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इन लोगों ने जो-जो ख्वाब दिखाए थे, वे सब निरे-झूठे हैं। उन्होंने आप के सामने ही कहा था जो भी पढाई की बातें समझ में नहीं आएगी, डरने की कोई जरुरत नहीं है। सुबह से शाम तक हमारे एक्सपर्ट टीचर बैठे रहते हैं, कभी भी बच्चे आकर अपनी समस्या को पूछ कर समझ सकते हैं। लेकिन मैं तो केवल एक सवाल को पूछ-पूछकर थक गया, कोई भी तो समझाता नहीं है। कोई सुनता भी नहीं है, जबकि कार्यालय में खाली बैठे गप्पे हांकते रहते हैं।" "तुमको इतनी जल्दी किसी पर भी टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, कितने अंक तुम्हे मिले हैं, यह कोई बड़ी चीज नहीं है। आज अगर पेपर ख़राब हुआ है, तो कल वही पेपर अच्छा हो जायेगा। कुछ दिन रहकर तो देख। फिर जो कुछ तुम बोलोगे, मैं सही-सही मान लूंगी।" असंतुष्ट लहजे से बोली थे तनिमा अपने बेटे को। केवल एक हफ्ता भी नहीं हुआ होगा, बेटे का बार-बार फ़ोन आने से वे लोग बुरी तरह से झुँझला गए थे।सुबह एक बार तो, दोपहर को फिर एक बार। रात को एक-दो बार, कभी-कभी तो तीन-चार बार फ़ोन कर लेता था वह। लेकिन, इस बार उसने फ़ोन पर पढाई के बारे में कोई शिकायत नहीं की थी। कहने लगता था, "सुबह-सुबह मन बहुत उदास रहता है, पता नहीं क्यों, भुवनेश्वर के लोग बड़े ही अपरिचित और निष्ठुर हृदय के लगते हैं! शाम के समय मैं वाणी-विहार चौक चला जाता हूँ। हमारे शहर की तरफ जाने वाली सभी बसें यहाँ पर रूकती हैं, माँ। तुम जानती हो, हमारे शहर के लिए यहाँ से प्रति दिन छः बसें चलती हैं। जब भी अपने यहाँ की कोई बस वाणी-विहार चौक पर रूकती है, तो मन होता है कि तुंरत मैं भी उस बस में बैठ कर तुम्हारे पास आ जाऊँ। मैं जानता हूँ कि, तुम्हे गुस्सा आ रहा होगा, यह भी जानता हूँ कि तुम्हारा मन दुखी हो रहा होगा कि मैं पढाई की तरफ ध्यान क्यों नहीं दे रहा हूँ।" क्या उत्तर देती तनिमा इस बात का? बेटे के इस दुःख के सामने हृदय से आने वाले सारे उद् गार भस्मीभूत हो गए थे। तनिमा को तो ऐसा लग रहा था, मानो उसके सुरक्षित-स्वप्नों ने अभी से ही पिघलना शुरू कर दिया हो। समझाती थी, "भुवनेश्वर में तुम अकेले नहीं हो, बेटा। सभी जगह, चारो कोनों में हमारे रिश्तेदार भरे पड़े हैं। तुम्हे किसी भी प्रकार की कोई भी दिक्कत होने से उन्हें खबर दे देना। बस, दौड़कर चले आयेंगे तुम्हे मिलने के लिए। और तो और हमारा खुद का भी घर है वहाँ।" "घर? बेटा हंस दिया था, फिर कहने लगा था, " सिर्फ दीवार और छत रहने से घर क्या घर बन जाता है माँ? वहां तुम हो? पापा हैं? हमारे घर के सामान हैं?" दूसरे दिन बेटी ने नींद से उठकर पहले देखा था उस जार को। उसमें एक मछली मरी पड़ी थी। एक "मछली मर गयी?" घर का सारा काम काज छोड़कर भागे-भागे आई थी तनिमा, और जार में, हाथ डाल कर निकाली थी उस मरी हुई मछली को। काले-पीले रंग वाली उस मछली के सिर पर सिन्दूरी-लाल रंग, कितनी खुबसूरत दिख रही थी वह ! मर गयी? बड़े चंचल नटखट स्वभाव की थी वह मछली। जब वह तैरती थी ऐसा प्रतीत होता था, मानो तरह-तरह के रंगों को बि
खेरती जा रही हो। एक लाल रंग की मछली हर समय उसके पीछे क्यों दौड़ती रहती थी, सोचकर तनिमा मन ही मन दुखी हो जाती थी। दो-तीन दिन से वह उस मछली को देख रही थी, उस मछली ने तैरना छोड़ दिया था। जार के शीशे की दीवार पर हर समय अपने सिर से टक्कर मार रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह उस शीशे की दीवार को तोड़ कर, बाहर आने के लिए आतुर हो। मछली की इस व्यग्र-बेचैनी ने तनिमा को भीतर से झकझोर-सा दिया था।उसे तो ऐसा लगने लगा था, मानो वह काँच की दीवार पर नहीं, बल्कि उसके हृदय की दीवार पर अपना सिर फोड़ रही हो। वह बार-बार चेष्टा कर रही थी कि मछली दीवार पर सिर फोड़ना छोड़ दे। मगर वह असफल रही। अंत में वह मछली मर गयी। तनिमा का हृदय शोक के आँसूओं से भीग गया। उसी दिन, भरी दुपहरी को जब एसटीडी का फुल चार्ज लगता था, बेटे का फ़ोन आया था, "माँ। मैं घर लौट आऊँगा, पापा को लेने भेजो।" "क्यों लौट आओगे? ऐसा क्या हो गया अचानक?" "मैं अपने घर में पढाई करके प्रवेश-परीक्षा दूंगा। यहाँ की पढाई मुझे बिल्कुल ही अच्छी नहीं लग रही है।" बेटे की इन बातों को सुनकर चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देने लगाथा तनिमा को।महेश के हाथ में रिसीवर देकर, वह बैठ गयी थी सोफे पर। कितनी दृढ़ता थी बेटे की इन बातों में! बिना कुछ तर्क-वितर्क किये महेश राजी हो गए थे और कहने लगे थे, "ठीक है, मैं आ रहा हूँ, तुम अपना सारा सामान बांध कर तैयार रखना।" सिर्फ सात दिनों के बाद ही बेटा लौट आया था स्वप्न-बाज़ार से। पांच-हज़ार रुपये के बदले में खरीद कर लाया था, स्वप्न विक्रेताओं के स्टांप लगा हुआ बैग और कुछ अभ्यास प्रश्न-पत्र, इतना ही। बेटे के आने के बाद घर में फिर से पहले जैसी चल-पहल लौट आई थी, पर तनिमा को हर-चीज पर चिडचिडाहट लग रही थी। बात-बात में वह वह बेटे
पर गुस्सा करने लगी थी। लेकिन महेश पूरी तरह शांत था, कहता था, "लौट कर आ गया तो आ गया, इसमें ऐसा क्या हो गया? उसमें इतना दुःखी होने की क्या बात है?" तनिमा धीरे-धीरे बेटे के पाँच-हज़ार वाले घाटे को भूलने लगी थी। जार के अन्दर मछलियाँ तैर रही थी। सिर्फ तैर ही नहीं रही थी, बल्कि एक दूसरे के पीछे-पीछे भाग खेल भी रही थी। इसी बीच, कुछ और मछलियाँ खरीद कर ले आया था बेटा, पास वाले शहर से।मरी हुई मछली, अब और तनिमा के हृदय के अंदर टक्कर नहीं मार रही थी। बेटे को लेकर अपने सपने बुनना छोड़ दिया था तनिमा ने। आकस्मिकतायें ही जीवन का गुरुत्वाकर्षण-बल है, जिससे जीवन बँधा हुआ है। तनिमा को उस दिन इस बात का अहसास हुआ, जिस दिन उसके बेटे ने प्रवेश-परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर एक तकनीकी महाविद्यालय में दाखिला पा लिया था। हालांकि, मेडिकल की पढाई का सुयोग खो देने की वजह से बेटे के मन में कुछ दुःख जरुर था, पर अच्छी ब्रांच मिल जाने से दुःख के वह बादल भी शनैः-शनैः छँट गए थे। एक बार पुनः बेटे का घर छोड़ने की प्रस्तुति शुरू हो गयी थी। मन के अंदर व्याप्त था एक भय। बेटा बाहर में टिक पायेगा तो? आशा और आशंका लिए, महेश ने बेटे को छोड़ दिया था हॉस्टल में। अभी वाला हॉस्टल पहले वाले की तुलना में लाख गुना अच्छा था। गद्दी वाले बिस्तर, टेबल, कुर्सी,टीवी, टेलिफोन, एक्वागार्ड, इंटरनेट आदि सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थी इस हॉस्टल में। डर था तो बस रैगिंग का। घर छोड़ते वक्त तनिमा ने कहा था, "और ज्यादा तुमको घर में नहीं रख पायेंगे बेटा, जैसे भी करके वहां रहने की कोशिश करना।" बेटा बहुत खुश था, उसे अपनी एक मंजिल मिल गयी थी। कहने लगा था, "आप ऐसा क्यों कह रही हो? आप क्या अभी भी यही सोच रही हो कि मैं भुवनेश्वर में नहीं रह पाया तो क्या यहाँ भी नहीं रह पाऊँगा? यहाँ से भी घर लौट आऊँगा?" महेश बेटे को एक नये शहर के नये हॉस्टल में रख कर कहने लगा था, "हॉस्टल तो बहुत अच्छा है, पर वहां पढाई का बिल्कुल भी माहौल नहीं है। जब भी देखो, जहाँ भी देखो, चिल्ला-चिल्ली, हो-हल्ला, नहीं तो क्रिकेट खेलने में लगे रहते हैं बच्चे।" "इसका रूम-मेट कैसा है? कितने बच्चे रहते हैं रूम में?" महेश ने कहा था," एक रूम में तीन बच्चे रहते हैं। ज्यादा भीड़ हो जायेगी, सोच कर इसको कोई भी अपने साथ रखना नहीं चाहते थे। हॉस्टल वार्डन के कहने से उन रूम वालों ने इसे रख दिया है।" "बाद में मुश्किल नहीं होगी तो?" "मुश्किल कैसी?" "रैगिंग न हो, इसको मद्दे नजर रखते हुए नए लड़कों को एक नया ब्लाक दे दिया गया है। इस प्रकार से उनका पुराने सीनियर लड़कों से कोई संपर्क ही नहीं रहेगा। वैसे तो कॉलेज प्रबंधन भी रैगिंग न हो, इस बात को लेकर काफी जागरूक है।" यह सब बातें सुनकर आश्वस्त हुई थी तनिमा और भगवान का शुक्रिया अदा करने लगी थी। आकाश में काले-काले बादलों की घनघोर-घटा की तरह थी वह मछली, उन घटाओं के बीचोंबीच से चमकते हुए तारे की तरह था उसका शरीर। जार के तले में सोयी थी
, जैसे एक नीरव तपस्वी सो रहा हो। दूसरी मछलियाँ तैरने में मग्न थीं। कभी पानी में गोल-गोल चक्कर लगाकर खेल रही थी, तो कभी रॉकेट की तरह नीचे से उपर की ओर तैर कर खेल रही थी। मगर काले कलूटे शरीर में चाँदी की पोशाक पहनी हुई वह मछली पता नहीं क्यों किस वैराग्य के कारण एकदम चुपचाप बैठी हुई थी। तनिमा आते-जाते उसी मछली को बार-बार देख रही थी। कभी-कभी तो जार के अन्दर, एक लकडी घुसाकर उस शांत पड़ी मछली को थोडा-बहुत हिला देती थी। वह मछली थोडी-सी हिलती थी, थोडी-सी आगे जाकर दूसरी जगह पर बैठ जाती थी। क्या कारण हो सकता है, इतनी उदास हो गयी वह मछली? आते समय क्या वह छोड़ आयी है अपने प्रेमी को? या क्या वह बिछुड़ गयी है अपने आत्मीय-जनों से? मछलियों को खरीदते समय, वह एक्वेरियम वाला लड़का कह रहा था, "मैडम, सभी वैराइटी का जोड़ा साथ-साथ ले जाइये।" "ऊहूं, जोड़े का क्या करना है?" "जोड़ी रखना अच्छा है न?" मुस्कराई थी तनिमा, उस लड़के का जवाब सुनकर, "मछली क्या आदमी है?" समुन्दर से लायी हुई वह जरीदार मछली शायद अकेली थी। इसलिए वह समुन्दर के बारे में जरुर सोच रही होगी। उस मछली की उदासीनता व अकेलापन तनिमा को चिंताग्रस्त कर देता था। हृदय के अन्दर एक अनोखे हाहाकार को अनुभव कर रही थी वह। मानो कोसों-कोसों दूर तक फैले हुए रेगिस्तान में वह अकेली हो। बेटा नये परिवेश में था। इसलिए तनिमा रोज फ़ोन कर उसकी खबर ले लेती थी। उस दिन अकस्मात् बेटे का फ़ोन आया, "माँ, आज एक झमेला हो गया है।" "झमेला, कैसा झमेला?" "हम अपने रूम में हैंगर लगा रहे थे, कि पास के रूम के लड़कों ने आकर हैंगर उखाड़कर फेंक दिये। " "ऐसा क्यों किया?" तनिमा ने पूछा। "हम कील ठोककर हैंगर लगा रहे थे तो उन लोगों की पढाई में बाधा पहुंची। बस। करना क्या था! आकर हमारे
हैंगर उखाड़ दिये तथा मेरे रूम के एक लड़के को मारा पीटा भी उन लोगों ने।" "मार-पीट क्यों कर रहे थे?" "उन लड़कों ने हमारे वेंटिलेटर के पास टेप-रिकॉर्डर लगाकर तेज आवाज़ में गाना चालू कर दिए थे। जोर-जोर से अपने रूम में नाच-गाना कर रहे थे।" "वार्डन-साहब को क्यों नहीं बतलाया?" तनिमा के इन उपदेशों का प्रभाव बेटे के लिए बुरा साबित हुआ। बेटे को डरपोक, शर्मीला लड़का सोचकर सब उसे चिढाने लगते थे। जबकि कभी मार खाने वाले अपने रूम के उस लड़के को उन बदमाश लड़कों ने अपना दोस्त बना दिए थे। बेटा एकदम अकेले इन सब लड़कों के साथ मानसिक लड़ाई करते करते बुरी तरह से थक गया था। तनिमा को याद आ गया था बेटा का बचपन, जब वह नर्सरी में पढता था, उससे बड़े कुछ चंचल लड़कों ने उसके शर्ट के अन्दर तितली घुसा दी थी। बेटा रो-रोकर थक गया था। वह पागल की तरह दुःखी दिखाई दे रहा था। तब तो तनिमा ने प्रिंसिपल के पास जाकर इस बात की शिकायत की थी। लेकिन अब बेटे की इस उम्र में किसके पास जायेगी वह? एकदिन और दुःखी स्वर से बेटे ने फ़ोन किया था, "मैं कैसे यहाँ चार साल पढूँगा माँ?" "क्यों, क्या हुआ?" "ये लड़के तो जातिवाद व प्रान्तीयवाद से ग्रसित हैं। बी।जे।बी। कॉलेज से आया हुआ लड़का यहाँ सभी का नेता है। वह जैसा बोलता है सब लोग उसीका अनुसरण करते हैं। वह जहाँ जाने के लिए कहेगा, सभी लोग वहाँ जायेंगे। एक ही साथ खायेंगे डाइनिंग हॉल में, तो एक ही साथ बाज़ार घूमने जायेंगे।" "इसमें क्या दिक्कत है? इससे तो उल्टा भाईचारा ही बढ़ता है।" "ओह! आपको तो कुछ भी समझ में नहीं आता है। ये लड़के बहुत ही अभद्र हैं।बंगाली लड़कों को देख कर ओडिया में अश्लील-अश्लील गालियाँ देते हैं।लड़कियों के हॉस्टल की तरफ दर्पण दिखाकर सूरज की किरणें डालते हैं। लड़कियों के बारे में फिजूल की बातें करते हैं।" "मुझे यह सब चीजें अच्छी नहीं लगती हैं। वे लोग जहाँ भी जाएँ, मेरा मन नहीं होने से भी मैं क्यों इनके पीछे-पीछे जाऊँगा?" "इतने सारे लड़के क्या इतने बड़े समूह में रह सकेंगे कभी? देखना बहुत ही जल्द यह समूह चार-पांच भागों में बँट जायेगा।" "कुछ नहीं होगा," चिढ कर बोला था बेटा। बेटे के स्वभाव को वह बचपन से जानती थी। वह अपना सिर कलम कर लेना मंजूर कर लेगा मगर किसीके सामने अपना सिर झुकाना पसंद नहीं करेगा। इसलिए वे सब परिस्थितियाँ, उसके स्वाभिमान को रह-रहकर ठेस पहुंचा रही थी। फिर भी वह समझाने का प्रयास करती थी, " जब सब लड़के उसकी बात को मान लेते हैं, तो तुम क्यों नहीं?" "आप कैसी बात कर रही हो? कैसे मान लूँगा मैं? ये लोग जो भी बात बोलते हैं, मैं सुनता हूँ।मगर जब मैं कुछ बोलता हूँ, तो यह लोग ऐसा नाटक करते हैं, जैसे मैंने कुछ बोला ही नहीं और उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। कभी-कभी तो मेरी बात सुनकर ठहाका मार कर हँसते हैं, मानो मैं उनके सामने एक जोकर खडा हूँ।" "बंगाली तथा दूसरे राज्य के लड़के क्या उनके साथ रहते हैं?" पूछा था तनिमा ने। "ऐसे तो वे अलग घूमते हैं। कभी-कभी मैं
भी उनके साथ घूमने जाता हूँ।और हम स्टेशन के पास वाली चाय की दूकान से नींबू वाली चाय भी पीते हैं।" "तुमने चाय पीना शुरू कर दी?" "हाँ, हाँ, कभी-कभार दोस्तों के साथ पी लेता हूँ।" "तब तो सब ठीक ही है। और परेशानी किस चीज की?" "उन बदमाश लड़कों के डर से ये बंगाली लड़के भी मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते हैं।" "तब तुम अकेले ही घूमा करो।" "क्यों ऐसे बोलती हो?" बेटे ने गुस्से से फ़ोन काट दिया था। विगत दो दिनों से तनिमा ने मछलियों के जार का पानी नहीं बदला था। जार का पानी मैला होकर धुंधला-सा दिखने लगा था। पानी बदलते समय उसने देखा, कि काले शरीर पर रजत-कणों के छिडकाव हुआ हो जैसे रंग वाली वह मछली, जो उदास और अकेली रहती थी, मर गयी है। न जाने कैसे उसके मुहं से अचानक निकली वह बात, "देख रहे हो, एक मछली मर गयी है।" घर-परिवार में मन नहीं लग रहा था महेश और तनिमा का। जब इकट्ठे बैठते थे तो केवल बेटे की ही बातें करते रहते थे। जहाँ कहीं होने से भी, मन हमेशा अटका रहता था टेलीफोन के पास। दिन में तीन-चार बार बेटा उनको, तो वे भी बेटे को फ़ोन कर लिया करते थे। फ़ोन के माध्यम से वे कभी अपने मन की व्यथा, तो कभी आश्वासन,सांत्वना, आश्रय, तो कभी अपनेपन की बातें करते थे। जिस दिन जार के अन्दर वह जरीदार चमकीली मछली मरी, उस दिन बेटे क कोई फ़ोन नहीं आया था। इधर वह उस मछली के मर जाने से उदास अनुभव कर रही थी, तो उधर बेटे का फ़ोन नहीं आने से अपने को असहाय महसूस करने लगी थी। आखिरकार उसने खुद ही अपनी तरफ से बेटे को फ़ोन लगाया ।फ़ोन पर उसके किसी दोस्त ने बताया कि वह हॉस्टल के रूम में नहीं था। तनिमा ने उस दिन कम से कम दस बार फ़ोन लगाया होगा, पर बेटे से कोई बात नहीं हो पायी थी। बेटे ने कहीं किसी से झमेला न मोल लिया हो, या किसी भ
ी तरह की समस्याओं से न घिर गया हो। पर किस को पूछेगी यह बात? उन लोगों से, जिन्होंने कभी बेटे की तरफ प्यार भरा दोस्ती का हाथ भी कभी नहीं बढाया? जब रात को आठ बजने जा रहे थे, तभी अपने बेटे के साथ बात कर पायी थी, "कहाँ गया था, बेटा? दिन-भर तुझको खोजते खोजते थक चुकी हूँ।" उस तरफ से बेटा ने कहा, " तुम फ़ोन रखो, बाहर जाकर फ़ोन करता हूँ।" इधर घर में बेटी रूठ कर बैठी थी। उसकी मेट्रिक की परीक्षा में मात्र पंद्रह दिन बाकी थे। वह यूरोपीय सामंतवाद पर जानना चाहती थी।, मगर तनिमा उसे अपनी व्यग्रता के कारण उसे पढा नहीं पा रही थी। खुद को दोषी अनुभव कर रही थी वह। बेटी को बोली थी। "तुम पढाई करो, मेरी प्यारी बच्ची!। मैं भैया के साथ बात कर लेने के बाद तुमको वह पूरा का पूरा अध्याय पढ़ा दूँगी।" "तुम्हारा ध्यान तो हर समय भाई की तरफ ही रहता है, मेरी तरफ कभी भी नहीं।" "क्या बात करती हो? भाई का दुःख क्या हमारा दुःख नहीं है?" फिर और एकबार टेलीफोन की घंटी बजने लगी। तुंरत रिसीवर उठा लिया था तनिमा ने। उधर से फिर बेटे की आवाज़ आयी, "माँ ! मैं थक चुका हूँ, आत्म-हत्या करना चाहता हूँ।" "क्यों, बेटा?"वह अनुभव कर पा रही थी, वहां बेटा फूट-फूट कर रो रहा होगा, यहाँ तनिमा का दिल दुःख से भीग रहा था। "आज दिन-भर मैं साइकिल पर घूम रहा था।हॉस्टल में एक पल भी रुकने का मन नहीं कर रहा था। घर तो नहीं आ पाऊँगा, क्योंकि आप सब दुःखी हो जायेंगे। और किसके पास जाऊँगा मैं इस अनजान शहर में? कौन मेरी जान-पहचान का है यहाँ?" "हॉस्टल मैं तुम्हे क्या कष्ट हो रहा है?" तनिमा ने अपने बेटे से पूछा था, "तुम पहले बाहर कोई किराये का रूम लेकर रहना चाहते थे न? कोई कह रहा था की तुम्हारे कई दोस्त बाहर किराये के मकान में रहकर पढाई करते हैं।तुम भी बाहर रूम लेना चाहोगे क्या? उन लोगों से पूछो जो बाहर किराये के मकान में रहते है, क्या तुम्हे अपने साथ रखेंगे?" बेटे को जैसे एक नया रास्ता मिल गया। कहने लगा, "हाँ, उन लोगों से मेरी बातचीत हुई थी। वे राजी भी हैं। पर आप लोग दुःखी हो जाओगे, क्योंकि हॉस्टल की साल-भर की फीस कॉलेज वाले पहले से ही एडवांस ले चुके हैं।" "उस बात को छोडो, कम से कम तुम शांति से रह पाओगे, वही हमारे लिए बहुत है।" दूसरे ही दिन बेटा हॉस्टल छोड़कर चला गया था बाहर रहने के लिए। तनिमा ने न तो बेटा का हॉस्टल देखा था न ही उसका हॉस्टल से बाहर का वह मकान। वह तो केवल इतना ही चाहती थी कि बेटा जहाँ भी रहे सुख-शांति से रहे। बाहर का वह मकान शहर के अंतिम छोर पर नेशनल हाई-वे के पास था।किसी व्यक्ति ने अपने फार्म-हाऊस के लिए बहुत ही बड़ी जगह घेर ली थी। उसमें एक छोटा-मोटा बगीचा भी बनाया था। इस सुनसान जगह में रहने को चला गया था बेटा, पता नहीं किस ख़ुशी से? बाहर रहने चले जाने के एकदिन बाद फिर उसका फ़ोन आया था, "माँ ! मैं अच्छा हूँ, मेरे लिए चिंता मत करना।आप मेरी मछलियों का ध्यान जरुर रखना। आपकी लापरवाही वजह से अब तक मेरी तीन मछलियाँ मर चुकी है
।बीच-बीच में पानी जरुर बदलते रहना।" बेटे की इन बातों को सुन कर तनिमा बाज़ार से खरीद कर लायी थी एक बड़ा-सा जार। मछलियों का यह था अपना नया-नया घर। मछलियाँ अपनी पूँछ हिला-हिलाकर रंगोली बनाती थीं अपने नए घर में। अंजलि-भर रंगीन सपनों जैसी थी मानो उनकी गति। तनिमा इस बार ध्यान से निहार रही थी, रंगीन मछलियों के बीच एक सफ़ेद मछली की हरकतों को। एक विधवा के नीरस जीवन जैसा वह मान ली थी अपने जीवन को। इस मछली को जब बेटे ने खरीदा था, तब भी तनिमा को वह बिल्कुल पसंद नहीं आया था। कोई सपना कभी सफ़ेद होता है क्या? सपने तो सदैव रंगीन होते हैं। फिर भी वह मछली दाना खा रही थी, तैर रही थी, उस प्रकार मानो किसी तालाब के किनारे कोई एक विधवा युवती नहा रही हो, कई नयी नवेली गाँव-वधुओं के बीच में। चूँकि वह सुन्दर नहीं दिखाई दे रही थी, इसलिए तनिमा उस मछली को कभी-कभार उस जार से निकाल के एक दूसरे जार में रख देती थी। अकेली रहकर शायद दुःखी हो जायेगी, यही सोचकर फिर उसे पहले वाले जार में उन सब मछलियों के झुँड में छोड़ देती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में बेटा बिल्कुल ही एक नया ब्रांच लेकर पढ़ रहा था। लोग कहते थे भविष्य में इस कोर्स को पढने वाले लड़कों की भारी माँग होगी। नौकरी लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी। सपने रंगीन मछलियों की तरह तैर रहे थे तनिमा के दिलमें, अपनी अपनी पूंछें हिलाकर। भले ही थोड़े-बहुत आश्वस्त हो चुकी थी तनिमा अभी तक अपने बेटे के भविष्य को लेकर। पर क्या इस उम्र में कोई कभी शान्ति से रह पाया है? बेटा जिस सुनसान जगह पर रहता है, सोचकर तनिमा का मन बहुत बेचैन हो जाता था।बीच-बीच में वहां फ़ोन करके वह अपने बेटे की सुध-बुध ले लेती थी, और कभी-कभी बेटा भी फ़ोन कर लेता था अपने कॉलेज से, "सुबह-सुबह मन क्यों बड़ा ही
उदास हो जाता है? माँ ! रात को भी बहुत डर लगता है। मगर चलेगा। " टेबल पोंछते समय नौकरानी ने देखा कि वह सफ़ेद मछली मरी पड़ी थी। तनिमा उस मछली को प्यार नहीं करती थी, इसलिए वह मछली मर गयी क्या? मछली की मृत्यु से उसका मन बहुत दुःखी हो गया था। देखो ! जार के अन्दर से वह सफ़ेद रंग कहाँ खो गया है? ऐसा लगता है जैसे कोई आततायी मानो छुप कर बीच-बीच में रंगों को चुरा लेता हो। मछलियाँ रोज एक-एककर मर जाती हो, ऐसी बात नहीं थी। आठ-दस दिन के अंतराल में एक-एककर मछलियों की अचानक मृत्यु हो जाना एक पहलू बन गया था क्या क्या कारण हो सकते थे? तनिमा को तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बेटी बोली थी, "लगता है आज भी भईया के पास से कोई बुरी खबर जरूर आएगी।" जब-जब कोई मछली मरती थी, तब-तब बेटे के के वहां से कोई न कोई दुःख भरी खबर अवश्य आती थी। यह बात शत-प्रतिशत सत्य थी। बड़ा ही डर लग रहा था उसको, क्या हुआ होगा कौन जाने? फ़ोन करके यह बताना उसके लिए संभव भी नहीं था। तनिमा का मन बहुत ही उदास हो गया था। वह ठीक से अपना खाना भी नहीं खा पाई थी। हे भगवान्! मेरे बेटे का साथ कोई दुःखद घटना न घटे। दिन ढल कर रात हो गयी थी,। मन धीरे-धीरे शांत होने लगा था। रात दस बजे अचानक फ़ोन आया। इस बार बेटे ने फ़ोन नहीं किया था, बल्कि बेटे के एक अध्यापक ने फ़ोन किया था, कहने लगे थे, "आप के बेटे का एक्सीडेंट हो गया है आज शाम को चार बजे।" जोर-जोर से काँपने लगी थी तनिमा, टेलीफोन रिसीवर महेश को पकडा कर वह वहीँ पर बैठ गयी थी अपने सिर पर हाथ रख कर। बेटे की दायें हाथ की अनामिका ऊँगली कट गयी थी। बेटे को पास के हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। उसी रात महेश निकल गया था बेटे के पास। उसके हाथ की चोट लगी अंगुली का ऑपरेशन हुआ था और दो-चार दिन के बाद महेश अपने बेटे को लेकर घर लौट आया था। कभी भी अंध-विश्वासी नहीं थी तनिमा। लेकिन आज वह यह सोचने को मजबूर थी, जरूर न जरूर, मछलियों के मृत्यु के साथ-साथ बेटे के बुरे दिनों का कुछ न कुछ सम्बन्ध होगा।उसने अपने मन में ही मछली और बेटे का भविष्य को जोड़ कर ताना-बाना बुन ली थी। बेटा ढाई महीने तक घर में रहा। चोट लगी अँगुली अब ठीक हो कर पहले जैसी दिखने लगी थी। ड़ॉक्टरों ने अपनी कुशलता का परिचय दिया था। बेटा ने बायें हाथ से खाने का भी अभ्यास कर लिया था। मगर इस समय तक बेटे का प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा सिर पर आ चुकी थी। बेटा कॉलेज जाकर बायें हाथ से परीक्षा का फॉर्म भी भर कर चला आया था। बस परीक्षा के लिए चंद दिन ही बाकी थे। इसी दौरान वह मन लगाकर पढाई भी नही कर पाया था एक्सीडेंट के कारण, इसलिए खूब निराश भी था। कहने लगा था, "मुझे लग रहा है की इस बार मैं पास नहीं हो पाऊँगा। मेरे तो एक नहीं कई पेपर बेक रह जायेंगे।" इन दिनों में तनिमा और उसका बेटा आपस में और अधिक घुल-मिल गए थे। बातों-बातों में तनिमा बेटे को उसकी सुविधा-असुविधा के बारे में पूछती रहती थी। बेटे के जाने के बाद सारी रात सो नहीं पायी थी वह।उसे ल
ग रहा था जैसे कुछ न कुछ घट कर ही रहेगा। तनिमा का हृदय कांप उठा था। जितना भी उनके साथ घट रहा है, क्या कम था ! शहर के बाहर उस अकेले घर के बारे में सोचने से तनिमा की चिंताएँ और अधिक बढ़ जाती थी। यहाँ रहते हुए बेटे ने एक बार कहा था, "जब वहाँ खाना बनाने वाला कुक नहीं आता है, तो हम लोग अपने हाथों से खाना बनाते हैं। मुझे तो खाना बनाना नहीं आता है, इसलिए हमारे उस 'मेस' का सबसे सीनियर लड़का मुझे डाँटता और गाली देता है। कभी तो सीखा नहीं, कैसे बनाऊं? एक दिन जब चाय बनाने गया था, मैंने अपने हाथ जला लिए थे। इसलिए अधिकतर दिन मुझे बाज़ार से सब्जी और आटा-चावल जैसी चीजें लाने के लिए ही भेजा जाता है।" दुर्घटना-ग्रस्त निर्बल हाथों से किस प्रकार वह भारी सामान का थैला उठाकर लाता होगा, यह सोचकर तनिमा अस्थिर-सी हो जाती थी। आधी रात में ही उसकी नींद टूट गयी थी। ज्यों ही उसकी नींद खुली, त्योंही वह महेश को जगाने का सोच रही थी, लेकिन उससे पहले वह आदतन मछलियों के जार के पास आ गयी।और देखने लगी कि जार में मछलियाँ सब कुशल है तो। छोटे से डिब्बे से मछलियों का दाना निकाल कर जार में डालने के बाद फिर वह अपने बिस्तर पर सोने के लिए चली गयी थी। यह बात सही है, सुबह से उसे पिछले रात जैसा भारी भारी नहीं लग रहा था। बेटा अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुँच कर फ़ोन किया था, यह कहकर कि वह कुशल-क्षेम से पहुँच गया है। सुबह चाय पीने के समय तनिमा बोली थी, "देख रहे हो, विगत सात-आठ महीनों से इस टेलीफोन ने किस प्रकार हमारी जिन्दगी पर आधिपत्य जमा लिया है? टेलीफोन के बिना तो एक पल भी जिन्दगी कट नहीं सकती। कभी भी हमने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी, कि हमारे इतने ख़राब दिन भी आयेंगे।" "उम्र बढ़ने के साथ साथ चिंताएं यूँ ही बढ़ जाती हैं।" अखबार पढ़
ते-पढ़ते महेश ने कहा था। दोपहर को टेलीफोन की एक लम्बी घंटी सुनकर दौड़ आई थी तनिमा। शहर के बाहर वाली मकान में रहने के बाद कभी भी असमय पर बेटे ने फ़ोन नहीं किया था। क्योंकि फ़ोन करने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। बेटा या तो चुंगी नाका के पास जाकर फ़ोन करता था या फिर अपने महाविद्यालय के अन्दर एस।टी।डी बूथ से। बेटा कहने लगा था, "माँ, मैं बहुत बड़ी मुश्किल में हूँ अभी। पापा को तुंरत भेज सकती हो?" तनिमा बुरी तरह से डर गयी थी। पहले से ही तय हुआ था कि बेटे के जाते समय साथ में महेश भी जायेगा, क्योंकि बेटा का दाहिना हाथ दुर्घटनाग्रस्त होकर कमजोर हो गया था, इसलिए अपने साजो-सामान को उठा कर प्लैटफॉर्म तक जाना उसके लिए कठिन होगा। पर कुछ भी तकलीफ नहीं होगी, कहकर बेटा अकेले ही चला गया था।सुबह पहुँच कर उसने फ़ोन भी किया था, यह कहते हुए कि वह आराम से पहुँच गया है। और उसे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई थी। "क्या हुआ है? पहले बताओ तो, पापा को जरूर भेजूंगी, मगर समस्या क्या है, जानने से तो?" "जब मैं अपने पुराने वाले घर पहुँचा तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ था। जब केयर टेकर को इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि मेरे साथियों ने इस घर को छोड़कर एक दूसरा घर किराये पर ले लिया है। वह घर बाज़ार की तरफ पड़ता है। बड़ी मशक्कत के बाद मुझे उस घर का पता चला। लेकिन जैसे ही मैं वहां उनके पास पहुँचा, तो उन लोगों ने मेरा सारा पैसा ले लिया।" "दो महीने का बकाया भाडा, बिजली का बिल आदि।" "इसको तो देना ही था।" "कौन मना कर रहा है देने के लिए? मगर मेरा खाट बिछाने के लिए जगह रखनी चाहिए थी उनको, फिर क्यों नहीं रखी? अपनी-अपनी खटिया तो बिछा चुके हैं, मगर मेरे लिए बिल्कुल जगह नहीं रखी है। मेरा बक्सें और कपडों को एक कोने में पटक दिए हैं।" "कैसी अजीब बात है? इन लोगों ने रहने वाले सदस्यों के हिसाब से घर नहीं लिया क्या? क्या वह घर बहुत ही छोटा है?" "नहीं, नहीं, घर छोटा नहीं है। इन लोगों ने दो अन्य लड़कों को ला कर रखा है उस घर में।" "तू तो उनका पुराना दोस्त था न? तेरे लिए जगह रखना उचित नहीं था क्या? तेरे साथ इतनी बड़ी दुर्घटना हुई, मानवीय दृष्टिकोण से भी तो तुझे अपने साथ रखना चाहिए था।क्या बोल रहे हैं वे लोग?" "बोल रहे हैं तू तो दो-ढाई महीने अपने घर रह गया था।हमारे लिए उस घर का किराया देना व मेस चलाना बहुत मुश्किल हो गया था। अतः दो अन्य दोस्तों को हम बुला लाये। यहाँ रखनेके लिए। उन्होंने तो दो महीने के किराये का एडवांस पैसा दे दिया है।" "यह तो ठीक है,परन्तु तेरे लिए उन्होंने जगह क्यों नहीं रखी? इस बारे में उनसे क्यों नहीं पूछा?" "मुझे जो- जो पूछना था मैं पूछ चूका हूँ। मुझे तो ऐसा लग रहा है यह पढाई मेरे भाग्य में नहीं है। हमारे शहर में बी।एस।सी पढना ही मेरे लिए बेहतर है।" "तू हमेशा इतना जल्दी क्यों टूट जाता है? अच्छा, मैं पापा को तुम्हारे पास भेज रही हूँ। वह कल सुबह पहुंचकर तुम्हारे रहने का कोई प्रबंध
