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थायस ने स्वाधीन, लेकिन निर्धन और मूर्तिपूजक मातापिता के घर जन्म लिया था। जब वह बहुत छोटीसी लड़की थी तो उसका बाप एक सराय का भटियारा था। उस सराय में परायः मल्लाह बहुत आते थे। बाल्यकाल की अशृंखल, किन्तु सजीव स्मृतियां उसके मन में अब भी संचित थीं। उसे अपने बाप की याद आती थी जो पैर पर पैर रखे अंगीठी के सामने बैठा रहता था। लम्बा, भारीभरकम, शान्त परकृति का मनुष्य था, उन फिर ऊनों की भांति जिनकी कीर्ति सड़क के नुक्कड़ों पर भाटों के मुख से नित्य अमर होती रहती थी। उसे अपनी दुर्बल माता की भी याद आती थी जो भूखी बिल्ली की भांति घर में चारों ओर चक्कर लगाती रहती थी। सारा घर उसके तीक्ष्ण कंठ स्वर में गूंजता और उसके उद्दीप्त नेत्रों की ज्योति से चमकता रहता था। पड़ोस वाले कहते थे, यह डायन है, रात को उल्लू बन जाती है और अपने परेमियों के पास उड़ जाती है। यह अफीमचियों की गप थी। थामस अपनी मां से भलीभांति परिचित थी और जानती थी कि वह जादूटोना नहीं करती। हां, उसे लोभ का रोग था और दिन की कमाई को रातभर गिनती रहती थी। असली पिता और लोभिनी माता थायस के लालनपालन की ओर विशेष ध्यान न देते थे। वह किसी जंगली पौधे के समान अपनी बा़ से ब़ती जाती थी। वह मतवाले मल्लाहों के कमरबन्द से एकएक करके पैसे निकालने में निपुण हो गयी। वह अपने अश्लील वाक्यों और बाजारी गीतों से उनका मनोरंजन करती थी, यद्यपि वह स्वयं इनका आशय न जानती थी। घर शराब की महक से भरा रहता था। जहांतहां शराब के चमड़े के पीपे रखे रहते थे और वह मल्लाहों की गोद में बैठती फिरती थी। तब मुंह में शराब का लसका लगाये वह पैसे लेकर घर से निकलती और एक बुयि से गुलगुले लेकर खाती। नित्यपरति एक ही अभिनय होता रहता था। मल्लाह अपनी जानजोखिम यात्राओं की कथा कहते, तब चौसर खेलते, देवताओं को गालियां देते और उन्मत्त होकर 'शराब, शराब, सबसे उत्तम शराब !' की रट लगाते। नित्यपरति रात को मल्लाहों के हुल्लड़ से बालिका की नींद उचट जाती थी। एकदूसरे को वे घोंघे फेंककर मारते जिससे मांस कट जाता था और भयंकर कोलाहल मचता था। कभी तलवारें भी निकल पड़ती थीं और रक्तपात हो जाता था। थायस को यह याद करके बहुत दुःख होता था कि बाल्यावस्था में यदि किसी को मुझसे स्नेह था तो वह सरल, सहृदय अहमद था। अहमद इस घर का हब्शी गुलाम था, तवे से भी ज्यादा काला, लेकिन बड़ा सज्जन, बहुत नेक जैसे रात की मीठी नींद। वह बहुधा थामस को घुटनों पर बैठा लेता और पुराने जमाने के तहखानों की अद्भुत कहानियां सुनाता जो धनलोलुप राजेमहाराजे बनवाते थे और बनवाकर शिल्पियों और कारीगरों का वध कर डालते थे कि किसी को बता न दें। कभीकभी ऐसे चतुर चोरों की कहानियां सुनाता जिन्होंने राजाओं की कन्या से विवाह किया और मीनार बनवाये। बालिका थायस के लिए अहमद बाप भी था, मां भी था, दाई था और कुत्ता भी था। वह अहमद के पीछेपीछे फिरा करती; जहां वह जाता, परछाईं की तरह साथ लगी रहती। अहमद भी उस पर जान देता था। बहुत रात को अपने पुआल के गद्दे पर सोने के बदले बैठा हुआ वह उसके लिए कागज के गुब्बारे और नौकाएं बनाया करता। अहमद के साथ उसके स्वामियों ने घोर निर्दयता का बर्ताव किया था। एक कान कटा हुआ था और देह पर कोड़ों के दागही-दाग थे। किन्तु उसके मुख पर नित्य सुखमय शान्ति खेला करती थी और कोई उससे न पूछता था कि इस आत्मा की शान्ति और हृदय के सन्टोष का स्त्रोत कहां था। वह बालक की तरह भोला था। काम करतेकरते थक जाता तो अपने भद्दे स्वर में धार्मिक भजन गाने लगता जिन्हें सुनकर बालिका कांप उठती और वही बातें स्वप्न में भी देखती। 'हमसे बात मेरी बेटी, तू कहां गयी थी और क्या देखा था ?' 'मैंने कफन और सफेद कपड़े देखे। स्वर्गदूत कबर पर बैठे हुए थे और मैंने परभु मसीह की ज्योति देखी। थायस उससे पूछती-'दादा, तुम कबर में बैठै हुए दूतों का भजन क्यों गाते हो।' अहमद जवाब देता-'मेरी आंखों की नन्ही पुतली, मैं स्वर्गदूतों के भजन इसलिए गाता हूं कि हमारे परभु मसीह स्वर्गलोक को उड़ गये हैं।' अहमद ईसाई था। उसकी यथोचित रीति से दीक्षा हो चुकी थी और ईसाइयों के समाज में उसका नाम भी थियोडोर परसिद्ध था। वह रातों को छिपकर अपने सोने के समय में उनकी संगीतों में शामिल हुआ करता था। उस समय ईसाई धर्म पर विपत्ति की घटाएं छाई हुई थीं। रूस के बादशाह की आज्ञा से ईसाइयों के गिरजे खोदकर फेंक दिये गये थे, पवित्र पुस्तकें जला डाली गयी थीं और पूजा की सामगिरयां लूट ली गयी थीं। ईसाइयों के सम्मानपद छीन लिये गये थे और चारों ओर उन्हें मौतही-मौत दिखाई देती थी। इस्कन्द्रिया में रहने वाले समस्त ईसाई समाज के लोग संकट में थे। जिसके विषय में ईसावलम्बी होने का जरा भी सन्देह होता, उसे तुरन्त कैद में डाल दिया जाता था। सारे देश में इन खबरों से हाहाकार मचा हुआ था कि स्याम, अरब, ईरान आदि स्थानो
ं में ईसाई बिशपों और वरतधारिणी कुमारियों को कोड़े मारे गये हैं, सूली दी गयी हैं और जंगल के जानवरों के समान डाल दिया गया है। इस दारुण विपत्ति के समय जब ऐसा निश्चय हो रहा था कि ईसाइयों का नाम निशान भी न रहेगा; एन्थोनी ने अपने एकान्तवास से निकलकर मानो मुरझाये हुए धान में पानी डाल दिया। एन्थोनी मिस्त्रनिवासी ईसाइयों का नेता, विद्वान्, सिद्धपुरुष था, जिसके अलौकिक कृत्यों की खबरें दूरदूर तक फैली हुई थीं। वहआत्मज्ञानी और तपस्वी था। उसने समस्त देश में भरमण करके ईसाई सम्परदाय मात्र को श्रद्घा और धमोर्त्साह से प्लावित कर दिया। विधर्मियों से गुप्त रहकर वह एक समय में ईसाइयों की समस्त सभाओं में पहुंच जाता था, और सभी में उस शक्ति और विचारशीलता का संचार कर देता था जो उसके रोमरोम में व्याप्त थी। गुलामों के साथ असाधारण कठोरता का व्यवहार किया गया था। इससे भयभीत होकर कितने ही धर्मविमुख हो गये, और अधिकांश जंगल को भाग गये। वहां या तो वे साधु हो जायेंगे या डाके मारकर निवार्ह करेंगे। लेकिन अहमद पूर्ववत इन सभाओं में सम्मिलित होता, कैदियों से भेंट करता, आहत पुरुषों का क्रियाकर्म करता और निर्भय होकर ईसाई धर्म की घोषणा करता था। परतिभाशाली एन्थोनी अहमद की यह दृ़ता और निश्चलता देखकर इतना परसन्न हुआ कि चलते समय उसे छाती से लगा लिया और बड़े परेम से आशीवार्द दिया। जब थायस सात वर्ष की हुई तो अहमद ने उसे ईश्वरचचार करनी शुरू की। उसकी कथा सत्य और असत्य का विचित्र मिश्रण लेकिन बाल्यहृदय के अनुकूल थी। ईश्वर फिरऊन की भांति स्वर्ग में, अपने हरम के खेमों और अपने बाग के वृक्षों की छांह में रहता है। वह बहुत पराचीन काल से वहां रहता है, और दुनिया से भी पुराना है। उसके केवल एक ही बेटा है, जिसका नाम परभु ईसू है। वह स्वर्ग के दूतों से और रमणी युवतियों से भी सुन्दर है। ईश्वर उसे हृदय से प्यार करता है। उसने एक दिन परभु मसीह से कहा-'मेरे भवन और हरम, मेरे छुहारे के वृक्षों और मीठे पानी की नदियों को छोड़कर पृथ्वी पर जाओ और दीनदुःखी पराणियों का कल्याण करो ! वहां तुझे छोटे बालक की भांति रहना होगा। वहां दुःख हो तेरा भोजन होगा और तुझे इतना रोना होगा कि तुझे आंसुओं से नदियां बह निकलें, जिनमें दीनदुःखी जन नहाकर अपनी थकन को भूल जाएं। जाओ प्यारे पुत्र !' परभु मसीह ने अपने पूज्य पिता की आज्ञा मान ली और आकर बेथलेहम नगर में अवतार लिया। वह खेतों और जंगलों में फिरते थे और अपने साथियों से कहते थे-मुबारक हैं वे लोग जो भूखे रहते हैं, क्योंकि मैं उन्हें अपने पिता की मेज पर खाना खिलाऊंगा। मुबारक हैं वे लोग जो प्यासे रहते हैं, क्योंकि वह स्वर्ग की निर्मल नदियों का जल पियेंगे और मुबारक हैं वे जो रोते हैं, क्योंकि मैं अपने दामन से उनके आंसू पोंछूंगा। यही कारण है कि दीनहीन पराणी उन्हें प्यार करते हैं और उन पर विश्वास करते हैं। लेकिन धनी लोग उनसे डरते हैं कि कहीं यह गरीबों को उनसे ज्यादा धनी न बना दें। उस समय क्लियोपेट्रा और सीजर पृथ्वी पर सबसे बलवान थे। वे दोनों ही मसीह से जलते थे, इसीलिए पुजारियों और न्यायाधीशों को हुक्म दिया कि परभु मसीह को मार डालो। उनकी आज्ञा से लोगों ने एक सलीब खड़ी की और परभु को सूली पर च़ा दिया। किन्तु परभु मसीह ने कबर के द्वार को तोड़ डाला और फिर अपने पिता ईश्वर के पास चले गये। उसी समय से परभु मसीह के भक्त स्वर्ग को जाते हैं। ईश्वर परेम से उनका स्वागत करता है और उनसे कहता है-'आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं क्योंकि तुम मेरे बेटे को प्यार करते हो। हाथ धोकर मेज पर बैठ जाओ।' तब स्वर्ग अप्सराएं गाती हैं और जब तक मेहमान लोग भोजन करते हैं, नाच होता रहता है। उन्हें ईश्वर अपनी आंखों की ज्योति से अधिक प्यार करता है, क्योंकि वे उसके मेहमान होते हैं और उनके विश्राम के लिए अपने भवन के गलीचे और उनके स्वादन के लिए अपने बाग का अनार परदान करता है। अहमद इस परकार थायस से ईश्वर चचार करता था। वह विस्मित होकर कहती थी-'मुझे ईश्वर के बाग के अनार मिलें तो खूब खाऊं।' अहमद कहता था-'स्वर्ग के फल वही पराणी खा सकते हैं जो बपतिस्मा ले लेते हैं।' तब थायस ने बपतिस्मा लेने की आकांक्षा परकट की। परभु मसीह में उसकी भक्ति देखकर अहमद ने उसे और भी धर्मकथाएं सुनानी शुरू कीं। इस परकार एक वर्ष तक बीत गया। ईस्टर का शुभ सप्ताह आया और ईसाइयों ने धमोर्त्सव मनाने की तैयारी की। इसी सप्ताह में एक रात को थायस नींद से चौंकी तो देखा कि अहमद उसे गोद में उठा रहा है। उसकी आंखों में इस समय अद्भुत चमक थी। वह और दिनों की भांति फटे हुए पाजामे नहीं, बल्कि एक श्वेत लम्बा ीला चोगा पहने हुए था। उसके थायस को उसी चोगे में छिपा लिया और उसके कान में बोला-'आ, मेरी आंखों की पुतली, आ। और बपतिस्मा के पवित्र वस्त्र धारण कर।' वह लड़की को छाती से
लगाये हुए चला। थायस कुछ डरी, किन्तु उत्सुक भी थी। उसने सिर चोगे से बाहर निकाल लिया और अपने दोनों हाथ अहमद की मर्दन में डाल दिये। अहमद उसे लिये वेग से दौड़ा चला जाता था। वह एक तंग अंधेरी गली से होकर गुजरा; तब यहूदियों के मुहल्ले को पार किया, फिर एक कबिरस्तान के गिर्द में घूमते हुए एक खुले मैदान में पहुंचा जहां, ईसाई, धमार्हतों की लाशें सलीबों पर लटकी हुई थीं। थायस ने अपना सिर चोगे में छिपा लिया और फिर रास्ते भर उसे मुंह बाहर निकालने का साहस न हुआ। उसे शीघर ज्ञात हो गया कि हम लोग किसी तहखाने में चले जा रहे हैं। जब उसने फिर आंखें खोलीं तो अपने को एक तंग खोह में पाया। राल की मशालें जल रही थीं। खोह की दीवारों पर ईसाई सिद्ध महात्माओं के चित्र बने हुए थे जो मशालों के अस्थिर परकाश में चलतेफिरते, सजीव मालूम होते थे। उनके हाथों में खजूर की डालें थीं और उनके इर्दगिर्द मेमने, कबूतर, फाखते और अंगूर की बेलें चित्रित थीं। इन्हीं चित्रों में थायस ने ईसू को पहचाना, जिसके पैरों के पास फूलों का ेर लगा हुआ था। खोह के मध्य में, एक पत्थर के जलकुण्ड के पास, एक वृद्ध पुरुष लाल रंग का ीला कुरता पहने खड़ा था। यद्यपि उसके वस्त्र बहुमूल्य थे, पर वह अत्यन्त दीन और सरल जान पड़ता था। उसका नाम बिशप जीवन था, जिसे बादशाह ने देश से निकाल दिया था। अब वह भेड़ का ऊन कातकर अपना निवार्ह करता था। उसके समीप दो लड़के खड़े थे। निकट ही एक बुयि हब्शिन एक छोटासा सफेद कपड़ा लिये खड़ी थी। अहमद ने थायस को जमीन पर बैठा दिया और बिशप के सामने घुटनों के बल बैठकर बोला-'पूज्य पिता, यही वह छोटी लड़की है जिसे मैं पराणों से भी अधिक चाहता हूं। मैं उसे आपकी सेवा में लाया हूं कि आप अपने वचनानुसार, यदि इच्छा हो तो, उसे बपतिस्मा परदान कीजिए।' यह सुनकर बिशप ने हाथ फैलाया। उनकी उंगलियों के नाखून उखाड़ लिये गये थे क्योंकि आपत्ति के दिनों में वह राजाज्ञा की परवाह न करके अपने धर्म पर आऱु रहे थे। थायस डर गयी और अहमद की गोद में छिप गयी, किन्तु बिशप के इन स्नेहमय शब्दों ने उस आश्वस्त कर दिया-'पिरय पुत्री, डरो मत। अहमद तेरा धर्मपिता है जिसे हम लोग थियोडोरा कहते हैं, और यह वृद्घा स्त्री तेरी माता है जिसने अपने हाथों से तेरे लिए एक सफेद वस्त्र तैयार किया। इसका नाम नीतिदा है। यह इस जन्म में गुलाम है; पर स्वर्ग में यह परभु मसीह की परेयसी बनेगी।' तब उसने थायस से पूछा-'थायस, क्या तू ईश्वर पर, जो हम सबों का परम पिता है, उसके इकलौते पुत्र परभु मसीह पर जिसने हमारी मुक्ति के लिए पराण अर्पण किये, और मसीह के शिष्यों पर विश्वास करती हैं ?' हब्शी और हब्शिन ने एक स्वर से कहा-'हां।' तब बिशप के आदेश से नीतिदा ने थायस के कपड़े उतारे। वह नग्न हो गयी। उसके गले में केवल एक यन्त्र था। विशप ने उसे तीन बार जलकुण्ड में गोता दिया, और तब नीतिदा ने देह का पानी पोंछकर अपना सफेद वस्त्र पहना दिया। इस परकार वह बालिका ईसा शरण में आयी जो कितनी परीक्षाओं और परलोभनों के बाद अमर जीवन पराप्त करने वाली थी। जब यह संस्कार समाप्त हो गया और सब लोग खोह के बाहर निकले तो अहमद ने बिशप से कहा-'पूज्य पिता, हमें आज आनन्द मनाना चाहिए; क्योंकि हमने एक आत्मा को परभु मसीह के चरणों पर समर्पित किया। आज्ञा हो तो हम आपके शुभस्थान पर चलें और शेष रात्रि उत्सव मनाने में काटें।' बिशप ने परसन्नता से इस परस्ताव को स्वीकार किया। लोग बिशप के घर आये। इसमें केवल एक कमरा था। दो चरखे रखे हुए थे और एक फटी हुई दरी बिछी थी। जब यह लोग अन्दर पहुंचे तो बिशप ने नीतिदा से कहा-'चूल्हा और तेल की बोतल लाओ। भोजन बनायें।' यह कहकर उसने कुछ मछलियां निकालीं, उन्हें तेल में भूना, तब सबके-सब फर्श पर बैठकर भोजन करने लगे। बिशप ने अपनी यन्त्रणाओं का वृत्तान्त कहा और ईसाइयों की विजय पर विश्वास परकट किया। उसकी भाषा बहुत ही पेचदार, अलंकृत, उलझी हुई थी। तत्त्व कम, शब्दाडम्बर बहुत था। थायस मंत्रमुग्ध-सी बैठी सुनती रही। भोजन समाप्त हो जाने का बिशप ने मेहमानों को थोड़ीसी शराब पिलाई। नशा च़ा तो वे बहकबहककर बातें करने लगे। एक क्षण के बाद अहमद और नीतिदा ने नाचना शुरू किया। यह परेतनृत्य था। दोनों हाथ हिलाहिलाकर कभी एकदूसरे की तरफ लपकते, कभी दूर हट जाते। जब सेवा होने में थोड़ी देर रह गयी तो अहमद ने थायस को फिर गोद में उठाया और घर चला आया। अन्य बालकों की भांति थायस भी आमोदपिरय थी। दिनभर वह गलियों में बालकों के साथ नाचतीगाती रहती थी। रात को घर आती तब भी वह गीत गाया करती, जिनका सिरपैर कुछ न होता। अब उसे अहमद जैसे शान्त, सीधेसीधे आदमी की अपेक्षा लड़केलड़कियों की संगति अधिक रुचिकर मालूम होती ! अहमद भी उसके साथ कम दिखाई देता। ईसाइयों पर अब बादशाह की क्रुर दृष्टि न थी, इसलिए वह अबाधरूप से धर्म संभाएं करने
