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को आप जल दें, तो जड़ों तक नहीं पहुंचता; जड़ों को जल दें, तो पत्ते तक पहुंच जाता है। क्योंकि पत्तों के पास कोई यंत्र नहीं है कि जल को रूट्स तक पहुंचा दे, जड़ों तक पहुंचा दे जल को। जड़ों के पास यंत्र है। जड़ें केंद्र हैं वृक्ष की, पत्ते तो परिधि हैं। इसलिए पत्ते रहें कि गिर जाएं, नॉन-एसेंशियल हैं। दूसरे पत्ते आ जाएंगे। लेकिन जड़ें चली जाएं, तो दूसरी जड़ें लाना बहुत मुश्किल है, असंभव है। तो दो बात समझ लें। एक तो यह कि जिसको आप समझ कहते हैं, वह केवल तार्किक, शाब्दिक, बौद्धिक है; आंतरिक नहीं, आत्मिक नहीं, समग्र नहीं। आपके प्राणों तक वह जाती नहीं। और इसलिए रूपांतरण नहीं होता। बात बिलकुल समझ में आ जाती है, और आप वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता। तो अब क्या करें? वह समझ हम कैसे लाएं जो समझ जड़ों तक जाए ? हमारी सारी शिक्षा और दीक्षा एक ही समझ की है, यह तथाकथित जो समझ है। गणित सीखते हैं इसी बुद्धि से; भाषा सीखते हैं इसी बुद्धि से। काम चल जाता है। काम इसलिए चल जाता है कि आपके भीतर के केंद्र का कोई विपरीत गणित नहीं है; नहीं तो काम नहीं चलता। आपके इनरमोस्ट सेंटर का अपना अगर कोई मैथेमेटिक्स होती, तो आपके स्कूल-कालेज सब दो कौड़ी हो जाते। लेकिन उसके पास कोई मैथेमेटिक्स नहीं है। इसलिए आप स्कूल में गणित सीख लेते हैं; भीतर से कोई विरोध नहीं होता। आप दो और दो चार जोड़ते रहें, जोड़ते रहें; भीतर कोई कहने वाला नहीं कि दो और दो पांच होते हैं। अगर भीतर का मन कहने को होता कि दो और दो पांच होते हैं, तो सारी यूनिवर्सिटीज कचरे में पड़ जातीं, आप दो और दो चार नहीं जोड़ पाते। जब भी जोड़ने जाते, पांच लिखते। इसलिए विश्वविद्यालय सफल है कामचलाऊ दुनिया के लिए। क्योंकि गणित हमारी ईजाद है, भाषा हमारी ईजाद है; जो भी हम सिखा रहे हैं स्कूल में, वह आदमी की ईजाद है। अगर हम आदमी को न सिखाएं, तो वह आदमी में होगा ही नहीं। अगर हम एक बच्चे को भाषा न सिखाएं, तो वह बच्चा अपने आप भाषा नहीं बोल पाएगा। लेकिन एक बच्चे को क्रोध सिखाने की जरूरत नहीं है; वह अपने आप क्रोध सीख लेगा। अगर हम एक बच्चे को गणित न सिखाएं, तो दुनिया में कोई उपाय नहीं है कि वह गणित सीख ले। लेकिन सेक्स या कामवासना सिखाने के लिए किसी विद्यापीठ की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसे जंगल में डाल दो, खड्ड में, वहां भी वह सीख लेगा। सीख लेने का सवाल नहीं है; वह भीतर से आएगा। तो इसका मतलब यह हुआ कि जीवन में जो चीज भी भीतर से आती है, उसी के मामले में अड़चन में पड़ते हैं आप। जो भीतर से नहीं आती, बाहर की है, उसमें अड़चन में नहीं पड़ते। आप कोई भी भाषा सीख लेते हैं। वह ऊपर का काम है, भीतर का मन उसके विरोध में नहीं है। चल जाता है। तो स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय आपको जो शिक्षा देते हैं, मन का ऊपरी हिस्सा ट्रेंड कर देते हैं वे। कठिनाई तब शुरू होती है, जब आप जिंदगी को भीतर से बदलना चाहते हैं, तब भी इसी ऊपरी हिस्से का उपयोग करते हैं। बस वहीं अड़
चन हो जाती है। सोचते हैं, क्रोध न करूं। यह आप उसी हिस्से से सीखते हैं, जिससे गणित सीखा था। यह क्रोध का मामला बहुत दूसरा है, गणित का मामला बहुत दूसरा है। गणित आदमी की ईजाद है, क्रोध अगर किसी की ईजाद है तो वह प्रकृति की है, आदमी की नहीं। इसी से हम समझ का काम लाते हैं, तब अड़चन हो जाती है और काम नहीं होता। अब उस भीतर तक समझ को ले जाना हो, तो उसकी प्रक्रिया है। प्रक्रिया का अर्थ यह हुआ कि आपको यह समझ भी कैसे मिली है ? यह भी एक प्रशिक्षण है आपको। यह आपको एक बीस-पच्चीस साल के प्रशिक्षण के द्वारा यह संभव हुआ है कि दो और दो चार होते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अचानक अपने रास्तों पर देखा गया कि बहुत शानदार कपड़े पहने हुए है, हाथ में हीरे की अंगूठी लगाई हुई है। लोग चकित हुए। लोगों ने घेर लिया कि मुल्ला, क्या हुआ ? उसने कहा कि एक लाटरी हाथ लग गई। पर कैसे लगी? मुल्ला ने कहा कि तीन रात तक लगातार सपना देखा, जिसमें मुझे सात का आंकड़ा दिखाई पड़ता था। तीन रात! तो मैंने सोचा, सात तिया अट्ठाइस। मैंने नंबर लगा दिया। पर लोगों ने कहा, अरे मुल्ला, क्या कह रहे हो, सात तिया अट्ठाइस! सात तिया इक्कीस होते हैं। मुल्ला ने कहा, होते होंगे, लेकिन लाटरी अट्ठाइस पर मिली। यानी इससे कोई... लाटरी मिल गई अट्ठाइस पर। दो और दो चार की भी ट्रेनिंग है। दो और दो चार ऐसी कोई बात नहीं है कि आपके भीतर से आ गई है। उसकी ट्रेनिंग है। सीखना पड़ता है, सीख कर हल हो जाता है। अब यह जो अंतरस्थ मन है, इस तक समझ को पहुंचाने के लिए भी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़े। लाओत्से ने जब ये बातें कही हैं, तब आदमी बहुत सरल था। अब बहुत से फर्क पड़ गए हैं, जो मैं आपको खयाल दिला दूं, जिससे अड़चन है। लाओत्से ने जब ये बातें कही हैं, आदमी बहुत सरल था
। उसकी इंटलेक्चुअल ट्रेनिंग नहीं थी, उसकी कोई बौद्धिक पर्त नहीं थी। लाओत्से बोल रहा था गांव के ग्रामीण जनों से। वे सीधे-सादे लोग थे। उनके पास कोई बौद्धिक खजाना नहीं था। प्रकृति के सीधे करीब थे, निर्दोष थे। लाओत्से उनसे बोल रहा था। लाओत्से अगर आपसे बोले, तो सबसे पहला सवाल यही होगा, जो विजय ने पूछा है। यही सवाल होगा कि समझ में तो हमारे आपकी बात आ गई... । लाओत्से जिनसे बोल रहा था, वे यह सवाल कभी नहीं उठाए । लाओत्से और च्वांगत्से के हजारों संस्मरणों में यह सवाल एक आदमी ने नहीं उठाया है कि हमारी समझ में तो आ गया, लेकिन जिंदगी नहीं बदलती। हां, यह सवाल बहुत लोगों ने उठाया है कि हमारी समझ में नहीं आता। समझाएं! फर्क समझ रहे हैं? यह सवाल उठाते हैं बहुत लोग कि हमारी समझ में नहीं आया, आप फिर से समझा दें! तो लाओत्से फिर से समझाएगा। एक बार ऐसा हुआ कि एक आदमी रोज सुबह आया, इक्कीस दिन तक आया । और रोज सुबह आकर वह कहता लाओत्से से कि तुमने जो कहा था, वह मैं भूल गया । तुमने जो कल कहा था, फिर से समझा दो । एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन। फिर लाओत्से के एक शिष्य मातसु को हैरानी हुई। उसने उस आदमी को जब पांचवें दिन फिर आते देखा, तो उसने उसको झोपड़े के बाहर रोका और कहा कि क्या मामला है? उसने कहा, वह मैं भूल गया । वह जो कल समझाया था, मैं फिर समझने आया हूं। तो उसने कहा, तू भाग जा, अब तू भीतर मत जा। क्योंकि एक पागल तू है, और दूसरा पागल हमारे पास लाओत्से है। तू अगर जिंदगी भर भी आता रहा, तो वह समझाता रहेगा। पांच दिन से, चार दिन से मैं भी देख रहा हूं कि तू वही का वही सवाल ले आता है और वह वही का वही सवाल समझाने बैठ जाता है। जब यह बात ही चल रही थी मातसु के साथ, तभी लाओत्से बाहर आ गया। और उसने कहा, आ गया भाई! अंदर आ जा। भूल गया, फिर से सुन ले! वह इक्कीस दिन रोज आ रहा है। बाईसवें दिन नहीं आया। तो कहानी कहती है कि लाओत्से उसके घर पहुंच गया। कहा, क्या तबीयत खराब है? क्या हुआ? उस आदमी ने कहा, समझ में आ गया। और कुछ ? उसने कहा कि कुछ नहीं; मैं दूसरा आदमी हो गया। लेकिन फर्क आप समझ रहे हैं? अगर हम इक्कीस दफा जाते लाओत्से के घर पर, तो हम समझने न जाते। हम कहते, समझ में तो पहले दिन ही आ गया, जिंदगी नहीं बदली। वह आदमी यह कहता ही नहीं है कि जिंदगी नहीं बदली। क्योंकि वह आदमी यह कहता है कि आप कहते हो, समझ में आ जाएगा तो जिंदगी बदल ही जाएगी, वह बात खतम हो गई। अब समझ में ही आ जाए । बुद्ध जब भी बोलते थे- तो अभी जब बुद्ध के ग्रंथों को संपादित किया गया है, तो बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि बुद्ध एक-एक पंक्ति को तीन बार से कम दोहराते नहीं थे। तीन बार कहेंगे। अब तीन बार छापो, तो नाहक तीन गुनी किताब हो जाती है। और पढ़ने वाले को भी कठिनाई होती है। तो राहुल सांकृत्यायन ने जब पहली दफा हिंदी में विनय पिटक का पूरा संग्रह किया, तो हर पंक्ति के बाद निशान लगाए उन्होंने। और निशान बाहर सूची बना दी, फिर से वही, उसका निशान है; फ
िर से वही, उसका निशान है; फिर से वही, डिट्टो। पूरी किताब निशान से भरी हुई है। क्या बात क्या थी? बुद्ध क्यों इतना दोहरा रहे हैं? अगर समझाना हो, तो तर्क देना पड़ता है। और अगर भीतर तक पहुंचाना हो, तो उस पुराने जमाने में लोग इतने सरल थे कि उसे केवल बार-बार दोहराने से वह मंत्र बन जाता, वह सजेस्टेबल हो जाता, और भीतर प्रवेश कर जाता था। सिर्फ बार-बार दोहराना काफी था। जितनी बार दोहराया जाए, उतना भीतर प्रवेश करने लगता है। लेकिन बुद्धि तो एक ही दफे में समझ जाती है, इसलिए दुबारा दोहराने की जरूरत नहीं रह जाती। अगर दुबारा दुहराओ, तो वह आदमी कहेगा, आप क्यों हमारा समय जाया कर रहे हैं! समझ गए, अब दूसरी बात करिए। आज भी जो लोग अनकांशस माइंड के साथ काम करते हैं, वे सिवाय दोहराने के और कुछ नहीं करते। जैसे कि अभी पेरिस वर्षों पहले एमाइल कुए नाम का एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था, जिसने लाखों लोगों को ठीक किया। पर वह एक ही बात दोहराता था कि तुम बीमार नहीं हो! अब वह घंटे भर लिटाए है उस आदमी को और दोहरा रहा है कि तुम बीमार नहीं हो! तुम बीमार नहीं हो ! वह आदमी कह सकता है कि समझ गए एक दफा, अब इसको बार-बार कहने का क्या प्रयोजन है? पर एमाइल कुए कहता है कि तुमसे मुझे मतलब नहीं है। तुम तो समझ गए, तुम तो पहले ही समझ रहे हो। तुम्हारे जो भीतर, गहरे और गहरे में, वहां तक! वह दोहराए चला जाएगा। थोड़ी देर में यह ऊपर की जो बुद्धि है - जो यह ऊपर की बुद्धि है, यह नए में रस लेती है, पुराने में रस नहीं लेती-र - यह थोड़ी देर में कहेगी कि ठीक है, सुन लिया, सुन लिया, सुन लिया। यह सो जाएगी। हिप्नोसिस का कुल इतना ही मतलब है; यह सो जाएगी। यह ऊपर की जो बुद्धि है, ऊब जाएगी। यह परेशान हो जाएगी कि क्या कहे चले जा रहे हो कि तुम बीमा
र नहीं हो ! यह थोड़ी देर में सो जाएगी। लेकिन कुए कहता चला जाएगा। और जब यह सो जाएगी, तो इसके पीछे की जो पर्त है, वह सुनने लगेगी। थोड़ी देर में वह भी ऊब जाएगी, वह भी सो जाएगी। तो उसके पीछे की जो पर्त है, वह सुनने लगेगी। और यह कुए दोहराए चला जाएगा। यह तब तक दोहराए चला जाएगा, जब तक आपके भीतरी केंद्र तक यह खबर न पहुंचा दे कि तुम बीमार नहीं हो। और अगर यह भीतरी केंद्र तक खबर पहुंच जाए, वह केंद्र अगर मान ले कि मैं बीमार नहीं हूं, तो बीमारी समाप्त हो गई। अब इसके लिए मंत्रों का ध्यान का, तंत्र का, न मालूम कितना- कितना आयोजन करना पड़ा ! बाद में करना पड़ा, जब कि लोग ज्यादा सोफिस्टीकेटेड हो गए। लाओत्से के वक्त में कोई जरूरत न थी। लाओत्से के वक्त तक कोई जरूरत न थी। लोग सरल थे। और उनके अंतरस्थ मन का द्वार इतना खुला था और बुद्धि का कोई पहरेदार न था कि कोई भी बात लाओत्से जैसा आदमी कहता, तो वह भीतर प्रवेश कर जाती । इस सब का इंतजाम था। लाओत्से के पास जाता ही कोई तब था, जब वह श्रद्धा करने को राजी हो । लाओत्से के पास अगर कोई जाता और तर्क करने को उत्सुक होता, तो लाओत्से कहता कि अभी तू फलां गुरु के पास जा, थोड़े दिन वहां रह ! अभी मैं एक सूफी फकीर का जीवन पढ़ता था। अजनबी, एक सूफी फकीर था। गांव का एक बहुत बड़ा पंडित, एक बड़ा व्याकरण का ज्ञाता अजनबी को सुनने आया, तो उसने देखा कि वह व्याकरण वगैरह जानता नहीं, ठीक से भाषा उसे आती नहीं। उस पंडित ने कहा कि पहले तो लोगों को, जिनको आप समझा रहे हैं, ठीक से भाषा समझाइए, व्याकरण समझाइए । प्रारंभ से ही प्रारंभ करिए। यह आप क्या कर रहे हैं? आप इतनी ऊंची बातें कर रहे हैं! लेकिन न भाषा का ठिकाना, न व्याकरण का । तो उस सूफी फकीर ने कहा कि तू रुक जा यहां । उस फकीर के चमत्कारों की बड़ी कथाएं थीं। वह पंडित रुक गया। सूफी ने उससे कहा कि बाहर झोपड़े के जो कुत्ते और बिल्लियां सांझ को इकट्ठे होते हैं, तू उनको व्याकरण सिखाना शुरू कर दे। उसे लगा तो कि यह पागलपन की बात है; लेकिन यह फकीर कह रहा है। और यह चमत्कारी है, शायद कोई राज होगा। शायद ये कुत्ते और बिल्लियां साधारण न हों, कुछ खूबी के हों। या फिर इसका कोई मतलब होगा। शायद इन्हें सिखाते-सिखाते मुझे कुछ सीखने को मिल जाए। बात तो कुछ होगी ही, रहस्य इसमें कुछ होगा ही। उसने बेचारे ने सिखाना शुरू कर दिया। सरल से सरल पाठ सिखाता था, लेकिन कुत्ते-बिल्ली थे कि नहीं सीखते थे। छह महीने बीत गए, वह भी थक गया। फकीर कई बार पूछा कि कोई प्रगति? कोई प्रगति तो नहीं हो रही है। फकीर ने कहा, बिलकुल प्रारंभ से ही प्रारंभ किया है न ? बिलकुल प्रारंभ से ही प्रारंभ किया है! इससे और आगे प्रारंभ भी नहीं होता कुछ। कुछ भी सिखा पाए? उसने कहा कि एक कदम ही नहीं उठ रहा आगे। उस फकीर ने कहा, क्या, कठिनाई क्या है? उस पंडित ने कहा, वे भाषा ही नहीं जानते हैं, बोलना ही नहीं जानते। बोलना जानते हों, तो मैं व्याकरण भी सिखा दूं। वह फकीर कहने लगा कि मैं
जिस दुनिया की बातें कर रहा हूं, तुझे उस दुनिया की न भाषा का पता है और न व्याकरण का पता है। तुझे उसका पता हो, तो मैं भी शुरू कर सकता हूं। तेरे साथ भी शुरू कर सकता हूं। पुराने युगों में यह नियमित व्यवस्था थी कि गुरु अगर देखता कि कोई तर्क करने आ गया, तो उसे उस जगह भेज देता, जहां तर्क ही चलता था। ताकि वह तर्क से थक जाए, परेशान हो जाए। और इतना ऊब जाए कि एक दिन आकर वह कहे कि तर्क बहुत कर लिया, कुछ मिला नहीं; अब कोई ऐसी बात कहें, जिससे कुछ हो जाए। तब लाओत्से जैसे आदमी बोलते हैं । एक सूफी फकीर के बाबत... । दो फकीर सामने रहते हैं। एक फकीर का शिष्य है, वह अपने गुरु को आकर कहता है कि सामने वाला जो सूफी है, यह आपके बाबत बहुत गलत-सलत बातें प्रचारित करता है। यह कुछ गंदी-गंदी बातें भी आपके संबंध में गढ़ता है, अफवाहें उड़ाता है। आप इसे ठीक क्यों नहीं कर देते? कुछ बोलते क्यों नहीं? तो उस फकीर ने कहा, तू ऐसा कर, तू उसी से जाकर पूछ कि राज क्या है! पर ऐसे जल्दी मत पूछना, क्योंकि कीमती बातें अजनबियों को नहीं बताई जाती हैं। और राहगीर चलते आकर कुछ पूछ लें, तो उनको उत्तर जो दिए जाते हैं, वे रास्ते की ही कीमत के होते हैं। तो उसने कहा, मैं क्या करूं? कहा कि साल भर उसकी सेवा कर; निकट पहुंच। और जब आंतरिकता बन जाए, तब किसी दिन क्षण का खयाल रख कर, समय का बोध रख कर, अवसर खोज कर उससे पूछना। तो साल भर उसने सेवा की। बहुत निकटस्थ हो गया, आत्मीय हो गया। एक दिन पैर दाब रहा था रात, तब उसने अपने गुरु को पूछा कि आप गालियां देते हैं, सामने वाले गुरु के खिलाफ सब कुछ कहते हैं, इसका राज क्या है? तो उसने कहा, तू पूछता है, किसी को बताना मत। मैं उसका शिष्य हूं। और राज बताने की मनाही है, तू जाकर उसी से पूछ ले। पर ये बातें
अजनबियों को नहीं बताई जाती हैं, राह चलतों को नहीं बताई जाती हैं। जरा निकट हो जाना। उसने कहा, अच्छी मुसीबत में पड़े! हम तुम्हें दुश्मन समझ कर साल भर मेहनत किए, तुम शिष्य निकले! उसके ही शिष्य हो! वहीं वापस जाना पड़ेगा। दो साल गुरु की पुनः सेवा की लौट कर। एक क्षण सुबह स्नान कराते वक्त-कोई नहीं था, गुरु को वह स्नान करा रहा था-पूछा कि आज मुझे बता दें, यह राज क्या है? तो उसके गुरु ने कहा कि वह मेरा ही शिष्य है । और उसे वहां इसलिए रख छोड़ा है कि वह मेरे संबंध में गलत बातें उड़ाता रहे। जिनको उन गलत बातों पर भरोसा आ जाए, वे ताकि मेरे पास न आ सकें, वे गलत लोग हैं। उनके साथ मेरा समय नष्ट न हो। मेरा समय कीमती है। मैं उन्हीं पर खर्च करना चाहता हूं, जो सत्य की तलाश आए हैं। और जो अफवाहों से लौट सकते हैं, उनकी कोई तलाश नहीं है। वह आदमी अपना है। और उसने इतनी सेवा की है मेरी इन बीस वर्षों में, जिसका हिसाब नहीं है। सैकड़ों फिजूल के लोगों से उसने मुझे बचाया है। यह नियमित व्यवस्था थी। और जब कोई श्रद्धा से भर जाए - श्रद्धा से भरने का अर्थ है, जब कोई हृदय को सीधा खोलने को तैयार है। अभी साइकोलॉजिस्ट या साइकोएनालिस्ट क्या कर रहे हैं? वे इतना ही कर रहे हैं। एक मरीज पर तीन साल तक साइकोएनालिसिस चलती है। कोच पर लिटाया है मरीज को; घंटों, हजारों घंटों, उससे चर्चा होती है। मरीज कहता जाता है, चिकित्सक सुनता जाता है। किसलिए? वह सिर्फ इसलिए कि कहते-कहते, कहते-कहते मरीज, बुद्धि की ऊपरी बातें थोड़े दिन में चुक जाएंगी, तब वह भीतर की बातें कहना शुरू कर देता है। फिर वे भी चुक जाती हैं, तो और आंतरिक बातें कहने लगता है। ओपनिंग हो जाती है। वर्ष भर निरंतर चिकित्सक के पास कहते-कहते, कहते-कहते वह आंतरिक चीजों को बाहर निकालने लगता है। और जब चिकित्सक देखता है कि अब वे चीजें बाहर निकलने लगीं जो बहुत गहरी हैं, तब वक्त आया, यह आदमी सजेस्टेबल हुआ, इसको अब कोई सुझाव डाला जा सकता है। अब इसके भीतर का दरवाजा खुल गया, अब इसके भीतर कोई बीज डाल दिया जाए, तो वृक्ष बन जाएगा। समझ का अर्थ है, आपके भीतरी तल तक पहुंच जाए कोई बात। लेकिन तर्क कभी न पहुंचने देगा। और हम तर्क से ही समझना चाहते हैं। और तर्क ही उपद्रव है; वही पहरेदार है। वह कहता है, पहले मुझे समझाओ । अगर मुझे समझाओ, तो मैं मालिक से मिला दूं। और अगर मुझे ही नहीं समझा पाते हो, तो मैं मालिक से क्या मिलाऊं? और फिर कठिनाई यह है कि जब वह समझ जाता है, तो वह समझता है, समझ गए, मालिक हो गए। फिर वह देखता है, समझ तो हो गई, लेकिन कुछ हल नहीं होता। क्योंकि कोई, जिसको हम बुद्धि कहते हैं, उसके पास कोई भी शक्ति नहीं है। जिसको हम कहें कोई फोर्स टु एक्ट, बुद्धि के पास नहीं है। और फोर्स टु एक्ट जो है, शक्ति काम करने की, वह बुद्धि के पीछे किसी और छिपे तल में है। इसलिए यह व्यवधान पड़ता है। तो अगर उस तक पहुंचना है, तो फिर अगर नहीं पहुंचता सीधा- किसी को पहुंच जाता हो, तब तो कोई सवाल
नहीं - अगर नहीं पहुंचता सीधा, तो पहले इस बुद्धि के पहरे को तोड़ने के लिए उपाय करने पड़ते हैं। कुछ ध्यान करना पड़े; इस बुद्धि के पहरे को तोड़ना पड़े। और ध्यान की कोई ऐसी प्रक्रिया उपयोग में लानी पड़े, जो आपको निर्बुद्धि बना दे, इररेशनल बना दे। जैसे मैं जो ध्यान का प्रयोग करता हूं, वह बिलकुल बुद्धिहीन है। तो बुद्धिमान उसको देख कर ही भाग जाएगा। वह कहेगा, यह क्या हो रहा है कि लोग नाच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, कूद रहे हैं। पागल हैं! लेकिन जो आदमी नाच रहा है, कूद रहा है, वह बुद्धि के तल से नीचे उतर गया। क्योंकि बुद्धि तो सेंसस का काम करती है। वह कहती है, क्यों हंस रहे हो? अभी कोई हंसने की बात ही नहीं। पहले हंसने की बात तो होने दो, फिर हंसना । कहती है, क्यों रो रहे हो? अभी कोई रोने की बात ही नहीं। क्यों कूद रहे हो? कोई जमीन में आंच लगी है, आग लगी है कि तुम कूद रहे हो! ये क्यों घूंसे तान रहे हो हवा में ? पहले किसी को गाली देने दो, फिर घूंसा उठाना। बुद्धि पूरे समय यह कह रही है कि जो तुम कर रहे हो, वह तर्कयुक्त हो। लेकिन जिंदगी में कभी भी कुछ तर्कयुक्त किया है? जब किसी से प्रेम हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी? और जब किसी से क्रोध हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी ? और जब किसी को मारने का मन हो जाएगा या मरने का मन हो जाएगा, तब बुद्धि कहां होगी? तो जिंदगी की जहां असली जरूरतें हैं, वहां तो बुद्धि होगी नहीं। और उन गहरे बिंदुओं तक आप कभी उतर न पाएंगे, बुद्धि की बात मान कर चलेंगे तो। ध्यान के सब प्रयोग आपकी बुद्धि की पर्त को तोड़ने के प्रयोग हैं! वह आपकी एक दफा पर्त टूट जाए, तो आप एकदम सरल हो जाते हैं। और जब आप सरल हो जाते हैं, तो आपके पास एक अंतर्दृष्टि होती है, जहां से चीजें साफ दिखाई पड़ती हैं।
तब यह सवाल कभी नहीं उठता कि मेरी समझ में आ गया और क्रांति नहीं हुई। समझ में आ जाना ही क्रांति है। टु नो इज़ टु बी ट्रांसफार्ल्ड। नालेज इज़ ट्रांसफार्मेशन। यह सवाल फिर नहीं उठता। लेकिन यह उठता है। और मैं यह नहीं कहता कि गलत उठता है। हम जैसे हैं आज, उसमें यह सवाल उठेगा। हम दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। जिस हिस्से से समझते हैं, उसका कोई संबंध नहीं है उस हिस्से से, जिससे करते हैं। करने का हिस्सा अलग, समझने का हिस्सा अलग। घर डिवाइडेड है, दो टुकड़ों में बंटा हुआ है। जिसके हाथ में ताकत है करने की, वह समझने नहीं आता; जिसके हाथ में करने की कोई ताकत नहीं है, वह समझने आता है। इन दोनों के बीच कभी कोई मेल नहीं होता। अब इसमें क्या किया जाए ? इसमें एक ही उपाय है कि आप इस समझने की जो पर्त है, इसको तोड़ कर थोड़ा नासमझी की दुनिया में उतरें; और थोड़ा नासमझ होकर देखें। तो आपके इन दोनों विभाजनों के बीच की दीवार धीरे-धीरे गिरेगी और आप दोनों में आना-जाना आपका शुरू हो जाएगा। और तब आप इंटिग्रेटेड होंगे, इकट्ठे होंगे, एक होंगे। और वह जो एक आदमी है, वह जो भी समझ लेता है, वही उसकी जिंदगी में फलित हो जाता है। हम दो हैं। और इसलिए हमारा जो सवाल है, वह जिंदगी - जिंदगी तक उलझता चला जाता है। और हर जिंदगी के बाद ज्यादा उलझ जाएगा, , क्योंकि विभाजन बढ़ता ही चला जाता है। इस विभाजन को कहीं से तोड़ें। पिछले आबू के शिविर में एक मित्र - पढ़े-लिखे, बड़े सरकारी एक पद पर - वे देखने आए थे। दो दिन तो वे देख रहे थे। मुझ से आकर कहा कि यह तो मैं न कर पाऊंगा। यह जो लोग कर रहे हैं, यह मैं न कर पाऊंगा। तो मैंने कहा कि यह आप कैसे कहते हैं कि न कर पाएंगे? करके देख कर कह रहे हैं, बिना करे कह रहे हैं? या सिर्फ इस भय से कह रहे हैं कि भीतर डर है कि हो तो यह भी मुझसे जाएगा? किस वजह से कह रहे हैं?