करके आयेंगे। " तनिमा सोच रही थी, क्या सचमुच उसका बेटा पढाई कर पायेगा? तुंरत ही ऑफिस फ़ोन करके सारी बातें बता दी थी महेश को। मगर महेश दृढ़-संकल्प के साथ बोला था, "ठीक है मैं जा रहा हूँ, कुछ स्थायी व्यवस्था करके ही आऊँगा। " उसी रात को ट्रेन पकड़ कर चला गयाथा महेश बेटे के पास। तनिमा का मन तरह-तरह की आशंकाओं से डूबा जा रहा था। तुंरत ही वह मछलियों के जार के पास आगयी थी, यह सोचते हुए, जार में सब कुछ ठीक-ठाक है तो? और जार में सिर्फ तीन मछलियाँ ही जिंदा बची थी। वे भी बिना युग्म-वाली । एक लाल मछली, तो दूसरी लाल-नीला सम्मिश्रित रंग वाली मछली, तो तीसरी क्रोकोडाइल मछली। जार के अन्दर तीन-चार दाना डाली थी तनिमा, ताकि मछलियाँ जिंदा रहे। रात को ठीक से नींद भी नहीं हुई थी तनिमा की। बहुत देर रात बीते आँखों में नींद उतरी थी, यहाँ तक कि शायद भोर होने वाली होगी। नींद से उठते ही वह उस जार के पास गयी थी, देखा था कि उस जार में वे तीनों मछलियाँ गोल-गोल चक्कर काट कर तैर रही थीं। चूँकि महेश बेटे के पास गया हुआ था,इसलिए बेटे के बारे में इतनी चिंता नहीं थी। मगर सुबह होने पर भी महेश का फ़ोन नहीं आया था। वे ठीक से पहुंचे भी या नहीं, तनिमा नहीं जान पायी थी। पहले तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ था। जबभी बाहर कहीं जाते थे, तो अपनी कुशलता का समाचार पहुँचते ही दे देते थे। पहला पहर ढल चुका था। अब सूरज सिर ऊपर था। तब भी बाप-बेटे दोनों में से, किसीने फ़ोन नहीं किया था। उस दिन तो खाना बनाने का भी मन नहीं कर रहा था तनिमा का। माँ बेटी दोनों ब्रेड खाकर ही रह गयी थीं। न किसी अखबार में, न ही किसी पत्र-पत्रिका में और न ही टीवी देखने में उनका मन नहीं लग रहा था। तनिमा बेटी को एक ही सवाल पूछ-पूछकर बोर कर रही थी। थक-हारकर वह बिस्तर
पर लेटे-लेटे इधर-उधर सोच-विचार में पड़ गयी थी। तभी किसी का फ़ोन आया, घर की निस्तब्धता को चीर कर। फ़ोन था महेश का।कुछ रूखे स्वर में बोली थी तनिमा, "सुबह से अभी तक एक बार भी फ़ोन नहीं किया? मेरी तो जान ही निकल जा रही थी।" "अभी तक बेटे के रहने की कुछ व्यवस्था नहीं हो पायी है। सोच रहा था कुछ व्यवस्था होने के बाद ही फ़ोन करूंगा।" "उसके पुराने दोस्तों के पास गए थे?" "हाँ, गया था। यहाँ पर सचमुच जगह नहीं है।" "तुम क्यों नहीं बोले, कि बाहर के दूसरे लड़कों को अपने साथ रख लिये हैं,फिर उसको क्यों नहीं रखा?" "उनके साथ झगडा-झंझट करूँगा क्या? या कोई नयी व्यवस्था करूँगा?" चिढ गया था महेश, "बेटा फिरसे पहले वाले हॉस्टल में जाना चाहता था। मैं उसको वहां भी लेकर गया था। वहां भी उसको रखने के लिए कोई राजी नहीं हुए थे। वार्डन से भी अनुरोध किया था। उसने बेटे को बुलाकर हॉस्टल में लौट आने का कारण भी पूछा था। कहने लगा था, कि तू क्या सोच रहा है, इन तीन महीनों में यहाँ सब कुछ बदल गया होगा? तू बाहर घर लेकर रहता था पढाई करने के लिए, तो अब वहीँ रह कर पढाई कर।" थोडी देर रुक कर फिर महेश बोलने लगा था, "मैं बेटे को लेकर प्रिंसिपल के पास भी गया था। लेकिन प्रिंसिपल के पास पुराने हॉस्टल के सभी लड़के पहुँच गए थे। वहां उन लड़कों ने मुझसे कहा था, अंकल, देखिये इसके हॉस्टल छोड़कर चले जाने के बाद, एक दूसरे लड़के ने भी उसका अनुसरण करते हुए हॉस्टल छोड़ दिया था। उनकी वजह से हमारा हॉस्टल बदनाम हो गया है। अब यह फिरसे क्यों लौटना चाहता है? जो लड़के इसको फुसलाकर ले गए थे, इसके एक्सीडेंट के बाद तो उनको इसे अपने साथ रखना नहीं चाहिए था?" तनिमा के धीरज का बाँध टूट रहा था। वह अधीर हो कर बोलने लगी थी, "बोलो न, आखिर में हुआ क्या?" महेश कहने लगा था, "प्रिंसिपल साहेब ने कहा कि हॉस्टल में जगह खाली है तो रख दीजिये बेटे को।" "तुम बेटे के साथ बात करना चाहती हो क्या?" बेटे को क्या सांत्वना देती तनिमा। उसका शरीर पूरी तरह से काँप रहा था। उसके बेटे को कितनी तकलीफ हो रही होगी । इधर परीक्षाएँ भी सिर पर हैं, उधर इस मानसिक हालत में कैसे पढाई कर पायेगा वह। आज तक महेश के ऊपर तनिमा का पूरा भरोसा था। मगर अब ऐसा लग रहा था मानो उसके भरोसे व आशाओं का वह बाँध टूटता ही जा रहा हो। तनिमा बेटे को पूछने लगी थी, "बेटा खाना खाये?" "हाँ," उदास स्वर से बोला था बेटा। "अभी तक मेरे रहने की कोई व्यवस्था नहीं हो पायी है, माँ। यही सोचकर घर से निकला था कि जितना भी कष्ट सहना पडेगा, सह लूंगा। मगर यहाँ आकर देखा, मेरे रहने के लिए तो थोडी-सी मिट्टी भी नसीब नहीं है। एक साल होने वाला है, मुझे कहीं भी पाँव पसारने के लिए एक जगह नहीं मिल पाई है।" तनिमा ने कल्पना कर ली थी कि बेटा दीवार का सहारा लिए हुए खडा है,एक पाँव जमीन पर रखा है तो दूसरा पाँव घुटनों से पीछे मोड़कर दीवार से सटाकर खडा हुआ है और उसको घेर कर खड़े हैं बहुत सारे लड़के। उसको अपने प्रश्न-बाणों से घायल
कर रहे हैं बार-बार। और वह खडा है एक कुख्यात अपराधी की तरह सिर झुकाकर। अपने दूसरे मोडे हुए पावँ को ज़मीन पर जैसे रखने का साहस भी नहीं जुटा पा रहा था वह।रिसीवर रख कर चुपचाप बैठ गयी थी तनिमा। "क्या हुआ माँ?" बेटी ने पूछा था,"भईया सकुशल हैं तो? जानती हो, जार में केवल दो मछलियाँ ही हैं।" "नहीं,नहीं, तीन मछलियाँ थीं।" तनिमा बोली थी। "नहीं, मैं तो दो मछलियों को देख कर आ रही हूँ।" "मैंने सुबह देखा था तो जार में तीन मछलियाँ थीं।एक कहाँ चली गयी?" तुंरत ही जार के पास चली आयी तनिमा। कह रही थी, "सचमुच लाल-नीले रंग की मछली कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रही है, कब मर गयी? तुमने छुपा कर फेंक तो नहीं दिया?" बेटी चिढ गयी थी, "आप क्या बोल रही हो? नौकरानी ने तो कहीं नहीं ले लिया होगा?" "क्या बात कर रही हो? इतने दिनों से काम कर रही है वह, अभी तक तो कोई भी चीज नहीं ली,आज ले ली? कैसे हो सकता है? फिर वह मछली उसके किस काम आयेगी?" इससे पहले तो मछलियाँ मर जाया करती थीं,खोया नहीं करती थीं।शायद हो सकता है,सुबह-सुबह, मछली के जार को देखने में उसे कोई भ्रम हुआ हो। मन चिंताओं के बढ़ते बोझ से फिर भारी हो गया था। बेटा और मछली, मछली और बेटा।जैसे कि तनिमा की दुनिया में इसके अलावा कुछ और घटित ही नहीं होता हो। बेटी चिल्लाई थी, "माँ ! देखो,देखो, वह मछली टेबल के नीचे गिरी पड़ी है।" तनिमा ने सावधानी से देखा था उस मछली को। आस-पास कुछ चीटियाँ भी लग गयी थी। जार के अन्दर वह मछली जिस रंगीन सपने की तरह दिख रही थी, उसकी लाश वैसी नहीं दिख रही थी। मछली को पलटकर, तिरछी कर देखने से वह पूरी तरह से निस्तेज नजर आ रही थी। तनिमा को याद हो आयी, उस दिन की स्मृति जिस दिन वह मछली जार में से कूद कर टेबल के ऊपर गिरी थी, मगर वह मछली अब इतनी दू
र कैसे चली गयी?ऐसा क्या कष्ट हो रहा था? जो उसने जार में से कूद कर जमीन पर आत्महत्या कर ली । उसी समय तनिमा को अपने बेटे की याद हो आयी, "माँ, क्यों मेरे पाँव के नीचे थोडी-सी जमीन भी नसीब नहीं होती?" तनिमा घर के अन्दर से एक पोलिथीन की थैली लायी, उसमें भरा हुआ था कुछ स्वच्छ पानी। जार के अन्दर बची हुई दो मछलियों को निकाल कर रखी थी उसमें, और बेटी से कहने लगी, "तुम ट्यूशन जा रही हो, उसको ले जा, आस-पास के किसी नदी-नाले में छोड़ देना, बेटी।" बेटी विस्मित हो कर देख रही थी। कुछ भी विरोध नहीं किया था उसने। तनिमा मन ही मन कह रही थी- "तुम्हारे लिए मेरे पास कोई समुन्दर नहीं है। हे मेरे सपनो! तुमको मैं आज अब अपने से विदा कर रही हूँ, जाओ, जहाँ भी तुम्हारा मन लगे, वहीँ जाकर तैरने लगो, इधर-उधर।"
कहानी की चटोर पाठक के रूप में अपनी पहली पहचान बनाती हूँ तो हमेशा की तरह धप्प से एक सवाल टपक उठता है - 'क्यों? कहानियों की ही पाठक क्यों? साहित्य की अन्य विधाओं की क्यों नहीं? मसलन कविता?' लेकिन संपादकीय आग्रह के कारण हर बार की तरह इस बार मैं सवाल को परे ठेल कर मुँह ढाँपकर सोने की स्थिति में नहीं हूँ। लगता है, अलिफ-लैला और तोता-मैना के किस्सों से होते हुए मुझे अरेबियन नाइट्स, ईसप की कहानियों, पंचतंत्र और जातक कथाओं के साथ-साथ सिंदबाद जहाजी और बहादुर बलराज के साथ अपनी वीरता का परिचय देते हुए सारे समंदरों और पहाड़ों को लाँघ कर किसी गुफा में आराम फरमाते सटीक जवाब को ढूँढ़ कर लाना ही होगा। शायद भारत या ग्रीक कथाओं के देवी-देवता अपनी चमत्कारी मुद्राओं के साथ मेरी मदद को बैकुंठ से नीचे उतर ही आएँ। मैं कोलंबस की तरह फेंटा कस कर तैयार हूँ। जहाजियों, रसद और अन्य जरूरी सामानों के साथ मेरे हाथ में यात्रा का अनुमानित रूट-मैप है और हौसलों में 'इंडिया' को खोज निकालने का दमकता विश्वास। भीषण समुद्र से क्या डरना! वह तो अपने अकेलेपन को तोड़ने के लिए रचा गया खोखला शोर है, या उग्र लहरों के हाथ भेजा गया निमंत्रण-पत्र। फिर मेरी स्मृतियों में एक बच्चे के साथ समुद्र की रौरव लहरों और खौफनाक शार्क मछलियों से दो-दो हाथ कर सकुशल तट पर लौटता बूढ़ा मछेरा भी तो है। मैं दूने वेग से अपने विश्वास को दोहराने लगी हूँ कि जब तक प्राणों में हौसला है, और हौसले में लकदक आत्मविश्वास - असंभव कुछ भी नहीं। अरे! मैं चिहुँक उठती हूँ। जवाब तो यहीं मौजूद है, मेरे आसपास! टप से टपके 'गर्म' जामुन की तरह नहीं, किसी तिलिस्म की ओर खुलती सीढ़ियों की तरह! नीम अँधेरे में सोई इन गुप्त सीढ़ियों पर मुझे एक-एक कर पैर जमाते हुए नीचे तक उतरना होगा। पहली ही सीढ़ी पर जवाब की एक कड़ी मिलती है - कौतूहल! 'न जाने नक्षत्रों में कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन' - कोई मेरे कान में फुसफुसा गया है, और दिग्-दिगंत तक फैली उत्सुकता के घटाटोप में घिर कर मैं विस्मय करती रह जाती हूँ कि क्या मैं जर्मन पुराकथा के बाँसुरीवादक की धुन पर सुध-बुध खोकर चूहे की तरह नाचती-कूदती चलती इतनी अदना शख्सियत हूँ कि मेरे इनसानी वजूद को कुचल कर कोई भी उस पर सवारी गाँठ ले? नहीं, कौतूहल कहानी का प्रस्थान बिंदु है, आत्मघाती डुबकी नहीं कि साँस पर काबू खोकर लौटने की दिशा, गति और ऊर्जा ही नष्ट कर दे। मैं नहीं जानती, कहानी पढ़ना कब मेरे लिए कौतूहल में पगा मनोरंजक कार्य न रह कर जीवन से जूझने की चुनौती बन जाता है और मैं 'स्वयं एक सुरक्षित दूरी के साथ निष्क्रियता के तमाम तामझाम के बीच कोलंबस या राजा भगीरथ को अपने-अपने प्रयाणों में लिप्त नहीं देखती रहती; स्वयं कोलंबस और भगीरथ बन कर उनकी अनिश्चितताओं और दुश्चिंताओं को, संघर्ष के रोमांच और सफलता के उछाह को जीने लगती हूँ। यही वह स्थल है जहाँ मैं पाठक-रचयिता और आलोचक तीनों भूमिकाओं को एक साथ जीकर कहानी भी बन जाती हूँ और कह
ानी के समानांतर अपने चारों ओर वेग से बहते जीवन को सर्जक-आलोचक की नई नजर से देखने भी लगती हूँ। तिलिस्मी लोक की यात्रा से लौट कर अपने अनुभव दर्ज कराने के लिए शायद अब तक कोई नहीं आया है। आता तो जरूर बताता कि बस, तिलिस्मी लोक का द्वार ही तिलिस्मी है, भ्रम और प्रवंचनाओं से रचा हुआ। उसे खोल कर खौलती सीढ़ी पर पैर रखने का हौसला आ जाए तो वह खुद ब खुद अपने भीतर पसरे अकूत ऐश्वर्य को दिखाने के लिए मतवाला हुआ जाता है। ठीक मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' की तरह। मेरे साथ भी तो यही किया उसने। हथेली में बीज-वाक्य ही धर दिया कि मेरे तईं वही कहानी श्रेष्ठ है जो मेरे भीतर तीन अलग-अलग स्तरों पर जीते पाठक-आलोचक-रचयिता को एक साथ गूँध कर मुझे कहानी की एक स्वतः संपूर्ण इकाई भी बना दती है, और साथ ही उस कहानी के समानांतर धड़कते जीवन की पुनर्पड़ताल की संवेदना भी देती है। सैलानीपन पाठक की अनिवार्य शर्त है और अच्छी कहानी उसके इसी गुण की सवारी गाँठते हुए उसे भीतर-बाहर की अजनबी दुनिया की सैर को लिए चलती है। पल की एक नोक में ही बहुआयामी सृष्टि के इतने रहस्य छिपे हैं कि बहुविज्ञ पाठक भी उन्हें नहीं जान पाता। तिस पर दृष्टि और कोण बदलते ही एक ही स्थिति में छिपी अनेक संभावनाओं के उत्खनन की संभाव्यता! अच्छी कहानी पाठक को 'अस्सी दिन में दुनिया की सैर' कराके पुनः अपने कुएँ में मेंढक की तरह टर्राने की नित्यक्रमिकता में विघटित नहीं होने देती, बल्कि सैर को पाठक के बौद्धिक-मानसिक अहसास का बिंदु बना कर वहीं से उसे विचार की आगामी यात्रा पर अकेले चल निकलने की अकुलाहट देती है। वह भावनाओं को उद्बुद्ध नहीं करती, संचरित भावनाओं को ऊर्ध्व दिशा देकर भला-बुरा तय करने की कसौटियों को निर्मित करने का विवेक देती है। कहान
ी यथार्थ का उत्खनन मात्र नहीं, यथार्थ का उत्खनन करने की प्रक्रिया में यथार्थ के साथ अपने संबंध को पहचानने की दृष्टि अन्वेषित-परिमार्जित करती चलती है। इसलिए मेरे तईं लेखक की भूमिका कमंद सरीखी है, या एक मँजे हुए माँझी जैसी जो पाठक को किसी वीराने टापू पर ले तो आए, लेकिन फिर उसकी उँगली छोड़ कर उसे उस अनजान प्रदेश के चप्पे-चप्पे को एक्स्प्लोर करने और उसके साथ एक रागात्मक संबंध विकसित करने की संवेदना पैदा करे। यह रागात्मकता द्वेष के विपरीतार्थक शब्द की गुण-महिमा के साथ जुड़ कर नहीं आती, स्थितियों के निःसंग विवेकपूर्ण मूल्यांकन के रूप में उभरनी चाहिए। जाहिर है बाह्य स्थितियों का आकलन तब तक संभव नहीं जब तक मन के आईने में अपने ही विवेक की सूरत का रेशा-रेशा उधेड़ कर जाँच-पड़ताल न कर ली जाए। एक छोटा सा वाक्य ही तो कहती है 'आकाशदीप' कहानी की चंपा बुद्धगुप्त से कि "मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु! तुम्हें प्यार करती हूँ।" क्या यह एक वाक्य सिर्फ एक स्त्री के द्वंद्व की नाटकीय अभिव्यक्ति का अभियोजन भर है? यह पंक्ति स्वीकारोक्ति इसलिए बन पाई कि पाँच बरस से प्रेम और घृणा की लहरों पर सवार ऊहापोह के एक-एक रग-रेशे को अपनी-अपनी ताकत और दुर्बलता के साथ चंपा साफ-साफ देख सकी है। इस स्पष्ट दृष्टि में भूत की छाया से आविष्ट वर्तमान का सच तो है ही, उससे कहीं ज्यादा सघन और स्पष्ट है भविष्य में बुने जाने वाले संबंधों का स्वरूप, और दो संयुक्त जिंदगियों के कारण वजूद में आने वाली जाने कितनी और जिंदगियों के सवाल। निर्णय पर पहुँचना क्षण या स्थितियों के तात्कालिक दबाव का स्फोट नहीं होता; चिंतन-मनन की सुदीर्घ परंपरा का परिणाम होता है जिसकी अनुगूँज जिंदगी से लेकर समय तक दूर तक सुनी जा सकती है। अच्छी कहानी में सैलानी की लुभावनी अदाओं से कहीं आगे जाकर वक्त को आप्लावित कर देने की ताकत छिपी होती है। कहानी अपने से आँख मिलाने की ईमानदार कोशिश है - लेखन के स्तर पर भी, और आलोचना के स्तर पर भी। अपनी हर छलाँग में यह मुक्ति की महागाथा रचती है। मुक्ति अपनी वैचारिक जड़ताओं से भी, और अमूर्त मनोग्रंथियों से भी; मुक्ति समय से भी और भौतिक लिप्साओं से भी। स्व की संकुचित कंदराओं से मुक्त कर अच्छी कहानी पाठक को अपने 'मैं' का विलोपीकरण करने का हुनर भी देती है और अपने 'मैं' में समूचे चर-अचर जगत के 'मैं' को सुनने की सूक्ष्म संवेदना भी। यही वह बिंदु है जहाँ मुक्ति में उपभोग की आत्मकेद्रिंत रतिग्रस्तता नहीं, सृजन का उल्लास आ जुड़ता है। कहानी बेशक यथार्थ जगत के बरक्स रचा गया एक समानांतर यथार्थ लोक है, लेकिन इसकी गति और दिशा यथार्थ जगत से उलटी है। भौतिक जगत मनुष्य के 'मैं' का प्रसार करते हुए उसके समूचे वजूद को अहं के एक छोटे से बिंदु में कैद कर देता है, लेकिन कहानी का समानांतर यथार्थ लोक उसे 'मैं' की जानलेवा ग्रंथियों, कुंठाओं, नकारात्मकताओं और खोखली टकराहटों से मुक्त कर अन्य
जगत की हलचलों, आर्त्तनादों, संकटों और चुनौतियों को सुनने का धीरज, संयम, अवकाश और संवेदना देता है। यह निरे सैलानीपन का पुरस्कार नहीं, ऑब्जर्वेशन को संवाद तक ले आने की अकुलाहट का परिणाम है। कहानी की सार्थकता संवाद का मजबूत पुल बनाने में है। कई बार इस पुल से गुजर कर यथार्थ जगत की यथार्थ ठोस वास्तविकताएँ या संवेगों से रची गईं अमूर्त संकल्पनाएँ कहानी के समानांतर यथार्थ जगत में प्रविष्ट होते ही रंग और चोला बदल लेती हैं। लगता है, व्यवस्था को तार-तार कर वे ऊलजलूल अस्तव्यस्तताओं में विघटित हो गई हैं। घड़ी की सुइयाँ घड़ी की कैद से निकल कर मनमाने ढंग से दसों दिशाओं और सातों लोकों में चलने लगी हैं। सूर्य जैसा स्थावर ऊर्जा-स्रोत सदियों से आसमान में टँगे-टँगे इतना थक गया है कि चाँदनी से नहाई चाँद की शीतल गोद में झपकी लेने को दुबक गया है। शैतान मछलियाँ तालाब से निकल कर रेत के ढूहों में ऊँटों के खुरों के निशान ढूँढ़ने दौड़ पड़ी हैं। हजारों सालों से लेप और पट्टियों के बीच पिरामिडों में सोए फरोह (मिस्र के राजा) अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए बाजार नामक अमूर्त शत्रु की धरपकड़ में कैरेबियन देशों की ओर निकल पड़े हैं। न, कहानी मरीचिकाओं की सृष्टि नहीं करती, मरीचिका बन कर विवेक को नियंत्रित करती मानवीय दुर्बलताओं को पहचानने की दृष्टि देती है। वह एलिस की तरह पाठक को फैंटेसी के वंडरलैंड में ले तो जाती है, लेकिन निरा दर्शक बना कर मिट्टी के निस्पंद लोंदे में विघटित होने के लिए नहीं छोड़ती। जो कहानी पाठक के भीतर किसी वैचारिक-भावनात्मक झंझावात की सृष्टि किए बिना मनोहारी आत्ममुग्धता का प्रसार करे, वह उपभोग की क्षणजीवी वस्तु हो सकती है, काल को जय करके अपनी अस्मिता को निरंतर बनाए रखने वाली कोई साहित्यिक कृत
ि नहीं। दरअसल यथार्थ जगत के गुरुत्वाकर्षण को तोड़ कर पागलपन, चमत्कार या असंभाव्यता को मूल्य बना कर रची जाने वाली कहानियों में अपने समय की विभीषिकाओं को अधिक सघनता से उजागर करने की क्षमता होती है, लेकिन तभी जब लेखक सृजन को अपना पैरामीटर बनाए, अभिव्यक्ति को नहीं। बात दूर की कौड़ी लग सकती है, क्योंकि एक मोटा प्रतिवाद तो यहीं मौजूद है कि साहित्य सृजनात्मक अभिव्यक्ति का दूसरा नाम ही तो है। लेकिन मेरी मान्यता है कि युगीन सत्य की अभिव्यक्ति करने के प्रयास में बहुधा लेखक उसकी भावनात्मक पुनर्प्रस्तुति भर करता है, यथार्थ को बिडंबना और विभीषिका बनाने वाले घटकों की शिनाख्त करके उनके प्रति एक स्पष्ट खदबदाता आक्रोश पाठक के भीतर नहीं भर पाता, जैसे मुक्तिबोध 'क्लॉड ईथरली' कहानी में और मंटो 'टोबा टेकसिंह' कहानी में कर पाए हैं। या फिर 'नदी के तहखाने में' कहानी में भालचंद्र जोशी। विकास चौड़ी चमकती सड़कों, फ्लाईओवरों, मॉल-मल्टीप्लैक्सों, बाँधों-गगनचुंबी इमारतों, स्मार्ट सिटी या बुलेट ट्रेन को दौड़ा देने की इन्फ्रास्ट्रकचरल जुगत नहीं है, जहाँ पत्थर-सीमेंट-लोहा ही साधन और साध्य बन जाता है। विकास मनुष्य और समय के भीतर और बाहर के सामंजस्यपूर्ण और पारस्परिक चतुर्दिक उन्नयन का नाम है जो हाशिए के आखिरी छोर पर जीते मनुष्य की चिंताओं और सपनों को केंद्र में लाए बिना संभव नहीं। वह विकास जो मनुष्यहंता बन कर विध्वंस को ही ध्येय बना दे, किस सृजन की ओर इंगित कर सकता है? नदी के तहखाने में जाकर अपनी कुछ बरस पुरानी स्मृतियों के अवशेषों को ढूँढ़ना विकास और गौरव की बात नहीं, क्योंकि वर्तमान का पुरातात्विक अन्वेषण 'वर्तमान' नहीं करता, भविष्य के गर्भ में पलती अगली कई सदियाँ करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे आज हम हजारों वर्ष पीछे की यात्रा कर मुअनजोदड़ो सभ्यता के अनुसंधान के बहाने अपनी 'उर्वर' संस्कृति के सबूत जुटाने की कोशिश करते हैं। अच्छी कहानी लोभ और लिप्साओं के पागलखाने में कैद 'आत्मबोध' को मुक्त कराने की जद्दोजहद है। बेशक कहानीकार से दार्शनिक होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन संवेदनपरक चिंतन जब मनुष्य की मनोभूमि में उतर कर इहलोक के भौतिक अस्तित्व और पारलौकिक जगत के सत्य के साथ समन्वय बैठाने, और एक-दूसरे के संदर्भ में मनुष्य की महत्ता को परिभाषित करने की कोशिश करता है, तब उसकी दृष्टि में दार्शनिक चिंतन की गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ आप ही आप उपस्थित होकर भौतिकताओं और तात्कालिकताओं का कुहासा छाँटने लगती हैं। दार्शनिक चिंतन जीवन के गूढ़ जटिल रहस्यों को सुलझाने का उपक्रम है जिसके बिना ग्लैमरस उपलब्धियों से दमकते युग में वस्तु, उत्पाद और पशु तो बना जा सकता है, मुकम्मल इनसान नहीं। जाहिर है दार्शनिक निष्पत्तियों से गुँथी कहानी सरल तो होगी नहीं। दरअसल कहानी को लेकर सरल या 'जटिल' सरीखे विशेषणों का प्रयोग मुझे बेमानी लगता है। कहानी संश्लिष्ट होगी, या सतही। वह जीवन का अक्स होगी या फिर जीवन की उलझी गड्डमड्ड डोरो
ं को गहराइयों में जाकर सुलझाने की एक कोशिश; वह शोध/ऑब्जर्वेशन पर आधारित रिपोर्ताज होगी या दशरथ माँझी की तरह पहाड़ को काट देने का सिरफिरा जनून। सतही कहानी वक्त के खाली-बोझिल लम्हों को भर कर दिमाग को सुलाने का काम बखूबी करती है, जैसे भोजन भूख से बिलबिलाते पेट को भरने के उपरांत नींद का आह्वान करने लगता है। सृजन की दुर्निवार आकांक्षाओं से बुनी संश्लिष्ट कहानी कथागत पात्रों को पहले चरित्र रूप में बुनती है, फिर चरित्र को मनोवृत्ति का रूप देकर उसे अशरीरी भी करती है और एक ठोस देश-काल में प्रतिष्ठित भी। जैसे जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ 'गुंडा', 'मधुआ' और 'छोटा जादूगर' और रेणु की कहानियों 'तीसरी कसम' और 'ठेस' के हिरामन और सिरचन। कई बार स्थिति ही पूरा का पूरा युग-चरित्र बन जाती है और गुमनाम चेहराविहीन मामूली से पात्र के जरिए वर्चस्ववादी ताकतों की अमानुषिकता का विखंडन करने लगती है, जैसे मंटो की कहानी 'खोल दो'। किरण सिंह की कहानी 'द्रौपदी पीक' एक स्मरणीय संश्लिष्ट कहानी का उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में मेरे जेहन में बार-बार उभर रही है। यह कहानी भीतर सोई तमाम निष्क्रियता को झाड़-पोंछ कर मुझे पाठक से दर्शक में तब्दील कर रही है। मैं साक्षी भाव से वेश्यापुत्री घुँघरू और नागा बाबा पुरुषोत्तम की आत्मदमनकारी पीड़ा से बाहर झाँक-झाँक पड़ते उनके जीवन के छोटे-छोटे रहस्यों को एक लड़ी में पिरोने लगती हूँ कि मेरे भीतर का आलोचक द्रष्टा बन कर स्त्रियों और उनकी अवैध संतानों (?) की बलि लेकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते धर्म-तंत्र और समाज व्यवस्था की साजिशों की पड़ताल करने लगता है। मैं देखती हूँ, घुँघरू (और पुरुषोत्तम) की तरह आत्मपीड़न और आत्मघृणा को अपना मूल्य बना कर जीती शख्सियतें जैनेंद्रकुमार के जमाने से चल
ी आ रही हैं और पाठक से सहानुभूति (जो निष्क्रियता की प्राथमिक अवस्था है जहाँ बराबरी के धरातल पर संवाद नहीं, श्रेष्ठ-हीन होने की स्थितियों से उपजा दंभ-दया होते हैं) लेकर कहीं बिला भी जाती हैं। जैनेंद्रकुमार 'जाह्नवी' कहानी में जाह्नवी की विडंबनाओं को ताजा कर मुझे आंदोलित करने की चेष्टा करते हैं, लेकिन उदासीन भाव से न्यूनतम सहानुभूति उनकी झोली में डाल कर मैं कहानी को भुला देती हूँ। जाह्नवी की अकर्मण्यता के ठीक विपरीत है पलायन की कोशिश में छुपी घुँघरू और पुरुषोत्तम की कर्मठता। यह कर्मठता जैसे ही मेरे उत्साह को संघर्ष की ऊर्जा से स्पंदित करने लगती है, मैं अपना कंफर्ट जोन छोड़ खुशी-खुशी उनके साथ एवरेस्ट पर चढ़ना स्वीकार कर लेती हूँ। आरोहण के दौरान दोनों चरित्रों के संग बतियाते हुए पाती हूँ कि कहानी पर्वतारोहण के रोमांच या एवरेस्ट विजय की उल्लास-गाथा नहीं, अपनी-अपनी ग्रंथियों और जटिल जीवन-परिस्थितियों से जूझते हुए सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को अपने बूते पाने की दुर्दम्य साध है। विराट को एकस्प्लोर करने के उपक्रम में कहानी व्यस्वस्था के बौनेपन और टुच्चेपन को उधेड़ती चलती है जो धर्म और सत्ता-व्यवस्था का गठबंधन कर हाशिए पर पड़ी अस्मिताओं - स्त्रियाँ, वेश्याएँ, अवैध संतानें - का उत्पीड़न कर उन्हें समर्थ वर्ग के उपयोग और उपभोग में आने वाली वस्तु बना देती है। घृणा उनका स्थायी भाव है - उपयोग करते समय भी, और उपयोग के बाद घूरे पर फेंकते समय भी। ताज्जुब यह कि घृणा और अवमानना को अपना दाय मान कर अपने वजूद के प्रति घृणा और आत्मदया से भर उठी हाशिए की ये अस्मिताएँ स्वयं नहीं जानतीं कि वे अनायास धर्म और सत्ता के उत्पीड़नकारी स्वरूप को ही मजबूत कर रही हैं। पृथ्वी की तंगदिल भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर विराट के सान्निध्य में अपने को खोजना दरअसल चीजों और अवधारणाओं को तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर उनके नैसर्गिक रूप में देखना है जहाँ उसी का प्रतिपक्ष मुखर होकर स्थिति का संपूर्ण भाष्य बन जाता है। घुँघरू और पुरुषोत्तम सभ्य समाज के लिए घृणा के पात्र हो सकते हैं, लेकिन अपने भीतर दमन का अनंत इतिहास छुपाए ये अपने लिए न्याय माँगते हैं। कहानी की ताकत जितनी प्रखरता से व्यवस्था के चेहरे को बेनकाब करना है, उतनी ही हार्दिकता के साथ क्षत-विक्षत खंडित अस्मिताओं के भीतर के मानवीय ऐश्वर्य और सौंदर्य को सर्जित करना भी है। कहानी शब्दों का खोखला शोर भर नहीं है, न ही लेखक के नेतृत्व में की जाने वाली फौजी ड्रिल जो पाठक को भी अनुशासित फौजी बना कर मनवांछित प्रतिक्रियाएँ पाने का आयोजन रचे। कहानी की आंतरिक संघटना के रूप में शिल्प पर काफी बात की जाती है, लेकिन शिल्प पक्ष की सुघड़ता के कारण मुझे कभी कोई कहानी आकृष्ट नहीं करती। बल्कि ऐसा कोई सम्मोहन कभी हुआ भी है तो इस तथ्य की याद दिलाने के लिए कि कंटेंट के स्तर पर कहानी में एक बड़ी चूक कहीं घटित हो रही है। शिल्प कहानी की आंतरिक लय है जो कंटेंट और चरित्र
के पैरों चल कर आता है, और अंगद की तरह अपना पैर जमा कर आत्मविस्मृत सा स्वयं कहानी में डूबता-उतराता चलता है। इसलिए अपने विविध घटकों के साथ एक ही लय में एकाकार वही कहानी मुझे बाँधती है जो हर एक नए उद्घाटन के साथ मेरे भीतर बेचैनी पैदा करे, संशयों को गहराए, मर्मांतक आघात दे, या रुक कर पीप-मवाद-लहू से सने जख्मों पर मरहम लगाए और मनुष्य की बुनियादी अच्छाई के प्रति मेरे नष्ट होते विश्वास को फिर से सींच दे; लेकिन इस सारी प्रक्रिया में मुझे न डिक्टेट करे, न मंत्रमुग्ध। वह मेरे भीतर पाठक की शक्ल में बैठे सर्जक को जगाए, उत्साह और संघर्ष की आंच से दीप्त कर उसे कर्मठ बनाए, और नया पाठ सृजित करने के लिए सृजन की अनंत यात्रा पर ले जाए। इसलिए कहानी मेरे लिए रोटी की तरह एक बार खा (पढ़) कर समाप्त हो जाने वाली भोज्य-सामग्री नहीं है। अच्छी कहानी में अखंड समय की निधियाँ और स्मृतियाँ आबद्ध रहती हैं। कहानी परंपरागत रूढ़ियों के साथ अपने को प्रकट भी करती है और उनका प्रतिरोध रचते हुए नए क्षितिजों का संधान भी करती है। लेखक द्वारा सीमाबद्धता का अतिक्रमण कर छुपी हुई संभावनाओं का उत्खनन दरअसल कहानी की उर्वर जमीन में व्यंजनाओं के बीज बिखेर देना है जिन्हें पाठ के दौरान पाठक/आलोचक को न केवल पकड़ना है, बल्कि रच कर दो भिन्न कालखंडों में बँटे समय पर संवेदना और पहुँच का सेतु भी बना देना है। विधा के तौर पर आलोचना कहानी से भिन्न है, किंतु प्रकृतिगत स्तर पर अभिन्न। दोनों ही अपनी मूलभूत प्रकृति में जीवन का आलोचनात्मक सृजन हैं। दोनों की रचना-प्रक्रिया भी एक सी! वही, जीवन का अध्ययन, विश्लेषण और फिर अपने समूचे व्यक्तित्व को अंतर्दृष्टि में घुला-मिला कर विश्लेषणगत निष्कर्षों और वैयक्तिक प्राथतिकताओं के अनुरूप जीवन का एक नय
ा परिवर्द्धित संस्करण रच देने की व्यग्रता। इसलिए अच्छी कहानी या अच्छी आलोचना अपने रचयिता के व्यक्तित्व से अछूती नहीं रह सकती। मैं मानती हूँ कि कहानी में रचनाकार के सृजन की इंटेंसिटी जितनी अधिक होगी, पाठक के भीतर अपनी जड़ताओं और सीमाओं का अतिक्रमण करने की बेताबी उतने ही तीव्रतर होगी। कहानी, सृजन-प्रक्रिया के प्रथम चरण से लेकर लिखे जाने तक कुम्हार के चाक की तरह लगातार रचनाकार के मानस में तनाव की सृष्टि करते हुए चक्कर काटती रहती है। लिखे जाने के बाद रचनाकार भले ही तनावमुक्त होकर श्रम-शिथिल अवस्था में सुस्ता ले, कहानी भारतीय लोककथा के उस अभिशप्त नायक की तरह है जो अपने सिर पर घूमते चक्र को स्वयं ढोते रहने को नियतिबद्ध है। इसलिए कहानी रची जाकर भी समाप्त नहीं होती, समय और परिस्थितियों की संकुल लहरियों को लाँघ कर हर दौर में अपने मूल्य, प्रभाव और प्रासंगिकता की जाँच में लगी रहती है। बार-बार रचे जाने की उत्कंठा में कहानी न केवल अपने अर्थ का विस्तार करती है, बल्कि दो युगों को जोड़ने वाले समय की पीठ पर सवार होकर वह हर देश-काल में जी रहे मनुष्य की एक-सी प्रकृति और एक-सी आकांक्षाओं के सनातन सत्य को भी उभारने लगती है। यहाँ आकर मेरी स्मृति में कितनी ही कहानियाँ बेचैनी से बाहर आने को उछलकूद मचाने लगी हैं। जयशंकर प्रसाद की 'पुरस्कार' कहानी की मधूलिका अपने बंदी प्रेमी अरुण की बगल में आ खड़ी हुई है। आँखों में गर्व का भाव है कि राजा को यथासमय देशद्रोही अरुण के विद्रोह की सूचना देकर उसने अपना नागरिक कर्तव्य निभाया है, लेकिन प्रेम की टीस अपनी जगह है। इसलिए अपनी देशभक्ति का पुरस्कार माँग रही है - "...तो मुझे भी प्राणदंड मिले।" मैं चाह कर भी कहानी को कक्षा में पढ़ाए जाने वाले इस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पा रही हूँ। कहानी पढ़ते-पढ़ते बराबर देख रही हूँ प्रसाद के परिवेश और सृजन-प्रक्रिया के समानांतर अपना परिवेश और सृजन-प्रक्रिया। इतिहास के किसी कल्पित कालखंड में जाकर प्रसाद इनसान की बुनियादी जरूरतों और आत्मसम्मान को छीन कर राज्यानुकंपा पर मोहताज बना देने वाले राज्य-दर्प को देख रहे हैं, और गुलाम देश के नागरिक के रूप में छल-बल, राज-दंड से वंचित कर दिए गए अपने युग की असहायता को उसमें पिरो रहे हैं। मधूलिका प्रेयसी नहीं, कृषक-कन्या के रूप में मेरे सामने आ खड़ी हुई है जो बरस दर बरस खेत में सोने की लहलहाती फसल देख भीतर तक संतोष और आह्लाद से भीग जाती है। मधूलिका को धकिया कर मीडिया और समाज से अदृश्य कर दिया गया मेरे अपने समय का अदना सा किसान मेरे सामने आ खड़ा होता है, मानो कह रहा हो, विकास का ढिंढोरा पीट कर किसी की जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि जमीन महज धरती का टुकड़ा नहीं, कई-कई पीढ़ियों का पेट, हाथ की लकीर और माथे का मान भी है। तब इस कहानी के साथ माधवराव सप्रे की कहानी 'टोकरी भर मिट्टी' और कोई सौ बरस बाद रची गई सत्यनारायण पटेल की कहानी 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' को जोड़ कर मै
