स) नामक कई प्रशासनिक उप-मण्डल शामिल होते हैं। चिली में उनको कॉम्यूनस (comunas) कहा जाता है। पांच कनाडियन प्रान्त ओंटारियो, क्युबेक, न्यू ब्राउनश्विक, नोवा स्कोटिया और प्रिंस एडवर्ड आइलैंड के प्रशासनिक उप-मंडलों के रूप में "काउंटी" हैं। कनाडियन प्रान्त ब्रिटिश कोलम्बिया के पास "क्षेत्रीय जिले" हैं जो पूर्वोक्त के समकक्ष के रूप में कार्य करते हैं। आयरलैंड 4 ऐतिहासिक प्रान्तों (आयरलैंड के प्रान्त देखें) में विभाजित है जिनमें से प्रत्येक काउंटियों में प्रतिविभाजित हैं। ये प्रान्त हैं कॉनाक्ट (पश्चिम में), लिएंस्टर (पूर्व में), मुंस्टर (दक्षिण में) और शायद सबसे प्रसिद्ध (मुसीबतों के कारण), उल्स्टर (उत्तर में). आजकल इन प्रांतों में प्रशासनिक कार्य कम हैं, अथवा नहीं है, हालाँकि इनका महत्व खेल के कारण है। ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ विदेशी भागों को "प्रान्त" (रोमन अर्थ के साथ) का औपनिवेशिक नाम मिला था, उदाहरण के लिए कनाडा का प्रान्त या दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया का प्रान्त (इसे ऑस्ट्रेलिया में अन्यत्र दण्डात्मक "कालोनी" से अलग समझा जाये)। इसी तरह, मोजाम्बिक पुर्तगाली उपनिवेश के रूप में एक "प्रान्त" था। रूस कभी-कभी शब्द "प्रान्त" का प्रयोग रूस के ऐतिहासिक गवर्नरेट (राज्यपाल द्वारा शासित क्षेत्र) (गुबेर्नियास) के लिए भी किया जाता है। इस मामले में भी इस शब्द को प्रान्तों () को संदर्भित करने के लिए किया गया है, जो गुबेरनियास के उपखंडों के रूप में लाये गए थे और 1719 से 1775 तक अस्तित्व में थे। आधुनिक उपयोग में शब्द "प्रान्त" का प्रयोग रूस के ओब्लास्ट्स (oblasts) तथा क्रेस (krais) के लिए किया जाता है। सबसे बड़ा दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला प्रांत चीन का हेनान है जिसकी आबादी 93000911 है। दुनिया के सबसे बड़े क्षेत्रफल वाला प्रांत क्यूबेक, कनाडा है (1500000 किमी²). राज्यतंत्र द्वारा "प्रांत" का अनुवाद ऐतिहासिक प्रान्त प्राचीन, मध्ययुगीन और सामन्ती खलीफा और बाद में सल्तनत: अमीरात देखें खानैत का अर्थ प्रान्त के साथ साथ स्वतन्त्र राज्य भी हो सकता है, क्योंकि दोनों ही एक खान के द्वारा शासित हो सकते हैं। बीजान्टिन साम्राज्य देखें: एक्ज़र्खट, थेमा फ़राओ-शासित मिस्र: देखें नोम (मिस्र) फ्रंकिश (कारोलिंगियन) 'पुनः स्थापित' पवित्र रोमन साम्राज्य: काउंटी और गऊ देखें हैबस्बर्ग क्षेत्रों में, पारम्परिक प्रान्त को आंशिक रूप से 19वीं सदी के ऑस्ट्रिया-हंगरी लैंडर से व्यक्त किया जाता था। मुग़ल साम्राज्य: सुबह ओट्टोमैन साम्राज्य में कई प्रकार के राज्यपाल होते थे (आमतौर से पाशा), परन्तु अधिकांश वाली कहलाते थे, इसीलिए एक मुख्य शब्द विलायत प्रयोग में आया, जो अक्सर एक गवर्नर-जनरल के अधीन बँटा होता था (अधिकांशतः बेयलिक्स अथवा संजक्स), या कभी-कभी जुड़ा भी होता था (जिसे बेयलरबेय कहते थे)। अकेमेनिद फारस (और इससे पहले शायद मीडिया में, फिर से अलेक्जेंडर महान द्वारा विजय और विस्तार के बाद और अपेक्षाकृत बड़े हेलेनिस्टिक उत्तराधिकारी राज्यों में: देखें सत्रापी. *रोमन साम्राज्य प्रान्तों में बँटा था प्रोविन्सिये। काज़ान के तर्तर खनाते में: पाँच दिशायें (daruğa) औपनिवेशिक और पूर्व आधुनिक स्पैनिश साम्राज्य कई स्तरों पर: वाइसराय के शासन का क्षेत्र वाइसरौयल्टी इंटेंडेन्सिया (intendencia) ब्रिटिश उपनिवेश: कनाडा के प्रान्त (1840-1867) भारत के प्रान्त न्यूजीलैंड के प्रान्त (1841-1876) नाइजीरिया के प्रान्त दक्षिणी ऑस्ट्रेलियाई प्रान्त (अब एक ऑस्ट्रेलियाई राज्य) पूर्व में ब्राजील के प्रान्त पूर्व में फ़्रांस के प्रान्त पूर्व में आयरलैंड के प्रान्त पूर्व में जापान के प्रान्त प्रुसिया के प्रान्त, पूर्व जर्मन राजशाही/गणतंत्र का भाग पूर्व में स्वीडेन के प्रान्त पूर्व में गणराज्य के सात संयुक्त प्रान्त (नीदरलैंड) पूर्व में मध्य अमेरिका के संयुक्त प्रान्त पूर्व में रिओ डि ला प्लाटा के संयुक्त प्रान्त इन्हें भी देखें राज्यपाल क्षेत्र प्रान्तीयता क्षेत्रवाद (राजनीति) टिप्पणियाँ सन्दर्भ व्युत्पत्ति ऑनलाइन वर्ल्डस्टेट्समेन बाहरी कड़ियाँ शहर मार्गदर्शन और अधिक के साथ इंटरएक्टिव चीन प्रांत का नक्शा. प्रांत प्रशासनिक विभाग
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सेनापति भारत के मणिपुर प्रान्त का एक शहर है। भूगोल इतिहास जनसांख्यिकी यातायात आदर्श स्थल शिक्षा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ मणिपुर मणिपुर के शहर
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चांगलांग (Changlang) भारत के अरुणाचल प्रदेश राज्य के चांगलांग ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग २१५ यहाँ से गुज़रता है। विवरण चांगलांग की खूबसूरती को निहारने के लिए हर वर्ष यहां पर हजारों की संख्या में पर्यटक आते हैं। कृषि यहां के लोगों का मुख्य काम-धंधा है। इसी पर इसकी अर्थव्यवस्था भी टिकी हुई है। इसकी अधिकतर जनंसख्या गांवों में वास करती है। यहां के प्रत्येक गांव में अलग-अलग प्रकार से खेती की जाती है। इन गांवों में हर वर्ष अनेक उत्सव भी मनाए जाते हैं। चांगलांग में अनेक जातियां रहती हैं। इनमे तांग्सा, मुकलोम, हावी, लोंगचांग, जुगली, किमसिंग, मुगरी, रोंरांग, मोसोंग और लांगफी प्रमुख हैं। इन जातियों की संस्कृति अलग-अलग और बहुत रंग-बिरंगी है। यहां आने वाले पर्यटकों को इनकी संस्कृति बहुत पसंद आती हैं। यह विविधताओं भरा क्षेत्र है क्योकि यहां कहीं खुले मैदान हैं तो कहीं ऊंचे-ऊंचे पहाड़। इस कारण यहां पर वर्षा भी असमान होती है। संस्कृति चांगलांग में अनेक जातियां रहती हैं। अनेक जातियां होने के कारण इनकी संस्कृति भी अलग-अलग और रंग-बिरंगी हैं। इनमें तांग्सा और तुतसास प्रमुख हैं। यह रंगफराह देवता की पूजा करते हैं। यहां रहने वाली अधिकतर जातियों ने ईसाई और बौद्ध धर्म अपना लिया है। चांगलांग में सबके घर लगभग एक जैसे ही होते हैं। स्थानीय निवासी इन घरों को मचांग पुकारते हैं। यह जमीन से 5-6 फीट की ऊंचाई पर होते है और इनमें केवल एक ही कमरा होता है जिसमें दो चूल्हे होते हैं। यहां के लोगों का मुख्य काम-धंघा कृषि है और इसी से इनकी आजीविका चलती है। स्थानीय निवासी सुअर, बकरी और मुर्गे भी पालते हैं। मुख्य आकर्षण चांगलांग में वर्ष में कई त्यौहार और उत्सव मनाए जाते हैं। स्थानीय लोगों में यह उत्सव बहुत लोकप्रिय हैं। स्थानीय लोगों के अलावा पर्यटक भी इन उत्सवों में भाग ले सकते हैं। इन उत्सवों में पर्यटक चांगलांग की संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं को काफी नजदीक से देख सकते हैं। मोह-मोल उत्सव मोह-मोल उत्सव चांगलांग का प्रसिद्ध उत्सव है। चांगलांग के अधिकतर निवासी कृषि कार्यों से जुडे हुए हैं। यह उत्सव भी कृषि से जुडा हुआ है। इस उत्सव को फसल की बुवाई शुरू होने से पहले मनाया जाता है। स्थानीय निवासी इस उत्सव को बडी धूमधाम से मनाते हैं। इस उत्सव में वह अपने पारंपरिक वस्त्र और आभूषण पहनते हैं और लोकगीत गाते हुए नृत्य करते हैं। इस उत्सव का मुख्य उद्देश्य नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति आकर्षित करना है। चांगलांग के गांवों में विभिन्न प्रकार से खेती की जाती है। इसलिए उत्सव भी अलग-अलग समय पर मनाए जाते हैं। यह सभी उत्सव अप्रैल-जुलाई माह में मनाए जाते हैं। स्थानीय निवासी इन उत्सवों में अपने पूर्वजों को पिंडदान भी करते हैं। अंत में फसल की देवी तुगजा चमजा और सम्पन्नता की देवी नोंग की पूजा की जाती है। पोंगतू कुह यह तुतसास जाति का सबसे पुराना कृषि उत्सव है। इस उत्सव को वर्षा ऋतु में मनाया जाता है। स्थानीय निवासियों के अनुसार पोंगतू कुह पोंग तू और कुह से मिलकर बना है। इसका अर्थ होता है वायु, एकांत वास और उत्सव। इस उत्सव का आयोजन बाजरे की फसल की कटाई के बाद किया जाता है। इसमें चांगलांग के सबसे बड़े देवता रंगकठोक की पूजा की जाती है। पूजा करने का सबसे बड़ा कारण है कि रंगकठोक देवता उनकी फसलों की रक्षा करें और संपन्नता दें। इस उत्सव का आयोजन अप्रैल माह में किया जाता है। स्थानीय निवासी इस उत्सव को बडी धूमधाम से मनाते हैं। इस उत्सव में पर्यटक स्थानीय आदिवासियों का नाच-गाना भी देख सकते हैं। शाप्वंग यांग मानु पोई यह शिंगफो गांव का प्रमुख उत्सव है। शिंगफो की संस्कृति बहुत खूबसूरत है और पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। शाप्वंग यांग मानु पोई फरवरी माह में मनाया जाता है। इस उत्सव में मुख्य रूप से युवक-युवतियां भाग लेते हैं। वह अपने पारंपरिक वस्त्र और आभूषण पहनकर सुन्दर नृत्य पेश करते हैं। यह नृत्य पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। नाच-गाने के बाद चांगलांग के देवता की पूजा-अर्चना भी की जाती है। वन चांगलांग में अनेक पहाड़ियां हैं और इन पहाड़ियों के वन बहुत ही खूबसूरत हैं। यहां सदाबहार और ऊष्ण कटिबंधीय वन पाए जाते हैं। लेकिन स्थानीय निवासियों ने कृषि कार्यो के लिए बडे़ पैमाने पर वनों को काट दिया। इसके बावजूद पर्यटक यहां पर अनेक खूबसूरत पेड-पौधों और फल-फूलों के खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं। यहां पर बांस की भी कई प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें हैल्लोक, होलोंग, मेकाई, जुतूली, धूना, मिशेलिया चम्पक और बेटुला प्रमुख हैं। इसके अलावा नामदाफ में ब्लु वान्डा भी देखा जा सकता है। यह बांस की लुप्त प्राय: जाति है। वन्य जीवन चांगलांग में अनेक जंगल हैं। इन जंगलों में पर्यटक चांगलांग के वन्य जीवन के खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं। यहां पर पर्यटक तेंदुआ, हाथी, गौर, साम्भर, मलायन साम्भर, हिरण, भालु और पांडा देख सकते हैं। इन जंगली जानवरों के अलावा पर्यटक यहां पर कई खूबसूरत पक्षियों को भी देख सकते हैं। पक्षियों में पर्यटक मोर, बुलबुल, कठफोड़ा, पेडुकी, बतख और कबूतर देख सकते हैं। सर्दियों में पर्यटक यहां पर प्रवासी पक्षियों को भी देख सकते हैं। इन्हें भी देखें चांगलांग ज़िला सन्दर्भ चांगलांग ज़िला अरुणाचल प्रदेश के नगर चांगलांग ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "चांगलांग", "token_count": 6933, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97" }
अंक ऐसे चिह्न हैं जो संख्याओं के लिखने के काम आते हैं। दासमिक पद्धति में शून्य से लेकर नौ तक (० से ९ तक) कुल दस अंक प्रयोग किये जाते हैं। इसी प्रकार षोडश आधारी (hexadecimal system) में शून्य से लेकर ९ तक एवं A से लेकर F कुल १६ अंक प्रयुक्त होते हैं। द्विक पद्धति में केवल ० और १ से ही सारी संख्याएँ अभिव्यक्त की जातीं हैं। हिन्दी भाषा में अंकों एवं बड़ी संख्याओं का उच्चारण नीचे दिया गया है। शून्य ० एक १ दो २ तीन ३ चार ४ पांच ५ छ:/छह ६ सात ७ आठ ८ नौ ९ दश १० अंकों द्वारा लिखीं बड़ी संख्याएँ (दाशमिक पद्धति) ग्यारह ११ बारह १२ तेरह १३ चौदह १४ पंद्रह १५ सोलह १६ सत्रह १७ अठारह १८ उन्नीस १९ बीस २० इक्कीस २१ बाइस २२ तेइस २३ चौबीस २४ पच्चीस २५ छब्बीस २६ सत्ताइस २७ अट्ठाइस २८ उनतीस २९ तीस ३० इक्कतीस ३१ बत्तीस ३२ तैंतीस ३३ चौंतीस ३४ पैंतीस ३५ छत्तीस ३६ सैंतीस ३७ अँड़तीस ३८ उंचालीस ३९ चालीस ४० इकतालीस ४१ बयालीस ४२ तैंतालीस ४३ चौवालिस ४४ पैंतालिस ४५ छयालिस ४६ सैंतालिस ४७ अड़तालीस ४८ उंचास ४९ पचास ५० इक्यावन ५१ बावन ५२ तिरेपन ५३ चौवन ५४ पचपन ५५ छप्पन ५६ सत्तावन ५७ अट्ठावन ५८ उन्सठ ५९ साठ ६० इकसठ ६१ बासठ ६२ तिरेसठ ६३ चौंसठ ६४ पैंसठ ६५ छियासठ ६६ सड़सठ ६७ अड़सठ ६८ उन्नहत्तर ६९ सत्तर ७० इकहत्तर ७१ बहत्तर ७२ तिहत्तर ७३ चौहत्तर ७४ पिचहत्तर ७५ छिहत्तर ७६ सतहत्तर ७७ अठहत्तर ७८ उनासी ७९ अस्सी ८० इक्यासी ८१ बयासी ८२ तिरासी ८३ चौरासी ८४ पिच्चासी ८५ छियासी ८६ सतासी ८७ अठासी ८८ नवासी ८९ नब्बे ९० इक्यानवे ९१ बानवे ९२ तिरानवे ९३ चौरानवे ९४ पिच्चानवे ९५ छियानवे ९६ सत्तानवे ९७ अठानवे ९८ निन्यानवे ९९ (एक) सौ/(एक) शत १०० (एक) हज़ार/(एक) सहस्र १,००० दश हज़ार/दस सहस्र १०,००० (एक) लाख १,००,००० दश लाख १०,००,००० (एक) करोड़ १,००,००,००० दश करोड़ १०,००,००,००० (एक) अरब १,००,००,००,००० दश अरब १०,००,००,००,००० (एक) खरब १,००,००,००,००,००० दश खरब १०,००,००,००,००,००० (एक) नील १,००,००,००,००,००,००० दश नील १०,००,००,००,००,००,००० (एक) पद्म १,००,००,००,००,००,००,००० दश पद्म १०,००,००,००,००,००,००,००० (एक) शंख १,००,००,००,००,००,००,००,००० दश शंख १०,००,००,००,००,००,००,००,००० महाशंख १,००,००,००,००,००,००,००,००,००० गणित संख्या
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अंक", "token_count": 3155, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%95" }
भारतीय भोजन एवं भारतीय खाना अपने भीतर भारत के सभी क्षेत्र, राज्य के अनेक भोजनों का नाम है। जैसे भारत मैं सब कुछ अनेक और विविध है, भारतीय भोजन भी वैैसे ही विविध है। पूरब पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत का आहार एक दूसरे से थोड़ा बहुत ही अलग है। भारतीय भोजन पर अनेक तत्वों का प्रभाव पड़ा है। सभी क्षेत्रों का खाना दुसरे क्षेत्र से कुुछ-कुुछ अलग हौता है, यह भरतीय भोजन को अपनी एक निराला व अनोखा रूप देती है। पूरन पूरी हो व दाल बाटी, अङ्गारकी/तन्दूरी रोटी हो व राजसी पुलाव, बंंगाली खाना हो व मारवाड़ी खाना, भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यन्त लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहान्त अथवा अवकाशों पर भोजन के लिये लोग भारतीय भोजनालयों में ही जाने को अधिक अधिमान देते हैं। स्वादिष्ट खाना बनाना एक कला है, इसी कारणवश भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला कहा गया है। भारतीय भोजन विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम है। इसमें बंगाली खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं। भारतीय "ग्रेव्ही", जिसे करी (कढ़ी), तींवण (तेमन), झोल आदि कहा जाता है, का अपना अलग ही इतिहास है। भारतीय करी का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। प्राचीन काल में, जब भारत आने के लिये केवल खैबर-दर्रा ही एकमात्र मार्ग था क्योंकि उन दिनों समुद्री मार्ग की खोज भी नहीं हुई थी। उन दिनों में भी यहाँ आने वाले विदेशी व्यापारियों को भारतीय भोजन इतना अधिक भाता था कि वे इसे पकाने की विधि सीख कर जाया करते थे और भारत के मोतियों के साथ ही साथ विश्‍वप्रसिद्ध घर्म सम्बार/मसाला मोल लेकर अपने साथ ले जाना कभी भी नहीं भूलते थे। करी शब्द तमिल के कैकारी, जिसका अर्थ होता है विभिन्न सम्बारों/मसालों के साथ पकाई गई भाजी, से बना है। ब्रिटिश शासनकाल में कैकारी अंग्रेजों को इतना भाया कि उन्होंने उसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया और करी बना दिया। आज तो यूरोपियन देशों में करी भारतीय पकवानों का पर्याय बन गया है। सामग्री भारतीय भोजन में बहुत सारे सामग्रीयों का उपयोग होता है, जैसे की दालचीनी, काली मिर्च, लौंग, इलायची का प्रयोग होता है। लहसुन और कान्दे का भी प्रयोग होता है, पर सात्विक भोजन में इनका प्रयोग नहीं होता है। जैन धर्म के अनुयायी जड़ वाले शाक को भी नहीं खाते। ऋतु-अनुकूल सामग्री के प्रयोग को अधिमान दिया जाता है। अलग -अलग प्रकार के दाल का भी उपयोग होता है जैसे मसूर, तूर/अरहर, उड़द, मूँग दाल जैसे भिन्न-भिन्न दालो का प्रयोग होता है। उत्तर भारतीय खाना उत्तर भारत का खाना दक्षिण भारत के खाने समान पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। उत्तर भारत गेहूँ और चावल दोनों ही मुख्य अनाज है। इनको छोड़ मोटे अनाज जैसे- बाजरा, ज्वार, जई, मक्की/मकई का भी प्रयोग किया जाता है। नित्य के खाने में भाँति-भाँति की दालें जैसे- उड़द, मूँग, चना, तूवर, मसूर आदि का उपयोग होता है। इन दालों के अतिरिक्त राजमा, छोले/चने, लोबिया पूरे ही उत्तर भारत में बरते जाते है। पर राजमा की सर्वोत्तम उपज जम्मू संभाग में होती है, इसलिए जम्मू राजमा पूरे भारत में प्रसिद्ध है। विभिन्न प्रकार के शाक-फलियाँ नित्य खाई जाती है। रोटियोँ के प्रकार गेहूँ से कई प्रकार की रोटियाँ पूरे ही भारत देश में बनाई जाती है, जैसे- सामान्य रोटी (चपाती/फुल्का), पराँठा, पूरी, सुहारी, लुचुई, भटूरा, बाटी/लिट्टी। इसके अतिरिक्त गेहूँ को दाल व शाक आदि से मिलाकर कई प्रकार के व्यञ्जन बनाये जाते है। जैसे- बेसन और गेहूँ के आटे के मेल से मिस्सी रोटियाँ। भिन्न-भिन्न शाक-भाजियों व छेना/पनीर को पराँठे में भरकर भरवाँ पराँठे बनाये जाते है। दाल को गेहूँ में गूँथ व पिट्ठी के रूप में भरकर दाल पराँठा बनाया जाता है। ऐसे ही दाल को पूरी में भरकर दालपूरी बनती है जो बिहार में बहुत प्रचलित है। इसी प्रकार कड़़े आटे मेें दाल, मटर, आलू भरकर कचौरियाँ बनाई जाती है। शीतकाल में मोटे अनाजों से नाना प्रकार की रोटियाँ जैैैसे- बाजरे की रोटी, मक्की की रोटी आदि बनाई जाती है। इनके अतिरिक्त तन्दूर/भट्ठी में पकी मैदे की रोटी जिसे तन्दूरी रोटी व अङ्गारकी रोटी कहते है। कुछ लोग इसके लिये फ़़ारसी शब्द नान भी उपयोग करते है । नान फ़़ारसी मूल का शब्द जिसका अर्थ रोटी/ब्रेड होता है। इसी प्रकार तन्दूर में पकी किण्वनित रोटी के लिये फ़़ारसी शब्द क़ुल्चा बरतते है। चावल वाले व्यञ्जन गेहूँ और मोटे अनाजों के अतिरिक्त चावल भी नित्य खाये जाते है । चावल से कई ढंग के भात और पुलाव बनाये जाते है जैसे- साधारण भात, जीरा भात, बैंगन भात, मटरों वाले चावल, आदि। उत्तर भारत में मुख्यतः बासमती व परमल चावल का प्रयोग होता है। कई बार दाल और चावल के मेल से खिचड़ी बनाई जाती है। दैनिक खाने में साधारण भात और रोटी को अलग-अलग दालों व शाक-फलियों के साथ खाया जाता है। अत: दाल रोटी और दाल चावल पूरे भारत का मुख्य भोजन है। बहुत बार गुुुड़ और शक्कर को चावल और मेवों के साथ पकाकर मीठा भात बनाया जाता है। चावल को दूध में उबाल कर खीर बनाई बहुत प्रचलित है। खीर के लिये दक्षिण भारत में पायसम् और मुस्लिम घरों में फ़ारसी शब्द फ़िरनी अधिक प्रचलित है। मिष्ठान उत्तर भारत में वही सब मिष्ठान प्रचलित जो पूरे भारत में प्रचलित है जैसे लड्डू, खीर, सेवियाँ, पेड़ा/पिन्नी, जलेबी, अमरती, गुलाब जामुन और लप्सी। अल्पाहार उत्तर भारत मेें प्रचलित अल्पाहार: आलू टिक्की, पानी पूरी (गोल गप्पे), बृजवासी चाट पापड़ी, तिकोने (समोसे/ सिंघाड़े पूर्वी भारत में बोलते है)। दही/छाछ से बने व्यञ्जन दही से विविध प्रकार के व्यञ्जन बनते है। दही में वड़े डालकर, नून (लवण), जीरा, काली मिर्च आदि मिलाकर " दही वड़े" बनाए जाते है।इसी प्रकार बेसन की बूँदी डालकर बूँदी रायता बनाया जाता है। भाँति-भाँति के शाक डाल के विभिन्न प्रकार के रायते बनाए जाते है। दही-छाछ को बेसन में मिलाकर और काढ़कर कढ़ी बनती है। यह पूरे भारत में प्रचलित है। इसमें पकौड़े, दाल वड़े, शाक आदि भी डाले जाते है। कढ़ी पकौड़ा का सबसे पहला वर्णन मध्यप्रदेश के उज्जैन के क्षेमकुतूहल नामक ग्रंथ में मिलता है। माँसाहारी व्यञ्जन उत्तर भारत में पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़ माँसाहारी खाने का प्रचलन बहुत नहीं है क्योंकि जितने भी माँसाहारी व्यञ्जन है, उनका छेना (पनीर), खुंब (मशरूम) व सोया के रूप में कोई न कोई वैकल्पिक व्यञ्जन होता है। माँस के लिये मुस्लिम घरों में फ़ारसी शब्द गोश्त व मुर्ग़ और अंग्रेजी में मटन व चिकन शब्द का प्रयोग होता है। उत्तर भारत में कुछ माँसाहारी व्यञ्जन : भुना माँस (चिकन/मटन रोस्ट), तलित माँस (चिकन फ्राई), तन्दूरी माँस (ग्रिल्ड चिकन), माँस मसाला (चिकन/मटन मसाला), हरियाली माँस/ साग माँस (साग गोश्त), और माँस का शोरबा। डंडी पर पकाये माँस के टुकड़ों को टिक्का व शूल्य माँस कहते हैं। इन्हें फ़ारसी में कबाब भी कहते हैं। आधुनिक भारतीय खान-पान आधुनिकता के युग में भारतीय खाने में बहुत से परिवर्तन आ गये है जैसे - सोया और विविध प्रकार की खुम्ब (मशरूम) का प्रयोग। आजकल आलू के स्थान पर छेना (पनीर) को महत्व दिया जाता है। रेस्तरां की रोटियों में आटे के स्थान पर मैदा का उपयोग किया जाता है। यूरोपीय खाने के प्रभाव से आजकल प्रत्येक व्यञ्जन में टमाटर का "प्यूरी" डाला जाता है। पारम्परिक घी के स्थान पर मक्खन का प्रयोग किया जाता है। इन्हीं दो नये परिवर्तनों से आधुनिक व्यञ्जन जैसे पाव भाजी (बची कुची भाजी को मक्खन टमाटर प्यूरी में पकाकर), दाल मक्खनी (उड़द दाल को मक्खन टमाटर प्यूरी में पकाकर), बटर चिकन ( ग्रिल्ड चिकन को मक्खन टमाटर प्यूरी में पकाकर), बटर पनीर (पनीर को मक्खन टमाटर प्यूरी में पकाकर) बनाए जाते है। यह सभी व्यञ्जन परम्परागत नहीं और ना ही किसी प्रान्त से सम्बन्धित है। यह सभी व्यञ्जन आधुनिकता के युग में रेस्तरां में पनपे। वास्तव में इन में से कोई भी व्यञ्जन आविष्कार नहीं है, केवल वयञ्जनों को प्रस्तुत करने का एक ढंग है। उत्तर भारतीय खाना कश्मीर, जम्मू (डोगरा), हिमाचल (डोगरा), पंजाब, उत्तर प्रदेश (ब्रज, कौरवी, अवधी, बुन्देली, भोजपुरी) हरियाणा, राजस्थान (मारवाड़ी, बीकानेरी, मेवाड़ी), मध्य प्रदेश ( बुन्देली, निमाड़ी, मालवी) उत्तराखण्ड (कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी) जैसे राज्यों को अपने अन्दर लेता है। उत्तर भारतीय भोजन- अवधी व्यंजन बिहारी व्यंजन भोजपुरी व्यंजन कुमाऊँनी व्यंजन कश्मीर का भोजन डोगरी व्यञ्जन और पाक कला पंजाबी व्यंजन उत्तर प्रदेश के भोजन कश्मीरी खाना कश्मीरी खाना इस क्षेत्र की प्राचीन परम्परा पर आधारित है। इस क्षेत्र में प्रसिद्ध सामग्री माँस है। इस क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यञ्जन है - दम आलू; रोगन ज़ोश एक माँस आधारित पकवान है। इस पकवान में बहुत सारा तेल का उपयोग होत है, इसे तीव्र गर्मी पर पकाया जाता है। इस पकवान के मुख्य सामग्री है- कश्मीरी लाल मिर्च, माँस, दही, सोंठ आदि का प्रयोग होता है। विभिन्न प्रकार के साग जिन्हें कश्मीरी में हाक कहते हैं भी बनाये जाते है। डोगरा खाना डोगरा खाना मुख्यतः जम्मू में बनाया जाता है। निचले हिमाचल का खाना भी इससे मिलता जुलता है। जम्मू के पहाड़ी क्षेत्रों में उपजे राजमाँह अपने स्वाद के लिए पूरे भारत में प्रसिद्ध हैं। वहीं जम्मू के कण्डी क्षेत्रों का रणबीर बासमती अपनी सुगन्ध और गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। इन्हीं राजमाँह चावल को जम्मू के स्थानिय टिम्बरू और दड़ूनी (अनारदाना) की चटनी साथ परोसा जाता है। डोगरा खाने का मुख्य अङ्ग है मन्दिरों की धाम (सदाव्रत) परम्परा । मन्दिर की धाम में काशीफल का अम्बल एक प्रमुख व्यञ्जन है। यह दाल-भात सङ्ग परोसा जाता है। धाम में विभिन्न प्रकार के मद्धरे जिनमें मुख्यतः दाल मद्धरा (माँह की दाल से बनता है) और रौङ्गी मद्धरा होते है। सरसों और दही से आलू का औहरिया भी बनाया जाता है। मिट्ठा भत्त, मिट्ठा मद्धरा, बब्बरू, रूट्ट, सीरि पलाऽ धाम के मीठे व्यञ्जन है। विवाह पर्व में घ्यूर, चरोलियाँ, सस्सरूट्ट, गुलरा आदि बनता है। शीतकाल में रेढ़ू, ढोडे, भाँति-भाँति के साग बनते है। वहीं ग्रीष्म काल में मिर्च से सलाटू मद्धरा और कच्चे आम से म्हाणी बनता है। अल्पाहार में लखनपुरी भल्ले/लड्डू , आलू दबारे, नंदरू पकौड़े, बेथ (पत्रौड़ू) आदि खाये जाते है। यहाँ का स्थानीय आमिक्षा (cheese) जिसे कलाड़ी कहते है, बहुत ही लोकप्रिय है। जो भी जम्मू आता है यहाँ कलाड़ी कुल्चा और कलाड़ी पराँठे अवश्य चखता है। इसके अतिरिक्त यहाँ विश्व की सबसे महँगी खुम्ब (मशरूम) : गुच्छी से पुलाव बनाया जाता है। कसरोड़ और ढिंगरी खुम्ब से भी कई प्रकार के अचार और स्लूणे बनते है। पंजाबी खाना यह अपने मसालो व पकवानो के रंगो के लिए प्रसिद्ध है। पंजाबी खाना न केवल भारत मै, पर पुरी दुनीया बहुत जाना माना है। पंजाबी खाने मैं घी, दही, मक्खन, पूरी गेहूं का उपयोग होता है। पंजाबी खाने के मसाला ज्यादा तर अदरक -लहसुन प्याज का अप्रमाद होता है। हम सर्सोन का साग पंजाबी खाने के माशुर खान है। तंदूरी खाना यहाँ की विशेषता है। विशिष्ट व्यंजन पल्स, सेम और / या मसूर की तैयारी: सरसों दा साग (हरे सरसों के पत्तों से तैयार एक डिश) और मक्की दी रोटी, मकई का आटा द्वारा किए गए एक रोटी के साथ मशरूम और सेम सब्जी छोले (नान या कुल्छा के साथ खाया) आलू (पुरी के साथ खाया) दक्षिण भारतीय खान दक्षिण भारतीय खाना भारत के द्रविड़ राज्यों के खाने को कहा जाता है। इसमें मुख्यतः तमिल नाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल राज्य गिने जाते है। प्रसिद्ध पकवाने है- पेरुगु पुरी, इडली, डोसा, सांभर, पोंगल आदि। यहाँ का प्रमुख भोजन चावल है। नारियल, इमली, हरी मिर्च का प्रयोग होता है। प्रकार तमिल खाना तमिल खाना मैं चावल, फलियां और मसूर की दाल का प्रयोग होता है। अपनी विशिष्ट सुगंध और स्वाद करी पत्ते, सरसों के बीज, धनिया, अदरक, लहसुन, मिर्च, काली मिर्च, दालचीनी, लौंग, हरी इलायची, जीरा, जायफल, नारियल और गुलाब जल हर एक पकवान को सुगंधित और स्वादिष्ट बनाते है। चेट्टीनाद व्यंजन पूरे दुनीया मैं प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध खान है- मीन कोज़हमबु, पोलि, पोगल, इड्डीअपम, इडली, रस्म, पारुपु डोसा। मलयाली खाना मलयाली खाना बहुत विविध है। शाकाहारी व मांसाहरी पकवाने यहाँ मिलती है। प्रसिद्ध पकवान है-पुटू, आपम, इडीआपम, अवीयल, अलग- अलग प्रकार के मछली करी, मालाबार बिरयानी, पेडी, चिकन स्टू, पायसम। मलयाली खाने मैं केरल (चोर) चावल पसंद करते हैं। यहाँ का सबसे प्रसिद्ध पकवान सादया है। कन्नड़ खाना केरला के पकवान के तरह हि कन्नड़ पकवान मैं शाकाहारी व मांसाहरी पकवाने मिलती है। दक्षिण राज्यों का प्रभाव कन्नड़ खाने पर बहुत पड़ा है। प्रसिद्ध पकवान है - कोसमबारी, बिसी बेले बाथ, अक्कि रोटी, रागी मुद्दे, कायी चटनी, नुपुत्तु, टमाटर बाथ, मैसूर पाक, पानदि करी, अलग- अलग प्रकार के अचार। उडुपी व्यंजन पूरे राज्य व दुनीया मैं प्रसिद्ध है। आंध्र प्रदेश का खाना आंध्र खाना अपने नोंकदार, मसालेदार खाने के लिए जाना जाता है। दल, टमाटर और इमली इनके प्रमुक सामग्रीया है। प्रसिद्ध पकवान है- पेरुगु पुरी, पाचहि पुलुसु, बदाम हलवा, बिरयानी। इस राज्य के अन्दर बहुत सारे व्यंजन मिलेगे जैसे- हैदराबादी व्यंजन तेलंगाना के खान- पान रायलसीमा के खान- पान हर एक व्यंजन अपनी विशेषता बानाए रकता है। पश्चिम भारतीय खाना गुजराती खाना गुजराती खाना मैं लग-भग सारे पकवान शाकाहारी है। गुजराती खाने एक साथ मीठे, नमकीन वह मसालेदार होते है। प्रधान पकवान खिचड़ी, अचार, छाछ है। प्रसिद्ध खाने है- ब्रेड/रोटी- पूरन पोली, थेपला, पोडा, बाकरी। चावल-खिचड़ी, पुलाव, खट्टे और मीठे चावल सब्जी-कढ़ी, सेव टमेटा, उन्धियो। साइड डिश/फारस्न- पकोड़ा, ढोकला, बटाका पौंआ, हांडवो, दाळ ठोकळी, दही वड़ा, कहान्डवी, कच्होरी, सेव, मालपुआ। राजस्थानी खाना दाल बाटी, चूरमा, वैसे तो दाल बाटी एक राजस्थानी व्यंजन है, किन्तु आजकल यह संपूर्ण भारत में पसंद की जाने लगी है। राजस्थान में छुट्टी हो या घर में मेहमान आए हों, बारिश ने दस्तक दी हो या कोई भी मंगल त्यौहार हो, दाल बाटी का कोई विकल्प नहीं। राजस्थान के रेगिस्तानी आँचल की सब्जी (कैर सांगरी) के बारे में तो यहाँ तक कहा गया है कि- " कैर, कुमटिया सांगरी, काचर बोर मतीर | तीनूं लोकां नह मिलै, तरसै देव अखीर ॥ " कैर, कुमटिया, सांगरी, काचर, बेर और मतीरे राजस्थान को छोड़कर तीनों लोकों में दुर्लभ है इनके स्वाद के लिए तो देवता भी तरसतें रहते है। मराठी खाना पुरण पोळी, आंबट वरण, पुरण पोळी महाराष्ट्र का सांस्क्रुतिक मिष्टान्न हैं। हर मंगल प्रसंग पुरण पोळी के बिना अधुरा हैं। चनेकी दाल, गुड और गेंहुका आटा ये पुरण पोळी बनानेकी सामग्री हैं। चनेकी दाल उबालके गुडके साथ मिलाके पिस ले। फिर ये मिश्रण परोंठेके तरह गुंदेहुए आटेंमें भरके सेंक ले।इसके अलावा झुणका भाकरी यह महाराष्ट्र का प्रसिद्ध और लोकप्रिय ख़ाना है जो लोग बहोत पसंद करते है। इसके साथ ही महाराष्ट्र में मुबई का वडापाव बहुत पसंद किया जाता है। पूर्व भारतीय खाना बंगाली खाना मैथिल खाना डालना,माछ भात,बओरी,मखानक खीर,सक्रोरी,दहीमाछ, दही चुरा, तिलकोर उत्तर पूर्व का खाना मोमो, थुपका, तुंगतप, आंरी पारम्परिक क्षेत्रीय खनपान कश्मीरी यखनी कश्मीरी पुलाव गुश्तावा डोगरी राजमा चावल काशीफल का अम्बल दाल मद्धरा रौंगी मद्धरा औहरिया आलू टिम्बरू चटनी कलाड़ी कुल्चा सरियाँ का साग रेढ़ू ढोडा खमीरे-भट्ठोरू कत्तरैड़ आसरा कसरोड़ गुच्छी पुलाव घ्यूर गुलरा पत्त्रोड़ू पंजाबी तंदूरी चिकन सरसों का साग मक्खदाल नी छोले भटूरे अवधी खाना दम पुख्त बिरयानी काकोरी कबाब शामी कबाब मलाई गिलौरी राजस्थानी दाल बाटी चूरमा लापसी घेवर कैर की सब्जी कड़ी मावा कचौरी गट्टे की सब्जी हल्दी की सब्जी मंगोड़ी और पिथोड़ी की सब्जी मूंग दाल, आटे और सिंगोड़े का हलवा गुंद के लड्डू पंचमेल सब्जी सांगरी की सब्जी कुमटिया की सब्जी गुजराती ढोकला खांडवी लापसी बाफला थेपला भाखरी श्रीखण्ड खमण उधिया फाफडा गोटा महाराष्ट्री वड़ा पाव श्रीखंड भेलपूरी पुरण पोळी झुणका भाकर गुर्जर वाल भाजी गुर्जरोयनी वरण बट्टी गुर्जरी सफेद कढ़ी गुर्जरी वाल ना दाना अनं वांगु गुर्जरी तोर ना दाना अनं वांगु गुर्जरी वांगा नी घोटेल भाजी गुर्जरी सग्गा वांगा गुर्जरी पातोडे नी भाजी गुर्जर दराबा ना लाडू कोंकणी/गोआनी धनसाक विंडालू केरल अप्पम अवियल फिश मोली दक्षिण भारतीय इडली सांभर मैसूर पाक हैदराबादी हैदराबादी बिरयानी हलीम दाल गोश्त पूर्वी भाप्पा इलिश माछ झोल रॉसोगुल्ला संदेश (मिठाई) पूर्वोत्तर मोमो थुपका फिश टेंगा इन्हें भी देखें All indian foods recipes in hindi मिठाई चित्रदालन बाहरी कड़ियाँ भारतीय व्यंजन सन्दर्भ भारतीय खाना खान पान
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धोती कुर्ता शेरवानी साड़ी दुपट्टा सलवार लहँगा भारतीय पहनावा
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भूटान का राजतंत्र (भोटान्त) हिमालय पर बसा दक्षिण एशिया का एक छोटा और महत्वपूर्ण देश है। यह चीन (तिब्बत) और भारत के बीच स्थित भूमि आबद्ध देश है। इस देश का स्थानीय नाम ड्रुग युल है, जिसका अर्थ होता है अझ़दहा का देश। यह देश मुख्यतः पहाड़ी है और केवल दक्षिणी भाग में थोड़ी सी समतल भूमि है। यह सांस्कृतिक और धार्मिक तौर से तिब्बत से जुड़ा है, लेकिन भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर वर्तमान में यह देश भारत के करीब हैतथा भारत के परम् -मित्रों में से एक है। भूटान का धरातल विश्व के सबसे ऊबड़ खाबड़ धरातलों में से एक है, जो 100 किमी की दूरी के बीच में 150 से 7000मी की ऊँचाई पायी जाती है ! भूटान पहले भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा मालदीव से कोई प्रवेश कर नहीं लेता था, पर अब लेना शुरू कर दिया है। नाम कुछ लोगों के अनुसार भूटान संस्कृत के भू-उत्थान से बना शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ऊंची भूमि. कुछ के अनुसार यह भोट-अन्त (भोटान्त) (यानि तिब्बत का अन्त) का बिगड़ा रूप है। यहां के निवासी भूटान को ड्रुग-युल (अझ़दहा का देश) तथा इसके निवासियों को ड्रुगपा कहते हैं। इसके अलावा भी भूटान के कई नाम रहे हैं पूर्व में। इतिहास सत्रहवीं सदी के अंत में भूटान ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया। 1865 में ब्रिटेन और भूटान के बीच सिनचुलु संधि पर हस्ताक्षर हुआ, जिसके तहत भूटान को सीमावर्ती कुछ भूभाग के बदले कुछ वार्षिक अनुदान के करार किए गए। ब्रिटिश प्रभाव के तहत 1907 में वहाँ राजशाही की स्थापना हुई। तीन साल बाद एक और समझौता हुआ, जिसके तहत ब्रिटिश इस बात पर राजी हुए कि वे भूटान के आंतरिक मामलों में हस्त्क्षेप नहीं करेंगे लेकिन भूटान की विदेश नीति इंग्लैंड द्वारा तय की जाएगी। बाद में 1947 के पश्चात यही भूमिका भारत को मिली। दो साल बाद 1949 में भारत भूटान समझौते के तहत भारत ने भूटान की वो सारी जमीन उसे लौटा दी जो अंग्रेजों के अधीन थी। इस समझौते के तहत भारत का भूटान की विदेश नीति एवं रक्षा नीति में काफी महत्वपूर्ण भूमिका दी गई। राजनीति भूटान का राजप्रमुख राजा अर्थात द्रुक ग्यालपो होता है, जो वर्तमान में जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक हैं। हालांकि यह पद वंशानुगत है लेकिन भूटान के संसद शोगडू के दो तिहाई बहुमत द्वारा हटाया जा सकता है। शोगडू में 154 सीटे होते हैं, जिसमे स्थानीय रूप से चुने गए प्रतिनिधि (105), धार्मिक प्रतिनिधि (12) और राजा द्वारा नामांकित प्रतिनिधि (37) और इन सभी का कार्यकाल तीन वर्षों का होता है। राजा की कार्यकारी शक्तियाँ शोगडू के माध्यम से चुने गए मंत्रिपरिषद में निहित होती हैं। मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चुनाव राजा करता है और इनका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है। सरकार की नीतियों का निर्धारण इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि इससे पारंपरिक संस्कृति और मूल्यों का संरक्षण हो सके। हालांकि भूटान में रहने वाले नेपाली मूल के अल्पसंख्यक समुदायों में कुछ असंतोष है, जो अपनी संस्कृति पर भूटानी संस्कृति लादे जाने के खिलाफ हैं। इस व्यवस्था का विरोध करने वाले नेपाली भूटानी नेपाल तथा भारत के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थी बनने को विवश हैं। पूर्वी नेपाल में करीब एक लाख से ज्यादा व भारत में ३० हजार के करीब भूटानी नेपाली शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। उनकी देखभाल शरणार्थी संबंधी राष्ट्रसंघीय उच्चायुक्त से मिलकर नेपाल सरकार कर रही है। जिले भूटान बीस जिलों (ज़ोंगखाग) में विभाजित है। बुमथङ छुखा दगाना गासा हा ल्हुनचे मोंगार पारो पद्म गछाल पुनाखा जिला समड्रुब जोङखर सम्चे सरपङ थिम्फू जिला ट्राशीगङ ट्राशी याङचे ट्रोङसा शिरांग वाङदुस फोड्रङ शेमगङ </div> भूगोल भूटान चारों तरफ से स्थल से घिरा हुआ पर्वतीय क्षेत्र है। उत्तर में पर्वतों की चोटियाँ कहीं-कहीं 7000 मीटर से भी ऊँची हैं, सबसे ऊँची चोटी कुला कांगरी जो 7553 मीटर है। गांगखर पुएनसुम की ऊँचाई 6896 मीटर है, जिस पर अभी तक मानवों के कदम नहीं पहुँचे हैं। देश का दक्षिणी हिस्सा अपेक्षाकृत कम ऊँचा है और यहाँ कई उपजाऊ और सघन घाटियाँ हैं, जो ब्रह्मपुत्र की घाटी से मिलती है। देश का लगभग 70% हिस्सा वनों से आच्छादित है। देश की ज्यादातर आबादी देश के मध्यवर्ती हिस्सों में रहती है। देश का सबसे बड़ा शहर, राजधानी थिम्फू है, जिसकी आबादी 50,000 है, जो देश के पश्चिमी हिस्से में स्थित है। यहाँ की जलवायु मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय है। अर्थव्यवस्था विश्व के सबसे छोटी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भूटान का आर्थिक ढाँचा मुख्य रूप से कृषि और वन क्षेत्रों और अपने यहाँ निर्मित पनबिजली के भारत को विक्रय पर निर्भर है। ऐसा माना जाता है कि इन तीन चीजों से भूटान की सरकारी आय का 75% आता है। कृषि जो यहाँ के लोगों का आधार है, इस पर 90% से ज्यादा लोग निर्भर हैं। भूटान का मुख्य आर्थिक सहयोगी भारत हैं क्योंकि तिब्बत से लगने वाली भूटान की सीमा बंद है। भूटान की मुद्रा ङुल्ट्रम है, जिसका भारतीय रुपया से आसानी से विनिमय किया जा सकता है। औद्योगिक उत्पादन लगभग नगण्य है और जो कुछ भी है, वे कुटीर उद्योग की श्रेणी में आते हैं। ज्यादातर विकास परियोजनाएँ जैसे सड़कों का विकास इत्यादि भारतीय सहयोग से ही होता है। भूटान की पनबिजली और पर्यटन के क्षेत्र में असीमित संभावनाएँ हैं। लोग एवं धर्म भूटान की लगभग आधी आबादी भूटान के मूलनिवासी हैं, जिन्हें गांलोप कहा जाता है और इनका निकट का संबंध तिब्बत की कुछ प्रजातियों से है। इसके अलावा अन्य प्रजातियों में नेपाली है और इनका सम्बन्ध नेपाल राज्य से है। उसके बाद शरछोगपा और ल्होछमपा हैं। यहाँ की आधिकारिक भाषा जोङखा है, इसके साथ ही यहाँ कई अन्य भाषाएँ बोली जाती हैं, जिनमें कुछ तो विलुप्त होने के कगार पर हैं। भूटान में आधिकारिक धर्म बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा है, जिसका अनुपालन देश की लगभग ७५% जनता करती है। भूटान की अतिरिक्त २५ प्रतिशत जनसंख्या हिंदू धर्म की अनुयायी है। भूटान के हिंदू धर्मी नेपाली मूल के लोग है, जिन्हे ल्होछमपा भी कहा जाता है। भूटान, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भारत के सर्वाधिक करीब है। संस्कृति भूटान दुनिया के उन कुछ देशों में है, जो खुद को शेष संसार से अलग-थलग रखता चला आ रहा है और आज भी काफी हद तक यहाँ विदेशियों का प्रवेश नियंत्रित है। देश की ज्यादातर आबादी छोटे गाँव में रहते हैं और कृषि पर निर्भर हैं। शहरीकरण धीरे-धीरे अपने पाँव जमा रहा है। बौद्ध विचार यहाँ की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं। तीरंदाजी यहाँ का राष्ट्रीय खेल है। यह भी देखिए भूटान का इतिहास भूटान में यातायात भूटान की सेना थिम्पू जोङखा (भूटान की भाषा) wikt:भूटान (विक्षनरी) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ भूटान पर्यटन हिमालय राजतंत्र एशिया के देश दक्षिण जंबुद्वीप जंबुद्वीप दक्षिण एशिया के देश स्थलरुद्ध देश