एक ओर, मसीह के सार को जानकर तुम देहधारी मसीह को भ्रष्ट मानवता से अलग कर पाओगे और देहधारी परमेश्वर को व्यावहारिक परमेश्वर मानकर उसकी आज्ञा का पालन करोगे। दूसरी ओर, तुम्हें देहधारी परमेश्वर के वास्तविक कार्य, सत्य के बारे में उसकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति, और मानवता के बीच उसके वास्तविक रहन-सहन को भी देखना चाहिए। तुम्हें देखना चाहिए कि वह कैसे मानवजाति को शुद्ध करता और बचाता है; कैसे वह कोई नबी, प्रेरित या भविष्यवक्ता या परमेश्वर द्वारा भेजा गया कोई मामूली व्यक्ति नहीं, बल्कि देहधारी परमेश्वर, मसीह और स्वयं परमेश्वर है। हालांकि यह देह मानवता से जुड़ा है, फिर भी वह दिव्यता के सार वाला एक साधारण व्यक्ति है। देहधारी परमेश्वर की दिव्यता के इस सार को जानना सबसे महत्वपूर्ण है, कम-से-कम तुम जिन तथ्यों को समझ सकते हो उनका इस्तेमाल करके तुम्हें मसीह के दिव्य सार को साबित करना चाहिए। मसीह के दिव्य सार को जानने के लिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, उसके कार्य का अनुभव करना, और उसके स्वभाव को जानना चाहिए। देहधारी परमेश्वर के सार को जानने का प्रभाव लोगों को यह पक्का करने में सक्षम बनाता है कि परमेश्वर ने वास्तव में देहधारण किया है और यह देह वास्तव में परमेश्वर ही है। यही एकमात्र तरीका है जिससे लोग परमेश्वर में सच्चा विश्वास कर सकते हैं, सच्ची आज्ञाकारिता और सच्चा प्रेम प्राप्त कर सकते हैं, और केवल जब यह प्रभाव प्राप्त हो जाता है तभी तुम यह साबित कर सकते हो कि तुम्हें परमेश्वर के सार की समझ है। आज, लोगों को मसीह के बारे में कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है। वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और उसे सत्य और पवित्र आत्मा की अभिव्यक्ति मान लेते हैं मगर देह को बिल्कुल नहीं स्वीकारते। वे नहीं जानते कि देह का मूल क्या है या देह और आत्मा का एक दूसरे से कैसा संबंध हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि देह वचन व्यक्त करने के लिए है, उसका उपयोग बोलने और कार्य करने के लिए किया जाता है और यही उसकी सेवकाई है। उनका मानना है कि देह तभी बोलता है जब वह प्रेरित होता है और उसका कार्य तभी पूरा होता है जब वह पूरा करता है, मानो वह कोई संदेशवाहक हो। अगर कोई इस पर विश्वास करता है, तो वह जिसे पहचानता और जिसमें विश्वास करता है वह देहधारी परमेश्वर या मसीह नहीं है, बल्कि केवल नबी के समान कोई व्यक्ति है। कुछ लोग यह भी सोचते हैं, "मसीह एक व्यक्ति है, और चाहे उसके देहधारण का सार जो भी हो या वह परमेश्वर के जिस भी स्वभाव को व्यक्त करता हो, वह स्वर्ग के परमेश्वर या ब्रह्मांड और सभी चीजों पर शासन करने वाले सृष्टिकर्ता का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। क्योंकि वह देहधारी परमेश्वर और सृष्टिकर्ता है जो पृथ्वी पर आया है, तो फिर उसने कोई अलौकिक चमत्कार क्यों नहीं किया है? अगर उसके पास अधिकार है तो वह बड़े लाल अजगर को नष्ट क्यों नहीं कर देता?" जो लोग ऐसी बातें करते हैं वे सभी आध्यात्मिक रूप से अज्ञानी हैं। वे परमेश
्वर के देह धारण करने का अर्थ नहीं समझते, तो देह में परमेश्वर के कार्य के प्रबंधन के दायरे, उसके उद्धार के पात्र कौन लोग हैं, वह क्या व्यक्त करता है या लोगों को क्या जानना चाहिए, यह सब जानना तो दूर की बातें हैं। देहधारी परमेश्वर का सार परमेश्वर का सार है, और वह परमेश्वर की ओर से सब कुछ कर सकता है। वह स्वयं परमेश्वर है, और वह जो करना चाहता है कर सकता है। हालांकि, इस बार परमेश्वर का देहधारण करना उसके प्रबंधन के दायरे में आने वाले कार्य का अंतिम चरण है, और इसका सभी चीजों पर शासन करने या राष्ट्रों पर शासन करने से कोई लेना-देना नहीं है। इसमें यह सब बिल्कुल भी शामिल नहीं है। इसलिए, तुम्हें यह जानना आवश्यक है कि कार्य के इस चरण के दौरान लोग किस चीज का सामना करेंगे और क्या समझ पाएँगे, कार्य के इस चरण का सार क्या है, मसीह के पास क्या है और वह क्या है, और उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति क्या है। क्या मसीह परमेश्वर के सार को व्यक्त करता है? क्या यह परमेश्वर का स्वभाव है? बेशक है। लेकिन क्या यही सब कुछ है? मैं तुम लोगों को अभी बता रहा हूँ, यही सब कुछ नहीं हैं। यह केवल एक छोटा-सा और सीमित हिस्सा है, केवल वही जिसे लोग खुली आँखों से देख सकते हैं, जिसे वे छू सकते हैं, और जिसे वे अपने दिमाग से समझ सकते हैं, जब परमेश्वर ने देह धारण किया है। यही सब कुछ नहीं है, और यह केवल परमेश्वर की योजना के अंतर्गत किया जाने वाला कार्य है। देहधारी परमेश्वर के बारे में सबसे स्पष्ट रूप से कैसे समझाया जा सकता है? सरल शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ है परमेश्वर का पृथ्वी पर रूप धारण करना, यह परमेश्वर के आत्मा का एक साधारण व्यक्ति के रूप में देहधारण करना है। अगर परमेश्वर के आत्मा ने देहधारण किया है, तो क्या वह अभी कहीं और
भी मौजूद है? हाँ। परमेश्वर ब्रह्मांड और सभी चीजों पर शासन करता है, और पूरे ब्रह्मांड पर एक ही परमेश्वर शासन करता है। वह सर्वशक्तिमान है, और वह अब देहधारण करके पृथ्वी पर आ गया है। वह वैसा नहीं है जैसी लोग उसकी कल्पना करते हैं, ऐसा नहीं है कि वह देहधारण करके केवल पृथ्वी पर ही कार्य करता है और दूसरी जगह की उसे कोई परवाह नहीं है। मैंने एक बार एक बहन से पूछा था, "क्योंकि परमेश्वर देहधारण करके पृथ्वी पर आ गया है, तो क्या अब भी स्वर्ग में कोई परमेश्वर मौजूद है?" उसने एक मिनट के लिए सोचा और कहा, "परमेश्वर केवल एक ही है और अब वह पृथ्वी पर आ गया है, तो अब स्वर्ग में कोई परमेश्वर नहीं है।" यह भी गलत है। परमेश्वर ब्रह्मांड और सभी चीजों पर शासन करता है और परमेश्वर आत्मा है, वह यहाँ पृथ्वी पर है लेकिन फिर भी स्वर्ग में सभी चीजों पर शासन करता है और पृथ्वी पर अपना कार्य करता है। मैंने फिर पूछा, "क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर का आत्मा भी कभी-कभी चला जाता है?" उसने एक पल सोचा और कहा, "शायद उसे जाना होता होगा और कभी-कभी देह को कुछ भी पता नहीं रहता होगा। जब देह सामान्य रूप से रहता है तो आत्मा चला जाता है, और जब उसे बोलना होता है तो वह वापस आ जाता है। हो सकता है कि देह के नींद में रहने के दौरान आत्मा अन्य कार्य करता हो, लेकिन जब देह जागता है, तो वह वापस आकर देह में बोलता और कार्य करता है। अगर करने के लिए कोई कार्य न हो, तो हो सकता है कि देह केवल सामान्य मानवीय व्यवहारों और कार्यों में व्यस्त रहे।" बहुत से लोग ऐसा ही सोचते हैं। कुछ अन्य लोग चिंता करते हैं, "मुझे नहीं पता कि परमेश्वर का पैसा कैसे बाँटा गया है, क्या यह किसी और को दिया गया होगा?" इंसान का मन बहुत जटिल होता है। गलत इरादे वाले लोग सत्य का अनुसरण करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? संक्षेप में, न तो परमेश्वर के देहधारण करने के सार को जानना और न ही उसके स्वभाव को जानना, परमेश्वर को जानने में बहुत आसान कार्य हैं। देह में परमेश्वर के कार्य के दौरान, जो कुछ भी तुम अनुभव कर सकते हो और जिसका भी तुम सामना कर सकते हो, तुम्हें वही जानना चाहिए, और उन चीजों के बारे में अनुमान नहीं लगाना चाहिए जिनके साथ तुम्हारा संपर्क में नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, "परमेश्वर के देह के चले जाने के बाद, परमेश्वर किस रूप में प्रकट होकर फिर से अपना कार्य करेगा? क्या वह अब भी पृथ्वी पर हमसे मिलने आएगा?" आज ज्यादातर लोग इन बाहरी चीजों पर ध्यान देते हैं, जिनमें मसीह का सार बिल्कुल भी शामिल नहीं है; उन्हें समझना वास्तव में निरर्थक है। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें तुम्हें समझने की आवश्यकता नहीं होती, समय आने पर जब जरूरत होगी तुम उन्हें समझ जाओगे। इन चीजों को समझने, न समझने से कोई फर्क नहीं पड़ता, इनका देहधारी परमेश्वर में लोगों की आस्था, मसीह में विश्वास, या मसीह का अनुसरण करने पर जरा-सा भी प्रभाव नहीं पड़ता है। लोगों के सत्य का अनुसरण करने या अप
ने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने पर भी उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और अगर तुम उन बातों को जान भी जाओ तो भी इससे तुम्हारी आस्था बढ़ेगी नहीं। अतीत में नबियों ने संकेत और चमत्कार दिखाए थे, इससे लोगों को क्या हासिल हुआ? यह सब इसलिए दिखाए गए थे ताकि लोग परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकारें। वे नबी परमेश्वर नहीं हैं, चाहे उन्होंने कितने भी चमत्कार दिखाए हों, क्योंकि उन नबियों के पास परमेश्वर का सार नहीं था। चमत्कार दिखाए बिना भी देहधारी परमेश्वर परमेश्वर है, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार है। वह संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह उन्हें नहीं दिखा सकता। उसके वचनों से जो कुछ हासिल होता है वह संकेत और चमत्कार दिखाने से कहीं अधिक सर्वशक्तिमान है; यह और भी बड़ा चमत्कार है। परमेश्वर के सार और स्वभाव को जानने की कोशिश करना बहुत महत्वपूर्ण है; यह तुम लोगों के जीवन में प्रवेश के लिए बहुत फायदेमंद है, और यह परमेश्वर में आस्था का सही मार्ग है। तुम लोगों को पता होना चाहिए कि जब परमेश्वर देह में कार्य करता है, तभी लोग परमेश्वर के पास जो है या जो वह स्वयं है, उसके सार और उसके स्वभाव के अधिकांश अंश को देख सकते हैं। यह परमेश्वर को जानने का सबसे सही अवसर है। परमेश्वर के कार्यों और उसके स्वभाव को जानना, जिसके बारे में लोगों ने अतीत में बात की थी - इसे हासिल कर पाना कठिन था, क्योंकि उनकी परमेश्वर तक पहुँच नहीं थी। उस समय जब मूसा ने यहोवा को अपने सामने प्रकट होते देखा, तो उसने यहोवा के किए कुछ ही कार्य देखे। उसके पास परमेश्वर के बारे में कितना व्यावहारिक ज्ञान था? क्या यह आज के लोगों के ज्ञान से ज्यादा था? क्या लोग आज जितना जानते हैं यह उससे ज्यादा व्यावहारिक था? बिल्कुल
नहीं। परमेश्वर ने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपने कई कार्यों का खुलासा किया। बहुत-से लोगों ने यहोवा को संकेत देते और चमत्कार करते हुए देखा, और कुछ लोगों ने यहोवा के पीछे से उसकी छाया-आकृति भी देखी। कई लोगों ने देवदूतों को भी देखा। फिर भी अंत में कितने लोग परमेश्वर को जान पाए? बहुत कम! व्यावहारिक रूप से कोई भी ऐसा नहीं था जो सचमुच परमेश्वर को जानता हो। केवल अंत के दिनों के लोग ही परमेश्वर के बारे में अधिक जान सकते हैं, जब वे देह में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों को आमने-सामने बताता है कि वह क्या कार्य करता है, उसके कार्य का उद्देश्य क्या है, उसकी इच्छा क्या है, मानवता के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है, और शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवता की दशा और सार क्या है आदि। मनुष्य की भ्रष्टता का खुलासा करने वाले इन वचनों से ही लोग देख सकते हैं कि परमेश्वर सचमुच इतना व्यावहारिक और इतना वास्तविक है, वास्तव में मानवता को लेकर उसकी यही इच्छा है, और वास्तव में यही उसका स्वभाव है। उसके कार्य वास्तव में बहुत अद्भुत हैं, उसकी बुद्धि वास्तव में इतनी गहरी है, और मानवजाति के लिए उसकी दया वाकई इतनी वास्तविक है। परमेश्वर द्वारा बोले गए ये सभी वचन उसके कार्य, उसके प्रेम और स्वभाव, और उसके कार्यों की गवाही देते हैं। हम परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके इन बातों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। परमेश्वर के बोले वचन इतने व्यावहारिक और इतने वास्तविक हैं। लोग अनुभव करते हैं कि मानवता के लिए परमेश्वर का प्रेम और सहनशीलता वाकई अनंत है। लोगों को बचाने की परमेश्वर की इच्छा उसके कार्य और उसके बोले वचनों में पूरी होती है, और यह सब लोग अपने वास्तविक अनुभव में महसूस कर पाते हैं। इसलिए, देहधारण के सार के बारे में तुम्हारा ज्ञान देहधारण की अवधि से है। किसी और अवधि का कोई भी ज्ञान यहाँ व्यावहारिक नहीं है। इसलिए, परमेश्वर के देहधारण करने के सार के बारे में केवल देह में परमेश्वर के कार्य के दौरान ही जाना जा सकता है, और इस समय के बाहर तुम जो कुछ भी समझते हो वह व्यावहारिक नहीं है। जब परमेश्वर देह में अपना कार्य पूरा करके चला जाएगा, तब उसका कार्य तुम्हारे लिए उतना वास्तविक नहीं होगा जितना कि अभी है, जब तुम इसे अनुभव करने की कोशिश करते हो। ऐसा इसलिए क्योंकि आज तुम देह में परमेश्वर के कार्य को देख और स्पर्श कर सकते हो। परमेश्वर लगातार लोगों के साथ आमने-सामने अपना कार्य भी कर रहा है, और उन्होंने उसके बोलने और कार्य करने के तरीकों को व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। उस समय पतरस का अनुभव उतना वास्तविक नहीं था जितना आज तुम लोगों का है। पतरस ने यहूदिया में यीशु के कार्य के दौरान उसका अनुसरण किया और परमेश्वर की व्यावहारिकता और प्रेम का अनुभव किया, लेकिन तब उसका आध्यात्मिक कद छोटा था और उसने जो अनुभव किया वह सतही था। यीशु के जाने के बाद, पतरस ने ध्यान से सोचा और उसके वचनों को खाया-पी
या, और उसने अपनी समझ को गहरा करके और ज्ञान प्राप्त किया। यीशु ने अपने के कार्य के दौरान परमेश्वर के पास जो है या जो वह स्वयं है, उसकी प्रेममयी उदारता, उसकी दया, मानवता के लिए उसके उद्धार, और लोगों के लिए उसकी असीम सहनशीलता और अनुग्रह को भी व्यक्त किया। उस समय जिन लोगों ने उसका अनुसरण किया था वे इनमें से कुछ चीजों का अनुभव कर पाए थे, और जो लोग बाद में आए वे कभी उसे उतनी गहराई से अनुभव नहीं कर पाए जितना कि उस समय के लोगों ने किया था। साथ ही, जब लोग पवित्र आत्मा से प्रेरित होकर परमेश्वर की इच्छा को समझते हुए उससे प्रार्थना करते थे, तो उन दिनों उन्होंने जो अनुभव किया वह धुंधला और अस्पष्ट था। कभी-कभी इसे सटीक रूप से समझना कठिन होता था, और कोई भी यकीन से नहीं कह सकता था कि उनकी समझ सटीक है। इसलिए, जब पतरस को आखिर में गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया, तो कुछ लोगों ने यह भी पता लगाने की कोशिश की कि उसे कैसे बाहर निकाला जाए। वास्तव में, उस समय यीशु का इरादा पतरस को उसकी अंतिम गवाही के रूप में सूली पर चढ़ाने का था। उसकी यात्रा समाप्त हो गई थी, और परमेश्वर ने उसके लिए इस तरह से गवाही देने की व्यवस्था की, ताकि उसे एक अच्छी मंजिल मिले। पतरस ने यही मार्ग अपनाया। जब पतरस अपने मार्ग के अंत में आया, तब भी वह यीशु के सच्चे इरादे को नहीं समझ पाया। वह यीशु का आशय केवल तभी समझ पाया जब यीशु ने उसे इस बारे में बताया। इसलिए, यदि तुम परमेश्वर के सार को समझना चाहते हो, तो ऐसा करना सबसे अधिक लाभकारी परमेश्वर के देह में रहते हुए ही होगा। तुम गहराई से देख, सुन, स्पर्श और महसूस कर सकते हो। यदि तुम पवित्र आत्मा के कार्य को देह में परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के बाद अनुभव करने की कोशिश करोगे, तो यह पहले
जितना गहरा नहीं होगा, और तुम जो ज्ञान प्राप्त करोगे वह सतही होगा। उस समय वह केवल लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का ही शोधन कर पाएगा। एक बार शोधन किए जाने के बाद, लोग सत्य को थोड़ा और समझने में सक्षम होते हैं और अपने भीतर के भ्रष्ट स्वभाव को बदलते हुए, हासिल किए गए सत्य का उपयोग अपने जीवन की नींव के रूप में करते हैं। लेकिन चाहे तुम परमेश्वर से प्रेम करने और उसे जानने की कितनी भी कोशिश कर लो, तुम वास्तव में उतनी प्रगति नहीं कर पाओगे। मानव की प्रगति की एक सीमा है, और यह देह में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और परमेश्वर को जानने के लाभों की तुलना में बहुत कम है। परमेश्वर ने देह में रहते हुए बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं, जिन्हें कई लोगों ने देखा है पर वे समझते नहीं हैं, जिन्हें कई लोगों ने देखा है पर वे जानते नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो आध्यात्मिक रूप से अज्ञानी हैं और जिनके पास दिल नहीं है। लोगों में अंतरात्मा या समझ की कमी होती है, और वे लोगों के प्रति परमेश्वर के प्रेम और सहनशीलता को महसूस नहीं कर पाते हैं। लोग इतने सुन्न होते हैं कि वे परमेश्वर का कार्य पूरा होने के बाद ही थोड़ी-सी समझ हासिल करके सही मार्ग पर चलना शुरू करते हैं। मसीह का सार क्या है? मनुष्यों के लिए, मसीह का सार प्रेम है। जो लोग उसका अनुसरण करते हैं, उनके लिए यह ऐसा प्रेम है जो असीम है। अगर उसमें कोई प्यार न होता या दया नहीं होती, तो लोग अभी तक उसका अनुसरण नहीं कर पाते। कुछ लोग कहते हैं : "मगर परमेश्वर धार्मिक भी है।" यह सही है कि परमेश्वर धार्मिक है, लेकिन उसके स्वभाव के लिहाज से, उसकी धार्मिकता मुख्य रूप से मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव के प्रति उसकी घृणा के रूप में, दानव शैतान को शाप देने, और किसी को अपने स्वभाव को नाराज न करने देने के रूप में अभिव्यक्त होती है। तो क्या उसकी धार्मिकता में प्रेम है? क्या लोगों का न्याय और उनकी भ्रष्टता का शुद्धिकरण करना परमेश्वर का प्रेम नहीं है? मानवता को बचाने के लिए, परमेश्वर ने असीम धैर्य के साथ घोर अपमान सहा है। क्या यह प्रेम नहीं है? इसलिए, मैं तुम्हारे साथ साफ-साफ बात करूँगा : देह में रहते हुए परमेश्वर मानवजाति के लिए जो काम करता है, उसमें उसके सार में सबसे स्पष्ट और सबसे प्रमुख प्रेम ही है; यह असीम सहिष्णुता है। अगर यह प्रेम न होता और वैसा होता जैसी तुम लोग कल्पना करते हो - जहाँ परमेश्वर लोगों को मार गिराता है, जहाँ वह किसी को पसंद करता है या जिससे वह घृणा करता है, उस व्यक्ति को दंड देता है, शाप देता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है; तो वह बहुत सख्त होता है! यदि वह किसी पर क्रोधित होता है, तो लोग डर से कांप जाएँगे और उसके सामने टिक नहीं पाएँगे। यह केवल एक तरीका है जिससे परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त होता है। अंत में, अभी भी उसका लक्ष्य उद्धार करना ही है, और उसका प्रेम उसके स्वभाव के सभी प्रकाशनों में बना रहता है। अब जरा सोचो, देह में अपने कार्य के द
ौरान परमेश्वर लोगों के सामने सबसे अधिक क्या प्रकट करता है? वह है प्रेम, वह है धैर्य। धैर्य क्या है? दया रखना ही धैर्य है, क्योंकि भीतर में प्रेम है। परमेश्वर लोगों पर दया करने में सक्षम है क्योंकि उसके पास प्रेम है, और यह लोगों को बचाने के लिए ही है। ठीक उसी तरह जैसे अगर किसी विवाहित जोड़े के बीच सच्चा प्रेम है, तो वे एक-दूसरे की कमियों और गलतियों को अनदेखा कर देते हैं। जब वे तुम्हें गुस्सा दिलाते हैं, तो तुम उसे सह लेते हो, और यह सब प्रेम की नींव पर बना है। यदि यहाँ नफरत होती, तो उनका ऐसा रवैया नहीं होता या वे ये चीजें प्रकट नहीं करते, और इसका ऐसा प्रभाव भी नहीं पड़ता। यदि परमेश्वर केवल क्रोध और घृणा करता या बिना प्रेम के केवल न्याय और ताड़ना देता, तो स्थिति वैसी नहीं होती जैसी अभी तुम लोग देख रहे हो, तुममें से बहुत-से लोग परेशानी में होते। क्या परमेश्वर फिर भी तुम लोगों को सत्य प्रदान करने में सक्षम होता? जैसे ही न्याय और ताड़ना का कार्य पूरा होगा, जिन लोगों ने जरा भी सत्य को नहीं स्वीकारा है उन्हें श्राप दिया जाएगा। यहाँ तक कि अगर वे तुरंत नहीं मरते, तो वे बीमार, दुर्बल, पागल और अंधे हो जाएँगे, और दुष्ट आत्माओं और गंदे राक्षसों द्वारा रौंदे जाने के लिए सौंप दिए जाएँगे। वे वैसे नहीं रहेंगे जैसे अभी हैं। तुम सबने परमेश्वर के प्रेम और उसकी सहनशीलता, दया, और प्रेममयी उदारता का बहुत आनंद लिया है। लेकिन लोग इस बारे में कुछ नहीं सोचते हैं, वे मानते हैं, "परमेश्वर को लोगों के साथ ऐसा ही बर्ताव करना चाहिए। परमेश्वर के पास धार्मिकता और क्रोध भी है, और हमने इनका अच्छी तरह अनुभव किया है!" क्या तुमने वास्तव में उनका अनुभव किया है? यदि किया होता, तो तुम पहले ही मर चुके होते। आज मानवता क
हाँ होती? परमेश्वर की घृणा, क्रोध, और धार्मिकता, सब ऐसे लोगों का उद्धार करने की इच्छा की नींव से व्यक्त होती है। इस स्वभाव में परमेश्वर का प्रेम और दया के साथ-साथ उसका महान धैर्य भी शामिल है। इस घृणा में कोई और विकल्प न होने का भाव है, और इसमें मानवता के लिए एक असीम चिंता और आशा शामिल है! परमेश्वर की घृणा मानवता की भ्रष्टता और लोगों के विद्रोह और पाप की ओर निर्देशित है। यह एकतरफा है और प्रेम की नींव पर बना है। वहाँ प्रेम है तभी घृणा भी है। मानवता के लिए परमेश्वर की घृणा शैतान के लिए उसकी घृणा से अलग है, क्योंकि परमेश्वर लोगों को बचाता है लेकिन शैतान को नहीं। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव हमेशा से रहा है। क्रोध, धार्मिकता और न्याय हमेशा से रहे हैं; वे केवल तभी वहाँ नहीं थे जब उसने उन्हें मानवता की ओर निर्देशित किया था। यह परमेश्वर का स्वभाव तब से रहा है जब मनुष्यों ने इसे देखा भी नहीं था, और जब उन्होंने इसे देखा तभी उन्हें पता चला कि परमेश्वर की धार्मिकता इस प्रकार है। दरअसल, चाहे परमेश्वर के धार्मिक, प्रतापी, या क्रोधी होने का समय हो या मानवता के उद्धार के लिए सभी प्रकार के कार्य करने का समय हो, यह सब प्रेम के कारण ही है। कुछ लोग कहते हैं, "तो इसमें से प्रेम कितना है?" यह कितने का मामला नहीं है; वास्तव में यह सौ प्रतिशत प्रेम ही है। अगर यह इससे जरा भी कम होता, तो मानवता नहीं बचती। परमेश्वर ने अपना सारा प्रेम मानवता को समर्पित किया है। परमेश्वर ने देहधारण क्यों किया? यह पहले भी कहा जा चुका है कि परमेश्वर मानवता को बचाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता है, और उसके देहधारण में उसका सारा प्रेम शामिल है। इससे पता चलता है कि परमेश्वर के प्रति मानवता की अवज्ञा चरम सीमा पर है। ऐसा इसलिए था क्योंकि चीजें पहले से ही बचाए जाने से परे थीं; परमेश्वर के पास मानवता के लिए देहधारण करके खुद को समर्पित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर ने अपना सारा प्रेम समर्पित कर दिया है। यदि उसे मानवता से प्रेम नहीं होता, तो वह देहधारण नहीं करता। परमेश्वर स्वर्ग से वज्रपात कर सकता था, अपने प्रताप और क्रोध को सीधे प्रकट कर सकता था, और लोग जमीन पर गिर जाते। परमेश्वर को मुसीबत का सामना करने, इतनी बड़ी कीमत चुकाने, या देह में इतना अपमान सहने की कोई जरूरत नहीं होती। यह एक सटीक उदाहरण है। उसने कुछ और करने के बजाय मानवता को बचाने के लिए पीड़ा, अपमान, परित्याग और उत्पीड़न सहा। ऐसे विरोधी माहौल में भी वह मानवता को बचाने आया है। क्या यह सबसे महान प्रेम नहीं है? यदि परमेश्वर केवल धार्मिक होता और मानवता के लिए असीम घृणा से भरा होता, तो अपना कार्य करने के लिए वह देहधारण नहीं करता। वह मानवता के चरम सीमा तक भ्रष्ट हो जाने का इंतजार करता और फिर सबको एक साथ नष्ट करके अपना काम समाप्त कर सकता था। क्योंकि परमेश्वर मानवता से प्रेम करता है और मानवता के लिए उसमें बहुत स्नेह है, इसलिए वह ऐसे मनुष्यों को बचा
ने के लिए देह बन गया जो इतने अधिक भ्रष्ट थे। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरने और अपनी प्रकृति को जानने के बाद, बहुत से लोग कहते हैं, "मेरा सब कुछ खतम हो गया है। मुझे कभी नहीं बचाया जा सकता है।" जब तुम यह मान लेते हो कि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता, तभी तुम जान पाते हो कि परमेश्वर के पास लोगों के लिए कितना अधिक प्रेम और धैर्य है! परमेश्वर के प्रेम के बिना लोग क्या करेंगे? मानव की प्रकृति इतनी भ्रष्ट हो गई है, फिर भी परमेश्वर तुम लोगों से बात करता है। जब भी तुम लोग कोई सवाल करते हो, तो वह फौरन उत्तर देता है, इस डर से कि कहीं लोगों को कोई गलतफहमी न हो या वे भटक न जाएँ या सीमाएँ न पार कर दें। इस सबके बाद भी क्या तुम लोग अब तक नहीं समझे कि मानवता के लिए परमेश्वर का प्रेम कितना महान है? बहुत-से लोग आज समझने की कोशिश कर रहे हैं, "देहधारी परमेश्वर अभी भी पृथ्वी पर क्यों है जबकि उसका कार्य समाप्त हो गया है? क्या कार्य का एक और चरण अभी भी बाकी हो सकता है? वह कार्य का अगला चरण जल्दी शुरू क्यों नहीं कर रहा?" बेशक, इसमें कोई अर्थ छिपा है। देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचनों का लोगों में क्या प्रभाव पड़ा है? लोगों ने केवल इन्हें सुना और याद रखा है, पर ज्यादा कुछ समझा नहीं है, और उनमें कोई स्पष्ट बदलाव नहीं हुआ है। तुम लोग अभी जिस स्थिति में हो, उसमें ज्यादातर सत्य अस्पष्ट है, और इसकी वास्तविकता में प्रवेश करने का तो सवाल ही नहीं है। तुम्हें क्या लगता है, परमेश्वर के देहधारण करने और इतने सारे वचन कहने के पीछे उसका उद्देश्य क्या है? इसका चरम प्रभाव क्या है? यदि वह अभी कार्य का अगला चरण शुरू करता है और इन लोगों को अपनी कल्पना पर छोड़ देता है, तो कार्य आधे रास्ते में ही छूट जाएगा। लोगों को
पूरी तरह से बचाने के लिए देह में परमेश्वर का कार्य पूरे दो चरणों में किया जाना चाहिए। जैसे अनुग्रह के युग में, जब यीशु आया तो उसके जन्म से लेकर क्रूस पर चढ़ने और स्वर्ग में आरोहित होने में साढ़े तैंतीस साल लग गए। यह एक सामान्य मानव के जीवनकाल के अनुसार एक लंबा समय नहीं है, लेकिन यह पृथ्वी पर परमेश्वर के लिए बहुत लंबा समय है! साढ़े तैंतीस साल बहुत कष्टदायी हैं! देहधारण किए परमेश्वर के पास परमेश्वर का सार और स्वभाव था, और वह साढ़े तैंतीस सालों तक भ्रष्ट मानवता के साथ रहा, यह एक दर्दनाक चीज थी। लोगों ने उसके साथ अच्छा व्यवहार किया या नहीं या उसके पास अपना सिर रखने के लिए जगह थी या नहीं, इन सारी बातों को छोड़ दें, तो भले ही उसकी देह ने बहुत शारीरिक पीड़ा नहीं सही, पर मनुष्यों के साथ रहना परमेश्वर के लिए एक दर्दनाक बात थी, क्योंकि वे एक जैसे नहीं हैं! उदाहरण के लिए, यदि लोग पूरे दिन सूअरों के साथ रहें, तो कुछ समय बाद यह बहुत उत्तेजक हो जाएगा क्योंकि वे एक जैसे नहीं हैं। मनुष्य सूअरों के साथ किस भाषा में बात करेंगे? वे बिना पीड़ा सहे एक साथ कैसे रह सकते हैं? यहाँ तक कि एक पति और पत्नी को भी एक साथ रहना खराब लगता है, अगर उनके बीच अच्छा तालमेल न हो। परमेश्वर का साढ़े तैंतीस सालों तक देहधारण करके पृथ्वी पर रहना अपने आप में एक बेहद दर्दनाक चीज थी, और कोई भी उसे समझ नहीं सका। लोग यह भी सोचते हैं, "देहधारी परमेश्वर जो चाहे वह कह और कर सकता था, और बहुत-से लोग उसका अनुसरण भी करते थे। उसने कितनी पीड़ा सही? उसके पास केवल अपना सिर रखने के लिए कोई जगह नहीं थी और उसकी देह को थोड़ा दर्द और पीड़ा सहनी पड़ी। यह बहुत दर्दनाक नहीं लगता है!" यह सच है कि यह दर्द कुछ ऐसा है जिसे मनुष्य सहन कर सकता है, और देहधारी परमेश्वर इससे अलग नहीं है। वह भी इसे सहन कर सकता था, और यह उसके लिए बहुत बड़ी पीड़ा नहीं थी। अधिकांश कष्ट जो उसने सहे, वह चरम सीमा तक भ्रष्ट मानवता के साथ रहना था; उपहास, अपमान, आलोचना, और सभी प्रकार के लोगों की निंदा सहने के साथ-साथ राक्षसों द्वारा पीछा किया जाना और धार्मिक दुनिया से ठुकराया जाना और शत्रुता होना, और आत्मा पर ऐसे घाव पड़ना था जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता था। यह एक दर्दनाक चीज थी। उसने बहुत धैर्य के साथ भ्रष्ट मानवता को बचाया, अपने घावों के बावजूद उसने लोगों से प्रेम किया, यह बेहद कष्टदायी कार्य था। मानवता के दुष्ट प्रतिरोध, निंदा और बदनामी, झूठे आरोप, उत्पीड़न, और उनके द्वारा पीछा करने और मार डाले जाने के कारण परमेश्वर की देह ने खुद पर इतना बड़ा जोखिम उठाकर यह कार्य किया। इस दर्द में उसे समझने वाला कौन था, और कौन उसे आराम दे सकता था? मनुष्यों में केवल थोड़ा-सा उत्साह होता है, और वे अभी भी शिकायत कर सकते हैं या उसके साथ निष्क्रिय या उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर सकते हैं। इस वजह से वह कैसे कष्ट नहीं सहता? उसने अपने दिल में इतना बड़ा दर्द महसूस किया। क्या कुछ सांसार
िक सुख-सुविधाएं उस नुकसान की भरपाई कर सकती हैं जो परमेश्वर को मानवता के कारण हुई थी? क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि अच्छा खाना खाना और अच्छे कपड़े पहनना खुशहाली है? यह नजरिया बेतुका है! प्रभु यीशु तभी मुक्त हुआ जब उसने पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा किया और साढ़े तैंतीस साल बिताए, वह क्रूस पर चढ़ा और वापस जिंदा होकर उसने मनुष्यों के बीच चालीस दिन बिताए, तभी मानवता के बीच रहने के उसके दर्दनाक साल समाप्त हुए। मगर लोगों की मंजिल की चिंता के कारण परमेश्वर का दिल अभी भी उसी पीड़ा में था। इस पीड़ा को कोई और समझ या सहन नहीं कर सकता था। प्रभु यीशु को सभी लोगों के पापों के लिए क्रूस पर चढ़ा दिया गया ताकि मानवता के पास उद्धार की एक नींव रहे। उसने स्वयं क्रूस पर चढ़कर मानवता को शैतान के हाथों से छुटकारा दिलाया, और इस दुनिया में अपने दर्दनाक अस्तित्व को तभी समाप्त किया जब उसका छुटकारे का कार्य पूरा हुआ। जब उसका सारा कार्य पूरा हो गया, तो उसने एक दिन की भी देरी नहीं की। वह लोगों के सामने केवल इसलिए प्रकट हुआ ताकि सबको पता चले कि परमेश्वर ने वास्तव में मानवता के लिए छुटकारे का कार्य और देहधारण करके अपनी एक योजना को पूरा किया था। यदि थोड़ा-सा कार्य भी अधूरा होता तो वह वापस नहीं जाता। अनुग्रह के युग में, यीशु अक्सर कहता था, "मेरा समय अभी नहीं आया है।" उसका समय अभी तक नहीं आया था, इसका मतलब यह था कि उसका कार्य अपनी समयसीमा तक नहीं पहुँचा था। यानी देह में परमेश्वर का कार्य केवल एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, वचन बोलना, कलीसियाई जीवन की जाँच करना, और वह सब कहना नहीं है जो कहने की आवश्यकता है, जैसी कि लोग कल्पना करते हैं। अपना कार्य पूरा करने और ये सारी बातें कहने के बाद भी, देहधारी परमेश्वर को अंतिम