ं अपने वक्त की कृषि-समस्याओं को समझने लगती हूँ। अच्छी कहानी आलोचना के एक पाठ द्वारा सुनिश्चित कर दिए गए रूप के साथ कभी स्थिर नहीं रहती। उसकी सार्थकता अपने को सफलतापूर्वक पढ़वा ले जाने में नहीं, पाठक के भीतर रचनाकार की ताब भर कर जीवन की शिनाख्त और सृजन करने की प्रेरणा बनने में है। अजीब अंतर्विरोध है कि कहानी में तनाव का घनीभूत क्षण ही मुक्ति की संभावनाओं को रचता है, और जिस स्थल पर पाठक को मुक्त करता है, वहीं उसके आक्रोश को तीव्रतर का उसे मनुष्य-बोध और नागरिक बोध से संपन्न भी करता है। जैसे परिवार में अवांछित हो जाने की प्रतीति 'वापसी' (उषा प्रियंवदा) कहानी के गजाधर बाबू के भीतर मोहभंग और अजनबियत की पीड़ा देकर आत्मसार्थकता की अन्य दिशाओं के संधान की बृहद् प्रेरणा देती है, लेकिन रिटायरमेंट के बाद पुनः चीनी मिल में नौकरी के लिए जाते गजाधर बाबू को देख पाठक ठगा सा महसूस करता है। क्या यह स्वयं उसकी अपनी नियति है? संस्कृति के तमाम आवरणों के बावजूद क्या मनुष्य अभी भी आदिम है, भूख और स्वार्थ से लिपटा? युगीन दबाव सतह पर दीखती विकृतियों को बनाते हैं या मनुष्य की बनैली वृत्तियाँ ही संगठित होकर विकृतियों को मूल्य का दर्जा देने लगती हैं? कहानी का लक्ष्य चैन और सुकून देकर पाठक को सुलाना नहीं, जगाना है। यह जगाना उसके स्नायु तंत्र को उत्तेजित करना नहीं है, बल्कि भावनाओं का परिष्कार करके उदात्तीकरण की उस अवस्था को ले जाना है जहाँ वर्ग, वर्ण, धर्म, लिंग, जाति, भाषा आदि सब भेद तिरोहित हो जाते हैं। परिष्कार की इस प्रक्रिया में भावनाएँ अपना अनगढ़ स्थूल सतही रूप छोड़ पहले संवेदना की परिपक्वता में ढलती हैं, फिर विवेक से अनुशासित हो स्थितियों पर निःसंग चिंतन-मनन का अवकाश पाती है। कहानी बेशक एक आत्मपरक
जगत की सृष्टि करके पाठक के निजी संवेगों के सहारे उसके भीतर उतरती है, लेकिन अर्थ-ग्रहण और अर्थ-विश्लेषण की प्रक्रिया में वह निर्वैयक्तिक हो जाने का संस्कार देती है। ठीक वही निर्वैयक्तिकता जो रचते हुए रचनाकार के निजत्व और ममत्व का क्षय कर उसे सृष्टि के साथ जुड़ने की संवेदना देती है। यह तय है कि सृजन के दौरान जब-जब रचनाकार निर्वैयक्तिकता को साधने में असमर्थ रहता है, तब-तब पाठक के भीतर वस्तुपरक तटस्थ विश्लेषण का बोध पैदा नहीं हो पाता। कहानी का प्रभाव दरअसल और कुछ नहीं, लेखक की अपनी अंतर्दृष्टि है जो पाठक की संवेदना के साथ संवाद कर दोनों के बीच संबंध के तंतु निर्मित करती है। इसलिए कहानी के लिए समाज का दर्पण होना जरूरी नहीं, रचयिता की मानस-पुत्री होना जरूरी है। स्त्री विमर्श के सरोकारों का देह विमर्श की स्थूलता में और दलित विमर्श की मानवीय पुकार का प्रतिशोध की टंकार में रिड्यूस हो जाना कहीं न कहीं लेखन के दौरान लेखक का वर्ग/वर्ण/धर्म/लिंग बने रहना है।
राजवीर ने विनय की हां सुनते ही तुरंत कहा । राजवीर - ये झूठ बोल रहा है । ( विनय से ) तुम झूठ क्यों बोल रहे हो विनय । मेरी तो तुमसे बात ही नहीं हुई है कल । विनय - नहीं राजवीर । मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं । कल तुमने ही मेरे पास अपने आदमी को भेजा था । और उसके थ्रू तुमने मुझे बताया , कि मुझे मॉल जाकर कल क्या करना है । तुम्हारे कहने पर मैं कल जान बूझकर रेहान से टकराया था । उसके बाद तुम्हारे ही कहने पर मैं इन लोगों के पीछे रेस्टोरेंट गया था और रेहान के जस्ट बैक साइड पर पीठ किए हुए बैठा था , ताकि मैं ये जानकर तुम्हें बता सकूं , कि ये लोग आज कहां घूमने जा रहे हैं । जब मैंने राजवीर को ये सब करने के लिए मना किया , तो राजवीर ने मुझे धमकी दी , कि ये मेरे घर वालों को किसी हादसे का बहाना बनाकर कर मरवा देगा । राजवीर ने सुना तो हैरानी से विनय को देखने लगा । पर उसने कुछ नहीं कहां, क्योंकि सच में सारे सबूत उसके खिलाफ थे । वह मन ही मन सोचने लगा कि विनय की मदद से उसे कौन फंसा रहा है । तभी राहुल ने कहा । राहुल - और तुम्हें रेस्टोरेंट से निकलते हुए रेहान ने देख लिया था । है न रेहान ....???? आदित्य - अब बताओ राजवीर , अगर तुमने कायरा का किडनैप नहीं करवाया, तो फिर किसने करवाया ??? क्योंकि विनय के मुताबिक तुम्हें ही ये पता था , कि हम आज कहां घूमने जा रहे हैं । राजवीर ने कुछ नहीं कहा , बस वह विनय को घूरते हुए वहां खड़ा रहा । जबकि विनय अपनी गर्दन नीचे किए , उसकी नज़रों से बचने की कोशिश कर रहा था । तभी आरव ने कहा । आरव ( मिस्टर तिवारी से ) - अंकल , इसने सिर्फ आज ही कायरा को चोट पहुंचाने की कोशिश नहीं की हैं, बल्कि यह पहले भी कायरा पर अटैक करवा चुका है । मिस्टर शर्मा - होश में तो हो तुम आरव ....!!!! कुछ भी बोले जा रहे हो .....???? आरव - पापा .....!!!! अगर आपको मेरी बातों पर यकीन नहीं है , तो पूछ लीजिए कायरा से । ( कायरा की तरफ मुड़ कर ) बताओ कायरा , राजवीर ने उस रात तुम पर अटैक करवाया था कि नहीं..???? कायरा ( राजवीर को गुस्से से देखते हुए ) - जी...., करवाया था । आरव - इतना ही नहीं , इसने कायरा के साथ इस ऑफिस में कायरा के ही केबिन में घुसकर, बत्तमीजी करने की भी कोशिश की है । ( अपने मोबाइल में एक वीडियो चलाकर ) ये रहा उसका सबूत ......। आरव के मोबाइल में उस दिन का वीडियो था , जब राजवीर ने कायरा के केबिन में उसके साथ बत्तमीजी की थी । सभी वो वीडियो देखने के बाद राजवीर को गुस्से से देख रहे थे और वो बस शांत खड़ा था, पर अंदर ही अंदर वह गुस्से से जल रहा था । कायरा ने जब वो रेकॉर्डिंग आरव के मोबाइल में देखी , तो उसे अजीब लगा । वो समझ नहीं पा रही थी, कि ये सारी रिकॉर्डिंग्स आरव ला कहां से रहा था । रेहान ने जब वो वीडियो देखा , तो उसका खून खौल गया । वह गुस्से से राजवीर की ओर बढ़ने लगा , पर आरव ने उसे रोक दिया और कहा । आरव - रुक जाओ रेहान । रेहान - इसने मेरी बहन के साथ एक बार फिर बत्तमीजी की है , इस लि
ए अब मैं इसे अपने हाथो से सजा देने के लिए खुद को नहीं रोक सकता आरव....। आरव - रेहान ....!!! तुम चिंता मत करो , हमें इसे हाथ लगाने की भी जरूरत नहीं होगी और ये अपने आप ही घायल हो जाएगा । ये मेरा तुमसे वादा है । आरव की बात सुनकर , रेहान ने अपने कदम वापस ले लिए । तभी अरनव ने आरव से कहा । अरनव - जब तुम्हें इतना कुछ पता था राजवीर के बारे में , तो तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया ...???? और तुमने ये सारी रिकॉर्डिंग्स इतनी क्लीयरली कब और कहां शूट की हैं ??? आरव - ये सब मैंने खुद शूट नहीं किया है भैया , बल्कि मैंने सिर्फ कैमरा फिट किया था । और रेकॉर्डिंग उन्हीं कैमरों की हैं । ( राजवीर से ) तुम्हें याद है राजवीर , जिस दिन तुमने कायरा के केबिन में जाकर उससे बत्तमीजी की थी , उसी दिन मैंने तुमसे कहा था , कि दूसरों के काम में दखल अंदाजी करना बंद कर दो तुम । ( राजवीर आरव की बात सुनकर सोच में पड़ गया , तो आरव ने उसका चेहरा देख कर कहा ) और याद करो राजवीर , कि तुमने जिस दिन ये हरकत की थी , उसके एक दिन पहले तुम ऑफिस नहीं आए थे । इनफेक्ट एक दिन क्या , तुम उस समय दो तीन दिन ऑफिस से गायब थे । लेकिन मुझे तुम्हारा ऑफिस न आना , कहीं न कहीं खटक रहा था । मैंने उसी दिन आदित्य से बात कर एक प्लान बनाया और पूरे ऑफिस में हिडेन कैमरे लगवाए । आदित्य - और वो हिडेन कैमरे तुम्हारे केबिन और कायरा के केबिन , के साथ ही आरव के केबिन में भी फिट है । इतना ही नहीं , ऑफिस के हर एरिया , इनफेक्ट लिफ्ट में भी कैमरे लगे हुए हैं । और उसके साथ ही , ऑफिस के पार्किंग एरिया में भी यही कैमरे फिट हैं। जो खुद , मैंने और राहुल ने रात भर यहीं रह कर उसी दिन फिट करवाए थे , जिस दिन की बात आरव कर रहा है । आरव - इतना ही नहीं, हमने फैक्ट्
री में भी ये हिडेन कैमरे फिट करवाए थे , क्योंकि हमें शक तो था ही कि तुम कुछ न कुछ जरूर करोगे , पर यकीन तब हो गया जब तुम चंदन और उसके आदमी से मिले । जिस दिन तुम चंदन से मिले , हमने उसी दिन फैक्ट्री में भी कैमरे फिट करवा दिए । अब बात आती है तुम्हारी वॉइस की , जो कि सेकंड वीडियो जिसे आदित्य ने सभी को प्रोजेक्टर पर दिखाया था, उस पर हम सभी को सुनाई दी थी । तो ये तो हम सभी जानते हैं , कि ऐसे कैमरों में सिर्फ चलचित्र ही दिखाई देते हैं , वॉइस सुनाई नहीं देती है । तो तुम्हें बता दूं राजवीर , जिस रात कैमरे फिट हुए थे , उसी रात तुम्हारे केबिन की टेबल पर रखे कंप्यूटर के नीचे , राहुल ने एक छोटी सी साउंड स्पीकर चिप फिट की थी , जिससे तुम्हारी सारी वॉइस, जब तुम अपने केबिन में होते थे तब की , सब मुझे अपने मोबाइल में सुनाई दे रही थी । इन सारे जगहों में लगे हिडेन कैमरे मेरे फोन से कनेक्ट थे , जिससे ऑफिस में कौन क्या कर रहा था और स्पेशली तुम क्या कर रहे थे , वो सब हमें मालूम चल रहा था । ऑफिस में सीसी टीवी कैमरे के साथ - साथ , हिडेन कैमरे भी लगे हुए हैं , ( राहुल नील आदित्य और रेहान कि तरफ इशारा कर ) ये बात सिर्फ हम पांचों दोस्तों को पता थी । लेकिन तुम, तुम्हारी इस वीडियो रिकॉर्डिंग में क्या - क्या कर रहे थे , उसके बारे में सिर्फ मुझे जानकारी थी , क्योंकि सारे कैमरे और वो साउंड स्पीकर चिप तो सिर्फ मेरे फोन से ही कनेक्ट थे । इनफेक्ट , कुछ घंटों पहले , ऑफिस आने से लगभग दस मिनट पहले तक ये बात , इन चारों को भी पता नहीं थी , पर जब मैंने तुम्हें अपने साथ अपनी कार में बैठाया और ज......., मेरा मतलब है नील से ऑफिस चलने के लिए कहा , उसके तुरंत बाद मैंने तुम्हारी नील और कायरा की नज़रों से छुप कर ये तीनों वीडियो इन सभी के नंबर पर सेंड कर दिए । सिर्फ ये लास्ट वीडियो , जो अभी - अभी मैंने सभी को दिखाया है , ये वीडियो मैंने अपने पास रखा और क्योंकि अगर मैं ये वीडियो इन चारों को भेज देता , तो तुम्हारे साथ तो बहुत बुरा होता । क्योंकि ये चारों ऑफिस में तुम्हें देखते ही, बुरी तरह से पीटना शुरू कर देते , जो कि मैं नहीं चाहता था । और तो और अगर ये वीडियो सारे डायरेक्टर मेम्बर्स के सामने प्ले कर दिया जाता , तो तुम्हारे साथ - साथ कायरा की भी इज्जत पर आंच आती । जो कि मैं बिल्कुल नहीं चाहता था । इसी लिए मैंने ये वीडियो सभी के जाने के बाद , आप सभी को दिखाया । और रही बात चंदन की , तो उसे मैंने जब हिडेन कैमरे के माध्यम से , अपने मोबाइल स्क्रीन में तुमसे बात करते हुए देखा , तो मैं उसे पहचान गया । उसी रात मैं चंदन के घर गया , तब वह अपने घर के बाहर बने चबूतरे पर , शराब के नशे में धुत्त पड़ा था । मैंने नशे का फायदा उठाकर , सारा सच उसके मुंह से उगलवा लिया और फिर उसे उसके घर के अंदर भेजा और उसका शराब का नशा उतरते ही , मैंने उसकी पत्नी से मुझे इनफॉर्म करने के लिए कहा । सुबह जब मैं सोकर उठा , तभी ही चंदन की पत्नी क
ा फोन आया । मैं तुरंत सुबह - सुबह ही , चंदन के घर की ओर निकल गया । वहां मैंने उसे राजवीर का साथ देने के कारण , उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी । बदले में उसने मुझसे माफ़ी मांगी । तो मैंने उसे माफ करने के बदले में , सारा सच यहां सबके सामने बताने के लिए कहा । वह मान गया और इसी वजह से उसने तुम्हारे कारनामें यहां सबके सामने बता दिए । ( मिस्टर शर्मा की तरफ मुड़ कर ) पापा आप कह रहे थे ना , कि मैंने ऑफिस से पैसे लेकर कहां खर्च किए , तब मैंने आपको ऑफिस और फैक्ट्री के रेनोवेट होने की बात बताई थी । बट सॉरी पापा , मैंने आपसे झूठ कहा था। मैंने ऑफिस और फैक्ट्री का रेनोवेशन नहीं , बल्कि उन पैसों से ये कैमरे लगवाए हैं । जिनकी वजह से आज राजवीर की असलियत हम सभी के सामने है । मिस्टर तिवारी ( राजवीर के पास आकर ) - क्यों किया तुमने ऐसा ????? राजवीर ने उनकी बात पर कुछ नहीं कहा और अपनी नजरें नीची कर लीं । तो आरव ने मिस्टर शर्मा से कहा । आरव - पापा ...!!! मैंने तब राजवीर की पुलिस में कंप्लेन करने से सभी को मना किया , क्योंकि तब बात सिर्फ बिजनेस की थी । पर अब बात एक लड़की की इज्जत की हैं, और उसकी सेफ्टी की भी... । ( राजवीर से ) क्योंकि मैंने , तुम्हे राजवीर एक बार नहीं बल्कि कई बार वॉर्न किया है । हमेशा तुम्हें कायरा से दूर रहने के लिए कहा है । पर तुमने आज हद पार कर दी , कायरा की किडनेपिंग करने के कोशिश करके ......। वो तो शुक्र है भगवान का , जो सही समय पर मुझे क्लू मिल गए , वरना शायद आज हम कायरा को या तो खो दे......, ( थोड़ी देर रुक कर ) या फिर अभी हम उसे ढूंढ रहे होते । इस लिए पापा मैंने राजवीर की पुलिस कंप्लेन करने के बारे में सोचा है , वो भी एक लड़की के साथ छेड़खानी और बदसलूकी करने के जुर्म में..
. । और दूसरी कायरा की किडनेपिंग की सुपारी देने के जुर्म में । अरनव - मैं तेरी बात से सहमत हूं । हमें राजवीर को जेल भेज देना चाहिए , ताकि कायरा को दोबारा इसकी वजह से ऐसी कोई मुसीबत न झेलनी पड़े । आदित्य, नील, रेहान और राहुल ( एक साथ ) - हम भी आरव की बात से सहमत हैं । सभी की बात सुनकर , मिस्टर शर्मा ने मिस्टर तिवारी की तरफ देखा । पर मिस्टर तिवारी ने , मिस्टर शर्मा से कुछ नहीं कहा और न ही उन्हें कोई रिएक्शन दिया । क्या कहते और क्या करते वे । उनके बेटे ने ऐसी हरकत ही की थी , कि उसके लिए उसे जेल भेजना जरूरी हो गया था । और बात जब लड़की के साथ बदसलूकी की हो , तब तो एक बाप को भी अपने दिल पर पत्थर रखकर अपने बेटे को उसके किए की सजा देनी पड़ती है । वरना उसका बेटा , कल के दिन और लड़कियों के साथ भी ऐसे बिहेव कर सकता है । इस लिए मिस्टर तिवारी ने कुछ नहीं कहां, पर आज उनकी आंखों में गुस्सा और साथ में अपने बेटे के कारनामों की वजह से शर्मिंदगी लगातार बनी हुई थी । मिस्टर शर्मा को जब मिस्टर तिवारी का कोई रिएक्शन नहीं मिला , तो मिस्टर शर्मा ने कायरा की तरफ देखा , जो बस राजवीर को गुस्से से देख रही थी । मिस्टर शर्मा ने सभी से कहा । मिस्टर शर्मा - मैं तुम सभी की बातों से सहमत हूं । पर हम ये कदम नहीं उठा सकते । अरनव ( हैरानी से मिस्टर शर्मा को देखते हुए कहता है ) - पर क्यों पापा ....???? राजवीर ने गलत किया है । एक लड़की के साथ बत्तमीजी करने के अलावा आज उसने एक मासूम लड़की के किडनैप करने की कोशिश भी की है । जो कि अपराध है पापा । और अगर आज आरव समय पर कायरा को बचाने नहीं पहुंचता , तो हम सोच भी नहीं सकते थे , कि आज कायरा के साथ क्या हो जाता । हो सकता था , कि हम जिसकी कल्पना भी न कर पा रहे हों , उस दौर से भी आज कायरा को गुजरना पड़ जाता । इसके बाद भी आप आरव को राजवीर के खिलाफ कंप्लेन करने से रोक रहे हैं ...??? मिस्टर शर्मा ( अरनव से ) - क्योंकि तुम भूल रहे हो अरनव ,राजवीर की बहन तुम्हारी पत्नी है , और उसकी हालत से हम सभी अनजान नहीं है । थोड़ा सा भी स्ट्रेस उसके और तुम्हारे बच्चे के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है । और तुमसे ये बात भी नहीं छुपी है अरनव, कि तुम्हारी पत्नी अपने भाई से कितना प्यार करती है । अब तुम ही बताओ , इस हालत में अगर वो अपने भाई को जेल में देखेगी , तो क्या उसकी स्थिति स्टेबल रहेगी ???? क्या उसे अपने भाई को जेल में देखकर अच्छा लगेगा ...???? ( अरनव मिस्टर शर्मा के तर्क से चुप हो गया । क्योंकि बात तो उन्होंने सही कही थी । मिस्टर शर्मा को जब उसकी तरफ से कोई रिप्लाई नहीं मिला , तो वे कायरा के पास आए और उन्होंने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा ) हमें माफ कर दो बिटिया । हम चाह कर भी तुम्हारे साथ बदसलूकी करने वाले को सजा नहीं दिला पा रहे हैं । क्योंकि हमें हमारी बहू और उसके होने वाले बच्चे की जिंदगी, खुद की जान से भी ज्यादा प्यारी है । हमें माफ कर दो बेटा , हम तुम्हारे साथ गलत कर रहे
हैं , पर हम मजबूर हैं , ऐसा करने के लिए । कायरा ने उनकी बात पर नजरें उठाकर मिस्टर शर्मा को देखा और उनके आपस में जोड़े हुए हाथों को अलग कर उनसे कहा । कायरा - आपको मुझसे माफ़ी मांगने की कोई जरूरत नहीं है सर । आप अपनी जगह सही हैं । घर के सदस्यों से ज्यादा इन्सान के लिए कोई मायने नहीं रखता , ये मुझसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है । इस लिए आप अपने हाथ मुझसे माफी मांगने के किए नहीं , बल्कि मुझे आशीर्वाद देने के लिए उठाइए । आपके द्वारा आशीर्वाद मिलने से , मुझे ज्यादा खुशी होगी । न कि आपके माफी मांगने से .....। आरव ने जब कायरा की बात सुनी , तो वह उसे एक टक देखने लगा । आज उसे कायरा का एक और नया रूप देखने मिला था । जबकि मिस्टर शर्मा ने सुना, तो प्यार से कायरा के सर पर हाथ रख दिया और फिर आरव की तरफ मुड़ कर उससे कहा । मिस्टर शर्मा - राजवीर को जेल भेजना , हमारे लिए खुशी बिटिया की जान को खतरे में डालने के बराबर है । इसके अलावा अगर तुम कुछ और चाहते हो , तो बोलो । राजवीर उसे जरूर करेगा । आरव ( मिस्टर शर्मा की बात पर , बिना राजवीर की ओर देखे बोला ) - ओके पापा .....। अगर आप राजवीर के लिए यही चाहते हैं , तो यही सही । राजवीर को कायरा के सामने, कान पकड़ कर, उसके पैरों में गिरकर, उससे माफी मांगनी होगी । अगर राजवीर ने ऐसा कर दिया , तो मैं राजवीर की सारी गलतियों पर मिट्टी डाल दूंगा और उसे यहां से जाने दूंगा । राजवीर ( अभी भी अकड़कर ) - मैं किसी से भी माफी नहीं मांगूंगा । मिस्टर तिवारी ( गुस्से से ) - राजवीर.....!!!! तुमने जो कायरा के साथ किया है , उसके लिए तुम्हें सिर्फ कायरा से माफी मांगने के लिए अगर कहा जा रहा है , तो ये बहुत बड़ी बात है । अगर मैं इस वक्त आरव की जगह पर होता , तो तुम्हें अपने हाथों
से यहीं पर जिंदा जमीन में दफना देता । इस लिए तुम्हारे लिए इस वक्त सही यही होगा , कि तुम चुप - चाप कायरा से माफी मांगो । राजवीर - सॉरी डैड......। मैंने आपके अलावा आज तक किसी से माफी नहीं मांगी है । इस लिए मैं आज भी किसी से माफी नहीं मांगूंगा । मिस्टर तिवारी ( तेज़ आवाज़ में राजवीर की तरफ बढ़ कर उसपर चिल्लाते हुए कहते हैं ) - राजवीर......!!!! ये कैसी जिद है तुम्हारी ???? गलती की है तुमने , तो माफी भी तो तुम्हें मांगनी ही होगी ना ......। आरव ( मिस्टर तिवारी से ) - काम डाउन अंकल.....। मैं समझाता हूं राजवीर को । ( इतना कहकर आरव राजवीर के पास आता है और उसके कानों में धीरे से उससे कहता है ) सोच लो राजवीर.....!!!!! अभी मैंने सिर्फ कायरा के साथ तुम्हारी की गई सिर्फ कुछ ही हरकतों के बारे में, अंकल को बताया है । अगर उन्हें , तुम्हारे कायरा को अपने साथ ऑडिटोरियम के रूम में ले जाकर , तुमने जो उसके साथ करने की जो कोशिश की थी , उसके बारे में पता चल गया तो ....??? फिर उसके बाद , तुमने कॉलेज फंक्शन के दिन जो कुछ भी कायरा के तुम्हारे प्रपोजल को नकार देने के बाद किया था , अगर वो सब मैंने अंकल को बता दिया तो । और उसके भी बाद , मैंने तुम्हारी हरकतों के लिए फंक्शन वाले दिन तुम्हें जानवरों को तरह जो मारा था और फिर तुमने मुझसे कायरा के बारे में जो कुछ भी कहा था , अगर वो सारी बातें यहां सभी को पता चल गई, तब तो तुम्हें जेल जाने से मेरे पापा भी नहीं रोक पायेंगे । और तो और, मेरी प्यारी भाभी और तुम्हारी इकलौती बहन भी तुम्हें जेल में देखकर बिल्कुल भी परेशान नहीं होगी । राजवीर - ऐसा कुछ नहीं होगा , क्योंकि इसके बारे में बाकी सबको बताएगा कौन...?? आरव ( हल्की सी शातिर मुस्कान के साथ ) - जब मैं तुम्हारे आज के पूरे प्लान को चौपट कर सकता हूं , वो भी सिर्फ हिडेन कैमरे के थ्रू , तब तो फिर मैं ऑडिटोरियम के उस दिन के रूम का सीसीटीवी फुटेज और ऊपर के फिफ्थ फ्लोर के हॉल का सीसीटीवी फुटेज को भी हासिल कर ही सकता हूं । और हो सकता है, कि इस वक्त वो दोनो फुटेज भी मेरे मोबाइल में सेव हों.....। राजवीर ( हैरानी से उसे देखता है और फिर कहता है ) - तुम ऐसा नहीं करोगे .....। आरव - मैं क्या - क्या कर सकता हूं, ये तो तुमने आज देख ही लिया है राजवीर.....। अब अगर अपनी पिछली ज़िन्दगी की सारी पोल - पट्टी अपने पिता , मेरे पिता और अपने जीजा जी के सामने खुलने से रोकना चाहते हो , तो सीधी तरह से कायरा से माफी मांग लो , ठीक उसी तरह जिस तरह मैंने तुमसे, कायरा से माफी मांगने के लिए कहा है । और अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी , तो आगे तुम्हारे साथ जो कुछ भी होगा। उसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ तुम ही होगे .....। राजवीर ने उसकी बात सुनकर गुस्से से अपनी मुट्ठी बंद कर ली । तब ही रेहान ने मिस्टर शर्मा से कहा । रेहान ( गुस्से से राजवीर की तरफ देखते हुए कहता है ) - अंकल......, अगर इस राजवीर ने आज मेरी बहन कायरा से माफी नहीं मांगी ना ,
तो भले ही मैं इसे जेल न भेजूं , पर मैं इसे आज खुद के पैर पर खड़े होने लायक नहीं छोडूंगा ....। राजवीर ( मिस्टर शर्मा के कुछ कहने से पहले ही बोला ) - तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है रेहान.... । ( कायरा के सामने आकर , अपने हाथ जोड़ कर , उसके बाद अपने कान पकड़ कर और कान पकड़े - पकड़े ही कायरा के पैरों में गिरकर राजवीर ने उससे कहा ) सॉरी कायरा....., मैंने जितनी भी आज तक तुम्हारे साथ बत्तमीजियां और गलत व्यवहार किए हैं , उसके लिए मैं तुमसे माफी मांगता हूं.....। इतना कह कर राजवीर सीधा खड़ा हो गया । और इससे पहले कायरा या कोई और उससे कुछ कहता , वह कायरा को एक नज़र नफ़रत भरी निगाहों से देख कर , सीधे कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल गया । सभी उसकी इस हरकत पर , हैरान थे और गुस्से से उसे जाते हुए देख रहे थे । जबकि आरव उसे जाते देखकर फीका मुस्कुरा रहा था, क्योंकि वो जानता था, कि कायरा से माफी मंगवाकर उसने आज राजवीर के ईमान पर , उसके घमंड पर वार किया है। इस लिए उसके इस तरह कायरा से माफी मांगने के बाद , बिना किसी से कुछ कहे हॉल से बाहर चले जाना से , आरव को किसी भी तरह की हैरानी नहीं हुई थी । इधर राजवीर के जाने के बाद , मिस्टर तिवारी कायरा के सामने आए और उन्होंने कायरा के सामने अपने हाथ आपस में जोड़ कर कायरा से कहा । मिस्टर तिवारी - मेरे बेटे ने तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया , उसके लिए मैं शर्मिंदा हूं । मैं उसे तुम्हें माफ करने के लिए तो नहीं कहूंगा , पर हां दोबारा उसकी तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं होगा , इसकी जिम्मेदारी जरूर मैं आज तुम्हारे सामने लेता हूं .....। कायरा ( मिस्टर तिवारी के हाथ नीचे करके , उनसे बोली ) - आपको अपने बेटे के किए गए गुनाहों के लिए, मेरे सामने शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है स
र । और हां ......, आप अपने बेटे की जिम्मेदारी ले या न लें , लेकिन दोबारा मेरे साथ कुछ भी ग़लत करने का मौका, मैं अब राजवीर को कभी नहीं दूंगी...। मिस्टर तिवारी ने उसकी बात पर कुछ नहीं कहा और वे नजरें झुका कर वहां से चले गए । किसी और से कुछ कहने की हिम्मत तो उनमें अब बची ही नहीं थी । क्योंकि राजवीर ने आज उन्हें , उनकी भतीजी के ससुराल वालों के सामने कुछ भी कहने लायक छोड़ा ही नहीं था । उनके जाने के बाद मिस्टर शर्मा ने कहा । मिस्टर शर्मा ( सभी से ) - आरव और अरनव से कुछ अकेले में बात करनी है । इस लिए तुम सब हॉल से बाहर जाओ । जैसे ही सभी ने मिस्टर शर्मा की बात सुनी , सब एक - एक करके हॉल से बाहर निकल गए । हॉल से बाहर निकलते ही कायरा अपने केबिन में आयी और वह अपने केबिन में हिडेन कैमरा ढूढने लगी । उसे आरव पर बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा था , क्योंकि आरव ने उसके केबिन में कैमरा लगे होने की बात , उससे छुपाई थी । और आरव का उससे ये बात छुपाना , कायरा को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था । इधर विनय हॉल से निकलने के बाद , बिना किसी से कुछ कहे सीधे लिफ्ट से नीचे आया और वह सीधा ऑफिस से बाहर निकल गया , क्योंकि अब उसका ऑफिस में कोई काम नहीं था । ऑफिस से बाहर निकलते ही उसने मिशा को कॉल किया और फिर मिशा के कॉल रिसीव करते ही उसने मिशा से कहा । विनय - मैंने सबके सामने वहीं कहा , जो तुमने मुझे कहने के लिए कहा था । मैंने किसी को ये भनक नहीं लगने दी , कि उन चारों पर नज़र रखने के लिए मुझे राजवीर ने नहीं बल्कि तुमने कहा था । और सभी ने मेरी बात मान भी ली । तुमने ठीक ही कहा था , कि मुझे लेने वो लोग जरूर आएंगे । कुछ घंटों पहले, तुम्हारे मुझे कॉल पर ये सारी बात समझाने के बाद , तुम्हारे कॉल कट करते ही , आदित्य और नील मुझे लेने आ गए थे । और वो लोग मुझे , सीधा आरव के ऑफिस लेकर आ गए । मिशा ( फोन की दूसरी तरफ से ) - मैं जानती थी विनय, की कायरा के मिलते ही वो लोग तुम्हें लेने जरूर आएंगे। कायरा भले ही आज मेरे हाथो से बच कर निकल गई हो , पर मैंने आज उसे किडनैप करने का ऐसा प्लान बनाया था , कि इस पूरी जिंदगी में किसी को पता नहीं चलेगा , कि असल में कायरा का किडनैप किसने करवाया था । और वो कायरा और उसके वो दोस्त ....., सबके सब हमेशा राजवीर को इस घटना के लिए दोष देंगे । विनय - लेकिन मिशा......, तुम्हारी वजह से आज मेरे हाथ से अपने दोस्त का साथ छूट गया । राजवीर इसके लिए मुझे कभी माफ नहीं करेगा और वो इस झूठ के लिए मुझे सज़ा भी जरूर देगा । मिशा उसकी बात पर बस हंस दी । तो विनय ने उससे आगे कहा । विनय - देखो मिशा....., तुमने मुझसे जो कुछ भी करने के किए कहा था मैंने कर दिया है । अब तुमने मेरे घर वालों को , जहां कहीं भी गन प्वाइंट पर रखा हो , अपने आदमियों से कह कर उन्हें गन प्वाइंट से हटा दो । क्योंकि मैंने सिर्फ अपने घर वालों की हिफाजत के कारण ही , आज अपने दोस्त को सबके सामने गलत साबित किया है , अगर मेरे घर वालों को कुछ भ
ी हुआ , तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा । मिशा ( फीका मुस्कुराते हुए ) - रिलेक्स विनय .....। मैंने तुम्हें सिर्फ इस लिए ये कहा था, कि तुम्हारे सारे घर वालों के आसपास मेरे आदमी फैले हुए है और वे सभी मेरे आदमियों की गन प्वाइंट पर है..... , ताकि तुम अपने घर वालों की चिंता करके , मेरा ये काम कर दो , जो तुम अभी अंदर करके आए हो । पर सच कहूं विनय , मैंने तो तुम्हारे घर वालों को गन प्वाइंट पर रखा ही नहीं । इनफेक्ट ......., मुझे तो पता तक नहीं है कि तुम्हारे घर वाले असल में हैं कहां.....। विनय ( परेशान होकर , अपने सिर पर हाथ रखकर कहता है ) - इसका मतलब मिशा तुमने मुझसे झूठ कहा और मेरी अपने घर वालों के प्रति चिंता करने का , तुमने फायदा उठाया । ये तुमने ठीक नहीं किया है मिशा ......। मिशा ( अपने हाथों में लगी नेलपेंट को फूंक मारते हुए ) - मैंने बिल्कुल ठीक किया है विनय । आखिर अपने काम के लिए किसी का फायदा उठाना कोई बुरी बात तो नहीं है । पर मेरी एक बात तुम कान खोलकर सुन लो विनय , अगर तुमने इस बारे में किसी से कुछ भी कहा , तो जो चीज़ आज मैंने तुम्हारे घर वालों के साथ नहीं की है , अगली बार वो जरूर कर दूंगी । उसके बाद तुम देख लेना , कि तुम्हें अपने घर वालों की लाशों को ठिकाने लगाना है , या फिर आदर सत्कार के साथ उन सभी का अंतिम संस्कार करना है ....। इतना कह कर मिशा ने कॉल कट कर दिया और अपने दूसरे हाथ में भी नेलपेंट लगाने लगी । जबकि इस तरफ से विनय मिशा , मिशा चिल्लाता रहा और जब उसे आभास हुआ कि काल कट हो चुकी है , तो उसने एक बार फिर अपने सिर पर हाथ रख कर खुद से कहा । विनय - शीट....., शीट ....., शीट......। ये आज मिशा की वजह से क्या कर दिया मैंने .....। राजवीर अब मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा......