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देवदास पारो: बांग्ला उपन्यास देवदास की एक पात्रा। पारो-भूटान: भूटान की राजधानी है।
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अमिताभ बच्चन (जन्म-11 अक्टूबर, 1942) भारतीय फिल्म जगत बॉलीवुड के अभिनेता और प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन के सुपुत्र हैं। 1970 के दशक के दौरान उन्होंने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की और तब से भारतीय सिनेमा के इतिहास में प्रमुख व्यक्तित्व बन गए। अमिताभ ने अपने करियर में अनेक पुरस्कार जीते हैं, जिनमें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, तीन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और बारह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार सम्मिलित हैं। उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फ़िल्मफेयर अवार्ड का रिकार्ड है। अभिनय के अलावा बच्चन ने पार्श्वगायक, फ़िल्म निर्माता, टीवी प्रस्तोता और भारतीय संसद के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में 1984 से 1987 तक भूमिका निभाई है। भारतीय टीवी का लोकप्रिय शो "कौन बनेगा करोड़पति" में कई वर्षों से मेज़बान की भूमिका भी ये निभाते आए हैं। इस शो में उनके द्वारा किया गया 'देवियों और सज्जनों' संबोधन बहुचर्चित रहा। अमिताभ बच्चन का विवाह अभिनेत्री जया भादुड़ी से हुआ और इनकी दो संतानें हैं, श्वेता नंदा और अभिषेक बच्चन। अभिषेक बच्चन सुप्रसिद्ध अभिनेता हैं, जिनका विवाह पूर्व विश्वसुन्दरी और अभिनेत्री ऐश्वर्या राय से हुआ है। बच्चन पोलियो उन्मूलन अभियान के बाद अब तंबाकू निषेध परियोजना पर काम करेंगे। अमिताभ बच्चन को अप्रैल 2005 में एचआईवी/एड्स और पोलियो उन्मूलन अभियान के लिए यूनिसेफ के द्वारा सद्भावना राजदूत नियुक्त किया गया था। आरंभिक जीवन इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, कायस्थ परिवार में जन्मे अमिताभ बच्चन के पिता, डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन अविभाजित भारत के कराची शहर से सम्बन्ध रखती थीं जो कि अब पाकिस्तान में है। आरंभ में अमित जी का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग किए गए प्रेरक वाक्यांश 'इंकलाब जिंदाबाद' से लिया गया था। लेकिन बाद में प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने इनका नाम 'अमिताभ' रखा। 'अमिताभ' का अर्थ है, "शाश्वत प्रकाश"। यद्यपि इनका उपनाम श्रीवास्तव था व वह कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते हैं फिर भी इनके पिता ने इस उपनाम को अपने कृतियों को प्रकाशित करने वाले बच्चन नाम से उद्धृत किया। यह उनका उपनाम ही है जिसके साथ उन्होंने फ़िल्मों में एवं सभी सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए उपयोग किया। अब यह उनके परिवार के समस्त सदस्यों का उपनाम बन गया है। अमिताभ, हरिवंश राय बच्चन के दो बेटों में सबसे बड़े हैं। उनके दूसरे बेटे का नाम अजिताभ है। इनकी माता तेजी बच्चन की थिएटर में गहरी रुचि थी और उन्हें फ़िल्म में रोल की पेशकश भी की गई थी किंतु इन्होंने गृहिणी बनना ही पसंद किया। अमिताभ के करियर के चुनाव में इनकी माता का भी कुछ योगदान था क्योंकि वे हमेशा इस बात पर भी जोर देती थी कि उन्हें सेंटर स्टेज को अपना करियर बनाना चाहिए। बच्चन के पिता का देहांत २००३ में हो गया था जबकि उनकी माता की मृत्यु २१ दिसंबर २००७ को हुई थीं। बच्चन ने दो बार एम. ए. की उपाधि ग्रहण की है। मास्टर ऑफ आर्ट्स (स्नातकोत्तर) इन्होंने इलाहाबाद के ज्ञान प्रबोधिनी और बॉयज़ हाई स्कूल (बीएचएस) तथा उसके बाद नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में पढ़ाई की जहाँ कला संकाय में प्रवेश दिलाया गया। अमिताभ बाद में अध्ययन करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज चले गए जहां इन्होंने विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपनी आयु के २० के दशक में बच्चन ने अभिनय में अपना कैरियर आजमाने के लिए कोलकता की एक शिपिंग फर्म बर्ड एंड कंपनी में किराया ब्रोकर की नौकरी छोड़ दी। ३ जून, १९७३ को इन्होंने बंगाली संस्कार के अनुसार अभिनेत्री जया भादुड़ी से विवाह कर लिया। इस दंपती को दो बच्चों: बेटी श्वेता और पुत्र अभिषेक पैदा हुए। कैरियर आरंभिक कार्य 1969 -1972 अमिताभ ने फ़िल्मों में अपने कैरियर की शुरुआत ख्वाज़ा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी फिल्म सात हिन्दुस्तानी के सात कलाकारों में एक कलाकार के रूप में की, उत्पल दत्त, मधु और जलाल आगा जैसे कलाकारों के साथ अभिनय कर के। फ़िल्म ने वित्तीय सफ़लता प्राप्त नहीं की पर बच्चन ने अपनी पहली फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक का पुरूस्कार जीता।इस सफल व्यावसायिक और समीक्षित फ़िल्म के बाद उनकी एक और आनंद (१९७१) नामक फ़िल्म आई जिसमें उन्होंने उस समय के लोकप्रिय कलाकार राजेश खन्ना के साथ काम किया। डॉ॰ भास्कर बनर्जी की भूमिका करने वाले बच्चन ने कैंसर के एक रोगी का उपचार किया जिसमें उनके पास जीवन के प्रति वेबकूफी और देश की वास्तविकता के प्रति उसके दृष्टिकोण के कारण उसे अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद अमिताभ ने (१९७१) में बनी परवाना में एक मायूस प्रेमी की भूमिका निभाई जिसमें इसके साथी कलाकारों में नवीन निश्चल, योगिता बाली और ओम प्रकाश थे और इन्हें खलनायक के रूप में फ़िल्माना अपने आप में बहुत कम देखने को मिलने जैसी भूमिका थी। इसके बाद उनकी कई फ़िल्में आई जो बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं हो पाई जिनमें रेशमा और शेरा भी शामिल थी और उन दिनों इन्होंने गुड्डी फ़िल्म में मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई थी। इनके साथ इनकी पत्नी जया भादुड़ी के साथ धर्मेन्द्र भी थे। अपनी जबरदस्त आवाज के लिए जाने जाने वाले अमिताभ बच्चन ने अपने कैरियर के प्रारंभ में ही उन्होंने बावर्ची फ़िल्म के कुछ भाग का बाद में वर्णन किया। १९७२ में निर्देशित एस. रामनाथन द्वारा निर्देशित कॉमेडी फ़िल्म बॉम्बे टू गोवा में भूमिका निभाई। इन्होंने अरुणा ईरानी, महमूद, अनवर अली और नासिर हुसैन जैसे कलाकारों के साथ कार्य किया है। अपने संघर्ष के दिनों में वे ७ (सात) वर्ष की लंबी अवधि तक अभिनेता, निर्देशक एवं हास्य अभिनय के बादशाह महमूद साहब के घर में रूके रहे। स्टारडम की ओर उत्थान 1973 -1983 १९७३ में जब प्रकाश मेहरा ने इन्हें अपनी फ़िल्म ज़ंजीर (१९७३) में इंस्पेक्टर विजय खन्ना की भूमिका के रूप में अवसर दिया तो यहीं से इनके कैरियर में प्रगति का नया मोड़ आया। यह फ़िल्म इससे पूर्व के रोमांस भरे सार के प्रति कटाक्ष था जिसने अमिताभ बच्चन को एक नई भूमिका एंग्री यंगमैन में देखा जो बॉलीवुड के एक्शन हीरो बन गए थे, यही वह प्रतिष्‍ठा थी जिसे बाद में इन्हें अपनी फ़िल्मों में हासिल करते हुए उसका अनुसरण करना था। बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने वाले एक जबरदस्त अभिनेता के रूप में यह उनकी पहली फ़िल्म थी, जिसने उन्हें सर्वश्रेष्‍ठ पुरूष कलाकार फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए मनोनीत करवाया। १९७३ ही वह साल था जब इन्होंने ३ जून को जया से विवाह किया और इसी समय ये दोनों न केवल जंजीर में बल्कि एक साथ कई फ़िल्मों में दिखाई दिए जैसे अभिमान जो इनकी शादी के केवल एक मास बाद ही रिलीज़ हो गई थी। बाद में हृषिकेश मुखर्जी के निदेर्शन तथा बीरेश चटर्जी द्वारा लिखित नमक हराम फ़िल्म में विक्रम की भूमिका मिली जिसमें दोस्ती के सार को प्रदर्शित किया गया था। राजेश खन्ना और रेखा के विपरीत इनकी सहायक भूमिका में इन्हें बेहद सराहा गया और इन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। १९७४ की सबसे बड़ी फ़िल्म रोटी कपड़ा और मकान में सहायक कलाकार की भूमिका करने के बाद बच्चन ने बहुत सी फ़िल्मों में कई बार मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई जैसे कुँवारा बाप और दोस्त। मनोज कुमार द्वारा निदेशित और लिखित फ़िल्म जिसमें दमन और वित्तीय एवं भावनात्मक संघर्षों के समक्ष भी ईमानदारी का चित्रण किया गया था, वास्तव में आलोचकों एवं व्यापार की दृष्टि से एक सफल फ़िल्म थी और इसमें सह कलाकार की भूमिका में अमिताभ के साथी के रूप में मनोज कुमार स्वयं और शशि कपूर एवं जीनत अमान थीं। बच्चन ने ६ दिसंबर १९७४ की बॉलीवुड की फ़िल्में|१९७४ को रिलीज़ मजबूर फ़िल्म में अग्रणी भूमिका निभाई यह फ़िल्म हालीवुड फ़िल्म जिगजेग की नकल कर बनाई थी जिसमें जॉर्ज कैनेडी अभिनेता थे, किंतु बॉक्स ऑफिस पर यह कुछ खास नहीं कर सकी और १९७५ में इन्होंने हास्य फ़िल्म चुपके चुपके, से लेकर अपराध पर बनी फ़िल्म फ़रार और रोमांस फ़िल्म मिली में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। तथापि, १९७५ का वर्ष ऐसा वर्ष था जिसमें इन्होंने दो फ़िल्मों में भूमिकाएं की और जिन्हें हिंदी सिनेमा जगत में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इन्होंने यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फ़िल्म दीवार में मुख्‍य कलाकार की भूमिका की जिसमें इनके साथ शशि कपूर, निरूपा रॉय और नीतू सिंह थीं और इस फ़िल्म ने इन्हें सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाया। १९७५ में यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रहकर चौथे स्थान पर रही और इंडियाटाइम्स की मूवियों में बॉलीवुड की हर हाल में देखने योग्य शीर्ष २५ फिल्मों में भी नाम आया। १५ अगस्त, १९७५ को रिलीज़ शोले है और भारत में किसी भी समय की सबसे ज्यादा आय अर्जित करने वाली फिल्‍म बन गई है जिसने २,३६,४५,००,००० रू० कमाए जो मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद ६० मिलियन अमरीकी डालर के बराबर हैं। बच्चन ने इंडस्ट्री के कुछ शीर्ष के कलाकारों जैसे धर्मेन्‍द्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार, जया बच्चन और अमज़द ख़ान के साथ जयदेव की भूमिका अदा की थी। १९९९ में बीबीसी इंडिया ने इस फ़िल्म को शताब्दी की फ़िल्म का नाम दिया और दीवार की तरह इसे इंडियाटाइम्‍ज़ मूवियों में बालीवुड की शीर्ष २५ फिल्‍मों में शामिल किया। उसी साल ५० वें वार्षिक फिल्म फेयर पुरस्कार के निर्णायकों ने एक विशेष पुरस्कार दिया जिसका नाम ५० सालों की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म फिल्मफेयर पुरूस्कार था। बॉक्स ऑफिस पर शोले जैसी फ़िल्मों की जबरदस्त सफलता के बाद बच्चन ने अब तक अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया था और १९७६ से १९८४ तक उन्हें अनेक सर्वश्रेष्ठ कलाकार वाले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और अन्य पुरस्कार एवं ख्याति मिली। हालांकि शोले जैसी फ़िल्मों ने बालीवुड में उसके लिए पहले से ही महान एक्शन नायक का दर्जा पक्का कर दिया था, फिर भी बच्चन ने बताया कि वे दूसरी भूमिकाओं में भी स्वयं को ढाल लेते हैं और रोमांस फ़िल्मों में भी अग्रणी भूमिका कर लेते हैं जैसे कभी कभी (१९७६) और कामेडी फ़िल्मों जैसे अमर अकबर एन्थनी (१९७७) और इससे पहले भी चुपके चुपके (१९७५) में काम कर चुके हैं। १९७६ में इन्हें यश चोपड़ा ने अपनी दूसरी फ़िल्म कभी कभी में साइन कर लिया यह और एक रोमांस की फ़िल्म थी, जिसमें बच्चन ने एक अमित मल्‍होत्रा के नाम वाले युवा कवि की भूमिका निभाई थी जिसे राखी गुलजार द्वारा निभाई गई पूजा नामक एक युवा लड़की से प्रेम हो जाता है। इस बातचीत के भावनात्मक जोश और कोमलता के विषय अमिताभ की कुछ पहले की एक्शन फ़िल्मों तथा जिन्हें वे बाद में करने वाले थे की तुलना में प्रत्यक्ष कटाक्ष किया। इस फिल्‍म ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किया और बॉक्स ऑफिस पर यह एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में इन्होंने अमर अकबर एन्थनी में अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म में इन्होंने विनोद खन्ना और ऋषि कपूर के साथ एनथॉनी गॉन्सॉलनेज़ के नाम से तीसरी अग्रणी भूमिका की थी। १९७८ संभवत: इनके जीवन का सर्वाधिक प्रशंसनीय वर्ष रहा और भारत में उस समय की सबसे अधिक आय अर्जित करने वाली चार फ़िल्मों में इन्होंने स्टार कलाकार की भूमिका निभाई। इन्‍होंने एक बार फिर कस्मे वादे जैसी फ़िल्मों में अमित और शंकर तथा डॉन में अंडरवर्ल्ड गैंग और उसके हमशक्ल विजय के रूप में दोहरी भूमिका निभाई.इनके अभिनय ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाए और इनके आलोचकों ने त्रिशूल और मुकद्दर का सिकन्दर जैसी फ़िल्मों में इनके अभिनय की प्रशंसा की तथा इन दोनों फ़िल्मों के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। इस पड़ाव पर इस अप्रत्याशित दौड़ और सफलता के नाते इनके कैरियर में इन्हें फ्रेन्‍काइज ट्रूफोट नामक निर्देशक द्वारा वन मेन इंडस्ट्री का नाम दिया। १९७९ में पहली बार अमिताभ को मि० नटवरलाल नामक फ़िल्म के लिए अपनी सहयोगी कलाकार रेखा के साथ काम करते हुए गीत गाने के लिए अपनी आवाज का उपयोग करना पड़ा। फ़िल्म में उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पुरुष पार्श्‍वगायक का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार मिला। १९७९ में इन्हें काला पत्थर (१९७९) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया और इसके बाद १९८० में राजखोसला द्वारा निर्देशित फ़िल्म दोस्ताना में दोबारा नामित किया गया जिसमें इनके सह कलाकार शत्रुघन सिन्हा और जीनत अमान थीं। दोस्ताना वर्ष १९८० की शीर्ष फ़िल्म साबित हुई। १९८१ में इन्होंने यश चोपड़ा की नाटकीयता फ़िल्म सिलसिला में काम किया, जिसमें इनकी सह कलाकार के रूप में इनकी पत्नी जया और अफ़वाहों में इनकी प्रेमिका रेखा थीं। इस युग की दूसरी फ़िल्मों में राम बलराम (१९८०), शान (१९८०), लावारिस (१९८१) और शक्ति (१९८२) जैसी फिल्‍में शामिल थीं, जिन्‍होंने दिलीप कुमार जैसे अभिनेता से इनकी तुलना की जाने लगी थी। 1982 के दौरान कुली की शूटिंग के दौरान चोट १९८२ में कुली फ़िल्म में बच्चन ने अपने सह कलाकार पुनीत इस्सर के साथ एक फाइट की शूटिंग के दौरान अपनी आंतों को लगभग घायल कर लिया था। बच्चन ने इस फ़िल्म में स्टंट अपनी मर्जी से करने की छूट ले ली थी जिसके एक सीन में इन्हें मेज पर गिरना था और उसके बाद जमीन पर गिरना था। हालांकि जैसे ही ये मेज की ओर कूदे तब मेज का कोना इनके पेट से टकराया जिससे इनके आंतों को चोट पहुंची और इनके शरीर से काफी खून बह निकला था। इन्हें जहाज से फोरन स्पलेनक्टोमी के उपचार हेतु अस्पताल ले जाया गया और वहां ये कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहे और कई बार मौत के मुंह में जाते जाते बचे। यह अफ़वाह भी फैल भी गई थी, कि वे एक दुर्घटना में मर गए हैं और संपूर्ण देश में इनके चाहने वालों की भारी भीड इनकी रक्षा के लिए दुआएं करने में जुट गयी थी। इस दुर्घटना की खबर दूर दूर तक फैल गई और यूके के अखबारों की सुर्खियों में छपने लगी जिसके बारे में कभी किसने सुना भी नहीं होगा। बहुत से भारतीयों ने मंदिरों में पूजा अर्चनाएं की और इन्हें बचाने के लिए अपने अंग अर्पण किए और बाद में जहां इनका उपचार किया जा रहा था उस अस्पताल के बाहर इनके चाहने वालों की मीलों लंबी कतारें दिखाई देती थी। तिसपर भी इन्होंने ठीक होने में कई महीने ले लिए और उस साल के अंत में एक लंबे अरसे के बाद पुन: काम करना आरंभ किया। यह फ़िल्म १९८३ में रिलीज़ हुई और आंशिक तौर पर बच्चन की दुर्घटना के असीम प्रचार के कारण बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। निर्देशक मनमोहन देसाई ने कुली फ़िल्म में बच्चन की दुर्घटना के बाद फ़िल्म के कहानी का अंत बदल दिया था। इस फ़िल्म में बच्चन के चरित्र को वास्तव में मृत्यु प्राप्त होनी थी लेकिन बाद में स्क्रिप्‍ट में परिवर्तन करने के बाद उसे अंत में जीवित दिखाया गया। देसाई ने इनके बारे में कहा था कि ऐसे आदमी के लिए यह कहना बिल्‍कुल अनुपयुक्त होगा कि जो असली जीवन में मौत से लड़कर जीता हो उसे परदे पर मौत अपना ग्रास बना ले। इस रिलीज़ फ़िल्म में पहले सीन के अंत को जटिल मोड़ पर रोक दिया गया था और उसके नीचे एक केप्‍शन प्रकट होने लगा जिसमें अभिनेता के घायल होने की बात लिखी गई थी और इसमें दुर्घटना के प्रचार को सुनिश्चित किया गया था। बाद में ये मियासथीनिया ग्रेविस में उलझ गए जो या कुली में दुर्घटना के चलते या तो भारीमात्रा में दवाई लेने से हुआ या इन्हें जो बाहर से अतिरिक्त रक्त दिया गया था इसके कारण हुआ। उनकी बीमारी ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कमजोर महसूस करने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने फ़िल्मों में काम करने से सदा के लिए छुट्टी लेने और राजनीति में शामिल होने का निर्णन किया। यही वह समय था जब उनके मन में फ़िल्म कैरियर के संबंध में निराशावादी विचारधारा का जन्म हुआ और प्रत्येक शुक्रवार को रिलीज़ होने वाली नई फ़िल्म के प्रत्युत्तर के बारे में चिंतित रहते थे। प्रत्येक रिलीज़ से पहले वह नकारात्मक रवैये में जवाब देते थे कि यह फिल्म तो फ्लाप होगी।. राजनीति : 1984-1987 १९८४ में अमिताभ ने अभिनय से कुछ समय के लिए विश्राम ले लिया और अपने पुराने मित्र राजीव गांधी की सपोर्ट में राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने इलाहाबाद लोक सभा सीट से उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को इन्होंने आम चुनाव के इतिहास में (६८.२ %) के मार्जिन से विजय दर्ज करते हुए चुनाव में हराया था। हालांकि इनका राजनीतिक कैरियर कुछ अवधि के लिए ही था, जिसके तीन साल बाद इन्होंने अपनी राजनीतिक अवधि को पूरा किए बिना त्याग दिया। इस त्यागपत्र के पीछे इनके भाई का बोफोर्स विवाद में अखबार में नाम आना था, जिसके लिए इन्हें अदालत में जाना पड़ा। इस मामले में बच्चन को दोषी नहीं पाया गया। उनके पुराने मित्र अमरसिंह ने इनकी कंपनी एबीसीएल के फेल हो जाने के कारण आर्थिक संकट के समय इनकी मदद कीं। इसके बाद बच्चन ने अमरसिंह की राजनीतिक पाटी समाजवादी पार्टी को सहयोग देना शुरू कर दिया। जया बच्चन ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली और राज्यसभा की सदस्या बन गई। बच्चन ने समाजवादी पार्टी के लिए अपना समर्थन देना जारी रखा जिसमें राजनीतिक अभियान अर्थात् प्रचार प्रसार करना शामिल था। इनकी इन गतिविधियों ने एक बार फिर मुसीबत में डाल दिया और इन्हें झूठे दावों के सिलसिलों में कि वे एक किसान हैं के संबंध में कानूनी कागजात जमा करने के लिए अदालत जाना पड़ा I बहुत कम लोग ऐसे हैं जो ये जानते हैं कि स्‍वयंभू प्रैस ने अमिताभ बच्‍चन पर प्रतिबंध लगा दिया था। स्टारडस्ट और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने मिलकर एक संघ बनाया, जिसमें अमिताभ के शीर्ष पर रहते समय १५ वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। इन्होंने अपने प्रकाशनों में अमिताभ के बारे में कुछ भी न छापने का निर्णय लिया। १९८९ के अंत तक बच्चन ने उनके सेटों पर प्रेस के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन, वे किसी विशेष पत्रिका के खिलाफ़ नहीं थे। ऐसा कहा गया है कि बच्चन ने कुछ पत्रिकाओं को प्रतिबंधित कर रखा था क्योंकि उनके बारे में इनमें जो कुछ प्रकाशित होता रहता था उसे वे पसंद नहीं करते थे और इसी के चलते एक बार उन्हें इसका अनुपालन करने के लिए अपने विशेषाधिकार का भी प्रयोग करना पड़ा। मंदी के कारण और सेवानिवृत्ति : 1988 -1992 १९८८ में बच्चन फ़िल्मों में तीन साल की छोटी सी राजनीतिक अवधि के बाद वापस लौट आए और शहंशाह में शीर्षक भूमिका की जो बच्चन की वापसी के चलते बॉक्स आफिस पर सफल रही। इस वापसी वाली फिल्म के बाद इनकी स्टार पावर क्षीण होती चली गई क्योंकि इनकी आने वाली सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल होती रहीं। १९९१ की हिट फिल्म हम से ऐसा लगा कि यह वर्तमान प्रवृति को बदल देगी किंतु इनकी बॉक्स आफिस पर लगातार असफलता के चलते सफलता का यह क्रम कुछ पल का ही था। उल्लेखनीय है कि हिट की कमी के बावजूद यह वह समय था जब अमिताभ बच्चन ने १९९० की फिल्‍म अग्निपथ में माफिया डॉन की यादगार भूमिका के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, जीते। ऐसा लगता था कि अब ये वर्ष इनके अंतिम वर्ष होंगे क्योंकि अब इन्हें केवल कुछ समय के लिए ही परदे पर देखा जा सकेगा I१९९२ में ख़ुदागवाह के रिलीज़ होने के बाद बच्चन ने अगले पांच वर्षों के लिए अपने आधे रिटायरमेंट की ओर चले गए। १९९४ में इनके देर से रिलीज़ होने वाली कुछ फिल्मों में से एक फिल्म इन्सान्यित रिलीज़ तो हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। निर्माता और अभिनय की वापसी 1996 -1999 अस्थायी सेवानिवृत्ति की अवधि के दौरान बच्चन निर्माता बने और अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की स्थापना की। ए;बी;सी;एल;) १९९६ में वर्ष २००० तक १० बिलियन रूपए (लगभग २५० मिलियन अमरीकी डॉलर) वाली मनोरंजन की एक प्रमुख कंपनी बनने का सपना देखा। एबीसीएल की रणनीति में भारत के मनोरंजन उद्योग के सभी वर्गों के लिए उत्पाद एवं सेवाएं प्रचलित करना था। इसके ऑपरेशन में मुख्य धारा की व्यावसायिक फ़िल्म उत्पादन और वितरण, ऑडियो और वीडियो कैसेट डिस्क, उत्पादन और विपणन के टेलीविजन सॉफ्टवेयर, हस्ती और इवेन्ट प्रबंधन शामिल था। १९९६ में कंपनी के आरंभ होने के तुरंत बाद कंपनी द्वारा उत्पादित पहली फिल्म तेरे मेरे सपने थी जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही लेकिन अरशद वारसी दक्षिण और फिल्मों के सुपर स्टार सिमरन जैसे अभिनेताओं के करियर के लिए द्वार खोल दिए। एबीसीएल ने कुछ फिल्में बनाई लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म कमाल नहीं दिखा सकी। १९९७ में, एबीसीएल द्वारा निर्मित मृत्युदाता, फिल्म से बच्चन ने अपने अभिनय में वापसी का प्रयास किया। यद्यपि मृत्युदाता ने बच्चन की पूर्व एक्शन हीरो वाली छवि को वापस लाने की कोशिश की लेकिन एबीसीएल के उपक्रम, वाली फिल्म थी और विफलता दोनों के आर्थिक रूप से गंभीर है। एबीसीएल १९९७ में बंगलौर में आयोजित १९९६ की मिस वर्ल्ड सौंदर्य प्रतियोगिता, का प्रमुख प्रायोजक था और इसके खराब प्रबंधन के कारण इसे करोड़ों रूपए का नुकसान उठाना पड़ा था। इस घटनाक्रम और एबीसीएल के चारों ओर कानूनी लड़ाइयों और इस कार्यक्रम के विभिन्न गठबंधनों के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्रकट हुआ कि एबीसीएल ने अपने अधिकांश उच्च स्तरीय प्रबंधकों को जरूरत से ज्यादा भुगतान किया है जिसके कारण वर्ष १९९७ में वह वित्तीय और क्रियाशील दोनों तरीके से ध्वस्त हो गई। कंपनी प्रशासन के हाथों में चली गई और बाद में इसे भारतीय उद्योग मंडल द्वारा असफल करार दे दिया गया। अप्रेल १९९९ में मुबंई उच्च न्यायालय ने बच्चन को अपने मुंबई वाले बंगला प्रतीक्षा और दो फ्लैटों को बेचने पर तब तक रोक लगा दी जब तक कैनरा बैंक की राशि के लौटाए जाने वाले मुकदमे का फैसला न हो जाए। बच्चन ने हालांकि दलील दी कि उन्होंने अपना बंग्ला सहारा इंडिया फाइनेंस के पास अपनी कंपनी के लिए कोष बढाने के लिए गिरवी रख दिया है। बाद में बच्चन ने अपने अभिनय के कैरियर को संवारने का प्रयास किया जिसमें उसे बड़े मियाँ छोटे मियाँ (१९९८) से औसत सफलता मिली और सूर्यावंशम (१९९९), से सकारात्मक समीक्षा प्राप्त हुई लेकिन तथापि मान लिया गया कि बच्चन की महिमा के दिन अब समाप्त हुए चूंकि उनके बाकी सभी फिल्में जैसे लाल बादशाह (१९९९) और हिंदुस्तान की कसम (१९९९) बॉक्स ऑफिस पर विफल रही हैं। टेलीविजन कैरियर वर्ष २००० में, अमिताभ बच्चन ने ब्रिटिश टेलीविजन शो के खेल, हू वाण्टस टु बी ए मिलियनेयर को भारत में अनुकूलन हेतु कदम बढाया। शीर्ष‍क कौन बनेगा करोड़पति, जैसा कि यह अधिकांशत: अन्य देशों में चला था, कार्यक्रम को तत्काल और गहरी सफलता मिली जिसमें बच्चन के करिश्मे का भी छोटे रूप में योगदान था। यह माना जाता है कि बच्चन ने इस कार्यक्रम के संचालन के लिए साप्ताहिक प्रकरण के लिए अत्यधिक २५ लाख रुपए (२,५ लाख रुपए भारतीय, अमेरिकी डॉलर लगभग ६००००) लिए थे, जिसके कारण बच्चन और उनके परिवार को नैतिक और आर्थिक दोनों रूप से बल मिला। इससे पहले एबीसीएल के बुरी तरह असफल हो जाने से अमिताभ को गहरे झटके लगे थे। नवंबर २००० में केनरा बैंक ने भी इनके खिलाफ अपने मुकदमे को वापस ले लिया। बच्चन ने केबीसी का आयोजन नवंबर २००५ तक किया और इसकी सफलता ने फिल्म की लोकप्रियता के प्रति इनके द्वार फिर से खोल दिए।। सत्ता में वापस लौटे: 2000 - वर्तमान मोहब्बतें (२०००) फ़िल्म में स्क्रीन के सामने शाहरुख खान के साथ सह कलाकार के रूप में वापस लौट आए। सन् २००० में अमिताभ बच्चन जब आदित्य चोपड़ा, द्वारा निर्देशित यश चोपड़ा' की बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट फ़िल्म मोहब्बतें में भारत की वर्तमान घड़कन शाहरुख खान.के चरित्र में एक कठोर की भूमिका की तब इन्हें अपना खोया हुआ सम्मान पुन: प्राप्त हुआ। दर्शक ने बच्चन के काम की सराहना की है, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे चरित्र की भूमिका निभाई, जिसकी उम्र उनकी स्वयं की उम्र जितनी थी और अपने पूर्व के एंग्री यंगमैन वाली छवि (जो अब नहीं है) के युवा व्यक्ति से मिलती जुलती भूमिका थी। इनकी अन्य सफल फ़िल्मों में बच्चन के साथ एक बड़े परिवार के पितृपुरुष के रूप में प्रदर्शित होने में एक रिश्ता:द बॉन्ड ओफ लव (२००१), कभी ख़ुशी कभी ग़म (२००१) और बागबान (२००३) हैं। एक अभिनेता के रूप में इन्होंने अपनी प्रोफाइल के साथ मेल खाने वाले चरित्रों की भूमिकाएं करनी जारी रखीं तथा अक्स (२००१), आंखें (२००२), खाकी (२००४), देव (२००४) और ब्लैक (२००५) जैसी फ़िल्मों के लिए इन्हें अपने आलोचकों की प्रशंसा भी प्राप्त हुई। इस पुनरुत्थान का लाभ उठाकर, अमिताभ ने बहुत से टेलीविज़न और बिलबोर्ड विज्ञापनों में उपस्थिति देकर विभिन्न किस्मों के उत्पाद एवं सेवाओं के प्रचार के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया। २००५ और २००६ में उन्होंने अपने बेटे अभिषेक के साथ बंटी और बबली (२००५), द गॉडफ़ादर श्रद्धांजलि सरकार (२००५), और कभी अलविदा ना कहना (२००६) जैसी हिट फ़िल्मों में स्टार कलाकार की भूमिका की। ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर अत्यधिक सफल रहीं। २००६ और २००७ के शुरू में रिलीज़ उनकी फ़िल्मों में बाबुल (२००६), औरएकलव्य , निशब्द|निःशब्द (२००७) बॉक्स ऑफिस पर असफल रहीं किंतु इनमें से प्रत्येक में अपने प्रदर्शन के लिए आलोचकों से सराहना मिली। इन्होंने चंद्रशेखर नागाथाहल्ली द्वारा निर्देशित कन्नड फ़िल्म अमृतधारा में मेहमान कलाकार की भूमिका की है। मई २००७ में, इनकी दो फ़िल्मों में से एक चीनी कम और बहु अभिनीत शूटआउट एट लोखंडवाला रिलीज़ हुईशूटआउट एट लोखंडवाला बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छी रही और भारत में इसे हिट घोषित किया गया और चीनी कम ने धीमी गति से आरंभ होते हुए कुल मिलाकर औसत हिट का दर्जा पाया। अगस्त २००७ में, (१९७५) की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म शोले की रीमेक बनाई गई और उसे राम गोपाल वर्मा की आग शीर्षक से जारी किया गया। इसमें इन्होंने बब्बन सिंह (मूल गब्बर सिंह के नाम से खलनायक की भूमिका अदा की जिसे स्वर्गीय अभिनेता अमजद ख़ान द्वारा १९७५ में मूल रूप से निभाया था। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद नाकाम रही और आलोचना करने वालो ने भी इसकी कठोर निंदा की। उनकी पहली अंग्रेजी भाषा की फ़िल्म रितुपर्णा घोष द लास्ट ईयर का वर्ष २००७ में टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ९ सितंबर, २००७ को प्रीमियर लांच किया गया। इन्हें अपने आलोचकों से सकारात्मक समीक्षाएं मिली हैं जिन्होंने स्वागत के रूप में ब्लेक. में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद से अब तक सराहना की है। बच्चन शांताराम नामक शीर्षक वाली एवं मीरा नायर द्वारा निर्देशित फ़िल्म में सहायक कलाकार की भूमिका करने जा रहे हैं जिसके सितारे हॉलीवुड अभिनेता जॉनी डेप हैं। इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन फरवरी २००८ में शुरू होना था, लेकिन लेखक की हड़ताल की वजह से, इस फ़िल्म को सितम्बर २००८ में फ़िल्मांकन हेतु टाल दिया गया। ९ मई २००८, भूतनाथ (फिल्म) फ़िल्म में इन्होंने भूत के रूप में शीर्षक भूमिका की जिसे रिलीज़ किया गया। जून २००८ में रिलीज़ हुई उनकी नवीनतम फ़िल्म सरकार राज जो उनकी वर्ष २००५ में बनी फ़िल्म सरकार का परिणाम है। स्वास्थ्य 2005अस्पताल में भर्ती नवंबर 2005 में, अमिताभ बच्चन को एक बार फिर लीलावती अस्पताल की आईसीयू में विपटीशोथ के छोटी आँत की सर्जरी लिए भर्ती किया गया। उनके पेट में दर्द की शिकायत के कुछ दिन बाद ही ऐसा हुआ। इस अवधि के दौरान और ठीक होने के बाद उसकी ज्यादातर परियोजनाओं को रोक दिया गया जिसमें कौन बनेगा करोड़पति का संचालन करने की प्रक्रिया भी शामिल थी। भारत भी मानो मूक बना हुआ यथावत जैसा दिखाई देने लगा था और इनके चाहने वालों एवं प्रार्थनाओं के बाद देखने के लिए एक के बाद एक, हस्ती देखने के लिए आती थीं। इस घटना के समाचार संतृप्त कवरेज भर अखबारों और टीवी समाचार चैनल में फैल गए। अमिताभ मार्च २००६ में काम करने के लिए वापस लौट आए। आवाज बच्चन अपनी जबरदस्त आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत से कार्यक्रमों में एक वक्ता, पार्श्वगायक और प्रस्तोता रह चुके हैं। बच्चन की आवाज से प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी में इनकी आवाज़ का उपयोग कमेंटरी के लिए करने का निर्णय ले लिया क्योंकि उन्हें इनके लिए कोई उपयुक्त भूमिका नहीं मिला था। फ़िल्म उद्योग में प्रवेश करने से पहले, बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में समाचार उद्घोषक, नामक पद हेतु नौकरी के लिए आवेदन किया जिसके लिए इन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था। विवाद और आलोचना बाराबंकी भूमि प्रकरण के लिए भागदौड़ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, २००७, अमिताभ बच्चन ने एक फ़िल्म बनाई जिसमें मुलायम सिंह सरकार के गुणगाणों का बखान किया गया था। उसका समाजवादी पार्टी मार्ग था और मायावती सत्ता में आई। २ जून, २००७, फैजाबाद अदालत ने इन्हें आदेश दिया कि इन्होंने भूमिहीन दलित किसानों के लिए विशेष रूप से आरक्षित भूमि को अवैध रूप से अधिग्रहीत किया है। जालसाजी से संबंधित आरोंपों के लिए इनकी जांच की जा सकती है। जैसा कि उन्होंने दावा किया कि उन्हें कथित तौर पर एक किसान माना जाए यदि वह कहीं भी कृषिभूमि के स्वामी के लिए उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं तब इन्हें 20 एकड़ फार्महाउस की भूमि को खोना पड़ सकता है जो उन्होंने मावल पुणे. के निकट खरीदी थी। १९ जुलाई २००७ के बाद घेटाला खुलने के बाद बच्चन ने बाराबंकी उत्तर प्रदेश और पुणे में अधिग्रहण की गई भूमि को छोड़ दिया। उन्होंने महाराष्ट्र, के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को उनके तथा उनके पुत्र अभिषेक बच्चन द्वारा पुणे में अवैध रूप से अधिग्रहण भूमि को दान करने के लिए पत्र लिखा। हालाँकि, लखनऊ की अदालत ने भूमि दान पर रोक लगा दी और कहा कि इस भूमि को पूर्व स्थिति में ही रहने दिया जाए। १२ अक्टूबर २००७ को, बच्चने ने बाराबंकी जिले के दौलतपुर गांव की इस भूमि के दावे को छोड़ दिया। ११ दिसम्बर २००७ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनव खंडपीठ ने बाराबंकी जिले में इन्हें अवैध रूप से जमीन आंवटित करने के मामले में हरी झंडी दे दी। बच्चन को हरी झंडी देते हुए लखनऊ की एकल खंडपीठ के न्यायाधीश ने कहा कि ऐसे कोई सबूत नहीं मिले हैं जिनसे प्रमाणित हो कि अभिनेता ने राजस्व अभिलेखोंअमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश में हो जमीन घोटाला -- AllBollywood.com में हरी झंडी मिली। में स्वयं के द्वारा कोई हेराफेरी अथवा फेरबदल किया हो। बाराबंकी मामले में अपने पक्ष में सकारात्मक फैसला सुनने के बाद बच्चन ने महाराष्ट्र सरकार को सूचित किया कि पुणे जिले की मारवल तहसील में वे अपनी जमीन का आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं। राज ठाकरे की आलोचना जनवरी 2008 में राजनीतिक रैलियों पर, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन को अपना निशाना बनाते हुए कहा कि ये अभिनेता महाराष्ट्र की तुलना में अपनी मातृभूमि के प्रति अधिक रूचि रखते हैं। उन्होंने अपनी बहू अभीनेत्री एश्वर्या राय बच्चन के नाम पर लड़कियों का एक विद्यालय महाराष्‍ट्र के बजाय उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में उद्घाटन के लिए अपनी नामंजूरी दी.मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अमिताभ के लिए राज की आलोचना, जिसकी वह प्रशंसा करते हैं, अमिताभ के पुत्र अभिषेक का ऐश्वर्या के साथ हुए विवाह में आमंत्रित न किए जाने के कारण उत्पन्न हुई जबकि उनसे अलग रह रहे चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव को आमंत्रित किया गया था। राज के आरोपों के जवाब में, अभिनेता की पत्नी जया बच्चन जो सपा सांसद हैं ने कहा कि वे (बच्चन परिवार) मुंबई में एक स्कूल खोलने की इच्छा रखते हैं बशर्ते एमएनएस के नेता उन्हें इसका निर्माण करने के लिए भूमि दान करें.उन्होंने मीडिया से कहा, " मैंने सुना है कि राज ठाकरे के पास महाराष्ट्र में मुंबई में कोहिनूर मिल की बड़ी संपत्ति है। यदि वे भूमि दान देना चाहते हैं तब हम यहां ऐश्वर्या राय के नाम पर एक स्कूल चला चकते हैं। इसके आवजूद अमिताभ ने इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। बाल ठाकरे ने आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि अमिताभ बच्चन एक खुले दिमाग वाला व्यक्ति है और महाराष्ट्र के लिए उनके मन में विशेष प्रेम है जिन्हें कई अवसरों पर देखा जा चुका है।इस अभिनेता ने अक्सर कहा है कि महाराष्ट्र और खासतौर पर मुंबई ने उन्हें महान प्रसिद्धि और स्नेह दिया है। .उन्होंने यह भी कहा है कि वे आज जो कुछ भी हैं इसका श्रेय जनता द्वारा दिए गए प्रेम को जाता है। मुंबई के लोगों ने हमेशा उन्हें एक कलाकार के रूप में स्वीकार किया है। उनके खिलाफ़ इस प्रकार के संकीर्ण आरोप लगाना नितांत मूर्खता होगी। दुनिया भर में सुपर स्टार अमिताभ है। दुनिया भर के लोग उनका सम्मान करते हैं। इसे कोई भी नहीं भुला सकता है। अमिताभ को इन घटिया आरोपों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने अभिनय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।" कुछ रिपोर्टों के अनुसार अमिताभ की राज के द्वारा की गई गणना के अनुसार जिनकी उन्हें तारीफ करते हुए बताया जाता है, को बड़ी निराश हुई जब उन्हें अमिताभ के बेटे अभिषेक की ऐश्वर्या के साथ विवाह में आमंत्रित नहीं किया गया जबकि उनके रंजिशजदा चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव को आमंत्रित किया गया था। मार्च २३, २००८ को राज की टिप्पणियों के लगभग डेढ महीने बाद अमिताभ ने एक स्थानीय अखबार को साक्षात्कार देते हुए कह ही दिया कि, अकस्मात लगाए गए आरोप अकस्मात् ही लगते हैं और उन्हें ऐसे किसी विशेष ध्यान की जरूरत नहीं है जो आप मुझसे अपेक्षा रखते हैं। इसके बाद २८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म अकादमी के एक सम्मेलन में जब उनसे पूछा गया कि प्रवास विरोधी मुद्दे पर उनकी क्या राय है तब अमिताभ ने कहा कि यह देश में किसी भी स्थान पर रहने का एक मौलिक अधिकार है और संविधान ऐसा करने की अनुमति देता है। उन्होंने यह भी कहा था कि वे राज की टिप्पणियों से प्रभावित नहीं है। पनामा पेपर्स के बाद पैराडाइज़ पेपर्स में भी अमिताभ बच्चन का नाम, KBC-1 के बाद विदेशी कंपनी में लगाया था पैसा पुरस्कार, सम्मान और पहचान अमिताभ बच्चन को सन २००१ में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। 2002 - किशोर कुमार सम्मान 2019 – दादा साहब फाल्के अमिताभ बच्चन की फिल्में अभिनेता निर्माता तेरे मेरे सपने (2015) उलासाम (तमिल) (१९९७) मृत्युदाता (१९९७) मेजर साब (१९९८) अक्स(२००१) विरूद्ध (२००५) परिवार -- टायस ऑफ़ ब्लड (२००६) पार्श्व गायक द ग्रेट गैम्बलर मि० नटवरलाल लावारिस (१९८१) नसीब (१९८१) सिलसिला (१९८१) महान (१९८३) पुकार (१९८३) शराबी (१९८४) तूफान (१९८९) जादूगर (१९८९) खुदागवाह (१९९२) मेजर साब (१९९८) सूर्यवंशम (१९९९) अक्स (२००१) कभी ख़ुशी कभी ग़म (२००१) आंखें (२००२ फ़िल्म) (२००२) अरमान (२००३) बागबान (२००३) देव (२००४) एतबार (२००४) बाबुल (२००६) निशब्द (२००७) चीनी कम (२००७) भूतनाथ (२००८) इन्हें भी देखें अमिताभ बच्चन का परिवार- १. हरिवंश राय बच्चन (पिताजी) २. तेजी बच्चन (माता) ३. अभिषेक बच्चन (पुुत्र) ४. जया बच्चन (पत्नी) ५. श्वेता बच्चन (पुुुुुत्री) ६. आराध्या बच्चन (नात) ७. ऐश्वरया राय (पुुत्र वधू) ८. अजिताभ बच्चन बाहरी कड़ियाँ अमिताभ बच्चन अमिताभ बच्चन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी अमिताभ बच्चन के जीवन की कहानी सुनें तस्वीरों से... (दैनिक भास्कर) सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज 69 साल के हो गए (प्रवासी दुनिया) अमिताभ बच्चन हैं भारत रत्न के असली हकदार: ठाकरे (नवभारत टाइम्स) अमिताभ बच्चन जीवनी आवाज के जादू से राज कायम है अमिताभ का सन्दर्भ 1942 में जन्मे लोग जीवित लोग दादासाहेब फाल्के पुरस्कार विजेता पद्म विभूषण धारक २००१ पद्म भूषण फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता श्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार विजेता भारतीय फ़िल्म अभिनेता हिन्दी अभिनेता भारतीय पुरुष आवाज अभिनेताओं