परिणामों और उसने जो कहा उसके प्रभाव की प्रतीक्षा करनी चाहिए और देखना चाहिए कि मानवता का उद्धार कैसा होगा। क्या यह स्वाभाविक नहीं है? क्या वह अपनी इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद यू ही इस कार्य को छोड़ देगा? उसे अंत तक डटे रहना है, और परिणाम आने के बाद ही वह कार्य के अगले चरण पर जाने के लिए सहज होगा। परमेश्वर का कार्य और उसकी प्रबंधन योजना विशेष रूप से ऐसी चीजें हैं जो सिर्फ वही कर सकता है। मानवता और उसका अनुसरण करने वाले लोग क्या बनते हैं, जिन्हें बचाया जाता है वे आखिर में क्या बनते हैं, कितने लोग उसकी इच्छा के अनुरूप होते हैं, कितने लोग वास्तव में उससे प्रेम करते हैं, कितने लोग वास्तव में उसे जानते हैं, कितने लोग स्वयं को उसके लिए समर्पित करते हैं, और कितने लोग सचमुच उसकी आराधना करते हैं ... इन सभी प्रश्नों का एक परिणाम होना चाहिए। यह ऐसा नहीं है जैसी कि लोग कल्पना करते हैं, "एक बार जब पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाए, तो उसे स्वयं आनंद लेना चाहिए। वह कितने मजे कर सकता था!" इस बात को जानो : यह बिल्कुल भी मजेदार नहीं है, यह कष्टदायी है! कुछ लोग यह नहीं समझते और सोचते हैं, "यदि परमेश्वर देह में अपना कार्य कर चुका है और अब वह वचन नहीं बोलता है, तो क्या इसका अर्थ है कि उसका आत्मा चला गया है?" इससे ही, वे परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका कहना है, "जब देह में परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाता है और वह आगे कुछ नहीं बोलता, तो क्या उसे इंतजार करने की जरूरत भी है?" बिल्कुल है। देह में परमेश्वर के कार्य का एक निश्चित दायरा है। यह ऐसा नहीं है जैसी लोग कल्पना करते हैं कि जहाँ कार्य समाप्त हो गया है वहाँ पवित्र आत्मा आगे का कार्य कर सकता है। ऐसा नहीं है। ऐसी कुछ चीजें हैं जिन्हें व्यक्तिगत रूप से राह दिखाने और संभालने के लिए देह की आवश्यकता होती है। कोई भी इन चीजों की जिम्मेदारी नहीं ले सकता, और यही कारण है कि देह में परमेश्वर का कार्य इतना महत्वपूर्ण है। क्या तुम इस बात को समझ सकते हो? अतीत में मैंने कुछ लोगों से गुस्से में कहा था, "तुम लोगों के साथ मिलकर रहना दयनीय है।" कुछ लोगों ने जवाब दिया, "यदि तुम हमारे साथ नहीं रहना चाहते, तो यहाँ इंतजार क्यों कर रहे हो?" यह मानवता के लिए परमेश्वर का प्रेम है! क्या परमेश्वर प्रेम के बिना अब तक यह सब सहन कर पाता? कभी-कभी वह क्रोधित हो जाता है और कठोरता से बोलता है, लेकिन वह अपने कार्य में कभी कोई कमी नहीं करता। वह एक कदम भी नहीं चूकता। जो कार्य किया जाना चाहिए उसे करने और जो बात कहनी चाहिए उसे बोलने से वह पीछे नहीं हटेगा। जो करना और कहना चाहिए वह वो सब कुछ करता और कहता है। कुछ लोग कहते हैं, "परमेश्वर पहले की तुलना में अभी कम वचन क्यों बोल रहा है?" क्योंकि कार्य के वे चरण पूरे हो चुके हैं, और अंतिम चरण प्रतीक्षा करना है। मैं केवल मार्गदर्शन का कार्य कर रहा हूँ, और मुझे हर उस चीज से स्वयं को कष्ट देना है
जो मैं कर सकता हूँ। इस अंतिम चरण में मेरा स्वास्थ्य हमेशा खराब क्यों रहा है? इसका भी कोई-न-कोई अर्थ है। यह इसलिए है क्योंकि मैं मानवता की कुछ बीमारी और दर्द को सहन करना चाहता हूँ। देहधारी परमेश्वर कुछ बीमारी और दर्द का अनुभव कर सकता है, लेकिन ये सभी अलग-अलग चरणों में आते हैं। जिस कार्य को करने की आवश्यकता नहीं है वह देह की बीमारियों द्वारा सीमित है और इसे नहीं किया जा सकता है, और फिर समय आने पर देह को थोड़ा कष्ट अवश्य उठाना चाहिए। बहुत-सी सीमाओं के बिना, वह हमेशा मानवता के साथ अधिक बात करना और उनकी अधिक सहायता करना चाहेगा, क्योंकि वह उद्धार का कार्य कर रहा है। शुरू से अंत तक देहधारी परमेश्वर के कार्य ने जो प्रकाशित किया है वह सब परमेश्वर का प्रेम है। उसके कार्य का सार प्रेम है, और वह मानवता के लिए सब कुछ और जो भी उसके पास है, उसे समर्पित कर देता है।
केवल पांडे आधी नदी पार कर चुके थे। घाट के ऊपर के पाट में अब, उतरते चातुर्मासा में सिर्फ घुटनों तक पानी है, हालाँकि फिर भी अच्छा खासा वेग है धारा में। एकाएक ही मन में आया कि संध्याकाल के सूर्य देवता को नमस्कार करें। जलांजलि छोड़ने के लिए पूर्वाभिमुख होते ही, सूर्य और आँखों के मध्य कुछ धूमकेतु-सा विद्यमान दिखाई दे गया। ध्यान देने पर देखा, उत्तर की ओर जो शूद्रों का श्मशान है, बौंड़सी, वहीं से धुआँ ऊपर उठ रहा है और, हवा के प्रवाह की दिशा में धनुषाकार झुककर, छिदिर-मंदिर बादलों का सा गुच्छा बनाता, सूर्य के समानांतर धूमकेतु की तरह लटक गया है! केवल पांडे के घुटने पानी के अंदर ही आपस में टकरा गए और अंजलि में भरा जल ढीली पड़ी उँगलियों में से रीत कर, नदी में ही विलीन हो गया। उनके अर्द्धचेतन में कही से एक आशंका तेजी से उठी - 'बेचारा किसनराम ही तो नहीं मर गया?' किसनराम की स्मृति में होते ही अपने घुटने नदी के जलप्रवाह में प्रकंपित होते-से मालूम पड़े। पुरोहित पं. केवलानंद पांडे को लगा कि उनके और सूर्य के बीच में धूमकेतु नहीं, बल्कि उनके हलिया किसनराम की आत्मा प्रेत की तरह लटकी हुई है। कुछ क्षण सुँयाल नदी के जल से अधिक अपने ही में डूबे रह गए। किसनराम के मरे होने का अनुमान जाने कैसे अपना पूरा वितान गढ़ता गया। गले में झूलता यज्ञोपवीत, माथे में चंदन-तिलक और रक्त में घुला-सा जातीय संस्कार। बार-बार अनुभव हो रहा था कि ऊपर श्मशान में अछूत के शव की अस्थि-मज्जा को बहाकर लाती सुँयाल नदी का निषिद्ध जल उनके पाँवों से टकरा रहा है। हो सकता है, ऊपर से अधजला मुर्दा ही नीचे को बहा दिया जाए और वहीं पाँवों से टकरा जाए? ...नदी के तेज प्रवाह में लकड़ी के स्लीपर की तरह घूमते और बहते जाते शव उन्होंने कई बार देखे हैं। विशेषकर बनारस में संस्कृत पढ़ने के दिनों में। हालाँकि इधर से सुँयाल पार करते ही, गाँव से लगा अरण्य, प्रारंभ हो जाता है। अब सूर्यास्त के आस-पास के समय, ऊँचे-ऊँचे चीड़-वृक्षों की छायाएँ पूर्व की ओर प्रतिच्छायित हो रही थीं। दूर ढलानों पर गाय-बकरियों के झुंड चरते दिखाई पड़ रहे थे। कुछ देर योंही दूर तक देखते, आखिर नदी पार करके अपने गाँव की ओर बढ़ने की जगह, केवल पांडे तेजी से इस पार ही लौट आए। उन्हें लगा, आगे की ओर का पानी चीर सकने की क्षमता उनके घुटनों में रह नहीं गई। धुआँ देखने से पहले भी, आधी नदी पार करते में न-जाने इतने आकस्मिक-रूप से क्यों किसनराम की याद आई थी कि उन्हें लगा था, वो नदी के पाट को अपने पाँवों से ठीक वैसे ही चीर रहे हैं, जैसे किसनराम हल की फाल से खेत को चीरता है। अब भी, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के ही आखिर क्यों उनकी कल्पना के आकाश में आशंका का यह धूमकेतु एकाएक उभर आया है कि जरूर किसनराम ही मर गया होगा और उसी का शव जलाया जा रहा होगा! हो सकता है, चिता न जल रही हो, नदी के किनारे मछली मारने वालों ने ही आग जला रखी हो? केवल पांडे का मन हुआ, किनारे का जल हाथों में लेकर उसे देख
ें। उन्हें याद आया, जब कभी हल जोतते-जोतते, बैल थामकर, किसनराम उनके समीप आ जाता था, सुर्ती फाँकते, उसके मैले चीकट कपड़ों से भी ठीक वैसी ही तीखी गंध फूटती मालूम पड़ती, जैसी सुर्ती की गाँठ तोड़ते में फैलती है। कहीं ऐसा न हो, पानी से भी वैसी ही गंध फूट आए? अपनी अजीब-अजीब-सी कल्पनाओं पर केवल पांडे को हँसी आने को हुई, मगर आई नहीं। किसनराम को लेकर जो कमजोरी उनके मन में है, वही पिछले कुछ समय से उन्हें लगातार दोचित्ता करती चली रही है। उसकी मृत्यु की आशंका से यों एकाएक जुड़ जोन के कारण ही, मन अपनी स्वाभाविक स्थिति खो बैठा है, ऐसा उन्हें लगा और अब वो नदी पार करने की जगह, बिनसर पहाड़ की दिशा में, यानी उत्तर की ओर, किनारे-किनारे चलने लगे। श्मशान लगभग एक फलाँग दूर था, वहाँ से। खुले मैदान की भुरीभुरी मिट्टी में रेंगती गर्भवती नागिन-जैसी नदी सुँयाल भी अब उलटी दिशा को लौटती अनुभव हो रही थी। सूरज की किरनों के पानी की सतह पर हवा से काँपने की स्थिति में नदी कैसे अपना प्रवाह पलटती-सी मालूम पड़ती है और तब किनारे-किनारे कुछ फासला रखकर चलते रहिए, तो चंद्रमा की तरह, नदी भी अपने साथ-साथ चलती दिखती है। ऐसे में, हो सकता है, इसी बीच किसनराम का शव अधजला ही बहा दिया गया हो, तो वह भी उत्तर की ओर वापस लौटने लगे? कुछ दूर आगे बढ़ते ही सामने ही एक गहरा ताल दिखाई दिया, तो लगा, कहीं ऐसा न हो, शव यहाँ तक बह आया हो और मछलियाँ उसे नोच रही हों? एक बार गहराई तक उस ताल में झाँककर, केवल पांडे और भी तेजी से चलने लगे, ताकि आशंका का समाधान हो जाए, तो मन को विभ्रांति से मुक्ति मिले। धोती की काँछ को उन्होंने कंधे पर डाल लिया, ताकि नीचे झुककर ताल में झाँकने में सुविधा रहे। सुँयाल कभी देखी हो किसी ने, तो वह जानता है कि कार्तिक
के प्रारंभ में, जबकि बाढ़ की ऋतु व्यतीत हो चुकी होती है, तब इसका जल कितना पारदर्शी हुआ रहता है। लेकिन चूँकि अभी चातुर्मास को बीते कुछ अधिक समय नहीं बीता होता है, इसलिए आसानी से इसके प्रवाह में पाँव टिक नहीं सकते। और देखिए कि जैसे पहाड़ की कई औरतें चाँदी के रुपयों की माला पहने रहती हैं - कुछ दूर तक डोरी, फिर पहला रुपया। इसके बाद फिर कुछ दूर तक डोरी और फिर चाँदी का दूसरा रुपया - लगभग वैसा ही अंतराल सुँयाल नदी में है। उद्गम से कुछ दूरी तक नदी की सी आकृति, फिर पहला ताल; इसके बाद फिर कुछ दूर तक, वही प्रकृति के गले में की डोरी, और फिर दूसरा ताल - और यही सिलसिला, जब तक कि कोसी में समाहित न हो जाय। केवल पांडे की जजमानी का भी कुछ ऐसा सिलसिला है कि कहा जाय कि लगभग जहाँ तक सुँयाल जाती है। किनारे की ऊँचील शिला पर से ताल में झाँकने लगे, तो असेला और पपड़ुवा मछलियों का ताल के तल में विचरण करना और छोटी-छोटी चिल्लों का पानी के भीतर से कंकड़ों की तरह पुटुक्क करके सतह से भी एकाध बालिश्त ऊपर उछलकर, फिर पानी में ही गिरते हुए वृत्त-पर-वृत्त बनाना, देखते ही रह गए। याद आया कि जब व्रतबंध न हुआ था, कभी-कभी ताल में किसनराम के साथ मछलियाँ मारते अन्य शूद्र हम-उम्रों के साथ स्वयं भी कूद पड़ते थे। घर में कोई मछली खाता नहीं था, लेकिन मैण लगी मछलियों को पकड़ने में जो आनंद आता था...! रामबाण के पत्ते कूटकर पानी में डाल दिए गए हैं। मेंड़ बँधे पानी में साबुन का सा झाग उतर आया है। ...और अर्द्धमूर्च्छित-सी मछलियाँ सतह पर चक्कर काट रही हैं! हथेलियाँ फैलाने पर ही पकड़ में आ जाती हैं। केवलानंद पांडे और किसनराम की उम्र में विशेष फर्क नहीं। शायद, दो-तीन वर्ष बड़ा हो किसनराम, मगर केवल पांडे की तुलना में, बहुत जल्दी ही बूढ़ा दिखने लग गया। पैंसठवाँ वर्ष-पार करते हुए भी पांडे जी के गौर-प्रशस्त ललाट में का तिलक रेखाओं में नहीं डूबता है, मगर किसनराम की कमर झुक गई। बचपन से ही किसनराम को देखा, एक ही अरण्य में के वृक्षों के साथ-साथ आकाश की ओर बढ़ने की तरह। किसनराम के पिता की तीन पत्नियाँ थीं और बहुत बड़ा परिवार। खाने-पहिनने को पूरा पड़ता नहीं था। दूसरों के यहाँ मेहनत-मजदूरी का अनवरत सिलसिला दिन-रात कंधो पर लदा रहता। पांडे जी को याद नहीं पड़ता, कभी उन्होंने किसनराम में किशोरावस्था की चंचलता या जवानी के उद्दाम आवेग को उसके चेहरे या उसकी आँखों से फूटता हुआ देखा हो। जब भी देखा, हल या हथौड़े-हँसिये की मूठ थामे, काम में जुटा हुआ देखा। किशोरावस्था गाँव में गुजारकर, मिडिल पास करके केवल पांडे पहले मामा के यहाँ नैनीताल और फिर वहाँ से अपनी वाग्दत्ता के पिता के पास बनारस पढ़ने चले गए। नैनीताल से हाईस्कूल, बनारस से शास्त्री करके, फिर घर ही लौट आए। छोटे भाई सभी पढ़ रहे थे और पिताजी अत्यंत वृद्ध हो चुके थे। यजमानी बहुत बड़ी थी और उसे सँभालना आर्थिक और नैतिक, दोनों दृष्टियों से आवश्यक था। पठन-पाठन का वृत्त पूरा करके सदैव क
े लिए घर लौटने पर पांडे जी को पता चला था, किसनराम से ही, कि इस बीच उसकी माँ मर गई और वह भी अपने मामा के यहाँ चला गया था। मामा लोहार था, मगर किसनराम सिर्फ किसानी या ओढ़गिरी जानता था और गरम लोहा पीटने में अपने दाएँ हाथ की अँगुलियाँ पिटवा बैठा। हाथ बेकार हो गया, तो मामा ने भी दुरा दिया ओर वहाँ से पत्नी को लिए-दिए ससुराल चला गया। ससुराल वालों ने भी अपनी बेटी, यानी उसकी घरवाली भवानी, को तो रोक लिया, उसे अकेला विदा कर दिया। हाँ, भवानी के लिए यही तो कहा था किसनराम ने कि - 'गुसांईज्यू, उन डोमों ने 'मेरी घरवाली' को रोक लिया।' ...यह नहीं कि 'अपनी बेटी' को। मामा के यहाँ कुट गए दाएँ हाथ की तीन उँगलियाँ, धीरे-धीरे गलती हुई, बेकार हो गईं। शेष दो से सोंटा और बाएँ हाथ से हल की मूठ पकड़कर बैलों को ऊँची हाँक लगाते किसनराम की आवाज पांडे जी ने गाँव की सीमा में पहुँचते ही सुनी थी। और जब रास्ते में कुछ देर किसनराम के पास रुककर, उसका दुख-सुख पूछ लिया कि 'आशीर्वाद, किसनराम, कैसे हो? ठीक-ठाक?' तो लगा क जैसे अपनी सारी गाथा उन्हीं की प्रतीक्षा में छाती में दबाए था किसनराम। अवसर पाते ही प्रकट होता ही चला गया। अपना व्यतीत बताने में जिस तरह धीरे-धीरे उसकी आँखें भरती चली आई थीं, लगता था, कहीं बहुत गहरे दबा विषाद कोहरे की भाँति ऊपर उठ रहा है। उसकी आँखों की आग थी, या जैसे कि बाँध बाँधकर ऊपर की ओर उठाए हुए पानी की सतह। किसनराम को रोते देखने का यह पहला अवसर था, अन्यथा उसकी खुश्क आँखों में तो सदैव एक दीन मुस्कराहट ही देखी थी उन्होंने। कठोर परिश्रम के क्षणों में पसीने से लथपथ उसकी देह देखने से भले ही अनुभूति होती हो कि क्या यह अपनी त्वचा में से आँसू बहाता होगा? ...और पांडे जी को तब भी तो विचित्र-सी कल्पना हो आती
थी कभी-कभी कि किसनराम कहीं अभिशप्त इंद्र तो नहीं कि इसकी सारी देह में आँखें-ही-आँखें फूट आएँ? पसीना वह पोंछता भी कुछ इतने जतन से था, लगता था, गालों पर से निथरते आँसू पोंछ रहा हो। ऐसे में एकटक उसकी ओर देखते रहने पर, मुँह में कैसा खारा-खारापन-सा उमसने लगता था? लेकिन तब तक यह सुर्ती की गाँठ तोड़ने में फैलने वाली जैसी तीखी गंध उसमें से फूटकर नहीं आती थी। बनारस से लौट आने के बाद केवल पांडे ने देख था कि उम्र में बड़ा होने पर भी किसनराम उनके गोरे, बलिष्ठ और खुले हुए शरीर की तुलना में ऐसा लगता था, जैसे इतने वर्षों के बीच प्रकृति ने उस लोहे को गरम करके, परिस्थितियों की चोटों से पीट-पीटकर अपने अनुकूल बना लिया है। खेत जोतते, पेड़ काटकर गिंडे बनाते या हल जोतते, पत्थर तोड़ते में वह जैसे अपनी संपूर्ण एँद्रिकता में प्रकृति में समा जाता था। पांडे जी को बार-बार वह अनोखा दृश्य याद आता है, जब चौदह वर्षों की उम्र में ही शादी हो जाने के बाद, किसनराम दुरगुन के लिए अपनी पत्नी को उसके मायके ले जा रहा था और वो मिडिल स्कूल से लौट रहे थे। छोटी-सी, ठिगनी-साँवली लड़की, गाढ़े हरे रंग का घाघरा और गुलाबी रंग का पिछौड़ा पहने, बड़े इतमीनान से बीड़ी पीते उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी। किसनराम ने 'महाराज' कहकर, जमीन में मत्था टेकते हुए पांडे जी को प्रणाम किया था, तो उसने जल्दी में बीड़ी को अपनी हथेली में ही घिस लिया था और फिर हँस पड़ी थी। पांडे जी को हँसी आ गई थी। किसनराम भी हँस पड़ा - 'गुसाँई, हमारी कौम में तो सारे करम-कांड बचपन में ही सीख लेती हैं छोरियाँ।' और आखिर शरमाते-शरमाते पूछने लगा था कि शास्तरों के अनुसार किस उम्र तक आपस में खुलकर बातचीत करना निषिद्ध है। 'शास्तर' का उच्चारण करने में किसनराम का कंठ तब भी कुछ थरथरा गया था। पांडे जी बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे। समझ गए, किन्हीं सयानों की बात को गाँठ बाँधे हुए है। भोले-निश्छल स्वभाव के किसनराम के प्रति उन्हें शुरू से ही आत्मीयता-सी थी और एक झलक किसनराम की घरवाली की उन्होंने भी देख लिया था, एक हमउम्र की सी जिज्ञासा में। धीमे से कहा था - 'अरे, यार किसनराम! अभी तो खुद मैंने ही कोई ऐसा शास्त्र नहीं पढ़ा है। पिता जी संस्कृत पढ़ने काशी भेजने वाले हैं। दस-बारह वर्ष बाद बटुक शास्त्री बनने के बाद लौटने पर तुझे बताऊँगा कि इस मामले में शास्त्रों में क्या लिखा है?' और तब कैसे हँस पड़े थे, वो दोनों एक साथ? जैसे कि अरण्य में के फूल हों। किसनराम की घरवाली के सिर पर निंगाले की डलिया थी - पीले पिछौड़े के छोर से ढकी हुई दुरगुन (गौने) की परियाँ रही होंगी उसमें और आलू के गुटने या गडेरी का साग! कई वर्षों के बाद एक बार छुट्टियों में घर लौटे थे कुछ दिनों को, तो किसनराम से पूछा था उन्होंने कि - किसन, कोई संतान हुई या नहीं?' और किसनराम के उत्तर से उन्हें लगा था, जैसे वह उसी दिन की प्रतीक्षा में है अभी, जबकि पांडे जी उसे शास्त्रों में लिखा उत्तर बताएँगे। काशी स
े शास्त्री करके लौट आने के बाद भी, उनका मन वही प्रश्न पूछने को हो रहा था कि किसनराम की दुखांत गाथा से मन भर आया। ...और उन्होंने अनुभव किया, इस बार किसनराम की घरवाली ने अधजली बीड़ी को अपनी हथेली में घिस लेने की जगह, किसनराम के कलेजे के साथ घिसकर, बुझा दिया है और किसनराम के प्रति उनकी इस संवेदनशीलता कल्पना पर उसकी घरवाली कहीं अदृश्यमान तौर पर उपस्थित-सी खिलखिला रही है। बचपन बीतते-न-बीते ही शादी हो गई थी किसनराम की और पूरी तरह सयाना होने-होने तक में ही संबंध टूट भी गया। उन दिनों किसनराम अकेला ही रहता था। अनेकों के मना करने के बावजूद पांडे जी के पिता जी ने किसनराम को ही अपना हलिया रख लिया था। हलिया रख लेने के बाद, खुद उन्होंने तथा पांडे जी की माँ ने किसनराम से कहा था - 'किसनराम, पहली तो विश्राम लेने को डाल पर आकर बैठी हुई -जैसी भुर्र उड़ गई, अब तू क्यों उसके लिए जोग धारण कर रहा है? अरे, तू ब्याह कर लेता, तो हमारी खेती भी कुछ और ज्यादा सँभलती। बिना जोड़ी का बैल तक नहीं खिलता, रे! तू तो हलिया है। नहीं करता दूसरा ब्याह, तो पहली को ही लौटा ला!' किसनराम भली-भाँति जानता था, एक तो बिन घरवाली का हलिया वैसे ही पूरा रम नहीं कर पाता गुसाँइयों के खेत में, उस पर उसका तो दायाँ हाथ भी पूरा नहीं लगता है। लेकिन भवानी? शेष जीवन में उसके पुनरागमन की संभावना अब सिर्फ कल्पना में ही हो सकती थी। तब आखिर उसने एक दिन हाथ जोड़कर अपनी अनुपयोगिता को स्वीकार लिया था और अपने सौतेले 'बौराणज्यू, मैं अभागा तो हाथ से झड़ी लोभ ही नहीं लौटा पाया, कलेजे से झड़ चुकी कैसे लौटाऊँ?' और उन दिनों गाँव-भर में यह बात फैल गई थी कि सयानी औरत का मन भी कैसा कोमल होता है, माँ का जैसा। खुद कुसमावती बहूरानी ने ही अपने हाथों से किस
नराम के आँसू पोंछ दिए। ब्रह्मणी, वह भी पुरोहित घराने की ओर अपने हाथों शूद्र के आँसू पोंछे, लेकिन भैरव पांडे जी ने ही क्या कहा थ कि वह अशुद्ध होना नहीं, शुद्ध होना है। केवल पांडे के पूछने पर कुसुमावती की आँखें फिर गीली हो आई थीं। बोली थीं - 'दुख सभी का एक होता है, केवल! मैंने आँसू पोंछे, तो मेरे पाँवों के पास की मिट्टी उठाकर, कपाल से लगाते हुए बोला था किसनराम - 'बौराणज्यू, पारसमणि ने लोहे का तसला छू दिया है, मेरे जनम-जनम के पापों का तारण हो गया है।' - शूद्र में जनमा है, मगर बड़ा मोह, बड़ा वैराग्य है किसनिया में। भवानी ने तो अपना नाम गारत कर दिया। इस भोला भंडारी को उजाड़कर गई। पांडे जी अनुभव करते रहे थे कि कहीं भवानी के प्रति किसनराम में अति मोह था और इसलिए ही है इतना विराग। उन दिनों हफ्ते-हफ्ते किसनराम अपने कपड़े भी धो लेता था। भोजन भी नित्य समय पर कर लेता था। खेतों में काम होता, तो पांडे जी के घर से ही रोटियाँ जाती थीं और विनम्रतापूर्वक किसनराम केवल पांडे की बहू से कह देता था - 'बौराणज्यू, रोटियाँ मुझे टैम से ही दे देना।' एक दिन, खेत जोतने से निबट कर, किसनराम सुँयाल के किनारे कपड़े धो रहा था। लँगोटी पहनकर, शेष कपड़े सूखने डाल रखे थे कि यजमानी से लौटते पांडे जी आए थे। उनके नदी पार करते समय वह जल्दी-जल्दी पानी से अलग हट गया था कि उसके पाँवों का छुआ जल उन्हें न लगे। पांडे जी ने यजमानी से मिली मिठाई में से कुछ मिठाई उसे दी थी और कहा था, 'किसन, अच्छा नहीं किया भवानी ने। नहीं तो, तुझे अपने हाथों से खाना पकाने और कपड़े धोने से मुक्ति मिलती। ...और तू-मैं तो साथ मछलियाँ पकड़ते थे - अब तू यों नदी छोड़ के अलग क्यों होने लगा? इतनी दूर तक छूत मैं नहीं मानता, रे!' किसनराम के हाथ जुड़ आए थे और ओठों पर हल्की-सी हँसी - 'महाराज, जिस दिन बड़ी बौराणज्यू की सोने की छड़ी-जैसी उँगलियों का स्पर्श पा लिया मेरी आँखों ने, उस दिन से कलेजे की जलन से कुछ मुक्ति मिल गई, इतना ही बहुत है। नहीं तो कहाँ अपवित्र - कहाँ पवित्र...' यों ही वर्षों बीतते गए। केवल के पिता भैरव पांडे जाते रहे, फिर कुसुमावती बहू भी। धीरे-धीरे किसनराम की कमर भी झुकने लगी, मगर हल उसने नहीं छोड़ा। जब तक खुद वह हल नहीं छोड़े, तब तक हलिया न बदला जाए, केवल पांडे निर्णय कर चुके थे। जरूरत पड़ने पर रोजाना मजदूरी देकर खेत जुतवा दिए जाते, मगर किसनराम को कोई नहीं टोकता था। केवल पांडे की पत्नी चंद्रा बहूरानी भी अपनी सास की-सी सहानुभूति उसके प्रति रखती थीं। कभी-कभी किसनराम कृतज्ञ भाव में कह देता कि 'बड़ी बहूरानी जी की तो देह-ही-देह गई है, आत्मा तो छोटी बहूरानी में समा गई।' ...और ऐसा कहने के बाद, बहुधा, वह पांडे जी से आत्मा-परमात्मा के संबंध में तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगता था - 'महाराज, शास्तरों में तो आत्मा-परमात्मा के ही मंतर लिखे हुए रहते हैं न? आपके चरणों का सेवक ठहरा, दो-चार मंतर मेरे अपवित्तर कानों में भी पड़ जाएँ, तो मेरी
आत्मा का मैल भी छँट जाए। क्या करूँ गुसाँई। घास खाने वाले पशु बैल नहीं हुए, अनाज खाने वाला पशु किसनराम ही हो गया। ...आपका जनम-जनमांतरों का सेवक हुआ मैं गुसाँईज्यू! दो-चार मंतर ऐसे मार दीजिए इस शरणागत किसनराम के फूटे कपाल में भी कि...' 'कि' से आगे क्या, इसे सिर्फ उसकी आँखों में ही पढ़ा जा सके, तो पढ़ा जा सके। तुरंत बात बदलता पूछने लगा था कि - 'महाराज, मरने के बाद आत्मा कहीं परलोक को चली जाती है, या इसी लोक में भटकती रह जाती है?' चौरासी लाख योनियों में एक योनि प्रेतात्मा-योनि भी होती है, यह जानने के बाद से किसनराम और भी अधिक जिज्ञासु हो गया था कि आत्मा की इच्छा न होने पर भी क्या देह मात्र की इच्छा से प्रेत-योनि मिल सकती है...? जब यजमानी में नहीं जाना होता था, तो पांडे जी खेतों में चले जाते थे। उन्हें इस बात का बोध भी था कि जब चंद्रा बहूरानी खेत में होती हैं, तो किसनराम एकदम दत्तचित्त होकर काम करता रहता है, मगर जब पांडे जी खुद होते हैं, तो बार-बार सुर्ती फाँकने के बहाने, उनसे तरह-तरह की बातें पूछने लगता है। पांडे जी किसनराम के प्रति कठोर नहीं हो पाते थे। जैसी बहकी-बहकी बातें वह इन दिनों करने लगा था, यही भासित होता दिखता कि किसनराम निरंतर अंतर्मुखी होता जा रहा है। आँखें उसकी इतनी धँस गई थीं अंदर कि मरने के बाद तालाब में डूबी पड़ी मछली-जैसी कोई चीज उनमें चमकती लगती थी और पांडे जी को लगने लगा था कि वह उसकी मृत्यु का पूर्वाभास है क्या? औरत-संतान-हीन लोगों की इस लोक से मुक्ति नहीं हो पाती है और वे रातभर मशालें हाथ में थामे, अपने लिए पत्नी और संतति खोजते, कायाहीन प्रेतरूप में भटकते रहते हैं 'टोले' बनकर - ऐसा कभी पांडे जी ने ही उसे बताया था। साथ ही यह भी कि उच्च जाति के लोग जो प्रेत योन
ि में ज्यादा नहीं जाते हैं, औरत-संतति से वंचित रहने पर भी, उसका कारण यह है कि उनकी सद्गति शास्त्रोक्त-पद्धति से हो जाती है। यह सबकुछ जानने के बाद से किसनराम निरंतर उनसे 'सद्गति' के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगा था। अभी कुछ ही दिन पहले उसने फिर पूछा था कि खुद प्रेत-योनि में भटका जाए, या कि जिस पर तृष्णा रह गई हो, उस पर प्रेत-रूप में छाया चली जाए, तो इससे मुक्ति का उपाय क्या है? कई बार के पूछने पर, किसनराम कुछ खुला था - 'महाराज, आप तो मेरे ईष्ट देवता-सरीखे हैं, आपसे क्या छिपाना। इधर शरीर बहुत कमजोर हो चला। समय से खा नहीं पाता हूँ। वात-पित्त बढ़ गया है, ठीक से आँख भी नहीं लग पाती और नहाने-कपड़े धोने की शक्ति अब रही नहीं, गुसाँईज्यू! ...और जब-जब भूख से पेट जलता है, जब-जब खाँसी और चड़क से देह टूटने को हो आती है और इधर-उधर झाँकने पर सिर्फ अपनी ही दुर्गंध, अपनी ही प्रेत-जैसी छाया घेरने लगती है, तो पापी चित्त बस में नहीं रहता, गुसाँईज्यू! जिसे जवानी के दिनों में कभी गाली नहीं दी, उसे अब मरते समय न जाने कैसी भयंकर और पलीत गालियाँ बकने लग जाता हूँ। आत्मा फाँसी के फंदे पर लटकी हुई-सी धिक्कारती रहती है - अब मसानघाट की तरफ जाते समय अपनी घरवाली को राँड़-पातर मत कह, रे कसाई!' ...मगर ये दो ठूँठ उँगलियाँ चरस भरी बीड़ी-जैसी सुलगती मेरे कपाल को दागती रहती है, कि 'अरे, पातरा! तूने जो मेरा कलेजा ही नहीं निकाल लिया होता तो आज इस वृद्धावस्था में तू नहीं... कोई और तो होती' ...गुसाँईज्यू, कहीं मैं प्रेत बन गया तो?' 'किसनराम, भवानी को तू भूला नहीं है, रे! जैसी दगा वह कर गई तेरे साथ, किसी और के साथ करती तो वह थू-थू थूकता और दूसरी ले आता, मगर तेरा मोह तो घटा नहीं, विषाद चाहे जितना बढ़ा हो। तेरी गालियाँ पिशाच की नहीं, दुखी मनुष्य की हैं।' गुसाँईज्यू, डाल-पात टूटा वृक्ष तो फिर से पंगुर जाता है, मगर जड़ से उखड़ा क्या करे? जब तक हाथ-पाँव चलते रहे, टैम से पेट की आग बुझाना, टैम से मैले कपड़े धोना इसीलिए करता रहा कि नहीं कर पाऊँगा, भवानी के लिए गाली निकलेगी मुँह से। महाराज, आपे तो उसे पुरपुतली की तरह मेरे आगे-पीछे उड़ाता हुआ खुद ही देखा था? उसको गँवा देने के बाद कोई दूसरी सयानी औरत ले आता, तो लगता, आगे-पीछे झपट्टे मार रही है। ...महाराज आप भी कह रहे होंगे कि इस किसनुवा डोम की मति वृद्धावस्था में चौपट हो गई है, मगर मैंने उस पुरपुतली को कभी इतनी दूर कहीं उड़ाना चाहा, गुसाँईज्यू!' पांडे जी को लगा था - इसकी धँसी हुई-सी आँखों में जो तालाब में की मछली-जैसी चमकती है, वह खुद तबका किसनराम ही अपनी भावुकता में डूबा पड़ा है, जब वह बीड़ी का जलता ठूँठ हथेली में घिस लेने वाली किशोरी भवानी को साथ लेकर काम पर निकलता हुआ शास्त्रों की व्यवस्था पूछता फिरता था कि...' महारात, शास्त्रों में घरवाली के संबंध को जनम-जनमांतर का संबंध माना गया है ना?' अभी कुछ ही दिन पहले उसने कहा था - 'महाराज, आजकल जो तड़प रहा ह
ूँ, तो इसीलिए कि म्लेच्छ योनि का पहले ही ठहरा, ऊपर से यह संसारी कुटिल चित्त की हाय-हाय! गरुड़ पुराण सुनने का तो पहले ही हम नहीं ठहरा, फिर सुनाए भी कौन? कभी-कभी जंगल में आँखें बंद करके लेट जाता हूँ, गुसाँईज्यू, कि कोई आकाश में उड़ता गरुड़ पक्षी ही मुझे मुर्दा समझ करके, मेरे माथे पर बैठकर टिटकारी छोड़ जाए... महाराज, अपने तारण-तरण की उतनी चिंता नहीं, इसी ध्यान से डरता हूँ कि कहीं प्रेत-योनि में गया, तो उसे न लग जाऊँ? हमारी सौतेली महतारी में हमारे बाप का प्रेत आने लगा है, महाराज! उसके लड़के गरम चिमटों से दाग देते हैं उसे। वह नब्बे साल की बुढ़िया रोती-बिलबिलाती है। कहीं भवानी के लड़के भी उसे ऐसे ही न दागें? ...जिसे जीते जी अपना सारा हक-हुकम होते भी कठोर वचन तक नहीं कह सका कि जाने दे, रे किसनराम, पुतली-जैसी उड़ती छोरी है, जहाँ उसकी मर्जी आए, वहीं बैठने दे' ...उसे ही मरने के बाद दागते कैसे देख सकूँगा? ...अच्छा, गुसाँईज्यू, अगर कोई आदमी जीते जी अपनी आँखें निकालकर किसी गरुड़ पक्षी को दान कर दे, तो वह प्रेत-योनि में भी अंधा ही रहता है, या नहीं?' पांडे जी अनुभव कर रहे थे, ज्यों-ज्यों किसनराम मृत्यु की ओर बढ़ रहा है, त्यों-त्यों भवानी एक रंग-बिरंगी तितली की तरह, उसके अंदर-ही-अंदर उड़ती हुई, उसे एक ऐसे विभ्रम की ओर ले जा रही है, जहाँ मन के बवंडरों के प्रतिरोध की क्षमता न देह में रह जाय, न बुद्धि में। वे डरने लगे थे, कभी अपनी अंधभावुकता में किसनराम सचमुच न आँखें निकाल बैठे। उसकी धँसी हुई आँखों में झाँकने पर उनको लगता - किसनराम ने मछली पकड़ने के जाल को ऊपर से मूठ बाँधकर, नीचे की ओर गहराइयों में फैला दिया है और बार-बार उसकी अतृप्त कामनाएँ उस जाल में फँस कर छटपटाती हैं... बार-बार वह, अपना ही
यह मायाजाल अंदर की ओर समेटने की कोशिश करता है... और तब उसकी आँखों में आस-पास की झुर्रियाँ ऐसे आपस में सिमट आती हैं कि लगता है, जाल की बँधी हुई मूठ एकदम कस दी गई है और डोरियों में भीगा पानी निचुड़ रहा है। ऐसी आँखों को अपनी ही देह पर सहना कितना कठिन होता होगा, जिन्हें दूसरे तक न सह सकें? उस निरे अशिक्षित और अबोध किसनराम की आँखों की गहराई में जो चमक दिखाई देती थी, पानी के तल में मरी पड़ी मछली की सी चमक, उसे देखते में पांडेजी को यक्ष-युधिष्ठिर-प्रसंग याद आ जाता था। उन्हें लगता - बिना अपनी प्रश्नाकुल आँखों के लिए तृप्ति पाए, यह किसनराम उन्हें छोड़ेगा नहीं। न जीते जी, न उपरांत। उन्होंने किसनराम से कहना शुरू कर दिया - 'शास्त्रों में यह भी तो लिखा हुआ है कि जो व्यक्ति पवित्र मन से प्रायश्चित कर लेता है, वह अपनी मरणोत्तर-स्थिति में अवश्य ही स्वर्गवासी हो जाता है...।' किसनराम के प्रश्न पूछते ही, अब पांडे जी कह देते - 'किसनराम, तू तो एकदम निष्छल-निर्वेर मनुष्य है। तुझ-जैसे सात्विक लोग प्रेत-योनि में नहीं जा सकते।' मगर इससे किसनराम के प्रश्न ही घटे थे, उसकी बेचैनी, उसका दुख नहीं। पहले अपनी जिस बेचैनी को वह प्रश्नों में बाँट देता था, अब वह जैसे चट्टान में से बूँद-बूँद रिसते जल की तरह उसके अस्तित्व में इकट्ठा होती जा रही थी। ...और पांडेजी को लगता था, किसनराम की यह बेचैनी यदि नहीं घटी, तो उसकी मुक्ति सचमुच कठिन होगी। उसे यदि नदी में बहा भी दिया गया, तो अपनी ही अर्थी के बाँस के सहारे टिके हुए शव-जैसी उसकी विक्षुब्ध आत्मा, सतह पर उतरकर, ऊर्ध्वमुखी हो आएगी। ...किसनराम की आँखों में मृत्यु की छाया दिखाई पड़ने लगी है और आँखों के रास्ते जिनके प्राण निकलते हैं, उनका चेहरा कितना डरावना हो जाता है? सुयाँल के किनारे चलते-चलते अतीत के प्रवाह में होते पांडेजी को ऐसा लग रहा था, कोई उनकी पीठ पर लदी उस पोटली को नीचे धरती की ओर खींच रहा है, जिसमें यजमानी से मिली हुई सामग्री है। दूर के गाँव में एक वृद्ध यजमान की मृत्यु हो गई थी ओर तेरहीं का पीपल छुआकर, पांडेजी वहीं से वापस लौट रहे थे। पोटली में अनेक अन्य वस्तुओं के साथ, जौ-तिल भी थे और एक जोड़ी बर्तन भी। बाकी बरतन तो गति-किरिया के दिनों ले चुके थे, आज सिर्फ एक लोटा, एक कटोरा, एक चम्मच और एक थाली। किसनराम के मरने पर, हो सकता है, उसके सौतेले भाई उसके थोड़े-से जो बरतन थे, उन्हें भी समेट ले गए हों? ...और, संभव है, अपनी हीन नीयत के कारण, मरे किसनराम के नाम पर कोई बरतन न लगाएँ? पांडेजी को याद आया, चंद्रा बहूरानी जो पानी का लोटा खेत में ले जाती थी, उसे किसनराम छूता नहीं था। बहूरानी लोटे से पानी छोड़ती थीं, और वह दाईं हथेली ओठों से लगाकर, गटागट पीता था। तब भी कैसी जन्म-जन्मांतरों की सी मालूम देती थी उसकी प्यास? पानी में गटकने की आवाज कैसे साफ सुनाई पड़ती थी? गले की घुंडी कैसे लय में डूबती होती थी? ...सोचते-सोचते पांडेजी को लगा, जैसे किसनराम पीछे-
पीछे चलता हुआ, उनकी पीठ पर बँधे लोटे को अपने ओठों की ओर झुका रहा है। पांडेजी के पाँव एकदम भारी-भारी हो आए। उन्हें याद आया, यजमान के मरने से पहले यों ही तसल्ली देने को एक दिन उन्होंने किसनराम को यह आश्वासन दे दिया था कि उसके मरने पर वे खुद उसका तर्पण कर देंगे और तब किसनराम कुछ आश्वस्त हो गया था - 'महाराज, आपके हाथ की तिलांजलि से तो मुझ अभागे के समस्त पापों का तारण हो जाएगा। मगर कहीं ऐसा तो नहीं, गुसाँईज्यू, कि उलटे आप जैसे पवित्र ब्राह्मण देवता से तर्पण कराने का कोई दंड भुगतना पड़े मुझे?' पांडेजी भी जानते थे, किसनराम का तर्पण उनके लिए शास्त्र-विरुद्ध और निषिद्ध है, मगर उसे आश्वस्त करने का एकमात्र उपाय ही यही रह गया था। उन्होंने कह दिया - 'जाति तो मिट्टी की होती है, किसनराम! मिट्टी छूट जाने के बाद, सिर्फ आत्मा रह जाती है और आत्मा तो अछूत होती नहीं...।' मगर इस समय इन सारे तर्कों में जाने का अवसर है कहाँ? चित्त इसी दुविधा में हो गया है कि कहीं किसनराम मर गया हो, तो क्या वो अपना वचन पूरा कर सकेंगे? मन-ही-मन केवल पांडे को अब आभास हुआ कि प्रार्थना करते जा रहे हैं - 'और चाहे जो मरा हो - किसनराम न मरा हो!' गाँव में उन दिनों सिर्फ दो के ही मरने की आशंका ज्यादा थी, एक किसनराम और दूसरी उसकी सौतेली माँ! केवल पांडे एक क्षण को तो संकोच में हुए कि यह किसनराम की सौतेली माँ के प्रति पूर्वग्रह करना तो न होगा कि किसनराम की जगह उसका मर जाना अच्छा मालूम पड़े? फिर इस मनोभाव में हो गए कि नब्बे से ऊपर गए को तो विदा होना ही है - आज नहीं तो कल। भारी कदमों से चलते-चलते श्मशान तक आ पहुँचे, तो वहाँ सिर्फ अंतिम रूप से बुझती चिता शेष रह गई थी। मुर्दा फूँकने वाले जा चुके थे। श्मशान सूना पड़ा था। नदी के बहने