। वो ये सब कह ही रहा था , कि तभी उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ और उसने तुरंत पीछे पलट कर देखा , तो उसके सामने आदित्य और रेहान गुस्से से उसे घूरते हुए खड़े थे। विनय ने उन्हें देखकर सकपकाते हुए कहा । विनय - तुम दोनो मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो...???? रेहान ( बिना उसकी बात का जवाब दिए , उससे कहता है ) - कायरा का किडनैप किसने करवाया है ...???? क्या इसके पीछे मिशा का हाथ है ...???? विनय - मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता ....। आदित्य ( रेहान का सवाल रिपीट करके कहता है ) - क्या आज की किडनेपिंग के पीछे , मिशा का हाथ है....????? विनय - मैं इस बारे में न कुछ नहीं जानता .....। इतना कह कर विनय घबरा कर, सड़क की तरफ भागने लगा । पर इससे पहले कि वो सड़क तक पहुंच पाता , उसके पहले ही रेहान उसके सामने आकर खड़ा हो गया । विनय उसे देख कर घबरा गया और उसने रेहान से गिड़गिड़ाते हुए कहा । विनय - देखो...., तुम दोनो मुझे जाने दो । मैं इस मैटर के बारे में कुछ नहीं जानता । प्लीज मुझे जाने दो .....। आदित्य ( पीछे से उसकी गर्दन पकड़ कर कहता है ) - तू अभी मिशा से , कायरा की किडनेपिंग के बारे में बात कर रहा था और अब कह रहा है कि तू कुछ नहीं जानता । रेहान - आदि......, इससे यहां कुछ भी पूछना , सेफ नहीं है । इसे अंदर लेकर चल , वहीं इससे पूछते है , कि सच क्या है । रेहान की बात सुनते ही आदित्य ने विनय को एक तरफ से पकड़ा और दूसरी तरफ से उसे रेहान ने पकड़ा और दोनों उसे लेकर , ऑफिस बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर में बने स्टोर रूम में लेकर आए और आदित्य ने स्टोर रूम मे पहुंचते ही, अंदर की तरफ से डोर लॉक कर दिया । डोर लॉक होते ही रेहान ने विनय को वहां पर रखी फाइलों पर पटका, जिससे विनय फर्श पर गिर गया। उसके गिरते ही रेहान ने जोर से एक लात उसके पीठ पर मारते हुए , उससे कहा । रेहान - तू हमें कुछ नहीं बताएगा । सारा कर्म कांड करने के बाद , तू सबके सामने झूठ बोलकर आया है और उसके बाद तूने मिशा से बात भी की और यहां का सरा ब्योरा भी उसे बताया । उसके बाद भी तू हमसे कह रहा है, कि तुझे कुछ नहीं पता । सच क्या है विनय , ये तू हमें अभी के अभी बता दे । वरना आज तेरा मैं बहुत बुरा हाल करूंगा । विनय ( कराहते हुए ) - मैं तुम लोगों को कुछ नहीं बता सकता रेहान । वरना मिशा मेरे परिवार वालों को मौत के घाट उतार देगी ....। आदित्य ( उसे कॉलर से पकड़ कर खड़े करने के बाद , उसके पेट में घूंसा मारते हुए कहता है ) - तू हमसे झूठ बोल रहा है विनय......। मिशा तो तेरे परिवार वालों को जानती तक नहीं है । तू हमें जान बूझकर अपनी बातों में उलझाने कि अगर कोशिश कर रहा है ना , तो तेरे लिए ये तेरी हरकत तुझे बहुत मंहगी पड़ेगी । बहुत बड़ा खामियाजा चुकाना होगा तुझे , हमें बेवकूफ बनाने के बदले में .....। आदित्य के मारने से विनय के मुंह से खून निकलने लगा था । उसने अपने होठों के नीचे से खून पोंछा और दोनों से एक बार फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला । विनय - मेर
ी बात का यकीन करो तुम दोनों । मिशा मेरे परिवार को जानती भी है और उसने मुझे धमकी भी दी है , कि अगर मैंने ये सच किसी को भी बताया , तो वो मेरे पूरे परिवार को मरवा देगी । विनय की बात सुनकर रेहान और आदित्य सोच में पड़ गए । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था , कि मिशा ऐसा कुछ भी कर सकती है । उन्होंने एक नजर एक दूसरे को देखा , फिर आदित्य ने वहीं पर रखी लड़की की एक चेयर वहां पड़े कपड़े से साफ की और उसमें विनय को बैठाया । और फिर रेहान विनय बोला । रेहान - देखो विनय ....!!!! तुम्हारे परिवार को कुछ नहीं होगा , इसकी गारंटी हम लेते हैं । बस तुम हमें सच - सच बताओ । कि आज कायरा के साथ जो कुछ भी हुआ , क्या उसके पीछे मिशा का हाथ है । रेहान की बात सुनकर , विनय को थोड़ी सी हिम्मत मिली । फिर उसने मॉल में मिशा से बात करने से लेकर , अभी कुछ देर पहले जो भी बात उसकी मिशा से हुई, वो सब उन दोनों को बता दिया । मिशा की सच्चाई जानकर रेहान और आदित्य दोनों को शॉक लगा । आदित्य ने रेहान कि तरफ देखते हुए कहा । आदित्य - मिशा इस हद तक गिर सकती है , कि वो आरव को पाने के कोई कायरा का किडनैप करवाएगी , ये तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था रेहान । रेहान - तू सही कह रहा है आदि .....। कायरा के लिए मिशा की नफ़रत , आज उससे ये सब करवा रही है । मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा , कि मैं इस बात पर कैसे रिएक्ट करूं....। क्या हम ये बात आरव और बाकी सारे दोस्तों को भी बता दे । ताकि हम सब मिलकर मिशा को सबक सिखा सकें.....। आदित्य - नहीं रेहान.....। तू आरव को जानता है , वो अपने किसी भी दोस्त से मिला हुआ धोखा बर्दास्त नहीं कर सकता । और अगर उसे ये बात पता चली , कि कायरा का किडनैप मिशा ने करवाया है , तो आरव मिशा को किसी भी हाल में नहीं छोड़ेगा
। वो उसकी जान ले लेगा रेहान .....। जो कि आरव और उसके कैरियर के लिए हार्म फुल है । रेहान - तू ठीक कह रहा है आदि । आरव को कायरा के आगे कुछ नहीं दिखता । तूने देखा था न , फंक्शन वाले दिन आरव ने राजवीर की मार - मार कर क्या हालत कर दी थी । पर हम आरव की लाइफ के साथ इतना बड़ा रिस्क नहीं ले सकते । और अभी हमारे पास, मिशा के खिलाफ कोई सबूत भी नहीं है । विनय की बात कोई मानेगा नहीं , क्योंकि इसने खुद राजवीर को हम सबके सामने गलत ठहराया है और अगर ये दोबारा राजवीर के पक्ष में कुछ बोलेगा , तो कोई भी इसकी बात पर ट्रस्ट नहीं करेगा । आदित्य - इस लिए जब तक हमारे पास मिशा के खिलाफ कोई सॉलिड प्रूफ नहीं आ जाता , तब तक हमें आरव और कायरा के अलावा बाकी सब से भी ये बात छुपा कर रखनी होगी । रेहान ने उसकी बात पर हामी भरी । और फिर आदित्य फर्स्ट एड बॉक्स ले आया और दोनों ने विनय की ड्रेसिंग की और उसे सड़क तक छोड़ कर ,टैक्सी में बैठाकर उसे उसके घर के लिए रवाना किया । विनय को अब अपने परिवार की और चिंता होने लगी, कि कहीं मिशा को ये पता चला कि विनय ने आदित्य और रेहान को सब कुछ बता दिया है , तो मिशा गुस्से में आकर कहीं , सच मे उसके परिवार को हार्म न कर दे । पर टैक्सी में बैठाते समय रेहान और आदित्य ने उसे उसके परिवार की सुरक्षा का ध्यान रखने का वादा किया था । इस लिए विनय उनके वादे को याद कर थोड़ा सा ठीक महसूस कर रहा था........।
अगोचर तथा अशक्त रहती है या वंध्य आलोचक या शुष्क यंत्रवित् । इनका पर्याप्त सामंजस्य तथा ठीक समन्वय हमारे मनोविज्ञान और हमारे व्यवहारकी एक महान् समस्या है । समन्वय करनेवाली शक्ति परे, अंतर्ज्ञानमें निहित है। परंतु एक अंतर्ज्ञान तो वह है जो बुद्धिकी सेवा करता है और एक वह जो हृदय तथा प्राणकी सेवा करता है । यदि हम इनमें से किसी एकका ही अनन्य भावसे अनुसरण करें तो हम पहलेकी अपेक्षा अधिक दूर नहीं पहुँचेंगे; केवल इतना ही होगा कि जो चीजें अन्य अल्पदृष्टि शक्तियोंका लक्ष्य हैं वे हमारे लिये पृथक्-पृथक्, किंतु अधिक अंतरंग रूपमें, वास्तविक हो जायेंगी । किंतु यह तथ्य कि यह हमारी सत्ताके सभी भागोंकी समान रूपसे सहायता कर सकता है, क्योंकि शरीरके भी अपने अंतर्ज्ञान होते हैं, -बतलाता है कि अंतर्ज्ञान एकांगी नहीं, बल्कि सर्वांगीण सत्यान्वेषी है। हमें अपनी संपूर्ण सत्ताके अंतर्ज्ञानके सामने अपनी जिज्ञासा रखनी है, न कि केवल सत्ताके प्रत्येक भागके सामने पृथक्-पृथक्, न ही इनकी उपलब्धियोंके कुल जोड़के सामने, बल्कि इन सब निम्नतर यंत्रोंसे परे, यहाँतक कि इनके प्रथम आध्यात्मिक प्रतिरूपोंसे भी परे । इसके लिये हमें अंतर्ज्ञानके निज गृहमें आरोहण करना होगा जो अनंत तथा असीम सत्यका निज गृह है, 'ऋतस्य स्वे दमे', जहाँ सत्तामात्र अपनी एकता उपलब्ध कर लेती है। यही आशय था प्राचीन वेदका जब कि उसने घोषणा की थी, "सत्यसे ढका हुआ एक ध्रुव सत्य है ( सनातन सत्य जो इस दूसरे सत्यसे छुपा हुआ है जिसकी हमें यहाँ ये निम्नतर स्फुरणाएँ होती हैं ) ; वहाँ प्रकाशकी दशशत किरणें एक साथ स्थित हैं; वह है एक ।" 'ऋतेन ऋतम् अपिहितं. दश शता सह तस्युः, तद् एकम् " आध्यात्मिक अंतर्ज्ञान सदा सत्यको ही पकड़ता है; यह आध्यात्मिक उपलब्धिका ज्योति दूत है या इसे उद्भासित करनेवाला प्रकाश; यह उसे प्रत्यक्ष देखता है जिसे हमारी सत्ताकी अन्य शक्तियाँ खोजनेका प्रयास कर रही हैं; यह बुद्धिके अमूर्त प्रतिरूपों तथा हृदय और प्राणके दृश्य प्रतिरूपोंके ध्रुव सत्यपर पहुँचता है, ऐसे सत्यपर जो स्वयं न तो दूरतः अमूर्त्त है न ही बाह्यतः मूर्त्त, बल्कि इनसे भिन्न कोई ऐसी चीज है जिसके लिये ये केवल हमारे प्रति इसकी मानसिक अभिव्यक्तिके दो पक्षमात्र हैं । जब हमारी अखंड सत्ताके अंग आपसमें पहले की तरह विवाद नहीं करते, बल्कि ऊपरसे प्रकाश पाते हैं तब इसका अंतर्ज्ञान जो कुछ देखता है वह यही है कि हमारी संपूर्ण सत्ताका लक्ष्य एक ही सद्वस्तु है । निर्गुण एक सत्य है, सगुण भी एक सत्य है । वे एक ही सत्य हैं जो हमारी मानसिक क्रियाकी दो दिशाओंसे देखा गया है । उनमें से कोई भी अकेला सद्वस्तुका पूर्ण विवरण नहीं देता । तो भी प्रत्येकसे हम उसके पास पहुँच सकते हैं। । एक दिशासे देखनेपर ऐसा लगेगा कि कोई निर्वैयक्तिक विचार कार्यमें तत्पर है और उसने अपने कामकी सुविधा के लिये विचारककी कल्पनाको जन्म दिया है, कोई निर्वैयक्तिक शक्ति कार्यरत है और वह कर्ताकी कल्पनाको जन्म देती है,
कोई निर्वैयक्तिक सत्ता क्रिया में प्रवृत्त है, और वह एक ऐसी वैयक्तिक सत्ताकी कल्पनाको प्रयोगमें लाती है जो चेतन व्यक्तित्व तथा वैयक्तिक आनंदको धारण करती है। दूसरी दिशासे देखनेपर, यह विचारक ही है जो अपने-आपको विचारमें प्रकट करता है, जिसके बिना विचारका अस्तित्व संभव ही न होता और विचारसंबंधी हमारी सामान्य कल्पना केवल विचारकके स्वभावकी शक्तिको संकेतित करती है; ईश्वर अपनेको संकल्प, बल तथा सामर्थ्यके द्वारा व्यक्त करता है, सत् अपनी सत्ता, चेतना तथा आनंदके सर्वांगीण तथा आंशिक, प्रत्यक्ष, विलोम तथा प्रतिलोम -- सभी रूपोंके द्वारा अपनेको विस्तारित करता है, इन चीजोंके विषययें हमारा सामान्य अमूर्त विचार उसकी सत्ताकी प्रकृतिको त्रिविध शक्तिका बौद्धिक प्रतिरूपमात्र है । समस्त निर्वैयक्तिकता क्रमशः कल्पनाका रूप धरती दिखायी देती है और सत्ता अपने क्षण-क्षणमें तथा कण-कणमें एक और फिर भी असंख्यरूप व्यक्तित्व, अनंत देवाधिदेव, आत्म-चेतन तथा आत्म-प्रकाशक पुरुषके जीवन, चैतन्य, बल, आनंदके सिवा कुछ नहीं प्रतीत होती । दोनों दृष्टियाँ ठीक हैं, इसके सिवा कि कल्पनाके विचारको, जो हमारी अपनी बौद्धिक प्रक्रियाओंसे उधार लिया गया है, बाहर निकालना और प्रत्येकको उसका उपयुक्त बल देना आवश्यक है । । पूर्णयोगके जिज्ञासुको इस प्रकाश में देखना होगा कि वह दोनों दिशाओंमें उसी एक और अभिन्न सद्वस्तुपर पहुँच सकता है, बारी-बारीसे या एक साथ, मानों वह दो संबद्ध पहियोंपर सवारी कर रहा हो जो पहिये समानांतर पटरियोंपर घूम रहे हैं, पर वे समानांतर पटरियाँ बौद्धिक तर्कको नीचा दिखाकर तथा एकताके अपने भीतरी सत्यके अनुसार अनंततामें पहुँचकर अवश्य मिल जाती हैं । भागवत व्यक्तित्वको हमें इसी दृष्टिकोणसे देखना है । जब हम व्यक्तित्वकी चर्चा क
रते हैं तो पहले-पहल इससे हमारा मतलब किसी सीमित, वाह्य, भेदकारक वस्तुसे होता है, और वैयक्तिक ईश्वरके विषयमें हमारा विचार भी उसी अपूर्ण स्वरूपको धारण करता है। प्रारंभ में हमारा व्यक्तित्व हमारे लिये एक पृथक् प्राणी, सीमित मन, शरीर तथा स्वभाव. होता है जिसे हम यूं समझते हैं कि यह हमारा निज स्वरूप है, यह एक निश्चित परिमाणवाला होता है; चाहे असलमें यह सदा बदल रहा है, तो भी इसमें स्थिरताका पर्याप्त अंश होता है जिससे हम निश्चित परिमाणताके इस विचारका एक प्रकारका क्रियात्मक समर्थन कर सकते हैं। ईश्वरके विषयमें हम कल्पना करते हैं कि वह एक ऐसा ही व्यक्ति है, हाँ उसके शरीर नहीं है, वह अन्य सबसे भिन्न एक पृथक् व्यक्ति है जिसका मन और स्वभाव कुछ विशेष गुणोंसे मर्यादित है । पहले-पहल हमारे असंस्कृत विचारोंमें यह देवता अत्यंत अस्थिर, चंचल और तरंगी होता है, हमारे मानवीय स्वभावका एक बड़ा संस्करण । परंतु बादमें हम व्यक्तित्वके दिव्य स्वरूपको सर्वथा निश्चित मर्यादाकी वस्तु समझते हैं और इसमें हम केवल उन्हीं गुणोंको आरोपित करते हैं जिन्हें हम दिव्य एवं आदर्श मानते हैं, जब कि और सभीको हम बहिष्कृत कर देते हैं । यह मर्यादा हमें बाध्य करती है कि हम शेष सब गुणोंकी व्याख्या करनेके लिये उन्हें शैतानपर आरोपित कर दें, या जिसे हम बुरा मानते हैं उस सबको पैदा करनेकी ' मौलिक सामर्थ्य मनुष्यमें स्वीकार करें, या फिर, जब हम देखें कि इससे पूरी तरह काम नहीं चलेगा तो एक ऐसी शक्ति खड़ी कर दें जिसे हम प्रकृति कहते हैं और उसपर उस समस्त निम्न गुण तथा कार्य-कलापको आरोपित कर दें जिसके लिये हम भगवान्को उत्तरदायी नहीं बनाना चाहते । इससे ऊँचे शिखरपर ईश्वरमें मन और स्वभावका आरोप कम मानवीय हो जाता है और हम उसे अनंत आत्मा, किंतु अभी भी एक पृथक् व्यक्ति मानते हैं, एक ऐसी आत्मा जिसमें उसके विशेष धर्म-रूप कुछ निश्चित दिव्य गुण हैं । भागवत व्यक्तित्व या सगुण- ईश्वरसंबंधी विचार इसी प्रकार कल्पित किये जाते हैं और ये नाना धर्मोमें इतने विभिन्न प्रकारके होते हैं । यह सब प्रथम दृष्टिमें आदिम मानवगुणारोपवाद प्रतीत हो सकता है जिसके अंतमें ईश्वर - विषयक एक वौद्धिक विचार जन्म लेता है । जगत् जैसा हमें दीखता है, उसकी यथार्थताओंसे वह विचार अतीव भिन्न है । इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि दार्शनिक तथा संदेहशील मनको इस सबका बौद्धिक तौरपर उन्मूलन करनेमें कुछ भी कठिनाई न हुई हो, चाहे वह उन्मूलन सगुण ईश्वरके निषेध और निर्गुण शक्ति या संभूतिकी स्थापनाकी दिशामें हो या निर्गुण सत्की या सत्ताके अनिर्वचनीय निषेधकी दिशामें, जब कि शेष सबको मायाके प्रतीक या कालचेतनाके नामरूपात्मक सत्यमात्र समझा जाता है। परंतु ये एकेश्वरवादके व्यक्तित्वारोपणमान हैं । अनेकेश्वरवादी धर्म विश्व - जीवनके प्रति अपने प्रत्युत्तरमें शायद इससे कम ऊँचे, पर अधिक विशाल तथा अधिक संवेदनशील रहे हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि संसारकी सभी वस्तुओंका मूल उद्गम दिव्य है; अतएव उन्होंने
अनेक दिव्य व्यक्तित्वों ( देवताओं ) की सत्ताकी कल्पना की जिनके पीछे उन्होंने अनिर्देश्य भगवान्का धुँधला आभास पाया । सगुण देवोंके साथ इस भगवान्के संबंधोंकी उन्हें कोई सुस्पष्ट धारणा नहीं थी । अपने अधिक प्रकट आकारोंमें ये देवता असंस्कृत तौरपर मानवीय थे; पर जहाँ आध्यात्मिक वस्तुओंका आंतरिक अर्थ अधिक स्पष्ट हुआ, नाना देवोंने एकमेव भगवान्के व्यक्तित्वोंका रूप धारण कर लिया, - प्राचीन वेदका घोषित दृष्टिकोण यही है । यह भगवान् एक परम पुरुष हो सकता है जो अपनेको अनेक दिव्य व्यक्तित्वोंमें प्रकट करता है या यह एक निर्गुण सत्ता हो सकता है जो मानव मनको इन रूपोंमें दृष्टिगोचर होती है; अथवा इन दोनों विचारोंमें समन्वयका कोई बौद्धिक प्रयत्न किये बिना इन्हें एक साथ माना जा सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक अनुभवको दोनों ही सत्य जान पड़ते थे । यदि हम बुद्धिके विवेकद्वारा दिव्य-व्यक्तित्वसंबंधी इन विचारोंकी परीक्षा करें तो अपनी रुचिके अनुसार हम इन्हें यह रूप देनेमें प्रवृत्त होंगे कि ये कल्पनाके आविष्कार या मनोवैज्ञानिक प्रतीक हैं, कम-से-कम ये किसी ऐसी चीजके प्रति हमारे संवेदनशील व्यक्तित्वका प्रत्युत्तर हैं जो व्यक्ति रूप विलकुल नहीं है, बल्कि शुद्ध निर्गुण है। हम कह सकते हैं कि वह (तत्) वास्तवमें हमारी मानवता तथा हमारे व्यक्तित्वके ठीक विपरीत है और इसलिये उसके साथ सब प्रकारके संबंध जोड़नेके लिये हमें इन मानवी कल्पनाओं तथा इन वैयक्तिक प्रतीकोंकी स्थापनाके लिये बाध्य होना पड़ता है जिससे कि वह हमारे अधिक समीपवर्ती हो जाय । परंतु हमें आध्यात्मिक आध्यात्मिक अनुभवके द्वारा निर्णय करना होगा, और समग्र आध्यात्मिक अनुभवमें हम पायेंगे कि ये चीजें कल्पनाएँ और प्रतीक नहीं, बल्कि अपने सारमें दिव्य सत्ताके सत्य हैं
, चाहे हमारे द्वारा रचित उनके प्रतिरूप कैसे भी अपूर्ण क्यों न हों। यहांतक कि अपने व्यक्तित्वके विषय में हमारा प्रथम विचार भी नितांत अशुद्ध नहीं, बल्कि अनेक मानसिक भूलोंसे घिरा हुआ अधकचरा तथा उथला विचार है । महत्तर आत्मज्ञानसे हमें पता चलता है कि, प्रारंभमें हम जैसे प्रतीत होते हैं उसके विपरीत, हम मूलतः रूप, वलों, गुणों, धर्मोकी एक ऐसी विशेष रचना नहीं हैं जिसमें एक चेतन अहं है जो अपनेको इनसे एकाकार कर लेता है । यह तो हमारी सक्रिय चेतनाके तलपर हमारी आंशिक सत्ताका अस्थायी तथ्यमात्र है, पर है यह एक तथ्य हो । अंदर हम देखते हैं कि एक अनंत सत्ता है जिसमें सब गुण, अनंत गुण, बीजरूपसे निहित हैं । वे गुण असंख्य संभव रूपोंमें मिलाये जा सकते हैं, प्रत्येक मिश्रण हमारी सत्ताका एक प्राकट्य होता है। यह सर्वविध व्यक्तित्व परम पुरुषकी, अर्थात् अपनी अभिव्यक्तिसे सचेतन पुरुषकी आत्म-अभिव्यक्ति है । परंतु हम यह भी देखते हैं कि यह पुरुष अनंत गुणोंसे गठित भी नहीं प्रतीत होता, वरन् उसकी इस अवस्थाका सत्य स्वरूप गहन है । इस अवस्था में वह अनंत गुणसे पीछे हटकर अनिर्देश्य चेतन सत्ताका रूप धारण करता प्रतीत होता है । यहांतक लगता है कि वह चेतनाको भी पीछे हटा लेता है और तब केवल कालातीत शुद्ध सत्ता ही शेष रह जाती है। फिर, एक विशेष शिखरपर ऐसा दीखता है कि हमारी सत्ताकी यह शुद्ध आत्मा भी अपनी वास्तविकताका निषेध कर रही है, या यह एक ऐसे अनात्म अनाधार * अज्ञेयका प्रस्तारमात है जिसे हम अनाम 'कुछ' या शून्य कल्पित कर सकते हैं । जब हम एकमात्र इसीपर दृष्टि गड़ाकर वह सब कुछ भूल जाते हैं जो इसने अपने अंदर पीछेकी ओर हटा लिया है तभी हम शुद्ध निर्गुणता या रिक्त शून्यको सर्वोच्च सत्य कहते हैं । परंतु अधिक सर्वांगीण दृष्टि हमें बताती है कि जिसने अपनेको इस प्रकार ऊपर अव्यक्त कूटस्थमें हटा लिया है वह है परम पुरुष तथा व्यक्तित्व और वह सब जो इसने व्यक्त किया था । यदि हम अपने हृदय तथा तार्किक मनको सर्वोच्चकी ओर उठा ले जायँ तो हमें पता लगेगा कि इसे हम चरम पुरुष तथा चरम निर्गुण सत्ता दोनोंके द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । परंतु यह सव आत्मज्ञान विश्वमय भगवान्के सजातीय सत्यका हमारे भीतर प्रतिरूपमात्र है। वहाँ भी हम दिव्य व्यक्तित्वके अनेक रूपोंमें उसका साक्षात् करते हैं; गुणकी रचनाओंमें जो उसे उसकी प्रकृतिमें हमारे सामने नाना प्रकारसे प्रकट करती हैं; अनंत गुणमें; दिव्य व्यक्तिमें जो अपनेको अनंत गुणद्वारा प्रकट करता है; चरम निर्वैयक्तिकता, चरम सत्ता या चरम अ-सत्तामें जो सदैव इस दिव्य व्यक्ति, इस चिन्मय पुरुषकी अव्यक्त केवलता है। यह पुरुष हमारे द्वारा तथा विश्वके द्वारा अपने आपको प्रकट करता है । इस वैश्व स्तरपर भी हम निरंतर इन दोनों पक्षोंमें भगवान्के पास पहुँच रहे हैं। हम यों विचार एवं अनुभव कर सकते तथा कह सकते अनात्म्यम् अनिलयनम् तैत्तिरीय उपनिषद् कि ईश्वर सत्य, न्याय, पवित्रता, बल, प्रेम, आनंद, सौंदर्य हैं; हम उसे विश
्व-शक्ति या विश्व-चेतनाके रूपमें भी देख सकते हैं। परंतु यह तो केवल अनुभवका अमूर्त्त ढंग है । जैसे हम स्वयं कुछ एक गुण या शक्तियाँ या मनोवैज्ञानिक राशिमात्र नहीं हैं, बल्कि एक पुरुष या व्यक्ति हैं जो अपनी प्रकृतिको इस प्रकार प्रकट करता है, वैसे भगवान् भी एक व्यक्ति, चिन्मय पुरुष है जो अपनी प्रकृतिको हमारे सामने इस प्रकार प्रकट करता है। इस प्रकृतिके भिन्न-भिन्न रूपोंद्वारा, सत्यस्वरूप ईश्वर प्रेम एवं दयामय ईश्वर, शांति एवं पवित्रताका आगार ईश्वर - - इन सब रूपोंद्वारा हम उसकी उपासना कर सकते हैं। परंतु प्रत्यक्ष है कि दिव्य प्रकृतिमें और भी हैं चीजें हैं जो हमने व्यक्तित्वके उस रूपके बाहर रख छोड़ी हैं जिसमें हम इस प्रकार उसकी पूजा कर रहे हैं । रहे हैं । अविचल आध्यात्मिक दृष्टि और अनुभूतिके साहससे संपन्न मनुष्य अधिक कठोर या भीषण रूपोंमें भी उसका साक्षात्कार कर सकता है। इनमें से कोई भी संपूर्ण देवत्व नहीं है; तो भी उसके व्यक्तित्वके ये रूप उसके वास्तविक सत्य हैं जिनमें वह हमसे मिलता तथा व्यवहार करता प्रतीत होता है, मानो शेष सव उसने अपने पीछे कहीं रख छोड़े हों । वह पृथक्-पृथक् हर एक रूप है और एक साथ सब कुछ है । वह विष्णु, कृष्ण, काली है; वह अपने आपको ईसाके व्यक्तित्व या बुद्धके व्यक्तित्वके मानवी रूप में हमारे सामने प्रकाशित करता है । जब हम अपनी प्राथमिक, एकांगी रूपसे केंद्रित दृष्टिके परे देखते हैं तो हम विष्णुके पीछे शिवका संपूर्ण व्यक्तित्व तथा शिवके पीछे विष्णुका संपूर्ण व्यक्तित्व देखते हैं । वह अनंतगुण है तथा अनंत दिव्य व्यक्तित्व है जो अपनेको इसके द्वारा प्रकट करता है । और फिर, ऐसा प्रतीत होता कि वह शुद्ध आध्यात्मिक निर्गुणतामें या निर्गुण आत्माके विचारमातसे भी परे लौट जाता है
और आध्यात्मीकृत निरीश्वरवाद या अज्ञेयवादको समर्थन करता है; वह मनुष्यके मनके लिये अनिर्देश्य वन जाता है। परंतु इस अज्ञेयमें से चिन्मय पुरुष, दिव्य व्यक्ति, जिसने अपनेको यहाँ प्रकट किया हुआ है, फिर भी पुकारकरं कहता है, "यह भी मैं हूँ; मनके विचारसे परे यहाँ भी मैं वही हूँ, पुरुषोत्तम रूपमें वही हूँ ।" बुद्धिके विभागों और विरोधोंसे परे एक और प्रकाश है और वहाँ सत्यकी दृष्टि अपनेको प्रकट करती है जिसे हम वौद्धिक तौरपर इस प्रकार अपने प्रति व्यक्त करनेका यत्न कर सकते हैं । वहाँ इन सव सत्योंका वस एक ही सत्य है, क्योंकि वहाँ प्रत्येक सत्य विद्यमान है और शेष सबमें न्याय संगत ठहरता है । इस प्रकाशमें हमारा आध्यात्मिक अनुभव एकीभूत तथा सर्वागसमन्वित हो जाता है; बालभर भी वास्तविक अंतर बाकी नहीं रहता, निर्गुणकी खोज तथा दिव्य व्यक्तित्वकी उपासनामें, ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्गमें ऊँच-नीचका लवलेश भी शेष नहीं रहता । अब हम हम देख चुके हैं कि भक्तिमार्गका स्वरूप क्या है और विशालतम तथा पूर्णतम ज्ञानके लिये इसका क्या औचित्य है । यह समझ सकते हैं कि पूर्णयोगमें इसका रूप और स्थान क्या होगा । योग, सारतः, आत्माका भगवान्की अमर सत्ता, चेतना और आनंदके साथ मिलन है। यह मिलन मानव प्रकृतिके द्वारा साधित होता है और इसके फलस्वरूप हमारी प्रकृति सत्ताकी दिव्य प्रकृतिमें विकसित हो जाती है; वह दिव्य प्रकृति चाहे जो भी हो, पर जहाँतक हम उसे विचारमें ला सकते हैं तथा आध्यात्मिक कर्ममें चरितार्थ कर सकते हैं वहाँतक हम वही बन जाते हैं । भगवान्का जो भी स्वरूप हम देखते हैं और उसकी प्राप्तिके लिये एकचित्त होकर प्रयत्न करते हैं, वही हम बन सकते हैं या उसके साथ एक प्रकारके एकत्वमें अभिवद्धित या कम-से-कम उसके साथ एकतान, एकस्वर हो सकते हैं । यही बात एक प्राचीन उपनिषद्ने अपनी अत्युच्च भाषामें मार्मिक ढंगसे यूं कही है, "जो कोई उसे सत्के रूपमें देखता है वह वहीं सत् वन जाता है और जो कोई उसे असतके रूपमें देखता है वह वही असत् बन जाता है"; भगवान्के और भी जो-जो स्वरूप हम देखते हैं उन सबके संबंध में भी यही बात लागू होती है, - हम कह सकते हैं कि यह देवाधिदेव - विषयक एक ऐसा सत्य है जो एक साथ पारमार्थिक भी है और व्यावहारिक भी । वह देवाधिदेव एक ऐसा तत्त्व है जो हमसे परे होता हुआ भी वास्तवमें पहलेसे ही हमारे अंदर है, पर जो हम अपनी मानवीय सत्तामें अभीतक नहीं हैं या केवल आरंभिक रूपमें ही हैं; तथापि उसका जो कुछ भी अंश हम देखते हैं, उसे हम अपनी सचेतन प्रकृति तथा सत्तामें निर्मित्त या प्रकाशित कर सकते हैं और इसके साथ ही हम उसमें विकसित भी हो सकते हैं । इस प्रकार देवाधिदेवको अपने अंदर व्यक्तिशः निर्मित या प्रकाशित करना तथा उसकी विश्वमयता और परात्परतामें विकसित होना ही हमारा आध्यात्मिक भविष्य है । अथवा यदि यह हमारी प्रकृतिकी दुर्बलताके लिये अतीव ऊँचा प्रतीत हो, तो कम-से-कम, इसके पास पहुँचना, इसका चिंतन करना, इसके भगवानका आनन्द साथ स्थि
र अंतर्मिलन लाभ करना हमारी निकट तथा संभावित पूर्णता है । जिस समन्वयात्मक या सर्वागीण योगपर हम विचार कर रहे हैं उसका लक्ष्य है - अपनी मानव प्रकृतिके अंग-प्रत्यंग द्वारा भगवान्की सत्ता, चेतना और आनंदसे मिलन, भले ही यह मिलन हम एक-एक अंग द्वारा पृथक्पृथक् प्राप्त करें या सबके द्वारा एक साथ, परंतु अंततोगत्वा हमें सबको समन्वित और एकीभूत करना होगा जिससे संपूर्ण प्रकृति सत्ताकी दिव्य प्रकृतिमें रूपांतरित हो जाय । सर्वांगीण द्रष्टा इससे कम किसी चीजसे संतुष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जो वह देखता है वह अवश्य वही चीज है जिसे वह आत्मिक रूपमें अधिगत करने और यथासंभव वही बन जानेका प्रयत्न करता है । अपने अंदरके ज्ञातासे ही नहीं, अपनी संकल्प-शक्तिसे ही नहीं, अपने हृदयसे ही नहीं, बल्कि इन सभीके द्वारा समान रूपमें और साथ ही अपने अंदरकी संपूर्ण मानसिक तथा प्राणिक सत्तासे वह देवाधिदेवकी अभीप्सा करता है और इनकी प्रकृतिको इसके दिव्य प्रतिरूपों में परिवर्तित करनेका उद्योग करता है । ईश्वर अपनी सत्ताके अनेक भावोंमें हमसे मिलते हैं और उन सबमें वे हमें तब भी अपनी ओर आकृष्ट करते हैं जब वे हमसे आँख बचाकर भागते प्रतीत होते हैं, - दिव्य संभावनाको देखना और इसकी विघ्न-बाधाओंके क्षेत्रपर विजय पाना ही मानव जीवनका संपूर्ण मर्म तथा माहात्म्य है, - अतएव इनमें से प्रत्येक भावकी पराकाष्ठामें या इन सबके मिलनमें, यदि हम इनके एकत्वकी कुंजी ढूंढ़ सकें तो, हम उन्हें खोजने, पाने और अधिकृत करनेकी अभीप्सा करेंगे क्योंकि वे निर्वैयक्तिकतामें लौट जाते हैं, हम उनकी निर्वैयक्तिक सत्ता और आनंदका अनुसरण करते हैं, पर, क्योंकि वे हमारी वैयक्तिकतामें तथा मानवके साथ भगवान्के वैयक्तिक संबंधों द्वारा भी हमसे मिलते हैं उससे भी हम अपनेको
वंचित नहीं करेंगे; प्रेम तथा आनंदकी क्रीड़ा और इसका अनिर्वचनीय मिलन - - दोनोंको हम ग्रहण करेंगे । ज्ञानद्वारा हम भगवान्से उनकी सचेतन सत्तामें एकता प्राप्त करना चाहते हैं; कर्मोके द्वारा भी हम भगवान् से उनकी सचेतन सत्तामें एकता प्राप्त करना चाहते हैं; स्थितिशील रूपमें नहीं, बल्कि गतिशील रूपमें, भागवत संकल्पशक्तिके साथ सचेतन एकत्वके द्वारा; परंतु प्रेमके द्वारा तो हम उनकी सत्ताके संपूर्ण आनंदमें उनके साथ एकत्व लाभ करना चाहते हैं । इसी कारण प्रेम-मार्ग अपनी कुछ प्रारंभिक गतियोंमें, वह चाहे कैसा भी संकुचित क्यों न प्रतीत हो, अंतमें योगके अन्य किसी भी हेतु की अपेक्षा अधिक आवश्यक रूपमें सर्व-आलिंगी है । ज्ञानका मार्ग अनायास योग समन्वय निर्वैयक्तिक और निरपेक्षकी ओर झुक जाता है, यह सहज ही एकांगी बन सकता है । यह ठीक है कि इसके लिये ऐसा करना आवश्यक नहीं; क्योंकि भगवान्की सचेतन सत्ता जैसे परात्पर और निरपेक्ष है वैसे ही विश्वगत तथा व्यक्तिगत भी, अतएव यहाँ भी हमारी प्रवृत्ति एकताकी सर्वांगपूर्ण उपलब्धिकी ओर हो सकती है और होनी भी चाहिये, इससे हम मनुष्यगत ईश्वर तथा विश्वगत ईश्वरसे ऐसी आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सकते हैं जो किसी भी परात्पर मिलनसे कम पूर्ण नहीं होगी। परंतु यह सर्वथा अनिवार्य नहीं । हम तर्क कर सकते हैं कि ज्ञान उच्चतर भी होता है और निम्नतर भी, उच्चतर आत्मबोध भी होता है तथा निम्नतर आत्मबोध भी, और यहाँ हमें ज्ञान - राशिका वर्जन कर ज्ञान-शिखरका ही अनुसरण करना है, सर्वांगीण मार्गकी अपेक्षा एकांगी मार्गका वरण करना है । अथवा हम अपने साथियोंसे तथा जगद्व्यापारसे समस्त संबंधके परित्यागका समर्थन करनेके लिये मायाके सिद्धांतका आविष्कार कर सकते हैं । कर्ममार्ग हमें परात्परकी ओर ले जाता है जिसकी सत्ताकी शक्ति विश्वगत संकल्प के रूपमें प्रकट होती है । यह संकल्प हममें तथा सबमें एक ही है, इसके साथ तादात्म्य द्वारा हम, उस तादात्म्यकी आवश्यक अवस्थाओंके कारण, परात्परको सबकी एक आत्मा, विश्वात्मा तथा जगदीश्वर अनुभव करते हुए उनसे मिलन लाभ करते हैं। ऐसा प्रतीत होगा कि यह हमारी एकत्व-उपलब्धिमें कुछ व्यापकता ले आता है, परंतु ऐसा होना सर्वथा अनिवार्य नहीं । कारण, यह हेतु भी, पूर्ण निर्वैयक्तिकताकी ओर झुक सकता है और चाहे इसके फलस्वरूप हम विश्वगत ईश्वरके कार्यों में निरंतर भाग लेने लगते हैं तो भी यह सिद्धांतरूपमें सर्वथा निःसंग और निष्क्रिय हो सकता है। पूर्ण मिलनरूपी हेतु सर्वथा अपरिहार्य तभी बनता है जब योगमार्ग में आनंदका प्रवेश होता है । इस आनंदका, जो इतने पूर्ण रूपमें अपरिहार्य है, अभिप्राय है- हैभगवान्में आनंद, उन्हींके लिये, और किसी चीजके लिये नहीं-- इससे परेके किसी भी निमित्त या लाभके लिये नहीं । यह ईश्वरको न तो किसी ऐसी चीजके लिये खोजता है जो वे हमें दे सकते हैं और न उनके किसी विशेष गुणके लिये, वरन् केवल और एकमात्र इसलिये कि वे हमारी आत्मा, हमारी संपूर्ण सत्ता तथा हमारे सर्वस्
व हैं । यह परात्परताके आनंदका आलिंगन करता है, परात्परताके लिये नहीं, वरन् इसलिये कि वे परात्पर हैं; विश्वमयताके आनंदका, विश्वमयताके लिये नहीं, वरन् इसलिये कि वे विश्वमय हैं; व्यक्तिके आनंदका, व्यक्तिगत संतुष्टिके लिये नहीं, वरन् इसलिये कि वे व्यक्ति हैं । यह सब भेदों और रूपोंके पीछे जाता है और उनकी सत्ताकी कम या अधिक मात्राका हिसाव नहीं लगाता, बल्कि जहाँ कहीं भी वे हैं वहाँ, और इसलिये सब कहीं, उनका आलिंगन करता है । जैसे प्रतीयमान कममें वैसे ही प्रतीयमान अधिकमें, जैसे प्रतीयमान सीमामें वैसे ही असीमके प्राकाश्यमें यह उनका पूर्ण रूपसे आलिंगन करता है, इसे इस बातका सहज ज्ञान और अनुभव होता है कि वे सभी जगह एक और पूर्ण हैं । उनकी निरपेक्ष सत्तामात्रके लिये उन्हें खोजना वास्तवमें अपने ही वैयक्तिक लाभ, पूर्ण शांतिकी प्राप्ति को लक्ष्य बनाना है। निःसंदेह, उन्हें पूर्ण रूपसे अधिकृत करना ही उनकी सत्तासे प्राप्त होनेवाले इस आनंदका लक्ष्य है, किंतु यह प्राप्त तभी होता है जब हम उन्हें पूर्ण रूपसे अधिकृत कर लेते हैं और उनके द्वारा पूर्णतः अधिकृत हो जाते हैं, जब हमें किसी विशेष स्थिति या अवस्थामें बंधनेकी आवश्यकता नहीं रहती। किसी आनंदमय स्वर्गलोकमें उनकी खोज करना उन्हींके लिये नहीं, बल्कि उस स्वर्ग लोकके आनंदके लिये उनकी खोज करना है । जब हम उनकी सत्ताका सारा सच्चा आनंद प्राप्त कर लेते हैं तब स्वर्गलोक हमारे भीतर आ जाता है, और जहाँ कहीं वे हैं और हम हैं वहीं उनके राज्यका हर्ष हमें प्राप्त रहता है । इसी प्रकार केवल अपने अंदर और अपने लिये उन्हें खोजना अपने आपको और उनके अंदर अपने हर्षको भी सीमित करना है । सर्वांगीण आनंद केवल हमारी वैयक्तिक सत्तामें ही नहीं, बल्कि सब मनुष्योंमें तथा सर्वभूतमें समा
न रूपसे उनका आलिंगन करता है। क्योंकि उनके अंदर हम सबके साथ एकमय हैं, यह उन्हें केवल हमारे लिये नहीं, अपितु हमारे सभी साथियोंके लिये खोजता है। भगवान्में पूर्ण और अशेष आनंद, -- पूर्ण तो विशुद्ध और स्वयंसत् होनेके कारण और अशेप सर्वस्पर्शी तथा तन्मयकारी होनेके कारण, - पूर्णयोगके जिज्ञासुके लिये भक्तिमार्गका मर्म है। एक बार जब यह हमारे अंदर क्रियाशील हो जाता है तो मानों योगके अन्य सभी मार्ग इसके नियममें परिवर्तित हो जाते हैं और इसके द्वारा अपना पूर्णतम महत्त्व प्राप्त कर लेते हैं । ईश्वरके प्रति हमारी सत्ताकी यह सर्वागीण भक्ति ज्ञानसे पराङ्मुख नहीं होती; इस मार्गका भक्त ईश्वरप्रेमी होनेके साथ-साथ ईश्वरज्ञानी भी होता है, क्योंकि उनकी सत्ताके ज्ञानसे ही उनकी सत्ताका संपूर्ण आनंद प्राप्त होता है। परंतु ज्ञान आनंदमें ही परिसमाप्त होता है, परात्परका ज्ञान परात्परके आनंदमें, विश्वमयका ज्ञान विश्वमय ईश्वरके आनंदमें, वैयक्तिक अभिव्यक्तिका ज्ञान व्यक्तिके