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मधुशाला हिंदी के बहुत प्रसिद्ध कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन (1907-2003) का अनुपम काव्य है। इसमें एक सौ पैंतीस रूबाइयां (यानी चार पंक्तियों वाली कविताएं) हैं। मधुशाला बीसवीं सदी की शुरुआत के हिन्दी साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें सूफीवाद का दर्शन होता है। प्रसिद्धि मधुशाला पहलीबार सन 1935 में प्रकाशित हुई थी। कवि सम्मेलनों में मधुशाला की रूबाइयों के पाठ से हरिवंश राय बच्चन को काफी प्रसिद्धि मिली और मधुशाला खूब बिका। हर साल उसके दो-तीन संस्करण छपते गए। मधुशाला की हर रूबाई मधुशाला शब्द से समाप्त होती है। हरिवंश राय 'बच्चन' ने मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली), प्याला (कप या ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं के विश्लेषण का प्रयास किया है। मधुशाला जब पहली बार प्रकाशित हुई तो शराब की प्रशंसा के लिए कई लोगों ने उनकी आलोचना की। बच्चन की आत्मकथा के अनुसार, महात्मा गांधी ने मधुशाला का पाठ सुनकर कहा कि मधुशाला की आलोचना ठीक नहीं है। मधुशाला बच्चन की रचना-त्रय 'मधुबाला' और 'मधुकलश' का हिस्सा है जो उमर खैय्याम की रूबाइयां से प्रेरित है। उमर खैय्याम की रूबाइयां को हरिवंश राय बच्चन मधुशाला के प्रकाशन से पहले ही हिंदी में अनुवाद कर चुके थे। मधुशाला की रचना के कारण श्री बच्चन को " हालावाद का पुरोधा " भी कहा जाता है। मीडिया में मधुशाला बाद के दिनों में मधुशाला इतनी मशहूर हो गई कि जगह-जगह इसे नृत्य-नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया और मशहूर नृत्यकों ने इसे प्रस्तुत किया। मधुशाला की चुनिंदा रूबाइयों को मन्ना डे ने एलबम के रूप में प्रस्तुत किया। इस एलबम की पहली स्वयं बच्चन ने गायी। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन ने न्यूयार्क के लिंकन सेंटर सहित कई जगहों पर मधुशाला की रूबाइयों का पाठ किया। हरिवंश राय बच्चन ने हालावाद के परमूख कवि माने जाते हैं हखलावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन शुष्क विषयो को भी सरस ढग से प्रस्तुत करने में शिधस्त थे वे छायावाद युग के प्रख्यात कवि है हरिवंश राय बच्चन जैसे महान और उच्चकोटि की विचारधारा वाले कवि सदियों जन्म लेते हैं मधुशाला के कुछ पद्य मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।। १। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।। २। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।। ३। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।। ४। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।। ५। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ - 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६। चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! 'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।। ७। मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८। मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९। सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०। विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।। १३४। बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।। १३५। पठनीय मधुशाला, हरिवंशराय बच्चन, हिंदी में, हिंद पाकेट बुक, 1999. ISBN 81-216-0125-8. मधुशाला, हरिवंशराय बच्चन. पेंगुइन बुक्स, 1990. ISBN 0-14-012009-2. सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ मधुशाला (कविताकोश) मधुशाला (हिन्दी समय) मशुशाला (विकिस्रोत) मधुशाला का अपनापन (अशोक चक्रधर) हिन्दी साहित्य
1840
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6 जुलाई 1946 को जन्मे जॉर्ज वॉकर बुश अमरीका के 43वें राष्ट्रपति थे। उन्होंने अपना पदभार 20 जनवरी सन 2001 को ग्रहण किया था। 20 जनवरी, 2009 को उन्होंने डैमोक्रेटिक पार्टी के नव निर्वाचित बराक ओबामा को सत्ता सौंप दी। बुश को सन 2004 के राष्ट्रपति के चुनाव में चार वर्षों के लिये दोबारा चुन लिया गया था। राजनीति में प्रवेश करने से पहले श्री बुश एक व्यापारी थे। तेल और गैस का उत्पादन करने वाली कई कंपनियों से वे जुड़े रहे थे और 1989 से 1998 तक टेक्सस रेंजर्स बेसबाल क्लब के सह मालिकों में से एक थे। वे सन 1995 से सन 2000 तक टेक्सस राज्य के राज्यपाल भी रह चुके हैं। उनके परिवार के सभी सदस्य राजनीति में काफी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुये हैं। श्री बुश के पिता जॉर्ज हर्बट वॉकर बुश स्वयं अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं। श्री बुश के बड़े भाई जेब बुश फ्लोरिडा के वर्तमान राज्यपाल हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति 1946 में जन्मे लोग
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पंजाबी (गुरमुखी: ਪੰਜਾਬੀ ; शाहमुखी: پنجابی) एक हिंद-आर्यन भाषा है और ऐतिहासिक पंजाब क्षेत्र (अब भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित) के निवासियों तथा प्रवासियों द्वारा बोली जाती है। इसके बोलने वालों में सिख, मुसलमान और हिंदू सभी शामिल हैं। पाकिस्तान की १९९८ की जनगणना और २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार, भारत और पाकिस्तान में भाषा के कुल वक्ताओं की संख्या लगभग ९-१३ करोड़ है, जिसके अनुसार यह विश्व की ११वीं सबसे व्यापक भाषा है। कम से कम पिछले ३०० वर्षों से लिखित पंजाबी भाषा का मानक रूप, माझी बोली पर आधारित है, जो ऐतिहासिक माझा क्षेत्र की भाषा है। परिचय पंजाबी भाषा पंजाब की आधुनिक भारतीय आर्यभाषा है। ग्रियर्सन ने (लिंग्विस्टिक सर्वे भाग 1,8 तथा 9 में) पूर्वी पंजाबी को "पंजाबी" और पश्चिमी पंजाबी को "लहिंदा" कहा है। वास्तव में पूर्वी पंजाबी और पश्चिमी पंजाबी पंजाबी की दो उपभाषाएँ हैं जैसे पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी हिंदी की। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बन जाने के कारण दोनों भाषाओं का विकास इतनी भिन्न दिशाओं में हो रहा है कि इनके अलग अलग भाषाएँ हो जाने की संभावना है। पंजाबी की एक तीसरी उपभाषा "डोगरी" है जो जम्मू-कश्मीर के दक्षिण-पूर्वी प्रदेश और काँगड़ा के आसपास बोली जाती है। साहित्य में मध्यकाल में लहँदी का मुलतानी रूप और आधुनिक काल में अमृतसर और उसके आसपास प्रचलित पूर्वी पंजाबी का माझी रूप व्यवहृत होता रहा है। अमृतसर सिक्खों का प्रधान धार्मिक तीर्थ और केंद्र है। ईसाई मिशनरियों ने लुधियाना-पटियाला की मलवई बोली को टकसाली बनाने का प्रयत्न किया। उसका परिणाम इतना तो हुआ है कि मलवई का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है, किंतु आदर्श साहित्यिक भाषा के रूप में माझी ही सर्वमान्य रही है। पश्चिमी पंजाब की बोलियों में मुलतानी, डेरावाली, अवाणकारी और पोठोहारी, एव पूर्वी पंजाबी की बोलियों में पहाड़ी, माझी, दूआबी, पुआधी, मलवई और राठी प्रसिद्ध हैं। पश्चिमी पंजाबी और पूर्वी पंजाबी की सीमारेखा रावी नदी मानी गई है। "पंजाबी" नाम बहुत पुराना नहीं है। "पंजाब" असल में दो फ़ारसी शब्द "पंज" और "आब" का मेल है। "पंज" का मतलब "पांच" है और "आब" का मतलब "पानी" है। इस प्रदेश का प्राचीन नाम 'सप्तसिंधु' है। भाषा के लिए "पंजाबी" शब्द 1670 ई. में हाफिज़ बरखुदार (कवि) ने पहली बार प्रयुक्त किया; किंतु इसका साधारण नाम बाद में भी "हिंदी" या "हिंदवी" रहा है, यहाँ तक कि रणजीत सिंह का दरबारी कवि हाशिम महाराज के सामने अपनी भाषा (पंजाबी) को हिंदी कहता है। वस्तुत: 19वीं सदी के अंत तक हिंदू और सिक्खों की भाषा का झुकाव ब्रजभाषा की ओर रहा है। यह अवश्य है कि मुसलमान जो इस देश की किसी भी भाषा से परिचित नहीं थे, लोकभाषा और विशेषत: लहँदी का प्रयोग करते रहे हैं। मुसलमान कवियों की भाषा सदा अरबी-फारसी लहँदी-मिश्रित पंजाबी रही है। पिछले वर्षों में साहित्यिक पंजाबी ने नए मोड़ लिए हैं। 20वीं सदी के पूर्वार्ध में पंजाबी ने फारसी और अँगरेजी शब्दावली और प्रयोगों का ग्रहण किया, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हिंदी के राजभाषा हो जाने के कारण अब इसमें अधिकाधिक संस्कृत हिंदी के शब्द आ रहे हैं। पंजाबी और हिंदी खड़ी बोली में बहुत अंतर है। पुल्लिंग एकवचन शब्दों की आकारांत रचना और इनसे विशेषण और क्रिया का सामंजस्य, संज्ञाओं और सर्वनामों के प्रत्यक्ष और तिर्यक रूप, क्रियाओं कालादि भेद से जुड़नेवाले प्रत्यय दोनों भाषाओं में प्राय: एक से हैं। पंजाबी के कारकचिह्र इस प्रकार हैं - ने; नूँ (हिं. को); थों या ओं (हिं से); दा, दे, दी (हिं. का, के, की); विच (हिं. में)। पुंलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन तिर्यक रूप- आँ होता है, बाताँ, कुड़ियाँ, मुड्याँ, पथराँ, साधुआँ। यह स्वरसामंजस्य संज्ञा, विशेषण और क्रिया में बराबर बना रहता है, जैसे छोट्याँ मूंड्याँ, दियाँ माप्याँ नूं (हिं. छोटे लड़कों के माँ बाप को), छोटियाँ कुड़ियाँ जाँदियाँ हन्न (हिं. छोटी लड़कियाँ जाती हैं)। ध्वनिविकास की दृष्टि से पंजाबी अभी तक अपनी प्राकृत अवस्था से बहुत आगे नहीं बढ़ी है। तुलना कीजिए पंजाबी हत्थ, कन्न, सत्त, कत्तणा, छडणा और हिंदी हाथ, कान, सात, कातना, छोड़ना आदि। पूर्वी पंजाबी में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ (घ, झ, ढ, ध, भ) अघोष आरोही सुर के साथ बोली जाती हैं। यह पंजाबी की अपनी विशेषता है। पंजाबी बोलने वालों की कुल संख्या करोड़ों में है। भौगोलिक क्षेत्र पंजाबी पाकिस्तान में सबसे बड़ी भाषा है। यह ४५ फ़ीसद पकिस्तानियों की मातृभाषा जब कि ७० फ़ीसद पाकिस्तानी इस को बोलना जानते हैं। पंजाबी की कई उपभाषाएँ हैं परन्तु एक-दूसरे से करीबी होने के कारण सब को आसानी से समझा जा सकता है। पंजाब के साथ यह पूरे आज़ाद कश्मीर में बोली और समझी जाती है। इसके के अलावा भारत की सिर्फ़ 3 फ़ीसद आबादी पंजाबी बोलती है, परंतु पंजाबी को भारत के सूबा पंजाब में सरकारी बोली और दिल्ली और हरियाणा में दूसरी बोली का दर्जा है। पंजाबी, अंग्रेज़ के आने से पहले और भारत और मिल मारने से पहले, दिल्ली से ले कर पेशावर तक फैले हुए पंजाब के छोटे छोटे फ़र्कों साथ बोली जाने वाली बोली थी। १९०१ई. में अंग्रेज़ों ने उस समय पर के पंजाब के ऊपर वाले लेते तरफ़ को काट कर सूबा सरहद बना दिया और फिर १९४७ई. में रहता पंजाब भी 2 टुकड़ों: चढ़ते पंजाब और उतरते पंजाब में बँटा गया। १९६०ई. में इस चढ़ते या भारती पंजाब के भी 3 टुकड़े करके हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में बाँट दिया गया। अअऐनज पंजाबी भी भाग गई और राजनैतिक फ़ायदे के लिए इस को हिमाचल प्रदेश में हिंदी का एक लहजा बताया गया जब कि हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली बोली पंजाबी का अंगीठी लहजा है। इस समय पर पंजाबी पाकिस्तान के सूबा पंजाब में लहजो के मामूली फ़र्क साथ और सूबा सरहद में कोहाट, बनेगा और पेशावर के आसपास (हिंदको के नाम साथ) डेरा इस्माइल ख़ान में (डेरी के नाम साथ) और एबटाबाद, हरी परंतु और हज़ारा डिविज़न के दूसरे स्थानों में (हिंदको के नाम साथ), आज़ाद कश्मीर के स्थानों में (पहाड़ी और गुजरी के नाम साथ) और सिंध के पंजाब साथ लगते इलाकों में और भारत में पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा के काफ़ी इलाकों में दिल्ली और राजस्थान के पंजाब साथ लगते ज़िलें और कब्ज़ा किया हुआ जम्मू और कश्मीर में जम्मू के ज़िलें में बोली जाती है। इसके अलावा अमेरीका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया और बरतानिया में अकलियती ज़बान के तौर और बोली जाती है। पंजाबी साहित्य इन्हें भी देखें पंजाब गुरमुखी लिपि पंजाबी साहित्य बाहरी कड़ियाँ पंजाबीपीडिया (पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला की परियोजना) पंजाबी से हिन्‍दी शब्‍द संग्रह (राजभाषा ज्ञानधारा) Punjabi to Hindi Machine Translation System The Advanced Centre for Technical Development of Punjabi language, Literature and Culture The Punjabi Movement हिन्द-आर्य भाषाएँ पंजाब भारत की भाषाएँ पंजाबी भाषा पाकिस्तान की भाषाएँ पंजाब की भाषाएँ
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शिवसेना महाराष्ट्र का एक क्षेत्रीय राजनीतिक दलहै। जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र प्रान्त में सक्रिय है। इसकी स्थापना १९ जून १९६६ को एक प्रमुख कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने की थी। इस दल का प्रतीक चिन्ह बाघ था। फिलहाल १७ फरवरी २०२३ से एकनाथ शिंदे इसके अध्यक्ष/प्रमुख/मुख्य नेता के रूप में कार्यरत हैं। इसके बारे में मूल शिवसेना की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में प्रलंबित है । जिससे शिवसेना का उत्तराधिकारी कौन है उस निकाल के बाद स्वयं स्पष्ट होगा । चुनावी इतिहास लोकसभा चुनाव महाराष्ट्र विधानसभा मुख्यमंत्रियों की सूची महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री लोकसभा अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री संदर्भ
1845
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धनपत राय श्रीवास्तव ( ३१ जुलाई १८८० – ८अक्टूबर १९३६ जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है। १९०६ से १०३६ के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में १९१८ से १९३६ तक के कालखण्ड को 'प्रेमचंद युग' या 'प्रेमचन्द युग' कहा जाता है। जीवन परिचय प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद (प्रेमचन्द) की आरम्भिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के सम्बन्ध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पन्द्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया।" मुंशी प्रेमचंद अपने शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखते हैं की “पिताजी ने जीवन के अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दिया| इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।" उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 1906 में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं। वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन सन्ताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। उनकी शिक्षा के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया और 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया।" १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। 1933 ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबन्ध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। साहित्यिक जीवन प्रेमचंद (प्रेमचन्द) के साहित्यिक जीवन का आरंभ (आरम्भ) 1901 से हो चुका था आरंभ (आरम्भ) में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-"प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।" उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से लिखना पड़ा। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। १९१५ ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। १९१८ ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। १९२२ में उन्होंने बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया। १९२५ ई. में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पारितोषिक भी मिला। १९२६-२७ ई. के दौरान उन्होंने महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। १९२०-३६ तक प्रेमचंद लगभग दस या अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है। रचनाएँ उपन्यास असरारे मआबिद- उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। कालान्तर में यह हिन्दी में देवस्थान रहस्य नाम से प्रकाशित हुआ। हमखुर्मा व हमसवाब- इसका प्रकाशन 1907 ई. में हुआ। बाद में इसका हिन्दी रूपान्तरण 'प्रेमा' नाम से प्रकाशित हुआ। किशना- इसके सन्दर्भ में अमृतराय लिखते हैं कि- "उसकी समालोचना अक्तूबर-नवम्बर 1907 के 'ज़माना' में निकली।" इसी आधार पर 'किशना' का प्रकाशन वर्ष 1907 ही कल्पित किया गया। रूठी रानी- इसे सन् 1907 में अप्रैल से अगस्त महीने तक ज़माना में प्रकाशित किया गया। जलवए ईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था। सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिन्दी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं। डॉ रामविलास शर्मा 'सेवासदन' की मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं। प्रेमाश्रम (1922)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आन्दोलनों के दौर में लिखा गया। इसके सन्दर्भ में वीर भारत तलवार किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द:1918-22 पुस्तक में लिखते हैं कि- "1922 में प्रकाशित 'प्रेमाश्रम' हिंदी में किसानों के सवाल पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अन्तर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि के अन्दर पड़नेवाले हर सामाजिक तबके का-ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग-और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।" रंगभूमि (1925)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं। निर्मला (1925)- यह अनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। कायाकल्प (1926) अहंकार - इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह "अनातोल फ्रांस के 'थायस' का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।" प्रतिज्ञा (1927)- यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। गबन (1928)- उपन्यास की कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में गबन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। कर्मभूमि (1932)-यह अछूत समस्या, उनका मन्दिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है। गोदान (1936)- यह उनका अन्तिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'द गिफ्ट ऑफ़ काओ' नाम से प्रकाशित हुआ। मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-"प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।" कहानी इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद्र ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन(राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है। उनकी कुछ कहानियों की सूची नीचे दी गयी है- कहानी संग्रह- सप्तसरोज- 1917 में इसके पहले संस्करण की भूमिका लिखी गई थी। सप्तसरोज में प्रेमचंद की सात कहानियाँ संकलित हैं। उदाहरणतः बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, उपदेश तथा परीक्षा आदि। नवनिधि- यह प्रेमचंद की नौ कहानियों का संग्रह है। जैसे-राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता, पछतावा आदि। 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', समरयात्रा- इस संग्रह के अंतर्गत प्रेमचंद की 11 राजनीतिक कहानियों का संकलन किया गया है। उदाहरणस्वरूप-जेल, कानूनी कुमार, पत्नी से पति, लांछन, ठाकुर का कुआँ, शराब की दुकान, जुलूस, आहुति, मैकू, होली का उपहार, अनुभव, समर-यात्रा आदि। मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। नाटक संग्राम (1923)- यह किसानों के मध्य व्याप्त कुरीतियाँ तथा किसानों की फिजूलखर्ची के कारण हुआ कर्ज और कर्ज न चुका पाने के कारण अपनी फसल निम्न दाम में बेचने जैसी समस्याओं पर विचार करने वाला नाटक है। कर्बला (1924) प्रेम की वेदी (1933) ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं। कथेतर साहित्य प्रेमचंद : विविध प्रसंग- यह अमृतराय द्वारा संपादित प्रेमचंद की कथेतर रचनाओं का संग्रह है। इसके पहले खण्ड में प्रेमचंद के वैचारिक निबन्ध, संपादकीय आदि प्रकाशित हैं। इसके दूसरे खण्ड में प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। प्रेमचंद के विचार- तीन खण्डों में प्रकाशित यह संग्रह भी प्रेमचंद के विभिन्न निबंधों, संपादकीय, टिप्पणियों आदि का संग्रह है। साहित्‍य का उद्देश्‍य- इसी नाम से उनका एक निबन्ध-संकलन भी प्रकाशित हुआ है जिसमें 40 लेख हैं। चिट्ठी-पत्री- यह प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। दो खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खण्ड के संपादक अमृतराय और मदनगोपाल हैं। इस पुस्तक में प्रेमचंद के दयानारायन निगम, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र आदि समकालीन लोगों से हुए पत्र-व्यवहार संग्रहित हैं। संकलन का दूसरा भाग अमृतराय ने संपादित किया है। प्रेमचंद के कुछ निबन्धों की सूची निम्नलिखित है- पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिन्दी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान। अनुवाद प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। उन्होंने 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। उनका रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिन्दी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ। विविध बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, दुर्गादास विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खण्डों में) संपादन प्रेमचन्द ने 'जागरण' नामक समाचार पत्र तथा 'हंस' नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया था। उन्होंने सरस्वती प्रेस भी चलाया था। वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे। विशेषताएँ बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित विनोद वर्मा के साथ हुए साक्षात्कार रचना दृष्टि की प्रासंगिकता-मन्नू भंडारी में मन्नू भंडारी प्रेमचंद के विषय में बताती हैं कि-"साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खासकरके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदाहरण था. साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी." विचारधारा प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। १९३६ तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया। अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। इसके साथ ही प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी। प्रेमचंद ने १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। विरासत प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने भूमिका अदा की है। उनके नामों का उल्लेख करते हुए रामविलास शर्मा प्रेमचंद और उनका युग में लिखते हैं कि- "प्रेमचंद की परंपरा को 'अलका', 'कुल्ली भाट', 'बिल्लेसुर बकरिहा' के निराला ने अपनाया। उसे 'चकल्लस' और 'क्या-से-क्या' आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है।" बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित लेख स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि- ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद संबंधी रचनाएँ जीवनी प्रेमचंद की तीन जीवनीपरक पुस्तकें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं: प्रेमचंद घर में- १९४४ ई. में प्रकाशित यह पुस्तक प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई है जिसमें उनके व्यक्तित्व के घरेलू पक्ष को उजागर किया है। २००५ ई. में प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार ने इस पुस्तक तो दोबारा संशोधित करके प्रकाशित कराया। प्रेमचंद कलम का सिपाही- १९६२ ई. में प्रकाशित प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय द्वारा लिखी गई यह प्रेमचंद वृहद जीवनी है जिसे प्रामाणिक बनाने के लिए उन्होंने प्रेमचंद के पत्रों का बहुत उपयोग किया है। कलम का मज़दूर:प्रेमचन्द- १९६४ ई. में प्रकाशित इस कृति की भूमिका रामविलास शर्मा के अनुसार-"29 मई, 1962" में लिखी गई थी किंतु उसका प्रकाशन बाद में किया गया था। मदन गोपाल द्वारा रचित यह जीवनी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई थी जिसका बाद में हिंदी रूपांतरण भी प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद के परिवार के बाहर के व्यक्ति द्वारा रचित जीवनी है जो प्रेमचंद संबंधी तथ्यों का अधिक तटस्थ रूप से मूल्यांकन करती है। आलोचनात्मक पुस्तकें रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद और उनका युग में प्रेमचंद के जीवन तथा उनके साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है। प्रेमचंद पर हुए नए अध्‍ययनों में कमलकिशोर गोयनका और डॉ॰ धर्मवीर का नाम उल्‍लेखनीय है। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य (दो भाग) व 'प्रेमचंद विश्‍वकोश' (दो भाग) का संपादन भी किया है। डॉ॰ धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूलयांकन करते हुए प्रेमचंद : सामंत का मुंशी व प्रेमचंद की नीली आँखें नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं। प्रेमचंद और सिनेमा प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। स्मृतियाँ प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३० जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। विवाद प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाए हैं। जैसे- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि। "हंस" के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। हिन्दी विकिस्रोत पर उपलब्ध प्रेमचन्द साहित्य सेवासदन प्रेमाश्रम निर्मला कायाकल्प गबन कर्मभूमि गोदान मंगलसूत्र सप्तसरोज समर यात्रा साहित्य का उद्देश्य नव-निधि पाँच फूल संग्राम प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५) सन्दर्भ सहायक पुस्तकें । । । । । प्रेमचंद हिन्दी गद्यकार उर्दू साहित्यकार वाराणसी के लोग भारतीय उपन्यासकार
1847
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ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू निवृत्तिनाथ के निर्देश पर किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। ज्ञानेश्वरी पर भारत सरकार के डाक विभाग ने सन् 1990 में 2 रुपये मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था। परिचय यह भाष्य अथवा टीका ज्ञानेश्वर जी की स्वतंत्र बुद्धि की देन है। मूल गीता की अध्यायसंगति और श्लोकसंगति के विषय में भी कवि की स्वयंप्रज्ञा अनेक स्थलों पर प्रकट हुई है। प्रारंभिक अध्यायों की टीका संक्षिप्त है परंतु क्रमश: ज्ञानेश्वर जी की प्रतिभा प्रस्फुटित होती गई है। गुरुभक्ति, श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा का अभिमान, गीता का स्तवन, श्रीकृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष रूप से मुग्ध कर लिया है। इनका विवेचन करते समय ज्ञानेश्वर की वाणी वस्तुत: अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हो गई है। यह सत्य है कि आज तक भगवद्गीता पर साधिकार वाणी से कई काव्यग्रंथ लिखे गए। अपने कतिपय गुणों के कारण उनके निर्माता अपने-अपने स्थानों पर श्रेष्ठ ही हैं तथापित डॉo राo दo रानडे के समुचित शब्दों में यह कहना ही होगा कि विद्वत्ता, कविता और साधुता इन तीन दृष्टियों से गीता की सभी टीकाओं में 'ज्ञानेश्वरी' का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञानेश्वर ने अपनी टीका शंकराचार्य के गीताभाष्य के आधार पर लिखी है। ज्ञानदेव के स्वयं नाथ संप्रदाय में दीक्षित हाने के कारण उनके इस ग्रंथ में उक्त संप्रदाय के यत्र-तत्र संकेत मिलते हैं। गीता-भाष्य में वर्णित ज्ञान एवं भक्ति के समन्वय के साथ नाथ संप्रदाय के योग, स्वानुभव इत्यादि बातों का ज्ञानदेव के विवेचन में समावेश हुआ है। इन्होंने इन मूल सिद्धांतों को भागवत संप्रदाय की सुदृढ़ पीठिका पर प्रतिष्ठित किया है। ज्ञानेश्वरी भक्ति-रस-प्रधान ग्रंथ है। ईश्वर-प्राप्ति का एकमेव साधन भक्ति ही है, यह इसका महासिद्धांत है। ज्ञानदेव की भक्ति, पूजन अर्चना, व्रत तथा नियमादि से बाह्य स्वरूप की नहीं अपितु नामस्मरणदि साधनोंवाली अंतरस्वरूप की थी। नाथपंथ का योगमार्ग जन साधारण के लिये सहज साध्य न होने के कारण ज्ञानेश्वर ने उसे भक्ति का अधिष्ठान देकर ईश्वरभक्ति रूपी नेत्रों से युक्त कर दिया। भारतीय दर्शन की विचारपरंपरा से ज्ञानदेव द्वारा प्रतिपादित स्फूर्तिवाद को महत्व का स्थान देना होगा। ज्ञानेश्वरी में स्फुरणरूप से अथवा बीजरूप से व्यक्त होनेवाला स्फूर्तिवाद ज्ञानेश्वर द्वारा उनके अमृतानुभव नामक एक छोटे ग्रंथ में विशद रूप से प्रतिपादित है। इस ग्रंथ के सातवें अध्याय में ज्ञानदेव ने 'विश्व का ही नाम चिद्विलास है' यह सिद्धांत तर्क शुद्ध पद्धति से प्रतिपादित किया है। ज्ञानेश्वरी के अलंकारपक्ष का अवलोकन करने पर कवि के प्रतिभासंपन्न हृदय के दर्शन होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उपमा और रूपक के माध्यम से ही बोल रहे हों। उनकी इस रचना में मालोपमा और सांगरूपक मुक्तहस्त से बिखेरे गए हैं। विशेषता यह है कि ये सारी उपमाएँ और रूपक गीताटीका से तादात्म्य पा गए हैं। मायानदी, गुरुपूजा, पुरुष, प्रकृति, चित्सूर्य आदि उनके मराठी साहित्य में ही नहीं अपितु विश्ववांमय में अलौकिक माने जा सकते हैं। ये ही वे रूपक हैं जिनमें काव्य और दर्शन की धाराएँ घुल मिल गई हैं। अनुवाद इस ग्रन्थ के कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। गीता प्रेस के द्वारा इसका हिंदी भाषा में भी अनुवाद हुआ है। बाहरी कड़ियाँ सम्पूर्ण ज्ञानेश्वरी मराठी साहित्य भक्ति साहित्य
1848
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "ज्ञानेश्वरी", "token_count": 5066, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%80" }
कर्ण सिंह (जन्म १९३१) भारतीय राजनेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ हैं। जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी (युवराज) के रूप में जन्मे डॉ॰ कर्ण सिंह ने अठारह वर्ष की ही उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर लिया था और वर्ष १९४९ में प्रधानमन्त्री पं॰ जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप पर उनके पिता ने उन्हें राजप्रतिनिधि (रीजेंट) नियुक्त कर दिया। इसके पश्चात अगले अठारह वर्षों के दौरान वे राजप्रतिनिधि, निर्वाचित सदर-ए-रियासत और अन्तत: राज्यपाल के पदों पर रहे। १९६७ में डॉ॰ कर्ण सिंह प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। इसके तुरन्त बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और कश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे वर्ष १९७१, १९७७ और १९८० में पुन: चुने गए। डॉ॰ कर्ण सिंह को पहले पर्यटन और नगर विमानन मंत्रालय सौंपा गया। वे ६ वर्ष तक इस मंत्रालय में रहे, जहाँ उन्होंने अपनी सूक्ष्मदृष्टि और सक्रियता की अमिट छाप छोड़ी। १९७३ में वे स्वास्थ्य और परिवार नियोजन मंत्री बने। १९७६ में जब उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की तो परिवार नियोजन का विषय एक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के रूप में उभरा। १९७९ में वे शिक्षा और संस्कृति मंत्री बने। डॉ॰ कर्ण सिंह पूर्व रियासतों के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से निजी कोश(प्रिवी पर्स) का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित 'हरि-तारा धर्मार्थ न्यास' को दे दी। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। इसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हजार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। डॉ॰ कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे सौ से अधिक हिन्दू तीर्थ-स्थलों तथा मंदिरों सहित जम्मू और कश्मीर में अन्य कई न्यासों का काम-काज भी देखते हैं। हाल ही में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केंद्र की स्थापना की है। यह केंद्र सृजनात्मक दृष्टिकोण के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभर रहा है। कर्ण सिंह ने देहरादून स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और इसके बाद जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रह चुके हैं। वर्ष १९५७ में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. उपाधि हासिल की। उन्होंने श्री अरविन्द की राजनीतिक विचारधारा पर शोध प्रबन्ध लिख कर दिल्ली विश्वविद्यालय से डाक्टरेट उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया। कर्ण सिंह कई वर्षों तक जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे हैं। वे केंद्रीय संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्र मण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहे हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल ऑफ अंडरस्टेंडिंग (एक प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्विश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और विराट हिन्दू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। इनमें - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, तोक्यो से प्राप्त डाक्टरेट की मानद उपाधियां उल्लेखनीय हैं। वे कई वर्षों तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल - प्रोजेक्ट टाइगर - के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षी हैं। डॉ॰ कर्ण सिंह ने राजनीति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें, दार्शनिक निबन्ध, यात्रा-विवरण और कविताएं अंग्रेजी में लिखी हैं। उनके महत्वपूर्ण संग्रह "वन मैन्स वर्ल्ड" (एक आदमी की दुनिया) और हिन्दूवाद पर लिखे निबंधों की काफी सराहना हुई है। उन्होंने अपनी मातृभाषा डोगरी में कुछ भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टि और पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे भारत और विदेशों में एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में भारतीय राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल हालांकि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल मीडिया कवरेज मिली। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Dr Karan Singh’s official website कर्ण सिंह Article on Shri Dr. Karan Singh, by Indian Princely States website Genealogy of the ruling chiefs of Jammu and Kashmir Article on Dr. Karan Singh by The Doon School Proclamation of May 1, 1951 on Jammu & Kashmir Constituent Assembly by Yuvraj (Crown Prince) Karan Singh from the Official website of Government of Jammu and Kashmir, India भारतीय राजनीतिज्ञ जीवित लोग 1931 में जन्मे लोग
1849
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मैडिसन अमरीका के एक राज्य विस्कांसिन का एक शहर है।
1851