लगे थे। धर्मनिष्ठ अहमद इन सभाओं में सम्मिलित होने से कभी न चूकता। उसका धमोर्त्साह दिनोंदिन ब़ने लगा। कभीकभी वह बाजार में ईसाइयों को जमा करके उन्हें आने वाले सुखों की शुभ सूचना देता। उसकी सूरत देखते ही शहर के भिखारी, मजदूर, गुलाम, जिनका कोई आश्रय न था, जो रातों में सड़क पर सोते थे, एकत्र हो जाते और वह उनसे कहता-'गुलामों के मुक्त होने के बदन निकट हैं, न्याय जल्द आने वाला है, धन के मतवाले चैन की नींद न सो सकेंगे। ईश्वर के राज्य में गुलामों को ताजा शराब और स्वादिष्ट फल खाने को मिलेंगे, और धनी लोग कुत्ते की भांति दुबके हुए मेज के नीचे बैठे रहेंगे और उनका जूठन खायेंगे।' यह शुभसन्देश शहर के कोनेकोने में गूंजने लगता और धनी स्वामियों को शंका होती कि कहीं उनके गुलाम उत्तेजित होकर बगावत न कर बैठें। थायस का पिता भी उससे जला करता था। वह कुत्सित भावों को गुप्त रखता। एक दिन चांदी का एक नमकदान जो देवताओं के यज्ञ के लिए अलग रखा हुआ था, चोरी हो गया। अहमद ही अपराधी ठहराया गया। अवश्य अपने स्वामी को हानि पहुंचाने और देवताओं का अपमान करने के लिए उसने यह अधर्म किया है ! चोरी को साबित करने के लिए कोई परमाण न था और अहमद पुकारपुकारकर कहता था-मुझ पर व्यर्थ ही यह दोषारोपण किया जाता है। तिस पर भी वह अदालत में खड़ा किया गया। थायस के पिता ने कहा-'यह कभी मन लगाकर काम नहीं करता।' न्यायाधीश ने उसे पराणदण्ड का हुक्म दे दिया। जब अहमद अदालत से चलने लगा तो न्यायधीश ने कहा-'तुमने अपने हाथों से अच्छी तरह काम नहीं लिया इसलिए अब यह सलीब में ठोंक दिये जायेंगे !' अहमद ने शान्तिपूर्वक फैसला सुना, दीनता से न्यायाधीश को परणाम किया और तब कारागार में बन्द कर दिया गया। उसके जीवन के केवल तीन दिन और थे और तीनों दिनों दिन यह कैदियों को उपदेश देता रहा। कहते हैं उसके उपदेशों का ऐसा असर पड़ा कि सारे कैदी और जेल के कर्मचारी मसीह की शरण में आ गये। यह उसके अविचल धमार्नुराग का फल था। चौथे दिन वह उसी स्थान पर पहुंचाया गया जहां से दो साल पहले, थायस को गोद में लिये वह बड़े आनन्द से निकला था। जब उसके हाथ सलीब पर ठोंक दिये गये, तो उसने 'उफ' तक न किया, और एक भी अपशब्द उसके मुंह से न निकला ! अन्त में बोला-'मैं प्यासा हूं ! 'वह स्वर्ग के दूत तुझे लेने को आ रहे हैं। उनका मुख कितना तेजस्वी है। वह अपने साथ फल और शराब लिये आते हैं। उनके परों से कैसी निर्मल, सुखद वायु चल रही है।' और यह कहतेकहते उसका पराणान्त हो गया। मरने पर भी उसका मुखमंडल आत्मोल्लास से उद्दीप्त हो रहा था। यहां तक कि वे सिपाही भी जो सलीब की रक्षा कर रहे थे, विस्मत हो गये। बिशप जीवन ने आकर शव का मृतकसंस्कार किया और ईसाई समुदाय ने महात्मा थियोडोर की कीर्ति को परमाज्ज्वल अक्षरों में अंकित किया। वह छोटी ही उमर में बादशाह के युवकों के साथ क्रीड़ा करने लगी। संध्या समय वह बू़े आदमियों के पीछे लग जाती और उनसे कुछन-कुछ ले मरती थी। इस भांति जो कुछ मिलता उससे मिठाइयां और खिलौने मोल लेती। पर उसकी लोभिनी माता चाहती थी कि वह जो कुछ पाये वह मुझे दे। थायस इसे न मानती थी। इसलिए उसकी माता उसे मारापीटा करती थी। माता की मार से बचने के लिए वह बहुधा घर से भाग जाती और शहरपनाह की दीवार की दरारों में वन्य जन्तुओं के साथ छिपी रहती। एक दिन उसकी माता ने इतनी निर्दयता से उसे पीटा कि वह घर से भागी और शहर के फाटक के पास चुपचाप पड़ी सिसक रही थी कि एक बुयि उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह थोड़ी देर तक मुग्धभाव से उसकी ओर ताकती रही और तब बोली-'ओ मेरी गुलाब, मेरी गुलाब, मेरी फूलसी बच्ची ! धन्य है तेरा पिता जिसने तुझे पैदा किया और धन्य है तेरी माता जिसने तुझे पाला।' थायस चुपचाप बैठी जमीन की ओर देखती रही। उसकी आंखें लाल थीं, वह रो रही थी। बुयि ने फिर कहा-'मेरी आंखों की पुतली, मुन्नी, क्या तेरी माता तुझजैसी देवकन्या को पालपोसकर आनन्द से फूल नहीं जाती, और तेरा पिता तुझे देखकर गौरव से उन्मत्त नहीं हो जाता ?' थायस ने इस तरह भुनभुनाकर उत्तर दिया, मानो मन ही में कह रही है-मेरा बाप शराब से फूला हुआ पीपा है और माता रक्त चूसने वाली जोंक है। बुयि ने दायेंबायें देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा है, तब निस्संक होकर अत्यन्त मृदु कंठ से बोली-'अरे मेरी प्यारी आंखों की ज्योति, ओ मेरी खिली हुई गुलाब की कली, मेरे साथ चलो। क्यों इतना कष्ट सहती हो ? ऐसे मांबाप की झाड़ मारो। मेरे यहां तुम्हें नाचने और हंसने के सिवाय और कुछ न करना पड़ेगा। मैं तुम्हें शहद के रसगुल्ले खिलाऊंगी, और मेरा बेटा तुम्हें आंखों की पुतली बनाकर रखेगा। वह बड़ा सुन्दर सजीला जबान है, उसकी दा़ी पर अभी बाल भी नहीं निकले, गोरे रंग का कोमल स्वभाव का प्यारा लड़का है।' थायस ने कहा-'मैं शौक से तुम्हें साथ चलूंगी।' और उठकर बुयि के पीछ
े शहर के बाहर चली गयी। बुयि का नाम मीरा था। उसके पास कई लड़केलड़कियों की एक मंडली थी। उन्हें उसने नाचना, गाना, नकलें करना सिखाया था। इस मंडली को लेकर वह नगरनगर घूमती थी, और अमीरों के जलसों में उनका नाचगाना कराके अच्छा पुरस्कार लिया करती थी। उसकी चतुर आंखों ने देख लिया कि यह कोई साधारण लड़की नहीं है। उसका उठान कहे देता था कि आगे चलकर वह अत्यन्त रूपवती रमणी होगी। उसने उसे कोड़े मारकर संगीत और पिंगल की शिक्षा दी। जब सितार के तालों के साथ उसके पैर न उठते तो वह उसकी कोमल पिंडलियों में चमड़े के तस्में से मारती। उसका पुत्र जो हिजड़ा था, थायस से द्वेष रखता था, जो उसे स्त्री मात्र से था। पर वह नाचने में, नकल करने में, मनोगत भावों को संकेत, सैन, आकृति द्वारा व्यक्त करने में, परेम की घातों के दर्शाने में, अत्यन्त कुशल था। हिजड़ों में यह गुण परायः ईश्वरदत्त होते हैं। उसने थायस को यह विद्या सिखाई, खुशी से नहीं, बल्कि इसलिए कि इस तरकीब से वह जी भरकर थायस को गालियां दे सकता था। जब उसने देखा कि थायस नाचनेगाने में निपुण होती जाती है और रसिक लोग उसके नृत्यगान से जितने मुग्ध होते हैं उतना मेरे नृत्यकौशल से नहीं होते तो उसकी छाती पर सांप काटने लगा। वह उसके गालों को नोच लेता, उसके हाथपैर में चुटकियां काटता। पर उसकी जलन से थायस को लेशमात्र भी दुःख न होता था। निर्दय व्यवहार का उसे अभ्यास हो गया था। अन्तियोकस उस समय बहुत आबाद शहर था। मीरा जब इस शहर में आयी तो उसने रईसों से थायस की खूब परशंसा की। थायस का रूपलावण्य देखकर लोगों ने बड़े चाव से उसे अपनी रागरंग की मजलिसों में निमन्त्रित किया, और उसके नृत्यगान पर मोहित हो गये। शनैःशनैः यही उसका नित्य का काम हो गया! नृत्यगान समाप्त होने पर वह परायः सेठसाहूकारों के साथ नदी के किनारे, घने कुञ्जों में विहार करती। उस समय तक उसे परेम के मूल्य का ज्ञान न था, जो कोई बुलाता उसके पास जाती, मानो कोई जौहरी का लड़का धनराशि को कौड़ियों की भांति लुटा रहा हो। उसका एकएक कटाक्ष हृदय को कितना उद्विग्न कर देता है, उसका एकएक कर स्पर्श कितना रोमांचकारी होता है, यह उसके अज्ञात यौवन को विदित न था। थायस, यह मेरा परम सौभाग्य होता यदि तेरे अलकों में गुंथी हुई पुष्पमाला या तेरे कोमल शरीर का आभूषण, अथवा तेरे चरणों की पादुका मैं होता। यह मेरी परम लालसा है कि पादुका की भांति तेरे सुन्दर चरणों से कुचला जाता, मेरा परेमालिंगन तेरे सुकोमल शरीर का आभूषण और तेरी अलकराशि का पुष्प होता। सुन्दरी रमणी, मैं पराणों को हाथ में लिये तेरी भेंट करने को उत्सुक हो रहा हूं। मेरे साथ चल और हम दोनों परेम में मग्न होकर संसार को भूल जायें।' जब तक वह बोलता रहा, थायस उसकी ओर विस्मित होकर ताकती रही। उसे ज्ञात हुआ कि उसका रूप मनोहर है। अकस्मात उसे अपने माथे पर ठंडा पसीना बहता हुआ जान पड़ा। वह हरी घास की भांति आर्द्र हो गयी। उसके सिर में चक्कर आने लगे, आंखों के सामने मेघघटासी उठती हुई जान पड़ी। युवक ने फिर वही परेमाकांक्षा परकट की, लेकिन थायस ने फिर इनकार किया। उसके आतुर नेत्र, उसकी परेमयाचना बस निष्फल हुई, और जब उसने अधीर होकर उसे अपनी गोद में ले लिया और बलात खींच ले जाना चाहा तो उसने निष्ठुरता से उसे हटा दिया। तब वह उसके सामने बैठकर रोने लगा। पर उसके हृदय में एक नवीन, अज्ञात और अलक्षित चैतन्यता उदित हो गयी थी। वह अब भी दुरागरह करती रही। मेहमानों ने सुना तो बोले-'यह कैसी पगली है ? लोलस कुलीन, रूपवान, धनी है, और यह नाचने वाली युवती उसका अपमान करती हैं !' लोलस का रात घर लौटा तो परेममद तो मतवाला हो रहा था। परातःकाल वह फिर थायस के घर आया, तो उसका मुख विवर्ण और आंखें लाल थीं। उसने थायस के द्वार पर फूलों की माला च़ाई। लेकिन थायस भयभीत और अशान्त थी, और लोलस से मुंह छिपाती रहती थी। फिर भी लोलस की स्मृति एक क्षण के लिए भी उसकी आंखों से न उतरती। उसे वेदना होती थी पर वह इसका कारण न जानती थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैं इतनी खिन्न और अन्यमनस्क क्यों हो गयी हूं। यह अन्य सब परेमियों से दूर भागती थी। उनसे उसे घृणा होती थी। उसे दिन का परकाश अच्छा न लगता, सारे दिन अकेले बिछावन पर पड़ी, तकिये में मुंह छिपाये रोया करती। लोलस कई बार किसीन-किसी युक्ति से उसके पास पहुंचा, पर उसका परेमागरह, रोनाधोना, एक भी उसे न पिघला सका। उसके सामने वह ताक न सकती, केवल यही कहती-'नहीं, नहीं।' लेकिन एक पक्ष के बाद उसकी जिद्द जाती रही। उसे ज्ञात हुआ कि मैं लोलस के परेमपाश में फंस गयी हूं। वह उसके घर गयी और उसके साथ रहने लगी। अब उनके आनन्द की सीमा न थी। दिन भर एकदूसरे से आंखें मिलाये बैठे परेमलाप किया करते। संध्या को नदी के नीरव निर्जन तट पर हाथमें-हाथ डाले टहलते। कभीकभी अरुणोदय के समय उठकर पहाड़ियों पर सम्
बुल के फूल बटोरने चले जाते। उनकी थाली एक थी। प्याला एक था, मेज एक थी। लोलस उसके मुंह के अंगूर निकालकर अपने मुंह में खा जाता। तब मीरा लोलस के पास आकर रोनेपीटने लगी कि मेरी थायस को छोड़ दो। वह मेरी बेटी है, मेरी आंखों की पुतली ! मैंने इसी उदर से उसे निकाल, इस गोद में उसका लालनपालन किया और अब तू उसे मेरी गोद से छीन लेना चाहता है। लोलस ने उसे परचुर धन देकर विदा किया, लेकिन जब वह धनतृष्णा से लोलुप होकर फिर आयी तो लोलस ने उसे कैद करा दिया। न्यायाधिकारियों को ज्ञात हुआ कि वह कुटनी है, भोली लड़कियों को बहका ले जाना ही उसका उद्यम है तो उसे पराणदण्ड दे दिया और वह जंगली जानवरों के सामने फेंक दी गई। लोलस अपनी अखंड, सम्पूर्ण कामना से थायस को प्यार करता था। उसकी परेम कल्पना ने विराट रूप धारण कर लिया था, जिससे उसकी किशोर चेतना सशंक हो जाती थी। थायस अन्तःकरण से कहती-'मैंने तुम्हारे सिवाय और किसी से परेम नहीं किया।' लोलस जवाब देता-'तुम संसार में अद्वितीय हो।' दोनों पर छः महीने तक यह नशा सवार रहा। अन्त में टूट गया। थायस को ऐसा जान पड़ता कि मेरा हृदय शून्य और निर्जन है। वहां से कोई चीज गायब हो गयी है। लोलस उसकी दृष्टि में कुछ और मालूम होता था। वह सोचती-मुझमें सहसा यह अन्तर क्यों हो गया ? यह क्या बात है कि लोलस अब और मनुष्यों कासा हो गया है, अपनासा नहीं रहा ? मुझे क्या हो गया है ? यह दशा उसे असह्य परतीत होने लगी। अखण्ड परेम के आस्वादन के बाद अब यह नीरस, शुष्क व्यापार उसकी तृष्णा को तृप्त न कर सका। वह अपने खोये हुए लोलस को किसी अन्य पराणी में खोजने की गुप्त इच्छा को हृदय में छिपाये हुए, लोलस के पास से चली गयी। उसने सोचा परेम रहने पर भी किसी पुरुष के साथ रहना। उस आदमी के साथ रहने से कहीं सुखकर है जिससे अब परेम नहीं रहा। वह फिर नगर के विषयभोगियों के साथ उन धमोर्त्सवों में जाने लगी जहां वस्त्रहीन युवतियां मन्दिरों में नृत्य किया करती थीं, या जहां वेश्याओं के गोलके-गोल नदी में तैरा करते थे। वह उस विलासपिरय और रंगीले नगर के रागरंग में दिल खोलकर भाग लेने लगी। वह नित्य रंगशालाओं में आती जहां चतुर गवैये और नर्तक देशदेशान्तरों से आकर अपने करतब दिखाते थे और उत्तेजना के भूखे दर्शकवृन्द वाहवाह की ध्वनि से आसमान सिर पर उठा लेते थे। थायस गायकों, अभिनेताओं, विशेषतः उन स्त्रियों के चालाल को बड़े ध्यान से देखा करती थी जो दुःखान्त नाटकों में मनुष्य से परेम करने वाली देवियों या देवताओं से परेम करने वाली स्त्रियों का अभिनय करती थीं। शीघर ही उसे वह लटके मालूम हो गये, जिनके द्वारा वह पात्राएं दर्शकों का मन हर लेती थीं, और उसने सोचा, क्या मैं जो उन सबों से रूपवती हूं, ऐसा ही अभिनय करके दर्शकों को परसन्न नहीं कर सकती? वह रंगशाला व्यवस्थापक के पास गयी और उससे कहा कि मुझे भी इस नाट्यमंडली में सम्मिलित कर लीजिए। उसके सौन्दर्य ने उसकी पूर्वशिक्षा के साथ मिलकर उसकी सिफारिश की। व्यवस्थापक ने उसकी परार्थना स्वीकार कर ली। और वह पहली बार रंगमंच पर आयी। पहले दर्शकों ने उसका बहुत आशाजनक स्वागत न किया। एक तो वह इस काम में अभ्यस्त न थी, दूसरे उसकी परशंसा के पुल बांधकर जनता को पहले ही से उत्सुक न बनाया गया था। लेकिन कुछ दिनों तक गौण चरित्रों का पार्ट खेलने के बाद उसके यौवन ने वह हाथपांव निकाले कि सारा नगर लोटपोट हो गया। रंगशाला में कहीं तिल रखने भर की जगह न बचती। नगर के बड़ेबड़े हाकिम, रईस, अमीर, लोकमत के परभाव से रंगशाला में आने पर मजबूर हुए। शहर के चौकीदार, पल्लेदार, मेहतर, घाट के मजदूर, दिनदिन भर उपवास करते थे कि अपनी जगह सुरक्षित करा लें। कविजन उसकी परशंसा में कवित्त कहते। लम्बी दायिों वाले विज्ञानशास्त्री व्यायामशालाओं में उसकी निन्दा और उपेक्षा करते। जब उसका तामझाम सड़क पर से निकलता तो ईसाई पादरी मुंह फेर लेते थे। उसके द्वार की चौखट पुष्पमालाओं से की रहती थी। अपने परेमियों से उसे इतना अतुल धन मिलता कि उसे गिनना मुश्किल था। तराजू पर तौल लिया जाता था। कृपण बू़ों की संगरह की हुई समस्त सम्पत्ति उसके ऊपर कौड़ियों की भांति लुटाई जाती थी। पर उसे गर्व न था। ऐंठ न थी। देवताओं की कृपादृष्टि और जनता की परशंसाध्वनि से उसके हृदय को गौरवयुक्त आनन्द होता था। सबकी प्यारी बनकर वह अपने को प्यार करने लगी थी। कई वर्ष तक ऐन्टिओकवासियों के परेम और परशंसा का सुख उठाने के बाद उसके मन में परबल उत्कंठा हुई कि इस्कन्द्रिया चलूं और उस नगर में अपना ठाटबाट दिखाऊं, जहां बचपन में मैं नंगी और भूखी, दरिद्र और दुर्बल, सड़कों पर मारीमारी फिरती थी और गलियों की खाक छानती थी। इस्कन्द्रियां आंखें बिछाये उसकी राह देखता था। उसने बड़े हर्ष से उसका स्वागत किया और उस पर मोती बरसाये। वह क्रीड़ाभूमि में आती तो धूम मच जाती। प
