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लौटूँगा।' स्फटिक के मंदिर पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं तथा उसकी बाईं ओर की दीवार पर बकुल की शाखाओं की कम्पित छाया पड़ रही है। बचपन में जिस प्रकार यह स्फटिक-मंदिर सचेतन अनुभव होता था, इन सीढ़ियों पर बैठ कर खेलते समय सीढ़ियों में जैसा संग-साथ पाता था, आज प्रभात की सूर्य-किरणों में मंदिर को वैसा ही सचेतन, उसकी सीढ़ियों को उसी प्रकार शैशव की आँखों से देखने लगा। मंदिर के भीतर माँ आज फिर से माँ के रूप में अनुभव होने लगी। किन्तु अभिमान में उसका हृदय भर आया, उसकी दोनों आँखों से आँसू टपकने लगे। रघुपति को आता देख जयसिंह ने आँसू पोंछ डाले। गुरु को प्रणाम करके खड़ा हो गया। रघुपति ने कहा, "आज पूजा का दिन है। याद है, माँ के चरण स्पर्श करके क्या शपथ ली थी?" जयसिंह ने कहा, "है।" रघुपति - "शपथ का पालन तो करोगे? " जयसिंह - "हाँ।" रघुपति - "देखो वत्स, काम सावधानी से करना। विपत्ति की आशंका है। मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए ही प्रजा को राजा के विरुद्ध भड़का दिया है।" जयसिंह चुपचाप रघुपति के चेहरे की ओर देखता रहा, कोई उत्तर नहीं दिया; रघुपति उसके सिर पर हाथ रख कर बोला, "मेरे आशीर्वाद से तुम निर्विघ्न अपना कार्य संपन्न कर पाओगे, माँ का आदेश पालन कर सकोगे।" इतना कह कर चला गया। राजा अपराह्न में एक कक्ष में बैठे ध्रुव के साथ खेल रहे हैं। ध्रुव के आदेश के अनुसार एक बार मुकुट सिर से उतार रहे हैं, एक बार धारण कर रहे हैं; ध्रुव महाराज की यह दुर्दशा देख कर हँस-हँस कर बेहाल हो रहा है। राजा तनिक हँस कर बोले, "मैं अभ्यास कर रहा हूँ। यह मुकुट उनके आदेश पर जिस प्रकार सहजता से धारण कर पाया हूँ, इस मुकुट को उनके आदेश पर उतनी ही सहजता से उतार भी पाऊँ। मुकुट धारण करना कठिन है, लेकिन मुकुट त्यागना और भी कठिन है।" सहसा ध्रुव के मन में एक विचार आया - कुछ देर राजा के मुकुट की ओर देख कर मुँह में उँगली डाल कर बोला, "तुमि आजा।" राजा शब्द से 'र' अक्षर एकदम से समूल लोप कर देने पर भी ध्रुव के मन में जरा भी पश्चात्ताप उत्पन नहीं हुआ। राजा के मुँह पर राजा को आजा बोल कर उसे सम्पूर्ण आत्म-सुख मिला। राजा ध्रुव की इस धृष्टता को सहन न कर पाने के कारण बोले, "तुमि आजा।" ध्रुव बोला, "तुमि आजा।" इस विषय में बहस का अंत नहीं हुआ। किसी पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है, बहस केवल धींगामुश्ती की है। अंत में राजा ने अपना मुकुट लेकर ध्रुव के सिर पर पहना दिया। तब ध्रुव के पास और बात कहने का उपाय नहीं बचा, उसकी पूरी तरह हार हो गई। ध्रुव का आधा चेहरा उस मुकुट के नीचे छिप गया। मुकुट के साथ विशाल सिर को हिलाते हुए ध्रुव ने मुकुटहीन राजा को आदेश दिया, "एक कहानी सुनाओ।" राजा ने कहा, "कौन-सी कहानी सुनाऊँ?" ध्रुव बोला, "दीदी वाली कहानी सुनाओ।" ध्रुव कहानी मात्र को ही दीदी की कहानी के रूप में जानता था। वह समझता था, दीदी जो कहानियाँ सुनाती थी, उनके अलावा संसार में और कहानी ही नहीं है। राजा एक भारी पौराणिक कहानी लेकर बैठ गए। वे कहने लगे, "हिरण्यकश्यपु नामक एक राजा था।" राजा सुन कर ध्रुव बोल उठा, "आमी आजा।" विशाल ढीले मुकुट के बल पर उसने हिरण्यकश्यपु के राजपद को पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया। चाटुकार सभासद के समान गोविन्दमाणिक्य उस किरीटी शिशु को संतुष्ट करने के लिए बोले, "तुम भी आजा, वह भी आजा।" ध्रुव उसमें भी स्पष्ट रूप से असहमति प्रकट करते हुए बोला, "ना, आमी आजा।" अंत में जब महाराज ने कहा, "हिरण्यकशिपु आजा नय, से आक्कस" (हिरण्यकश्यपु राजा नहीं था, वह राक्षस था।) तब ध्रुव ने उसमें कुछ आपत्ति करने लायक नहीं पाया। ऐसे ही समय नक्षत्रराय ने कक्ष में प्रवेश किया - बोला, "सुना है, महाराज ने मुझे राज-कार्य के लिए बुलाया है। आदेश के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" राजा ने कहा, "थोड़ी और प्रतीक्षा करो, कहानी पूरी कर दूँ।" कह कर कहानी पूरी की। "आक्कस दुष्ट" - कहानी सुन कर ध्रुव ने संक्षेप में इसी प्रकार का मत प्रकट किया। ध्रुव के सिर पर मुकुट देख कर नक्षत्रराय को अच्छा नहीं लगा। जब ध्रुव ने देखा कि नक्षत्रराय की दृष्टि उसी पर जमी हुई है, तो उसने नक्षत्रराय को गंभीरता के साथ जता दिया, "आमी आजा।" नक्षत्रराय बोला, "छी, ऐसी बात नहीं कहते।" कह कर ध्रुव के सिर से मुकुट उतार कर राजा के हाथ में देने को हुआ। ध्रुव मुकुट-हरण की संभावना देख कर सचमुच के राजा के समान चिल्ला पड़ा। गोविन्दमाणिक्य ने आसन्न विपत्ति से उसका उद्धार किया, नक्षत्र को रोक दिया। अंत में गोविन्दमाणिक्य ने नक्षत्रराय से कहा, "सुना है, रघुपति ठाकुर बुरे उपायों से प्रजा में असंतोष भड़का रहा है। तुम स्वयं नगर में जाकर इस विषय में तहकीकात कर आओ और सच-झूठ का निर्णय करके मुझे सूचित करो।" नक्षत्रराय ने कहा, "जो आज्ञा।" कह कर चला गया, किन्तु ध्रुव के सिर पर मुकुट उसे किसी भी तर
ह अच्छा नहीं लगा। प्रहरी ने आकर सूचना दी, "पुरोहित ठाकुर का सेवक, जयसिंह भेंट करने की प्रार्थना लिए द्वार पर खड़ा है।" राजा ने उसे आने की अनुमति प्रदान की। जयसिंह राजा को प्रणाम करके हाथ जोड़ कर बोला, "महाराज, मैं सुदूर देश को जा रहा हूँ। आप मेरे राजा हैं, मेरे गुरु हैं, आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ।" राजा ने पूछा, "कहाँ जाओगे जयसिंह?" जयसिंह बोला, "पता नहीं महाराज, वह कहाँ है, कोई नहीं कह सकता।" राजा को बात कहने को तैयार देख कर जयसिंह ने कहा, "महाराज, मना मत कीजिए। आपके निषेध करने पर मेरी यात्रा शुभ नहीं होगी; आशीर्वाद दीजिए, यहाँ मेरा जो संशय था, वह समस्त संशय वहाँ दूर हो जाए। यहाँ के बादल, वहाँ छँट जाएँ। आपके समान राजा के राजत्व में जाऊँ, शान्ति पाऊँ।" राजा ने पूछा, "कब जाओगे?" जयसिंह ने कहा, "आज शाम को। अधिक समय नहीं है महाराज, तो मैं आज विदा लेता हूँ।" कहते हुए राजा को प्रणाम करके राजा की चरण-धूलि ग्रहण की, राजा के चरणों पर दो बूँद आँसू टपक पड़े। जयसिंह जब उठ कर जाने को हुआ, तो ध्रुव धीरे-धीरे जाकर उसका कपड़ा पकड़ कर बोला, "तुम मत जाओ।" जयसिंह हँसते हुए घूम कर खड़ा हो गया, ध्रुव को गोद में उठा लिया, उसे चूमते हुए बोला, "किसके पास रहूँगा, बेटा? मेरा कौन है?" ध्रुव ने कहा, "आमी आजा।" जयसिंह ने कहा, "तुम लोग राजा के राजा हो, तुमने ही सबको बंदी बना कर रख छोड़ा है।" ध्रुव को गोद से उतार कर जयसिंह कक्ष से बाहर निकल गया। महाराज गंभीर मुद्रा में बहुत देर तक सोचते रहे। चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अंधकार-राशि का मर्म भेद कर बीच-बीच में निश्वास छोड़ रहा है। आज रात लोगों का बाहर मार्ग में निकलना निषिद्ध है। रात में मार्ग में निकलता भी कौन है! लेकिन निषेध है, इस कारण आज मार्ग की विजनता और भी गहन प्रतीत हो रही है। समस्त नगरवासियों ने अपने घर के दीपक बुझा कर द्वार बंद कर लिए हैं। मार्ग में कोई प्रहरी नहीं है। चोर भी आज मार्ग में नहीं निकले हैं। जिन्हें शव-दाह हेतु श्मशान में जाना है, वे शवों को घर में रखे प्रभात होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिनके घरों में मृत्युमुखी संतान पड़ी है, वे वैद्य को बुलाने बाहर नहीं निकले हैं। जो भिक्षुक मार्ग के किनारे वृक्ष के नीचे सोता था, उसने आज गृहस्थ की गोशाला में आश्रय ले लिया है। रात्रि में श्रृगाल-श्वान नगर के मार्गों पर विचरण कर रहे हैं, एक-दो चीते गृहस्थों के द्वार पर आकर झाँक रहे हैं। मनुष्यों में आज केवल मात्र एक व्यक्ति घर के बाहर है - और कोई मनुष्य नहीं। वह नदी किनारे पत्थर पर एक छुरी शान पर चढ़ा रहा है तथा अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रहा है। छुरी की धार काफी थी, किन्तु लगता है, वह छुरी के साथ अपनी भावना भी शान पर चढ़ा रहा था, इसी कारण उसका शान चढ़ाना खतम नहीं हो रहा है। पत्थर पर घिसने से तेज छुरी हिस् हिस् की ध्वनि करके हिंसा की लालसा में तप्त होती जा रही है। अंधकार के बीच अंधकार की नदी बही चली जा रही थी। संसार के ऊपर से अँधेरी रात के पहर बहे चले जा रहे थे। आकाश के ऊपर से अँधेरे घने मेघों की धारा बही जा रही थी। अंत में जब मूसलाधार बारिश पड़नी आरम्भ हुई, तब जयसिंह की चेतना जगी। तप्त छुरी म्यान में रख कर उठ कर खड़ा हो गया। पूजा का समय निकट आ गया है। उसे शपथ की बात याद आ गई। और एक दण्ड भी विलम्ब करना संभव नहीं। मंदिर आज सहस्र दीपों से आलोकित है। त्रयोदश देवताओं के मध्य खड़ी काली नर-रक्त के लिए जिह्वा फैलाए हुए है। मंदिर के सेवकों को विदा करके चतुर्दश देव-मूर्तियों के सम्मुख रघुपति एकला बैठा है। उसके सामने एक दीर्घकाय खाँडा है। नग्न उजला खड्ग दीपालोक में चमचमाते हुए दृढ़ वज्र के समान देवी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है। पूजा अर्ध-रात्रि में है। समय निकट है। रघुपति अत्यंत बेचैन हृदय से जयसिंह की प्रतीक्षा कर रहा है। सहसा तूफान की भाँति हवा चल कर मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गई। हवा में मंदिर की सहस्र दीप-शिखाएँ काँपने लगीं, नग्न खड्ग पर विद्युत खेलने लगी। चतुर्दश देवताओं और रघुपति की छायाएँ मानो जीवित होकर दीप-शिखाओं के नृत्य की ताल-ताल पर मंदिर की दीवार पर नाचने लगीं। एक नर-कपाल तूफान की हवा में इधर-उधर लुढ़कने लगा। दो चमगादड़ मंदिर में आकर सूखे पत्तों के समान एक के पीछे एक उडते घूमने लगे। उनकी छाया दीवार पर उड़ने लगी। दूसरा पहर आ गया। पहले निकट, बाद में दूर-दूरांतर पर श्रृगाल बोलने लगे। तूफान की हवा भी उनके संग मिल कर हू हू करके रुदन करने लगी। पूजा का समय हो गया। रघुपति अमंगल की आशंका में अत्यंत बेचैन हो उठा। उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की ब
िजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं। रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?" जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।" आवाज से मंदिर काँप उठा। काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई। रघुपति चीत्कार कर उठा - जयसिंह को उठाने की चेष्टा की, उठा नहीं पाया। उसकी मृत देह पर पड़ा रहा। मंदिर के सफेद पत्थरों पर रक्त बहने लगा। धीरे-धीरे एक-एक करके दीपक बुझ गए। अंधकार में पूरी रात एक प्राणी के साँस की ध्वनि सुनाई पडती रही; रात के तीसरे पहर तूफान थम कर चारों तरफ सन्नाटा छा गया। रात के चौथे पहर बादल के छिद्र से चन्द्रमा के प्रकाश ने मंदिर में प्रवेश किया। चन्द्रालोक जयसिंह के पाण्डुवर्ण चेहरे पर पड़ा, चतुर्दश देवता सिरहाने खड़े उसे ही देखने लगे। प्रभात में जब वन में पक्षी बोले, तब रघुपति मृत-देह छोड़ कर उठ गया। राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को नियंत्रित नहीं कर पाता। रघुपति का सामना करने की उसकी कोई इच्छा नहीं है। इसीलिए उसने निश्चय किया है, रघुपति की नजर बचा कर गुप्त रूप से जयसिंह के कमरे में जाकर उससे विशेष विवरण जाना जा सकता है। नक्षत्रराय ने धीरे-धीरे जयसिंह के कमरे में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही सोचा, लौट पाए, तो मुक्ति मिले। देखा, जयसिंह की पुस्तकें, उसके कपड़े, उसकी गृह-सज्जा बिखरी पड़ी है और रघुपति बीच में बैठा है। जयसिंह नहीं है। रघुपति की लाल आँखें अंगारे की तरह जल रही हैं, उसके केश बिखरे हुए हैं। उसने नक्षत्रराय को देखते ही मुट्ठी में मजबूती के साथ उसका हाथ पकड़ लिया। उसे बलपूर्वक जमीन पर बैठा लिया। नक्षत्रराय के प्राणों पर बन आई। रघुपति अपने अंगार-नेत्रों से नक्षत्रराय के मर्म-स्थान तक को दग्ध करके पागल की तरह बोला, "रक्त कहाँ है?" नक्षत्रराय के हृत्पिंड में रक्त की तरंगें उठने लगीं, मुँह से शब्द नहीं निकले। रघुपति उच्च स्वर में बोला, "कहाँ है, तुम्हारी प्रतिज्ञा? कहाँ है, रक्त?" नक्षत्रराय हाथ हिलाने लगा, पैर हिलाने लगा, बाएँ सरक कर बैठ गया, कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचने लगा - उसका पसीना बहने लगा, वह सूखे मुँह से बोला, "ठाकुर..." रघुपति ने कहा, "इस बार माँ ने स्वयं खड्ग उठा लिया है, इस बार चारों ओर रक्त की धारा बहेगी... इस बार तुम्हारे वंश में एक बूँद रक्त बाकी नहीं बचेगा, तब देखना नक्षत्रराय का 'भ्रातृ-स्नेह!' " " ' भ्रातृ-स्नेह!' हा हा! ठाकुर..." नक्षत्रराय की हँसी और नहीं निकली, गला सूख गया। रघुपति ने कहा, "मुझे गोविन्दमाणिक्य का रक्त नहीं चाहिए। जिसे गोविन्दमाणिक्य संसार में प्राणों से अधिक चाहता हो, मुझे वही चाहिए। उसका रक्त लेकर मैं गोविन्दमाणिक्य के शरीर पर मलना चाहता हूँ - उसका वक्ष-स्थल रक्तवर्ण हो जाएगा - उस रक्त का चिह्न किसी भी तरह मिटेगा नहीं। यह देखो, ध्यान से देखो।" कहते हुए उत्तरीय हटा दिया, उसकी देह रक्त में लिपटी है, उसके वक्ष-स्थल पर जगह-जगह रक्त जमा हुआ है। नक्षत्रराय सिहर उठा। उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। रघुपति बँधी मुट्ठी में नक्षत्रराय का हाथ दबा कर बोला, "वह कौन है? कौन गोविन्दमाणिक्य को प्राणों से भी अधिक प्रिय है? किसके चले जाने पर गोविन्दमाणिक्य की आँखों में यह संसार श्मशान हो जाएगा, उसके जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाएगा? प्रातः शैया से उठते ही उसे किसका चेहरा याद आता है, किसकी याद को साथ लेकर वहा रात को सोने जाता है, उसके हृदय-नीड़ को पूरी तरह भर कर कौन विराज रहा है? कौन है वह? क्या वह तुम हो?" कह कर, जैसे छलाँग लगाने के पूर्व व्याघ्र काँपते हुए हिरन के बच
्चे की ओर एकटक देखता है, वैसे ही रघुपति ने नक्षत्र की ओर देखा। नक्षत्रराय हडबड़ा कर बोला, "नहीं, मैं नहीं हूँ।" परन्तु किसी भी तरह रघुपति की मुट्ठी नहीं छुड़ा पाया। रघुपति ने कहा, "तो बताओ, वह कौन है?" नक्षत्रराय ने कह डाला, "वह ध्रुव है।" रघुपति बोला, "ध्रुव कौन?" नक्षत्रराय, "वह एक बालक है..." रघुपाई बोला, "मैं जानता हूँ, उसे जानता हूँ। राजा की अपनी संतान नहीं है, उसे ही संतान की तरह पाल रहा है। पता नहीं, अपनी संतान को लोग किस तरह प्यार करते हैं, किन्तु पालित संतान को प्राणों से अधिक प्यार करते हैं, यह जानता हूँ। अपनी सम्पूर्ण संपदा की अपेक्षा राजा को उसका सुख अधिक प्रतीत होता है। मुकुट अपने सिर की अपेक्षा उसके सिर पर देख कर राजा को अधिक आनंद होता है।" नक्षत्रराय आश्चर्य में पड़ कर बोला, "सही बात है।" रघुपति ने कहा, "बात सही नहीं है, तो क्या है! क्या मुझे पता नहीं कि राजा उसे कितना प्यार करता है! क्या मैं समझ नहीं पाता! मुझे भी वही चाहिए।" नक्षत्रराय मुँह फाड़े रघुपति की ओर देखता रहा। अपने मन में बोला, 'वही चाहिए।' रघुपति ने कहा, "उसे लाना ही होगा... आज ही लाना होगा... आज रात ही चाहिए।" नक्षत्रराय ने प्रतिध्वनि की भाँति कहा, "आज रात ही चाहिए।" रघुपति ने कुछ देर नक्षत्रराय के चेहरे पर देख कर स्वर को धीमा करके कहा, "यह बालक ही तुम्हारा शत्रु है, जानते हो? तुम राज-वंश में जन्मे हो - कहीं से एक अज्ञात कुलशील बालक तुम्हारे सिर से मुकुट छीन लेने को आ गया है, यह पता है? जो सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था, उसी सिंहासन पर उसके लिए स्थान निर्धारित हो गया है, क्या दो आँखें रहते हुए भी यह नहीं देख पा रहे हो!" नक्षत्रराय के लिए ये सारी बातें नई नहीं हैं। उसने भी पहले ऐसा ही सोचा था। गर्वपूर्वक बोला, "वह क्या और बताना पड़ेगा ठाकुर! क्या मैं इसे देख नहीं पाता!" रघुपति ने कहा, "तब और क्या! उसे लाकर दे दो। तुम्हारे सिंहासन की बाधा दूर कर दूँ। ये कुछ पहर किसी तरह काट लूँगा, उसके बाद... तुम कब लाओगे?" नक्षत्रराय - "अँधेरा हो जाने पर।" रघुपति जनेऊ स्पर्श करके बोला, "अगर न ला पाए, तो ब्राह्मण का शाप लगेगा। वैसा होने पर, जिस मुँह से तुम प्रतिज्ञा बोल कर उसका पालन नहीं करोगे, तीन रातें बीतने के पहले ही उसी मुख के मांस को शकुनी (एक छोटी चिड़िया) नोच-नोच कर खाएँगे।" सुनते ही नक्षत्रराय ने चौंक कर चेहरे पर हाथ फिराया - कोमल मांस पर शकुनी की चोच पड़ने की कल्पना उसे नितांत दुस्सह अनुभव हुई। रघुपति को प्रणाम करके वह जल्दी से विदा हो लिया। उस कमरे से प्रकाश में, हवा में और जन-कोलाहल में पहुँच कर नक्षत्रराय ने पुनर्जीवन पाया। ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र ने कहा, "छीः, ऐसी बात नहीं कहते, मैं तुम्हारा चाचा नहीं हूँ।" ध्रुव अब तक उसे हमेशा चाचा कहता चला आ रहा था, आज अचानक मना सुन कर वह भारी आश्चर्य में पड़ गया। कुछ देर गंभीर चेहरा बनाए बैठा रहा; उसके बाद नक्षत्र की ओर बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर बोला, "तुम कौन हो?" नक्षत्रराय ने कहा, "मैं तुम्हारा चाचा नहीं हूँ।" सुन कर ध्रुव को अचानक बहुत हँसी आई - इससे बड़ी असंभव बात इसके पहले कभी नहीं सुनी थी; वह हँसते हुए बोला, "तुम चाचा हो।" नक्षत्र जितना मना करने लगा, वह उतना ही कहने लगा, "तुम चाचा हो।" उसकी हँसी भी उतनी ही बढ़ने लगी। वह नक्षत्रराय को चाचा कह कर चिढ़ाने लगा। नक्षत्र बोला, "ध्रुव, तुम अपनी दीदी को देखने जाओगे?" ध्रुव जल्दी से नक्षत्र का गला छोड़ते हुए खड़ा होकर बोला, "दीदी कहाँ है?" नक्षत्र ने कहा, "माँ के पास।" ध्रुव ने कहा, "माँ कहाँ है?" नक्षत्र, "माँ एक जगह पर है। मैं तुम्हें वहाँ लेकर जा सकता हूँ।" ध्रुव ने ताली बजाते हुए पूछा, "कब ले जाओगे चाचा?" नक्षत्र, "इसी समय।" ध्रुव आनंद में चीत्कार करते हुए नक्षत्र के गले से जोर से लिपट गया; नक्षत्र उसे गोद में उठा कर, चादर से ढक कर गुप्त द्वार से बाहर निकल गया। आज रात भी लोगों का बाहर निकलना निषिद्ध है। इसी कारण मार्ग में न प्रहरी हैं, न पथिक। आकाश में पूर्ण चन्द्रमा है। नक्षत्रराय मंदिर पहुँच कर ध्रुव को रघुपति के हाथों में सौंपने को तैयार हो गया। ध्रुव रघुपति को देख कर ताकत के साथ नक्षत्रराय से चिपट गया, किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहा। रघुपति ने उसे बलपूर्वक छीन लिया। ध्रुव 'चाचा' पुकारते हुए रो पड़ा। नक्षत्रराय की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन रघुपति के सामने हृदय की यह दुर्बलता दिखाते हुए उसे भारी लज्जा आने लगी। उसने समझ लिया कि जैसे वह पत्थर का बना है। तब ध्रुव रोते-रोते 'दीदी' 'दीदी' पुक
ारने लगा, किन्तु दीदी नहीं आई। रघुपति ने वज्र-स्वर में धमकाया। डर के मारे ध्रुव का रोना बंद हो गया। उसका रुदन केवल सिसकियों में बाहर आने लगा। चतुर्दश देव-मूर्तियाँ देखती रहीं। गोविन्दमाणिक्य रात में स्वप्न में क्रंदन सुन कर जाग पड़े। सहसा सुना, कोई उनकी खिड़की के नीचे कातर स्वर में पुकार रहा है, "महाराज! महाराज!" राजा ने जल्दी से उठ कर चन्द्रमा के प्रकाश में देखा, ध्रुव का चाचा, केदारेश्वर है। पूछा, "क्या हुआ?" केदारेश्वर बोला, "महाराज, मेरा ध्रुव कहाँ है?" राजा ने कहा, "क्यों, अपनी शैया पर नहीं है?" केदारेश्वर कहने लगा, "दोपहर के बाद से ध्रुव को न देख पाने के कारण, पूछने पर युवराज नक्षत्रराय के सेवक ने बताया, ध्रुव अंतःपुर में युवराज के पास है। सुन कर मैं निश्चिन्त था। बहुत रात होती देख मुझे आशंका हुई; खोजने पर पता चला, युवराज नक्षत्रराय महल में नहीं हैं। मैंने महाराज के साथ भेंट करने की प्रार्थना के लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन प्रहरियों ने किसी भी तरह मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया... इसी कारण खिड़की के नीचे से महाराज को पुकारा, आपकी नींद तोड़ दी है - मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए।" राजा के मन में एक विचार विद्युत की भाँति कौंध गया। उन्होंने चार प्रहरियों को पुकारा, कहा, "सशस्त्र मेरा अनुसरण करो।" एक बोला, "महाराज, आज रात मार्ग में बाहर निकलना निषिद्ध है।" राजा बोले, "मैं आदेश दे रहा हूँ।" केदारेश्वर साथ जाने को तैयार हुआ, राजा ने उसे लौट जाने को कह दिया। राजा चन्द्रालोक में निर्जन मार्ग पर मंदिर की ओर चल पड़े। मंदिर का द्वार अचानक खुला, तो दिखाई पड़ा, नक्षत्र और रघुपति खड्ग सम्मुख रखे मदिरापान कर रहे हैं। प्रकाश अधिक नहीं है, केवल एक दीपक जल रहा है। ध्रुव कहाँ है? ध्रुव काली की मूर्ति के पैरों के निकट लेटे-लेटे सो गया है - उसके कपोलों पर आँसुओं की रेखा सूख गई है, दोनों होठ तनिक खुल गए हैं, चेहरे पर भय नहीं, चिन्ता नहीं - मानो यह पाषाण-शैया नहीं है, वह दीदी की गोद में सो रहा है। मानो दीदी ने चूम कर उसकी आँखों के आँसू पोंछ दिए हैं। मदिरा पीकर नक्षत्र की हिम्मत खुल गई थी, किन्तु रघुपति स्थिर बैठा पूजा के लग्न की प्रतीक्षा कर रहा था - नक्षत्र के प्रलाप पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा था। नक्षत्र कह रहा था, "ठाकुर, तुम मन-ही-मन डर रहे हो। तुम सोच रहे हो, मैं भी डर रहा हूँ। कोई डर नहीं ठाकुर! डर किसका! डर किसको! मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। तुम क्या समझते हो, राजा से डरता हूँ! मैं शाहशुजा से नहीं डरता, मैं शाहजहाँ से नहीं डरता। ठाकुर, तुमने कहा क्यों नहीं - मैं राजा को पकड़ लाता, देवी को संतुष्ट कर दिया जाता। इतने- से लड़के का रक्त ही कितना होगा!" उसी समय मंदिर की दीवार पर परछाईं पड़ी। नक्षत्रराय ने पीछे देखा - राजा। क्षण भर में नशा हिरन हो गया। अपनी परछाईं से भी ज्यादा काला पड़ गया। सोते हुए ध्रुव को तेजी से गोदी में उठा कर गोविन्दमाणिक्य ने प्रहरियों को आदेश दिया, "इन दोनों लोगों को बंदी बनाओ।" चार प्रहरियों ने रघुपति और नक्षत्रराय के दोनों हाथ पकड़ लिए। ध्रुव को छाती में दबा कर राजा ज्योत्स्नालोक में निर्जन मार्ग से महल लौट आए। उस रात रघुपति और नक्षत्रराय कारागार में रहे। अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे हुए हैं - रघुपति पाषाण-मूर्ति की भाँति खड़ा है, नक्षत्रराय का सिर झुका हुआ है। रघुपति का दोष सिद्ध करते हुए राजा उससे बोले, "तुम्हें क्या कहना है?" रघुपति ने कहा, "आपको मेरा न्याय करने का अधिकार नहीं है।" राजा ने कहा, "तो तुम्हारा न्याय कौन करेगा?" रघुपति, "मैं ब्राह्मण हूँ, मैं देव-सेवक हूँ, मेरा न्याय देवता करेंगे।" राजा, "पाप का दण्ड और पुण्य का पुरस्कार देने के लिए संसार में देवताओं के सहस्रों अनुचर हैं। हम भी उन्हीं में से एक हैं। इस विषय में मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करना चाहता - मैं पूछ रहा हूँ, तुमने कल शाम को बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था या नहीं!" रघुपति ने कहा, "हाँ।" राजा ने कहा, "तुम अपराध स्वीकार करते हो?" रघुपति, "अपराध! किस बात का अपराध! मैं माँ के आदेश का पालन कर रहा था, माँ का कार्य कर रहा था, तुमने उसमें बाधा पहुँचाई - अपराध तुमने किया है? मैं तुम्हें माँ के सामने अपराधी घोषित करता हूँ, वे तुम्हारा न्याय करेंगी।" राजा ने उसकी बात का कोई उत्तर न देकर कहा, "मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। मैंने वही दण्ड तुम्हारे लिए निर्धारित किया है। तुम आठ वर्ष के लिए निर्वास
ित कर दिए गए हो। तुम्हें प्रहरी मेरे राज्य के बाहर छोड़ आएँगे।" प्रहरी रघुपति को सभा-गृह से ले जाने को तैयार हो गए। रघुपति ने उनसे कहा, "रुक जाओ।" राजा की ओर देख कर बोला, "तुम्हारा न्याय पूरा हुआ, अब मैं तुम्हारा न्याय करूँगा, ध्यान दो। चतुर्दश देवताओं की पूजा में दो रात, जो कोई रास्ते में बाहर निकलेगा, वह पुरोहित के द्वारा दण्डित होगा, यही हमारे मंदिर का विधान है। इसी प्राचीन विधान के अंतर्गत तुम मेरे समक्ष दण्ड के भागी हो।" राजा ने कहा, "मैं तुम्हारा दण्ड भोगने के लिए प्रस्तुत हूँ।" सभासद बोले, "इस अपराध के लिए केवल अर्थ-दण्ड दिया जा सकता है।" पुरोहित बोला, "मैं तुम पर दो लाख मुद्रा का दण्ड लगाता हूँ। इसी समय भरना होगा।" राजा ने कुछ देर सोचा, फिर बोले, "तथास्तु।" कोषाध्यक्ष को बुला कर दो लाख मुद्राओं का आदेश कर दिया। प्रहरी रघुपति को बाहर ले गए। रघुपति के चले जाने पर राजा ने नक्षत्रराय की ओर देख कर दृढ़ स्वर में कहा, "नक्षत्रराय, तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो या नहीं!" नक्षत्रराय बोला, "महाराज, मैं अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिए।" कह कर भागते हुए राजा के पैरों से लिपट गया। महाराज विचलित हुए, कुछ देर तक बोल नहीं पाए। अंत में आत्म-संवरण करके कहा, "नक्षत्रराय, उठो, मेरी बात सुनो। मैं क्षमा करने वाला कौन होता हूँ? मैं अपने विधान से खुद बँधा हुआ हूँ। जिस प्रकार बंदी बँधा हुआ होता है, वैसे ही न्यायाधीश भी बँधा हुआ होता है। मैं एक ही अपराध के लिए एक व्यक्ति को दंड दूँ और एक व्यक्ति को क्षमा कर दूँ, यह कैसे संभव है? तुम ही फैसला करो।" सभासद बोले, "महाराज, नक्षत्रराय आपका भाई है, अपने भाई को क्षमा कर दीजिए।" राजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "आप सब चुप रहिए। मैं जब तक इस आसन पर हूँ, तब तक न किसी का भाई हूँ, न किसी का बंधु।" चारों ओर के सभासद चुप हो गए। सभा में सन्नाटा छा गया। राजा गंभीर स्वर में कहने लगे, "तुम सब सुन चुके हो - मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर जीव-बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। नक्षत्रराय ने कल शाम को पुरोहित के साथ षड्यंत्र रच कर बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था। इस अपराध के सिद्ध हो जाने के आधार पर मैं उसके लिए आठ वर्ष के निर्वासन के दण्ड का निर्धारण करता हूँ।" जिस समय प्रहरी नक्षत्रराय को ले जाने को तैयार हुए, तब राजा ने आसन से उतर कर नक्षत्रराय को आलिंगन में भर लिया; रुद्ध कंठ से कहा, "वत्स, केवल तुम्हारा ही दण्ड नहीं हुआ, मेरा भी दण्ड हो गया। न जाने पूर्व जन्म में क्या अपराध किया था। जब तक तुम बंधु-बांधवों से दूर रहो, तब तक भगवान तुम्हारे साथ रहें, तुम्हारा कल्याण करें।" देखते-देखते समाचार फैल गया। अंतःपुर में रोना-धोना मच गया। राजा एकांत कक्ष का द्वार बंद करके बैठ गए। हाथ जोड़ कर कहने लगे, "प्रभु, अगर कभी मैं अपराध करूँ, तो मुझे क्षमा मत करना, मुझ पर तनिक भी दया मत करना। मुझे अपने पाप का दण्ड दो। पाप करके दण्ड को ढोया जा सकता है, किन्तु क्षमा का भार नहीं ढोया जा सकता, प्रभु!" नक्षत्रराय के प्रति राजा के मन में दुगुना प्रेम जागने लगा। नक्षत्रराय का बचपन का चेहरा उन्हें याद आने लगा। उसने जो सब खेल किए थे, बातें की थीं, काम किए थे, वे एक-एक कर उनके मन में उभरने लगे। एक-एक दिन, एक-एक रात अपने सूर्यालोक में, अपने तारा खचित आकाश में शिशु नक्षत्रराय को लेकर उनके सम्मुख प्रकट हो गए। राजा की दोनों आँखों से आँसू झरने लगे। प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर के आसपास आ पहुँचे। तब प्रहरी रघुपति को छोड़ कर राजधानी लौट आए। रघुपति मन-ही-मन बोला, "कलियुग में ब्रह्म-शाप नहीं फलता, देखा जाए, ब्राह्मण में बुद्धि कितनी होती है! देखा जाए, गोविन्दमाणिक्य कैसा राजा है और मैं ही कैसा पुरोहित ठाकुर हूँ।" त्रिपुरा की सीमा में मंदिर के कोने में मुगल राज्य के समाचार अधिक नहीं पहुँचते थे। इसी कारण रघुपति ढाका शहर पहुँच कर मुगलों की रीति-नीति और राज्य की अवस्था जानने का कुतूहली हुआ। तब मुगल सम्राट शाहजहाँ का शासन-काल था। उनका तीसरा पुत्र, औरंगजेब दक्षिणापथ में बीजापुर-आक्रमण में नियुक्त था। उनका दूसरा पुत्र, शुजा बंगाल का अधिपति था, उसकी राजधानी राजमहल में थी। कनिष्ठ पुत्र, शहजादा मुराद गुजरात का शासनकर्ता है। ज्येष्ठ युवराज दारा राजधानी दिल्ली में ही रह रहा है। सम्राट की आयु सड़सठ वर्ष है। उनके बीमार होने के कारण दारा पर ही साम्राज्य का भार आ पड़ा है। कुछ दिन ढाका में रह कर रघुपति ने उर्दू की शिक्षा प्राप्त की और अंत में राजमहल
की ओर चल पड़ा। जब तक राजमहल पहुँचा, तब तक भारतवर्ष में हल्ला मच चुका था। समाचार फैल गया कि शाहजहाँ मृत्यु-शैया पर लेटे हैं। इस समाचार को पाते ही शुजा सेना सहित दिल्ली की ओर दौड़ पड़ा। सम्राट के चारों ही पुत्र मृत्यून्मुखी शाहाजहाँ के सिर से एकदम झपट्टा मार कर मुकुट उड़ा लेने की तैयारी कर रहे हैं। ब्राह्मण तत्काल अराजक राजमहल को छोड़ कर शुजा का पीछा करने में लग गया। सेवक-वाहक आदि को विदा कर दिया। साथ में जो दो लाख रुपया था, उसे राजमहल के पास वाले एक निर्जन कोने में गाड़ दिया। उसके ऊपर एक निशान बना दिया। बहुत थोड़ा-सा रुपया साथ में ले लिया। जली हुई झोपड़ियों, छोड़ दिए गए गाँवों, रौंदी हुई फसलों को देखते हुए रघुपति निरंतर चलता रहा। रघुपति ने संन्यासी का वेश धारण कर लिया। लेकिन संन्यासी वेश के होते हुए भी आतिथ्य दुर्घट है। कारण, सैनिक टिड्डों के समान जिस भी रास्ते से गुजरे हैं, उसके दोनों ओर केवल दुर्भिक्ष विराज रहा है। सैनिक घोड़ों और हाथियों को खिलाने के लिए बिना पकी फसल काट ले गए हैं। किसानों के कुठलों में एक दाना भी नहीं बचा है। चारों ओर केवल लुटाई के अवशेष बिखरे हैं। अधिकांश लोग गाँव छोड़ कर भाग गए हैं। भाग्यवश जो एक-दो लोग दिखाई पड़ जाते हैं, उनके चेहरे पर हँसी नहीं है। वे भयभीत हिरन के समान सतर्क रहते हैं। किसी पर भी वे न विश्वास करते हैं, न दया करते हैं। निर्जन रास्ते के किनारे पेड़ों के नीचे हाथ में लाठी लिए दो-चार लोग बैठे दिखाई पड़ जाते हैं; पथिकों के शिकार के लिए वे पूरे दिन प्रतीक्षा करते रहते हैं। धूमकेतु के पीछे आने वाली उल्का-बारिश के समान दस्यु, सैनिकों के पीछे-पीछे लुटने से बचे हुए को लूट ले जाते हैं। यहाँ तक कि, मृत-देह के ऊपर श्रृगाल-श्वान के समान बीच-बीच में सैनिकों और दस्यु-दल में लड़ाई छिड़ जाती है। निष्ठुरता सैनिकों का खेल हो गई है, रास्ते के किनारे निरीह पथिक के पेट में खप् करके तलवार की हूल मार देने अथवा उसके सिर से पगड़ी के साथ थोड़ी-सी खोपड़ी उड़ा देने को वे साधारण उपहास भर समझते हैं। गाँव के लोगों को अपने से डरता हुआ देख कर वे परम कौतुक अनुभव करते हैं। लूटने के बाद गाँव के लोगों को उत्पीड़ित करके वे आनंद प्राप्त करते हैं। दो मान्य ब्राह्मणों को पीठ से पीठ जोड़ कर एक साथ बाँध कर दोनों की नाक में नसवार डाल देते हैं। दो घोड़ों की पीठ पर एक आदमी को चढ़ा कर दोनों घोड़ों को चाबुक मार देते हैं; दोनों घोड़े दो विपरीत दिशाओं में दौड़ जाते हैं, बीच में आदमी गिर जाता है, उसके हाथ-पाँव टूट जाते हैं। इस प्रकार वे रोजाना नए-नए खेलों का आविष्कार करते हैं। गाँव अकारण जला दिए जाते हैं। कहते हैं, बादशाह की शान में आतिशबाजी कर रहे हैं। सैनिकों के मार्ग में इस प्रकार के अत्याचारों के सैकड़ों-सैकड़ों चिह्न मौजूद हैं। यहाँ रघुपति को आतिथ्य मिलेगा कहाँ! कोई दिन निराहार, कोई दिन अल्पाहार में काटने लगा। रात के अँधेरे में एक टूटी परित्यक्त झोपड़ी में थका हुआ शरीर लेकर सो गया था, सुबह उठ कर देखा, एक सिर-हीन देह को पूरी रात तकिया बना कर सोता रहा था। रघुपति ने एक दिन दोपहर में भूख लगने पर एक झोपड़ी में जाकर देखा, एक आदमी अपने टूटे संदूक पर उसकी कौली भरे पड़ा है - लगा, अपने लुटे हुए धन का शोक मना रहा था - निकट जाकर ठेलते ही वह लुढ़क कर गिर पड़ा। मात्र मृत देह, उसका जीवन बहुत पहले ही जा चुका था। रघुपति एक दिन एक झोपड़ी में सोया हुआ है। रात व्यतीत नहीं हुई है, कुछ देर है। तभी धीरे-धीरे दरवाजा खुल गया। शरद के चन्द्रालोक के साथ-साथ कुछ परछाइयाँ भी झोपड़ी में आ पड़ीं। फिस् फिस् की आवाज सुनाई पड़ी। रघुपति चौंक कर उठ बैठा। उसके उठते ही कई स्त्री-कंठ डरते हुए बोल पड़े, "उई माँ री!" एक पुरुष आगे बढ़ कर बोला, "कौन है रे?" रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण हूँ, पथिक। तुम लोग कौन हो?" "यह घर हमारा है। हम घर छोड़ कर भाग गए थे। मुगल सैनिक चले गए हैं, सुन कर अब आए हैं।" रघुपति ने पूछा, "मुगल सैनिक किस दिशा में गए हैं?" उन्होंने कहा, "विजयगढ़ की ओर। अब तक तो विजयगढ़ के जंगल में प्रवेश कर गए होंगे।" रघुपति और अधिक कुछ न बोल कर तत्क्षण यात्रा पर निकल पड़ा। विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, नीम है, सैकड़ों-सैकड़ों प्रकार की लताएँ और झाड़ियाँ हैं। जगह-जगह तलैया अथवा जलाशय की तरह दिखाई पड़ता है। लगातार पत्तों के सड़ने से उनका जल पूरी तरह हरा हो गया है। छोटी-छोटी टेढ़ी-मेढ़ी बटियाँ साँपों के समान इधर से, उधर से अँधेरे जंगल में प्रवेश कर रही हैं। पेड़ों की डाल-डाल, पात-पात पर लंगूर हैं। वट वृक्ष क
ी शाखाओं से सैकड़ों-सैकड़ों जटाएँ और लंगूरों की पूँछें झूल रही हैं। भग्न मंदिर का प्रांगण शेफाली के सफेद-सफेद फूलों और लंगूरों के दाँतों की चमक से पूरी तरह ढका है। शाम को बड़े-बड़े छतनार पेड़ों पर झुण्ड के झुण्ड तोतों के शोर से घना अंधकार मानो दीर्ण-विदीर्ण होता रहता है। आज इस विशाल जंगल में लगभग बीस हजार सैनिकों ने प्रवेश किया है। शाखा-प्रशाखाओं, लताओं-पत्तों, घासों-झाड़ियों से भरा यह विशाल जंगल तीक्ष्ण नख-चंचु वाले सैनिक बाजों का एकमात्र नीड़ लग रहा है। सैनिकों का जमावडा देख कर असंख्य कौवे झुण्ड बना कर काँव-काँव करते हुए आकाश में उड़ते घूम रहे हैं - हिम्मत करके डालों पर आकर नहीं बैठ रहे हैं। किसी तरह के शोर-शराबे के लिए सेनापति की मनाही है। सैनिक पूरे दिन चल कर शाम को जंगल में पहुँच कर सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी करके खाना पका रहे हैं और आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं - उनकी उसी गुन गुन से सारा जंगल गम गम कर रहा है, शाम को झींगुर की झंकार सुनाई नहीं पड़ रही है। पेड़ों के तनों से बँधे घोड़े बीच-बीच में खुरों से धूल उड़ा रहे हैं और हिनहिना रहे हैं - उससे सारा जंगल चौंक पड़ रहा है। भग्न मंदिर के निकट खाली स्थान पर शाहशुजा का शिविर लगा है। और सबका पड़ाव आज पेड़ों के नीचे ही है। रघुपति को पूरे दिन लगातार चल कर जंगल में प्रवेश करते हुए रात हो गई है। अधिकांश सैनिक सन्नाटे में सो रहे हैं, थोड़े-से चुपचाप पहरा दे रहे हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं आग जल रही है - मानो अंधकार ने बडे कष्ट से नींद से भारी लाल आँखें खोल रखी हैं। रघुपति ने जंगल में पैर रखते ही मानो बीस हजार सैनिकों के श्वास-प्रश्वास को सुन लिया। जंगल हजारों पेड़ों की शाखाएँ फैलाए पहरा दे रहा है। जैसे धूसर मस्तक वाला उल्लू अपने सद्यजात शिशु पर पंख फैलाए बैठा रहता है, उसी प्रकार जंगल के बाहर की विराट रात्रि जंगल के भीतर की सघनतर रात्रि को दबाए उसे डैनों से ढक कर चुपचाप बैठी है - एक रात्रि जंगल के भीतर मुँह घुसाए सो रही है, एक रात्रि जंगल के बाहर सिर उठाए जाग रही है। उस रात्रि में रघुपति जंगल के किनारे सो रहा। सुबह दो-चार खोंचे खाकर हड़बड़ाते हुए जाग गया। देखा, भरी दाढ़ी वाले पगड़ी बाँधे तूरानी सैनिक उससे विदेशी भाषा में कुछ कह रहे हैं; सुन कर उसने निश्चित अनुमान लगा लिया - गाली है। उसने भी बंग-भाषा में उन्हें साला बक दिया। वे लोग उसके साथ खींचातानी करने लगे। रघुपति बोला, "मजाक सूझ रहा है?" किन्तु उनके व्यवहार से मजाक का कोई लक्षण प्रकट नहीं हुआ। वे उसे अकातर भाव से जंगल में खींच कर ले जाने लगे। वह असाधारण असंतोष प्रकट करते हुए बोला, "खींचतान क्यों कर रहे हो? मैं खुद ही चल रहा हूँ। इतने रास्ते मैं आया किसलिए हूँ?" सैनिक हँसने लगे और उसकी बाँग्ला बातों की नकल करने लगे। धीरे-धीरे उसके चारों ओर सैनिकों का बड़ा हुजूम इकट्ठा हो गया, उसे लेकर भारी हंगामा मचने लगा। उत्पीड़न की भी सीमा न रही। एक सैनिक ने एक गिलहरी की पूँछ पकड़ कर उसके मुँड़े सिर पर छोड़ दी - देखने की इच्छा थी कि फल समझ कर खाता है या नहीं! एक सैनिक उसकी नाक के सामने एक मोटे बेंत को टेढ़ा करके पकड़े उसके साथ-साथ चलने लगा, उसे छोड़ देता, तो रघुपति की नाक की उच्च महिमा के सम्पूर्णतः समूल लुप्त हो जाने की आशंका थी। सैनिकों की हँसी से जंगल गूँजने लगा। आज दोपर में युद्ध करना होगा, इसी कारण सुबह रघुपति को लेकर वे बहुत खेल रचाने लगे। खेल की इच्छा पूरी होने के बाद ब्राह्मण को शुजा के पास ले गए। रघुपति ने शुजा को देख कर सलाम नहीं किया। वह देवता और स्व-वर्ण को छोड़ कर और किसी के सम्मुख कभी भी सिर नहीं झुकाता। सिर उठाए खड़ा रहा; हाथ उठा कर बोला, "शहंशाह की जय हो।" शुजा मदिरा का प्याला लिए सभासदों के साथ बैठा था; आलस्य विजड़ित स्वर में नितांत उपेक्षा के भाव से कहा, "क्या, माजरा क्या है?" सैनिक बोले, "जनाब, दुश्मन का जासूस छिप कर हमारी ताकत और कमजोरी का पता लगाने के लिए आया था; हम लोग उसे पकड़ कर हुजूर के पास ले आए हैं।" शुजा ने कहा, "अच्छा अच्छा! बेचारा देखने आया है, उसे सब कुछ अच्छी तरह दिखा कर छोड़ दो। देश लौट कर कहानी सुनाएगा।" रघुपति ने गलत-सलत हिन्दुस्तानी में कहा, "मैं सरकार के यहाँ काम की प्रार्थना करता हूँ।" शुजा ने आलस्य भाव से हाथ हिला कर उसे जल्दी से चले जाने का संकेत किया। बोला, "गरम!" जो हवा कर रहा था, वह दुगुने जोर से हवा करने लगा। दारा ने अपने पुत्र सुलेमान को राजा जयसिंह के अधीन शुजा के आक्रमण का प्रतिरोध करने भेजा है। उसकी विशाल सेना निकट पहुँच गई है, समाचार आ गया है। उसी कारण विजयगढ़ के किले पर अधिकार करके वहाँ सेना इकट्ठी करने के लिए शुजा बेचैन हो गया है। किला और सरकारी खजाना शुजा के हाथों सौंप देने का प्रस्ताव लेकर दू
त विजयगढ़ के अधिपति विक्रम सिंह के पास गया था। विक्रम सिंह ने उसी दूत से कहलवा भेजा, "मैं केवल दिल्लीश्वर शाहजहाँ और जगदीश्वर भवानीपति को जानता हूँ - शुजा कौन है? मैं उसे नहीं जानता।" शुजा ने जड़ता भरे स्वर में कहा, "बड़ा बेअदब है! नाहक फिर लड़ाई करनी पड़ेगी। भारी झमेला है।" रघुपति ने यह सब सुन लिया। सैनिकों के हाथ से छूटते ही विजयगढ़ की ओर चल पड़ा। विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार अपने सहस्र तरु-जाल से ढका है, उसी प्रकार दुर्ग अपने पत्थरों में जकड़ा है। अरण्य सावधान है, दुर्ग चौकन्ना है। अरण्य व्याघ्र के समान हाथ-पैर सिकोड़े पूँछ समेटे बैठा है, दुर्ग सिंह के समान केशर फुलाए गर्दन टेढ़ी किए खड़ा है। अरण्य जमीन से कान लगाए सुन रहा है, दुर्ग आकाश में सिर उठाए देख रहा है। रघुपति के जंगल से बाहर आते ही दुर्ग के प्राचीर पर खड़े प्रहरी चौकन्ने हो गए। शंख बज उठे। प्रहरी नाद करते हुए नख-दन्त खोल कर भृकुटी तान कर खड़े हो गए। रघुपति जनेऊ दिखा कर हाथ उठा कर संकेत करने लगा। सैनिक सतर्क खड़े रहे। जब रघुपति दुर्ग की प्राचीर के निकट पहुँचा, तो सैनिकों ने पूछा, "तुम कौन हो?" रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण, अतिथि।" दुर्गाधिपति विक्रम सिंह परम धर्मनिष्ठ हैं। देवता, ब्राह्मण और अतिथि की सेवा में लगे रहते हैं। जनेऊ रहने पर दुर्ग में प्रवेश के लिए और कोई पहचानपत्र आवश्यक नहीं था। लेकिन आज युद्ध के दिन क्या करना उचित है, सैनिक नहीं सोच पाए थे। रघुपति ने कहा, "तुम लोगों के शरण न देने की स्थिति में मुझे मुसलमानों के हाथों मरना पड़ेगा।" विक्रम सिंह के कानों में जब यह बात पहुँची, तो उन्होंने ब्राह्मण को दुर्ग में शरण देने की अनुमति प्रदान कर दी। प्राचीर के ऊपर से बाँस की एक सीढ़ी उतारी गई, रघुपति दुर्ग में दाखिल हो गया। दुर्ग में सभी युद्ध की प्रतीक्षा में व्यस्त हैं। वृद्ध चाचा साहब ने ब्राह्मण की आवभगत का भार स्वयं सँभाल लिया। उनका असली नाम खड्ग सिंह है, किन्तु कोई उन्हें पुकारता है, चाचा साहब, कोई पुकारता है, सूबेदार साहब - क्यों पुकारता है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं देता। संसार में उनका कोई भतीजा नहीं है, भाई भी नहीं है, उन्हें चाचा होने का कोई अधिकार अथवा इसकी दूर तक संभावना नहीं है और उनके जितने भतीजे हैं, उनका सूबा उनकी अपेक्षा अधिक नहीं है, किन्तु आज तक किसी ने उनकी उपाधि के सम्बन्ध में किसी प्रकार की आपत्ति अथवा संदेह प्रकट नहीं किया। जो बिना भतीजे के ही चाचा हैं, बिना सूबे के ही सूबेदार हैं, संसार की अनित्यता और लक्ष्मी के चपलता-बंधन द्वारा उनके पद से हट जाने की कोई आशंका नहीं है। चाचा साहब आकर बोले, "वाह वा, यही तो हुआ ब्राह्मण!" कहते हुए भक्ति में डूब कर प्रणाम किया। रघुपति का गठन एक प्रकार से तेजस्वी दीपशिखा के समान था. जिसे अचानक देख कर पतंग न्योछावर हो जाते थे। चाचा साहब संसार की आजकल की शोचनीय दशा पर दुखी होकर बोले, "ठाकुर, आजकल वैसे ब्राह्मण कितने मिलते हैं!" रघुपति ने कहा, "बहुत कम।" चाचा साहब ने कहा, "पहले ब्राह्मण के मुख में अग्नि थी, अब समस्त अग्नि ने जठर में शरण ले ली है।" रघुपति ने कहा, "वह भी क्या पहले की तरह है?" चाचा साहब ने सिर हिला कर कहा, "सही बात है। अगस्त्य मुनि ने जिस परिमाण में पान किया था, यदि उसी परिमाण में भोजन भी करते, तो जरा सोच कर देखिए।" रघुपति ने कहा, "और भी दृष्टांत हैं।" चाचा साहब, "हाँ, हैं ही तो! जम्भु मुनि की पिपासा की बात सुनी जाती है, उनकी भूख के बारे में कहीं ही लिखा नहीं है, लेकिन एक अनुमान लगाया जा सकता है। हरीतकी खाने से ही कम खाया जाता है, ऐसी बात नहीं है, वे कितनी हरीतकियाँ प्रति दिन खाते थे, एक हिसाब रहने पर समझ सकता था।" रघुपति ने ब्राह्मण के महात्म्य का स्मरण करके कहा, "नहीं साहब, आहार की ओर उनका विशेष ध्यान नहीं था।" चाचा साहब जीभ दाँतों में दबाते हुए बोले, "राम राम, क्या कह रहे हैं ठाकुर? उन लोगों का जठरानल अत्यंत प्रबल था, इसका विशिष्ट प्रमाण है। देखिए ना, कालक्रम में और सारी अग्नियाँ बुझ गईं, होम की अग्नि भी और नहीं जलती, किन्तु..." रघुपति ने तनिक क्षुब्ध होते हुए कहा, "होम की अग्नि और जलेगी कैसे? देश में घी रह कहाँ गया? नास्तिक सारी गायों को ठिकाने लगा रहे हैं, अब हव्य कहाँ मिलता है? होमाग्नि जले बिना ब्रह्मतेज और कब तक टिक सकता है?" कहते हुए रघुपति अपनी जला डालने वाली शक्ति को बहुत अधिक अनुभव करने लगा। चाचा साहब ने कहा, "सही कहा ठाकुर, गायों ने मर कर आजकल मनुष्य लोक में जन्म ग्रहण करना आरम्भ कर दिया है, किन्तु उनसे घी पाने की प्
रत्याशा नहीं की जा सकती। दिमाग की पूरी तरह कमी है। ठाकुर का आगमन कहाँ से हो रहा है?" रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा की राजबाड़ी से।" विजयगढ़ के बाहर स्थित भूगोल अथवा इतिहास के सम्बन्ध में चाचा साहब की साधारण-सी जानकारी थी। भारतवर्ष में विजयगढ़ के अतिरिक्त और कुछ जानने लायक है, उन्हें यह विश्वास भी नहीं है। पूरी तरह अनुमान के आधार पर बोला, "अच्छा, त्रिपुरा के राजा बहुत बड़े राजा हैं?" रघुपति ने इसका पूर्ण समर्थन किया। चाचा साहब - "ठाकुर क्या करते हैं?" रघुपति - "मैं त्रिपुरा का राजपुरोहित हूँ।" चाचा साहब आँखें मींच कर सिर हिलाते हुए बोले, "आहा।" रघुपति के प्रति उनकी भक्ति अत्यधिक बढ़ गई। "किसलिए आना हुआ?" रघुपति ने कहा, "तीर्थ दर्शन के लिए।" धूम की आवाज हुई। शत्रु पक्ष ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। चाचा साहब हँस कर आँखें मिचमिचाते हुए बोले, "वह कुछ नहीं, ढेला फेंक रहा है।" विजयगढ़ पर चाचा साहब का विश्वास जितना दृढ़ है, विजयगढ़ के पत्थर उतने मजबूत नहीं हैं। विदेशी पथिक के दुर्ग में प्रवेश करते ही चाचा साहब उस पर पूरा अधिकार करके बैठ जाते हैं और विजयगढ़ के महात्म्य को उसके मन में बद्धमूल कर देते हैं। रघुपति त्रिपुरा की राजबाड़ी से आया है, ऐसा अतिथि हमेशा नहीं आता, चाचा साहब अत्यंत उल्लास में हैं। अतिथि के साथ विजयगढ़ के पुरातत्व के सम्बन्ध में चर्चा करने लगे। बोले, "ब्रह्मा का अण्ड और विजयगढ़ का दुर्ग लगभग एक ही समय उत्पन्न हुए तथा ठीक मनु के बाद से ही विक्रम सिंह के पूर्वज इस दुर्ग पर अधिकार जमाए चले आ रहे हैं, इस विषय में कोई संशय नहीं हो सकता।" इस दुर्ग को शिव का कौन-सा वर प्राप्त है तथा कार्तवीर्यार्जुन इस दुर्ग में किस प्रकार बंदी हुआ था, वह भी रघुपति से छिपा नहीं रहा। संध्या समय समाचार मिला, शत्रु पक्ष दुर्ग को कोई हानि नहीं पहुँचा पाया है। उन्होंने तोपें लगाई थीं, किन्तु तोपों के गोले दुर्ग तक नहीं पहुँच सके। चाचा साहब ने हँस कर रघुपति की ओर देखा। रहस्य यही कि दुर्ग को शिव का जो अमोघ वर प्राप्त है, उसका इससे प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या हो सकता है। लगता है, स्वयं नंदी तोपों के गोलों को बीच में ही लपक ले गए, उनसे कैलास पर गणपति और कार्तिकेय कंदुक-क्रीड़ा करेंगे। किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण करने में शुजा की सहायता करेगा। किन्तु ब्राह्मण का युद्ध-विग्रह से कोई लेना-देना था नहीं; सो, कैसे शुजा की सहायता की जा सकती है, कुछ भी नहीं सोच पाया। अगले दिन फिर युद्ध आरम्भ हो गया। विरोधी पक्ष ने बारूद से दुर्ग के प्राचीर का थोड़ा-सा हिस्सा उड़ा दिया, किन्तु तेजी से गोली बरसाने के कारण दुर्ग में प्रवेश नहीं कर पाया। देखते ही देखते टूटे अंश की मरम्मत कर दी गई। आज बीच-बीच में दुर्ग में गोली-गोले आकर गिरने लगे, दो-चार करके दुर्ग के सैनिक मरने और घायल होने लगे। "ठाकुर, कोई डर नहीं, यह केवल खेल हो रहा है," कह कर चाचा साहब रघुपति को चारों ओर से दुर्ग दिखाते घूमने लगे। कहाँ अस्त्रागार है, कहाँ भंडार है, कहाँ घायलों का चिकित्सालय है, कहाँ कैदखाना है, कहाँ दरबार है, सब तन्न-तन्न करके दिखाने लगे और बार-बार रघुपति के चेहरे की ओर देखने लगे। रघुपति ने कहा, "विलक्षण कारखाना है। त्रिपुरा का दुर्ग इसके सामने नहीं टिक सकता। लेकिन साहब, छिप कर भागने के लिए त्रिपुरा के दुर्ग में एक आश्चर्यभरा सुरंग-मार्ग है, यहाँ उस प्रकार का कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है।" चाचा साहब कुछ बोलने जा रहे थे, सहसा अपने को रोकते हुए कहा, "नहीं, इस दुर्ग में वैसा कुछ भी नहीं है।" रघुपति ने नितांत आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "इतने विशाल दुर्ग में एक सुरंग-मार्ग नहीं, यह कैसी बात है!" चाचा साहब ने तनिक कातर होकर कहा, "न हो, क्या ऐसा हो सकता है! अवश्य ही होगा, तब भी शायद हममें से किसी को पता नहीं है।" रघुपति ने हँस कर कहा, "तब तो न होने के बराबर ही है। जब आप ही नहीं जानते, तो और कौन जानता होगा।" चाचा साहब कुछ देर बहुत गंभीर होकर चुप रहे, उसके बाद सहसा "हरि हे, राम राम" कहते हुए चुटकी बजा कर जमुहाई ली, उसके बाद चेहरे पर, मूँछों पर, दाढ़ी पर एक-दो बार हाथ फेरते हुए अचानक बोले, "ठाकुर, आप तो पूजा-अर्चना में लगे रहते हैं, आपको बताने में कोई दोष नहीं है - दुर्ग में प्रवेश करने और दुर्ग से बाहर जाने के दो गुप्त मार्ग हैं, किन्तु बाहर के किसी व्यक्ति को उन्हें दिखाने का निषेध है।" रघुपति ने किंचित संदेह के स्वर में कहा, "ठीक है, वह तो होगा ही।" चाचा साहब ने देखा, दोष उन्हीं का है, एक बार 'नहीं' एक बार 'हाँ' बोलने पर लोगों को स्वाभा
विक रूप से संदेह हो ही सकता है। विदेशी की आँखों में त्रिपुरा के दुर्ग के सामने विजयगढ़ किसी अंश में हीन हो जाए, यह चाचा साहब के लिए असहनीय है। उन्होंने कहा, "ठाकुर, सोचता हूँ, आप त्रिपुरा से बहुत दूर हैं और आप ब्राह्मण हैं, आपका एकमात्र काम देवा-सेवा ही है, आपके द्वारा कोई बात खुलने की संभावना नहीं है।" रघुपति ने कहा, "आवश्यकता क्या है साहब, संदेह हो, तो वह सब बात रहने दीजिए ना। मैं ब्राह्मण का बेटा हूँ, मुझे दुर्ग के समाचारों से क्या प्रयोजन!" चाचा साहब जीभ दाँतों में दबाते हुए बोले, "अरे राम राम, आप पर फिर संदेह किस बात का। चलिए, एक बार दिखा लाता हूँ।" इधर शुजा के सैनिकों के बीच सहसा अव्यवस्था मच गई। शुजा का शिविर जंगल में था, सुलेमान और जयसिंह की सेना ने अचानक आकर उन्हें बंदी बना लिया तथा छिप कर दुर्ग पर हमला करने वालों पर चढ़ाई कर दी। शुजा के सैनिकों ने लड़ाई किए बिना ही बीस तोपें पीछे फेंक कर तोड़ डालीं। दुर्ग में धूम मच गई। विक्रम सिंह के पास सुलेमान का दूत पहुँचते ही उन्होंने दुर्ग का द्वार खोल दिया, स्वयं आगे बढ़ कर सुलेमान और राजा जयसिंह की अगवानी की। दिल्लीश्वर के सैनिकों तथा हाथी-घोड़ों से दुर्ग भर गया। निशान फहराने लगा, शंख और रणवाद्य बजने लगे तथा चाचा साहब की सफेद मूँछों के नीचे उजली हँसी भरपूर ढंग से खिल गई।
माया को आशीष जी के साथ भेजकर त्रिधा भी अपना हैंड बैग उठाकर वापस हॉस्टल की तरफ लौट रही थी और तभी दो हाथों ने पीछे से आकर उसकी आंखें बंद कर ली त्रिधा ने तुरंत उन हाथों को अपनी आंखों से हटाया और पीछे पलट कर देखा तो सामने संध्या खड़ी थी और जोर जोर से हंस रही थी त्रिधा ने संध्या को घूर कर देखा और बोली - "तुमने तो मुझे डरा ही दिया था... तुम यहां पर क्या कर रही हो?" संध्या हंसते हुए बोली - "चलो आंखिर मैंने तुम्हें डराया तो सही! तुम किसी से तो डरती हो।" और इतना कहकर वापस ताली बजा कर हंसने लगी। त्रिधा कहने लगी - "अब हंसना बंद करो और बताओ कि तुम यहां पर क्या कर रही हो?" संध्या ने अपनी आंखें गोल करते हुए त्रिधा के पास आकर कहा - "पिछले साल तो तुमने पता चलने नहीं दिया, मगर इस साल मुझे पता चल ही गया और अब तुम मुझसे बचकर कहीं नहीं जा सकती।" इतना कहकर संध्या ने त्रिधा का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती अपने साथ लेकर जाने लगी। त्रिधा भी चुपचाप संध्या के साथ साथ चलने लगी। हालांकि त्रिधा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था मगर उसने सोचा संध्या तो बेवकूफ है, उससे रोड पर बहस करने का क्या फायदा! वैसे भी होगा कुछ नहीं बस भीड़ के सामने अपना ही मजाक बनवा लेगी। कुछ देर बाद त्रिधा और संध्या हर्षवर्धन के रेस्टोरेंट में पहुंच गईं। त्रिधा यहां पहले भी आ चुकी थी। आज हर्षवर्धन के रेस्टोरेंट को देखकर त्रिधा हैरानी से अपने मुंह पर हाथ रखे चारों तरफ देख रही थी। हर्षवर्धन का पूरा रेस्टोरेंट खाली था और त्रिधा के पसंदीदा ऑर्किड के फूलों से सा हुआ था। त्रिधा को विश्वास ही नहीं हो रहा था यह रेस्टोरेंट इतना ज्यादा सुंदरता से सजाया हुआ है। मगर उसे समझ नहीं आया कि रेस्टोरेंट क्यों सजा हुआ है! अपनी सोच में ही थी त्रिधा अपनी सोच में ही थी कि तभी पीछे से आकर दो हाथों ने एक बार फिर त्रिधा की आंखों को अपने हाथों से ढक लिया। त्रिधा ने वापस उन हाथों को अपनी आंखों से हटाया और जैसे ही पीछे मुड़कर देखा तो खुशी और हैरानी से उसकी आंखें चौड़ गईं। प्रभात और हर्षवर्धन, दोनों मुस्कुराते हुए उसके सामने खड़े थे। त्रिधा दोनों को देखकर पूछने लगी - "क्या हुआ? तुम तीनों एकसाथ!" प्रभात मुस्कुराते हुए त्रिधा के गले लग गया और बोला - "हैप्पी बर्थडे त्रिधा! पिछली बार हमें कुछ बताया ही नहीं था तुमने इसलिए हम तुम्हारा जन्मदिन नहीं मना पाए मगर इस बार दोनों सालों की कमी पूरी कर देंगे।" "बिल्कुल!" और इतना कहते हुए हर्षवर्धन केक लेकर वहां आ गया। संध्या ने एक गिफ्ट रैप त्रिधा के आगे बढ़ाया और बोली - "ये मेरी तरफ से मेरी त्रिधू के लिए, अभी पहन।" त्रिधा ने खुशी से गिफ्ट ले लिया। देखा संध्या उसके लिए एक खूबसूरत सी रिस्ट वॉच लेकर आई थी। त्रिधा ने घड़ी पहन ली और हर्षवर्धन को देखने लगी। हर्षवर्धन भी त्रिधा को ही देख रहा था और प्रभात उन दोनों को एक दूसरे को निहारते हुए देख कर मुस्कुरा रहा था। प्रभात हर्षवर्धन के पास आकर बोला - "तुझे इसलिए घूर रही है क्योंकि तूने उसे कुछ गिफ्ट नहीं दिया अब तक।" हर्षवर्धन मुस्कुराते हुए बोला - "मेरा गिफ्ट त्रिधा कभी नहीं भूलेगी... मगर तू क्या लाया है इसके लिए?" प्रभात मुस्कुरा दिया और कहने लगा - "कुछ ऐसा जो त्रिधा को पसंद भी आएगा और जिसे लेने में यह न - नुकुर भी नहीं कर पाएगी। अपनी स्वाभिमानी दोस्त के लिए बहुत सोच समझ कर कुछ लाया हूं।" त्रिधा ने जब केक कट किया तब हर्षवर्धन और प्रभात ने मिलकर त्रिधा के चेहरे पर केक की आइसिंग लगा दी और संध्या मुस्कुराते हुए उन तीनों के फोटो ले रही थी। त्रिधा तीनों को घूरते हुए देख रही थी। कुछ देर बाद त्रिधा ने संध्या, प्रभात और हर्षवर्धन को भी फोटो क्लिक करवाने को कहा और खुद उनके फोटोज़ लेने लगी। कुछ फोटोज़ उसने सिर्फ संध्या और प्रभात के लिए। रेस्टोरेंट्स के सबसे अच्छे हिस्से में जाकर वह उन दोनों के साथ में फोटो ले रही थी। वाकई दोनों साथ में बहुत खूबसूरत लगते थे और आज तो त्रिधा के जन्मदिन के कारण हर्षवर्धन, संध्या और प्रभात, तीनों ही बहुत अच्छे से तैयार होकर आए थे। यह बात अलग थी कि जिस का जन्मदिन था, वह खुद ऐसे ही घूम रही थी। यह सोचकर त्रिधा खिसियानी हंसी हंस पड़ी। त्रिधा ने कभी सोचा भी नहीं था कि ये लोग उसका जन्मदिन इतना खास बना देंगे। कुछ देर बाद सब एक साथ बैठकर बातें करने लगे। हर्षवर्धन ने वेटर को बुलाकर सारा खाना त्रिधा की पसंद का ऑर्डर कर दिया। संध्या और प्रभात हैरानी से हर्षवर्धन को देख रहे थे कि आखिर उसे त्रिधा की पसंद कैसे पता चली! पर त्रिधा हैरान नहीं थी क्योंकि यह सब उसके साथ पहले भी हो चुका है। वह बस मुस्कुरा रही थी हर्षवर्धन को देखते हुए कि कोई तो था जो उसे इस हद तक समझता था कि उन दोनों के बीच शब्दों की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। काफी देर तक सब साथ र
हे मगर फिर संध्या घर जाने के लिए कहने लगी क्योंकि उसे देर हो रही थी। हर्षवर्धन अपने हाथों में एक बड़ा सा गिफ्ट रैप लेकर आया। हर्षवर्धन का गिफ्ट देखकर प्रभात और संध्या के साथ-साथ त्रिधा भी हैरानी से उसे ही देख रही थी। हर्षवर्धन ने त्रिधा को जब गिफ्ट थमाया तो उसे छूकर भी त्रिधा को कुछ समझ नहीं आया कि यह क्या है। हर्षवर्धन का गिफ्ट रैप बहुत मोटे गत्तों के बीच पैक किया गया था शायद। त्रिधा हर्षवर्धन से पूछने लगी - "इसमें क्या है हर्षवर्धन? यह तो बहुत बड़ा है।" हर्षवर्धन मुस्कुराते हुए बोला - "हॉस्टल जाकर खोल कर देखना त्रिधा। यहीं खोलोगी तो हॉस्टल ले जाने में परेशानी होगी और मेरा सरप्राइज भी खराब हो जाएगा।" त्रिधा कुछ कह पाती इससे पहले ही प्रभात भी अपना गिफ्ट लेकर त्रिधा के सामने आ गया और उसे पकड़ाते हुए बोला - "इसे भी हॉस्टल जाकर ही खोलना त्रिधा। अभी के लिए बस इतना समझ लो कि कुछ ऐसा है जो तुम बहुत लंबे समय से पाना चाहती थीं मगर इसे खरीद नहीं सकती थीं।" त्रिधा आंखें चौड़ाते हुए बोली - "पर तुमने तो कहा था कि कुछ भी एक्सपेंसिव नहीं है।" प्रभात मुस्कुरा दिया और बोला हॉस्टल जाकर खोल कर देख लेना अगर पसंद नहीं आए तब बोलना। संध्या ने त्रिधा को गले लगा लिया और बोली - "आज का दिन मेरी भी जिंदगी के सबसे अच्छे दिनों में से एक था त्रिधा क्योंकि यह मेरी त्रिधा का जन्मदिन है।" फिर त्रिधा के गाल पर प्यार से हाथ रखते हुए संध्या बोली - "एक बात हमेशा याद रखना त्रिधा हम सब दोस्त हैं और दोस्तों से भी बढ़कर एक परिवार की तरह हैं। परिवार में लड़ाइयां, झगड़े, गलतफहमियां, उलझनें सब होता है, मगर फिर भी प्यार कभी कम नहीं होता। हम सबके बीच भी लड़ाई, झगड़े, गलतफहमियां हो सकती हैं मगर हमारा आपस का प्यार कभी कम नहीं होगा। मुझसे पहले प्रभात पर तुम्हारा हक है क्योंकि प्यार सिर्फ प्यार होता है मगर एक अकेले दोस्त में मां, बाप, भाई, बहन, प्यार, हर रिश्ता होता है। प्रभात को सही रास्ता दिखाना मेरी जिम्मेदारी है मगर कभी मैं भटक जाऊं तो मेरा साथ मत छोड़ना त्रिधा।" संध्या की बात सुनकर त्रिधा ने संध्या को "पागल" कहते हुए गले से लगा लिया इतने में हर्षवर्धन संध्या के पास आ गया और बोला - "बस अब तुम सेंटी मत हो।" फिर त्रिधा को देखते हुए बोला - "ये अकेली ही हम सबके हिस्से का रो लेती है।" हर्षवर्धन की बात सुनकर सब हंस पड़े। आज का दिन चारों ने काफी अच्छा बिताया था और सभी के लिए यादगार भी था आज का यह दिन आखिर एक लंबे समय बाद ये चारों साथ थे। शाम को अपने हॉस्टल में आकर त्रिधा, हर्षवर्धन और प्रभात के दिए हुए गिफ्ट्स खोलकर देख रही थी मगर इससे पहले उसने मुस्कुराते हुए दोनों के गिफ्ट्स के रैपिंग पेपर भी संभाल कर रख लिए। जैसे ही त्रिधा ने प्रभात का गिफ्ट खोलकर देखा तो खुशी से हैरान रह गई। उसमें हाथों के बुने हुए दो स्वेटर थे। उसे याद आया एक बार उसने प्रभात से कहा था कि बचपन में ही उसके मम्मी पापा के चले जाने के कारण वह कभी जान ही नहीं पाई कि मां के हाथों से बने स्वेटर स्नेह की कितनी गर्माहट लपेटे होते हैं अपने धागों में। गिफ्ट बॉक्स में स्वेटर के साथ साथ एक नोट भी था "अभी गर्मियां हैं, मगर सर्दियों में यह स्वेटर जरूर पहनना त्रिधा।" त्रिधा मुस्कुरा दी। भराभर गर्मियों में भी स्वेटर पहन कर देख रही थी और पागलों की तरह हंस रही थी वह। अपने मोबाइल में अपनी कुछ तस्वीरें क्लिक करने के बाद उसने स्वेटर संभाल कर रख दिए सर्दियों के इंतजार में और हर्षवर्धन का दिया गिफ्ट खोला तो उसकी चीख निकल पड़ी। हर्षवर्धन ने उसे अपनी बनाई एक पेंटिंग गिफ्ट की थी। यह वही पेंटिंग थी जो त्रिधा को देखने के बाद हर्षवर्धन ने पूरी रात जागकर बनाई थी। त्रिधा पागलों की तरह पूरे कैनवास को छूकर देख रही थी। आज उसे अपने लिए हर्षवर्धन का प्यार समझ आया था। उसे हमेशा लगता था कि कॉलेज खत्म होने के बाद जब वह भोपाल से चली जायेगी तब हर्षवर्धन वक्त के साथ साथ उसे भूल जायेगा मगर आज समझ गई थी वह कि वह भोपाल से जायेगी तो हर्षवर्धन का मन भी अपने साथ ले जाएगी और पीछे बचेगा तो सिर्फ दर्द सिर्फ और सिर्फ हर्षवर्धन झेलेगा उस दर्द को हमेशा के लिए। अपने मोबाइल पर कॉल आने पर त्रिधा चिढ़ गई और बड़बड़ाने लगी - "अब इंसान आराम से अपने गिफ्ट्स भी नहीं देख सकता।" मोबाइल उठाकर देखा हर्षवर्धन ही था। "रोने का कोटा पूरा हुआ आज का?" त्रिधा के कॉल रिसीव करते ही उस ओर से हर्षवर्धन की आवाज सुनाई दी। त्रिधा मुस्कुरा दी और पूछने लगी - "तुम्हें कैसे पता चला?" हर्षवर्धन हंस पड़ा। वह बोला - "बहुत अच्छे से जानता हूं तुम्हें। आज मिले तोहफे देखकर तो तुम्हें गंगा जी, नर्मदा जी को यहां बुलाना ही था।" त्रिधा मुस्कुरा दी और बोली - "तुम्हीं ने बात की न प्रभात और संध्या से।" हर्
षवर्धन बोला - "अरे पागल हो क्या? मुसीबतों का जन्मदिन कौन मनाना चाहता है? तुम मेरी जिंदगी में किसी मुसीबत से कम हो क्या? न साथ हो न दूर हो।" त्रिधा हंस पड़ी और बोली - "बात मत बदलो... तुम्हारे अलावा कौन याद रखता कि मेरा जन्मदिन कब पड़ता है?" हर्षवर्धन थोड़ा गंभीर होकर बोला - "भूल गईं त्रिधा आज संध्या ने क्या कहा था? दोस्त हैं है सब और दोस्तों से भी ज्यादा एक परिवार हैं। लड़ाई, झगड़े, गलतफहमियां हम सबके बीच के प्यार को कभी कम नहीं कर पाएंगी। तुम्हारा जन्मदिन प्रभात ने ही पता किया था कॉलेज में वह भी पिछली साल ही मगर अक्टूबर में पता चला था उसे इसीलिए इस बार उसने ही मुझसे और संध्या से बात की तुम्हें सरप्राइज देने के लिए। वो तो तुम रेस्टोरेंट के पास ही मिल गईं तो थोड़ा प्लान बदलना पड़ा वरना संध्या तो तुम्हारे हॉस्टल आकार तुम्हारे मुंह और आंखों पर पट्टी बांधकर लाने वाली थी तुम्हें।" त्रिधा हैरानी से हर्षवर्धन की बात सुन रही थी। और हर्षवर्धन बोलता जा रहा था "वर्षा के आने के बाद उनका समय बंटा है, तुम्हारे लिए उनका प्यार नहीं। लेकिन तुम्हारे जल्दबाजी में लिए गए फैसले वे दोनों नहीं समझ पाए। त्रिधा कभी कभी गलत हम सब होते हैं मगर गलत होना और बुरा होना दो अलग बातें हैं।" त्रिधा हैरानी से बोली - "मगर मैंने तो उन्हें कभी गलत भी नहीं कहा बुरा क्यों कहूंगी? मैं जानती हूं कि ये परिस्थितियां ही गलत हैं।" हर्षवर्धन ने कहा - "मुझे पता था त्रिधा तुम बहुत समझदार हो और सब कुछ समझती हो मगर तुम्हें समझाना भी मेरा ही तो फर्ज है न!" त्रिधा मुस्कुराते हुए बोली - "हां मैं समझ गई और सिर्फ इतना ही नहीं इसके अलावा और भी बहुत कुछ समझ गई हूं आज मैं।" त्रिधा की बात सुनकर हर्षवर्धन उससे पूछने लगा - "और क्या समझ गईं तुम?" त्रिधा कहने लगी - "तुम्हारी बनाई पेंटिंग देखी मैंने... और अब यह मत पूछना कि मैं क्या समझी हूं... तुम भी बहुत अच्छे से समझ गए कि मैं क्या समझी हूं। गुड नाइट।" कहकर त्रिधा ने मुस्कुराते हुए फोन रख दिया। हर्षवर्धन का कॉल रखते ही त्रिधा के फोन पर प्रभात का कॉल आ गया। त्रिधा ने तुरंत उसका कॉल रिसीव किया। उस तरफ से प्रभात कहने लगा - "क्या कर रही थीं? गर्मियों में ही दोनों स्वेटर पहन कर देख लिए न।" त्रिधा हंस पड़ी और बोली - "तुम्हें कैसे पता कि मैंने स्वेटर पहन कर देखे ही हैं?" प्रभात बोला - "बहुत अच्छे से जानता हूं मैं तुम्हें... अति उत्साहित होने की बहुत पुरानी बीमारी है तुम्हें। वैसे भी जब जब तुम बहुत ज्यादा खुश होती हो तो तुम्हारे एक दो स्क्रू गिर जाते हैं।" त्रिधा मुस्कुरा पड़ी और बोली - "मेरा जन्मदिन इतना खूबसूरत बनाने के लिए तुम्हारा, संध्या और हर्षवर्धन, तीनों का बहुत-बहुत धन्यवाद। आज का दिन में कभी नहीं भूल पाऊंगी मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिनों में से एक था यह दिन।" कुछ देर प्रभात से बात करने के बाद त्रिधा ने कॉल रख दिया और आराम से अपने बिस्तर पर लेट गई। वह समझ चुकी थी कि वर्षा गलत तो है मगर उसे प्रभात और संध्या की जिंदगी से दूर करना इतना आसान नहीं है। उसे इन दोनों की जिंदगी से दूर करने के लिए उसे सामान्य होना ही पड़ेगा। वर्षा वह मधुमक्खी है जो शहद परोस कर सबके बीच रहती है मगर त्रिधा यह बखूबी समझ गई थी कि शहद परोसने वाली मधुमक्खियां बहुत खतरनाक होती हैं और मधुमक्खियों को कभी भी सीधे-सीधे नहीं मारते वरना वे पलटकर काटती ही हैं, मधुमक्खियों को मारने के लिए छल शह और मात की जरूरत है और अब त्रिधा यही करने वाली थी। अगले दिन त्रिधा सुबह जल्दी ही सो कर उठ गए और नाश्ता करने के बाद जल्दी जल्दी तैयार होने लगी। आज उसे संध्या, प्रभात और हर्षवर्धन सभी से मिलना था। सबसे पहले वह हर्षवर्धन से मिलने जा रही थी फिर संध्या और उसके मम्मी पापा से मिलकर वह प्रभात के घर उसके मम्मी पापा से मिलकर वापस हॉस्टल लौटने वाली थी। त्रिधा ने हर्षवर्धन को पहले ही कॉल कर दिया था, वह उसे लेने आ गया था। कुछ देर बाद दोनों झील के किनारे खड़े थे। हर्षवर्धन बोला - "तुम झील के इस किनारे का वो किस्सा तो नहीं भूली न त्रिधा?" त्रिधा हंसते हुए बोली - "वो दिन मैं कभी भूल भी नहीं सकती जब तुमने मेरा मोबाइल झील के पानी को समर्पित कर दिया था।" हर्षवर्धन मासूमियत से अपने गाल पर हाथ रखते हुए बोला - "मैं भी कभी नहीं भूल सकता त्रिधा उस दिन को। गुस्से में ही सही मुझे पहली बार छुआ था तुमने।" त्रिधा ने कुछ नहीं कहा बस उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर उसके आंसू पोंछे और बोला - "तुम्हें रुलाने का मेरा कोई इरादा नहीं था त्रिधा... सॉरी। मैं बस मजाक कर रहा था। तुम दुखी क्यों होती हो? जिससे प्यार होता है उससे ही तो इंसान नाराजगी जता सकता है न!" त्रिधा ने हर्षवर्धन के गाल को छूकर कहा - "जिससे
प्यार होता है उसे तकलीफ भी नहीं पहुंचाते। तुमने हमेशा मुझे प्यार दिया और मैं तुम्हें सिवाय तकलीफों के कुछ नहीं दे पाई।" हर्षवर्धन त्रिधा के हाथ को अपने हाथों में लेकर मुस्कुराते हुए बोला - "आज तुमने माना तो सही कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो। इतना मत सोचो त्रिधा, यह तुम्हारी कॉलेज लाइफ है, इसे एंजॉय करो। मेरे साथ तो तुम्हें जीवन भर ही रहना है और तब न जाने कितनी बार मुझे ऐसे ही तोहफे मिलेंगे।" हर्षवर्धन अपने गाल पर वापस हाथ रखकर हंसते हुए बोला फिर आगे कहने लगा - "तब उदास हो जाना मगर अभी से तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है, अभी तो तुम बस अपने करियर और अपने दोस्तों पर ध्यान दो। हर्षवर्धन सिर्फ तुम्हारा था, तुम्हारा है और तुम्हारा ही रहेगा।" त्रिधा नजरें झुकाए हुए बोली - "मैं तो कब का मान चुकी हूं कि बहुत प्यार है मुझे तुमसे।" हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर त्रिधा को गले लगाना चाहा मगर कुछ सोचकर रुक गया तब त्रिधा ने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया। कई घंटों तक दोनों ऐसे ही झील के किनारे बैठे रहे। दोपहर में त्रिधा को झील के किनारे बैठना अच्छा लगता था न लोग होते थे और न ही कोई शोर। वह बस सुकून से हर्षवर्धन के साथ ये दिन जी लेना चाहती थी। कुछ देर बाद हर्षवर्धन ने त्रिधा को संध्या के घर के पास छोड़ दिया और खुद अपने घर चला गया। त्रिधा जैसे ही संध्या के घर गई संध्या का छोटा भाई मयंक त्रिधा से लिपट गया और बोला - "त्रिधा दीदी आप कितने दिनों के बाद आई हो। मैंने संध्या को कितना बोला था कि आपको लेकर आए लेकिन यह तो किसी की बात ही नहीं सुनती है और ना ही मुझे आपसे मिलवाने के लिए लेकर जा रही थी। आपको पता है मुझे आपकी कितनी चिंता हो गई थी। आपको पता है मैन आपको कितना याद करता था लेकिन मम्मी पापा के पास तो टाइम ही नहीं होता, बस संध्या ही है पूरे घर में जो फालतू है और यह भी मुझे आपसे मिलवाने नहीं लेकर गई। मैं आपके लिए चॉकलेट भी लेकर आया हूं और एक गिफ्ट भी लेकर आया हूं आप जल्दी मेरे साथ चलो।" मयंक की बात सुनकर त्रिधा हंसने लगी और बोली - "मयंक तुम तो बिल्कुल अपनी संध्या दीदी की तरह हो गए हो! कितना बोलने लगे हो।" त्रिधा की बात सुनकर सब लोग हंसने लगे। संध्या के मम्मी पापा वहीं थे। त्रिधा ने उन दोनों के पैर छुए और फिर उनके गले लग गई। संध्या की मम्मी भी बहुत देर तक त्रिधा के सिर पर प्यार से हाथ फेरती रहीं। वे बोलीं - "वैसे मयंक गलत नहीं कह रहा है बेटा। तू इतने समय से क्यों नहीं आई थी हमसे मिलने?" त्रिधा संध्या को देख कर बोली - "कुछ खास बात नहीं मम्मा। बस ऐसे ही... वक्त ही नहीं मिल पाया।" तब संध्या की मम्मी ने त्रिधा के कान मरोड़ते हुए कहा - "अपने परिवार से मिलने के लिए वक्त मिलता नहीं है बेटा, निकाला जाता है। अबकी बार से अगर तू समय से घर नहीं आई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इस संध्या से तो मैं कह कह कर थक गई थी कि तुझसे बात करवाए मगर इसने कोई बात ही नहीं की। सिर्फ इतना कहती रहती कि उसे किसी से बात नहीं करनी।" त्रिधा हल्की सी मुस्कुराई और संध्या को देखने के बाद संध्या की मम्मी से बोली - "हां मम्मा बस कॉलेज और पढ़ाई की थोड़ी चिंता थी इसीलिए मूड भी ठीक नहीं रहता था।" संध्या के पापा ने त्रिधा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - "कोई बात नहीं बेटा। अब तो एग्जाम हो गए हैं अब छुट्टियों में आती रहना चलो आकर खाना खा लो बाकी सभी बातें होती रहेंगी।" "ओके पॉप्स।" कहकर त्रिधा मुस्कुराती हुई खाना खाने बैठ गई। त्रिधा ने गौर किया संध्या के घर में कुछ भी नहीं बदला था। संध्या के मम्मी पापा आज भी उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार कर रहे थे। मयंक आज भी उसे अपनी बड़ी बहन की तरह सम्मान दे रहा था और उनकी डाइनिंग टेबल पर आज भी त्रिधा की पसंद का ही खाना लगा हुआ था। हां कुछ भी तो नहीं बदला था संध्या के घर में सिवाय संध्या और त्रिधा की दोस्ती के जो अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा समय देख चुकी थी। मगर अब त्रिधा खुश थी उसे पता था उसके दोस्त कहीं नहीं जाएंगे बस उन्हें सही तरह से समझाने भर की जरूरत है। कुछ देर बाद त्रिधा और संध्या एक बार फिर संध्या के रूम में थे और वे दोनों अपनी पसंदीदा मूवी कुछ कुछ होता है देख रहे थे। मूवी में शाहरुख खान और रानी का रोमांस देखकर संध्या बोली - "कितना अच्छा होता न त्रिधा मैं और प्रभात भी कहीं ऐसे ही डांस कर रहे होते।" संध्या की बात सुनकर त्रिधा मुस्कुराने लगी और फिर अगले ही पल सपाट लहजे में उससे कहने लगी - "और कुछ सालों बाद तुम मर भी जाती।" संध्या ने चेहरे पर बिना किसी भाव भंगिमा के त्रिधा की पीठ पर दो तीन मुक्के जड़ दिए और त्रिधा भी संध्या को थप्पड़ मुक्कों से पीटने लगी। बहुत समय बाद ऐसा हो रहा था कि दोनों सहेलियां आपस में इतनी खुश थीं। शाम होने पर त्रिधा एक एक कर सबसे आज्ञ
ा लेकर प्रभात के घर जाने के लिए निकलने लगी। शाम को प्रभात के घर डिनर करने के बाद वह वापस हॉस्टल जाने वाली थी। संध्या, त्रिधा को घर से बाहर तक छोड़ने आई थी। त्रिधा को जाते देखकर संध्या ने उसे कसकर गले लगा लिया और उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर बोली - "इस एक साल में हमारे बीच बहुत कुछ सही नहीं रहा त्रिधा, हमारी दोस्ती ने बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं मगर इन उतार-चढ़ावों के कारण ही हमारी दोस्ती पहले से भी ज्यादा पक्की हो गई है। हम सभी अपने अपने जीवन में एक दूसरे की अहमियत समझने लगे हैं। त्रिधा पुराना जो कुछ हुआ सो हुआ मगर अब मैं सब कुछ बहुत अच्छा कर दूंगी। तुम कभी परेशान मत होना, न मैं तुम्हें कभी छोडूंगी और न ही तुम्हारे प्रभात को कभी तुमसे दूर जाने दूंगी।" त्रिधा ने भी संध्या को अपने गले से लगा लिया और बोली - "मैं जानती हूं संध्या तुम सब ठीक कर दोगी मगर कहीं बहुत देर न हो जाए... कहीं मैं ही तुम सब से दूर न हो जाऊं!" त्रिधा की बात सुनकर संध्या बोली - "ऐसे मत कहो त्रिधा। अब कुछ भी गलत नहीं होगा। बस तुम खुश रहो जितनी खुश तुम कल थीं, उतना खुश मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा मैं चाहती हूं तुम्हारी खुशी हमेशा बनी रहे इसके लिए मुझसे जो बन पड़ेगा मैं हमेशा करूंगी।" त्रिधा संध्या के गले लग गई और बोली - "चलो अब जाने दो देर हो रही है।" संध्या के घर से त्रिधा जब प्रभात के घर पहुंची तो उस वक्त प्रभात और उसकी मम्मी हॉल में बैठे हुए थे और प्रभात के पापा अपने रूम में थे। प्रभात के पापा बहुत लंबे समय से त्रिधा से मिलना चाहते थे और इस बार उनकी भी छुट्टियां हो गई थी तो वे भी आ गए। त्रिधा ने प्रभात की मम्मी को इशारे से चुप रहने के लिए कह दिया और पीछे से जाकर प्रभात के कान जोर से ऐंठ दिए। प्रभात समझ गया कि यह त्रिधा ही है और प्रभात पीछे पलटकर अपनी आंखें छोटी करके त्रिधा को घूरने लगा। त्रिधा ने मुंह बिगाड़ दिया और प्रभात की मम्मा के सामने जाकर खड़ी हो गई। प्रभात की मम्मी ने त्रिधा को लाड़ से गले लगा लिया और उन्होंने भी उससे वही शिकायत की जो संध्या की मम्मी ने की थी। प्रभात की मम्मी बोलीं - "बहुत दिनों बाद आई त्रिधा। इतने दिनों से क्यों नहीं आई?" त्रिधा कहने लगी - "बस थोड़ी परेशान थी मम्मी इसीलिए आना नहीं हुआ।" प्रभात के पापा तभी आए। त्रिधा को देखते ही वे पहचान गए कि यह त्रिधा ही है। उन्होंने त्रिधा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा - "बहुत प्यारी हो बेटा। प्रभात हमेशा तुम्हारी बहुत तारीफ करता था और इसे तुम्हारी तारीफ सुनने के बाद मैं भी काफी समय से तुमसे मिलना चाहता था। आज तुमसे मिलने के बाद मैं समझ गया कि प्रभात वाकई तुम्हारी झूठी तारीफ नहीं करता। तुम सच में बहुत समझदार दिखती हो" त्रिधा प्रभात को जीभ दिखाकर चिढ़ाती हुई बोली - "थैंक्स पापा।" प्रभात वहां आकर बोला - "बस दिखती ही है समझदार, यह है नहीं समझदार पापा।" कुछ देर बाद त्रिधा ने प्रभात और उसके मम्मी पापा के साथ डिनर किया। आज तो मन ही मन उसे सिलेब्रिटी वाला फील आ रहा था। सब उससे कितने प्यार से बातें कर रहे थे और सबके साथ बैठकर खाना खाना उसे ऐसा लग रहा था जैसे बरसों बाद परिवार मिला हो। और वाकई पिछले एक साल में वह बिलकुल ही भूल गई थी किसंध्या और प्रभात के पैरेंट्स उसे कितना प्यार करते हैं। वह तो बस प्रभात और संध्या को खो देने के डर से ही बिना सोचे समझे कुछ भी किए जा रही थी। आज त्रिधा को समझ आया कि अगर उनकी दोस्ती टूटती तो संध्या और प्रभात के पैरेंट्स के दिल भी टूटते जिन्होंने त्रिधा को अपनी बेटी मान लिया था। प्रभात के घर त्रिधा ज्यादा देर तक नहीं रुक सकती थी क्योंकि आठ बजते ही उसका हॉस्टल बंद हो जाता था और उससे पहले ही उसे हॉस्टल पहुंचना होता था। त्रिधा जब सबसे मिलकर जाने लगी तो उसने प्रभात के मम्मी पापा के चेहरे पर एक उदासी देखी। त्रिधा समझती थी उन्हें एक बेटी की कमी खलती थी जो त्रिधा ने पूरी कर दी थी। आज उसे अहसास हुआ कि संध्या और प्रभात से अपनी नाराजगी के चलते उसने मम्मी पापा (प्रभात के पैरेंट्स) और मम्मा पॉप्स (संध्या के पैरेंट्स) को कितना दुख दिया था। उनका कितनी बार उससे बात करने का मन हुआ होगा मगर उसने किसी से मिलना तो क्या बात करना तक जरूरी नहीं समझा। अपने दोस्तों से अपनी नाराजगी रखते रखते बड़ों का स्नेह भूल गई थी वह। कुछ देर बाद त्रिधा सबसे मिलकर, बाय बोलकर अपने हॉस्टल के लिए जाने लगी। बाहर अंधेरा हो गया था। प्रभात उसे छोड़ने बाहर तक आया तब बाहर फैले अंधेरे को देखकर उससे बोला - "देर हो गई है त्रिधा, चलो तुम्हें मैं छोड़ आता हूं।" त्रिधा मुस्कुराते हुए प्रभात के गले लग गई और बोली - "नहीं प्रभात मैं चली जाऊंगी। तुम परेशान मत हो वैसे भी हॉस्टल अगली ही गली में है। प्रभात अपना और सबका ध्यान रखना। और सु
नो... मेरे सबसे अच्छे दोस्त बनने के लिए थैंक्स और सुनो... ऐसे ही अकडू खडूस रहना हमेशा और सुनो सुनो... संध्या के पागलपन को झेलना सीखो अब।" प्रभात मुस्कुरा दिया और त्रिधा के सिर पर हाथ रख कर बोला - "मेरी सबसे अच्छी दोस्त बनने के लिए तुम्हारा शुक्रिया त्रिधा।" त्रिधा प्रभात बाय कहकर निकल गई। बाहर रोड पर काफी अंधेरा था, रोड लाइट्स काम नहीं कर रही थी शायद। त्रिधा थोड़ी ही आगे चली थी और सोच रही थी कि प्रभात को साथ ले ही आना चाहिए था। त्रिधा कुछ ही कदम चली होगी और अचानक उसे अपने ठीक पीछे एकदम पीली लाइट्स जलती हुई महसूस हुईं और अगले ही क्षण....