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कन्याकुमारी (Kanyakumari) भारत के तमिल नाडु राज्य के कन्याकुमारी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह भारत की मुख्यभूमि का दक्षिणतम नगर है। यहाँ से दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है। इनके साथ सटा हुआ तट 71.5 किमी तक विस्तारित है। समुद्र के साथ तिरुवल्लुवर मूर्ति और विवेकानन्द स्मारक शिला खड़े हैं। कन्याकुमारी एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल भी है विवरण कन्याकुमारी हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का संगम स्थल है, जहां भिन्न सागर अपने विभिन्न रंगो से मनोरम छटा बिखेरते हैं। भारत के सबसे दक्षिण छोर पर बसा कन्याकुमारी वर्षो से कला, संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक रहा है। भारत के पर्यटक स्थल के रूप में भी इस स्थान का अपना ही महत्च है। दूर-दूर फैले समुद्र के विशाल लहरों के बीच यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद आकर्षक लगता हैं। समुद्र बीच पर फैले रंग बिरंगी रेत इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है। इतिहास कन्याकुमारी दक्षिण भारत के महान शासकों चोल, चेर, पांड्य के अधीन रहा है। यहां के स्मारकों पर इन शासकों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इस जगह का नाम कन्‍याकुमारी पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने असुर बानासुरन को वरदान दिया था कि कुंवारी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत को आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य को नौ बराबर हिस्सों में बांटकर अपनी संतानों को दे दिया। दक्षिण का हिस्सा उसकी पुत्री कुमारी को मिला। कुमारी को शक्ति देवी का अवतार माना जाता था। कुमारी ने दक्षिण भारत के इस हिस्से पर कुशलतापूर्वक शासन किया। उसकी ईच्‍छा थी कि वह शिव से विवाह करें। इसके लिए वह उनकी पूजा करती थी। शिव विवाह के लिए राजी भी हो गए थे और विवाह की तैयारियां होने लगीं थी। लेकिन नारद मुनि चाहते थे कि बानासुरन का कुमारी के हाथों वध हो जाए। इस कारण शिव और देवी कुमारी का विवाह नहीं हो पाया। इस बीच बानासुरन को जब कुमारी की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसने कुमारी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा। कुमारी ने कहा कि यदि वह उसे युद्ध में हरा देगा तो वह उससे विवाह कर लेगी। दोनों के बीच युद्ध हुआ और बानासुरन को मृत्यु की प्राप्ति हुई। कुमारी की याद में ही दक्षिण भारत के इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है। माना जाता है कि शिव और कुमारी के विवाह की तैयारी का सामान आगे चलकर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गया। दर्शनीय स्थल कन्याकुमारी अम्मन मंदिर सागर के मुहाने के दाई ओर स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो पार्वती को समर्पित है। मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है। यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश करने से पहले त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाते हैं जो मंदिर के बाई ओर 500 मीटर की दूरी पर है। मंदिर का पूर्वी प्रवेश द्वार को हमेशा बंद करके रखा जाता है क्योंकि मंदिर है। गांधी स्मारक यह स्मारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित है। यही पर महात्मा गांधी की चिता की राख रखी हुई है। इस स्मारक की स्थापना 1956 में हुई थी। महात्मा गांधी 1948 में यहां अस्थियां विसर्जित की गई थी। स्मारक को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर सूर्य की प्रथम किरणें उस स्थान पर पड़ती हैं जहां महात्मा की राख रखी हुई है। तिरूवल्लुवर मूर्ति तिरुक्कुरुल की रचना करने वाले अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की यह प्रतिमा पर्यटकों को बहुत लुभाती है। 38 फीट ऊंचे आधार पर बनी यह प्रतिमा 95 फीट की है। इस प्रतिमा की कुल उंचाई 133 फीट है और इसका वजन 2000 टन है। इस प्रतिमा को बनाने में कुल 1283 पत्थर के टुकड़ों का उपयोग किया गया था। विवेकानंद रॉक मेमोरियल समुद्र में बने इस स्थान पर बड़ी संख्या में पर्यटक आते है। इस पवित्र स्थान को विवेकानंद रॉक मेमोरियल कमेटी ने 1970 में स्वामी विवेकानंद के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए बनवाया था। इसी स्थान पर स्वामी विवेकानंद गहन ध्यान लगाया था। इस स्थान को श्रीपद पराई के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कन्याकुमारी ने भी तपस्या की थी। कहा जाता है कि यहां कुमारी देवी के पैरों के निशान मुद्रित हैं। यह स्मारक विश्व प्रसिद्ध है। सुचीन्द्रम यह छोटा-सा गांव कन्याकुमारी से लगभग 12 किमी दूर स्थित है। यहां का थानुमलायन मंदिर काफी प्रसिद्ध है। मंदिर में स्‍थापित हनुमान की छह मीटर की उंची मूर्ति काफी आकर्षक है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश जोकि इस ब्रह्मांड के रचयिता समझे जाते है उनकी मूर्ति स्‍थापित है। यहां नौवीं शताब्दी के प्राचीन अभिलेख भी पाए गए हैं। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ हिन्दूओं के लिए प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य, कन्याकुमारी में स्थित है। माना जाता है कि सुचिंद्रम में ‘सुची’ शब्द संस्कृत से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘शुद्ध’ होना। सुचीन्द्रम शक्ति पीठ को ठाँउमालयन या स्तानुमालय मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में विशेष बात यह है इसमें पत्थर के पाइप के सामान 8 या 10 झडे है और उन्हें बजाने पर तबलौ की धुन सुनाई देती है और यह हम पत्थर पर हाथ मारते हैं तभी धुन सुनाई देती है यह मंदिर सात मंजिला है जिसका सफेद गोपुरम काफी दूर से दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में किया गया था। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ, मंदिर में बनी हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर का प्रवेश द्वार लगभग 24 फीट उंचा है जिसके दरवाजे पर सुंदर नक्काशी की गई है। यह मंदिर बड़ी संख्या में वैष्णव और सैवियों दोनों को आकर्षित करता है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के लिए लगभग 30 मंदिर है जिसमें पवित्र स्थान में बड़ा लिंगम, आसन्न मंदिर में विष्णु की मूर्ति और उत्तरी गलियारे के पूर्वी छोर पर हनुमान की एक बड़ी मूर्ति है। यह मंदिर हिंदू धर्म के लगभग सभी देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा को एक ही रूप में स्तरनुमल्याम कहा जाता है। स्तरनुमल्याम तीन देवताओं को दर्शाता है जिसमें ‘स्तानु’ का अर्थ ‘शिव’ है, ‘माल’ का अर्थ ‘विष्णु’ है और ‘आयन’ का अर्थ ‘ब्रह्मा’ है। भारत के उन मंदिरों में से एक है जिसमें त्रीमूर्ति व तीनों देवताओं की पूजा एक मंदिर में की जाती है। यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर में शक्ति को नारायणी के रूप पूजा जाता है और भैरव को संहार भैरव के रूप में पूजा जाता है। पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले हुए हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने उनके पिता दक्षेस्वर द्वारा किये यज्ञ कुण्ड में अपने प्राण त्याग दिये थे, तब भगवान शंकर देवी सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण चक्कर लगा रहे थे इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था, जिसमें से सती की ऊपर के दांत इस स्थान पर गिरे थे। पौराणिक कथा के अनुसार देवों के राजा इन्द्र को महर्षि गौतम द्वारा दिये गए अभिशाप से इस स्थान पर मुक्ति मिली थी। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर शिवरात्रि, दुर्गा पूजा और नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। लेकिन दो प्रमुख त्यौहार है, जो इस मंदिर का प्रमुख आकर्षण का केन्द्र हैं, ‘सुचंद्रम मर्गली त्यौहार’ और ‘रथ यात्रा’ हैं। इन त्यौहारों के दौरान, कुछ लोग भगवान की पूजा के प्रति सम्मान और समर्पण के रूप में व्रत (भोजन नहीं खाते) रखते हैं। त्यौहार के दिनों में मंदिर को फूलो व लाईट से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है। नागराज मंदिर कन्याकुमारी से 20 किमी दूर नगरकोल का नागराज मंदिर नाग देव को समर्पित है। यहां भगवान विष्णु और शिव के दो अन्य मंदिर भी हैं। मंदिर का मुख्य द्वार चीन की बुद्ध विहार की कारीगरी की याद दिलाता है। पद्मनाभपुरम महल पद्मनाभपुरम महल की विशाल हवेलियां त्रावनकोर के राजा द्वारा बनवाया हैं। ये हवेलियां अपनी सुंदरता और भव्यता के लिए जानी जाती हैं। कन्याकुमारी से इनकी दूरी 45 किमी है। यह महल केरल सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन हैं। कोरटालम झरना यह झरना 167 मीटर ऊंची है। इस झरने के जल को औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है। यह कन्याकुमारी से 137 किमी दूरी पर स्थित है। तिरूचेन्दूर 85 किमी दूर स्थित तिरूचेन्दूर के खूबसूरत मंदिर भगवान सुब्रमण्यम को समर्पित हैं। बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित इस मंदिर को भगवान सुब्रमण्यम के 6 निवासों में से एक माना जाता है। उदयगिरी किला कन्याकुमारी से 34 किमी दूर यह किला राजा मरतड वर्मा द्वारा 1729-1758 ई. दौरान बनवाया गया था। इसी किले में राजा के विश्वसनीय यूरोपियन दोस्त जनरल डी लिनोय की समाधि भी है। चित्रदीर्घा आवागमन वायुमार्ग- नजदीकी एयरपोर्ट तिरूअनंतपुरम है जो कन्याकुमारी से 89 किलोमीटर दूर है। यहां से बस या टैक्सी के माध्यम से कन्याकुमारी पहुंचा जा सकता है। यहां से लक्जरी कार भी किराए पर उपलब्ध हैं। रेलमार्ग- कन्याकुमारी चैन्नई सहित भारत के प्रमुख शहरों से रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। चैन्नई से कन्याकुमारी एक्सप्रेस द्वारा यहां जाया जा सकता है। सड़क मार्ग- बस द्वारा कन्याकुमारी जाने के लिए त्रिची, मदुरै, चैन्नई, तिरूअनंतपुरम और तिरूचेन्दूर से नियमित बस सेवाएं हैं। तमिलनाड़ पर्यटन विभाग कन्याकुमारी के लिए सिंगल डे बस टूर की व्यवस्था भी करता है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 का दक्षिणी छोर यहाँ है और यह उत्तर दिशा में जम्मू और कश्मीर तक जाता है। भ्रमण समय समुद्र के किनारे होने के कारण कन्याकुमारी में साल भर मनोरम वातावरण रहता है। यूं तो पूरा साल कन्याकुमारी जाने लायक होता है लेकिन फिर भी पर्यटन के लिहाज से अक्टूबर से मार्च की अवधि सबसे बेहतर मानी जाती है। खरीददारी पर्यटक अक्सर यहां से विभिन्न रंगों के रेत के पैकेट खरीदतें हैं। यहां से सीप और शंख के अलावा प्रवाली शैलभित्ती के टुकड़ों की खरीददारी की जा सकती है। साथ ही केरल शैली की नारियल जटाएं और लकड़ी की हैंडीक्राफ्ट भी खरीदी जा सकती हैं। इन्हें भी देखें कन्याकुमारी ज़िला सन्दर्भ कन्याकुमारी ज़िला तमिल नाडु के शहर कन्याकुमारी ज़िले के नगर कोरोमंडल तट
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तमिल नाडु (तमिल: , तमिऴ् नाडु) भारत का एक दक्षिणी राज्य है। तमिल नाडु की राजधानी चेन्नई (चेऩ्ऩै) है। तमिल नाडु के अन्य महत्त्वपूर्ण नगर मदुरै, त्रिचि (तिरुच्चि), कोयम्बतूर (कोऽयम्बुत्तूर), सेलम (सेऽलम), तिरूनेलवेली (तिरुनेल्वेऽली) हैं। इसके पड़ोसी राज्य आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल हैं। तमिल नाडु में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा तमिल है। तमिल नाडु के वर्तमान मुख्यमन्त्री एम॰ के॰ स्टालिन और राज्यपाल रविन्द्र नारायण रवि हैं। नामकरण ब्रिटिश शासनकाल में यह प्रान्त मद्रास प्रेसिडेंसी का भाग था। स्वतन्त्रता के बाद मद्रास प्रेसिडेंसी को विभिन्न भागों में बाँट दिया गया, जिसका परिणति मद्रास तथा अन्य राज्यों में हुई। 1968 में मद्रास प्रान्त का नाम बदलकर तमिल नाडु कर दिया गया। तमिलनाडु शब्द तमिल भाषा के तमिल तथा नाडु (நாடு) यानि देश या वासस्थान, से मिलकर बना है जिसका अर्थ तमिलों का घर या तमिलों का देश होता है। नाडु का शाब्दिक अर्थ होता है गांव का समूह (ncert Class7 ) इतिहास तमिलनाडु का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह उन गिने चुने क्षेत्रों में से एक है जो प्रागैतिहासिक काल से अब तक लगातार बसे हुए है। अत्यारम्भ से यह तीन प्रसिद्ध राजवंशों की कर्मभूमि रही है - चेर, चोल तथा पांड्य। तमिल नाडु के प्राचीन संगम साहित्य में, यहाँ के तत्कालीन राजाओं, राजकुमारों तथा उनके प्रशन्शक कवियों का बारम्बार विवरण मिलता है। विद्वान तथा विशेषज्ञ एसा मानते हैं कि, यह संगम साहित्य इसोत्तर (इसा-पश्चात) की आरम्भिक कुछ सदियों का है। आरम्भिक चोल, पहली सदी से लेकर चौथी सदी तक सत्ता के मुख्य अधिपति रहे। इनमें सर्वप्रमुख नाम करिकाल चोल (तमिल - கரிகால சோல (तमिल हिज्जे की शुद्धता अपूर्ण हो सकती है)) है, जिसने अपने साम्राज्य को कांचीपुरम् तक पहुँचाया। चोलों ने वर्तमान तंजावुर तथा तिरुचिरापल्ली तक अपना साम्राज्य विस्तृत किया तथा सैन्य कर्मों में महारत प्राप्त की। अपने यौवन काल में चोलों ने दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में कई सौ कि॰मी॰ तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया। तीसरी सदी तक कालभ्रों के आक्रमण से चोलों का पतन आरम्भ हो गया। कालभ्रों को छठी सदी तक, उत्तर में पल्लवों तथा दक्षिण में पांड्यों ने हराकर बाहर कर दिया। मन्दिर निर्माण ५८० ई० के आसपास पांड्य शाशक, जो मन्दिर निर्माण में निपुण निकले, सत्ता के प्रमुख हो गए और अगले १५० वर्षों तक राज सम्भाला। कांचीपुरम् उनका प्रमुख केन्द्र था। द्रविड़ स्थापत्य इस समय अपने चरम पर था। ९वीं सदी में चोलों का पुनरोदय हुआ। राजाराजा चोल तथा उसके पुत्र राजेंद्र चोल के नेतृत्व में चोल एशिया के प्रमुख साम्राज्यों में गिना जाने लगा। उनका साम्राज्य बंगाल तक फैल गया। राजेंद्र चोल की नौसेना ने बर्मा (म्यानमार), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, सुमात्रा, जावा, मलय तथा लक्षद्वीप तक पर अधिपत्य जमाया। चोलों ने भी भुवन (मंदिर) निर्माण में प्रवीणता हासिल की। तंजावुर का वृहदेश्वर मंदिर इसका सुंदरतम उदाहरण है। 14वीं सदी के आरंभ में पांड्य फिर प्रभुत्व में आए, पर अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। उन्हें उत्तर के मुस्लिम खिलजी शाशकों ने हरा दिया। मदुरई को लूट लिया गया। १६वीं सदी के मध्य में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद कुछ पुराने मंदिरों का पुनर्निमाण किया गया। १६७० तक राज्य का लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र मराठों के अधिकार में आ गया। पर मराठे अधिक दिनों तक शासन में नहीं रह सके इसके ५० वर्षों के बाद मैसूर स्वतन्त्र हो गया जिसके अधीन आज के तमिळनाडु का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र था। इसके अलावा दक्षिण के राज्य भी स्वतंत्र हो गए। सन् १७९९ में चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद यह अंग्रेजी शासन में आ गया। भूगोल तमिल नाडु का क्षेत्रफल १,३०,०५८km२ है। यह भारत के दक्षिण में स्थित है और उत्तर में आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम में केरल, दक्षिण में हिन्द महासागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी इसके पड़ोसी हैं। इसके अतिरिक्त राज्य के उत्तरपूर्व में पुडुचेरी भी स्थित है। यहाँ की सबसे प्रमुख नदी कावेरी है। राज्य का पश्चिमी, दक्षिणी और उत्तरपूर्वी भाग पहाड़ी भूभाग वाला है। तमिल नाडु देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसकी सीमा के भीतर पूर्वी और पश्चिमी घाट पड़ते हैं जो नीलगिरी में जुड़े हुए हैं। केरल की सीमा से लगता पश्चिमी घाट है जो दक्षिणपश्चिम मानसून की बारिश को रोक देता है। राज्य का पूर्वी भाग उपजाऊ है, उत्तरी भाग में पहाडियाँ और समतल भूमि भी है। राज्य के मध्य भाग शुष्क हैं और राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम वर्षा प्राप्त करते हैं। तमिल नाडु की तटरेखा ९१० किमी है। वर्ष २००४ में आई सुनामी की लहरें इस राज्य की तटरेखा से भी टकराई थीं जिसके कारण यहाँ बहुत क्षति हुई। उस सुनामी में तमिल नाडु में लगभग ७,७९० लोग मारे गए थे। इस राज्य की जलवायु मानसून पर निर्भर है और बहुत से क्षेत्र सूखा-सम्भावित हैं। राज्य में औसत वार्षिक अवक्षेपण ९४५ मीमी है। जनसांख्यिकी २०११ की जनगणना के अनुसार तमिल नाडु की जनसंख्या ७,२१,३८,९५८ है जो देश में सातवीं सबसे अधिक है और देश की कुल जनसंख्या का ५.९६% है। राज्य में जनसंख्या घनत्व ५५५ व्यक्ति/किमी२ है जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक ऊपर है। यहाँ की ४४% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में निवास करती है। वर्ष २००१ से २०११ के दौरान तमिल नाडु की जनसंख्या में १५.६% की वृद्धि हुई थी। तब भी राज्य की प्रजनन दर देश में सबसे कम में से है - १.८ बच्चे प्रति १ महिला। राज्य की अधिकान्श जनसंख्या हिन्दू धर्म की अनुयायी है, लगभग ८८.३४%, जिसके पश्चात ईसाई (६.०८%) और मुसलमान (५.५७%) हैं। राज्य की आधिकारिक भाषा तमिल है और कुल ८९% लोग इसे बोलते हैं। अन्य प्रमुख भाषाएँ हैं: तेलुगू (५.६६%), कन्नड़ (१.७%), उर्दू (१.५%) और मलयालम (०.६%)। राज्य की जीवन प्रत्याशा दर पुरुषों के लिए ६५.२ वर्ष और महिलाओं के लिए ६७.६ वर्ष है। वर्ष २००४-०५ के आँकड़ों के अनुसार राज्य में २७.५% लोग निर्धनता सीमा से नीचे रह रहे हैं। संस्कृति तमिल सभ्यता विश्व की पुरातनतम सभ्यताओं में से एक है। तमिल यहां की आधिकारिक भाषा है और हाल में ही इसे जनक भाषा का दर्जा मिला। तमिळ भाषा का इतिहास काफी प्राचीन है, जिसका परिवर्तित रूप आज सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त होता है। तमिलनाडु की सांस्कृतिक विशेषता तंजावुर के भित्तिचित्र, भरतनाट्यम्, मंदिर-निर्माण तथा अन्य स्थापत्य कलाएं हैं। साहित्य संत कवि तिरूवल्लुवर का तिरुक्कुरल (तमिल - திருக்குறள்), प्राचीन तमिल का सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ है। संगम साहित्य, तमिल के साहित्यिक विकास का दस्तावेज है। तमिल का विकास 20वीं सदी के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी काफी तेजी से हुआ। संगीत कर्नाटक संगीत यहां की मुख्यधारा संगीत-विधा है। नृत्य भरतनाट्यम् काफी लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। भोजन चावल तमिलनाडु का प्रमुख भोजन है, चावल व चावल के बने व्यंजन जैसे दोसा, उथप्पम्, इद्ली आदि लोकप्रिय है जिन्हे केले के पत्ते पर परोसा जाता है। यहां के खाने में मिर्च-मसालों का काफी प्रयोग किया जाता है जिससे भोजन अतिस्‍वादिष्‍ट एवं रूचिकर लगता है। राजनीति तमिलनाडु में द्विसदनात्मक लोकतंत्र था, जिसे 1986 में अन्य कई भारतीय राज्यों की तरह, एकसदनात्मक कर दिया गया। अर्थव्यवस्था तमिल नाडु, भारत का महाराष्ट्र के बाद सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य है। यह भारत का सर्वाधिक नगरीकृत राज्य भी है जहां की ४७% जनसम्ख्या नगरीय क्षेत्रों में निवास करती है। देश के अन्य राज्यों की तुलना में तमिल नाडु में औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र समान रूप से फैला हुआ है। तमिल नाडु, कर्नाटक के बाद देश का सबसे बड़ा सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) विकास का क्षेत्र है विशेषकर चेन्नई जो कर्नाटक की राजधानी बंगलौर के बाद देश का सबसे बड़ा आईटी नगर है और देश का सबसे बड़ा आईटी पार्क यहाँ स्थित है। इसके अतिरिक्त यहाँ बायोप्रौद्योगिकी विकास (चैन्नई और मदुरई), लौह धातु-विज्ञान (सालेम), परमाणु ऊर्जा (कलपक्कम और कुण्डन्कुलम) के भी केन्द्र है। यहाँ यान्त्रिक अभियान्त्रिकी केन्द्र भी हैं और देश के ४०% वाहन यहाँ निर्मित होते हैं। इसके अतिरिक्त वस्त्र-उद्योग भी यहाँ का एक पारम्परिक रूप से प्रमुख उद्योग है और इसका केन्द्र तिरुपुर में है। तमिल नाडु का पर्यटन उद्योग भी विकसित है और पर्यटन के प्रमुख केन्द्र कांचीपुरम, ममल्लपुरम (या महाबलिपुरम), तिरुचिरापल्ली, कन्याकुमारी और रामेश्वरम हैं। चैन्नई का मरीना तट भी विश्व का दूसरा सबसे लम्बा समुद्रतट है। कृषि राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषिक्षेत्र की प्रमुख भूमिका है। तमिल नाडु का चावल उत्पादन देश में पाँचवा सबसे अधिक है। इस राज्य में भारत के कुल फल-उत्पादन का १०% और सब्ज़ियों के उत्पादन का ६% पैदा होता है। यहाँ स्थित कावेरी नदी द्रोणी को "दक्षिण भारत का चावल का कटोरा" कहा जात है। तमिल नाडु केलों और फूलों का सबसे बड़ा, आम, रबड़, मूंगफली, नारियल का दूसरा सबसे बड़ा और कॉफ़ी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। गन्ना उत्पादन के लिए राज्य की २% जुती हुई भूमि उपयोग में है। तमिल नाडु दूध का भी प्रमुख उत्पादक है। शिक्षा २०११ की जनगणना के अनुसार तमिल नाडु की साक्षरता दर ८०.३% है जो राष्टीय औसत से अधिक है। २००१ की जनगणना में यह दर ७३.५% था। यहां शिक्षा-क्षेत्र में एक प्रमुख समस्या प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी होना है। तमिल नाडु में कुल मिलाकर ३७ विश्वविद्यालय, ४५४ तकनीकी महाविद्यालय, ५६६ कला और विग्यान महाविद्यालय, ३४,३३५ प्रारम्भिक विद्यालय, ५,१६७ माध्यमिक विद्यालय, ५,०५४ उच्चतर विद्यालय हैं। प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में हैं: मद्रास विश्वविद्यालय, आईआईटी मद्रास, पीएसजी प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, अन्ना विध्वविद्यालय चैन्नई, कोयमबटूर प्रौद्योगिकी संस्थान, कामराज विश्वविद्यालय मदुरई, एनाआईटी त्रिची, मद्रास किश्चन कॉलेज, किश्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास मेदिकल कॉलेज, लोयोला कॉलेज, तमिल नाडु कृषि विश्वविद्यालय और मदुरई मेडिकल कॉलेज हैं। परिवहन तमिल नाडु का परिवहन तन्त्र अपेक्षाकृत रूप से विकसित है। राज्य में सड़कों की कुल लम्बाई १,९९,०४० किमी है जिसमें से ४,८७३ किमी राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। सड़क तन्त्र का घनत्व १५३ से १०० किमी२ है जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। राज्य में रेल-तन्त्र बहुत अच्छी तरह विकसित है और यहाँ रेलमार्गों की कुल लम्बाई ५,९५२ किमी है। तमिल नाडु भारतीय रेल के दक्षिणी ज़ोन में आता है। राज्य की राजधानी चैन्नई में मेट्रो रेल एवं नगर का रेपिड रेलवे सिस्टम मौजूद है। राज्य का प्रमुख बस सेवा संचालक-तमिल नाडु राज्य परिवहन निगम है जो राज्यभर में बस सेवाएँ प्रदान करता है। राज्य का प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चैन्नई में स्थित है और देश का चौथा सबसे व्यस्त है। दो अन्य अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे तिरुचिरापल्ली और कोयमबटूर में हैं। छबि दीर्घा इन्हें भी देखें तमिल तमिल भाषा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ तमिल नाडु - भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर आधिकारिक जालस्थल आधिकारिक जालस्थल भारत के राज्य
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "तमिल नाडु", "token_count": 14461, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%20%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A1%E0%A5%81" }
मुकेश चंद माथुर जुलाई २२, १९२३, दिल्ली, भारत - अगस्त २७, १९७६, लोकप्रिय तौर पर सिर्फ मुकेश के नाम से जाने वाले, हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख पार्श्व गायक थे। मुकेश की आवाज बहुत मधुर थी लेकिन उनके एक दूर के संबंधी मोतीलाल ने उन्हें तब पहचाना जब उन्होंने उसे अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए गायन अभ्यास का पूरा इन्तजाम किया। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फिल्म निर्दोष (१९४१) में मुख्य कलाकार का काम मिला। पार्श्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम १९४५ में फिल्म पहली नजर में मिला। मुकेश ने हिन्दी फिल्म में जो पहला गाना गाया, वह था दिल जलता है तो जलने दे जिसमें अभिनय मोतीलाल ने किया। इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के एल सहगल के प्रभाव का असर स्पष्ट दिखाई देता है। 1959 में अनाड़ी फ़िल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। १९७४ में मुकेश को रजनीगन्धा फिल्म में "कई बार यूँ भी देखा है" गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। १९७६ में जब वे अमेरीका के डेट्रॉएट शहर में दौरे पर थे, तब उन्हें हृदयाघात हुआ और उनकी मृत्यु हो गयी। प्रारम्भिक जीवन इनका जन्म 22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर हुआ था। इनकी बड़ी बहन संगीत की शिक्षा लेती थीं और मुकेश बड़े चाव से उन्हें सुना करते थे। मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारम्परिक शिक्षा लेनी शुरू की, लेकिन इनकी दिली ख्वाहिश हिन्दी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता प्रवेश करने की थी। गायन करियर मुम्बई आने के बाद इन्हें 1941 में "निर्दोष" फ़िल्म में बतौर एक्टर सिंगर पहला ब्रेक मिला। इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन के एल सहगल को इनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी। इनके गाने को सुन के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गये थे। 40 के दशक में मुकेश का अपना पार्श्व गायन शैली था। नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी। उस दौर में मुकेश की आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गये। 50 के दशक में इन्हें एक नयी पहचान मिली, जब इन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। कई साक्षात्कार में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है। पार्श्व गायक मुकेश को फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना मकाम हासिल कर लेने के बाद, कुछ नया करने की चाह जगी और इसलिए इन्होंने फ़िल्म निर्माता (प्रोड्यूसर) बन गये। साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की। अभिनय का शौक बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गाने के लिए वे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए। 60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी, के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एस॰ डी॰ बर्मन के नग़मों से की और फिर राज कपूर की फ़िल्म संगम में शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध किया गाना, जिसके लिए वह फिर से फ़िल्मफेयर के लिए नामांकित हुए। 60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहाँ मरना यहाँ गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े फ़िल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फ़िल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फ़िल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। अब मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर॰ डी॰ बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। साल 1974 में फ़िल्म रजनीगंधा के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फ़िल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फ़िल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी। मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म के लिए ही गाया था। लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के जारी होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त को मुकेश का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। फिल्मों में गायन पहली नज़र (१९४५) मेला (१९४८) आग (१९४८) अन्दाज़ (१९४९) आवारा (१९५१) श्री ४२० (१९५५) परवरिश (१९५८) अनाड़ी (१९५९) संगम (१९६४) मेरा नाम जोकर (१९७०) धरम करम (१९७५) "कभी कभी" ([१९७६]) यादगार गीत तु कहे अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा से) ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी से) किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ से) ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दीनी से) दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम से) जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से) मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द से) इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल (फ़िल्म धरम करम से) मैं पल दो पल का शायर हूँ कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी से) चंचल शीतल निर्मल कोमल (फ़िल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् से) ''दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी| "एक प्यार का नगमा है" "डम डम डिगा डिगा" सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अंग्रेज़ी में मुकेश को समर्पीत वेबसाइट मुकेश को समर्पीत वेबग्रुप मुकेशजी ने गाए हुए गीत फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता 1923 में जन्मे लोग १९७६ में निधन
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लोक जनशक्ति पार्टी (:लोजपा), एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल है, जो मुख्य रूप से भारत के बिहार राज्य की राजनीति में सक्रिय थी। पार्टी का गठन 2000 में हुआ जब रामविलास पासवान जनता दल से अलग हो गए। बिहार में दलितों के बीच पार्टी की अच्छी-खासी पकड़ थी। 2021 में पार्टी दो पार्टियों लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी में बंट गई। स्थापना लोक जनशक्ति पार्टी अथवा लोजपा की स्थापना रामविलास पासवान ने की थी। नेतृत्व राष्ट्रीय अध्यक्ष- चिराग पासवान, सांसद बिहार प्रदेशाध्यक्ष- प्रिंस राज, सांसद लोकसभा चुनावी राजनीति लोकसभा चुनाव 2009 लोकसभा चुनाव 2009 में रामविलास पासवान ने सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के साथ उत्तर प्रदेश एवं बिहार की सभी 120 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए ऐतिहासिक गठबन्धन करते हुए चौथा मोर्चा बनाने का प्रयास किया। उस समय इस मोर्चे के पास लोकसभा में 64 सांसदों की संख्या थी। इस गठबन्धन के तहत उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर सपा एवं बिहार की 40 सीटों में से 28 पर राजद तथा शेष 12 सीटों पर लोजपा ने उम्मीदवार उतारे। आशा के विपरीत यह मोर्चा अपेक्षाकृत प्रदर्शन करने में विफल रहा तथा 120 में से केवल 28 पर ही जीत सका। लोक जनशक्ति पार्टी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। लोकसभा चुनाव २०१९ लोकसभा चुनाव २०१९ में लोजपा ने एक बार पुनः भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साथ चुनाव में भाग लिया था जिसके अनुसार बिहार की ४० सीटों में से भाजपा १७, जदयू १७ एवं लोजपा के हिस्से में ६ सीटें आईं, तथा साथ ही साथ एक राज्यसभा की सीट भी लोजपा के खाते में आई। लोजपा ने सभी छः स्थानों पर जीत हासिल की। इन चुनावों में पार्टी अध्यक्ष रामविलास पासवान ने स्वास्थ्य कारणोंवश भाग नहीं लिया तथा राज्यसभा के माध्यम से सांसद बने। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 बिहार विधानसभा चुनाव, 2020 में लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने बिना किसी गठबन्धन के अकेले दम पर ही चुनाव लड़ने की घोषणा की। पार्टी पूरे राज्य की 143 सीटों पर चुनाव लड़ी। चिराग पासवान ने चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार बनाने के लिए समर्थन करने की बात कही। 10 नवम्बर 2020 को आए नतीजों में लोजपा को केवल एक सीट पर ही जीत हासिल हुई। पार्टी को पूरे राज्य में कुल 23,83,457 मत हासिल हुए जो कि कुल पड़े वैध मतों का 5.66% रहा। एकमात्र बेगूसराय ज़िले की मटिहानी विधानसभा सीट पर लोजपा के राज कुमार सिंह ने विजय प्राप्त की, उन्होंने निकट प्रतिद्वन्द्वी जदयू के नरेन्द्र कुमार सिंह उर्फ बोगो सिंह एवं भाकपा (माले) के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को कड़े मुकाबले में क्रमशः 333 एवं 765 मतों के मामूली अन्तर से हराया। चुनावी प्रदर्शन लोकसभा बिहार विधानसभा इन्हें भी देखें राष्ट्रीय जनता दल जनता दल (यूनाइटेड) जनता दल संदर्भ पुलिस की नौकरी छोड़ राजनीति में आए थे रामविलास पासवान, हाजीपुर से जीत का बनाया था वर्ल्ड रिकॉर्ड भारत के राजनीतिक दल
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "लोक जनशक्ति पार्टी", "token_count": 3809, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%20%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80" }
पाणिनि (७०० ई॰पू॰) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गान्धार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रन्थ नहीं है। इसमें प्रकारान्तर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिन्तन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं। जीवनी एवं कार्य पाणिनि का जन्म शलातुर नामक ग्राम में हुआ था। जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था। उसे अब लहुर कहते हैं। अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं। और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है। चीनी यात्री युवान्च्वां (७वीं शती) उत्तर-पश्चिम से आते समय शालातुर गाँव में गए थे। पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनि जब बड़े हुए तो उन्होंने व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे। उनके ग्रंथों को पढ़कर और उनके परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में यह विचार आया कि उन्हें व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करना चाहिए। पहले तो पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है। दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया। इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गार्ग्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है। शाकटायन निश्चित रूप से पाणिनि से पूर्व के वैयाकरण थे, जैसा निरुक्तकार यास्क ने लिखा है। शाकटायन का मत था कि सब संज्ञा शब्द धातुओं से बनते हैं। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पाणिनि ने यह की कि उन्होंने स्वयं लोक को अपनी आँखों से देखा और घूमकर लोगों के बहुमुखी जीवन का परिचय प्राप्त करके शब्दों को छाना। इस प्रकार से कितने ही सहस्र शब्दों को उन्होंने इकट्ठा किया। शब्दों का संकलन करके उन्होंने उनको वर्गीकृत किया और उनकी कई सूचियाँ बनाई। एक सूची "धातु पाठ" की थी जिसे पाणिनि ने अष्टाध्यायी से अलग रखा है। उसमें १९४३ धातुएँ हैं। धातुपाठ में दो प्रकार की धातुएँ हैं- १. जो पाणिनि से पहले साहित्य में प्रयुक्त हो चुकी थीं और दूसरी वे जो लोगों की बोलचाल में उन्हें मिली। उनकी दूसरी सूची में वेदों के अनेक आचार्य थे। किस आचार्य के नाम से कौन सा चरण प्रसिद्ध हुआ और उसमें पढ़नेवाले छात्र किस नाम से प्रसिद्ध थे और उन छन्द या शाखाओं के क्या नाम थे, उन सब की निष्पत्ति भिन्न भिन्न प्रत्यय लगाकर पाणिनि ने दी है; जैसे एक आचार्य तित्तिरि थे। उनका चरण तैत्तरीय कहा जाता था और उस विद्यालय के छात्र एवं वहाँ की शाखा या संहिता भी तैत्तिरीय कहलाती थी। पाणिनि की तीसरी सूची "गोत्रों" के संबंध में थी। मूल सात गोत्र वैदिक युग से ही चले आते थे। पाणिनि के काल तक आते आते उनका बहुत विस्तार हो गया था। गोत्रों की कई सूचियाँ श्रौत सूत्रों में हैं। जैसे बोधायन श्रौत सूत्र में जिसे महाप्रवर कांड कहते हैं। किंतु पाणिनि ने वैदिक और लौकिक दोनों भाषाओं के परिवार या कुटुंब के नामों की एक बहुत बड़ी सूची बनाई जिसमें आर्ष गोत्र और लौकिक गोत्र दोनों थे। छोटे मोटे पारिवारिक नाम या अल्लों को उन्होंने गोत्रावयव कहा हैं। एक गोत्र या परिवार में होनेवाला दादा, बूढ़े एवं चाचा (सपिंड स्थविर पिता, पुत्र, पौत्र) आदि व्यक्तियों के नाम कैसे रखे जाते थे, इसका ब्योरेवार उल्लेख पाणिनि ने किया है। बीसियों सूत्रों के साथ लगे हुए गणों में गोत्रों के अनेक नाम पाणिनि के "गणपाठ" नामक परिशिष्ट ग्रंथ में हैं। पाणिनि की चौथी सूची भौगोलिक थी। पाणिनि का जन्मस्थान उत्तर पश्चिम में था, जिस प्रदेश को हम गांधार कहते हैं। यूनानी भूगोल लेखकों ने लिखा है कि उत्तर पश्चिम अर्थात् गांधार और पंजाब में लगभग ५०० ऐसे ग्राम थे जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या दस सहस्र के लगभग थी। पाणिनि ने उन ५०० ग्रामों के वास्तविक नाम भी दे दिए हैं जिनसे उनके भूगोल संबंधी गणों की सूचियाँ बनी हैं। ग्रामों और नगरों के उन नामों की पहचान टेढ़ा प्रश्न है, किंतु यदि बहुत परिश्रम किया जाय तो यह संभव है जैसे सुनेत और सिरसा पंजाब के दो छोटे गाँव हैं जिन्हें पाणिनि ने सुनेत्र और शैरीषक कहा है। पंजाब की अनेक जातियों के नाम उन गाँवों के अनुसार थे जहाँ वह जाति निवास करती थी या जहाँ से उसके पूर्वज आए थे। इस प्रकार निवास और अभिजन (पूर्वजों का स्थान) इन दोनों से जो उपनाम बनते थे वे पुरुष नाम में जुड़ जाते थे क्योंकि ऐसे नाम भी भाषा के अंग थे। पाणिनि ने पंजाब के मध्यभाग में खड़े होकर अपनी दृष्टि पूर्व और पश्चिम की ओर दौड़ाई। उन्हें दो पहाड़ी इलाके दिखाई पड़े। पूर्व की ओर कुल्लू काँगड़ाँ जिसे उस समय त्रिगर्त कहते थे, पश्चिमी ओर का पहाड़ी प्रदेश वह था जो गांधार की पूर्वी राजधानी तक्षशिला से पश्चिमी राजधानी पुष्कलावती तक फैला था। इसी में वह प्रदेश था जिसे अब कबायली इलाका कहते हैं और जो सिंधु नद के उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त था और जिसके उत्तरी छोर पर दरद (वर्तमान गिलगित) और दक्षिणी छोर पर सौबीर (वर्तमान सिंध) था। पाणिनि ने इस प्रदेश में रहनेवाले कबीलों की विस्तृत सूची बनाई और संविधानों का अध्ययन किया। इस प्रदेश को उस समय ग्रामणीय इलाका कहते थे क्योंकि इन कबीलों में, जैसा आज भी है और उस समय भी था, ग्रामणी शासन की प्रथा थी और ग्रामणी शब्द उनके नेता या शासक की पदवी थी। इन जातियों की शासनसभा को इस समय जिर्गा कहते हैं और पाणिनि के युग में उसे "ब्रातपूग", "संघ" या "गण" कहते थे। वस्तुत: सब कबीलों के शासन का एक प्रकार न था किंतु वे संघ शासन के विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में थे। पाणिनि ने व्रात और पूग इन संज्ञाओं से बताया है कि इनमें से बहुत से कबीले उत्सेधजीवी या लूटपाट करके जीवन बिताते थे जो आज भी वहाँ के जीवन की सच्चाई है। उस समय ये सब कबीले या जातियाँ हिंदू थीं और उनके अधिपतियों के नाम संस्कृत भाषा के थे जैसे देवदत्तक, कबीले का पूर्वपुरुष या संस्थापक कोई देवदत्त था। अब नाम बदल गए हैं, किंतु बात वही है जैसे ईसाखेल कबीले का पूर्वज ईसा नामक कोई व्यक्ति था। इन कबीलों के बहुत से नाम पाणिनि के गणपाठ में मिलते हैं, जैसे अफरीदी और मोहमद जिन्हें पाणिनि ने आप्रीत और मधुमंत कहा है। पाणिनि की भौगोलिक सूचियों में एक सूची जनपदों की है। प्राचीन काल में अपना देश जनपद भूमियों में बैठा हुआ था। मध्य एशिया की वंक्षु नदी के उपरिभाग में स्थित कंबोज जनपद, पश्चिम में सौराष्ट्र का कच्छ जनपद, पूरब में असम प्रदेश का सूरमस जनपद (वर्तमान सूरमा घाटी) और दक्षिण में गोदावरी के किनारे अश्मक जनपद (वर्तमान पेठण) इन चार खूँटों के बीच में सारा भूभाग जनपदों में बँटा हुआ था और लोगों के राजनीतिक और सामाजिक जीवन एवं भाषाओं का जनपदीय विकास सहस्रों वर्षों से चला आता था। पाणिनि ने सहस्रों शब्दों की व्युत्पत्ति बताई जो अष्टाध्यागी के चौथे पाँचवें अध्यायों में है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, सैनिक, व्यापारी किसान, रँगरेज, बढ़ई, रसोइए, मोची, ग्वाले, चरवाहे, गड़रिये, बुनकर, कुम्हार आदि सैकड़ों पेशेवर लोगों से मिलजुलकर पाणिनि ने उनके विशेष पेशे के शब्दों का संग्रह किया। पाणिनि ने यह बताया कि किस शब्द में कौन सा प्रत्यय लगता है। वर्णमाला के स्वर और व्यंजन रूप जो अक्षर है उन्हीं से प्रत्यय बनाए गए। जैसे- वर्षा से वार्षिक, यहाँ मूल शब्द वर्षा है उससे इक् प्रत्यय जुड़ गया और वार्षिक अर्थात् वर्षा संबंधी यह शब्द बन गया। अष्टाध्यायी में तद्वितों का प्रकरण रोचक है। कहीं तो पाणिनि की सूक्ष्म छानबीन पर आश्चर्य होता हैं, जैसे व्यास नदी के उत्तरी किनारे की बाँगर भूमि में जो पक्के बारामासी कुएँ बनाए जाते थे उनके नामों का उच्चारण किसी दूसरे स्वर में किया जाता था और उसी के दक्खिनी किनारे पर खादर भूमि में हर साल जो कच्चे कुएँ खोद लिए जाते थे उनके नामों का स्वर कुछ भिन्न था। यह बात पाणिनि ने "उदक् च बिपाशा" सूत्र में कही है। गायों और बैलों की तो जीवनकथा ही पाणिनि ने सूत्रों में भर दी है। आर्थिक जीवन का अध्ययन करते हुए पाणिनि ने उन सिक्कों को भी जाँचा जो बाजारों में चलते थे। जैसे "शतमान", "कार्षापण", "सुवर्ण", "अंध", "पाद", "माशक" "त्रिंशत्क" (तीस मासे या साठ रत्ती तौल का सिक्का), "विंशतिक" (बीस मासे की तौल का सिक्का)। कुछ लोग अदला-बदली से भी माल बेचते थे। उसे "निमान" कहा जाता था। पाणिनि के काल में शिक्षा और वाङ्मय का बहुत विस्तार था। संस्कृत भाषा का उन्होंने बहुत ही गहरा अध्ययन किया था। वैदिक और लौकिक दोनों भाषाओं से वे पूर्णतया परिचित थे। उन्हीं की सामग्री से पाणिनि ने अपने व्याकरण की रचना की पर उसमें प्रधानता लौकिक संस्कृत की ही रखी। बोलचाल की लौकिक संस्कृत को उन्होंने भाषा कहा है। उन्होंने न केवल ग्रंथरचना को किंतु अध्यापन कार्य भी किया। (व्याकरण के उदाहरणों में उनके विषय का नाम कोत्स कहा है)। पाणिनि का शिक्षा विषयक संबंध, संभव है, तक्षशिला के विश्वविद्यालय से रहा हो। कहा जाता है, जब वे अपनी सामग्री का संग्रह कर चुके तो उन्होंने कुछ समय तक एकांतवास किया और अष्टाध्यायी की रचना की। पाणिनि का समय क्या था, इस विषय में कई मत हैं। कोई उन्हें ७वीं शती ई. पू., कोई 5वीं शती या चौथी शती ई. पू. का कहते हैं। पतंजलि ने लिखा है कि पाणिनि की अष्टाध्यायी का संबंध किसी एक वेद से नहीं बल्कि सभी वेदों की परिषदों से था (सर्व वेद परिषद)। पाणिनि के ग्रंथों की सर्वसम्मत प्रतिष्ठा का यह भी कारण हुआ। पाणिनि को किसी मतविशेष में पक्षपात न था। शब्द का अर्थ एक व्यक्ति है या जाति, इस विषय में उन्होंने दोनों पक्षों को माना है। गऊ शब्द एक गाय का भी वाचक है और गऊ जाति का भी। वाजप्यायन और व्याडि नामक दो आचार्यों में भिन्न मतों का आग्रह या, पर पाणिनि ने सरलता से दोनों को स्वीकार कर लिया। पाणिनि से पूर्व एक प्रसिद्ध व्याकरण इंद्र का था। उसमें शब्दों का प्रातिकंठिक या प्रातिपदिक विचार किया गया था। उसी की परंपरा पाणिनि से पूर्व भारद्वाज आचार्य के व्याकरण में ली गई थी। पाणिनि ने उसपर विचार किया। बहुत सी पारिभाषिक संज्ञाएँ उन्होंने उससे ले लीं, जैसे सर्वनाम, अव्यय आदि और बहुत सी नई बनाई, जैसे टि, घु, भ आदि। पाणिनि को मांगलिक आचार्य कहा गया है। उनके हृदय की उदार वृत्ति मंगलात्मक कर्म और फल की इच्छुक थी। इसकी साक्षी यह है कि उन्होंने अपने शब्दानुशासन का आरंभ "वृद्ध" शब्द से किया। कुछ विद्वान् कहते हैं कि पाणिनि के ग्रंथ में न केवल आदिमंगल बल्कि मध्यमंगल और अंतमंगल भी है। उनका अंतिम सूत्र अ आ है। ह्रस्वकार वर्णसमन्वय का मूल है। पाणिनि को सुहृद्भूत आचार्य अर्थात् सबके मित्र एवं प्रमाणभूत आचार्य भी कहा है। पतंजलि का कहना है कि पाणिनि ने जो सूत्र एक बार लिखा उसे काटा नहीं। व्याकरण में उनके प्रत्येक अक्षर का प्रमाण माना जाता है। शिष्य, गुरु, लोक और वेद धातुलि शब्द और देशी शब्द जिस ओर आचार्य ने दृष्टि डाली उसे ही रस से सींच दिया। आज भी पाणिनि "शब्द:लोके प्रकाशते", अर्थात् उनका नाम सर्वत्र प्रकाशित है। समयकाल इनका समयकाल अनिश्चित तथा विवादित है। इतना तय है कि छठी सदी ईसा पूर्व के बाद और चौथी सदी ईसापूर्व से पहले की अवधि में इनका अस्तित्व रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म पंजाब (पाकिस्तान) के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब है। इनका जीवनकाल ५२०-४६० ईसा पूर्व माना जाता है। पाणिनि के जीवनकाल को मापने के लिए यवनानी शब्द के उद्धरण का सहारा लिया जाता है। इसका अर्थ यूनान की स्त्री या यूनान की लिपि से लगाया जाता है। गांधार में यवनो (ग्रीक्स्) के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी सिकंदर के आक्रमण के पहले नहीं थी। सिकंदर भारत में ईसा पूर्व ३३० के आसपास आया था। पर ऐसा हो सकता है कि पाणिनि को फारसी यौन के जरिये यवनों की जानकारी होगी और पाणिनि दारा प्रथम (शासनकाल - ५२१-४८५ ईसा पूर्व) के काल में भी हो सकते हैं। प्लूटार्क के अनुसार सिकंदर जब भारत आया था तो यहां पहले से कुछ यूनानी बस्तियां थीं। कृतियाँ १- अष्टाध्यायी (सूत्रपाठ) - इसमे ८ अध्याय एवं कुल लगभग ४००० सूत्र हैं। २- धातुपाठ - यह १० गणों में विभक्त एवं लगभग २००० धातुवें हैं ३- गणपाठ- सूत्रपठित गणों का पाठ ४- उणादिसूत्र -- इनके पाणिनिकृत होने में बहुत सन्देश है। ५- लिंगानुशासन- लिंग निर्धारण विषय कात्यायन ने पाणिनि के सूत्रों पर वार्तिक लिखे। पतञ्जलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टिप्पणी लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। अन्य रचनाएँ पाणिनि को दो साहित्यिक रचनाओं के लिए भी जाना जाता है, यद्यपि वे अब प्राप्य नहीं हैं। जाम्बवती विजय आज एक अप्राप्य रचना है जिसका उल्लेख राजशेखर नामक व्यक्ति ने जह्लण की सूक्ति मुक्तावली में किया है। इसका एक भाग रामयुक्त की नामलिंगानुशासन की टीका में भी मिलता है। राजशेखर ने जह्लण की सूक्तिमुक्तावली में लिखा है: नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम् ॥ पाताल विजय, जो आज अप्राप्य रचना है, जिसका उल्लेख नामिसाधु ने रुद्रटकृत काव्यालंकार की टीका में किया है। पाणिनि का महत्त्व एक शताब्दी से भी पहले प्रसिद्ध जर्मन भारतविद् मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस ऑफ थाट में कहा - "मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके। इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि २,५०,००० शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है। .... अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का ८०० धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट १२१ मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके।" पाणिनि की सूत्र शैली पाणिनि के सूत्रों की शैली अत्यंत संक्षिप्त है। वे सूत्रयुग में ही हुए थे। श्रौत सूत्र, धर्म सूत्र, गृहस्थसूत्र, प्रातिशाख्य सूत्र भी इसी शैली में है किंतु पाणिनि के सूत्रों में जो निखार है वह अन्यत्र नहीं है। इसीलिये पाणिनि के सूत्रों को प्रतिष्णात सूत्र कहा गया है। पाणिनि ने वर्ण या वर्णमाला को १४ प्रत्याहार सूत्रों में बाँटा और उन्हें विशेष क्रम देकर ४२ प्रत्याहार सूत्र बनाए। पाणिनि की सबसे बड़ी विशेषता यही है जिससे वे थोड़े स्थान में अधिक सामग्री भर सके। यदि अष्टाध्यायी के अक्षरों को गिना जाय तो उसके ३९९५ सूत्र एक सहस्र श्लोक के बराबर होते हैं। पाणिनि ने संक्षिप्त ग्रंथरचना की और भी कई युक्तियाँ निकालीं जैसे अधिकार और अनुवृत्ति अर्थात् सूत्र के एक या कई शब्दों को आगे के सूत्रों में ले जाना जिससे उन्हें दोहराना न पड़े। अर्थ करने की कुछ परिभाषाएँ भी उन्होंने बनाई। एक बड़ी विचित्र युक्ति उन्होंने असिद्ध सूत्रों की निकाली। अर्थात् बाद का सूत्र अपने से पहले के सूत्र के कार्य को ओझल कर दे। पाणिनि का यह असिद्ध नियम उनकी ऐसी तंत्र युक्ति थी जो संसार के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं पाई जाती। पाणिनि और आधुनिक भाषाशास्त्र पाणिनि का कार्य १९वीं सदी में यूरोप में जाना जाने लगा, जिससे इसका आधुनिक भाषाशास्त्र पर खूब प्रभाव पड़ा। आरंभ में फ़्रेन्ज़ बोप् ने पाणिनि का अध्ययन किया। बाद में बहुत सी रचनाओं से योरपीय संस्कृत के विद्वान् जैसे फर्नांडीस डी सॉसर, लियोनार्ड ब्लूमफील्ड और रोमन जैकब्सन् आदि प्रभावित हुए। फ्रिट्स् स्टाल ने योरप में भाषा पर भारतीय विचारों के प्रभाव की विवेचना की। डी सॉसर् पाणिनि और बाद के भारतीय भाषाशास्त्री भर्तृहरि का फ़र्डीनांड डि सॉसर के कई बुनियादी विचारों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। फ़र्डीनांड डि सॉसर संस्कृत के प्राध्यापक थे, जो कि आधुनिक संरचनात्मक भाषाशास्त्र के जनक कहे जाते हैं। सॉसर ने स्वयं अपने कुछ विचारों पर भारतीय व्याकरण के प्रभाव का ज़िक्र किया है। अपने १८८१ में प्रकाशित "डी लेम्पलोइ डु जेनिटिफ़् ऍब्सॉल्यु एन् सैन्स्क्रिट्" (संस्कृत में जेनेटिव् निरपेक्ष का प्रयोग) में, उन्होंने पाणिनि को विशेषरूप से ज़िक्र करके अपनी रचना को प्रभावित करने वाला बताया है। लियोनार्ड् ब्लूम्फ़ील्ड् अमेरिकी संरचनावाद के संस्थापक लियोनॉर्ड् ब्लूम्फ़ील्ड ने १९२७ में एक शोधपत्र लिखा जिसका शीर्षक था "ऑन् सम् रूल्स् ऑफ़् पाणिनि" (यानी, पाणिनि के कुछ नियमों पर)। आज के औपचारिक तन्त्रों के साथ तुलना पाणिनि का व्याकरण संसार का पहला औपचारिक तन्त्र (फ़ॉर्मल् सिस्टम्) है। इसका विकास १९वीं सदी के गोट्लॉब फ्रेज के अन्वेषणों और उसके बाद के गणित के विकासों से बहुत पहले ही हो गया था। अपने व्याकरण का स्वरूप बनाने में पाणिनि ने "सहायक प्रतीकों" का प्रयोग किया, जिसमें नये शब्दांशों को सिन्टैक्टिक श्रेणियों का विभाजन रखने के लिए प्रयोग किया, ताकि व्याकरण की व्युत्पत्तियों को यथेष्ट नियन्त्रित किया जा सके। ठीक यही तकनीक जब एमिल पोस्ट् ने दोबारा "खोजी", तो यह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाओं की अभिकल्पना के लिए मानदण्ड बना। आज संस्कृतविद् स्वीकार करते हैं कि पाणिनि का भाषीय औज़ार अनुप्रयुक्त पोस्ट-सिस्टम् के रूप में भली-भाँति वर्णित है। पर्याप्तमात्रा में प्रमाण मौज़ूद हैं कि इन प्राचीन लोगों को सहपाठ-संवेदी-व्याकरण (कन्टेक्स्ट-सेन्सिटिव ग्रामर) में महारत थी और कई जटिल समस्याओं को सुलझाने में व्यापक क्षमता थी। इन्हें भी देखें अष्टाध्यायी महाजनपद सुश्रुत भारतीय गणितज्ञों की सूची संस्कृत व्याकरण का इतिहास बाहरी कड़ियाँ पाणिनि की अष्टाध्यायी ITRANSliteration में तथा देवनागरी लिपि में The Paninian System of Sanskrit Grammar Who is the father of computing - Turing or Panin!? Panini's Grammar and Computer Science (Saroja Bhate and Subhash Kak) गणकाष्टाध्यायी - पाणिनि के सूत्रों पर आधारित संस्कृत व्याकरण का सॉफ़्टवेयर (Win98/2000/XP) पाणिनि की अष्टाध्यायी का मेण्डलीव की आवर्त सारणी पर प्रभाव - यह पेपर :en:ArXiv.org e-print archive में है। मेण्डलीव की आवर्त सारणी में संस्कृत (हिन्दी ब्लॉग, चर्चा) पाणिनि फ़ाउण्डेशन काशी की विभूतियाँ - पाणिनि पाणिनि – सर्वश्रेष्ठ व्याकरण के रचनाकार (हिन्दी ब्लॉग, चर्चा) पाणिनि : व्याकरण शास्त्र के श्रेष्ठ रचनाकार Indian Researcher Solves a 2,500 Years Old Sanskrit Problem for NLP (१५ दिसम्बर, २०२२) सन्दर्भ संस्कृत व्यक्तिगत जीवन वैयाकरण
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यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। कला राजा रवि वर्मा, चित्रकला यामिनी कृष्णमूर्ति, नृत्‍य अमृता शेरगिल, चित्रकार अंजलि एला मेनन, चित्रकला बिरजू महाराज , नृत्‍य जतिन दास, चित्रकला केलुचरण महापात्र, ओडिसी नृत्‍य मल्लिका साराभाई, नृत्‍य मकबूल फ़िदा हुसैन, चित्रकला सुधा चंद्रन, नृत्‍य व्यापार एवं उद्योग जमशेदजी टाटा, उद्योगपति टाटा समूह घनश्याम दास बिड़ला, उद्योगपति बिड़ला जमनालाल बजाज धीरूभाई अंबानी, उद्योगपति अंबानी समूह सोहराब फीरोजशाह गोदरेज, गोदरेज उद्योग एन आर नारायणमूर्ति, सह-संस्थापक इन्फोसिस शिव नादर शबीर भाटिया, सह संस्थापक हाटमेल संजीव सिंधु, संस्थापक आइ टू टेक्नोलजी शांतनुराव लक्ष्मण राव किर्लोस्कर -- किर्लोस्कर समूह सुब्रत राय, सहारा इंडिया परिवार वर्गीश कुरियन, संस्थापक आपरेशन फ्लड विनोद खोसला, सह-संस्थापक सन माइक्रो सिस्टम ख्वाजा अब्दुल हमीद, सह-संस्थापक सिप्ला, दवाई कम्पनी यूसुफ़ ख्वाजा हमीद, अध्यक्ष, सिप्ला धर्मपाल गुलाटी, एम.डी.एच.मसाले अर्जुन मल्होत्रा सह-संस्थापक, एच सी एल टेक्नालजी देवांग मेहता, भूतपूर्व अध्यक्ष नास्काम भारतीय क्रांतिकारी धन सिंह गुर्जर बहादुर शाह ज़फ़र रानी लक्ष्मीबाई बेगम हज़रत महल रानी अवंतीबाई झलकारी बाई अजीजनबाई बख़्त खान कुंवर सिंह मंगल पांडे तात्या टोपे नाना साहेब अज़ीमुल्ला खां अली बहादुर द्वितीय खान बहादुर खान रुहेला मौलवी लियाक़त अली मौलवी अलाउद्दीन अहमदुल्लाह शाह बिरसा मुंडा टंट्या भील ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव शेख भिखारी फज़ले हक खैराबादी मौलाना मोहम्मद बाकिर शहीद पीर अली खान शहीद सआदत खां शेर अली आफ़रीदी राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी खुदीराम बोस भगत सिंह सूर्य सेन रोशन सिंह वासुदेव बलवन्त फड़के चन्द्रशेखर आज़ाद बटुकेश्वर दत्त अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान सुखदेव राजगुरु राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला रासबिहारी बोस रामप्रसाद बिस्मिल भगवती चरण वोहरा दुर्गा भाभी प्रफुल्ल चाकी हेमू कालाणी शचीन्द्रनाथ सान्याल कर्तार सिंह सराभा लाला हरदयाल सोहन सिंह भकना विष्णु गणेश पिंगले उधम सिंह कन्हाई लाल दत्त श्यामजी कृष्ण वर्मा मदनलाल ढींगरा सुभाष चन्द्र बोस वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय भारतीय इतिहासकार राखालदास बनर्जी अबुल फजल अविनाशचन्द्र दास आचार्य रामदेव इरफान हबीब काशीप्रसाद जायसवाल गौरीशंकर हीराचंद ओझा चिन्तामण विनायक वैद्य जयचन्द विद्यालंकार ठाकुर रामसिंह दयाराम साहनी दिनेशचंद्र सरकार देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय धरमपाल पंडित भगवद्दत्त बलवंत मोरेश्वर पुरंदरे बिनय कुमार सरकार बिपिन चन्द्र यदुनाथ सरकार यल्लाप्रगड सुदर्शन राव रमेशचन्द्र दत्त रमेशचन्द्र मजुमदार रामकृष्ण गोपाल भांडारकर रोमिला थापर विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे वी आर रामचन्द्र दीक्षितार दशरथ शर्मा रामशरण शर्मा कविराज श्यामलदास सत्यकेतु विद्यालंकार सीता राम गोयल विन्यास, सौन्दर्य जॉन अब्राहम, मॉडल और अभिनेता मधु सप्रे मनीष मल्होत्रा, डिजाइनर मिलिंद सोमान, माडल और अभिनेता ऋतु बेरी, डिजाइनर रोहित बहल, डिजाइनर साहित्य वाल्मीकि वेद व्यास कल्‍हण कालिदास तुलसीदास कबीर भारतेन्दु हरिश्चंद्र बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय प्रेमचन्‍द हरिवंश राय बच्चन सुमित्रानन्‍दन पन्‍त रामधारी सिंह दिनकर मैथिलीशरण गुप्त इकबाल मिर्ज़ा ग़ालिब अज्ञेय रघुवीर सहाय प्रभाष जोशी कमलेश्वर कन्हैया लाल नन्दन निर्मल वर्मा अमृता प्रीतम महादेवी वर्मा आर के नारायण मनोहर श्याम जोशी सलमान रुश्दी वैद्यनाथ मिश्र यात्री 'नागार्जुन ' पोद्दार रामावतार अरुण फणीश्वर नाथ "रेणु" विक्रम सेठ वी एस नायपाल पत्रकार जेम्स ऑगस्टस हिक्की लक्ष्मण नारायण गर्दे बाबूराव विष्णु पराडकर द्वारकानाथ विद्याभूषण गणेशशंकर विद्यार्थी खुशवंत सिंह एम जे अकबर अरुण शौरी फिरोज गांधी मौलवी मोहम्मद बाकिर वक्कोम मौलवी स्वदेशाभिमानी रामकृष्ण पिल्लई कुलदीप नैयर रवीश कुमार रजत शर्मा राजदीप सरदेसाई चलचित्र दिग्दर्शक दादासाहब फालके राज कपूर सत्‍यजित राय अदूर गोपालकृष्णन गुरिन्दर चड्डा गुरुदत्त मणि रत्‍नम्‌ मनोज श्‍यामलन्‌ राजकुमार संतोषी रामगोपाल वर्मा सई परांजपे शेखर कपूर श्याम बेनेगल सुभाष घई प्रकाश झा यश चोपड़ा सूत्रधार अमिताभ बच्चन, अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड देवानंद, नवकेतन फिल्मस अज़ीज़ मिर्जा, ड्रीम्ज इंटरनेशनल जूही चावला, ड्रीम्ज अनलिमिटेड मीरा नायर, मीराबाई फिल्मस राजकपूर, आर के फिल्मस सूरज बड़जात्या, राजश्री फिल्मस सुभाष घई, मुक्ता आर्टस सुनील दत्त, अंजना आर्टस यश चोपड़ा, यशराज फिल्मस यश जौहर, धर्म प्रोडक्सनस अभिनय अभिनेता अमिताभ बच्‍चन अमरीश पुरी अनुपम खेर अक्षय खन्ना अमोल पालेकर आमिर खान अजय देवगण अनिल कपूर दीलिप कुमार गुरु दत्त कमल हसन मनोज कुमार नसीरुद्दीन शाह ओम प्रकाश अभिनेत्री नूतन ऐश्वर्या राय माधुरी दीक्षित मधुबाला मीना कुमारी स्मिता पाटिल संगीत अमीर ख़ुसरो, (कव्वाली, गज़ल संगीतकार) राहुल देव बर्मन लता मंगेशकर, श्वर कोकिला (गायिका) आशा भोसले, गायिका अमज़द अली खान ए आर रहमान - संगीतकार बिस्मिल्लाह खां - शहनाई वादक [[विलायत खां] - सितार वादक ज़ाकिर हुसैन, तबला वादक गीता दत्त, गायिका हेमंत कुमार, गायक, संगीतकार किशोर कुमार, गायक, अभिनेता मन्ना डे, गायक एम एस सुब्बालक्षमी, शास्त्रीय (कर्नाटक संगीत) गायिका मोहम्मद रफी मुकेश नौशाद नूरजहाँ ओ पी नैयर रविशंकर, सितार वादक शमसाद बेग़म सुरैया तलत महमूद जुबीन मेहता अरिजीत सिंह अपराधी हाजी मस्तान छोटा राजन दाउद इब्राहिम मोहम्मद शहाबुद्दीन नाथूराम गोडसे याकूब मेमन दार्शनिक आदि शंकराचार्य स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वामी विवेकानंद भगवान दास सर्वेपल्लि राधाकृष्णन डॉ॰ देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय पांडुरंग शास्त्री आठवले डॉ॰ गोविन्द चंद्र पाण्डेय ईश्वर चंद्र विद्यासागर डॉ॰ दयाकृष्ण यशदेव शल्य राजनेता महात्मा गांधी सरदार वल्लभ भाई पटेल डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राजेन्द्र प्रसाद मोतीलाल नेहरू दादाभाई नौरोजी चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य टंगुटूरी प्रकाशम जे॰ बी॰ कृपलानी श्यामाप्रसाद मुखर्जी शौकतुल्लाह शाह अंसारी ज़ाकिर हुसैन फखरुद्दीन अली अहमद कुमारस्वामी कामराज एस निजलिंगप्पा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद बिधान चन्द्र राय रफी अहमद किदवई मोरारजी देसाई चौधरी चरण सिंह चौधरी देवीलाल रणबीर सिंह हुड्डा चौधरी बंसीलाल राममनोहर लोहिया कांशीराम गोपीनाथ बोरदोलोई विश्वनाथ प्रताप सिंह चन्द्रशेखर पी वी नरसिंह राव एच डी देवगौड़ा इन्द्र कुमार गुजराल अटल बिहारी वाजपेयी लाल कृष्ण आडवाणी नरेंद्र मोदी अमित शाह जवाहरलाल नेहरू लाल बहादुर शास्त्री फिरोज गांधी गुलज़ारीलाल नन्दा राजकुमारी अमृत कौर इंदिरा गाँधी राजीव गाँधी (1944-1991) सोनिया गांधी मेनका गांधी शेख अब्दुल्ला फारूक अब्दुल्ला मुफ्ती मोहम्मद सईद एन. टी. रमाराव एम. जी. रामचंद्रन नीलम संजीव रेड्डी वराहगिरी वेंकट गिरी शंकर दयाल शर्मा प्रणब मुखर्जी ज्योर्ज फ़र्नान्डिस जगजीवन राम श्रीकृष्ण सिंह अनुग्रह नारायण सिंह सत्येन्द्र नारायण सिन्हा अब्दुल गफूर कर्पूरी ठाकुर लालूप्रसाद यादव नीतीश कुमार मनमोहन सिंह मोतीलाल वोरा पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त चन्द्र भानु गुप्ता नारायण दत्त तिवारी मुलायम सिंह यादव मायावती मोहम्मद शफ़ी कुरैशी ममता बनर्जी ज्योति बसु शरद पवार पी चिदंबरम ए के एंटोनी ए आर किदवई सी. एन. अन्नादुरै एम करुणानिधि जे जयललिता तरुण गोगोई बीजू पटनायक नवीन पटनायक प्रकाश सिंह बादल कैप्टन अमरिंदर सिंह उमाशंकर दीक्षित शीला दीक्षित गुलाम नबी आज़ाद विजया राजे सिंधिया माधवराव सिंधिया दिग्विजय सिंह शिवराज सिंह चौहान राजेश पायलट भैरों सिंह शेखावत अशोक गहलोत सिकंदर बख्त एन चंद्रबाबू नायडू वीरभद्र सिंह मनोहर पर्रिकर शिबू सोरेन अहमद पटेल धर्मगुरु एवं धर्म उदेशक गौतम बुद्ध चैतन्‍य महाप्रभु तुलसीदास वर्धमान महावीर गुरु नानक देव रामानन्दाचार्य संत कबीर संत रविदास संत तुकाराम संत ज्ञानेश्वर संत नामदेव संत एकनाथ मीराबाई नारायण गुरु समर्थ गुरु रामदास रामकृष्‍ण परमहंस स्वामी विवेकानन्द स्वामी रामतीर्थ अरविन्‍द माता अमृतआनन्‍दमयी परमहंस योगानन्द बोधिधर्म बौद्धाचार्य जिद्दु कृष्णमूर्ति रजनीश ओशो गुरु घासीदास बाबा सिख गुरू गुरू नानक देव गुरु अंगद देव गरु अमर दास गुरु राम दास गुरु अर्जुअन दास गुरु हरगोविंद गुरु हर राय गुरु हरकिशन गुरु तेगबहादुर गुरु गोविंद सिंह शिवपुरी बाबा मुस्लिम धर्म उदेशक मोइनुद्दीन चिश्ती बू अली शाह क़लंदर हज़रत निज़ामुद्दीन वारिस अली शाह अहमद सरहिन्दी सलीम चिश्ती महमूद अल-हसन रशीद अहमद गंगोही हुसैन अहमद मदनी इमाम अहमद रज़ा मुस्तफा रज़ा खान क़ादरी अख्तर रज़ा खान राजा विक्रमादित्य महापद्म नन्द बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट अशोक चन्द्रगुप्त प्रथम समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हर्षवर्धन धर्मपाल पृथ्वीराज चौहान प्रथम राजराज चोल सुहेलदेव राजा भोज हेमचन्द्र विक्रमादित्य प्रथम हरिहर राय प्रथम बुक्क राय लाचित बरफूकन राणा सांगा बाबर हुमांयू अकबर जहांगीर शाहजहां औरंगजेब बन्दा सिंह बहादुर शिवाजी महाराजा रणजीत सिंह वैज्ञानिक आर्यभट भास्कराचार्य ब्रम्हगुप्त आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय सी वी रामन जगदीश चंद्र बोस होमी जहाँगीर भाभा बीरबल साहनी अशोक सेन जार्ज सुदर्शन हरगोविन्द खुराना हरीश चंद्र सरदार जगजीत सिंह जे जे रावल मेघनाद साहा राजा रमन्ना सत्येन्द्र नाथ बोस शान्ति स्वरूप भटनागर सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर विक्रम साराभाई सी एन आर राव यूसुफ़ ख्वाजा हमीद ए. पी. जे. अब्दुल कलाम समाजसेवा राजा राममोहन राय महात्मा गांधी सावित्रीबाई फुले मदनमोहन मालवीय धोंडो केशव कर्वे पांडुरंग शास्त्री आठवले अन्ना हजारे बाबा आमटे सुंदरलाल बहुगुणा, चिपको आंदोलन विनोबा भावे, सर्वोदय और भूदान आंदोलन जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति ठक्कर बापा गाडगे बाबा मदर टेरेसा वक्कोम मौलवी खिलाड़ी ध्यानचंद कपिल देव अनिल कुंबले अंजू बाबी जार्ज बाइचिंग भूटिया धनराज पिल्लै गीत सेठी गोपीचंद मिल्खा सिंह कर्णम मल्लेश्वरी लियेंडर पेस महेश भूपति पी टी उषा सचिन तेंदुलकर सानिया मिर्ज़ा हिमा दास अर्थशास्त्री प्रशान्त चन्द्र महलनोबिस डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जॉन मथाई डॉ. अमर्त्य सेन मनमोहन सिंह महावीर सिंह राकेश शर्मा व्यक्तित्व सूचियाँ भारत के लोग
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अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था। अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित। १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी। प्रमुख कृतियाँ चर्चित कृतियाँ उपन्यास- पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां आत्मकथा-रसीदी टिकट कहानी संग्रह- कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में संस्मरण- कच्चा आंगन, एक थी सारा उपन्यास डॉक्टर देव (१९४९)- (हिन्दी, गुजराती, मलयालम और अंग्रेज़ी में अनूदित), पिंजर (१९५०) - (हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी और सर्बोकरोट में अनूदित), आह्लणा (१९५२) (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित), आशू (१९५८) - हिन्दी और उर्दू में अनूदित, इक सिनोही (१९५९) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, बुलावा (१९६०) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, बंद दरवाज़ा (१९६१) हिन्दी, कन्नड़, सिंधी, मराठी और उर्दू में अनूदित, रंग दा पत्ता (१९६३) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, इक सी अनीता (१९६४) हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में अनूदित, चक्क नम्बर छत्ती (१९६४) हिन्दी, अंग्रेजी, सिंधी और उर्दू में अनूदित, धरती सागर ते सीपियाँ (१९६५) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, दिल्ली दियाँ गलियाँ (१९६८) हिन्दी में अनूदित, एकते एरियल (१९६९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, जलावतन (१९७०)- हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, यात्री (१९७१) हिन्दी, कन्नड़, अंग्रेज़ी बांग्ला और सर्बोकरोट में अनूदित, जेबकतरे (१९७१), हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, मलयालम और कन्नड़ में अनूदित, अग दा बूटा (१९७२) हिन्दी, कन्नड़ और अंग्रेज़ी में अनूदित पक्की हवेली (१९७२) हिन्दी में अनूदित, अग दी लकीर (१९७४) हिन्दी में अनूदित, कच्ची सड़क (१९७५) हिन्दी में अनूदित, कोई नहीं जानदाँ (१९७५) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, उनहाँ दी कहानी (१९७६) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, इह सच है (१९७७) हिन्दी, बुल्गारियन और अंग्रेज़ी में अनूदित, दूसरी मंज़िल (१९७७) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, तेहरवाँ सूरज (१९७८) हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित, उनींजा दिन (१९७९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, कोरे कागज़ (१९८२) हिन्दी में अनूदित, हरदत्त दा ज़िंदगीनामा (१९८२) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित आत्मकथा: रसीदी टिकट (१९७६) कहानी संग्रह: हीरे दी कनी, लातियाँ दी छोकरी, पंज वरा लंबी सड़क, इक शहर दी मौत, तीसरी औरत सभी हिन्दी में अनूदित कविता संग्रह: लोक पीड़ (१९४४), मैं जमा तू (१९७७), लामियाँ वतन, कस्तूरी, सुनहुड़े (साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह तथा कागज़ ते कैनवस ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह सहित १८ कविता संग्रह। गद्य कृतियाँ किरमिची लकीरें, काला गुलाब, अग दियाँ लकीराँ (१९६९), इकी पत्तियाँ दा गुलाब, सफ़रनामा (१९७३), औरतः इक दृष्टिकोण (१९७५), इक उदास किताब (१९७६), अपने-अपने चार वरे (१९७८), केड़ी ज़िंदगी केड़ा साहित्य (१९७९), कच्चे अखर (१९७९), इक हथ मेहन्दी इक हथ छल्ला (१९८०), मुहब्बतनामा (१९८०), मेरे काल मुकट समकाली (१९८०), शौक़ सुरेही (१९८१), कड़ी धुप्प दा सफ़र (१९८२), अज्ज दे काफ़िर (१९८२) सभी हिन्दी में अनूदित। इन्हें भी देखें अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ बाहरी कड़ियाँ Amrita Pritam Shayari | अमृता प्रीतम शायरी अमृता प्रीतम के लेखन में बनावटीपन नहीं था (प्रभासाक्षी) बिक गया अमृता का मकान ...... साहित्य्कार अपनी रचनाओं द्वारा जीवित रहते हैं।मकानों से नहीं... अमृता प्रीतम की कहानियां व कविताएं सन्दर्भ ज्ञानपीठ सम्मानित साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत पंजाबी भाषा के साहित्यकार भारतीय महिला साहित्यकार पंजाबी कवि पंजाबी भाषा के कवि 1919 में जन्मे लोग 2005 में निधन भारतीय शांतिवादी भारतीय नारीवादी साहित्य और शिक्षा में पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता अमृता प्रीतम साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎
1863
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मक़बूल फ़िदा हुसैन (जन्म सितम्बर १७, १९१५, पंढरपुर), (मृत्यु जून 09, 2011, लंदन),एम एफ़ हुसैन के नाम से जाने जाने वाले भारतीय चित्रकार थे। एक कलाकार के तौर पर उन्हे सबसे पहले १९४० के दशक में ख्याति मिली। १९५२ में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी ज़्युरिक में हुई। इसके बाद उनकी कलाकृतियों की अनेक प्रदर्शनियां यूरोप और अमेरिका में हुईं। १९६६ में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया। उसके एक साल बाद उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनायी: थ्रू द आइज़ ऑफ अ पेन्टर (चित्रकार की दृष्टि से)। यह फ़िल्म बर्लिन उत्सव में दिखायी गयी और उसे 'गोल्डेन बियर' से पुरस्कृत किया गया। जीवन परिचय हुसैन बहुत छोटे थे जब उनकी मां का देहांत हो गया। इसके बाद उनके पिता इंदौर चले गए जहाँ हुसैन की प्रारंभिक शिक्षा हुई। बीस साल की उम्र में हुसैन बम्बई गये और उन्हे जे जे स्कूल ओफ़ आर्ट्स में दाखला मिल गया। शुरुआत में वे बहुत कम पैसो में सिनेमा के होर्डिन्ग बनाते थे। कम पैसे मिलने की वजह से वे दूसरे काम भी करते थे जैसे खिलोने की फ़ैक्टरी में जहाँ उन्हे अच्छे पैसे मिलते थे। पहली बार उनकी पैन्टिन्ग दिखाये जाने के बाद उन्हे बहुत प्रसिद्धी मिली। अपनी प्रारंभिक प्रदर्शनियों के बाद वे प्रसिद्धि के सोपान चढ़ते चले गए और विश्व के अत्यंत प्रतिभावान कलाकारों में उनकी गिनती होती थी। एमएफ़ हुसैन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 1940 के दशक के आख़िर में मिली। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए। युवा पेंटर के रूप में एमएफ़ हुसैन बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करना चाहते थे। वर्ष 1952 में उनकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी ज़्यूरिख में लगी। उसके बाद तो यूरोप और अमरीका में उनकी पेंटिग्स की ज़ोर-शोर से चर्चा शुरू हो गई। वर्ष 1966में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्ष 1967 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर बनाई। ये फ़िल्म बर्लिन फ़िल्म समारोह में दिखाई गई और फ़िल्म ने गोल्डन बेयर पुरस्कार जीता। वर्ष 1971 में साओ पावलो समारोह में उन्हें पाबलो पिकासो के साथ विशेष निमंत्रण देकर बुलाया गया था। 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया तो वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 92 वर्ष की उम्र में उन्हें केरल सरकार ने राजा रवि वर्मा पुरस्कार दिया। क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमरीकी डॉलर में बिकी। इसके साथ ही वे भारत के सबसे महंगे पेंटर बन गए थे। उनकी आत्मकथा पर एक फ़िल्म भी बन रही है। देवी-देवताओं, भारतमाता की पेंटिंग पर विवाद भारतीय देवी-देवताओं पर बनाई, इनकी विवादित पेंटिंग को लेकर भारत के कई हिस्सों में उग्र प्रदर्शन हुए। शिवसेना ने इसका सबसे अधिक विरोध किया।आर्य समाज ने भी इसका कड़ा विरोध किया और आर्य समाज के एक कार्यकर्ता और हैदराबाद के हिन्दी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के पत्रकार तेजपाल सिंह धामा भारत माता की विवादित पेंटिंग बनाने पर एम एफ हुसैन से एक पत्रकार वार्ता के दौरान उलझ बैठे थे, बाद में 2006 में हुसैन ने हिन्दुस्तान छोड़ दिया था। और तभी से लंदन में रह रहे थे। हुसैन से उलझने वाले पत्रकार धामा को बाद में मुंबई में एक कार्यक्रम में शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे द्वारा इन्हें सन आफ आर्यवर्त कहकर संबोधित किया। 2010 में कतर ने हुसैन के सामने नागरिकता का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 2008 में भारत माता पर बनाई पेंटिंग्स के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे पर न्यायाधीश की एक टिप्पणी "एक पेंटर को इस उम्र में घर में ही रहना चाहिए" जिससे उन्हें गहरा सदमा लगा और उन्होंने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील भी की। हालांकि इसे अस्वीकार कर दिया गया था। निधन 9 जून 2011 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।। उनका निधन लंदन के रॉयल ब्राम्पटन अस्पताल में हुआ, जहां वह 2006 से लंदन में ही रह रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे विभिन्न रोगों से ग्रसित हो गए थे। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ 'अभिव्यक्ति' में मक़बूल फ़िदा हुसैन हुसेन के बारे में जानकारी (अंग्रेज़ी में) एम. ऍफ़. हुसैन का जीवन परिचय जीवन परिचय कलाकार फ़िल्म निर्माता भारतीय चित्रकार 1915 में जन्मे लोग पद्म विभूषण धारक २०११ में निधन
1865
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "मकबूल फ़िदा हुसैन", "token_count": 5659, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%B2%20%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8" }
17 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 260वॉ (लीप वर्ष में 261 वॉ) दिन है। साल में अभी और 105 दिन बाकी है। प्रमुख घटनाएँ 1922- डच साइकिल चालकपीट मोस्कप्स विश्व चैंपियन बना। 1923 - बर्कले में भड़की आग ने कैलिफोर्निया में भीषण तबाही मचायी। इसमें कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के परिसर के उत्तर पड़ोस में सघन रूप से बनाए गए 584 घरों सहित कोई 640 भवन आग की चपेट में आ गए। 1630- अमेरिका के बॉस्टन शहर की स्थापना। 1761- कोसाब्रोमा का युद्ध लड़ा गया। 1867- भारतीय कलाकार गगनेंद्रनाथ टैगोर का जन्म। 1876- बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म। 1879- तमिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता ई वी रामास्वामी नायकर का जन्म। 1948- हैदराबाद रियासत का भारत में विलय। 1949- दक्षिण भारतीय राजनीतिक दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) की स्थापना। 1950- भारतीय राजनेता और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्म। 1956- भारतीय तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग का गठन। 1957- मलेशिया संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुआ। 1974- बंगलादेश, ग्रेनेडा और गिनी बिसाऊ संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल। 1982- भारत और सेलोन(श्रीलंका) के बीच पहला क्रिकेट टेस्ट मैच खेला गया। 1995 – चीन की राजधानी बीजिंग में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत अंतिम चुनाव सम्पन्न। 1999 – ओसामा बिन लादेन का भारत के विरुद्ध जेहाद का ऐलान। 2000 – जाफना प्राय:द्वीप का चवाक छेड़ी शहर लिट्टे से मुक्त। 2002 – इराक ने संयुक्त राष्ट्र हथियार निरीक्षकों को बिना शर्त देश में आने की अनुमति दी। 2011- न्यूयॉर्क के जुकोट्टी पार्क में वॉल स्ट्रीट घेरो आंदोलन की शुरूआत। जन्म 1892 श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" 1922- वंस बॉर्जैली, अमेरिकी लेखक, उपन्यासकार, नाटककार, पत्रकार और निबंधकार 1950 - नरेन्द्र मोदी, भारत का प्रधानमन्त्री 1876 - शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,बंगाली उपन्यासकार निधन बाहरी कडियाँ बीबीसी पे यह दिन सितम्बर, १७
1866
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१९१५ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। घटनाएँ जनवरी-मार्च 2 जनवरी- रूसी सेनाओं ने अहमद पाशा के नेतृत्व वाली तुर्की की सेना को बूरी तरह हराया। इसमें तुर्की के 70 हजार सैनिक मारे गए थे। 13 जनवरी- इटली के आवेजानो शहर में आये विनाशकारी भूकंप से ३० हजार लोगों की मौत। 3 मार्च - नाका जो कि बाद में नासा बना की स्थापना। अप्रैल-जून 22 मई- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इटली ने आस्ट्रिया, हंगरी तथा जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। जुलाई-सितंबर २१ अगस्त - प्रथम विश्व युद्ध में इटली ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। 9 सितंबर- प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी जतिन्द्रनाथ सान्याल और अंग्रेजों के बीच उड़ीसा के काप्टेवाड़ा में संघर्ष। अक्टूबर-दिसंबर 12 दिसंबर- चीन के राष्ट्रपति युवान शी की ने राजतंत्र को पुनः बहाल कर स्वयं को चीन का सम्राट घोषित किया। अज्ञात तारीख़ की घटनाएँ जारी अर्मेनियाई नरसंहार (1915 - 1923) असिरियाई नरसंहार (1914 -1922) ग्रीक नरसंहार (1914 - 1923) जन्म 1915 - ग़ुलाम इशाक़ ख़ान पाकिस्तान के राष्ट्रपति निधन जनवरी-मार्च अप्रैल-जून जुलाई-सितंबर अक्टूबर-दिसंबर 1915 1915
1867
