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पामुलापति वेंकट नरसिंह राव (जन्म- 28 जून 1921, मृत्यु- 23 दिसम्बर 2004) भारत के 09 वें प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाते हैं। 'लाइसेंस राज' की समाप्ति और भारतीय अर्थनीति में खुलेपन उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही आरम्भ हुआ। ये आन्ध्रा प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। इनके प्रधानमंत्री बनने में भाग्य का बहुत बड़ा हाथ रहा है। 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। ऐसे में सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस को निश्चय ही लाभ प्राप्त हुआ। 1991 के आम चुनाव दो चरणों में हुए थे। प्रथम चरण के चुनाव राजीव गांधी की हत्या से पूर्व हुए थे और द्वितीय चरण के चुनाव उनकी हत्या के बाद में। प्रथम चरण की तुलना में द्वितीय चरण के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसका प्रमुख कारण राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर थी। इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस ने 232 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेतृत्व प्रदान किया गया। ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक़ सांसद जुटा लिए और कांग्रेस सरकार ने पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण किया। पीवी नरसिंह राव ने देश की कमान काफी मुश्किल समय में संभाली थी। उस समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार चिंताजनक स्तर तक कम हो गया था और देश का सोना तक गिरवी रखना पड़ा था। उन्होंने रिजर्व बैंक के अनुभवी गवर्नर डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर देश को आर्थिक भंवर से बाहर निकाला।''' इन्हें भी देखें भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ देश की आर्थिक आजादी के मसीहा थे नरसिंह राव भारत के प्रधानमंत्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी मे) 1921 में जन्मे लोग २००४ में निधन भारत के प्रधानमंत्री भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "पी॰ वी॰ नरसिम्हा राव", "token_count": 2637, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A5%B0%20%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A5%B0%20%E0%A4%A8%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A4%BE%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5" }
लालबहादुर शास्त्री (जन्म: 2 अक्टूबर 1904 मुगलसराय (वाराणसी) : मृत्यु: 11 जनवरी 1966 ताशकन्द, सोवियत संघ रूस), भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे। वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। शास्त्री जी ने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी। पुलिस मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमंत्री का पद भार ग्रहण किया। उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। ताशकंद में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री अयूब खान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्‍न से सम्मानित किया गया लाल बहादुर शास्त्री एक महान व्यक्ति थे || शास्त्री जयन्ती व लाल बहादुर शास्त्री स्मृति दिवस लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर 2 अक्टूबर को शास्त्री जयन्ती व उनके देहावसान वाले दिन 11 जनवरी को लालबहादुर शास्त्री स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है। संक्षिप्त जीवनी लालबहादुर शास्त्री का जन्म 1904 में मुगलसराय (उत्तर प्रदेश) में एक कायस्थ परिवार में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के यहाँ हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे अत: सब उन्हें मुंशीजी ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की माँ का नाम रामदुलारी था। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार में नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उनकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द 'श्रीवास्तव' हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे 'शास्त्री' लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 1928 में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता और शास्त्रीजी की छ: सन्तानें हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र - हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। उनके चार पुत्रों में से दो-अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी bhagwan ki kripa se jinda हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं। अनिल शास्त्री कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं जबकि सुनील शास्त्री भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं। राजनीतिक जीवन संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं। दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर इस आन्दोलन के गान्धीवादी नारे को चतुराई पूर्वक "मरो नहीं, मारो!" में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये। शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढ़ते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। और इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधान मन्त्री भी बने। प्रधान मन्त्री उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: "सर! क्या हुक्म है?" शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: "आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?" शास्त्रीजी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। भारत पाक युद्ध के दौरान ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की। आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। रहस्यपूर्ण मृत्यु पाकिस्तान के आक्रमण का सामना करते हुए भारतीय सेना ने लाहौर पर धाबा बोल दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण को देख अमेरिका ने लाहौर में रह रहे अमेरिकी नागरिकों को निकालने के लिए कुछ समय के लिए युद्धविराम की मांग की। रूस और अमेरिका के चहलकदमी के बाद भारत के प्रधानमंत्री को रूस के ताशकंद समझौता में बुलाया गया। शास्त्री जी ने ताशकंद समझौते की हर शर्तों को मंजूर कर लिया मगर पाकिस्तान जीते इलाकों को लौटाना हरगिज स्वीकार नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय दवाब में शास्त्री जी को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा पर लाल बहादुर शास्त्री ने खुद  प्रधानमंत्री कार्यकाल में इस जमीन को वापस करने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खान के साथ युद्ध विराम पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही भारत देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का संदिग्ध निधन हो गया। 11 जनवरी 1966 की रात देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री की मृत्यु हो गई। ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन (नेहरू जी की समाधि) के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे। शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मानते है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।"। सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं। यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी। मित्रोखोन आर्काइव नामक पुस्तक में भारत से संबन्धित अध्याय को पढ़ने पर ताशकंद समझौते के बारे में एवं उस समय की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में विस्तरित जानकारी मिलती है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध बाहरी कड़ियाँ लालबहादुर शास्त्री जीवन की एक झलक संक्षेप में लालबहादुर शास्त्री के बारे में लालबहादुर शास्त्री का वंश-वृक्ष लालबहादुर शास्त्रीजी के चित्र लाल बहादुर शास्त्रीजी के प्रेरक प्रसंग Tarakash.com Special: शास्त्रीजी के जीवन के प्रेरक प्रसंग लालबहादुर शास्त्रीजी के अनमोल विचार ललिता के आँसू-हिन्दी विकीस्रोत पर लाल बहादुर शास्त्री मर गए या मार दिए गये। भारत के प्रधानमंत्री 1904 में जन्मे लोग १९६६ में निधन भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता उत्तर प्रदेश के लोग
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "लालबहादुर शास्त्री", "token_count": 18447, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0%20%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80" }
मोरारजी देसाई (29 फ़रवरी 1896 – 10 अप्रैल 1995) (गुजराती: મોરારજી રણછોડજી દેસાઈ) भारत के स्वाधीनता सेनानी, राजनेता और देश के चौथे प्रधानमंत्री (सन् 1977 से 79) थे। वह प्रथम प्रधानमंत्री थे जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाय अन्य दल से थे। वही एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न एवं पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया गया था। वह 81 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें पंडित नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई मार्च 1977 में देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। चौधरी चरण सिंह से मतभेदों के चलते उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। जीवन परिचय मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। व्यावसायिक जीवन मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। राजनीतिक जीवन मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने वाले एक ज़िद्दी व्यक्ति। स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि 1952 में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बनाया गया। इस समय तक गुजरात तथा महाराष्ट्र बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। 1967 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाज़ी मार ली। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया। प्रधानमंत्री पद पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस में जो अनुशासन था, वह उनकी मृत्यु के बाद बिखरने लगा। कई सदस्य स्वयं को पार्टी से बड़ा समझते थे। मोरारजी देसाई भी उनमें से एक थे। श्री लालबहादुर शास्त्री ने कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार सिपाही की भाँति कार्य किया था। उन्होंने पार्टी से कभी भी किसी पद की मांग नहीं की थी। लेकिन इस मामले में मोरारजी देसाई अपवाद में रहे। कांग्रेस संगठन के साथ उनके मतभेद जगज़ाहिर थे और देश का प्रधानमंत्री बनना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। इंदिरा गांधी ने जब यह समझ लिया कि मोरारजी देसाई उनके लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं तो उन्होंने मोरारजी के पर कतरना आरम्भ कर दिया। इस कारण उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। नवम्बर 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में हुआ तो मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आई के बजाए सिंडीकेट के कांग्रेस-ओ में चले गए। फिर 1975 में वह जनता पार्टी में शामिल हो गए। मार्च 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। परन्तु यहाँ पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदार उपस्थित थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। लेकिन जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने किंग मेकर की अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया। इसके बाद 23 मार्च 1977 को 81 वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया। इनके प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई। इन्हें भी देखें भारत के प्रधानमंत्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी मे) भारत के चौथे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई (संकल्प टाइम्स) भारत के प्रधानमंत्री 1896 में जन्मे लोग १९९५ में निधन भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भारत के उप प्रधानमंत्री सन्दर्भ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "मोरारजी देसाई", "token_count": 9818, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A5%80%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%88" }
सनातन धर्म हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है जिसका उपयोग आम हिंदू धर्म के साथ-साथ संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में भी किया जाता है। सनातन धर्म को हिंदू धर्म का एक संप्रदाय माना जाए या नहीं, इस पर दुनिया भर के हिंदुओं में मतभेद है, क्योंकि सनातन धर्म ऐतिहासिक वैदिक धर्म पर आधारित है, या हिंदू धर्म का एक वैकल्पिक नाम है। वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिए सनातन धर्म नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'सदा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है और यह एक समय पर विश्व व्याप्त था परंतु विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरांत भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है। इतिहास सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है। भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में गाणपत्य, शैवदेव, कोटी वैष्णव, शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे। गाणपत्य गणेशकी, वैष्णव विष्णु की, शैवदेव, कोटी शिव की, शाक्त शक्ति की और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरुओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया। स्वरूप सनातन में आधुनिक और समसामयिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इसमें समय समय पर बदलाव होते रहे हैं, जैसे कि राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद आदि ने सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता जैसे असुविधाजनक परंपरागत कुरीतियों से असहज महसूस करते रहे। इन कुरीतियों की जड़ो (धर्मशास्त्रो) में मौजूद उन श्लोको -मंत्रो को "क्षेपक" कहा या फिर इनके अर्थो को बदला और इन्हें त्याज्य घोषित किया तो कई पुरानी परम्पराओं का पुनरुद्धार किया जैसे विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि। यद्यपि आज सनातन का पर्याय हिन्दू है पर सिख, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बी भी सनातन धर्म का हिस्सा हैं, क्योंकि बुद्ध भी अपने को सनातनी कहते हैं।यहाँ तक कि नास्तिक जोकि चार्वाक दर्शन को मानते हैं वह भी सनातनी हैं। सनातन धर्मी के लिए किसी विशिष्ट पद्धति, कर्मकांड, वेशभूषा को मानना जरुरी नहीं। बस वह सनातनधर्मी परिवार में जन्मा हो, वेदांत, मीमांसा, चार्वाक, जैन, बौद्ध, आदि किसी भी दर्शन को मानता हो बस उसके सनातनी होने के लिए पर्याप्त है। सनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। हालांकि, सच्चाई तो ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है, न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ। यह तो अनादि काल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक दृष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता। मार्ग विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है। इन्हें भी देखें हिन्दू धर्म हिन्दू धर्म का इतिहास विश्व हिन्दू परिषद हिन्दू राष्ट्रवाद बौद्ध धर्म धर्म सन्दर्भ हिन्दू धर्म धर्म
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सनातन धर्म", "token_count": 7528, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%A8%20%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE" }
ज्‍योतिष या ज्यौतिष विषय वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्‍योतिष कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्‍पष्‍टता से कहा जा सकता है कि इसके बारे में वेदों में स्‍पष्‍ट गणनाएं दी हुई हैं। फलित भाग के बारे में बहुत बाद में जानकारी मिलती है। भारतीय आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष की पाण्डुलिपियों की संख्या एक लाख से भी अधिक है। वर्गीकरण प्राचीनकाल में गणित एवं ज्यौतिष समानार्थी थे परन्तु आगे चलकर इनके तीन भाग हो गए। इन तीनों स्कन्धों का जो ज्ञाता होता था उसे 'संहितापारग' कहा जाता था। (१) संहिता या शाखा : ग्रहों की स्थिति एवं अन्य प्राकृतिक परिघटनाओं का विश्व पर प्रभाव। यह एक विस्तृत भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, लक्षणपरीक्षण एवं भविष्य सूचन का विवरण था। (२) होरा या जातक : ग्रहों की स्थिति का मानव पर प्रभाव। इसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- जातक, ख- यात्रा, ग- विवाह । (३) गणित : ग्रहों की गति और स्थिति की गणना तथा अन्य खगोलीय गणनाएँ। (क) सिद्धान्त -- मूलभूत ग्रन्थ (ख) तन्त्र (ग) करण -- सरलीकृत गणनाओं से युक्त ग्रन्थ। पञ्चाङ्ग बनाने के लिये उपयोगी। तन्त्र तथा सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं, एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बन्धी मान रहते हैं। तन्त्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता । सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्ट्यादि से हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जैसे कलियुग के आरम्भ से) हो वह करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क्रमशः इस प्रकार हैं- १-मध्यमाधिकार २–स्पष्टाधिकार ३-त्रिप्रश्नाधिकार ४-चन्द्रग्रहणाधिकार ५-सूर्यग्रहणाधिकार ६-छायाधिकार ७–उदयास्ताधिकार ८-शृङ्गोन्नत्यधिकार ९-ग्रहयुत्यधिकार १०-याताधिकार 'ज्योतिष' से निम्नलिखित का बोध हो सकता है- वेदाङ्ग ज्योतिष सिद्धान्त ज्योतिष या 'गणित ज्योतिष' (Theoretical astronomy) फलित ज्योतिष (Astrology) अंक ज्योतिष (numerology) खगोल शास्त्र (Astronomy) ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ गार्गीय-ज्योतिष या गर्गसंहिता गर्ग-संहिता (वृद्ध गर्ग द्वारा रचित) गर्ग होरा बृहद पाराशर होराशास्त्र (ऋषि पराशर स्वारा रचित) जैमिनीसूत्र (ऋषि जैमिनि द्वारा रचित) स्फुजिध्वज होरा या यवनजातक (राजा स्फुजिध्वज द्वारा) सारावली (कल्याणवर्मा) बृहत्संहिता (वराहमिहिर) बृहज्जातकम् (वराहमिहिर) दैवज्ञवल्लभ (वराहमिहिर) फलदीपिका (मन्त्रेश्वर) होरासार (पृथुयासस) सर्वार्थचिन्तामणि (वेंकटेश दैवज्ञ) होरारत्न (आचार्य बलभद्र) जातक पारिजात (वैद्यनाथ दीक्षित) चमत्कारचिन्तामणि (मेलपातुर नारायण भट्टतिरि) उत्तरकालामृतम् (गणक कालिदास) ताजिकनीलकण्ठी (नीलाकण्ठ) प्रश्नमार्ग (प्रणकट्टु नम्बूतिरी) दशाध्यायी (गोविन्द भट्टतिरि) भारतीय ज्योतिष की प्राचीनता भारतीय आर्यो में ज्योतिष विद्या का ज्ञान अत्यन्त प्राचीन काल से था । यज्ञों की तिथि आदि निश्चित करने में इस विद्या का प्रयोजन पड़ता था । अयन चलन के क्रम का पता बराबर वैदिक ग्रंथों में मिलता है । जैसे, पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋगवेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तौत्तिरीय संहिता) कृत्तिका से भरणी (वेदाङ्ग ज्योतिष) । तैत्तरिय संहिता से पता चलता है कि प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था । इसी वासंत विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरम्भ माना जाता था, पर अयन की गणना माघ मास से होती थी । इसके बाद वर्ष की गणना शारद विषुवद्दिन से आरम्भ हुई । ये दोनों प्रकार की गणनाएँ वैदिक ग्रंथों में पाई जाती हैं । वैदिक काल में कभी वासंत विषुवद्दिन मृगशिरा नक्षत्र में भी पड़ता था । इसे बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद से अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है । कुछ लोगों ने निश्चित किया है कि वासंत विषुबद्दिन की यह स्थिति ईसा से ४००० वर्ष पहले थी । अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि ईसा से पाँच छह हजार वर्ष पहले हिंदुओं को नक्षत्र अयन आदि का ज्ञान था और वे यज्ञों के लिये पत्रा बनाते थे। शारद वर्ष के प्रथम मास का नाम अग्रहायण था जिसकी पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र में पड़ती थी । इसी से कृष्ण ने गीता में कहा है कि 'महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ' । प्राचीन हिंदुओं ने ध्रुव का पता भी अत्यन्त प्राचीन काल में लगाया था । अयन चलन का सिद्धान्त भारतीय ज्योतिषियों ने किसी दूसरे देश से नहीं लिया; क्योंकि इसके संबंध में जब कि युरोप में विवाद था, उसके सात आठ सौ वर्ष पहले ही भारतवासियों ने इसकी गति आदि का निरूपण किया था। वराहमिहिर के समय में ज्योतिष के सम्बन्ध में पाँच प्रकार के सिद्धांत इस देश में प्रचलित थे - सौर, पैतामह, वासिष्ठ, पौलिश ओर रोमक । सौर सिद्धान्त संबंधी सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रंथ किसी और प्राचीन ग्रंथ के आधार पर प्रणीत जान पड़ता है । वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त दोनों ने इस ग्रंथ से सहायता ली है । इन सिद्धांत ग्रंथों में ग्रहों के भुजांश, स्थान, युति, उदय, अस्त आदि जानने की क्रियाएँ सविस्तर दी गई हैं । अक्षांश और देशातंर का भी विचार है । पूर्व काल में देशान्तर लंका या उज्जयिनी से लिया जाता था । भारतीय ज्योतिषी गणना के लिये पृथ्वी को ही केंद्र मानकर चलते थे और ग्रहों की स्पष्ट स्थिति या गति लेते थे । इससे ग्रहों की कक्षा आदि के संबंध में उनकी और आज की गणना में कुछ अन्तर पड़ता है । क्रांतिवृत्त पहले २८ नक्षत्रों में ही विभक्त किया गया था । राशियों का विभाग पीछे से हुआ है । वैदिक ग्रंथों में राशियों के नाम नहीं पाए जाते । इन राशियों का यज्ञों से भी कोई संबंध नहीं हैं । बहुत से विद्वानों का मत है कि राशियों और दिनों के नाम यवन (युनानियों के) संपर्क के पीछे के हैं । अनेक पारिभाषिक शब्द भी यूनानियों से लिए हुए हैं, जैसे,— होरा, दृक्काण केंद्र, इत्यादि । सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय ज्योतिष भारतीय ज्योतिषी जन्मकुण्डली भारतीय गणित करण (ज्योतिष) बाहरी कड़ियाँ ज्योतिष शास्त्र के अनुसार १२ राशी के नाम चिन्ह के साथ ज्योतिष
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हिरोडोटस (ग्रीक: Ἡρόδοτος Ἁλικαρνᾱσσεύς Hērodotos Halikarnāsseus) (मृत्‍यु ४२५ ई.पू), यूनान के इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता थे। उन्होंने अपने इतिहास का विषय पेलोपोनेसियन युद्ध को बनाया था। उनके द्वारा लिखित पुस्तक हिस्टोरिका थी। भूगोलवेत्ता यूनानी भूगोलवेत्ता
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अरविन्द घोष या श्री अरविन्द (बांग्ला: শ্রী অরবিন্দ, जन्म: १८७२, मृत्यु: १९५०) एक योगी एवं दार्शनिक थे। वे १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता में जन्मे थे। इनके पिता एक डाक्टर थे। इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और इन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। यह कवि भी थे और गुरु भी। प्रारम्भिक शिक्षा अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र ७ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल १८ वर्ष की आयु में ही आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन भाषाओँ में भी निपुणता प्राप्त की थी। युवावस्था देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अत: उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बडौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यता पूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया। 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा काॅलेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी। वे निजी रुपये-पैसे का हिसाब नहीं रखते थे परन्तु राजस्व विभाग में कार्य करते समय उन्होंने जो विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना बनायी उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य देशी रियासतों में अन्यतम बन गया था। महाराजा मुम्बई की वार्षिक औद्योगिक प्रदर्शनी के उद्धाटन हेतु आमन्त्रित किये जाने लगे थे। लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल लाॅ कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र ७५ रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अत: वे सभी को विस्मित करते हुए 19/8 छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका बन्दे मातरम् (पत्रिका) का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी अत: २ मई १९०८ को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे 'अलीपुर षडयन्त्र केस' के नाम से जानते हैं। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया।| अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड़यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले ६ मई १९०९ को जनता के सामने आये। ३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी वहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन करते हुए कहा था:। जब मुझे आप लोगों के द्वारा आपकी सभा में कुछ कहने के लिए कहा गया तो में आज एक विषय हिन्दू धर्म पर कहूँगा। मुझे नहीं पता कि मैं अपना आशय पूर्ण कर पाउँगा या नहीं। जब में यहाँ बैठा था तो मेरे मन में आया कि मुझे आपसे बात करनी चाहिए। एक शब्द पूरे भारत से कहना चाहिये। यही शब्द मुझसे सबसे पहले जेल में कहा गया और अब यह आपको कहने के लिये मैं जेल से बाहर आया हूँ। एक साल हो गया है मुझे यहाँ आए हुए। पिछली बार आया था तो यहाँ राष्ट्रीयता के बड़े-बड़े प्रवर्तक मेरे साथ बैठे थे। यह तो वह सब था जो एकान्त से बाहर आया जिसे ईश्वर ने भेजा था ताकि जेल के एकान्त में वह इश्वर के शब्दों को सुन सके। यह तो वह ईश्वर ही था जिसके कारण आप यहाँ हजारों की संख्या में आये। अब वह बहुत दूर है हजारों मील दूर। प्रमुख शिष्य चम्पकलाल, नलिनि कान्त गुप्त, कैखुसरो दादाभाई सेठना, निरोदबरन, पवित्र, एम पी पण्डित, प्रणब, सतप्रेम, इन्द्र सेन == अ रविन्द का दर्शन == कृतियाँ द मदर लेटर्स ऑन योगा सावित्री योग समन्वय दिव्य जीवन फ्यूचर पोयट्री योगिक साधन "वंदे मातरम" कारा काहिनी (जेलकथा) धर्म ओ जातीयता (धर्म और राष्ट्रीयता) अरबिन्देर पत्र (अरविन्द के पत्र) मुख्य ग्रन्थ हिंदी में दिव्य जीवन ISBN 978-81-7058-239-7 सावित्री (पद्यानुवाद) ISBN 978-93-5210-103-0 योग-समन्वय ISBN 978-81-7058-183-3 श्रीअरविन्द अपने विषय में ISBN 978-93-5210-008-8 माता ISBN 978-81-7058-106-2 भारतीय संस्कृति के आधार ISBN 978-81-7058-691-3 वेद-रहस्य ISBN 978-93-5210-067-5 केन एवं अन्यान्य उपनिषद् ISBN 978-81-7058-858-0 ईशोपनिषद ISBN 978-81-7058-873-3 गीता-प्रबंध ISBN 978-93-5210-135-1 सम्पूर्ण संस्करण श्री अरविन्द की 125 वीं जयन्ती के अवसर पर, 1997 में श्री अरबिंदो आश्रम ने श्री अरविन्द की सम्पूर्ण कृतियों को 37 भागों में प्रकाशित किया। ये भाग निम्नलिखित हैं- 1. Early Cultural Writings. 2. Collected Poems. 3.-4. Collected Plays and Stories. 5. Translations. 6.-7. Bande Mataram. 8. Karmayogin. 9. Writings in Bengali and Sanskrit. 10.-11. Record of Yoga. 12. Essays Divine and Human. 13. Essays in Philosophy and Yoga. 14. Vedic and Philological Studies. 15. The Secret of the Veda. 16. Hymns to the Mystic Fire. 17. Isha Upanishad. 18. Kena and Other Upanishads. 19. Essays on the Gita. 20. The Renaissance of India with a Defence of Indian Culture. 21.-22. The Life Divine. 23.-24. The Synthesis of Yoga. 25. The Human Cycle – The Ideal of Human Unity – War and Self-Determination. 26. The Future Poetry. 27. Letters on Poetry and Art 28.-31. Letters on Yoga. 32. The Mother with Letters on the Mother. 33-34. Savitri – A Legend and a Symbol. 35. Letters on Himself and the Ashram. 36. Autobiographical Notes and Other Writings of Historical Interest. 37. Reference Volume (unpublished) सन्दर्भ इन्हें भी देखें सम्पूर्ण शिक्षा (Integral education) श्री अरविन्द आश्रम बाहरी कड़ियाँ श्री अरविन्द - मेरी दृष्टि में (गूगल पुस्तक; लेखक - रामधारी सिंह दिनकर) अमर योगी—श्री अरविंद घोष श्री अरविन्द घोष Publishers of Books by Sri Aurobindo & the Mother Sri Aurobindo Ashram, Pondicherry, India The Relevance of Aurobindo:Political Life & Teachings - Nadesan Satyendra Auroville - a universal city based on Sri Aurobindo's vision, Near Pondicherry, India The Sri Aurobindo Society Pondicherry, India Sri Aurobindo Information Information on Sri Aurobindo and The Mother Biography of Sri Aurobindo Lotus Press U.S. publisher Sri Aurobindo's writings Meditations On Savitri Sri Aurobindo on Vedas Sri Aurobindo on Upanishads 1872 में जन्मे लोग भारतीय लेखक भारतीय दार्शनिक हिन्दू गुरु १९५० में निधन हिन्दी लेखक
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दर्शनशास्त्र (अंग्रेज़ी-philosophy, यूनानी- φιλοσοφία, अर्थात् "प्रज्ञान से प्रेम" ) सामान्य और मौलिक प्रश्नों का सुव्यवस्थित अध्ययन है, जैसे की अस्तित्व, तर्क, ज्ञान, मूल्य, मन और भाषा से संबंधित। दर्शन वास्तविकता के मौलिक सत्य को तर्कबद्ध रूप से समझने और व्याख्या करने का प्रयास है, यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। यह मौलिक प्रश्नों को संबोधित करने के अन्य तरीकों (जैसेकि रहस्यवाद , मिथक , या धर्म) से समालोचनात्मक, व्यवस्थित और तर्कसंगत युक्ति पर निर्भर होने के साथ-साथ अपने पूर्वनुमानों और विधियों पर चिंतन करने के कारण अलग है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसमें भाषा का तार्किक विश्लेषण और शब्दों और अवधारणाओं के अर्थ का स्पष्टीकरण शामिल है। वास्तव में, दर्शन को परिभाषित करना स्वयं में ही एक दार्शनिक प्रश्न है। कुछ स्रोतों का दावा है कि यह शब्द पाइथागोरस (लगभग ५७० - ४९५ ईसा पूर्व) द्वारा गढ़ा गया था, हालांकि यह पूर्णतः निश्चित नहीं है। ऐतिहासिक रूप से, दर्शन में ज्ञान के सभी निकाय शामिल थे और इसके अभ्यासक को एक दार्शनिक के रूप में जाना जाता था।." प्राकृतिक दर्शन ", जो प्राचीन ग्रीस में एक शैक्षणिक विद्या के रूप में शुरू हुआ, इसमें खगोल विज्ञान, चिकित्सा और भौतिकी शामिल हैं। उदाहरण के लिए, आइजैक न्यूटन  की १६८७ की प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांत बाद में भौतिकी की एक पुस्तक के रूप में वर्गीकृत हो गई। 19वीं शताब्दी में, आधुनिक अनुसंधान विश्वविद्यालयों के विकास, अकादमिक दर्शनशास्त्र और अन्य विषयों के वृत्तिकरण और उनमें विशेषज्ञता हासिल करने की ओर ले गए। तब से,सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में अन्वीक्षण के विभिन्न क्षेत्र जो परंपरागत रूप से दर्शनशास्त्र का हिस्सा थे, दर्शनशास्त्र से पृथक होकर अलग-अलग शैक्षणिक विषय बन गए हैं, मूलतः सामाजिक विज्ञान जैसे  मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा विज्ञान और अर्थशास्त्र, साथ में दर्शनशास्त्र एक स्वतन्त्र विषय के रूप में विकसित होने लगा। आज, अकादमिक दर्शन के प्रमुख उपक्षेत्रों में तत्वमीमांसा शामिल है, जो अस्तित्व और वास्तविकता की मौलिक प्रकृति से संबंधित है ; ज्ञानमीमांसा, जो ज्ञान और  विश्वास की प्रकृति का अध्ययन करती है ; नीतिशास्त्र, जिसका संबंध नैतिक मूल्यों से है ; और तर्कशास्त्र ,जो  अनुमान के नियमों का अध्ययन करता है जो किसी को सत्य प्रतिज्ञप्ति से निष्कर्ष निकालने देता है। अन्य उल्लेखनीय उपक्षेत्रों में धर्म-दर्शन , विज्ञान का दर्शन, राजनीतिक दर्शन, सौंदर्यशास्त्र, भाषा दर्शन, और मन का दर्शन शामिल हैं। दार्शनिक ज्ञान तक पहुँचने के लिए दार्शनिक विभिन्न प्रकार के विधियों-पद्धतियों का उपयोग करते हैं। दार्शनिक पद्धति में प्रश्न करना, आलोचनात्मक चर्चा, तार्किक यपक्ति और व्यवस्थित प्रस्तुति शामिल है। इनमें अवधारणात्मक विश्लेषण , सामान्य बुद्धि और अंतर्ज्ञान पर निर्भरता , चिंतन प्रयोगों का उपयोग , साधारण भाषा का विश्लेषण , अनुभव का वर्णन और समीक्षात्मक प्रश्नोत्तरी भी शामिल हैं। आधुनिक दर्शनशास्त्र अनेक आधारभूत प्रश्नों का अंतर्विषयी दृष्टिकोण प्रदान करता है। दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है। यह विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों के बौद्धिक इतिहास से निकटता से जुड़ा है। प्रमुख क्षेत्रानुसार दर्शनिक परम्पराएँ : पाश्चात्य दर्शन, भारतीय दर्शन, चीनी दर्शन, इस्लामी (अरब-फारसी) दर्शन इत्यादी हैं। दर्शनशास्त्र की परिभाषाएं इस बात पर व्यापक सहमति है कि दर्शन ( प्राचीन ग्रीक φίλος , फीलोस्: "प्रेम"; और σοφία , सोफिया: "ज्ञान")  विभिन्न सामान्य विशेषताओं से पहचानी जाती है: यह तर्कसंगत पृच्छा (rational inquiry) का एक रूप है, यह सुव्यवस्थित होने पर विशेष ध्यान देता है, और यह अपने स्वयं के विधियों और पूर्वधारणाओं पर गंभीर रूप से विमर्श-चिंतन करता है। लेकिन ऐसे दृष्टिकोण जो इस तरह के अस्पष्ट चरित्र-चित्रण से परे जाकर अधिक रोचक या गहन परिभाषा देने का प्रयास करते हैं, आमतौर पर विवादास्पद होते हैं।अक्सर, वे केवल एक निश्चित दार्शनिक आंदोलन से संबंधित सिद्धांतकारों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं और संशोधनवादी हैं क्योंकि दर्शन के कई अनुमानित हिस्से "दर्शन" शीर्षक के लायक नहीं होंगे यदि वे सत्य होते तो। आधुनिक युग से पहले, इस शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक अर्थों में किया जाता था, जिसमें इसके उप-विषयों के रूप में भौतिक विज्ञान या गणित जैसे व्यक्तिगत विज्ञान शामिल थे , लेकिन समकालीन उपयोग अधिक संकीर्ण है। कुछ दृष्टिकोणों का तर्क है कि दर्शन के सभी भागों द्वारा साझा की जाने वाली आवश्यक विशेषताओं का एक समुच्च्य है, जबकि अन्य केवल कमजोर पारिवारिक समरूपता देखते हैं या तर्क देते हैं कि यह केवल एक खाली व्यापक शब्द है।  कुछ परिभाषाएं दर्शनशास्त्र को उसकी कार्यविधी के संबंध के रूप में चित्रित करती हैं, जैसे शुद्ध तर्कबुद्धि। अन्य इसके विषयों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, उदाहरण के लिए, दुनिया के सबसे बड़े पैटर्न के अध्ययन के रूप में या बड़े सवालों के जवाब देने के प्रयास के रूप में।  दोनों दृष्टिकोणों में यह समस्या है कि वे आमतौर पर गैर-दार्शनिक विषयों को शामिल करके या तो बहुत व्यापक हैं, या कुछ दार्शनिक उप-विषयों को छोड़कर बहुत संकीर्ण हैं। दर्शन की कई परिभाषाएँ विज्ञान के साथ इसके घनिष्ठ संबंध पर जोर देती हैं।  इस अर्थ में, दर्शन को कभी-कभी अपने आप में एक उचित विज्ञान के रूप में समझा जाता है। कुछ प्रकृतिवादी दृष्टिकोण, उदाहरण के लिए, दर्शन को एक अनुभवजन्य, हालांकि अत्यंत अमूर्त विज्ञान के रूप में देखते हैं जो विशेष अवलोकनों के बजाय बहुत व्यापक अनुभवजन्य पैटर्न से संबंधित है।   कुछ प्रतिभासवादी, दूसरी ओर, दर्शनशास्त्र को तत्वों(Essence) के विज्ञान के रूप में वर्णित करते हैं। विज्ञान-आधारित परिभाषाएँ आमतौर पर यह समझाने की समस्या का सामना करती हैं कि क्यों दर्शन अपने लंबे इतिहास में उस प्रकार की प्रगति नहीं कर पाया जैसा कि अन्य विज्ञानों में देखा जाता है। दर्शन को एक अपरिपक्व या अनंतिम विज्ञान के रूप में देखकर इस समस्या से बचा जा सकता है, जिसके उपविषय एक बार पूरी तरह विकसित हो जाने के बाद दर्शन नहीं रह जाते।  इस अर्थ में, दर्शन विज्ञान की गर्भग्राहिका या दाई है। अन्य परिभाषाएँ विज्ञान और दर्शन के बीच अंतर पर अधिक ध्यान केंद्रित करती हैं। ऐसी कई परिभाषाओं में एक सामान्य विषय यह है कि दर्शन का संबंध अर्थ , समझ या भाषा के स्पष्टीकरण से है। एक दृष्टिकोण के अनुसार, दर्शन अवधारणात्मक विश्लेषण है, जिसमें अवधारणाओं के अनुप्रयोग के लिए अनिवार्य और पर्याप्त परिस्थितियों का पता लगाना शामिल है।  एक अन्य ने दर्शन को एक भाषाई चिकित्सा के रूप में परिभाषित किया है जिसका उद्देश्य उन गलतफहमियों को दूर करना है जिनके लिए मनुष्य प्राकृतिक भाषा की भ्रामक संरचना के कारण संवेदनशील हैं। एक और दृष्टिकोण मानता है कि दर्शन का मुख्य कार्य दुनिया की पूर्व-तात्विक समझ को स्पष्ट करना है, जो अनुभव की संभावना की स्थिति के रूप में कार्य करता है।समझ पर ध्यान प्रागनुभविकवादी परंपराओं और घटनाविज्ञान के कुछ पहलुओं में भी परिलक्षित होता है, जहां दर्शन के कार्य की पहचान बोधगम्य बनाने और दुनिया के बारे में हमारे पास पहले से मौजूद समझ को स्पष्ट करने के साथ की जाती है, जिसे कभी-कभी पूर्व-समझ या पूर्व-ओन्टोलॉजिकल (पूर्व तात्विक) परिभाषा के रूप में संदर्भित किया जाता है। दर्शनशास्त्र की कई अन्य परिभाषाएँ उपरोक्त किसी भी श्रेणी में स्पष्ट रूप से नहीं आती हैं। प्राचीन ग्रीक और रोमन दर्शन में पहले से ही पाया जाने वाला एक प्रारंभिक दृष्टिकोण यह है कि दर्शन किसी की तर्क क्षमता को विकसित करने की साधना है। यह अभ्यास दार्शनिक के ज्ञान के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है और इसका उद्देश्य चिंतनशील जीवन जीने के द्वारा किसी की भलाई में सुधार करना है।  एक निकट से संबंधित दृष्टिकोण, दर्शन के प्रमुख कार्य के रूप में विश्वदृष्टिकोण (विचारधारा) के विकास और अभिव्यक्ति की पहचान करता है , अर्थात यह व्यक्त करना कि बड़े पैमाने पर चीजें एक साथ कैसे लटकती हैं और हमें उनके प्रति कौन सा व्यावहारिक रुख अपनाना चाहिए। एक और परिभाषा दर्शनशास्त्र को उसकी चिंतनशील प्रकृति पर जोर देने के लिए सोचने के बारे में सोचने के रूप में दर्शातीरसेल: विभिन्न दार्शनिकों द्वारा दर्शन की व्याख्या अरस्तु: दर्शन एक विज्ञान है जो अलौकिक तत्वों के वास्तविक स्वरूप की खोज करता है"। लेविसन के अनुसार - "दर्शन मानसिक क्रिया है"। कार्ल मार्क्स के अनुसार - "दर्शन दुनिया को बदलने के लिए की गई उसकी व्याख्या है"। हेगेल के अनुसार - "दर्शन वह है जो अपने जीते हुए युग को विचारों में धारण कर लेता है।" इमैनुएल कांट: दर्शन को "संज्ञान का विज्ञान और आलोचना" मानते हैं। प्लेटो: वह व्यक्ति जिसे हर प्रकार के ज्ञान की अभिरूचि है और जो सीखने के लिए उत्सुक है और कभी संतुष्ट नहीं होता है उसे दार्शनिक कहा जा सकता है। सिसरो: दर्शन सभी कलाओं की जननी है और "मन की सच्ची औषधि है।" फिचटे: दर्शन ज्ञान का विज्ञान है।" र्बर्ट स्पेंसर के अनुसार - "दर्शन एक सार्वभौमिक विज्ञान के रूप में हर चीज से संबंधित है। दर्शनशास्त्र का विश्वकोश दर्शनशास्त्र को प्रज्ञान के प्रेम के बजाय "किसी की स्वयं की जिज्ञासा और बुद्धि का अभ्यास करने का प्रेम" के रूप में परिभाषित करता है। मिशेल फूको के अनुसार: "दर्शन पहले से मौजूद सत्य का विमर्श नहीं है, बल्कि एक नए सत्य का उत्पादन है।" जीन-पॉल सार्त्र के अनुसार: "दर्शन एक बंद, स्थिर सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक जीवित आंदोलन है।" मार्टिन हाइडेगर के अनुसार: "दर्शन केवल शगल या शौक नहीं है, बल्कि दुनिया में अस्तित्व का एक मौलिक, आवश्यक तरीका है।" फ्रेडरिक नीत्शे के अनुसार : "दर्शन एक सिद्धांत नहीं बल्कि एक गतिविधि है।" रेने देकार्त के अनुसार : "दर्शन एक पेड़ की तरह है, जिसकी जड़ें तत्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा हैं, इसका तना तर्कशास्त्र है, और इसकी शाखाएँ नीतिशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र और राजनीति हैं।" सिमोन डी ब्यूवोइर के अनुसार : "दर्शन अपने सिद्धांतों में नहीं, बल्कि अस्तित्व के विश्लेषण में है।" मिशेल फूको के अनुसार : "दर्शन एक प्रकार का समालोचनात्मक विचार है जो चिंतन की उन आदतों को नष्ट करने का प्रयास करता है जो लगभग स्वाभाविक हो गई हैं और उन पूर्वानुमानों को प्रकाश में लाता है जो हमेशा से मौजूद थीं।" जैक्स डेरिडा के अनुसार: "दर्शन नई अवधारणाओं का आविष्कार और पुरानी अवधारणाओं की पुनः खोज है।" बर्ट्रेंड रसेल: दर्शनशास्त्र भाषा के तार्किक विश्लेषण और शब्दों और अवधारणाओं के अर्थ के स्पष्टीकरण से संबंधित है। दर्शन अथवा फिलॉसफ़ी दर्शन विभिन्न विषयों का विश्लेषण है । इसलिये भारतीय दर्शन में चेतना की मीमांसा अनिवार्य है जो आधुनिक दर्शन में नहीं। मानव जीवन का चरम लक्ष्य दुखों से छुटकारा प्राप्त करके चिर आनंद की प्राप्ति है। भारतीय दर्शनों का भी एक ही लक्ष्य दुखों के मूल कारण अज्ञान से मानव को मुक्ति दिलाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति करवाना है। यानी अज्ञान व परंपरावादी और रूढ़िवादी विचारों को नष्ट करके सत्य ज्ञान को प्राप्त करना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है। सनातन काल से ही मानव में जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवृत्ति रही है। प्रकृति के उद्भव तथा सूर्य, चंद्र और ग्रहों की स्थिति के अलावा परमात्मा के बारे में भी जानने की जिज्ञासा मानव में रही है। इन जिज्ञासाओं का शमन करने के लिए उसके अनवरत प्रयास का ही यह फल है कि हम लोग इतने विकसित समाज में रह रहे हैं। परंतु प्राचीन ऋषि-मुनियों को इस भौतिक समृद्धि से न तो संतोष हुआ और न चिर आनंद की प्राप्ति ही हुई। अत: उन्होंने इसी सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के क्रम में सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं गूढ़तम साधनों से ज्ञान की तलाश आरंभ की और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। उसी सत्य ज्ञान का नाम दर्शन है। दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्) अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं। भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है। दर्शनशास्त्र का इतिहास एक सामान्य अर्थ में, दर्शन, प्रज्ञा, बौद्धिक संस्कृति और ज्ञान की खोज से जुड़ा है । इस अर्थ में, सभी संस्कृतियाँ और साक्षर समाज, दार्शनिक प्रश्न पूछते हैं, जैसे "हम कैसे जीएँ" और "वास्तविकता का स्वभाव क्या है"। फिर दर्शन की एक व्यापक और निष्पक्ष अवधारणा, सभी विश्व सभ्यताओं में  वास्तविकता, नैतिकता और जीवन जैसे मामलों में एक तर्कपूर्ण जांच को पाती है। पाश्चात्य दर्शन का इतिहास पश्चिमी दर्शन, पश्चिमी जगत की दार्शनिक परंपरा है, जो पूर्व-सुकरातीय विचारकों से चली आ रही है, जो कि 6 वीं शताब्दी ईसापूर्व के यूनान में सक्रिय थे, जैसे थेल्स (624-545 ईसा पूर्व) और पाइथागोरस (570-495 ईसा पूर्व) जिन्होंने "प्रज्ञान के प्रेम" (लैटिन : फिलोसोफिया) का अभ्यास किया और उन्हें "प्रकृति का छात्र" (फिजियोलॉजी)भी कहा गया। पश्चिमी दर्शन को तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है: प्राचीन ( ग्रेको-रोमन ) मध्यकालीन दर्शन (ईसाई यूरोपीय विचार का जिक्र)। आधुनिक दर्शन (17 वीं शताब्दी में शुरुआत) प्राचीन पाश्चात्य दर्शन प्राचीन पश्चिमी दर्शन के दायरे में दर्शनशास्त्र,जैसा कि आज उन्हें समझा जाता है, की समस्याएं शामिल थीं, लेकिन इसमें कई अन्य विषय भी शामिल थे, जैसे कि शुद्ध गणित और प्राकृतिक विज्ञान जैसे कि भौतिकी, खगोल विज्ञान और जीव विज्ञान (उदाहरण के लिए, अरस्तू ने इन सभी विषयों पर लिखा था)। जबकि प्राचीन युग के दर्शन के बारे में हमारा ज्ञान 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में थेल्स से शुरू होता है, सुकरात  से पहले आने वाले दार्शनिकों (आमतौर पर पूर्व-सुकरातीय के रूप में जाना जाता है ) के बारे में बहुत कम जानकारी है। प्राचीन युग में यूनानी दार्शनिक विद्यालयों का प्रभुत्व था । सुकरात की शिक्षाओं से प्रभावित स्कूलों में सबसे उल्लेखनीय प्लेटो थे , जिन्होंने प्लेटोनिक अकादमी की स्थापना की , और उनके छात्र अरस्तू , जिन्होंने पेरिपेटेटिक विद्यापीठ की स्थापना की। सुकरात से प्रभावित अन्य प्राचीन दार्शनिक परंपराओं में सिनिकवाद (निंदकवाद), सायरनवाद, स्टोइकवाद (निस्पृहवाद) और अकादमिक संशयवाद। दो अन्य परंपराएँ सुकरात के समकालीन, डेमोक्रिटस से प्रभावित थीं:- पाइरहोवाद और एपिकुरूसवाद। यूनानियों द्वारा कवर किए गए महत्वपूर्ण विषयों में तत्वमीमांसा (परमाणुवाद और अद्वैतवाद जैसे प्रतिस्पर्धी सिद्धांतों के साथ), ब्रह्मांड विज्ञान, अच्छी तरह से रहने वाले जीवन की प्रकृति (यूडिमोनिया), ज्ञान की संभावना और तर्कबुद्धि की प्रकृति (लोगोस्) शामिल हैं। रोमन साम्राज्य के उदय के साथ, सिसेरो और सेनेका (रोमन दर्शन देखें) जैसे रोमनों द्वारा लैटिन में युूनानी दर्शन पर तेजी से चर्चा की गई। मध्यकालीन पाश्चात्य दर्शन मध्यकालीन दर्शन (5वीं-16वीं शताब्दी) पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद की अवधि के दौरान शुरु हुआ जब ईसाई धर्म के उदय का प्रभुत्व था ; इसलिए यह ग्रेको-रोमन विचार के साथ निरंतरता बनाए रखते हुये यहूदी-ईसाई धर्ममीमांसक चिंताओं को दर्शाता है। इस अवधि में ईश्वर के अस्तित्व और स्वभाव, आस्था और तर्कबुद्धि की प्रकृति, तत्वमीमांसा और अशुभ की समस्या जैसी समस्याओं पर चर्चा की गई। कुछ प्रमुख मध्यकालीन विचारकों में ऑगस्टाइन,  थॉमस एक्विनास, एनसेल्म और रोजर बेकन शामिल हैं। इन विचारकों ने दर्शनशास्त्र को धर्ममीमांसा (एन्सिला थियोलॉजी) की सहायता के रूप में देखा, और इसलिए उन्होंने दर्शन को अपने पवित्र ग्रंथों की अपनी व्याख्या के साथ संरेखित करने की तलाश की। इस अवधि में मध्यकालीन विश्वविद्यालयों में विद्वतावाद का विकास देखा गया, प्रमुख ग्रंथों पर करीबी अध्ययन और विवाद के आधार पर एक पाठ आलोचनात्मक पद्धति विकसित हुई। पुनर्जागरण काल ​​​​में क्लासिक ग्रीको-रोमन विचार और एक मजबूत मानवतावाद पर ध्यान केंद्रित किया गया। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन पश्चिमी दुनिया में प्रारंभिक आधुनिक दर्शन की शुरुआत थॉमस हॉब्स और रेने देकार्त (1596-1650) जैसे विचारकों से हुई। प्राकृतिक विज्ञान के उदय के बाद, आधुनिक दर्शन, ज्ञान के लिए एक धर्मनिरपेक्ष और तर्कसंगत आधार विकसित करने से संबंधित था और धर्म, विद्वतापूर्ण विचार और चर्च जैसे प्राधिकरण के पारंपरिक ढांचे से दूर चला गया। प्रमुख आधुनिक दार्शनिकों में स्पिनोज़ा, लाइबनिज़, लॉक, बर्कले, ह्यूम और कांट शामिल हैं । 19वीं सदी का दर्शन (जिसे कभी-कभी लेट आधुनिक दर्शन कहा जाता है) 18वीं सदी के व्यापक आंदोलन से प्रभावित था, जिसे " ज्ञानोदय " या "प्रबुद्धता का युग" कहा जाता है, और इसमें जर्मन आदर्शवाद में प्रमुख व्यक्ति  हेगेल जैसे नाम शामिल हैं ; कीर्केगार्ड, जिन्होंने अस्तित्ववाद की नींव विकसित की ; थॉमस कार्लाइल , महापुरुष सिद्धांत के प्रतिनिधि ; नीत्शे, एक प्रसिद्ध ईसाई-विरोधी; जॉन स्टुअर्ट मिल, जिन्होंने उपयोगितावाद को बढ़ावा दिया ; कार्ल मार्क्स, जिन्होंने साम्यवाद की नींव विकसित की ; और अमेरिकी विलियम जेम्स । 20 वीं सदी में विश्लेषणात्मक दर्शन और महाद्वीपीय दर्शन के बीच विभाजन देखा गया, साथ ही दार्शनिक रुझान जैसे कि घटना विज्ञान, अस्तित्ववाद, तार्किक प्रत्यक्षवाद, व्यावहारिकतावाद और भाषाई मोड़। दर्शनशास्त्र का क्षेत्र व शाखाएं दर्शनशास्त्र अनुभव की व्याख्या है। इस व्याख्या में जो कुछ अस्पष्ट होता है, उसे स्पष्ट करने का यत्न किया जाता है। हमारी ज्ञानेंद्रियाँ बाहर की ओर खुलती हैं, हम प्राय: बाह्य जगत् में विलीन रहते हैं। कभी कभी हमारा ध्यान अंतर्मुख होता है और हम एक नए लोक का दर्शन करते हैं। तथ्य तो दिखाई देते ही हैं, नैतिक भावना आदेश भी देती है। वास्तविकता और संभावना का भेद आदर्श के प्रत्यय को व्यक्त करता है। इस प्रत्यय के प्रभाव में हम ऊपर की ओर देखते हैं। इस तरह दर्शन के प्रमुख विषय बाह्य जगत्, चेतन आत्मा और परमात्मा बन जाते हैं। इनपर विचार करते हुए हम स्वभावत: इनके संबंधो पर भी विचार करते हैं। प्राचीन काल में रचना और रचयिता का संबंध प्रमुख विषय था, मध्यकाल में आत्मा और परमात्मा का संबंध प्रमुख विषय बना और आधुनिक काल में पुरुष और प्रकृति, विषयी और विषय, का संबंध विवेन का केंद्र बना। प्राचीन यूनान में भौतिकी, तर्क और नीति, ये तीनों दर्शनशास्त्र के तीन भाग समझे जाते थे। भौतिकी बाहर की ओर देखती है, तर्क स्वयं चिंतन को चिंतन का विषय बनाता है, नीति जानना चाहती है कि जीवन को व्यवस्थित करने के लिए कोई निरपेक्ष आदेश ज्ञात हो सकता है या नहीं। दार्शनिकों का लक्ष्य समग्र की व्यवस्था का पता लगाना था। जब कभी प्रतीत हुआ कि इस अन्वेषण में मनुष्य की बुद्धि आगे जा नहीं सकती, तो कुछ गौण सिद्धांत विवेचन के विषय बने। यूनान में, सुकरात, प्लेटो और अरस्तू के बाद तथा जर्मनी में कांट और हेगल के बाद ऐसा हुआ। यथार्थवाद और संदेहवाद ऐसे ही सिद्धांत हैं। इस तरह दार्शनिक विवेचन में जिन विषयों पर विशेष रूप से विचार होता रहा है, वे ये हैं- (1) मुख्य विषय व शाखाएं - दार्शनिक प्रश्नों को विभिन्न शाखाओं में बांटा जा सकता है। ये समूहीकरण, दार्शनिकों को समान विषयों के एक समुच्च्य पर ध्यान केंद्रित करने और उन विचारकों के साथ संप्रषण करने की अनुमति देते हैं, जो समान प्रश्नों में रुचि रखते हैं। ये विभाजन न तो संपूर्ण हैं और न ही परस्पर अनन्य हैं।(एक दार्शनिक, कांटिय ज्ञानमीमांसा, या प्लेटोनीय सौंदर्यशास्त्र, या आधुनिक राजनीतिक दर्शन में विशेषज्ञ हो सकता है )। इसके अलावा, ये दार्शनिक पूछताछ कभी-कभी एक-दूसरे के साथ और विज्ञान, धर्म या गणित जैसी अन्य पृक्षाओं के साथ अधिव्याप्त हो जाती हैं। ज्ञानमीमांसा ज्ञानमीमांसा, दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जो ज्ञान का अध्ययन करती है। ज्ञानमीमांसा ज्ञान के कथित स्रोतों की जांच करते हैं, जिसमें अवधारणात्मक अनुभव, तर्कबुद्धि , स्मृति और साक्ष्य शामिल हैं । वे सत्य , विश्वास ,  प्रमाणिकता और तर्कसंगतता के स्वभाव के बारे में प्रश्नों की भी जांच करते हैं ।  दार्शनिक संशयवाद , जो ज्ञान के कुछ या सभी दावों के बारे में संदेह खड़ा करता है, दर्शन के पूरे इतिहास में रुचि का विषय रही है। यह पूर्व-सुकरातीय दर्शन के आदि में उठी और  दार्शनिक संशयवाद के शुरुआती पश्चिमी स्कूल के संस्थापक पायरो के साथ मानकीकृत हो गई । यह आधुनिक दार्शनिकों रेने देकार्त और डेविड ह्यूम के कार्यों में प्रमुखता से लक्षित है और समकालीन ज्ञानमीमांसा संबंधी बहसों में एक केंद्रीय विषय बनी हुई है। सबसे उल्लेखनीय ज्ञानमीमांसा संबंधी बहस अनुभववाद और तर्कबुद्धिवाद के बीच है । अनुभववाद ज्ञान के स्रोत के रूप में संवेदी अनुभव के माध्यम से अवलोकन संबंधी साक्ष्य पर जोर देता है।  अनुभववाद अनुभवाश्रित ज्ञान से जुड़ा है , जिसे अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया जाता है (जैसे कि वैज्ञानिक ज्ञान )। तर्कवाद ज्ञान के स्रोत के रूप में तर्कबुद्धि ( reason ) पर जोर देता है।तर्कवाद एक प्रागनुभविक ज्ञान से जुड़ा है , जो अनुभव से स्वतंत्र है ( जैसे तर्क और गणित )। समकालीन ज्ञानमीमांसा में, एक केंद्रीय बहस एक विश्वास के लिए ज्ञान का गठन करने के लिए, आवश्यक औपबंध ( conditions ) के बारे में है , जिसमें सत्य और प्रमाणिकता शामिल हो सकते हैं ।यह बहस काफी हद तक गेटियर समस्या को हल करने के प्रयासों का परिणाम थी। समकालीन वाद-विवाद का एक अन्य सामान्य विषय प्रतिगमन समस्या है, जो तब उत्पन्न होती है जब किसी विश्वास, कथन या प्रतिज्ञप्ति के लिए प्रमाण या औचित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है। समस्या यह है कि प्रमाणिकता का स्रोत जो भी हो, वह स्रोत या तो बिना प्रमाण के होना चाहिए (जिस स्थिति में इसे एक मनमाना आधार माना जाना चाहिए,विश्वास के लिए), या इसका कुछ और प्रमाण होना चाहिए (जिस मामले में औचित्य या तो च्रक्रक तर्क का परिणाम होना चाहिए , जैसा कि संसक्ततावाद में है, या एक अनंत प्रतिगमन का परिणाम है , जैसा कि अनंतवाद में है )। ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं- 1. ज्ञान क्या है? 2. ज्ञान की संभावना भी है या नहीं? 3. ज्ञान प्राप्त कैसे होता है? 4. मानव ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं? ज्ञानमीमांसा ने आधुनिक काल में विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया। पहले दर्शन को प्राय: तत्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स) के अर्थ में ही लिया जाता था। तत्वमीमांसा तत्वमीमांसा, वास्तविकता की सबसे सामान्य विशेषताओं का अध्ययन है , जैसे कि अस्तित्व, समय, वस्तुएं और उनके गुण , पूर्ण और उनके हिस्से, घटनाएं, प्रक्रियाएं और कार्य-कारणता और मन और शरीर के बीच संबंध।तत्वमीमांसा में अंतरिक्ष और समय के दर्शन के साथ इसकी संपूर्णता में दुनिया का अध्ययन , ब्रह्मांड विज्ञान, और सत्तामीमांसा में अस्तित्व का अध्ययन शामिल है । बहस का एक प्रमुख बिंदु यथार्थवाद और आदर्शवाद के बीच है , जहां यथार्थवाद मानता है कि ऐसी ईकाइयां हैं जो उनकी मानसिक धारणा  से स्वतंत्र रूप से मौजूद हैं , जबकि आदर्शवाद मानता हैं कि वास्तविकता मानसिक रूप से निर्मित है या अन्यथा सारहीन है। तत्वमीमांसा अस्मिता के विषय से संबंधित है । सार या तत्व गुणों का वह समूह है जो किसी वस्तु को वह बनाता है जो वह मूल रूप से है और जिसके बिना वह अपनी पहचान खो देता है, जबकि आगन्तुक गुण या आकस्मिक गुण एक गुण है जो वस्तु के पास होती है, जिसके बिना वस्तु अभी भी अपनी पहचान बनाए रख सकती है। विशेष वे वस्तुएँ हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अंतरिक्ष और समय में उपस्थित हैं, जबकि अमूर्त वस्तुएं, जैसे संख्याएँ, और सामान्य, जो कई विशिष्टताओं, जैसे लालीपन या लिंग द्वारा आयोजित गुण हैं।सामान्य और अमूर्त वस्तुओं के अस्तित्व का प्रकार, यदि कोई है तो, बहस का मुद्दा है। तत्वमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं- 1. ज्ञान के अतिरिक्त ज्ञाता और ज्ञेय का भी अस्तित्व है या नहीं? 2. अंतिम सत्ता का स्वरूप क्या है? वह एक प्रकार की है, या एक से अधिक प्रकार की? नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र, जिसे नैतिक दर्शन के रूप में भी जाना जाता है, अच्छे और बुरे आचरण , सही और गलत मूल्यों और अच्छे और बुरे ( शुभ और अशुभ ) का अध्ययन करती है । इसकी प्राथमिक जांच में यह पता लगाना शामिल है कि अच्छा जीवन कैसे जिया जाए और नैतिकता के मानकों की पहचान की जाए। इसमें यह जांच करना भी शामिल है कि क्या जीने का कोई सबसे अच्छा तरीका है  या एक सार्वभौमिक नैतिक मानक है, और यदि ऐसा है तो हम इसके बारे में कैसे सीखते हैं। नैतिकता की मुख्य शाखाएँ मानदण्डक नीतिशास्त्र , आधि नीतिशास्त्र और अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र हैं। नैतिक कार्यों का गठन करने के बारे में नैतिकता में तीन मुख्य विचार हैं:  परिणामवाद , जो उनके परिणामों के आधार पर कार्यों का न्याय करता है।  ऐसा ही एक दृष्टिकोण उपयोगितावाद है , जो कार्यों को निवल प्रसन्नता (या आनंद) और/या कष्ट (या दर्द) की कमी के आधार पर आंकता है जो वे उत्पन्न करते हैं। कर्तव्यात्मक नीतिशास्त्र ( डीओन्टोलॉजी ) , जो कार्यों का न्याय इस आधार पर करती है कि क्या वे किसी नैतिक कर्तव्य के अनुसार हैं।  इमैनुएल कांट द्वारा बचाव किए गए मानक रूप में , कर्तव्यविज्ञान का संबंध इस बात से है कि क्या कोई विकल्प, अन्य लोगों की नैतिक अभिकर्तृत्व (एजेंसी) का सम्मान करता है, चाहे इसके परिणाम कुछ भी हों।  सद्गुण नीतिशास्त्र, जो उस कर्तु (एजेंट) के नैतिक चरित्र के आधार पर कार्यों का न्याय करती है जो उन्हें करता है और क्या वे एक आदर्श रूप से गुणी एजेंट के अनुरूप होते हैं। प्राचीन काल में नीति का प्रमुख लक्ष्य नि:श्रेयस के स्वरूप को समझना था। आधुनिक काल में कांट ने कर्तव्य के प्रत्यय को मौलिक प्रत्यय का स्थान दिया। तृप्ति या प्रसन्नता का मूल्यांकन विवाद का विषय बना रहा है। सौंदर्यशास्त्र सौंदर्यशास्त्र "कला, संस्कृति और प्रकृति पर महत्वपूर्ण विमर्श " है। यह कला के स्वभाव , सौंदर्य और रस , आनंद, भावनात्मक मूल्यों, धारणा और सौंदर्य की रचना और सराहना को संबोधित करता है। इसे अधिक सटीक रूप से संवेदी या संवेदी-भावनात्मक मूल्यों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जाता है , जिसे कभी-कभी भावना और रस का प्रसमिक्षा कहा जाता है।. कला सिद्धांत, साहित्यिक सिद्धांत , फिल्म सिद्धांत और संगीत सिद्धांत इसके प्रमुख खंड हैं। कला सिद्धांत से एक उदाहरण किसी विशेष कलाकार या कलात्मक आंदोलन जैसे घनवादी ( क्यूबिस्ट ) सौंदर्य के काम के अंतर्निहित सिद्धांतों के समुच्च्य को समझना है। तर्कशास्त्र तर्कशास्त्र , तर्कणा और तर्कयुक्ति का अध्ययन है। निगमनात्मक तर्क तब होता है, जब कुछ परिसर दिए जाते हैं, और निष्कर्ष अपरिहार्य रूप से निहित होते हैं । अनुमान के नियमों का उपयोग निष्कर्ष निकालने के लिए किया जाता है जैसे, मॉडस पोनेंस ( विध्यात्मक हेतुफलानुमान ), जहां "ए" और "यदि ए तो बी" दिया गया है, तो "बी" का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। क्योंकि ठोस तर्क सभी विज्ञानों,सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों का एक अनिवार्य तत्व है, तर्क एक औपचारिक विज्ञान बन गया। इसके उप-क्षेत्रों में गणितीय तर्क , दार्शनिक तर्क,  निश्चयमात्रक तर्क , संगणकीय तर्क और  गैर-शास्त्रीय तर्क शामिल हैं । गणित के दर्शन में एक प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या गणितीय ईकाइयां वस्तुनिष्ठ हैं और खोजी गई हैं, जिन्हें गणितीय यथार्थवाद कहा जाता है, या आविष्कार किया गया है, जिन्हें गणितीय प्रतियथार्थवाद कहा जाता है। (2) गौण विषय व दार्शनिक आंदोलन - यथार्थवाद संदेहवाद इन विषयों को विचारकों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार विविध पक्षों से देखा है। किसी ने एक पक्ष पर विशेष ध्यान दिया है, किसी ने दूसरे पक्ष पर। प्रत्येक समस्या के नीचे उपसमस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं। दार्शनिक पद्धति दार्शनिक पद्धति, दार्शनिक अन्वीक्षण करने की विधियां हैं। उनमें दार्शनिक ज्ञान तक पहुँचने की तकनीक और दार्शनिक दावों को सही ठहराने के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी सिद्धांतों के बीच चयन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले सारघटक शामिल हैं। दर्शनशास्त्र के पूरे इतिहास में विभिन्न प्रकार की पद्धतियों का प्रयोग किया गया है। उनमें से कई प्राकृतिक विज्ञान में उपयोग की जाने वाली विधियों से इस मायने में काफी भिन्न हैं कि वे माप उपकरणों के माध्यम से प्राप्त प्रायोगिक डेटा का उपयोग नहीं करते हैं। एक पद्धति का चुनाव आमतौर पर दार्शनिक सिद्धांतों के निर्माण और उनके पक्ष या विपक्ष में दिए गए तर्कों दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। इस चुनाव का अक्सर ज्ञानमीमांसीय विचारों द्वारा निर्धारण किया जाता है कि दार्शनिक साक्ष्य क्या है , यह कितना समर्थन प्रदान करता है, और इसे कैसे प्राप्त किया जाए। दार्शनिक सिद्धांतों के स्तर पर विभिन्न असहमतियों का स्रोत, पद्धति-संबंधी असहमतियों में है और नए तरीकों की खोज अक्सर, दार्शनिक कैसे अपने शोध का संचालन कैसे करते हैं और वे किस दावे का बचाव करते हैं, दोनों के लिए महत्वपूर्ण परिणाम होता है। कुछ दार्शनिक अपने अधिकांश सिद्धांतों का संलग्न एक विशेष पद्धति का उपयोग करते हुए करते हैं, जबकि अन्य दार्शनिक, विधियों की एक विस्तृत श्रृंखला का नियोजन करते हैं, जिसके आधार पर कोई विशिष्ट समस्या की जांच की जाती है।  पद्धतिगत संशयवाद दर्शन की एक प्रमुख पद्धति है। इसका उद्देश्य व्यवस्थित संदेह का उपयोग करके बिल्कुल निश्चित प्रथम सिद्धांतों पर पहुंचना है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि दर्शन के कौन से सिद्धांत असंदिग्ध हैं।ज्यामितीय पद्धति इस तरह के सिद्धांतों के एक छोटे समुच्च्य के आधार पर एक व्यापक दार्शनिक प्रणाली बनाने की कोशिश करती है। यह सिस्टम में समग्र रूप से अपने स्वयंसिद्धों (अधिगृहितों) की निश्चितता का विस्तार करने के लिए निगमनात्मक तर्क की सहायता लेती है। प्रतिभासवादी , दिखावे के दायरे (realm of appearances) के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। बाहरी दुनिया के बारे में अपने निर्णयों को निलंबित करके वे ऐसा करते हैं ताकि इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जा सके कि चीजें उनकी अंतर्निहित वास्तविकता से स्वतंत्र कैसी दिखाई देती हैं, एक तकनीक जिसे कोष्ठकीकरण या एपोचे/एपोखे (epoché / ἐποχή) के रूप में जाना जाता है।अवधारणात्मक विश्लेषण,  विश्लेषि दर्शन में एक प्रसिद्ध पद्धति है। इसका उद्देश्य अवधारणाओं के अर्थ को उनके मूलभूत घटकों में विश्लेषण करके स्पष्ट करना है।विश्लेषणात्मक दर्शन में अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली एक अन्य विधि सहज बुद्धि (common sense) पर आधारित है । यह आमतौर पर स्वीकृत मान्यताओं से शुरू होता है और उनसे रोचक निष्कर्ष निकालने का प्रयास करता है, जो अक्सर उन दार्शनिक सिद्धांतों की आलोचना करने के लिए एक नकारात्मक अर्थ में नियोजित की जाती हैं जो उस दृष्टिकोण से बहुत दूर है जिससे कि एक औसत व्यक्ति उस मुद्दे को देखता है। यह उससे बहुत सदृश है जैसे कि  सामान्य भाषा दर्शन, सामान्य भाषा का उपयोग कर दार्शनिक प्रश्नों से निपटता है।  दर्शन में विभिन्न पद्धतियाँ अन्तर्ज्ञान (अन्तःप्रज्ञा) को विशेष महत्व देती हैं , अर्थात् विशिष्ट दावों या सामान्य सिद्धांतों की शुद्धता के बारे में गैर-अनुमानित धारणाएं। उदाहरण के लिए, वे चिन्तन प्रयोगों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं , जो एक कल्पित स्थिति के संभावित परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए प्रतितथ्यात्मक सोच को नियोजित करते हैं। इन प्रत्याशित परिणामों का उपयोग तब दार्शनिक सिद्धांतों की पुष्टि या खंडन करने के लिए किया जा सकता है। चिंतनशील संतुलन की विधि भी अंतर्ज्ञान को नियोजित करती है। यह सभी प्रासंगिक विश्वासों और अंतर्ज्ञानों की जांच करके , एक निश्चित मुद्दे पर एक सुसंगत प्रतिज्ञप्ति बनाने का प्रयास करता है, जिनमें से कुछ को सुसंगत परिप्रेक्ष्य में आने के लिए अक्सर जोर कम किया जाना या सुधार करना पड़ता है।व्यावहारिकतावादी किसी दार्शनिक सिद्धांत के सही या गलत होने का आकलन करने के लिए ठोस व्यावहारिक परिणामों के महत्व पर जोर देते हैं। प्रयोगात्मक दर्शन हाल ही में उत्पन्न हुआ है। इसके तरीके दर्शन के अधिकांश अन्य तरीकों से भिन्न हैं क्योंकि यह सामाजिक मनोविज्ञान और संज्ञानात्मक विज्ञान के समान तरीके से अनुभवजन्य डेटा एकत्र करके दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता है। दार्शनिक प्रगति प्राचीन काल में शुरू हुई कई दार्शनिक बहसें आज भी विवादित हैं। ब्रिटिश दार्शनिक कॉलिन मैकगिन का दावा है कि उस अंतराल के दौरान कोई दार्शनिक प्रगति नहीं हुई है। ऑस्ट्रेलियाई दार्शनिक डेविड चाल्मर्स , इसके विपरीत, दर्शन में प्रगति को विज्ञान के समान ही देखते हैं। इस बीच, वर्जीनिया विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर टालबोट ब्रेवर का तर्क है कि "प्रगति" गलत मानक है जिसके द्वारा दार्शनिक गतिविधि का न्याय नहीं किया जा सकता है। भारतीय दर्शन विस्तृत विवरण के लिये भारतीय दर्शन देखें। वैसे तो समस्त दर्शन की उत्पत्ति वेदों से ही हुई है, फिर भी समस्त भारतीय दर्शन को आस्तिक एवं नास्तिक दो भागों में विभक्त किया गया है। जो ईश्वर यानी शिव जी तथा वेदोक्त बातों जैसे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत पर विश्वास करता है, उसे आस्तिक माना जाता है; जो नहीं करता वह नास्तिक है। आस्तिक या वैदिक दर्शन वैदिक परम्परा के ६ दर्शन हैं : सांख्य योग न्याय वैशेषिक मीमांसा वेदान्त यह दर्शन पराविद्या, जो शब्दों की पहुंच से परे है, का ज्ञान विभिन्न दृष्टिकोणों से समक्ष करते हैं। प्रत्येक दर्शन में अन्य दर्शन हो सकते हैं, जैसे वेदान्त में कई मत हैं। नास्तिक या अवैदिक दर्शन चार्वाक दर्शन बौद्ध दर्शन जैन दर्शन समकालीन भारतीय दार्शनिक श्री अरविन्द महात्मा गांधी सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वामी विवेकानंद आचार्य रजनीश ओशो प्रभात रंजन सरकार पाश्चात्य दर्शन प्राचीन पाश्चात्य दर्शन सुकरात-पूर्वी दर्शन मिलेटस के थेल्स ज़ेनोफानेस पाइथागोरस हेराक्लाइटस एलिआ के पार्मेनाइडिज़ प्रोटागोरस ल्यूसिपस अनाक्सागोरस एनाक्सीमैंडर एम्पिडोक्लेस श्रेण्य युनानी दर्शन काल सुकरात प्लेटो अरस्तू एंटिस्थनीज डायोजनीज मेगारा के यूक्लिड अरिस्टिपस हेलेनीय दर्शन काल एलिस के पाइरोह एपिक्युरस आर्सेसिलॉस कार्नेडस एस्कलॉन के एंटिओकस प्लोटिनस रोमन दर्शनकाल सिटियम के ज़ेनो लुसियस सेनेका मार्कस ऑरेलियस सिसरो एपिक्टेटस मध्यकालीन दर्शन हिप्पो के संत ऑगस्टिन बोएथियस औकम के विलियम इब्न सीना इब्न रुश्द कैन्टरबरि के संत ऐंसेल्म संत थॉमस एक्विनास आधुनिक पाश्चात्य दर्शन रेने देकार्त थॉमस हॉब्स स्पिनोजा गाटफ्रीड लैबनिट्ज़ ज़ॉर्ज बर्कलि रूसो डेविड ह्यूम जॉन लॉक फ्रांसिस बेकन ब्लेज़ पास्कल कांट हेगल आर्थर शोपेनहावर कार्ल मार्क्स सोरेन कीर्केगार्ड फ्रेड्रिक नीश्चे जॉन स्टुअर्ट मिल बर्ट्रैंड रसल लुड्विग विट्गेन्स्टाइन ज़ॉर्ज मूर कुर्ट गेडेल समकालीन पाश्चात्य दर्शन ज्यां-पाल सार्त्र ए जे एयर विट्गेंस्टाइन दर्शनशास्त्र में महिलाएं यद्यपि दार्शनिक विद्या में पुरुषों का वर्चस्व रहा है, महिलाएं इस शास्त्र के लम्बे इतिहास के हर काल में व्यापक रही हैं। प्राचीन उदाहरणों में मैत्रेयी (१००० ईसा पूर्व), गार्गी वाचक्नवी (७०० ईसा पूर्व), मारोनिया की हिप्पर्चिया ( सक्रिय- ३२५ ईसा पूर्व) और साइरेन की एरेट (सक्रिय- ५वीं -४वीं शताब्दी ईसा पूर्व) का नाम प्रसंशनीय हैं। मध्ययुगीन और आधुनिक युग के दौरान कुछ महिला दार्शनिकों को स्वीकार किया गया था, लेकिन २०वीं और २१वीं सदी तक उनमें से किसी की भी दर्शन कृतियाँ, पाश्चात्य ग्रंथावली का हिस्सा नहीं बन पायी। २०वीं शताब्दी से ही सुज़ैन लैंगर, गर्ट्रूड एलिजाबेथ एंस्कोम्बे, हन्ना अरेंड्ट और सिमोन डी ब्यूवोइरजैसी दार्शनिकों के साथ महिलााएं दर्शन ग्रंथावली में प्रवेश करने लगीं। दर्शन के इतिहास में स्त्री की भूमिका दर्शन के इतिहासकारों का यह मानना है कि महिला दार्शनिकों को दर्शन-साहित्य से जानभूजकर, अपवर्जित किया गया है। द अटलांटिक के 13 मई, 2015 के अंक में , सुसान प्राइस ने चिन्हित किया कि भले ही 1747 में कांट ने अपने पहले कृति में एमिली डू चेटेलेट , एक दार्शनिक जो कि "... न्यूटन, धर्म, विज्ञान और गणित की विद्वान" थी, को उद्धृत करते हैं, पर, "नॉर्टन के दर्शनशास्त्र परिचय के नए संस्करण के 1,000 से अधिक पन्नो में उनका( डू चेटेलेट का) कार्य नहीं मिलेगा।" नॉर्टन परिचय में 20वीं सदी के मध्य में आने एक भी महिला दार्शनिक का नाम उल्लेखित नहीं मिलता। शिक्षविदों का मानना है कि महिलाएं विश्वविद्यालय की कक्षाओं में प्रयुक्त अन्य प्रमुख संकलनों" से भी अनुपस्थित हैं। सुसान प्राइस नें कहा है कि विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र संकलन में आमतौर पर 17वीं सदी की महिला दार्शनिकों, जैसे कि मार्गरेट कैवेन्डिश, ऐनी कॉनवे , और लेडी डामारिस माशम, का उल्लेख नहीं है। 1967 में प्रकाशित 'द एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलॉसफी' में "... 900 से अधिक दार्शनिकों पर लेख थे, लेकिन इसमें वोलस्टोनक्राफ्ट , अरेंड्ट या डी ब्यूवोइर के लिए एक प्रविष्टि तक शामिल नहीं थी। उस समय के निर्धारित ग्रंथसंग्रह के हिसाब से भी ये महिला दार्शनिक शायद ही कभी हाशिए पर थीं।" पूर्वाधुनिक युग के दर्शन में पश्चिम में, प्राचीन समय में प्लेटो और अरस्तू जैसे पुरुष दार्शनिकों का वर्चस्व था,इस अवधि के दौरान स्त्री दार्शनिक जैसे कि मैरोनिया की हिप्पर्चिया (सक्रिय 325 ईसा पूर्व), साइरेन की एरेट (सक्रिय 5 वीं -4 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) और मिलेटस की एस्पासिया(470-400 ईसा पूर्व) मौज़ूद थीं। उपनिषदों के सबसे पुराने साहित्य में, 700 ईसा पूर्व, महिला दार्शनिक गार्गी और मैत्रेयी, ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ दार्शनिक शास्त्रार्थ व वाद विवाद का हिस्सा हैं। उभया भारती (800 ईस्वी) और अक्का महादेवी (1130-1160) भारतीय दार्शनिक परंपरा में अन्य महिला दार्शनिक हैं।  चीन में, कन्फ्यूशियस ने लू की महिला जिंग जियांग (5वीं ईसा पूर्व) को बुद्धिमान और अपने छात्रों के लिए एक उदाहरण के रूप में सम्मानित किया, जबकि बान झाओ (45-116) ने कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ लिखे। कोरिया में,इम युंजीडांगो(1721-93) प्रबुद्ध मध्य-चुसन युग के दौरान सबसे उल्लेखनीय महिला दार्शनिकों में से एक थीं।उल्लेखनीय महिला मुस्लिम दार्शनिकों में बसरा की राबिया (714–801), दमिश्क की ऐशा अल-बाउनियाह (मृत्यु 1517), और वर्तमाम नाइजीरिया की सोकोतो खलीफा से नाना असमाउ (1793-1864) हैं।  उल्लेखनीय मध्ययुगीन दार्शनिकों में हाइपेशिया (5वीं शताब्दी), बिंगन की सेंट हिल्डेगार्ड (1098-1179) और सिएना की सेंट कैथरीन (1347-1380) प्रमुख हैं। हाइपेशिया (ई. 350-370 से 415) एलेक्जेंड्रिया (जो कि उस समय पूर्वी रोमन साम्राज्य का हिस्सा था) की एक यूनानी गणितज्ञ,खगोलशास्त्री और दार्शनिक थी। वह अलेक्जेंड्रिया में नवप्लेटोवादि स्कूल की प्रमुख विचारक थीं, जहाँ उन्होंने दर्शन और खगोल विज्ञान पढ़ाया । हाइपेशिया, अपने जीवनकाल में एक महान शिक्षक और एक बुद्धिमान परामर्शदाता के रूप में प्रसिद्ध थी। रोमन अधिकारी ओरेस्टेस को अलेक्जेंड्रिया के बिशप, सिरिल के विरुद्ध भड़काने के आरोप में मार्च 415 ईस्वी में ईसाइयों की भीड़ द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। आधुनिक युग के दर्शन में एमिली डू चेटेलेट (1706-1749) एक फ्रांसीसी गणितज्ञ, भौतिक विज्ञानी और प्रबुद्धता के युग के दौरान लेखक थे । उन्होंने इसाक न्यूटन के सुप्रसिद्ध ग्रंथ "प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांत" (लैटिन - Philosophiæ Naturalis Principia Mathematica) का अनुवाद किया और उसपर भाष्य भी लिखा। उन्होंने जॉन लॉक के दर्शन की आलोचना की और अनुभव के माध्यम से ज्ञान के सत्यापन की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने स्वतंत्र इच्छा और तत्वमीमांसा की क्रियाविधि के बारे में भी सिद्धांत दिया। मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट (1759-1797) एक अंग्रेजी लेखिका, दार्शनिक और महिलाओं के अधिकारों की हिमायती थीं । उन्हें नारीवादी दर्शन की संस्थापकों में से एक माना जाता है। "महिलाओं के अधिकारों की एक पक्षप्रमाणिकता" (अंग्रेजी - A Vindication of the Rights of Woman(1792)) उनका सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली कार्य है, जिसमें उनका तर्क है कि महिलाएं स्वाभाविक रूप से पुरुषों से कमतर नहीं हैं, बल्कि केवल इसलिए दिखाई देती हैं क्योंकि उनमें शिक्षा की कमी है। रोजा लक्जमबर्ग (1871-1919) पोलिश-यहूदी वंश की मार्क्सवादी सिद्धांतकार, दार्शनिक, अर्थशास्त्री और क्रांतिकारी समाजवादी थी। जबकि लक्समबर्ग ने मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और इतिहास की उनकी अवधारणा का बचाव किया, उन्होंने सहज जमीनी - आधारित वर्ग संघर्ष का आह्वान भी किया। समकालिन दर्शन में समकालीन दर्शन पश्चिमी दर्शन के इतिहास में वर्तमान काल है जो 19वीं शताब्दी के अंत में शैक्षिक दर्शन के व्यावसायीकरण के साथ तथा विश्लेषणात्मक और महाद्वीपीय दर्शन के उदय के साथ शुरू हुआ । इस अवधि की कुछ प्रभावशाली महिला दार्शनिकों में शामिल हैं: एलिजाबेथ एंस्कोम्बे (1919-2001), एक ब्रिटिश विश्लेषणात्मक दार्शनिक थीं । एंस्कोम्बे के 1958 के लेख "मॉडर्न मोरल फिलॉसफी " ने विश्लेषणात्मक दर्शन की भाषा में " परिणामीवाद " शब्द की शुरुआत की , और समकालीन सद्गुण नैतिकता पर एक मौलिक प्रभाव डाला। उनके विनिबंध "इन्टेन्शन" को आम तौर पर उनके सबसे महान और सबसे प्रभावशाली कृतियों के रूप में जाना जाता है, जिससे इष्टार्थ, कार्रवाई और व्यावहारिक तर्क की अवधारणाओं में निरंतर दार्शनिक रुचि से मुख्य प्रेरणा मिलती रही है। हन्ना अरेंड्ट (1906-1975) जर्मनी में जन्मी, अमेरिका में आत्मसात, एक यहूदी राजनीतिक सिद्धांतकार थी। उनकी रचनाएँ सत्ता की प्रकृति , और राजनीति के विषयों,प्रत्यक्ष लोकतंत्र,अधिकार और अधिनायकवाद से संबंधित हैं। वह समकालीन राजनीतिक दर्शनशास्त्र में एक प्रमुख विद्वान् हैं। सिमोन डी बेवॉयर (1908-1986) एक फ्रांसीसी लेखक, बुद्धिजिवी, अस्तित्ववादी दार्शनिक, राजनीतिक कार्यकर्ता, नारीवादी और सामाजिक सिद्धांतकार थी।हालांकि वह खुद को एक दार्शनिक नहीं मानती थी, लेकिन नारीवादी अस्तित्ववाद और नारीवादी सिद्धांत दोनों पर उनका महत्वपूर्ण प्रभाव था। डी बेवॉयर ने दर्शन, राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर उपन्यास, निबंध, आत्मकथाएँ, और प्रबंध लिखे।वह अपने 1949 के ग्रंथ द सेकेंड सेक्स के लिए जानी जाती हैं, जो महिलाओं के उत्पीड़न का विस्तृत विश्लेषण और समकालीन नारीवाद का एक मूलभूत कृति है। पेट्रीसिया चर्चलैंड (जन्म 1943) एक कनाडाई-अमेरिकी दार्शनिक हैं, जो तंत्रिकादर्शन(neurophilosophy) और मन के दर्शन में उनके योगदान के लिए विख्यात हैं । वह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो (यूसीएसडी) में विश्वविद्यालय राष्ट्रपति की दर्शनशास्त्र की एमेरिटा प्रोफेसर हैं, जहां वह 1984 से पढ़ा रही हैं। सुसान हैक (जन्म 1945) मानविकी में विशिष्ट प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और मियामी विश्वविद्यालय में विधि की प्रोफेसर हैं। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की । उन्होंने तर्कशास्त्र , भाषा के दर्शन ,ज्ञानमीमांसा और तत्वमीमांसा पर लिखा है । उसकी व्यावहारिकतावाद, चार्ल्स सैंडर्स पीयर्स के समान है ।दर्शन में हैक का प्रमुख योगदान उसका ज्ञानमीमांसक सिद्धांत है जिसे संस्थापकवाद(Foundheretism) कहा जाता है ,  जो शुद्ध नींववाद(Foundationalism, जो अनंत प्रतिगमन के लिए अतिसंवेदनशील है) और शुद्ध संसक्ततावाद(Coherentism, जो चक्रिलता के लिए अतिसंवेदनशील है) दोनों की तार्किक समस्याओं से बचने का उनका प्रयास है। वह हैक रिचर्ड रॉर्टी की घोर आलोचक रहे हैं । वह इस विचार की आलोचना करती हैं कि तर्क और वैज्ञानिक सत्य पर एक विशेष रूप से महिला दृष्टिकोण है और नारीवादी ज्ञानमीमांसा की आलोचनात्मक है । वह मानती हैं कि विज्ञान और दर्शन की कई नारीवादी आलोचनाएँ 'राजनीतिक संशुद्धता' से अत्यधिक चिंतित है। फिलिपा फुट (1920–2010) एक ब्रिटिश दार्शनिक थी, जो नीतिशास्त्र  में उनके कार्यों के लिए सबसे उल्लेखनीय थी। वह अरस्तू की नैतिकता से प्रेरित, समकालीन सद्गुण नीतिशास्त्र की संस्थापकों में से एक थीं। उनके कुछ कार्य ,दर्शन के भीतर मानकदंडक नैतिकता के पुन: उभरने में महत्वपूर्ण थे, विशेष रूप से परिणामवाद और गैर-संज्ञानात्मकता की उनकी आलोचना । सुप्रसिद्ध ट्रॉली समस्या उनके द्वारा ही प्रतिपादित किया गया है। फ़ुट का दृष्टिकोण विट्गेन्स्टाइन के बाद के काम से प्रभावित था ।  जूडिथ बटलर (जन्म- 1956) एक अमेरिकी दार्शनिक और ज़ेन्डर सिद्धांतकार हैं, जिनके कार्य ने राजनीतिक दर्शन,  नीतिशास्त्र, समालोचनात्मक सिद्धांत और नारीवाद की तीसरी लहर  , क्वीर सिद्धांत , और साहित्यिक सिद्धांत के क्षेत्रों को प्रभावित किया है। वो लैंगिक प्रदर्शनत्व (gender performativity) की अवधारणा के लिए समकालीन अमेरिकी राजनीति और संकृति में एक प्रमुख हस्ति हैं। मार्था नुस्बौम ( जन्म-1947) एक प्रसिद्ध बुद्धिजिवी, समकालिक अमेरिकी दार्शनिक और शिकागो विश्वविद्यालय में विधि और नीतिशास्त्र  की वर्तमान अर्न्स्ट फ्रायंड विशिष्ट सेवा प्रोफेसर हैं , जहां उन्हें विधि विद्यालय और दर्शन विभाग में संयुक्त रूप से नियुक्त किया गया है। पशु अधिकारों सहित प्राचीन यूनानी और रोमन दर्शन , राजनीतिक दर्शन , अस्तित्ववाद ,  नारीवाद और नीतिशास्त्र में उनकी विशेष योगदान है। उन्हें राजनीति में अमर्त्य सेन के साथ क्षमता दृष्टिकोण के विकास के लिये जाना जाता है। दक्षिणी एशियाई अध्ययन समिति की सदस्य हैं, और मानवाधिकार कार्यक्रम के बोर्ड सदस्य हैं। उन्हें कला और दर्शनशास्त्र में 2016 का क्योटो पुरस्कार , 2018 बर्गग्रेन पुरस्कार और 2021 का होलबर्ग पुरस्कार मिला। वर्तमान चुनौतीयां पूरे इतिहास में महिलाओं के दर्शन में भाग लेने के बावज़ूद, अकादमिक दर्शन में आज भी लिंग असंतुलन पर्याप्त है। इसका श्रेय महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव और निहित पूर्वाग्रहों को दिया जा सकता है। महिलाओं को यौन उत्पीड़न जैसी कार्यस्थल की बाधाओं का सामना भी करना पड़ा है। १९९० के दशक की शुरुआत में, कैनेडीय दर्शन संगठन ने दावा किया कि दर्शन के शैक्षणिक क्षेत्र में लिंग असंतुलन और लिंग पूर्वाग्रह है। स्टैनफोर्ड दर्शनशास्त्र विश्वकोश के संपादकों ने महिला दार्शनिकों के कम प्रतिनिधित्व के विषय में चिंता जताई है, और उन्हें महिला दार्शनिकों के योगदान का प्रतिनिधि सुनिश्चित करने के लिए संपादकों और लेखकों की आवश्यकता है। जेनिफर शाऊल के अनुसार, "दर्शन, मानविकी में सबसे पुराना, सबसे पुरूष(वादि) भी है। जबकि मानविकी के अन्य क्षेत्र लैंगिक समानता पर या उसके निकट हैं, दर्शन वास्तव में यहां तक ​​कि,गणित की तुलना में भी अधिक पुरुष(वादि) है।" अमेरिकी दार्शनिक मार्था नुसबौम , जिन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र में पीएचडी पूरी की १९९५ में, आरोप लगाया कि हार्वर्ड में अपनी पढ़ाई के दौरान उन्हें यौन उत्पीड़न और उनकी बेटी के लिए शिशुसंरक्षण प्राप्त करने में समस्याओं सहित भारी मात्रा में भेदभाव का सामना करना पड़ा। १९९० के दशक की शुरुआत में, कैनेडीय दर्शन संगठन ने दावा किया कि "... दर्शनशास्त्र के लिंग असंतुलन" और "इसके कई सैद्धांतिक उत्पादों में पूर्वाग्रह और पक्षपात है" के "... इसके ठोस सबूत हैं। १९९३ में, अमेरिकी दर्शनशास्त्र संगठन की यौन उत्पीड़न समिति ने दर्शन विभागों में इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए हैं। इन्हें भी देखें दर्शनशास्त्र की रूपरेखा दर्शन का इतिहास धर्म दर्शन भारतीय दर्शन भारतीय संत यूनानी दर्शन पाश्चात्य दर्शन (पश्चिमी दर्शन) चीनी दर्शन अनुभववाद विवेकवाद परीक्षावाद भौतिकवाद प्रत्ययवाद घटनाविज्ञान ज्ञानमीमांसा वस्तुवाद फलानुमेयप्रामाण्यवाद या अर्थक्रियावाद तार्किक वस्तुनिष्ठावाद या तार्किक भाववाद अस्तित्ववाद वस्तुनिष्ठावाद स्टोइक दर्शन अज्ञेयवाद संशयवाद दार्शनिक तत्वमीमांसा नीतिशास्त्र तर्कशास्त्र विज्ञान का दर्शन भाषा दर्शन बाहरी कड़ियाँ दर्शन सिद्धान्त भारतीय दर्शन और योग (वेबदुनिया) सामान्य धर्मदर्शन एवं दार्शनिक विश्लेषण (गूगल पुस्तक ; लेखक - वाय मसीह) दर्शनशास्त्र विद्यार्जन विषय संदर्भ
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योग ( ) एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर और आत्मा ( ध्यान ) को एकरूप करना ही योग कहलाता है। मन को शब्दों से मुक्त करके अपने आपको शांति और रिक्तता से जोडने का एक तरीका है योग। योग समझने से ज्यादा करने की विधि है। योग साधने से पहले योग के बारे में जानना बहुत जरुरी है। योग के कई सारे अंग और प्रकार होते हैं, जिनके जरिए हमें ध्यान, समाधि और मोक्ष तक पहुंचना होता हैै। 'योग' शब्द तथा इसकी प्रक्रिया और धारणा हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। योग शब्द भारत से बौद्ध पन्थ के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। सिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसम्बर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में योग के अनेक सम्प्रदाय हैं, योग के विभिन्न लक्ष्य हैं तथा योग के अलग-अलग व्यवहार हैं। परम्परागत योग तथा इसका आधुनिक रूप विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। सबसे पहले 'योग' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसके बाद अनेक उपनिषदों में इसका उल्लेख आया है। कठोपनिषद में सबसे पहले योग शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जिस अर्थ में इसे आधुनिक समय में समझा जाता है। माना जाता है कि कठोपनिषद की रचना ईसापूर्व पांचवीं और तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के बीच के कालखण्ड में हुई थी। पतञ्जलि का योगसूत्र योग का सबसे पूर्ण ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी या उसके आसपास माना जाता है। हठ योग के ग्रन्थ ९वीं से लेकर ११वीं शताब्दी में रचे जाने लगे थे। इनका विकास तन्त्र से हुआ। पश्चिमी जगत में "योग" को हठयोग के आधुनिक रूप में लिया जाता है जिसमें शारीरिक फिटनेस, तनाव-शैथिल्य तथा विश्रान्ति (relaxation) की तकनीकों की प्रधानता है। ये तकनीकें मुख्यतः आसनों पर आधारित हैं जबकि परम्परागत योग का केन्द्र बिन्दु ध्यान है और वह सांसारिक लगावों से छुटकारा दिलाने का प्रयास करता है। पश्चिमी जगत में आधुनिक योग का प्रचार-प्रसार भारत से उन देशों में गये गुरुओं ने किया जो प्रायः स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी जगत में प्रसिद्धि के बाद वहाँ गये थे। परिचय : परिभाषा एवं प्रकार ‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे से भिन्न हैं । गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' ( कर्मों में कुशलता ही योग है।) यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलम्बी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं। परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का निःशेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों। संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं। परिभाषा (१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। (२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है। (३) विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है। (४) भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है। (५) भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है। (६) आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं। (७) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है। योग के प्रकार योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग की प्रामाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है - मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः। चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11) मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात् एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् ) उपर्युक्त दोनों श्लोकों से योग के प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग। मंत्रयोग 'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मन्त्रः'। मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है। मन्त्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः। जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस प्रकार है- योग सेवन्ते साधकाधमाः। ( अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग उन साधकों के लिए है जो अल्पबुद्धि है।) मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय व ताल हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है। (1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अजप्पा । हठयोग हठ का शाब्दिक अर्थ हठपूर्वक किसी कार्य को करने से लिया जाता है। हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है- हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते। सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥ ह का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं। सूर्यनाड़ी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। चन्द्रनाड़ी अर्थात इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान। घेरण्डसंहिता में सात अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि लययोग चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है- गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात (22-23) राजयोग राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेक ख्याति प्राप्त होती है। योगाडांनुष्ठानाद शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28) राजयोग के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है- यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि। योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं। उपर्युक्त चार प्रकार के अतिरिक्त गीता में दो प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है- (१) ज्ञानयोग (२) कर्म योग ज्ञानयोग, सांख्ययोग से सम्बन्ध रखता है। पुरुष प्रकृति के बन्धनों से मुक्त होना ही ज्ञान योग है। सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का वर्णन मिलता है। योग का इतिहास वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृत) के बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलते हैं, बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी. उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते है। हिंदू ग्रंथ और बौद्ध ग्रंथ प्राचीन ग्रन्थो में से एक है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते है जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते है जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं. हिंदु वाङ्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपनिषद में प्रस्तुत हुआ जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्थिति प्रदान करने वाला माना गया है। महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद्, महाभारत,भगवद गीता 200 BCE) एवं पतंजलि योग सूत्र है। (ca. 400 BCE) पतंजलि के योग सूत्र भारतीय दर्शन में, षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है। योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है। ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता है, लेकिन सांख्य घराने की तुलना में अधिक आस्तिक है, यह प्रमाण है क्योंकि सांख्य वास्तविकता के पच्चीस तत्वों में ईश्वरीय सत्ता भी जोड़ी गई है। योग और सांख्य एक दूसरे से इतने मिलते-जुलते है कि मेक्स म्युल्लर कहते है,"यह दो दर्शन इतने प्रसिद्ध थे कि एक दूसरे का अंतर समझने के लिए एक को प्रभु के साथ और दूसरे को प्रभु के बिना माना जाता है।...." सांख्य और योग के बीच घनिष्ठ संबंध हेंरीच ज़िम्मेर समझाते है: इन दोनों को भारत में जुड़वा के रूप में माना जाता है, जो एक ही विषय के दो पहलू है।[41]यहाँ मानव प्रकृति की बुनियादी सैद्धांतिक का प्रदर्शन, विस्तृत विवरण और उसके तत्वों का परिभाषित, बंधन (बंधा) के स्थिति में उनके सहयोग करने के तरीके, सुलझावट के समय अपने स्थिति का विश्लेषण या मुक्ति में वियोजन मोक्ष की व्याख्या की गई है। योग विशेष रूप से प्रक्रिया की गतिशीलता के सुलझाव के लिए उपचार करता है और मुक्ति प्राप्त करने की व्यावहारिक तकनीकों को सिद्धांत करता है अथवा 'अलगाव-एकीकरण'(कैवल्य) का उपचार करता है। पतंजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक माने जाते है। पतंजलि योग, बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द को परिभाषित करते है, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है: - योग सूत्र 1.2 तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी है। अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों ( [49]) का निषेध ( [48]) है" ( [50])। योग की प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द [52] का उपयोग एक उदाहरण है कि बौद्धिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाओं, योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतंजलि को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई.स्वामी विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है। पतंजलि का लेखन 'अष्टांग योग"("आठ-अंगित योग") एक प्रणाली के लिए आधार बन गया। 29th सूत्र के दूसरी किताब से यह आठ-अंगित अवधारणा को प्राप्त किया गया था और व्यावहारिक रूप मे भिन्नरूप से सिखाये गए प्रत्येक राज योग की एक मुख्य विशेषता है। आठ अंग हैं: यम : सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (अनावश्यक धन और सम्पत्ति एकत्र न करना), ब्रह्मचर्य । नियम (पांच "धार्मिक क्रिया") : शौच (पवित्रता), सन्तोष, तपस, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान। आसन प्राणायाम : प्राण, सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है। प्रत्याहार : बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना ध्यान : ध्यान की वस्तु की प्रकृति का गहन चिंतन समाधि : ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है - सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है। इस संप्रदाय के विचार मे, उच्चतम प्राप्ति विश्व के अनुभवी विविधता को भ्रम के रूप मे प्रकट नहीं करता. यह दुनिया वास्तव है। इसके अलावा, उच्चतम प्राप्ति ऐसी घटना है जहाँ अनेक में से एक व्यक्तित्व स्वयं, आत्म को आविष्कार करता है, कोई एक सार्वभौमिक आत्म नहीं है जो सभी व्यक्तियों द्वारा साझा जाता है। भगवद गीता भगवद गीता (प्रभु के गीत), बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है। एक पूरा अध्याय (छठा अध्याय) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित, ध्यान के सहित, करने के अलावा इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है। कर्म योग: कार्रवाई का योग। इसमें व्यक्ति अपने स्थिति के उचित और कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है। भक्ति योग: भक्ति का योग। भगवत कीर्तन। इसे भावनात्मक आचरण वाले लोगों को सुझाया जाता है। ज्ञाना योग: ज्ञान का योग - ज्ञानार्जन करना। मधुसूदन सरस्वती (जन्म 1490) ने गीता को तीन वर्गों में विभाजित किया है, जहाँ प्रथम छह अध्यायों मे कर्म योग के बारे मे, बीच के छह मे भक्ति योग और पिछले छह अध्यायों मे ज्ञाना (ज्ञान) योग के बारे मे बताया गया है। अन्य टिप्पणीकार प्रत्येक अध्याय को एक अलग 'योग' से संबंध बताते है, जहाँ अठारह अलग योग का वर्णन किया है। हठयोग हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था। हठयोग पतंजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर केन्द्रित है, भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लाती है।[62] [63] केवल पतंजलि राज योग के ध्यान आसन के बदले, [64] यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है। हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है। अन्य परंपराओं में योग प्रथा बौद्ध-धर्म मेडिटेशन किसे कहते हैं प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया। बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है। बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है। बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है, उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय, किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है। बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त ("उत्तेजनाहीन होना, क्षणस्थायी होना") को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था। योगकारा बौद्धिक धर्म योगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास", शब्द विन्यास योगाचारा, दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था। योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया, एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है। ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है। छ'अन (सिओन/ ज़ेन) बौद्ध धर्म ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन" के माध्यम से)महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है। बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है। पश्चिम में, जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है। यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है।[81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं। भारत और तिब्बत के बौद्धिक धर्म योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है। न्यिन्गमा परंपरा में, ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों, या वाहन मे विभाजित है, कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है। अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है, यह है:क्रिया योग, उप योग (चर्या), योगा याना, महा योग, अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग, उपा (चर्या) और योग को शामिल किया हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं। अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं। यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है। (तिब. तरुल खोर), यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम), ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है।लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाता है। चांग (1993) द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो) अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है, और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है। जैन धर्म दूसरी शताब्दी के जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र, के अनुसार मन, वाणी और शरीर सभी गतिविधियों का कुल 'योग' है। उमास्वामी कहते है कि आस्रव या कार्मिक प्रवाह का कारण योग है साथ ही- सम्यक चरित्र अर्थात योग नियंत्रण और अन्त में निरोध मुक्ति के मार्ग मे बेहद आवश्यक है। अपनी नियमसार में, आचार्य कुन्दकुन्द ने योग भक्ति का वर्णन- भक्ति से मुक्ति का मार्ग - भक्ति के सर्वोच्च रूप के रूप मे किया है। आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार पाँच प्रमुख उल्लेख संन्यासियों और 12 समाजिक लघु प्रतिज्ञाओं योग के अंतर्गत शामिल है। इस विचार के वजह से कही इन्डोलोज़िस्ट्स जैसे प्रो रॉबर्ट जे ज़्यीडेन्बोस ने जैन धर्म के बारे मे यह कहा कि यह अनिवार्य रूप से योग सोच की एक योजना है जो एक पूर्ण धर्म के रूप मे बढ़ी हो गयी। डॉ॰ हेंरीच ज़िम्मर संतुष्ट किया कि योग प्रणाली को पूर्व आर्यन का मूल था, जिसने वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया और इसलिए जैन धर्म के समान उसे एक विधर्मिक सिद्धांतों के रूप में माना गया था जैन शास्त्र, जैन तीर्थंकरों को ध्यान मे पद्मासना या कायोत्सर्ग योग मुद्रा में दर्शाया है। ऐसा कहा गया है कि महावीर को मुलाबंधासना स्थिति में बैठे केवला ज्ञान "आत्मज्ञान" प्राप्त हुआ जो अचरंगा सूत्र मे और बाद में कल्पसूत्र मे पहली साहित्यिक उल्लेख के रूप मे पाया गया है। पतंजलि योगसूत्र के पांच यामा या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है, जिससे जैन धर्म का एक मजबूत प्रभाव का संकेत करता है। लेखक विवियन वोर्थिंगटन ने यह स्वीकार किया कि योग दर्शन और जैन धर्म के बीच पारस्परिक प्रभाव है और वे लिखते है:"योग पूरी तरह से जैन धर्म को अपना ऋण मानता है और विनिमय मे जैन धर्म ने योग के साधनाओं को अपने जीवन का एक हिस्सा बना लिया". सिंधु घाटी मुहरों और इकोनोग्रफी भी एक यथोचित साक्ष्य प्रदान करते है कि योग परंपरा और जैन धर्म के बीच सांप्रदायिक सदृश अस्तित्व है। विशेष रूप से, विद्वानों और पुरातत्वविदों ने विभिन्न तिर्थन्करों की मुहरों में दर्शाई गई योग और ध्यान मुद्राओं के बीच समानताओं पर टिप्पणी की है: ऋषभदेव की "कयोत्सर्गा" मुद्रा और महावीर के मुलबन्धासन मुहरों के साथ ध्यान मुद्रा में पक्षों में सर्पों की खुदाई पार्श्वनाथ की खुदाई से मिलती जुलती है। यह सभी न केवल सिंधु घाटी सभ्यता और जैन धर्म के बीच कड़ियों का संकेत कर रहे हैं, बल्कि विभिन्न योग प्रथाओं को जैन धर्म का योगदान प्रदर्शन करते है। जैन सिद्धांत और साहित्य के सन्दर्भ प्राचीनतम के जैन धर्मवैधानिक साहित्य जैसे आचाराङ्गसूत्र और नियमसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि जैसे ग्रंथों ने साधारण व्यक्ति और तपस्वीयों के लिए जीवन का एक मार्ग के रूप में योग पर कई सन्दर्भ दिए है। बाद के ग्रंथ, जिसमे योग की जैन अवधारणा विस्तारपूर्वक दी गयी है, वह निम्नानुसार हैं: पूज्यपाद (5 वीं शताब्दी ई०) इष्टोपदेश आचार्य हरिभद्र सूरी (8 वीं शताब्दी ई०) योगबिन्दु योगद्रिस्तिसमुच्काया योगशतक योगविंशिका आचार्य जोंदु (८वीं शताब्दी ई०) योगसार आचार्य हेमचन्द्र (११वीं सदी ई०) योगशास्त्र आचार्य अमितगति (११वीं शताब्दी ई०) योगसारप्राभृत इस्लाम सूफी संगीत के विकास में भारतीय योग अभ्यास का काफी प्रभाव है, जहाँ वे दोनों शारीरिक मुद्राओं (आसन) और श्वास नियंत्रण (प्राणायाम) को अनुकूलित किया है। 11 वीं शताब्दी के प्राचीन समय में प्राचीन भारतीय योग पाठ, अमृतकुंड, ("अमृत का कुंड") का अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया गया था। सन 2008 में मलेशिया के शीर्ष इस्लामिक समिति ने कहा जो मुस्लमान योग अभ्यास करते है उनके खिलाफ एक फतवा लागू किया, जो कानूनी तौर पर गैर बाध्यकारी है, कहते है कि योग में "हिंदू आध्यात्मिक उपदेशों" के तत्वों है और इस से ईश-निंदा हो सकती है और इसलिए यह हराम है। मलेशिया में मुस्लिम योग शिक्षकों ने "अपमान" कहकर इस निर्णय की आलोचना कि. मलेशिया में महिलाओं के समूह, ने भी अपना निराशा व्यक्त की और उन्होंने कहा कि वे अपनी योग कक्षाओं को जारी रखेंगे. इस फतवा में कहा गया है कि शारीरिक व्यायाम के रूप में योग अभ्यास अनुमेय है, पर धार्मिक मंत्र का गाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, और यह भी कहते है कि भगवान के साथ मानव का मिलाप जैसे शिक्षण इस्लामी दर्शन के अनुरूप नहीं है। इसी तरह, उलेमस की परिषद, इंडोनेशिया में एक इस्लामी समिति ने योग पर प्रतिबंध, एक फतवे द्वारा लागू किया क्योंकि इसमें "हिंदू तत्व" शामिल थे। किन्तु इन फतवों को दारुल उलूम देओबंद ने आलोचना की है, जो देओबंदी इस्लाम का भारत में शिक्षालय है। सन 2009 मई में, तुर्की के निदेशालय के धार्मिक मामलों के मंत्रालय के प्रधान शासक अली बर्दाकोग्लू ने योग को एक व्यावसायिक उद्यम के रूप में घोषित किया- योग के संबंध में कुछ आलोचनाये जो इसलाम के तत्वों से मेल नहीं खातीं. ईसाई धर्म सन 1989 में, वैटिकन ने घोषित किया कि ज़ेन और योग जैसे पूर्वी ध्यान प्रथाओं "शरीर के एक गुट में बदज़ात" हो सकते है। वैटिकन के बयान के बावजूद, कई रोमन कैथोलिक उनके आध्यात्मिक प्रथाओं में योग , बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के तत्वों का प्रयोग किया है। तंत्र तंत्र एक प्रथा है जिसमें उनके अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है। तांत्रिक अभ्यास में एक व्यक्ति वास्तविकता को माया, भ्रम के रूप में अनुभव करता है और यह व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होता है।हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग, ध्यान, और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है, जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं। तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान, का निर्देश दिया जाता है। जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा विस्तृत है। इसे एक प्रकार का कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है। भारत के प्रसिद्ध योगगुरु वैसे तो योग हमेशा से हमारी प्राचीन धरोहर रही है। समय के साथ-साथ योग विश्व प्रख्यात तो हुआ ही है साथ ही इसके महत्व को जानने के बाद आज योग लोगों की दिनचर्या का अभिन्न अंग भी बन गया है। लेकिन योग के प्रचार-प्रसार में विश्व प्रसिद्ध योगगुरुओं का भी योगदान रहा है, जिनमें से अयंगार योग के संस्थापक बी के एस अयंगर, स्वामी शिवानंद और योगगुरु रामदेव का नाम अधिक प्रसिद्ध है। बीकेएस अंयगर अयंगर को विश्व के अग्रणी योग गुरुओं में से एक माना जाता है और उन्होंने योग के दर्शन पर कई किताबें भी लिखी थीं, जिनमें 'लाइट ऑन योगा', 'लाइट ऑन प्राणायाम' और 'लाइट ऑन द योग सूत्राज ऑफ पतंजलि' शामिल हैं। अयंगर का जन्‍म 14 दिसम्‍बर 1918 को बेल्‍लूर के एक गरीब परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि अयंगर बचपन में काफी बीमार रहा करते थे। ठीक नहीं होने पर उन्‍हें योग करने की सलाह दी गयी और तभी से वह योग करने लगे। अयंगर को 'अयंगर योग' का जन्‍मदाता कहा जाता है। उन्होंने इस योग को देश-दुनिया में फैलाया। सांस की तकलीफ के चलते 20 अगस्त 2014 को उनका निधन हो गया। बाबा रामदेव बाबा रामदेव भारतीय योग-गुरु हैं, उन्होंने योगासन व प्राणायामयोग के क्षेत्र में योगदान दिया है। रामदेव स्वयं जगह-जगह जाकर योग शिविरों का आयोजन करते हैं। योग दिवस 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया। इस अवसर पर 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। दिल्ली में एक साथ ३५९८५ लोगों ने योगाभ्यास किया।इसमें 84 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड बनाकर 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में अपना नाम दर्ज करा लिया है। पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के एक साथ योग करने का बना, तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों के लोगों के योग करने का। योग का उद्देश्य योग के अभ्यास के कई लाभों के बारे में दुनिया भर में जागरूकता बढ़ाना है।लोगों के स्वास्थ्य पर योग के महत्व और प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल 21 जून को योग का अभ्यास किया जाता है। शब्द ‘योग‘ संस्कृत से लिया गया है जिसका अर्थ है जुड़ना या एकजुट होना। योग का महत्व वर्तमान समय में अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग संतोष पाने के लिए योग करते हैं। योग से न केवल व्यक्ति का तनाव दूर होता है बल्कि मन और मस्तिष्क को भी शांति मिलती है योग बहुत ही लाभकारी है। योग न केवल हमारे दिमाग, मस्‍तिष्‍क को ही ताकत पहुंचाता है बल्कि हमारी आत्‍मा को भी शुद्ध करता है। आज बहुत से लोग मोटापे से परेशान हैं, उनके लिए योग बहुत ही फायदेमंद है। योग के फायदे से आज सब ज्ञात है, जिस वजह से आज योग विदेशों में भी प्रसिद्ध है। अगर आप इसका नियमित अभ्यास करते हैं, तो इससे धीरे-धीरे आपका तनाव भी दूर हो सकता है। योग का लक्ष्य योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्ष (आत्मा को परमेश्वर का अनुभव) प्राप्त करने तक है। जैन धर्म, अद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैव संप्रदाय के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्ष का रूप लेता है, जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति प्राप्त करना है, उस क्षण में परम ब्रह्मण के साथ समरूपता का एक एहसास है। महाभारत में, योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है, ब्रह्म के रूप में, अथवा आत्मन को अनुभव करते हुए जो सभी वस्तुओं मे व्याप्त है। मीर्चा एलीयाडे योग के बारे में कहते हैं कि यह सिर्फ एक शारीरिक व्यायाम ही नहीं है, एक आध्यात्मिक तकनीक भी है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन लिखते हैं कि समाधि में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं: वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता। योग के प्रसिद्ध ग्रन्थ {| class="wikitable" |- ! ग्रन्थ !! रचयिता !! रचनाकाल/टिप्पणी |- | योगसूत्र || पतंजलि || ४०० ई. पूर्व |- | योगभाष्य || वेदव्यास || द्वितीय शताब्दी |- | तत्त्ववैशारदी || वाचस्पति मिश्र || ८४१ ई |- |योगयाज्ञवल्क्य || याज्ञवल्क्य || सबसे पुरानी संस्कृत पाण्डुलिपि ९वीं-१०वीं शताब्दी की है। |- | भोजवृत्ति || राजा भोज || ११वीं शताब्दी |- | गोरक्षशतक || गुरु गोरख नाथ || ११वीं-१२वीं शताब्दी |- | योगचूडामण्युपनिषद || - || १४वीं-१५वीं शताब्दी (रिचर्ड रोसेन के अनुसार) |- | योगवार्तिक || विज्ञानभिक्षु || १६वीं शताब्दी |- | योगसारसंग्रह || विज्ञानभिक्षु || १६वीं शताब्दी |- | हठयोगप्रदीपिका || स्वामी स्वात्माराम || १५वीं-१६वीं शताब्दी |- | सूत्रवृत्ति || गणेशभावा || १७वीं शताब्दी |- | योगसूत्रवृत्ति || नागेश भट्ट || १७वीं शताब्दी |- | शिवसंहिता || अज्ञात || - |- | घेरण्डसंहिता || घेरण्ड मुनि|| - |- | हठरत्नावली || श्रीनिवास भट्ट || १७वीं शताब्दी |- | मणिप्रभा || रामानन्द यति|| १८वीं शताब्दी |- | सूत्रार्थप्रबोधिनी || नारायण तीर्थ || १८वीं शताब्दी |- | जोगप्रदीपिका || जयतराम || १७३७ ई. / यह हिन्दी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली की मिलीजुली भाषा में रचित है और शब्दावली संस्कृत के अत्यन्त निकट है। |- | सचित्र योगसाधन || शिवमुनि || २०वीं शताब्दी ; हिन्दी में लिखित |- | योगदर्शनम्' || स्वामी सत्यपति परिव्राजक || २१वीं शताब्दी |} इन्हें भी देखें योग का इतिहास योग दर्शन अष्टांग योग योगसूत्र हठयोग जैन धर्म में योग अंतरराष्ट्रीय योग दिवस भारतीय मनोविज्ञान - कुछ लोग मानते हैं कि 'योग' भारतीय मनोविज्ञान का दूसरा नाम है। बाहरी कड़ियाँ योग-शब्दावली सन्दर्भ आगे पढ़ें (चौथा संशोधित और विस्तृत संस्करण)। चांग, जी सी सी (1993)। तिब्बती योग. न्यू जर्सी: कैरल पब्लिशिंग ग्रुप . ISBN 0-8065-1453-1 Donatelle, रेबेका जे हैल्थ: दी बेसिक्स. 6. एड. सैन फ्रांसिस्को: पियर्सन एडूकेशन, इंक 2005. फयूएर्स्तें, जोर्ज . दी शम्भाला गाइड टु योग. 1. एड. बोस्टन एंड लन्डन: शम्भाला पुब्लिकेशन्स 1996. (स्टडीज इन दी हिस्ट्री ऑफ़ रिलिजनस, 110) मार्शल, जॉन (1931)। मोहेंजोदारो एंड दी इन्दुस सिविलैज़ेशन:वर्ष 1922-27 के बीच मोहेंजोदारो में भारत सरकार द्वारा किए एक सरकारी खाता पुरातत्व खुदाई के होने के नाते. दिल्ली:इन्दोलोगिकल बुक हाउस. मित्रा, धर्म श्री. आसन: 608 योगा मुद्रा. 1. एड. कैलिफोर्निया: नई वर्ल्ड लाइब्रेरी 2003. [129] पुस्तक का नया संस्करण; मूलतः यह दी सिक्स सिस्टम्स ऑफ़ इंडियन फिलोसोफी के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है।'' सरस्वती, स्वामी सत्यानन्दा. नवंबर 2002 (12 वें संस्करण)। "आसन प्राणायाम मुद्रा बंधा" ISBN 81-86336-14-1 उशाराबुध, आर्य पंडित. फिलोसोफी ऑफ़ हठ योगा. 2. एड. पेन्नीसिलवेनिया हिमालयन इंस्टीट्युत प्रेस 1977, 1985. 21 रिप्रिंट एडिशन बोल्लिंगें सीरीज XXVI; जोसेफ कैम्बेल द्वारा संपादित. https://web.archive.org/web/20090826191058/http://archiv.ub.uni-heidelberg.de/savifadok/volltexte/2008/121/ हिंदू दार्शनिक अवधारणाएँ योग भारतीय दर्शन संस्कृत शब्द ध्यान व्यायाम
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काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगा संगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है। जिसके राजा राज ऋषि राम कोल नागवंशीय थे विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया। इतिहास हरिवंशपुराण के अनुसार काशी को बसानेवाले भरतवंशी राजा 'काश' थे। कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है। शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र होने के कारण ही इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है; क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्ववैदिककालीन माना जाता है। वैसे, काशी जनपद के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें अर्थर्ववेद की पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४) मिलता है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (१३५, ४, १९) काशिराज धृतराष्ट्र का उल्लेख है जिसे शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् में (२, १, १, ३, ८, २) काशिराज अजातशत्रु का भी उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का साथ-साथ वर्णन है। इसी प्रकार काशी, कोसल और विदेह के सामान्य पुरोहित जलजातूकर्ण्य का नाम शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्य है। काशी जनपद की प्राचीनता तथा इसकी स्थिति इन उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाती है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियों का एक साथ उल्लेख किया गया है– महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्। महाभारत में काशी जनपद के अनेक उल्लेख हैं और काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण की कथा तो सर्वविदित ही है (आदि पूर्व, अध्याय १०२)। महाभारत के युद्ध में काशिराज ने पांडवों का साथ दिया था। बौद्ध काल में, गौतम बुद्ध के जन्म के पूर्व तथा उनके समय में काशी को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में वहाँ जाकर विद्या ग्रहण करने का उल्लेख है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं से स्पष्ट है कि बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा। इन कहानियों से यह भी प्रकट है कि 'काशी' नगरनाम के अतिरिक्त एक देश या जनपद का नाम भी था। उसका दूसरा नगरनाम 'वाराणसी' था। इस प्रकार काशी जनपद की राजधानी के रूप में वाराणसी का नाम धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो गया और कालांतर में काशी और वाराणसी ये दोनों अभिधान समानार्थक हो गए। काशी और वहाँ प्रचलित शिवोपासना का उल्लेख महाभारत में भी है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम (वनपर्व, ८४, ७८)। कहा जाता है 'वाराणसी' नाम वरुणा और असी नदियों पर इस नगरी की स्थिति होने से पड़ा है। कीथ के अनुसार वरुणा नदी का उल्लेख अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी के ब्रह्मवद्धन (उब्रह्मवर्धन), सुरूंधन, सुदस्सन (उसुदर्शन), पुप्फवती (उपुष्पवती) और रम्म (उरम्या?) एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम मिलते हैं। लोसकजातक में वाराणसी के चारों ओर की खाई या परिखा, का वर्णन है। गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। कोसल की राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार के साथ विवाह होने के समय काशी को दहेज में दे दिया गया था। बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ में दिया था जिससे उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है। बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने काशी को मगध राज्य का अभिन्न भाग बना लिया और तत्पश्चात् मगध के उत्कर्षकाल में इसकी यही स्थिति बनी रही। बौद्ध धर्म की अवनति तथा हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में काशी का महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू संस्कृति के केंद्र के रूप में निरंतर बढ़ता ही गया, जिसका प्रमाण उस काल में लिखे गए या पुन: संपादित पुराणों द्वारा प्राप्त होता है। स्कंदपुराण में तो स्वतंत्र रूप से काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.) और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में यहाँ लगभग ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति तथा नवोदित आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। काशी की यह सांस्कृतिक परंपरा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। ११९३ ई में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलटफेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद बनवाई जो आज भी वर्तमान है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया; किंतु उसके पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। वर्तमान काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था, इन्हीं के पुत्र थे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई। काशी के मंदिर और घाट काशी में इस समय लगभग १, ५०० मंदिर हैं, जिनमें से बहुतों की परंपरा इतिहास के विविध कालों से जुड़ी हुई है। इनमें विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा के मंदिर भारत भर में प्रसिद्ध हैं। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वा दिए थे। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा के मंदिर को १७वीं शती में मराठों ने बनवाया था। घाटों के तट पर भी अनेक मंदिर बने हुए हैं। इनमें सबसे प्राचीन गहड़वालों का बनवाया राजघाट का 'आदिकेशव' मंदिर है। प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की गिनती की जा सकती है। दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया। इस प्रकार के दस विजय यज्ञों से संबंधित काशी का यह घाट दशाश्वमेध नाम से विख्यात हुआ। नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने १९१६ ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित १९५८ ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित १९२१) नामक विश्वविद्यालय भी है जिसमें व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि “रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/ यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से) वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं। प्रात: काल तो इनकी छटा अपूर्व ही होती है। पुरानी कहावत के अनुसार शामे अवध अर्थात् लखनऊ की शाम और सुबहे बनारस यानी वाराणसी का प्रात:काल देखने योग्य होता है। यहाँ की छोटी-छोटी और असाधारण रूप से सँकरी गलियाँ तथा उनमें स्वच्छंद विचरनेवाले साँड़ अपरिचितों के लिए कुतूहल की वस्तु हैं। मान्यता एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए। काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बड़े पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं। स्कन्दपुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥ जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:। जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥ काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है- अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच। काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।। ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिर्लिंग का स्वरूप मानता है- अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरीमितम्।" ज्योतिलंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥ पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिर्लिंग-स्वरूप मानना चाहिए। अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजी द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वर्णित है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्र प्रदान करने का सत्य उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकर भैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रों वर्षो तक रुद्र पिशाच बन कर कुकर्मो का प्रायश्चित्त करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है। मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है- यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्। पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥ विश्वनाथजी की अति-श्रेष्ठ नगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है। काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पंचक्रोशात्मकं लिंगंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पंचक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पंचक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया- यल्लिंगंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ। तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥ पांच कोस की काशी चैतन्यरूप है। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्‌र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं- हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियो! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए- लिंगरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:। महतींवृद्धिमासाद्य पंचक्रोशात्मकोऽभवत्॥ यह काशी वही पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है। स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं- अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरिमितम्। ज्योतिर्लिंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।। पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिंग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं- एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्। दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥ जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है। स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पंचक्रोश्या परिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पंचक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बड़ी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं- सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:। भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है। पंचक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनी है। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:। काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमा करने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से ही संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए। यह पर्यटन की नहीं वरन् तीर्थाटन की पावन स्थली है। वस्तुत:काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्‍‌वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजी का रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें- शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथ की वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है। काशी की महिमा विभिन्न धर्मग्रन्थों में गायी गयी है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, काश्यांमरणान्मुक्ति:। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशीमार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है। पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। लोक में ऐसी मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टिकी सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है। इस वर्ष मलमास प्रथम-ज्येष्ठ शुक्ल (अधिक) प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर द्वितीय-ज्येष्ठ कृष्णपक्ष (अधिक) अमावस्या तिथि को समाप्त होगा। पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्राका पुण्य नहीं मिलता। शौचादिक्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं। साधु, महात्मा एवं संस्कृतज्ञयात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है। पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगणमणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुरहोते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं। रास्ते में स्थान-स्थान पर भिक्षार्थी यात्रियों को नंदी के प्रतीक के रूप में सजे हुए वृषभ का दर्शन कराते हैं और यात्री उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। कुछ भिक्षार्थी शिव की सर्पमालाके प्रतीक रूप में यात्रियों को सर्प-दर्शन कराते हैं और बदले में अक्षत और द्रव्य-दान प्राप्त करते हैं। कुछ सड़क पर चद्दर बिछाए बैठे रहते हैं। यात्रीगण उन्हें भी निराश नहीं करते। अधिकांश यात्री अपनी गठरी अपने सिर पर रखकर पंचक्रोशीयात्रा करते हैं। परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्रीगणशिव-पूजा करते हैं। चौथा पड़ाव पांचों-पण्डवा है। यह पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है। यहां पांचों पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव) की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगणपांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगणयहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक (गणेश जी) का दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी भगवान शंकर के सम्मुख इस बात का साक्ष्य देते हैं कि अमुक यात्री ने पंचक्रोशीयात्रा कर काशी की परिक्रमा की है। इसके उपरांत यात्री काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं। यहां के मन्दिर विश्वनाथ मन्दिर अन्नपूर्णा मन्दिर काल भैरव मन्दिर तुलसी मानस मन्दिर संकटमोचन मन्दिर दुर्गा मन्दिर, दुर्गाकुण्ड भारत माता मन्दिर रविदास मंदिर काशी के घाट असीसंगम घाट दशाश्वमेघ घाट मणिकर्णिका घाट पंचगंगा घाट वरुणासंगम घाट तुलसी घाट शिवाला घाट दंडी घाट हनुमान घाट हरिश्चंद्र घाट राज घाट केदार घाट सोमेश्वर घाट मानसरोवर घाट रानामहल घाट मुनशी घाट अहिल्याबाई घाट मानमन्दिर घाट त्रिपुर-भैरवी घाट मीर घाट दत्तात्रेय घाट सिंधिया घाट ग्वालियर घाट पंचगंगा घाट प्रह्लाद घाट इन्हें भी देखें काशी महाजनपद काशी की महिमा काशीखण्ड काशी का इतिहास बनारस रियासत बाहरी कड़ियाँ काशीकथा उत्तर प्रदेश के नगर भारत के ऐतिहासिक स्थान