‪थोड़ा सा बायें! ‪थोड़ा सा दाये! ‪मुस्कुराइये! ‪बहुत अच्छा। बहुत अच्छा! ‪हाँ सही है। ‪ दूल्हा बनने की तैयारी हो गई? ‪अरे यार। ‪घोड़ी नहीं सूली चढ़ेगा भाई। ‪ क्या बोल रहा है यार ये। ‪शादी में ऐसा होता है यार। ‪अरे बड़ा मज़ा आने वाला है। ‪अरे ये तो जान छुड़ा के भाग गया। ‪क्या बड़ी मम्मी! अंदर कोई है क्या? ‪अरे हाँ बेटा दो मिनट रुक जा! ‪तेरे बड़े पापा कबसे गये हैं। ‪पहले आया है उसे पहले मौका मिलेगा! ‪कर ना फोटो ही खिंचवा ले। ‪फोटो? ‪आओ न भईया, आपको राजकुमार बनाएँ। ‪आजा ध्रुव, फोटो खिंचवाते हैं। ‪ ये है हमारे पास। ‪मज़ा आ रहा है? ‪पता नहीं! ‪हाँ भईया, थोड़ा बायें। ‪बायें? ऐसे? ‪थोड़ी ठोड़ी ऊपर। ‪हाँ! ‪पता नहीं। ‪सही है। ‪मुझे भी पता नहीं है। ‪है इनकी शादी हो रही है। ‪ भईया एक और फोटो! ‪ध्रुव? बड़ा होकर शादी करेगा? ‪हाँ करूंगा! ‪किससे? ‪मम्मी से। ‪मम्मी से। ‪माफ़ करना बेटा बहुत देर हो गई। ‪अब जा सकते हो। ‪था। ‪मां? कुलकर्णी नाम का लड़का कहाँ से मिलेगा? ‪क्यों चाहिये? ‪फिर। ‪वर्ना मेरी शादी ही नहीं होगी। ‪शादी करने के लिये एक सा सरनेम होना ‪बिल्कुल ज़रूरी नहीं है। ‪और पापा कुलकर्णी! ‪फिर आपने अपना नाम बदल दिया? ‪हाँ! सब करते हैं। ‪क्यों करते हैं? ‪आपकी देखभाल करते हैं। ‪आपका परिवार होते हैं। ‪आपका पति और आप ‪एक दूसरे का परिवार होगे! ‪आपकी और पापा की देखभाल कौन करेगा फिर? ‪तू इतना सब क्यों पूछ रही है? ‪चल अब शब्द लेखन का अभ्यास कर। ‪और मुझे ना पहेली सुलझाने दे। ‪ अच्छा सुन। ‪की ज़रूरत नहीं है। ‪आराम से भी कर सकते हैं। ‪मैं इससे शादी करने वाला हूँ यार। ‪कितनी प्यारी है। ‪ उससे? ‪अबे तेरी शादी होने तक वो बूढ़ी हो गई होगी! ‪तो? सचिन की बीवी उससे पांच साल बड़ी है! ‪हाँ? ‪ठीक है सही है। ‪चल ना हाए, हेलो बोल कर आते हैं। ‪नहीं जाते, हमारी चौप हो जाएगी। ‪ए चल ना यार, प्लीज़! ‪अबे नहीं। ‪नहीं, अबे जाने दे ना! ‪भाई के लिये। ‪भाई के लिये नहीं चलेगा? ‪तू जा ना यार। ‪भाई के लिये, भाई के लिये। ‪मेरे को क्यों लेके जा रहा है? ‪चल ना प्लीज़। भाई के लिये प्लीज़। ‪अपनी भाभी के लिये प्लीज़! ‪ तू अकेले जा ना। ‪हैं। ‪तो मैं वो शुक्रवार को ही लेकर आ जाऊँ? ‪हाँ पर ‪हैं तो क्या होता है? ‪शुरुआत में बस थोड़ा सा नशा देता है। ‪रहता है। ‪कोई टेंशन वाली बात नहीं हैं। ‪हाँ फिर ले आ, करके देखते हैं। ‪कौनसा फ्लेवर लाऊं ये बता? ‪देख मेरे पास गुलाब है, सेब है ‪पान और स्ट्राबेरी है। ‪नहीं पान नहीं, स्ट्राबेरी सही रहेगी! ‪स्ट्राबेरी। ‪स्ट्राबेरी। ‪कर रहे हैं! ‪चल चलते हैं। ‪रुक। ‪सही है! ‪चल चलते हैं। ‪आह, बस ज़रा देखना चाहते थे ‪हाँ, ज़रूर। ‪अच्छा वो शुक्रवार का प्लैन तय है ना? ‪हाँ हाँ एकदम पक्का। ‪पापा तो नहीं हैं ना पक्का? ‪माफ़ करना! कुछ नहीं हुआ। ‪कोई बात नहीं। ‪क्या आप मुझे ये समझा सकती हो? ‪हाँ बिल्कुल। ‪ए, तू! ‪मैथ्स मॉडल वाले लड़के हो ना तुम? ‪राष्ट्रीय मैथ ओलंपियाड। ‪ अरे वाह, अच्छा! ‪टेस्ला कॉईल कैसे नहीं आता फिर? ‪मुझे आता है ये ध्रुव को नहीं आता। ‪हम्म। ‪दरअसल रहने दो। समझ गया। शुक्रिया, शुभ दिन! ‪अरे यार बच्चे हैं! ‪कोई बात नहीं ध्रुव। आओ मैं समझाती हूँ। ‪देखो। ‪इसको दबाओ ‪से। ‪मुझे भी पढ़ा दोगी? ‪मेरा भी और अभ्यास हो जाएगा। ‪दीदी! ‪बिल्कुल! ‪तुम इसे दबाओ ‪फिर इस ट्यूब को लेकर ‪पास लाओ ‪और फिर ‪ वाह! ‪अच्छा है ना? ‪बहुत अच्छा। ‪हाए! ‪हाए! ‪मम्मी ने खीर बनाई है। ‪चलो चलो काजू! ‪बस बस काजू! काजू! चल अंदर आ! ‪क्या है अंदर इसके? ‪खीर। ‪अरे वाह खीर! मस्त है। ‪तुझे देखते ही इतना ख़ुश हो जाता है ये! ‪याद है इसको जब लेकर आये थे? ‪बिल्कुल किशमिश रंग का थे ये। ‪भूरी किशमिश! ‪और धोया तो? ‪काजू बन गया! ‪तूने नाम बहुत अच्छा रखा है इसका! ‪मैं बहुत खुश हूँ कि काजू आपके पास है। ‪तो मिल जाता है। ‪क्या चल रहा है ये? ‪चलो, जाओ अभी। ‪मना नहीं करते, तो तू रखती काजू को अपने घर? ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪मोनी आंटी आई थी। ‪आज क्या बोली? ‪आपकी पेड़ से शादी हुई है! ‪पेड़ से? ‪क्या पागल बात है ना? ‪कुछ भी बोलती है वो! ‪उसको देख कर ही पता चल जाता है! ‪विशेषज्ञ हो गई है? ‪हाँ ना! ‪साढ़े छब्बीस की हो गई है! हम्म। ‪बच्चा रहेगा! ‪और सत्ताईस साल के बाद बच्चे करने में ‪बहुत मुश्किल। ‪पर उनका क्या मतलब इस सबसे! ‪तू एक्टिंग बहुत अच्छी करती है उसकी। ‪पर दीदी आप चिंता मत करो! ‪आप टेंशन मत लो। ‪मैं बस थोड़ी हैरान हूँ ‪नहीं की! ‪ना जिससे शादी कर सकूँ! ‪सारी ज़िंदगी का वादा कर सकूँ। ‪ऐसा भी विकल्प होता है क्या? ‪सत्ताईस की उम्र में भी? ‪हैं हम बता? ‪दोस्ती, आराम, सहारा? ‪वो तो मेरा काजू भी दे देता है! ‪दे ताली! ‪अकेलापन नहीं लगता आपको? ‪अकेलापन लोगों को शादी के बाद भी होता है। ‪तुझे क्य
ों अकेलेपन से परेशानी होने लगी? ‪तूने किसी को पकड़ा है ना? ‪नहीं! ‪पटाया है कि नहीं बता सच? ‪अरे नहीं! ‪स्कूल में है ना? ‪सच सच बोल! ‪अरे नहीं। ‪तेरी टीचर को बताऊंगी मैं! ‪नहीं! ‪पापा को भी बताउंगी! ‪अरे? ‪बता! ‪झूठी! ‪ अरे! ‪झूठी, बॉयफ्रेंड है क्या! ‪ध्रुव ये सही नहीं था। ‪थोड़ा सा ही पानी था यार ‪पूरा पानी पी गया यार तू। ‪क्या तुम ठीक हो? ‪मुझे नहीं करना है ये। ‪एक दिन की बात है। हम पहुंच जाएंगे यार। ‪नहीं, यार नहीं ‪ये हमारे बारे में है। ‪मैं और नहीं कर सकती। ‪रुक! क्या मतलब था तुम्हारा? ‪हम ये क्यों कर रहे हैं? ‪क्या कर रहे हैं? ये ट्रैक? ‪ट्रैक तो तू अपने सीवी के लिये कर रहा है। ‪पर ये ‪ये क्यों कर रहे हैं हम? ‪साथ क्यों हैं। ‪सकता हूँ? ‪शब्द इस्तेमाल करना बंद कर। ‪काफी बक़वास लगता है। ‪माफ़ करना, मैं ‪मैं बस सोच रही थी ‪बातचीत याद है? ‪कर रही है क्या? ‪सही क्योंकि... मुझे कुछ नहीं याद। ‪मुझे कुछ भी याद नहीं। ‪नहीं? ‪करते हैं। ‪क्या बोल रही है दिव्या? ‪ऐसे क्यों बात कर रही है? ‪सुन ले ना! ‪इस बारे में। ‪की। सुन ले ना मेरी बात। ‪अरे क्या सुनूं यार? ‪तुझे पिछले डेढ़ साल से कुछ नहीं याद? ‪देख तू कह क्या रही है? ‪ये ‪ऐसा नहीं है यार ‪बेशक़ मुझे कुछ चीज़ें याद हैं। ‪हमने साथ कुछ ख़ास पल गुज़ारे। ‪माफ़ करना, मुद्दा ये नहीं है। मैं बस ‪देखो ‪ध्रुव, तुम बहुत होशियार लड़के हो। ‪चीज़ों के बारे में जानकारी है। ‪हो पर ‪और ना ही मुझे शौक है। ‪इधर उधर सर हिला रही हूँ सबके सामने। ‪धीरे धीरे बोलेगी क्या मुझे समझ नहीं आ रहा। ‪मैं एक उदाहरण देती हूँ। जैसे आनुभाविक। ‪का प्रयोग करा? आनुभाविक क्या है, यार? ‪निरीक्षण करके साबित करूंगा। ‪यही, बस एकदम यही कह रही हूँ मैं! ‪तुम चीज़ों को समझा क्यों रहे हो यार? ‪नहीं दिखता ‪आते हो। ‪नहीं है ना, यार। ‪क्या चाहिये पर मुझे अभी नहीं पता ना। ‪मैं अभी भी तलाश में हूँ। ‪मैंने ‪मैंने बहुत कोशिश करी है। ‪मैं बस नहीं... मैं बस अब और नहीं कर सकती। ‪नहीं था यार। ‪तैयार हूँ। तू मुझे बता ना ‪है, और मैं वो सब ठीक कर दूंगा, यार। ‪मैं अपने आप को बदलने के लिये तैयार हूँ। ‪तू मुझे बता तो दे! ‪नहीं ध्रुव, मैं क्यों बताऊँ। ‪अरे पर क्यों नहीं? ‪क्योंकि जब भी मैं तुम्हारे साथ होती हूँ ‪हूँ ‪और ये मेरे लिये बहुत तकलीफ़ देह है। ‪जिसके साथ हम ख़ुश नहीं। ‪दिव्या ऐसे मत बोल। ‪हम रास्ता निकाल लेंगे ना, यार ऐसे मत बोल। ‪नहीं कर रही। ‪मुझे माफ़ करना, ध्रुव। ‪मैं ये नहीं कर सकती। ‪ये भरा हुआ है। ‪तभी वहाँ से पिया था। ‪तो ये पहले क्यों नहीं बताया? ‪ ध्रुव! ‪भी पीता नहीं! ‪मेरा बच्चा! ‪ इधर आओ मेरे प्यारे! ‪गर्लफ्रेंड भी आ रही हैं। ‪अपने को प्राइवेट रूम मिलेगा। ‪बहुत मज़ा आने वाला है। ‪अरे बोटिंग करेंगे। ‪सनसेट पॉइंट पर फोटो लेंगे। ‪और एको पॉइंट पर ना... आई लव यू चिल्लाएंगे। ‪तो सब जगह से आई लव यू, आई लव यू आएगा! ‪काव्या, मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ‪विवेक, मेरा एनएम में सिलेक्शन हो गया है। ‪तुझे सेल्स ऐंड मार्केटिंग करनी है ‪सही? ‪तो एमबीए क्यों करना है? ‪किस बात के लिये? ‪पापा की कम्पनी सम्भालो ना यार! ‪और आख़िर में हम दोनों को ही सम्भालनी है। ‪उम्मीद है तुम्हें पता है। ‪विवेक. ज़रा समझने की कोशिश करो। ‪काव्या, क्या तुम मुझसे प्यार करती हो? ‪बिल्कुल मैं करती हूँ। ‪हाँ? ‪दिमाग से सोच ना। ‪दो? ‪तुम बात क्या कर रही हो? ‪तुम्हें कोई अक़्ल है? बात क्या कर रही हो? ‪अरे रिश्ता ख़त्म हो जाता है। ‪प्यार नहीं रहता, एक औपचारिकता रह जाती है। ‪पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। वादा करती हूँ! ‪मैं हर वीकेंड पर आऊँगी यहाँ। ‪था। हमारी शादी के बाद के लिये! ‪उसका क्या? ‪उनको क्या बोलूंगा मैं? ‪नया बाथरूम, नया संडास। ‪मेरी बात तो सुनो, प्लीज़। ‪हैं! मेरा अपना प्राइवेट रूम होगा! ‪और एमबीए के बाद मस्त नौकरी भी लगेगी। ‪जोशी। वाह। ‪काव्या जोशी मत बोलो! ‪तुम्हें अच्छा लगता था ये कहलवाना, समझीं? ‪अब ये ड्रामे मत कर यहाँ पर। ‪क्या तुम ज़रा भी समझने की कोशिश करोगे? ‪दो ना। ‪मुझे ख़ुशी मिलेगी। ‪पता है, पता है। ‪जा! ‪जाओ, जाओ, जाओ! ‪तेरा तो सही है ना। तेरे तो दो दो हैप्पी। ‪हैप्पी। मेरा क्या? ‪मेरा क्या? ‪काव्या, यार। ‪तोड़ने वाले हैं? ‪फिर मम्मी के इतने करीब क्यों आई यार? ‪नहीं आना चाहिये था ना। ‪क्या रिश्ता तोड़ना? ‪काव्या ‪रहेंगे। ‪एक घर होगा हमारा। बच्चे होंगे हमारे। ‪हम बाद में बात करेंगे ना? ‪भूल जा यार। ‪क्या बात करेंगे? ‪बचा क्या है बात करने के लिये? ‪हैं? ‪क्योंकि काव्या मैं नागपुर में ही बसा हूँ। ‪अगर तुम जाती हो, हम शादी नहीं कर सकते। ‪तो ये शर्त है? ‪या तो विवेक मिलेगा या बम्बई? ‪काव्या तू गलत ले जा रही है। ‪तू मुझे गलत महसूस करवा रहा है। ‪सिर्फ अपने लिय
े कुछ चाहने के लिये ‪मैं ग़लत नहीं हूँ इस सोच में। ‪छोड़ यार ‪कुत्ते वाली भूख लग रही है, यार! ‪सस्ता वाला बड़ा पीज़ा! ‪क्या एक समय एक जैसी बात है, यार! ‪दूंगा। तू टेंशन मत ले यार। ‪अच्छा प्रस्ताव है, मैं सोचूंगी! ‪शुक्रिया! ‪पीज़ा पसंद है। ‪क्या? ‪कुछ भी! ‪सच्ची। ‪अरे वो दूसरा वाला कहीं बेहतर है! ‪सर आपको ज़्यादा अच्छा कौनसा लगता है? ‪ध्रुव। ‪पूछ ही तो रहा हूँ! ये वाला या ये वाला? ‪सर मैं ग्लूटन से अलेर्जिक हूँ। ‪अलेर्जिक है? ‪नब्बे के दशक में होता था क्या यार ये? ‪बुलाते क्या हैं। ‪सुन ‪अगर कुछ ऑफ ऑफ हो तो तू मुझे बता दिया कर। ‪मतलब? ‪मतलब... तू मुझे बस फीडबैक दे दिया कर। ‪कि ध्रुव तुम ऐसे कर लो वैसे कर लो। ‪अपने बारे में ये बदल लो। ‪तू जो बोल मैं कर लूंगा। ‪क्यों? ‪है क्या? ‪नहीं! ‪होता है ना? ‪ही पसंद हूँ जैसा मैं हूँ। ‪क्या? तुम्हें मैं वैसे पसंद नहीं जैसे हूँ? ‪पसंद हो। बस एकदम ऐसे ही। ‪अच्छा कुछ ऑफ़ है, हाँ। ‪बोल यार। ‪ख़ुद के नाम पर था। ‪वाह क्या बात है यार। ‪है ना? ‪ये जैसे ज़िंदगी का नया दौर है। ‪ऐसे जैसे लगे कि अब तुम बड़े हो रहे हो। ‪कौनसा बड़ा, कुलकर्णी? ‪हम तो बस साथ ही रह रहे हैं हम कूल लोग हैं। ‪शादी को अभी बहुत समय है। ‪हैं। ‪ये बेहतर कैसे है? ‪साथ रहना, शादी का अभ्यास नहीं है क्या? ‪हाँ, पर इससे आउट होने का डर नहीं है ना। ‪तो बिना दबाव के बस खेलते रहो। ‪ऐसा है? ‪कुलकर्णी बुलाते हो। ‪नहीं। ‪नहीं बस करो। ‪एक ही तो ले रहा हूँ। ‪नहीं। ‪एक ले रहा हूँ! ‪ध्रुव वो तुम्हारा है ये मेरा। ‪बाँट कर खा रहे हैं ना? ‪नहीं। ‪यार इसमें आठ है। ‪इसीलिये मैंने छोटा मंगवाया था। ‪पर एक? ‪नहीं ध्रुव, ये मुझे खत्म करना था। ‪यार हमारा सिंक अच्छा था। ‪ध्रुव इसका मतलब ‪तू हमारा सिंक खराब कर रही है। ‪तू फाल्तू की बेईमानी मत कर। ‪मैं नहीं कर रहा। ‪तुम्हारा वाला वो होना था ‪नाटकीय थोड़े ही ना हैं, यार। ‪हूँ। मुझे खुद नहीं करनी शादी! ‪तो अंगूठी क्यों दी? ‪क्योंकि ये बातचीत का मुद्दा है ना? ‪सोफे का रंग, परदे का रंग, टीवी ‪अब टीवी बेच दिया ना तूने। ‪मैंने नहीं बेचा ध्रुव। ‪ध्रुव मैं बहुत परेशान हूँ इस वक्त। ‪मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ। ‪इसलिये तो आ ना बात करते हैं यार। ‪काव्या मैं तीन तक गिनती गिनूंगा, ठीक है? ‪और तीन के बाद? ‪चार, पांच, छह और क्या? ‪पागलों जैसी बात करना बंद कर यार। ‪में बात करनी ही थी ना। ‪तू आ जा ना। ‪मैं बैठ रहा हूँ, तू आजा यार। ‪ये तुमने अचानक से ऐसे क्यों पूछा? ‪जिन्हें सरप्राइज़ पसंद हो। ‪था। चटक गया था मैं। ‪शादी कर लूंगा। ‪कर लें। ‪कौन सब? ‪दिल्ली की सारी ज़िंदा और मरी हुई चीज़ें। ‪पर मुद्दा वो नहीं है। ‪इन सारी चीजों से मुझे एक चीज़ समझ आई है। ‪कि मुझे ज़िंदगी से अभी क्या नहीं चाहिये। ‪जो कि क्या है? ‪शादी यार। ‪ध्यान देना है। ‪काम नहीं कर सकता। ‪बस यही बताना था यार और कुछ नहीं। ‪दिखाओ? ‪दादी की है। ‪ठीक है। ‪चलो तुम्हें तो सही से पता है। ‪हाँ और क्या। ‪क्या मतलब? ‪मतलब मैंने इस बारे में बहुत सोचा है। ‪तुमसे शादी करने के बारे में भी सोचा है। ‪मैंने ‪मुझसे ये पूछोगे। ‪और? ‪और वो बस ये ‪कि ये वो नहीं है। ‪नहीं है। ‪पर... तेरे क्या कारण हैं? ‪पता नहीं। ‪चाहिये। ‪एक दूसरे को सब कुछ नहीं बताना चाहिये? ‪नहीं, ध्रुव। ‪माफ़ करना। मुझे वाकई नहीं पता। ‪चीज़ें थोड़ी अलग हैं जबसे मैं वापस आया हूँ। ‪जैसे एक प्रतिशत भी ‪ध्रुव क्या कह रहे हो? ‪यार मैं हूँ ना जिसे पता नहीं है। ‪मैं वो बंदा हूँ। ‪चाहिये। ‪तो तू तरीके से मुझे एक बार समझा दे। ‪ध्रुव मुझे सच में नहीँ पता। ‪कर रही हूँ। ‪क्या बोलने की बात होती है? ‪ये लोग क्यों बोलते हैं? ‪बातचीत के साथ कैसे कर सकता हूँ? ‪लग रहा है? ‪ध्रुव आओ ज़रा बैठो। ‪नहीं। रहने दे। ‪मैं बस थोड़ी खुली हवा में जा रहा हूँ। ‪कहाँ जा रहे हो? ‪आईस क्रीम खाने जा रहा हूँ। ‪ध्रुव तुम्हारा वज़न बढ़ रहा है ना? ‪वाकई? तू अभी इस समय ये चीज़ बोलेगी? ‪खाना खाने से रोकूँ। ‪तेरे दिमाग में क्या चल रहा है? ‪और टोक मत मुझे खाने दे। ‪ ‪ ‪थोड़ा सा बायें! ‪थोड़ा सा दाये! ‪मुस्कुराइये! ‪बहुत अच्छा। बहुत अच्छा! ‪हाँ सही है। ‪ ‪ दूल्हा बनने की तैयारी हो गई? ‪अरे यार। ‪घोड़ी नहीं सूली चढ़ेगा भाई। ‪ क्या बोल रहा है यार ये। ‪शादी में ऐसा होता है यार। ‪अरे बड़ा मज़ा आने वाला है। ‪अरे ये तो जान छुड़ा के भाग गया। ‪ ‪क्या बड़ी मम्मी! अंदर कोई है क्या? ‪अरे हाँ बेटा दो मिनट रुक जा! ‪तेरे बड़े पापा कबसे गये हैं। ‪यार! आज तो मेरी शादी है! मुझे लगा आज तो जो ‪पहले आया है उसे पहले मौका मिलेगा! ‪ कोई नहीं कोई नहीं! तब तक तू एक काम ‪कर ना फोटो ही खिंचवा ले। ‪फोटो? ‪आओ न भईया, आपको राजकुमार बनाएँ। ‪आजा ध्रुव, फोटो खिंचवाते हैं। ‪ ये है हम
ारे पास। ‪मज़ा आ रहा है? ‪पता नहीं! ‪हाँ भईया, थोड़ा बायें। ‪बायें? ऐसे? ‪थोड़ी ठोड़ी ऊपर। ‪हाँ! ‪पता नहीं। ‪सही है। ‪मुझे भी पता नहीं है। ‪ये सब क्या हो रहा है? सबको देख कर लग रहा ‪है इनकी शादी हो रही है। ‪ भईया एक और फोटो! ‪ध्रुव? बड़ा होकर शादी करेगा? ‪हाँ करूंगा! ‪किससे? ‪मम्मी से। ‪ ‪मम्मी से। ‪माफ़ करना बेटा बहुत देर हो गई। ‪अब जा सकते हो। ‪कोई बात नहीं बड़े पापा मैं तो अभी अभी आया ‪था। ‪मां? कुलकर्णी नाम का लड़का कहाँ से मिलेगा? ‪क्यों चाहिये? ‪शादी के बाद मुझे हस्ताक्षर बदलना पड़ेगा ना ‪फिर। ‪वर्ना मेरी शादी ही नहीं होगी। ‪शादी करने के लिये एक सा सरनेम होना... ‪बिल्कुल ज़रूरी नहीं है। ‪शादी के पहले मैं ईला देसाई थी, ‪और पापा कुलकर्णी! ‪फिर आपने अपना नाम बदल दिया? ‪हाँ! सब करते हैं। ‪क्यों करते हैं? ‪शादी के पहले, ‪...मां और पापा ‪आपकी देखभाल करते हैं। ‪आपका परिवार होते हैं। ‪शादी के बाद, ‪आपका पति और आप... ‪एक दूसरे का परिवार होगे! ‪आपकी और पापा की देखभाल कौन करेगा फिर? ‪तू इतना सब क्यों पूछ रही है? ‪चल अब शब्द लेखन का अभ्यास कर। ‪और मुझे ना पहेली सुलझाने दे। ‪ अच्छा सुन। ‪ये हस्ताक्षर ना इतना तेज़ी से करने ‪की ज़रूरत नहीं है। ‪आराम से भी कर सकते हैं। ‪ ‪ ‪मैं इससे शादी करने वाला हूँ यार। ‪कितनी प्यारी है। ‪ उससे? ‪अबे तेरी शादी होने तक वो बूढ़ी हो गई होगी! ‪तो? सचिन की बीवी उससे पांच साल बड़ी है! ‪हाँ? ‪ठीक है सही है। ‪चल ना हाए, हेलो बोल कर आते हैं। ‪नहीं जाते, हमारी चौप हो जाएगी। ‪ए चल ना यार, प्लीज़! ‪अबे नहीं। ‪नहीं, अबे जाने दे ना! ‪भाई के लिये। ‪भाई के लिये नहीं चलेगा? ‪तू जा ना यार। ‪भाई के लिये, भाई के लिये। ‪मेरे को क्यों लेके जा रहा है? ‪चल ना प्लीज़। भाई के लिये प्लीज़। ‪अपनी भाभी के लिये प्लीज़! ‪ तू अकेले जा ना। ‪पता है शुक्रवार को ना पापा टूर पर जा रहे ‪हैं। ‪तो मैं वो शुक्रवार को ही लेकर आ जाऊँ? ‪हाँ पर... ‪पहले ये बता, ‪जब धुआँ पहली बार अंदर लेते ‪हैं तो क्या होता है? ‪शुरुआत में बस थोड़ा सा नशा देता है। ‪उसके बाद तो बस फ्लेवर का ही स्वाद आता ‪रहता है। ‪कोई टेंशन वाली बात नहीं हैं। ‪हाँ फिर ले आ, करके देखते हैं। ‪कौनसा फ्लेवर लाऊं ये बता? ‪देख मेरे पास गुलाब है, सेब है... ‪पान और स्ट्राबेरी है। ‪नहीं पान नहीं, स्ट्राबेरी सही रहेगी! ‪स्ट्राबेरी। ‪स्ट्राबेरी। ‪अबे! ये लोग तो मिल्क शेक के बारे में बात ‪कर रहे हैं! ‪चल चलते हैं। ‪रुक। ‪सही है! ‪चल चलते हैं। ‪आह, बस ज़रा देखना चाहते थे... ‪हाँ, ज़रूर। ‪अच्छा वो शुक्रवार का प्लैन तय है ना? ‪हाँ हाँ एकदम पक्का। ‪पापा तो नहीं हैं ना पक्का? ‪माफ़ करना! कुछ नहीं हुआ। ‪कोई बात नहीं। ‪क्या आप मुझे ये समझा सकती हो? ‪हाँ बिल्कुल। ‪ए, तू! ‪मैथ्स मॉडल वाले लड़के हो ना तुम? ‪राष्ट्रीय मैथ ओलंपियाड। ‪ अरे वाह, अच्छा! ‪टेस्ला कॉईल कैसे नहीं आता फिर? ‪मुझे आता है ये ध्रुव को नहीं आता। ‪मुझे भी आता है बस थोड़ा अभ्यास चाहियेI ‪हम्म। ‪दरअसल रहने दो। समझ गया। शुक्रिया, शुभ दिन! ‪अरे यार बच्चे हैं! ‪कोई बात नहीं ध्रुव। आओ मैं समझाती हूँ। ‪देखो। ‪इसको दबाओ... ‪अह, दरअसल मैंने भी नहीं पढ़ा बहुत दिनों ‪से। ‪मुझे भी पढ़ा दोगी? ‪मेरा भी और अभ्यास हो जाएगा। ‪दीदी! ‪बिल्कुल! ‪तुम इसे दबाओ... ‪फिर इस ट्यूब को लेकर... ‪पास लाओ... ‪और फिर... ‪ वाह! ‪अच्छा है ना? ‪बहुत अच्छा। ‪ ‪ ‪हाए! ‪हाए! ‪मम्मी ने खीर बनाई है। ‪चलो चलो काजू! ‪बस बस काजू! काजू! चल अंदर आ! ‪क्या है अंदर इसके? ‪खीर। ‪अरे वाह खीर! मस्त है। ‪तुझे देखते ही इतना ख़ुश हो जाता है ये! ‪ ‪याद है इसको जब लेकर आये थे? ‪बिल्कुल किशमिश रंग का थे ये। ‪भूरी किशमिश! ‪और धोया तो? ‪काजू बन गया! ‪तूने नाम बहुत अच्छा रखा है इसका! ‪मैं बहुत खुश हूँ कि काजू आपके पास है। ‪अब बस मैं निकल कर बाहर आती हूँ ‪तो मिल जाता है। ‪क्या चल रहा है ये? ‪चलो, जाओ अभी। ‪और अगर तेरे पाप तुझे ‪मना नहीं करते, तो तू रखती काजू को अपने घर? ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪ ‪मोनी आंटी आई थी। ‪आज क्या बोली? ‪आपकी पेड़ से शादी हुई है! ‪ ‪पेड़ से? ‪क्या पागल बात है ना? ‪कुछ भी बोलती है वो! ‪उसको देख कर ही पता चल जाता है! ‪देख कर पता चल जाता है? तू बड़ी हावभाव की ‪विशेषज्ञ हो गई है? ‪हाँ ना! ‪साढ़े छब्बीस की हो गई है! हम्म। ‪अगर ऐसे ही चला तो काजू उसका पहला और आख़री ‪बच्चा रहेगा! ‪और सत्ताईस साल के बाद बच्चे करने में... ‪बहुत मुश्किल। ‪पर उनका क्या मतलब इस सबसे! ‪तू एक्टिंग बहुत अच्छी करती है उसकी। ‪ ‪पर दीदी आप चिंता मत करो! ‪आप टेंशन मत लो। ‪मैं बस थोड़ी हैरान हूँ... ‪जैसे, ये थोड़ा पागलपन है कि आपने शादी ही ‪नहीं की! ‪हाँ क्योंकि ऐसा कोई पागल बंदा नहीं मिला ‪ना ज
िससे शादी कर सकूँ! ‪सारी ज़िंदगी का वादा कर सकूँ। ‪ऐसा भी विकल्प होता है क्या? ‪सत्ताईस की उम्र में भी? ‪हां ना। क्यों नहीं होता? शादी क्यों करते ‪हैं हम बता? ‪दोस्ती, आराम, सहारा? ‪वो तो मेरा काजू भी दे देता है! ‪दे ताली! ‪अकेलापन नहीं लगता आपको? ‪अकेलापन लोगों को शादी के बाद भी होता है। ‪तुझे क्यों अकेलेपन से परेशानी होने लगी? ‪तूने किसी को पकड़ा है ना? ‪नहीं! ‪पटाया है कि नहीं बता सच? ‪अरे नहीं! ‪स्कूल में है ना? ‪सच सच बोल! ‪अरे नहीं। ‪तेरी टीचर को बताऊंगी मैं! ‪नहीं! ‪पापा को भी बताउंगी! ‪अरे? ‪बता! ‪झूठी! ‪ अरे! ‪झूठी, बॉयफ्रेंड है क्या! ‪मेरी बेबी उदास महसूस कर रही है ‪वह सोच रही है कि मैं कोई चिंता नहीं ‪कर रहा हूं ‪जब मैं वास्तव में इस समय कर रहा हूँ ‪लेकिन मैं केवल इतना करना चाहता हूं कि मुझे ‪अपना समय चाहिए ‪जब स्थितियां प्रमुख थीं थोड़ी सी कठिनाइयां ‪हुई ‪तुकबंदी करने के लिए एक कठिन शब्द ‪ध्रुव ये सही नहीं था। ‪थोड़ा सा ही पानी था यार... ‪पूरा पानी पी गया यार तू। ‪क्या तुम ठीक हो? ‪मुझे नहीं करना है ये। ‪एक दिन की बात है। हम पहुंच जाएंगे यार। ‪नहीं, यार नहीं... ‪ये हमारे बारे में है। ‪मैं और नहीं कर सकती। ‪रुक! क्या मतलब था तुम्हारा? ‪हम ये क्यों कर रहे हैं? ‪क्या कर रहे हैं? ये ट्रैक? ‪ट्रैक तो तू अपने सीवी के लिये कर रहा है। ‪पर ये... ‪ये क्यों कर रहे हैं हम? ‪अरे तू अचानक से मुझसे पूछेगी कि हम ‪साथ क्यों हैं। ‪तो मैं इसका आनुभाविक रूप से कैसे उत्तर दे ‪सकता हूँ? ‪आनुभाविक... एक तो ये बड़े बड़े ‪शब्द इस्तेमाल करना बंद कर। ‪काफी बक़वास लगता है। ‪माफ़ करना, मैं... ‪मैं बस सोच रही थी... ‪तुम्हें पिछले हफ़्ते हमारी बरिस्ता में हुई ‪बातचीत याद है? ‪हाँ जब हम कोल्ड कॉफी पी रहे थे तब की बात ‪कर रही है क्या? ‪सही क्योंकि... मुझे कुछ नहीं याद। ‪बल्कि पिछले डेढ़ साल से जो हम साथ हैं ‪उसमें से, ‪मुझे कुछ भी याद नहीं। ‪एक सेकंड, क्या मतलब तुम्हें कुछ भी याद ‪नहीं? ‪मेरे ख़्याल से हम एक दूसरे को सिर्फ़ बोर ‪करते हैं। ‪क्या बोल रही है दिव्या? ‪ऐसे क्यों बात कर रही है? ‪सुन ले ना! ‪मैंने पूरे ट्रैक के दौरान बहुत सोचा है ‪इस बारे में। ‪आख़िरकार मेरे पास हिम्मत है ये कहने ‪की। सुन ले ना मेरी बात। ‪अरे क्या सुनूं यार? ‪तुझे पिछले डेढ़ साल से कुछ नहीं याद? ‪देख तू कह क्या रही है? ‪ये... ‪ऐसा नहीं है यार... ‪बेशक़ मुझे कुछ चीज़ें याद हैं। ‪हमने साथ कुछ ख़ास पल गुज़ारे। ‪माफ़ करना, मुद्दा ये नहीं है। मैं बस... ‪देखो... ‪ध्रुव, तुम बहुत होशियार लड़के हो। ‪चीज़ों के बारे में जानकारी है। ‪तुम चीज़ों के बारे में बेहिचक बात कर सकते ‪हो पर... ‪मुझे उन चीज़ों के बारे में जानकारी नहीं है ‪और ना ही मुझे शौक है। ‪और ज़्यादातर मुझे लगता है जैसे मैं ‪मूर्खो की तरह, ‪इधर उधर सर हिला रही हूँ सबके सामने। ‪सुन तू प्लीज़, अह, ‪धीरे धीरे बोलेगी क्या मुझे समझ नहीं आ रहा। ‪मैं एक उदाहरण देती हूँ। जैसे आनुभाविक। ‪और तुमने क्या सोच कर आनुभाविक जैसे शब्द ‪का प्रयोग करा? आनुभाविक क्या है, यार? ‪अगर मेरे पास कोई परिकल्पना है तो मैं उसे ‪निरीक्षण करके साबित करूंगा। ‪यही, बस एकदम यही कह रही हूँ मैं! ‪तुम चीज़ों को समझा क्यों रहे हो यार? ‪सच कहूँ तो मुझे तुममे कुछ भी रोचक ‪नहीं दिखता... ‪बस इसके अलावा कि तुम होशियार हो और अव्वल ‪आते हो। ‪तुम्हेँ चीज़ों के बारे में अंदाज़ा भी तो ‪नहीं है ना, यार। ‪तुम्हें भले ही पता चल गया हो कि तुम्हें ‪क्या चाहिये पर मुझे अभी नहीं पता ना। ‪मैं अभी भी तलाश में हूँ। ‪मैंने... ‪मैंने बहुत कोशिश करी है। ‪मैं बस नहीं... मैं बस अब और नहीं कर सकती। ‪दिव्या, क़सम से मुझे इस बारे में कुछ पता ‪नहीं था यार। ‪अच्छा किया तूने बता दिया और मैं बदलने को ‪तैयार हूँ। तू मुझे बता ना... ‪कि तेरे को किस किस चीज़ से तकलीफ़ ‪है, और मैं वो सब ठीक कर दूंगा, यार। ‪मैं अपने आप को बदलने के लिये तैयार हूँ। ‪तू मुझे बता तो दे! ‪नहीं ध्रुव, मैं क्यों बताऊँ। ‪अरे पर क्यों नहीं? ‪क्योंकि जब भी मैं तुम्हारे साथ होती हूँ... ‪मैं खुद को बदलने की कोशिश में लगी रहती ‪हूँ... ‪और ये मेरे लिये बहुत तकलीफ़ देह है। ‪और हमें उस इंसान के साथ नहीं रहना चाहिये ‪जिसके साथ हम ख़ुश नहीं। ‪दिव्या ऐसे मत बोल। ‪हम रास्ता निकाल लेंगे ना, यार ऐसे मत बोल। ‪मैं पहले से ही इस बारे में अच्छा महसूस ‪नहीं कर रही। ‪मुझे माफ़ करना, ध्रुव। ‪मैं ये नहीं कर सकती। ‪ये भरा हुआ है। ‪तभी वहाँ से पिया था। ‪तो ये पहले क्यों नहीं बताया? ‪ ध्रुव! ‪रोने का कोई फ़ायदा नहीं ‪अपना सामान बांधो और भाग जाओ ‪कोई कारण नहीं ‪इसके होने का ‪मैं डायरी में लिख रहा हूं ‪देखो कितना शरीफ़ लड़का है। सॉफ़्ट ड्रिक ‪भी
पीता नहीं! ‪मेरा बच्चा! ‪ ‪पेज ठंडे लगते हैं ‪ इधर आओ मेरे प्यारे! ‪कुछ महीने बाकी हैं और कुछ भी नहीं बचा ‪बताने को ‪और छह साल पहले ‪नए के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कि मैंने कितने पन्नों को ‪छोड़ दिया ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी ‪काव्या, कल्पक, अमे, निपुन, इन सबकी ‪गर्लफ्रेंड भी आ रही हैं। ‪और कल्पक के माथेरन वाले गेस्टहाउस में ‪अपने को प्राइवेट रूम मिलेगा। ‪बहुत मज़ा आने वाला है। ‪अरे बोटिंग करेंगे। ‪सनसेट पॉइंट पर फोटो लेंगे। ‪और एको पॉइंट पर ना... आई लव यू चिल्लाएंगे। ‪तो सब जगह से आई लव यू, आई लव यू आएगा! ‪काव्या, मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ‪विवेक, मेरा एनएम में सिलेक्शन हो गया है। ‪तुझे सेल्स ऐंड मार्केटिंग करनी है... ‪सही? ‪तो एमबीए क्यों करना है? ‪किस बात के लिये? ‪पापा की कम्पनी सम्भालो ना यार! ‪और आख़िर में हम दोनों को ही सम्भालनी है। ‪उम्मीद है तुम्हें पता है। ‪विवेक. ज़रा समझने की कोशिश करो। ‪काव्या, क्या तुम मुझसे प्यार करती हो? ‪बिल्कुल मैं करती हूँ। ‪हाँ? ‪इसीलिये बिनती कर रही हूँ कि तू एक बार ठंडे ‪दिमाग से सोच ना। ‪लम्बी दूरी वाले रिश्ते को एक बार मौका तो ‪दो? ‪तुम बात क्या कर रही हो? ‪तुम्हें कोई अक़्ल है? बात क्या कर रही हो? ‪अरे रिश्ता ख़त्म हो जाता है। ‪आपस का आकर्षण ख़त्म हो जाता है। प्यार ‪प्यार नहीं रहता, एक औपचारिकता रह जाती है। ‪पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। वादा करती हूँ! ‪मैं हर वीकेंड पर आऊँगी यहाँ। ‪साला मांबाबा ने दूसरी मंज़िल को ठीक करवाया ‪था। हमारी शादी के बाद के लिये! ‪उसका क्या? ‪उनको क्या बोलूंगा मैं? ‪नया बाथरूम, नया संडास। ‪मेरी बात तो सुनो, प्लीज़। ‪हम बम्बई में भी बहुत मस्ती कर सकते ‪हैं! मेरा अपना प्राइवेट रूम होगा! ‪और एमबीए के बाद मस्त नौकरी भी लगेगी। ‪तीन साल मैं सबको बोलता रहा ‪काव्या और विवेक जोशी, काव्या और विवेक ‪जोशी। वाह। ‪काव्या जोशी मत बोलो! ‪तुम्हें अच्छा लगता था ये कहलवाना, समझीं? ‪अब ये ड्रामे मत कर यहाँ पर। ‪क्या तुम ज़रा भी समझने की कोशिश करोगे? ‪एक बार मुझे अपने ख़ुद के लिये निर्णय लेने ‪दो ना। ‪मेरे बारे में भी सोच। तुम्हें पता है इससे ‪मुझे ख़ुशी मिलेगी। ‪पता है, पता है। ‪जा! ‪जाओ, जाओ, जाओ! ‪तेरा तो सही है ना। तेरे तो दो दो हैप्पी। ‪बम्बई भी हैप्पी और तेरा विवेक भी ‪हैप्पी। मेरा क्या? ‪मेरा क्या? ‪काव्या, यार। ‪तुझे पता था ना यार कि हम रिश्ता ‪तोड़ने वाले हैं? ‪फिर मम्मी के इतने करीब क्यों आई यार? ‪नहीं आना चाहिये था ना। ‪क्या रिश्ता तोड़ना? ‪काव्या... ‪यार मैं सोचता था कि हमलोग हमेशा साथ में ‪रहेंगे। ‪एक घर होगा हमारा। बच्चे होंगे हमारे। ‪हम बाद में बात करेंगे ना? ‪भूल जा यार। ‪क्या बात करेंगे? ‪बचा क्या है बात करने के लिये? ‪लेकिन हम रिश्ता तोड़ने की बात कर क्यों रहे ‪हैं? ‪क्योंकि काव्या मैं नागपुर में ही बसा हूँ। ‪अगर तुम जाती हो, हम शादी नहीं कर सकते। ‪तो ये शर्त है? ‪या तो विवेक मिलेगा या बम्बई? ‪काव्या तू गलत ले जा रही है। ‪तू मुझे गलत महसूस करवा रहा है। ‪सिर्फ अपने लिये कुछ चाहने के लिये... ‪मैं ग़लत नहीं हूँ इस सोच में। ‪छोड़ यार... ‪रोने का कोई फ़ायदा नहीं ‪अपना सामान बांधो और छोड़ो ‪कोई कारण नहीं ‪इसका होने का ‪छह साल पुरानी डायरी पर, मैं लिख रहा हूं ‪कवर निकल चुके हैं ‪पन्ने ठंडे लगते हैं ‪ ‪कुछ महीने बचे हैं ‪और कुछ भी कहने को नहीं बचा है ‪फ़िल्हाल, छह साल पहले ‪नये के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कितने पन्ने मैंने छोड़ ‪दिये ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी ‪कुत्ते वाली भूख लग रही है, यार! ‪आ रहा है ना तेरा महंगा वाला छोटा पीज़ा और ‪सस्ता वाला बड़ा पीज़ा! ‪क्या एक समय एक जैसी बात है, यार! ‪शादी कर ले मुझसे यार! दहेज़ मैं दे ‪दूंगा। तू टेंशन मत ले यार। ‪अच्छा प्रस्ताव है, मैं सोचूंगी! ‪शुक्रिया! ‪वैसे भी, मुझे तुम्हारा बड़ा वाला ‪पीज़ा पसंद है। ‪क्या? ‪कुछ भी! ‪सच्ची। ‪अरे वो दूसरा वाला कहीं बेहतर है! ‪ ‪सर आपको ज़्यादा अच्छा कौनसा लगता है? ‪ध्रुव। ‪पूछ ही तो रहा हूँ! ये वाला या ये वाला? ‪सर मैं ग्लूटन से अलेर्जिक हूँ। ‪ये यहाँ काम करता है और ग्लूटन से ‪अलेर्जिक है? ‪नब्बे के दशक में होता था क्या यार ये? ‪होता तो होगा बस पता नहीं होगा कि इसे ‪बुलाते क्या हैं। ‪सुन... ‪ ‪अगर कुछ ऑफ ऑफ हो तो तू मुझे बता दिया कर। ‪मतलब? ‪मतलब... तू मुझे बस फीडबैक दे दिया कर। ‪कि ध्रुव तुम ऐसे कर लो वैसे कर लो। ‪अपने बारे में ये बदल लो। ‪तू जो बोल मैं कर लूंगा। ‪क्यों? ‪हमारा जैसे अपने आप चल रहा है वो सही नहीं ‪है क्या? ‪नहीं! ‪अच्छा है पर... थोड़ा बहुत बदलाव तो करना ‪होता है ना? ‪ऐसा तो नहीं है कि तुम्हें मैं बिल्कुल वैसे ‪ही पसंद हूँ जैसा मैं ह
ूँ। ‪क्या? तुम्हें मैं वैसे पसंद नहीं जैसे हूँ? ‪पसंद हो। बस एकदम ऐसे ही। ‪अच्छा कुछ ऑफ़ है, हाँ। ‪बोल यार। ‪मुझे पहला शादी का निमंत्रण मिला जो मेरे ‪ख़ुद के नाम पर था। ‪वाह क्या बात है यार। ‪इसमें अच्छा क्या है? ये तो दुख की बात ‪है ना? ‪ये जैसे ज़िंदगी का नया दौर है। ‪ऐसे जैसे लगे कि अब तुम बड़े हो रहे हो। ‪कौनसा बड़ा, कुलकर्णी? ‪हम तो बस साथ ही रह रहे हैं हम कूल लोग हैं। ‪शादी को अभी बहुत समय है। ‪हम तो मस्त हैं यार। अभी तो दो साल ही हुए ‪हैं। ‪ये बेहतर कैसे है? ‪साथ रहना, शादी का अभ्यास नहीं है क्या? ‪हाँ, पर इससे आउट होने का डर नहीं है ना। ‪तो बिना दबाव के बस खेलते रहो। ‪ऐसा है? ‪मुझे अच्छा लगता है जब तुम मुझे ‪कुलकर्णी बुलाते हो। ‪नहीं। ‪नहीं बस करो। ‪एक ही तो ले रहा हूँ। ‪नहीं। ‪एक ले रहा हूँ! ‪ध्रुव वो तुम्हारा है ये मेरा। ‪बाँट कर खा रहे हैं ना? ‪नहीं। ‪यार इसमें आठ है। ‪इसीलिये मैंने छोटा मंगवाया था। ‪पर एक? ‪नहीं ध्रुव, ये मुझे खत्म करना था। ‪यार हमारा सिंक अच्छा था। ‪ध्रुव इसका मतलब... ‪तू हमारा सिंक खराब कर रही है। ‪तू फाल्तू की बेईमानी मत कर। ‪मैं नहीं कर रहा। ‪तुम्हारा वाला वो होना था... ‪यार काव्या तुझे पता है हम इतने ‪नाटकीय थोड़े ही ना हैं, यार। ‪अरे कुछ बोल ना यार! बिल्कुल मैं तुझसे ‪शादी के लिये थोड़े ही ना पूछ रहा ‪हूँ। मुझे खुद नहीं करनी शादी! ‪तो अंगूठी क्यों दी? ‪क्योंकि ये बातचीत का मुद्दा है ना? ‪सोफे का रंग, परदे का रंग, टीवी... ‪अब टीवी बेच दिया ना तूने। ‪मैंने नहीं बेचा ध्रुव। ‪ध्रुव मैं बहुत परेशान हूँ इस वक्त। ‪मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ। ‪इसलिये तो आ ना बात करते हैं यार। ‪काव्या मैं तीन तक गिनती गिनूंगा, ठीक है? ‪और तीन के बाद? ‪चार, पांच, छह और क्या? ‪पागलों जैसी बात करना बंद कर यार। ‪यार सुन। कभी ना कभी तो हमें बैठ कर इस बारे ‪में बात करनी ही थी ना। ‪तू आ जा ना। ‪मैं बैठ रहा हूँ, तू आजा यार। ‪ये तुमने अचानक से ऐसे क्यों पूछा? ‪पता है हम उन लोगों मे से नहीं ‪जिन्हें सरप्राइज़ पसंद हो। ‪बिल्कुल, मैंने भी मां को ऐसे ही बोला ‪था। चटक गया था मैं। ‪कि आप कैसे सोचती हो कि अचानक से मैं ऐसे ‪शादी कर लूंगा। ‪बल्कि वो ही नहीं। सब चाहते हैं कि हम शादी ‪कर लें। ‪कौन सब? ‪दिल्ली की सारी ज़िंदा और मरी हुई चीज़ें। ‪पर मुद्दा वो नहीं है। ‪इन सारी चीजों से मुझे एक चीज़ समझ आई है। ‪कि मुझे ज़िंदगी से अभी क्या नहीं चाहिये। ‪जो कि क्या है? ‪शादी यार। ‪मुझे अभी नहीं करनी शादी। मुझे अपने काम पर ‪ध्यान देना है। ‪और तुझे पता है ना मैं एक समय पर ज़्यादा ‪काम नहीं कर सकता। ‪बस यही बताना था यार और कुछ नहीं। ‪दिखाओ? ‪दादी की है। ‪ठीक है। ‪चलो तुम्हें तो सही से पता है। ‪हाँ और क्या। ‪क्या मतलब? ‪मतलब मैंने इस बारे में बहुत सोचा है। ‪मैंने शादी के बारे में सोचा है। मैंने ‪तुमसे शादी करने के बारे में भी सोचा है। ‪मैंने... ‪मैंने उस घड़ी का सपना भी देखा है जब तुम ‪मुझसे ये पूछोगे। ‪और? ‪और वो बस ये... ‪कि ये वो नहीं है। ‪हाँ। ये नहीं है यार ये पता है। ये सही समय ‪नहीं है। ‪पर... तेरे क्या कारण हैं? ‪पता नहीं। ‪मुझे बस पता है कि मुझे इस समय ये नहीं ‪चाहिये। ‪क्या तुम्हारा मतलब था जब तुमने कहा कि हमें ‪एक दूसरे को सब कुछ नहीं बताना चाहिये? ‪नहीं, ध्रुव। ‪माफ़ करना। मुझे वाकई नहीं पता। ‪चीज़ें थोड़ी अलग हैं जबसे मैं वापस आया हूँ। ‪पर अगर तेरे दिमाग में कुछ भी है, ‪जैसे एक प्रतिशत भी... ‪ध्रुव क्या कह रहे हो? ‪यार मैं हूँ ना जिसे पता नहीं है। ‪मैं वो बंदा हूँ। ‪तुझे तो हमेशा पता होता है कि तुझे क्या ‪चाहिये। ‪तो तू तरीके से मुझे एक बार समझा दे। ‪ध्रुव मुझे सच में नहीँ पता। ‪और वैसे मैं तुमसे कहीं ज़्यादा बुरा महसूस ‪कर रही हूँ। ‪क्या बोलने की बात होती है? ‪ये लोग क्यों बोलते हैं? ‪अगर तू ऐसे कुछ बोलेगी तो मैं ये नॉर्मल ‪बातचीत के साथ कैसे कर सकता हूँ? ‪प्रतियोगिता है क्या कि किसको ज़्यादा बुरा ‪लग रहा है? ‪ध्रुव आओ ज़रा बैठो। ‪नहीं। रहने दे। ‪मैं बस थोड़ी खुली हवा में जा रहा हूँ। ‪कहाँ जा रहे हो? ‪आईस क्रीम खाने जा रहा हूँ। ‪ध्रुव तुम्हारा वज़न बढ़ रहा है ना? ‪वाकई? तू अभी इस समय ये चीज़ बोलेगी? ‪तुमने कहा था कि तुम्हें बाहर का गंदा ‪खाना खाने से रोकूँ। ‪अगर तुझे इतनी ही परवाह है तो बता दे ना कि ‪तेरे दिमाग में क्या चल रहा है? ‪और टोक मत मुझे खाने दे। ‪छह साल पुरानी डायरी में मैं लिख रहा हूं ‪कवर निकले हुए हैं ‪पन्ने ठंडे महसूस होते हैं ‪कुछ महीने बचे हैं ‪बताने को कुछ भी नहीं बचा ‪छह साल पहले नये के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कितने पन्ने मैंने छोड़ ‪दिये ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी
दो - तीन महीने तक गरिमा के पिता सुयोग्य वर की तलाश मे भटकते रहे। अन्त मे पर्याप्त भाग - दौड़ करने के उपरान्त ऐसा वर मिल ही गया, जो सुशिक्षित होने के साथ - साथ सम्पन्न घराने का रोजगाररत भी था। लड़का सरकारी नौकर है और गाँव मे इतनी जमीन - जायदाद भी इतनी है कि आज भी उसके दादा - परदादा की नम्बरदारी का डका बजता है। एक लड़की को सुखी रहने के लिए और क्या चाहिए ! गरिमा के पिता ने प्रफुल्लित मुद्रा मे विजयी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, परन्तु गरिमा की माँ की भाव - भगिमा कह रही थी कि वे किसी गम्भीर चिन्ता मे डूबी हुई है। अपनी सूचना की अनुकूल प्रतिक्रिया न पाकर गरिमा के पिता ने पुनः कहा - कहाँ भटक रहा है आज तेरा ध्यान ? मै कब से बोले जा रहा हूँ, और एक तू है कि...! गरिमा की चिन्ता हो रही है। मेरी भोली - भाली बेटी को पता नही कैसी ससुराल मिलेगी ! माँ - बाप अपनी बेटी को कितना भी लाड़ - प्यार कर ले, अन्त मे तो उसे दूसरो के अधीन ही रहना है। ससुराल वाले जैसे चाहेगे वैसे ही रहना पड़ेगा ! तू चिन्ता मत कर ! ऐसा लड़का ढूँढा है तेरी बेटी के लिए कि पास - पड़ोस वाले दाँतो तले उँगली दबा लेगे। देखने - दिखाने लायक है और मालूम है किस खानदान का है ?... चौधरी सज्जन सिह का पोता है ! तू नही जानती, सज्जन सिह के साथ सम्बन्ध जोड़ने के नाम से ही लोगो की छाती चौड़ी हो जाती है और सिर ऊँचा, समझी ! अब बता और क्या चाहिए तुझे तेरी बेटी के लिए ? माँ - बाप तो सभी सोचते है कि उनकी बेटी सुखी रहे, पर उसके भाग्य मे क्या लिखा है, किसको पता है ? उसका भाग्य तो नही पढ़ सकते हम - तुम ! वैसे भी तुमने उनकी धन - सम्पत्ति ही तो देखी है, वे हमारी बेटी के साथ कैसा बर्ताव करेगे ? इसका जवाब अभी कोई नही दे सकता ! अपनी चिन्ता प्रकट करके गरिमा की माँ ने एक लम्बी - सी साँस ली और चुप हो गयी। गरिमा की माँ, भविष्य तो अधकारमय है। मनुष्य का धर्म है कर्मरत रहना, फल देना ईश्वर का काम है। हम अपनी बेटी के लिए जितना भला कर सकते है, करेगे, आगे ईश्वर सबकुछ भला ही करेगा ! अब तुम चिन्ता करना छोड़कर विवाह के कार्य करने मे मन लगाओ ! ठीक कह रहे हो तुम, चिन्ता करने से कुछ भला नही होने वाला ! विवाह का दिन निश्चित होते ही सारा परिवार विवाह सम्बन्धी कायोर् मे तन - मन से जुट गया। सबको बस यही चिन्ता थी कि बिना किसी विघ्न के गरिमा का विवाह सम्पन्न हो जाए। सभी मे एक उत्साह था, एक उमग थी घर की बिटिया की डोली विदा करने की। जब भी गरिमा का कन्यादान करके डोली विदा करने की बात होती थी, तभी प्रिया की बाते आरम्भ होकर वातावरण को बोझिल बना देती थी - कन्यादान करने का सुअवसर बड़े भाग्य वालो को मिलता है। भगवान ने गरिमा को हमारे घर मे जन्म देकर हमे भी भाग्यशाली बना दिया। ऐसे ही किसी सवाद के प्रत्युत्तर मे तुरन्त कोई न कोई दूसरा सवाद प्रस्तुत करके प्रिया की यादे ताजा कर देता और सौभाग्य की प्रसन्नता को दुर्भाग्य की पीड़ा मे बदलते देर न लगती थी - प्रिया को लेकर कितने सपने थे सारे परिवार की आँखो मे - हमारी प्रिया ऐसी है, हमारी प्रिया वैसी है ; प्रिया के विवाह मे ऐसा करेगे - वैसा करेगे पर सारे सपने चकनाचूर कर दिये उस लड़की ने ! प्रिया की स्मृति के बादल सबकी आँखो को नम कर देते थे, किन्तु विवाह के कार्य यथावत् चलते रहते थे। अतीत की पीड़ा को वर्तमान से दूर रखने मे ही हित होता है, यह सोचकर कोई भी नही चाहता था कि गरिमा के विवाह के मगलमय शुभ अवसर पर ऐसी कोई भी चर्चा हो जो पीड़ादायक हो। इस प्रकार की चर्चा से और पीड़ा से बचने के लिए परिवार के सभी सदस्य वैवाहिक कार्य मे व्यस्त रहते हुए सार्थक - सकारात्मक विषयो पर बाते करने का प्रयास करते थे। उस समय वे अपने परिवार के बाहर के अन्य व्यक्तियो से बाते करने से बचाव की मुद्रा मे रहने का प्रयास करने लगे थे, ताकि निरर्थक और नकारात्मक चर्चाओ से मुक्त रहकर वैवाहिक - कार्यो को सम्पन्न किया जा सके। गरिमा के व्यवहार से अभी तक उसका लड़कपन झलकता था, किन्तु उसका मस्तिष्क परिपक्वता की दिशा मे कदम बढ़ा चुका था। उसके मस्तिष्क की परिपक्वता तथा चिन्तन - मनन का ही परिणाम था कि उसने अपने विवाह के सम्बन्ध मे न तो अपना कोई मत प्रकट किया था और न ही किसी बात का विरोध किया था। वह पूर्णतः तटस्थ होकर अपने परिवार के विषय मे तथा अपने भविष्य के विषय मे चिन्तन करती रहती थी। अपने विवाह के विषय मे न तो उसके अन्तःकरण मे किसी प्रकार का क्षोभ या तनाव था, न किसी प्रकार का उत्साह था। गरिमा की माँ उसकी ऐसी दशा देखकर कष्ट का अनुभव करती थी। वे उससे एक दिन मे कई - कई बार पूछती थी - क्या हो गया है तुझे ? सारा दिन इसी तरह बैठकर ही पढ़ती रहती है ! मम्मी जी ! काम तो करने नही देती हो आप, फिर क्या करूँ ? लाड़ो अब तुम्हारे कॉलिज की परीक्षा नही हो
ने वाली है, जिसकी तैयारी किताबे पढ़ - पढ़कर करोगी ! अब ससुराल की परीक्षा का समय आ गया है और इसकी तैयारी तुम अपनी सग - सहेलियो के साथ बतिया कर ही भली प्रकार कर सकोगी ! वरना...! गरिमा की भाभी ने चुटकी लेते हुए कहा। वरना क्या ? "वरना सास के घर परीक्षा मे फेल होकर अपनी पहली कक्षा मे ही रह जाओगी ! पहली कक्षा का मतलब समझ रही हो ? भाभी ने विचित्र सी मुद्रा बनाकर प्रश्न किया और तुरन्त ही अपने प्रश्न का उत्तर देते हुए व्यगात्मक शैली मे कहा - मतलब भाई के घर मे ! सास के घर रहकर उसके बेटे और उसके परिवार वालो को प्रसन्न रखने के लिए किताबी ज्ञान काम नही आता है। उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमसे - अपनी भाभी से और अपनी सहेलियो से दीक्षा लेनी पड़ेगी तुम्हे ! वरना...। एक लम्बी साँस लेकर भाभी कुछ क्षण के लिए रुकी और पुनः बोलना आरम्भ किया - सास का जाया इतना सीधा नही होता है, जो सीधी - सादी पत्नी को प्यार से रख ले। और सास ? ... वह तो तिल का ताड़ बनाने मे माहिर होती है। वह ऐसे मौके के तलाश मे रहती है, जब बहू - बेटे मे तकरार हो और उसे बहू को खरी - खोटी सुनाने का सुअवसर मिले ! बहू, तू अपनी सास के बारे मे ऐसा सोचती है ? गरिमा की माँ ने कुढ़ते हुए आर्द्र स्वर मे कहा। नही, मम्मी जी ! मै आपके बारे नही कह रही हूँ ! पर मम्मी जी आपके जैसी सास सबको नही मिलती है। मेरा सौभाग्य था कि आप मेरी सास है ! गरिमा की माँ की प्रवृत्ति बहू के साथ उलझने की नही थी। वैसे भी, उन दिनो वे अपनी बेटी की चिन्ता से, उसकी विदाई के पश्चात् जीवन मे और घर मे रिक्तता की कल्पना - भर से ही हृदय मे उठने वाली भय मिश्रित आशका से असहज - सी रहती थी। अतः वे वहाँ से हटकर किसी - न - किसी महत्वपूर्ण कार्य मे व्यस्त हो जाती थी। उस समय कार्य मे व्यस्त रहते हुए भी उनका मस्तिष्क गरिमा के विषय मे ही चिन्तन करता रहता था कि उनकी बेटी सामान्य लड़कियो के समान अपने विवाह मे उत्साह और उमग मे भरी हुई क्यो नही रहती है ? यह चिन्ता उन्होने एक - दो बार गरिमा के पिता के समक्ष प्रकट करते हुए कहा था - पता नही, गरिमा को क्या हो गया है ? इस उम्र मे लड़कियाँ अपने विवाह की सूचना से ही लजाने लगती है ; झूमने लगती है ; अपनी सखी - सहेलियो से अपने ससुराल के विषय मे और होने वाले पति के विषय मे हँसती है, बतियाती है, पर हमारी गरिमा मे तो अपने विवाह को लेकर कोई उत्साह - उमग है ही नही ! तू उसकी माँ है, तुझे पूछना चाहिए, उसकी क्या समस्या है ? क्या चाहती है ? मेरा पूछना ठीक नही रहेगा, हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो जिसे वह मुझसे न कह सके। इसलिय तू ही... ! मैने पूछा है, कई बार पूछा है, पर वह कहती कि कोई भी समस्या नही है और जो जैसा हो रहा है उससे वह सतुष्ट है। ठीक है तो फिर चिन्ता क्यो कर रही है ? देख, जो लड़कियाँ अपने विवाह के समय हँसती - बतियाती फिरती है वे हमारी बेटी जैसी नही होती है। "तो कैसी है आपकी बेटी? हमारी बेटी चिन्तनशील है। नये घर की नयी और बड़ी जिम्मेदारी उसके कधो पर आने वाली है, उसे कैसे पूरा करना है, इस विषय मे हर लड़की नही सोचती, हमारी बेटी सोचती है, ठीक अपनी माँ की तरह। गरिमा के पिता हल्के - फुल्के अन्दाज मे बात समाप्त करके अपने कार्य मे तल्लीन हो गये। परन्तु गरिमा की माँ अपनी चिन्ता से मुक्त नही हो सकी। मम्मी जी, आप मेरे लिए जो सामान कपड़े - गहने, जैसे भी लाओगी, मुझे सब - कुछ बहुत - बहुत अच्छा लगेगा, आप भाभी को अपने साथ लेकर चली जाओ। गरिमा, बेटी, तू हमारे साथ क्यो नही चलना चाहती ? माँ, आप जानती हो न, मुझे कपड़ो मे, गहनो मे रुचि नही है। मुझे कपड़ो - गहनो से कोई फर्क नही पड़ता है कि वे कैसे है ! मुझे पढ़ने मे रुचि है, इसलिए मुझे इस बात से फर्क पड़ता है कि मेरा अध्ययन... ! कहते - कहते गरिमा उदास हो गयी और फिर तुरन्त ही समय की सवेदनशीलता को भाँप कर हँसते हुए बोली - कपड़ो - गहनो के रग - डिजाइन के चुनाव मे मेरी प्रतिभा बिलकुल शून्य है। हाथ के सकेत से पुनः समझाते हुए हँसती बोली - बिलकुल जीरो ! जबकि भाभी और आप अच्छे रग और डिजाइन चुन सकती हो ! इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप व्यर्थ मे मुझे परेशान न करे, स्वय सामान खरीद कर ले आये ! अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए गरिमा ने अपनी माँ से कहा। गरिमा की माँ अपनी बेटी के स्वभाव से भली - भाँति परिचित थी। वे जानती थी कि उनकी बेटी अपने निश्चय पर अटल रहती है, इसलिए उन्होने गरिमा पर किसी प्रकार का दबाव बनाना उचित नही समझा। गरिमा ने अपने गहना - वस्त्रो पर उसने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नही दी। यहाँ तक कि उसने अपने किसी भी सामान को ध्यानपूर्वक देखना भी आवश्यक नही समझा। उसकी दृष्टि मे देह को सुसज्जित करने वाले उन उपकरणो का कोई महत्व नही था। उसके विचारो के केन्द्र मे सौन्दर्य - उपकरण
ाे के स्थान पर अपने भावी - जीवन की रूपरेखा तथा उसको सार्थक करने वाले उपायो की कुछ स्पष्ट - सी तथा कुछ अस्पष्ट - सी एक लम्बी सूची थी। अपने भावी जीवन के लिए एक योजना थी, जिसकी सफलता - असफलता भविष्य के अन्धकारमय गर्भ मे थी। अपनी इसी योजना को केन्द्र बिन्दु बनाकर गरिमा भाँति - भाँति की कल्पनाएँ करती हुई अनुकूल समय की प्रतीक्षा कर रही थी, जैसे एक बगुला शान्त चित् होकर अपने शिकार की प्रतीक्षा करता है, कब शिकार आये और कब वह उसे पकड़े। प्रतीक्षा तो परिवार के अन्य सदस्य भी कर रहे थे, परन्तु शेष सभी सदस्य गरिमा के विवाह के लिए निश्चित शुभ दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। शीघ्र ही वह दिन भी आ गया, जब गरिमा आशुतोष के साथ परिणय - सूत्र मे बँध गयी और देखते - ही - देखते परिवार की शुभकामनाएँ लेकर अपनी कल्पनाओ के साथ डोली मे बैठकर पिता के घर से पति के घर जाने के लिए विदा हो गयी। पिता के घर से विदा होते समय गरिमा के चित् मे न अपना परिवार छोड़कर जाने का दुख था, न पति के घर जाने की प्रसन्नता थी। उसकी दृष्टि मे दोनो परिवार उसके आश्रय - स्थल थे, जहाँ रहते हुए उसको अपने दायित्वो का निर्वाह करने के साथ अपने जीवन को ऐसी ऊँचाई पर पहुँचाना है, जहाँ पर वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित कर सके ; अपनी स्वतन्त्र पहचान बना सके। वह नही चाहती थी कि ससार मे उसका आना निरर्थक हो। मनुष्य योनि मे जन्म लेकर निरर्थक - निरुद्देश्य जीवन जीना उसे असह्य था। ससुराल मे आकर गरिमा को एक नये वातावरण मे स्वय को समायोजित करना था। जब वह ससुराल पहुँची, उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे शान्त - शीतल वातावरण से उष्ण और उग्र वातावरण मे आ पहुँची है। घर - परिवार की महिलाएँ जब हास - परिहास करती थी, तो लगता था कि सब - कुछ ठीक है, किन्तु कुछ ही समय मे वह परिहास व्यग - बाणो की वर्षा मे परिवर्तित होकर गरिमा की पीड़ा का कारण बन जाता था। परिपक्व वयः की कुछ स्त्रियाँ, जो सम्भवतः आशुतोष के पास - पड़ोस से अथवा अन्य किसी सम्बन्ध से वैवाहिक समारोह मे आयी थी, वात्सल्यपूर्ण मुद्रा मे बाते करते - करते उपहास और ताने की मुद्रा ग्रहण कर लेती थी। उनके तानो के तरकस मे चार - छः घिसे - पिटे तीर थे, यथा - तेरी माँ ने यह नही सिखाया - वह नही सिखाया। हास - उपहास और तानो से पगी हुई वैवाहिक रस्मो को सम्पन्न करते - करते रात हो गयी। इधर पिछली रात जागने से और फिर यात्रा करने से गरिमा पूरी तरह थक चुकी थी तथा ससुराल की महिलाओ की रस - विहीन बातो से पक चुकी थी। अतः शीघ्र ही गरिमा ने बिस्तर की माँग कर डाली और बिस्तर पर जाते ही गरिमा तुरन्त नीद के आगोश मे समा गयी। हाँ, यह बात अलग है कि जब उसने अपने सोने की इच्छा व्यक्त की थी, तब भी उसे उन महिलाओ के परिहास मिश्रित उपहास का पात्र बनना पड़ा था। अभी तो चार बजे है, आप इतना परेशान क्यो हो रही है ? चार बजे है ! तेरी माँ ने तुजै इतना बी नी समझा कै भेज्जा, बहुएँ जल्दी उठकै चार बजे तक नहा - धोकै पूजा - पाठ कर लेवै है ! उस स्त्री ने गरिमा को डाँटते हुए ताना कसा, तो गरिमा निरुत्तर हो गयी। तभी गरिमा को अपनी सास का स्वर सुनायी पड़ा - कोई बात ना है जिज्जी, बालक है अभी, सैज - सैज के सीक जावेगी। जैसी तेरी मरजी ! तेरी बऊ है ! तू चाहवै तो दिन - रात सुवाये राख ! पर एक बात बताऊँ, बऊ एक बार हात्तो से लिकड़गी, तो फेर सारे कुणबे की नाक मे नकेल कसण लगेगी। समझ ले ! अपनी बात पूरी करके वह स्त्री वहाँ से चली गयी। उसके पीछे - पीछे गरिमा की सास उसको क्रोध शान्त करने के लिए चली गयी और स्थिति को भाँप कर गरिमा ने भी बिस्तर छोड़ दिया। स्थिति को नियत्रण मे रखने के लिए गरिमा को यह आवश्यक अनुभव हुआ कि फिलहाल उसे वे सभी कार्य सास के निर्देशन मे सम्पन्न करने चाहिए, जिनकी उस समाज मे एक बहू से अपेक्षा की जाती है। उस दिन सुबह से शाम तक अधिकाश समय गरिमा ने बैठकर व्यतीत किया। सारा दिन मुहँ - दिखाई की रस्म होती रही और रस्म मे सम्मिलित होने वाली महिलाएँ बहू की शक्ल - सूरत, शिक्षा - सस्कारो तथा दान - दहेज पर अपनी - अपनी टिप्पणी करती रही। अधिकाश महिलाएँ कड़वी - चुभती अप्रिय टिप्पणी करने मे ही गौरव का अनुभव कर रही थी, परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ महिलाएँ ऐसी भी थी, जो स्नेहपूर्ण शब्दो मे प्रिय लगने वाली टिप्पणी करके यह आभास करा देती थी कि ससुराल और मायके मे बहुत अधिक अन्तर नही होता है। गरिमा को ऐसा लग रहा था कि दिन अपेक्षाकृत लम्बा हो गया है। खैर, देर से ही सही, दिन बीत गया और रात आ गयी। उस रात आशुतोष के साथ गरिमा की प्रथम भेट थी। आधी रात तक पति - पत्नी एक - दूसरे के विषय मे जानते - पूछते रहे और पे्रमालाप करते रहे। उसी समय गरिमा को प्यास लगी। उसका गला सूखने लगा, किन्तु इधर - उधर दृष्टि ड़ालने पर ज्ञात हुआ कि कमरे मे पानी की व्यवस्था नही है।