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राजनैतिक दल लोगों का एक ऐसा संगठित गुट होता है जिसके सदस्य किसी साँझी विचारधारा में विश्वास रखते हैं या समान राजनैतिक दृष्टिकोण रखते हैं। यह दल चुनावों में उम्मीदवार उतारते हैं और उन्हें निर्वाचित करवा कर दल के कार्यक्रम लागू करवाने का प्रयास करते हैं। राजनैतिक दलों के सिद्धान्त या लक्ष्य (विज़न) प्राय: लिखित दस्तावेज़ के रूप में होता है। मयंक चौरसिया देवरी विधानसभा क्षेत्र अभिषेक कुर्मी (मोकला) देवरी विधानसभा क्षेत्र विभिन्न देशों में राजनीतिक दलों की अलग-अलग स्थिति व व्यवस्था है। कुछ देशों में कोई भी राजनीतिक दल नहीं होता। कहीं एक ही दल सर्वेसर्वा (डॉमिनैन्ट) होता है। कहीं मुख्यतः दो दल होते हैं। किन्तु बहुत से देशों में दो से अधिक दल होते हैं। लोकतान्त्रिक राजनैतिक व्यवस्था में राजनैतिक दलों का स्थान केन्द्रीय अवधारणा के रूप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राजनैतिक दल किसी सामाजिक व्यवस्था में शक्ति के वितरण और सत्ता के आकांक्षी व्यक्तियों एवं समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे परस्पर विरोधी हितों के सारणीकरण, अनुशासन और सामंजस्य का प्रमुख साधन रहे हैं। इस तरह से राजनैतिक दल समाज व्यवस्था के लक्ष्यों, सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक परिवर्तनों, परिवर्तनों के अवरोधों और सामाजिक आन्दोलनों से भी सम्बन्धित होते हैं। राजनैतिक दलों का अध्ययन समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री दोनों करते हैं, लेकिन दोनों के दृष्टिकोणों में पर्याप्त अन्तर है। समाजशास्त्री राजनैतिक दल को सामाजिक समूह मानते हैं जबकि राजनीतिज्ञ राजनीतिक दलों को आधुनिक राज्य में सरकार बनाने की एक प्रमुख संस्था के रूप में देखते हैं। Mohit baghel (Rajpur vrindavan mathura) Uttar Pradesh विशेषताएँ राजनीतिक दल की संरचना में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इसे अन्य समूह से अलग करती हैं: राजनीतिक दल ऐसा संगठन है जिसका प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक नेतृत्व की प्राप्ति होता है। इसमें दल का नेता संगठित अल्पतंत्र (कार्यकारिणी) द्वारा विधायिका पर अधिकार हथियाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करता है। सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को लेकर उप संरचनाएं एवं समितियां होती है, जो भौगोलिक सीमाओं, सामाजिक समग्रताओं के आधार पर होती हैं। दल में कई परस्पर विरोधी समूह किसी उद्देश्य तथा राजनीतिक विचारधारा को लेकर साथ जुड़े हुए रहते हैं। हर राजनीतिक दल में अल्पतन्त्र होता है। प्रथम अवस्था में शक्ति का केन्द्रीकरण कुछ अनुभवी नेताओं के हाथ में होता है, जो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं, जबकि दूसरी अवस्था में दल का संगठन एक विशेष स्तरीकरण व्यवस्था में विभाजित होता है और हर स्तर पर कुछ स्वायत्तता पाई जाती है। दल में सदस्यता निरन्तर बनी रहती है। एक सदस्य दूसरे सदस्य को दल की गतिविधियों की जानकारी देते रहते हैं। नए सदस्यों के लिए दल में सदस्यता के द्वार हमेशा खुले रहते 87 हैं। यहीं यह एक खुली संरचना होती है। कुछ लोग दल के सदस्य इसलिए होते हैं कि उन्हें समाज में उसके कारण एक विशेष स्थान मिल जाता है। उपर्युक्त लक्षणों द्वारा राजनीतिक दल को अन्य संगठन से भिन्न करके देख सकते हैं। राजनीतिक दल का गठन समाज व्यवस्था की दो विशेषताओं द्वारा पाया जाता है: राजनीतिक शक्ति का आधार ‘वोट’ है अर्थात् विधायिका का निर्धारण मतदान प्रणाली से किया जाता है। विभिन्न समूहों में शक्ति के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा होती है। अर्थात् राजनीतिक शक्ति को सत्ता हथियाने के लिए परस्पर होड़ हो रही होती है। संरचना मौरिस डुवर्जर ने राजनीतिक दल के सामाजिक संगठन का महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इन्होंने दल के संगठन को चार सूत्रीय वर्गीकरण द्वारा समझाने का प्रयास किया है। ये वर्ग निम्नलिखित हैं- (१) समिति ( कॉकस / Caucus) (२) शाखा (ब्रांच / Branch) (३) कोष्ठक (सेल / Cell) (४) नागरिक सेना (मिलिशिया / Militia) कॉकस दल के जाने-पहचाने लोगों का एक लघु समूह कहा जा सकता है जो न अपने विस्तार और न ही अपनी भर्ती में रूचि रखता है। वास्तव में यह एक बन्द समूह है। जिसकी प्रकृति अर्द्ध-स्थायी होती है। केवल चुनाव के समय ही कॉकस अधिक सक्रिय होता है तथा चुनावों के बीच के समय में यह निष्क्रिय रहता है। इसके सदस्यों की न्यून संख्या इसकी शक्ति का माप नहीं है क्योंकि इसके सदस्यों का व्यक्तिगत प्रभाव, शक्ति एवं क्षमता उनकी संख्या से काफी अधिक होती है। अतः इसके ख्याति प्राप्त सदस्यों की संख्या की अपेक्षा उनका प्रभाव एवं क्षमता अधिक महत्वपूर्ण है। डुवर्जर ने फ्रांसीसी रैडिकल पार्टी और 1918 से पूर्व की ब्रिटिश लेबर पार्टी को इसका उदाहरण बताया है। मताधिकार के विस्तार के साथ ‘कॉकस’ प्रकार के दल का ह्रास हो जाता है। शाखा या ब्रांच दल परिश्मी यूरोप में मताधिकार के विस्तार का परिणाम है। इसका सम्बन्ध जनता से होता है तथा कॉकस की तरह यह एक बन्द समूह नहीं है क्योंकि इनमें गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अतः यह अधिक से अधिक सदस्यों की भर्ती में सदैव रूचि रखता है। इनकी राजनीतिक संक्रियताएं केवल चुनाव तक ही सीमित नहीं होती अपितु निरन्तर चलती रहती हैं। ब्रांच कॉकस की अपेक्षा बड़ा समूह है इसलिए इसका संगठन अधिक होता है तथा इसमें कॉकस की अपेक्षा अधिक एकीकरण पाया जाता है। इसमें संस्तरण तथा कर्त्तव्यों का विभाजन सुस्पष्ट होता है तथा स्थानीयता एवं संकीर्णता का भी आभास पाया जाता है। इसमें अधिकतर केन्द्रीकृत दल संरचना होती है और प्रारम्भिक इकाईयां निर्वाचन क्षेत्रों की ही भांति भौगोलिक आधार पर संगठित होती हैं। यूरोप के समाजवादी दलों में ब्रांच के सभी लक्षण पाये जाते हैं। कैथोलिक और अनुदारवादी दलों ने न्यूनाधिक सफलतापूर्वक इसका अनुसरण किया है। जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी संगठनात्मक आधार पर इस प्रकार के दल का एक अच्छा उदाहरण है। डुवर्जर द्वारा बताया गया दल संगठन का तीसरा प्रकार कोष्ठक या सेल है जो क्रान्तिकारी साम्यवादी दलों की खोज है। यह ब्रांच की अपेक्षा काफी छोटा समूह होता है तथा इसका आधार भौगोलिक न होकर व्यावसायिक होता है। व्यावसायिक आधार के कारण सेल किसी स्थान पर कार्य करने वाले सभी सदस्यों को एक सूत्र में बाँधना है। कारखाना, वर्कशॉप, दफ्तर एवं प्रशासन आदि इसके अंग हो सकते हैं। चूंकि सेल उन सदस्यों का समूह हैं जो एक ही व्यवसाय में लगे हुए हैं तथा जो प्रतिदिन कार्य के समय मिलते हैं, इसलिए इसके सदस्यों में दलीय एकात्मकता अधिक होती है। वैयक्तिक सेल का अन्य सेलों से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। सेल का संगठन अनिवार्य रूप से षड्यन्त्रकारी होता है और इसकी निर्माण शैली इस बात का पक्का इन्तजाम करती है कि एक सेल के नष्ट होने पर सम्पूर्ण दल-संरचना संकट में पड़े क्योंकि एक ही स्तर पर पृथक-पृथक इकाइयों के बीच कोई संपर्क नहीं रहता। यह गुप्त सक्रियता के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है। इसकी गुप्त सक्रियताएं मुख्यतः राजनैतिक होती हैं तथा सदस्यों के लिए अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। मतों को जीतने, प्रतिनिधियों के समूहन तथा मतदाताओं के प्रतिनिधियों से संपर्क रखने की अपेक्षा सेल दल संघर्ष, प्रचार, अनुशासन तथा अगर अनिवार्य तो गुप्त सक्रियता का एक माध्यम है। इनमें चुनाव जीतने की दूसरे दर्जे के महत्त्व की बात मानने की प्रवृत्ति होती है। प्रजा तांत्रिक केन्द्रवाद की धारणा दल के सभी पहलुओं पर केन्द्रीकृत नियंत्रण स्थापित कर देती है जिसका उदाहरण 1917 से पहले लेनिनवादी दल था। डुवर्जर फ्रांसीसी साम्यवादी दल के सदस्यों में सेल संरचना के प्रति शत्रु भाव होने का भी संकेत करते हैं। डुवर्जर का दल-संगठन का चौथा प्रकार मिलिशिया प्रकार का संगठन है। यह एक प्रकार की निजी सेना है जिसके सदस्यों को सैनिकों की तरह भर्ती किया जाता है तथा जिन्हें सैनिक संगठन की भाँति अनुशासन में रहना और प्रशिक्षण लेना पड़ता है। इसकी संरचना भी सैनिक संरचना के समान होती है अर्थात् इसके सदस्य सेना की तरह टुकड़ियों, कम्पनियों और बटालियनों से संगठित होते हैं। मिलिशिया सेना के अधिक्रमिक लक्षण ग्रहण कर लेती है। मिलिशिया की चुनाव तथा संसदीय गतिविधियों में कोई रूचि नहीं होती क्योंकि यह प्रजातन्त्रीय व्यवस्था को मजबूत करने की अपेक्षा इसे उखाड़ फेंकने का एक मौलिक साधन है। जिस प्रकार सेल एक साम्यवादी खोज है, ठीक उसी प्रकार मिलिशिया क्रान्तिकारियों की खोज है। हिटलर के आक्रामी सैनिक और मुसोलिनी की क्रान्तिकारी मिलिशिया इस प्रकार की संरचना का उदाहरण हैं। इनकी ओर डुवर्जर यह संकेत करते हैं कि केवल मिलिशिया के आधार पर कभी भी कोई राजनीतिक दल नहीं बना है। राजनीतिक दलों का सामाजिक संगठन जिस संगठित रूप में राजनीतिक दल आज हमारे सामने विद्यमान हैं, उस रूप में उनका इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। उनकी उत्पत्ति उन्नीसवीं शताब्दी में हुई है परन्तु इससे पूर्व भी मनुष्यों द्वारा निर्मित कुछ संगठन, शासन से प्रत्यक्ष न होने पर भी जनमत के निर्माण तथा मांगों को शासकों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। आधुनिक समाज में राजनीतिक दलों का गठन विविध आधारों पर किया गया है। राजनीतिक दलों के निर्माण में मनोवैज्ञानिक आधार अर्थात् मानव स्वभाव में निहित प्रवृत्तियां प्रमुख हैं। मतैक्य एवं संगठन मानव स्वभाव की दो प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। समान स्वभाव एवं मूल्यों वाले व्यक्ति संगठित होकर राजनीतिक दल का निर्माण करते हैं तथा फिर उन मूल्यों को बनाये रखने का प्रयास करते हैं। ब्रिटिश कंज़रवेटिव दल का गठन रूढ़िवादी व्यवस्था को बनाये रखने के समर्थक व्यक्तियों द्वारा किया गया है। कुछ व्यक्ति रूढ़िवादी व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हैं तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उदारवादी दलों का निर्माण करते हैं, जबकि कुछ लोग विगत युग की पुनरावृत्ति की आकांक्षा के आधार पर प्रतिक्रियावादी दलों का निर्माण करते हैं। मानव इतिहास में धर्म की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा आज भी अनेक देशों में धार्मिक नेता एवं पदाधिकारी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं। राजनैतिक दलों के सामाजिक संगठन में धर्म प्रमुख भूमिका निभाता है। उदाहरणार्थ भारत में मुस्लिम लीग, अकाली दल, जनसंघ, हिन्दू महासभा जैसे दलों के सामाजिक संगठन में धर्म केन्द्रीय भूमिका निभाता है। राजनीतिक दलों के निर्माण में क्षेत्रीयता अथवा प्रादेशिकता भी एक प्रमुख आधार है। प्रादेशिक हितों की रक्षा के लिए तथा प्रादेशिक समस्याओं के शीघ्र निपटारे के लिए कुछ प्रादेशिक दलों का निर्माण होता है। भारत में डी0एम0के0, तेलंगाना प्रजा समिति, असम गण परिषद, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा आदि। राजनीतिक दल आर्थिक या वर्गीय आधारों पर भी संगठित होते हैं। मार्क्स के अनुसार राजनीतिक दलों तथा वर्गों का परस्पर सम्बन्ध राज्य व राजनीति के सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्दु होता है। अनेक अन्वेषणों से हमें यह पता चलता है कि वर्गीय हित, दलीय सम्बद्धताओं तथा निर्वाचनों की पसन्द के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा अधिकांश समाज में राजनीतिक दल निर्वाचक वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रिटेन में श्रमिक दल, भारत में मजदूर दल, किसान यूनियन आदि। जाति, भारतीय समाज की आधारभूत विशेषता है। भारत में राजनैतिक दलों के सामाजिक संगठन को जाति हमेशा से प्रभावित करती रही है। स्वतन्त्रता से पूर्व जाति मुक्ति का आन्दोलन राजनैतिक दलों के गठन को प्रभावित करना रहा है। दलित वर्ग कल्याण लीग, बहिष्कृत हितकारिणी सभा, जस्टिस पार्टी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् निर्वाचन प्रतियोगिता में ‘जाति’ राजनैतिक गतिशीलता लाने वाला प्रमुख सामाजिक आधार बन गया। ‘जातीय संलयन’ और ‘जातीय विखण्डन’ राजनैतिक प्रक्रियाओं में केन्द्रीय भूमिका निभाने लगी। सभी राजनैतिक दल जातीय गणना के आधार पर उम्मीदवारों को तय करने लगे। वर्तमान समय में जातीय आधार पर राजनैतिक दलों के गठन का प्रमुख आधार है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। दलीय संगठन में विचारधारा भी प्रमुख भूमिका निभाती है। समाजवादी, लेनिनवादी और माओवादी विचारधाराओं पर आधारित अनेक दलों का निर्माण भारतीय राजनीति की प्रमुख विशेषता रही। भारत में राजनैतिक दल भारत में राजनैतिक दल को संवैधानिक स्वीकृति सन् 1985 में दसवीं अनुसूची के तहत दी गई थी। भारत के राजनैतिक दलों को निम्न आधार पर बांंट सकते है- प्रभावक्षेत्र के आधार पर राष्ट्रीय दल- जिनका प्रभाव राष्ट्रव्यापी हो। उदा.- भाजपा, कांग्रेस आदि क्षेत्रीय दल- जिनका प्रभाव किसी क्षेत्र/राज्य विशेष पर हो। उदा.- द्रमुक, तेदेपा, बीजद आदि। विचारधारा के आधार पर प्रतिक्तियावादी दल- जो प्राचीन रीतियों से बंधे रहना चाहते है, उदाहरणार्थ- भाजपा, शिवसेना आदि उदारवादी दल- जो वर्तमान शासन प्रणाली में धीरे-धीरे परिवर्तन करना चाहते होंं, उदा.- कांग्रेस, राकांपा आदि विप्लवकारी दल- जो वर्तमान व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था लाना चाहते हो, उदा.- माकपा, भाकपा आदि। मान्यता के आधार पर मान्यता प्राप्त दल पंजीकृत दल हरेंद्र सिंह तंवर (संयोजक-भारतीय जनता दल) इन्हें भी देखें भारत के राजनीतिक दलों की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अंतरजाल पर राजनैतिक साहित्य क्या राजनैतिक दल भले से अधिक बुरा करते हैं? दल चुनाव
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हरिवंश राय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003) हिंदी भाषा के एक कवि और लेखक थे। वे हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक थे । उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। भारतीय फिल्म उद्योग के अभिनेता अमिताभ बच्चन उनके सुपुत्र हैं। उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में साँस की बीमारी की वजह से मुम्बई में हुई थी। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य रहे। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है। जीवन हरिवंश राय बच्चन जी का जन्म 27 नवम्बर 1907 को प्रयाग में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। हरिवंश राय बच्चन के पूर्वज मूलरूप से अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर प्रयाग जा बसे थे। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा' या 'संतान' होता है। बाद में ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू॰बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच.डी.(Ph.D) पूरी की थी । १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय १४ वर्ष की थीं। सन १९३६ में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद १९४१ में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का निर्माण फिर' जैसी कविताओं की रचना की। उनके पुत्र अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। मृत्यु 2002 के सर्दियों के महीने से उनका स्वस्थ्य बिगड़ने लगा। 2003 के जनवरी से उनको सांस लेने में दिक्कत होने लगी।कठिनाइयां बढ़ने के कारण उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुंबई में हो गयी। प्रमुख कृतियाँ कविता संग्रह तेरा हार (1929), मधुशाला (1935), मधुबाला (1936), मधुकलश (1937), आत्म परिचय (1937), निशा निमंत्रण (1938), एकांत संगीत (1939), आकुल अंतर (1943), सतरंगिनी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का काल (1946), खादी के फूल (1948), सूत की माला (1948), मिलन यामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955), धार के इधर-उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाचघर (1958), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962), दो चट्टानें (1965), बहुत दिन बीते (1967), कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969), जाल समेटा (1973) नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985) आत्मकथा क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969), नीड़ का निर्माण फिर (1970), बसेरे से दूर (1977), दशद्वार से सोपान तक (1985) प्रवासी की डायरी विविध बच्चन के साथ क्षण भर (1934), खय्याम की मधुशाला (1938), सोपान (1953), मैकबेथ (1957), जनगीता (1958), ओथेलो (1959), उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959), कवियों में सौम्य संत: पंत (1960), आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960), आधुनिक कवि (1961), नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961), नये पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964) चौंसठ रूसी कविताएँ (1964) नागर गीता (1966), बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967) डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968) मरकत द्वीप का स्वर (1968) हैमलेट (1969) भाषा अपनी भाव पराये (1970) पंत के सौ पत्र (1970) प्रवास की डायरी (1971) किंग लियर (1972) टूटी छूटी कड़ियाँ (1973) पुरस्कार/सम्मान उनकी कृति दो चट्टानें को १९६८ में हिन्दी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। बच्चन जी से संबंधित पुस्तकें हरिवंश राय बच्चन पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। इनमें उनपर हुए शोध, आलोचना एवं रचनावली शामिल हैं। बच्चन रचनावली (1983) के नौ खण्ड हैं। इसका संपादन अजितकुमार ने किया है। अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें हैं- हरिवंशराय बच्चन (बिशन टण्डन) गुरुवर बच्चन से दूर (अजितकुमार) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ हरिवंशराय बच्चन वेबदुनिया पर हरिवंशराय बच्चन के बारे में हरिवंश राय बच्चन की रचनाएँ कविता कोश में दशद्वार से सोपान तक (बच्चन जी की आत्मकथा ; गूगल पुस्तक) साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार हिन्दी गद्यकार छायावादी कवि सरस्वती सम्मान से सम्मानित १९७६ पद्म भूषण २००३ में निधन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र 1907 में जन्मे लोग साहित्य और शिक्षा में पद्म भूषण के प्राप्तकर्ता
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महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 — 11 सितम्बर 1987) हिन्दी भाषा की कवयित्री थीं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतन्त्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल ब्रजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अन्तिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परन्तु उन्होंने अविवाहित की भाँति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे पशु पक्षी प्रेमी थी गाय उनको अति प्रिय थी । वर्ष 2007 उनका जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया। 27 अप्रैल 1982 को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष 2018 में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया । जीवनी जन्म और परिवार महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी — महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, माँसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानन्दन पन्त एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं। शिक्षा महादेवी जी की शिक्षा इन्दौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे। वैवाहिक जीवन सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बन्ध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् 1966 में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं। कार्यक्षेत्र महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, सम्पादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। 1923 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का सम्पादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन 15 अप्रैल 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में सम्पन्न हुआ। वे हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं। महादेवी बौद्ध पन्थ से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। 1936]] में नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बंगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मन्दिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निन्दा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके सम्पूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। 11 सितम्बर 1987 को इलाहाबाद में रात 9 बजकर 30 मिनट पर उनका देहांत हो गया। प्रमुख कृतियाँ महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं। कविता संग्रह श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी (१९६५), यामा (१९३६), गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका, नीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि। महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३), संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२) और संस्मरण (१९८३) चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४) निबंध: शृंखला की कड़ियाँ (१९४२), विवेचनात्मक गद्य (१९४२), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), संकल्पिता (१९६९) ललित निबंध: क्षणदा (१९५६) कहानियाँ: गिल्लू संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३), अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी सम्पादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की। महादेवी वर्मा का बाल साहित्य महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं। ठाकुरजी भोले हैं आज खरीदेंगे हम ज्वाला समालोचना आधुनिक गीत काव्य में महादेवी जी का स्थान सर्वोपरि है। उनकी कविता में प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता वर्तमान होने के कारण भाव, भाषा और संगीत की जैसी त्रिवेणी उनके गीतों में प्रवाहित होती है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। महादेवी के गीतों की वेदना, प्रणयानुभूति, करुणा और रहस्यवाद काव्यानुरागियों को आकर्षित करते हैं। पर इन रचनाओं की विरोधी आलोचनाएँ सामान्य पाठक को दिग्भ्रमित करती हैं। आलोचकों का एक वर्ग वह है, जो यह मानकर चलते हैं कि महादेवी का काव्य नितान्त वैयक्तिक है। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा, कृत्रिम और बनावटी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य आलोचकों ने उनकी वेदना और अनुभूतियों की सच्चाई पर प्रश्न चिह्न लगाया है — दूसरी ओर आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समीक्षक उनके काव्य को समष्टि परक मानते हैं। शोमेर ने ‘दीप’ (नीहार), मधुर मधुर मेरे दीपक जल (नीरजा) और मोम सा तन गल चुका है कविताओं को उद्धृत करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि ये कविताएं महादेवी के ‘आत्मभक्षी दीप’ अभिप्राय को ही व्याख्यायित नहीं करतीं बल्कि उनकी कविता की सामान्य मुद्रा और बुनावट का प्रतिनिधि रूप भी मानी जा सकती हैं। सत्यप्रकाश मिश्र छायावाद से संबंधित उनकी शास्त्र मीमांसा के विषय में कहते हैं ― “महादेवी ने वैदुष्य युक्त तार्किकता और उदाहरणों के द्वारा छायावाद और रहस्यवाद के वस्तु शिल्प की पूर्ववर्ती काव्य से भिन्नता तथा विशिष्टता ही नहीं बतायी, यह भी बताया कि वह किन अर्थों में मानवीय संवेदन के बदलाव और अभिव्यक्ति के नयेपन का काव्य है। उन्होंने किसी पर भाव साम्य, भावोपहरण आदि का आरोप नहीं लगाया केवल छायावाद के स्वभाव, चरित्र, स्वरूप और विशिष्टता का वर्णन किया।” प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे मनीषी का मानना है कि जो लोग उन्हें पीड़ा और निराशा की कवयित्री मानते हैं वे यह नहीं जानते कि उस पीड़ा में कितनी आग है जो जीवन के सत्य को उजागर करती है। यह सच है कि महादेवी का काव्य संसार छायावाद की परिधि में आता है, पर उनके काव्य को उनके युग से एकदम असम्पृक्त करके देखना, उनके साथ अन्याय करना होगा। महादेवी एक सजग रचनाकार हैं। बंगाल के अकाल के समय १९४३ में इन्होंने एक काव्य संकलन प्रकाशित किया था और बंगाल से सम्बंधित “बंग भू शत वंदना” नामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में हिमालय नामक काव्य संग्रह का सम्पादन किया था। यह संकलन उनके युगबोध का प्रमाण है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने कम काम नहीं किया। उनका आलोचना साहित्य उनके काव्य की भांति ही महत्वपूर्ण है। उनके संस्मरण भारतीय जीवन के संस्मरण चित्र हैं। उन्होंने चित्रकला का काम अधिक नहीं किया फिर भी जलरंगों में ‘वॉश’ शैली से बनाए गए उनके चित्र धुंधले रंगों और लयपूर्ण रेखाओं का कारण कला के सुंदर नमूने समझे जाते हैं। उन्होंने रेखाचित्र भी बनाए हैं। दाहिनी ओर करीन शोमर की क़िताब के मुखपृष्ठ पर महादेवी द्वारा बनाया गया रेखाचित्र ही रखा गया है। उनके अपने कविता संग्रहों यामा और दीपशिखा में उनके रंगीन चित्रों और रेखांकनों को देखा जा सकता है। पुरस्कार व सम्मान उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले। 1943 में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी। 1971 में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया। सन 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा 1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये 1934 में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए। ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं। 1968 में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर नीचे। 16 सितंबर 1991 को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में 2 रुपये का एक युगल टिकट भी जारी किया है। महादेवी वर्मा का योगदान साहित्य में महादेवी वर्मा का आविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ीबोली का आकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्ण काम किया जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। शचीरानी गुर्टू ने भी उनकी कविता को सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण माना है। उन्होंने अपने गीतों की रचना शैली और भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथ ही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींच देता है। छायावादी काव्य की समृद्धि में उनका योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छायावादी काव्य को जहाँ प्रसाद ने प्रकृतितत्त्व दिया, निराला ने उसमें मुक्तछंद की अवतारणा की और पंत ने उसे सुकोमल कला प्रदान की वहाँ छायावाद के कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का गौरव महादेवी जी को ही प्राप्त है। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता उनके काव्य की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-हिलोरों का ऐसा सजीव और मूर्त अभिव्यंजन ही छायावादी कवियों में उन्हें ‘महादेवी’ बनाता है। वे हिन्दी बोलने वालों में अपने भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद की जाती हैं। उनके भाषण जन सामान्य के प्रति संवेदना और सच्चाई के प्रति दृढ़ता से परिपूर्ण होते थे। वे दिल्ली में 1983 में आयोजित तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। इस अवसर पर दिये गये उनके भाषण में उनके इस गुण को देखा जा सकता है। यद्यपि महादेवी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उनके लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, भूमिकाओं और ललित निबंधों में जो गद्य लिखा है वह श्रेष्ठतम गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का सम्पूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना और काव्यरूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में कितना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनके गद्य में वैचारिक परिपक्वता इतनी है कि वह आज भी प्रासंगिक है। समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता से संबंधित उनके विचारों में दृढ़ता और विकास का अनुपम सामंजस्य मिलता है। सामाजिक जीवन की गहरी परतों को छूने वाली इतनी तीव्र दृष्टि, नारी जीवन के वैषम्य और शोषण को तीखेपन से आंकने वाली इतनी जागरूक प्रतिभा और निम्न वर्ग के निरीह, साधनहीन प्राणियों के अनूठे चित्र उन्होंने ही पहली बार हिंदी साहित्य को दिये। मौलिक रचनाकार के अलावा उनका एक रूप सृजनात्मक अनुवादक का भी है जिसके दर्शन उनकी अनुवाद-कृत ‘सप्तपर्णा’ (१९६०) में होते हैं। अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे उन्होंने वेद, रामायण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है। आरम्भ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के सम्बंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है। इन्हें भी देखें हिंदी साहित्य छायावादी युग आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास महादेवी वर्मा की रचनाएँ टीका-टिप्पणी    क.    छायावाद के अन्य तीन स्तंभ हैं, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत।    ख.    हिंदी के विशाल मन्दिर की वीणापाणी, स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी ―निराला    ग.    उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को दीपशिखा का गौरव दिया और व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। ―निशा सहगल    घ.    “इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक ये वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।” ―आचार्य रामचंद्र शुक्ल    ङ.    “महादेवी का ‘मैं’ सन्दर्भ भेद से सबका नाम है।” सच्चाई यह है कि महादेवी व्यष्टि से समष्टि की ओर जाती हैं। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा और दुखवाद में विश्व की कल्याण कामना निहित है। ―हज़ारी प्रसाद द्विवेदी    च.    वस्तुत: महादेवी की अनुभूति और सृजन का केंद्र आँसू नहीं आग है। जो दृश्य है वह अन्तिम सत्य नहीं है, जो अदृश्य है वह मूल या प्रेरक सत्य है। महादेवी लिखती हैं: “आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के” और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान। ये आँसू सहज सरल वेदना के आँसू नहीं हैं, इनके पीछे जाने कितनी आग, झंझावात प्रलय-मेघ का विद्युत-गर्जन, विद्रोह छिपा है। ―प्रभाकर श्रोत्रिय    छ.    महादेवी जी की कविता सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण है ―शचीरानी गुर्टू    ज.    महादेवी के प्रगीतों का रूप विन्यास, भाषा, प्रतीक-बिंब लय के स्तर पर अद्भुत उपलब्धि कहा जा सकता है। ―कृष्णदत्त पालीवाल    झ.    एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और ‘गद्य कवीतां निकषं वदंति’ उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर सम्पादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे सम्पूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। ―रामजी पांडेय    ञ.    महादेवी का गद्य जीवन की आँच में तपा हुआ गद्य है। निखरा हुआ, निथरा हुआ गद्य है। 1956 में लिखा हुआ उनका गद्य आज 50 वर्ष बाद भी प्रासंगिक है। वह पुराना नहीं पड़ा है। ―राजेन्द्र उपाध्याय सन्दर्भ ग्रन्थसूची । । । । । । । । बाहरी कड़ियाँ जीवनी और निबंध संस्मरण विविध </div> महादेवी वर्मा हिन्दी गद्यकार हिन्दी कवयित्रियाँ प्रयागराज ज्ञानपीठ सम्मानित द्विवेदी पदक भारत भारती मंगला प्रसाद पुरस्कार १९५६ पद्म भूषण फ़र्रूख़ाबाद के हिन्दी कवि भारतीय महिला साहित्यकार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎ साहित्य और शिक्षा में पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता
1872