रेमियों और विलासियों के मारे उसे सांस न मिलती, पर वह किसी को मुंह न लगाती। दूसरा, लोलस उसे जब न मिला तो उसने उसकी चिन्ता ही छोड़ दी। उस स्वर्गसुख की अब उसे आशा न थी। उसके अन्य परेमियों में तत्त्वज्ञानी निसियास भी था जो विरक्त होने का दावा करने पर भी उसके परेम का इच्छुक था। वह धनवान था पर अन्य धनपतियों की भांति अभिमानी और मन्दबुद्धि न था। उसके स्वभाव में विनय और सौहार्द की आभा झलकती थी, किन्तु उसका मधुरहास्य और मृदुकल्पनाएं उसे रिझाने में सफल न होतीं। उसे निसियास से परेम न था, कभीकभी उसके सुभाषितों से उसे चि होती थी। उसके शंकावाद से उसका चित्त व्यगर हो जाता था, क्योंकि निसियास की श्रद्घा किसी पर न थी और थायस की श्रद्घा सभी पर थी। वह ईश्वर पर, भूतपरेतों पर जादूटोने पर, जन्त्रमन्त्र पर पूरा विश्वास करती थी। उसकी भक्ति परभु मसीह पर भी थी, स्याम वालों की पुनीता देवी पर भी उसे विश्वास था कि रात को जब अमुक परेत गलियों में निकलता है तो कुतियां भूंकती हैं। मारण, उच्चाटन, वशीकरण के विधानों पर और शक्ति पर उसे अटल विश्वास था। उसका चित्त अज्ञात न लिए उत्सुक रहता था। वह देवताओं की मनौतियां करती थी और सदैव शुभाशाओं में मग्न रहती थी भविष्य से यह शंका रहती थी, फिर भी उसे जानना चाहती थी। उसके यहां, ओझे, सयाने, तांत्रिक, मन्त्र जगाने वाले, हाथ देखने वाले जमा रहते थे। वह उनके हाथों नित्य धोखा खाती पर सतर्क न होती थी। वह मौत से डरती थी और उससे सतर्क रहती थी। सुखभोग के समय भी उसे भय होता था कि कोई निर्दय कठोर हाथ उसका गला दबाने के लिए ब़ा आता है और वह चिल्ला उठती थी। निसियास कहता था-'पिरये, एक ही बात है, चाहे हम रुग्ण और जर्जर होकर महारात्रि की गोद में समा जायें, अथवा यहीं बैठे, आनन्दभोग करते, हंसतेखेलते, संसार से परस्थान कर जायें। जीवन का उद्देश्य सुखभोग है। आओ जीवन की बाहार लूटें। परेम से हमारा जीवन सफल हो जायेगा। इन्द्रियों द्वारा पराप्त ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। इसके सिवाय सब मिथ्या के लिए अपने जीवन सुख में क्यों बाधा डालें ?' थायस सरोष होकर उत्तर देती-'तुम जैसे मनुष्यों से भगवान बचाये, जिन्हें कोई आशा नहीं, कोई भय नहीं। मैं परकाश चाहती हूं, जिससे मेरा अन्तःकरण चमक उठे।' जीवन के रहस्य को समझने के लिए उसे दर्शनगरन्थों को पॄना शुरू किया, पर वह उसकी समझ में न आये। ज्योंज्यों बाल्यावस्था उससे दूर होती जाती थी, त्योंत्यों उसकी याद उसे विकल करती थी। उसे रातों को भेष बदलकर उन सड़कों, गलियों, चौराहों पर घूमना बहुत पिरय मालूम होता जहां उसका बचपन इतने दुःख से कटा था। उसे अपने मातापिता के मरने का दुःख होता था, इस कारण और भी कि वह उन्हें प्यार न कर सकी थी। जब किसी ईसाई पूजक से उसकी भेंट हो जाती तो उसे अपना बपतिस्मा याद आता और चित्त अशान्त हो जाता। एक रात को वह एक लम्बा लबादा ओ़े, सुन्दर केशों को एक काले टोप से छिपाये, शहर के बाहर विचर रही थी कि सहसा वह एक गिरजाघर के सामने पहुंच गयी। उसे याद आया, मैंने इसे पहले भी देखा है। कुछ लोग अन्दर गा रहे थे और दीवार की दरारों से उज्ज्वल परकाशरेखाएं बाहर झांक रही थीं। इसमें कोई नवीन बात न थी, क्योंकि इधर लगभग बीस वर्षों से ईसाईधर्म में को विघ्नबाधा न थी, ईसाई लोग निरापद रूप से अपने धमोर्त्सव करते थे। लेकिन इन भजनों में इतनी अनुरक्ति, करुण स्वर्गध्वनि थी, जो मर्मस्थल में चुटकियां लेती हुई जान पड़ती थीं। थायस अन्तःकरण के वशीभूत होकर इस तरह द्वार, खोलकर भीतर घुस गयी मानो किसी ने उसे बुलाया है। वहां उसे बाल, वृद्ध, नरनारियों का एक बड़ा समूह एक समाधि के सामने सिजदा करता हुआ दिखाई दिया। यह कबर केवल पत्थर की एक ताबूत थी, जिस पर अंगूर के गुच्छों और बेलों के आकार बने हुए थे। पर उस पर लोगों की असीम श्रद्घा थी। वह खजूर की टहनियों और गुलाब की पुष्पमालाओं से की हुई थी। चारों तरफ दीपक जल रहे थे और उसके मलिन परकाश में लोबान, ऊद आदि का धुआं स्वर्गदूतों के वस्त्रों की तहोंसा दीखता था, और दीवार के चित्र स्वर्ग के दृश्यों केसे। कई श्वेत वस्त्रधारी पादरी कबर के पैरों पर पेट के बल पड़े हुए थे। उनके भजन दुःख के आनन्द को परकट करते थे और अपने शोकोल्लास में दुःख और सुख, हर्ष और शोक का ऐसा समावेश कर रहे थे कि थायस को उनके सुनने से जीवन के सुख और मृत्यु के भय, एक साथ ही किसी जलस्त्रोत की भांति अपनी सचिन्तस्नायुओं में बहते हुए जान पड़े। जब गाना बन्द हुआ तो भक्तजन उठे और एक कतार मंें कबर के पास जाकर उसे चूमा। यह सामान्य पराणी थे; जो मजूरी करके निवार्ह करते थे। क्या ही धीरेधीरे पग उठाते, आंखों में आंसू भरे, सिर झुकाये, वे आगे ब़ते और बारीबारी से कबर की परिक्रमा करते थे। स्त्रियों ने अपने बालकों को गोद में उठाकर कबर पर उनके होंठ रख दिये। थायस ने विस
्मित और चिन्तित होकर एक पादरी से पूछा-'पूज्य पिता, यह कैसा समारोह है ?' पादरी ने उत्तर दिया-'क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हम आज सन्त थियोडोर की जयन्ती मना रहे हैं ? उनका जीवन पवित्र था। उन्होंने अपने को धर्म की बलिवेदी पर च़ा दिया, और इसीलिए हम श्वेत वस्त्र पहनकर उनकी समाधि पर लाल गुलाब के फूल च़ाने आये हैं।' यह सुनते ही थायस घुटनों के बल बैठ गयी और जोर से रो पड़ी। अहमद की अर्धविस्मृत स्मृतियां जागरत हो गयीं। उस दीन, दुखी, अभागे पराणी की कीर्ति कितनी उज्ज्वल है ! उसके नाम पर दीपक जलते हैं, गुलाब की लपटें आती हैं, हवन के सुगन्धित धुएं उठते हैं, मीठे स्वरों का नाद होता है और पवित्र आत्माएं मस्तक झुकाती हैं। थायस ने सोचा-अपने जीवन में वह पुष्यात्मा था, पर अब वह पूज्य और उपास्य हो गया हैं ! वह अन्य पराणियों की अपेक्षा क्यों इतना श्रद्घास्पद है ? वह कौनसी अज्ञात वस्तु है जो धन और भोग से भी बहुमूल्य है ? वह आहिस्ता से उठी और उस सन्त की समाधि की ओर चली जिसने उसे गोद में खेलाया था। उसकी अपूर्व आंखों में भरे हुए अश्रुबिन्दु दीपक के आलोक में चमक रहे थे। तब वह सिर झुकाकर, दीनभाव से कबर के पास गयी और उस पर अपने अधरों से अपनी हार्दिक श्रद्घा अंकित कर दी-उन्हीं अधरों से जो अगणित तृष्णाओं का क्रीड़ाक्षेत्र थे ! जब वह घर आयी तो निसियास को बाल संवारे, वस्त्रों मंें सुगन्ध मले, कबा के बन्द खोले बैठे देखा। वह उसके इन्तजार में समय काटने के लिए एक नीतिगरंथ पॄ रहा था। उसे देखते ही वह बांहें खोले उसकी ब़ा और मृदुहास्य से बोला-'कहां गयी थीं, चंचला देवी ? तुम जानती हो तुम्हारे इन्तजार में बैठा हुआ, मैं इस नीतिगरंथ में क्या पॄ रहा था?' नीति के वाक्य और शुद्घाचरण के उपदेश ?' 'कदापि नहीं। गरंथ के पन्नों पर अक्षरों की जगह अगणित छोटीछोटी थायसें नृत्य कर रही थीं। उनमें से एक भी मेरी उंगली से बड़ी न थी, पर उनकी छवि अपार थी और सब एक ही थायस का परतिबिम्ब थीं। कोई तो रत्नजड़ित वस्त्र पहने अकड़ती हुई चलती थी, कोई श्वेत मेघसमूह के सदृश्य स्वच्छ आवरण धारण किये हुए थी; कोई ऐसी भी थीं जिनकी नग्नता हृदय में वासना का संचार करती थी। सबके पीछे दो, एक ही रंगरूप की थीं। इतनी अनुरूप कि उनमें भेद करना कठिन था। दोनों हाथमें-हाथ मिलाये हुए थीं, दोनों ही हंसती थीं। पहली कहती थी-मैं परेम हूं। दूसरी कहती थी-मैं नृत्य हूं।' यह कहकर निसियास ने थायस को अपने करपाश में खींच लिया। थायस की आंखें झुकी हुई थीं। निसियास को यह ज्ञान न हो सका कि उनमें कितना रोष भरा हुआ है। वह इसी भांति सूक्तियों की वर्षा करता रहा, इस बात से बेखबर कि थायस का ध्यान ही इधर नहीं है। वह कह रहा था-'जब मेरी आंखों के सामने यह शब्द आये-अपनी आत्मशुद्धि के मार्ग में कोई बाधा मत आने दो, तो मैंने पॄा 'थायस के अधरस्पर्श अग्नि से दाहक और मधु से मधुर हैं।' इसी भांति एक पण्डित दूसरे पण्डितों के विचारों को उलटपलट देता है; और यह तुम्हारा ही दोष है। यह सर्वथा सत्य है कि जब तक हम वही हैं जो हैं, तब तक हम दूसरों के विचारों में अपने ही विचारों की झलक देखते रहेंगे।' वह अब भी इधर मुखातिब न हुई। उसकी आत्मा अभी तक हब्शी की कबर के सामने झुकी हुई थी। सहसा उसे आह भरते देखकर उसने उसकी गर्दन का चुम्बन कर लिया और बोला-'पिरये, संसार में सुख नहीं है जब तक हम संसार को भूल न जायें। आओ, हम संसार से छल करें, छल करके उससे सुख लें-परेम में सबकुछ भूल जायें।' लेकिन उसने उसे पीछे हटा दिया और व्यथित होकर बोली-'तुम परेम का मर्म नहीं जानते ! तुमने कभी किसी से परेम नहीं किया। मैं तुम्हें नहीं चाहती, जरा भी नहीं चाहती। यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे घृणा होती है। अभी चले जाओ, मुझे तुम्हारी सूरत से नफरत है। मुझे उन सब पराणियों से घृणा है, धनी है, आनन्दभोगी हैं। जाओ, जाओ। दया और परेम उन्हीं में है जो अभागे हैं। जब मैं छोटी थी तो मेरे यहां एक हब्शी था जिसने सलीब पर जान दी। वह सज्जन था, वह जीवन के रहस्यों को जानता था। तुम उसके चरण धोने योग्य भी नहीं हो। चले जाओ। तुम्हारा स्त्रियों कासा शृंगार मुझे एक आंख नहीं भाता। फिर मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।' यह कहतेकहते वह फर्श पर मुंह के बल गिर पड़ी और सारी रात रोकर काटी। उसने संकल्प किया कि मैं सन्त थियोडोर की भांति और दरिद्र दशा में जीवन व्यतीत करुंगी। दूसरे दिन वह फिर उन्हीं वासनाओं में लिप्त हो गयी जिनकी उसे चाट पड़ गयी थी। वह जानती थी कि उसकी रूपशोभा अभी पूरे तेज पर है, पर स्थायी नहीं इसीलिए इसके द्वारा जितना सुख और जितनी ख्याति पराप्त हो सकती थी उसे पराप्त करने के लिए वह अधीर हो उठी। थियेटर में वह पहले की अपेक्षा और देर तक बैठकर पुस्तकावलोकन किया करती। वह कवियों, मूर्तिकारों और चित्रकारों की कल्पनाओं को सजीव बना देती थी
, विद्वानों और तत्त्वज्ञानियों को उसकी गति, अगंविन्यास और उस पराकृतिक माधुर्य की झलक नजर आती थी जो समस्त संसार में व्यापक है और उनके विचार में ऐसी अर्पूव शोभा स्वयं एक पवित्र वस्तु थी। दीन, दरिद्र, मूर्ख लोग उसे एक स्वगीर्य पदार्थ समझते थे। कोई किसी रूप में उसकी उपासना करता था, कोई किसी रूप में। कोई उसे भोग्य समझता था, कोई स्तुत्य और कोई पूज्य। किन्तु इस परेम, भक्ति और श्रद्घा की पात्रा होकर भी वह दुःखी थी, मृत्यु की शंका उसे अब और भी अधिक होने लगी। किसी वस्तु से उसे इस शंका से निवृत्ति न होती। उसका विशाल भवन और उपवन भी, जिनकी शोभा अकथनीय थी और जो समस्त नगर में जनश्रुति बने हुए थे, उसे आश्वस्त करने में असफल थे। इस उपवन में ईरान और हिन्दुस्तान के वृक्ष थे, जिनके लाने और पालने में अपरिमित धन व्यय हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए एक निर्मल जल धारा बहायी गयी थी। समीप ही एक झील बनी हुई थी। जिसमें एक कुशल कलाकार के हाथों सजाये हुए स्तम्भचिह्नों और कृत्रिम पहाड़ियों तक तट पर की सुन्दर मूर्तियों का परतिबिम्ब दिखाई देता था। उपवन के मध्य में 'परियों का कुंज' था। यह नाम इसलिए पड़ा था कि उस भवन के द्वार पर तीन पूरे कद की स्त्रियों की मूर्तियां खड़ी थीं। वह सशंक होकर पीछे ताक रही थीं कि कोई देखता न हो। मूर्तिकार ने उनकी चितवनों द्वारा मूर्तियों में जान डाल दी थी। भवन में जो परकाश आता था वह पानी की पतली चादरों से छनकर मद्धिम और रंगीन हो जाता था। दीवारों पर भांतिभांति की झालरें, मालाएं और चित्र लटके हुए थे। बीच में एक हाथीदांत की परम मनोहर मूर्ति थी जो निसियास ने भेंट की थी। एक तिपाई पर एक काले ष्पााण की बकरी की मूर्ति थी, जिसकी आंखें नीलम की बनी हुई थीं। उसके थनों को घेरे हुए छः चीनी के बच्चे खड़े थे, लेकिन बकरी अपने फटे हुए खुर उठाकर ऊपर की पहाड़ी पर उचक जाना चाहती थी। फर्श पर ईरानी कालीनें बिछी हुई थीं, मसनदों पर कैथे के बने हुए सुनहरे बेलबूटे थे। सोने के धूपदान से सुगन्धित धुएं उठ रहे थे, और बड़ेबड़े चीनी गमलों में फूलों से लदे हुए पौधे सजाये हुए थे। सिरे पर, ऊदी छाया में, एक बड़े हिन्दुस्तानी कछुए के सुनहरे नख चमक रहे थे जो पेट के बल उलट दिया गया था। यही थायस का शयनागार था। इसी कछुए के पेट पर लेटी हुई वह इस सुगन्ध और सजावट और सुषमा का आनन्द उठाती थी, मित्रों से बातचीत करती थी और या तो अभिनयकला का मनन करती थी, या बीते हुए दिनों का। तीसरा पहर था। थायस परियों के कुंज में शयन कर रही थी। उसने आईने में अपने सौन्दर्य की अवनति के परथम चिह्न देखे थे, और उसे इस विचार से पीड़ा हो रही थी कि झुर्रियों और श्वेत बालों का आक्रमण होने वाला है उसने इस विचार से अपने को आश्वासन देने की विफल चेष्टा की कि मैं जड़ीबूटियों के हवन करके मंत्रों द्वारा अपने वर्ण की कोमलता को फिर से पराप्त कर लूंगी। उसके कानों में इन शब्दों की निर्दय ध्वनि आयी-'थायस, तू बुयि हो जायेगी !' भय से उसके माथे पर ठण्डाठण्डा पसीना आ गया। तब उसने पुनः अपने को संभालकर आईने में देखा और उसे ज्ञात हुआ कि मैं अब भी परम सुन्दरी और परेयसी बनने के योग्य हूं। उसने पुलकित मन से मुस्कराकर मन में कहा-आज भी इस्कन्द्रिया में काई ऐसी रमणी नहीं है जो अंगों की चपलता और लचक में मुझसे टक्कर ले सके। मेरी बांहों की शोभा अब भी हृदय को खींच सकती है, यथार्थ में यही परेम का पाश है ! वह इसी विचार में मग्न थी कि उसने एक अपरिचित मनुष्य को अपने सामने आते देखा। उसकी आंखों में ज्वाला थी, दा़ी ब़ी हुई थी और वस्त्र बहुमूल्य थे। उसके हाथ में आईना छूटकर गिर पड़ा और वह भय से चीख उठी। पापनाशी स्तम्भित हो गया। उसका अपूर्व सौन्दर्य देखकर उसने शुद्ध अन्तःकरण से परार्थना की-भगवान मुझे ऐसी शक्ति दीजिए कि इस स्त्री का मुख मुझे लुब्ध न करे, वरन तेरे इस दास की परतिज्ञा को और भी दृ़ करे। तब अपने को संभालकर वह बोला-'थायस, मैं एक दूर देश में रहता हूं, तेरे सौन्दर्य की परशंसा सुनकर तेरे पास आया हूं। मैंने सुना था तुमसे चतुर अभिनेत्री और तुमसे मुग्धकर स्त्री संसार में नहीं है। तुम्हारे परेमरहस्यों और तुम्हारे धन के विषय में जो कुछ कहा जाता है वह आश्चर्यजनक है, और उससे 'रोडोप' की कथा याद आती है, जिसकी कीर्ति को नील के मांझी नित्य गाया करते हैं। इसलिए मुझे भी तुम्हारे दर्शनों की अभिलाषा हुई और अब मैं देखता हूं कि परत्यक्ष सुनीसुनाई बातों से कहीं ब़कर है। जितना मशहूर है उससे तुम हजार गुना चतुर और मोहिनी हो। वास्तव में तुम्हारे सामने बिना मतवालों की भांति डगमगाये आना असम्भव है।' यह शब्द कृत्रिम थे, किन्तु योगी ने पवित्र भक्ति से परभावित होकर सच्चे जोश से उनका उच्चारण किया। थायस ने परसन्न होकर इस विचित्र पराणी की ओर ताका जिससे वह पहले भयभीत हो गयी थ