रतन पत्रों में जालपा को तो ढाढ़स देती रहती थी पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आप ही व्यथित हो रही हो, उसे अपनी व्यथाओं की कथा क्या सुनाती! वही रतन जिसने रूपयों की कभी कोई हैसियत न समझी, इस एक ही महीने में रोटियों को भी मुहताज हो गई थी। उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी न हो, पर उसे किसी बात का अभाव न था। मरियल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पूरी हो सकती है अगर सड़क अच्छी हो, नौकर-चाकर, रूपय-पैसे और भोजन आदि की सामग्री साथ हो घोडाभी तेज़ हो, तो पूछना ही क्या! रतन की दशा उसी सवार की-सी थी। उसी सवार की भांति वह मंदगति से अपनी जीवन-यात्रा कर रही थी। कभी-कभी वह घोड़े पर झुंझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती, लेकिन वह दुखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली-सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नाद के भूसे-खली में मगन रहती है। सामने हरे-हरे मैदान हैं, उसमें सुगंधमय घासें लहरा रही हैं, पर वह पगहिया तुडाकर कभी उधार नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अंतर नहीं। यौवन को प्रेम की इतनी क्षुधा नहीं होती, जितनी आत्म-प्रदर्शन की। प्रेम की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदर्शन के सभी उपाय मिले हुए थे। उसकी युवती आत्मा अपने ऋंगार और प्रदर्शन में मग्न थी। हंसी-विनोद, सैर-सपाटा, खाना-पीना, यही उसका जीवन था, जैसा प्रायद्य सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की न उसे इच्छा थी, न प्रयोजनब संपन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शांत करती है। उसके पास अपने दुद्यखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं, सिनेमा है, थिएटर है, देश-भ्रमण है, ताश है, पालतू जानवर हैं, संगीत है, लेकिन विपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई उपाय नहीं, इसके सिवा कि वह रोए, अपने भाग्य को कोसे या संसार से विरक्त होकर आत्म-हत्या कर ले। रतन की तकदीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भंग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे खडा घूर रहा था। और यह सब हुआ अपने ही हाथों! पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फिक्र नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था कि दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें, तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत को उनसे क्या दुश्मनी थी, जो ख्वामख्वाह उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का ख़याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए, लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई कि पंडितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझाब तब से फिर उन्हें इतना होश न आया कि वसीयत लिखवाते। पंडितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि उसे किसी बात की भी सुध-बुध न रही। यह वह अवसर था, जब उसे विशेष रूप से सावधन रहना चाहिए था। इस भांति सतर्क रहना चाहिए था, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रक्खा हो, पर उसने सब कुछ मणिभूषण पर छोड
़ दिया और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति अपहरण कर ली। ऐसे-ऐसे षडयंत्र रचे कि सरला रतन को उसके कपट-व्यवहार का आभास तक न हुआ। फंदा जब ख़ूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा, 'आज बंगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच दिया है। ' रतन ने ज़रा तेज़ होकर कहा, 'मैंने तो तुमसे कहा था कि मैं अभी बंगला न बेचूंगी। ' मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला, 'आपमें बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे यह ज़िक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया, तो आप यह स्वांग खडा करती हैं! बंगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा। ' 'मैं अभी यहीं रहना चाहती हूं।' 'मैं आपको यहां न रहने दूंगा। ' 'मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूं।' 'आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा। ' रतन ने होंठ चबाकर कहा, 'मैं अपनी मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूं। तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। मेरी मर्ज़ी के बगैर तुम यहां कोई चीज़ नहीं बेच सकते। ' मणिभूषण ने वज्र-सा मारा, 'आपका इस घर पर और चाचाजी की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं। वह मेरी संपत्ति है। आप मुझसे केवल गुज़ारे का सवाल कर सकती हैं। ' रतन ने विस्मित होकर कहा, 'तुम कुछ भंग तो नहीं खा गए हो? ' मणिभूषण ने कठोर स्वर में कहा, 'मैं इतनी भंग नहीं खाता कि बेसिरपैर की बातें करने लगूंब आप तो पढ़ी-लिखी हैं, एक बडे वकील की धर्मपत्नी थीं। कानून की बहुत-सी बातें जानती होंगी। सम्मिलित परिवार में विधवा का अपने पुरूष की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। चाचाजी और मेरे पिताजी में कभी अलगौझा नहीं हुआ। चाचाजी यहां थे, हम लोग इंदौर में थे, पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि हममें अलगौझा था। अगर
चाचा अपनी संपत्ति आपको देना चाहते, तो कोई वसीयत अवश्य लिख जाते और यद्यपिवह वसीयत कानून के अनुसार कोई चीज़ न होती, पर हम उसका सम्मान करते। उनका कोई वसीयत न करना साबित कर रहा है कि वह कानून के साधरण व्यवहार में कोई बाधा न डालना चाहते थे। आज आपको बंगला खाली करना होगा। मोटर और अन्य वस्तुएं भी नीलाम कर दी जाएंगी। आपकी इच्छा हो, मेरे साथ चलें या रहें। यहां रहने के लिए आपको दस-ग्यारह रूपये का मकान काफी होगा। गुज़ारे के लिए पचास रूपये महीने का प्रबंध मैंने कर दिया है। लेना-देना चुका लेने के बाद इससे ज्यादा की गुंजाइश ही नहीं। ' रतन ने कोई जवाब न दिया। कुछ देर वह हतबुद्धि-सी बैठी रही, फिर मोटर मंगवाई और सारे दिन वकीलों के पास दौड़ती फिरी। पंडितजी के कितने ही वकील मित्र थे। सभी ने उसका वृत्तांत सुनकर खेद प्रकट किया और वकील साहब के वसीयत न लिख जाने पर हैरत करते रहे। अब उसके लिए एक ही उपाय था। वह यह सिद्ध करने की चेष्टा करे कि वकील साहब और उनके भाई में अलहदगी हो गई थी। अगर यह सिद्ध हो गया और सिद्ध हो जाना बिलकुल आसान था, तो रतन उस संपत्ति की स्वामिनी हो जाएगी। अगर वह यह सिद्ध न कर सकी, तो उसके लिए कोई चारा न था। अभागिनी रतन लौट आई। उसने निश्चय किया, जो कुछ मेरा नहीं है, उसे लेने के लिए मैं झूठ का आश्रय न लूंगी। किसी तरह नहीं। मगर ऐसा कानून बनाया किसने? क्या स्त्री इतनी नीच, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य है? क्यों? जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिंता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंद आता था, जो माता अपनी संतान को फलते-फलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी, पर पति की आंखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं! अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आएगी, तो वह चाहे रूपये को लुटा देती या दान कर देती, पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बडी आमदनी थी। क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए! यही स्वप्न! इसके सिवा और था ही क्या! जो कल उसका था उसकी ओर आज आंखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती! कितना महंगा था वह स्वप्न! हां, वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे ख़ुद भीख मांगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा! सहसा विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूं? क्यों दूसरों के द्वार पर भीख मांगूं? संसार में लाखों ही स्त्रियां मेहनत-मजदूरी करके जीवन का निर्वाह करती हैं।
क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती? मैं कपडा क्या नहीं सी सकती? किसी चीज़ की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती? लङके भी पढ़ा सकती हूं। यही न होगा, लोग हंसेंगे, मगर मुझे उस हंसी की क्या परवा! वह मेरी हंसी नहीं है, अपने समाज की हंसी है। शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गए। मणिभूषण ने आकर कहा, 'चाचीजी, आप जो-जो चीज़ें कहें लदवाकर भिजवा दूं। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।' रतन ने कहा, 'मुझे किसी चीज़ की जरूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज़ पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आई थी। उसी तरह लौट जाऊंगी।' मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा,'आपका सब कुछ है, यह आप कैसे कहती हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पंद्रह रूपया किराया है। मैं तो समझता हूं आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीजें आप कहें, मैं वहां पहुंचा दूं।' रतन ने व्यंग्यमय आंखों से देखकर कहा, 'तुमने पंद्रह रूपये का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया! इतना बडा मकान लेकर मैं क्या करूंगी! मेरे लिए एक कोठरी काफी है, जो दो रूपये में मिल जायगी। सोने के लिए जमीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो, उतना ही अच्छा! मणिभूषण ने बडे विनम्र भाव से कहा, 'आख़िर आप चाहती क्या हैं?उसे कहिए तो!' रतन उत्तेजित होकर बोली, 'मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊंगी। जिस चीज़ पर मेरा कोई अधिकार नहीं,वह मेरे लिए वैसी ही है जैसी किसी गैर आदमी की चीज़ब मैं दया की भिखारिणी न बनूंगी। तुम इन चीज़ों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानती! दया की चीज़ न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हज़ारों विधवाएं हैं, जो मेहनत-मजूरी करके अपना निर्वाह कर रही हैं। मैं भ
ी वैसे ही हूं। मैं भी उसी तरह मजूरी करूंगी और अगर न कर सकूंगी, तो किसी गडढे में डूब मईंगी। जो अपना पेट भी न पाल सके, उसे जीते रहने का, दूसरों का बोझ बनने का कोई हक नहीं है।' यह कहती हुई रतन घर से निकली और द्वार की ओर चली। मणिभूषण ने उसका रास्ता रोककर कहा, 'अगर आपकी इच्छा न हो, तो मैं बंगला अभी न बेचूं।' रतन ने जलती हुई आंखों से उसकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आंसुओं के उमड़ते हुए वेग को रोककर बोली, ' मैंने कह दिया, इस घर की किसी चीज़ से मेरा नाता नहीं है। मैं किराए की लौंडी थी। लौडी का घर से क्या संबंध है! न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहां कोई न्याय होता है, तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूछूंगी, क्या तेरे घर में मां-बहनें न थीं? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आई? अगर मेरी ज़बान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज़ पहुंचती, तो मैं सब स्त्रियों से कहती,बहनो, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना तो जब तक अपना घर अलग न बना लो, चैन की नींद मत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरूष ने कोई लङका नहीं छोडा, तो तुम अकेली रहो चाहे परिवार में, एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरूष ने कुछ छोडा है तो अकेली रहकर तुम उसे भोग सकती हो, परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों की शय्या है, तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं,तुम्हें निगल जाने वाला जंतु।' संध्या हो गई थी। गर्द से भरी हुई फागुन की वायु चलने वालों की आंखों में धूल झोंक रही थी। रतन चादर संभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई परिचित स्त्रियों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली और उसे बैठने को कहा, पर रतन को उनकी सह्रदयता इस समय बाण-सी लग रही थी। वह तेज़ी से कदम उठाती हुई जालपा के घर चली जा रही थी। आज उसका वास्तविक जीवन आरंभ हुआ था। ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुंच गए। दर्शकों की काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठीब देवीदीन बरामदे में खडाहो गया। थे। घबराहट, निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिन्ह भी न था। ग्यारह बजते-बजते अभियोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई तंबोली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रक्खा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गए। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आंखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाए खडाथा, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो उसके चेहरे का रंग उडाहुआ था। क
ुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खडाथा, मानो उसे किसी ने बांधा रक्खा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो। रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिए, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फीका कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी सांस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गई, मगर फिर दिल न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिए। वही पुलिस की सिखाई हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुंह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा कि शायद अब भी रमा की आंखें ऊपर उठ जाएं, लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज़ पहचान ली या आत्म-ग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया। एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी, नाक सिकोड़कर कहा, ' जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी उधरने से भी नहीं हिचकते! ' जालपा ने कोई जवाब न दिया। एक दूसरी महिला ने जो आंखों पर ऐनक लगाए हुए थी, 'निराशा के भाव से कहा, ' इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं नहीं मिल जाती! अधिक-से-अधिक कहीं क्लर्क हो जाएंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है, कोई मरभुखा, नीच आदमी है,पल्ले सिरे का कमीना और छिछोरा।' तीसरी महिला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा, ' आदमी फैशनेबुल है और पढ़ा-लिखा भी मालूम होता है। भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?' ऐनकबाज़ देवी ने उद्दंडता से कहा, 'नाक काट लूं! बस
नकटा बनाकर छोड़ दूं।' 'और जानती हो, मैं क्या करूं?' 'नहीं! शायद गोली मार दोगी!' 'ना! गोली न मारूं। सरे बाज़ार खडा करके पांच सौ जूते लगवाऊं। चांद गंजी होजाय!' 'उस पर तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आयगी?' टयह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सज़ा तो यह है कि किसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल दिया जाय! अगर यह महाशय अमेरीका में होते, तो ज़िन्दा जला दिये जाते!' एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा, ' क्यों व्यर्थ में मुंह ख़राब करती हो? वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो,उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो अपनी मां या बहन को देख ले, तो जरूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके ह्रदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।' ऐनक वाली महिला ने व्यंग किया, ' जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह निकलती है? ' जालपा अब वहां न ठहर सकी। एक-एक बात चिंगारी की तरह उसके दिल पर गगोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे,' यह महाशय बिलकुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जायगी, हो जाय। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन ग़रीबों की जान बच जाय! जनता को तो मालूम हो जायगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुंह से एक बार आवाज़ निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी ज़बान पकड़ ली। आख़िर उसने वहां से उठकर चले आने ही में कुशल समझी। देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला, ' क्या घर चलती हो, बहूजी?' जालपा ने आंसुओं के वेग को रोककर कहा, 'हां, यहां अब नहीं बैठा जाता।' हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा, ' पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।' जालपा ने घृणा-भाव से कहा, 'यह सब कायरों के लिए है।' कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा, 'क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? कैदियों का यहीं फैसला हो जायगा।।' देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला, 'नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।' फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली, 'दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊं। मैं सबूत दे दूंगी, तब तो मानेंगे?' देवीदीन ने आंखें गाड़कर कहा,'जज साहब से!' जालपा ने उसकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा,'हां!' देवीदीन ने दुविधा में पड़कर कहा, 'मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी! हाकिम का वास्ताब न जाने चित पड़े या पट।' जालपा बोली, 'क्या पुलिस वालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है?' 'कह तो सकता है।' 'तो आज मैं उस
से मिलूं। मिल तो लेता है?' 'चलो, दरियार्ति करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।' 'क्या जोखिम है, बताओ।' 'भैया पर कहीं झूठी गवाही का इलजाम लगाकर सज़ा कर दे तो?' 'तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोगे।' देवीदीन ने जालपा की इस निर्ममता पर चकित होकर कहा, 'एक दूसरा खटका है। सबसे बडा डर उसी का है।' जालपा ने उद्यत भाव से पूछा,'वह क्या?' देवीदीन-'पुलिस वाले बडे कायर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनकी दिल्लगी है। जज साहब पुलिस कमिसनर को बुलाकर यह सब हाल कहेंगे जरूर। कमिसनर सोचेंगे कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है। इसी को गिरफ्तार कर लो। जज अंगरेज़ होता तो निडर होकर पुलिस की तंबीह करता। हमारे भाई तो ऐसे मुकदमों में चूं करते डरते हैं कि कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इलज़ाम लग जाय। यही बात है। जज साहब पुलिस कमिसनर से जरूर कह सुनावेंगे। फिर यह तो न होगा कि मुकदमा उठा लिया जाय। यही होगा कि कलई न खुलने पावे। कौन जाने तुम्हीं को गिरफ्तार कर लें। कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है, या कलई खोलने पर उताई हो जाता है, तो पुलिस वाले उसके घर वालों को दबाते हैं। इनकी माया अपरंपार है। जालपा सहम उठी। अपनी गिरफ्तारी का उसे भय न था, लेकिन कहीं पुलिस वाले रमा पर अत्याचार न करें। इस भय ने उसे कातर कर दिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई मानो सैकड़ों कोस की मंज़िल मारकर आई हो उसका सारा सत्साहस बर्फ के समान पिघल गया। कुछ दूर आगे चलने के बाद उसने देवीदीन से पूछा, 'अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?' देवीदीन ने पूछा, 'भैया से?' 'किसी तरह नहीं। पहरा और कडाकर दिया गया होगा। चाहे उस बंगले को ही छोड़ दिया हो और अब उनसे मुलाकात हो भी गई तो क्या फायदा! अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोगहलगी में फंस जाएंगे।' कुछ दूर और चलक
र जालपा ने कहा, 'मैं सोचती हूं, घर चली जाऊं। यहां रहकर अब क्या करूंगी।' देवीदीन ने करूणा भरी हुई आंखों से उसे देखकर कहा, 'नहीं बहू, अभी मैं न जाने दूंगा। तुम्हारे बिना अब हमारा यहां पल-भर भी जी न लगेगा। बुढिया तो रो-रोकर परान ही दे देगी। अभी यहां रहो, देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रूपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूं। अपने रोजगार की बात ही दूसरी है। इसमें आदमी कभी थकता ही नहीं। नौकरी में जहां पांच से छः घंटे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयां आने लगीं।' रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिए किसी तरह राज़ी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भांति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विवश हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी? उसके ह्रदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी। उसे रमा पर ज़रा भी दया न आती थी, उससे रत्ती-भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी, ' तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे ख़ून से रंगे हुए हाथों के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़ जाएंगे। जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो! कायर!'जालपा का मुखमंडल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गई। यह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त मुझे झब्बेदार पगड़ी बांध घोड़े पर सवार देखेगी, फली न समाएगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आंखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे, जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई! मैंने चलते-चलते समझाया था, उसका कुछ असर न हुआ! ओह, तुम इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी! कोई हरज नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज नहीं।'इन्हीं संतप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची। एक महीना गुज़र गया। जालपा कई दिन तक बहुत विकल रही। कई बार उन्माद - सा हुआ कि अभी सारी कथा किसी पत्र में छपवा दूं, सारी कलई खोल दूं, सारे हवाई किले ढा दूंऋ पर यह सभी उद्वेग शांत हो गए। आत्मा की गहराइयों में छिपी हुई कोई शक्ति उसकी ज़बान बंद कर देती थी। रमा को उसने ह्रदय से निकाल दिया था। उसके प्रति अब उसे क्रोध न था, द्वेष न था, दया भी न थी, केवल उदासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना पाकर भी शायद वह न रोती। हां, इसे ईश्वरीय विधान की एक लीला, माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर क्रीडा समझकर थोड़ी देर के लिए वह दुखी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में दो-ढाई साल पहले पडा था, टूट चुका था, पर उसका निशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के सामने से जाते देखा।
उसकी आंखें किसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आंखों में कुछ लज्जा थी, कुछ क्षमा-याचना, पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आंखें न उठाई। वह शायद इस वक्त आकर उसके पैरों पर पड़ता, तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा की इस घ!णित कायरता और महान स्वार्थपरता ने जालपा के ह्रदय को मानो चीर डाला था, फिर भी उस प्रणय-बंधन का निशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-विह्नल मूर्ति, जिसे देखकर एक दिन वह गदगद हो जाती थी, कभी-कभी उसके ह्रदय में छाए हुए अंधेरे में क्षीण, मलिन,निरानंद ज्योत्स्ना की भांति प्रवेश करती, और एक क्षण के लिए वह स्मृतियां विलाप कर उठतीं। फिर उसी अंधकारऔर नीरवता का परदा पड़ जाता। उसके लिए भविष्य की मृदु स्मृतियां न थीं, केवल कठोर, नीरस वर्तमान विकराल रूप से खडा घूर रहा था। वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मान किया करती थी, अब सेवा, त्याग और सहिष्णुता की मूर्ति थी। जग्गो मना करती रहती, पर वह मुंह-अंधेरे सारे घर में झाड़ू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आटा गूंधकर रख देती, चूल्हा जला देती। तब बुढिया का काम केवल रोटियां सेंकना था। छूत-विचार को भी उसने ताक पर रख दिया था। बुढिया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ न कुछ खिला देती। दोनों में मां-बेटी का-सा प्रेम हो गया था। पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक ख़याली कहानी थी, जिसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अभियोग उसी के बयान पर अवलंबित था। देवीदीन ने पूछा, 'फैसला छपा है?' जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा, 'हां, है तो!' 'किसकी सजा हुई?' 'कोई नहीं छूटा, एक को फांसी की सज़ा मिली। पांच को दस-दस साल और आठ को पांच-पांच साल। उसी दिनेश को फांसी हुई।' यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख दिया और एक लंबी सांस लेकर बोली, '
इन बेचारों के बाल-बच्चों का न जाने क्या हाल होगा!' देवीदीन ने तत्परता से कहा, 'तुमने जिस दिन मुझसे कहा था, उसी दिन से मैं इन बातों का पता लगा रहा हूं। आठ आदमियों का तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ और उनके घर वाले मज़े में हैं। किसी बात की तकलीफ नहीं है। पांच आदमियों का विवाह तो हो गया है, पर घर के ख़ुश हैं। किसी के घर रोजगार होता है, कोई जमींदार है, किसी के बाप-चचा नौकर हैं। मैंने कई आदमियों से पूछा, यहां कुछ चंदा भी किया गया है। अगर उनके घर वाले लेना चाहें तो तो दिया जायगा। खाली दिनेस तबाह है। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बुढिया, मां और औरत, यहां किसी स्यल में मास्टर था। एक मकान किराए पर लेकर रहता था। उसकी खराबी है।' जालपा ने पूछा, 'उसके घर का पता लगा सकते हो?' 'हां, उसका पता कौन मुसकिल है?' जालपा ने याचना-भाव से कहा, 'तो कब चलोगे? मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अभी तो वक्त है। चलो, ज़रा देखें।' देवीदीन ने आपत्ति करके कहा, 'पहले मैं देख तो आऊं। इस तरह मेरे साथ कहां-कहां दौड़ती फिरोगी? ' जालपा ने मन को दबाकर लाचारी से सिर झुका लिया और कुछ न बोली। देवीदीन चला गया। जालपा फिर समाचार-पत्र देखने लगी,पर उसका ध्यान दिनेश की ओर लगा हुआ था। बेचारा फांसी पा जायगा। जिस वक्त उसने फांसी का हुक्म सुना होगा, उसकी क्या दशा हुई होगी। उसकी बूढ़ी मां और स्त्री यह खबर सुनकर छाती पीटने लगी होंगी। बेचारा स्कूल-मास्टर ही तो था, मुश्किल से रोटियां चलती होंगी। और क्या सहारा होगा? उनकी विपत्ति की कल्पना करके उसे रमा के प्रति उत्तेजना, पूर्ण घृणा हुई कि वह उदासीन न रह सकी। उसके मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इस वक्त वह आ जायं तो ऐसा धिक्कारूं कि वह भी याद करें। तुम मनुष्य हो! कभी नहीं। तुम मनुष्य के रूप में राक्षस हो, राक्षस! तुम इतने नीच हो कि उसको प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं है। तुम इतने नीच हो कि आज कमीने से कमीना आदमी भी तुम्हारे ऊपर थूक रहा है। तुम्हें किसी ने पहले ही क्यों न मार डाला। इन आदमियों की जान तो जाती ही, पर तुम्हारे मुंह में तो कालिख न लगती। तुम्हारा इतना पतन हुआ कैसे! जिसका पिता इतना सच्चा, इतना ईमानदार हो, वह इतना लोभी, इतना कायर! शाम हो गई, पर देवीदीन न आया। जालपा बार-बार खिड़की पर खड़ी हो-होकर इधर-उधर देखती थी, पर देवीदीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गए और देवी न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रूकी और रमा ने उतरकर जग्गो से पूछा, 'सब कुशल-मंगल है न दादी! दादा कहां गए हैं?' जग्गो ने एक बार उसकी ओर देखा और मुंह उधर लिया। केवल इतना बोली, 'कहीं गए होंगे, मैं नहीं जानती।' रमा ने सोने की चार चूडियां जेब से निकालकर जग्गो के पैरों पर रख दीं और बोला, 'यह तुम्हारे लिए लाया हूं दादी, पहनो, ढीली तो नहीं हैं?' जग्गो ने चूडियां उठाकर ज़मीन पर पटक दीं और आंखें निकालकर बोली, 'जहां इतना पाप समा सकता है, वहां चार चूडियों की जगह नहीं है! भगवान की दया से बहुत चूडियां पहन चुकी और अब भी सेर-दो सेर
सोना पडा होगा, लेकिन जो खाया, पहना, अपनी मिहनत की कमाई से, किसी का गला नहीं दबाया, पाप की गठरी सिर पर नहीं लादी, नीयत नहीं बिगाड़ी। उस कोख में आग लगे जिसने तुम जैसे कपूत को जन्म दिया। यह पाप की कमाई लेकर तुम बहू को देने आए होगे! समझते होगे, तुम्हारे रूपयों की थैली देखकर वह लट्टू हो जाएगी। इतने दिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी लोभी आंखें उसे न पहचान सकीं। तुम जैसे राक्षस उस देवी के जोग न थे। अगर अपनी कुसल चाहते हो, तो इन्हीं पैरों जहां से आए हो वहीं लौट जाओ, उसके सामने जाकर क्यों अपना पानी उतरवाओगे। तुम आज पुलिस के हाथों जख्मी होकर, मार खाकर आए होते, तुम्हें सज़ा हो गई होती, तुम जेहल में डाल दिए गए होते तो बहू तुम्हारी पूजा करती, तुम्हारे चरन धो-धोकर पीती। वह उन औरतों में है जो चाहे मजूरी करें, उपास करें, फटे-चीथड़े पहनें, पर किसी की बुराई नहीं देख सकतीं। अगर तुम मेरे लड़के होते, तो तुम्हें जहर दे देती। क्यों खड़े मुझे जला रहे हो चले क्यों नहीं जाते। मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं लिया है? रमा सिर झुकाए चुपचाप सुनता रहा। तब आहत स्वर में बोला, 'दादी, मैंने बुराई की है और इसके लिए मरते दम तक लज्जित रहूंगा, लेकिन तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, उतना नीच नहीं हूं। अगर तुम्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियां कीं, मुझे कैसी-कैसी धमकियां दीं, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं।' जालपा के कानों में इन आवाज़ों की भनक पड़ी। उसने जीने से झांककर देखा। रमानाथ खडा था। सिर पर बनारसी रेशमी साफा था, रेशम का बढिया कोट, आंखों पर सुनहली ऐनक। इस एक ही महीने में उसकी देह निखर आई थी। रंग भी अधिक गोरा हो गया था। ऐसी कांति उसके चेहरे पर कभी न दिखाई दी थी। उसके अंतिम शब्द जालपा के कानों में पड़ गए,