पानी पीना है, तो रसोईघर तक जाने का कष्ट उठाना पड़ेगा। गरिमा ने पति से निवेदन किया, किन्तु पति ने रसोईघर मे जाने का मार्ग बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। दो दिन तक परिवार मे उपस्थित महिलाओ के परिहास भरे उपहास और ताने सुन - सुनकर गरिमा मे इतना साहस नही बचा था कि वह अपनी प्यास बुझाने के लिए रात मे अपने शयन - कक्ष से बाहर निकलकर रसोईघर मे प्रवेश कर सके। सम्भवतः उसके पति मे भी इतना साहस नही था कि परिवार मे उपस्थित स्त्रियो की दृष्टि के सामने से गुजरते हुए पत्नी के लिए रसोईघर से पानी ला सके या यह भी हो सकता है कि अपने स्थानीय समाज और सस्कृति के अनुरूप वह पत्नी को सिर पर चढ़ने का अवसर न देने की सावधानी बरत रहा हो। जो भी हो सारी रात गरिमा प्यास से व्याकुल रही। तीन दिन तक ससुराल मे रहने के पश्चात् चौथे दिन गरिमा को लौट - फेर की रस्म के लिए पिता के घर लाया गया और अगले दिन पुनः ससुराल के लिए विदा कर दिया गया। इस बार पिता का घर छोड़ते समय गरिमा का हृदय अत्यन्त क्षुब्ध था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसकी आत्मा पीछे छूटती जा रह है और शरीर आगे बढ़ता जा रहा था। परन्तु शरीर और आत्मा साथ - साथ रह सके, ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था उसको। निरुपाय होकर उसने एक लम्बी गहरी साँस भरी और आँखे बन्द कर ली। सब कुछ समय के अधीन छोड़कर स्वय को सयत रखने का प्रयास करने लगी और अपने सकल्प पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगी। वह मन नही मन उच्चारने लगी - इतना छोटा नही है हमारा लक्ष्य, जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सके ! हमे दृढ़ बनकर बाधाओ को पार करना है ! उच्च लक्ष्य की प्राप्ति उच्च कोटि के साहस, धैर्य और सदगुणो से ही सम्भव है। अपने विचारो मे खोई हुई गरिमा को पता ही न चला कि कब वह पति के घर की दहलीज पर आ पहुँची। उसकी विचार - शृखला तब टूटी, जब वह कार मे बैठी हुई महिलाओ के समूह से घिरी हुई थी और उसके कानो मे विभिन्न प्रकार के हास - परिहास मे डूबे हुए स्वर गूँज रहे थे। आज उन महिलाओ द्वारा किया जा रहा उपहास की सीमा तक पहुँचा परिहास गरिमा को इतना विचित्र नही लगा, जितना अब से पहले लगा था। अब वह उस समाज की सस्कृति से थोड़ा - बहुत परिचित हो चुकी थी और प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर चुकी थी कि वह स्वय भी अब उसी समाज का एक अग है। ऐसा अग जिसको उस समाज मे अभी अपनी महत्ता सिद्ध करना शेष है। इस बार ससुराल मे आकर गरिमा को ज्ञात हुआ कि विवाह के पश्चात् ससुराल मे व्यतीत किये गये प्रथम तीन दिन उस परिवेश की मात्र झाँकी प्रस्तुत कर रहे थे, वास्तिविक रूप तो धीरे - धीरे आँखो के समक्ष आयेगा। उसने अनुभव किया कि विवाह के पूर्व का जीवन जितना बाधा रहित था, वैवाहिक जीवन उतना ही कटकाकीर्ण है। इस जीवन मे सघर्ष है, दायित्व है, असफलताएँ है और इसके साथ - साथ परिवार के प्रत्येक सदस्य से मिलने वाली उपेक्षा है। स्वय को इसी समाज मे समायोजित करना यद्यपि किसी चुनौती से कम नही है, तथापि स्वय को सिद्ध करने के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करना आवश्यक है। गरिमा ने यह भी अनुभव किया कि उसका कार्य - क्षेत्र छोटा है ; वह किसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक शक्ति की स्वामिनी नही है, किन्तु उसका आत्म - विश्वास बड़ा है। छोटे से कार्य - क्षेत्र मे त्याग, तपस्या और धैर्य से पूरे परिवार के मनोमस्तिष्क अपने अनुकूल ढालने की सामर्थ्य की स्वामिनी है वह। आत्मविश्वास से परिपूर्ण गरिमा प्रातः काल बिस्तर से उठने के समय से देर रात मे सोने के समय तक अनेकानेक छोटी - बड़ी बाधाओ को पार करके आगे बढ़ने लगी। कदम - कदम पर उसके मार्ग मे बाधाएँ उपस्थित होकर उसे आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास कर रही थी। सबसे बड़ी बाधा गरिमा और उसकी सास के बीच का पीढ़ी अन्तराल था। घर मे होने वाला प्रत्येक कार्य सास - बहू के बीच विचारो की दूरियो का विषय बन जाता था। गरिमा चाहती थी कि उसकी सास समय के अनुरूप थोड़ा - सा आगे बढ़े और अपने विचारो को गति देते हुए तार्किक ढग से सोचे। परन्तु उसकी सास को अपने बेटे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था, इसलिए अपनी रूढ़ परम्पराओ से आगे बढ़ने की आवश्यकता का अनुभव नही होता था या यह भी हो सकता है कि अपनी रूढ़ परम्पराएँ जिन पर उनकी मजबूत पकड़ थी, उन्हे छोड़कर आगे बढ़ने मे सास को अपनी सत्ता के खिसकने का भय सताता हो। गरिमा को इस दशा से बड़ी मानसिक पीड़ा होती थी, जब उसका पति उचित - अनुचित का सज्ञान लिए बिना घोषणा करता था कि उसकी माँ जो कुछ करती है और कहती है, वह उचित होता है, अनुचित हो ही नही सकता है। आशुतोष का इस प्रकार पत्नी के प्रति उपेक्षा पूर्ण - व्यवहार परिवार के अन्य सदस्यो को भी गरिमा के प्रति उपेक्षा पूर्ण और अनुचित व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। इस बात का आशुतोष को एहसास ही नही था। पति के इस अज्ञानतापूर्ण व्यवहार से अनेक बार ग
रिमा खिन्न हो उठती थी। कई बार उसे ऐसा प्रतीत होता था कि स्त्री पर शासन करने के लिए पुरुष जाति की यह सोची - समझी रणनीति है, जिसमे वह उचित - अनुचित किये बिना एक स्त्री को प्रत्यक्षतः कुछ अधिक शक्ति प्रदान करता है, ताकि भ्रमित होकर वह अन्य स्त्रियो पर नियत्रण रख सके, जबकि वास्तिविक शक्तियो का स्वामी उस समय भी पुरुष स्वय होता है, चाहे वे शक्तियाँ आर्थिक हो, सामाजिक हो अथवा राजनीतिक हो। गरिमा अपने देवरो अर्थात् आशुतोष के भाइयो को भइया कहकर पुकारती थी। एक दिन आशुतोष की चाची घर पर आयी। आँगन मे बैठकर बातो का सिलसिला आरम्भ हुआ, तो महिलाओ का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ पर बन गया। सेवा - सत्कार करने के लिए तथा घर के अन्य कार्यो का दायित्व - भार वहन करने के लिए घर मे बहू तो थी ही, फिर सास - ननद के लिए भी महिलाओ के समूह मे बैठकर हँसने - ठठियाने के अतिरिक्त काम ही क्या बचता है। चूँकि घर मे बहू आ जाने के पश्चात् घर का सारा कार्य - भार यथा - खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन साफ करना, घर - आँगन की लिपाई - पुताई करना, परिवार के सभी सदस्यो के कपड़े धोना अपनो से बड़ो के पैर दबाना, सिर की मालिश करना और बाल सँवारना आदि सेवाएँ बहू के कार्यक्षेत्र मे सुनिश्चित कर देना उस स्थानीय समाज की प्रमुख विशेषता थी, इसलिए उन महिलाओ को दोष देना व्यर्थ है। का कैरे हे ? चाच्ची जी अब बता भी द्यो, का कैरे हे चाच्चा जी ? गरिमा चुपचाप महिलाओ को पानी के गिलास देती रही। सबेरी आसू के चाच्चा ने मेरे सै बुज्झी, आसू की बहू परसान्त, निशान्त कु भैया कहवै ? फेर ? गरिमा की ननद ने बात को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। आस्सू के चाच्चा बोल्ले, तो आस्सू कू बी भैया इ कहण लगै, जैसे परसान्त - निसान्त, वैसा इ आसू। भाभ्भी, वैसे तो तम पढ़ी - लिक्खी हो, पर तमो ने बड़े - छोट्टे सै कैसे बात करणी चैये, यूँ नही सिखाया ? जिणसे तम मुँजोरी कर्री हो, वै म्हारी चाच्ची है। समझ मे आया ? ना आया हो, तो भैया आकै समझावेगा, जब बढ़िया सै समझ मे आ जावेगा। थारा भला तो इसी मे है। अभी तम म्हारी बात कुछ समझ ल्यो ! आग्गै थारी राज्जी है ! आज इसके ऊप्पर सनीच्चर की गिरह है, भैया आत्तो इ सूत्तेगा इसै! आशुतोष सप्ताह के अन्तिम दिन शनिवार को ही घर पर आता था। गाँव के पास कोई भी मुख्य सड़क न होने के कारण यातायात की ऐसी सुविधा सुलभ नही थी कि वह प्रतिदिन निश्चित समय पर कार्यालय मे पहुँच सके। इसलिए वह शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार को प्रातः तीन बजे उठता था, तत्पश्चात् तैयारी करके कार्यालय के लिए प्रस्थान करता था। आज शनिवार था। आशुतोष के घर लौटने का दिन था। गरिमा छः दिन तक निरन्तर पति की मधुर याद मे तड़पते हुए इस दिन की प्रतीक्षा करती थी। परन्तु, पति के घर लौटने के पश्चात् भी वह उससे भेट नही कर सकती थी, क्योकि जैसे गरिमा प्रतीक्षा करती थी, वैसे ही परिवार के सभी सदस्य आशुतोष के लौटने की प्रतीक्षा करते थे। और आशुतोष ? उसके़ लिए गरिमा की अपेक्षा परिवार के अन्य सदस्य अधिक महत्वपूर्ण थे। अपने सस्कारो के अनुरूप आशुतोष को लगता था कि वह अपने समाज का आदर्श सदस्य तथा परिवार का आदर्श बेटा तभी बन सकता है, जब अपनी पत्नी के न्यायोचित अधिकारो का हनन करे ओर उसको यह अनुभव कराये कि पत्नी का महत्व परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा उसके जीवन मे नगन्य है। अपने इसी प्रयास मे वह घर लौटकर गरिमा से भेट करने मे सकोच करता था। आशुतोष के इसी दृष्टिकोण का खामियाजा गरिमा को भुगतना पड़ता था। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। आशुतोष ने अपने कार्यालय से लौटकर कुछ समय अपने पिता तथा भाईयो के साथ व्यतीत किया। तत्पश्चात् नहा - धोकर कपड़े बदल कर माँ के पास बैठ गया। गरिमा ने खाना बना दिया था, परन्तु पति के लिए खाना परोसना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था। माँ ने अपनी बेटी श्रुति से कहा कि वह भैया के लिए खाना परोस दे। माँ का आदेश पाकर उसने खाना परोस दिया। खाना खाने पश्चात् भी आशुतोष को पत्नी की सुध नही आयी। वह घटो तक वही पर बैठा हुआ माँ के साथ बतियाता रहा, जैसे आज से पहले बतियाता था। दूसरी ओर, आज दोपहर की घटना से गरिमा अत्यन्त व्यथित हो गयी थी और अब अपनी विवशता पर उसकी व्यथा और भी बढ़ रही थी। कुछ समय तक वह अपने कमरे मे प्रतीक्षा करती रही, लेकिन कुछ ही समय मे उसके धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया। वह उठी और उसी स्थान पर पहुँच गयी, जहाँ पर आशुतोष अपनी माँ से बाते कर रहा था। वहाँ जाकर गरिमा ने देखा कि सदैव की तरह आशुतोष और माँ के चारो ओर प्रशान्त, निशान्त, सौरभ और श्रुति घेरा बनाकर बैठे थे। गरिमा भी वही पर बैठ गयी। माँ को शायद यह अच्छा नही लगा, परन्तु उन्होने इस विषय मे कुछ भी नही कहा। गरिमा के बैठने के पश्चात् कुछ क्षणो तक वातावरण मे निःशब्दता भर गयी। कुछ क्षणो पश्चात् श्रुति ने शिकाय
त के लहजे मे कहा - भैया मै तो आज सै गरिमा कू कुछ बी कहूँगी नी, चायै कुछ बी हो जाए ! क्यो ? क्या बात है ? आशुतोष ने गरिमा को कठोरतापूर्वक घूरते हुए माँ से पूछा। का बात है, इस्सैइ बूझ ले। माँ, साफ - साफ बताओ, क्या हुआ है ? आशुतोष ने माँ से पुनः पूछा। तुम्हे अपनी सामर्थ्य के अनुसार नही हमारी जरुरत के अनुसार कार्य करना है ! समझी तुम ! तुम्हे इतनी तमीज नही है कि बड़ो के साथ किस तरह बात की जाती है, कैसे मान दिया जाता है, तो मुँह को बन्द रखा करो ! गरिमा के पास अब चुप रहने के अतिरिक्त अब कोई रास्ता नही था। व्यथित होकर वह वहाँ से खड़ी हो गयी और कमरे मे जाकर बिस्तर पर लेट गयी। कुछ समय तक वह अपने व्यवहारो ओर विषमताओ पर सोचती रही। सोचते - सोचते उसकी आँखो मे आँसू भर आये। अपनी व्यथा को वह आँसुओ मे बहा देना चाहती थी। रोते - रोते कब उसको नीद आ गयी, उसको पता ही नही चला। दिन - भर के काम की थकान से वह इतनी गहरी नीद मे सोयी कि प्रातः चार बजे उसकी आँखे खुली, जबकि आशुतोष बिस्तर छोड़ चुका था। गरिमा की व्यथा अब यह सोचकर और अधिक बढ़ गयी कि उसका पति पूरी रात उसके साथ होकर भी उसके साथ नही था। सप्ताह मे एक बार घर आता है, तब भी पत्नी के सुख - दुख को नही सुन सकता। पूरे परिवार के प्रति उसके कर्तव्य है, लेकिन पत्नी के प्रति उसके अन्तःकरण मे कोई कर्तव्य - भाव नही है। इन्ही पस्थितियो पर सोचती हुई गरिमा उठी और अपने दैनिक कार्या मे व्यस्त हो गयी। माँ ने जो कह दिया, सो कह दिया। मेरे लिए माँ का एक - एक शब्द वेदवाक्य है और तुम्हे भी यही नियम मानना पड़ेगा, यदि यहाँ पर रहना है तो ! ध्यान रखना, आगे से माँ के खिलाफ करना तो दूर, सोचना भी मत ! पर मैने माँ के विरुद्ध कब क्या ? बस ! अब और एक शब्द नही ! गरिमा का वाक्य बीच मे काटकर आशुतोष ने डाँटकर कहा और मुँह फेरकर लेट गया। पति के उत्तर से अपनी उपेक्षा का अनुभव करके गरिमा की व्यथा कम होने की अपेक्षा अधिक हो गयी। उसे आशा थी कि वह अपने सयत - मधुर व्यवहार से पति के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने मे सफल हो जाएगी, परन्तु ऐसा नही हो सका। अब उसको ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था जिससे उसके पति के चित् मे उसके प्रति कर्तव्य - बोध जाग्रत हो सके और वह स्वय परिवार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से मुक्त हो सके। अपनी इसी ऊहापोह मे वह सारी रात नही सो सकी थी, परन्तु निराशा अब भी उसके चित् को स्पर्श तक नही कर पायी थी। असफलताओ को वह अपने लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग मे पड़ाव के रूप मे ग्रहण करती, निराशा उत्पन्न करने वाले कारण भूत तत्व के रूप मे नही, इसलिए वह सकारात्मक दिशा मे सोचने लगी। धीरे - धीरे वह सकारात्मक विचारो के साथ प्रकृतिस्थ हो गयी, परन्तु तब तक अपने चिन्तन - मनन के परिणामस्वरूप वह अपनी जीवन - शैली को बदलने का सकल्प ले चुकी थी।
काव्या का पंखे से लटका हुआ देह मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा था. ये किस्मत का कैसा खेल है? कौन कहां पर गलत है ? पुलिस को मिले सुसाइड नोट में स्पष्ट शब्दों में लिखा था. महीप उसके बच्चे का बाप नहीं है. वह उसे भाई मानती थी. उसे राखी बांधती थी. पर कहीं पर भी उसने बच्चे के असली पिता का जिक्र तक नहीं किया था. अपनी मृत्यु के लिए उसने किसी को भी दोष न देते हुए लिखा था, पत्र पढ़कर मेरे आंसू नहीं रूक रहे थे. बच्चे के रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ रही थी. पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं उसे अपनी गोद में उठाऊ. महीप बच्चे को शांत करने में लगा हुआ था और मैं.... मैं सोच के गहरे सागर डूबती चली गई. महीप और मेरी शादी बड़े धूमधाम से हुई. हम दोनों के घर वालो ने अपनी सारी हसरतें पूरी कर ली थी. लेकिन महीप और मेरा चेहरा मुरझाया हुआ था. मैं इस शादी से खुश नहीं थी, शायद महीप भी उसकी मर्जी के बिना ये शादी कर रहे थे. हम दूल्हा-दुल्हन बनकर यंत्रवत सारे रीतिरिवाज निभा रहे थे. महीप की चचेरी, ममेरी बहनों और अन्य लड़कियों ने मुझे सुहाग सेज पर लाकर बिठा दिया था और मुझे छेड़े जा रही थी. लेकिन मुझे इसमें जरा भी रस नहीं आ रहा था. महीप कमरे में आये तो सभी लड़कियां उसे छेड़ते हुये कमरे से बाहर चली गई और दरवाजा बंद कर दिया. मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था. अब ये मेरे साथ क्या करेंगे... मैं कैसे इन्हें अपने पास आने दूं... मेरे मन में तो कोई और है. नहीं.... नहीं... मैं इन्हें खुद को छूने भी नहीं दूंगी. मेरा तन और मन दोनों सरल के लिए है. सरल, मेरा सबकुछ, मेरा प्यार, मेरी जिन्दगी है. जब मैं नौंवी में पड़ती थी तभी से उससे प्यार करती हूं. वह उस समय जूनियर कॉलेज में पड़ता था और क्या बाइक चलाता था.... बाइक इतनी झुका लेता कि लगता वह अभी गिर जायेगा, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं और फिर उसकी वह सिगरेट पीने की स्टाईल हवा में धुएं के वे छल्ले. सब मेरी आंखों के आगे नजर आने लगे थे. सरल मेरी स्कूल के आगे आकर खड़ा हो जाता और मुझे देखते रहता था. मुझे भी उसे देखना अच्छा लगता था. जिस दिन मैं उसे देखकर हलके से मुस्कुराई थी उस दिन तो वह एकदम मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और ... "आय लव यु दीपाक्षी" मैं सन्न रह गई, डर गई और नजरें चुराते हुए वहां से तेज कदमों से चलते हुए अपने घर पहुंची. उसकी आवाज अब भी मेरे कानों में गूंज रहीं थी. पूरी रात करवटे बदलते हुए गुजरी. सोच रहीं थी कि कब दिन निकलेगा और मैं उसे देखूंगी उसके 'आय लव यु' का जवाब 'आय लव यु टू' कहकर दूंगी. रात काफी लंबी लगने लगी थी. "तुम मुझे अच्छे लगते हो, मैं भी तुम्हें चाहती हूं" मैंने अपने दिल में जो था वह सीधे सीधे उसे बता दिया. हम छुप छुप कर मिलने लगे. घरवालों से झूठ बोलना सिख गई थी. एक्स्ट्रा क्लास है, सहेली के घर गई थी, आज टीचर ने रोक लिया था. समय पर जो भी बहाना सूझे वह बताने लगी. घरवालों का मुझ पर पूरा विश्वास था. वे सोच भी नहीं सकते थे कि मैं किसी से प्यार करती हूं और उससे गार्डन में और कॅफे में मिलती हूं. चार सालों तक हम अपने घरवालों से अपने प्यार की बात छुपाने में कामयाब रहे. वह मेरा ग्रॅज्युएशन का प्रथम वर्ष था. मैंने घर में बताया की मैं अपने कॉलेज के सहेलियों के साथ पिकनिक पर जा रहीं हूं और सरल के साथ उसकी बाइक पर हम शहर से दूर एक तलाब के किनारे गये. वहां झाड़ियों की ओट में हम घंटों बैठे रहे. लेकिन तभी वहां पर किसी संगठन के कार्यकर्ता आये और उन्होंने हमे एक दूसरे से लिपटे हुए देखकर खूब फटकारा. सरल की तो पिटाई भी कर दी. हमसे हमारे फोन लेकर हमारे घरवालों को हमारी तस्वीरे भेज दी और उन्हें फोन लगाकर बोले, थोड़ी देर के लिए मैं रूकी, उनकी प्रतिक्रिया देखना चाहती थी. पर वे शांत उसी तरह बैठे रहे, निर्विकार भाव से. मैं सोचने लगी उन्हें सब सच बताऊ या नहीं. लेकिन मुझे मेरी मर्जी से जिना है तो सच बताना ही पड़ेगा. मैंने बोलना सुरू किया, "मैं किसी और से प्यार करती हूं" वे शांत और निश्चल रहे, उनके चेहरे पर कोई भाव प्रकट ही नहीं हुये. किस मिट्टी का बना है ये आदमी पहली ही रात एक पत्नी अपने पति से कहे की वह किसी और से प्यार करती है तो उस पती का गुस्से से तिलमिलाना बनता है. पर इन पर कोई असर ही नहीं हुआ. क्या ये भी किसी और को चाहते है. मैंने अपनी बात आगे जारी रखी, "ठीक है" बस इतना कहकर वे उठ खड़े हुये और बेड पर से तकिया और कंबल उठाया. कंबल नीचे फर्श पर बिछा कर उसी पर लेट गये. मैं अवाक् उन्हें देखती ही रही. कैसा आदमी है ये. इन्हें गुस्सा क्यों नहीं आया ? ये मुझ पर चिढ़े क्यों नहीं ? तमतमाते हुऐ कमरे से बाहर नहीं निकले. उनका वह शांत स्वभाव मेरे दिल को छू गया. पर मुझ पर तो सरल का नशा कुछ ज्यादा ही हावी था. उस नशे में मुझे सारे ही लोग बुरे नजर आते थे. सम
य बितता गया. बेडरूम में हम साथ जाते पर वे निचे फर्श पर अपना बिस्तर बिछाते और सो जाते. हममें ज्यादा बातें नही होती थी. मैं नौकरी के लिए आवेदन कर रही थी और मुझे एक बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई. लेकिन मेरी पोस्टिंग एक छोटे कस्बे में हुई. मैं खुश थी कि अब मुझे इस जमघट में रहकर पति-पत्नी वाला नाटक नहीं करना होगा. एक बेडरूम मे सोने से बच जायेगे. लेकिन घरवालों के लिए और समाज के लिए तो हम पति-पत्नी ही थे. हम दोनों के अलग अलग शहर में रहने को लेकर महीप के घरवालों में और मेरे मयके में भी बहस छिड़ गई. आखिर यह तय हुआ कि महीप पति-पत्नी एकत्रीकरण के प्रावधान के तहत जहां मेरी पोस्टिंग हुई है वहीं पर अपना तबादला करवा ले. दो महिने बाद ही महीप अपनी पोस्टिंग करवा कर उस छोटे-से कस्बे में आ गये जहां पहले से ही मैंने एक अपार्टमेंट में टू बेडरूम किचन वाला फ्लैट किराये से ले रखा था. एक बेडरूम में हमने डबल बेड और दोनों के कपडों की अलमारी रख ली थी ताकि हमारे घर से कोई आए तो उन्हें यह न लगे की हम अलग-अलग बेडरूम में सोते है. मुझे अपने मनमर्जी से जिने की पूरी आजादी थी. वे अपनी जिन्दगी जी रहे थे. घर के कामों मे मेरी मदत भी कर देते. कभी वे खाना बनाते तो कभी मैं. यहां तक की वे बर्तन मांजना और झाडू पोछा तक कर लेते थे. मुझे कभी घर आने में देर हो जाती तो फोन करके बस इतना ही पूछते थे कि, 'कब तक आओगी' यह कभी नहीं पूछा की देर क्यों हो रही है, मेरे देर से आने का कारण आज तक उन्होंने नहीं पूछा था. वे मेरा पूरा-पूरा ख्याल रखते, कभी बिमार हो गई तो डॉक्टर के पास ले जाना, दवाई खिलाना और सुश्रुषा करने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती. लेकित बात बहुत कम करते. उनके इस स्वभाव ने मेरा मन मोह लिया था. लगता काश यदि मैं सरल से प्यार नहीं करती तो ये मेरे लिए कितने 'परफेक्ट' पति थे. अगले जन्म के लिए उन्हें बुक करा लू ऐसा कई बार मेरे दिल में आया. मन यह भी चाहने लगा की ऐसा ही स्वभाव सरल का हो. वो भी इसी तरह मेरी कदर करे, मुझे अपनी पलकों पे बिठाके रखे. लेकिन सपने तो नींद खुलने पर टूटते ही है. दोनों ने हाथ मिलाया. पहले तो सरल ने बताया उसकी अग्निवीर वाली नोकरी का बॉन्ड खत्म हो गया है और अभी फिलहाल बेरोजगार है. नौकरी की तलाश में ही इस शहर आया है. यहां किसी होटल में रूकने की जगह वह सीधे यहां चला आया. उसने कोई गलती तो नहीं की. उसकी बात सुनकर हम दोनों एक दूसरे के चेहरे देखने लगे. हमारे बिच खामोशी छा गई. लेकिन जैसे ही महिप ने कहा वह एक रात क्या सप्ताह पंद्रह दिन रूक सकता है.. उसे कोई एतराज नहीं. महीप की इस बात से मैं आश्वस्त हुई. मुझे इसी बात का डर लग रहा था कि, महीप सरल के रूकने पर नाराज ना हो जाये. मेरी तो इच्छा थी की सरल यही रूके. मेहमानों के लिए यहा कोई अलग कमरा नहीं था. अतः महीप सरल के साथ अपना कमरा शेअर करने के लिए तैयार हुए. तत्पश्चात इधर उधर की बातें करते रहे. रात का खाना खाकर तय नुसार हम अपने बेडरूम में चले गये. रात तकरीबन दो बजे होंगे मेरे मोबाईल की रिंग बज उठी इतनी रात कौन कॉल कर रहा है, मन ही मन उसे गालियां देते हुए मोबाईल देखा तो वह कॉल सरल का था. यह जानने के लिए बगल के ही कमरे में रहते हुए सरल फोन कैसे कर रहा है, मैं फोन हाथ में लेकर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोला तो देखा सरल सामने ही खडा था. वह जल्दी से अंदर आ गया और दरवाजा बंद कर मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया और "अब जुदाई बर्दाश्त नहीं होती" कहते हुए मुझे चूमने की कोशिश करने लगा. मैं कसमसाई. रात खाना खाते वक्त उसने अपनी जेब से देसी ठर्रे की बोतल निकाली थी और महीप के साथ शेयर करके पिना चाहता था पर महीप ने मना किया तो उसने अकेले ही वह बोतल खाली कर दी थी. उसके मुंह से निकला हुआ शराब की बदबू मेरे नथूनों में समा गई मुझे मतली सी आने लगी. उससे खुद को छुड़ाने के लिए मैंने कहा, "महीप जाग गये और उन्होंने देख लिया तो क्या सोचेगे" वह बोला "अरे वह तो जबरदस्त खर्राटे मार रहा है. दोपहर में देखा नहीं उसने हमें बाहों में देखकर भी अनदेखा वह हमारे रिश्ते के बारें में सब जानता है. उसे क्या फर्क पड़ेगा ?" मैं उसकी मजबुत पकड में छटपटा रहीं थी. उसके शराब की बदबू मुझे सही नही जा रही थी. अपनी पूरी ताकत से उससे अपने आप को छुडाते हुये बोली, "हां ऐसा ही समझ लो... पहले मैं अपने डिवोर्स के पेपर रेडी करती हूं. महीप से तलाक लेती हूं फिर हम शादी कर लेंगे उसके बाद जितनी मर्जी चलानी है चला लेना. मैं रोकूंगी नहीं. पर अभी नहीं... छोडों.. छोड दो" कहते हुए मैंने उससे अपने आप को छुडाया और उसे धक्का देते हुए कमरे से बाहर किया. तभी हम दोनों की नजर बगल के बेडरूम के दरवाजे पर खड़े महीप पर पड़ी. मैं अपने आप को शर्मसार महसूस करने लगी. मानों मैंने कोई बहुत बड़ी च
ोरी की हो. सरल बेशर्मों की तरह चलता हुआ महीप के समिप पहुंचा और दोनों अंदर चले गये. सरल की हरकत ने मुझे सोचने पर मजबुर किया कि क्या वाईक उसे यहां रूकने देना चाहिए. नहीं... नहीं... हम महीप के अच्छे और शांत स्वभाव का फायदा नहीं उठा सकते. दूसरे दिन महीप काम पर चले जाने के बाद मैंने सरल से अपने घर से चले जाने को कहा तो वह मुझसे उल्टी-सीधी बातें करने लगा. तब मैं बोली, "मुझे लगता है हम महीप के सीधे-साधे स्वभाव का गलत फायदा उठा रहे है. वह मुझे तलाक देने के लिए राजी है लेकिन जब तक तलाक नहीं दे देते तब तक मैं उनकी पत्नी हूं और मुझे वैसे ही रहना चाहिए जैसे एक पत्नी रहती है" मेरी इस बात से नाराज होते हुए सरल बोला, "जान... तुम तो सती सावित्री की तरह बात कर रही हो. कही तुम्हें उससे प्यार तो नहीं हो गया. या फिर अब तुम मुझसे पहले उसे चखना चाहती हो." सरल की बात सुनकर मैं दंग रह गई. कितने घटिया और नीच विचार थे उसके. सरल की इस बात ने मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था. अपने आप ही मेरा हाथ उठा जो तड़ाक की आवाज के साथ सरल के गाल से टकराया. सरल अपने गाल को सहलाते हुय मेरी तरफ गुस्से से देख रहा था. मैं चीख पड़ी, "निकल .. अभी निकल इस घर से" वह बिना कुछ कहे गुस्से से तमतमाते हुये मेरे घर से निकल गया. यह कैसे हुआ ? मुझे महीप को नामर्द कहने पर इतना गुस्सा क्यों आया ? क्या सचमुच मैं महीप से प्यार करने लगी थी ? जिससे मैं सात-आठ सालों से प्यार कर रही थी, जिसका इतने सालों तक इंतजार किया उस पर मैंने हाथ उठा दिया था. और... और क्या ये वही सरल था. जो मुझे अच्छा लगता था. या फिर सच में वह मेरी नादानी थी. उसकी हिम्मत और दिलेरी ने मुझे आकर्षित किया था. लेकिन यह हिम्मत और दिलेरी किस काम की. वह तो किसी की इज्जत नहीं करता, कद्र नहीं करता दूसरों की भावनाओं से उसे कोई सरोकार नहीं. बस उसे अपने मजे की पड़ी है. रात अगर उसे रोका नहीं होता तो वह सारी हदे पार कर जाता. महीप की यह बात सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा. लगा जैसे मुझसे ज्यादा जल्दी महीप को है तलाक की. उन्होंने रात जो देखा उससे वे आहत हो गये है. बोल नहीं रहे पर अंदर ही अंदर शायद टूट गये है. अपनी आंखों के सामने ऐसे नजारे और ना देखना पडे इसलिये ये जल्दी..... जो मैं कर रहीं हूं वह सही है या गलत मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था. मुझे लगा सुबह नाश्ते की टेबल पर जो हुआ वह महीप को बता देती हूं शायद उसी से कुछ रास्ता निकल आये, मेरी दुविधा दूर हो सकती है. यही सोचकर मैंने रात का खाना खाते खाते महीप को सब बता दिया. महीप.... महीप तुम किस मिट्टी के बने हो, ऐसा कैसे सोच सकते हो. मैं तुम्हारी पत्नी हूं, मुझ पर गुस्सा करो. चिल्लाओं, डाटो, मेरे चरित्र पर लांछन लगाओ. ऐसी कई बातें उस क्षण मेरे मन में आई. मुझे खुद पर ही गुस्सा आ रहा था. पर महीप शांत थे. रात भर मैं सोचती रहीं. निंद ने आंखों से तलाक ले लिया था. जिसके इंतजार में मैंने महीप को अपने करीब नहीं आने दिया आज जब वह दिन आया है तो मैं डगमगा क्यों रहीं हूं महीप सच कहते है, मैंने अपने कदम पीछे नहीं लेने चाहिए. आगे बढ़ना ही जिन्दगी है. जो होगा देखा जायेगा. "फौज की नौकरी तो दो-ढाई साल ही की उसने, उसका तो कोर्ट मार्शल हुआ है" एक एक नई बात मुझे पता चल रही थी. मैंने सावरी से कहा, "ये क्या बता रही है, मुझे शुरू से पूरी बात बता" तब उसने जो बताया वह ये था कि, सरल की फौज की ट्रेनिंग लेह में हो रही थी. ज्यादा थंड होने के कारण सभी जवान खुद को गर्म रखने के लिए रम या किसी अन्य शराब का सहारा लेते थे. उनके ट्रेनिंग सेंटर के पास ही एक छोटा सा गांव था जहां के लोग अलाव के लिए लकडियां चुनने उनके सेंटर तक आते थे. एक शाम दो लडकियां लकड़ी चुनते हुये इनके सेंटर तक पहुंची थी. सरल और उसके साथ तीन लोग और शराब पी रहे थे. उन्होंने उन लडकियों को दबोच लिया और चारों ने उनके साथ जबरदस्ती की. जिसकी कम्पलेंट बाद में गांव वालों ने उनके यूनिट से की तो उन चारों का कोर्ट मार्शल कर उन्हें फौज से निकाल दिया गया और गिरफ्तार कर जेल में डाला गया. लेकिन, सरल जमानत पर लेकर वहीं पर रुका रहा. वह उस गांव पहुंचा और लडकी के परिवार वालों से मिला उनके हाथ पाव जोडे, माफी मांगी और कहां की वे लोग अपनी शिकायत वापस ले ले या कम से कम उसका नाम शिकायत में से हटा दे. तब एक लडकी के परिवार वाले मान गये, उन्होंने शर्त रखी की उनकी लडकी से उसे शादी करनी होगी. सरल ने उस लडकी से शादी कर ली और वही रहकर दूसरी लडकी के परिजनों को शिकायत वापस लेने के लिए मनाता रहा. दूसरी लडकी नाबालिग थी और उसके साथ ज्यादा ही दुर्व्यवहार हुआ था. अतः वे लोग माने नहीं. केस बंद कराने के चक्कर में उसका साल वही पर बित गया. उस लडकी ने एक बच्चे को जन्म दिया. तब दूसरी लडकी ने भी अपनी
शिकायत में से सरल का नाम कटवा दिया. जिससे सरल जेल जाने से तो बच गया लेकिन घटना के वक्त वह वहां मौजूद था इसलिए उसे फौज से निष्कासित कर दिया गया. उसका रेकार्ड अच्छा ना होने की वजह से अब उसे कही नौकरी भी नहीं मिल रही है. वह खूब शराब पीता है और अपनी पत्नी को रोज मारता है और अपनी बर्बादी के लिए उसे ही दोष देता है. सरल की हकीकत जानकर मुझे अपने आप से घृणा होने लगी कि मैं कैसे ऐसे घृणित इंसान से प्यार कर बैठी. शायद वह मेरी नादानी और कम उम्र की सोच थी. लेकिन अब मैं विचारों से परिपक्व हो गई हूं. अपना भला-बुरा समझ सकती हूं भविष्य के बारे में सोच सकती हूं. मुझे सरल के साथ अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा था जबकि महीप सच्चे हमदम, हमसफर की तरह नजर आ रहे थे. मैंने फैसला कर लिया कि मैं तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी. अब मैं कभी भी महीप का साथ नहीं छोडूंगी. महीप को जैसे ही यह बात बताई. महीप का चेहरा लटक गया. पहली बार उनके चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी. उनकी बैचेनी देख रही थी. वे मुझे तलाकनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए मनाने लगे. खुद से दूर रहने के लिए मुझे कन्वींस करने लगे. अपने तबादले की बात की, मुझे आजाद जिन्दगी का पाठ पढ़ाने लगे. महीप का यह व्यवहार मेरी समझ से परे था. मैं अब ये कैसी बात कर रही थी. जब तक मुझे आस थी मैं सरल के साथ जाऊंगी तब तक तो मैंने महीप के 'हर तरह' के सुख की बात कभी नहीं की और आज मैं खुद स्वार्थी बनकर उनसे ऐसी बातें कर रही थी. दरअसल, अब मुझे पूरी औरत बनना था, एक पत्नी और उससे भी बढ़कर एक मां ...! हां.. मैं भी चाहती थी कि मेरी कोख में मेरा अंश पले-बढ़े, मैं उसे जन्म दूं और फिर... न जाने कहां कहां तक मेरी सोच भागने लगी. आज कल मेरे बैंक में मेरे सहकर्मी मुझसे पूछते, शादी को तीन साल होने को आये खुशखबरी कब दे रही हो. अभी तो गोद में बच्चा आ जाना चाहिये. वरना लोग बांझ होने का लांछन लगाते है. ये अच्छा है की तुम परिवार के साथ नहीं रहती हो वरना रोज ताने सुनने पडते. ऐसी बातें सुनाकर मुझे मां बनने के लिए प्रेरित करते रहते. मेरे साथ पढ़ने वाली मेरी अन्य सहेलियां जिनकी शादी हो चुकी थी वे भी एक दो बच्चों की मां बन चुकी थी और मैंने एक झूठी आस में अपने जीवन के चार साल विवाहित होकर भी बिना वैवाहिक सुख के बिता दिये थे. महीप सच ही बोल रहे थे कि स्वतंत्रता से बढ़कर कोई सुख नहीं. पर फिर भी हम एक-दूसरे से बंध जाते है. अलग अलग भौतिक सुखों की कामना करते है. एक-दूसरे से अपेक्षाएं रखते है. उन अपेक्षाओं के पूरा होने में अपना सुख मानते है. उनको मेरी अपेक्षाओं से अनजान बनते देख मैं सीधे बोल पड़ी, "मैं मां बनाना चाहती हूं .. मां... तुम्हारे बच्चे की, मुझे ये सुख तुम ही दे सकते हो" महीप ने गर्दन झुका ली. कुछ बोले नहीं. मैंने फिर पुछा, "तुमने जवाब नहीं दिया, क्या तुम मुझे ये सुख नहीं दोंगे" वे फिर सोच मे पड गये और होठो ही होठो में बुदबुदाते हुये बोले, "काश.... दे पाता" वे क्या क्या बुदबुदाये यह मैंने सुन लिया था फिर भी पूछा क्या कहा आपने. तब वे फिर मुझे अपने कसम की दुहाई देने लगे तो मैं बोली, "तोड़ दो..... आप कोई पितामह भीष्म नहीं हो और ना ही ये वह युग है, तुम्हारे कसम तोड़ने से किसी को कोई नुकसान नहीं है." इसी बात को लेकर हममे बहस चलती रही आखिर उन्हें मेरे सवालों का जवाब देना भारी पड़ रहा था तो वे झल्लाते हुये उठकर सीधे बाहर निकल गये. उसके बाद कई बार मैंने उनसे बात करनी चाही लेकिन हर बार मेरी बात काट कर वे बाहर चले जाते. अब वे घर में कम ही रहते. सिर्फ खाना खाने आते या फिर जब मैं घर में ना रहूं तब घर के काम निपटाते. उन्होंने अपने काम की आदत नहीं छोड़ी. उनका व्यवहार देखकर लगने लगा, तो क्या ये घर का सारा काम इसीलिए करते है ताकी मेरे चले जाने के बाद इन्हे काम करने में कोई परेशानी ना हो. वे किसी और पर डिपेन्ड न हो. उन्होंने कहा स्वतंत्रता में ही सुख है तो क्या वे अकेले जीवन व्यतित करने को स्वतंत्रता कहते है और उसमें सुख अनुभव करते है. शायद ऐसा ही हो. मैंने भी आस नहीं छोड़ी और ना ही उन्हें अकेला छोडा. तलाक के पेपर पर मैंने हस्ताक्षर भी नहीं किये. उन्होंने आठ दस बार पूछा मुझसे, "हस्ताक्षर कब करोगी" लेकिन मेरा जवाब ना मिलने पर वे मुझसे बहस नहीं करते थे. अब यही रूटीन हो गया था हमारा. दो अजनबी एक घर में एक छत के नीचे अलग अलग बेडरूम में सोते. अपने अपने हिस्से के काम निपटाते और चले जाते. दो महिने बाद इसमें थोड़ी तबदीली आयी. हमारे जीवन में एक नये सदस्य का आगमन हुआ और मुझे महीप का दूसरा रूप भी देखने को मिला. उनका वह रूप कितना सच्चा और कितना झूठा था ये मैं समझ ही नहीं पा रही थी. उस नये सदस्य का नाम था काव्या. महीप जब उसे लेकर आये तो यही बताया कि वह उनकी बहन है.
.. ना... ना सगी नहीं. बल्कि राखी बहन है. उनके दोस्त कपील की सगी बहन और दूसरे दोस्त अकील की पत्नी. यानी एक अकेली महिला से तीन पुरूष जुड़े हुए थे. और... अब तक उनमें से दो की मौत हो चुकी थी. तिसरे मेरे पति यानी महीप जिंदा थे और अब उस महिला का आगमन महीप के घर में हो गया था. हम तीनों को एक साथ रहते हुऐ महिना दो महिना बीत गया. महीप तो कुछ बताते नहीं थे. लेकिन मैं कुरेद कुरेद कर काव्या से पूछताछ करती रहती. उसके बताये अनुसार उन दो महिनों में काव्या की जो कहानी सामने आयी वह यह कि, महीप, कपील और अकील तीनों बहुत अच्छे दोस्त थे. प्रायमरी स्कूल से ही उनकी दोस्ती थी. एक ही बस्ती में रहते थे, एक ही स्कूल में जाते थे. तीनों का एक-दूसरे के घर आना जाना था. काव्या उनसे दो साल बड़ी थी. लेकिन फिर भी वह उनके साथ खेलती और अपने भाई के साथ साथ महीप को राखी बांधने लगी थी. काव्या ने अकील को कभी राखी नहीं बांधी क्योंकि वह बचपन से ही उसके प्रति कुछ अलग-सा महसूस करती थी. उम्र बढ़ने के साथ साथ उन्हें यह अहसास हुआ कि वह अलग-सा क्या है. अकील और काव्या दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे थे और शादी करने का फैसला कर लिया था. यह बात कपील और महीप दोनों जानते थे उन्हें कोई एतराज नहीं था पर कपील के घरवाले और काव्या के घरवाले यह बात नहीं जानते थे. उन्होंने तय किया कि सही समय पर यह बात दोनों अपने अपने घरवालों को बतायेगे. तीनों दोस्तों ने अपना ग्रॅज्युएशन पूरा कर लिया और तीनों अच्छे अंको से पास हो गये थे. अतः तीनों एक ही मोटर साइकिल पर बैठ कर शहर से बाहर मौज मस्ती करने निकल पड़े. दिन भर तीनों ने खूब मजा किया शाम को खाना खाने एक ढाबे पर रूके तो अकील ने कहा, "यार बिना कुछ पीये खुशी का मजा नहीं आता चलो एक-एक पेग ले लेते है." हां-ना करते वे दोनों भी मान गये और उन्होंने शराब पी, खाना खाया और फिर तीनों एक ही मोटर साईकिल पर बैठकर घर वापसी के लिए निकले. बाईक अकील चला रहा था उसके पिछे महीप और उसके पिछे कपील बैठा था. रात का समय और तीनों नशे में, तेजी से दौड़ती बाईक का अलग पहिला एक गड्ढे में धंस गया. महीप और कपील दोनों उछल कर सडक के किनारे बने एक टीन के झोपडे पर गिरे. जबकि अकील सडक पर घिसटता चला गया. टीन का वह झोपडा पहले से ही जर्जर और जंग लगा हुआ था. जगह से जगह से टीन टूटा हुआ था. दोनों के शरीर पर उस जंग लगे टीन ने इतने घाव दिये कि कपील की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. महीप की दोनों टांगे चिर गई थी. पेट और हाथों पर भी लंबे-लंबे घाव लगे थे. अकील के सडक पर गिरने और घसीटे जाने की वजह से कपडे फट गये और कई जगह से हाथ पाव छिल से गये थे. महीप को पंद्रह दिनों तक अस्पताल में रहना पडा. खून की बोतले चढी. जहां जहां महीप के शरीर पर कटे के घाव थे वहां टांके लगाने पडे. इस घटना ने तीनों के परिवार में नफरत के बीज बो दिये थे. इस दुर्घटना के लिए महीप और कपील के परिवार वाले अकील को दोषी मानने लगे. उसी ने शराब पिने की बात की थी और बाईक भी वही चला रहा था. कपील और अकील के परिवार वालों में इस बात को लेकर काफी झगडा हुआ. गाली गलौच से लेकर हाथापाई तक. काव्या समझ चुकी थी कि अब वह अकील से प्यार की बात बताती है तो उसके घर वाले शादी की रजामंदी कभी नहीं देंगे. अतः वह छुप छुप कर अकील से मिलती रही. इस घटना के दो महिने बाद ही काव्या के घरवालों को अकील और काव्य के प्रेमसंबंध के बारे में बता चला. अपेक्षानुसार, काव्या के घर वालों ने पहले तो काव्या को खुब लताड़ा. उसके पिता और चचरे भाईयों ने अकील की पिटाई तक कर दी. पुलिस में अकील के खिलाफ झुठी शिकायत कर उसे जेल भेज दिया. लेकिन पुलिस को अकील के घर वालों ने पैसे देकर मामला रफा दफा कर दिया. अब, अकील के घर वाले भी काव्या के परिवार वालों से हद से ज्यादा नफरत करने लगे थे और वे भी नहीं चाहते थे कि काव्या उनके घर की बहु बने. काव्या के घर वाले उसकी शादी उसकी मर्जी के खिलाफ कही और करने वाले थे. हालात ऐसे हो गये कि दोनों ने किसी को भनक तक न लगने दी और कोर्ट में शादी कर ली. जिसमें काव्या का भाई बनकर महीप ने उसकी ओर से गवाह के तौर पर हस्ताक्षर किये थे. काव्या दुल्हन बनकर अकील के घर तो आ गई लेकिन उसे रोज अकील के घर वालों के ताने सुनने को मिलते. घर का माहौल पूरी तरह खराब रहता. अकील भी बेबस था उसके पास कोई नौकरी नहीं थी. वह भी अपने घर वालों के रहमो करम पर था. घर में रोज की किचकिच से वह तंग आ चुका था. इसलिए दिन भर बाहर रहता रात को शराब पीकर घर आता. एक्सीडेन्ट में उसके सर पर अंदरुनी चोट लगी थी. जिसका असर अब होने लगा था. ज्यादा तनाव में रहने के कारण उसका ब्रेन हॅमरेज हुआ और उसकी मौत हो गई. इस बात के लिए अकील के घरवालों ने काव्या पर इल्जाम लगाया और उसे घर से बाहर निकाल दिया. वह अपने मयके पहुंच
ी तो उसके पिता ने भी उसे घर में आसरा देने से इन्कार कर दिया. तब काव्या ने महीप से मदद मांगी. महीप उसे सीधे इस फ्लैट पर ले आया. पहले तो उन्होने उसे अपने बेडरूम में सोने को कहा और खुद बाहर हॉल में सोफे पर सोने की बात की, लेकिन वह नहीं मानी और खुद हॉल में सोने लगी. इन दो महिनों में कई बार मैंने देखा वह रोते रहती और महीप उसे सांत्वना देते रहते थे. पीछले तीन वर्षो में जितनी बातें मुझसे की उससे कई ज्यादा बातें दो महिनों में काव्य से कर चुके थे. मुझे शक होने लगा की महीप का प्यार यही तो नहीं है. सब के सामने राखी बांधकर भाई-बहन बने रहना और एकांत में कुछ और ही रिश्ता कायम करना. मेरे जली कटी सुनाने से वह और दुखी रहने लगी उसका दुख देकर मेरे पति उसके और करीब होते गये. जब तक उन्हें नींद नहीं आती वे काव्या के साथ ही हॉल में बैठे रहते. काव्या ने मेरे घर का किचन संभाल लिया था. घर के सारे काम वह करने लगी थी. एक तरह से वह मेरे घर की मेड बन गई थी. अपने घर के तनाव को कम करने के उद्देश्य से मैंने गर्मी की छुट्टीयों में अपने बड़े भाई के बच्चों और मेरे छोटे भाई को बुला लिया था. वे लोग दस दिनों तक रहे. तब महीप मेरे कमरे में मेरे साथ मेरे बिस्तर पर सोते थे. लेकिन मुझे छूना तो दूर मेरी ओर मुंह तक नहीं करते थे. उनकी यह हरकत मानों मेरी जलती, तड़पती कामना को हवा देने का ही काम कर रही थी. उन दस दिनों तक घर का माहौल काफी खुशनुमा रहा. काव्या मेड सर्वन्ट की तरह दिन भर खटती रही और महीप एक अच्छे पति का सबके सामने नाटक करते रहे. उनके जाने के बाद फिर घर में उदासी छा गई. महीप अपने कमरे में चले गये. वही रूटीन शुरू हुआ. तीन महीने बीते थे कि एक रात अचानक मैंने देखा काव्या बाथरूम में उल्टी कर रही थी और महीप बाथरूम के बाहर खडे थे. वह जैसे ही उठ कर खड़ी हुई उन्होंने उसे सहारा दिया और उसके दोनों कंधो को पकड़कर, उसका सिर अपने कंधे पर टीकाकर उसके शरीर को अपने शरीर का सहारे देते हुए उसके बिस्तर तक ले आये. मुझसे रहा नही गया और मैं तकरीबन चीख पड़ी, "ये क्या हो रहा है ? एैसी बेहयाई, मुझे तो छूते तक नहीं और इसे.... लगता है इसे मां बनाने की पूरी तयारी कर ली है" मेरा वाक्य पूरा होते ही महीप एकदम से उठे और मेरे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड रसीद दिया और चीखते हुऐ बोले, पहले तो मुझे महीप पर बहुत गुस्सा आया. उसने मुझे तमाचा जड़ दिया था. पर उसकी बात सुनकर लगा कही ये मुझसे तलाक लेने के लिए ऐसा नाटक जानबूझकर तो नहीं कर रहे है. मैं अपने कमरे में जाकर रोती रही और सोचती रही. ये नाटक है तो मैं तलाकनामे पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी. दूसरे दिन वे काव्या को लेकर अस्पताल गये. शाम को मैंने पूछा कि डॉक्टर ने क्या कहा तो दोनों में से किसी ने मुझे कुछ नहीं बताया. पर कहते है ना, 'इश्क, मुश्क और औरत का पेट छुपाए नहीं छुपते' काव्या का पेट बढ़ने लगा था. अब तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. काव्या कभी घर से बाहर जाती नहीं थी और घर में सिर्फ एक ही मर्द था महीप. काव्या कोई कुंती नहीं थी कि उसे किसी ऋषि ने कोई मंत्र दिया हो और कोई देव आकर उसकी कोख में बच्चा डालकर चला गया हो. यह निश्चित ही महीप की करतूत थी. मुझे किसी झूठी आस पर नहीं रहना था. पहले जिससे प्यार किया वह भी बेवफा और आवारा निकला. जब पति को पति के रूप में अपनाना चाहा तो उसने भी दगा दिया. मुझे और छे महीने उनकी बेहयाई सहना था. मेरे लिए एक एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था. हमारे आपसी टकराव और बदफैली की बातें आस पड़ोस से लेकर सभी पहचान वालों में फैल गई थी. हर कोई मुझसे हमदर्दी जताता और महीप को भला बुरा कहता. पर इससे उन दोनों पर कोई फर्क नहीं पड रहा था. वे उस कुलटा की तिमारदारी में लग गये. घर का सारा काम खुद करने लगे. उसकी दवा, सेवा सब करने लगे. उसने एक बहुत ही खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया. मेरे ही सामने महीप उस बच्चे को गोद में लेकर उसका लाड दुलार करते तो मेरे सिने पर कई कई सांप लोटने लग जाते. उस मनहूस औरत के चेहर पर भी बच्चे को देखकर मुस्कान आ जाती. खुश नजर आने लगी थी. ये मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था तो मैंने उसे खूब खरी खोटी सुना दी. उससे कहा कि, "तु बहुत मनहूस है, तु जहां जाती है वहां सिवाय बर्बादी के कुछ नहीं होता. मेरे हंसते खेलते जीवन को तुने नर्क बना दिया है, भाई, पति को खाने के बाद अब तुने महीप की जिन्दगी भी जहन्नुम बना दी है. बाहर लोग उसे कैसी कैसी नजरों से देखते है. उसे कहते है, घर में एक खुबसुरत बिबी के होते हुए दूसरी रखैल लेकर आया है और उससे बच्चा भी पैदा कर दिया. पीठ पीछे मुझे भी ताने मारते है, बांझ कहने लगे है. झूठी हमदर्दी दिखाते है. ये.... ये सब तेरी वजह है हुआ है, तु मर क्यों नहीं जाती" मेरे मुंह से इतना निकलना था कि दूसरे ही दिन काव्या ने खुद
को फांसी लगा ली थी. काव्या के सुसाईड नोट से पुलिस ने आत्महत्या का केस बनाकर फाईल बंद कर दी. तलाक के लिए एक महिना और बचा था. तलाक की एक वजह पंखे से लटककर खत्म हो चुकी थी, महीप का बच्चे से लगाव बढ़ने लगा था. कभी कभी मैं भी बच्चे को देखती तो सोचती इस सारे फेर में इस बच्चे का क्या कसूर है. कितना मासूम और खूबसूरत है. मेरा भी मन उसे गोद में लेकर प्यार करने का होता. लेकिन उसका कसूर ये था कि उसने मेरी कोख से जन्म नहीं लिया था. जब भी उसे उठाकर दुलारने की कोशिश करती मेरी आंखों के आगे उस मनहूस का चेहरा नजर आता. मेरे पति को मुझसे छिनने वाली डायन नजर आती. वक्त सारे घाव भर देता है. यहां तक की जख्मों के निशान तक मिट जाते है. कुछ ऐसा ही इन पंद्रह दिनों में हुआ. महीप मुझे फिर अच्छे लगने लगे. उनका मेरा साथ किया हुआ दुर्व्यवहार मैं भूल गई थी. क्योंकि एक थप्पड के अलावा उन्होंने मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया था उन कुछ दिनों को छोड़ दे तो उंची आवाज में बात तक नहीं की थी. भला उन क्षणों को मै क्यों याद रखू. उनके शालीन स्वभाव का मेरे दिलो दिमाग पर ज्यादा असर था. बच्चे के बहाने वे मुझसे बात करेंगे मेरे करीब आयेगे ये सोचकर मैं बच्चे के साथ खेलने लगी और महीप भी मुझसे बाते करने लगे. कोर्ट की तारीख को सात दिन बचे थे उसके पहले मुझे महीप का मन पलटना था. मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी सहमती खारीज कर दूंगी. लेकिन उसके बाद हमें कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ सकते थे और मामला खिचते चला जाता. लेकिन यदि महीप भी मान जाये तो हम अपिलेक्शन ही विड्रा करवा ले. पर इतने कम समय में उसे मनाया कैसे जाये. ऐसे समय में दिमाग में न जाने कैसे कैसे ख्याल आते है जो शायद बचकाने भी लगे लेकिन काम कर गये तो फायदा ही होता है. मेरे मन में आया यदि किसी तरह मेरे और महीप के बिच इन सात दिनों में शारीरिक रिश्ता बन जाये तो मैं उन्हें मना लुंगी. पर वे तो मुझे छूते तक नहीं थे फिर यह मुमकिन कैसे होता. दूसरे ही दिन मैंने अपनी मां को बुला लिया. मेरी मां ने महीप के कमरे पर अपना कब्जा जमा लिया. सास के होते हुए महीप अपनी पत्नी के कमरे के बाहर सोफे पर तो नहीं सो सकते थे. अतः मजबूरन उन्हें मेरे कमरे में सोना पड़ा. रात उनके दुध में मैंने उत्तेजना बढ़ाने वाली दवा मिला कर उन्हें पीने को दिया. इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ. तो दूसरी रात मैंने दवा की मात्रा बढ़ा दी. यह रात भी मेरी सूनी ही रही. तिसरी रात दवा की मात्रा एकदम से डबल कर दी. जो की मेरी सबसे बड़ी गलती थी. दवा का जो असर उन पर होना था वह न होते हुए उनके हाथ पाव ऐंठने लगे. वे दर्द से तड़पने लगे. उनकी ऐसी हालत देखकर मैं घबरा गई. दूसरे कमरे से मैंने मां को बुलाया और हॉस्पिटल में फोन लगाकर एम्बुलेन्स बुलवाई. मैं थरथर कांपने लगी. तो ये राज है इनके शांत स्वभाव और अकेलेपन का. इसीलिए मुझसे अलग रहना चाहते थे ताकि इनका राज राज बना रहे. क्या इनके घर वाले भी इस बात से अंजान थे. जरूर होंगे, वरना मुझसे बच्चे की आस क्यों लगाते. काव्या के मां बनने पर इनके परिवार वालों ने भी उसे खरी खोटी सुनाई थी. उन्हें भी लगता था काव्या की कोख में महीप का ही पाप पल रहा है. लेकिन.... लेकिन यह सब झूठ है. महीप.... महीप नहीं... तो फिर काव्या के बच्चे का बाप कौन है ? कौन आया था मेरे घर में ? इन प्रश्नों ने मुझे फिर बैचेन कर दिया. मैंने बच्चे के पैदा होने से पहले नौ महिनों का हिसाब लगाया और अपने अपार्टमेंट के चौकीदार के पास पहुंची. उससे नौ-दस माह पुराने रजिस्टर मांगे और देखने लगी की कौन हमारे पीठ पीछे घर आया था. तब एक रजिस्टर में एक नाम देखकर मैं चौंक गई. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था. मैं रजिस्टर के उन पन्नो की फोटो कॉपी लेकर महीप के पास पहुंची और उसे नाम दिखाते हुये पूछा, "यही है ना बच्चे का बाप" मैंने महीप का हाथ बच्चे के सिर पर रखा और बोली, "तुम कसम को बहुत मानते हो इस बच्चे के सिर पर हाथ रखा है इसकी कसम खाओं और बोलो यही है ना इस बच्चे का बाप" उनकी आंखों से आंसू बहने लगे. हां में गर्दन हिलाते हुए उन्होने हामी भरी. क्या करती अपने ही दातों से अपने ही होठो को चबाने जैसी बात थी. चुप रहने के अलावा मेरे पास कोई अन्य विकल्प न था. काव्या मर चुकी थी और मरने से पहले उसने इस बात का कही भी जिक्र नहीं किया था कि उसका बलात्कार हुआ है. अतः कोई पुलिस केस बनता ही नहीं था. मेरे पति ने ही शायद मेरे मयके वालों की इज्जत बचाने के लिए अपना और काव्या का मुहं सिल लिया था.