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रबीन्द्रनाथ ठाकुर () (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा वे ही थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांङ्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। जीवन परिचय रबीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म ७ मई १८६१ को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। उनकी आरम्भिक शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की इच्छा में १८७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम लिखाया फिर लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया किन्तु १८८० में बिना डिग्री प्राप्त किए ही स्वदेश पुनः लौट आए। सन् १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। टैगोर की माता की मृत्यु उनके बचपन में हो गया था और उनके पिता व्यापक रूप से यात्रा करने वाले व्यक्ति थे, अतः उनका लालन-पालन अधिकांशतः नौकरों द्वारा ही किया गया था। टैगोर परिवार बंगाल पुनर्जागरण के समय अग्रणी था उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया; बंगाली और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत एवं रंगमंच और पटकथाएं वहां नियमित रूप से प्रदर्शित हुईं थीं। टैगोर के पिता ने कई पेशेवर ध्रुपद संगीतकारों को घर में रहने और बच्चों को भारतीय शास्त्रीय संगीत पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया था। टैगोर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे एवं दूसरे भाई सत्येंद्रनाथ कुलीन और पूर्व में सभी यूरोपीय सिविल सेवा के लिए पहले भारतीय नियुक्त व्यक्ति थे। एक भाई ज्योतिरिंद्रनाथ, संगीतकार और नाटककार थे एवं इनकी बहिन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं। ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी सम्भवतः टैगोर से थोड़ी बड़ी थीं व उनकी प्रिय मित्र और शक्तिशाली प्रभाव वाली स्त्री थीं जिन्होंने १८८४ में अचानक आत्महत्या कर ली। इस कारण टैगोर और इनका शेष परिवार कुछ समय तक अधिक समस्याओं से घिरा रहा था। इसके बाद टैगोर ने बड़े पैमाने पर विद्यालयी कक्षा की पढ़ाई से परहेज किया और मैरर या पास के बोलपुर और पनिहती में घूमने को प्राथमिकता दी, और फिर परिवार के साथ कई स्थानों की यात्रा की। उनके भाई हेमेंन्द्रनाथ ने उसे पढ़ाया और शारीरिक रूप से उसे वातानुकूलित किया - गंगा को तैरते हुए या पहाड़ियों के माध्यम से, जिमनास्टिक्स द्वारा, और जूडो और कुश्ती अभ्यास करना उनके भाई ने सिखाया था। टैगोर ने ड्राइंग, शरीर विज्ञान, भूगोल और इतिहास, साहित्य, गणित, संस्कृत और अंग्रेजी को अपने सबसे पसंदीदा विषय का अध्ययन किया था। हालाँकि टैगोर ने औपचारिक शिक्षा से नाराजगी व्यक्त की - स्थानीय प्रेसीडेंसी कॉलेज में उनके विद्वानों से पीड़ित एक दिन का दिन था। कई वर्षो बाद उन्होंने कहा कि उचित शिक्षण चीजों की व्याख्या नहीं करता है; उनके अनुसार उचित शिक्षण, जिज्ञासा है। ग्यारह वर्ष की आयु में उनके उपनयन (यग्योपवित/ जनेऊ) संस्कार के बाद, टैगोर और उनके पिता कई महीनों के लिए भारत की यात्रा करने के लिए फरवरी १८७३ में कलकत्ता छोड़कर अपने पिता के शांतिनिकेतन सम्पत्ति और अमृतसर से डेलाहौसी के हिमालयी पर्वतीय स्थल तक निकल गए थे। वहां टैगोर ने जीवनी, इतिहास, खगोल विज्ञान, आधुनिक विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया था और कालिदास की शास्त्रीय कविताओं के बारे में भी पढ़ाई की थी। १८७३ में अमृतसर में अपने एक महीने के प्रवास के समय, वह सुप्रभात गूरुवाणी और नानक वाणी से बहुत प्रभावित हुए थे, जिन्हें स्वर्ण मंदिर में गाया जाता था जिसके लिए दोनों पिता और पुत्र नियमित रूप से आगंतुक थे। उन्होंने इसके बारे में अपनी पुस्तक मेरी यादों में उल्लेख किया जो १९१२ में प्रकाशित हुई थी। साहित्यिक जीवन बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ वर्ष की आयु में लिखी थी और सन् १८७७ में केवल सोलह वर्ष की आयु में उनकी प्रथम लघुकथा प्रकाशित हुई थी। टैगोर ने अपने जीवनकाल में कई उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, यात्रावृन्त, नाटक और सहस्रो गाने भी लिखे हैं। वे अधिकतम अपनी पद्य कविताओं के लिए जाने जाते हैं। गद्य में लिखी उनकी छोटी कहानियाँ बहुत लोकप्रिय रही हैं। टैगोर ने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी पुस्तकें भी लिखी थीं। टैगोर के यात्रावृन्त, निबंध, और व्याख्यान कई खंडों में संकलित किए गए थे, जिनमें यूरोप के जटरिर पत्रों (यूरोप से पत्र) और 'मनुशर धर्म' (मनुष्य का धर्म) शामिल थे। अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ उनकी संक्षिप्त बातचीत, "वास्तविकता की प्रकृति पर नोट", बाद के उत्तरार्धों के एक परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया गया है। टैगोर के १५० वें जन्मदिन के अवसर पर उनके कार्यों का एक (कालनुक्रोमिक रबीन्द्र रचनाबली) नामक एक संकलन वर्तमान में बंगाली कालानुक्रमिक क्रम में प्रकाशित किया गया है। इसमें प्रत्येक कार्य के सभी संस्करण शामिल हैं और लगभग अस्सी संस्करण है। २०११ में, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने विश्व-भारती विश्वविद्यालय के साथ अंग्रेजी में उपलब्ध टैगोर के कार्यों की सबसे बड़ी संकलन द एसेंटियल टैगोर, को प्रकाशित करने के लिए सहयोग किया है यह फकराल आलम और राधा चक्रवर्ती द्वारा संपादित की गयी थी और टैगोर के जन्म की १५० वीं वर्षगांठ की निशानी हैं। रचनाएँ गीतांजलि पूरबी प्रवाहिन शिशु भोलानाथ महुआ वनवाणी परिशेष पुनश्च वीथिका शेषलेखा चोखेरबाली कणिका नैवेद्य मायेर खेला क्षणिका गीतिमाल्य कथा ओ कहानी रबीन्द्र संगीत टैगोर ने लगभग 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रुवपद शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। दर्शन गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस समय गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था। जीवन के अन्तिम समय ७ अगस्त १९४१ से कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा और नए का आगमन होगा। विशेषताएं पिता के ब्रह्मसमाजी होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। उनकी रचनाओं में मनुष्य और ईश्वर के बीच के चिरस्थायी सम्पर्क की विविध रूपों में अभिव्यक्ति मिलती है। उन्होंने बंगाली साहित्य में नए तरह के पद्य और गद्य के साथ बोलचाल की भाषा का भी प्रयोग किया। इससे बंगाली साहित्य क्लासिकल संस्कृत के प्रभाव से मुक्त हो गया। टैगोर की रचनायें बांग्ला साहित्य में एक नई ऊर्जा ले कर आई। उन्होंने एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे। इनमे चोखेर बाली, घरे बहिरे, गोरा आदि शामिल है। उनके उपन्यासों में मध्यम वर्गीय समाज विशेष रूप से उभर कर सामने आया। 1913 ईस्वी में गीतांजलि के लिए इन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला जो कि एशिया मे प्रथम विजेता साहित्य मे है। मात्र आठ वर्ष की उम्र मे पहली कविता और केवल 16 वर्ष की उम्र मे पहली लघुकथा प्रकाशित कर बांग्ला साहित्य मे एक नए युग की शुरुआत की रूपरेखा तैयार की। उनकी कविताओं में नदी और बादल की अठखेलियों से लेकर अध्यात्मवाद तक के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है। उनकी कविता पढ़ने से उपनिषद की भावनाएं परिलक्षित होती है। सम्मान १९१३ ई. में रबीन्द्रनाथ ठाकुर को उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। १९१५ ई. में उन्हें राजा जॉर्ज पंचम ने नाइटहुड की पदवी से सम्मानित किया था। १९१९ ई. में जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में उन्होंने यह उपाधि लौटा दी थी। चित्र दीर्घा इन्हें भी देखें रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कृतियाँ गीतांजलि रवीन्द्र संगीत विश्व-भारती विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ गीतांजलि (अंग्रेजी में) नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार बांग्ला साहित्यकार 1861 में जन्मे लोग १९४१ में निधन बंगाली कवि हिन्दी सम्पादनोत्सव के अंतर्गत बनाए गए लेख बंगाली लेखक
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सोनिया गांधी (पहले: माइनो; जन्म: ९ दिसम्बर १९४६) भारतीय राजनेता और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्ष हैं। वह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी हैं। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल पार्टी के इतिहास में सबसे लंबा है, जिसमें उन्होंने २००४ और २००९ में केंद्र में सरकार बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई। वह फोर्ब्स की सबसे शक्तिशाली महिलाओ की सूची में अनेकों बार जगह बनाई है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष थीं । सम्प्रति वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से सांसद हैं और इसके साथ ही वे १५वीं लोक सभा में न सिर्फ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की भी प्रमुख हैं। वे १४वीं लोक सभा में भी यूपीए की अध्यक्ष थीं। श्रीमती गांधी कांग्रेस के १३२ वर्षो के इतिहास में सर्वाधिक लंबे समय तक रहने वाली अध्यक्ष हैं (१९९८ से २०१७)। व्यक्तिगत जीवन इनका जन्म वैनेतो, इटली के क्षेत्र में विसेन्ज़ा से २० कि॰मी॰ दूर स्थित एक छोटे से गाँव लूसियाना में हुआ था। उनके पिता स्टेफ़िनो मायनो एक फासीवादी सिपाही थे, जिनका निधन १९८३ में हुआ। उनकी माता पाओलो मायनों हैं। उनकी दो बहनें हैं। उनका बचपन टूरिन, इटली से ८ कि॰मी॰ दूर स्थित ओर्बसानो में व्यतीत हुआ। १९६४ में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बेल शैक्षणिक निधि के भाषा विद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन करने गयीं जहाँ उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई जो उस समय ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज में पढ़ते थे। १९६८ में दोनों का विवाह हुआ जिसके बाद वे भारत में रहने लगीं। राजीव गाँधी के साथ विवाह होने के 17 साल बाद उन्होंने १९८३ में भारतीय नागरिकता स्वीकार की। उनकी दो संतान हैं - एक पुत्र राहुल गाँधी और एक पुत्री प्रियंका वाड्रा राजनीतिक जीवन पति की हत्या होने के पश्चात कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया और राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति अपनी घृणा और अविश्वास को इन शब्दों में व्यक्त किया कि, "मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूँगी, परंतु मैं राजनीति में कदम नहीं रखूँगी।" काफ़ी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन-पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उधर पी वी नरसिंहाराव के प्रधानमंत्रित्व काल के पश्चात् कांग्रेस १९९६ का आम चुनाव भी हार गई, जिससे कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरु-गांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता अनुभव की। उनके दबाव में सोनिया गांधी ने १९९७ में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके ६२ दिनों के अंदर १९९८ में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उन्होंने सरकार बनाने की असफल कोशिश भी की। राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेश में जन्म हुए होने का मुद्दा उठाया गया। उनकी कमज़ोर हिन्दी को भी मुद्दा बनाया गया। उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे। सोनिया गांधी अक्टूबर १९९९ में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और करीब तीन लाख वोटों की विशाल बढ़त से विजयी हुईं। १९९९ में १३वीं लोक सभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गईं। २००४ के चुनाव से पूर्व आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधान मंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देश भर में घूमकर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को अनपेक्षित २०० से ज़्यादा सीटें मिली। सोनिया गांधी स्वयं रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिये कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फ़ैसला किया जिससे कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों का स्पष्ट बहुमत पूरा हुआ। १६ मई २००४ को सोनिया गांधी १६-दलीय गंठबंधन की नेता चुनी गईं जो वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाता जिसकी प्रधानमंत्री सोनिया गांधी बनती। सबको अपेक्षा थी की सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सबने उनका समर्थन किया। परंतु एन डी ए के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए। सुषमा स्वराज और उमा भारती ने घोषणा की कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुँडवा लेंगीं और भूमि पर ही सोयेंगीं। १८ मई को उन्होने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया और प्रचारित किया कि सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की है। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने का अनुरोध किया पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने पर सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया। राष्ट्रीय सुझाव समिति का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी पर लाभ के पद पर होने के साथ लोकसभा का सदस्य होने का आक्षेप लगा जिसके फलस्वरूप २३ मार्च २००६ को उन्होंने राष्ट्रीय सुझाव समिति के अध्यक्ष के पद और लोकसभा का सदस्यता दोनों से त्यागपत्र दे दिया। मई २००६ में वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से पुन: सांसद चुनी गईं और उन्होंने अपने समीपस्थ प्रतिद्वंदी को चार लाख से अधिक वोटों से हराया। २००९ के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर यूपीए के लिए देश की जनता से वोट मांगा। एक बार फिर यूपीए ने जीत हासिल की और सोनिया यूपीए की अध्यक्ष चुनी गईं। महात्मा गांधी की वर्षगांठ के दिन २ अक्टूबर २००७ को सोनिया गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित किया। १० अगस्त २०१९ को उनको पुनः कांग्रेस पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुना गया। इन्हें भी देखें परिवारवाद वंशवाद भारतीय राष्ट्रीयता कानून सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सोनिया गाँधी पर जालस्थल जीवित लोग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ नेहरू-गाँधी परिवार १५वीं लोकसभा के सदस्य १६वीं लोक सभा के सदस्य भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री की जीवनसंगी १७वीं लोक सभा के सदस्य
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गणित में प्रयुक्त 'सूत्र' के लिए सूत्र (फॉर्मूला) देखें। सूत्र, किसी बड़ी बात को अतिसंक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने का तरीका है। इसका उपयोग व्याकरण, गणित, विज्ञान आदि में होता है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ धागा या रस्सी होता है। जिस प्रकार धागा वस्तुओं को आपस में जोड़कर एक विशिष्ट रूप प्रदान करता है, उसी प्रकार सूत्र भी विचारों को सम्यक रूप से जोड़ता है। वर्तमान समय में गणित में 'सूत्र' शब्द का उपयोग 'फॉर्मूला' के अर्थ में किया जाता है। हिन्दू (सनातन धर्म) में सूत्र एक विशेष प्रकार की साहित्यिक विधा का सूचक भी है। जैसे पतंजलि का योगसूत्र और पाणिनि का अष्टाध्यायी आदि। सूत्र साहित्य में छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित वाक्य होते हैं जो आपस में भलीभांति जुड़े होते हैं। इनमें प्रायः पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का खुलकर किया जाता है ताकि गूढ से गूढ बात भी संक्षेप में किन्तु स्पष्टता से कही जा सके। प्राचीन काल में सूत्र साहित्य का महत्त्व इसलिये था कि अधिकांश ग्रन्थ कण्ठस्थ किये जाने के ध्येय से रचे जाते थे; अतः इनका संक्षिप्त होना विशेष उपयोगी था। चूंकि सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त होते थे, कभी-कभी इनका अर्थ समझना कठिन हो जाता था। इसके समाधान के रूप में अनेक सूत्र के भाष्य की प्रथा प्रचलित हुई। भाष्य, सूत्रों की व्याख्या (Oratory) करते थे। बौद्ध धर्म में सूत्र उन उपदेशपरक ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें गौतम बुद्ध की शिक्षाएं संकलित हैं। परिभाषा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में 'सूत्र' की निम्नलिखित परिभाषा दी गयी है- अल्पाक्षरं असंदिग्धं सारवत्‌ विश्वतोमुखम्‌। अस्तोभं अनवद्यं च सूत्रं सूत्र विदो विदुः॥(३.५.१) (अर्थात कम अक्षरों वाला, संदेहरहित, सारस्वरूप, निरन्तरता लिये हुए तथा त्रुटिहीन (कथन) को सूत्रविद सूत्र कहते हैं।) व्याख्या सूत्र आदि की व्याख्या के पाँच भेद किए गए हैं : वृत्ति, भाष्य, वार्तिक, टीका और टिप्पणी इनमें से वृत्ति उस व्याख्या को कहते हैं जो कुछ संक्षिप्त होती है और जिसकी रचना गंभीर होती है। प्रकार अष्टाध्यायी में छः प्रकार के सूत्र बताए गये हैं- 1 संज्ञा (definition) 2 परिभाषा (interpretation) 3 विधि (rules) 4 नियम (restriction) 5 अतिदेश (extension) 6 अधिकार (header/domain) ग्रन्थ वेदांग शिक्षा सूत्र (phonetics) छन्द (metrics) छन्दःसूत्रम् व्याकरण (grammar) * अष्टाध्यायी - यह पाणिनि द्वारा रचित व्याकरण का सूत्र ग्रन्थ है। निरुक्त (etymology) ज्योतिष (astrology) कल्प (ritual) श्रौतसूत्र - यज्ञ करने से सम्बन्धित स्मार्तसूत्र गृह्यसूत्र - घरेलू जीवन से सम्बन्धित समयचारिका या धर्मसूत्र शुल्बसूत्र, यज्ञशाला का शिल्प हिन्दू दर्शन योगसूत्र न्यायसूत्र वैशेषिक सूत्र पूर्व मीमांसा सूत्र ब्रह्मसूत्र या वेदान्त सूत्र - (वादरायण द्वारा रचित) बौद्ध धर्म से सम्बन्धित सूत्र सूत्र पिटक जैन धर्म से सम्बन्धित सूत्र ग्रन्थ षट्खण्डागम (प्राकृत सूत्र) कल्पसूत्र तत्त्वार्थसूत्र परीक्षामुख अन्य कामसूत्र मोक्षसूत्र शिवसूत्र सूची संस्कृत का वैज्ञानिक तथा तकनीकी साहित्य विशाल है। केवल खगोलशास्त्र पर ही हजारों ग्रंथ लिखे गये हैं। तकनीकी ग्रंथ भिन्न-भिन्न स्तरों पर लिखने की प्रथा रही है। सबसे लघु ग्रंथ 'सूत्र ग्रंथ' कहलाते हैं। इनमें छोटे-छोटे सारगर्भित वाक्य हैं जिन्हें याद करने के उद्देश्य से छोटे रूप में लिखा गया है। इनमें कोई व्याख्या नहीं होती, कोई सिद्धि (proof) नहीं होते। पतंजलि का योगसूत्र, पाणिनि के व्याकरन सूत्र, वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र, वात्स्यायन का कामसूत्र इसके उदाहरण हैं। किसी प्रसिद्ध सूत्रग्रन्थ की व्याख्या को भाष्य कहते हैं। किन्तु भाष्यग्रन्थ मूलग्रन्थ भी हो सकता है। आदि शंकराचार्य की ब्रह्मसूत्रों का भाष्य प्रसिद्ध है। सैद्धान्तिक गवेषणा (theoretical work) को 'सिद्धान्त' कहा जाता है। सूर्यसिद्धान्त सूर्य की गति का विवेचन करता है। 'तंत्र' का अर्थ है - 'तकनीक'। खगोल के सन्दर्भ में इसका अर्थ है - 'आकाशीय पिण्डों से गणना'। नीलकण्ठ का तंत्रसंग्रह इसी प्रकार का ग्रंथ है। 'गीतिका', 'दर्पण', 'दीपिका' आदि प्रारम्भिक ग्रंथ हैं जो नवसिखुओं के निमित्त लिखे जाते हैं। अतः 'सिद्धान्तदीपिका' को आधुनिक समय में 'सैद्धान्तिक खगोलशास्त्र का परिचय' (Introduction to Theoretical Astronomy) कहा जायेगा। अनुवृत्ति सूत्र-शैली में लिखे गए ग्रन्थों की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, अनुवृत्ति। प्रायः एक उपविषय से सम्बन्धित सभी सूत्रों को एकत्र लिखा जाता है। दोहराव न हो, इसके लिए सभी सर्वनिष्ट (कॉमन) शब्दों को सावधानीपूर्वक निकाल लिया जाता था और उनको सही जगह पर रखा जाता था। अनुवृत्ति के अनुसार, किसी सूत्र में कही गयी बात आगे आने वाले एक या अधिक सूत्रों पर भी लागू हो सकती है। नीचे का उदाहरण देखिए।उदाहरण - अष्टाध्यायी का सूत्र ( १-१-९) " तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् " है। इसके बाद सूत्र (१-१-१०) "नाज्झलौ (= न अच्-हलौ)" है। जब हम (१-१-१०) नाज्झलौ (न अच्-हलौ) का अर्थ निकालते हैं तो यह ध्यान में रखना होगा कि इसका अकेले मतलब न निकाला जाय बल्कि इसका पूरा मतलब यह है कि "'इसके पूर्व सूत्र में कही गयी 'सवर्ण' से सम्बन्धित बात अच्-हलौ (अच् और हल्) पर लागू नहीं (न''') होती है।" अर्थात् , सूत्र (१-१-१०) को केवल "नाज्झलौ" न पढ़ा जाय बल्कि "अच्-हलौ सवर्णौ न" पढ़ा जाय। इन्हें भी देखें सूत्र (फॉर्मूला) माहेश्वर सूत्र पतंजलि का योगसूत्र वात्स्यायन कृत कामसूत्र भाष्य बाहरी कड़ियाँ Buddhist Scriptures in Multiple Languages Chinese repository of Buddhist Sutras translated into English. Also has other texts. Mahayana Buddhist Sutras in English More Mahayana Sutras The Hindu Vedas, Upanishads, Puranas, and Vedanta Sacred-texts.com A Modern Sutra Digital Sanskrit Buddhist Canon Pali Suttas at Access to Insight Ida B. Wells Memorial Sutra Lirary (Pali Suttas) Suttas read aloud संस्कृत भाषा साहित्य
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सूत्र", "token_count": 7154, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0" }
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (संक्षेप: माकपा) भारत का एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल है। इसकी स्थापना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेताओं ने विखण्डित होकर 1964 में की थी। स्थापना एवं इतिहास 7 नवम्बर 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी की स्थापना हुई इसकी स्थापना कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन से हुई। इसकी स्थापना ई० एम० एस० डांगे ने की। मुख्यमंत्रियों की सूची केरल के मुख्यमंत्री कुंजी  – पदासीन मुख्यमंत्री {| Class="wikitable" style="text-align:center; font-size:95%" |- ! क्रम ! मुख्यमंत्री ! नियुक्ति तिथि ! निवृत्ति तिथि ! पदावधि ! विधानसभा |- !१ |ई० एम० एस० नंबूदरीपाद |६ मार्च १९६७ |१ नवंबर १९६९ | |तृतीय विधानसभा |- !२ |ई.कृष्णन नयनार | | | |छठीं, ८वीं तथा १०वीं |- !३ |वी.एस.अच्युतानंदन |१८ मई २००६ |१४ मई २०११ | |१२वीं विधानसभा |- !४ !scope=row style="background:#faecc8;text-align:center;" |* |२५ मई २०१६ |पदस्थ | |१४वीं, १५वीं विधानसभा | सीताराम येचुरी, महासचिव प्रकाश करात, पूर्व महासचिव एस. रामचंद्रन पिल्लई बिमान बोस माणिक सरकार, पूर्व मुख्यमंत्री, त्रिपुरा वृंदा करात पिनाराई विजयन, मुख्यमंत्री, केरल हन्नान मुल्ला कोडियारी बालकृष्णन सूर्यकांत मिश्रा एम.ए.बेबी मोहम्मद सलीम सुभाषिनी अली बी.वी.राघवुलु जी.रामकृष्णन तपन सेन नीलोत्पल बसु चुनावी इतिहास लोकसभा चुनाव २००४ सन् २००४ के लोकसभा चुनावों में माकपा ने अपने चुनावी इतिहास का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए भारत के विभिन्न राज्यों में कुल ४३ स्थानों पर जीत सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की। लोकसभा चुनाव २००९ लोकसभा चुनाव २०१४ लोकसभा चुनाव २०१९ लोकसभा चुनाव २०१९ में माकपा का प्रदर्शन अपेक्षाकृत नहीं रहा एवं पार्टी केवल ३ सीटों तक सिमट कर रह गयी, जिनमें २ सीटें तमिलनाडु से तथा १ सीट केरल से प्राप्त हुईं। तीन दशक से भी अधिक समय तक पश्चिम बंगाल की सत्ता में रहने वाली पार्टी का राज्य में खाता तक नहीं खुला, इसी प्रकार त्रिपुरा की भी दोनों सीटें पार्टी के हाथ से निकल गईंं। एकमात्र केरल राज्य में जहां सन् २०१६ से वाममोर्चे की सरकार है एक सीट अपने दम पर पार्टी ने जीती। इन्हें भी देखें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी संदर्भ भारत के राष्ट्रीय राजनीतिक दल साम्यवादी पार्टियाँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)", "token_count": 3053, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%20%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80%20%28%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80%29" }
अम्मान (अरबी عمان), जोर्डन राज्य की राजधानी, १२ लाख से ज़्यादा लोगों का शहर है। बाहरी कडियाँ अल अह्लिय्या अम्मान विश्वविद्यालय जालस्थल - अंग्रेज़ी में अम्मान के बारे में जानकारी एशियाई शहर एशिया में राजधानियाँ
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दक्षिण कुतुबनुमा द्वारा दिखायी जाने वाली चार दिशाओं में से एक दिशा है। दक्षिण दिशा उत्तर दिशा के विपरीत (दूसरी तरफ) होती है और पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं से ९० डिग्री (अंश) पर होती है। (उत्तर दक्षिण एक दूसरे के आमने सामने हैं और पूर्व पश्चिम भी एक दुसरे के आमने सामने हैं।) यदि आप सूर्य की तरफ मुख कर के खड़े होंगे तो आपका मुख पूर्व की ओर होगा, दक्षिण दिशा आपके दाएँ हाथ की तरफ होगी, बाएँ हाथ की तरफ उत्तर होगा और पश्चिम आपकी पीठ की ओर होगी। नक्शों में दक्षिण दिशा अधिकतर पन्ने के नीचे की तरफ दिखायी जाती है और उत्तर दिशा पन्ने के ऊपर की ओर। दिशाएँ भारत उपमहाद्वीप के दक्षिण में समुद्र है
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हिन्दू परम्परा के अनुसार दिशा या दिक् हिन्दू धर्म के अनुसार मुख्य दिशायें चार हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण . इनके अतिरिक्त इन दिशाओं से ४५ डिग्री कोण पर स्थित चार दिशाएँ तथा ऊर्ध्व (ऊपर) और अधो (नीचे) मिलाकर कुल दस दिशाएं हैं- इन्हें भी देखें दिक्पाल लोकपाल सन्दर्भ टिप्पणियाँ दिशा
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काल संस्कृत का एक शब्द है जिसका अर्थ " समय " होता है। यह एक देवता का नाम भी है। काल को प्रायः यम का पर्याय माना जाता है। एक देवता के रूप में इन्हें भी देखें कालचक्र काली महाकाल संदर्भ असुर संस्कृत शब्द
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गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिन्दी साहित्य के महान सन्त कवि थे। रामचरितमानस इनका गौरव ग्रन्थ है। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। तुलसीदास जी स्मार्त वैष्णव थे। जन्म गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान विवादित है। अधिकांश विद्वानों व राजकीय साक्ष्यों के अनुसार इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, जनपद कासगंज, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म राजापुर जिला चित्रकूट में हुआ मानते हैं। सोरों उत्तर प्रदेश के कासगंज जनपद के अंतर्गत एक सतयुगीन तीर्थस्थल शूकरक्षेत्र है। वहां पं० सच्चिदानंद शुक्ल नामक एक प्रतिष्ठित सनाढ्य ब्राह्मण रहते थे। उनके दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल। पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास था, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस महाग्रंथ की रचना की थी। नंददास जी के छोटे भाई का नाम चँदहास था। नंददास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंददास जी के पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंददास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रासपंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली हैं। बचपन भगवान की प्रेरणा से शूकरक्षेत्र में रहकर पाठशाला चलाने वाले गुरु नृसिंह चौधरी ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीदास रखा। गुरु नृसिंह चौधरी ने ही इन्हें रामायण, पिंगलशास्त्र व गुरु हरिहरानंद ने इन्हें संगीत की शिक्षा दी। तदोपरान्त बदरिया निवासी दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से इनका विवाह हुआ। एक पुत्र भी इन्हें प्राप्त हुआ, जिसका नाम तारापति/तारक था, जोकि कुछ समय बाद ही काल कवलित हो गया। रत्नावली के पीहर (बदरिया) चले जाने पर ये रात में ही गंगा को तैरकर पार करके बदरिया जा पहुंचे। तब रत्नावली ने लज्जित होकर इन्हें धिक्कारा। उन्हीं वचनों को सुनकर इनके मन में वैराग्य के अंकुर फूट गए और 36 वर्ष की अवस्था में शूकरक्षेत्र सोरों को सदा के लिए त्यागकर चले गए। भगवान श्री राम जी से भेंट कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा: चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥ तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये। संस्कृत में पद्य-रचना संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- "तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये। रामचरितमानस की रचना संवत्‌ १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्‌" की आवाज भी कानों से सुनी। इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा। इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी- आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः। कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥ इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-"काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।" पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया। मृत्यु तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत्‌ १६८० में श्रावण शुक्ल सप्तमी को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर का परित्याग किया। तुलसी-स्तवन तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। रचनाएँ अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं - गीतावली (1571), कृष्ण-गीतावली (1571), रामचरितमानस (1574), पार्वती-मंगल (1582), विनय-पत्रिका (1582), जानकी-मंगल (1582), रामललानहछू (1582), दोहावली (1583),वैराग्यसंदीपनी (1612), रामाज्ञाप्रश्न (1612), सतसई, बरवै रामायण (1612), कवितावली (1612),हनुमान बाहुक इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है। लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे। रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं : रामचरितमानस रामललानहछू वैराग्य-संदीपनी बरवै रामायण पार्वती-मंगल जानकी-मंगल रामाज्ञाप्रश्न दोहावली कवितावली गीतावली श्रीकृष्ण-गीतावली विनय-पत्रिका सतसई छंदावली रामायण कुंडलिया रामायण राम शलाका संकट मोचन करखा रामायण रोला रामायण झूलना छप्पय रामायण कवित्त रामायण कलिधर्माधर्म निरूपण हनुमान चालीसा 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कुछ ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण रामललानहछू यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं। गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो। सोभित दूलह राम सीस, पर आंचर हो।। वैराग्य संदीपनी वैराग्य संदीपनी को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रवली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते हैं। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा पेश है - को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत। जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।। बरवै रामायण विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है। पार्वती-मंगल यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरस है। ""जगत मातु पितु संभु भवानी"" की श्रृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है। लोक रीति इतनी यथास्थिति से चित्रित हुई है कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है। व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसीलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है - प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि। मंगल हार रचेउ कवि मति मृगलोचनि।। जानकी-मंगल विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है। पर इसमें भी क्षेपक है। पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए। डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।। राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि। चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।। रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह। मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।। तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है। रामाज्ञा प्रश्न यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते हैं। इसमें कथा-श्रृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण> के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है। दोहावली दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी श्रृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, पर रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है। कवितावली कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा। गीतावली गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है। इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा - संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है - कैकेयी जौ लौं जियत रही। तौ लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।। मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही। सीय लखन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही।। लोक-बेद-मरजाद दोष गुन गति चित चखन चही। तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।। इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है - भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ। परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।। पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ। होइ हित केहि भांति, नित सुविचारु नहिं चित चाउ।। श्रीकृष्ण गीतावली श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं। हनुमानबाहुक यह गोस्वामी जी की हनुमत-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं। तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था। उनक आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंब है।दोहेतुलसीदास के दोहे दिएँ पीठि पाछें लगै सनमुख होत पराइ। तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गँवाइ।।अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं संपत्ति शरीर की छाया के समान है । इसको पीठ देकर चलने से यह पीछे पीछे चलता है, और सामने होकर चलने से दूर भाग जाता है । ( जो धन से मुँह मोड लेता है, धन की नदी उसके पीछे पीछे बहती चली आती है और जो धन के लिए सदा ललचाता रहता है, उसे सपने में पैसा कभी नहीं मिलता ) इस बात को समझकर घर मे ही दिन बिताओं । तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम । सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम ।।अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि आशा देवी नाम की एक अदभुत देवी है, यह सेवा करने पर दुख देता है और विमुख होने पर सुख देता है । सोई सेंवर तेइ सुवा सेवत सदा बसंत । तुलसी महिमा मोह की सुनत सराहत संत ।।अर्थ - तुलसीदास कहते है वही सेमलता पेड़ है और वहीं तोते है तो भी मोहवश वसंत ऋतु आने पर सदा उस पर मँडराये रहते है । इस बात को सुनकर संत लोग भी मोह की महिमा की सराहना करते हैं । ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लोभ बिडंबना कीनिह न एहिं संसार ॥अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पण्डित और गुणों का धाम इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य हैं, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो ॥ ब्यापी रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड । सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ।।अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि माया की प्रचंड सेना संसार भर मे फैल रहा हैं कामादि(काम, क्रोध, मद, मोह, और मत्सर) वीर इस सेना के सेनापति हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड उसके योद्धा है । तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग । सबसे हस बोलिए नदी नाव संजोग ॥अर्थ''' – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि इस संसार मे कई प्रकार के लोग रहते है । जिनका व्यवहार और स्वभाव अलग अलग होता है । आप सभी से मिलिए और बात करिए । जैसे नाव नदी से दोस्ती कर अपने मार्ग को पार कर लेता है । वैसे आप अपने अच्छे व्यवहार से इस भव सागर को पार कर लेंगे . इन्हें भी देखें रामचरितमानस भक्ति काल भक्त कवियों की सूची हिंदी साहित्य माताप्रसाद गुप्त बाहरी कड़ियाँ स्वर्गारोहण - संपूर्ण रामचरितमानस, प्रमुख पात्रों के संदर्भ, MP3 ओडियो तथा PDF डाउनलोड रामचरितमानस (हिन्दी अर्थ के साथ) तुलसीदास की रचनाएं कवितावली का मूल पाठ (विकीस्रोत पर) दोहावली का मूल पाठ (विकीस्रोत पर) विनयपत्रिका (विकीस्रोत पर) संकटमोचन हनुमानाष्टक (विकीस्रोत पर) हनुमान बाहुक :हिन्दी भावार्थ सहित हनुमान चालीसा (विकीस्रोत पर) तुलसी सुभाषित - हिन्दी के विकि_सूक्ति (विकिकोट्) पर मानस सुभाषित - हिन्दी के विकि_सूक्ति (विकिकोट्) पर तुलसी काव्य में साहित्यिक अभिप्राय (गूगल पुस्तक ; लेखक - जनार्दन उपाध्याय) गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय सन्दर्भ भक्तिकाल के कवि हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना १६वीं सदी के कवि
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मानस अथवा मनास () का सन्दर्भ निम्न से हो सकता हैं: सांस्कृतिक मानवशास्त्र मनास की दास्तान (एपिक ऑफ़ मनास), ५००,००० वाक्यों वाली एक किरगिज़ महाकाव्य मन के लिए पाली और संस्कृत शब्द; देखें" मानस (प्रारम्भिक बौद्ध धर्म) मानस-विज्ञान, योगाचार बौद्ध धर्म में सिखाई गई आठ चेतनाओं में से एक रामचरित मानस लोग Achero Mañas (जन्म 1966), स्पेनी फ़िल्म निर्देशक एडगर Manas (1875–1964), तुर्की-आर्मेनियाई composer, conductor और musicologist Fernando Llorente Mañas (जन्म 1990), स्पेनी फुटबॉलर José Ángel Mañas (जन्म 1971), स्पेनी लेखक मानस कुमार मंडल, दिल्ली के एक वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक मानस मादरेचा, भारतीय कवि और ब्लॉगर मानस मुखर्जी, बंगाली संगीत निर्देशक मानस दास, भारतीय फुटबॉलर Manas परिवार, एक ऑटोमन-आर्मेनियाई परिवार स्थाननाम भौगोलिक स्थान रॉयल मानस राष्ट्रीय उद्यान, भूटान में एक राष्ट्रीय उद्यान मनास ज़िला, Talas प्रांत, किर्गिज़स्तान का एक ज़िला मनास अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा, किर्गिज़स्तान में Bishkek के पास एक अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा Transit Center at Manas, उपर्युक्त हवाईअड्डे के यहाँ एक संयुक्त राज्य एयर फोर्स बेस मानस राष्ट्रीय उद्यान, भारत में असम राज्य में एक राष्ट्रीय उद्यान मानस अन्तरराष्ट्रीय लोक विद्यालय, जेहेनाबाद, भारत में Manas, Drôme, a commune in Drôme département in France Manas-Bastanous, a commune in the Gers department in southwestern France Manas ज़िला, Peru, in the Peruvian province of Cajatambo Manas काउंटी, in the Xinjiang Uighur Autonomous Region, China Manas Urban Settlement, a municipal formation which Manas Settlement in Karabudakhkentsky District of the Republic of Dagestan, Russia is incorporated as Manas (urban-type settlement), an urban-type settlement in Karabudakhkentsky District of the Republic of Dagestan, Russia भूवैज्ञानिक गुणविशेष मानस या मानसी नदी, चीन के Xinjiang Uighur Autonomous क्षेत्र में एक नदी मानस झील, चीन के Xinjiang Uighur Autonomous क्षेत्र में एक झील मानस नदी, भारतीय राज्य असम में एक नदी मानसरोवर झील, तिब्बत में एक झील विश्विद्यालय मनास विश्विद्यालय, किरगिज़ तुर्की मनास विश्विद्यालय, किरगिज़स्तान इन्हें भी देखें
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आइट्राँस, देवनागरी सहित भारत की अनेक लिपियों में लिखे पाठ को रोमन लिपि में लिप्यन्तरण की एक पद्धति है। आजकल अनेक कम्प्यूटर सॉफ्टवेयरों के उपलब्ध होने से आइट्रान्स में लिप्यन्तरण का कार्य अत्यन्त सरल, तेज और मशीनी हो गया है। इसका विकास अविनाश चोपड़े ने किया। आइट्राँस का नवीनतम् संस्करण 5.30 है जो 2001 के जुलाई में आया था। इसी संस्करण के बाद आइट्राँस को स्थिर कर दिया गया है। कुछ उदाहरण: vikipiiDiyaa - विकिपीडिया bhaarat - '''भारत raam - राम lakShmaN - लक्ष्मण iNDiyaa - इण्डिया maiM hindii meM Taaip kar saktaa huuM | - मैं हिन्दी में टाइप कर सकता हूँ। aao hindii meM kampyuuTar pe likheM - आओ हिन्दी में कम्प्यूटर पे लिखें विशेषताएँ आइट्राँस हार्वर्ड-क्योटो लिप्यन्तरण योजना से बहुत सीमा तक (किन्तु पूर्णत: नहीं) मिलती है। हार्वर्ड क्योटो योजना की तरह ही आइट्राँस कोई भी डायक्रिटिकल चिह्न उपयोग नहीं करता जिससे आमतौर पर उपलब्ध अंग्रेजी कुंजीपटल से सारा काम चल जाता है। इसमें भारतीय लिपियों के कुछ प्रतीकों के लिये रोमन में एक से अधिक प्रतीक उपलब्ध कराये गये हैं (कभी-कभी तीन, चार भी)। इसमें रोमन के छोटे और बड़े दोनो वर्ण (small & capital letters) का प्रयोग किया गया है। आइट्राँस में हिन्दी की वर्णमाला स्वर व्यंजन नुक्ता वाले व्यंजन मुख्यतः उर्दू या देवनागरी के लिये। अन्य चिह्न - विशेष/ऍक्सेंट संयुक्ताक्षर मात्रा के साथ व्यंजन माइक्रोसॉफ्ट का इण्डिक आइऍमई विंडोज़ ऍक्सपी या विंडोज़ २००० प्रयोग करने वालों के लिए हिन्दी लिखने का सब से सुविधाजनक तरीका है माइक्रोसॉफ्ट का इण्डिक आइऍमई। अपने कम्प्यूटर पर आइट्राँस में हिन्दी में लिखना चालू करने के लिये इसका प्रयोग करें। इस विधि से आइट्राँस चालू करने के लिये आपको विंडोज़ की इंस्टालर सीडी की ज़रूरत पड़ सकती है। यदि आपके कंप्यूटर पर C:\I386 नाम का फोल्डर है तो इंस्टालर सीडी की जगह इस फोल्डर का पथ दे दें। आइट्राँस के लिये ज़रूरी सभी संचिकाएँ (फॉण्ट और डी एल एल) इसमें होते हैं। यदि सीडी नहीं है तो फिर हिन्दी टूलकिट आजमायें। इन्हें भी देखें हन्टेरियन लिप्यन्तरण मशीनी लिप्यन्तरण बाहरी कड़ियाँ देवनागरी-आइट्राँस मूल ऍन्कोडिंग स्कीम, संस्करण ५.३४ कई लिपियों के लिये आईट्रन्स मैपिंग Devanagari-to-ITRANS Table - उदाहरण ITRANS Encoding Table Online Interface to iTrans : convert iTrans text and HTML files into Devanagari and other Indian Scripts. Diacritic Conversion · diCrunch : बलराम, हार्वर्ड-क्योटो, सी एस एक्स आदि में कोडित संस्कृत/हिन्दी/नेपाली आदि को देवनागरी, आइट्रान्स, बांग्ला, ओडिया आदि में बदलने का उत्तम साफ्टवेयर आइट्राँस आइट्राँस आइट्राँस आइट्राँस
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शिबू सोरेन (जन्म ११ जनवरी, १९४४) एक भारतीय राजनेता है। वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष है। २००४ में मनमोहन सिंह की सरकार में वे कोयला मंत्री बने लेकिन चिरूडीह कांड जिसमें 11 लोगों की ह्त्या हुई थी के सिलसिले में गिरफ़्तारी का वारंट जारी होने के बाद उन्हें केन्द्रीय मंत्रीमंडल से 24 जुलाई 2004 को इस्तीफ़ा देना पड़ा। वे झारखंड के दुमका लोकसभा सीट से छठी बार सांसद चुने गये हैं। शिबू का जन्म पुराने बिहार के हजारीबाग जिले में नामरा गाँव में हुआ था। उनकी स्कूली शिक्षा भी यहीं हुई। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद ही उनका विवाह हो गया और उन्होंने पिता को खेती के काम में मदद करने का निर्णय लिया | पिता शोभराम सोरेन कि हत्या की गयी थी । उनके राजनैतिक जीवन की शुरुआत 1970 में हुई। उन्होंने 23 जनवरी, 1975 को उन्होंने तथाकथित रूप से जामताड़ा जिले के चिरूडीह गाँव में "बाहरी" लोगों (आदिवासी जिन्हें "दिकू" नाम से बुलाते हैं) को खदेड़ने के लिये एक हिंसक भीड़ का नेतृत्व किया था। इस घटना में 11 लोग मारे गये थे। उन्हें 68 अन्य लोगों के साथ हत्या का अभियुक्त बनाया गया। शिबू पहली बार 1977 में लोकसभा के लिये चुनाव में खड़े हुये परन्तु पराजित हुए। 1980 में वे लोक सभा चुनाव जीते। इसके बाद क्रमश: 1986, 1989, 1991, 1996 में भी चुनाव जीते। 10 अप्रैल 2002 से 2 जून 2002 तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। 2004 में वे दुमका से लोकसभा के लिये चुने गये। सन 2005 में झारखंड विधानसभा चुनावों के पश्चात वे विवादस्पद तरीक़े से झारखंड के मुख्यमंत्री बने, परंतु बहुमत साबित न कर सकने के कारण कुछ दिनो के पश्चात ही उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। इन्हें भी देखें झारखंड आंदोलन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ 1944 में जन्मे लोग जीवित लोग झारखण्ड के मुख्यमंत्री ८वीं लोक सभा के सदस्य १०वीं लोक सभा के सदस्य ११वीं लोक सभा के सदस्य १२वीं लोक सभा के सदस्य १३वीं लोक सभा के सदस्य १५वीं लोकसभा के सदस्य १६वीं लोक सभा के सदस्य राज्यसभा सदस्य [[श्रेणी:झारखंड मुक्ति मोर्चा के राज
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मुम्बई (अंग्रेजी: Mumbai), जिसका पुराना नाम बम्बई (Bombay बॉम्बे) था(१९९५ तक), भारत के महाराष्ट्र राज्य की राजधानी है। सन् २०१८ में यह दिल्ली के बाद जनगणना की दृष्टि से भारत का दूसरा सबसे बड़ा और विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा शहर था। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार बृहन्मुम्बई महानगरपालिका द्वारा प्रशासिक क्षेत्र के अधीन १.२५ करोड़ और मुम्बई महानगरीय क्षेत्र में २.३ करोड़ लोग बसे हुए थे। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम आर्थिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र भी है, जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में ५% की भागीदारी है। यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का २५%, नौवहन व्यापार का ४०%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का ७०% भागीदार है। इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भूखण्ड के साथ जुड़ा हुआ है। मुम्बई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं, इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। गोपाल मुम्बई को सपनों का शहर भी कहा जाता है। मुम्बई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है। भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टॉक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुम्बई की व्यावसायिक अर्पाच्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करता है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुम्बई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है। मुंबई महानगरपालिका में कुल 227 नगरसेवक है। मुंबई महानगरपालिका पूरे विश्व में पैसों के मामले में सबसे अधिक महानगरपालिका माना जाता है। उद्गम मुम्बई शब्द का उदगम मुम्बा देवी से हुआ है , कोली जनजाति की कुलदेवी का नाम मुम्बादेवी है और जिस बस्ती में वे लोग रहते है उस उस मुंबाई कहते थे जो समय के साथ मुम्बई और बम्बई हुआ । "मुम्बई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुम्बा या महा-अम्बा हिन्दू देवी दुर्गा का रूप, जिनका नाम मुंबा देवी है और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं। पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया। यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहां अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बना। किन्तु मराठी लोग इसे मुम्बई या मम्बई व हिन्दी व भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे। इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुम्बई बना। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली नाम से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे)। यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ। सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है। यह भी सच है कि सोलहवीं शताब्दी की पुर्तगाली भाषा में छोटी खाड़ी के लिये बैम शब्द है। अन्य सूत्रों का पुर्तगाली शब्द बॉम्बैम के लिये, भिन्न मूल है। होज़े पेद्रो माशादो का "एटायमोलॉजी एवं ओनोमैस्टिक्स का पुर्तगाली शब्दकोष" (José Pedro Machado's Dicionário Onomástico Etimológico da Língua Portuguesa) बताता है, कि इस स्थान का १५१६ से प्रथम पुर्तगाली सन्दर्भ क्या है, बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु, माइआम्बु या "MAIAMBU"' मुंबा देवी से निकला हुआ लगता है। ये वही मुंबा देवी हैं, जिनके नाम पर मुंबई नाम मराठी लोग लेते हैं। इसी शताब्दी में मोम्बाइयेन की वर्तनी बदली (१५२५) और वह मोंबैएम बना (१५६३) और अन्ततः सोलहवीं शताब्दी में बोम्बैएम उभरा, जैसा गैस्पर कोर्रेइया ने लेंडास द इंडिया ("लीजेंड्स ऑफ इंडिया") में लिखा है। इतिहास कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा। १८६९ में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया। अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यह विकास संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से परिपूर्ण था। १९०६ तक नगर की जनसंख्या दस लाख के लगभग हो गयी थी। अब यह भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान सबसे बड़ा शहर था। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा। मुंबई में इस संग्राम की प्रमुख घटना १९४२ में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था। १९४७ में भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। १९५० में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा। १९५५ के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधों के चलते, १०५ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे भी गये और अन्ततः १ मई, १९६० को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया। १९७० के दशक के अंत तक, यहां के निर्माण में एक सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक पहुंचाया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पछाड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे। बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों के हित की रक्षा करने हेतु बनी थी। नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र १९९२-९३ के दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद १२ मार्च,१९९३ को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पुरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। १९९५ में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। २००६ में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे। भूगोल मुंबई शहर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण तटीय क्षेत्र में उल्हास नदी के मुहाने पर स्थित है। इसमें सैलसेट द्वीप का आंशिक भाग है और शेष भाग ठाणे जिले में आते हैं। अधिकांश नगर समुद्रतल से जरा ही ऊंचा है, जिसकी औसत ऊंचाई से के बीच है। उत्तरी मुंबई का क्षेत्र पहाड़ी है, जिसका सर्वोच्च स्थान पर है। नगर का कुल क्षेत्रफल ६०३ कि.मी² (२३३ sq mi) है। संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान नगर के समीप ही स्थित है। यह कुल शहरी क्षेत्र के लगभग छठवें भाग में बना हुआ है। इस उद्यान में तेंदुए इत्यादि पशु अभी भी मिल जाते हैं, जबकि जातियों का विलुप्तीकरण तथा नगर में आवास की समस्या सर उठाये खड़ी है। भाटसा बांध के अलावा, ६ मुख्य झीलें नगर की जलापूर्ति करतीं हैं: विहार झील, वैतर्णा, अपर वैतर्णा, तुलसी, तंस व पोवई। तुलसी एवं विहार झील बोरिवली राष्ट्रीय उद्यान में शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर स्थित हैं। पोवई झील से केवल औद्योगिक जलापुर्ति की जाती है। तीन छोटी नदियां दहिसर, पोइसर एवं ओहिवाड़ा (या ओशीवाड़ा) उद्यान के भीतर से निकलतीं हैं, जबकि मीठी नदी, तुलसी झील से निकलती है और विहार व पोवई झीलों का बढ़ा हुआ जल ले लेती है। नगर की तटरेखा बहुत अधिक निवेशिकाओं (संकरी खाड़ियों) से भरी है। सैलसेट द्वीप की पूर्वी ओर दलदली इलाका है, जो जैवभिन्नताओं से परिपूर्ण है। पश्चिमी छोर अधिकतर रेतीला या पथरीला है। मुंबई की अरब सागर से समीपता के खारण शहरी क्षेत्र में मुख्यतः रेतीली बालू ही मिलती है। उपनगरीय क्षेत्रों में, मिट्टी अधिकतर अल्युवियल एवं ढेलेदार है। इस क्षेत्र के नीचे के पत्थर काले दक्खिन बेसाल्ट व उनके क्षारीय व अम्लीय परिवर्तन हैं। ये अंतिम क्रेटेशियस एवं आरंभिक इयोसीन काल के हैं। मुंबई सीज़्मिक एक्टिव (भूकम्प सक्रिय) ज़ोन है। जिसके कारण इस क्षेत्र में तीन सक्रिय फॉल्ट लाइनें हैं। इस क्षेत्र को तृतीय श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है, कि रिक्टर पैमाने पर 6.5 तीव्रता के भूकम्प आ सकते हैं। जलवायु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अरब सागर के निकट स्थित मुंबई की जलवायु में दो मुख्य ऋतुएं हैं: शुष्क एवं आर्द्र ऋतु। आर्द्र ऋतु मार्च एवं अक्टूबर के बीच आती है। इसका मुख्य लक्षण है उच्च आर्द्रता व तापमन लगभग से भी अधिक। जून से सितंबर के बीच मानसून वर्षाएं नगर भिगोतीं हैं, जिससे मुंबई का वार्षिक वर्षा स्तर तक पहुंचता है। अधिकतम अंकित वार्षिक वर्षा १९५४ में थी। मुंबई में दर्ज एक दिन में सर्वोच्च वर्षा २६ जुलाई,२००५ को हुयी थी। नवंबर से फरवरी तक शुष्क मौसम रहता है, जिसमें मध्यम आर्द्रता स्तर बना रहता है, व हल्का गर्म से हल्का ठंडा मौसम रहता है। जनवरी से फरवरी तक हल्की ठंड पड़ती है, जो यहां आने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण होती है। मुंबई का वार्षिक तापमान उच्चतम से न्यूनतम तक रहता है। अब तक का रिकॉर्ड सर्वोच्च तापमान तथा २२ जनवरी,१९६२ को नयूनतम रहा।। हालांकि यहां के मौसम विभाग के दो में से एक स्टेशन द्वारा अंकित न्यूनतम तापमान कन्हेरी गुफाएं के निकट नगर की सीमाओं के भीतर स्थित स्टेशन द्वारा न्यूनतम तापमान ८ फरवरी,२००८ को अंकित किया गया। अर्थ-व्यवस्था मुंबई भारत की सबसे बड़ी नगरी है। यह देश की एक महत्वपूर्ण आर्थिक केन्द्र भी है, जो सभी फैक्ट्री रोजगारों का १०%, सभी आयकर संग्रह का ४०%, सभी सीमा शुल्क का ६०%, केन्द्रीय राजस्व का २०% व भारत के विदेश व्यापार एवं निगमित करों से योगदान देती है। मुंबई की प्रति-व्यक्ति आय है, जो राष्ट्रीय औसत आय की लगभग तीन गुणा है। भारत के कई बड़े उद्योग (भारतीय स्टेट बैंक, टाटा ग्रुप, गोदरेज एवं रिलायंस सहित) तथा चार फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियां भी मुंबई में स्थित हैं। कई विदेशी बैंक तथा संस्थानों की भी शाखाएं यहां के विश्व व्यापार केंद्र क्षेत्र में स्थित हैं। सन १९८० तक, मुंबई अपने कपड़ा उद्योग व पत्तन के कारण संपन्नता अर्जित करता था, किन्तु स्थानीय अर्थ-व्यवस्था तब से अब तक कई गुणा सुधर गई है, जिसमें अब अभियांत्रिकी, रत्न व्यवसाय, हैल्थ-केयर एवं सूचना प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं। मुंबई में ही भाभा आण्विक अनुसंधान केंद्र भी स्थित है। यहीं भारत के अधिकांश विशिष्ट तकनीकी उद्योग स्थित हैं, जिनके पास आधुनिक औद्योगिक आधार संरचना के साथ ही अपार मात्रा में कुशल मानव संसाधन भी हैं। आर्थिक कंपनियों के उभरते सितारे, ऐयरोस्पेस, ऑप्टिकल इंजीनियरिंग, सभी प्रकार के कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जलपोत उद्योग तथा पुनर्नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत तथा शक्ति-उद्योग यहां अपना अलग स्थान रखते हैं। नगर के कार्यक्षेत्र का एक बड़ा भाग केन्द्र एवं राज्य सरकारी कर्मचारी बनाते हैं। मुंबई में एक बड़ी मात्रा में कुशल तथा अकुशल व अर्ध-कुशल श्रमिकों की शक्ति है, जो प्राथमिकता से अपना जीवन यापन टैक्सी-चालक, फेरीवाले, यांत्रिक व अन्य ब्लू कॉलर कार्यों से करते हैं। पत्तन व जहाजरानी उद्योग भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ढ़ेरों कर्मचारियों को रोजगार देता है। नगर के धारावी क्षेत्र में, यहां का कूड़ा पुनर्चक्रण उद्योग स्थापित है। इस जिले में अनुमानित १५,००० एक-कमरा फैक्ट्रियां हैं। मीडिया उद्योग भी यहां का एक बड़ा नियोक्ता है। भारत के प्रधान दूरदर्शन व उपग्रह तंत्रजाल (नेटवर्क), व मुख्य प्रकाशन गृह यहीं से चलते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग का केन्द्र भी यहीं स्थित है, जिससे प्रति वर्ष विश्व की सर्वाधिक फिल्में रिलीज़ होती हैं। बॉलीवुड शब्द बाँम्बे व हॉलीवुड को मिलाकर निर्मित है। मराठी दूरदर्शन एवं मराठी फिल्म उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शेष भारत की तरह, इसकी वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ने भी १९९१ के सरकारी उदारीकरण नीति के चलते आर्थिक उछाल (सहसावृद्धि) को देखा है। इसके साथ ही १९९० के मध्य दशक में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्यात, सेवाएं व बी पी ओ उद्योगों में भी उत्थान देखा है। मुंबई का मध्यम-वर्गीय नागरिक जहां इस उछाल से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वहीं वो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपभोक्ता उछाल का कर्ता भी है। इन लोगों की ऊपरावर्ती गतिशीलता ने उपभोक्तओं के जीवन स्तर व व्यय क्षमता को भी उछाला है। मुंबई को वित्तीय बहाव के आधार पर मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड के एक सर्वेक्षण में; विश्व के दस सर्वोच्च वाणिज्य केन्द्रों में से एक गिना गया है। नगर प्रशासन मुंबई में दो पृथक क्षेत्र हैं: नगर एवं उपनगर, यही महाराष्ट्र के दो जिले भी बनाते हैं। शहरी क्षेत्र को प्रायः द्वीप नगर या आइलैण्ड सिटी कहा जाता है। नगर का प्रशासन बृहन्मुंबई नगर निगम (बी एम सी) (पूर्व बंबई नगर निगम) के अधीन है, जिसकी कार्यपालक अधिकार नगर निगम आयुक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक आई ए एस अधिकारी को दिये गए हैं। निगम में 227 पार्षद हैं, जो 24 नगर निगम वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पाँच नामांकित पार्षद व एक महापौर हैं। निगम नागरिक सुविधाओं एवं शहर की अवसंरचना आवश्यकताओं के लिए प्रभारी है। एक सहायक निगम आयुक्त प्रत्येक वार्ड का प्रशासन देखता है। पार्षदों के चुनाव हेतु, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशि खड़े करतीं हैं। मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 7 नगर निगम व 13 नगर परिषद हैं। बी एम सी के अलावा, यहां ठाणे, कल्याण-डोंभीवली, नवी मुंबई, मीरा भयंदर, भिवंडी-निज़ामपुर एवं उल्हासनगर की नगरमहापालिकाएं व नगरपालिकाएं हैं। ग्रेटर मुंबई में महाराष्ट्र के दो जिले बनते हैं, प्रत्येक का एक जिलाध्यक्ष है। जिलाध्यक्ष जिले की सम्पत्ति लेख, केंद्र सरकार के राजस्व संग्रहण के लिए उत्तरदायी होता है। इसके साथ ही वह शहर में होने वाले चुनावों पर भी नज़र रखता है। मुंबई पुलिस का अध्यक्ष पुलिस आयुक्त होता है, जो आई पी एस अधिकारी होता है। मुंबई पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। नगर सात पुलिस ज़ोन व सत्रह यातायात पुलिस ज़ोन में बंटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यातायात पुलिस मुंबई पुलिस के अधीन एक स्वायत्त संस्था है। मुंबई अग्निशमन दल विभाग का अध्यक्ष एक मुख्य फायर अधिकारी होता है, जिसके अधीन चार उप मुख्य फायर अधिकारी व छः मंडलीय अधिकारी होते हैं। मुंबई में ही बंबई उच्च न्यायालय स्थित है, जिसके अधिकार-क्षेत्र में महाराष्ट्र, गोआ राज्य एवं दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली के केंद्र शासित प्रदेश भी आते हैं। मुंबई में दो निम्न न्यायालय भी हैं, स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट –नागरिक मामलों हेतु, व विशेष टाडा (टेररिस्ट एण्ड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज़) न्यायालय –जहां आतंकवादियों व फैलाने वालों व विध्वंसक प्रवृत्ति व गतिविधियों में पहड़े गए लोगों पर मुकदमें चलाए जाते हैं। शहर में लोक सभा की छः व महाराष्ट्र विधान सभा की चौंतीस सीटें हैं। मुंबई की महापौर शुभा रावल हैं, नगर निगम आयुक्त हैं जयराज फाटाक एवं शेर्रिफ हैं इंदु साहनी। यातायात मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में मेट्रो रेल सेवा में है मुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है। बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं। बेस्ट के अधीन लगभग 3,408 बसें चलतीं हैं, जो प्रतिदिन लगभग 4.5 मिलियन यात्रियों को 340 बस-रूटों पर लाती ले जातीं हैं। इसके बेड़े में सिंगल-डेकर, डबल-डेकर, वेस्टीब्यूल, लो-फ्लोर, डिसेबल्ड फ्रेंड्ली, वातानुकूलित एवं हाल ही में जुड़ीं यूरो-तीन सम्मत सी एन जी चालित बसें सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एम एस आर टी सी) की अन्तर्शहरीय यातायात सेवा है, जो मुंबई को राज्य व अन्य राज्यों के शहरों से जोड़तीं हैं। मुंबई दर्शन सेवा के द्वारा पर्यटक यहां के स्थानीय पर्यटन स्थलों का एक दिवसीय दौरा कर सकते हैं। काली व पीली, मीटर-युक्त टैसी सेवा पूरे शहर में उपलब्ध है। मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं, जो सी एन जी चालित हैं, व भाड़े पर चलते हैं। ये तिपहिया सवारी जाने आने का उपयुक्त साधन हैं। ये भाड़े के यातायात का सबसे सस्ता जरिया हैं, व इनमें तीन सवारियां बैठ सकतीं हैं। मुंबई का छत्रपति शिवाजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (पूर्व सहर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र) दक्षिण एशिया का व्यस्ततम हवाई अड्डा है। जूहू विमानक्षेत्र भारत का प्रथम विमानक्षेत्र है, जिसमें फ्लाइंग क्लब व एक हैलीपोर्ट भी हैं। प्रस्तावित नवी मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, जो कोपरा-पन्वेल क्षेत्र में बनना है, को सरकार की मंजूरी मिल चुकी है, पूरा होने पर, वर्तमान हवाई अड्डे का भार काफी हद तक कम कर देगा। मुंबई में देश के 25% अन्तर्देशीय व 38% अन्तर्राष्ट्रीय यात्री यातायात सम्पन्न होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मुंबई में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक पत्तन उपलब्ध हैं। यहां से ही देश के यात्री व कार्गो का 50% आवागमन होता है। यह भारतीय नौसेना का एक महत्वपूर्ण बेस भी है, क्योंकि यहां पश्चिमी नौसैनिक कमान भी स्थित है। फैरी भी द्वीपों आदि के लिए उपलब्ध हैं, जो कि द्वीपों व तटीय स्थलों पर जाने का एक सस्ता जरिया हैं। उपयोगिता सेवाएं बी एम सी शहर की पेय जलापूर्ति करता है। इस जल का अधिकांश भाग तुलसी एवं विहार झील से तथा कुछ अन्य उत्तरी झीलों से आता है। यह जल भाण्डुप एशिया के सबसे बड़े जल-शोधन संयंत्र में में शोधित कर आपूर्ति के लिए उपलब्ध कराया जाता है। भारत की प्रथम भूमिगत जल-सुरंग भी मुंबई में ही बनने वाली है। बी एम सी ही शहर की सड़क रखरखाव और कूड़ा प्रबंधन भी देखता है। प्रतिदिन शहर का लगभग ७८०० मीट्रिक टन कूड़ा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मुलुंड, उत्तर-पश्चिम में गोराई और पूर्व में देवनार में डम्प किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट वर्ली और बांद्रा में कर सागर में निष्कासित किया जाता है। मुंबई शहर में विद्युत आपूर्ति बेस्ट, रिलायंस एनर्जी, टाटा पावर और महावितरण (महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लि.) करते हैं। यहां की अधिकांश आपूर्ति जल-विद्युत और नाभिकीय शक्ति से होती है। शहर की विद्युत खपत उत्पादन क्षमता को पछाड़ती जा रही है। शहर का सबसे बड़ा दूरभाष सेवा प्रदाता एम टी एन एल है। इसकी २००० तक लैंडलाइन और सेल्युलर सेवा पर मोनोपॉली थी। आज यहां मोबाइल सेवा प्रदाताओं में एयरटेल, वोडाफोन, एम टी एन एल, बी पी एल, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा इंडिकॉम हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए सेवाएं, दोनों ही उपलब्ध हैं। एम टी एन एल एवं टाटा यहां ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध कराते हैं। जनसांख्यिकी २००१ की जनगणना अनुसार मुंबई की जनसंख्या ११,९१४,३९८ थी। वर्ल्ड गैज़ेटियर द्वारा २००८ में किये गये गणना कार्यक्रम के अनुसार मुंबई की जनसंख्या १३,६६२,८८५ थी। तभी मुंबई महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या २१,३४७,४१२ थी। यहां की जनसंख्या घनत्व २२,००० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। २००१ की जनगणना अनुसार बी.एम.सी के प्रशासनाधीन ग्रेटर मुंबई क्षेत्र की साक्षरता दर ७७.४५% थी, जो राष्ट्रीय औसत ६४.८% से अधिक थी। यहां का लिंग अनुपात ७७४ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष द्वीपीय क्षेत्र में, ८२६ उपनगरीय क्षेत्र और ८११ ग्रेटर मुंबई में, जो आंकड़े सभी राष्ट्रीय औसत अनुपात ९३३ से नीचे हैं। यह निम्नतर लिंग अनुपात बड़ी संख्या में रोजगार हेतु आये प्रवासी पुरुषों के कारण है, जो अपने परिवार को अपने मूल स्थान में ही छोड़कर आते हैं। मुंबई में ६७.३९% हिन्दू, १८.५६% मुस्लिम, ३.९९% जैन और ३.७२% ईसाई लोग हैं। इनमें शेष जनता सिख और पारसीयों की है। मुंबई में पुरातनतम, मुस्लिम संप्रदाय में दाउदी बोहरे, खोजे और कोंकणी मुस्लिम हैं। स्थानीय ईसाइयों में ईस्ट इंडियन कैथोलिक्स हैं, जिनका धर्मांतरण पुर्तगालियों ने १६वीं शताब्दी में किया था। शहर की जनसंख्या का एक छोटा अंश इज़्राइली बेने यहूदी और पारसीयों का भी है, जो लगभग १६०० वर्ष पूर्व यहां फारस की खाड़ी या यमन से आये थे। मुंबई में भारत के किसी भी महानगर की अपेक्षा सबसे अधिक बहुभाषियों की संख्या है।महाराष्ट्र राज्य की आधिकारिक राजभाषा मराठी है। अन्य बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी हैं। एक सर्वसाधारण की बोलचाल की निम्न-स्तरीय भाषा है बम्बइया हिन्दी जिसमें अधिकांश शब्द और व्याकरण तो हिन्दी का ही है, किंतु इसके अलावा मराठी और अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं। इसके अलावा कुछ शब्द यही अविष्कृत हैं। मुंबई के लोग अपने ऑफ को मुंबईकर या मुंबैयाइट्स कहलाते हैं। उच्चस्तरीय व्यावसाय में संलग्न लोगों द्वारा अंग्रेज़ी को वरीयता दी जाती है। मुंबई में भी तीव्र गति से शहरीकरण को अग्रसर विकसित देशों के शहरों द्वारा देखी जारही प्रधान शहरीकरण समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इनमें गरीबी, बेरोजगारी, गिरता जन-स्वास्थ्य और अशिक्षा/असाक्षरता प्रमुख हैं। यहां की भूमि के मूल्य इतने ऊंचे हो गये हैं, कि लोगों को निम्नस्तरीय क्षेत्रों में अपने व्यवसाय स्थल से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सड़कों पर यातायात जाम और लोक-परिवहन आदि में अत्यधिक भीड़ बढ़ती ही जा रही हैं। मुंबई की कुल जनसंख्या का लगभग ६०% अंश गंदी बस्तियों और झुग्गियों में बसता है। धारावी, एशिया की दूसरी सबसे बड़ी स्लम-बस्त्ती मध्य मुंबई में स्थित है, जिसमें ८ लाख लोग रहते हैं। ये स्लम भी मुंबई के पर्यटक आकर्षण बनते जा रहे हैं। मुंबई में प्रवारियों की संख्या १९९१-२००१ में ११.२ लाख थी, जो मुंबई की जनसंख्या में कुल बढ़त का ५४.८% है। २००७ में मुंबई की अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज अपराध) १८६.२ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो राष्ट्रीय औसत १७५.१ से कुछ ही अधिक है, किंतु भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहर सूची के अन्य शहरों की औसत दर ३१२.३ से बहुत नीचे है। शहर की मुख्य जेल अर्थर रोड जेल है। संस्कृति मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है। मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं। मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है।—दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी। मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं। हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है। यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं। मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है। नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे। यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था। मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है। यह मुंबई के लेखकों जैसे मोहन आप्टे, अनन्त आत्माराम काणेकर और बाल गंगाधर तिलक के कार्यों में सदा दृष्टिगोचर रहा है। इसको वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार से और प्रोत्साहन मिला है। मुंबई शहर की इमारतों में झलक्ता स्थापत्य, गोथिक स्थापत्य, इंडो रेनेनिक, आर्ट डेको और अन्य समकालीन स्थापत्य शैलियों का संगम है। ब्रिटिश काल की अधिकांश इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय, गोथिक शैली में निर्मित हैं। इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है, जैसे जर्मन गेबल, डच शैली की छतें, स्विस शैली में काष्ठ कला, रोमन मेहराब साथ ही परंपरागत भारतीय घटक भी दिखते हैं। कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें भी हैं, जैसे गेटवे ऑफ इंडिया। आर्ट डेको शैली के निर्माण मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे दिखाई देते हैं। मुंबई में मायामी के बाद विश्व में सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की इमारतें मिलती हैं। नये उपनगरीय क्षेत्रों में आधुनिक इमारतें अधिक दिखती हैं। मुंबई में अब तक भारत में सबसे अधिक गगनचुम्बी इमारतें हैं। इनमें ९५६ बनी हुई हैं और २७२ निर्माणाधीन हैं। (२००९ के अनुसार) १९९५ में स्थापित, मुंबई धरोहर संरक्षण समिति (एम.एच.सी.सी) शहर में स्थित धरोहर स्थलों के संरक्षण का ध्यान रखती है। मुंबई में दो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और एलीफेंटा की गुफाएं शहर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में नरीमन पाइंट, गिरगांव चौपाटी, जुहू बीच और मैरीन ड्राइव आते हैं। एसेल वर्ल्ड यहां का थीम पार्क है, जो गोरई बीच के निकट स्थित है। यहीं एशिया का सबसे बड़ा थीम वाटर पार्क, वॉटर किंगडम भी है। मुंबई के निवासी भारतीय त्यौहार मनाने के साथ-साथ अन्य त्यौहार भी मनाते हैं। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, दशहरा, दुर्गा पूजा, महाशिवरात्रि, मुहर्रम आदि प्रमुख त्यौहार हैं। इनके अलावा गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी कुछ अधिक धूम-धाम के संग मनाये जाते हैं। गणेश-उत्सव में शहर में जगह जगह बहुत विशाल एवं भव्य पंडाल लगाये जाते हैं, जिनमें भगवान गणपति की विशाल मूर्तियों की स्थापना की जाती है। ये मूर्तियां दस दिन बाद अनंत चौदस के दिन सागर में विसर्जित कर दी जाती हैं। जन्माष्टमी के दिन सभी मुहल्लों में समितियों द्वारा बहुत ऊंचा माखान का मटका बांधा जाता है। इसे मुहल्ले के बच्चे और लड़के मुलकर जुगत लगाकर फोड़ते हैं। काला घोड़ा कला उत्सव कला की एक प्रदर्शनी होती है, जिसमें विभिन्न कला-क्षेत्रों जैसे संगीत, नृत्य, रंगमंच और चलचित्र आदि के क्षेत्र से कार्यों का प्रदर्शन होता है। सप्ताह भर लंबा बांद्रा उत्सव स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाता है। बाणागंगा उत्सव दो-दिवसीय वार्षिक संगीत उत्सव होता है, जो जनवरी माह में आयोजित होता है। ये उत्सव महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एम.टी.डी.सी) द्वारा ऐतिहाशिक बाणगंगा सरोवर के निकट आयोजित किया जाटा है। एलीफेंटा उत्सव—प्रत्येक फरवरी माह में एलीफेंटा द्वीप पर आयोजित किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम ढेरों भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है। शहर और प्रदेश का खास सार्वजनिक अवकाश १ मई को महाराष्ट्र दिवस के रूप में महाराष्ट्र राज्य के गठन की १ मई, १९६० की वर्षागांठ मनाने के लिए होता है। मुंबई के भगिनि शहर समझौते निम्न शहरों से हैं: योकोहामा, जापान लॉस एंजिलिस, संयुक्त राज्य लंदन, यूनाइटेड किंगडम बर्लिन, जर्मनी स्टुगार्ट, जर्मनी पीटर्सबर्ग, रूस मीडिया मुंबई में बहुत से समाचार-पत्र, प्रकाशन गृह, दूरदर्शन और रेडियो स्टेशन हैं। मराठी समाचारपत्र में नवकाल, महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, लोकमत, सकाल आदि प्रमुख हैं। मुंबई में प्रमुख अंग्रेज़ी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, मिड डे, हिन्दुस्तान टाइम्स, डेली न्यूज़ अनालिसिस एवं इंडियन एक्स्प्रेस आते हैं। हिंदी का सबसे पुराना और सार्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र टाइम्स समूह का हिंदी का अखबार नवभारत टाइम्स भी मुंबई का प्रमुख हिंदी भाषी समाचार पत्र है। मुंबई में ही एशिया का सबसे पुराना समाचार-पत्र बॉम्बे समाचार भी निकलता है। बॉम्बे दर्पण प्रथम मराठी समाचार-पत्र था, जिसे बालशास्त्री जाम्भेकर ने १८३२ में आरंभ किया था। यहां बहुत से भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल्स उपलब्ध हैं। यह महानगर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया निगमों और मुद्रकों एवं प्रकाशकों का केन्द्र भी है। राष्ट्रीय टेलीवीज़र प्रसारक दूरदर्शन, दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित करता है, और तीन मुख्य केबल नेटवर्क अन्य सभी चैनल उपलब्ध कराते हैं। केबल चैनलों की विस्तृत सूची में ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, ज़ी मराठी, ईटीवी मराठी, डीडी सह्याद्री, मी मराठी, ज़ी टाकीज़, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, सोनी टीवी और नये चैनल जैसे स्टार मांझा आइ कई मराठी टीवी चैनल व अन्य भाषाओं के चैनल शामिल हैं। मुंबई के लिए पूर्ण समर्पित चैनलों में सहारा समय मुंबई आदि चैनल हैं। इनके अलावा डी.टी.एच प्रणाली अपनी ऊंची लागत के कारण अभी अधिक परिमाण नहीं बना पायी है। प्रमुख डीटीएच सेवा प्रदाताओं में डिश टीवी, बिग टीवी, टाटा स्काई और सन टीवी हैं। मुंबई में बारह रेडियो चैनल हैं, जिनमें से नौ एफ़ एम एवं तीन ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन हैं जो ए एम प्रसारण करते हैं। मुंबई में कमर्शियल रेडियो प्रसारण प्रदाता भी उपलब्ध हैं, जिनमें वर्ल्ड स्पेस, सायरस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम सैटेलाइट रेडियो प्रमुख हैं। बॉलीवुड, हिन्दी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। इस उद्योग में प्रतिवर्शः १५०-२०० फिल्में बनती हैं। बॉलीवुड का नाम अमरीकी चलचित्र उद्योग के शहर हॉलीवुड के आगे बंबई का ब लगा कर निकला हुआ है। २१वीं शताब्दी ने बॉलीवुड की सागरपार प्रसिद्धि के नये आयाम देखे हैं। इस कारण फिल्म निर्माण की गुणवत्ता, सिनेमैटोग्राफ़ी आदि में नयी ऊंचाइयां दिखायी दी हैं। गोरेगांव और फिल सिटी स्थित स्टूडियो में ही अधिकांश फिल्मों की शूटिंग होतीं हैं। मराठी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शिक्षा Grant medical College Mumbai मुंबई के विद्यालय या तो नगरपालिका विद्यालय होते हैं, या निजी विद्यालय होते हैं, जो किसी न्यास या व्यक्ति द्वारा चलाये जा रहे होते हैं। इनमें से कुछ निजी विद्यालयों को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है। ये विद्यालय महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड, अखिल भारतीय काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आई.सी.एस.ई) या सीबीएसी बोर्ड द्वारा संबद्ध होते हैं। यहां मराठी या अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम होता है। सरकारी सार्वजनिक विद्यालयों में वित्तीय अभाव के चलते बहुत सी कमियां होती हैं, किंतु गरीब लोगों का यही सहारा है, क्योंकि वे महंगे निजी विद्यालय का भार वहन नहीं कर सकते हैं। १०+२+३ योजना के अंतर्गत, विद्यार्थी दस वर्ष का विद्यालय समाप्त कर दो वर्ष कनिष्ठ कालिज (ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा) में भर्ती होते हैं। यहां उन्हें तीन क्षेत्रों में से एक चुनना होता है: कला, विज्ञान या वाणिज्य। इसके भाद उन्हें सामान्यतया एक ३-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम अपने चुने क्षेत्र में कर ना होता है, जैसे विधि, अभियांत्रिकी या चिकित्सा इत्यादि। शहर के अधिकांश महाविद्यालय मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, जो स्नातओं की संख्यानुसार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बंबई), वीरमाता जीजाबाई प्रौद्योगिकी संस्थान (वी.जे.टी.आई), और युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (यू.आई.सी.टी), भारत के प्रधान अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थानों में आते हैं और [[एस एन डी टी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के स्वायत्त विश्वविद्यालय हैं। मुंबई में जमनालाल बजाज प्रबंधन शिक्षा संस्थान, एस पी जैन प्रबंधन एवं शोध संस्थान एवं बहुत से अन्य प्रबंधन महाविद्यालय हैं। मुंबई स्थित गवर्नमेंट लॉ कालिज तथा सिडनहैम कालिज, भारत के पुरातनतम क्रमशः विधि एवं वाणिज्य महाविद्यालय हैं। सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई का पुरातनतम कला महाविद्यालय है। मुंबई में दो प्रधान अनुसंधान संस्थान भी हैं: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर), तथा भाभा आण्विक अनुसंधान केन्द्र (बी.ए.आर.सी). भाभा संस्थान ही सी आई आर यू एस, ४० मेगावाट नाभिकीय भट्टी चलाता है, जो उनके ट्राम्‍बे स्थित संस्थान में स्थापित है। क्रीड़ा क्रिकेट शहर और देश के सबसे चहेते खेलों में से एक है।. महानगरों में मैदानों की कमी के चलते गलियों का क्रिकेट सबसे प्रचलित है। मुंबई में ही भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) स्थित है। मुंबई क्रिकेट टीम रणजी ट्रॉफी में शहर का प्रतिनिधित्व करती है। इसको अब तक ३८ खिताब मिले हैं, जो किसी भी टीम को मिलने वाले खिताबों से अधिक हैं। शहर की एक और टीम मुंबई इंडियंस भी है, जो इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम है। शहर में दो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान हैं- वान्खेड़े स्टेडियम और ब्रेबोर्न स्टेडियम शहर में आयोजित हुए सबसे बड़े क्रिकेट कार्यक्रम में आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी का २००६ का फाइनल था। यह ब्रेबोर्न स्टेडियम में हुआ था। मुंबई से प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ियों में विश्व-प्रसिद्ध सचिन तेन्दुलकर और सुनील गावस्कर हैं। क्रिकेट की प्रसिद्ध के चलते हॉकी कुछ नीचे दब गया है। मुंबई की मराठा वारियर्स प्रीमियर हाकी लीग में शहर की टीम है। प्रत्येक फरवरी में मुंबई में डर्बी रेस घुड़दौड़ होती है। यह महालक्ष्मी रेसकोर्स में आयोजित की जाती है। यूनाइटेड ब्रीवरीज़ डर्बी भी टर्फ़ क्लब में फ़रवरी में माह में ही आयोजित की जाती है। फार्मूला वन कार रेस के प्रेमी भी यहां बढ़ते ही जा रहे हैं, २००८ में, फोर्स इंडिया (एफ़ १) टीम कार मुंबई में अनावृत हुई थी। मार्च २००४ में यहां मुंबई ग्रैंड प्रिक्स एफ़ १ पावरबोट रेस की विश्व प्रतियोगिता का भाग आयोजित हुआ था। चित्र दीर्घा पर्यटन समुद्र के किनारे स्थित, मुंबई भारत का सबसे महानगरीय महानगर है। यह भारत का सबसे बड़ा शहर और देश का वित्तीय केंद्र भी है। अन्वेषण के अंतहीन अवसरों के साथ, शहर का सबसे उल्लेखनीय आकर्षण गेटवे ऑफ इंडिया है, जिसे 1911 में शाही यात्रा के रूप में बनाया गया था। मुंबई में भारत में नाइटलाइफ़ का एक अद्भुत नमूना है जिसे एक टीम के साथी के साथ अनुभव किया जा सकता है। आपके कर्मचारी अपनी टीम के साथ एक महान नाइटलाइफ़ अनुभव के लिए बाहर निकलना पसंद करेंगे। उन्हें एक अद्भुत नाइटलाइफ़ अनुभव का उपहार देने के लिए सूची चुनें। इन्हें भी देखें मुंबई यौन संग्रहालय मुंबई सपनो का शहर क्यों कहा जाता है सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ बृहन्मुंबई नगरमहापालिका की आधिकारिक वेबसाइट आधिकारिक नगर रिपोर्ट मुम्बई - गूगल खोज परिणाम महाराष्ट्र के शहर भूतपूर्व पुर्तगाली उपनिवेश तटवर्ती शहर उच्च-प्रौद्योगिकी व्यापार जिले भारत के नगर मुम्बई शहर ज़िला मुम्बई शहर ज़िले के नगर
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दीपावली ( = दीप + आवलिः = पंक्ति, अर्थात् पंक्ति में रखे हुए दीपक) शरदृतु (उत्तरी गोलार्ध) में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला एक पौराणिक सनातन उत्सव है। यह कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है और भारत के सबसे बड़े और सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। आध्यात्मिक रूप से यह 'अन्धकार पर प्रकाश की विजय' को दर्शाता है। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी पर्वों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात (हे भगवान!) मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाइए। यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का हृदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है और असत्य का नाश होता है। दीपावली यही चरितार्थ करती है- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी स्वच्छ कर सजाते हैं। बाजारों में गलियों को भी स्वर्णिम झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाजार सब स्वच्छ और सजे दिखते हैं। दीपावली के दिन नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और औस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश होता है। शब्द उत्पत्ति दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' अर्थात 'दिया' व 'आवली' अर्थात 'लाइन' या 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है। कुछ लोग "दीपावली" तो कुछ "दिपावली" ; वही कुछ लोग "दिवाली" तो कुछ लोग "दीवाली" का प्रयोग करते है । स्थानिक प्रयोग दिवारी है और 'दिपाली'-'दीपालि' भी। इसके उत्सव में घरों के द्वारों, घरों व मंदिरों पर लाखों प्रकाशकों को प्रज्वलित किया जाता है। दीपावली जिसे दिवाली भी कहते हैं उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे : 'दीपावली' (उड़िया), दीपाबॉली'(बंगाली), 'दीपावली' (असमी, कन्नड़, मलयालम:ദീപാവലി, तमिल:தீபாவளி और तेलुगू), 'दिवाली' (गुजराती:દિવાળી, हिन्दी, दिवाली, मराठी:दिवाळी, कोंकणी:दिवाळी,पंजाबी), 'दियारी' (सिंधी:दियारी‎), और 'तिहार' (नेपाली) मारवाड़ी में दियाळी। इतिहास भारत में प्राचीन काल से दीपावली को विक्रम संवत के कार्तिक माह में गर्मी की फसल के बाद के एक त्योहार के रूप में दर्शाया गया। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीपावली का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ये ग्रन्थ पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू कैलंडर अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है। कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीपावली को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ते हैं। नचिकेता की कथा जो सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है; पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में लिखित है। दिपावली का इतिहास रामायण से भी जुड़ा हुआ है, ऐसा माना जाता है कि श्री राम चन्द्र जी ने माता सीता को रावण की कैद से छुड़ाया तथा उनकी अग्नि परीक्षा के उपरान्त, 14 वर्ष का वनवास व्यतीत कर अयोध्या वापस लोटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री राम चन्द्र जी, माता सीता, तथा अनुज लक्षमण के स्वागत हेतु सम्पूर्ण अयोध्या को दीप जलाकर रोशन किया था, तभी से दीपावली अर्थात दीपों का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन आपको यह जानकर बहुत हैरानी होगी की अयोध्या में केवल 2 वर्ष ही दिपावली मनायी गई थी। ७वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सवः कहा है जिसमें दीये जलाये जाते थे और नव वर-बधू को उपहार दिए जाते थे। 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी, ने भारत पर अपने ११ वीं सदी के संस्मरण में, दीपावली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है। महत्त्व दीपावली नेपाल और भारत में सबसे सुखद छुट्टियों में से एक है। लोग अपने घरों को साफ कर उन्हें उत्सव के लिए सजाते हैं। नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। दीपावली नेपाल और भारत में सबसे बड़े शॉपिंग सीजन में से एक है; इस दौरान लोग कारें और सोने के गहने आदि महंगी वस्तुएँ तथा स्वयं और अपने परिवारों के लिए कपड़े, उपहार, उपकरण, रसोई के बर्तन आदि खरीदते हैं। लोगों अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों को उपहार स्वरुप आम तौर पर मिठाइयाँ व सूखे मेवे देते हैं। इस दिन बच्चे अपने माता-पिता और बड़ों से अच्छाई और बुराई या प्रकाश और अंधेरे के बीच लड़ाई के बारे में प्राचीन कहानियों, कथाओं, मिथकों के बारे में सुनते हैं। इस दौरान लड़कियाँ और महिलाएँ खरीदारी के लिए जाती हैं और फर्श, दरवाजे के पास और रास्तों पर रंगोली और अन्य रचनात्मक पैटर्न बनाती हैं। युवा और वयस्क आतिशबाजी और प्रकाश व्यवस्था में एक दूसरे की सहायता करते हैं। क्षेत्रीय आधार पर प्रथाओं और रीति-रिवाजों में बदलाव पाया जाता है। धन और समृद्धि की देवी - लक्ष्मी या एक से अधिक देवताओं की पूजा की जाती है। दीपावली की रात को, आतिशबाजी आसमान को रोशन कर देती है। बाद में, परिवार के सदस्य और आमंत्रित मित्रगण भोजन और मिठायों के साथ रात को दीपावली मनाते हैं। आध्यात्मिक महत्त्व दीपावली को विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं, कहानियों या मिथकों को चिह्नित करने के लिए हिंदू, जैन और सिखों द्वारा मनायी जाती है लेकिन वे सब बुराई पर अच्छाई, अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और निराशा पर आशा की विजय के दर्शाते हैं। हिन्दुओं के योग, वेदान्त, और सांख्य दर्शन में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध, अनन्त, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है। दीपावली, आध्यात्मिक अन्धकार पर आन्तरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है। हिंदू धर्म दीपावली का धार्मिक महत्व हिंदू दर्शन, क्षेत्रीय मिथकों, किंवदंतियों, और मान्यताओं पर निर्भर करता है। प्राचीन हिंदू ग्रन्थ रामायण में बताया गया है कि, कई लोग दीपावली को 14 साल के वनवास पश्चात भगवान राम व पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की वापसी के सम्मान के रूप में मानते हैं। अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत अनुसार कुछ दीपावली को 12 वर्षों के वनवास व 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में मानते हैं। कई हिंदु दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी तथा उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से शुरू होता है। दीपावली की रात वह दिन है जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की। लक्ष्मी के साथ-साथ भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश; संगीत, साहित्य की प्रतीक सरस्वती; और धन प्रबंधक कुबेर को प्रसाद अर्पित करते हैं कुछ दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं। भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में हिन्दू लक्ष्मी की जगह काली की पूजा करते हैं, और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं। मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान कृष्ण से जुड़ा मानते हैं। अन्य क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अन्नकूट) की दावत में कृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है और सांझे रूप से स्थानीय समुदाय द्वारा मनाया जाता है। भारत के कुछ पश्चिम और उत्तरी भागों में दीपावली का त्योहार एक नये हिन्दू वर्ष की शुरुआत का प्रतीक हैं। दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं। राम भक्तों के अनुसार दीपावली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी में आज भी लोग यह पर्व मनाते है। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैन समाज द्वारा दीपावली, महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाई जाती है। महावीर स्वामी (वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर) को इसी दिन (कार्तिक अमावस्या) को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः अन्य सम्प्रदायों से जैन दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है। सिख सिक्खों के लिए भी दीपावली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। और इसके अलावा 1619 में दीपावली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। ऐतिहासिक महत्व पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे। आर्थिक महत्व दीपावली का त्यौहार भारत में एक प्रमुख खरीदारी की अवधि का प्रतीक है। उपभोक्ता खरीद और आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में दीपावली, पश्चिम में क्रिसमस के बराबर है। यह पर्व नए कपड़े, घर के सामान, उपहार, सोने और अन्य बड़ी ख़रीददारी का समय होता है। इस त्योहार पर खर्च और ख़रीद को शुभ माना जाता है क्योंकि लक्ष्मी को, धन, समृद्धि, और निवेश की देवी माना जाता है। दीवाली भारत में सोने और गहने की ख़रीद का सबसे बड़ा सीज़न है। मिठाई, 'कैंडी' और आतिशबाजी की ख़रीद भी इस दौरान अपने चरम सीमा पर रहती है। प्रत्येक वर्ष दीपावली के दौरान पांच हज़ार करोड़ रुपए के पटाखों आदि की खपत होती है। संसार के अन्य भागों में दीपावली को विशेष रूप से हिंदू, जैन और सिख समुदाय के साथ विशेष रूप से दुनिया भर में मनाया जाता है। ये, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी, मॉरीशस, केन्या, तंजानिया, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड, कनाडा, ब्रिटेन शामिल संयुक्त अरब अमीरात, और संयुक्त राज्य अमेरिका। भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीपावली मनाने वाले देशों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। कुछ देशों में यह भारतीय प्रवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाया जाता है, अन्य दूसरे स्थानों में यह सामान्य स्थानीय संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। इन देशों में अधिकांशतः दीपावली को कुछ मामूली बदलाव के साथ इस लेख में वर्णित रूप में उसी तर्ज पर मनाया जाता है पर कुछ महत्वपूर्ण विविधताएँ उल्लेख के लायक हैं। एशिया नेपाल दीपावली को "तिहार" या "स्वन्ति" के रूप में जाना जाता है। यह भारत में दीपावली के साथ ही पांच दिन की अवधि तक मनाया जाता है। परन्तु परम्पराओं में भारत से भिन्नता पायी जाती है। पहले दिन 'काग तिहार' पर, कौए को परमात्मा का दूत होने की मान्यता के कारण प्रसाद दिया जाता है। दूसरे दिन 'कुकुर तिहार' पर, कुत्तों को अपनी ईमानदारी के लिए भोजन दिया जाता है। काग और कुकुर तिहार के बाद 'गाय तिहार' और 'गोरु तिहार' में, गाय और बैल को सजाया जाता है। तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा की जाती है। इस नेपाल संवत् अनुसार यह साल का आखिरी दिन है, इस दिन व्यापारी अपने सारे खातों को साफ कर उन्हें समाप्त कर देते हैं। लक्ष्मी पूजा से पहले, मकान साफ ​​किया और सजाया जाता है; लक्ष्मी पूजा के दिन, तेल के दीयों को दरवाजे और खिड़कियों के पास जलाया जाता है। चौथे दिन को नए वर्ष के रूप में मनाया जाता है। सांस्कृतिक जुलूस और अन्य समारोहों को भी इसी दिन मनाया जाता है।पांचवे और अंतिम दिन को "भाई टीका" (भाई दूज देखें) कहा जाता, भाई बहनों से मिलते हैं, एक दूसरे को माला पहनाते व भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं। माथे पर टीका लगाया जाता है। भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं और बहने उन्हें भोजन करवाती हैं। मलेशिया दीपावली मलेशिया में एक संघीय सार्वजनिक अवकाश है। यहां भी यह काफी हद तक भारतीय उपमहाद्वीप की परंपराओं के साथ ही मनाया जाता है। 'ओपन हाउसेस' मलेशियाई हिन्दू (तमिल,तेलुगू और मलयाली)द्वारा आयोजित किये जाते हैं जिसमें भोजन के लिए अपने घर में अलग अलग जातियों और धर्मों के साथी मलेशियाई लोगों का स्वागत किया जाता है। मलेशिया में दीपावली का त्यौहार धार्मिक सद्भावना और मलेशिया के धार्मिक और जातीय समूहों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए एक अवसर बन गया है। सिंगापुर दीपावली एक राजपत्रित सार्वजनिक अवकाश है। अल्पसंख्यक भारतीय समुदाय (तमिल) द्वारा इसे मुख्य रूप से मनाया जाता है, यह आम तौर पर छोटे भारतीय जिलों में, भारतीय समुदाय द्वारा लाइट-अप द्वारा चिह्नित किया जाता है। इसके अलावा बाजारों, प्रदर्शनियों, परेड और संगीत के रूप में अन्य गतिविधियों को भी लिटिल इंडिया के इलाके में इस दौरान शामिल किया जाता है। सिंगापुर की सरकार के साथ-साथ सिंगापुर के हिंदू बंदोबस्ती बोर्ड इस उत्सव के दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करता है। श्री लंका यह त्यौहार इस द्वीप देश में एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में तमिल समुदाय द्वारा मनाया जाता है। इस दिन पर लोग द्वारा सामान्यतः सुबह के समय तेल से स्नान करा जाता है , नए कपड़े पहने जाते हैं, उपहार दिए जाते है, पुसै (पूजा) के लिए कोइल (हिंदू मंदिर) जाते हैं। त्योहार की शाम को पटाखे जलना एक आम बात है। हिंदुओं द्वारा आशीर्वाद के लिए व घर से सभी बुराइयों को सदा के लिए दूर करने के लिए धन की देवी लक्ष्मी को तेल के दिए जलाकर आमंत्रित किया जाता है। श्रीलंका में जश्न के अलावा खेल, आतिशबाजी, गायन और नृत्य, व भोज आदि का अयोजन किया जाता है। एशिया के परे ऑस्ट्रेलिया ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न में, दीपावली को भारतीय मूल के लोगों और स्थानीय लोगों के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली को विक्टोरियन आबादी और मुख्यधारा द्वारा गर्मजोशी से अपनाया गया है। सेलिब्रेट इंडिया इंकॉर्पोरेशन ने 2006 में मेलबोर्न में प्रतिष्ठित फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली समारोह शुरू किया था। अब यह समारोह मेलबॉर्न के कला कैलेंडर का हिस्सा बन गया है और शहर में इस समारोह को एक सप्ताह से अधिक तक मनाया जाता है। पिछले वर्ष 56,000 से अधिक लोगों ने समारोह के अंतिम दिन पर फेडरेशन स्क्वायर का दौरा किया था और मनोरंजक लाइव संगीत, पारंपरिक कला, शिल्प और नृत्य और यारा नदी पर शानदार आतिशबाज़ीे के साथ ही भारतीय व्यंजनों की विविधता का आनंद लिया। विक्टोरियन संसद, मेलबोर्न संग्रहालय, फेडरेशन स्क्वायर, मेलबोर्न हवाई अड्डे और भारतीय वाणिज्य दूतावास सहित कई प्रतिष्ठित इमारतों को इस सप्ताह अधिक सजाया जाता है। इसके साथ ही, कई बाहरी नृत्य का प्रदर्शन होता हैं। दीपावली की यह घटना नियमित रूप से राष्ट्रीय संगठनों एएफएल, क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया, व्हाइट रिबन, मेलबोर्न हवाई अड्डे जैसे संगठनों और कलाकारों को आकर्षित करती है। स्वयंसेवकों की एक टीम व उनकी भागीदारी और योगदान से यह एक विशाल आयोजन के रूप में भारतीय समुदाय को प्रदर्शित करता है। अकेले इस त्योहार के दौरान एक सप्ताह की अवधि में भाग लेने आये लोगों की संख्या के कारण फेडरेशन स्क्वायर पर दिवाली को ऑस्ट्रेलिया में सबसे बड़े उत्सव के रूप में पहचाना जाता है। ऑस्ट्रेलियाई बाहरी राज्य क्षेत्र, क्रिसमस द्वीप पर, दीपावली के अवसर पर ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया के कई द्वीपों में आम अन्य स्थानीय समारोहों के साथ, एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में मान्यता प्राप्त है। संयुक्त राज्य अमेरिका 2003 में दीपावली को व्हाइट हाउस में पहली बार मनाया गया और पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश द्वारा 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका कांग्रेस द्वारा इसे आधिकारिक दर्जा दिया गया। 2009 में बराक ओबामा, व्हाइट हाउस में व्यक्तिगत रूप से दीपावली में भाग लेने वाले पहले राष्ट्रपति बने। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में भारत की अपनी पहली यात्रा की पूर्व संध्या पर, ओबामा ने दीवाली की शुभकामनाएं बांटने के लिए एक आधिकारिक बयान जारी किया। 2009 में काउबॉय स्टेडियम में, दीपावली मेला में 100,000 लोगों की उपस्थिति का दावा किया था। 2009 में, सैन एन्टोनियो आतिशबाजी प्रदर्शन सहित एक अधिकारिक दीपावली उत्सव को प्रायोजित करने वाला पहला अमेरिकी शहर बन गया; जिसमे 2012 में, 15,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था। वर्ष 2011 में न्यूयॉर्क शहर, पियरे में, जोकि अब टाटा समूह के ताज होटल द्वारा संचालित हैं, ने अपनी पहली दीपावली उत्सव का आयोजन किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 3 लाख हिंदू हैं। ब्रिटेन ब्रिटेन में भारतीय लोग बड़े उत्साह के साथ दिपावली मनाते हैं। लोग अपने घरों को दीपक और मोमबत्तियों के साथ सजाते और स्वच्छ करते हैं। दीया एक प्रकार का प्रसिद्ध मोमबत्ति हैं। लोग लड्डू और बर्फी जैसी मिठाइयो को भी एक दूसरे में बाटते है, और विभिन्न समुदायों के लोग एक धार्मिक समारोह के लिए इकट्ठा होते है और उसमे भाग लेते हैं। भारत में परिवार से संपर्क करने और संभवतः उपहार के आदान प्रदान के लिए भी यह एक बहुत अच्छा अवसर है। व्यापक ब्रिटिश के अधिक गैर-हिंदु नागरिकों को सराहना चेतना के रूप में दीपावली के त्योहार की स्वीकृति मिलना शुरू हो गया है और इस अवसर पर वो हिंदू धर्म का जश्न मानते है। हिंदुओ के इस त्यौहार को पूरे ब्रिटेन भर में मनाना समुदाय के बाकी लोगों के लिए विभिन्न संस्कृतियों को समझने का अवसर लाता है। पिछले दशक के दौरान प्रिंस चार्ल्स जैसे राष्ट्रीय और नागरिक नेताओं ने ब्रिटेन के Neasden में स्थित स्वामीनारायण मंदिर जैसे कुछ प्रमुख हिंदू मंदिरों में दीपावली समारोह में भाग लिया है, और ब्रिटिश जीवन के लिए हिंदू समुदाय के योगदान की प्रशंसा करने के लिए इस अवसर का उपयोग किया। वर्ष 2013 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और उनकी पत्नी, दीपावली और हिंदू नववर्ष अंकन Annakut त्योहार मनाने के लिए Neasden में बीएपीएस स्वामीनारायण मंदिर में हजारों भक्तों के साथ शामिल हो गए। 2009 के बाद से, दीपावली हर साल ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निवास स्थान, 10 डाउनिंग स्ट्रीट, पर मनाया जा रहा है। वार्षिक उत्सव, गॉर्डन ब्राउन द्वारा शुरू करना और डेविड कैमरन द्वारा जारी रखना, ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा की मेजबानी की सबसे प्रत्याशित घटनाओं में से एक है। लीसेस्टर भारत के बाहर कुछ सबसे बड़ी दिपावली समारोह के लिए मेजबान की भूमिका निभाता है। न्यूज़ीलैंड न्यूजीलैंड में, दीपावली दक्षिण एशियाई प्रवासी के सांस्कृतिक समूहों में से कई के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में एक बड़े समूह दिपावली मानते हैं जो भारत-फ़ीजी समुदायों के सदस्य हैं जोकि प्रवासित हैं और वहाँ बसे हैं। दिवाली 2003 में, एक अधिकारिक स्वागत के बाद न्यूजीलैंड की संसद पर आयोजित किया गया था। दीपावली हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। त्योहार अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर न्याय, अज्ञान से अधिक बुराई और खुफिया पर अच्छाई, की विजय का प्रतीक हैं। लक्ष्मी माता को पूजा जाता है। लक्ष्मी माता प्रकाश, धन और सौंदर्य की देवी हैं। बर्फी और प्रसाद दिपावली के विशेष खाद्य पदार्थ हैं। फिजी फिजी में, दीपावली एक सार्वजनिक अवकाश है और इस धार्मिक त्यौहार को हिंदुओं (जो फिजी की आबादी का करीब एक तिहाई भाग का गठन करते है) द्वारा एक साथ मनाया जाता है, और सांस्कृतिक रूप से फिजी के दौड़ के सदस्यों के बीच हिस्सा लेते है और यह बहुत समय इंतजार करने के बाद साल में एक बार आता है। यह मूल रूप से 19 वीं सदी के दौरान फिजी के तत्कालीन कालोनी में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से आयातित गिरमिटिया मजदूरों द्वारा मनाया है, सरकार की कामना के रूप में फिजी के तीन सबसे बड़े धर्मों, यानि, ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम के प्रत्येक की एक अलग से धार्मिक सार्वजनिक छुट्टी करने की स्थापना के लिए यह 1970 में स्वतंत्रता पर एक छुट्टी के रूप में स्थापित किया गया था। फिजी में, भारत में दिपावली समारोह से एक बड़े पैमाने पर मनाया जाने के रूप में दीपावली पर अक्सर भारतीय समुदाय के लोगों द्वारा विरोध किया जाता है, आतिशबाजी और दीपावली से संबंधित घटनाओं को वास्तविक दिन से कम से कम एक सप्ताह शुरू पहले किया जाता है। इसकी एक और विशेषता है कि दीपावली का सांस्कृतिक उत्सव (अपने पारंपरिक रूप से धार्मिक उत्सव से अलग), जहां फिजीवासियों भारतीय मूल या भारत-फिजीवासियों, हिंदू, ईसाई, सिख या अन्य सांस्कृतिक समूहों के साथ मुस्लिम भी फिजी में एक समय पर दोस्तों और परिवार के साथ मिलने और फिजी में छुट्टियों के मौसम की शुरुआत का संकेत के रूप में दीपावली का जश्न मनाते है। व्यावसायिक पक्ष पर, दीपावली कई छोटे बिक्री और मुफ्त विज्ञापन वस्तुएँ के लिए एक सही समय है। फिजी में दीपावली समारोह ने, उपमहाद्वीप पर समारोह से स्पष्ट रूप से अलग, अपने खुद के एक स्वभाव पर ले लिया है। समारोह के लिए कुछ दिन पहले नए और विशेष कपड़े, साथ साड़ी और अन्य भारतीय कपड़ों में ड्रेसिंग के साथ सांस्कृतिक समूहों के बीच खरीदना, और सफाई करना, दीपावली इस समय का प्रतिक होता है। घरों को साफ करते हैं और तेल के लैंप या दीये जलाते हैं। सजावट को रंगीन रोशनी, मोमबत्तियाँ और कागज लालटेन, साथ ही धार्मिक प्रतीकों का उपयोग कर रंग के चावल और चाक से बाहर का एक रंगीन सरणी साथ गठन कर के घर के आसपास बनाते है। परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों और घरों के लिए बनाए गये निमंत्रण पत्र खुल जाते है। उपहार बनते हैं और प्रार्थना या पूजा हिन्दुओं द्वारा किया जाता है। मिठाई और सब्जियों के व्यंजन अक्सर इस समय के दौरान खाया जाता है और आतिशबाजी दिपावली से दो दिन पहले और बाद तक में जलाए जाते है। अफ्रीका मॉरिशस अफ्रीकी हिंदू बहुसंख्यक देश मॉरिशस में यह एक अधिकारिक सार्वजनिक अवकाश है। रीयूनियन रियूनियन में, कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग भारतीय मूल का है और हिंदुओं द्वारा इसे मनाया जाता है। पर्वों का समूह दीपावली दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं। दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग नए-नए वस्त्र सिलवाते हैं। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। इस दिन बाज़ारों में चारों तरफ़ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाज़ियों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ, आतिशबाज़ियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है।भाई दूज या भैया द्वीज को यम द्वितीय भी कहते हैं। इस दिन भाई और बहिन गांठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बहिन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगा कर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी प्रत्युत्तर में उसे भेंट देता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं। परम्परा अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीपावली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीपावली की बहुत उमंग होती है। लोग अपने घरों का कोना-कोना साफ़ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के उपहार एक दूसरे को बाँटते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं। घर-घर में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, दिये जलाए जाते हैं और आतिशबाजी की जाती है। बड़े छोटे सभी इस त्योहार में भाग लेते हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीपावली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीपावली की बहुत उमंग होती है। सबसे पहले चौकी पर लाल कपड़ा बिछाये लाल कपडे के बीच में गणेश जी और लक्ष्मी माता की मूर्तियां रखे. लक्ष्मी जी को ध्यान से गणेश जी के दाहिने तरफ ही बिढाये और दोनों मूर्तियों का चेहरा पूरब ौ पश्चिम दिशा की तरफ रखे. अब दोनों मूर्तियों के आगे थोड़े रुपए इच्छा अनुसार सोने चांदी के आभुश्ण और चांदी के 5 सिक्के भी रख दे. यह चांदी के सिक्के ही कुबेर जी का रूप है. लक्ष्मी जी की मूर्ति के दाहिनी ओर अछत से अष्टदल बनाएं यानी कि आठ दिशाएं उंगली से बनाए बीच से बाहर की ओर फिर जल से भरे कलश को उस पर रख दे . कलश के अंदर थोड़ा चंदन दुर्व पंचरत्न सुपारी आम के या केले के पत्ते डालकर मौली से बंधा हुआ नारियल उसमें रखें. पानी के बर्तन यानि जल पात्र में साफ पानी भरकर उसमें मौली बांधे और थोड़ा सा गंगाजल उसमें मिलाएं. इसके बाद चौकी के सामने बाकी पूजा सामग्री कि थालीया रखे. दो बडे दिये मे देसी घी डालकर और ग्यारह छोटे दिये मे सरसो का तेल भर तैयार करके रखे. घर के सभी लोगों के बैठ्ने के लिए चौकी के बगल आसन बना ले. ध्यान रखें ये सभी काम शुभ मुहुरत शुरू होने से पहले ही करने होंगे. शुभ मुहुरत शुरू होने से पहले घर के सभी लोग नहा कर नए कपड़े पहन कर तैयार हो जाएं और आसन ग्रह्ण करें. आतिशबाज़ी दुनिया के अन्य प्रमुख त्योहारों के साथ ही दीपावली में भी आतिशबाजी की जाती है। आतिशबाजी को खुशियों को दिखाने का एक माध्यम भी माना जाता है, लेकिन इसके कारण पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव चिंता योग्य है। वायु प्रदूषण विद्वानों के अनुसार आतिशबाजी के दौरान इतना वायु प्रदूषण नहीं होता जितना आतिशबाजी के बाद, जो आतिशबाजी के पूर्व स्तर से करीब चार गुना बदतर और सामान्य दिनों के औसत स्तर से दो गुना बुरा पाया जाता है। इस अध्ययन की वजह से पता चलता है कि आतिशबाज़ी के बाद हवा में धूल के महीन कण PM2.5 हवा में उपस्थित रहते हैं। यह प्रदूषण स्तर एक दिन के लिए रहता है, और प्रदूषक सांद्रता 24 घंटे के बाद वास्तविक स्तर पर लौटने लगती है। अत्री एट अल की रिपोर्ट अनुसार नए साल की पूर्व संध्या या संबंधित राष्ट्रीय के स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया भर आतिशबाजी समारोह होते हैं जो ओजोन परत में छेद के कारक हैं। जलने की घटनाएं दीपावली की आतिशबाजी के दौरान भारत में जलने की चोटों में वृद्धि पायी गयी है। अनार नामक एक आतशबाज़ी को 65% चोटों का कारण पाया गया है। अधिकांशतः वयस्क इसका शिकार होते हैं। समाचार पत्र, घाव पर समुचित नर्सिंग के साथ प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए जले हुए हिस्से पर तुरंत ठंडे पानी को छिड़कने की सलाह देते हैं अधिकांश चोटें छोटी ही होती हैं जो प्राथमिक उपचार के बाद भर जाती हैं। दीपावली की प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं क्षेत्र अनुसार प्रार्थनाएं अगला-अलग होती हैं। उदाहरण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद की ये प्रार्थना जिसमें प्रकाश उत्सव चित्रित है: <poem>असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥</poem> अनुवाद: <poem> असत्य से सत्य की ओर। अंधकार से प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमरता की ओर।(हमें ले जाओ) ॐ शांति शांति शांति।।</poem> चित्र सन्दर्भ हिन्दू त्यौहार संस्कृति भारतीय पर्व हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना भारत में त्यौहार
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "दीपावली", "token_count": 40244, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80" }
भारत देश के निवासियों को भारतीय कहा जाता है। भारत को हिन्दुस्तान नाम से भी पुकारा जाता है और इसीलिये भारतीयों को हिन्दुस्तानी भी कहतें है। भारतीय व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति भारतीय खाना भारतीय पोशाक भारतीय उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था भारतीय संगीत भारतीय शहर भारतीय धर्म
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "भारतीय", "token_count": 429, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF" }