बाज की तरह टूटकर धम-धम करती हुई नीचे आई और ज़हर में बुझे हुए नोबाणों का उस पर प्रहार करती हुई बोली, 'अगर तुम सख्तियों और धमकियों से इतना दब सकते हो, तो तुम कायर हो तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं। क्या सख्तियां की थीं? ज़रा सुनूं! लोगों ने तो हंसते-हंसते सिर कटा लिए हैं, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेले जाना मंजूर किया है, पर सच्चाई से जौभर भी नहीं हटे, तुम भी तो आदमी हो, तुम क्यों धमकी में आ गए? क्यों नहीं छाती खोलकर खड़े हो गए कि इसे गोली का निशाना बना लो, पर मैं झूठ न बोलूंगा। क्यों नहीं सिर झुका दिया- देह के भीतर इसीलिए आत्मा रक्खी गई है कि देह उसकी रक्षा करे। इसलिए नहीं कि उसका सर्वनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार मिला? ज़रा मालूम तो हो! रमा ने दबी हुई आवाज़ से कहा, 'अभी तो कुछ नहीं ।' से जिंदगी के सुख लूटो। मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था और आज फिर कहती हूं कि मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। मैंने समझ लिया कि तुम मर गए। तुम भी समझ लो कि मैं मर गई। बस, जाओ। मैं औरत हूं। अगर कोई धमकाकर मुझसे पाप कराना चाहे, तो चाहे उसे न मार सयं,अपनी गर्दन पर छुरी चला दूंगी। क्या तुममें औरतों के बराबर भी हिम्मत नहीं है? रमा ने भिक्षुकों की भांति गिड़गिडाकर कहा, 'तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?' जालपा ने अभिमान से कहा,'नहीं!' 'तो मैं मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊं?" 'तुम्हारी ख़ुशी!' 'तुम मुझे क्षमा न करोगी?' 'कभी नहीं, किसी तरह नहीं!' रमा एक क्षण सिर झुकाए खडा रहा, तब धीरे-धीरे बरामदे के नीचे जाकर जग्गो से बोला, ' दादी, दादा आएं तो कह देना, मुझसे ज़रा देर मिल लें। जहां कहें, आ जाऊं?' जग्गो ने कुछ पिघलकर कहा, 'कल यहीं चले आना।' रमा ने मोटर पर बैठते हुए कहा, 'यहां अब न आऊंगा, दादी!' ख़रीद ही तो लाए हों!' जग्गो ने भर्त्सना की, 'तुम्हें इतना बेलगाम न होना चाहिए था, बहू! दिल पर चोट लगती है, तो आदमी को कुछ नहीं सूझता।' जालपा ने निष्ठुरता से कहा, 'ऐसे हयादार नहीं हैं, दादी! इसी सुख के लिए तो आत्मा बेचीब उनसे यह सुख भला क्या छोडा जायगा। पूछा नहीं, दादा से मिलकर क्या करोगे? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते कि छठी का दूध याद आ जाता।' जग्गो ने तिरस्कार के भाव से कहा, 'तुम्हारी जगह मैं होती तो मेरे मुंह से ऐसी बातें न निकलतीं। तुम्हारा हिया बडा कठोर है। दूसरा मर्द होता तो इस तरह चुपका-चुपका सुनता- मैं तो थर-थर कांप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दे, मगर है बडा गमखोर।' जालपा ने उसी निष्ठुरता से कहा, 'इसे गमखोरी नहीं कहते दादी, यह बेहयाई है।' देवीदीन ने आकर कहा, 'क्या यहां भैया आए थे? मुझे मोटर पर रास्ते में दिखाई दिए थे।' जग्गो ने कहा, 'हां, आए थे। कह गए हैं, दादा मुझसे ज़रा मिल लें।' देवीदीन ने उदासीन होकर कहा, 'मिल लूंगा। यहां कोई बातचीत हुई?' जग्गो ने पछताते हुए कहा, 'बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की, मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फल-माला चढ़ाई।'
जालपा ने सिर नीचा करके कहा, 'आदमी जैसा करेगा, वैसा भोगेगा।' जग्गो-'अपना ही समझकर तो मिलने आए थे।' जालपा-'कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता चला, दादा!' देवीदीन-'हां, सब पूछ आया। हाबडे में घर है। पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।' जालपा ने डरते-डरते कहा, 'इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त?' देवीदीन-'तुम्हारी जैसी मरजीब जी जाहे इसी बखत चलो, मैं तैयार हूं। जालपा-'थक गए होगे?' देवीदीन-'इन कामों में थकान नहीं होती बेटी।' आठ बज गए थे। सड़क पर मोटरों का तांता बंध हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हज़ारों स्त्री-पुरूष बने-ठने, हंसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेव न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा मिट्टी का घरौंदा बनाए बैठा है। देश बह जाए, उसे परवा नहीं। उसका घरौंदा बच रहे! उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला ह्रदय बाज़ार को बंद देखकर ख़ुश होता। सभी आदमी शोक से सिर झुकाए, त्योरियां बदले उन्मभा-से नज़र आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानती थी कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकडियों के गिरने से एक हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती। रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझता न था, कुछ समझ में न आता था, कहां जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजाने हो गए थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, ज़रा भी नहीं। जग्गो पर भी उसे क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बडा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस दिन ख़याल आया था, जब जालपा ने समझाया था। फिर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बडी-बडी आशाएं बं
धकर उसे बहला रक्खा। वह कहते, अजी बीबी की कुछ फिक्र न करो। जिस वक्त तुम एक जडाऊ हार लेकर पहुंचोगे और रूपयों की थैली नज़र कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जायगा। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुंच जाओगे, आराम से जिंदगी कटेगी। कैसा गुस्सा! इसकी कितनी ही आंखों देखी मिसालें दी गई। रमा चक्कर में फंस गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जडाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की ख़ुशख़बरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले कुछ नाक-भौं सिकोड़ेगी पर यह भी जानता था कि यह हार देखकर वह जरूर ख़ुश हो जायगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेद्रेटरी के नाम कमिश्नर पुलिस का पत्र उसे मिल जाएगा। दो-चार दिन यहां ख़ूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाय, पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त ज़ज के पास चलूं और सारी कथा कह सुनाऊं। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाय, मुझे जेल में सडा डाले, कोई परवा नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता- अभी तो सभी मुज़िलम हवालात में हैं। पुलिस वाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नाचे-यदेंगे, शायद मुझे कच्चा ही खा जायं। खा जायं! इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुंह में कालिख लगा दी। जालपा की वह क्रोधोन्मभा मूर्ति उसकी आंखों के सामने फिर गई। ओह, कितने गुस्से में थी! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बडा चकमा दिया इन पुलिस वालों ने, अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुलिज़मों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुंह न देखेगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊंगा। फिर जिंदा रहकर ही क्या करूंगा। किसके लिए? उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहां आ गया। सहसा एक चौकीदार नज़र आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछाब चौकीदार हंसकर बोला, 'हुजूर तो बहुत दूर निकल आए। यहां से तो छः-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।' रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गए थे। उसने सोचा,जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। बिना मिले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आंखें खुलेंगी। मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुंची। यहां अभी तक वही चहल-पहल थी,, मगर रमा उसी ज़न्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखाई। वह रूक गया और बाहर सिर निकालकर देखा, तो वही दारोग़ाजी! दारोग़ा ने पूछा, 'क्या अभी तक बंगले पर नहीं ग
ए? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। ख़ुश तो ख़ूब हुई होंगी!' रमा को ऐसा क्रोध आया कि मूंछें उखाड़ लूं, पर बात बनाकर बोला, 'जी हां, बहुत ख़ुश हुई।' 'मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दवा है। आप कांपे जाते थे। ' 'मेरी हिमाकत थी।' 'चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं। एक बाज़ी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमेब डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आएंगे। ज़ोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज़ रमानाथ को बंगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहां उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।' रमा ने कहा, 'अभी तो मुझे एक जरूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जाएं ।मैं पांव-पांव चला आऊंगा।' दारोग़ा ने मोटर के अंदर जाकर कहा, 'नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहां चलना चाहें, चलिए। मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। रमा ने कुछ चिढ़कर कहा,लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूं।' दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, 'मैं समझ रहा हूं, लेकिन मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। वही बेगम साहब---' रमा ने बात काटकर कहा, 'जी नहीं, वहां मुझे नहीं जाना है।' दारोग़ा -'तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाज़िर हो जायगा।' रमा ने एकबारगी आंखें लाल करके कहा, 'क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं?मैं इतना जलील नहीं हूं।' दारोग़ा ने कुछ लज्जित होकर कहा, 'अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझेंब मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा, जहां मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको ख़बर नहीं, आपके कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के ख़याल से कह
रहा हूं।' रमा ने होंठ चबाकर कहा, 'बेहतर हो कि आप मेरे फायदे का इतना ख़याल न करें। आप लोगों ने मुझे मलियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए।मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूं। मैं मां के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं, शौक से ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पंद्रह आदमियों को कुर्बान करना पडाहै। कोई जगह पा जाऊं, तो शायद पंद्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।' यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पडाऔर जल्दी से आगे बढ़गया। न पड़ती थी। ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सज़ा से बचने के लिए इतना बडा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहां गई थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है?ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ बनाया जाऊंगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुंक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बडे राज्य मिट गए हैं, रक्त की नदियां बह गई हैं, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिए। शायद जेल की सज़ा से वह इतना भयभीत न होता। रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली ब वह स्वप्न देख रहा था,दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी ब चारों ओर हलचल मच गई। वह औरत जालपा थी । जालपा को लोग घेरकर पकड़ना चाहते थे,पर वह पकड़ में न आती थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था । तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई। रमा घबडाकर उठ बैठा देखा तो दारोग़ा और इंस्पेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आरामकुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं । दारोग़ा ने कहा, 'आज तो आप ख़ूब सोए बाबू साहब! कल कब लौटे थे ?' रमा ने एक कुर्सी पर बैठकर कहा, 'ज़रा देर बाद लौट आया था। इस मुकदमे की अपील तो हाईकोर्ट में होगी न?' इंस्पेक्टर, 'अपील क्या होगी, ज़ाब्ते की पाबंदी होगी। आपने मुकदमे को इतना मज़बूत कर दिया है कि वह अब किसी के हिलाए हिल नहीं सकता हलफ से कहता हूं, आपने कमाल कर दिया। अब आप उधर से बेफिक्र हो जाइए। हां, अभी जब तक फैसला न हो जाय, यह मुनासिब होगा कि आपकी हिफाजत का ख़याल रक्खा जाय। इसलिए फिर पहरे का इंतज़ाम कर दिया गया है। इधर हाईकोर्ट से फैसला हुआ, उधार आपको जगह मिली।' डिप्टी साहब ने सिगार का धुआं फेंक कर कहा,यह डी. ओ. कमिश्नर साह
ब ने आपको दिया है, जिसमें आपको कोई तरह की शक न हो । देखिए,यू. पी. के होम सेद्रेटरी के नाम है । आप वहां यह डी. ओ. दिखाएंगे, वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा । इंस्पेक्टर,कमिश्नर साहब आपसे बहुत ख़ुश हैं, हलफ से कहता हूं । डिप्टी-बहुत ख़ुश हैं। वह यू. पी. को अलग डायरेक्ट भी चिटठी लिखेगा। तुम्हारा भाग्य खुल गया।' यह कहते हुए उसने डी. ओ. रमा की तरफ बढ़ा दिया। रमा ने लिफाफा खोलकर देखा और एकाएक उसको फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला ब तीनों आदमी विस्मय से उसका मुंह ताकने लगे । दारोग़ा ने कहा, 'रात बहुत पी गए थे क्या? आपके हक में अच्छा न होगा!' इंस्पेक्टर, 'हलफ से कहता हूं, कमिश्नर साहब को मालूम हो जायगा, तो बहुत नाराज होंगे।' डिप्टी, 'इसका कुछ मतलब हमारे समझ में नहीं आया ।इसका क्या मतलब है?' रमानाथ-'इसका यह मतलब है कि मुझे इस डी. ओ. की जरूरत नहीं है और न मैं नौकरी चाहता हूं। मैं आज ही यहां से चला जाऊंगा।' डिप्टी-'जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जाय, तब तक आप कहीं नहीं जा सकता।' डिप्टी-'कमिश्नर साहब का यह हुक्म है।' रमानाथ-'मैं किसी का गुश्लाम नहीं हूं। इंस्पेक्टर-'बाबू रमानाथ, आप क्यों बना-बनाया खेल बिगाड़ रहे हैं?जो कुछ होना था, वह हो गया। दस-पांच दिन में हाईकोर्ट से फैसले की तसदीक हो जायगी आपकी बेहतरी इसी में है कि जो सिला मिल रहा है, उसे ख़ुशी से लीजिए और आराम से जिंदगी के दिन बसर कीजिए। ख़ुदा ने चाहा, तो एक दिन आप भी किसी ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाएंगे। इससे क्या फायदा कि अफसरों को नाराज़ कीजिए और कैद की मुसीबतें झेलिए। हलफ से कहता हूं, अफसरों की ज़रा-सी निगाह बदल जाय, तो आपका कहीं पता न लगे। हलफ से कहता हूं, एक इशारे में आपको दस साल की सज़ा हो जाय। आप हैं किस ख़याल में? हम आपके साथ शरारत
नहीं करना चाहते। हां, अगर आप हमें सख्ती करने पर मजबूर करेंगे, तो हमें सख्ती करनी पड़ेगी। जेल को आसान न समझिएगा। ख़ुदा दोज़ख में ले जाए, पर जेल की सज़ा न दे। मार-धाड़, गाली-गुतरि वह तो वहां की मामूली सज़ा है। चक्की में जोत दिया तो मौत ही आ गई। हलफ से कहता हूं, दोज़ख से बदतर है जेल! ' दारोग़ा -'यह बेचारे अपनी बेगम साहब से माज़ूर हैं ब वह शायद इनके जान की गाहक हो रही हैं। उनसे इनकी कोर दबती है ।' इंस्पेक्टर, 'क्या हुआ, कल तो वह हार दिया था न? फिर भी राज़ी नहीं हुई ?' रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज़ पर रख दिया और बोला,वह हार यह रक्खा हुआ है। इंस्पेक्टर-- 'अच्छा, इसे उन्होंने नहीं कबूल किया।' डिप्टी-'कोई प्राउड लेडी है ।' इंस्पेक्टर-'कुछ उनकी भी मिज़ाज़-पुरसी करने की जरूरत होगी ।' दारोग़ा -'यह तो बाबू साहब के रंग-ढंग और सलीके पर मुनहसर है। अगर आप ख्वामख्वाह हमें मज़बूर न करेंगे, तो हम आपके पीछे न पडेंगे ।' डिप्टी-'उस खटिक से भी मुचलका ले लेना चाहिए ।' रमानाथ के सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई, पहली से कहीं जटिल, कहीं भीषण। संभव था, वह अपने को कर्तव्य की वेदी पर बलिदान कर देता, दो-चार साल की सज़ा के लिए अपने को तैयार कर लेता। शायद इस समय उसने अपने आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया था, पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का साहस वह किसी तरह न कर सकता था। वह पुलिस के शिकंजे में कुछ इस तरह दब गया था कि अब उसे बेदाग निकल जाने का कोई मार्ग दिखाई न देता था ।उसने देखा कि इस लडाई में मैं पेश नहीं पा सकता पुलिस सर्वशक्तिमान है, वह मुझे जिस तरह चाहे दबा सकती है । उसके मिज़ाज़ की तेज़ी गायब हो गई। विवश होकर बोला, 'आख़िर आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं? ' इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर आंखें मारीं, मानो कह रहे हों, 'आ गया पंजे में', और बोले, 'बस इतना ही कि आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुकदमे के हाईकोर्ट में तय हो जाने के बाद यहां से रूख़सत हो जाएं । क्योंकि उसके बाद हम आपकी हिफाज़त के ज़िम्मेदार न होंगे। अगर आप कोई सर्टिफिकेट लेना चाहेंगे, तो वह दे दी जाएगी, लेकिन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अख्तियार है। अगर आप होशियार हैं, तो उसे लेकर फायदा उठाएंगे, नहीं इधरउधर के धक्के खाएंगे। आपके ऊपर गुनाह बेलज्ज़त की मसल सादिक आयगी। इसके सिवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते ब हलफ से कहता हूं, हर एक चीज़ जिसकी आपको ख्वाहिश हो, यहां हाज़िर कर दी जाएगी, लेकिन जब तक मुकदमा खत्म हो जाए, आप आज़ाद नहीं हो सकते । रमानाथ ने दीनता के साथ पूछा, 'सैर करने तो जा सकूंगा, या वह भी नहीं?' इंस्पेक्टर ने सूत्र रूप से कहा, 'जी नहीं! ' दारोग़ा ने उस सूत्र की व्याख्या की, 'आपको वह आज़ादी दी गई थी, पर आपने उसका बेजा इस्तेमाल किया ब जब तक इसका इत्मीनान न हो जाय कि आप उसका जायज इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, आप उस हक से महरूम रहेंगे।' दारोग़ा ने इंस्पेक्टर की तरफ देखकर मानो इस व्याख्या की दाद देनी चाही,जो उन्ह
ें सहर्ष मिल गई। तीनों अफसर रूख़सत हो गए और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा । एक महीना और निकल गया। मुकदमे के हाईकोर्ट में पेश होने की तिथि नियत हो गई है। रमा के स्वभाव में फिर वही पहले की-सी भीरूता और ख़ुशामद आ गई है। अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा पहले से बढ़ गई है, विलासिता ने मानो पंजे में दबा लिया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या ज़ोहरा भी आ जाती है, जिसका गाना वह बडे शौक से सुनता है । एक दिन उसने बडी हसरत के साथ ज़ोहरा से कहा, 'मैं डरता हूं, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़जाय। उसका नतीजा इसके सिवा और क्या होगा कि रो-रोकर ज़िंदगी काटूं, तुमसे वफा की उम्मीद और क्या हो सकती है!' ज़ोहरा दिल में ख़ुश होकर अपनी बडी-बडी रतनारी आंखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली,हां साहब, हम वफा क्या जानें, आख़िर वेश्या ही तो ठहरीं! बेवफा वेश्या भी कहीं वफादार हो सकती है? ' रमा ने आपत्ति करके पूछा, 'क्या इसमें कोई शक है? ' ज़ोहरा -' 'नहीं, ज़रा भी नहीं ब आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे दिल लेकर आते हैं, पर हम उसकी ज़रा भी कद्र नहीं करतीं ब यही बात है न? ' ज़ोहरा--'मुआफ कीजिएगा, आप मरदों की तरफदारी कर रहे हैं। हक यह है कि वहां आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज़ ग़म ग़लत करने के लिए, महज़ आनंद उठाने के लिए। जब आपको वफा की तलाश ही नहीं होती, तो वह मिले क्यों कर- लेकिन इतना मैं जानती हूं कि हममें जितनी बेचारियां मरदों की बेवफाई से निराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती हैं, उनका पता अगर दुनिया को चले, तो आंखें खुल जायं। यह हमारी भूल है कि तमाशबीनों से वफा चाहते हैं, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हैं, पर प्यासा आदमी अंधे कुएं की तरफ दौडे।, तो मेरे ख़याल में उसका कोई
कसूर नहीं।' उस दिन रात को चलते वक्त ज़ोहरा ने दारोग़ा को ख़ुशख़बरी दी, 'आज तो हज़रत ख़ूब मजे में आए ब ख़ुदा ने चाहा, तो दो-चार दिन के बाद बीवी का नाम भी न लें।' दारोग़ा ने ख़ुश होकर कहा, 'इसीलिए तो तुम्हें बुलाया था। मज़ा तो जब है कि बीवी यहां से चली जाए। फिर हमें कोई ग़म न रहेगा। मालूम होता है स्वराज्यवालों ने उस औरत को मिला लिया है। यह सब एक ही शैतान हैं।' ज़ोहरा की आमोदरफ्त बढ़ने लगी, यहां तक कि रमा ख़ुद अपने चकमे में आ गया। उसने ज़ोहरा से प्रेम जताकर अफसरों की नजर में अपनी साख जमानी चाही थी, पर जैसे बच्चे खेल में रो पड़ते हैं, वैसे ही उसका प्रेमाभिनय भी प्रेमोन्माद बन बैठा ज़ोहरा उसे अब वफा और मुहब्बत की देवी मालूम होती थी। वह जालपा की-सी सुंदरी न सही, बातों में उससे कहीं चतुर, हाव-भाव में कहीं कुशल, सम्मोहन-कला में कहीं पटु थी। रमा के ह्रदय में नए-नए मनसूबे पैदा होने लगे। एक दिन उसने ज़ोहरा से कहा, 'ज़ोहरा -' जुदाई का समय आ रहा है । दो-चार दिन में मुझे यहां से चला जाना पडेगा । फिर तुम्हें क्यों मेरी याद आने लगी?' ज़ोहरा ने कहा, 'मैं तुम्हें न जाने दूंगी। यहीं कोई अच्छी-सी नौकरी कर लेना। फिर हम-तुम आराम से रहेंगे ।' रमा ने अनुरक्त होकर कहा, 'दिल से कहती हो ज़ोहरा? देखो, तुम्हें मेरे सिर की कसम, दग़ा मत देना।' ज़ोहरा-'अगर यह ख़ौफ हो तो निकाह पढ़ा लो। निकाह के नाम से चिढ़ हो, तो ब्याह कर लो। पंडितों को बुलाओ। अब इसके सिवा मैं अपनी मुहब्बत का और क्या सबूत दूं।' रमा निष्कपट प्रेम का यह परिचय पाकर विह्नल हो उठा। ज़ोहरा के मुंह से निकलकर इन शब्दों की सम्मोहक-शक्ति कितनी बढ़गई थी। यह कामिनी,जिस पर बडे-बडे रईस फिदा हैं, मेरे लिए इतना बडा त्याग करने को तैयार है! जिस खान में औरों को बालू ही मिलता है, उसमें जिसे सोने के डले मिल जायं, क्या वह परम भाग्यशाली नहीं है? रमा के मन में कई दिनों तक संग्राम होता रहा। जालपा के साथ उसका जीवन कितना नीरस, कितना कठिन हो जायगा। वह पग-पग पर अपना धर्म और सत्य लेकर खड़ी हो जाएगी और उसका जीवन एक दीर्घ तपस्या, एक स्थायी साधना बनकर रह जाएगा। सात्विक जीवन कभी उसका आदर्श नहीं रहा। साधारण मनुष्यों की भांति वह भी भोग-विलास करना चाहता था। जालपा की ओर से हटकर उसका विलासासक्त मन प्रबल वेग से ज़ोहरा की ओर खिंचा। उसको व्रत-धारिणी वेश्याओं के उदाहरण याद आने लगे। उसके साथ ही चंचल वृत्ति की गृहिणियों की मिसालें भी आ पहुचीं। उसने निश्चय किया, यह सब ढकोसला है। न कोई जन्म से निर्दोष है, न कोई दोषी। यह सब परिस्थिति पर निर्भर है। ज़ोहरा रोज आती और बंधन में एक गांठ और देकर जाती । ऐसी स्थिति में संयमी युवक का आसन भी डोल जाता। रमा तो विलासी था। अब तक वह केवल इसलिए इधर-उधर न भटक सका था कि ज्योंही, उसके पंख निकले, जालिये ने उसे अपने पिंजरे में बंद कर दिया। कुछ दिन पिंजरे से बाहर रहकर भी उसे उड़ने का साहस न हुआ। अब उसके सामने एक नवीन दृश्य था, वह छोटा-सा कु
ल्हियों वाला पिंज़रा नहीं, बल्कि एक गुलाबों से लहराता हुआ बाग़, जहां की कैद में स्वाधीनता का आनंद था। वह इस बाग़ में क्यों न क्रीडा का आनंद उठाए! रमा ज्यों-ज्यों ज़ोहरा के प्रेम-पाश में फंसता जाता था, पुलिस के अधिकारी वर्ग उसकी ओर से निश्शंक होते जाते थे। उसके ऊपर जो कैद लगाई गई थी, धीरे-धीरे ढीली होने लगी। यहां तक कि एक दिन डिप्टी साहब शाम को सैर करने चले तो रमा को भी मोटर पर बिठा लिया। जब मोटर देवीदीन की दूकान के सामने से होकर निकली, तो रमा ने अपना सिर इस तरह भीतर खींच लिया कि किसी की नज़र न पड़ जाय। उसके मन में बडी उत्सुकता हुई कि जालपा है या चली गई, लेकिन वह अपना सिर बाहर न निकाल सका। मन में वह अब भी यही समझता था कि मैंने जो रास्ता पकडाहै, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है, लेकिन यह जानते हुए भी वह उसे छोड़ना न चाहता था। देवीदीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झुक जाता,वह किसी दलील से अपना पक्ष सिद्ध न कर सकता उसने सोचा, मेरे लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि इनसे मिलना-जुलना छोड़ दूं। उस शहर में तीन प्राणियों को छोड़कर किसी चौथे आदमी से उसका परिचय न था, जिसकी आलोचना या तिरस्कार का उसे भय होता। मोटर इधर-उधर घूमती हुई हाबडा-ब्रिज की तरफ चली जा रही थी, कि सहसा रमा ने एक स्त्री को सिर पर गंगा-जल का कलसा रक्खे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे थे और कृशांगी ऐसी थी कि कलसे के बोझ से उसकी गरदन दबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से मिलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहां क्या करने आवेगी, मगर एक ही पल में कार और आगे बढ़गई और रमा को उस स्त्री का मुंह दिखाई दिया। उसकी छाती धक-से हो गई। यह जालपा ही थी। उसने खिड़की के बगल में सिर छिपाकर गौर से देखा। बेशक जालपा थी, पर
कितनी दुर्बल! मानो कोई वृद्धा, अनाथ हो न वह कांति थी, न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गर्व, रमा ह्रदयहीन न था। उसकी आंखें सजल हो गई। जालपा इस दशा में और मेरे जीते जी! अवश्य देवीदीन ने उसे निकाल दिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना निर्वाह कर रही होगी। नहीं,देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने ख़ुद उसके आश्रय में रहना स्वीकार न किया होगा। मानिनी तो है ही। कैसे मालूम हो, क्या बात है?मोटर दूर निकल आई थी। रमा की सारी चंचलता, सारी भोगलिप्सा गायब हो गई थी। मलिन वसना, दुखिनी जालपा की वह मूर्ति आंखों के सामने खड़ी थी।किससे कहे? क्या कहे?यहां कौन अपना है? जालपा का नाम ज़बान पर आ जाय, तो सब-के-सब चौंक पड़ें और फिर घर से निकलना बंद कर दें। ओह! जालपा के मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आंखों में कितनी निराशा! आह, उन सिमटी हुई आंखों में जले हुए ह्रदय से निकलने वाली कितनी आहें सिर पीटती हुई मालूम होती थीं, मानो उन पर हंसी कभी आई ही नहीं, मानो वह कली बिना खिले ही मुरझा गई। कुछ देर के बाद ज़ोहरा आई, इठलाती, मुस्कराती, लचकती, पर रमा आज उससे भी कटा-कटा रहा। ज़ोहरा ने पूछा, 'आज किसी की याद आ रही है क्या?'यह कहते हुए उसने अपनी गोल नर्म मक्खन-सी बांह उसकी गरदन में डालकर उसे अपनी ओर खींचा। रमा ने अपनी तरफ ज़रा भी ज़ोर न किया। उसके ह्रदय पर अपना मस्तक रख दिया, मानो अब यही उसका आश्रय है। ज़ोहरा ने कोमलता में डूबे हुए स्वर में पूछा, 'सच बताओ, आज इतने उदास क्यों हो? क्या मुझसे किसी बात पर नाराज़ हो?' रमा ने आवेश से कांपते हुए स्वर में कहा, 'नहीं ज़ोहरा -' तुमने मुझ अभागे पर जितनी दया की है, उसके लिए मैं हमेशा तुम्हारा एहसानमंद रहूंगा। तुमने उस वक्त मुझे संभाला, जब मेरे जीवन की टूटी हुई किश्ती गोते खा रही थी, वे दिन मेरी जिंदगी के सबसे मुबारक दिन हैं और उनकी स्मृति को मैं अपने दिल में बराबर पूजता रहूंगा। मगर अभागों को मुसीबत बार-बार अपनी तरफ खींचती है! प्रेम का बंधन भी उन्हें उस तरफ खिंच जाने से नहीं रोक सकता । मैंने जालपा को जिस सूरत में देखा है, वह मेरे दिल को भालों की तरह छेद रहा है। वह आज फटे-मैले कपड़े पहने, सिर पर गंगा-जल का कलसा लिये जा रही थी। उसे इस हालत में देखकर मेरा दिल टुकडे।-टुकडे। हो गया। मुझे अपनी जिंदगी में कभी इतना रंज न हुआ था। ज़ोहरा -' कुछ नहीं कह सकता, उस पर क्या बीत रही है।' ज़ोहरा ने पूछा, 'वह तो उस बुडढे मालदार खटिक के घर पर थी?' रमानाथ-'हां थी तो, पर नहीं कह सकता, क्यों वहां से चली गई। इंस्पेक्टर साहब मेरे साथ थे। उनके सामने मैं उससे कुछ पूछ तक न सका। मैं जानता हूं, वह मुझे देखकर मुंह उधर लेती और शायद मुझे जलील समझती, मगर कमसे- कम मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह इस वक्त इस दशा में क्यों है। हरा, तुम मुझे चाहे दिल में जो कुछ समझ रही हो, लेकिन मैं इस ख़याल में मगन हूं कि तुम्हें मुझसे प्रेम है। और प्रेम करने वालों से हम कम-से-कम हमदर्दी की आशा करते हैं ब यहां
एक भी ऐसा आदमी नहीं, जिससे मैं अपने दिल का कुछ हाल कह सयं ब तुम भी मुझे रास्ते पर लाने ही के लिए भेजी गई थीं, मगर तुम्हें मुझ पर दया आई। शायद तुमने गिरे हुए आदमी पर ठोकर मारना मुनासिब न समझा, अगर आज हम और तुम किसी वजह से रूठ जायं, तो क्या कल तुम मुझे मुसीबत में देखकर मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी? क्या मुझे भूखों मरते देखकर मेरे साथ उससे कुछ भी ज्यादा सलूक न करोगी, जो आदमी कुत्तों के साथ करता है? मुझे तो ऐसी आशा नहीं। जहां एक बार प्रेम ने वास किया हो,वहां उदासीनता और विराग चाहे पैदा हो जाय, हिंसा का भाव नहीं पैदा हो सकता क्या तुम मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी ज़ोहरा? तुम अगर चाहो, तो जालपा का पूरा पता लगा सकती हो,वह कहां है, क्या करती है, मेरी तरफ से उसके दिल में क्या ख़याल है, घर क्यों नहीं जाती, यहां कब तक रहना चाहती है? अगर तुम किसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राज़ी कर सको ज़ोहरा -' तो मैं उम्र-भर तुम्हारी गुलामी करूंगा। इस हालत में मैं उसे नहीं देख सकता शायद आज ही रात को मैं यहां से भाग जाऊं। मुझ पर क्या गुज़रेगी, इसका मुझे ज़रा भी भय नहीं हैं। मैं बहादुर नहीं हूं,बहुत ही कमज़ोर आदमी हूं। हमेशा ख़तरे के सामने मेरा हौसला पस्त हो जाता है, लेकिन मेरी बेगैरती भी यह चोट नहीं सह सकती।' ज़ोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदमियों से साबिका पड़ चुका था। उसकी आंखों में आदमियों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यक्तियों में एक बडा फर्क दिखाई देता था ।पहले वह यहां भी पैसे की गुलाम बनकर आई थी, लेकिन दो-चार दिन के बाद ही उसका मन रमा की ओर आकर्षित होने लगा। प्रौढ़ा स्त्रियां अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दोष हों, पर अनुराग था। इस जीवन में ज़ो
हरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था जिसने उसके सामने अपना ह्रदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रक्खा। ऐसे अनुराग रत्न को वह खोना नहीं चाहती थी। उसकी बात सुनकर उसे ज़रा भी ईर्ष्या न हुई,बल्कि उसके मन में एक स्वार्थमय सहानुभूति उत्पन्न हुई। इस युवक को, जो प्रेम के विषय में इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के लिए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी। जालपा कितनी ही रूपवती क्यों न हो, ज़ोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर सकती थी। इसके पहले उसने कई महान सुंदरी खत्रानियों को रूलाकर छोड़ दिया था , फिर जालपा किस गिनती में थी। ज़ोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा, 'तो इसके लिए तुम क्यों इतनारंज करते हो, प्यारे! ज़ोहरा तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊंगी और वह यहां रहना चाहेगी, तो उसके आराम के सब सामान कर दूंगी । जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूंगी।' रमा ने बडी दीनता से कहा, 'एक बार मैं उससे मिल लेता, तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।' ज़ोहरा चिंतित होकर बोली, 'यह तो मुश्किल है प्यारे! तुम्हें यहां से कौन जाने देगा?' रमानाथ-'कोई तदबीर बताओ।' ज़ोहरा -'मैं उसे पार्क में खड़ी कर आऊंगी। तुम डिप्टी साहब के साथ वहां जाना और किसी बहाने से उससे मिल लेना। इसके सिवा तो मुझे और कुछ नहीं सूझता। रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था कि दारोग़ाजी ने पुकारा, 'मुझे भी खिलवत में आने की इजाज़त है? ' दोनों संभल बैठे और द्वार खोल दिया। दारोग़ाजी मुस्कराते हुए आए और ज़ोहरा की बग़ल में बैठकर बोले, 'यहां आज सन्नाटा कैसा! क्या आज खजाना खाली है? ज़ोहरा -' आज अपने दस्ते-हिनाई से एक जाम भर कर दो।' रमानाथ-' भाईजान नाराज़ न होना।' रमा ने कुछ तुर्श होकर कहा, 'इस वक्त तो रहने दीजिए, दारोग़ाजी, आप तो पिए हुए नजर आते हैं।' दारोग़ा ने ज़ोहरा का हाथ पकड़कर कहा, 'बस, एक जाम ज़ोहरा -' और एक बात और, आज मेरी मेहमानी कबूल करो! ' रमा ने तेवर बदलकर कहा, 'दारोग़ाजी, आप इस वक्त यहां से जायं। मैं यह गवारा नहीं कर सकता दारोग़ा ने नशीली आंखों से देखकर कहा, 'क्या आपने पट्टा लिखा लिया है? ' रमा ने कड़ककर कहा, 'जी हां, मैंने पट्टा लिखा लिया है!' दारोग़ा -'तो आपका पट्टा खारिज़! ' रमानाथ-'मैं कहता हूं, यहां से चले जाइए।' दारोग़ा -'अच्छा! अब तो मेंढकी को भी जुकाम पैदा हुआ! क्यों न हो, चलो ज़ोहरा -' इन्हें यहां बकने दो।' यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया। रमा ने उनके हाथ को झटका देकर कहा, 'मैं कह चुका, आप यहां से चले जाएं ।ज़ोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गई, तो मैं उसका और आपका-दोनों का ख़ून पी जाऊंगा। ज़ोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूं, कोई उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकता।' यह कहते हुए उसने दारोग़ा साहब का हाथ पकड़कर दरवाज़े के बाहर निकाल दिया और दरवाज़ा ज़ोर से बंद करके सिटकनी लगा दी। दारोग़ाजीबलिष्ठ आदमी थे, लेकिन इस वक्त नशे ने उन्हें दुर्बल बना दिया थ