लेकिन मनुष्य जैसा है, वैसा ही उस परम को जान नहीं सकता। इससे ही दुनिया में नास्तिक दर्शनों का जन्म हो सका। जैसे अंधा आदमी प्रकाश को जानना चाहे, न जान सके, तो अंधा आदमी भी कह सकता है कि प्रकाश एक भ्रांति है। और जिन्हें प्रकाश दिखाई देता है, वे किसी विभ्रम में पड़े हैं, किसी इलूजन में पड़े हैं। जो प्रकाश की बात करते हैं, वे अंधविश्वास में हैं। और अंधे आदमी की इन बातों में तर्कयुक्त रूप से कुछ भी गलत न होगा। अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। और प्रकाश को देखने के अतिरिक्त और कोई जानने का उपाय नहीं है। प्रकाश सुना नहीं जा सकता, अन्यथा अंधा भी प्रकाश को सुन लेता। प्रकाश छुआ नहीं जा सकता, अन्यथा अंधा भी उसे स्पर्श कर लेता। प्रकाश का कोई स्वाद नहीं, कोई गंध नहीं। तो जिसके पास आंख नहीं हैं, उसका प्रकाश से संबंधित होने का कोई उपाय नहीं है। तो अंधा आदमी भी कह सकता है कि जो मानते हैं, वे भ्रांति में होंगे; और अगर प्रकाश है, तो मुझे दिखा दो। और उसकी बात में कुछ अर्थ है। अगर प्रकाश है, तो मेरे अनुभव में आए, तो ही मैं मानूंगा। मनुष्य भी परमात्मा को खोजना चाहता है। बिना यह पूछे कि मेरे पास वह आंख, वह उपकरण है, जो परमात्मा को देख ले? इसलिए जो कहते हैं कि परमात्मा है, हमें लगता है कि किसी भ्रम में हैं, किसी मानसिक स्वप्न में, किसी सम्मोहन में खो गए हैं। और या फिर अंधविश्वास कर लिया है किसी भय के कारण, प्रलोभन के कारण। या केवल परंपरागत संस्कार है बचपन से डाला गया मन में, इसलिए कोई कहता है कि परमात्मा है। परमात्मा है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। यह सवाल भी उठाया नहीं जा सकता, जब तक कि हमारे पास वह आंख न हो, जो परमात्मा को देखने में सक्षम है। प्रकाश है या नहीं, यह सवाल ही व्यर्थ है, जब तक देखने वाली आंख न हो। अंधे को प्रकाश तो बहुत दूर, अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता है। आमतौर से हम सोचते होंगे कि अंधे को कम से कम अंधेरा तो दिखाई पड़ता ही होगा। हमारी धारणा भी हो सकती हो कि अंधा अंधेरे से घिरा होगा। गलत है खयाल। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधेरे का अनुभव भी आंख का ही अनुभव है। अंधे को अंधेरे का भी कोई अनुभव नहीं होता। आप आंख बंद करते हैं, तो आपको अंधेरे का अनुभव होता है, क्योंकि आप अंधे नहीं हैं। आपको प्रकाश का अनुभव होता है, इसलिए उसके विपरीत अंधेरे का अनुभव होता है। जिसे प्रकाश का अनुभव नहीं होता, उसे अंधेरे का भी कोई अनुभव नहीं हो सकता। अंधेरा और प्रकाश दोनों ही आंख के अनुभव हैं। प्रकाश मौजूदगी का अनुभव है, अंधेरा गैर-मौजूदगी का अनुभव है। लेकिन जिसे प्रकाश ही नहीं दिखाई पड़ा, उसे प्रकाश की अनुपस्थिति कैसे दिखाई पड़ेगी! वह असंभव है। अंधे को अंधेरा भी नहीं है। और जिसे अंधेरा भी दिखाई न पड़ता हो, वह प्रकाश के संबंध में क्या प्रश्न उठाए! और प्रश्न उठाए भी तो उसे क्या उत्तर दिया जा सकता है! और जो भी उत्तर हम देंगे, वे अंधे के मन को जंचेंगे नहीं। क्योंकि मन हमारी इंद्रियों के अनुभव का जोड़ है। अंधे के पास आंख का अनुभव कुछ भी नहीं है मन में। तो जंचने का, मेल खाने का, तालमेल बैठने का कोई उपाय नहीं है। अंधे का पूरा मन कहेगा कि प्रकाश नहीं है। अंधा जिद्द करेगा कि प्रकाश नहीं है। सिद्ध भी करना चाहेगा कि प्रकाश नहीं है । क्यों? क्योंकि स्वयं को अंधा मानने की बजाय, यह मान लेना ज्यादा आसान है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार की इसमें तृप्ति है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार को चोट लगती है यह मानने से कि मैं अंधा हूं इसलिए मुझे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए मनुष्य में जो अति अहंकारी हैं, वे कहेंगे, परमात्मा नहीं है, बजाय यह मानने के कि मेरे पास वह देखने की आंख नहीं है, जिससे परमात्मा हो तो दिखाई पड़ सके। और ध्यान रहे, जिसको परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, उसको परमात्मा का न होना भी दिखाई नहीं पड़ सकता है। क्योंकि न होने का अनुभव भी उसी का अनुभव होगा, जिसके पास देखने की क्षमता है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है। उसके वक्तव्य का वही अर्थ है, जो अंधा कहता है कि प्रकाश नहीं है। नास्तिक की तकलीफ ईश्वर के होने न होने में नहीं है। नास्तिक की तकलीफ अपने को अधूरा मानने में, अपंग मानने में, अंधा मानने में है। इसलिए जितना अहंकारी युग होता है, उतना नास्तिक हो जाता है। अगर आज सारी दुनिया में नास्तिकता प्रभावी है, तो उसका कारण यह नहीं है कि विज्ञान ने लोगों को नास्तिक बना दिया है। और उसका कारण यह भी नहीं है कि कम्युनिज्म ने लोगों को नास्तिक बना दिया। उसका कुल मात्र कारण इतना है कि मनुष्य ने इधर पिछले तीन सौ वर्षों में जो उपलब्धियां की हैं, उन उपलब्धियों ने उसके अहंकार को भारी बल दे दिया है। इन तीन सौ वर्षों में आदमी ने उतनी उपलब्धियां की हैं, जितनी पिछले तीन लाख वर्ष
ों में आदमी ने नहीं की थीं। आदमी की ये उपलब्धियां उसके अहंकार को बल देती हैं। वह बीमारी से लड़ सकता है। वह उम्र को भी शायद थोड़ा लंबा सकता है। उसने बिजली को बांधकर घर में रोशनी कर ली है। उसके पूर्वज बिजली को आकाश में देखकर कंपते थे और सोचते थे कि इंद्र नाराज है। उसने बिजली को बांध लिया है। अगर पुरानी भाषा में कहें, तो इंद्र को उसने बांध लिया है। घर में इंद्र रोशनी कर रहा है, और पंखे चला रहा है ! आदमी ने इधर तीन सौ वर्षों में जो भी पाया है, उस पाने से उसे बाहर कुछ चीजें मिली हैं और भीतर अहंकार मिला है। उसे लगता है, मैं कुछ कर सकता हूं। और जितना अहंकार मजबूत होता है, उतनी ही नास्तिकता सघन हो जाती है। क्योंकि उतना ही यह मानना मुश्किल हो जाता है कि मुझमें कोई कमी है, कोई उपकरण, कोई इंद्रिय मुझमें खो रही है, अभाव है; मेरे पास कोई उपाय कम है, जिससे मैं और देख सकूं। फिर एक और बात पैदा हो गई। हमने अपनी भौतिक इंद्रियों को विस्तीर्ण करने की बड़ी कुशलता पा ली है। आदमी आंख से कितनी दूर तक देख सकता है? लेकिन अब हमारे पास दूरदर्शक यंत्र हैं, जो अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर तारों को देख सकते हैं। आदमी अपने अकेले कान से कितना सुन सकता है? लेकिन अब हमारे पास टेलिफोन है, रेडियो है, बेतार के यंत्र हैं, कोई सीमा नहीं है। हम कितने ही दूर की बात सुन सकते हैं, और कितने ही दूर तक बात कर सकते हैं। एक आदमी अपने हाथ से कितनी दूर तक पत्थर फेंक सकता है? लेकिन अब हमारे पास सुविधाएं हैं कि हम पूरे के पूरे यानों को पृथ्वी के घेरे के बाहर फेंककर चांद की यात्रा पर पहुंचा सकते हैं। एक आदमी कितना मार सकता है? कितनी हत्या कर सकता है? अब हमारे पास हाइड्रोजन बम हैं, कि चाहें तो दस मिनट में हम पूरी पृथ्वी को राख बना दे सकते हैं। सिर्फ दस मिनट में; खबर पहुंचेगी, इसके पहले मौत पहुंच जाएगी! तो स्वभावतः, आदमी ने अपनी बाहर की इंद्रियों को बढ़ा लिया। यह सब इंद्रियों का विस्तार है। इंद्रियों को हमने यंत्रों से जोड़ दिया। इंद्रियां भी यंत्र हैं। हमने और नये यंत्र बनाकर उन इंद्रियों की शक्ति को बढ़ा लिया। इसलिए आदमी इंद्रियों को बढ़ाने में लग गया और उसे यह खयाल भी नहीं कि कुछ इंद्रियां ऐसी भी हैं, जो बंद ही पड़ी हैं। अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी की बाहर की इंद्रिय की शक्ति बहुत सीमित थी। और आदमी का बल बहुत सीमित था। आदमी की उपलब्धियां बहुत सीमित थीं। आदमी के अहंकार को सघन होने का उपाय कम था। सहज ही जीवन विनम्रता पैदा करता था। सहज ही चारों तरफ इतनी विराट शक्तियां थीं कि हम निहत्थे, असहाय, हेल्पलेस मालूम होते थे। बाहर तो हमारे बल को बढ़ने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए आदमी भीतर मुड़ने की चेष्टा करता था। आज बाहर के यात्रा-पथ इतने सुगम हैं कि भीतर लौटने का खयाल भी नहीं आता है। आज बाहर जाने की इतनी सुविधा है कि भीतर जाने का सवाल भी नहीं उठता है। आज जब हम किसी से कहें, भीतर जाओ, तो उसकी समझ में नहीं आता। उससे कहें, चांद पर जाओ, मंगल पर जाओ, बिलकुल समझ में आता है। चांद पर जाना आज आसान है, अपने भीतर जाना कठिन है। और आदमी निश्चित ही, जो सुगम है, सरल है, उसको चुन लेता है। जहां लीस्ट रेजिस्टेंस है, उसे चुन लेता है। आदमी के अहंकार के अनुपात में उसकी नास्तिकता होती है। जितना अहंकार होता है, उतनी नास्तिकता होती है। क्यों? क्योंकि आस्तिकता पहली स्वीकृति से शुरू होती है कि मैं अधूरा हूं। ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन परम सत्य को जानने का मेरे पास कोई भी उपाय नहीं है। बुद्धि आदमी के पास है। लेकिन बुद्धि से आदमी क्या जान पाता है? जो नापा जा सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। क्योंकि बुद्धि नापने की एक व्यवस्था है। जो मेजरमेंट के भीतर आ सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। हमारा शब्द है, माया। माया बहुत अदभुत शब्द है। उसका मौलिक अर्थ होता है, दैट ब्दिच कैन बी मेजर्ड, जिसको नापा जा सके, माप्य जो है, जिसको हम नाप सकें। तो बुद्धि केवल माया को ही जान सकती है, जो नापा जा सकता है। समझें। एक तराजू है। उससे हम उसी चीज को जांच सकते हैं, जो नापी जा सकती है। एक तराजू को लेकर हम एक आदमी के शरीर को नाप सकते हैं। लेकिन अगर तराजू से हम आदमी के मन को जानने चलें, तो मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि मन तराजू पर नहीं नापा जा सकता। एक आदमी के शरीर में कितनी हड्डियां, मांस - मज्जा है, यह हम नाप सकते हैं तराजू से। लेकिन एक आदमी के भीतर कितना प्रेम है, कितनी घृणा है, इसको हम तराजू से नहीं नाप सकते। इसका यह मतलब नहीं कि प्रेम है नहीं। इसका केवल इतना ही मतलब है कि जो मापने का उपकरण है, वह संगत नहीं है। जो भी नापा जा सकता है, उसे बुद्धि समझ सकती है। जो भी गणित के भीतर आ सकता है, बुद्धि समझ सकती है। जो भी
तर्क के भीतर आ जाता है, बुद्धि समझ सकती है। विज्ञान बुद्धि का विस्तार है। इसलिए वितान उसी को मानता है, जो नप सके, जांचा जा सके, परखा जा सके, छुआ जा सके, प्रयोग किया जा सके, उसको ही। जो न छुआ जा सके, न परखा जा सके, न पकड़ा जा सके, न तौला जा सके, विज्ञान कहता है, वह है ही नहीं । वहां विज्ञान भूल करता है। विज्ञान को इतना ही कहना चाहिए कि उस दिशा में हमारे पास जाने का कोई उपाय नहीं है। हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन बिना उपाय के कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। परमात्मा का अर्थ है, असीम। परमात्मा का अर्थ है, सब। परमात्मा का अर्थ है, जो भी है, उसका जोड़। इस विराट को बुद्धि नहीं नाप पाती। क्योंकि बुद्धि भी इस विराट का एक अंग है। बुद्धि भी इस विराट का एक अंश है। अंश कभी भी पूर्ण को नहीं जांच सकता। अंश कभी भी अपने पूर्ण को नहीं पकड़ सकता। कैसे पकड़ेगा? अगर मैं अपने हाथ से अपने पूरे शरीर को पकड़ना चाहूं तो कैसे पकडूंगा? कोई उपाय नहीं है। मेरा हाथ कई चीजें उठा सकता है। लेकिन मेरा हाथ मेरे पूरे शरीर को नहीं उठा सकता। अंश है, छोटा है, शरीर बड़ा है। बुद्धि एक अंश है इस विराट में। एक बूंद सागर में है, इस पूरे सागर को नहीं उठा पाती है। तो बुद्धि उपाय नहीं है जानने का। और हम बुद्धि से ही जानने की कोशिश करते हैं। दार्शनिक सोचते हैं, मनन करते हैं, तर्क करते हैं। बुद्धि से सोचते हैं कि ईश्वर है या नहीं। वे जो भी दलीलें देते हैं, वे दलीलें बचकानी हैं। बड़े से बड़े दार्शनिक ने भी ईश्वर के होने के लिए जो प्रमाण दिए हैं, वह बच्चा भी तोड़ सकता है। जितने भी प्रमाण ईश्वर के होने के लिए दिए गए हैं, वे कोई भी प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि उन सभी को खंडित किया जा सकता है। इसलिए प्रमाण से जो ईश्वर को मानता है, उसे कोई भी नास्तिक दो क्षण में मिट्टी में मिला देगा। ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है, जो ईश्वर के होने को सिद्ध कर सके। क्योंकि अगर हमारा प्रमाण ईश्वर को सिद्ध कर सके, तो हम ईश्वर से भी बड़े हो जाते हैं। और हमारी बुद्धि अगर ईश्वर के लिए प्रमाण जुटा सके और अगर ईश्वर को हमारे प्रमाणों की जरूरत हो, तभी वह हो सके, और हमारे प्रमाण न हों तो वह न हो सके, तो हम ईश्वर से भी विराट और बड़े हो जाते हैं। मार्क्स ने मजाक में कहा है कि जब तक ईश्वर को टेस्ट-टयूब में न जांचा जा सके, तब तक मैं मानने को राजी नहीं हूं। लेकिन उसने फिर यह भी कहा है कि और अगर ईश्वर टेस्ट-टयूब में आ जाए और जांच लिया जाए, तब भी मानूंगा नहीं, क्योंकि तब मानने की कोई जरूरत नहीं रह गई। जो टेस्ट - ट्यूब में आ गया हो आदमी के, उसको ईश्वर कहने का कोई कारण नहीं रह गया। वह भी एक तत्व हो जाएगा। जैसे आक्सीजन है, हाइड्रोजन है, वैसा ईश्वर भी होगा। हम उससे भी काम लेना शुरू कर देंगे! पंखे चलाएंगे, बिजली जलाएंगे; कुछ और करेंगे। आदमी को मारेंगे, बच्चों को पैदा होने से रोकेंगे, या उम्र ज्यादा करेंगे। अगर ईश्वर को हम टेस्ट-टयूब में पकड़ लें, तो हम उसका भी उपयोग कर लेंगे। विज्ञान तभी मानेगा, जब उपयोग कर सके। आदमी जो भी प्रमाण जुटा सकता है, वे प्रमाण सब बचकाने हैं। क्योंकि बुद्धि बचकानी है। उस विराट को नापने के लिए बुद्धि उपाय नहीं है। क्या कोई उपाय और हो सकता है बुद्धि के अतिरिक्त? बुद्धि के अतिरिक्त हमारे पास कुछ भी नहीं है। सोच सकते हैं। थोड़ा इसे हम समझ लें कि सोचने का क्या अर्थ होता है, तो इस सूत्र में प्रवेश आसान हो जाएगा। हम सोच सकते हैं। आप क्या सोच सकते हैं? जो आप जानते हैं, उसी को सोच सकते हैं। सोचना जुगाली है। गाय - भैंस को आपने देखा! घास चर लेती है, फिर बैठकर जुगाली करती रहती है। वह जो चर लिया है, उसको वापस चरती रहती है। विचार जुगाली है। जो आपके भीतर डाल दिया गया, उसको आप फिर जुगाली करते रहते हैं। आप एक भी नई बात नहीं सोच सकते हैं। कोई विचार मौलिक नहीं होता। सब विचार बाहर से डाले गए होते हैं, फिर हम सोचने लगते हैं उन पर। सब विचार उधार होते हैं। तो जो हमने जाना नहीं है अब तक, उसको हम सोच भी नहीं सकते। हम सोच उसी को सकते हैं, जिसे हमने जाना है, जिसे हमने सुना है, जिसे हमने समझा है, जिसे हमने पढ़ा है, उसे हम सोच सकते हैं। ईश्वर को न तो पढ़ा जा सकता, न ईश्वर को सुना जा सकता। ईश्वर को सोचेंगे कैसे? ईश्वर है अजात, अननोन। मौजूद है यहीं, लेकिन इसी तरह अज्ञात है, जैसे अंधे के लिए प्रकाश अज्ञात है। और अंधे के चारों तरफ मौजूद है, अंधे की चमड़ी को छू रहा है। अंधे को जो गरमी मिल रही है, वह उसी प्रकाश से मिल रही है। और अंधे को जो उसका मित्र हाथ पकड़कर रास्ते पर चला रहा है, वह भी उसी प्रकाश के कारण चला रहा है। और अंधे के भीतर जो हृदय में धड़कन हो रही है, वह भी उसी प्रकाश की किरणों के कारण हो रही है। और उसके खून में जो गति है, वह भ
ी प्रकाश के कारण है । अंधे का पूरा जीवन प्रकाश में लिप्त है, प्रकाश में डूबा है। अगर प्रकाश न हो, तो अंधा नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी अंधे को प्रकाश का कोई भी पता नहीं चलता है। क्योंकि जो आंख चाहिए देखने की, वह नहीं है। अंधा जीता प्रकाश में है, होता प्रकाश में है, लेकिन अनुभव में नहीं आता। हम भी परमात्मा में हैं। उसके बिना न खून चलेगा, न हृदय धड़केगा, न श्वासें हिलेंगी, न वाणी बोलेगी, न मन विचारेगा। उसके बिना कुछ भी नहीं होगा। वह अस्तित्व है। लेकिन उसे देखने की हमारे पास अभी कोई भी इंद्रिय नहीं है। हाथ हैं, उनसे हम छू सकते हैं। जिसे हम छू सकते हैं, वह स्थूल है। सूक्ष्म को हम छू नहीं सकते। यहां भी सूक्ष्मपरमात्मा को अलग कर दें - पदार्थ में भी जो सूक्ष्म है, उसे भी हम हाथ से नहीं छू सकते। हमारे पास कान हैं, सुन सकते हैं। लेकिन कितना सुन सकते हैं? एक सीमा है। आपका कुत्ता आपसे हजार गुना ज्यादा सुनता है। उसके पास आपसे ज्यादा बड़ा कान है। अगर कान से परमात्मा का पता लगता होता, तो आपसे पहले आपके कुत्ते को पता लग जाएगा। घोड़ा आपसे दस गुना ज्यादा सूंघ सकता है। कुत्ता दस हजार गुना सूंघ सकता है। अगर सूंघने से परमात्मा का पता होता, तो कुत्तों ने अब तक उपलब्धि पा ली होती। हमसे ज्यादा मजबूत आंखों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा मजबूत हाथों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा मजबूत स्वाद का अनुभव करने वाले जानवर हैं। मधुमक्खी पांच मील दूर से फूल की गंध को पकड़ लेती है। अगर आपके घर में चोर घुसा हो, तो उसके जाने के घंटेभर बाद भी कुत्ता उसकी सुगंध को पकड़ लेता है। उसके जाने के घंटेभर बाद भी! और फिर पीछा कर सकता है। और दस - बीस मील कहीं भी चोर चला गया हो, अनुगमन कर सकता है। हमारे पास जो इंद्रियां हैं, उनसे स्थूल भी पूरा पकड़ में नहीं आता। सूक्ष्म की तो बात ही अलग है। हम जो सुनते हैं, वह एक छोटी - सी सीमा के भीतर सुनते हैं। उससे नीची आवाज भी हमें सुनाई नहीं पड़ती। उससे ऊपर की आवाज भी हमें सुनाई नहीं पड़ती। हमारी सब इंद्रियों की सीमा है, इसलिए असीम को कोई इंद्रिय पकड़ नहीं सकती। हमारी कोई भी इंद्रिय असीम नहीं है। हमारा जीवन ही सीमित है। थोड़ा कभी आपने खयाल किया कि आपका जीवन कितना सीमित है! घर में थर्मामीटर होगा, उसमें आप ठीक से देख लेना, उसमें सीमा पता चल जाएगी! इधर अट्ठानबे डिग्री के नीचे गिरे, कि बिखरे। उधर एक सौ आठ-दस डिग्री के पार जाने लगे, कि गए। बारह डिग्री थर्मामीटर में आपका जीवन है। उसके नीचे मौत, उसके उस तरफ मौत। बारह डिग्री में जहां जीवन हो, वहां परम जीवन को जानना बड़ा मुश्किल होगा। इस सीमित जीवन से उस असीम को हम कैसे जान पाएं! जरा-सा तापमान गिर जाए पृथ्वी पर सूरज का, हम सब समाप्त हो जाएंगे। जरा - सा तापमान बढ़ जाए, हम सब वाष्पीभूत हो जाएंगे। हमारा होना कितनी छोटी - सी सीमा में, क्षुद्र सीमा में है! इस छोटे-से क्षुद्र होने से हम जीवन के विराट अस्तित्व को जानने चलते हैं, और कभी नहीं सोचते कि हमारे पास उपकरण क्या है जिससे हम नापेंगे! तो जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर है, वह भी नासमझ; जो कह देता है बिना समझे - बूझे कि ईश्वर नहीं है, वह भी नासमझ। समझदार तो वह है, जो सोचे पहले कि ईश्वर का अर्थ क्या होता है? विराट! अनंत! असीम! मेरी क्या स्थिति है? इस मेरी स्थिति में और उस विराट में क्या कोई संबंध बन सकता है? अगर नहीं बन सकता, तो विराट की फिक्र छोडूं। मेरी स्थिति में कोई परिवर्तन करूं, जिससे संबंध बन सके। धर्म और दर्शन में यही फर्क है। दर्शन सोचता है ईश्वर के संबंध में। धर्म खोजता है स्वयं को, कि मेरे भीतर क्या कोई उपाय है? क्या मेरे भीतर ऐसा कोई झरोखा है? क्या मेरे भीतर ऐसी कोई स्थिति है, जहां से मैं छलांग लगा सकूं अनंत में? जहां मेरी सीमाएं मुझे रोकें नहीं। जहां मेरे बंधन मुझे बांधें नहीं। जहां मेरा भौतिक अस्तित्व रुकावट न हो। जहां से मैं छलांग ले सकूं, और विराट में कूद जाऊं और जान सकूं कि वह क्या है। अब हम इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिए दिव्य-चक्षु देता हूं उससे तू मेरे प्रभाव को और योग- शक्ति को देख। कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि जो आंखें तेरे पास हैं, प्राकृत नेत्र, इनसे तू मुझे देखने में समर्थ नहीं है। निश्चित ही, अर्जुन कृष्ण को देख रहा था, नहीं तो बात किससे होती! यह चर्चा हो रही थी। कृष्ण को सुन रहा था, नहीं तो यह चर्चा किससे होती ! यहां ध्यान रखें कि एक तो वे कृष्य हैं, जो अर्जुन को अभी दिखाई पड़ रहे हैं, इन प्राकृत आंखों से। और एक और कृष्य का होना है, जिसके लिए कृष्ण कहते हैं, तू मुझे न देख सकेगा इन आंखों से। तो जिन्होंने कृष्ण को प्राकृत आं
खों से देखा है, वे इस भ्रांति में न पड़े कि उन्होंने कृष्ण को देख लिया। अभी तक अर्जुन ने भी नहीं देखा है। उनके साथ रहा है। दोस्ती है। मित्रता है। पुराने संबंध हैं। नाता है। अभी उसने कृष्य को नहीं देखा है। अभी उसने जिसे देखा है, वह इन आंखों, प्राकृत आंखों और अनुभव के भीतर जो देखा जा सकता है, वही। अभी उसने कृष्य की छाया देखी है। अभी उसने कृष्य को नहीं देखा। अभी उसने जो देखा है, वह मूल नहीं देखा, ओरिजिनल नहीं देखा, अभी प्रतिलिपि देखी है। जैसे कि दर्पण में आपकी छवि बने, और कोई उस छवि को देखे। जैसे कोई आपका चित्र देखे। या पानी में आपका प्रतिबिंब बने और कोई उस प्रतिबिंब को देखे । पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही ठीक प्रकृति में भी आत्मा की प्रतिछवि बनती है। अभी अर्जुन जिसे देख रहा है, वह कृष्ण की प्रतिछवि है, सिर्फ छाया है। अभी उसने उसे नहीं देखा, जो कृष्ण हैं। और आपने भी अभी अपने को जितना देखा है, वह भी आपकी छाया है। अभी आपने उसे भी नहीं देखा, जो आप हैं। और अगर अर्जुन कृष्य के मूल को देखने में समर्थ हो जाए, तो अपने मूल को भी देखने में समर्थ हो जाएगा। क्योंकि मूल को देखने की आंख एक ही है, चाहे कृष्ण के मूल को देखना हो और चाहे अपने मूल को देखना हो। और छाया को देखने वाली आंख भी एक ही है, चाहे कृष्ण की छाया देखनी हो और चाहे अपनी छाया देखनी हो । तो यहां कुछ बातें ध्यान में ले लें। पहली, कि कृष्ण जो दिखाई पड़ते हैं, अर्जुन को दिखाई पड़ते थे, आपको मूर्ति में दिखाई पड़ते हैं..। अब थोड़ा समझें कि आपकी मूर्ति तो प्रतिछवि की भी प्रतिछवि है, छाया की भी छाया है। वह तो बहुत दूर है। कृष्ण की जो आकृति हमने मंदिर में बना रखी है, वह तो बहुत दूर है कृष्ण से। क्योंकि खुद कृष्ण भी जब मौजूद थे शरीर में, तब भी वे कह रहे हैं कि मैं यह नहीं हूं, जो तुझे अभी दिखाई पड़ रहा हूं। और इन आंखों से ही अगर देखना हो तो यही दिखाई पड़ेगा, जो मैं दिखाई पड़ रहा हूं। नई आंख चाहिए। प्राकृत नहीं, दिव्य-चक्षु चाहिए। इन आंखों को प्राकृत कहा है, क्योंकि इनसे प्रकृति दिखाई पड़ती है। इनसे दिव्यता दिखाई नहीं पड़ती। इनसे जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैटर है, पदार्थ है। और जो भी दिव्य है, इनसे चूक जाता है। दिव्य को देखने का इनके पास कोई उपाय नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं कि मैं तुझे अब वह आंख देता हूं जिससे तुझे मैं दिखाई पड़ सकूं, जैसा मैं हूं - अपने मूल रूप में, अपनी मौलिकता में। प्रकृति में मेरी छाया नहीं, तू मुझे देख । लेकिन तब मैं तुझे एक नई आंख देता हूं। यहां बहुत - से सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि क्या कोई और आदमी किसी को दिव्य आंख दे सकता है? कि कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे दिव्य - चक्षु देता हूं। क्या यह संभव है कि कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सके? और अगर कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सकता है, तब तो फिर अत्यंत कठिनाई हो जाएगी। कहां खोजिएगा कृष्ण को जो आपको दिव्य - चक्षु दे? और अगर कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सकता है, तो फिर कोई आपके दिव्य-चक्षु ले भी सकता है। और अगर कोई दूसरा आपको दि॒िव्य - चक्षु दे सकता है, तो फिर आपके करने के लिए क्या बचता है? कोई देगा। प्रभु की अनुकंपा होगी कभी, तो हो जाएगा। फिर आपके लिए प्रतीक्षा के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर आपके लिए संसार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस पर बहुत - सी बातें सोच लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह है कि कृष्ण ने जब यह कहा कि मैं तुझे दिव्य- • चक्षु देता हूं तो इसके पहले अर्जुन अपने को पूरा समर्पित कर चुका है, रत्ती - मात्र भी अपने को पीछे नहीं बचाया है। अगर कृष्य अब मौत भी दें, तो अर्जुन उसके लिए भी राजी है। अब अर्जुन का अपना कोई आग्रह नहीं है। आदमी जो सबसे बड़ी साधना कर सकता है, वह समर्पण है, वह सरेंडर है। और जैसे ही कोई व्यक्ति समर्पित कर देता है पूरा, तब कृष्ण को चक्षु देने नहीं पड़ते, यह सिर्फ भाषा की बात है कि मैं तुझे चक्षु देता हूं। जो समर्पित कर देता है, उस समर्पण की घड़ी में ही चक्षु का जन्म हो जाता है। लेकिन शायद कृष्ण की मौजूदगी वहां न हो, तो अड़चनें हो सकती हैं, क्योंकि कृष्ण कैटेलिटिक एजेंट का काम कर रहे हैं। जो लोग विज्ञान की भाषा से परिचित हैं, वे कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ समझते हैं। कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ होता है, जो खुद करे न कुछ, लेकिन जिसकी मौजूदगी में कुछ हो जाए। वैज्ञानिक कहते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। अगर आप हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो पानी नहीं बनेगा। लेकिन अगर आप पानी को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन बन जाएगी। अगर आप पानी की एक बूंद को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन आपको मिलेगी और कुछ भी नहीं मिलेगा। स्वभावतः, इसका नतीजा यह होना चाहिए कि अगर हम हाइड्रोजन और आक्सीजन को जोड़ दें, तो पा
नी बन जाना चाहिए। लेकिन बड़ी मुश्किल है। तोड़े, तो सिर्फ हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलती है। जोड़े, तो पानी नहीं बनता। जोड्ने के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी है। और बिजली उस जोड़ में प्रवेश नहीं करती, सिर्फ मौजूद होती है, जस्ट प्रेजेंट। सिर्फ मौजूदगी चाहिए बिजली की बिजली मौजूद हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाता है। बिजली मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी नहीं बनते। वह जो बरसात में आपको बिजली चमकती दिखाई पड़ती है, वह कैटेलिटिक एजेंट है, उसके बिना वर्षा नहीं हो सकती। उसकी वजह से वर्षा हो रही है। लेकिन वह पानी में प्रवेश नहीं करती है। वह सिर्फ मौजूद होती है। यह कैटेलिटिक एजेंट की धारणा बड़ी कीमती है और अध्यात्म में तो बहुत कीमती है। गुरु कैटेलिटिक एजेंट है। वह कुछ देता नहीं। क्योंकि अध्यात्म कोई ऐसी चीज नहीं कि दी जा सके। वह कुछ करता भी नहीं। क्योंकि कुछ करना भी दूसरे के साथ हिंसा करना है, जबरदस्ती करनी है। वह सिर्फ होता है मौजूद। लेकिन उसकी मौजूदगी काम कर जाती है; उसकी मौजूदगी जादू बन जाती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी, और आपके भीतर कुछ हो जाता है, जो उसके बिना शायद न हो पाता। पहली तो बात यह है कि कृष्ण मौजूद न हों, तो समर्पण बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं मानता हूं कि अर्जुन को समर्पण जितना आसान हुआ होगा, मीरा को उतना आसान नहीं हुआ होगा। इसलिए मीरा की कीमत अर्जुन से ज्यादा है। क्योंकि कृष्ण सामने मौजूद हों, तब समर्पण करना आसान है। कृष्य बिलकुल सामने मौजूद न हों, तब दोहरी दिक्कत है। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो, फिर समर्पण करो। मीरा को दोहरे काम करने पड़े हैं। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो; अपनी ही पुकार, अपनी ही अभीप्सा, अपनी ही प्यास से निर्मित करो, बुलाओ, निकट लाओ। ऐसी घड़ी आ जाए कि कृष्ण मालूम पड़ने लगें कि मौजूद हैं। रत्ती मात्र फर्क न रह जाए, कृष्ण की मौजूदगी में और इसमें। दूसरों को लगेगी कल्पना, कि मीरा कल्पना में पागल है। नाच रही है, किसके पास! जो देखते हैं, उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता। और यह मीरा जो गा रही है और नाच रही है, किसके पास? तो मीरा की आंखों में जो देखते हैं, उन्हें लगता है कि कोई न कोई मौजूद जरूर होना चाहिए! और या फिर मीरा पागल है। जो नहीं समझते, उनके लिए मीरा पागल है। क्योंकि कोई भी नहीं है और मीरा नाच रही है, तो पागल है। जो नहीं समझते, वे समझते हैं, कल्पना है।
मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे। मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन ...Read Moreगज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे। आजाद की धाक ऐसी बँधी कि नवाबों और रईसों में भी उनका जिक्र होने लगा। रईसों को मरज होता है कि पहलवान, फिकैत, बिनवटिए को साथ रखें, बग्घी पर ले कर हवा खाने निकलें। एक नवाब साहब ने इनको ...Read Moreबुलवाया। यह छैला बने हुए, दोहरी तलवार कमर से लगाए जा पहुँचे। देखा, नवाब साहब, अपनी माँ के लाड़ले, भोले-भाले, अँधेरे घर के उजाले, मसनद पर बैठे पेचवान गुड़गुड़ा रहे हैं। सारी उम्र महल के अंदर ही गुजरी थी, कभी घर के बाहर जाने तक की भी नौबत न आई थी, गोया बाहर कदम रखने की कसम खाई थी। दिनभर कमरे में बैठना, यारों-दोस्तों से गप्पें उड़ाना, कभी चौसर रंग जमाया, कभी बाजी लड़ी, कभी पौ पर गोट पड़ी, फिर शतरंज बिछी, मुहरे खट-खट पिटने लगे। किश्त! वह घोड़ा पीट लिया, वह प्यादा मार लिया। जब दिल घबराया, तब मदक का दम लगाया, चंडू के छींटे उड़ाए, अफीम की चुसकी ली। आजाद ने झुक कर सलाम किया। नवाब साहब खुश हो कर गले मिले, अपने करीब बिठाया और बोले - मैंने सुना है, आपने सारे शहर के बाँकों के छक्के छुड़ा दिए। नवाब साहब के दरबार में दिनोंदिन आजाद का सम्मान बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब के साथ ही खाते। नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आजाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, ...Read Moreभी मीनमेख न करें। ज्यों-ज्यों आजाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किर-किरी होती जाती थी। अभी लोगों ने अच्छे मिर्जा को दरबार से निकलवाया था, अब आजाद के पीछे पड़े। यह सिर्फ पहलवानी ही जानते हें, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ। पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मजहबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं। आजाद यह तो जानते ही थे कि नवाब के मुहाहबों में से कोई चौक के बाहर जानेवाला नहीं इसलिए उन्होंने साँड़नी तो एक सराय में बाँध दी और आप अपने घर आए। रुपए हाथ में थे ही, सवेरे घर ...Read Moreउठ खड़े होते, कभी साँड़नी पर, कभी पैदल, शहर और शहर के आस-पास के हिस्सों में चक्कर लगाते, शाम को फिर साँड़नी सराय में बाँध देते और घर चले आते। एक रोज सुबह के वक्त घर से निकले तो क्या देखते हैं कि एक साहब केचुललेट का धानी रँगा हुआ कुरता, उस पर रुपए गजवाली महीन शरबती का तीन कमरतोई का चुस्त अँगरखा, गुलबदन का चूड़ीदार घुटन्ना पहने, माँग निकाले, इत्र लगाए, माशे भर की नन्ही सी टोपी आलपीन से अटकाए, हाथों में मेहँदी, पोर-पोर छल्ले, आँखों में सुर्मा, छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, एक अजब लोच से कमर लचकाते, फूँक-फूँक कर कदम रखते चले आते थे। दोनों ने एक दूसरे को खूब जोर से घूरा। छैले मियाँ ने मुसकराते हुए आवाज दी - ऐ, जरी इधर तो देखो, हवा के घोड़े पर सवार हो! मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है। भरी बरसात के दिन, कहीं फिसल न पड़ो, तो कहकहा उड़े। मियाँ आजाद की साँड़नी तो सराय में बँधी थी। दूसरे दिन आप उस पर सवार हो कर घर से निकल पड़े। दोपहर ढले एक कस्बे में पहुँचे। पीपल के पेड़ के साये में बिस्तर जमाया। ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों ...Read Moreजरा दिल को ढारस हुई, पाँव फैला कर लंबी तानी, तो दीन दुनिया की खबर नहीं। जब खूब नींद भर कर सो चुके, तो एक आदमी ने जगा दिया। उठे, मगर प्यास के मारे हलक में काँटे पड़ गए। सामने इंदारे पर एक हसीन औरत पानी भर रही थी। हजरत भी पहुँचे।
मियाँ आजाद मुँह-अँधेरे तारों की छाँह में बिस्तर से उठे, तो सोचे साँड़नी के घास-चारे की फिक्र करके सोचा कि जरा अदालत और कचहरी की भी दो घड़ी सैर कर आएँ। पहुँचे तो क्या देखते हैं, एक घना ...Read Moreहै और पेड़ों की छाँह में मेला साल लगा है। कोई हलवाई से मीठी-मीठी बातें करता है। कोई मदारिए को ताजा कर रहा है। कूँजड़े फलों की डालियाँ लगाए बैठे हैं। पानवाले की दुकान पर वह भीड़ है कि खड़े होने की जगह नहीं मिलती। चूरनवाला चूरन बेच रहा है। एक तरफ एक हकीम साहब दवाओं की पुड़िया फैलाए जिरियान की दवा बेच रहे हैं। बीसों मुंशी-मुतसद्दी चटाइयों पर बैठे अर्जियाँ लिख रहे हैं। मुस्तगीस हैं कि एक-एक के पास दस-दस बैठे कानून छाँट रहे हैं - अरे मुंशी जी, यो का अंट-संट चिघटियाँ सी खँचाय दिहो? हम तो आपन मजमून बतावत हैं, तुम अपने अढ़ाई चाउर अलग चुरावत हौ। मियाँ आजाद साँड़नी पर बैठे हुए एक दिन सैर करने निकले, तो एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक बरामदे में चार-पाँच आदमी फर्श पर बैठे धुआँधार हुक्के उड़ा रहे हैं, गिलौरी चबा रहे हैं और गजलें पढ़ रहे ...Read Moreएक कवि ने कहा, हम तीनों के तखल्लुस का काफिया एक है - अल्लामी, फहामी और हामी मगर तुम दो ही हो - वकाद और जवाद। एक शायर और आ जायँ, तो दोनों तरफ से तीन-तीन हो जायँ। इतने में मियाँ आजाद तड़ से पहुँच गए। मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझे! आजाद - वाह! यह तो निराला खत है। न सलाम, न बंदगी। शुरू ही से कोसना शुरू किया। बूढ़े - जनाब, आप खत पढ़ते हैं कि मेरे घर का कजिया चुकाते हैं? पराये झगड़े से आपका वास्ता? जब मियाँ-बीबी राजी है, तब आप कोई काजी हैं! आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से निकले, तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, ...Read Moreकी भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा - मियाँ अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था। वसंत के दिन आए। आजाद को कोई फिक्र तो थी ही नहीं, सोचे, आज वसंत की बहार देखनी चाहिए। घर से निकल खड़े हुए, तो देखा कि हर चीज जर्द है, पेड़-पत्ते जर्द, दरो-दीवार जर्द, रंगीन कमरे जर्द, लिबास ...Read Moreकपड़े जर्द। शाहमीना की दरगाह में धूम है, तमाशाइयों का हुजूम है। हसीनों के झमकड़ें, रँगीले जवानों की रेल-पेल, इंद्र के अखाड़े की परियों का दगल है, जंगल में मंगल है। वसंत की बहार उमंग पर है, जाफरानी दुपट्टों और केसरिये पाजामों पर अजब जोबन है। वहाँ से चौक पहुँचे। जौहरियों की दुकान पर ऐसे सुंदर पुखराज हैं कि पुखराज-परी देखती, तो मारे शर्म के हीरा खाती और इंद्र का अखाड़ा भूल जाती। मेवा बेचनेवाली जर्द आलू, नारंगी, अमरूद, चकोतरा, महताबी की बहार दिखलाती है, चंपई दुपट्टे पर इतराती है। एक दिन आजाद शहर की सैर करते हुए एक मकतबखाने में जा पहुँचे। देखा, एक मौलवी साहब खटिया पर उकड़ू बैठे हुए लड़कों को पढ़ा रहे हैं। आपकी रँगी हुई दाढ़ी पेट पर लहरा रही है। गोल-गोल आँखें, खोपड़ी ...Read Moreउस पर चौगोशिया टोपी जमी-जमाई। हाथ में तसबीह लिए खटखटा रहे हैं। लौंडे इर्द-गिर्द गुल मचा रहे हैं। हू-हक मची हुई है, गोया कोई मंडी लगी हुई है। तहजीब कोसों दूर, अदब काफूर, मगर मौलवी साहब से इस तरह से डरते हैं, जैसे चूहा बिल्ली से, या अफीमची नाव से। जरी चितवन तीखी हुई, और खलबली मच गई। सब किताबें खोले झूम-झूम कर मौलवी साहब को फुसला रहे हैं। एक शेर जो रटना शुरू किया, तो बला की तरह उसको चिमट गए। मतलब तो यह कि मौलवी साहब मुँह का खुलना और जबान का हिलना और उनका झूमना देखें, कोई पढ़े या न पढ़े, इससे मतलब नहीं। आजाद तो इधर साँड़नी को सराय में बाँधे हुए मजे से सैर-सपाटे कर रहे थे, उधर नवाब साहब के यहाँ रोज उनका इंतिजार रहता था कि आज आजाद आते होंगे और सफशिकन को अपने साथ लाते होंगे। रोज फाल ...Read Moreजाती थी, सगुन पूछे जाते थे। मुसाहब लोग नवाब को भड़काते थे कि अब आजाद नहीं लौटने के लेकिन नवाब साहब को उनके लौटने का पूरा यकीन था। एक दिन बेगम साहबा ने नवाब साहब से कहा - क्यों जी, तुम्हारा आजाद किस खोह में धँस गया? दो महीने से तो कम न हुए होंगे। इधर शिवाले का घंटा बजा ठनाठन, उधर दो नाकों से सुबह की तोप दगी दनादन। म
ियाँ आजाद अपने एक दोस्त के साथ सैर करते हुए बस्ती के बाहर जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बेल-बूटों से सजा हुआ बँगला ...Read Moreअहाता साफ, कहीं गंदगी का नाम नहीं। फूलों-फलों से लदे हुए दरख्त खड़े झूम रहे हें। दरवाजों पर चिकें पड़ी हुई हैं। बरामदे में एक साहब कुर्सी पर बैठे हुए हैं, और उनके करीब दूसरी कुर्सी पर उनकी मेम साहबा बिराज रही हैं। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। न कहीं शोर, न कहीं गुल। आजाद ने कहा - जिंदगी का मजा तो ये लोग उठाते हैं। बेनियाजी तेरी आदत ही सही। हम तो कहते हैं, दुआ करते हैं। मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे। क्या देखते हैं, एक पुरानी-धुरानी गड़हिया के किनारे एक दढ़ियल बैठे काई की कैफियत देख रहे हैं।कभी ढेला उठाकर फेंका, छप। बुड्ढे आदमी और लौंडे बने जाते हैं। दाढ़ी का भी खयाल ...Read Moreलुत्फ यह कि मुहल्ले भर के लौंडे इर्द-गिर्द खड़े तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन आप गड़हिया की लहरों ही पर लट्टू हैं। कमर झुकाए चारों तरफ ढेले और ठीकरे ढूँढ़ते फिरते हैं। एक दफा कई ढेले उठा कर फेंके। आजाद ने सोचा, कोई पागल है क्या। साफ-सुथरे कपड़े पहने, यह उम्र, यह वजा, और किस मजे से गड़हिया पर बैठे रँगरलियाँ मना रहे हैं। यह खबर नहीं कि गाँव भर के लौंडे पीछे तालियाँ बजा रहे हें। एक लौंडे ने चपत जमाने के लिए हाथ उठाया, मगर हाथ खींच लिया। दूसरे ने पेड़ की आड़ से कंकड़ी लगाई। मियाँ आजाद के पाँव में तो आँधी रोग था। इधर-उधर चक्कर लगाए, रास्ता नापा और पड़ कर सो रहे। एक दिन साँड़नी की खबर लेने के लिए सराय की तरफ गए, तो देखा, बड़ी चहल-पहल है। एक तरफ रोटियाँ ...Read Moreरही हैं, दूसरी तरफ दाल बघारी जाती है। भठियारिनें मुसाफिरों को घेर-घार कर ला रही हैं, साफ-सुथरी कोठरियाँ दिखला रही हैं। एक कोठरी के पास एक मोटा-ताजा आदमी जैसे ही चारपाई पर बैठा, पट्टी टूट गई। आप गड़ाप से झिलँगे में हो रहे। अब बार-बार उचकते है मगर उठा नहीं जाता। चिल्ला रहे हैं कि भाई, मुझे कोई उठाओ। आखिर भठियारों ने दाहिना हाथ पकड़ा, बाईं तरफ मियाँ आजाद ने हाथ दिया और आपको बड़ी मुश्किल से खींच खाँच के निकाला। झिलँगे से बाहर आए, तो सूरत बिगड़ी हुई थी। कपड़े कई जगह मसक गए थे। झल्ला कर भठियारी से बोले - वाह, अच्छी चारपाई दी! जो मरे हाथ-पाँव टूट जाते, या सिर फूट जाता, तो कैसी होती? आजाद के दिल में एक दिन समाई कि आज किसी मसजिद में नमाज पढ़े, जुमे का दिन है, जामे-मसजिद में खूब जमाव होगा। फौरन मसजिद में आ पहुँचे। क्या देखते हैं, बड़े-बड़े जहिद और मौलवी,काजी और मुफ्ती बड़े-बड़े अमामे ...Read Moreपर बाँधे नमाज पढ़ने चले आ रहे हैं अभी नमाज शुरू होने में देर है, इसलिए इधर-उधर की बातें करके वक्त काट रहे हैं। दो आदमी एक दरख्त के नीचे बैठे जिन्न और चुड़ैल की बातें कर रहे हैं। एक साहब नवजवान हैं, मोटे-ताजे दूसरे साहब बुड्ढे हैं, दुबले-पतले। मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे, तो देखते क्या हैं, एक चौराहे के नुक्कड़ पर भंगवाले की दुकान है और उस पर उनके एक लँगोटिए यार बैठे डींग की ले रहे हैं। हमने जो खर्च कर डाला, वह ...Read Moreको पैदा करना भी नसीब न हुआ होगा, लाखों कमाए, करोड़ों लुटाए, किसी के देने में न लेने में। आजाद ने झुक कर कान में कहा - वाह भई उस्ताद, क्यों न हो, अच्छी लंतरानियाँ हैं। बाबा तो आपके उम्र भर बर्फ बेचा किए और दादा जूते की दुकान रखते-रखते बूढ़े हुए। आपने कमाया क्या, लुटाया क्या? याद है, एक दफे साढ़े छह रुपए की मुहर्रिरी पाई, मगर उससे भी निकाले गए। उसने कहा - आप भी निरे गावदी हैं। अरे मियाँ, अब गप उड़ाने से भी गए? भंगवाले की दुकान पर गप न मारूँ, तो और कहाँ जाऊँ? फिर इतना तो समझो कि यहाँ हमको जानता कौन है। मियाँ आजाद तो एक सैलानी आदमी थे ही, एक तिपाई पर टिक गए। देखते क्या हैं, एक दरख्त के तले सिरकी का छप्पर पड़ा है, एक तख्त बिछा है, भंगवाला सिल पर रगड़ें लगा रहा है। एक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो थे ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। ...Read Moreपहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया - अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते। दूसरे दिन सवेरे आजाद की आँख खुली तो देखा, एक शाह जी उनके सिरहाने खड़े उनकी तरफ देख रहे हैं। शाह जी के साथ एक लड़का भी है, जो अलारक्खी को दुआएँ दे रहा है। आजाद ने समझा, कोई ...Read Moreहै, झठ उठ कर उनको सलाम किया। फकीर ने मुसकिरा कर कहा - हुजूर, मेरा इनाम हुआ। सच कहिएगा, ऐसे बहुरूपिए कम देखे होंगे। आजाद ने दे
खा गच्चा खा गए, अब बिना इनाम दिए गला न छूटेगा। बस, अलारक्खी की भड़कीली दुलाई उठाकर दे दी। बहुरूपिए ने दुलाई ली, झुक कर सलाम किया और लंबा हुआ। लौंडे ने देखा कि मैं ही रहा जाता हूँ। बढ़ कर आजाद का दामन पकड़ा। हुजूर, हमें कुछ भी नहीं? आजाद ने जेब से एक रुपया निकाल कर फेंक दिया। तब अलारक्खी चमक कर आगे बढ़ीं और बोलीं - हमें? मियाँ आजाद रेल पर बैठ कर नाविल पढ़ रहे थे कि एक साहब ने पूछा - जनाब, दो-एक दम लगाइए, तो पेचवान हाजिर है। वल्लाह, वह धुआँधार पिलाऊँ कि दिल फड़क उठे। मगर याद रखिए, दो दम से ज्यादा ...Read Moreसनद नहीं। ऐसा न हो, आप भैंसिया-जोंक हो जायँ। आजाद ने पीछे फिर कर देखा, तो एक बिगड़े-दिल मजे से बैठे हुक्का पी रहे हैं। बोले, यह क्या अंधेर है भाई? आप रेल ही पर गुड़गुड़ाने लगे और हुक्का भी नहीं, पेचबान। जो कहीं आग लग जाय, तो? मियाँ आजाद के पाँव में तो सनीचर था। दो दिन कहीं टिक जायँ तो तलवे खुजलाने लगें। पतंगबाज के यहाँ चार-पाँच दिन जो जम गए, तो तबीयत घबराने लगी लखनऊ की याद आई। सोचे, अब वहाँ सब मामला ठंडा ...Read Moreगया होगा। बोरिया-बँधना उठाया और शिकरम-गाड़ी की तरफ चले। रेल पर बहुत चढ़ चुके थे, अब की शिकरम पर चढ़ने का शौक हुआ। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। डेढ़ रुपए किराया तय हुआ, एक रुपया बयाना दिया। मालूम हुआ, सात बजे गाड़ी छूट जायगी, आप साढ़े-छह बजे आ जाइए। आजाद ने असबाब तो वहाँ रखा, अभी तीन ही बजे थे, पतंगबाज के यहाँ आ कर गप-शप करने लगे। बातों-बातों में पौंने सात बज गए। शिकरम की याद आई, बचा-खुचा असबाब मजदूर के सिर पर लाद कर लदे-फँदे घर से चल खड़े हुए। मियाँ आजाद शिकरम पर से उतरे, तो शहर को देख कर बाग-बाग हो गए। लखनऊ में घूमे तो बहुत थे, पर इस हिस्से की तरफ आने का कभी इत्तिफाक न हुआ था। सड़कें साफ, कूड़े-करकट से काम नहीं, गंदगी ...Read Moreनाम नहीं, वहाँ एक रंगीन कोठी नजर आई, तो आँखों ने वह तरावट पाई कि वाह जी, वाह! उसकी बनावट और सजावट ऐसी भायी कि सुभान-अल्लाह। बस, दिल में खुब ही तो गई। रविशें दुनिया से निराली, पौदों पर वह जोबन कि आदमी बरसों घूरा करे। बड़ी बेगम साहबा पुराने जमाने की रईसजादी थीं, टोने टोटके में उन्हें पूरा विश्वास था। बिल्ली अगर घर में किसी दिन आ जाय, तो आफत हो जाय। उल्लू बोला और उनकी जान निकली। जूते पर जूता देखा और आग ...Read Moreगईं। किसी ने सीटी बजाई और उन्होंने कोसना शुरू किया। कोई पाँव पर पाँव रख कर सोया और आपने ललकारा। कुत्ता गली में रोया और उनका दम निकल गया। रास्ते में काना मिला ओर उन्होंने पालकी फेर दी। तेली की सूरत देखी और खून सूख गया। किसी ने जमीन पर लकीर बनाई और उसकी शामत आई। रास्ते में कोई टोक दे, तो उसके सिर हो जाती थीं। सावन के महीने में चारपाई बनवाने की कसम खाई थी। मियाँ आजाद हुस्नआरा के यहाँ से चले, तो घूमते-घामते हँसोड़ के मकान पर पहुँचे और पुकारा। लौंड़ी बोली कि वह तो कहाँ गए हैं, आप बैठिए। आजाद - भाभी साहब से हमारी बंदगी कह दो ओर कहो, मिजाज पूछते हैं। लौंडी ...Read Moreबेगम साहबा सलाम करती हैं और फर्माती हैं कि कहाँ रहे? आजाद - इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। लौंडी - वह कहती हैं, हमसे बहुत न उड़िए। यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं। कहिए, आपकी हुस्नआरा तो अच्छी है। यह बजरे पर हवा खाना और यहाँ आ कर बुत्ते बताना। आजाद - आपसे यह कौन कच्चा चिट्ठा कह गया? लौंडी - कहती हैं कि मुझसे भी परदा है? इतना तो बता दीजिए कि बरात किस दिन चढ़ेगी? हमने सुना है, हुस्नआरा आप पर बेतरह रीझ गईं। और, क्यों न रीझें, आप भी तो माशाअल्लाह गबरू जवान हैं। आजाद ने सोचा कि रेल पर चलने से हिंदोस्तान की हालत देखने में न आएगी। इसलिए वह लखनऊ के स्टेशन पर सवार न होकर घोड़े पर चले थे। एक शहर से दूसरे शहर जाना, जंगल और देहात की सैर ...Read Moreनए-नए आदमियों से मिलना उन्हें पसंद था। रेल पर ये मौके कहाँ मिलते। अलारक्खी के चले जाने के एक दिन बाद वह भी चले। घूमते-घामते एक कस्बे में जा पहुँचे। बीमारी से तो उठे ही थे, थक कर एक मकान के सामने बिस्तर बिछाया और डट गए। मियाँ खोजी ने आग सुलगाई और चिलम भरने लगे। इतने में उस मकान के अंदर से एक बूढ़े निकले और पूछा - आप कहाँ जा रहे हैं? मियाँ आजाद और खोजी चलते-चलते एक नए कस्बे में जा पहुँचे और उसकी सैर करने लगे। रास्ते में एक अनोखी सज-धज के जवान दिखाई पड़े। सिर से पैर तक पीले कपड़े पहने हुए, ढीले पाँयचे का पाजामा, केसरिये केचुल ...Read Moreका अँगरखा, केसरिया रँगी दुपल्ली टोपी, कंधों पर केसरिया रूमाल जिसमें लचका टँका हुआ। सिन कोई चालीस साल का। आजाद - क्यों भई खोजी, भला भाँपो तो, यह किस देश के हैं। खोजी - शायद काबुल के हों। आजाद - काबुलियों का यह पहनावा कहाँ होता है। खोजी - वाह, खूब समझे! क्या काबुल में गध
े नहीं होते? दूसरे दिन नौ बजे रात को नवाब साहब और उनके मुसाहब थिएटर देखने चले। नवाब - भई, आबादीजान को भी साथ ले चलेंगे। मुसाहब - जरूर, जरूर उनके बगैर मजा किरकिरा हो जायगा। इतने में फिटन आ पहुँची और आबादीजान छम-छम ...Read Moreहुई आ कर मसनद पर बैठ गईं। नवाब - वल्लाह, अभी आप ही का जिक्र था। आबादी - तुमसे लाख दफे कह दिया कि हमसे झूठ न बोला करो। हमें कोई देहाती समझा है! नवाब - खुदा की कसम, चलो, तुमको तमाशा दिखा लाएँ। मगर मरदाने कपड़े पहन कर चलिए, वर्ना हमारी बेइज्जती होगी। आबादी ने तिनग कर कहा - जो हमारे चलने में बेआबरूई है, तो सलाम। आज तो निराला समाँ है। गरीब, अमीर, सब रँगरलियाँ मना रहे हैं। छोटे-बड़े खुशी के शादियाने बजा रहे हैं। कहीं बुलबुल के चहचहे, कहीं कुमरी के कह-कहे। ये ईद की तैयारियाँ हैं। नवाब साहब की मसजिद का हाल न ...Read Moreरोजे तो आप पहले ही चट कर गए थे, लेकिन ईद के दिन धूमधाम से मजलिस सजी। नूर के तड़के से मुसाहबों ने आना शुरू किया और मुबारक-मुबारक की आवाज ऐसी बुलंद की कि फरिश्तों ने आसमान को थाम लिया, नहीं तो जमीन और आसमान के कुलाबे मिल जाते। दूसरे दिन सुबह को नवाब साहब जनानखाने से निकले, तो मुसाहबों ने झुक-झुक कर सलाम किया। खिदमतगार ने चाय की साफ-सुथरी प्यालियाँ और चमचे ला कर रखे। नवाब ने एक-एक प्याली अपने हाथ से मुसाहबों को दी और सबने ...Read Moreदूधिया चाय उड़ानी शुरू की। एक-एक घूँट पीते जाते हैं और गप भी उड़ाते जाते हैं। मुसाहब - हुजूर, कश्मीरी खूब चाय तैयार करते हैं। हाफिज - हमारी सरकार में जो चाय तैयार होती है, सारी खुदाई में तो बनती न होगी। जरा रंग तो देखिए। हिंदू भी देखे, तो मुँह में पानी भर आए। एक दिन पिछले पहर से खटमलों ने मियाँ खोजी के नाक में दम कर दिया। दिन भर का खून जोंक की तरह पी गए। हजरत बहुत ही झल्लाए। चीख उठे, लाना करौली, अभी सबका खून चूस लूँ। यह हाँक ...Read Moreऔरों ने सुनी, तो नींद हराम हो गई। चोर का शक हुआ। लेना-देना, जाने न पाए। सराय भर में हुल्लड़ मच गया। कोई आँखें मलता हुआ अँधेरे में टटोलता है, कोई आँखें फाड़-फाड़ कर अपनी गठरी को देखता है, कोई मारे डर के आँखें बंद किए पड़ा है। मियाँ खोजी ने जो चोर-चोर की आवाज सुनी, तो खुद भी गुल मचाना शुरू किया - लाना मेरी करौली। ठहर! मैं भी आ पहुँचा। पिनक में सूझ गई कि चोर आगे भागा जाता है, दौड़ते-दौड़ते ठोकर खाते हैं तो अररर धों! गिरे भी तो कहाँ, जहाँ कुम्हार के हंडे रखे थे। गिरना था कि कई हंडे चकनाचूर हो गए। कुम्हार ने ललकारा कि चोर-चोर। यह उठने ही को थे कि उसने आकर दबोच लिया और पुकारने लगा - दौड़ो-दौड़ो, चोर पकड़ लिया। मुसाफिर और भठियारे सब के सब दौड़ पड़े। कोई डंडा लिए है, कोई लट्ठ बाँधे। किसी को क्या मालूम कि यह चोर है, या मियाँ खोजी। खूब बेभाव की पड़ी। सुबह को गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर रुकी। नए मुसाफिर आ-आ कर बैठने लगे। मियाँ खोजी अपने कमरे के दरवाजे पर खड़े घुड़कियाँ जमा रहे थे - आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है क्या मेरे सिर पर बैठोगे? ...Read Moreमें एक नौजवान दूल्हा बराती कपड़े पहने आ कर गाड़ी में बैठ गया। बरात के और आदमी असबाब लदवाने में मसरूफ थे। दुलहिन और उसकी लौंडी जनाने कमरे में बैठाई गई थीं। गाड़ी चलनेवाली ही थी कि एक बदमाश ने गाड़ी में घुस कर दूल्हे की गरदन पर तलवार का ऐसा हाथ लगाया कि सिर कट कर धड़ से अलग हो गया। उस बेगुनाह की लाश फड़कने लगी। स्टेशन पर कुहराम मच गया। सैकड़ों आदमी दौड़ पड़े और कातिल को गिरफ्तार कर लिया। यहाँ तो यह आफत थी, उधर दुलहिन और महरी में और ही बातें हो रही थीं। रेल से उतर कर दोनों, आदमियों ने एक सराय में डेरा जमाया और शहर की सैर को निकले। यों तो यहाँ की सभी चीजें भली मालूम होती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा जो बात उन्हें पसंद आई, वह यह थी ...Read Moreऔरतें बिला चादर और घूँघट के सड़कों पर चलती-फिरती थीं। शरीफजादियाँ बेहिजाब नकाब उठाए मगर आँखों में हया और शर्म छिपी हुई। खोजी - क्यों मियाँ, यह तो कुछ अजब रस्म है? ये औरतें मुँह खोले फिरती हैं। शर्म और हया सब भून खाई। वल्लाह, क्या आजादी है! इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा - जनाब, आज मेला देखने न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय। नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से ...Read Moreको चुराए हुए! नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर। सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई। खोजी ने दिल में ठान ली कि अब जो आएगा, उसको खूब गौर से देखूँगा। अब की चकमा चल जाय, तो टाँग की राह निकल जाऊँ। दो दफे क्या जानें, क्या बात हो गई कि वह चकमा दे गया। ...Read Moreचिड़िया पकड़नेवाले हैं। हम भी अगर यहाँ रहते होते, तो उस मरदूद बहुरूपिए को चचा ही
बना कर छोड़ते। इतने में सामने एकाएक एक घसियारा घास का गट्ठा सिर पर लादे, पसीने में तर आ खड़ा हुआ और खोजी से बोला - हुजूर, घास तो नहीं चाहिए? मियाँ आजाद मिरजा साहब के साथ जहाज की फिक्र में गए। इधर खोजी ने अफीम की चुस्की लगाई और पलंग पर दराज हुए। जैनब लौंडी जो बाहर आई, तो हजरत को पिनक में देख कर खूब खिलखिलाई और बेगम ...Read Moreजाकर बोली - बीबी, जरी परदे के पास आइए, तो लोट-लोट जाइए। मुआ खोजी अफीम खाए औंधे मुँह पड़ा हुआ है। जरी आइए तो सही। बेगम ने परदे के पास से झाँका तो उनको एक दिल्लगी सूझी। झप से एक बत्ती बनाई और जैनब से कहा कि ले, चुपके से इनकी नाक में बत्ती कर। जैनब एक ही शरीर बिस की गाँठ। वह जा कर बत्ती में तीता मिर्च लगा लाई और खोजी की खटिया के नीचे घुस कर मियाँ खोजी की नाक में आधी बत्ती दाखिल ही तो कर दी। उफ! इस वक्त मारे हँसी के लिखा नहीं जाता। जरा ख्वाजा साहब की भंगिमा देखिएगा। वल्लाह, इस वक्त फोटो उतारने के काबिल है। न हुआ फोटो। सुबह का वक्त है। आप खारुए की एक लुंगी बाँधे पीपल के दरख्त के साये में खटिया बिछाए ऊँघ रहे हैं, मगर ...Read Moreभी एक हाथ में थामे हैं। चाहे पिएँ न, मगर चिलम पर कोयले दहकते रहें? इत्तिफाक से एक चील ने दरख्त पर से बीट कर दी। तब आप चौंके और चौंकते ही आ ही गए। बहुत उछले-कूदे और इतना गुल मचाया कि मुहल्ला भर सिर पर उठा लिया। हत तेरे गीदी की, हमें भी कोई वह समझ लिया है। आज चील बन कर आया है। करौली तो वहाँ तक पहुँचेगी नहीं तोड़ेदार बंदूक होती, तो वह ताक के निशाना लगाता कि याद ही करता। खोजी ने एक दिन कहा - अरे यारो, क्या अंधेर है। तुम रूम चलते-चलते बुड्ढे हो जाओगे। स्पीचें सुनीं, दावतें चखीं, अब बकचा सँभालो और चलो। अब चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, हम एक न मानेंगे। चलिए, ...Read Moreकूच बोलिए। आजाद - मिरजा साहब, इतने दिनों में खोजी ने एक यही तो बात पक्की कही। अब जहाज का जल्द इंतिजाम कीजिए। खोजी - पहले यह बताइए कि कितने दिनों का सफर है? आजाद - इससे क्या वास्ता? हम कभी जहाज पर सवार हुए हों तो बताएँ। शाम के वक्त मिरजा साहब की बेगम ने परदे के पास आ कर कहा - आज इस वक्त कुछ चहल-पहल नहीं है क्या खोजी इस दुनिया से सिधार गए? मिरजा - देखो खोजी, बेगम साहबा क्या कह रही हैं। खोजी ...Read Moreकोई अफीम तो पिलवाता नहीं, चहल-पहल कहाँ से हो? लतीफे सुनाऊँ, तो अफीम पिलवाइएगा? बेगम - हाँ, हाँ, कहो तो। मरो भी, तो पोस्ते ही के खेत में दफनाए जाओ। काफूर की जगह अफीम हो, तो सही। खोजी - एक खुशनसीब थे। उनके कलम से ऐसे हरूफ निकलते थे, जैसे साँचे के ढले हुए। मगर इन हजरत में एक सख्त ऐब यह था कि गलत न लिखते थे। सुबह का वक्त था। मियाँ आजाद पलंग से उठे तो देखा, बेगम साहबा मुँह खोले बेतकल्लुफी से खड़ी उनकी ओर कनखियों से ताक रही हैं। मिरजा साहब को आते देखा, तो बदन को चुरा लिया, और छलाँग मारी, तो ...Read Moreकी ओट में थीं। मिरजा - कहिए, आज क्या इरादे हैं? आजाद - इस वक्त हमको किसी ऐसे आदमी के पास ले चलिए, जो तुरकी के मामलों से खूब वाकिफ हो। हमें वहाँ का कुछ हाल मालूम ही नहीं। कुछ सुन तो लें। वहाँ के रंग-ढंग तो मालूम हों। हमें क्या खौफ है, तूफान आवे या बला टूटे। आँख खुल गई तो न बूढ़े मियाँ थे, न किताब। हुस्नआरा फाल-वाल की कायल न थी मगर फिर भी दिल को कुछ तसकीन हुई। सुबह को वह अपनी बहन सिपहआरा से इस ख्वाब का जिक्र कर रही थी कि लौंडी ने आजाद का खत ला कर उसे दिया। शहर से कोई दो कोस के फासले पर एक बाग है, जिसमें एक आलीशान इमारत बनी हुई है। इसी में शाहजादा हुमायूँ फर आ कर ठहरे हैं। एक दिन शाम के वक्त शाहजादा साहब बाग में सैर कर रहे ...Read Moreऔर दिल ही दिल में सोचते जाते थे कि शाम भी हो गई मगर खत का जवाब न आया। कहीं हमारा खत भेजना उन्हें बुरा तो न मालूम हुआ। अफसोस, मैंने जल्दी की। जल्दी का काम शैतान का। अपने खत और उसकी इबारत को सोचने लगे कि कोई बात अदब के खिलाफ जबान से निकल गई हो तो गजब ही हो जाय। इतने में क्या देखते हैं कि एक आदमी साँड़नी पर सवार दूर से चला आ रहा है। समझे, शायद मेरे खत का जवाब लाता होगा। खिदमतगारों से कहा कि देखो, यह कौन आदमी है? खत लाया है या खाली हाथ आया है? आदमी लोग दौड़े ही थे कि साँड़नी सवार हवा हो गया। शाहजादा हुमायूँ फर महरी को भेज कर टहलने लगे, मगर सोचते जाते थे कि कहीं दोनों बहनें खफा न हो गई हों, तो फिर बेढब ठहरे। बात की बात जाय, और शायद जान के भी लाले पड़ जायँ। देखें, ...Read Moreक्या खबर लाती है। खुदा करे, दोनों महरी को साथ ले कर छत पर चली आवें। इतने में महरी आई और मुँह फुला कर खड़ी हो गई। शाहजादा - कहो, साफ-साफ। महरी - हुजूर, क्या अर्ज करूँ! शाहजादा - वह तो हम तुम्हारी चाल ही से समझ गए थे कि बेढब हुई। कह चलो, बस। महरी
- अब लौंडी वहाँ नहीं जाने की। शाहजादा - पहले मतलब की बात तो बताओ कि हुआ क्या? हुस्नआरा और सिपहआरा, दोनों रात को सो रही थीं कि दरबान ने आवाज दी - मामा जी, दरवाजा खोलो। मामा - दिलबहार देखो कौन पुकारता है? दिलबहार - ऐ वाह, फिर खोल क्यों नहीं देतीं? मामा - मेरी उठती है जूती ...Read Moreभर की थकी-माँदी हूँ। दिलबहार - और यहाँ कौन चंदन-चौकी पर बैठा है? दरबान - अजी, लड़ लेना पीछे, पहले किवाँड़े खोल जाओ। मामा - इतनी रात गए क्यों आफत मचा रखी हैं? दरबान - अजी, खोलो तो, सवारियाँ आई हैं। हुस्नआरा - कहाँ से? अरे दिलबहार! मामा! क्या सब की सब मर गईं? अब हम जायँ दरवाजा खोलने? हुस्नआरा की आवाज सुन कर सब की सब एक दम उठ खड़ी हुई। मामा ने परदा करा कर सवारियाँ उतरवाईं। एक दिन हुस्नआरा को सूझी कि आओ, अब की अपनी बहनों को जमा करके एक लेक्चर दूँ। बहारबेगम बोलीं - क्या? क्या दोगी? हुस्नआरा - लेक्चर-लेक्चर। लेक्चर नहीं सुना कभी? बहारबेगम - लेक्चर क्या बला है? हुस्नआरा - वही, जो दूल्हा भाई ...Read Moreमें आए दिन पढ़ा करते हैं। बहारबेगम - तो हम क्या तुम्हारे दूल्हा भाई के साथ-साथ घूमा करते हैं? जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं, क्या पढ़-पढ़के सुनाते हैं। इतना हमको मालूम है कि शेर बहुत कहते हैं। एक दिन हमसे कहने लगे - चलो, तुमको सैर करा लाएँ। फिटन पर बैठ लो। रात का वक्त है, तुम दुशाले से खूब मुँह और जिस्म चुरा लेना। मैंने कानों पर हाथ धरे कि न साहब, बंदी ऐसी सैर से दरगुजरी। वहाँ जाने कौन-कौन हो, हम नहीं जाने के। सवेरे हुस्नआरा तो कुछ पढ़ने लगी और बहारबेगम ने सिंगारदान मँगा कर निखरना शुरू किया। हुस्नआरा - बस, सुबह तो सिंगार, शाम तो सिंगार। कंघी-चोटी, तेल-फुलेल। इसके सिवा तुम्हें और किसी चीज से वास्ता नहीं। रूहअफजा सच कहती हैं कि ...Read Moreइसका रोग है। बहारबेगम - चलो, फिर तुम्हें क्या? तुम्हारी बातों में खयाल बँट गया, माँग टेढ़ी हो गई। हुस्नआरा - है-है! गजब हो गया। यहाँ तो दूल्हा भाई भी नहीं हैं! आखिर यह निखार दिखाओगी किसे? बहारबेगम - हम उठ कर चले जायँगे। तुम छेड़ती जाती हो और यह मुआ छपका सीधा नहीं रहता। हुस्नआरा - अब तक माँग का खयाल था, अब छपके का खयाल है। बहारबेगम - अच्छा, एक दिन हम तुम्हारा सिंगार कर दें, खुदा की कसम वह जोबन आ जाय कि जिसका हक है। आज हम उन नवाब साहब के दरबार की तरफ चलते हैं, जहाँ खोजी और आजाद ने महीनों मुसाहबत की थी और आजाद बटेर की तलाश में महीनों सैर-सपाटे करते रहे थे। शाम का वक्त था। नवाब साहब एक मसनद ...Read Moreशान से बैठे हुए थे। इर्द-गिर्द मुसाहब लोग बैठे हुक्कके गुड़गुड़ाते थे। बी अलारक्खी भी जा कर मसनद का कोना दबा कर बैठीं। जिस जहाज पर मियाँ आजाद और खोजी सवार थे, उसी पर एक नौजवान अंगरेज अफसर और उसकी मेम भी थी। अंगरेज का नाम चार्ल्स अपिल्टन था और मेम का वेनेशिया। आजाद को उदास देख कर वेनेशिया ने अपने शौहर ...Read Moreपूछा - इस जेंटिलमैन से क्योंकर पूछें कि यह बार-बार लंबी साँसें क्यों ले रहा है? एक आलीशान महल की छत पर हुस्नआरा और उनकी तीनों बहनें मीठी नींद सो रही हैं। बहारबेगम की जुल्फ से अंबर की लपटें आती थीं रूहअफजा के घूँघरवाले बाल नौजवानों के मिजाज की तरह बल खाते थे ...Read Moreकी मेहँदी अजब लुत्फ दिखाती थी और हुस्नआरा बेगम के गोरे-गोरे मुखड़े के गिर्द काली-काली जुल्फों को देख कर धोखा होता था कि चाँद ग्रहण से निकला है। एक दिन मियाँ आजाद मिस्टर और मिसेज अपिल्टन के साथ खाना खा रहे थे कि एक हँसोड़ आ बैठे और लतीफे कहने लगे। बोले - अजी, एक दिन बड़ी दिल्लगी हुई। हम एक दोस्त के यहाँ ठहरे हुए थे। ...Read Moreको उनके खिदमतगार की बीबी दस अंडे चट कर गई। जब दोस्त ने पूछा, तो खिदमतगार ने बिगड़ी बात बना कर कहा कि बिल्ली खा गई। मगर मैंने देख लिया था। जब बिल्ली आई तो वह औरत उसे मारने दौड़ी। मैंने कहा - बिल्ली को मार न डालना, नहीं तो फिर अंडे हजम न होंगे। कई दिन तक तो जहाज खैरियत से चला गया, लेकिन पेरिस के करीब पहुँचकर जहाज के कप्तान ने सबको इत्तिला दी कि एक घंटे में बड़ी सख्त आँधी आनेवाली है। यह खबर सुनते ही सबके होश-हवास गायब हो गए। ...Read Moreने हवा बतलाई, आँखों में अँधेरी छाई, मौत का नक्शा आँखों के सामने फिरने लगा। तुर्रा यह कि आसमान फकीरों के दिल की तरह साफ था, चाँदनी खूब निखरी हुई, किसी को सान-गुमान भी नहीं हो सकता था कि तूफान आएगा मगर बेरोमीटर से तूफान की आमद साफ जाहिर थी। लोगों के बदन के रोंगटे खड़े हो गए, जान के लाले पड़ गए या खुदा, जाएँ तो कहाँ जाएँ, और इस तूफान से नजात क्योंकर पाएँ? कप्तान के भी हाथ-पाँव फूल गए और उसके नायब भी सिट्टी-पिट्टी भूल गए। माल्टा में आर्मीनिया, अरब, यूनान, स्पेन, फ्रांस सभी देशों के लोग हैं। मगर दो दिन से इस जजीरे म