की आवाज के साथ सन्नाटा भी बोलता मालूम पड़ता था। जैसे कि किसी के जा चुके होने का वृतांत सुनाता हो। पांडे बाहरी आचार-संस्कार में शूद्रों को जितना अछूत समझते थे, भावना में नहीं। पिता और माँ से भी उन्होंने संवेदना और उदारता ही पाई थी, मगर परंपरागत सामाजिक-व्यवस्था में जितना उन्हें बाहरी आचार-व्यवहार को जीना पड़ता था, उतना अपने भावनाजगत का अवसर नहीं था। इस एकांत में भी अपने मंतव्य पर जाते हुए उन्हें एक सिहरन-सी जरूर हो आई। किसनराम के संबंध में जिज्ञासा बढ़ती गई थी, मगर दूर से पूछ लेने में जो सुविधा समझी थी, अब वह भी नहीं रही थी। जानना चाहते थे, किसनराम ही था, या उसकी सौतेली माँ थी, या आकस्मिक-रूप से मरा कोई और, मगर दूर से देखने पर चिता में शव भी जलता दिखाई नहीं दे रहा था। संभव है, पूर्णदाह कर दिया गया हो? यह भी संभव है कि अधजला शव बहा दिया गया हो? लेकिन पूछें किससे? नदी से कि अरण्य से? जिज्ञासा के तेज प्रवाह में पांडे थोड़ा आगे बढ़ गए। अजीब मनस्थिति उनकी हो गई। यह आशंका पाँवों को पीछे लौटा लेना चाहती थी कि कहीं दूर खेतों में काम करता या इस ओर आता हुआ कोई व्यक्ति श्मशान टटोलते देखेगा उन्हें, तो न-जाने क्या समझे। एक अछूत के शवदाह के बाद तो वहाँ आखिर खोज क्या रहे हैं? मगर जिज्ञासा जैसे भ्रमित चित्त को चारों ओर घुमा देती कि कहीं कोई ऐसा अवशेष - यानी किसनराम की सौतेली माँ का घाघरा-पिछौरा ही दिख जाए, जिससे आभास हो कि कोई औरत ही मरी है, और शंका टले। तभी एकाएक कोई कपड़ा उनके पाँव से लग गया और पांडे चौंककर, पीछे हट गए। देखा किसनराम की सी काली दोकलिया टोपी है, जिसे चंद्रा बहूरानी से रोटियाँ लेते में वह लोहे के तसले की तरह आगे फैला देता था! नहीं, इस टोपी को पहचानने में चूक नहीं हो सकती। इसमें और किसनराम के सिर में कोई अंतर नहीं। इस टोपी को किसनराम के सिर के बिना जरूर देख रहे हैं - लेकिन किसनराम का सिर तो इस टोपी के बिना कभी देखा नहीं! किसनराम! ...ओमविष्णुर! ...केवल पांडे को लगा, तसले की तरह फैली हुई उस टोपी के पास ही किसनराम का प्रेत भी उपस्थित है और याचना-भरी आँखों से उन्हें घूर रहा है - 'महाराज!' 'हे राम!' ...दुख और विषाद में पांडेजी की आँखें गीली हो आईं। अब तक में अँधेरे में के साँप की तरह डोलती आशंका के प्रमाण-सिद्ध हो जाने से पाँव अपने-आप एकदम हल्के हो गए, जैसे घटना का घटित हो चुकना सारे भ्रमों से निर्भ्रांत कर गया हो। केवल पांडे थोड़ा पीछे लौट कर, फिर आगे निकल आए, गाँव की ओर जाने वाली सड़क पकड़ने के लिए। थोड़ी दूर और सुँयाल के किनारे-किनारे ही चलना था, मगर श्मशान-भूमि से जरा ऊपर पहुँचते ही, फिर पाँव भारी पड़ने लगे। लगा, किसनराम पीछे छूट गया है, और टोपी फैलाए हुए - आखिर क्या माँगना चाहता रहा होगा किसनराम अपने अंतिम क्षणों में? सिर्फ यही तो कि उसकी प्रेत-मुक्ति हो जाए? शायद, मरते समय किसी से कह भी गया हो कि पांडेजी को इस बात की याद दिला दी जाए कि किसनराम का तर्पण करने
का आश्वासन दे रखा था उन्होंने! उन्हें याद है, अंतिम कुछ दिनों अपनी मुक्ति की जो आश्वस्ति किसनराम की आँखों में आ गई थी, वह कुछ सामान्य न थी। प्रेतमुक्ति के इतमीनान में हो गए होने की प्रतिछाया उसके बोलने, सुनने, खाने, पीने और चलने, फिरने तक में झलकने लगी थी। अब वह आत्मपीड़ित नहीं, प्रशांत लगता था। उसके जर्जर शरीर में एक मद्धिम लय-सी आ गई थी। केवल पांडे का यह कहना कि एकांत में ही सही, वो शास्त्रोक्त विधि से उसका तर्पण कर देंगे - सुनकर वह विरागियों की सी सौम्यता में हो गया था। अब कहीं ऐसा न हो, उसकी मरणोत्तर-आत्मा यही खोजती फिरती रही हो कि पांडे उसका तर्पण करते भी हैं, या नहीं? केवल पांडे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जा रहे थे, लगता था, किसनराम उनको पीछे लौटा लेना चाहता है और इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय यही है, उसका तर्पण कर दिया जाए! तमाम-तमाम दुविधाओं से मुक्ति का यही एक मार्ग शेष है। जाति-बिरादरी के लोगों की जानकारी में तो कुछ भी करना संभव नहीं। यहाँ इस सुँयाल-घाटी के एकांत में तो सिर्फ वह ईश्वर साक्षी रहेगा, जिसके लिए मनुष्य-मनुष्य सब एक हैं। न कोई डोम है, न कोई ठाकुर-ब्राह्मण। मगर श्मशान के समीप ही तर्पण करने पर कोई आता-जाता देखेगा, तो प्रश्नवाचक आँखों से घूरेगा। और कहीं यह अफवाह न फैला दे कि पैसे के लोभी ब्राह्मण अब चोरी-चोरी शूद्रों का पौरोहित्य भी करने लगे हैं? थोड़ ही ऊपर, एक पतली धारा सुँयाल से मिल रही थी। पांडे जी आगे बढ़े और संगम के पास एक ऊँची शिला पर पोटली रख दी। पोटली खोलते में लोटा देवप्रेरित-सा बाहर को लुढ़क पड़ा। पांडे जी का मन भर आया। थोड़ी देर तक वो किसनराम के साथ बीते बाल्यावस्था के क्षणों की स्मृति में डूबे ही रह गए। आखिर धीरे से जल भरकर, उन्होंने नदी-किनारे की मि
ट्टी में वेदी-जैसी बनाकर, लोटा रख दिया। जिंदगी-भर तो यजमानों की हथेली से दान ही ग्रहण किया है, आज थोड़-सा दान अपने सेवक के नाम पर स्वयं भी क्यों न कर लें? चिंतना में उदार होते-होते, पांडे यह भी भूल गए कि एक शूद्र का तर्पण कर रहे हैं। थाली-गिलास और कटोरा भी उन्होंने निकाल लिया। थाली में जौ-तिल डाल लिए। थोड़े-से कुश भी बीन जाए। सारी सामग्री ठीकर कर लेने के बाद, पहली तिलांजलि देने के लिए, 'किसनराम प्रेत प्रेतार्थ', कहते-कहते उनका मन हो आया, पीछे लौटकर श्मशान के पास पड़ी किसनराम की टोपी उठा जाएँ और उसी में जौ-तिल छोड़ दें - 'विष्णुविष्णु...' किसनराम का तर्पण करके गाँव के एकदम समीप पहुँच गए, तो एकाएक ही केवल पांडे को याद आया कि कल ही उन्हें अपने पिता ही का श्राद्ध भी तो करना है? ...पहले दिन एक शूद्र का तर्पण करने के बाद फिर अपने धर्मप्राण और शास्त्रजीवी पिता का श्राद्ध! पांडे जी ने अपने हाथों की ओर देखा। लगा, अशुद्ध हो गए हैं। उद्विग्न होकर, अपने मुँह पर अँगुलियाँ फिराईं, तो वातावरण में सुर्ती तोड़ने की जैसी तीखी गंध व्याप्त होती अनुभव हुई। पांडे सोच रहे थे, यों चोरी-चोरी शूद्र का तर्पण करने के बाद, बिना घरवालों से कहे-सुने उन्हें पिताजी का श्राद्ध कदापि नहीं करना चाहिए। स्वर्गस्थ पितर के प्रति यह छल अनिष्टकर ही होगा। जानते थे, अछूतों के प्रति तमाम उदारता के बावजूद, जातीय-संस्कार की निष्ठा और कट्टरता उनके पिता में प्रभूत थी। जो शास्त्रसम्मत है, वही मानवीय भी है, ऐसा उनका मत था ओर इसे निबाहा भी। जिसने जीवन भर शास्त्र-विरुद्ध कोई कार्म नहीं किया, उसी का श्राद्ध अशुद्ध हाथों से कैसे किया जा सकता है? गाँव समीप आता जा रहा था। मगर केवल पांडे बहुत थक गए थे। उन्हें भय लग रहा था, शुद्ध मन से श्राद्ध करने के लिए उन्हें सत्य बोलना ही पड़ेगा, फिर चाहे घरवालों और बिरादरी में कैसी ही अप्रिय प्रतिक्रिया क्यों न हो। उन्हें लगा, किसनराम की प्रेम-मुक्ति तो हो गई होगी, लेकिन अब पश्चाताप का प्रेत उनसे चिपट गया है। किसनराम की याद आने पर माथे का पसीना पोंछते हुए, उन्होंने पुनः श्मशान की दिशा की ओर आँखें उठाईं। उन्हें लगा, अस्ताचलगामी सूर्य और उनके बीच में इस समय उनका अपना ही प्रेत लटका हुआ है। - और इसी अवसन्नता में वो कुछ देर वहीं पगडंडी के किनारे की शिला पर बैठे ही रह गए। सौतेली माँ को फूँककर, घर को दूसरे रास्ते से वापस लौटते किसनराम ने केवल पांडे को ध्यान में डूबा हुआ-सा, उदास सड़क के किनारे बैठे देखा, तो परम श्रद्धाभाव में 'महाराज' कहते हुए, दंडवत में झुका। जैसी कहीं अंतरिक्ष में से आती-सी पुकार को सुनकर, केवल पांडे ने चौंककर सामने की ओर दृष्टि की, तो किसनराम का नंगा सिर दिखाई दिया। बीच सिर में, जहाँ पर बाल नहीं रह गए थे, पसीने की बूँदें थीं। और केवल पांडे चकित से देखते ही रह गए। किसनराम दोनों हाथ दंडवत में जोड़े, जमीन पर यथावत झुका ही था। 'जीता रहो' कहने को हाथ ऊपर उठाते हुए, के
वल पांडे को लगा, जैसे आसमान में लटके किसी प्रेत के बंधन से अपने को मुक्त कर रहे हों।
जीवन-प्रवेश क्या है? यह तब होता है जब, सत्य समझने के बाद, लोग परमेश्वर को जानने लगते हैं, उसके प्रति समर्पित होने लगते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार कर उन्हें जानने लगते हैं, और उन्हें दूर करने लगते हैं, और इस प्रकार सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। जब व्यक्ति सत्य को अभ्यास में लाने और वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होता है, तो वह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर जाता है। सत्य को अभ्यास में ला सकने वाले लोगों के पास जीवन-प्रवेश होता है। जैसे ही सत्य व्यक्ति का जीवन बन जाता है, वे फिर किसी व्यक्ति, मामले या चीज से विवश नहीं होते - वे वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे, वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करेंगे और वास्तव में परमेश्वर की आराधना करेंगे। सत्य की वास्तविकता और सच्ची गवाही होने का यही अर्थ है; यह जीवन-प्रवेश का अंतिम परिणाम है। अगर कोई व्यक्ति कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है, लेकिन फिर भी एक शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है, अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है, प्रार्थना नहीं करता या सत्य नहीं खोजता, थोड़ा-सा भी बदले बिना वर्षों तक विश्वास करता रहता है, और किसी अविश्वासी से शायद ही कुछ अलग होता है, तो ऐसे व्यक्ति के पास कोई जीवन-प्रवेश नहीं होता, उसने न तो सत्य प्राप्त किया होता है, न ही जीवन। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन जी रहे हो। तुम चाहकर भी परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकते, परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, या मजबूत नहीं बन सकते। अगर तुम मजबूत नहीं बन सकते, तो तुम किस प्रकार की स्थिति में फँसे रहोगे? क्या तुम हमेशा नकारात्मकता की स्थिति में नहीं फँसे रहोगे? तुम हमेशा अपने परिवेश से प्रभावित होओगे, इस बात से डरोगे कि तुम बाहर निकाल दिए जाओगे, परमेश्वर की नाराजगी से डरोगे, तरह-तरह की बातों से डरोगे, निष्क्रिय रूप से और अनिच्छा से अपना थोड़ा-बहुत काम करोगे, और कुछ अच्छे कर्म तैयार करोगे। मूल रूप से, तुम खींचे जाओगे, ले जाए जाओगे, धकेले जाओगे, और तुम्हारा सक्रिय और तत्पर हिस्सा बहुत छोटा होगा, इसलिए तुम्हें अपना काम करने से जो परिणाम मिलेंगे, वे असंतोषजनक होंगे। ऐसे लोग अपना हृदय परमेश्वर को देने में कभी सक्षम नहीं होते, और इसलिए वे बहुत-से लोगों, मामलों और चीजों से विवश और बँधे होते हैं और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में फँसे रहते हैं। इस वजह से वे काफी थका देने वाला जीवन जीते हैं। वे बड़ी पीड़ा में होते हैं और स्वतंत्रता और मुक्ति नहीं पा सकते। कुछ समय बाद उनकी इच्छा-शक्ति भी उन्हें बनाए नहीं रख पाती, और वे अविश्वासियों की तरह रोजाना एक शैतानी स्वभाव में जीते हैं। क्या परमेश्वर में इस तरह का विश्वास व्यक्ति को उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाता है? कुछ लोग कहते हैं : "मैं उत्साही हूँ, मैं परमेश्वर के लिए काम कर
ने को तैयार हूँ। मैं युवा हूँ, मुझमें ऊर्जा और संकल्प है, और मैं कठिनाइयों से नहीं डरता।" क्या यह सब किसी काम का है? यह किसी काम का नहीं है। तुम्हारी ऊर्जा, चाहे जितनी भी हो, बेकार है। व्यक्ति के पास जो थोड़ी-सी ताकत है, वह उसे कब तक बनाए रख सकती है? वे अभी भी बार-बार असफल होंगे और लड़खड़ाएँगे, और जब नकारात्मकता में गिरेंगे तो पंगु हो जाएँगे। अगर तुम सत्य नहीं समझते, या अगर तुममें सच्ची आस्था नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास करना बेकार है। अगर तुममें सिर्फ उत्साह या ऊर्जा है, तो वह किसी काम की नहीं होगी। ये चीजें जीवन नहीं हैं, ये केवल व्यक्ति का क्षणिक उत्साह और रुचि हैं। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। चाहे पुरुष हों या महिला, बूढ़े हों या जवान, उन सबमें ऊर्जा के संक्षिप्त विस्फोट होते हैं, क्षणिक उत्साह होता है, क्षणिक आवेग होते हैं; कभी-कभी वे सब उत्साह से भर जाते हैं, उत्तेजित हो जाते हैं, पर यह साहस उतावलेपन से पैदा होता है और टिकता नहीं। लोगों के सिद्धांत, आदर्श और सपने पलक झपकते ही धराशायी हो जाते हैं और सत्य के बिना लोग अडिग नहीं रह पाते। क्या उतावलेपन से जीने वाला व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है? (नहीं, वह नहीं कर सकता।) इसलिए, लोगों के पास जीवन-प्रवेश होना चाहिए, उन्हें सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं : "सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना इतना कठिन क्यों है? मैं क्यों इतने फंदों में फँसा हूँ? मुझे क्या करना चाहिए?" क्या लोग यह समस्या हल करने के लिए खुद पर भरोसा कर सकते हैं? ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं : "मुझमें इच्छाशक्ति और संकल्प है। मैं कठिनाइयों से नहीं डरता। मैंने निश्चय कर लिय
ा है। मैं हर बाधा पार करूँगा, मैं इन चुनौतियों को गले लगाऊँगा। मैं किसी चीज से नहीं डरता। चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, मैं अंत तक डटा रहूँगा!" क्या यह उपयोगी है? यह वास्तव में उन्हें थोड़े समय के लिए बनाए रख सकता है, लेकिन उनकी व्यावहारिक कठिनाइयाँ अभी भी बनी रहेंगी, और एक भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उनके भीतर जड़ें जमा चुका होगा, और वह बदला नहीं होगा। अगर तुम अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने में लगे रहते हो, लेकिन तुमने अपना जीवन-स्वभाव नहीं बदला है या सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो? तुम अभी भी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकते। परमेश्वर में विश्वास करना यह प्रश्न नहीं है कि तुम अंत तक डटे रह सकते हो या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि तुम सत्य, जीवन और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। अगर व्यक्ति सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकता, अगर वह सत्य को अपना जीवन नहीं बना सकता, तो क्या उसका उत्साह या जोश लंबे समय तक टिका रहेगा? वह नहीं टिक सकता। लोगों को सत्य समझना चाहिए, और उसके स्थान पर सत्य का उपयोग करना चाहिए। जब व्यक्ति अपना भ्रष्ट स्वभाव हल कर लेता है और सत्य का अभ्यास करने के लिए आस्था और सिद्धांत रखता है, तो वह तमाम विफलताओं के बावजूद बेहिचक अडिग रहने और प्रयास करते रहने में सक्षम हो जाएगा। चाहे उसके सामने जो भी परिवेश, बाधाएँ, यहाँ तक कि जो भी प्रलोभन आएँ, वह हमेशा परमेश्वर पर भरोसा करेगा और शैतान पर विजय पाने के लिए उसकी ओर देखेगा। यह परिणाम पाने के लिए तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उस पर विश्वास करना चाहिए, प्रार्थना में उससे अपनी कठिनाइयाँ बतानी चाहिए, और उससे सच्चाई से बात करनी चाहिए। साथ ही, जब तुम वास्तविकता में अपना कार्य करते हो तब, और अपने वास्तविक जीवन के दौरान, तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि कार्य कैसे किया जाए, ताकि तुम सत्य का अभ्यास कर सको। तुम्हें उन लोगों को खोजकर उनके साथ संगति करनी चाहिए, जो सत्य समझते हैं, जिनमें सत्य समझने की क्षमता है, और ऐसा करके थोड़ा ज्ञान और सीख प्राप्त करनी चाहिए और अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। जब तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हो, तो क्या इससे तुम्हारी समस्या हल नहीं हो जाएगी? अगर तुम हमेशा झिझकते हो और संगति नहीं करते, और मन ही मन सोचते हो : "हो सकता है कि एक दिन मेरा आध्यात्मिक कद बढ़ जाए और मैं स्वाभाविक रूप से सत्य समझ जाऊँ, इसलिए मुझे अभी इसके बारे में कुछ करने की आवश्यकता नहीं है" - इस तरह की सोच अस्पष्ट, अवास्तविक है और असफलताओं का कारण बन सकती है। यह समस्या सत्य समझने वाले लोगों को तलाशकर उनके साथ संगति करके हल की जा सकती है। अगर तुममें सत्य समझने की क्षमता है, तो तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़कर भी समस्या का समाधान कर सकते हो। तुम इस समस्या के समाधान को गंभीरता से क्यों न
हीं लेते? अगर तुम इसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो क्या समस्या अपने आप दूर हो जाएगी? यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। अब जब चीजें तुम लोगों पर पड़ती हैं, तो क्या तुम सत्य खोजने में सक्षम होते हो? क्या तुमने सीखा है कि सत्य कैसे खोजा जाता है? अपने पेशेवर क्षेत्र में कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल करने के सिवा, जब तुम्हारे जीवन-प्रवेश की - अपनी विभिन्न अवस्थाएँ सुधारने और अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने की बात आती है, तो क्या तुम सत्य खोज पाते हो? अगर तुम सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला कोई काम करने के कारण खुद से निपटे जाने पर अभी भी शिकायत करते हो, अगर तुम अपनी काट-छाँट किए जाने और खुद से निपटे जाने पर अभी भी विवश महसूस करते हो, और यह सोचकर कि तुम बाहर निकाले जा रहे हो, निराश होने की हद तक चले जाते हो, और नकारात्मक और सुस्त हो जाते हो, तो क्या तुम्हारा शैतानी स्वभाव इतना गंभीर नहीं है कि उससे तुम्हारा दम घुटता हो? जब लोग सत्य समझते हैं, तो उनकी कठिनाइयाँ बहुत ज्यादा और बड़ी होती हैं; जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो उनके नकारात्मक हिस्से बहुत जल्दी और बहुत लंबे समय के लिए सामने आ जाते हैं, और वे सत्य का अभ्यास बहुत धीरे-धीरे और बहुत कम करते हैं। जब लोग कुछ खास परिवेशों का सामना करते हैं, या दूसरों की कुछ खास नजरों पर गौर करते हैं, या कुछ शब्द बोले जाते हुए सुनते हैं, या कोई खास जानकारी प्राप्त करते हैं, तो समय और स्थान चाहे कुछ भी हो, उनमें नकारात्मक चीजें उत्पन्न होंगी। ये एक भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक उद्गार हैं। इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि मानव-जीवन में सत्य का कोई अंश नहीं है। लोगों से स्वाभाविक रूप से निकलने वाली अपरिवर्तित चीजें, चाहे तुम उन्हें अपने द
िमाग में सोचो या उन्हें अपने मुँह से बोलो, या जिन्हें तुम करना चाहो या करने की योजना बनाओ - जानबूझकर या अनजाने - ये सभी चीजें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित हैं। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कहाँ से निकलते हैं? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उनकी शैतानी प्रकृति से निकलते हैं, वह स्रोत है। लोगों से निकलने वाली भ्रष्ट चीजों को ध्यान में रखते हुए, यह स्पष्ट है कि लोगों में सत्य की कोई वास्तविकता नहीं है, उनमें कोई सामान्य मानवता नहीं है, उनमें कोई सामान्य समझ नहीं है। अभी, तुम लोग आत्म-विश्लेषण कर सकते हो। अगर तुम आत्म-चिंतन पर गौर करके उस पर ध्यान केंद्रित करते हो, तो तुम जान सकते हो कि तुम्हारे इरादे, विचार और दृष्टिकोण सही हैं या नहीं, और वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। आम तौर पर, तुम ये चीजें थोड़ी-थोड़ी पहचान और समझ पाओगे। तो, जब तुम ये चीजें समझ जाओगे, तो क्या तुम लोग समाधान के लिए सत्य खोज पाओगे? या तुम यह सोचकर उन्हें अपने आप विकसित होने दोगे : "मैं इसी तरह से सोचना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि इस तरह से सोचना मेरे लिए फायदेमंद है। अन्य लोगों को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। अगर मैं इन चीजों को जोर से नहीं कहता, या इन पर कार्रवाई नहीं करता, अगर मैं इनके बारे में सिर्फ सोचता ही हूँ, तो क्या यह ठीक नहीं है?" क्या कुछ लोग नहीं हैं, जो ऐसा करते हैं? यह किस चीज की अभिव्यक्ति है? वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि इस तरह से सोचना गलत है, पर वे सत्य नहीं खोजते, वे इन विचारों को अलग नहीं रखते, या इन्हें त्याग नहीं देते। वे पूरी तरह से बेफिक्र होकर उस तरह से सोचने और कार्य करने में लगे रहते हैं। ये लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और अडिग नहीं रह सकते। कुछ लोग कोई कर्तव्य नहीं निभाते, और कोई उनके प्रति गंभीर रुख नहीं अपनाता - इन लोगों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले के रूप में, परमेश्वर के वचनों को पढ़ना, कलीसियाई जीवन जीना और आम तौर पर अविश्वासियों की तरह स्वच्छंदतापूर्वक बुरी चीजें या काम न करना ही काफी है; उन्हें लगता है कि शायद अंत में उन्हें कुछ आशीष मिलेंगे, और वे बचे रहने में सक्षम होंगे। लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में इसी प्रकार के खयाली पुलाव पकाते हैं। सतही तौर पर, वे कोई गंभीर गलतियाँ नहीं करते, लेकिन उनमें जीवन-प्रवेश बिल्कुल भी नहीं होता, न ही उन्होंने सत्य की कोई वास्तविकता प्राप्त की होती है। जैसे ही कोई उनके प्रति गंभीर रुख अपनाता है, उन्हें एहसास होता है कि वे समस्याओं और कमियों से भरे हुए हैं, और वे यह सोचते हुए नकारात्मक हो जाते हैं : "सब खत्म हो गया, है न? मैंने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, और मुझे इससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। लगता है, परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में आसान नहीं है!" वे ठंडे पड़ जाते हैं और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक नहीं रहते। कुछ समय बाद वे खोखले महसूस करते
हैं, और उन्हें लगता है कि आशा रखने के लिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता है। जब वे अपना कर्तव्य निभाना शुरू करते हैं, और लोग उनके प्रति फिर से गंभीर रुख अपना लेते हैं, तो अंततः उन्हें लगता है कि : "लोगों के पास सत्य होना चाहिए, वरना उनका गलतियाँ करना बहुत आसान होता है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे हमेशा अपराध करेंगे और उनसे निपटा जाएगा। अगर वे काम करने के लिए अपने उत्साह पर भरोसा करते हैं, तो भी उनसे निपटा जाएगा। मुझे हर चीज में सावधान रहना चाहिए। मुझे लापरवाही से बिल्कुल नहीं बोलना या करना चाहिए। मुझे चीजों में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। अलग दिखने की अपेक्षा कायर होना बेहतर है।" उन्हें लगता है कि इस तरह से अभ्यास करना पूरी तरह से उचित है, कि इसमें कोई गलती नहीं निकाली जा सकती, लेकिन उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बिंदु अनदेखा कर दिया होता है, जो यह है कि उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, न ही वे अपने जीवन-प्रवेश का अनुसरण करते हैं, और यह उनका घातक दोष है। जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो सिर्फ काम पूरा होने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। अपना काम पूरा करने के लिए वे सुबह से शाम तक मेहनत करते हैं और कभी-कभी तो इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें दो वक्त खाना खाने का भी ध्यान नहीं रहता। वे वास्तव में कष्ट उठा सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं, लेकिन उनके पास कोई जीवन-प्रवेश नहीं होता। हर मोड़ पर, वे इस डर से दूसरों से सावधान रहते हैं कि वे गलती कर बैठेंगे और उनसे निपटा जाएगा। क्या इस तरह की अवस्था सही है? क्या यह ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य का अनुसरण करता है? अगर लोग अंत तक इस तरह अपना कर्तव्य निभाएँगे, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे या सत्य की व
ास्तविकता में प्रवेश कर पाएँगे? (नहीं।) क्या तुम लोगों में ऐसे बहुत-से लोग नहीं हैं? क्या तुम लोग अक्सर इसी अवस्था में नहीं होते? (हाँ, होते हैं।) क्या तुम लोग यह सोचते हुए सतर्क रहते हो कि यह कार्य करने का एक खराब तरीका है, कि तुम एक नकारात्मक अवस्था में रह रहे हो? जब चीजें तुम पर आती हैं, तो तुम हमेशा कायरों की तरह कार्य करते हो, तुम हमेशा लोगों को खुश करने वालों की तरह काम करते हो, हमेशा समझौता करते हो, हमेशा बीच का रास्ता अपनाते हो, कभी किसी का अपमान नहीं करते या चीजों में अपनी टाँग नहीं अड़ाते, कभी हद पार नहीं करते - यह ऐसा है मानो तुम अपनी जगह खड़े हो, अपने कर्तव्य से चिपके हो, जो कुछ कहा जाता है वही करते हो, न तो आगे खड़े होते हो न पीछे, और प्रवाह के साथ बहते हो - मुझे बताओ, अगर तुम अंत तक इसी तरह से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हो, तो क्या तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे? क्या तुम लोग जानते हो कि इस तरह की अवस्था काफी खतरनाक है, कि न केवल तुम परमेश्वर की पूर्णता प्राप्त करने में असमर्थ होगे, बल्कि तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाए जाने की भी संभावना है? क्या इस प्रकार का उत्साहहीन व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? क्या वह उस तरह का व्यक्ति होता है, जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है? इस तरह की अवस्था में रहने वाला व्यक्ति अक्सर लोगों को खुश करने वाले के विचार प्रकट करता है और उसके भीतर परमेश्वर का कोई डर नहीं होता। अगर व्यक्ति बिना किसी वाजिब कारण के आतंक और डर महसूस करता है, तो क्या यह परमेश्वर से डरने वाला हृदय है? (नहीं।) भले ही वह अपना पूरा अस्तित्व अपने कर्तव्य में झोंक दें, अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दे और अपना परिवार त्याग दे, अगर वह परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देता और परमेश्वर से सावधान रहता है, तो क्या यह एक अच्छी अवस्था है? क्या यह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने की सामान्य अवस्था है? क्या इस अवस्था का भावी विकास भयानक नहीं है? अगर व्यक्ति इस अवस्था में बना रहता है, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या वह जीवन प्राप्त कर सकता है? क्या वह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी भी यही अवस्था है? जब तुम इसे जान जाते हो, तो क्या तुम अपने मन में सोचते हो : "मैं हमेशा परमेश्वर से सावधान क्यों रहता हूँ? मैं हमेशा इसी तरह क्यों सोचता हूँ? इस तरह सोचना कितना भयावह है! यह परमेश्वर का विरोध करना और सत्य को नकारना है। परमेश्वर से सावधान रहना उसका विरोध करने के समान है"? परमेश्वर से सावधान रहने की अवस्था एक चोर होने के समान है - तुम प्रकाश में जीने की हिम्मत नहीं करते, तुम अपने शैतानी चेहरा उजागर होने से डरते हो, और साथ ही, तुम इस बात से डरते हो : "परमेश्वर के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। वह कभी भी और कहीं भी लोगों का न्याय और ताड़ना
कर सकता है। अगर तुम परमेश्वर को क्रोधित करते हो, तो हलके मामलों में वह तुम्हारी काट-छाँट करेगा और तुमसे निपटेगा, और गंभीर मामलों में वह तुम्हें दंड देगा, तुम्हें बीमार करेगा या तुम्हें पीड़ित करेगा। लोग ये चीजें सहन नहीं कर सकते!" क्या लोगों को ये गलतफहमियाँ नहीं हैं? क्या यह परमेश्वर से डरने वाला हृदय है? (नहीं।) क्या इस प्रकार की अवस्था भयानक नहीं है? जब व्यक्ति इस अवस्था में होता है, जब वह परमेश्वर से सावधान रहता है और हमेशा ऐसे विचार रखता है, जब वह हमेशा परमेश्वर के प्रति इसी तरह का रवैया रखता है, तो क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मान रहा है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास है? जब व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह से विश्वास करता है, जब वह परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानता, तो क्या यह कोई समस्या नहीं है? कम से कम, लोग परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं स्वीकारते, न ही वे उसके कार्य का तथ्य स्वीकारते हैं। वे सोचते हैं : "यह सच है कि परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, लेकिन वह क्रोधी भी है। जब परमेश्वर का क्रोध किसी पर पड़ता है, तो वह विनाशकारी होता है। वह लोगों को किसी भी समय मौत के घाट उतार सकता है, जिसे चाहे नष्ट कर सकता है। परमेश्वर का क्रोध मत भड़काओ। यह सच है कि उसका प्रताप और क्रोध किसी अपराध की अनुमति नहीं देता। उससे दूरी बनाए रखो!" अगर व्यक्ति का इस तरह का रवैया और ये विचार हैं, तो क्या वह पूरी तरह से और ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सकता है? वह नहीं आ सकता। क्या तब उसके और परमेश्वर के बीच एक दूरी नहीं होती? क्या उन दोनों को अलग करने वाली बहुत-सी चीजें नहीं होतीं? (हाँ, होती हैं।) कौन-सी चीजें लोगों को परमेश्वर के सामने आने से रोकती हैं? (उनका भविष्य और नियति।) (प्रसिद्धि, लाभ और रु
तबा।) और क्या? किन चीजों के कारण लोग सत्य से उकता जाते हैं, सत्य को नकार कर देते हैं, परमेश्वर के जीवन-पोषण और उसके उद्धार को नकार देते हैं? इस पर विचार करो : लोगों के कौन-से हिस्से उन्हें ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आने, सत्य का अभ्यास करने, और अपने शरीर और हृदय को उनका प्रभार लेकर उन पर शासन करने के लिए परमेश्वर को देने से रोकते हैं? किन चीजों के कारण लोग परमेश्वर से डरते और परमेश्वर को गलत समझते हैं? लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, साथ ही उनके शैतानी फलसफे और शैतानी विचार भी हैं; वे धोखेबाज हैं, वे हर मोड़ पर परमेश्वर से सावधान रहते हैं, उस पर अविश्वास करते हैं और उसे गलत समझते हैं। जब उनमें इन सभी चीजों की मिलावट होती है, तो क्या व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन मान सकता है? कुछ लोग कहते हैं : "मैं रोजाना परमेश्वर के वचन खाता-पीता हूँ। जब मैं उसके वचन पढ़ता और उनसे प्रेरित महसूस करता हूँ, तो मैं प्रार्थना करता हूँ। मैं परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में सँजोता हूँ। मैं उन्हें रोजाना पढ़ता हूँ, और अक्सर चुपचाप प्रार्थना करता हूँ, और परमेश्वर की स्तुति के भजन गाता हूँ।" हालाँकि इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन अच्छा है, लेकिन अगर ये लोग अपने ऊपर आने वाली चीजों पर प्रतिक्रिया करते समय अभी भी अपने विचारों पर भरोसा करते हैं, अगर वे सत्य बिल्कुल भी नहीं खोजते, और स्वयं द्वारा समझे गए किसी भी सिद्धांत का उन पर कोई असर नहीं होता, तो क्या चल रहा है? लोग सत्य से प्रेम नहीं करते। वे परमेश्वर के वचनों को सँजोने का दावा करते हैं, लेकिन वे तुलना के लिए खुद को उनके सामने नहीं रखते और उन्हें अभ्यास में नहीं लाते। यह बहुत तकलीफदेह है, और तब लोगों के लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत कठिन है। लोग कभी सत्य नहीं समझते, न ही उन्हें परमेश्वर के बारे में थोड़ा-सा भी ज्ञान है, इसलिए निश्चित रूप से उनमें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ होती हैं, और उनके और परमेश्वर के बीच एक दीवार रहती है। क्या तुम सभी लोगों को इसका व्यक्तिगत अनुभव नहीं है? तुम कहते हो : "मैं परमेश्वर से सावधान नहीं रहना चाहता, मैं वास्तव में उस पर भरोसा करना चाहता हूँ, लेकिन जब मेरे साथ कुछ होता है, तो मैं उससे सावधान हुए बिना नहीं रह पाता। मैं खुद को समेटकर परमेश्वर से अलग कर लेना चाहता हूँ, और खुद को बचाने के लिए शैतानी फलसफों का इस्तेमाल करना चाहता हूँ। मेरे साथ क्या गलत है?" इससे पता चलता है कि लोगों के पास सत्य नहीं है, वे अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, और वे अभी भी शैतान द्वारा नियंत्रित हैं। अपनी शैतानी प्रकृति के कारण लोगों की यह दयनीय समानता है - उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना कठिन है। सत्य का अभ्यास न करना जीवन-प्रवेश में सबसे बड़ी बाधा है। अगर इस समस्या का समाधान नहीं होता, तो व्यक्ति के लिए अपना हृदय परमेश्वर को द