ी। उसके अभद्र और उद्दण्ड वेश ने उसे विस्मित कर दिया। उसे अब तक जितने मनुष्य मिले थे, यह उन सबों से निराला था। उसके मन में ऐसे अद्भुत पराणी के जीवनवृत्तान्त जानने की परबल उत्कंठा हुई। उसने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा-'महाशय, आप परेमपरदर्शन में बड़े कुशल मालूम होते हैं। होशियार रहियेगा कि मेरी चितबनें आपके हृदय के पार न हो जायें। मेरे परेम के मैदान में जरा संभलकर कदम रखियेगा।' पापनाशी बोला-'थामस, मुझे तुमसे अगाध परेम है। तुम मुझे जीवन और आत्मा से भी पिरय हो। तुम्हारे लिए मैंने अपना वन्यजीवन छोड़ा है, तुम्हारे लिए मेरे होंठों से, जिन्होंने मौनवरत धारण किया था, अपवित्र शब्द निकले हैं। तुम्हारे लिए मैंने वह देखा जो न देखना चाहिए था, वह सुना है जो मेरे लिए वर्जित था। तुम्हारे लिए मेरी आत्मा तड़प रही है, मेरा हृदय अधीर हो रहा है और जलस्त्रोत की भांति विचार की धाराएं परवाहित हो रही हैं। तुम्हारे लिए मैं अपने नंगे पैर सर्पों और बिच्छुओं पर रखते हुए भी नहीं हिचका हूं। अब तुम्हें मालूम हो गया होगा कि मुझे तुमसे कितना परेम है। लेकिन मेरा परेम उन मनुष्यों कासा नहीं है जो वासना की अग्नि से जलते हुए तुम्हारे पास जीवभक्षी व्याघरों की, और उन्मत्त सांड़ों की भांति दौड़े आते हैं। उनका वही परेम होता है जो सिंह को मृगशावक से। उनकी पाशविक कामलिप्सा तुम्हारी आत्मा को भी भस्मीभूत कर डालेगी। मेरा परेम पवित्र है, अनन्त है, स्थायी है। मैं तुमसे ईश्वर के नाम पर, सत्य के नाम पर परेम करता हूं। मेरा हृदय पतितोद्घार और ईश्वरीय दया के भाव से परिपूर्ण है। मैं तुम्हें फलों से की हुई शराब की मस्ती से और एक अल्परात्रि के सुखस्वप्न से कहीं उत्तम पदार्थों का वचन देने आया हूं। मैं तुम्हें महापरसाद और सुधारसपान का निमन्त्रण देने आया हूं। मैं तुम्हें उस आनन्द का सुखसंवाद सुनाने आया हूं जो नित्य, अमर, अखण्ड है। मृत्युलोक के पराणी यदि उसको देख लें तो आश्चर्य से भर जायें।' थायस ने कुटिल हास्य करके उत्तर दिया-'मित्र, यदि वह ऐसा अद्भुत परेम है तो तुरन्त दिखा दो। एक क्षण भी विलम्ब न करो। लम्बीलम्बी वक्तृताओं से मेरे सौन्दर्य का अपमान होगा। मैं आनन्द का स्वाद उठाने के लिए रो रही हूं। किन्तु जो मेरे दिल की बात पूछो, तो मुझे इस कोरी परशंसा के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा। वादे करना आसान है; उन्हें पूरा करना मुश्किल है। सभी मनष्यों में कोईन-कोई गुण विशेष होता है। ऐसा मालूम होता है कि तुम वाणी में निपुण हो। तुम एक अज्ञात परेम का वचन देते हो। मुझे यह व्यापार करते इतने दिन हो गये और उसका इतना अनुभव हो गया है कि अब उसमें किसी नवीनता की किसी रहस्य की आशा नहीं रही। इस विषय का ज्ञान परेमियों को दार्शनिकों से अधिक होता है।' 'थायस, दिल्लगी की बात नहीं है, मैं तुम्हारे लिए अछूता परेम लाया हूं।' 'मित्र, तुम बहुत देर में आये। मैं सभी परकार के परेमों का स्वाद ले चुकी हूं।' 'मैं जो परेम लाया हूं, वह उज्ज्वल है, श्रेय है! तुम्हें जिस परेम का अनुभव हुआ है वह निंद्य और त्याज्य है।' थायस ने गर्व से गर्दन उठाकर कहा-'मित्र, तुम मुंहफट जान पड़ते हो। तुम्हें गृहस्वामिनी के परति मुख से ऐसे शब्द निकालने में जरा भी संकोच नहीं होता ? मेरी ओर आंख उठाकर देखो और तब बताओ कि मेरा स्वरूप निन्दित और पतित पराणियों ही कासा है। नहीं, मैं अपने कृत्यों पर लज्जित नहीं हूं। अन्य स्त्रियां भी, जिनका जीवन मेरे ही जैसा है, अपने को नीच और पतित नहीं समझतीं, यद्यपि, उनके पास न इतना धन है और न इतना रूप। सुख मेरे पैरों के नीचे आंखें बिछाये रहता है, इसे सारा जगत जानता है। मैं संसार के मुकुटधारियों को पैर की धूलि समझती हूं। उन सबों ने इन्हीं पैरों पर शीश नवाये हैं। आंखें उठाओ। मेरे पैरों की ओर देखो। लाखों पराणी उनका चुम्बन करने के लिए अपने पराण भेंट कर देंगे। मेरा डीलडौल बहुत बड़ा नहीं है, मेरे लिए पृथ्वी पर बहुत स्थान की जरूरत नहीं। जो लोग मुझे देवमन्दिर के शिखर पर से देखते हैं, उन्हें मैं बालू के कण के समान दीखती हूं, पर इस कण ने मनुष्यों में जितनी ईष्यार्, जितना द्वेष, जितनी निराशा, जितनी अभिलाषा और जितने पापों का संचार किया है उनके बोझ से अटल पर्वत भी दब जायेगा। जब मेरी कीर्ति समस्त संसार में परसारित हो रही है तो तुम्हारी लज्जा और निद्रा की बात करना पागलपन नहीं तो और क्या है ?' पापनाशी ने अविचलित भाव से उत्तर दिया-'सुन्दरी, यह तुम्हारी भूल है। मनुष्य जिस बात की सराहना करते हैं वह ईश्वर की दृष्टि में पाप है। हमने इतने भिन्नभिन्न देशों में जन्म लिया है कि यदि हमारी भाषा और विचार अनुरूप न हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूं कि मैं तुम्हारे पास से जाना नहीं चाहता। कौन मेरे मुख में ऐसे आग्नेय शब्दों
को परेरित करेगा जो तुम्हें मोम की भांति पिघला दें कि मेरी उंगलियां तुम्हें अपनी इच्छा के अनुसार रूप दे सकें ? ओ नारीरत्न ! यह कौनसी शक्ति है जो तुम्हें मेरे हाथों में सौंप देगी कि मेरे अन्तःकरण में निहित सद्परेरणा तुम्हारा पुनसरंस्कार करके तुम्हें ऐसा नया और परिष्कृत सौन्दर्य परदान करे कि तुम आनन्द से विह्वल हो पुकार उठो, मेरा फिर से नया संस्कार हुआ ? कौन मेरे हृदय में उस सुधास्त्रोत को परवाहित करेगा कि तुम उसमें नहाकर फिर अपनी मौलिक पवित्रता लाभ कर सको ? कौन मुझे मर्दन की निर्मल धारा में परिवर्तित कर देगा जिसकी लहरों का स्पर्श तुम्हें अनन्त सौन्दर्य से विभूषित कर दे ?' थायस का क्रोध शान्त हो गया। उसने सोचा-यह पुरुष अनन्त जीवन के रहस्यों में परिचित है, और जो कुछ वह कह सकता है उसमें ऋषिवाक्यों कीसी परतिभा है। यह अवश्य कोई कीमियागर है और ऐसे गुप्तमन्त्र जानता है जो जीर्णावस्था का निवारण कर सकते हैं। उसने अपनी देह को उसकी इच्छाओं को समर्पित करने का निश्चय कर लिया। वह एक सशंक पक्षी की भांति कई कदम पीछे हट गयी और अपने पलंग पट्टी पर बैठकर उसकी परतीक्षा करने लगी। उसकी आंखें झुकी हुई थीं और लम्बी पलकों की मलिन छाया कपालों पर पड़ रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि कोई बालक नदी के किनारे बैठा हुआ किसी विचार में मग्न है। किन्तु पापनाशी केवल उसकी ओर टकटकी लगाये ताकता रहा, अपनी जगह से जौ भर भी न हिला। उसके घुटने थरथरा रहे थे और मालूम होता था कि वे उसे संभाल न सकेंगे। उसका तालू सूख गया था, कानों में तीवर भनभनाहट की आवाज आने लगी। अकस्मात उसकी आंखों के सामने अन्धकार छा गया, मानो समस्त भवन मेघाच्छादित हो गया है। उसे ऐसा भाषित हुआ कि परभु मसीह ने इस स्त्री को छिपाने के निमित्त उसकी आंखों पर परदा डाल दिया है। इस गुप्त करावलम्ब से आश्वस्त और सशक्त होकर उसने ऐसे गम्भीर भाव से कहा जो किसी वृद्ध तपस्वी के यथायोग्य था-क्या तुम समझती हो कि तुम्हारा यह आत्महनन ईश्वर की निगाहों से छिपा हुआ है ?' उसने सिर हिलाकर कहा-'ईश्वर ? ईश्वर से कौन कहता है कि सदैव परियों के कुंज पर आंखें जमाये रखे ? यदि हमारे काम उसे नहीं भाते तो वह यहां से चला क्यों नहीं जाता ? लेकिन हमारे कर्म उसे बुरे लगते ही क्यों हैं ? उसी ने हमारी सृष्टि की है। जैसा उसने बनाया है वैसे ही हम हैं। जैसी वृत्तियां उसने हमें दी हैं उसी के अनुसार हम आचरण करते हैं ! फिर उसे हमसे रुष्ट होने का, अथवा विस्मित होने का क्या अधिकार है ? उसकी तरफ से लोग बहुतसी मनग़न्त बातें किया करते हैं और उसको ऐसेऐसे विचारों का श्रेय देते हैं जो उसके मन में कभी न थे। तुमको उसके मन की बातें जानने का दावा है। तुमको उसके चरित्र का यथार्थ ज्ञान है। तुम कौन हो कि उसके वकील बनकर मुझे ऐसीऐसी आशाएं दिलाते हो ?' पापनाशी ने मंगनी के बहुमूल्य वस्त्र उतारकर नीचे का मोटा कुरता दिखाते हुए कहा-'मैं धमार्श्रम का योगी हूं। मेरा नाम पापनाशी है। मैं उसी पवित्र तपोभूमि से आ रहा हूं। ईश्वर की आज्ञा से मैं एकान्तसेवन करता हूं। मैंने संसार से और संसार के पराणियों से मुंह मोड़ लिया था। इस पापमय संसार में निर्लिप्त रहना ही मेरा उद्दिष्ट मार्ग है। लेकिन तेरी मूर्ति मेरी शान्तिकुटीर में आकर मेरे सम्मुख खड़ी हुई और मैंने देखा कि तू पाप और वासना में लिप्त है, मृत्यु तुझे अपना गरास बनाने को खड़ी है। मेरी दया जागृत हो गयी और तेरा उद्घार करने के लिए आ उपस्थित हुआ हूं। मैं तुझे पुकारकर कहता हूं-थायस, उठ, अब समय नहीं है।' योगी के यह शब्द सुनकर थायस भय से थरथर कांपने लगी। उसका मुख श्रीहीन हो गया, वह केश छिटकाये, दोनों हाथ जोड़े रोती और विलाप करती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ी और बोली-'महात्मा जी, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए। आप यहां क्यों आये हैं ? आपकी क्या इच्छा है ? मेरा सर्वनाश न कीजिए। मैं जानता हूं कि तपोभूमि के ऋषिगण हम जैसी स्त्रियों से घृणा करते हैं, जिनका जन्म ही दूसरों को परसन्न रखने के लिए होता है। मुझे भय हो रहा है कि आप मुझसे घृणा करते हैं और मेरा सर्वनाश करने पर उद्यत हैं। कृपया यहां से सिधारिए। मैं आपकी शक्ति और सिद्धि के सामने सिर झुकाती हूं। लेकिन आपका मुझ पर कोप करना उचित नहीं है, क्योंकि मैं अन्य मनुष्यों की भांति आप लोगों की भिक्षावृत्ति और संयम की निन्दा नहीं करती। आप भी मेरे भोगविलास को पाप न समझिए। मैं रूपवती हूं और अभिनय करने में चतुर हूं। मेरा काबू न अपनी दशा पर है, और न अपनी परकृति पर। मैं जिस काम के योग्य बनायी गयी हूं वही करती हूं। मनुष्यों की मुग्ध करने ही के निमित्त मेरी सृष्टि हुई है। आप भी तो अभी कह रहे थे कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं। अपनी सिद्धियों से मेरा अनुपकार न कीजिए। ऐसा मन्त्र न चलाइए कि मेरा सौन्दर्य नष्ट हो जाय, या मैं
पत्थर तथा नमक की मूर्ति बन जाऊं। मुझे भयभीत न कीजिए। मेरे तो पहले ही से पराण सूखे हुए हैं। मुझे मौत का मुंह न दिखाइए, मुझे मौत से बहुत डर लगता है।' पापनाशी ने उसे उठने का इशारा किया और बोला-'बच्चा, डर मत। तेरे परति अपमान या घृणा का शब्द भी मेरे मुंह से न निकलेगा। मैं उस महान पुरुष की ओर से आया हूं, जो पापियों को गले लगाता था, वेश्याओं के घर भोजन करता था, हत्यारों से परेम करता था, पतितों को सान्त्वना देता था। मैं स्वयं पापमुक्त नहीं हूं कि दूसरों पर पत्थर फेंकूं। मैंने कितनी ही बार उस विभूति का दुरुपयोग किया है जो ईश्वर ने मुझे परदान की है। क्रोध ने मुझे यहां आने पर उत्साहित नहीं किया। मैं दया के वशीभूत होकर आया हूं। मैं निष्कपट भाव से परेम के शब्दों में तुझे आश्वासन दे सकता हूं, क्योंकि मेरा पवित्र धर्मस्नेह ही मुझे यहां लाया है। मेरे हृदय में वात्सल्य की अग्नि परज्वलित हो रही है और यदि तेरी आंखें जो विषय के स्थूल, अपवित्र दृश्यों के वशीभूत हो रही हैं, वस्तुओं को उनके आध्यात्मिक रूप में देखतीं तो तुझे विदित होता कि मैं उस जलती हुई झाड़ी का एक पल्लव हूं जो ईश्वर ने अपने परेम का परिचय देने के लिए मूसा को पर्वत पर दिखाई थी-जो समस्त संसार में व्याप्त है, और जो वस्तुओं को भस्म कर देने के बदले, जिस वस्तु में परवेश करती है उसे सदा के लिए निर्मल और सुगन्धमय बना देती है।' थायस ने आश्वस्त होकर कहा-'महात्मा जी, अब मुझे आप पर विश्वास हो गया है। मुझे आपसे किसी अनिष्ट या अमंगल की आशंका नहीं है। मैंने धमार्श्रम के तपस्वियों की बहुत चचार सुनी है। ऐण्तोनी और पॉल के विषय में बड़ी अद्भुत कथाएं सुनने में आयी हैं। आपके नाम से भी मैं अपरिचित नहीं हूं और मैंने लोगों को कहते सुना है कि यद्यपि आपकी उमर अभी कम है, आप धर्मनिष्ठा में उन तपस्वियों से भी श्रेष्ठ हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन ईश्वर आराधना में व्यतीत किया। यद्यपि मेरा अपसे परिचय न था, किन्तु आपको देखते ही मैं समझ गयी कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। बताइये, आप मुझे वह वस्तु परदान कर सकते हैं जो सारे संसार के सिद्ध और साधु, ओझे और सयाने, कापालिक और वैतालिक नहीं कर सके ? आपके पास मौत की दवा है ? आप मुझे अमर जीवन दे सकते हैं ? यही सांसारिक इच्छाओं का सप्तम स्वर्ग है।' पापनाशी ने उत्तर दिया-'कामिनी, अमर जीवन लाभ करना परत्येक पराणी की इच्छा के अधीन है। विषयवासनाओं को त्याग दे, जो तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहे हैं। उस शरीर को पिशाचों के पंजे से छुड़ा ले जिसे ईश्वर ने अपने मुंह के पानी से साना और अपने श्वास से जिलाया, अन्यथा परेत और पिशाच उसे बड़ी क्रुरता से जलायेंगे। नित्य के विलास से तेरे जीवन का स्त्रोत क्षीण हो गया है। आ, और एकान्त के पवित्र सागर में उसे फिर परवाहित कर दे। आ, और मरुभूमि में छिपे हुए सोतों का जल सेवन कर जिनका उफान स्वर्ग तक पहुंचता है। ओ चिन्ताओं में डूबी हुई आत्मा ! आ, अपनी इच्छित वस्तु को पराप्त कर ! जो आनन्द की भूखी स्त्री ! आ, और सच्चे आनन्द का आस्वादन कर। दरिद्रता का, विराग का, त्याग कर, ईश्वर के चरणों में आत्मसमर्पण कर ! आ, ओ स्त्री, जो आज परभु मसीह की द्रोहिणी है, लेकिन कल उसको परेयसी होगी। आ, उसका दर्शन कर, उसे देखते ही तू पुकार उठेगी-मुझे परेमधन मिल गया !' थामस भविष्यचिन्तन में खोयी हुई थी। बोली-'महात्मा, अगर मैं जीवन के सुखों को त्याग दूं और कठिन तपस्या करुं तो क्या यह सत्य है कि मैं फिर जन्म लूंगी और मेरे सौन्दर्य को आंच न आयेगी ?' पापनाशी ने कहा-'थायस, मैं तेरे लिए अनन्तजीवन का सन्देश लाया हूं। विश्वास कर, मैं जो कुछ कहता हूं, सर्वथा सत्य है।' थायस-'मुझे उसकी सत्यता पर विश्वास क्योंकर आये ?' पापनाशी-'दाऊद और अन्य नबी उसकी साक्षी देंगे, तुझे अलौकिक दृश्य दिखाई देंगे, वह इसका समर्थन करेंगे।' थायस-'योगी जी, आपकी बातों से मुझे बहुत संष्तोा हो रहा है, क्योंकि वास्तव में मुझे इस संसार में सुख नहीं मिला। मैं किसी रानी से कम नहीं हूं, किन्तु फिर भी मेरी दुराशाओं और चिन्ताओं का अन्त नहीं है। मैं जीने से उकता गयी हूं। अन्य स्त्रियां मुझ पर ईष्यार करती हैं, पर मैं कभीकभी उस दुःख की मारी, पोपली बुयि पर ईष्यार करती हूं जो शहर के फाटक की छांह में बैठी तलाशे बेचा करती है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि गरीब ही सुखी, सज्जन और सच्चे होते हैं, और दीन, हीन, निष्परभ रहने में चित्त को बड़ी शान्ति मिलती है। आपने मेरी आत्मा में एक तूफानसा पैदा कर दिया है और जो नीचे दबी पड़ी थी उसे ऊपर कर दिया है। हां ! मैं किसका विश्वास करुं ? मेरे जीवन का क्या अन्त होगा-जीवन ही क्या है ?' पापनाशी ने उसे उठने का इशारा किया और बोला-'बच्चा, डर मत। तेरे परति अपमान या घृणा का शब्द भी मेरे मुंह से न निकलेगा
। मैं उस महान पुरुष की ओर से आया हूं, जो पापियों को गले लगाता था, वेश्याओं के घर भोजन करता था, हत्यारों से परेम करता था, पतितों को सान्त्वना देता था। मैं स्वयं पापमुक्त नहीं हूं कि दूसरों पर पत्थर फेंकूं। मैंने कितनी ही बार उस विभूति का दुरुपयोग किया है जो ईश्वर ने मुझे परदान की है। क्रोध ने मुझे यहां आने पर उत्साहित नहीं किया। मैं दया के वशीभूत होकर आया हूं। मैं निष्कपट भाव से परेम के शब्दों में तुझे आश्वासन दे सकता हूं, क्योंकि मेरा पवित्र धर्मस्नेह ही मुझे यहां लाया है। मेरे हृदय में वात्सल्य की अग्नि परज्वलित हो रही है और यदि तेरी आंखें जो विषय के स्थूल, अपवित्र दृश्यों के वशीभूत हो रही हैं, वस्तुओं को उनके आध्यात्मिक रूप में देखतीं तो तुझे विदित होता कि मैं उस जलती हुई झाड़ी का एक पल्लव हूं जो ईश्वर ने अपने परेम का परिचय देने के लिए मूसा को पर्वत पर दिखाई थी-जो समस्त संसार में व्याप्त है, और जो वस्तुओं को भस्म कर देने के बदले, जिस वस्तु में परवेश करती है उसे सदा के लिए निर्मल और सुगन्धमय बना देती है।' थायस ने आश्वस्त होकर कहा-'महात्मा जी, अब मुझे आप पर विश्वास हो गया है। मुझे आपसे किसी अनिष्ट या अमंगल की आशंका नहीं है। मैंने धमार्श्रम के तपस्वियों की बहुत चचार सुनी है। ऐण्तोनी और पॉल के विषय में बड़ी अद्भुत कथाएं सुनने में आयी हैं। आपके नाम से भी मैं अपरिचित नहीं हूं और मैंने लोगों को कहते सुना है कि यद्यपि आपकी उमर अभी कम है, आप धर्मनिष्ठा में उन तपस्वियों से भी श्रेष्ठ हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन ईश्वर आराधना में व्यतीत किया। यद्यपि मेरा अपसे परिचय न था, किन्तु आपको देखते ही मैं समझ गयी कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। बताइये, आप मुझे वह वस्तु परदान कर सकते हैं जो सारे संसार के सिद्ध और साधु, ओझे और सयाने, कापालिक और वैतालिक नहीं कर सके ? आपके पास मौत की दवा है ? आप मुझे अमर जीवन दे सकते हैं ? यही सांसारिक इच्छाओं का सप्तम स्वर्ग है।' पापनाशी ने उत्तर दिया-'कामिनी, अमर जीवन लाभ करना परत्येक पराणी की इच्छा के अधीन है। विषयवासनाओं को त्याग दे, जो तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहे हैं। उस शरीर को पिशाचों के पंजे से छुड़ा ले जिसे ईश्वर ने अपने मुंह के पानी से साना और अपने श्वास से जिलाया, अन्यथा परेत और पिशाच उसे बड़ी क्रुरता से जलायेंगे। नित्य के विलास से तेरे जीवन का स्त्रोत क्षीण हो गया है। आ, और एकान्त के पवित्र सागर में उसे फिर परवाहित कर दे। आ, और मरुभूमि में छिपे हुए सोतों का जल सेवन कर जिनका उफान स्वर्ग तक पहुंचता है। ओ चिन्ताओं में डूबी हुई आत्मा ! आ, अपनी इच्छित वस्तु को पराप्त कर ! जो आनन्द की भूखी स्त्री ! आ, और सच्चे आनन्द का आस्वादन कर। दरिद्रता का, विराग का, त्याग कर, ईश्वर के चरणों में आत्मसमर्पण कर ! आ, ओ स्त्री, जो आज परभु मसीह की द्रोहिणी है, लेकिन कल उसको परेयसी होगी। आ, उसका दर्शन कर, उसे देखते ही तू पुकार उठेगी-मुझे परेमधन मिल गया !' थामस भविष्यचिन्तन में खोयी हुई थी। बोली-'महात्मा, अगर मैं जीवन के सुखों को त्याग दूं और कठिन तपस्या करुं तो क्या यह सत्य है कि मैं फिर जन्म लूंगी और मेरे सौन्दर्य को आंच न आयेगी ?' पापनाशी ने कहा-'थायस, मैं तेरे लिए अनन्तजीवन का सन्देश लाया हूं। विश्वास कर, मैं जो कुछ कहता हूं, सर्वथा सत्य है।' थायस-'मुझे उसकी सत्यता पर विश्वास क्योंकर आये ?' पापनाशी-'दाऊद और अन्य नबी उसकी साक्षी देंगे, तुझे अलौकिक दृश्य दिखाई देंगे, वह इसका समर्थन करेंगे।' थायस-'योगी जी, आपकी बातों से मुझे बहुत संष्तोा हो रहा है, क्योंकि वास्तव में मुझे इस संसार में सुख नहीं मिला। मैं किसी रानी से कम नहीं हूं, किन्तु फिर भी मेरी दुराशाओं और चिन्ताओं का अन्त नहीं है। मैं जीने से उकता गयी हूं। अन्य स्त्रियां मुझ पर ईष्यार करती हैं, पर मैं कभीकभी उस दुःख की मारी, पोपली बुयि पर ईष्यार करती हूं जो शहर के फाटक की छांह में बैठी तलाशे बेचा करती है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि गरीब ही सुखी, सज्जन और सच्चे होते हैं, और दीन, हीन, निष्परभ रहने में चित्त को बड़ी शान्ति मिलती है। आपने मेरी आत्मा में एक तूफानसा पैदा कर दिया है और जो नीचे दबी पड़ी थी उसे ऊपर कर दिया है। हां ! मैं किसका विश्वास करुं ? मेरे जीवन का क्या अन्त होगा-जीवन ही क्या है ?' वह यह बातें कर रही थी कि पापनाशी के मुख पर तेज छा गया, सारा मुखमंडल आदि ज्योति से चमक उठा, उसके मुंह से यह परतिभाशाली वाक्य निकले-'कामिनी, सुन, मैंने जब इस घर में कदम रखा तो मैं अकेला न था। मेरे साथ कोई और भी था और वह अब भी मेरे बगल में खड़ा है। तू अभी उसे नहीं देख सकती, क्योंकि तेरी आंखों में इतनी शक्ति नहीं है। लेकिन शीघर ही स्वगीर्य परतिभा से तू उसे आलोकित देखेगी और तेरे
मुंह से आपही-आप निकल पड़ेगा-यही मेरा आराध्य देव है। तूने अभी उसकी आलौकिक शक्ति देखी ! अगर उसने मेरी आंखों के सामने अपने दयालु हाथ न फैला दिये होते तो अब तक मैं तेरे साथ पापाचरण कर चुका होता; क्योंकि स्वतः मैं अत्यन्त दुर्बल और पापी हूं। लेकिन उसने हम दोनों की रक्षा की। वह जितना ही शक्तिशाली है उतना ही दयालु है और उसका नाम है मुक्तिदाता। दाऊद और अन्य नबियों ने उसके आने की खबर दी थी, चरवाहों और ज्योतिषियों ने हिंडोले में उसके सामने शीश झुकाया था। फरीसियों ने उसे सलीब पर च़ाया, फिर वह उठकर स्वर्ग को चला गया। तुझे मृत्यु से इतना सशंक देखकर वह स्वयं तेरे घर आया है कि तुझे मृत्यु से बचा ले। परभु मसीह ! क्या इस समय तुम यहां उपस्थित नहीं हो, उसी रूप में जो तुमने गैलिली के निवासियों को दिखाया था। कितना विचित्र समय था बैतुलहम के बालक तारागण को हाथ में लेकर खेलते थे जो उस समय धरती के निकट ही स्थित थे। परभु मसीह, क्या यह सत्य नहीं है कि तुम इस समय यहां उपस्थित हो और मैं तुम्हारी पवित्र देह को परत्यक्ष देख रहा हूं ? क्या तेरी दयालु कोमल मुखारबिन्द यहां नहीं है ? और क्या वह आंसू जो तेरे गालों पर बह रहे हैं, परत्यक्ष आंसू नहीं हैं ? हां, ईश्वरीय न्याय का कर्त्ता उन मोतियों के लिए हाथ रोपे खड़ा है और उन्हीं मोतियों से थायस की आत्मा की मुक्ति होगी। परभु मसीह, क्या तू बोलने के लिए होंठ नहीं खोले हुए है ? बोल, मैं सुन रहा हूं ! और थायस, सुलक्षण थायस सुन, परभु मसीह तुझसे क्या कह रहे हैं-ऐ मेरी भटकी हुई मेषसुन्दरी, मैं बहुत दिनों से तेरी खोज में हूं। अन्त में मैं तुझे पा गया। अब फिर मेरे पास से न भागना। आ, मैं तेरा हाथ पकड़ लूं और अपने कन्धों पर बिठाकर स्वर्ग के बाड़े में ले चलूं। आ मेरी थायस, मेरी पिरयतमा, आ ! और मेरे साथ रो।' यह कहतेकहते पापनाशी भक्ति से विह्वल होकर जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आंखों से आत्मोल्लास की ज्योतिरेखाएं निकलने लगीं। और थायस को उसके चेहरे पर जीतेजागते मसीह का स्वरूप दिखाई दिया। वह करुण क्रंदन करती हुई बोली-'ओ मेरी बीती हुई बाल्यावस्था, ओ मेरे दयालु पिता अहमद ! ओ सन्त थियोडोर, मैं क्यों न तेरी गोद में उसी समय मर गयी जब तू अरुणोदय के समय मुझे अपनी चादर में लपेटे लिये आता था और मेरे शरीर से वपतिस्मा के पवित्र जल की बूंदें टपक रही थीं।' पापनाशी यह सुनकर चौंक पड़ा मानो कोई अलौकिक घटना हो गयी है और दोनों हाथ फैलाये हुए थायस की ओर यह कहते हुए ब़ा-'भगवान्, तेरी महिमा अपार है। क्या तू बपतिस्मा के जल से प्लावित हो चुकी है ? हे परमपिता, भक्तवत्सल परभु, ओ बुद्धि के अगाध सागर ! अब मुझे मालूम हुआ कि वह कौनसी शक्ति थी जो मुझे तेरे पास खींचकर लायी। अब मुझे ज्ञात हुआ कि वह कौनसा रहस्य था जिसने तुझे मेरी दृष्टि में इतना सुन्दर, इतना चित्ताकर्षक बना दिया था। अब मुझे मालूम हुआ कि मैं तेरे परेमपाश में क्यों इस भांति जकड़ गया था कि अपना शान्तिवास छोड़ने पर विवश हुआ। इसी बपतिस्माजल की महिमा थी जिसने मुझे ईश्वर के द्वार को छुड़ाकर मुझे खोजने के लिए इस विषाक्त वायु से भरे हुए संसार में आने पर बाध्य किया जहां मायामोह में फंसे हुए लोग अपना कलुषित जीवन व्यतीत करते हैं। उस पवित्र जल की एक बूंद-केवल एक ही बूंद मेरे मुख पर छिड़क दी गयी है जिसमें तूने स्नान किया था। आ, मेरी प्यारी बहिन, आ, और अपने भाई के गले लग जा जिसका हृदय तेरा अभिवादन करने के लिए तड़प रहा है।' यह कहकर पापनाशी ने बारांगना के सुन्दर ललाट को अपने होंठों से स्पर्श किया। इसके बाद वह चुप हो गया कि ईश्वर स्वयं मधुर, सांत्वनापरद शब्दों में थायस को अपनी दयालुता का विश्वास दिलाये। और 'परियों के रमणीक कुंज' में थायस की सिसकियों के सिवा, जो जलधारा की कलकल ध्वनि से मिल गयी थीं, और कुछ न सुनाई दिया। वह इसी भांति देर तक रोती रही। अश्रुपरवाह को रोकने का परयत्न उसने न किया। यहां तक कि उसके हब्शी गुलाम सुन्दर वस्त्र; फूलों के हार और भांतिभांति के इत्र लिये आ पहुंचे। उसने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा-'अरे रोने का समय बिल्कुल नहीं रहा। आंसुओं से आंखें लाल हो जाती हैं, और उनमें चित्त को विकल करने वाला पुष्प विकास नहीं रहता, चेहरे का रंग फीका पड़ जाता है, वर्ण की कोमलता नष्ट हो जाती है। मुझे आज कई रसिक मित्रों के साथ भोजन करना है। मैं चाहती हूं कि मेरी मुखचन्द्र सोलहों कला से चमके, क्योंकि वहां कई ऐसी स्त्रियां आयेंगी जो मेरे मुख पर चिन्ता या ग्लानि के चिह्न को तुरन्त भांप जायेंगी और मन में परसन्न होंगी कि अब इनका सौन्दर्य थोड़े ही दिनों का और मेहमान है, नायिका अब परौ़ा हुआ चाहती है। ये गुलाम मेरा शृंगार करने आये हैं। पूज्य पिता आप कृपया दूसरे कमरे में जा बैठिए और इन दोनों को अपना काम करने दीजिए।
यह अपने काम में बड़े परवीण और कुशल हैं। मैं उन्हें यथेष्ट पुरस्कार देती हूं। वह जो सोने की अंगूठियां पहने हैं और जिनके मोती केसे दांत चमक रहे हैं, उसे मैंने परधानमन्त्री की पत्नी से लिया है।' पापनाशी की पहले तो यह इच्छा हुई कि थायस को इस भोज में सम्मिलित होने से यथाशक्ति रोके। पर पुनः विचार किया तो विदित हुआ कि यह उतावली का समय नहीं है। वर्षों का जमा हुआ मनोमालिन्य एक रगड़ से नहीं दूर हो सकता। रोग का मूलनाश शनैःशनैः, क्रमक्रम से ही होगा। इसलिए उसने धमोर्त्साह के बदले बुद्धिमत्ता से काम लेने का निश्चय किया और पूछा-वाह किनकिन मनुष्यों से भेंट होगी ? उसने उत्तर दिया-'पहले तो वयोवृद्ध कोटा से भेंट होगी जो यहां के जलसेना के सेनापति हैं। उन्हीं ने यह दावत दी है। निसियास और अन्य दार्शनिक भी आयेंगे जिन्हें किसी विषय की मीमांसा करने ही में सबसे अधिक आनन्द पराप्त होता है। इनके अतिरिक्त कविसमाजभूषण कलिक्रान्त, और देवमन्दिर के अध्यक्ष भी आयेंगे। कई युवक होंगे जिनको घोड़े निकालने ही में परम आनन्द आता है और कई स्त्रियां मिलेंगी जिनके विषय में इसके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे युवतियां हैं।' पापनाशी ने ऐसी उत्सुकता से जाने की सम्मति दी मानो उसे आकाशवाणी हुई है। बोला-'तो अवश्य जाओ थायस, अवश्य जाओ। मैं तुम्हें सहर्ष आज्ञा देता हूं। लेकिन मैं तेरा साथ न छोडूंगा। मैं भी इस दावत में तुम्हारे साथ चलूंगा। इतना जानता हूं कि कहां बोलना और कहां चुप रहना चाहिए। मेरे साथ रहने से तुम्हें कोई असुविधा अथवा झेंप न होगी।' दोनों गुलाम अभी उसको आभूषण पहना ही रहे थे कि थायस खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली-'वह धमार्श्रम के एक तपस्वी को मेरे परेमियों में देखकर कहेंगे ?'