ें एक बड़े गरांडील जवान को गुजर हुआ है। कद कोई आध गज का हाथ-पाँव दो-दो माशे के हवा जरा ...Read Moreचले, तो उड़ जायँ। मगर बात-बात पर तीखे हुए जाते हैं। किसी ने जरा तिर्छी नजर से देखा, और आपने करौली सीधी की। न दीन की फिक्र थी, न दुनिया की, बस, अफीम हो, और चाहे कुछ हो या न हो। रात के ग्यारह बजे थे, चारों बहनें चाँदनी का लुत्फ उठा रही थीं। एका-एक मामा ने कहा - ऐ हुजूर, जरी चुप तो रहिए। यह गुल कैसा हो रहा है? आग लगी है कहीं। हुस्नआरा - अरे, वह शोले निकल ...Read Moreहैं। यह तो बिलकुल करीब है। नवाब साहब - कहाँ हो सब की सब! जरूरी सामान बाँध कर अलग करो। पड़ोस में शाहजादे के यहाँ आ लग गई। जेवर और जवाहिरात अलग कर लो। असबाब और कपड़े को जहन्नुम में डालो। बहारबेगम - हाय, अब क्या होगा! हुस्नआरा - हाय-हाय, शोले आसमान की खबर लाने लगे! रात का वक्त था, एक सवार हथियार साजे, रातों-रात घोड़े को कड़कड़ाता हुआ बगटुट भागा जाता था। दिल में चोर था कि कहीं पकड़ न जाऊँ! जेलखाना झेलूँ। सोच रहा था, शाहजादे के घर में आग लगाई है, खैरियत ...Read Moreपुलिस की दौड़ आती ही होगी। रात भर भागता ही गया। आखिर सुबह को एक छोटा सा गाँव नजर आया। बदन थक कर चूर हो गया था। अभी घोड़े से उतरा ही था कि बस्ती की तरफ से गुल की आवाज आई। वहाँ पहुँचा, तो क्या देखता है कि गाँव भर के बाशिंदे जमा हैं, और दो गँवार आपस में लड़ रहे हैं। अभी यह वहाँ पहुँचा ही था कि एक ने दूसरे के सिर पर ऐसा लट्ठ मारा कि वह जमीन पर आ रहा। लोगों ने लट्ठ मारनेवाले को गिरफ्तार कर लिया और थाने पर लाए। शहसवार ने दरियाफ्त किया, तो मालूम हुआ कि दोनों की एक जोगिन से आशनाई थी। आजाद का जहाज जब इस्कंदरिया पहुँचा, तो वह खोजी के साथ एक होटल में ठहरे। अब खाना खाने का वक्त आया, तो खोजी बोले - लाहौल, यहाँ खानेवाले की ऐेसी तैसी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मगर ...Read Moreजरा सी तकलीफ के लिए अपना मजहब न छोड़ेंगे। आप शौक से जायँ और मजे से खायँ हमें माफ ही रखिए। आजाद तो उधर काहिरे की हवा खा रहे थे, इधर हुस्नआरा बीमार पड़ीं। कुछ दिन तक तो हकीमों और डॉक्टरों की दवा हुई, फिर गंडे-ताबीज की बारी आई। आखिर आबोहवा तब्दील करने की ठहरी। बहारबेगम के पास गोमती के ...Read Moreएक बहुत अच्छी कोठी थी। चारों बहनें बड़ी बेगम और घर के नौकर-चाकर सब इस नई कोठी में आ पहुँचे। हुस्नआरा बेगम की जान अजाब में थी। बड़ी बेगम से बोल-चाल बंद, बहारबेगम से मिलना-जुलना तर्क। अस्करी रोज एक नया गुल खिलाता। वह एक ही काइयाँ था, रूहअफजा को भी बातों में लगा कर अपना तरफदार बना लिया। मामा ...Read Moreपाँच रुपए दिए। वह उसका दम भरने लगी। महरी को जोड़ा बनवा दिया, वह भी उसका कलमा पढ़ने लगी। नवाब साहब उसके दोस्त थे ही। हुसैनबख्श को भी गाँठ लिया। बस, अब सिपहआरा के सिवा हुस्नआरा का कोई हमदर्द न था। एक दिन रूहअफजा चुपके-चुपके उधर आईं, तो देखा, कमरे के सब दरवाजे बंद हैं। शीशे से झाँक कर देखा, हुस्नआरा रो रही हैं और सिपहआरा उदास बैठी हैं। रूहअफजा का दिल भर आया। धीरे से दरवाजा खोला और दोनो बहनों को गले लगा कर कहा - आओ, हवा में बैठें। जरीं, मुँह धो डालो। यह क्या बात है! जब देखो, दोनों बहनें रोती रहती हो? रूम पहुँचकर आजाद एक पारसी होटल में ठहरे। उसी होटल में जार्जिया की एक लड़की भी ठहरी हुई थी। उसका नाम था मीडा। आजाद खाना खा कर अखबार पढ़ रहे थे कि मीडा को बाग में टहलते देखा। दोनों ...Read Moreआँखें चार हुईं। आजाद के कलेजे में तीर सा लगा। मीडा भी कनखियों से देख रही थी कि यह कौन आदमी है। आदमी तो निहायत हसीन है, मगर तुर्की नहीं मालूम होता है। मियाँ खोजी पंद्रह रोज में खासे टाँठे हो गए, तो कांसल से जा कर कहा - मुझे आजाद के पास भेज दिया जाय। कांसल ने उनकी दरख्वास्त मंजूर कर ली। दूसरे दिन खोजी जहाज पर बैठ कर कुस्तुनतुनियाँ चले। ...Read Moreमियाँ आजाद अभी तक कैदखाने में ही थे। हमीदपाशा ने उनके बारे में खूब तहकीकात की थी, और गो उन्हें इतमिनान हो गया था कि आजाद रूसी जासूस नहीं हैं, फिर भी अब तक आजाद रिहा न हुए थे।
‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎नई कक्षा! ‎कक्षा बहुत अच्छी लग रही है! ‎नए सुपर मॉन्स्टर्स को बहुत पसंद आएगी! ‎हम उनका स्वागत करना चाहते हैं। ‎बहुत सजावट करनी चाहिए। ‎पकड़ लिया! ‎बचा लिया। ‎तुम ज़रूर लोबो हो। ‎हाँ! और आप ज़रूर मिस मीना होंगी। ‎नई कक्षा को पढ़ाऊँगी। ‎सुनो, दोस्तों, नई टीचर आ गईं! ‎हेलो, मिस मीना! ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स! ‎स्कूल की पहली रात बढ़िया रहे। ‎नई कक्षा के लिए कमरा तैयार करना! ‎तब से अब तक तुम कितना कुछ सीख गए हो। ‎कि नए विद्यार्थियों को कैसा लगेगा। ‎कुछ बच्चों के लिए डरावनी हो सकती है। ‎अरे, हाँ। ‎देखो, ऑलिव आई है! ‎ये लोग अभी हमारे पड़ोस में आए हैं। ‎तुम रह लोगी, ऑलिव! ‎तुम होशियार हो, तुम दयालु हो, तुम हो ‎शानदार! ‎स्कूल बहुत कमाल का होगा! ‎आओ दिखाएँ चीज़ें कहाँ रखनी हैं। ‎धन्यवाद। ‎चलो, डॉयल अंकल! जल्दी करो! ‎कितना अच्छा होगा! ‎हेलो! तुम ज़रूर रॉकी हो। ‎आओ! ‎मिलकर अच्छा लगा! ‎हेलो, रॉकी! ‎मन बदल गया। वापस चलो! ‎कोई बात नहीं। ‎तुम ठीक रहोगे। ‎पर मैं यहाँ किसी को नहीं जानता! ‎रॉकी, मैं हूँ ड्रैक! ‎तुम मेरे साथ रह सकते हो। ‎तुम ड्रैक हो? ‎शानदार है, तुम्हारी अदा में भी ‎अदा होती है! ‎तुम्हारी सभी चीज़ें मिल जाएँगी। ‎पानी की बोतल ओह! ‎मेरे क्रेयॉन, मेरे रंगीन चॉक ‎हमारे स्कूल में बहुत सारी किताबें हैं! ‎और चित्रकारी के कई और सामान हैं! ‎ठीक है। ‎रुको! बूबू बनी को कैसे छोड़ दूँ! ‎बूबू बनी, डरो मत। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी! ‎क्या यह पालतू मॉन्स्टर जानवर है? ‎पर मुझे इससे ख़ुशी मिलती है! ‎हेलो, बच्चों! मैं मीना हूँ। ‎तुम ज़रूर सैमी हो। ‎और ज़ोई। और ज़ोई का भाई, ज़ेन! ‎और यह कौन है? ‎बूबू बनी! ‎यह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। ‎मिलकर ख़ुशी हुई, बूबू बनी। ‎तुम्हें बहुत से नए दोस्त भी मिलेंगे। ‎स्कूल के बाद मिलूँगी। ‎दोस्तों, सैमी और ज़ेन को हेलो बोलो। ‎तुम लोग बिलकुल समय पर आए हो। सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎ऑलिव! ‎रॉकी! ‎सैमी! ‎ज़ेन! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎बढ़िया था। ‎मज़ा आ गया! ‎बेताब हूँ। ‎तुम्हारा मतलब ये? ‎पैर पटको! ‎अच्छा पैर पटकती हो, ऑलिव! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎तुम भी, फ्रैंकी! ‎अरे, बेचारा नन्हा पौधा। ‎वाह! तुम्हारा पौधों का जादू शानदार है! ‎मुझे बर्फ़ का आता है। ‎देखोगी? ‎हाँ। ‎आँखों को ज़्यादा ठंडक दे रहा है। ‎समझी? ठंडक! ‎यह बहुत सुन्दर है, सैमी! ‎धन्यवाद! ‎उफ़! ‎साथ आओ, रॉकी। ये जगह दिखाता हूँ। ‎ज़रूर। ‎मैं आ रहा हूँ। ‎तुम कर सकते हो, रॉकी! ‎तुम कर रहे हो! ‎किसी ने हेनरी को देखा है? ‎वह रहा! ‎मैं उसे नीचे लाता हूँ। ‎धन्यवाद, ज़ेन! ‎तो अब हम स्कूल शुरू करते हैं। ‎अब यह तुम्हारी कक्षा है। ‎वाह! ‎इस साल तुम ऊपर जामुनी कमरे में जाओगे। ‎वाह! ‎जामुनी कमरा सच में है? ‎बिलकुल है! ‎वाह! ‎वाह! जादुई मंत्र का एक अलग कोना? ‎पर उससे शायद गड़बड़ हो जाए। ‎आओ और मिटाओ भूख मेरी! ‎कितना अद्भुत है! ‎बिलकुल! ‎सुपर मॉन्स्टर शक्तियों को बेहतर कर सकें। ‎आपका मतलब, ऐसे? ‎वाह! फ्रैंकीमैश, मॉन्स्टरस्मैश! ‎हाँ! ‎अच्छा! ‎इसका मतलब जाने का समय हो गया। ‎स्पाइक, वीडा, क्लियो, लोबो ‎एक नए कारनामे के लिए तैयार? ‎नया कारनामा? ‎मिलने म्यूज़ियम जाएँगे। ‎वहीं जाएँगे। ‎म्यूज़ियम में मज़ा आएगा पर वह नया नहीं है। ‎सही कहा। ‎वहां कैसे पहुंचें, यह ज़्यादा ज़रूरी है। ‎मेरे पीछे आओ। ‎वाह! ‎एक जादुई आईना! ‎मेरा इंतज़ार करो। ‎मेरा भी। ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स। ‎अच्छा लगा तुम लोग कूद आए! ‎सैमी? तुम कहाँ जा रही हो? ‎स्लेडिंग करने में मज़ा आएगा। ‎उसमें वाक़ई मज़ा आएगा। ‎पर क्यों न तुम हमारे साथ यहीं रहो? ‎हम यहाँ भी बहुत मज़े करेंगे। ‎ठीक है! रहूँगी। ‎उफ़! मैंने इसे तोड़ दिया! ‎रॉकी? ‎कभीकभी ऐसा हो जाता है। ‎मेरी भावनाओं के साथ मेरा रंग बदल जाता है। ‎क्या बात है! ब्लॉक्स में मदद करती हूँ। ‎धन्यवाद, सैमी। तुम बहुत अच्छी हो! ‎ये तो विंगोट हैं! ‎ओहो! फिर से! ‎यह अच्छा है! ‎यह क्या था? ‎बबल और ट्रबल। ‎ड्रैक के पालतू मॉन्स्टर जानवर। ‎अपने जादू से ये कहीं भी जा सकते हैं। ‎मेरे शानदार करतब सह पाती है या नहीं! ‎दोहरी पलटी, आधा घूमना। ‎धन्यवाद! और लोगों को यह पसंद आया! ‎और अब ड्रैक्सटर कोशिश करेगा तीन बार ‎अद्भुत! ‎वाह! ‎यह शानदार था! ‎हेलो, दोस्तों। ‎कैसी गुज़र रही होगी? ‎मैं जाकर देखूँ? ‎हाँ। ‎एकदूसरे को जानने के लिए एक खेल खेलेंगे। ‎मुझे खेल पसंद हैं। ‎मुझे उनसे ख़ुशी मिलती है! ‎अच्छा है! ‎और अपने बारे में कुछ बताने की। ‎और मुझे सुपर मॉन्स्टर्स को पढ़ाना पसंद है। ‎मैं हूँ है। चुटकुले और पहेलियाँ पसंद हैं। ‎क्या एक जैसी ख़ुशबू देता है? ‎तुम्हारी नाक! समझे? ‎मुझे यह चुटकुला बहुत पसंद है। ‎तुम्हारे पास आ रही है, ऑलिव। ‎पकड़ लिया! ‎और मैं बड़ी होकर एक राजकुमारी बनू
ँगी। ‎और एक राष्ट्रपति! एक राजकुमारी राष्ट्रपति! ‎रॉकी, पकड़ो! ‎रुको! मैं तैयार नहीं हूँ! ‎एक अति बहादुर सुपर मॉन्स्टर के लिए है। ‎और मुझ में बहादुरी कुटकुट कर भरी है। ‎अरे। ‎मैं पहुँच क्यों नहीं पा रहा? ‎मुझे ग़ुस्सा आ रहा है! ‎मुझसे एक चीज़ ठीक से नहीं होती! ‎ना तेज़ उड़ पाता हूँ। ना ऊँचा। ‎कोई बात नहीं। ‎तुमने पूरी कोशिश की। ‎चिंता मत करो, रॉकी। मैं लाता हूँ। ‎बढ़िया! ‎कहाँ जा रही हो, सैमी? ‎हेलो, फ्रैंकी। मुझे घर जाना है। ‎याद आ रही है। ‎सैमी, प्लीज़ यहाँ रहकर हमारे साथ खेलो। ‎इस स्कूल में मज़े करने के बहुत से साधन हैं। ‎तो मैं गेंद ज़ोर से नहीं फेंकूँगी। ‎उससे ज़्यादा ताकतवर हूँ। ‎कोई बात नहीं, ऑलिव। ‎मेरे साथ तो ऐसा होता रहता है। ‎हर समय। ‎ताकि शक्तियों का बेहतर इस्तेमाल सीखें। ‎विशेष शक्तियों का इस्तेमाल सीखने आए हो। ‎यह सीखना है उन्हें कब इस्तेमाल नहीं करना। ‎पर फिर भी मज़ा आएगा। ‎जिसे हम तुम्हारे खानों पर टाँगेंगे। ‎अभी करते हैं! ‎अच्छा। आँखें ‎नाक ‎यह सुंदर है! ‎मेरी तरह! ‎ओटमील कुकी भी पसंद आएंगे। ‎मैं सबसे बुरा चित्रकार हूँ! ‎और यह ग़लत रंग है। ‎यह बेहतर है। ‎अरे, लगता है मैं यह धीरेधीरे सीख रहा हूँ। ‎क्या? फिर से? ‎यह ज़मीन कितनी रंगबिरंगी है! ‎वाह! यह मुझे कहाँ लेकर जा रही है? ‎पता चल जाएगा। ‎यह कितना सुंदर और साफ़ है। ‎वाह! मुझे एक चंद्रमा की बग्घी दिख रही है। ‎मुझे भी। ‎हम सब को दिख रही है। ‎यह भी कर सकती है। ‎नए तरीके से इस्तेमाल करना सिखाए। ‎शानदार! ‎यह अद्भुत है! ‎वाह! ‎अरे! तुम दोनों बस भी करो! ‎नहीं! ‎इनके पीछे भागना तो मेरी सूची में नहीं था। ‎चिंता मत करो, मीना। ‎तो आप कुछ भी कर सकती हैं! ‎मुझे यक़ीन है मैं उन्हें पकड़ लूँगी। ‎मैं आई, नन्हें विंगोट! ‎मैं पकड़ता हूँ! ‎वाक़ई। मेरे घर में ऐसा कभी नहीं होता। ‎ओह! माफ़ करना, सैमी। ‎आ जाओ, विंगोट। ‎रॉकी के पास आओ। ‎लगभग पकड़ ही लिया था! ‎मुझसे कोई भी काम नहीं होता। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎काश मैं रॉकी की मदद कर पाती! ‎माफ़ करना। ‎मैं ग़ुस्से को काबू नहीं कर पाया। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎हम सब कभीकभी परेशान हो जाते हैं। ‎कहानी कौन सुनना चाहेगा? ‎कहानी सुनाने में क्या गड़बड़ हो सकती है? ‎और दूसरों को मदद तो नहीं चाहिए। ‎यह अच्छा विचार है, काट्या। ‎हाँ। ‎ओह! रुको ज़रा... सैमी कहाँ है? ‎सैमी? ‎अरे, नहीं! ‎अरे, नहीं! ‎सब कुछ बिलकुल ठीक है। ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎उसे ढूँढ़ने में हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎मीना, तुम्हें कोई मदद चाहिए? ‎काट्या वहाँ क्या कर रही है? ‎और ना ही थियेटर में। ‎पीछे आंगन में भी नहीं है। ‎सब ठीक तो है? ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎वह घर जाने की ज़िद कर रही थी। ‎मुझे डर है, कहीं स्कूल से चली न गई हो। ‎इसमें हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎हमें बताइए कि क्या करना है। ‎सैमी को ढूँढ़ना होगा। ‎शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी। ‎पक्का? ‎सोचसमझकर इस्तेमाल करनी हैं। ‎हाँ, पर अब हमारे सामने बड़ी समस्या है। ‎बड़े हलों की ज़रूरत होती है। ‎पूरी मॉन्स्टर शक्तियाँ लगा दो! ‎वाह! ‎आप मॉन्स्टर हो! ‎बिलकुल हूँ! ‎वाह! और आप उड़ भी सकती हैं! ‎ज़रूर उड़ सकती हूँ। ‎चलो, चल कर सैमी को ढूँढ़ें। ‎क्या हम यह कर लेंगे? ‎हमें अपनी पूरी कोशिश करनी होगी! ‎हमने हर जगह देख लिया। ‎शायद अब हमें ‎बर्फ़ के टुकड़े ! ‎शायद मुझे पता है कहाँ से आ रहे हैं। ‎मेरे पीछे आओ! ‎हाँ! ‎शानदार! ‎यह बर्फ़ कहाँ से आई? ‎वाह! ये बढ़िया है, ऑलिव। ‎धन्यवाद, मुझे पता है! ‎वाह! ‎इस तरफ़ आओ। ‎सैमी शायद यहींकहीं होगी। ‎काश ऐसा ही हो! ‎है न, बच्चों? ‎बिलकुल। ‎सही है। ‎रॉकी, तुमने कर दिखाया। ‎तुमने सैमी को ढूँढ़ लिया। ‎मैंने ढूंढ़ा? ‎मैंने ढूंढ़ लिया। ‎मैं बहुत तेज़ उड़ा! ‎और ऊँचा उड़ा! और मैंने यह कर लिया। ‎मैंने सैमी को ढूँढ़ा! ‎बढ़िया, रॉकी। ‎शाबाश। ‎तुम सुरागों के पीछे गए। ‎और तुम उड़े भी बढ़िया। ‎सैमी! ‎हमें तुम्हारी चिंता हो रही थी। ‎मुझे पता है तुम घर जाना चाहती हो। ‎तो तुम्हें स्कूल अच्छा लगेगा। ‎मुझे स्कूल पसंद है! ‎सच में? ‎तो तुम स्कूल से क्यों निकली? ‎मैं इन लोगों को ढूँढ़ रही थी। ‎बूबू बनी को ले आएँ। ‎पर ये मेरी बात नहीं समझ रहे। ‎सुना तुमने, बबल? ट्रबल? सैमी को मदद चाहिए। ‎चलो, उस बनी को लेकर आएँ। ‎बूबू बनी! तुम ले आए! ‎धन्यवाद, ड्रैक! धन्यवाद, विंगोट! ‎दोबारा। ‎वापस आओ! ‎अरे, नहीं! ‎चिंता मत करो, ड्रैक। मैं लाता हूँ। ‎हाँ! ‎हाँ! ‎धन्यवाद, रॉकी! तुमने बूबू बनी को बचा लिया! ‎तुम इसे खो दो। ‎उससे तुम उदास हो जाती। ‎बहुत उदास हो जाती। ‎मुझे पता है उदास होना कैसा होता है। ‎और परेशान होना। और ख़ुश होना भी। ‎मैं समझती हूँ। ‎और ख़ास तौर पर तुम्हारे लिए। ‎इसीलिए मैं बूबू बनी को लाना चाहती थी। ‎क्यों? ‎ताकि उसे तुम्ह
ारे साथ बाँट सकूँ। ‎और आप चिंता मत करो। ‎घर जाने की कोशिश नहीं करूँगी। ‎और सबसे अच्छी टीचर के साथ! ‎हाँ! ‎वापस स्वागत है! ‎बिलकुल सही समय पर। ‎जो हमने अब तक नहीं किया ‎रिसेस! ‎वाह! ‎काफ़ी रोमांचक रही! ‎वाक़ई! शायद हम सबने बहुत कुछ सीखा। ‎मैंने तो सीखा। ‎मैं बहुत ख़ुश हूँ, मेरे नए दोस्त बने! ‎और पता है सबसे अच्छी चीज़ क्या है? ‎हम कल फिर यही सब करेंगे! ‎सूरज उगा! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎अलविदा! ‎बाद में मिलते हैं! ‎रुको, सैमी! अपना बनी मत भूलो! ‎इसे तुम अपने साथ ले जाओ। ‎बेहतर महसूस नहीं करते। ‎सच में? ‎पर तुम्हें भी इसका साथ पसंद है न? ‎मुझे और भी अच्छा लगेगा। ‎सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎NETFLIX ओरिजिनल सीरीज़ ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎नई कक्षा! ‎नई कक्षा ‎कक्षा बहुत अच्छी लग रही है! ‎नए सुपर मॉन्स्टर्स को बहुत पसंद आएगी! ‎स्कूल की पहली रात ‎हम उनका स्वागत करना चाहते हैं। ‎क्योंकि अच्छी तरह स्वागत करने के लिए ‎बहुत सजावट करनी चाहिए। ‎पकड़ लिया! ‎बचा लिया। ‎तुम ज़रूर लोबो हो। ‎हाँ! और आप ज़रूर मिस मीना होंगी। ‎हाँ! मैं सुपर मॉन्स्टर्स की ‎नई कक्षा को पढ़ाऊँगी। ‎सुनो, दोस्तों, नई टीचर आ गईं! ‎हेलो, मिस मीना! ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स! ‎मैंने एक सूची बनाई है ‎ताकि हमारे नए विद्यार्थियों की ‎स्कूल की पहली रात बढ़िया रहे। ‎पर लगता है, तुम मेरी सूची में शामिल ‎पहली चीज़ कर चुके हो: ‎नई कक्षा के लिए कमरा तैयार करना! ‎बाप रे। जब तुम यहाँ आए थे, ‎तब से अब तक तुम कितना कुछ सीख गए हो। ‎अपने शुरुआती दिन याद करोगे ‎तो समझ पाओगे ‎कि नए विद्यार्थियों को कैसा लगेगा। ‎स्कूल की पहली रात ‎कुछ बच्चों के लिए डरावनी हो सकती है। ‎अरे, हाँ। ‎देखो, ऑलिव आई है! ‎ये लोग अभी हमारे पड़ोस में आए हैं। ‎तुम रह लोगी, ऑलिव! ‎बस हम जो कहते हैं, याद रखना: ‎तुम होशियार हो, तुम दयालु हो, तुम हो... ‎शानदार! ‎स्कूल बहुत कमाल का होगा! ‎आओ दिखाएँ चीज़ें कहाँ रखनी हैं। ‎धन्यवाद। ‎चलो, डॉयल अंकल! जल्दी करो! ‎सुपर मॉन्स्टर्स के साथ स्कूल जाना ‎कितना अच्छा होगा! ‎हेलो! तुम ज़रूर रॉकी हो। ‎आओ! ‎मिलकर अच्छा लगा! ‎हेलो, रॉकी! ‎मन बदल गया। वापस चलो! ‎कोई बात नहीं। ‎तुम ठीक रहोगे। ‎पर मैं यहाँ किसी को नहीं जानता! ‎रॉकी, मैं हूँ ड्रैक! ‎तुम मेरे साथ रह सकते हो। ‎तुम ड्रैक हो? ‎डॉयल अंकल कहते हैं तुम्हारी उड़ान ‎शानदार है, तुम्हारी अदा में भी... ‎अदा होती है! ‎सैमी, मेरा वादा है, सुबह तुम्हें ‎तुम्हारी सभी चीज़ें मिल जाएँगी। ‎पर मुझे मेरी पसंदीदा किताब, ‎और पसंदीदा कंबल चाहिए ‎एक और पसंदीदा किताब, एक और कंबल चाहिए, ‎पानी की बोतल... ओह! ‎मेरे क्रेयॉन, मेरे रंगीन चॉक... ‎हमारे स्कूल में बहुत सारी किताबें हैं! ‎और क्रेयॉन और चॉक ‎और चित्रकारी के कई और सामान हैं! ‎ठीक है। ‎रुको! बूबू बनी को कैसे छोड़ दूँ! ‎बूबू बनी, डरो मत। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी! ‎क्या यह पालतू मॉन्स्टर जानवर है? ‎नहीं, यह एक खिलौना है, ‎पर मुझे इससे ख़ुशी मिलती है! ‎हेलो, बच्चों! मैं मीना हूँ। ‎तुम ज़रूर सैमी हो। ‎और ज़ोई। और ज़ोई का भाई, ज़ेन! ‎और यह कौन है? ‎बूबू बनी! ‎यह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। ‎मिलकर ख़ुशी हुई, बूबू बनी। ‎तुम चाहो तो इसे स्कूल ला सकती हो, ‎पर आज रात ‎तुम्हें बहुत से नए दोस्त भी मिलेंगे। ‎यह लो, मॉमी। मैं आपसे और बूबू से ‎स्कूल के बाद मिलूँगी। ‎दोस्तों, सैमी और ज़ेन को हेलो बोलो। ‎तुम लोग बिलकुल समय पर आए हो। सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎ऑलिव! ‎रॉकी! ‎सैमी! ‎ज़ेन! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎बढ़िया था। ‎मज़ा आ गया! ‎मैं इनकी मॉन्स्टर शक्तियाँ देखने को ‎बेताब हूँ। ‎तुम्हारा मतलब ये? ‎पैर पटको! ‎अच्छा पैर पटकती हो, ऑलिव! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎तुम भी, फ्रैंकी! ‎अरे, बेचारा नन्हा पौधा। ‎वाह! तुम्हारा पौधों का जादू शानदार है! ‎मुझे बर्फ़ का आता है। ‎देखोगी? ‎हाँ। ‎वाह! बर्फ़ से ढका यह फूल ‎आँखों को ज़्यादा ठंडक दे रहा है। ‎समझी? ठंडक! ‎यह बहुत सुन्दर है, सैमी! ‎धन्यवाद! ‎उफ़! ‎साथ आओ, रॉकी। ये जगह दिखाता हूँ। ‎ज़रूर। ‎मैं आ रहा हूँ। ‎तुम कर सकते हो, रॉकी! ‎तुम कर रहे हो! ‎किसी ने हेनरी को देखा है? ‎वह रहा! ‎मैं उसे नीचे लाता हूँ। ‎धन्यवाद, ज़ेन! ‎सब आ गए हैं, ‎तो अब हम स्कूल शुरू करते हैं। ‎ज़ेन, सैमी, रॉकी, ऑलिव, ‎अब यह तुम्हारी कक्षा है। ‎वाह! ‎और पुराने विद्यार्थियों के लिए, ‎इस साल तुम ऊपर जामुनी कमरे में जाओगे। ‎वाह! ‎जामुनी कमरा सच में है? ‎बिलकुल है! ‎वाह! ‎वाह! जादुई मंत्र का एक अलग कोना? ‎मुझे एक मंत्र आज़माना था, ‎पर उससे शायद गड़बड़ हो जाए। ‎स्वाद से भरी नीली बेरी, ‎आओ और मिटाओ भूख मेरी! ‎कितना अद्भुत है! ‎बिलकुल! ‎यह कमरा आप सबकी ‎सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाया गया है, ‎ताकि आप अपनी ‎सुपर मॉन्स्ट
र शक्तियों को बेहतर कर सकें। ‎आपका मतलब, ऐसे? ‎वाह! फ्रैंकीमैश, मॉन्स्टरस्मैश! ‎हाँ! ‎अच्छा! ‎इसका मतलब जाने का समय हो गया। ‎स्पाइक, वीडा, क्लियो, लोबो... ‎एक नए कारनामे के लिए तैयार? ‎नया कारनामा? ‎मुझे लगा हम मिस्टर गैबमोर को ‎मिलने म्यूज़ियम जाएँगे। ‎वहीं जाएँगे। ‎म्यूज़ियम में मज़ा आएगा पर वह नया नहीं है। ‎सही कहा। ‎पर किसी नई जगह जाना ज़रूरी नहीं, ‎वहां कैसे पहुंचें, यह ज़्यादा ज़रूरी है। ‎मेरे पीछे आओ। ‎वाह! ‎एक जादुई आईना! ‎मेरा इंतज़ार करो। ‎मेरा भी। ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स। ‎अच्छा लगा तुम लोग... कूद आए! ‎सैमी? तुम कहाँ जा रही हो? ‎घर। आज आँगन में बर्फ़ का पहाड़ ‎बनाने में और बूबू बनी के साथ ‎स्लेडिंग करने में मज़ा आएगा। ‎उसमें वाक़ई मज़ा आएगा। ‎पर क्यों न तुम हमारे साथ यहीं रहो? ‎हम यहाँ भी बहुत मज़े करेंगे। ‎ठीक है! रहूँगी। ‎उफ़! मैंने इसे तोड़ दिया! ‎रॉकी? ‎कभीकभी ऐसा हो जाता है। ‎मेरी भावनाओं के साथ मेरा रंग बदल जाता है। ‎क्या बात है! ब्लॉक्स में मदद करती हूँ। ‎धन्यवाद, सैमी। तुम बहुत अच्छी हो! ‎ये तो विंगोट हैं! ‎ओहो! फिर से! ‎यह अच्छा है! ‎यह क्या था? ‎बबल और ट्रबल। ‎ड्रैक के पालतू मॉन्स्टर जानवर। ‎अपने जादू से ये कहीं भी जा सकते हैं। ‎ठीक है! देखें, यह जादुई कक्षा ‎मेरे शानदार करतब सह पाती है या नहीं! ‎दोहरी पलटी, आधा घूमना। ‎धन्यवाद! और लोगों को यह पसंद आया! ‎और अब ड्रैक्सटर कोशिश करेगा तीन बार... ‎अद्भुत! ‎वाह! ‎यह शानदार था! ‎हेलो, दोस्तों। ‎ज़ेन की स्कूल में पहली रात ‎कैसी गुज़र रही होगी? ‎मैं जाकर देखूँ? ‎हाँ। ‎एकदूसरे को जानने के लिए एक खेल खेलेंगे। ‎मुझे खेल पसंद हैं। ‎मुझे उनसे ख़ुशी मिलती है! ‎अच्छा है! ‎जिसके पास गेंद जाएगी, ‎उसकी बारी होगी अपना नाम ‎और अपने बारे में कुछ बताने की। ‎मैं शुरू करती हूँ। मेरा नाम मीना है ‎और मुझे सुपर मॉन्स्टर्स को पढ़ाना पसंद है। ‎मैं हूँ है। चुटकुले और पहेलियाँ पसंद हैं। ‎ये सुनो! नाश्ते, लंच और डिनर में ‎क्या एक जैसी ख़ुशबू देता है? ‎तुम्हारी नाक! समझे? ‎मुझे यह चुटकुला बहुत पसंद है। ‎तुम्हारे पास आ रही है, ऑलिव। ‎पकड़ लिया! ‎मेरा नाम ऑलिव है ‎और मैं बड़ी होकर एक राजकुमारी बनूँगी। ‎और एक राष्ट्रपति! एक राजकुमारी राष्ट्रपति! ‎रॉकी, पकड़ो! ‎रुको! मैं तैयार नहीं हूँ! ‎मैं लाता हूँ। यह काम ‎एक अति बहादुर सुपर मॉन्स्टर के लिए है। ‎और मुझ में बहादुरी कुटकुट कर भरी है। ‎अरे। ‎मैं पहुँच क्यों नहीं पा रहा? ‎मुझे ग़ुस्सा आ रहा है! ‎मुझसे एक चीज़ ठीक से नहीं होती! ‎ना तेज़ उड़ पाता हूँ। ना ऊँचा। ‎कोई बात नहीं। ‎तुमने पूरी कोशिश की। ‎चिंता मत करो, रॉकी। मैं लाता हूँ। ‎बढ़िया! ‎कहाँ जा रही हो, सैमी? ‎हेलो, फ्रैंकी। मुझे घर जाना है। ‎बॉल कैच करना मज़ेदार है ‎और बॉल में काफ़ी उछाल भी है, ‎पर मुझे बूबू और घर के बाकी चीज़ों की ‎याद आ रही है। ‎सैमी, प्लीज़ यहाँ रहकर हमारे साथ खेलो। ‎इस स्कूल में मज़े करने के बहुत से साधन हैं। ‎अगर बॉल कैच करना है ‎तो मैं गेंद ज़ोर से नहीं फेंकूँगी। ‎शायद मैं जितना सोचती थी, ‎उससे ज़्यादा ताकतवर हूँ। ‎कोई बात नहीं, ऑलिव। ‎मेरे साथ तो ऐसा होता रहता है। ‎हर समय। ‎इसी कारण से तो हम स्कूल आते हैं ‎ताकि शक्तियों का बेहतर इस्तेमाल सीखें। ‎फ़्रैंकी की बात सही है। तुम यहाँ अपनी ‎विशेष शक्तियों का इस्तेमाल सीखने आए हो। ‎और उसका एक हिस्सा है ‎यह सीखना है उन्हें कब इस्तेमाल नहीं करना। ‎तो... अब कुछ ऐसा जिसके लिए ‎कोई विशेष शक्तियाँ नहीं चाहिए, ‎पर फिर भी मज़ा आएगा। ‎तुम सब अपनीअपनी एक तस्वीर बनाओ ‎जिसे हम तुम्हारे खानों पर टाँगेंगे। ‎अभी करते हैं! ‎अच्छा। आँखें... ‎नाक... ‎यह सुंदर है! ‎मेरी तरह! ‎ग्लोर्ब, अगर तुम्हें यह खाना ‎स्वादिष्ट लग रहा है, ‎तो माँ और मेरे बनाए ‎ओटमील कुकी भी पसंद आएंगे। ‎मैं सबसे बुरा चित्रकार हूँ! ‎और यह ग़लत रंग है। ‎यह बेहतर है। ‎अरे, लगता है मैं यह धीरेधीरे सीख रहा हूँ। ‎क्या? फिर से? ‎यह ज़मीन कितनी रंगबिरंगी है! ‎वाह! यह मुझे कहाँ लेकर जा रही है? ‎पता चल जाएगा। ‎यह कितना सुंदर और साफ़ है। ‎वाह! मुझे एक चंद्रमा की बग्घी दिख रही है। ‎मुझे भी। ‎हम सब को दिख रही है। ‎वाह! मुझे नहीं पता था मेरी ज़ॉम्बी शक्तियाँ ‎यह भी कर सकती है। ‎इस कमरे को इस तरह बनाया गया है ‎कि ये तुम्हें, तुम्हारी मॉन्स्टर शक्तियाँ ‎नए तरीके से इस्तेमाल करना सिखाए। ‎शानदार! ‎यह अद्भुत है! ‎वाह! ‎अरे! तुम दोनों बस भी करो! ‎नहीं! ‎इनके पीछे भागना तो मेरी सूची में नहीं था। ‎चिंता मत करो, मीना। ‎अगर आपको अपने ऊपर भरोसा हो, ‎तो आप कुछ भी कर सकती हैं! ‎मुझे यक़ीन है मैं उन्हें पकड़ लूँगी। ‎मैं आई, नन्हें विंगोट! ‎मैं पकड़ता हूँ! ‎वाक़ई। मेरे घर में ऐसा कभी नहीं होता। ‎ओह! माफ
़ करना, सैमी। ‎आ जाओ, विंगोट। ‎रॉकी के पास आओ। ‎लगभग पकड़ ही लिया था! ‎मुझसे कोई भी काम नहीं होता। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎काश मैं रॉकी की मदद कर पाती! ‎माफ़ करना। ‎मैं ग़ुस्से को काबू नहीं कर पाया। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎हम सब कभीकभी परेशान हो जाते हैं। ‎कहानी कौन सुनना चाहेगा? ‎कहानी सुनाने में क्या गड़बड़ हो सकती है? ‎मंत्र पढ़ना बंद कर, देखती हूँ कि मीना ‎और दूसरों को मदद तो नहीं चाहिए। ‎यह अच्छा विचार है, काट्या। ‎आज की कहानी, "नन्हा बर्फ़ का गोला ‎जो कर सकता था।" ‎हाँ। ‎"एक बार की बात है, ‎एक नन्हा बर्फ़ का गोला था जो ‎बर्फ़ का आदमी बनने के सपने देखता था।" ‎ओह! रुको ज़रा... सैमी कहाँ है? ‎सैमी? ‎अरे, नहीं! ‎अरे, नहीं! ‎सब कुछ बिलकुल ठीक है। ‎मतलब, बिलकुल ठीक हो जाएगा ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎उसे ढूँढ़ने में हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎मीना, तुम्हें कोई मदद चाहिए? ‎काट्या वहाँ क्या कर रही है? ‎वह किचन में नहीं है। ना ही क्लोसेट में ‎और ना ही थियेटर में। ‎पीछे आंगन में भी नहीं है। ‎सब ठीक तो है? ‎हाँ, मतलब, हो जाएगा ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎वह घर जाने की ज़िद कर रही थी। ‎मुझे डर है, कहीं स्कूल से चली न गई हो। ‎इसमें हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎हमें बताइए कि क्या करना है। ‎अच्छा, बच्चों, हम सब को मिलकर ‎सैमी को ढूँढ़ना होगा। ‎मतलब आपको अपनी सारी सुपर मॉन्स्टर ‎शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी। ‎पक्का? ‎आपने कहा था शक्तियाँ ‎सोचसमझकर इस्तेमाल करनी हैं। ‎हाँ, पर अब हमारे सामने बड़ी समस्या है। ‎और बड़ी समस्याओं के लिए ‎बड़े हलों की ज़रूरत होती है। ‎पूरी मॉन्स्टर शक्तियाँ लगा दो! ‎वाह! ‎आप मॉन्स्टर हो! ‎बिलकुल हूँ! ‎वाह! और आप उड़ भी सकती हैं! ‎ज़रूर उड़ सकती हूँ। ‎चलो, चल कर सैमी को ढूँढ़ें। ‎क्या हम यह कर लेंगे? ‎हाँ, कर लेंगे ‎क्योंकि हमारी दोस्त को ‎मदद की ज़रूरत है ‎यह आसान नहीं होगा ‎थोड़ा डर भी लगेगा ‎पर हमें पता है ‎हमारी शक्तियाँ असाधारण हैं ‎तो, चाहे जो भी करना पड़े ‎तैयार हों या नहीं ‎हमें अपनी पूरी कोशिश करनी होगी! ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सफ़ल होने के लिए हमें मिल कर कोशिश करनी है ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सुपर मॉन्स्टर्स आ रहे हैं ‎हमें कोशिश करते रहनी होगी ‎जब आएं मुश्किलें ‎एक दूसरे का सहारा लेना है ‎और कभी हार नहीं माननी ‎पूरा ज़ोर लगाना है ‎हमें और कोशिश करनी है ‎हे, सुपर मॉन्स्टर्स ‎यह ऊँचा उड़ने का समय है ‎हम अपने एक दोस्त को ढूँढ़ रहे हैं ‎अपनी सारी शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सफ़ल होने के लिए हमें मिल कर कोशिश करनी है ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सुपर मॉन्स्टर्स आ रहे हैं ‎हमने हर जगह देख लिया। ‎शायद अब हमें... ‎बर्फ़ के टुकड़े ! ‎शायद मुझे पता है कहाँ से आ रहे हैं। ‎मेरे पीछे आओ! ‎हाँ! ‎शानदार! ‎यह बर्फ़ कहाँ से आई? ‎वाह! ये बढ़िया है, ऑलिव। ‎धन्यवाद, मुझे पता है! ‎वाह! ‎इस तरफ़ आओ। ‎सैमी शायद यहींकहीं होगी। ‎काश ऐसा ही हो! ‎हमें अपनी कक्षा में उसकी कमी खल रही है, ‎है न, बच्चों? ‎बिलकुल। ‎सही है। ‎रॉकी, तुमने कर दिखाया। ‎तुमने सैमी को ढूँढ़ लिया। ‎मैंने ढूंढ़ा? ‎मैंने ढूंढ़ लिया। ‎मैं बहुत तेज़ उड़ा! ‎और ऊँचा उड़ा! और मैंने यह कर लिया। ‎मैंने सैमी को ढूँढ़ा! ‎बढ़िया, रॉकी। ‎शाबाश। ‎तुम सुरागों के पीछे गए। ‎तुमने अच्छा दिमाग़ लगाया, रॉकी, ‎और तुम उड़े भी बढ़िया। ‎सैमी! ‎हमें तुम्हारी चिंता हो रही थी। ‎मुझे पता है तुम घर जाना चाहती हो। ‎पर मुझे यक़ीन है तुम कोशिश करोगी ‎तो तुम्हें स्कूल अच्छा लगेगा। ‎मुझे स्कूल पसंद है! ‎सच में? ‎तो तुम स्कूल से क्यों निकली? ‎मैं इन लोगों को ढूँढ़ रही थी। ‎मैं चाहती थी ये मेरे घर जाकर ‎बूबू बनी को ले आएँ। ‎पर ये मेरी बात नहीं समझ रहे। ‎सुना तुमने, बबल? ट्रबल? सैमी को मदद चाहिए। ‎चलो, उस बनी को लेकर आएँ। ‎बूबू बनी! तुम ले आए! ‎धन्यवाद, ड्रैक! धन्यवाद, विंगोट! ‎दोबारा। ‎वापस आओ! ‎अरे, नहीं! ‎चिंता मत करो, ड्रैक। मैं लाता हूँ। ‎हाँ! ‎हाँ! ‎धन्यवाद, रॉकी! तुमने बूबू बनी को बचा लिया! ‎बचाना ही था। मैं नहीं चाहता था ‎तुम इसे खो दो। ‎उससे तुम उदास हो जाती। ‎बहुत उदास हो जाती। ‎मुझे पता है उदास होना कैसा होता है। ‎और परेशान होना। और ख़ुश होना भी। ‎मैं समझती हूँ। ‎स्कूल की पहली रात ‎मेरे लिए भी बहुत जज़्बाती रही ‎और विंगोट के लिए भी, ‎और ख़ास तौर पर तुम्हारे लिए। ‎इसीलिए मैं बूबू बनी को लाना चाहती थी। ‎क्यों? ‎ताकि उसे तुम्हारे साथ बाँट सकूँ। ‎और आप चिंता मत करो। ‎अब मैं स्कूल के समय ‎घर जाने की कोशिश नहीं करूँगी। ‎मुझे यहाँ अच्छा लगा, अपने नए दोस्त ‎और सबसे अच्छी टीचर के साथ! ‎हाँ! ‎वापस स्वागत है! ‎बिलकुल सही समय पर। ‎मेरी सूची में कुछ है
‎जो हमने अब तक नहीं किया... ‎रिसेस! ‎वाह! ‎हमारा समय कितना अच्छा बीत रहा है ‎हैरान हूँ क्याक्या करूँ ‎यहां सब कमाल का है ‎तुम्हारे साथ खेलना कितना मज़ेदार है ‎दोस्ती तोहफ़ा लगती है ‎दोस्त की मदद करने से सुकून मिलता है ‎मेरा समय कितना अच्छा बीत रहा है ‎हमेशा करने को कुछ नया है ‎सबसे अच्छा समय ‎हैरान हूँ तुम क्याक्या करते हो ‎तुम्हारे और बच्चों के लिए स्कूल की ‎पहली रात ‎काफ़ी रोमांचक रही! ‎वाक़ई! शायद हम सबने बहुत कुछ सीखा। ‎मैंने तो सीखा। ‎मैं बहुत ख़ुश हूँ, मेरे नए दोस्त बने! ‎और पता है सबसे अच्छी चीज़ क्या है? ‎हम कल फिर यही सब करेंगे! ‎सूरज उगा! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎अलविदा! ‎बाद में मिलते हैं! ‎रुको, सैमी! अपना बनी मत भूलो! ‎इसे तुम अपने साथ ले जाओ। ‎तुम्हारे साथ रहेगा जब तक ‎बेहतर महसूस नहीं करते। ‎सच में? ‎पर तुम्हें भी इसका साथ पसंद है न? ‎हाँ, पर एक दोस्त के साथ इसे बाँटकर ‎मुझे और भी अच्छा लगेगा। ‎सुपर मॉन्स्टर्स ‎सुपर मॉन्स्टर्स ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎दिन में हम इंसान हैं ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎रात को मॉन्स्टर्स बन जाते हैं ‎पिचफ़ोर्क पाइन्स में हम सीखते हैं ‎और एक दूसरे को सीखने में मदद करते हैं ‎सूर्यास्त में जादू है ‎तब हम चमकना शुरू करते हैं ‎सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎मैं ड्रैक, उड़ता हूँ तेज़ ‎क्लियो, हवा की शक्ति ‎स्पाइक, ड्रैगन बादल ‎ज़ोई, ज़ोंबी दृष्टि ‎लोबो, सुपर तेज़ ‎काट्या, जादुई मंत्र ‎फ्रैंकी, पैर पटकता हूँ ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎मिलते हैं दोबारा मॉन्स्टर बनने पर
टुकड़ी के साथ एक एजेंट हाथी दाँत की पहरेदारी कर रहा था; पर जंगल की गहराई में, काँपती लाल किरणें गहरे काले रंग की स्तंभों जैसी बिखरी आकृतियों के बीच उठती गिरती लग रही थीं और उन शिविरों की स्थिति दिखला रही थीं, जहाँ मिस्टर कुर्ट्ज़ के भक्त बेचैनी के साथ चौकीदारी कर रहे थे। नगाड़े की एकरस आवाज़ हवा में दबे-दबे झटके और निरंतर कंपन लाती मँडरा रही थी। बहुत सारे लोगों में हरेक अपने ही गरज में अजीब मंत्रोच्चारण-सा कर रहा था और इससे ऐसी एक भिनभिनाती आवाज़ जंगल की अँधेरी सपाट दीवारों में से आ रही थी जैसे बर्रों के छत्ते से आती है और मेरी अधजगी इंद्रियों पर इसका अजीब नशीला प्रभाव पड़ रहा था। मुझे लगता है कि मैं जंगले पर बदन टिकाए सो ही पड़ा था, जब अचानक किसी दबे हुए और रहस्यमय उन्माद के ज़बर्दस्त विस्फोट, फूटती चीखों, से मेरी नींद बौखलाहट भरे अचंभे के साथ टूट गई । झट से वह शोर रुक भी गया और फिर भिनभिनाहट चलती रही, जिससे वही सन्नाटा सुनाई पड़ने लगा और सुकून देता हुआ छा गया। मैंने यूँ ही छोटे कमरे में नज़र दौड़ाई। अंदर प्रकाश जल रहा था, पर मिस्टर कुर्ज वहाँ नहीं था। अपनी आँखों पर मुझे यकीन होता तो मैंने ज़रूर शोर मचाया होता। पर पहले मुझे उन पर विश्वास नहीं हुआ मिस्टर कुर्ट्ज़ का न होना बिल्कुल नामुमकिन लग रहा था। सच यह है कि किसी भी स्पष्ट शारीरिक तकलीफ लाने वाले खतरे से अलग बिल्कुल सादा डर, किसी अमूर्त्त आतंक, से मैं घबरा गया था। यह भावना इतनी गहरी थी कैसे कहूँ - इसलिए कि मुझे नैतिक झटका लगा था, मानो बिना किसी पूर्व आशंका के, सचमुच भयानक कुछ, जिसकी कल्पना भी असहनीय हो और जो आत्मा को कुत्सित लगता हो, मेरे ऊपर थोप दिया गया हो। वैसे यह मनस्थिति बस पल भर को रही और फिर सामान्य कहीं कभी भी हो सकने वाला घातक खतरा, अचानक हमला और हत्या या ऐसा ही कुछ का अहसास आ बैठा। मुझे यह आशंका हुई कि ऐसा कुछ होने ही वाला है। यह सोचना बिल्कुल ठीक और दिलासा देता लगा। सचमुच ऐसा सोचते हुए मैं इतना शांत हो गया कि मैंने शोर तक नहीं मचाया। मुझसे तीन फीट की दूरी पर ही अपने ढीले चोगे में बंद एक एजेंट कुर्सी पर सो रहा था। उन चीखों से वह जगा नहीं था। वह हल्के खर्राटे मार रहा था। मैंने उसे नींद में छोड़ा और उछलकर किनारे उतरा। मैंने मिस्टर कुर्ट्ज़ के साथ गद्दारी न की आदेश था कि मैं उसके साथ विश्वासघात न करूँ लिखित निर्देश था कि मैं अपनी पसंद के दुःस्वप्न के प्रति वफादार रहूँ। इस साए से अकेले जूझने के लिए मैं बेचैन था और आज तक मैं नहीं जानता कि मुझमें इतनी ईर्ष्या क्यों थी कि मैं उस अनुभव के विचित्र अँधेरे पक्ष को किसी के साथ साझा नहीं करना चाहता था। किनारे पर जाते ही मुझे पगडंडी दिखी घास से निकलती चौड़ी पगडंडी। याद आता है कि मैंने खुद से कहा, 'वह पैदल नहीं चल पा रहा। वह चारों पाए चल रहा है अब मैं उसे पकड़ लूँगा।' घास ओंस से गीली पड़ी थी। मैं मुट्ठियाँ भींच कर तेजी से तला। मुझे लगता है कि मेरे मन में उससे टकराने का और उसकी पिटाई करने का अधकचरा खयाल-सा था। मुझे नहीं मालूम। कुछ कच्चे-पक्के विचार मन में थे। इस पूरे मामले में दूसरी ओर बिलाव के साथ कपड़ा बुनती बुढ़िया मेरी स्मृति में बड़ी बाधा बनकर सबसे ग़लत इंसान सी बैठी थी। मैंने कई एजेंट महानुभावों को कूल्हों पर रखी बंदूकों से हवा में गोलियाँ चलाते देखा। मुझे लगा कि मैं स्टीमर पर वापस नहीं जा पाऊँगा और मैंने कल्पना में सोचा कि अब तो बंदूक के बिना ही बड़ी उम्र तक जंगल में रहना है। ऐसी अजीब बातें अब क्या बताएँ। और मुझे याद है कि मैंने नगाड़ों की ताल का सामना अपने दिल की धड़कनों से किया, और मैं खुश था कि वे बेरोक नियमित ढंग से चल रही हैं । पर मैं उसी पगडंडी पर चलता रहा फिर रुक-रुक कर सुनता रहा। रात बिल्कुल साफ थी। ओस और तारों के प्रकाश से जगमगाता नीला अँधेरा अंतरिक्ष, और इसमें काली आकृतियाँ स्तब्ध खड़ी थीं। मुझे लगा जैसे कि मेरे सामने आगे कोई चीज़ हिलती दिख रही थी। अजीब बात थी कि उस रात हर बात के बारे में मैं निश्चिंत था। पगडंडी से भटककर मैं गोल चक्कर काटकर बढ़ता रहा (याद है कि मैं मन ही मन हँस रहा था) ताकि उस हिलती-डुलती आकृति से आगे बढ़ सकूँ - अगर सचमुच मैंने कुछ देखा ही था। मैं कुर्ज को छलने की कोशिश कर रहा था जैसे कि कोई बचपन का खेल हो । मैं उससे टकराया, और, अगर उसने मेरे आने की आवाज़ न सुनी होती तो मैं उस पर गिर पड़ा होता, पर वह वक्त रहते उठ खड़ा हुआ। डगमगाता, लंबा, फीका, अस्पष्ट, मेरे सामने वह उठ खड़ा हुआ मानो धरती के साँस छोड़ने पर भाप निकली हो, और मेरे सामने धुँधला और चुप वह थोड़ा हिला । मेरे पीछे पेड़ों के बीच से आग धधक रही थी। जंगल से कई तरह की आवाज़ों की बड़बड़ाहट सुनाई पड़ रही थी। मैं चालाकी से उसके आगे आ पहुँचा था;
पर यथार्थ में उसका सामना करते हुए मैं होश में वापस आया। मैंने खतरे के असली फैलाव को जाना। अभी तक हम खतरे से बाहर न थे। अगर वह शोर मचाए तो? उससे खड़ा तक न हुआ जा रहा था, पर उसकी आवाज़ में अब भी खासा दम था। 'भागो छिपो, ' उसने अपनी गंभीर आवाज़ में कहा। आवाज़ में आतंक था। मैंने पीछे देखा। बिल्कुल पास की धूनी हमसे तीस गज से कम दूरी पर थी। रोशनी के पार एक काली आकृति उठ खड़ी हुई, लंबी काली बाँहें हिलाती लंबी काली टाँगों पर दौड़ी। मेर खयाल से उसने सींग लगाए हुए थे - हिरण के सींग । कोई शक - नहीं कि वह कोई ओझा या झाड़-फूँक करने वाला था। देखकर भरपूर शैतान लगता था। मैंने फिसफिसाकर पूछा, "आप जानते हैं कि आप क्या कर रहे हैं?" "बिल्कुल," उस एक शब्द के लिए आवाज़ ऊँची करते हुए उसने जवाब दिया। मुझे लगा आवाज़ कहीं दूर से, फिर भी ऊँची आई, जैसे कोई भोंपू का शोर हो। मैंने मन ही मन कहा, 'अगर यह बंदा शोर मचाए, तो हमारी तो शामत आ गई।' मार-लड़ाई करने का कोई मतलब ही नहीं था, वैसे भी मुझे उस साए उस परेशान घुमंतू बंदे की पिटाई करने से स्वाभाविक वितृष्णा थी। "आप खो जाएँगे," मैंने कहा, "बिल्कुल खो जाएँगे।" तुम समझो कि ऐसे वक्त में समझदारी का उफान-सा आता है। मैंने सही बात कही थी, हालाँकि उस पल, जब आखिर तक टिकने वाली - टिकने वाली - या उससे भी आगे तक हमारी आत्मीयता की नींव ढाली जा रही थी, वह सचमुच जितना खोया हुआ था, उससे अधिक न लौट पाने वाली स्थिति तक उसका खो सकना नामुमकिन था। "मैंने बहुत बड़ी योजनाएँ सोची थीं," वह ढुलमुल अहसास में बड़बड़ाया। "हाँ," मैंने कहा, "पर अगर आप शोर मचाएँगे तो मैं इससे आपका सर फोड़ दूँगा, पास कोई डंडा या पत्थर न था, "गला घोंटकर मार डालूँगा," मैंने बात बदलते हुए कहा । "मैं बड़ी सफलताओं के कगार पर था," उसने चाहत भरे स्वर में आग्रह के साथ कहा। उसकी आवाज़ में ऐसी उदासी थी कि मेरा खून जमने लगा। "अब इस बेवकूफ की वजह से "यूरोप में आपकी सफलता पक्की है," मैंने दृढ़ता से हामी भरते हुए कहा। तुम समझ सकते हो कि मैं उसका गला घोंटने से बचना चाहता था वैसे भी उसका कोई व्यावहारिक फायदा न होता। मैंने उस मंत्र को काटने की कोशिश की - जंगल का भारी, मूक, वशीकरण मंत्र - जो उसकी भूली हुई आदिम प्रवृत्तियों को जगाकर, संतृप्त और भयंकर चाहतों की स्मृतियों से उसे अपने निर्दयी सीने में खींच रहा था। मुझे पक्का यकीन था कि यही एक कारण था जो उसे जंगल के कोने तक, झाड़ियों तक, आग की चमक, नगाड़ों की थाप, अजीबोगरीब मंत्रों की भिनभिनाहट की ओर खींच ले गया था। यही एक बात थी जिससे उसकी बागी आत्मा मान्य आकांक्षाओं के पार फँस चुकी थी। अरे तुम समझते हो कि नहीं कि उस वक्त आतंक सिर पर चोट आने का नहीं था - हालाँकि ऐसे खतरे के डर का तीखा ज़िंदा अहसास भी मुझे था बल्कि आतंक इस बात का था कि मुझे ऐसे बंदे का पाला पड़ा था, जिसके साथ ऊँच-नीच की बात कर समझौता नहीं किया जा सकता था। मुझे उन निगरों की तरह उसी का आवाहन करना वह खुद जो अपने असाधारण अधःपतन की पराकाष्ठा में खुश था। न तो उसके ऊपर और न ही नीचे कुछ था और मुझे यह बात मालूम थी। उसने खुद को ज़मीं से उखाड़ लिया था। ऐसे आदमी का सामना! उसने ज़मीं को टुकड़े-टुकड़े कर डाला था। वह अकेला था और उसके सामने मैं इस बात से अनजान था कि मैं ज़मीं पर खड़ा था या कि मैं हवा में तैर रहा था। मैं तुम्हें बतलाता रहा हूँ कि हमने क्या बातें कीं - हमारे कहे मुहावरों को दुहराता रहा पर इससे क्या निकलने वाला है? आखिर वे रोज़ाना के बोलचाल के लफ्ज़ ही थे जागे हुए दैनंदिन जीवन में बार-बार कही जाती हैं। तो क्या हुआ? मेरे विचार में इनके पीछे सपनों में कहे जाते लफ्ज़ या दुःस्वप्नों में कहे गए मुहावरों के अर्थ छिपे थे। आत्मा! अगर किसी एक आदमी ने आत्मा के साथ संघर्ष किया है तो वह मैं हूँ। और मैं किसी पागल से बहस नहीं कर रहा था। मानो या न मानो, उसका दिमाग सोलहो आने दुरुस्त था। यह सही है कि वह बड़ी शिद्दत के साथ खुद ही पर केंद्रित था। मेरे पास बच निकलने की यही एक उम्मीद थी। वैसे दूसरा तरीका था कि मैं उसे कत्ल कर सकता था, पर यह अच्छा न था, क्योंकि इससे आवाज़ तो होनी ही थी। पर उसकी आत्मा विक्षिप्त थी। जंगल में रहकर उसने खुद के अंदर झाँकना शुरू कर दिया था और या खुदा! वह पागल हो चुका था। यह मेरे कर्मों का फल ही होगा कि यह सारा कुछ खुद देखने की पीड़ा से मुझे गुजरना पड़ रहा था। ईमानदारी के उसके आखिरी उद्गार से अधिक मानवता में अपने विश्वास पर सवाल खड़ा करने लायक कोई और तकरीर नहीं हो सकती थी। वह खुद से भी जूझ रहा था मैंने सुना, मैंने देखा। मैंने उस उन्मुक्त, अराजक, निर्भय, पर खुद से ही जूझती आत्मा के अकल्पनीय रहस्य को देखा। मैंने दिमाग ठंडा रखा और जब आखिरकार उसे आरामकुर्सी पर लिटा
दिया, मैंने अपना माथा पोंछा। मेरी टाँगें काँप रही थीं, मानो मैं आधा टन वजन ढोते उस चट्टान से उतरा था, जबकि मैंने उसे बस सहारा भर दिया था। उसकी हड्डियों सी दिखती बाँह मेरी गर्दन पकड़े हुए थी और उसका वजन एक बच्चे से ज्यादा न था। अगले दिन मध्याह्न को जब हम चले, अभी तक दरख्तों के पीछे की जिस भीड़ का तीखा अहसास हर वक्त मुझमें चल रहा था, वह फिर जंगल से निकली। भीड़ ने सारा मैदान भर दिया। नंगे, साँस लेते, काँपते शरीरों से ढलान ढँक गई। मैंने जरा भाप भरी, स्टीमर को आगे की ओर घुमाया और दो हजार आँखों ने उस पानी छलकाते, थापते, भयंकर जल-दानव को अपनी पूँछ से पानी को पीटते और हवा में काला धुँआ छोड़ते देखा। बिल्कुल सामने की कतार में आगे, नदी के समांतर, सिर से पैर तक गाढ़े लाल रंग में पुते हुए तीन लोग बेचैनी से आगे-पीछे होते रहे। जब हम फिर आमने-सामने हुए, उनका चेहरा नदी का ओर था, वे ज़मीं पर पैर पटक रहे थे, अपने सींग पहने सिर हिला रहे थे, उनके बैंगनी शरीर झूम रहे थे। वे भयंकर जल - दानव की ओर एक काले पंखों का गुच्छा और मनकों से सजी हुई पूँछ वाला सूखी लौकी-सा दिखता एक गंदा चमड़ा हिला रहे थे। बीच-बीच में एक साथ अजीब शब्दों की लड़ियाँ बना वे चिल्ला रहे थे, जो किसी भी इंसानी बोली से मेल न खाते थे। अचानक रोकी गई भीड़ की वह बड़बड़ाहट किसी ऐयार के शैतानी मंत्र जैसी प्रतिक्रिया थी। हम लोग कुर्ट्ज़ को पायलट वाले कमरे में ले आए थे। वहाँ हवा अच्छी आ रही थी। आरामकुर्सी पर लेटे हुए, वह खुली शटर से बाहर की ओर देख रहा था। मानव शरीरों के उस समंदर में लहरें उमड़ रही थीं, और सिर पर हेलमेट जैसे जूड़े और भूरे गालों वाली स्त्री धार के बिल्कुल किनारे तक दौड़ आई। उसने अपने हाथ फैलाए, चिल्ला कर कुछ कहा और वह जंगली भीड़, अनरुकी साँस में तेज़ी से गरजती हुई इकट्ठी संयोजित ढंग से चिल्ला उठी। "ये क्या कह रहे हैं, आप समझते हैं? " मैंने पूछा। वह धधकती, चाहत भरी आँखों से, उत्कंठा और नफ़रत की अभिव्यक्ति लिए मुझसे परे कहीं देखता रहा। उसने कोई जवाब नहीं दिया, पर मुझे उस के बेजान होंठों पर एक मुस्कान दिखलाई दी; उस मुस्कान का कोई अर्थ न था। एक पल के बाद वे होठ काँपते हुए फड़कने लगे। "मुझे ही नहीं समझ आएगा? " उसने हाँफते हुए धीरे से कहा, मानो कोई अलौकिक शक्ति उसमें से ये शब्द निकलवा रही थी। मैंने सीटी की रस्सी खींची। मैंने ऐसा इसलिए किया कि मैंने देखा कि डेक पर एजेंट संगीत सुनने-सुनाने के लिए बंदूकें निकाल रहे थे। अचानक उठे भोंपू की आवाज़ से उस भीड़ के समंदर में भारी आतंक की लहर दौड़ गई। डेक पर किसी ने निराशापूर्वक कहा, "अरे नहीं! उनको डराकर भगाओ मत!" मैंने बार-बार रस्सी खींची। वे बिखरते हुए दौड़े, उछले, घुटनों पर चलने लगे, झटके से मुड़े, उस आवाज़ के उड़ते आतंक से बचने की कोशिश करते रहे। लाल रंग पुते तीन लोग लंबलेट ज़मीं पर गिर पड़े थे, जैसे कि किसी ने उन्हें गोली चलाकर मार डाला हो। बस उस अद्भुत जंगली स्त्री ने पलक तक न झपकी, और उसने त्रासद ढंग से उस गंभीर चमकती नदी के ऊपर अपनी बाँहें फैला दीं। तभी डेक पर खड़ी बेवकूफों की भीड़ ने अपना मनोरंजन शुरू कर दिया और धुँए के अलावा मुझे कुछ न दिख रहा अंधकार के जिगर से निकलता भूरा प्रवाह तेज़ी से दौड़ा आया। हम धार पर इस ओर जिस गति से आए थे, उससे दुगुनी गति से चल रहे थे। कुर्ज़ के प्राण भी तेज़ी से धड़क रहे थे। उसकी जान मुर्झा रही थी, जिगर से निकल मुर्झाती हुई काल के अनंत समंदर में खोती जा रही थी। मैनेजर बहुत शांत दिख रहा था। अब उसे विशेष चिंता न थी। उसने हम दोनों को भरपूर और शांत नज़रों से देखा; 'मामला' अपेक्षानुसार ठीक-ठाक निपट गया था। मैं देख रहा था कि 'अनुचित तरीकों वाले समूह में मेरे अकेले के रह जाने का समय करीब आता जा रहा था। एजेंट महानुभावों को मुझसे नाखुशी थी। एक तरह से मुझे मर चुके लोगों में गिना जा रहा था। अजीब ही है कि लालची हैवानों के शिकार इस अँधेरे प्रदेश में मैंने यह अविचारित साझेदारी, बुरे सपनों का यह इंतखाब कैसे किया। कुर्ट्ज़ चर्चाएँ करता रहा। आवाज़ ! अद्भुत आवाज़! अंत तक वह गहरी गूंजती रही। उसके दिल के वीरान अँधेरे में से आती वाक्पटुता की लाजवाब तहों में छिपने की उसकी ताकत से भी ज्यादा उसकी आवाज़ बची रही। ओह! कैसा संघर्ष किया उसने! वह जूझता रहा! उसके थके, मुर्झाते दिमाग में अब सायों में आती तस्वीरें थीं - उत्तम और उद्धत बातों की उसकी अमिट क्षमता को घेर कर चिपकती सी घूमती यश और संपदा की तस्वीरें थीं। मेरी प्यारी, मेरा अड्डा, मेरा पेशा, मेरी योजनाएँ - उसके कभी- कभार उत्तेजित भावनाओं में निकले उद्गार यही थे। आदिम · धरती की तहों में जल्दी ही दफ़न हो जाने उस खोखले बनावटी चरित्र में अक्सर ही असली कुर्ट्ज़ की छवि दिख जाती। पर पैशाचि
क प्रेम, और उनकी वजह से जिन रहस्यों की जड़ों तक वह गया, उनके प्रति अलौकिक नफ़रत, दोनों ही उस अघायी आत्मा को वश करने के लिए जूझ रहे थे, जो झूठी शोहरत, बनावटी फर्क और सफलताओं और ताकत के सभी दिखावों के लिए लालायित, आदिम भावनाओं से भरपूर थी। कभी-कभी वह तिरस्कार लायक बचकानी हरकतें करता। वह माँग करता कि उन भयंकर अनजान इलाकों से जहाँ वह बड़ी सफलताएँ हासिल करना चाहता था, लौटने पर रेलवे स्टेशनों पर राजा आकर उससे मिलें। "उन्हें दिखला दो कि तुम्हारे पास फायदेमंद दक्षता है, तो तुम्हारी योग्यता को स्वीकृति मिलने में कोई कमी न होगी, " वह कहता। "हाँ, अपने मकसद को ज़रूर ध्यान में रखो उद्देश्य सही होने चाहिए हमेशा । " स्टीमर के पास से गुजरते निरपेक्ष पेड़ों के झुंड से भरे एक ही जैसे दिखते विस्तीर्ण प्रांतर, बिल्कुल एक ही जैसे दिखते इकहरे घुमाव, बदलाव, विजय, व्यापार, हत्याओं, सफलताओं के अग्रदूत, किसी और दुनिया के इस कीचड़ सने टुकड़े को धीरज से देखते रहे। मैं स्टीमर चलाता हुआ सामने की ओर देखता रहता। एक दिन कुर्ट्ज़ ने अचानक ही कहा, "शटर बंद कर दो। मुझसे यह देखा नहीं जाता।" मैंने ऐसा ही किया। सन्नाटा फैल गया। अदृश्य जंगल की ओर देखकर वह चीखा, "अभी तो तुम्हारे प्राण-पखेरू दबोचना बाकी है।" जैसा मैंने सोचा था, एक द्वीप के मुहाने पर आकर स्टीमर खराब हो गया और हमें मरम्मत के लिए रुकना पड़ा। इससे हो रही देर से पहली बार कुर्ट्ज़ का मनोबल टूटा। उसने मुझे कागज़ात और फोटुओं भरा एक लिफाफा दिया - सारा कुछ जूतों के फीतों से बाँधा हुआ था। "इनको मेरे लिए सँभाल कर रखना," उसने कहा, "यह बदमाश बेवकूफ (मतलब मैनेजर) जब मेरी नज़र न पड़े तो मेरे बक्से को खोल कर देख सकता है।" दोपहर को मैंने उसे देखा। वह आँखें मूँदे डेक पर लेटा था और मैं चुपचाप पीछे हट गया। पर मैंने उसे बड़बड़ाते सुना, "भली ज़िंदगी जिओ, मर जाओ, मर जाओ..."। मैं सुनता रहा। उसने और कुछ न कहा। क्या वह नींद में किसी भाषण का अभ्यास कर रहा था ? या वह किसी अखबार के लिए तैयार किसी आलेख का कोई वाक्यांश था? वह अखबारों के लिए लिखता था और फिर से लिखना चाहता था ताकि मेरे विचार फैल सकें। यह जिम्मेदारी है।' वह एक ऐसा अँधेरा समाए हुए था, जिसके पार जाना संभव न था। मैंने उसे देखा तो लगा कि मैं ऐसी चट्टान के नीचे लेटे हुए एक आदमी को देख रहा हूँ, जहां सूरज की रोशनी कभी नहीं पहुँचती। पर उसे सँभालने के लिए मैं अधिक वक्त नहीं दे पा रहा था, क्योंकि मुझे इंजिन चालकों को लीक कर रहे सिलिंडरों को खोलने, अलग पुर्जों को जोड़ती छड़ को सीधी करने और ऐसे दूसरे मामलों में मदद करनी पड़ रही थी। मैं ऐसी चीज़ों के नर्क में खोया हुआ था, जंग लगी चीज़ें, धातु का बुरादा, नट, बोल्ट, पाने, हथौड़े, दाँत वाले बरमे, जिनसे मुझे कोई मुहब्बत नहीं और जिनसे मैं नफ़रत करता हूँ। किस्मत से हमारे पास लोहारों वाली एक छोटी भट्ठी थी, जिसे मैं सँभाल रहा था; जब तक कि मैं थकान से गिरने लायक हालत में न पहुँचूँ। मैं बेकार कल-पुर्जों के ढेर में थका हुआ मेहनत कर रहा था। एक शाम जब मैं एक मोमबत्ती लेकर आया, तो मैंने उसे काँपती आवाज़ में कहते सुना, "मैं मौत के इंतज़ार में यहाँ लेटा हुआ हूँ।" रोशनी उसकी आँखों से फुटभर की कम दूरी पर थी। मैंने किसी तरह बड़बड़ाकर कहा, "क्या बकवास है!" और उसके पास मंत्रमुग्ध-सा खड़ा रहा। उसकी शक्ल में जो बदलाव आ रहे थे, मैंने पहले कभी न देखे थे और मुझे उम्मीद है कि फिर कभी देखने न पड़ेंगे। मैं द्रवित नहीं हुआ था। मैं अभिभूत था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई नकाब उठ गया था। हाथी- दाँत जैसे सफेद उस चेहरे पर मुझे गंभीर गौरव, क्रूर ताकत, कायर आतंक कुल मिलाकर एक घनी नाउम्मीदी दिखी। तो क्या उस चरम क्षण में जब पूर्ण ज्ञान मिलता है, वह फिर से सभी चाहतों, लालचों और समझौतों के हर व्यौरे के साथ अपनी ज़िंदगी जी रहा था? किसी साए, किसी झलक की ओर देखते हुए फिसफिसाता हुआ वह चीखा • दो बार वह चीखा, वह ऐसी चीख थी, जो एक साँस भर से ऊँची न थी "दोज़ख़! दोज़ख़!" मैंने बत्ती बुझा दी और केबिन से बाहर निकल आया। सभी एजेंट भोजनागार में खाना खा रहे थे और मैं मैनेजर के उलटी तरफ आकर बैठा। उसने सवालिया नज़र से आँखें उठाकर मुझे देखा और मैं उसे नज़रअंदाज़ करने में सफल हुआ। वह शांत पीछे की ओर झुका। चेहरे पर हैवानियत की छिपी गहराइयों पर परदा डालती विचित्र मुस्कान थी। दिए पर, कपड़ों पर, हमारे हाथों और चेहरों पर छोटी मक्खियों का एक झुंड बराबर बरसता जा रहा था। अचानक मैनेजर के भृत्य ने अपना ढीठ काला सिर दरवाजे के अंदर किया और गहरी नफ़रत भरी आवाज़ में कहा "मिस्टा कुर्ट्ज़ मर गया।" सारे एजेंट देखने के लिए दौड़कर बाहर निकले। मैं बैठा रहा और भोजन करता रहा। मैं जानता हूँ कि इसे बेहद फूहड़पन माना गय
ा। पर मैं ज्यादा नहीं खा पाया। शुक्र यह कि वहाँ एक दिया था बत्ती, है न भयंकर, भयंकर अँधेरा था। मैं उस कमाल के शख्स के पास फिर से नहीं गया, जो धरती पर अपनी आत्मा के दुःसाहसों पर अपनी राय सुना चुका था। वह आवाज़ जा चुकी थी। और वहाँ क्या बचा था? वैसे मुझे यह मालूम है कि अगले दिन एक कीचड़ भरे गड्ढे में एजेंटों ने कुछ दफनाया था। और फिर वे मुझे दफनाने ही वाले थे। पर जैसा तुमलोग देख ही रहे हो, मैं कुर्ट्ज़ का साथ निभाने तुरंत नहीं चल पड़ा। आखिर तक दुःस्वप्न देखने को मैं ज़िंदा रहा ताकि फिर एकबार कुर्ट्ज़ के प्रति अपनी वफादारी दिखा पाऊँ। किस्मत! मेरी नियति! ज़िंदगी भी कैसा परिहास है - तुच्छ मकसदों के लिए निर्दयी तर्कशीलता का रहस्यमय सिलसिला। इससे अधिक से अधिक यही सीखने को मिलता है कि हमें अपने बारे में थोड़ी जानकारी मिल जाती है वह भी बड़ी देर से अनबुझ अफसोसों की फसल। मैं मौत के साथ जूझ चुका हूँ। इससे बढ़कर नीरस कोई और संघर्ष सोचा नहीं जा सकता। यह संघर्ष एक ऐसे अबूझ सियाह माहौल में होता है जो समझ में नहीं आता। इसके दौरान पैरों तले ज़मीं नहीं रहती, आस-पास कुछ नहीं होता, कोई दर्शक नहीं होता, कहीं कोई आवाज़ नहीं आती। इसमें कोई यश नहीं, किसी जीत की कोई गहरी चाहत नहीं, किसी हार का कोई डर नहीं। इसके दौरान बेमन से उगते संशय का बीमार माहौल होता है, अपने वजूद पर कोई यकीन नहीं रहता, और अपने विरोधी पर तो और भी कम होता है। अगर यही आखिरी ज्ञान का स्वरूप है तो ज़िंदगी हमारी कल्पना से भी बड़ी पहेली है। मैं कयामत के दर पर खड़ा था और बड़ी ग्लानि के साथ मैंने जाना कि मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं था। यही कारण है कि मैं यह दर्ज़ करता हूँ कि कुर्ट्ज़ कमाल का आदमी था। उसके पास कहने को कुछ था। उसने कहा। मैं भी जीवन से परे छलाँग लगाने ही वाला था, इसलिए मैं उसकी उन नज़रों को बेहतर समझ पाया, जो मोमबत्ती की लौ को नहीं देख पा रहा थीं, पर समूची कायनात को गले लगाने को पूरी तरह खुली थीं। वे अँधेरे में धड़कते सभी दिलों को छेद रही थीं। उसने सार जान लिया था, उसने राय बना ली थी। "दोज़ख़!" वह कमाल का शख्स था। आखिर यह किसी तरह की आस्था की अभिव्यक्ति ही थी। इसमें साफगोई थी, इसमें आत्म-विश्वास था, अपनी फिसफिसाहट में वह विरोध का काँपता सुर समाए हुए थी। इसमें देखे गए सत्य का भयानक चेहरा था चाहत और नफ़रत का भयानक एकीकरण था। ऐसा नहीं है कि मैंने अपनी पराकाष्ठा को ही बेहतर याद रखा हो, जिसमें कि शारीरिक कष्ट से भरपूर, सियाह निराकार की झलक थी चीज़ की, इस कष्ट की भी क्षणभंगुरता के प्रति सावधानी से रची उपेक्षा थी। नहीं, मैं उसकी पराकाष्ठा को जीता रहा हूँ। यही सच है। उसने वह आखिरी छलाँग लगाई, वह धरती के किनारों को लाँघ गया, जबकि मुझे अपने झिझक भरे पैर वापस मोड़ने की इज़ाजत मिल गई। और शायद इसी में सारा फर्क है; शायद सारी समझ, सारा सच, सारी ईमानदारी समय के उसी निहायत छोटे-से पल में भर दी गई है, जब हम अदृश्य की सीमा को पार कर लेते हैं। शायद! मैं सोचता हूँ कि मेरा यह संक्षिप्त आख्यान नासमझी में की गई अवहेलना न लगा होगा। उसकी चीख बेहतर थी कहीं ज्यादा बेहतर थी। उसमें अनगिनत हार, भयंकर आतंक, घिनौने संतोष से बनी नैतिक जीत थी, स्वीकृति थी। पर वह जीत थी। इसीलिए मैं आखिर तक कुर्ट्ज़ के प्रति वफादार रह गया और आगे भी बना रहा जब लंबे समय के बाद उसकी आवाज़ में नहीं, पर स्फटिक के शिखर जैसी पारदर्शी शुद्ध आत्मा से मुझे उसकी अद्भुत बातों की प्रतिध्वनि फिर एक बार सुनाई दी। नहीं, उन्होंने मुझे दफन नहीं किया, हालाँकि मुझे काँपते हुए अचंभे के साथ धुआँसा-सा याद आता है कि ऐसा वक्त आया था जैसे कि मैं ऐसी अकल्पनीय दुनिया से गुजर रहा था, जहाँ कोई आशा नहीं थी और कोई चाहत न बची थी। उस अवसाद भरे शहर में मैं वापस आ गया था, जहाँ ऐसे लोगों को देखकर मुझे कोफ्त हो रही थी जो एक दूसरे से थोड़े से पैसे हड़पने के लिए, अपना कुख्यात भोजन निगलने, अपनी हानिकर शराब पीने, अपने तुच्छ और मूर्खतापूर्ण सपने देखने के लिए सड़कों पर भागे जा रहे थे। वे मेरे खयालों में अनचाहे घुस आते थे। वे घुसपैठिए थे, जीवन के बारे में जिनकी समझ मुझे परेशान करती दिखावा लगती थी, क्योंकि मुझे पक्का यकीन था कि जो बातें मैं जानता था वे कभी नहीं जान पाएँगे। महज पूरी सुरक्षा के आश्वासन के साथ अपने काम-धाम में लगे सामान्य लोगों की तरह उनका होना, मुझे एक अनजान खतरे के सामने उसे समझने की क्षमता के बिना बेहिसाब मूर्खतापूर्ण सलाहों की बौछार जैसा नापसंद था। उन्हें समझाने की कोई खास इच्छा मुझमें न थी, पर मूर्खतापूर्ण दंभ से भरे उनके चेहरों पर हँसने से मैं खुद को नहीं रोक पाता था। यह कह दूँ कि उस वक्त मैं अस्वस्थ था। मैं सड़कों पर घूमता रहा कई मामले निपटाने थे भले-चं
गे शरीफ़ लोगों पर कड़वी हँसी हँसता रहा। मानता हूँ कि मेरा व्यवहार बदतमीज़ी कहलाएगा, पर उन दिनों मेरी तबियत शायद ही ठीक रही हो। मेरी तबियत को दुरुस्त करने के लिए' मेरी मौसी की कोशिशें नाकामयाब थीं। दरअसल मेरी तबियत नहीं, मेरी सोच को इलाज की ज़रूरत थी। कुर्ट्ज़ ने जो कागज़ात