ा । बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गालियां बकने और द्वार पर ठोकर मारने लगे। रमा ने कहा, 'कहो तो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दूं। शैतान का बच्चा! ' ज़ोहरा -' 'बकने दो, आप ही चला जायगा। ' रमानाथ-'चला गया।' ज़ोहरा ने मगन होकर कहा, 'तुमने बहुत अच्छा किया, सुअर को निकाल बाहर किया। मुझे ले जाकर दिक करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते? ' रमानाथ-'मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त क़हां से इतनी ताकत आ गई थी।' ज़ोहरा -' और जो वह कल से मुझे न आने दे तो?' रमानाथ-'कौन, अगर इस बीच में उसने ज़रा भी भांजी मारी, तो गोली मार दूंगा। वह देखो, ताक पर पिस्तौल रक्खा हुआ है। तुम अब मेरी हो,ज़ोहरा! मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं संतुष्ट हो सकता हूं। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूं। किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में आने का मजाज़ नहीं है,जब तक मैं मर न जाऊं।' ज़ोहरा की आंखें चमक रही थीं , उसने रमा की गरदन में हाथ डालकर कहा, 'ऐसी बात मुंह से न निकालो, प्यारे! ' सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अंधाकारमय घाटियां सामने आ जातीं, कभी आशा की लहराती हुई हरियाली । ज़ोहरा गई भी होगी ? यहां से तो बडे। लंबे-चौड़े वादे करके गई थी। उसे क्या ग़रज़ है? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो न देगी? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाए। बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाए आफत आ जाय। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृति की हो सकती है?कभी नहीं, अगर ज़ोहरा इतनी बेवफा, इतनी दग़ाबाज़ है, तो यह दुनिया रहने के लायक ही नहीं। जितनी जल्द आदमी मुंह में कालिख लगाकर डूब मरे, उतना ही अच्छा। नहीं, ज़ोहरा मुझसे दग़ा न करे
गी। उसे वह दिन याद आए, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा लपककर उसकी जेब टटोलती थी और रूपये निकाल लेती थी। वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गई। तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना की वस्तु है। जालपा मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूं। जिस ऊंचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहां तक पहुंचने की शक्ति मुझमें नहीं है। वहां पहुंचकर शायद चक्कर खाकर फिर पडूंब मैं अब भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाता हूं। मैं जानता हूं, तुमने मुझे अपने ह्रदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गई हो, तुम्हें अब मेरे डूबने का दुःख है न तैरने की ख़ुशी, पर शायद अब भी मेरे मरने या किसी घोर संकट में फंस जाने की ख़बर पाकर तुम्हारी आंखों से आंसू निकल आएंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हा! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूं। रमा को अब अपनी उस ग़लती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उसने जालपा की बात न मानकर की थी।अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान बदल दिया होता, धामकियों में न आता, हिम्मत मज़बूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती? उसे विश्वास था, जालपा के साथ वह सारी कठिनाइयां झेल जाता। उसकी श्रद्धा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांसी भी हो जाती, तो वह हंसते-खेलते उस पर चढ़जाता। मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं,जालपा की ख़ातिर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैद जब भोगना ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो यह कहीं अच्छा है कि हंस-हंसकर भोगा जाय। आख़िर पुलिसअधिकारियों के दिल में अपना विश्वास जमाने के लिए वह और क्या करता! यह दुष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झूठे मुकदमे चलाकर उसे सज़ा दिलाते। वह दशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बल था, सब अपमान सह सकता था, जालपा तो शायद प्राण ही दे देती। उसे आज ज्ञात हुआ कि वह जालपा को छोड़ नहीं सकता, और ज़ोहरा को त्याग देना भी उसके लिए असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दोनों रमणियों को प्रसन्न रख सकता था?क्या इस दशा में जालपा उसके साथ रहना स्वीकार करेगी? कभी नहीं। वह शायद उसे कभी क्षमा न करेगी! अगर उसे यह मालूम भी हो जाये कि उसी के लिए वह यह यातना भोग रहा है, तो वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे लिए तुमने अपनी आत्मा को क्यों कलंकित किया- मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी। वह दिनभर इसी उधोड़-बुन में पडारहा। आंखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया ब किसी बात की परवा न थी। अख़बार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा, मगर किसी काम में भी चित्त न लगा। आज दारोग़ाजी भी नहीं आए। या तो रात की घटना से रूष्ट या लज्जित थे। या कहीं बाहर चले गए। रमा ने किसी से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं । सभी दुर्बल मनुष्यों की भांति रमा भी अपने पतन से लज्जित था। वह जब एकांत में बैठता, तो उसे अपनी दशा पर दुःख होता,क्यों उसकी विलासवृत्ति इतनी प्रबल है? वह इतना विवेक-शून्य न था कि अध
ोगति में भी प्रसन्न रहता, लेकिन ज्योंही और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, ज़ोहरा सामने आकर बैठ जाती, उसका सारा विवेक और धर्म-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता। रात के दस बज गए, पर ज़ोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक बंद हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही, लेकिन फिर भी उसके कान लगे हुए थे। क्या बात हुई- क्या जालपा उसे मिली ही नहीं या वह गई ही नहीं? उसने इरादा किया अगर कल ज़ोहरा न आई, तो उसके घर पर किसी को भेजूंगा। उसे दो-एक झपकियां आइ और सबेरा हो गया। फिर वही विकलता शुरू हुई। किसी को उसके घर भेजकर बुलवाना चाहिए। कम-से-कम यह तो मालूम हो जाय कि वह घर पर है या नहीं। दारोग़ा के पास जाकर बोला, 'रात तो आप आपे में न थे।' दारोग़ा ने ईर्ष्याको छिपाते हुए कहा, 'यह बात न थी। मैं महज़ आपको छेड़ रहा था।' रमानाथ-'ज़ोहरा रात आई नहीं , ज़रा किसी को भेजकर पता तो लगवाइए, बात क्या है। कहीं नाराज़ तो नहीं हो गई?' दारोग़ा ने बेदिली से कहा, 'उसे गरज़ होगा खुद आएगी। किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।' रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत रात बिगड़ गए। चुपके से चला आया। अब किससे कहे, सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता था। लोग समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोग़ा से तो थोड़ीसी घनिष्ठता हो गई थी। एक हफ्ते तक उसे ज़ोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आख़िर बेवफा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। या मुमकिन है, पुलिस-अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो कम-से-कम मुझे एक पत्र तो लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। कहीं इन लोगों से न कह दे, तो उल्टी आंतें गले पड़ जायं, मगर ज़ोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। रमा की अंतरात्मा इसकी गवाही देती थी।इस ब
ात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दस-पांच दिन तो जरूर ज़ोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी। फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नो होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना। उसकी वह हसरत भरी बातें याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देतीं। जरूर कोई न कोई नई बात हो गई है। वह अक्सर एकांत में बैठकर ज़ोहरा की याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा हो गई। दारोग़ाजी आते, इंस्पेक्टर साहब आते पर, रमा को उनके साथ दस-पांच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेडे।, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता, तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने की उसकी इच्छा ही न होती। यहां कोई उसका हमदर्द न था, कोई उसका मित्र न था, एकांत में मन-मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शांति होती थी। उसकी स्मृतियों में भी अब कोई आनंद न था। नहीं, वह स्मृतियां भी मानो उसके ह्रदय से मिट गई थीं। एक प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था। नाराज़ हो? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-गछे ?' रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। ज़ोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा, क्या यह खफगी इसलिए है कि मैं इतने दिनों आई क्यों नहीं!' रमा ने रूखाई से जवाब दिया, 'अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आई!' यह कहने के साथ उसे ख़याल आया कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूं। लज्जित नजरों से उसकी ओर ताकने लगा। ज़ोहरा ने मुस्कराकर कहा, 'यह अच्छी दिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी तो आप बिगड़ रहे हैं। क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाने में पूरा हो जाएगा। तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा था, जो ऊपर से फल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मज़बूत है।' रमा ने बेदिली से पूछा, 'है कहां? क्या करती है? ' ज़ोहरा-'उसी दिनेश के घर हैं, जिसको फांसी की सज़ा हो गई है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और मां है। दिनभर उन्हीं बच्चों को खिलाती है, बुढिया के लिए नदी से पानी लाती है। घर का सारा काम-काज करती है और उनके लिए बडे।-बडे आदमियों से चंदा मांग लाती है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद थी, न रूपये थे। लोग बडी तकलीफ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें ढाढ़स तो देता। जितने साथी-सोहबती थे, सब-के-सब मुंह छिपा बैठे।दो-तीन फाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला लिया।' रमा की सारी बेदिली काफूरहो गई। जूता छोड़ दिया और कुर्सी पर बैठकर बोले, 'तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से बताओ, तुमने तो बीच में से कहना शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुंची- पता कैसे लगा?' ज़ोहरा-'कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटिक के पास गई। उसने दिनेश के घर का पता बता दिया। चटपट जा पहुंची।' रमानाथ-'तुमने जाकर उसे पुकारा- तुम्हें देखकर कुछ चौंकी नहीं? कुछ झिझकी तो जरूर होगी! ज़ोहरा मुस्कराकर बोली,मैं इस र
ूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गई और ब्रह्मा-समाजी लेडी का स्वांग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौनसी बात है, जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हूं, या क्या हूं। और ब्रह्माणों- लेडियों को देखती हूं, कोई उनकी तरफ आंखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिलकुल नहीं पहनती। फिर भी सब मेरी तरफ आंखें फाड़- फाड़कर देखते हैं। मेरी असलियत नहीं छिपती। यही खौफ मुझे था कि कहीं जालपा भांप न जाय, लेकिन मैंने दांत ख़ूब साफ कर लिए थे। पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कालेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहां पहुंची। ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या, कोई भी न भांप सकता था। परदा ढंका रह गया। मैंने दिनेश की मां से कहा, 'मैं यहां यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूं। अपना घर मुंगेर बतलाया। बच्चों के लिए मिठाई ले गई थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गई थी, और मेरा ख़याल है कि मैंने ख़ूब खेला, दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी-कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगाजल लिये पहुंची। मैंने दिनेश की मां से बंगला में पूछा, 'क्या यह कहारिन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गई है। यहां इनका शौहर किसी दफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम, रोज़ सबेरे आ जाती हैं और बच्चों को खेलाने ले जाती हैं। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और ख़ुद लाती हैं। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे। जब से यह आ गई हैं, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है। उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पार्क है। महल्ले-भर के बच
्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गई थी, जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चलीं। मैं जो मिठाई ले गई थी, उसमें से बूढ़ी ने एक- एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कूद-कूदकर नाचने लगे। बच्चों की इस ख़ुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयां खाते हुए जालपा के साथ हो लिए। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगीं! रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे को झुक गया। बोला,तुमने किस तरह बातचीत शुरू की। ज़ोहरा -' 'कह तो रही हूं। मैंने पूछा, 'जालपा देवी, तुम कहां रहती हो? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बडाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गई हूं।' रमानाथ-'यही लफ्ज कहा था तुमने?' ज़ोहरा-'हां, जरा मज़ाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली,तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होतीं। इतनी साफ हिंदी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा, 'मैं मुंगेर की रहने वाली हूं और वहां मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूं। आपसे कभी-कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहां रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊंगी। आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊंगी। जालपा ने शरमाकर कहा, 'तुम तो मुझे बनाने लगीं, कहां तुम कालेजकी पढ़ने वाली, कहां मैं अपढ़गंवार औरत। तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊंगी। जब जी चाहे, यहीं चले आना। यही मेरा घर समझो। मैंने कहा, 'तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रक्खी है। बडे। अच्छे ख़यालों के आदमी होंगे। किस दफ्तर में नौकर हैं?' जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा, 'पुलिस में उम्मेदवार हैं।' मैंने ताज्जुब से पूछा, 'पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहां आने की आज़ादी देते हैं?' जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली, 'वह मुझसे कुछ नहीं कहते---मैंने उनसे यहां आने की बात नहीं कही--वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिस वालों के साथ रहते हैं।' उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिए। फिर भी उन्हें शक हो रहा था कि इनमें से कोई जवाब इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी-सी होकर दूसरी तरफ ताकने लगी। मैंने पूछा, 'तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुख़बिर से करा सकती हो, जिसने इन कैदियों के ख़िलाफ गवाही दी है? रमानाथ की आंखें फैल गई और छाती धक-धक करने लगी। जोहरा बोली, 'यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आंखों से देखकर पूछा,तुम उनसे मिलकर क्या करोगी?' मैंने कहा, 'तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं, मैं उनसे यही पूछना चाहती हूं कि तुमने इतने आदमियों को फंसाकर क्या पाया? देखूंगी वह क्या जवाब देते हैं?' जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली, 'वह यह कह सकता है, मैंने अपने फायदे के लिए किया! सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा।' जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाय? इससे कोई फायदा नहीं। मैंने कहा, 'अच्छा, मान लो तुम्हारा पति ऐसी मुख़बिरी करता, तो तुम
क्या करतीं? जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आंखों से देखकर कहा, 'तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढ़तीं?' मैंने कहा,'मैं तो उनसे कभी न बोलती, न कभी उनकी सूरत देखती।' जालपा ने गंभीर चिंता के भाव से कहा, 'शायद मैं भी ऐसा ही समझती,या न समझती,कुछ कह नहीं सकती। आख़िर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरतें हैं, वे क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहतीं, जिस तरह उनके ह्रदय अपने मरदों के-से हो गए हैं, संभव है, मेरा ह्रदय भी वैसा ही हो जाता।' इतने में अंधेरा हो गया। जालपादेवी ने कहा, 'मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलिएगा। आपकी बातों में बडा आनंद आता है।' पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही हो तो आओ, कुछ देर गप-शप करें।' मैं तो यह चाहती ही थी। अपना नाम ज़ोहरा बतला दिया। रमा ने पूछा, 'सच!' ज़ोहरा- 'हां, हरज क्या था। पहले तो जालपा भी ज़रा चौंकी, पर कोई बात न थी। समझ गई, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गई। उस ज़रासे कठघरे में न जाने वह कैसे बैठती हैं। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावनब सील और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा दिया,जाकर बच्चों को खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोए देती हूं। और ख़ुद बरतन मांजने लगीं। उनकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गई और मांजे हुए बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहां से हट जाने के लिए कहा, पर मैं न हटीब, बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा, 'मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझे बडी शर्म आती है, तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहां
आना तो तुम्हारी सजा हो गई, तुमने ऐसा काम अपनी जिंदगी में क्यों किया होगा! मैंने कहा, 'तुमने भी तो कभी नहीं किया होगा, जब तुम करती हो, तो मेरे लिए क्या हरज है।' जालपा ने कहा, 'मेरी और बात है।' मैंने पूछा, 'क्यों? जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो?' जालपा ने कहा, 'महरियां आठ-आठ रूपये मांगती हैं।' मैं बोली, 'मैं आठ रूपये महीना दे दिया करूंगी।' जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन! आह! कितनी पाकीजा थी, कितनी पाक करने वाली। उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी जिंदगी कितनी जलील, कितनी काबिले नगरत मालूम हो रही थी। उन बरतनों के धोने में मुझे जो आनंद मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती। बरतन धोकर उठीं, तो बुढिया के पांव दबाने बैठ गई। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोलीं, 'तुम्हें देर हो रही हो तो जाओ, कल फिर आना। मैंने कहा, 'नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचाकर उधर ही से निकल जाऊंगी। गरज नौ बजे के बाद वह वहां से चलीं। रास्ते में मैंने कहा, 'जालपा-' तुम सचमुच देवी हो।' जालपा ने छूटते ही कहा, 'ज़ोहरा -' ऐसा मत कहो मैं ख़िदमत नहीं कर रही हूं, अपने पापों का प्रायश्चित्ता कर रही हूं। मैं बहुत दुद्यखी हूं। मुझसे बडी अभागिनी संसार में न होगी।' मैंने अनजान बनकर कहा, 'इसका मतलब मैं नहीं समझी।' जालपा ने सामने ताकते हुए कहा, 'कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित्त इस जन्म में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जन्म लेने पड़ेंगे।' मैंने कहा,तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो, बहन! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी।' जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा, 'ज़ोहरा -' किसी बात को ख़ुद छिपाए रहना इससे ज्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रक्खूं।'मैंने आर्त कंठ से कहा, 'हां, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इलज़ाम न दूंगी, मगर कभी न कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।' कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं, एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, 'ज़ोहरा -' अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय कि मैं कौन हूं, तो शायद तुम नफरत से मुंह उधर लोगी और मेरे साए से भी दूर भागोगी।' इन लर्जिेंशों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोएं खड़े हो गए। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज़ थी और इसने मेरी स्याह जिंदगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आंखों में आंसू भर आए। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वांग खोल दूं। न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था। मैंने बड़े-बडे काइएं और छंटे हुए शोहदों और पुलिस-अफसरों को चपर-गट्टू बनाया है, पर उनके सामने मैं जैसे भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने जाने कैसे अपने को संभाल लिया। मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था, 'यह तुम्हारा ख़याल फलत है देवी!' 'श
ायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर फिर पड़ूंगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिन्दा होना सच्चे दिलों का काम है।' जालपा ने कहा, 'लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या बस, इतना ही समझ लो कि एक ग़रीब अभागिन औरत हूं, जिसे अपने ही जैसे अभागे और ग़रीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनंद आता है।' 'इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेकिन मैंने पीछा न छोडा, आख़िर उसके मुंह से बात निकाल ही ली।' रमा ने कहा, 'यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा।' ज़ोहरा-'अब आधी रात तक की कथा कहां तक सुनाऊं। घंटों लग जाएंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आख़िर में कहा,मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूं, जिसने इन कैदियों पर यह आगत ढाई है। यह कहते-कहते वह रो पड़ीं। फिर ज़रा आवाज़ को संभालकर बोलीं,हम लोग इलाहाबाद के रहने वाले हैं। एक ऐसी बात हुई कि इन्हें वहां से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आए। कई महीनों में पता चला कि वह यहां हैं।' रमा ने कहा, 'इसका भी किस्सा है। तुमसे बताऊंगा कभी, जालपा के सिवा और किसी को यह न सूझती। ज़ोहरा बोली,'यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रगरग से वाकिफ हो गई। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो कहने लगीं,ज़ोहरा -' मैं बडी मुसीबत में फंसी हुई हूं। एक तरफ तो एक आदमी की जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूं। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूं कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हैसियत ही न रह जायगी, पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधा में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूं। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूं, और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़
ीं और बोलीं, बहन, मैं खुद मर जाऊंगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूं, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूं। शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊं, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूं।' इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुई। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त ग़िर आना। दिन?भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वही शाम को मौका मिलता था। वह इतने रूपये जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो दो सौ रूपये से ज्यादा जमा कर चुकी हैं। मैंने भी पांच रूपये दिए। मैंने दो-एक बार जिक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पडिए, अपने घर चली जाइए, लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूं, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जबजब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, 'कहो तो कहूं?' रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा, 'क्या बात है?' ज़ोहरा-'डिप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबाद पहुंचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जाएंगी। वहां गाड़ी तैयार मिलेगी, वह उसमें बैठा दी जाएंगी, या कोई और तदबीर सोचो।' रमा ने ज़ोहरा की आंखों से आंख मिलाकर कहा, 'क्या यह मुनासिब होगा?' ज़ोहरा ने शरमाकर कहा, 'मुनासिब तो न होगा।' रमा ने चटपट जूते पहन लिए और ज़ोहरा से पूछा, 'देवीदीन के ही घर पर रहती है न?' ज़ोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली, 'तो क्या इस वक्त जाओगे?' रमानाथ-'हां ज़ोहरा -' इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहां मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।' ज़ोहरा-'मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।' रमानाथ-'सब सोच चुका, ज्यादा-से ज्यादा तीन?चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में, बस अब रूख़सत, भूल मत जाना ज़ोहरा -' शायद फिर कभी मुलाकात हो!' रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा, 'हुजूर ने दारोग़ाजी को इत्तला कर दी है?' रमनाथ-'इसकी कोई जरूरत नहीं।' चौकीदार-'मैं ज़रा उनसे पूछ लूं। मेरी रोज़ी क्यों ले रहे हैं, हुजूर?' रमा ने कोई जवाब न दिया। तेज़ी से सड़क पर चल खडा हुआ। ज़ोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत-भरी आंखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार,ऐसा विकल करने वाला प्यार उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई वीरबाला अपने प्रियतम को समरभूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फली न समाती हो चौकीदार ने लपककर दारोग़ा से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा, 'बाबू साहब, ज़रा सुनिए तो, एक मिनट रूक जाइए, इससे क्या फायदा,कुछ मालूम तो हो, आप कहां जा रहे हैं?आख़िर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा, 'कहीं चोट तो नहीं आई?' दारोग़ा -'कोई बात न थी
, ज़रा ठोकर खा गया था। आख़िर आप इस वक्त कहां जा रहे हैं?सोचिए तो इसका नतीज़ा क्या होगा?' रमानाथ-'मैं एक घंटे में लौट आऊंगा। जालपा को शायद मुख़ालिफों ने बहकाया है कि हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। ज़रा उसे जाकर समझाऊंगा।' दारोग़ा -'यह आपको कैसे मालूम हुआ?' रमानाथ-'ज़ोहरा कहीं सुन आई है।' दारोग़ा -'बडी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।' रमानाथ-'इसीलिए तो जा रहा हूं। या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊंगा, या इस बुरी तरह पेश आऊंगा कि वह भी याद करेगी। ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है। रात-भर के लिए मुझे इस कैद से आज़ाद कर दीजिए। ' दारोग़ा -'मैं भी चलता हूं, ज़रा ठहर जाइए।' रमानाथ-'जी नहीं, बिलकुल मामला बिगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूं।' दारोग़ा लाजवाब हो गए। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और ज़ोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गए। उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुंचा। जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त ख़ाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज़ दी। देवीदीन उसकी आवाज़ पहचान गया। बोला, 'भैया हैं सायत।' जालपा-'कह दो, यहां क्या करने आए हैं। वहीं जायं।' देवीदीन-'नहीं बेटी, ज़रा पूछ तो लूं, क्या कहते हैं। इस बख़त कैसे उन्हें छुटटी मिली?' जालपा-'मुझे समझाने आए होंगे और क्या! मगर मुंह धो रक्खें।' देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अंदर आकर कहा, 'दादा, तुम मुझे यहां देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगे। एक घंटे की छुटटी लेकर आया हूं। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर हैं?' देवीदीन बोला, 'हां, हैं तो। अभी आई हैं, बैठो, कुछ खाने को लाऊं!' रमानाथ
-'नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूं।' देवीदीन-'वह मानेंगी नहीं, नाहक शमिऊदा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।' रमानाथ-'मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहतीं?ज़रा जाकर पूछ लो।' देवीदीन-'इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो हैं, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था वैसे अब भी है।' रमानाथ-'नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊंगा।' देवीदीन ने ऊपर जाकर कहा,'तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, बहू!' जालपा मुंह लटकाकर बोली,'तो कहते क्यों नहीं, मैंने कुछ ज़बान बंद कर दी है? जालपा ने यह बात इतने ज़ोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला, 'वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहतीं, तो कोई जबरदस्ती नहीं। मैंने जज साहब से सारा कच्चा चिटठा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूं। मेरी वजह से इनको इतने कष्ट हुए, इसका मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पडाहुआ था। स्वार्थ ने मुझे अंधा कर रक्खा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर दिया। शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं मेरी बुराइयों को माफ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकूं। मेरी तो ज़िंदगी सत्यानाश हो गई। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना कि उनके गहने मैंने ही चुराए थे। सर्राफ को देने के लिए रूपये न थे। गहने लौटाना ज़रूरी था, इसीलिए वह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूं और शायद जब तक प्राण न निकल जाएंगे,भोगता रहूंगा। अगर उसी वक्त सगाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था। दादा, मैं ब्राह्मण नहीं हूं, कायस्थ हूं, तुम जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।' रमा बरामदे के नीचे उतर पडाऔर तेज़ी से कदम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी, लेकिन नीचे आई तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली, 'किधर गए हैं दादा?' देवीदीन ने कहा, 'मैंने कुछ नहीं देखा, बहू! मेरी आंखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गए थे। ' जालपा कई मिनट तक सड़क पर निस्पंद-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं! इस वक्त वह कितने दुखी हैं, कितने निराश हैं! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उसका ह्रदय अनुराग से इतना प्रकंपित न हुआ था। विलासिनी रूप में वह