गिरीश लाहौर का रहनेवाला है, विद्यार्थी है, युवा है और युवकों की साधारण भावुकता से भी सम्पन्न है। और इन सबके अतिरिक्त वह धनिक नहीं है। तो भी ऐसा है कि उसे कभी पहाड़ जाने के लिए खीस के बहाने घर से रुपये मँगा कर जोड़ने नहीं पड़ते, बिना बहाने ही मिल जाते हैं। हाँ, तो गिरीश ने निश्चय किया है कि उसमें साहित्यिक प्रतिभा है और उसी को पनपने का अवसर देने के लिए वह यहाँ आया है। अनुभव से जानता है कि जो लोग पहाड़ों में जाते हैं, वे कुछ भी देखकर नहीं आते, कुछ देखने आते भी नहीं। उनसे कोई पूछे कि अमुक स्थान में क्या देखा या अमुक स्थान का जीवन कैसा है, तो केवल इतना ही बता पाते हैं कि वहाँ ठंड बहुत है, या बर्फ़ का दृश्य बहुत सुन्दर है या वहाँ घोड़े की सवारी का मज़ा आता है! बहुत हुआ तो कोई यह बता देगा कि वहाँ चीड़-वृक्षों में हवा चलती है तो उसका स्वर ऐसा होता है या कि वहाँ किसी जल-प्रपात को देखकर जीवन की नश्वरता का या अजस्रता का, अथवा प्रेम की अचल एकरूपता का, या अस्थायित्व का, या अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ऐसी ही किसी बात का स्मरण हो आता है... पर, क्या यह सब वहाँ का जीवन है? क्या यही दर्शनीय है, और बस? क्या वहाँ के वासी चीड़ के वृक्ष खाकर जीते हैं या जल प्रवाह पहनते हैं, या बर्फ से प्रणय करते हैं, या घोड़ों पर रहते हैं? गिरीश इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर पाने और उस उत्तर को शब्दबद्ध करने यहाँ आया है। उसका विश्वास है कि वह यहाँ के जीवन की सत्यता देखकर जाएगा और लिखेगा। वह उस दिन का स्वप्न देख रहा है, जब उसकी रचनाएँ प्रकाशित होंगी और साहित्य-क्षेत्र में तहलका मच जाएगा, लोग कहेंगे कि न-जाने इसने कहाँ कैसे यह सब देख लिया, जो लोग इतने वर्षों में भी नहीं देख पाये। यह सब उसे एक दिन लाहौर में बैठे-बैठे सूझा था। और उसने तभी तैयारी कर ली थी और दो-तीन सप्ताह के लिए डलहौज़ी चला आया था। यहाँ आकर उसने अपना सामान इत्यादि एक होटल में रखा और खाना खाकर घूमने-पहाड़ी जीवन देखने-निकल पड़ा। किन्तु उसने देखा, वह जीवन वैसा नहीं है जो स्वयं उछल-उछल कर आँखों के आगे आये, जैसा कि आजकल की सभ्यता का, आत्म-विज्ञापन का जीवन होता है। जब वह शाम को होटल लौटा, तब उसने देखा, उसका मस्तिष्क उससे भी अधिक शून्य है, जैसा वह लाहौर में था! क्योंकि गिरीश उन चित्रों और दृश्यों की ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं था जो और लोग - 'साधारण लोग' - देखते हैं। वह अपने कमरे में बैठ कर सोचने लगा कि कहाँ जाकर वह पहाड़ी जीवन का असली रूप देखे; किन्तु न जाने क्यों उसका मन इस विचार में भी नहीं लगा, भागने लगा। उसे न जाने क्यों एकाएक अपनी एक बाल्य-सखी और दूर के रिश्ते की बहिन करुणा का ध्यान आया, जो सदा पहाड़ पर जाने के लिए तरसा करती है, जो कहती रहती है कि पहाड़ का जीवन कितना स्वच्छन्द होगा, कितना निर्मल, कितना स्वतःसिद्ध - जैसे कि आनन्दातिरेक से अनायास गाया हुआ शब्दहीन आलाप! वह सोचने लगा कि क्या सचमुच पहाड़ी जीवन ऐसा ही होता है, या यह उसकी भावुक बहिन का इच्छा-स्वप्न है? काफ़ी देर तक ऐसी बातें सोच चुकने पर जब उसे एकाएक विचार आया कि वह पहाड़ी जीवन का पता लगाना चाहता है, न कि करुणा की प्रकृति पर विचार करना, तब वह खीझ कर उठ बैठा। फिर उसने निश्चय किया कि कल वह जाकर बाज़ार में बैठेगा और वहाँ पहाड़ी लोगों को देखेगा - नहीं, वहाँ क्यों, वह मोटर के अड्डे पर जाएगा, जहाँ सैकड़ों पहाड़ी कुली आते हैं। वहीं उनका सच्चा रूप देखने को मिलेगा। उनके वास्तविक जीवन की झलक तो केवल तब देखने में आती है, जब मानव किसी आर्थिक दबाव का अनुभव करता है। गिरीश एक मोटर कम्पनी के दफ़्तर में बैठा है, उसके आस-पास और भी लोग हैं, जो आनेवाली लारियों की प्रतीक्षा में हैं-कुछ तो अपने मित्र या सम्बन्धियों की अगवानी के लिए और कुछ होटलों के एजेन्ट इत्यादि। बाहर कोई सौ-डेढ़ सौ कुली, जिनमें कुछ कश्मीरी हैं बैठे, खड़े या चल-फिर रहे हैं। कोई सिगरेट पी रहा है, कोई गुड़गुड़ी; कोई तम्बाकू चबा रहा है; कोई अपने जूते उतार कर हाथ में लिये उनकी परीक्षा में तन्मय हो रहा है; कोई एक रस्सी का टुकड़ा अपनी उँगली पर ऐसे लपेट और खोल रहा है, मानो वही जगन्नियन्ता की सबसे बड़ी उलझन हो और वह उसे सुलझा रहा हो; कोई हँस रहा है; कोई शरारत-भरी आँखों से किसी दूसरे की जेब की ओर देख रहा है, जो किसी अज्ञात वस्तु के विस्तार से फूल रही है; कोई एक शून्य थकान-भरी दृष्टि से देख रहा है - न-जाने किस ओर; कोई अपने आरक्त नेत्र मोटर कम्पनी के साइनबोर्ड पर गड़ाये हुए है; और एक-आध बूढ़ा, भीड़ से अलग खड़ा, अन्धों की विशेषतापूर्ण, उत्सुक और अभिप्राय-भरी दृष्टि से (यदि अन्धी भी दृष्टि हो सकती है तो) देख रहा है अपने आगे के सभी लोगों की ओर, यानी किसी की ओर नहीं... पर गिरीश को जान पड़ता है और ठीक जान पड़ता है
कि इस प्रकार अपने विभिन्न तात्कालिक धन्धों में निरत और व्यस्त जान पड़नेवाले इन व्यक्तियों की वास्तविक दृष्टि, वास्तविक प्रतीक्षा, किसी और ही ओर लगी हुई है। इन लोगों के सामान्य शारीरिक उद्योग से कुचले हुए शरीरों के भीतर छिपी हुई है भूखे भेड़िये की-सी प्रमादपूर्ण और अन्वेषण तत्परता, जो लारियों के आते ही फूट पड़ेगी। इससे हटकर गिरीश की दृष्टि दूसरे व्यक्ति की ओर गयी। दो-तीन तो वहीं के (एजेंसी के काम करने वाले) थे, उन्हें गिरीश छोड़ गया। एक और था, खूब मोटा-सा आदमी, धोती और डबल-ब्रेस्थ कोट पहने, किसी तीखे सेंट की सौरभ में डूबा हुआ, ऊपर के ओठ पर तितली के परों-सी मूँछ मानो चिपकाये, और आँखों में एक उद्दंडता, एक बेशर्म औद्धत्य लिए हुए। इस व्यक्ति को दूसरे लोग 'सेठ साहब' कहकर सम्बोधन कर रहे थे। इस ग्रुप का तीसरा व्यक्ति वर्णन से परे था। वह दुबला और साँवला था, इसके अतिरिक्त उसका कुछ वर्णन यदि हो सकता था, तो यही कि उसकी आयु का, उसके घर का और उसकी जात-पाँत का कुछ अनुमान नहीं हो सकता था - यह उन व्यक्तियों में से था, जो बहुत घूमते-फिरते हैं, और जहाँ जाते हैं, वहाँ अपने व्यक्तित्व का थोड़ा-सा अंश खोकर वहाँ के थोड़े-से ऐब ले लेते हैं; तब तक, जबकि अन्त में सर्वथा व्यक्तित्वहीन किन्तु सब अवस्थाओं के ऐबों से पूर्ण परिचित नहीं हो जाते। ऐसे व्यक्ति पहाड़ों में और अन्य स्थानों में, जहाँ लोग बसते नहीं, केवल आते-जाते हैं, अक्सर देखने में आते हैं। इसी घटना को देखते-देखते उपर्युक्त बात छिड़ी थी, क्योंकि पेटियों का मालिक तेज़ होता जा रहा था और सब ओर यही प्रतीक्षा थी कि घोड़ेवाला या तो किसी प्रकार का बोझ लादता है, चाहे उतने पत्थर डाल कर ही बोझ को एक-सा करता है, या फिर पेटीवाले से पिटता है। कुली भी इसी दृश्य को देखने की उत्कंठा से उधर घिरे आ रहे थे। कुछ औरतें भी पास आकर देख रहीं थीं। सेठ साहब ने फिर आत्मतुष्ट दृष्टि से सब ओर देखा और चुप हो गये। गिरीश एक नये क्षीण-से कौतूहल से उस भीड़ की ओर देखने लगा, जो बाहर जुट रही थी। सोचने लगा कि इन लोगों में क्या सभी का जीवन एक-सा ही है - दिन-भर टें-टें, चें-चें करना, घोड़े हाँकना और शाम को खा-पीकर सो रहना, या ग़लौज कर लेना? एकाएक उसकी दृष्टि अटक गयी - बैंगनी रंग के एक रूमाल के नीचे एक स्त्री-मुख पर। एक स्त्री-मुख में जड़ी हुई आँखों पर। जो भीड़-सी इकट्ठी होकर सेठ की बात सुन रही थी - सुन नहीं रही थी, कानों से उसी भाँति बीन रही थी, जिस भाँति किसी धनिक की थाली में गिरी हुई जूठन को कुत्ते बीन कर खाते हैं -उसी भीड़ के स्त्री-अंश में से एक स्त्री कुछ आगे बढ़कर खड़ी थी एकाएक जड़ित हुई गति की अवस्था में, एक पैर कुछ आगे बढ़ा हुआ, शरीर सहसा रुकने के कारण कुछ पीछे खिंचा हुआ-सा, एक हाथ उठा हुआ माथे पर टिककर प्रकाश से आँखों पर ओट करता हुआ, ताकि आँखें अच्छी तरह देख सकें। गिरीश ने बड़े यत्न से अपनी आँखें उन आँखों से हटायीं और उस स्त्री का सम्पूर्णत्व देखने लगा। उसकी वेश-भूषा बिलकुल साधारण थी - सिर पर कस कर बाँधा हुआ बैंगनी रंग का रूमाल, कानों में चाँदी के झुमके, गले में एक लम्बा सफ़ेद कुरता (जो कभी सफेद था, अब नहीं है), जिसके ऊपर एक मनकों का हार, उसके नीचे मटियाले रंग की छींट का तंग पैजामा। किन्तु उसे देखकर ध्यान उस वेश की साधारणता की ओर नहीं, बल्कि उससे वेष्टित व्यक्तित्व की असाधारणता की ओर आकृष्ट होता था। यद्यपि उसमें असाधारण क्या था? वह कोई विशेष सुन्दर नहीं थी, उसमें कुछ विशेष नहीं था, सिवा उन आँखों की उस स्थिरता के-वह इतनी तीखी और कठोर थीं कि निर्लज्ज तक जान पड़ती थीं, जैसे किसी संसारी अनुभव-प्राप्त पुरुष की। किसी असाधारण वस्तु के देखने से जो एक हल्का-सा, शारीरिक खिंचाव-सा होता है, उसमें शायद शरीर की और इन्द्रियों की अनुभूति-शक्ति बढ़ जाती है, या शायद कोई अन्य अमानवीय इन्द्रिय काम करने लग जाती है। किसी ऐसी ही क्रिया के कारण गिरीश को मालूम हुआ कि उसके सामने की भीड़ के वातावरण में कुछ परिवर्तन हो गया है। उसने जाना कि कोई व्यक्ति भद्दे अभिप्राय से उस स्त्री की ओर देख रहा है, उसे हाथ से थोड़ा-सा हिलाकर सेठ साहब को इंगित करके कह रहा है, "हाँ, हाँ वह अमीर है... और-वैसा है..." उसने जाना कि स्त्री का ध्यान एकाएक टूट गया है वह कुछ सहम कर पीछे हट रही है। वह उस समय तक वैसी ही खड़ी थी। गिरीश ने देखा, अपनी साधारण आँखों से देखा कि उस स्त्री के चिबुक पर एक छोटा-सा हल्के-नीले रंग का, गोदा हुआ बिन्दु है। इसके साथ ही उसकी वह विस्तृत हुई अनुभूति-शक्ति भी सकुच कर अपनी साधारण अवस्था में आ गयी। वह स्त्री पीछे हट गयी; हट कर पास खड़े एक और पहाड़ी को देखकर उससे धीरे-धीरे कुछ कहने लगी, जिसे गिरीश नहीं सुन पाया। उस पहाड़ी से बात करते समय भी वह देख रही थी
सेठ साहब की ओर ही। जब उसकी बात सुनकर उस पहाड़ी ने प्रश्न-भरी दृष्टि से मोटर-कम्पनी के दफ़्तर के भीतर देखा, तब उसने हाथ उठाकर सेठ साहब की ओर इशारा किया। वह स्त्री घबराकर घूम गयी और उस पहाड़ी के साथ, जिससे उसने कुछ कहा था, जल्दी से भीड़ में से निकलकर अदृश्य हो गयी। गिरीश की स्मृति में उसका तो कुछ रहा नहीं, रहा केवल उसकी पीठ पर लदी हुई कोयले की धूल से काली डांडी का एक धूमिल चित्र; किन्तु मन में उससे सम्बद्ध अनेकों विचार उठने लगे। पूछने लगे कि वह अभिनय क्या था, भाँपने लगे कि उन दीप्त स्थिर आँखों का रहस्य उन्हें ज्ञात हो। होगा, होगा... होता ही होगा... यही देखने, यही जानने तो वह यहाँ आया है, यही तो यहाँ के जीवन का छिपा हुआ रहस्य है, जो सतह के पास ही रहता है; किन्तु देखने में नहीं आता। वह इसी को उघाड़ कर रखेगा और अपना नाम अमर कर जाएगा। और उसका ध्यान फिर गया करुणा की ओर। वह और करुणा बाल्यसखा थे; किन्तु पिछले दिनों धीरे-धीरे न जाने क्यों और कैसे अलग-अलग हो गये थे-वैसे ही, जैसे सभी लड़के-लड़कियाँ एकाएक वयःसन्धि के काल में हो जाते हैं-परस्पर रूखे, उदासीन, एक-दूसरे को न समझ सकनेवाले, विचार-विनिमय में असमर्थ। आज गिरीश यह भी नहीं कह सकता कि वर्तमान संसार के प्रति करुणा के भाव में क्या हैं, वह संसार को क्या समझती है और उससे क्या आशा करती है? वह सुखी भी है या नहीं, इसका उत्तर भी गिरीश नहीं दे सकता, यद्यपि करुणा से जितना परिचय उसका है, उतना शायद ही किसी का होगा। यह क्यों है? ऐसा क्यों है कि वह करुणा के विचारों की यदि कोई बात जानता है, तो यही कि करुणा पहाड़ों को चाहती है, उनमें रहने की इच्छुक है, उनसे स्वतन्त्रता की और सुख की आशा करती है, और यह भी इसलिए कि एक बार चोरी से उसने करुणा के लिखे हुए कुछ पन्ने पढ़े थे। इसीलिए कि हम अपनी आँखें खुली रखकर भी अपने घर में ही कुछ नहीं देखते-देख नहीं पाते। हममें से कितने हैं जो अपने घर में ही अपने भाई-बहिनों के विचार जानते हैं, समझते हैं या जानने-समझने की चेष्टा भी करते हैं? गिरीश सोचने लगा, मैं यहाँ क्यों आया हूँ? क्या यह अधिक उचित नहीं है कि घर जाकर पहले अपने निकटतम लोगों का जीवन समझूँ, फिर उसी का आश्रय लेकर यहाँ के जीवन का अध्ययन करूँ? क्योंकि प्रत्येक वस्तु को कसा तो किसी कसौटी पर ही जा सकता है, और उसके पास कसौटी तो कोई है ही नहीं। नहीं, है क्यों नहीं? वह क्या इतने दिन तक आँखें बन्द ही किये रहा, क्या उसने संसार ही नहीं देखा, वह समझ सकता है और विचार कर सकता है, उसमें इतना विवेक है कि वह पहाड़ी जीवन को देखे, उसका सत्य अलग करके जाँच सके। और वह देखेगा, अवश्य देखेगा। करुणा का क्या है, वह तो घर में है ही, उसे किसी भी दिन जाकर गिरीश समझ सकता है। स्त्रियों को समझना कौन बड़ी बात है? और फिर करुणा को वह इतने दिनों से जानता है, वह कुछ छिपाएगी थोड़े ही! और फिर, यह जो आज अभिनय देखा है, वह समझे बिना कैसे जाया जाय? यह मन से निकल नहीं सकता, जब तक उसका उत्तर न पा लिया जाए। और गिरीश समझता है कि वह ठीक पथ पर चल रहा है, उससे यह रहस्य छिपा नहीं करेगा, स्वयं भी खुलेगा और पहाड़ी जीवन की सत्यता भी दिखा जाएगा। एक सप्ताह के-पहाड़ में आये हुए यात्रियों के-से जीवन के निरर्थक एक सप्ताह के बाद। गिरीश डलहौज़ी से सैर करने निकलकर, चम्बे के रास्ते पर चल पड़ा था और लक्कड़मंडी में एक चीड़ की छाया में बैठा हुआ था। पास एक छोटी कापी, कुछ खुले काग़ज़ और फ़ाउंटेनपेन रखा हुआ था, हाथ में एक पत्र के दो-चार पन्ने थे, जिन्हें वह अभी कोई पाँचवीं-छठी बार पढ़ चुका था। गिरीश होटल से यहाँ आया था कि एकान्त में बैठ कर कुछ विचार करेगा, कुछ लिखेगा, लिखने के लिए कुछ सुलझा कर मैटर रखेगा, पर साथ ही वह ताज़ी डाक में आए हुए पत्र भी ले आया था कि यहीं चलकर पढ़ूँगा और यदि जवाब भी देना होगा, तो वहीं लिख दूँगा। इन पत्रों में एक करुणा का भी था, जिसे उसने अभी पढ़ा है और जिसने उसके लिखने के विचारों को बिलकुल बिखेर दिया है। यह नहीं कि गिरीश कुछ सोच ही न रहा हो; किन्तु वे विचार हैं उलझे हुए, पागलपन से भरे, अशान्ति को ओर बढ़ानेवाले। वह सोच रहा है कि मैंने क्यों करुणा को पत्र लिखा? जो हमारा बाल्य-सख्य टूट-सा गया था, उसे क्यों भावुकता के आवेश में आकर जमाने की चेष्टा की? क्योंकि यह आज की करुणा नहीं है, वह करुणा भी नहीं, जो पहाड़ी जीवन की स्वच्छन्दता के लिए तरसती थी। यह तो एक नयी कठोर, अत्यन्त अकरुण किन्तु जीवन से छलकती हुई करुणा है जिसे उसके पत्र ने जगा दिया है और जिसे अब कुछ लिख नहीं सकता, क्योंकि जिस आग्नेय तल पर करुणा का पत्र लिखा गया है, उस तल पर वह कैसे पहुँच सकता है, यद्यपि करुणा ने उसे ऐसे पत्र लिखा है, जैसे वह कोई बड़ा कवि, या पहुँचा हुआ फिलासफर हो-उस पत्र में से इतना व