वह निष्प्रमाणित भी नहीं हुआ है, कारण, आधुनिक विज्ञान न तो मानव-अन्तरात्माके पूर्वजीवनके बारेमें कुछ जानता है, न उत्तरजीवनके बारेमें, वस्तुतः वह तो अन्तरात्माके वारेमें कुछ भी नहीं जानता और न जान ही सकता है, उसका क्षेत्र मांस, मस्तिष्क और स्नायु भ्रूण और उसकी रचना तथा विकासतक ही सीमित है । फिर, आधुनिक आलोचकके पास कोई ऐसा साधन भी नहीं जिससे पुनर्जन्मकी सत्यता या असत्यता स्थापित की जा सके । वस्तुतः आधुनिक आलोचना, सूक्ष्म अनुसंधान और सावधानीभरी सुनिश्चितताका सारा आडम्बर करके भी बहुत निपुण सत्यान्वेषी नहीं; सन्निकट भौत्तिक प्रदेशके वाहर वह असहाय सी रहती है। वह तथ्योंको खोज निकालने में तो कुशल है, परन्तु जहाँ वे तथ्य अपनेसे ही अपने निष्कर्पोको हमारे सामने सतहपर लाकर रख देते हों उससे भिन्न स्थलोंमें उसके पास ऐसा कोई साधन नहीं है जिससे वह तथ्योंके आधारपर निकाले गये उन सर्वसामान्य निष्कर्पोके वारेमें निश्चित हो सके जिन्हें वह एक पीढ़ीमें इतने विश्वासके साथ घोषित करती है और दूसरीमें विल्कुल खंडित । उसके पास ऐसा कोई साधन नहीं जिससे वह निश्चयके साथ किसी संदिग्ध ऐतिहासिक प्रतिपादनकी सत्यता या असत्यताका पता लगा सके; एक शताब्दीके विवादके बाद भी वह ईसा मसीहके अस्तित्वके वारेमें हाँ या ना नहीं कह सकी है। तो वह इस पुनर्जन्म जैसे विषयपर कैसे विचार कर सकती है जो कि मनोविज्ञानकी वस्तु है और जिसका निर्णय भौतिककी अपेक्षा मनोवैज्ञानिक प्रमाणसे ही करना होगा ? समर्थकों और विरोधियों द्वारा सामान्यतः जो युक्तियाँ दी जाती हैं वे प्रायः काफी, निरर्थक होती हैं। वे, अपने अच्छे से अच्छे रूपमें भी, जगत्की किसी भी चीजको प्रमाणित या निष्प्रमाणित करनेके लिये अपर्याप्त ही होती हैं। उदाहरणके लिये, पुनर्जन्मको अप्रमाणित करनेके लिये जिस तर्कको प्रायः जीतके भावसे सामने रखा जाता है वह यह है कि हमें अपने विगत जन्मोंकी याद नहीं है, अतः विगत जीवन थे ही नहीं । यह देखकर हैसी सी आती है कि ऐसे तर्कको वे लोग गंभीरतासे उपस्थित करते हैं जो यह कल्पना करते हैं कि वे वौद्धिक शिशुओंकी अपेक्षा अधिक कुछ हैं । यह तर्क मनोवैज्ञानिक आधारपर आगे बढ़ता है, फिर भी हमारी सामान्य या स्थूल स्मृतिकी प्रकृतिकी ही अवहेलना कर देता है जब कि यह स्मृति ही वह एकमात्र वस्तु है जिसका उपयोग प्राकृत मनुष्य कर सकता है। हमारे वर्तमान जीवनके बारे में कोई संदेह नहीं, किन्तु उसकी भी हमें कितनी बातें याद हैं ? जो समीप है उसके लिये हमारी स्मृति सामान्यतः अच्छी रहती है, पर ज्यों-ज्यों उसके विषयं दूर हटते जाते हैं त्यों-त्यों वह अस्पष्ट या कम व्यापक होती जाती है, और भी दूर होनेपर वह केवल कुछ प्रमुख विन्दुओंको ही पकड़ पाती है और अन्तमें, हमारे जीवनके आरम्भिक कालके विषयमें निरी, रिक्ततामें जा पड़ती है। क्या हमें मांकी छातीपर शिशु-रूपमें रहनेकी सरल अवस्थाकी, सरल वास्तविकताकी स्मृति है ? और फिर भी वह गैंगवावस्था, वौद्ध मतके अतिरिक्त अन्य सभी मतोंके अनुसार, इसी जीवनका अंग और इसी व्यक्तिकी अवस्था थी जिसे उसकी याद वैसे ही नहीं है जैसे उसे अपने विगत जीवनकी याद नहीं हो पाती । तो भी हम यह माँग करते हैं कि यह स्थूल स्मृति, मनुष्यके असंस्कृत मस्तिष्ककी यह स्मृति जिसे हमारे गैशवका स्मरण नहीं और जो हमारे शैशवके बादके वर्षोंकी इतनी सारी बातें खो चुकी है, फिर भी यह याद रखे कि शैशवावस्थासे पहले, जन्मसे पहले, स्वयं उसकी रचनासे पहले क्या था । और यदि वह यह याद नहीं रख सकती, तो हम घोषणा करेंगे, "निष्प्रमाणित हो गया तुम्हारा पुनर्देहधारणका सिद्धान्त ।" हमारी सामान्य मानवीय युक्तिवुद्धिकी अकलमन्द वेअकली इस प्रकारकी तर्कणामें और आगे नजा सकी । स्पष्ट है कि हमें यदि अपने विगत जीवनोंको याद करना है, चाहे वास्तविकता और स्थितिके रूपमें, चाहे उनकी घटनाओं और प्रतिमाओंके रूपमें, तो यह केवल चैत्यिक स्मृतिके जगनेसे ही हो सकेगा जो स्थूलकी सीमाओंको लांघकर स्थूल सत्तापर स्थूल मस्तिष्क-व्यापारकी डाली हुई छापोंमे भिन्न छापोंको फिरसे जीवित करेगी । यदि हमें विगत जीवनोंके वारेमें स्थूल स्मृति या ऐसी चैत्यिक जागृतिके प्रमाण मिल भी जायँ, तो भी इससे सन्देह है कि यह मत पहलेकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रमाणित माना जायगा । आजकल हम ऐसे बहुतसे उदाहरणोंके वारेमें सुनते हैं जो बड़े विश्वास - के साथ उपस्थित किये जाते हैं, परन्तु उनके साथ उन प्रमाणोंकी सामग्री नहीं होती जिनकी सत्यता जाँच ली गयी हो और जिनकी समीक्षा उत्तरदायित्वके भावसे की गयी हो, जब कि उस सामग्रीसे ही चैत्यिक गवेषणाके परिणामोंको गुरुत्व मिलता है । जवतक वे प्रमाण्यके दृढ़ आधारपर न खड़े हों, सन्देहवादी उन्हें मनगढ़न्त कल्पना कहकर सदा आपत्ति उठा सकता है। यदि इस तरह कही गयी वातोंके सत्यकी परीक्षा हो भी जाय, तो भी
यह कहनेका अवकाश रहता है कि वे यथार्थतः स्मृतियाँ नहीं हैं, प्रत्युत कहनेवालेको सामान्य स्थूल साधनों द्वारा ज्ञात थीं या दूसरों द्वारा भुझायी गयी थी और उसने उन्हें या तो चेतन प्रवंचना द्वारा या आत्म-प्रवंचना और आत्म-विभ्रमकी किसी प्रक्रिया द्वारा पिछले जन्मोंकी फिरसे साकार हो उठी निर्दोष स्मृतिमें परिवर्तित कर दिया है। और यदि यह भी मान लें कि प्रमाण इतने सवल और निर्दोष है कि इन परिचित उपायोंसे उनसे पीछा न छुड़ाया जा सके, तो भी यह सम्भव रहता है कि उन्हें पुनर्जन्मके प्रमाणके रूपमें स्वीकार नहीं किया जाय; एक ही तथ्य समुदायके लिये मन सैंकड़ों सैद्धान्तिक व्याख्याएँ खोज सकता है। आधुनिक दृष्टि और अनुसंधानने सभी चैत्यिक सिद्धान्तों और सामान्यीकरणपर इस सन्देहकी छाया डाल दी है । उदाहरणके लिये हम जानते हैं कि स्वचालित लेखन या मृतकोंके सन्देशोंके व्यापारको लेकर यह विवाद उठता है कि वह व्यापार वाहरसे, विदेह मनोंसे आता है या कि अन्दरसे, अवगूढ़ चेतनासे; वह सन्देश- संचार शरीर-मुक्त व्यक्तित्वसे सचमुच और उसी समय आता है या कि वह विचारके पारेंद्रिय संक्रमणकी किसी ऐसी छापका सतहपर उठना है जो उस समय जीवित रहते मनुष्यके मनमेंसे आयी थी परन्तु हमारे अवगूढ़ मनके अन्दर डूबी पड़ी थी । पिछले जन्मोंकी साकार होनेवाली स्मृतिकी साखीके विरुद्ध भी इसी प्रकारके सन्देह किये जा सकते हैं। यह दावा किया जा सकता है कि इनसे हमारे अन्दर एक निश्चित रहस्यमयी क्षमता, एक ऐसी चेतना प्रमाणित होती है जिसे वीती घटनाओंआ कोई अव्याख्येय ज्ञान प्राप्त हो सकता है, परन्तु ये घटनाएँ हमसे भिन्न अन्य व्यक्तित्वोंसे सम्बद्ध होती हैं और उनके बारेमें हमारी यह मान्यता कि वे विगत जीवनोंके हमारे ही व्यक्तित्वकी घटनाएँ हैं, एक कल्पना है, विभ्रम है, या फिर मानसिक भूल-भ्रान्तिके निःसन्दिग्ध व्यापारोंमेंसे उस दशाका उदाहरण है जिसमें हम अपनी देखी हुई उन वस्तुओं और अनुभूतियोंको जो हमारी अपनी नहीं होतीं अपनी ही मान लेते हैं। ऐसीसाखियोंके संग्रह से बहुत कुछ प्रमाणित होगा, किन्तु संशयात्माके लिए तो पुनर्जन्म तो प्रमाणित नहीं हो सकेगा। यदि ये साखियाँ पर्याप्त रूपमें प्रचुर, यथातथ्य, भरपूर और अन्तरंग हो तो ये एक ऐसा वातावरण अवश्य रच देंगी जिसके कारण अन्तमें मानवजाति इसे एक नैतिक निश्चितिके रूपमें सर्वसामान्य स्वीकृति दे देगी । परन्तु प्रमाण एक भिन्न वस्तु है । आखिरकार, जिन चीजोंको हम सच्ची मानते हैं उनमें से अधिकांश यथार्थमें नैतिक निश्चितियोंसे अधिक कुछ नहीं होतीं। हमारा गहरेसे गहरा अडिग विश्वास है कि पृथ्वी अपनी ही धुरीपर घूमती है, परन्तु, जैसा कि एक बड़े फ्रेन्च गणितज्ञने बताया है, यह तथ्य प्रमाणित नहीं हुआ है; यह केवल एक सिद्धान्त है जो कुछ दृश्यमान् तथ्यों की अच्छी तरह व्याख्या करता है, इससे अधिक कुछ नहीं । कौन जानता है कि इसका स्थान इस या किसी अन्य शताब्दीमें इससे एक अधिक अच्छा या अधिक बुरा मत न ले लेगा ? सारे दृश्य खगोलीय व्यापारोंकी व्याख्या गैलीलियोके आनेके पहले ग्रहोंके और न जाने किन-किन अन्य सिद्धान्तों द्वारा भली भाँति होती थी, फिर गैलीलियोका अपने "फिर भी यह गतिशील है" के सिद्धान्तको लेकर आना हुआ जिसने पोप और बाइबिलको, विद्वानोंके विज्ञान और तर्कको निर्मूल माननेकी भावनाको डिगा दिया। यह बात निश्चित-सी है कि यदि हमारी मनोबुद्धि न्यूटनके पूर्ववर्ती प्रदर्शनों द्वारा पूर्वग्रह और पक्षपात से इतनी प्रभावित न होती तो गुरुत्वाकर्षणकी वास्तविकताओंकी व्याख्याके लिये प्रशंसनीय सिद्धान्तोंका आविष्कार किया जा सकता था'। यह यह आइंस्टीन के सिद्धान्तोंके आनेसे पहले लिखा गया था । हमारी बुद्धिका चिर-जटिल और अन्तर्निहित महारोग है; कारण, वह कुछ भी नहीं जाननेसे शुरू करती है और उसे व्यवहार करना होता है अनन्त सम्भावनाओंसे, और जबतक हम यह नहीं जान लेते कि तथ्योंके किसी समुदायके पीछे वस्तुतः क्या है तबतक उन तथ्योंकी सम्भाव्य व्याख्याओंका अन्त नहीं आता । अन्तमें हम वस्तुतः केवल उसे ही जानते हैं जिसे कि हम देखते हैं, लेकिन वहाँ भी कोई सन्देह भूतकी तरह पीछे पड़ा रहता है; उदाहरणके लिये, हरा हरा है और सफेद सफेद, किन्तु यह मालूम होता है कि रंग रंग नहीं, वरन् और कुछ हैं जिससे रंगकी प्रतीति होती है । दृश्य वास्तविकतासे परेके लिये हमें यथोचित तार्किक सन्तोष, प्रमुख सम्भावना और नैतिक निश्चितिसे तुष्ट रहना होगा, -- कमसे कम तबतक जबतक कि हममें यह देखनेकी क्षमता न आ जाय कि हममें इन्द्रियाश्रित बुद्धिसे उच्चतर क्षमताएँ भी है जो विकसित होनेकी प्रतीक्षा कर रही हैं और जिनके द्वारा हम श्रेष्ठतर निश्चितियोंतक पहुँच सकते हैं । संशयान्माके सामने हम पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी ओरसे कोई ऐसी प्रबल सम्भावना या कोई ऐसी निश्चितता प्रतिपादित नहीं कर स
कते। अभी तक जो भी बाह्य साक्ष्य प्राप्त है वह बिलकुल ही प्रारम्भिक है। पाइथागोरस महानतम मुनियोंमेंसे थे, परन्तु उनका यह कथन कि वह द्रवायमें लड़नेवाले एंटिनोरिड नामक व्यक्ति थे और एत्रियसके कनिष्ठ पुत्र द्वारा मारे गये थे दावा मात्र है, और उनका ट्रवायकी ढालको पहचानना किसी ऐसे व्यक्तिको विश्वास न दिला सकेगा जो पहलेसे ही विश्वास न करता हो । अभीतकके आधुनिक साक्ष्य पाइथागोरसके प्रमाणकी अपेक्षा अधिक विश्वासोत्पादक नहीं हैं। बाह्य प्रमाणकी अनुपस्थितिमें, जब कि बाह्य प्रमाण ही हमारी जड़-शासित संवेदनात्मक बुद्धिके लिये एकमात्र निर्णयात्मक प्रमाण है, हमें पुनर्जन्मवादियोंकी यह युक्ति मिलती है कि अबतक उपस्थित किये गये किसी भी मतकी अपेक्षा उनका मत सारे तथ्योंकी व्याख्या अधिक अच्छी तरह करता है। यह दावा ठीक है, परन्तु यह किसी भी प्रकारकी निश्चितता नहीं उत्पन्न करता । पुनर्जन्मका मत, कर्मके सिद्धान्तके साथ मिलकर, हमें चीजोंकी एक सरल सममित, सुन्दर व्याख्या देता है; परन्तु, इसी तरह, ग्रहोंके सिद्धान्तने भी हमें कभी व्योमकी गतिविधिकी एक सरल, सममित, सुन्दर व्याख्या दी थी। फिर भी हमें अभी एक विलकुल ही अलग व्याख्या मिली है जो कहीं अधिक जटिल है, अपनी सममिततामें कहीं अधिक गोथिक शैलीवाली और डॉवाडोल है, अस्तव्यस्त अनन्तताओंमेंसे विकसित एक अव्याख्येय व्यवस्था है, और उसे हम इस विषयका सत्य मानते हैं । किन्तु फिर भी, यदि हम विचार मात्र करें, तो शायद देखेंगे कि यह भी समूचा सत्य नहीं है; पर्देके पीछे इससे बहुत अधिक ऐसा कुछ है जिसे हम अभीतक नही खोज सके हैं। अतः पुनर्शरीरधारणके सिद्धान्तकी सरलता, सममितता, सुन्दरता और सन्तोषकारिता उसकी निश्चितताका परवाना नहीं । जब हम व्योरोंमें जाते हैं तो अनिश्चितता बढ़ जाती है । उदाहरणके लिये, पुनर्जन्मसे प्रतिभा, अर्न्तजात क्षमता और कितने ही अन्य मनोवैज्ञानिक रहस्योंके व्यापारोंकी व्याख्या होती है। परन्तु तब विज्ञान अपनी आनुवंशिकताकी सर्वपर्याप्त व्याख्या लेकर प्रवेश करता है, -- किन्तु पुनर्जन्मकी भाँति यह व्याख्या भी केवल उन्हींके लिये सर्वपर्याप्त होती है जिन्हें उसपर पहलेसे विश्वास हो । इसमें सन्देह नहीं कि आनुवंशिकताके दावोंको अनुचित रूपसे बहुत ही बढ़ा-चढ़ा दिया गया है। वह हमारी शारीरिक रचना, हमारी प्रकृति, हमारी प्रणिक विशेषताओंके सब कुछकी तो नहीं, बहुत कुछकी ही व्याख्या करनेमें सफल हुई है। उसका प्रतिभा, अन्तर्जात क्षमता और उच्च प्रकारके अन्य मनोवैज्ञनिक व्यापारोंकी व्याख्या करनेका प्रयत्न मिथ्याभिमानी वैफल्य है । परन्तु इसका कारण यह हो सकता है कि हमारे मनःस्वरूपमें जो कुछ मूलभूत है उसका विज्ञानको पता नहीं हो, - - वैसे ही जैसे कि आदिकालीन खगोलवेत्ताओंको उन नक्षत्रोंकी रचना और विधानका ज्ञान नहींके बराबर था जिनकी गतिविधिका वे काफी ठीक-ठीक अवलोकन कर सके थे । ऐसा नहीं लगता कि विज्ञान जब अधिक और ज्यादा अच्छी तरह जान लेगा तब भी वह इन चीजोंकी व्याख्या आनुवंशिकतासे कर सकेगा; परन्तु वैज्ञानिक यह तर्क भली भाँति कर सकता है कि वह अभी तो अपने अनुसंधानोंके आरम्भमें ही है, उसके जिस सामान्य सिद्धान्तोंने इतनी चीजोंकी व्याख्या कर दी है वह सबकी व्याख्या भी भली भाँति कर सकेगा और, चाहे कुछ भी हो, प्रमाण्य तथ्योंके साधनकी दृष्टिसे उसकी प्राक्कल्पनाको पुनर्शरीरधारणके सिद्धान्तकी तुलनामें अधिक अच्छा आरम्भ मिला है । तो भी, यहाँतक पुनर्शरीरधारणवादीका तर्क अच्छी और आदरणीय युक्ति है, भले ही निर्णयात्मक नहीं। परन्तु एक दूसरी युक्ति जो अधिक जोर-शोरसे उपस्थित की जाती है, कमसे कम, जिस रूपमें वह सामान्यतः अपक्व मनको आकर्षित करनेके लिये उपस्थित की जाती है उसमें, - वह मुझे उस विरोधी युक्तिके वराबर लगती है जो स्मृतिके अभावके सहारे पेश की जाती है । यह वह नैतिक युक्ति है जिससे जगत्के प्रति ईश्वरके व्यवहार या जगत्के अपने-आपके प्रति व्यवहारका समर्थन करनेका प्रयत्न किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जगत्के लिये अवश्य ही कोई नैतिक शासन होना चाहिए या, कमसे कम, विश्वमें पुण्यके बदले पुरस्कारका और पापके बदले दण्डका कोई विधान होना चाहिए । परन्तु हमारी संभ्रमित और अस्तव्यस्त पृथ्वीपर ऐसा कोई दण्ड या पुरस्कारका विधान नहीं दिखायी देता । हम देखते हैं कि भला आदमी कष्टकी चक्कीमें पीसा जाता है और दुष्ट व्यक्ति जयपत्रके हरेभरे वृक्षकी तरह फलता फूलता है और जब उसका अन्त आता है तो उसे बुरी तरह काटकर फेंक नहीं दिया जाता। किन्तु यह तो असह्य है । यह क्रूर असंगति है, ईश्वरकी बुद्धिमत्ता और न्यायशीलतापर आक्षेप है, लगभग इस बातका प्रमाण है कि ईश्वर हैं नहीं; हमें इसका उपचार करना ही होगा। और यदि ईश्वर नहीं हैं तो हमारे लिये सदाचारका कोई और विधान होना ही चाहिये । कितना सुखकर हो यदि
हम भले आदमीकी पहचान और उसके भलेपनका माप भी इसके द्वारा कर सकें कि उसे अपने पेटमें डालनेके लिये कितना घी मिलता है और बैंकमें वह कितने खनखनाते रूपये जमा कर सकता है और उसे कौन-कौनसे विभिन्न सौभाग्य प्राप्त हैं, -- कारण, क्यां परमेश्वरको कड़ा और सम्माननीय लेखाकार नहीं होना चाहिए ? हाँ, और यह भी कितना सुखकर होगा यदि हम दुष्टको सारे लुकावछिपावसे बाहर निकालकर उसपर अंगुली उठा सकें और चीख सकें, "रे दुष्ट व्यक्ति ! तू यदि बुरा न होता तो ईश्वर द्वारा या, कमसे कम, शुभ द्वारा शासित जगत्में इस भाँति चिथड़ोंमें, भूखा, अभागा, शोकग्रस्त, मनुष्योंके बीच आदरसे वंचित क्यों रहता ? हाँ, तेरी दुष्टता प्रमाणित हो गयी है, कारण, तू चिथड़ोंमें है । ईश्वरका न्याय स्थापित हो गया है।" सौभाग्यसे परम प्रज्ञा मनुष्यके वचकानेपनकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् और श्रेष्ठतर है, अतः ऐसा होना असम्भव है । परन्तु हम एक बातसे सान्त्वना ले सकते है । ऐसा लगता है कि यदि भले आदमीको पर्याप्त सौभाग्य, घी और रूपये नहीं मिले हैं, तो इसका कारण यह है कि वह यथार्थमें बहुत दुष्ट व्यक्ति है जो अपने अपराधोंके बदले कष्ट पा रहा है, परन्तु वह अपने गत जीवनमें ही दुष्ट था जो अपनी मांके पेटमें अकस्मात् परिवर्तित हो गया; और यदि वह सामने आता दुष्ट फल-फूल रहा है और जगत्को गौरवसे रौंद रहा है तो यह उसके भलेपनके कारण है, एक विगत जीवनके भलेपनके कारण, उस समयका वह सन्त बादमें बिलकुल बदलकर, -- क्या पुण्यकी कालिक निःसारताके कारण हो ? -- पाप सम्प्रदायमें आ गया है । तो अव सब कुछकी व्याख्या हो गयी, हर चीजका औचित्य प्रमाणित हो गया । हम अपने पापोंके लिये दूसरे शरीरमें कष्ट पाते हैं, हम अपने इस शरीरके पुण्योंके लिये अन्य शरीरमें पुरस्कृत होंगे; और इसी भाँति अनन्त काल चलता रहेगा। कोई आश्चर्य नहीं कि दार्शनिकोंको यह धन्धा जैचा नहीं और उन्होने पाप और पुण्य दोनोंसे छुटकारा पानेके लिये, यहाँ तक कि हमारे सर्वोच्च शुभके रूपमें, यह प्रस्ताव रखा कि इतने विस्मयकारी रूपसे शासित जगत्मेंसे किसी भाँति बाहर निकल भागा जाय । यह स्पष्ट है कि यह व्यवस्था प्राचीन आध्यात्मिक भौतिक रिश्वत और धमकीका, भलोंके लिये दीर्घ सुखोंके स्वर्ग और दुष्टोंके लिये शाश्वत आग या पाशविक उत्पीड़न के नरकका ही एक भिन्न रूप है । जगत्के विधानके बारेमें यह भाव कि वह प्रमुखतः पुरस्कार और दण्डका निर्वाहक है, परम पुरुषके बारेके इस भावका सगोत्र है कि वह न्यायाघीश, पिता और विद्यालय के शिक्षककी तरह है जो अपने अच्छे बच्चोंको हमेशा मिठाईयाँ बाँटता और नटखट छोकरोंको बराबर सोंटी लगाता रहता है । यह उस वर्बर और अन्यायी प्रणालीका भी सगोत्र है जिसमें सामाजिक अपराधोंके लिये नृशंस और अपमानजनक दण्ड दिया जाता है और जिसपर मानव समाज अभी भी आधारित है। अपने आपको अधिकाधिक ईश्वरके प्रतिरूपमें घड़नेके स्थानपर मनुष्य निरन्तर ईश्वरको ही अपने प्रतिरूपमें घड़नेका आग्रह करता है, और ये सारे भाव हमारे अन्दर रहनेवाले बालक, वर्वर और पशुके प्रतिविम्ब है जिन्हें रूपान्तरित करने या जिनसे आगे बढ़नेमें हम अभी तक विफल रहे हैं । यदि यह इतना अधिक स्पष्ट न होता कि मनुष्य अपने भूतकालके कड़े-करकटको अपने ज्ञानियोंके गंभीरतर विचारोंके साथ टॉक देनेके विलाससे अपने आपको वंचित नहीं रखना चाहता तो हमें यह आश्चर्य होता कि ये बालवत् कल्पनाएँ बौद्ध और हिन्दू धर्म जैसे गंभीर दार्शनिक धर्मोमें कैसे प्रवेश कर गयीं । चूँकि ये विचार इतने अधिक प्रमुख रहे थे अतः मानवजातिको प्रशिक्षित करनेमें उनकी उपयोगिता निस्सन्देह रही होगी । शायद यह भी सत्य है कि परमेश्वर शिशुअन्तरात्माके साथ उसके वालकपनके अनुसार ही व्यवहार करता है और भौतिक शरीरकी मृत्युके बाद भी कुछ समयतक उसे अपनी स्वर्ग और नरक-सम्बन्धी संवेदनात्मक कल्पनाएँ जारी रखने देता है । शायद इस जीवनके वादके जीवन और पुनर्जन्मको दण्ड और पुरस्कारके क्षेत्रोंके रूपमें माननेकी आवश्यकता थी क्योंकि वे हमारी अर्धमनोभावापन्न पशुवृत्तिके लिए उपयुक्त थे । परन्तु एक विशेष स्थितिके बाद इस प्रणालीका कार्यकर प्रभाव जाता रहता है। मनुष्य स्वर्ग और नरकमें विश्वास करते हैं, परन्तु मजेसे पाप करते जाते हैं, अन्तमें पोपकी दया या पादरी द्वारा अन्तिम पापमोचन या मृत्यु- शय्याके पश्चात्ताप या गंगा स्नान या वाराणसीकी पावन मृत्यु द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, हम अपने वचपनसे ऐसे बचकाने उपायों द्वारा छुटकारा पाते हैं ! और अन्तमें मन वयस्क हो जाता है और शिशुकक्षकी सारी अनर्थक वातोंको तिरस्कारसे दूर हटा देता है । पुनर्जन्मका पुरस्कार और दण्डका सिद्धान्त यदि अपेक्षाकृत कुछ उन्नत है या, अन्ततः, कम अपरिष्कृत रूपसे सनसनी पैदा करता है, तो भी वह उतना ही प्रभावहीन निकलता है। और ऐसा होना अच्छा भी है। कारण, य
ह बात असह्य है कि दिव्य सामर्थ्यवाला मनुष्य पुरस्कारके लिये पुण्यात्मा बने और भयके कारण पापको छोड़े। स्वार्थी कायर या ईश्वरके साथ क्षुद्र मोलतोल करने वालेकी अपेक्षा सवल पापी होना बेहतर है; उसमें अधिक दिव्यता होती है, ऊपर उठनेकी अधिक क्षमता होती है । गीताने सत्य ही कहा है, कृपणाः फलहेतवः । और यह अकल्पनीय है कि इस विशाल और तेजस्वी जगत्की योजना इन तुच्छ और निकृष्ट हेतुओंपर आधारित हो । इन मतोंमें विवेक है ? तो वह शिशुकक्षका विवेक है बचकाना है । सदाचार - नीति ? तो वह सदाचार-नीति कीचड़की है, पंकिल है । पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी सच्ची भित्ति अन्तरात्माका क्रमविकास, या यूँ कहें, उसका जड़तत्त्वके पर्देसे प्रस्फुटन और उसकी क्रमिक आत्म-प्राप्ति है । बौद्ध धर्मने इस सत्यको अपने कर्म और कर्म-निवृत्तिके सिद्धान्तमें प्रच्छन्न रूपसे तो समाविष्ट रखा था, परन्तु वह उसे प्रकाशमें लानेमें असफल रहा; हिन्दू धर्मने इसे पुरातन कालसे ही जाना था, परन्तु बादमें उसकी भावव्यंजनामें वह सही सन्तुलनको खो बैठा । अव हम फिरसे उसी प्राचीन सत्यको एक नयी भाषामें कहनेमें समर्थ हुए हैं और कुछ विचारपंथ' ऐसा कर भी रहे हैं, किन्तु पुरानी पपड़ियाँ अभी तक गंभीरतर बुद्धिमत्ताके साथ जुड़ी रहना चाहती हैं। और यदि यह क्रमिक प्रस्फुटन सच है तो पुनर्जन्मका सिद्धान्त एक बौद्धिक आवश्यकता है, तर्कणामें अनिवार्य उपपरिणाम है । परन्तु उस विकासक्रमका लक्ष्य क्या है ? रूढ़िगत या सकाम पुण्य नहीं, किसी संविभाजित भौतिक पुरस्कारकी आशामें अच्छाईकी छोटी-छोटी मुद्राओंकी ठीक-ठीक गिनती नहीं, वरन् दिव्य ज्ञान, वल, प्रेम और शुचिताकी निरन्तर वृद्धि । ये वस्तुएँ ही यथार्थ पुण्य हैं और यह पुण्य अपना पुरस्कार आप ही है । प्रेमके कार्योका एकमात्र सच्चा पुरस्कार है आत्माके सर्वग्राही आलिंगन और विश्वानुरागके उल्लासके मिलनेतक प्रेमके आनन्द और सामर्थ्य में सदा वर्द्धित होते जाना; सम्यक् ज्ञानके कर्मोकाएकमात्र पुरस्कार है अनन्त ज्योतिकी ओर निरन्तर वर्द्धित होते जाना; सम्यक् शक्तिके कर्मोका एकमात्र पुरस्कार है दिव्य शक्तिको अधिकाधिक धारण करना और शुचिताके कर्मोका एकमात्र पुरस्कार है अहंसे अधिकाधिक मुक्त होकर उस निर्मल विशालतामें पहुँचना जहाँ सभी वस्तुएँ दिव्य समतामें रूपान्तरित और समन्वित हो जाती है। कोई और पुरस्कार खोजना मूर्खता और बालेय अज्ञानके साथ वैव जाना है; और इन चीजोंको भी पुरस्कारके रूपमें देखना अपक्वता और अपूर्णता है । अव सुख और दुःख, समृद्धि और दुर्भाग्यकी वात ? ये अन्तरात्माके प्रशिक्षणमें उसके अनुभव हैं, उसके लिये सहायक, अवलम्ब, साधन, अनुशासन, कठोर परीक्षाएँ हैं, - और प्रायः समृद्धि दुःखकी अपेक्षा अधिक कठिन परीक्षा है। वस्तुतः, विपदा और कष्टको प्रायः पापके दण्डकी अपेक्षा पुण्यका पुरस्कार माना जा सकता है, क्योंकि अपने प्रस्फुटनके लिये संघर्ष करनेवाले अन्तरात्माका वह सबसे बड़ा सहायक और शोधक सिद्ध होता है। उसे केवल न्यायावीशका कठोर निर्णय, उत्तेजित शासकका क्रोध या बुराईके कारणपर बुराईके परिणामका यान्त्रिक प्रतिक्षेप मानना अन्तरात्माके प्रति ईश्वरके व्यवहारों और उसके विकासक्रमके नियमके बारेमें ऐसी दृष्टि है जिससे अविक छिछली दृष्टि सम्भव नहीं। और, जागतिक वैभव घन और सन्तानकी, कला, सौन्दर्य तथा शक्तिके वाह्य भोगकी बात ? यदि वे अन्तरात्माको हानि पहुँचाए बिना प्राप्त हो सकें और उनका भोग इस भाँति किया जा सके कि वे हमारे भौतिक जीवनपर दिव्य हर्प तथा कृपाकी बाढ़ हैं तो अच्छा है। परन्तु पहले हमें उनकी खोज दूसरोंके लिये, वल्कि सबके लिये करनी चाहिये, और अपने लिये केवल वैशव अवस्थाके अँगके रूपमें या पूर्णताको समीपतर लानेके साधनके रूपमें अन्तरात्माको जैसे अपनी अमरताके प्रमाणकी आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही अपने पुनर्जन्म प्रमाणकी भी नहीं। क्योंकि एक समय आता है जब वह चेतन रूपसे अमर और अपने शाश्वत तथा अक्षर सारतत्वके प्रति सवोघ रहता है। एक वार यह उपलब्धि हो जाय तो अन्तरात्माकी अमरताके पक्ष और विपक्ष में होनेवाले सारे वौद्धिक प्रश्न स्वयंसिद्ध और नित्य विद्यमान सत्यके सामने अज्ञानके व्यर्थ कोलाहलकी तरह दूर हो जाते हैं; ततो न विचिकित्सते । अमरत्वमें सच्चा सक्रिय विश्वास तभी होता है जब वह हमारे लिये वौद्धिक सिद्धान्त नहीं, बल्कि श्वास लेनेकी भौतिक वास्तविकता जैसा स्पष्ट तथ्य बन जाता है और इसीकी तरह उसके लिये भी प्रमाण अथवा तर्ककी आवश्यकता नहीं रहती। इसी भाँति एक समय आता है जब अन्तरात्माको अपने शाश्वत तथा क्षर क्षणगत स्वरूपका बोध होता है; तब उसे पीछेके उन युगोंका चोष होता है जिनसे गतिघाराके वर्तमान संगठनका निर्माण हुआ, वह देखता है कि अविच्छिन्न अतीतमें उसकी तैयारी कैसे हुई थी, वह अतीतकी आन्तरात्मिक स्थितियों, परिवेगों, और
क्रियाशीलताके उन विशेष रूपोंको स्मरण करता है जिन्होंने उसके वर्तमान उपादानोंको निर्मित किया है, और यह जानता है कि वह अविच्छिन्न भविष्य में विकास द्वारा किसकी ओर बढ़ रहा है । यही पुनर्जन्ममें सच्चा सक्रिय विश्वास है, और यहाँ भी प्रश्नकारिणी बुद्धिकी क्रीड़ा वन्द हो जाती है; अन्तरात्माकी दृष्टि और अन्तरात्माकी स्मृति ही सब कुछ हैं । अवश्य ही, विकासके तंत्रका और पुनर्जन्मके नियमोंका प्रश्न रह जाता है जिसमें वृद्धिकी, उसकी पूछताछकी, उसकी सर्वसामान्यीकरण-वृत्तिकी कुछ क्रीड़ा फिर भी हो सकती है। और यहाँ, जितना अधिक विचार और अनुभव किया जाय, पुनर्शरीरधारणके साधारण, सरल और कटे-छँटे सिद्धान्तको प्रमाणिकता उतनी ही अधिक संदिग्व लगने लगती है। यहाँ अवश्य ही एक अधिक बड़ी जटिलता है, 'अनन्त' की सम्भावनाओंमेंसे एक अधिक संश्लिष्ट सामंजस्य और अधिक दुष्कर गतिका नियम विकसित हुआ है। परन्तु यह ऐसा प्रश्न है जिसके लिये लम्बे और प्रचुर विवेचनकी आवश्यकता है, क्योंकि इसका धर्म सूक्ष्म है; अणु ह्येष धर्मः । जनसाधारणमें मानव-विचार अविवेचित विचारोंकी मोटी और स्थूल स्वीकृति हो होता है; वह उनीदे संतरीकी तरह होता है और हर अच्छी वेशभूषावाली या रमणीय रूपवाली या किसी परिचित संकेत-शब्दसे मिलते जुलते शब्द बुदबुदानेवाली चीजको फाटकके कन्दर आने देता है। ऐसा विशेष रूपसे सूक्ष्म वातोंमें, उन बातोंमें होता है जो हमारे भौतिक जीवन तथा परिवेशके ठोस तथ्योंसे दूर होती हैं। जो लोग साधारण बातोंमें सावधानी और चतुराईसे तर्क करते हैं और भूल-भ्रान्तिके विरुद्ध जागरूक रहनेको बौद्धिक या व्यवहारिक कर्त्तव्य समझते हैं वे भी जब उच्चतर और अधिक कठिन भूमिपर पहुँचते हैं तो अत्यधिक असावधानताकी ठोकर खानेसे तुष्ट हो जाते हैं । जहाँ यथार्थता और सूक्ष्म विचार सबसे जरूरी हैं, वहीं वे उसके प्रति सबसे अधिक अवीर रहते हैं और उनसे जिस श्रमकी माँग की जाती है उससे कतराते हैं। मनुष्य इन्द्रियगोचर चीजोंके बारेमें तो सूक्ष्म विचार कर सकता है, परन्तु सूक्ष्मके वारेमें सूक्ष्मतासे विचार करना हमारी बुद्धिकी स्थूलताके लिये अत्यधिक श्रमकारी होता अतः हम सत्यपर पुचारा मारकर वैसे ही तुष्ट हो जाते हैं जैसे एक चित्रकारने अभीष्ट फल प्राप्त न कर सकनेपर अपनी कूचीको चित्रपर दे मारा । हम परिणाममें उत्पन्न घन्को ही किसी सत्यका निर्दोष रूप माननेकी भूल करते हैं । अतः यह आश्चर्यजनक नहीं है कि मनुष्य पुनर्जन्म जैसे विषयपर स्थूल रूपसे विचार करके सन्तुष्ट हो जाय । जो लोग उसे स्वीकार करते हैं, वे सामान्यतः उसे एक वनी-बनायी चीज की तरह, या तो कटे-छँटे मत या स्थूल सिद्धान्तके रूपमें मानते हैं। उनके लिये यह अस्पष्ट और लगभग अर्थहीन मान्यता पर्याप्त होती है कि अन्तरात्मा नये शरीरमें पुनर्जन्म लेता है । परन्तु अन्तरात्मा क्या है और अन्तरात्माके पुनर्जन्मका अर्थ सम्भवतः क्या हो सकता है ? हाँ, इसका अर्थ होता है पुनः शरीरधारण; अन्तरात्मा, वह चाहे जो कुछ हो, मांसकी एक पेटीमेंसे निकल गया था और अब मांसकी एक दूसरी पेटीमें आ रहा है। बात सीधी सादी लगती है, कह सकते हैं कि यह अरबकी कहानियोंके 'जिन' की तरह है जो अपनी शीशीमेंसे निकलकर बाहर फैल जाता और फिर सिकुड़कर उसीमें वापस आ जाता है, या शायद तकियेकी तरह जिसे एक खोलसे निकालकर दूसरे खोलमें डाल दिया जाता है । या अन्तरात्मा अपनेसे ही मांके गर्भमें किसी शरीरको घड़ता और फिर उसमें रहने लगता है, या यूँ कहें, मांसकी एक वेशभूषाको उतारकर देता और दूसरीको पहन लेता है। परन्तु जो इस भाँति एक शरीरको "छोड़ता" और दूसरेमें "प्रवेश" करता है, वह है क्या ? क्या वह एक चैत्य शरीर और सूक्ष्म रूप जैसा अन्य कुछ है जो स्थूल शारीरिक रूपमें प्रवेश करता है ? -- वह शायद प्राचीन रूपकका पुरूप है जो मनुष्यके अंगूठेसे बड़ा नहीं, या क्या वह कोई निराकार और स्पर्शातीत वस्तु ही है जो हाड़-मांसकी इन्द्रियगोचर आकृति वन जानेके अर्थमें शरीर धारण करती है ? सामान्य या गँवारू धारणाके अनुसार अन्तरात्माके जन्मकी बात ही नहीं है, बल्कि जगत्में एक नये शरीरका जन्म होता है जिसमें एक पुराना व्यक्तित्व निवास करता है । वह व्यक्तित्व उससे भिन्न नहीं होता जिसने किसी दिन अभीके परित्यक्त शरीरके ढाँचेको छोड़ दिया था । सोहनलाल जिस मांस-पिण्डमें रहता था उसमेंसे बाहर निकलकर जानेवाला सोहनलाल ही है; यह सोहनलाल ही कल या कुछ शताब्दियों वाद मांसके दूसरे पिण्डमें पुनः शरीर धारण करेगा और अपने पार्थिव अनुभवोंकी धाराका किसी नये नामसे और भिन्न परिवेशमें आरम्भ करेगा । उदाहरणके लिये, एचिलिस मेसिडोनियावासी फिलिपके पुत्र सिकन्दरके रूपमें पुनर्जन्म लेता है, तब वह हेक्टरका नहीं, डेरिअसका विजेता होता है, उसका क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है, और उसकी नियति अधिक विशाल; परन्तु तंब भ
ी वह एचिलिस ही है, वही व्यक्तित्व है जिसने पुनर्जन्म ले लिया है, केवल शारीरिक परिस्थितियाँ भिन्न है । पुनर्जन्मके सिद्धान्तमें एक ही व्यक्तित्वका इस प्रकार उत्तरजीवी होना ही आजके यूरोपीय मनको आकर्पित करता है; कारण, व्यक्तित्वका, इस मानसिक, स्नायविक और शारीरिक सम्मिश्रणका, जिसे हम अपना आपा कहते हैं, विलोपन या विघटन सहना ही जीवनसे अनुराग रखनेवालेके लिये कठिन होता है, और उसकी उत्तरजीविता तथा भौतिक पुनःप्राकट्यका आश्वासन ही बड़ा आकर्षण है । उसे स्वीकार करनेमें जो एक आपत्ति वस्तुतः वाधा देती है वह है स्मृतिका स्पष्ट विनाश । आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहता है कि स्मृति ही मनुष्य है, और हमारे व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताका लाभ ही क्या यदि भूतकालकी स्मृति न बनी रहे, यह वोध न रहे कि हम अब भी और सदा ही वही व्यक्ति हैं ? उसकी क्या उपादेयता रही ? कहाँ मजा रहा ? प्राचीन भारतीय विचारकोंने, ---यहाँ मैं लोक-प्रचलित विश्वासकी बात नहीं कर रहा जो काफी असंस्कृत था और जिसने इस विषयपर विचार ही नहीं किया,प्राचीन बौद्ध तथा वेदान्ती चिन्तकोंने सारे क्षेत्रका पर्यवेक्षण एक बहुत भिन्न दृष्टिकोणसे किया था। वे व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताके प्रति आसक्त नहीं थे, उन्होंने इस उत्तरपुनर्जन्मकी समस्या जीविताको अमरताका ऊँचा नाम नहीं दिया था, उन्होंने देखा था कि व्यक्तित्व एक सतत परिवर्तित होता सम्मिश्रण है और इस दशामे एक ही व्यक्तित्वकी उत्तरजीविता एक अर्थहीन वात, एक गाब्दिक अन्तविरोध है । उन्होंने वस्तुत यह अनुभव किया था कि एक सातत्य तो है और उन्होंने यह ढूंढना भी चाहा कि उस सातत्यका निर्धारक क्या है और उसमे जो अभिन्न व्यक्तित्वका भाव प्रविष्ट होता है वह भ्रम है या किसी वास्तविकताका, किसी यथार्थ सत्यका प्रदर्शन, और यदि पिछली बात ठीक है, तो वह सत्य क्या हो सकता है । वौद्धोंने किसी भी यथार्थ व्यक्तित्वको नही माना । उन्होंने कहा कि न तो आत्मा है, न व्यक्ति ही, वस कियारत शक्तिका एक अविच्छिन्न स्रोत है, जैसे किसी नदीका अविच्छिन्न बहाव हो या अग्निशिखाका अविच्छिन्न जलना । यह अविच्छिन्नता ही मनमे अभिन्न व्यक्तित्वका मिथ्या भाव उत्पन्न करती है। मै आजके दिन वही व्यक्ति नही है जो एक वर्ष पहले था, वह व्यक्ति भी नहीं हूँ जो एक ही क्षण पहले था, वात वैसे ही है जैसे सामनेके घाटमे बहता हुआ पानी वही पानी नही है जो कुछ क्षण पहले उधरसे गुजरा था, एक ही धारामे निरन्तर प्रवाह ही अभिन व्यक्तित्वकी मिथ्या प्रतीतिको बनाये रखता है। अत स्पष्ट है कि कोई अन्तरात्मा नही है जो पुन शरीर धारण करता हो, प्रत्युत केवल कर्म है जो उसी अविरत दीखनेवाली वारामे अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित होता रहता है । कर्म ही शरीर धारण करता है; कर्म ही सतत परिवर्तनशील मनोवृत्ति और भौतिक शरीरोकी सृष्टि करता है जो, हम मान सकते हैं, विचारो और सवेदनोके उस परिवर्तनशील सम्मिश्रणका परिणाम है जिसे हम हम कहते हैं । वह अभिन्न "हम" है नही, न वह कभी था, न कभी होगा । व्यवहारतया, जबतक व्यक्तित्वकी भूल वनी रहती है, तबतक उससे बहुत अन्तर नही पडता और हम अज्ञानकी भाषामे कह सकते हैं कि हम एक नये शरीरमे पुनर्जन्म लेते है, व्यवहारतया हमे उसी भूलके आधारपर आगे बढना है। परन्तु एक यह महत्वपूर्ण वात मिल गयी है कि यह सब भूल है, और एक ऐसी भूल है जिसका अन्त हो सकता है, उस सम्मिश्रणको नयी रचना किये विना सदाके लिये खण्डित किया जा सकता है, अग्निशिखाको बुझाया जा सकता है, जिस धाराने अपने आपको नदी कहा था उसका विनाश किया जा सकता है। और तब है अ-सत्ता, अवसान, भूल - भ्रान्तिका अपने-आपमेमे छुटकारा । वेदान्ती एक भिन्न निष्कर्षपर पहुँचता है, वह एक अभिन्नको, एक आत्माको, एक स्थायी अपरिवर्तनशील मवस्तुको स्वीकार करता है, परन्तु वह हमारे व्यक्तित्वसे भिन्न है, जिस सम्मिश्रणको हम हम कहते हैं उससे भिन्न । कठोपनिषद्मे यह प्रश्न एक बहुत ही शिक्षाप्रद रीतिसे उठाया गया है जो हमारे वर्तमान विषयके लिये बिलकुल प्रासंगिक है। अपने पिता द्वारा मृत्युलोकमे भेजा गया नचिकेतस उस लोकके अधिपति यमसे यो प्रश्न करता है जो मनुष्य आगे चला गया है, जो हमसे विदा लेकर चला गया है, उसके बारेमे कुछ लोग कहते हैं कि वह है और दूसरे कहते हैं कि "वह यह नही है", तो उनमे कौन ठीक है ? उस महा यात्राका सत्य क्या है ? यही प्रश्नका रूप है और पहली नजरमे ऐसा लगता है कि यह अमरता शब्दके यूरोपीय अर्थमे उसकी समस्याको, अभिन्न व्यक्तित्वकी उत्तरजीविताकी समस्याको उठा रहा है । परन्तु नचिकेतस जो पूछ रहा है वह यह नहीं है । यमके तीन वरदानोमेसे दूसरेमे वह उस पवित्र अग्निका ज्ञान पा चुका है जिसके द्वारा मनुष्य भूख और प्यासको पार कर जाता, दु ख और भयको बहुत पीछे छोड़ जाता और निश्चित रूपसे आनन्द पाता हुआ स्वर्गमे निवास करता है । उस अर्थमे
तो वह अमरताको स्वीकृत जैसा मान लेता है, जैसा कि उस दूरस्थ लोकमे स्थित होनेसे वह अवश्य करेगा। वह जिस ज्ञानकी माँग कर रहा है, उसमे वह गभीरतर, सूक्ष्मतर समस्या समाविष्ट है जिसके बारेमे यमका कथन है कि पुरातन कालमे देवोने भी इस विषयपर विवाद किया था और इसे जानना आसान नही है, क्योकि उसका धर्म सूक्ष्म है, कोई ऐसी वस्तु उत्तरजीविनी रहती है जो वही व्यक्ति प्रतीत होती है, जो नरकमे उतरती, स्वर्गमे चढती और पृथ्वीपर एक नये शरीरके साथ वापस आती है, परन्तु क्या यथार्थत वही व्यक्ति उत्तरजीवी होता है ? उस मनुष्यके बारेमे क्या हम यथार्थत कह सकते हैं "वह अभी तक है" ? क्या इसकी जगह बल्कि हमे यह न कहना चहिये कि "वह अब यह और नहीं है"? यम भी अपने उत्तरमे मृत्युके बाद उत्तरजीविताकी बात बिलकुल नही कहते और वह केवल एक-दो श्लोकोमे उस सतत पुनर्जन्मका वर्णन मात्र कर देते हैं जिसे सभी गम्भीर विचारकोंने सर्वमान्य सत्यके रूपमे स्वीकार किया था । वह जिसकी बात करते हैं वह 'आत्मा' है, यथार्थ 'मनुष्य' है, इन सारे बदलते हुए रूपोका प्रभु है, उस 'आत्मा' के ज्ञानके विना व्यक्तित्वकी उत्तरजीविता अमर जीवन नही, अपितु निरन्तर भृत्युसे मृत्युकी ओर यात्रा है, अमर केवल वही बनता है जो व्यक्तित्वसे परे सच्चे व्यक्तित्वको प्राप्त करता है । तबतक मनुष्य सचमुच अपने ज्ञान तथा कर्मोकी शक्तिसे बार-बार जन्म लेता प्रतीत होता है, एक नामके बाद दूसरा नाम आता है, एक रूपके स्थानपर दूसरा रूप आता है, परन्तु अमरता नही आती । तो यही वह यथार्थ प्रश्न है जिसे बौद्ध तथा वेदान्ती इतने भिन्न रूपसे रखते और उत्तर देते हैं। नये शरीरोमे व्यक्तित्वकी सतत पुनर्रचना होती है, परन्तु यह व्यक्तित्व क्रियाशील शक्तिकी क्षर सृष्टि है जो कालमे आगे प्रवाहित होती जाती है और कभी भी, एक क्षणके लिये भी, वहीकी वही नही होती, और जो अह-वोष हमे शरीरके जीवनसे चिपकाए रखता और आसानीसे यह विश्वास दिलाता है कि वह वही भाव और रूप है, कि सोहनलाल ही पुनर्जन्ममे सिदि हुसेन हो गया है, वह मनकी रचना है। एचिलिसने सिकन्दर बनकर पुनर्जन्म नही लिया था, वरन् अपने कार्योमे लगी जिस शक्ति-धाराने एचिलिसके क्षण-क्षण परिवर्तित होते मन और शरीरकी सृष्टि की थी वह आगे वहती गयी और उसने सिकन्दरके हर क्षण परिवर्तित होते मन और शरीरकी सृष्टि की । किन्तु प्राचीन वेदान्तने कहा कि फिर भी इस क्रियारत शक्तिसे परे कुछ और है जो उसका स्वामी है, वह है जो उससे अपने लिये नये नाम और रूप वनवाता है, और वही है आत्मा, पुरुष, मनुष्य और सच्चा व्यक्ति । अह-बोध उसकी विकृत मूर्ति मात्र है जो शरीरघारी मनके वहते स्रोतमे प्रतिविम्बित होती है । तो क्या आत्मा ही शरीर लेता और बार-बार शरीर बदलता है ? परन्तु आत्मा तो अविनाशी, अक्षर, अज, अमर है। आत्मा न तो शरीरमे जन्म लेता है, न उसमे रहता ही है, इसके विपरीत शरीर ही आत्मामे जन्म लेता और उसमे रहता है। कारण, आत्मा सर्वत्र एक है, - हम कहते हैं, सब शरीरोमे एक ही है, परन्तु यथार्थमे, वह विभिन्न शरीरमे सीमित और बैटा हुआ नही है, सिवाय इसके कि वह सर्वोपादान आकाश जैसा है जो विभिन्न पदार्थ वन गया लगता है और एक अर्थमे उनके अन्दर है । वल्कि ये सारे शरीर आत्मामे हैं, परन्तु यह भी देश-धारणाकी कल्पना ही है, और ये शरीर उसके अपने प्रतीक तथा आकृतियाँ मात्र हैं जिनकी सृष्टि उसीने कपनी स्व-चेतनामे की है। जिसे हम वैयक्तिक अन्तरात्मा कहते हैं वह भी अपने शरीरसे बढकर है, कम नही, उसकी अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है और फलत उसकी स्थूलतासे वैधा नही है । मृत्युके समय वह अपने रूपसे विदा नही लेता, वरन् उसे उतार फेकता है, अत महान् आत्मा प्रयाणके समय इस मृत्युके बारेमे सशक्त भाषामे कह सकता है, "मैंने शरीरको थूक दिया है।" तो वह क्या है जिसे हम शारीरिक ढाँचेमे निवास करता अनुभव करते है ? वह क्या है जिसे आत्मा इस आशिक शारीरिक चोलेको उतारकर फेकते समय शरीरसे खींच लेता है, जिसने स्वयं उसको नही, अपितु उसके अगोके एक भागको आच्छादित कर रखा था ? वह क्या है जिसके बाहर निकलनेसे यह विछोह-पीडा होती है, वियोगका यह तेज सघर्ष और कष्ट होता है, उग्र सम्बन्ध विच्छेदका यह भाव पैदा होता है ? इसका उत्तर हमे बहुत सहायता नहीं देता । वह सूक्ष्म या चैत्य ढाँचा है जो हृत्तत्रियो द्वारा, प्राण-शक्तिकी, स्नायविक ऊर्जाकी उन डोरियो द्वारा भौतिक शरीरके साथ बँधा होता है जो प्रत्येक भौतिक रेशेमे बुन दी गयी है । शरीरके प्रभु इसे ही खीच निकालते हैं और प्राण-डोरियोका उग्र रूपसे तोडा जाना या तेजीसे या धीरे-धीरे ढीला पुनःशरीरधारी अन्तरात्मा. किया जाना, सयोजिका शक्तिका चला जाना ही, मृत्युकी वेदना और उसकी कठिनाईका कारण है । तो हम प्रश्नका रूप बदल दे और यह पूछे कि जब आत्मा अक्षर है तो वह क्या है जो क्षर व्यक्तित्वको प्रतिवि
म्बित और स्वीकार करता है ? वास्तवमे एक अक्षर आत्मा, एक सत्-व्यक्ति होता है जो इस सदा - परिवर्तनशील व्यक्तित्वका अघिपति है, और फिर यह व्यक्तित्व सदा-परिवर्तनशील शरीरोको धारण करता है, परन्तु सदात्मा सदा ही अपने वारेमे यह जानता है कि वह क्षरसे ऊपर है, वह उसे देखता और उसका भोग करता है, परन्तु उसके अन्दर उलझता नही । वह क्या है जिसके द्वारा परिवर्तनोका भोग करता और उन्हें अपना अनुभव करता है, जब कि वह यह भी जानता है कि वह स्वय इन सबसे अप्रभावित है ? मन और अह-बोध केवल निम्न उपकरण हैं, उसका अपना कोई अधिक मूलभूत रूप अवश्य होगा जिसे 'यथार्थ मनुष्य' व्यक्त करता है, मानो अपने ही सामने और परिवर्तनोके पीछे रखता है जिससे वह उन्हे आधार दे सके और प्रतिबिम्बित कर सके, साथ ही उनके द्वारा वस्तुत परिवर्तित भी न हो । यह अधिक मूलभूत रूप मनोमय पुरुष या मनोमय व्यक्ति है जिसे उपनिषदोने प्राण तथा शरीरका नेता कहा है, मनोमय प्राण- शरीर नेता । वही अह-बोधको मनमे एक क्रिया-व्यापारके रूपमे बनाए रखता है और हमे आत्माकी कालरहित अभिन्नताके प्रतिपक्षमे कालके अन्दर अविच्छिन्न व्यक्तित्वकी दृढ धारणाको रखनेमे समर्थ करता है । परिवर्तनशील व्यक्तित्व यह मनोमय पुरुष नहीं है, वह प्रकृतिके विविध उपादानोका सम्मिश्रण है, प्रकृतिकी रचना है, पुरुष बिलकुल नही । और वह एक बहुत जटिल सम्मिश्रण होता है जिसमे बहुतहसी परते होती हैं, एक परत अन्नमय व्यक्तित्वकी, एक परत स्नायवीयकी, एक परत मनोमयकी, एक अन्तिम स्तर अतिमानसिक व्यक्तित्वका भी । और फिर इन परतोके अन्दर भी प्रत्येक स्तरके अन्दर कई स्तर होते हैं। हमसे व्यक्तित्वका नाम पानेवाली इस आश्चर्यजनक सृष्टिके विश्लेषणकी तुलनामे पृथ्वीकी एकके बाद एक करके आनेवाली परतोका विश्लेषण एक सरल चीज है। बार-बार शारीरिक जीवन धारण करनेवाला मनोमय पुरुष अपने नये पार्थिव अस्तित्व के लिये नया व्यक्तित्व घडता है, वह भौतिक जगत्की सर्वसामान्य जड सामग्री, प्राण सामग्री, मानस सामग्रीमेसे सामग्री लेता है और पर्थिव जीवनमे निरन्तर नयी सामग्रीको आत्मसात् करता जाता है, और जो खर्च हो चुका है उसे वाहर फेकता जाता है, अपने शारीरिक, स्नायविक और मानसिक तन्तुओको वदलता रहता है। परन्तु यह सारा सतही कार्य होता है, पीछे भूतकालके अनुभवकी नीव रहती है जिसे स्थूल स्मृतिमे आनेसे रोक रखा जाता है ताकि उपरितलीय चेतना अतीतके चेतन भारसे कष्ट या वाघा न पाय, वरन् जो तात्कालिक कार्य हाथमे लिया हुआ है उसपर केन्द्रित रहे । तथापि, भूतकालके अनुभवकी वह नीव व्यक्तित्वकी दृढ आधारशिला है, उससे भी अधिक है । वह हमारा वास्तविक कोष है, अपने परिवेशके साथ होनेवाले अपने वर्तमान ऊपरी वाणिज्य अतिरिक्त भी हम उस कोषका सदा सहारा ले सकते हैं। वह वाणिज्य हमारे लाभोमे वृद्धि करता है, परवर्ती जीवनके लिये नीवमे परिवर्तन करता है। इसके अतिरिक्त, फिर, यह सब भी सतहपर ही है। हमारे 'स्व' का एक छोटासा भाग ही हमारे पार्थिव जीवनकी ऊर्जाओमे रहता और कार्य करता है। जैसे भौतिक विश्वके पीछे अन्य लोक हैं, हमारा जगत् जिनका अतिम परिणाम ही है, वैसे ही हमारी आत्म-सत्ताके लोक है जो हमारी सत्ताके इस बाह्य रूपको वाहर प्रकट करते हैं। अवचेतन और अतिचेतन वे समुद्र हैं जिनमेसे और जिनकी ओर यह नदी बहती है । अत हमारा अपने वारेमे यह कहना कि हम वार-बार शरीर धारण करनेवाला अन्तरात्मा हैं, हमारे अस्तित्वके चमत्कारको एक अति सरल रूप दे देना है, यह कथन उस परम ऐन्द्रजालिकके इन्द्रजालको एक अति सुविधाजनक और अति स्थूल सूत्रमे प्रस्तुत करता है। ऐसी कोई निश्चित चैत्य सत्ता नही है जो मासके एक नये खोलमे प्रवेश कर रही हो, एक पुनर्जन्तरात्मानुप्रवेश एक नये चैत्य व्यक्तित्वका पुनर्जन्म और साथ ही एक नये शरीरका जन्म होता है। और इसके पीछे रहता है पुरुष अपरिवर्तनशील सत्ता, इस सश्लिष्ट सामग्रीका व्यवहार करनेवाला स्वामी, इस आश्चर्यजनक कौशलका शिल्पी । यही वह आरम्भ-विन्दु है जहाँसे हमे पुनर्जन्मकी समस्यापर विचार करनेके लिये अग्रसर होना होगा। अपने आपको इस भाँति देखना कि अमुक अमुक व्यक्ति मासके एक नये खोलमे प्रवेश कर रहा है अज्ञानमे ठोकरे खाते फिरना है, जडमय मन और इन्द्रियोकी भूलको पक्का करना है। शरीर एक सुविधा है, व्यक्तित्व एक सतत रचना है जिसके विकासके लिये कर्म तथा अनुभव उपकरण है, परन्तु वह आत्मा जिसकी इच्छासे और जिसके आनन्दके लिये यह सब है, इस शरीरसे भिन्न है, कर्म और अनुभवसे भिन्न है, और वे जिस व्यक्तित्वकी विकसित करते हैं उससे भी भिन्न है। इसकी अवज्ञा करना अपनी सत्ताके सम्पूर्ण रहस्यकी अवज्ञा करना है ।
रात में कुम्हार को भूख नहीं थी। पत्नी के बार-बार कहने पर उसने एक रोटी खाई और ढेरों पानी चढ़ा लिया। इस पर पत्नी नाराज़ हुई। उसने पत्नी की नाराज़गी पर ज़रा भी ध्यान न दिया। सीधे खाट पर पड़ गया। लेटते ही उसकी आँख लग गई लेकिन थोड़ी ही देर में वह जाग गया। उसे अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। मन में बार-बार यह ख़्याल आ रहा था कि कहीं उसकी ज़मीन हाथ से जाने वाली तो नहीं। उसे लग रहा था कि हो न हो बड़े साहब की निगाह उसकी ज़मीन पर है तभी वह दौरे पर आए थे, उसके झोपड़े, ख़ाली पड़ी ज़मीन और नीम के विशाल पेड़ को लालच भरी निगाह से देख रहे थे। उन्होंने तभी पटवारी को तलब किया था जो दौड़ा हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ था। ज़रूर बड़े साहब ने पटवारी को हुक्म दिया कि यह ज़मीन मौक़े की है, इस पर कब्जा जमाओ... पटवारी उस वक़्त हाथ जोड़ के हुक्म की तामीली के लिए उनके सामने झुक गया था जैसे कह रहा हो कि हुजूर, यह काम हो जाएगा, आप निशाख़ातिर रहें। हे भगवान! क्या अनर्थ होने वाला है। घरवाली भी उसे सचेत कर रही थी। वह तो साफ़ कह रही थी कि यह पटवारी गड़बड़ आदमी है, कुछ न कुछ अंधेर ज़रूर करेगा। कुम्हार उठकर बैठ गया। तकिया के नीचे से उसने बीड़ी का बंडल निकाला। बीड़ी जलाने को हुआ कि अंधेरे में बीड़ी की चिनगी नज़र आई। लग रहा था कोई उसके पास आ रहा है। श्यामल के बाबू थे, खाना खाकर उसके पास यूँ ही दो पल के लिए बैठने आए थे। हाथ में उसके जलती बीड़ी थी। खाट पर बैठते ही उसने पूछा- और भोला, कैसे हो? अब तो तुम चंगे हो गए। -हाँ भाई, जो कष्ट लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा। यकायक वह खोखली हँसी हँसा - अब बिलकुल ठीक हूँ। भगवान चाहेगा तो अब नया हीला और भी रफ़्तार पकड़ लेगा। -बिल्कुल! आज कुछ भी करो, माटी बेचो, पैसे कहीं नहीं गए। आदमी में बस हुनर हो, वह भूखा नहीं मरेगा- श्यामल का बाबू बोला- पेट भर को मिल ही जाएगा यार, और ये तुमने समय रहते कर लिया, अच्छी बात है। आगे इसी काम को गोपी भी अच्छे से सम्हाल सकता है। -अरे, गोपी की क्या? अभी तो उसके खेलने के दिन हैं; सज्ञान होते कौन-सी लाइन हाथ लगे, क्या भरोसा। देख नहीं रहे हो नई-नई चीज़ें आ रही हैं, नये नये धंधे। कभी सोचा नहीं, कभी देखा नहीं। -ऐसई है भाई- श्यामल का बाबू थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला- फैक्टरी का क्या मामला है? तरह-तरह की बातें सुन रहा हूँ। कोई कह रहा है कि बस्ती के बीचोबीच में कहीं लगने वाली है, कोई कहता है तुम्हारे झोपड़े के सामने। आज पटवारी मुझे मिला संझा को, मैंने उससे पूछा तो वह भी कहने लगा कि फैक्टरी लगेगी। मैंने पूछा कहाँ तो बोला चिंता क्यों करते हो। सुना है, तुम्हारी ख़ैर-ख़बर लेने घर आया था? कुम्हार बोला- हाँ, आया था। मुझसे भी यही कहने लगा कि मेरे रहते चिंता न करो, मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब देख लूँगा। -तुम किसी से या पटवारी से चर्चा न करना - श्यामल का बाबू बोला- पटवारी तो मेरे कान में कह रहा था कि बड़े साहब को तुम्हारा झोपड़ा और नीम का पेड़ और खाली पड़ी ज़मीन जँच गई है, हो न हो वहीं फैक्टरी डले। कुम्हार के प्राण नहों में समा गए। -तुम चिंता मत करो- श्यामल का बाबू बोला- कोई मज़ाक-खेल है क्या? हम लोग मर गए हैं क्या? कोई यहाँ घुसे तो सई। लहास गिरा देंगे.. वह ग़ुस्से में भर उठा था। यकायक श्यामल की आवाज़ आई। शायद उसकी माँ उसे बुला रही थी। जय राम कहकर श्यामल का बाबू उठा और अँधेरे में खो गया। कुम्हार के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। थोड़ी देर बाद जब वह मटके से पानी निकालकर पी रहा था, उसके दिमाग़ में आया कि उसे घबराना नहीं चाहिए जब तक कोई बात साफ़ नहीं हो जाती। अभी एकदम से भड़भड़ाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। पटवारी ज़रूर गड़बड़ आदमी है लेकिन जब वह कुछ कह रहा है तो उस पर यक़ीन करना चाहिए। हो सकता है, वह कुछ मदद करे। अक्सर देखा गया है, नीचे के लोग मदद कर देते हैं। हो सकता है कुछ करे, नहीं भला क्यों कहता। वह तो हमारी ख़ैर-ख़बर के लिए झोपड़े पर आया, आज भला कौन किसे पूछता है- ऐसे में बिना सबूत के उस पर शक करना ठीक नहीं। जब वह कह रहा है कि हम कोई न कोई रास्ता निकाल देंगे तो उस पर भरोसा करने में क्या जाता है। पत्नी लाख मना करे, मैं तो अभी उस पर भरोसा करूँगा चाहे जो हो जाए। उड़ी-उड़ी बातों पर क्यों कान दें...इन बातों को सोचता वह काफ़ी देर तक नीम के नीचे टहलता रहा। जब दूर के पेड़ों पर पंछियों के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ आई और पीछे के ठूँठ पर बैठने वाले उल्लू के बोलने की आवाज़, वह खाट पर लेट चुका था। थोड़ी देर बाद वह गहरी नींद के हवाले था। सबेरे जब कुम्हार की नींद टूटी, अवध सामने खड़ा मिला। वह बहन को लेने आया था। माँ सख़्त बीमार थी और उसके नाम की रट लगाए थी। इस ख़बर से कुम्हारिन के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आँगन में बैठी वह घुटी आवाज़ में मुँह
में आँचल ठूँसे रो रही थी। माँ के लिए वह रो रही थी, इसी के साथ कुम्हार को अकेला छोड़ने का दुःख भी उसे साल रहा था। वह बीमार था, अभी-अभी तो ठीक हुआ- उसे छोड़ के कैसे जाए? सोच-सोचकर बेहाल हुई जा रही थी वह। कुम्हार ने अवध से पूछा - क्या हुआ जिया को? सास को वह जिया कहता था। हालाँकि सभी उसे जिया कहके पुकारते थे। अवध ने कहा - पहले सर्दी हुई, फिर तेज़ बुखार और पेट में दर्द। उस पर दस्त। अब ये हाल है कि उठ-बैठ नहीं पा रही हैं, कह रही हैं, समय आ गया है, परबतिया को बुलाओ। न कुछ खा रही हैं न पी। बस एक रट परबतिया! परबतिया!!! परबतिया अपना सामान बाँध रही थी और बीच-बीच में कुम्हार से कहे जा रही थी- ठीक से रहना। रोटी बना लेना। मन तो हो रहा है कि गोपी को छोड़ जाऊँ लेकिन बो जाने की ज़िद किए है कि नानी के घर जाएँगे... एक पल यहाँ नहीं रुकेगा, नहीं छोड़ जाती। अवध ने कहा- जीजा, तुम भी चलो न! हम ऑटो बुला लाते हैं, वैसे भी तुम कभी निकल नहीं पाते हो! -बहन को ले जाओ, समय मिला तो मैं पीछे से आ जाऊँगा। परबतिया ने कहा - रहन दो तुम, कोई झूठ तुमसे बुलवा ले। -चलो न जीजा! अवध ने इसरार किया। भोला ने कहा - सच्ची कहता हूँ, तुम चलो, मैं जरूर आऊँगा। जिया को देखने का मेरा भी मन है। परबतिया का जाने का ज़रा भी मन न था। रह-रह वह अँसुआ पड़ती। रुँधे कण्ठ के बीच उसने खाना बनाया, सबको खिलाया। जब जाने को हुई, उसे ज़ोरों की रुलाई छूटी। आवाज़ तो नहीं निकल पाई क्योंकि उसने मुँह में आँचल ठूँस लिया था। हाँ, आँसुओं को वह रोक न सकी जो उसके चेहरे को भिंगो रहे थे। अवध झोला लिए आगे-आगे चलने को हुआ, पीछे गोपी की उँगली पकड़े कुम्हारिन थी। ठीक इसी वक़्त मैना ने दर्दीला स्वर छेड़ दिया। कुम्हारिन ने मैना को देखा जैसे कह रही हो कि ध्यान रखना कुम्हार का। मैं जल्द लौटूँगी। हाथ हिलाते हुए कुम्हार रुँधे कण्ठ से दीवार की आड़ में आ गया। पता नहीं क्यों इस वक़्त पत्नी को जाता देख वह सिसकियाँ दे रो पड़ा। बड़े मियां तेज़ गति से चल रहे थे, उन्हें हँकाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी, उल्टे अवध को दौड़ना पड़ रहा था। -यार, तू तो दौड़ रहा है, मुझे थका डालेगा, धीरे तो चल- अवध हाँफता बोला। अवध पान के ठेले के सामने रुक गया। उसी के बग़ल लाला की चाय की दुकान थी जहाँ इस वक़्त ताज़ा समोसे बनने की गंध उठ रही थी। अवध बोला - बड़े मियां, समोसा खाना है तो बोल दे। गरम-गरम मामला है, ऊपर से धनिया की चटनी, ऐ रामू, एक गुटखा और जर्दा तो रगड़ बढ़िया, ख़ुशबूदार। लाला बोले - अरे, ये बड़े मियां को तुम कहाँ ले जा रहे हो, यह तो भोला कुम्हार का साथी है। अवध बोला - बड़े मियां ने हीला बदल दिया है। वक़्त के हिसाब से जीना चाहता है जिसमें मौज़-मस्ती भी कुछ करने को मिले, बहुत हो चुके मटके, कुल्हड़, सकोरे, परई!!! लाला ने अवध से छिपाकर बड़े मियां को चार समोसे दिये जो कल रात के बचे थे। अंदर का माल ख़राब हो गया था। बड़े मियां कुछ नहीं बोले। चुपचाप खा गए। जानवरों के साथ सब ऐसा ही बर्ताव करते हैं। किसी में ज़रा भी हमदर्दी नहीं। -कैसे लगे बड़े मियां - अवध ने पूछा - अच्छे थे न? ख़ूब गर्म? बड़े मियां ने कोई जवाब न दिया। बड़े मियां कोई जवाब देते इससे पहले ही लाला ने एक काफ़ी गर्म समोसा बड़े मियां को दिया जिसे वे बहुत ही मुश्किल से किसी तरह हलक के नीचे उतार पाये। रास्ते में जहाँ खटखटे के घोड़े-खच्चर और गधे पानी सोखते हैं, अवध ने बड़े मियां को ढील दिया। खैनी-तम्बाखू का मज़ा लेने को भी कहा जिसे बड़े मियां ने हँसकर मना कर दिया। अवध के व्यवहार पर बड़े मियां आश्चर्यचकित थे। ये वही अवध है कि कोई और अवध। यह तो बहुत ही अच्छा आदमी है। कितनी सेवा कर रहा है, कितना ध्यान रख रहा है। प्यार से काम समझाता है, ज़रा भी नाराज़ नहीं होता। ऐसे चलो, किनारे चलो, फासला बना के। रुक-रुककर सुस्ता के चलो, कोई जल्दी नहीं, कोई आफ़त नहीं फटी पड़ी है। ठेले मुकाम पर पहुँच जाएँ सही सलामत - यही अपना काम है। ठेले वाले कर्रे पैसे देते हैं तो उनका भी काम अच्छे से होना चाहिए, क्या? हफ़्ते-दस दिन में बड़े मियां ने अवध का दिल जीत लिया। सलीक़े और लगन से ऐसा काम किया कि अवध उसे इंतहा प्यार करने लगा। थोड़े ही दिन में बड़े मियां शहर के चप्पे-चप्पे से परिचित हो गए। किस मण्डी में, किस रास्ते से कैसे माल लेकर निकलना है- अच्छे से जान गए थे। कहाँ ढाल है, कहाँ चढ़ाव, कहाँ गहरा जानलेवा गड्ढा, कहाँ रास्ता सँकरा, कहाँ चौड़ा - सब उनके दिमाग़ में बसा था। आँख मूँदकर बता देते। शाम को दो-तीन बजे से सब्ज़ी बाज़ार लगना शुरू हो जाता। शुरू में तो लोग इक्का-दुक्का दिखते लेकिन गैस बत्ती के जलते ही ऐसी गदर मचती कि न पूछो। ठेलमठेल। चीख़-गुहार। सब्जी वालों की ऐसी गुहार कि कान के पर्दे फट जाएँ। बड़े मियां सोचते, ऐसी ग
ुहार की क्या ज़रूरत? लोग अपने आप आ रहे हैं, सामान ख़रीद रहे हैं, फिर भी गुहार! यह गुहार लगातार तेज़ होती जाती। जैसे-जैसे रात घनी होती जाती गुहार और भीड़ ढलान पर होती जाती। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लग जाती। सब्जी बेचनेवाले ही रह जाते। गैस-बत्तियाँ बुझाई जाने लगतीं। और फिर सामान बँधने लग जाते। ठेलों को एक लाइन में बाँधना शुरू हो जाता। फिर शुरू होता इन्हें दूसरी मण्डी में ले जाने का सिलसिला। बड़े मियां अपने काम को बहुत ही अच्छे से अंजाम दे रहे थे कि अगले माह ही ऐसा कुछ घट गया जिसने सब कुछ उलट-पलट डाला। हुआ यह कि बड़े मियां ठेलों की आख़िरी खेप लेकर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वे सबसे आगे थे और एक-दूसरे से बँधे दस ठेले उनके पीछे। यकायक उनके आगे दो साइकिल सवार जो बेतरह शराब पिए हुए थे, नशे में डाँवाडोल, उलझकर सड़क पर आ गिरे। शराबियों के गिरते ही सामने से तेज़ गति से आ रहा एक डम्फर, उनको कुचलने से बचाने के चक्कर में यकायक संतुलन खो बैठा। शराबी तो बच गए, रहे ठेले उसकी चपेट में आ गए। दस के दसों ठेले पहचान में नहीं आ रहे थे, दुच गए थे। उनमें लदा सामान चारों तरफ़ बिखर कर मिट्टी में मिल गया था। क़िस्मत अच्छी थी कि बड़े मियां को गिरने के बाद भी तनिक भी चोट न लगी और वे भौंचक खड़े थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। कैसे अवध को बुलाया जाए। संयोग था कि अवध वहाँ आ पहुँचा। दुचे ठेले और सामान का सत्यानास देखकर उसका दिमाग़ घूम गया - बड़े मियां ने ज़रूर कोई हरमपन की तभी यह हादसा हुआ, अब ठेलेवाले उसे ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे? कहाँ से भरेगा वह पैसा! हे भगवान! उसकी आँखों में ख़ून उतर आया - उसने लट्ठ उठाया और अनगिनत लट्ठ बड़े मियां पर बरसने लगे। पाँवों पर लट्ठ, पीठ पर लट्ठ, सिर पर लट्ठ, पोंद पर लट्ठ। हे भगवान! ये ज़ालिम तो मार डालेगा। बड़े मियां गिर गए फिर भी लट्ठों की बरसात होती ही रही। इस बीच, पता नहीं कैसे और क्या हुआ कि अवध का पाँव चीथड़े में उलझ गया और वह ज़मीन पर लोट गया। बड़े मियां को जान बचाकर भागने का मौक़ा मिल गया। वे भागे, सिर पर पाँव रखे। बेतरह चिल्लाते। पत्नी मैके क्या गई, कुम्हार को घर काटने-सा दौड़ता महसूस होता। लगता वह वीराने में रह रहा है जहाँ परिन्दे तक जाना पसंद नहीं करते। पत्नी जा रही थी तो मैना दर्दीला गीत गा रही थी। उसके जाते ही ऐसी चुप हुई जैसे कण्ठ अवरुद्ध हो गया। या वह बोलना भूल गई हो। कुम्हार ने कई बार आवाज़ देकर उसे बुलाया, दाने का आमंत्रण दिया, वह बंदी उतरी तो उतरी नहीं। लगता था जैसे उसे भी कुम्हारिन का जाना अखर गया हो। पेड़ में छिपी बैठी वह कभी ज़ोरों से पंख फड़फड़ा उठती जिससे उसके होने का एहसास तो होता, लेकिन वीरानगी और बढ़ गई-सी लगती। रात को कुम्हार को भूख ही नहीं लगी, इसलिए पानी पीकर खाट पर लेट गया। अँधेरी रात थी, हाथ को हाथ न सूझने वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। पल भर को कुम्हार की आँख लगी कि एकदम से चौंककर उठ बैठा। लगा पत्नी है जो बड़े मियां को पानी देने गई है। बाल्टी से वह उसके बड़े मुँह के मटके में पानी कुरो रही है। वह उठा और धीरे-धीरे चलता सार की तरफ़ गया। सार में घना अँधेरा था। बड़े मियां को तो अवध ले गया था, वो तो यहाँ थे नहीं, फिर पत्नी भी तो नहीं है- वो कैसे यहाँ आ गई। गहरी साँस छोड़ता कुम्हार खाट पर वापस आ गया। पता नहीं क्यों खाट पर बैठते ही उसे लगा, पत्नी जाँत चला रही है, साथ में लोकगीत की कोई दर्दीली पंक्ति जाँत की चाल से मिलाकर गा उठी है। रह-रह चूड़ियाँ भी खनक रही हैं। वह खाट से उठा, झोपड़े में गया - कोई न था! हे भगवान! क्या हो गया है उसे! उसने श्यामल के घर की टोह ली। यह आवाज़ और किसी की नहीं, कुम्हारिन की थी - उसकी पत्नी की। उसने उसका नाम मन में उच्चारित किया - परबतिया! परबतिया!! खाट पर सीधा लेटकर वह सोचने लगा कि पत्नी कब मायके गई थी। उसे कुछ याद नहीं। शायद गोपी छे माह का था तभी एक माह के लिए गई थी। उसके बाद घर वह एक पल को नहीं छोड़ पाई थी। घर गृहस्थी में ऐसी फँसी कि सीवान-खेत से आगे न बढ़ पाई। यही उसकी चौहद्दी थी जिसमें वह कोल्हू के बैल की तरह घूमती रही। -सोते क्यों नहीं? क्या सोच रहे हो? - जैसे ही उसकी आँख लगी, कानों में ये शब्द बजे। उसने आँखें खोलीं, देखा तो कोई नहीं। वह सोच में पड़ गया- पत्नी की आवाज़ थी, कानों में गूँजी थी। कहाँ से आई? कैसे आई? समझ में नहीं आता। ज़रूर कुछ है जो समझ से परे है! मैके में वह उसे बेक़रारी से याद कर रही है, तभी वह याद यहाँ मुझे बेक़रारी में डाले है। यकायक वह उठ बैठा। सोचा, क्यों न सास के बहाने वह पत्नी से मिल आए। सास की ख़ैर-ख़बर मिल जाएगी इसी बहाने पत्नी से भेंट भी हो जाएगी। मन भी जुड़ा जाएगा। फिर सोचा, कहीं बुरा न मानें पत्नी तो? मानने दो बुरा। पत्नी से ही तो मिलने गया था, किस