जीव विज्ञान में, विशेष प्रजाति के जीव प्रजनन के संग्रह को जनसंख्या कहते हैं; समाजशास्त्र में इसे मनुष्यों का संग्रह कहते हैं। जनसँख्या के अन्दर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति कुछ पहलू एक दुसरे से बांटते हैं जो कि सांख्यिकीय रूप से अलग हो सकता है, लेकिन अगर आमतौर पर देखें तो ये अंतर इतने अस्पष्ट होते हैं कि इनके आधार पर कोई निर्धारण नहीं किया जा सकता. जनसांख्यिकी का प्रयोग विपणन में व्यापक रूप से होता है, ये आर्थिक इकाइयों, जैसे कि खुदरा व्यापारियों, संभावित ग्राहकों से सम्बंधित हैं। उदाहरण के लिए, एक कॉफी की दुकान है जो कि युवाओं को अपना ग्राहक बनाना चाहता है, ऐसा करने के लिए वो क्षेत्रों की जनसांख्यिकी को देखता है ताकि वो युवा दर्शकों को आकर्षित करने में सक्षम हो पाए. जनसंख्या वितरण को प्रभावित करने वाले कारक कौन से हैं विश्व जनसंख्या के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका की जनगणना ब्यूरो द्वारा विश्व की जनसंख्या अनुमानित तौर पर 8अरब है। संयुक्त राज्य अमेरिका की जनगणना ब्यूरो द्वारा प्रकाशित पत्रों के अनुसार, विश्व की जनसंख्या 24 फ़रवरी 2006 को6.3अरब 650,00,00,000) के आंकड़े तक पहुँच गई थी। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने अक्टूबर 12, 1999 को सबसे क़रीबी दिन के तौर पर नामित किया है जिस दिन विश्व की जनसँख्या 6 अरब तक पहुँच गई थी। यह 1987 में विश्व जनसंख्या के 5 अरब तक पहुँचने के लगभग 12 साल बाद और 1993 में विश्व जनसंख्या के 5.5 अरब तक पहुँने के 6 साल बाद हुआ। हालाँकि, नाइजीरिया और चीन जैसे कुछ देशों की जनसंख्या लगभग लाख के पास भी ज्ञात नहीं है, इसलिए इस प्रकार के अनुमानों में बहुत ज़्यादा त्रुटियों के होने की गुंजाइश है। 1700 वीं शताब्दी के बाद जैसे जैसे औद्योगिक क्रांति तेज़ गति से बढ़ती गयी वैसे वैसे जनसंख्या वृद्धि में भी काफ़ी बढ़त देखने को मिली. पिछले 50 वर्षों में जनसंख्या वृद्धि की दर और भी ज़्यादा तेज़ हुयी है और इसकी मुख्य वजह है चिकित्सा जगत में हुईं तरक़्क़ी और कृषि उत्पादकता में होने वाली महत्वपूर्ण बढ़त, ख़ास तौर से वर्ष 1960 से 1995 के बीच हरित क्रांति के कारण हुई प्रगति. सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग ने अनुमान लगाया कि वर्ष 2055 में दुनिया की आबादी 10 अरब के आँकड़े को पार कर जाएगी. भविष्य में, उम्मीद है कि दुनिया की आबादी में वृद्धि शिखर तक पहुंचेगी और उसके बाद आर्थिक कारणों, स्वास्थ्य चिंताओं, भूमि के अंधाधुंध प्रयोग और उसकी कमी और पर्यावरणीय संकटों के कारण आबादी कम होने लगेगी. इस बात की भी 85% संभावना है कि इस सदी के अंत से पहले दुनिया की आबादी बढ़नी बंद हो जायेगी. 60% संभावना है कि दुनिया की जनसंख्या वर्ष 2100 से पहले १० अरब लोगों से अधिक नहीं होगी और करीब 15% संभावना है कि सदी के अंत में विश्व की जनसंख्या आज की तिथि में विश्व की कुल जनसंख्या से कम हो जाएगी. विभिन्न क्षेत्रों के लिए, सर्वाधिक जनसंख्या के तारीख़ और आकार में काफ़ी भिन्नता होगी। जनसंख्या नियंत्रण जन्म दर को कम करके जनसंख्या वृद्धि में कटौती करने को ही आम तौर पर जनसँख्या नियंत्रण माना जाता है। प्राचीन ग्रीस दस्तावेजों में मिले उत्तरजीविता के रिकॉर्ड जनसँख्या नियंत्रण के अभ्यास एवं प्रयोग के सबसे पहले उदाहरण हैं। इसमें शामिल है उपनिवेशन आन्दोलन, जिसमे भूमध्य और काला सागर के इर्द-गिर्द यूनानी चौकियों का निर्माण किया गया ताकि अलग- अलग राज्यों की अधिक जनसँख्या को बसने के लिए पर्याप्त जगह मुहैया कराई जा सके। कुछ यूनानी नगर राज्यों में जनसँख्या कम करने के लिए शिशु हत्या और गर्भपात को प्रोत्साहन दिया गया। अनिवार्य जनसंख्या नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की एक ही बच्चे की नीति जिसमें एक से ज्यादा बच्चे होना बहुत बुरा माना जाता है। इस नीति के परिणाम स्वरुप जबरन गर्भपात, जबरन नसबंदी और जबरन शिशु हत्या जैसे आरोपों को बढ़ावा मिला। देश के लिंग अनुपात में ११४ लड़कों की तुलना में सिर्फ १०० लड़कियों का जन्म ये प्रदर्शित करता है कि शिशु हत्या प्रायः लिंग के चुनाव के अनुसार की जाती है। यह बात उपयोगी होगी अगर प्रजनन नियंत्रण करने को व्यक्ति के व्यक्तिगत निर्णय के रूप में और जनसंख्या नियंत्रण को सरकारी या राज्य स्तर की जनसंख्या वृद्धि की विनियमन नीति के रूप में देखा जाए| प्रजनन नियंत्रण की संभावना तब हो सकती है जब कोई व्यक्ति या दम्पति या परिवार अपने बच्चे पैदा करने के समय को घटाने या उसे नियंत्रित करने के लिए कोई कदम उठाये| अन्सले कोले द्वारा दिए गए संरूपण में, प्रजनन में लगातार कमी करने के लिए तीन पूर्वप्रतिबंध दिए गए हैं: (१) प्रजनन के मान्य तत्व के रूप में परिकलित चुनाव को स्वीकृति (भाग्य या अवसर या दैवीय इच्छा की तुलना में), (२) कम किये गए प्रजनन से ज्ञात लाभ और (३) नियंत्रण के प्रभावी तरीकों का ज्ञान और उनका प्रयोग करने का कुशल अभ्यास. प्राकृतिक प्रजनन पर विश्वास करने वाले समाज के विपरीत वो समाज जो कि प्रजनन को सीमित करने की इच्छा रखते हैं और ऐसा करने के लिए उनके पास संसाधन भी उपलब्ध हैं। वो इन संसाधनों का प्रयोग बच्चों के जन्म में विलम्ब, बच्चों के जन्म के बीच अंतर रखने, या उनके जन्म को रोकने के लिए कर सकते हैं। संभोग (या शादी) में देरी, या गर्भनिरोध करने के प्राकृतिक या कृत्रिम तरीके को अपनाना ज्यादा मामलों में व्यक्तिगत या पारिवारिक निर्णय होता है, इसका राज्य नीति या सामाजिक तौर पर होने वाले अनुमोदनों से कोई सरोकार नहीं होता है। दूसरी ओर, वो व्यक्ति, जो प्रजनन के मामले में खुद पर नियंत्रण रख सकते हैं, ऐसे लोग बच्चे पैदा करने की प्रक्रिया को ज्यादा योजनाबद्ध बनाने या उसे सफल बनाने की प्रक्रिया को और तेज़ कर सकते हैं। सामाजिक स्तर पर, प्रजनन में गिरावट होना महिलाओं की बढती हुई धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का एक अनिवार्य परिणाम है। हालाँकि, यह ज़रूरी नहीं है कि मध्यम से उच्च स्तर तक के प्रजनन नियंत्रण में प्रजनन दर को कम करना शामिल हो। यहां तक कि जब ऐसे अलग अलग समाज की तुलना हो जो प्रजनन नियंत्रण को अच्छी खासी तरह अपना चुके है, तो बराबर प्रजनन नियंत्रण योग्यता रखने वाले समाज भी काफी अलग अलग प्रजनन स्तर (जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या के सन्दर्भ में) दे सकते हैं, जो कि इस बात से जुड़ा होता है कि छोटे या बड़े परिवार के लिए या बच्चों की संख्या के लिए व्यक्तिगत और सांस्कृतिक पसंद क्या है। प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण के विपरीत, जो मुख्य रूप से एक व्यक्तिगत स्तर का निर्णय है, सरकार जनसँख्या नियंत्रण करने के कई प्रयास कर सकती है जैसे गर्भनिरोधक साधनों तक लोगों की पहुँच बढ़ाकर या अन्य जनसंख्या नीतियों और कार्यक्रमों के द्वारा. जैसा की ऊपर परिभाषित है, सरकार या सामाजिक स्तर पर 'जनसंख्या नियंत्रण' को लागू करने में "प्रजनन नियंत्रण" शामिल नहीं है, क्योंकि एक राज्य समाज की जनसंख्या को तब भी नियंत्रित कर सकता है जबकि समाज में प्रजनन नियंत्रण का प्रयोग बहुत कम किया जाता हो। जनसंख्या नियंत्रण के एक पहलू के रूप में आबादी बढाने वाली नीतियों को अंगीकृत करना भी ज़रूरी है और ज़रूरी है कि ये समझा जाए की सरकार जनसँख्या नियंत्रण के रूप में सिर्फ जनसख्या वृद्धि को रोकना नहीं चाहती| जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार न केवल अप्रवास का समर्थन कर सकती है बल्कि जन्म समर्थक नीतियों जैसे कि कर लाभ, वित्तीय पुरस्कार, छुट्टियों के दौरान वेतन देना जारी रखने और बच्चों कि देख रेख में मदद करने द्वारा भी लोगों को अतिरिक्त बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। उदाहरण के लिए हाल के सालों में इस तरह की नीतियों फ्रांस और स्वीडन में अपनाई गयीं। जनसंख्या वृद्धि बढ़ने के इसी लक्ष्य के साथ, कई बार सरकार ने गर्भपात और जन्म नियंत्रण के आधुनिक साधनों के प्रयोग को भी नियंत्रित करने की कोशिश की है। इसका एक उदाहरण है मांग किये जाने पर गर्भनिरोधक साधनों और गर्भपात के लिए वर्ष १९६६ में रोमानियामें लगा प्रतिबन्ध। पारिस्थितिकी में, कई बार जनसंख्या नियंत्रण पूरी तरह सिर्फ परभक्षण, बीमारी, परजीवी और पर्यावरण संबंधी कारकों द्वारा किया जाता है। एक निरंतर वातावरण में, जनसंख्या नियंत्रण भोजन, पानी और सुरक्षा की उपलब्धता द्वारा ही नियंत्रित होता है। एक निश्चित क्षेत्र अधिकतम कुल कितनी प्रजातियों या कुल कितने जीवित सदस्यों को सहारा दे सकता है उसे उस जगह की धारण क्षमता कहते हैं। कई बार इसमें पौधों और पशुओं पर मानव प्रभाव भी इसमें शामिल होता है। किसी विशेष ऋतू में भोजन और आश्रय की ज्यादा उपलब्धता वाले क्षेत्र की ओर पशुओं का पलायन जनसंख्या नियंत्रण के एक प्राकृतिक तरीके के रूप में देखा जा सकता है। जिस क्षेत्र से पलायन होता है वो अगली बार के लिए पशुओं के बड़े समूह हेतु भोजन आपूर्ति जुटाने या पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता है। आप्रवासभी देखें भारत एक और ऐसा उदाहरण है जहाँ सरकार ने देश की आबादी कम करने के लिए कई उपाय किये हैं। तेज़ी से बढती जनसँख्या आर्थिक वृद्धि और जीवन स्तर पर दुष्प्रभाव डालेगी, इस बात की चिंता के चलते १९५० के दशक के आखिर और १९६० के दशक के शुरू में भारत ने एक आधिकारिक परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किया; विश्व में ऐसा करने वाले ये पहला देश था। इन्हें भी देखें शून्य जनसंख्या वृद्धि विश्व जनसंख्या जनसांख्यिकी जीवन प्रत्याशा जनसंख्या पर आधारित देशों की सूची जनसंख्या घनत्व लिंग अनुपात ग्रामीण क्षेत्र नोट्स बाहरी कड़ियाँ यूएनएफपीए, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या श्रेणी सीआईसीआरईडी मुखपृष्ठ अनुसंधान केंद्र और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच संवाद करने का एक मंच जैसे कि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग, यूएनएफपीए, डब्ल्यूएचओ और एफएओ. वर्तमान विश्व जनसंख्या एनईसीएसपी मुखपृष्ठ अत्याधिक जनसंख्या जनसंख्या और स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी का आदान-प्रादान. 13 फ़रवरी 2005 को पुनः संशोधित. समाचार पात्र के मुखपृष्ठ में जनसंख्या सबसे अच्छा जनसंख्या ट्रस्ट गैलरी: दुनिया के दस सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश 13 मई 2009 को पुनः संशोधित. जनसंख्या संदर्भ ब्यूरो (2005). 13 फ़रवरी 2005 को पुनः संशोधित विश्व जनसंख्या: विश्व की जनसंख्या. 13 फ़रवरी 2004 को पुनः प्राप्त PopulationData.net - दुनिया भर में आबादी के बारे में सूचना और नक्शे. 4 मार्च 2005 को को पुनः संशोधित. PopulationData.net (2005). एसआईईडीएस, अर्थशास्त्र जनसांख्यिकी और सांख्यिकी का इतालवी समाज जनसंख्या के अंतर्गत? मर्कटरनेट संयुक्त राष्ट्र संघ (2004). जनसंख्या प्रभाग, आर्थिक और सामाजिक मामलों का विभाग. 13 फ़रवरी 2004 को पुनः संशोधित. यूरोप के लिए संयुक्त राष्ट्र का आर्थिक आयोग - सरकारी वेब साइट संयुक्त राज्य अमेरिका की जनगणना ब्यूरो (2005). जनगणना ब्यूरो - जनसंख्या के आधार पर जनगणना ब्यूरो देशों का क्रम. 13 फ़रवरी 2005 को पुनःसंशोधित. विश्व जनसंख्या काउंटर और अलग अलग क्षेत्रों. आबादी पारिस्थितिकी जनसंख्या समाज-शास्त्र जनसांख्यिकी गूगल परियोजना
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संख्याएँ वे गणितीय वस्तुएँ हैं जिनका उपयोग मापने, गिनने और नामकरण करने के लिए किया जाता है। १, २, ३, ४ आदि प्राकृतिक संख्याएँ इसकी सबसे मूलभूत उदाहरण हैं। इसके अलावा वास्तविक संख्याएँ (जैसे १२.४५, ९९.७५ आदि) और अन्य प्रकार की संख्याएँ भी आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्रयुक्त होतीं हैं। संख्याएँ हमारे जीवन के ढर्रे को निर्धरित करती हैं। केल्विन ने संख्याओं के बारे में कहा है कि आप किसी परिघटना के बारे में कुछ नहीं जानते यदि आप उसे संख्याओं के द्वारा अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जीवन के कुछ ऐसे क्षेत्रों में भी संख्याओं की अहमियत है जो इतने आम नहीं माने जाते। किसी धावक के समय में 0.001 सैकिंड का अंतर भी उसे स्वर्ण दिला सकता है या उसे इससे वंचित कर सकता है। किसी पहिए के व्यास में एक सेंटीमीटर के हजारवें हिस्से जितना फर्क उसे किसी घड़ी के लिए बेकार कर सकता है। किसी व्यक्ति की पहचान के लिए उसका टेलीफोन नंबर, राशन कार्ड पर पड़ा नंबर, बैंक खाते का नंबर या परीक्षा का रोल नंबर मददगार होते हैं। संख्याओं का उद्भव संख्याएं मानव सभ्यता जितनी ही पुरानी हैं। आक्सफोर्ड स्थित एशमोलियन अजायबघर में राजाधिकार का प्रतीक एक मिस्री शाही दंड (रायल मेस) रखा है, जिस पर 1,20,000 कैदियों, 4,00,000 बैलों और 14,22,000 बकरियों का रिकार्ड दर्ज है। इस रिकार्ड से जो 3400 ईसा पूर्व से पहले का है, पता चलता है कि प्राचीन काल में लोग बड़ी संख्याओं को लिखना जानते थे। बेशक संख्याओं की शुरूआत मिस्रवासियों से भी बहुत पहले हुई होगी। आदिमानव का गिनती से इतना वास्ता नहीं पड़ता था। रहने के लिए उसके पास गुफा थी, भोजन पेड़-पौधों द्वारा या फिर हथियारों से शिकार करके उसे मिल जाता था। मगर करीब 10,000 साल पहले जब आदिमानवों ने गाँवों में बस कर खेती का काम और पशुपालन आरंभ किया तो उनका जीवन पहले से कहीं अधिक जटिल हो गया। उन्हें अपने रोजमर्रा के कार्यक्रम के साथ अपने सार्वजनिक एवं पारिवारिक जीवन में भी नियमितता लाने की जरूरत महसूस हुई। उन्हें पशुओं की गिनती करने, कृषि उपज का हिसाब रखने, भूमि की पैमाइश तथा समय की जानकारी के लिए संख्याओं की जरूरत पड़ी। दुनिया के विभिन्न भागों में जैसे कि बेबीलोन, मिस्र, भारत, चीन तथा कई और स्थानों पर विभिन्न सभ्यताओं का निवास था। इन सभी सभ्यताओं ने संभवतया एक ही समय के दौरान अपनी-अपनी संख्या-पद्धतियों का विकास किया होगा। बेबीलोन निवासियों की प्राचीन मिट्टी की प्रतिमाओं में संख्याएं खुदी मिलती हैं। तेज धार वाली पतली डंडियों से वे गीली मिट्टी पर शंकु आकार के प्रतीक चिह्नों की खुदाई करते, बाद में इन्हें ईंटों की शक्ल दे देते। एक (1), दस (10), सौ (100) आदि के लिए विशेष प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता था। इन प्रतीकों की पुनरावृत्ति द्वारा ही वे किसी संख्या को प्रदर्शित करते जैसे कि 1000 को लिखने के लिए वे प्रतीक चिह्न का सहारा लेते। या फिर 100 की संख्या को दस बलिखते थे। बेबीलोनवासी काफी बड़ी संख्याओं की गिनती वे 60 की संख्या के माध्यम से ही करते, जैसा कि आजकल हम संख्या 10 के माध्यम से अपनी गिनती करते हैं। मिस्र के प्राचीन निवासी भी बड़ी संख्याओं की गिनती करना जानते थे तथा साल में 365 दिन होने की जानकारी उनके पास थी। संख्याओं का वर्गीकरण मूलतः संख्या का अर्थ 'प्राकृतिक संख्याओं' से लिया गया था। आगे चलकर धीरे-धीरे 'संख्याओं' का क्षेत्र विस्तृत होता गया तथा पूर्णांक, परिमेय संख्या, वास्तविक संख्या होते हुए समिश्र संख्या तक पहुँच चुका है। संख्याओं के समुच्चय में यह सम्बन्ध है: संख्याओं का महत्व एक आम आदमी के जीवन की निम्नांकित स्थितियों को देखिए: 1. सवेरे-सवेरे अलार्म घड़ी की आवाज एक दफ्तर जाने वाले को जगाती है। ‘‘छह बज गए; अब उठना चाहिए।’’ इस तरह उस व्यक्ति की दिनचर्या की शुरूआत होती है। 2. बस में कंडक्टर यात्री से कहता है : ‘‘चालीस पैसे और दीजिए।’’ यात्री : ‘‘क्यों मैं तो आपको सही भाड़ा दे चुका हूं।’’ कंडक्टर : ‘‘भाड़ा अब 25 प्रतिशत बढ़ गया है।’’ यात्री : ‘‘अच्छा, यह बात है।’’ 3. एक गृहिणी किसी महानगर में दूध के बूथ पर जा कर कहती है, ‘‘मुझे दो लीटर वाली एक थैली दीजिए।’’ ‘‘मेरे पास दो लीटर वाली थैली नहीं है।’’ ‘‘ठीक है, तब एक लीटर वाली एक थैली और आधे-आधे लीटर वाली दो थैलियां ही आप मुझे दे दीजिए।’’ 4. एक रेस्तरां में बिल पर नजर दौड़ाते हुए एक ग्राहक कहता है : ‘‘वेटर ! तुमने बिल के पैसे ठीक से नहीं जोड़े हैं। बिल 9.50 की बजाए 8.50 रु. का होना चाहिए।’’ ‘‘मुझे अफोसस है, श्रीमान् !’’ ये कुछ ऐसी स्थितियाँ हैं जो संख्याओं के रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल को दर्शाती हैं। अंक (डिजिट) स्थानीय मान भूतसंख्या पद्धति कटपयादि संख्या पद्धति आर्यभट की संख्यापद्धति संख्या सिद्धान्त अभाज्य संख्या या रूूूढ़ संख्याा (प्राइम नम्बर) गणितीय नियतांक भौतिक नियतांक परिमाण की कोटि (ऑर्डर ऑफ मैग्निट्यूड) पूर्ण संख्या और पूर्णांक संख्या== बाहरी कड़ियाँ == https://web.archive.org/web/20091004230123/http://eom.springer.de/a/a013260.htm Mesopotamian and Germanic numbers BBC Radio 4, In Our Time: Negative Numbers '4000 Years of Numbers', lecture by Robin Wilson, 07/11/07, Gresham College (available for download as MP3 or MP4, and as a text file)। https://web.archive.org/web/20121003185207/http://planetmath.org/encyclopedia/MayanMath2.html गणित अंकगणित गणितीय वस्तुएँ
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महाभारत भारत का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। इसे भारत भी कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। इसकी ऐतिहासिक वृद्धि और संरचनागत परतों को जानने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। महाभारत के थोक को शायद तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व और तीसरी शताब्दी के बीच संकलित किया गया था, जिसमें सबसे पुराने संरक्षित भाग ४०० ईसा पूर्व से अधिक पुराने नहीं थे। महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। पाठ संभवत: प्रारंभिक गुप्त राजवंश(c. ४ वीं शताब्दी सीई) द्वारा अपने अंतिम रूप में पहुंच गया। महाभारत के अनुसार, कथा को २४,००० श्लोकों के एक छोटे संस्करण से विस्तारित किया जाता है, जिसे केवल भारत कहा जाता है। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। मूल काव्य रचना इतिहास सम्पूर्ण महाभारत कथा (हिंदी)के सभी पर्व व अध्याय स्लोग संख्या सहित महर्षि वेदव्यास को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, जितना की आज दिखाई देता है। उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं: प्रारम्भिक अवस्थाएं १२००-६०० ईसा पूर्व ४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण १००० ईसा पूर्व महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण(११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी। ६००-४०० ईसा पूर्व पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतैव महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे। प्रथम शताब्दी यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्ररायसोसटम (Dio Chrysostom) यह बताते है की दक्षिण-भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रंथ है।, जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि। संस्कृत की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एमएस स्पित्ज़र पाण्डुलिपि में भी महाभारत के १८ पर्वों की अनुक्रमणिका दी गयी है, जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत १८ पर्वों के रूप में प्रसिद्ध थी, यद्यपि १०० पर्वों की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम १०० पर्वों में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने १८ पर्वों के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था। ५वीं शताब्दी महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है: पुरातत्त्व प्रमाण (१९०० ई.पू से पहले) सरस्वती नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारका भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं। निष्कर्ष इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता है कि महाभारत निश्चित तौर पर ३१००-१२०० ईसा पूर्व रची गयी होगीं, जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना ६००-२०० ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परंपरा द्वारा हम तक पीढी दर पीढी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है। परिचय आरम्भ महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं। विभिन्न नाम यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। ग्रन्थ लेखन की कथा महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रुकेंगे। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया। शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया। वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। विशालता महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है : महाभारत का १८ पर्वो और १०० उपपर्वो में विभाग पृष्ठभूमि और इतिहास महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अन्तत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। इस युद्ध की भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा कई भिन्न भिन्न निर्धारित की गयी तिथियाँ निम्नलिखित हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था। विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था। चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट पुलकेसि २ के ५वीं शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३, ७३५ वर्ष बीत गए है, इस दृष्टिकोण से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा। पुराणों की माने तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावली को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया था वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है। अधिकतर पश्चिमी विद्वान जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं। अधिकतर भारतीय विद्वान जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व और कुछ यूरोपीय विद्वान जैसे पी वी होले इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। भारतीय विद्वान पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्टूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था, मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढी को २०-३० वर्ष दे तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय हुआ होगा। महाभारत की संक्षिप्त कथा मुख्य उल्लेख :महाभारत की विस्तृत कथा कुरुवंश की उत्पत्ति और पाण्डु का राज्य अभिषेक पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु हुए। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये और राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की आज्ञा से व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र ने गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पांच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया। एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृगरुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी। उस ऋषि से शापित हो कि "अब जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तो तेरी मृत्यु हो जायेगी", पाण्डु अत्यन्त दुःखी होकर अपनी रानियों सहित समस्त वासनाओं का त्याग करके तथा हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को अपना का प्रतिनिधि बनाकर वन में रहने लगें। पाण्डवों का जन्म तथा लाक्षागृह षडयन्त्र राजा पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से यमराज को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर और कालान्तर में वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। कुन्ती से ही उस मन्त्र की दीक्षा ले माद्री ने अश्वनीकुमारों से नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया। एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण करते हुए पाण्डु के मन चंचल हो जाने से मैथुन में प्रवृत हुये जिससे शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई। कुन्ती ने विवाह से पहले सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया। धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन किया। कर्ण की रुचि युद्धकला में थी अतः द्रोणाचार्य के मना करने पर उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की। शकुनि के छलकपट से दुर्योधन ने पाण्डवों को बचपन में कई बार मारने का प्रयत्न किया तथा युवावस्था में भी जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाक्ष के बने हुए घर लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु विदुर की सहायता के कारण से वे उस जलते हुए गृह से बाहर निकल गये। द्रौपदी स्वयंवर पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और द्रुपद के नगर ओर उसकी चार दीवारी को देखकर पाण्‍डवों ने उस समय एक कुम्‍हार के घर में अपने रहने की व्‍यवस्‍था की वहाँ ब्राह्मणवृ‍ति का आश्रय ले वे भिक्षा मांगकर लाते (और उसी से निर्वाह करते) थे। इस प्रकार वहाँ पहुँचे हुए पाण्‍डव वीरों को कहीं कोई भी मनुष्‍य पहचान न सके। राजा द्रुपद ने घोषणा की कि जो वीर इस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाकर इन प्रस्‍तुत बाणों द्वारा ही यन्‍त्र के छेद के भीतर से इसे लांघकर लक्ष्‍यवेध करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्‍त कर सकेगा। फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था। वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं। माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद,धृष्टद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को सन्देह हो गया था कि वे पाँच ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। अतः उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलाया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसन्द के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं। इन्द्रप्रस्थ की स्थापना द्रौपदी स्वयंवर से पूर्व विदुर को छोड़कर सभी पाण्डवों को मृत समझने लगे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके अग्नि देव को तृप्त किया। इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ तथा श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया। द्रौपदी का अपमान और पाण्डवों का वनवास पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उनका वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो गया अतः शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने युधिष्ठिर के साथ जूए में प्रवृत्त होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। परन्तु गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया। धृतराष्ट्र ने एक बार फिर दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। इस प्रकार पुन जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित वन में चले गये। वहाँ बारहवाँ वर्ष बीतने पर एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वे विराट नगर में गये। जब कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया था परन्तु उनका का अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था। परन्तु १२ वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञातवास पूरा करने के बाद भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। शांतिदूत श्रीकृष्ण, युद्ध आरम्भ तथा गीता-उपदेश धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव अर्पित कर युद्ध टाल दों। श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भूमि भी देने से मना कर युद्ध करने का निशचय किया। ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने माया से अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर सबको भयभीत कर दिया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले कि दुर्योधन के साथ युद्ध करो। युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म और द्रोण वध भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मतस्यनरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। कर्ण और शल्य वध द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। यदुकुल का संहार और पाण्डवों का महाप्रस्थान ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अन्त होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये। इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में युधिष्ठिर को छोड़ सभी एक-एक करके गिर पड़े। अन्त में युधिष्ठिर इन्द्र के रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। और अधिक यहाँ महाभारत के पात्र मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्र अभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। गांडीव : अर्जुन का धनुष। [जो, कई मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव से इंद्र और उसके बाद अग्नि देव अंत में अग्नि-देव ने अर्जुन को दिया था।] गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी। जयद्रथ : सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काट कर वध किया था। कर्ण : सूर्यदेव एवमं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण को दानवीर-कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुये थे और उनका दान इंद्र को किया था। कृपाचार्य : हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरु। इनकी बहिन 'कृपि' का विवाह द्रोण से हुआ था। कृष्ण : देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे। कुरुक्षेत्र : वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र आज के भारत में हरियाणा में स्थित है। पाण्डव : पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पांच भाई थे: युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। परशुराम : अर्थात् परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरु थे। वे भगवान विष्णु का षष्ठम अवतार थे। शल्य : नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई। उत्तरा : राजा विराट की पुत्री। अभिमन्यु कि धर्म्पत्नी। महर्षि व्यास : महाभारत महाकाव्य के लेखक। पाराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था। बलराम : देवकी की सातवीं संतान और शेषनाग के अवतार थे। मान्यता है कि इन्हें नंद की दूसरी पत्नी रोहिणी ने कंस से बचने के लिए देवकी गर्भ से बलराम को धारण किया था। सुभद्रा : यह महारथी अर्जुन की पत्नी एवं भगवान कृष्ण तथा बलराम की बहन थी। रुक्मिणी : कृष्णा की पत्नी महाभारत: अनुपम काव्य विभिन्न भाग एवं रूपान्तर महाभारत के कई भाग हैं जो आमतौर पर अपने आप में एक अलग और पूर्ण पुस्तकें मानी जाती हैं। मुख्य रूप से इन भागों को अलग से महत्व दिया जाता है:- भगवद गीता श्री कृष्ण द्वारा भीष्मपर्व में अर्जुन को दिया गया उपदेश। दमयन्ती अथवा नल दमयन्ती, अरण्यकपर्व में एक प्रेम कथा। कृष्णवार्ता : भगवान श्री कृष्ण की कहानी। राम रामायण का अरण्यकपर्व में एक संक्षिप्त रूप। ॠष्य ॠंग एक ॠषि की प्रेम कथा। विष्णुसहस्रनाम विष्णु के १००० नामों की महिमा शान्तिपर्व में। महाभारत के दक्षिण एशिया मे कई रूपान्तर मिलते हैं, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, बर्मा (म्यान्मार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत मे अधिकतम १,४०,००० श्लोक मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर मे १,१०,००० श्लोक मिलते हैं। अठारह की संख्या महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग हैं। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठारह हैं। महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रंथ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया हैं और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं। सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त हैं। आद्य भारत महाभारत के आदिपर्व के अनुसार वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पन्द्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। पृथ्वी के भौगोलिक सन्दर्भ महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल, मिस्र की नील नदी, लाल सागर तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है-: सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्। -- वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है: चित्र दीर्घा कुरु वंशवृक्ष संज्ञासूची पुरुष: नीला किनारा स्त्री: लाल किनारा पांडव: हरा पृष्ठ कौरव: पीला पृष्ठ टिप्पणी क: शांतनु कुरु वंशके राजा थे। उनका प्रथम विवाह गंगा के साथ और दूसरा विवाह सत्यवती के साथ हुआ था। ख: पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद व्यास द्वारा नियोग पद्धति से किया गया था। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को क्रमशः अंबिका, अंबालिका और एक दासी ने जन्मा था। ग: कर्ण को कुंती ने जन्मा था। पांडु के साथ विवाह के पूर्व उसने सूर्य देव का आवाहन किया था जिससे कर्ण उत्पन्न हुए थे। घ: युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडु के पुत्र थे किन्तु उनको कुन्ती एवं माद्री ने विभिन्न देवताओं का आवाहन करके जन्मा था। पाँचों पाण्डवों का विवाह, द्रौपदी से हुआ था, जिसको इस सारणी में नहीं दिखाया गया है। च : दुर्योधन और उसके सभी भाई-बहन एक ही समय में जन्मे थे। वे पाण्डवों के समवयस्क थे। महाभारत के संकलन में दान वर्ष 1932 था। भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान, पुना को हिंदू महाकाव्य, महाभारत के प्रकाशन और गेस्ट हाउस के निर्माण के लिए पैसे की जरूरत थी। सातवें निज़ाम, मीर उस्मान अली खान को औपचारिक अनुरोध किया गया था। उन्होंने 'फार्मन' जारी करने में कोई समय नहीं दिया, 11 साल के लिए 1,000 रूपये प्रति वर्ष। गेस्ट हाउस के लिए रु। 50,000 की पेशकश की गई थी। प्रचलित मीडिया में १९८८ के लगभग बी आर चोपड़ा निर्मित महाभारत, भारत में दूरदर्शन पर पहली बार धारावाहिक रूप में प्रसारित हुआ। १९८९ में पीटर ब्रुक द्वारा पहली बार यह फिल्म अंग्रेजी में बनी। महाभारत नाम से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी साहित्यिक कृति है। कहानियाँ हमारे महाभारत की नाम से एकता कपूर ने भी एक दूरदर्शन धारावाहिक बनाया था, जिसका प्रसारण २००७ में ९एक्स चैनल पर किया जाता था। एक और महाभारत: भारतीय रेल के अधिकारियों तथा विभिन्न कर्मचारियों द्वारा कहानी संग्रह। कुरुक्षेत्र में एक महाभारत दीर्घा का निर्माण हो रहा है, जिसमें तब के कुछ दृश्यों को जीवंत हुआ देखा जा सकेगा। १००० महाभारत प्रश्नोत्तरी नामक पुस्तक, में महाभारत के गहन ज्ञान पर गुप्त १००० प्रश्न हैं। इन्हें भी देखें महाभारत के विभिन्न संस्करण महाभारत (निराला की रचना) रामायण महाभारत की संक्षिप्त कथा महाभारत के पात्र महाभारत (टीवी धारावाहिक) महाभारत के पर्व कहानियाँ हमारे महाभारत की (टीवी धारावाहिक) हरिवंश पर्व </div> सन्दर्भ और टीका बाहरी कड़ियाँ महाभारत (हिन्दी में सम्पूर्ण कथा) महाभारत ओड़िया महाभारत ; भाग-१ (गूगल पुस्तक) ओड़िया महाभारत ; भाग-२ (गूगल पुस्तक) भारत का इतिहास महाभारत भारतीय साहित्य पर महाभारत का प्रभाव (गूगल पुस्तक ; चन्द्रकान्त वांदिवडेकर) स्वर्गारोहण - महाभारत की प्रमुख कहानियाँ व पात्रों का विवरण (गुजराती में) महाभारत - यहाँ महाभारत का खोजने योग्य डेटाबेस तथा अन्य सुविधाएँ हैं। इन्टरनेट सैक्रेड टेक्स्ट आर्काइव पर महाभारत - यहाँ देवनागरी और रोमन में महाभारत का पाठ उपलब्ध है; अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है; और एक जिप संचिका के रूप में सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। महर्षि वेद विश्वविद्यालय - यहाँ देवनागरी विपुल संस्कृत साहित्य उपलब्ध है। सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। महाभारत रिसोर्सेस The Mahabharata of Krishna-Dwaipayana Vyasa translated by Kisari Mohan Ganguli (published between 1883 and 1896) महाभारत के बारे मे कुछ अनसुने तथ्य Dating Mahabharata to 2000 BC: Archaeologists Shift from Painted Grey-Ware to Ochre Coloured Pottery चलचित्र १९८९ मूवी पीटर ब्रुक द्वारा निर्देशित १९८० मूवी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित। यह चलचित्र महाभारत की कहानी पर आधारित है और आधुनिक युग के संदर्भ में कहानी की पुनः वुयाख्या करता है, जिसमें दो परिवार एक औद्योगिक संकाय पर नियन्त्रन के लिए लड़ रहे हैं। महाभारत महाभारत कथा पौराणिक कथाएँ ऐतिहासिक वीर गाथाएँ काव्य ग्रन्थ धार्मिक अध्ययन ग्रंथ
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गुजराती भारत की एक भाषा है जो गुजरात राज्य, दीव और मुंबई में बोली जाती है। गुजराती साहित्य भारतीय भाषाओं के सबसे अधिक समृद्ध साहित्य में से है। भारत की दूसरी भाषाओं की तरह गुजराती भाषा का जन्म संस्कृत भाषा से हुआ हैं। दूसरे राज्य एवं विदेशों में भी गुजराती बोलने वाले लोग निवास करते हैं। जिन में पाकिस्तान, अमेरिका, यु.के., केन्या, सिंगापुर, अफ्रिका, ऑस्ट्रेलीया मुख्य है। महात्मा गांधी एवं वल्लभ भाई पटेल। गुजराती बोलने वाले भारत के दूसरे महानुभावों में भीमराव आम्बेडकर, मुहम्मद अली जिन्ना, दयानंद सरस्वती, मोरारजी देसाई, धीरूभाई अंबानी भी सम्मिलित हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (२०१४ - हाल) भी गुजरात के वडनगर के रहने वाले हैं और उनकी मातृभाषा भी गुजराती है | सर्वनाम पुरुषवाचक लिपि यह भाषा गुजराती लिपि में लिखी जाती है। यह भी देखिए गुजराती साहित्य गुजराती (विक्षनरी) गुजराती विकिपीडिया सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ गुजराती भाषा - गुजराती भाषा के बारे में सारी जानकारी भगवद्गोमण्डल - गुजराती भाषा का महान विश्वकोष गुजराती का एक अन्य विस्तृत विश्वकोश Etymological Gujarati English Dictionary (Google booka By M. B. Belsare) हिन्दी के माध्यम से गुजराती सीखिये गुजराती से हिन्दी अनुवादक (आनलाइन) Convert Non-unicode Gujarati Font into Gujarati Unicode Font भारतीय भाषा ज्योति: गुजराती —हिंदी के माध्यम से गुजराती सिखाने की किताब हिन्दी के विकास में गुजरात के सांप्रदायिक कवियों का योगदान (सीमा राठौर) कुच्छी भाषा : अक्षर, उच्चारण और भाषा गुजराती भाषा हिन्द-आर्य भाषाएँ विश्व की प्रमुख भाषाएं भारत की भाषाएँ गुजरात की भाषाएँ गुजराती संस्कृति हिन्द-आर्य भाषाएँ
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यह महिला टेनिस खिलाडियों की सूची है। ट्रेसी ओस्टिन () मीक बेबल () स्यू बार्कर () पीचिस बार्ट्लोविक्स () कार्लिंग बेसेट सेगुसो () चन्टल बीथम () पेट्रा बेगेरोव () लिसा बोन्डर क्रैस () लुइस ब्रौ () मरिआ बुएनो () बेटिना बुन्ज () एल्स केलेन्स () जेनिफ़र केप्रियाटी () रोज़ी केसल्स () डोरोथिया चेम्बर्स () किम क्लाइज्स्टरर्स () अमान्डा कूट्ज़र () मोरीन कोनोली () शार्लट कूपर () मार्गरेट स्मिथ कौर्ट () इसाबेल क्यूटो () किमिको डेट () लिन्डसे डेवेन्पोर्ट () नटाली डेकी () एलेना डिमेन्शियेवा () लोटी डोड () अंकिता भांबरी () येलेना डोकिक () डोरोथिया डग्लेस () स्टेफ़नी डुबोइस () फ़्रेन्कोइस डर () जो ड्युरी () सना भांबरी () सानिया मिर्जा () सुनीता राव () सिल्विया फ़रीना एलिया () शिखा ओबरॉय () क्रिस एवर्ट () गिगि फ़र्नान्डिस () मेरी जो फ़र्नान्डिस () ज़ीना गेर्रिसन () एल्थिया गिब्सन () टेनिस
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श्रीमती डामल कृष्णस्वामी पट्टम्माल (डी. के. पट्टम्माल) कर्णाटक संगीत के विख्यात गायिकाओं में गिनी जाती हैं। आप तथा आपकी दो समवयस्क गायिकाएं (एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी और एम. एल. वसन्तकुमारी) “कर्णातक संगीत की महिला त्रिमूर्तियां” कहलाती हैं। श्रीमती पट्टम्माल का जन्म २ मर्च १९१९ को कांचीपुरम (तमिलनाडु) में हुआ। आपके पिता का नाम डामल कृष्णस्वामी दीक्षितर था, तथा आपकी माता का नाम राजम्माल था। आपने १४ साल की छोटी आयु में ही संगीत का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, इसके पस्चात् आपने तेज़ी से ख्याति प्राप्त की। श्रीमती पट्टम्माल का मधुर और अभिमानरहित स्वभाव इस बात को छिपाता है कि आपने कर्णाटक संगीत में कई क्रांतिकारी परिवर्तन लाए। उदाहरणतया, आप पहली ब्राह्मिण स्त्री हैं जिन्होंने इस संगीत का (मंच पर तथा रेडिओ पर) सार्वजनिक कार्यक्रम पेश किया। (१९३० में ब्रह्मिण स्रियों द्वारा मंच या रेडिओ पर गायन समाज में स्वीकृत नहीं था।) सिवाय इसके, श्रीमती पट्टम्माल पहली स्त्री हैं जिन्होंने मंच पर रागम-तानम-पल्लवि गाया। रागम-तानम-पल्लवि कर्णाटक संगीत का सबसे कठिन अंश माना जाता है, आपके पूर्व यह केवल पुरुषों की कला मानी जाती थी। इसी कारण आपको “पल्लवि पट्टम्माल” की उपाधि प्राप्त हुई। श्रीमती पट्टम्माल ने कई सम्मन एवं पुरस्कार हासिल किए। जैसे, आपने १९७० में संगीत कलानिधि (कर्णाटक संगीत का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार), एवं भारत सरकार से १९७१ में पद्म भूषण और १९९८ में पद्म विभूषण प्राप्त किए। श्रीमती पट्टम्माल ने मुत्तुस्वामी दीक्षितर, पापनाशम शिवन एवं सुब्रह्मण्य भारती के अनेक रचनाओं को प्रचलित किया। विशेष्तः आपने मुत्तुस्वामि दिक्षितर की रचनाओं के वास्तविक पाठान्तर अम्बि दिक्षितर तथा जस्टिस टी. एल. वेंकटराम अय्यर से सीखा। श्रीमती पट्टम्माल के विषेश गान-संबंधी गुण हैं आपका असामान्य लाक्षणिक ज्ञान, श्रुती/ताल के प्रति आपकी दृढता, तथा साहित्य (lyrics) का साफ उच्चारण। आपके अनुपम संगीत शैली की ओर अनेक विद्यार्थी आकर्षित हुए। इन्में अग्रगण्य हैं डी. के. जयरामन (आपके छोटे भाई, जिन्होंने खुद १९९० में संगीत कलानिधि प्राप्त किया)। आपके अन्य प्रसिद्ध विद्यार्थियों में शामिल हैं चारुमती रामचन्द्रन, गीता राजशेखर, तथा आपकी पोती नित्यश्री महादेवन। कर्णाटक संगीत भारतीय संगीत २००९ में निधन पद्म विभूषण धारक 1919 में जन्मे लोग चेन्नई के लोग
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "दमाल कृष्णास्वामी पट्टम्माल", "token_count": 3221, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%20%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80%20%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2" }
एयर इंडिया () भारत की ध्वज वाहक विमान सेवा है, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। यह ऐर इण्डिया लिमिटेड के पूर्व मालिक, भारत सरकार द्वारा बिक्री पूर्ण करने के बाद टाटा संस की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कम्पनी टैलेस प्राइवेट लिमिटेड के स्वामित्व में है। यह 102 घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय गन्तव्यों की सेवा करने वाले ऐरबस और बोइङ विमानों का बेड़ा संचालित करता है। सम्पूर्ण भारत में कई केन्द्र नगरों के साथ, इन्दिरा गान्धी अन्तर्राष्ट्रीय विमान क्षेत्र, नई दिल्ली में विमान सेवा का केन्द्र है। यह 18.6% बाजार भागीदारी के साथ भारत के बाहर सबसे बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय वाहक है। ऐर इण्डिया द्वारा पांच महाद्वीपों में 60 से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय गन्तव्यों को सेवा प्रदान की जाती है। विमान सेवा 11 जुलाई 2014 को स्टार एलायंस की 27वीं सदस्य बनी। विमान सेवा की स्थापना 1932 में जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा ने टाटा एयरलाइंस के रूप में की थी; टाटा ने स्वयं अपना प्रथम एक-इंजन ड हैविलैंड पुस मोथ उड़ाया, जो कराची के द्रिघ मार्ग विमान क्षेत्र से बम्बई के जुहू विमानक्षेत्र तक वायु मेल ले गया और बाद में मद्रास तक जारी रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, यह एक सार्वजनिक लिमिटेड कम्पनी बन गई और इसका नाम बदलकर ऐर इण्डिया कर दिया गया। 21 फरवरी 1960 को, इसने गौरी शंकर नाम के अपने पहले बोइङ 707 की वितरण ली और अपने बेड़े में जेट विमान शामिल करने वाली पहली एशियाई विमान सेवा बन गई। 2000-01 में, ऐर इण्डिया के निजीकरण के प्रयास किए गए और 2006 के बाद से, इण्डियन ऐरलाइंस के साथ विलय के बाद इसे क्षति उठाना पड़ा। निजीकरण का एक और प्रयास 2017 में शुरू किया गया था, जो 2022 में विमान सेवा के स्वामित्व और टाटा से जुड़ी संपत्तियों के पुनर्स्थापन के साथ सम्पन्न हुआ। शुभंकर एयर इंडिवायुका शुभंकर महाराजा (उच्च राजा) है। इसे एयर इंडिया के तत्कालीन वाणिज्यिक निदेशक बॉबी कूका और 1946 में जे. वाल्टर थॉम्पसन लिमिटेड के एक कलाकार उमेश राव द्वारा बनाया गया था। कूका ने कहा कि, "बेहतर विवरण के अभाव में हम उसे महाराजा कहते हैं। लेकिन उसका खून नीला नहीं है। वह शाही लग सकता है, लेकिन वह शाही नहीं है"। एयर इंडिया ने 1946 में महाराजा को अपना शुभंकर के रूप में अपनाया था। इसका प्रचार करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया था, हालांकि शुरुआत में इसे केवल एयरलाइन के मेमो-पैड के लिए डिजाइन किया गया था। महाराजा को 2015 में एक मेकओवर दिया गया था और ब्रांड को एक युवा संस्करण द्वारा दर्शाया गया है। कला संग्रह एयर इंडिया ने 1956 से 2000 के मध्य तक भारतीय कला का एक संग्रह बनाया। संग्रह में 1950, 1960 और 1970 के दशक के महत्वपूर्ण भारतीय कलाकारों और फोटोग्राफरों की कृतियाँ, मूर्तियां, लकड़ी की नक्काशी, कांच की पेंटिंग, दुर्लभ वस्त्रों का एक बड़ा संग्रह, और बहुत कुछ शामिल हैं। कार्यों में एम. एफ. हुसैन और वी. एस. गायतोंडे की पेंटिंग और गोवा के कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा के रेखाचित्र हैं। कंपनी की कुछ पहली खरीद ने उल्लेखनीय चित्रकार बी. प्रभा के करियर को शुरू करने में मदद की। कलाकृति को अक्सर दुनिया भर में एयर इंडिया के बुकिंग कार्यालयों में लटकाने के लिए भेजा जाता था और मेनू और विज्ञापन सामग्री में उपयोग किया जाता था। कभी-कभी कलाकारों को विदेशी कार्यालयों में भित्ति चित्र बनाने के लिए भेजा जाता था या कला के बदले हवाई जहाज का टिकट दिया जाता था। 1967 में, कंपनी ने सल्वाडोर डाली से ऐशट्रे मंगाई और उनमें से कुछ सौ अपने प्रथम श्रेणी के यात्रियों को उपहार में दीं। भुगतान के रूप में, डाली ने एक हाथी के बच्चे के लिए कहा, जिसे एयर इंडिया ने एक महावत के साथ बंगलौर से जिनेवा के लिए उड़ान भरी थी। 2010 के अंत में, निजीकरण की योजनाओं से संग्रह से एक संग्रहालय बनाने की योजना को रोक दिया गया था। कलाकृतियाँ नरीमन पॉइंट, मुंबई की एक इमारत में रहती हैं। निजीकरण 28 जून 2017 को, भारत सरकार ने एयर इंडिया के निजीकरण को मंजूरी दी। प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। मार्च 2018 में, सरकार ने कम लागत वाली एयरलाइन एयर इंडिया एक्सप्रेस के साथ एयर इंडिया की 76% हिस्सेदारी बेचने के लिए रुचि की अभिव्यक्ति (ईओआई) जारी की, और एआईएसएटीएस की 50% हिस्सेदारी, सिंगापुर एयरपोर्ट टर्मिनल के साथ एक ग्राउंड हैंडलिंग संयुक्त उद्यम। सेवाएं (एसएटीएस)। ईओआई के अनुसार, नए मालिक को 33,392 करोड़ (यूएस $4.4 अरब) का कर्ज लेना होगा और मई के मध्य तक एक बोली जमा करनी होगी क्योंकि सरकार 2018 के अंत तक बिक्री प्रक्रिया को पूरा करना चाहती थी। लेकिन किसी भी निजी फर्म ने कर्ज में डूबी एयरलाइन को खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। एयरलाइन को बेचने में पिछले मौकों पर विफल होने के बाद, सरकार ने एयरलाइन का 100% हिस्सा बेचने का फैसला किया और 2019 के अंत में इसकी तैयारी शुरू कर दी। 27 जनवरी 2020 को, सरकार ने बोलीदाताओं को आमंत्रित करने के लिए रुचि की अभिव्यक्ति (ईओआई) जारी की। इस बार सरकार ने एयर इंडिया और उसके बजट वाहक एयर इंडिया एक्सप्रेस दोनों के 100% शेयरों के साथ-साथ एआईएसएटीएस के 50% शेयरों को बेचने का फैसला किया और इस बार अधिक बोली लगाने वालों को आकर्षित करने के लिए, सरकार ने पहले ही लगभग ₹30,000 करोड़ (US$4.0 अरब) की कमी कर दी है। ) एक विशेष प्रयोजन वाहन (एसपीवी) में ऋण और देनदारियों का। सितंबर 2021 में, सरकार ने एयरलाइंस को बेचने के लिए नए टेंडर जारी किए, जहां स्पाइस जेट के अजय सिंह के नेतृत्व वाले कंसोर्टियम और टाटा संस ने बोली में रुचि दिखाई। अंत में, 8 अक्टूबर 2021 को, एयर इंडिया, अपने कम लागत वाहक एयर इंडिया एक्सप्रेस और एआईएसएटीएस के पचास प्रतिशत, एक ग्राउंड हैंडलिंग कंपनी के साथ, टाटा संस के टैलेस प्राइवेट लिमिटेड को ₹18,000 करोड़ (यूएस $2.4 अरब) में बेच दी गई। 27 जनवरी 2022 को, एयरलाइन को आधिकारिक तौर पर टाटा समूह को सौंप दिया गया था।14 फरवरी, 2022 को, इसके पुन: निजीकरण के बाद, एयरलाइन ने 2015 से 2022 तक तुर्की एयरलाइंस के पूर्व अध्यक्ष अलकर आयसी को अपना नया सीईओ और प्रबंध निदेशक नियुक्त किया। उन्हें 1 अप्रैल 2022 को या उससे पहले कार्यभार ग्रहण करना है कोड-शेयर विमान सेवाएँ एयर इंडिया निम्नलिखित विमान सेवाओं के सामंजस्य से अपनी विमान सेवा का परिचचालन करता है: एयर फ्रांस एयर मॉरिशस एयरोफ्लोट ऑस्ट्रियन एयरलाइंस ऑल निप्पन एयरवेज़ एयर अस्ताना ईवा एयर कुवैत एयरवेज किर्गिस्तान एयरलाइंस लुफ्तहांसा मलेशिया एयरलाइंस सिंगापुर एयरलाइंस स्विस इंटरनेशनल एयरलाइंस थाई एयरवेज इंटरनेशनल टर्किश एयरलाइंस यूनाइटेड एयरलाइंस एयर इंडिया का बेड़ा सन्दर्भ इन्हें भी देखें जेट एयरवेज इंडियन एअरलाइंस सहारा एयरलाइंस डेकन एयरलाइंस एयर इंडिया एक्सप्रेस बाहरी कड़ियाँ अँग्रेजी में एयर-इंडिया का आधिकारिक जालस्थल विमान क्षेत्र भारत की प्रमुख वायुयान सेवाएं
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "एअर इंडिया", "token_count": 8675, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%85%E0%A4%B0%20%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE" }
जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर () (15 अक्तूबर, 1542 ,७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक थे। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाने जाते हैं। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र थे। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात् उनके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह थे, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा थे। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरम्भिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामन्त थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरम्भ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अन्त्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। जीवन परिचय नाम अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा में अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है। आरम्भिक जीवन अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में २३ नवंबर, १५४२ (हिजरी अनुसार रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। हुमायूँ को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ से काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही। जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। राजतिलक शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है। उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला। राज्य का विस्तार खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदल दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नहीं हुआ। कुछ प्रदेशो में तो अकबर के पहुँचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति में हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली में हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई। सत्ता की वापसी दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की सेना के बीच पानीपत में युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया। चहुँओर विस्तार दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नहीं चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। प्रशासन सन्‌ १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन्‌ १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन्‌ १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। मुद्रा अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने में सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। राजधानी स्थानांतरण पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। इसके बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश(वर्तमान बुढ़हानपुर, महाराष्ट्र का भाग) को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में प्रशासन संभालने हेतु एक-एक राज्यपाल नियुक्त किया। उसे राज संभालने के लिये दिल्ली कई स्थानों से दूर लगा और ये प्रतीत हुआ कि इससे प्रशासन में समस्या आ सकती है, अतः उसने निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के लगभग मध्य में थी। एक पुराने बसे ग्राम सीकरी पर अकबर ने नया शहर बनवाया जिसे अपनी जीत यानि फतह की खुशी में फतेहाबाद या फतेहपुर नाम दिया गया। जल्दी ही इसे पूरे वर्तमान नाम फतेहपुर सीकरी से बुलाया जाने लगा। यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं। ये दोनों द्वार अपने धनुषाकार मेहराब-रूपी आलों व बुर्जों तथा लाल व सफ़ेद संगमर्मर पर नीली ग्लेज़्ड टाइलों द्वारा अलंकरण से ही पहचाने जाते हैं। वर्तमान किला अकबर के पौत्र शाहजहां द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं। नीतियां विवाह संबंध आंबेर के कछवाहा राजपूत राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया। विवाहोपरांत मुस्लिम बनी और मरियम-उज़-ज़मानी कहलायी। उसे राजपूत परिवार ने सदा के लिये त्याग दिया और विवाह के बाद वो कभी आमेर वापस नहीं गयी। उसे विवाह के बाद आगरा या दिल्ली में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं मिला था, बल्कि भरतपुर जिले का एक छोटा सा गाँव मिला था। उसकी मृत्यु १६२३ में हुई थी। उसके पुत्र जहांगीर द्वारा उसके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी गई थी। भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामन्त बने रहे। हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं। हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था। अन्य राजपूर रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाड़ के शिशोदिया और रणथंभौर के हाढ़ा वंश इन संबंधों से सदा ही हटते रहे। अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया। अन्य कई राजपूत सामन्तों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गोसाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया। इन संबंधों का राजनीतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुँचा करती थी। दरबार के हिन्दू और मुस्लिम दरबारियों के बीच सम्पर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों सम्प्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया। कामुकता तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमें बहुत सी स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। हालांकि इस प्रकरण को दरबारी इतिहासकारों ने कुछ इस ढंग से कहा है कि इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया। अपनी जीवनी में अकबर ने स्वयं लिखा है– यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता। इस बात से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि वह सुन्दरियों का अपहरण करवाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उतराधिकारियो के समय में हरम बंद हुई थी। आईने अकबरी के अनुसार अब्दुल कादिर बदायूंनी कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है। अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था।। गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के दौरान वीरांगना ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली। तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे। पुर्तगालियों से संबंध १५५६ में अकबर के गद्दी लेने के समय, पुर्तगालियों ने महाद्वीप के पश्चिमी तट पर बहुत से दुर्ग व निर्माणियाँ (फैक्ट्रियाँ) लगा ली थीं और बड़े स्तर पर उस क्षेत्र में नौवहन और सागरीय व्यापार नियन्त्रित करने लगे थे। इस उपनिवेशवाद के चलते अन्य सभी व्यापारी संस्थाओं को पुर्तगालियों की शर्तों के अधीण ही रहना पढ़ता था, जिस पर उस समय के शासकों व व्यापारियों को आपत्ति होने लगीं थीं। मुगल साम्राज्य ने अकबर के राजतिलक के बाद पहला निशाना गुजरात को बनाया और सागर तट पर प्रथम विजय पायी १५७२ में, किन्तु पुर्तगालियों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए पहले कुछ वर्षों तक उनसे मात्र फारस की खाड़ी क्षेत्र में यात्रा करने हेतु कर्ताज़ नामक पास लिये जाते रहे। १५७२ में सूरत के अधिग्रहण के समय मुगलों और पुर्तगालियों की प्रथम भेंट हुई और पुर्तगालियों को मुगलों की असली शक्ति का अनुमान हुआ और फलतः उन्होंने युद्ध के बजाय नीति से काम लेना उचित समझा व पुर्तगाली राज्यपाल ने अकबर के निर्देश पर उसे एक राजदूत के द्वारा सन्धि प्रस्ताव भेजा। अकबर ने उस क्षेत्र से अपने हरम के व अन्य मुस्लिम लोगों द्वारा मक्का को हज की यात्रा को सुरक्षित करने की दृष्टि से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। १५७३ में अकबर ने अपने गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों को एक फरमान जारी किया, जिसमें निकटवर्त्ती दमण में पुर्तगालियों को शांति से रहने दिये जाने का आदेश दिया था। इसके बदले में पुर्तगालियों ने अकबर के परिवार के लिये हज को जाने हेतु पास जारी किये थे। तुर्कों से संबंध १५७६ में में अकबर ने याह्या सलेह के नेतृत्व में अपने हरम के अनेक सदस्यों सहित हाजियों का एक बड़ा जत्था हज को भेजा। ये जत्था दो पोतों में सूरत से जेद्दाह बंदरगाह पर १५७७ में पहुँचा और मक्का और मदीना को अग्रसर हुआ। १५७७ से १५८० के बीच चार और कारवां हज को रवाना हुआ, जिनके साथ मक्का व मदीना के लोगों के लिये भेंटें व गरीबों के लिये सदके थे। ये यात्री समाज के आर्थिक रूप से निचले वर्ग के थे और इनके जाने से उन शहरों पर आर्थिक भार बढ़ा। तब तुर्क प्रशासन ने इनसे घर लौट जाने का निवेदन किया, जिस पर हरम की स्त्रियां तैयार न हुईं। काफी विवाद के बाद उन्हें विवश होकर लौटना पढ़ा। अदन के राज्यपाल को १५८० में आये यात्रियों की बड़ी संख्या देखकर बढ़ा रोष हुआ और उसने लौटते हुए मुगलों का यथासंभव अपमान भी किया। इन प्रकरणों के कारण अकबर को हाजियों की यात्राओं पर रोक लगानी पड़ी। १५८४ के बाद अकबर ने यमन के साम्राज्य के अधीनस्थ अदन के बंदरगाह पर पुर्तगालियों की मदद से चढ़ाई करने की योजना बनायी। पुर्तगालियों से इस बारे में योजना बनाने हेतु एक मुगल दूत गोआ में अक्तूबर १५८४ से स्थायी रूप से तैनात किया गया। १५८७ में एक पुर्तगाली टुकड़ी ने यमन पर आक्रमण भी किया किन्तु तुर्क नौसेना द्वारा हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मुगल-पुर्तगाली गठबंधन को भी धक्का पहुँचा क्योंकि मुगल जागीरदारों द्वारा जंज़ीरा में पुर्तगालियों पर लगातार दबाव डाला जा रहा था। धर्म अकबर एक मुसलमान था, पर दूसरे धर्म एवं सम्प्रदायों के लिए भी उसके मन में आदर था। जैसे-जैसे अकबर की आयु बढ़ती गई वैसे-वैसे उसकी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। उसे विशेषकर हिंदू धर्म के प्रति अपने लगाव के लिए जाना जाता हैं। उसने अपने पूर्वजो से विपरीत कई हिंदू राजकुमारियों से शादी की। इसके अलावा अकबर ने अपने राज्य में हिन्दुओ को विभिन्न राजसी पदों पर भी आसीन किया जो कि किसी भी भूतपूर्व मुस्लिम शासक ने नहीं किया था। वह यह जान गया था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए उसे यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना चाहिये। हिन्दू धर्म पर प्रभाव हिन्दुओं पर लगे जज़िया १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा, हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था। इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। फिरोज़ शाह तुगलक ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था। अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अन्तराल बाद वापस लगा दिए गए। अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे १५८३ में प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया। अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसालार हुसैन खान तुक्रिया ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक बिल्ले उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था। ज्वालामुखी मन्दिर के संबंध में एक कथा काफी प्रचलित है। यह १५४२ से १६०५ के मध्य का ही होगा तभी अकबर दिल्ली का राजा था। ध्यानुभक्त माता जोतावाली का परम भक्त था। एक बार देवी के दर्शन के लिए वह अपने गाँववासियो के साथ ज्वालाजी के लिए निकला। जब उसका काफिला दिल्ली से गुजरा तो मुगल बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया और राजा अकबर के दरबार में पेश किया। अकबर ने जब ध्यानु से पूछा कि वह अपने गाँववासियों के साथ कहां जा रहा है तो उत्तर में ध्यानु ने कहा वह जोतावाली के दर्शनो के लिए जा रहे है। अकबर ने कहा तेरी माँ में क्या शक्ति है ? और वह क्या-क्या कर सकती है ? तब ध्यानु ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो वह नहीं कर सकती है। अकबर ने ध्यानु के घोड़े का सर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी माँ में शक्ति है तो घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर दें। यह वचन सुनकर ध्यानु देवी की स्तुति करने लगा और अपना सिर काट कर माता को भेट के रूप में प्रदान किया। माता की शक्ति से घोड़े का सर जुड गया। इस प्रकार अकबर को देवी की शक्ति का एहसास हुआ। बादशाह अकबर ने देवी के मन्दिर में सोने का छत्र भी चढाया। किन्तु उसके मन में अभिमान हो गया कि वो सोने का छत्र चढाने लाया है, तो माता ने उसके हाथ से छत्र को गिरवा दिया और उसे एक अजीब (नई) धातु का बना दिया जो आज तक एक रहस्य है। यह छत्र आज भी मन्दिर में मौजूद है। इतिहासकार दशरथ शर्मा बताते हैं, कि हम अकबर को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे अकबरनामा, आदि के अनुसार महान कहते हैं। यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था। अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे। अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया और १५९५ में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए। अकबर के लिए आक्रोश की हद एक घटना से पता चलती है। हिन्दू किसानों के एक नेता राजा राम ने अकबर के मकबरे, सिकंदरा, आगरा को लूटने का प्रयास किया, जिसे स्थानीय फ़ौजदार, मीर अबुल फजल ने असफल कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद १६८८ में राजा राम सिकंदरा में दोबारा प्रकट हुआ और शाइस्ता खां के आने में विलंब का फायदा उठाते हुए, उसने मकबरे पर दोबारा सेंध लगाई और बहुत से बहुमूल्य सामान, जैसे सोने, चाँदी, बहुमूल्य कालीन, चिराग, इत्यादि लूट लिए, तथा जो ले जा नहीं सका, उन्हें बर्बाद कर गया। राजा राम और उसके आदमियों ने अकबर की अस्थियों को खोद कर निकाल लिया एवं जला कर भस्म कर दिया, जो कि मुस्लिमों के लिए घोर अपमान का विषय था। हिंदु धर्म से लगाव बाद के वर्षों में अकबर को अन्य धर्मों के प्रति भी आकर्षण हुआ। अकबर का हिंदू धर्म के प्रति लगाव केवल मुग़ल साम्राज्य को ठोस बनाने के ही लिए नहीं था वरन उसकी हिंदू धर्म में व्यक्तिगत रुचि थी। हिंदू धर्म के अलावा अकबर को शिया इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी रुचि थी। ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांत जानने के लिए उसने एक बार एक पुर्तगाली ईसाई धर्म प्रचारक को गोआ से बुला भेजा था। अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी जिसे इबादत-खाना (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था, जहाँ वह विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएं किया करता था। उसका यह दूसरे धर्मों का अन्वेषण कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों के लिए असहनीय था। उन्हे लगने लगा था कि अकबर अपने धर्म से भटक रहा है। इन बातों में कुछ सच्चाई भी थी, अकबर ने कई बार रुढ़िवादी इस्लाम से हट कर भी कुछ फैसले लिए, यहाँ तक कि १५८२ में उसने एक नये सम्प्रदाय की ही शुरुआत कर दी जिसे दीन-ए-इलाही यानी ईश्वर का धर्म कहा गया। सुलह-ए-कुल दीन-ए-इलाही नाम से अकबर ने १५८२ में एक नया धर्म बनाया जिसमें सभी धर्मो के मूल तत्वों को डाला, इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे। इनके अलावा पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मिलित किया। हालांकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने कुछ अधिक उद्योग नहीं किये केवल अपने विश्वस्त लोगो को ही इसमे सम्मिलित किया। कहा जाता हैं कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल १९ लोगो ने इस धर्म को अपनाया। कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमें कि उसने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो उसके ही राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होता था। उसने तत्कालीन सिक्कों के पीछे ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था। अकबर का शाब्दिक अर्थ है "महान" और ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ शब्द के दो अर्थ हो सकते थे "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं"। दीन-ए-इलाही सही मायनो में धर्म न होकर एक आचार संहिता के समान था। इसमे भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हे पाप कहा गया। दया, विचारशीलता और संयम इसके आधार स्तम्भ थे। यह तर्क दिया गया है कि दीन-ए-इलैही का एक नया धर्म होने का सिद्धांत गलत धारणा है, जो कि बाद में ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा अबुल फजल के कार्यों के गलत अनुवाद के कारण पैदा हुआ था। हालांकि, यह भी स्वीकार किया जाता है कि सुलह-ए-कुल की नीति, जिसमें दीन-ई-इलैही का सार था, अकबर ने केवल धार्मिक उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि सामान्य शाही प्रशासनिक नीति का एक भाग के रूप में अपनाया था। इसने अकबर की धार्मिक सहानुभूति की नीति का आधार बनाया। 1605 में अकबर की मौत के समय उनके मुस्लिम विषयों में असंतोष का कोई संकेत नहीं था, और अब्दुल हक जैसे एक धर्मशास्त्री की धारणा थी कि निकट संबंध बने रहे। र्वधर्म मैत्री सुलह-ए-कुल सूफियों का मूल सिद्धांत रहा है। प्रसिद्ध सूफी शायर रूमी के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा- एक मुसलमान एक ईसाई से सहमत नहीं होता और ईसाई यहूदी से। फिर आप सभी धर्मो से कैसे सहमत हैं? रूमी ने हंसकर जवाब दिया- मैं आपसे भी सहमत हूं। सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सुलह-ए-कुल का सिद्धांत दिया, जिसे अकबर ने प्रतिपादित किया। अकबर के नवरत्न निरक्षर होते हुई भी अकबर को कलाकारों एवं बुद्धिजीवियो से विशेष प्रेम था। उसके इसी प्रेम के कारण अकबर के दरबार में नौ (९) अति गुणवान दरबारी थे जिन्हें अकबर के नवरत्न के नाम से भी जाना जाता है। अबुल फजल (१५५१ - १६०२) ने अकबर के काल को कलमबद्ध किया था। उसने अकबरनामा की भी रचना की थी। इसने ही आइन-ए-अकबरी भी रचा था। फैजी (१५४७ - १५९५) अबुल फजल का भाई था। वह फारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे। राजा बीरबल (१५२८ - १५८३) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे। ये परम बुद्धिमान कहे जाते हैं। इनके अकबर के संग किस्से आज भी कहे जाते हैं। राजा टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे। इन्होंने विश्व की प्रथम भूमि लेखा जोखा एवं मापन प्रणाली तैयार की थी। राजा मान सिंह आम्बेर (जयपुर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम खान के बेटे थे। फकीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे। मुल्लाह दो पिअज़ा अकबर के सलाहकार थे। फिल्म एवं साहित्य में अकबर का व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है। इसलिए भारतीय साहित्य एवं सिनेमा ने अकबर से प्रेरित कई पात्र रचे गए हैं। २००८ में आशुतोष गोवरिकर निर्देशित फिल्म जोधा अकबर में अकबर एवं उनकी पत्नी की कहानी को दर्शाया गया है। अकबर एवं जोधा बाई का पात्र क्रमशः ऋतिक रोशन एवं ऐश्वर्या राय ने निभाया है। १९६० में बनी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय फिल्म है। इसमें अकबर का पात्र पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था। इस फिल्म में अकबर के पुत्र सलीम की प्रेम कथा और उस कारण से पिता पुत्र में पैदा हुए द्वंद को दर्शाया गया है। सलीम की भूमिका दिलीप कुमार एवं अनारकली की भूमिका मधुबाला ने निभायी थी। १९९० में जी टीवी ने अकबर-बीरबल नाम से एक धारावाहिक प्रसारित किया था जिसमें अकबर का पात्र हिंदी अभिनेता विक्रम गोखले ने निभाया था। नब्बे के दशक में संजय खान कृत धारावाहिक अकबर दी ग्रेट दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था। प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार सलमान रुशदी के उपन्यास दी एन्चैन्ट्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस (अंग्रेज़ी:The Enchantress of Florence) में अकबर एक मुख्य पात्र है। मुग़ल सम्राटों का कालक्रम इन्हें भी देखें मुगल-ए-आज़म (1960 फ़िल्म) जोधा अकबर (2008 फ़िल्म) अकबर का मकबरा अकबर के नवरत्न अकबरनामा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ जोधा-अकबर (फिल्म) अकबर के उत्थान की कहानी अकबर महान पुस्तक देखें अकबर भारत का इतिहास आगरा मुगल मुगल बादशाह दीन ए इलाही हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
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रसोई अथवा पाक शास्‍त्र शाकाहारी पनीर चाय वडापाव रस्सम मांसाहारी जल्दी बनने योग्य मैगी मिठाइयाँ नमकीन रसोई
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गेंगनीहेस्सू डहोमी के बारह पारंपरिक राजाओं में से पहले थे। उनका शासन काल १६२० के करीब हुआ होगा। उनके चिह्न थे एक नर गेंगनिहेस्सू पक्षी, एक ढोल और फेंकने की या शिकार करने की लकडियाँ . यह अभी स्पष्ट नहीं है कि वह ऐतिहासिक रूप से राजा थे या नहीं . शायद वह सिर्फ एक नेता थे जो अपने सलाह की शक्ति से समाज को अपने छोटे भाई डकोडनू के द्वारा चलाते थे। उनके छोटे भाई डकोडनू तो अपनी पिछली ज़िंदगी में स्पष्ट तौर पर राजा माने जाते थे। इतिहास डहोमी
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एस्पेरांतो (अंग्रेज़ी : Esperanto) एक आसान और कृत्रिम अंतरराष्ट्रीय भाषा है। "दोक्तोरो एस्पेरांतो" के उपनाम से इस भाषा के निर्माता पोलिश ऑकुलिस्ट लुडविग लाज़र ज़ामेनहोफ़ ने एस्पेरांतो की पहली किताब १८८७ में वारसा (पोलैंड, तब रूस में) में प्रकाशित की थी। उनकी चाहत थी कि एस्परान्तो एक वैश्विक भाषा बने। इस भाषा में "एस्पेरांतो" शब्द का अर्थ है "आशा रखने वाला"। यह भाषा यूरोप की प्रमुख भाषाओं के मदद से बनाई गई थी। इसकी लिपि भी ध्वनि सिद्धांतों पर आधारित है। लिपि जैसे पढ़ी जाती है, भाषा का वैसे ही उच्चारण होता है। अलग-अलग मातृ भाषाएँ बोलने वालों के लिये एस्पेरांतो एक सामूहिक, आयोजित, सरल भाषा है। ज़ामेनहोफ़ का उद्देश्य था की एक ऐसी भाषा हो जो सीखने में आसान हो, राजनैतिक दृष्टि से तटस्थ हो, जो राष्ट्रीयता के पार हो और भिन्न-भिन्न प्रांतीय और राष्ट्रीय भाषाओँ के बोलने वालों के बीच शांति और अंतरराष्ट्रीय संचार का साधन बन सके। कहा जाता है कि आज दुनिया में १ लाख से २० लाख के बीच लोग एस्पेरांतो बोल सकते हैं। इस भाषा को बोलने वालों की सबसे बड़ी संख्या यूरोप, पूर्वी एशिया और दक्षिण अम्रीका में है। पहला विश्व एस्पेरांतो सम्मलेन १९०५ में फ्रांस में आयोजित किया गया था। उसके बाद, दोनों महायुद्धों को छोड़कर, हर वर्ष अलग-अलग देशों में विश्व सम्मलेन होते आ रहे हैं। एस्पेरांतो अन्य भाषाएं सीखने के लिए प्रयोग किया जाता है। परिचय अनेक वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रश्न राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों और भाषाशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। वैज्ञानिक नाप-तौल के लिए दुनिया भर में एक से अंतर्राष्ट्रीय शब्द व्यवहार में लाए जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार के पारिभाषिक शब्द बहुत बड़ी संख्या में गढ़े जा रहे हैं और मान्यता प्राप्त कर रहे हैं। भाषा शास्त्री इस विषय पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं कि थोड़े से व्याकरण के सर्वस्वीकृत नियम बना लेने से एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा तैयार हो जाएगी। सन् १८८७ ई. में डाक्टर एल. एल. ज़ामेनहोफ़ ने एस्पेरांतो की रचना की। आविष्कार्ता के अनुसार एस्पेरांतो में अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने की सब विशेषताएँ मौजूद हैं। उसकी वाक्यावली तर्क और वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है। उसके व्याकरण को आधे घंटे में समझा जा सकता है। प्रत्येक नियम अपवादरहित है। शब्दों के हिज्जे का आधार ध्वन्यात्मक है। उसका शब्दकोश बहुत छोटा है। फिर भी उसमें साहित्यिक शक्ति है, शैलीसौंदर्य है और विचारों को व्यक्त करने में वह काँटे की तौल उतरती है। लचीलापन भी उसमें यथेष्ट मात्रा में है। २० वर्ष पूर्व के आँकड़ों के अनुसार एस्पेरांतो भाषा में उस समय तक ४,००० से अधिक मौलिक और अनूदित पुस्तके प्रकाशित हो चुकी थीं और १०० से अधिक मासिक पत्र नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। दूसरे महायुद्ध के पूर्व संसार के अनेक देशों में भाषा के रूप में एस्पेरांतो विद्यालयों में विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती थी। पेरिस के चेंबर ऑव कामर्स और लंदन की काउंटी कौंसिल कमर्शल विद्यालयों में एस्पेरांतो की शिक्षा दी जाती थी। सन् १९२५ ई. में अंतर्राष्ट्रीय टैलिग्रैफिक यूनियन ने एस्पेरांतो को तार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया। मई, सन् १९२७ में अंतर्राष्ट्रीय रेडियोफ़ोनिक यूनियन से उसे प्रसार के योग्य भाषा के रूप में स्वीकार किया। उसी वर्ष दिसंबर मास तक विविध देशों में ४४ आकाशवाणी केंद्र एस्पेरांतो में प्रसार करते थे। २० वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय एस्पेरांतो सम्मलेन में अखिल विश्व से १,००० से लेकर ४,००० प्रतिनिधि तक सम्मिलित हुए थे। सन् १८८७ में एस्पेरांतो का जो रूप था उसमें सन् १९०७ ई. में अनेक परिवर्तन करके उसे और अधिक सरल तथा वैज्ञानिक बनाया गया। एस्पेरांतो के इस नए रूप का नाम ईदो रखा गया। अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में एस्पेरांतो से प्रतिस्पर्धा करनेवाली आज और भी अनेक भाषाएं क्षेत्र में हैं। एस्पेरांतो कैसे सीखी जा सकती है? फ़िलहाल एस्पेरांतो सीखने के 'औज़ार' हिन्दी में उप्लब्ध नहीं हैं। हिन्दी बोलने वाले किसी और भाषा के द्वारा ही एस्पेरांतो सीख सकते हैं -- अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं के द्वारा तो एस्पेरांतो इन्टरनेट पर भी (मुफ़्त!) सीखी जा सकती है। एक नज़र इन पन्नों पर डालिये: (http: // www.lernu.net) और (http: // www.ikurso.net). एस्पेरांतो की विशेषताएँ १) अन्तर्राष्ट्रीय: एस्पेरांतो सबसे ज़्यादा काम तब आती है जब अलग-अलग मातृ भाषाएँ बोलने वाले लोग मिलते हैं। आज दुनिया भर में एस्पेरांतो बोलने वालों की संख्या लाखों में है। २) समानता: जब आप एस्पेरांतो बोलते हैं, तो आप अपने आप को सबके समान महसूस करतें हैं क्योंकि जिनसे आप बोल रहे हैं उन्होंने भी आप ही की तरह एस्पेरांतो सीखने का प्रयास किया है। ३) तटस्थ: एस्पेरांतो किसी एक जाति या देश की अमानत नहीं है। इसलिए यह एक तटस्थ भाषा के रूप में काम करती है। ४) सरलता: एस्पेरांतो इस तरह तैयार की गयी है कि यह भाषा सीखना बाकी भाषाओं की तुलना में बहुत आसान है। व्याकरण पर (अंग्रेज़ी में) एक टिप्पणी: (http: // en.wikipedia.org/wiki/Esperanto_grammar) ५) जीवन्त भाषा: अन्य भाषाओं की तरह ही एस्पेरांतो का भी विकास होता आया है और इस ज़बान में हमारे सभी विचारों और जज़बातों को व्यक्त किया जा सकता है। इन्टरनेट पर एस्पेरांतो साहित्य के कयी नमूने हैं और (http: //en.wikipedia.org/wiki/Esperanto_culture) पर एस्पेरांतो संस्कृति के बारे में (अंग्रेज़ी में) दो शब्द। भाषागत विशेषताएँ एस्पेरांतो में कई भाषाओं से शब्द लिये गये हैं। एस्पेरांतो के वर्णमाला में २८ अक्षर हैं। कुछ अक्षरों पर टोपी लगाते हैं। एस्पेरांतो भाषा में Q, W, X, Y अक्षर नहीं हैं। हरेक अक्षर का उच्चारण निश्चित है।। इस कारण एस्पेरांतो में अन्य युरोपीय भाषाओं जैसा स्पेलिंग का झंझट नहीं है। ये भाषा जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। उदाहरण के लिये, Mi lernas Esperanton का उच्चारण मी लेर्नास एस्पेरांतोन है। इसका अर्थ है " मैं एस्पेरांतो सीखता हूँ " या "मैं एस्पेरांतो सीख रहा हूँ". Esperanto estas pli facila ol la angla का उच्चारण एस्पेरांतो एस्तास प्ली फ़ात्सीला ओल ला आंग्ला है। इसका अर्थ है, "एस्पेरांतो अंग्रेजी से आसान है।" एस्परान्तो वर्णमाला की प्रतिस्थान सामान्य उपयोग में कुछ वैकल्पिक वर्णमाला विधियाँ हैं। उनमें से एक उन सर्कमफ्लेक्स वर्णों को 'h' डायग्राफों से बदलती है। ऐसे भी ग्राफिक काम-सुधार हैं जैसे सर्कमफ्लेक्स को कैरट्स के साथ उपसंग्रहण करना। H-सिस्टम अगर किसी टाइपोग्राफी से वर्कआउट काम किया नहीं जा सकता, जिसमें ऊपरी वर्ण ( ^ ) और ( ˘ ) के साथ काम करने का कोई विधान नहीं हो, तो उसे ऊपरी वर्ण ( ^ ) की जगह "h" अक्षर और ( ˘ ) की जगह उसके बिना बदलना होगा। लेकिन ऐसे काम की प्रारंभिक विधि में "ch=ĉ; gh=ĝ; hh=ĥ; jh=ĵ; sh=ŝ" ऐसा प्रिंट किया जाना चाहिए। अगर किसी को ऊपरी वर्णों के साथ काम करना हो (,), तो उसे सावधानी से करना होगा, ताकि पठक उन्हें अकोमा (,) के रूप में न ले लें। ऊपरी वर्ण (,) की जगह उसे (') या (-) भी प्रिंट कर सकते हैं। उदाहरण: sign,et,o = sign'et'o = sig-net-o.</ref> एस्परान्तो के आविष्कारक L. L. Zamenhof ने वर्णमाला के डायाक्रिटिक को काम करने का मूल तरीका खुद विकसित किया था। उन्होंने की जगह पर का प्रयोग करने की सिफारिश की, और उन वर्णों के लिए के साथ डायाग्राफ की सिफारिश की जिनमें सर्कमफ्लेक्स वर्ण थे। उदाहरण के लिए, की जगह में बदल जाती है, जैसे कि (अवसर) के लिए। जहां उचित वर्ण-क्रमानुक्रमण हो, वर्णों को अपॉस्ट्रोफ या हाइफन के साथ अलग करना चाहिए, जैसे (छ: घंटे) या (विमान-अड्डा) में। दुर्भाग्यवश, सरल एस्की-आधारित शब्द-छाँटने के नियम सर्कमफ्लेक्स के साथ काम करते समय बुरी तरह से विफल होते हैं, क्योंकि शब्दों को लेक्सिकोग्राफिक दृष्टिकोण से में शब्दों के पीछे आना चाहिए और में सभी शब्दों के पीछे आना चाहिए और में शब्दों के पहले आना चाहिए। शब्द को के बाद रखा जाना चाहिए, लेकिन h-सिस्टम में छः से आरंभ होकर से पहले आ जाएगा। X-सिस्टम एक और हाल का सिस्टम जिससे एस्परान्तो में टाइप किया जाता है, वह 'एक्स-सिस्टम' कहलाता है, जिसमें वर्णमाला के डायग्राफों के लिए की जगह पर का प्रयोग होता है, जिसमें के लिए होता है। उदाहरण के लिए, को में प्रस्तुत किया जाता है, जैसे कि के लिए और के लिए। एक्स-डायग्राफ एच-सिस्टम की वह समस्याओं का समाधान करते हैं: x एस्परान्तो वर्णमाला में एक अक्षर नहीं है, इसलिए इसका प्रयोग किसी अस्पष्टता को नहीं लाता है। डायग्राफ अब अकेले अक्षर के समकक्ष के बाद आमतौर पर सही तरीके से क्रमबद्ध हो जाते हैं; उदाहरण के लिए, ( के लिए) के बाद आता है, जबकि ह-सिस्टम उसके पहले आता है। क्रमबद्धी केवल संकेतमिक या असिमिलेटेड शब्दों में z के असामान्य मामले में ही असफल होती है; उदाहरण के लिए, संकेतक शब्द ("पुनः प्रयोग करना") ( "रीमेटिज़म") के बाद क्रमबद्ध होगा। एक्स-सिस्टम ह-सिस्टम की तरह लोकप्रिय हो चुका है, लेकिन इसे फंडमेंटो दे एस्परान्तो के खिलाफ माना जाता था। हालांकि, 2007 में, एकादमियो दे एस्परान्तो ने डायक्रिटिकल वर्णों की प्रतिनिधिता के लिए प्रतिस्थानिक सिस्टमों के प्रयोग की आम अनुमति जारी की है, शर्त यह है कि यह केवल "जब परिस्थितियाँ उचित डायाक्रिटिक का प्रयोग नहीं करने की अनुमति देती हैं, और जब किसी विशेष आवश्यकता के कारण फंडमेंटो में दिए गए h-सिस्टम का उपयोग योग्य नहीं होता है।" यह प्रावधान सितंबर 2021 में समाप्त हो गया है और उसमें उल्लिखित नहीं है कि इसने 2023 में अपडेट किया गया है। एक डायाग्राफ की प्रतिस्थानन समस्या जो एक्स-सिस्टम ने पूरी तरह से सुलझाने में नहीं किया है, वह द्विभाषिक पाठों की जटिलता में है। जिसका के लिए होता है, विशेष रूप से फ्रेंच पाठ के साथ काम करते समय कठिनाईयों का कारण होता है, क्योंकि बहुत सारे फ्रेंच शब्द या से समाप्त होते हैं। Aux, उदाहरण के लिए, दोनों भाषाओं में एक शब्द है ( एस्परान्तो में)। पाठ का किसी भी स्वचालित परिवर्तन फ्रेंच शब्दों को बदल देगा साथ ही एस्परान्तो को भी। "auxx" जैसे शब्दों को उदाहरण के रूप में "" इस्तेमाल करके एक्स-सिस्टम से में परिवर्तन को बचाने का एक सामान्य समाधान है। कुछ लोगों ने इस समस्या को हल करने के लिए "" इस्तेमाल करने की सिफारिश दी है, के लिए, लेकिन इस सिस्टम की यह प्रकार की अत्यधिक उपयोग नहीं होती है। Y-सिस्टम name = Y-सिस्टम type = वर्णमाला altname = Y-सिस्टम, इप्सिलोनो-कोडो ipa-note = कोई नहीं Ĉ = Cy Ĝ = Gy Ĥ = X Ĵ = Jy Ŝ = Sy Ŭ = W उदाहरण: eĥoŝanĝoj ĉiuĵaŭde ("ईको-बदलाव प्रतिशतर की बुधवार को") "exosyangyo cyiujyawde". सामान्य वर्णमाला: Ĉiuj homoj estas denaske liberaj kaj egalaj laŭ digno kaj rajtoj. Ili posedas racion kaj konsciencon, kaj devus konduti unu al alia en spirito de frateco. Ĉiuj rajtoj kaj liberecoj difinitaj en tiu ĉi Deklaracio validas same por ĉiuj homoj, sen kia ajn diferencigo, ĉu laŭ raso, haŭtkoloro, sekso, lingvo, religio, politika aŭ alia opinio, nacia aŭ socia deveno, posedaĵoj, naskiĝo aŭ alia stato. Plie, nenia diferencigo estu farata surbaze de la politika, jurisdikcia aŭ internacia pozicio de la lando aŭ teritorio, al kiu apartenas la koncerna persono, senkonsidere ĉu ĝi estas sendependa, sub kuratoreco, ne-sinreganta aŭ sub kia ajn alia limigo de la suvereneco. Y-सिस्टम: Cyiuj homoj estas denaske liberaj kaj egalaj law digno kaj rajtoj. Ili posedas racion kaj konsciencon, kaj devus konduti unu al alia en spirito de frateco. Cyiuj rajtoj kaj liberecoj difinitaj en tiu cyi Deklaracio validas same por cyiuj homoj, sen kia ajn diferencigo, cyu law raso, hawtkoloro, sekso, lingvo, religio, politika aw alia opinio, nacia aw socia deveno, posedajyoj, naskigyo aw alia stato. Plie, nenia diferencigo estu farata surbaze de la politika, jurisdikcia aw internacia pozicio de la lando aw teritorio, al kiu apartenas la koncerna persono, senkonsidere cyu gyi estas sendependa, sub kuratoreco, ne-sinreganta aw sub kia ajn alia limigo de la suvereneco. बोलचाल के वाक्य इन्हें भी देखें एस्पेरान्तो का प्राग इश्तिहार सन्दर्भ ग्रन्थ ए.एल. ग्यूरार्ड : शार्ट हिस्ट्री ऑव दि इंटरनैशनल लैंग्वेज़ मूवमेंट (१९२२) ओटो जेस्पर्सन : इंटरनैशनल लैंग्वेज़ (१९२०) बाहरी कड़ियाँ एस्पेरांतो भाषा के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का प्राग इश्तिहार english wiki Zamenhof english wiki Esperanto grammar english wiki Esperanto culture lernu.net Kurso Saluton! ऑडियो विजुअल सीखने के माहौल ikurso.net a, b, c, Esperanto Bildvortaro Esperanto a, b, c, Esperanto विश्व एस्पेरांतो संस्था - Radikoj 685 विश्व एस्पेरांतो संस्था | Universala Esperanto-Asocio बहुभाष्यपोर्टल | multlingva informcentro भारतीय एस्पेरांतो संघ | Federacio Esperanto de Barato Diskutgrupo "Ni parolas Esperante" यूरोप की भाषाएँ निर्मित भाषाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सहायक भाषाएँ विश्व की भाषाएँ एस्पेरांतो
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विश्वज्ञानकोश, विश्वकोश या ज्ञानकोश () ऐसी पुस्तक को कहते हैं जिसमें विश्वभर की तरह तरह की जानने लायक बातों को समावेश होता है। विश्वकोश का अर्थ है विश्व के समस्त ज्ञान का भंडार। अत: विश्वकोश वह कृति है जिसमें ज्ञान की सभी शाखाओं का सन्निवेश होता है। इसमें वर्णानुक्रमिक रूप में व्यवस्थित अन्यान्य विषयों पर संक्षिप्त किंतु तथ्यपूर्ण निबंधों का संकलन रहता है। यह संसार के समस्त सिद्धांतों की पाठ्यसामग्री है। विश्वकोश अंग्रेजी शब्द "इनसाइक्लोपीडिया" का समानार्थी है, जो ग्रीक शब्द इनसाइक्लियॉस (एन = ए सर्किल तथा पीडिया = एजुकेशन) से निर्मित हुआ है। इसका अर्थ शिक्षा की परिधि अर्थात् निर्देश का सामान्य पाठ्यविषय है। इस किस्म की बातें अनंत है, इस लिये किसी भी विश्वज्ञानकोश को कभी 'पूरा हुआ' घोषित नहीं किया जा सकता। विश्वज्ञानकोश में सभी विषयों के लेख हो सकते हैं किन्तु एक विषय वाले विश्वकोश भी होते हैं। विश्वकोष में उपविषय (टापिक), उस भाषा के वर्णक्रम के अनुसार व्यवस्थित किये गये होते हैं। पहले विश्वकोष एक या अनेक खण्डों में पुस्तक के रूप में ही आते थे। कम्प्यूटर के प्रादुर्भाव से अब सीडी आदि के रूप में भी तरह-तरह के विश्वकोष उपलब्ध हैं। अनेक विश्वकोश अन्तरजाल (इंटरनेट) पर 'ऑनलाइन' भी उपलब्ध हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वकोषों का विकास शब्दकोषों (डिकशनरी) से हुआ है। ज्ञान के विकास के साथ ऐसा अनुभव हुआ कि शब्दों का अर्थ एवं उनकी परिभाषा दे देने मात्र से उन विषयों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती, तो विश्वकोषों का आविर्भाव हुआ। आज भी किसी विषय को समर्पित विश्वकोष को शब्दकोश भी कहा जाता है; जैसे 'सूक्ष्मजीवविज्ञान का शब्दकोश' आदि। उपयोगिता विश्वकोश का उद्देश्य संपूर्ण विश्व में विकीर्ण कला एवं विज्ञान के समस्त ज्ञान को संकलित कर उसे व्यवस्थित रूप में सामान्य जन के उपयोगार्थ उपस्थित करना तथा भविष्य के लिए सुरक्षित रखना है। इसमें समाविष्ट भूतकाल की ज्ञानविज्ञान की उपलब्धियाँ मानव सभ्यता के विकास के लिए साधन प्रस्तुत करती हैं। यह ज्ञानराशि मनुष्य तथा समाज के कार्यव्यापार की संचित पूँजी होती है। आधुनिक शिक्षा के विश्वपर्यवसायी स्वरूप ने शिक्षार्थियों एवं ज्ञानार्थियों के लिए संदर्भग्रंथों का व्यवहार अनिवार्य बना दिया है। विश्वकोश में संपूर्ण संदर्भों का सार निहित होता है। इसलिए आधुनिक युग में इसकी उपयोगिता असीमित हो गई है। इसकी सर्वार्थिक उपादेयता की प्रथम अनिवार्यता इसकी बोधगम्यता है। इसमें संकलित जटिलतम विषय से संबंधित निबंध भी इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि वह सामान्य पाठक की क्षमता एवं उसके बौद्धिक स्तर के उपयुक्त तथा बिना किसी प्रकार की सहायता के बोधगम्य हो जाता है। उत्तम विश्वकोश ज्ञान के मानवीयकरण का माध्यम है। इतिहास प्राचीन अथवा मध्ययुगीन निबंधकारों द्वारा विश्वकोश ('इनसाइक्लोपीडिया') शब्द उनकी कृतियों के नामकरण में प्रयुक्त नहीं होता था पर उनका स्वरूप विश्वकोशीय ही था। इनकी विशिष्टता यह थी कि ये लेखक विशेष की कृति थे। अत: ये वस्तुपरक कम, व्यष्टिपरक अधिक थे तथा लेखक के ज्ञान, क्षमता एवं अभिरुचि द्वारा सीमित होते थे। विषयों के प्रस्तुतीकरण और व्याख्या पर उने व्यक्तिगत दृष्टिकोणों की स्पष्ट छाप रहती थी। ये संदर्भग्रंथ नहीं वरन् अन्यान्य विषयों के अध्ययन हेतु प्रयुक्त निर्देशक निबंधसंग्रह थे। विश्व की सबसे पुरातन विश्वकोशीय रचना अफ्रीकावासी मार्सियनस मिस फेलिक्स कॉपेला की सटोराअ सटीरिक है। उसने पाँचवीं शती के आरंभकाल में गद्य तथा पद्य में इसका प्रणयन किया। यह कृति मध्ययुग में शिक्षा का आदर्शागार समझी जाती थी। मध्ययुग तक ऐसी अन्यान्य कृतियों का सर्जन हुआ, पर वे प्राय: एकांगी थीं और उनका क्षेत्र सीमित था। उनमें त्रुटियों एवं विसंगतियों का बाहुल्य रहता था। इस युग को सर्वश्रेष्ठ कृति व्यूविअस के विसेंट का ग्रंथ "बिब्लियोथेका मंडी" या "स्पेकुलस मेजस" था। यह तेरहवीं शती के मध्यकालीन ज्ञान का महान संग्रह था। उसने इस ग्रंथ में मध्ययुग की अनेक कृतियों को सुरक्षित किया। यह कृति अनेक विलुप्त आकर रचनाओं तथा अन्यान्य ग्रंथों की मूल्यवान पाठ्यसामग्रियों का सार प्रदान करती है। प्राचीन ग्रीस में स्प्युसिपस तथा अरस्तू ने महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी। स्प्युसिपस ने पशुओं तथा वनस्पतियों का विश्वकोशीय वर्गीकरण किया तथा अरस्तू ने अपने शिष्यों के उपयोग के लिए अपनी पीढ़ी के उपलब्ध ज्ञान एवं विचारों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने के लिए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। इस युग में प्रणीत विश्वकोशीय ग्रंथों में प्राचीन रोमवासी प्लिनी की कृति "नैचुरल हिस्ट्री" हमारी विश्वकोश की आधुनिक अवधारणा के अधिक निकट है। यह मध्य युग का उच्च आधिकाधिक ग्रंथ है। यह 37 खंडों एवं 2493 अध्यायों में विभक्त है जिसमें ग्रीकों के विश्वकोश के सभी विषयों का सन्निवेश है। प्लिनी के अनुसार इसमें 100 लेखकों के 2000 ग्रंथों से संगृहीत 20,000 तथ्यों का समावेश है। सन् 1536 से पूर्व इसके 43 संस्करण प्रकाशित हो चुके थे। इस युग की एक प्रसिद्ध कृति फ्रांसीसी भाषा में 19 खंडों में प्रणीत (सन् 1360) बार्थोलोमिव द ग्लैंविल का ग्रंथ "डी प्रॉप्रिएटैटिबस रेरम" था। सन् 1495 में इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ तथा सन् 1500 तक इसके 15 संस्करण निकल चुके थे। जॉकियस फाटिअस रिंजल बर्जियस (1541) एवं हंगरी के काउंट पॉल्स स्कैलिसस द लिका (1599) की कृतियाँ सर्वप्रथम 'इंसाइक्लोपीडिया' के नाम से अभिहित हुई। जोहान हेनरिच आस्टेड ने अना विश्वकोश 'इंसाइक्लोपीडिया सेप्टेम टॉमिस डिस्टिक्टा' सन् 1630 में प्रकाशित किया जो इस नाम को संपूर्णत: चरितार्थ करता था। इसमें प्रमुख विद्वानों एवं विभिन्न कलाओं से संबंधित अन्यान्य विषयों का समावेश है। फ्रांस के शाही इतिहासकार जीन डी मैग्नन का विश्वकोश "लर्रे साइंस युनिवर्स" के नाम से 10 खंडों में प्रकाशित हुआ था। यह ईश्वर की प्रकृति से प्रारंभ होकर मनुष्य के पतन के इतिहास तक समाप्त होता है। लुइस मोरेरी ने 1674 में एक विश्वकोश की रचना की जिसमें इतिहास, वंशानुसंक्रमण तथा जीवनचरित् संबंधी निबंधों का समावेश था। सन् 1759 तक इसके 20 संस्करण प्रकाशित हो चुके थे। इटीन चाविन की सन् 17113 में प्रकाशित महान कृति "कार्टेजिनयन" दर्शन का कोश है। फ्रेंच एकेडेमी द्वारा फ्रेंच भाषा का महान शब्दकोश सन् 1694 में प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात् कला और विज्ञान के शब्दकोशों की एक शृंखला बन गई। विसेंजो मेरिया कोरोनेली ने सन् 1701 में इटैलियन भाषा में एक वर्णानुक्रमिक विश्वकोश "बिब्लियोटेका युनिवर्सेल सैक्रोप्रोफाना" का प्रकाशन प्रारंभ किया। 45 खंडों में प्रकाश्य इस विश्वकोश के 7 ही खंड प्रकाशित हो सके। अंग्रेजी भाषा में प्रथम विश्वकोश ऐन युनिवर्सल इंग्लिश डिक्शनरी ऑव आर्ट्स ऐंड साइंस की रचना जॉन हैरिस ने सन् 1704 में की। सन् 1710 में इसका द्वितीय खंड प्रकाशित हुआ। इसका प्रमुख भाग गणित एवं ज्योतिष से संबंधित था। हैंबर्ग में जोहानम के रेक्टर जोहान हुब्नर के नाम पर दो शब्दकोश क्रमश: सन् 1704 और 1710 में प्रकाशित हुए। बाद में इनके अनेक संस्कण निकले। इफेम चैंबर्स ने सन् 1728 में अपनी साइक्लोपीडिया दो खंडों में प्रकाशित की। उसने प्रत्येक विषय से संबंधित विकीर्ण तथ्यों को समायोजित करने का प्रयास किया। हर निबंध में चैंबर्स ने संबंधित विषय का संदर्भ दिया है। सन् 1748-49 में इसका इटैलियन अनुवाद प्रकाशित हुआ। चैंबर्स द्वारा संकलित एवं व्यवस्थित 7 नए खंडों की सामग्री का संपादन कर डॉ॰ जॉनहिल ने पूरक ग्रंथ सन् 1753 में प्रकाशित किया। इसका संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण (1778-88) अब्राहम रीज़ द्वारा प्रकाशित हुआ। लाइपजिग के एक पुस्तकविक्रेता जोहान हेनरिच जेड्लर ने एक बृहद् एवं सर्वाधिक व्यापक विश्वकोश "जेड्लर्स युनिवर्सल लेक्सिकन" प्रकाशित किया। इसमें सात सुयोग्य संपादकों की सेवाएँ प्राप्त की गई थीं और एक विषय के सभी निबंध एक ही व्यक्ति द्वारा संपादित किए गए थे। सन् 1750 तक इसके 64 खंड प्रकाशित हुआ तथा सन् 1751 से 54 के मध्य 4 पूरक खंड निकले। bइनसाइक्लोपीदी (फ्रेंच इंसाइक्लोपीडिया) अठारहवीं शती की महत्तम साहित्यिक उपलब्धि है। इसकी रचना "चैंबर्स साइक्लोपीडिया" के फ्रेंच अनुवाद के रूप में अंग्रेज विद्वान् जॉन मिल्स द्वारा उसके फ्रांस आवासकाल में प्रारंभ हुई, जिसे उसने मॉटफ़ी सेल्स की सहायता से सन् 1745 में समाप्त किया। पर वह इसे प्रकाशित न कर सका और इंग्लैंड वापस चला गया। इसके संपादन हेतु एक-एक कर कई विद्वानों की सेवाएँ प्राप्त की गईं और अनेक संघर्षों के पश्चात् यह विश्वकोश प्रकाशित हो सका। यह मात्र संदर्भ ग्रंथ नहीं था; यह निर्देश भी प्रदान करता था। यह आस्था और अनास्था का विचित्र संगम था। इसने उस युग के सर्वाधिक शक्तिसंपन्न चर्च और शासन पर प्रहार किया। संभवत: अन्य कोई ऐसा विश्वकोश नहीं है, जिसे इतना राजनीतिक महत्व प्राप्त हो और जिसने किसी देश के इतिहास और साहित्य पर क्रांतिकारी प्रभाव डाला हो। पर इन विशिष्टताओं के होते हुए भी यह विश्वकोश उच्च कोटि की कृति नहीं है। इसमें स्थल-स्थल पर त्रुटियाँ एवं विसंगतियाँ थीं। यह लगभग समान अनुपात में उच्च और निम्न कोटि के निबंधों का मिश्रण था। इस विश्वकोश की कटु आलोचनाएँ हुई। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, स्कॉटलैंड की एक संस्था द्वारा एडिनवर्ग से सन् 1771 में तीन खंडों में प्रकाशित हुई। तब से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। प्रत्येक नवीन संस्करण में विशद संशोधन परिवर्धन किए गए। इसका चतुर्दश संस्करण सन् 1929 में 23 खंडों में प्रकाशित हुअ। सन् 1933 में प्रकाशकों ने वार्षिक प्रकाशन और निरंतर परिवर्धन की नीति निर्धारित की और घोषणा की कि भविष्य के प्रकाशनों को नवीन संस्करण की संज्ञा नहीं दी जाएगी। इसकी गणना विश्व के महान विश्वकोशों में है तथा इसका संदर्भ ग्रंथ के रूप में अन्यान्य देशों में उपयोग किया जाता है। अमरीका में अनेक विश्वकोश प्रकाशित हुए, पर वहाँ भी प्रमुख ख्याति इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका को ही प्राप्त है। जॉर्ज रिप्ले एवं चार्ल्स एडर्सन डाना ने "न्यू अमरीकन साक्लोपीडिया" (1858-63) 16 खंडों में प्रकाशित की। इसका दूसरा संस्करण 1873 से 1876 के मध्य निकला। एल्विन जे. जोंसन का विश्वकोश 'जोंसंस न्यू यूनिवर्सल साइक्लोपीडिया' (1875-77) 4 खंडों में प्रकाशित हुआ, जिसका नया संस्करण 8 खंडों में 1893-95 में प्रकाशित हुआ। फ्रांसिस लीबर ने "इंसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना" का प्रकाशन 1829 में प्रारंभ किया। प्रथम संस्करण के 13 खंड सन् 1833 तक प्रकाशित हुए। सन् 1835 में 14 खंड प्रकाशित किए गए। सन् 1858 में यह पुन: प्रकाशित की गई। सन् 1903-04 में एक नवीन कृति "इंसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना" के नाम से 16 खंडों में प्रकाशित हुई। इसके पश्चात् इस विश्वकोश के अनेक संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण निकले। सन् 1918 में यह 30 खंडों में प्रकाशित हुआ और तब से इसमें निरंतर संशोधन परिवर्धन होता आ रहा है। प्रत्येक शताब्दी के इतिहास का पृथक् वर्णन तथा साहित्य और संगीत की प्रमुख कृतियों पर पृथक् निबंध इस विश्वकोश की विशिष्टताएँ हैं। ऐसे विश्वकोशों के भी प्रणयन की प्रवृत्ति बढ़ रही है जो किसी विषय विशेष से संबद्ध होते हैं। इनमें एक ही विषय से संबंधित तथ्यों पर स्वतंत्र निबंध होते हैं। यह संकलन संबद्ध विषय का सम्यक् ज्ञान कराने में सक्षम होता है। 'इंसाइक्लोपीडिया ऑव सोशल साइंसेज़' इसी प्रकार का अत्यंत महत्वपूर्ण विश्वकोश है। भारत में विश्वकोशों की परम्परा भारतीय वाङ्मय में संदर्भग्रंथों- कोश, अनुक्रमणिका, निबंध, ज्ञानसंकलन आदि की परंपरा बहुत पुरानी है। भारतीय वाङ्मय में संदर्भ ग्रंथों का कभी अभाव नहीं रहा। भारत में पारम्परिक विद्वत्ता के दायरे में महाभारत को सबसे प्राचीन ज्ञानकोश माना गया है। कई विद्वान पुराणों को भी ज्ञानकोश की श्रेणी में रखते हैं। राम अवतार शर्मा जैसे दार्शनिक ने तो अग्निपुराण को स्पष्ट रूप से ज्ञानकोश माना है। इसमें इतने अधिक विषयों का समावेश है कि इसे 'भारतीय संस्कृति का विश्वकोश' कहा जाता है। इन आग्रहों की उपेक्षा न करते हुए भी यह मानना होगा कि पश्चिमी अर्थों में ज्ञानकोश रचने की परम्परा भारत में अपेक्षाकृत नयी है। इससे पहले संस्कृत साहित्य में कठिन वैदिक शब्दों के संकलन निघण्टु और ईसा पूर्व सातवीं सदी में यास्क और अन्य विद्वानों द्वारा रचित उसके भाष्य निरुक्त की परम्परा मिलती है। इस परम्परा के तहत विभिन्न विषयों के निघण्टु तैयार किये गये जिनमें धन्वंतरि रचित आयुर्वेद का निघण्टु भी शामिल था। इसके बाद संस्कृत और हिंदी में नाममाला कोशों का उद्भव और विकास दिखायी देता है। निघण्टु और निरुक्त के अलावा श्रीधर सेन कृत कोश कल्पतरु, राजा राधाकांत देव बहादुर की 1822 की कृति शब्दकल्पद्रुम, 1873 से 1883 के बीच प्रकाशित तारानाथ भट्टाचार्य वाचस्पति कृत वाचस्पत्यम जैसी रचनाओं को संभवतः ज्ञानकोश की कोटि में रखा जा सकता है। पाँचवीं-छठी से लेकर अट्ठारहवीं सदी तक की अवधि में रचे गये अनगिनत नाममाला कोशों में अमरसिंह द्वारा रचित अमरकोश का शीर्ष स्थान है। कोश रचना के इस पारम्परिक भारतीय उद्यम के केंद्र में शब्द और शब्द-रचना थी। शब्दों के तात्पर्य, उनके विभिन्न रूप, उनके पर्यायवाची, उनके मूल और विकास-प्रक्रिया पर प्रकाश डालने वाले ये कोश ज्ञान-रचना में तो सहायक थे, पर इन्हें ज्ञानकोश की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था। बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में आधुनिक अर्थों में ज्ञानकोश रचने का काम शुरू हुआ। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा बनवाया गया हिंदी ज्ञानकोश इस सिलिसिले में उल्लेखनीय है। बांग्ला में साहित्य वारिधि और शब्द रत्नाकर की उपाधियों से विभूषित नगेन्द्र नाथ बसु ने एक विशाल ज्ञानकोश तैयार किया। उसी तर्ज़ पर कलकत्ता से ही बसु के अनुभव का लाभ उठाते हुए उन्हें हिंदी में एक विशद ज्ञान-कोश तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। पच्चीस खण्डों का यह ज्ञान-कोश 1917 में छपा। ख़ुद महात्मा गाँधी ने इसे उपयोगी बताते हुए अपनी संस्तुति में लिखा कि यह भारत की ‘लिंगुआ-फ्रैंका’ हिंदी के विकास में सहायक होगा। बसु ने भी इसी पहलू पर ज़ोर देते हुए पहले खण्ड में छपी अपनी छोटी सी भूमिका में उम्मीद जतायी कि जिस भाषा को 'राष्ट्रभाषा' बनाने का यत्न चल रहा है, वह आगे जाकर राष्ट्रभाषा बन ही जाएगी। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि हिंदी का ज्ञान-कोश बांग्ला का अनुवाद नहीं है, बल्कि मूलतः हिंदी में ही लिखा गया है। इन कोशों के अलावा हरदेव बाहरी रचित प्रसाद साहित्य कोश, प्रेमनारायण टण्डन कृत 'हिन्दी सेवीसंसार' और ज्ञानमंडल द्वारा प्रकाशित साहित्यकोश उल्लेखनीय है। स्पष्ट है कि ये कोश समाज-विज्ञान से उद्भूत होने वाले विमर्श की आवश्यकताएँ न के बराबर ही पूरी कर सकते थे। इसीलिये आधुनिक विश्वविद्यालयीय शिक्षा की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए स्वातंत्र्योत्तर भारत में विभिन्न अनुशासनों के अलग-अलग कोश तैयार करने के कई प्रयास हुए। मराठी और ओडिया में भी ज्ञानकोश रचने के उद्यम किये गये। लाला नगेन्द्र कुमार राय ने १९३० के दशक में 'बिबिध रत्नसंग्रह' नाम से ओड़िया विश्वकोश की रचना की। इसका प्रथम प्रकाशन १९३६ में हुआ। समाज-विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों (समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवभूगोल, इतिहास-सामाजिक और पुरातत्त्व-विज्ञान) का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाला हिन्दी का एक कोश श्याम सिंह शशि के प्रधान सम्पादकत्व में 2008 से प्रकाशित होना शुरू हुआ। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुदान से रिसर्च फ़ाउंडेशन का यह पाँच खण्डों का यह प्रकाशन 2011 तक जारी रहा। डॉ॰ शशि की इच्छा तो यह थी कि वे 1930-1935 के बीच प्रकाशित सेलिगमैन और जॉनसन द्वारा सम्पादित बीस खण्डों के विशाल 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ द सोशल साइंसेज़' जैसी एक कृति हिंदी में तैयार करें, लेकिन उन्हें कोश-रचना के लिए धन और बौद्धिक संसाधन जुटाने में बहुत दिक्क़तों का सामना करना पड़ा। उन्होंने पहले खण्ड की भूमिका में इन परेशानियों का ब्योरा दिया है। पर नगेन्द्रनाथ बसु द्वारा संपादित बंगला विश्वकोश ही भारतीय भाषाओं से प्रणीत प्रथम आधुनिक विश्वकोश है। भारतवर्ष में इस श्रेणी का यह पाहुला ग्रन्थ था जो २७ वर्ष के अथक परिश्रम से अनेक धुरन्धर विद्वानों के सहयोग द्वारा पूर्णता को प्राप्त हुआ। यह सन् 1911 में 22 खंडों में प्रकाशित हुआ। उसी समय उसके प्रकाशकों को सूझ पड़ा कि "जिस हिन्दी भाषा का प्रचार और विस्तार भारत में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और जिसे राष्ट्रभाषा बनाने का उद्योग हो रहा है, उसी भारत की भावी राष्ट्रभाषा में ऐसे ग्रन्थ का न होना बड़े दुःख और लज्जा का विषय है"। इसलिये उन्होंने प्रशंसनीय धैर्य का अवलम्बन कर हिन्दी विश्वकोश की नींव तुरन्त डाल दी और उसे पूरा करके छोड़ा। नगेन्द्रनाथ वसु ने ही अनेक हिंदी विद्वानों के सहयोग से हिंदी विश्वकोश की रचना की जो सन् 1916 से 1932 के मध्य 25 खंडों में प्रकाशित हुआ। जिस समय यह कार्य चल रहा था उसी समय डाक्टर श्रीधर व्यंकटेश केतकर एम. ए. पी. एच. डी. ने एक विश्वकोश मराठी भाषा में रचने का सिलसिला डाला और प्रायः ४० लेखकों की सहायता से बारह वर्ष में पूरा कर दिया। मराठी विश्वकोश महाराष्ट्रीय ज्ञानकोशमंडल द्वारा 23 खंडों में प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात उनका इसी ज्ञानसंग्रह को मराठी की पड़ोसी गुजराती भाषा के आवरण में भूषित करने का उत्साह बढ़ा और कार्यारम्भ भी कर दिया गया। डॉ॰ केतकर के निर्देशन में ही इसका गुजराती रूपान्तर प्रकाशित हुआ। परन्तु साथ ही उनके हृदय में वही प्रेरणा उत्पन्न हुई जो बंगाली प्रकाशको के मन में बंगाली विश्वकोश के पूरा करने पर उठी थी। इसलिये उन्होंने तुरन्त ही शुद्ध हिन्दी विश्वकोश के रचना का प्रस्ताव किया जो स्वीकृत सामयिक शैली के अनुसार हो और जिसके बिषय सर्वव्यापी राष्ट्रभाषा के योग्य हों। अद्यपर्य्यन्त जो नवीन आविष्कार हुए हैं, उन सबका समावेश रहे और मराठी, गुजराती और बंगाली लेखकों द्वारा जो भारतवर्ष-विषयक सामग्री छान-बीन के साथ इकट्ठी की गई है उन सबका सार हिंन्दी कोश में सन्निविष्ट हो जावे। हिन्दी ज्ञानकोश की रचना के लिये सैकड़ों लेखक नियुक्त किये गये जो अपने-2 विषय के विशेषज्ञ समझे जाते हैं। इनके लेखों के सम्पादन करने के लिये ३३ धुरन्धर विद्वानों की समिति नियुक्त की गई। स्वराज प्राप्ति (1947) के बाद भारतीय विद्वानों का ध्यान आधुनिक भाषाओं के साहित्यों के सभी अंगों को पूरा करने की ओर गया और आधुनिक भारतीय भाषाओं में विश्वकोश निर्माण का श्रीगणेश हुआ। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् कला एवं विज्ञान की वर्धनशील ज्ञानराशि से भारतीय जनता को लाभान्वित करने के लिए आधुनिक विश्वकोशों के प्रणयन की योजनाएँ बनाई गईं। सन् 1947 में ही एक हजार पृष्ठों के 12 खंडों में प्रकाश्य तेलुगु भाषा के विश्वकोश की योजना निर्मित हुई। तमिल में भी एक विश्वकोश के प्रणयन का कार्य प्रारम्भ हुआ। इसी क्रम में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने सन्‌ १९५४ में हिन्दी में मौलिक तथा प्रामाणिक विश्वकोश के प्रकाशन का प्रस्ताव भारत सरकार के सम्मुख रखा। इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया और उसकी पहली बैठक ११ फ़रवरी १९५६ में हुई और हिंदी विश्वकोश के निर्माण का कार्य जनवरी १९५७ में प्राम्रभ हुआ। हिंदी विश्वकोश राष्ट्रभाषा हिंदी में एक मौलिक एवं प्रामाणिक विश्वकोश के प्रणयन की योजना हिंदी साहित्य के सर्जन में संलग्न नागरीप्रचारिणी सभा, काशी ने तत्कालीन सभापति महामान्य पं॰ गोविंद वल्लभ पंत की प्रेरणा से निर्मित की जो आर्थिक सहायता हेतु भारत सरकार के विचारार्थ सन् 1954 में प्रस्तुत की गई। पूर्व निर्धारित योजनानुसार विश्वकोश 22 लाख रुपए के व्यय से लगभग दस वर्ष की अवधि में एक हजार पृष्ठों के 30 खंडों में प्रकाश्य था। किंतु भारत सरकार ने ऐतदर्थ नियुक्त विशेषज्ञ समिति के सुझाव के अनुसार 500 पृष्ठों के 10 खंडों में ही विश्वकोश को प्रकाशित करने की स्वीकृति दी तथा इस कार्य के संपादन हेतु सहायतार्थ 6.5 लाख रुपए प्रदान करना स्वीकार किया। सभा को केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के इस निर्णय को स्वीकार करना पड़ा कि विश्वकोश भारत सरकार का प्रकाशन होगा। योजना की स्वीकृति के पश्चात् नागरीप्रचारिणी सभा ने जनवरी, 1957 में विश्वकोश के निर्माण का कार्यारंभ किया। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के निर्देशानुसार "विशेषज्ञ समिति" की संस्तुति के अनुसार देश के विश्रुत विद्वानों, विख्यात विचारकों तथा शिक्षा क्षेत्र के अनुभवी प्रशांसकों का एक पचीस सदस्यीय परामर्शमंडल गठित किया गया। सन् 1958 में समस्त उपलब्ध विश्वकोशों एवं संदर्भग्रंथों की सहायता से 70,000 शब्दों की सूची तैयार की गई। इन शब्दों की सम्यक् परीक्षा कर उनमें से विचारार्थ 30,000 शब्दों का चयन किया गया। मार्च, सन् 1959 में प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग भूतपूर्व प्रोफेसर डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा प्रधान संपादक नियुक्त हुए। विश्वकोश का प्रथम खंड लगभग डेढ़ वर्षों की अल्पावधि में ही सन् 1960 में प्रकाशित हुआ। सन्‌ १९७० तक १२ खंडों में इस विश्वकोश का प्रकाशन कार्य पूरा किया गया। सन्‌ १९७० में विश्वकोश के प्रथम तीन खंड अनुपलब्ध हो गए। इसके नवीन तथा परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन किया गया। राजभाषा हिंदी के स्वर्णजयंती वर्ष में राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय) तथा मानवसंसाधन विकास मंत्रालय ने केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा को यह उत्तरदायित्व सौंपा कि हिंदी विश्वकोश इंटरनेट पर पर प्रस्तुत किया जाए। तदनुसार केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा तथा इलेक्ट्रॉनिक अनुसंधान एवं विकास केंद्र, नोएडा के संयुक्त तत्वावधान में तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संयुक्त वित्तपोषण से हिंदी विश्वकोश को इंटरनेट पर प्रस्तुत करने का कार्य अप्रैल २००० में प्रारम्भ हुआ। हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश का निर्माण भारतीय भाषा परिषद और वाणी प्रकाशन के संयुक्त प्रयास से हुआ है। इसका प्रकाशन सन २०१९ में हुआ। ध्यातव्य है कि 1958 से 1965 के बीच धीरेन्द्र वर्मा द्वारा निर्मित ‘हिंदी साहित्य कोश’ करीब पचास साल पुराना हो चुका था। हिंदी साहित्य ज्ञानकोश में 2660 प्रविष्टियाँ हैं। यह 7 खण्डों में 4560 पृष्ठों का ग्रंथ है। इसमें हिंदी साहित्य से सम्बन्धित इतिहास, साहित्य सिद्धान्त आदि के अलावा समाजविज्ञान, धर्म, भारतीय संस्कृति, मानवाधिकार, पौराणिक चरित्र, पर्यावरण, पश्चिमी सिद्धान्तकार, अनुवाद सिद्धान्त, नवजागरण, वैश्विकरण, उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श आदि कुल 32 विषय हैं। ज्ञानकोश में हिंदी राज्यों के अलावा दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्व और अन्य भारतीय क्षेत्रों की भाषाओं-संस्कृतियों से भी परिचय कराने की कोशिश की गई है। इसमें हिंदी क्षेत्र की 48 लोक भाषाओं और कला-संस्कृति पर सामग्री है। भारत भर के लगभग 275 लेखकों ने मेहनत से प्रविष्टियाँ लिखीं और उनके ऐतिहासिक सहयोग से ज्ञानकोश बना। इस कोश के नाम में सम्मिलित 'साहित्य' शब्द अपने विशद अर्थ में है। इसके अन्तर्गत दर्शन, राजनीति, इतिहास आदि सब समाहित हैं। हिंदी साहित्य ज्ञानकोश की प्रविष्टियों में कोई अन्तिम कथन नहीं है। यह आगे की जानकारियों के लिए मार्ग खोलता है और अपने पाठकों को जिज्ञासु और गतिशील बनाता है। इक्कीसवीं शताब्दी के विश्वकोष विश्वकोषों की संरचना कम्प्यूटर के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है। इसी लिये अधिकांश विश्वकोष 20वीं सदी के अन्त तक कम्प्यूटरों के लिये उपयुक्त फार्मट (स्वरूप) में आ गये हैं। सीडी-रोम आदि में उपलब्ध विश्वकोषॉम के निम्नलिखित लाभ हैं: सस्ते में तैयार किये जा सकते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में सुविधा (पोर्टेबल) इनमें कोई शब्द या लेख खोजने की सुविधा भी पुस्तक-रूप विश्वकोषों की तुलना में बहुत उन्नत एवं सरल होती है। इनमें ऐसी विशेषताएँ एवं खूबियाँ होती हैं जिन्हे पुस्तकों में देना सम्भव नहीं है। जैसे - एनिमेशन, श्रव्य (आडियो), विडियो, हाइपलिंकिंग आदि। इनकी सामग्री समय के साथ आसानी से परिवर्तनशील (dynamic) है। उदाहरण के लिये विकिपीडिया में नये से नये विषय पर भी शीघ्र लेख प्रकटहो सकता है। जबकि पुस्तक रूपी विश्वकोष में कोई नया विषय जोडने या कोई सुधार करने के लिये उसके अगले संस्करण तक प्रतीक्षा करनी पडती है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें हिन्दी विकिपीडिया विश्वकोषों की सूची हिन्दी विश्वकोश विकिपीडिया शब्दकोश समान्तर कोश बाहरी कड़ियाँ हिन्दी विश्वकोश, पहला खण्ड (पुस्तक रूप में स्कैन किया हुआ) ज्ञान कोश भाग १ (हिन्दी विकिस्रोत) (श्रीधर व्यंकटेश केतकर) भारतकोश - आनलाइन ज्ञान का हिन्दी महासागर समाज-विज्ञान विश्वकोश (हिन्दी समय) जैनकोश आरम्भिक विज्ञान कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - गोविन्द झा) चित्रमय बाल कोश (गूगल पुस्तक; लेखक - भोलानाथ तिवारी) हिन्दी बाल ज्ञान-विज्ञान एनसाइक्लोपीडिया (पेड़-पौधे) (गूगल पुस्तक; सम्पादक - पुस्तकायन) सामाजिक विज्ञान विश्वकोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवगोपाल मिश्र) सामान्य विज्ञान विश्वकोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवगोपाल 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दिल्ली, आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (अंग्रेज़ी: National Capital Territory of Delhi) भारत की राजधानी और एक केंद्र-शासित प्रदेश है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो भारत की राजधानी है। दिल्ली राजधानी होने के नाते केंद्र सरकार की तीनों इकाइयों- कार्यपालिका, संसद और न्यायपालिका के मुख्यालय नई दिल्ली और दिल्ली में स्थापित हैं। १४८३ वर्ग किलोमीटर में फैला दिल्ली जनसंख्या के तौर पर भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर है। यहाँ की जनसंख्या लगभग १ करोड़ ७० लाख है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषाएँ हैं : हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी। भारत में दिल्ली का ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्त्व है। इसके दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाड़ियाँ और पूर्व में यमुना नदी है, जिसके किनारे यह नगर बसा हुआ है। यह प्राचीन समय में गंगा के मैदान से होकर जाने वाले वाणिज्य पथों के रास्ते में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव था। यमुना नदी के किनारे स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है, और पुराणों में इसका विशेष महत्व है। यह भारत का अति प्राचीन नगर है। इसके इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं। महाभारत काल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ था। दिल्ली सल्तनत के उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी। यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं। १६३९ में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में ही एक चारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो १६७९ से १८५७ तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही। १८वीं एवं १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। १९११ में दिल्ली दरबार में अंग्रेजी सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए। इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली में विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का प्रवासन हुआ, इससे दिल्ली के स्वरूप में आमूल परिवर्तन हुआ। विभिन्न प्रान्तों, धर्मों एवं जातियों के लोगों के दिल्ली में बसने के कारण दिल्ली का शहरीकरण तो हुआ ही साथ ही यहाँ एक मिश्रित संस्कृति ने भी जन्म लिया। आज दिल्ली भारत का एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र है। नामकरण इस नगर का नाम "दिल्ली" कैसे पड़ा इसका कोई निश्चित सन्दर्भ नहीं मिलता, लेकिन व्यापक रूप से यह माना गया है कि यह एक प्राचीन राजा "ढिल्लु" से सम्बन्धित है। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहलीज़ का एक विकृत रूप है, जिसका हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है 'चौखट', जो कि इस नगर के सम्भवतः सिन्धु-गंगा समभूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है। एक और अनुमान के अनुसार इस नगर का प्रारम्भिक नाम "ढिलिका" था। हिन्दी/प्राकृत "ढीली" भी इस क्षेत्र के लिए प्रयोग किया जाता था। इतिहास दिल्ली का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत नामक महापुराण में मिलता है जहाँ इसका उल्लेख प्राचीन इन्द्रप्रस्थ के रूप में किया गया है। इन्द्रप्रस्थ महाभारत काल में पांडवों की राजधानी थी। पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिले हैं उससे पता चलता है कि ईसा से दो हजार वर्ष पहले भी दिल्ली तथा उसके आस-पास मानव निवास करते थे।। दिल्ली का इतिहास बेहद पुराना है करीब 730 ईसा पूर्व के दौरान मालवा के शासक राजा धन्ना भील के एक उत्तराधिकारी ने दिल्ली के सम्राट को चुनौती दी थी । मौर्य-काल (ईसा पूर्व ३००) से यहाँ एक नगर का विकास होना आरम्भ हुआ। महाराज पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंद बरदाई की हिन्दी रचना पृथ्वीराज रासो में तोमर राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और महरौली के गुप्त कालीन लौह-स्तंभ को दिल्ली लाया। दिल्ली में तोमरों का शासनकाल वर्ष ९००-१२०० तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया। इस शिलालेख का समय वर्ष ११७० निर्धारित किया गया। महाराज पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का अन्तिम हिन्दू सम्राट माना जाता है। १२०६ ई० के बाद दिल्ली दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी। इस पर खिलज़ी वंश, तुगलक़ वंश, सैयद वंश और लोदी वंश समेत कुछ अन्य वंशों ने शासन किया। ऐसा माना जाता है कि आज की आधुनिक दिल्ली बनने से पहले दिल्ली सात बार उजड़ी और विभिन्न स्थानों पर बसी, जिनके कुछ अवशेष आधुनिक दिल्ली में अब भी देखे जा सकते हैं। दिल्ली के तत्कालीन शासकों ने इसके स्वरूप में कई बार परिवर्तन किया। मुगल बादशाह हुमायूँ ने सरहिन्द के निकट युद्ध में अफ़गानों को पराजित किया तथा बिना किसी विरोध के दिल्ली पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य के नेतृत्व में अफ़गानों नें मुगल सेना को पराजित कर आगरा व दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह अकबर ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थान्तरित कर दिया। अकबर के पोते शाहजहाँ (१६२८-१६५८) ने सत्रहवीं सदी के मध्य में इसे सातवीं बार बसाया जिसे शाहजहाँनाबाद के नाम से पुकारा गया। शाहजहाँनाबाद को आम बोल-चाल की भाषा में पुराना शहर या पुरानी दिल्ली कहा जाता है। प्राचीनकाल से पुरानी दिल्ली पर अनेक राजाओं एवं सम्राटों ने राज्य किया है तथा समय-समय पर इसके नाम में भी परिवर्तन किया जाता रहा था। पुरानी दिल्ली १६३८ के बाद मुग़ल सम्राटों की राजधानी रही। दिल्ली का आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र था जिसकी मृत्यू निवार्सन में ही रंगून में हुई। १८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकूमत में शासन चलने लगा। १८५७ के इस प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया तथा भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हो गया। प्रारम्भ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परन्तु ब्रिटिश शासन काल के अन्तिम दिनों में पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में तेजी से बढ़ने लगा। जिसके कारण अंग्रेजों को यह लगने लगा कि कलकत्ता जो कि भारत के धुर पूरब में था वहां से अफ़ग़ानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से आसानी से नियंत्रण नहीं स्थापित किया जा सकता है आगे चल कर के इसी कारण से १९११ में उपनिवेश राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया एवं अनेक आधुनिक निर्माण कार्य करवाए गये। शहर के बड़े हिस्सों को ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स सर एडविन लुटियंस और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। १९४७ में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप से भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया। दिल्ली में कई राजाओं के साम्राज्य के उदय तथा पतन के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं। सच्चे मायने में दिल्ली हमारे देश के भविष्य, भूतकाल एवं वर्तमान परिस्थितियों का मेल-मिश्रण हैं। तोमर शासकों में दिल्ली की स्थापना का श्रेय अनंगपाल को जाता है। जलवायु, भूगोल और जनसांख्यिकी दिल्ली-एनसीआर एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। भौगोलिक स्थिति राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में विस्तृत है, जिसमें से भाग ग्रामीण और भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:- दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल ) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है।". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल ) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल () जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारो में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफ से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावित क्षेत्र बनाती है। जल सम्पदा भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। १००० ई. के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है। भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है। 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान 'रिज' के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई। एक अंग्रेज द्वारा १८०७ में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर बने उपर्युक्त नक्शे में वह जलधाराएं दिखाई गई हैं, जो दिल्ली की यमुना में मिलती थीं। एक तिलपत की पहाड़ियों में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी, तो दूसरी हौजखास में अनेक सहायक धाराओं को समेटते हुए पूर्वाभिमुख बहती बारापुला के स्थान पर निजामुद्दीन के ऊपरी यमुना प्रवाह में जाकर मिलती थी। एक तीसरी और इनसे बड़ी धारा जिसे साहिबी नदी (पूर्व नाम रोहिणी) कहते थे। दक्षिण-पश्चिम से निकल कर रिज के उत्तर में यमुना में मिलती थी। ऐसा लगता है कि विवर्तनिक हलचल के कारण इसके बहाव का निचाई वाला भूभाग कुछ ऊँचा हो गया, जिससे इसका यमुना में गिरना रूक गया। पिछले मार्ग से इसका ज्यादा पानी नजफगढ़ झील में जाने लगा। कोई ७० वर्ष पहले तक इस झील का आकार २२० वर्ग किलोमीटर होता था। अंग्रेजों ने साहिबी नदी की गाद निकालकर तल सफ़ाई करके नाला नजफगढ़ का नाम दिया और इसे यमुना में मिला दिया। यही जलधाराएं और यमुना-दिल्ली में अरावली की श्रृंखलाओं के कटोरे में बसने वाली अनेक बस्तियों और राजधानियों को सदा पर्याप्त जल उपलब्ध कराती आईं थीं। हिमालय के हिमनदों से निकलने के कारण यमुना सदानीरा रही है। परन्तु अन्य उपर्युक्त उपनदियाँ अब से २०० वर्ष पूर्व तक ही, जब तक कि अरावली की पर्वतमाला प्राकृतिक वन से ढकी रहीं तभी तक बारहमासी रह सकीं। खेद है कि दिल्ली में वनों का कटान खिलजियों के समय से ही शुरू हो गया था। इस्लाम स्वीकार न करने वाले स्थानीय विद्रोहियों और लूटपाट करने वाले मेवों का दमन करने के लिए ऐसा किया गया था। साथ ही बढ़ती शहरी आबादी के भार से भी वन प्रांत सिकुड़ा है। इसके चलते वनांचल में संरक्षित वर्षा जल का अवक्षय हुआ। ब्रिटिश काल में अंग्रेजी शासन के दौरान दिल्ली में सड़कों के निर्माण और बाढ़ अवरोधी बांध बनाने से पर्यावरण परिवर्तन के कारण ये जलधाराएं वर्ष में ग्रीष्म के समय सूख जाने लगीं। स्वतंत्रता के बाद के समय में बरसाती नालों, फुटपाथों और गलियों को सीमेंट से पक्का किया गया, इससे इन धाराओं को जल पहुँचाने वाले स्वाभाविक मार्ग अवरुद्ध हो गये। ऐसी दशा में, जहां इन्हें रास्ता नहीं मिला, वहाँ वे मानसून में बरसाती नालों की तरह उफनने लगीं। विशद रूप में सीमेंट कंक्रीट के निर्माणों के कारण उन्हें भूमिगत जलभृत्तों या नदी में मिलाने का उपाय नहीं रह गया है। आज इन नदियों में नगर का अधिकतर मैला ही गिरता है। जलवायु दिल्ली के महाद्वीपीय जलवायु में ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु के तापमान में बहुत अन्तर होता है। ग्रीष्म ऋतु लंबी, अत्यधिक गर्म अप्रैल से मध्य-अक्टूबर तक चलती हैं। इस बीच में मानसून सहित वर्षा ऋतु भी आती है। ये गर्मी काफ़ी घातक भी हो सकती है, जिसने भूतकाल में कई जानें ली हैं। मार्च के आरम्भ से ही वायु की दिशा में परिवर्तन होने लगता है। ये उत्तर-पश्चिम से हट कर दक्षिण-पश्चिम दिशा में चलने लगती हैं। ये अपने साथ राजस्थान की गर्म लहर और धूल भी लेती चलती हैं। ये गर्मी का मुख्य अंग हैं। इन्हें ही लू कहते हैं। अप्रैल से जून के महीने अत्यधिक गर्म होते हैं, जिनमें उच्च ऑक्सीकरण क्षमता होती है। जून के अन्त तक नमी में वृद्धि होती है जो पूर्व मॉनसून वर्षा लाती हैं। इसके बाद जुलाई से यहां मॉनसून की हवाएं चलती हैं, जो अच्छी वर्षा लाती हैं। अक्टूबर-नवंबर में शिशिर काल रहता है, जो हल्की ठंड के संग आनन्द दायक होता है। नवंबर से शीत ऋतु का आरम्भ होता है, जो फरवरी के आरम्भ तक चलता है। शीतकाल में घना कोहरा भी पड़ता है, एवं शीतलहर चलती है, जो कि फिर वही तेज गर्मी की भांति घातक होती है। यहां के तापमान में अत्यधिक अन्तर आता है जो −०.