िश्वास, इतनी श्रद्धा टपकती है। गिरीश फिर एक बार उस अंश को पढ़ने लगा - "आपने पूछा है, मेरे जीवन में क्यों यह परिवर्तन आ गया है, क्यों मैं ऐसी अशान्त-सी रहती हूँ? आप पूछते हैं; पर मैं आपको न लिखूँगी, तो किसको लिखूँगी? यहाँ के लोगों को जिन्हें इतना भी पता नहीं कि शान्ति क्या होती है? "मैं तो पूरा लिख भी नहीं सकती, थोड़ा-सा ही लिखती हूँ। गिरीश को याद आया कि उसने अपनी कौन-सी कहानी में किस स्थान पर यह लिखा था। वह सोचने लगा, मैंने अपनी बुद्धि से जो लिखा था केवल प्रभाव के लिए, उसे सच समझने वाले, उसका यथातथ्य अनुभव करनेवाले भी संसार में हैं। इस विचार से वह एकाएक सहम-सा गया, वैसे-ही, जैसे कोई शिकारी पहले बन्दूक चलाये और फिर उसकी घातक शक्ति का प्रमाण पाकर एकाएक सहम जाये। और वह पढ़ने लगा-'इस देश में स्त्री होकर जन्म लेना मृत्यु-यन्त्रणा से भी बढ़ कर ही है। मृत्यु तो यन्त्रणाओं से छुटकारा दे देती हैं; किन्तु यह जन्म स्वयं समस्त यन्त्रणाओं का मूल है। आप इसे गौरव समझें या साहस; किन्तु उन्हें जीना पड़ता है। और वे कहीं से तनिक-सी सहानुभूति पा लें, तो उसके दाता के हाथ मानो बिक जाती हैं, बाज़ारू कुत्ते की भाँति वे अपना यह अधिकार भी नहीं समझतीं कि उन्हें सहानुभूति मिले! इस प्रकार वे कब कितना धोखा खाती हैं, पतन की ओर कैसे बढ़ती जाती हैं, समझ नहीं पातीं। समझें कैसे? निचाई का अनुभव वे कर सकते हैं, जिन्होंने कभी ऊपर उठ कर देखा हो; पर हम स्त्रियाँ तो सदा से ही दलित हैं! गिरीश को ऐसा जान पड़ा, कोई उसके भीतर कहने को हो रहा है कि मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो कुछ जानता नहीं, कुछ देख ही नहीं सकता; किन्तु उसके अहंकार ने इसे दबा दिया। वह आगे पढ़ने लगा-परमात्मन्! हमें क्या हुआ है, जो हम मरने के योग्य होकर भी मरती नहीं, अहंकार में डूबी हुई हैं; ज़ंजीरों में जकड़ी जाने में ही अपना स्वातन्त्र्य समझती हैं? गिरीश ने पत्र लपेट कर जेब में डाल लिया और सोचने लगा, मुझमें क्यों लोगों को श्रद्धा है, क्यों वे मुझसे आशाएँ करते हैं? यदि मैं कुछ न कर सका तो? यह उत्तरदायित्व मेरे सिर पर क्यों लादा जा रहा है? एकाएक वह खीझ उठा। यों मैं विवश किया जा रहा हूँ कि किसी एक दिशा में अग्रसर होऊँ, क्यों न अपनी स्वच्छन्द प्रगतियों का अनुसरण करूँ? कला तो किसी बाह्य प्रेरणा से चलती नहीं, वह तो स्वयं प्रमुख प्रेरक है। वह सोचने लगा, यह दासत्व क्या एक बाह्य बन्धन है, या अन्तःशक्ति की एक निष्क्रिय परमुखापेक्षी अवस्था? आदमी केवल बँध जाने से ही दास नहीं हो जाता। दासता तो एक आत्मगत भावना है। तभी तो जो दास हो जाते हैं, वे स्वाधीनता पाकर उसका उपभोग नहीं कर सकते, न कभी उसकी इच्छा ही करते हैं। उसे एक घटना याद आयी, जो उसी दिन की घटी थी, और जैसी यहाँ नित्य सैकड़ों बार घटती हैं। उसने उसे एकाएक ग्लानि से भरा दिया था। वह कुछ सोचता हुआ चला आ रहा था, इधर ही लक्कड़मंडी की ओर। एका-एक उसने सुना कि एक बालक उसे देखकर, पथ की एक ओर खड़ा होकर कह रहा है, "सलाम, साहब!" गिरीश को यह कुछ अच्छा-सा लगा। उसने कुछ मुस्करा कर उत्तर दिया, "सलाम।" तब बालक ने एक दीन स्वर में, जो सर्वथा स्वाभाविक नहीं था, बालकों की स्वाभाविक नक़ल करने की शक्ति से प्रेरित था, कहा "बक्शीश,साहब!" गिरीश को एकाएक ध्यान आया, यह सलाम उसे नहीं, उसके सिर पर के टोप को किया गया था और वह भी एक पैसे की आशा में। वह सोचने लगा, यह है दासत्व की पराकाष्ठा, जहाँ पर किसी टोप को देख कर उसके आगे झुकना और झुकने के पुरस्कार-रूप में कुछ पाने की आशा करना एक अनैच्छिक क्रिया हो गयी है, और वह भी बच्चे-बच्चे में अभिभूत; और इतनी सामान्य कि लोगों का ध्यान ही इसके गूढ़ अभिप्राय की ओर नहीं जाता। वे सलाम ले लेते हैं और चले जाते हैं, और स्वयं हैट पहने रहते हैं। इन विचारों की उग्रता से शायद गिरीश का मन थक गया। वह चीड़ के वृक्ष के सहारे लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा। "बाबू, बहुत बोलो मत! चुपचाप चले जाओ! नहीं तो अच्छा न होगा।" कहकर पहाड़ी नीचे बस्ती की ओर देखने लगा, मानो सहायता के लिए पुकारेगा। सेठ साहब भी यह देख कर कुछ ठंडे पड़ गये, भुनभुनाते हुए लौट पड़े। थोड़ी देर में वह गिरीश की आँखों से ओझल हो गये। गिरीश इस घटना पर विचार करने लगा - उसकी समझ में न आया कि वह पहाड़ी क्यों इतनी बदगुमानी से उत्तर दे रहा था, सेठ ने कोई बात तो ऐसी नहीं कही थी। शायद सदा दबते रहने से ये पहाड़ी ऐसे हो गये हैं कि मौका लगते ही अपना बदला निकालते हैं! गिरीश चाहता था कि वह पहाड़ियों के प्रति न्याय करे और इसलिए वह प्रत्येक बात में उनके पक्ष को पुष्ट करने के लिए युक्तियाँ खोजा करता था। इसीलिए अब भी उसने यही निश्चय किया कि ये पहाड़ी हम लोगों से डरने लग गये हैं, और उसी डर से लज्जित होकर कभी-कभी दिलेर बन जाते हैं
-एक दिखावटी दिलेरी से। किन्तु आज शायद पहाड़ियों ने निश्चय किया था कि अपने जीवन की समस्त पहेलियाँ एक साथ उसके आगे बिखरा देंगे; उसे ललकारेंगे कि वह उन्हें सुलझा सकता हो तो सुलझाये। वह अभी इसी समस्या पर विचार कर रहा था कि उसने फिर सेठ साहब का स्वर सुना, अब की बार अपने बहुत निकट और धीमा, मानो कुछ गुपचुप बात कहने का यत्न कर रहे हों। वे किसी स्त्री से बात कर रहे थे, क्योंकि बीच-बीच में कभी एक-आध शब्द किसी स्त्रीकंठ का निकला हुआ भी सुन पड़ता था। वह बात इतनी गोपनीय नहीं थी - उसका गोपन हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह संसार की सबसे पुरानी बात, सबसे महत्त्वपूर्ण बात - और जो शक्ति का मूल्य समझते हैं, उनके लिए सबसे गौरव की बात थी; पर जिस प्रकार कला बेची जाकर केवल एक व्यावसायिक निपुणता रह जाती है, जिसका स्वामी स्वयं उसे व्यावसायिक गुण समझकर उसे स्वीकार करने में अपनी हेठी समझता है, उसी प्रकार शक्ति भी बेची जाकर एक लज्जाजनक वस्तु हो जाती है, और हम उसे छिपाते हैं, उसका चोरी से उपयोग करते हैं कि वह लज्जा दीख न पड़े, हमें और अधिक लज्जित न करे। गिरीश ने सुना, सब सुना। एक सौदा हुआ था, जिसमें क्रेता अत्यन्त उत्सुक था, विक्रेता पहले असहमत, किन्तु अन्त में एक लम्बी साँस के साथ अपना विकल्प छोड़कर विक्रय के लिए तत्पर हो गया था; विनिमय का दिन और समय भी निश्चित हो गया था। वह स्त्री यहीं लक्कड़मंडी में रहती है, समय पर आ जाएगी, विशेष देख-भाल की आवश्यकता है, क्योंकि यह गाँव काफ़ी बदनाम हो चुका है, और यहाँ की स्त्रियों पर, यहाँ आने-जाने वालों पर भी, कड़ी निगाह रखी जाने लगी है; पर वह आएगी अवश्य, वादा जो किया है। और गिरीश के मन ने अपनी ओर से जोड़ दिया - "पैसे जो लिये हैं...' क्योंकि उसने अपने रुपयों की-कई-एक रुपयों की-खन-खन भी सुनी थी। गिरीश का सिर झुक गया, दम घुटने-सा लगा। यह है पहाड़ी जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य जिसे देखने वह आया है, जिसके बूते वह संसार में यशःप्रार्थी होगा, यह, यह - यह, जिसके लिए शब्द नहीं मिलते! सामने वह खड़ी है। उसी दिन वाली स्त्री, वही बैंगनी रंग का रूमाल सिर पर बँधा हुआ, वही कुरता, वही लाल छींट का पैजामा, वही हार, वही झुमके, वही गोदने का बिन्दु-चिह्न और वही आँखें, जो चौंककर उसे देख रही थीं, निर्भीकता से उसकी दृष्टि का सामना कर रही थीं। और वह शायद यह बता देने में समर्थ भी हुआ। उस स्त्री की दृष्टि क्षण-भर के लिए काँपकर झुक भी गयी। किन्तु उसके बाद ही उसने सिर उठाया, एक अवज्ञा-भरी दर्प-भरी मुद्रा में लाकर हिलाया, जिससे उसके बालों की लट रूमाल के नियन्त्रण से निकल कर, हिलकर मानो बोली - "मैं क्या परवाह करती हूँ!" और फिर वह अवमानना-भरी हँसी-हँसकर चली; किन्तु पाँच-सात क़दम जाकर उसने गर्दन घुमाकर देखा, क्षण-भर ग्रीवा फेरे हुए ही पीड़ित-सी खड़ी रही, फिर चली गयी, अब मानो कुछ शान्त, कुछ सन्दिग्ध, कुछ आहत, कुछ उद्विग्न। और गिरीश भी एकाएक आवेग में उठा और काग़ज़ उठाकर नीचे की ओर चल पड़ा। उसे मानो अपने सब प्रश्नों के उत्तर मिल गये थे; कितने कठोर उत्तर! सब समस्याओं का समाधान मिल गया था, कैसा उपहास-भरा समाधान! वह कुछ ही दूर गया था कि सेठ साहब मिल गये; कुछ चौंके, कुछ झेंप-से गये। गिरीश को उस स्त्री के प्रति इतनी ग्लानि हो रही थी कि उसे यह ध्यान ही न आया कि सेठ साहब भी किसी सम्बन्ध में दोषी हो सकते हैं; वह उनके साथ हो लिया और बातचीत चलाने का ढोंग करने लगा। किन्तु इसमें स्वयं अपने को ही असमर्थ पाकर, वह क्षमा माँग कर आगे निकल गया और फिर विचार-सागर में उतराने लगा, उस आघात को मिटाने का यत्न करने लगा, जो उस स्त्री की अवज्ञापूर्ण हँसी ने उसके हृदय पर किया था। वह सोचने लगा - "हम क्यों एक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं, विशेषतया जब कि वह पवित्रता एक कृत्रिम बन्धन है? हम एक ओर तो मानते हैं, कि कृत्रिम बन्धन सब प्रकार के पतन के मूल हैं, दूसरी ओर हम यह भी मानते हैं कि पवित्रता, व्रत-निष्ठा एक मानसिक या आध्यात्मिक तथ्य है, शारीरिक नहीं; तब फिर क्यों हम एक नकारात्मक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं कि उसके न होने पर किसी व्यक्ति को नरक का पात्र समझने लग जाते हैं? और विशेषतया स्त्री को? "क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उस शारीरिक नियन्त्रण को उतना महत्त्व न दे; जो कर्मों को करे, जिन्हें हम वर्जित समझते हैं, किन्तु पापभावना से नहीं, केवल इसीलिए कि वह उन्हें इतना महत्त्व नहीं देता, इसीलिए कि वह इतनी छोटी-सी बात के लिए अपनी स्वाभाविक प्रगति को दबाना नहीं चाहता? यदि कोई ऐसा हो तो हम उसे कैसे दोषी ठहराएँ, यह जानते हुए कि पाप वह नहीं है जो बिना पाप-भावना के किया जाए? एकाएक गिरीश की विचारधारा रुकी। उसने देखा कि वह भावुकता के आवेश में किधर बहा जा रहा है... किस अकर्मण्य
विशृँखलता की ओर, जो उदारता की आड़ में फैल रही है। उसने अपनी ग़लती जानी कि जिस विषय की वह आलोचना कर रहा है उसका उद्भव उन भावनाओं से नहीं हुआ था, जो वह उन्हें दे रहा है, बल्कि केवल रुपये के लालच के लिए यानी रुपये के लिए इन पहाड़ियों का आचार और चरित्र बिकाऊ है। पर यह धोखा है! ऐसे तर्क से केवल पतन ही पतन हो सकता है। उन्नति नियम के बिना, एक निष्ठा के बिना, नहीं होती। इस तथ्य पर पहुँचकर गिरीश ने अपने विचार स्थिर कर लिए और फिर उससे आगे पहाड़ी जीवन की उन रहस्यमयी घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वह करुणा के पत्र के बारे में ही सोचने लगा-करुणा अवश्य दुखी है, नहीं तो इतना उद्वेग-भरा पत्र नहीं लिख सकती थी - विशेषतया इसा अवस्था में, जबकि उसने अनेक दिनों से करुणा से कोई व्यवहार नहीं रखा। पर क्या करुणा का दुख, उसकी यन्त्रणा और-हाँ, उसे अखरने वाला वह दासत्व भी इस पहाड़ी जीवन से अच्छा नहीं है, इसी पहाड़ी जीवन से, जिसमें करुणा अपने सुख-स्वप्नों का चरम उत्कर्ष देखती है? गिरीश ने जाना, उसमें यदि प्रतिभा है, लेखन-शक्ति है, तो वह यहाँ पहाड़ों में वृद्धिगत न होगी; यह उसका क्षेत्र नहीं; वह यहाँ रहकर उस स्वप्न को साकार नहीं बना सकता, जो वह कुछ दिन पहले देख रहा था। यहाँ, जहाँ के जीवन में प्रतिभा का आहार बिलकुल नहीं मिलता, जहाँ चरित्र घुटकर मर जाता है, और जीती हैं केवल लिप्साएँ, उग्र पाप-भावनाएँ, जहाँ के जीवन का सार है ग़रीबी, कायरता, दम्भ और व्यभिचार, जहाँ प्रत्येक वस्तु एक धातु के टुकड़े पर निछावर होती है, जहाँ लोग पर्वतों के मुख को काला कर रहे हैं अपने ओछे, छिछोरे, पतित, निरर्थक जीवन से! इससे वह दासत्व ही अच्छा, वह भीड़-भड़क्का, वह रोग, पीलापन और घुलती हुई मृत्यु। करुणा रोती है तो उसे रोने दो, वह यदि बलि है तो हमारी सभ्यता की, जिसे बनाए रखना हमारा कर्त्तव्य है और जिसमें मेरी प्रतिभा का एकमात्र आधार है। और यह निश्चय करके गिरीश होटल पहुँचा। वहाँ उसने अपना सामान बाँधा और सायंकाल ही को लौट गया वहीं जहाँ से आया था - अपने संसार के सभ्य जीवन में, जो पहाड़ी जीवन की सभ्यताओं में उलझा हुआ नहीं है, यद्यपि उसमें भीड़ है, और रोग हैं, और घुला मारनेवाली मृत्यु है और है करुणा का रोदन, जिसे कोई सुनता ही नहीं। और पहाड़ों में यह नित्य ही होता है, शायद दिन में कई बार होता है। नीचे के समतल प्रदेशों से अपनी सभ्यता और शान्ति-रूपी घातक औषधियों द्वारा जीवित रहनेवाले लोग आते हैं - पहाड़ों पर अपने निर्बल हृदय और निर्बलतम पाचनशक्तियाँ लेकर, और लौट जाते हैं भन्नाते हुए मस्तिष्क और मतली से आक्रान्त उदर लेकर। क्योंकि ये पर्वत-ये मूक, विराट्, अभिमानी और लापरवाह पर्वत-अपना रहस्य खोले नहीं फिरते, अपना हृदय उघाड़कर दिखाते नहीं फिरते, उन्हें वही देख और खोज पाता है, जो उनकी खोज़ में निरत रहता है, जो उनके लिए अनवरत यत्न करने की क्षमता रखता है, और जो इतना सहिष्णु होता है कि उन्हें देखकर चौंधिया नहीं जाता, अन्धा नहीं हो जाता। पहाड़ कुछ कहते नहीं, उनके जिह्वा है ही नहीं। उनकी कहानी की सत्यता फिर भी न कही जाती, वैसी ही रह जाती, केवल पढ़ने की क्षमता रखनेवाले उसे पढ़ते और समझते और पर्वतों से प्रेम करते। क्योंकि वह है ही अकथ्य, जैसे सभी गहरी बातें अकथ्य होती हैं - गहरा प्रेम, गहरी वेदना, गहरा सौन्दर्य, गहरा आह्लाद, गहरी भूख। जब एक पहाड़ी घोड़ा न लादने पर पिटता है, और फिर संन्यासी होकर लापता हो जाता है, तब पहाड़ उसकी उस गहरी आत्मग्लानि का चित्र नहीं खींचते जिसके कारण वह ऐसा करने को बाध्य होता है, जिसके कारण वह अपने कुटुम्बियों, अपने बाल-बच्चों का ध्यान भुलाकर, अपने व्यक्तित्व को इसलिए कुचल डालता है कि उस व्यक्तिगत जीवन में केवल परमुखापेक्षा, झुकना, प्रपीड़न और दासत्व की प्रतारणा है; वे चुप ही रह जाते हैं। और जब उसी पहाड़ी की लड़की, अपने पिता को पीटने वाले के मुख से दर्प और आत्मश्लाघा-भरे शब्दों में वही कहानी सुनती है, तब वे किसी से उसके व्यथा भरे जड़-विस्मय का रहस्य कहने नहीं जाते; जब कोई पहाड़ी, यह समझकर कि लोग उनके घर आते हैं केवल उनकी स्त्रियों को भ्रष्ट करने, उनके भोलेपन से और उनकी नैसर्गिकता से लाभ उठाकर उन्हें पतित और बदनाम करने, उन लोगों के प्रति उपेक्षा का बर्ताव करता है, तब पर्वत किसी देखनेवाले को उस उपेक्षा का कारण नहीं बताते फिरते। जब एक पहाड़ी कन्या अपने शत्रु, अपने पिता के घातक से एक दिन और समय नियत करती है, ताकि वह उससे बदला लेने का उचित उपाय सोच सके, तब वे पर्वत उस कन्या के किसी आलोचक को सत्य का निदर्शन कराने नहीं जाते, उसकी मानसिक प्रगति समझाने की चेष्टा नहीं करते; और अन्त में, जब कोई उनके विषय में अत्यन्त अनुचित, अन्यायपूर्ण भावना लेकर, उनकी विशाल स्वच्छन्दता और शक्