ी और से तो नहीं। इसमें हरज क्या है? फिर अवध ने भी तो आने के लिए इसरार किया था, कई बार बोला था- यह तर्क देकर वह लेटा और विचार बना लिया कि कल सुबह वह घर से निकलेगा और सीधे ससुराल के लिए चल देगा। वैसे ससुराल है भी कितनी दूर। कुल मिलाकर दस किलोमीटर। पाँचों पीरन के पास! अलसुबह जब झीना उजास फैल रहा था, कुम्हार को नींद लग गई। नींद में उसने देखा, बड़े मियां भयंकर चीत्कार के साथ सरपट, सिर पर पैर रखे उसकी तरफ़ दौड़े चले आ रहे हैं और उनके पीछे अवध है जिसके हाथ में है बड़ा-सा लट्ठ, तेल पिया। अवध बेतरह ग़ुस्से में है, अलफ़, बेहिसाब गालियाँ बकता। वह बड़े मियां को रुकने के लिए चिल्ला रहा है ताकि वह उसका मार-मार कर कचूमर निकाल दे। बड़े मियां हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। सार में पनाह के लिए वे भागे। अवध सार में पहुँच गया। बड़े मियां वहाँ से किसी तरह निकले और कुम्हार के झोपड़े में घुस गए और खाट पर लेटे कुम्हार के ऊपर चढ़ बैठे बेतरह गुहार लगाते कि बचाओ! बचाओ!! जल्लाद से बचाओ!!! भयंकर चीख़ के साथ कुम्हार उठ बैठा, आँखें खोलकर देखा तो सामने सचमुच में बड़े मियां खड़े थे। बड़े मियां के अंजर-पंजर ढीले थे। शरीर ख़ूना-ख़ून था। पैर, सिर, पीठ, गरदन, शरीर का कोई भी हिस्सा ऐसा न था जो चोटखाया न हो, ख़ून से छिबा न हो। कुम्हार को यह समझते देर न लगी कि किसने इसके साथ दुराचार किया। उसकी आँखों में ख़ून उतर आया, बावजूद इसके उसने ज़ब्त किया। बड़े मियां के घावों को गर्म पानी से धोया, उस पर फिटकिरी फेरी और मरहम का लेप लगाया। बड़े मियां को दाना-पानी देकर कुम्हार घण्टों उसके बदन को सहलाता रहा। दूसरे दिन दोपहर होने से पहले कुम्हार बड़े मियां के साथ अपनी ससुराल के दरवाज़े पर था। बड़े मियां ने सी-पो की मीठी गुहार से साँकल खोलने का निवेदन किया। कुम्हार जब ससुराल पहुँचा था तो दरवाज़े की संध से उसने पत्नी को देख लिया था जो आँगन में पटे पर बैठी हसिया से तरकारी काट रही थी। सामने उसकी माँ नाव जैसी खाट पर लेटी थी। माँ पाँव में चाँदी के लच्छे पहने थी जो धूप में चमक रहे थे।- ये तो भली-चंगी है, बीमार बिल्कुल नहीं। जरूर परबतिया को बुलाने का नाटक रचा गया। वैसे तो किसी तरह निकल न पाती। उसका मन हुआ कि साँकल खड़काए लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया, पीछे हट गया। बड़े मियां से फुसफुसाकर बोला- यार, तुम आवाज़ लगाओ न। -न बाबा, हमसे न होगा- बड़े मियां घबराकर बोले। -क्यों नहीं होगा? -मुझे डर लग रहा है। भौजाई उल्टा-सीधा न सोचें। -तो बेवकूफ ये बात तूने पहले क्यों नहीं बताई। -तुमने पूछा कब था? मैं तो तुम्हारी ख़ातिर दौड़ा चला आया। -तो मेरे ख़ातिर ही अब आवाज़ लगा दो। -तो तू लौट जा यहाँ से - कुम्हार ने जब यह कहा तो बड़े मियां आँखें चमका के बोले- यह तुम्हारी नहीं, मेरी भी ससुराल है। -बो कैसे? -तुम्हारी ससुराल है तो इस नाते मेरी भी ससुराल हुई। -तो तू ससुराल में रसगुल्ले खा, मैं निकलता हूँ- जब कुम्हार ने ऐसा कहा और बढ़ने को हुआ तो बड़े मियां ने हारकर गुहार लगा दी। एक हफ़्ते बाद जब कुम्हारिन घर आई, कुम्हार ने उसे ये बातें बताईं। कुम्हारिन बोली- तुम भी गजब हो- वह हँसने लगी। कुम्हार भी हँसा। कुम्हारिन बोली- चले गए तो अच्छा ही हुआ, माँ से, सबसे भेंट हो गई। वैसे जिया को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं थी। दस्त हुए और वह लस्त पड़ गई। लगी छाती पीटने कि बुलाओ सबको। बिचारा अवध काम छोड़कर भागा आया। समय से जिया को दवा मिल गई, एक खुराक में बच गई... लेकिन तुम्हारे बिना एक पल वहाँ रहना मुश्किल था। मैं तो उस रात जागती रही, करवटें बदलती रही। बस तू ही तू आँखों के आगे था। कुम्हार ने मुस्कुराकर कहा - मैं तो तान के सोया और देर से उठा। कुम्हारिन बोली- हो ही नहीं सकता! अगर ऐसा होता तो भागे आते भाई बंद को लिए! -मैं तो जिया की ख़ातिर गया था। -झूठा कहीं का! तू ऐसई बोलता है, कसम खा। -किसकी? लंगड़ी की। -हाँ, तेरे लिए तो वही सबसे प्यारी है। -अब तू जान और तेरी लंगड़ी जाने! -बुढ़ापे में भी जिया गहने लादे रहती हैं। -क्यों न लादें, भगवान ने दिया है तो लादे हैं। उस पर भी नज़र लगी है कि माँ किसे देती है। अवध को या दया को। क्या करना है अपने को! सब अच्छे से रहें- भैया जियें कुशल से काम। जीजी! - गौरी की आवाज़ थी। श्यामल के बाबू ने शहर में झुग्गी बना ली थी। लीला ने जगह दिखलाई और बस मामला जम गया। कई दिनों से यहाँ से जाने का हो रहा था, सामान तो थोड़ा-थोड़ा करके चला गया था, कुछ रह गया है, वह यहीं पड़ा रहेगा, उसकी ऐसी ज़रूरत भी नहीं। आज शाम को गौरी बच्चे श्यामल के साथ यहाँ से चली जाएगी। यह ख़बर देने वह आई थी। वह यह भी कह रही थी कि तुम लोग भी वहीं आ जाओ, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यहाँ कुछ नहीं धरा है। गीली आँखें रुँधा कण्ठ लिए जब पत्नी लौटी, कुम्ह
ार सब जानते हुए भी अनजान बना रहा, प्लास्टिक के गिलासों की गिनती करने में उलझा था। पत्नी ने गौरी के यहाँ से जाने की ख़बर दी तब भी वह कुछ नहीं बोला। बोलकर भी क्या करेगा वह? शाम को गोपी श्यामल के घर से लौटा तो आँखों में आँसू भरे, बेआवाज़ रो रहा था। माँ ने अनजान बनते हुए पूछा - क्या हो गया बेटा? गोपी यकायक ज़ोरों से रो पड़ा। -क्या हो गया है? बोल तो सई। रोते-रोते वह बोला- श्यामल जा रहा है, हम किसके साथ खेलेंगे। हमें भी भेज दो उसके साथ। कुम्हार बोला- तो यहाँ बड़े मियां के साथ कौन खेलेगा? मैना को दाना-पानी कौन देगा? -अम्मा दे देगी। काफ़ी दूर तक दोनों उन्हें ऑटो के पीछे-पीछे चलते छोड़ने आए। गोपी खाट में मुँह छिपाए रो रहा था। फैक्ट्री लगने वाली बात जंगल में आग की तरह फैली। और शहर के जिस भी कोने में बस्ती के लोग थे, उन तक किसी न किसी के ज़रिए पहुँच ही गई। यह बात सच है कि उनकी ज़मीनों पर आँच नहीं आई थी, इसलिए वे अंदर ही अंदर ख़ुश थे लेकिन यह भी सच है कुम्हार के साथ होने वाले अन्याय से सभी दुखी भी थे और उसे दिलासा दे रहे थे कि जो भी सुना है, ख़राब है, लेकिन हम तुम्हारे साथ हैं, तुम जब भी आवाज़ दोगे, हम हक़ की लड़ाई के लिए आ खड़े होंगे। कुम्हार के लिए यह एक बहुत बड़ी बात थी कि समूची बस्ती के लोग उसके साथ हैं। सभी उसके साथ लड़ने-मरने के लिए तैयार हैं। उसकी छाती फूल कर दुगुनी हो गई थी। सुनी-सुनाई बातों से जहाँ कुम्हार विचलित था, वहीं यह सोच उसे अंदर ही अंदर ताक़त दे रहा था कि जब तक बात साफ़ होकर सामने नहीं आए घबराना मूर्खता है। पटवारी ने भी यही कहा है कि फैक्ट्री लगने वाली है, लेकिन कहाँ लगेगी- यह बात उसने अभी तक साफ़ नहीं की थी। वह तो यहाँ तक कह रहा है कि मेरे रहते घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझ पर भरोसा रक्खो, मैं सब रास्ते पर ला दूँगा। यह बात अलग है कि पटवारी ने अभी तक जो काम किए, ग़लत किए हैं, पत्नी भी इसी बात को रह-रह दुहराती रहती है लेकिन जब तक वह हमारे साथ कुछ ग़लत नहीं कर रहा है, उस पर भरोसा करने से क्या जाता है। मैना का स्वर आज बदला हुआ है। जैसा सुरीला वह गाती उसके बिल्कुल उलट। उसमें कुछ ऐसा भाव है जैसे कोई घपला होने वाला है, कुम्हार को उससे आगाह कर रही हो। और कुम्हार है कि उसकी बात समझ नहीं पा रहा है। निरीह भाव से वह टुकुर-टुकुर पत्नी की ओर ताक रहा है। कुम्हारिन भी कुछ समझ नहीं पा रही है। यकायक वह बोली- चिड़िया ऐसा तभी बोलती है जब उन्हें साँप या बिल्ली आते दिखाई देते हैं। वे संकट पहचानती हैं। -चल तू काम कर, जो होगा सो देखा जाएगा। अभी से उसके लिए हलाकान क्यों हों? - कुम्हार ने कुम्हारिन से कहा। कुम्हारिन चाक के पास रौंधी माटी रख रही थी और कुम्हार चाक पर बैठने से पहले बड़े मियां को देखने गया। उसके घावों पर उसने मरहम का लेप लगाया था। मरहम घाव पर टिकता नहीं था इसलिए कई-कई बार उसे लगाना पड़ता था। और सब घाव पुर गए थे, कूल्हे का घाव बाक़ी था जो उसे भारी पीड़ा दे रहा था, पुरने का नाम नहीं ले रहा था। कुम्हार के नगीच आती कुम्हारिन बोली- नाकिस ने इतनी बेरहमी से मारा कि जान निकलना रह गया था। -पूरा मार डालता तो सब्र होता। कुम्हारिन आँखें तमतमा के बोली- अवध अब दिखे तो बताऊँ उसे। इतना सुनाऊँगी कि यहाँ दुबारा कभी पाँव नहीं रखेगा। -वह नीच है कमीन! ऐसा दोगला आदमी हमने देखा नहीं। झूठा कहीं का मक्कार। देखो न, मण्डी में काम करने लगा, ख़बर तक न दी जैसे मैं उससे काम की बोलूँगा। -मर भी जाऊँ तो न बोलूँ - पत्नी ने कहा। गहरी साँस भरता कुम्हार चाक पर बैठने को हुआ कि उसे पटवारी आता दिखा। पेड़ों की चितकबरी धूप-छाँव में धीरे-धीरे चलता वह सीधे कुम्हार के पास आता जा रहा है। कुम्हारिन बोली- लो, पटवारी आ गया। मैना इसके लिए तो नहीं किटकिटा रही थी? कुम्हार कुछ नहीं बोला। उसके स्वागत में झुककर खड़ा हो गया, बोला- हुजूर, बैठें- बाल्टी में हाथ डुबोता मिट्टी साफ़ करता वह बोला- बस एक मिनट हाथ धोके खाट लाया। वह खाट के लिए झोपड़े में घुसा। खाट बिछाता वह बोला- बैठें हुजूर। -अरे यार, मैं तो यूँ ही यहाँ घूम आया, मैं तो तहसील जा रहा था- यकायक नई बुनी खाट को देखता बोला- बड़ी सुन्दर बुनी है। भोला, तू जो काम करता है नायाब करता है। तेरे मटके भी ऐसई कमाल के होते हैं! वह खाट पर बैठ के बाध पर पंजे पटकता उसकी तारीफ़ के पुल बाँधने लगा कि मैना ज़ोरों से किटकिटाने लगी। सहसा वह फड़फड़ाते हुए तीर की तरह नीचे उतरी और पटवारी के सिर पर ऐसा झपट्टा मारा मानो उसका मुँह नोच डालना चाहती हो। पटवारी सकते में आ गया। घबरा गया। लगा बाज है जो उसकी आँखें निकालना चाहता है। वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और ज़ोरों से चीख़ा- ये बाज़ कहाँ से आ गया! मारो! मारो!! मारो!!! मैना पलक झपकते नीम में कहीं छिप गई थी। पटवारी हकबकाय
ा हुआ था- क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बाज उस पर क्यों झपट्टा मार रहा है? उसने क्या बिगाड़ा है उसका? वह निरीह भाव से मुस्कुराया और कुम्हार की ओर देखने लगा जैसे उसी से यह प्रश्न कर रहा हो। कुम्हार जानते हुए भी अनजान बना रहा और यह कहने लगा- बैठें हुजूर, बाज-फाज से क्या डरना, पंछियों की भला किसी से क्या अदावत होगी! वे तो वैसे ही इंसानों से दूर रहना चाहते हैं। सिर खुजलाता पटवारी जैसे ही खाट पर बैठने को हुआ- मैना फिर उस पर झपट्टा मार बैठी। अजीब मामला था। पटवारी परेशान। अब वह एक पल भी यहाँ बैठना नहीं चाह रहा था, बोला- फिर आते हैं भोला, ये बाज़ कहीं मेरी आँखें न फोड़ डाले। क्या भरोसा! पता नहीं कौन-सी अदावत का बदला ले रहा है यह दुष्ट? आज का दिन ही ख़राब है, साहब अलग परेशान कर रहे हैं। ख़ैर, भोला,- आँखों पर हाथ धरे, कहीं बाज़ उस पर फिर झपट्टा न मार बैठे-पटवारी जिस रास्ते आया था, उसी पर धीरे-धीरे चलता आगे बढ़ा और सीधे बाबू के घर जा पहुँचा। यहाँ पटवारी और बाबू में ये बातें चल रही थीं, वहीं कुम्हार और कुम्हारिन मैना की कारसाज़ी पर आह्लादित थे। कुम्हारिन ठहाका लगाके बोली- मुझे तो लगा, मैना आँखें नोंच के रहेगी। यह कहो बच गया, नहीं सूरे बना देती। अब वह यहाँ आने वाला नहीं। -आएगा तो मैना उसकी गत बना देगी। कुम्हार हँस के बोला। कुम्हार ने सोचा पटवारी अब यहाँ आने से पहले दस बार सोचेगा। लेकिन पटवारी था कि दूसरे दिन सुबह-सुबह कुम्हार के झोपड़े के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था। कुम्हारिन कुम्हार से बोली - तुम अंदर रहो, मैं देखती हूँ। क्यों बार-बार फेरे लगा रहा है? कुम्हार बोला - लगाने दो फेरे! चिंता काहे की। तू मत जा बाहर। औरतजात है, अच्छा नहीं लगता। कुछ ऊँच-नीच हो जाएगी। -ऊँच-नीच की मुझे चिंता नहीं- कुम्हारिन फुसफुसाकर बोली। -तुझे नहीं है, मुझे तो है। -क्या ऊँच-नीच होगी बता? कुम्हारिन यकायक ग़ुस्साकर बोली। -यही कि यह अच्छा आदमी नहीं है, इसके मुँह लगना ठीक नहीं। -इसके मुँह कौन लग रहा है- इसे तो समझाना है कि कोई भी जुल यहाँ चलने वाला नहीं। दुनिया में हल्ला करने से कुछ नहीं होगा। मान लो अगर पुराना पैसा है तो पर्ची काट दो, हम भर देंगे। काहे को बार-बार भिखारियों की तरह आ खड़े हो रहे हो। कुम्हार हँस पड़ा। कुम्हारिन भी। कुम्हारिन आगे बोली- देख रहे हो तुम! फेरे पर फेरे। कोई तरीका है यह? कुम्हार बोला - अच्छा तू तरीका मत सिखा, अंदर चल। -मैं अंदर नहीं जाने वाली। इसकी पग्गड़ न उतार दी, नाम परबतिया नहीं। -तेरे हाथ जोड़ता हूँ। -पाँव भी जोड़ ले तब भी मैं सुनने वाली नहीं। कुम्हार पत्नी की कलाई पकड़े अंदर की तरफ़ खींच रहा था, पत्नी थी कि समूची ताक़त लगाकर बाहर की तरफ़ निकल पड़ने के लिए कसमसा रही थी। यकायक उसने दाँत काटने का नाटक कर कलाई छुड़ा ली और बाहर की ओर भागी। बाहर से उसने टटरा भिड़ा दिया। -मैं बैठूँगा नहीं, चलूँगा। -कोई बात हो तो बता दें - मैं उन्हें बतला दूँगी। -नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बस ऐसई, वह हँसा- पटवारी जब तक अपनी जरीब न घुमा ले उसे चैन कहाँ पड़ता है- चलो तुम कहती हो तो थोड़ा इंतज़ार कर लेते हैं, खाट की चिंता तुम न करो, खड़े रहेंगे, ऐसा क्या? कुम्हारिन जिस उबाल के दबाव में झोपड़े से निकली थी, पता नहीं क्या हुआ कि वह शांत हो गया। दरवाज़े आए आदमी के साथ अनादर ठीक नहीं जब तक वह कोई गड़बड़ न करे। इस लिहाज़ से टटरा हटाती अंदर आई और खाट लेकर बाहर निकली। खाट बिछाती वह बोली - बैठें हुजूर, दरवाज़े पर खड़ा रहना अच्छा नहीं लगता। मुस्कुराता हुआ पटवारी खाट पर बैठ गया। उसने पान की पन्नी निकाली और कई सारे पान मुँह में ठूँस लिये। थोड़ा सा चूना भी उँगली से काटा और चारों तरफ़ नज़र मारने लगा। इस बीच कुम्हारिन काम के बहाने से झोपड़े के पीछे गई। आँगन से होती हुई बाहर के झोपड़े में आई, कटाक्ष करती कुम्हार से बोली - तुम्हारे जीजा दरवज्ज़े पर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं, तुम्हारा। आरती के लिए जाओ। -तू तो कह रही थी कि पग्गड़ उतार लूँगी, अब क्या हुआ? कुम्हारिन चुप। -बोल न, क्या हुआ? -यह तुम्हारा मामला है, तुम जानो। -यह हमारा अकेले का मामला है? इसमें तुम नहीं हो? -मैं क्या जानूँ! - कुम्हारिन तंजिया अंदाज़ में मुस्कुराती बोली। -ये तो अंधेर है। - कुम्हार गहरी साँस छोड़ता बोला। -चिंता न कर मेरे माटी के कुम्हार, चिंता न कर! तूने ही कहा है जब तक बात साफ़ न हो, चिंता में गलना अच्छा नहीं। सहसा बाहर पेड़ पर मैना अजीब-सी आवाज़ में किटकिटाने लगी। पटवारी खाट पर पैर चढ़ाकर बैठ गया था, मैना का यह रूप देखकर उठ खड़ा हुआ - भयभीत सा। कुम्हार ने चुटकी ली - तू नहीं है तो मैना है मेरे साथ - वह निपट लेगी। कुम्हारिन ने जब इस पर नाराज़गी जतलाते हुए उसे तिरछी नज़रों से देखा तो वह हँसता आगे बोला- जा तू
, अपना काम निपटा। बड़े मियां को खुल्ला छोड़ दे, इधर-उधर चर लेगा। कुछ तो पेट भरेगा उसका। सार में बड़े मियां पीठ खुजला रहे थे, कुम्हारिन को देखते ही बोले- ये पटवारी जानहार दरवज्ज़े पे काहे खड़ा है जमदूत की तरह। कई दिनों से इसे देख रहा हूँ, चक्कर काटते। -मुझे नहीं पता, इनसे पूछ तू। -मुझे तो इसकी आँखों में बदमाशी दीखती है। -तो तू कुछ कर। कोई खेल दिखला दे, जो होगा देखा जाएगा। कुम्हारिन ने बड़े मियां को खुल्ला छोड़ा तो वह बगटुट दौड़ता झोपड़े के सामने खाट पर बैठे पटवारी को देखता उस तक जा पहुँचा और फिर पता नहीं क्या हुआ कि वह उसके मुँह पर ज़ोरों की सी-पो, सी-पो की गुहार लगाने लगा। मैना भी किटकिटाते हुए पेड़ से उतर पड़ी। पटवारी ने सोचा - भाग लो यहाँ से, कहीं बाज़ झपट्टा न मार बैठे और उसकी हालत बिगाड़ दे और ये बड़े मियां को तो देखो, मुँह पर रेंक रहा है जैसे कान के पर्दे फाड़ डालेगा। उस पर कहीं दुलत्ती झाड़ दी तो मैं कहीं का न रहूँगा। यकायक पटवारी यहाँ से भागा और सीवान पर जाकर साँस ली। महुए के पेड़ की छाँह में खड़े होकर वह कुम्हार का इंतज़ार करने लगा। कुम्हार आएगा तो इसी रास्ते। और कोई रास्ता है नहीं। देखते हैं कब तक नहीं आता है। चाक के सामने कुम्हार उदास बैठा है। थोड़ी ही दूरी पर घरवाली है जो कुम्हार की उदासी से आहत है। जबसे कुम्हार बाज़ार से लौटा है- गुमसुम है, उदास है। जैसे कोई नाइंसाफी उसके साथ हो गई है जिसे वह पीड़ा की वजह से होंठों तक ला नहीं पा रहा है। क्योंकि ख़ुद तो वह उससे टूटा है, कहीं घरवाली भी बेज़ार न हो जाए। पत्नी समझ रही है कि ज़रूर पटवारी की कोई न कोई कारस्तानी है जिसके चलते कुम्हार उदास हो गया है। ढेरों माटी वह छान चुकी थी, इस वजह कि इसी बहाने वह कुम्हार से बात भी कर लेगी, लेकिन कुम्हार है कि अनमना, रह-रह गहरी साँस छोड़ता और 'हे भगवान' की कराह छोड़कर ज़मीन ताकने लग जाता। मैना चाक पर बैठी है। कहने पर भी उसने दाने की तरफ़ नहीं देखा-जैसे कुम्हारिन की तरह वह भी कुम्हार से उदासी का कारण जानना चाहती हो। -बड़े मियां के कूल्हे का घाव पुर नहीं रहा है। कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ी। -मक्खियाँ अलग जान खाए जा रही हैं उसकी - कुम्हारिन की यह बात भी कुम्हार की ज़बान खोलने के लिए थी, लेकिन कुम्हार चुप तो चुप। यह बात ज़रूर कुम्हार को हिला डालेगी लेकिन यह भी बेकार गई। -मैं जाऊँ? - जलती आवाज़ में जब कुम्हारिन ने यह प्रश्न किया तो कुम्हार के बोल फूटे। -कहाँ जा रही है? -कुएँ में कूदने। -कुएँ में कूदने! काहे के लिए? -कुएँ में कूद रही हूँ और पूछता है काहे के लिए। इत्ता भोला क्यों बन रहा है तू? कुम्हार ने कनखियों से पत्नी को देखा जो उसका नाम कभी नहीं लेती थी, आज कैसे अनचित्ते में ले बैठी। पत्नी बात तो समझ रही थी बावजूद इसके अनजान बनी रही। -भोला बनने की बात नहीं है। भोला तो मैं हूँ। -कहाँ है भोला? बता तो सई। मैं उसे ढूँढ रही हूँ। -अब तुझे नहीं दीखता है तो क्या करूँ। चिराग लेकर दिखाता फिरूँ? -तीन घण्टे से तू होंठ सिए बैठा है, तुझे ज़रा भी रहम नहीं कि मैं कित्ता परेशान हो रही हूँ! पटवारी ने उसे घेर लिया था। पटवारी के साथ बाबू भी था जिसने पटवारी से वादा किया था कि वह उसके इशारे पर चलेगा और उसी के स्वर में स्वर मिलायेगा। बाबू अब पूरी तरह चंगा था। बाबू ने चुटकी लेते हुए कहा - भोला, आज तो तू भारी ख़ुश दिख रहा है, लाटरी हाथ लग गई क्या? पटवारी बोला- तेरे घर गए थे, तू था ही नहीं। कहाँ चला गया था? तेरी घरवाली ने बताया नहीं कि हम आए थे। काफ़ी देर तक बैठे रहे, फिर तेरे बड़े मियां और उस दुष्ट बाज़ ने हमें वहाँ टिकने नहीं दिया। ऐसी ख़ातिरदारी की कि कुछ कह नहीं सकता। भोला ने विनीत स्वर में कहा - हुजूर, घरवाली ने बताया था... सहसा बात घुमाकर बोला - बात ये हुई कि सास की तबियत जादा खराब हो गई थी, उसी चक्कर में वहाँ निकल गया था, इसलिए भेंट नहीं हो पाई। पटवारी बोला - कोई बात नहीं भोला, अब मिल गया है तू - फिर कुटिलता से आँख मारकर बाबू से बोला - भोला को काग़ज़ दे दो। भोला घबरा गया, बोला - क्या है, हुजूर, हम तो पढ़े-लिखे हैं नहीं, आप बताएँ कि यह क्या है? -भोला हाथ जोड़ता दोनों के सामने खड़ा था। पटवारी ने कहा - घबराने की कोई बात नहीं है। वही फैक्टरी वाली बात है। बाबू ने समझाया - देखो, हाँ, यहीं खड़े रहो, उधर मत जाओ। क्या है कि गौरमिंट ने एक आडर निकाला है। आडर यह है कि सड़क किनारे और उसके आजू-बाजू जो लोग बसे हैं उनके पास ज़मीन का पट्टा है तो उसे दिखाएँ। पट्टा नहीं है तो वह ज़मीन कब्जे की मानी जाएगी, गौरमिंट सबको हटाएगी... तू घबरा न, तू तो बरसों से रह रहा है, तेरे पास तो पट्टा होगा। पटवारी बोला - किसी से क्या पूछ लें, तू बता? पट्टा है तो दिखा। बाबू ने उसके कंधे पर हाथ रखा,
कहा - अभी तू परेशान न हो, घर में देख ले, सब मिल जाएगा। पटवारी ने सान्त्वना के अंदाज में कहा- हम तो काग़ज़ देना नहीं चाह रहे थे, वैसे यह तेरे नाम है भी नहीं, आम जनता के नाम है, आडर है, सूचना है। हम कई दिनों से टालते आ रहे थे कि किसी तरह बात टल जाए, लेकिन क्या है, ऊपर का फरमान है। हम कितने दिन इसे दबा सकते हैं, जितने दिन हमसे दब गया, हमने दबाया। अब जब हम पर दबिश पड़ रही है, हम लाचार हैं। ये काग़ज़ सबको थमाना पड़ रहा है, फिर तू चिंता काहे कर रहा है। मैंने पहले भी कहा था कि मैं तेरे साथ हूँ और अंतिम समय तक रहूँगा, तू विश्वास तो कर! ऐसे काग़ज़ तो आए दिन आते हैं- मैं सब मामला निकाल दूँगा। सहसा दोनों 'बड़े साहब ने तलब किया है' कहकर चले गए थे। कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ते हुए पत्नी से कहा - अब ये मामला है, क्या करें बताओ? कुम्हारिन ने गीली आवाज़ में कहा - मैंने पहले ही कहा था, दाल में कहीं काला है। ये कमीन और कुछ नहीं, हमें बेदखल करना चाहते हैं। काफ़ी देर तक दोनों के बीच गहरी चुप्पी छाई रही। इस बीच कुम्हार ने मैना को दाना और पानी परोसा। मैना काठ की तरह बैठी रही जैसे जतला रही हो कि ऐसी ख़बर पर भला कोई दाना-पानी हलक के नीचे उतार कैसे सकता है! बड़े मियां भी ग़मगीन-से धीरे-धीरे चलते चाक के पास आकर बैठ गए।
अनिल जनविजय (चर्चा । योगदान) (नया पृष्ठः {{GKGlobal}} {{GKRachna ।रचनाकार=सत्यनारायण पटेल }} Category:कहानी <POem> फूँऊँ.ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ.....) (कोई अंतर नहीं) यह शंख की ध्वनि थी- न सिर्फ़ मन्दिर से डूँगा के कान तक बल्कि गाँव के कोने-कुचाले तक पसरी और लम्बी। गन्धहीन और अदृश्य। ध्वनि भी क्या! बस, शंख के पिछवाड़े़ में फूँकी एक लम्बी फूँक, जो शंख के मुँह से ऊँचा स्वर लिए, तेज़ी से बाहर निकली थी, और डूँगा के कान तक आते-आते हवा में घुली धीमी और महीन ध्वनि में बदल गई थी। थी हवा से भी हल्की, पर जब कान से मग़ज़ तक में पसरी और फिर ख़ून में घुल गई तो डूँगा उठकर खड़ा हो गया। असल में वह डूँगा और उसके सरीखे उन सबके लिए एक हाँक, एक बुलावा और एक संकेत था, या हवा का ऐसा हाथ, जो दिखता नहीं, बस, हर रात आठ बजे के दरमियान कान पकड़कर मन्दिर में होने वाली आरती में खींच ले जाता। डूँगा मन्दिर में होने वाली आरती में जाता तो था पर उसे न भगवान पर कोई भरोसा था, न आरती गाने का शौक। फिर भी वह आरती में जाता, क्योंकि वहाँ ढपली, करताल, खँजड़ी और झाँझ होती, और डूंगा झाँझ, करताल, ढपली और खँजड़ी बजाने का शौकीन था, इनमें से जो भी हाथ लग जाता, उसे इतनी तनमयता से बजाता कि आरती में आए लोग देखते ही रह जाते। सोचते कि डूँगा आरती में, भक्ति में लीन हो जाता है। पर वह लीन किसमें होता, 'अपनी पसंद का वाद्य बजाने में, या पसंद का वाद्य बजा-बजाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करने में, या फिर तनाव को दूर करने में, यह वही जानता था। जब उस रात शंख की ध्वनि डूँगा को ढूँढती हुई आयी थी। वह क्षण भर को डूँगा के घर के दरवाज़े की बारसाख के पास ठिठकी थी। वहाँ ऊपर ओसारी की छत पर रखी पतरे की चद्दर से नीचे एक चालीस वाॅट का गुलुप जल रहा था। गुलुप, एक बत्ती कनेक्षन वाली स्कीम के तहत लगा था, जिसका मरियल उजास अँधेरे के आगे सेरी की धूल में गिन्डोले (कैंचुए) की तरह रेंग रहा था। जैसे किसी ने इंजक्षन से उसके भीतर का करंट खींच लिया था; और केवल इतना करंट था कि एकदम बुझा हुआ न लग रहा था। जहाँ से उजास आगे नहीं बढ़पा रहा था, वहाँ से कुछ क़दम आगे एक खाट ढली थी, जिस पर टिमटिमाते तारों की महीन रोषनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे ही आसमान की दया पर बरस रहे थे। उस रोषनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे के उजास में खाट पर एक डूँड लेटा नज़र आ रहा था। डूँड- बरसात में भीगा, ष्याले (सर्दी) में सिकुड़ा और उनाले (गर्मी) में तपा गेरूआ झेल चुके गेहूँ के रंग का डूँड। जब षँख की ध्वनि ने कुछ क़दम खाट की जानिब बढ़ाये, तो उसे डूँड की एक षक्ल भी नज़र आने लगी। चार क़दम और बढ़ाने पर किसी कपड़े की तरह बहुत ही धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलता डूँड का पेट दिखने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ने पर तो पोल ही खुल गयी, वह डूँड नहीं डूँगा था। डूँगा और बारसाख के ऊपर जलते गुलुप में सगे भाइयों सरीखी की एक समानता थी- गुलुप बुझा नहीं, जल रहा था। डूँगा मरा नहीं, हिल रहा था। डूँगा को खोज लेने पर षँख की ध्वनि ख़ुषी से पोमा उठी। उसका अट्टहास अँधेरे के कम्बल को चीरता तारों तक जा पहुँचा। फिर जैसे डूँगा का कान मरोड़ती बोली- चल, आरती का टैम हो गया। जब डूँगा मन्दिर में पहँुचा तो देखा- आरती में टुल्लर के छोरे पहले से मौजूद थे। कोई षँख बजा रहा था। कोई घण्टी, झालर और झाँज बजा रहा था। डूँगा के हाथ खँजड़ी लगी, तो वह खँजड़ी बजाने लगा था। खँजड़ी बजाने में डूँगा ऐसा डूबा कि सुध-बुध भूल गया था। आरती ख़त्म हो गयी। सभी ने अपने-अपने वाद्य पंडित के पास जमा कर दिये। लेकिन डूँगा ने खँजड़ी को न जमा की, न बजाना बन्द की। आरती में आये छोटे छोरे उसकी बेख्याली पर कुतूहल के साथ हँस रहे थे। स्याने छोरे कभी उसे और कभी टुल्लर के छोरों को आष्चर्य से देखते खड़े थे। टुल्लर के छोरे को डूँगा देख-हो.... हो.... कर हँस रहे थे। डूँगा उनकी हो... हो... के जवाब में खँजड़ी बजा रहा था। बजाते-बजाते हथैलियाँ छील गयी। ख़ून रिसने लगा। पर डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी रहा। उस रात ठन्ड ज्वार की बुरी की तरह काट रही थी, पर डूँगा के कपाल, घोग से पसीने की तिरपने रिस रही थी। अगर कोई सजगमना तेज़ी से बहती तिरपनों को एक पाट में बहा देता, तो रात भर में एक बीघा खेत रेलवा जाता। लेकिन तिरपने अपनी ही हिकमत अमली से बह रही थीं। पीछे यानी सिर, कन्धे, गरदन के पसीने की तिरपन पीठ के पाट में बहती। कमर पर उचकी हड्डियों के बीच से धोती में उतरती। आगे यानी भाल, नाक और ठोडी के नीचे से रिसते पसीने की तिरपन, कन्ठ के नीचे ढुलकती। सीने की उभरी दो पसलियों के रेगाँले से गुज़रती। पिचके पेट का डोबना भरती। धोती में उतरती। ऐसे ही दोनों बगल की काँख का पसीना और अनेक तिरपनों का पसीना लट्ठे की फतवी को तर्रमतर करता। जब फतवी का रेषा-रेषा पसीने से तर हो जाता। उसमंे और पसी
ना सोखने की कुबत न रह जाती और पसीने का आना ज़ारी रहता। तब फतवी से रिसता पसीना भी धोती में ही समाता। असल बात यह कि डूँगा की धोती बड़ी कलेजेदार थी। वह अपने भीतर पसीने की कितनी ही धाराओं को समा लेती और पुर नहीं आती। डूँगा की धोती, मानो धोती नहीं थी। उसकी कमर के आसपास लिपटा पूरा समुद्र थी। पंडित हाथ में आरती की थाली लिये था। थाली में जलते दीप की सेंक को वह बारी-बारी से सभी की ओर धकियाता। कोई थाली में दो का सिक्का डालता, कोई पाँच का। जलते दीप की लो से लोग अपने हाथों को गरमाते। फिर उस गरमाहट को अपनी आँखों, गालों और बालों पर हाथ फिरा कर महसूस करते। बीच-बीच में पंडित डूँगा की ओर देखता और बोलता- र्कइं खँजड़ी तोड़ी के दम लेगो। टुल्लर हो... हो... कर हँसता। डूँगा टुल्लर की हँसी को खँजड़ी की आवाज़से दबाने की कोषिष में और ज़ोर से बजाता। पंडित ने आरती की थाली मूर्ति के चरणों में धर दी। पंचामृत की गवड़ी उठायी। प्रसाद का धामा उठाया। उन्हें सिंहासन के चैनल गेट के पास नीचे धरा। फिर धीरे से एक छोटे से आसन पर ख़ुद बैठा, तो तोंद नीचे फर्ष पर टिक गयी। फिर बारी-बारी से दो चम्मच पंचामृत देता। लेने वाला जब पंचामृत पी लेता, और हाथों को बालों या कूल्हों से पोंछ लेता, तब वह प्रसाद देता। यह सब षुरू होने तक भी जब डूँगा का खँजड़ी बजाना नहीं थमा। हथैलियों से रिसता ख़ून पसीने के साथ कोहनी के रास्ते से मन्दिर के आँगन में टपकने लगा। तब रामा बा का धैर्य भी चुक गया। उन्होंने डूँगा को झिन्झोड़ा- अरे र्कइं दम उखड़ने तक बजावेगो, धर अब। टुल्लर फिर हो.... हो.... कर हँसा। डूँगा ने और ज़ोर से खँजड़ी बजायी। जब उसने रामा बा की बात भी न सुनी, तो रामा बा ने उसके हाथ से खँजड़ी ज़ोर से खींच कर छुड़ा ली। तब उसकी तंद्रा टूटी। उसे लगा- जैसे गाँव के सभी टुल्लर के छोरे मिलकर उसके हाथों से खेत छुड़ा रहे हैं। उसने घबराकर खँजड़ी को और ज़्यादा मज़बूती से पकड़ा और ज़ोर से चीखा- म्हारे नी बेचनो है म्हारो खेत। यह सुन रामा बा के हाथ पाँव ढीले पड़गये। वह समझ गये, डूँगा का इस क़दर खँजड़ी बजाने का कारण। उनके मन में घृणा का समुद्र हिलोरने लगा। फिर उसी भाव से टुल्लर की तरफ़देखा और मुँह फेर कर ज़ोर से थूका। रामा बा की घृणा और उस ढँग से थूकने को देख, अगर कोई ज़रा भी लाज-षरम वाला होता। वहीं गड़जाता। लेकिन टुल्लर ने तो लाज-षरम काटकर ढेका (कूल्हे) पीछे धर ली थी। टुल्लर फिर बेषर्मी के मचान पर चढ़हो.... हो.... कर हँसा। उस रात चुपचाप डूँगा चला आया था। उसके मग़ज़में हो.... हो.... गूँज रही थी। वह आकर सेरी में ढली अपनी खाट पर लेट गया था। खाट उनाले भर सेरी में ही ढ़लती थी। आम की लकड़ी की ईंस पर नरेटी यानी 'नारियल के रेषों से बनी रस्सी' से बुनी खाट। साँझ को खाट पर कोई गुदड़ी या पल्ली नहीं बिछी होती। वह तो जब आरती से लौट आता, तब बिछायी जाती। उनाले की साँझ होती, तो आरती में जाने से पहले डूँगा उमस के कारण फतवी को उतार देता। उघड़े बदन नरेटी पर लेट जाता। थके षरीर में नरेटी एक्यूपंचर का काम करती। जब षँख की ध्वनि आरती में बुलाने के लिए हाँक लगाती। डूँगा उठकर बैठता और खाट के पाए के माथे पर टँगी फतवी को उठाता। झटकारता। पहनता। इस बीच उसकी पीठ पर अबूझ नक्षा देखा जा सकता, जो नरेटी बनाती थी। नक्षा साँझ को ही बनता पीठ पर, ऐसा ज़रूरी नहीं था। वह तो खाट पर उघड़े बदन लेटने से बनता था। जब उनाले के दिनों में खेत पर कम जाना होता। डूँगा दोपहर में घर सामने की ईमली की छाँव में दोपहरी गालने खाट पर लेट जाता। उठता तो पीठ ही नहीं, दायीं-बायीं पाँसुओं पर भी अबूझ नक्षे बने होते। जब नक्षों पर डूँगा की छोरी पवित्रा का पहली बार ध्यान गया था, तो पवित्रा ने जिज्ञासावष डूँगा से नक्षों के बारे में पूछा लिया था, तब डूँगा अपने मन में खाद-बीज से जुड़ी सन के रेसों की उलझी गुत्थी को सुलझाने का सिरा खोज रहा था। उसी मूड में उसने कह दिया था- बेटी, इ तो म्हारी ज़िनगी का नक्षा हैं, न समझ आवेगा और न मिटेगा ! उन दिनों पवित्रा आठवीं-नौवी कक्षा में थी। उसके षरीर में तेज़ी से तमाम बदलाव भी आना षुरू हुए थे। उस दोपहर डूँगा का जवाब सुन पवित्रा ने सोचा, वह कभी नरेटी बुनी खाट पर न बैठेगी, न सोयेगी। अगर बैठी या सोयी, तो उसके षरीर पर भी ऐसे आड़े-तिरछे और उलझे नक्षे बन जायेंगे, जो कभी नहीं मिटेंगे। डूँगा के घर में एक ही खाट थी, जिस पर पहले उसकी जी (माँ) और दायजी (पिता) सोया करते थे। जब दायजी न रहे और डूँगा छोटा था, तो जी के साथ उसी खाट पर सोता था। बड़ा हुआ तो नीचे गुदड़ी बिछाकर सोया करता। जब जी न रही। कुछ दिन पारबती के साथ उसी खाट पर सोया। जब परिवार बढ़गया, तब फिर अकेला उस खाट पर सोता था। एक बार डूँगा के पास थोड़े पैसे आये, तो उसने सोचा, घरवाली पारबती और छोरी पवित्
रा के लिए भी एक-एक खाट बनवा ली जाये। खाट की ईंस और पाए तो अपने खेत के एक पेड़की कुछ डगाले कटवाकर गाँव के सुतार बा से गढ़वा लिये थे। खाट बुनवाने को रस्सी लाना थी और नरेटी ख़रीदने जितने पैसों का बन्दोबस्त था, सो खाट बनवाने के ख्याल में कोई खोट नहीं थी। जब पारबती की खाट बनकर तैयार हो गयी और पवित्रा की खाट में रस्सी बुनवाने की बारी आयी, तो पवित्रा ने अपनी खाट में सस्ती और चुभने वाली नरेटी न बुनवाने दी। उसके मन में यही था कि नरेटी से बुनी खाट पर सोयेगी, तो पूरे षरीर पर नक्षे ही नक्षे उभर आयेंगे। उसने पड़ोसन सम्पत माय की खाट में बुनी सूती निवार देख रखी थी, वही बुनवाने की जिद की। डूँगा ने पवित्रा की जिद का मान रखा। नरेटी वापस की। अपनी दो भैंसों का दूध जिस सेठ को बेचता था, उस सेठ से कुछ रुपये उधार लिये। सूती निवार लाया। पवित्रा की खाट पर बुनवायी। पवित्रा निवार की खाट पर भी दो गुदड़ी बिछाकर सोती। डूँगा और पारबती की इकलौती और लाड़ली जो थी। उस रात जब षँख की ध्वनि डूँगा को बुलाने आयी, तब अपनी खाट पर चीत लेटे डूँगा का मुँह अधखुला और आँखें पूरी खुली थीं। पलकों के कोनो में लोणी (मक्खन) के रंग का कीचड़जमा था। कोटरों में भरे पानी में पुतलियाँ तैर रहीं थीं। कोटरों के पानी और पुतलियों में बारसाख के ऊपर टँगे गुलुप की मानिन्द आसमान के तारे झीलमीला रहे थे। डूँगा की आँखों में झीलमीलाते तारे, केवल आसमान के तारे नहीं थे- एक सपना था। सपना भी क्या ! एक लुगड़ी का सपना ! छींटदार। सितारे टँकी लुगड़ी का सपना। यह एक ऐसा सपना था, जिसे देखने के लिए डूँगा को अर्धनिंद्रा में जाने की ज़रूरत नहीं थी। यह तो कुछ ऐसा था कि जब भी डूँगा खाट पर लेटता। सिर तकिये पर धरता। नज़्ारे तारों को छूतीं और क्षणभर में ही आसमान छींटदार लुगड़ी में बदल जाता। उस लुगड़ी को देखते-देखते ही वह नींद में चला जाता। सुबह उठकर लुगड़ी को पाने के लिए दिनभर खेत में हाड़तोड़मेहनत करता। डूँगा का कुछ चीज़ों से ख़ास लगाव था, वे न हो तो डूँगा की नींद हराम हो जाती। मसलन कुआॅ हो, खेत हो, षरीर हो और मेहनत न हो। आसमान हो, तारे हो और तीन तारों की छड़ी न हो। आँखें हों, सपना हो, खाट हो और तकिया न हो। तकिया....... याद आया। उसकी खाट पर एक तकिया हमेषा धरा रहता। तकिया भी क्या, बस समझो, फटे-चेथरों को खोल में भरकर बना माकणों (खटमलों) का घर। जब किसी भी घर में सफाई अभियान के दौरान माकणों पर घासलेट या फ़सलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता, तब माकणें गारे की भीतों की दरारों से, ईंस और पाए की दरारों से यानी जो जहाँ होता, वहाँ से जान हथेली पर लेकर भागता और डूँगा के तकिये में आकर राहत की साँस लेता। माकणों के लिए पूरे गाँव में डूँगा के तकिये से ज़्यादा महफूज़कुछ नहीं था। डूँगा का वह तकिया उसकी जी ने बनाया था- जिस पर पारबती ने पुराने लुगड़े कीखोल चढ़ायी थी। तकिये को कभी डूँगा की खाट से अलग नहीं रखा जाता। डूँगा खेत पर जाता। डूँगा परगाँव जाता और रात को लौटने वाला नहीं होता। तब भी तकिया खाट पर ही होता। पारबती इतना ज़रूर कर देती। खाट को ओसारी के आँगन में खड़ी कर देती और तकिया उसके पाए पर धर देती। यह ऐसा काम था जिसे टाला न जाता। अगर किसी व्यस्तता या मुसीबत की वजह से टल जाता, तो फिर खाट पर कबरे टेगडे (कुत्ते) का राज होता। टेगड़ा डूँगा की मौजूदगी में खाट के नीचे और ग़ैर मौजूदगी में ऊपर सोता। जब ऊपर सोता और सू सू की इच्छा होती। आलस्य के मारे नीचे न उतरता। खाट पर धरा तकिया उसे टीला नज़र आता। वहीं टाँग उठाता और उसी पर....तुर्रर...। वह तो एक रात पारबती ने देख लिया। तब से वह खाट को आँगन में खड़ी कर देती। न देखती, तो टेगड़े काखेल अभी ज़ारी रहता। लेकिन वह कभी भी तकिये को घर में गुदड़मच्चा पर नहीं रखती। ऐसा भी कुछ नहीं था कि उस तकिये को घर के और तकियों के साथ रखने की मनाही थी। लेकिन पारबती और पवित्रा की आदत में ही नहीं था कि उस तकिये को भीतर गुदड़मचा पर रखी गुदड़ी और तकियों के साथ रखती। एक बार पवित्रा ने डूँगा का तकिया ग़्ालती से और घर के दूसरे तकियों के साथ रख दिया था। साँझ को जब डूँगा की खाट सेरी में ढाली। उस पर तकिया रखा, तो भूल से दूसरा रखा गया। तकिया क्या बदला ! बदल गया सब कुछ- जैसे तकिये की गंध, उसकी नर्माहट, उसके माकणेें और ऐसे ही तकियों के माकणों के लिए भी सब कुछ। उस रात डूँगा आरती से लौटा। खाना-वाना खा-पीकर। अपनी खाट पर लेटा। सिर तकिये पर धरा। आँखें खुली। नज़रें तारों से मिली, तो डूँगा को भी सब कुछ अजीब-अजीब-सा, बदला-बदला-सा लगा। तकिया अटपटा लगा। आसमान ओगला लगा। तारे बेपहचाने लगे। सपने का सिलसिला भी बिखरा-बिखरा लगा। नींद आँखों के आसपास मँडराती महसूस तो होती, पर पलकों पर लुमट कर उन्हें बंद न कर पाती। डूँगा हैरान-परेषान। कुछ
समझ में न आये। रात बीती जाये। लेकिन फिर देर रात में ही सही, पर वजह उसके हाथ लग ही गयी। वहज वही थी कि भूल से तकिया बदल गया। डूँगा ने घर में सोयी पारबती और पवित्रा को जगाने का सोचा और तकिया लेकर खाट पर उठ बैठा। आसमान में तीन तारों की छड़ी की ओर देखा, छड़ी, 'जिसे वह अपनी सपनों की लुगड़ी में सोने का तार समझता था। उसी से टैम का अँदाज़ा लगाया। करीब एक-सवा-एक बजना चाह रहा था। यह सोच वापस लेट गया- अब घरवाली और छोरी की नींद ख़राब न करूँ। लेकिन रात के दो बजे तक सोने में असफल रहा। फिर से उठा और जाकर किवाड़खटखटाया। पारबती जागी। किवाड़खोला। नींद से पारबती की पलकंे भारी थीं। डूँगा को अपनी नींद बिगड़ने की झुँझलाहट थी। लेकिन बची हुई दोनों ने न बिगाड़ने की सोची। पारबती मौन थी, पर उबासी बज रही थी। डूँगा की झुँझलाहट यथावत थी, पर संयम से बोला- म्हारो तक्यो दी दे। पारबती भीतर गयी। धम्म.. धम्म...। पवित्रा के माथे के नीचे से तकिया खींचा। माथा नीचे गुदड़ी पर गिरा-भट्ट। पारबती वापस लौटी- धम्म... धम्म.. । डूँगा के हाथ में तकिया थमाया- थप्प। डूँगा होठ हिलाता जैसे कोई षान्ति जाप करता खाट की ओर लौटा। पारबती ने किवाड़के पल्ले भिड़े- भड़ाक। डूँगा खाट पर आ बैठा। सिरहाने बाजू ईंस पर तकिया धरा। फिर लेटा। तकिये पर माथा धरा। नज़रे तारों पर जा टिकी। मग़ज़्ा में लुगड़ी फरफराने लगी। थोड़ी देर में घुर्र.. घुर्र... खर्राटे षुरू। उस दिन के बाद वह तकिया कभी भी भीतर नहीं गया। इस बात को ज़्यादा नहीं तो भी आठ-दस साल हो गये थे। तब तो तकिया ऐसा था कि कोई भी उसे सिर के नीचे रख लेता। लेकिन अब तकिये के भीतर भरे चेथरों के लड्डू बन गये थे, बल्कि कोई-कोई लड्डू तो कबीट की भाँति कड़क बम हो गया था। उस तकिये की खोल पसीने और मैल से इतनी चिकट और काली हो गयी थी कि उस पर कोई मक्खी भी बैठना पसंद नहीं करती। और कबरा टेगड़ा तो उसकी बास से भी कतराता। इसलिए जब भी खाट के नीचे सोता, अपना मुँह डूँगा के पैरों की तरफ़करता। लेकिन तकिये में रहने वाले माकणों और डूँगा को उसकी बास से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि उसकी बास की आदत पड़गयी थी और डूँगा का सफे़द बालों वाला सिर उसी तकिये पर टिककर आराम महसूस करता था। जब कभी उसका सिर तकिये पर धरा होता। उसे अपनी गुज़र चुकी जी (माँ) की याद आती, तो ऐसा महसूस होता - वह तकिये पर नहीं, अपनी जी की जाँघ पर सिर रखकर लेटा है, और यह बात तो कभी वह किसी मीठे या भयानक डरावने सपने में भी नहीं भूल सकता था कि उसने एक रात जी की जाँघ पर माथा धर कर लेटे-लेटे ही काहा था- जी। -हँ... जी ने हुँकारा भरा था। -जद हूँ बड़ो हुई जउवाँ, थारा सरू एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउवाँ। -बहोत अच्छी..... जी का झुर्रीदार चेहरा चमक उठा और उसने ख़ुषी से भरकर पूछा था- कैसी ? -वैसी..... डूँगा ने आसमान में जगरमगर करते तारों की ओर इषारा करते हुए कहा था। उस रात डूँगा की जी का कलेजा भर आया था। अचानक अधेड़और पतली पलकों से खारा पानी ढुलक गया था। वह खारा पानी, जिसे उसने पन्द्रह बरस के रँडापे में कभी ढुलकने तो दूर, पलकों के आसपास भी नहीं आने दिया था। पन्द्रह साल पहले वह ब्याहकर आयी थी, और फिर साल भर बाद ही डूँगा उसके पेट में हिलने-डुलने लगा था। उन दिनों एक रात डूँगा के दायजी (पिता) ने उसकी जवान, किन्तु गर्भवती होने के कारण नर्म और ढीली पड़ती जाँघ पर माथा रखकर कहा था- हूँ थारा सरू अबकी एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउआँ। -कैसी ? उस रात भी डँूगा की माँ ने ऐसे ही पूछा था और डूँगा के दायजी ने आसमान में चमकते सितारों की ओर इषारा करके कहा था- वैसी। लेकिन डूँगा के दायजी ने जीवन में ऐसा गच्चा खाया। लुगड़ी तो दूर, वे कभी लाख का एक चूड़ा भी नहीं पहना सके। डूँगा दस बरस का ही था, जब उसके दायजी के पैर भरोसे के धागों से बुने जाल में उलझ गये। दायजी के माथे उनके दायजी का लिया कुछ कर्ज़ा था। जिसे वे चुका नहीं सके; और जाल उन्हें लील गया। जिन्होंने दायजी को मारा, वे दायजी के भाइयों के बहादुर बेटे थे। उन्हीं ने उस कर्ज़ की वसूली के बदले दायजी से दो खेत के काग़ज़ों पर अगूँठा लगवाया था। काग़ज़पर लिखा था- कर्ज़ा न चुकाने की स्थिति में खेत उनके हो जायेंगे। दायजी को खेत अपनी जान से भी प्यारे थे। जीवन का एक ही मक़सद- ज़ल्दी से ज़ल्दी खेतों को कर्जे़से मुक्त करना। वे फ़सल के गोड़में मेहनत, भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद डालते थे। एक-एक पौधे को ख़ून के पसीने से सींचते थे। फ़सल को अच्छी होना ही पड़ता था। एक दिन उनकी अदा ने दायजी के भाइयों के बेटों के मन में षंका का बीज बो दिया- यह ऐसी मेहनत करता रहा। ऐसी फ़सल काटता रहा। कर्ज़ा तो यूँ पटा देगा। पर रुपये के बदले रुपये लेने को थोड़ी दिया था कजऱ्ा। कर्ज़ा दिया था, ताकि उसके बदले खेत आ सके। पर लगता है ये तो उ
लटी गंगा बहाने पर तूला है। उन्होंने एक रात दायजी को खेत पर करंट लगाकर मार दिया। जब दायजी का नुक्ता-घाटा हो गया, उन्होंने वे खेत कब्जा लिये। डूँगा की जी ने जैसे-तैसे उसे बढ़ा किया और ब्याह के साल-छः महीने बाद ही वह चली गयी। उसे कोई बीमारी थी, ये तो कभी कुछ उजागर न हुआ। पर उसकी उम्र और पड़ौस की सम्पत की, बाखल की और दूसरी औरतों की सुने, और माने, तो यही सुनने-समझने में आता- डूँगा की जी को आराम और ख़ुषी नहीं फली। डूँगा अपनी जी को दी जबान पूरी करने को भरसक अपटा था। पर हर बार उसके सामने कोई न कोई मुसीबत खड़ी हो जाती। उस पर मुसीबतें कुछ ज़्यादा ही महरबान थीं। कुछ इस तरह की गाँव में से कोई भी मुसीबत को बाहर खदेड़ता, तो मुसीबत माकणों की तरह डूँगा के घर में आ बसती। डूँगा का घर यानी मुसीबतों का पिहर। अगर डूँगा का घर मुसीबतांे की नज़र में न चढ़ता। डूँगा और उसका परिवार मुसीबतों को चकमा देने का हुनर सीख लेता। लुगड़ी तो वह एक नहीं, सौ-सौ कभी का; और कई-कई बार ख़रीद चुका होता। क्योंकि डूँगा अपने दायजी की तरह मेहनती था। फ़सल के रूप में नगद उगाता। पर वह मेहनत से कमाये पैसोें को अपनी मर्ज़ी से ख़र्च नहीं कर पाता। उसकी सभी इच्छाएँ, ज़रूरतें और सपने धरे रह जाते। पैसा किसी न किसी मुसीबत की भेंट चढ़जाता। अब उसके ब्याह के बरस की ही बात ले लो। ब्याह से पहले तक उसकी जी एकदम टनटनाट थी। न सर्दी, न खाँसी, न गठिया, न कोई और अमका-ढिमका रोग। डूँगा के दायजी के चले जाने के बावजूद उसने जिस दमदारी से डूँगा को पाल-पोसकर बड़ा किया। खेती-बाड़ी के गुर सिखाये। वह सब अच्छे-अच्छे मूँछ वालों के सामने मिसालें थीं। कैसे वह अपनी बची-खुची ज़मीन को जेठ, देवर और उनके छोरों की नज़र से बचाती रही। कैसे उसने डूँगा को घड़ी भर भी अपनी नज़र से दूर नहीं जाने दिया। उसे पढ़ाने-लिखाने की इच्छा का गला घोंट दिया। उसने अपनी और डूँगा की रक्षा के लिए कभी कमर से बँधा दराँता (हँसिया) घड़ी भर को दूर नहीं रखा। लेकिन डूँगा के ब्याह के बाद तो जैसे उसकी सारी मुरादें पूरी हो गयी। बहू पारबती ऐसी गुणवंती मिली थी कि सास को तिनका तोड़कर दो नहीं करने देती। उसे लगा- अब उसकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी। उसे डूँगा के दायजी की याद सताने लगी। यह रोग उस पर इस क़दर हावी हुआ कि वह मिट्टी की तरह गलने लगी, और उस दिन जब डूँगा ब्याह के बाद पहली फ़सल बेचकर लौटा। उसने अपनी जी की गोदी में नोटों की नवली रखी। फिर उसमें से कुछ नोट लेकर वह जी के लिए एक लुगड़ी ख़रीदने जाने लगा। अपने सपनों की लुगड़ी। अपने दायजी के सपनों की लुगड़ी। छापादार लुगड़ी। डूँगा की जी अपने जीवन पर, अपने सपूत पर मुग्ध हो गयी। उसकी आँखों से ख़ुषी के दो गर्म रेले ढुलके- मानो रँडापे में सहे सभी दुख धूल गये। उसने अपने षरीर पर छापादार लुगड़ी को महसूस किया। ख़ुषी का एक गोला उसकी ष्वांस नली में फँस गया और वह ख़़ुषी-ख़ुषी अपनी देह से बाहर चली गयी। डूँगा के पैरों तले की धरती धँस गयी। सिर पर आसमान टूट पड़ा। नुक्ते-घाटे का ख़र्चा पहाड़की तरह छाती पर खड़ा हो गया। डूँगा खूब नटा। उसने कहा कि वह जीते-जी अपनी जी को मन पसंद एक लुगड़ी न ओढ़ा सका। मरे पाछे नुक्ते-घाटे का ढ़कोसला करने का क्या फ़ायदा ? समाज के ठेकेदारों ने अच्छे-अच्छों के घर-खेत बिकवा कर नुक्ते करवाये थे। फिर डूँगा को कैसे बख़्षते ? फ़सल का पूरा पैसा जी के क्रिर्याकर्म और नुक्ते-घाटे में ख़र्च हो गया। फिर एक रात जब मन्दिर में षँख, झाँझ, खँजड़ी और ढपली की आवाज़थमी। रोज़की तरह पारबती समझ गयी, आरती ख़त्म हुई। आरती से लौटकर डूँगा खाना खाया करता। आरती ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हुआ था पारबती का खाना बनाना भी। उसने जिस दाथरी में आटा गून्धा था, उसी में हाथ धोये। दाथरी धोयी। दाथरी का पानी पनहरी के नीचे रखे कुण्डे में डाला। दाथरी को भीत से खड़ी टिका दी, ताकि पानी निथर जाये। फिर अपने पूरे नौ महीने के पेट को लेकर उठी। बारी में से पीतल की थाली निकाली। पनहरी के ऊपर भीत में ठूँकी खूँटी पर रखे पटिये पर से काँसे का गिलास उठाया। बारी में से छाछ का चूड़ला निकालकर बाहर रखा। बैठकर थाली में खाना परोसने लगी। लेकिन परोसने से पहले थाली पोंछने का ख्याल आया। इधर-उधर नज़र मारी, थाली पोंछने का चेथरा कहीं नज़र न आया। उठकर चेथरे को ढूँढ़ने की इच्छा न हुयी, अलसा गयी, तो अपनी घाघरी से थाली पोंछी और खाना परोसने लगी। उस रात खाना भी क्या बनाया था उसने ! देखते ही गलफों से लार की तिरपने फूट पड़तीं। कड़ेले पर छींटादार सेंकी ज्वार की रोटी। मटूरिया। भरता। लीली मिर्चा। लूण। यह सब जब पीतल की थाली में परोसा और चूड़ले में से गिलास में गाढ़ी और चार-पाँच दिन पुरानी खट्टी छाछ कूड़ही रही थी कि डूँगा आ गया। आरती में जाने से पहले ही डूँगा के सिर में हल्का-हल्का
दर्द था। लेकिन जब थाली में अपना मन पसंद भोजन देखा, तब दर्द तो भूला ही, भूला खाने से पहले हाथ धोना भी, और दोनों साथ-साथ खाने लगे। खाने के बाद फिर सिर में दर्द ने आँखें खोली और धीरे-धीरे चटीके पड़ने लगे। वहीं सामने वाली भीत से सटी अनाज से भरे थैलों की थप्पी लगी थी। कुछ दिन पहले ही आयी ताज़ी फ़सल को अवेरकर रखी थी। बेंचना बाक़ी थी। थप्पी पर गोल घड़ी कर खजूर के खोड्यों से बनी छादरी धरी थी। डूँगा ने छादरी उठायी और ज़मीन पर बिछाकर उस पर लेट गया। पारबती से माथा दुखने का बताया, तो वह पास आ गयी। भीत से टिककर बैठी। पैर लम्बे किये। डूँगा का माथा अपनी नर्म और ढीली जाँघों पर रखा और कपाल को हथेली के गुद्दे से कूचने लगी। पारबती के हाथों में जैसे जादू था। दर्द छू मन्तर होने लगा था। अपने सिर के नीचे पारबती की नर्म और ढीली जाँघों को महसूस कर डूँगा को अपनी जी की याद आने लगी। डूँगा की आँखें बंद होने लगी। उसके कपाल के नीचे से दर्द के छू मन्तर होने पर जो जगह ख़ाली हुयी, वहाँ लुगड़ी लहराने लगी। लुगड़ी के पीछे ही जी के न रहने का ख्याल भी आया। उसका मन इस मलाल से भर गया कि जीते-जी जी को लुगड़ी न ला सका। जी होती तो आज गल्ले से भरे थैलों की थप्पी बेचकर लुगड़ी ले आता। पर अब किसके लिये....? उसके मन में आये इस प्रष्न के पीछे-पीछेे ही उत्तर भी चला आया- जी न सही, पारबती तो है। वह पारबती को कम नहीं चाहता, बस, कभी मन में लुगड़ी लाने का खयाल ही नहीं आया। लेकिन उस क्षण अचानक ह्दय में पारबती के लिए भी प्रेम की क्षिप्रा किनारे तोड़कर बहने लगी। फिर उन दिनों तो पारबती के दिन भी पूरे चल रहे थे। वह किसी भी दिन बच्चे को जन्म दे सकती थी। डूँगा सोच में पड़गया। षायद मग़ज़में गूँजने लगा- म्हारा ही अंष के जनम दइगी। उना गेंहूँ का खळा में म्हारा ही एक टिपका (बूंद) के कोख में छिपइ ल्यो थो; और उनाज टिपका के अब फूल बनई के म्हारी गोदी में रखी देगी। पारबती म्हारी बैराँ तो है ही, जी भी बनी जावेगी। उस क्षण डँूगा अपनी भावना में भीग गया। पारबती की जाँघों पर से सिर उठाकर उसकी छातियों पर रख दिया। उसके फूले पेट पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फिराता और छातियों से सटे मुँह को ऊपर उठाया। पारबती की आँखों में देखता बोला- गल्लो बेचने जउँआ, तो थारा सरू बहोत अच्छी लुगड़ी लउँआ। -कसी (कैसी) ? पारबती ने उसके बालों में अँगुली फेरते पूछा। -लाल छींटादार। डूँगा ने भौहों को उचकाकर और होंठों पर मुस्कान लाकर कहा था। उन्हीं दिनों दो दिन बाद की एक सुबह, इधर डूँगा ने मंडी ले जाने को मेटाडोर में गल्ला भरा। उधर पारबती की कोख के भीतर बच्चा ज़ोर-ज़ोर से लात मारने लगा- मानो पेट का बच्चा भी अपने बाऊजी के साथ मंडी जाने को ज़ल्दी से बाहर आना चाह रहा था। उसी मेटाडोर में पारबती को बैठाया। अस्पताल में उसकी देख-रेख करने को पड़ौसन सम्पत काकी को साथ बैठा लिया। बड़ी भली बैराँ थी सम्पत काकी। ऐसे मामलों में कभी मना नहीं करती। वह सुबह पाँच-साढ़े पाँच का वक़्त था। सम्पत काकी लोटा लेकर झाड़े(दिषा फारिग) फिरने जा रही थी। पर उसने लोटे का पानी फेंक दिया। लोटा अपने घर की ओटली पर रखा और बाहर से हाँक देकर अपनी छोरी को बुलाया। छोरी भीतर चाय बनाने को चूल्हा सुलगा रही थी, वह हाथ का काम छोड़कर बाहर आयी, तो उसे बस इतना कहा- थारा बाऊजी के बता दे, हूँ पारबती काकी की साथ में हस्पताल जय री हूँ। छोरी आठ-दस साल की ही थी। उसे कुछ सम्पट नहीं पड़ी, तो उसने पलट कर पूछा- क्यों र्कइं हुई ग्यो ? -थारो माथो हुई ग्यो, तू तो थारे बतायो, उतरो बता दी जे, वी सब समझी जायेगा। उसने मेटाडोर में बैठते-बैठते कहा था। गाँव से षहर की दूरी आधे घण्टे की थी। षहर पहुँचते ही महात्मा गाँधी अस्पताल था। पारबती और सम्पत काकी को अस्पताल में छोड़ा और वह गल्ला लेकर मंडी पहुँचा। मेटाडोर भर कर गल्ला बेचा और मुट्ठी भर नोट लेकर दो घण्टे में वापस अस्पताल आ गया था। आते ही उसने देखा- अभी तक पारबती को भर्ती ही नहीं किया था। वह फर्ष पर लेटे चीख़ रही थी। उनकी कोई सुनवाई नहीं हुयी थी। डूँगा ने भाग-दौड़कर अस्पताल का कोना-कोना एक कर दिया। तब नर्स और डाॅक्टर के कान पर जूँ रेंगी। पारबती को भर्ती किया। बच्चा हिल-हिल कर भीतर उलझ गया था। डाॅक्टर ने अपने और अस्पताल के ख़र्चे का मुँह फाड़ा, तो डूँगा ने पूरे के पूरे नोट उसके मुँह में ठँूस दिये थे। तब पारबती को आॅपरेषन के लिए ले गये। उधर पारबती को ले गये। इधर सम्पत काकी ने भाल का पसीना पोछते हुए कहा- डूँगा, बीर तू याँ बैठी जा, हूँ झाड़े फिरीन अभी अऊँ। उस दिन बड़े आॅपरेषन और लम्बे इंतज़ार के बाद आयी थी- पवित्रा। पवित्रा के आने की ख़ुषी से डूँगा उछल पड़ा। उसने उन क्षणों में सम्पत काकी को भी एक लुगड़ी ओढ़ाने का वादा किया। सम्पत काकी ने सात-आठ दिन तक अस्पताल में
पारबती की देख-भाल, अपनी सगी बेटी की तरह की थी। जब अस्पताल से पारबती को छुट्टी दी। तब डाॅक्टर ने डूँगा को अपने केबिन में बुलाकर समझाया- पारबती का केस कुछ ज़्यादा बिगड़गया था। उसकी कोंख बिल्कुल ख़राब हो गयी। अब वह दुबारा माँ नहीं बनेगी। सुनकर डूँगा को दुख तो हुआ था। एक क्षण को उसके ज़ेहन में कौंधा- पढ़ा-लिखा होता, या षहरी पैसे वाला होता, तो षायद पारबती के केस में ढ़ीलपोल नहीं होती। लेकिन दूसरे ही क्षण उसने नन्हीं पवित्रा की ओर देख कर सोचा- यही छोरा और यही छोरी। अब जो करी, वही खरी। वही पवित्रा जो आठवी-नवीं तक दुबली-पतली और लम्बी नाक वाली बच्ची दिखती थी, ग्यारवी-बारहवीं पास करते-करते एकदम बदल गयी। पारबती से तीन-चार इंच लम्बी दिखने लगी। उसके बदन पर भी मानो किसी ने पीली मिट्टी की छबाई कर दी। अब उसकी नाक पहले से कम लम्बी दिखती, क्योंकि नाक के दायें-बायें सुलगती छाणी के टापू की तरह गाल उभर आये थे। कभी जिन आँखों में कीचड़भरा रहता। अब उनके सामने कुलाँचे भरती हिरणी की आँखें भी कमतर लगती। गरदन के नीचे की हड्डियाँ भी छाती पर उभरे माँस के नीचे छुप गयी। अब तो बस.... उसकी देह ऐसी हो गयी थी कि उसे छूते हुए हवा जिस बाखल से गुज़रती, पवित्रा के हम उम्र और चारेक साल बड़ों तक का मग़ज़पगला जाता। पारबती की नज़रों से भी न पवित्रा का षरीर छुपा था, न खिलते षरीर की ख़ुषबू। उसने इस सम्बन्ध में न डूँगा से कोई सलाह-मषविरा किया, न पवित्रा से कुछ कहा। ख़़ुद ही यह तय किया- अब पवित्रा को कहीं अकेली जाने-आने नहीं देगी। वे कुएँ या हैण्ड पम्प से पानी लेने जाती, तो माँ-बेटी साथ जाती। खेत पर जाती, तो साथ-साथ जाती। यहाँ तक की झाड़े फिरने भी एक साथ जाती। बस, पारबती नहीं जा सकती थी, तो पवित्रा के साथ पढ़ने ! इसलिए पवित्रा का पढ़ना बारहवीं के बाद पारबती ने छुड़वा दिया। लेकिन इतना पढ़कर भी वह गाँव की छोरियों में सबसे ज़्यादा भणी-गुणी थी। पारबती की आँखों में छोरी के हाथ पीले करने का सपना जवान होने लगा। वह डूँगा पर पवित्रा के लायक लड़का ढँूढ़ने का दबाव बढ़ाने लगी। डूँगा सालों से खेती में मेहनत और बस मेहनत करता आ रहा था। उसकी दुनिया घर, मन्दिर और खेत के बीच फैली थी। गाँव से बाहर जाने के नाम पर कभी अनाज मंडी जाता। सोसायटी में खाद लेने जाता। बिजली का बिल भरने जाता। लुगड़ी ख़रीदने के सपने के अलावा, भी कुछ चिंताएँ थी- मसलन कभी खाद का महँगा होना, कभी बिजली का कटोत्रा बढ़ना, कभी बीज बोदा निकलना। कभी डंकल का डसना। कभी अंकल का हँसना। लेकिन अब जब गाँव-परगाँव आना-जाना बढ़ने लगा था। छोरा भलेही ढँग-ढोरे का नहीं मिल रहा था। पर छोरा ढूँढ़ते हुए जो कुछ देखने-सुनने और जानने-समझने को मिल रहा था, वह भी उसे आष्चर्य से भरता था। उसे अपने आसपास की दुनिया में बहुत कुछ बदलाव नज़र आता। बदलाव, कुछ समझ में आता और कुछ समझ से परे भी रह जाता। पवित्रा का जन्म अब तक उसे जैसे कल की घटना लगती। लेकिन अब लगने लगा- वह बीस बरस पुरानी बात है। इतिहास में बीस बरस जो भी मायना रखते हो, लेकिन एक जीवन में बहुत मायना रखते हैं। उसने तो बीस बरस में बीस बार ढंग से आईना तक नहीं देखा। आईने के सामने बस बैठता। नाई हजामत बना देता और वह उठकर चला आता। लेकिन पिछली बार जब एक साँझ वह नाई से गाल के बाल छिलवाने गया। आईने के सामने बैठा। आईने में ख़ुद को देखा, तो एकदम अपना चेहरा पहचान न सका। पलट कर पीछे देखा कि पीछे कौन बूढ़ा है, जो आईने में दिख रहा है। पीछे नाई के सिवा कोई नहीं था। वह सफे़द बालों से भरा उसी का चेहरा था। जब नाई ने चेहरे से सफ़ेद बालों को साफ़कर दिया, तो चेहरे पर मकड़ी का जाला उभर आया था। वह आँखें बंदकर मानस पटल पर अपना पुराना चेहरा देखने लगा। गालों पर हाथ फेरकर पुराना चेहरा ही महसूस किया। पर जब आँखें खोली तो वही चेहरा सामने था- पुपलाता मुँह, आँखें धँसी। पुतलियों के आसपास फफूँद जैसा कुछ जमा हुआ। भाल, नाक और गाल पर मकड़जाल। जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे ऐसे छेद, जैसे कोई बहुत सावधानी से चोरी-चुपके कई दिन-रात बेर के सीधे काँटे से करता रहा था और डूँगा ने पहली बार उसी साँझ को देखे थे। वह उठ खड़ा हुआ। नाई को पाँच रुपये थमाकर घर की ओर चल पड़ा। उस साँझ उसे लगा- वह बूढ़ा हो गया। वह चलते-चलते अचानक रुक गया। दरअसल आनायास ही उसकी जीभ ऊपरी जबड़े की बाँई बाजू के दाँतों को टटोलने लगी। उसने महसूस किया, बाँई बाजू का तीखा दाँत नहीं था, जिसे अक्सर वह साँटे (गन्ने) की पँगेर में सबसे पहले धँसाता और बाकी अड़ौसी-पड़ौसी दाँतों की मदद से साँटे को चीर देता था। उसे ज़ोर का धक्का तब लगा, जब अगले छण महसूस किया- तीखे दाँत की बगल वाली दाड़भी नही है। जीभ जैसे एक-एक दाड़-दाँत का समाचार लेने लगी। मानों मुँह का बाड़ा छोड़कर चले गयों के प्रति
दुख और सहानुभूति प्रकट करने लगी। बचे हुओं को, जाने वालों के ग़म से उभारने का सोच ढाँढ़स बँधाने लगी। जीभ जैसे ही मसूड़ों पर चलकर अगले दाँत के पास पहँुचती। कोई अकड़कर और कोई विन्रमता में अपनी जगह खड़ा रहता। कोई रूठकर पीछे हट जाता। जैसे जता रहा हो- मैं ज़्यादा दिन रुकने वाला नहीं। फिर वह अपनी जगह खड़ा-खड़ा ही हँसा। सचमुच में नहीं, लेकिन मन ही मन ख़ुद की खोपड़ी में पीछे से एक टप्पू मारा और बुदबुदाया- कसो घनचक्कर है हूँ भी। दरअसल उसे चार साल पहले की वह घटना याद हो आयी थी। जब सरपँच ने मजे़-मज़े में बिजली कटौत्रा के विरोध में विद्युत मंडल का घेराव करवा दिया था। उसने गाँव में डोन्डी फिरवाकर हर घर से 'एक आदमी को जाना ज़रूरी है' बता दिया था। डूँगा के घर से डूँगा गया था। वहीं जब बात बढ़गयी और पुलिस वालों के डन्डे अपनी कला दिखाने लगे थे। डूँगा का जबड़ा सामने आ गया और कुछ दाड़-दाँत से हाथ धो बैठा था। हालाँकि उसके बाद डूँगा के जबड़े का मुआवजा सरपँच और टुल्लर ने प्रषासन के हलक से निकालकर अपने हलक के नीचे उतार लिया था। डूँगा तो अपनी धुन में खेत में जुतकर लुगड़ी के सपने को साकार करे में भिड़गया था। उस दिन एक-एक दाँतों पर जीभ घुमाते हुए महसूस किया- बचे हुए दाड़-दाँत पर मैल की जाने कितनी परतें चढ़गयी हैं। वह जीभ के साथ मुँह में उलझे मन को वापस अपनी जगह पर लाया। घर की ओर चलने लगा। थोड़ी दूर चलने के बाद उसकी नज़्ार अपने कबरे टेगड़े पर पड़ी- टेगड़ा हाँप रहा था। उसकी लटकती जीभ से लार टपक रही थी। वह एक गुमटी के पीछे था और उसका मुँह डूँगा की तरफ़। डूँगा खड़ा हो, टेगड़े को बुलाने लगा। टेगड़ा देख तो रहा था डूँगा की तरफ़, पर आ नहीं रहा था। डूँगा जहाँ खड़ा होकर टेगड़े को बुला रहा था। वहाँ उसके पीछे एक ओटला था। ओटले पर छोरों का एक टुल्लर बैठा था, जो बैठे किस काम से थे नहीं मालूम, पर जब डूँगा टेगड़े को बुलाने लगा, तो वे डूँगा को ही ऐसे देखने लगे थे, मानो यह देखने के लिए ही वहाँ आकर बैठे थे। वे डूँगा का कबरे टेगड़े को बुलाना देख रहे थे और मुस्करा रहे थे। डूँगा ने फिर थोड़ी ज़ोर से हाँक लगाकर कबरे टेगड़े को बुलाया। कबरा नहीं आया, पर डूँगा को लगा कि कबरे ने आने की कोषिष की, मगर किसी ने पीछे से खींच लिया। उसे कबरे के पाँव ज़मीन पर पीछे की ओर घीसटते लगे। डूँगा ने सोचा- कबरा गुमटी के पीछे गड़े अर्थिन्ग के तार में या किसी मुसीबत में तो नहीं उलझ गया। वह थोड़ा तिरछान में आगे बढ़ा, ताकि कबरे का पिछला धड़देख सके। दो क़दम बढ़ते ही देखा कि कबरा के पीछे एक टेगड़ी भी है। डूँगा वापस दो क़दम पीछे चला और मुड़ा, तो ओटले पर बैठा टुल्लर हथेली पर हथेली मारकर ज़ोर से ठहाका लगा उठा। डूँगा ठहाके को अनसुना कर आगे बढ़गया। डूँगा अभी भी अपने घर से डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर था कि उसके दाहिने कान में एक ख़ास मौके़पर बजायी जाने वाली सीटी की आवाज़पड़ी। उसने उधर देखा, उसकी बाखल के रामा बा सीटी बजा रहे थे। रामा बा अपनी भैंस को गाबन कराने के लिए पटेल बा के पाड़े के सामने लेकर खड़े थे। रामा बा ऐसे मौक़े पर बजायी जाने वाली सीटी बजाकर पाड़े को भैंस पर डाकने के लिए राज़ी कर रहे थे। भैंस टेंटा हिलाती। थोड़ी-थोड़ी देर में पूँछ उठाती। पाड़ा पूँछ के नीचे सूँघता। आँखें मीचता। नकसुर सिकोड़ता। ऊँचा मुँह करता। थोड़ा आगे-पीछे क़दम करता और फिर भैंस की पूँछ नीचे सूँघता। थोड़ी दूरी पर गुल्ली-डन्डा खेलना छोड़कर छोटे-छोटे चार-पाँच छोरे रामा बा, भैंस और पाड़े को कुतहल से देख रहे थे। डूँगा कुछ सोचता हुआ रामा बा की ओर बढ़गया। राम.. राम.. कह दुआ-सलाम करने के बाद पूछा- या कित्ता बैत झोंटी है,यानी अब तक कितनी बार जन चुकी है। -अब तीसरी बैंत होगी। रामा बा ने कहा और फिर पाड़े की ओर देखते बोले- बड़ा ढीला नाड़ा को पाड़ो है, आधा घण्टा से भैंस लीने खड़्यो हूँ, पर छीणालका को मन ही नी होतो। और फिर रामा बा मज़ाक़करता बोला- पाड़ा की जगह पटेल बा होता, तो इतरी देर में दस के गाबन कर देता। -हाँ, पटेलों को काड़(लिंग)को जस है। डूँगा ने कहा। डूँगा और रामा बा की एक साथ हँसी निकल पड़ी। फिर डँूगा ने राम राम की और घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचा तो देखा- आँगन में बैठी पारबती साग-भाजी काटने की बंकी से बिजाला (बैंगन) के टुकड़े कर रही थी। वह उसकी तरफ़मुस्कराया। वह ऐसी मुस्कान थी, जिसे पारबती ने बरसों बाद देखी थी- जैसे चेहरे पर फैले मकड़जाल के धागों में बिजली दौड रही थी। झुर्रियाँ भी झुर्रियाँ नहीं, मकड़जाल के बीच में चमकते जुगनू लग रही थीं। वह ज़रा-सी लजा गयी थी। डूँगा पारबती की ओर बढ़ा, उसके नज़दीक जाकर बैठ गया। पारबती के हाथ से बंकी और बिजाला थाली में छूट गये; और सोचने लगी- क्या बात है ? तभी उसका हाथ पकड़कर डूँगा बोला- पारी तू आज भी उसीज (वै