ेना, उसका कार्य प्राप्त करना या सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना कठिन है। क्या तुम सभी लोगों ने इसका अनुभव किया है? इस मामले को कैसे सुलझाया जा सकता है? तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानने की कोशिश करनी चाहिए, और देखना चाहिए कि कौन-सी चीजें तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक रही हैं। इस समस्या का समाधान करना महत्वपूर्ण है। क्या सत्य का अनुसरण करना उतना ही जटिल या उतना ही कठिन है, जितना कि विद्वत्ता की किसी शाखा का अनुसरण करना? यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है, यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सत्य का अनुसरण करना अपने आप में कठिन नहीं है; इसमें विज्ञान के किसी विशेषज्ञता के क्षेत्र का अध्ययन करने की तुलना में कम प्रयास करने की आवश्यकता होती है - यहाँ तक कि यह जीविकोपार्जन से भी आसान है। ऐसा क्यों है? सत्य की वास्तविकता वह है, जिसे सामान्य मानवता वाले लोगों को जीना चाहिए और जो उनमें होनी चाहिए। यह लोगों की सामान्य मानवता से संबंधित है, इसलिए यह उनके विचारों और भावों से, जो कुछ भी वे सोचते हैं उससे, उन सभी कार्यों और व्यवहारों से जो वे अपने दैनिक जीवन में करते हैं, या उनके मन से अलग नहीं है। सत्य कोई सिद्धांत नहीं है, न यह शिक्षा का कोई क्षेत्र है, न ही यह कोई पेशा है। सत्य खोखला नहीं है। सत्य का सामान्य मानवता से गहरा संबंध है - सत्य वह जीवन है, जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में होना चाहिए। यह तुम्हारी तमाम खामियाँ, तुम्हारी बुरी आदतें और तुम्हारे नकारात्मक और गलत विचार ठीक कर सकता है। यह तुम्हारा शैतानी स्वभाव बदल सकता है, यह तुम्हारा जीवन बन सकता है, यह तुम्हें मानवता और विवेक रखने में सक्षम कर सकता है, यह तुम्हारे विचारों और तुम्हारी
मानसिकता को सामान्य कर सकता है - यह तुम्हारे हर हिस्से को सामान्य बना सकता है। अगर सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो तुम जो जीते हो और मानवता के तुम्हारे सभी उद्गार सामान्य होंगे। इसलिए, सत्य का अनुसरण और अभ्यास कोई अस्पष्ट, अथाह चीज नहीं है, न ही यह कुछ खास तौर से कठिन है। अभी, हालाँकि तुम लोग सत्य से थोड़ा प्रेम करते हो और बेहतर बनने के लिए प्रयास करने को तैयार हो, फिर भी तुमने अभी तक मार्ग को बिल्कुल भी स्पर्श नहीं किया है। पहला कदम हमेशा सबसे कठिन होता है। अगर तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो और उसकी मिठास का स्वाद ले सकते हो, तो तुम्हें लगेगा कि सत्य का अनुसरण करना एक आसान मामला है। अगर व्यक्ति सत्य को अपना जीवन नहीं मानता और हमेशा भ्रष्ट स्वभाव में जीता है, तो यह कैसे प्रकट होता है? जब व्यक्ति ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उसके पास स्वाभाविक रूप से अपनी शैतानी प्रकृति की बाधाएँ और बेड़ियाँ हटाने का कोई तरीका नहीं होता। उससे जो भ्रष्ट स्वभाव निकलते हैं, वे स्वाभाविक रूप से अहंकार और दंभ, अपने आप में कानून होना, मनमानापन और लापरवाही, झूठ बोलना और धोखा देना, कपट और छल, प्रतिष्ठा और हितों के लिए लालच, लाभ के अलावा और कुछ न चाहना और स्वार्थ और नीचता होते हैं। इसके अलावा, अन्य लोगों के साथ अपने व्यवहार में वह अविश्वास करने, आलोचना करने और दूसरों पर हमला करने की ओर प्रवृत्त होता है। वह हमेशा अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर बोलता और कार्य करता है; उसके हमेशा व्यक्तिगत इरादे और उद्देश्य होते हैं, और दूसरों के बारे में उसके विचार हमेशा पूर्वकल्पित होते हैं। गतिरोधों या असफलता का सामना करने पर वह हमेशा नकारात्मक हो जाता है हैं। कभी-कभी वह अत्यधिक अहंकारी होता है; कभी-कभी वह इतना नकारात्मक होता है कि खुद को जमीन में गड्ढा खोदकर दबा सकता है। वह हमेशा अतियों पर चला जाता है - अगर वह अपने दाँत नहीं दिखा रहा होता और पंजे नहीं लहरा रहा होता, तो वह नकारात्मक होता है और दयनीय व्यवहार करने की कोशिश कर रहा होता है। वह कभी सामान्य नहीं होता। यह वह अवस्था है, जिसमें तुम लोग अभी हो। तुम पीड़ा सहने और कीमत चुकाने को तैयार हो, और संकल्प और निश्चय से भरे हो, पर तुममें सत्य की वास्तविकता नहीं है। अगर व्यक्ति सत्य की वास्तविकता को अपना जीवन मान ले, तो यह कैसे अभिव्यक्त होगा? सबसे पहले, वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और मानवीय समानता को जीने में सक्षम होगा; वह एक ईमानदार व्यक्ति होगा, ऐसा व्यक्ति जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया हो। स्वभावगत परिवर्तन के कई लक्षण होते हैं। पहला लक्षण उन चीजों के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना है, जो सही और सत्य के अनुरूप हैं। चाहे कोई भी राय दे, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, तुम उसके साथ निभा पाओ या नहीं, तुम उसे जानते हो या नहीं, तुम उससे परिचित हो या नहीं, उसके साथ तुम्हारा संबंध अच्छा हो या बुरा, अगर वह जो कहता है वह सही है, सत्य के अनुरूप है और प
रमेश्वर के घर के कार्य के लिए फायदेमंद है, तो तुम किन्हीं अन्य कारकों से प्रभावित हुए बिना उसे सुन पाओगे, अपना पाओगे और स्वीकार पाओगे। सही और सत्य के अनुरूप चीजों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम होना पहला लक्षण है। दूसरा लक्षण है कुछ घटित होने पर सत्य की खोज करने में सक्षम होना; यह न केवल सत्य को स्वीकारने में सक्षम होने के बारे में है, बल्कि सत्य का अभ्यास करने और मामले अपनी इच्छा के अनुसार न सँभालने के बारे में भी है। चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो, चीजें स्पष्ट रूप से न देख पाने पर तुम खोज पाओगे और यह देख पाओगे कि समस्या कैसे सँभालनी है और कैसे अभ्यास करना है, उस रूप में जो सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करे। तीसरा लक्षण है किसी भी समस्या का सामना करने पर परमेश्वर की इच्छा पर विचार करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने के लिए देह के प्रति विद्रोह करना। चाहे तुम जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम परमेश्वर की इच्छा पर विचार करोगे, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओगे। उस कर्तव्य के लिए परमेश्वर की जो भी अपेक्षाएँ हों, तुम उसे निभाते हुए उन अपेक्षाओं के अनुसार और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करोगे। तुम्हें यह सिद्धांत समझना चाहिए, और अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और ईमानदारी से निभाना चाहिए। परमेश्वर की इच्छा पर विचार करने का यही अर्थ है। अगर तुम नहीं जानते कि किसी विशेष मामले में परमेश्वर की इच्छा पर विचार या परमेश्वर को संतुष्ट कैसे किया जाए, तो तुम्हें खोज करनी चाहिए। तुम लोगों को स्वभावगत परिवर्तन के इन तीन लक्षणों से अपनी तुलना करनी चाहिए, और देखना चाहिए कि तुममें ये लक्षण हैं या नहीं। यदि तुम्हारे पास इ
न तीन क्षेत्रों में व्यावहारिक अनुभव और अभ्यास के मार्ग हैं, तो तुम मामले सिद्धांतों के साथ सँभालोगे। चाहे तुम पर कुछ भी आ पड़े या तुम जिस भी समस्या से जूझ रहे होओ, तुम्हें हमेशा खोजना चाहिए कि अभ्यास के क्या सिद्धांत हैं, सत्य के प्रत्येक सिद्धांत के भीतर कौन-से विवरण शामिल हैं और सिद्धांतों का उल्लंघन किए बिना अभ्यास कैसे करें। जब तुम इन मुद्दों पर स्पष्टता प्राप्त कर लोगे, तो तुम स्वाभाविक रूप से जान जाओगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। जब सब-कुछ ठीक होता है, तो कुछ लोग कोई स्पष्ट भ्रष्ट स्वभाव दिखाते प्रतीत नहीं होते, और इस वजह से, वे सोचते हैं कि वे अच्छे हैं, कि वे बदल गए हैं, और उनमें सत्य की वास्तविकता है। लेकिन जब प्रलोभन या सत्य के सिद्धांतों से जुड़े महत्वपूर्ण मामले उन पर पड़ते हैं, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव अपने आप प्रकट हो जाता है। वे कठिनाइयों से घिरकर, अभ्यास करने का उचित तरीका न जानते हुए, नकारात्मकता और भ्रम में पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए, ईमानदार व्यक्ति होना और सच बोलना सत्य का अभ्यास करना है। सच बोलने की कोशिश करने पर तुम किन कठिनाइयों का सामना करते हो? तुम किन बाधाओं का सामना करते हो? कौन-सी चीजें तुम्हें विवश करती हैं और सच बोलने से रोकती हैं? अभिमान, हैसियत, घमंड, साथ ही तुम्हारी भावनाएँ और व्यक्तिगत प्राथमिकताएँ - ये सभी चीजें किसी भी क्षण उत्पन्न हो सकती हैं, और ये लोगों को पीछे खींचती हैं और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। ये चीजें भ्रष्ट स्वभाव हैं। चाहे तुम किसी भी स्थिति में हो, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारी अवस्था असामान्य बना सकते हैं, तमाम तरह की नकारात्मक चीजें उत्पन्न कर सकते हैं, तुम्हें हर तरह से बाधित और नियंत्रित कर सकते हैं, तुम्हें रोक सकते हैं और तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर की सेवा करना कठिन बना सकते हैं। यह सब तुम्हें बेहद थका हुआ महसूस कराएगा। ऊपर से, लोग स्वतंत्र प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभावों से कसकर बँधे हैं। उनके पास चुनाव की कोई स्वतंत्रता नहीं है, उनके लिए एक कदम भी उठाना बेहद मुश्किल है, और वे थका देने वाला जीवन जीते हैं। अक्सर, उन्हें सच बोलने या कोई व्यावहारिक कार्य करने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है। वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते या परमेश्वर के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकते, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों, और अगर वे सत्य का अभ्यास करना चाहें या परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहें, तो यह और भी कठिन होगा। कितना थकाऊ है! क्या वे अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभावों के पिंजरे में नहीं जी रहे? क्या वे शैतान के अंधकारमय प्रभाव में नहीं जी रहे? (जी रहे हैं।) तो फिर लोग इसे कैसे त्याग सकते हैं? क्या सत्य का अभ्यास करने और जीवन-प्रवेश प्राप्त करने के अलावा भी कोई और मार्ग है? बिल्कुल नहीं है। क्या परंपरागत संस्कृति का ज्ञान लोगों को बचा सकता है और उन्हें शैत
ान के प्रभाव से मुक्त कर सकता है? बाइबल के ज्ञान की समझ के बारे में क्या खयाल है? आध्यात्मिक सिद्धांतों को बोलने में सक्षम होने के बारे में क्या खयाल है? नहीं, इनमें से कोई भी चीज लोगों को नहीं बचा सकती और उन्हें शैतान के प्रभाव से मुक्त नहीं कर सकती। केवल परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर द्वारा व्यक्त समस्त सत्य स्वीकारने से ही भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान किया जा सकता है; केवल तभी लोग सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं, सत्य प्राप्त कर सकते हैं और शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं। अगर व्यक्ति अच्छा इंसान बनने का प्रयास करता है और कुछ भी बुरा नहीं करता, लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं बदलता, तो क्या वह शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकता है? क्या व्यक्ति ताओ ते चिंग, बौद्ध धर्मग्रंथों या परंपरागत संस्कृति का अध्ययन करके सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या वह परमेश्वर को जान सकता है? अगर वह परंपरागत संस्कृति से चिपका रहता है और सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध किया जा सकता है? क्या वह परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकता है? जो लोग ऐसा करते हैं, वे खुद को धोखा दे रहे हैं, और वे अपनी किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनका विश्वास अभी भी भ्रमित है। उनकी सत्य का अनुसरण करने में कोई दिलचस्पी नहीं है; वे केवल अपना कर्तव्य निभाने से ही संतुष्ट हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे कोई बुराई नहीं करते, या कम बुराई करते हैं, और अगर वे ज्यादा अच्छे और परोपकारी कार्य करते हैं, अगर वे दूसरों की प्रेमपूर्ण मदद करने का ज्यादा प्रयास करते हैं, अगर वे कलीसिया को कभी नहीं छोड़ते या परमेश्वर को धोखा नहीं देते
, तो यह दूसरे लोगों को प्रसन्न करेगा, और परमेश्वर को भी प्रसन्न करेगा, और परमेश्वर के राज्य में उनका हिस्सा होगा। क्या इस विचार में कोई दम है? क्या एक अच्छा इंसान होने से व्यक्ति अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने में सक्षम हो सकता है? क्या वह इस तरह उद्धार प्राप्त कर सकता है? क्या उसका राज्य में हिस्सा होगा? तुम सभी लोग देख सकते हो, दुनिया में कई तथाकथित "अच्छे लोग" हैं जो उच्च आशय वाले शब्द बोलते हैं - हालाँकि सतह पर, ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई बड़ी बुराई नहीं की है, लेकिन वास्तव में वे खास तौर से धोखेबाज और धूर्त होते हैं। आसानी और चालाकी से बोलते हुए वे बहती हवा के साथ चलने में बहुत कुशल होते हैं। वे नकली अच्छे लोग और पाखंडी होते हैं - वे सिर्फ अच्छे होने का ढोंग करते रहे हैं। जो लोग मध्यम मार्ग पर चलते हैं, वे सबसे कपटी लोग होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करते, वे मिठबोले और चालाक होते हैं, वे तमाम परिस्थितियों में साथ देने में अच्छे होते हैं, और कोई भी उनकी कमियाँ नहीं देख सकता। वे जीवित शैतान की तरह होते हैं! क्या तुम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं? (हाँ।) क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि इस तरह से जीना थका देने वाला है? (हाँ, यह थका देने वाला है।) तो क्या तुमने बदलने का कोई तरीका सोचा है? तुम कैसे बदलते हो? शुरुआत कहाँ से होनी चाहिए? (सत्य का अभ्यास करने से।) "सत्य का अभ्यास करने से," या "सत्य समझने से," या "सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने से" मत कहो। यह बड़ी बात है, और यह मनुष्य की पहुँच से बाहर है, इसलिए ये वचन खोखले लगते हैं। इसके बजाय हमें विवरणों से शुरुआत करनी चाहिए। (एक ईमानदार व्यक्ति बनने से।) यह एक ठोस अभ्यास है। एक ईमानदार व्यक्ति बनो, या थोड़ा और विस्तार में जाएँ तो : एक सरल और खुले व्यक्ति बनो, जो कुछ भी छिपाता नहीं, जो झूठ नहीं बोलता, जो घुमा-फिराकर नहीं बोलता, और एक निष्कपट व्यक्ति बनो जिसमें न्याय की भावना हो, जो सच्चाई के साथ बोल सकता हो। लोगों को पहले इसे हासिल करना चाहिए। मान लो, एक दुष्ट व्यक्ति है, जो कुछ ऐसा करता है जिससे कलीसिया का काम बाधित हो जाता है, और स्थिति बेहतर ढंग से समझने के लिए एक अगुआ तुम्हारे पास आता है। तुम जानते हो कि यह किसने किया, लेकिन चूँकि उस व्यक्ति के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं और तुम उसे अपमानित नहीं करना चाहते, इसलिए तुम झूठ बोल देते हो और कहते हो कि तुम नहीं जानते। अगुआ और अधिक विवरण माँगता है, तो तुम उस दुष्ट व्यक्ति के किए पर पर्दा डालने के लिए बहाना बनाते हुए इधर-उधर की हाँकने लगते हो। क्या यह कपटपूर्ण नहीं है? तुमने अगुआ को स्थिति के बारे में सच नहीं बताया, बल्कि उसे छिपा लिया। तुम ऐसा क्यों करोगे? क्योंकि तुम किसी को नाराज नहीं करना चाहते थे। तुमने आपसी संबंधों की रक्षा करने और किसी को ठेस न पहुँचाने को पहले रखा, और सच्चाई के साथ बोलने और सत्य का अभ्यास करने को अंत में। तुम किससे नियंत्रित हो रहे हो? तुम
अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो रहे हो, उसने तुम्हारे मुँह पर ताला लगा दिया है और तुम्हें सच्चाई के साथ बोलने से रोक दिया है - तुम केवल अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी पाते हो। भ्रष्ट स्वभाव क्या है? भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और जो व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता है, वह एक जीवित शैतान है। उसकी वाणी में हमेशा प्रलोभन होता है, वह हमेशा घुमावदार होती है, और कभी सीधी नहीं होती; यहाँ तक कि अगर उसे पीट-पीटकर मार भी डाला जाए, तो भी वह सच नहीं बोलेगा। यही होता है जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर हो जाता है; अपनी मानवता पूरी तरह से खोकर वह शैतान बन जाता है। तुम लोगों में से बहुत-से लोग दूसरों के साथ अपने संबंध और अन्य लोगों के बीच अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए परमेश्वर को ठेस पहुँचाना और धोखा देना पसंद करेंगे। क्या इस तरह से कार्य करने वाला व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य का अनुसरण करता है? वह ऐसा व्यक्ति है, जो जान-बूझकर परमेश्वर को धोखा देता है, जिसके दिल में परमेश्वर का लेशमात्र भी भय नहीं है। वह परमेश्वर को धोखा देने का साहस करता है; उसकी महत्वाकांक्षा और विद्रोह वास्तव में बड़ा होना चाहिए! फिर भी ऐसे लोगों को आम तौर पर यही लगता है कि वे परमेश्वर से प्रेम करते और उसका भय मानते हैं, और अक्सर कहते हैं : "हर बार जब मैं परमेश्वर के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे यही लगता है कि वह कितना विशाल, कितना महान और कितना अथाह है! परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, उसका प्रेम अत्यंत वास्तविक है!" तुम अच्छे-अच्छे शब्द बोल सकते हो, लेकिन किसी दुष्ट व्यक्ति को कलीसिया के काम में बाधा डालते देखकर भी उसे प्रकट नहीं करोगे। तुम लो
गों को खुश करने वाले हो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के बजाय सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत की रक्षा करते हो। जब तुम सही परिस्थिति जानते हो, तो तुम सच्चाई के साथ नहीं बोलते, इधर-उधर की हाँककर दुष्ट लोगों की रक्षा करते हो। अगर तुमसे सच्चाई के साथ बोलने के लिए कहा जाए, तो यह तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा। सिर्फ सच बोलने से बचने के लिए तुम इतनी बकवास करते हो! जब तुम बोलते हो, तो कितनी देर तक बोलते रहते हो, कितने विचार खर्च करते हो, और कितने थकाऊ तरीके से जीते हो, सब-कुछ अपनी प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा के लिए! क्या परमेश्वर इस तरह कार्य करने वाले लोगों से प्रसन्न होता है? परमेश्वर धोखेबाज लोगों से सबसे ज्यादा घृणा करता है। अगर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त होना और उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें पहले एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करनी चाहिए। स्पष्टवादी बनो, सच बोलो, अपनी भावनाओं से विवश मत होओ, अपना ढोंग और चालाकी एक तरफ रख दो, और सिद्धांतों के साथ बोलो और मामले सँभालो - यह जीने का एक आसान और सुखद तरीका है, और तुम परमेश्वर के सामने जी पाओगे। अगर तुम हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, और अपने दिन बिताने के लिए हमेशा झूठ और चालाकी पर भरोसा करते हो, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन जियोगे और अंधकार में रहोगे। अगर तुम शैतान की दुनिया में रहते हो, तो तुम सिर्फ अधिकाधिक धोखेबाज बनोगे। तुम इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुमने इतने सारे उपदेश सुने हैं, पर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अभी तक शुद्ध नहीं हुआ है, और अब भी तुम अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जी रहे हो - क्या तुम्हें इससे घृणा नहीं होती? क्या तुम्हें शर्म नहीं आती? चाहे तुमने जितने भी समय तक परमेश्वर में विश्वास किया हो, अगर तुम अभी भी किसी अविश्वासी की तरह ही हो, तो तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? क्या तुम इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करके वास्तव में उद्धार प्राप्त कर सकते हो? तुम्हारे जीवन के लक्ष्य नहीं बदले हैं, न ही तुम्हारे सिद्धांत और तरीके बदले हैं; तुम्हारे पास सिर्फ एक ही चीज है जो किसी अविश्वासी के पास नहीं है, वह है "विश्वासी" की उपाधि। हालाँकि तुम बाहर से परमेश्वर का अनुसरण करते हो, परतुम्हारा जीवन-स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला है, और अंत में तुम उद्धार प्राप्त नहीं करोगे। क्या तुम अपनी आशाएँ व्यर्थ ही नहीं बढ़ा रहे? क्या परमेश्वर में इस तरह का विश्वास तुम्हें सत्य या जीवन प्राप्त करने में मदद कर सकता है? बिल्कुल नहीं। आज हमने स्वभावगत बदलाव की तीन विशेषताओं के बारे में संगति की है। उन तीन विशेषताओं को सारांशित करो। (पहली विशेषता है उन चीजों को स्वीकार करने और उनके प्रति समर्पित होने की क्षमता, जो सही हैं और सत्य के अनुरूप हैं। दूसरी विशेषता है अपने साथ कुछ होने पर सत्य खोजकर उसे अभ्यास में लाने और मामले अपनी इच्छा
के आधार पर न सँभालने की क्षमता। तीसरी विशेषता है परमेश्वर की इच्छा पर विचार करने, देह-सुख के प्रति विद्रोह करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने की क्षमता, चाहे फिर तुम पर कुछ भी आ पड़े।) तुम सभी लोगों को इन तीन विशेषताओं पर चिंतन और संगति करनी चाहिए। तुम्हें अपने वास्तविक जीवन में इनसे अपनी तुलना करनी चाहिए, और खुद को इनका अभ्यास करने और इनमें प्रवेश करने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए - इस तरह तुम लोग सत्य प्राप्त करने और स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर संगति की जा रही हो, सत्य से प्रेम करने वालों के लिए उसे स्वीकारना आसान होगा। जो सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, वे सत्य प्राप्त करने में सक्षम होंगे, और सत्य प्राप्त करने वाले स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होंगे। जमीर या विवेक से रहित, सत्य से प्रेम न करने वाले लोग सत्य नहीं स्वीकार सकते या उसका अभ्यास नहीं कर सकते, इसलिए वे उसे प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं, या स्वभाव में बदलाव प्राप्त कर सकता है या नहीं, यह उसके व्यक्तिगत अनुसरण पर निर्भर करता है।
नहीं! कट्टेघाट के लोग! हमारे पास एक महान बलिदान है। यह लगर्थ है। वह लगतार नहीं है। वह लगतार नहीं है! वह लगतार नहीं है! जय हो, लगतार! जय हो, राग्नार! जय हो, लगतार! उसे यहाँ से ले जाओ। उन्हें दूर ले जाओ। जय हो, राग्नार! उन्हें दूर ले जाओ! जय हो, राग्नार! जय हो, लगतार! मुझे पता है तुम कौन हो। समारोह में? ऑल इल इवर! वह रहती है! जय हो, लगतार! ठंडे खून में मेरी माँ। यह लगतार है! नहीं! अपना मुंह बंद करें! उसे हमारे हवाले कर दिया। उसके साथ एक सौदा करें। कट्टेगट पर हमला करने में। गद्दार! गद्दार, हाँ! गद्दार! सत्ता के लिए! सब कुछ नहीं आया है। नहीं नहीं नहीं नहीं और अंधी महत्वाकांक्षाएं यहीं खत्म। नहीं! मैं लगतार नहीं हूँ! मेरे साथी देवताओं के। नहीं! इसकी बुरी आत्माओं के! क्या वह मर चुकी है? हमारी मां। वह लेगर्था नहीं थी। लगर्थ की मृत्यु के लिए। वह मरी नहीं है। और तुम देवता नहीं हो। बेशक, वह एक भगवान है। मैं एक भगवान नहीं हूँ, हुह? हॉल ऑफ एसिर? स्कोल। ईश्वर को पाले। तुम यहाँ क्यों रहते हो? क्यों नहीं छोड़ते? चलो एक साथ चले जाते हैं। क्या आप नहीं करना चाहते हैं? मैं छोड़ना चाहता हूं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। देवताओं ने मुझे जाने नहीं दिया। मुझे यहां रहना है। लेकिन एक दिन मैंने उसे छोड़ दिया। मैं जहाज से कूद गया और इवार में शामिल हो गया। पता नहीं क्यों। लेकिन एक दिन मैं करूंगा। मैं समझ लूंगा। Thorunn! मैं उसे नहीं ढूँढ सकता। वौ कहा हॆ? बिना रुके। तुमने उसके साथ क्या किया है? उसके साथ कुछ भी। अपनी पत्नी के लिए मुझ पर विश्वास करो। तुम झूठ बोल रही हो। तुमने उसे मार दिया है। वह मेरे पोते को ले जा रही है। मैं चाहता हूं कि वह जिंदा रहे। मैं अपने पोते से मिलना चाहता हूं। वौ कहा हॆ? तुम्हे मुझे बताना पड़ेगा। हेल्गी, हेल्गी। हम नहीं जानते। हम देख रहे हैं। कोई जानता है। यहाँ से बाहर। दूर चले जाने के लिए। हमें सच्चाई बताओ। मैं फिर बताता हूं। मैं करता हूँ। निजी तौर पर बोलने के लिए। उसने कहा कि वह दुखी थी। इस भयानक दुनिया में। कि ऐसा नहीं हुआ। यह सच नहीं है। यह सच नहीं है। वह कभी नहीं होता हैलो, थोरुन। कहां हैं आप इतने दिनों से? झरने पर। मेरे पास ऑड से संदेश था। वह मुझे देखना चाहती थी। क्या वहां ऑडिट हुआ था? वहाँ कोई और था? कौन था? झरने पर? Asbjørn। हेल्गी भाई? हाँ। उसने मुझे बताया कि मैं दुष्ट था। उसका भाई। पृथ्वी पर। और आपने क्या कहा? मैंने उससे कहा कि वह गलत था। कि मुझे हेल्गी से प्यार था। कि हम एक दूसरे से प्यार करते थे। निर्दोष था। और फिर उसने क्या किया? वह उसके पास तैयार था। पत्थर के साथ। और मैं गिर गया। और मुझे पता था कि मैं मर चुका हूं। और उथली खाई बना दी थी। पत्थरों के साथ। वेसेक्स का सुना? जैसे कि? राजा के विला में। या नहीं यह विश्वास करने के लिए। ओह, मैं इस पर विश्वास कर सकता हूं। हम उनका शिकार कर रहे थे। वे बच गए। यहाँ आने के लिए। प्राचीन कारण। लेकिन यह अच्छा है। यह सब
अच्छा है। क्यों अच्छा? लगतार के साथ व्यापार। उसने मेरी पत्नी को मार डाला। मुझे ऐसा लगता है। तब तुम नहीं जानते। दिल से। यह आंत में है। यह अंतड़ियों में है। खुशी से शादी करो। राजा हरदौल। और आपको कैसे पता चलेगा? मैं इसे अपनी आंत में महसूस करता हूं। मेरी अंतड़ियों में। मेरे पास कुछ खबर है। हमें बताओ। वेसेक्स में नौकायन है। हमसे पहले आ चुका है। अपने देशवासियों। अब समय आ गया है। ललित की सेना को हराने के लिए। तुम मारे जाओगे। यहां कोई भविष्य नहीं होगा। जमीन का कोई अनुदान नहीं। कुछ भी तो नहीं। आपकी सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत जोखिम। अब मुझे धोखा दोगे। मैं आपको धोखा नही दूंगा। राजा हैराल्ड के खिलाफ। क्या? तुमने अपने बाल काटे। Ubbe! मैं आपको धन्यवाद देना चाहता था। और आपसे एक एहसान मांगने के लिए। डरना नहीं है। इसलिए पेड़ के पास जाकर खड़े हो जाओ। क्यूं कर? तुम क्या करने वाले हो? कैसे लड़ना है। या जीवित रहने के लिए एक ढाल। फिर आप पहले ही मर चुके हैं। तो, पेड़ के पास खड़े हो जाओ। हा! Ubbe! डरो नहीं। Mmm। परेशान किया गया है। Thorunn आप कैसे जानते हो? Floki। तुम्हें कैसे पता चला कि वह यहाँ थी? उसने मुझे बताया। उसे किसने मारा? आपको अपने अपराध को स्वीकार करना चाहिए। मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता। कोई प्रमाण नहीं है। मुझे पता है कि किसने उसकी हत्या की। इसे रोक! इसे रोक! देवताओं के लिए तैयार? ओह, तुम अप्राकृतिक मातापिता! और बहनों! आप इस तरह से कैसे व्यवहार कर सकते हैं? हम नहीं जा सकते। हमें एक निर्णय लेना होगा। आप कैसे बच गए? मुझे जिंदा रखा। मेरे पास गुस्सा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। जीने लायक हो गए हैं। बदला ही सब कुछ है। क्या यह सच नहीं है? बस आप की तरह। सभी वाइकिंग्स के। मुझे बस इतना ही ख्या
ल है। राजा अल्फ्रेड? मुझे उस से नफरत है। उसकी ओर से। आपको नहीं करना है। एक महान सेना के साथ। क्या? ओह यह आप हैं। नहीं, नहीं, बिल्कुल। मैं सिर्फ दिखावा कर रहा था। मुझे माफ कर दो। एक अच्छा पति। के बारे में शिकायत करने के लिए। मुझे माफ़ कर दो, एतेलफ्लाद। भाग लेने के लिए। राजकुमार। माय लॉर्ड सिंथे। वाइकिंग सेना के पास। आ गया। क्या आपको यकीन है? ऐसा और कभी नहीं। राजा बना दिया गया है। हमारा पूरा क्षेत्र खतरे में है। युद्ध के समय में। हमारे बचाव के साथ। एक वफादार आदमी। समय जब्त करें। कमजोर दिमाग वाले शासकों के नेतृत्व में। और आप पर हमारा सारा विश्वास। क्या योजना है, मेरे भगवान? युद्ध परिषद के। और उसके बुतपरस्त दोस्त। यानी हड़ताल का समय। और उन सभी को मार डालो! वेसेक्स का राजा। राजाओं के राजा। आप क्या कहते हैं? मैं सहमत हूँ। परिषद को बुलाओ। ओडिन के खूबसूरत बेटे के बाद। सभी देवताओं के। चमकने वाला। वह पहले से ही चल रहा है। मेरे पैर, पूरी तरह से गठित। बाहर घूमना, रेंगना नहीं। मेरे भगवान इवर! मेरे भगवान इवर! क्या? अपने नियम के विरुद्ध। अहां। आप। आप। मेरे खिलाफ? क्यूं कर? मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। मैं कोई साधारण शासक नहीं हूं। क्योंकि तुम पर एक देवता का शासन है। उसके पैरों की मदद करो। मैं आपको बताऊंगा क्या। मैं मैं एक दयालु भगवान हूँ। मैं अपने लोगों से प्यार करता हूँ। तब मैं तुम्हें जीवित रहने दूंगा। है ना? आप क्या कहते हैं? हम्म? उन्हें फांसी दो। लोगों को एक चेतावनी के रूप में। प्यार की जगह ले लो। राग्नार का पुत्र। आपने मुझे क्यों मांगा है? मुझे आपकी सहायता चाहिए। और भविष्य। कि आप पहले से ही नहीं जानते हैं? मैं तुम्हें देखने शायद ही कभी आया हूँ। लेकिन अनुभव के माध्यम से। बेचारे। अनुभव से बहुत कम। फिर भी, आप ... आप समझदार हैं। नहीं, मैं एक बूढ़ा आदमी हूं। और बूढ़े बुद्धिमान नहीं हैं। कि वे युवा थे। उनकी धोखाधड़ी के खिलाफ। और लुप्त होती यादें। मैं यहां क्यों हूं? पूरा करने में विफल। बहुत अधिक होगा। क्या यह अलग होगा? तुम कोशिश कर सकते हो। मैं क्या पूरा करूंगा? शायद कुछ भी नहीं। आप मेरी मदद नहीं कर रहे हैं। आपने क्या उम्मीद किया? सब कुछ गहरा होता जा रहा है। अँधेरे में। मुझे डर लग रहा है। कि मैं वास्तव में जानता हूँ। और मैं डरता हूं। अँधेरे में। क्या तुम यहाँ हो? मेरा प्यार। और अपनी तरह। आपको कैसा लगता है? मेरा दुश्मन। दुखी पापी कि मैं हूं। क्या आपको यकीन है? तुम्हारा भगवान तुम्हें छोड़ देगा? हाँ। मुझे प्रभु से डर लगता है। मैं आपकी और इच्छा करता हूं। बहुत सुन्दर हो तुम। इसलिए ज़िंदा। लेगर्था। साथ में सामने। बेंड के चारों ओर विस्तृत करें। हम क्या उम्मीद कर सकते हैं? नदी को अवरुद्ध करने के लिए। हमारा सबसे बड़ा खतरा क्या है? रगनार के पुत्र। तुम्हारे खिलाफ? ये महान नायक हैं। वे इंसान नहीं हैं। वे लगभग देवता हैं। उनका सामना करने के लिए डराया। और क्यों नहीं? क्यों नहीं? सिर्फ