६ °से. (३०.९ °फ़ै.) से लेकर तक जाता है। वार्षिक औसत तापमान २५°से. (७७ °फ़ै.); मासिक औसत तापमान १३°से. से लेकर ३२°से (५६°फ़ै. से लेकर ९०°फ़ै.) तक होता है। औसत वार्षिक वर्षा लगभग ७१४ मि.मी. (२८.१ इंच) होती है, जिसमें से अधिकतम मानसून द्वारा जुलाई-अगस्त में होती है। दिल्ली में मानसून के आगमन की औसत तिथि २९ जून होती है। वायु प्रदूषण दिल्ली की वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) आम तौर पर जनवरी से सितंबर के बीच मध्यम (101-200) स्तर है, और फिर यह तीन महीनों में बहुत खराब (301-400), गंभीर (401-500) या यहां तक कि खतरनाक (500+) के स्तर में भी हो जाती है। अक्टूबर से दिसंबर के बीच, विभिन्न कारकों के कारण, स्टबल जलने, दिवाली में जलने वाले अग्नि पटाखे और ठंड के मौसम । जनसांख्यिकी १९०१ में ४ लाख की जनसंख्या के साथ दिल्ली एक छोटा नगर था। १९११ में ब्रिटिश भारत की राजधानी बनने के साथ इसकी जनसंख्या बढ़ने लगी। भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान से एक बहुत बड़ी संख्या में लोग आकर दिल्ली में बसने लगे। यह प्रवासन विभाजन के बाद भी चलता रहा। वार्षिक ३.८५% की वृद्धि के साथ २००१ में दिल्ली की जनसंख्या १ करोड़ ३८ लाख पहुँच चुकी है। १९९१ से २००१ के दशक में जनसंख्या की वृद्धि की दर ४७.०२% थी। दिल्ली में जनसख्या का घनत्व प्रति किलोमीटर ९,२९४ व्यक्ति तथा लिंग अनुपात ८२१ महिलाओं एवं १००० पुरूषों का है। यहाँ साक्षरता का प्रतिशत ८१.८२% है। प्रशासन और जनसांख्यिकी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली कुल नौ ज़िलों में बँटा हुआ है। हरेक जिले का एक उपायुक्त नियुक्त है और जिले के तीन उपजिले हैं। प्रत्येक उप जिले का एक उप जिलाधीश नियुक्त है। सभी उपायुक्त मंडलीय अधिकारी के अधीन होते हैं। दिल्ली का जिला प्रशासन सभी प्रकार की राज्य एवं केन्द्रीय नीतियों का प्रवर्तन विभाग होता है। यही विभिन्न अन्य सरकारी कार्यकलापों पर आधिकारिक नियंत्रण रखता है। निम्न लिखित दिल्ली के जिलों और उपजिलों की सूची है:- मध्य दिल्ली जिला दरिया गंजपहाड़ गंजकरौल बाग उत्तर दिल्ली जिला सदर बाजार, दिल्ली कोतवाली, दिल्लीसब्जी मंडी दक्षिण दिल्ली जिला कालकाजीडिफेन्स कालोनीहौज खास पूर्वी दिल्ली जिला प्रीत विहारलक्ष्मी नगरवसुंधरा एंक्लेवमयूर विहार शाहदरा (दिल्ली) गाँधी नगर, दिल्लीशाहदराबिहारी कालोनीविवेक विहारदिलशाद गार्डन उत्तर पूर्वी दिल्ली जिला सीलमपुरकरावल नगरसीमा पुरीभजनपुरा दक्षिण पश्चिम दिल्ली जिला वसंत विहारनजफगढ़दिल्ली छावनी नई दिल्ली जिला कनाट प्लेससंसद मार्गचाणक्य पुरी उत्तर पश्चिम दिल्ली जिला सरस्वती विहारनरेलामॉडल टाउन पश्चिम दिल्ली जिला पटेल नगरराजौरी गार्डनपंजाबी बाग जनसांख्यिकी १९०१ में ४ लाख की जनसंख्या के साथ दिल्ली एक छोटा नगर था। १९११ में ब्रिटिश भारत की राजधानी बनने के साथ इसकी जनसंख्या बढ़ने लगी। भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान से एक बहुत बड़ी संख्या में लोग आकर दिल्ली में बसने लगे। यह प्रवासन विभाजन के बाद भी चलता रहा। वार्षिक ३.८५% की वृद्धि के साथ २००१ में दिल्ली की जनसंख्या १ करोड़ ३८ लाख पहुँच चुकी है। १९९१ से २००१ के दशक में जनसंख्या की वृद्धि की दर ४७.०२% थी। दिल्ली में जनसंख्या का घनत्व प्रति किलोमीटर ९,२९४ व्यक्ति तथा लिंग अनुपात ८२१ महिलाओं एवं १००० पुरूषों का है। यहाँ साक्षरता का प्रतिशत ८१.८२% है। दर्शनीय स्थल दिल्ली केवल भारत की राजधानी ही नहीं अपितु यह एक पर्यटन का मुख्य केन्द्र भी है। राजधानी होने के कारण भारत सरकार के अनेक कार्यालय, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, केन्द्रीय सचिवालय आदि अनेक आधुनिक स्थापत्य के नमूने तो यहाँ देखे ही जा सकते हैं; प्राचीन नगर होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है। पुरातात्विक दृष्टि से पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, जंतर मंतर, क़ुतुब मीनार और लौह स्तंभ जैसे अनेक विश्व प्रसिद्ध निर्माण यहाँ पर आकर्षण का केन्द्र समझे जाते हैं। एक ओर हुमायूँ का मकबरा, लाल किला जैसे विश्व धरोहर मुगल शैली की तथा पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, लोधी मकबरे परिसर आदि ऐतिहासिक राजसी इमारत यहाँ है तो दूसरी ओर निज़ामुद्दीन औलिया की पारलौकिक दरगाह भी। लगभग सभी धर्मों के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल यहाँ हैं जैसे बिरला मंदिर, आद्या कात्यायिनी शक्तिपीठ, बंगला साहब गुरुद्वारा, बहाई मंदिर, अक्षर धाम मंदिर, और जामा मस्जिद देश के शहीदों का स्मारक इंडिया गेट, राजपथ पर इसी शहर में निर्मित किया गया है। भारत के प्रधान मंत्रियों की समाधियाँ हैं, जंतर मंतर है, लाल किला है साथ ही अनेक प्रकार के संग्रहालय और अनेक बाज़ार हैं, जैसे कनॉट प्लेस, चाँदनी चौक और बहुत से रमणीक उद्यान भी हैं, जैसे मुगल उद्यान, गार्डन ऑफ फाइव सेंसिस, तालकटोरा गार्डन, लोदी गार्डन, चिड़ियाघर, आदि, जो दिल्ली घूमने आने वालों का दिल लुभा लेते हैं। दिल्ली के शिक्षा संस्थान दिल्ली भारत में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। दिल्ली के विकास के साथ-साथ यहाँ शिक्षा का भी तेजी से विकास हुआ है। प्राथमिक शिक्षा तो प्रायः सार्वजनिक है। एक बहुत बड़े अनुपात में बच्चे माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। स्त्री शिक्षा का विकास हर स्तर पर पुरुषों से अधिक हुआ है। यहाँ की शिक्षा संस्थाओं में विद्यार्थी भारत के सभी भागों से आते हैं। यहाँ कई सरकारी एवं निजी शिक्षा संस्थान हैं जो कला, वाणिज्य, विज्ञान, प्रोद्योगिकी, आयुर्विज्ञान, विधि और प्रबंधन में उच्च स्तर की शिक्षा देने के लिए विख्यात हैं। उच्च शिक्षा के संस्थानों सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत कई कॉलेज एवं शोध संस्थान हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, गुरु गोबिन्द सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, टेरी - ऊर्जा और संसाधन संस्थान एवं जामिया मिलिया इस्लामिया उच्च शिक्षा के प्रमुख संस्थान हैं। संस्कृति दिल्ली शहर में बने स्मारकों से विदित होता है कि यहां की संस्कृति प्राच्य ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से प्रभावित है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली शहर में लगभग १२०० धरोहर स्थल घोषित किए हैं, जो कि विश्व में किसी भी शहर से कहीं अधिक है। और इनमें से १७५ स्थल राष्ट्रीय धरोहर स्थल घोषित किए हैं। पुराना शहर वह स्थान है, जहां मुगलों और तुर्क शासकों ने स्थापत्य के कई नमूने खड़े किए, जैसे जामा मस्जिद (भारत की सबसे बड़ी मस्जिद) और लाल किला। दिल्ली में फिल्हाल तीन विश्व धरोहर स्थल हैं – लाल किला, कुतुब मीनार और हुमायुं का मकबरा। अन्य स्मारकों में इंडिया गेट, जंतर मंतर (१८वीं सदी की खगोलशास्त्रीय वेधशाला), पुराना किला (१६वीं सदी का किला). बिरला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर और कमल मंदिर आधुनिक स्थापत्यकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। राज घाट में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तथा निकट ही अन्य बड़े व्यक्तियों की समाधियां हैं। नई दिल्ली में बहुत से सरकारी कार्यालय, सरकारी आवास, तथा ब्रिटिश काल के अवशेष और इमारतें हैं। कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण इमारतों में राष्ट्रपति भवन, केन्द्रीय सचिवालय, राजपथ, संसद भवन और विजय चौक आते हैं। सफदरजंग का मकबरा और हुमायुं का मकबरा मुगल बागों के चार बाग शैली का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। दिल्ली के राजधानी नई दिल्ली से जुड़ाव और भूगोलीय निकटता ने यहाँ की राष्ट्रीय घटनाओं और अवसरों के महत्त्व को कई गुणा बढ़ा दिया है। यहाँ कई राष्ट्रीय त्यौहार जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गाँधी जयंती खूब हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। भारत के स्वतंत्रता दिवस पर यहाँ के प्रधान मंत्री लाल किले से यहाँ की जनता को संबोधित करते हैं। बहुत से दिल्लीवासी इस दिन को पतंगें उड़ाकर मनाते हैं। इस दिन पतंगों को स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। गणतंत्र दिवस की परेड एक वृहत जुलूस होता है, जिसमें भारत की सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक झांकी का प्रदर्शन होता है। यहाँ के धार्मिक त्यौहारों में दीवाली, होली, दशहरा, दुर्गा पूजा, महावीर जयंती, गुरु परब, क्रिसमस, महाशिवरात्रि, ईद उल फितर, बुद्ध जयंती लोहड़ी पोंगल और ओड़म जैसे पर्व हैं। कुतुब फेस्टिवल में संगीतकारों और नर्तकों का अखिल भारतीय संगम होता है, जो कुछ रातों को जगमगा देता है। यह कुतुब मीनार के पार्श्व में आयोजित होता है। अन्य कई पर्व भी यहाँ होते हैं: जैसे आम महोत्सव, पतंगबाजी महोत्सव, वसंत पंचमी जो वार्षिक होते हैं। एशिया की सबसे बड़ी ऑटो प्रदर्शनी: ऑटो एक्स्पो दिल्ली में द्विवार्षिक आयोजित होती है। प्रगति मैदान में वार्षिक पुस्तक मेला आयोजित होता है। यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा पुस्तक मेला है, जिसमें विश्व के २३ राष्ट्र भाग लेते हैं। दिल्ली को उसकी उच्च पढ़ाकू क्षमता के कारण कभी कभी विश्व की पुस्तक राजधानी भी कहा जाता है। पंजाबी और मुगलई खान पान जैसे कबाब और बिरयानी दिल्ली के कई भागों में प्रसिद्ध हैं। दिल्ली की अत्यधिक मिश्रित जनसंख्या के कारण भारत के विभिन्न भागों के खानपान की झलक मिलती है, जैसे राजस्थानी, महाराष्ट्रियन, बंगाली, हैदराबादी खाना और दक्षिण भारतीय खाने के आइटम जैसे इडली, सांभर, दोसा इत्यादि बहुतायत में मिल जाते हैं। इसके साथ ही स्थानीय खासियत, जैसे चाट इत्यादि भी खूब मिलती है, जिसे लोग चटकारे लगा लगा कर खाते हैं। इनके अलावा यहाँ महाद्वीपीय खाना जैसे इटैलियन और चाइनीज़ खाना भी बहुतायत में उपलब्ध है। इतिहास में दिल्ली उत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण व्यापार केन्द्र भी रहा है। पुरानी दिल्ली ने अभी भी अपने गलियों में फैले बाज़ारों और पुरानी मुगल धरोहरों में इन व्यापारिक क्षमताओं का इतिहास छुपा कर रखा है। पुराने शहर के बाजारों में हर एक प्रकार का सामान मिलेगा। तेल में डूबे चटपटे आम, नींबू, आदि के अचारों से लेकर मंहगे हीरे जवाहरात, जेवर तक; दुल्हन के अलंकार, कपड़ों के थान, तैयार कपड़े, मसाले, मिठाइयाँ और क्या नहीं? कई पुरानी हवेलियाँ इस शहर में अभी भी शोभा पा रही हैं और इतिहास को संजोए शान से खड़ी है। चांदनी चौक, जो कि यहाँ का तीन शताब्दियों से भी पुराना बाजार है, दिल्ली के जेवर, ज़री साड़ियों और मसालों के लिए प्रसिद्ध है। दिल्ली की प्रसिद्ध कलाओं में से कुछ हैं यहाँ के ज़रदोज़ी (सोने के तार का काम, जिसे ज़री भी कहा जाता है) और मीनाकारी (जिसमें पीतल के बर्तनों इत्यादि पर नक्काशी के बीच रोगन भरा जाता है। यहाँ की कलाओं के लिए बाजार हैं प्रगति मैदान, दिल्ली, दिल्ली हाट, हौज खास, दिल्ली- जहां विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प के और हठकरघों के कार्य के नमूने मिल सकते हैं। समय के साथ साथ दिल्ली ने देश भर की कलाओं को यहाँ स्थान दिया हैं। इस तरह यहाँ की कोई खास शैली ना होकर एक अद्भुत मिश्रण हो गया है। दिल्ली के निम्न भगिनी शहर हैं: शिकागो, कुआला लंपूर, लंदन, मॉस्को, सिओल, वॉशिंगटन, लॉस एंजिल्स, सिडनी, पेरिस, स्थापत्य इस ऐतिहासिक नगर में एक ओर प्राचीन, अतिप्राचीन काल के असंख्य खंडहर मिलते हैं, तो दूसरी ओर अवार्चीन काल के योजनानुसार निर्मित उपनगर भी। इसमें विश्व के किसी भी नवीनतम नगर से होड़ लेने की क्षमता है। प्राचीनकाल के कितने ही नगर नष्ट हो गए पर दिल्ली अपनी भौगिलिक स्थिति और समयानुसार परिवर्तनशीलता के कारण आज भी समृद्धशाली नगर ही नहीं महानगर है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली में १२०० इमारतों को ऐतिहासिक महत्त्व का तथा १७५ को राष्ट्रीय सांस्कृतिक स्मारक घोषित किया है। नई दिल्ली में महरौली में गुप्तकाल में निर्मित लौहस्तंभ है। यह प्रौद्योगिकी का एक अनुठा उदाहरण है। ईसा की चौथी शताब्दी में जब इसका निर्माण हुआ तब से आज तक इस पर जंग नहीं लगा। दिल्ली में इंडो-इस्लामी स्थापत्य का विकाश विशेष रूप से दृष्टगत होता है। दिल्ली के कुतुब परिसर में सबसे भव्य स्थापत्य कुतुब मिनार है। इस मिनार को स़ूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में बनवाया गया था। तुगलक काल में निर्मित गयासुद्दीन का मकबरा स्थापत्य में एक नई प्रवृत्ति का सूचक है। यह अष्टभुजाकार है। दिल्ली में हुमायूँ का मकबरा मुगल स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। शाहजहाँ का शासनकाल स्थापत्य कला के लिए याद किया जाता है। अर्थ व्यवस्था मुंबई के बाद दिल्ली भारत के सबसे बड़े व्यापारिक महानगरो में से है। देश में प्रति व्यक्ति औसत आय की दृष्टि से भी यह देश के सबसे सम्पन्न नगरो में गिना जाता है। १९९० के बाद से दिल्ली विदेशी निवशेकों का पसन्दीदा स्थान बना है। हाल में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे पेप्सी, गैप, इत्यादि ने दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में अपना मुख्यालय खोला है। क्रिसमस के दिन वर्ष २००२ में दिल्ली के महानगरी क्षेत्रों में दिल्ली मेट्रो रेल का शुभारम्भ हुआ जिसे वर्ष २०२२ में पूरा किये जाने का अनुमान है। हवाई यातायात द्वारा दिल्ली इन्दिरा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विमानस्थल से पूरे विश्व से जुड़ा है।. यातायात सुविधाएं दिल्ली के सार्वजनिक यातायात के साधन मुख्यतः बस, ऑटोरिक्शा और मेट्रो रेल सेवा हैं। दिल्ली की मुख्य यातायात आवश्यकता का ६०% बसें पूरा करती हैं। दिल्ली परिवहन निगम द्वारा संचालित सरकारी बस सेवा दिल्ली की प्रधान बस सेवा है। दिल्ली परिवहन निगम विश्व की सबसे बड़ी पर्यावरण सहयोगी बस-सेवा प्रदान करता है। हाल ही में बी आर टी कॉरिडोर की सेवा अंबेडकर नगर और दिल्ली गेट के बीच आरम्भ हुई है। जिसे तकनीकी खामियों के कारण तोड़ दिया है और अब सड़क को पुराने स्वरूप में बदल दिया गया है। ऑटो रिक्शा दिल्ली में यातायात का एक प्रभावी माध्यम है। ये ईंधन के रूप में सी एन जी का प्रयोग करते हैं, व इनका रंग हरा होता है। दिल्ली में वातानुकूलित टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है जिनका किराया ७.५० से १५ रु/कि॰मी॰ तक है। दिल्ली की कुल वाहन संख्या का ३०% निजी वाहन हैं। दिल्ली में १९२२.३२ कि॰मी॰ की लंबाई प्रति १०० कि॰मी॰², के साथ भारत का सर्वाधिक सड़क घनत्व मिलता है। दिल्ली भारत के पांच प्रमुख महानगरों से राष्ट्रीय राजमार्गों द्वारा जुड़ा है। ये राजमार्ग हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या: १, २, ८, १० और २४। अभी कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने राष्ट्रीय राजमार्ग 24 जो निज़ामुद्दीन से मेरठ के लिए दिल्ली-मेरठ एक्स्प्रेस वे का उद्घाटन किया था वह 8 लेन का है जिसकी अधिकतम 100 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से चल सकते हैं वो भी है। दिल्ली की सड़कों का अनुरक्षण दिल्ली नगर निगम (एम सी डी), दिल्ली छावनी बोर्ड, पब्लिक वर्क डिपार्टमेंट (PWD) और दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा किया जाता है। दिल्ली के उच्च जनसंख्या दर और उच्च अर्थ विकास दर ने दिल्ली पर यातायात की वृहत मांग का दबाव यहाँ की अवसंरचना पर बनाए रखा है। २००८ के अनुसार दिल्ली में ५५ लाख वाहन नगर निगम की सीमाओं के अंदर हैं। इस कारण दिल्ली विश्व का सबसे अधिक वाहनों वाला शहर है। साथ ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ११२ लाख वाहन हैं। सन १९८५ में दिल्ली में प्रत्येक १००० व्यक्ति पर ८५ कारें थीं। दिल्ली के यातायात की मांगों को पूरा करने हेतु दिल्ली और केन्द्र सरकार ने एक मास रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम का आरम्भ किया, जिसे दिल्ली मेट्रो कहते हैं। सन १९९८ में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के सभी सार्वजनिक वाहनों को डीज़ल के स्थान पर कंप्रेस्ड नैचुरल गैस का प्रयोग अनिवार्य रूप से करने का आदेश दिया था। तब से यहाँ सभी सार्वजनिक वाहन सी एन जी पर ही चालित हैं। मेट्रो सेवा दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन द्वारा संचालित दिल्ली मेट्रो रेल एक मास रैपिड ट्रांज़िट (त्वरित पारगमन) प्रणाली है, जो कि दिल्ली के कई क्षेत्रों में सेवा प्रदान करती है। इसकी शुरुआत २४ दिसम्बर २००२ को शहादरा तीस हजारी लाईन से हुई। इस परिवहन व्यवस्था की अधिकतम गति ८०किमी/घंटा (५०मील/घंटा) रखी गयी है और यह हर स्टेशन पर लगभग २० सेकेंड रुकती है। सभी ट्रेनों का निर्माण दक्षिण कोरिया की कंपनी रोटेम (ROTEM) द्वारा किया गया है। दिल्ली की परिवहन व्यवसथा में मेट्रो रेल एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इससे पहले परिवहन का ज़्यादातर बोझ सड़क पर था। प्रारम्भिक अवस्था में इसकी योजना छह मार्गों पर चलने की है जो दिल्ली के ज्यादातर हिस्से को जोड़ेगी। इसका पहला चरण वर्ष २००६ में पूरा हो चुका है। दुसरे चरण में दिल्ली के महरौली, बदरपुर बॉर्डर, आनन्द विहार, जहांगीरपुरी, मुन्द्का और इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा अथवा दिल्ली से सटे नोएडा, गुड़गांव और वैशाली को मेट्रो से जोड़ने का काम जारी है। परियोजना के तीसरे चरण में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के शहरों गाजियाबाद, फरीदाबाद इत्यादि को भी जोड़ने की योजना है। इस रेल व्यवस्था के चरण I में मार्ग की कुल लंबाई लगभग ६५.११ किमी है जिसमे १३ किमी भूमिगत एवं ५२ किलोमीटर एलीवेटेड मार्ग है। चरण II के अन्तर्गत पूरे मार्ग की लंबाई १२८ किमी होगी एवं इसमें ७९ स्टेशन होंगे जो अभी निर्माणाधीन हैं, इस चरण के २०१० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। चरण III (११२ किमी) एवं IV (१०८.५ किमी) लंबाई की बनाये जाने का प्रस्ताव है जिसे क्रमश: २०१५ एवं २०२० तक पूरा किये जाने की योजना है। इन चारों चरणो का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के पश्चात दिल्ली मेट्रो के मार्ग की कुल लंबाई ४१३.८ किलोमीटर की हो जाएगी जो लंदन के मेट्रो रेल (४०८ किमी) से भी बड़ा बना देगी। दिल्ली के २०२१ मास्टर प्लान के अनुसार बाद में मेट्रो रेल को दिल्ली के उपनगरों तक ले जाए जाने की भी योजना है। रेल सेवा दिल्ली भारतीय रेल के नक्शे का एक प्रधान जंक्शन है। यहाँ उत्तर रेलवे का मुख्यालय भी है। यहाँ के चार मुख्य रेलवे स्टेशन हैं: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, दिल्ली जंक्शन, सराय रोहिल्ला और हज़रत निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन। दिल्ली अन्य सभी मुख्य शहरों और महानगरों से कई राजमार्गों और एक्स्प्रेसवे (त्वरित मार्ग) द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ वर्तमान में तीन एक्स्प्रेसवे हैं और तीन निर्माणाधीन हैं, जो इसे समृद्ध और वाणिज्यिक उपनगरों से जोड़ेंगे। दिल्ली गुड़गांव एक्स्प्रेसवे दिल्ली को गुड़गांव और अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से जोड़ता है। डी एन डी फ्लाइवे और नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्स्प्रेसवे दिल्ली को दो मुख्य उपनगरों से जोड़ते हैं। ग्रेटर नोएडा में एक अलग अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा योजनाबद्ध है और नोएडा में इंडियन ग्रैंड प्रिक्स नियोजित है। वायु सेवा इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम कोण पर स्थित है और यही अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय वायु-यात्रियों के लिए शहर का मुख्य द्वार है। वर्ष २००६-०७ में हवाई अड्डे पर २३ मिलियन सवारियां दर्ज की गईं थीं, जो इसे दक्षिण एशिया के व्यस्ततम विमानक्षेत्रों में से एक बनाती हैं। US$१९.३ लाख की लागत से एक नया टर्मिनल-३ निर्माणाधीन है, जो ३.४ करोड़ अतिरिक्त यात्री क्षमता का होगा, सन २०१० तक पूर्ण होना निश्चित है। इसके आगे भी विस्तार कार्यक्रम नियोजित हैं, जो यहाँ १०० मिलियन यात्री प्रतिवर्ष से अधिक की क्षमता देंगे। सफदरजंग विमानक्षेत्र दिल्ली का एक अन्य एयरफ़ील्ड है, जो सामान्य विमानन अभ्यासों के लिए और कुछ वीआईपी उड़ानों के लिए प्रयोग होता है। इन्हें भी देखें भारत के राज्यों और संघ क्षेत्रों की राजधानियाँ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के सर्वाधिक जनसंख्या वाले शहरों की सूची दिल्ली-एनसीआर मुंगेर सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ दिल्ली का इतिहास दिल्ली सरकार भारत के केन्द्र शासित प्रदेश एशिया के महानगर भारत के महानगर दिल्ली एशिया में राजधानियाँ राजधानी ज़िले और क्षेत्र
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महाद्वीप एक विस्तृत भू-भाग का फैलाव है जो पृथ्वी पर समुद्र से अलग दिखाई देते हैं। महाद्वीप को व्यक्त करने के कोई स्पष्ट मापदण्ड नहीं है। अलग-अलग सभ्यताओं और वैज्ञानिकों नें महाद्वीप की अलग परिभाषा दी है। पर आम राय यह है कि एक महाद्वीप धरती का बहुत बड़ा विस्तृत क्षेत्र होता है जिसकी सीमाएं स्पष्ट पहचानी जा सके. पृथ्वी के जो ७ सबसे बड़े ठोस सतह के ट्कड़े हैं उन्हें महाद्वीप कहा गया है और उन्हें अलग-अलग नाम भी दिया गया है जिनके नाम कुछ इस प्रकार हैं। जैसे -एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, यूरोप, और ओसियाना। पृथ्वी पर कितने महाद्वीप है इस बात पर पूरी सहमति नहीं है। कुछ लोग चार या पाँच महाद्वीप स्वीकरते है पर अधिकतर लोग छः, या सात महाद्वीप के होने का मत रखते हैं। भूवैज्ञानिकों मे मुख्य रूप से दो मतभेद है। पहला तो ये कि क्या यूरोप और एशिया को अलग-अलग महाद्वीप मानें या इन दोनों को जोड़कर एक महाद्वीप यूरेशिया मानें। दूसरा, क्या उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका को अलग-अलग महाद्वीप मानें या इन्हे साथ मिलाकर एक अमेरिका महाद्वीप माने। कुछ भूगोल वैज्ञानिकों ने ये भी सुझाव दिये हैं कि यूरोप, एशिया और अफ़्रीका को जोड़कर यूराफ़्रेशिया मानना चाहिए। (देखिए अफ़्रीका-यूरेशिया)। भारतीय महाद्वीप का अधिकांश भाग भारतीय प्लेट में आता है। अतः वह भी किसी परिभाषा से एक महाद्वीप है। कितने महाद्वीप हैं? - विभिन्न परिभाषायें आठ महाद्वीप : अफ्रीका, अन्टार्टिका, एशिया, (ऑस्ट्रेलिया)ओशीनिया, यूरोप, उत्तरी अमरीका, दक्षिण अमरीका और जीलैंडिया आठ महाद्वीप : अफ्रीका, अन्टार्टिका, एशिया, (ऑस्ट्रेलिया)ओशीनिया, यूरोप, उत्तरी अमरीका, दक्षिण अमरीका और भारतीय महाद्वीप सात महाद्वीप ‌ : अफ्रीका, एन्टार्टिका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया, युरोप, उत्तरी अमरिका, दक्षिण अमरीका सात महाद्वीप ‌ : अफ्रीका, एन्टार्टिका, भारतीय महाद्वीप, ऑस्ट्रेलिया, यूरेशिया, उत्तरी अमरिका, दक्षिण अमरीका छः महाद्वीप : अफ्रीकाएन्टार्टिका,ओशीनिया, यूरेशिया, उत्तर अमरीका और दक्षिण अमरीका. छः महाद्वीप : यूरेफ्रेशिया(अफ़्रीका-यूरेशिया),एन्टार्टिका,ओशीनिया, भारतीय महाद्वीप, उत्तर अमरीका और दक्षिण अमरीका. छः महाद्वीप : अफ्रीका, अमरीका, एन्टार्टिका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया (ओशीनिया) और यूरोप. पाँच महाद्वीप : अफ्रीका, अमरीका, ओशीनिया, एन्टार्टिका, यूरेशिया. पाँच महाद्वीप : अफ्रीका, अमरीका, ओशीनिया, यूरोप, एशिया. पाँच महाद्वीप : अफ्रीका, अमरीका, ओशीनिया, यूरेशिया, भारतीय महाद्वीप. चार महाद्वीप : अमरीका, ओशीनिया, एन्टार्टिका, यूरेफ्रेशिया. भूगर्भशास्त्र बीसवीं सदी के दौरान, भूविज्ञानिकों नें प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धांत को स्वीकार किया है जिसके अनुसार महाद्वीप पृथ्वी के उपरी सतह पर सरकते हैं, जिसे कॉन्टिनेन्टल ड्रीफ़्ट कहते है। पृथ्वी की सतह पर सात बड़े और कई छोटे टेक्टॉनिक प्लेट होते है। और यही टेक्टॉनिक प्लेट्स एक दूसरे से दूर होते हैं, टूट कर अलग होते हैं, जो समय बीतते महाद्वीप बन जाते हैं। इसी कारण से, भूवैज्ञानिक इतिहास से पहले और आज के महाद्वीपों से पहले कई दूसरे महाद्वीप हुआ करते थे। महाद्वीपों की सँख्या महाद्वीपों को विभाजित करने के कई तरीके हैं :- <div style="text-align: center;"> {| class="wikitable" align="center" ! colspan="9" | प्रतिरूप |- |style="background-color:#FFFFFF" colspan="9"|<div style="text-align: center;"><small>विभिन्न महाद्वीपों को दर्शाता हुआ रंग-कूटित मानचित्र। एक ही क़िस्म के रंग वाले महाद्वीप-समूह को समाहित या विभाजित किया जा सकता है।</a mall> |- |सात महाद्वीप||<div style="text-align: center;">    उत्तरी अमरीका||<div style="text-align: center;">    दक्षिण अमरीका||<div style="text-align: center;">    अंटार्कटिका||<div style="text-align: center;">    अफ्रीका||<div style="text-align: center;">    यूरोप||<div style="text-align: center;">    एशिया||<div style="text-align: center;">    ऑस्ट्रेलिया |- |6 महाद्वीप||<div style="text-align: center;">    उत्तरी अमरीका||<div style="text-align: center;">    दक्षिण अमरीका||<div style="text-align: center;">    अंटार्कटिका||<div style="text-align: center;">    अफ्रीका||colspan="2" |<div style="text-align: center;">       यूरेशिया ||<div style="text-align: center;">    ऑस्ट्रेलिया |- |6 महाद्वीप ||colspan="2"|<div style="text-align: center;">       अमरीका||<div style="text-align: center;">    अंटार्कटिका||<div style="text-align: center;">    अफ्रीका||<div style="text-align: center;">    यूरोप||<div style="text-align: center;">    एशिया||<div style="text-align: center;">    ऑस्ट्रेलिया |- |5 महाद्वीप|| colspan="2" |<div style="text-align: center;">       अमरीका|| ||<div style="text-align: center;">    अफ्रीका||<div style="text-align: center;">    यूरोप||<div style="text-align: center;">    एशिया||<div style="text-align: center;">    ऑस्ट्रेलिया |- |5 महाद्वीप ||colspan="2" |<div style="text-align: center;">       अमरीका||<div style="text-align: center;">    अंटार्कटिका||<div style="text-align: center;">    अफ्रीका||colspan="2"|<div style="text-align: center;">       यूरेशिया ||<div style="text-align: center;">    ऑस्ट्रेलिया |- |4 महाद्वीप ||colspan="2" |<div style="text-align: center;">       अमरीका||<div style="text-align: center;">    अंटार्कटिका||colspan="3"|<div style="text-align: center;">          Afro-यूरेशिया ||    ऑस्ट्रेलिया |} प्रायः सात महाद्वीप का सिद्धान्त पश्चिमी यूरोप, उत्तरी यूरोप, मध्य यूरोप, दक्षिणी-पूर्व यूरोप, चीन तथा लगभग सभी अंग्रेज़ी भाष्य देशों में पढ़ाया जाता है। छः महाद्वीप वाला मानक – जिसमें यूरोप और एशिया को मिलाकर यूरेशिया कहा जाता है – भूगोलशास्त्रियों द्वारा पसन्द किया जाता है और रूस, पूर्वी यूरोप तथा जापान में भी पढ़ाया जाता है। छः महाद्वीप वाला मानक – जिसमें उत्तरी तथा दक्षिणी अमरीका को मिलाकर केवल अमरीका कहा जाता है – दक्षिणी अमरीका, आइबीरिया प्रायद्वीप, इटली, ईरान, यूनान और यूरोप के कुछ भाग में पढ़ाया जाता है। इस पद्धति में कुछ फेर बदल कर केवल पाँच बसे हुए महाद्वीपों को भी दर्शा सकता है (अंटार्टिका को हटाकर)जैसा ओलंपिक के चिन्ह में देखने को मिलता है। ओशिऍनिया या ऑस्ट्रेलेशिया नाम कभी-कभी ऑस्ट्रेलिया और उसके आसपास के प्रशान्त महासागर के द्वीप समूहों को मिलकर दिया जाता है। उदाहरणतः, कनाडा की मानचित्रावली (ऍटलस) में ओशिऍनिया नाम दिया गया है, और ऐसा ही आइबीरिया और दक्षिणी अमरीका में भी देखा जाता है। यह भी देखिए सन्दर्भ [[चित्र:Continental models.gif|thumb|300px| अनुप्राणित एवं रंग कूटलिखित नक्शा, जिसमें विभिन्न महाद्वीप [[चित्र:Continental models.gif|thumb|300px| अनुप्राणित एवं रंग कूटलिखित नक्शा, जिसमें विभिन्न महाद्वीप [[चित्र:Continental models.gif|thumb|300px| अनुप्राणित एवं रंग कूटलिखित नक्शा, जिसमें विभिन्न महाद्वीप महाद्वीप
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यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है। इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई। कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू. का माना जाता है। नाम और विषय यजुष् के नाम पर ही वेद का नाम यजुष्+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। यज् का अर्थ समर्पण से होता है। पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह <ref>भग्वदगीता में (४.२६) में कहा गया है - श्रोत्रादिनीनद्रियं संयमाग्ने जुह्वति, शब्दादि विषयानन्य इन्दिरियाषु जुह्वति।। यानि श्रोत्रादि इंद्रियों को संयम में जलाना और शब्दादि को विषयों से पृथक करना समर्पण है। </ref> इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है। इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः अग्निहोत्र अश्वमेध वाजपेय सोमयज्ञ राजसूय अग्निचयन ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं। राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२ अर्थ- ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी। क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥ होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही। आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥ बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें। इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥ फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी। हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥ संप्रदाय, शाखाएं और संहिताएं संप्रदाय यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं। संहिताएं वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्ल यजुष्' के शुक्लत्व का कारण है। तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को 'आपस्तम्ब संहिता' भी कहते हैं। महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं। यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है। इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं। यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है। यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों के बीच की हैं।शुक्ल यजुर्वेद''' की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युंजय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है। शाखाएं यजुर्वेद कर्मकाण्ड से जुडा हुआ है। इसमें विभिन्न यज्ञों (जैसे अश्वमेध) का वर्णन है। यजुर्वेद पाठ अध्वुर्य द्वारा किया जाता है। यजुर्वेद ५ शाखाओ मे विभक्त् है- काठक कपिष्ठल मैत्रियाणी तैतीरीय वाजसनेयी कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद'' का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ। यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है। इन्हें भी देखें वैदिक साहित्य ऋग्वेद सामवेद अथर्ववेद वैदिक काल वैदिक धर्म वैदिक संस्कृति वैदिक कला वैदिक संस्कृत सन्दर्भ अन्य पठनीय ग्रंथ गदाधर भट्ट : भारतीय संस्कृति और धर्म :२००५, भट्ट-प्रकाशन, झालावाड मनु, मन्वंतर और महामनु : डॉ॰ एस. जी. डे :शांति पब्लिकेशन हाउस, भरतपुर, १९९६ उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष (भाग-2) संपादक स्व. पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा, वि. सं. 2007 बाहरी कडियाँ वेद-पुराण - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय-यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है। ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं। जिनका उदेश्य है - वेद प्रचार वेद-विद्या_डॉट_कॉम संस्कृत साहित्य वेद वैदिक धर्म हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना वैदिक साहित्य
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "यजुर्वेद", "token_count": 10213, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6" }
ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर (अरबी: عيد الفطر) मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक के एक महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का त्यौहार मनाते हैं। जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यक्म शवाल अल-मुकर्रम्म को मनाया जाता है। ईद उल-फ़ित्र इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरक्कत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है। इतिहास मुसलमानों का त्यौहार ईद रमज़ान का चांद डूबने और ईद का चांद नज़र आने पर उसके अगले दिन चांद की पहली तारीख़ को मनाया जाता है। इस्लाम में दो ईदों में से यह एक है (दुसरी ईद उल जुहा या कुरबानी की ईद कहलाती है)। पहली ईद उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनायी थी। ईद उल फित्र के अवसर पर पूरे महीने अल्लाह के मोमिन बंदे अल्लाह की इबादत करते हैं रोज़ा रखते हैं और क़ुआन करीम कुरान की तिलावत (इबादत) करके अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं जिसका अज्र या मजदूरी मिलने का दिन ही ईद का दिन कहलाता है जिसे उत्सव के रूप में पूरी दुनिया के मुसलमान बड़े हर्ष उल्लास से मनाते हैं ईद उल-फितर का सबसे अहम मक्सद एक और है कि इसमें ग़रीबों को फितरा देना वाजिब है जिससे वो लोग जो ग़रीब हैं मजबूर हैं अपनी ईद मना सकें नये कपड़े पहन सकें और समाज में एक दूसरे के साथ खुशियां बांट सकें फित्रा वाजिब है उनके ऊपर जो 52.50 तोला चाँदी या 7.50 तोला सोने का मालिक हो अपने और अपनी नाबालिग़ औलाद का सद्कये फित्र अदा करे जो कि ईद उल फितर की नमाज़ से पहले करना होता है। ईद भाई चारे व आपसी मेल का तयौहार है ईद के दिन लोग एक दूसरे के दिल में प्यार बढाने और नफरत को मिटाने के लिए एक दूसरे से गले मिलते हैं उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। हालांकि उपवास से कभी भी मोक्ष संभव नहीं क्योंकि इसका वर्णन पवित्र धर्म ग्रन्थो में नहीं है। पवित्र कुरान शरीफ भी बख्बर संत से इबादत का सही तरीका लेकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह की पूजा करने का निर्देश देता है। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार का सबसे मत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं। ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ होता है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर पे, आटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है। उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें पूरे महीने के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं। ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं। महत्त्व ईद का पर्व खुशियों का त्योहार है, वैसे तो यह मुख्य रूप से इस्लाम धर्म का त्योहार है परंतु आज इस त्योहार को लगभग सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर मनाते हैं। दरअसल इस पर्व से पहले शुरू होने वाले रमजान के पाक महीने में इस्लाम मजहब को मानने वाले लोग पूरे एक माह रोजा (व्रत) रखते हैं। रमजान महीने में मुसलमानों को रोजा रखना अनिवार्य है, क्योंकि उनका ऐसा मानना है कि इससे अल्लाह प्रसन्न होते हैं। यह पर्व त्याग और अपने मजहब के प्रति समर्पण को दर्शाता है। यह बताता है कि एक इंसान को अपनी इंसानियत के लिए इच्छाओं का त्याग करना चाहिए, जिससे कि एक बेहतर समाज का निर्माण हो सके। ईद उल फितर का निर्धारण एक दिन पहले चाँद देखकर होता है। चाँद दिखने के बाद उससे अगले दिन ईद मनाई जाती है। सऊदी अरब में चाँद एक दिन पहले और भारत में चाँद एक दिन बाद दिखने के कारण दो दिनों तक ईद का पर्व मनाया जाता है। ईद एक महत्वपूर्ण त्यौहार है इसलिए इस दिन छुट्टी होती है। ईद के दिन सुबह से ही इसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं। लोग इस दिन तरह तरह के व्यंजन, पकवान बनाते है तथा नए नए वस्त्र पहनते हैं। विभिन्न इलाक़ों में नाम इन्हें भी देखें रमदान इस्लामी त्यौहार ईद मुबारक ईद की नमाज़ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ इस्लाम धार्मिक त्यौहार मुस्लिम त्यौहार रमज़ान
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "ईद उल-फ़ित्र", "token_count": 6340, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A6%20%E0%A4%89%E0%A4%B2-%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0" }
महाराष्ट्र भारत का एक राज्य है जो भारत के पश्चिमी प्रायद्वीपीय क्षेत्र में स्थित है। इसकी गिनती भारत के सबसे धनी एवं समृद्ध राज्यों में की जाती है। महाराष्ट्र शब्द संस्कृत का है जो दो शब्दों द्वारा मिलकर बना है महा तथा राष्ट्र इसका अर्थ होता है महान देश। यह नाम यहाँ के संतों की देन है। इसकी राजधानी मुंबई है जो भारत का सबसे बड़ा शहर और देश की आर्थिक राजधानी के रूप में भी जानी जाती है। और यहाँ का पुणे शहर भी भारत के बड़े महानगरों में गिना जाता है। यहाँ का पुणे शहर भारत का छठवाँ सबसे बड़ा शहर है। महाराष्ट्र की जनसंख्या सन २०११ में ११,२३,७२,९७२ थी, विश्व में सिर्फ़ ग्यारह ऐसे देश हैं जिनकी जनसंख्या महाराष्ट्र से ज़्यादा है। इस राज्य का निर्माण १ मई, १९६० को मराठी भाषी लोगों की माँग पर की गयी थी। यहां मराठी भाषा ज्यादा बोली जाती है। मुंबई, अहमदनगर, पुणे, औरंगाबाद, भोकरदन, कोल्हापूर, नाशिक, नागपुर, ठाणे, शिर्डी, मालेगांव, सोलापुर, अकोला, लातुर, उस्मानाबाद, अमरावती और नांदेड महाराष्ट्र के अन्य मुख्य शहर हैं! इतिहास(प्राचीन- मध्ययुगीन) ऐसा माना जाता है कि सन १००० ईसा पूर्व से पहले महाराष्ट्र में खेती होती थी लेकिन उस समय मौसम में अचानक परिवर्तन आया और कृषि रुक गई थी। सन् ५०० इसापूर्व के आसपास बम्बई (प्राचीन नाम शुर्पारक, सोपर) एक महत्वपूर्ण पत्तन बनकर उभरा था। यह सोपर ओल्ड टेस्टामेंट का ओफिर था या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। प्राचीन १६ महाजनपद, महाजनपदों में अश्मक या अस्सक का स्थान आधुनिक अहमदनगर के आसपास है। सम्राट अशोक के शिलालेख भी मुम्बई के निकट पाए गए हैं। मौर्यों के पतन के बाद यहाँ बघेल (गडेरिया) का उदय वर्ष 230 में हुआ। वकटकों के समय अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पहले सन् 550-760 तथा पुनः 973-1180 रहा। इसके बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। अलाउद्दीन खिलजी वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। उसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५) ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद कर ली। यह स्थान पहले देवगिरि नाम से प्रसिद्ध था और औरंगाबाद के निकट स्थित है। बहमनी सल्तनत के टूटने पर यह प्रदेश गोलकुण्डा के आशसन में आया और उसके बाद औरंगजेब का संक्षिप्त शासन। इसके बाद मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वुद्धि हुई और अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे लगभग पूरे महाराष्ट्र पर तो फैल ही चुके थे और उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँच गया था। १८२० तक आते आते अंग्रेजों ने पेशवाओं को पूर्णतः हरा दिया था और यह प्रदेश भी अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन चुका था। देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का संमीलीकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला। आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए एक आंदोलन चल रहा है। नासिक गजट २४६ ईसा पूर्व में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक एक दूतावास भेजा जो करने के लिए स्थानों में से एक के रूप में उल्लेख किया है जो बताता है और यह तीन प्रांतों और ९९,००० गांवों सहित के रूप में ५८० आम था की एक चालुक्यों शिलालेख में दर्ज की गई है। नाम राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और बघेल के शासन से पहले पश्चिमी चालुक्य का शासन था। चालुक्य वंश ८ वीं सदी के लिए ६ वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और दो प्रमुख शासकों ८ वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हराया जो उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित जो फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश १० वीं सदी के लिए ८ से महाराष्ट्र शासन किया। सुलेमान "दुनिया की ४ महान राजाओं में से एक के रूप में" राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक कहा जाता है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व था चोल राजवंश.कई लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था। जल्दी १४ वीं सदी में आज महाराष्ट्र के सबसे खारिज कर दिया जो बघेल वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक आला उद दीन खलजी द्वारा परास्त किया गया था। बाद में, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में बघेल रियासत देवगीरी किसी (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले १५० वर्षों के लिए इस क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। बहमनी सल्तनत के अलग होने के बाद, १५१८ में, महाराष्ट्र में विभाजित है और पांच डेक्कन सल्तनत का शासन था। अहमदनगर अर्थात् निज़ाम्शा, बीजापुर के आदिलशाह, गोलकुंडा की कुतुब्शह्, बिदर की बरीदशाही, एलिचपूर ( अचलपूर ) या बेरार ( विदर्भ ) की इमादशाही। इन राज्यों में अक्सर एक दूसरे के बीच लड़ा। संयुक्त, वे निर्णायक १५६५ में दक्षिण के विजयनगर साम्राज्य को हरा दिया।महाराष्ट्र में चंद्रपुर,नागपुर नगर गोंड राजा बख्त बुलंद शाह द्वारा बसाया गया और कई वर्षो तक सफल शासन किया।यहां गोंड राजाओं द्वारा निर्मित कई भव्य ऐतिहासिक इमारतें उस दौर की याद दिलाती है। इसके अलावा मुंबई के वर्तमान क्षेत्र १५३५ में पुर्तगाल से कब्जा करने से पहले गुजरात की सल्तनत का शासन और फारुखि वंश मुग़ल विलय से पहले १३८२ और १६०१ के बीच खानदेश क्षेत्र पर शासन किया था। मलिक अंबर १६०७-१६२६ अहमदनगर के निजामशाही राजवंश के रीजेंट था। इस अवधि के दौरान उन्होंने मुर्तजा निजाम शाह की ताकत और शक्ति में वृद्धि हुई है और एक बड़ी फौज खड़ी। मलिक अंबर डेक्कन क्षेत्र में छापामार युद्ध का प्रस्तावक से एक होने के लिए कहा है। मलिक अंबर सिंहासन पर उसके दामाद कानून के बैठने की महत्त्वाकांक्षा थी जो उसकी सौतेली माँ, नूरजहाँ, से दिल्ली में शाहजहां कुश्ती शक्ति की सहायता की। १७ वीं सदी तक, शाहजी भोसले, मुगलों और बीजापुर के आदिल शाह की सेवा में एक महत्वाकांक्षी स्थानीय सामान्य, उसकी स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया। उनके पुत्र शिवाजीराजे भोसले ने मराठा साम्राज्य की नींव डाल दी और एक विशाल साम्राज्य खडा किया। उनके पश्चात मराठा रियासत के सरदार बड़ौदा के गायकवाड़, इंदौर के होळकर, ग्वालियर के शिंदे और पेशवाओं (प्रधानमंत्रियों) द्वारा विस्तार किया गया था। उन्होंने मुगलोंको परास्त किया और भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी और मध्य भागों में बड़े प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। १७६१ में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद मराठा उनकी सर्वोच्चता बहाल और अठारहवीं सदी के अंत तक नई दिल्ली सहित मध्य और उत्तर भारत पर शासन किया। तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध (१८१७-१८१८) १८१९ में देश पर शासन मराठा साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत करने के लिए नेतृत्व किया। ब्रिटिश उत्तरी डेक्कन को पाकिस्तान में कराची से एक क्षेत्र में फैला है जो मुंबई प्रेसीडेंसी के हिस्से के रूप में इस क्षेत्र शासित. मराठा राज्यों की संख्या में ब्रिटिश आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए बदले में स्वायत्तता को बनाए रखना है, रियासतों के रूप में कायम है। वर्तमान में महाराष्ट्र के क्षेत्र में सबसे बड़ी रियासतों नागपुर, सातारा और कोल्हापुर थे, सातारा १८४८ में बॉम्बे प्रेसीडेंसी को कब्जे में लिया गया था और नागपुर प्रांत, मध्य प्रांतों के बाद के हिस्से बनने के लिए १८५३ में कब्जा कर लिया था। हैदराबाद के राज्य के निजाम का हिस्सा है, १८५३ में अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया और १९०३में मध्य प्रांत को कब्जे में लिया गया था किया गया था जो बरार। हालांकि, मराठवाड़ा प्रदेश वर्तमान में महाराष्ट्र का एक बड़ा हिस्सा है, ब्रिटिश काल के दौरान निजाम हैदराबाद राज्य का हिस्सा बना रहा। ब्रिटिश शासन के कारण उनके भेदभावपूर्ण नीतियों के सामाजिक सुधारों और बुनियादी सुविधाओं के साथ ही विद्रोह में सुधार के द्वारा चिह्नित किया गया था। २० वीं सदी की शुरुआत में, आजादी के लिए संघर्ष बाल गंगाधर टिलक और विनायक दामोदर सावरकर जैसे चरमपंथियों और जस्टिस महादेव गोविंद रानडे, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और दादाभाई नौरोजी जैसे नरमपंथियों के नेतृत्व में आकार ले लिया। १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के क्षेत्र में एक अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन और हमलों द्वारा चिह्नित किया गया था जो गांधी द्वारा बुलाया गया था। 'भारत छोड़ो' के लिए अंग्रेजों को अल्टीमेटम मुंबई में दी गई और सत्ता के हस्तांतरण और १९४७ में भारत की आजादी में हुआ था। बी जी खेर त्रिकोणीय बहुभाषी मुंबई प्रेसीडेंसी के पहले मुख्यमंत्री थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद, कोल्हापुर सहित डेक्कन राज्य अमेरिका, १९५० में पूर्व मुंबई प्रेसीडेंसी से बनाया गया था जो बम्बई राज्य में एकीकृत कर रहे थे। १९५६ में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम भाषायी तर्ज पर भारतीय राज्यों को पुनर्गठित किया और मुंबई प्रेसीडेंसी राज्य मध्य प्रांत और बरार से तत्कालीन हैदराबाद राज्य और विदर्भ क्षेत्र से मराठवाड़ा (औरंगाबाद डिवीजन) के मुख्य रूप से मराठी भाषी क्षेत्रों के अलावा द्वारा बढ़ा दिया गया है। इसके अलावा, मुंबई राज्य के दक्षिणी भाग मैसूर एक को सौंप दिया गया था। १९५४-१९५५ से महाराष्ट्र के लोगों को दृढ़ता से द्विभाषी मुंबई राज्य के खिलाफ विरोध और डॉ॰ गोपालराव खेडकर के नेतृत्व में संयुक्त महाराष्ट्र समिति का गठन किया गया था। महागुजराथ् आंदोलन भी अलग गुजरात राज्य के लिए शुरू किया गया था। गोपालराव खेडकर, एस.एम. जोशी, एस.ए. डांगे, पी.के. अत्रे और अन्य नेताओं को अपनी राजधानी के रूप में मुंबई के साथ महाराष्ट्र का एक अलग राज्य के लिए लड़ाई लड़ी। १ मई १९६० को, बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और १०५, मानव का बलिदान निम्नलिखित अलग मराठी बोलने वाले राज्य महाराष्ट्र और गुजरात के नए राज्यों में पहले मुंबई राज्य को विभाजित करके बनाई गई थी रहती है। मराठी के कुछ विलय के स्थानीय लोगों की मांग अर्थात् बेलगाम, कारवार और नीपानी अभी भी प्रलंबीत है। यह कुल मिलाकर ८४० गाँव है जो कर्नाटक छोडकर महाराष्ट्र में शामिल होना चाहते हैं। भूगोल और जलवायु महाराष्ट्र का अधिकतम भाग बेसाल्ट खडकों का बना हुआ है। इसके पश्चिमी सीमा से अरब सागर है। इसके पड़ोसी राज्य गोवा, कर्नाटक, तेलंगना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात है। महाराष्ट्र भारत देश के कुल क्षेत्रफल का ९.36 % क्षेत्रफल में फैला हुआ है। और महाराष्ट्र की सबसे उच्ची चोटी कलसुबाई शिखर है। जिसकी उच्चाई 1646 मीटर (5400 फिट) है। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई है और नागपूर इसकी उपराजधानी हे। क्षेत्र, संभाग और ज़िले महाराष्ट्र में छः प्रशासनिक विभाग (संभाग) हैं: अमरावती औरंगाबाद कोंकण नागपुर नाशिक पुणे राज्य के छः विभाग आगे और ३६ ज़िलों, १०९ उपविभागों, और महाराष्ट्र के तालुके - 358=355+3 (मुंबई उपनगर जिल्हेमे अंधेरी,कुर्ला,बोरिवली ये तीन तालुके प्रशासकीय सोय के लिये बनाये गये है।) मुख्य 355 तालुकाओं में विभाजित हैं। महाराष्ट्र में ३६ जिले हैं - अकोला जिला अमरावती जिला अहमदनगर जिला औरंगाबाद जिला मुंबई उपनगर जिला (सबअर्बन) बीड जिला भंडारा जिला बुलढाणा जिला चन्द्रपूर जिला धुले जिला गडचिरोली जिला गोंदिया जिला हिंगोली जिला जळगाव जिला जालना जिला कोल्हापुर जिला लातूर जिला मुंबई जिला नागपूर जिला नांदेड जिला नंदुरबार जिला नाशिक जिला उस्मानाबाद जिला परभणी जिला पुणे जिला रायगड जिला रत्नागिरी जिला सातारा जिला सांगली जिला सिंधुदुर्ग जिला सोलापूर जिला ठाणे जिला वर्धा जिला वाशीम जिला यवतमाळ जिला पालघर इन्हें भी देखें मराठी महाराष्ट्र के लोकसभा सदस्य महाराष्ट्र में धर्म सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सरकार का आधिकारिक जालस्थल महाराष्ट्र राज्य का ई-सेवा पोर्टल महाराष्ट्र का इतिहास महाराष्ट्र की कला, साहित्य, सैरसपाटा, क्रिडा एवम मनोरंजन की जानकारी महाराष्ट्र प्राईम जालस्थल मुंबईनेट महाराष्ट्र से संबंधित सरकारी जालस्थलों की सूची महाराष्ट्र पर्यटन का आधिकारिक जालस्थल मराठी संगीत का जालस्थल भारत के राज्य महाराष्ट्र १९६० स्थापनाएँ भारत में १९६० में स्थापित राज्य और क्षेत्र
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गणित ऐसी विद्याओं का समूह है जो संख्याओं, मात्राओं, परिमाणों, रूपों और उनके आपसी रिश्तों, गुण, स्वभाव इत्यादि का अध्ययन करती हैं। गणित एक अमूर्त या निराकार (abstract) और निगमनात्मक प्रणाली है। गणित की कई शाखाएँ हैं : अंकगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, सांख्यिकी, बीजगणित, कलन, इत्यादि। गणित में अभ्यस्त व्यक्ति या खोज करने वाले वैज्ञानिक को गणितज्ञ कहते हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रख्यात ब्रिटिश गणितज्ञ और दार्शनिक बर्टेंड रसेल के अनुसार ‘‘गणित को एक ऐसे विषय के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम जानते ही नहीं कि हम क्या कह रहे हैं, न ही हमें यह पता होता है कि जो हम कह रहे हैं वह सत्य भी है या नहीं।’’ गणित कुछ अमूर्त धारणाओं एवं नियमों का संकलन मात्र ही नहीं है, बल्कि दैनंदिन जीवन का मूलाधार है। गणित का महत्व पुरातन काल से ही सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान में गणित का स्थान सर्वोपरि रहा है- यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तथा वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि स्थितम्॥ (वेदांग ज्योतिष) ( जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांग और शास्त्रों मे गणित का स्थान सबसे ऊपर है।) महान गणितज्ञ गाउस ने कहा था कि गणित सभी विज्ञानों की रानी है। गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का एक महत्वपूर्ण उपकरण (टूल) है। भौतिकी, रसायन विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि गणित के बिना नहीं समझे जा सकते। ऐतिहासिक रूप से देखा जाय तो वास्तव में गणित की अनेक शाखाओं का विकास ही इसलिये किया गया कि प्राकृतिक विज्ञान में इसकी आवश्यकता आ पड़ी थी। कुछ हद तक हम सब के सब गणितज्ञ हैं। अपने दैनिक जीवन में रोजाना ही हम गणित का इस्तेमाल करते हैं - उस वक्त जब समय जानने के लिए हम घड़ी देखते हैं, अपने खरीदे गए सामान या खरीदारी के बाद बचने वाली रेजगारी का हिसाब जोड़ते हैं या फिर फुटबाल टेनिस या क्रिकेट खेलते समय बनने वाले स्कोर का लेखा-जोखा रखते हैं। व्यवसाय और उद्योगों से जुड़ी लेखा संबंधी संक्रियाएं गणित पर ही आधारित हैं। बीमा (इंश्योरेंस) संबंधी गणनाएं तो अधिकांशतया ब्याज की चक्रवृद्धि दर पर ही निर्भर है। जलयान या विमान का चालक मार्ग के दिशा-निर्धारण के लिए ज्यामिति का प्रयोग करता है। भौगोलिक सर्वेक्षण का तो अधिकांश कार्य ही त्रिकोणमिति पर आधारित होता है। यहां तक कि किसी चित्रकार के आरेखण कार्य में भी गणित मददगार होता है, जैसे कि संदर्भ (पर्सपेक्टिव) में जिसमें कि चित्रकार को त्रिविमीय दुनिया में जिस तरह से इंसान और वस्तुएं असल में दिखाई पड़ते हैं, उन्हीं का तदनुरूप चित्रण वह समतल धरातल पर करता है। संगीत में स्वरग्राम तथा संनादी (हार्मोनी) और प्रतिबिंदु (काउंटरपाइंट) के सिद्धांत गणित पर ही आश्रित होते हैं। गणित का विज्ञान में इतना महत्व है तथा विज्ञान की इतनी शाखाओं में इसकी उपयोगिता है कि गणितज्ञ एरिक टेम्पल बेल ने इसे ‘विज्ञान की साम्राज्ञी और सेविका’ की संज्ञा दी है। किसी भौतिकविज्ञानी के लिए अनुमापन तथा गणित का विभिन्न तरीकों का बड़ा महत्व होता है। रसायनविज्ञानी किसी वस्तु की अम्लीयता को सूचित करने वाले पी एच (pH) मान के आकलन के लिए लघुगणक का इस्तेमाल करते हैं। कोणों और क्षेत्रफलों के अनुमापन द्वारा ही खगोलविज्ञानी सूर्य, तारों, चंद्र और ग्रहों आदि की गति की गणना करते हैं। प्राणी-विज्ञान में कुछ जीव-जन्तुओं के वृद्धि-पैटर्नों के विश्लेषण के लिए विमीय विश्लेषण की मदद ली जाती है। उच्च गतिवाले संगणकों द्वारा गणनाओं को दूसरी विधियों द्वारा की गई गणनाओं की अपेक्षा एक अंश मात्र समय के अंदर ही सम्पन्न किया जा सकता है। इस तरह कम्यूटरों के आविष्कार ने उन सभी प्रकार की गणनाओं में क्रांति ला दी है जहां गणित उपयोगी हो सकता है। जैसे-जैसे खगोलीय तथा काल मापन संबंधी गणनाओं की प्रामाणिकता में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे नौसंचालन भी आसान होता गया तथा क्रिस्टोफर कोलम्बस और उसके परवर्ती काल से मानव सुदूरगामी नए प्रदेशों की खोज में घर से निकल पड़ा। साथ ही, आगे के मार्ग का नक्शा भी वह बनाता गया। गणित का उपयोग बेहतर किस्म के समुद्री जहाज, रेल के इंजन, मोटर कारों से लेकर हवाई जहाजों के निर्माण तक में हुआ है। राडार प्रणालियों की अभिकल्पना तथा चांद और ग्रहों आदि तक राकेट यान भेजने में भी गणित से काम लिया गया है। भौतिकी में गणित का महत्व विद्युतचुम्बकीय सिद्धान्त समझने एवं उसका उपयोग करने के लिये के लिये सदिश विश्लेषण बहुत महत्वपूर्ण है। ग्रुप सिद्धान्त, स्पेक्ट्रोस्कोपी, क्वांटम यांत्रिकी, ठोस अवस्था भौतिकी एवं नाभिकीय भौतिकी के लिये बहुत उपयोगी है। भौतिकी में सभी तरह के रेखीय संकायों के विश्लेषण के लिये फुरिअर की युक्तियाँ उपयोगी है। क्वान्टम् यान्त्रिकी को समझने के लिये मैट्रिक्स विश्लेषण जरूरी है। विद्युतचुम्बकीय तरंगों का वर्णन करने एवं क्वान्टम यांत्रिकी के लिये समिश्र संख्याओं का उपयोग होता है। गणित का इतिहास मानव ज्ञान की कुछ प्राथमिक विधाओं में संभवतया गणित भी आता है और यह मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। मानव जीवन के विस्तार और इसमें जटिलताओं में वृद्धि के साथ गणित का भी विस्तार हुआ है और उसकी जटिलताएं भी बढ़ी हैं। सभ्यता के इतिहास के पूरे दौर में गुफा में रहने वाले मानव के सरल जीवन से लेकर आधुनिक काल के घोर जटिल एवं बहुआयामी मनुष्य तक आते-आते मानव जीवन में धीरे-धीरे परिवर्तन आया है। इसके साथ ही मानव ज्ञान-विज्ञान की एक व्यापक एवं समृद्ध शाखा के रूप में गणित का विकास भी हुआ है। हालांकि एक आम आदमी को एक हजार साल से बहुत अधिक पीछे के गणित के इतिहास से उतना सरोकार नहीं होना चाहिए, परंतु वैज्ञानिक, गणितज्ञ, प्रौद्योगिकीविद्, अर्थशास्त्री एवं कई अन्य विशेषज्ञ रोजमर्रा के जीवन में गणित की समुन्नत प्रणालियों का किसी न किसी रूप में एक विशाल, अकल्पनीय पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं। आजकल गणित दैनिक जीवन के साथ सर्वव्यापी रूप में समाया हुआ दिखता है। गणित की उत्पत्ति कैसे हुई, यह आज इतिहास के पन्नों में ही विस्मृत है। मगर हमें मालूम है कि आज के 4000 वर्ष पहले बेबीलोन तथा मिस्र सभ्यताएं गणित का इस्तेमाल पंचांग (कैलेंडर) बनाने के लिए किया करती थीं जिससे उन्हें पूर्व जानकारी रहती थी कि कब फसल की बुआई की जानी चाहिए या कब नील नदी में बाढ़ आएगी, या फिर इसका प्रयोग वे वर्ग समीकरणों को हल करने के लिए किया करती थीं। उन्हें तो उस प्रमेय (थ्योरम) तक के बारे में जानकारी थी जिसका कि गलत श्रेय पाइथागोरस को दिया जाता है। उनकी संस्कृतियाँ कृषि पर आधारित थीं और उन्हें सितारों और ग्रहों के पथों के शुद्ध आलेखन और सर्वेक्षण के लिए सही तरीकों के ज्ञान की जरूरत थी। अंकगणित का प्रयोग व्यापार में रुपयों-पैसों और वस्तुओं के विनिमय या हिसाब-किताब रखने के लिए किया जाता था। ज्यामिति का इस्तेमाल खेतों के चारों तरफ की सीमाओं के निर्धारण तथा पिरामिड जैसे स्मारकों के निर्माण में होता था। मिलेटस निवासी थेल्स (645-546 ईसा पूर्व) को ही सबसे पहला सैद्धांतिक गणितज्ञ माना जाता है। उसने बताया कि किसी भी वस्तु की ऊंचाई को मापन छड़ी द्वारा निक्षेपित परछाई से तुलना करके मापा जा सकता है। ऐसा मानते हैं कि उसने एक सूर्य ग्रहण के होने के बारे में भी भविष्यवाणी की थी। उसके शिष्य पाइथागोरस ने ज्यामिति को यूनानियों के बीच एक मान्य विज्ञान का स्वरूप दिलाकर यूक्लिड और आर्किमिडीज के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त किया। बेबीलोन निवासियों के विरासत में मिले ज्ञान में यूनानियों ने काफी वृद्धि की। इसके अलावा गणित को एक तर्कसंगत पद्धति के रूप में उन्होंने स्थापित भी किया-एक ऐसी पद्धति जिसमें कुछ मूल तथ्यों या धारणाओं को सत्य मानकर (जिन्हें प्रमेय कहते हैं) निष्कर्षों (जिन्हें उपपत्ति या प्रमाण कहते हैं) तक पहुंचा जाता है। भारत के लिये यह गौरव की बात है कि बारहवीं सदी तक गणित की सम्पूर्ण विकास-यात्रा में उसके उन्नयन के लिए किए गये सारे महत्वपूर्ण प्रयास अधिकांशतया भारतीय गणितज्ञों की खोजों पर ही आधारित थे। इसे भी देखें : भारतीय गणित, भारतीय गणितज्ञ सूची गणित कार्यपद्धति गणित मानव मस्तिष्क की उपज है। मानव की गतिविधियों एवं प्रकृति के निरीक्षण द्वारा ही गणित का उद्भव हुआ। मानव मस्तिष्क की चिंतन प्रक्रियाओं के मूल में पैठ कर ही गणित मुखर रूप से उनकी अभिव्यक्ति करता है और वास्तविक संसार अवधारणाओं की दुनिया में बदल जाता है। गणित वास्तविक जगत को नियमित करने वाली मूर्त धारणाओं के पीछे काम करने वाले नियमों का अध्ययन करता है। ज्यादातर दैनिक जीवन का गणित इन मूल धारणाओं का ही सार है और इसलिए इसे आसानी से समझा-बूझा जा सकता है। हालांकि अधिकांश धारणाएं अंत:प्रज्ञा के द्वारा ही हम पर प्रकट होती है, फिर भी शुद्ध एवं संक्षेप रूप में उन धारणाओं को व्यक्त करने के लिए उचित शब्दावली एवं कुछ नियमों और प्रतीकों की आवश्यकता पड़ती है। अत: गणित की अपनी अलग ही भाषा एवं लिपि होती है जिसे पहले जानना-समझना जरूरी होता है। शायद यही कारण है कि दैनिक जीवन से असंबद्धित मानकर इसे समझने की दृष्टि से कठिन माना जाता है, जबकि हकीकत में यह वास्तविक जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा ही नहीं है, बल्कि उसी से इसकी उत्पत्ति भी हुई है। यह विडंबना ही है कि ज्यादातर लोग गणित के प्रति विमुखता दिखा कर उससे दूर भागते हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जीवन तथा ज्ञान के हर क्षेत्र में इसकी उपयोगिता है। यह केवल संयोग नहीं है कि आर्किमिडीज, न्यूटन(Newton), गौस और लैगरांज जैसे महान वैज्ञानिकों के विज्ञान के साथ-साथ गणित में भी अपना महान योगदान दिया है। गणित का वर्गीकरण वर्तमान में गणित को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जाता है: अनुप्रयुक्त गणित या नियोज्य गणित (Applied Mathematics) और शुद्ध गणित (Pure Mathematics)। अनुप्रयुक्त गणित विज्ञान, अर्थशास्त्र और अन्य कई क्षेत्रों में प्रयोग किया जाने वाला गणित प्रायोगिक गणित है और इसमें अध्ययन की जाने वाली गणितीय समस्याओं का स्रोत किसी और क्षेत्र में होता है। इसके अन्तर्गत यंत्रशास्त्र, भूमापन, भूपदार्थ विज्ञान, ज्योतिष आदि विषय है। {| style="border:1px solid #ddd; text-align:center; margin: auto;" cellspacing="13" | || || || || || || || |- | गणितीय भौतिकी || तरल गतिकी || इष्टतमकरण || प्रायिकता || सांख्यिकी || गणितीय वित्त || खेल सिद्धांत |} शुद्ध गणित शुद्ध गणित स्वयं गणित में उपजी उन समस्याओं का हल ढूंढता है जिनका अन्य क्षेत्रों से सीधा सम्बन्ध नहीं है। कई बार समय के साथ-साथ शुद्ध गणित के अनुप्रयोग मिलते जाते हैं और इस प्रकार उसका कुछ हिस्सा प्रायोगिक गणित में आता जाता है। शुद्ध गणित के अंतर्गत, बीजगणित, ज्यामिति और संख्या सिद्धांत आदि आते हैं। फ़रमा का सुप्रसिद्ध प्रमेय, संख्या सिद्धान्त का ही एक अंग है। शुद्ध गणित का विकास बीसवीं शताब्दी में बहुत अधिक हुआ और इसके विकास में १९०० में डेविड हिल्बर्ट के द्वारा पेरिस में दिये गये व्याख्यान का बहुत योगदान रहा। संख्याएँ {|style="border:1px solid #ddd; text-align:center; margin:auto" cellspacing="20" | || || || || |- |प्राकृतिक संख्याएँ || पूर्णांक || परिमेय संख्याएँ || वास्तविक संख्याएँ || समिश्र संख्याएँ |} संरचनाएँ (structures) {|style="border:1px solid #ddd; text-align:center; margin:auto" cellspacing="15" | || || || || || |- |सांयोगिकी || संख्या सिद्धान्त || समूह सिद्धांत || ग्राफ सिद्धान्त || क्रम सिद्धान्त (Order theory) || बीजगणित |} आकाश (space) {|style="border:1px solid #ddd; text-align:center; margin:auto" cellspacing="15" | || || || || || |- |ज्यामिति || त्रिकोणमिति || अवकल ज्यामिति || टोपोलोजी || फ्रैक्टल ज्यामिति || मापन सिद्धान्त |} रूपान्तरण (transformation) विविक्त गणित (Discrete mathematics) सैद्धान्तिक संगणक विज्ञान में काम आने वाले गणित का सामान्य नाम विविक्त गणित है। इसमें संगणन सिद्धान्त (Theory of Computation), संगणनात्मक जटिलता सिद्धान्त, तथा सैधान्तिक कम्प्यूतर विज्ञान शामिल हैं। संगणन के उपकरण नीचे कुछ मुक्तस्रोत कम्प्यूटर सॉफ्टवेयरों का नाम दिया गया है जो गणित के विभिन्न कार्य करने के लिए बहुत उपयोगी हैं। प्रमुख गणितज्ञ इन्हें भी देखें गणित का इतिहास भारतीय गणित भारतीय गणितज्ञ सूची विविक्त गणित (Discrete mathematics) बाहरी कड़ियाँ गणितांजलि : गणित का हिन्दी ब्लॉग गणित का इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ ब्रज मोहन) गणित की रोचक बातें (गूगल पुस्तक) गणित का इतिहास (अंग्रेजी में) भारत में गणित का इतिहास Mathematics and its history (Google Book ; By John Stillwell) गणित प्रश्नोत्तरी गणितशास्त्र के विकास की भारतीय परम्परा (गूगल पुस्तक ; लेखक - सुद्युम्न आचार्य) माध्यमिक गणित शब्दावली (हिन्दी विक्शनरी) Grade 6-8 - 7052_math glossary GRADES 6-8_English_Hindi (पीडीएफ) कैसे हो कक्षा में गणित सीखना–सिखाना ? (प्रवीण त्रिवेदी) राष्ट्रीय गणित वर्ष एवं हमारा दायित्व (पत्रिका) Mathematical Quotes * *
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बिहारी पूर्वी हिन्द–आर्य भाषाओं का पश्चित्मी समूह है जो मुख्यतः भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाती हैं। इस समूह के भाषाओं की उत्पत्ति मगधी प्राकृत से हुई है। मागधी समूह की प्रमुख भाषाओं में - मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुड़माली इत्यादि भाषायें हैं। इन्हें भी देखें हिंदी की विभिन्न बोलियां और उनका साहित्य बिहारी मध्यकालीन हिन्दी कवि हैं – बिहारी (साहित्यकार)। बाहरी कड़ियाँ हिंदी भाषा की उत्पत्ति (महावीर प्रसाद द्विवेदी) हिन्द-आर्य भाषाएँ विश्व की भाषाएँ भारत की भाषाएँ हिन्दी और इससे सम्बन्धित भाषाएँ साहित्य पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ
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कोंकणी गोवा, महाराष्ट्र के दक्षिणी भाग, कर्नाटक के उत्तरी भाग, केरल के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। भाषायी तौर पर यह 'आर्य' भाषा परिवार से संबंधित है और मराठी से इसका काफी निकट का संबंध है। राजनैतिक तौर पर इस भाषा को अपनी पहचान के लिये मराठी भाषा से काफी संघर्ष करना पड़ा है। अब भारतीय संविधान के तहत कोंकणी को आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है। १९८७ में गोवा में कोंकणी को मराठी के बराबर राजभाषा का दर्जा दिया गया किन्तु लिपि पर असहमति के कारण आजतक इस पर अमल नहीं किया जा सका। कोंकणी अनेक लिपियों में लिखी जाती रही है; जैसे - देवनागरी, कन्नड, मलयालम और रोमन। गोवा को राज्य का दर्जा मिलने के बाद दवनागरी लिपि में कोंकणी को वहाँ की राजभाषा घोषित किया गया है। परिचय भारत के पश्चिमी तट स्थित कोंकण प्रदेश में प्रचलित बोलियों को सामान्यत: कोंकणी कहते है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों के परिणामस्वरूव इस प्रदेश में बोली जानेवाली भाषा के तीन रूप हैं- (1) मराठीभाषी क्षेत्र से संलग्न मालवण-रत्नगिरि क्षेत्र की भाषा; (2) मंगलूर से संलग्न दक्षिण कोंकणी क्षेत्र की भाषा जिसका कन्नड़ से संपर्क है तथा (3) मध्य कोंकण अथवा गोमांतक (गोवा) कारवार में प्रचलित भाषा। गोवावाला प्रदेश अनेक शती तक पुर्तगाल के अधीन था। वहाँ पुर्तगालियों ने जोर जबर्दस्ती के बल पर लोगें से धर्मपरिवर्तन कराया और उनके मूल सांस्कृतिक रूप को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया। इन सब के बावजूद लोगों ने अपनी मातृभाषा का परित्याग नहीं किया। उल्टे अपने धर्मोपदेश के निमित्त ईसाई पादरियों ने वहाँ की बोली में अपने गंथ रचे। धर्मांतरित हुए नए ईसाई प्राय: अशिक्षित लोग थे। उन्हें ईसाई धर्म का तत्व समझाने के लिये पुर्तगाली पादरियों ने कोंकणी का आश्रय लिया। प्राचीन काल में गोवा से साष्टी तक के भूभाग में जो बोली बोली जाती थी उसे ही लोग विशुद्ध कोंकणी मानते थे और उसे गोमांतकी नाम से पुकारते थे तथापि सोलहवीं शती तक उसके लिये कोई विशिष्ट नाम रूढ़ नहीं था। पुर्तगालियों को जैसा समझ में आया, वैसा ही नाम उसे दिया और पुकारा। 1553 ई. के जेसुइट पादरियों के आलेखों में उसे कानारी नाम दिया गया है। 17वीं शती में पादरी स्टीफेंस ने दौत्रीन क्रिश्तां नामक पुस्तक लिखी। उसमें उनका कहना था कि उसे उन्होंने कानारी में लिखा है और गोमांतकी बोली का जो व्याकरण उन्होंने तैयार किया उसे उन्होंने ‘कानारी भाषा का व्याकरण’ नाम दिया। इस कानारी शब्द का संबंध कन्नड़ से तनिक भी नहीं है। वरन् समझा जाता है कि समुद्र के किनारे की भाषा होने के कारण ही उसे कानारी कहा गया। टॉम पीरिश नामक यात्री ने अपनी पुस्तक ‘सूम ऑरिएंताल’ में, जो 1515 ई. में लिखी गई थी, गोवा की बोली का नाम कोंकोनी दिया है। 1658 में जेसुइट पादरी मिगलेद आल्मैद ने भी गोमंतकी के लिये 'कोंकणी' शब्द का प्रयोग किया है। अब यह शब्द प्राय: पूरे कोंकण प्रदेश की भाषा के लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग इसे मराठी की उपभाषा मानते हैं तो कुछ कन्नड़ की। कुछ अन्य भाषावैज्ञानिक इसे आर्यवंश से उद्भूत स्वतंत्र समृद्ध भाषा बताते है। साहित्य सत्रहवीं शती से पूर्व इस भाषा का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। इस भाषा के साहित्यिक प्रयोग का श्रेय ईसाई मिशनरियों को है। पादरी स्टिफेस की पुस्तक दौत्रीन क्रिश्तां इस भाषा की प्रथम पुस्तक है जो 1622 ई. में लिखी गई थी। उसके बाद 1640 ई. में उन्होंने पुर्तगाली भाषा में इसका व्याकरण 'आर्ति द लिंग्व कानारी’ नाम से लिखा। इससे पूर्व 1563 ई. के आसपास किसी स्थानीय धर्मांतरित निवासी द्वारा इस भाषा का कोश तैयार हुआ और ईसाई धर्म के अनेक ग्रंथ लिखे गए। पुर्तगाली शासन के परिणामस्वरूप साहित्य निर्माण की गति अत्यंत मंद रही किंतु अब इस भाषा ने एक समृद्ध साहित्य की भाषा का रूप धारण कर लिया है। लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य तो संगृहित हुए ही हैं, आधुनिक नाटक (सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक) और एकांकी की रचना भी हुई है। अन्य विधाओं में भी रचनाएँ की जाने लगी है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ कोंकन्वर्टर : कोंकणी की विभिन्न लिपियों में परस्पर लिप्यंतरण का उपकरण गोवा_न्यूज कोंकणी विश्वकोश हिन्द-आर्य भाषाएँ भारत की भाषाएँ गोवा की भाषाएँ गोवा की संस्कृति
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राष्ट्रपिता दो शब्दों "राष्ट्र" अर्थात - देश या वतन और "पिता" अर्थात जनक शब्दों को समन्वय है, जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'father of the nation' है। विश्व के कुछ देशों के राष्ट्रपिता हैं: अहमद शाह अब्दाली: अफ़गानिस्तान महात्मा गांधी: भारत गणराज्य जॉर्ज वॉशिंगटन: संयुक्त राज्य अमेरिका संस्कृति
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "राष्ट्रपिता", "token_count": 425, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE" }
हरि का अर्थ है "ईश्वर या भगवान" और जन का अर्थ है "लोग" महात्मा गाँधी ने "हरिजन" शब्द का प्रयोग हिन्दू समाज के उन समुदायों के लिये करना शुरु किया था जो सामाजिक रूप से बहिष्कृत माने जाते थे। इनके साथ ऊँची जाति के लोग छुआछूत का व्यवहार करते थे अर्थात उन्हें अछूत समझा जाता था। सामाजिक पुर्ननिर्माण और इनके साथ भेदभाव समाप्त करने के लिये गाँधी ने उन्हें ये नाम दिया था और बाद में उन्होंने "हरिजन" नाम से एक समाचार-पत्र भी निकाला जिसमें इस सामाजिक बुराई के लिये वे नियमित लेख लिखते थे। लेकिन अब हरिजन शब्द को प्रतिबन्धित कर दिया गया है! हरिजन शब्द के स्थान पर अनुसूचित जाति का स्तेमाल करना अनिवार्य कर दिया गया है ! हरिजन शब्द पाकिस्तान के दलितों के लिये भी प्रयुक्त होता है जिन्हें हरी कहा जाता है और जो मिट्टी के झोपड़े बनाने के लिये जाने जाते हैं। गांधीजी के प्रकाशन गांधीजी हरिजन नाम वाले तीन पत्रों का प्रकाशन करते थे। हरिजन बन्धु (गुजराती में) हरिजन सेवक (हिन्दी में) हरिजन (अंग्रेजी में) इन तीन पत्रों में महात्मा गांधी देश के सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते थे। हाडी / हरि महात्मा गांधी
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "हरिजन", "token_count": 1549, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A4%A8" }
पोरबन्दर (Porbandar) भारत के गुजरात राज्य के पोरबन्दर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह महात्मा गाँधी और श्रीकृष्ण के मित्र, सुदामा, का जन्मस्थान है। विवरण पोरबन्दर बहुत ही पुराना बंदरगाह हुआ करता था। पोरबन्दर में गुजरात का सबसे अच्छा समुंद्र किनारा है। पोरबंदर गुजरात राज्य के दक्षिण छोर पर अरब सागर से घिरा हुआ है। पोरबंदर जिले का निर्माण जूनागढ़ से हुआ था। पोरबंदर महात्मा गाँधीजी का जन्म स्थान है इसलिए स्वाभाविक रूप से पोरबंदर में उनके जीवन से जुड़े कई स्थान हैं जो आज दर्शनीय स्थलों में बदल चुके हैं। महाभारत काल में अस्मावतीपुर नाम से प्रसिद्ध पोरबंदर को 10वीं शताब्दी में पौरावेलाकुल कहा जाता था और बाद में इसे सुदामापुरी भी कहा गया। स्थिति पोरबंदर गुजरात राज्य का एक ऐतिहासिक ज़िला है। पोरबंदर उत्तर-पश्चिम में देवभूमि द्वारका, उत्तर-पूर्व में जामनगर, दक्षिण-पूर्व में जूनागढ़, पूर्व में राजकोट से और दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर से घिरा है। इतिहास महात्मा गाँधी के जन्म स्थल के रूप में प्रसिद्ध इस स्थान पर 16वीं शताब्दी के आसपास जेठवा राजपूतों का नियंत्रण था। ज़िला बनने से पहले पोरबंदर भूतपूर्व पोरबंदर रियासत (1785-1948) की राजधानी था। पोरबंदर में गाँधीजी का तिमंजिला पैतृक निवास है जहाँ ठीक उस स्थान पर एक स्वस्तिक चिन्ह बनाया गया है जहाँ गाँधीजी की माँ पुतलीबाई ने उन्हें जन्म दिया था। लकड़ी की संकरी सीढ़ी अभ्यागतों को ऊपरी मंजिल तक ले जाती है, जहाँ गाँधीजी का अध्ययन कक्ष है। गाँधीजी के जन्म की स्मृति को अमर बनाने के लिए 79 फीट ऊँची एक इमारत का निर्माण उस गली में किया गया जहाँ 2 अक्टूबर 1869 को बापू का जन्म हुआ था। कीर्तिमंदिर के पीछे नवी खादी है जहाँ गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा गाँधी का जन्म हुआ था। पोरबंदर का महत्त्व केवल यहाँ तक सीमित नहीं है। भगवान श्री कृष्ण के बालसखा सुदामाजी भी यही के थे। इसलिए इसका महत्त्व सुदामापुरी के रूप में भी खास है। यातायात और परिवहन वायु मार्ग पोरबंदर हवाईअड्डा और सबसे नजदीकी हवाईअड्डा जामनगर हवाईअड्डा है और अच्छे सड़क प्रसार की दृष्टि से राजकोट हवाईअड्डा नजदीक पड़ता है। रेल मार्ग पोरबंदर रेलवे स्टेशन एक टर्मिनस (अंतिम स्टेशन) है। राजकोट और सोमनाथ के साथ-साथ हावड़ा, सांत्रागाची, दिल्ली सराई रोहिल्ला, मुजफ्फरनगर, सिकंदराबाद और कोचुवेली से पोरबंदर के लिए रेल सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सड़क मार्ग राज्य परिवहन की बसें पोरबंदर को ज़िले व राज्य के अन्य हिस्सों से जोड़ती हैं। इसके अलावा हर घंटे नरसंग टेकरी से गैर-वातानुकूलित के साथ-साथ आलिशान और वातानुकूलित निजी वॉल्वो बसे राजकोट और अहमदाबाद के लिए चलती रहती है, जिसका आरक्षण 'PayTM', 'RedBus' इत्यादि जैसी वेबसाइट पर उपलब्ध रहता है। राजकोट और अहमदाबाद देश के सभी शहरो से जुड़े हुए हैं। उद्योग और व्यापार पोरबंदर शहर भवन निर्माण में काम आने वाले पत्थरों के लिए विख्यात है और पोरबंदर में कई प्रकार के उत्पादन का काम भी होता है। जनसंख्या 2001 की गणना के अनुसार पोरबंदर की कुल जनसंख्या 5,36, 854 थी और 2011 की गणना के अनुसार 5,86,062 थी। पर्यटन पोरबंदर का गुजरात के पर्यटन स्थलों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। पोरबंदर में कई ऐतिहासिक इमारतें हैं। पोरबंदर में महात्मा गाँधी का जन्म स्थान है इसलिए स्वाभाविक रूप से यहाँ उनके जीवन से जुड़े कई स्थान हैं जो आज दर्शनीय स्थलों में बदल चुके हैं। पोरबंदर में गुजरात का सबसे अच्छा समुद्र तट है। पोरबंदर के मंदिर कीर्ति मंदिर कीर्ति मंदिर पोरबंदर का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। कीर्ति मंदिर में एक गाँधीवादी पुस्तकालय और प्रार्थना कक्ष है। अन्दर प्रवेश करते ही गांधीजी और कस्तूरबा के सम्पूर्ण कद के तैलिचित्र दिखाई देते है। कीर्ति मंदिर परिसर में गांधीजी के बचपन का घर है और कस्तूरबा का घर भी परिसर के पीछे है। लगभग सभी कक्ष के अन्दर गांधीजी की अलग अलग समय की तस्वीरें देखी जा सकती है। घुमली गणेश मंदिर घुमली गणेश मंदिर 10वीं शताब्दी के आरंभ में बना था। घुमली गणेश मंदिर गुजरात में आरंभिक हिन्दू वास्तुशिल्प का एक सुंदर नमूना है। सूर्य मंदिर सूर्य मंदिर का निर्माण 6ठीं शताब्दी में हुआ था। सूर्य मंदिर पोरबंदर से 50 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है। सूर्य मंदिर पश्चिम भारत के आरंभिक मंदिरों में से एक है जो आज भी विद्यमान हैं। सुदामापुरी सुदामापुरी के मंदिर का निर्माण १९०२ से १९०७ के बीच यहाँ के जेठवा राजवंश ने किया था। यहाँ मंदिर प्रांगण में छोटीसी ८४ भूलभुलैया हैं, जो सुदामाजी के द्वारिका से वापसी के बाद अपनी कुटिया खोजने की बात को याद दिलाते है। सुदामाजी द्वारिका जाते समय एक मुठ्ठी तंदुल लेकर गए थे, आज भी मंदिर में तंदुल प्रसाद के तौर पर दिए जाते है। संदीपनी विद्यानिकेतन माननीय भाईश्री रमेशभाई ओझा द्वारा संचालित संदीपनी विद्यानिकेतन एक आध्यात्मिक तौर पर चलाया जानेवाला विद्यालय है, जो हवाई-अड्डे से २ किमी दूर रांघावाव नामक गाँव के पास है। इस परिसर में हरिमंदिर है, जहां एक ही मंदिर में दाये से गणेश, चंद्रमौलीश्वर महादेव, राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण, जानकीवल्लभ, करुणामयी माता और हनुमानजी के दर्शन होते है। मनोहर बगीचों और 'सायन्स गेलेरी' का अपना अदभुत सौन्दर्य है। शाम को आरती के बाद मंदिर पर रोशनी केंद्रित की जाती है, जो मन को आत्मविभोर बना देती है। पोरबंदर के अभयारण्य वर्धा वन्यजीव अभयारण्य 190 वर्ग किलोमीटर में फैला वर्धा वन्यजीव अभयारण्य पोरबंदर से 15 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। वर्धा वन्यजीव अभयारण्य गुजरात के दो ज़िलों- पोरबंदर और जामनगर का हिस्सा है। वर्धा वन्यजीव अभयारण्य के चारों ओर से खेत, बंजर भूमि और जंगल से घिरा हुआ हैं। चीते और भेड़िए जैसे संकटग्रस्त जन्तु यहाँ पाए जाते हैं। पोरबंदर पक्षी अभयारण्य पोरबंदर पक्षी अभयारण्य पोरबंदर के बीचों बीच स्थित है। पोरबंदर पक्षी अभयारण्य 9 एकड़ में फैला हुआ है। पोरबंदर के महल हुज़ूर महल हुज़ूर महल एक विशाल इमारत है। हुज़ूर महल की छत लकड़ी की है और छत पर रेलिंग लगी हुई है। दरबारगढ़ महल दरबारगढ़ महल का निर्माण जेठवा शासक राणा सुल्तानजी प्रतिहार ने ई. 1671 से 1699 में पोरबंदर में किले का निर्माण करवाया। दरबारगढ़ महल का प्रवेश द्वार पत्थर का बना हुआ है जिस पर ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी की गई है। दरबारगढ़ महल के द्वार के दोनों ओर ऊँची मीनारें और लकड़ी के विशाल दरवाजे हैं। जेठवा शासक राणा सुल्तानजी चोरो महल राणा सतरनजी ने सतरनजी चोरो का निर्माण ग्रीष्मकालीन निवास के रूप में करवाया था। सतरनजी चोरो तीन मंजिला इमारत है। सतरनजी चोरो का निर्माण राजपूत शैली में किया गया है। जेठवा शासक राणा सुल्तानजी ई. 1671 से 1699 ने पोरबंदर में किले का निर्माण करवाया। भारत के स्वतंत्र होकर देशी राज्यों के विलीनीकरण तक पोरबंदर पर जेठवों का शासन रहा। आज भी इस क्षेत्र मे पांच हजार से उपर जेठवा परिहार राजपूत निवास कर रहे है। गया है। पोरबंदर के समुद्री तट माधवपुर तट माधवपुर तट गुजरात के सर्वाधिक सुंदर और रेतीले तटों में से एक है। माधवपुर तट नारियल के पेड़ से घिरे हुए सुंदर रेतीले तट है। माधवपुर तट के पास ही माधवरायजी का मंदिर है। पोरबंदर तट पोरबंदर तट गुजरात के प्रमुख समुद्री तटों में से एक है। पोरबंदर तट वेरावल और द्वारिका के बीच स्थित एक सुंदर तट है। पोरबंदर तट गुजरात एक ऐसा तट है जहाँ अधिक छेड़छाड़ नहीं की गई है। नेहरु तारामंडल नेहरु तारामंडल सिटी सेंटर से 2 किलोमीटर दूर है। नेहरु तारामंडल में दोपहर में चलने वाली प्रदर्शनी गुजराती भाषा में होती है। नेहरु तारामंडल में दिन भर प्रदर्शनी चलती रहती हैं। इन्हें भी देखें पोरबन्दर ज़िला महात्मा गान्धी सन्दर्भ गुजरात के शहर पोरबन्दर ज़िला पोरबन्दर ज़िले के नगर गुजरात के बंदरगाह
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "पोरबन्दर", "token_count": 10166, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0" }
मैथिली भारत के बिहार और झारखंड राज्यों और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। यह हिन्द आर्य परिवार की सदस्य तथा मागधी परिवार की भाषा है। इसका प्रमुख स्रोत संस्कृत भाषा है जिसके शब्द "तत्सम" वा "तद्भव" रूप में मैथिली में प्रयुक्त होते हैं। यह भाषा बोलने और सुनने में बहुत ही मोहक लगती है। मैथिली भारत में मुख्य रूप से दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, शिवहर, भागलपुर, मधेपुरा, अररिया, सुपौल, वैशाली, सहरसा, लखीसराय, बांका,जमुई, साहेबगंज दुमका, देवघर आदि जिलों में बोली जाती है| नेपाल के आठ जिलों धनुषा,सिरहा,सुनसरी, सरलाही, सप्तरी, मोहतरी,मोरंग और रौतहट में भी यह बोली जाती है। बँगला, असमिया और ओड़िया के साथ साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में हिंदी से मिलती जुलती है। वर्ष २००३ में मैथिली भाषा को भारतीय संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया। तात्कालिन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयीजी ने मैथिली भाषा को ८वीं अनुसूची में सम्मिलित करने की घोषणा सुपौल जिला के निर्मलीमे किए थे। सन २००७ में नेपाल के अन्तरिम संविधान में इसे एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में स्थान दिया गया है। भारत के झारखंड राज्य में इसे द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है| लिपि पहले इसे मिथिलाक्षर तथा कैथी लिपि में लिखा जाता था जो बांग्ला और असमिया लिपियों से मिलती थी पर कालान्तर में देवनागरी का प्रयोग होने लगा। मिथिलाक्षर को तिरहुता या वैदेही लिपी के नाम से भी जाना जाता है।बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललित- विस्तर' में इसका नाम “वैदेही" मिलता है | लिपि शास्त्र के विद्वानों के अनुसार 'मैथिली लिपि' का विकास 'गुप्त लिपि' से माना जाता है। 'नागरी लिपि' का उत्तर पूर्वी भारत से प्रचार होने से बहुत पहले ही इस लिपि का विकास हो चुका था और इसी कारण से देवनागरी का प्रभाव इस लिपि पर नहीं दीख पड़ता। इस लिपि में लिखित पुस्तकों का पता जापान तथा चीन देश में भी मिलता है । यह असमिया, बाङ्ला व ओड़िया लिपियों की जननी है। ओड़िया लिपी बाद में द्रविड़ भाषाओं के सम्पर्क के कारण परिवर्तित हुई। विकास मैथिली का प्रथम प्रमाण रामायण में मिलता है। यह त्रेता युग में मिथिलानरेश राजा जनक की राज्यभाषा थी। इस प्रकार यह इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक मानी जाती है। प्राचीन मैथिली के विकास का शुरूआती दौर प्राकृत और अपभ्रंश के विकास से जोड़ा जाता है। लगभग ७०० इस्वी के आसपास इसमें रचनाएं की जाने लगी। विद्यापति मैथिली के आदिकवि तथा सर्वाधिक ज्ञाता कवि हैं। विद्यापति ने मैथिली के अतिरिक्त संस्कृत तथा अवहट्ट में भी रचनाएं लिखीं। ये वह दो प्रमुख भाषाएं हैं जहाँ से मैथिली का विकास हुआ। भारत की लगभग 5.6 प्रतिशत आबादी लगभग 7-8 करोड़ लोग मैथिली को मातृ-भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं और इसके प्रयोगकर्ता भारत और नेपाल के विभिन्न हिस्सों सहित विश्व के कई देशों में फैले हैं। मैथिली विश्व की सर्वाधिक समृद्ध, शालीन और मिठास पूर्ण भाषाओं में से एक मानी जाती है। मैथिली भारत में एक राजभाषा के रूप में सम्मानित है। मैथिली की अपनी लिपि है जो एक समृद्ध भाषा की प्रथम पहचान है। नेपाल हो या भारत कही भी सरकार के द्वारा मैथिली भाषा के विकास हेतु कोई खास कदम नहीं उठाया गया है। अब जा कर गैर सरकारी संस्था और मीडिया द्वारा मैथिली के विकास का थोड़ा प्रयास हो रहा है। अभी १५/२० रेडियो स्टेशन ऐसे है जिसमें मैथिली भाषा में कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है। समाचार हो या नाटक कला और अन्तरवार्ता भी मैथिली हो रहा है। किसी किसी रेडिओ में तो ५०% से अधिक कार्यक्रम मैथिली में हो रहा है। ये पिछले २/३ वर्षो से विकास हो रहा है ये सिलसिला जारी है। टीवी में भी अब मैथिली में खबर दिखाती है। नेपाल में कुछ चैनल है जैसे नेपाल 1, सागरमाथा चैनल, तराई टीवी और मकालू टीवी है। साहित्य मैथिली साहित्य का अपना समृद्ध इतिहास रहा है और चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी के कवि विद्यापति को मैथिली साहित्य में सबसे ऊँचा दर्जा प्राप्त है। विद्यापति के बाद के काल में गोविन्द दास, चन्दा झा, मनबोध, पंडित सीताराम झा, जीवनाथ झा (जीवन झा) प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। स्थिति भारत की साहित्य अकादमी द्वारा मैथिली को साहित्यिक भाषा का दर्जा पंडित नेहरू के समय १९६५ से हासिल है। २२ दिसंबर २००३ को भारत सरकार द्वारा मैथिली को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया है और नेपाल सरकार द्वारा मैथिली को नेपाल में दूसरे स्थान में रखा गया है। इन्हें भी देखें जुरशीतल मैथिली साहित्य मिथिलाक्षर कैथी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ मैथिली कविता कोश कतेक रास बात : मैथिली भाषा केँ वेबसाईट पर आनबाक एकटा उत्तम प्रयास बिहार की भाषाएँ झारखंड की भाषाएँ हिन्दी की बोलियाँ हिन्द-आर्य भाषाएँ भारत की भाषाएँ नेपाल की भाषाएँ पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ
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हरारे ज़िम्बाब्वे की राजधानी है होने के अलावा ज़िम्बाब्वे का सबसे बडा शहर है तथा ज़िम्बाब्वे का सबसे बडा प्रशासकीय, आर्थिक तथा संचार केंद्र है। तम्बाकु, मकाय आदि का यह व्यापार केंद्र है। यहां पर स्टील तथा रसायनों का उत्पादन होता है। हरारे शहर की स्थापना १८९० में हुई थी जब यहां पर पायोनियर कोलम द्वारा एक किल्ला बनाया गया था। शहर का नाम तब सेलिसबरी रक्खा गया था। १९३५ में इसे एक शहर का रूप मिला। १८ अप्रैल १९८२ को इसे हरारे नाम दिया गया (ज़िम्बाब्वे की आज़ादी की दूसरी वर्ष्गांठ पर) ज़िम्बाब्वे
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यह लेख संगीत से सम्बन्धित 'स्वर' के बारे में है। मानव एवं अन्य स्तनपोषी प्राणियों के आवाज के बारे में जानकारी के लिए देखें - स्वर (मानव का) संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार-चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके, स्वर कहलाता है। भारतीय संगीत में सात स्वर (notes of the scale) हैं, जिनके नाम हैं - षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद। यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुविधा के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं। भारत में इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं। वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६ बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३ बार कंप होने पर ऋषभ, ३२० बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८० बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है। तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है। इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है। यदि प्रत्येक स्वर की कपनसंख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा। भारत में यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है। भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है। जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि। ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है। इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नहीं होता; पर शेष पाचों स्वर दो प्रकार के होते हैं - कोमल और तीव्र। प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है। परिचय विद्वानों ने माना है कि जो ध्वनियाँ निश्चित ताल और लय में होती हैं वहीं संगीत पैदा करती हैं। ध्वनियों के मोटे तौर पर दो प्रकार ‘आहत’ और ‘अनाहत’ ध्वनियाँ हैं. 'अनाहत' ध्वनियां संगीत के लिए उपयोगी नहीं होतीं, इनका अनुभव ध्यान की परावस्था में होता है अतः ‘आहत’ नाद से ही संगीत का जन्म होता है। यह नाद दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने, घर्षण या एक पर दूसरी वस्तु के प्रहार में पैदा होता है। ‘आहत’ नाद हम तक कंपन के माध्यम से पहुँचता है। ध्वनि अपनी तरंगों से हवा में हलचल पैदा करती है। ध्वनि तरंगों की चौ़ड़ाई और लम्बाई पर ध्वनि का ऊँचा या नीचा होना तय होता है। संगीत के सात स्वरों में ‘रे’ का नाद ‘सा’ के नाद से ऊँचा है। इसी तरह ‘ग’ का नाद ‘रे’ से ऊँचा है। यह भी कह सकते हैं कि ‘ग’ की ध्वनि में तरंगों की लम्बाई ‘रे’ की ध्वनि–तरंगों से कम है और कम्पनों की संख्या ‘रे’ की तुलना में ज्यादा है। इसके अलावा ध्वनि से सम्बन्धित और भी कई सिद्धान्त हैं जो ध्वनि का भारी या पतला होना, देर या कम देर तक सुनाई देना निश्चित करते हैं। इन्हीं गुणों को ध्यान में रखते हुए संगीत के लिए मुख्यतः सात स्वर निश्चित किये गए। षड्ज, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद स्वर-नामों के पहले अक्षर लेकर इन्हें सा, रे ग, म, प, ध और नि कहा गया। ये सब शुद्ध स्वर है। इनमें ‘सा’ और ‘प’ अचल माने गये हैं क्योंकि ये अपनी जगह से जरा भी नहीं हटते। बाकी पाँच स्वरों को विकृत या विकारी स्वर भी कहते हैं, क्योंकि इनमें अपने स्थान से हटने की गुंजाइश होती है। कोई स्वर अपने नियत स्थान से थो़ड़ा नीचे खिसकता है तो वह कोमल स्वर कहलाता है। और ऊपर खिसकता है तो तीव्र स्वर हो जाता है। फिर अपने स्थान पर लौट आने पर ये स्वर शुद्ध कहे जाते हैं। रे, ग, ध, नि जब नीचे खिसकते हैं तब वे कोमल बन जाते हैं और ‘म’ ऊपर पहुँचकर तीव्र बन जाता है। इस तरह सात शुद्ध स्वर, चार कोमल और एक तीव्र मिलकर बारह स्वर तैयार होते हैं। सात स्वरों को ‘सप्तक’ कहा गया है, लेकिन ध्वनि की ऊँचाई और नीचाई के आधार पर संगीत में तीन तरह के सप्तक माने गये। साधारण ध्वनि को ‘मध्य’, मध्य से ऊपर की ध्वनि को ‘तार’ और मध्य से नीचे की ध्वनि को ‘मन्द्र’ सप्तक कहा जाता है। ‘तार सप्तक’ में तालू, ‘मध्य सप्तक’ में गला और ‘मन्द्र सप्तक’ में हृदय पर जोर पड़ता है। संगीत के आधुनिक-काल के महान संगीतज्ञों पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और पण्डित विष्णुनारायण भातखण्डे ने भारतीय संगीत परम्परा को लिखने की पद्धित विकसित की। भातखण्डे जी ने सप्तकों के स्वरों को लिखने के लिए बिन्दु का प्रयोग किया। स्वर के ऊपर बिन्दु तार सप्तक, स्वर के नीचे बिन्दु मन्द्र सप्तक और बिन्दु रहित स्वर मध्य सप्तक दर्शाते हैं। इन सप्तकों में कोमल और तीव्र स्वर भी गाये जाते हैं, जिन्हें भातखण्डे लिपि में स्वरों के ऊपर खड़ी पाई (म) लगाकर तीव्र तथा स्वरों के नीचे पट पाई (ग) लगाकर कोमल दर्शाया जाता है। इन स्वरों की ध्वनि का केवल स्तर बदलता है। इनकी कोमलता और तीव्रता बनी रहती है। संगीत में स्वर को लय में निबद्ध होना पड़ता है। लय भी सप्तकों की तरह तीन स्तर से गुजरती है जैसे सामान्य लय को ‘मध्य लय,’ सामान्य से तेज लय को ‘द्रुत लय’ तथा सामान्य से कम को ‘विलिम्बित लय’ कहा जाता है। संगीत में समय को बराबर मात्राओं में बाँटने पर ‘ताल’ बनता है। ‘ताल’ बार-बार दोहराया जाता है और हर बार अपने अन्तिम टुक़ड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुआ था उसी पर आकर मिलता है। हर टुकड़े को ‘मात्रा’ कहा जाता है। संगीत में समय को मात्रा से मापा जाता है। तीन ताल में समय या लय के 16 टुकड़ें या मात्राएँ होती हैं। हर टुकड़े को एक नाम दिया जाता है, जिसे ‘बोल’ कहते हैं। इन्हीं बोलों को जब वाद्य पर बजाया जाता है तो उन्हें ‘ठेका’ कहते हैं। ‘ताल’ की मात्राओं को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है, जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे कि वह कौन सी मात्रा पर है और कितनी मात्राओं के बाद वह ‘सम’ पर पहुँचेगा। तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किए जाते हैं। जहाँ से चक्र दोबारा शुरू होता है उसे ‘सम’ कहा जाता है। ‘ताल’ में ‘खाली’ 'भरी' दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। ‘ताल’ के उस भाग को भरी कहते हैं जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है। ‘भरी पर ताली दी जाती हैं। ‘ताल’ में खाली उम भाग को कहते हैं जिस पर ताली नहीं दी जाती और जिससे गायक को सम के आने का आभास हो जाता है। ताल लय को गाँठता है और उसे अपने नियंत्रण में रखता है। राग जब 12 स्वर खोज लिए गये होंगे तब उन्हें इस्तेमाल करने के तरीके ढूँढ़े गये। 12 स्वरों के मेल से ही कई राग बनाए गये। उनमें से कई रागों में समानता भी थी। कवि लोचन ने ‘राग-तरंगिणी’ ग्रंथ में 16 हजार रागों का उल्लेख किया है, लेकिन इतने सारे रागों में से चलन में केवल 16 राग ही थे। राग उस स्वर समूह को कहा गया जिसमें स्वरों के उतार-चढ़ाव और उनके मेल में बनने वाली रचना सुनने वाले को मुग्ध कर सके। यह जरूरी नहीं कि किसी भी राग में सातों स्वर लगें। यह तो बहुत पहले ही तय कर दिया गया था कि किसी भी राग में कम से कम पाँच स्वरों का होना जरूरी है। ऐसे और भी नियम बनाये गये थे जैसे षड्ज यानी ‘सा’ का हर राग में होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि वही तो हर राग का आधार है। कुछ स्वर जो राग में बार-बार आते हैं उन्हें ‘वादी’ कहते हैं और ऐसे स्वर दो ‘वादी’ स्वर से कम लेकिन अन्य स्वरों से अधिक बार आएँ उन्हें ‘संवादी’ कहते हैं। लोचन कवि ने 16 हजार रागों में से कई रागों में समानता पाई तो उन्हें अलग-अलग वर्गों में रखा। उन्होंने 12 वर्ग तैयार किये जिनमें से हर वर्ग में कुछ-कुछ समान स्वर वाले राग शामिल थे। इन वर्गों को ‘मेल’ या ‘थाट’ कहा गया। ‘थाट’ में 7 स्वर अर्थात् ‘सा’, ‘रे,’ ‘ग’, ‘म’, ‘प’,‘ध’, ‘नि’, होने आवश्यक है। यह बात और है कि किसी ‘थाट’ में कोमल और किसी में तीव्र स्वर होंगे या मिले-जुले स्वर होंगे। इन ‘थाटों’ में वही राग रखे गये जिनके स्वर मिलते-जुलते थे। इसके बाद सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण के विद्वान पंडित श्रीनिवास ने सोचा कि रागों को उनके स्वरों की संख्या के सिहाब से ‘मेल’ में रखा जाये यानी जिन रागों में 5 स्वर हों वे एक ‘मेल’ में, छः स्वर वाले दूसरे और 7 स्वर वाले तीसरे ‘मेल’ में। कई विद्वानों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही कि रागों का वर्गीकरण ‘मेलों’ में कैसे किया जाये। दक्षिण के ही एक अन्य विद्वान व्यंकटमखी ने गणित का सहारा लेकर कुल 72 ‘मेल’ बताए। उन्होंने दक्षिण के रागों के लिए इनमें से 19 ‘मेल’ चुने। इधर उत्तर भारत में विद्वानों ने सभी रागों के लिए 32 ‘मेल’ चुने। अन्ततः भातखण्डेजी ने यह तय किया कि उत्तर भारतीय संगीत के सभी राग 10 ‘मेलों’ में समा सकते हैं। ये ‘मेल’। कौन-कौन से हैं इन्हें याद रखने के लिए ‘चतुर पण्डित’ ने एक कविता बनाई। चतुर पण्डित कोई और नहीं स्वयं पण्डित भातखण्डे ही थे। इन्होंने कई रचनाएँ ‘मंजरीकार’ और ‘विष्णु शर्मा’ नाम से भी रची है। यमन, बिलावल और खमाजी, भैरव पूरवि मारव काफी। आसा भैरवि तोड़ि बखाने, दशमित थाट चतुर गुनि मानें।। उत्तर भारतीय संगीत में ‘कल्याण थाट’ या ‘यमन थाट’ से भूपाली, हिंडोल, यमन, हमीर, केदार, छायानट व गौड़सारंग, ‘बिलावट थाट’ से बिहाग, देखकार, बिलावल, पहा़ड़ी, दुर्गा व शंकरा, ‘खमाज थाट’ से झिझोटी, तिलंग, खमाज, रागेश्वरी, सोरठ, देश, जयजयवन्ती व तिलक कामोद, ‘भैरव थाट’ से अहीर भैरव, गुणकली, भैरव, जोगिया व मेघरंजनी, ‘पूर्वी थाट’ से पूरियाधनाश्री, वसंत व पूर्वी, ‘काफी थाट’ से भीमपलासी, पीलू, काफी, बागेश्वरी, बहार, वृंदावनी सारंग, शुद्ध मल्लाह, मेघ व मियां की मल्हार, ‘आसावरी थाट’ से जौनपुरी, दरबारी कान्हड़ा, आसावरी व अड़ाना, ‘भैरवी थाट’ से मालकौंस, बिलासखानी तोड़ी व भैरवी, ‘तोड़ी थाट’ से 14 प्रकार की तोड़ी व मुल्तानी और ‘मारवा थाट’ से भटियार, विभास, मारवा, ललित व सोहनी आगि राग पैदा हुए। आज भी संगीतज्ञ इन्हीं दस ‘‘थाटों’ की मदद से नये-नये राग बना रहे हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हर ‘थाट’ का नाम उससे पैदा होने वाले किसी विशेष राग के नाम पर ही दिया जाता है। इस राग को ‘आश्रय राग’ कहते हैं क्योंकि बाकी रागों में इस राग का थोड़ा-बहुत अंश तो दिखाई ही देता है। ‘राग’ शब्द संस्कृत की धातु 'रंज' से बना है। रंज् का अर्थ है - रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी तरह संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंग जाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना या लीन हो जाना। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही काग कहलाती है। हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात से निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। आरोह का अर्थ है चढना और अवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई के आधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँची ध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिल तक पहुँचते हैं उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को 'आरोह' कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को 'अवरोह' कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’ और छह स्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है। यदि आरोह में सात और अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इस तरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भी कहते हैं। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ राग ही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है। आरोह में 7 और अवरोह में भी 7 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति’ बनती है जिससे केवल एक ही राग बन सकता है। वहीं आरोह में 7 और अवरोग में 6 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण षाडव जाति’ बनती है। इन्हें भी देखें स्वर वर्ण स्वर (मानव का) बाहरी कड़ियाँ स्वर : विज्ञान एवं गणित (श्री कान्ताप्रसाद मिश्र की पुस्तक - ऑनलाइन) North India Sargam Notation System Sargam www.soundofindia.com Article on vivadi swaras, by Haresh Bakshi Ragopedia, an encyclopedia of ragas written and produced by Pandit Shiv Dayal Batish and Ashwin Batish ragapedia.com, an open-source tool for entering letter based notation including Sargam. Also generates western notation हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत
1622
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "स्वर", "token_count": 16490, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0" }
व्याकरण शास्त्र में प्रयोग होने वाले वर्ण जो स्वर की सहायता से बोले जाते हैं। भोज्य पदार्थ एवं पकवानों के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है।
1623
{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "व्यंजन", "token_count": 215, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8" }
विद्यापति (1352-1448ई) मैथिली और संस्कृत कवि, संगीतकार, लेखक, दरबारी और राज पुरोहित थे। वह शिव के भक्त थे, लेकिन उन्होंने प्रेम गीत और भक्ति वैष्णव गीत भी लिखे। उन्हें 'मैथिल कवि कोकिल' (मैथिली के कवि कोयल) के नाम से भी जाना जाता है। विद्यापति का प्रभाव केवल मैथिली और संस्कृत साहित्य तक ही सीमित नहीं था, बल्कि अन्य पूर्वी भारतीय साहित्यिक परम्पराओं तक भी था। विद्यापति के समय की भाषा, प्राकृत - देर से व्युत्पन्न अवहट्ट, पूर्वी भाषाओं जैसे मैथिली और भोजपुरी के शुरुआती संस्करणों में परिवर्तित होना शुरू हो गया था। इस प्रकार, इन भाषाओं को बनाने पर विद्यापति के प्रभाव को "इटली में दांते और इंग्लैंड में चासर के समान” माना जाता है। उन्हें "बंगाली साहित्य का जनक" कहा है। विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव , शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं। प्रारंभिक जीवन विद्यापति का जन्म उत्तरी बिहार के मिथिला क्षेत्र के वर्तमान मधुबनी जिला के विस्फी (अब बिस्फी) गाँव में एक शैव ब्राह्मण परिवार में हुआ था। विद्यापति ("ज्ञान का स्वामी") नाम दो संस्कृत शब्दों, विद्या ("ज्ञान") और पति से लिया गया है। उनके स्वयं के कार्यों और उनके संरक्षकों की परस्पर विरोधी जानकारी के कारण उनकी सही जन्म तिथि के बारे में भ्रम है। वह गणपति ठाकुर के पुत्र थे, एक मैथिल ब्राह्मण जिसे शिव का बहुत बड़ा भक्त कहा जाता है। वह तिरहुत के शासक राजा गणेश्वर के दरबार में एक पुरोहित थें। उनके परदादा देवादित्य ठाकुर सहित उनके कई निकट पूर्वज अपने आप में उल्लेखनीय थे, जो हरिसिंह देव के दरबार में युद्ध और शान्ति मंत्री थे। विद्यापति ने स्वयं मिथिला के ओइनवार वंश के विभिन्न राजाओं के दरबार में काम किया। विद्यापति सर्व प्रथम कीर्ति सिंह दरबार मे काम किया था, जिन्होंने लगभग १३७० से १३८० तक मिथिला पर शासन किया था। इस समय विद्यापति ने 'कीर्त्तिलता' की रचना की, जो पद्य में उनके संरक्षक के लिए एक लंबी स्तुति-कविता थी। इस कृति में दिल्ली के दरबारियों की प्रशंसा करते हुए एक विस्तारित मार्ग है, जो प्रेम कविता की रचना में उनके बाद के गुण को दर्शाता है। हालांकि कीर्त्तिसिंह ने कोई और काम नहीं किया, विद्यापति ने कीर्ति सिंह उत्तराधिकारी देवसिंह के दरबार में एक स्थान हासिल किया। गद्य कहानी संग्रह भूपरिक्रमण देवसिंह के तत्वावधान में लिखा गया था। विद्यापति ने देवसिंह के उत्तराधिकारी शिवसिंह के साथ घनिष्ठ मित्रता की और प्रेम गीतों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने मुख्य रूप से १३८० और १४०६ के बीच लगभग पाँच सौ प्रेम गीत लिखे। उस अवधि के बाद उन्होंने जिन गीतों की रचना की, वे शिव, विष्णु, दुर्गा और गंगा की भक्तिपूर्ण स्तुति थे। 1402 से 1406 तक मिथिला के राजा शिवसिंह और विद्यापति के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। जैसे ही शिवसिंह अपने सिंहासन पर बैठें, उन्होंने विद्यापति को अपना गृह ग्राम बिस्फी प्रदान किया, जो एक ताम्र पत्र पर दर्ज किया गया था। थाली में, शिवसिंह उसे "नया जयदेव" कहते हैं। सुल्तान की माँग पर कवि अपने राजा के साथ दिल्ली भी गए। उस मुठभेड़ के बारे में एक कहानी बताती है कि कैसे सुल्तान ने राजा को पकड़ लिया और विद्यापति ने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन करके उनकी रिहाई के लिए बातचीत की। शिवसिंह के अनुकूल संरक्षण और दरबारी माहौल ने मैथिली में लिखे प्रेम गीतों में विद्यापति के प्रयोगों को प्रोत्साहित किया, एक ऐसी भाषा जिसे दरबार में हर कोई आनंद ले सकता था। 1406 में, एक मुस्लिम सेना के साथ लड़ाई में शिवसिंह लापता हो गए थें। इस हार के बाद, विद्यापति और दरबार ने नेपाल के राजाबनौली में एक राजा के दरबार में शरण ली। 1418 में, पद्मसिंह एक अंतराल के बाद मिथिला के शासक के रूप में शिवसिंह के उत्तराधिकारी बने, जब शिवसिंह की प्रमुख रानी लखीमा देवी ने 12 वर्षों तक शासन किया। विद्यापति सर्वर पद्मसिंह पर लौट आए और लेखन जारी रखा, मुख्य रूप से कानून और भक्ति नियमावली पर ग्रंथ लिखा। ऐसा माना जाता है कि लगभग १४३० या उससे पहले, वे अपने गाँव बिस्फी लौट आए थें। वह अक्सर शिव के मंदिर जाते थे। उनकी दो पत्नियाँ, तीन बेटे और चार बेटियाँ थीं। राजनीतिक जीवन विद्यापति ने जिन राजाओं के लिए काम किया, उनकी स्वतंत्रता को अक्सर मुस्लिम सुल्तानों द्वारा घुसपैठ से खतरा था। कीर्तिलता एक ऐसी घटना का संदर्भ देता है जिसमें ओइनवार राजा, राजा गणेश्वर, को तुर्की सेनापति मलिक अरसलान ने 1371ई में मार दिया था। 1401 तक, विद्यापति ने जौनपुर सुल्तान अरसलान को उखाड़ फेंकने और गणेश्वर के पुत्रों, वीरसिंह और कीर्तिसिंह को सिंहासन पर स्थापित करने में योगदान दिया। सुल्तान की सहायता से, अरसलान को हटा दिया गया और सबसे बड़ा पुत्र कीर्तिसिंह मिथिला का शासक बना। उनके समय के संघर्ष उनके कार्यों में स्पष्ट हैं। अपनी प्रारंभिक स्तुति-कविता 'कीर्तिलता' में, उन्होंने मुसलमानों के प्रति उनके कथित सम्मान के लिए अपने संरक्षक की धूर्तता से आलोचना की। प्रेम गीत अपने दूसरे संरक्षक, देवसिंह और विशेष रूप से उनके उत्तराधिकारी शिवसिंह के अधीन काम करते हुए, विद्यापति ने मैथिली मे राधा और कृष्ण के प्रेम के गीत रचना शुरू की। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने केवल १३८० से १४०६ के बीच प्रेम गीतों की रचना की थी, हालाँकि वह १४४८ में अपनी मृत्यु के करीब तक लिखतें रहें। ऐसा लगता है कि उनके संरक्षक और मित्र शिवसिंह के एक युद्ध में लापता होने और उनके दरबार में जाने के बाद उन्होने प्रेम गीत लिखना बंद कर दिया था। ये गीत, जो अंततः पाँच सौ की संख्या में होंगे, परंपरा के साथ टूट गए। वे स्थानीय भाषा में मैथिली में गीतों के रूप में लिखे गए थे, न कि साहित्यिक संस्कृत में औपचारिक कविताओं के रूप में जो पहले किया जाता था। विद्यापति तक, मैथिली को साहित्यिक माध्यम के रूप में नियोजित नहीं किया गया था। उन्होंने संस्कृत प्रेम कविता की परंपरा को "सरल, संगीतमय और प्रत्यक्ष" मैथिली भाषा में लागू किया। संस्कृत परंपरा से उनकी विरासत में सुंदरता का वर्णन करने के लिए मानक छवियों का भण्डार शामिल है। विद्यापति ने मधुबनी ("शहद का जंगल" अथवा मधुर वाणी का अपभ्रंश) में अपने घर की सुंदरता से भी आकर्षित किया, इसके आम के पेड़ों, चावल के खेतों, गन्ना और कमल के तालाबों के साथ। जयदेव के गीतगोविंद की परंपरा में, विद्यापति के गीत एक साथ प्रेम-निर्माण और कृष्ण की स्तुति की प्रशंसा करते थे; कृष्ण की स्तुति में प्रेम-प्रसंग की स्तुति शामिल थी। गीतों की तीव्रता और काव्यात्मकता इन गीतों के कार्य के अभिन्न अंग थे, जो सीधे भगवान की पूजा करने और आध्यात्मिक योग्यता अर्जित करने के तरीके के रूप में थे। विद्यापति के जयदेव के कार्यक्रम को एक अलग भाषा में जारी रखने से उन्हें "नए जयदेव" की उपाधि मिली। उनका काम उनके पूर्ववर्ती से दो तरह से अलग था। उनके गीत गीतगोविंद के विपरीत एक दूसरे से स्वतंत्र थे, जिसमें बारह सर्ग शामिल हैं जो युगल के अलगाव और पुनर्मिलन की एक अति-महत्वपूर्ण कहानी बताते हैं। जबकि जयदेव ने कृष्ण के दृष्टिकोण से लिखा, विद्यापति ने राधा के दृष्टिकोण से; "एक युवा लड़की के रूप में , उसका धीरे-धीरे जागता हुआ यौवन, उसका शारीरिक आकर्षण, उसका शर्मीलापन, संदेह और झिझक, उसकी भोली मासूमियत, प्यार की उसकी ज़रूरत, उत्साह के प्रति उसका समर्पण, उपेक्षित होने पर उसकी पूरी पीड़ा - इन सभी का वर्णन किया गया है एक महिला की बात और अतुलनीय कोमलता के साथ। इन गीतों में अक्सर राजा शिवसिंह की रानियों का उल्लेख होता है, जो एक संकेतक है कि वे दरबार द्वारा आनंद लेने के लिए थे। कभी-कभी, उनकी कविताओं में कृष्ण को राजा शिवसिंह और राधा को राजा की प्रमुख रानी लखीमा देवी के साथ पहचाना जाता है। उन्हें एक दरबारी गायिका जयति ने गाया था, जिन्होंने गीतों को संगीत में भेजा था। उन्हें नृत्य करने वाली लड़कियों द्वारा सीखा गया और अंततः दरबार से बाहर फैल गया। भक्ति गीत हालाँकि उन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम पर सैकड़ों प्रेम गीत लिखे, लेकिन वे कृष्ण या विष्णु के विशेष भक्त नहीं थें। इसके बजाय, उन्होंने शिव और दुर्गा पर ध्यान आकर्षित किया, लेकिन विष्णु और गंगा के बारे में गीत भी लिखे। वह विशेष रूप से शिव और पार्वती के प्रेम गीतों और सर्वोच्च ब्राह्मण के रूप में शिव के लिए प्रार्थना के लिए जाने जाते हैं। प्रभाव उड़िया साहित्य विद्यापति का प्रभाव ओडिशा, बंगाल से होते हुए पहुंचा। ब्रजबोली में सबसे प्रारंभिक रचना, विद्यापति द्वारा लोकप्रिय एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा, रामानंदा राय, ओडिशा के राजा, गजपति प्रतापरुद्र देव के गोदावरी प्रांत के राज्यपाल के रूप में वर्णित है। वह चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को अपनी ब्रजबोली कविताओं का पाठ किया, जब वे पहली बार उनसे गोदावरी नदी के किनारे राजमुंदरी में मिले, जो कि १५११-१२ में ओडिशा राज्य की दक्षिणी प्रांतीय राजधानी थी। अन्य उल्लेखनीय ओडिया साहित्य विद्यापति की कविताओं से प्रभावित कवि चंपति राय और राजा प्रताप मल्ल देव (1504–32) थे। बंगाली साहित्य बंगाली वैष्णव जैसे चैतन्य और चंडीदास ने वैष्णव भजनों के रूप में राधा और कृष्ण के बारे में विद्यापति के प्रेम गीतों को अपनाया। मध्यकाल के सभी प्रमुख बंगाली कवि विद्यापति से प्रभावित थे। नतीजतन, एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा, जिसे ब्रजबोली के रूप में जाना जाता है, सोलहवीं शताब्दी में विकसित की गई थी। ब्रजबोली मूल रूप से मैथिली है (जैसा कि मध्ययुगीन काल के दौरान प्रचलित था) लेकिन इसके रूपों को बंगाली की तरह दिखने के लिए संशोधित किया गया है। मध्यकालीन बंगाली कवियों, गोबिंददास कबीरराज, ज्ञानदास, बलरामदास और नरोत्तमदास ने इस भाषा में अपने 'पाद' (कविता) की रचना की। रवींद्रनाथ टैगोर ने पश्चिमी हिंदी (ब्रज भाषा) और पुरातन बंगाली के मिश्रण में अपने भानुसिंघा ठाकुरर पदाबली (1884) की रचना की और विद्यापति की नकल के रूप में ब्रजबोली भाषा का नाम दिया (उन्होंने शुरू में इन गीतों को उन गीतों के रूप में बढ़ावा दिया एक नए खोजे गए कवि, भानुसिंघा)। बंगाल पुनर्जागरण जैसे बंकिम चंद्र चटर्जी में १९वीं शताब्दी के अन्य आंकड़े भी ब्रजबोली में लिखे गए हैं। टैगोर विद्यापति से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कवि के भरा बदारा को अपनी धुन पर स्थापित किया। सियालदह स्टेशन के पास कोलकाता में एक पुल का नाम उनके (विद्यापति सेतु) के नाम पर रखा गया है। शृंगार रस के कवि विद्यापति हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से माना है। वे मानते हैं कि प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आरम्भ होना चाहिए इसे ही वे वीरगाथा काल मानते हैं। उन्होंने इस सन्दर्भ में इस काल की जिन आरम्भिक रचनाओं का उल्लेख किया है उनमें विद्यापति एक प्रमुख रचनाकार हैं तथा उनकी प्रमुख रचनाओं का इस काल में बड़ा महत्व है। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- कीर्तिलता कीर्तिपताका तथा पदावली। कीर्तिलता के बारे में यह स्पष्ट लिखा है कि-ऐसा जान पड़ता है कि कीर्तिलता बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी जिसमें चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। यह भृंग और भृंगी के संवाद-रूप में है। इसमें संस्कृत ओर प्राकृत के छन्दों का प्रयोग हुआा है। संस्कृत और प्राकृत के छन्द रासो में बहुत आए हैं। रासो की भांति कीर्तिलता में भी गाथा छन्द का व्यवहार प्राकृत भाषा में हुआा है। उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि विद्यापति को आदि काल की ही परिधि में रखना समीचीन होगा। विद्यापति के पदों में मधुरता और योग्यता का गुण अद्वितीय है। अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने उनके काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है- "गीत गोविन्द के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़ कर। अपनी कोकिल कंठता के कारण ही उन्हें 'मैथिल कोकिल' कहा जाता है।" इतिहासकारों के मध्य प्रायः यह मान्य है कि मैथिली भाषा के कवि विद्यापति का जन्म चौदहवीं शताब्दी के छठे दशक (१३६० के दशक में) में तथा देहावसान पंद्रहवीं शताब्दी के आठवें दशक में हुआ था। इसलिए साहित्य इतिहास की दृष्टि से विद्यापति का जन्म भले ही (आदिकाल संवत १०५०वि•से संवत् १३७५ वि•) में हुआ है परन्तु उनकी कृतियों पर पदावली पर भक्तिकालीन लक्षण ही परिलक्षित होते हैं। विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ठ, एवं मैथिली में कविता रची। इसके इलावा भूपरिक्रमा, पुरुषपरीक्षा, लिखनावली आदि अनेक रचनाएँ साहित्य को दीं। कीर्तिलता और कीर्तिपताका नामक रचनाएं अवहट्ठ में लिखी हैं। पदावली उनकी हिन्दी-रचना है और वही उनकी प्रसि़द्धि का कारण हैं। पदावली में कृष्ण-राधा विषयक शृंगार के पद हैं। इनके आधार पर इन्हें हिन्दी में राधा-कृष्ण-विषयक शृंगारी काव्य के जन्म दाता के रूप में जाना जाता है। विद्यापति के शृंगारी कवि होने का कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे दरबारी कवि थे और उनके प्रत्येक पद पर दरबारी वातावरण की छाप दिखाई देती है। पदावली में कृष्ण के कामी स्वरूप को चित्रित किया गया है। यहां कृष्ण जिस रूप में चित्रित हैं वैसा चित्रण करने का दुस्साहस कोई भक्त कवि नहीं कर सकता। इसके इलावा राधा जी का भी चित्रण मुग्धा नायिका के रूप मे किया गया है। विद्यापति वास्तव में कवि थे, उनसे भक्त के समान अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। उन्होंने नायिका के वक्षस्थल पर पड़ी हुई मोतियों की माला का जो वर्णन किया है उससे उनके कवि हृदय की भावुकता एवं सौंदर्य अनुभूति का अनुमान लगाया जा सकता है।एक उदाहरण देखिए- कत न वेदन मोहि देसि मरदाना। हट नहिं बला, मोहि जुबति जना। भनई विद्यापति, तनु देव कामा। एक भए दूखन नाम मोरा बामा। गिरिवर गरुअपयोधर परसित। गिय गय मौतिक हारा। काम कम्बु भरि कनक संभुपरि। विद्यापति की कविता शृंगार और विलास की वस्तु है, उपासना एवं साधना उनका उद्देश्य नही है। राधा और कृष्ण साधारण स्त्रीपुरुष के रूप में परस्पर प्रेम करते हैं। स्वयं विद्यापति ने अपनी रचना कीर्तिपताका में लिखा है- सीता की विरह वेदना सहन करने के कारण राम को काम-कला-चतुर अनेक स्त्रियों के साथ रहने की वेदना उत्कट इच्छा उन्होंने कृष्णावतार लेकर गोपियों के साथ विभिन्न प्रकार से कामक्रीडा की। अतः स्पष्ट है कि स्वयं कवि की दृष्टि में कृष्ण और राधा श्रृंगार रस के नायक-नायिका ही थे। विद्यापति ने नारी का नख-शिख वर्णन अपनी कविता में किया है, तथा मूलतः शृंगार रस का प्रयोग किया हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी शृंगारी मनोवृत्ति थी। अतः उनसे भक्त जैसे काव्य-व्यवहार की अपेक्षा करनाकदाचिद् एक तरह का उनसे अन्याय ही है।उन पर गीतगोविन्द के रचनाकार जयदेव का प्रभाव है। गीतगोविन्द में शृंगार रस का भरपूर प्रयोग हुआ है, तथा जो चित्र जयदेव ने श्री कृष्ण का गीतगोविन्द में प्रस्तुत किया है ठीक वैसा ही चरित्रांकन विद्यापति ने पदावली में किया है। स्पष्ट है जयदेव और विद्यापति ने जो चित्र अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है वह महाभारतकालीन धर्मस्थापना वाले श्रीकृष्ण से नितान्त भिन्न है। महाभारत में राधा जहां श्रीकृष्ण की प्रेरक शक्ति के रूप में दिखाई देतीं हैं, वहीं पदावली में विद्यापति ने कृष्ण की उद्दाम कामवासनाओं से प्रेरित राधा का रूप देखने को मिलता है। पदावली में जो कुछ वर्णित है उससे कोई भी उन्हें भक्त कवि नही मान सकता क्योंकि भक्त कवि अवने आराध्य को इस प्रकार श्रृंगार से मण्डित करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। विशेषकर, दूती एवं सखी-शिक्षा-प्रसंग में जो राधाकृष्ण का अमर्यादित रूप प्रस्तुत किया गया है वह केवल कोई् श्रृंगारी कवि ही कर सकता है, भक्त कवि नहीं।अतिशय श्रृंगार का एक वर्णन विद्यापति की पदावली से देखिए- लीलाकमल भमर धरु वारि। चमकि चलिल गोरि-चकित निहारि। ले भेल बेकत पयोधर सोम। कनक-कनक हेरि काहिन लोभ। आध भुकाएल, बाघ उदास। केचे-कुंभे कहि गेल अप्प आस। कुछ आलोचक उन्हें भक्त भी मानते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि निम्बार्क द्वारा प्रतिपादित द्वैताद्वैत सि़द्धान्त के अनुरूप रागानुगाभक्ति का दर्शन इनके पदों में होता है और उनके पदों में राधाकृष्ण की लीलाओं के वर्णन भक्ति-भावना के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने चाहिए। डॉ ग्रियर्सन भी इसी मत की ही तरह लिखते हैं- विद्यापति के पद लगभग सब के सब वैष्णव पद या भजन है और सभी हिन्दु बिना किसी काम-भावना का अनुभव किए विद्यापति की पदावली के पदों का गुणगान करते हैं। श्री नगेन्द्र नाथ गुप्त ने तो उन्हें भक्त प्रतिपादित करते हुए विद्यापति के पदों को शुद्ध अध्यात्मभाव से युक्त बताया है। डॉ जनार्दन मिश्र ने विद्यापति की पदावली को आध्यात्मिक विचार तथा दार्शनिक गूढ रहस्यों से परिपूर्ण माना। डॉ श्यामसुन्दर दास के अनुसार हिन्दी के वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि मैथिल कोकिल विद्यापति हैं। उनकी रचनाएं राधा और कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओतपोत हैं। कुछ आलोचकों का कहना है कि विद्यापति ने पदावली की रचना वैष्णव साहित्य के रूप में की है। गीतगोविन्द की भाँति उनकी पदावली में राधा-कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति की झांकी दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने अपने इष्ट की उपासना सामाजिक रूप में की है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने विद्यापति के उन पदों को उद्धृत किया है जो विद्यापति ने राधा, कृष्ण, गणेश, शिव आदि की वन्दना के लिए लिखे हैं। राधा की वन्दना-विषयक एक पद देखिए- देखदेख राधा-रूप अपार। अपुरुष के बिहि आनि मिला ओल। खिति-बल लावनि-सार। अंगहि अंग अनंग मुरछायत, हेरए पडए अधीर। यही नहीं, उन्होंने प्रार्थना एवं नर-नारी के प्रसंग में भी अनेक देवीदेवताओं, राधाकृष्ण, दु्र्गा, शिव, विष्णु, सूर्य आदि की वन्दना की है। कुछ समालोचक ऐसे भी हैं जो विद्यापति के श्रृंगारिक पदों की ओर ध्यान दिए बगैर ही उनके प्रार्थना सम्बन्धी पदों के आधार पर ही उन्हें भक्त कवि मान लेते हैं। यह सत्य है कि उन के कुछ भक्ति परक पद हैं परन्तु श्रृंगार परक रचना अधिक है यहां तक कि भक्ति परक पदों में भी श्रृंगार का अतिशय वर्णन किया गया है। विद्यापति के अनेक पदों से यह स्पष्ट है कि विद्यापति वास्तव में कोई वैष्णव नहीं थे, केवल परम्परा के अनुसार ही उन्होंने ग्रंथ के आरम्भ में गणेश आदि की वन्दना की हैं। उनके पदों को भी दो भागों में बांट सकते हैं। 1-राधाकृष्ण विषयक, 2 शिवगौरी सम्बन्धी। राधा कृष्ण सम्बन्धी पदों में भक्ति-भावना की उदात्तता एवं गम्भीरता का अभाव हैं तथा इन पदों में वासना की गन्ध साफ दिखाई देती है। धार्मिकता, दार्शनिकता या आध्यात्मिकता को खोजना असम्भव है। शिव-गौरी सम्बन्धी पदों में वासना का रंग नहीं है तथा इन्हें भक्ति की कोटि में रखा जा सकता है। 10 राधा कृष्ण विषयक पदों में विद्यापति ने लौकिक प्रेम का ही वर्णन किया है। राधा और कृष्ण साधारण स्त्रीपुरुष की ही तरह परस्पर प्रेम करते प्रतीत होते हैं तथा भक्ति की मात्रा न के बराबर है। इस तरह कहा जा सकता है कि विद्यापति शृंगारी कवि हैं उनके पदों में माधुर्य पग पग पर देखा जा सकता हैं। उन्होंने राधाकृष्ण के नामों का प्रयोग आराधना के लिए नहीं किया है अपितु साधारण नायक के रूप मे पेश किया है तथा विद्यापति का लक्ष्य पदावली में श्रृंगार निरूपण करना है। कवि के काव्य का मूल स्थायी भाव श्रृंगार ही है। राज्याश्रित रहते हुए उन्होंने राजा की प्रसन्नता में शृंगारपरक रचनाएं ही कीं, इसमें सन्देह नहीं। 11 इसके अतिरिक्त विद्यापति के समय में भक्ति की तुलना में शृंगारिक रचना का महत्व अधिक था। जयदेव की गीतगोविन्द जैसी रचनाएं इसी कोटि की है। लेखन-कार्य महाकवि विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्त्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्यशास्र हो या भक्ति-रचना, विरह-व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं की बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुष्य एवं दूरदर्शिता से उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है: (क) देवसिंह (ख) कीर्तिसिंह (ग) शिवसिंह (घ) पद्मसिंह (च) नरसिंह (छ) धीरसिंह (ज) भैरवसिंह और (झ) चन्द्रसिंह। इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है: (क) लखिमादेवी (देई) (ख) विश्वासदेवी, और (ग) धीरमतिदेवी। समग्र रचनाएँ संस्कृत में भूपरिक्रमण (राजा देवसिंह की आज्ञा से विद्यापति ने इसे लिखा। इसमें बलराम से सम्बन्धित शाप की कहानियों के बहाने मिथिला के प्रमुख तीर्थ-स्थलों का वर्णन है। हिन्दी अनुवाद सहित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित।) पुरुषपरीक्षा (मैथिली अनुवाद सहित मैथिली अकादमी, पटना से तथा हिन्दी अनुवाद सहित चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित) गोरक्षविजय नाटक (१.बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित। २.कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला परम्परागत नाटक-संग्रह' में संकलित।) लिखनावली (दरभंगा से प्रकाशित। सम्प्रति अनुपलब्ध।) विभागसार (मैथिली अकादमी, पटना से मैथिली अनुवाद सहित तथा विद्यापति-संस्कृत-ग्रन्थावली, भाग-१ के रूप में 'शैवसर्वस्वसार' के साथ हिन्दी अनुवाद सहित कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित) शैवसर्वस्वसार ( " " " ) शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत पुराण-संग्रह (विद्यापति-संस्कृत-ग्रन्थावली, भाग-२ के रूप में 'दानवाक्यावली' के साथ हिन्दी अनुवाद सहित कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित) दानवाक्यावली ( " " " ) गंगावाक्यावली (रानी विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित।) दुर्गाभक्तितरंगिणी (हिन्दी अनुवाद सहित, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से प्रकाशित) व्याडीभक्तितरङ्गिणी (१.प्रो॰ प्रेमशंकर सिंह कृत मैथिली अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका सहित मिथिलादर्पण प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित; प्रथम संस्करण-2008. २.'विद्यापति की तीन कृतियाँ' शीर्षक से 'वर्षकृत्य' एवं 'गयापत्तलक' के साथ 'कला प्रकाशन', बी.33/33, ए-1, न्यू साकेत कॉलोनी, बी॰एच॰यू॰, वाराणसी-5 से प्रकाशित, अनु॰सं॰ पं॰ गोविन्द झा, हीरानाथ झा; प्र॰सं॰ 2016.) गयापत्तलक ('विद्यापति की तीन कृतियाँ' शीर्षक से 'वर्षकृत्य' एवं 'व्याडीभक्तितरङ्गिणी' के साथ 'कला प्रकाशन' से प्रकाशित, अनु॰सं॰ पं॰ गोविन्द झा, हीरानाथ झा; प्र॰सं॰ 2016.) वर्षकृत्य ('विद्यापति की तीन कृतियाँ' में संकलित) मणिमञ्जरी नाटक (मैथिली अकादमी, पटना से प्रकाशित) अवहट्ठ में कीर्त्तिलता (१.डॉ॰ बाबूराम सक्सेना कृत हिन्दी अनुवाद सहित नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित, प्रथम संस्करण-1929. २.डॉ॰ शिवप्रसाद सिंह की व्याख्या सहित समीक्षात्मक संस्करण 'कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा' के नाम से वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित, प्रथम संस्करण-1955. ३.डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल कृत 'संजीवनी व्याख्या' सहित साहित्य सदन, चिरगाँव, झाँसी से प्रकाशित, प्रथम संस्करण-1962. ४.मूल, संस्कृत छाया तथा डॉ॰ वीरेन्द्र श्रीवास्तव कृत हिन्दी अनुवाद सहित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1983. ५.पं॰ गोविन्द झा कृत मैथिली अनुवाद सहित मैथिली अकादमी, पटना से प्रकाशित।) कीर्त्तिगाथा अथवा रसवाणी (हस्तलिखित खण्डित प्रति नेपाल के दरबार पुस्तकालय में। 'कीर्त्तिगाथा' नाम से नाग प्रकाशक, दिल्ली द्वारा 'कीर्त्तिपताका' के प्रकाशित संस्करण में द्वितीय अंश के रूप में संकलित।) कीर्त्तिपताका (मूल, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद सहित नाग प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित) इसके अतिरिक्त शिवसिंह के राज्यारोहण-वर्णन एवं युद्ध-वर्णन से सम्बन्धित कुछ अवहट्ठ-पद भी उपलब्ध हैं। मैथिली में पदावली (मूल पाठ, पाठ-भेद, हिन्दी अनुवाद एवं पाद-टिप्पणियों से युक्त विस्तृत संस्करण विद्यापति-पदावली नाम से तीन खण्डों में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित।) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ महाकवि विद्यापति ठाकुर विद्यापति उर्फ़ “सुनु-सुनु रसिया” (सृजनगाथा) विद्यापति की रचनाएँ विद्यापति की रचनाएँ कविता कोश में विद्यापति भक्त या शृंगारिक कवि? बिस्फी : महाकविकोकिल विद्यापति की जन्मस्थली। आदिकाल के कवि मैथिली साहित्यकार मैथिली कवि विद्यापति का साहित्य