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जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889- 15 नवंबर 1937), हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कामनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के, प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के, प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी। जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌ १९४६ वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार) को काशी के गोवर्धनसराय में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। छठे दर्जे में वहाँ शिक्षा आरंभ हुई थी और सातवें दर्जे तक ही वे वहाँ पढ़ पाये। उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया। प्रसाद जी के प्रारंभिक शिक्षक श्री मोहिनीलाल गुप्त थे। वे कवि थे और उनका उपनाम 'रसमय सिद्ध' था। शिक्षक के रूप में वे बहुत प्रसिद्ध थे। चेतगंज के प्राचीन दलहट्टा मोहल्ले में उनकी अपनी छोटी सी बाल पाठशाला थी। 'रसमय सिद्ध' जी ने प्रसाद जी को प्रारंभिक शिक्षा दी तथा हिंदी और संस्कृत में अच्छी प्रगति करा दी। प्रसाद जी ने संस्कृत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। उनके निकट संपर्क में रहने वाले तीन सुधी व्यक्तियों के द्वारा तीन संस्कृत अध्यापकों के नाम मिलते हैं। डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा के अनुसार "चेतगंज के तेलियाने की पतली गली में इटावा के एक उद्भट विद्वान रहते थे। संस्कृत-साहित्य के उस दुर्धर्ष मनीषी का नाम था - गोपाल बाबा। प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए उन्हें ही चुना गया।" विनोदशंकर व्यास के अनुसार "श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी उन्हें संस्कृत और उपनिषद् पढ़ाते थे।" राय कृष्णदास के अनुसार रसमय सिद्ध से शिक्षा पाने के बाद "प्रसाद जी ने एक विद्वान् हरिहर महाराज से और संस्कृत पढ़ी। वे लहुराबीर मुहल्ले के आस-पास रहते थे। प्रसाद जी का संस्कृत प्रेम बढ़ता गया। उन्होंने स्वयमेव उसका बहुत अच्छा अभ्यास कर लिया था। बाद में वे स्वाध्याय से ही वैदिक संस्कृत में भी निष्णात हो गये थे।" बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत-अध्यापक महामहोपाध्याय पं॰ देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती को प्रसाद जी का काव्यगुरु माना जाता है। घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्यशास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी पहली कविता ‘सावक पंचक’ सन १९०६ में भारतेंदु पत्रिका में कलाधर नाम से ही प्रकाशित हुई थी। वे नियमित रूप से गीता-पाठ करते थे, परंतु वे संस्कृत में गीता के पाठ मात्र को पर्याप्त न मानकर गीता के आशय को जीवन में धारण करना आवश्यक मानते थे। प्रसाद जी का पहला विवाह 1909 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी के साथ हुआ था। उनकी पत्नी को क्षय रोग था। सन् 1916 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी का निधन हो गया। उसी समय से उनके घर में क्षय रोग के कीटाणु प्रवेश कर गये थे। सन् 1917 ई॰ में सरस्वती देवी के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ। दूसरा विवाह होने पर उनकी पहली पत्नी की साड़ियों आदि को उनकी द्वितीय पत्नी ने भी पहना और कुछ समय बाद उन्हें भी क्षय रोग हो गया और दो ही वर्ष बाद 1919 ई॰ में उनका देहांत भी प्रसूतावस्था में क्षय रोग से ही हुआ। इसके बाद पुनः घर बसाने की उनकी लालसा नहीं थी, परंतु अनेक लोगों के समझाने और सबसे अधिक अपनी भाभी के प्रतिदिन के शोकमय जीवन को सुलझाने के लिए उन्हें बाध्य होकर विवाह करना पड़ा। सन् १९१९ ई॰ में उनका तीसरा विवाह कमला देवी के साथ हुआ। उनका एकमात्र पुत्र रत्नशंकर प्रसाद तीसरी पत्नी की ही संतान थे, जिनका जन्म सन् १९२२ ई॰ में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी भी जीवन के अंत में क्षय रोग से ग्रस्त हो गये थे और एलोपैथिक के अतिरिक्त लंबे समय तक होमियोपैथिक तथा कुछ समय आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लेने के बावजूद इस रोग से मुक्त न हो सके और अंततः इसी रोग से १५ नवम्बर १९३७ (दिन-सोमवार) को प्रातःकाल (उम्र ४७) उनका देहान्त काशी में हुआ। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि “रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/ यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से) लेखन-कार्य कविता प्रसाद ने कविता ब्रजभाषा में आरम्भ की थी। उपलब्ध स्रोतों के आधार पर प्रसाद जी की पहली रचना 1901 ई॰ में लिखा गया एक सवैया छंद है, लेकिन उनकी प्रथम प्रकाशित कविता दूसरी है, जिसका प्रकाशन जुलाई 1906 में 'भारतेन्दु' में हुआ था। प्रसाद जी ने जब लिखना शुरू किया उस समय भारतेन्दुयुगीन और द्विवेदीयुगीन काव्य-परंपराओं के अलावा श्रीधर पाठक की 'नयी चाल की कविताएँ भी थीं। उनके द्वारा किये गये अनुवादों 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' का नवशिक्षितों और पढ़े-लिखे प्रभु वर्ग में काफी मान था। प्रसाद के 'चित्राधार' में संकलित रचनाओं में इसके प्रभाव खोजे भी गये हैं और प्रमाणित भी किये जा सकते हैं। 1909 ई॰ में 'इन्दु' में उनका कविता संग्रह 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हुआ था। 'प्रेम-पथिक' पहले ब्रजभाषा में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसका परिमार्जित और परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में नवंबर 1914 में 'प्रेम-पथ' नाम से और उसका अवशिष्ट अंश दिसंबर 1914 में 'चमेली' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। बाद में एकत्रित रूप से यह कविता 'प्रेम-पथिक' नाम से प्रसिद्ध हुई। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार : 'करुणालय' का प्रकाशन १९१३ ई॰ में 'इन्दु' में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी ने इसे गीतिनाट्य के ढंग पर लिखा गया दृश्य काव्य कहा है। हालाँकि इसकी रचना गीतिपरक न होकर कवितात्मक ही है। केवल इसके अंत में एक गीतात्मक पद्य है। कविता का अधिकांश अतुकान्त है तथा मात्रिक छंद में वाक्यानुसार विरामचिह्न दिया गया है। इसलिए इसे गीतिनाट्य की अपेक्षा 'काव्य नाटक' कहना ही उचित है। १९१४ ई॰ में 'इन्दु' में प्रकाशित 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविता महाराणा प्रताप के साथ अमर सिंह पर भी केन्द्रित है। यह स्वाधीनता प्रेम, पराधीनता के खिलाफ संघर्ष, स्वतंत्रता को हर कीमत पर बनाये रखने के शौर्य और संकल्प की कथात्मक कविता है। प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाओं का संग्रह 'चित्राधार' था, जिसका पहला संस्करण १९१८ ई॰ में प्रकाशित हुआ था; परंतु उनका पहला प्रकाशित काव्य-संग्रह 'कानन-कुसुम' था जिसका प्रथम प्रकाशन १९१३ ई॰ में हुआ था। इसके तीसरे संस्करण के विवरण से पता चलता है कि इसके प्रथम संस्करण में उस समय तक रचित प्रसाद जी की खड़ीबोली के साथ ब्रजभाषा की कविताएँ भी संकलित थीं। बाद के संस्करण में इसमें केवल खड़ीबोली की कविताएँ रखी गयीं तथा ब्रजभाषा में रचित कविताएँ 'चित्राधार' में संकलित कर दी गयीं। चूँकि 'चित्राधार' में संकलित रचनाएँ कालक्रम से 'कानन-कुसुम' में संकलित रचनाओं से पहले की थीं, इसलिए प्रसाद जी की कृतियों में 'चित्राधार' को पहले और 'कानन-कुसुम' को दूसरे काव्य-संग्रह के रूप में स्थान दिया जाता है। 'कानन-कुसुम' की रचनाओं में संशोधन-परिवर्धन भी बहुत बाद तक होते रहा। सन् १९१८ ई॰ में प्रकाशित 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में लिखी 'कलाधर' और 'प्रसाद' छाप की कविताएँ एक साथ संकलित थीं, परन्तु १९२८ ई॰ में प्रकाशित इसके दूसरे संस्करण में केवल ब्रजभाषा की ही रचनाएँ रखी गयीं। 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' एवं 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविताएँ भी संकलित थीं, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ। उर्वशी, बभ्रुवाहन, करुणालय, ब्रह्मर्षि, पंचायत, प्रकृति सौंदर्य, सरोज, भक्ति आदि रचनाओं को 'चित्राधार' के इस परवर्ती संस्करण में निकाल दिया गया। 'चित्राधार' में संकलित कथामूलक भाव वाली कविताएँ तीन हैं -- 'वन मिलन', 'अयोध्या का उद्धार' और 'प्रेम राज्य'। 'अयोध्या का उद्धार' कालिदास कृत 'रघुवंश' के सोलहवें सर्ग पर तथा 'वन मिलन' 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' पर आधारित है। 'प्रेम राज्य' विजयनगर और अहमदाबाद के बीच हुए तालीकोट युद्ध की ऐतिहासिक घटना को केंद्र में रखकर लिखा गया वीरगाथा काव्य है। प्रसाद जी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह 'कानन कुसुम' है। इसमें सन १९०९ से लेकर १९१७ तक की कविताएँ संगृहीत हैं। प्रायः सभी कविताएँ पहले 'इन्दु' में प्रकाशित हो चुकी थीं। यहाँ तक की कविताएँ प्रसाद जी के प्रारंभिक दौर की कविताएँ हैं, जिनमें काव्य-विकास की अपेक्षा विकास के संकेत ही अधिक उपस्थापित हो पाये हैं। १९१८ ई॰ में ही प्रसाद जी के सुप्रसिद्ध संग्रह 'झरना' का प्रकाशन हुआ। जिसमें प्रसाद की प्रथम छायावादी कविता प्रथम प्रभात भी प्रकाशित हुई थी। इसमें प्रसाद जी के काव्य-विकास के संधिकाल की गीतिपरक कविताएँ संकलित हैं। आरंभ में इसमें कुल २४ कविताएँ थीं। इसका दूसरा संस्करण सन १९२७ ई॰ में प्रकाशित हुआ, जिसमें आचार्य शुक्ल के अनुसार ३३ रचनाएँ और जोड़ी गयीं, जिनमें रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्रविधान आदि सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला', 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'वसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी गयीं रचनाओं में हैं जो पहले संस्करण में नहीं थीं। 'झरना' एक दृष्टि से प्रेम के विविध अनुभवों का जीवन्त वर्णन है। इसके साथ ही इसमें लोकमंगल की भावना और दीन-दुखी तथा दलितों के दुख के अन्त की कामना भी है, जो प्रेम को उदार बनाती है। अनेक समालोचकों के विचार से छायावाद की प्रतिष्ठापक कुछ कविताएँ इस संग्रह में संकलित थीं। इसमें प्रसाद जी के भावी उदात्त काव्य-विकास के संकेत तो प्रभूत मात्रा में मिलते हैं, परंतु जहाँ-तहाँ भाषा का अनगढ़पन, लय का अभाव तथा उदात्तीकरण की न्यूनता रचनात्मक प्रौढ़ता में बाधा बनती भी दिखती है। प्रसाद जी की काव्य रचना के दूसरे दौर का आरम्भ 'आँसू' से हुआ, जिसका प्रकाशन १९२५ ई॰ में साहित्य सदन, चिरगाँव (झाँसी) से हुआ था। इसके प्रथम संस्करण में १२६ छंद थे, जबकि १९३३ में भारती-भण्डार, रामघाट, बनारस सिटी से प्रकाशित द्वितीय संस्करण में १९० छंद हैं। द्वितीय संस्करण में कुछ छंदों के पाठ में भी परिवर्तन किया गया था। प्रसाद जी की अधिकांश काव्य-रचनाओं में न्यूनाधिक सिद्धि के साथ अन्तर्धारा के रूप में अनुस्यूत तत्त्व के बारे में 'प्रेम-पथिक' के सन्दर्भ में लिखते हुए डॉ॰ रमेशचन्द्र शाह ने कहा है : इस भावना का प्रतिफलन 'प्रेम-पथिक' में जहाँ प्रारम्भिक रूप में हुआ था, वहीं 'आँसू' में यह अधिक व्यापक और काफी हद तक सिद्ध रूप में प्रतिफलित हुई है। डॉ॰ शाह के शब्दों में : डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार "आत्मपरकता की यह वस्तुपरकता प्रसाद को अच्छे लेखक से बड़ा लेखक बनाती है। 'आँसू' में भी इस प्रकार की चेतना मिलती है।" प्रसाद जी की गीतात्मक सृष्टि के शिखर 'लहर' का प्रकाशन १९३५ ई॰ में हुआ। इस संग्रह में १९३० से १९३५ ई॰ तक की रचनाएँ संकलित की गयीं। इस संग्रह के नाम तथा इसमें अन्तर्व्याप्त भावधारा के सम्बन्ध में डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है " 'लहर' की पहली ही कविता में, जो रचना के नामकरण और प्रतीकार्थ का कारण भी है, सूखे तट पर 'करुणा की नव अंगड़ाई सी' और 'मलयानिल की परछाईं सी' छिटकने और छहरने की आकांक्षा है।" प्रसाद जी के काव्य-शिल्प के प्रति असंतोष व्यक्त करने के बावजूद 'लहर' के सम्बन्ध में सुमित्रानंदन पंत ने 'छायावाद : पुनर्मूल्यांकन' नामक पुस्तक में लिखा है "लहर के प्रगीतों में गाम्भीर्य, मार्मिक अनुभूति तथा बुद्ध की करुणा का भी प्रभाव है। प्रसाद जी का भावजगत 'झरना' की प्रेम-व्याकुलता तथा चंचल भावुकता से बाहर निकलकर इसमें उनकी व्यापक जीवनानुभूति को अधिक सबल संगठित अभिव्यक्ति दे सका है।" 'लहर' के अंत में ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित चार कविताएँ संकलित हैं जो कि प्रसाद के जीवन-दर्शन, देशप्रेम, सामयिक स्थिति, अन्तर्द्वन्द्व तथा नियतिबोध की कविताएँ हैं। सन् १९३६ ई॰ में 'कामायनी' का प्रकाशन हुआ। इसकी रचना में प्रसाद ने पूरे सात वर्ष लगाये थे। इसकी पांडुलिपि तथा प्रथम संस्करण को मिलाकर पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि प्रसाद जी ने इसके पाठ में भी अनेक परिवर्तन करते हुए इसका स्वरूप निर्धारित किया था। महाकाव्य के परम्परागत विधान में सचेत रूप से कुछ छोड़ते और बहुत-कुछ जोड़ते हुए पन्द्रह सर्गों में विभक्त यह महाकाव्य विभिन्न दृष्टियों से जयशंकर प्रसाद की रचनात्मकता का शिखर तो है ही, काफी हद तक छायावादी काव्य दृष्टि की भी रचनात्मक निष्पत्ति है। कहानी कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ १९१२ ई. में 'इन्दु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। उनके पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ संकलित हैं। 'चित्राधार' से संकलित 'उर्वशी' और 'बभ्रुवाहन' को मिलाकर उनकी कुल कहानियों की संख्या ७२ बतला दी जाती है। यह 'उर्वशी' 'उर्वशी चम्पू' से भिन्न है, परन्तु ये दोनों रचनाएँ भी गद्य-पद्य मिश्रित भिन्न श्रेणी की रचनाएँ ही हैं। 'चित्राधार' में तो कथा-प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं, जिनको मिलाकर कहानियों की कुल संख्या ७७ हो जाएँगी; परंतु कुछ अंशों में कथा-तत्त्व से युक्त होने के बावजूद स्वयं जयशंकर प्रसाद की मान्यता के अनुसार ये रचनाएँ 'कहानी' विधा के अंतर्गत नहीं आती हैं। अतः उनकी कुल कहानियों की संख्या सत्तर है। कहानी के सम्बन्ध में प्रसाद जी की अवधारणा का स्पष्ट संकेत उनके प्रथम कहानी-संग्रह 'छाया' की भूमिका में मिल जाता है। 'छाया' नाम का स्पष्टीकरण देते हुए वे जो कुछ कहते हैं वह काफी हद तक 'कहानी' का परिभाषात्मक स्पष्टीकरण बन गया है। प्रसाद जी का मानना है कि छोटी-छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा सकता। परंतु, उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप से उसकी सबलता ही बन जाती है क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की ओर प्रेरित कर जाती है। प्रसाद जी के शब्दों में "...कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।" 'आनन्द' के साथ इस 'विस्तृत' विश्लेषण में निश्चय ही अर्थ की बहुआयामी छवि सन्निहित है; और इसीलिए छोटी कहानी भी केवल विनोद के लिए न होकर हृदय पर गम्भीर प्रभाव डालने वाली होती है। आज भी कहानी के सन्दर्भ में प्रसाद जी की इस अवधारणा की प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई है, बल्कि बढ़ी ही है। कवि एवं नाटककार के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अधिष्ठित होने के कारण प्रसाद जी की कहानियों पर लम्बे समय तक समीक्षकों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना कि अपेक्षित था; जबकि विजयमोहन सिंह के शब्दों में : छायावादी और आदर्शवादी माने जाने वाले जयशंकर प्रसाद की पहली ही कहानी 'ग्राम' आश्चर्यजनक रूप से यथार्थवादी है। भले ही उनकी यह कहानी हिन्दी की पहली कहानी न हो, परन्तु इसे सामान्यतः हिन्दी की पहली 'आधुनिक कहानी' माना जाता है। इसमें ग्रामीण यथार्थ का वह पक्ष अभिव्यक्त हुआ है जिसकी उस युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस कहानी में महाजनी सभ्यता के अमानवीय पक्ष का जिस वास्तविकता के साथ उद्घाटन हुआ है वह प्रसाद जी की सूक्ष्म और सटीक वस्तुवादी दृष्टि का परिचायक है। सामान्यतः प्रसाद जी को सामन्ती अभिरुचि का रचनाकार मानने की भूल भी की जाती रही है, जबकि एक ओर प्रसाद जी 'ममता' कहानी में "पतनोन्मुख सामन्त वंश का अन्त समीप" बतलाते हैं तो दूसरी ओर अपनी शिखर कृति 'कामायनी' में 'देव संस्कृति' के विनाश को उसकी आन्तरिक कमियों के कारण ही स्वाभाविक मानते हैं। 'देव संस्कृति' और 'स्वर्ग की परिकल्पना' को प्रसाद जी अपनी कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर में' भी ध्वस्त कर डालते हैं। इस कहानी में दुर्दान्त शेख से बिना डरे लज्जा कहती है "स्वर्ग ! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख ? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय, शेख।" यदि इस कहानी के ध्वन्यर्थ को इसके बाद हुए द्वितीय विश्वयुद्ध की परिणति से भी जोड़ कर देखें तो प्रसाद जी की सर्जनात्मक दृष्टि की महत्ता और भी सहजता से समझ में आ सकती है। वस्तुतः प्रसाद जी ने हिन्दी कहानी को अपने विशिष्ट योगदान के रूप में प्रेम की तीव्रता और प्रतीति के साथ कहानीपन को बनाए रखते हुए आन्तरिकता और अन्तर्मुखता के आयाम ही नहीं दिये बल्कि वास्तविकता के दोहरे स्वरूपों और जटिलताओं को पकड़ने, दरसाने और प्रस्तुत करने के लिए हिन्दी कहानी को सक्षम भी बनाया। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में : उपन्यास प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे हैं : कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। 'कंकाल' के प्रकाशित होने पर प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों से नाराज रहने वाले प्रेमचन्द ने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की थी तथा इसकी समीक्षा करते हुए 'हंस' के नवंबर १९३० के अंक में लिखा था : 'कंकाल' में धर्मपीठों में धर्म के नाम पर होने वाले अनाचारों को अंकित किया गया है। उपन्यास में प्रसाद जी ने अपने को काशी तक ही सीमित न रखकर प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों को भी कथा के केंद्र में समेट लिया है। इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिम और ईसाई समाज में भी इस धार्मिक व्यभिचार की व्याप्ति को अंकित किया है। मधुरेश की मान्यता है : 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। इसके प्रकाशित होने पर प्रेमचन्द ने 'हंस' के जुलाई १९३५ अंक में लिखा था : आरम्भिक समीक्षकों ने 'कंकाल' को यथार्थवादी और तितली को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी रचना माना। परन्तु, बाद में प्रगतिशील दृष्टि-सम्पन्न आलोचकों ने 'तितली' की वास्तविक महत्ता को पहचाना और एक यथार्थवादी रचना के रूप में उसे पर्याप्त महत्त्व मिला। इसकी प्रासंगिकता बढ़ी ही। 'तितली' में जमींदारी प्रथा होने न होने के सन्दर्भ में किसान की समस्या तथा पूँजीवादी भूमि-सुधार को लेकर लेखकीय दृष्टि के बारे में डॉ॰ रामविलास शर्मा का कहना है कि ऐसा लगता है, प्रसाद जी ने ये बातें बीस साल पहले न लिखकर आज लिखी हों। इसलिए डॉ॰ शर्मा की स्पष्ट मान्यता है : 'इरावती' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रसाद जी का अपूर्ण उपन्यास है। जिस ऐतिहासिक पद्धति पर प्रसाद जी ने नाटकों की रचना की थी उसी पद्धति पर उपन्यास के रूप में 'इरावती' की रचना का आरम्भ किया गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में "इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करने वाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।" मधुरेश के अनुसार : नाटक जयशंकर प्रसाद ने 'उर्वशी' एवं 'बभ्रुवाहन' चम्पू तथा अपूर्ण 'अग्निमित्र' को छोड़कर आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल तेरह नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गयी है। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है। 'बभ्रुवाहन' चम्पू को 'जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली ' में पूर्व में असंकलित रचना के रूप में संकलित किया गया है परन्तु यह रचना पहले भी 'प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध' संग्रह में 'चित्राधार' से संकलित 'विविध' रचना के रूप में संकलित हो चुकी है। जयशंकर प्रसाद ने जिस समय नाटकों की रचना आरंभ की उस समय भारतेन्दु द्वारा विकसित हिन्दी रंगमंच की स्वतंत्र चेतना क्रमशः क्षीण हो चुकी थी। हालाँकि पारसी थिएटर का भी एक समय ऐतिहासिक योगदान रहा था; स्वयं प्रसाद जी ने स्वीकार किया है कि "पारसी व्यवसायियों ने पहले-पहल नये रंगमंच की आयोजना की", परंतु विडंबना यह थी कि पारसी थियेटर का विकास लोकरुचि को उन्नत बनाते हुए सामाजिक समस्याओं को कलात्मक रूप से सामने लाने तथा उसके समाधान की ओर प्रेरित करने की अपेक्षा एक प्रकार की विकृत रुचि और भोंड़ेपन का प्रचार करने की ओर होते चला गया। इसके विपरीत प्रसाद जी के पूर्व से ही वैचारिक क्षेत्र की स्थिति यह थी कि साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अध्यात्म में विवेकानन्द का एक स्वर से आर्य साम्राज्य की एकता और आर्य संस्कृति को नष्ट होने से बचाने का, उसके विभिन्न गणों, समाजों और जातीयताओं को एक सूत्र में पिरोने का विवेकवादी और आनन्दवादी दोनों रूपों में प्रयत्न चल रहा था। ऐसे में प्रसाद जी ने अपने साहित्य -- जिसमें नाटक प्रमुखता से शामिल थे -- की रचना हेतु गहन चिन्तन-मनन को एक आवश्यक उपादान के रूप में अपनाया, जिसके स्पष्ट प्रमाण 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में पर्याप्त रूप से मिलते हैं। जयशंकर प्रसाद की इस गहरी चिंतनशीलता ने हिन्दी नाटकों को पहली बार बौद्धिक अर्थवत्ता प्रदान की। उनके नाटकों की भूमिकाएँ उनकी अनुसन्धानपरक तथ्यान्वेषी दृष्टि का स्पष्ट संकेत देती हैं। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में : प्रसाद जी ने नाट्य लेखन के आरंभ से ही पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनों परिप्रेक्ष्य को वैचारिक उपादान के रूप में सामने रखा है। एक ओर जहाँ महाभारत के प्रसंगों पर आधारित 'सज्जन' में युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा और सज्जनता को एक मूल्य के रूप में प्रस्तुत करना उनका लक्ष्य रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पात्र जयचन्द पर केंद्रित 'प्रायश्चित्त' में राष्ट्रप्रेम को मूल्य मानकर देशद्रोह का प्रायश्चित आत्मवध माना गया है; तथा 'चन्द्रगुप्त' नाटक के आरंभिक रूप 'कल्याणी परिणय' में पहले ही दृश्य में चाणक्य के स्वर में 'अन्धकार हट रहा जगत जागृत हुआ' के द्वारा प्रकृति और जागरण दोनों का संकेत किया गया है। स्वाभाविक है कि आरंभिक रचनात्मक प्रयत्न के रूप में इनमें पर्याप्त अनगढ़ता है, परंतु प्रसाद की दृष्टि एवं दिशा के संकेत स्पष्ट मिल जाते हैं। बाद में उन्होंने पौराणिक की अपेक्षा ऐतिहासिक कथानक को अधिक अपनाया तथा 'राज्यश्री' से लेकर 'ध्रुवस्वामिनी' तक में मौर्यकाल से लेकर हर्ष के समय तक से भारत के गौरवमय अतीत के प्रेरक चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरणीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी। वैचारिक रूप से प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटक के पात्रों को लेकर एक समय प्रेमचन्द एवं पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र जैसे लेखकों ने भी अपनी निजी मान्यता एवं आरंभिक उत्साह के कारण 'गड़े मुर्दे उखाड़ने' अर्थात् सामन्ती संस्कारों को पुनरुज्जीवित करने के आरोप लगाये थे, जबकि 'स्कन्दगुप्त' में देवसेना बड़े सरल शब्दों में गा रही थी : "देश की दुर्दशा निहारोगे डूबते को कभी उबारोगे हारते ही रहे न है कुछ अब दाँव पर आपको न हारोगे कुछ करोगे कि बस सदा रोकर दीन हो दैव को पुकारोगे सो रहे तुम, न भाग्य सोता है आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे दीन जीवन बिता रहे अब तक क्या हुए जा रहे, विचारोगे ?" और पर्णदत्त भीख भी माँगता है तो भीख में जन्मभूमि के लिए प्राण उत्सर्ग कर सकने वाले वीरों को माँगता है। इसलिए डॉ॰ रामविलास शर्मा स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : स्पष्ट है कि प्रसाद जी अपने युग-जीवन के यथार्थ को मार्मिक रूप से अभिव्यक्त करते हुए एक तरह से आँख में उँगली डालकर जनता को जगा रहे थे। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने बहुत ठीक लिखा है कि : प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों पर लगाये जा रहे आरोपों में निहित संकीर्णता एवं अदूरदर्शिता को उस समय भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य मनीषी तथा दूरदृष्टि-सम्पन्न आलोचक भली-भाँति समझ रहे थे तथा इस पद्धति के नाटकों की मौलिक सर्जनात्मकता की व्यापकता एवं गहराई को पहचानते हुए एक विशिष्ट साहित्यरूप के रूप में न केवल इसकी महत्ता को रेखांकित कर रहे थे बल्कि विरोधियों की मानसिकता एवं समझ पर पुरजोर शब्दों में तार्किक रूप से प्रश्नचिह्न भी लगा रहे थे। वस्तुतः राष्ट्रीय भावबोध की अभिव्यक्ति प्रसाद के नाट्य विधान का मूलाधार कहा जा सकता है। इतिहास के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को उद्दीप्त करने का सजग प्रयास उनके अधिकतर नाटकों में द्रष्टव्य है। प्रसाद का विश्लेषण था कि आधुनिक काल में सामाजिक समरसता और राष्ट्रीयता के आड़े तीन बाधाएँ आती हैं-- सांप्रदायिकता की भावना, प्रादेशिकता के तनाव तथा पुरुष-नारी के बीच असमानता की स्थिति। अपने प्रधान नाटकों 'अजातशत्रु', 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त' तथा 'ध्रुवस्वामिनी' में उन्होंने इन्हीं का समाधान देने का यत्न किया है। रंगमंचीय अध्ययन प्रसाद जी के नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप भी लगता रहा है। आक्षेप किया जाता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गये हैं, जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमें काव्यतत्त्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच-बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक है। इसके बावजूद बाबू श्यामसुंदर दास से लेकर बच्चन सिंह तक हिंदी आलोचना की तीन पीढ़ियाँ एक प्रवाद के रूप में मानती रही है कि प्रसाद के नाटक अभिनेय नहीं हैं। परंतु नयी पीढ़ी के वैसे आलोचक जो सीधे रंगमंच से जुड़े रहे हैं, बिल्कुल भिन्न विचार प्रकट करते हैं। शांता गांधी ने 'नटरंग' त्रैमासिक में लिखा था : "प्रसाद के नाटकों की सभी समस्याओं को सुलझाकर उन्हें अत्यंत सफलतापूर्वक रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है और उनका अवश्य ही प्रदर्शन होना चाहिए।" इस दिशा में आगे बढ़ते हुए अनेक निर्देशकों ने प्रसाद के मुख्य नाटकों को रंगमंच पर प्रदर्शित किया तथा अनेक आलोचकों ने उनके अलग-अलग नाटकों का रंगमंचीय विमर्श भी प्रस्तुत किया है। श्री वीरेन्द्र नारायण द्वारा प्रस्तुत स्कन्दगुप्त का रंगमंचीय अध्ययन 'हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास' भाग-११ में साठ पृष्ठों में विन्यस्त है। इस दिशा में एक समेकित प्रयत्न की तरह 'नाटककार जयशंकर प्रसाद' नामक संपादित पुस्तक में सत्येन्द्र कुमार तनेजा ने प्राचीन से लेकर विभिन्न नवीन लेखकों तक के विचार उपयुक्त रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किये हैं, जिसका एक प्रमुख अंश नाट्य निर्देशकों द्वारा प्रस्तुत विचार तथा रंग-समीक्षकों द्वारा प्रस्तुत समीक्षाएँ हैं। इस दिशा में लम्बी सर्जनात्मक साधना के उपरान्त महेश आनंद ने 'जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि' एवं 'जयशंकर प्रसाद : रंगसृष्टि' नामक दो खंडों की पुस्तक में प्रसाद के सभी नाटकों के विविध रंगमंचीय आयामों को उपस्थापित किया है। इसके प्रथम खंड में प्रसाद के रंग-विचारों और सभी नाटकों के विस्तृत विश्लेषण द्वारा उनकी रंगदृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है, जबकि उनके नाटकों और अन्य रचनाओं की प्रस्तुतियों के विभिन्न पक्षों का विवेचन, निर्देशकों के वक्तव्य, प्रमुख रंगकर्मियों से साक्षात्कार, पत्राचार तथा अन्य विवरणों का 'रंगसृष्टि' नामक पुस्तक के दूसरे भाग में विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रकाशित कृतियाँ काव्य प्रेम-पथिक - १९०९ ई॰ (प्रथम संस्करण ब्रजभाषा में; संशोधित-परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में - १९१४) करुणालय (काव्य–नाटक) - १९१३ ई॰ ('चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' संकलित थी, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।) महाराणा का महत्त्व - १९१४ ई॰ (यह भी 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में करुणालय के साथ ही संकलित थी, परंतु १९२८ में इसका भी स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।) चित्राधार - १९१८ ई॰ (संशोधित-परिमार्जित संस्करण - १९२८ ई॰) कानन कुसुम - १९१३ ई॰ (ब्रजभाषा मिश्रित प्रथम संस्करण-१९१३ ई॰; परिवर्धित संस्करण-१९१८ ई॰; संशोधित-परिमार्जित, खड़ीबोली संस्करण-१९२९ ई॰) झरना - १९१८ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९२७ ई॰) आँसू - १९२५ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९३३ ई॰) लहर- १९३५ ई॰ कामायनी - १९३६ ई॰ संशोधन एवं परिवर्धन के पश्चात जयशंकर प्रसाद के काव्य–संग्रहों का कालानुक्रम कहानी-संग्रह एवं उपन्यास छाया - १९१२ ई॰ प्रतिध्वनि - १९२६ ई॰ आकाशदीप - १९२९ ई॰ आँधी - १९३१ ई॰ इन्द्रजाल - १९३६ ई॰ उपन्यास- कंकाल - १९२९ ई॰ तितली - १९३४ ई॰ इरावती - १९३८ ई॰ नाटक-एकांकी एवं निबन्ध उर्वशी (चम्पू) - १९०९ ई॰ सज्जन - १९१० ई॰ कल्याणी परिणय - १९१२ ई॰ (नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित; १९३१ ई॰ में कुछ संशोधनों के साथ 'चन्द्रगुप्त' नाटक में समायोजित।) प्रायश्चित्त - १९१४ ई॰ राज्यश्री - १९१५ ई॰ विशाख - १९२१ ई॰ अजातशत्रु - १९२२ ई॰ जनमेजय का नाग-यज्ञ - १९२६ ई॰ कामना - १९२७ ई॰ स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य - १९२८ ई॰ एक घूँट - १९३० ई॰ चन्द्रगुप्त - १९३१ ई॰ ध्रुवस्वामिनी - १९३३ ई॰ अग्निमित्र (अपूर्ण) निबन्ध- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध - १९३९ (भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित।) रचना-समग्र जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (चार खण्डों में) [संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र; लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित। चारों खण्ड अलग-अलग प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास तथा प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध के नाम से भी सजिल्द एवं पेपरबैक में उपलब्ध।] जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (सात खण्डों में) - २०१४ ई॰ (सं॰ ओमप्रकाश सिंह; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से प्रकाशित। इसके द्वितीय खण्ड में समुचित शोध से प्राप्त, दो अधूरी कविताएँ सहित पूर्व में असंकलित कुल पैंतीस कविताओं को पहली बार संकलित किया गया है। सभी खण्डों में संकलित रचनाओं के प्रथम प्रकाशन का विवरण दिया गया है। सप्तम खण्ड में 'आँसू' का प्रथम संस्करण भी संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त ५ व्यक्तियों के नाम लिखे गये ४६ पत्र, कई चित्र एवं हस्तलेख तथा कुछ अन्य सामग्री भी दी गयी हैं।) सम्मान मंगलाप्रसाद पारितोषिक 'कामायनी' के लिए इन्हें भी देखें छायावाद चित्राधार कानन कुसुम आँसू (काव्य) लहर (काव्य) कामायनी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ जयशंकर प्रसाद (कविता कोश) जयशंकर प्रसाद (अनुभूति) जयशंकर प्रसाद (अभिव्यक्ति में) प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी (गूगल पुस्तक) स्कन्दगुप्त (गूगल पुस्तक ; लेखक - जयशंकर प्रसाद) प्रसाद-काव्य में बिम्ब-योजना (गूगल पुस्तक; लेखक - रामकृष्ण अग्रवाल) वासुदेव शरण अग्रवाल - जीवन परिचय, शैली एवं रचनाएं जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता Jaishankar Prasad Ka Jivan Parichay (जयशंकर प्रसाद के बारे में) जयशंकर प्रसाद : एक परिचय ('महाकवि प्रसाद फाउंडेशन' द्वारा प्रस्तुत वीडियो) जयशंकर प्रसाद हिन्दी नाटककार हिन्दी कथाकार छायावादी कवि वाराणसी के लोग 1890 में जन्मे लोग १९३७ में निधन
1873
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अकल दाढ उन दाँतों के नाम हैं जो आखिर में निकलते हैं। अधिकतर लोगों को चार अकल दाढ होते हैं - मुँह के हर कोने में एक - ये ज्यादातर जवानी में निकलते हैं। यह संभव है कि अकल दाढ जबड़ों की हड्डी में अटक जाएं, या फिर निकलें ही नहीं। ऐसा होने पर बाकी दाँत ठसने या खिसकने लग सकते हैं, या नजदीकी दाँतों में सड़न या संक्रमण हो सकता है या मसूड़ों में बीमारी फैल सकती है। जबड़ों में अकल दाढ के अटकने का कारण यह हो सकता है कि वे किसी असाधारण अवस्था में हों, जैसे कि सपाट, जिसकी वजह से वो सामान्य रूप से बाहर नहीं निकल सकते। अधिकतर लोगों को अटके हुए अकल दाढ को निकलवाने की सलाह दी जाती है। दाँत की अवस्था के अनुसार, तीसरे दाढ (अकल दाढ) को आपके दाँत के डॉक्टर के दफ्तर में, किसी बाहरी रोगी क्लिनिक में या अस्पताल में भर्ती करके निकाला जा सकता है। सामान्यतया एक व्यस्क की अकल दाढ निकलने के बाद उसके दाँतों की संख्या ३२ हो जाती है |और इसके निकलने में मीठा दर्द भी होता है जो आपको कोई काम करने नहीं देगा । और इसके दर्द से बचने के लिए मुंह में लौंग का सेवन करे या नहीं तो आप लौंग का तेल भी प्रायोग कर सकते है/ इसके और भी उपाय है यदि आप लहसुन का प्रयोग करके सही कर सकते है तो लहसुन को दाँत के साथ दबा दे।। दाँत
1874
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ग्नूविन विण्डोज़ के लिये मुक्त तन्त्रांश का संकलन है। यह लिनक्स उपयोगकर्ताओं द्वारा (लिनक्स यूजर ग्रूप) द्वारा निर्मित किया गया। सामान्य बोलचाल में इसे ग्नु अथवा जीएनयू कहा जाता है। बाहरी कड़ियाँ ग्नूविन का मुखपृष्ठ लिनक्स
1877
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का अर्थ है तख्ती या स्लेट पर छोटे बच्चे खड़िया या चॉक से लिखने का अभ्यास करते हैं। लिखावट सुंदर हो इसलिये प्राचीन समय में तख्ती, क़लम और काली स्याही की दवात का प्रयोग अनिवार्यता था। तख्ती तंत्राश की मदद से आप विण्डोज़ मशीनों पर हिन्दी (देवनागरी यूनीकोड) में लिख सकते हैं। का अर्थ है कागज़ का पुट्ठा या सूचना पट्ट।
1878
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हरियाणा उत्तर भारत का एक राज्य है जिसकी राजधानी चण्डीगढ़ है। इसकी सीमायें उत्तर में पंजाब और हिमाचल प्रदेश, दक्षिण एवं पश्चिम में राजस्थान से जुड़ी हुई हैं। यमुना नदी इसके उत्तर प्रदेश राज्य के साथ पूर्वी सीमा को परिभाषित करती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली हरियाणा से तीन ओर से घिरी हुई है और फलस्वरूप हरियाणा का दक्षिणी क्षेत्र नियोजित विकास के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल है। यह राज्य वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता का मुख्य निवास स्थान है। इस क्षेत्र में विभिन्न निर्णायक लड़ाइयाँ भी हुई हैं जिसमें भारत का अधिकतर इतिहास समाहित है। इसमें महाभारत का महाकाव्य युद्ध भी शामिल है। हिन्दू मतों के अनुसार महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ (इसमें भगवान कृष्ण ने भागवत गीता का वादन किया)। इसके अलावा यहाँ तीन पानीपत की लड़ाइयाँ हुई। ब्रितानी भारत में हरियाणा पंजाब राज्य का अंग था जिसे 1966 में भारत के 17वें राज्य के रूप में पहचान मिली। वर्तमान में खाद्यान और दुग्ध उत्पादन में हरियाणा देश में प्रमुख राज्य है। इस राज्य के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है। समतल कृषि भूमि निमज्जक कुओं (समर्सिबल पंप) और नहर से सिंचित की जाती है। 1960 के दशक की हरित क्रान्ति में हरियाणा का भारी योगदान रहा जिससे देश खाद्यान सम्पन्न हुआ। हरियाणा, भारत के अमीर राज्यों में से एक है और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर यह देश का दूसरा सबसे धनी राज्य है। वर्ष २०१२-१३ में देश में इसकी प्रति-व्यक्ति १,१९,१५८ (अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर भारत के राज्य देखें) और वर्ष २०१३-१४ में १,३२,०८९ रही। इसके अतिरिक्त भारत में सबसे अधिक ग्रामीण करोड़पति भी इसी राज्य में हैं। हरियाणा आर्थिक रूप से दक्षिण एशिया का सबसे विकसित क्षेत्र है और यहाँ कृषि एवं विनिर्माण उद्योग ने १९७० के दशक से निरंतर वृद्धि प्राप्त की है। भारत में हरियाणा यात्रि कारों, द्विचक्र वाहनों और ट्रैक्टरों के निर्माण में सर्वोपरी राज्य है। भारत में प्रति व्यक्ति निवेश के आधार पर वर्ष २००० से राज्य सर्वोपरी स्थान पर रहा है। भूगोल हरियाणा उत्तर भारत में स्थित एक स्थलरुद्ध राज्य है। इसका विस्तार २७°३९' उत्तर से ३०°५५' उत्तर तक के अक्षांशों तक, और ७४°२८' पूर्व से ७७°३६' पूर्व तक के देशान्तरों तक है। राज्य की सीमायें उत्तर में पंजाब और हिमाचल प्रदेश, तथा दक्षिण एवं पश्चिम में राजस्थान से जुड़ी हुई हैं। उत्तर प्रदेश राज्य के साथ इसकी पूर्वी सीमा को यमुना नदी परिभाषित करती है। हरियाणा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को भी तीन ओर से घेरता है। राज्य का क्षेत्रफल ४४,२१२ वर्ग किलोमीटर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का १.४ प्रतिशत है, और इस प्रकार क्षेत्रफल के आधार पर यह भारत का बीस वाँ सबसे बड़ा राज्य है। समुद्र तल से हरियाणा की ऊँचाई ७०० से ३६०० फीट (२०० मीटर से १२०० मीटर) तक है। भूतत्व भौगोलिक तौर पर हरियाणा को चार भागों में बांटा जा सकता है: राज्य के उत्तरी हिस्से में स्थित यमुना-घग्गर के मैदान, सुदूर उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों की एक पट्टी, दक्षिण-पश्चिम में बांगर क्षेत्र तथा दक्षिणी हिस्से में अरावली पर्वतमालाओं के अंतिमांश, जिनका क्षैतिज विस्तार राजस्थान से दिल्ली तक है। राज्य की मिट्टी आमतौर पर गहरी और उपजाऊ है। हालांकि, पूर्वोत्तर के पहाड़ी और दक्षिण-पश्चिम के रेतीले इलाके इसके अपवाद हैं। राज्य की अधिकांश भूमि कृषि योग्य है, लेकिन यहाँ अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। यमुना राज्य की एकमात्र चिरस्थायी नदी है, जो इसकी पूर्वी सीमा पर बहती है। उत्तरी हरियाणा में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर बहने वाली कई बरसाती नदियां हैं, जो हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों से निकलती हैं। इनमें घग्गर-हकरा, चौटांग, टागंरी, कौशल्या, मारकंडा, सरस्वती और सोम इत्यादि प्रमुख हैं। इसी तरह दक्षिणी हरियाणा में भी अरावली पहाड़ियों से निकलने वाली कई नदियां दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं। इन नदियों में साहिबी, दोहान, कृष्णावती और इंदौरी शामिल हैं। माना जाता है कि ये सभी किसी समय सरस्वती नदी की सहायक नदियां थीं। इन नदियों पर राज्य भर में कई बाँध बने हैं, जिनमें यमुना नदी पर बने हथिनीकुंड तथा ताजेवाला बैराज, पंचकुला ज़िले में स्थित कौशल्या बाँध, यमुनानगर ज़िले में स्थित पथराला बैराज तथा सिरसा ज़िले में स्थित ओटू बैराज मुख्य हैं। हरियाणा की प्रमुख झीलों में गुरुग्राम का बसई वेटलैंड और सुल्तानपुर झील, फरीदाबाद की बड़खल झील और प्राचीन सूरजकुण्ड, कुरुक्षेत्र के सन्निहित और ब्रह्म सरोवर, हिसार की ब्लू बर्ड झील, सोहना की दमदामा झील, यमुनानगर जिले का हथनी कुंड, करनाल की कर्ण झील, और रोहतक की तिल्यार झील, झज्जर जिले का भिंडावास वेटलैंड, इत्यादि प्रमुख हैं। सिंचाई के लिए जल की व्यवस्था हेतु राज्य भर में नहरों का जाल बिछा है, जिनमें पश्चिमी यमुना नहर, इंदिरा गांधी नहर और प्रस्तावित सतलज यमुना लिंक नहर मुख्य हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले लगभग १४,००० जोहड़ों और ६० झीलों का प्रबंधन हरियाणा राज्य वाटरबॉडी प्रबंधन बोर्ड हरियाणा के जिम्मे है। राज्य का एकमात्र गरम चश्मा सोहना में स्थित है। वन्य जीवन राज्य में वन कवर ३.५९% (१,५८६ वर्ग किमी) था, और राज्य में वृक्षारोपण २.९०% (१,२८२ वर्ग किमी) था, जिसमें कुल वन और वृक्ष ६.४९% का कवर था। २०१६-१७ में, १४.१ मिलियन पौधे लगाकर १८,४१२ हेक्टेयर क्षेत्र को वन क्षेत्र के अंतर्गत लाया गया था। पूरे राज्य में कांटेदार, शुष्क, पर्णपाती वन और कांटेदार झाड़ियों को पाया जा सकता है। मानसून के दौरान, घास का एक कालीन पहाड़ियों को ढक लेता है। शहतूत, नीलगिरी, पाइन, किकर, शिशम और बबूल यहां पाए जाने वाले कुछ पेड़ हैं। हरियाणा राज्य में पाए जाने वाले जीवों की प्रजातियों में काला हिरण, नीलगाय, पैंथर, लोमड़ी, नेवला, सियार और जंगली कुत्ता शामिल हैं। यहां पक्षियों की ४५० से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। जलवायु हरियाणा की जलवायु साल भर में गांगेय मैदानों के समान रहती है, यहाँ का मौसम गर्मियों में बहुत गर्म, जबकि सर्दियों में मध्यम ठंडा रहता है। सबसे गर्म महीने मई और जून होते हैं, जब तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फारेनहाइट) तक चला जाता है,नारनौल व हिसार गर्मी में सबसे गर्म तथा सर्दी में सबसे ठंडे शहर और सबसे ठंडे महीने दिसंबर और जनवरी रहते है। कोप्पेन वर्गीकरण के अनुसार राज्य में तीन मौसम क्षेत्र पाए जाते हैं: राज्य के पश्चिमी तथा मध्य हिस्सों की जलवायु अर्द्ध शुष्क है, उत्तरी तथा पूर्वी क्षेत्रों की गर्म भूमध्यसागरीय, जबकि दक्षिणी क्षेत्रों की जलवायु मरुस्थलीय है। करनाल, कुरुक्षेत्र और अंबाला जिलों के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे राज्य में वर्षा कम और अनियमित है। वर्ष भर में अधिकतम वर्षा २१६ सेमी, जबकि न्यूनतम वर्षा २५ से ३८ सेमी तक रिकॉर्ड की जाती है। जुलाई से सितंबर के महीनों के दौरान लगभग ८० प्रतिशत बारिश होती है, और शेष वर्षा दिसंबर से फरवरी की अवधि के दौरान प्राप्त होती है। जनसांख्यिकी 2011 की जनगणना के अनुसार, हरियाणा की कुल आबादी लगभग २५,३५०,००० है। धर्म ८७.