मनुष्य। कुल्हाड़ी उन्हें भी मार देगी। क्या आपको भाग्य लगता है? हमें साथ लाया है? हमारे? तुम और मैं। मैं नहीं कह सकता था। निर्णय लेना। मैं किसी के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता। यहां रहना ठीक लगता है। ऐसा लगता है अपरिहार्य। बदलने वाला है। खुद सेना। मुझे आशा है कि आप सहमत होंगे। आपका समर्थन पहले से कहीं ज्यादा है। बेशक। मुझे तुम पर विश्वास है। और मुझे आशा है कि आप मुझ पर विश्वास करेंगे। भाई मैं आपको प्यार करता हूँ। और मैं आप। हमारे राज्य ने सामना किया है। हम सभी को एक साथ काम करना चाहिए। हमें एक दूसरे की जरूरत है। ऐसा कहना। लड़ाई में। और लगतार और ब्योर्न का। ये वाइकिंग्स। बस। वह संकेत दें। और हमारा भविष्य। मैं नहीं कर सकता। फिर हम खो जाते हैं। किसी विशेष। यह मैग्नस है। मैं उस नाम को पहचानता हूं। वेसेक्स में एक बेटे को जन्म दिया था। और यहाँ वह है। हमारे सौतेले भाई। और रानी क्वांट्रिथ। हैलो, मैग्नस। आपको लगर्थ होना चाहिए। आखिर में आपसे मिलने के लिए। और आपको उबेबी होना चाहिए। और रानी लगर्थ और उबेबे। अब आखिर में मेरा परिवार है। मैं कहीं का। और हमें धोखा दिया है। पूर्वी एंग्लिया में। अब कोई इरादा नहीं है। क्या आप कभी राग्नार से मिले थे? हाँ। मैं उससे मिली। और रोया। उनके अन्य सभी बेटे। रानी क्वांट्रिथ के साथ। अच्छा, वह नहीं होगा? हमसे, मैग्नस? एक महान सेना के साथ। वेसेक्स के राज्य को नष्ट करें। राज्यों को नष्ट करना, हम्म? अचानक तुम बहुत महत्वपूर्ण हो। मैंने जीवन भर इंतजार किया है। मेरे जीवन का। हम्म? रानी क्वांट्रिथ के साथ। और वह अपने घाव पर बैठ गया। और वह सब था। बेशक उसने तुमसे कहा था कि! वह झूठ बोल रहा था। सभी इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं! मैग्नस की कहानी गंभीरता से। वह सच कह रहा
है। मुझे लगता है कि वह झूठ बोल रहा है! Ubbe। नहीं! वह मेरे पिता का पुत्र है। अल्फ्रेड अपने शब्द पर। आपको भ्रष्ट कर दिया है। नहीं। एक ईसाई। मैग्नस से है। हमें बहस करना बंद कर देना चाहिए। मैं बहस नहीं करना चाहता। लेकिन तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते। मै देख सकता हुँ। मुझे क्षमा करें। तुम्हारी कहानी। मैं उस पर विश्वास नहीं करता। पर मै करता हू। हमारे पास बनाने के लिए विकल्प हैं। मैंने एक निर्णय लिया है। बेकार हैं, फ्लक्की। इस द्वीप के! और मैं कानूनदाता हूँ! विधिदाता, हाँ? लेकिन तुमने किया। तीन बार ओवर। शब्द, तुम, फ्लोकी नहीं? मुझे खोखला लगता है। हम हमेशा फ़्लोकी में विश्वास करते थे। इसलिए हम आए हैं। हमारी सारी आशाएँ। मेरा जीवन, पिता। चुप रहो, हेल्गी। हम आपसे बहुत ज्यादा सुनते हैं। एक औरत की तरह। मेरे पास रोने का कारण है। रोने का कारण भी होगा। फ्लक्की सही है। वह एक निर्णय पर आया है। हम सभी को इसका सम्मान करना चाहिए। और कोई रास्ता नहीं है। आह! बस्ती से। यहा से बहुत दूर। आप हमें निष्कासित नहीं कर सकते, फ्लक्की। सर्दी आ गई। भोजन दुर्लभ है। हम नहीं बचेंगे। वह तुम्हारे हाथ में है। हम लड़ सकते थे। आप ऐसा कर सकते हैं। लेकिन तुम हार जाते। तो, यह परिणाम है, फ्लक्की? आपका कीमती आदर्शवाद? इस? मैं सिर्फ तुम्हें छोड़ना चाहता हूं। तुम मुझे नहीं मार सकते, आईविंड। चाहे आप कितनी भी कोशिश कर लें। प्राचीन एक। आप जानते हैं कि। पास करने आए हैं। मुझे पता है कि मुझे क्या पता है। आप मेरी दिव्यता को अस्वीकार नहीं कर सकते। सभी के साथ। मेरी रगों में। उनके हॉल में। इस खुश खबर के लिए। मैं वही बताता हूं जो मैं देखता हूं। यही सब मैं पूछता हूं, हे बुद्धिमान। उन्हें सच बताएं। राग्नार का पुत्र। मैं भगवान इवर हूं। ओह, सभी चीजें अंधेरे हैं। अंधेरे में जाओ। अपने पैरों के रूप में टूट गया। और तुम्हारी आंखें तुम्हें धोखा देती हैं। कचरा और गंदगी के साथ। डर। नहीं! नहीं! कट्टेघाट के लोग! हमारे पास एक महान बलिदान है। यह लगर्थ है। वह लगतार नहीं है। वह लगतार नहीं है! वह लगतार नहीं है! जय हो, लगतार! जय हो, राग्नार! जय हो, लगतार! उसे यहाँ से ले जाओ। उन्हें दूर ले जाओ। जय हो, राग्नार! उन्हें दूर ले जाओ! जय हो, राग्नार! जय हो, लगतार! मुझे पता है तुम कौन हो। तुम क्यों नहीं हो समारोह में? ऑल इल इवर! वह रहती है! जय हो, लगतार! यह वह चुड़ैल है जिसने हत्या की ठंडे खून में मेरी माँ। यह लगतार है! नहीं! अपना मुंह बंद करें! एक डेनिश राजा उसे हमारे हवाले कर दिया। वह कोशिश कर रही थी उसके साथ एक सौदा करें। उसे अपने साथ मिलाने के लिए राजी करना कट्टेगट पर हमला करने में। गद्दार! गद्दार, हाँ! गद्दार! वह कुछ भी करती सत्ता के लिए! देवताओं, उसकी योजनाओं का धन्यवाद सब कुछ नहीं आया है। नहीं नहीं नहीं नहीं... उसका वीर शासनकाल और अंधी महत्वाकांक्षाएं ... यहीं खत्म। नहीं! मैं लगतार नहीं हूँ! मैं उसके नाम पर बलि देता हूं ओडिन के और नाम
में मेरे साथी देवताओं के। नहीं! मैं उसका बलिदान करता हूं इस राज्य को साफ करने के लिए इसकी बुरी आत्माओं के! क्या वह मर चुकी है? यहाँ खून है चुड़ैल की जिसने हत्या कर दी हमारी मां। आप बहुत अच्छे से जानते हैं वह लेगर्था नहीं थी। आप पियेंगे लगर्थ की मृत्यु के लिए। वह मरी नहीं है। और तुम देवता नहीं हो। बेशक, वह एक भगवान है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की मैं एक भगवान नहीं हूँ, हुह? क्या तुम थोर की पिटाई नहीं सुन सकते उनका शक्तिशाली हथौड़ा, मेरा स्वागत करते हुए हॉल ऑफ एसिर? स्कोल। मेरा भाई, ईश्वर को पाले। तुम यहाँ क्यों रहते हो? क्यों नहीं छोड़ते? चलो एक साथ चले जाते हैं। क्या आप नहीं करना चाहते हैं? मैं छोड़ना चाहता हूं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। देवताओं ने मुझे जाने नहीं दिया। कुछ कारण है मुझे यहां रहना है। मैं अपने भाई उबे को प्यार करता हूँ, लेकिन एक दिन मैंने उसे छोड़ दिया। मैं जहाज से कूद गया और इवार में शामिल हो गया। मैं अभी भी पता नहीं क्यों। लेकिन एक दिन मैं करूंगा। एक दिन, मैं समझ लूंगा। Thorunn! मैं उसे नहीं ढूँढ सकता। मुझे मेरी पत्नी नहीं मिल रही है वौ कहा हॆ? बिना रुके। तुमने उसके साथ क्या किया है? मैंने नहीं किया है उसके साथ कुछ भी। मुझे नहीं पता कि क्या हुआ है अपनी पत्नी के लिए मुझ पर विश्वास करो। तुम झूठ बोल रही हो। तुमने उसे मार दिया है। वह मेरे पोते को ले जा रही है। मैं चाहता हूं कि वह जिंदा रहे। मैं अपने पोते से मिलना चाहता हूं। वौ कहा हॆ? तुम्हे मुझे बताना पड़ेगा। हेल्गी, हेल्गी। हम नहीं जानते। हम देख रहे हैं। कोई जानता है। उसका बचना असंभव है यहाँ से बाहर। कोई नहीं चुनता दूर चले जाने के लिए। हमें सच्चाई बताओ। यदि आपने थोरुन को मार दिया, आपको हमें बताने की जरूरत
है शरीर कहाँ है मैं फिर बताता हूं। मुझे नहीं पता उसके साथ क्या हुआ है मैं करता हूँ। वह मेरे पास आई, निजी तौर पर बोलने के लिए। उसने कहा कि वह दुखी थी। कि वह लाना नहीं चाहती थी एक बच्चा इस भयानक दुनिया में। और यह कि वह सुनिश्चित करेगी कि ऐसा नहीं हुआ। वह नहीं होगा यह सच नहीं है। यह सच नहीं है। वह कभी नहीं होता ... हैलो, थोरुन। कहां हैं आप इतने दिनों से? झरने पर। मेरे पास ऑड से संदेश था। वह मुझे देखना चाहती थी। क्या वहां ऑडिट हुआ था? वहाँ कोई और था? कौन था? कौन आपका इंतजार कर रहा था झरने पर? Asbjørn। हेल्गी भाई? हाँ। उसने मुझे बताया कि मैं दुष्ट था। कि मैं चुद चुकी थी उसका भाई। और वह मेरा बच्चा था एक बुरी आत्मा इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है पृथ्वी पर। और आपने क्या कहा? मैंने उससे कहा कि वह गलत था। कि मुझे हेल्गी से प्यार था। कि हम एक दूसरे से प्यार करते थे। और वह हमारा बच्चा निर्दोष था। और फिर उसने क्या किया? उसने एक तेज पत्थर उठाया वह उसके पास तैयार था। और उसने मेरे सिर पर वार किया पत्थर के साथ। इतनी मेहनत कि इसने मेरा सिर फोड़ दिया और मैं गिर गया। और मुझे पता था कि मैं मर चुका हूं। उसने पहले से ही तैयारी कर रखी थी मेरे लिए एक जगह और उथली खाई बना दी थी। उसने मुझे लिटा दिया उथली खाई में, फिर मेरे शरीर को ढंक दिया पत्थरों के साथ। क्या तुम मुझे बता सकते हो यह खाई कहाँ है आपके पास और क्या है वेसेक्स का सुना? कुछ दिलचस्प अफवाहें जैसे कि? खैर, मुझे बताया गया था अप्रत्याशित समय पर, ढालयुवती लगतार और राग्नार के दो बेटे, ब्योर्न आयरनसाइड और उब्बे, दिखाई दिया और शरण मांगी राजा के विला में। मुझे नहीं पता कि क्या या नहीं यह विश्वास करने के लिए। ओह, मैं इस पर विश्वास कर सकता हूं। हम उनका शिकार कर रहे थे। वे बच गए। उनके पास हर कारण था यहाँ आने के लिए। प्राचीन कारण। लेकिन यह अच्छा है। यह सब अच्छा है। क्यों अच्छा? मैं कुछ अधूरा है लगतार के साथ व्यापार। उसने मेरी पत्नी को मार डाला। क्या तुम सच में जानते हो, जरल ओलावसन, यह कैसा है एक औरत को प्यार करने के लिए मुझे ऐसा लगता है। तब तुम नहीं जानते। यह करने के लिए कुछ भी नहीं है सोच के साथ, और यह कुछ नहीं करना है दिल से। यह आंत में है। यह अंतड़ियों में है। नहीं, मुसीबत है, देवताओं ने निर्णय लिया कि मुझे कभी नहीं करना चाहिए खुशी से शादी करो। एक दिन आप होंगे, राजा हरदौल। और आपको कैसे पता चलेगा? मैं इसे अपनी आंत में महसूस करता हूं। मेरी अंतड़ियों में। मेरे पास कुछ खबर है। हमें बताओ। एक बड़ी वाइकिंग सेना वेसेक्स में नौकायन है। मैंने जो रिपोर्टें सुनी हैं, उनमें से सेना का नेता राजा हैराल्ड फाइनहायर, जो, जैसा कि आप अच्छी तरह से जानते हैं, हमसे पहले आ चुका है। मैं तुम्हें देने को तैयार हो गया यहाँ शरण, तो जब तक, बदले में, आप के खिलाफ लड़ने के लिए सहमत हुए अपने देशवासियों। अब समय आ गया है। आप मेरे भाई के साथ काम करेंगे, राजकुमार एतेहेल
्ड, और बिशप हीमुंड, एक रणनीति तैयार करने के लिए ललित की सेना को हराने के लिए। अगर आप मना करते हैं तुम मारे जाओगे। यहां कोई भविष्य नहीं होगा। जमीन का कोई अनुदान नहीं। कुछ भी तो नहीं। तुम्हें समझना चाहिए, और मुझे लगता है कि आप समझते हैं, कि मैंने बहुत बड़ा लिया है आपकी सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत जोखिम। इसलिए, मैं प्रार्थना करता हूं कि आप में से कोई भी नहीं अब मुझे धोखा दोगे। मैं आपको धोखा नही दूंगा। मैं तुमसे लड़ूंगा राजा हैराल्ड के खिलाफ। क्या? तुमने अपने बाल काटे। Ubbe! मैं आपको धन्यवाद देना चाहता था। और आपसे एक एहसान मांगने के लिए। पहला सबक डरना नहीं है। इसलिए पेड़ के पास जाकर खड़े हो जाओ। क्यूं कर? तुम क्या करने वाले हो? आपने मुझे पढ़ाने के लिए कहा था कैसे लड़ना है। और मैं आपको तरीके सिखा सकता हूं किस लड़ाई में एक तलवार और कुल्हाड़ी के साथ, या जीवित रहने के लिए एक ढाल। लेकिन अगर आप डरते हैं, फिर आप पहले ही मर चुके हैं। तो, पेड़ के पास खड़े हो जाओ। हा! Ubbe! डरो नहीं। Mmm। यहां का मैदान परेशान किया गया है। Thorunn ... आप कैसे जानते हो? Floki। तुम्हें कैसे पता चला कि वह यहाँ थी? उसने मुझे बताया। क्या उसने भी आपको बताया उसे किसने मारा? आपको अपने अपराध को स्वीकार करना चाहिए। मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता। कोई प्रमाण नहीं है। मुझे पता है कि किसने उसकी हत्या की। इसे रोक! इसे रोक! आप झगड़ा और लड़ाई कैसे कर सकते हैं जब वह ठीक से नहीं है देवताओं के लिए तैयार? ओह, तुम अप्राकृतिक मातापिता! आप अप्राकृतिक भाइयों और बहनों! आप इस तरह से कैसे व्यवहार कर सकते हैं? हम नहीं जा सकते। हमें एक निर्णय लेना होगा। आप कैसे बच गए? मेरा गुस्सा मुझे जिंदा रखा। Aethelwulf के बाद मुझे निष्कासित कर दिया विला
से, मेरे पास गुस्सा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। मैंने खुद से कहा अगर कोई रास्ता नहीं था कि मैं अपना बदला ले सकूं भविष्य में उन पर, तब मेरा जीवन, सब के बाद, जीने लायक हो गए हैं। एक वाइकिंग के लिए, बदला ही सब कुछ है। क्या यह सच नहीं है? खैर, मैं वाइकिंग हूँ, बस आप की तरह। मेरे पिता रगनार लोथ्रोबक थे, सबसे प्रसिद्ध सभी वाइकिंग्स के। मुझे बस इतना ही ख्याल है। तुम क्या सोचते हो राजा अल्फ्रेड? मुझे उस से नफरत है। खैर, हम लड़ने जा रहे हैं उसकी ओर से। आपको नहीं करना है। मैंने हराल्ड फाइनहेयर को सुना यहाँ अपने रास्ते पर है एक महान सेना के साथ। क्या? ओह यह आप हैं। मैं नहीं चाहता आपको परेशान करने के लिए, पति नहीं, नहीं, बिल्कुल। मैं सिर्फ दिखावा कर रहा था। मुझे माफ कर दो। शायद ऐसे नहीं एक अच्छा पति। मेरे पास कुछ नही है के बारे में शिकायत करने के लिए। मुझे माफ़ कर दो, एतेलफ्लाद। मेरा कुछ कारोबार है भाग लेने के लिए। जब मै वापस आउुँ, मैं कर्तव्यों का पालन करेगा एक पति की राजकुमार। माय लॉर्ड सिंथे। वाइकिंग सेना के पास। हम कार्य करने का समय महसूस करते हैं आ गया। क्या आपको यकीन है? ऐसा और कभी नहीं। तुम्हारे भाई को कभी नहीं करना चाहिए राजा बना दिया गया है। फैसला हो गया हमारा पूरा क्षेत्र खतरे में है। वह कमजोर है और कमजोर नेता, युद्ध के समय में। वह पगानों के एक समूह को सौंपता है हमारे बचाव के साथ। वह अपना विश्वास रखता है बिशप हीमुंड में, एक वफादार आदमी। राजकुमार, हमें चाहिए समय जब्त करें। यदि हम कार्रवाई करने से डरते हैं, तब वेसेक्स का नाश होगा, हर दूसरे की तरह अंग्रेजी साम्राज्य कमजोर दिमाग वाले शासकों के नेतृत्व में। परन्तु आप, बेटा और ऐथेल्वल्फ़ का असली वारिस, हमें विश्वास है कि हम कर सकते हैं हमारे सभी भरोसे को जगह दें और आप पर हमारा सारा विश्वास। क्या योजना है, मेरे भगवान? हम एक बैठक बुलाएंगे युद्ध परिषद के। राजा को उपस्थित होना चाहिए, लेकिन ऐसा भी है बिशप हीमुंड चाहिए और उसके बुतपरस्त दोस्त। यानी हड़ताल का समय। हमारे पास पर्याप्त योद्धा हैं हमारे कारण के लिए प्रतिबद्ध है दरवाजे बंद करने के लिए और उन सभी को मार डालो! और तब, जैसा कि हमेशा होना चाहिए था, आपका अभिषेक किया जाएगा और ताज पहनाया, वेसेक्स का राजा। राजाओं के राजा। आप क्या कहते हैं? मैं सहमत हूँ। परिषद को बुलाओ। मैं उसे बल्डर कहूंगा, ओडिन के खूबसूरत बेटे के बाद। सबसे निष्पक्ष और समझदार सभी देवताओं के। चमकने वाला। मेरा मानना ​​है कि वह इतना मजबूत है वह पहले से ही चल रहा है। शायद, एक रात, वह बस होगा के बीच से क्रॉल करें मेरे पैर, पूरी तरह से गठित। उस स्तिथि में, मैं उसके लिए चाहूंगा बाहर घूमना, रेंगना नहीं। मेरे भगवान इवर! मेरे भगवान इवर! क्या? हमने उन्हें पकड़ लिया। उन्होंनें किया है थोड़ी देर के लिए कोशिश कर रहा है विद्रोह खड़ा करना शहर मे अपने नियम के विरुद्ध। अहां। आप। आप। क्या यह सच है कि आप विद्रोह करना च
ाहते हैं मेरे खिलाफ? क्यूं कर? मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। मैं कोई साधारण शासक नहीं हूं। मैं आपसे खुशी की उम्मीद करता हूं, तुम्हारे लिए विशेष रूप से विशेषाधिकार प्राप्त, क्योंकि तुम पर एक देवता का शासन है। उसके पैरों की मदद करो। मैं आपको बताऊंगा क्या। मैं... मैं एक दयालु भगवान हूँ। मैं अपने लोगों से प्यार करता हूँ। तो, अगर तुम जाओ बाज़ार में और अपने आप को राख से ढँक लो, अपने दोषों को स्वीकार करना और आपके झूठे विश्वास, और मेरी क्षमा मांगो, तब मैं तुम्हें जीवित रहने दूंगा। है ना? आप क्या कहते हैं? हम्म? उन्हें फांसी दो। और उनके शव दिखाए जाएं लोगों को एक चेतावनी के रूप में। घृणा कभी नहीं होनी चाहिए प्यार की जगह ले लो। राग्नार का पुत्र। आपने मुझे क्यों मांगा है? मुझे आपकी सहायता चाहिए। आपने अतीत देखा है, वर्तमान और भविष्य। तुम अब क्या चाहते हो कि आप पहले से ही नहीं जानते हैं? मैं तुम्हें देखने शायद ही कभी आया हूँ। मैंने पूरी जिंदगी कोशिश की है भविष्यवाणी से नहीं जीना है लेकिन अनुभव के माध्यम से। बेचारे। मुझे लगता है कि हम सीखते हैं अनुभव से बहुत कम। फिर भी, आप ... आप समझदार हैं। नहीं, मैं एक बूढ़ा आदमी हूं। और बूढ़े बुद्धिमान नहीं हैं। वे अभी भी चाहते हैं कि वे युवा थे। और वे गुस्से में उनकी धोखाधड़ी के खिलाफ। और लुप्त होती यादें। मैं यहां क्यों हूं? आप पूरा करेंगे आपके सामने और क्या पूरा करने में विफल। लेकिन लागत बहुत अधिक होगा। अगर मैं अभी दूर चला गया, क्या यह अलग होगा? तुम कोशिश कर सकते हो। मैं क्या पूरा करूंगा? यदि आप दूर पालना चुनते हैं, शायद कुछ भी नहीं। आप मेरी मदद नहीं कर रहे हैं। आपने क्या उम्मीद किया? सब कुछ गहरा होता जा रहा है। हम सब जा रहे हैं अँधेरे में। मुझे डर लग
रहा है। मुझे पता है कि जो मैं नहीं जानता हूं एक ही चीज है कि मैं वास्तव में जानता हूँ। और मैं डरता हूं। मैं जाने से डरता हूं अँधेरे में। क्या तुम यहाँ हो? मेरा प्यार। इसलिए हम लड़ने जा रहे हैं राजा हरदौल और अपनी तरह। आपको कैसा लगता है? राजा हैराल्ड हमेशा से रहे हैं मेरा दुश्मन। मैं भगवान भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि तुम यहाँ मेरे पास हो, कि हम जीवित रहें या एक साथ मरो, दुखी पापी कि मैं हूं। क्या आपको यकीन है? क्या आप भयभीत नहीं हैं, इस प्यार के लिए, तुम्हारा भगवान तुम्हें छोड़ देगा? हाँ। मुझे प्रभु से डर लगता है। पर अब, इस पल में, मैं आपकी और इच्छा करता हूं। बहुत सुन्दर हो तुम। इसलिए... ज़िंदा। मैं तुम्हारे लिए नरक में जाऊंगा, लेगर्था। साथ में सामने। बेंड के चारों ओर विस्तृत करें। हम क्या उम्मीद कर सकते हैं? उन्हें पहले ही पता चल जाएगा हम यहाँ हैं और वे संभवतः कोशिश करेंगे नदी को अवरुद्ध करने के लिए। हमारा सबसे बड़ा खतरा क्या है? जब हमारे योद्धा ऐसा देखते हैं वे लड़ने जा रहे हैं लगतार के खिलाफ, ब्योर्न आयरनसाइड, और उब्बे, रगनार के पुत्र। अपने आप से पूछो, तुम कैसा महसूस करोगे यदि आप उन्हें देखा देखा तुम्हारे खिलाफ? ये महान नायक हैं। वे इंसान नहीं हैं। वे लगभग देवता हैं। और वे जो भी कहते हैं, हमारे योद्धा होंगे उनका सामना करने के लिए डराया। और क्यों नहीं? क्यों नहीं? वे आखिरकार, सिर्फ मनुष्य। कुल्हाड़ी उन्हें भी मार देगी। क्या आपको भाग्य लगता है? हमें साथ लाया है? हमारे? तुम और मैं। मैं नहीं कह सकता था। इसके विपरीत। अर्थात् बिल्कुल आपने क्या कहा मैं नहीं करना चाहता निर्णय लेना। मैं किसी के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता। मैं सिर्फ इसका पता लगाना चाहता हूं भाग्य में क्या है मेरे लिए स्टोर में लेकिन किसी तरह से, यहां रहना ठीक लगता है। ऐसा लगता है... अपरिहार्य। मेरी जान में जान आई बदलने वाला है। मैंने नेतृत्व करने का फैसला किया है खुद सेना। मुझे आशा है कि आप सहमत होंगे। इसका मतलब है मुझे आवश्यकता होगी आपका समर्थन पहले से कहीं ज्यादा है। बेशक। मुझे तुम पर विश्वास है। और मुझे आशा है कि आप मुझ पर विश्वास करेंगे। भाई मैं आपको प्यार करता हूँ। और मैं आप। माई लॉर्ड्स, हम केवल दिन दूर हैं सबसे बड़ी चुनौती से हमारे राज्य ने सामना किया है। हम सभी को एक साथ काम करना चाहिए। हमें एक दूसरे की जरूरत है। और यह कोई कमजोरी नहीं है ऐसा कहना। मैंने आपका नेतृत्व करने का फैसला किया है लड़ाई में। लेकिन मुझे पता है कि मेरे पास है समर्थन मेरे प्यारे की भाई एतेहेल्ड, और उबबे, ईसाई पुत्र रगनार का और लगतार और ब्योर्न का। हमें डरना नहीं चाहिए हमारे व्यवहार के इन विदेशियों के साथ, ये वाइकिंग्स। बस। वह संकेत दें। वे हमारे सहयोगी हैं और हमारा भविष्य। मैं नहीं कर सकता। फिर हम खो जाते हैं। मैं आप सभी से मिलना चाहता हूं किसी विशेष। यह मैग्नस है। मैं उस नाम को पहचानता हूं। हमें बताया गया कि
रगनार वेसेक्स में एक बेटे को जन्म दिया था। और यहाँ वह है। हमारे सौतेले भाई। रगनार का पुत्र और रानी क्वांट्रिथ। हैलो, मैग्नस। आपको लगर्थ होना चाहिए। यह कितना बड़ा सौभाग्य है आखिर में आपसे मिलने के लिए। और आपको उबेबी होना चाहिए। सभी वर्षों में मुझे करना पड़ा है मेरी पहचान छिपाओ, मैंने कहानियाँ सुनी हैं ब्योर्न आयरनसाइड के और रानी लगर्थ और उबेबे। अब आखिर में मेरा परिवार है। अब अंत में, मैं कहीं का। मैग्नस का मानना ​​है कि अल्फ्रेड और उसके परिवार उसे धोखा दिया है और हमें धोखा दिया है। कि उनका कोई इरादा नहीं था हमें भूमि देने के लिए पूर्वी एंग्लिया में। और उनके पास है अब कोई इरादा नहीं है। क्या आप कभी राग्नार से मिले थे? हाँ। जब वह यहां कैद था, मैं उससे मिली। हमने गले लगा लिया और रोया। और उसने मुझे बताया कि वह मुझसे उतना ही प्यार करता है उनके अन्य सभी बेटे। उसने मेरी मां को बताया कि उसने कभी सेक्स नहीं किया था रानी क्वांट्रिथ के साथ। अच्छा, वह नहीं होगा? तुम क्या चाहते हो हमसे, मैग्नस? हैराल्ड फाइनहायर यहां आ रहे हैं एक महान सेना के साथ। आपको उससे जुड़ना चाहिए और वेसेक्स के राज्य को नष्ट करें। राज्यों को नष्ट करना, हम्म? अचानक तुम बहुत महत्वपूर्ण हो। मैंने जीवन भर इंतजार किया है। इस? यही अर्थ है मेरे जीवन का। हम्म? रगनार ने भी मुझे बताया कि उसने कभी सेक्स नहीं किया था रानी क्वांट्रिथ के साथ। कि वह घायल हो गया था और वह अपने घाव पर बैठ गया। और वह सब था। बेशक उसने तुमसे कहा था कि! वह झूठ बोल रहा था। मुझे समझ नहीं आता कि तुम क्यों हो सभी इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं! मुझे लगता है कि हमें लेना चाहिए मैग्नस की कहानी गंभीरता से। मेरा मानना ​​है वह सच कह रहा है। मुझे लगता है कि वह झूठ बो
ल रहा है! Ubbe। नहीं! नहीं, मैं नहीं मानता वह मेरे पिता का पुत्र है। मुझे विश्वास नहीं होता हमें विश्वासघात करना चाहिए अल्फ्रेड अपने शब्द पर। इसलिए कि अल्फ्रेड आपको भ्रष्ट कर दिया है। नहीं। और अब तुम अपने को कहते हो एक ईसाई। तो, आप भी कम हैं मेरे लिए एक भाई की मैग्नस से है। हमें बहस करना बंद कर देना चाहिए। मैं बहस नहीं करना चाहता। लेकिन तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते। मै देख सकता हुँ। मुझे क्षमा करें। मुझे विश्वास नहीं होता तुम्हारी कहानी। मैं उस पर विश्वास नहीं करता। पर मै करता हू। हमारे पास बनाने के लिए विकल्प हैं। मैंने एक निर्णय लिया है। आपके फैसले बेकार हैं, फ्लक्की। तुम राजा नहीं हो इस द्वीप के! और मैं कानूनदाता हूँ! मैंने कहा मैं तुम्हें बनाऊंगा विधिदाता, हाँ? यदि आपने अपने बेटे का बदला नहीं लिया है लेकिन तुमने किया। और अब, थोरुन की मृत्यु के साथ और उसका अजन्मा बच्चा, तुमने उसका बदला लिया है तीन बार ओवर। आपको अपनी खुद की आवाज पसंद है शब्द, तुम, फ्लोकी नहीं? लेकिन वे हमेशा मुझे खोखला लगता है। हम हमेशा फ़्लोकी में विश्वास करते थे। इसलिए हम आए हैं। रफार्ट, आप और आपका परिवार कम कर दिया है और नष्ट कर दिया हमारी सारी आशाएँ। तुमने नष्ट कर दिया है मेरा जीवन, पिता। चुप रहो, हेल्गी। हम आपसे बहुत ज्यादा सुनते हैं। और तुम हमेशा रो रहे हो, एक औरत की तरह। मेरे पास रोने का कारण है। और अगर तुम आ मेरे करीब कोई भी आपकी माँ और पिता रोने का कारण भी होगा। फ्लक्की सही है। वह एक निर्णय पर आया है। हम सभी को इसका सम्मान करना चाहिए। और कोई रास्ता नहीं है। आह! Eyvind और उनका पूरा परिवार, आप सहित, हेल्गी, निष्कासित कर दिया जाता है बस्ती से। आपको चले जाना चाहिए और दूसरी जगह ढूंढो, यहा से बहुत दूर। आप हमें निष्कासित नहीं कर सकते, फ्लक्की। सर्दी आ गई। भोजन दुर्लभ है। हम नहीं बचेंगे। वह तुम्हारे हाथ में है। हम लड़ सकते थे। आप ऐसा कर सकते हैं। लेकिन तुम हार जाते। तो, यह परिणाम है, फ्लक्की? क्या यह आपका परिणाम है महान सपने, आपका कीमती आदर्शवाद? इस? मैं सिर्फ तुम्हें छोड़ना चाहता हूं। तुम मुझे नहीं मार सकते, आईविंड। चाहे आप कितनी भी कोशिश कर लें। ये दिन आनन्दित करने वाले हैं, प्राचीन एक। आप जानते हैं कि। अद्भुत बातें पास करने आए हैं। मुझे पता है कि मुझे क्या पता है। आप मेरी दिव्यता को अस्वीकार नहीं कर सकते। आपको इसके बारे में पता है सभी के साथ। ऑलफादर का खून दौड़ता है मेरी रगों में। असीर ने मेरा स्वागत किया है उनके हॉल में। आप पूछेंगे सब बता देंगे इस खुश खबर के लिए। मैं वही बताता हूं जो मैं देखता हूं। यही सब मैं पूछता हूं, हे बुद्धिमान। उन्हें सच बताएं। आप इवर द बोनलेस हैं, राग्नार का पुत्र। मैं भगवान इवर हूं। ओह, सभी चीजें अंधेरे हैं। हम सब, हम सब, अंधेरे में जाओ। आपका रथ झूठ है अपने पैरों के रूप में टूट गया। एक सांप बस गया आपकी खोपड़ी में और तुम्हारी आंखें तुम्हें धोखा देती हैं। तुम्
हारा रास्ता छीना है कचरा और गंदगी के साथ। ओह, हॉरर, डर। नहीं!
क्लेदियस के लिए 'पिता' शब्द सुनकर राजकुमार का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा । वह मुँह से आग उगलते हुए बोला,"क्लेदियस मेरा पिता कभी नहीं हो सकता । वह मेरे स्वर्गीय पिता का हत्यारा है । उस आस्तीन के साँप को पिता कहने से पहले मेरी जिह्वा जल जाएगी । मेरी तलवार उसका रक्त पीने के लिए तरस रही है। जब तक उस पापी को मैं मौत के घाट नहीं उतारूँगा, तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा।" राजकुमार का ऐसा रौद्र रूप देखकर रानी भय से थर-थर काँपने लगी। उसे लगा, मानो स्वयं महाराज उसके सामने आकर खड़े हो गए हों । वह कुछ कदम पीछे हटी और तेजी से कक्ष से बाहर जाने के लिए मुड़ी । लेकिन राजकुमार ने आगे बढ़कर उसका मार्ग रोक लिया और कठोर स्वर में बोला, "रानी माँ! जाने से पहले आपको मेरे एक प्रश्न का उत्तर देना होगा, अन्यथा मैं आपको यहाँ से बाहर नहीं जाने दूँगा । " " मैं तेरी माँ हूँ। मुझसे ऐसे बात करते हुए तुझे शर्म नहीं आती ! मैं यहाँ से जा रही हूँ। देखती हूँ, तू क्या करता है?"यह कहकर जैसे ही रानी ने आगे कदम बढ़ाया, वैसे ही राजकुमार ने उसका हाथ पकड़ लिया। रानी ने हाथ छुड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन असफल रही। राजकुमार का गुस्से से भरा चेहरा देखकर वह पहले ही भयभीत थी । हाथ पकड़ने की घटना से उसका रहा-सहा साहस भी जवाब दे गया । वह सहायता के लिए चिल्लाने लगी। तभी बरामदे में लगे परदे के पीछे से भी 'बचाओ, बचाओ' की आवाजें आने लगीं। यह आवाज किसी पुरुष की थी। क्लेदियस परदे के पीछे खड़ा होकर उनकी सारी बातें सुन रहा था । लेकिन रानी को खतरे में पड़ा देखकर वह सहायता के लिए सैनिकों को पुकार रहा है । यह सोचकर हैमलेट ने तलवार निकाल ली और रानी को छोड़कर परदे के पास पहुँच गया। फिर उसने बिना परदा हटाए तलवार से उस पर वार कर दिया। कक्ष में एक चीख गूँजी और फिर धड़ाम से किसी के गिरने की आवाज के साथ सबकुछ शांत हो गया । 'परदे के पीछे छिपा आदमी मारा जा चुका है । 'यह सोचकर राजकुमार निंश्चत हो गया था। वह उस व्यक्ति को देखना चाहता था। उसने आगे बढ़कर परदा एक ओर सरका दिया। जमीन पर ओफीलिया के पिता की लाश पड़ी थी। वह क्लेदियस का विश्वासपात्र था और उसी के कहने पर वहाँ छिपकर उनकी बातें सुन रहा था। राजकुमार के मुँह से अफसोस भरी आह निकली, "अनजाने में मैंने इनकी हत्या कर दी। इसके लिए ओफीलिया मुझे कभी माफ नहीं करेगी।" इसके बाद हैमलेट रानी की ओर मुड़ा । उसके हाथ में खून सनी तलवार देखकर रानी की साँसें उखड़ने लगीं। हालत ऐसी हो गई मानो उसके प्राण निकलने वाले हों। हैमलेट ने तलवार नीचे कर ली और रानी के कंधों पर हाथ रखकर स्नेह भरे स्वर में बोला, "माँ, तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, मैंने तुम्हारे अंश से जन्म लिया है। आज भी मैं तुम्हारा उतना ही सम्मान करता हूँ जितना पहले करता था । परंतु माँ, यह सच है कि क्लेदियस ने महाराज की हत्या की है। उसके हाथ महाराज के खून से रँगे हुए हैं। उसने सिंहासन पर अधिकार करने के लि
ए ही आपसे विवाह किया है । उस जैसे पापी और नीच का साथ देकर आप अपने वंश को कलंकित कर रही हैं। " राजकुमार की बातें सुनकर रानी की नजरें शर्म से झुक गई । उसके पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था। हैमलेट ने माता का चेहरा ऊपर उठाया और दीवार पर टँगी महाराज की तसवीर की ओर संकेत करते हुए बोला, "देखो माँ, पिताजी हमारी ओर कितनी उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं। वे अपने हत्यारे से प्रतिशोध चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हम एक साथ क्लेदियस को उसके किए की सजा दें । इस काम में आप मेरी सहायता करेंगी?" हैमलेट के मुँह से यह स्नेहपूर्ण शब्द सुनकर रानी की आँखों में आँसू भर आए। उसके मन में ममता का सागर हिलोरें लेने लगा। उसने पुत्र को गले से लगा लिया। हैमलेट उसे सांत्वना देते हुए बोला, "तुम चिंता मत करो, माँ! मैं क्लेदियस को उसके किए की सजा अवश्य दूँगा। मुझे सिर्फ आपके आशीर्वाद की जरूरत है, जिससे मैं...' तभी कमरे में एक स्वर गूँज उठा, जिसने राजकुमार की बात को पूरा कर दिया, "अपने पिता की हत्या का बदला ले सकूँ।" राजकुमार ने चौंककर स्वर की दिशा की ओर देखा । वहाँ उसके पिता की आत्मा खड़ी हुई थी । वह खुशी से चीख पड़ा,'पिताजी, आप आ गए, पिताजी! महाराज की आत्मा शांत स्वर में बोली, "पुत्र, मैं तुम्हें यहाँ तुम्हारे कर्तव्य की याद दिलाने आया हूँ। तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा याद है न, कुमार? तुम्हें क्लेदियस से मेरी हत्या का बदला लेना है । " "पिताजी, मैं यह बात कभी नहीं भूल सकता । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए मैं अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटूंगा। उसे अपने पाप का फल अवश्य भुगतना होगा । 'राजकुमार उत्तेजित होकर बोला । "पुत्र! याद रखना, जब तक क्लेदियस जीवित है तब तक मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी । मैं इसी
तरह यहाँवहाँ भटकता रहूँगा। उससे प्रतिशोध ही मेरी मुक्ति का एकमात्र उपाय है।"यह कहकर राजा की आत्मा अदृश्य हो गई। रानी आश्चर्यचकित होकर कभी राजकुमार को देख रही थी तो कभी उस स्थान की ओर जिस ओर राजकुमार मुँह करके बोल रहा था । न तो उसे वहाँ कोई दिखाई दिया, न ही उसने किसी की आवाज सुनी। परंतु उसे अपने चारों ओर सर्द-सी एक लहर अवश्य महसूस हो रही थी । उसी के कारण वह थर-थर काँप रही थी । हैमलेट जानता था कि रानी महाराज की आत्मा की उपस्थिति से पूरी तरह अनजान है। इसलिए उसने भी इस विषय में उसे कुछ नहीं बताया । वह केवल इतना ही बोला, "माँ, आप क्लेदियस से सावधान रहना। जो पापी एक हत्या कर सकता है, उसे दूसरी हत्या करने से कोई डर नहीं लगेगा। अगर उसे पता चल गया कि आप मेरा साथ दे रही हैं तो वह आपको भी जीवित नहीं छोड़ेगा । इसलिए जो कुछ भी करना, सोच-समझकर करना ।" यह कहकर वह कक्ष से बाहर चला गया। उधर, क्लेदियस को गुप्तचरों द्वारा माता-पुत्र के इस मिलन की खबर मिल गई थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह कल ही राजकुमार को विदेश भेज देगा। दूसरे दिन प्रातःकाल उसने हैमलेट को बुलाया और कठोर स्वर में बोला, "कुमार, कल रात तुमने सबसे वरिष्ठ और वफादार वजीर की हत्या करके हमारे लिए संकट पैदा कर दिया है। इस घटना से प्रजाजन में क्रोध और असंतोष की लहर उठ रही है। इसलिए उचित यही है कि तुम कुछ दिनों के लिए यहाँ से कहीं दूर चले जाओ। मैंने इसका सारा इंतजाम भी कर दिया है। जब यहाँ सबकुछ शांत हो जाएगा, तब तुम वापस लौट आना। " इसके बाद उसने दो विश्वसनीय अधिकारियों के साथ राजकुमार को जबरदस्ती जहाज पर चढ़ाकर विदेश भेज दिया। अफसरों को विशेष हिदायत दी गई थी कि मार्ग में अवसर देखकर उसे मौत के घाट उतार दिया जाए। राजकुमार उसके इरादों को भली-भाँति समझ रहा था, लेकिन वह विवश था। परंतु 'जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय ।' मार्ग में समुद्री डाकुओं ने जहाज पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों अधिकारी मारे गए। परंतु डाकुओं का सरदार हैमलेट को पहले से पहचानता था। अतः उसने उसे ससम्मान वापस डेनमार्क भेज दिया। डेनमार्क पहुँचते ही राजकुमार को एक बुरी खबर मिली । पिता की मृत्यु से ओफीलिया को गहरा सदमा पहुँचा था। इस सदमे को सहन न कर सकने के कारण उसने आत्महत्या कर ली। उस समय उसका अंतिम संस्कार किया जा रहा था। इस खबर ने हैमलेट को बुरी तरह से हिलाकर रख दिया । वह विक्षिप्त की तरह तेजी से उस ओर भागा, जहाँ ओफीलिया का शव रखा हुआ था । उसका भाई उसे दफनाने की तैयारी कर रहा था । उस समय क्लेदियस, रानी तथा अन्य दरबारीगण उसकी अंतिम क्रिया में उपस्थित थे । हैमलेट तेजी से भीड़ को चीरता हुआ आया और ओफीलिया के शव से लिपटकर जोर-जोर से रोने लगा। उसका भाई एक पल के भौचक्का रह गया। फिर उसे याद आया कि इसी ने उसके पिता की हत्या की थी और इसी के कारण आज उसकी बहन उसे छोड़कर चली गई। उसने हैमलेट को पकड़ लिया और लात-घूँसों से उसकी पिटाई करन