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दरभंगा (𑂠𑂩𑂦𑂁𑂏𑂰) भारत के बिहार राज्य के मिथिला क्षेत्र में दरभंगा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण दरभंगा बागमती नदी के किनारे बसा हुआ है। यह ज़िले एवं प्रमंडल का मुख्यालय है। दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत तीन जिले दरभंगा, मधुबनी एवं समस्तीपुर आते हैं। दरभंगा के उत्तर में मधुबनी, दक्षिण में समस्तीपुर, पूर्व में सहरसा एवं पश्चिम में मुजफ्फरपुर तथा सीतामढ़ी जिला है। दरभंगा शहर के बहुविध एवं आधुनिक स्वरुप का विकास सोलहवीं सदी में मुग़ल व्यापारियों तथा ओईनवार शासकों द्वारा विकसित किया गया। दरभंगा 16वीं सदी में स्थापित दरभंगा राज की राजधानी था। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर विख्यात रहा है। इसके अलावा यह जिला आम और मखाना के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। नामकरण दरभंगा शब्द संस्कृत भाषा के शब्द 'द्वार-बंग' या फारसी भाषा के 'दर-ए-बंग' यानी बंगाल का दरवाजा का मैथिली भाषा में कई सालों तक चलनेवाले स्थानीयकरण का परिणाम है। ऐसा कहा जाता है कि मुगल काल में दरभंगी खां ने शहर बसाया था। दरभंगी खां स्वेत ब्राह्मण थे उन्होने कालांतर मे इस्लाम कबुल किया था। जिन्हें महराज दरभंगा के द्वारा "खां" की उपाधि मिली थी। आज भी खां वंसज दरभंगा में निवास करते हैं'। दरभंगा की स्थापना 1 जनवरी 1875 को हुई थी। इतिहास वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर कूच किया और विदेह राज्य की स्थापना की। विदेह के राजा मिथि के नाम पर यह प्रदेश मिथिला कहलाने लगा। रामायणकाल में मिथिला के एक राजा जो जनक कहलाते थे, सिरध्वज जनक की पुत्री सीता थी। विदेह राज्य का अंत होने पर यह प्रदेश वैशाली गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया। उत्तरी भाग जिसके अंतर्गत मधुबनी, दरभंगा एवं समस्तीपुर का उत्तरी हिस्सा आता था, सुगौना के ओईनवार राजा कामेश्वर सिंह के अधीन रहा। ओईनवार राजाओं को कला, संस्कृति और साहित्य का बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, गदाधर पंडित, शंकर, वाचास्पति मिश्र, विद्यापति, नागार्जुन,चन्द्र मोहन पोद्दार आदि महान विद्वानों के लेखन से इस क्षेत्र ने प्रसिद्धि पाई। ओईनवार राजा शिवसिंह के पिता देवसिंह ने लहेरियासराय के पास देवकुली की स्थापना की थी। शिवसिंह के बाद यहाँ पद्मसिंह, हरिसिंह, नरसिंहदेव, धीरसिंह, भैरवसिंह, रामभद्र, लक्ष्मीनाथ, कामसनारायण राजा हुए। शिवसिंह तथा भैरवसिंह द्वारा जारी किए गए सोने एवं चाँदी के सिक्के यहाँ के इतिहास ज्ञान का अच्छा स्रोत है। दरभंगा शहर १६ वीं सदी में दरभंगा राज की राजधानी थी। १८४५ इस्वी में ब्रिटिश सरकार ने दरभंगा सदर को अनुमंडल बनाया और १८६४ ईस्वी में दरभंगा शहर नगर निकाय बन गया। १८७५ में स्वतंत्र जिला बनने तक यह तिरहुत के साथ था। १९०८ में तिरहुत के प्रमंडल बनने पर इसे पटना प्रमंडल से हटाकर तिरहुत में शामिल कर लिया गया। स्वतंत्रता के पश्चात १९७२ में दरभंगा को प्रमंडल का दर्जा देकर मधुबनी तथा समस्तीपुर को इसके अंतर्गत रखा गया। भौगोलिक स्थिति दरभंगा जिला का कुल क्षेत्रफल 2,279 वर्ग कि०मी० है। समूचा जिला एक समतल उपजाऊ क्षेत्र है जहाँ कोई चिह्नित वनप्रदेश नहीं है। जिले में हिमालय से उतरने वाली नित्यवाही औ‍र बरसाती नदियों का जाल बिछा है। कमला, बागमती, कोशी, करेह औ‍र अधवारा समूह की नदियों से उत्पन्न बाढ़ हर वर्ष लाखों लोगों के लिए तबाही लाती है औसत सालाना ११४२ मिमी वर्षा का अधिकांश मॉनसून से प्राप्त होता है। दरभंगा जिले को आमतौर पर निम्न चार क्षेत्रों में बाँटा जाता है: घनश्यामपुर, बिरौल तथा कुशेश्वरस्थान प्रखंड में कोशी के द्वारा जमा किया गया गाद क्षेत्र जहाँ दलदली भाग मिलते हैं। बूढ़ी गंडक के दक्षिण का ऊँचा तथा उपजाऊ भूक्षेत्र जहाँ रबी की खेती की जाती है। बूढ़ी गंडक औ‍र बागमती के बीच का दोआब क्षेत्र जो नीचा और दलदली है। यहाँ २९७०६ हेक्टेयर भूमि चौर क्षेत्र है। सदर क्षेत्र जो ऊँचा है और कई नदियाँ यहाँ से प्रवाहित है। जनसांख्यिकी 2001 की जनगणना के अनुसार इस जिला की कुल जनसंख्या 32,85,493 है जिसमें शहरी क्षेत्र तथा देहाती क्षेत्र की जनसंख्या क्रमश: 2,66,834 एवं 30,18,639 है। स्त्री-पुरूष अनुपात- 910/ 1000 जनसंख्या का घनत्व- 1101 जन्म के समय जीवन प्रत्याशा- 47.6 वर्ष जनसंख्या वृद्धि दर- 2.25% साक्षरता दर- 35.42% (पुरूष-45.32%, स्त्री- 24.58%) जबकि जनगणना 2011 के आकड़ों के अनुसार इस जिले की कुल आबादी 3,937,385 है।जिसमें पुरुषों की संख्या 2,059,949 और महिलाओं की 1,877,436 है। प्रशासनिक विभाजनः दरभंगा जिले के अंतर्गत 3 अनुमंडल, 18 प्रखंड, 329 पंचायत, 1,269 गांव एवं 23 थाने हैं। अनुमंडल- दरभंगा सदर, बेरौल, बेनीपुर प्रखंड- दरभंगा, बहादुरपुर, हयाघाट, हनुमाननगर, बहेरी, केवटी, सिंघवारा, जाले, मणिगाछी, ताराडिह, बेनीपुर, अलीनगर, बिरौल, घनश्यामपुर, कीरतपुर, गौरा-बौरम, कुशेश्वरस्थान, कुशेश्वरस्थान (पूर्व) कृषि एवं वानिकी दरभंगा जिले की चूना युक्त दोमट किस्म की मिट्टी रबी एवं खरीफ फसलों के लिए उपयुक्त है। भदई एवं अगहनी धान, गेहूँ, मकई, रागी, तिलहन (चना, मसूर, खेसारी, मूंग), आलू गन्ना आदि मुख्य फसले हैं। जिले के कुल क्षेत्रफल का 198415 हेक्टेयर कृषियोग्य है। 19617 हेक्टेयर क्षेत्र ऊँची भूमि, 37660 हेक्टेयर मध्यम और 38017 हेक्टेयर नीची भूमि है। यद्यपि दरभंगा जिला वनरहित प्रदेश है फिर भी निजी क्षेत्रों में वानिकी का अच्छा प्रसार देखने को मिलता है। गाँवों के आसपास रैयती जमीन पर सीसम, खैर, खजूर, आम, लीची, अमरुद, कटहल, पीपल, ईमली आदि मात्रा में दिखाई देते है। आम औ‍र मखाना के उत्पादन के लिए दरभंगा प्रसिद्ध है और खास स्थान रखता है। जिले के प्रायः हर हिस्से में तलाबों एवं चौर क्षेत्र में पोषक तत्वों से भरपूर मखाना यहाँ का खास उत्पाद है। मखाना की खेती से हो रहे लाभ के मद्देनजर यहाँ के किसानों में मखाने की खेती के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है। शैक्षणिक संस्थान परंपरा से यह शहर मिथिला के ब्राह्मणों के लिए संस्कृत में उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्ध रहा है। पुरातन एवं आधुनिक शिक्षा का अच्छा केंद्र होने के बावजूद दरभंगा एक निम्न साक्षरता वाला जिला है। ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय के अलावे यहाँ तथा कामेश्वरसिंह संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है जिसके अंतर्गत राज्य के सभी संस्कृत महाविद्यालय आते हैं। शहर में तकनीकि एवं चिकित्सा महाविद्यालयों के अतिरिक्त मिथिला शोध संस्थान जैसे विशिष्ट शिक्षा केंद्र भी हैं। दरभंगा जिला के अंतर्गत आनेवाले शिक्षण संस्थान इस प्रकार हैं: प्राथमिक विद्यालय- 1165 मध्य विद्यालय- 312 उच्च विद्यालय- 70 अंगीभूत डिग्री महाविद्यालय-17 संबद्ध डिग्री महाविद्यालय- 26 संस्कृत महाविद्यालय- 5 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय- 2 (डिग्री एवं डिप्लोमा) तकनीकि संस्थानः दरभंगा कॉलेज ऑफ इंजिनियरिंग, महिला अभियंत्रण महाविद्यालय, राजकीय पॉलिटेक्निक दरभंगा, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान चिकित्सा महाविद्यालयः दरभंगा चिकित्सा महाविद्यालय एवं अस्पताल, नर्सिंग ट्रेनिंग स्कूल-1, दंत चिकित्सा महाविद्यालय-4 (निजी), एमआरएम आयुर्वेदिक महाविद्यालय अन्य विशिष्ट संस्थान मिथिला शोध संस्थान (संस्कृत में परास्नातक स्तरीय शिक्षा एवं शोध की सुविधा) डाक प्रशिक्षण केंद्र (डाककर्मियों के लिए केंद्र सरकार द्वारा स्थापित प्रशिक्षण केंद्र) मखाना के लिए राष्ट्रीय शोध केंद्र वासुदेवपुर दरभंगा इसके अतिरिक्त जिले में १ केन्द्रीय विद्यालय, १ जवाहर नवोदय विद्यालय तथा ४ चरवाहा विद्यालय भी है। संस्कृति दरभंगा प्रदेश मिथिला संस्कृति का अंग एवं केंद्र विंदु रहा है। रामायण काल से ही यह राजा जनक तथा उत्तरवर्ती हिंदू राजाओं का शासन प्रदेश रहा है। मध्यकाल में इस क्षेत्र पर मुसलमान शासकों का कब्जा होने पर भी यह हिंदू क्षत्रपों के अधीन रहा और अपनी खास पहचान बनाए रखने में सक्षम रहा। पहले से मुस्लिम बहुल दरभंगा शहर में 19वीं सदी के आरंभ में ब्राह्मण राजा द्वारा अपनी राजधानी स्थानान्तरित किए जाने के बाद हिंदू यहाँ बसने लगे औ‍र शहर में मिली-जुली संस्कृति पनपी। यद्यपि दरभंगा हिंदू बहुल है लेकिन मुसलमान कुल संख्या का २५% है। मिथिला पेंटिंग, ध्रुपद गायन की गया शैली और संस्कृत के विद्वानों ने इस क्षेत्र को दुनिया भर में खास पहचान दी है। प्रसिद्ध लोक कलाओं में सुजनी (कपड़े की कई तहों पर रंगीन धागों से डिजाईन बनाना), सिक्की (खर एवं घास से बनाई गई कलात्मक डिजाईन वाली उपयोगी वस्तु) तथा लकड़ी पर नक्काशी का काम शामिल है। सामा चकेवा एवं झिझिया दरभंगा का लोक नृत्य है। यहाँ के लोगों के खान-पान एवं विद्या प्रेम पर मैथिली में प्रचलित एक कहावत दरभंगा की संस्कृति को अच्छी तरह बयान करता है: पग-पग पोखर, पान मखान सरस बोल, मुस्की मुस्कान विद्या-वैभव शांति प्रतीक ललित नगर दरभंगा थिक अपने गौरवशाली अतीत एवं अद्वितीय सांस्कृतिक परंपराओं के बावजूद दुर्भाग्य से मिथिला संस्कृति का केन्द्र रहा यह क्षेत्र आज राजनैतिक उपेक्षा का शिकार होकर रह गया है और अब कभी कभी अपनी बाढ़ की भयावहता के कारण अखबारों की सुर्खियों में दिख जाता है। पर्यटन स्थल दरभंगा शहर के दर्शनीय स्थल दरभंगा राज परिसर एवं किला: दरभंगा के महाराजाओं को कला, साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षकों में गिना जाता है। स्वर्गीय महेश ठाकुर द्वारा स्थापित दरभंगा राज किला-परिसर अब एक आधुनिक स्थल एवं शिक्षा केंद्र बन चुका है। भव्य एवं योजनाबद्ध तरीके से अभिकल्पित महलों, मंदिरों एवं पुराने प्रतीकों को अब भी देखा जा सकता है। अलग-अलग महाराजाओं द्वारा बनबाए गए महलों में नरगौना महल, आनंदबाग महल एवं बेला महल प्रमुख हैं। राज पुस्तकालय भवन ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय द्वारा एवं अन्य कई भवन संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा उपयोग में लाए जा रहे हैं। महाराजा लक्ष्मिश्वर सिंह संग्रहालय एवं चंद्रधारी संग्रहालय: रंती-ड्योढी (मधुबनी) के स्वर्गीय चंद्रधारी सिंह द्वारा दान किए गए कलात्मक एवं अमूल्य दुर्लभ सामग्रियों को शहर के मानसरोवर झील किनारे 7 दिसम्बर 1957 को स्थापित एक संग्रहालय में रखा गया है। इस संग्रहालय को सन 1974 में दोमंजिले भवन में स्थानान्तरित कर दिया गया जहाँ संग्रहित वस्तुओं को ११ कक्षों में रखा गया है। सितंबर 1977 में दरभंगा के तत्कालिन जिलाधिकारी द्वारा महाराजा लक्ष्मिश्वर सिंह संग्रहालय की स्थापना की गयी। दरभंगा महाराज के वंशज श्री शुभेश्वर सिंह द्वारा दान की गयी दुर्लभ कलाकृतियाँ एवं राज से संबधित वस्तुएँ यहाँ संग्रहित है। दरभंगा राज की अमूल्य एवं दुर्लभ वस्तुएं तथा सोने, चाँदी एवं हाथी दाँत के बने हथियारों आदि को आठ कक्षों में सजाकर रखा गया है। सोमवार छोडकर सप्ताह में प्रत्येक दिन खुलने वाले दोनों संग्रहालयों में प्रवेश नि:शुल्क है। श्यामा मंदिर: दरभंगा स्टेशन से १ किलोमीटर की दूरी पर मिथिला विश्वविद्यालय के परिसर में दरभंगा राज द्वारा १९३३ में बनवाया गया काली मंदिर बहुत सुंदर है। स्थानीय लोगों में इस मंदिर की बड़ी प्रतिष्ठा है और लोगों में ऐसा विश्वास है कि यहाँ पूजा करने से मनोवांछित फल मिलता है। नवादा दुर्गा मंदिर: दरभंगा जिला के बेनीपुर प्रखंड के अंतर्गत बैगनी नवादा गांव में स्थित मां दुर्गा की अति प्राचीन मंदिर है। यहां प्रत्येक वर्ष दुर्गा पूजा में हजारों की संख्या में श्रद्धालु अन्य राज और विदेशों से आते हैं। होली रोजरी चर्च: दरभंगा रेलवे स्टेशन से १ किलोमीटर उत्तर स्थित १८९१ में बना कैथोलिक चर्च इसाई पादरियों के प्रशिक्षण के लिए बना था। १८९७ में भूकंप से हुए नुकसान के बाद चर्च में २५ दिसम्बर १९९१ से पुन: प्रार्थना शुरु हुई। चर्च के बाहर ईसा मसीह का एक प्रतिमा बना है। हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी का दरगाह: दरगाह शरीफ हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी रहमतुल्लाह अलैह बिहार के दरभंगा शहर के रेलवे स्टेशन से आधा किलोमीटर की दूरी पर दिग्घी तालाब के पश्चिम किनारे पर मोहल्ला मिश्रटोला (भठियारी सराय ) में मेन स्टेशन रोड पर हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी रहमतुल्लाह अलैह का मज़ार है। सड़क से ऊंचाई पर स्थित आलिशान दरगाह शरीफ में हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी रहमतुल्लाह अलैह का तकरीबन 400 वर्ष से पुराना मज़ार है।। दरगाह परिसर में ही हज़रत मौलाना सैयद शाह फ़िदा अब्दुल करीम समरक़ंदी रहमतुल्लाह अलैह का भी मज़ार है… जो बाद में आये थे। हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी रहमतुल्लाह अलैह का सालाना उर्स ईद उल ज़ुहा (बकरीद ) की 13 से 17 तारिख तक होता है। जिसमें बिहार के अलावा अन्य राज्यों से और पड़ोसी देश नेपाल के भी ज़ायरीन आते हैं। ... .हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी रहमतुल्लाह अलैह को मानने वाले हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सभी मज़हब के लोग है। . मस्जिद एवं मकदूम बाबा की मजार: दरभंगा रेलवे स्टेशन से २ किलोमीटर की दूरी पर दरभंगा टावर के पास बनी मस्जिद शहर के मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा इबादत स्थल है। पास ही सूफी संत मकदूम बाबा की मजार है जो हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा समान रूप से आदरित है। स्टेशन से १ किलोमीटर दूर गंगासागर तालाब के किनारे बनी भिखा सलामी मजार के पास रमजान महीने की १२-१६ वीं के बीच मेला लगता है। दरभंगा के आसपास कुशेश्वरस्थान शिवमंदिर एवं पक्षी विहार: समस्तीपुर-खगडिया रेललाईन पर हसनपुर रोड से २२ किलोमीटर दूर कुशेश्वर स्थान में रामायण काल का शिव मंदिर है। यह स्थान अति पवित्र माना जाता है। कुशेश्वर स्थान, घनश्यामपुर एवं बेरौल प्रखंड में 7019 एकड जलप्लावित क्षेत्र को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया है। विशेष पारिस्थिकी वाले इस भूक्षेत्र में स्थानीय, साईबेरियाई तथा नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से आनेवाले पक्षियों की अच्छी तादाद दिखाई देती है। ललसर, दिघौच, माइल, नकटा, गैरी, गगन, अधानी, हरियल, चाहा, करन, रतवा, गैबर जैसे पक्षी यहाँ देखे जा सकते हैं। पक्षियों के अवैध शिकार के कारण इनकी तादाद अब काफी कम हो चुकी है। साथ ही अब तो कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर है। लोगो में अभी भी पूरी जागरूकता नहीं आ पायी है और लोग इन्हें भोजन के पौष्टिक और स्वादिष्ट स्रोत जो ठण्ड के मौसम में उन्हें उपलब्ध होते है के रूप में देखते है। लोगो के इसी रवैये के परिणाम स्वरुप परियावारण पर परिवर्तन आ रहे है। अब इनकी संख्या काफी कम हो चुकी है। अहिल्यास्थान एवं गौतमस्थान: जाले प्रखंड में कमतौल रेलवे स्टेशन से ३ किलोमीटर दक्षिण अहिल्यास्थान स्थित है। अयोध्या जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने पत्थर बनी शापग्रस्त अहिल्या का उद्धार इस स्थान पर किया था। यहाँ प्रतिवर्ष रामनवमी (चैत्र) एवं विवाह पंचमी (अगहन) को मेला लगता है। कमतौल से ८ किलोमीटर दूर ब्रह्मपुर में गौतम ऋषि का स्थान माना जाता है। यहाँ गौतम सरोवर एवं पास ही मंदिर बना है। ये पौराणिक स्थल केंद्र सरकार की स्वदेश दर्शन योजना के तहत विकसित हो रहे रामायण सर्किट का हिस्सा है। रामायण सर्किट के विकसित होने से स्थानीय कारीगरों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकेगा और स्थानीय कला एवं शिल्प को बढ़ावा मिलेगा। ब्रह्मपुर के खादी ग्रामोद्योग केंद्र एवं खादी भंडार से वस्त्र खरीदे जा सकते है। मनोरा: दरभंगा से 04 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, यहाँ चैत्र के महिने में खूब धूम-धाम से नवरात्री मनाई जाती है। छपरार: दरभंगा से १० किलोमीटर दूर कमला नदी किनारे बना शिवमंदिर के पास कार्तिक एवं माघ पूर्णिमा को मेला लगता है। देवकुली धाम: बिरौल प्रखंड के देवकुली गाँव में शिव का प्राचीन मंदिर है जहाँ प्रत्येक रविवार को पुजा हेतु भीड होती है। शिवरात्रि के दिन यहाँ मेला भी लगता है। नेवारी: बेरौल से १३ किलोमीटर दूर स्थित यह स्थान राजा लोरिक के प्राचीन किला के लिए प्रसिद्ध है। राम जानकी रामेश्वर नाथ महादेव मंदिर: यह मंदिर दरभंगा जिला के अलीनगर प्रखंड के अंतर्गत हरियठ ग्राम में अवस्थित है। यह मुस्लिम बहुल गांव है, यह एकमात्र यही मंदिर है इस गाँव में जिसे बनाने के लिए हिंदुओं को काफी परेशानी झेलनी पड़ी। यातायात एवं संचार सड़क मार्ग: दरभंगा बिहार के सभी मुख्य शहरों से राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। जिले में सड़कों की कुल लंबाई २२४५ किलोमीटर है। यहाँ से वर्तमान में दो राष्ट्रीय राजमार्ग तथा तीन राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। मुजफ्फरपुर से झंझारपुर जानेवाला राष्ट्रीय राजमार्ग ५७ दरभंगा होते हुए जाती है। ५५ किलोमीटर लंबा राष्ट्रीय राजमार्ग १०५ दरभंगा को जयनगर से जोड़ता है। जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग ५७ एवं १०५ की कुल लंबाई ५७ किलोमीटर तथा राजकीय राजमार्ग संख्या ५० तथा ५६ की कुल लंबाई ८९ किलोमीटर है। रेल मार्गः दरभंगा भारतीय रेल के नक्शे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो पूर्व मध्य रेलवे क्षेत्र के समस्तीपुर मंडल में पड़ता है। दिल्ली-गुवाहाटी रूट पर स्थित समस्तीपुर जंक्शन से बड़ी गेज की एक लाईन दरभंगा होते हुए नेपाल सीमा पर झंझारपुर को जाती है। दरभंगा से एक अन्य रेल लाईन सीतामढी होते हुए नरकटियागंज को जोड़ती है। सकड़ी से हसनपुर को जोडनेवाली रेललाईन निर्माणाधीन है। १९९६ तक दरभंगा मीटर गेज से जुड़ा था लेकिन अमान परिवर्तन के बाद यहाँ से दिल्ली, मुम्बई, पुणे, कोलकाता, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है। वायु मार्गः दरभंगा से १० किलोमीटर की दूरी पर बना हवाई अडडा जो पूर्व में भारतीय वायु सेना के उपयोग में था। २ दिसंबर २०२० से यहां से वाणिज्यिक उड़ान प्रारंभ किया गया। इस हवाई अड्डा की आधारशिला राज्य के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार,तत्कालीन केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री श्री सुरेश प्रभु एवं उड्डयन राज्य मंत्री श्री जयंत सिन्हा के उपस्थिति में २४ दिसंबर २०१८ को रखी गई थी। वर्तमान में यहां से दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलुरु,मुंबई आदि नगरों के लिए अंतरराज्यीय उड़ाने भारतीय विमान पतन प्राधिकरण द्वारा संचालित किये जा रहें हैं।अन्य नागरिक हवाई अड्डा १३० किलोमीटर दूर पटना में स्थित है। लोकनायक जयप्रकाश हवाई क्षेत्र पटना (IATA कोड- PAT) से अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ाने उपलब्ध है। इंडियन, किंगफिशर, जेट एयर, स्पाइस जेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, कोलकाता और राँची के लिए उपलब्ध हैं। इन्हें भी देखें दरभंगा ज़िला बाहरी कड़ियाँ बिहार सरकार पथ निर्माण विभाग का आधिकारिक बेवजाल कला-संस्कृति का द्वार था दरभंगा बिहार पर्यटन विकास निगम का आधिकारिक बेवजाल सन्दर्भ दरभंगा जिला बिहार के शहर दरभंगा ज़िले के नगर mp board 12th blueprint 2023
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बापू का अर्थ गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं में 'पिता' होता है। महात्मा गांधी उपनाम
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सैम्यूअल लैंघोर्न क्लेमेन्स (३० नवंबर, १८३५ - २१ अप्रैल, १९१०), जो अपने उपनाम मार्क ट्वेन से जाने जाते थे, एक अमेरिकी लेखक, हास्यकार, उद्यमी, प्रकाशक और व्याख्याता थे। उन्हें "संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा निर्मित सबसे महान हास्य कलाकार" के रूप में सराहा गया था। बाहरी कड़ियाँ मार्क ट्वैन के अनमोल विचार Mark Twain Life Story In Hindi-मार्क ट्वेन जीवनी
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भारत में विश्व के सबसे चार प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती है। सामान्यत: उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय भाषा परिवार की भाषाओं को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुंडारी भाषा समूह तथा पूर्वोत्तर में रहने वाले तिब्बती-बर्मी, नृजातीय भाषाओं को चीनी-तिब्बती (नाग भाषा समूह) के रूप में जाना जाता है। हिन्द आर्य भाषा परिवार यह परिवार भारत का सबसे बड़ा भाषाई परिवार है। इसका विभाजन 'इन्डो-युरोपीय' (हिन्द यूरोपीय) भाषा परिवार से हुआ है, इसकी दूसरी शाखा 'इन्डो-इरानी' भाषा परिवार है जिसकी प्रमुख भाषायें फारसी, ईरानी, पश्तो, बलूची इत्यादि हैं। भारत की दो तिहाई से अधिक आबादी हिन्द आर्य भाषा परिवार की कोई न कोई भाषा विभिन्न स्तरों पर प्रयोग करती है। जिसमें संस्कृत समेत मुख्यत: उत्तर भारत में बोली जानेवाली अन्य भाषायें जैसे: हिन्दी, उर्दू, मराठी, नेपाली, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी इत्यादि भाषायें शामिल हैं। द्रविड़ भाषा परिवार यह भाषा परिवार भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है। इस परिवार की सदस्य भाषाऍं ज्यादातर दक्षिण भारत में बोली जाती हैं। इस परिवार का सबसे बड़ा सदस्य तमिल है जो तमिलनाडु में बोली जाती है। इसी तरह कर्नाटक में कन्नड़, केरल में मलयालम और आंध्रप्रदेश में तेलुगू इस परिवार की बड़ी भाषायें हैं। इसके अलावा तुलू और अन्य कई भाषायें भी इस परिवार की मुख्य सदस्य हैं। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और भारतीय कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसी परिवार की ब्राहुई भाषा भी बोली जाती है जिसपर बलूची और पश्तो जैसी भाषाओं का असर देखने को मिलता है। आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार यह प्राचीन भाषा परिवार मुख्य रूप से भारत में झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के ज्यादातर हिस्सों में बोली जाती है। संख्या की दृष्टि से इस परिवार की सबसे बड़ी भाषा संथाली या संताली है। यह पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और असम में मुख्यरूप से बोली जाती है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हो, मुंडारी, भूमिज, संथाली, खड़िया, सावरा इत्यादी भाषायें हैं। चीनी-तिब्बती भाषा परिवार इस परिवार की ज्यादातर भाषाएँ भारत के सात उत्तर-पूर्वी राज्यों जिन्हें 'सात-बहनें' भी कहते हैं, में बोली जाती है। इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम, त्रिपुरा और असम का कुछ हिस्सा शामिल है। इस परिवार पर चीनी और आर्य परिवार की भाषाओं का मिश्रित प्रभाव पाया जाता है और सबसे छोटा भाषाई परिवार होने के बावज़ूद इस परिवार के सदस्य भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है। इस परिवार की मुख्य भाषाओं में नागा, मिज़ो, म्हार, मणिपुरी, तांगखुल, खासी, दफ़ला, चम्बा, बोडो, तिब्बती,लद्दाखी ,लेव्या तथा आओ इत्यादि भाषाऍं शामिल हैं। अंडमानी भाषा परिवार जनसंख्या की दृष्टि से यह भारत का सबसे छोटा भाषाई परिवार है। इसकी खोज पिछले दिनों मशहूर भाषा विज्ञानी प्रो॰ अन्विता अब्‍बी ने की। इसके अंतर्गत अंडबार-निकाबोर द्वीप समूह की भाषाएँ आती हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अंडमानी, ग्रेड अंडमानी, ओंगे, जारवा आदि। इन्हें भी देखें हिंदी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य भारत की भाषाएँ भारत की बोलियाँ भाषा परिवार बाहरी कड़ियाँ भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राम बिलास शर्मा) "Knowing" Words inIndo-European Languages भाषा
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तमिल (தமிழ், उच्चारण: ) एक भाषा है जो मुख्यतः तमिऴ नाडु तथा श्रीलंका में बोली जाती है। तमिऴ नाडु तथा पुदुचेरी में यह राजभाषा है। यह श्रीलंका तथा सिंगापुर की कई राजभाषाओं में से एक है। परिचय तमिऴ द्राविड़ भाषा परिवार की प्राचीनतम भाषा मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि किस समय इस भाषा का प्रारम्भ हुआ। विश्व के विद्वानों ने संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के समान तमिऴ को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिऴ भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है। तमिऴ भाषा में उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर यह निर्विवाद निर्णय हो चुका है कि तमिऴ भाषा ईसा से कई सौ वर्ष पहले ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित हो गई थी। मुख्य रूप से यह भारत के दक्षिणी राज्य तमिऴ नाडु, श्री लंका के तमिल बहुल उत्तरी भागों, सिंगापुर और मलेशिया के भारतीय मूल के तमिऴों द्वारा बोली जाती है। भारत, श्रीलंका और सिंगापुर में इसकी स्थिति एक आधिकारिक भाषा के रूप में है। इसके अतिरिक्त यह मलेशिया, मॉरिशस, वियतनाम, रियूनियन इत्यादि में भी पर्याप्त संख्या में बोली जाती है। लगभग ७ करोड़ लोग तमिऴ भाषा का प्रयोग मातृ-भाषा के रूप में करते हैं। यह भारत के तमिऴ नाड़ु राज्य की प्रशासनिक भाषा है और यह पहली ऐसी भाषा है जिसे २००४ में भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया। तमिऴ द्रविड़ भाषा परिवार और भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में गिनी जाती है। इस भाषा का इतिहास कम से कम ३००० वर्ष पुराना माना जाता है। प्राचीन तमिऴ से लेकर आधुनिक तमिऴ में उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुयी है। तमिऴ साहित्य कम से कम पिछ्ले दो हज़ार वर्षों से अस्तित्व में है। जो सबसे आरंभिक शिलालेख पाए गए है वे तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास के हैं। तमिऴ साहित्य का आरम्भिक काल, संघम साहित्य, ३०० ई॰पू॰ – ३०० ईस्वीं का है। इस भाषा के नाम को "तमिल" या "तामिल" के रूप में हिन्दी भाषा-भाषी उच्चारण करते हैं। तमिऴ भाषा के साहित्य तथा निघण्टु में तमिऴ शब्द का प्रयोग 'मधुर' अर्थ में हुआ है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा के द्राविड़ शब्द से तमिऴ शब्द की उत्पत्ति मानकर द्राविड़ > द्रविड़ > द्रमिड > द्रमिल > तमिऴ आदि रूप दिखाकर तमिऴ की उत्पत्ति सिद्ध की है, किन्तु तमिऴ के अधिकांश विद्वान इस विचार से सर्वथा असहमत हैं। गठन तमिऴ, हिन्दी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत लिंग-विभेद प्रमुख नहीं होता है। देवनागरी वर्णमाला के कई अक्षरों के लिये तमिल में एक ही वर्ण का प्रयोग होता है, यथा – तमिऴ भाषा में कुछ और वर्ण होते हैं जिनका प्रयोग सामान्य हिन्दी में नहीं होता है। उदाहरणार्थ: ள-ळ, ழ-ऴ, ற-ऱ, ன-ऩ। लेखन प्रणाली तमिऴ भाषा वट्ट एऴुत्तु लिपि में लिखी जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसमें स्पष्टतः कम अक्षर हैं। देवनागरी लिपि की तुलना में (यह तुलना अधिकांश भारतीय भाषाओं पर लागू होती है) इसमें हृस्व ए (ऎ) तथा हृस्व ओ (ऒ) भी हैं। प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग आदि) का केवल पहला और अंतिम अक्षर उपस्थित है, बीच के अक्षर नहीं हैं (अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड, मलयालम में ये अक्षर उपस्थित हैं)। र और ल के अधिक तीव्र रूप भी हैं। वहीं न का कोमलतर रूप भी है। श, ष एक ही अक्षर द्वारा निरूपित हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट (प्रतिनिधि) ध्वनि ழ (देवनागरी समकक्ष – ऴ, नया जोडा गया) है, जो स्वयं तमिऴ शब्द में प्रयुक्त है (தமிழ் ध्वनिशः – तमिऴ्)। तमिऴ में वर्गों के बीच के अक्षरों की ध्वनियाँ भी प्रथम अक्षर से निरूपित की जाती हैं, परन्तु यह प्रतिचित्रण (mapping) कुछ नियमों के अधीन है। तमिऴ-हिन्दी १-१० संख्याएँ ऒऩ्ऱु = एक इरंडू = दो मूऩ्ऱु = तीन नाऩ्गु = चार ऐन्दु = पाँच आऱु = छः एऴु = सात ऎट्टु = आठ ऒऩ्पदु = नौ पत्तु = दस सन्दर्भ इन्हें भी देखें तमिऴ लिपि संघम साहित्य तमिऴ साहित्य का इतिहास बाहरी कड़ियाँ हिन्दी-तमिल सीखें (हिन्दी/तमिल वाक्य-संग्रह) तमिल फिल्म रिलीज तमिल भाषा (अमर उजाला) Hindi - Hindi - Tamil - English Dictionary (गूगल पुस्तक; लेखक - आर रंगराजन) तमिल-हिन्दी विकिपीडिया शब्दावली तमिल-हिन्दी शब्दकोश हिन्दी-हिन्दी-तमिल शब्दकोश हिन्दी-तमिल सामान्य शब्दकोश तथा बोलचाल के सामान्य वाक्य (चेन्नै नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति) तमिल एवं संस्कृत Welcome to O Book the "UyirppU" -It is a database in English on Tamil Heritage and the language. Did Tamil originate from Sanskrit? विश्व की प्रमुख भाषाएं तमिल साहित्य द्रविड़ भाषाएँ भारत की भाषाएँ श्रीलंका की भाषाएँ तमिलनाडु की भाषाएँ मलेशिया की भाषाएँ
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बीबीसी हिन्दी एक अन्तरराष्ट्रीय समाचार सेवा है। इसका आरम्भ 11 मई 1940 को हुआ। प्रारम्भ में यह सेवा रेडियो के माध्यम से संचालित होती थी। वर्तमान में ये सेवा ऑडियो के साथ-साथ वेबसाइट, टीवी एवं सामाजिक जालस्थलों पर भी संचालित हो रही है। परिचय बीबीसी हिंदी सेवा पिछले लगभग 81 सालों से आप तक समाचार पहुँचा रही है। एक स्वतंत्र सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय भारत में करीब दो करोड़ लोग बीबीसी हिन्दी की ख़बरों से जुड़े हैं। इसके अलावा दक्षिण एशिया और खाड़ी के देशों में भी बीबीसी के श्रोताओं की बड़ी संख्या है। बीबीसी हिंदी की वेबसाइट 24x7 वेबसाइट है। इसके अलावा बीबीसी हिंदी का टीवी कार्यक्रम बीबीसी दुनिया एनडीटीवी इंडिया पर रात दस बजे आता है। इस कार्यक्रम में दुनिया भर के अपडेट्स होते हैं और कम ही समय में इस कार्यक्रम ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल कर ली है। बीबीसी हिंदी का यूट्यूब चैनल बीबीसी की सभी भाषाओं में सबसे बड़ा यूट्यूब चैनल है। वहाँ 1.3 करोड़ से ज़्यादा लोग चैनल के सब्सक्राइबर हैं। इसी तरह फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर भी बीबीसी की सेवाएँ काफ़ी लोकप्रिय हैं। बीबीसी हिंदी ने डिजिटल टीवी की ओर भी अहम क़दम उठाया है और जियो टीवी पर न्यूज़ के सेक्शन में बीबीसी हिंदी का 24x7 स्ट्रीम उपलब्ध है। बीबीसी हिंदी का रेडियो प्रसारण 31 जनवरी 2020 को समाप्त हो गया मगर उसके बाद से ऑडियो के कार्यक्रम बीबीसी हिंदी के सोशल मीडिया चैनल्स के साथ ही गाना और सावन जैसे ऑडियो प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद है। अब भी लोग दुनिया जहाँ और विवेचना जैसे कार्यक्रम इन प्लेटफ़ॉर्म्स पर बड़ी तादाद में सुन रहे हैं। 02 दिसंबर 2021 को बीबीसी ने अपने श्रोताओं, दर्शकों और यूज़र्स की संख्या बताने वाली वार्षिक रिपोर्ट जारी की है जिसके मुताबिक़ सारी दुनिया में बीबीसी की सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले सबसे ज़्यादा लोग भारत में हैं। पुरस्कार बीबीसी की मराठी सेवा के दैनिक डिजिटिल बुलेटिन तीन गोष्ठी को 'ऑडियंस एंगेजमेंट' का रजत पुरस्कार मिला है। वहीं, 'बेस्ट यूज़ ऑफ़ ऑनलाइन वीडियो' कैटेगरी में सिंघु बॉर्डर पर किसानों के प्रदर्शन स्थल से बनाई गई डॉक्युमेंट्री 'ए नाईट एट इंडियाज़ लार्जेस्ट फ़ार्मर्स प्रोटेस्ट' को कांस्य पुरस्कार मिला है। ये डॉक्युमेंट्री की रिपोर्टिंग बीबीसी की भारतीय भाषाओं की प्रमुख रूपा झा ने की थी जबकि कैमरा वर्क बीबीसी की नेहा शर्मा का था। 'बेस्ट पॉडकास्ट प्रोजेक्ट' में बीबीसी हिंदी के पॉडकास्ट विवेचना को कांस्य पुरस्कार मिला है। विवेचना की प्रस्तुति बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल करते हैं जो किसी ऐतिहासिक विषय, घटना, शख़्सियत आदि को लेकर एक गहन जानकारी और एक नज़रिया पेश करता है। बीबीसी की कोविड-19 महामारी को लेकर भारत में की गई कवरेज को 'बेस्ट स्पेशल प्रोजेक्ट फ़ॉर कोविड-19' श्रेणी का कांस्य पुरस्कार मिला है। अतीत बीबीसी लंदन से हिन्दी में प्रसारण पहली बार 11 मई 1940 को हुआ था। इसी दिन विंस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे। बीबीसी हिन्दुस्तानी सर्विस के नाम से शुरु किए गए प्रसारण का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के ब्रितानी सैनिकों तक समाचार पहुंचाना था। भारत की आज़ादी और विभाजन के बाद हिन्दुस्तानी सर्विस का भी विभाजन हो गया, और 1949 में जनवरी महीने में इंडियन सेक्शन की शुरुआत हुई। इस सेवा की शुरुआत भारत के जाने-माने प्रसारक ज़ुल्फ़िकार बुख़ारी ने की थी, बाद में बलराज साहनी और जॉर्ज ऑरवेल जैसे शानदार प्रसारक हिन्दुस्तानी सेवा से जुड़े. पुरुषोत्तम लाल पाहवा, आले हसन, हरीशचंद्र खन्ना और रत्नाकर भारतीय जैसे शीर्ष प्रसारकों ने मोर्चा संभाला और हिन्दी सेवा ने झंडे गाड़ दिए। 1950 के दशक में बीबीसी हिन्दी सेवा में इंदर कुमार गुजराल ने भी पत्रकारिता और प्रसारण कौशल के क्षेत्र में अपने हाथ आज़माए। 47 साल बाद वे भारत के प्रधानमंत्री बने। 1960 के दशक में आए महेंद्र कौल, हिमांशु कुमार भादुड़ी और ओंकारनाथ श्रीवास्तव, कैलाश बुधवार और भगवान प्रकाश 1970 के दशक में बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़े. 1980-1990 के दशकों में भी कई पत्रकार और प्रसारक आए और यह सिलसिला अब भी जारी है। बीबीसी टीम बीबीसी हिन्दी की टीम चौबीस घंटे काम करती है। लंदन ही नहीं, भारत के लगभग हर राज्य की राजधानी में इनके पत्रकार लोगों तक समाचार पहुंचाने के लिए तैनात हैं। पिछले दो दशकों में बीबीसी के मधुकर उपाध्याय, मणिकांत ठाकुर, रामदत्त त्रिपाठी, नारायण बारेठ, राजेश जोशी, रुपा झा, सर्वप्रिया सांगवान, मुकेश शर्मा, राजेश प्रियदर्शी ने अपनी खास पहचान बनाई है। 1994 में दिल्ली में हिन्दी सेवा ने ब्यूरो बनाया। बीबीसी हिन्दी सेवा अपनी स्वतंत्र विचारधारा के लिए हमेशा से जानी जाती रही है। राजनीति से लेकर खेल के मैदान तक हर विषय पर इनके कार्यक्रम हिन्दी पत्रकारिता को दिशा देते रहे हैं। मुकेश शर्मा इस समय बीबीसी हिंदी के एडिटर हैं। प्रसारण समय बीबीसी की दो पारियों में दो सभा सुबह नमस्कार भारत और शाम को दिन भर प्रसारित होता था। बाद में इस सेवा में कटौती कर दी गई और सुबह और शाम को केवल एक-एक सभायें प्रसारित होने लगीं। इसके बाद 2019 में सुबह की सभा बंद कर दी गई और शाम की सभा दिन भर को 31 जनवरी 2020 से बंद करने की घोषणा कर दी गई। अब शार्ट वेब पर बीबीसी हिंदी रेडियो की सेवा नहीं सुनी जा सकती। सन्दर्भ कड़ियां बीबीसी हिन्दी वेबसाइट बीबीसी के ७५ वर्ष रेडियो
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "बीबीसी हिन्दी", "token_count": 7026, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A5%80%20%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80" }
अहमदाबाद (Ahmedabad) या अमदावाद (Amdavad) भारत के गुजरात राज्य का सबसे बड़ा नगर है। यह अहमदाबाद ज़िले का मुख्यालय भी है। भारतवर्ष में यह नगर का सातवें स्थान पर है। इक्क्यावन लाख की जनसंख्या वाला ये शहर, साबरमती नदी के किनारे बसा हुआ है। १९७० में गांधीनगर में राजधानी स्थानांतरित होने से पहले अहमदाबाद ही गुजरात की राजधानी हुआ करता था। प्रारम्भ में अहमदाबाद को अशावल कहा जाता था। इस शहर की बुनियाद सन १४११ में डाली गयी थी। शहर का नाम सुलतान अहमद शाह पर पड़ा था। इतिहास अहमदाबाद को "भारत का मेनचेस्टर" भी कहा जाता है। वर्तमान समय में, अहमदाबाद को भारत के गुजरात राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में जाना जाता है। अहमदाबाद का इतिहास भील राजाओं से प्रारंभ होता है। देवेन्द्र पटेल जी की श्रंखला "पटेल महाजाती" में भील राजा आशा भील जी को पटेलो का कड़वा पूर्वज बताया गया है। अंतिम भील राजा आशा भील थे। राजा आशा भील के समय अहमदाबाद साम्राज्य या अशावाल साम्राज्य स्थापित हुआ, जो साबरमती से लेकर कच्छ तक फैला हुआ था। कई इतिहासकारों ने कर्णदेव और अहमदशाह को भील राजा से संघर्ष करते हुए दिखाया है और फिर अहमदाबाद पर इन तीनों राजाओं का शासन इतिहास में बताया है। ऐतिहासिक तौर पर, भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अहमदाबाद प्रमुख शिविर आधार रहा है। इसी शहर में महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और स्‍वतंत्रता संघर्ष से जुड़ें अनेक आन्‍दोलन की शुरुआत भी यही से हुई थी। अहमदाबाद ऊन की बुनाई के लिए भी काफ़ी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही यह शहर व्यापार और वाणिज्य केन्द्र के रूप में बहुत अधिक विकसित हो रहा है। अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान, इस जगह को फ़ौज़ी तौर पर इस्तमाल किया जाता था। अहमदाबाद इस प्रदेश का सबसे प्रमुख शहर है। वर्तमान समय में अहमदाबाद को भारत के गुजरात प्रांत की राजधानी होने के साथ साथ अहमदाबाद को एक प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में जाना जाता है। भूगोल पश्चिम भारत में बसा ये शहर, समुद्र से १७४ फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित है। शहर में दो झीलें हैं - कांकरीया और वस्त्रापुर। साबरमती नदी शहर को दो भागों में बांटती है – पूर्वी और पश्चिम अहमदाबाद। पूर्वी अहमदाबाद में अहमदाबाद का पुराना शहर स्थित है जिसकी विशेषता खचाखच भरे बाज़ारों, पोल प्रणाली और कई पूजा स्थल हैं। पोल एक आवास समूह है जिसमें एक विशेष समूह के कई परिवार शामिल होते हैं, जो जाति, पेशे या धर्म से जुड़े होते हैं। अंग्रेज़ी शाषण काल में साबरमती के पश्चिम तट पर शहर का विस्तार हुआ। १८७२ में साबरमती पर पहला पुल, एलिस पुल, बनाया गया था। आज पश्चिम अहमदाबाद में कई शैक्षिक संस्थान, आधुनिक भवन, आवासीय क्षेत्र, शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स और नए व्यावसायिक जिले हैं। जलवायु बारिश के महिनों के अलावा पूरे साल गर्मी का माहौल रहता है। सबसे उच्च तापमान ४७ डिग्री तक पहुँचता है और कम से कम ५ डिग्री तक ठंड के समय। २० मई २०१६ को उच्च तापमान ४८ डिग्री दर्ज़ किया गया था। प्रशासन अहमदाबाद नगर निगम इस शहर के देख रेख का काम सम्भालता है और कुछ भाग औडा सम्भालता है। पर्यटन काँकरिया झील इस झील का निर्माण कुतुब-उद्-दीन ने 1451 ईसवी में करवाया था। आज के समय में अहमदाबाद के निवासियों के बीच यह जगह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इस झील के चारों ओर बहुत ही खूबसूरत बगीचा है। झील के मघ्य में बहुत ही सुंदर द्वीप महल है। जहां मुगल काल के दौरान नूरजहां और जहांगीर अक्सर घूमने जाया करते थे। आज कांकरिया झील अहमदाबाद में घुमने लायक महत्वपूर्ण जगह है। जो आज कांकरिया लेकफ़्रंट के नाम से प्रसिध है । हठीसिंह जैन मंदिर सजावट के साथ जटिल नक्काशी इस मंदिर की प्रमुख विशेषता है। इस मंदिर का निर्माण सफेद संगमरमर पर किया गया है। हाथीसिंह जैन मंदिर अहमदाबाद के प्रमुख जैन मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण 19 वीं शताब्दी में रिचजन मर्चेंट ने किया था। इस मंदिर को उन्होंने जैनों के 15 वें trithanker धर्मनाथ bhagwaan को समर्पित किया था। जामा मस्जिद जामा मस्जिद का निर्माण 1423 ईसवी में किया गया। पश्चिम भारत में स्थित यह बेहद ही खूबसूरत मस्जिद है। यह मस्जिद बेहतरीन कारीगरी का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। रानी सिपरी मस्जिद एक अन्य खूबसूरत मस्जिद जो रानी सिपरी के नाम से जानी जाती है। इसका निर्माण महमूद शाह बेगड़ा की रानी ने 1514 ईसवी में करवाया था। रानी की मृत्यु होने के बाद उनके शव को यहीं पर दफनाया गया था। साबरमती आश्रम इस आश्रम की स्थापना महात्मा गांधी ने 1915 ईसवी में की थी। यहीं से गांधी जी ने दांडी यात्रा की शुरुआत की थी। इसके अलावा यहां प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों की नींव भी रखी गई। आज साबरमती आश्रम साबरमती रिवरफ़्रंट पार्क के सामने है । केलिको संग्रहालय इस संग्रहालय में पुराने और आधुनिक ढंग की बुनाई की कारीगरी प्रदर्शित की गई है। इसके अलावा यहां कुछ पुरानी बुनाई मशीन भी रखी गई है। इस संग्रहालय में संग्रहित सामान 17वीं शताब्दी से भी पहले के हैं। इसके अतिरिक्त यहां बुनाई से सम्बन्धित एक पुस्तकालय भी मौजूद है। आवागमन यहां जाने के लिए सबसे उत्तम समय अक्टूबर से फरबरी तक का है। इसके अलावा नौ दिनों तक चलने वाले नवरात्रि उत्सव (अक्टूबर-नवम्बर) में भी जाया जा सकता है। हवाई मार्ग सरदार वल्लभभाई पटेल विमानक्षेत्र अहमदाबाद और गाँधीनगर को आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ प्रदान करता है। यह गुजरात का सबसे व्यस्त तथा भारत का सातवां सबसे व्यस्त विमानक्षेत्र है। यह प्रमुख भारतीय शहरों के साथ साथ विदेशों जैसे, कोलंबो, मशकट, लंदन और न्यूयार्क को भी जोड़ता है। रेल मार्ग अहमदाबाद पश्चिम रेलवे के अहमदाबाद मंडल में आता है। इसका मुख्य स्टेशन पूर्वी अहमदाबाद के कालूपुर इलाके में स्थित अहमदाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन है, जो देश के लगभग सभी प्रमुख स्‍टेशनों से सीधे तौर पर जुडा हुआ है। इसके अलावा शहर में कई और स्टेशन हैं। अहमदाबाद मेट्रो अहमदाबाद मेट्रो अहमदाबाद तथा गाँधीनगर में विस्तृत एक भूमिगत रेल प्रणाली है। इसके प्रथम चरण का उद्घाटन ४ मार्च २०१९ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था। इसके विस्तार का काम ज़ारी है। सड़क मार्ग अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग ४८ के द्वारा मुम्‍बई (लगभग ५४५ किलोमीटर दूर) तथा दिल्‍ली (लगभग ८७३ किलोमीटर दूर) से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग १४७ इसे गाँधीनगर से जोड़ती है। यह वडोदरा से राष्ट्रीय द्रुतमार्ग १ से जुड़ा हुआ है। बस अहमदाबाद बीआरटीएस या जनमार्ग शहर की बस तेज़ आवागमन प्रणाली है तथा एऐमटीएस नगर निगम द्वारा संचालित बस प्रणाली है। व्यापार और उद्योग अहमदाबाद की लगभग आधी आबादी सू ती वस्त्र उद्योग तथा अन्य लघु उद्यमों पर आश्रित है। शिक्षण संस्थान अहमदाबाद का साक्षरता दर ८६.९२ है – पुरुषों में ९३.९६ और महिलाओं में ८४.८१। अहमदबाद में कई विश्वविद्यालय है जिनमें से गुजरात विश्वविद्यालय और गुजरात विद्यापीठ सबसे पुराने हैं। लालभाई दलपतभाई भारत विद्या शोध संस्थान, गुजरात टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी, सेप्ट यूनिवर्सिटी, निरमा विश्वविद्यालय तथा अहमदाबाद यूनिवर्सिटी कुछ अन्य अहमदाबाद-स्थित विश्वविद्यालय हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान भारत का प्रमुख प्रबन्धन विद्यालय है। चार दशकों में यह भारत के प्रमुख प्रबंधन संस्थान से एक उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन स्कूल के रूप में विकसित हुआ है। भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग के अन्तर्गत एक अनुसंधान संस्थान है। यहाँ अंतरिक्ष एवं इससे सम्बन्धित विज्ञानों पर अनुसंधान किया जाता है। पर्यटन स्थल अहमदाबाद में घूमने लायक कई स्थल हैं। इनमें से कुछ आधुनिक हैं तथा कुछ पौराणिक भी हैं। गाँधी आश्रम, साबरमती सिद्दी सैयद जाली, खानपुर सरखेज रोज़ा, सरखेज कांकरीया झील वस्त्रापुर झील गुजरात साइंस सीटी अक्षरधाम मंदिर, गांधीनगर आई मेक्स थिएटर (चलचित्रघर) लॉ गार्डन वैष्णोदेवी मंदिर श्रीभागवत विद्यापीठ (सोला) अडालज वाव मानेक चौक इन्हें भी देखें साबरमती नदी अहमदाबाद ज़िला सन्दर्भ गुजरात के शहर अहमदाबाद ज़िला अहमदाबाद ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "अहमदाबाद", "token_count": 10497, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6" }
जमशेदपुर जिसका दूसरा नाम टाटानगर भी है, भारत के झारखंड राज्य का एक शहर है। यह झारखंड के दक्षिणी हिस्से में स्थित पूर्वी सिंहभूम जिले का हिस्सा है। जमशेदपुर की स्थापना को पारसी व्यवसायी जमशेदजी नौशरवान जी टाटा के नाम से जोड़ा जाता है। १९०७ में टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना से इस शहर की बुनियाद पड़ी। इससे पहले यह साकची नामक एक आदिवासी गाँव हुआ करता था। यहाँ की मिट्टी काली होने के कारण इसे कालीमाटी भी कहा जाता था, तथा टाटानगर रेलवे स्टेशन का नाम पहले कालीमाटी रेलवे स्टेशन रखा गया था। खनिज पदार्थों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता और खरकई तथा सुवर्णरेखा नदी के आसानी से उपलब्ध पानी, तथा कोलकाता से नजदीकी के कारण यहाँ आज के आधुनिक शहर का पहला बीज बोया गया। यह भारत का पहला नियोजित औद्योगिक शहर है। जमशेदपुर आज भारत के सबसे प्रगतिशील औद्योगिक नगरों में से एक है। टाटा घराने की कई कंपनियों के उत्पादन इकाई जैसे टिस्को, टाटा मोटर्स, टिस्कॉन, टिन्पलेट, टिमकन, ट्यूब डिवीजन, इत्यादि यहाँ कार्यरत है। नामकरण 1919 में लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने शहर का नाम जमशेदपुर के संस्थापक जमशेदजी नौसरवानजी टाटा के सम्मान में बदल दिया, जो मूल रूप से साकची था। टाटा ने अपने बेटे दोराबजी टाटा को क्षेत्र में एक महान शहर के अपने दृष्टिकोण के बारे में लिखा था। 3 मार्च को स्थापना दिवस पर, 225-एकड़ (0.91 किमी 2) में जुबली पार्क को लगभग एक सप्ताह के लिए शानदार रूप से सजाया जाता है। इतिहास संभावित भविष्यवक्ता सीएम वेल्ड, दोराबजी टाटा और शापुरजी सकलतवाला को स्टील प्लांट के लिए एक स्थान खोजने के लिए दुर्गम इलाके के विशाल हिस्सों में श्रमसाध्य खोज में लगभग तीन साल लग गए। एक दिन वे सुबर्णरेखा और खरकई नदियों के संगम के पास, छोटानागपुर पठार के घने जंगलों में स्थित गांव साकची (वर्तमान में एक व्यापारिक जिला) में आए। स्टील प्लांट के लिए यह आदर्श विकल्प प्रतीत हुआ और इस स्थान का चयन किया गया। साकची एक आदिवासी गांव था, जहां मुख्यत् भूमिज और संथाल जनजाति रहते थे। अधिकांश गांवों में आदिवासी परिवारों का प्रतिशत बहुत अधिक था, जो 60% से 90% के बीच थी। आदिवासी परिवारों का प्रतिशत साकची गांव (भूमिज के 17 परिवार) और इसके दो टोले - काशीडीह (भूमिज के 18 परिवार और संथाल के 3 परिवार) और माहुलबेड़ा (संथाल के 17 परिवार) में शत प्रतिशत थी। 1908 में, संयंत्र के साथ-साथ शहर का निर्माण आधिकारिक तौर पर शुरू हुआ। पहला स्टील पिंड 16 फरवरी 1912 को लुढ़का था। यह औद्योगिक भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। शहर के लिए जमशेदजी टाटा की योजना स्पष्ट थी। उन्होंने श्रमिकों की झोपड़ियों की एक पंक्ति से कहीं अधिक की कल्पना की। उन्होंने उन सभी सुख-सुविधाओं के निर्माण पर जोर दिया जो एक शहर प्रदान कर सकता है। नतीजतन, शहर के कई क्षेत्र सुनियोजित हैं और जुबली पार्क जैसे सार्वजनिक अवकाश स्थान हैं। शहर का निर्माण करते समय, जमशेदजी टाटा ने कहा था: पिट्सबर्ग के मेसर्स जूलिन कैनेडी साहलिन ने जमशेदपुर शहर का पहला नक्शा तैयार किया। जमशेदपुर तीन नगर निगमों, जमशेदपुर अधिसूचित क्षेत्र समिति, जुगसलाई नगर निगम और मानगो अधिसूचित क्षेत्र समिति के साथ एक लाख से अधिक शहर है। 1945 में यहां टाटा मोटर्स की स्थापना हुई थी। यह अब जमशेदपुर में दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है। 2005 में एक नगर निगम प्रस्तावित किया गया था लेकिन निवासियों के विरोध के बाद ऐसा नहीं हुआ। भूगोल जमशेदपुर झारखण्ड राज्य के दक्षिणी छोर पर स्थित है और इसकी सीमा ओडिशा और पश्चिम बंगाल राज्यों से लगती है। शहर की औसत ऊंचाई 135 मीटर है, जबकि सीमा 129 मीटर से 151 मीटर तक है। जमशेदपुर का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 224 किमी वर्ग है। जमशेदपुर मुख्य रूप से एक पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है और पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली दलमा पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा हुआ है। शहर के पास अन्य छोटी पहाड़ी श्रृंखलाएं उकाम हिल और जादुगोडा-मुसाबनी पहाड़ी श्रृंखला हैं। यह शहर बड़े छोटा नागपुर पठार क्षेत्र का भी हिस्सा है। यह क्षेत्र धारवाड़ काल से संबंधित तलछटी, रूपांतरित और आग्नेय चट्टानों से बना है। जमशेदपुर खरकई और सुवर्णरेखा नदियों के संगम पर स्थित है। सुवर्णरेखा जमशेदपुर की प्रमुख नदी है, जो क्षेत्र के पश्चिम से दक्षिण-पूर्वी भाग में बहती है। कई छोटी नदियाँ, विशेषकर सहायक नदियाँ, इस क्षेत्र में सुबर्णरेखा नदी में मिलती हैं। खरकई दक्षिण से बहती है और दोमुहानी नामक स्थान पर सुवर्णरेखा नदी में मिलती है। दो नदियाँ शहर के लिए पीने के पानी और भूजल के प्रमुख स्रोत हैं। शहर के किनारे के पास अलग-अलग आकार की कई झीलें भी स्थित हैं। उनमें से प्रमुख दलमा पहाड़ी और खरकई नदी के किनारे स्थित सीतारामपुर जलाशय के बीच स्थित डिमना झील है। यह क्षेत्र का एक प्रमुख पर्यटन स्थल भी है। ये दोनों शहर में पीने के पानी के जलाशय के रूप में भी काम करते हैं। शहर पर्णपाती प्रकार के वन क्षेत्र के अंतर्गत आता है और हरित आवरण कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 33% होने का अनुमान है। यह शहर भूकंपीय क्षेत्र II क्षेत्र के अंतर्गत आता है। जमशेदपुर के आसपास कई पार्क हैं। साकची का जुबली पार्क जमशेदपुर का सबसे बड़ा पार्क है। इसे जमशेदजी टाटा ने बनवाया था, जो मैसूर के वृंदावन गार्डन से प्रेरित है। शहरी संरचना जमशेदपुर के केंद्र में वाणिज्यिक क्षेत्र और मुख्य क्षेत्र हैं। मध्य जमशेदपुर में एक वित्तीय और व्यावसायिक जिला शामिल है। केंद्र में प्रसिद्ध स्थलों में जुबली पार्क और टाटा स्टील शामिल हैं। साकची और बिष्टुपुर व्यापारिक और वित्तीय जिले हैं। मध्य भाग भी शहर का सबसे पुराना हिस्सा है। शहर के पश्चिमी भाग में आदित्यपुर, गम्हरिया और सोनारी के क्षेत्र हैं । सोनारी एक आवासीय और व्यावसायिक पड़ोस है, जबकि आदित्यपुर और गम्हरिया प्रमुख औद्योगिक पड़ोस हैं। आदित्यपुर भी एक शहर और जमशेदपुर का एक हिस्सा है। गम्हरिया का एक औद्योगिक क्षेत्र है जिसका नाम गम्हरिया औद्योगिक क्षेत्र है। आदित्यपुर में आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र है । शहर को पार करने वाले पांच राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। मानगो ब्रिज जमशेदपुर को मानगो से जोड़ता है। जमशेदपुर में मरीन ड्राइव एक लोकप्रिय सड़क और सुरम्य सैरगाह है। यह सोनारी से शुरू होकर आदित्यपुर को जोड़ती है। आदित्यपुर में एनआईटी जमशेदपुर है । जमशेदपुर के दक्षिणी भाग में जुगसलाई, बिरसानगर, कदमा, बर्मामाइंस, टेल्को कॉलोनी , बागबेड़ा कॉलोनी और जोजोबेड़ा शामिल हैं। जुगसलाई व्यावसायिक क्षेत्र है जो थोक बाजार के लिए जाना जाता है। जबकि बिरसानगर, कदमा और बागबेड़ा में आवासीय और वाणिज्यिक केंद्र हैं। बर्मामाइंस, टेल्को कॉलोनी, बागबेड़ा कॉलोनी और जोजोबेड़ा शहर के अन्य मुख्य और प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र हैं। उत्तर के अलावा, जमशेदपुर के पूरे क्षेत्रों में कम से कम एक औद्योगिक क्षेत्र है। अन्य ऊंचे टावर टीसीई बिल्डिंग और वोल्टास हाउस हैं। जमशेदपुर में अभी कई ऊंची इमारतों का निर्माण चल रहा है। अब सबसे ऊंची बिल्डिंग सिटी सेंटर II होगी, जो आदित्यपुर में बनेगी। ये ऊंची इमारतें ज्यादातर शहर के मध्य और पश्चिमी हिस्से में हैं। जमशेदपुर में 10-14 मंजिल के भवन हैं। उद्योग-धंधे जमशेदपुर एक अत्याधुनिक औद्योगिक नगरी है। यहाँ के कुछ प्रमुख कारखाने हैं: टिस्को, टेल्को, टायो, उषा मार्टिन, जेम्को, टेल्कान, बीओसी, तार कंपनी, टीआरएफ, टिनप्लेट, आधुनिक स्टील एन्ड पावर लिमिटेड्, कोहिनुर स्टील एन्ड पावर लिमिटेड्, जेमिपोल्, एन. एम. एल., आदि। साकची और बिस्टुपुर यहाँ का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है। यातायात जमशेदपुर सड़क और रेल-मार्ग द्वारा पूरे देश से जुड़ा हुआ है। हावड़ा मुम्बई रेल मार्ग पर स्थित होने के कारण टाटानगर दक्षिणपूर्व रेलवे के अत्यंत व्यस्त स्टेशनों में से गिना जाता है। राष्ट्रीय राजमार्गे 18 यहाँ से होकर गुजरती है। नगर के उत्तर पूर्वी हिस्से में एक सोनारी हवाई अड्डा है जो वायुदूत की सेवाओं से जुड़ा है। शहर की ज्यादातर सड़कों का रखरखाव टाटा परिवार के द्वारा होने की वजह से यहाँ की सड़के झारखंड में अन्य शहरों की अपेक्षा काफी अच्छी हैं। कैसे पहुँचें वायु यातायात: जमशेदपुर एयर डेकन द्वारा कोलकाता के हवाई अड्डा द्वारा जुड़ा हुआ है। इसके अलावा एक और प्राइवेट एयरलाइंस हफ्ते में दो दिन यहां के लिए दिल्ली से उड़ान भरती है। इस हवाई अड्डे का ज्यादा उपयोग कारपोरेट जहाजों के आगमन-प्रस्थान के लिए किया जाता है। इसके अलावा यहाँ उड़ान प्रशिक्षण के लिए स्थापित जमशेदपुर को-आपरेटिव फ्लाईंग क्लब तथा टाटानगर एवियेशन द्वारा इसका इस्तेमाल किया जाता है। कोलकाता के अतिरिक्त यहाँ निकटतम हवाई अड्डा राँची का बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है जो यहाँ से लगभग १२० किलोमीटर की दूरी पर है। रेल-मार्ग: टाटानगर (जमशेदपुर) दक्षिणपूर्व रेलवे के सबसे प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है और यह सीधे-सीधे भारत के प्रमुख शहरों जैसे कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, पटना, रायपुर, भुवनेश्वर, नागपुर इत्यादि से जुड़ा हुआ है। रेलवे स्टेशन को टाटानगर के नाम से जाना जाता है। सड़क मार्ग: जमशेदपुर सड़क मार्ग द्वारा भारत के सभी बड़े शहरों से जुड़ा है। शहर से होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 33 (बहरागोड़ा से बरही) गुजरती है जो राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 2 से जुड़ती है जिससे कोलकाता एवं दिल्ली जुड़े हुए हैं। राँची (131 किलोमीटर), पटना, गया, कोलकाता (250 किलोमीटर) सहित कई बिहार, बंगाल, एवं उड़ीसा के अन्य प्रमुख शहरों से जमशेदपुर के लिए सीधी बस सेवा उपलब्ध (सरकारी एवं निजी) है। अंदरुनी यातायात: शहर के अंदर परिभ्रमण के लिए ज्यादातर मिनी बसें, तिपहिया वाहन, एवं रिक्शा शहर के सभी हिस्सों में आमतौर पर उपलब्ध हैं। शिक्षा संस्थान जमशेदपुर के प्रमुख शिक्षा एवं शोध संस्थान: कालेज एवं शोध संस्थान राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, एक्सएलआरआई, जमशेदपुर को-आपरेटिव कालेज, जमशेदपुर विमेंस कालेज, करीम सिटी कालेज, ग्रैजुएट कालेज फार वीमेन, जमशेदपुर वर्कर्स कालेज, अब्दुल बारी मेमोरियल कालेज, जनता पारिख कालेज, लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल कालेज, श्यामाप्रसाद मुखर्जी कालेज, मिसेज केएमपीएम इंटर कालेज, कोल्हान यूनिवर्सिटी, अर्का जैन युनिवर्सिटी, नेताजी सुभाष युनिवर्सिटी, एमजीएम मेडिकल कालेज, लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल कालेज, अवध डेंटल कालेज, श्यमा प्रसाद मुखर्जी मेमोरियल कालेज, मैरीलैंड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट, आरवीएस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, महिला कालेज, टाटा कालेज, राजकीय पॉलिटेक्निक आदित्यपुर। स्कूल लोयला स्कूल (सोनारी), सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट स्कूल (बिष्टुपुर), डीबीएमएस इंग्लिश स्कूल (साक्ची), हिलटॉप स्कूल (टेल्को कालोनी), गुलमोहर हाई स्कूल (टेल्को कालोनी), राजेन्द्र विद्यालय (साक्ची), विवेक विद्यालय (छोटा गोविंदपुर), लेडी इंदर सिंह स्कूल (तार कंपनी - इंदरनगर), राजस्थान विद्यामंदिर (साक्ची), जेएच तारापोर स्कूल (धातकीडीह), डीएवी पब्लिक स्कूल (बिष्टुपुर), डीएवी पब्लिक स्कूल (एनआईटी), नेताजी सुभाष पब्लिक स्कूल (बारीडीह), संत मैरी इंग्लिश स्कूल (बिष्टुपुर), मोतीलाल नेहरू पब्लिक स्कूल (बिष्टुपुर), नरभेराम हंसराज इंग्लिश स्कूल (बिष्टुपुर), सेंट्रल पब्लिक स्कूल (बिष्टुपुर), आरवीएस पब्लिक स्कूल (मानगो), दयानंद पब्लिक स्कूल (साकची), केन्द्रीय विद्यालय (टाटानगर), विद्या भारती चिन्मया विद्यालय (टेलको), जुस्को स्कूल (साऊथ पार्क), केरला पब्लिक स्कूल (आजाद नगर), माउंट लिट्रा ची स्कूल (धातकीडीह), रामकृष्ण मिशन इंग्लिश स्कूल (सिदगोड़ा), सरस्वती शिशु विद्या मंदिर (टाटानगर), श्रीनाथ पब्लिक स्कूल (आदित्यपुर), नेताजी सुभाष पब्लिक स्कूल (भिलाईपहाड़ी), बाल्डविन फार्म एरिया हाई स्कूल (कदमा), हिन्दुस्तान मित्र मंडल हाई स्कूल (गोलमुरी), गर्ल्स हाई स्कूल (साकची), गायत्री शिक्षा निकेतन (आदित्यपुर)। खेल जमशेदपुर के निजी क्लब गोल्फ, टेनिस, स्क्वैश, बिलियर्ड्स, घुड़सवारी और वाटर स्कूटरिंग जैसी गतिविधियों के अवसर प्रदान करते हैं। जमशेदपुर एफसी जमशेदपुर में स्थित एक पेशेवर फुटबॉल क्लब है जो भारतीय फुटबॉल की शीर्ष उड़ान इंडियन सुपर लीग में प्रतिस्पर्धा करता है। क्लब का स्वामित्व टाटा स्टील के पास है। जमशेदपुर में खेल सुविधाओं और अकादमियों में शामिल हैं: जेआरडी टाटा स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, कीनन स्टेडियम, टाटा फुटबॉल अकादमी, टाटा तीरंदाजी अकादमी, टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन, पर्यटन लौहनगरी के रूप में विख्‍यात जमशेदपुर केवल झारखंड में नहीं, बल्कि पूरे विश्‍व पटल पर चर्चित है। इसे टाटानगर के भी नाम से जाना जाता है। पर्यटन की दृष्टि से टाटानगर का महत्‍व अंतराष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी है। इसे हाल में ही इंटरनेशनल क्‍लीन सिटी' के अवार्ड से नवाजा गया है। लोग पूरे विश्‍व से इस लौहनगरी को देखने आते है। टिस्‍को, टेल्‍को जैसे अंतर्राष्‍टीय स्‍तर के कारखाने के अलावा डिमना लेक, जुबली पार्क, दलमा पहाड़, हुडको लेक, मोदी पार्क, कीनन स्‍टेडियम आदि ऐसे जगह है जहां पर्यटक घूम सकते है। जुबली पार्क यह पार्क टाटा स्‍टील ने अपने 50 वर्ष पूरे करने के उपरान्‍त बनवा कर यहां के निवासियों को तोहफे स्‍वरुप भेंट की थी। 225 एकड़ भूमि में फैले इस पार्क का उदघाटन 1958 ई. में उस समय के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने किया था। वृंदावन गार्डन के तर्ज पर बने इस पार्क में गुलाब के लगभग एक हजार किस्‍म के पौधें लगे हुए हैं। इस पार्क में एक चिल्ड्रेन पार्क भी है। हाल में ही यहां एक एम्‍युजमेंट पार्क का निर्माण किया है। एम्‍यूजमेन्‍ट पार्क में अनेक किस्‍म के झूले लगे हूए है। हरेक साल 3 मार्च को जमशेदजी नौसरवानजी टाटा की याद में पूरे पार्क को बिजली के रंगीन बल्वों के द्वारा बडे़ भव्‍य तरीके से सजाया जाता है। इस दिन पूरे विश्‍व से हजारों की संख्‍या में लोग यहां इस कार्यक्रम में शरीक होने आते है। यह कार्यक्रम तीन दिनों तक चलता है। इस पार्क के एक हिस्से में छोटा सा चिडियाघर भी है। जयंती सरोवर पूर्व में इसे जुबली लेक के नाम से जाना जाता था। 40 एकड़ में फैले इस झील को विशेष तौर पर बोटिंग के लिए बनाया गया है। इस झील के बीचोंबीच एक आइलैण्‍ड का निर्माण किया गया है जो कि इसकी सुन्‍दरता में चार चांद लगाता है। इसके साथ ही पर्यटक बोटिंग के दौरान इस आईलैण्‍ड का इस्‍तेमाल आराम फरमाने के लिए भी करते है। दलमा वन्‍य अभ्‍यारण्‍य 3000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तथा 193 वर्ग किलोमीटर में फैले इस अभ्‍यारण्‍य का उदघाटन स्‍वर्गीय संजय गांधी ने किया था। यहां पर जंगली जानवरों को नजदीक से देखने के लिए अनेक जगह विशेष रूप से बनाए गए है जहां से पर्यटक आसानी से जंगली जानवर जैसे हाथी, हरिण, तेदूंआ, बाघ्‍ा आदि को देख सकते है। इसके अलावा दुर्लभ वन संपदा यहां देखा जा सकता है।.रात को दलमा पहाड़ी की चोटी से टाटानगर का नजारा बिल्‍कुल आकाश में टिमटिमाते तारें के समान प्रतीत होता है। यहां पर पर्यटकों के ठहरने के लिए टाटा स्‍टील तथा वन विभाग द्वारा गेस्‍ट हाउस का भी निर्माण किया गया है। यहां पर एक गुफा में भगवान शिव का प्राकृतिक मंदिर है। जिन्हें श्रद्धा से लोग दलमा बाबा कहते हैं।.इन्हें जमशेदपुर का संरक्षक देवता भी कहा जाता है।. सावन के दिनों में तथा शिवरात्रि के दिन इन मंदिरों को भव्‍य तरीके से सजा कर यहां पर पूजा अर्चना की जाती है। दलमा पहाड़ी हाथियों की प्राकृतिक आश्रयस्थली है।.प्रशासनिक दृष्टिकोण से देखें तो झारखंड के पूर्वी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां से लेकर पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिले के बेलपहाड़ी तक इसका दायरा फैला है।.दलमा पहाड़ी में कई आदिवासी गांव हैं।. डिमना झील यह जमशेदपुर शहर से 13 किमी की दूरी पर स्थित है। दलमा पहाड़ी की तलहटी में बने इस कृत्रिम झील को देखने सालों भर पर्यटक आते रहते है। दिसम्‍बर-जनवरी में महीने में पर्यटक यहां विशेष तौर पिकनि‍क मनाने आते है। इस झील का निर्माण टाटा स्‍टील ने जल संरक्षण के लिए तथा यहां के निवासियों के लिए करवाया था। कीनन स्‍टेडियम पूरे झारखंड में केवल कीनन स्‍टेडियम ही अंतर्राष्‍टीय स्‍तर का क्रिकेट ग्राउंड है। शहर के ठीक बीच में स्थित इस मैदान पर अब तक कई अंतर्राष्‍टीय क्रिकेट मैच का आयोजन हो चुका है। मोहाली क्रिकेट ग्राउंड के बाद इसे सबसे सुन्‍दर क्रिकेट ग्राउंड समझा जाता है। हुडको झील हुडको झील जमशेदपुर में छोटा गोविंदपुर और टेल्को कॉलोनी के बीच स्थित टाटा मोटर्स द्वारा निर्मित एक कृत्रिम झील है। कंपनी द्वारा इस क्षेत्र को एक पिकनिक स्पाट के रूप में विकसित किया गया है। दुमुहानी मैरिन ड्राईव पर स्थित दुमुहानी, सुवर्ण रेखा और खरकई नदियों का संगम स्थल है। अन्य स्थल इसके अलावा दोराबजी टाटा पार्क, भाटिया पार्क, टाटा स्टील जूलॉजिकल पार्क, जेआरडी टाटा स्पोर्ट्स कॉम्‍पलेक्‍स, मरीन ड्राइव, सुमंत मूलगांवकर पार्क, पटमदा में स्थित हथीखेदा ठाकुर थान, जादूगोड़ा स्थित रंकणी थान, पोटका स्थित मुक्तेश्वर धाम, गोलपहाड़ी मंदिर, भुवनेश्‍वरी मंदिर, सूर्य मंदिर, आदि भी ऐसे अनेक पर्यटक स्थल हैं। बाजार और सिनेमाघर बाजार बिष्टुपुर, जमशेदपुर साक्ची खड़ंगाझाड़ जुगसलाई सोनारी परसुडीह मानगो बारीडीह कदमा पटमदा सिनेमाघर पायल सिनेमा (मानगो), स्टार टाकीज (स्टेशन) गौशाला टाकीज (जुगसलाई) आईलेक्स (पारडीह) सिनेपोलिस पीजेपी सिनेमा (बिस्टुपुर) समाचार पत्र एवं पत्रिकायें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अखबारों की पहुँच के साथ-साथ जमशेदपुर से निम्नलिखित समाचारपत्र प्रकाशित होते हैं:- प्रभात खबर, उदितवाणी, दैनिक जागरण, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक भास्कर, चमकता आईना, न्यू इस्पात मेल, आदि। इसके अलावा यहां क्षेत्रीय समाचार चैनल ई टीवी बिहार-झारखंड और सहारा समय बिहार झारखंड का भी दफ्तर है। कई पत्रिकाएं जमशेदपुर से प्रकाशित होती है जिसमें झारखंड प्रदीप, राष्ट्रसंवाद, लहर चक्र, जमशेदपुर रिसर्च रिव्यु आदि शामिल है। मीडियाकर्मियों की प्रतिनिधि संस्था जमशेदपुर प्रेस क्लब यहां कार्यरत है। इसके अलावा यहां संथाली और क्षेत्रीय भाषाओं में भी समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं। उल्लेखनीय लोग प्रियंका चोपड़ा, भारतीय अभिनेत्री और मिस वर्ल्ड 2000 की विजेता आर माधवन, अभिनेता मनमोहन, अभिनेता तनुश्री दत्ता, पूर्व फेमिना मिस इंडिया और अभिनेत्री इशिता दत्ता, अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी, टेलीविजन अभिनेत्री श्वेता प्रसाद, अभिनेत्री आदर्श गौरव, अभिनेता सिमोन सिंह, भारतीय टेलीविजन अभिनेत्री इम्तियाज अली, डायरेक्टर शोमू मुखर्जी, फिल्म निर्माता शिल्पा राव, गायिका अर्शदुल कादरी, विद्वान गौरव मुखी, फुटबॉलर वरुण आरोन, क्रिकेटर इशांक जग्गी, क्रिकेटर रणधीर सिंह, क्रिकेटर इन्हें भी देखें जमशेदजी टाटा टिस्को टेल्को बाहरी कड़ियाँ टाटानगर_डॉट_कॉम जमशेदपुर प्रशासन जमशेदपुर लाइव - स्वतंत्र जालस्थल जमशेदपुर याहू ग्रुप जमशेदपुर : परिचय संदर्भ झारखंड के शहर भारत के महानगर पूर्वी सिंहभूम ज़िला पूर्वी सिंहभूम ज़िले के नगर
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टाटानगर जंक्शन रेलवे स्टेशन, जमशेदपुर शहर के रेलवे-स्टेशन का नाम है जो झारखंड प्रांत में स्थित है। पहले यह बिहार का हिस्सा हुआ करता था। टाटानगर दक्षिणपूर्व रेलवे का एक प्रमुख एवं व्यस्त स्टेशन है जो हावडा मुंबई मुख्य लाईन पर स्थित है। इसमें 6 प्लेटफॉर्म हैं और हर दिन लगभग 100 ट्रेनों का संचालन करता है। प्रमुख रेल जो यहां से गुजरती हैं इन्हें भी देखें जमशेदपुर बाहरी कड़ियाँ टाटानगर_डॉट_कॉम झारखंड जमशेदपुर रेलवे स्टेशन संदर्भ
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दामोदर नदी (Damodar River) भारत के झारखण्ड और पश्चिम बंगाल राज्यों में बहने वाली एक नदी है। इस नदी के जल से पनबिजली की महत्वाकांक्षी दामोदर घाटी परियोजना चलाई जाती है, जिसका संचालन दामोदर घाटी निगम करती है। इतिहास में इस नदी पर भयंकर बाढ़ आया करती थी, जिसके कारण इसे "दुख की नदी" कहा जाता था, लेकिन आधुनिक काल में इसपर नियंत्रण पा लिया गया है विवरण दामोदर नदी झारखण्ड के छोटा नागपुर क्षेत्र से निकलकर पश्चिमी बंगाल में पहुँचती है। हुगली नदी के समुद्र में गिरने के पूर्व यह उससे मिलती है। इसकी कुल लंबाई ३६८ मील (592 km) है। इस नदी के द्वारा २,५०० वर्ग मील क्षेत्र का जलनिकास होता है। पहले नदी में एकाएक बाढ़ आ जाती थी जिससे इसको 'बंगाल का अभिशाप' कहा जाता था। भारत के प्रमुख कोयला एवं अभ्रक क्षेत्र भी इसी घाटी में स्थित हैं। इस नदी पर बाँध बनाकर जलविद्युत् उत्पन्न की जाती है। कोनार तथा बराकर इसकी सहायक नदियाँ हैं। दामोदर का अर्थ दामोदर का अर्थ है "पेट के चारों ओर रस्सी", जो संस्कृत के दम (दमा) "रस्सी" और उदर (उदरा) "पेट" से लिया गया है। दामोदर भी हिंदू भगवान कृष्ण को दिया गया एक और नाम है क्योंकि उनकी पालक-मां यशोदा ने उन्हें एक बड़े कलश से बांध दिया था। अवधि दामोदर एक वर्षा आधारित नदी है। इसका उद्गम झारखंड में छोटानागपुर पठार पर खमरपत पहाड़ी से होता है। हुगली नदी में मिलने से पहले यह 368 मील (592 किमी) की दूरी तय करती है। सहायक नदियों दामोदर नदी की कई सहायक नदियाँ और उपसहायक नदियाँ हैं, जैसे बराकर, कोनार, बोकारो, हाहारो, जमुनिया, घरी, गुइया, खड़िया और भेरा। दामोदर और बराकर छोटा नागपुर पठार को विभाजित करते हैं। नदियाँ पहाड़ी इलाकों से बड़े वेग से गुजरती हैं और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को बहा ले जाती हैं। बराकर द्वारा हज़ारीबाग़ जिले में बरही के पास ग्रांड ट्रंक रोड पर दो पुलों को तोड़ दिया गया था: 1913 में महान पत्थर का पुल और उसके बाद 1946 में लोहे का पुल। दामोदर घाटी दामोदर घाटी झारखंड में हज़ारीबाग, रामगढ़, कोडरमा, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और चतरा जिलों और पश्चिम बंगाल में बर्धमान और हुगली जिलों में फैली हुई है और आंशिक रूप से झारखंड में पलामू, रांची, लोहरदगा और दुमका जिलों और हावड़ा, बांकुरा और पुरुलिया जिलों को कवर करती है। पश्चिम बंगाल में 24,235 वर्ग किलोमीटर (9,357 वर्ग मील) के कमांड क्षेत्र के साथ। दामोदर घाटी कोयले से समृद्ध है। इसे देश में कोकिंग कोल का प्रमुख केंद्र माना जाता है। 2,883 वर्ग किलोमीटर (1,113 वर्ग मील) में फैले केंद्रीय बेसिन में विशाल भंडार पाए जाते हैं। बेसिन में महत्वपूर्ण कोयला क्षेत्र झरिया, रानीगंज, पश्चिम बोकारो, पूर्वी बोकारो, रामगढ़, दक्षिण करणपुरा और उत्तरी करणपुरा हैं। दामोदर घाटी भारत के सबसे औद्योगिक भागों में से एक है। स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) के तीन एकीकृत इस्पात संयंत्र (बोकारो, बर्नपुर और दुर्गापुर) और अन्य कारखाने घाटी में हैं। दामोदर घाटी निगम (डी.वी.सी.) मुख्य लेख: दामोदर घाटी निगमपनबिजली उत्पादन के लिए घाटी में कई बांधों का निर्माण किया गया है। इस घाटी को "भारत का रुहर" कहा जाता है। दामोदर घाटी निगम, जिसे आम तौर पर डीवीसी के नाम से जाना जाता है, 7 जुलाई, 1948 को भारत की संविधान सभा के एक अधिनियम (1948 का अधिनियम संख्या XIV) द्वारा स्वतंत्र भारत की पहली बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना के रूप में अस्तित्व में आया। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के टेनेसी वैली अथॉरिटी की तर्ज पर बनाया गया है। डीवीसी का प्रारंभिक फोकस बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, उत्पादन, बिजली का पारेषण और वितरण, पर्यावरण-संरक्षण और वनीकरण, साथ ही डीवीसी से प्रभावित क्षेत्रों में और उसके आसपास रहने वाले लोगों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए रोजगार सृजन था। परियोजनाएं. हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में, बिजली उत्पादन को प्राथमिकता मिली है। डीवीसी के अन्य उद्देश्य इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी का हिस्सा बने हुए हैं। घाटी में बांधों की अधिकतम बाढ़ को 7,100 से 18,400 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड (250,000 से 650,000 क्यू फीट/सेकेंड) तक नियंत्रित करने की क्षमता है। डीवीसी ने 3,640 वर्ग किलोमीटर (1,410 वर्ग मील) की सिंचाई क्षमता बनाई है। पहला बांध 1953 में तिलैया में दामोदर नदी की एक सहायक नदी बराकर नदी पर बनाया गया था। दूसरा बांध 1955 में कोनार में दामोदर नदी की एक अन्य सहायक नदी कोनार नदी पर बनाया गया था। बराकर और दामोदर नदियों पर दो बांध बनाए गए थे। 1957 में मैथन और 1958 में पंचेत में बनाए गए थे। दोनों बांध नदियों के संगम बिंदु से लगभग 8 किलोमीटर (5 मील) ऊपर हैं। इन चार प्रमुख बांधों पर डीवीसी का नियंत्रण है. दुर्गापुर बैराज का निर्माण 1955 में चार बांधों के डाउनस्ट्रीम में, दुर्गापुर में दामोदर नदी पर किया गया था, जिसमें नहरों और वितरणियों की एक व्यापक प्रणाली को पानी देने के लिए दोनों तरफ नहरों के लिए हेड रेगुलेटर थे। 1978 में, बिहार सरकार (जो झारखंड राज्य के गठन से पहले थी) ने डीवीसी के नियंत्रण से बाहर दामोदर नदी पर तेनुघाट बांध का निर्माण किया। इसमें झारखंड राज्य के बेलपहाड़ी में बराकर नदी पर एक बांध बनाने का प्रस्ताव है। इन्हें भी देखें दामोदर घाटी परियोजना दामोदर घाटी निगम बाहरी कड़ियाँ दामोदर नदी ने रास्ता दिखाया (इण्डिया वाटर पोर्टल) दामोदर नदी ही नहीं संस्कृति व आजीविका (इंडिया वाटर पोर्टल) सन्दर्भ भारत की नदियाँ पश्चिम बंगाल की नदियाँ झारखण्ड की नदियाँ
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राँची (ᱨᱟᱧᱪᱤ) भारत के झारखण्ड राज्य की राजधानी है और उस राज्य के राँची ज़िले का मुख्यालय है। विवरण राँची को झरनों का शहर भी कहा जाता है। पहले जब यह बिहार राज्य का भाग था तब गर्मियों में अपने अपेक्षाकृत ठंडे मौसम के कारण प्रदेश की राजधानी हुआ करती थी। झारखंड आंदोलन के दौरान राँची इसका केन्द्र हुआ करता था। राँची एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र भी है। जहाँ मुख्य रूप से एच ई सी (हेवी इंजिनियरिंग कारपोरेशन), भारतीय इस्पात प्राधिकरण, मेकन इत्यादि के कारखाने हैं। राँची के साथ साथ जमशेदपुर और बोकारो इस प्रांत के दो अन्य प्रमुख औद्योगिक केन्द्र हैं। राँची को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्मार्ट सिटीज मिशन के अन्तर्गत एक स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किये जाने वाले सौ भारतीय शहरों में से एक के रूप में चुना गया है। राँची भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी का गृहनगर होने के लिए प्रसिद्ध है। झारखंड की राजधानी राँची में प्रकृति ने अपने सौंदर्य को खुलकर लुटाया है। प्राकृतिक सुन्दरता के अलावा राँची ने अपने खूबसूरत पर्यटक स्थलों के दम पर विश्व के पर्यटक मानचित्र पर भी पुख्ता पहचान बनाई है। गोंडा हिल और रॉक गार्डन, मछली घर, बिरसा जैविक उद्यान, टैगोर हिल, मैक क्लुस्किगंज और आदिवासी संग्राहलय इसके प्रमुख पर्यटक स्थल हैं। इन पर्यटक स्थलों की सैर करने के अलावा यहां पर प्रकृति की बहुमूल्य देन झरनों के पास बेहतरीन पिकनिक भी मना सकते हैं। राँची के झरनों में पांच गाघ झरना सबसे खूबसूरत है क्योंकि यह पांच धाराओं में गिरता है। यह झरने और पर्यटक स्थल मिलकर राँची को पर्यटन का स्वर्ग बनाते हैं और पर्यटक शानदार छुट्टियां बिताने के लिए हर वर्ष यहां आते हैं। नामोत्पत्ति राँची का नाम उराँव गांव के पिछले नाम से एक ही स्थान पर, राची के नाम से लिया गया है। "राँची" उराँव शब्द 'रअयची' से निकला है जिसका मतलब है रहने दो। पौराणिक कथाओं के अनुसार, आत्मा के साथ विवाद के बाद,एक किसान ने अपने बांस के साथ आत्मा को हराया। आत्मा ने रअयची रअयची चिल्लाया और गायब हो गया। रअयची राची बन गई, जो राँची बन गई। राची के ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण पड़ोस में डोरांडा (दुरन "दुरङ" का अर्थ है गीत और दाह "दएः" का अर्थ मुंडारी भाषा में जल है)। डोरांडा हीनू (भुसूर) और हरमू नदियों के बीच स्थित है, जहां ब्रिटिश राज द्वारा स्थापित सिविल स्टेशन, ट्रेजरी और चर्च सिपाही विद्रोह के दौरान विद्रोही बलों द्वारा नष्ट किए गए थे। भूगोल राँची कर्क रेखा के पास है। इसकी नगरपालिका क्षेत्र है, और इसकी औसत ऊंचाई समुद्र तल से 651 मीटर है। राँची छोटा नागपुर पठार के दक्षिणी भाग में स्थित है, जो दक्कन पठार का पूर्वी भाग है। राँची की एक पहाड़ी स्थलाकृति और इसके घने उष्णकटिबंधीय जंगलों का एक संयोजन है जो राज्य के बाकी हिस्सों की अपेक्षा अपेक्षाकृत मध्यम जलवायु का उत्पादन करता है। हालांकि, अनियंत्रित वनों की कटाई और शहर के विकास के कारण, औसत तापमान में वृद्धि हुई है। जलवायु हालांकि राँची में एक आर्द्र उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु है, इसके स्थान और इसके आस-पास के जंगलों को असामान्य रूप से सुखद माहौल बनाने के लिए गठबंधन है, जिसके लिए यह ज्ञात है। ग्रीष्मकालीन तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से लेकर 42 डिग्री तक, सर्दियों के तापमान 0 डिग्री से 25 डिग्री तक हो सकते हैं। दिसंबर और जनवरी में सबसे अच्छे महीने हैं, कुछ क्षेत्रों में ठंड के तापमान में गिरावट आने के कारण। वार्षिक वर्षा लगभग 1430 मिमी (56.34 इंच) है। जून से सितंबर तक वर्षा लगभग 1,100 मिमी है इस जलवायु के लिए कोपेन क्लाइमेट वर्गीकरण उपप्रकार "सिवा" (आर्मीट्रूटिकल जलवायु) है। जनसांख्यिकी 2011 की जनगणना के अनुसार, राँची नगरपालिका की जनसंख्या 1,126,741 है, यह भारत में 46 वां सबसे बड़ा शहरी शहर बना रही है। जनसंख्या का 51.3% पुरुष और 48.7% महिलाएं हैं। राँची शहर में औसत साक्षरता दर 87.68% (जनगणना 2011) है। 2000 में झारखंड के नए राज्य की घोषणा के बाद शहर में आबादी में अचानक वृद्धि देखी गई। रोजगार के बढ़ते अवसरों और कई क्षेत्रीय और राज्य स्तर के कार्यालयों, बैंकों और एफ.एम.सी.जी . कंपनियों के उद्घाटन के चलते शहर में रोज़गार का तेजी प्रवासियों की मांग 2010 के अंत में एसोसिएटेड चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, राँची 16.8% की हिस्सेदारी के साथ भारत में सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करने वाले टियर-थ्री शहरों में से एक था, इसके बाद मैंगलोर और मैसूर का नाम था। परिवहन वायुमार्ग राँची की बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र (आई एक्स आर) को कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर, पटना, हैदराबाद, भुवनेश्वर से सीधी उड़ानें हैं। एयर इंडिया, गोएयर, इंडिगो और एयर एशिया जैसी कुछ प्रमुख एयरलाइंस इस उद्देश्य का काम करती हैं। सीधे चेन्नई, चंडीगढ़, पुणे, पोर्ट ब्लेयर, नागपुर, गोवा, अमृतसर, जयपुर, लखनऊ, वाराणसी, श्रीनगर, कोयंबतूर, गुवाहाटी, तिरुवनंतपुरम, विशाखापट्टनम और अहमदाबाद जैसे शहरों के साथ ही राँची को जोड़ने के लिए योजनाएं चल रही हैं। एक नया अंतरराष्ट्रीय टर्मिनल अब तैयार है, जो 19,676 वर्ग मीटर भूमि पर आयातित उपकरणों से सुसज्जित है, और इसमें 500 घरेलू और 200 अंतरराष्ट्रीय यात्रियों को संभालने की क्षमता है। इसके अलावा, बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अत्याधुनिक घरेलू कार्गो कॉम्प्लेक्स का उद्घाटन मुख्यमंत्री रघुबर दास द्वारा 50 लाख टन की दैनिक क्षमता के साथ किया गया था, जो अब राँची में और बाहर चलने वाली 14 उड़ानों को पूरा करता है। रेलवे राँची रेलवे स्टेशन अच्छी तरह से दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और अन्य प्रमुख शहरों से सीधे ट्रेनों से जुड़ा हुआ है। इसमें सभी मानक आवश्यकताओं के साथ छह प्लेटफार्म हैं। यह राँची हवाई अड्डे और बस टर्मिनल से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। राँची रेलवे स्टेशन 36 हॉलिंग ट्रेनों, 27 आरंभिक ट्रेनों और 27 टर्मिनेशन ट्रेनों को पूरा करता है। सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग 23 और 33 द्वारा बसों और निजी वाहनों द्वारा आसानी से रांची तक पहुचा जा सकता है। मुख्य आकर्षण गोंडा हिल एण्ड रॉक गार्डन रांची में पर्यटक गोंडा हिल और रॉक गार्डन की सैर पर जा सकते हैं। रॉक गार्डन को गोंडा हिल की चट्टानों को काटकर बनाया गया है। इस पार्क के अलावा गोंडा हिल की तराई में एक बांध का निर्माण भी किया गया है जो इसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देता है। यह सब मिलकर इसे एक बेहतरीन पिकनिक स्पॉट बनाते हैं। पर्यटकों को यहां आकर बहुत अच्छा लगाता है क्योंकि वह यहां पर शानदार पिकनिक का आनंद ले सकते हैं। मछलीघर और मूटा मगरमच्छ प्रजनन केन्द गोंडा हिल पर पिकनिक मनाने के अलावा पर्यटक रांची में मछलीघर और मूटा मगरमच्छ प्रजनन केन्द्र देखने जा सकते हैं। मछलीघर में पर्यटक विभिन्न प्रजातियों की रंग-बिरंगी मछलियों को देख और खरीद सकते हैं। जबकि मगरमच्छ प्रजनन केन्द्र में लगभग 50 मगरमच्छों को देखा जा सकता है। यह दोनों बहुत खूबसूरत हैं और पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। वह मछलियों और मगरमच्छों के खूबसूरत चित्रों के फोटो खींचकर भी ले जाते हैं। टैगोर पहाड़ी टैगोर पहाड़ी की गिनती रांची के प्रमुख पर्यटक स्थलों में की जाती है। यह पर्यटकों के बीच बेहतरीन पर्यटक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। उन्हें पहाड़ी पर आकर बहुत अच्छा लगता है क्योंकि इस पहाड़ी से पूरे रांची के मनोहारी दृश्य देखे जा सकते हैं। पहाड़ी पर पत्थरों से बने शांतिधाम को भी देखा जा सकता है। इसका निर्माण गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई ने कराया था। मैक क्लुस्किगंज यूरोपि‍यन शैली के बंगलों और आदिवासी संग्राहलय के लिए मैक क्लुस्किगंज स्थानीय निवासियों के साथ पर्यटकों में भी बहुत लोकप्रिय है। यहां पर कई खूबसूरत बंगले देखे जा सकते हैं। बंगलों के अलावा यहां पर आदिवासी संग्राहलय की स्थापना भी की गई है जिसमें आदिवासियों के इतिहास और संस्कृति से जुड़ी कई महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक वस्तुओं को देखा जा सकता है। झरने प्रकृति के अनमोल उपहार झरनों को रांची के पर्यटन उद्योग की जान माना जाता है। इन झरनों में हुन्डरू, जोन्हा, दसम और पांच गाघ झरने प्रमुख हैं। यह झरने तो खूबसूरत हैं ही लेकिन इनके आस-पास के नजारे भी बहुत खूबसूरत हैं जो पर्यटकों को मंत्र-मुग्ध कर देते हैं। इन सभी झरनों में जोन्हा झरना प्रमुख है क्योंकि इस झरने के पास भगवान बुद्ध के मन्दिर के दर्शन किए जा सकते हैं। पर्यटकों को यह झरना खासतौर से आकर्षित करता है क्योंकि यहां उनके ठहरने के लिए रेस्ट हाऊस का निर्माण किया है। दशम जलप्रपात - राँची से लगभग ४० किलोमीटर दूर राँची जमशेदपुर मार्ग पर जोन्हा जलप्रपात - राँची से लगभग १८ किलोमीटर दूर हुन्डरु जलप्रपात - राँची से लगभग २८ किलोमीटर दूर जगन्नाथपुर मंदिर - पुरी की स्थापत्य शैली में निर्मित मंदिर शैक्षिक केन्द्र राँची में अनेक प्रसिद्ध शैक्षिक संस्थान हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी राँची विश्वविद्यालय राष्ट्रीय मनोचिकत्सा संस्थान राजेन्द्र मेडिकल कालेज एवं अस्पताल बिरला इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नालजी, मेसरा सेंट जेवियर्स महाविद्यालय (स्थापित १९४०) जेवियर इंस्टीट्यूट आफ़ सोशल सर्विस औद्योगिक संस्थान हेवी इंजिनयरिंग कारपोरेशन मेकन भारतीय इस्पात प्राधिकरण सिनेमा हाल पुराने राँची में बहुत से सिनेमा घर हुआ करते थे, लेकिन शहरीकरण के बढते दवाब की वजह से और सिनेमा जानेवालों की संख्या में गिरावट की वजह से पिछ्ले कुछ सालों में राँची में बहुत से सिनेमा घर बंद हो चुके हैं। पिछले वर्ष (2006) में भी उपहार एवं प्लाजा को बंद कर दिया गया। अब उसकी जगह आधुनिक मल्टीप्लेक्स माल बनाये जा रहे हैं। महाराष्ट्र एवं दिल्ली जैसे विकसित राज्यों की तर्ज पर झारखंड सरकार ने भी मल्टीप्लेक्स बनाने वालों के लिए कई तरह के कर-छूट की भी घोषणा की है। आइप्लेक्स मल्टीप्लेक्स (2 पर्दों वाली) : हिनू पुल, इंदिरा प्लेस के निकटा सुजाता सिनेमा: मेन रोड, राँची सुजाता सिनेमा: मेन रोड, राँची मीनाक्षी सिनेमा, रातू रोड, राँची प्लाजा सिनेमा: थरपखाना, ओल्ड एच बी रोड राँची सैनिक सिनेमा: मोराबादी, राँची विष्णु सिनेमा: मेन रोड, राँची (बंद) संध्या सिनेमा: पुरुलिया रोड, राँची (डांगरटोली चौक के निकट) उपहार सिनेमा : रातू रोड राँची (बंद, इसकी जगह आईनाक्स मल्टीप्लेक्स बन रहा है) राँची के पहले शापिंग सह मल्टीप्लेक्स का शुभारंभ 7 सितंबर 2007 में हीनू में हुआ। 50-150 रुपये के टिकट वाले इस मल्टीप्लेक्स में लगभग 350 दर्शकों के बैठने की क्षमता है। रांची के उल्लेखनीय लोग विश्वनाथ शाहदेव, स्वतंत्रता सेनानी, रांची के बरकागढ़ में पैदा हुए लाल चिंतामणि शरण नाथ शाहदेव, अंतिम नागवंशी राजा गोपाल शरण नाथ शाहदेव, नागवंशी राजकुमार और विधायक राजेश चौहान, पूर्व भारतीय क्रिकेटर, रांची में पैदा हुए [71] महेंद्र सिंह धोनी, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान कार्ल हैबरलिन, जर्मन चिकित्सक, रांची में पैदा हुए दीपिका कुमारी, भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पेशेवर अंतर्राष्ट्रीय तीरंदाज अंजना ओम कश्यप, भारतीय पत्रकार और समाचार प्रस्तुतकर्ता राजेश जैस, अभिनेता अलीशा सिंह, डांसर और कोरियोग्राफर ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार पीटर मैन्सफील्ड का जन्म रांची में हुआ था नंदलाल नायक, लोक कलाकार और संगीतकार दीबा, पाकिस्तानी अभिनेत्री पैट रीड एमबीई एमसी, रांची में पैदा हुए कोल्डिट्ज़ कैसल से बच निकला इन्हें भी देखें राँची ज़िला बाहरी कड़ियाँ राँची की खबरें राँची का एक अखबार सन्दर्भ राँची ज़िला झारखंड के शहर भारत के महानगर राँची ज़िले के नगर
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धनबाद भारत के झारखंड में स्थित एक शहर है जो कोयले की खानों के लिये मशहूर है। यह शहर भारत में कोयला व खनन में सबसे अमीर है। पुर्व में यह मानभुम जिला के अधीन था। यहां कई ख्याति प्राप्त औद्योगिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य संस्थान हैं। यह नगर कोयला खनन के क्षेत्र में भारत में सबसे प्रसिद्ध है। कई ख्याति प्राप्त औद्योगिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य संस्थान यहाँ पाए जाते हैं। यहां का वाणिज्य बहुत व्यापक है। झारखंड में स्थित धनबाद को भारत की कोयला राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर कोयले की अनेक खदानें देखी जा सकती हैं। कोयले के अलावा इन खदानों में विभिन्न प्रकार के खनिज भी पाए जाते हैं। खदानों के लिए धनबाद पूरे विश्‍व में प्रसिद्ध है। यह खदानें धनबाद की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। पर्यटन के लिहाज से भी यह खदानें काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पर्यटक बड़ी संख्या में इन खदानों को देखने आते हैं। खदानों के अलावा भी यहां पर अनेक पर्यटक स्थल हैं जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके प्रमुख पर्यटक स्थलों में पानर्रा, पंचेत डैम, बिरसा मुंडा पार्क, तोपचांची झील, पारसनाथ पहाड़ और मैथन डैम प्रमुख हैं। पर्यटकों को यह पर्यटक स्थल और खदानें बहुत पसंद आती है और वह इनके खूबसूरत दृश्यों को अपने कैमरों में कैद करके ले जाते हैं। शहर का नामांकरण व्युत्पत्ति कोई भी प्रमाणित रिकार्ड नहीं है, जो बता सके कि धनबाद का नाम धनबाद ही क्यों पड़ा। कुछ लोगो के अनुसार यह क्षेत्र कभी बैद धान के लिये जाना जाता था। दो प्रकार के धान की खेती होती थी। एक बैद जो कार्तिक में तैयार होती थी। अन्य मतान्तर के अनुसार धनबाद नाम धन शब्द से आया है, जो कि एक कोलारियन आदिवासी होते थे। इस क्षेत्र में निवास करते थे। इतिहास पुर्व में धनबाद मानभुम जिलें का एक सबडिवीजन हुआ करता था। 1928 में पुराने धनबाद और चंदनकियारी डिवीजन को मिला कर धनबाद बनाने की बात रखी गयी थी। 24.10.1956 को राज्य पुनःनिर्माण आयोग के नोटिफिकेशन से धनबाद जिला 01.11.1956 को अस्तित्व में आया। इस नोटिफिकेशन के तहत बिहार के पुर्व जिला मधुबन के पुरुलिया सवडिवीजन के चास और चंदनकियारी थाना क्षेत्र को पं बंगाल को स्थानांतरित कर दिया गया। धनबाद के उपजिला स्थिती को जिला स्तर में परिवर्तित हो गयी, साथ ही उपायुक्त पद का निर्माण हुआ। पुर्व में धनबाद का नाम धनबाइद हुआ करता था। आई.सी.एस. अफसर मिस्टर लुबी के पहल पर अधिकारिक रूप से इसका नाम धनबाद (Dhanbad) कर दिया गया। जनसांख्यिकी 2011 भारत की अनंतिम जनगणना के अनुसार धनबाद की आबादी 1,196,214 है। पुरुष और महिलाओं का प्रतिशत 47% तथा 53% है। इसका लिंग अनुपात 908 है। 75.71% धनबाद की औसत साक्षरता दर है। जो 59.5% के राष्ट्रीय औसत की तुलना में अधिक है। पुरुष साक्षरता 85.78 प्रतिशत है और महिला साक्षरता 64.70 प्रतिशत है। धनबाद में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे जनसंख्या का 10.57% है। जनसंख्या में अधिकांश झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल के लोग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों के अलावा, बंगाली, मारवाड़ी और पंजाबी भी धनबाद में बसे है। मुख्य पर्यटन स्थल पानर्रा धनबाद के निरसा-कम-चिरकुण्डा खण्ड में स्थित पानर्रा बहुत खूबसूरत स्‍थान है। स्थानीय निवासियों के अनुसार यह माना जाता है कि पांच पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय यहीं बिताया था। यहां पर भगवान शिव को समर्पित एक मन्दिर भी बना हुआ है जो बहुत खूबसूरत है। इस मन्दिर का नाम पाण्डेश्वर महादेव हैं। इसका निर्माण एक हिन्दू राजा ने कराया था। स्थानीय निवासियों में इस मन्दिर के प्रति बहुत श्रद्धा है और वह पूजा करने के लिए प्रतिदिन यहां आते हैं। चारक-खुर्दचारक खुर्द अपने गर्म पानी के झरनों के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। यह झरने पर्यटकों को बहुत आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को इन झरनों की सैर करना बहुत अच्छा लगता हैं क्योंकि शहर की भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर इन झरनों के पास पिकनिक मनाना उन्‍हें ताजगी से भर देता है। तोपचांची यह गोमो से मात्र ३-४ किमी की दुरी पर स्थित है। गोमो रेल्वे स्टेशन धनबाद से २३ किमी की दुरी पर है। धनबाद में पर्यटक पारसनाथ पहाड़ी और तोपचांची तालाब के मनोहारी दृश्य देख सकते हैं। पारसनाथ पहाड़ियों पर पर्यटक रोमांचक यात्रा का आनंद ले सकते हैं। पारसनाथ की चोटियों से पूरे धनबाद के शानदार दृश्य देखे जा सकते हैं। पहाड़ियों की सैर के बाद तोपचांची तालाब के पास बेहतरीन पिकनिक का आंनद लिया जा सकता है। यह तालाब लगभग 214 एकड़ में फैला हुआ है। पंचेत मैथन-जमाडोबा-पंचेत: यह तीनों स्थान अपने पानी के संयंत्र और बांध के लिए प्रसिद्ध है। इन संयंत्रों और बांध के बनने से धनबाद के निवासियों की जीवन शैली में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। पंचेत में पर्यटक पंचेत बांध देख सकते हैं। इस बांध के पास एक सुन्दर शहर भी बसा दिया गया है। पंचेत की सैर करने के बाद पर्यटक मैथन घूमने जा सकते हैं। यह अपने बांध और पनबिजली संयंत्र के लिए जाना जाता है। इन दोनों के अलावा जमाडोबा की सैर की जा सकती है। जमादोबा में जल आपूर्ति संयंत्र लगाया गया है जिससे धनबाद को जलापूर्ति की जाती है। टुंडी धनबाद से लगभग 20 किलोमीटर की दुरी पर टुंडी एक विधानसभा क्षेत्र है, यह गोविंदपुर गिरीडीह मार्ग पर अव्स्थित है। ग्रामीण आदिवासी परिवेश यहाँ देखने मिलती है। जंगली हाथियों के कहर से टुंडीवासी परेशान है। यहां पर बहुत से कॉलेज हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी टुंडी का काफी नाम है। मैथन डैम मैथन डैम बराकर नदी पर स्थित एक बांध है। उस नदी के बीचोबीच एक खूबसूरत द्वीप है, जो लोगों को अपनी और आकर्षित करता है। पास ही एक हिरण पार्क (Deer Park) और बर्ड सैंक्चुअरी (Bird Sanctuary) भी है। दामोदर परियोजना के आधार पर यहाँ जल विद्युत परियोजना स्थापित की गयी है। सिंदरी धनबाद से 30 किलोमीटर दूर सिंदरी अपने खाद कारखाना के लिए प्रसिद्ध है और दामोदर नदी के किनारे स्थित है। आवागमन शहर के बीच से नेशनल हाईवे (NH-2) गुजरती है। जो कि जिले को लगभग दो समान उत्तरी-दक्षिणी भागो में बांटती है, नेशनल हाईवे (NH-32) जो कि धनबाद का मुख्य मार्ग है, धीरे-धीरे व्यावसायिक केन्द्र बनती जा रही है। रैलमार्ग के माध्यम से धनबाद पूरे भारत से जुडा है। दिल्ली कोलकाता मार्ग पर होने के कारण शहर बहुत महत्वपुर्ण है। वायु मार्ग फिलहाल धनबाद में वायु सेवाएं उपलब्ध नहीं है। दिल्ली और मुंबई समेत देश के कई भागों से रांची और पटना के लिए वायु सेवाएं हैं। रांची और पटना हवाई अड्डे से बसों व टैक्सियों द्वारा पर्यटक आसानी से धनबाद तक पहुंच सकते हैं। यहाँ बरवाअड्डा में एक हवाई पट्टी का निर्माण किया गया है। धनबाद का सबसे निकटतम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा नेताजी सुभाष चन्द्र बोसे अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, कोलकत्ता है। रेल मार्ग पर्यटकों की सुविधा के लिए धनबाद और गोमो में रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया है। भुवनेश्वर-राजधानी एक्सप्रेस, कालका मेल और नीलांचल एक्सप्रैस द्वारा आसानी से इन स्टेशनों तक पहुंचा जा सकता है। [[|thumb|right|धनबाद रेलवे स्टेशन]] धनबाद से चुने गये सांसद 1952- पीसी बोस 1957-पीसी बोस, 1960- डीसी मल्लिक 1962- पीआर चक्रवर्ती 1967- रानी ललिता राजलक्ष्मी 1971- राम नारायण शर्मा 1977-1980 एके राय 1984- शंकर दयाल सिंह 1989- एके राय 1991-1996-1998-199 प्रो॰ रीता वर्मा 2004- चंद्रशेखर दुबे 2009- पशुपतिनाथ सिंह 2014- पशुपतिनाथ सिंह (वर्तमान में) "अशोक-चक्र" रणधीर वर्मा धनबाद के जांबाज पुलिस अधीक्षक रणधीर वर्मा 3 जनवरी 1991 की सुबह धनबाद शहर में बैंक ऑफ इंडिया की हीरापुर शाखा लूटने गए पंजाब के दुर्दांत आतंकवादियों से जूझते हुए शहीद हो गए थे। भारत के राष्ट्रपति ने 26 जनवरी 1991 को मरणोपरांत उन्हें अशोक-चक्र से सम्मानित किया और सन् 2008 में भारतीय डाक विभाग ने उस अमर शहीद की याद में डाक टिकट जारी किया था। शहीद रणधीर वर्मा 1974 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे। शहीद रणधीर वर्मा का जन्म 3 फ़रवरी 1952 को बिहार के सहरसा जिले में हुआ था। उनके पिता बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे। शहीद वर्मा की शादी न्यायिक सेवा के अधिकारी जस्टिस रामनन्दन प्रसाद की द्वितीय पुत्री रीता वर्मा के साथ हुई थी। उनकी शहादत के बाद भाजपा ने रीता वर्मा को धनबाद संसदीय क्षेत्र से चुनावी दंगल में उतारा था। रणधीर वर्मा की लोकप्रियता रंग लाई और रीता वर्मा 1991 के मध्यावधि चुनाव में विजयी रहीं। लगातार चार बार सांसद निर्वाचित होने वाली रीता वर्मा भारत सरकार में मंत्री भी रहीं। शहीद रणधीर वर्मा के दो पुत्र हैं। प्रथम पुत्र दिल्ली आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद अमरीका स्थित मैकेंजी में सलाहकार हैं। द्वितीय पुत्र नेशनल लॉ स्कूल यूनिर्वसिटी, बंगलुरू से विधि स्नातक हैं और सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं। रणधीर वर्मा स्टेडियम रणधीर वर्मा की शहादत के बाद बिहार सरकार ने धनबाद स्थित गोल्फ ग्राउंड का नामकरण रणधीर वर्मा स्टेडियम कर दिया था। अब इस स्टेडियम को आधुनिक लुक दिया जा चुका है। धनबाद शहर का यह एकमात्र बड़ा स्टेडियम है। कोहिनुर मैदान, रेलवे मैदान, जिला परिषद् मैदान जैसे अन्य खेल के स्थान धनबाद में मौजूद है। रेलवे ग्राउंड धनबाद रेलवे के अंतर्गत आने वाला रेलवे ग्राउंड करीब 9 दशक पुराना मैदान है। धनबाद में होने वाले कई खेलों का गवाह है यह मैदान। धनबाद कल्ब और रेलवे स्टेशन की स्थापना के साथ ही इस स्थान को भी सुरक्षित रखा गया था। 80-90 के दशक में इसे स्टेडियम के तौर पर विकसित किया गया। वर्तमान में राज्य के कुछ गिनें चुने मैदानों में है, जहां रणजी ट्राफी के मैच होते है। रणधीर वर्मा चौक रणधीर वर्मा चौक धनबाद शहर के बीचो-बीच जिला मुख्यालय से कोई 500 गज की दूरी पर है। इसी चौक के पास बैंक ऑफ इंडिया में 3 जनवरी 1991 में हुई आतंकवादी मुठभेड़ में रणधीर वर्मा शहीद हो गए थे। इस चौक पर शहीद रणधीर वर्मा की आदमकद प्रतिमा है, जहां प्रत्येक वर्ष श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जाता है। यह प्रतिमा धनबाद शहर में आकर्षण का केंद्र है। रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी https://web.archive.org/web/20150620094131/https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6&action=edit रणधीर वर्मा की याद में झारखंड में एक गैर सरकारी संगठन संचालित है, जो मुख्य रूप से समाज के वंचित वर्ग के लोगों को अनौपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण देने का काम करता है। इस संगठन का नाम है रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी। इसके प्रमोटर हैं वरिष्ठ पत्रकार श्री किशोर कुमार। रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी का कार्यक्षेत्र फिलहाल धनबाद, बोकारो और गिरिडीह है। धनबाद में उर्दू भाषी छात्र-छात्राओं के लिए सस्ती दरों पर कंप्यूटर शिक्षा की व्यवस्था है, जिसे मान्यता दे रखी है नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) ने। यह भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय का स्वायत्तशासी संगठन है। बोकारो में 32 से ज्यादा ट्रेडों में अनौपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जो भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रायोजित है। रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी माइक्रोसॉफ्ट का इंडियन पार्टनर ताराहाट से संबद्ध है, जो अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन डेवलपमेंट अल्टरनेटिव का एक अनुभाग है। भूगोल 24 अक्टूबर 1956 को जब धनबाद की स्थापना हुई थी, तब इसकी लंबाई ऊपर से नीचे 43 मील और पूर्व से पश्चिम चौड़ाई 47 मील थी। 1991 में धनबाद से निकालकर बोकारो जिला का निर्माण किया गया, जिसके बाद अब धनबाद का कुल क्षेत्रफल 2995 स्कवायर किलोमीटर रह गया। धनबाद की सीमा उत्तर और उत्तरी-पुर्वी सीमा बराकर नदी द्वारा निर्धारित होती है, जो इसे गिरीडीह और जामताड़ा से (पुर्व में हजारीबाग) से अलग करती है। दक्षिणी सीमा का निर्धारण दामोदर नदी करती है। डांगी पहाडी़ जिसकी शृंख्ला प्रधानखंटा से गोविंदपुर तक फैली हुई है। इसकी स्थिती पुर्व मध्य रेलवे की ग्रांड कॉर्ड लाईन और ग्रांड ट्रंक (GT) रोड के बीच है। इन पहाड़ियों की सबसे ऊंची चोटी गोविंदपुर के अंतर्गत डांगी के पास है, जो लगभग 1265 फीट ऊंची है। डांगी पहाडी़ लगभग पूरे साल सूखी रहती है, परन्तु बारिश में कुछ घास और झाड़ियाँ उग आती है। दामोदर नदी बेसिन क्षेत्र में औसत वर्षा 127 मि.ली./ मीटर है। धनबाद की प्रमुख नदियाँ प्राकृतिक ढाल के अनुरुप जिले की अधिकांश नदियों का मार्ग पूर्व और दक्षिणी-पूर्व की ओर है। ये प्राय: बरसाती नदियाँ ही होती है। दामोदर नदी के अलावा कोई अन्य नदी नौगम्य नहीं है, बरसात को छोड़ सालभर जलअभाव होता है। नदियों के किनारे जलोढ़ मिट्टी का जमाव नाममात्र ही होता है। कुछ जलोढ़ मिट्टी दामोदर और बराकर के मिलनस्थल पर देखने को मिल जाता है। वर्षाकाल में इन नदियों में बाढ़ की स्थिती देखी जाती है। बराकर नदी जिले की सीमानिर्धारक नदी जो उत्तरी, उत्तरी-पूर्वी तथा पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। बराकर नदी की जिले में लंबाई 48 किलोमीटर है, यह चिरकुंडा-बराकर क्षेत्र में कुछ मील दक्षिण की ओर बहती है। पश्चिम से इसकी एकमात्र सहायक नदी खुदिया है, जो कि पारसनाथ और टुंडी से होते हुए आती है। चिरकुंडा में दामोदर नदी से मिल जाती है। दामोदर नदी दामोदर नदी के हजारीबाग से जिले में प्रवेश से पुर्व इसमें जमुनिया नदी मिलती है। दामोदर नदी के 48 किलोमीटर बहने के क्रम में उत्तर से प्रमुख सहायक नदी कतरी नदी है। बराकर नदी के मिलने के बाद यह दक्षिण पूर्व की ओर बहने लगती है। 563 किलोमीटर बहने के बाद जेम्स-मेरी बालु स्तुप के ठीक पहले हुगली नदी से मिल जाती है। कभी दामोदर नदी को इसकी उग्रता के कारण बंगाल का शोक भी कहा जाता था। 1943 के बाढ़ के कारण नदी अमीरपुर के पास तट को तोड़ती हुई, ग्रैण्ड ट्रन्क / जी.टी. रोड के ऊपर बहते हुए, रेलवे को भी क्षतिग्रस्त कर दी थी। जिससें द्वितीय विश्वयुद्ध के समय कोलकाता का संपर्क पूरे उत्तर भारत से कट गया था। सरकार को दामोदर नदी की विनाशक शक्त्ति का आभास हुआ, दामोदर नदी को बाँधने की तैयारी शुरु हो गयी। अमेरिका के टेंनेसी परियोजना के तर्ज पर दामोदर वैली कार्पोरेशन की स्थापना 1948 में की गई। परियोजना संबंध में अमेरिकी इंजिनीयर डब्लु एल वुर्दुइन (W L Voorduin) ने अपनी रिपोर्ट 1945 में रखी। इनकें अनुसार आठ जलाशयों का निर्माण किया जायेगा, नहरो का एक नेटवर्क जो 7.6 लाख एकड़ भूमि को सिंचित करेगा पर इसका मुख्य कार्य बाढ़ नियंत्रण होगा। तोपचांची डैम तोपचांची डैम का निर्माण सन् 1915 में किया गया था। जो कि 1924 को पूर्ण हुआ। डैम का क्षेत्रफल 5 लाख स्केवयर किलोमीटर है, तथा धारण क्षमता 1295 मिलियन गैलन है। जमा जल का प्रयोग झरिया जल बोर्ड द्वारा कोलफील्ड क्षेत्रों को पानी उपलब्ध कराना होता है। 24 घंटे में 2.4 मिलियन गैलन जल गुरुत्वाकर्षण की आपूर्ति प्रणाली द्वारा शहर को भेजा जाता है। धीमी गति से रेत निस्पंदन और वहाँ आठ फिल्टर बेड हैं। कुल फ़िल्टरिंग क्षमता 2.4 millon गैलन है शोधन के बाद पानी की आपूर्ति की जाती है। तोपचांची डैम में जल लाल्की तथा धोलकट्टा क्षेत्र से आता है। जलवायु धनबाद की जलवायु सुखद विशेषकर शीतकाल के नवम्बर से फरवरी के महीने में रहता है। वर्षाकाल के मध्य जून से मध्य अक्टूबर तक महीने में 55 सेमी. वर्षा होती है। शिक्षा संस्थान 1.विश्वविख्यात भारतीय खनि विद्यापीठ विश्वविद्यालय, 1926, इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स दुनिया भर में खनन संकाय में अपनी अनूठी प्रशिक्षण के लिए जाना जाता है। 2.बिरसा प्रौद्योगिकी संस्थान, सिंदरी, (बी.आई.टी.) सिंदरी, 1949 (पुर्व में बिहार इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी) 3.सरायढेला में पाटलीपुत्र मेडीकल कालेज, 1969 कई निजी संस्थान भी कर्यारत है। आदर्श स्थल बैंक मोड़, झरिया, भुली, स्टील गेट, सरायढेला, सिजुआ, भदरीचक, कतरास, पार्क मार्केट, बिरसा मुंडा पार्क, लुबी सर्कुलर रोड, कोयला नगर, राजगंज, बरवड्डा, निरसा, चिरकुण्डा, तेतुलमारी, सिंदरी, टुंडी, तोपचांची, वासेपुर चासनाला खान दुर्घटना 27 दिसम्बर 1975 को भारत के इतिहास के सबसे बडी़ खान दुर्घटना धनबाद से 20 किलोमीटर दूर चासनाला में घटी, सरकारी आँकडों के अनुसार लगभग 375 लोग मारे गये थे। कोल इण्डिया लिमिटेड के चासनाला कोलियरी के पिट संख्या 1 और 2 के ठीक ऊपर स्थित एक बडे़ जलागार (तालाब) में जमा करीब पाँच करोड़ गैलन पानी, खदान की छत को तोड़ता हुआ अचानक अंदर घुस गया ओर इस प्रलयकालीन बाढ़ में वहां काम कर रहे सभी लोग फँस गये। आनन-फानन में मंगाये गये पानी निकालने वाले पम्प छोटे पड़ गये, कलकत्ता स्थित विभिन्न प्राइवेट कंपनियों से संपर्क साधा गया, तब तक काफीं समय बीत गया, फँसें लोगों को निकाला नहीं जा सका। कंपनी प्रबंधक ने नोटिस बोर्ड में मारे गये लोग की लिस्ट लगा दी। परिवारजन पिट के मुहाने की तरफ उदास मन से कुछ आशा लिये देखते रहे। उस समय केन्द्र और राज्य दोनो जगह सत्ताधारी कांग्रेस का अधिवेशन चंडीगढ में चल रहा था। जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, बिहार के मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र, खान मंत्री चंद्रदीप यादव, श्रम मंत्री रघुनाथ राव आदि भाग ले रहे थे। खान दुर्घटना की बात आग की तरह फैली, उस समय देश-विदेशों के अखबारों व समाचार तंत्रो ने प्रश्नों की बौछार कर दी। सरकार ने जांच की आदेश देकर समितियां बना दी। इधर चासनाला में पीडि़त परिवारजन के हिंसा की आंशका से जिले के आरक्षी आधीक्षक तारकेश्वर प्रसाद सिन्हा तथा उपायुक्त लक्ष्म्ण शुक्ला ने स्वयं कानून व्यवस्था की कमान संभाल ली थी। चासनाला खान दुर्घटना पर यश चोपड़ा ने 1979 में काला पत्थर (1979 फ़िल्म) नामक फिल्म बनाई थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और धनबाद धनबाद के गोमो से नेताजी ने 17 जनवरी 1941 को कालका मेल पकड़ कर पेशावर चलें गये। नेताजी का धनबाद के पुटकी के निकट बीच बलिहारी से जुड़ाव रहा है, यहां उनका आना जाना लगातार बना रहता था। पुटकी में नेताजी के भाई अशोक बोस एक कोयले के कंपनी में कार्यरत थे। यह घर अब खंडहर में तब्दील हो गया है। 16 जनवरी 1941 नेताजी कोलकाता से इंश्योरेंस एजेंट जियाउद्दीन के भेष में बीच बलिहारी पंहुचे और 17 जनवरी 1941 की मध्य रात्रि को गोमो से कालका मेल पकड़ ली। असंरूपित मूल यहाँ निवेश करें "अशोक-चक्र" रणधीर वर्मा चौक यह चौक धनबाद शहर के बीचो-बीच जिला मुख्यालय से कोई 500 गज की दूरी पर है। इसी चौक के पास बैंक ऑफ इंडिया में 3 जनवरी 1991 में हुई आतंकवादी मुठभेड़ में जांबाज आरक्षी अधीक्षक रणधीर वर्मा शहीद हो गए थे। भारत के राष्ट्रपति ने 26 जनवरी 1991 को मरणोपरांत उन्हें अशोक-चक्र से सम्मानित किया था। सन् 2008 में भारतीय डाक विभाग ने उस अमर शहीद की याद में डाक टिकट जारी किया था। रणधीर वर्मा की याद में झारखंड में एक गैर सरकारी संगठन संचालित है, जो मुख्य रूप से समाज के वंचित वर्ग के लोगों को अनौपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण देने का काम करता है। इस संगठन का नाम है रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी। इसके प्रमोटर हैं वरिष्ठ पत्रकार श्री किशोर कुमार। इसी रणधीर वर्मा मेमोरियल सोसाइटी ने 1993 में सरकार द्वारा प्रदत्त स्थल पर रणधीर वर्मा की आदमकद प्रतिमा की स्थापना की थी, जिसका अनावरण लोकसभा के तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने किया था। यह प्रतिमा धनबाद शहर में आकर्षण का केंद्र है। खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार (MADA) खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार यानि माडा (MADA) का पुर्ण रूप मिनरल एरिया डेवेलपमेंट आथोरिटी खनिज प्रधान जिला धनबाद के विकास में मुख्य भुमिका निभाता है। माडा का साम्राज्य धनबाद से लेकर बोकारो के चास तक के 16 अंचलो में फैला है। 1993 में बिहार सरकार द्वारा गठित माडा पहले दो हिस्सों में बंटा था। झरिया वाटर बोर्ड और झरिया माइंस बोर्ड को मिलाकर खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार का गठन किया गया। यह लगभग 25 लाख लोगों की प्यास बुझाता है। इसके अंतर्गत तोंपचाची झील और जामाडोबा झील आता है। माडा का मुख्यालय शहर के बीचों बीच लुबी सर्कुलर रोड में स्थित है। प्रशासन ने खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार के धनबाद नगर निगम में विलय की घोषणा कर चुकी है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ धनबाद शहर का आधिकारिक जालस्थल भारतीय खनन संस्थान का जालस्थल धनबाद टूरिस्ट प्लेस झारखंड के शहर भारत के महानगर धनबाद ज़िला धनबाद ज़िले के नगर
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देवघर, () भारत के झारखण्ड राज्य का एक शहर है। यह देवघर जिले का मुख्यालय तथा हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। इसे 'बाबाधाम' नाम से भी जाना जाता है| यहाँ भगवान शिव का एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर स्थित है। हर सावन में यहाँ लाखों शिव भक्तों की भीड़ उमड़ती है। यहाँ भारत के विभिन्न भागों से तीर्थयात्री और पर्यटक आते ही हैं, विदेशों से भी पर्यटक आते हैं। इन भक्तों को 'काँवरिया' कहा जाता है। ये शिव भक्त बिहार में सुल्तानगंज से गंगा नदी से गंगाजल लेकर 105 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर देवघर में भगवान शिव को जल अर्पित करते हैं। शिव पुराण मे लिखा है ये मंदिर श्मशान मे है। परन्तु श्मशान नदी के तट पर होती है । श्मशान मे कोई कुआ नही होती जबकि देवघर के प्रांगण मे कुआ है । देवघर, उत्तरी अक्षांश 24.48 डिग्री और पूर्वी देशान्तर 86.7 पर स्थित है। इसकी मानक समुद्र तल से ऊँचाई 254 मीटर (833 फीट) है। नाम का उद्गम देवघर शब्द का निर्माण देव + घर हुआ है। यहाँ देव का अर्थ देवी-देवताओं से है और घर का अर्थ निवास स्थान से है। देवघर "बैद्यनाथ धाम", "बाबा धाम" आदि नामों से भी जाना जाता है। जनसांख्यिकी 2011 की भारत जनगणना के अनुसार देवघर की जनसंख्या 203,116 है जिसमें से 17.62% बच्चे 6 वर्ष से कम आयु के हैं। कुल जनसंख्या का 52% भाग पुरूष हैं एवं 48% महिलाएँ हैं। देवघर की औसत साक्षरता दर 66.34% है जो राष्ट्रीय औसत दर 74.4% से कम है। पुरूष साक्षरता 79.13% और महिला साक्षरता 52.39% है। मुख्य आकर्षण झारखंड कुछ प्रमुख तीर्थस्थानों का केंद्र है जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। इन्हीं में से एक स्थान है देवघर। यह स्थान संथाल परगना के अंतर्गत आता है। देवघर शांति और भाईचारे का प्रतीक है। यह एक प्रसिद्ध हेल्थ रिजॉर्ट है। लेकिन इसकी पहचान हिंदु तीर्थस्थान के रूप में की जाती है। श्रावण मास में श्रद्धालु 100 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा करके सुल्तानगंज से पवित्र जल लाते हैं जिससे बाबा बैद्यनाथ का अभिषेक किया जाता है। देवघर की यह यात्रा बासुकीनाथ के दर्शन के साथ सम्पन्न होती है। बैद्यनाथ धाम के अलावा भी यहां कई मंदिर और पर्वत हैं। बैद्यनाथ मंदिर इस मंदिर की स्थापना १५९६ की मानी जाती है जब बैजू नाम के व्यक्ति ने खोए हुए लिंग को ढूंढा था। तब इस मंदिर का नाम बैद्यनाथ पड़ गया। कई लोग इसे कामना लिंग भी मानते हैं। दर्शन का समय: सुबह ४ बजे-दोपहर ३.३० बजे, शाम ६ बजे-रात ९ बजे तक। लेकिन विशेष धार्मिक अवसरों पर समय को बढ़ाया जा सकता है। यहाँ पर सावन के महीने में बड़ा मेला लगता है। मान्यता है कि भगवान शिवजी सावन में यहाँ बिराजते हैंं, इसलिये सुल्तानगंज से गंगा जल भर कर कांवरिया पैदल करीब 105 किलोमीटर की यात्रा करके यहाँ पहुंचते हैं और भगवान शिव को गंगा जल अर्पित करते हैं। मंदिर के मुख्य आकर्षण बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मंदिर भी हैं। शिवजी का मंदिर पार्वती जी के मंदिर से जुड़ा हुआ है। पवित्र यात्रा बैद्यनाथधाम के यात्रा की शुरुआत श्रावण मास (जुलाई-अगस्त)से होती है जो महीने भर और भाद्र मास तक अनवरत चलता रहता है । उत्तरी भारत के कई राज्यों से श्रद्धालु भक्त _ तीर्थयात्री सर्वप्रथम उत्तरवाहिनी गंगा से जल लेकर सुल्तानगंज से ही यात्रा प्रारंभ करते हैं । जहां वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र जल और बोल बम के उद्घोष करते हुए बैद्यनाथ धाम और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है उसकी पवित्रता भंग नहीं हो इसलिए उसे कभी कहीं भी भूमि पर नहीं रखा जाता है । बासुकीनाथ मंदिर बासुकीनाथ अपने शिव मंदिर के लिए जाना जाता है। बैद्यनाथ मंदिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक बासुकीनाथ में दर्शन नहीं किए जाते। यह मंदिर देवघर से 42 किलोमीटर दूर जरमुंडी गांव के पास स्थित है। यहां पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का संबंध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। बैजू मंदिर बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मंदिर भी हैं। इन्हें बैजू मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है। आसपास दर्शनीय स्थल त्रिकुट देवघर से 16 किलोमीटर दूर दुमका रोड पर एक खूबसूरत पर्वत त्रिकूट स्थित है। इस पहाड़ पर बहुत सारी गुफाएं और झरनें हैं। बैद्यनाथ से बासुकीनाथ मंदिर की ओर जाने वाले श्रद्धालु मंदिरों से सजे इस पर्वत पर रुकना पसंद करते हैं। नौलखा मंदिर देवघर के बाहरी हिस्से में स्थित यह मंदिर अपने वास्तुशिल्प की खूबसूरती के लिए जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण बालानन्द ब्रह्मचारी के एक अनुयायी ने किया था जो शहर से 8 किलोमीटर दूर तपोवन में तपस्या करते थे। तपोवन भी मंदिरों और गुफाओं से सजा एक आकर्षक स्थल है। नंदन पर्वत नन्दन पर्वत की महत्ता यहां बने मंदिरों के झुंड के कारण है जो विभिन्न देवों को समर्पित हैं। पहाड़ की चोटी पर कुंड भी है जहां लोग पिकनिक मनाने आते हैं। सत्संग आश्रम ठाकुर अनुकूलचंद्र के अनुयायियों के लिए यह स्थान धार्मिक आस्था का प्रतीक है। सर्व धर्म मंदिर के अलावा यहां पर एक संग्रहालय और चिड़ियाघर भी है। पाथरोल काली माता का मंदिर मधुपुर में एक प्राचीन सुंदर काली मंदिर है, जिसे "पथरोल काली माता मंदिर" के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण राजा दिग्विजय सिंह ने लगभग 6 से 7 शताब्दी पहले करवाया था। मुख्य मंदिर के करीब नौ और मंदिर हैं, जहां भक्त दर्शन कर सकते हैं। यहाँ की मान्यता है कि जो मांगो मनोकामना पूर्ण होती है। आवागमन नजदीकी हवाई अड्डे : देवघर विमानक्षेत्र, राँची, गया, पटना और कोलकाता सड़क मार्ग द्वारा : देवघर सड़क मार्ग द्वारा कोलकाता से 373 कि मी, गिरिडीह से 112 कि मी, पटना से 281 कि मी भागलपुर, सुल्तानगंज, हजारीबाग, रांची, जमशेदपुर और गया से जुड़ा हुआ है।अब देवघर नाम से भी रेलवे स्टेशन है । रेल द्वारा: निकटतम रेलवे स्टेशन जसीडिह यहाँ से 10 कि॰मी॰ है जो हावड़ा पटना दिल्ली लाइन पर स्थित है। इन्हें भी देखें ज्योतिर्लिंग बैजनाथ महाराष्ट्र परली-वैजनाथ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ झारखंड के शहर देवघर ज़िला देवघर ज़िले के नगर