४६% आबादी के साथ हिंदू राज्य में बहुसंख्यक हैं। प्रमुख अल्पसंख्यकों में मुसलमान (७.०३%) (मुख्य रूप से मियो) और सिख (४.९१%) हैं। मुस्लिम मुख्य रूप से नूंह जिले में पाए जाते हैं। हरियाणा में पंजाब के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी सिख आबादी है, और वे ज्यादातर पंजाब के आस-पास के जिलों, जैसे हिसार, सिरसा, जींद, फतेहाबाद, कैथल, करनाल, कुरुक्षेत्र, अंबाला, नारनौल और पंचकुला में रहते हैं। भाषाएं हिंदी 2020 तक हरियाणा की एकमात्र आधिकारिक भाषा थी और राज्य की अधिकांश आबादी (८७.३१%) द्वारा बोली जाती है। हरियाणा में ७०% ग्रामीण आबादी है जो मुख्य रूप से हिंदी की हरियाणवी बोली बोलती है। हरियाणा में ब्रजभाषा भी लोकप्रिय है, जो पलवल ज़िला और गुरूग्राम ज़िला में प्रमुखता से बोली जाती है। साथ ही साथ अन्य संबंधित बोलियां भी, जैसे बागरी और मेवाती भी बोली जाती हैं। इतिहास महाभारत के बाद यहां आभीर (यादव) जाति के लोग निवास करते थे, इसलिए आभीर जाति के नाम पर इसका नाम पहले अहिरयाणा था बाद मे समय के साथ इसका नाम हरियाणा हो गया। इसकी स्थापना १ नवम्बर १९६६ को हुई। इसे भाषायी आधार पर पूर्वी पंजाब से नये राज्य के रूप में बनाया गया। शब्द हरियाणा सर्वप्रथम १२वीं सदी में अपभ्रंश लेखक विबुध श्रीधर (विसं ११८९–१२३०) ने उल्लिखीत किया था। प्राचीन इतिहास सिंधु घाटी जितनी पुरानी कई सभ्यताओं के अवशेष सरस्वती नदी के किनारे पाए गए हैं। जिनमे नौरंगाबाद और मिट्टाथल भिवानी में, कुणाल, फतेहाबाद मे, अग्रोहा और राखीगढी़ हिसार में, रूखी रोहतक में और बनवाली फतेहाबाद जिले में प्रमुख है। प्राचीन वैदिक सभ्यता भी सरस्वती नदी के तट के आस पास फली फूली। ऋग्वेद के मंत्रों की रचना भी यहीं हुई है। ग्रंथों में वर्णन कुछ प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार, कुरुक्षेत्र की सीमायें, मोटे तौर पर हरियाणा राज्य की सीमायें हैं। तैत्रीय अरण्यक ५.१.१ के अनुसार, कुरुक्षेत्र क्षेत्र, तुर्घना (श्रुघना / सुघ सरहिन्द, पंजाब में) के दक्षिण में, खांडव (दिल्ली और मेवात क्षेत्र) के उत्तर में, मारू (रेगिस्तान) के पूर्व में और पारिन के पश्चिम में है। भारत के महाकाव्य महाभारतमे हरियाणा का उल्लेख बहुधान्यकऔर बहुधनके रूप में किया गया है। महाभारत में वर्णित हरियाणा के कुछ स्थान आज के आधुनिक शहरों जैसे, प्रिथुदक (पेहोवा), तिलप्रस्थ (तिल्पुट), पानप्रस्थ (पानीपत) और सोनप्रस्थ (सोनीपत) में विकसित हो गये हैं। गुड़गाँव का अर्थ गुरु के ग्राम यानि गुरु द्रोणाचार्य के गाँव से है। कौरवों और पांडवों के बीच हुआ महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध कुरुक्षेत्र नगर के निकट हुआ था। कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर दिया था। इसके बाद अठारह दिन तक हस्तिनापुर के सिंहासन का अधिकारी तय करने के लिये कुरुक्षेत्र के मैदानी इलाकों में पूरे भारत से आयी सेनाओं के मध्य भीषण संघर्ष हुआ। जनश्रुति के अनुसार महाराजा अग्रसेन् ने अग्रोहा जो आज के हिसार के निकट स्थित है, में एक व्यापारियों के समृद्ध नगर की स्थापना की थी। किवंदती है कि जो भी व्यक्ति यहाँ बसना चाहता था उसे एक ईंट और रुपया शहर के सभी एक लाख नागरिकों द्वारा दिया जाता था, इससे उस व्यक्ति के पास घर बनाने के लिये पर्याप्त ईंटें और व्यापार शुरू करने के लिए पर्याप्त धन होता था। मघ्यकालीन इतिहास हूण के शासन के पश्चात हर्षवर्धन द्वारा 7वीं शताब्दी में स्थापित राज्य की राजधानी कुरुक्षेत्र के पास थानेसर में बसायी। उसकी मौत के बाद गुर्जर प्रतिहार ने वहां शासन करना आरंभ कर दिया और अपनी राजधानी कन्नौज बना ली। यह स्थान दिल्ली के शासक के लिये महत्वपूर्ण था। पृथ्वीराज चौहान ने १२वीं शताब्दी में अपना किला hansi और तरावड़ी (पुराना नाम तराईन) में स्थापित कर लिया।मुहम्मद गौरी ने दुसरी तराईन युध में इस पर कब्जा कर लिया। उसके पश्चात दिल्ली सल्तनत ने कई सदी तक यहाँ शासन किया। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दिल्ली पर अधिकार के लिए अधिकतर युद्ध हरियाणा की धरती पर ही लड़े गए। तरावड़ी के युद्ध के अतिरिक्त पानीपत के मैदान में भी तीन युद्ध एसे लड़े गए जिन्होंने भारत के इतिहास की दिशा ही बदल दी। ब्रिटिश राज से मुक्ति पाने के आन्दोलनों में हरियाणा वासियों ने भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। रेवाड़ी के राजा राव तुला राम का नाम १८५७ के संग्राम में योगदान दिया। राज्य स्थापना स्वतन्त्रता के बाद सबसे पहले 1948 में हरियाणा राज्य कि अधिकारिक मांग पंजाबी नेता तारा सिंह द्वारा उठाई गई थी। 1 अक्टूबर, 1949 को सच्चर फ़ार्मूला के अंतर्गत पंजाब को दो क्षेत्रों पंजाबी क्षेत्र और हिंदी क्षेत्र में विभाजित कर दिया ,परंतु जनता ने इसे अस्वीकार कर दिया। राज्य के रूप में हरियाणा 1 नवंबर 1966 को पंजाब पुनर्गठन अधिनियम (१९६६) के माध्यम से अस्तित्व में आया था। भारत सरकार ने २३ अप्रैल १९६६ को पंजाब के तत्कालीन राज्य को निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के आधार पर विभाजित करने के विचार के बाद हरियाणा के नए राज्य की सीमा निर्धारित करने के लिए न्यायमूर्ति जेसी शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग की स्थापना की। आयोग ने ३१ मई १९६६ को अपनी रिपोर्ट दे दी, जिससे हिसार, महेंद्रगढ़, गुरुग्राम, रोहतक और करनाल के तत्कालीन जिलों को हरियाणा के नए राज्य का हिस्सा बन गए। इसके अलावा, संगरूर जिले की जिंद और नरवाना तहसील, और साथ साथ ही नारायणगढ़, अंबाला और जगधरी को भी इसमें शामिल किया जाना था। आयोग ने यह भी सिफारिश की थी कि खरड़ तहसील, जिसमें पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ शामिल थी, को हरियाणा का हिस्सा होना चाहिए। हालांकि, हरियाणा को खरड़ का केवल एक छोटा सा हिस्सा दिया गया था। चंडीगढ़ शहर को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, जो कालांतर में पंजाब और हरियाणा दोनों की राजधानी बना। मण्डल तथा जिले प्रशासनिक आधार पर हरियाणा को २२ जिलों में विभाजित किया गया है, जो ६ मण्डलों में समूहबद्ध हैं। इन 22 जिलों में ७२ सब-डिवीजन, ९३ तहसील, ५० उप-तहसील, १४० सामुदायिक विकास खंड, १५४ नगर तथा कस्बे, ६,२१२ ग्राम पंचायत और ६,८४१ गांव हैं। १ नवंबर १९६६ को जब तत्कालीन पूर्वी पंजाब के विभाजन द्वारा हरियाणा राज्य की स्थापना हुई थी, तब राज्य में ७ जिले थे; रोहतक, जींद, हिसार, महेंद्रगढ़, गुडगाँव, करनाल तथा अम्बाला। २०१७ तक इन जिलों के पुनर्गठन के माध्यम से १४ नए जिले जोड़े जा चुके हैं। नगर तथा कस्बे हरियाणा में कुल 154 नगर तथा कस्बे हैं।2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 18 नगर हैं: फरीदाबाद, गुरुग्राम, पानीपत, अम्बाला, यमुनानगर, रोहतक, हिसार, करनाल, सोनीपत, पंचकुला, भिवानी, सिरसा, बहादुरगढ़, जींद, थानेसर, कैथल, रेवाड़ी और पलवल। चण्डीगढ़, जो भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश है, हरियाणा की राजधानी है। १ नवंबर, १९६६ को जब पंजाब के हिन्दी-भाषी पूर्वी भाग को काटकर हरियाणा राज्य का गठन किया गया, तो चंडीगढ़ शहर के दोनों के बीच सीमा पर स्थित होने के कारण इसी दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी के रूप में घोषित किया गया और साथ ही संघ शासित क्षेत्र भी घोषित किया गया था। अगस्त १९८५ में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच हुए समझौते के अनुसार, चंडीगढ़ को १९८६ में पंजाब में स्थानांतरित होना तय हुआ था। इसके साथ ही हरियाणा के लिए एक नई राजधानी का सृजन भी होना था, किन्तु कुछ प्रशासनिक कारणों के चलते इस स्थानांतरण में विलंब हुआ। इस विलंब के मुख्य कारणों में दक्षिणी पंजाब के कुछ हिन्दी-भाषी गाँवों को हरियाणा और पश्चिम हरियाणा के पंजाबी-भाषी गाँवों को पंजाब को देने का विवाद था। अर्थव्यवस्था २०१२-१७ में १२.९६% की कंपाउंड वार्षिक वृद्धि दर और २०१७-१८ में यूएस $९५ बिलियन डॉलर की अनुमानित जीएसडीपी के साथ हरियाणा की जीडीपी भारत में १४वीं सबसे बड़ी है। हरियाणा की जीडीपी ५२% सर्विस सेक्टर, ३०% इंडस्ट्रीज सेक्टर, और १८% कृषि सेक्टर में विभाजित है। सर्विस सेक्टर ४५% रीयल एस्टेट और वित्तीय और पेशेवर सेवाओं, २६% व्यापार और आतिथ्य, १५% राज्य और केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों, और १४% परिवहन और रसद और गोदाम में विभाजित है। आईटी सेवाओं में, गुरुग्राम विकास दर और मौजूदा प्रौद्योगिकी आधारभूत संरचना में पूरे भारत में नंबर १ स्थान पर, और स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र, नवाचार और उत्तरदायित्व (नवंबर २०१६) में नंबर २ पर है। इंडस्ट्रीज सेक्टर ६९% विनिर्माण, २८% निर्माण, २% उपयोगिताओं और १% खनन में विभाजित है। हरियाणा पूरे भारत की ६७% यात्री कार, ६०% मोटरसाइकिल, ५०% ट्रैक्टर और ५०% रेफ्रिजरेटरों का उत्पादन करता है। सेवाओं और औद्योगिक क्षेत्रों को ७ परिचालित एसईजेड और अतिरिक्त २३ औपचारिक रूप से अनुमोदित एसईजेड (२० पहले ही अधिसूचित और ३ इन-प्रिंसिपल स्वीकृति) द्वारा बढ़ाया जाता है जो ज्यादातर दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर, अमृतसर दिल्ली कोलकाता औद्योगिक कॉरिडोर और दिल्ली पश्चिमी परिधीय एक्सप्रेसवे के साथ फैले हुए हैं। कृषि क्षेत्र ९३% फसलों और पशुधन, ४% वाणिज्यिक वानिकी और लॉगिंग, और २% मत्स्यपालन में विभाजित है। हरियाणा का कृषि क्षेत्र, भारत के १.४% से कम क्षेत्र के साथ, केंद्रीय खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, और कुल राष्ट्रीय कृषि निर्यात का ७% का योगदान देता है जिसमें कुल राष्ट्रीय बासमती चावल निर्यात का ६०% शामिल है। कृषि हरियाणा परंपरागत रूप से एक कृषि समाज रहा है। १९६० के दशक में हरियाणा में हरित क्रांति के आगमन, और फिर १९६३ में भाखड़ा बांध और १९७० के दशक में पश्चिमी यमुना कमांड नेटवर्क नहर प्रणाली के पूरा होने के परिणामस्वरूप हरियाणा में खाद्य अनाज उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। २०१५-२०१६ में, हरियाणा में १,३३,५२,००० टन गेहूं, ४१,४५,००० टन चावल, ७१,६९,००० टन गन्ना, ९,९३,००० टन कपास और ८,५५,००० टन तिलहन (सरसों का बीज, सूरजमुखी, आदि) का उत्पादन हुआ। हरियाणा दुग्ध के लिए भी जाना जाता है। राज्य में मवेशियों की कई नस्लें पाई जाती हैं, जिनमें मुर्रा भैंस, हरियाणवी, मेवाती, साहिवाल और नीलि-रवि इत्यादि प्रमुख हैं। कृषि आधारित हरियाणा की अर्थव्यवस्था को और बेहतर बनाने के लिए, केंद्रीय सरकार (केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, बफेलो, केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म, इक्विनेस पर राष्ट्रीय शोध केंद्र, मत्स्य पालन संस्थान, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, भारतीय संस्थान गेहूं और जौ अनुसंधान और राष्ट्रीय ब्यूरो ऑफ एनिमल आनुवांशिक संसाधन) और राज्य सरकार (सीसीएस एचएयू, लुवास, सरकारी पशुधन फार्म, क्षेत्रीय चारा स्टेशन और उत्तरी क्षेत्र कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान) ने कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और शिक्षा के लिए कई संस्थान राज्य में खोले हैं। प्रशासन नियम कानून हरियाणा पुलिस बल हरियाणा की कानून प्रवर्तन एजेंसी है। हरियाणा पुलिस की पांच रेंज अंबाला, हिसार, करनाल, रेवाड़ी और रोहतक हैं। इसके अतिरिक्त फरीदाबाद, गुड़गांव और पंचकुला में तीन पुलिस आयुक्त हैं। साइबर क्राइम की जांच हेतु गुड़गांव के सेक्टर ५१ में साइबर सेल स्थित है। राज्य में सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय है। हरियाणा ई-फाइलिंग सुविधा का उपयोग करता है। अन्य प्रशासनिक सेवाएं नागरिकों को सैकड़ों ई-सेवाओं की पेशकश करने के लिए सभी जिलों में सर्व सेवा केंद्रों (सीएससी) को अपग्रेड किया गया है, जिसमें नए जल कनेक्शन, सीवर कनेक्शन, बिजली बिल संग्रह, राशन कार्ड सदस्य पंजीकरण, एचबीएसई का परिणाम, बोर्ड परीक्षाओं के लिए प्रवेश पत्र, सरकारी कॉलेजों के लिए ऑनलाइन प्रवेश फॉर्म, बसों की लंबी मार्ग बुकिंग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और एचयूडीए प्लॉट्स स्टेटस पूछताछ के लिए फॉर्म उपलब्ध हैं। हरियाणा सभी जिलों में आधार-सक्षम जन्म पंजीकरण को लागू करने वाला पहला राज्य बन गया है। डिजिटल इंडिया पहल के अंतर्गत एकीकृत यूएमएएनजी ऐप और पोर्टल के माध्यम से हजारों पारंपरिक ऑफ़लाइन राज्य और केंद्र सरकार सेवाएं भी २४/७ उपलब्ध हैं। परिवहन सड़क दिसंबर २०१७ तक हरियाणा राज्य में सड़कों की कुल लंबाई २६,०६२ किलोमीटर (१६,१९४ मील) है, जिसमें २,४८२ किलोमीटर (१,५४२ मील) राष्ट्रीय राजमार्ग, १,८०१ किलोमीटर (१,११९ मील) राज्य राजमार्ग, १,३९५ किलोमीटर (८६७ मील) प्रमुख जिला सड़क (एमडीआर) और २०,३४४ किलोमीटर (१२,६४१ मील) अन्य जिला सड़क (ओडीआर) हैं। राज्य में कुल १५ राष्ट्रीय राजमार्ग हैं, जिनमें से अधिकतर राज्य के विभिन्न हिस्सों को दिल्ली से जोड़ते हैं। हरियाणा रोडवेज का ३,८६४ बसों का बेड़ा राज्य भर में प्रति दिन १.१५ मिलियन किमी की दूरी को कवर करता है। हरियाणा देश में लक्जरी वीडियो कोच पेश करने वाला पहला राज्य था। रेल हरियाणा में रेल नेटवर्क ३ रेलवे जोनों के तहत ५ रेल डिवीजनों द्वारा कवर किया गया है। डायमंड चतुर्भुज हाई स्पीड रेल नेटवर्क, पूर्वी समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (72 किमी) और पश्चिमी समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (177 किमी) हरियाणा से गुजरते हैं। उत्तर पश्चिमी रेलवे जोन के बीकानेर रेलवे डिवीजन पश्चिमी और दक्षिणी हरियाणा में भटिंडा-दबवाली-हनुमानगढ़ लाइन, रेवाड़ी-भिवानी-हिसार-बठिंडा लाइन, हिसार-सदुलपुर लाइन और रेवाड़ी-लोहारु-सदुलपुर लाइन को कवर करते हुए रेल नेटवर्क का संचालन करता है। इसी जोन के जयपुर रेलवे डिवीजन के अंतर्गत दक्षिण-पश्चिम हरियाणा का रेल नेटवर्क आता है, जिसमें रेवाड़ी-रेन्गस-जयपुर लाइन, दिल्ली-अलवर-जयपुर लाइन और लोहारु-सीकर लाइन शामिल है। उत्तरी, पूर्व और मध्य हरियाणा के क्षेत्र उत्तरी रेलवे जोन के दिल्ली रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आते हैं, जिसके अंदर दिल्ली-अंबाला लाइन, दिल्ली-रोहतक-तोहाना लाइन, रेवारी-रोहतक लाइन, जींद-सोनीपत लाइन और दिल्ली-रेवाड़ी लाइन आती हैं। इसी जाने के अंबाला रेलवे डिवीजन के अंतर्गत उत्तर-पूर्व हरियाणा में अंबाला-यमुनानगर लाइन, अंबाला-कुरुक्षेत्र लाइन और यूनेस्को विश्व विरासत कालका-शिमला रेलवे लाइन आती हैं। दक्षिण-पूर्व हरियाणा की पलवल-मथुरा लाइन उत्तर मध्य रेलवे जोन के आगरा रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आने वाली एकमात्र रेलवे लाइन है। शिक्षा साक्षरता हरियाणा में साक्षरता दर में ऊपर की प्रवृत्ति देखी गई है और २०११ की जनगणना के मुताबिक यह ७६.६४ प्रतिशत है। पुरुषों में साक्षरता डॉ ८५.३८ प्रतिशत है, जबकि महिलाओं में यह ६६.६७ प्रतिशत है। २००१ में हरियाणा की साक्षरता दर ६७.९१ प्रतिशत थी; तब ७८.४९ प्रतिशत पुरुष और ५५.७३ प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं। २०१३ तक, हरियाणा के उच्चतम साक्षरता दर वाले नगर गुरुग्राम (८६.३० प्रतिशत), पंचकुला (८१.९० प्रतिशत) और अम्बाला (८१.७० प्रतिशत) हैं। सबसे कम साक्षर जिला मेवात (54.08)है ।जिलों के संदर्भ में, 2012 तक ७४ प्रतिशत के साथ रेवाड़ी में हरियाणा की उच्चतम साक्षरता दर थी, जो राष्ट्रीय औसत ५९.५ प्रतिशत से अधिक थी: पुरुष साक्षरता ७९ प्रतिशत थी, और महिला ६७ प्रतिशत थी। यहा कुछ किताबों में प्रतिशत 90% दिया गया है स्कूली शिक्षा हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन सालाना दो बार माध्यमिक, मैट्रिक, और वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर सार्वजनिक परीक्षाऐं आयोजित करता है। बोर्ड की स्थापना सितंबर १९६९ में चण्डीगढ़ में हुई थी, और १९८१ में यह भिवानी में स्थानांतरित हो गया। फरवरी और मार्च में सात लाख से अधिक उम्मीदवार वार्षिक परीक्षा में भाग लेते हैं; जबकि लगभग डेढ़ लाख प्रत्येक नवंबर में पूरक परीक्षाओं में भाग लेते हैं। बोर्ड सालाना दो बार वरिष्ठ और वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर हरियाणा ओपन स्कूल के लिए भी परीक्षा आयोजित करता है। हरियाणा सरकार बैचलर डिग्री स्तर तक महिलाओं को मुफ्त शिक्षा प्रदान करती है। हिंदी और अंग्रेजी स्कूलों में अनिवार्य भाषाएं हैं जबकि पंजाबी, संस्कृत और उर्दू वैकल्पिक भाषाओं के रूप में चुने जाते हैं। २०१५-२०१६ में, राज्य भर में लगभग २०,००० स्कूल थे, जिनमें से १०,१०० सरकारी स्कूल (३६ आरोही स्कूल, ११ कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, २१ मॉडल संस्कार स्कूल, ८७४४ सरकारी प्राथमिक विद्यालय, ३३८६ सरकारी माध्यमिक विद्यालय, १२८४ सरकारी हाई स्कूल और १९६७ सरकारी वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय), ७,६३५ निजी स्कूल (२०० सहायता प्राप्त, ६,६१२ अनियोजित मान्यता प्राप्त, और ८२१ अज्ञात अवैतनिक निजी स्कूल) और कई सौ अन्य केंद्र सरकार और निजी विद्यालय थे, जैसे केन्द्रीय विद्यालय, भारतीय आर्मी पब्लिक स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय और डीएवी स्कूल। उच्च शिक्षा हरियाणा में २९ विश्वविद्यालय और २९९ कॉलेज हैं, जिनमें ११५ सरकारी कॉलेज, ८८ सरकारी सहायता प्राप्त कॉलेज और ९६ स्वयं वित्त कॉलेज शामिल हैं। केवल हिसार में ही तीन विश्वविद्यालय हैं: चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय - एशिया का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय, गुरु जांभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय); कई राष्ट्रीय संस्थान हैं, जैसे कृषि और पशु चिकित्सा अनुसंधान केंद्र (इक्विंस पर राष्ट्रीय शोध केंद्र), केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म, पिग प्रजनन और अनुसंधान पर राष्ट्रीय संस्थान, उत्तरी क्षेत्र कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान और मध्य इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन बफेलो (सीआईआरबी); और महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज, एग्रोहा सहित २० से अधिक कॉलेज भी हैं। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने २७ फरवरी २०१६ को घोषणा की कि युवाओं को कंप्यूटर प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए कुरुक्षेत्र में राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईईएलआईटी) स्थापित किया जाएगा और भारत के सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्क (एसटीपीआई) की स्थापना पंचकुला के सेक्टर २३ में मौजूदा एचएसआईआईडीसी आईटी पार्क में की जाएगी। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सामान्य एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका पर हरियाणा के बारे में। (अंग्रेज़ी में) सरकार हरियाणा सरकार का आधिकारिक जालस्थल हरियाणा के सभी विभागों, बोर्ड, निगम, आधिकारिक, विश्वविद्यालय और जिलों के जालस्थलों की सूची भारत के राज्य हरियाणा पंजाबी-भाषी देश व क्षेत्र
1879
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हरियाणा", "token_count": 32915, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%BE" }
दलमा अभयारण्य झारखंड के जमशेदपुर, राँची और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के बीच बसा पूर्वी भारत का एक प्रमुख वन्य जीव अभयारण्य है। इस अभयारण्य को खास तौर पर हाथियों के संरक्षण के लिये चुना गया है। इन्हें भी देखें जमशेदपुर झारखंड हाथी भारत के अभयारण्य बाहरी कड़ियाँ जमशेदपुर झारखंड पर्यटन
1880
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "दलमा अभयारण्य", "token_count": 454, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF" }
बेतला राष्ट्रीय उद्यान झारखंड प्रान्त के लातेहार और पलामू ज़िलों के जंगलो में विस्तृत है। इसमें पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन के 1,026 वर्ग किमी के अलावा 289 वर्ग किमी के अन्य क्षेत्र सम्मिलित हैं। इन्हें भी देखें पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन पलामू ज़िला लातेहार ज़िला सन्दर्भ झारखंड में राष्ट्रीय उद्यान भारत के वन्य अभयारण्य भारत के राष्ट्रीय उद्यान पलामू ज़िला लातेहार ज़िला
1881
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बेतला राष्ट्रीय उद्यान", "token_count": 587, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%BE%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8" }
(Official/Personal) भारत के प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र हैं :- हिन्दुस्तान (समाचार पत्र) चौथी दुनिया पाञ्चजन्य नई दुनिया नवभारत टाइम्स आज प्रभात खबर अमर उजाला प्रयुक्ति जलते दीप दैनिक जागरण जनसत्ता पंजाब केसरी देशबन्धु दैनिक भास्कर हरिभूमि राँची एक्सप्रेस राजस्थान पत्रिका स्वतंत्र भारत दीपशील भारत उगता भारत धरातल टीवी सबूरी टाइम्स धर्म क्रांति
1882
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हिन्दी समाचारपत्र", "token_count": 545, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0" }
समाचार पत्र या अख़बार, समाचारो पर आधारित एक प्रकाशन है, जिसमें मुख्यत: सामयिक घटनायें, राजनीति, खेल-कूद, व्यक्तित्व, विज्ञापन इत्यादि जानकारियां सस्ते कागज पर छपी होती है। समाचार पत्र संचार के साधनो में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। समाचारपत्र प्रायः दैनिक होते हैं लेकिन कुछ समाचार पत्र साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक एवं छमाही भी होतें हैं। अधिकतर समाचारपत्र स्थानीय भाषाओं में और स्थानीय विषयों पर केन्द्रित होते हैं। समाचार पत्रों का इतिहास सबसे पहला ज्ञात समाचारपत्र 59 ई.पू. का 'द रोमन एक्टा डिउरना' है। जूलिएस सीसर ने जनसाधरण को महत्वपूर्ण राजनैतिज्ञ और समाजिक घटनाओं से अवगत कराने के लिए उन्हे शहरो के प्रमुख स्थानो पर प्रेषित किया। 8वी शताब्दी में चीन में हस्तलिखित समाचारपत्रो का प्रचलन हुआ। अखबार का इतिहास और योगदान: यूँ तो ब्रिटिश शासन के एक पूर्व अधिकारी के द्वारा अखबारों की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन उसका स्वरूप अखबारों की तरह नहीं था। वह केवल एक पन्ने का सूचनात्मक पर्चा था। पूर्णरूपेण अखबार बंगाल से 'बंगाल-गजट' के नाम से वायसराय हिक्की द्वारा निकाला गया था। आरंभ में अँग्रेजों ने अपने फायदे के लिए अखबारों का इस्तेमाल किया, चूँकि सारे अखबार अँग्रेजी में ही निकल रहे थे, इसलिए बहुसंख्यक लोगों तक खबरें और सूचनाएँ पहुँच नहीं पाती थीं। जो खबरें बाहर निकलकर आती थींत्र से गुजरते, वहाँ अपना आतंक फैलाते रहते थे। उनके खिलाफ न तो मुकदमे होते और न ही उन्हें कोई दंड ही दिया जाता था। इन नारकीय परिस्थितियों को झेलते हुए भी लोग खामोश थे। इस दौरान भारत में ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘नेशनल हेराल्ड', 'पायनियर', 'मुंबई-मिरर' जैसे अखबार अँग्रेजी में निकलते थे, जिसमें उन अत्याचारों का दूर-दूर तक उल्लेख नहीं रहता था। इन अँग्रेजी पत्रों के अतिरिक्त बंगला, उर्दू आदि में पत्रों का प्रकाशन तो होता रहा, लेकिन उसका दायरा सीमित था। उसे कोई बंगाली पढ़ने वाला या उर्दू जानने वाला ही समझ सकता था। ऐसे में पहली बार 30 मई 1826 को हिन्दी का प्रथम पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। यह पत्र साप्ताहिक था। ‘उदंत मार्तंड' की शुरुआत ने भाषायी स्तर पर लोगों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। यह केवल एक पत्र नहीं था, बल्कि उन हजारों लोगों की जुबान था, जो अब तक खामोश और भयभीत थे। हिन्दी में पत्रों की शुरुआत से देश में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और आजादी की जंग। उन्हें काफी तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता था, ताकि अँग्रेजी सरकार के अत्याचारों की खबरें दबी रह जाएँ। अँग्रेज सिपाही किसी भी क्षेत्र में घुसकर मनमाना व्यवहार करते थे। लूट, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएँ आम होती थीं। वो जिस भी क्षेको भी एक नई दिशा मिली। अब लोगों तक देश के कोने-कोन में घट रही घटनाओं की जानकारी पहुँचने लगी। लेकिन कुछ ही समय बाद इस पत्र के संपादक जुगल किशोर को सहायता के अभाव में 11 दिसम्बर 1827 को पत्र बंद करना पड़ा। 10 मई 1829 को बंगाल से हिन्दी अखबार 'बंगदूत' का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भी लोगों की आवाज बना और उन्हें जोड़े रखने का माध्यम। इसके बाद जुलाई, 1854 में श्यामसुंदर सेन ने कलकत्ता से ‘समाचार सुधा वर्षण’ का प्रकाशन किया। उस दौरान जिन भी अखबारों ने अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी खबर या आलेख छपा, उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी। अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। उसकी प्रतियाँ जलवाई जाती थीं, उसके प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों को दंड दिया जाता था। उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता था, ताकि वो दुबारा फिर उठने की हिम्मत न जुटा पाएँ। आजादी की लहर जिस तरह पूरे देश में फैल रही थी, अखबार भी अत्याचारों को सहकर और मुखर हो रहे थे। यही वजह थी कि बंगाल विभाजन के उपरांत हिन्दी पत्रों की आवाज और बुलंद हो गई। लोकमान्य तिलक ने 'केसरी' का संपादन किया और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम' पत्र निकाला। इन पत्रों ने युवाओं को आजादी की लड़ाई में अधिक-से-अधिक सहयोग देने का आह्वान किया। इन पत्रों ने आजादी पाने का एक जज्बा पैदा कर दिया। ‘केसरी’ को नागपुर से माधवराव सप्रे ने निकाला, लेकिन तिलक के उत्तेजक लेखों के कारण इस पत्र पर पाबंदी लगा दी गई। उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं। इससे लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। इसकी आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखकों, संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दीं, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा। इसी प्रकार बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र के क्षेत्रों से पत्रों का प्रकाशन होता रहा। उन पत्रों ने लोगों में स्वतंत्रता को पाने की ललक और जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। अगर यह कहा जाए कि स्वतंत्रता सेनानियों के लिए ये अखबार किसी हथियार से कमतर नहीं थे, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अखबार बने आजादी का हथियार ''प्रेस आज जितना स्वतंत्र और मुखर दिखता है, आजादी की जंग में यह उतनी ही बंदिशों और पाबंदियों से बँधा हुआ था। न तो उसमें मनोरंजन का पुट था और न ही ये किसी की कमाई का जरिया ही। ये अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ आजादी के जाँबाजों का एक हथियार और माध्यम थे, जो उन्हें लोगों और घटनाओं से जोड़े रखता था। आजादी की लड़ाई का कोई भी ऐसा योद्धा नहीं था, जिसने अखबारों के जरिए अपनी बात कहने का प्रयास न किया हो। गाँधीजी ने भी ‘हरिजन’, ‘यंग-इंडिया’ के नाम से अखबारों का प्रकाशन किया था तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'अल-हिलाल' पत्र का प्रकाशन। ऐसे और कितने ही उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि पत्र-पत्रिकाओं की आजादी की लड़ाई में महती भूमिका थी। यह वह दौर था, जब लोगों के पास संवाद का कोई साधन नहीं था। उस पर भी अँग्रेजों के अत्याचारों के शिकार असहाय लोग चुपचाप सारे अत्याचर सहते थे। न तो कोई उनकी सुनने वाला था और न उनके दु:खों को हरने वाला। वो कहते भी तो किससे और कैसे? हर कोई तो उसी प्रताड़ना को झेल रहे थे। ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत ने लोगों को हिम्मत दी, उन्हें ढाँढस बँधाया। यही कारण था कि क्रांतिकारियों के एक-एक लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे। भारतेंदु का नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ जब प्रकाशित हुआ था तो लोगों को यह अनुभव हुआ था कि भारत के लोग कैसे दौर से गुजर रहे हैं और अँग्रेजों की मंशा क्या है। ब्रिटिश राज के दौरान प्रकाशित भारत के कुछ प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाएँ इन्हें भी देखें हिन्दी समाचारपत्र बाहरी कड़ियाँ समाचारपत्रों का इतिहास (अंग्रेजी मे) सन्दर्भ समाचार पत्र संचार के साधन काग़ज़ उत्पाद
1883
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सुभाष काक (जन्म 26 मार्च 1947) प्रमुख भारतीय-अमेरिकी कवि, दार्शनिक और वैज्ञानिक हैं। वे अमेरिका के ओक्लाहोमा प्रान्त में संगणक विज्ञान के प्रोफेसर हैं। वेद, कला और इतिहास पर उनके कई ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। उनका जन्म श्रीनगर, कश्मीर में राम नाथ काक और सरोजिनी काक के यहाँ हुआ। उनकी शिक्षा कश्मीर और दिल्ली में हुई। कविता और जीवन का मर्म कविता जीवन की पहेलियों पर प्रकाश डालती है। सुभाष काक की शैली सरल है पर इस सरलता के भीतर विचारों की जटिलता छिपी हुई है। वह प्रकृतिवाद के समर्थक हैं। प्रकृति के माध्यम से वह जटिल मानव भाव प्रस्तुत करते हैं। विख्यात विद्वान और आलोचक गोविन्द चन्द्र पाण्डे ने उनकी कविता की अंग्रेजी के विलियम वर्ड्सवर्थ (William Wordsworth) की रचनाओं से तुलना की है। पाण्डेजी लिखते हैं -- उनकी भाषा और शैली आन्तरिक गाम्भीर्य को सरल प्रासादिकता से प्रस्तुत करती है जैसी कभी शेषनाग सरोवर का सलिल। उनकी भाव-भूमि स्मृतियों की पच्चीकारी से अलंकृत है। उनके बिम्ब प्रकृति और सहज मानवता से बराबर जुड़े रहते हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि न सिर्फ कवि एक बीते शैशव और सुदूर प्रदेश की स्मृतियों से अभिभूत है बल्कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर की बदलती परिस्थिति की आशंकाओं से भी चिन्तित है। उनकी कविताएं अनुभव रस से सिक्त हैं, वे उलझी बौद्धिकता और आन्तरिक विसंगतियों से दुर्बोध नहीं हैं। <ref>गोविन्द चन्द्र पाण्डे, प्राग्वाच, एक ताल, एक दर्पण, १९९९</ref> उनकी कविता ने हिन्दी के समकालीन मार्ग और विधि से दूर नये रूप की स्थापना का प्रयत्न किया है। उनकी कविता के कई संग्रह प्रकाशित -- और अन्य भाषाओं में अनूदित -- हो चुके हैं। संस्कृति और दर्शन वे भारतीय विद्या में निपुण और साहित्य, दर्शन, कला, एवं संस्कृति के सहृद-मर्मज्ञ हैं। वेदकाल का बहुत समय से लुप्त उन्होंने एक ज्योतिष ढूंढ निकाला है जिससे भारत की संस्कृति, विज्ञान और कालक्रम पर नया प्रकाश पडता है। इनमें से सबसे रोचक १०८ अंक, जो भारतीय संस्कृति में बहुत आता है, की व्याख्या है। प्रमुख देवी-देवताओं के १०८ नाम हैं, जपमाला में १०८ दाने, १०८ धाम हैं, आदि। इनके शोध ने दिखाया है कि वैदिक काल में यह ज्ञान था कि सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी से क्रमशः लगभग १०८ गुणा निजि व्यास की दूरी पर हैं। आधुनिक ज्योतिष ने तो यह भी दिखाया है कि सूर्य का व्यास पृथिवी के व्यास से लगभग १०८ गुणा है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समीकरण के कारण मानव अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा में भी इस संख्या को पाता है, यह वेद की धारणा है। इस शोध का विद्वानों ने स्वागत किया है। अमेरिका के वेदपण्डित वामदेव शास्त्री ने इस शोध को स्मारकीय उपलब्धि (monumental achievement) कहा है। कनाडा के विख्यात आचार्य क्लास क्लास्टरमेयर के अनुसार, "मेरी बहुत देर की समझ थी कि ऋग्वेद में भाषाशास्त्र और इतिहास के परे बहुत कुछ था। यह है वह!... यह एक युगान्तककारी खोज (epoch-making discovery) है।" उनका दार्शनिक दृष्टिकोण पुनर्गमनवाद से प्रेरित है, जिसके अनुसार विश्व में प्रतिरूप विभिन्न अनुमाप में पुनरावृत, अथवा दोहरते, हैं और कवि और कलाकार इसीका चित्रण करते हैं। इसका प्रयोग कर उन्होंने भारतीय कला और संस्कृति की विवेचना की है। उनके अनुसार पुनर्गमन ही विश्व का समझना सम्भव करता है। वे संस्कृत के भी विद्वान हैं, इस भाषा में उन्होंने वेदान्त के नए सूत्र (प्रज्ञा सूत्र) की रचना की है। विज्ञान की सीमाएं विज्ञान में इनका योगदान भौतिक शास्त्र और संगणन शास्त्र पर हुआ है। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (:en:Artificial Intelligence) की सीमा पर शोध किया है और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संगणक बुद्धि कभी भी मानव बुद्धि की सीमा पर नहीं पहुंच सकती है। उनके अनुसार भौतिक सिद्धान्तों का एकीकरण - जो पिछले कुछ दशकों में विज्ञान का प्रमुख लक्ष्य रहा है - असफल रहेगा। पार्थव और आध्यात्मिक में निरन्तर द्वन्द्व बना रहेगा। वह अपने यमल परोक्षक के समाधान के कारण समाचार पत्रों में बहुत चर्चित रहे हैं। ग्रन्थ मृतक नायक (The Conductor of the Dead) लन्दन सेतु (The London Bridge) मन्दिर की सीढियां इश्बर रहस्य एक ताल, एक दर्पण (1999) प्रज्ञा सूत्र (2003) चिनार उपवन (The Chinar Garden) मिट्‍टी का अनुराग (2007) अन्य ग्रन्थ The Loom of Time (2016), DKPrintworld, New Delhi The Circle of Memory: An Autobiography (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Matter and Mind (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Mind and Self (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Computing Science in Ancient India; Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd (2001) The Wishing Tree: Presence and Promise of India कल्पतरु: भारत की उपस्थिति एवं प्रतिश्रुति (Third Edition) Aditya Prakashan (2015), The Gods Within: Mind, Consciousness and the Vedic Tradition, Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd (2002) The Asvamedha: The Rite and Its Logic, Motilal Banarsidass Publishers, (2002) The Prajna Sutra: Aphorisms of Intuition, DK Printworld, 2007. The Architecture of Knowledge: Quantum Mechanics, Neuroscience, Computers and Consciousness, Motilal Banarsidass, 2004, "Recursionism and Reality: Representing and Understanding the World", 2005. Advances in Communications and Signal Processing, Springer-Verlag, 1989. (with W.A. Porter). Advances in Computing and Control, Springer-Verlag, 1989. (with W.A. Porter and J.L. Aravena). Consciousness and the universe : quantum physics, evolution, brain & mind, Cosmology Science Publishers, 2011. (with Roger Penrose and Stuart Hameroff) , The Nature of Physical Reality भौतिक तथ्यता का स्वरूप (2016)Third edition. India at Century's End भारत शताब्दी के अन्त में (1994) :en:In Search of the Cradle of Civilization सभ्यता के स्रोत की ढूंढ (1995, 2001) :en:The Astronomical Code of the Rigveda ऋग्वेद का कूट-ज्योतिष . Aditya Prakashan (2016), Computing Science in Ancient India प्राचीन भारत का संगणन शास्त्र (2001) The Gods Within आन्तरिक देवता (2002) The Asvamedha अश्वमेध यज्ञ (2002) :en:The Architecture of Knowledge Arrival and Exile: Selected Poems (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सुभाष काक की रचनाएँ कविता कोश में अनुभूति पत्रिका में कविता कविता कोश में सुभाष काक भौतिक और संगणन शास्त्र की arXiv रचनाएं लुइसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी के जालपृष्ठ पर काक के प्रकाशनों की सूची ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी केजालपृष्ठ पर काक के बारे में मस्तिष्क और चेतना भाषण साक्षात्कार राजीव श्रीनिवासन् द्वारा रीडिफ साक्षात्कार पी.बी.एस. साक्षात्कार Closer to Truth लेखक साहित्य कश्मीर के लोग श्रीनगर के लोग वैज्ञानिक कश्मीरी कवि भारतीय वैज्ञानिक
1885
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सुभाष काक", "token_count": 6913, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%95" }