े लगा। हैमलेट को पिटते देख क्लेदियस मन-ही-मन बहुत खुश हो रहा था । वह चाहता था कि आज उसके रास्ते से हैमलेट नाम का काँटा हमेशा के लिए निकल जाए। परंतु तभी कुछ दरबारियों ने आगे बढ़कर दोनों को अलगअलग कर दिया। ओफीलिया का भाई क्लेदियस को संबोधित करते हुए बोला, "महाराज, इसी ने मेरे पिता की हत्या की है। इसी के कारण मेरी बहन ने आत्महत्या की है। इसने मेरा घर उजाड़ दिया है। मैं इसे अपने हाथों से दंड देना चाहता हूँ।" "तुम्हारे आरोप शत-प्रतिशत सही हैं । परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसे तुम इस प्रकार दंडित करो। मैं तुम दोनों के बीच द्वंद्व युद्ध निश्चित करता हूँ । इसमें जो विजयी होगा, उसे ही जीवित रहने का अधिकार होगा।"क्लेदियस ने मन-ही-मन मुसकराते हुए अपना निर्णय दिया। इस निर्णय के पीछे क्लेदियस का कुटिल दिमाग चल रहा था । वह जानता था कि ओफीलिया के भाई की तुलना में राजकुमार अभी बच्चा है । वह उसका सामना नहीं कर पाएगा। द्वंद्व युद्ध में नकली तलवारों का प्रयोग किया जाता था। लेकिन उसने ओफीलिया के भाई को असली तलवार थमा दी । उस तलवार में तेज जहर लगा हुआ था । यदि युद्ध में राजकुमार बच गया तो उसे मारने के लिए क्लेदियस ने एक और षत्रं रचा था। उसने अपने पास एक शाही प्याला रखा, जिसमें शरबत के साथ-साथ विषैले द्रव्य की कुछ बूँदें भी थीं । युद्ध आरंभ होने से पूर्व उसने घोषणा की कि युद्ध में विजयी होनेवाले को वह सम्मान के रूप में शरबत का शाही प्याला पेश करेगा। उसके इस षत्रं से रानी भी अनजान थी । निर्धारित समय पर युद्ध आरंभ हुआ। उसे देखने के लिए सारा नगर रंगभूमि में उमड़ आया था। पहले तो हैमलेट ओफीलिया के भाई पर हावी रहा, लेकिन धीरे-धीरे उसने हैमलेट पर प्रहार करने आरंभ कर दिए। और फिर उसने उस पर एक प्राणघातक
वार किया । हैमलेट ने खुद को बचाने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु फिर भी तलवार ने उसके शरीर पर घाव बना डाला। जैसे ही विष हैमलेट के शरीर में गया, उसे भयंकर जलन होने लगी । वह समझ गया कि क्लेदियस ने उसके साथ छल किया है। जहर तेजी से उसके शरीर में फैल रहा था। उसे अपनी मौत दिखाई देने लगी। परंतु मरने से पहले वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करना चाहता था, अतः उसने ओफीलिया के भाई से तलवार छीनकर उसी के सीने में घोंप दी। फिर खून सनी तलवार लेकर उसने क्लेदियस की ओर देखा । उसका यह रूप देखकर रानी भयभीत हो गई। उसने घबराकर शाही प्याला उठाया और सारा शरबत पी लिया। जहर ने अपना असर दिखाया और रानी तड़पते हुए वहीं ढेर हो गई। माँ को तड़प-तड़पकर प्राण त्यागते देख हैमलेट को पिता की मृत्यु याद आ गई । इस पापी ने उसे इसी प्रकार तड़पा-तड़पाकर मारा था । वह तेजी से क्लेदियस की ओर लपका । जहर के असर के कारण उसके पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे। लेकिन गिरने से पहले वह किसी भी तरह क्लेदियस तक पहुँच जाना चाहता था। उसने सारी शक्ति एकत्रित की और सिंहासन के सामने जा पहुँचा। क्लेदियस ने भागने की कोशिश की, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हैमलेट ने उसके सीने में तलवार घोंप दी । क्लेदियस भयंकर चीत्कार करते हुए जमीन पर गिर पड़ा और कुछ ही देर में उसने प्राण त्याग दिए । हैमलेट के चेहरे पर संतोष और प्रसन्नता के भाव उतर आए । आखिरकार उसने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध ले लिया था। अब वह शांतिपूर्वक मर सकता था। उसे विश्वास था कि क्लेदियस की मृत्यु के साथ ही उसके पिता की आत्मा मुक्त हो गई होगी। फिर उसने भी अपने प्राण त्याग दिए। राजा : तिमन जैसे कुछ लोग अपनी कंजूसी के लिए प्रसिद्ध होते हैं, उसी प्रकार कुछ लोगों को फिजूलखर्ची में महारत हासिल होती है। ऐसे लोगों में एथेंस नगर के राजा तिमन का नाम भी सम्मिलित था। उसकी गिनती ऐसे उदार लोगों में होती थी जो धन को पानी की तरह बहाया करते थे। एक अशर्फी के स्थान पर वह सौ अशर्फियाँ और सौ अशर्फियों के स्थान पर हजार अशर्फियाँ लुटाता था। इससे भी उसे संतोष नहीं था । वह अकसर सोचा करता कि ईश्वर ने उसे दो हाथ क्यों दिए? उसके हजार हाथ होने चाहिए थे । वह इतना धन लुटाता था कि लेनेवाले थक जाते थे, लेकिन उसका हाथ नहीं रुकता था । जहाँ शहद होता है, वहाँ मधुमक्खियाँ आ ही जाती हैं। कुछ ऐसा ही तिमन के साथ हुआ। उसकी दरियादिली देखकर उसके आस-पास चापलूसों की भीड़ लग गई। ये लोग उसकी चापलूसी कर अपना उल्लू सीधा करते रहते थे। राज्य में अनेक लोग ऐसे भी थे, जो वर्षों से निर्धनता का जीवन जी रहे थे। लेकिन तिमन की चापलूसी करके कुछ ही दिनों में उनकी गिनती धनवानों में होने लगी थी। जो व्यक्ति फिजूलखर्ची में विश्वास करते थे, तिमन उन्हें बहुत पसंद करता। उसका दरबार भी फिजूलखर्च करनेवाले लोगों से भरा पड़ा था। जो जितना अधिक फिजूलखर्च था, तिमन उसे उतना ही उदार समझता था । वह कितना मूर्ख और अक्ल का अंधा था, इसका पता इस बात से
ही चलता है कि उसका प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर अनेक लोगों का कर्ज चढ़ा हुआ था । वह निन्यानबे नाइयों से मुफ्त में हजामत बनवा चुका था। उपप्रधानमंत्री की चापलूसी की भी कई बातें प्रसिद्ध थीं। कहते हैं, उसने पहली बार दरबार में आकर तिमन को सलाम किया और उसे एक छंद सुनाया । इसमें उसने तिमन की दयालुता, दानवीरता और दरियादिली की भरपूर प्रशंसा की थी। इस चापलूसी भरे छंद को सुनकर तिमन वाह-वाह कर उठा । उसने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ा और उसे उपप्रधानमंत्री की कुरसी पर आसीन कर दिया । तिमन के दरबार में ऐसी घटनाएँ प्रतिदिन घटती रहती थीं। जरा सी चापलूसी के बदले कई भिक्षुकों को उसने अपना दरबारी बना लिया था। एक बार की बात है। तिमन दरबार में बैठा था कि तभी वहाँ एक युवक आया और फरियाद करते हुए बोला, 'महाराज की जय हो! महाराज, मेरा नाम कड़का है। मैं एक सेठ की बेटी से प्रेम करता हूँ और उससे विवाह करना चाहता हूँ। उसकी शर्त है कि वह अपनी बेटी का विवाह उसके साथ करेगा जो उससे अधिक धनवान् होगा, जिसके पास सुख के सभी साधन होंगे । किंतु महाराज, मेरी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि शर्त पूरी करने की बात तो दूर, मैं अपना भरण-पोषण भी ठीक से नहीं कर सकता। अब आप ही मेरी सहायता कीजिए । मैं बड़ी उम्मीद लेकर आपके पास आया हूँ।" तिमन प्रसन्न होकर बोला, "वाह नौजवान, क्या दिल पाया है तुमने! तुम्हारे साहस की मैं दिल से प्रशंसा करता हूँ। तुम्हारे लिए मैं अपना सारा खजाना और राज्य लुटाने को तैयार हूँ । जाओ, तुम्हें जितना धन चाहिए, खजांची से ले लो और धूमधाम से विवाह करो। तुम्हारे विवाह में किसी प्रकार की कोई अड़चन नहीं आएगी । विवाह के बाद तुम मेरे पास अवश्य आना । मुझे तुम जैसे साहसी और उदार लोगों की बहुत आवश्यकता है । "
आज्ञा पाते ही युवक उसी समय खजांची के पास गया और भरपूर धन लेकर चला गया । यह अकेली ऐसी घटना नहीं थी । ऐसे हथकंडे अपनाकर न जाने अब तक कितने फकीर और निर्धन मालामाल हो चुके थे। स्थिति यह थी कि खजाना दिन-प्रतिदिन तेजी से खाली होता जा रहा था । एक बार दूसरे देश का एक व्यापारी दरबार में उपस्थित हुआ। उसने तिमन को एक घोड़ा भेंट किया। चूँकि तिमन राजा था, इसलिए वह भी उस व्यापारी को उपहारस्वरूप कुछ देना चाहता था। उसने खजांची को पचास हजार रुपए लाने की आज्ञा दी । खजांची हाथ जोड़कर बोला, "महाराज, निरंतर लोगों को दान देने के कारण राजकोष पूरी तरह से खाली हो चुका है। पचास हजार तो क्या, इन्हें देने के लिए इस समय उसमें एक रुपया भी नहीं है । " "क्या बकते हो? राजकोष खाली कैसे हो गया? इस व्यापारी को भेंट में अब हम क्या देंगे?" तिमन ने चौंकते हुए कहा । वह कुछ देर तक माथे पर हाथ रखकर सोचता रहा । फिर उसके होंठों पर मुसकान उभर आई । वह अभिमान से भरकर बोला, "ठीक है, तुम इसी समय शाही संपत्ति का कुछ अंश बेच दो। उससे जो धन प्राप्त हो, उसे इस व्यापारी को हमारी ओर से पुरस्कारस्वरूप प्रदान किया जाए।" खजांची हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोला, "क्षमा करें, महाराज ! शाही संपत्ति का अधिकांश भाग पहले ही जरूरतमंदों और याचकों में दानस्वरूप बाँटा जा चुका है। अब शाही संपत्ति का इतना भी टुकड़ा नहीं बचा कि उसे बेचकर व्यापारी को पचास रुपए भी दिए जा सकें । " 'नहीं! क्या शाही संपत्ति का इतना भाग बेचा जा चुका है?" तिमन पुनः चौंकते हुए बोला । तिमन धर्मसंकट में फँस गया । वह व्यापारी को पचास हजार रुपए देने की घोषणा कर चुका था । इसलिए बहुत सोच-विचार के बाद उसने खजांची से कहा, "जाओ, नगर के किसी भी धनी से पचास हजार रुपए का ऋण लेकर इस व्यापारी को मेरी ओर से दे दो। मेरा नाम सुनकर कोई भी धन देने से इनकार नहीं करेगा ।" खजांची सर्वप्रथम नगर के प्रसिद्ध अमीर के पास गया । उसका नाम लूशियस था । खजांची ने उसे सारी बात बताकर ऋण देने के लिए कहा। लूशियस होंठों पर कुटिल मुस्काराहट लाते हुए बोला, "यह मेरा सौभाग्य है कि महाराज ने मुझे इस तुच्छ सेवा के लिए चुना । उनका कार्य करके मुझे अपार प्रसन्नता होती, परंतु आपने आने में देर कर दी। आज ही मैंने अपना सारा धन व्यापार में लगा दिया है। इस समय देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं उनके उपकारों के बोझ तले दबा हुआ हूँ, लेकिन चाहकर भी अनके लिए कुछ नहीं कर सकता । आप उनसे मेरी ओर से क्षमा माँग लेना और कहना कि जैसे ही मेरे पास धन आएगा, मैं उसे लेकर स्वयं उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।" लूशियस ने बहाना बनाकर खजांची को विदा कर दिया। खजांची एक दूसरे सेठ के पास गया । यह सेठ पहले बहुत निर्धन था । तिमन की चापलूसी करके आज वह नगर का धनी बना हुआ था। ऋण देने की बात सुनते ही मानो उसे साँप सूँघ गया । वह खजांची से बोला,"मित्र, मेरे पास भला इतना धन कहाँ है? मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता । आप राजा साह
ब से कह देना कि मैं घर नहीं था। आपकी बड़ी कृपा होगी।" इस प्रकार एक-एक कर खजांची नगर के सभी अमीरों के पास गया और उनसे सहायता की प्रार्थना की। लेकिन कल तक जो तिमन की जी-हुजूरी किया करते थे, आज उन्होंने उसकी ओर से मुँह फेर लिया था। अंत में थकहारकर खजांची दरबार में लौट आया । में 'सेवक, तुम ऋण ले आए? मेरे किस प्रिय ने धन दिया है?" तिमन ने प्रश्न किया। खजांची थके स्वर में बोला, "महाराज, सर्प केवल डस सकते हैं, उनसे मित्रता या उदारता की उम्मीद करना मूर्खता है। मैंने नगर के प्रत्येक धनी का द्वार खटखटाया, लेकिन कोई भी सहायता के लिए तैयार नहीं हुआ। सभी के पास कोई-न-कोई बहाना तैयार था । ऋण का नाम सुनते ही सभी ने मुँह मोड़ लिया । " "क्या कह रहे हो तुम? होश में तो हो ? किसी ने भी तुम्हें ऋण नहीं दिया? सबने आँखें फेर लीं?" तिमन आश्चर्य से बोला। "जी महाराज! सब भाग्य का खेल है।"खजांची ने सिर झुकाकर उत्तर दिया । तिमन के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई हो । क्रोध की अधिकता से उसकी आँखों में खून उतर आया । वह हाथों में तलवार लेकर एक-एक का सिर काट डालना चाहता था। उसका दिल बार-बार चीख रहा था, 'मेरे टुकड़ों पर पलनेवाले लालची कुत्तो! क्या मेरे उपकारों का यही बदला है? क्या इसी दिन के लिए तुम मेरी चापलूसी, मेरी खुशामद किया करते थे? क्या मेरे लिए कहे जानेवाले तुम्हारे प्रशंसायुक्त शब्द मात्र धन हथियाने के साधन थे? मैंने अपना सारा धन तुम पर न्योछावर कर दिया, किंतु तुम ऐसे दगाबाज निकले कि मुझसे ही आँखें चुराने लगे। मैं तुम्हें इसकी सजा अवश्य दूँगा । तुम्हें इतनी आसानी से क्षमा नहीं करूँगा।' यह सोचकर तिमन सिंहासन से उठा और अपने कक्ष में चला गया। दो दिन बाद नगर उत्सव का-सा वातावरण था । नगर के सभी धनवान् बड़े उत
्साहित थे; प्रसन्नता उनके चेहरों से टपक रही थी। आखिर प्रसन्न क्यों नहीं होते, महाराज ने उन्हें दावत पर जो आमंत्रित किया था। इसकी घोषणा एक दिन पहले ही हो चुकी थी । इस आमंत्रण से चापलूसों की बाँछें खिली हुई थीं। चापलूसी करके तिमन से धन प्राप्त करने का उन्हें एक और सुनहरा अवसर मिल रहा था। वे बेसब्री से दावत के दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। इस दावत में नगर के धनिकों के साथ-साथ तिमन के मित्र और पुराने दरबारी भी आमंत्रित थे। इनमें वे लोग भी सम्मिलित थे, जिन्होंने तिमन को ऋण देने से इनकार कर दिया था। निश्चित समय पर अतिथि एक-एक कर अतिथिशाला में एकत्र होने लगे। उन्हें उम्मीद थी कि स्वभाव के अनुसार तिमन उन्हें कीमती उपहारों से सम्मानित करेगा, रत्न आभूषण प्रदान करेगा। जिन्होंने ऋण देने से इनकार किया था, वे सोचने लगे कि 'कल यदि हम थोड़ा धन देकर तिमन की सहायता कर देते तो आज हमें सबसे अधिक उपहार प्राप्त होते।' उन्हें इस बात का मलाल था। कुछ परस्पर परामर्श करने लगे, "तिमन को प्रसन्न करना बहुत आसान है। उसे कीमती ईरानी कालीन अथवा एक अरबी घोड़ा उपहार में देकर दो-चार तारीफ के शब्द बोल दो । बस, इतने से ही खुश होकर वे कल की सारी बात भूल जाएँगे और हमें मालामाल कर देंगे।" अभी बातचीत का दौर चल ही रहा था कि तभी कक्ष में तिमन ने प्रवेश किया और आसन पर आकर बैठ गया। फिर उसका संकेत पाकर नौकर हाथी दाँत की विशाल मेज पर भोजन की तश्तरियाँ और प्यालियाँ लाकर रखने लगे। व्यंजनों के सभी बरतन कपड़ों से ढके हुए थे। उपस्थित अतिथिगण कपड़ों से ढके इन बरतनों में स्वादिष्ट व्यंजनों की कल्पना कर रहे थे । मसालेदार पुलाव, कबाब, मिठाइयाँ, शराब आदि के बारे में सोच-सोचकर उनके मुँह में पानी आने लगा। उनकी भूख बढ़ने लगी। तिमन ने भोजन आरंभ करने का संकेत किया। अतिथियों ने शीघता से कपड़े हटाकर बरतनों को अपनी ओर खींचा। लेकिन भोजन की ओर देखते ही वे ठिठक गए। उनकी आँखें फटी-की-फटी रह गई । सोने-चाँदी के बरतनों के स्थान पर प्रत्येक अतिथि के सामने मिट्टी की दो-दो प्यालियाँ रखी हुई थीं। उनमें से एक प्याली में हड्डी और दूसरी प्याली में थोड़ा सा पानी था। सभी अचंभे से तिमन की ओर देखने लगे। तिमन अपने आसन से उठा और चिंघाड़ते हुए बोला, "तुम सब रुक क्यों गए? भोजन क्यों नहीं करते? जब मेरे पास खिलाने के लिए स्वादिष्ट भोजन था, तब तुमने पेट भरकर खाया। लेकिन आज जब मेरे पास केवल ये हड्डयाँ और पानी हैं तो इन्हें खाने से पीछे क्यों हट रहे हो? खाओ इन्हें और अपनी भूख शांत करो।" आज तक तिमन का यह रौद्र रूप किसी ने नहीं देखा था। वे समझ गए कि यह उनकी कृतघ्नता का असर है। उन्होंने नजरें नीची कर लीं और जहाँ अवसर मिला, उठकर भाग गए। यह तिमन की अंतिम दावत थी । इस घटना ने तिमन को गहरे शोक, निराशा और हताशा के गर्त में डुबो दिया । हर व्यक्ति उसे स्वार्थी नजर आने लगा। उसे सबसे घृणा हो गई। अंततः उसने इस बनावटी और स्वार्थी दुनिया को त्यागने का निश्चय कर लि
या। एथेंस में एक भी पल रुकना उसके लिए असहनीय हो गया । वह जल्दी-से-जल्दी वहाँ से दूर चला जाना चाहता उसे एथेंस से इतनी घृणा हो गई थी कि नगर से बाहर निकलते ही उसने शरीर से सारे वत्र उतार फेंके और नगर की प्राचीरों को संबोधित करते हुए बोला, "हे प्राचीरो! इन स्वार्थी कुत्तों की रक्षा करने की अपेक्षा तुम ध्वस्त हो जाओ। इस नगर की त्रियाँ एवं कुँवारी लड़कियाँ पथभष्ट और चरित्रहीन हो जाएँ; संतानें अपने माता-पिता की शत्रु हो जाएँ; लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँ । दरबारी पदच्युत हो जाएँ । इस नगर का विनाश हो जाए। इससे अच्छा तो वह जंगल है, जहाँ रहनेवाले जानवर इन स्वार्थी भेड़ियों से अच्छे होते हैं।" तिमन ने नगर छोड़ने का निश्चय कर लिया था, इस बात से दरबारी अनजान थे। उनमें कुछ ऐसे भी थे, जो उसके प्रति वफादार थे । एकाएक उसके महल से चले जाने से वे चिंतित हो उठे। उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी कि स्वार्थी और धोखेबाज लोगों के दुर्व्यवहार से तिमन के दिलो-दिमाग पर गहरी ठेस लगेगी और वह सबकुछ त्यागकर चला जाएगा। वे मन-ही-मन उसके चापलूस और स्वार्थी मित्रों एवं दरबारियों को कोस रहे थे। इन्हीं लोगों में फ्लेवियस नामक एक दरबारी भी था, जो तिमन का निकटतम और विश्वसनीय व्यक्ति था। वह बड़ा सभ्य और वफादार था । तिमन के अचानक कहीं चले जाने से वह शोकातुर हो गया और बार-बार सोचने लगा 'क्या भलाई का यही परिणाम भुगतना पड़ता है? क्या दूसरों की सहायता करना अपराध है? मेरे मालिक ने मुसीबत में फँसे लोगों की हमेशा सहायता की; आवश्यक धन और वस्तुएँ देकर उनकी जरूरतें पूरी कीं । लेकिन इसका उन्हें क्या फल मिला? आज उनकी इनसानियत और दयालुता ही उनकी शत्रु बन गई । न जाने वे कहाँ भटक रहे होंगे? किसी को भी उनकी चिंता नहीं है; सभी
निशृंंचित होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं स्वयं अपने मालिक को ढूँढूँगा और आजीवन उनकी सेवा करूँगा। मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकता। परंतु ऐसा करके शायद मैं अपने सेवक होने का कर्तव्य पूरा कर सकूँ ।' यह सोचकर फ्लेवियस तिमन को ढूँढ़ने निकल पड़ा। इधर, भटकते-भटकते तिमन समुद्र के किनारे जा पहुँचा। वहाँ के शांत और सुंदर वातावरण ने उसे मोहित कर लिया। वह वहीं कुटिया बनाकर रहने लगा । भोजन के लिए वह जंगल की जमीन खोदता और कंद-मूल खाकर पेट भर लेता था । इसके अतिरिक्त अपने दरबारियों, मित्रों और नगर के सेठों को कोसना उसका मुख्य कार्य था। उसे सबसे घृणा हो गई थी। वह उनके विनाश के लिए लगातार भगवान् से प्रार्थना करता था। उसके जीवित रहने का एकमात्र उद्देश्य था - एथेंस का विनाश । मरने से पूर्व वह उसका विनाश देख लेना चाहता था। एक बार भोजन की तलाश में वह जमीन खोद रहा था कि सहसा उसे स्वर्ण के कुछ टुकड़े मिले। उसे देखते ही तिमन के चेहरे पर दर्द उमड़ आया । इसी स्वर्ण के लिए उसे उसके साथियों और दरबारियों ने उसे धोखा दिया था,
सागर के धूसर नील पानी में साँझ का सूरज डूब गया। साथ में दया का दिल भी - हे देवा! आज क्या मुँह लेकर घर जाऊँगा! रूप आस लगाकर बैठी होगी... हथेली में अपना पूरा मन बाँधे उसने आकाश को देखा - कुछ जतन करो भगवन! ऐसे तो गुजर नहीं होगी। सात दिनों से दरिया का पानी लिसरा पड़ा है - काले-काले तेल के चकत्तों से भरा हुआ... कहीं दूर बीच समंदर में तेल का जहाज डूबा है। हजारों लीटर तेल हर क्षण पानी में रिस रहा है, लहरों पर तैरकर किनारे तक पहुँच रहा है, जल के जीव मर रहे हैं। हर तरफ हाहाकार मचा है। बड़े जहाजवालों को परेशानी नहीं। वे दरिया में दूर निकलकर मछली पकड़ लाएँगे। मगर उन जैसों का क्या? छोटी-सी नाव उसकी, वहशी लहरों की चपेट में आकर चिंदी-चिंदी हो जाएगी। वह अपनी औंधी पड़ी नाव को सूनी आँखों से देखता है फिर पाँव पर लहराते दरिया को - जरा तू ही सिमटकर छोटा हो जा, मेरी नाव तुझे नाप ले... दो बित्ते की नाव और चार बित्ते का सागर... बोल, होगा...? वह उम्मीद से भरकर पानी को निहारता है और फिर एकदम नाउम्मीद हो जाता है। लहरों पर कालिख का चमकता हुआ वरक चढ़ा है। रेत पर मरती हुई मछलियों की तड़प बिखरी पड़ी है। दूर एक पक्षी अपने तेल लिथड़े पंखों से उड़ने के प्रयास में बार-बार छटपटा रहा है। दया के अंदर उदासी के गहरे बादल उमड़ते हैं। नहीं, अब कुछ न हो सकेगा। अपने थके कदमों से वह उठकर घर की ओर चल पड़ता है - एक कदम आगे तो दो कदम पीछे। पीछे समंदर की बोझिल लहरें उसाँसें लेती-सी किनारे पड़ धीमें पाँव आतीं, लौटती हैं। तेल के मैले जजीरों ने उसकी गति बाँध दी है, देह में विष की पुडिया घोल दी है। वह जीए तो कैसे। दया उसके सवाल सुनता है और अपना भूल-भूल जाता है। ग्राम देवता के थान पर माथा टेककर दया बाहर निकला तो उसका हृदय थोड़ा शांत था। आखिर उनके माथे पर उनके पितरों, देवचर, रावलनाथजी के हाथ हैं। एकदम तो बह जाने नहीं देंगे। कुछ न कुछ तो होगा, आज नहीं तो कल। जब वह बोझिल कदमों से घर पहुँचा तो रूप को अपने लिए इंतजार करते हुए पाया। वह आँगन में तुलसी चौरे के पास दीया बाले बैठी थी - सज-धज के। शायद कहीं जाना था उसे। बहुत सुंदर लग रही थी - पूनम के चाँद की तरह। माथे पर आधे चाँद की बिंदी, लाल नौवारी साड़ी, सोने का मंगलसूत्र, हरे काँच की चूड़ियाँ। दया उसे निष्पलक देखता रह गया। गभर्वती होकर उसका लावण्य दिन-दिन बढ रहा है। ऐसे समय में उसे और सुख, जतन देने की दरकार है। दया के मुँह से अनायास आह फिसल जाती है। उसकी आहट पाकर रूप चौंक कर उठ आती है - कितनी देर लगा दी। आज मुझे कलशी फुगड़ी में जाना है, याद नहीं? पूरे गाँव की सुहागनें जुट रही हैं भूमिका देवी के मंदिर में। नीलू की मौसी चार बार हाँक मारकर गई है। 'अभी आई, अभी आई' करके तबसे टाल रही हूँ। चलो, तुम्हें खाना परोस दूँ। अब और नहीं रुक सकती। दया चुपचाप आसन पर बैठ जाता है। आज नहाने का भी मन नहीं। आँगन के एक कोने में कंडे की नीली आँच पर ताँबे की बड़ी गगरी में नहाने का पानी गरम ह
ो रहा है। काँसे की बड़ी किनारी टूटी थाल पर नाशनी की काली, मोटी, अनगढ रोटियाँ और सूखी नारियल की चटनी। दया चुपचाप खाता है। आज कोई हील-हुज्जत या माँग नहीं। अच्छे बच्चे की तरह गस्सा तोड़ रहा है, कौर निगल रहा है। उसे देख-देखकर रूप का हृदय टूट रहा है। हाय री मजबूरी! जो दया कभी मछली के बिना खाना मुँह से नहीं लगाता था, आज कैसा चुपचाप रोटी, चटनी खा रहा है। दया जानता है, रूप की आँखें उसी पर लगी है, इसलिए एक बार भी नजरें नहीं उठाता। सर झुकाकर अपने सूखे निवालों से जुझता रहता है। रूप के घर से निकलकर जाने के बाद ही वह उठकर हाथ धोता है और फिर गोबर लीपे आँगन में चाँपा के फूलते पेड़ के पास चटाई बिछाकर लेट जाता है। रात रानी और चंपा की मीठी गंध से हवा बोझिल है। आकाश के झक, नील सीने पर पूनम का पूरा चाँद फटा पड़ रहा है लगता है, गाँव के मंदिर में औरतों की फुगड़ी शुरू हो गई है। उनके समवेत स्वर में गाने की आवाज सुनाई पड़ रही है। आज ये औरतें भूमिका देवी तथा वन देवी की स्तुति में सारी रात नाचेंगी, गाएँगी। अपनी चिंता के गहरे भँवर में डूबता-उतराता न जाने कब दया को नींद आ गई थी। भोर रात को रूप फुगड़ी से लौटकर उसके बगल में लेटी तो उसकी नींद उचट गई। उस समय पूरब में सुपारी के जंगल के ऊपर आकाश का रंग गहरा काशनी हो रहा था। ठंडी बहती भोर की हवा में कहीं आसपास रातभर झरते हरसिंगार की बासी-उनींदी गंध थी। दूर दरिया के गर्जन में जल पक्षियों का उदास शोर घुला हुआ था। दया का मन अनचन कर उठा। समंदर रो रहा है, धरती और आकाश भी। सबको उसकी जरूरत है जैसे। वह बिस्तर से उठकर दरिया की और चल देता है। रास्ते में माधव और अंकुश भी मिलते हैं। सबकी आँखों में जगार है, सबके चेहरे पर चिंता। भविष्य जब अधर पर लटक रहा हो, वर्तमान में कौन स
ंतुष्ट रहेगा। सबका भगवान ये दरिया है और अब यह दरिया ही बीमार पड़ गया है। नील देह पर कालिख पुती है, लहर-लहर हल्कान। हुआ जा रहा है। 'क्या होगा और कब होगा!' मंगेश का सर भन्नाया हुआ है। चार दिनों से घर में अन्न का दाना नहीं, बच्चे बिलख रहे हैं। 'किसको पड़ी है हमारी। हजार झंडे, हजार पार्टियाँ। कोई इसे कोस रहा है, कोई उसे कोस रहा है। बीच में मर रहे हैं हम। कोई ईमान से बताए, किसके राज में हम सुख से रहें? अगर किसी का भला हुआ तो बस इन्हीं नेताओं का। गरीब की चिता की आग पर रोटियाँ सेंकनेवाले गिद्ध... मंगेश की आँखों में खून था, आँसू सारे कबके बह चुके थे। तान ने उसे बढ़कर सँभाला, वर्ना न जाने वह किसकी जान ले लेता। रामा अपना सर पकड़े अब तक चुप बैठा था। मंगेश की बातें सुनकर उसके खून में भी आग लग गई। काँपते हुए उठा और गुर्राया - अरे, हमने कब इनसे सुख-सुविधाएँ माँगी थी। कुदरत ने हमें जो दिया था, हम उसी में संतुष्ट थे। सर पर आकाश था, नीचे धरती का बिछौना... अपने जल, जंगल, जमीन से हमें सब कुछ मिल जाता था - दो वक्त की रोटी, नींद और सुकून... मगर अब तो सब छिन गया। न गरीब के सर पर आकाश रहा, न पाँव के नीचे जमीन... आजादी, उन्नति, आधुनिकता के नाम पर सब झपट ले गए! 'रोज नए-नए कानून बनाकर ये हमसे हमारी जमीन और दरिया हथियाने में लगे हैं। ऐसे तो हम जल्दी ही बेदखल हो जाएँगे।' धीरे-धीरे अपनी बात कहते हुए नरेन की आवाज में गुस्से से ज्यादा चिंता थी। अगले ही महीने उसकी छोटी बहन की शादी होनी तय हुई थी। गोकुल की बात सुनकर सबके चेहरे का रंग उतर गया था। दरिया तो उनके नसों में बहता हैं, वे दरिया से दूर जाकर कैसे जिएँगे! काँच के बक्से में कभी दरिया बँधता है, कि मछली ही जीती है। कभी पाँच सितारा होटल के नाम से जगह घेरी जा रही है तो कभी कालोनियाँ जमीन निगल रही है। अब स्थानीय लोग कहाँ जाएँ। जहाँ पाँव रखो, लोग आँखें तरेरते आ जाते हैं। कुदरत का तोहफा ये कैसे इस तरह से बेचकर खा सकते हैं? अंधेर है... अनपढ़ लोगों के दिमाग में सवाल तो उठते हैं, मगर जवाब नहीं सूझते। दया आकर बगल में लेटा तो रूप ने अपनी आँखें बंद की। अब तक उसी के इंतजार में जाग रही थी। जब तक दया घर नहीं लौट आता, उसे चैन नहीं मिलता। आजकल दिन ही ऐसे पड़े हैं। चारों तरफ अशांति और झमेला। रूप को चिंता होती है। दया भावुक है, जोश में कुछ कर-करा न बैठे। उसे अपने पहले बच्चे के जन्म के लिए माँ के घर जाना था, मगर यहाँ की हालत को देखते हुए वह अब तक बात टालती आ रही थी। वह अकेली पड़ी सोचती और सोचती है। न जाने ये दिन कब बदलेंगे। कब पहले जैसा जीवन होगा - निश्चिंत और खुशियों से भरा । उसे वे दिन याद आते हैं जब उन दो जनों का छोटा-सा परिवार हर तरह से खुशहाल था। दया रात-रातभर नाव लेकर मछली पकड़ने के लिए दरिया में रहता था। बारिश के बाद नारियल पूर्णिमा में समंदर की पूजा कर मछेरे अपनी-अपनी नाव लेकर पानी में उतर जाते थे। यह मछली का मौसम होता था। खूब मछलियाँ मिलती थी। घ
र में पैसा आता था। दो साल पहले बारिश के बाद जब दया ने मछली बेचकर बहुत पैसा कमाया था, उसके लिए दो तोले का बाजूबंद खरीद लाया था। कुछ साल पहले यही मार्च का महीना - कपास की खुलती गाँठों और हवा में बेहिसाब उड़ते आवारा फूलों के दिन... गहरी उमस में पसीना और नींद से बोझिल तन-मन! कोंकण समुद्री पट्टी का आम मौसम, हमेशा की तरह... उस दिन भी दया दरिया से सुबह-सुबह लौटकर सीधे बाजार गया था। हाँ बाबा! वह भूल सकती हूँ। रूप ने सूखी मछली का संबल आगे बढ़ाया था, अल्मुनियम की कटोरी भरकर - जितना चाहे मनभर खा लो। कल मंगलबार है। मछली नहीं पकेगी। 'यानी वही तेरी दाल और अचार... दया ने मुँह बनाया था। 'हाँ, और क्या? रूप के होठों पर हँसी काँप रही थी। 'सरसों के साथ करी पत्ते का छौंक लगाना न भूलना! खाना खकर दया आँगन में उतरकर कुल्ला कर आया था। 'जरा-सा लेटूँगा। नंदिनी को नीचेवाले गोठे में बाँधकर आ। सुबह से रँभा रही है। गर्मी में आई है। सोने नहीं देगी।' भूना हुआ सौंफ फाँकते हुए वह चटाई पर जा लेटा था। गाय को दूसरी जगह बाँधकर रूप हाथ पंखा लिए उसके बगल में आ बैठी थी - अच्छा दया, मोर्चे का क्या हुआ? 'होना क्या था, दया की पलकें बोझिल हो रही थी - बड़ी-बड़ी कंपनियों के जहाज हैं दरिया में। उन लोगों ने खूब खिलाया-पिलाया है मंत्रियों को। हम गरीब मछेरों के जाल उनसे टूटते-फूटते हैं तो परवाह किसे है। राजनेताओं के अपने स्वार्थ है, व्यापारियों के अपने। बीच में घुन की तरह पिसते हैं हम गरीब। 'तो क्या कुछ भी न हो सकेगा?' रूप की आवाज में चिंता थी। आखिर मछली पकड़ना उनकी आजीविका का एकमात्र साधन था। आए दिन समंदर में मछली पकड़नेवाले बड़े-बड़े जहाज उतर रहे थे। उनके रास्ते में आकर गरीब मछेरों के छोटे जाल टूटते रहते थे। पिछले साल मुन्ना
उनके जाल की ओर बढ़ते हुए जहाजों को सावधान करने के लिए पानी में उतरा तो टूटे हुए जाल की लपेट में आकर मारा गया। गुस्से में आई भीड़ ने राज्य सभा भवन के सामने प्रदर्शन किया। बहुत हंगामा हुआ। पुलिस की गोली में एक की जान चली गई। राजनीतिक पार्टियाँ झूठी हमदर्दी का मुखौटा ओढ़े अपना-अपना झंडा, बैनर लेकर हाजिर हो गए। खूब रोटी सेंकी गई गरीब की चिता पर। मगर हुआ कुछ भी नहीं। आखिर सबने मिलकर चंदा करके मारे जानेवाले की शहादत की याद में चौक पर एक मूर्ति की स्थापना कर दी - मूर्ति के एक हाथ में चप्पू, दूसरे कंधे पर जाल। साल में एक बार उसके शहादत दिवस पर उसकी मूर्ति साफ-सूफ करके उस पर माला चढ़ा दी जाती है। भाषण-वाषण भी होता है। इसके बाद बाकि पूरे साल उसके नीचे बैठकर उसकी पागल, बूढ़ी माँ कटोरा लेकर भीख माँगती है। ऊपर मूर्ति के माथे, कंधे पर पक्षी उड़ते-बैठते बीट करते रहते हैं। यही तो है शहीदों का हाल यहाँ पर! रूप को चिंता होती है। दया को भी होती होगी। मगर वह मुँह से कुछ कहता नहीं। रूप पेट से है। उसे यह सब बताकर परेशान करना ठीक नहीं। बाहर की बातें घर में लाकर भी क्या होगा। मगर घर में बैठकर भी रूप को गंध आती है। हवा में बारूद है, धुआँ भी। समंदर में आग लगी है, मछलियाँ जल रही हैं। बीमार पड़ा है दरिया, छीज रहा है निरंतर... 'हे देवा! रूप मन्नत माँगकर महालसा देवी के मंदिर में मोगरे की वेणी चढ़ा आती है, तुलसी की माला भी। शनिवार को हनुमानजी के पाँव में तेल ढालती है - शनि की कोप दृष्टि से बचाना प्रभु! उस दिन दया की मनःस्थिति अजीब थी। उसे पिछवाड़े की तरफ पड़ने वाली पहाड़ी पर खींच ले गया था। सामने नजर पड़ते ही रूप का दिल धक से रह गया था। आगे की पहाड़ियाँ एकदम नंगी खड़ी थीं। पूरी तरह उघड़ी, खुली हुई। लाल मिट्टी घाव की तरह दगदगा रही थी जैसे। चारों तरफ दैत्यकार मशीनों का शोर मचा था। जंगल तहस-नहस किए जा रहे थे। 'अरे, अब ये क्या हो रहा है! रूप को सचमुच रोना आ गया था। 'जंगल साफ किए जा रहे हैं। यहाँ बहुत बड़ी कंपनी के बँगले और कालोनियाँ बनेंगी।' कहते हुए दया की आवाज में भी अजीब डूब थी। रूप ने अपनी जलती पलकों को भींचा था। कभी ठीक उन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में वसंत के मौसम में उन्होंने प्रेम का पहला फल चखा था। उन दिनों पहली बार रूप अपनी भाभी के इस गाँव में घूमने आई थी। दया बाजार मे मछली बेचकर लौट रहा था। आज सीपियों के अच्छे दाम मिले थे। भर दुपहरी में सुपारी के गहरे हरे जंगल में रूप को हाथ में चंपा का फूल लिए खड़ी देखा तो देखता ही रह गया। जैसे समंदर, धूप और हवा से गूँथकर बनी थी वह - सुंदर, मुलायम और चमकीली - बहती हुई लहर की तरह! घर में ले जाने के लिए लाई हुई मछली की टोकरी उसने उतारकर जमीन पर रख दी थी। आई घर पर उसकी राह तक रही होगी, उसे ख्याल नहीं रहा। तेज धूप के एक छोटे-से दायरे में सूरजमुखी की तरह दपदपाती हुई रूप के लावण्य में डूबा न जाने वह कबतक खड़ा रह गया था, बिना कुछ कहे। साथ में रूप भी। वसं