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पटना (Patna) भारत के बिहार राज्य के पटना ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है और राज्य की राजधानी है। यह बिहार का सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र, पुष्पपुरी और कुसुमपुर था। विवरण पटना शहर का ऐतिहासिक महत्व है। पटना संसार के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला पटना का मुख्य शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है। के क्षेत्र और 20 लाख से अधिक लोगों की आबादी के साथ, पटना शहर (अपने शहरी समूह के साथ) भारत में 18 वां सबसे बड़ा है। प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यन्त ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोविन्द सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमन्दिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। ऐतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा, वाणिज्य, और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केन्द्र है। दिवारों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, पटना सिटी के नाम से जाना जाता है । नाम पटना नाम पटन देवी (एक हिन्दू देवी) से प्रचलित हुआ है। एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह होता है। मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित किया है। यह ऐतिहासिक नगर पिछली दो सहस्त्राब्दियों में कई नाम पा चुका है - पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अजीमाबाद और पटना। ऐसा समझा जाता है कि वर्तमान नाम शेरशाह सूरी के समय से प्रचलित हुआ। शेरशाह ने इसका नाम 'पैठना' रखा था जिसे शेर शाह के मृत्यु के पश्चात् अंतिम हिन्दु सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ने पटना कर दिया। इतिहास प्राचीन पटना (पूर्वनाम- पाटलिग्राम या पाटलिपुत्र) सोन और गंगा नदी के संगम पर स्थित था। सोन नदी आज से दो हजार वर्ष पूर्व अगमकुँआ से आगे गंगा में मिलती थी। पाटलिग्राम में गुलाब (पाटली का फूल) काफी मात्रा में उपजाया जाता था। गुलाब के फूल से तरह-तरह के इत्र, दवा आदि बनाकर उनका व्यापार किया जाता था इसलिए इसका नाम पाटलिग्राम हो गया। लोककथाओं के अनुसार, राजा पत्रक को पटना का जनक कहा जाता है। उसने अपनी रानी पाटलि के लिये जादू से इस नगर का निर्माण किया। इसी कारण नगर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। पाटलिपुत्र नाम भी इसी के कारण पड़ा। संस्कृत में पुत्र का अर्थ बेटा तथा ग्राम का अर्थ गांव होता है। पुरातात्विक अनुसंधानो के अनुसार पटना का लिखित इतिहास 490 ईसा पूर्व से होता है जब हर्यक वंश के महान शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह या राजगीर से बदलकर यहाँ स्थापित की। यह स्थान वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष में उपयुक्त होने के कारण राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि यह युद्ध अनेक माह तक चलने वाला एक भयावह युद्ध था। उसने गंगा के किनारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण यह स्थान चुना और अपना दुर्ग स्थापित कर लिया। उस समय से इस नगर का इतिहास लगातार बदलता रहा है। २५०० वर्षों से अधिक पुराना शहर होने का गौरव दुनिया के बहुत कम नगरों को हासिल है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध अपने अन्तिम दिनों में यहाँ से होकर गुजरे थे। उनकी यह भविष्यवाणी थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, बाढ़ या आग के कारण नगर को खतरा बना रहेगा। आगे चल कर के महान नन्द शासकों के काल में इसका और भी विकास हुआ एवं उनके बाद आने वाले शासकों यथा मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता का केन्द्र बन गया। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। मौर्य काल के आरंभ में पाटलिपुत्र के अधिकांश राजमहल लकड़ियों से बने थे, पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना में तब्दील किया। चीन के फाहियान ने, जो कि सन् 399-414 तक भारत यात्रा पर था, अपने यात्रा-वृतांत में यहाँ के शैल संरचनाओं का जीवन्त वर्णन किया है। मेगास्थनीज़, जो कि एक यूनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सिल्यूकस के एक राजदूत के नाते आया था, ने पाटलिपुत्र नगर का प्रथम लिखित विवरण दिया है उसने अपनी पुस्तक में इस शहर के विषय में एवं यहां के लोगों के बारे में भी विशद विवरण दिया है जो आज भी भारतीय इतिहास के छात्रों के लिए सन्दर्भ के रूप में काम आता है। शीघ्र ही पाटलीपुत्र ज्ञान का भी एक केन्द्र बन गया। बाद में, ज्ञान की खोज में कई चीनी यात्री यहाँ आए और उन्होने भी यहां के बारे में अपने यात्रा-वृतांतों में बहुत कुछ लिखा है। मौर्यों के पश्चात कण्व एवं शुंगो सहीत अनेक शासक आये लेकिन इस नगर का महत्व कम नहीं हुआ। इसके पश्चात नगर पर गुप्त वंश सहित कई राजवंशों का राज रहा। इन राजाओं ने यहीं से भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया। गुप्त वंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। पर लगातार होने वाले हुणो के आक्रमण एवं गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद इस नगर को वह गौरव नहीं मिल पाया जो एक समय मौर्य वंश या गुप्त वंश के समय प्राप्त था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा। 12 वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर अपना अधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर डाला। इस समय के बाद पटना देश का सांस्कृतिक और राजनैतिक केन्द्र नहीं रहा। मुगलकाल में दिल्ली के सत्ताधारियों ने अपना नियंत्रण यहाँ बनाए रखा। इस काल में सबसे उत्कृष्ठ समय तब आया जब शेरशाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के तीर पर एक किला बनाने की सोची। उसका बनाया कोई दुर्ग तो अभी नहीं है, पर अफ़ग़ान शैली में बना एक मस्जिद अभी भी है। मुगल बादशाह अकबर की सेना 1574 ईसवी में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। अकबर के राज्य सचिव एवं आइने-अकबरी के लेखक अबुल फ़जल ने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में वर्णित किया है। पटना राइस के नाम से यूरोप में प्रसिद्ध चावल के विभिन्न नस्लों की गुणवत्ता का उल्लेख भी इन विवरणों में मिलता है। मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया, पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया जिन्होंने इस क्षेत्र पर भारी कर लगाया पर इसे वाणिज्यिक केन्द्र बने रहने की छूट दी। १७वीं शताब्दी में पटना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन गया। अंग्रेज़ों ने 1620 में रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहाँ फैक्ट्री खोली। जल्द ही यह सॉल्ट पीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) के व्यापार का केन्द्र बन गया जिसके कारण फ्रेंच और डच लोग से प्रतिस्पर्धा तेज हुई। बक्सर के निर्णायक युद्ध के बाद नगर इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा। ईसवी सन 1912 में बंगाल विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। आई एफ़ मुन्निंग ने पटना के प्रशासनिक भवनों का निर्माण किया। संग्रहालय, उच्च न्यायालय, विधानसभा भवन इत्यादि बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि पटना के नए भवनों के निर्माण में हासिल हुई महारथ दिल्ली के शासनिक क्षेत्र के निर्माण में बहुत काम आई। सन 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर एक राज्य बना दिया गया। पटना राज्य की राजधानी बना रहा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नगर ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नील की खेती के लिये १९१७ में चम्पारण आन्दोलन तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पटना की भूमिका उल्लेखनीय रही है। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। सन 2000 में झारखंड राज्य के अलग होने के बाद पटना बिहार की राजधानी पूर्ववत बना रहा। भूगोल पटना गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। पटना गंगा के दक्षिणी तथा पुनपुन के उत्तरी तट पर स्थित है। गंगा नदी नगर के साथ एक लम्बी तट रेखा बनाती है। पटना का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम में बहुत अधिक है। नगर तीन ओर से गंगा, सोन नदी और पुनपुन नदी नदियों से घिरा है। नगर से ठीक उत्तर हाजीपुर के पास गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। हाल के दिनों में पटना शहर का विस्तार पश्चिम की ओर अधिक हुआ है और यह दानापुर से जा मिला है। महात्मा गांधी सेतु जो कि पटना से हाजीपुर को जोड़ने के लिये गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना एक पुल है, दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है। दो लेन वाले इस प्रबलित कंक्रीट पुल की लम्बाई 5575 मीटर है। गंगा पर बना दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल पटना और सोनपुर को जोड़ता है। समुद्रतल से ऊँचाई: 53 मीटर तापमान: गर्मी 43 °C - 21 °C, सर्दी 20 °C - 6 °C औसत वर्षा : 1,200 मिलीमीटर राजनीति बिहार सरकार की सीट के रूप में, शहर में राजभवन सहित कई संघीय सुविधाएं हैं: गवर्नर हाउस, बिहार विधान सभा; राज्य सचिवालय, जो पटना सचिवालय में स्थित है; और पटना उच्च न्यायालय। पटना उच्च न्यायालय भारत के सबसे पुराने उच्च न्यायालयों में से एक है। पटना उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र बिहार राज्य पर है। पटना में निचली अदालतें भी हैं; दीवानी मामलों के लिए लघु वाद न्यायालय, और आपराधिक मामलों के लिए सत्र न्यायालय। वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की कमान वाली पटना पुलिस की निगरानी बिहार सरकार के गृह विभाग द्वारा की जाती है। पटना जिला भारत के निचले सदन, लोकसभा, के लिए दो प्रतिनिधियों और राज्य विधान सभा के लिए 14 प्रतिनिधियों का चुनाव करता है। पटना की राजधानी में 8 राज्य विधान सभा क्षेत्र हैं, जो लोकसभा के दो निर्वाचन क्षेत्रों (भारत की संसद के निचले सदन) का निर्माण करते हैं। जलवायु बिहार के अन्य भागों की तरह पटना में भी गर्मी का तापमान उच्च रहता है। गृष्म ऋतु में सीधा सूर्यातप तथा उष्ण तरंगों के कारण असह्य स्थिति हो जाती है। गर्म हवा से बनने वाली लू का असर शहर में भी मालूम पड़ता है। देश के शेष मैदानी भागों (यथा - दिल्ली) की अपेक्षा हलाँकि यह कम होता है। चार बड़ी नदियों के समीप होने के कारण नगर में आर्द्रता सालोभर अधिक रहती है। गृष्म ऋतु अप्रैल से आरंभ होकर जून- जुलाई के महीने में चरम पर होती है। तापमान 46 डिग्री तक पहुंच जाता है। जुलाई के मध्य में मॉनसून की झड़ियों से राहत पहुँचती है और वर्षा ऋतु का श्रीगणेश होता है। शीत ऋतु का आरंभ छठ पर्व के बाद यानी नवंबर से होता है। फरवरी में वसंत का आगमन होता है तथा होली के बाद मार्च में इसके अवसान के साथ ही ऋतु-चक्र पूरा हो जाता है। जनसांख्यिकी प्रखंड पटना जिले में 23 ब्लॉक (प्रखंड/अंचल) हैं: पटना सदर, फुलवारी शरीफ, सम्पतचक, पलिगंज, फतुहा, खुसरपुर, दानीयावाँ, बख्तियारपुर, बाढ़, बेल्ची, अथमलगोला, मोकामा, पंडारक, घोसवारी, बिहटा प्रखण्ड (पटना), मनेर प्रखण्ड (पटना), दानापुर प्रखण्ड (पटना), नौबतपुर, दुलहिन बाजार, बिक्रम, मसूरी, धनरुआ , पुनपुन प्रखण्ड (पटना)। स्थानीय निकाय पटना की जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 16,83,200 है, जो 2001 में 13,76,950 थी। जबकि पटना महानगर की जनसंख्या 2,046,652 है। जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तथा स्त्री पुरूष अनुपात है - 882 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष। साक्षरता की दर पुरूषों में 87.71% तथा स्त्रियों में 81.33% है। पटना में अपराध की दर अपेक्षाकृत कम है। मुख्य जेल आदर्श केंद्रीय कारा बेउर है। पटना में कई भाषाएँ तथा बोलियाँ बोली जाती हैं। हिन्दी राज्य की आधिकारिक भाषा है तथा उर्दू द्वितीय राजभाषा है। अंग्रेजी का भी प्रयोग होता है। मागधी अथवा मगही यहाँ की स्थानीय बोली है। अन्य भाषाएँ, जो कि बिहार के अन्य भागों से आए लोगों की मातृभाषा हैं, में अंगिका, भोजपुरी, बज्जिका और मैथिली प्रमुख हैं। आंशिक प्रयोग में आनेवाली अन्य भाषाओं में बंगाली और उड़िया का नाम लिया जा सकता है। पटना के मेमन को पाटनी मेमन कहते है और उनकी भाषा मेमनी भाषा का एक स्वरूप है। जनजीवन दशा यह शहर मगही संस्कृति का केन्द्र है,साथ ही मैथिल भोजपुरी तथा बंगाली संस्कृति भी शुद्ध रूप मे जीवित है। स्त्रियों का परिवार में सम्मान होता है तथा पारिवारिक निर्णयों में उनकी बात भी सुनी जाती है। यद्यपि स्त्रियां अभी तक घर के कमाऊ सदस्यों में नहीं हैं पर उनकी दशा उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों से अच्छी है। भ्रूण हत्या की खबरें शायद ही सुनी जाती है लेकिन कही कहीं स्त्रियों का शोषण भी होता है। शिक्षा के मामले में स्त्रियों की तुलना में पुरूषों को तरजीह मिलती है। संस्कृति पर्व-त्यौहार दीवाली, दुर्गापूजा, होली,अनंत पूजा, छ्ठ पूजा, गंगा दशहारा, रामनवमी ,कृष्ण जन्माष्टमी,झूलन, गुरुगोविंद सिंह जयन्ती,विजयादशमी, महाशिवरात्रि, ईद, क्रिसमस, छठ, सोहराई, गोधन,रक्षाबंधन,कर्मा,गोवर्धन पूजा जीवित पुत्रिका व्रत तीज आदि लोकप्रियतम पर्वो में से है। छठ पर्व पटना ही नहीं वरन् सारे बिहार का एक प्रमुख पर्वं है जो कि सूर्य देव की आराधना के लिए किया जाता है। दशहरा दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लम्बी पर क्षीण होती परम्परा है। इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी। धुरंधर संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहाँ से जुड़ते चले गए। 1950 से लेकर 1980 तक तो यही लगता रहा कि देश के शीर्षस्थ संगीतकारों का तीर्थ-सा बन गया है पटना। डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है। पंडित रविशंकर और उस्ताद अमीर ख़ान को छोड़कर बाक़ी प्रायः सभी नामी संगीतज्ञ उन दिनों पटना के दशहरा संगीत समारोहों की शोभा बन चुके थे। 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया। उसी परंपरा को फिर से जोड़ने की एक तथाकथित सरकारी कोशिश वर्ष 2006 के दशहरा के मौक़े पर हुई लेकिन नाकाम रही। खान-पान जनता का मुख्य भोजन भात-दाल-रोटी-तरकारी-अचार है। वर्तमान में कुछ वर्षों से भोजपुरी व्यञ्जन लिट्टी -चोखा सर्वत्र मिलने लगे हैं। सरसों का तेल जिसे यहां आम बोलचाल में कड़वा तेल अथवा करुआ तेल कहा जाता है पारम्परिक रूप से खाना तैयार करने में प्रयुक्त होता है। खिचड़ी, जोकि चावल तथा दालों से साथ कुछ मसालों को मिलाकर पकाया जाता है, भी भोज्य व्यंजनों में काफी लोकप्रिय है। खिचड़ी, प्रायः शनिवार को, दही, पापड़, घी, अचार तथा चोखा के साथ-साथ परोसा जाता है। बिहार के खाद्य पदार्थों में लिटटी एवं बैंगन एवं टमाटर व आलू के साथ मिला कर बनाया गया चोखा बहुत ही प्रमुख है। विभिन्न प्रकार के सत्तूओं का प्रयोग इस स्थान की विशेषता है। पटना को केन्द्रीय बिहार के मिष्ठान्नों तथा मीठे पकवानों के लिए भी जाना जाता है। इनमें खाजा, मावे का लड्डू,मोतीचूर के लड्डू, काला जामुन, केसरिया पेड़ा, परवल की मिठाई, खुबी की लाई और चना मर्की एवं ठेकुआ आदि का नाम लिया जा सकता है। इन पकवानो का मूल इनके सम्बन्धित शहर हैं जो कि पटना के निकट हैं, जैसे कि सिलाव का खाजा, बाढ का मावे का लाई,मनेर का लड्डू, विक्रम का काला जामुन, गया का केसरिया पेड़ा, बख्तियारपुर का खुबी की लाई, फतुहां की नमकीन व्यञ्जन मिरजई, चना मर्की, बिहिया की पूरी इत्यादि उल्लेखनीय है। हलवाईयों के वंशज, पटना के नगरीय क्षेत्र में बड़ी संख्या में बस गए इस कारण से यहां नगर में ही अच्छे पकवान तथा मिठाईयां उपलब्ध हो जाते हैं। बंगाली मिठाईयों से, जोकि प्रायः चाशनी में डूबे रहते हैं, भिन्न यहां के पकवान प्रायः सूखे रहते हैं। इसके अतिरिक्त इन पकवानों का प्रचलन भी काफी है - पुआ, - मैदा, दूध, घी, चीनी मधु इत्यादि से बनाया जाता है। पिठ्ठा - चावल के चूर्ण को पिसे हुए चने के साथ या खोवे के साथ तैयार किया जाता है। तिलकुट - जिसे बौद्ध ग्रंथों में पलाला नाम से वर्णित किया गया है, तिल तथा चीनी गुड़ बनाया जाता है। चिवड़ा या च्यूरा' - चावल को कूट कर या दबा कर पतले तथा चौड़ा कर बनाया जाता है। इसे प्रायः दही या अन्य चाजो के साथ ही परोसा जाता है। मखाना - (पानी में उगने वाली फली) इसकी खीर काफी पसन्द की जाती है। सत्तू - भूने हुए चने को पीसने से तैयार किया गया सत्तू, दिनभर की थकान को सहने के लिए सुबह में कई लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसको रोटी के अन्दर भर कर भी प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय लोग मकुनी रोटी कहते हैं। लिट्टी-चोखा - लिट्टी जो आंटे के अन्दर सत्तू तथा मसाले डालकर आग पर सेंकने से बनता है, को चोखे के साथ परोसा जाता है। चोखा उबले आलू या बैंगन को गूंथने से तैयार होता है। आमिष व्यंजन भी लोकप्रिय हैं। मछली काफी लोकप्रिय है और मुग़ल व्यंजन भी पटना में देखे जा सकते हैं। अभी हाल में कॉन्टिनेन्टल खाने भी लोगों द्वारा पसन्द किये जा रहे हैं। कई तरह के रोल, जोकि न्यूयॉर्क में भी उपलब्ध हैं, का मूल पटना ही है। विभाजन के दौरान कई मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए और बाद में अमेरिका। अपने साथ -साथ वो यहां कि संस्कृति भी ले गए। वे कई शाकाहारी तथा आमिष रोलों रोल-बिहारी नाम से, न्यूयार्क में बेचते हैं। इस स्थान के लोग खानपान के विषय में अपने बड़े दिल के कारण मशहूर हैं। दर्शनीय स्थल सभ्यता द्वार - पटना महानगर की एक अलग पहचान के लिए यहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने गाँधी मैदान के उत्तर दिशा की ओर गंगा नदी के किनारे एक द्वार का निर्माण कराया जिसका नाम 'सभ्यता द्वार' है। यह बलुआ पत्थर से निर्मित चापनुमा स्मारक है। सभ्यता द्वार को मौर्य-शैली वास्तुकला के साथ बनाया गया है। इसमें बिहार राज्य तथा पाटलिपुत्र की परम्पराओं और प्राचीन संस्कृति की महिमा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया है। यहाँ प्रवेश पूर्णतः निःशुल्क है। यहां शाम को काफी पर्यटक आते हैं। पटना तारामंडल- पटना के इंदिरा गांधी विज्ञान परिसर में स्थित है। अगम कुँआ – मौर्य वंश के शासक सम्राट अशोक के काल का एक कुआँ गुलजा़रबाग स्टेशन के पास स्थित है। पास ही स्थित एक मन्दिर स्थानीय लोगों के शादी-विवाह का महत्वपूर्ण स्थल है। कुम्हरार - चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार तथा अशोक कालीन पाटलिपुत्र के भग्नावशेष को देखने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है। कुम्रहार परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित तथा संचालित है और सोमवार को छोड़ सप्ताह के हर दिन १० बजे से ५ बजे तक खुला रहता है। क़िला हाउस (जालान हाउस) - दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान द्वारा शेरशाह के किले के अवशेष पर निर्मित इस भवन में हीरे जवाहरात तथा चीनी वस्तुओं का एक निजी संग्रहालय है। तख्त श्रीहरमंदिर साहेब - पटना सिखों के दसमें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली है। नवम गुरु श्री तेगबहादुर के पटना में रहने के दौरान गुरु गोविन्दसिंह ने अपने बचपन के कुछ वर्ष पटना सिटी में बिताए थे। बालक गोविन्दराय के बचपन का पंगुरा (पालना), लोहे के चार तीर, तलवार, पादुका तथा 'हुकुमनामा' यहाँ गुरुद्वारे में सुरक्षित है। यह स्थल सिक्खों के लिए अति पवित्र है। महावीर मन्दिर - संकटमोचन रामभक्त हनुमान मन्दिर पटना जंक्शन के ठीक बाहर बना है। न्यू मार्किट में बने मस्जिद के साथ खड़ा यह मन्दिर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है। गांधी मैदान - वर्तमान शहर के मध्यभाग में स्थित यह विशाल मैदान पटना का दिल है। जनसभाओं, सम्मेलनों तथा राजनीतिक रैलियों के अतिरिक्त यह मैदान पुस्तक मेला तथा दैनिक व्यायाम का भी केन्द्र है। इसके चारों ओर अति महत्वपूर्ण सरकारी इमारतें और प्रशासनिक तथा मनोरंजन केंद्र बने हैं। गोलघर - 1770 ईस्वी में इस क्षेत्र में आए भयंकर अकाल के बाद अनाज भंडारण के लिए बनाया गया यह गोलाकार ईमारत अपनी खास आकृति के लिए प्रसिद्ध है। 1786 ईस्वी में जॉन गार्स्टिन द्वारा निर्माण के बाद से गोलघ‍र पटना शहर क प्रतीक चिह्न बन गया। दो तरफ बनी सीढियों से ऊपर जाकर पास ही बहनेवाली गंगा और इसके परिवेश का शानदार अवलोकन संभव है। गाँधी संग्रहालय - गोलघर के सामने बनी बाँकीपुर बालिका उच्च विद्यालय के बगल में महात्मा गाँधी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का नायाब संग्रह देखा जा सकता है। हाल में इसी परिसर में नवस्थापित चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का अध्ययन केंद्र भी अवलोकन योग्य है। श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र - गाँधी मैदान के पश्चिम भाग में बना विज्ञान परिसर स्कूली शिक्षा में लगे बालकों के लिए ज्ञानवर्धक केंद्र है। पटना संग्रहालय - जादूघर के नाम से भी जानेवाले इस म्यूज़ियम में प्राचीन पटना के हिन्दू तथा बौद्ध धर्म की कई निशानियां हैं। लगभग ३० करोड़ वर्ष पुराने पेड़ के तने का फॉसिल यहाँ का विशेष धरोहर है। ताराघर - संग्रहालय के पास बना इन्दिरा गाँधी विज्ञान परिसर में बना ताराघर देश में वृहत्तम है। ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी - अशोक राजपथ पर स्थित यह राष्ट्रीय पुस्तकालय 1891 में स्थापित हुआ था। यहाँ कुछ अतिदुर्लभ मुगल कालीन पांडुलपियां हैं। सदाक़त आश्रम - देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद की कर्मभूमि। संजय गांधी जैविक उद्यान - राज्यपाल के सरकारी निवास राजभवन के पीछे स्थित जैविक उद्यान शहर का फेफड़ा है। विज्ञानप्रेमियों के लिए ‌यह जन्तु तथा वानस्पतिक गवेषणा का केंद्र है। व्यायाम करनेवालों तथा पिकनिक के लिए यह् पसंदीदा स्थल है। दरभंगा हाउस - इसे नवलखा भवन भी कहते हैं। इसका निर्माण दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने करवाया था। गंगा के तट पर अवस्थित इस प्रासाद में पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभागों का कार्यालय है। इसके परिसर में एक काली मन्दिर भी है जहां राजा खुद अर्चना किया करते थे। बेगू हज्जाम की मस्जिद - सन् 1489 में बंगाल के शासक अलाउद्दीन शाह द्वारा निर्मित पत्थर की मस्जिद - जहाँगीर के पुत्र शाह परवेज़ द्वारा 1621 में निर्मित यह छोटी सी मस्जिद अशोक राजपथ पर सुलतानगंज में स्थित है। शेरशाह की मस्जिद - अफगान शैली में बनी यह मस्जिद बिहार के महान शासक शेरशाह सूरी द्वारा 1540-1545 के बीच बनवाई गयी थी। पटना में बनी यह सबसे बड़ी मस्जिद है। पादरी की हवेली - सन 1772 में निर्मित बिहार का प्राचीनतम चर्च बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा ब्रिटिस ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच की कड़वाहटों का गवाह है। शहीद स्मारक, पटना - बिहार विधानसभा के सामने स्थित सन् १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में शहीद हुए सात शहीदों की प्रतीमाएं हैं जो भारत की आजादी के लिए उनके बलिदान की याद दिलाता है। यातायात स्थानीय परिवहन - पटना शहर का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः सिटी बसों, ऑटोरिक्शा और साइकिल रिक्शा पर आश्रित है। लगभग ३० किलोमीटर लंबे और ५ किलोमीटर चौड़े राज्य की राजधानी के यातायात की ज़रुरतें मुख्यरूप से ऑटोरिक्शा (जिसे टेम्पो भी कहा जाता है) ही पूरा करती हैं। स्थानीय भ्रमण हेतु टैक्सी सेवा उपलब्ध है, जो निजी मालिकों द्वारा संचालित मंहगा साधन है। नगर बस सेवा कुछ इलाको के लिए उपलब्ध है पर उनकी सेवा और समयसारणी भरोसे के लायक नहीं है। नगर का मुख्य मार्ग अशोक राजपथ टेम्पो, साइकिल-रिक्शा तथा निजी दोपहिया और चौपहिया वाहनों के कारण हमेशा जाम का शिकार रहता है। सड़क परिवहन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31 तथा 19 नगर से होकर गुजरता है। राज्य की राजधानी होने से पटना बिहार के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है। बिहार के सभी जिला मुख्यालय तथा झारखंड के कुछ शहरों के लिए नियमित बस-सेवा यहाँ से उपलब्ध है। गंगा नदी पर बने महात्मा गांधी सेतु के द्वारा पटना हाजीपुर से जुड़ा है। रेल परिवहन भारतीय रेल के नक्शे पर पटना एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। भारतीय रेल द्वारा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है। पटना देश के अन्य सभी महत्वपूर्ण शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है। पटना से जाने वाले रेलवे मार्ग हैं- पटना-मोकामा, पटना-मुगलसराय' तथा पटना-गया। यह पूर्व रेलवे के दिल्ली-हावड़ा मुख्य मार्ग पर स्थित है। वर्ष 2003 में दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। इसके 13 वर्ष बाद तीन फरवरी, 2016 से इस पर ट्रेन परिचालन शुरू किया गया।मेट्रो- वर्तमान में मेट्रो का डी.पी.आर. तैयार हो चुका है तथा चार-पांच वर्षों में पटना जंक्शन, नए बनते अन्तरराज्यीय बस अड्डा तथा उच्च न्यायालय को जोड़ती हुई मेट्रो यथार्थ होगी।हवाई परिवहनपटना के अंतरराष्ट्रीय हवाई पट्टी का नाम लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है और यह नगर के पश्चिमी भाग में स्थित है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संचालित लोकनायक जयप्रकाश हवाईक्षेत्र, पटना (IATA कोड- PAT) अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए बना है। air india, गो एयर, जेटएयर, स्पाइसजेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, रांची, कलकत्ता, मुम्बई तथा कुछ अन्य नगरों के लिए नियमित रूप से उपलब्ध है।जल परिवहन''' पटना शहर १६८० किलोमीटर लंबे इलाहाबाद-हल्दिया राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। गंगा नदी का प्रयोग नागरिक यातायात के लिए हाल तक किया जाता था पर इसके ऊपर पुल बन जाने के कारण इसका महत्व अब भारवहन के लिए सीमित रह गया है। देश का एकमात्र राष्ट्रीय अंतर्देशीय नौकायन संस्थान पटना के गायघाट में स्थित है। आर्थिक स्थिति प्राचीन काल में व्यापार का केन्द्र रहे इस शहर में अब निर्यात करने लायक कम उपादान ही बनते हैं, हालांकि बिहार के अन्य हिस्सों में पटना के पूर्वी पुराने भाग (पटना सिटी) निर्मित माल की मांग होने के कारण कुछ उद्योग धंधे फल फूल रहे हैं। वास्तव में ब्रिटिश काल में इस क्षेत्र में पनपने वाले पारंपरिक उद्योगों का ह्रास हो गया एवं इस प्रदेश को सरकार के द्वारा अनुमन्य फसल ही उगानी पड़ती थी इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा| आगे चल कर के इस प्रदेश में होने वाले अनेक विद्रोहों के कारण भी इस प्रदेश की तरफ से सरकारी ध्यान हटता गया एवं इस प्रकार यह क्षेत्र अत्यंत ही पिछड़ता चला गया। आगे चल कर के स्वतंत्रता संग्राम के समय होने वाले किसान आंदोलन ने नक्सल आंदोलन का रूप ले लिया एवं इस प्रकार यह भी इस प्रदेश की औद्योगिक विकास के लिए घातक हो गया एवं आगे चल कर के युवाओं का पलायन आरंभ हो गया। शिक्षा साठ और सत्तर के दशक में अपने गौरवपूर्ण शैक्षणिक दिनों के बाद स्कूली शिक्षा ही अब स्तर की है। पटना में प्रायः बिहार बोर्ड तथा सीबीएसई के स्कूल हैं। अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज पटना का नामी कालेज है। इसने शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का नाम विदेशों तक मशहूर किया। हाल में ही बिहार कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग को एनआईटी का दर्जा मिला है। पटना विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय तथा नालन्दा मुक्त विश्वविद्यालय - ये तीन विश्वविद्यालय हैं जिनके शिक्षण संस्थान नगर में स्थित हैं। हाल ही में पटना में प्रबंधन, सूचना तकनीक, जनसंचार एवं वाणिज्य की पढ़ाई हेतु 'कैटलिस्ट प्रबंधन एवं आधुनिक वैश्विक उत्कृष्टता संस्थान' अर्थात सिमेज कॉलेज की स्थापना की गयी है, जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नित नए मानदंड स्थापित कर रहा है।आइआइटी पटना तथा चाणक्या लॉ युनिवर्सिटी शिक्षा के क्षेत्र मे पटना मे अच्छे विकल्प हैं। पटना में प्राइवेट और सरकारी दोनों तरह के स्कूल हैं | यहाँ के स्कूल बिहार विद्यालय परीक्षा समिति , आल इण्डिया इंडियन सर्टिफिकेट आफ सेकेंडरी एजुकेशन, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओपन स्कूलिंग या सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन बोर्ड से संबध है |यहाँ शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं अंग्रेजी है | 10+2+3/4 प्रणाली में विद्यार्थी दस साल की स्कूली शिक्षा के बाद हायर सेकेंडरी स्कूलों में जाते हैं जो बिहार राज्य इंटरमीडिएट बोर्ड. आल इंडिया कौंसिल फॉर दी स्कूल सर्टिफिकेट एग्जामिनेशन , आल इण्डिया इंडियन सर्टिफिकेट आफ सेकेंडरी एजुकेशन, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओपन स्कूलिंग या सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन बोर्ड से संबध हो सकते है | यहाँ वे कला, विज्ञान अथवा वाणिज्य विषय ले सकते हैं | इन्सके उपरान्त वे किसी सामान्य विषय में स्नातक कोर्स या व्यावसायिक शिक्षा यथा विधि, अभियंत्रण या चिकित्सा क्षेत्र जा सकते हैं | पटना में कई प्रसिद्ध शिक्षण संस्थायें हैं – पटना विश्वविद्यालय पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय , पटना साइंस कॉलेज, पटना कॉलेज, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथ बिहार , चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, आई.आई.टी., नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी ,बिरला इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, आर्यभट्ट नॉलेज यूनिवर्सिटी, मौलाना मजहरुल हक अरबी फारसी यूनिवर्सिटी, पटना मेडिकल कॉलेज, आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज , चन्द्रगुप्त इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, नतिओन इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैसन टेक्नोलॉजी हैं | पटना यूनिवर्सिटी कि स्थापना 1917 में हुई थी और यह भारतीय उपमहाद्वीप का सातवां सबसे पुराना यूनिवर्सिटी है | पटना पूर्व में फारसी शिक्षा का केंद्र रहा है और आज भी यहाँ कई अच्छे शिक्षण संस्थान हैं | इन्हें भी देखें लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र अशोक राजपथ पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन पटना ज़िला बिहार के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र बाहरी कड़ियाँ बिहार राज्य का पर्यटन विभाग (अंग्रेजी मे) पटना का संक्षिप्त इतिहास (अंग्रेजी मे) सन्दर्भ पटना जिला बिहार के शहर पटना ज़िले के नगर भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ पवित्र शहर भारत के महानगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "पटना", "token_count": 38795, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%A8%E0%A4%BE" }
भारत में हवाई अड्डों की इस सूची में मौजूदा और पूर्व वाणिज्यिक और निजी हवाई अड्डे, फ्लाइंग स्कूल, कुछ रक्षा हवाई पट्टियां आदि शामिल हैं। नवंबर 2016 से एएआई के आंकड़ों के अनुसार, उड़ान-आरसीएस के तहत अनुसूचित वाणिज्यिक उड़ान संचालन के लिए निम्नलिखित को लक्षित किया जा रहा है, जिनमें शामिल हैं: देश में कुल 486 हवाई अड्डे, हवाई पट्टी, फ्लाइंग स्कूल और सैन्य ठिकाने उपलब्ध हैं अनुसूचित वाणिज्यिक उड़ानों के साथ 123 हवाई अड्डे, जिनमें से कुछ दोहरे नागरिक और सेना के उपयोग के साथ हैं 35 अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे वर्तमान में विभिन्न प्रकार के परिचालन हवाई अड्डों की संख्या नीचे दी गई है:[1] 30 अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे 10 सीमा शुल्क हवाई अड्डे 71 घरेलू हवाई अड्डे अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डे श्री गुरु रामदास जी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,अमृतसर (पंजाब (भारत)) सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,अहमदाबाद (गुजरात) कोचीन अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,कोचीन (केरल) नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,कोलकाता (पश्चिम बंगाल) लोकप्रिय गोपीनाथ बरदलै अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,गुवाहाटी (असम) डैबोलिम विमानक्षेत्र , गोवा ,(पणजी) चेन्नई (तमिलनाडु) अन्ना अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डा छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,मुंबई (महाराष्ट्र ) इंदिरा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,नई दिल्ली (दिल्ली) राजीव गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,हैदराबाद (आंध्रप्रदेश) बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,राँची (झारखंड) गया विमानक्षेत्र ,गया ,बिहार कैम्पेगौड़ा अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,बैंगलोर ,(कर्नाटक) अमौसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र ,लखनऊ (उत्तर प्रदेश) जयपुर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र , जयपुर (राजस्थान) ,देवी अहिल्या बाई अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र [(इंदौर)] राष्ट्रीय हवाई-अड्डे जयप्रकाश नारायण विमानक्षेत्र, पटना (बिहार) जम्मू विमानक्षेत्र, जम्मू (जम्मू एवं कश्मीर) कुल्लू-मनाली विमानक्षेत्र, भुंतर, कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) गग्गल विमानक्षेत्र, काँगड़ा (हिमाचल प्रदेश) शिमला विमानक्षेत्र, शिमला (हिमाचल प्रदेश) चंडीगढ़ विमानक्षेत्र, चंडीगढ (पंजाब) जॉलीग्राण्ट विमानक्षेत्र, देहरादून (उत्तरांचल) पंतनगर विमानक्षेत्र, पंतनगर (उत्तरांचल) कानपुर विमानक्षेत्र, कानपुर, (उत्तर प्रदेश) देवी अहिल्याबाई होल्कर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, इंदौर (मध्य प्रदेश) इंफाल विमानक्षेत्र, इंफाल (मणिपुर) सोनेगाँव विमानक्षेत्र, नागपुर ( महाराष्ट्र ) भावनगर विमानक्षेत्र, भावनगर (गुजरात) बीजू पटनायक विमानक्षेत्र, भुवनेश्वर (उड़ीसा) कोयम्बटूर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, कोयंबतूर (तमिलनाडु) कालीकट विमानक्षेत्र, कालीकट (केरल) श्रीनगर विमानक्षेत्र, श्रीनगर (जम्मू एवं कश्मीर) लेह विमानक्षेत्र, लेह (जम्मू एवं कश्मीर) तेजू विमानक्षेत्र, तेजू (अरूणाचल प्रदेश) जोरहाट विमानक्षेत्र, जोरहाट (असम) तेजपुर विमानक्षेत्र, तेजपुर (असम) बागडोगरा विमानक्षेत्र, सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) ग्वालियर विमानक्षेत्र, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) जैसलमेर विमानक्षेत्र, जैसलमेर (राजस्थान) जामनगर विमानक्षेत्र, जामनगर (गुजरात) पुणे विमानक्षेत्र, पुणे (महाराष्ट्र) वीर सावरकर विमानक्षेत्र, पोर्ट ब्लेयर (अंडमान एवं निकोबार) जोधपुर विमानक्षेत्र, जोधपुर (राजस्थान) महाराणा प्रताप विमानक्षेत्र, उदयपुर (राजस्थान) सम्राट पृथ्वीराज चौहान विमानक्षेत्र ,अजमेर ,(राजस्थान) अन्य हवाई अड्डे जबलपुर हवाई-अड्डा, जबलपुर (मध्य प्रदेश) कोटा हवाई-अड्डा, कोटा (राजस्थान) उमरोई हवाई अड्डा, शिलांग (मेघालय) हुबली हवाई-अड्डा, हुबली, धारवाड़ (कर्नाटक) मदुरै हवाई-अड्डा, मदुरै (तमिलनाडु) मंगलोर हवाई-अड्डा, मंगलोर (कर्नाटक) तिरुपति हवाई-अड्डा, तिरुपति (तमिलनाडु) विजयवाड़ा हवाई-अड्डा, विजयवाड़ा (आंध्रप्रदेश) बेलगाँव हवाई-अड्डा, बेलगाँव (कर्नाटक) राजमुंदरी हवाई-अड्डा, राजमुंदरी (आंध्रप्रदेश) वाराणसी हवाई-अड्डा, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) सोनारी हवाई-अड्डा, जमशेदपुर (झारखंड) बिलासपुर हवाई-अड्डा, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) श्रावस्ती हवाई-अड्डा, श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश) अंतर्राष्ट्रीय सरदार वल्लभभाई पटेल (अहमदाबाद) राजा सांसी (अमृतसर)* बेंगलुरु, देवनहल्ली कालीकट (करीपुर)* चेन्नई, मीणम्बक्कम कोयंबतूर (पीलमेदु)* लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलोइ (बोरझार), गुवाहाटी* गया (बोधगया)* डैबोलिम, गोआ* राजीव गाँधी (हैदराबाद), शम्साबाद देवी अहिल्याबाई होल्कर*, इंदौर सांगानेर (जयपुर)* कोच्चि, नेदुंबस्सरी नेताजी सेभाष चंद्र बोस (कोलकाता), दमदम अमौसी (लखनऊ)* मंगलौर (बाजपे)* छत्रपति शिवाजी (मुंबई), सहर डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर, नागपुर* बिरसा मुंडा (राँची) इंदिरा गाँधी (नई दिल्ली), पालम लोकनायक जयप्रकाश (पटना)* पुणे (लोहेगांव)* त्रिवेंद्रम (तिरुवनंतपुरम) तिरुचिरापल्ली* वाराणासी (बाबतपुर)* अंतर्देशीय आंध्र प्रदेश कुडप्पा (कड़पा) दोनकोंड श्री सत्य साईं, पुट्टपर्थी राजामुंद्री तिरुपति विजयवाड़ा (विशाखापट्टनम) वारंगल अरुणाचल प्रदेश अलोंग डापोरिजो दीमापुर लीलाबाड़ी (उत्तर लखीमपुर) पासीघाट तेज़ु ज़िरो (जीरो) आसाम डिब्रुगढ़ जोरहाट (रोवरिया) कैलाशहर लीलाबाड़ी (उत्तर लखीमपुर) सिल्चर (कुंभीग्राम) तेजपुर (सलोनीबाड़ी) बिहार मुजफ्फरपुर पुर्णिया (पूर्णैया) रक्सौल छत्तीसगढ़ बिलासपुर जगदलपुर रायपुर गुजरात भावनगर भुज कांदला (गाँधीधाम) जामनगर पोरबंदर राजकोट सूरत (सुरत गुजरात) वडोदरा (नागर विमानक्षेत्र हर्वी) हरियाणा करनाल फ्लाइंग क्लब पिंजौर एयरफील्ड और फ्लाइंग क्लब, कालका-बद्दी हाईवे, हरियाणा हिसार-दिल्ली बाईपास रोड, पुलिस लाइन हिसार, हिसार, हरियाणा 125001 नारनौल एयरपोर्ट, बछोड - डूमरोली रद, बछोड, हरयाणा 123021 भिवानी हिमाचल प्रदेश गग्गल (कांगड़ा) भुंतर (कुल्लू मनाली) शिमला जम्मू एवं कश्मीर जम्मू (सतबाड़ी) लेह कुशोक बकुला रिम्पोची श्रीनगर झारखंड सोनारी (जमशेदपुर) कर्नाटक जाक्कुर बेल्गाम बेल्लारी हुबली मंदकली मध्य प्रदेश भोपाल (राजा भोज) ग्वालियर जबलपुर खजुराहो महाराष्ट्र औरंगाबाद (चिक्कलथाना) कोल्हापुर जूहू सोनेगांव, नागपुर विमानक्षेत्र मणिपुर इम्फाल (तुलिहाल) मेघालय शिलांग (बड़ापानी/उमरोइ) मिज़ोरम लेंगपुई उड़ीसा बीजू पटनायक (भुवनेश्वर) पंजाब साहनिवाल पटियाला एविएशन क्लब राजस्थान जैसलमेर जोधपुर महाराणा प्रताप, उदयपुर तमिल नाडु मदुरई तुतिकुड़ी त्रिपुरा अगरतला (सिंगेरभिल) उत्तराखंड जॉलीग्रांट (देहरादून) पश्चिम बंगाल बागडोगरा काज़ी नज़रूल इस्लाम हवाई अड्डा दुर्गापुर केन्द्र शासित प्रदेश अगाति चंडीगढ़ दमन दीव सफदरजंग, नई दिल्ली वीर सावरकर (पोर्ट ब्लेयर) सैन्य अर्कोणम अंबाला बागडोगरा भुज रुद्र माता कार निकोबार चाबुआ चंडीगढ़ दीमापुर डिंडिगल गुवाहाटी हलवाड़ा कुंभिरग्राम पालम सफदरजंग तंजौर यलहंका बंद हुए बेगमपेट (हैदराबाद) एच ए एल बंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय बीकानेर बमरौली गोरखपुर * : "प्रतिबंधित अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र" ("कस्टम विमानक्षेत्र")। इन विमानक्षेत्रों से कुछ ही अंतर्राष्ट्रीय उड़ाने प्रचालन में हैं। सामग्री इस सूची में निम्न जानकारी है: शहर सेवारत - शहर आमतौर पर हवाई अड्डे के साथ जुड़ा हुआ है यह हमेशा वास्तविक स्थान नहीं है क्योंकि कुछ हवाई अड्डों शहर के बाहर छोटे शहरों में स्थित हैं जो वे सेवा करते हैं। आईसीएओ - अंतर्राष्ट्रीय नागर विमानन संगठन (आईसीएओ) द्वारा नियुक्त स्थान संकेतक आईसीएओ सूचक: वीए - पश्चिम जोन, वीई - पूर्व जोन, छठी - उत्तर क्षेत्र, वीओ - दक्षिण क्षेत्र आईएटीए - अंतर्राष्ट्रीय हवाई परिवहन संघ (आईएटीए) द्वारा निर्दिष्ट हवाई अड्डे कोड । श्रेणी - नीचे दिए गए तालिका के अनुसार भारत के हवाईअड्डा प्राधिकरण द्वारा परिभाषित हवाई अड्डे की श्रेणी भूमिका - नीचे दिया गया तालिका के अनुसार हवाई अड्डे की भूमिका राज्यवार सूची अंडमान और निकोबार द्वीप समूह आंध्र प्रदेश अरुणाचल प्रदेश असम बिहार चंडीगढ़ छत्तीसगढ़ दमन और दीव दिल्ली गोवा गुजरात हरियाणा हिमाचल प्रदेश जम्मू और कश्मीर झारखंड कर्नाटक केरल लक्षद्वीप मध्य प्रदेश महाराष्ट्र मणिपुर मेघालय मिजोरम नागालैंड ओडिशा पुडुचेरी पंजाब राजस्थान सिक्किम तमिलनाडु तेलंगाना त्रिपुरा उत्तराखंड उत्तर प्रदेश पश्चिम बंगाल यह भी देखें τ
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पूर्वी सिंहभूम झारखंड प्रान्तका एक जिला है। पूर्वी सिंहभूम के शहर जमशेदपुर (मुख्यालय) घाटशिला चाकुलिया पटमदा जादूगोड़ा बहरागोड़ा जमशेदपुर झारखंड
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गिरिडीह (Giridih) भारत के झारखंड राज्य के गिरिडीह ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 114ए यहाँ से गुज़रता है। नामोत्पत्ति "गिरि" का अर्थ "पहाड़" और "डीह" का अर्थ "क्षेत्र" या "भूमि" होता है। गिरिडीह का अर्थ है "पहाड़ों वाला क्षेत्र"। इन्हें भी देखें गिरिडीह ज़िला सन्दर्भ गिरिडीह ज़िला झारखंड के शहर गिरिडीह ज़िले के नगर
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जामताड़ा भारत के झारखण्ड राज्य के जामताड़ा ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। जामताड़ा को बॉक्साइट की खदानों के लिए भी जाना जाता है। यह खदानें इसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। खदानों के अलावा जामताड़ा में सादगी भरे गाँव और मनोहारी पर्वत विहार पार्क है। नामोत्पत्ति "जामताड़ा" नाम "जामा" और "ताड़" शब्द से मिलकर बना है। "जामा" का संथाली भाषा में अर्थ होता है "साँप" और "ताड़" का अर्थ होता है "आवास"। इसका यह नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि यहाँ पर साँप बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। आकर्षण यहां पर्वत विहार पार्क है। यह जामताड़ा रेलवे स्टेशन से 2.4 कि॰मी॰ की दूरी पर पर्वत विहार पार्क स्थित है। यह पार्क बहुत खूबसूरत है और बच्चों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। पार्क की खूबसूरती बढ़ाने के लिए इसमें डायनासोर और चीते की मूर्तियां व झूले लगाए गए हैं जो बच्चों को बहुत पसंद आते है। पर्वत विहार पार्क स्थानीय निवासियों और पर्यटकों में समान रूप से लोकप्रिय है। पर्यटकों को यह पार्क बहुत पसंद आता है और वह इसके खूबसूरत दृश्यों को अपने कैमरों में कैद करके ले जाते हैं। इस पार्क में सूर्योदय और सूर्यास्त के नजारे देखने लायक होता हैं। आवागमन वायु मार्ग जामताड़ा के पास कोलकाता और रांची हवाई अड्डे हैं। इन हवाई अड्डों से आसानी से यहां तक पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग दिल्ली-हावड़ा रेलवे लाईन जामताड़ा से होकर गुजरती है। जामताड़ा में इस लाईन पर दो रेलवे स्टेशनों का निर्माण किया गया है। इन स्टेशनों से कई प्रमुख रेलगाड़ियां होकर गुजरती हैं। सड़क मार्ग रांची, दुमका, देवघर, गिरिडीह, आसनसोल, चितरंजन और झारखंड के अन्य प्रमुख स्थानों से जामताड़ा के लिए नियमित बस सेवा है। पर्यटक इन बसों से आसानी से यहां तक पहुंच सकते हैं। इन्हें भी देखें जामताड़ा ज़िला सन्दर्भ जामताड़ा ज़िला झारखंड के शहर जामताड़ा ज़िले के नगर
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लोहरदगा (Lohardaga) या लोहरदग्गा भारत के झारखण्ड राज्य के लोहरदगा ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। लोहरदगा जिला में आपका स्वागत है । इसका मुख्यालय लोहरदगा है । लोहरदगा जिला का गठन 1983 में हुआ था । लोहरदगा जिला का छेत्रफल 1.502 वर्ग किलोमीटर है 2011 के जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 4,61,790 है पुरुष जनसंख्या 2,32,629 है महिला जनसंख्या 2,29,161 है बाल जनसंख्या 77,649 ऐतिहासिक तथ्य लोहरदगा शहर के बीचों बीच विक्टोरिया तालाब की। इस तालाब का निर्माण कैदियों ने किया था।महारानी विक्टोरिया का नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज करने और हमेशा जिंदा रखने के लिए इस तालाब की खुदाई कराई गई थी। लगभग 22 एकड़ भूमि में अंग्रेजी हुकूमत ने कैदियों से इस तालाब का निर्माण कराया था। यह बात 1857 से लेकर 1881 के बीच की है। अंग्रेजी हुकूमत के दृष्टिकोण से लोहरदगा का इतिहास और विक्टोरिया तालाब की पहचान काफी पुरानी है। परतंत्र भारत में लोहरदगा सामरिक गतिविधि का केंद्र था। तभी तो अंग्रेजों ने 1833 में साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी का प्रशासकीय इकाई का मुख्य मुख्यालय लोहरदगा को बनाया था। 1857 में भी छोटानागपुर कमिश्नरी का प्रमुख नगर था। 1881 तक आर्मी का नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पोस्ट का मुख्यालय रहा। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे अपनी महारानी के सम्मान में इसका नामकरण विक्टोरिया कर दिया। इसलिए लोग इसे विक्टोरिया तालाब भी कहते हैं। विवरण लोहरदगा वनाच्छादित पहाड़ों, झरनों, ऐतिहासिक धरोहरों और प्रकृति के अनमोल उपहारों से सजा लोहरदगा झारखंड में स्थित है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पहले यह लोहा गलाने का बड़ा केन्द्र था। इसलिए इसका नाम लोहरदगा रखा गया था। इसके पीछे उनका तर्क है कि लोहरदगा दो शब्दों लोहार और दग्‍गा से मिलकर बना है। लोहार का अर्थ होता है लोहे का व्यापारी और दग्‍गा का अर्थ होता है केन्द्र। जैन पुराणों के अनुसार भगवान महावीर ने लोहरदगा की यात्रा की थी। जहां पर भगवान महावीर रूके थे उस स्थान को लोर-ए-यादगा के नाम से जाना जाता है। लोहरदगा का इतिहास काफी गौरवशाली है। इसके राजाओं ने यहां पर अनेक किलों और मन्दिरों का निर्माण कराया था। इनमें कोराम्बे, भान्द्रा और खुखरा-भाकसो के मन्दिर और किले प्रमुख हैं। प्रमुख आकर्षण रीति रिवाज लोहरदगा की रीति-रिवाज और संस्कृति बहुत रंग-बिरंगी और अनूठी हैं। इसके रीति-रिवाजों के अनुसार लड़के की पहली शादी महुआ के वृक्ष के साथ और लड़की की पहली शादी आम के पेड़ के साथा कराई जाती है। इस रिवाज के संबंध के स्थानीय निवासियों का कहना है कि जिन वृक्षों से उनकी शादी कराई जाती है वह उन वृक्षों की जीवन पर्यन्त देखभाल करेंगे। धरधारिया जलप्रपात लोहरदगा के सेन्हा प्रखण्ड में धरधारिया जलप्रपात स्थित है। इसके आस-पास का नजारा भी काफी खूबसूरत है जो पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। झारखंड सरकार के अनुसार यहां पर पर्यटन उद्योग में असीमित संभावनाएं हैं। अत: सरकार वहां पर पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नई परियोजनाओं को शुरू कर रही है। महादेव मंडा धरधारिया जलप्रपात देखने के बाद पर्यटक महादेव मंडा घूमने जा सकते हैं। यह प्राकृतिक रूप से बहुत खूबसूरत है। अत्यंत खूबसूरत होने के बावजूद इसे अभी तक वह स्थान नहीं मिल पाया है जो इसे मिलना चाहिए था। महादेव मंडा के पास ही कंडरा और कोराम्बे घूमने जाया जा सकता है। यह दोनों पर्यटक स्थल महादेव मंडा की भांति ही खूबसूरत हैं और मंडा की अपेक्षा यहां पर पर्यटकों के लिए ज्यादा सुविधाएं हैं। सरहुल यह एक मुख्य आदिवासी पर्व है। आवागमन वायु मार्ग बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा लोहरदगा के पास स्थित है। हवाई अड्डे से बसों व टैक्सियों द्वारा लोहरदगा तक पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग लोहरदगा मीटर गेज रेलवे लाईन द्वारा रांची से जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग रांची और राउरकेला राज्य-राजमार्ग से पर्यटक आसानी से लोहरदगा तक पहुंच सकते हैं। इन्हें भी देखें लोहरदगा ज़िला बाहरी कड़ियाँ जिले की सरकारी जालस्थल सन्दर्भ लोहरदगा ज़िला झारखंड के शहर लोहरदगा ज़िले के नगर https://www.jagran.com/jharkhand/ranchi-to-register-queen-victoria-name-in-history-pond-digged-in-lohardaga-in-22-acre-land-20735458.html
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गुमला (Gumla) भारत के झारखंड राज्य के गुमला ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग 43, राष्ट्रीय राजमार्ग 143 और राष्ट्रीय राजमार्ग 143ए यहाँ से गुज़रते हैं। इन्हें भी देखें गुमला ज़िला सन्दर्भ गुमला ज़िला झारखंड के शहर गुमला ज़िले के नगर
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सिमडेगा (Simdega) भारत के झारखण्ड राज्य में स्थित एक नगर है। यह सिमडेगा ज़िले का मुख्यालय भी है। सिमडेगा राज्य के दक्षिण पश्चिम हिस्से में स्थित है। विवरण भौगोलिक रूप से सिमडेगा उत्तर में गुमला, पूर्व में राँची एवं पश्चिमी सिंहभूम, दक्षिण में उड़ीसा, एवं पश्चिम में छत्तीसगढ से घिरा है। जिले का कुल क्षेत्रफल लगभग 3768.13 वर्ग किमी है। यहाँ की ज्यादातर आबादी, लगभग 71 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों की है जो झारखंड में किसी भी जिले से ज्यादा है। सिमडेगा जिले में दस प्रखंड हैं जिनमें - सिमडेगा, कोलेबिरा, बांसजोर, कुरडेग, केरसई, बोलबा, पाकरटांड, ठेठईटांगर, बानो एवं जलडेगा शामिल हैं। पूरा सिमडेगा जिला प्राकृतिक दृष्टि से पर्यटन क्षेत्र की तरह है और जिले के प्रमुख स्थल हैं - केलाघाघ डैम, अनजान शाह पीर बाबा, रामरेखा धाम, केतुन्गा धाम। इसके अलवा यहाँ हरीयाली, नदी, डैम, झरने, के लिहाज से पूरा सिमडेगा ही पर्यटन स्थल है। जिले में शहरीकरण की स्थिति कुल जनसंख्या का केवल 6.6 है, तथा जिला में सिमडेगा ही एकमात्र और प्रमुख शहर है, जिले का 1194.50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वनों से अच्छादित है। सिमडेगा जिले में कुल जनसंख्या का 70.2 अनुसूचित जनजाति रहते हैं। जो की झारखण्ड के सभी जिलों में से अधिक है। इसके बाद गुमला जिले का आता है, जहाँ अनुसूचित जनजाति का 67.2 है। सिमडेगा की प्रमुख नदियाँ हैं - शंख, देव, गिरवा और पालामाड़ा। इन सभी नदी में शंख नदी ही प्रमुख है। इतिहास प्राचीन काल में सिमडेगा को "बीरू-कैसलपुर परगना" के नाम से जाना जाता था जो राजा कतंगदेव का राज्य था। राजा कतंगदेव के निधन के बाद महाराजा शिवकर्ण ने गद्दी संभाली। मुंडा एवं खड़िया जनजातियों के इस क्षेत्र आगमन लगभा 1441 ईसवी में हुआ जबकि उसके बाद ऊराँव जनजाति के लोग भी इस क्षेत्र में रोहतास से कुछ दशक बाद आये। कुछ समय के लिए यह कलिंग साम्राज्य का हिस्सा भी रहा और इसी क्रम में 1336 में गंग वंश के राजा हरिदेव इस क्षेत्र (बीरू) के शासक बने। अभी बीरू जिला मुख्यालय से लगभग 11 किमी की दूरी पर स्थित है। गंगा बिशुन रोहिल्ला इस क्षेत्र के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। प्रसिद्ध व्यक्तित्व सिमडेगा के वैज्ञानिक डॉ.सिद्धार्थ, जेनेवा में हो रहे महाप्रयोग में शोध कर रहे हैं। सिमडेगा के नोनगड़ा गाँव की निवासी असुंता लाकड़ा भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रह चुकी है तथा सिमडेगा के कसिरा बलियाजोर की सुमराई टेटे, सलीमा टेटे,संगीता कुमारी,बिमल लकड़ा हॉकी खिलाड़ी हैं। हजारों हॉकी खिलाड़ी, हॉकी के क्षेत्र में सिमडेगा का नाम राष्ट्रीय स्तर पर रोशन कर चुके हैं। इन्हें भी देखें सिमडेगा ज़िला सन्दर्भ सिमडेगा ज़िला झारखंड के शहर सिमडेगा ज़िले के नगर
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सिमडेगा", "token_count": 3518, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%97%E0%A4%BE" }
पलामू भारत में झारखंड प्रान्त का एक जिला है। इसका ज़िला मुख्यालय मेदनीनगर है। पहले यह डाल्टनगंज के नाम से जाना जाता था लेकिन आनंदमार्ग के लक्ष्मण सिंह, बैद्यनाछ साहू, युगलकिशोर सिंह, विश्वनाथ सिंह, जगनारायण सिंह जैसे लोगों ने लंबे समय तक आंदोलन किया और शहर का नाम मेदनीनगर किया गया। यहां के राजनीतिज्ञों में इंदर सिंह नामधारी, ज्ञानचंद पांडेय, शैलेंद्र, केडी सिंह आदि मुख्य हैं। पत्रकारों में आलोक प्रकाश पुतुल ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। अन्य पत्रकारों में रामेश्वरम, गोकुल बंसंत, फैयाज अहमद, उपेन्द्र नाथ पान्डेय, अरूण कुमार सिंह आदि शामिल हैं।साहित्य व कविता जगत में बिंदु माधव शर्मा, विद्या वैभव भारद्वाज वअभिनव मिश्र ने पलामू का नाम रौशन किया है। इतिहास प्रसिद्ध चेरो राजा सत्रहवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में दक्षिण बिहार में चेरो राजा सबसे प्रभावशाली थे। भगवंत राय (१६१३-१६३०) एक दिलेर योद्धा था जिसने मुगलों से क्षेत्र छीनकर राज्य स्थापित किया था। अगले चेरो राजा अनंत राय (१६३०-१६६१) ने लंबे समय तक राज किया। उसका राज्यकाल संग्रामशील रहा क्योंकि उसे मुगलों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। मेदिनी राय (१६६२-१६७४) ने केवल १३ साल राज किया, लेकिन वह सबसे अधिक विख्यात चेरो राजा है। वह बड़ा ही न्यायप्रिय था और अपनी प्रजा से बहुत कम कर वसूलता था। पलामू के किलों में से पुराने किले का निर्माण इसी राजा ने करवाया था। मेदिनी राय के बाद प्रताप राय (१६७५-१६८१) का राज्यकाल शुरू हुआ। उसने पलामू के दूसरे किले का निर्माण कार्य आरंभ करवाया, लेकिन वह किले को पूरा नहीं कर सका। आज भी किला बनाने के लिए लाए गए पत्थरों का ढेर और अपूर्ण किले के हिस्सों का खंडहर पलामू के जंगलों में विद्यमान है। पलामू के किले जब चेरो राज्य उत्कर्ष पर था, पलामू एक अच्छी-खासी नगरी थी। उसमें अनेक भव्य बाजार थे और उसकी रक्षा के लिए दो मजबूत किले थे। ये किले ईंट-पत्थर के बने थे। उनके डेढ़ मीटर चौड़े बाहरी दीवारों में जगह-जगह तोप के गोलों के निशान हैं। नए किले में सुंदर नक्काशीवाला बड़ा फाटक था जिसे नागपुरी द्वार कहते हैं। दोनों किलों में गहरे कुंए थे, जिससे किले में शरण ली हुई सेना को पानी की कमी नहीं होती थी। किले के बगल से ओरंगा नदी बहती थी और किले के चारों ओर ऊंची पहाड़ियां और घने जंगल थे। १८५७ में पलामू सन १८५७ की क्रांति के समय पलामू में अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक सशस्त्र संग्राम छिड़े थे। पलामू की बगावत सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय आंदोलन थी क्योंकि उसमें आम प्रजा ही नहीं राजा, सामंत और जमींदार भी शामिल हुए थे। यह संग्राम सन १८५८ तक चलता रहा। उसमें चेरो के साथ मिलकर बोगता और खरवार जनजाति के लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया। पलामू राष्ट्रीय अभयारण्य पलामू में ही राष्ट्रीय ख्याति का पलामू राष्ट्रीय अभयारण्य भी स्थित है। अभयारण्य लगभग 250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह १९७४ में बाघ परियोजना के अंतर्गत गठित प्रथम ९ बाघ आरक्षों में से एक है। पलामू व्याघ्र आरक्ष १,०२६ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें पलामू वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्रफल 980 वर्ग किलोमीटर है। अभयारण्य के कोर क्षेत्र 226 वर्ग किलोमीटर को बेतला राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया है। पलामू आरक्ष के मुख्य आकर्षणों में शामिल हैं बाघ, हाथी, तेंदुआ, गौर, सांभर और चीतल। पलामू ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सन १८५७ की क्रांति में पलामू ने अहम भूमिका निभाई थी। चेरो राजाओं द्वारा निर्मित दो किलों के खंडहर पलामू व्याघ्र आरक्ष में विद्यमान हैं। पलामू में कई प्रकार के वन पाए जाते हैं, जैसे शुष्क मिश्रित वन, साल के वन और बांस के झुरमुट, जिनमें सैकड़ों वन्य जीव रहते हैं। पलामू के वन तीन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये नदियां हैं उत्तर कोयल औरंगा और बूढ़ा। २०० से अधिक गांव पलामू व्याघ्र आरक्ष पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर हैं। इन गांवों की मुख्य आबादी जनजातीय है। इन गांवों में लगभग १,००,००० लोग रहते हैं। पलामू के खूबसूरत वन, घाटियां और पहाड़ियां तथा वहां के शानदार जीव-जंतु बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इस अभयारण्य तक पहुँचने के लिए भारतीय रेल द्वारा रांची स्टेशन से जाया जा सकता है। सबसे नजदीकी हवाई अड्डा रांची है। यह भी दे्खें पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन पलामू जिला झारखंड के शहर
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लातेहार (Latehar) भारत के झारखंड राज्य के लातेहार ज़िले में स्थित एक नगर है। यह छोटा नागपुर पठार पर स्थित एक पर्यटक स्थल है और ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण लातेहार की स्थापना 4 अप्रैल 2001 ई. को की गई थी। लातेहार मनोहारी जंगलों, खूबसूरत झरनों, विशाल खदानों और हरे-भरे खेतों से भरा पड़ा है। इसके झरनों के पास पिकनिक मनाना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। पर्यटक यहां पिकनिक मनाने के अलावा स्थानीय संस्कृति से भी रूबरू हो सकते हैं। प्रमुख आकर्षण जनी शिकार उत्सव लातेहार का अधिकतर भू-भाग जंगलों से घिरा हुआ है। इन जंगलों में जो आदिवासी रहते हैं उनकी आजीविका इन्हीं जंगलों से चलती हैं। अपने समाज की रक्षा करने के लिए महिलाएं पुरुष शिकारी भेष में शिकार करती थीं एवं लड़ाई लड़ाती थीं। बाद में परंपरा के कारण बारह वर्षों के अंतराल पर पारंपरिक पुरुष वस्त्रों में महिलाएं जनी शिकार करने लगीं | अब यह परंपरागत पर्ब के रूप में बारह बर्षों के अंतराल पर महिलावों द्वारा मनाया जाता है। कलाकृतियां लातेहार में उद्योगों की कमी है इसलिए यहां के निवासी आजीविका कमाने के लिए जंगलों में पाए जाने वाले फूल-पत्तों से खूबसूरत कलाकृतियां बनाते हैं। इन कलाकृतियों में बांस की टोकरियां प्रमुख हैं जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती हैं। टोकरियों के अलावा वह महुआ के फूलों और केंदु के पत्तियों से भी अनेक कलाकृतियां बनाते हैं। यहां आने वाले अधिकतर पर्यटक इन कलाकृतियों को स्मृतिकाओं के रूप में अपने साथ ले जाते हैं। खदानें लातेहार को इसकी कोयले, बॉक्साइट, लेटेराइट और डोलोमाईट की खदानों के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। यह खदानें आकार में बहुत बड़ी हैं और लातेहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती हैं। पर्यटक चाहें तो इन खदानों को देखने जा सकते हैं। इन खदानों में अनेक मजदूर काम करते हैं। इन खदानों को देखने के बाद चियांकी, कोयल व्यू प्वाइंट और मैगनोलिया प्वांइट घूमने जाया जा सकता है। यह तीनों बहुत खूबसूरत है और लातेहार के पर्यटन उद्योग की जान माने जाते हैं। झरने प्रकृति ने लातेहार में अपने सौंदर्य को खुलकर बिखेरा है और झरनों के रूप में इसको अनमोल उपहार दिए हैं। यह सभी झरने बहुत खूबसूरत हैं और पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। झरनों के पास शहर की भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर जीवन के कुछ यादगार लम्हें बिताए जा सकते हैं। यह सभी झरने इतने खूबसूरत हैं कि जो भी पर्यटक यहां आते हैं वह इनकी तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। कांती, निचला घागरी, शाही, लोढ़, मिरचिया और ऊपरी घागरी इसके प्रमुख झरने हैं। आवागमन वायु मार्ग राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय हवाई सेवाओं द्वारा रांची हवाई अड्डे तक पहुंचा जा सकता है। यहां से लातेहार तक पहुंचना काफी आसान है। रेल मार्ग लातेहार में गढ़वा-रांची लाईन पर तोरी रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया है। पलामु एक्सप्रेस, हटिया-दिल्ली एक्सप्रेस, स्वर्ण जयंती एक्सप्रेस और शक्तिपुंज एक्सप्रेस से तोरी रेलवे स्टेशन तक पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग झारखंड की राजधानी रांची से लातेहार के लिए नियमित बस सेवा है। इन्हें भी देखें लातेहार ज़िला सन्दर्भ लातेहार ज़िला झारखंड के शहर लातेहार ज़िले के नगर झारखंड में हिल स्टेशन
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गढ़वा (Garhwa) भारत के झारखण्ड राज्य के गढ़वा ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग 39 यहाँ से गुज़रता है। विवरण यह गढवा ज़िले का मुख्यालय है। ज़िले का निर्माण पलामू के आठ प्रखंडो को मिलाकर 1 अप्रैल 1991 को किया गया जो पलामू के दक्षिण पश्चिम हिस्से में स्थित थे। गढवा के दक्षिण में कनहर नदी बहती है जो इसे छत्तीसगढ़ से अलग करती है, पूर्व में पलामू है और पश्चिम में छत्तीसगढ का सरगुजा जिला तथा उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला है। गढवा के प्रखंडों में गढवा सहित- मेराल, रंका, भंडरिया, मंझिआंव, नगर उंटारी, भवनाथपुर एवं धुरकी शामिल थे। बाद में इन्हीं प्रखंडों में से छह और नये प्रखंड सृजित किए गए जिनमें डंडई, चिनिया, रमना, रमकंडा एवं कांडी शामिल थे। यातायात गढवा रेल एवं सडक द्वारा भारत के बाकी हिस्सों से सुगम संपर्क में है। झारखंड में रांचीएवं अन्य स्थानों से गढवा के लिए सीधी बस सेवा उपलब्ध है। इसके अलावा बिहार एवं छत्तीसगढ के भी कुछ अन्य स्थानों से यहां के लिए बस सुविधा है। इस जिले से होकर कोई राष्ट्रीय राजमार्ग नहीं गुजरती लेकिन २१० किलोमीटर राज्य उच्च पथ एवं ९६ किलोमीटर लंबाई की जिला सडक इस शहर के विभिन्न हिस्सों को जोडती है। जिनमें गढवा मुरीसेमर रोड जो नगर उंटारी होते हुए झारखंड को उत्तर प्रदेश के बनारस एवं इलाहाबाद क्षेत्रों से जोडता है, तथा रेहला गोदरमना]] रोड जो गढवा को नव निर्मित प्रदेश छत्तीसगढ़ से जोडता है। रेलगाडी से यहां पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन गढ़वा टाउन है। यह जिला अभी भी वायु मार्ग से नहीं जुडा है। मंदिर यहां एक "गढदेवी मंदिर" है ,जो कि गढ़वा शहर के बीचों-बीच स्थित है तथा आसपास के क्षेत्र में लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध है। और गढ़वा जिले के बिशुनपुरा प्रखंड में विष्णु मंदिर,खोटा बाबा का मंदिर और केतार के मां चतुर्भुजी भगवती मंदिर है ये मंदिर बहुत ही प्रतिष्ठित है। और साथ ही नगर उंटारी के बंशीधर मंदिर भी काफी लोकप्रिय हैं। पर्टयन स्थल गढ़वा के धुरकी प्रखंड में स्थित सुखालदारी जलप्रपात बहुत ही प्रशिद्ध है इन्हें भी देखें गढ़वा ज़िला सन्दर्भ गढ़वा ज़िला झारखंड के शहर गढ़वा ज़िले के नगर
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साहिबगंज (Sahibganj) या साहेबगंज (Sahebganj) भारत के झारखण्ड राज्य के साहिबगंज ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय है। साहिबगंज के उत्तर में गंगा नदी और दक्षिणी सीमा पर राजमहल पहाड़ियाँ हैं। जनसांख्यिकी साहिबगंज जिला राज्य में जनसंख्या के आधार पर तेरहवें स्थान एवं दसवर्षीय (2001-11) जनसंख्या वृद्धि दर के हिसाब से भी 24 जिलो में तेरहवें स्थान पर है। 1000 पुरुष पर 952 स्त्री के लिंग अनुपात के साथ, यह राज्य में पंद्रहवीं स्थान पर है। जिले में नौ ब्लॉक, अर्थात् साहिबगंज, मंड्रो, बोरियो, बरहाइट, तलझारी, राजमहल, उधवा, पाठना और बरारवा शामिल हैं। जनगणना 2011 के अनुसार, जिले में तीन विधानसभा क्षेत्रों में 1349 गांव और 8 कस्बों का वितरण किया गया है। जनगणना 2011 के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि अनुसूचित जाति आबादी का प्रतिशत हिस्सा कुल जनसंख्या में 6.29% था जबकि अनुसूचित जनजातियों की संख्या 26.8% प्रतिशत थी। जनगणना 2011 में कुल ग्रामीण परिवारों की संख्या और 2010-11 के बीपीएल संशोधन सर्वेक्षण के आधार पर ग्रामीण इलाकों में बीपीएल परिवारों का प्रतिशत 86.03% है। विवरण साहिबगंज जिला मुख्य रूप से जनजातीय आबादी के साथ संथाल परगना विभाजन का हिस्सा है और विभाजन की पूर्वी सबसे अधिक युक्ति बनाता है। पुराने संथाल परगना जिले के राजमहल और पाकुर उपखंड 17 मई, 1983 को साहिबगंज जिले बनाने के लिए तैयार किए गए थे। इसके बाद साहिबगंज जिले के पाकुर उप-मंडल को 28 जनवरी, 1994 को पाकुर जिला बनाने के लिए तैयार किया गया था। इस जिले में सोशल मीडिया भी बहुत लोग दिलचस्पी रखते हैं । यूट्यूब पर इस जिले से रीइंवेंट टीवी इंडिया चैनल भी है और कई चैनल हैं। इस जिले में दो प्रमुख धार्मिक स्थल शिवगादी धाम (बाबा गजेश्वरनाथ धाम) तथा मोतीझरना (बाबा मोतीनाथ धाम) हैं। मोतीनाथ धाम के जलप्रपात की ऊँचाई 90 फीट है। साथ ही यह पर्यटन का उभरता हुआ बड़ा केंद्र हैं। यहाँ प्रतिदिन झारखंड, बंगाल तथा बिहार से आने वाले सैलानियों का ताता लगा रहता है। इन्हें भी देखें साहिबगंज ज़िला सन्दर्भ साहिबगंज ज़िला झारखंड के शहर साहिबगंज ज़िले के नगर
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गोड्डा (Godda) भारत के झारखंड राज्य के गोड्डा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण गोड्डा खनिज संपदाओ से भरा है। यहाँ एशिया प्रसिद्ध खुला कोयला खदान ललमटिया है। जिसके कोयले से दो ताप बिजली घर कहलगाँव व फरक्का संचालित होती है। इन्हें भी देखें गोड्डा ज़िला सन्दर्भ गोड्डा ज़िला झारखंड के शहर गोड्डा ज़िले के नगर
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हज़ारीबाग (Hazaribagh) भारत के झारखंड राज्य के हज़ारीबाग ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण खूबसूरत पर्यटक स्थलों से भरा हजारीबाग झारखंड में स्थित है। हजारीबाग का अर्थ होता है हजार बागों वाला और यह दो शब्दों हजार और बाग से मिलकर बना है। यहां पर 2019 फीट की ऊंचाई पर हैल्थ हिल रिसोर्ट का निर्माण किया गया है। यह रिसोर्ट प्रकृति की गोद में बसा हुआ है और बहुत खूबसूरत है। इस हैल्थ रिसोर्ट में प्रकृति की गोद में रहकर स्वास्थ्य लाभ लिया जा सकता है। स्वास्थ्य लाभ करने के साथ-साथ यहां कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों की सैर की जा सकती है। इन पर्यटक स्थलों में हजारीबाग झील प्रमुख है जहां पर वाटर स्पोटर्स का आनंद लिया जा सकता है। हजारीबाग वन्य जीव अभयारण्य, कैनेरी पहाड़ी और रजरप्पा इसके अन्य प्रमुख पर्यटक स्थल हैं। पर्यटन हजारीबाग वन्यजीव अभयारण्य यह अभयारण्य पोखरिया राजदेरवा रोड, पोखरिया, झारखंड 825411 मैं स्थित है। हज़ारीबाग़ अभयारण्य संरक्षित क्षेत्र है। हज़ारीबाग़ में पर्यटक वन्यजीव अभयारण्य की सैर कर सकते हैं। 1955 में स्थापित यह अभयारण्य 186 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है। यह बहुत विशाल और ख़ूबसूरत है। अपनी ख़ूबसूरती के लिए इसे पूरे विश्व में जाना जाता है। यहाँ पर पर्यटक विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं को देख सकते हैं। इस अभयारण्य में साल (शोरिया रोबस्टा) के घने जंगल से ढकी पहाड़ियां हैं, जिनमें बाघ, तेंदुआ, रीछ, काला भालू, हिरन, जंगली सूअर, लकड़बग्घा, मोर, लाल जंगली मुर्ग़ी और हरे कबूतर रहते हैं। इस अभयारण्य को पक्की सड़कें से जुड़ी दर्शक - मीनारों से देखा जा सकता है। यहाँ कई लवण लेविकाओं का निर्माण भी किया गया है। यहाँ घूमने के लिए अप्रैल-जुलाई का समय आदर्श है क्योंकि इस समय इसकी हरियाली कई गुना बढ़ जाती है। हजारीबाग झील अभयारण्य की सैर करने के बाद हजारीबाग झील की सैर की जा सकती है। झील के आस-पास का क्षेत्र भी काफी खूबसूरत है। पर्यटकों को यह झील बहुत पसंद आती हैं क्योंकि वह यहां पर शहर की भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर बेहतरीन पिकनिक मना सकते हैं। यहां पर वाटर स्पोर्टस भी उपलब्ध हैं जो युवा पर्यटकों को बहुत आकर्षित करते हैं। यहा केफिटेरिया नामक जलपान केन्द्र के कारण लोग इस जगह को केफिटेरिया नाम से भी पुकारने लगे है। इसके आसपास ही हजारीबाग सेन्ट्र्ल जेल दिखता है, जहा से 1942 की अजादी के आन्दोलन मे कई स्वतंत्रता सेनानी को बंधक रखा गया था, जिसमे प्रमुख थे जयप्रकाश नारायण आदि। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह झील हजारीबाग के पर्यटन उद्योग की जान है। हजारीबाग जिले के बरकट्ठा प्रखंड से 2 किलोमीटर की दुरी पर सूर्यकुंड गर्म जल स्थल है जो पर्यटकों को काफी लुभाता है तथा यहाँ निकलने वाले गर्म पानी से लोग ठण्ड स्नान करते है। बेलकप्पी गांव के सूर्यकुंड के किनारे छोटे छोटे पहाड़ है। 14 जनवरी से यहाँ मेला लगता है जो 15 दिनों तक रहती है लाखों लोग प्रत्येक वर्ष मेला देखने आते है । यहाँ पानी 88℃ तक गर्म रहती है। और यह NH 2 के किनारे बसा हुआ है। कैनेरी पहाड़ी हजारीबाग में अनेक पहाड़ियां हैं जिनमें कैनेरी पहाड़ी प्रमुख है। इस पहाड़ी पर तीन झीलें भी हैं जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाती है। पहाड़ी पर एक इमारत का निर्माण किया गया है। इस इमारत से हजारीबाग के खूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं जो पर्यटकों को मंत्र-मुग्ध कर देते हैं। यह दृश्य इतने खूबसूरत होते हैं कि पर्यटक इन तस्वीरों को अपने कैमरों में कैद करना नहीं भूलते। रजरप्पा रजरप्पा मां छिन्‍न मस्तिका मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। मन्दिर के अलावा यह भेरा और दामोदर नदी के संगम स्थल के रूप में भी जाना जाता है। इन दोनों नदियों का संगम मनोहारी है क्योंकि भेरा नदी लगभग 20 फीट की ऊंचाई से झरने के रूप में दामोदर नदी में मिलती है। इस झरने की धारा ने पहाड़ी को इस तरह से काट दिया है कि यह एक सुन्दर तस्वीर जैसा लगता है। यहां पर बोटिंग करने की भी सुविधा है जो पर्यटकों को अपनी तरफ बहुत आकर्षित करती है। छडवा डैम हजारीबाग शहर से मात्र सात किलोमीटर दूर यह डैम मे भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर बेहतरीन पिकनिक मना सकते है लुटवा डैम वन्यजीव अभयारण्य के बीच अवस्थित यह डैम ऐसा लगता है मानों यह प्रकृति के गोद में स्थित कोई सफेद सतह। यहाँ पहुंचने के लिए अभयारण्य के मुख्य गेट से जो NH-33 पर पड़ता है से 500 M की दुरी बरही की तरफ आना पड़ता है। वहाँ से एक कच्चा मार्ग पूर्व की ओर जंगल से होकर गुजरता है,उसी से पहुँचा जा सकता है। यह डैम जंगली जानवरों के लिए पीने के पानी का अहम स्रोत है। चारों तरफ सखुआ का ही पेड़ नजर आता है। वनभोज के लिए भी आदर्श स्थल है। उस स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य मन को भाता है। आप जल स्तर से करीब 40 फीट ऊंचे होते हैं और सामने विशाल जलराशि। वैसे कोशिश करें की वहाँ से शाम से पहले ही निकल आए। करियातपुर हजारीबाग से 20 किलोमीटर दूर एक सुंदर गांव करियातपुर है। यहां के सभी लोगों का रोजगार है। करियातपुर कसेरा जात ज्यादा पाया जाता है। करियातपुर से 6 किलोमीटर दूर पुणे मंदिर बहुत ही सुंदर बना हुआ है। करियातपुर में बाहर से आकर लोग बसते हैं और यहां रोजगार करते हैं। यहां पर अनेक तरह के पीतल कांसा का बरतन बनता है। सारा पीतल कांसा का बरतन यही बनता है। यहां पर व्यापारियों की संख्या बहुत अधिक है। इचाक (मंदिरों का शहर) हज़ारीबाग़ ज़िला मुख्यालय से 13 किलोमीटर उ.पु.मे इचाक स्थित है। ईचाक एक समय सिंह राजाओ की राजधानी हुआ करती थी, जो रामगढ राजघराने से ताल्लुक रखते थे। यह कहा जाता है कि इन्ही राजाओं के शासन काल (18 वीं सदी) में यहाँ लगभग 170 मंदिरों का निर्माण करवाया था। इन मंदिरों में एक और खासियत है कि लगभग सभी मंदिरों के समीप तालाब का निर्माण करवाया था। यहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक बुढ़िया माता का मंदिर है। यहाँ बिहार,बंगाल,उड़ीसा एवं अन्य क्षेत्रो से श्रद्धालु आते है। माना जाता है कि यहाँ पर मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। अन्य मंदिरों में सूर्य मंदिर भी एक प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ सूर्य मंदिर के पीछे एक गुफा है, जो तत्कालीन बंद कर दिया गया है, ऐसी मान्यता है कि यह सुरंग लगभग 15 km. लंबी है। जिसका दूसरा सिरा सिंह राजा के पदमा स्थित महल में जाकर खुलता है, जहाँ से महारानी इसी सुरंग के रास्ते सूर्य मंदिर में पूजा करने आती थी। यहाँ दो ठाकुरबाड़ी (बड़ा अखाड़ा एवं छोटा अखाड़ा) भी स्थित है जहाँ भगवान लक्ष्मी नारायण का मंदिर है। यहाँ रोज़ सुबह शाम होने वाली आरती की घंटध्वनि मनमोहक होती है।मुख्य बाज़ार में बंशीधर मन्दिर स्थित है,हरेक वर्ष यहाँ जन्माष्टमी धूम धाम से मनाई जाती है। ईचाक प्रखंड हज़ारीबाग़ ज़िले का सबसे बड़ा प्रखंड है, जिसके अंतर्गत लगभग 84 गाँव आते है। यहाँ की मिठाई बालूशाही पुरे झारखण्ड में प्रसिद्ध है। हजारीबाग रेलवे स्टेशन 2015 में उद्घाटन किया गया यह रेलवे स्टेशन शिल्प कला और नक्काशी का अद्भुत उदाहरण है। यह रेलवेे स्टेशन के साथ-साथ एक पर्यटन स्थल के रूप मेंं भी विकसित किया गया है। यहांं पार्क व उद्यान बनाए गए हैं। बच्चों के लिए अलग से झूले वाले उद्यान की व्यवस्था है। वायु मार्ग यह रेलवेे मार्ग के अतिरिक्त काफी अच्छा विकल्प है। लेकिन वायुमार्ग द्वारा यहां पहुंचने के लिए पहले रांची हवाई अड्डे तक पहुंचना पड़ता है। राँची से हजारीबाग की दुरी मात्र 99 किलोमीटर है,जिसे डेढ घंटे में बस या निजि वाहन से तय किया जा सकता है।।। रेल मार्ग रांची-वाराणसी एक्सप्रेस, मूरी एक्सप्रेस और शक्तिपुंज एक्सप्रेस से पर्यटक आसानी से हजारीबाग तक पहुंच सकते हैं। यह सभी रेलगाड़ियां हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन से होकर गुजरती हैं। वर्तमान में हजारीबाग स्वंय एक रेलवे स्टेशन बन गया है,जो कोडरमा रेल लाइन से जुड़ा है। कोडरमा स्वंय हावड़ा- दिल्ली रेल लाइन पर अवस्थित एक स्टेशन है। अत: दिल्ली ,कोलकाता से यहाँ अना कठिन नही है। बहुत जल्द हजारीबाग रेलवे लाइन का संपर्क बरकाकाना रेलवे जक्शन से हो जाएगा। जिससे राँची तथा,,भुवनेश्वर तथा दक्षिण के अन्य शहरों से भी यह जुड़ जाएगे। सड़क मार्ग सड़क मार्ग द्वारा भी हजारीबाग तक पहुंचना काफी आसान है। बसों व टैक्सियों द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग 20 से आसानी से यहां तक पहुंचा जा सकता है। यह जीटी रोड से जुड़ा है। चतरा से NH- 100, जमशेदपुर,राँची से NH- 33 से यहाँ पहुँचा जा सकता है। राजकीय राजधानी राँची से डेढ घंटे में हजारीबाग पहुँचा जा सकता है। चार लेन की सड़क होने से यात्रा का आनंद और समय बढ गया है। सड़क मार्ग जंगलो,घाटियों से गुजरने के कारण यात्रा के आनंद को बढा देते है। आदिवासी संस्कृति की झलक भी कई जगह सड़क मार्ग से देखने को मिलता है। शिक्षा उत्तरी छोटा नागपुर क्षेत्र के लिए स्थापित विनोवा भावे विश्वविधालय यही अवस्थित है। ठंडी जलवायु और हजारीबाग के शांत वातावरण शहर में संस्थानों की स्थापना के लिए शिक्षाविदों को आकर्षित किया है और अब यह झारखंड के एजुकेशन हब बन गया है। डबलिन मिशन शैक्षिक संस्थानों और एक महिला अस्पताल के साथ एक बड़ी उपस्थिति है। मिशन की गतिविधियों को ट्रिनिटी कॉलेज, डबलिन, आयरलैंड के तत्वावधान में 1899 में हजारीबाग में शुरू किए गए। सेंट कोलम्बा कॉलेज बिहार के सबसे पुराने में से एक था। कई वर्षों के लिए कॉलेज से संबद्ध A.F. टोरंटो अपने जीवनकाल में एक कथा थी। बाद में उन्होंने रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बने। कॉलेज से जुड़े अन्य प्रमुख व्यक्तियों डॉ एस.सी. Banwar, डॉ जे.एस. थे शॉ और प्रधानाचार्य सहित विभिन्न पदों पर कार्य करने वाले प्रो गौतम कुमार पांडेय। हजारीबाग अब सेंट विनोबा भावे के नाम पर रखा शहर की सीमा के भीतर विनोबा भावे विश्वविद्यालय है। यह झारखंड के 2 सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। सेंट कोलम्बा कॉलेज, धनबाद और कई इंजीनियरिंग और स्थानीय कॉलेजों के मेडिकल कॉलेज अब इस विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। प्रौद्योगिकी के Jajnery संस्थान, हजारीबाग पॉलिटेक्निक, प्रबंधन और आईटी के लिए प्रमुख कॉलेज में से एक है। माउंट कार्मेल - आजादी के बाद, रोमन कैथोलिक एक लड़कियों के स्कूल की स्थापना की। 1952 D.A.V पब्लिक स्कूल हजारीबाग में सेंट जेवियर्स स्कूल की स्थापना इस रेवरेंड फादर जॉन मूर, एक ऑस्ट्रेलियाई जेसुइट मिशनरी, के समांतर 1992 में शुरू किया और D.A.V कॉलेज प्रबंध समिति (नई दिल्ली) द्वारा चलाए जा रहे हैं, शहर के एक अन्य प्रमुख शिक्षा केंद्र है। स्कूल में पिछले 20 वर्षों में बहुत प्रगति की है और प्रसिद्ध कन्हेरी हिल की तलहटी पर स्थित कला भवन का एक आधुनिक राज्य की है। अशोक श्रीवास्तव (प्रिंसिपल) इस स्तर पर इस स्कूल ले जाने में अग्रदूतों में से एक रहा है। माउंट Egmont स्कूल क्षेत्र में बेहतरीन बोर्डिंग स्कूल में से एक है। नेशनल पब्लिक स्कूल, हजारीबाग यह L.K.C मेमोरियल एजुकेशन सोसायटी द्वारा किया जाता है, एक तेजी से बढ़ती स्कूल है 1977 के बाद से शुरू किया और अब सीबीएसई से संबद्ध। माउंट Litera ज़ी स्कूल और Kidzee, हजारीबाग भी क्षेत्र के एक तेजी से बढ़ स्कूल है। यह फायरिंग रेंज के विपरीत, मेरु Hazaribgh और अपने शहर कार्यालय मिशन अस्पताल द्वारा के पास स्थित है, Katgarah गांव में स्थित है। यह जी समूह के एक नेटवर्क सीखना है। हजारीबाग झारखंड के पूरे के लिए पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है। सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने भी एक बड़ी उपस्थिति है। ईस्ट इंडिया का सबसे बड़ा प्रशिक्षण केंद्र पहाड़ी इलाके के साथ जंगल में यहाँ है। केंद्रीय सुरक्षित पुलिस बल भी झील के पास शहर में मौजूद है। कुछ प्रमुख शिक्षा संस्थान इस प्रकार हैं: डाटाप्रो कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी लॉ कॉलेज इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कॉलेज वित्त एवं राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान मदर टेरेसा कॉलेज (एमटीसी) के बी महिला कॉलेज कॉमर्स के टोरंटो में कॉलेज अन्नाडा कॉलेज, हजारीबाग सेंट कोलम्बा कॉलेज हिंदू हाई स्कूल सेंट जेवियर्स स्कूल डीएवी पब्लिक स्कूल सेंट कोलम्बा कॉलेजिएट स्कूल (मिशन स्कूल) [6] माउंट ऍग्मॉन्ट स्कूल सरस्वती शिशु / विद्या मंदिर इन्हें भी देखें हज़ारीबाग ज़िला सन्दर्भ हज़ारीबाग ज़िला झारखंड के शहर हज़ारीबाग ज़िले के नगर झारखंड में हिल स्टेशन
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चतरा () भारत में झारखंड प्रान्त के चतरा जिले का मुख्यालय है। यह हजारीबाग, कोडरमा , पलामू, लोहरदगा और रॉंची से घिरा हुआ है, तथा बिहार राज्य की सीमा से सटा हुआ है। चतरा जंगलों से घिरा और हरियाली से भरपूर है। क चतरा जिले में खनिज के साथ कोयला भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल का प्रवेश द्वार कहे जाने वाला चतरा जिला की स्थापना 29 मई 1991 ईo में हुई थीI । चतरा जिला की स्थापना हजारीबाग से विभाजित कर के की गयी थी I रांची, हजारीबाग, पलामू व लातेहार की सीमाएं इस जिले से सटी हैं. चतरा जिला में 2 पर्यटन स्थल मां भद्रकाली मंदिर व मां कौलेश्वरी पर्वत है। जिले में दो अनुमंडल सिमरिया व चतरा है। जिला में 12 प्रखंड क्रमशः चतरा, सिमरिया, टंडवा, पत्थलगड़ा, कुंदा, प्रतापपुर, हंटरगंज, कान्हाचट्टी, इटखोरी, मयूरहंड, लावालौंग, गिधौर प्रखंड शामिल हैं। 154 पंचायत व 1474 गांव हैं। जिले से एनएच 99 व एनएच 100 गुजरते हैं. जिला में दो विधानसभा चतरा व सिमरिया है। चतरा झारखंड का सबसे छोटा संसदीय क्षेत्र है। चतरा लोकसभा में 5 विधानसभा आते हैं। जिसमें चतरा, सिमरिया, पांकी, लातेहार, मनिका विधानसभा शामिल हैं। जिले की साक्षरता दर 60.16% है। जिसमें पुरुष साक्षरता दर 69.92 व महिला साक्षरता दर 49.92 है। ● नदियां:- दामोदर, बराकर, हेरुआ, महाने, निरंजने, बलबल, बक्सा क्षेत्रफल:- 3706 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्रफल:- 47.72 प्रतिशत आबादी: 1,042,886 पुरुष: 5,33,935 महिला: 5,08,951 पुलिस स्टेशन:- 15 जनसंख्या घनत्व:- 280 लिंगानुपात:- 953 शिशु लिंगानुपात:- 967 अनुसूचित जनजाति:- 4.36% अनुसूचित जाति:- 32.65% अभयारण्य:- लावालौंग अभ्यारण वर्तमान में प्रशासकीय / संवैधानिक पद एवं व्यक्ति सांसद:- सुनील कुमार सिंह चतरा विधायक:- सत्यानंद भोगता (मंत्री, श्रम नियोजन, प्रशिक्षण एवं कौशल विकास विभाग, झारखंड सरकार) सिमरिया विधायक:- किशुन कुमार दास जिला जज:- राकेश कुमार सिंह उपायुक्त:- अंजली यादव पुलिस अधीक्षक:- राकेश रंजन उप विकास आयुक्त:- सुनील कुमार सिंह चतरा अनुमंडल पदाधिकारी:- मुमताज अंसारी सिमरिया अनुमंडल पदाधिकारी:- सुधीर कुमार दास चतरा एसडीपीओ:- अविनाश कुमार सिमरिया एसडीपीओ:- अशोक प्रियदर्शी टंडवा एसडीपीओ:- शंभू सिंह लेखक:- मो. तसलीम चतरा ज़िला झारखंड के शहर
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कोडरमा (Kodarma) भारत के झारखंड राज्य के कोडरमा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। विवरण कोडरमा भारत के अभ्रक जिला के रूप मे जाना जाता है। इसे झारखंड का प्रवेशद्वार के नाम से भी जाना जाता है। यह जिला अर्धविकसित, क्षीण जनसंख्या वाला है जबकि सीमित प्राकृतिक संसाधन मौजूद है। 717 गाँवों वाले इस जिले का निर्माण हजारीबाग जिले को विभाजित कर 10 अप्रैल 1994 को किया गया। इस जिले में सिर्फ़ दो शहर कोडरमा और झुमरी तिलैया हैं। कोडरमा जिले की सीमायें बिहार में गया और नवादा तथा झारखंड में गिरिडीह तथा हजारीबाग के साथ लगती हैं। इस जिला मे पाच प्रखण्ड कोडरमा, जयनगर, मरकच्चौ, सतगांवा एंव चंदवारा है। इस जिले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि विश्व के पूरे माइका का 90% उत्पादन यहीं होता है। भूगोल कोडरमा की स्थिति पर है। यहां की औसत ऊंचाई 375 मीटर (1230 फीट) है। दर्शनीय स्थल शक्तिपीठ शक्तिपीठ मां चंचला देवी के लिए कोडरमा प्रसिद्ध है। यह शक्तिपीठ दुर्गा मां को समर्पित है। प्रत्येक मंगलवार व शनिवार को यहां पर भक्तों की भारी भीड़ देखी जा सकती है। शक्तिपीठ के अलावा इसे अभ्रक की खदानों के लिए भी पूरे विश्व में जाना जाता है। यहां पर अभ्रक की इतनी खदानें हैं कि इसे अभ्रक नगरी के नाम से भी पुकारा जाता है। शक्तिपीठ और खदानों के अलावा भी यहां देखने के लिए बहुत कुछ है। उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स, ध्वजागिरि पहाड़ी और सतगांवा पैट्रो झरने इसके प्रमुख पर्यटक स्थल हैं। ति‍लैया बांध कोडरमा में पर्यटक ति‍लैया बांध देख सकते हैं। दामोदर नदी घाटी परियोजना के तहत सबसे पहले इसी बाँध का निर्माण हुआ था। जल ठहराव के कारण जीटी रोड से भी इस पानी का नजारा बरसात के दिनों में देखा जा सकता है। NH-33 भी इससे होकर गुजरती है। हरा पानी डर के साथ आनंद और रोमांच भी उत्पन्न करता है। एक तरफ पहाड़,दुसरे तरफ पेड़ - पौधे और उसके नीचे डैम का पानी एक मनमोहक दृश्य का निर्माण करते है। यह बांध दामोदर घाटी में बराकर नदी पर बना हुआ है। आकार में यह लगभग 1200 फीट लंबा और 99 फीट ऊंचा है। बांध के आस-पास का क्षेत्र काफी मनोरहारी है और पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। इसके अलावा यहां पर एक विशाल जलाशय के किनारे पिकनिक का आनंद भी लिया जा सकता है। यह जलाशय बहुत विशाल है और लगभग 36 वर्ग कि॰मी॰ में फैला हुआ है। जलाशय के पास खूबसूरत पहाड़ियां भी हैं जो पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती हैं। जाड़े के मौसम में नवम्बर से लेकर मार्च तक यह परिंदों तथा पर्यटकों से गुंजायमान होता है। ताजे मछलियों के अलावा नौकाविहार का भी मजा लिया जा सकता है। बाँध स्थल 'राष्ट्रीय राज्यपथ से करीब आठ कीलोमीटर अंदर है,,वहाँ दामोदर घाटी निगम का अतिथि गृह है। वहाँ जल और जंगल का विहंगम दृश्य आँखो को बहुत सुभाता है। वनभोज करने वालों के लिए यह आदर्श स्थल है। हाल के वर्षों में यह फिल्म दृश्यांकन के लिए भी चर्चित हो रहा है, विशेषकर स्थानीय फिल्म निर्माताओं के नजर में। बाँध स्थल तक आने में सैनिक विधालय ,तिलैया का द्वार आता है,,जो कुछ समय के लिए देशभक्ति तथा सैन्य शिक्षा की याद दिलाता है। प्रसिद्ध फिल्मकार प्रकाश झा,इसी विधालय के विधार्थी रह चुके है। उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स ति‍लैया बांध से कुछ ही दूरी पर उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स है। यहां पर पर्यटक बेहतरीन पिकनिक मना सकते हैं। पिकनिक मनाने के अलावा यहां पर बोटिंग और वाटर स्पोर्टस का आनंद भी लिया जा सकता है। उरवन में घूमने के बाद बागोधर के हरि हर धाम के दर्शन किए जा सकते हैं। यहां पर भगवान शिव को समर्पित 52 फीट ऊंचा शिवलिंग है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग पूरे विश्व में सबसे विशाल है और इसके बनने में 30 वर्ष लगे थे। सतगांवा पैट्रो झरने प्रकृति की गोद में बसे ककोलत में सतगांवा पैट्रो झरने के खूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं। यह झरने घने जंगलों में स्थित हैं और बहुत खूबसूरत हैं। इन झरनों के आस-पास का क्षेत्र भी काफी मनोहारी हैं। पर्यटक चाहें तो इन जंगलों की सैर पर जा सकते हैं और वन्य जीवों व पेड़-पौधों की आकर्षक छटा देख सकते हैं। लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल है। शक्तिपीठ मां चंचला देवी कोडरमा-गिरिडीह हाईवे से 33 कि॰मी॰ की दूरी पर मां चंचला देवी शक्तिपीठ स्थित है। यह पीठ मां दुर्गा को समर्पित है और 400 फीट की ऊंचाई पर बनी हुई है। मंगलवार और शनिवार को इस शक्तिपीठ में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ देखी जा सकती है। शक्तिपीठ के पास एक पहाड़ी पर गुफा बनी हुई है। इस गुफा में मां दुर्गा की चार मुद्राओं के चित्र देखे जा सकते हैं। मां दुर्गा को समर्पित यह गुफा बहुत खूबसूरत है लेकिन इसका प्रवेश द्वार काफी छोटा है। कोडरमा वन्यजीव अभयारण्य कोडरमा जिला अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से पर्यटकों को मंत्रमुग्ध करता है। जिला मुख्यालय से प्राररम्भ होकर NH- 33 से होते हुए बिहार के गया और नवादा जिला तक विस्तृत वन क्षेत्र दो वन्यजीव अभयारण्य के लिए भौगोलिक विस्तार प्रदान करता है। कोडरमा वन्यजीव अभयारण्य हिरण, भालू, नीलगाय,जंगली खरहा के लिए प्रसिद्ध है। कुछ दशक पुर्व तक बाघ देखे जाते थे,,पर अब इनकी संख्य लगभग नगण्य है। यहाँ सैकड़ो तरह के परिंदे है,,इनके अलावा साँप तथा कई अन्य सरीसृप मिलते है। यहाँ के जंगल में मुख्य वृक्ष सखुआ,बेल,बाँस,आम ,शिरिष,महुआ,पलाश है। गर्मियों के दिनों में इस बन से गुजरते समय पलाश का सौन्दर्य अपने चरम पर होता है,,ऐसा लगता है मानो आकाश आग की लपटों से लाल हो उठा है। इसी अभयारण्य में ध्वजाधारी नामक एक धार्मिक तीर्थ स्थल भी है जो पहाड़ के शिर्ष पर है। वहाँ चढने के लिए पत्थर की सीढियाँ है। महशिवरात्री के अवसर पर वहाँ मेला लगता है। लगन तथा अन्य शुभ दिन वहाँ विवाह,मुंडन जैसे संस्कार होते है। आवागमन वायु मार्ग कोडरमा के सबसे नजदीक रांची विमानक्षेत्र है। यहां से पर्यटक आसानी से कोडरमा तक पहुंच सकते हैं।राँची से कोडरमा की दुरी सड़क मार्ग से 160 किलोमीटर है। रेल मार्ग देश के प्रमुख भागों से कोडरमा के लिए कई रेलगाड़ियां हैं। यह ग्रैंड कोर्ड लाइन पर अवस्थित स्टेशन है जो ,हावड़ा- मुगल सराय के बीच एक वैकल्पिक सेवा विशेषकर कोयला और अभ्रख के लिए बना था। दिल्ली से हावड़ा जाने वाली कई गाड़ियों का यहाँ ठहराव है। इनके अलावा कुछ राजधानी और शताब्दी भी यहाँ रूकती है। वर्तमान में कोडरमा जक्शन बन गया है,,जो एक तरफ हजारीबाग और दुसरी तरफ गिरीडीह से संपर्क स्थापित कर लेगी।इस स्टेशन का कोड KQR है। इन रेलगाडियों से पर्यटक आसानी से कोडरमा तक पहुंच सकते हैं। सड़क मार्ग पटना-रांची रोड से बसों व निजी वाहन द्वारा कोडरमा तक पहुंचा जा सकता है।कोडरमा NH-31 पर अवस्थित है। ग्रैंड ट्रंक रोड( NH-2) से कोडरमा की दुरी मात्र 30 km है। सड़क की स्थिति भी आवागमन के लिए बेहतर है। राँची से पटना जाने वाली गाडियाँ कोडरमा होकर ही जाती है। अन्य जिलों से SH( राज्य पथों) से जुड़ी है। अभ्रख, पत्थर के व्यवसाय के कारण व्यवसायिक वाहन भी खुब चलते है। इन्हें भी देखें कोडरमा ज़िला सन्दर्भ कोडरमा ज़िला झारखंड के शहर कोडरमा ज़िले के नगर
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सिन्धु नदी एशिया की सबसे लंबी नदियों में से एक है। यह पाकिस्तान, भारत (जम्मू और कश्मीर) और चीन (पश्चिमी तिब्बत) के माध्यम से बहती है। सिन्धु नदी का उद्गम स्थल, तिब्बत के मानसरोवर के निकट सिन-का-बाब नामक जलधारा माना जाता है। इस नदी की लंबाई प्रायः ३६१० किलोमीटर है। यहां से यह नदी तिब्बत और कश्मीर के बीच बहती है। नंगा पर्वत के उत्तरी भाग से घूम कर यह दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के बीच से गुजरती है और फिर जाकर अरब सागर में मिलती है। इस नदी का ज्यादातर अंश पाकिस्तान में प्रवाहित होता है। यह पाकिस्तान की सबसे लंबी नदी और राष्ट्रीय नदी है। सिंधु की पांच उपनदियां हैं। इनके नाम हैं: वितस्ता, चन्द्रभागा, ईरावती, विपासा एंव शतद्रु. इनमें शतद्रु सबसे बड़ी उपनदी है। सतलुज/शतद्रु नदी पर बना भाखड़ा-नंगल बांध के द्वारा सिंचाई एंव विद्दुत परियोजना को बहुत सहायता मिली है। इसकी वजह से पंजाब (भारत) एंव हिमाचल प्रदेश में खेती ने वहां का चेहरा ही बदल दिया है। वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे जम्मू व कश्मीर की राजधानी श्रीनगर स्थित है। परिचय सिंध नदी उत्तरी भारत की तीन बड़ी नदियों में से एक हैं। इसका उद्गम बृहद् हिमालय में कैलाश से ६२.५ मील उत्तर में सेंगेखबब के स्रोतों में है। अपने उद्गम से निकलकर तिब्बती पठार की चौड़ी घाटी में से होकर, कश्मीर की सीमा को पार कर, दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के रेगिस्तान और सिंचित भूभाग में बहती हुई, कराँची के दक्षिण में अरब सागर में गिरती है। इसकी लंबाई लगभग २,००० मील है। बल्तिस्तान में खाइताशो ग्राम के समीप यह जास्कार श्रेणी को पार करती हुई १०,००० फुट से अधिक गहरे महाखड्ड में, जो संसार के बड़े खड्डों में से एक हैं, बहती है। जहाँ यह गिलगित नदी से मिलती है, वहाँ पर यह वक्र बनाती हुई दक्षिण पश्चिम की ओर झुक जाती है। अटक में यह मैदान में पहुँचकर काबुल नदी से मिलती है। सिंध नदी पहले अपने वर्तमान मुहाने से ७० मील पूर्व में स्थित कच्छ के रन में विलीन हो जाती थी, पर रन के भर जाने से नदी का मुहाना अब पश्चिम की ओर खिसक गया है। झेलम, चिनाव, रावी, व्यास एवं सतलुज सिंध नदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। इनके अतिरिक्त गिलगिट, काबुल, स्वात, कुर्रम, टोची, गोमल, संगर आदि अन्य सहायक नदियाँ हैं। मार्च में हिम के पिघलने के कारण इसमें अचानक भयंकर बाढ़ आ जाती है। बरसात में मानसून के कारण जल का स्तर ऊँचा रहता है। पर सितंबर में जल स्तर नीचा हो जाता है और जाड़े भर नीचा ही रहता है। सतलुज एवं सिंध के संगम के पास सिंध का जल बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए प्रयुक्त होता है। सन्‌ १९३२ में सक्खर में सिंध नदी पर लॉयड बाँध बना है जिसके द्वारा ५० लाख एकड़ भूमि की सिंचाई की जाती है। जहाँ भी सिंध नदी का जल सिंचाई के लिए उपलब्ध है, वहाँ गेहूँ की खेती का स्थान प्रमुख है और इसके अतिरिक्त कपास एवं अन्य अनाजों की भी खेती होती है तथा ढोरों के लिए चरागाह हैं। हैदराबाद (सिंध) के आगे नदी ३,०० वर्ग मील का डेल्टा बनाती है। गाद और नदी के मार्ग परिवर्तन करने के कारण नदी में नौसंचालन खतरनाक है। सिन्धु घाटी सभ्यता (३३००-१७०० ई.पू.) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। इतिहास ऋग्वेद में कई नदियों का वर्णन किया गया है, जिनमें से एक का नाम "सिंधु" है। ऋग्वैदिक "सिंधु" को वर्तमान सिंधु नदी माना जाता है। यह अपने पाठ में १७६ बार, बहुवचन में ९४ बार, और सबसे अधिक बार "नदी" के सामान्य अर्थ में उपयोग किया जाता है। ऋग्वेद में, विशेष रूप से बाद के भजनों में, ईस शब्द का अर्थ विशेष रूप से सिंधु नदी को संदर्भित करने के लिए संकीर्ण है| उदाहरण के लिए : नादिस्तुति सुक्त के भजन में उल्लिखित नदियों की सूची में। ऋग्वैदिक भजन में ब्रम्हपुत्र को छोड़कर, सभी नदियों को स्त्री लिंग में वर्णित किया है। सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख शहर, जैसे हड़प्पा और मोहन जोदड़ो, लगभग ३३०० ईसा पूर्व के हैं, और प्राचीन विश्व की कुछ सबसे बड़ी मानव बस्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता पूर्वोत्तर अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत तक फैली हुई है, जो ऊपरी सतलुज पर झेलम नदी के पूर्व से रोपड़ तक जाती है। तटीय बस्तियाँ पाकिस्तान, ईरान सीमा से सटकर आधुनिक गुजरात, भारत में कच्छ तक फैली हुई हैं। उत्तरी अफगानिस्तान में शॉर्टुघई में अमु दरिया पर सिंधु स्थल है, और हिण्डन नदी पर सिंधु स्थल आलमगीरपुर दिल्ली से केवल २८ किमी (१७ मील) की दूरी पर स्थित है। आज तक, १,०५२ से अधिक शहर और बस्तियां पाई गई हैं, मुख्य रूप से घग्गर-हकरा नदी और इसकी सहायक नदियों के सामान्य क्षेत्र में है। बस्तियों में हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के प्रमुख शहरी केंद्रों के साथ-साथ लोथल, धोलावीरा, गनेरीवाला और राखीगढ़ी शामिल थे। सिंधु और उसकी सहायक नदियों पर ८०० से अधिक ज्ञात सिंधु घाटी स्थलों में से केवल ९०-९६ की खोज की गई है। अब सतलुज, हड़प्पा काल में सिंधु की एक सहायक नदी, घग्गर-हकरा नदी में बह गई, जिसके जलक्षेत्र में सिंधु की तुलना में अधिक हड़प्पा स्थल थे। भूगोल सहायक नदियाँ ब्यास नदी चिनाब नदी गार नदी गिलगित नदी गोमल नदी हुनजा नदी झेलम नदी काबुल नदी कुनार नदी कुर्रम नदी पानजनाद नदी रावी नदी श्योक नदी सून नदी सुरू नदी सतलुज नदी स्वात नदी ज़ांस्कर नदी झॉब नदी बाहरी कड़ियाँ Blankonthemap उत्तरी कश्मीर वेबसाइट उत्तरी क्षेत्रों के विकास गेटवे माउंटेन क्षेत्रों संरक्षण परियोजना सिंधु संधि Baglihar बांध के मुद्दे सिंधु सिंधु वन्यजीव सिन्धु नदी विश्व की नदियाँ भारत की नदियाँ पाकिस्तान की नदियाँ तिब्बत की नदियाँ ऋग्वैदिक नदियाँ
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "सिन्धु नदी", "token_count": 7303, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A5%81%20%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%80" }
नदी भूतल पर प्रवाहित एक जलधारा है, जिसका स्रोत प्रायः कोई झील, हिमनद, झरना या बारिश का पानी होता है तथा किसी सागर अथवा झील में गिरती है। नदी शब्द संस्कृत के नद्यः से आया है। संस्कृत में ही इसे सरिता भी कहते हैं। नदी दो प्रकार की होती है- सदानीरा या बरसाती। सदानीरा नदियों का स्रोत झील, झरना अथवा हिमनद होता है और वर्ष भर जलपूर्ण रहती हैं, जबकि बरसाती नदियाँ बरसात के पानी पर निर्भर करती हैं। गंगा, यमुना, कावेरी, ब्रह्मपुत्र, अमेज़न, नील आदि सदानीरा नदियाँ हैं। नदी के साथ मनुष्य का गहरा सम्बंध है। नदियों से केवल फसल ही नहीं उपजाई जाती है बल्कि वे सभ्यता को जन्म देती हैं अपितु उसका लालन-पालन भी करती हैं। इसलिए मनुष्य हमेशा नदी को देवी के रूप में देखता आया है। हमारे अतीत में ऋषि, मुनियों ने इन नदियों के किनारे ज्ञान को प्राप्त किया। अभी भी बड़े बड़े विकसित महानगर नदियों के किनारे बसे हैं। मानव सभ्यता और सस्कृति नदियों के किनारे ही फली फुली है। इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहां मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहां तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए शर्म की बात है, जो नदियों को मां मानते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है। वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे 38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहां आदिकाल से नदियां मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं। उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी मां के समान है। उस स्थिति में मां से स्नेह पाने की आशा और देना संतान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ, बल्कि वे वहां पनपी भी हैं। वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएं जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियां वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियां। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो। असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रूपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत 20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे। कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है। इसकी शुरूआत राजीव गांधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी। अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289 किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएं भी सूख गई हैं। आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। प्रदेश के ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में स्थपित 5795 हाइड्रोग्राफ स्टेशन (निरीक्षण कूप एवं पीजोमीटर) पर प्रत्येक वर्ष प्री एवं पोस्ट मानसून सहित कुल 6 बार जल स्तर मापन का कार्य किया जाता है। प्रदेश में विभिन्न स्थलों पर जल स्तर में सामान्यत काफी भिन्नता पायी गयी है और यह जलस्तर 2 मी० से 30 मी० अथवा अधिक गहराई पर भूतल से नीचे निरीक्षित किया जाता रहा है। केन्द्रीय और पूर्वी क्षेत्रों मे जलस्तर में काफी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। शारदा सहायक कैनाल कमांड क्षेत्र में जलस्तर 2 मी० से भी कम निरीक्षित किया गया है जबकि गंगा के किनारे प्राकृतिक तटबंधी वाले क्षेत्रों में जलस्तर 20 मी० गहराई पर पाया गया है। सबसे अधिक गहराई वाला जलस्तर बेतवा और यमुना नदी की घाटियों में पाया गया है जिनमें आगरा, इटावा, हमीरपुर, जालौन, बांदा, इलाहाबाद और झॉसी जनपद सम्मिलित है। मार्जिनल एलूवियम प्लेन में यमुना नदी के किनारे जलस्तर सबसे अधिक गहराई भूतल से 40 मी० तक मापी गयी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े भूभाग में जलस्तर अपेक्षाकृत अधिक गहराई पर उपलब्ध है। नदी द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां : Landforms created by rivers – नदी मुख्य रूप से तीन प्रकार का कार्य करती हैं। अपरदन, परिवहन तथा निक्षेपण। नदी द्वारा निर्मित होने वाली स्थलाकृतियां (Landforms created by rivers) उसके वेग, ढाल और जल की मात्रा पर निर्भर करते है। इन क्रियाओं से विभिन्न प्रकार के स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। नदी के अपरदन (erosion) कार्य को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं:- 1.ढाल 2.जल की मात्रा धरातल की संरचना : नदी द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां : Landforms created by rivers नदी द्वारा अपरदन का कार्य : अपघर्षण नदी के जल के साथ बहने वाले पदार्थ नदी (river) के तल को खरोच कर गहरा करते हैं। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं। संक्षारण नदी (river) के जल के साथ चट्टानों के खनिज घुल कर बह जाते हैं यह क्रिया संक्षारण कहलाती है। सनीघर्षण जल के साथ प्रवाहित होने वाले चट्टानों के टुकड़े आपस में रगड़ खाकर और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं इसे सनीघर्षण कहते हैं। जल गति क्रिया इस क्रिया में जल यांत्रिक विधि द्वारा चट्टानों के कणों को ढीला कर उन्हें बहा ले जाती है। इस क्रिया में किसी भी प्रकार के रसायनिक तत्व का संयोग नहीं होता है।गिलबर्ट महोदय बताया है कि यदि नदी का वेग दोगुना हो जाए तो उसकी अपरदन शक्ति चौगुनी हो जाती है तथा यदि नदी का वेग दोगुना हो जाए तो उसका भार वहन करने की क्षमता 64 गुनी हो जाती है। इसी को ही गिल्बर्ट की छठी शक्ति का सिद्धांत कहते हैं। == नदी अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां : Landforms created by rivers erosion == नदी अपरदन की क्रिया से निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है:- V आकार की घाटी। नदी (river) के ऊपरी भाग में ढाल तीव्र होता है जिसके कारण नदी तली में अपरदन कार्य अधिक करती है। जिससे V आकार की घाटी का निर्माण हो जाता है। गार्ज़ पर्वतीय क्षेत्रों में नदी अपने तल भाग का तीव्र गति से अपरदन करती हैं। जिससे घाटी के दीवारें लंबवत हो जाती हैं। यह घाटी बहुत संकरी होती है। इस प्रकार की घाटी को ही गार्ज़ या महा खंड कहते हैं। भारत में सिंधु, सतलाज, ब्रह्मपुत्र नदियों के घाटियां गार्ज़ का निर्माण करती हैं। केनियान गार्ज़ का विस्तृत रूप ही केनियान कहलाता है। यह गार्ज़ की तुलना में अधिक गहरा और संर्करा होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरेडो नदी ग्रैंड कैनयन का निर्माण करती है। जल प्रपात जब नदियों का जल ऊंचे भाग से तीव्र ढाल के सहारे लंबवत नीचे गिरता है तो इसे जलप्रपात करते हैं। जब नदी के मार्ग में कठोर चट्टान के बाद कोमल चट्टान की स्थिति होती है तो कोमल चट्टाने कटकर बह जाती हैं तथा जलप्रपात का निर्माण होता है। जल गर्तिकाए नदी की तली में कठोर चट्टानों के बीच जब किसी स्थान पर कोमल चट्टाने होती हैं तो वहां की मिट्टी का अपरदन हो जाता है। जिससे छोटे-छोटे गर्त बन जाते हैं। इन्हें ही जल गर्तिकाए कहते है। इन गर्तों में चट्टानों के छोटे-छोटे टुकड़े प्रवेश कर जल के साथ घूमने लगते हैं। जो गर्तो को खरोच कर बड़ा कर देते हैं। == नदियों द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां (निपेक्षणात्मक) : Landforms created by rivers Depositional == नदी जब पर्वतीय क्षेत्र से मैदानी भाग में प्रवेश करती है तो उसके वेग में काफी कमी आ जाती है। जिसके कारण नदी के साथ बहने वाले मोटे अवसाद जमा हो जाते हैं। जिससे जलोढ़ शंकु तथा जलोढ़ पंख का निर्माण होता है। नदी अपने मध्य भाग में निम्नलिखित स्थल आकृतियों का निर्माण करते हैं:- जलोढ़ शंकु तथा जलोढ़ पंख। नदियां पहाड़ी भाग से मैदानों में प्रवेश कर मंद गति से बहने लगती हैं। जिससे पर्वतपदीय क्षेत्र में मोटे अवसादों का जमाव हो जाता है। ये तिकोने रचना जलोढ शंकु कहलाते हैं। जलोढ संकु से होकर मुख्य नदी कई शाखाओं में विभक्त होकर बहने लगती है। जिससे जलोढ़ पंखों का निर्माण होता है। प्राकृतिक बांध मैदानी भागों में नदी अपने दोनों किनारों पर मिट्टियों का जमाव करती है। जिससे दोनों तरफ बांध जैसी रचना का निर्माण हो जाता है। इसे ही प्राकृतिक तटबंध कहते हैं। बाढ़ के मैदान नदी की धारा के निकट क्षेत्र जहां बार-बार बाढ़ आती है वहां इकट्ठा बजरी, रेत इत्यादि नीचे पड़ी चट्टानों को छुपा देते हैं। इसके ऊपर मुलायम मिट्टी जमा हो जाती है। इस प्रकार के बने मैदान को बाढ़ का मैदान कहते हैं। ये काफी उपजाऊ होती है। नदी विसर्प। मैदानी भागों में नदियां घुमावदार मार्ग से होकर बहती है जिसे नदी विसर्प कहते हैं। गोखुर झील। कभी कभी नदी का विसर्प इतना अधिक घुमावदार हो जाता है की नदी विसर्प को छोड़कर सीधी बहने लगती है। जिससे नदी का एक हिस्सा अलग हो जाता है। इसे ही गोखुर झील या छाड़न झील कहते हैं। डेल्टा नदी के निम्न भाग में भूमि का ढाल काफी कम हो जाता है। जिससे नदी के बोझ की मात्रा बढ़ जाती है। नदी अपने निम्न भाग में अपना अधिकतम निक्षेपण कार्य करती है नदी के इस निक्षेपण से डेल्टा का निर्माण होता है। इस भाग में नदियां कई भागों में विभाजित होकर बहती है जिसे गुंफित नदी कहते हैं। संदर्भ नदी के 3 भूवैज्ञानिक कार्य भी हैं,जो इस प्रकार हैं:- 1. अपरदन 2. परिवहन 3. निक्षेपण 1) अपरदन :-नदी का अपरदन कार्य निम्न क्रियाओ के संयुक्त प्रयास से होता हैं,- १. संक्षारण , २.द्रवचालित क्रिया, ३. अपघर्षण, ४. सन्निघर्षण 2) नदी परिवहन:- नदी में विद्यमान अपरदित पदार्थ जल के साथ एक स्थान से दूसरे तक प्रवाह के साथ परिवहन को कहते है। 3) नदी निक्षेपण:- नदी द्वारा अपरदित पदार्थो का वेग में कमी तथा अपरदित पदार्थों का निक्षेप ही नदी निक्षेपण नदियाँ जलसमूह 4) भूगर्भ :- जो पानी बरसात या बाढ के द्वारा गांव मे स्थित तलाब कुआ छोटी नदियो मे एकत्रित होकर धीरे धीरे रिस कर धरती के अन्दर समा जाता है |
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भारतीय जनता पार्टी (संक्षिप्त में, भा॰ज॰पा॰) भारत में एक राजनीतिक दल है, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ दो प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों में से एक है। 2014 के बाद से, यह १४वें एवं वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तहत भारत में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल रहा है। भाजपा दक्षिणपन्थी राजनीति से जुड़ी हुई है, और इसकी नीतियों ने ऐतिहासिक रूप से एक पारंपरिक हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को प्रतिबिंबित किया है; इसके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ घनिष्ठ वैचारिक और संगठनात्मक संबंध हैं। 17 फरवरी 2022 तक, यह भारतीय संसद के साथ-साथ विभिन्न राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के मामले में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। भाजपा का दावा है कि अक्टूबर 2022 तक उसके 170 मिलियन (17 करोड़) से अधिक सदस्य हैं, और सदस्यों के संदर्भ में इसे दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी माना जाता है। परिचय भारतीय जनता पार्टी का मूल श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा १९५१(1951) में निर्मित भारतीय जनसंघ है। १९७७(1977) में आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी के निर्माण हेतु जनसंघ अन्य दलों के साथ विलय हो गया। इससे १९७७ में पदस्थ कांग्रेस पार्टी को १९७७ के आम चुनावों में हराना सम्भव हुआ। तीन वर्षों तक सरकार चलाने के बाद १९८०(1980) में जनता पार्टी विघटित हो गई और पूर्व जनसंघ के पदचिह्नों को पुनर्संयोजित करते हुये भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया गया। यद्यपि शुरुआत में पार्टी असफल रही और 1984 के आम चुनावों में केवल दो लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही।( इसका बड़ा कारण १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण उनके बेटे राजीव गांधी को सहानुभूति की लहर थी) इसके बाद राम जन्मभूमि आंदोलन ने पार्टी को ताकत दी। कुछ राज्यों में चुनाव जीतते हुये और राष्ट्रीय चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करते हुये १९९६ में पार्टी भारतीय संसद में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। इसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया जो १३ दिन चली। १९९८ में आम चुनावों के बाद भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का निर्माण हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी जो एक वर्ष तक चली। इसके बाद आम-चुनावों में राजग को पुनः पूर्ण बहुमत मिला और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार ने अपना कार्यकाल पूर्ण किया। इस प्रकार पूर्ण कार्यकाल करने वाली पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। २००४ के आम चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा और अगले १० वर्षों तक भाजपा ने संसद में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाई। २०१४ के आम चुनावों में राजग को गुजरात के लम्बे समय से चले आ रहे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारी जीत मिली और २०१४ में सरकार बनायी। इसके अलावा दिसम्बर २०१७ के अनुसार भारतीय जनता पार्टी भारत के २९ राज्यों में से १९ राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। भाजपा की कथित विचारधारा "एकात्म मानववाद" सर्वप्रथम १९६५ में दीनदयाल उपाध्याय ने दी थी। पार्टी हिन्दुत्व के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त करती है और नीतियाँ ऐतिहासिक रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर रही हैं। इसकी विदेश नीति राष्ट्रवादी सिद्धांतों पर केन्द्रित है। जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष संवैधानिक दर्जा ख़त्म करना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करना तथा सभी भारतीयों के लिए समान नागरिकता कानून का कार्यान्वयन करना भाजपा के मुख्य मुद्दे हैं। हालाँकि १९९८-२००४ की राजग सरकार ने किसी भी विवादास्पद मुद्दे को नहीं छुआ और इसके स्थान पर वैश्वीकरण पर आधारित आर्थिक नीतियों तथा सामाजिक कल्याणकारी आर्थिक वृद्धि पर केन्द्रित रही। मुखपत्र कमल सन्देश भारतीय जनता पार्टी का मुखपत्र है। प्रभात झा इसके सम्पादक हैं और संजीव कुमार सिन्हा सहायक सम्पादक। इतिहास भारतीय जनसंघ जनसंघ के नाम से प्रसिद्ध भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने प्रबल कांग्रेस के पार्टी के धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रत्युत्तर में राष्ट्रवाद के समर्थन में १९५१ में की थी। इसे व्यापक रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर॰एस॰एस॰) की राजनीतिक शाखा के रूप में जाना जाता था, जो स्वैच्छिक रूप से हिन्दू राष्ट्रवादी संघटन है और जिसका उद्देश्य भारतीय की "हिन्दू" सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करना और कांग्रेस तथा प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मुस्लिम और पाकिस्तान को लेकर तुष्टीकरण को रोकना था। जनसंघ का प्रथम अभियान जम्मू और कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय के लिए आंदोलन था। मुखर्जी को कश्मीर में प्रतिवाद का नेतृत्व नहीं करने के आदेश मिले थे। आदेशों का उल्लंघन करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जिनका कुछ माह बाद दिल का दौरा पड़ने से जेल में ही निधन हो गया। संघटन का नेतृत्व दीनदयाल उपाध्याय को मिला और अंततः अगली पीढ़ी के नेताओं जैसे अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को मिला। हालाँकि, उपाध्याय सहित बड़े पैमाने पर पार्टी कार्यकर्ता आर॰एस॰एस॰ के समर्थक थे। कश्मीर आंदोलन के विरोध के बावजूद १९५२ में पहले लोकसभा चुनावों में जनसंघ को लोकसभा में तीन सीटें प्राप्त हुई। वो १९६७ तक संसद में अल्पमत में रहे। इस समय तक पार्टी कार्यसूची के मुख्य विषय सभी भारतीयों के लिए समान नागरिकता कानून, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाना और जम्मू एवं कश्मीर के लिए दिया विशेष दर्जा खत्म करना थे। १९६७ में देशभर के विधानसभा चुनावों में पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और समाजवादियों सहित अन्य पार्टियों के साथ मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न हिन्दी भाषी राज्यों में गठबंधन सरकार बनाने में सफल रही। इससे बाद जनसंघ ने पहली बार राजनीतिक कार्यालय चिह्नित किया, यद्यपि यह गठबंधन में था। राजनीतिक गठबंधन के गुणधर्मों के कारण संघ के अधिक कट्टरपंथी कार्यसूची को ठण्डे बस्ते में डालना पड़ा। जनता पार्टी (१९७७-८०) १९७५ में प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया। जनसंघ ने इसके विरूद्ध व्यापक विरोध आरम्भ कर दिया जिससे देशभर में इसके हज़ारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। १९७७ में आपातकाल ख़त्म हुआ और इसके बाद आम चुनाव हुये। इस चुनाव में जनसंघ का भारतीय लोक दल, कांग्रेस (ओ) और समाजवादी पार्टी के साथ विलय करके जनता पार्टी का निर्माण किया गया और इसका प्रमुख उद्देश्य चुनावों में इंदिरा गांधी को हराना था। १९७७ के आम चुनाव में जनता पार्टी को विशाल सफलता मिली और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी। उपाध्याय के 1979 में निधन के बाद जनसंघ के अध्यक्ष अटल बिहारी बाजपेयी बने थे अतः उन्हें इस सरकार में विदेश मंत्रालय कार्यभार मिला। हालाँकि, विभिन्न दलों में शक्ति साझा करने को लेकर विवाद बढ़ने लगे और ढ़ाई वर्ष बाद देसाई को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा। गठबंधन के एक कार्यकाल के बाद १९८० में आम चुनाव करवाये गये। भाजपा (१९८० से अबतक) स्थापना और आरम्भिक काल भारतीय जनता पार्टी 1980 में जनता पार्टी के विघटन के बाद नवनिर्मित पार्टियों में से एक थी। यद्यपि तकनीकी रूप से यह जनसंघ का ही दूसरा रूप था, इसके अधिकतर कार्यकर्ता इसके पूर्ववर्ती थे और वाजपेयी को इसका प्रथम अध्यक्ष बनाया गया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि जनता सरकार के भीतर गुटीय युद्धों के बावजूद, इसके कार्यकाल में आर॰एस॰एस॰ के प्रभाव को बढ़ते हुये देखा गया जिसे १९८० के पूर्वार्द्ध की सांप्रदायिक हिंसा की एक लहर द्वारा चिह्नित किया जाता है। इस समर्थन के बावजूद, भाजपा ने शुरूआत में अपने पूर्ववर्ती हिन्दू राष्ट्रवाद का रुख किया इसका व्यापक प्रसार किया। उनकी यह रणनीति असफल रही और १९८४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केवल दो लोकसभा सीटों से संतोष करना पड़ा। चुनावों से कुछ समय पहले ही इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद भी काफी सुधार नहीं देखा गया और कांग्रेस रिकार्ड सीटों के साथ जीत गई। बाबरी ढाँचा विध्वंस और हिन्दुत्व आन्दोलन वाजपेयी के नेतृत्व वाली उदारवादी रणनीति अभियान के असफल होने के बाद पार्टी ने हिन्दुत्व और हिन्दू कट्टरवाद का पूर्ण कट्टरता के साथ पालन करने का निर्णय लिया। १९८४ में आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त किया गया और उनके नेतृत्व में भाजपा राम जन्मभूमि आंदोलन की राजनीतिक आवाज़ बनी। १९८० के दशक के पूर्वार्द्ध में विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने अयोध्या में बाबरी ढांचा के स्थान पर हिन्दू देवता राम का मन्दिर निर्माण के उद्देश्य से एक अभियान की शुरूआत की थी। यहाँ मस्जिद का निर्माण मुग़ल बादशाह बाबर ने करवाया था और इसपर विवाद है कि पहले यहाँ मन्दिर था। आंदोलन का आधार यह था कि यह क्षेत्र रामजन्मभूमि है और यहाँ पर मस्जिद निर्माण के उद्देश्य से बाबर ने मन्दिर को ध्वस्त करवाया। भाजपा ने इस अभियान का समर्थन आरम्भ कर दिया और इसे अपने चुनावी अभियान का हिस्सा बनाया। आंदोलन की ताकत के साथ भाजपा ने १९८९ के लोक सभा चुनावों ८६ सीटें प्राप्त की और समान विचारधारा वाली नेशनल फ़्रॉण्ट की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार का महत्वपूर्ण समर्थन किया। सितम्बर १९९० में आडवाणी ने राम मंदिर आंदोलन के समर्थन में अयोध्या के लिए "रथ यात्रा" आरम्भ की। यात्रा के कारण होने वाले दंगो के कारण बिहार सरकार ने आडवाणी को गिरफ़तार कर लिया लेकिन कारसेवक और संघ परिवार कार्यकर्ता फिर भी अयोध्या पहुँच गये और बाबरी ढाँचे के विध्वंस के लिए हमला कर दिया। इसके परिणामस्वरूप अर्द्धसैनिक बलों के साथ घमासान लड़ाई हुई जिसमें कई कर सेवक मारे गये। भाजपा ने विश्वनाथ प्रतापसिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और एक नये चुनाव के लिए तैयार हो गई। इन चुनावों में भाजपा ने अपनी शक्ति को और बढ़ाया और १२० सीटों पर विजय प्राप्त की तथा उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। ६ दिसम्बर १९९२ को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और इससे जुड़े संगठनों की रैली ने, जिसमें हजारों भाजपा और विहिप कार्यकर्ता भी शामिल थे ने मस्जिद क्षेत्र पर हमला कर दिया। पूर्णतः अस्पष्ट हालात में यह रैली एक उन्मादी हमले के रूप में विकसित हुई और बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ इसका अंत हुआ। इसके कई सप्ताह बाद देशभर में हिन्दू एवं मुस्लिमों में हिंसा भड़क उठी जिसमें २,००० से अधिक लोग मारे गये। विहिप को कुछ समय के लिए सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया और लालकृष्ण आडवाणी सहित विभिन्न भाजपा नेताओं को विध्वंस उत्तेजक भड़काऊ भाषण देने के कारण गिरफ़्तार किया गया। कई प्रमुख इतिहासकारों के अनुसार विध्वंस संघ परिवार के षडयंत्र का परिणाम था और यह महज एक स्फूर्त घटना नहीं थी। न्यायमूर्ति मनमोहन सिंह लिब्रहान द्वारा लिखित २००९ की एक रपट के अनुसार बाबरी मस्जिद विध्वंस में मुख्यतः भाजपा नेताओं सहित ६८ लोग जिम्मेदार पाये गये। इनमें वाजपेयी, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी भी शामिल हैं। मस्जिद विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की रपट में कठोर आलोचना की गई है। उनपर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने ऐसे नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों को अयोध्या में नियुक्त किया जो मस्जिद विध्वंस के समय चुप रहें। भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी और विध्वंस के दिन आडवाणी की तत्कालीन सचिव अंजु गुप्ता आयोग के सामने प्रमुख गवाह के रूप में आयी। उनके अनुसार आडवाणी और जोशी ने उत्तेजक भाषण दिये जिससे भीड़ के व्यवहार पर प्रबल प्रभाव पड़ा। १९९६ के संसदीय चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर केन्द्रित रही जिससे लोकसभा में १६१ सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। वाजपेयी को प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ दिलाई गई लेकिन वो लोकसभा में बहुमत पाने में असफल रहे और केवल १३ दिन बाद ही उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। राजग सरकार (१९९८-२००४) १९९६ में कुछ क्षेत्रिय दलों ने मिलकर सरकार गठित की लेकिन यह सामूहीकरण लघुकालिक रहा और अर्धकाल में ही १९९८ में चुनाव करवाने पड़े। भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) नामक गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरी जिसमें इसके पूर्ववरीत सहायक जैसे समता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना शामिल थे और इसके साथ ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और बीजू जनता दल भी इसमें शामिल थी। इन क्षेत्रिय दलों में शिव सेना को छोड़कर भाजपा की विचारधारा किसी भी दल से नहीं मिलती थी; उदाहरण के लिए अमर्त्य सेन ने इसे "अनौपचारिक" (एड-हॉक) सामूहिकरण कहा था। बहरहाल, तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) के बाहर से समर्थन के साथ राजग ने बहुमत प्राप्त किया और वाजपेयी पुनः प्रधानमन्त्री बने। हालाँकि, गठबंधन १९९९ में उस समय टूट गया जब अन्ना द्रमुक नेता जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया और इसके परिणामस्वरूप पुनः आम चुनाव हुये। १३ अक्टूबर १९९९ को भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को बिना अन्ना द्रमुक के पूर्ण समर्थन मिला और संसद में ३०३ सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। भाजपा ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुये १८३ सीटों पर विजय प्राप्त की। वाजपेयी तीसरी बर प्रधानमन्त्री बने और आडवाणी उप-प्रधानमन्त्री तथा गृहमंत्री बने। इस भाजपा सरकार ने अपना पाँच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया। यह सरकार वैश्वीकरण पर आधारित आर्थिक नीतियों तथा सामाजिक कल्याणकारी आर्थिक वृद्धि पर केन्द्रित रही। २००१ में बंगारू लक्ष्मण भाजपा अध्यक्ष बने जिन्हें की घूस स्वीकार करते हुये दिखाया गया जिसमें उन्हें रक्षा मंत्रालय से सम्बंधित कुछ खरीददारी समझौतों की तहलका पत्रकार ने चित्रित किया। भाजपा ने उन्हें पद छोड़ने को मजबूर किया और उसके बाद उनपर मुकदमा भी चला। अप्रैल २०१२ में उन्हें चार वर्ष जेल की सजा सुनाई गई जिनका १ मार्च २०१४ को निधन हो गया। २००२ के गुजरात दंगे २७ फ़रवरी २००२ को हिन्दू तीर्थयात्रियों [कारसेवकों] को ले जा रही एक रेलगाडी को गोधरा कस्बे के बाहर मुस्लिमों द्वारा [[,आग लगा दी गयी। यह रेलगाड़ी अयोध्या से आ रही थी और इस बीभत्स कृत्य में ५९ लोग मारे गये। इस घटना को हिन्दुओं पर हमले के रूप में देखा गया और इसने गुजरात राज्य में भारी मात्रा में मुस्लिम-विरोधी हिंसा को जन्म दिया जो कई सप्ताह तक चली। कुछ अनुमानों के अनुसार इसमें मरने वालों की संख्या २००० तक पहुँच गई जबकि १५०,००० लोग विस्थापित हो गये। बलात्कार, अंगभंग और यातना के घटनायें बड़े पैमाने पर हुई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य सरकार के उच्च-पदस्थ अधिकारियों पर हिंसा आरम्भ करने और इसे जारी रखने के आरोप लगे क्योंकि कुछ अधिकारियों ने कथित तौर पर दंगाइयों का निर्देशन किया और उन्हें मुस्लिम स्वामित्व वाली संपत्तियों की सूची दी। अप्रैल २००९ में सर्वोच्य न्यायालय ने गुजरात दंगे मामले की जाँच करने और उसमें तेजी लाने के लिए एक विशेष जाँच दल (एस॰आई॰टी॰) घटित किया। सन् २०१२ में मोदी एस॰आई॰टी॰ ने मोदी को दंगों में लिप्त नहीं पाया लेकिन भाजपा विधायक माया कोडनानी दोषी पाया जो मोदी मंत्रिमण्डल में कैबिनेट मंत्री रह चुकी हैं। कोडनानी को इसके लिए २८ वर्ष की जेल की सजा सुनाई गई। पॉल ब्रास, मरथा नुस्सबौम और दीपांकर गुप्ता जैसे शोधार्थियों के अनुसार इन घटनाओं में राज्य सरकार की उच्च स्तर की मिलीभगत थी। २००४, २००९ के आम चुनावों में हार वाजपेयी ने २००४ में चुनाव समय से छः माह पहले ही करवाये। राजग का अभियान "इंडिया शाइनिंग" (उदय भारत) के नारे के साथ शुरू हुआ जिसमें राजग सरकार को देश में तेजी से आर्थिक बदलाव का श्रेय दिया गया। हालाँकि, राजग को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा और लोकसभा में कांग्रेस के गठबंधन के २२२ सीटों के सामने केवल १८६ सीटों पर ही जीत मिली। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के मुखिया के रूप में मनमोहन सिंह ने वाजपेयी का स्थान ग्रहण किया। राजग की असफलता का कारण भारत के ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचने में असफल होना और विभाजनकारी रणनीति को बताया गया। मई २००८ में भाजपा ने कर्नाटक राज्य चुनावों में जीत दर्ज की। यह प्रथम समय था जब पार्टी ने किसी दक्षिण भारतीय राज्य में चुनावी जीत दर्ज की हो। हालाँकि, इसने २०१३ में अगले विधानसभा चुनावों में इसे खो दिया। २००९ के आम चुनावों में इसकी लोकसभा में क्षमता घटते हुये ११६ सीटों तक सीमित रह गई। २०१४ के आम चुनावों में जीत २०१४ के आम चुनावों में भाजपा ने २८२ सीटों पर जीत प्राप्त की और इसके नेतृत्व वाले राजग को ५४३ लोकसभा सीटों में से ३३६ सीटों पर जीत प्राप्त हुई। यह १९८४ के बाद पहली बार था कि भारतीय संसद में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला। भाजपा संसदीय दल के नेता नरेन्द्र मोदी को २६ मई २०१४ को भारत के १५वें प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ दिलाई गयी। २०१९ के आम चुनावों में प्रचण्ड जीत २०१९ के आम चुनावों में भाजपा ने ३०३ सीटों पर प्रचण्द जीत प्राप्त की और इसके नेतृत्व वाले राजग को ५४३ लोकसभा सीटों में से ३५२ सीटों पर जीत प्राप्त हुई। आम चुनावों में भारतीय जनाता पार्टी का निर्माण आधिकारिक रूप से १९८० में हुआ और इसके बाद प्रथम आम चुनाव १९८४ में हुये जिसमें पार्टी केवल दो लोकसभा सीटे जीत सकी। इसके बाद १९९६ के चुनावों तक आते-आते पार्टी पहली बार लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन इसके द्वारा बनायी गई सरकार कुछ ही समय तक चली। १९९८ और १९९९ के चुनावों में यह सबसे बड़े दल के रूप में रही और दोनो बार गठबंधन सरकार बनाई। २०१४ के चुनावों में संसद में अकेले पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। १९९१ के बाद भाजपा के बाद जब भी भाजपा सरकार में नहीं थी तब प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाई। विचारधारा और नीतियां भाजपा की आधिकारिक विचारधारा एकात्म मानववाद है। इसके अतिरिक्त भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, और पार्टी के कई अन्य नेताओं ने गांधीवादी समाजवाद को पार्टी के लिए एक अवधारणा के रूप में स्वीकार किया था। भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा के अनुसार भगवा मतलब भाजपा नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हम सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास के सूत्र पर काम करते हैं। आर्थिक नीतियाँ स्थापना के बाद से भाजपा की आर्थिक नीतियाँ बहुत सीमा तक बदलती रहीं है। इस दल के अन्दर विभिन्न प्रकार की आर्थिक विचार देखने को मिलते हैं। १९८० के दशक में, अपने पितृ दल (भारतीय जनसंघ) की तरह इस दल के आर्थिक सोच में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की आर्थिक सोच का प्रभाव था। भाजपा स्वदेशी तथा देशी उद्योगों को बचाने वाली व्यापार नीति की समर्थक थी। किन्तु भाजपा ने आन्तरिक उदारीकरण का समर्थन किया और राज्य द्वारा समर्थिक औद्योगीकरण का विरोध किया, जिसका कांग्रेस समर्थन करती थी। सुरक्षा एवं आतंकवाद-विरोधी नीतियाँ सुरक्षा एवं आतंकवाद के विरोध से सम्बन्धित भाजपा की नीतियाँ कांग्रेस की नीतियों से अधिक आक्रामक और राष्ट्रवादी हैं। विदेश नीति ऐतिहासिक रूप से भाजपा की विदेश नीति, जनसंघ की ही भांति, अखंड हिन्दू राष्ट्रवाद पर आधारित रही है जिसमें आर्थिक संरक्षणवाद का मिश्रण है। संगठनात्मक संरचना भाजपा संगठन ठीक रूप से श्रेणीबद्ध है जिसमें अध्यक्ष पार्टी सर्वाधिकार रखता है। वर्ष २०१२ तक भाजपा संविधान में यह अनिवार्य किया गया कि कोई भी योग्य सदस्य तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तरीय अध्यक्ष बन सकता है। वर्ष २०१२ में यह संशोधन भी किया गया कि तीन वर्ष के लगातार अधिकतम दो कार्यकाल पूर्ण किये जा सकते हैं। अध्यक्ष के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी होगी जिसमें परिवर्तनीय मात्रा में कुछ देशभर से वरिष्ठ नेता होते हैं और यह कार्यकारिणी पार्टी की उच्च स्तर के निर्णय लेने की क्षमता रखती है। इसके सदस्यों में से कुछ उपाध्यक्ष, महासचिव, कोषाध्यक्ष और सचिव होते हैं जो सीधे अध्यक्ष के साथ काम करते हैं। इसी के अनुरूप सरंचना अध्यक्ष के नेतृत्व वाली कार्यकारिणी राज्य, क्षेत्रिय, जिला और स्थानीय स्तर पर भी होगी। भाजपा विशाल ढांचे वाला दल है। इसके समान विचारधारा वाले अन्य संगठनों के साथ सम्बंध रहते हैं जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद। इसका समूहों का ढ़ाँचा भाजपा का पूरक हो सकता है और इसके सामान्य कार्यकर्ता आर॰एस॰एस॰ अथवा इससे जुड़े संगठनों से व्युत्पन्न अथवा शिथिलतः कहा जाये तो संघ परिवार से सम्बंध हो सकते हैं। भाजपा के अन्य सहयोगियों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) शामिल है जिसमें आरएसएस की छात्रा इकाई, भारतीय किसान संघ, उनकी किसान शाखा, भारतीय मजदूर संघ और आरएसएस से सम्बद्ध मज़दूर संघ भी शामिल हैं। भाजपा के अन्य सहायक संघठन भी हैं जैसे भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा इसका अल्पसंख्यक भाग है। अटल बिहारी वाजपेई- १९९९-२००४ प्रधानमन्त्रियों की सूची विभिन्न राज्यों में उपस्थिति दिसंबर 2018 तक, 12 राज्यों में भाजपा के मुख्य मंत्री हैं: अरुणाचल प्रदेश असम (असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ) गोवा (गोवा फॉरवर्ड पार्टी और महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी के साथ) गुजरात हरियाणा ( जननायक जनता पार्टी के साथ ) झारखंड (ऑल् झारखंड स्टुडेन्ट युनियन् (आजसू) के साथ) महाराष्ट्र (शिवसेना के साथ) मणिपुर (नागा पीपुल्स फ्रंट, नेशनल पीपल्स पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ) उत्तर प्रदेश उत्तराखंड हिमाचल प्रदेश त्रिपुरा चार अन्य राज्यों में, यह अन्य राजनीतिक दलों के साथ सत्ता में भागीदारी करता है इन सभी राज्यों में, बीजेपी सत्तारूढ़ गठबंधन में जूनियर सहयोगी है। राज्य हैं: बिहार (जनता दल (यूनाइटेड)(जदयू) और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ) नागालैंड (नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ) मेघालय (नेशनल पीपल्स पार्टी के साथ) मिज़ोरम (मिज़ो नेशनल फ्रंट के साथ) पूर्व में, बीजेपी निम्नलिखित राज्यों में सत्ता में एकमात्र पार्टी रही है- दिल्ली कर्नाटक राजस्थान मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ यह निम्नलिखित राज्यों में सरकार का एक हिस्सा रहा है जैसा कि एक जूनियर सहयोगी पिछले गठबंधन सरकारों का हिस्सा है: ओडिशा (बीजू जनता दल के साथ) पुडुचेरी (अखिल भारतीय एन.आर। कांग्रेस के साथ) पंजाब (शिरोमणि अकाली दल के साथ) जम्मू और कश्मीर (जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ) निम्नलिखित राज्यों में भाजपा सरकार का हिस्सा कभी नहीं रही है: केरल तमिलनाडु तेलंगाना (हालांकि, बीजेपी ने तेलंगाना क्षेत्र को आंध्र प्रदेश के रूप में शासन किया था और इसके सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी को राज्य के विभाजन के पहले) पश्चिम बंगाल उत्तर-पूर्व में पूर्व-पूर्व लोकतांत्रिक गठबंधन नामक एक क्षेत्रीय राजनीतिक गठबंधन भी है। पार्टी अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष दल के चुने हुए प्रमुख होते है। अध्यक्ष पद पर नियुक्ति दो सालों के लिए हुआ करती थी और लगातार दो सत्रों तक हो सकती थी। इस नियम को बदल कर अब ये तीन साल और लगातार दो सत्रोंतक हो चुकी है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के नेतृत्व में २०१४ में देश में प्रचंड विजय हासिल की और सरकार बनाने में सफल हुई। और दोबारा २०१९ में अमित शाह के नेतृत्व में सफलता पाई। इन्हें भी देखें भारत की राजनीति अखिल भारतीय जनसंघ जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व भारतीय राष्ट्रवाद सन्दर्भ एवं स्रोत सन्दर्भ स्रोत Elst, K. (1997). Bharatiya Janata Party vis-à-vis Hindu resurgence. नई दिल्ली: Voice of India. बाहरी कड़ियाँ भाजपा का आधिकारिक जालस्थल चुनाव आयोग की वैबसाईट पर पार्टी का आंतरिक संविधान भाजपा मित्र नामक संगठन का जालस्थल ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी हिन्दू विवेक केन्द्र भारत के राष्ट्रीय राजनीतिक दल