केवल प्रेम आवरण के दर्शन कर सकती थी। आज त्यागिनी बनकर उसने उसका असली रूप देखा, कितना मनोहर, कितना विशु', कितना विशाल, कितना तेजोमय। विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी। त्यागिनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुंच गई थी,कितना रम्य दृश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास, इसकी सुगंध में, इसकी रम्यता का देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतर स्थान पर पहुंचकर देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इस प्रेम ने उसे वियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया,उसे अभय प्रदान कर दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका अखंड वैभव तुच्छ है। इतने में ज़ोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली,'वहां कैसे खड़ी हो, बहन, आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत - सी बातें करनी हैं।' दोनों ऊपर चली गई। और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बडा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है, एक ऊपर। दारोग़ा ने साइकिल से उतरकर कहा, तुम बतलाते क्यों नहीं, 'वह कहांगए?' देवीदीन-'मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब! यहां आए, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गए।' दारोग़ा -'वह कब इलाहाबाद जा रही हैं?' देवीदीन-'इलाहाबाद जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहां से न जाएंगी।' में छिपा लिए। दारोग़ाजी को शक हुआ। शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं! देवीदीन से पूछा, 'यह तीसरी औरत कौन है? ' देवीदीन ने कहा, 'मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।' दारोग़ा -'मुझी से उड़ते हो बचा! साड़ी पहनाकर मुलज़िम को छिपाना चाहते हो! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो,
नीचे चली जायं। दूसरी औरत को यहीं रहने दो।' जालपा हट गई, तो दारोग़ाजी ने ज़ोहरा के पास जाकर कहा, 'क्यों हजरत, मुझसे यह चालें! क्या कहकर वहां से आए थे और यहां आकर मजे में आ गए । सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिए और मेरे साथ चलिए, देर हो रही है।' यह कहकर उन्होंने ज़ोहरा का घूंघट उठा दिया। ज़ोहरा ने ठहाका मारा। दारोग़ाजी मानो फिसलकर विस्मय-सागर में पड़े । बोले- अरे, तुम हो ज़ोहरा! तुम यहां कहां ? ' ज़ोहरा -'अपनी डयूटी बजा रही हूं।' 'और रमानाथ कहां गए ? तुम्हें तो मालूम ही होगा?' 'वह तो मेरे यहां आने के पहले ही चले गए थे। फिर मैं यहीं बैठ गई और जालपा देवी से बात करने लगी।' 'अच्छा, ज़रा मेरे साथ आओ। उनका पता लगाना है।' ज़ोहरा ने बनावटी कौतूहल से कहा, 'क्या अभी तक बंगले पर नहीं पहुंचे ?' 'ना! न जाने कहां रह गए। ' रास्ते में दारोग़ा ने पूछा, 'जालपा कब तक यहां से जाएगी ?' ज़ोहरा-'मैंने खूब पट्टी पढ़ाई है। उसके जाने की अब जरूरत नहीं है। शायद रास्ते पर आ जाय। रमानाथ ने बुरी तरह डांटा है। उनकी धमकियों से डर गई है। ' दारोग़ा -'तुम्हें यकीन है कि अब यह कोई शरारत न करेगी? ' ज़ोहरा -'हां, मेरा तो यही ख़याल है। ' दारोग़ा -'तो फिर यह कहां गया? ' ज़ोहरा -'कह नहीं सकती।' दारोग़ा -'मुझे इसकी रिपोर्ट करनी होगी। इंस्पेक्टर साहब और डिप्टी साहब को इत्तला देना जरूरी है। ज्यादा पी तो नहीं गया था? ' ज़ोहरा -'पिए हुए तो थे। ' दारोग़ा -'तो कहीं फिर-गिरा पडाहोगा। इसने बहुत दिक किया! तो मैं ज़रा उधर जाता हूं। तुम्हें पहुंचा दूं, तुम्हारे घर तक।' ज़ोहरा -'बडी इनायत होगी।' दारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको ज़रा देर में घर के दरवाजे पर उतार दिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, 'अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ गप-शप हो । बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।' ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक कदम रखकर कहा, 'जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौका नहीं है।' दारोग़ा ने मोटर साइकिल से उतरकर कहा, 'नहीं, अब न जाऊंगा, ज़ोहरा!सुबह देखी जायगी। मैं भी आता हूं।' ज़ोहरा -'आप मानते नहीं हैं। शायद डिप्टी साहिब आते हों। आज उन्होंने कहला भेजा था।' दारोग़ा-'मुझे चकमा दे रही हो ज़ोहरा, देखो, इतनी बेवफाई अच्छी नहीं।' ज़ोहरा ने ऊपर चढ़कर द्वार बंद कर लिया और ऊपर जाकर खिड़की से सिर निकालकर बोली, 'आदाब अर्ज।' दारोग़ा घर जाकर लेट रहे। ग्यारह बज रहे थे। नींद खुली, तो आठ बज गए थे। उठकर बैठे ही थे कि टेलीगषेन पर पुकार हुई। जाकर सुनने लगे। डिप्टी साहब बोल रहे थे,इस रमानाथ ने बडा गोलमाल कर दिया है। उसे किसी दूसरी जगह ठहराया जायगा। उसका सब सामान कमिश्नर साहब के पास भेज देना होगा।' रात को वह बंगले पर था या नहीं ?' दारोग़ा ने कहा, 'जी नहीं, रात मुझसे बहाना करके अपनी बीवी के पास चला गया था।' टेलीफोन-- 'तुमने उसको क्यों जाने दिया? हमको ऐसा डर लगता ह
ै, कि उसने जज से सब हाल कह दिया है। मुकदमा का जांच फिर से होगा। आपसे बडा भारी ब्लंडर हुआ है। सारा मेहनत पानी में फिर गया। उसको जबरदस्ती रोक लेना चाहिए था।' दारोग़ा -'तो क्या वह जज साहब के पास गया था? ' डिप्टी, 'हां साहब, वहीं गया था, और जज भी कायदा को तोड़ दिया। वह फिर से मुकदमा का पेशी करेगा। रमा अपना बयान बदलेगा। अब इसमें कोई डाउट नहीं है और यह सब आपका बंगलिंग है। हम सब उस बाढ़ में बह जायगा। ज़ोहरा भी दगा दिया।' दारोग़ा उसी वक्त रमानाथ का सब सामान लेकर पुलिस-कमिश्नर के बंगले की तरफ चले। रमा पर ऐसा गुस्सा आ रहा था कि पावें तो समूचा ही निगल जाएं । कमबख्त को कितना समझाया, कैसी-कैसी खातिर की, पर दगा कर ही गया। इसमें ज़ोहरा की भी सांठ-गांठ है। बीवी को डांट-फटकार करने का महज बहाना था। ज़ोहरा बेगम की तो आज ही ख़बर लेता हूं। कहां जाती है। देवीदीन से भी समझूंगा। एक हफ्ते तक पुलिस-कर्मचारियों में जो हलचल रही उसका ज़िक्र करने की कोई जरूरत नहीं। रात की रात और दिन के दिन इसी फिक्र में चक्कर खाते रहते थे। अब मुकदमे से कहीं ज्यादा अपनी फिक्र थी। सबसे ज्यादा घबराहट दारोग़ा को थी। बचने की कोई उम्मीद नहीं नज़र आती थी। इंस्पेक्टर और डिप्टी,दोनों ने सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी और खुद बिलकुल अलग हो गए। इस मुकदमे की फिर पेशी होगी, इसकी सारे शहर में चर्चा होने लगी। अंगरेज़ी न्याय के इतिहास में यह घटना सर्वथा अभूतपूर्व थी। कभी ऐसा नहीं हुआ। वकीलों में इस पर कानूनी बहसें होतीं। जज साहब ऐसा कर भी सकते हैं?मगर जज दृढ़था। पुलिसवालों ने बड़े-बडे। ज़ोर लगाए, पुलिस कमिश्नर ने यहां तक कहा कि इससे सारा पुलिस-विभाग बदनाम हो जायगा, लेकिन जज ने किसी की न सुनी। झूठे सबूतों पर पंद्रह आदमियों की जिंदगी
बरबाद करने की जिम्मेदारी सिर पर लेना उसकी आत्मा के लिए असह्य था। उसने हाईकोर्ट को सूचना दी और गवर्नमेंट को भी। इधर पुलिस वाले रात-दिन रमा की तलाश में दौड़-धूप करते रहते थे, लेकिन रमा न जाने कहां जा छिपा था कि उसका कुछ पता ही न चलता था। हफ्तों सरकारी कर्मचारियों में लिखा-पढ़ी होती रही। मनों काग़ज़ स्याह कर दिए गए। उधार समाचार-पत्रों में इस मामले पर नित्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने जालपा से मुलाकात की और उसका बयान छाप दिया। दूसरे ने ज़ोहरा का बयान छाप दिया। इन दोनों बयानों ने पुलिस की बखिया उधेङ दी। ज़ोहरा ने तो लिखा था कि मुझे पचास रूपये रोज़ इसलिए दिए जाते थे कि रमानाथ को बहलाती रहूं और उसे कुछ सोचने या विचार करने का अवसर न मिले। पुलिस ने इन बयानों को पढ़ा, तो दांत पीस लिए। ज़ोहरा और जालपा दोनों कहीं और जा छिपीं, नहीं तो पुलिस ने जरूर उनकी शरारत का मज़ा चखाया होता। आख़िर दो महीने के बाद फैसला हुआ। इस मुकदमे पर विचार करने के लिए एक सिविलियन नियुक्त किया गया। शहर के बाहर एक बंगले में विचार हुआ, जिसमें ज्यादा भीड़-भाड़ न हो फिर भी रोज़ दस-बारह हज़ार आदमी जमा हो जाते थे। पुलिस ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया कि मुलज़िमों में कोई मुखबिर बन जाए, पर उसका उद्योग न सफल हुआ। दारोग़ाजी चाहते तो नई शहादतें बना सकते थे, पर अपने अफसरों की स्वार्थपरता पर वह इतने खिन्न हुए कि दूर से तमाशा देखने के सिवा और कुछ न किया। जब सारा यश अफसरों को मिलता और सारा अपयश मातहतों को, तो दारोग़ाजी को क्या गरज़ पड़ी थी कि नई शहादतों की फिक्र में सिर खपाते। इस मुआमले में अफसरों ने सारा दोष दारोग़ा ही के सिर मढ़ाब उन्हीं की बेपरवाही से रमानाथ हाथ से निकला। अगर ज्यादा सख्ती से निगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे ख़त लिख सकती, और वह कैसे रात को उससे मिल सकता था। ऐसी दशा में मुकदमा उठा लेने के सिवा और क्या किया जा सकता था। तबेले की बला बदंर के सिर गई। दारागा तनज्ज़ुल हो गए और नायब दारागा का तराई में तबादला कर दिया गया। जिस दिन मुलज़िमों को छोडागया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुलिस ने दस बजे रात को उन्हें छोडा, पर दर्शक जमा हो ही गए। लोग जालपा को भी खींच ले गए। पीछे-पीछे देवीदीन भी पहुंचा। जालपा पर फलों की वर्षा हो रही थी और 'जालपादेवी की जय!' से आकाश गूंज रहा था। मगर रमानाथ की परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी। उस पर दरोग़-बयानी का अभियोग चलाने का निश्चय हो गया। उसी बंगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था, लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खडाथा। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आई हुई थीं। पेशी से दस-पंद्रह मिनट पहले जालपा और ज़ोहरा भी बंद गाडियों में आ पहुंचीं। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गई। पुलिस की शहादतें शुरू हुई। डिप्टी सुपरिंटेंडेंट, इंस्पेक्टर, दारोग़ा, नायब दारोग़ा-'सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकी
लों ने जिरहें भी कीं, पर इन कार्रवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। जाब्ते की पाबंदी की जा रही थी। रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। कोई बात न छिपाई,वकील के पूछने पर उसने कहा,जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आंखें खोलीं और उससे भी ज्यादा ज़ोहरा के सौजन्य और निष्कपट व्यवहार ने, मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूं कि मुझे उस तरफ से प्रकाश मिला जिधर औरों को अंधकार मिलता है। विष में मुझे सुधा प्राप्त हो गई। इसके बाद सफाई की तरफ से देवीदीन-' जालपा और ज़ोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल किया, पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते। ज़ोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादक था। उसने देखा, जिस प्राणी को जष्जीरों से जकड़ने के लिए वह भेजी गई है, वह खुद दर्द से तड़प रहा है, उसे मरहम की जईरत है, जंज़ीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है, धक्के का झोंका नहीं। जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गई। मुझे अपनी नीचता, अपनी स्वाथाऊधाता पर लज्जा आई। मेरा जीवन कितना अधाम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त ख़ुला, और जब मैं जालपा से मिली, तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहेसहे संस्कार भी मिट गए। विलास-युक्त जीवन से मुझे घृणा हो गई। मैंने निश्चय कर लिया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूंगी। मगर उससे भी ज्यादा मार्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दर्शकों की आंखों में आंसू आ गए। उसके अंतिम शब्द ये थे, 'मेरे पति निर्दोष हैं! ईश्वर की दृष्टि में ही नहीं, नीति की दृष्टि में भी वह निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलासासक्ति का प्रायश्चित्त करना लिखा था, वह उन्होंने किया। वह बाज़ा
र से मुंह छुपाकर भागे। उन्होंने मुझ पर अगर कोई अत्याचार किया,तो वह यही कि मेरी इच्छाओं को पूरा करने में उन्होंने सदैव कल्पना से काम लिया। मुझे प्रसन्न करने के लिए, मुझे सुखी रखने के लिए उन्हाेंने अपने ऊपर बडे से बडाभार लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह यह भूल गए कि विलास-वृत्ति संतोष करना नहीं जानती। जहां मुझे रोकना उचित था, वहां उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, और इस अवसर पर भी मुझे पूरा विश्वास है, मुझ पर अत्याचार करने की धमकी देकर ही उनकी ज़बान बंद की गई थी। अगर अपराधिनी हूं, तो मैं हूं, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पडे। मैं मानती हूं कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने के लिए मज़बूर किया। अगर मुझे विश्वास होता कि वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खडाकरें। जिन दिनों यहां डाके पड़े, उन तारीख़ों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारा इसकी जांच कर सकती है। अगर जरूरत हो, तो म्युनिसिपल बोर्ड के अधिकारियों का बयान लिया जा सकता है। ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता था, जो मैंने किया। अदालत ने सरकारी वकील से पूछा,क्या प्रयाग से इस मुआमले की कोई रिपोर्ट मांगी गई थी? वकील ने कहा,जी हां, मगर हमारा उस विषय पर कोई विवाद नहीं है। सफाई के वकील ने कहा,इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि मुलज़िम डाके में शरीक नहीं था। अब केवल यह बात रह जाती है कि वह मुख़बिर क्यों बना- वादी वकील,स्वार्थ-सिद्धिके सिवा और क्या हो सकता है! के लिए मुक्त रहकर समाज को ठगने का मार्ग बंद कर देना चाहिए। उसके लिए इस समय सबसे उपयुक्त स्थान वह है, जहां उसे कुछ दिन आत्म-चिंतन का अवसर मिले। शायद वहां के एकांतवास में उसको आंतरिक जागृति प्राप्त हो जाय। आपको केवल यह विचार करना है कि उसने पुलिस को धोखा दिया या नहीं। इस विषय में अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि उसने धोखा दिया। अगर धमकियां दी गई थीं, तो वह पहली अदालत के बाद जज की अदालत में अपना बयान वापस ले सकता था, पर उस वक्त भी उसने ऐसा नहीं किया। इससे यह स्पष्ट है कि धामकियों का आक्षेप मिथ्या है। उसने जो कुछ किया, स्वेच्छा से किया। ऐसे आदमी को यदि दंड न दिया गया, तो उसे अपनी कुटिल नीति से काम लेने का फिर साहस होगा और उसकी हिंसक मनोवृत्तियां और भी बलवान हो जाएंगी। फिर सफाई के वकील ने जवाब दिया, 'यह मुकदमा अंगरेज़ी इतिहास ही में नहीं, शायद सर्वदेशीय न्याय के इतिहास में एक अदभुत घटना है। रमानाथ एक साधरण युवक है। उसकी शिक्षा भी बहुत मामूली हुई है। वह ऊंचे विचारों का आदमी नहीं है। वह इलाहाबाद के म्युनिसिपल आफिस में नौकर है। वहां उसका काम चुंगी के रूपये वसूल करना है। वह व्यापारियों से प्रथानुसार रिश्वत लेता है और अपनी आमदनी की परवा न करता हुआ अनाप-शनाप खर्च करता है। आख़िर एक दिन मीज़ान में गलती हो जाने से उसे शक होता है कि उससे कुछ रूपये उठ
गए। वह इतना घबडा जाता है कि किसी से कुछ नहीं कहता, बस घर से भाग खडा होता है। वहां दफ्तर में उस पर शुबहा होता है और उसके हिसाब की जांच होती है। तब मालूम होता है कि उसने कुछ ग़बन नहीं किया, सिर्फ हिसाब की भूल थी। टूट जाती है। वह जानता है, पुलिस जो चाहे कर सकती है, इसलिए वह अपना इरादा तबदील कर देता है और वह जज के इजलास में अपने बयान का समर्थन कर देता है। अदालत में रमा से सफाई ने कोई जिरह नहीं की थी। यहां उससे जिरहें की गई, लेकिन इस मुकदमे से कोई सरोकार न रखने पर भी उसने जिरहों के ऐसे जवाब दिए कि जज को भी कोई शक न हो सका और मुलज़िमों को सज़ा हो गई। रमानाथ की और भी खातिरदारियां होने लगीं। उसे एक सिफारिशी ख़त दिया गया और शायद उसकी यू.पी. गवर्नमेंट से सिफारिश भी की गई। फिर जालपादेवी ने फांसी की सज़ा पाने वाले मुलिज़म दिनेश के बाल- बच्चों का पालन-पोषण करने का निश्चय किया। इधर-उधर से चंदे मांग-मांगकर वह उनके लिए जिंदगी की जरूरतें पूरी करती थीं। उसके घर का कामकाज अपने हाथों करती थीं। उसके बच्चों को खिलाने को ले जाती थीं। से बचने के लिए इस अवसर पर उसे धामकियां देना स्वाभाविक है, क्योंकि पुलिस को मुलज़िमों के अपराधी होने के विषय में कोई संदेह न था। रमानाथ धामकियों में आ गया, यह उसकी दुर्बलता अवश्य है, पर परिस्थिति को देखते हुए क्षम्य है। इसलिए मैं रमानाथ को बरी करता हूं।' चौ की शीतल, सुहावनी, स्फूर्तिमयी संध्या, गंगा का तट, टेसुओं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदान, बरगद का छायादार वृक्ष, उसके नीचे बंधी हुई गाएं, भैंसें, कद्दू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झोंपडियां, न कहीं गर्द न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शांति के लिए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है? नीचे स्वर्णमयी गंगा लाल, काले, नीले आवर
ण से चमकती हुई, मंद स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं झिझकती, कहीं चपल,कहीं गंभीर, अनंत अंधकारकी ओर चली जा रही है, मानो बहुरंजित बालस्मृति क्रीडा और विनोद की गोद में खेलती हुई, चिंतामय, संघर्षमय,अंधाकारमय भविष्य की ओर चली जा रही हो देवी और रमा ने यहीं, प्रयाग के समीप आकर आश्रय लिया है। तीन साल गुज़र गए हैं, देवीदीन ने ज़मीन ली, बाग़ लगाया, खेती जमाई, गाय-भैंसें खरीदीं और कर्मयोग में, अविरत उद्योग में सुख, संतोष और शांति का अनुभव कर रहा है। उसके मुख पर अब वह जर्दी, झुर्रियां नहीं हैं, एक नई स्फूर्ति, एक नई कांति झलक रही है। शाम हो गई है, गाएं-भैंसें हार से लौटींब जग्गो ने उन्हें खूंटे से बांधा और थोडा-थोडा भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डांठें लादे हुए आ पहुंचेब दयानाथ ने बरगद के नीचे ज़मीन साफ कर रखी है। वहीं डांठें उतारी गई। यही इस छोटी-सी बस्ती का खलिहान है। दयानाथ नौकरी से बरख़ास्त हो गए थे और अब देवी के असिस्टेंट हैं। उनको समाचार-पत्रों से अब भी वही प्रेम है, रोज कई पत्र आते हैं, और शाम को फुर्सत पाने के बाद मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझाते हैं। श्रोताओं में बहुधा आसपास के गांवों के दस-पांच आदमी भी आ जाते हैं और रोज़ एक छोटीमोटी सभा हो जाती है। से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है। वहां कुछ साफ-भाजी भी लगी हुई है, कुछ फल-फलों के वृक्ष हैं और कुछ जड़ी-बूटियां हैं। अभी तो बाग़ से केवल तरकारी मिलती है, पर आशा है कि तीन-चार साल में नींबू, अमरूद,बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आदि फलों की अच्छी आमदनी होने लगेगी। देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूंटे से बांधा दिया और दयानाथ से बोला,'अभी भैया नहीं लौटे?' दयानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा, 'अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है। ज़माने का उधार है। कितने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दरजनों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है, वकील साहब ने अच्छी संपत्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली। देवीदीन-' 'भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता, पर कहती हैं, मैं अदालत में झूठ न बोलूंगी। औरत बडे ऊंचे विचार की है।' सहसा जागेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोद में लिये हुए एक झोंपड़े से निकली और बच्चे को दयानाथ की गोद में देती हुई देवीदीन से बोली, 'भैया,ज़रा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। ज़ोहरा और बहू, दोनों रो रही हैं! बच्चा न जाने कहां रह गए! देवीदीन ने दयानाथ से कहा, 'चलो लाला, देखें।' जागेश्वरी बोली, 'यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।' देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बांस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पंदन प्रदान कर रक्खा था, उड़ गए थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रव
ण-प्रिय,प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गई थी। ज़ोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करूण, हाथ में लेकर पूछा,'कितनी देर से नहीं बोलीं ?' जालपा ने आंखें पोंछकर कहा, 'अभी तो बोलती थीं। एकाएक आंखें ऊपर चढ़गई और बेहोश हो गई। वैद्य जी को लेकर अभी तक नहीं आए?' देवीदीन ने कहा, 'इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है। 'यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुंह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा, 'रतन बेटी, आंखें खोलो।' रतन ने आंखें खोल दीं और इधर-उधर सकपकाई हुई आंखों से देखकर बोली,'मेरी मोटर आई थी न? कहां गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर के बाद लाए। ज़ोहरा -' आज मैं तुम्हें अपने बग़ीचे की सैर कराऊंगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।' ज़ोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आंसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुस्कराहट के साथ बोली, 'मैं सपना देख रही थी, दादा!' लोहित आकाश पर कालिमा का परदा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया। रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर रात को लौटे, तो यहां मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय- हाय करता है, बल्कि वह शोक था जिसमें हम मूक रूदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ कभी दिल से नहीं उतरता। अवकाश न मिलता था कि उसके साथ बहुत उठती-बैठती, और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और दोनों रोने लगतीं। जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा। दोनों तरफ के आदमी किनारे पर, एक तनाव की दशा में ह्रदय को दबाए खड़े थे। जब
किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियां फेंकने की कोशिश की जाती, पर रस्सी बीच ही में फिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गई। सभी प्राणी लहरों में समा गए। एक क्षण कई स्त्री-पुरूष, डूबते-उतराते दिखाई दिए, फिर निगाहों से ओझल हो गए। केवल एक उजली-सी चीज़ किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज़ तक आ गई। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। ज़ोहरा -' जालपा और रमा, तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नज़र आता था। दोनों को निकाल लाने के लिए तीनों विकल हो उठे,पर बीस गज़ तक तैरकर उस तरफ जाना आसान न था। फिर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के ज़ोर में पांव उखड़ जाएं, तो फिर बंगाल की खाड़ी के सिवा और कहीं ठिकाना न लगे। ज़ोहरा ने कहा, 'मैं जाती हूं!' रमा ने लजाते हुए कहा,'जाने को तो मैं तैयार हूं, लेकिन वहां तक पहुंच भी सकूंगा, इसमें संदेह है। कितना तोड़ है!' ज़ोहरा ने एक कदम पानी में रखकर कहा,'नहीं, मैं अभी निकाल लाती हूं।' वह कमर तक पानी में चली गई। रमा ने सशंक होकर कहा,'क्यों नाहक जान देने जाती हो वहां शायद एक गड्ढा है। मैं तो जा ही रहा था।' ज़ोहरा ने हाथों से मना करते हुए कहा, 'नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, तुम न आना। मैं अभी लिये आती हूं। मुझे तैरना आता है।' जालपा ने कहा, 'लाश होगी और क्या! ' रमानाथ-- 'शायद अभी जान हो' जालपा--'अच्छा, तो ज़ोहरा तो तैर भी लेती है। जभी हिम्मत हुई। ' रमा ने ज़ोहरा की ओर चिंतित आंखों से देखते हुए कहा, हां, कुछ-कुछ जानती तो हैं। ईश्वर करे लौट आएं। मुझे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है। जालपा ने बेहयाई से कहा,'इसमें लज्जा की कौन?सी बात है। मरी लाश के लिए जान को जोखिम में डालने से फायदा, जीती होती, तो मैं ख़ुद तुमसे कहती, जाकर निकाल लाओ।' रमा ने आत्म-धिक्कार के भाव से कहा, 'यहां से कौन जान सकता है, जान है या नहीं। सचमुच बाल-बच्चों वाला आदमी नामर्द हो जाता है। मैं खडा रहा और ज़ोहरा चली गई।' सहसा एक ज़ोर की लहर आई और लाश को फिर धारा में बहा ले गई। ज़ोहरा लाश के पास पहुंच चुकी थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी कि इस लहर ने उसे दूर कर दिया। ज़ोहरा ख़ुद उसके ज़ोर में आ गई और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गई। वह फिर संभली पर एक दूसरी लहर ने उसे फिर ढकेल दिया। रमा व्यग्र होकर पानी में यद पडा और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा, 'ज़ोहरा ज़ोहरा! मैं आता हूं।' मगर ज़ोहरा में अब लहरों से लड़ने की शक्ति न थी। वह वेग से लाश के साथ ही धारे में बही जा रही थी। उसके हाथ-पांव हिलना बंद हो गए थे। एकाएक एक ऐसा रेला आया कि दोनों ही उसमें समा गई। एक मिनट के बाद ज़ोहरा के काले बाल नज़र आए। केवल एक क्षण तक यही अंतिम झलक थी। फिर वह नजर न आई। रमा कोई सौ गज़ तक ज़ोरों के साथ हाथ-पांव मारता हुआ गया, लेकिन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के कारण उसका दम फूल गया। अब आगे जाय कहां? ज़ोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आख़िरी झलक आ
ंखों के सामने थी। किनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहां तक कि वह भी पानी में कूद पड़ी। रमा अब आगे न बढ़सका। एक शक्ति आगे खींचती थी, एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था। पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बंधन था। बंधन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा। कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ ताकते रहे। रमा की ज़बान आत्म-धिक्कार ने बंद कर रक्खी थी, जालपा की, शोक और लज्जा ने। आख़िर रमा ने कहा, 'पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जाएगी। ज़ोहरा की सूरत उनकी आंखों के सामने गिरा करती है। उसके लगाए हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा,यह सब उसकी स्मृति के चिन्ह उनके पास जाकर रमा की आंखों के सामने ज़ोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।
लेकिन बुद्धि की समझ से रूपांतरण नहीं होता, क्रांति नहीं होती। क्योंकि बुद्धि बहुत छोटा सा हिस्सा है व्यक्तित्व का; और व्यक्तित्व बहुत बड़ी बात है। और बुद्धि जिसे समझ लेती है, उसका यह अर्थ नहीं है कि आपका व्यक्तित्व, आपका प्राण, आप उसे समझ गए। इस सदी के पहले तक पश्चिम को यह खयाल नहीं था साफ-साफ कि जिसे हम मनुष्य की बुद्धि कहते हैं, उससे नौ गुनी ताकत का अचेतन मन, अनकांशस माइंड भीतर बैठा हुआ है। आपको मैंने समझाया कि क्रोध बुरा है, आपकी समझ में आ गया। लेकिन जिस बुद्धि की समझ में आया, उसने कभी क्रोध किया ही नहीं है। उस बुद्धि के पीछे जो नौ हिस्से पर्त हैं अचेतन के, अनकांशस के, क्रोध वहां से आता है। ऐसा समझ लें कि मैं एक मकान में रहता हूं। दरवाजे पर एक पहरेदार खड़ा है। उस बेचारे ने कभी क्रोध किया नहीं है। और जब भी दरवाजे पर कोई उपद्रव होता है, तो वह घर के भीतर जो मालिक रहता है, वह बंदूक लेकर दरवाजे पर आकर उपद्रव करता है। और जब भी कोई उपदेशक समझाने आता है, तो उस पहरेदार को पकड़ कर समझाता है कि क्रोध बहुत बुरी चीज है, झगड़ा वगैरह नहीं करना चाहिए। वह कहता है कि मेरी भी समझ में आता है। मैं भी देखता हूं कि जब उपद्रव होता है, वह मालिक भीतर से आता है, तो भारी खून-खराबा हो जाता है। मैं बिलकुल समझता हूं; मेरी समझ में बिलकुल आता है। मगर यह उपदेशक को पता नहीं है कि जिसको वह समझा रहा है, उसने कभी उपद्रव किया नहीं; और जिसने उपद्रव किया है, इस पहरेदार से उसका कोई कम्युनिकेशन नहीं है। इससे कभी उसकी मुलाकात ही नहीं होती। और जब वह मालिक बंदूक लेकर आता है, तब यह पहरेदार हाथ-पैर जोड़ कर, सिर झुका कर उसके चरणों में पड़ जाता है, क्योंकि वह मालिक है। और जब वह चला जाता है, तब पहरेदार अपनी कुर्सी पर बैठ कर झपकी खाता रहता है और सोचता है कि बहुत बुरी बात है, क्रोध होना नहीं चाहिए। आप जिस बुद्धि से समझ रहे हैं, अगर हम आपके मन के दस खंड कर दें, तो एक खंड समझ का है और नौ खंड अंधेरे में पड़े हैं। जीवन का सारा उपद्रव अंधेरे खंडों से आता है। जब आपके भीतर कामवासना पैदा होती है, तो आपके उन नौ हिस्सों से आती है। और जब ब्रह्मचर्य की आप किताब पढ़ते हैं, तो वह एक हिस्सा पढ़ता है- पहरेदार । आप ब्रह्मचर्य की किताब पढ़ कर रख देते हैं, बिलकुल जंच जाती है कि बात बिलकुल ठीक है। लेकिन उस जंचने से कुछ नहीं होता। जब वे भीतर के नौ हिस्से कामवासना से भरते हैं, तब इस एक हिस्से की कोई ताकत नहीं है। वे इसको एक तरफ हटा कर बाहर आ जाते हैं। इसके जिम्मे एक ही काम है कि जब वक्त मिले, तो समझने का काम करे; और जब फिर वक्त मिले, तो पश्चात्ताप करे। यह जो एक हिस्सा मन है, इसकी कोई सुनवाई नहीं है। ध्यान रहे कि मन में जितना गहरा हिस्सा होता है, उतना ताकतवर होता है। परिधि पर, सर्कमफरेंस पर ताकत नहीं होती; ताकत सेंटर में होती है। जिसको हम बुद्धि कहते हैं, वह हमारी सर्कमफरेंस है, परिधि है, घर के बाहर का परकोटा है; वहां कोई खजाने
नहीं रखता। खजाने तो उस तिजोरी में दबे होते हैं, जो घर का भीतरी से भीतरी अंतरंग है। तो हमारे जीवन की ऊर्जा तो अंतरंग में छिपी है। और बुद्धि हमारे दरवाजे पर खड़ी है। इसी बुद्धि से पढ़ते हैं, इसी बुद्धि से सुनते हैं, इसी बुद्धि से समझते हैं। तो लाओत्से जब कहता है, समझ में आ जाए तो रूपांतरण हो जाता है, तो वह कह रहा है, उस सेंटर की समझ में आ जाए - वह जो आपके भीतर, अंतरस्थ बैठा हुआ, अंतिम, मालिक है, उसकी समझ में आ जाए तो क्रांति हो जाती है। अब हमारी कठिनाई भी स्वाभाविक है, वास्तविक है, कि हमें लगता है समझ में आ गया, फिर क्रांति तो होती नहीं। हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं। और इस तथाकथित समझ से और एक उपद्रव शुरू होता है। वह उपद्रव यह होता है कि अब हम द्वैत में बंट जाते हैं। मन भीतर से कुछ करवाता है, हम कुछ करना चाहते हैं। वह कभी होता नहीं होता वही है, जो भीतर से आता है। और फिर आखिर में पश्चात्ताप और दीनता और हीनता मन को पकड़ती है। और अपनी ही आंखों में आदमी गिरता चला जाता है। उसे लगता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, किसी कीमत का नहीं हूं। तो यह जो समझ है हमारी, लाओत्से इसके संबंध में नहीं कह रहा है। यह इंटलेक्चुअल जो अंडरस्टैंडिंग है, यह धोखा है समझ का। यह ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि अगर वृक्ष को जल मिल जाए, तो उसमें फूल आ जाते हैं। हम जाकर वृक्ष के पत्तों पर जल छिड़क आएं। फिर फूल न आएं, तो हम कहें कि हमने तो जल छिड़का, फूल नहीं आए; जाहिर है कि जिसने कहा था, गलत था। और या फिर हमने जो जल छिड़का, वह जल न था। स्वभावतः हमारे सामने सवाल उठेगा, फूल तो नहीं आए। लेकिन जिसने कहा था, वृक्ष को जल मिल जाए तो फूल आ जाते हैं, उसने कहा था वृक्ष की जड़ों को, रूट्स को। यह मजे की बात है कि वृक्ष के पत्ते