सी) लागे। -कसीज (कैसी) ? पारबती जैसे क्षणभर को ख़ुद को भूल गयी, ऐसे देखती बोली थी। -जैसी पहली बार गेहूँ का खळा (खलिहान) में लागी थी। डूँगा ने उसकी आँखों को अपनी आँखों से सेंकते हुए कहा था। डूँगा ने उन दिनों की याद दिलायी, जब वह ब्याह के बाद पहली बार ससुराल आयी थी। कुछ दिन तो उसे डूँगा की माँ अपने साथ ही सुलाती रही थी। वह सोचती थी कि बहू छोटी है, इसलिए डूँगा से दूर रखा करती थी। पारबती छेड़ा (घूँघट) भी इतना लम्बा काड़ती थी कि डूँगा एक घर में रह कर भी पारबती की षक्ल नहीं देख पाता। वह माँ की नज़र से बचकर इधर-उधर छू लेता। लेकिन उस रात जब खलिहान में गेहूँ थ्रेषर में से निकाले जा रहे थे। डूँगा गेहूँ का पूला उठा-उठाकर थ्रेषर के पास जमाता। उसकी माँ पूला थ्रेषर में देती। पारबती थ्रेषर में से निकलते गेहूँ को एक तगारी में झेलती। जब तगारी भर जाती, तो उसे गेहूँ के थापे (ढेर) में उडै़ल देती। इस काम में दो तगारी लगती। भरी तगारी को उठाते वक़्त ही उसकी जगह दूसरी ख़ाली तगारी लगा देती। तगारी को गेहूँ से भरने में थोड़ी देर लगती, उतनी देर पारबती ख़ाली नहीं बैठती। डूँगा के साथ गेहूँ के पूले उठा कर लाती और सास के पास ढेर जमाती, ताकि सास पूलों को थ्रेषर में लगातार देती रहे। -नी देखेगी.... जी... पूला को ढ़ेर.....डूँगा ने कुछ समझाया। उधर थ्रेषर में झोंकने को पूले का ढेर तो छोटा नहीं हुआ, लेकिन कुछ देर में डूँगा की माँ को प्यास लग आयी। उसने पारबती से पानी माँगा। पारबती तो पीछे पूलों पर सवार हो तारों की सेर कर रही थी, उसने आवाज़न सुनी, या आवाज़ही ने उसके कान के रास्ते जाकर मग़ज़में खलल पैदा करना ठीक न समझा, और उल्टे पाँव वापस लौट आयी। सास ने थोड़ी देर बाद फिर पानी माँगा और जब पानी नहीं मिला; तो उसने सोचा- रात काफ़ी हो गयी, कहीं बहू सो तो नहीं गयी। उसने उधर देखा- जिधर गेंहूँ झेलने को तगारी लगी थी। तगारी भर गयी थी और उसमें से गेंहूँ उबराकर बाहर गिर रहे थे। लेकिन वहाँ बहू नहीं थी। पानी की गागर की ओर देखा- उधर भी बहू नहीं थी। उस दिन जब पारबती को यह रात याद दिलायी। क्षण भर को उस रात की तरह ही खिली केसुड़ी बन गयी थी, लेकिन पिघलकर आँगन में फैलने से पहले, ज़ल्दी से संभल कर अपना हाथ खींचती बोली- भांग पी ली र्कइं, घर में पवित्री रोटी बेली री है। डूँगा ने फिर उसका हाथ पकड़ने की कोषिष की। पारबती दूर खिसकी और देखा कि डूँगा भी खिसकने वाला है, तो वह उठकर भीतर जाते-जाते धीरे से फुसफुसायी- यो गेहूँ को खळो नी, घर है, और अब बूढ़ा हुई गया हो, थोड़ी सरम करो। वह भी उठने को हुआ। उठते हुए उसके घुटनों ने उसे एहसास दिलाया- पारबती सच कह रही, वह बूढ़ा हो गया। उसे षिद्दत से यह महसूस भी हुआ- अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। न षरीर, न मन, न घर, न गाँव, न दुनिया। डूँगा के गाँव में भी सबकुछ तेज़ी से बदल रहा। न केवल गाँव का हुलिया, बल्कि गाँव के सँस्कार, त्यौहार मनाने का ढँग, बोली, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन का ढंग, त्यौहार, षादी-ब्याह के तौर तरीके, सबकुछ षहरी सँस्कृति गोलगप्पों की तरह निगल रही थी। लेकिन बाल-विवाह, घूँघट, पवणई, मामेरा, त्यारी जैसी कई बुराईयाँ बरकरार थीं और उन्हें करते वक़्त आधुनिकता हावी रहती। बाज़ार हावी रहता। महँगी और अनावष्यक चीज़ों की भरमार और दबदबा बढ़रहा था। रिष्ते तेज़ी से अविष्वसनीय हो रहे थे और अपने अर्थ भी बदल रहे थे। डूँगा के गाँव का हुलिया जिम्मा दो षहर बखूबी निभा रहे थे- एक प्रदेष की व्यावसायिक राजधानी और दूसरा औद्योगिक नगरी से नाम से विख्यात। दोनों षहर गाँव के विकास और उद्धार का डंका बजाते। अपनी मस्ती में मस्त धापे साँड की तरह डुकारते। इन दोनों षहरों के बीच के गाँव में पीछले दस-पन्द्रह बरसों में काॅलेज में पढ़ने वाले छोरों की संख्या बढ़रही थी। वे बी. ए., एम. ए. के अलावा दूसरे व्यावसायिक विषय भी पढ़रहे थे। छोरियाँ अभी भी दसवीं-बारहवीं से आगे कम ही पहुँच रही थीं। इस पढ़ी-लिखी पीढ़ी में कोई बिरला छोरा ही होता, जो खेती-बाड़ी के काम में रुचि दिखाता। कुछ प्राॅयवेट नौकरियों में षहर चले गये। कुछ पुलिस और सेना में चले गये। जो कहीं नहीं गये थे, उनमें से कुछ गये हुओं से ज़्यादा मजे़में थे, कुछ के बुरे हाल थे। कुछ छोरों ने ज़मीन की दलाली का रोज़गार अपना लिया था। रोज़गार धीरे-धीरे ऐसा पनपा कि वह उन छोरों के लिए बिजनेस बन गया था। बिजनेस में होड़षुरू हो गयी। होड़में मारकाट षुरू हो गयी। गाँव के छोरे अब आईटीसी, रिलायंस या ऐसी किसी भी बढ़ी कम्पनियों के नुमाईंदों के सम्पर्क में रहने लगे थे। डूँगा के देखते-देखते ही सबकुछ इतनी तेज़ी हो रहा था कि डँूगा सरीखे कई देख-समझ भी नहीं पा रहे थे। एक सुबह खेत पर जाने को वह घर से निकला। सेरी में सम्पत काकी के छोरे किषोर से राम-राम हुई। उस बखत किषोर
अपनी मोटरसायकिल पोंछ रहा था। डूँगा ने सोचा- कहीं जा रहा होगा। उसे इधर-उधर दौड़ने के अलावा काम भी क्या ? रोज़एक-दो लुगड़ी का तैल तो फूँक ही देता होगा ! साँझ को जब डूँगा लौटा। बैलगाड़ी को अपनी सेरी में थोबी। तब उसने किषोर के घर सामने नवी-नकोर कार खड़ी देखी। पहले तो उसने सोचा- किषोर के यहाँ कोई पावणा-पई (मेहमान-वगैरह) आया होगा। बैलों के जोत छोड़ते हुए पवित्रा को हेल्ला दिया, तो वह घर से निकल सेरी में आ गयी। बैलगाड़ी को डँई पर धरता पवित्रा से बोला- निराव के कोठा में पटकी दे। वह बैलों की रास थामें उन्हें कोठे में ले चला। पीछे-पीछे निराव को बाहों की बाद में भर कर पवित्रा भी कोठे में पहँुची। उसने बैलों को अलग-अलग खूँटे से बाँध दिया। पवित्रा ने एक कोने में निराव पटका और दूसरी खैप लेने जाने लगी। तब डँूगा बोला- छोरी रुक ज़रा। पवित्रा रुक गयी। डँूगा उसके पास गया और धीमें से पूछा- किषोर्या का घर कोई पावणा आया है ? -ऊँ हूँ । पवित्रा ने गरदन हिलाकर कहा। यह कहते उसके चेहरे पर ऐसा भाव उभर आया मानो उसने पूछा- क्यों पूछ रहे हो ? -तो फिर वा कार ? डूँगा ने जिज्ञासा से पूछा। -वाऽऽ वा तो किषोर अंकल लाया है। पवित्रा ने कहा। फिर बोली- उनने बादर वाला खेत बेच दिया, कार तो बयाना के पयसे से ही लायें है। -अच्छा ! डूँगा ने जैसे कुछ ख़ास जान लिया था। -म्हारा से भी कार के टिक्को (तिलक) करायो। डूँगा की ओर ख़ुषी से देखते हुए पवित्रा बोली- थाली में सौ रुप्या भी धर्या। -अच्छा, तू तो भणी-गुणी है, तो थारे मालम है ? या कार कितरा रुप्या की आवे ? डूँगा ने जानकारी के लिए पूछा। -या कार तो पाँच लाख में लाया है किषोर अंकलजी। पवित्रा ने कहा और आगे बताया- सम्पत माय को बता रहे थे, बादर वाला खेत का तीस लाख रुप्या मिलेगा। फिर वह बोली- अच्छा, अभी निराव पटकी दूँ, फिर सिरियल देखूँआँ, थोड़ी देर में आने वालो है। -तीस लाख.....। दो बीघा का तीस लाख। डूँगा बुदबुदाया। उसके मग़ज़में तीस लाख की एक बड़ी जबरी पोटली उभर आयी थी। डूँगा ओसारी में आया। अपनी खाट और तकिया उठाकर बाहर सेरी में लाया। किषोर की कार को देखते हुए खाट ढाली और उस पर कूल्हे टिकाये ही थे कि पारबती आ गयी थी। पारबती का रोज़का नियम था। बैलगाड़ी बाहर सेरी में थुबती और वह चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती। डूँगा कोठे में बैल बाँध कर आता। खाट ढाल कर बैठता। पानी के लोटे और चाय के गिलास के साथ पारबती हाज़िर हो जाती। लेकिन उस साँझ पारबती के हाथ में न पानी का लोटा था, न चाय के कपबषी। डूँगा ने उसके ख़ाली हाथों की तरफ़देखा। डूँगा कुछ पूछता उससे पहले पारबती ने ही बताया- रोज़चाय-पानी दूँ, तो सम्पत माय देखे। उनने आज एक बात समझय म्हारे। -कईं बात...? डूँगा ने पूछा। -उनने बतायो..... पारबती बताने लगी- धरधरी बखत दिया-बत्ती को टेम रय। -त .....? डूँगा ने पूछा। -त.... इतरी बखत सरग में भगवान हमारा पुरखा हुण के पीने के कुल्हड़ी भर पानी, और खाने के चना दय। पारबती थोड़ी रुकी। सम्पत माय के घर तरफ़देखा और फिर बोली- सम्पत माय ने बतायो- जो धरधरी बखत (सूरज डूबने के वक़्त) चाय-पानी पीये सरग में उनका पुरखा भूखे मरे। -अरे रहने दे ओ बायचैदी.... डूँगा ने कहा- तू भी काँ सम्पत काकी की बात में अयगी। फिर हँसकर बोला- म्हारा जी-दायजी तो भगवान का हाथ से छोड़य ने खई लेगा, तू फिकर मत कर। जा चाय-पानी ल्या। पारबती घर में गयी और चाय-पानी ले आयी। डूँगा ने पारबती के हाथ से पानी का लोटा लिया। पानी के कुछ छींटे मुँह पर छाँटे। फिर कुल्ला किया। फिर मुँह ऊँचा कर खोला और लोटे का आधा-पौन लीटर पानी गट-गट गटक गया। लोटा पारबती को पकड़ाया और अपने गले में पड़े गमछे से मुँह पोंछा। हाथ पोंछे। पारबती के हाथ से चाय का गिलास लेता बोला- बैठी जा। -बैठी कैसे जऊँ, दाथरी में आटा गून्धा धरा है, रोटा थेपी लूँ। थेपणा तो है, फिर देर कईं्र सरू करूँ। पारबती ने कहा। -पवित्री थेपी लेगी। डूँगा ने चाय का घूँट लेने के बाद कहा। -वा टी बी का सामने जमीगी, अब सोती बखत ही वाँ से हलेगी। पारबती ने कहा- टी वी राँड में जाणे कसी-कसी डाकण आवे। इनके एक बार खेत में नींदने बैठइ दो, तो दस दिन तक ढेका (कूल्हों) की फाड़में से गारो नी हिटेगो। पर पवित्री के उनके देखने को घणो चुरुस है। उसके कहने में कुछ ग़्ाुस्सा था। वह नहीं चाहती थी कि जब तब पवित्रा टी वी के सामने बैठी रहे। टी वी में जाने क्या-क्या आता-जाता रहता है। कहीं पवित्रा भी टी वी की डाकनों जैसी करने लगी तो ? पवित्रा की कुछ आदतें थीं भी ऐसी, जो पारबती को लगता कि वह डाकनों से सीखी होगी। घर में छोटी टी वी भी पवित्रा की जिद पर आयी थी। -अगी देखने दे, बालक है। डूँगा गिलास की चाय को ऐसे फूँक मार कर ठन्डी कर रहा था, मानो चाय नहीं पारबती के ग़्ाुस्से को ठन्डा कर रहा था। -र्कइं
की बालक, म्हारा से हाथ भर ऊँची हुई गयी। म्हारे तो इससे छुटपन में ही ब्याह दी थी। अन तमने खळा में जबड़य भी ली थी। पारबती ने कहा और खाट पर बैठ गयी। धीमें स्वर में बोली- सवेरे म्हारा पेर (मायका) चल्या जाओ। म्हारा भई मदन ने आज सम्पत काकी का फ़ोन पर म्हारे बतायो। कोई छोरो देख्यो है, तम भी देखी आवो। -अच्छा, या तो अच्छी बात है, सवेरे जऊँआ। डूँगा ने चाय का आख़िरी घूँट लेकर गिलास खाली कर पारबती को दिया। पारबती गिलास और लोटा लेकर घर में चली गयी। तभी मन्दिर तरफ़से षँख की आवाज़आयी। डूँगा समझ गया। आरती का टैम हो गया। उठा और आरती में चल पड़ा। आरती से लौट कर खाना खाया, और वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने खाट पर एक गुदड़ी बिछा दी। रात उनाले की थी, पर रात बारह के बाद एक कम्बल की ठंड तो उनाले में भी लगती, इसलिए पैताने कम्बल भी रख दी थी। डूँगा के दिमाग़में वही सरबल रहा- तीस लाख कितने होते होंगे ? उसने कल्पना की- अगर बैलगाड़ी में चारा, बगदा की तरह नोट भरूँ, तो गाड़ी कहाँ तक भरा जायेगी ? आधी-आधी मूँडियों तक तो भरा सकती है ! और अगर तीस लाख की खन्डार बनाऊँ, तो कितनी लम्बी, चैड़ी और ऊँची बनेगी ? दो बीघा के चनों की खन्डार बराबर तो बनेगी ही ! किषोर के दो बीघा के तीस लाख, तो मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अं अं डेढ़सौ लाख। बहुत ऊँची और चैड़ी खन्डार होगी। पूरी बैलगाड़ी भर जायेगी। लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लुगड़ी आयेगी। फिर मैं, मेरी पड़ौसन सम्पत काकी को ही नहीं, परगाँव की भी कई सम्पत काकियों, पारबतियों और पवित्रियों को लुगड़ी दे सकूँगा। धरती माँ की हरेक बेटी को लाल छींटादार लुगड़ी ओढ़ा दूँगा। तभी उसके मग़ज़की सभी भीतों से प्रष्नों की तिरपन रिसने लगीं- डूँगा खेत बेच देगा, तो काम क्या करेगा ? रोटी कहाँ से कमायेगा ? क्या तू धरती का बेटा, धरती को बेचे पैसों से रोटी ख़रीद कर खायेगा ? क्या तू अपने भाई और बेटों सरीखे प्यारे बैलों को भी बेच देगा ? नहीं बेचेगा, तो उन्हें खिलायेगा क्या ? खेत में मेहनत करे बग़्ौर तूझे रोटी हजम हो जायेगी ? नींद आ जायेगी ? कोई बेटा अपनी माँ का सौदा करके चैन से सो सकता है ? तेरे मन में ये लालच कैसे आया ? तूझे अपना ही नहीं, पवित्रा और पारबती के भी सपने पूरे करने है, लेकिन धरती माँ की गोदी से ही, उसे बेचकर नहीं। यही सब सोचते-सोचते उसके रोम रोम से नकार का पानी यों झिरपने लगा- मानो बदन रेत का था, जिसके भीतर पानी न ठहरता। वह लेटा था, उसकी आँखें छोटे-छोटे दो डोबनों की तरह डबडब थी, और आसमान की ओर खुली थी, जिनमें मोती से भरी थाल काँप रही था। धीरे-धीरे नींद के बोझ से पलकें बंद हो गयी। काँपती थाल भीतर ही रह गयी, जो लाल छींटादार लुगड़ी में बदल गयी और पूरी रात मग़ज़के चैगान में फरफराती रही। सवेरे मुँह झाँकले के टैम पर उठा। रोज़मर्रा के कामों से निपटा। कई दिनों के बाद उसने बालों में खोपरे का तेल लगाया। साबुत और धुले हुए धोती-कमीज पहने। कई सालों के बाद डूँगा ससुराल की ओर चल पड़ा। लोंडी पिपल्या गाँव में डूँगा का ससुराल था। ससुराल जो कभी, व्यावसायिक राजधानी के नाम से ख्यात षहर के कुछ ज़्यादा ही नज़दीक था। अब नज़्ादीक नहीं रह गया था, षहर की आँतों में समा चुका था। जब डूँगा वहाँ पहुँचा, तो अचम्बे में पड़गया। गाँव के आसपस जहाँ कभी फ़सले लहलहाया करती। वहाँ कहीं बँगले, तो कहीं मल्टियाँ खड़ी थीं। गाँव के भीतर भी कई बड़े-बड़ेघर उग आये थे। गाँव में कभी लोग ढँूढ़े नहीं मिलते थे। पिछली बार कई बरस पहले जब आया था, तो साले से मिलने खेत पर जाना पड़ा था। लेकिन इस बार साला बीच गाँव में ईमली के पेड़की छाँव में जुआ खेलता मिल गया। खेत साले के भी बिक गये थे। उसने सपने में भी न सोचा था कभी, इतने रुपये मिलेंगे। पर जब मिल गये, तो करे क्या इतने रुपयों का ? घर बना लिया ! कार ख़रीद ली ! थैला भरकर बैंक में रख दिया; और क्या करता ? इससे ज़्यादा उसे ही नहीं, कइयों को नहीं सूझा! जो थोड़े-बहुत भणे-गुणे थे, उन्हें थोड़ा-सा ज़्यादा सूझा भी, तो वे षहर में जाकर किसी न किसी रोज़गार से लग गये। कुछ ने किसी दूर के गाँव में ज़मीन ख़रीद ली और वहीं बस गये। लेकिन कई लोग थे, जो कहीं नहीं गये। उनमें से कई दिन भर ईमली के पेड़के नीचे जुआ खेलते। रात को बाय पास या रिंग रोड के ढाबों पर पीने-खाने चले जाते। और कुछ यहाँ भी डूँगा के मिजूँ टुल्लर के साथी बन गये। डूँगा का साला मदन भी इन्हीं में से एक था। उस दिन जब डूँगा को मदन ने देखा, तो बोला- अरे जीजा, आ गये, बैठो। ये बाज़ी हो जाये फिर चलते हैं। ईमली की दूसरी तरफ़कोल्ड्रींक्स की दुकान वाले को आवाज़दी- चार-पाँच ठन्डी षीषी दे इधर। उसने जीजा डूँगा के अलावा वहाँ खेल रहे साथियों के लिए भी कोल्ड्रींक्स मँगवाया। डूँगा जुआ खेलने वालों के बीच
पैसे का ढेर देख, सोच रहा था- इतनी रकम में तो जाने कितनी लुगड़ी आ जाये। पर ये तो ऐसे ही खेल रहे हैं, जैसे मैं बचपन में राखी के ख्याल और ख़ाली आगपेटी खेला करता। उन दिनों तो आगपेटी भी कोई बिरला ही लाता, ज़्यादातर तो चूल्हों में राख के भीतर अँगार भार कर रखते थे। थोड़ी देर में बाज़ी ख़त्म हो गयी। पूरे रुपये डूँगा का साला अपनी जेब में ऐसे भर रहा था, जैसे रुपये नहीं रद्दी काग़ज़के टुकड़े हों। उसे देख डूँगा का मन हुआ- साले को डांटे। उससे रुपये ले ले, उनकी अच्छी घड़ी करे, एक बरसाती की थैली में धरे और फतवी के भीतरी जेब में दिल से लगा कर रखे- एकदम सुरक्षित। साले को तो रुपयों की क़द्र करनी ही नहीं आती। लेकिन फिर उसने ख़ुद को समझाया- कमाने में पसीना बहाया हो, तो क़द्र करे ? साले ने अपने साथी खिलाड़ियों से उठते हुए कहा- यार जीजा के साथ जाना पड़ेगा, बाद में फिर बैठता हूँ। डूँगा को लगा- साला ऐसे कह रहा था, जैसे उसके साथ जाने की इच्छा नहीं, मजबूरी हो। मन हुआ, साले को दो बातें सुनाये। लेकिन फिर सोचा- साला दस-पन्द्रह साल छोटा है, अब छोटे को कुछ सुनाने से क्या फ़ायदा ? बराबरी का होता, तो सुनाता। उसे बात लगती भी। पर इतने छोटे को क्या कहना, छोड़ो। मन के किसी कोने में यह आषंका भी थी कि कहा, और कहीं माजना बिगाड़दिया तो ..? दोनों चलने लगे, पवित्रा के लिए छोरा देखने। थोड़ी ही देर में दोनों वापस लौट आये। डूँगा को वह छोरा अपने गाँव के टुल्लर के छोरों का ही साथी लगा, सो पसंद नहीं आया। डूँगा साँझ तक वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने उसे पानी का लोटा दिया। उसने मुँह पर पानी के छिंटे मारे। गट... गट पानी गटका। फिर खाट के पैताने की तरफ़बैठी पारबती को बताया- छोरा नी जँचा। पारबती जाकर चूल्हे-चैके में लग गयी। पवित्रा टी वी के सामने बैठी थी, जो थोड़ी देर बाद डूँगा को चाय दे गयी। चाय पीकर वह खाट पर आड़ा पड़गया। साँझ ष्याम रंगी सितारों जड़ी लुगड़ी ओढ़चुकी थी। कहीं-कहीं सितारे भी टँक गये थे। उसके मग़ज़्ा में ए.बी. रोड किनारे के कई खेत आ-जा रहे थे, जो पिछले कुछ सालों में ही बिके थे। अब सड़क किनारे के खेतों में फ़सल की बजाय कहीं रिलायंस और कहीं एस्सार कम्पनी का पेट्रोल पम्प खड़ा था। कहीं आई टी सी का हब और कहीं चैपाल सागर खुला था। ये सारे खेत टुल्लर के छोरों ने बिकवाये थे। उस साँझ जब वह घर लौट रहा था। टुल्लर के एक छोरे ने उसे कई के बाद फिर टोक दिया- डूँगा काका खेत बेचणु कईं, घणी जबरी पार्टी है इनी बार! डूँगा ने उससे तो कुछ न कहा था, लेकिन जबसे उसके मग़ज़में वह बात चल रही थी। दरअसल उस पट्टी में डूँगा का खेत कुछ फँस ही ऐसी जगह गया था कि अब वह मिट्टी का नहीं रह गया। खेत की एक बाजू आईटीसी का चैपल सागर। दूसरी बाजू रिलायंस पेट्रोल पम्प। सामने एस्सार पम्प। अब तो यह कि उस खेत का दाम जो डूँगा के मुँह से निकल जाये। लेकिन डूँगा चाहता नहीं था खेत बेचना। वह चाहता था उसमें फ़सल पैदा करना। फ़सल ही से पैसा कमाना। अपनी धरती माँ को बेचने या उसकी दलाली करने की सोच ही उसे कंपकंपा देती। वह मेहनत के दम पर लुगड़ी ख़रीदना चाहता। घर चलाना चाहता। पर सरकार की नीतियाँ और बाज़ार के छल ने कभी हाथ में इतना पैसा आने ही न दिया, और दिन फिरेंगे भी वह नहीं जानता ! पर वह सपने में भी उस ज़मीन का सौदा नहीं करना चाहता। लेकिन गाँवदी और षहरी दलाल टुल्लरों की भी अपनी समस्या थी- ज़मीन उनके मग़ज़में चढ़गयी थी औ बिकवानी थी। टुल्लरों द्वारा उसका घर गूँधना बढ़रहा था। दलालों के एक टुल्लर ने मदन को भी अपने साथ मिला लिया था। सभी डूँगा को किसी न किसी तरह से पटाने की कोषिष में लगे रहते। दलालों ने डूँगा ही नहीं, पारबती, पवित्रा की ज़रूरतों और सपनों को भी भाँप लिया था। दलाल किसी भी वक़्त डूँगा के यहाँ आ धमकते। डूँगा घर पर नहीं होता, तो वे पारबती और पवित्रा को पटाते। एक बार भाई दूज पर मदन आया, तो अकेला नहीं आया, उसके साथ दलालों का एक पूरा टुल्लर आया। मदन जानता था कि बहन के यहाँ टुल्लर की खातिरदारी कुछ ख़ास नहीं होगी। इसलिए वह पहले ही बायपास रोड के एक ढाबे पर बीयर-वियर पी-पाकर, चिकन-मटन चटखा कर आया। पारबती ने खाने को पूछा, तो वह नट गया। -मामा चाय तो पियोगे न, बनाऊ ? पवित्रा ने टी वी में आये ब्रेक के वक़्त पूछा। -अं... हं .. कुछ भी नहीं। मदन ने कहा था। पूरा टुल्लर आँगन में ढली दो खाटों पर बैठा था। ये दोनों खाट पवित्रा और पारबती की थी। डूँगा की खाट भीत से टिकी खड़ी थी और उसके पाये पर तकिया भी धरा था। टुल्लर में से एक 'जो अपनी रियाज से दो बीयर ज़्यादा पी गया था, ने सोचा थोड़ी देर खाट पर आड़ा पड़जाये। आड़ा पड़ने के लिये सिर नीचे तकिया रखने की ज़रूरत थी, तो वह उठा और डूँगा की खाट पर का तकिया उठाया, तकिया उठाते ही उसे लगा, तकिया नह
ीं ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी उठा ली। तकिये की काली चिकट खोल देख कर लगा, पेट में भरी बीयर और चिकन बाहर आ जायेंगे। उसने तकिया झटपट वापस रखा और उलटे क़दम आकर खाट पर बैठ गया। तभी पारबती भी दोनों ढली खाट के सामने आकर नीचे आँगन में बैठ गयी और मदन के सामने पवित्रा के ब्याह की चिंता सरकायी। पवित्रा जो धारावाहिक देख रही थी, वह ख़त्म हो गया था, तो वह भी आकर धीरे से पारबती के पीछे बैठ गयी। मदन ने पवित्रा की ओर देख धीमे से मुस्कराया और फिर उसे गुदगुदाने के अँदाज़में पारबती की ओर देखता बोला- हिरोइन की हिरोइन दिखती भान्जी को चाहे जिसके साथ फान्द दें क्या ? भणी-गुणी भान्जी को किसी के यहाँ गोबर सोरने और कंडे थेपने को परणई (ब्याह) दें क्या ? इतना कह उसने फिर पवित्रा की ओर देखा- पवित्रा का चेहरा बता रहा था, मामा मदन की बात उसके गले से रसगुल्ले की तरह उतर रही थी। क्योंकि पवित्रा भी टी वी के धारावाहिकों में आते हीरो-सा दुल्हा चाहती थी। वैसा ही घर, सोफ़े और बेडरूम। वह धारावहिक देखते-देखते दुल्हन के जेवर के, सितारों जड़ी लाल चुनड़ी के और जाने किस-किस चीज़के सपने देख लेती। उस दिन उसे लगा- मदन मामा उसके बारे में कितना अच्छा सोचते हैं। मामा मदन के चेहरे पर ज़रा-सी उदासी उतर आयी। वह उदासी के पीछे से बहन पारबती का चेहरा बाँचता बोला- दुनिया में छोरों की कमी थोड़ी है, छोरा तो टी वी में से अच्छा हीरो पकड़कर बाहर ले आऊँ। तू चाहे तो घर जवाँई बना के रखना। चाहे उसके साथ रहना। पर अच्छा छोरा भी अच्छी जगह ही रुकेगा न ? अब कोई भणा-गुणा यहाँ आकर जीजा के साथ खेत में तो नहीं खपेगा ? -मामा की बात तो सही है। धारावाहिकांे में छोरे या तो कारखाने के मालिक हैं। मैनेजर हैं या इतने पैसे वाले हैं कि कुछ करते ही नहीं। पवित्रा ने मन ही मन ख़ुद से कहा- सच में मामा ने किसी धारावाहिक वाले छोरे से बात पक्की कर दी, तो वह ऐसे घर में कैसे रहेगा ? फिर वह सोचने लगी- धारावाहिक में किस-किस के लिए लड़की ढूँढ़ी जा रही है ? उसे कोई याद आता, तो वह मन ही मन उसके साथ अपनी जोड़ी बना कर देखती। जोड़ी न बनती, तो मन में यह भी आता- किसकी आपस में नहीं पट रही है, या किसकी जोड़ी को कैसे तोड़ी जा सकती है, जिससे अपनी जोड़ी बन सके। पवित्रा इसी में उलझ गयी थी। भाई मदन की बात बहन पारबती को भी सुहाती लग रही थी, इसलिए उसने मदन से ही पूछा- त.. फिर र्कइं कराँ बीर, तू ही बता। -जाजी के राज़ी कर लो, ज़मीन के छाती पर बाँधी के तो नी ले जानी है। मदन ने हल सुझाते कहा। तभी पवित्रा, पारबती और टुल्लर ने देखा। सेरी में बैलगाड़ी थुबी। रोज़की जगह से थोड़ी पीछे थुबी थी, क्योंकि रोज़की जगह पर टुल्लर की कार थुबी थी। पवित्रा उठी और बैलगाड़ी में से निराव उतरवाने चली गयी। पारबती चाय का पानी चढ़ाने चली गयी। डँूगा ने हाथ में पकड़ी रास को गाड़ी के जुए के ऊपर से बैलों के सामने फेंका। फिर जुए के ऊपर से ही वह भी उतरा। समेले में से जोत के आँटे खोल बैलों के गलो को मुक्त किया। गाड़ी की ऊद पकड़ऊपर उठायी और बैलों को टचकारा तो वे इधर-उधर हट गये। गाड़ी की डँई को ज़मीन पर टिकाया और बैलों को कोठे में बाँधने ले गया। इस बीच उसने दो बार आँगन में बैठे टुल्लर की ओर देखा, पर मदन भीतर की बाजू बैठा था, तो दिखा नहीं और किसी ओर को वह जानता नहीं था। फिर भी घर आये पावणों से उसने औपचारिक राम-राम बैलगाड़ी थोबती बखत ही कर ली थी। डूँगा ने कोठे में बैल बाँधने के बाद पवित्रा से पावणो के बारे में पूछ लिया था, इसलिए जब वह आँगन में आया, तो चेहरे पर पावणो से बेओलखान (अपरिचय) का भाव नहीं था। टुल्लर खाट पर बैठा, आपस में खुसुर-फुसुर कर रहा था। एक दो ने चलने के लिए कहा। मदन ने समझाया- जीजा अभी आये हैं, उनसे मिले बग़ैर कैसे चलें। उनसे भी दो बात करनी पड़ेगी। वह डूँगा से मुखातिब हो बोला- र्कइं जीजा, मज़े में हो ? -हाँ, मज़ा में ही है। गेहूँ बो दिया है। सरी बाँध रहा हूँ। डूँगा ने खेत पर कर रहे काम के बारे में बताया था। -जीजा आप भी इस उमर में खेत में खटते रहते हो। वह गरदन हिलाता ऐसे उपेक्षित भाव से बोला, मानो खेत में खटना बहुत बुरा काम है। -किरसान को बेटो खेत में खटे नी, अपना मन से जुटे है। डूँगा बोल रहा था- जैसे अपनी धरती माय की गोदी में खेले है। -हाँ, ठीक है, ये सब मन समझाने की बात है। मदन ने कहा- खेत बेचो तो बताओ, इनी बार बम्बई की भोत जबरी पार्टी है। मन होय, तो बात करूँ ? -मदन, जिको मन जी का दूध से नी भर्यो, जी का ख़ून पीना से, गोष्त खाना से कैसे भरेगो ? यह कहते हुए डूँगा का गला भर आया। पर कुछ नहीं बोला। पारबती ने चाय दे दी, तो नीची घोग (गरदन) से चाय को फूँक कर ठन्डी कर रहा था। अभी उसने एक घूँट सुड़की थी कि वहीं खड़ी पारबती बोली- और र्कइं पूरी उमर तो बीती गयी, गारो ख
ोदते-खोदते। ढंग की एक लुगड़ी भी नी लय पाया। बुढ़ापा में तो गार के सुधार लो ! पारबती की बात से डूँगा तिलमिला उठा। चाय पिघला लोहा बन गयी और भीतर तक फफोले पाड़ती गयी। ढंग का एक ही तो सपना था डूँगा का। जिसकी ख़ातिर उसने कितने ष्याले, उनाले और बरसात लट्ठे की फतवी में काट दिये थे। उस क्षण उसे लगा- उसकी मेहनत पर पारबती का भरोसा पोला था, जो मदन द्वारा फेंके लालच की मार से पिचक गया। उसे लुगड़ी ख़रीदने के लिए उस ज़मीन को बेचने का कहा जा रहा, जिसे उसकी जी और दायजी ने उसे सौंपी थी। जिसके गारे में जी-दायजी की उम्र भर का पसीना मिला हुआ था। उसने चाय पीकर ख़त्म की और पीछे खिसकर भीत के सहारे टिक गया था। चुप। उसके मग़ज़्ा में चल रहा था- इस बार आधी सोयाबीन बाँझ रह गयी। आधी का पानी की ताण के कारण दाना छोटा रह गया। ई चैपाल वाले ने ख़रीदी नहीं। कस्बे में बाण्या को बेची, उसमें गेहूँ के लिए खाद और टेमपरेरी बिजली कनेक्षन लिया। बरसात चकमा न देती, तो पारबती को तो इसी बरस एक लुगड़ी ला देता। पारबती ने जो ताना दिया, वह तो कभी सम्पत काकी ने भी न दिया। पारबती के सिर पर एक लुगड़ी आ जाती, तो मदन की बातें उसे न भरमा पाती। -बीस लाख रुपये बीघा तक दे सकते हैं। सोचो, दस बीघा का कितरा रुपया होगा। मदन ने डूँगा की ओर देखते हुए कहा और फिर पारबती की ओर देखते हुए बात ख़त्म की- वारा न्यारा हुई जायेगा। चाहो तो लुगड़ी बनाने को कारखानो खोली लीजो। सौ-दो सौ लुगड़ी रोज़बाँटोगा तो भी कम नी पड़ेगी। -और क्या ? कारखाने को सम्भालने के लिए मामा धारावहिक के किसी हिरो को राज़ी कर लेंगे। पवित्रा मन ही मन बुदबुदायी और डूँगा की ओर यूँ देखा, मानो उसकी आँखें कह रही हो- हाँ कह दो ? पर डूँगा तो जैसे बहरा हो गया। मदन की बात न सुन पा रहा, न समझ पा रहा। हालाँकि मदन और उसके साथियो ने, और भी कुछ बातें सुझायी। मसलन- अभी बेचने का मन न हो, तो मत बेचो। बीस-तीस लाख रुपये बम्बई की पार्टी से यूँ ही दिलवा देते हैं। घर बनवा लो। पवित्रा को परना दो और आराम से बैठे-बैठे बुढ़ापे का मज़ा लो। बस, एक छोटा-सा एग्रीमेंट करना होगा- जब भी बेचोगे, उसी पार्टी को बेचोगे, जिससे पइसे दिलवायेंगे। डूँगा हाँ, ना कुछ नहीं बोला। वैसा ही बैठा रहा। बाहर गुमसुम। भीतर खदबदाता। खाट पर बैठा टुल्लर जाने को उठा। कोई और पावणा होता, तो डूँगा कहता- और आवजो। लेकिन जब वह टुल्लर जाने को उठा, तो उसके साथ डूँगा भी उठा। वह सेरी में खड़ी कार तक साथ-साथ गया, उन्हें हाथ जोड़बिदा करता मन ही मन बुदबुदाया- म्हारो पिंड छोड़दी जो। मदन के जाने के बाद पारबती ने फिर से चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दिया। वह उसी वक़्त समझ गयी थी कि डूँगा की चाय का स्वाद बिगड़गया है। तभी से डूँगा गुमसुम भी था। चाय के पानी में पत्ती-षक्कर और दूध मिलाने के बाद, उसने चाय की ज़िम्मेदारी पवित्रा को दे दी। डूँगा सेरी में खड़ा डूबते सूरज की ओर देख कर, षायद अँदाज़ा लगा रहा- आरती में कितनी देर बाक़ी है। पारबती ने डूँगा की खाट को लाकर सेरी में ढाल दी। सिरहाने तकिया भी धर दिया। डूँगा बुरी तरह थका-मांदा-सा खाट पर बैठा। पैरों से पनही निकाल दी। धोती की काँछ को ऊपर चढ़ा ली। दोनों पैरों को उठाकर खाट पर रखे और फिर आड़ा पड़गया। तकिये पर सिर रखा और आँखें आसमान में टिका दी। सूरज डूबने के बाद की लाली पर साँझ की ष्याम रंगी झिनी लुगड़ी अभी पूरी तरह फरफरायी भी नहीं थी कि गाँव के छोरों का एक टुल्लर आया, तो डूँगा उठकर बैठ गया। सभी छोरे गाँव के ही थे। सभी अधकचरे पढ़े-लिखे थे। उनके बाप-दादा की ज़मीने बिक गयी थी। उनमें से एक के बाप ने तो बाहर दूर गाँव, जहाँ की ज़मीन गारे की थी, यहाँ की ज़मीन की तरह सोने की नहीं, वहाँ ज़मीन ख़रीद ली थी। ज़मीन पर हाली छोड़दिये थे। बीच-बीच में जाकर देख आते थे। फ़सल अवेर लेते थे। इस गाँव में बाप के पास ताष पत्ते खेलने के अलावा कोई ख़ास काम नहीं था। बेटा लोगों की ज़मीन बिकवाता। गाँव की बहू-बेटियों को ताकता। उसका अपने सरीके पाँच-सात छोरों का एक टुल्लर था। गाँव में यही इकलौता टुल्लर था, ऐसा हरग़िज नहीं था। टुल्लर तो और भी थे, पर उनके भीतर लाज और गाँवदीपन अभी बचा था। अभी वे बुजुर्ग़ों से आँख मिलाते या उन्हें धमकाते झिझकते थे। लेकिन ये टुल्लर बिन्दास और पाॅवर फुल था। इसी टुल्लर की महरबानी से डूँगा के घर की मगरी पर तीन तरह के खापरे थे, यानी देषी नलिये, देषी खापरे तो पुराने ही डले हुए थे। लेकिन जब इस टुल्लर का मन दगड़्या चैदस मनाने का होता। मना लेता। टुल्लर तो पत्थर को आसमान की ओर उछालता। पत्थर ही हवा और अँधेरे की मदद से डूँगा के घर के ऊपर जाता। खपरेलों पर वहाँ गिरता, जहाँ नीचे पवित्रा सोयी होती। लेकिन कवेलू, खापरा और नलिया डूँगा के मग़ज़में टूटता। जहाँ-जहाँ का खापरा, नलिया टूटता,
वहाँ-वहा,ँ डूँगा अँग्रेज़ी कवेलू लगा देता। टुल्लर ऐसा हर उस घर पर नहीं करता, जिसमें जवान छोरी रहती। उस घर के साथ करता, जो टुल्लर की लायी पार्टी के साथ सौदा नहीं करता। डूँगा को सबसे पहले, इसी टुल्लर ने आॅफर दिया था कि खेत बेच दे। दस लाख रुपये बीघा के हिसाब से बिकवा रहे थे तब। पर नहीं बेचा, तो नहीं बेचा। उस वक़्त रामा बा जैसा कोई मामला फँसा नहीं था। लेकिन तभी से उन्होंने दगड़्या चैदस मनाने का काम ज़ारी रखा था, ताकी डूँगा भूले नहीं। गाँव के सभी टुल्लरों के बीच थाना-कचहरी आने-जाने में इसी टुल्लर का नाम सबसे ऊपर था। अगर उसकी लायी पार्टी के साथ किसी ने सौदा नहीं किया, तो फिर कोई खाँ हो, उनकी सहमति के बग़ैर उस ज़मीन को बिकवा नहीं सकता। यह ऐसा अलिखित समझौता था, जिसके विरूद्ध कभी कोई नहीं गया था। डूँगा ऐसे समय और महान देष के गाँव का किसान था, जिसमें डूँगा तो क्या ? उसके जैसे गाँव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फ़सल बेचकर जीते-जी सपना पूरा करने का सोेचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नितियों की खुल्लम खुल्ला तौहीन करना था। हालाँकि सरकार इतनी गेली नहीं थी, न उसकी नीतियाँ इतनी ढीली-ढाली थी कि डूँगा जैसे धोती छाप लोग अपने सपनों को पूरा कर लेते। सरकार ने बहुत ही विकसित और ताक़तवर देषों की सरकारोें की मंसानुसार जो नीतियाँ बनायी थीं, उन्हें समझना डूँगा जैसे धोती छाप गाँवदियों के बस का तो था ही नहीं। लेकिन सरकार के भीतर- बाहर बुद्धि की खाने वालों का दावा करने वालों के लिए भी, बग़ैर चन्द्रायन के चाँद पर जाने का सपना देखने जैसा था। ऐसी बखत में डूँगा का एक मन पसंद लुगड़ी का सपना। पारबती का बूढ़ी हड्डियोें को आराम और जवान छोरी को परनाने का सपना। पवित्रा की आँखों में अच्छे घर और दूल्हे का सपना। सपना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन जीते-जी पूरा करने की जिद। मेहनत की फ़सल से पूरा करने की अड़। ये सरकार की नज़र में क्या था नहीं पता, पर गाँव के टुल्लर की नज़र में यह एक गेलचैदापना था। उसके मग़ज़्ा में कोई उलझाव नहीं था। डंके की चोट पर कहता- वह चूतिया है। जब टुल्लर के सामने डूँगा और उसके परिवार के सपनों की पोल खुली थी, कई मुँह से हँसते-हँसते टुल्लर के कई पेट में बल पड़गये। फिर टुल्लर में से ही एक मुँह ने अपनी हँसी को काबू में करके यह राज़खोला- डूँगा ज़मीन को बेचे बग़ैर सपना पूरा करना चहता है। साँझ का वक़्त था, उस साँझ सरपंच ने पंचायत भवन में टुल्लर, हल्के के पटवारी और क्षेत्र के थानेदार का खाना-पीना रखा था। खाना-पीना रखने की कोई ख़ास वजह नहीं थी, बस, उस साँझ सरपंच का टर्न था। लेकिन जब टुल्लर को यह भनक लगी कि चैधरी बाखल का टुल्लर डूँगा की ज़मीन की फिराक़में है। उसने डूँगा के साले मदन को पटा कर अपने साथ जोड़लिया है, और डूँगा के साथ एक बैठक कर ली है, तो उनकी झाँटों का सुलग उठना जायज ही था। टुल्लर के लीडर ने सरपंच के टुनटुने (मोबाइल) पर अपने टुनटुने के मार्फत बता दिया कि खाना-पीना नौ बजे के बाद, और टुल्लर सीधे पहुँच गया था डूँगा की सेरी में। टुल्लर में एक लम्बी नाक वाला छोरा था। क़रीब अट्ठाइस-उनतीस साल का। उसकी आँखों की पुतलियाँ गहरी काली। भौंहे चैड़ी। सिर के बाल घने, गहरे काले और चेहरे का रंग साफ़था। वह टुल्लर की सेकैण्ड लाइन का लीडर था। डूँगा के ठीक सामने बैठा था। वह बोल कुछ नहीं रहा था। बस, एक-एक, दो-दो मीनिट के अन्तराल पर डूँगा को घूरता। फिर उधर देखता, जहाँ आँगन में बैठी पवित्रा रात को राँधने के लिए, दराँती से आल काट रही थी। टुल्लर की पहली लाइन का लीडर डूँगा की बाजू में बैठा। दिखने में षरीफ गाय का गोना। डूँगा को टेकल करने के अँदाज़में समझा रहा- रामा बा बनने की खुजाल क्यों मची है ? डूँगा के सामने वह सब पसर गया, जो रामा बा के साथ दो साल पहले घटा था। रामा बा, डूँगा की ही बाखल में रहने वाला बूढ़ा, और दो जवान छोरियों का बाप। उसकी पहली छोरी पवित्रा से दो-तीन साल बड़ी। दूसरी पवित्रा की ही दई (उम्र) की। वह डोलग्यारस का दिन था। पूरा गाँव मन्दिर सामने के चैक में था, और डोल को सजा-धजा कर तलाई पर ले जा रहे थे। वहीं से बड़ी छोरी अलोप हो गयी। आठ-दस दिन तो पता ही नहीं चला, छोरी कहाँ रही। उसके साथ क्या-क्या हुआ ? एक रात जब उसी चैक में वह पड़ी मिली, तो लोगों ने कहा- इससे तो अच्छा होता कि मर जाती। न उसे खाने की सुध, न पीने की। छोटी बहन और उसकी माँ ज़ोर-जबरदस्ती से कपड़े पहना देती, तो वह उतार कर फेंक देती। फिर किसी पहलवान की तरह अपनी जाँघ को ठोकती। टुल्लर के लीडर का, उसके साथियो का, सरपंच का, थानेदार का, पटवारी का एक-एक का नाम पुकार कर चुनौती देती और अपनी टाँगों के बीच इषारा करते हुए कहती- अउ... , अउ और भरई जउ
इमें। दो साल से वह रामा बा के घर की एक अँधेरी ओड़ली में बंद है, पर रामा बा के घर के अलावा कोई नहीं जानता- वह ज़िन्दा है कि मर गयी। छोटी छोरी पवित्रा की तरह जवान हो गयी। पर उसके लिए न कोई रिष्ता आता, न कोई लाता। कोई भूला भटका आ जाता, तो उसे टुल्लर का कोई न कोई छोरा मिल जाता और उलटे पाँव भगा देता। टुल्लर ने ये अघोषित ऐलान किया हुआ था- रामा बा की छोटी छोरी उनकी प्राॅपर्टी है, जिसका उपयोग वे जब चाहे, तब मिल बाँट कर करते हैं। यह सब, क्यों सहा रामा बा ने ? क्या रामा बा को अपनी छोरियों से ज़्यादा ज़्ामीन प्यारी थीं ? क्या ग़ज़ब गुनाह था रामा बा का भी। उनका खेत सड़क किनारे था और षहर के एक सेठ को पसन्द आ गया था। उसे पेट्रोल पम्प डालने के लिए, रामा बा के खेत से मुफिद जगह दुनिया में कहीं नहीं मिली थी। सेठ टुल्लर से मिला। टुल्लर के पहली लाइन के लीडर ने सेठ को खेत दिलवाने की ज़बान दे दी, और दिलवा भी दिया। लेकिन न बेचने और बेचने के बीच, रामा बा और उसके परिवार के साथ जो कुछ हुआ था वह, बल्कि पिछले दस-पन्द्रह बरसों से सड़क किनारे के गाँवों में रामा बाओं के साथ जो कुछ घट रहा था। किसी की फ़सल में आग लग जाती। कोई फ़सल बेच कर लौटता, तो रास्ते में रकम लुटा जाती। रास्ते से बच आता, तो घर में से चोरी हो जाती। ऐसी हर एक बात का तार टुल्लर की तरफ़जाता दिखता। पर कोई तार को पकड़टुल्लर की ओर क़दम बढ़ाता, तो कुछ क़दम के बाद ही वह तार को गला पाता। फिर वहाँ से आगे कुछ नज़र न आता। उन दिनों ए बी रोड किनारे के हर गाँव में टुल्लर, रामा बा और डूँगा की संख्या में बढ़ोत्री हो रही थी। यह बढ़ोत्री तरक्की की झकाझक पौषाक पहनकर इतराती थी। उस साँझ टुल्लर की पहली लाइन के लीडर की बातों से डूँगा को सबकुछ समझ में आ गया था। इस क़दर साफ़-सुथरा और पारदर्षी समझ में आया था कि आँखें समझ को छुपा न सकी। कुछ बूँद समझ चू ही गयी। टुल्लर के जाने के बाद, पारबती हाथ में चाय से भरे कपबषी लेकर आ गयी थी। डूँगा ने काँपते हाथों से कपबषी को पकड़ा। आधा कप चाय बषी में कूड़ी (उड़ेली) और धूजते होंठों से फूँक मारता चाय ठन्डी करने लगा। दो फूँक के बाद ही चाय सुड़क ली, तो इस्सऽऽ कर उठा। जीभ सेे नीचले होंठ की भीतरी सतह को छूकर महसूस किया- जीभ की नुक्खी और नीचले होंठ की भीतरी बाजू में सरसों के दाने के बरोबर के छाले उपक आये हैं। पारबती, जो चाय का कपबषी पकड़ा कर अपने घर के बाहर ओटली पर बैठी सम्पत काकी और सेरी में कार को कपड़ा पहनाते किषोर को देख रही थी। षायद उसके मन में चल रहा था- ज़ल्दी ही उसके घर सामने भी एक कार खड़ी होगी। पवित्रा का लाड़ा कार को कपड़ा पहनायेगा। डूँगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे। तभी डूँगा की लम्बी इस्स से उसका ध्यान टूटा। वह बोली- ज़रा धीरपय से फूँकी- फूँकी के पियो, चाय कपबषी से न्हाटी (भागी) जई री है र्कइं ? डूँगा के होंठ और जीभ जलने से आँखों में जलजले आ गये थे। उसने पारबती की ओर देखा, पर बोला कुछ नहीं। सोचा- काष उसकी आँखों में आये जलजले के पीछे पारबती झाँक पाती, तो समझती- आँखों में पानी जीभ और होंठ के जलने से हैं या किसी बेबसी सेे हैं ? वह फिर से फूँक-फूँक कर चाय पीने लगा। पर उसेे अब ठन्डी चाय भी गरम जैसी ही लग रही थी। क्योंकि उसने पारबती के मन में सरबलाती हसरत को भाँप लिया था। चाय ख़त्म हुई। डूँगा ने खाली कपबषी पारबती को पकड़ाये। वह कपबषी लेकर घर तरफ़बढ़ी की उसने देखा- किषोर और सम्पत काकी डूँगा की खाट तरफ़आ रहे हंै, तो वह रुक गयी। काकी और किषोर को नज़दीक आते देख, डूँगा बोला- आ काकी बैठ। काकी और किषोर खाट पर बैठ गये। तब पारबती ने काकी और किषोर की ओर देख, पूछा- चाय लाऊँ ? किषोर ने तो गरदन हिला कर नकारा कर दिया और काकी बोली- अरे अग्गी बाल चाय राँड के, आधो कप भी पी लूँ, तो पेट फुगी के ढोल हुई जाये, और फसर-फसर पाद आवे। पारबती धीमे से मुस्कुराती खाट के पास आ गयी। खाट के पास सेरी में नीचे ही बैठ गयी। टी वी में धारवाहिक भी समाप्त हो गया था, तो पवित्रा भी आकर पारबती की बग़ल में बैठ गयी थी। -का रे डूँगा, इ छोराना कूण था ? काकी ने सीधे काम की बात पूछी थी, क्योंकि जब टुल्लर आया था, तब भी काकी वहीं बैठी थी। किषोर नहीं था, वह थोड़ी देर पहले ही आया था। डूँगा ने सोचा, कह दे, ऐसे ही मिलने वाले थे। वह काकी को सच बता भी देगा, तो काकी उनका क्या कर लेगी ? पर दूसरे ही क्षण डूँगा को लगा- वह काकी को झूठ बता कर भी टुल्लर का क्या बिगाड़लेगा ? काकी के किषोर ने तो अभी ही ज़मीन का बयाना लिया है, तो हो सकता है, वे कुछ उपाय सुझा दे ? उसने टुल्लर के बारे में सही-सही बताया। कौन-कौन थे और क्या-क्या बोल रहे थे। पारबती ने वह सब सुना, तो धड़कन बढ़गयी। लेकिन वह डूँगा को हिम्मत बन्धाती बोली- डरने की बात नी, म्हारो भई मद
न सब ठीक कर देइगो। पर जब उसे डूँगा ने बताया कि मदन भी ऐसे ही टुल्लर का साथी है, तो फिर वह चुप हो गयी। वहीं बैठे किषोर के सामने अपनी ज़मीन का सौदा करते वक़्त आयी आफतें तैर गयी। काकी को भी वह सब याद आ गया- कैसे किषोर को घापे में लेकर ज़मीन का बयाना पकड़ाया ! कैसे सौदा चिट्ठी बनवायी ! षुरूआत में किषोर ने सख़्ती से ज़मीन बेचने से मना कर दिया, तो उसके साथ क्या हुआ ? काकी ने अपनी बूढ़ी और लरजती आवाज़में कहा- देख, म्हारी बात कान धर। जितरी ज़ल्दी हुई सके, पवित्री का हाथ पीला कर दे। कोई भी ज़मीन का बारा में पूछे, तो बस, यूँज बोल- छोरी के परणई देने का बाद योज करनो है। -हाँ, इनको कोई भरोसो नी। अपने तो रात-बेरात पाणत करने भी आनो-जानो पड़े। किषोर ने कहा था। पाणत करने ही तो गया था किषोर उस रात। यूँ कहने को तो उस रात टुल्लर ने किषोर को एक झापट भी नहीं मारी। जब वह पाणत कर रहा था टुल्लर के पाँच-सात छोरे पहुँचे। उसके सारे कपड़े उतार दिये। हाथ-पाँव बान्द के पानी के पाट में पटक दिया। सवेरा होते-होते किषोर राज़ी हो गया था। जब सवेरे घर आया। काकी को बताया। काकी ने कहा- जान से प्यारो नी है खेत, बेच दे। फिर टुल्लर ने जहाँ कहा, वहाँ अपना नाम लिख दिया। सात लाख रुपये बयाना पेटे ले लिये। जिसमें से एक लाख दलालों ने रख लिये थे। बाक़ी की रकम छः महीने में देगें। न देने पर सौदा रद्द माना जायेगा। किषोर ने पाँच लाख की एक कार ख़रीद ली। बाक़ी रकम मिलने पर, कहीं सड़क से दूर गाँव में ज़मीन भी लेगा। घर बनावावेगा। टुल्लर डूँगा की भी ऐसी ही कोई नस दबाना चाह रहा था। हो... हो... कर मज़ाक उड़ाना। पी-खाकर कवेलू पर पत्थर फैंकना। जैसे टुल्लर के प्रयोग पुराने और असफल हो गये थे। लेकिन टुल्लर को टैन्षन नहीं थी। वह जानता था- डूँगा ज़मीन को फतवी की जेब में रखकर कहीं भाग नहीं सकता। टुल्लर की सहमति के बग़ैर कोई दलाल बिकवा नहीं सकता। फिर भी बीच-बीच में टुल्लर छोटे-मोटे प्रयोग करता रहता। ताकि लोगों को लगे- वे सब मेहनत भी करते हैं। ऐसे ही टुल्लर ने धुलण्डी की रात में एकदम ताज़ा प्रयोग आजमाने का मन बनाया। हालाँकि प्रयोग पर टुल्लर में साँझ को ही बातचीत हुई थी। टुल्लर की दोपहर बाद से पंचायत भवन में पार्टी-षार्टी चल रही थी। जब पार्टी ख़त्म होने को आयी, तब नये प्रयोग का आइडिया आ गया। फिर बातचीत में तय हो गया- रात में ही प्रयोग कर लिया जाये। प्रयोग में डूँगा का सोना ज़रूरी था। डूँगा के सोने के टेम तक पार्टी को ज़ारी रखना था। फिर हुआ ये कि पार्टी नये सिरे से षुरू हुई। टुल्लर के लीडर ने ख़ुष होकर दो बोतल और खुलवा दी। पके माँस की तो कमी थी नहीं। पर फिलवक़्त कच्चे गोष्त के लिए सरपँच और लीडर का मन मचल उठा। लीडर ने टुल्लर के एक छोरे से कहा- सरपँच साब की कार लेकर जा, और प्राॅपर्टी को बैठा ला। जाने से पहले छोरे के मन में पवित्रा का ख़याल आया। उसने लीडर को पवित्रा का ध्यान दिलाया- भइया, डूँग्या का घर में भी तो गद्दर तोतापरी है ! लीडर ने कहा- अबी नी, अबी जा, जीतरो बोल्ये उतरो कर । छोरा चला गया। लम्बी नाक वाले की तरफ़लीडर ने भौंहें उछाली, जैसे पूछा कोई कमी तो नहीं। उसने दोनों हाथ और चेहरे के भाव से ऐसे बताया कि तृप्त हो गया। तब लीडर बोला- तो तू प्रयोग की प्राॅपर्टी का बन्दोबस्त कर ले। लम्बी नाक वाला एक पोलीथिन लेकर पंचायत भवन से बाहर निकला। पंचायत भवन ए बी रोड के किनारे नया-नया ही बना था। रोड और ख़ास गाँव के बीच में लम्बा चैड़ा काँकड़था। काँकड़पर ज़्यादातर बलाई, चमार और भंगी रहते थे। और टाॅयलेट तो गाँव में पटेलों चैधरियों के भी पुराने घरों में नहीं थे। फिर काँकड़वालों की झोंपड़ियों में तो टाॅयलेट का सवाल ही नहीं। काँकड़के लोग, रोड से थोड़ी दूरी पर, रोड के समानन्तर खुदी खन्ती में ही फारिग हुआ करते थे। लम्बी नाक वाला एक मेहतर के झोंपड़ी पर गया। मेहतर तो था नहीं, उसका तेरह-चैदह बरस का छोरा मिला। लम्बी नाक वाले ने उसी को पोलीथिन पकड़ायी और छोरे से कहा- खन्ती में जा और इके गू से आधी भरी ला। फिर पंचायत भवन के बाहर रखी पानी की टन्की की तरफ़इषारा करता बोला- पानी ली ने उके घोल दीजे। फिर पन्नी का मुन्डो बान्धी ने दीवाल से टिकइन धरी दीजे। छोरे का बाप भी होता, तो मना करने का तो सवाल ही नहीं था। थोड़ी देर में छोरा घोल बनाकर रख गया। तब तक गाँव में से कार में प्राॅपर्टी भी ले आयी गयी थी। फिर देर रात तक उनकी मौज़-मस्ती चली। प्राॅपर्टी को वापस छोड़ा। फिर सब चले प्रयोग करने। डूँगा के घर से थोड़ी दूर इमली के नीचे कार और जीप रोकी। पहले गाड़ी में से ही देखा- दूर से उन्हें भी डूँगा, खाट पर पड़े डूँड की तरह ही नज़र आया। खाट के नीचे कबरा जगकर सतर्क हो गया था। लम्बी नाक वाले से लीडर ने पूछा- भई थारा प्रयोग में टेगड़ा को कईं ब
न्दोबस्त है ? लम्बी नाक वाला बोला- पूरो बन्दोबस्त है। वह एक छोटी पन्नी में हड्डियाँ दिखाता- इ इका सरू तो भेली करी र्यो थो। लीडर ने कहा- आज तो थारी खोपड़ी के मानी ग्यो यार। दो जने गाड़ी से नीचे उतरे। एक ने गू के घोल की पोलीथिन पकड़ी, दूसरे ने हड्डियों की और डूँगा की खाट तरफ़बढ़े। कबरा देख रहा था। सतर्क था। पर भौंक नहीं रहा था। चूँकि डूँगा के घर सामने से रास्ता था। कोई न कोई आता-जाता रहता। कबरा हर किसी पर न भौंकता। वह तब भौंकता, जब उसे भरोसा हो जाता- कोई ओगला आदमी उसकी तरफ़आ रहा है। लम्बी नाक वाले ने दूर से ही उसकी तरफ़हड्डी का टुकड़ा फैंका। कबरा टुकड़े के पास गया। हड्डी की गन्ध से उसका मुँह लार से भर गया। वह करड़-करड़चबाने लगा। फिर लम्बी नाक वाले ने पूरी पोलीथिन उसके पास रख दी। कबरा गदगद। लम्बी नाक वाले के साथ वाला खाट की ओर बढ़ता गया। खाट पर करवटे सोये डूँगा के पीछे पोलीथिन धरी। उसमें ब्लेड से एक चीरा लगाया। पोलीथिन में से घोल बाहर निकलने लगा। यहीं से टुल्लर बिखरा। सब अपने-अपने घर जाकर आराम करने लगे। डूँगा इस प्रयोग से दुखी हुआ। चिन्तित भी हुआ। पर ज़मीन बेचने को राज़ी न हुआ। तब टुल्लर को लगा- डूँगा है मरियल, पर है बड़ा चामठा। जब तक सूखेगा नहीं, टूटेगा नहीं। कुछ नया प्रयोग करना पड़ेगा। टुल्लर कल्पनाषील तो था ही। कुछ ही महीनों बाद देव उठनी ग्यारस पर गाँव के खाती पटेल के यहाँ बारात आयी। बारात में दो बस, तीन-चार कार, जीप भरकर लोग, एक मेटाडोर में बैंड-बाजा, एक में दूल्हे की घोड़ी। कार की डिक्की में षराब की पेटी। आदि आदि। कहने का मतलब- पूरे तामझाम के साथ पधारी थी बारात। डूँगा ने किसी खाती पटेल की ऐसी बारात पहले कभी नहीं देखी थी। लेकिन जबसे खातियों की ज़मीने बिकने लगी थीं, ऐसी बारातें अक्सर देखने को मिलती थी। पहले तो खाती पटेल षराब और माँस को चोरी-छिपे भी नहीं छूते थे। अगर कोई खाता-पीता तो बच्चों की सगाई-षादी नहीं होती। पहले से हुई होती तो टूट जाती। पर अब खातियों की युवा पीढ़ी में खाने-पीने का ही नहीं, औरत बाजी का षौक भी बढ़गया। उस रात बारात डूँगा के घर सामने ईमली के पेड़के नीचे थी। बैंड-बाजा बज रहा था। छोरे नाच रहे थे। पीने वाले डिस्पोजल में पी रहे थे। पटाखे छोड़ने वाले पटाखे छोड़रहे थे। तभी अचानक टुल्लर को एक ऐतिहासिक आइडिया आया। उसने तुरंत ही पटाखे वाले से डिब्बानुमा पटाखा लिया। यह ऐसा पटाखा था, जिसे एक बार सुलगाव तो उसमें से दस-बारह पटाखे निकलते। ऊपर आसमान में जाकर फूटते। लाल, नीली और पीली रोषनी के फूल बिखेरते। उस रात आरती के बाद का वक़्त था। डूँगा के घर में खाना नहीं बना था, क्योंकि पटेल बा के यहाँ से साकुट्म्या (सपरिवार) निमंत्रण था, सो सभी साँझ को जीम आये थे। सर्दी थी इसलिए डूँगा की खाट भी ओसारी में ढली थी। पारबती बारात को अपने घर तरफ़आने का सपना देखती खाट पर बैठी थी। पवित्रा घोड़ी पर बैठे दूल्हे को टी.वी. से बाहर निकल आया हीरो समझती देख रही थी। डूँगा खाट पर लेटा-लेटा बैंड-बाजा सुन रहा था। उसके मग़ज़में अपनी बारात का दृष्य चल रहा था। उसकी बारात में न बैंड-बाजा था, न पटाखे थे, न घोड़ी। बस, बैलगाड़ी से बारात गयी थी और पारबती को बैठा लाये थे। उसने ख़ुद से पूछा- कितरी फ़सल का पइसा फूँका जाता होगा, इनी तोबगी में ? ख़ुद ही ने जवाब दिया- फ़सल का होता तो नी फूँकता, इ तो ज़मीन का पइसा हैं, असज बंगे लगेगा। जब डूँगा का ख़़ुद से सवाल-जवाब चल रहा था, तभी उसकी ओसारी में ढ़ेर सारे पटाखे वाला डिब्बा आकर गिरा। उसमें एक-एक पटाखा राकेट की तरह बाहर निकलता। डिब्बा आड़ा पड़ा था, उसमें से पटाखे भी आड़े-तिरछे ही निकलते। कोई दीवार से टकराकर फूटता। कोई डूँगा की धोती में घूसने की कोषिष करता। कोई पारबती की घाघरी में। कभी पवित्रा की तरफ़लाल, नीली, पीली रोषनी के फूल बिखरते। कभी पारबती और डूँगा की तरफ़। कभी पवित्रा की चीख़ निकलती, कभी पारबती की। डूँगा के घर की ओसारी, ओसारी नहीं जैसे इरान, फिलिस्तीन थी। थोड़ी देर में धुआँ ही धुआँ भर गया था, न कुछ देखते बनता, न सांस लेते बनता। डूँगा समझ गया था- यह अनायस नहीं है। टुल्लर का ही नया प्रयोग है। उसके बाद जब भी बारात आती। डूँगा परिवार सहित घर के भीतर बंद हो जाता। ओसारी में मिषाइलें दग चुकी होतीं। बारात घर सामने से आगे बढ़जाती। तब किवाड़खोलता। ओसारी के आँगन की साफ़-सफ़ायी करते। यह सितम्बर की एक रात थी। डूँगा ओसारी में खाट पर आड़ा पड़ा था। उसकी नज़रे ओसारी के चद्दरों में पड़े दोंचों पर टीकी थी। दोंचें पटाखों के टकराने और वहीं फूटने से बने थे। देव उठनी ग्यारस कुछ ही दिन दूर थी। उसके मग़ज़में चल रहा था- फिर ब्याह होंगे। फिर बारात आयेगी। फिर आँगन में पटाखे का डिब्बा आकर गिरेगा। चद्दरों में फिर दोंचें पड़ेंगे। ठन्ड ज्वार
की बुरी की तरह ही काट रही थी। पर वह काँप रहा था। कनपटियों से जैसे पसीने की नहीं, गाढ़ेख़ून की तिरपन रिस रही थी। तभी षँख की ध्वनि उसे हमेषा की तरह बुलाने आयी। लेकिन डूँगा ने ध्वनि का आना। कान में प्रवेष करना। महसूस ही नहीं किया। पारबती घर में चूल्हा-चैका का काम करी रही थी। पवित्रा टी.वी. के सामने बैठी थी। डूँगा के मग़ज़में देव उठनी ग्यारस के पटाखे फूट रहे थे। क़रीब दो-तीन मीनिट से उसकी खाट के पास किषोर आकर खड़ा था। वह डूँगा काका...... काका..... कहकर उसे उठा रहा था। जब किषोर ने उसे झिन्झोड़कर उठाने की कोषिष की, तब तंद्र टूटी। किषोर ने बताया- डूँगा काका..... आज आरती में नी गयो। आज खँजड़ी नी बजावेगो। डूँगा के पास तो जैसे भीतर कुछ था ही नहीं, जो कहता। किषोर ने ही कहा- काका जा, थारो खेत अभी नी बिकेगो। थारो खेत लेने वाली बम्बई की पार्टी तो डूबी गयी। डूँगा के मन में जैसे कुछ बुलबुले उठे- न बरसात हुई, न बाढ़आयी। पार्टी कैसे डूब गयी। कुछ समझ में नहीं आया। वह भौचक्क किषोर की ओर देखता रहा। डूँगा ने न कभी दलाल पथ का नाम सुना था, न वाॅल स्ट्रीट का। न मंदी का, षेयर मार्केट का। लेकिन जब किषोर समझा रहा था, तो डूँगा जानने की इच्छा में चुप ही रहा। किषोर ने टी.वी. में देख-सुनकर जो समझा था, उसी के आधार पर डूँगा को अथक प्रयास से कुछ समझाना चाहा। डूँगा को इतना ही समझ में आया। कहीं बहुत भयानक बाढ़आयी- मंदी की बाढ़। उधर दलाल पथ और वाॅल स्ट्रीट के बीच, षायद बरसात को मंदी कहते होंगे। उसी बाढ़में बम्बई की पार्टी डूब गयी। उसी पार्टी को टुल्लर ने किषोर का खेत बिकवाया था। वही पार्टी डूँगा का खेत ख़रीदने की सोच रही थी। पर अब वह डूब गयी। उसका किषोर को दिया बयाना डूब गया। क्योंकि लिखा-पढ़ी के मुताबिक छः महीने से ज़्यादा का वक़्त हो गया था। दुनिया में जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किषोर को मालूम था। टुल्लर तो रोज़ही षहर के दलालों और भू-माफियाओं के सम्पर्क में रहता था, सो वह भी सब कुछ जान ही गया था। डूब का हाहाकार पूरी दुनिया में फैला था। जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किषोर को मालूम। ये डूब उनका क्या कुछ डूबाएगी ! खेत डूबाएगी या मेहनत डूबाएगी ? पर डूँगा को किषोर की बातों से इतना समझ में आ गया था- जब तक खेत बचा है। खेती करने की इच्छा बची है। अपनी मेहनत की फ़सल के दम पर लाल छींटादार लुगड़ी लाने का सपना बचा है। जब तक सपना बचा है, बहुत कुछ बचा है। उस साँझ षँख की ध्वनि भी जैसे अड़बी पड़गयी थी। जब तक डूँगा मन्दिर में नहीं आयेगा, वह उसे हाँक दे. देकर बुलाती रहेगी। डूँगा में जैसे पूरा करंट लौट आया। वह यूँ खटाक से उठा जैसे पूरी रोषनी के साथ गुलुप भिड़ा। वह और किषोर तेज़क़दमों से मन्दिर में पहुँचे। डँूगा ने चैनल गेट के पास धरी खँजड़ी की ओर देखा, उसे लगा- खँजड़ी उसके इंतज़ार में बावली हो गयी थी। उसके छूते ही यों बोलने लगी- जैसे डूँगा के भीतर ज़ख्मी षदी झूम-झूम कर नाचने लगी। आरती ख़त्म होने पर भी डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी था। खँजड़ी और किषोर की ताली बजना। रामा बा के पाँव के पँजों का ऊपर-नीचे उठना। सबने मिलकर ऐसा समा बाँधा था कि आरती में आये किषोर वय के छोरा-छोरी किलकने लगे थे। पंडित खड़ा-खड़ा देख रहा था। उसे प्रसाद बाँटकर ज़ल्दी जाने की चिंता न थी। पर यह तो डूँगा को ही पता था। वह भक्ति में लीन था या अपनी ख़ुषी में डूबा था। उस रात मन्दिर में खँजड़ी और ताली ही बज रही थी। हो.... हो.... नहीं थी।
अचानक से आकाश में जैसे भटकी हुई बदलियों ने चमकते हुये चन्द्रमा के मुख पर अपनी चादर डाल दी तो पल भर में ही सारा आलम फैली हुई स्याही के रंग में नहा गया। इस प्रकार कि चारों तरफ फैला हुआ रात्रि का ये मनहूस मटमैला अंधियारा जैसे भांय-भांय सा करने लगा। कुशभद्रा शांत थी। उसके जल में फैली हुई चांदनी की कोमल किरणें अपना दम तोड़ चुकी थीं। और बालू के तीर पर कफन के समान सिसक-सिसक कर जलती हुई अंतिम चिता की राख़ भी अब ठंडी हो चुकी थी़। अपने प्रिय को अंतिम विदाई देने वालों का हुजूम भी कुशभद्रा के ठंडे जल में स्नान करके न जाने कब के अपने ठिकानों पर जा चुका था, लेकिन सारी दुनियां से रूठा हुआ अपने में ही गुमसुम, सोचों और विचारों में खोये हुये नाथन को जैसे किसी भी बात का तनिक भी होश नहीं था। वह अभी भी नदी के बिल्कुल ही किनारे ही पानी में अपने नंगे पैर लटकाये हुये, अपने नाकाम इरादों की अर्थी सजाये हुये था। दिन भर का थका-हारा, सारी दुनियां-जहान से बिल्कुल ही अलग-थलग संध्या को सूरज ढलते ही वह यहां रोज़ ही आ जाता था। आकर वह कहीं भी थोड़ा सा एकान्त स्थान पाकर बैठ जाता था। बैठते ही वह अपनी अतीत की उन विचलित कर देनेवाली स्मृतियों को एकत्रित करने लगता था जो उसके जीवन में एक बार सुगन्धित कर देनेवाली प्रस्फुटित कलियों के समान खिली तो जरूर थीं, पर अचानक से उसकी सारी जि़न्दगी के कभी भी न समाप्त होनेवाले कांटे बन कर सदा के लिये चली भी गई थीं ़ ़ ़। ' ये जि़न्दगी कुछ नहीं एक ठहरी हुई भोर है, महीन, पतली और बेहद सुरीली आवाज़ में बेसुध ख्यालों में उपरोक्त गीत के बोल सुनते हुये अचानक ही जब धूल और वायु से उड़ती हुई मिट्टी की गंध का एक रेला सा कुर्सी पर बैठे हुये नाथन की नाक में सरसरा के प्रविष्ट हुआ तो नाथन का ध्यान अपने ख्यालों से हटकर वर्तमान में आया। उसने देखा कि नंदी हर रोज़ के समान, अपनी साड़ी से अपना मुंह और नाक बंद करके उसके घर के सामने झाड़ू लगा रही है। वह जब भी अपने काम पर मसीहियों की इस बस्ती में सफाई का काम करने आती थी तो अपनी आदत के समान उपरोक्त गीत को अवश्य ही गुनगुनाती और गाती थी। गर्मी के दिन थे। मसीहियों की इस बस्ती में बच्चों के खेलने, और प्रायः पानी की कमी के कारण हरियाली और घास का तो कोई नाम-ओ-निशान नहीं था। ऊपर से दिन भर मुर्गियों का भागना, उनका खेलना और कुंलाचे मारना, और भी सारी भूमि को सूख़ा बनाये फिरती थीं। सामने का सारा मैदान कभी जंगली घास का समुद्र बन जाता था, तो कभी बरसात में ताल-तलैया। नाथन की जब भी छुट्टी होती थी तो वह बहुत सबेरे ही अपना चाय का प्याला लेकर बाहर घर के सामने एक कुर्सी पर आकर बैठ जाता था। बैठ कर यही सारे नज़ारे वह देखता रहता था। नंदी जैसे नाथन के घर के सामने रोज़ सुबह ही आकर झाड़ू लगाती थी, ठीक वैसे ही वह मसीहियों के अन्य घरों में भी सफाई का काम किया करती थी। उसके इस सफाई के काम में कोई-कोई मसीही परिवार अपनी मुर्गियों का रहने का स्थान अर्थात् दरबों की भी सफाई करवाता था। नंदी को इस सफाई के काम की मेहनत के बदले में महीने के पैसे और सारे घरों से एक वक्त का खाना मिल जाता था। हांलाकि, मसीहियों के इस इलाके की विस्त स्वंय नंदी की न होकर उसके पिता जक्खा के नाम थी। मेहतरों के समाज में यह विस्त एक ऐसा रिवाज़ था कि नंदी के पिता जक्खा के अलावा कोई अन्य सफाई कर्मचारी इस इलाके में बगैर उसकी मज़र्ी के काम नहीं कर सकता था। साथ में जक्खा अपने समाज और इलाके में अन्य मेहतरों और भंगियों का मुख्य जमादार भी था। सफाई आदि के विषय में यदि कोई भी शिकायत आदि होती थी तो वह सबसे पहले नंदी के पिता के पास ही जाती थी। चंूकि जक्खा काफी वर्षों से काम कर रहा था, और अपनी उम्र तथा स्वास्थ्य के हिसाब से वह यह काम कर पाने में असमर्थ भी हो जाता था, इसलिये उसकी लड़की नंदी उसके स्थान पर काम करने आती थी। नंदी का विवाह अभी नहीं हुआ था, लेकिन सब जानते थे कि उसकी उम्र विवाह के योग्य हो चुकी थी। कुछ लोगों का ख्याल था कि जब नंदी के भाई का विवाह हो जायेगा तो उसकी पत्नी नंदी का काम संभाल लेगी। नंदी के भाई के विवाह के पश्चात ही तब शायद जक्खा उसका भी विवाह कर दे? ' ऐ नंदी! कैसे झाड़ू लगा रही हो। सारी धूल मेरी नाक में घुसी जाती है?' नाथन से नहीं रहा गया तो उसने नंदी से कह ही दिया। '?' अपने नाम का संबोधन सुनकर झाड़ू लगाते हुये नंदी के हाथ अचानक ही थम गये। उसने झाड़ू रोकते हुये नाथन की तरफ देखा। कुछ देर न जाने क्या सोचा, फिर हल्के से मुस्कराती हुई बोली, '!' नंदी की बात सुनकर नाथन कुछेक क्षणों के लिये चुप हो गया। ' वह क्या?' नाथन बोला। ' ऐसे।' कहते हुये नंदी ने अपने चेहरे पर लपेटी हुई साड़ी को हटाया। फिर आगे बोली, ' बहन जी का स्कॉफ लीजिये और मेरी तरह साड़ी के समान लपेट लीजिये।'