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टाटा मोटर्स (अंग्रेज़ी: TATA Motors) भारत में व्यावसायिक वाहन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इसका पुराना नाम टेल्को (टाटा इंजिनीयरिंग ऐंड लोकोमोटिव कंपनी लिमिटेड) था। यह टाटा समूह की प्रमुख कंपनियों में से एक है। इसकी उत्पादन इकाइयाँ भारत में जमशेदपुर (झारखंड), पुणे (महाराष्ट्र) और लखनऊ (उत्तर प्रदेश) सहित अन्य कई देशों में हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है टाटा घराने द्वा्रा इस कारखाने की शुरुआत अभियांत्रिकी और रेल इंजन के लिये हुआ था। किन्तु अब यह कम्पनी मुख्य रूप से भारी एवं हल्के वाहनों का निर्माण करती है। इसने ब्रिटेन के प्रसिद्ध ब्रांडों जगुआर और लैंड रोवर को खरीद लिया है। टाटा मोटर्स के उत्पाद यात्री कार एवं अन्य वाहन टाटा सियरा टाटा एस्टेट टाटा सूमो/स्पासियो टाटा सफारी टाटा इंडिका टाटा इंडिगो टाटा इंडिगो मरीना टाटा नैनो कान्सेप्ट वाहन 2000 एरिया रोडस्टार 2001 एरिया कूप 2002 टाटा इंडिका 2004 टाटा इंडिगो एडवेन्ट 2005 टाटा होवर 2006 टाटा क्लिफराईडर 2007 टाटा एलेगेन्ट व्यवसायिक वाहन टाटा एस टाटा टीएल/टेलीकोलीन/207 डीआई पिकअप ट्रक टाटा 407 Ex and Ex2 टाटा 709 Ex टाटा 809 Ex and Ex2 टाटा 909 Ex and Ex2 टाटा 1109 (मध्यम ट्रक) टाटा 1510/1512 (मध्यम बस) टाटा 1610/1616 (भारी बस) टाटा 1613/1615 (मध्यम truck) टाटा 2515/2516 (मध्यम ट्रक) टाटा 3015 (भारी ट्रक) टाटा 3516 (भारी ट्रक) टाटा नोवस (भारी ट्रक टाटा देवूद्वारा डिजाईन किया गया) सैन्य वाहन टाटा 407 ट्रुप कैरियर, टाटा एलपीटीए 713 TC (4x4) टाटा एलपीटी 709 ई टाटा एसडी 1015 टीसी (4x4) टाटा एलपीटीए 1615 टीसी (4x4) टाटा एलपीटीए 1621 टीसी (6x6) टाटा एलपीटीए 1615 टीसी (4x2) अन्य टाटा मोटर्स ने वर्ष 2008 तक 60000 वनकैट एयरकार लगभग €2,500 की लागत पर बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। 2023 में टाटा मोटर्स ने नई उपलब्धि हासिल करते हुए, 50 लाख पैसेंजर गाड़ियों का निर्माण किया। 2004 में टाटा मोटर्स ने तकरीबन 1 मिलियन, तो वहीं 2010 में 2 मिलियन और 2015 में कंपनी का प्रोडक्शन 3 मिलियन और 2020 में 4 मिलियन तक पहुंच गया था। इन्हें भी देखें Part-time online jobs टाटा स्टील टाटा परिवार टाटानगर टाटा नैनो बाहरी कड़ियाँ मुख्य (भारत एवं अन्य) टाटा मोटर्स का आधिकारिक जालस्थल टाटा मोटर्स का अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक जालस्थल टाटा देवू हिस्पानो कारोचेरा - दक्षिण अफ्रीक युरोप टाटा मोटर्स - स्पेन टाटा मोटर्स - ईटली टाटा मोटर्स - हंगरी टाटा मोटर्स - तुर्की यूके स्थित टाटा मोटर्स के वाहन मालिकों का जालस्थल अफ्रीका टाटा मोटर्स - दक्षिण अफ्रीका टाटा ट्रक ऐंड बस - दक्षिण अफ्रीका सन्दर्भ टाटा मोटर्स जमशेदपुर कार ब्रांड झारखंड भारतीय कंपनियाँ बीएसई सेंसेक्स टाटा समूह
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "टाटा मोटर्स", "token_count": 3270, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B8" }
कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी उपशाखा के महानतम कवि थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाएँ सिक्खों के आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गयी हैं। वे एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उनका अनुसरण किया। कबीर पंथ नामक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा। जीवन परिचय कबीर साहब का जन्म कब हुआ, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। मोटे तौर पर उनका जन्म 14वीं-15वीं शताब्दी में काशी (वर्तमान समय का वाराणसी) में हुआ था। एक मान्यता के अनुसार उनका अवतरण सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था। जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उठा ले गए थे । उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। वे जुलाहे का कम करते थे। दिव्य धर्म यज्ञ कबीर जी के शिष्य धर्मदास द्वारा लिखित कबीर सागर मैं दिव्य धर्म यज्ञ का उल्लेख आता है जिसके अनुसार उस समय के पंडित और मौलवी जो पाखंड और दिखावा करने में अधिक विश्वास करते थे कबीर जी से नफरत करने लगे। एक बार कबीर जी को नीचा दिखाने के लिए उन लोगों ने एक षड्यंत्र रचा। उन लोगों ने मिलकर दुनिया भर में झूठी चिट्ठी लिखकर भिजवा दी कि कबीर जी भंडारा कर रहे हैं। जिसमें एक सोने की मोहर, दो दोहड़ तीन दिन तक हर खाने के साथ मुफ्त में दी जाएगी। निश्चित दिन पर काशी में कबीर जी की कुटिया के पास 18,00,000 लोगों की भीड़ जमा हो गई। उसी समय एक महान चमत्कार हुआ। एक केशव बंजारा नाम का व्यापारी 900000 बैलों पर लादकर भंडारे का सामान लेकर आया और सभी लोगों को तीन दिन तक रूचिकर भोजन से तृप्त किया और वादे के अनुसार सारी सामग्री भी बांटी, जिसमें हर खाने के साथ एक सोने की मोहर और दो दोहड़ दी गई । कहा जाता है कि यह सब करने के लिए परमात्मा कैशव बंजारा का रूप धर कर आए और यह सब लीला की। इस भंडारे में दिल्ली का बादशाह सिकंदर लोदी भी शामिल हुआ। जिसका मंत्री शेखतकी जो कबीर जी से बहुत ईर्ष्या करता था,वह भी शामिल हुआ। कहा जाता है कि शेखतकी ने वहां भी कबीर साहेब के भंडारे की निंदा की जिसके बाद उसकी जीभ ही बंद हो गई और वह जिंदगी भर बोल नहीं पाया। इस भंडारे के बाद कबीर जी के अनेकों लोगों ने कबीर जी के ज्ञान को समझा और उनसे उपदेश लिया। इस भंडारे की याद में कबीर जी के अनुयाई हर साल दिव्य धर्मयज्ञ नाम से उत्सव मनाते हैं। भाषा कबीर की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी है। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है। ऐसा माना जाता है की रमैनी और सबद में ब्रजभाषा की अधिकता है तो साखी में राजस्थानी व पंजाबी मिली खड़ी बोली की। कृतियां क्षितिमोहन सेन ने कबीर साहेब जी द्वारा लिखित मुख्य रूप से छह ग्रंथ हैं: कबीर साखी: इस ग्रंथ में कबीर साहेब जी साखियों के माध्यम से सुरता (आत्मा) को आत्म और परमात्म ज्ञान समझाया करते थे। कबीर बीजक: कबीर की वाणी का संग्रह उनके शिष्य धर्मदास ने बीजक नाम से सन् 1464 में किया। इस ग्रंथ में मुख्य रूप से पद्य भाग है। बीजक के तीन भाग किए गए हैं — कबीर शब्दावली: इस ग्रंथ में मुख्य रूप से कबीर साहेब जी ने आत्मा को अपने अनमोल शब्दों के माध्यम से परमात्मा कि जानकारी बताई है। कबीर दोहवाली: इस ग्रंथ में मुख्य तौर पर कबीर साहेब जी के दोहे सम्मलित हैं। कबीर ग्रंथावली: इस ग्रंथ में कबीर साहेब जी के पद व दोहे सम्मलित किये गये हैं। कबीर सागर: यह सूक्ष्म वेद है जिसमें परमात्मा कि विस्तृत जानकारी है। कबीर पढ़े लिखे नहीं थे, इसलिए उनके दोहों को उनके शिष्यों द्वारा ही लिखा या संग्रीहित किया गया था। उनके दो शिष्यों, भागोदास और धर्मदास ने उनकी साहित्यिक विरासत को संजोया। कबीर के छंदों को सिख धर्म के ग्रंथ “श्री गुरुग्रन्थ साहिब” में भी शामिल किया गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर के 226 दोहे शामिल हैं और श्री गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल सभी भक्तों और संतों में संत कबीर के ही सबसे अधिक दोहे दर्ज किए गए हैं। क्षितिमोहन सेन ने कबीर के दोहों को काशी सहित देश के अन्य भागों के सन्तों से एकत्र किया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इनका अंग्रेजी अनुवाद करके कबीर की वाणी को विश्वपटल पर लाये। हिन्दी में बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी सहित अनेक विद्वानों ने कबीर और उनकी साहित्यिक साधना पर ग्रन्थ लिखे हैं। धर्म के प्रति कबीर साहेब जी के यहाँ साधु संतों का जमावड़ा रहता था। कबीर साहेब जी ने कलयुग में पढ़े-लिखे ना होने की लीला की, परंतु वास्तव में वे स्वयं विद्वान है। इसका अंदाजा आप उनके दोहों से लगा सकते हैं जैसे - 'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ। 'उन्होंने स्वयं ग्रंथ ना लिखने की भी लीला तथा अपने मुख कमल से वाणी बोलकर शिष्यों से उन्हे लिखवाया। आप के समस्त विचारों में रामनाम (पूर्ण परमात्मा का वास्तविक नाम) की महिमा प्रतिध्वनित होती है। कबीर परमेश्वर एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। मूर्तिपूजा, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर उनका विचार था की इन क्रियाओं से आपका मोक्ष संभव नहीं। वे कहते हैं- 'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'। और कभी "बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ "उस समय हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्म के लोग ही कबीर साहेब जी को अपना दुश्मन मानते थे क्योंकि वे अपना इकतारा लेकर दोनों धर्मों को परमात्मा की जानकारी दिया करते थे, वे समझाते थे कि हम सब एक ही परमात्मा के बच्चे हैं । उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुंच सके। कबीर साहेब जी को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है। कबीर साहेब जी सिर्फ मानव धर्म में विश्वास रखते थे। 'पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार। वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।' कबीर माया पापणी, फंध ले बैठी हटी । सब जग तौं फंधै पड्या, गया कबीरा काटी ॥ अर्थ - कबीर दास जी कहते है की यह पापिन माया फंदा लेकर बाज़ार में आ बैठी है । इसने  बहुत लोगों पर फंदा डाल दिया है , पर कबीर ने उसे काटकर साफ़ बाहर निकल आयें है । हरि भक्त पर फंदा डालने वाला खुद ही फंस जाता है । दोहे कबीर साहेब जी के प्रसिद्ध दोहे: भैसान्हि माॅह रहत नित बकुला, तकुला ताकी न लीन्हा हो। गाइन्ट माॅह बकेलु नहि कबहू , कैसे के पद पहिचनबहू हो।।कबीर,हाड़ चाम लहू ना मेरे, जाने कोई सतनाम उपासी। तारन तरन अभय पद दाता, मैं हूं कबीर अविनाशी।। भावार्थ: कबीर साहेब जी इस वाणी में कह रहे हैं कि मेरा शरीर हड्डी और मांस का बना नहीं है। जिसको मेरा द्वारा दिया गया सतनाम और सारनाम प्राप्त है, वह मेरे इस भेद को जानता है। मैं ही सबका मोक्षदायक हूँ, तथा मैं ही अविनाशी परमात्मा हूँ। क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई, देखत नैन चला जग जाई। एक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण कै दीवा न बाती।भावार्थ: यदि एक मनुष्य अपने एक पुत्र से वंश की बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे लंका के राजा रावण के एक लाख पुत्र थे तथा सवा लाख नाती थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से तू यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है।सतयुग में सतसुकृत कह टेरा,  त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा। द्वापर में करुणामय कहलाया, कलयुग में नाम कबीर धराया।।भावार्थ: कबीर परमेश्वर चारों युगों में आते हैं। कबीर साहिब जी ने बताया है कि सतयुग में मेरा नाम सत सुकृत था। त्रेता युग में मेरा नाम मुनिंदर था द्वापर युग में मेरा नाम करुणामय था और कलयुग में मेरा नाम कबीर है।कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार। तातें तो चक्की भली, पीस खाये संसार।।भावार्थ: कबीर साहेब जी हिंदुओं को समझाते हुए कहते हैं कि किसी भी देवी-देवता की आप पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं जो कि शास्त्र विरुद्ध साधना है। जो कि हमें कुछ नही दे सकती। इनकी पूजा से अच्छा चक्की की पूजा कर लो जिससे हमें खाने के लिए आटा तो मिलता है। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।।भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिंदुओं में फैले जातिवाद पर कटाक्ष करते हुए कहते थे कि किसी व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए बल्कि ज्ञान की बात करनी चाहिए। क्योंकि असली मोल तो तलवार का होता है, म्यान का नहीं।माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।भावार्थ: कबीर साहेब जी अपनी उपरोक्त वाणी के माध्यम से उन लोगों पर कटाक्ष कर रहे हैं जो लम्बे समय तक हाथ में माला तो घुमाते है, पर उनके मन का भाव नहीं बदलता, उनके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर जी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन को सांसारिक आडंबरों से हटाकर भक्ति में लगाओ।मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार । तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डारि ।।भावार्थ: परमात्मा कबीर जी हिन्दू और मुस्लिम दोनों को मनुष्य जीवन की महत्ता समझाते हुए कहते हैं कि मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता। इसी तरह मानव शरीर छूट जाने पर दोबारा मनुष्य जन्म आसानी से नही मिलता है, और पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।भावार्थ: कबीर साहेब लोगों को नेकी करने की सलाह देते हुए इस क्षणभंगुर मानव शरीर की सच्चाई लोगों को बता रहे हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी। कबीर दास के वचन कबीरदास कहते हैं कि यह संसार माया का खेल है माया के खेल में पढ़कर आत्मा अपने परमात्मा को भूल जाता है। परंतु मायाजाल को तोड़कर परमात्मा से मिले बिना उसे शांति किसी तरह से नहीं मिलती । माया के इस जाल को तोड़ने का उपाय केवल सदगुरू की कृपा से ही मालूम हो सकता है सदगुरू की कृपा बिना परमात्मा का दर्शन होना बहुत कठिन है। कंचन और कामिनी मनुष्य को माया के फेर में फंसाए रखता है जो इनको छोड़ देता है उसका तो उद्धार हो जाता है पर जो इनके पीछे पड़ा रहता है उसका उद्धार होना बहुत मुश्किल है सन्दर्भ इन्हें भी देखें कबीर पंथ भक्ति काल भक्त कवियों की सूची हिंदी साहित्य बाहरी कड़ियां कबीर की रचनाएं (कविताकोश) ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि भक्तिकाल के कवि हिन्दी साहित्य
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घाटशिला (Ghatshila) भारत के झारखण्ड राज्य के पूर्वी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक शहर है। खनन घाटशिला जमशेदपुर के पास स्थित एक छोटा शहर है जो अपने यूरेनियम, ताँबा और अन्य खनिजों की खान के लिये प्रसिद्ध है। यहीं पास में भारतीय यूरेनियम निगम का कारखाना स्थित है जो पूरे देश के यूरेनियम की जरूरत पूरी करता है। जनसँख्या भारत की जनगणना 2001 के अनुसार घाटशिला की जनसँख्या 37,850 है जिसमे 53% पुरुष और 47% महिलाएँ हैं। घाटशिला की औसत साक्षरता 73% है जो भारत के राष्ट्रीय साक्षरता - 59.5% से काफी अधिक है। साक्षर जनसँख्या में पुरुष साक्षरता 79% तथा महिला साक्षरता 65% है। घाटशिला की जनसँख्या का 11% छ: वर्ष से कम आयु के बच्चों का है। इन्हें भी देखें पूर्वी सिंहभूम ज़िला झारखण्ड भारतीय यूरेनियम निगम सन्दर्भ झारखंड के शहर पूर्वी सिंहभूम ज़िला पूर्वी सिंहभूम ज़िले के नगर
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बंगाल/बांग्ला (बांग्ला: বঙ্গ बंग, বাংলা बंगला, বঙ্গদেশ बंगदेश, संस्कृत: अङ्ग, वङ्ग) पुर्वी भारत पुर्वीभारतीय उपमहाद्वीप का एक वृहत् क्षेत्र है। वर्तमान मे बङ्ग-भङ्ग(अखण्ड बंगाल विभाजन) के बाद बंगाल दो हिस्सों में बट गया, पूर्वी हिस्सा पूर्वी बांग्लादेश एवं पश्चिमी हिस्सा पश्चिम बंगाल। बाद में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश और भारतीय संघीय प्रजातन्त्र का अंगभूत राज्य पश्चिम बंगाल के बीच में सहभाजी है, यद्यपि पहले बंगाली राज्य (स्थानीय राज्य का ढंग और ब्रिटिश के समय में) के कुछ क्षेत्र अब पड़ोसी भारतीय राज्य बिहार, त्रिपुरा और उड़ीसा में है। बंगाल में बहुमत में बंगाली लोग रहते हैं। इनकी मातृभाषा बांग्ला है। इतिहास प्राचीन काल में बंगाल मगध तथा अंग महाजनपद प्रदेशों का अंग था। मध्यकाल में दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा तथा बाद में नबाबों के हाथ चला गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा था। भूगोल आधुनिक बांग्लादेश का दक्षिणी क्षेत्र बहुत ही निम्न ऊंचाई पर स्थित समतल मैदान (डेल्टा) है। गंगा, ब्रह्मपुत्र प्रमुख नदियां हैं जिनकी संयुक्त धारा से बना डेल्टा सुन्दरवन, विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है। बंगाल का उत्तरी भाग हिमालय की तराई में बसा है जबकि पश्चिमी भाग छोटानागपुर के पठार का अंग है। सन्दर्भ टीका-टिप्पणी ग्रन्थसूची इन्हें भी देखें बंगाल का इतिहास बाहरी कड़ियाँ ऐतिहासिक विरासत वाला है पश्चिम बंगाल बंगाल भारत का भूगोल भारत के पारंपरिक क्षेत्र
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भुवनेश्वर (Bhubaneshwar) भारत के ओड़िशा राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा नगर है। प्रशासनिक रूप से यह खोर्धा ज़िले में स्थित है। यह पूर्व भारत का एक महत्वतपूर्ण आर्थिक व सांस्कृतिक केन्द्र है। भुवनेश्वर महानदी से दक्षिणपश्चिम में स्थित है। नगर के दक्षिण में दया नदी और पूर्व में कुआखाई नदी बहती है। विवरण भुवनेश्वर ओड़िशा का सबसे बड़ा नगर तथा पूर्वी भारत का आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह नगर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व में यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्‍वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रूप में परिणत हो गया था। भुवनेश्वर को पूर्व का 'काशी' भी कहा जाता है। यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्‍थल भी रहा है। प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहां फलता-फूलता रहा है। बौद्ध धर्म की तरह जैनों के लिए भी यह जगह काफी महत्‍वपूर्ण है। प्रथम शताब्‍दी में यहां चेदि वंश के एक प्रसिद्ध जैन राजा खारवेल हुए थे। इसी तरह सातवीं शताब्‍दी में यहां प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ था। इस प्रकार भुवनेश्वर वर्तमान में एक बहुसांस्‍कृतिक नगर है। ओड़िशा की इस वर्तमान राजधानी का निमार्ण इंजीनियरों और वास्‍तुविदों ने उपयोगितावादी सिद्धान्त के आधार पर किया है। इस कारण नया भुवनेश्वर प्राचीन भुवनेश्वर के समान बहुत सुंदर तथा भव्‍य नहीं है। यहां आश्‍चर्यजनक मंदिरों तथा गुफाओं के अलावा कोई अन्‍य सांस्‍कृतिक स्‍थान देखने योग्‍य नहीं है। १९७२ तक कटक शहर ओडिशा की राजधानी थी। उद्गम ‘भुवनेश्वर’ नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, भुवन – हिन्दू देवता शिव का रूप, जिनका नाम त्रिभुवन देव है और ईश्वर। मुख्य आकर्षण अनुश्रुतियों के अनुसार भुवनेश्‍वर में किसी समय 7000 मंदिर थे, जिनका निर्माण 700 वर्षों में हुआ था। लेकिन अब केवल 600 मंदिर ही बचे हैं। राजधानी से 100 किलोमीटर दूर खुदाई करने पर तीन बौद्ध विहारों का पता चला है। ये बौद्ध विहार थें रत्‍नागिरि, उदयगिरि तथा ललितगिरि। इन तीनों बौद्ध विहारों से मिले अवशेषों से अनुमान लगाया जा सकता है कि 13वीं शताब्‍दी तक बौद्ध धर्म यहां उन्‍नत अवस्‍था में था। बौद्ध धर्म की तरह यहां जैन धर्म से संबंधित कलाकृतियां भी मिलती है। राजधानी से 6 किलोमीटर दूर उदयगिरि तथा खणडगिरि की गुफाओं में जैन राजा खारवेल की बनवाई कलाकृतियां मिली है जोकि बहुत अच्‍छी अवस्‍था में है। राजा-रानी मंदिर इस मंदिर की स्‍थापना 11वीं शताब्‍दी में हुई थी। इस मंदिर में शिव और पार्वती की भव्‍य मूर्ति है। इस मंदिर के नाम से ऐसा लगता है मानो इसका नाम किसी राजा-रानी के नाम पर रखा गया हो। लेकिन स्‍थानीय लोगों का कहना कि चूंक‍ि यह मंदिर एक खास प्रकार के पत्‍थर से बना है जिसे राजारानी पत्‍थर कहा जाता है इसी कारण इस मंदिर का नाम राजा-रानी मंदिर पड़ा। इस मंदिर के दीवारों पर सुंदर कलाकृतियां बनी हुई हैं। ये कलाकृतियां खजुराहो मंदिर की कलाकृतियों की याद दिलाती हैं। प्रवेश शुल्‍क: भारतीयों के लिए 5 रु., विदेशियों के लिए 100 रु.। घूमने का समय: सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक। यह मंदिर सभी दिन खुला रहता है। स्‍टील कैमरे से इस मंदिर की फोटो खीचने पर कोई शुल्‍क नहीं लिया जाता। लेकिन इस मंदिर की वीडियोग्राफी का शुल्‍क 25 रु. है। राजा-रानी मंदिर से थोड़ा आगे जाने पर 'ब्राह्मेश्‍वर' मंदिर स्थित है। इस मंदिर की स्‍थापना 1060 ई. में हुई थी। इस मंदिर के चारों कानों पर चार छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं। इस मंदिर की दीवारों पर अदभूत नक्‍काशी की गई है। इनमें से कुछ कलाकृतियों में स्‍त्री-पुरुष को कामकला की विभिन्‍न अवस्‍थाओं में दर्शाया गया है। मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह राजा-रानी मंदिर से 100 गज की दूरी पर मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह है। इस समूह में दो महत्‍वपूर्ण मंदिर है: परमेश्‍वर मंदिर तथा मुक्‍तेश्‍वर मंदिर। इन दोनों मंदिरों की स्‍थापना 650 ई. के आसपास हुई थी। परमेश्‍वर मंदिर सबसे सुरक्षित अवस्‍था में है। यह मंदिर इस क्षेत्र के पुराने मंदिरों में सबसे आकर्षक है। इसके जगमोहन में जाली का खूबसूरत काम किया गया है। इसमें आकर्षक चित्रकारी भी की गई है। एक चित्र में एक नर्त्तकी और एक संगीतज्ञ को बहुत अच्‍छे ढ़ंग से दर्शाया गया है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है। यह शिवलिंग अपने बाद के लिंगराज मंदिर के शिवलिंग की अपेक्षा ज्‍यादा चमकीला है। परमेश्‍वर मंदिर की अपेक्षा मुक्‍तेश्‍वर मंदिर छोटा है। इस मंदिर की स्‍थापना 10वीं शताब्‍दी में हुई थी। इस मंदिर में नक्‍काशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस मंदिर में की गई चित्रकारी काफी अच्‍छी अवस्‍था में है। एक चित्र में कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाया गया है। एक अन्‍य चित्र में पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मंदिर के दरवाजे आर्क शैली में बने हुए हैं। इस मंदिर के खंभे तथा पि‍लर पर भी नक्‍काशी की गई है। इस मंदिर का तोरण मगरमच्‍छ के सिर जैसे आकार का बना हुआ है। इस मंदिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है। इसे लोग 'मारीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों का ऐसा कहना है कि इस कुंड के पानी से स्‍नान करने से महिलाओं का बाझंपन दूर हो जाता है। लिंगराज मंदिर समूह इस मंदिर समूह का निर्माण सोमवंशी वंश के राजा ययाति ने 11वीं शताब्‍दी में करवाया था। 185 फीट ऊंचा यह मंदिर कंलिगा स्‍कूल ऑफ आर्किटेक्‍चर का प्रतिनिधित्‍व करता है। यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार यह ओडिशा का सबसे महत्‍वपूर्ण मंदिर है। इस मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही 160 मी x 140 मी आकार का एक चतुर्भुजाकार कमरा मिलता है। इस मंदिर का शहतीर इस प्रकार बना हुआ है कि यह विस्‍मय और कौतुहल का एक साथ बोध कराता है। इस मंदिर का आकार इसे अन्‍य मंदिरों से अलग रूप में प्रस्‍तुत करता है। इस मंदिर में स्‍थापित मूर्तियां चारकोलिथ पत्‍थर की बनी हुई हैं। ये मूर्तियां समय को झुठलाते हुए आज भी उसी प्रकार चमक रही हैं। इन मूर्तियों की वर्तमान स्थिति से उस समय के मूर्तिकारों की कुशलता का पता चलता है। इस मंदिर की दीवारों पर खजुराहों के मंदिरों जैसी मूर्तियां उकेरी गई हैं। इसी मंदिर के भोग मंडप के बाहरी दीवार पर मनुष्‍य और जानवर को सेक्‍स करते हुए दिखाया गया है। पार्वती मंदिर जो इस मंदिर परिसर के उत्तरी दिशा में स्थित है, अपनी सुंदर नक्‍काशी के लिए प्रसिद्ध है। नोट: गैर हिन्‍दुओं को लिंगराज मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं है। लिंगराज मंदिर के आसपास का मंदिर इस मंदिर के चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर हैं लेकिन 'वैताल' मंदिर इनमें विशेष महत्‍व रखता है। इस मंदिर की स्‍थापना 8वीं शताब्‍दी के आसपास हुई थी। इस मंदिर में चामुंडा देवी की मूर्ति स्‍थापित है। यह मूर्ति देखने में काफी भयावह प्रतीत होती है। यह मंदिर चतुर्भुजाकार है। इस मंदिर में तांत्रिक, बौद्ध तथा वैदिक परम्‍परा सभी के लक्षण एक साथ देखने को मिलता है। राज्‍य संग्रहालय भुवनेश्‍वर जाने पर यहां का राज्‍य संग्रहालय जरुर घूमना चाहिए। यह संग्रहालय जयदेव मार्ग पर स्थित है। इस संग्रहालय में हस्‍तलिखित तारपत्रों का विलक्षण संग्रह है। यहां प्राचीन काल के अदभूत चित्रों का भी संग्रह है। इन चित्रों में प्रकृति की सुंदरता को दर्शाया गया है। इसी संग्रहालय में प्राचीन हस्‍तलिखित पुस्‍तक 'गीतगोविंद' है जिससे जयदेव ने 12वीं शताब्‍दी में लिखा था। प्रवेश शुल्‍क: 1 रु. मात्र। समय: 10 बजे सुबह से शाम 5 बजे तक। सोमवार बंद। भुवनेश्‍वर के आसपास देखने योग्‍य स्‍थान हीरापुर हीरापुर भुवनेश्‍वर से 15 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में भारत की सबसे छोटी योगिनी मंदिर 'चौसठ योगिनी' स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्‍दी में हुआ था। इसका उत्‍खनन 1958 ई. में किया गया था। यह मंदिर गोलाकार आकृति के रूप में बनी हुई है जिसका व्‍यास 30 फीट है। इसकी दीवारों की ऊंचाई 8 फीट से ज्‍यादा नहीं है। यह मंदिर भूरे बलूए पत्‍थर से निर्मित है। इस मंदिर में 64 योगिनियों की मूर्त्तियां बनाई गई है। इनमें से 60 मूर्त्तियां दीवारों के आले में स्थित है। शेष मूर्त्तियां मंदिर के मध्‍यम में एक चबूतरे पर स्‍थापित है। इस मंदिर का बाहरी दीवार भी काफी रोचक है। इन दीवारों में नौ आले हैं जिनमें महिला पहरेदार की मूर्त्तियां स्‍थापित है। प्रवेश शुल्‍क: 10 रु. मात्र। समय: 10 बजे सुबह से शाम 5 बजे तक। सभी दिन खुला रहता है। धौली धौली भुवनेश्‍वर के दक्षिण में राजमार्ग संख्‍या 203 पर स्थित है। यह वही स्‍थान है जहां अशोक कलिंग युद्ध के बाद पश्‍चात्ताप की अग्नि में जला था। इसी के बाद उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और जीवन भर अहिंसा के संदेश का प्रचार प्रसार किया। अशोक के प्रसिद्ध पत्‍थर स्‍तंभों में एक यहीं है। इस स्‍तंभ (257 ई.पू.) में अशोक के जीवन दर्शन का वर्णन किया गया है। यहां का शांति स्‍तूप भी घूमने लायक है जो कि धौली पहाड़ी के चोटी पर बना हुआ है। इस स्‍तूप में भगवान बुद्ध की मूर्त्ति तथा उनके जीवन से संबंधित विभिन्‍न घटनाओं की मूर्त्तियां स्‍थापित है। इस स्‍तूप से 'दया नदी' का विहंगम नजारा दिखता है। प्रवेश शुल्‍क: नि:शुल्‍क। समय: सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक। सभी दिन खुला हुआ। उदयगिरि और खन्डगिरि उदयगिरि और खन्डगिरि की पहाडियां भुवनेश्‍वर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। उदयगिरि और खन्डगिरि (प्राचीन नाम स्‍कंधगिरि) की पहाडियों में पत्‍थरों को काट कर गुफाएं बनाई हुई हैं। इन गुफाओं का निर्माण प्रसिद्ध चेदी राजा खारवेल जैन मुनियों के निवास के लिए करवाऐ थे। इन गुफाओं में की गई अधिकांश चित्रकारी नष्‍ट हो गई है। गुफा संख्‍या 4 जिसे रानी गुफा के नाम से भी जाना जाता है, दो तल का है। यह एक आकर्षक गुफा है। इसमें बनाई गई कई मूर्त्तियां अभी भी सुरक्षित अवस्‍था में हैं। इस गुफा में सफाई का उत्तम प्रबंध था। ऐसा लगता है कि इसे बनाने वाले कारीगरों का तकनीकी ज्ञान काफी उन्‍नत था। गुफा संख्‍या 10 में जिसे गणेश गुफा भी कहा जाता है वहां गणेश की मनमोहक मूर्त्ति है। इस गुफा के दरवाजे पर दो हाथियों को दरबान के रूप में स्‍थापित किया गया है। लेकिन खन्डगिरि गुफा में बनी हुई जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्त्तियां नष्‍ट प्राय अवस्‍था में है। खान-पान ओडिशा और बंगाली भोजन को लगभग एक समान माना जाता है लेकिन स्‍वाद के मामले में एक-दूसरे से बहुत भिन्‍न। चावल ओडिशा का प्रधान भोजन है। 'पखाळ भात' यहां का एक लोकप्रिय डिश है। यह भोजन एक दिन पहले के चावल को आलू के साथ तल कर बनाया जाता है। इसके साथ आम, आलू भरता, बडी चूरा (एक मसालेदार व्‍यंजन), पोई- साग (यह साग उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में पाया जाता है) खाया जाता है। अगर ओडिशा जाएं तो 'छतु तरकारी' जरुर खाएं। यह एक तीखा भोजन है जो मसरुम से बनता है। यहां हर खाने में पंचफोरन मिलाने का रिवाज है। यह एक खास तरह का मसाला होता है। जिसे हर भोजन में मिला दिया जाता है। इसे भोजन में मिलाने से खाना स्‍वादिष्‍ट हो जाता है। इसके अलावा यहां का तड़का, डालमा, पीठा तथा नारियल के तेल में बने पूड़ी जरुर खाएं। ओडिशा के लोगों को बंगाली की तरह ही मछली खाने का बहुत शौक है। मछली का यहां कई डिश लोकप्रिय है। 'महूराली-चडचडी' एक प्रकार का डिश है जो छोटी मछली से बनाया जाता है। 'चिंगुडि' भी एक प्रकार डिश है जो चिलका झील में पाए जाने वाले झींगा मछली से बना होता है। यह भोजन तरकारी की तरह बनाया जाता है। इसी प्रकार का एक अन्‍य भोजन 'माछ-भजा' है‍ जो मीठे पानी में पाये जाने वाले रोहू मछली से बना होता है। ओडिआ लोग 'मनसा' मछली को सरसों के तेल में तल कर भी खाते हैं। भुवनेश्‍वर में कुछ व्‍यंजन कुछ खास स्‍थानों पर ही खाने चाहिए जैसे, डालमा निक्को पार्क या राजपथ में, ओडीसी बापूजी नगर, स्‍वास्‍ति प्‍लाजा, में फेयर लगुन तथा होटल क्राउन में। शाकाहारी व्‍यक्‍ितयों के लिए होटल हरेकृष्‍ण सबसे अच्‍छा माना जाता है। भुवनेश्‍वर से 12 किलोमीटर दूर राष्‍ट्रीय राजमार्ग संख्‍या 5 पर कटक जाने वाले रास्‍ते पर पाहाल गांव में प्रसिद्ध कलिंग स्‍वीट दुकान है। यहां भारत के तीन प्रसिद्ध मिठाईयां रसगुल्‍ला, चेन्‍नापोडा (छेनापोड) तथा चेन्‍नागाजा (छेनागजा) मिलती हैं। अगर आप भुवनेश्‍वर जाएं तो इन मिठाईयों का जरुर स्‍वाद लें। साथ ही यहां का दहीबाड़ा भी काफी प्रसिद्व है जोकि इमली की चटनी के साथ परोसा जाता है। उत्पाद यहां पत्‍थर से बने बहुत खूबसूरत सामान मिलते हैं। इन सामानों में म‍ूर्त्तियों से लेकर बर्त्तन तक शामिल है। पत्‍थर के बने कुछ बर्त्तनों को जरुर खरीदना चाहिए। जैसे, पत्‍थर के बने कप जिसे 'पथौरी' कहा जाता है। स्‍थानीय लोगों का मानना है यह दही जमाने के लिए सबसे अच्‍छा बर्त्तन है। पत्‍थर के बने इन सामानों को राज्‍य के हस्‍तशिल्‍प हाट (जोकि उत्‍कलिका बाजार में स्थित है) से खरीदना चाहिए। इसके अलावे अन्‍य उपयोगी सामानों को मंदिरों के आसपास से भी खरीदा जा सकता है। पत्‍थरों से बने वस्‍तुओं के अलावा सींग से बने वस्‍तुओं जैसे, पेन स्‍टैंड, कंघी, सिगरेट पाइप तथा अन्‍य सजावटी वस्‍तुओं को भी खरीदा जा सकता है। ओडिशा की साडि़यां भी काफी प्रसिद्ध हैं। खास कर जरीदार काम वाली साड़ी। इन साडियों को प्रियदर्शनी ओडीसी हैंडलूम,11 वेर्स्‍टन टॉवर, कलानिकेतन, कल्‍पना चौक या नया सड़क से खरीदा जा सकता है। इन्हें भी देखें खोर्धा ज़िला सन्दर्भ खोर्धा ज़िला ओड़िशा के शहर खोर्धा ज़िले के नगर भारत में नियोजित नगर भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ
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झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) झारखण्ड का एक प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दल है, जिसका प्रभाव क्षेत्र नव-सृजित झारखंड एवं उड़ीसा, बंगाल तथा छत्तीसगढ के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में है। शिबू सोरेन झामुमो के अध्यक्ष हैं। झारखंड के लिए इसका चुनाव चिन्ह धनुष और बाण है। पार्टी आधिकारिक तौर पर झारखण्ड के आदिवासी योद्धा बिरसा मुंडा के जन्मजयंती पर बनाई गई थी, जिन्होंने वर्तमान झारखंड में ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। झारखण्ड राज्य भी 2000 में बिरसा मुंडा के जन्मजयंती पर अस्तित्व में आया। इतिहास पार्टी का गठन कुर्मी नेता बिनोद बिहारी महतो ने 1967 में "शिवाजी समाज" की स्थापना की। संथाल नेता शिबू सोरेन ने 1969 में 'सोनत संथाली समाज' की स्थापना की। "झारखंड मुक्ति मोर्चा" की स्थापना बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और कॉमरेड डॉ. एके रॉय ने किया था। पार्टी आधिकारिक तौर पर झारखण्ड के 19वीं सदी के आदिवासी योद्धा बिरसा मुंडा के जन्मदिन पर बनाई गई थी, जिन्होंने वर्तमान झारखण्ड में ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। 4 फरवरी 1973 को बिनोद बिहारी महतो पार्टी के अध्यक्ष और शिबू सोरेन महासचिव बने। उस समय के प्रमुख पार्टी नेता थे: कॉमरेड एके रॉय (पार्टी सचिव-औद्योगिक और कोयला मजदूर समाज), निर्मल महतो (प्रमुख ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेता) और टेकलाल महतो, अन्य। प्रारंभिक वर्षों में झामुमो की स्थिति अपने शुरुआती वर्षों में, झामुमो ने औद्योगिक और खनन श्रमिकों को अपने पाले में लाया, जो मुख्य रूप से दलित और पिछड़े समुदायों जैसे सुडी, डोम, दुसाध और कुड़मी महतो, कोइरी, तेली, अहीर से संबंधित गैर-आदिवासी थे। हालाँकि कांग्रेस के दिवंगत सांसद ज्ञानरंजन के साथ सोरेन के जुड़ाव ने उन्हें नई दिल्ली में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीब ला दिया। उन्होंने 1972 में दुमका लोकसभा सीट जीती। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सोरेन के जुड़ाव से चिढ़कर, झामुमो के कुछ युवा सदस्यों ने जमशेदपुर में एक साथ मिलकर ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी का स्थापना किया। इसने 1991 के भारतीय आम चुनाव में झामुमो के विकास को प्रभावित नहीं किया जहां झामुमो ने छह सीटें जीतीं। 1980 में, झामुमो नेता बिनोद बिहारी महतो ने झामुमो द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने के फैसले के बाद "झारखंड मुक्ति मोर्चा (बी)" पार्टी का गठन किया। 1987 में झामुमो अध्यक्ष निर्मल महतो की कथित तौर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ हत्या के बाद बिनोद बिहारी महतो झामुमो में वापस लौट आए। जनवरी 1990 में झामुमो (बी) का झामुमो में विलय हो गया। राम दयाल मुंडा ने आदिवासियों के बीच बंटे हुए समूहों को एकजुट करके झारखण्ड के लिए आंदोलन को फिर से शुरू किया। उनके मार्गदर्शन में जून 1987 में झारखंड समन्वय समिति का गठन किया गया, जिसमें झामुमो गुटों सहित 48 संगठन और समूह शामिल थे। राम दयाल मुंडा, शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी, शैलेंद्र महतो और आजसू नेताओं जैसे सूर्य सिंह बेसरा और प्रभाकर तिर्की के कारण संक्षेप में एक राजनीतिक मंच साझा किया, लेकिन झामुमो ने जेसीसी से हाथ खींच लिया क्योंकि उसे लगा कि 'सामूहिक नेतृत्व 'एक तमाशा' है। झामुमो/आजसू और जेपीपी ने अंतरिम रूप से 1988-89 में तथाकथित बंदों और आर्थिक नाकाबंदी को सफलतापूर्वक आयोजित किया। झारखण्ड राज्य गठन के बाद झामुमो की स्थिति 2000 में बिहार विधानसभा ने झारखण्ड राज्य के निर्माण के लिए बिहार पुनर्गठन विधेयक-2000 पारित किया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखण्ड भारत का 28वां राज्य बना। 2013 में झामुमो ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के साथ गठबंधन किया था, जबकि 2014 में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) के समर्थन से सरकार बनाई। 2005 में झारखण्ड विधानसभा चुनाव हुए जिसके बाद झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत के अभाव में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। शिबू सोरेन तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने। मनमोहन सिंह सरकार में वो कोयला मंत्री रह चुके हैं। इसके अलावा झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन भी दो बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने। 13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन ने झारखण्ड के 9वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। 2019 में हेमंत सोरेन एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री चुने गए। मुख्यमंत्रियों की सूची 9 नवंबर 2000 को राज्य के गठन के बाद से झारखंड मुक्ति मोर्चा से झारखंड के मुख्यमंत्रियों की सूची निम्नलिखित है: उल्लेखनीय लोग शिबू सोरेन हेमंत सोरेन चम्पई सोरेन बिनोद बिहारी महतो निर्मल महतो हाजी हुसैन अंसारी सुनील कुमार महतो सनातन मांझी स्टीफन मरांडी जगरनाथ महतो विजय कुमार हंसदक दशरथ गागराई संजीब सरदार सुमन महतो सुधीर महतो नलिन सोरेन अमित कुमार चमरा लिंडा‌ पौलुस सुरीन दीपक बिरुवा निरल पुरती रवीन्द्र नाथ महतो जय प्रकाश भाई पटेल सीता सोरेन अनिल मुरमू शशिभूषण सामाड़ योगेन्द्र प्रसाद सन्दर्भ भारत के राजनीतिक दल झारखंड
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लक्षद्वीप (संस्कृत: लक्षद्वीप, एक लाख द्वीप), भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट से 200 से 440 किमी (120 से 270 मील) दूर लक्षद्वीप सागर में स्थित एक द्वीपसमूह है। पहले इन द्वीपों को लक्कादीव-मिनिकॉय-अमिनीदिवि द्वीप के नाम से जाना जाता था। यह द्वीपसमूह भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश होने के साथ साथ एक जिला भी है। पूरे द्वीपसमूह को लक्षद्वीप के नाम से जाना जाता है, हालाँकि भौगोलिक रूप से यह केवल द्वीपसमूह के केन्द्रीय उपसमूह का नाम है। यह द्वीपसमूह भारत का सबसे छोटा केंद्र-शासित प्रदेश है और इसका कुल सतही क्षेत्रफल सिर्फ 32 वर्ग किमी (12 वर्ग मील) है, जबकि अनूप क्षेत्र 4,200 वर्ग किमी (1,600 वर्ग मील), प्रादेशिक जल क्षेत्र 20,000 वर्ग किमी (7,700 वर्ग मील) और विशेष आर्थिक क्षेत्र 400,000 वर्ग किमी (150,000 वर्ग मील) में फैला है। इस क्षेत्र के कुल 10 उपखण्डों साथ मिलकर एक भारतीय जनपद की रचना करते हैं। कवरत्ती लक्षद्वीप की राजधानी है, और यह द्वीपसमूह केरल उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह द्वीपसमूह लक्षद्वीप-मालदीव-चागोस समूह के द्वीपों का सबसे उत्तरी भाग है, और यह द्वीप एक विशाल समुद्रमग्न पर्वत-शृंखला चागोस-लक्षद्वीप प्रवाल भित्ति के सबसे उपरी हिस्से हैं। चूँकि द्वीपों पर कोई आदिवासी आबादी नहीं हैं, इसलिए विशेषज्ञ इन द्वीपों पर मानव के बसने का अलग-अलग इतिहास सुझाते हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार 1500 ईसा पूर्व के आसपास इस क्षेत्र में मानव बस्तियाँ मौजूद थीं। नाविक एक लंबे समय से इन द्वीपों को जानते थे, इसका संकेत पहली शताब्दी ईस्वी से एरिथ्रियन सागर के पेरिप्लस क्षेत्र के एक अनाम संदर्भ से मिलता है। द्वीपों का उल्लेख ईसा पूर्व छठी शताब्दी की बौद्ध जातक कथाओं में भी किया गया है। सातवीं शताब्दी के आसपास मुस्लिमों के आगमन के साथ यहाँ इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ। मध्ययुगीन काल के दौरान, इस क्षेत्र में चोल राजवंश और कैनानोर के साम्राज्य का शासन था। कैथोलिक पुर्तगाली 1498 के आसपास यहाँ पहुँचे, लेकिन 1545 तक उन्हें यहाँ से खदेड़ दिया गया। इस क्षेत्र पर तब अरक्कल के मुस्लिम घराने का शासन था, उसके बाद टीपू सुल्तान का। 1799 में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अधिकांश क्षेत्र ब्रिटिशों के पास चले गए और उनके जाने के बाद, 1956 में केंद्र शासित प्रदेश का गठन किया गया। समूह के सिर्फ दस द्वीपों पर मानव आबादी है। 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार, केन्द्र-शासित प्रदेश की कुल जनसंख्या 64,473 थी। अधिकांश आबादी स्थानीय मुस्लिमों की है और उनमें से भी ज्यादातर सुन्नी सम्प्रदाय के शाफी सम्प्रदाय के हैं। द्वीप समूह जातीय रूप से निकटतम भारतीय राज्य केरल के मलयाली लोगों के समान हैं। लक्षद्वीप की अधिकांश आबादी मलयालम बोलती है जबकि और मिनिकॉय द्वीप पर माही या माह्ल भाषा सबसे अधिक बोली जाती है। अगत्ती द्वीप पर एक हवाई अड्डा मौजूद है। लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना और नारियल की खेती है, साथ ही टूना मछली का निर्यात भी किया जाता है। इतिहास इस क्षेत्र के शुरुआती उल्लेख एरिथ्रियन सागर के पेरिप्लस के एक अनाम लेखक के लेखों में मिलते है। संगम पाटिरुपट्टू में चेरों द्वारा द्वीपों के नियन्त्रण के सन्दर्भ भी मिलते हैं। स्थानीय परम्पराएँ और किंवदन्तियाँ के अनुसार इन द्वीपों पर पहली बसावत केरल के अन्तिम चेरा राजा चेरामन पेरुमल की काल में हुई थी। समूह में सबसे पुराने बसे हुए द्वीप अमिनी, कल्पेनी अन्दरोत, कवरत्ती और अगत्ती हैं। पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि पाँचवीं और छठी शताब्दी ईस्वी के दौरान इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म प्रचलन में था। लोकप्रिय परम्परा के अनुसार, 661 ईस्वी में उबैदुल्लाह द्वारा इस्लाम को लक्षद्वीप पर लाया गया था। उबैदुल्लाह की कब्र अन्दरोत द्वीप पर स्थित है। 11 वीं शताब्दी के दौरान, द्वीपसमूह पर अन्तिम चोल राजाओं और उसके बाद कैनानोर के राज्य का शासन था। 16 वीं शताब्दी में, ओरमुज और मालाबार तट और सीलोन के दक्षिण के बीच के समुद्र पर पुर्तगालियों का राज था। पुर्तगालियों ने 1498 की शुरुआत में द्वीपसमूह पर नियन्त्रण कर लिया था, और इसका मुख्य उद्देश्य नारियल की जटा से बने माल के दोहन था, 1545 में पुर्तगालियों को द्वीप से भगा दिया गया। 17 वीं शताब्दी में, द्वीप कन्नूर के अली राजा/ अरक्कल बीवी के शासन में आ गए, जिन्होंने इन्हें कोलाथिरिस से उपहार के रूप में प्राप्त किया था। अरब यात्री इब्न-बतूता की कहानियों में द्वीपों का भी विस्तार से उल्लेख है। 1787 में अमिनिदिवि समूह के द्वीप (अन्दरोत, अमिनी, कदमत, किल्तन, चेतलत, और बितरा) टीपू सुल्तान के शासन के तहत आ गए। तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद यह ब्रिटिश नियन्त्रण में चले गए और इन्हें दक्षिण केनरा से जोड़ा गया। बचे हुए द्वीपों को ब्रिटिश ने एक वार्षिक अदाएगी के बदले में काननोर के को सौंप दिया। अरक्कल परिवार के बकाया भुगतान करने में विफल रहने पर अंग्रेजों ने यह द्वीप फिर से अपने नियन्त्रण में ले लिए। ये द्वीप ब्रिटिश राज के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी के मालाबार जिले से जुड़े थे। स्वतन्त्र भारत 1 नवम्बर 1956 को, भारतीय राज्यों के पुनर्गठन के दौरान, प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए लक्षद्वीप को मद्रास से अलग कर एक केन्द्र-शासित प्रदेश के रूप में गठित किया गया। 1 नवम्बर 1973 के नया नाम अपनाने से पहले इस क्षेत्र को लक्कादीव-मिनिकॉय-अमिनीदिवि के नाम से जाना जाता था। मध्य पूर्व के लिए भारत की महत्वपूर्ण जहाज मार्गों की सुरक्षा के लिए, और सुरक्षा कारणों में द्वीपों की बढ़ती प्रासंगिकता को देखते हुए, एक भारतीय नौसेना आधार, आईएनएस द्वापरक्ष, को कवरत्ती द्वीप पर कमीशन किया गया। भूगोल (geography ) लक्षद्वीप द्वीपसमूह में बारह प्रवाल द्वीप (एटोल), तीन प्रवाल भित्ति (रीफ) और पाँच जलमग्‍न बालू के तटों को मिलाकर कुल 36 छोटे बड़े द्वीप हैं। प्रवाल भित्ति भी वास्तव में प्रवाल द्वीप ही हैं, हालाँकि ज्यादातर जलमग्न हैं, केवल थोड़ा सा वनस्पति रहित रेतीला हिस्सा पानी के निशान से ऊपर है। जलमग्न बालू तट भी जलमग्न प्रवाल द्वीप हैं। ये द्वीप उत्‍तर में 8 अंश और 12.3 अक्षांश पर तथा पूर्व में 71 अंश और 74 अंश देशान्तर पर केरल तट से लगभग 280 से 480 कि॰मी॰ दूर अरब सागर में फैले हुए हैं। मुख्य द्वीप कवरत्ती, अगत्ती, मिनिकॉय और अमिनी हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार इस क्षेत्र की कुल जनसंख्या 60,595 है। अगत्ती में एक हवाई अड्डा है और कोच्चि को सीधी उड़ान जाती है। भारतीय मूँगे के द्वीप द्वीपों के अमिनीदिवि उपसमूह (अमिनी, केल्तन, चेतलत, कदमत, बितरा, और पेरुमल पार) और द्वीपों के लक्कादिव उपसमूह (जिनमें मुख्य रूप से अन्द्रोत, कल्पेनी, कवरती, पित्ती, और सुहेली पार शामिल हैं), दोनों उपसमूह जलमग्न पित्ती बालू तट के माध्यम से आपस में जुड़े हैं। 200 किलोमीटर चौड़ा नाइन डिग्री चैनल के दक्षिणी छोर पर स्थित एक अकेला प्रवाल द्वीप मिनिकॉय द्वीप के साथ मिलकर,यह सब अरब सागर में भारत के कोरल द्वीप समूह का निर्माण करते हैं। यह सभी द्वीप प्रवाल से बने हैं और इनकी झालरादार प्रवाल भित्ति इनके किनारों के बहुत करीब है। द्वीप समूह के उत्तर में स्थित निम्न दो बालू तटों को समूह का हिस्सा नहीं माना जाता है: अंगरिया बालू तट अदस बालू तट द्वीप, भित्ति और बालू तट को तालिका में उत्तर से दक्षिण के क्रम में सूचीबद्ध किया गया है: वनस्पति और जीव सरकार एवं प्रशासन इन्हें भी देखें द्वीपसमूह सन्दर्भ भारत के केन्द्र शासित प्रदेश भारत के द्वीपसमूह लक्षद्वीप अरब सागर के द्वीप एशिया के द्वीप भारत के एटोल लक्षद्वीप के ज़िले
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शिलांग पूर्वोत्तर भारत के राज्य मेघालय में स्थित एक पर्वतीय स्थल एवं मेघालय की राजधानी है। यह ईस्ट खासी हिल्स जिले का मुख्यालय भी है। जनसंख्या की दृष्टि से २०११ की भारतीय जनगणना के अनुसार १,४३,२२९ के आंकड़े के साथ शिलांग का भारत में ३३०वां स्थान है। शहर के बारे में कहा जाता है कि नगर को घेरे हुए घूमती पहाड़ियां इसे ब्रिटिश लोगों को स्कॉटलैण्ड की याद दिलाती थीं। इसी लिये वे इसे स्कॉटलैण्ड ऑफ़ द ईस्ट कहा करते थे। शिलांग आकार में बढ़ता चला गया, क्योंकि १८६४ में इसे खासी एवं जयन्तिया हिल्स क्षेत्र का सिविल स्टेशन बनाया या था। १८७४ में असम के मुख्या आयुक्त प्रान्त (चीफ़ कमिश्नर्स प्रोविन्स) गठन किये जाने पर इसे नये प्रशासन का मुख्यालय घोषित किया गया। ऐसा इस स्थान की ब्रह्मपुत्र एवं सूरमा नदियों के बीच उपयुक्त स्थिति को देखते हुए तथा भारत के गर्म उष्णकटिबन्धीय जलवायु से अपेक्षाकृत शिलांग के ठण्डे मौसम को देखते हुए किया गया था। शिलांग २१ जनवरी १९७२ को नवीन मेघालय राज्य के गठन होने तक अविभाजित असम की राजधानी बना रहा और इसके बाद असम की राजधानी को गुवाहाटी में दिसपुर स्थानांतरित कर दिया गया। इतिहास ब्रिटिश राज्य के समय शिलांग संयुक्त असम की राजधानी था, और उसके बाद भी मेघालय के पृथक राज्य बन जाने तक बना रहा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ब्रिटिश सिविल सर्वेण्ट डैविड स्कॉट्ट नॉर्थ ईस्ट फ़्रंटियर के गवर्नर जनरल के एजेण्ट थे। प्रथम एंग्लो-बर्मीज़ युद्ध के समय ब्रिटिश अधिकारियों को सिल्हट को असम से जोड़ने हेतु मार्ग की आवश्यकता हुई। यह मार्ग खासी एवं जयन्तिया पर्वतमाला से निकलना था। डैविड स्कॉट्ट ने अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा खासी सियामों - अर्थात उनके प्रधान अध्यक्षों तथा अन्य लोगों से होने वाली समस्याओं का सामना किया। खासी पर्वत के सुहावने मौसम से प्रभावित हुए स्कॉट्ट ने सोहरा (चेरापुन्जी) के सियाम से १८२९ में ब्रिटिश लोगों के लिये एक आरोग्य निवास के प्रबन्ध हेतु समझौता भी किया। इस प्रकार खासी-जयन्तिया पर्वत क्षेत्र में ब्रिटिश आगमन आरम्भ हुआ। इसके परिणामस्वरूप खासी लोगों द्वारा भरपूर विरोध आरम्भ हुआ जो १८२९ के आरम्भ से जनवरी १८३३ तक चला। खासी संघ प्रमुखों का अंग्रेजों की सैन्य शक्ति के सामने कोई मुकाबला नहीं था। अन्ततः डेविड स्कॉट ने खासी प्रतिरोध के प्रमुख नेता, टिरोट सिंग के आत्मसमर्पण के लिए बातचीत की, जिसे कालान्तर में हिरासत में लेकर ढाका ले जाया गया और नज़रबन्द कर दिया गया। खासी प्रतिरोध के बाद इन पहाड़ियों में एक राजनीतिक एजेंट तैनात किया गया था, जिसका मुख्यालय सोहरा जिसे चेरापंजी भी कहा जाता था, वहां था। किन्तु सोहरा की जलवायु स्थिति और सुविधाओं ने अंग्रेजों को विशेष पसन्द नहीं आयी और इसके बाद वे शिलांग चले गए, जिसे तब येड्डो या "इवडु" के नाम से जाना जाता था जैसा कि स्थानीय लोग इसे कहते थे। "शिलांग" नाम को बाद में अपनाया गया था, क्योंकि नए शहर का स्थान शिलांग पीक से नीचे था। १८७४ में प्रशासन की सीट के रूप में शिलांग के साथ एक अलग मुख्य आयुक्त का गठन किया गया था एवं इसे चीफ़ कमिश्नरशिप बनाया गया। नए प्रशासन में सिल्हट शामिल था, जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है। मुख्य आयुक्त में शामिल नागा हिल्स (वर्तमान नागालैंड), लुशाई हिल्स (वर्तमान मिज़ोरम) के साथ-साथ खासी, जयंतिया और गारो हिल्स भी शामिल थे। १९६९ तक मेघालय के स्वायत्त राज्य के गठन के बाद शिलांग समग्र असम की राजधानी थी। जनवरी १९७२ में मेघालय को पूर्ण राज्य बना दिया गया। शिलांग म्युनिसिपल बोर्ड का १८७८ के समय से पुराना इतिहास है, जब १८७६ के बंगाल म्युनिसिपल एक्ट के तहत एक स्टेशन के रूप में मावखर और लाबान के गाँवों सहित शिलांग और उसके उपनगरों को मिलाकर एक घोषणा जारी की गई थी। शिलांग की नगरपालिका के भीतर (एसई मावखार, जाइयाव, झालुपाड़ा और मावप्रेम का भाग) और लाबान (लुम्परिंग, मडन लाबान, केंच का ट्रेस और रिलॉन्ग) १५ नवंबर १८७८ के समझौते के तहत माइलिम के हैन माणिक सियाम द्वारा सहमति व्यक्त की गई थी। ब्रिटिश युग के इतिहास में १८७८ से १९०० तक शिलांग का कोई निशान नहीं मिलता है। १२ जून १८९७ को आए महान भूकंप में शिलांग भी प्रभावित हुआ। रिक्टर पैमाने पर इस भूकंप की अनुमानित तीव्रता ८.१ थी। अकेले शिलांग शहर से सत्ताईस लोगों की मृत्यु हो गई थी और शहर का एक बड़ा भाग नष्ट हो गया था। भूगोल शिलांग की भौगोलिक स्थिति पर शिलांग पठार पर स्थित है जो उत्तरी भारतीय ढाल में एकमात्र प्रमुख उत्थान संरचना है। शहर पठार के केंद्र में स्थित है और पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जिनमें से तीन खासी परंपरा में पूजनीय हैं: लुम सोहपेटबिनेंग, लुम डेंगी, और लुम शिलांग। मेघालय की राजधानी शिलांग, गुवाहाटी से मात्र १०० कि.मी (६२ मील) की दूरी पर है, जहां रा.रा.-४० सड़क मार्ग द्वारा पहुँचा जा सकता है। यह हरी-भरी पहाड़ियों वाली लगभग २ घंटे ३० मिनट की यात्रा है जिसमें बीच में ही पूर्वोत्तर भारत की सबसे बड़ी उमियम झील के विहंगम दृश्य भी देखने को मिलते हैं। स्मार्ट सिटी मिशन शिलांग को केंद्र सरकार के "स्मार्ट सिटीज मिशन" अटल मिशन फॉर रेजुविनेशन एण्औड अर्रबन ट्रान्स्फ़ॉर्मेशन (AMRUT) के तहत अनुदान प्राप्त करने के लिए १००वें शहर के रूप में चुना गया है। जनवरी २०१६ में, स्मार्ट सिटीज़ मिशन के तहत २० शहरों की घोषणा की गई, इसके बाद मई २०१६ में १३ शहर, सितंबर २०१६ में २७ शहर, जून २०१७ में ३० शहर और २०२० में जनवरी में ९ शहर इसमें सम्मिलित किये गए हैं। स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत अंतिम रूप से चयनित १०० शहरों में कुल प्रस्तावित निवेश २,०५,०१८ करोड़ रुपये होगा। योजना के तहत, प्रत्येक शहर को विभिन्न परियोजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र से ५०० करोड़ रुपये का अनुदान मिलेगा। जलवायु शिलांग का मौसम प्रायः सुखद एवं प्रदूषण मुक्त रहता है। गर्मियों में तापमान २३°(७३° फ़ै) तथा सर्दियों में ४°(३९° फ़ै) के लगभग रहता है। कोपेन जलवायु वर्गीकरण के तहत यह शहर उपोष्णकटिबंधीय उच्चभूमि जलवायु (Cwb) है। इसकी ग्रीष्म ऋतु ठंडी और अत्यधिक वर्षा वाली होती है, जबकि इसकी सर्दियाँ ठंडी और शुष्क होती हैं। शिलांग मानसून की अनियमितता रहती है, मानसून जून में आता है और अगस्त के अंत तक लगभग बारिश होती है, किन्तु इसका आगमन और प्रस्थान अनिश्चित ही रहता है। यातायात हालांकि सड़क मार्ग द्वारा सुगम है, किन्तु शिलांग में रेल मार्ग अभी तक उपलब्ध नहीं है। सड़क मार्ग पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश राज्यों से शिलांग सड़क मार्ग द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। दो प्रधान राष्ट्रीय राजमार्ग यहां से निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग ४० – गुवाहाटी से जुड़ा हुआ। राष्ट्रीय राजमार्ग ४४ - त्रिपुरा एवं मिज़ोरम (रा.रा.४४ए) से जुड़ा हुआ। अन्य राज्यों की राज्य परिवहन बसें तथा निजी बस संचालकों की बसें शिलांग दैनिक रूप से आती जाती रहती हैं। यहां से पूर्वोत्तर राज्यों के विभिन्न नगरों जैसे गुवाहाटी, अगरतला, आइज़ोल को टैक्सी सेवा भी सदा उपलब्ध रहती है। चित्रित शिलांग बाईपास मार्ग ४७.०६ कि.मी (२९.२ मील) का एक दो लेन का सड़क मार्ग है जो उमियम (रा.रा-४०) से जोराबाद(रा.रा-४४) को जोड़ता है, और वहां से अन्य पूर्वोत्तर राज्यों जैसे त्रिपुरा एवं मिज़ोरम जाया जा सकता है। इस परियोजना की कुल लागत लगभग में यह दो वर्ष की अवधि (२०११-२०१३) में बनकर तैयार हुआ था। वायु मार्ग उमरोई विमानक्षेत्र शिलांग शहर से ३० कि.मी (१९ मील) में स्थित है। वर्ष २०१७ से यहां जोरहाट एवं कोलकाता को सीधी उड़ान चालू हुई थीं।. वर्तमान में इंडिगो एयरवेज़ की कोलकाता को सीधी उड़ान दैनिक रूप से नियमित उपलब्ध है। यहां से दिल्ली को सीधी उड़ान चालू करने के प्रयास निरन्तर जारी हैं। जनसांख्यिकी भारतीय जनगणना वर्ष शिलांग की कुल जनसंख्या १,४३,२२९ है, जिसमें ७०,१३५ पुरुष एवं ७३,०९४ स्त्रियां हैं। ०-६ वर्ष तक के आयु वर्ग की संख्या १४,३१७ है। शहर में कुल साक्षर वर्ग १,१९,६४२ है, जिसमें पुरुषों का ८३.५% तथा स्त्रियों का ८२.३% भाग है। शिलांग की ७+ वर्ष की प्रभावी साक्षरता दर ९२.८% है, जिसमें पुरुष दर ९४.८% तथा स्त्री दर ९०.९% है। यहां की अनुसूचित जाति/जनजाति जनसंख्या क्रमशः १,५५१ एवं ७३,३०७ है। शिलांग में कुल ३१,०२५ परिवार हैं। धार्मिक विश्लेषण नगर का मुख्य धर्म ईसाई धर्म है जो यहां की ४६.५% जनता द्वारा अगीकृत है,जिसके बाद दूसरा जनसंख्या भाग ४२.१% हिन्दुओं का है, फ़िर ४.५% इस्लाम के अनुयायी हैं। इसके बाद ६.९% लोग सिख, बौद्ध एवं जैन धर्म का पालन करते हैं। शिलांग महानगरीय क्षेत्र में लाईमुख्रा, लावसोतुन, मैडनार्टिंग, मावपत, नोंगक्सेह, नोंगथिम्मई, पिन्थोरउमख्रा, शिलांग छावनी, उमलिंगका तथा उम्प्लिंग आते हैं, जिनकी जनसंख्या ३,५४,७५९ है। इसमें से १२% १२ वर्ष से छोटे हैं। महानगर (मेट्रो) क्षेत्र की साक्षरता दर ९१% है। लोग शिलांग के अधिकांश लोग खासी नामक जनजाति के हैं। इस जनजाति‍ के अधिकतर लोग ईसाई धर्म को मानने वाले हैं। ये मूलतः खासी जनजातीय धर्म के पालक थे, किन्तु १९वीं से ईसाई मिअनरियों के आगमन एवं धर्मान्तरण के कारण अब अधिकतर खासी लोग ईसाई हैं। खासी जनजाति के बारे में विशेष बात यह है कि इस जनजाति में मातृ सत्तात्मक परिवार होते हैं अर्थात महिला को घर का मुखिया माना जाता है। जबकि भारत के अधिकांश परिवारों में पुरुष को प्रमुख माना जाता है। इस जनजाति में परिवार की सबसे बड़ी पुत्री को जमीन-जायदाद की अधिकारिणी बनाया जाता है। यहाँ माँ का उपनाम ही बच्चे अपने नाम के आगे लगाते हैं। हालांकि वर्तमान में बिहार, बंगाल व असम के कई परिवार यहाँ पर जीविका की दृष्टि से आकर बस गए हैं। स्थापना शिलांग 1864 ई. तक एक छोटा-सा गांव था। जो कि खासी और जेन्तिया पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यह बंगाल और असम की गर्मी के दिनों में राजधानी हुआ करती थी। आगे चलकर शिलांग को जनवरी 1972 में नवनिर्मित राज्य मेघालय की राजधानी बनाया गया। पर्यटन दर्शनीय स्थल शिलांग एक छोटा-सा शहर है जिसे पैदल घूमकर देखा जा सकता है। अपनी सुविधा के अनुसार सिटी बस या दिनभर के लिए ऑटो या टैक्सी किराए पर लेकर भी घूमा जा सकता है। शिलांग और उसके आसपास अनेक दर्शनीय स्थल है जैसे- शिलांग पीक: यह शिलांग का सबसे ऊंचा प्वाइंट है। इसकी ऊंचाई 1965 मीटर है। यहां से पूरे शहर का विहंगम नजारा देखा जा सकता है। रात के समय यहां से पूरे शहर की लाईट असंख्य तारों जैसी चमकती है। लेडी हैदरी पार्क: यह लगभग हर प्रकार के फूलों से सुसज्‍जित खूबसूरत पार्क है। इसमें एक छोटा चिड़ियाघर और अनेक प्रजातियों की तितलियों का संग्रहालय है। कैलांग रॉक: मेरंग-नोखलॉ रोड पर ग्रेनाइट की एक ऊंची और विशाल चट्टान है जिसे कैलांग रॉक के नाम से जाना जाता है। यह एक गोलाकार गुम्बदनुमा चट्टान है जिसका व्यास लगभग 1000 फुट है।वार्डस झील: यह कृत्रिम झील है जो घने जंगलों से घिरी है। मीठा झरना: हैप्पी वैली में स्थित यह झरना बहुत ऊंचा और बिलकुल सीधा है। मॉनसून में इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। निकटवर्ती स्थल चेरापूंजी यह शिलांग से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान दुनिया भर में मशहूर है। हाल ही में इसका नाम चेरापूंजी से बदलकर सोहरा रख दिया गया है। वास्तव में स्थानीय लोग इसे सोहरा नाम से ही जानते हैं। यह स्थान दुनियाभर में सर्वाधिक बारिश के लिए जाना जाता है, हालांकि अब यह ख्याति इसके समीप स्थित मौसिनराम ने अर्जित कर ली है। इसके नजदीक ही नोहकालीकाई झरना है, जिसे पर्यटक जरूर देखने जाते हैं। यहां कई गुफा भी हैं, जिनमें से कुछ कई किलोमीटर लम्बी हैं। चेरापूंजी बांगलादेश सीमा से काफी करीब है, इसलिए यहां से बांग्लादेश को भी देखा जा सकता है। उमियम शिलांग से 20 किलोमीटर दूर स्थित यह एक जलक्रीड़ा परिसर है, जो उमियाम जल विद्युत परियोजना की वजह से बनी झील पर स्थित है। यहां कई प्रकार की जलक्रीड़ाओं (वाटर स्पोर्ट्स) का आनन्द लिया जा सकता है। एलिफेण्ट प्रपात एलिफण्ट फॉल्स बहुत ही बडा झरना है जिसकी आवाज बहुत दूर से सुनी जा सकती है। पहाड़ी से बहुत नीचे उतरकर यह मनोरम दृश्य देखा जा सकता है। दृश्यांकन (फोटोग्राफी) के लिये इसे सर्वश्रेष्ठ झरना कहा जा सकता है क्योंकि इसमे झरने के पास जाया जा सकता है। मौसिनराम यह मनोरम पहाडियों के बीच में एक प्राकृतिक गुफा है। गुफा के मध्य बिल्कुल गौ थन के आकार की शिला से लगातार नीचे बने प्राकृतिक शिवलिंग पर बूंद बूंद गिरता पानी लगता है जैसे भगवान शिव का जलाभिषेक हो रहा हो। कुल मिलाकर हिंदु धर्म के अनुसार यह स्थल एक शक्ति पीठ बनने का सामर्थ्य रखता है। जैकरम, हाट सप्रिंग प्रकृति की अद्भुत देन यह स्थान बहुत ही सुंदर है। गंधक-युक्त गर्म पानी जो कि झरने से निकलता है चर्मरोंगो के लिये एक औषधि का कार्य करता है। झरने के पानी को पाईप लाईन द्वारा स्नान घर में पहुंचाया गया है जहां पर महिला व पुरूष आराम पूर्वक स्नान कर सकते हैं। स्नान करने के बाद पूरी थकान दूर हो जाती है। शिलांग पीक शिलांग पीक शिलांग शहर से लगभग 1500 फुट की उंचाई पर है इसलिए यहां का तपमान कम होता है। यहां पर भारतीय वायु सेना का पूर्वी कमांड का कार्यलय है। बहुत ऊँची चोटियों पर बड़े-बड़े रडार लगाए गये हैं। यह देश की सुरक्षा के लिये अत्यंत संवेदनशील है। शिलांग पीक पर खड़े होकर पूरे शहर को देखा जा सकता है। महादेवखोला मंदिर सुरंगमय पहाडियों के बीच में गोरखा रेजीमेंट द्वारा निर्मित एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर से भगवान शंकर की अनेक दंत कथाएं जुड़ी हुई है। शिलांग के मारवाड़ी समाज के लिये यह श्रद्धा का केन्द्र है। शिवरात्रि के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। शिलांग महाविद्यालय का जालघर] क्रीड़ा शिलांग पूर्वोत्तर भारत का एकमात्र राजधानी शहर है जहाँ से आई-लीग में भाग लेने वाले दो फुटबॉल क्लब हैं- रॉयल वाहिंगदोह एफसी और शिलांग लाजोंग एफसी। दोनों यहां के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में खेलते हैं। रॉयल वाहिंगदोह एफसी को आई-लीग के २०१४-१५ के सत्र में दूसरा उपविजेता घोषित किया गया था। शिलांग गोल्फ कोर्स देश के सबसे पुराने गोल्फ कोर्स में से एक है और यह देवदार और रोडोडेंड्रॉन पेड़ों से घिरा हुआ है। मेघालय की खासी जनजाति के लोगों में, तीरंदाजी एक खेल भी है तथा कई शताब्दियों से चला आ रहा रक्षा का एक रूप भी है और साथ ही जुआ (टेअर) का माध्यम भी है। जहाँ आधुनिक रीति-रिवाजों ने यहां की संस्कृति के कई पारंपरिक पहलुओं को बदल दिया है, तीरंदाजी स्थानीय लोगों के लिए एक व्यापक आकर्षण अभी भी बना हुआ है। बिनिंगस्टार लिंग्खोई शिलांग से एक राष्ट्रीय मैराथन धावक हैं और पिछले २०१० राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। ये २:१८ घंटे के समय के साथ भारत में सबसे तेज मैराथन धावक खिलाड़ी हैं। शिक्षा स्वायत्त संस्थान पूर्वोत्तर इंदिरा गांधी क्षेत्रीय स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संस्थान भारतीय प्रबंधन संस्थान राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान राष्ट्रीय फैशन टेक्नालॉजी संस्थान, शिलांग पूर्वोत्तर आयुर्वेद एवं होम्योपैथी संस्थान महाविद्यालय लेडी कीन कॉलेज रेड लाबान कॉलेज सेंट एन्थोनी’ज़ कॉलेज सेंट एड्मण्ड्ज़ कॉलेज *एड लबान कालेज, शिलांग लेडी कियाने कालेज, शिलांग सेंट एन्थोनी कालेज, शिलांग सेंट एड्मंड कालेज, शिलांग सेंट मैरी कालेज, शिलांग शंकरदेव कालेज, शिलांग सेंग खासी कालेज, शिलांग शिलांग कालेज शिलांग कामर्स कालेज चेरापुंजीड कालेज, शिलांग वूमेन्स कालेज, शिलांग </div> विधि महाविद्यालय शिलांग लॉ कालेज चिकित्सा महाविद्यालय पूर्वोत्तर इंदिरा गांधी क्षेत्रीय स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संस्थान विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय अंग्रेजी और विदेशी भाषाओ का केन्द्रीय संस्थान पूर्वोत्‍तर पर्वतीय विश्‍वविद्यालय (नेहू) निजी विश्वविद्यालय सीएमजे विश्वविद्यालय मार्टिन लूथर क्रिश्चियन युनिवर्सिटी, मेघालय टेक्नो ग्लोबल विश्वविद्यालय प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन विश्वविद्यालय (यूएसटीएम) विलियम कैरे विश्वविद्यालय मीडिया शिलांग में स्थानीय मीडिया मजबूत स्थिति में है। यहाँ बहुत से थिएटर, समाचार पत्र, पत्रिकाएं, स्थानीय रेडियो और टेलीविजन स्टेशन हैं। शिलांग को प्रायः भारत की रॉक कैपिटल भी कहा जाता है, क्योंकि इसके निवासियों के संगीत (विशेषकर पाश्चात्य रॉक संगीत) अति महत्त्वपूर्ण है तथा ये भी संगीत के लिये समर्पित हैं और कई पाश्चात्य कलाकारों की विशेषता वाले संगीत कार्यक्रमों की मेजबानी करते हैं। सिनेमा शिलांग के सिनेमाघरों में बिजोउ सिनेमा हॉल, गोल्ड सिनेमा और अंजलि सिनेमा हॉल (जिसे गैलेरिया अंजेली सिनेमा भी कहा जाता है) शामिल हैं। प्रिंट मीडिया शिलांग से खासी और अंग्रेजी दोनों में ही समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं। यहां प्रकाशित प्रमुख अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्रों में शिलांग टाइम्स, मेघालय गार्डियन, हाईलैंड पोस्ट, मेघालय टाइम्स और द सेंटिनल शामिल हैं। ऊ मावफोर (U Mawphor), यू नोङ्गसेन हिमा (U Nongsaiñ Hima) जैसे खासी दैनिक यहां से प्रकाशित होते हैं। साप्ताहिक समाचार पत्र "सैलोनसर" और "डोंगमुसा" हैं। "यिंग ख्रीस्तान" (प्रकाशन के १०० वर्ष), खासी में "पाटेंग मिन्ता" और अंग्रेजी में "यूथ टुडे" और "ईस्टर्न पैनोरमा" जैसी पत्रिकाएं हैं। इलेकट्रोनिक मीडिया रेडियो उद्योग का विस्तार कई निजी और सरकारी स्वामित्व वाले एफएम चैनलों के साथ हुआ है। राज्य के स्वामित्व वाला दूरदर्शन, स्थलीय टेलीविजन चैनलों को प्रसारित करता है। पीसीएन, री-खासी चैनल, बेटसी और टी-7 जैसे इन कुछ साप्ताहिक समाचार चैनलों के अलावा स्थानीय केबल नेटवर्क पर साप्ताहिक प्रसारण किया जाता है। संचार सेवाएं निश्चित दूरभाष लाइनें उपलब्ध हैं। इंटरनेट सेवाएं वायर्ड और वायरलेस ब्रॉडबैंड दोनों उपलब्ध हैं। यह सभी प्रमुख सेलुलर प्रदाताओं जैसे कि एयरटेल, वोडाफोन, आईडिया, बीएसएनएल, रिलायंस जियो के साथ मोबाइल नेटवर्क में अच्छी तरह से कवर किया गया है। मुख्यालय पूर्वी वायु कमान, वायु सेना दिनांक १० जून, १९६३ को, भारतीय वायु सेना के पूर्वी वायु कमान (मुख्यालय, ईएसी) को कोलकाता से शिलांग में स्थानांतरित किया गया था। यह ऊपरी शिलांग में नोंगलीर गांव में स्थित पुरानी इमारतों में रखा गया था, जो मुख्य शिलांग से लगभग १० किमी दूर है एवं सागर सतह से लगभग ६,००० फ़ीट की ऊँचाई पर है। प्रारंभ में एक ब्रिटिश सैन्य अड्डा था, जिसे १९४७ में स्वतंत्रता उपरान्त भारतीय सेना के नंबर-५८ गोरखा रेजिमेंट ने अपने अधिकार में ले लिया था। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के बाद रेजिमेंट को पुनः तैयार किया गया था। तब इससे भारतीय वायुसेना के पूर्वी वायु कमान से १२.७ हेक्टेयर (३१.३ एकड़) के हेलीपैड का उपयोग करके केवल हेलिकॉप्टर का रास्ता तय किया जा सकता था। वायु कमान, भारत के समस्त पूर्वी क्षेत्र में वायु संचालन को नियंत्रित करता है जिसमें पश्चिम बंगाल, असम, मिजोरम और बांग्लादेश, बर्मा और तिब्बत के सीमावर्त्तीअन्य पूर्वी राज्य भी शामिल हैं। इस वायु कमान में मुख्यतः चाबुआ, गुवाहाटी, बागडोगरा, बैरकपुर, हाशिमारा, जोरहाट, कालिकुंडा और तेजपुर के साथ-साथ अगरतला, कलकत्ता, पनागर और शिलांग स्थित वायर्ड एयरबेस शामिल हैं। शहर शिलॉन्ग के ऐतिहासिक इलाकों में मावखार, जाइयाव, रीयामसथैया, उमसोहसन, वाहिंगदोह, ख्यालादाद (पुलिस बाजार), मवलाई, लाईतुमख्राह, लाबान, माल्की, नोंगथाइम्मई और पोलो शामिल हैं। बाजार शिलांग में खरीददारी करने के लिए प्रमुख स्थान पुलिस बाजार, बारा बाजार और लैटूमुखराह है। ईदुह में सप्ताह के प्रथम दिन पूर्वी मेघालय से लोग यहां अपना सामान बेचने आते हैं। पुलिस बाजार के मध्य में कचेरी रोड़ के किनारे बहुत-सी दुकानें हैं जहां हाथ की बुनी हुई विभिन्न आकारों की सुन्दर टोकरियां मिलती हैं। हाथ से बुनी हुई शॉल, हस्तशिल्प, संतरी शहद और केन वर्क की खरीददारी के लिए मेघालय हस्तशिल्प, खादी ग्रामोद्योग और पुरबाश्री जाया जा सकता है। खान-पान खासी जनजाति के लोग माँसाहार के शौकीन होते हैं। ये लोग अक्सर सुअर तथा मछली खाना पसन्द करते हैं। यहाँ बनाया जाने वाला खास मछली का अचार माँसाहारी पर्यटकों में मशहूर है। मौसम यहां मार्च से जून तक मौसम सुहावना रहता है, लेकिन बरसात के दिनों यहां घूमने का अपना ही मजा है। मॉनसून में यहां पर्यटक कम ही आते हैं। इस मौसम में यहां होटल के किरायों में छूट भी मिल सकती है। आवागमन वायुयात्रा यहां जाने के लिए हवाई जहाज उत्तम माध्यम है। शिलांग से 40 किलोमीटर की दूरी पर उमरोई में शिलांग हवाई अड्डा है। कोलकाता और गुवाहाटी से यहां के लिए सीधी उड़ानें है। दिल्ली से कोलकाता और गुवाहाटी के लिए सीधी उड़ानें है। रेल मेघालय में रेल लाइनें नहीं है। गुवाहाटी यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन है जो शिलांग से 104 किलोमीटर दूर है। यहां से शिलांग पहुंचने में लगभग साढ़े तीन घन्टे लगते हैं। गुवाहाटी तक रेल के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से गुवाहाटी पहुंचने के लिए राजधानी समेत कई रेलगाड़ियां हैं। गुवाहाटी से असम परिवहन निगम और मेघालय परिवहन निगम की बसें शिलांग से हर आधे घन्टे में चलती हैं। आप चाहें तो टैक्सी भी कर सकते हैं। सन्दर्भ मेघालय में पर्यटन आकर्षण मेघालय के शहर शिलांग पूर्व खासी हिल्स ज़िला पूर्व खासी हिल्स ज़िले के नगर मेघालय में हिल स्टेशन
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भारत के उत्तर-पूर्व में सात राज्य हैं। इन्हें 'सात-बहनें' या 'सेवन-सिस्टर्स' के नाम से भी जाना जाता है। इन राज्यों में 255,511 वर्ग किलोमीटर (98,653 वर्ग मील), या भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग सात प्रतिशत के एक क्षेत्र को कवर किया हुआ है। वर्ष 2011 में 44,98 लाख की आबादी थी, जो कि भारत के कुल आबादी की  3.7 प्रतिशत थी। हालांकि वहाँ सात राज्यों के भीतर महान जातीय और धार्मिक विविधता है, लेकिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में समानता भी है। जब भारत 1947 में यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्र हुआ, केवल तीन राज्यों क्षेत्र को कवर किया। मणिपुर और त्रिपुरा, रियासते थी, जबकि एक बहुत बड़ा हिस्सा असम प्रांत प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन के अधीन था। इसकी राजधानी शिलांग (मेघालय वर्तमान दिन की राजधानी) था। चार नए राज्यों असम के मूल क्षेत्र के बाहर जातीय और भाषायी तर्ज पर राज्यों का पुनर्गठन की भारत सरकार की नीति के साथ लाइन में है, और आजादी के बाद दशकों से जुड़े हुए हैं। वर्ष 1963 में नागालैंड अलग राज्य बना, नागालैंड की तर्ज पर  वर्ष 1972 में मेघालय भी एक राज्य बन गया। मिजोरम 1972 में एक केंद्र शासित प्रदेश बन गया, और 1987 में ही अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ राज्य का दर्जा हासिल किया। उत्तर-पूर्वी भारत के स्वदेशी जनजातियों बोडो, निशि लोग, गारो, नागा, भूटिया और कई अन्य हैं। जातीय और धार्मिक संरचना असम, जहां प्रमुख भाषा असमिया है, और त्रिपुरा, जहां प्रमुख भाषा बांग्ला है के अलावा, इस क्षेत्र में एक आदिवासी बहुल आबादी है कि कई-चीन तिब्बती और ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाओं में बात की है। मैथेय, इस क्षेत्र में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है जो कि तीसरी एक चीन तिब्बती भाषाओँ में एक है। असम, मणिपुर और त्रिपुरा के बड़े और अधिक आबादी वाले राज्यों असम में एक बड़ा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ, मुख्य रूप से हिंदू रहते हैं। ईसाई धर्म नागालैंड, मिजोरम और मेघालय राज्यों में प्रमुख धर्म है। प्राकृतिक संसाधन इस क्षेत्र में मुख्य उद्योगों में चाय-आधारित, कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस, रेशम, बांस और हस्तशिल्प हैं। राज्यों में भारी वन हैं और भरपूर मात्रा में वर्षा भी होती है। वहाँ सुंदर वन्यजीव अभयारण्यों, चाय-सम्पदा और ब्रह्मपुत्र जैसी शक्तिशाली नदियां हैं। क्षेत्र में एक सींग वाला गैंडा, हाथी और अन्य लुप्तप्राय वन्य जीवो के लिए सुरक्षित घर है। विभिन्न कबीलों में तनाव, बड़े पैमाने पर विद्रोह, और पड़ोसी देश चीन के साथ विवादित सीमाओं सहित सुरक्षा कारणों से, इस क्षेत्र के कई भागों में विदेशियों के दौरों पर प्रतिबंध है, जो कि संभवतः पर्यटन और आतिथ्य उद्योग के विकास में बाधा हैं। इसके वाबजूद कुछ स्थानीय संस्थानों ने एक जुट होकर पूर्वोत्तर परिषद के अंतर्गत एक विपणन टैगलाइन, "स्वर्ग बेरोज़गार" विकसित की है। परस्पर निर्भरता एक कॉम्पैक्ट भौगोलिक इकाई, पूर्वोत्तर सिलीगुड़ी गलियारे, एक पतला गलियारा, विदेशी प्रदेशों से घिरे माध्यम से छोड़कर भारत के बाकी हिस्सों से अलग है। असम के प्रवेश द्वार के माध्यम से जो बहन राज्यों मुख्य भूमि से जुड़े हैं। त्रिपुरा, एक आभासी एन्क्लेव लगभग बांग्लादेश से घिरा हुआ है, दृढ़ता से असम पर निर्भर करता है। नागालैंड, मेघालय और अरुणाचल अपने आंतरिक संचार के लिए असम पर निर्भर करते हैं। भारत के मुख्य शरीर के साथ मणिपुर और मिजोरम के संपर्क असम की बराक घाटी के माध्यम से कर रहे हैं। कच्चे माल की जरूरतों को भी राज्यों पारस्परिक रूप से निर्भर हैं। असम के मैदानी इलाकों में सभी नदियों अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और पश्चिमी मेघालय में आरंभ। मणिपुर की नदियों नागालैंड और मिजोरम में अपने स्रोत है; पहाड़ियों भी समृद्ध खनिज और वन संसाधनों की है। पेट्रोलियम मैदानी इलाकों में पाया जाता है। मैदानी इलाकों में बाढ़ नियंत्रण जैसे महत्वपूर्ण सवालों पर भी पहाड़ियों पर निर्भर करते हैं। मैदानी इलाकों में बाढ़ नियंत्रण मृदा संरक्षण और पहाड़ियों में वनीकरण के लिए की भूमि आवश्यकता है। पहाड़ियों को उनकी उपज के लिए बाजार के लिए मैदानों पर निर्भर करते हैं। वे भी हिल में सीमित कृषि योग्य भूमि की वजह से खाद्यान्न के लिए मैदानों पर निर्भर करते हैं। आम उद्देश्यों की दिशा में सहयोग के लिए एक मंच प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने 1971 में स्थापित पूर्वोत्तर परिषद है कि आजकल सिक्किम भी शामिल है। हर राज्य की राज्यपाल और मुख्यमंत्री का प्रतिनिधित्व करती है। परिषद के कई मामलों पर एक साथ काम करने के लिए सात बहन स्टेट्स, शैक्षिक सुविधाओं और क्षेत्र के लिए बिजली की आपूर्ति के प्रावधान सहित सक्षम है। सप्त भगिनी राज्य "सात बहनों की भूमि" की उत्पत्ति उपाधि  'सात बहनों की भूमि', उपाधि, मूल रूप से जनवरी, 1972 में नए राज्यों के उद्घाटन, ज्योति प्रसाद सैकिया दुवारा, एक रेडियो टॉक शो के दौरान त्रिपुरा में गढ़ा गया था। बाद में उन्होंने परस्पर निर्भरता और सात राज्यों की बहन मामूल पर एक किताब संकलित, और सात बहनों की भूमि यह नाम दिया है।  असम (गुवाहाटी) मिज़ोरम (आइजोल) नागालैंड (कोहिमा) अरुणाचल प्रदेश(इटानगर) मणिपुर (इंफाल) मेघालय (शिलांग) त्रिपुरा (अगरतला) इन्हें भी देखें उत्तर-पूर्वी भारत दक्षिण भारत भारत के प्रान्त एवं उनकी राजधानी बाहरी कड़ियाँ पूर्वोत्तर का सौंदर्य कर दे निरुत्तर (पाञ्चजन्य) पूर्वोत्तर में हिंदी (हिन्दी विवेक) पूर्वांचल प्रदेश में हिन्दी भाषा और साहित्य (गूगल पुस्तका)
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{ "file_path": "/home/ec2-user/SageMaker/generative_Ai/gen_ai/training-llms-from-scratch/Module4/dataset_creation/raw_data/data.jsonl", "title": "उत्तर-पूर्वी राज्य", "token_count": 7062, "url": "https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%80%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%AF" }
अरुणाचल प्रदेश भारत का एक उत्तर-पूर्वी राज्य है। अरुणाचल का अर्थ "उगते सूर्य का पर्वत" है (अरूण + अचल ; 'अचल' का अर्थ 'न चलने वाला' = पर्वत होता है।)। प्रदेश की सीमाएँ दक्षिण में असम दक्षिणपूर्व में नागालैंड पूर्व में बर्मा/म्यांमार पश्चिम में भूटान और उत्तर में तिब्बत से मिलती हैं। ईटानगर राज्य की राजधानी है। प्रदेश की बोलचाल की मुख्य भाषा हिन्दी है। अरुणाचल प्रदेश चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के साथ 1,129 किलोमीटर सीमा साझा करता है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश की आबादी 1,382,611 और 83,743 वर्ग किलोमीटर (32,333 वर्ग मील) का क्षेत्रफल है। यह एक नैतिक रूप से विविध राज्य है, जिसमें मुख्य रूप से पश्चिम में मोनपा लोग, केन्द्र में तानी लोग, पूर्व में ताई लोग और राज्य के दक्षिण में नागा लोग हैं। राज्य का एक बड़ा हिस्सा दक्षिण तिब्बत के क्षेत्र के हिस्से के रूप में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना और चीन गणराज्य (ताइवान) दोनों द्वारा दावा किया जाता है। भौगोलिक दृष्टि से पूर्वोत्तर के राज्यों में यह सबसे बड़ा राज्य है। पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह इस प्रदेश के लोग भी तिब्बती-बर्मी मूल के हैं। वर्तमान समय में भारत के अन्य भागों से बहुत से लोग आकर यहाँ आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ कर रहे । इतिहास अरुणाचल प्रदेश को पहले पूर्वात्तर सीमान्त एजेंसी (नॉर्थ ईस्ट फ़्रण्टियर एजेंसी- नेफ़ा) के नाम से जाना जाता था। यहाँ का इतिहास लिखित रूप में उपलब्ध नहीं है। मौखिक परंपरा के रूप में कुछ थोड़ा सा साहित्य और ऐतिहासिक खंडहर हैं जो इस पर्वतीय क्षेत्र में मिलते हैं। इन स्थानों की खुदाई और विश्लेषण के द्वारा पता चलता है कि ये ईस्वी सन प्रारम्भ होने के समय के हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि यह जाना-पहचाना क्षेत्र ही नहीं था वरन जो लोग यहाँ रहते थे और उनका देश के अन्य भागों से निकट का सम्बन्ध था। अरुणाचल प्रदेश का आधुनिक इतिहास 24 फरवरी 1826 को 'यण्डाबू सन्धि' होने के बाद असम में ब्रिटिश शासन लागू होने के बाद से प्राप्त होता हैं। सन 1962 से पहले इस राज्य को नार्थ-ईस्ट फ़्रण्टियर एजेंसी (नेफ़ा) के नाम से जाना जाता था। संवैधानिक रूप से यह असम का ही एक भाग था परन्तु सामरिक महत्त्व के कारण 1965 तक यहाँ के प्रशासन की देखभाल विदेश मन्त्रालय करता था। 1965 के पश्चात असम के राज्पाल के द्वारा यहाँ का प्रशासन गृह मन्त्रालय के अन्तर्गत आ गया था। सन 1972 में अरुणाचल प्रदेश को केन्द्र शासित राज्य बनाया गया था और इसका नाम 'अरुणाचल प्रदेश' किया गया। इस सब के बाद 20 फरवरी 1987 को यह भारतीय संघ का 24वाँ राज्य बनाया गया। भूगोल इस राज्य के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में क्रमश: भूटान, तिब्बत, चीन और म्यांमार देशों की अन्तरराष्ट्रीय सीमाएँ हैं। अरुणाचल प्रदेश की सीमा नागालैंड और असम से भी मिलती है। इस राज्य में पहाड़ी और अर्द्ध-पहाड़ी क्षेत्र है। इसके पहाड़ों की ढलान असम राज्य के मैदानी भाग की ओर है। 'कामेंग', 'सुबनसिरी', 'सिआंग', 'लोहित' और 'तिरप' आदि नदियाँ इसे अलग-अलग घाटियों में विभाजित कर देती हैं। अरुणाचल का अधिकांश भाग हिमालय से ढका है, लेकिन लोहित, चांगलांग और तिरप पतकाई पहाडि़यों में स्थित हैं। काँग्तो, न्येगी कांगसांग, मुख्य गोरीचन चोटी और पूर्वी गोरीचन चोटी इस क्षेत्र में हिमालय की सबसे ऊँची चोटियाँ हैं। तवांग में स्थित बुमला दर्रा 2006 में 44 वर्षों में पहली बार व्यापार के लिए खोला गया। दोनों तरफ के व्यापारियों को एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति दी गई। यहाँ के प्रमुख दर्रो में यांगयाप दर्रा, दीफू दर्रा, पंगसौ दर्रा भी शामिल हैं। हिमालय पर्वतमाला का पूर्वी विस्तार इसे चीन से अलग करता है। यह पर्वतमाला नागालैंड की ओर मुड़ती है और भारत और बर्मा के बीच चांगलांग और तिरप जिले में एक प्राकृतिक सीमा का निर्माण करती है और एक प्राकृतिक बाधा के रूप में कार्य करती है। यह पहाड़ महान हिमालय से कम ऊँचे हैं। है। जनसांख्यिकी 63% अरुणाचल वासी 19 प्रमुख जनजातियों और 85 अन्य जनजातियों से संबद्ध हैं। इनमें से अधिकांश या तो तिब्बती-बर्मी या ताई-बर्मी मूल के हैं। बाकी 35 % जनसंख्या आप्रवासियों की है, जिनमें 31000 बंगाली, बोडो, हजोन्ग, बांग्लादेश से आये चकमा शरणार्थी और पड़ोसी असम, नागालैंड और भारत के अन्य भागों से आये प्रवासी शामिल हैं। सबसे बडी़ जनजातियों में आदि, गालो, निशि, खम्ति, मोंपा और अपातनी प्रमुख हैं। राज्य की साक्षरता दर 1991 में 41.59 % से बढ़कर 54.74 % हो गयी। 487796 व्यक्ति साक्षर है। भारत सरकार की 2001 की जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि अरुणाचल की 20% जनसंख्या के प्रकृतिधर्मी हैं, जो जीववादी धर्म जैसे डोन्यी-पोलो और रन्गफ्राह का पालन करते है। मिरि और नोक्ते लोगों को मिलाकर 29 प्रतिशत हिंदू हैं। राज्य की 13% जनसंख्या बौद्ध है। तिब्बती बौद्ध पन्थ मुख्यतः तवांग, पश्चिम कामेंग और तिब्बत से सटे क्षेत्रों में प्रचलित है। थेरावाद बौद्ध पन्थ का बर्मी सीमा के निकट रहने वाले समूहों द्वारा पालन किया जाता है। लगभग 19% आबादी ईसाईपन्थ की अनुयायी है। कृषि अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के जीवनयापन का मुख्य आधार कृषि है। इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था मुख्यत: 'झूम' खेती पर ही आधरित है। आजकल नकदी फसलों जैसे- आलू, और बागबानी की फसलें जैसे सेब, संतरे और अनन्नास आदि को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ी लोग खेती की पारंपरिक विधि शिइंग (झूम) का प्रयोग करते हैं। इस कृषि विधि की मुख्य पैदावार चावल, मक्का, जौ एवं मोथी (कूटू) हैं। अरुणाचल प्रदेश की मुख्य फसलों में चावल, मक्का, बाजरा, गेहूँ, जौ, दलहन, गन्ना, अदरक और तिलहन हैं। खनिज और उद्योग राज्य की विशाल खनिज संपदा के संरक्षण के लिए 1991 में 'अरुणाचल प्रदेश खनिज विकास' और 'व्यापार निगम लिमिटेड' (ए॰पी॰एम॰डी॰टी॰सी॰एल॰) की स्थापना की गई थी। विभिन्न प्रकार के व्यापार में हस्तशिल्पियों को प्रशिक्षण देना, रोइंग, टबारीजो, दिरांग, युपैया और मैओ में कार्यरत पाँच 'सरकारी औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान' (आई॰टी॰आई॰) हैं। आई॰टी॰आई॰ युपैया महिलाओं के लिए विशेष रूप से बना है जो पापुम पारे जनपद में स्थित है। सिंचाई और बिजली अरुणाचल प्रदेश में 87,500 हेक्टेयर से अधिक भूमि सिंचित क्षेत्र है। राज्य की विद्युत क्षमता लगभग 30,735 मेगावॉट है। राज्य के 3,649 गाँवों में से लगभग 2,600 गाँवों का विद्युतीकरण कर दिया गया है। अर्थव्यवस्था सन 2004 में अरुणाचल प्रदेश का सकल घरेलू उत्पादन 70.6 करोड़ डॉलर के लगभग था। अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि प्रधान है। 'झुम' खेती जो आदिवासी समूहों में पहले प्रचलित थी, अब कम लोग इस प्रकार खेती करते हैं। अरुणाचल प्रदेश का लगभग 61,000 वर्ग किलोमीटर का भाग घने जंगलों से भरा है और वन्य उत्पाद राज्य की अर्थव्यवस्था का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग है। यहाँ फ़सलों में चावल, मक्का, बाजरा, गेहूँ, दलहन, गन्ना, अदरक और तिलहन मुख्य रूप से हैं। अरुणाचल प्रदेश फलों के उत्पादन के लिए आदर्श है। पर्यावरण की दृष्टि से यहाँ के प्रमुख उद्योग आरा मिल और प्लाईवुड को कानूनन बन्द कर दिया गया है। चावल मिल, फल परिरक्षण इकाइयाँ, हस्तशिल्प और हथकरघा आदि यहाँ के अन्य प्रमुख उद्योग हैं। यह तालिका अरूणाचल प्रदेश के राज्य सकल घरेलू उत्पाद का रुझान बाजार मूल्यों पर सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मन्त्रालय के अनुमान पर आधारित है। लाखों रुपयों में। 2004 में अरुणाचल प्रदेश का राज्य सकल घरेलू उत्पाद 706 मिलियन डॉलर के करीब था। राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। झुम खेती जो आदिवासी समूहों के बीच पहले व्यापक रूप से प्रचलित थी अब कम लोगों में प्रचलित है। अरुणाचल प्रदेश के करीब 61,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जंगलों से ढका है और वन्य उत्पाद अर्थव्यवस्था का सबसे दूसरा सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यहाँ की फसलों में चावल, मक्का, बाजरा, गेहूँ, दलहन, गन्ना, अदरक और तिलहन प्रमुख हैं। अरुणाचल फलों के उत्पादन के लिए भी आदर्श स्थान है। यहाँ प्रमुख उद्योग आरामिल और प्लाईवुड को कानून द्वारा बन्द कर दिया गया है। चावल मिल, फल परिरक्षण इकाइयों हस्तशिल्प और हथकरघा आदि अन्य प्रमुख उद्योग हैं। सामाजिक जीवन अरुणाचल प्रदेश के कुछ महत्त्वपूर्ण त्योहारों में 'अदीस' समुदाय का 'मापिन और सोलंगु', 'मोनपा' समुदाय का त्योहार 'लोस्सार', 'अपतानी' समुदाय का 'द्री', 'तगिनों' समुदाय का 'सी-दोन्याई', 'इदु-मिशमी' समुदाय का 'रेह', 'निशिंग' समुदाय का 'न्योकुम' आदि त्योहार शामिल हैं। अधिकतर त्योहारों पर पशुओं को बलि चढ़ाने की पुरातन प्रथा है। राजनीति अरुणाचल प्रदेश में मुख्यत: पाँच राजनैतिक दल हैं- भारतीय जनता पार्टी अरुणाचल कांग्रेस अरुणाचल कांग्रेस (मेइते) कांग्रेस (दोलो) पिपुल्स पार्टी आफ़ अरुणाचल मुख्य पर्यटन स्थल किला ईटानगर में पर्यटक ईटा किला भी देख सकते हैं। इस किले का निर्माण 14-15वीं शताब्दी में किया गया था। इसके नाम पर ही इसका नाम ईटानगर रखा गया है। पर्यटक इस किले में कई खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं। किले की सैर के बाद पर्यटक यहाँ पर पौराणिक गंगा झील भी देख सकते हैं। इनके अलावा अन्य कई झीले व वास्तुकला के मनोहर दृश्य है जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पौराणिक गंगा झील यह ईटानगर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। झील के पास खूबसूरत जंगल भी है। यह जंगल बहुत खूबसूरत है। पर्यटक इस जंगल में सुन्दर पेड़-पौधे, वन्य जीव और फूलों के बगीचे देख सकते हैं। यहाँ आने वाले पर्यटकों को इस झील और जंगल की सैर जरूर करनी चाहिए। बौद्ध मंदिर यहाँ पर एक खूबसूरत बौद्ध मन्दिर है। बौद्ध गुरु दलाई लामा भी इसकी यात्रा कर चुके हैं। इस मन्दिर की छत पीली है और इस मन्दिर का निर्माण तिब्बती शैली में किया गया है। इस मन्दिर की छत से पूरे ईटानगर के खूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं। इस मन्दिर में एक संग्राहलय का निर्माण भी किया गया है। इसका नाम जवाहर लाल नेहरू संग्राहलय है। यहाँ पर पर्यटक पूरे अरूणाचल प्रदेश की झलक देख सकते हैं। अन्य स्थल इसके अलावा यहाँ पर लकड़ियों से बनी खूबसूरत वस्तुएँ, वाद्ययन्त्र, शानदार कपड़े, हस्तनिर्मित वस्तुएँ और केन की बनी सुन्दर कलाकृतियों को देख सकते हैं। संग्राहलय में एक पुस्तकालय का निर्माण भी किया गया है। इसके अलावा भी यहाँ पर पर्यटक कई शानदार पर्यटन स्थलों की सैर कर सकते हैं। इन पर्यटन स्थलों में दोन्यी-पोलो विद्या भवन, विज्ञान संस्थान, इन्दिरा गांधी उद्यान और अभियान्त्रिकी संस्थान प्रमुख हैं। इतिहास अरुणाचल प्रदेश को पहले पूर्वात्तर सीमांत एजेंसी (नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी- नेफा) के नाम से जाना जाता था। इस राज्य के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में क्रमश: भूटान, तिब्बत, चीन और म्यांमार देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं हैं। अरुणाचल प्रदेश की सीमा नागालैंड और असम से भी मिलती है। इस राज्य में पहाड़ी और अर्द्ध-पहाड़ी क्षेत्र है। इसके पहाड़ों की ढलान असम राज्य के मैदानी भाग की ओर है। 'कामेंग', 'सुबनसिरी', 'सिआंग', 'लोहित' और 'तिरप' आदि नदियां इन्हें अलग-अलग घाटियों में विभाजित कर देती हैं। यहाँ का इतिहास लिखित रूप में उपलब्ध नहीं है। मौखिक परंपरा के रूप में कुछ थोड़ा सा साहित्य और ऐतिहासिक खंडहर हैं जो इस पर्वतीय क्षेत्र में मिलते हैं। इन स्थानों की खुदाई और विश्लेषण के द्वारा पता चलता है कि ये ईस्वी सन प्रारंभ होने के समय के हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि यह जाना-पहचाना क्षेत्र ही नहीं था वरन जो लोग यहाँ रहते थे और उनका देश के अन्य भागों से निकट का संबंध था। अरुणाचल प्रदेश का आधुनिक इतिहास 24 फ़रवरी 1826 को 'यंडाबू संधि' होने के बाद असम में ब्रिटिश शासन लागू होने के बाद से प्राप्त होता हैं। सन 1962 से पहले इस राज्य को नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के नाम से जाना जाता था। संवैधानिक रूप से यह असम का ही एक भाग था परंतु सामरिक महत्त्व के कारण 1965 तक यहाँ के प्रशासन की देखभाल विदेश मंत्रालय करता था। 1965 के पश्चात असम के राज्पाल के द्वारा यहाँ का प्रशासन गृह मंत्रालय के अन्तर्गत आ गया था। सन 1972 में अरुणाचल प्रदेश को केंद्र शासित राज्य बनाया गया था और इसका नाम 'अरुणाचल प्रदेश' किया गया। इस सब के बाद 20 फ़रवरी 1987 को यह भारतीय संघ का 24वां राज्य बनाया गया। जिले अरुणाचल प्रदेश में 25 जिले हैं - अंजॉ जिला चेंगलॉन्ग जिला पूर्व कमेंग जिला पूर्व सियांग जिला कुरुंग कुमे जिला लोहित जिला निचली दिबांग घाटी जिला निचली सुबनसिरी जिला पपुमपारे जिला तवांग जिला तिरप जिला उपरी दिबांग घाटी जिला उपरी सुबनसिरी जिला उपरी सियांग जिला पश्चिम सियांग जिला पश्चिम कमेंग जिला भाषाएँ वर्तमान समय में भाषा की दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश एशिया का सबसे अधिक विविधतापूर्ण क्षेत्र है जिसमें 30 से 50 तक विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले रहते हैं। इनमें से अधिकांश भाषाएँ तिब्बती-बर्मी परिवार की हैं। हाल के वर्षों में अरुणाचल प्रदेश में हिन्दी का प्रचलन बढ़ा है और अब यह यहाँ की जनभाषा बन चुकी है। इन्हें भी देखें अरुणाचल की जनजातियाँ अरुणाचल प्रदेश के जिले सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ China 1962 War जीतकर भी Arunachal Pradesh से पीछे क्यों हट गया था अरुणाचल पर्यटन अरुणाचल सरकार (अंगरेजी में) तवांग अरुणाचल प्रदेश (भारत दर्शन ब्लाग) अरुणाचल को समझने का बेजोड़ प्रयास है ‘जनपथ’ का ताजा अंक (दिसम्बर, 09) भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश
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{{Infobox settlement | name = असम | type = राज्य | image_seal = | image_skyline = | seal_alt = Seal of Assam | image_map = IN-AS.svg | seal_size = 100px | motto = जॉय आई एक्सोम (जय मां असम) | anthem = "ओ मुर अपुनर देश"(हे मेरे प्यारे देश)| map_alt = | map_caption = | image_map1 = | map_caption1 = | coordinates = | coor_pinpoint = दिसपुर, गुवाहाटी | coordinates_footnotes = | subdivision_type = देश | subdivision_name = | established_title1 = राज्य का दर्जा | established_date1 = 26 जनवरी 1950 | seat_type = राजधानी | seat = दिसपुर | seat1_type = सबसे बड़ा शहर | seat1 = गुवाहाटी | parts_type = जिले | parts_style = para | p1 = 35 | government_footnotes = | governing_body = | leader_title = राज्यपाल | leader_name = जगदीश मुखी | leader_title1 = मुख्यमंत्री | leader_name1 = हिमंता बिस्वा सरमा (BJP) | leader_title2 = विधानमण्डल | leader_name2 = एकसदनीय विधान सभा (126 सीटें) | leader_title3 = संसदीय क्षेत्र | leader_name3 = राज्य सभा (7 सीटें) लोक सभा (14 सीटें) | leader_title4 = उच्च न्यायालय | 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जिसका शाब्दिक अर्थ है, वो भूमि जो समतल नहीं है। कुछ लोगों की मान्यता है कि "आसाम" संस्कृत के शब्द "अस्म " अथवा "असमा", जिसका अर्थ असमान है का अपभ्रंश है। कुछ विद्वानों का मानना है कि 'असम' शब्‍द संस्‍कृत के 'असोमा' शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ है अनुपम अथवा अद्वितीय। आस्ट्रिक, मंगोलियन, द्रविड़ और आर्य जैसी विभिन्‍न जातियाँ प्राचीन काल से इस प्रदेश की पहाड़ियों और घाटियों में समय-समय पर आकर बसीं और यहाँ की मिश्रित संस्‍कृति में अपना योगदान दिया। इस तरह असम में संस्‍कृति और सभ्‍यता की समृ‍द्ध परम्परा रही है। कुछ लोग इस नाम की व्युत्पत्ति 'अहोम' (सीमावर्ती बर्मा की एक शासक जनजाति) से भी बताते हैं। असम राज्य में पहले मणिपुर को छोड़कर बांग्लादेश के पूर्व में स्थित भारत का सम्पूर्ण क्षेत्र सम्मिलित था तथा उक्त नाम विषम भौम्याकृति के सन्दर्भ में अधिक उपयुक्त प्रतीत होता था क्योंकि हिमालय की नवीन मोड़दार उच्च पर्वतश्रेणियों तथा पुराकैब्रियन युग के प्राचीन भूखण्डों सहित नदी (ब्रह्मपुत्) निर्मित समतल उपजाऊ मैदान तक इसमें आते थे। परन्तु विभिन्न क्षेत्रों की अपनी संस्कृति आदि पर आधारित अलग अस्तित्व की माँगों के परिणामस्वरूप वर्तमान आसाम राज्य का लगभग 72 प्रतिशत क्षेत्र ब्रह्मपुत्र की घाटी (असम की घाटी) तक सीमित रह गया है जो पहले लगभग 40 प्रतिशत मात्र ही था। इतिहास प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इस स्थान को प्रागज्युतिसपुर नाम से जाना जाता था। महाभारत के अनुसार कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध ने यहाँ की उषा नाम की युवती पर मोहित होकर उसका अपहरण कर लिया था। श्रीमद् भागवत महापुराण के अनुसार उषाने अपनी सखी चित्रलेखाद्वारा अनिरुद्धको अपहरण करवाया। यह बात यहाँ की दन्तकथाओं में भी पाया जाता है कि अनिरुद्ध पर मोहित होकर उषा ने ही उसका अपहरण कर लिया था। इस घटना को यहाँ कुमार हरण के नाम से जाना जाता है। प्राचीन असम प्राचीन असम, कमरुप के रूप में जाना जाता है, यह शक्तिशाली राजवंशों का शासन था: वर्मन (350-650 ई॰) शाल्स्ताम्भस (655-900 ई॰) और कामरुप पाल (900-1100 ई॰). पुश्य वर्मन ने वर्मन राजवंश कि स्थापना की थी। भासकर वर्मन (600-650 ई॰), जो कि प्रसिद्ध वर्मन शासक थे, के शासनकाल में चीनी यात्री क्षुअन झांग क्षेत्र का दौरा किया और अपनी यात्रा दर्ज की। बाद में, कमजोर और विघटन (कामरुप पाल) के बाद, कामरुप परम्परा कुछ हद तक बढ़ा दी गई चन्द्र (1120-1185 ई॰) मैं और चन्द्र द्वितीय (1155-1255 ई॰) राजवंशों द्वारा 1255 ई॰। मध्यकालीन असम मध्यकाल में सन् 1228 में बर्मा के एक ताई विजेता चाउ लुंग सिउ का फा'' ने पूर्वी असम पर अधिकार कर लिया। वह अहोम वंश का था जिसने अहोम वंश की सत्ता यहाँ कायम की। अहोम वंश का शासन 1829 पर्यन्त तब तक बना रहा जब तक कि अंग्रेजों ने यनदबु ट्रीटी के दौरान असम का शासन हासिल किया। भूगोल भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। नदियाँ इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंप क्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। जलवायु सामान्यतः असम् राज्य की जलवायु, भारत के अन्य भागों की भाँति, मानसूनी है पर कुछ स्थानीय विशेषताएँ इसमें विश्लेषणोपरान्त अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं। प्राय: पाँच कारक इसे प्रभावित करते हैं : 1. उच्चावच; 2. पश्चिमोत्तर भारत तथा बंगाल की खाड़ी पर सामयिक परिवर्तनशील दबाव की पेटियां, तथा उनका उत्तरी एवं पूर्वोत्तरीय सामयिक दोलन; 3. उष्णकटिबन्धीय समुद्री हवाएँ; 4. सामयिक पश्चिमी चक्रवातीय हवाएँ तथा 5. पर्वत एवं घाटी की स्थानीय हवाएँ। गंगा के मैदान की भाँति यहाँ ग्रीष्म की भीषणता का अनुभव नहीं होता क्योंकि प्राय: बूँदाबाँदी तथा वर्षा हो जाया करती है। कोहरा, बिजली की चमक दमक तथा धूल के तूफान प्राय: आते रहते हैं। वर्ष में 60-70 दिन कोहरा तथा 80-115 दिन बिजली की कड़वाहट अनुभव की जाती है। औसत वार्षिक वर्षा 200 सें॰मी॰ होती है पर मध्य भाग (गौहाटी, तेजपुर) में यह मात्रा 100 से॰मी॰ से भी कम होती है जबकि पूर्व एवं पश्चिम में कहीं कहीं 1,000 से॰मी॰ तक भी वर्षा होती है। सापेक्ष आर्द्रता वर्ष भर अधिक रहती है (90 प्रतिशत)। जाड़े का औसत तापमान 12.8° सें॰ग्रे॰ तथा ग्रीष्म का औसत तापमान 23° सें॰ग्रे॰ रहता है। अधिकतम तापमान वर्षा ऋतु के अगस्त महीने में रहता है (27.17° सें॰ग्रे॰)। भूमि काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। खनिज तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है। राज्य के दक्षिणपूर्वी छोर पर लकड़ी लेड़ी नजीरा के निकट कोयले का भण्डार है। अनुमानित भण्डार 33 करोड़ टन है। उत्पादन क्रमश: कम होता जा रहा है। (1963 से 5,77,000 टन; 1965 में 5,41,000 टन)। फायर क्ले, गृह-निर्माण-योग्य पत्थर आदि अन्य खनिज हैं। कृषि असम एक कृषिप्रधान राज्य है। 1970-71 में कुल (मिजोरमयुक्त) लगभग 25,50,000 हेक्टेयर भूमि (कुल क्षेत्रफल का लगभग 1/3) कृषिकार्य कुल भूमि का 90 प्रतिशत मैदानी भाग में है। धान (1971) कुल भूमि (कृषियोग्य) के 72 प्रतिशत क्षेत्र में पैदा किया जाता है (20,00,000 हेक्टेयर) तथा उत्पादन 20,16,000 टन होता है। अन्य फसलें (क्षेत्रपफल 1,000 हेक्टेयर में) इस प्रकार हैं- गेहूँ 21; दालें 79; सरसों तथा अन्य तिलहन 139। कुल कृषिभूमि का 77 प्रतिशत खाद्य फसलों के उत्पादन में लगा है। इतना होते हुए भी प्रति व्यक्ति कृषिभूमि का औसत 0.5 एकड़ (0.2 हेक्टेयर) ही है। विभिन्न साधनों द्वारा भूमि को सुधारने के उपरान्त कृषि क्षेत्र को पाँच प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। अन्य उत्पादन चाय, जूट तथा गन्ना यहाँ की प्रमुख औद्योगिक तथा धनद फसलें हैं। चाय की कृषि के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत कृषिगत भूमि सम्मिलित है। आसाम के आर्थिक तन्त्र में इसका विशेष हाथ है। भारत की छोटी बड़ी 7,100 चाय बागान में से लगभग 700 असम में ही स्थित हैं। 1970 ई॰ में कुल 2,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बाग थे जिनसे लगभग 21,5 करोड़ कि॰ग्रा॰ (1970) चाय तैयार की गई। इस उद्योग में प्रतिदिन 3,79,781 मजदूर लगे हैं, जिनमें अधिकांश उत्तर बिहार तथा पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के हैं। जूट लगभग छह प्रतिशत कृषियोग्य भूमि में उगाई जाती है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है। आसाम घाटी के पूर्वी भाग तथा दरंग जनपद इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। 1970 ई॰ में यहाँ की नदियों में से 26.5 हजार टन मछलियाँ भी पकड़ी गईं। सिंचाई वर्षा की अधिकता के कारण सिंचाई की व्यवस्था व्यापक रूप से लागू नहीं की जा सकी, केवल छोटी-छोटी योजनाएँ ही क्रियान्वित की गई हैं। कुल कृषिगत भूमि का मात्र 22 प्रतिशत ही सिंचित है। 1964 में प्रारम्भ की गई जमुना सिंचाई योजना (दीफू के निकट) इस राज्य की सबसे बड़ी योजना है जिससे लगभग 26,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाने का अनुमान है। नहरों की कुल लम्बाई 137.15 कि॰मी॰ रहेगी। विद्युत राज्य के प्रमुख शक्ति-उत्पादक-केन्द्र (क्षमता तथा स्वरूप के साथ) ये हैं - गुवाहाटी (तापविद्युत्‌) 32,500 किलोवाट, नामरूप (तापविद्युत्) लखीमपुर में नहरकटिया से 20 कि॰मी॰, 23,000 किलोवाट का प्रथम चरण 1965 में पूर्ण। 30,000 किलोवाट का दूसरा चरण 1972-73 तक पूर्ण। जलविद्युत्‌ केन्द्रों में यूनिकेम प्रमुख है (पूरी क्षमता 72,000 किलोवाट)। उद्योग आसाम के आर्थिक तन्त्र में उद्योग धन्धों में, विशेष रूप से कृषि पर आधारित, तथा खनिज तेल का महत्वपूर्ण योगदान है। गुवाहाटी तथा डिब्रूगढ़ दो स्थान इसके मुख्य केन्द्र हैं। कछार का सिलचर नगर तीसरा प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। चाय उद्योग के अतिरक्ति वस्त्रोद्योग (शीलघाट, जूट तथा जारीरोड सिल्क) भी यहाँ उन्नत है। हाल ही में एक कपड़ा मिल गौहाटी में स्थापित की गई है। एरी, मूगा तथा पाट आसाम के उत्कृष्ट वस्त्रों में हैं। तेलशोधक कारखाने दिगबोई (पाँच लाख टन प्रति वर्ष) तथा नूनमाटी (7.5 लाख टन प्रति वर्ष) में है। उर्वरक केन्द्र नामरूप में हैं जहाँ प्रतिवर्ष 2,75,000 टन यूरिया तथा 7,05,000 टन अमोनिया का उत्पादन किया जाता है। चीरा में सीमेण्ट का कारखाना है जहाँ प्रतिवर्ष 54,000 टन सीमेण्ट का उत्पादन होता है। इनके अतिरिक्त वनों पर आधारित अनेक उद्योग धन्धे प्राय: सभी नगरों में चल रहे हैं। धुबरी की हार्डबोर्ड फैक्टरी तथा गुवाहाटी का खैर तथा आगर तैल विशेष उल्लेखनीय हैं। यातायात आवागमन तथा यातायात के साधनों के सुव्यवस्थित विकास में इस प्रदेश के उच्चावचन तथा नदियों का विशेष महत्त्व है। आसाम घाटी उत्तरी दक्षिणी भाग को स्वतन्त्र भारत में एक दूसरे से जोड़ दिया गया है। गौहाटी के निकट यह सम्पूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी का एक मात्र सेतु है। 1966 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 5,827 कि॰मी॰ थी (3,334 कि॰मी॰ साइडिंग के साथ)। धुबरी, गौहाटी, लामडि, सिलचर आदि रेलमार्ग द्वारा मिले हुए हैं। राजमार्ग कुल 20,678 कि॰ मी॰ है जिसमें राष्ट्रीय मार्ग 2,934 कि॰मी॰ (1968) है। यहाँ जलमार्गों का विशेष महत्त्व है और ये अति प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण रहे हैं। नौकावहन-योग्य नदियों की लंबाई 3,261 कि॰ मी॰ है जिसमें 1653 कि॰मी॰ मार्ग स्टीमर चलने योग्य है तथा वर्ष भर उपयोग में लाए जा सकते हैं। शेष मात्र मानसून के दिनों में ही काम लायक रहते हैं। शिक्षा असम में छह से बारह वर्ष की उम्र तक के बच्चों के लिए माध्यमिक स्तर तक अनिवार्य तथा नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था है। गुवाहाटी, जोरहाट, तेजपुर, सिलचर एवं डिब्रूगढ़ में विश्वविद्यालय हैं। राज्य के 80 से भी ज़्यादा केन्द्रों से लोक कल्याण की विभिन्न योजनाओं का संचालन हो रहा है। जो महिलाओं एवं बच्चों के लिए मनोरंजन तथा अन्य सांस्कृतिक सुविधाओं की व्यवस्था करती हैं। इंजीनियरिंग कॉलेज- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी जोरहाट इंजीनियरिंग कॉलेज - जोरहाट असम इंजीनियरिंग कॉलेज - जालुकबारी, गुवाहाटी राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सिलचर (एन आई टी) - सिलचर मेडिकल कॉलेज- जोरहाट मेडिकल कॉलेज - जोरहाट असम मेडिकल कॉलेज - डिब्रुगढ़ गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज - गुवाहाटी सिलचर मेडिकल कॉलेज - सिलचर तेजपुर मेडिकल कॉलेज - तेजपुर बरपेटा मेडिकल कॉलेज - बरपेटा आयुर्वेदिक कॉलेज- गुवाहाटी भाषा असमिया और बोडो प्रमुख क्षेत्रीय और आधिकारिक भाषाएँ हैं। बंगाली बराक घाटी के तीन जिलों में आधिकारिक दर्जा रखती है और राज्य की दूसरी सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा (३३.९१%) है। असमिया प्राचीन कामरूप और मध्ययुगीन राज्यों जैसे कलिता, कामतापुर कछारी, सुतीया, बोरही, अहोम और कोच राज्यों में लोगों कि आम भाषा रही है। 7वीं–8वीं ई. में लिखी गई लुइपा, सरहपा जैसे कवियों के कविताओं में असमिया भाषा के निशान पाए जाते हैं। कामरूपी, ग्वालपरिया जैसे आधुनिक बोलियाँ इसकी अपभ्रंश हैं। असमिया भाषा को नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर में स्थानीकृत करके इस्तेमाल किया जाता रहा है। असमिया उच्चारण और कोमलता की अपनी अनूठी विशेषताओं के साथ अपने संकर प्रकृति की वजह से एक समृद्ध भाषा है। असमिया साहित्य सबसे अमीर साहित्यों में से एक है। पन्थ 2001 की जनगणना के अनुसार, यहाँ हिन्दुओं की संख्या 1,72,96,455, मुसलमानों की 82,40,611, ईसाई की 9,86,589 और सिखों की 22,519, बौद्धों की 51,029, जैनियों की 23,957 और 22,999 अन्य धार्मिक समुदायों से सम्बन्धित थे। अर्थव्यवस्था असम से भारत का सर्वाधिक खनिज तेल प्राप्त होता है। यहाँ लगभग 1000 किलोमीटर लम्बी पेटी में खनिज तेल पाया जाता है। यह पेटी इस राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमा से आरम्भ होकर खासी तथा जयन्तिया पहाड़ियों से होती हुई कछार जिले तक फैली है। यहाँ के मुख्य तेल क्षेत्र तिनसुकिया, डिब्रुगड़ तथा शिवसागर जिलों में पाया जाते हैं। पारम्परिक शिल्प असम में शिल्प की एक समृद्ध परम्परा रही है, वर्तमान केन और बाँस शिल्प, घण्टी धातु और पीतल शिल्प रेशम और कपास बुनाई, खिलौने और मुखौटा बनाने, मिट्टी के बर्तनों और मिट्टी काम, काष्ठ शिल्प, गहने बनाने, संगीत बनाने के उपकरणों, आदि के रूप में बना रहा प्रमुख परम्पराओं [56] ऐतिहासिक, असम भी लोहे से नावों, पारम्परिक बन्दूकें और बारूद, हाथीदाँत शिल्प, रंग और पेंट, लाख, agarwood उत्पादों की लेख, पारंपरिक निर्माण सामग्री, उपयोगिताओं बनाने में उत्कृष्ट आदि केन और बाँस शिल्प के दैनिक जीवन में सबसे अधिक इस्तेमाल किया उपयोगिताओं, घरेलू सामान से लेकर, उपसाधन बुनाई, मछली पकड़ने का सामान, फर्नीचर, संगीत वाद्ययन्त्र, निर्माण सामग्री, आदि उपयोगिताएँ और Sorai और Bota जैसे प्रतीकात्मक लेख घण्टी धातु और पीतल से बने प्रदान हर असमिया घर में पाया [57] [58] हाजो और Sarthebari पारम्परिक घण्टी धातु और पीतल के शिल्प का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रों में कर रहे हैं। असम रेशम के कई प्रकार के घर है, सबसे प्रतिष्ठित हैं: मूगा - प्राकृतिक सुनहरे रेशम, पैट - एक मलाईदार उज्ज्वल चाँदी के रंग का रेशम और इरी - एक सर्दियों के लिए गर्म कपड़े के विनिर्माण के लिए इस्तेमाल किया किस्म। सुआल्कुची (Sualkuch), पारम्परिक रेशम उद्योग के लिए केन्द्र के अलावा, ब्रह्मपुत्र घाटी के लगभग हर हिस्से में ग्रामीण परिवार उत्कृष्ट कढ़ाई डिजाइन के साथ रेशम और रेशम के वस्त्र उत्पादन करते हैं। इसके अलावा, असम में विभिन्न सांस्कृतिक समूह अद्वितीय कढ़ाई डिजाइन और अद्भुत रंग संयोजन के साथ सूती वस्त्रों के विभिन्न प्रकार बनाते हैं। इसके अलावा असम में खिलौना और मुखौटा आदि बनाने का एवं ज्यादातर वैष्णव मठों में मिट्टी के बर्तनों और निचले असम जिलों में काष्ठ शिल्प, लौह शिल्प, गहने, मिट्टी के काम आदि का अद्वितीय शिल्प लोगों के पास है। ललित कला पुरातन मौर्य गोलपाड़ा जिले में और उसके आस-पास की खोज स्तूप प्राचीन कला और वास्तु काम करता है (सी॰ 300 सी॰ 100 ई॰ के लिए ई॰पू॰) के जल्द से जल्द उदाहरण हैं। तेजपुर में एक सुन्दर चौखट प्राचीन असम में देर गुप्ता अवधि के कला के सारनाथ स्कूल के प्रभाव के साथ कला का काम करता है सबसे अच्छा उदाहरण के रूप में पहचान कर रहे हैं के साथ Daparvatiya (Doporboteeya) पुरातात्विक स्थल की खोज की बनी हुई है। कई अन्य साइटों को भी स्थानीय रूपांकनों और दक्षिण पूर्व एशिया में उन लोगों के साथ समानता के साथ कभी कभी के साथ स्थानीय कला रूपों के विकास दिखा रहे हैं। वर्तमान से अधिक की खोज कई मूर्तिकला और वास्तुकला के साथ रहता चालीस प्राचीन पुरातात्विक असम भर में साइटों। इसके अलावा, वहाँ कई देर मध्य आयु कला और कई शेष मन्दिरों, महलों और अन्य इमारतों के साथ मूर्तियाँ और रूपांकनों के सैकड़ों सहित वास्तु काम करता है के उदाहरण हैं। चित्रकारी असम के एक प्राचीन परम्परा है। Xuanzang (7 वीं शताब्दी ई.) का उल्लेख है कि हर्षवर्धन के लिए कामरुपा राजा भासकर वर्मन उपहार के बीच चित्रों और चित्रित वस्तुओं, असमिया रेशम पर थे जिनमें से कुछ थे। Hastividyarnava (हाथी पर एक ग्रन्थ), चित्रा भागवत और गीता गोविन्दा से मध्य युग में जैसे पाण्डुलिपियों के कई पारम्परिक चित्रों के उत्कृष्ट उदाहरण सहन. मध्ययुगीन असमिया साहित्य भी chitrakars और patuas करने के लिए सन्दर्भित करता है। आसाम की जातियाँ असम की आदिम जातियाँ सम्भवत: आर्य तथा मंगोलीय जत्थे के विभिन्न अंश हैं। यहाँ के जातियों को कई समूहों में विभाजित की जा सकती है। प्रथम ब्राह्मण, कलिता (कायस्थ), नाथ (योगी) इत्यादि हैं जो आदिकाल में उत्तर भारत से आए हुए निवासियों के अवशेष मात्र हैं। दूसरे समूह के अन्तर्गत आर्य-मंगोलीय एवं मंगोलीय जनसमस्ति जैसे के आहोम, सुतिया, मरान, मटक, दिमासा (अथवा पहाड़ी कछारी), बोडो (या मैदानी कछारी), राभा, तिवा, कार्बी, मिसिंग, ताई, ताई फाके तथा कुकी जातियाँ हैं। इन में से बहुत सारे जातियाँ असम के ऊपरी जिलों (उजनि) में रहते हैं और अन्य जातियाँ आसाम के निचले भागों (नामोनि) में रहते हैं। नामोनि के कोच जाती असम के एक प्रमुख जाती है जो गोवालपारा, धुबूरी इत्यादि राज्यों में ये राजवंशी के नाम से प्रसिद्ध हैं। कोइवर्त्त यहाँ की मछली मारने वाली जाति है। आधुनिक युग में यहाँ पर चाय के बाग में काम करनेवाले बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा अन्य प्रांतों से आए हुए जातियाँ और आदिवासी भी असमिया मूलस्रोत के अंश बन गए हैं। इन सब जातियाँ समन्वित हो कर असमिया नाम के अखण्ड जाती को जन्म दिया है। साथ ही साथ, सभी जातियों के विचित्र परम्पराएँ मिलकर भी एक अतुलनीय संस्कृति सृष्ट हुवे जिसका नाम असमिया संस्कृति है जो की पूरे भारत में विरल है। जनपद असम में ३५ जनपद हैं - डिमा हसाओ जिला करीमगंज जिला कामरूप जिला कामरूप महानगर जिला कार्बी ऑन्गलॉन्ग जिला पश्चिम कार्बी आंगलोंग ज़िला कोकराझार जिला गोलाघाट जिला काछाड़ जिला गोवालपारा जिला जोरहाट जिला डिब्रूगढ़ जिला तिनसुकिया जिला दरंग जिला धुबरी जिला धेमाजी जिला नलबाड़ी जिला नगाँव जिला बरपेटा जिला बंगाईगाँव जिला मरिगांव जिला लखिमपुर जिला शिवसागर जिला शोणितपुर जिला हाईलाकांडी जिला बक़सा जिला उदालगुड़ी जिला चिरांग जिला दक्षिण सालमारा मनकाचर जिला बाजली जिला तामूलपुर जिला चराईदेव जिला माजुली जिला विश्वनाथ जिला होजाई जिला असम की समस्याएँ वर्तमान असम बाढ़, गरीबी, पिछड़ेपन और सबसे बड़े कारण फासीवादी विचारधारा और दंगावादी से ग्रस्त है। प्रसिद्ध व्यक्ति शंकरदेव - भक्ति आन्दोलन के समय के असमिया भाषा के अत्यन्त प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा वैष्णव समाजसुधारक लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई - असम के प्रथम मुख्यमन्त्री कृष्णकान्त सन्दिकोइ - संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रसिद्ध लेखक-विद्वान, गुवाहाटी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति ज्योतिप्रसाद आगरवाला - असम के प्रथम फिल्म निर्माता, कवि, गीतकार और नाटककार विष्णु प्रसाद राभा - कवि, चित्रकार, क्रान्तिकारी, "सैनिक कलाकार" और "कलागुरु" नामों से विभूषित भूपेन हाजरिका - पद्मभूषण, गायक, संगीतकार, गीतकार, फिल्मकार, कवि, समाजसेवी, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित, भारत रत्न से सम्मानित वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य - ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रथम असमिया लेखक इंदिरा रायसम गोस्वामी (इंदिरा गोस्वामी) - ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यापक इन्हें भी देखें असम का इतिहास असमिया भाषा असम के लोकसभा सदस्य सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ असम के जनसाधारण एवं इतिहास के बारे में Assam from assam.org Assam Profile from the Assam Government website असम भाषा सुधार की आवश्यकता