त और प्रेम का टोना दोनों पर एक साथ चला था। दया का साँवला चमकता चेहरा और जवान मछलियों से भरा कठोर पत्थर जैसा शरीर रूप के कच्चे मन में एकदम से उतर गया था। दया ने बढ़कर उसकी कलाई पकड़ी तो वह एक-दो बार कसमसाकर शिथिल पड़ गई। दया सधा मछेरा था, समझ गया - मछली आर-पार बिंध गई हैं। उसने अपना सुनहरा जाल समेटा - उसे खींचकर काजू की महकती झाड़ियों में ले गया। अंदर छिपी हुई चिड़ियाँ चौंककर चहचहाईं, एक बुलबुल का जोड़ा फुर्रऽ से उड़कर आम के जंगल में खो गया। रूप के अंतर में रोमांच की ऊँची लहरें उठ-उठकर गिरने लगीं, देह बाँस के पत्ते की तरह सिहर गया। उसके नासपुटों में दया की पसीने से भीगी देह की गंध थी - नमकीन, सोंधी, ठीक समंदर की तरह। दया ने उसके कान की लबें चूमते हुए कहा - तू मुझे भा गई है। रूप ने अपने होठ काट लिए। कुछ कह न सकी। दिल बेतरह धड़क जो रहा था। 'क्या कहती है, मेरा घर बसाएगी? दया ने कुछ और हिम्मत की। 'नहीं!' रूप ने उसके उद्दंड हाथ रोके। 'वो बात नहीं।' रूप की आँखों, होंठों पर रुलाई के गहरे आसार। 'तो फिर?' दया के हाथ फिर बेसब्र। 'अरे देवा! ये क्या किया...!' रूप की रुलाई फूट पड़ी - वहिणी क्या कहेगी... और भाऊजी! दया ने उसके आँसू पोंछे थे - उनसब से मैं निपट लूँगा, बस तेरी हाँ चहिए। 'अब भी पूछता है पागल! रूप की बड़ी-बड़ी आँखों में अब सुहाग की सुर्ख झिलमिल थी। 'काहे?' दया एकदम अबाध्य। 'अच्छा! तो फिर चल, वह भी कर लेते हैं...' दया उसे खींचकर सातेरी देवी के मंदिर ले गया था। रूप 'अरे रे' करती रह गई थी। ढलती दुपहरी के इस समय मंदिर एकदम निर्जन पड़ा था। पुजारी पूजा के बाद कपाट भेड़कर जा चुका था। फूल बेचनेवाली औरतें भी अपनी-अपनी डलिया सँभालकर तब तक जा चुकी थीं। गर्भगृह में फैले अगरबत्ती के सुगंधित ध
ुएँ और असीम शांति को महसूस करते हुए रूप ने अपनी आँखें मूँदी थी - ये सब क्या हो रहा है! देवी की काली मूर्ति दीए की सुनहरी पाँत के आलोक में झिलमिला रही थी। जैसे मुस्करा रही हो। दया ने वहाँ पहुँचते ही देवी के पाँव से चुटकी भर सिंदूर उठाकर उसकी माँग भर दी थी। वह एकदम सन्न रह गई थी। अब दो तुलसी की मालाएँ उठाकर एक उसे थमाते हुए दूसरी उसने उसके गले में डाल दी थी। रूप को चुपचाप खड़ी देखकर उसने उसके हाथ पकड़कर अपने गले में जबरन माला डलवा ली थी - चल, हो गया लगन! रूप हिलक-हिलककर रो पड़ी थी - बाबा हमको जान से मार देंगे दया। 'अब तू मेरी घरवाली है, कोई हाथ लगाकर तो देखे! एक बार फिर उसे घसीटते हुए दया सुपारी के जंगल में ले गया था। वहाँ एक कोने में नारियल के सूखे पत्तों का ढेर लगा था। अंदर एक छोटी-सी कोठरी थी, जमीन पर पुआल बिछा था। 'यह कुटिया मैंने बनाई है। यहाँ लेटकर मैं रोज सपने देखता था कि एक दिन तू - मेरी जीवन संगिनी - यहाँ आएगी - ठीक इसी तरह! उसने उसे बड़े जतन से पुआल पर लिटा दिया था - अब पाप नहीं लगता न...? रूप ने अपनी पलकें भींचकर न में सर इधर-उधर हिलाया था। मुँह से कुछ नहीं कहा था। दया ने उसके सीने में चेहरा धँसाकर एक गहरी साँस ली थी - तेरी देह से मछली की गंध आती है। मैं तुझे मत्स्यगंधा पुकारूँगा। ठीक? दया की उँगलियों के गर्म पोरों में रूप का शरीर किसी रुपहली मछली की तरह काँपकर फिसल गया था। बाहर ज्वार चढ़ा समंदर दूर तक उठ आया था, उसके गर्जन में आदिम चाहना का उन्माद स्पष्ट हो कर अब सुनाई पड़ने लगा था। उफनते पानी में नारियल के पेड़ कई-कई हाथ डूबे सरसरा रहे थे। चारों तरफ लहरों की हरहराहट और समुद्री पक्षियों की चीख छाई हुई थी - गहरी निःस्तब्धता में डूबी हुई चीख! उस दिन दोपहर का सूरज कब लाल होकर अरब सागर के सीने में उतर गया, दोनों को पता ही नहीं चला था। एक पागल दरिया ज्वार के पूरे उन्माद के साथ अपनी मछली की रुपहली देह में उतरकर हमेशा के लिए खो गया था, और वह छोटी-सी मछली अपने सीने में दरिया का अछोर विस्तार समेटकर उसी में डूबकर तर गई थी। सात फेरे में सात जन्मों का फेर था, मगर जब जाल ही मछली की मुक्ति हो जाए और मछली जाल का चिर बंधन, तब किसी बात का गिला कहाँ रह जाता है! उस साँझ जब वे वहाँ से बाहर निकले थे, पूर्णिमा का सुडौल चाँद पूरब के गहरे रंगे हुए आकाश पर सोने की थाल की तरह जगमगा रहा था। पहाड़ की तलहटी में बसे उनके गाँव में सिगमोत्सव की तैयारियाँ उस दिन जोर-शोर से चल रही थी। उसी में रूप की बहन, जीजा रूप को यहाँ-वहाँ ढूँढ़ते फिर रहे थे। दोपहर को घर से निकली लड़की साँझ ढले भी घर नहीं लौटी थी। चिंता तो होनी ही थी। जब गाँवभर ने दोनों को एकसाथ देखा, सबके माथे पर बल पड़ गए। रूप की माँग में सिंदूर दपदपा रहा था। दया के गले में माला। बहन का चेहरा जहाँ यह सब देखकर उतर गया, जीजा की त्योरियाँ चढ़ गईं। बहन ने रूप को सँभाला, बहनोई ने दया का गिरेबान पकड़ लिया। चारों तरफ सनसनी फैल गई।
पूरा गाँव दो हिस्से में बँट गया। फिर तो लाठियाँ चलीं, सर फूटे, खून की धार बह गई। काफी हंगामे के बाद आखिर पंचायत बैठी। पंचायत का फैसला रूप और दया के हक में ही हुआ। फिर तो सब फिर से एक हो गए। खूब जश्न मनाया गया। रातभर नाच-गाना, खाना-पीना... फेनी की नदी बह गई। सुबह लोग नींद से जागे तो रात के खुमार में कहीं रंज का निशान नहीं था। रूप इस गाँव की बहू थी तो दया उस गाँव का दामाद। दरिया में गहरे हलचल के बाद अब अछोर शांति पसर गई थी। इसके बाद का जीवन सपने जैसा था दोनों के लिए। समंदर के किनारे बसे इस छोटे-से गाँव में दोनों ने अपना छोटा, सुंदर नीड़ बाँधा था। दया के अपने परिवार में कोई था नहीं। एक चाचा और उसका परिवार पड़ोस में था। दोनों के दिन सुख-चैन से बीत रहे थे। दरिया में मछली थी, आकाश में चाँद और मन में खूब सारा प्यार... और क्या चाहना था उनको? कुछ भी तो नहीं। गर्मी के मौसम में जंगलों में जगह-जगह शराब की भट्टियाँ बैठतीं। रूप अपने पेड़ों से काजू के फल चुन लाती, फिर उन्हें पैरों से कुचलकर उनका रस निकाला जाता। काजू के रस का मीठा नीरा शर्बत... मिट्टी के बर्तनों में दिनों तक रस सड़ाया जाता... हवा उन दिनों काजू की शराब की गंध से बोझिल रहती है। साँस लेकर ही जैसे नशा-सा हो जाता है। दया सुबह-सुबह नारियल के पेड़ से रस उतार लाता था - हल्का मीठा, झागदार... पीकर खुमार चढ जाता था। फिर न जाने क्या हुआ। धीरे-धीरे हवा बदल गई, मौसम का मिजाज और तेवर बदल गया। गोवा की हरियाली में कालिख घुलने लगी। समंदर में बड़े-बड़े जहाज उतरे, जमीन पर होटल, ईमारतें और कालोनियाँ खड़ी हुई। बाजार अनजाने चेहरों से भर गए। पहले-पहल ये तब्दीलियाँ बहुत सामान्य थीं, मगर जल्दी ही स्पष्ट हो उठीं। हर तरफ इसका असर दिखने लगा और लोग चौंकक
र बेचैन होने लगे। जमीन घटने लगी, समंदर रीतने लगा और अंत में पानी से ही नहीं, खाने की थालियों से भी मछली गायब होने लगी। सबका माथा ठनका - ये क्या हो रहा है! इसके बाद बाजार से लोग उठकर घर तक आने लगे, दरवाजे खटखटाने लगे। किसी को जमीन चाहिए तो किसी को पानी। मेहमानों को घर में जगह तो दी जाती है, मगर घर नहीं। अब तो प्रश्न अस्तित्व का था, अस्मिता का था। अपनी विरासत किसी को कैसे सौंप दे! चेहरा खोकर मुखौटे की जिंदगी कैसे जिए! दया अक्सर रूप से कहता - पैसे के लालच में सब अपनी जमीन बेच रहे हैं। जब कुछ न बचेगा तब लोग रहेंगे कहाँ और खाएँगे क्या? ये पैसा? सरकार को भी अपनी वोट की राजनीति चलानी है। वोट के लिए सबको यहाँ-वहाँ बसा रहे हैं, उन्हें लाइसेंस दिलवा रहें हैं, वोटर लिस्ट में नाम डलवा रहे हैं। रूप को पहले-पहल ये बातें समझ में नहीं आती थी। हँसकर उड़ा देती थी। एक बार कोई बड़ा व्यापारी उनकी जमीन खरीदने के लिए आया। यहाँ पर होटल बनवाना चाहता था। मुँह माँगी रकम देने तैयार था। मगर दया ने साफ मना कर दिया। रूप को गुस्सा आया। एक टुकड़ा जमीन बेच देने से क्या हो जाता। इतना पैसा मिलनेवाला था। उसकी बात पर दया ने कहा था - हम दरिया की मछलियाँ काँच के बक्सों में बंद होकर नहीं जी सकते रूप। सब कुछ तो लगभग चला गया है। अब अपने इस चाँद, समंदर और हवा का सौदा नहीं कर पाऊँगा... रूप उसका मुँह तकती रह गई थी। पता नहीं आजकल दया को क्या होता जा रहा है। अक्सर परेशान रहता है और गुस्से में भी। बड़बड़ाता रहता है। मगर दया क्या करे? उसकी आँखें जो देखती हैं - साहिल पर बिखरी गंदगी - प्लास्टिक की बोतलें, कागज, फलों के छिलके, बीयर के टीन... वह उन्हें एक-एककर चुनता है - स्वर्ग देखने आते हैं ये सैलानी और उसे नर्क में तब्दील कर चले जाते हैं। लो, एक और जन्नत कचरा पेटी बन गया! खुश हो लो सबलोग... वह निरंतर बड़बड़ाता है। इन दिनों उसे अपने आप से बातें करने की आदत पड़ती जा रही है - कोई सुने न सुने, मैं बोलूँगा, अरे इतना तो कर ही सकता हूँ! रूप अपने ईश्वर को याद करती है, मन ही मन हाथ जोड़ती है - इस आदमी का दिमाग दुरुस्त रहने दो देवा! मेरा और कौन है। उसकी सोच से अनजान दया अब भी बोल रहा है - ये तेल में लिथड़े पक्षी, मरी हुई मछलियों के बसाते हुए ढेर... असल में ये जीवन के निरंतर मरने, मरते चले जाने के संकेत हैं। मगर कौन समझना चाहता है। सबको अपनी पड़ी है। अपने जीने की जुगाड़ में लोग औरों के लिए मौत का सामान बनते जा रहे हैं। अच्छा, कहो तो रूप, जब ये धरती ही नहीं बचेगी, ये लोग किस जमीन पर अपने सुख के महल बाँधेंगे...? दूसरों के लिए नहीं तो कम से कम अपने बच्चों के लिए ही सोचते। विरासत में उन्हें क्या सौपेंगे - ये बीमार दुनिया? गंदी और कुरूप... उसके अंतर का तहस-नहस उसके चेहरे पर रिस आया था - किसी जलती हुई भट्टी की तरह। दया की हालत देखकर रूप सोच नहीं पाती, उसे कैसे सांत्वना दे। वह उसका पसीने से तर हाथ पकड़ती है - इतना सोचकर क्या
होगा दया, सब ऊपरवाले पर छोड़ दो। 'हाँ, सब तो यही करते आ रहे हैं अब तक - छोड़ दो ऊपरवाले पर, बीचवालों पर। बाकी रह गए हम - समाज के हाशिए पर, तलछट पर - कीड़े-मकौड़े! - रूँदते हुए, पिसते हुए..., अपने खून, पसीने से जिसे सींचते हैं, वह दुनिया हमारी नहीं। उन परजीवियों की है जो हम गरीबों के हाड़-मज्जे पर पनपते हैं, हमारे खून और आँसू पीकर बड़े होते हैं... रक्तबीज की जात! रूप को इतनी बड़ी-बड़ी बातें समझ में नहीं आती। वह हरी-भरी पहाड़ियों पर घाव- सी दगदगाती हुई जमीन की उघड़ी हुई लाल-भूरी देह देखती है, मशीनों के उकाब-से पंजे और दाँत देखती है। उसे डर लगता है। आकाश में लाल धूल का बवंडर उठता है, घर-दालान पट जाता है। आँगन की तुलसी मुर्झा जाती है। वह साफ करते-करते परेशान। खदानों की सुरंगे चारों तरफ ऑक्टोपस की तरह फैली है। हर तरफ धमाके हो रहे हैं - निरंतर... धीरे-धीरे धरती की कोख खोखली हो रही है और उनका सीना भर रहा है, फेफड़ा सूज रहा है - धूल से, मिट्टी से और धुआँ से। दैत्य की तरह गरजते हुए मशीनों से उसका जी घबराता है, पेट का बच्चा उत्तेजित होता है, काँपता, लरजता है। वह खुद को सँभाले या उसे शांत करे। दया अलग परेशान। समंदर में मछली नहीं। बड़े-बड़े जहाज अपना जाल डालकर सारी अच्छी मछलियाँ छानकर ले जाते हैं। अमीर देश गहरे समंदर से ही उन्हें खरीद भी लेते हैं। स्थानीय बाजार में बचा-खुचा माल ही पहुँचता है। ऊपर से ये सैलानियों की भीड़, होटलों की कतार... सब कुछ वहीं खप जाता है। यहाँ के लोग क्या खाएँ! चावल और मछली ही तो उनका मुख्य भोजन है। पर्यटन ने यहाँ के बाजार में आग लगा दी है। महँगाई अपने चरम पर, किसी चीज में हाथ नहीं दिया जाता। बड़े व्यापारी कोल्ड स्टोरेज में अपनी मछली जमा करके सही समय पर ऊँची दाम
से बेचते हैं। मगर दया जैसे छोटे मछेरे कहाँ जाएँ? उन्हें तो कोई सुविधा उपलब्ध नहीं। माल के नष्ट होने के डर से औने-पौने दाम में सब बेच आना पड़ता है। विदेसी रुपयों से संपन्नता आती है, मगर किस कीमत पर? किसके लिए? जाहिर है, उनके लिए तो नहीं। खोखली जमीन पर खड़ा है ये हवा महल, एक दिन गिरेगा, न जाने किस-किस पर! रूप उसे समझाती है और खुद छिपकर रोती है - देवा! कैसी दुनिया में आएगा हमारा बच्चा! क्या साफ हवा, पानी और दरिया सिर्फ उनके किस्से-कहानियों में ही रह जाएँगे? एक बार उसी ने तो कहा था, न जाने किस उछाह और अभिमान में - रूप, मैं तेरे लिए ताजमहल बाँधूँगा। सुनकर खूब हँसी थी रूप - अब कहाँ गया वह अभिमान, ताजमहल... दया अपने खंडहर होते जीवन को देखता है। उसकी साँसें लंबी होती जाती है। तो क्या अब कल का इतिहास उसके मुमताज के बेबस आँसुओं से ही लिखा जाएगा? उदास साँझ की धुंध में दोनों की परछाइयाँ सूखे पत्तों की तरह काँपती रहती हैं। उधर समंदर के सीने पर रोशनी से सजे जहाजों की कतार गुजरती है, हवा में फिल्मी गीत के टुकड़े उछालते हुए - बंबई से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो...' सैलानी! गोवा देख रहे हैं। जहाज के सतरंगी काँच की खिड़कियों से, न जाने कौन-सा गोवा, किसका गोवा... हमारावाला तो बिल्कुल नहीं! दया कुढ़ता है, हमारी आधी संस्कृति तो पुर्तगाली नष्ट कर गए और अब बची हुई आधी ये सैलानी खत्म कर देंगे। वह फिर रूप से पूछता है, क्यों रूप, टी.वी. में जो दिखता है, कैलेंडर में छपता है वह हमारा गोवा है क्या? पूरब का रोम... चल हट! हम दूसरों से ज्यादा हिंदुस्तानी हैं। नाच, अंग्रेजी बोली, रहन-सहन गिने-चुनों का ऊपरी दिखावा होगा, गोवा की आत्मा नहीं। ओढ़ा हुआ अपना थोड़े ही न होता है, अपनाया हुआ होता है। वह जब कभी पीछे मुड़कर देखती है तो एक बीता हुआ सुंदर कल नजर आता है - रंगीन त्योहारों, उत्सवों और मेलों से भरापूरा। बचपन में देखा हुआ लहराई देवी का मेला याद आता है - सुलगते हुए अंगारों पर निर्भय होकर चलते भक्त... फिर होली के बाद सिगमो का उत्सव। हजारों लोगों की रंगीन जुलूस। औरतें उनके स्वागत में घर की चौखट पर दिया जलाकर रखती थी। लोग घर-घर जाकर नाचते-गाते। बदले में उन्हें हर घर से पाँच नारियल और चावल मिलता था। फिर गणेश पूजा का उत्सव, लगातार ग्यारह दिनों तक। क्या धूम मचती थी। गोवा के लोग जहाँ भी होते हैं इस अवसर पर अपने पूवर्जों के घर में जरूर आते हैं। पूरा कुटुंब एकसाथ मिलकर गणपति बप्पा की पूजा करते हैं। खाना-पीना, मौज-मस्ती, शामों को घुमाट, खंजनी बजाकर आरती। प्रतिमा विर्सजन के दिन 'गणपति बप्पा मोरया' की गगन भेदी गूँज... कितने सारे वाद्य यंत्र ढोल, तासा, मांदल, नगाड़ा... ढालो, जागोर, मेल, गोफ, झेमाडो आदि पारंपरिक नृत्य! उधर ईसाइयों में क्रिसमस की धूम, पड़ोसियों के घर से मिठाइयों की भर-भरकर आती डलिया। शादी के बाद हर नई दुल्हन की तरह अपने ससुराल में बैठकर वह भी अपने मायके की याद में ओखली में मसाला कूट
ते हुए गाती थी - म्हजे दोंगरी वो, चित्त माजे मायरी... गाते हुए आँखें पानी में डूबकर दरिया हो जाया करती थीं। उसे पता नहीं चलता था। दरिया होकर बह जाती थी, उसे तब भी पता नहीं चलता था। मायके का अनुराग होता ही ऐसा है। दिन-दिन रूप भारी होती जा रही है। अब उससे सहज चला-फिरा नहीं जाता। काम करते हुए भी हाँफ जाया करती है। उसका नौंवा महीना चल रहा है। बच्चा अब जल्द आएगा। कुछ ही दिनों की बात है। रूप अँगुलियों पर दिन गिनती है। उधर मौसम का ताप बढ रहा है। हवा में बारूद की गंध है। लहू में चिनगारी लगी है। पूरी बस्ती, कुनबा परेशान है। उनकी जमीन, उनका पानी, उनके आकाश पर राहु की छाया पड़ गई है। नए कानून, नए नियम नित नए ढंग से उन्हें परेशान कर रहे हैं, उनपर हावी हो रहे है। दया सबको संगठित करने की कोशिश में लगा हुआ है। रोज मीटिंग होती है, पंचायत बैठती है, मशविरे किए जाते हैं। सब चाहते हैं, ये हालात बदले, कोई सूरत निकले, सिलसिले चल पड़े कुछ अच्छा, उन सबके भला होने के। इन दिनों तरह-तरह की अफवाहों से हवा भी गर्म है। कोई कहता है मोरजी के समुद्र तट के बाद उनके गाँव की बारी है। किसी भी दिन नोटिस आ जायगा और उन्हें अपना गाँव खाली करना पड़ेगा। सुनने में ये भी आया है कि वास्तव में यहाँ एक और पाँच सितारा होटल आनेवाला है। इसीलिए बहाने से गाँव खाली करवाया जा रहा है। दया जबड़े भींचकर सुनता है। कल कहेंगे मछलियाँ समंदर छोड़कर चली जायँ... बात तो ऐसी ही हुई न! अपने गाँव और अपने दरिया को छोडकर वे क्यों जायँ? पहले-पहल रूप ने उससे पूछा था, तुम इस गाँव में कब से हो। उसने हँसकर जवाब दिया था, जब से यह समंदर यहाँ पर है... रूप खूब हँसी थी उसकी बात सुनकर। मगर सच तो यही है न! जब से वह जन्मा है, इसी आकाश और इसी पानी को देखता आय
ा है। उसकी नसों में इसी दरिया का नमक है, इसी का पानी और स्वाद। जीवन बनकर अविरल बह रहा है, ठाँठे मार रहा है यह समंदर उनकी शिरा, उपशिराओं के संजाल में... यही उनका जीवन, जीवन का आधार और जीवन रेखा है। ये कट गया तो वे क्यों कर जिएँगे! नहीं, वे किसी भी हाल में अपनी जमीन, अपना दरिया नहीं छोड़ेंगे। दया दूसरे मछेरों के साथ रोज धरने पर बैठता है, जलूस निकालता है, नारे लगाता है। मगर सब बेकार! कल उन्हें सरकारी नोटिस मिल गई है। जल्द से जल्द उन्हें यह गाँव खाली करके जाना पड़ेगा। सरकार ने हजारों रिपोर्टों का हवाला देकर समझाने की कोशिश की है कि उनका यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। पर्यावरण को भी नुकसान पहुँच रहा है। सारे विशेषज्ञों की भी यही राय है कि इस गाँव को यहाँ से जल्द से जल्द हटा दिया जाय। सभी सन्न! अवाक्! एक-दूसरे का मुँह देख रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले एनजीओस भी न जाने क्यों अचानक चुप मारकर बैठ गए हैं। उनकी भारी दलीलें, भाषण कहाँ गए? सबने जैसे एक साथ उनके सरोकारों से हाथ धो लिए हैं। दया और उसके गाँववाले हर दरवाजे पर दस्तक देकर, हर चौखट पर माथा टेककर आखिर निराश हो गए हैं। अब? अब क्या? सबकी आँखों में यही मूक प्रश्न। दया की हालत अजीब है। उसे लग रहा है वह पागल हो जायगा। दिमाग सोच-सोचकर अंगार बन रहा है। लग रहा है, अंदर कोई ज्वालामुखी धुआँ रहा है। अब कभी भी फट पड़ेगा। शाम को नंदा मौसी कह गई है, आजकल में बच्चा आ जाएगा। अभी वह ठीक से खुशी भी नहीं मना पाया था कि रघु खबर दे गया था - कल गाँव खाली करवाने की सरकारी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। एक महीने की सरकारी नोटिस पर गाँववालों ने अब तक कोई ध्यान नहीं दिया था। रूप अंदर की कोठरी में हल्के-हल्के कराह रही है। चचेरे भाई की पत्नी उसके पास बैठी है। एक और औरत भी है देखभाल के लिए। दया के अंदर अजीब-सी सनसनाहट भरी हुई है। उसे लग रहा है, उसके सोचने-समझने की सारी शक्ति खो गई है। वह पागल हो जायगा। देर तक आँगन में चहलकदमी करने के बाद अचानक वह मुड़ा था और अंधकार को चीरते हुए दरिया की ओर चल पड़ा था। आज शाम से ही आसमान पर काले-काले बादल छाने शुरू हो गए थे। हवा में भी ठंडक थी। पड़ोस के दक्षिणी राज्य में मानसून पहुँच चुका था। शायद अब यहाँ भी पहुँचने वाला है। दरिया के किनारे खड़े होकर दया उफनते हुए पानी को देखता है। चारों तरफ अँधियारा छाया है, पानी का रंग गहरा स्याह! दूर बादलों के कोने से मौसम का एक टुकड़ा नया चाँद दिख रहा है। उसकी हल्की, धुँधली रोशनी में सब कुछ रहस्यमय प्रतीत हो रहा है। दया चुपचाप सब कुछ देख रहा है। कल ये सब छिन जाएगा... उसकी कनपटी में कुछ लगातार धड़क रहा है। एक तेज खिंचाव, जैसे अंदर सब कुछ तड़ककर टूट पड़ना चाहता है। दृष्टि में धुंध और धुआँ, कुछ सुझ नहीं रहा है। ये दरिया, ये जमीन, उनके पुरखे, कूल देवता, ग्राम देवता... क्या सबको छोड़कर जाना पड़ेगा, या ये सब भी उनके साथ बेघर हो जाएँगे? और उनका बच्चा... वह कहाँ पैदा होगा? अपना
घर-बार खोकर एक शरणार्थी बनकर इस दुनिया में आएगा? दया ने चिपको आंदोलन के विषय में लोगों से सुना है। अपने जंगल को कटने से बचाने के लिए औरत, मर्द पेड़ों से चिपक जाते हैं, उनके साथ कट मरने को तैयार हो जाते हैं... दया के अंदर ये बातें गूँज बनकर पैदा होती है, चक्कर काटती हैं - चिपको आंदोलन... सामने दूर समंदर में उनके जाल पड़े हैं। स्याह समंदर के सीने में बड़े-बड़े मछली पकड़नेवाले जहाजों के धब्बे उभर रहे हैं। वह उनके जालों की तरफ ही बढ़ रहे हैं। थोड़ी ही देर में वे उनके जालों को तोड़कर गुजर जाएँगे। कई बार ऐसा हो चुका है। दया की नसों में फिर से आग भरने लगती है। नहीं, अब वह ऐसा नहीं होने देगा। वह भी अपनी जमीन, अपने समंदर और जाल से चिपक जायगा, उनके साथ जिएगा या उनके साथ ही मर जायगा... इसके बाद दया ने एक क्षण के लिए अपने गाँव की ओर मुड़कर देखा था और फिर आँखों में कुछ चट्टान-सा अडोल लिए बुदबुदाते हुए हरहराते-गरजते, गहरे काले समंदर में उतर गया था - मेरा इतंजार करना रूप, मैं हमारे और अपने बच्चे के हिस्से का चाँद, समंदर और हवा लेने जा रहा हूँ, अगर लौटूँगा तो उन्हीं के साथ लौटूँगा... उसके आगे के शब्द पानी के ऊँचे उठते रेले में खो गए थे। चारों तरफ एक हाहाकार-सा मचा था, पानी में गहरा उन्माद था। उसी समय तेज हवा के साथ जोर से बिजली कड़की थी और बड़ी-बड़ी बूँदों के साथ बारिश शुरू हो गई थी - मौसम की पहली बारिश... दूर गाँव के पास टीले पर हाथ में लालटेन लिए नंदा मौसी दया को ढूँढ़ते हुए बार-बार आवाज दे रही थी - लगभग उसी समय! रूप को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी। बच्चे के आने का समय हो गया था। दूसरी सुबह पूरा गाँव सरकारी मुलाजिमों, पुलिस कर्मचारियों और लोगों से भरा हुआ था। चारों तरफ अफरा-तफरी मची थी। गाँव
खाली करवाने की सरकारी कवायद शुरू हो गई थी। दूसरी तरफ इस शोरगुल से बहुत दूर किसी निर्जन सागर सीमांत पर एक मछेरे की रक्त-रंजित निष्प्राण देह फटे हुए जाल में लिपटी पड़ी लहरों में उभ-चुभ रही थी। एक टूटी नाव के टुकड़े उसके आसपास बिखड़े पड़े थे शायद कल रात फिर कोई विशाल जहाज मछेरों के बिछे जाल के साथ उस मछेरे को बीच से चीरकर गुजर गया था। ...एक मछेरा अपने दरिया के साथ जी नहीं पा रहा था, इसलिए उसके साथ चिपककर मर गया था, हमेशा उसके साथ रहने के लिए - उसका अभिन्न, अटूट हिस्सा बनकर। उसकी पथराई हुई आँखों में सारा दरिया, जमीन आौर आकाश स्तब्ध होकर पड़ा था। जैसे वे भी अपने मछेरे के साथ मर गए हों! उगते हुए सूरज की किरणों में समंदर का पानी गहरा लाल होकर चमक रहा था - खून की तरह! हवा में टूटे पंखों की-सी बेकल छटपटाहट भरी थी। दूर कहीं समुद्री पक्षी लगातार चीखते फिर रहे थे। न जाने किसी का क्या खो गया था। शायद सारी दुनिया ही! और इसी गहरी निःस्तब्धता के बीच अचानक गाँव में पुलिस की सायरन फिर से बज उठी थी और उसकी तेज आवाज में एक नवजात शिशु का पहला रुदन खो गया था। दया के बेटे ने जन्म ले लिया था, अपनी जमीन पर बेगाना बनकर - रोते हुए, रोते रहने के लिए... यह एक अंत की लंबी शुरुआत थी! उधर हर बात से बेखबर रूप खुशी से झिलमिलाती हुई दया को ढूँढ़ रही थी - उसे अपने प्यार की पहली निशानी दिखाने के लिए! Download PDF (खारा पानी)
अपने आप में सत्य के नजदीक पहुंचना है। सच्चाई तो यह है कि कोई नहीं जानता कि सूरज आता कहां हमारे जो हजारों धर्मग्रंथ हैं, उनमें से हमें जिसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए वह है हृदयसूत्र, जिसमें सारी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं। इस सूत्र के अनुसार, भगवान बुद्ध ने कहाः 'आकार रिक्तता ही आकार है। पदार्थ और आत्मा एक ही हैं। लेकिन सब कुछ रिक्त है । मानव जिंदा नहीं है, वह मृत भी नहीं, वह न जन्मा है न उसे मरना है, व न बूढ़ा होता है, न बीमार, न व बढ़ता है न घटता है। ' उस रोज मैंने चावल की फसल काटने के बाद पुआल के बड़े से ढेर से टिककर सुस्ताते युवकों से कहांः 'मैं सोच रहा था कि जब वसंत में चावल बोया जाता है तो बीज जिंदा कोंपले बाहर निकालता है, और अब फसल काटते हुए ऐसा लगता है कि, वह मर रहा है । यही अनुष्ठान साल-दर-साल दुहराया जाता है। इस तथ्य का मतलब यही है कि इस खेत में जीवन-चक्र सतत चलता है, और हर साल होनेवाली मौत ही हर वर्ष होनेवाला जन्म भी है। आप कह सकते हैं कि जो धान हम काट रहे हैं, वह सतत जीवित रहता है । ' इंसान, जिंदगी और मौत को जरा सीमित परिपेक्ष्य में देखता है। इस घास के लिए शरद ऋतु की मृत्यु तथा वसंत के जन्म का क्या अर्थ? लोग सोचते हैं कि जीवन आनंद है तथा मृत्यु दुख, लेकिन चावल का वह बीज जो धरती की गर्भ में छुप कर, वसंत ऋतु में जिस पौधे की कोंपलें बाहर आती हैं, वही पतझड़ में मुरझा जाता है। वह अपने नन्हें केंद्र में अब भी पूर्ण आनंद संजोए हुए है। मृत्यु के साथ जीवन का आनंद भी विदा नहीं होता है । मृत्यु एक क्षणिक संक्रांति (पैसिज) से ज्यादा कुछ भी नहीं है। क्या आप यह नहीं मानेंगे कि यह चावल, जिसमें जीवन का संपूर्ण आनंद निहित है, मृत्यु के दुख से अपरिचित है। चावल और जौ के साथ जो घटता है, वही लगातार मानव के शरीर में भी होता रहता है। बाल और नाखून रोज बढ़ते हैं, हजारों कोशिकाएं मरती हैं, और उतनी ही फिर से पैदा हो जाती हैं। एक माह पहले जो रक्त धमनियों में दौड़ रहा था, आज दौड़ रहा खून वो नहीं है। जब आप सोचते हैं कि आपके गुण आपके पोतों और परपोतों के शरीरों में विद्यमान रहते हुए आगे जारी रहते जाएंगे, तो आप भी कह सकते हैं कि, आप हर रोज जन्मते और मरते रहने के बावजूद, कई पीढ़ियों तक जिंदा रहेंगे। यदि इस जीवन-चक्र में भागीदारी होने का आनंद आप रोज अनुभव कर पाते हैं तो इसके बाद आपके लिए कुछ भी जरूरी नहीं रह जाता है। मगर अधिकांश लोग हर रोज बदलती और बीतती जिंदगी का आनंद नहीं उठा पाते। वे उसी जिंदगी से चिपटकर रह जाते हैं, जिसका वे अनुभव कर चुके हैं। और इस आदतन लगाव से ही मौत का डर पैदा होता है। केवल उस अतीत, जो बीत गया है तथा उस भविष्य की तरफ जो अभी आया ही नहीं है, ध्यान देते हुए हम यह भूल जाते हैं कि, वे इस धरती पर अभी इस वक्त भी जिंदा है । इस भ्रम और उलझन से संघर्ष करते वे अपने जीवन को यों गुजरते देखते हैं, जैसे कोई सपना देख रहा हो । 'यदि जीवन और मृत्यु वास्तविकताएं हैं, तो मानव
की तकलीफों से कभी बचा भी जा सकता है ? ' 'जीवन और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं होती ।' आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?' खुद यह दुनिया ही हमारे अनुभवों के प्रवाह में समस्त पदार्थों की एकात्मकता (यूनिटी) है। लेकिन लोगों के दिमाग प्रकृतिक की घटनाओं को जीवन और मृत्यु यिन और यांग होने या न होने जैसे टुकड़ों में बांट देते हैं। हमारा दिमाग उन्हीं चीजों को संपूर्ण रूप से सच मानता है, जिन्हें हमारी ज्ञानेन्द्रियां अनुभव कर पाती हैं। और ऐसा होने के बाद ही पदार्थ, उन वस्तुओं में बदल जाता है जिन्हें मानव आमतौर से भिन्न रूपों में देखता है। भौतिक संसार के रूप और जीवन-मृत्यु, स्वास्थ्य और बीमारी दुख और आनंद जैसी अवधारणाएं, सभी इंसानों के मन में उपजती हैं। उक्त सूत्र में जब बुद्ध ने कहा कि, सब कुछ रिक्त है तो वे न केवल मानव की बुद्धि द्वारा निर्मित, अंतर्निहित वास्तविकता को खारिज कर रहे थे, बल्कि वे यह भी घोषित कर रहे थे कि, सारी मानवीय भावनाएं भी भम्रजाल हैं। आप का मतलब सभी कुछ भ्रम है - क्या बचता, कुछ भी नहीं।' 'बचता कुछ भी नहीं? स्पष्ट ही रिक्तता की धारणा तो हमारे मन में बची रहती ही है । ' मैंने उस व्यक्ति से कहा, 'यदि तुम नहीं जानते कि कहां से आए हो और कहां जा रहे हो, तो इस बारे में निश्चयपूर्वक कैसे कह सकते हो कि, इस वक्त तुम यहां मेरे सामने खड़े हो । या अस्तित्व अर्थहीन नहीं है?' उस सुबह मैंने एक चार वर्ष की बालिका को अपनी मां से पूछते सुनाः 'मैं इस दुनिया में क्यों पैदा हुई? क्या नर्सरी स्कूल जाने के लिए? ' स्वाभाविक ही मां उसे ईमानदारी से यह नहीं कह पाईः 'हां, इसीलिए, और अब जाओ यहां से । ' लेकिन आप कह सकते हैं कि, इन दिनों लोग, वाकई नर्सरी स्कूल ( बालमंदिर) जाने के लिए ही पैदा होते हैं। कॉलेज
तक बड़ी मेहनत से वे यही जानने के लिए पढ़ते रहते हैं कि, वे कयों जन्म लेते हैं। दर्शनशास्त्री और विद्वान पंडित, इस कोशिश में भले ही अपनी जिंदगियां क्यों न बरबाद कर चुके हों, यदि इस एक ही सवाल का जवाब पा ले, तो अपने आप से संतुष्ट हो जाएंगे। प्रारंभ में इंसान का कोई उद्देश्य नहीं होता था। अब वह अपने लिए कोई-न-कोई उद्देश्य खड़ा कर लेता है। या जीवन का अर्थ तलाश करने की कोशिश में कई तरह की कशमकशों से दो-चार होता रहता है। यह उस एकल कुश्ती जैसी चीज होती है, जिसमें आप अकेले लड़ते हैं। वास्तव में ऐसा कोई उद्देश्य है ही नहीं जिसके बारे में कोई कुछ सोचे या जिसकी तलाश में चल पड़े। आप बच्चों से पूछिए कि उद्देश्यहीन जीवन निरर्थक है या नहीं, शायद आपको सही जवाब मिल जाए। लोगों के कष्ट उसी समय से शुरू हो जाते हैं जब वे बालमंदिर जाने लगते हैं। मानव पहले बहुत दुखी प्राणी था, लेकिन उसने खुद पहले यह कठोर दुनिया रची और अब उसमें से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रकृति में जीवन है, मृत्यु भी है और फिर भी प्रकृति आनंद से भरी है। मानव समाज में जीवन है, मृत्यु है और लोग दुखों के साथ जीते हैं। यायावर बादल और विज्ञान का भ्रम आज सुबह-सुबह मैं नदी में संतरे के बक्सों को धो रहा हूं। जैसे ही मैं एक चपटी सी चट्टान पर झुकता हूं, इस शरद ऋतु में नदी की ठंडक महसूस करता हूं। शरद के नीले आसमान की पृष्ठभूमि में सूमाक वृक्ष की लाल पत्तियां निगाहों के सामने उभरती हैं। आकाश के सामने शाखाओं के झूलने से जो यह भव्य दृष्य अचानक दिखत है वह मुझे आत्मविभोर कर देता है। इस अकस्मात दृष्य में ही अनुभवों का एक पूरा संसार मौजूद है। बहते पानी के साथ समय का बहाव है, दाहिना किनारा है, बांया भी है, धूप भी है और छांव भी, लाल पत्तियां हैं तो नीला आसमान है। प्रकृति के इस मौन पवित्र किताब में सभी कुछ निहित है। और मानव उसमें एक सोचने समझने वाले सरकंडे की तरह खड़ा है। जैसी ही यह सवाल करता है कि प्रकृति क्या है? तो उसे यह भी पूछना चाहिए कि वह 'क्या' क्या है, तथा क्या है वह मानव भी जो पूछता है कि 'क्या' है? यानी वह इसके साथ ही प्रश्नों की एक अनंत दुनिया में प्रवेश कर जाता है। उसे कौतुहल से किस चीज ने भर दिया है या उसे जो चीज चौंका गई है वह क्या है, इसकी स्पष्ट समझ पाने की कोशिश करते हुए, उसके सामने दो रास्ते संभव होते हैं। पहला तो यह कि वह खुद अपने भीतर, उस व्यक्ति के भीतर झांके जो यह सवाल पूछ रहा है कि, 'प्रकृति क्या है?' दूसरा रास्ता यह है कि वह मनुष्य से अलग प्रकृति की पड़ताल करें। पहला रास्ता उसे दर्शन और धर्म की दुनिया में ले जाता है। बगैर सोचे-समझे देखने पर यह लगना अ - स्वाभाविक नहीं है कि, पानी ऊपर से नीचे की तरफ बह रहा है, लेकिन यदि उसे ऐसा नजर आता है कि, पानी स्थिर है और वहां बना पुल उसके पास से गुजर रहा है तो वह भी गलत नहीं होगा। दूसरी तरफ, दूसरे रास्ते पर चलते हुए यदि इस दृष्य को हम टुकड़ों-टुकड़ों में प्रकृत