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आन्ध्र प्रदेश ((, अनुवाद: आन्ध्र का प्रांत), संक्षिप्त आं.प्र., भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित राज्य है। क्षेत्र के अनुसार यह भारत का सातवा सबसे बड़ा और जनसंख्या की दृष्टि से जनसंख्या के आधार पर भारत के राज्य और संघ क्षेत्र!पांचवा सबसे बड़ा राज्य है। सबसे बड़ा शहर विशाखपट्नम राजधानी है। भारत के सभी राज्यों में सबसे लंबा समुद्र तट गुजरात में (1600 कि॰मी॰) होते हुए, दूसरे स्थान पर इस राज्य का समुद्र तट (972 कि॰मी॰) है। आन्ध्र प्रदेश 12°41' तथा 22°उ॰ अक्षांश और 77° तथा 84°40'पू॰ देशांतर रेखांश के बीच है और उत्तर में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा, पूर्व में बंगाल की खाड़ी, दक्षिण में तमिल नाडु और पश्चिम में कर्नाटक से घिरा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से आन्ध्र प्रदेश को "भारत का धान का कटोरा" कहा जाता है। यहां की फसल का 77% से ज़्यादा हिस्सा चावल है। इस राज्य में दो प्रमुख नदियां, गोदावरी और कृष्णा बहती हैं। पुदुचेरी (पांडीचेरी) राज्य के यानम जिले का छोटा अंतःक्षेत्र (12 वर्ग मील (30 वर्ग कि॰मी॰)) इस राज्य के उत्तरी-पूर्व में स्थित गोदावरी डेल्टा में है। ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य में शामिल क्षेत्र आन्ध्रपथ, आन्ध्रदेस, आन्ध्रवाणी और आन्ध्र विषय के रूप में जाना जाता था। आन्ध्र राज्य से आन्ध्र प्रदेश का गठन 1 नवम्बर 1956 को किया गया। फरवरी 2014 को भारतीय संसद ने अलग तेलंगाना राज्य को मंजूरी दे दी। तेलंगाना राज्य में दस जिले तथा शेष आन्ध्र प्रदेश (सीमांन्ध्र) में 13 जिले होंगे। दस साल तक हैदराबाद दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी होगी। नया राज्य सीमांन्ध्र दो-तीन महीने में अस्तित्व में आजाएगा अब लोकसभा/राज्यसभा का 25/12सिट आन्ध्र में और लोकसभा/राज्यसभा17/8 सिट तेलंगाना में होगा। इसी माह आन्ध्र प्रदेश में राष्ट्रपति शासन भी लागू हो गया जो कि राज्य के बटवारे तक लागू रहेगा। इतिहास ऐतरेय ब्राह्मण (ई.पू.800) और महाभारत जैसे संस्कृत महाकाव्यों में आन्ध्र शासन का उल्लेख किया गया था। भरत के नाट्यशास्त्र (ई.पू. पहली सदी) में भी "आन्ध्र" जाति का उल्लेख किया गया है।भट्टीप्रोलु में पाए गए शिलालेखों में तेलुगू भाषा की जड़ें खोजी गई हैं। चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 322-297) के न्यायालय का दौरा करने वाले मेगस्थनीस ने उल्लेख किया है कि आन्ध्र देश में 3 गढ़ वाले नगर और 100,000 पैदल सेना, 200 घुड़सवार फ़ौज और 1000 हाथियों की सेना थी। बौद्ध पुस्तकों से प्रकट होता है कि उस समय आन्ध्रवासियों ने गोदावरी क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी। अपने 13वें शिलालेख में अशोक ने हवाला दिया है कि आन्ध्रवासी उसके अधीनस्थ थे। शिलालेखीय प्रमाण दर्शाते हैं कि तटवर्ती आन्ध्र में कुबेरका द्वारा शासित एक प्रारंभिक राज्य था, जिसकी राजधानी प्रतिपालपुरा (भट्टीप्रोलु) थी। यह शायद भारत का सबसे पुराना राज्य है। लगता है इसी समय धान्यकटकम/धरणीकोटा (वर्तमान अमरावती) महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं, जिसका गौतम बुद्ध ने भी दौरा किया था। प्राचीन तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार: "अपने ज्ञानोदय के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को बुद्ध ने धान्यकटक के महान स्तूप के पास 'महान नक्षत्र' (कालचक्र) मंडलों का सूत्रपात किया।" मौर्यों ने ई.पू. चौथी शताब्दी में अपने शासन को आन्ध्र तक फैलाया। मौर्य वंश के पतन के बाद ई.पू. तीसरी शताब्दी में आन्ध्र शातवाहन स्वतंत्र हुए. 220 ई.सदी में शातवाहन के ह्रास के बाद, ईक्ष्वाकु राजवंश, पल्लव, आनंद गोत्रिका, विष्णुकुंडीना, पूर्वी चालुक्य और चोला ने तेलुगू भूमि पर शासन किया। तेलुगू भाषा का शिलालेख प्रमाण, 5वीं ईस्वी सदी में रेनाटी चोला (कडपा क्षेत्र) के शासन काल के दौरान मिला। इस अवधि में तेलुगू, प्राकृत और संस्कृत के आधिपत्य को कम करते हुए एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरी. अपनी राजधानी विनुकोंडा से शासन करने वाले विष्णुकुंडीन राजाओं ने तेलुगू को राजभाषा बनाया। विष्णुकुंडीनों के पतन के बाद पूर्वी चालुक्यों ने अपनी राजधानी वेंगी से लंबे समय तक शासन किया। पहली ईस्वी सदी में ही चालुक्यों के बारे में उल्लेख किया गया कि वे शातवाहन और बाद में ईक्ष्वाकुओं के अधीन जागीरदार और मुखिया के रूप में काम करते थे। 1022 ई. के आस-पास चालुक्य शासक राजराज नरेंद्र ने राजमंड्री पर शासन किया। पल्नाडु की लड़ाई के परिणामस्वरूप पूर्वी चालुक्यों की शक्ति क्षीण हो गई और 12वीं और 13वीं सदी में काकतीय राजवंश का उदय हुआ। काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया. औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। 1 नवम्बर 1956 को आन्ध्र प्रदेश राज्य के निर्माण के लिए आन्ध्र राज्य का विलय हैदराबाद राज्य के तेलंगाना प्रांत से किया गया। हैदराबाद राज्य की विगत राजधानी हैदराबाद को नए राज्य आन्ध्र प्रदेश की राजधानी बनाया गया। 1954 में फ़्रांसीसियों ने यानम पर अधिकार त्याग दिया, लेकिन संधि की एक शर्त यह थी कि जिले की अलग और स्पष्ट पहचान को कायम रखें, जो कि वर्तमान पुदुचेरी राज्य का गठन करने वाले अन्य दक्षिण भारतीय परिक्षेत्रों के लिए भी लागू था। भूगोल और जलवायु आम तौर पर आन्ध्र प्रदेश की जलवायु गर्म और नम है। राज्य की जलवायु का निर्धारण करने में दक्षिण पश्चिम मानसून की प्रमुख भूमिका है। लेकिन आन्ध्र प्रदेश में सर्दियां सुखद होती हैं। यह वह समय है जब राज्य कई पर्यटकों को आकर्षित करता है। आन्ध्र प्रदेश में ग्रीष्मकाल मार्च से जून तक चलता है। इन महीनों में तापमान काफ़ी ऊंचा रहता है। तटीय मैदानों में गर्मियों का तापमान आम तौर पर राज्य के बाकी जगहों की तुलना में अधिक होता है। गर्मियों में, आम तौर पर तापमान 20 डिग्री सेल्सियस और 40 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। गर्मी के दिनों में कुछ स्थानों पर तापमान उच्चतम 45 डिग्री तक भी पहुंचता है। आन्ध्र प्रदेश में जुलाई से सितंबर उष्णकटिबंधीय बारिश का मौसम होता है। इन महीनों के दौरान राज्य में भारी वर्षा होती है। आन्ध्र प्रदेश में कुल वर्षा का लगभग एक तिहाई अंश पूर्वोत्तर मानसून की वजह से होता है। अक्टूबर महीने के आस-पास राज्य में सर्दी का मौसम आता है। आन्ध्र प्रदेश में अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी सर्दी के महीने हैं। राज्य का तटीय इलाका काफी लंबा होने की वजह से सर्दियों में मौसम बहुत ठंडा नहीं होता है। सर्दियों में तापमान का विस्तार आम तौर पर 13 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। गर्मी के महीनों के दौरान राज्य का दौरा करने के लिए आपको गर्मी के कपड़ों की अच्छी तैयारी करने की ज़रूरत पड़ेगी. मौसम का अच्छी तरह सामना करने के लिए सूती कपड़े उपयुक्त हैं। चूंकि वर्ष के अधिकांश भाग के दौरान आन्ध्रप्रदेश की जलवायु अनुकूल नहीं है, राज्य का दौरा करने के लिए अक्टूबर से फ़रवरी के बीच का समय अच्छा है। प्रभाग आन्ध्र प्रदेश का विभाज होने के बाद इस में दो क्षेत्र विभाजित रूप से हैं, यथा तटीय आन्ध्र और रायलसीमा प्रत्येक जिला कई मंडलों में विभाजित है और प्रत्येक मंडल कुछ गांवों का समूह है। अमरावती राजधानी है। आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्य अलग करने के बाद, आन्ध्र प्रदेश की राजधानी दस साल हैदराबाद रहेगी, और नई राजधानी विजयवाडा शहर को घोशित कर दिया गया है। आन्ध्र प्रदेश का मुख्य बंदरगाह विशाखापट्नम, राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और भारतीय नौसेना के पूर्वी नौसेना कमान का घर है। विजयवाड़ा, अपनी अवस्थिति और प्रमुख रेल और सड़क मार्गों से निकटता के कारण एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र और राज्य का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। अन्य महत्वपूर्ण शहर और कस्बें हैं: काकीनाडा, गुंटूर, तिरुपति, राजमंड्री, नेल्लूर, ओंगोल, कर्नूल, अनंतपुर, और एलूरु. प्रशासनिक प्रभाग क्षेत्र आंध्र प्रदेश में तीन क्षेत्र शामिल हैं: तटीय आंध्र, उत्तराखंड और रायलसीमा। जिले इसके कुल 26 जिले हैं, तटीय आंध्र क्षेत्र में बारह, उत्तरान्ध्र में छह और रायलसीमा क्षेत्र में आठ हैं। तटीय आंध्र क्षेत्र पूर्व गोदावरी गुंटूर कृष्णा बापटला कोनासीमा एनटीआर पलनाडू श्री पोट्टी श्रीरामुलु नेल्लूर एलुरु प्रकाशम पश्चिम गोदावरी काकीनाडा उत्तरांध्रा क्षेत्र श्रीकाकुलम विशाखापट्नम पार्वतीपुरम अल्लूरी सीताराम राजू अनकापल्ली विजयनगरम रायलसीमा क्षेत्र अनंतपुर अन्नमय्या चित्तूर कडपा कर्नूल नांद्याल श्री सत्य साईं तिरुपति राजस्व विभाग मुख्य लेख: आंध्र प्रदेश में राजस्व प्रभागों की सूची इन 26 जिलों को आगे 74 राजस्व प्रभागों में विभाजित किया गया है। मंडल 74 राजस्व प्रभाग बदले में 679 मंडलों में विभाजित हैं। [117] शहर कुल 31 शहर हैं जिनमें 16 नगर निगम और 14 नगर पालिकाएं शामिल हैं। दस लाख से अधिक निवासियों के साथ दो शहर हैं, अर्थात् विशाखापत्तनम और विजयवाड़ा। जनसांख्यिकी तेलुगू राज्य की राजभाषा है, जो 88.5% जनसंख्या द्वारा बोली जाती है। भारत की अत्यधिक बोली जाने वाली भाषाओं में तेलुगू का तीसरा स्थान है। राज्य में प्रमुख भाषायी अल्पसंख्यक समूहों में उर्दू 8.63%) और हिन्दी (0.63%) तथा तमिल (1.01%) बोलने वाले शामिल हैं। भारत सरकार ने 1 नवम्बर 2008 को एक शास्त्रीय और प्राचीन भाषा के रूप में तेलुगू को नामित किया। आन्ध्र प्रदेश में 1% से कम बोली जाने वाली अन्य भाषाओं में कन्नड़ (0.94%), मराठी (0.84%), उड़िया (0.42%), गोंडी (0.21%) और मलयालम (0.1%) हैं। राज्य निवासियों द्वारा 0.1% से कम बोली जाने वाली भाषाओं में गुजराती (0.09%), सावरा (0.09%), कोया (0.08%), जटपु (0.04%), पंजाबी (0.04%), कोलमी (0.03%), कोंडा (0.03%), गडबा (0.02%), सिंधी (0.02%), गोरखाली/नेपाली (0.01%) और खोंड /कोंध (0.01%) शामिल हैं। आन्ध्र प्रदेश का मुख्य जातीय समूह तेलुगू लोग हैं, जो मुख्यतः आर्य और द्रविड़ की मिश्रित जाति से संबंधित हैं। अर्थ-व्यवस्था राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए आय का मुख्य स्रोत कृषि रही है। भारत की चार महत्वपूर्ण नदियां, यथा गोदावरी, कृष्णा, पेन्ना और तुंगभद्रा राज्य में सिंचाई प्रदान करते हुए प्रवहित होती हैं। चावल, गन्ना, कपास, मिर्ची (काली मिर्च), आम और तम्बाकू स्थानीय फसल हैं। हाल ही में, वनस्पति तेल के उत्पादन के लिए प्रयुक्त फसल, जैसे कि सूरजमुखी और मूंगफली ने समर्थन पाया है। गोदावरी नदी घाटी सिंचाई परियोजना और दुनिया में सर्वोच्च, पत्थरों से बने नागार्जुन सागर बांध सहित, कई बहु राज्य सिंचाई परियोजनाएं विकासाधीन हैं। राज्य ने सूचना प्रौद्योगिकी और जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों पर भी ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है। 2004-2005 में आन्ध्र प्रदेश भारत के सर्वोच्च IT निर्यातकों की सूची में पांचवे स्थान पर रहा था। 2004-2005 के दौरान राज्य से 2004-2005 निर्यात रु.82,700 मिलियन ($ 1,800 मिलियन) रहा था। प्रति वर्ष 52.3% की दर से IT क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। राष्ट्र के कुल IT निर्यात में 14 प्रतिशत के योगदान द्वारा, 2006-2007 में IT निर्यात रु.190,000 मिलियन ($4.5 बिलियन) तक पहुंचा और भारत में चौथे स्थान पर रहा। पहले से ही सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) में राज्य के सेवा क्षेत्र का योगदान 43% है और 20% कार्य बल नियोजित है। इस राज्य की राजधानी हैदराबाद को देश के थोक दवा की राजधानी माना जाता है। फार्मास्यूटिकल क्षेत्र के शीर्षस्थ 10 कंपनियों का 50% इस राज्य से हैं। इस राज्य की कई कंपनियों द्वारा पहले से मोर्चा संभालने की वजह से, बुनियादी सुविधाओं के मामले में भी राज्य ने बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है। आन्ध्र प्रदेश एक खनिज समृद्ध राज्य है, जो खनिज संपदा के मामले में भारत में दूसरे स्थान पर है। 30 अरब टन के अनुमान सहित, भारत के चूना पत्थर भंडार का एक तिहाई इस राज्य में है।कृष्णा गोदावरी घाटी में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के विशाल भंडार हैं। राज्य, कोयले के भंडार की बड़ी राशि से भी समृद्ध है। राष्ट्रीय बाज़ार में 11% की हिस्सेदारी के साथ, देश भर में जल विद्युत उत्पादन के मामले में राज्य पहले स्थान पर है। 2005 के लिए आन्ध्र प्रदेश का GSDP, मौजूदा क़ीमतों के अनुसार अनुमानतः $62 बिलियन आंका गया था। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा भारतीय रुपयों के मिलियन में आंकड़ों के साथ अनुमानित बाज़ार की कीमतों के लिए आन्ध्र प्रदेश के GSDP की प्रवृत्ति सूचक तालिका है। तदनुसार, भारत के प्रमुख राज्यों के बीच राज्य का दर्जा, समग्र GSDP के संदर्भ में चौथे और प्रति व्यक्ति भी चौथे स्थान पर है। एक अन्य माप-सिद्धांत के अनुसार, भारतीय संघ के सभी राज्यों में सकल उत्पाद के मामले में राज्य तीसरे स्थान पर है। कृषि खाद्यान्न उत्पादन में संलग्न आन्ध्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था का प्राथमिक क्षेत्र कृषि है। आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख धान उत्पादन राज्यों में से एक है और भारत में वर्जीनिया तंबाकू का लगभग 4/5 भाग का उत्पादन भी यहीं होता है। राज्य की नदियां , विशेषकर गोदावरी और कृष्णा कृषि के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। लंबे समय तक इनके लाभ आन्ध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्रों तक सीमित थे, जिन्हें सर्वोत्तम सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध थीं। स्वतंत्रता के बाद शुष्क आंतरिक क्षेत्रों के लिए इन दो नदियों के अलावा अन्य दो नदियों के पानी को एकत्र करने के प्रयास किए गए हैं। नहरों द्वारा सिंचाई करने से तेलंगाना और रायलसीमा क्षेत्रों में तटीय आन्ध्र प्रदेश की कृषि-औद्योगिक इकाइयों से होड़ लेती इकाइयों की संख्या बढ़ गई है। आन्ध्र प्रदेश में नागरिकों का मुख्य व्यवसाय खेती है, इसके लगभग 62 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। आन्ध्र प्रदेश की मुख्य फ़सल चावल है और यहां के लोगों का मुख्य आहार भी चावल ही है। राज्य के कुल अनाज के उत्पादन का 77 प्रतिशत भाग चावल ही है। यहाँ की अन्य प्रमुख फ़सलें - ज्वार, तंबाकू, कपास और गन्ना हैं। आन्ध्र प्रदेश भारत का सबसे अधिक मूंगफली 🥜 पैदा करने वाला राज्य है। राज्य के क्षेत्रफल के 23 प्रतिशत हिस्से में सघन घने वन हैं। वन उत्पादों में सागवान, यूकेलिप्टस, काजू, कैस्यूरीना और इमारती लकड़ी मुख्य रूप से हैं। सरकार और राजनीति आन्ध्र प्रदेश में 175 सीटों की विधान सभा है। भारत के संसद में राज्य के 25 सदस्य हैं; उच्च सदन, राज्य सभा में 12 और निचले सदन, लोक सभा में 25. 1982 तक आन्ध्र प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) पार्टी के नेतृत्व की सरकारों का सिलसिला था। कासू ब्रह्मानंद रेड्डी ने लंबे समय तक सेवारत मुख्यमंत्री का रिकॉर्ड बनाए रखा था, जिसे 1983 में एन.टी. रामाराव ने तोड़ा. पी.वी.नरसिंहा राव ने भी राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर सेवा की, जो 1991 में भारत के प्रधानमंत्री बने। राज्य के प्रमुख मुख्यमंत्रियों में शामिल हैं आन्ध्र राज्य के मुख्यमंत्री (CM) टंगुटूरी प्रकाशम, (वर्तमान आन्ध्र प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी थे), अन्य हैं कासू ब्रह्मानंद रेड्डी, मर्री चेन्ना रेड्डी, जलगम वेंगल राव, नेडुरुमल्ली जनार्दन रेड्डी, नादेंड्ला भास्कर राव, कोट्ला विजय भास्कर रेड्डी, एन.टी. रामाराव, नारा चंद्रबाबू नायडू और वै.एस. राजशेखर रेड्डी. 1983 में तेलुगू देशम पार्टी (TDP) ने राज्य चुनावों में विजय हासिल की और एन.टी.रामाराव (NTR) ने राज्य का मुख्य मंत्री बन कर पहली बार आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में दूसरे दुर्जेय राजनीतिक दल को प्रवर्तित किया और इस तरह आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में एक पार्टी के एकाधिकार को तोड़ा. कुछ महीनों के बाद, जब NTR दूर संयुक्त राज्य अमेरिका में इलाज के लिए गए थे, नंदेंड्ला भास्कर राव ने अन्यायपूर्वक सत्ता छीन ली। वापस आने के बाद, NTR ने राज्य के राज्यपाल को सफलतापूर्वक विधानसभा भंग करने और दुबारा चुनाव के लिए मनाया. TDP ने भारी बहुमत से चुनाव जीता। डॉ॰ मर्री चेन्ना द्वारा मामलों की पतवार संभालते हुए INC पार्टी की सत्ता में वापसी के साथ ही 1989 में सामूहिक चुनावों ने NTR के 7-वर्षीय शासन को समाप्त किया। उन्हें एन. जनार्धन रेड्डी ने प्रतिस्थापित किया, जब कि बाद में कोट्ला विजय भास्कर रेड्डी ने उनकी जगह ली। 1994 में आन्ध्र प्रदेश ने दुबारा TDP को जनादेश दिया और फिर से NTR मुख्यमंत्री बने। NTR के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने राजनीतिक तिकड़म भिड़ा कर, पीठ पीछे वार करते हुए उनसे सत्ता छीन ली। इस विश्वासघात को पचा पाने में असमर्थ NTR की बाद में दिल के दौरे से मृत्यु हो गई।TDP ने 1999 में चुनाव जीता, पर मई 2004 के चुनावों में वै.एस. राजशेखर रेड्डी के नेतृत्व वाली INC प्रधान गठबंधन से उसकी हार हुई। 2008 में फ़िल्म अभिनेता चिरंजीवी द्वारा प्रजा राज्यम पार्टी (PRP) का गठन किया गया और 2009 चुनावों में त्रिकोणीय संघर्ष सामने आया। विशाल मीडिया प्रचार और अपेक्षाओं के बावजूद, वह परिवर्तक खेल नहीं खेल पाया और केवल 18 सीटें जीतने में सफल रहा। आशा की किरण यह है कि वह कांग्रेस के 36 प्रतिशत और तेलुगू देशम के 25 प्रतिशत की तुलना में कुल मतों का 17 प्रतिशत जीतने में कामयाब रहा। प्रजा राज्यम पार्टी और TDP, CPI और CPM के वृहत् गठबंधन को परे रखते हुए वै.एस. राजशेखर रेड्ड़ी दुबारा मुख्यमंत्री बने। YSR रेड्डी, आं.प्र. के इतिहास में एक सत्र में बतौर CM संपूर्ण 5 वर्ष पूरे करने वाले प्रथम मुख्यमंत्री बने। संस्कृति सांस्कृतिक संस्थाएं आन्ध्र प्रदेश में कई संग्रहालय हैं, जिनमें शामिल है- गुंटूर शहर के पास अमरावती में स्थित पुरातत्व संग्रहालय, जिसमें आस-पास के प्राचीन स्थलों के अवशेष सुरक्षित हैं, हैदराबाद का सालारजंग संग्रहालय, जिसमें स्थापत्य, चित्रकला और धार्मिक वस्तुओं का विविध संग्रह है, विशाखापट्नम में स्थित विशाखा संग्रहालय है, जहां डच पुनर्वास बंगले में स्वतंत्रता पूर्व मद्रास प्रेसिडेंसी का इतिहास प्रदर्शित है।विजयवाडा में स्थित विक्टोरिया जुबिली संग्रहालय में प्राचीन मूर्तियां, चित्र, देवमूर्तियां, हथियार, चाकू-छुरियां, चम्मच आदि और शिलालेखों का अच्छा संग्रह है। पाक शैली आन्ध्र प्रदेश के व्यंजन, सभी भारतीय व्यंजनों में सबसे ज़्यादा मसालेदार के रूप में विख्यात हैं। भौगोलिक क्षेत्र, जाति, परंपराओं के आधार पर आन्ध्र व्यंजन में कई भिन्नताएं हैं। भारतीय अचार और चटनी, जिसे तेलुगू में पच्चडी कहा जाता है, आन्ध्र प्रदेश में विशेष रूप से लोकप्रिय है और कई क़िस्म के अचार और चटनी इस राज्य की ख़ासियत है। टमाटर, बैंगन और अंबाडा (गोंगूरा) सहित व्यावहारिक तौर पर प्रत्येक सब्ज़ी से चटनी बनाई जाती है। आम के अचारों में संभवतः आवकाय आन्ध्र के अचारों में सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है। चावल प्रधान भोजन है और इसका प्रयोग विविध तरीकों से किया जाता है। आम तौर पर, चावल को या तो उबाला जाता है और सब्जी के साथ खाया जाता है, या फिर लपसी बना ली जाती है, जो पतली परत जैसा पकवान अट्टु (पेसरट्टु - जो चावल और मूंग दाल के मिश्रण से बनता है) या डोसा बनाने के लिए प्रयुक्त होता है। मांस, तरकारियां और साग से विभिन्न मसालों के साथ विविध ख़ुशबूदार स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए जाते हैं। हैदराबादी पाक-शैली मुसलमानों से प्रभावित है, जो 14वीं सदी में तेलंगाना में आए थे। ज़्यादातर व्यंजन मांस के इर्द-गिर्द घूमते हैं। मोहक मसालों और घी के ज़्यादा इस्तेमाल से बने ये व्यंजन स्वादिष्ट और खुशबूदार होते हैं। मांसाहारी व्यंजन में मेमने, मुर्गी और मछली का मांस सबसे ज़्यादा व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। हैदराबादी व्यंजनों में सबसे विशिष्ट और लोकप्रिय व्यंजन शायद बिरयानी है। नृत्य जयपा सेनानी (जयपु नायडू) पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने आन्ध्र प्रदेश में प्रचलित नृत्यों के बारे में लिखा है। नृत्य के दोनों, देसी और मार्गी रूपों को संस्कृत पुस्तक 'नृत्य रत्नावली' में शामिल किया गया है। इसमें आठ अध्याय हैं। लोक-नृत्य के रूप यथा पेरनी, प्रेरंखना, शुद्ध नर्तन, सरकारी, रासका, दंड रासका, शिव प्रिया, कंदुक नर्तन, भंडिका नृत्यम्, चरण नृत्यम्, चिंदु, गोंडली और कोलाटम का वर्णन किया गया है। पहले अध्याय में लेखक ने मार्ग और देसी, तांडव और लास्य, नाट्य और नृत्य के बीच मतभेद की चर्चा की है। दूसरे और तीसरे अध्याय में आंगिक-अभिनय, चारिस, स्थानक और मंडलों की चर्चा की है। चौथे अध्याय में करण, अंगहार और रेचक वर्णित हैं। बाद के अध्यायों में उन्होंने स्थानीय नृत्य रूपों अर्थात् देसी नृत्य का वर्णन किया है। अंतिम अध्याय में उन्होंने कला और नृत्य के अभ्यास का वर्णन किया है। आन्ध्र में शास्त्रीय नृत्य, पुरुष और महिलाओं, दोनों द्वारा किया जा सकता है; लेकिन अधिकांशतः महिलाएं ही इसे सीखती हैं। कुचिपूड़ी राज्य का सर्वाधिक प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य रूप है। राज्य के इतिहास में विद्यमान विभिन्न नृत्य रूप हैं चेंचु भागोतम, कुचिपूड़ी, भामाकलापम, बुर्रकथा, वीरनाट्यम, बुट्टा बोम्मलु, डप्पु, तप्पेट गुल्लु, लंबाडी, बोनालु, धीम्सा, कोलाटम और चिंदु. त्यौहार जनवरी में संक्रांति. फरवरी/मार्च में महा शिवरात्रि. मार्च में होली. मार्च/अप्रैल में युगादि या तेलुगू नववर्ष. मार्च/अप्रैल में युगादि के 9 दिनों के बाद श्रीराम नवमी. अगस्त में वरलक्ष्मी व्रतम, राखी पूर्णिमा, विनायक चवथी. सितंबर/अक्टूबर में दशहरा. आश्विज महीने में शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन अट्ल तद्दी (यह ग्रिगोरियन कैलेंडर के सितंबर/अक्टूबर में आता है). दशहरा के 20 दिन बाद अक्टूबर/नवंबर में दीपावली. ईद-उल-फ़ित्र, ईदुल अज़हा, मुहर्रम. तेलंगाना क्षेत्र में नवरात्रि-दशहरा कहे जाने वाले दुर्गाष्टमी के दौरान 9 दिनों के लिए बतुकम्मा मनाया जाता है। नवरोज़ क्रिसमस साहित्य नन्नय्या, तिक्कना और येर्राप्रगडा वह त्रिमूर्ति हैं, जिन्होंने महान संस्कृत महाकाव्य महाभारत का तेलुगू में अनुवाद किया। एक और कवि हैं बोम्मेरा पोतना, जिन्होंने वेद व्यास द्वारा संस्कृत में लिखे गए श्रीमद्भागवतम् का तेलुगू में अनुवाद करते हुए श्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमद् आन्ध्र महाभागवतमु की रचना की। नन्नय्या को आदिकवि कहा जाता है, जिन्हें राजमहेंद्रवरम (राजमंड्री) पर शासन करने वाले राजा राजराजनरेंद्र द्वारा ने संरक्षण दिया। विजयनगर के सम्राट कृष्णदेव राय ने आमुक्तमाल्यदा की रचना की। कडपा निवासी तेलुगू कवि वेमना भी दार्शनिक कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। कंदुकूरी वीरेशलिंगम के बाद के तेलुगू साहित्य को आधुनिक साहित्य कहा जाता है, गद्य तिकन्ना कहे जाने वाले वीरेशलिंगम, तेलुगू-भाषा के सामाजिक उपन्यास सत्यवती चरितम के लेखक हैं। अन्य आधुनिक लेखकों में शामिल हैं ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता श्री विश्वनाथ सत्य नारायण और डॉ॰ सी. नारायण रेड्डी. आन्ध्र प्रदेश के मूल निवासी और क्रांतिकारी कवि श्री श्री ने तेलुगू साहित्य में अभिव्यक्ति के नए रूप प्रविष्ट किए। श्री पुट्टपर्ती नारायणाचार्युलु भी तेलुगू साहित्य के विद्वान कवियों में से एक हैं। वे श्री विश्वनाथ सत्यनारायण के समकालीन थे। श्री पुट्टपर्ती नारायणाचार्युलु ने द्विपदकाव्य शिवतांडवम और पांडुरंग महात्यम जैसी प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं. आन्ध्र प्रदेश से अन्य उल्लेखनीय लेखकों में श्रीरंगम श्रीनिवास राव, गुर्रम जाशुवा, चिन्नय्या सूरी, विश्वनाथ सत्यनारायण और वड्डेरा चंडीदास शामिल हैं। फ़िल्में आन्ध्र प्रदेश भारत के सबसे अधिक सिनेमा हॉल वाला राज्य है, जहां लगभग 2700 सिनेमा-घर हैं। राज्य द्वारा एक वर्ष में लगभग 220-250 फिल्मों का निर्माण किया जाता है। भारत के डोलबी डिजिटल थियेटरों में लगभग 40% (930 में 330) यहां स्थित हैं। अब यहां एक बड़े 3D स्क्रीन के साथ IMax थियेटर और 3-5 मल्टीप्लेक्स भी हैं। टॉलीवुड, भारत में सबसे अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण करता है। टॉलीवुड का अपूर्व सितारा है एन.टी.आर.उन्होंने अपनी पार्टी के गठन के 9 महीनों में मुख्यमंत्री बन कर इतिहास रचा, जो कि एक विश्व रिकार्ड भी है और इसे और कोई हासिल नहीं कर पाया है। संगीत राज्य के पास संगीत की बहुमूल्य विरासत है। कर्नाटक संगीत की त्रिमूर्ति त्यागराज, अन्नमाचार्य, क्षेत्रय्या सहित भद्राचल रामदास जैसी कर्नाटक संगीत की कई महान विभूतियां तेलुगू वंशस्थ थीं। महान मैंडोलिन वादक, मैंडोलिन श्रीनिवास भी आन्ध्र प्रदेश से हैं। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में लोक गीत भी लोकप्रिय हैं। महान कर्नाटक गायक, श्री मंगलमपल्ली बालमुरलीकृष्ण भी तेलुगू वंश से हैं, जिन्होंने कर्नाटक संगीत के कुछ और रागों का आविष्कार किया। धर्म आन्ध्र प्रदेश सभी जातियों के हिंदू संतों का घर है। एक महत्वपूर्ण पिछड़ी जाति की हस्ती, संत योगी श्री पोतुलूरी वीर ब्रह्मेंद्र स्वामी विश्वब्राह्मण (सुनार) जाति में पैदा हुए थे, जिनके शिष्यों में ब्राह्मण, हरिजन और मुस्लिम शामिल थे। मछुआरे रघु भी शूद्र थे। संत काकय्या छुरा (मोची) हरिजन संत थे। कई महत्वपूर्ण आधुनिक हिंदू संत आन्ध्र प्रदेश से हैं। इनमें शामिल हैं निंबार्क, जिन्होंने द्वैताद्वैत की स्थापना की, अरविंद मिशन की मां मीरा जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया, श्री सत्य साई बाबा जो पूजा में धार्मिक एकता का समर्थन करते हैं, स्वामी सुंदर चैतन्यानंदजी. तीर्थ-स्थान और धार्मिक स्थल संपूर्ण भारत में तिरुपति या तिरुमला हिंदुओं के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थान है। यह शहर दुनिया में सबसे संपन्न (किसी भी धार्मिक आस्था का) तीर्थ-स्थान है। इसका मुख्य मंदिर भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है। तिरुपति चित्तूर जिले में स्थित है। पूर्वी गोदावरी जिले के अन्नवरम में सत्यनारायण स्वामी का मंदिर प्रसिद्ध है। राष्ट्रीय महत्त्व का एक और अत्यंत लोकप्रिय तीर्थ-स्थल है सिंहाचलम. पौराणिक कथाओं में सिंहाचलम को निंदक-पिता हिरण्यकश्यप से प्रह्लाद को बचाने वाले उद्धारक भगवान नरसिंह का निवास माना गया है।विजयवाडा शहर में स्थित कनक दुर्गा मंदिर आन्ध्र प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों में एक है। श्री कालहस्ति एक महत्वपूर्ण प्राचीन शिव मंदिर है और वह चित्तूर जिले के स्वर्णमुखी नदी के किनारे पर स्थित है। सिंहाचलम एक पहाड़ी मंदिर है, जो विशाखापट्नम से 16 कि॰मी॰ की दूरी पर शहर की उत्तरी दिशा में पहाड़ के दूसरी ओर स्थित है। आन्ध्र प्रदेश के अति उत्कृष्ट तराशे गए मंदिरों में से एक, यह घने जगंलों से घिरे पहाड़ियों के बीच स्थित है। सुंदर रूप से गढ़े गए 16-खंभों वाला नाट्य मंडप और 96-खंभों वाला कल्याण मंडप, मंदिर के कुशल वास्तु-शिल्प की गवाही देते हैं। इष्टदेव श्री लक्ष्मीनरसिंह स्वामी भगवान की छवि को चंदन की मोटी परत से ढका जाता है। विष्णु के एक अवतार, भगवान नरसिंह को समर्पित यह मंदिर भारत का सबसे पुराना मंदिर है, जिसे 11वीं सदी में एक चोला राजा कोल्लुतुंगा ने निर्मित किया था। एक विजय स्तंभ का निर्माण, उड़ीसा के गजपति राजाओं पर विजय प्राप्त करने के बाद श्री कृष्ण देव राय द्वारा किया गया। इस मंदिर में प्राचीन तेलुगू शिलालेख मिलेंगे. यह मंदिर भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इसकी वास्तुकला द्रविड (दक्षिण भारतीय) है। एक आम धारणा है कि भगवान बाढ़, चक्रवात, भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक विपदाओं से वैज़ाग की रक्षा कर रहे हैं। आज तक प्राकृतिक विपदाओं से एक भी मौत नहीं हुई है। एक अनुष्ठान के रूप में शादी से पहले वर-वधू की जोड़ियां इस मंदिर में जाती हैं। यह मंदिर आन्ध्र प्रदेश के सबसे भीड़ वाले मंदिरों में से एक है। श्रीशैलम आन्ध्र प्रदेश में स्थित एक और राष्ट्रीय महत्त्व का प्रमुख मंदिर है। यह भगवान शिव को समर्पित है। विभिन्न ज्योतिर्लिंगों में से एक यहां अवस्थित है। स्कंदपुराण में एक अध्याय "श्रीशैल कांडम्" इसे समर्पित है, जो इसकी प्राचीनता की ओर संकेत करता है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि पिछली सहस्राब्दियों के तमिल संतों ने भी इस मंदिर का गुणगान करते हुए भजन गाए हैं। कहा जाता है कि आदि शंकर ने भी इस मंदिर का दौरा किया और उसी समय "शिवानंद लहरी" की रचना की। मान्यता है कि शिव के पवित्र बैल वृषभ ने भी महाकाली के मंदिर में उस समय तक तपस्या की, जब तक कि शिव और पार्वती उनके समक्ष मल्लिकार्जुन और भ्रमरांबा बन कर प्रकट नहीं हुए. मंदिर 12 पवित्र ज्योतिर्लिंग में से एक है; भगवान राम ने स्वयं सहस्रलिंग की स्थापना की, जबकि पांडवों ने मंदिर के आंगन में पंचपांडव लिंगों की स्थापना की। श्रीशैलम कर्नूल जिले में स्थित है। भद्राचलम श्री राम मंदिर और गोदावरी नदी के लिए जाना जाता है। यह वही जगह है जहां प्रसिद्ध भक्त रामदास (मूल नाम - कंचेर्ल गोपन्ना) ने भगवान राम को समर्पित अपने भक्तिपरक गीतों की रचना की। माना जाता है कि त्रेतायुग में भगवान राम ने कुछ वर्ष यहां गोदावरी नदी के किनारे बिताए. किंवदंती है कि भद्रा (पहाड़) ने गंभीर तपस्या के बाद राम से यहां स्थाई निवास बनाने की मांग की थी। कहते हैं भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ भद्रगिरि में बस गए। भद्राचलम खम्मम जिले में स्थित है। गोपन्ना ने 17वीं सदी में तानीशा के शासन काल में लोगों से धन जुटा कर, राम मंदिर का निर्माण किया। उन्होंने भगवान राम और सीता की शादी का जश्न मनाना शुरू कर दिया। तब से प्रति वर्ष श्री राम नवमी मनाया जाता है। आन्ध्र प्रदेश सरकार इस समारोह के लिए हर साल भद्राचलम को मोती भेजती है। बसर - सरस्वती मंदिर, विद्या की देवी सरस्वती का एक और प्रसिद्ध मंदिर है। बसरा आदिलाबाद जिले में स्थित है। यागंटी गुफाएं भी आन्ध्र प्रदेश के महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्रों में एक है। महानंदी के अलावा, हरा-भरा कर्नूल जिला एक और तीर्थ केंद्र है। प्रसिद्घ हिंदू बिरला मंदिर और रामप्पा मंदिर, मुस्लिम मक्का मस्जिद और चारमीनार, साथ ही हुसैन सागर झील पर बुद्ध की प्रतिमा आन्ध्र प्रदेश के अद्भुत धार्मिक स्मारकों में शामिल हैं। भारत के आन्ध्र प्रदेश में कनकदुर्गा मंदिर एक प्रसिद्ध मंदिर है। यह कृष्णा नदी के तट पर विजयवाड़ा शहर के इंद्रकीलाद्रि पहाड़ी पर स्थित है। एक कथा के अनुसार, वर्तमान हरा-भरा विजयवाड़ा किसी ज़माने में चट्टानी क्षेत्र था, जहां कृष्णा नदी के प्रवाह को रोकते हुए पहाड बिखरे थे। इस प्रकार भूमि, निवास के लिए या खेती के योग्य नहीं थी। भगवान शिव से प्रार्थना किए जाने पर उन्होंने पहाड़ियों को कृष्णा नदी के लिए रास्ता बनाने का निर्देश दिया। और चमत्कार! नदी भगवान शिव द्वारा पहाड़ियों में किए गए छेद "बेज्जम" या सुरंगों के माध्यम से बिना रोक-टोक के पूरे जोश में बहने लगी। इस तरह स्थान का नाम बेज़वाडा पड़ा. इस स्थान से जुड़ी हुई पौराणिक कथाओं में एक यह है कि अर्जुन ने भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए इंद्रकीला पहाड़ी की चोटी पर प्रार्थना की और उनकी विजय के बाद इस शहर का नाम "विजयवाड़ा" पड़ा. एक और लोकप्रिय दंतकथा राक्षस राजा महिषासुर पर देवी कनकदुर्गा की विजय से जुड़ी है। कहा जाता है कि एक समय इस क्षेत्र के लोगों के लिए राक्षसों के बढ़ते अत्याचार असहनीय हो गए। साधु इंद्रकीला ने घोर तपस्या की और जब देवी प्रकट हुईं, तो साधु ने उनसे अपने सिर पर निवास करने और दुष्ट राक्षसों पर निगरानी रखने का आग्रह किया। उनकी इच्छा के अनुसार, राक्षसों का संहार करने के बाद, देवी दुर्गा ने इंद्रकीला को अपना स्थाई निवास बनाया। बाद में उन्होंने राक्षसों के चंगुल से विजयवाडा के निवासियों को मुक्त करते हुए राक्षस राजा महिषासुर का वध किया। दशहरा कहलाने वाले नवरात्रि के दौरान विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण हैं सरस्वती पूजा और तेप्पोत्सवम. यहां प्रति वर्ष देवी दुर्गा के लिए दशहरा मनाया जाता है। बड़ी संख्या में भक्तगण इस रंगारंग समारोह में भाग लेते हैं और कृष्णा नदी में पवित्र स्नान करते हैं। अन्य सांस्कृतिक तत्त्व बापू की चित्रकारी, नंडूरी सुब्बाराव के येंकी पाटलू (येंकी नामक धोबन पर/द्वारा गीत), शरारती बुडुगु (मुल्लपूडी द्वारा रचित एक किरदार), अन्नमय्या के गीत, आवकाय (आम के अचार का एक प्रकार, जिसमें गुठली को निकाला नहीं जाता), गोंगूरा (अंबाडा पौधे की चटनी) अट्लतद्दी (एक मौसमी त्योहार, मुख्यतः किशोर युवतियों के लिए), गोदावरी नदी का तट, डूडू बसवन्ना (नई फसल के त्योहार संक्रांति के दौरान समारोहिक बैल को सजा कर घर-घर प्रदर्शन के लिए ले जाना) तेलुगू संस्कृति में वर्णित है।दुर्गी ग्राम जाना जाता है प्रस्तर-शिल्प, नरम पत्थरों में मूर्तियां तराशने के लिए, जिन्हें अपक्षय के ख़तरे से बचाने के लिए छाया में प्रदर्शित करना ज़रूरी है।'कलंकारी' एक प्राचीन कला रूप है, जिसका संबंध हड़प्पा की सभ्यता से है। आन्ध्र, गुड़िया बनाने के लिए भी मशहूर है। गुड़ियों को लकड़ी, मिट्टी, सूखी घास और हल्के वज़न वाली मिश्र धातुओं से बनाया जाता है। तिरुपति लाल लकड़ी की नक्काशियों के लिए मशहूर है। कोंडपल्ली गहरे रंगों वाले मिट्टी के खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। वैज़ाग में स्थित ईटिकोप्पक्का खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। निर्मल चित्र बहुत ही अर्थपूर्ण हैं और आम तौर पर इन्हें काले रंग की पृष्ठभूमि में चित्रित किया जाता है। कहानी सुनाना भी आन्ध्र का एक कला रूप है। 'यक्ष गानम', 'बुर्र कथा' (आम तौर पर तीन लोगों द्वारा, विभिन्न संगीत वाद्य-यंत्रों का प्रयोग करते हुए कथा सुनाना), 'जंगम कथलु', 'हरि कथलु', 'चेक्क भजन', 'उरुमल नाट्यम' (आम तौर पर त्योहारों पर किया जाता है, जहां ऊंचे संगीत की लय पर गोलाकार समूहों में लोग नृत्य करते हैं), 'घट नाट्यम' (सिर पर मिट्टी के बर्तन रख कर प्रदर्शन) सभी विशाखा में आन्ध्रप्रदेश पलुमांब त्यौहार से जुड़ा अद्वितीय लोक-नृत्य है। शिक्षा आन्ध्र प्रदेश में उच्च शिक्षा के 20 से अधिक संस्थान हैं। सभी प्रमुख कला, मानविकी, विज्ञान, इंजीनियरिंग, कानून, चिकित्सा, व्यापार और पशु चिकित्सा विज्ञान संबंधी विषय उपलब्ध हैं, जिसमें स्नातक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई हो सकती है। सभी प्रमुख क्षेत्रों में उन्नत अनुसंधान संचालित किया जा रहा है। आन्ध्र प्रदेश में 1330 कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय; 1000 MBA और MCA कॉलेज; 500 इंजीनियरिंग कॉलेज और 53 मेडिकल कॉलेज हैं। उच्च शिक्षा में छात्र व शिक्षकों का अनुपात 19:1 है। 2001 की जनगणना के अनुसार, आन्ध्र प्रदेश में समग्र साक्षरता दर 60.5% है। जहां पुरुष साक्षरता दर 70.3% है, महिला साक्षरता दर केवल 50.4% होते हुए चिंताजनक स्तर पर है। राज्य में कई संस्थानों की स्थापना द्वारा हाल ही में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। आन्ध्र प्रदेश में प्रतिष्ठित बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी एंड साइंस, (BITS पिलानी हैदराबाद कैम्पस) और IIT हैदराबाद हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, हैदराबाद (IIIT-H), हैदराबाद विश्वविद्यालय (हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय) और इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस (ISB) अपने मानकों के लिए राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (NIFT) और इंस्टीट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट, कैटरिंग टेक्नॉलजी एंड एप्लाइड न्यूट्रिशन भी हैदराबाद में स्थित हैं। प्रतिष्ठित उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद में स्थित है। आन्ध्र प्रदेश सरकार ने कई समितियों की सिफारिशों को पूरा करते हुए प्रथम स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय की स्थापना का गौरव हासिल किया है। इस प्रकार आन्ध्र प्रदेश विधानसभा के अधिनियम सं.6 द्वारा "आन्ध्र प्रदेश स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय" स्थापित किया गया था और 9-4-1986 को आन्ध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री एन.टी.रामाराव द्वारा इसका उद्घाटन किया गया था। इस स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय ने 01-11-1986 से विजयवाड़ा में कार्य करना शुरू कर दिया। इसके संस्थापक श्री एन.टी.रामाराव की मृत्यु के बाद उनके नाम पर 1998 के अधिनियम सं.4 के ज़रिए 2.2.९८ से विश्वविद्यालय का नाम बदल कर NTR स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय रखा गया। समाचार पत्र आन्ध्र प्रदेश में कई तेलुगू भाषा के समाचार पत्र हैं। ईनाडु, आन्ध्र ज्योति, साक्षी तेलुगु दैनिक, प्रजाशक्ति, वार्ता, आन्ध्र भूमि, विशालांध्रा, सूर्या और आन्ध्र प्रभा राज्य के प्रमुख तेलुगू-भाषा के समाचार पत्र हैं। आन्ध्र प्रदेश के उर्दू भाषा के समाचार पत्र कोई नहीं है, हैदराबाद (तेलंगाना) से प्रचुरित पत्र आंध्र में भी पढ़े जाते हैं, जिस में शामिल हैं सियासत डेली, मुन्सिफ़ डेली, रहनुमा-ए-दक्खन, एतेमाद उर्दू डेली, अवाम और द मिलाप डेली . आन्ध्र प्रदेश में डेक्कन क्रॉनिकल, द हिंदू, द टाइम्स ऑफ इंडिया, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, द इकोनॉमिक टाइम्स, द बिजनेस लाइन सहित कई अंग्रेज़ी भाषा के समाचार पत्र हैं। आन्ध्र प्रदेश कई हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों का भी घर है। इनमें हैं स्वतंत्र वार्ता, विशाखपट्नम निज़ामाबाद और हिन्दी मिलाप, जो कि हैदराबाद से प्रकाशित सबसे पुराना हिन्दी समाचार पत्र है।' पर्यटन पर्यटन विभाग द्वारा आन्ध्र प्रदेश का प्रचार "भारत का कोहिनूर " के रूप में किया जा रहा है। आन्ध्र प्रदेश कई धार्मिक तीर्थ केंद्रों का घर है। तिरुपति, भगवान वेंकटेश्वर का निवास, दुनिया में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला (किसी भी धर्म का) धार्मिक केंद्र है। नल्लमला पहाड़ियों में बसा श्रीशैलम, श्री मल्लिकार्जुन का निवास है और भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में एक है। अमरावती का शिव मंदिर पंचाराममों में एक है, वैसे ही यादगिरीगुट्टा में विष्णु के अवतार श्री लक्ष्मी नरसिंह का वास है। मंदिर की नक्काशियों के लिए वरंगल में स्थित रामप्पा मंदिर और हज़ार स्तंभों का मंदिर प्रसिद्ध है। राज्य में अमरावती, नागार्जुन कोंडा, भट्टीप्रोलु, घंटशाला, नेलकोंडपल्ली, धूलिकट्टा, बाविकोंडा, तोट्लकोंडा, शालिगुंडेम, पावुरालकोंडा, शंकरम, फणिगिरि और कोलनपाका में कई बौद्ध केंद्र हैं। 6वीं शताब्दी में बादामी चालुक्यों ने (बादामी कर्नाटक में है) आलमपुर के ब्रह्मा मंदिर का निर्माण किया, जो चालुक्य कला और शिल्प-कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विजयनगर साम्राज्य ने असंख्य स्मारक, श्रीशैलम मंदिर और लेपाक्षी मंदिरों का निर्माण किया। विशाखापट्नम में गोल्डन बीच, बोर्रा में एक लाख वर्ष पुराने चूना-पत्थर की गुफाएं, सुरम्य अरकु घाटी, हार्सली पहाड़ियों के हिल-रिसॉर्ट, पापी कोंडलु के संकरे रास्ते से गोदावरी नदी में नौका-दौड़, इट्टिपोतला, कुंतला के झरने और तालकोना में समृद्ध जैव-विविधता, इस राज्य के कुछ प्राकृतिक आकर्षणों में शामिल हैं। कैलाशगिरी विशाखापट्नम में समुद्र के पास है। कैलाशगिरि पहाड़ी की चोटी पर एक बग़ीचा है। विशाखापत्तनम, INS करासुरा पनडुब्बी संग्रहालय (भारत में अपनी तरह का अकेला), भारत का सबसे लंबा समुद्र-तटीय सड़क, यारडा समुद्र-तट, अरकु घाटी, VUDA पार्क और इंदिरा गांधी चिड़ियाघर जैसे कई पर्यटक आकर्षणों का घर है। बोर्रा गुफाएं भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य में विशाखापट्नम के समीप पूर्वी घाट के अनंतगिरि पहाड़ियों में स्थित है। ये मध्यम समुद्री तल से लगभग 800 से 1300 मीटर की ऊंचाई पर हैं और लाखों बरस पहले के आरोही और अवरोही निक्षेप के लिए प्रसिद्ध हैं। वर्ष 1807 में ब्रिटिश भूविज्ञानी विलियम किंग जॉर्ज द्वारा इनकी खोज की गई। गुफा का नाम गुफा के अंदर के एक गठन से पड़ा है, जो देखने में मानव मस्तिष्क जैसा लगता है, जिसे स्थानीय भाषा तेलुगू में बुर्रा कहा जाता है। इसी तरह, बेलम गुफाओं का गठन करोड़ों साल पहले चित्रावती नदी द्वारा चूना-पत्थर संग्रहों के कटाव द्वारा हुआ। इन चूना-पत्थर की गुफाओं का गठन कार्बानिक एसिड - या चूना-पत्थर और पानी के बीच प्रतिक्रिया की वजह से हल्के अम्लीय भूमिगत जल की क्रिया के फलस्वरूप हुआ है। बेलम गुफाएं भारतीय उप महाद्वीप में दूसरी सबसे बड़ी गुफा-प्रणाली है। बेलम गुफाओं का नाम, गुफा के लिए संस्कृत में प्रयुक्त शब्द बैलम से व्युत्पन्न है। तेलुगू में ये गुफाएं बेलम गुहलु नाम से जानी जाती हैं। बेलम गुफाओं की लंबाई 3229 मीटर होते हुए, उसे भारतीय उपमहाद्वीप की दूसरी सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफा बनाती है। बेलम गुफाओं में लंबे गलियारे, विशाल कोठरियां, मीठे पानी के सुरंग और नालियां हैं। गुफा का गहरा बिंदु प्रवेश द्वार से है और यह पातालगंगा'' के रूप में जाना जाता है। हार्सली पहा़ड़ी की ऊंचाई 1265 मीटर है और यह आन्ध्र प्रदेश का प्रसिद्ध गर्मियों का पहाड़ी सैरगाह है, जो बेंगलूर से लगभग 160 कि॰मी॰ दूर और तिरुपति से 144 कि॰मी॰ की दूरी पर है। इसके पास मदनपल्ली शहर बसा है। प्रमुख पर्यटकों के लिए आकर्षणों में मल्लम्मा मंदिर और ऋषि वैली स्कूल शामिल हैं। 87 कि॰मी॰ की दूरी पर हार्सली पहाड़ी कौंडिन्या वन्यजीव अभयारण्य के लिए प्रस्थान बिंदु है। कृष्णा जिला के विजयवाडा में कनकदुर्गा मंदिर, द्वारकातिरुमला में वेंकटेश्वर मंदिर, पश्चिम गोदावरी जिला (इसे चिन्न तिरुपति भी कहा जाता है), श्रीकाकुलम जिले के अरसवेल्ली में सूर्य मंदिर भी आन्ध्र प्रदेश में देखने लायक स्थान हैं। अन्नवरम सत्यनारायण स्वामी का मंदिर पूर्वी गोदावरी जिले में है परिवहन राज्य द्वारा कुल 1,46,944 कि॰मी॰ लंबी सड़कों का अनुरक्षण किया जाता है, जिसमें राज्य राजमार्ग 42,511 कि.मी., राष्ट्रीय राजमार्ग 2949 कि॰मी॰ और जिला सड़कें 1,01,484 कि॰मी॰ शामिल हैं। आन्ध्र प्रदेश में वाहन के विकास की दर 16% होते हुए देश में सबसे अधिक है। आन्ध्र प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम (APSRTC) आन्ध्र प्रदेश सरकार के स्वामित्व वाली प्रमुख सार्वजनिक परिवहन निगम है, जो सभी शहरों और गांवों को जोड़ती है। सबसे बड़ा वाहनों का बेड़ा रखने और प्रतिदिन सबसे अधिक क्षेत्र आवृत करने/ आवाजाही के लिए APSRTC को गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड का भी गौरव हासिल है। इनके अलावा, राज्य के प्रमुख शहरों और कस्बों को जोड़ते हुए कई निजी ऑपरेटर हजारों बसें चलाते हैं। कार, मोटरयुक्त स्कूटर और साइकिल की तरह निजी वाहनों ने भी शहर और आसपास के गांवों में स्थानीय परिवहन के एक बड़े हिस्से को घेर रखा है। राज्य में पांच हवाई अड्डे हैं: विशाखापट्नम, विजयवाड़ा, राजमंड्री और तिरुपति, सरकार द्वारा अन्य छह शहरों में हवाई अड्डे शुरू करने की योजना है: नेल्लूर, वारंगल, कडपा, ताडेपल्लीगुडेम, रामगुंडेम और ओंगोल. आन्ध्र प्रदेश के पास विशाखापट्नम और काकीनाडा में भारत के दो प्रमुख बंदरगाह हैं और मछलीपट्नम, निज़ामपट्नम(गुंटूर) और कृष्णपट्नम में तीन छोटे बंदरगाह हैं। विशाखपट्नम के निकट गंगावरम में एक और निजी बंदरगाह विकसित किया जा रहा है। यह गहरा समुद्र पत्तन, बड़े समुद्री जहाजों को भारतीय तट में प्रवेश अनुमत करते हुए, 200,000-250,000 DWT तक के समुद्री जहाजों को जगह दे सकता है। इन्हें भी देखें भारत का इतिहास नोट बाहरी कड़ियाँ आन्ध्र प्रदेश सरकार का आधिकारिक वेबसाइट आन्ध्र प्रदेश सरकार का पर्यटन विभाग NIC की वेबसाइट पर आन्ध्र प्रदेश पोर्टल आन्ध्र प्रदेश राज्य पुलिस की सरकारी वेबसाइट भारत के राज्य आन्ध्र प्रदेश
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कर्नाटक (), जिसे कर्णाटक भी कहते हैं, दक्षिण भारत का एक राज्य है। इस राज्य का गठन १ नवंबर, १९५६ को राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अधीन किया गया था। पहले यह मैसूर राज्य कहलाता था। १९७३ में पुनर्नामकरण कर इसका नाम कर्नाटक कर दिया गया। इसकी सीमाएं पश्चिम में अरब सागर, उत्तर पश्चिम में गोआ, उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व में आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु एवं दक्षिण में केरल से लगती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ७४,१२२ वर्ग मील (१,९१,९७६ कि॰मी॰²) है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का ५.८३% है। ३१जिलों के साथ यह राज्य छठा सबसे बड़ा राज्य है। राज्य की आधिकारिक और सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा कन्नड़ है। कर्नाटक राज्य का नवीनतम जिला विजयनगर है। कर्नाटक शब्द के उद्गम के कई व्याख्याओं में से सर्वाधिक स्वीकृत व्याख्या यह है कि कर्नाटक शब्द का उद्गम कन्नड़ शब्द करु, अर्थात् काली या ऊंची और नाडु अर्थात् भूमि या प्रदेश या क्षेत्र से आया है, जिसके संयोजन करुनाडु का पूरा अर्थ हुआ काली भूमि या ऊंचा प्रदेश। काला शब्द यहां के बयलुसीम क्षेत्र की काली मिट्टी से आया है और ऊंचा यानि दक्कन के पठारी भूमि से आया है। ब्रिटिश राज में यहां के लिए कार्नेटिक शब्द का प्रयोग किया जाता था, जो कृष्णा नदी के दक्षिणी ओर की प्रायद्वीपीय भूमि के लिए प्रयुक्त है और मूलतः कर्नाटक शब्द का अपभ्रंश है। प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास देखें तो कर्नाटक क्षेत्र कई बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का क्षेत्र रहा है। इन साम्राज्यों के दरबारों के विचारक, दार्शनिक और भाट व कवियों के सामाजिक, साहित्यिक व धार्मिक संरक्षण में आज का कर्नाटक उपजा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के दोनों ही रूपों, कर्नाटक संगीत और हिन्दुस्तानी संगीत को इस राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। आधुनिक युग के कन्नड़ लेखकों को सर्वाधिक ज्ञानपीठ सम्मान मिले हैं। राज्य की राजधानी बंगलुरु शहर है, जो भारत में हो रही त्वरित आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी का अग्रणी योगदानकर्त्ता है। इतिहास कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। अधिकरण की प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल १ (९८५-१०१४) ने आरंभ किया और ये काम उसके पुत्र राजेन्द्र चोल १ (१०१४-१०४४) के शासन तक चला। आरंभ में राजराज चोल १ ने आधुनिक मैसूर के भाग "गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी' पर अधिकार किया। उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य राजधानी मान्यखेत तक हथिया ली। चालुक्य शासक जयसिंह की राजेन्द्र चोल १ के द्वारा हार उपरांत, तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था। राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं। १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी। १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया और १७वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से मात होने तक बनाये रखा। बहमनी और बीजापुर के शासकों ने उर्दू एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया। इस शैली का प्रधान उदाहरण है गोल गुम्बज पुर्तगाली शासन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी एवं महामारियों के कारण १६वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर, कर्नाटक में आये और १७वीं तथा १८वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोवा से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई दक्षिण कन्नड़ आकर बस गये। भूगोल कर्नाटक राज्य में तीन प्रधान मंडल हैं: तटीय क्षेत्र करावली, पहाड़ी क्षेत्र मालेनाडु जिसमें पश्चिमी घाट आते हैं, तथा तीसरा बयालुसीमी क्षेत्र जहां दक्खिन पठार का क्षेत्र है। राज्य का अधिकांश क्षेत्र बयालुसीमी में आता है और इसका उत्तरी क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा शुष्क क्षेत्र है। कर्नाटक का सबसे ऊंचा स्थल चिकमंगलूर जिले का मुल्लयनगिरि पर्वत है। यहां की समुद्र सतह से ऊंचाई है। कर्नाटक की महत्त्वपूर्ण नदियों में कावेरी, तुंगभद्रा नदी, कृष्णा नदी, मलयप्रभा नदी और शरावती नदी हैं। कृषि हेतु योग्यता के अनुसार यहां की मृदा को छः प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: लाल, लैटेरिटिक, काली, ऍल्युवियो-कोल्युविलय एवं तटीय रेतीली मिट्टी। राज्य में चार प्रमुख ऋतुएं आती हैं। जनवरी और फ़रवरी में शीत ऋतु, उसके बाद मार्च-मई तक ग्रीष्म ऋतु, जिसके बाद जून से सितंबर तक वर्षा ऋतु (मॉनसून) और अंततः अक्टूबर से दिसम्बर पर्यन्त मॉनसूनोत्तर काल। मौसम विज्ञान के आधार पर कर्नाटक तीन क्षेत्रों में बांटा जा सकता है: तटीय, उत्तरी आंतरिक और दक्षिणी आंतरिक क्षेत्र। इनमें से तटीय क्षेत्र में सर्वाधिक वर्षा होती है, जिसका लगभग प्रतिवर्ष है, जो राज्य के वार्षिक औसत से कहीं अधिक है। शिमोगा जिला में अगुम्बे भारत में दूसरा सर्वाधिक वार्षिक औसत वर्षा पाने वाला स्थल है। यहां का सर्वाधिक अंकित तापमान ४५.६ ° से. (११४ °फ़ै.) रायचूर में तथा न्यूनतम तापमान बीदर में नापा गया है। कर्नाटक का लगभग (राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का २०%) वनों से आच्छादित है। ये वन संरक्षित, सुरक्षित, खुले, ग्रामीण और निजी वनों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं। यहां के वनाच्छादित क्षेत्र भारत के औसत वनीय क्षेत्र २३% से कुछ ही कम हैं, किन्तु राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित ३३% से कहीं कम हैं। उप-मंडल कर्नाटक राज्य में ३० जिले हैं —बागलकोट, बेंगलुरु ग्रामीण, बेंगलूरु शहरी, बेलगावि, बल्लारी, बीदर, बीजापुर (विजयपुर), चामराजनगर, चिकबल्लापुर, चिकमगलूर, चित्रदुर्ग, दक्षिण कन्नड़, दावणगेरे, धारवाड़, गदग, गुलबर्गा, हासन, हावेरी, कोडगु, कोलार, कोप्पल, मंड्या, मैसूर, रायचूर, रामनगर, शिवमोग्गा, तुमकूर, उडुपी, उत्तर कन्नड़ एवं यादगीर। प्रत्येक जिले का प्रशासन एक जिलाधीश या जिलायुक्त के अधीन होता है। ये जिले फिर उप-क्षेत्रों में बंटे हैं, जिनका प्रशासन उपजिलाधीश के अधीन है। उप-जिले ब्लॉक और पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा देखे जाते हैं। २००१ की जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि जनसंख्यानुसार कर्नाटक के शहरों की सूची में सर्वोच्च छः नगरों में बेंगलुरु, हुबली-धारवाड़, मैसूर, गुलबर्ग, बेलगाम एवं मंगलौर आते हैं। १० लाख से अधिक जनसंख्या वाले महानगरों में मात्र बंगलुरु ही आता है। बंगलुरु शहरी, बेलगाम एवं गुलबर्ग सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिले हैं। प्रत्येक में ३० लाख से अधिक जनसंख्या है। गडग, चामराजनगर एवं कोडगु जिलों की जनसंख्या १० लाख से कम है। जनसांख्यिकी २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार, कर्नाटक की कुल जनसंख्या ५२,८५०,५६२ है, जिसमें से २६,८९८,९१८ (५०.८९%) पुरुष और २५,९५१,६४४ स्त्रियां (४३.११%) हैं। यानि प्रत्येक १००० पुरुष ९६४ स्त्रियां हैं। इसके अनुसार १९९१ की जनसंख्या में १७.२५% की वृद्धि हुई है। राज्य का जनसंख्या घनत्व २७५.६ प्रति वर्ग कि.मी है और ३३.९८% लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। यहां की साक्षरता दर ६६.६% है, जिसमें ७६.१% पुरुष और ५६.९% स्त्रियां साक्षर हैं। यहां की कुल जनसंख्या का ८३% हिन्दू हैं और १३% मुस्लिम, २% ईसाई, ०.७८% जैन, ०.३% बौद्ध और शेष लोग अन्य धर्मावलंबी हैं। कर्नाटक की आधिकारिक भाषा कन्नड़ है और स्थानीय भाषा के रूप में ६४.७५% लोगों द्वारा बोली जाती है। १९९१ के अनुसार अन्य भाषायी अल्पसंख्यकों में उर्दु (१०.५४ %), तेलुगु (७.०३ %), तमिल (३.५७ %), मराठी (३.६० %), तुलु (३.०० %), हिन्दी (२.५६ %), कोंकणी (१.४६ %), मलयालम (१.३३ %) और कोडव तक्क भाषी ०.३ % हैं। राज्य की जन्म दर २.२% और मृत्यु दर ०.७२% है। इसके अलावा शिशु मृत्यु (मॉर्टैलिटी) दर ५.५% एवं मातृ मृत्यु दर ०.१९५% है। कुल प्रजनन (फर्टिलिटी) दर २.२ है। स्वास्थ्य एवं आरोग्य के क्षेत्र (सुपर स्पेशियलिटी हैल्थ केयर) में कर्नाटक की निजी क्षेत्र की कंपनियां विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं से तुलनीय हैं। कर्नाटक में उत्तम जन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, जिनके आंकड़े व स्थिति भारत के अन्य अधिकांश राज्यों की तुलना में काफी बेहतर है। इसके बावजूद भी राज्य के कुछ अति पिछड़े इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। प्रशासनिक उद्देश्य हेतु, कर्नाटक को चार रेवेन्यु मंडलों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुकों और ७४५ होब्लीज़/रेवेन्यु वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिला प्रशासन का अध्यक्ष जिला उपायुक्त होता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) से होता है और उसके अधीन कर्नाटक राज्य सेवाओं के अनेक अधिकारीगण होते हैं। राज्य के न्याय और कानून व्यवस्था का उत्तरदायित्व पुलिस उपायुक्त पर होता है। ये भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी होता है, जिसके अधीन कर्नाटक राज्य पुलिस सेवा के अधिकारीगण कार्यरत होते हैं। भारतीय वन सेवा से वन उपसंरक्षक अधिकारी तैनात होता है, जो राज्य के वन विभाग की अध्यक्षता करता है। जिलों के सर्वांगीण विकास, प्रत्येक जिले के विकास विभाग जैसे लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशु-पालन, आदि विभाग देखते हैं। राज्य की न्यायपालिका बंगलुरु में स्थित कर्नाटक उच्च न्यायालय (अट्टार कचेरी) और प्रत्येक जिले में जिले और सत्र न्यायालय तथा तालुक स्तर के निचले न्यायालय के द्वारा चलती है। सरकार एवं प्रशासन कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 225 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद् एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं। कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं। विधान परिषद् के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। पुलिस उपायुक्त जिले में न्याय और प्रशासन संबंधी देखभाल के लिए उत्तरदायी होता है। भारतीय वन सेवा से एक अधिकारी वन उपसंक्षक अधिकारी (डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ फ़ॉरेस्ट्स) के पद पर तैनात होता है। ये जिले में वन और पादप संबंधी मामलों हेतु उत्तरदायी रहता है। प्रत्येक विभाग के विकास अनुभाग के जिला अधिकारी राज्य में विभिन्न प्रकार की प्रगति देखते हैं, जैसे राज्य लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशुपालन आदि। ] बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं।]] राज्य की न्यायपालिका में सर्वोच्च पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय है, जिसे स्थानीय लोग "अट्टार कचेरी" बुलाते हैं। ये राजधानी बंगलुरु में स्थित है। इसके अधीन जिला और सत्र न्यायालय प्रत्येक जिले में तथा निम्न स्तरीय न्यायालय ताल्लुकों में कार्यरत हैं। कर्नाटक राज के आधिकारिक चिह्न में गंद बेरुंड बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं। कर्नाटक की राजनीति में मुख्यतः तीन राजनैतिक पार्टियों: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल का ही वर्चस्व रहता है। कर्नाटक के राजनीतिज्ञों ने भारत की संघीय सरकार में प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पदों की भी शोभा बढ़ायी है। वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए सरकार में भी तीन कैबिनेट स्तरीय मंत्री कर्नाटक से हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान क़ानून एवं न्याय मंत्रालय – वीरप्पा मोइली हैं। राज्य के कासरगोड और शोलापुर जिलों पर तथा महाराष्ट्र के बेलगाम पर दावे के विवाद राज्यों के पुनर्संगठन काल से ही चले आ रहे हैं। अर्थव्यवस्था कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। यहाँ भारत के कई प्रमुख विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान केन्द्र भी हैं, जैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, केन्द्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड एवं केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान। मैंगलोर रिफाइनरी एंड पेट्रोकैमिकल्स लिमिटेड, मंगलोर में स्थित एक तेल शोधन केन्द्र है। १९८० के दशक से कर्नाटक (विशेषकर बंगलुरु) सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष उभरा है। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार कर्नाटक से लगभग २००० आई.टी फर्म संचालित हो रही थीं। इनमें से कई के मुख्यालय भी राज्य में ही स्थित हैं, जिनमें दो सबसे बड़ी आई.टी कंपनियां इन्फोसिस और विप्रो हैं। इन संस्थाओं से निर्यात रु. ५०,००० करोड़ (१२.५ बिलियन) से भी अधिक पहुंचा है, जो भारत के कुल सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात का ३८% है। देवनहल्ली के बाहरी ओर का नंदी हिल क्षेत्र में ५० वर्ग कि.मी भाग, आने वाले २२ बिलियन के ब्याल आईटी निवेश क्षेत्र की स्थली है। ये कर्नाटक की मूल संरचना इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है। इन सब कारणों के चलते ही बंगलौर को भारत की सिलिकॉन घाटी कहा जाने लगा है। भारत में कर्नाटक जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अग्रणी है। यह भारत के सबसे बड़े जैव आधारित उद्योग समूह का केन्द्र भी है। यहां देश की ३२० जैवप्रौद्योगिकी संस्थाओं व कंपनियों में से १५८ स्थित हैं। इसी राज्य से भारत के कुल पुष्प-उद्योग का ७५% योगदान है। पुष्प उद्योग तेजी से उभरता और फैलता उद्योग है, जिसमें विश्व भर में सजावटी पौधे और फूलों की आपूर्ति की जाती है। भारत के अग्रणी बैंकों में से सात बैंकों, केनरा बैंक, सिंडिकेट बैंक, कार्पोरेशन बैंक, विजया बैंक, कर्नाटक बैंक, वैश्य बैंक और स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का उद्गम इसी राज्य से हुआ था। राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में प्रति ५०० व्यक्ति एक बैंक शाखा है। ये भारत का सर्वश्रेष्ठ बैंक वितरण है। मार्च २००२ के अनुसार, कर्नाटक राज्य में विभिन्न बैंकों की ४७६७ शाखाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक शाखा औसत ११,००० व्यक्तियों की सेवा करती है। ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत १६,००० से काफी कम है। भारत के ३५०० करोड़ के रेशम उद्योग से अधिकांश भाग कर्नाटक राज्य में आधारित है, विशेषकर उत्तरी बंगलौर क्षेत्रों जैसे मुद्दनहल्ली, कनिवेनारायणपुरा एवं दोड्डबल्लपुर, जहां शहर का ७० करोड़ रेशम उद्योग का अंश स्थित है। यहां की बंगलौर सिल्क और मैसूर सिल्क विश्वप्रसिद्ध हैं। यातायात कर्नाटक में वायु यातायात देश के अन्य भागों की तरह ही बढ़ता हुआ किंतु कहीं उन्नत है। कर्नाटक राज्य में बंगलुरु, मंगलौर, हुबली, बेलगाम, हम्पी एवं बेल्लारी विमानक्षेत्र में विमानक्षेत्र हैं, जिनमें बंगलुरु एवं मंगलौर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं। मैसूर, गुलबर्ग, बीजापुर, हस्सन एवं शिमोगा में भी २००७ से प्रचालन कुछ हद तक आरंभ हुआ है। यहां चालू प्रधान वायुसेवाओं में किंगफिशर एयरलाइंस एवं एयर डेक्कन हैं, जो बंगलुरु में आधारित हैं। कर्नाटक का रेल यातायात जाल लगभग लंबा है। २००३ में हुबली में मुख्यालय सहित दक्षिण पश्चिमी रेलवे के सृजन से पूर्व राज्य दक्षिणी एवं पश्चिमी रेलवे मंडलों में आता था। अब राज्य के कई भाग दक्षिण पश्चिमी मंडल में आते हैं, व शेष भाग दक्षिण रेलवे मंडल में आते हैं। तटीय कर्नाटक के भाग कोंकण रेलवे नेटवर्क के अंतर्गत आते हैं, जिसे भारत में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रेलवे परियोजना के रूप में देखा गया है। बंगलुरु अन्तर्राज्यीय शहरों से रेल यातायात द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। राज्य के अन्य शहर अपेक्षाकृत कम जुड़े हैं। कर्नाटक में ११ जहाजपत्तन हैं, जिनमें मंगलौर पोर्ट सबसे नया है, जो अन्य दस की अपेक्षा सबसे बड़ा और आधुनिक है। मंगलौर का नया पत्तन भारत के नौंवे प्रधान पत्तन के रूप में ४ मई, १९७४ को राष्ट्र को सौंपा गया था। इस पत्तन में वित्तीय वर्ष २००६-०७ में ३ करोड़ २०.४ लाख टन का निर्यात एवं १४१.२ लाख टन का आयात व्यापार हुआ था। इस वित्तीय वर्ष में यहां कुल १०१५ जलपोतों की आवाजाही हुई, जिसमें १८ क्यूज़ पोत थे। राज्य में अन्तर्राज्यीय जलमार्ग उल्लेखनीय स्तर के विकसित नहीं हैं। कर्नाटक के राष्ट्रीय एवं राज्य राजमार्गों की कुल लंबाइयां क्रमशः एवं हैं। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (के.एस.आर.टी.सी) राज्य का सरकारी लोक यातायात एवं परिवहन निगम है, जिसके द्वारा प्रतिदिन लगभग २२ लाख यात्रियों को परिवहन सुलभ होता है। निगम में २५,००० कर्मचारी सेवारत हैं। १९९० के दशक के अंतिम दौर में निगम को तीन निगमों में विभाजित किया गया था, बंगलौर मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन, नॉर्थ-वेस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन एवं नॉर्थ-ईस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन। इनके मुख्यालय क्रमशः बंगलौर, हुबली एवं गुलबर्ग में स्थित हैं। संस्कृति कर्नाटक राज्य में विभिन्न बहुभाषायी और धार्मिक जाति-प्रजातियां बसी हुई हैं। इनके लंबे इतिहास ने राज्य की सांस्कृतिक धरोहर में अमूल्य योगदान दिया है। कन्नड़िगों के अलावा, यहां तुलुव, कोडव और कोंकणी जातियां, भी बसी हुई हैं। यहां अनेक अल्पसंख्यक जैसे तिब्बती बौद्ध तथा अनेक जनजातियाँ जैसे सोलिग, येरवा, टोडा और सिद्धि समुदाय हैं जो राज्य में भिन्न रंग घोलते हैं। कर्नाटक की परंपरागत लोक कलाओं में संगीत, नृत्य, नाटक, घुमक्कड़ कथावाचक आदि आते हैं। मालनाड और तटीय क्षेत्र के यक्षगण, शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाएं राज्य की प्रधान रंगमंच शैलियों में से एक हैं। यहां की रंगमंच परंपरा अनेक सक्रिय संगठनों जैसे निनासम, रंगशंकर, रंगायन एवं प्रभात कलाविदरु के प्रयासों से जीवंत है। इन संगठनों की आधारशिला यहां गुब्बी वीरन्ना, टी फी कैलाशम, बी वी करंथ, के वी सुबन्ना, प्रसन्ना और कई अन्य द्वारा रखी गयी थी। वीरागेस, कमसेल, कोलाट और डोलुकुनिता यहां की प्रचलित नृत्य शैलियां हैं। मैसूर शैली के भरतनाट्य यहां जत्ती तयम्मा जैसे पारंगतों के प्रयासों से आज शिखर पर पहुंचा है और इस कारण ही कर्नाटक, विशेषकर बंगलौर भरतनाट्य के लिए प्रधान केन्द्रों में गिना जाता है। कर्नाटक का विश्वस्तरीय शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट स्थान है, जहां संगीत की कर्नाटक (कार्नेटिक) और हिन्दुस्तानी शैलियां स्थान पाती हैं। राज्य में दोनों ही शैलियों के पारंगत कलाकार हुए हैं। वैसे कर्नाटक संगीत में कर्नाटक नाम कर्नाटक राज्य विशेष का ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को दिया गया है।१६वीं शताब्दी के हरिदास आंदोलन कर्नाटक संगीत के विकास में अभिन्न योगदान दिया है। सम्मानित हरिदासों में से एक, पुरंदर दास को कर्नाटक संगीत पितामह की उपाधि दी गयी है। कर्नाटक संगीत के कई प्रसिद्ध कलाकार जैसे गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, बसवराज राजगुरु, सवाई गंधर्व और कई अन्य कर्नाटक राज्य से हैं और इनमें से कुछ को कालिदास सम्मान, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी भारत सरकार ने सम्मानित किया हुआ है। कर्नाटक संगीत पर आधारित एक अन्य शास्त्रीय संगीत शैली है, जिसका प्रचलन कर्नाटक राज्य में है। कन्नड़ भगवती शैली आधुनिक कविगणों के भावात्मक रस से प्रेरित प्रसिद्ध संगीत शैली है। मैसूर चित्रकला शैली ने अनेक श्रेष्ठ चित्रकार दिये हैं, जिनमें से सुंदरैया, तंजावुर कोंडव्य, बी.वेंकटप्पा और केशवैय्या हैं। राजा रवि वर्मा के बनाये धार्मिक चित्र पूरे भारत और विश्व में आज भी पूजा अर्चना हेतु प्रयोग होते हैं। मैसूर चित्रकला की शिक्षा हेतु चित्रकला परिषत नामक संगठन यहां विशेष रूप से कार्यरत है। कर्नाटक में महिलाओं की परंपरागत भूषा साड़ी है। कोडगु की महिलाएं एक विशेष प्रकार से साड़ी पहनती हैं, जो शेष कर्नाटक से कुछ भिन्न है। राज्य के पुरुषों का परंपरागत पहनावा धोती है, जिसे यहां पाँचे कहते हैं। वैसे शहरी क्षेत्रों में लोग प्रायः कमीज-पतलून तथा सलवार-कमीज पहना करते हैं। राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में विशेष शैली की पगड़ी पहनी जाती है, जिसे मैसूरी पेटा कहते हैं और उत्तरी क्षेत्रों में राजस्थानी शैली जैसी पगड़ी पहनी जाती है और पगड़ी या पटगा कहलाती है। चावल () और रागी राज्य के प्रधान खाद्य में आते हैं और जोलड रोट्टी, सोरघम उत्तरी कर्नाटक के प्रधान खाद्य हैं। इनके अलावा तटीय क्षेत्रों एवं कोडगु में अपनी विशिष्ट खाद्य शैली होती है। बिसे बेले भात, जोलड रोट्टी, रागी बड़ा, उपमा, मसाला दोसा और मद्दूर वड़ा कर्नाटक के कुछ प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ हैं। मिष्ठान्न में मैसूर पाक, बेलगावी कुंड, गोकक करदंतु और धारवाड़ पेड़ा मशहूर हैं। धर्म आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी को भारत पर्यन्त चार पीठों में से दक्षिण पीठ हेतु चुना था। विशिष्ट अद्वैत के अग्रणी व्याख्याता रामानुजाचार्य ने मेलकोट में कई वर्ष व्यतीत किये थे। वे कर्नाटक में १०९८ में आये थे और यहां ११२२ तक वास किया। इन्होंने अपना प्रथम वास तोंडानूर में किया और फिर मेलकोट पहुंचे, जहां इन्होंने चेल्लुवनारायण मंदिर और एक सुव्यवस्थित मठ की स्थापना की। इन्हें होयसाल वंश के राजा विष्णुवर्धन का संरक्षण मिला था। १२वीं शताब्दी में जातिवाद और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध स्वरूप उत्तरी कर्नाटक में वीरशैवधर्म का उदय हुआ। इन आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों में बसव, अक्का महादेवी और अलाम प्रभु थे, जिन्होंने अनुभव मंडप की स्थापना की जहां शक्ति विशिष्टाद्वैत का उदय हुआ। यही आगे चलकर लिंगायत मत का आधार बना जिसके आज कई लाख अनुयायी हैं। कर्नाटक के सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे में जैन साहित्य और दर्शन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस्लाम का आरंभिक उदय भारत के पश्चिमी छोर पर १०वीं शताब्दी के लगभग हुआ था। इस धर्म को कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य और बीजापुर सल्तनत का संरक्षण मिला। कर्नाटक में ईसाई धर्म १६वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और १५४५ में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के आगमन के साथ फैला। राज्य के गुलबर्ग और बनवासी आदि स्थानों में प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म की जड़े पनपीं। गुलबर्ग जिले में १९८६ में हुई अकस्मात् खोज में मिले मौर्य काल के अवशेष और अभिलेखों से ज्ञात हुआ कि कृष्णा नदी की तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म के महायन और हिनायन मतों का खूब प्रचार हुआ था। मैसूर राज्य में नाड हब्बा (राज्योत्सव) के रूप में मनाया जाता है। यह मैसूर के प्रधान त्यौहारों में से एक है। उगादि (कन्नड़ नव वर्ष), मकर संक्रांति, गणेश चतुर्थी, नाग पंचमी, बसव जयंती, दीपावली आदि कर्नाटक के प्रमुख त्यौहारों में से हैं। भाषा राज्य की आधिकारिक भाषा कन्नड़ है, जो स्थानीय निवासियों में से ६५% लोगों द्वारा बोली जाती है। कन्नड़ भाषा ने कर्नाटक राज्य की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, जब १९५६ में राज्यों के सृजन हेतु भाषायी सांख्यिकी मुख्य मानदंड रहा था। राज्य की अन्य भाषाओं में कोंकणी एवं कोडव टक हैं, जिनका राज्य में लंबा इतिहास रहा है। यहां की मुस्लिम जनसंख्या द्वारा उर्दु भी बोली जाती है। अन्य भाषाओं से अपेक्षाकृत कम बोली जाने वाली भाषाओं में बेयरे भाषा व कुछ अन्य बोलियां जैसे संकेती भाषा आती हैं। कन्नड़ भाषा का प्राचीन एवं प्रचुर साहित्य है, जिसके विषयों में काफी भिन्नता है और जैन धर्म, वचन, हरिदास साहित्य एवं आधुनिक कन्नड़ साहित्य है। अशोक के समय की राजाज्ञाओं व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कन्नड़ लिपि एवं साहित्य पर बौद्ध साहित्य का भी प्रभाव रहा है। हल्मिडी शिलालेख ४५० ई. में मिले कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेख हैं, जिनमें अच्छी लंबाई का लेखन मिलता है। प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में ८५० ई. के कविराजमार्ग के कार्य मिलते हैं। इस साहित्य से ये भी सिद्ध होता है कि कन्नड़ साहित्य में चट्टान, बेद्दंड एवं मेलवदु छंदों का प्रयोग आरंभिक शताब्दियों से होता आया है। कुवेंपु, प्रसिद्ध कन्नड़ कवि एवं लेखक थे, जिन्होंने जय भारत जननीय तनुजते लिखा था, जिसे अब राज्य का गीत (एन्थम) घोषित किया गया है। इन्हें प्रथम कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया था, जो कर्नाटक सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। अन्य समकालीन कन्नड़ साहित्य भी भारतीय साहित्य के प्रांगण में अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाये हुए है। सात कन्नड़ लेखकों को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है, जो किसी भी भारतीय भाषा के लिए सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान होता है। तुलु भाषा मुख्यतः राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में बोली जाती है। तुलु महाभरतो, अरुणब्ज द्वारा इस भाषा में लिखा गया पुरातनतम उपलब्ध पाठ है। तुलु लिपि के क्रमिक पतन के कारण तुलु भाषा अब कन्नड़ लिपि में ही लिखी जाती है, किन्तु कुछ शताब्दी पूर्व तक इस लिपि का प्रयोग होता रहा था। कोडव जाति के लोग, जो मुख्यतः कोडगु जिले के निवासी हैं, कोडव टक्क बोलते हैं। इस भाषा की दो क्षेत्रीय बोलियां मिलती हैं: उत्तरी मेन्डले टक्क और दक्षिणी किग्गाति टक। कोंकणी मुख्यतः उत्तर कन्नड़ जिले में और उडुपी एवं दक्षिण कन्नड़ जिलों के कुछ समीपस्थ भागों में बोली जाती है। कोडव टक्क और कोंकणी, दोनों में ही कन्नड़ लिपि का प्रयोग किया जाता है। कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा प्रौद्योगिकी-संबंधित कंपनियों तथा बीपीओ में अंग्रेज़ी का प्रयोग ही होता है। राज्य की सभी भाषाओं को सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त है। कन्नड़ साहित्य परिषत एवं कन्नड़ साहित्य अकादमी कन्नड़ भाषा के उत्थान हेतु एवं कन्नड़ कोंकणी साहित्य अकादमी कोंकणी साहित्य के लिए कार्यरत है। तुलु साहित्य अकादमी एवं कोडव साहित्य अकादमी अपनी अपनी भाषाओं के विकास में कार्यशील हैं। शिक्षा २००१ की जनसंख्या अनुसार, कर्नाटक की साक्षरता दर ६७.०४% है, जिसमें ७६.२९% पुरुष तथा ५७.४५% स्त्रियाँ हैं। राज्य में भारत के कुछ प्रतिष्ठित शैक्षिक और अनुसंधान संस्थान भी स्थित हैं, जैसे भारतीय विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कर्नाटक और भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय। मार्च २००६ के अनुसार, कर्नाटक में ५४,५२९ प्राथमिक विद्यालय हैं, जिनमें २,५२,८७५ शिक्षक तथा ८४.९५ लाख विद्यार्थी हैं। इसके अलावा ९४९८ माध्यमिक विद्यालय जिनमें ९२,२८७ शिक्षक तथा १३.८४ लाख विद्यार्थी हैं। राज्य में तीन प्रकार के विद्यालय हैं, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त निजी (सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त) एवं पूर्णतया निजी (कोई सरकारी सहायता नहीं)। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी है। विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम या तो सीबीएसई, आई.सी.एस.ई या कर्नाटक सरकार के शिक्षा विभाग के अधीनस्थ राज्य बोर्ड पाठ्यक्रम (एसएसएलसी) से निर्देशित होता है। कुछ विद्यालय ओपन स्कूल पाठ्यक्रम भी चलाते हैं। राज्य में बीजापुर में एक सैनिक स्कूल भी है। विद्यालयों में अधिकतम उपस्थिति को बढ़ावा देने हेतु, कर्नाटक सरकार ने सरकारी एवं सहायता प्राप्त विद्यालयों में विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क अपराह्न-भोजन योजना आरंभ की है। राज्य बोर्ड परीक्षाएं माध्यमिक शिक्षा अवधि के अंत में आयोजित की जाती हैं, जिसमें उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को द्विवर्षीय विश्वविद्यालय-पूर्व कोर्स में प्रवेश मिलता है। इसके बाद विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम के लिए अर्हक होते हैं। राज्य में छः मुख्य विश्वविद्यालय हैं: बंगलुरु विश्वविद्यालय,गुलबर्ग विश्वविद्यालय, कर्नाटक विश्वविद्यालय, कुवेंपु विश्वविद्यालय, मंगलौर विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय। इनके अलावा एक मानिव विश्वविद्यालय क्राइस्ट विश्वविद्यालय भी है। इन विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त ४८१ स्नातक महाविद्यालय हैं। १९९८ में राज्य भर के अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवगठित बेलगाम स्थित विश्वेश्वरैया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अंतर्गत्त लाया गया, जबकि चिकित्सा महाविद्यालयों को राजीव गांधी स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय के अधिकारक्षेत्र में लाया गया था। इनमें से कुछ अच्छे महाविद्यालयों को मानित विश्वविद्यालय का दर्जा भी प्रदान किया गया था। राज्य में १२३ अभियांत्रिकी, ३५ चिकित्सा ४० दंतचिकित्सा महाविद्यालय हैं। राज्य में वैदिक एवं संस्कृत शिक्षा हेतु उडुपी, शृंगेरी, गोकर्ण तथा मेलकोट प्रसिद्ध स्थान हैं। केन्द्र सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत्त मुदेनहल्ली में एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना को स्वीकृति मिल चुकी है। ये राज्य का प्रथम आई.आई.टी संस्थान होगा। इसके अतिरिक्त मेदेनहल्ली-कानिवेनारायणपुरा में विश्वेश्वरैया उन्नत प्रौद्योगिकी संस्थान का ६०० करोड़ रुपये की लागत से निर्माण प्रगति पर है। मीडिया राज्य में समाचार पत्रों का इतिहास १८४३ से आरंभ होता है, जब बेसल मिशन के एक मिश्नरी, हर्मैन मोग्लिंग ने प्रथम कन्नड़ समाचार पत्र मंगलुरु समाचार का प्रकाशन आरंभ किया था। प्रथम कन्नड़ सामयिक, मैसुरु वृत्तांत प्रबोधिनी मैसूर में भाष्यम भाष्याचार्य ने निकाला था। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत १९४८ में के। एन.गुरुस्वामी ने द प्रिंटर्स (मैसूर) प्रा.लि. की स्थापना की और वहीं से दो समाचार-पत्र डेक्कन हेराल्ड और प्रजावनी का प्रकाशन शुरू किया। आधुनिक युग के पत्रों में द टाइम्स ऑफ इण्डिया और विजय कर्नाटक क्रमशः सर्वाधिक प्रसारित अंग्रेज़ी और कन्नड़ दैनिक हैं। दोनों ही भाषाओं में बड़ी संख्या में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रगति पर है। राज्य से निकलने वाले कुछ प्रसिद्ध दैनिकों में उदयवाणि, कन्नड़प्रभा, संयुक्त कर्नाटक, वार्ता भारती, संजीवनी, होस दिगंत, एईसंजे और करावली आले आते हैं। दूरदर्शन भारत सरकार द्वारा चलाया गया आधिकारिक सरकारी प्रसारणकर्त्ता है और इसके द्वारा प्रसारित कन्नड़ चैनल है डीडी चंदना। प्रमुख गैर-सरकारी सार्वजनिक कन्नड़ टीवी चैनलों में ईटीवी कन्नड़, ज़ीटीवी कन्नड़, उदय टीवी, यू२, टीवी९, एशियानेट सुवर्ण एवं कस्तूरी टीवी हैं। कर्नाटक का भारतीय रेडियो के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। भारत का प्रथम निजी रेडियो स्टेशन आकाशवाणी १९३५ में प्रो॰एम॰वी॰ गोपालस्वामी द्वारा मैसूर में आरंभ किया गया था। यह रेडियोस्टेशन काफी लोकप्रिय रहा और बाद में इसे स्थानीय नगरपालिका ने ले लिया था। १९५५ में इसे ऑल इण्डिया रेडियो द्वारा अधिग्रहण कर बंगलुरु ले जाया गया। इसके २ वर्षोपरांत ए.आई.आर ने इसका मूल नाम आकाशवाणी ही अपना लिया। इस चैनल पर प्रसारित होने वाले कुछ प्रसिद्ध कार्यक्रमों में निसर्ग संपदा और सास्य संजीवनी रहे हैं। इनमें गानों, नाटकों या कहानियों के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। ये कार्यक्रम इतने लोकप्रिय बने कि इनका अनुवाद १८ भाषाओं में हुआ और प्रसारित किया गया। कर्नाटक सरकार ने इस पूरी शृंखला को ऑडियो कैसेटों में रिकॉर्ड कराकर राज्य भर के सैंकड़ों विद्यालयों में बंटवाया था। राज्य में एफ एम प्रसारण रेडियो चैनलों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ये मुख्यतः बंगलुरु, मंगलौर और मैसूर में चलन में हैं। क्रीड़ा कर्नाटक का एक छोटा सा जिला कोडगु भारतीय हाकी टीम के लिए सर्वाधिक योगदान देता है। यहां से अनेक खिलाड़ियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। वार्षिक कोडव हॉकी उत्सव विश्व में सबसे बड़ा हॉकी टूर्नामेण्ट है। बंगलुरु शहर में महिला टेनिस संघ (डब्लु.टी.ए का एक टेनिस ईवेन्ट भी हुआ है, तथा १९९७ में शहर भारत के चतुर्थ राष्ट्रीय खेल सम्मेलन का भी आतिथेय रहा है। इसी शहर में भारत के सर्वोच्च क्रीड़ा संस्थान, भारतीय खेल प्राधिकरण तथा नाइके टेनिस अकादमी भी स्थित हैं। अन्य राज्यों की तुलना में तैराकी के भी उच्च आनक भी कर्नाटक में ही मिलते हैं। राज्य का एक लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। राज्य की क्रिकेट टीम छः बार रणजी ट्रॉफी जीत चुकी है और जीत के आंकड़ों में मात्र मुंबई क्रिकेट टीम से पीछे रही है। बंगलुरु स्थित चिन्नास्वामी स्टेडियम में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आयोजन होता रहता है। साथ ही ये २००० में आरंभ हुई राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी का भी केन्द्र रहा है, जहां अकादमी भविष्य के लिए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को तैयार करती है। राज्य क्रिकेट टीम के कई प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी रहे हैं। १९९० के दशक में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में यहीं के खिलाड़ियों का बाहुल्य रहा था। कर्नाटक प्रीमियर लीग राज्य का एक अंतर्क्षेत्रीय ट्वेन्टी-ट्वेन्टी क्रिकेट टूर्नामेंट है। रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलौर भारतीय प्रीमियर लीग का एक फ़्रैंचाइज़ी है जो बंगलुरु में ही स्थित है। राज्य के अंचलिक क्षेत्रों में खो खो, कबड्डी, चिन्नई डांडु तथा कंचे या गोली आदि खेल खूब खेले जाते हैं। राज्य के उल्लेखनीय खिलाड़ियों में १९८० के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप विजेता प्रकाश पादुकोन का नाम सम्मान से लिया जाता है। इनके अलावा पंकज आडवाणी भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने २० वर्ष की आयु से ही बैडमिंटन स्पर्धाएं आरंभ कर दी थीं तथा तथा क्यू स्पोर्ट्स के तीन उपाधियां धारण की हैं, जिनमें २००३ की विश्व स्नूकर चैंपियनशिप एवं २००५ की विश्व बिलियर्ड्स चैंपियनशिप आती हैं। राज्य में साइकिलिंग स्पर्धाएं भी जोरों पर रही हैं। बीजापुर जिले के क्षेत्र से राष्ट्रीय स्तर के अग्रणी सायक्लिस्ट हुए हैं। मलेशिया में आयोजित हुए पर्लिस ओपन ’९९ में प्रेमलता सुरेबान भारतीय प्रतिनिधियों में से एक थीं। जिले की साइक्लिंग प्रतिभा को देखते हुए उनके उत्थान हेतु राज्य सरकार ने जिले में ४० लाख की लागत से यहां के बी.आर अंबेडकर स्टेडियम में सायक्लिंग ट्रैक बनवाया है। पर्यटन अपने विस्तृत भूगोल, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं लम्बे इतिहास के कारण कर्नाटक राज्य बड़ी संख्या में पर्यटन आकर्षणों से परिपूर्ण है। राज्य में जहां एक ओर प्राचीन शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर हैं तो वहीं आधुनिक नगर भी हैं, जहां एक ओर नैसर्गिक पर्वतमालाएं हैं तो वहीं अनान्वेषित वन संपदा भी है और जहां व्यस्त व्यावसायिक कार्यकलापों में उलझे शहरी मार्ग हैं, वहीं दूसरी ओर लम्बे सुनहरे रेतीले एवं शांत सागरतट भी हैं। कर्नाटक राज्य को भारत के राज्यों में सबसे प्रचलित पर्यटन गंतव्यों की सूची में चौथा स्थान मिला है। राज्य में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक राष्ट्रीय संरक्षित उद्यान एवं वन हैं, जिनके साथ ही यहां राज्य पुरातत्त्व एवं संग्रहालय निदेशलय द्वारा संरक्षित ७५२ स्मारक भी हैं। इनके अलावा अन्य २५,००० स्मारक भी संरक्षण प्राप्त करने की सूची में हैं। राज्य के मैसूर शहर में स्थित महाराजा पैलेस इतना आलीशान एवं खूबसूरत बना है, कि उसे सबसे विश्व के दस कुछ सुंदर महलों में गिना जाता है। कर्नाटक के पश्चिमी घाट में आने वाले तथा दक्षिणी जिलों में प्रसिद्ध पारिस्थितिकी पर्यटन स्थल हैं जिनमें कुद्रेमुख, मडिकेरी तथा अगुम्बे आते हैं। राज्य में २५ वन्य जीवन अभयारण्य एवं ५ राष्ट्रीय उद्यान हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध हैं: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान, बनेरघाटा राष्ट्रीय उद्यान एवं नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान। हम्पी में विजयनगर साम्राज्य के अवशेष तथा पत्तदकल में प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष युनेस्को विश्व धरोहर चुने जा चुके हैं। इनके साथ ही बादामी के गुफा मंदिर तथा ऐहोल के पाषाण मंदिर बादामी चालुक्य स्थापात्य के अद्भुत नमूने हैं तथा प्रमुख पर्यटक आकर्षण बने हुए हैं। बेलूर तथा हैलेबिडु में होयसाल मंदिर क्लोरिटिक शीस्ट (एक प्रकार के सोपस्टोन) से बने हुए हैं एवं युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बनने हेतु प्रस्तावित हैं। यहाँ बने गोल गुम्बज तथा इब्राहिम रौज़ा दक्खन सल्तनत स्थापत्य शैली के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रवणबेलगोला स्थित गोमतेश्वर की १७ मीटर ऊंची मूर्ति जो विश्व की सर्वोच्च एकाश्म प्रतिमा है, वार्षिक महामस्तकाभिषेक उत्सव में सहस्रों श्रद्धालु तीर्थायात्रियों का आकर्षण केन्द्र बनती है। कर्नाटक के जल प्रपात एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान "विश्व के १००१ प्राकृतिक आश्चर्य" में गिने गये हैं। जोग प्रपात को भारत के सबसे ऊंचे एकधारीय जल प्रपात के रूप में गोकक प्रपात, उन्चल्ली प्रपात, मगोड प्रपात, एब्बे प्रपात एवं शिवसमुद्रम प्रपात सहित अन्य प्रसिद्ध जल प्रपातों की सूची में सम्मिलित किया गया है। यहां अनेक खूबसूरत सागरतट हैं, जिनमें मुरुदेश्वर, गोकर्ण एवं करवर सागरतट प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ कर्नाटक धार्मिक महत्त्व के अनेक स्थलों का केन्द्र भी रहा है। यहां के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में उडुपी कृष्ण मंदिर, सिरसी का मरिकंबा मंदिर, धर्मस्थल का श्री मंजुनाथ मंदिर, कुक्के में श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर तथा शृंगेरी स्थित शारदाम्बा मंदिर हैं जो देश भर से ढेरों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। लिंगायत मत के अधिकांश पवित्र स्थल जैसे कुदालसंगम एवं बसवन्ना बागेवाड़ी राज्य के उत्तरी भागों में स्थित हैं। श्रवणबेलगोला, मुदबिद्री एवं कर्कला जैन धर्म के ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धर्म की जड़े राज्य में आरंभिक मध्यकाल से ही मजबूत बनी हुई हैं और इनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है श्रवणबेलगोला हाल के कुछ वर्षों में कर्नाटक स्वास्थ्य रक्षा पर्यटन हेतु एक सक्रिय केन्द्र के रूप में भी उभरा है। राज्य में देश के सर्वाधिक स्वीकृत स्वास्थ्य प्रणालिययाँ और वैकल्पिक चिकित्सा उपलब्ध हैं। राज्य में आईएसओ प्रमाणित सरकारी चिकित्सालयों सहित, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने वाले निजी संस्थानों के मिले-जुले योगदान से वर्ष २००४-०५ में स्वास्थ्य-रक्षा उद्योग को ३०% की बढोत्तरी मिली है। राज्य के अस्पतालों में लगभग ८,००० स्वास्थ्य संबंधी सैलानी आते हैं। इन्हें भी देखें कर्नाटक के लोकसभा सदस्य कर्नाटक का पठार सन्दर्भ </div> बाहरी कड़ियाँ कर्नाटक सरकार का आधिकारिक जालस्थल कर्नाटक सरकार सूचना विभाग कर्नाटक- भारत डिस्कवरी पर देखें
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त्रिपुरा उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित भारत का एक राज्य है।यह भारत का तीसरा सबसे छोटा राज्य है जिसका क्षेत्रफल १०,४९१ वर्ग किमी है। इसके उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में बांग्लादेश स्थित है जबकि पूर्व में असम और मिजोरम स्थित हैं।सन २०११ में इस राज्य की जनसंख्या लगभग ३६ लाख ७१ हजार थी। अगरतला त्रिपुरा की राजधानी है। बंगाली और त्रिपुरी भाषा (कोक बोरोक) यहाँ की मुख्य भाषायें हैं। आधुनिक त्रिपुरा क्षेत्र पर कई शताब्दियों तक त्रिपुरी राजवंश ने राज किया। त्रिपुरा की स्थापना १४वीं शताब्दी में माणिक्य नामक इण्डो-मंगोलियन आदिवासी मुखिया ने की थी, जिसने हिंदू धर्म अपनाया था। १८०८ में इसे ब्रिटिश साम्राज्य ने जीता, यह स्व-शासित शाही राज्य बना।१९५६ में यह भारतीय गणराज्य में शामिल हुआ और १९७२ में इसे राज्य का दर्जा मिला। त्रिपुरा का आधे से अधिक भाग जंगलों से घिरा है, जो प्रकृति-प्रेमी पर्यटकों को आकर्षित करता है, किन्तु दुर्भाग्यवश यहाँ कई आतंकवादी संगठन पनप चुके हैं जो अलग राज्य की माँग के लिए समय-समय पर राज्य प्रशासन से लड़ते रहते हैं। हैण्डलूम बुनाई यहाँ का मुख्य उद्योग है। नाम ऐसा कहा जाता है कि राजा त्रिपुर, जो ययाति वंश का ३९वाँ राजा था के नाम पर इस राज्य का नाम त्रिपुरा पड़ा।जिसके वंशज अहीरो ने यहाँ प्राचीन काल में शासन किया था!एक मत के मुताबिक स्थानीय देवी त्रिपुर सुन्दरी के नाम पर यहाँ का नाम त्रिपुरा पड़ा। यह हिन्दू पन्थ के ५१ शक्ति पीठों में से एक है।इतिहासकार कैलाश चन्द्र सिंह के मुताबिक यह शब्द स्थानीय कोकबोरोक भाषा के दो शब्दों का मिश्रण है - त्वि और प्रा। त्वि का अर्थ होता है पानी और प्रा का अर्थ निकट। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में यह समुद्र (बंगाल की खाड़ी) के इतने निकट तक फैला था कि इसे इस नाम से बुलाया जाने लगा। उल्लेख त्रिपुरा का उल्लेख महाभारत, पुराणों तथा अशोक के शिलालेखों में मिलता है। आज़ादी के बाद भारतीय गणराज्य में विलय के पूर्व यह एक राजशाही थी। उदयपुर इसकी राजधानी थी जिसे अठारहवीं सदी में पुराने अगरतला में लाया गया और उन्नीसवीं सदी में नये अगरतला में। राजा वीर चन्द्र माणिक्य महादुर देववर्मा ने अपने राज्य का शासन ब्रिटिश भारत की तर्ज पर चलाया। गणमुक्ति परिषद द्वारा चलाए गए आन्दोलनों से यह सन् १९४९ में भारतीय गणराज्य में शामिल हुआ। सन् १९७१ में बांग्लादेश के निर्माण के बाद यहाँ सशस्त्र संघर्ष आरम्भ हो गया। त्रिपुरा नेशनल वॉलेंटियर्स, नेशनल लिबरेशन फ़्रण्ट ऑफ़ त्रिपुरा जैसे संगठनों ने स्थानीय बंगाली लोगों को निकालने के लिए मुहिम छेड़ रखी है। इतिहास त्रिपुरा का बड़ा पुराना और लम्बा इतिहास है। इसकी अपनी अनोखी जनजातीय संस्‍कृति तथा दिलचस्‍प लोकगाथाएँ है। इसके इतिहास को त्रिपुरा नरेश के बारे में ‘राजमाला’ गाथाओं तथा मुसलमान इतिहासकारों के वर्णनों से जाना जा सकता है। महाभारत और पुराणों में भी त्रिपुरा का उल्‍लेख मिलता है। राजमाला के अनुसार त्रिपुरा के शासकों को ‘फा’ उपनाम से पुकारा जाता था जिसका अर्थ ‘पिता’ होता है। १४वीं शताब्‍दी में बंगाल के शासकों द्वारा त्रिपुरा नरेश की मदद किए जाने का भी उल्‍लेख मिलता है। त्रिपुरा के शासकों को मुगलों के बार-बार आक्रमण का भी सामना करना पड़ा जिसमें आक्रमणकारियों को कमोबेश सफलता मिलती रहती थी। कई लड़ाइयों में त्रिपुरा के शासकों ने बंगाल के सुल्‍तानों कों हराया। १९वीं शताब्‍दी में महाराजा वीरचन्द्र किशोर माणिक्‍य बहादुर के शासनकाल में त्रिपुरा में नए युग का सूत्रपात हुआ। उन्‍होने अपने प्रशासनिक ढांचे को ब्रिटिश भारत के नमूने पर बनाया और कई सुधार लागू किए। उनके उत्‍तराधिकारों ने १५ अक्टूबर, १९४९ तक त्रिपुरा पर शासन किया। इसके बाद त्रिपुरा भारत संघ में शामिल हो गया। शुरू में यह भाग-सी के अन्तर्गत आने वाला राज्‍य था और १९५६ में राज्‍यों के पुनर्गठन के बाद यह केन्द्र शासित प्रदेश बना। १९७२ में इसने पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्राप्‍त किया। त्रिपुरा बांग्‍लादेश तथा म्‍यांमार की नदी घाटियों के बीच स्थित है। इसके तीन तरफ बांग्‍लादेश है और केवल उत्तर-पूर्व में यह असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है। भारत में विलय मुख्य भाषा बंगाली और त्रिपुरी भाषा (कोक बोरोक) यहां मुख्य रूप से बोली जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि राजा त्रिपुर, जो ययाति वंश का ३९ वें राजा थे, उनके नाम पर ही इस राज्य का नाम त्रिपुरा पड़ा। इसके साथ ही एक मत के अनुसार स्थानीय देवी त्रिपुर सुन्दरी के नाम पर इसका नाम त्रिपुरा पड़ा। यह हिन्दू धर्म की ५१ शक्ति पीठों में से एक है। इस राज्य के इतिहास को 'राजमाला' गाथाओं और मुसलमान इतिहासकारों के वर्णनों से जाना जा सकता है। महाभारत और पुराणों में भी मिलता है उल्‍लेख महाभारत और पुराणों में भी त्रिपुरा का उल्‍लेख मिलता है। आज़ादी के बाद भारतीय गणराज्य में विलय के पूर्व यह एक राजशाही थी। उदयपुर इसकी राजधानी थी जिसे १८वीं सदी में पुराने अगरतला में लाया गया और १९वीं सदी में नये अगरतला में। राजा वीर चन्द्र माणिक्य महादुर देववर्मा ने अपने राज्य का शासन ब्रिटिश भारत की तर्ज पर चलाया। पूर्वी पाक में विलय चाहता था त्रिपुरा गणमुक्ति परिषद द्वारा चलाए गए आन्दोलनों से यह सन् १९४९ में भारतीय गणराज्य में शामिल हुआ। लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक भी त्रिपुरा शाही परिवार का एक धड़ा राज्य का विलय पूर्वी पाकिस्तान के साथ चाहता था। लेकिन त्रिपुरा के आखिरी राजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य (१९२३-१९४७) ने अपने मौत के पहले भारत में विलय की इच्छा जाहिर की थी। जिसके बाद भारत सरकार ने त्रिपुरा को अपने कब्जे में ले लिया। संघर्ष का आरंभ लेकिन सन् १९७१ में बांग्लादेश के निर्माण के बाद यहां सशस्त्र संघर्ष आरंभ हो गया। त्रिपुरा नेशनल वॉलेंटियर्स, नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा जैसे संगठनों ने स्थानीय बंगाली लोगों को निकालने के लिए मुहिम छेड़ रखी है। १४वीं शताब्‍दी में बंगाल के शासकों द्वारा त्रिपुरा नरेश की मदद किए जाने का भी उल्‍लेख मिलता है। त्रिपुरा के शासकों को मुगलों के बार-बार आक्रमण का भी सामना करना पडा जिसमें आक्रमणकारियों को कमोबेश सफलता मिलती रहती थी। कई लड़ाइयों में त्रिपुरा के शासकों ने बंगाल के सुल्‍तानों कों हराया। त्रिपुरा में नए युग की शुरूवात १९वीं शताब्‍दी में महाराजा वीरचंद्र किशोर माणिक्‍य बहादुर के शासनकाल में त्रिपुरा में नए युग की शुरूवात हुई। उन्‍होने अपने प्रशासनिक ढांचे को ब्रिटिश भारत के नमूने पर बनाया और कई सुधार लागू किए। उनके उत्‍तराधिकारों ने १५ अक्‍तूबर, १९४९ तक त्रिपुरा पर शासन किया। इसके बाद त्रिपुरा भारत संघ में शामिल हो गया। शुरू में यह भाग-सी के अंतर्गत आने वाला राज्‍य था और १९५६ में राज्‍यों के पुनर्गठन के बाद यह केंद्रशासित प्रदेश बना और इसके बाद १९७२ में इसे पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्राप्‍त हुआ। आपको बता दें त्रिपुरा बांग्‍लादेश तथा म्‍यांमार की नदी घाटियों के बीच स्थित है। इसके तीन तरफ बांग्‍लादेश है और उत्तर-पूर्व में यह असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है भूगोल त्रिपुरा पूर्वोत्तर भारत में स्थित एक स्थलरुद्ध राज्य है, जहां यह और इसके छः निकटवर्ती राज्य - अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम तथा नागालैंड - सामूहिक रूप से "सात बहनें" कहलाते हैं। १०,४८१.६९ वर्ग किमी (४,०५०.८६ वर्ग मील) के क्षेत्रफल में फैला त्रिपुरा गोवा और सिक्किम के बाद भारत के २९ राज्यों में तीसरा सबसे छोटा राज्य है। इसका विस्तार २२°५६' उ° से २४°३२' उ° और ९१°०९' पू° से ९२°२०' पू° तक है।  राज्य की सीमा उत्तर से दक्षिण तक लगभग १७८ किमी (१११ मील) लम्बी है, और पूर्व से पश्चिम तक १३१ किमी (८१ मील) चौड़ी है। त्रिपुरा की सीमा पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में बांग्लादेश से लगती है; जबकि इसके पूर्वोत्तर में असम और पूर्व में मिजोरम स्थित हैं।  राज्य में केवल असम के करीमगंज जिले और मिजोरम के ममित जिले से आने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। स्थलाकृति त्रिपुरा भौगोलिक रूप से विविध है; यहां पहाड़ी श्रृंखलाएँ, घाटियाँ और मैदान पाये जाते हैं। राज्य में उत्तर से दक्षिण तक अपनत पहाड़ियों की पांच श्रेणियां हैं, जिनका विस्तार पश्चिम में बोड़ोमुड़ा पहाड़ियों से लेकर, अठारामुरा, लोंगथाराई और शाखान से होते हुए पूर्व में जाम्पुई पहाड़ियों तक हैं। इन पहाड़ियों की  मध्यवर्ती अभिनतियों में अगरतला-उदयपुर, खोवाई-तेलियामुरा, कमलपुर-अम्बासा, कैलाशहर-मनु और धर्मनगर-कंचनपुर घाटियाँ स्थित हैं। जम्पुई श्रंखला की बेत्लिंगछिप, जो ९३९ मीटर (३,०८१ फीट) ऊंची है, राज्य की सबसे ऊंची चोटी है। उपरोक्त श्रंखलाओं के अलावा पूरे राज्य में कई अलग-अलग पहाड़ियां हैं, जिन्हें टिल्ल कहा जाता है। राज्य में कई संकीर्ण उपजाऊ जलोढ़ घाटियाँ भी हैं, जिनमें से अधिकतर राज्य के पश्चिमी शेत्र में स्थित हैं। ये डूंग/लुंग कहलाती हैं। त्रिपुरा की पहाड़ियों से कई नदियाँ निकलती हैं, जो बांग्लादेश की ओर बहती हैं। इनमें खोवाई, धलाई, मनु, जुरी और लोंगाई नदियाँ उत्तर की ओर; गोमती नदी पश्चिम की ओर; और मुहुरी और फेनी नदियाँ दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हैं।. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित शैल-स्तरिकी डेटा के अनुसार राज्य में स्थित चट्टानों को भूवैज्ञानिक समय-मान के पैमाने पर दो विभिन्न समयकालों में वर्गीकृत किया जा सकता है; पहली लगभग ३४ से २३ मिलियन वर्ष पुरानी ओलिगोसीन युग की चट्टानें और दूसरी १२,००० वर्ष पहले शुरू हुए नूतनतम युग की चट्टानें। राज्य की पहाड़ियों में छिद्रपूर्ण लाल लैटेराइट मृदा पायी जाती है। इसके अतिरिक्त पूरभूमि और संकरी घाटियों में जलोढ़ मृदा पायी जाती है, और राज्य की अधिकांश कृषि भूमि पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्र में स्थित इन्हीं मैदानों व घाटियों में हैं। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार राज्य भूकंपीय क्षेत्र ५ में आता है। जलवायु राज्य की जलवायु उष्णकटिबन्धीय सवाना है, जिसे कोपेन जलवायु वर्गीकरण के कोपेन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार एड्ब्ल्यू (अर्थात शुष्क शीत) श्रेणीबद्ध किया गया है राज्य की असमतल स्थलाकृति के कारण जलवायु में स्थानीय तौर पर कई विविधताएं हैं, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में। मुख्यतः चार ऋतुएँ हैं : दिसंबर से फरवरी तक शीत ऋतु; मार्च से अप्रैल तक ग्रीष्म ऋतु; मई से सितंबर तक वर्षा ऋतु; और अक्टूबर से नवंबर तक शरद ऋतु। वर्षा ऋतु के दौरान, भारतीय मानसून राज्य में भारी बारिश लाता है, जिससे बार-बार बाढ़ आती है। १९९५ और २००६ के बीच औसत वार्षिक वर्षा १,९७९.६ से २,७४५.९ मिमी (७७.९४ से १०८.११ इंच) के बीच थी। गर्मियों के दौरान, तापमान २४ और ३६ डिग्री सेल्सियस (७५ और ९७ डिग्री फारेनहाइट) के बीच होता है, जबकि सर्दियों में यह १३ से २७ डिग्री सेल्सियस (५५ से ८१ डिग्री फारेनहाइट) के बीच गिर जाता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य हवा और चक्रवातों के कारण "बहुत अधिक क्षति जोखिम" क्षेत्र में है। वनस्पतियाँ तथा जीव-जंतु {| class="wikitable" style="float:right; margin:0 0 1em 1em; background:#f4f5f6; border:#c6c7c8 solid; font-size:90%;" |- | colspan="2" style="background:#c2d6e5; text-align:center;"| त्रिपुरा के राज्य चिन्ह |- | राज्य पशु || फ़ेयरे बंदर |- | राज्य पक्षी || हरा शाही कबूतर |- | राज्य वृक्ष || अगर |- | '''राज्य पुष्प || नाग केसर |- | राज्य फल || रानी अनानास |} अधिकांश भारतीय उपमहाद्वीप की ही तरह त्रिपुरा भी इंडोमलायन जैवभूक्षेत्र में स्थित है। भारत के जैव-भौगोलिक वर्गीकरण के अनुसार, राज्य "पूर्वोत्तर" जैव-भौगोलिक क्षेत्र में आता है। २०११ में राज्य का ५७.७३% भाग वनों से घिरा था। त्रिपुरा में तीन अलग-अलग प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र हैं: पहाड़, जंगल और ताज़ा पानी। पहाड़ी ढलानों और रेतीले नदी तटों पर सदाबहार जंगलों में डिप्टरोकार्पस, आर्टोकार्पस, अमुरा, एलेओकार्पस, सिज़ीगियम और यूजेनिया जैसी प्रजातियों का प्रभुत्व है। अधिकांश वनस्पतियाँ दो प्रकार के आर्द्र पर्णपाती वनों में शामिल हैं: नम पर्णपाती मिश्रित वन और साल के वन। पर्णपाती और सदाबहार वनस्पतियों के साथ-साथ बाँस और बेंत के जंगलों का मिश्रण त्रिपुरा की वानस्पतिक विविधता की एक विशेषता है। राज्य में कई घासभूमियाँ तथा दलदल भी स्थित हैं, विशेषकर मैदानी इलाकों में। अल्बिज़िया, बैरिंगटनिया, लेगरस्ट्रोमिया और मैकरंगा जैसी जड़ी-बूटियों वाले पौधे, झाड़ियाँ और पेड़ त्रिपुरा के दलदलों में पनपते हैं। झाड़ियों और घासों में शुमानियानथस डाइकोटोमा (शीतलपति), फ्राग्माइट्स और सैचरम (गन्ना) शामिल हैं। १९८९-९० के एक सर्वेक्षण के अनुसार, त्रिपुरा में ६५ वंशों और १० गणों की ९० स्तनपायी प्रजातियां पायी जाती हैं, जिनमें हाथी (एलिफस मैक्सिमस), भालू (मेलर्सस उर्सिनस), बिन्तुरोंग (आर्कटिक्टिस बिन्तुरोंग), जंगली कुत्ते (कुओन अल्पाइनस), साही (आर्थेरुरस असामेन्सिस), भौंकने वाला हिरण (मंटियाकस मुंटजैक), सांभर (सर्वस यूनिकोलर), जंगली सूअर (सुस स्कोर्फा), गौर (बोस गौरस), तेंदुआ (पैंथेरा पार्डस), क्लाउडेड तेंदुआ (नियोफेलिस नेबुलोसा), और छोटी बिल्लियों और नरवानर गणों की कई प्रजातियाँ शामिल हैं। भारत के १५ मुक्त नरवानर गणों में से सात त्रिपुरा में पाए जाते हैं, जो किसी भी भारतीय राज्य में पायी जाने वाली नरवानर गण प्रजातियों में सबसे अधिक है। जंगली भैंसा (बुबलस आर्नी) अब विलुप्त हो चुका है। राज्य में पक्षियों की लगभग ३०० प्रजातियाँ हैं। सिपाहीजाला, गोमती, रोवा और तृष्णा राज्य के वन्यजीव अभयारण्य हैं। राज्य के राष्ट्रीय उद्यान क्लाउडेड लेपर्ड नेशनल पार्क और राजबारी नेशनल पार्क हैं। ये संरक्षित क्षेत्र कुल ५६६.९३ वर्ग किमी (२१८.८९ वर्ग मील) क्षेत्रफल में फैले हैं। गोमती एक महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र भी है, सर्दियों में हजारों प्रवासी जलपक्षी गोमती और रुद्रसागर झीलों में एकत्र होते हैं। प्रशासनिक प्रभाग जनवरी २०१२ में त्रिपुरा के प्रशासनिक प्रभागों में बड़े बदलाव किए गए। राज्य में पहले चार जिले थे - धलाई (मुख्यालय: आमबासा), उत्तर त्रिपुरा (मुख्यालय: कैलाशहर), दक्षिण त्रिपुरा (मुख्यालय: उदयपुर), और पश्चिम त्रिपुरा (मुख्यालय: अगरतला)। जनवरी २०१२ में इन चार जिलों में से चार नए जिले बनाए गए - खोवाई, उनाकोटी, सिपाहीजाला और गोमती। छह नए उपखंड और पांच नए विकास खंड भी जोड़े गए। प्रत्येक जिला एक कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा शासित होता है, जिसे आमतौर पर भारतीय प्रशासनिक सेवा द्वारा नियुक्त किया जाता है। प्रत्येक जिले के उपखंड एक उपजिलाधिकारी द्वारा शासित होते हैं और प्रत्येक उपखंड को विकास खंडों में विभाजित किया जाता है। विकास खंड में पंचायतें और नगर पालिकाएँ शामिल होती हैं। २०१२ तक, राज्य में आठ जिले, २३ उपमंडल और ५८ विकास खंड थे। मार्च २०१३ तक सभी नए प्रशासनिक प्रभागों के लिए राष्ट्रीय जनगणना और राज्य सांख्यिकीय रिपोर्ट उपलब्ध नहीं हैं। अगरतला त्रिपुरा राज्य की राजधानी है, और साथ ही राज्य का सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर भी है। १०,००० या उससे अधिक की जनसंख्या वाले अन्य प्रमुख नगर (२०११ की जनगणना के अनुसार) सबरूम, धर्मनगर, जोगेन्द्रनगर, कैलाशहर, प्रतापगढ़, उदयपुर, अमरपुर, बेलोनिया, गाँधीग्राम, कुमारघाट, खोवाई, रानीरबाज़ार, सोनामूड़ा, बिशालगढ़, तेलियामुरा, मोहनपुर, मेलाघर, आमबासा, कमलपुर, बिश्रामगंज, कथलिया, शांतिरबाज़ार और बक्सानगर हैं। परिवहन सडकें त्रिपुरा में विभिन्‍न प्रकार की सड़कों की कुल लम्बाई १५,२२७ कि॰मी॰ है, जिसमें से मुख्‍य जिला सड़कें ४५४ कि.मी., अन्‍य जिला सड़कें १,५३८ कि॰मी॰ हैं। रेलवे राज्‍य में रेल मार्गो की कुल लम्बाई ६६ कि॰मी॰ है। रेलवे लाइन मानूघाट तक बढा दी गई है तथा अगरतला तक रेलमार्ग पहुँचाने का काम पूरा किया जा च्हुका है। मानू अगरतला रेल लाइन (८८ कि.मी.) को राष्‍ट्रीय परियोजना घोषित कर दिया गया था। सिंचाई और बिजली त्रिपुरा राज्‍य का भौगोलिक क्षेत्र १०,४९,१६९ हेक्‍टेयर है। अनुमान है कि २,८०,००० हेक्‍टेयर भूमि कृषि योग्‍य है। ३१ मार्च २००५ तक ८२,००५ हेक्‍टेयर भूमि क्षेत्र में लिफ्ट सिंचाई, गहरे नलकूप, दिशा परिवर्तन, मध्‍यम सिंचाई व्‍यवस्‍था, शैलो ट्यूबवैल और पम्पसेटों के जरिए सुनिश्चित सिंचाई के प्रबन्ध किए गए हैं। यह राज्‍य की कृषि योग्‍य भूमि का लगभग २९.२९ प्रतिशत है। १,२६९ एल.आई. स्‍कीम, १६० गहरे नलकूप, २७ डाइवर्जन स्‍कीमें पूरी हो चुकी हैं तथा ३ मध्‍यम सिंचाई योजनाओं (१) गुमती (२) खोवई और (३) मनु के जरिए कमान एरिया के कुछ भाग को सिंचाई का पानी उपलब्‍ध कराया जा रहा है क्‍योंकि नहर प्रणाली का कार्य पूरा नहीं हुआ है। इस समय राज्‍य की व्‍यस्‍त समय की बिजली की माँग लगभग १६२ मेगावाट है। राज्‍य में अपनी परियोजनाओं से ७० मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है। लगभग ५० मेगावाट बिजली पूर्वोत्‍तर क्षेत्र में स्थित केन्द्रीय क्षेत्र के विद्युत उत्‍पादन केन्द्रों से राज्‍य के लिए आवण्टित हिस्‍से से प्राप्‍त की जाती है। इस प्रकार कुल उपलब्‍ध बिजली लगभग १२० मेगावाट है और व्‍यस्‍त समय में ४२ मेगावाट बिजली की कमी पड़ जाती है। इस कमी की वजह से पूरे राज्‍य में शाम को डेढ़ घण्टे क्रमिक रूप से बिजली की आपूर्ति बन्द कर दी जाती है। पर्यटन महत्‍वपूर्ण पर्यटन केंद्र इस प्रकार हैं : पश्चिमी-दक्षिणी त्रिपुरा पर्यटन-मण्डल अगरतला, कमल सागर सेफाजाला नील महल उदयपुर पिलक महामुनि '''पश्चिमी-उत्तरी त्रिपुरा पर्यटन-मण्डल अगरतला, उनोकोटि जामपुई हिल त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर त्रिपुरा सुन्दरी मन्दिर - तलवाडा ग्राम से ५ किलोमीटर दूर स्थित भव्य प्राचीन त्रिपुरा सुन्दरी का मन्दिर हैं, जिसमें सिंह पर सवार भगवती अष्टादश भुजा की मूर्ति स्थित हैं। मूर्ति की भुजाओं में अठारह प्रकार के आयुध हैं। इस मन्दिर की गिनती प्राचीन शक्तिपीठों में होती हैं। मन्दिर में खण्डित मूर्तियों का संग्रहालय भी बना हुआ हैं जिनकी शिल्पकला अद्वितीय हैं। मन्दिर में प्रतिदिन दर्शनार्थियों का ताँता लगा रहता हैं। प्रतिवर्ष नवरात्र में यहाँ भारी मेला भी लगता हैं। पर्यटन समारोह आरेंज एण्ड टूरिज्‍म फ़ेस्टिवल वांगमुन उनोकेटि टूरिज्‍म फ़ेस्टिवल नीरमहल टूरिज्‍म फ़ेस्टिवल पिलक टुरिज्‍म फ़ेस्टिवल। संस्कृति त्रिपुरा में हिन्दुओं की संख्या लगभग ८४ प्रतिशत है। दुर्गापूजा यहाँ का प्रमुख त्यौहार है। बांग्ला यहाँ की प्रमुख भाषा है। सन्दर्भ भारत के राज्य त्रिपुरा
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मणिपुर भारत के पूर्वोत्तर में स्थित एक राज्य है। इसकी राजधानी इंफाल है। मणिपुर के पड़ोसी राज्य हैं: उत्तर में नागालैंड और दक्षिण में मिज़ोरम, पश्चिम में असम, और पूर्व में इसकी सीमा म्यांमार से मिलती है। इसका क्षेत्रफल 22,347 वर्ग कि.मी (8,628 वर्ग मील) है। यहाँ के मूल निवासी मैतै जनजाति के लोग हैं, जो यहाँ के घाटी क्षेत्र में रहते हैं। इनकी भाषा मेइतिलोन है, जिसे मणिपुरी भाषा भी कहते हैं। यह भाषा 1992 में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ी गई है और इस प्रकार इसे एक राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त हो गया है। यहाँ के पर्वतीय क्षेत्रों में नागा व कुकी जनजाति के लोग रहते हैं। मणिपुरी को एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य माना जाता है। इस राज्य को पूर्व की सात बहिनों में से एक माना जाता है। परिचय मणिपुर का शाब्दिक अर्थ ‘आभूषणों की भूमि’ है। भारत की स्वतंत्रता के पहले यह रियासत थी। आजादी के बाद यह भारत का एक केंद्रशासित राज्य बना। यहाँ की राजधानी इम्फाल है। यह संपूर्ण भाग पहाड़ी है। जलवायु गरम एवं तर है तथा वार्षिक वर्षा का औसत 65 इंच है। यहाँ नागा तथा कूकी जाति की लगभग 60 जनजातियाँ निवास करती हैं। यहाँ के लोग संगीत तथा कला में बड़े प्रवीण होते हैं। यहाँ कई बोलियाँ बोली जाती हैं। पहाड़ी ढालों पर चाय तथा घाटियों में धान की खेती होती है। मणिपुर से होकर एक सड़क बर्मा को जाती है। इस राज्य में प्राकृतिक संसाधनों का प्रचुर भंडार है। यहां की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यहां तरोताजा करने वाले जल-प्रपात है; रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे हैं, दुर्लभ वनस्पतियां व जीव-जन्तु हैं, पवित्र जंगल हैं, हमेशा बहने वाली नदियां हैं, पर्वतों-पहाड़ियों पर बिखरी हरी विभा है और टेढ़े-मेढ़े गिरने वाले झरने हैं। लोकटक झील यहां की एक महत्वपूर्ण झील है। भौतिक आधार पर इस राज्य को दो भागों में बांटा जा सकता है, पहाड़ियां व घाटियां। चारों ओर पहा‍ड़ियां हैं और बीच में घाटी है। इस प्रकार प्रकृति की प्राचीन गौरव है। राज्य की कला व संस्कृति समृद्ध है जो विश्व मानचित्र पर इसकी समृद्धि को दर्शाती है। सतरंगी शिरोइ लिली मणिपुर को देश की 'ऑर्किड बास्केट' भी कहा जाता है। यहाँ ऑर्किड पुष्प की 500 प्रजातियां पाई जाती हैं। समुद्र तल से लगभग 5000 फीट की ऊँचाई पर स्थित शिरोइ पहाड़ियों में एक विशेष प्रकार का पुष्प शिरोइ लिली पाया जाता है। शिरोइ लिली का यह फूल पूरे विश्व में केवल मणिपुर में ही पैदा होता है। इस अनोखे और दुर्लभ पुष्प की खोज फ्रैंक किंग्डम वॉर्ड नामक एक अंग्रेज ने 1946 में की थी। यह खास लिली केवल मानसून के महीने में पैदा होता है। इसकी विशेषता यह है कि इसे सूक्ष्मदर्शी से देखने पर इसमे सात रंग दिखाई देते हैं। इस अनोखे लिली को 1948 में लंदन स्थित रॉयल हॉर्टिकल्चरल सोसाइटी ने मेरिट प्राइज से भी नवाजा था। हर वर्ष उखरूल जिले में शिरोइ लिली फेस्टिवल का आयोजन बड़ी धूम धाम से होता है। इसे देखने दूर दूर से लोग मणिपुर आते हैं। मणिपुर के लोग यहाँ तीन प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं। घाटी में मीतई जनजाति और बिष्णुप्रिया मणिपुरी रहती है तो नागा और कूकी-चिन जनजातियाँ पहा‍ड़ियों पर रहती हैं। प्रत्येक जनजाति वर्ग की खास संस्कृति और रीति रिवाज हैं जो इनके नृत्य, संगीत व पारंपरिक प्रथाओं से दृष्टिगोचर होता है। मणिपुर के लोग कलाकार होते हैं साथ ही सृजनशील होते हैं जो उनके द्वारा तैयार खादी व दस्तकारी के उत्पादों में झलकती है। ये उत्पाद विश्वभर में अपनी डिज़ाइन, कौशल व उपयोगिता के लिए जाने जाते हैं। यहाँ नेपाल से आकर बसे नेपालियों की भी अधिक संख्या है, जो मणिपुर के कई इलाकों में बसे हैं। भौगोलिक स्थिति भारत के पूर्वी सीमा पर स्थित यह राज्य 23.83 डिग्री उत्तर और 25.68 डिग्री उत्तरी अक्षांश व 94.78 डिग्री पूर्वी देशांतर के बीच पड़ता है। एक ओर तो पूर्व में म्यांमार है तो नागालैंड उत्तर-पश्चिम मणिपुर की भौगोलिक स्थिति दर्शनीय है। उत्तरी तथा पूर्वी इलाकों में ऊँची पहाडियाँ है और मध्य भाग में मैदानी समतल है। यहाँ हर पहाड़ के बीच में कोई न कोई नदी बहती हैं। इम्फाल नदी यहाँ की प्रमुख नदी है। अर्थव्यवस्था कृषि व कृषि आधारित उद्योग अर्थव्यवस्था का आधार हैं। राज्य सूचना प्राद्योगिकी आधारित व्यवसायों के लिए एक उपयुक्त स्थान है। यहाँ उच्च शिक्षा की व्यवस्था है, यहां निवेश की अपार संभावनाएँ हैं, खासकर कृषि व खाद्य प्रसंस्कथरण के क्षेत्र में. हथकरघा, दस्तकारी और पर्यटन के क्षेत्र में कई संभावनाएँ है। इन क्षेत्रों में निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकार ने कई नीतियाँ तैयार की हैं साथ ही निवेशकों को आकर्षित करने के कई प्रोत्साहन देने की भी घोषणा की गयी है। पर्यटन अपनी विविध वनस्पतियों व जीव-जंतुओं के कारण मणिपुर को 'भारत का आभूषण' व 'पूरब का स्विट्जरलैंड' आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता है। लुभाने वाले प्राकृतिक दृश्यों, में विलक्षण फूल-पौधे, निर्मल वन, लहराती नदियाँ, पहाड़ियों पर छाई हरियाली शामिल है। इन सबके अलावा पर्यटकों के लिए कई आकर्षण हैं जो राज्य में पर्यटन के विकास के लिए उत्कृष्ठ अवसर प्रदान करता हैं। श्री गोविंद जी मंदिर, खारीम बंद बाजार (इमा कैथल) युद्ध कब्रिस्तान, शहीद मीनार, नुपी सान (महिलाओं का युद्ध) मेमोरियल कॉम्लेार क्सा, खोंघापत उद्यान, आईएनए मेमोरियल (मोइरांग), लोकटक झील, कीबुल लामजो राष्ट्रीय उद्यान, विष्णुपुर स्थित विष्णु मंदिर, सेंड्रा, मोरेह सिराय गाँव, सिराय की पहा‍ड़ियाँ, डूको घाटी, राजकीय अजायबघर, कैना पर्यटक निवास, खोंगजोम वार मेमोरियल आदि मणिपुर के कुछ महत्त्व पूर्ण पर्यटक स्थल है। मणिपुर देश के सुदूर उत्तरपूर्वी छोर पर स्थित है और, इसका अधिकाँश पहा‍ड़ियों से घिरा हुआ है। यहाँ निवेश के कई अवसर हैं। यहां कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ निवेशकों को आकर्षित करने के लिए काफी संभावनाएँ हैं। यहां के दर्शनीय स्थलों में इंफाल, उख्रुल प्रसिद्ध हैं। इंफाल में कांग्ला पार्क, गोविंद मन्दिर वहाँ के बाजार, टीकेन्द्रजित पार्क प्रसिद्ध हैं तो उख्रुल की पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। चुडाचाँदपुर जिले में लोकतक झील प्रसिद्ध हैं। मणिपुर में प्रवेश करने वाले विदेशियों को, चाहे वे यहां जन्मे हों, प्रतिबंधित क्षेत्र पर्मिट लेना आवश्यक होता है। यह चारों मुख्य महानगरों में स्थित विदेशियों के क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय से मिलता है। यह पर्मिट मात्र दस दिन के लिए वैध होता है, व सैलानी यहां भ्रमण करने के लिए प्राधिकृत ट्रैवल एजेंट द्वारा वयवस्थित चार लोगों के समूहों में ही जा सकते हैं। साथ ही विदेशी सैलानी यहां वायुयान द्वारा ही आ सकते हैं और उन्हें राजधानी इंफाल के बाहर घूमने की आज्ञा नहीं है। कृषि और खाद्य प्रसंस्करण राज्य में कृषि के अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। यहाँ की जलवायु और मिट्टी, कृषि व बागवानी वाली प्राय: सभी फसलें उगाने के लिए उपयुक्त है। राज्य में प्रचुर मात्रा में धान, गेहूँ, मक्का, दलहन व तिलहन (जैसे तेल, मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी आदि) की खेती की जाती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न फलों जैसे अनानास, नींबू, केला, नारंगी आदि और सब्जियाँ जैसे फूलगोभी, बंदगोभी, टमाटर व मटर आदि का उत्पादन किया जाता है। इसके फलस्वरूप खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र, कृषि, बागवानी, मछली पालन, मुर्गी पालन, पशु पालन और वनों के विविधीकरण तथा वाणिज्यीकरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस उद्योग के महत्त्व को देखते हुए राज्य सरकार ने इंफाल में 'खाद्य प्रसंस्करण प्रशिक्षण केंद्र और 'खाद्य प्रसंस्करण प्रशिक्षण हॉल' की स्थापना की है। इंफाल में एक खाद्य पार्क की भी स्थापना की जा रही है। हथकरघा हथकरघा उद्योग राज्य का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है। यहाँ यह उद्योग अनादि काल से फल-फूल रहा है। राज्यथ में यह सर्वाधिक रोजगार उपलब्ध् करा रहा है खासकर महिलाओं को। मणिपुर के प्रमुख हथकरघा उत्पाकद साड़ी, चादर, पर्दे, फैशनवाले कपड़े, स्काधर्फ व तकिए के कवर आदि है। अधिकांश जुलाहे जिन्हेंथ हुनर व महीन डिजाइनिंग के लिए जाना जाता है। वे वाँग खाई बायोन कांपू, कोंगमान, खोंग मैन उल्लालऊ आदि से हैं जो उत्कृमष्टन सिल्कन आदि उत्पामदों के लिए प्रसिद्ध हैं। मणिपुरी कपड़े व शॉलों की राष्ट्रीगय व अंतरराष्ट्री य बाजारों में काफी माँग है। तीन सरकारी एजेंसियाँ हथकरघा उत्पाोदन का काम करती हैं ये हैं मणिपुर डेवलपमेंट सोसायटी (एमडीएस) मणिपुर हैंडलूम एंड हैडीक्राफ्ट डेवलपमेंट कॉपोरेशन (एमएचएचडीसी) मणिपुर स्टेट हैंडलूम वीवर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी (एमएसएचडब्यूज सीएस) हस्तशिल्प देश की विभिन्न हस्तशिल्प कलाओं में राज्य के हस्तशिल्प उद्योग का अनूठा स्थान है। इसके अंतर्गत बेंत व बाँस के बने उत्पादों के साथ-साथ मिट्टी के बर्तन बनाने की संस्कृति भी शामिल है। मणिपुर में मिट्टी के बर्तन बनाने की प्रथा काफी पुरानी है और यह उद्यम मुख्यतः एंड्रो, सिकमाई, चैरन, थोगजाओ, नुंगवी व सेनापति जिले में किया जाता है। चूँकि बाँस व बेंत काफी मात्रा में उपलब्ध है, टोकरी बुनना यहाँ के लोगों का लोकप्रिय व्यवसाय बन गया है। इसके अतिरिक्ति मछली मारने के उपकरण भी बेंत व बाँस के बनाए जाते हैं। घरेलू के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में इन सभी उत्पादों की काफी माँग है। सूचना प्रौद्योगिकी राज्य में आईटी उद्योग की प्रचुर संभावना को देखते हुए मणिपुर सरकार इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र को विकास के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उच्च प्राथमिकता देती है। राज्यर में सक्रिय जन शक्ति और गुणवत्तापूर्ण कार्य बल हैं जो ऐसे उद्योगों के लिए अनुकूल हैं। राज्यं में इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों के विकास के लिए और खाली पदों को भरने के लिए मणिपुर इंडस्ट्रियल कॉपोरेशन का गठन किया गया है। ऐसे आईटी क्षेत्र जहाँ निवेश के अवसर हैं इस प्रकार हैं - आईटी पार्क स्थािपित करने से, आईटी आधारित सर्विस सेन्टर व सूचना कियोस्क स्थापित करने में वायस, डाटा व वीडियो प्रसारण और प्रचार के लिए मणिपुर, स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क (एमएएनएनटी) के बैकबोन नेटवर्क की स्थािपना की गई है नागरिकों को मल्टी-फंक्शहन इलेक्ट्रॉनिक स्मार्ट कार्ड उपलब्ध कराना स्कूिल व कॉलेजों में आईटी साक्षरता कार्यक्रम आईटी के जरिए दूरस्थ शिक्षा को राज्या में बढ़ावा देने के लिए आईटी साक्षरता कार्यक्रम जिले मणिपुर में 16 जिले हैं - इम्फाल पूर्व जिलाइम्फाल पश्चिम जिलाउखरुल जिलाचन्डेल जिला चुराचांदपुर जिलातमेंगलॉन्ग जिलाथौबल जिलाबिष्णुपुर जिलासेनापति जिला इन्हें भी देखें मणिपुर का इतिहास मणिपुरी भाषा मणिपुरी नृत्य बाहरी कड़ियाँ मणिपुर की म्हार जनजाति के बारे में सूचना जालस्थल मणिपुर पेज: मणिपुरी गीत संगीत का जालस्थल ई-पाओ! 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