तिमत्ता को छोड़कर लौट जाता है अपने घिरे हुए, बँधे हुए, कलुषित, मारक, चूहेदान जैसे संसार में, तब वे उसे वापस भी नहीं बुलाते। वे उसी भव्य, विराट्, उपेक्षा-पूर्ण कठोर मुस्कराहट से निश्चल आकाश की ओर देखा करते हैं।
नीति के उपदेश यही सिखाते हैं कि त्रिवर्ग की उन्नति करनी चाहिए, जिससे मोक्ष की प्राति सुकर हो जाय । त्रिवर्ग से तात्पर्य धर्म, अर्थ और काम तीनों से है। प्राचीन समय में भारत की सम्पत्ति सभी देशों के लिए स्पृहणीय थी । काम, अर्थात् व्यवहार तो भारत से ही और देशों ने सीखा है। सुखोपभोग की सामग्री भारत में कितनी विपुल थी, इसका पता प्राचीन काव्यों को पढ़ने से बड़ी आसानी से लग जाता है । यह सच होते हुए भी भारतीय सभ्यता में इतनी विशेषता अवश्य है कि यहाँ धर्म को सभी पुरुषार्थों में प्रधान स्थान दिया गया है । धर्म का आत्मा से सीधा सम्बन्ध है । उससे आत्मा वलवान् होता है। जब कभी व्यवहार में धर्म के साथ अर्थ-काम का संघर्ष उपस्थित होता है, जब कभी प्रश्न खड़ा होता है कि या तो धर्म को अपना लो या अर्थ को । ऐसे समय में हम सदा धर्म को ही अपनाते हैं, यही हमारे शास्त्रकारों का उपदेश है कि - परित्यजेदर्थ कामौ च स्यातां धर्मवर्जितो । अर्थात्, धर्म से विरुद्ध अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए । इस विषय का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन धर्मशास्त्रकारों ने किया है । भगवान् मनु कहते हैं कि - अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः । द्रव्योपार्जन और अपनी उन्नति का सम्पादन अवश्य ही मानव-मात्र का कर्त्तव्य है, परन्तु वह द्रव्योपार्जन या आत्मोन्नति ऐसी हो, जिससे किसी से द्रोह न हो । दूसरों को धक्का मारकर उपार्जन करना ठीक नहीं । प्रश्न होता है कि किसी भी अर्थोपार्जन या उन्नति में परद्रोह तो अवश्य होगा । मान लिया जाय कि किसी मनुष्य को कोई अच्छा पद मिला, तो क्या उसका यह उपार्जन विना द्रोह किये हो गया ? नहीं । उसी के साथ जो दूसरे लोग उस पद के इच्छुक थे, उनको हटाने के कारण द्रोह तो हो ही गया । तब अद्रोह से उपार्जन कैसे सम्भव है । इसी सूक्ष्म बात को ध्यान में रखकर मनु भगवान् ने साथ ही कह दिया था कि 'अल्पद्रोहेण वा पुनः', अर्थात् यदि द्रोह अपरिहार्य हो, तो वह बहुत कम रूप में लिया जाय । जैसे पद प्राप्त होने पर जो द्रोह औरों से होता है, वह साक्षात् अपकार करने से नहीं, अपि तु दूसरों के द्वारा हुआ है । इसलिए यह अल्पद्रोह है । कारण वहाँ द्रोह लक्ष्य नहीं था, अपनी उन्नति ही लक्ष्य था । इस प्रकार का द्रोह उपार्जन में लक्ष्य है। परन्तु साक्षात् द्रोह नहीं करना चाहिए । जैसे, शिकायतों और आरोपो के द्वारा दूसरे को पदच्युत करवाकर फिर स्वयं उस स्थान को लेना । इस प्रकार का उपार्जन धर्म-विरुद्ध है । यह नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, धार्मिक नेताओं ने सर्वदा हमें सचेत किया है कि हम कभी प्रधान को, अर्थात् धर्म को न भूलें । धर्म का ही दूसरा नाम है कर्त्तव्य । कर्त्तव्य और धर्म में भेद नहीं । कर्तव्य निष्ठा ही भारतीय संस्कृति की प्रधान वस्तु है । कर्त्तव्य में आलस्य, प्रमादादि को स्थान नहीं । इस प्रकार, धर्म और उससे अविरुद्ध अर्थ और काम का आचरण करने से मोक्ष नाम का परम पुरुपार्थ अपने आप सिद्ध हो जाता है । शरीर ग्रहण करता है । यदि भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य पुनर्जन्मवाद है, तो भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत आनेवाले बौद्ध, जैन, सिक्ख, आर्यसमाज, ब्राह्मसमाज आदि जितने सम्प्रदाय हैं, वे सभी इस पुनर्जन्मवाद को अवश्य स्वीकार करते हैं। इस प्रकार, आचार और विचार ये, दो जो संस्कृति के पहलू हैं, उनमें विचारांश में भारतीयों का ऐक्य स्थापित हैं। शरीर के अतिरिक्त आत्मा है। जिस प्रकार शरीर के प्रति भोजनाच्छादनादि हमारे अनेक कर्त्तव्य हैं, उसी प्रकार आत्मा के प्रति भी हमारे कुछ कर्त्तव्य हैं । इस प्रकार के अध्यात्म पर अवलम्बित व्यवहार ही आचारांश में भारतीयों की एकता को प्रतिष्ठित करते हैं। प्राचीन समय में भी भारत । प्राचीन समय में भी भारत में अध्यात्म-दृष्टि प्रधान रही है । आत्मा को उन्नत वनानेवाले आचरणों को ही धर्म कहा जाता है। आजकल शिक्षित लोग धर्म से चौंकते हैं। बहुत से लोग धर्म को एक हौवा समझते हैं । परन्तु खेद है कि ये धर्म के स्वरूप पर ध्यान नहीं देते। धर्म न तो कोई हौवा है और न कोई चौंकानेवाली चीज है, न वह अवनति के मार्ग में ढकेलनेवाली कोई वस्तु है। धर्म उसी का नाम है, जो उन्नति की ओर ले जाय । धर्म का लक्षण करते हुए कणाद ने स्पष्ट कर दिया है कि - -'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसः सिद्धिः स धर्मः', अर्थात् जो क्रमशः उन्नत करता हुआ चरम उन्नति तक ले जाय, वही धर्म है । वह उन्नति न केवल संसार की ही है, परन्तु उसके साथ-साथ आत्मा की चरम उन्नति है, अर्थात् मोक्ष भी धर्म के द्वारा ही होता है। आजकल यन्त्र-युग में नये-नये यन्त्रों का आविष्कार ही उन्नति की ओर अग्रसर होना है। किन्तु विचार कीजिए कि ये सव यन्त्रों को कौन बनाता है। मनुष्य की कल्पना शक्ति ही इन यन्त्रों को जन्म देनेवाली है। यह कल्पना-शक्ति किस यन्त्र से प्रादुर्भूत होती
है, इसका ज्ञान भारतीय संस्कृति में मुख्य माना गया था । यन्त्रों को जन्म देनेवाली कल्पना शक्ति के उद्भावक मन, बुद्धि और सब-के-सव चैतन्यप्रद आत्मा का विचार आध्यात्मिकवाद है । भारतीय संस्कृति के नेता यही कहते हैं कि जो अपने-आपका परिष्कार वा सुधार न कर सका, वह अन्य वस्तुओं का निर्माता होने पर महत्त्वशाली नहीं कहा जा सकता। इसलिए, आध्यात्मिकवाद की यहाँ की संस्कृति में प्रधानता हो गई है । कुछ लोग आक्षेप करते हैं कि अध्यात्मवाद के अनुयायियों ने धर्म के आगे अर्थ और काम को गिरा दिया। वे केवल धर्म-ही-धर्म को पकड़े रहे, और देश की अनेक प्रकार की उन्नति में बाधक सिद्ध हुए। परन्तु भारतीय संस्कृति के विचारकों को यह अच्छी तरह मालूम है कि हमारे यहाँ अर्थ और काम से विमुख होने का कहीं विधान नहीं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों हमारे यहाँ पुरुपार्थ माने गये हैं । पुरुषार्थ का मतलब है, जो पुरुषों के द्वारा चाहने योग्य हों, अथवा मनुष्य के चार लक्ष्य हैं । 'पुरुपैरर्थ्यते', यह व्युत्पत्ति उपर्युक्त अर्थ को सिद्ध करती है। उनमें अर्थ और काम का ही सामान रूप से समावेश है, तब अर्थ और काम की उपेक्षा का आरोप कैसे माननीय हो सकता है । यह बात भी नहीं है कि भारत में कभी अर्थ, काम की उन्नति हुई ही नही । धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थात् व्यवहार शास्त्र और । - कलाशास्त्र तीनों भारत में पूर्णतया उन्नत थे । प्राचीन इतिहास इसका साक्षी है । सभी होता है, जो पानी के साथ चने भी खिलाता है; क्योंकि वह अधिक लोगों का अधिक हित सम्पादन करता है । परन्तु, विवेक-दृष्टि कभी उसे धर्मात्मा नहीं कहेगी; क्योंकि उसका उद्देश्य लोगों को लाभ पहुॅचाने का नहीं । भारतीय दृष्टि में वही धर्मात्मा है, जिसने पहले प्याऊ खोला; क्योंकि वह निःस्वार्थ भावना से पिपासा- निवृत्ति के लिए जल पिलाता है। उसके कार्य में किसी प्रकार की दुरभिसन्धि नहीं । दूसरा उदाहरण लीजिए । अमेरिका में जब सर्वप्रथम ट्रामगाड़ी चलने को थी, तब लोग बड़े उत्सुक थे । कम्पनी ने भी पूरी तैयारी कर ली थी । परन्तु फिर भी महीनों बीत गये । सरकारी आज्ञा मिलने में देर हो रही थी । ज्यादा देर होती देख कम्पनी के डाइरेक्टर ने सरकारी ऑफिसर को तगड़ी-सी रिश्वत दे दी । फलतः, ट्राम चालू करने का आर्डर शीघ्र प्राप्त हो गया और शीघ्र ट्रामगाड़ी के चलने से जनता को आराम हो गया । पाश्चात्य परिभाषा के अनुसार उस प्रकार रिश्वत देना धर्म होना चाहिए; क्योंकि वह अधिकांश मनुष्यों के लाभ के लिए कार्य था । परन्तु, परिणाम उसका उल्टा हुआ । वहाँ के हाईकोर्ट में उस रिश्वत लेने पर केस चला और अभियोग प्रमाणित होने पर देने और लेनेवालों को दण्ड भोगना पड़ा । इसलिए, हमारी संस्कृति के अनुसार धर्म के सम्बन्ध में ऐसी बातें नहीं चल सकतीं । आध्यात्मिक दृष्टि से ही विचार होगा। अमुक कार्य के करने में अमुक मनुष्य का उद्देश्य क्या है, और उस कार्य का परिणाम क्या है । यदि उद्देश्य और परिणाम बुरा है, तो अच्छा काम भी अधर्म ही ठहरेगा और उद्देश्य एवं परिणाम अनुचित न रहने से बुरे काम भी अच्छे हो जायेंगे । किसी भी कार्य में कर्त्ता की नीयत जाने विना धर्म का निर्णय नहीं हो सकता । इसके लिए भी आध्यात्मिकता की ओर आना होगा । यों धर्म और कर्त्तव्य के निर्णय में आध्यात्मिकता की ही कमी हुई, तब भारत की ओर ही सबकी दृष्टि केन्द्रित होती है। भारत सर्वदा से आध्यात्मिक दृष्टि को सर्वोपरि मानता आया है। उपनिषद् की एक आख्यायिका है, याज्ञवल्क्य जब वृद्ध हुए, तब घर छोड़ वन में एकान्तवास करते हुए ब्रह्म-चिन्तन की इच्छा हुई । उनकी दो पत्नियाँ थी - मैत्रेयी और कात्यायनी । उन्होंने वन में जाने के पहले अपनी कुछ सम्पत्ति थी, उसको दोनों पलियों में विभक्त कर देना चाहा। उन्होंने मैत्रेयी को बुलाया और उसे समझाया कि मै अपनी जो कुछ सम्पत्ति है, उसको तुम दोनों में बाँट देना चाहता हूँ । मैत्रेयी तो आर्य ललना थी । ऋषि की सम्पत्ति क्या हो सकती है। कमण्डलु, मृगचर्म, कौपीन, कुटिया, यही तो ऋषियों के आश्रम में होता था । परन्तु मैत्रेयी ने कहा भगवन् ! यदि आप मुझे वह सारी पृथ्वी दे दें, जो रत्नों, सुवणों और समस्त धन-धान्यादि से लदी हुई हो, उसको प्राप्त करके तो मैं अमर हो जाऊँगी न ? याज्ञवल्क्य ने कहा - सम्पत्ति से कोई मनुष्य अमर तो नहीं हो सकता । हॉ, जिस प्रकार धनवानों का जीवन बीतता है, सैकड़ों नौकर रखते हैं, तरह-तरह के वस्त्र पहन सकते हैं, सब प्रकार के स्वादिष्ठ भोजन प्राप्त हो सकते हैं, उस प्रकार सुख से जीवन व्यतीत हो सकता है। परन्तु सम्पत्ति से अमरता तो नहीं मिल सकती । इस पर मैत्रेयी ने कहा - जिसको लेकर अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूँगी । जिसकी खोज में आप घर को छोड़कर वन में जा रहे हैं, अपने उस लाभ में आप
हमें भी मोक्ष को ही यह संस्कृति परम पुरुषार्थ कहती है। वह मोक्ष क्या है ? आत्मा को स्वतंत्र बना देना ही मोक्ष है । कर्त्तव्य का आचरण करते-करते मन, बुद्धि और शरीर पवित्र हो जाते हैं। इस प्रकार के पवित्र मन और बुद्धि में आत्मा की स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। वह आत्मा हमें कहीं बाहर से लेने नहीं जाना पड़ेगा, वह तो सबके पास है। परन्तु मन और बुद्धि अपवित्र होने से उसे ग्रहण नहीं कर पाती । जब कर्त्तव्याचरण द्वारा मन, बुद्धि पवित्र हो जाती है, तब आत्मा का दर्शन होना सुगम हो जाता है । इसीको मोक्ष कहते हैं । अव प्रश्न यह उठता है कि यह संसार तो प्रश्नों और समस्याओं का जंगल है। यह कैसे पहचाना जाय कि अमुक कर्त्तव्य है, और अमुक धर्म है, जहाँ कार्यों की शृङ्खला सामने खड़ी है। बहुत से कार्य कर्त्तव्य-कोटि में आते हैं, बहुत-से त्याज्य हैं । सामान्य मानव बुद्धि यह कैसे समझे कि यह करना चाहिए, और यह छोड़ना चाहिए ? इस प्रश्न के अनेक समाधान भारतीय ग्रन्थों में मिलते हैं। अनेक ऐसी पहचान निश्चित की गई है । कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करनेवाले पाश्चात्य आधिभौतिकवादी पहले उन कार्यों को कर्त्तव्य-कोटि में रखते थे, जो सत्र मनुष्यों को लाभ पहुँचानेवाले हों । ऐसी परिभाषा बना लेने पर उनके सामने जब यह प्रश्न आया कि कोई कार्य ऐसा नहीं, जो सभी मनुष्यों को लाभ ही लाभ पहुँचाता है। किसी-न-किसी को किसी कार्य में हानि भी अवश्य होगी। चोरी को अपराध घोषित करना शायद चोरों को नागवार गुजरेगा । रोगियों की संख्या में कमी होना डॉक्टरों की रोजी छीनना होगा । भ्रातृ-भाव और वन्धुत्व की वृद्धि और द्वेष का अभाव होने से वकीलों की जीविका का प्रश्न आ जायगा । शायद कोई वकील यह नहीं चाहता होगा कि मेरे मुवकिल आपस का झगड़ा भूल जायँ । ऐसी ही स्थिति में अच्छा-से-अच्छा माना जानेवाला कार्य भी कर्त्तव्य और धर्म न हो सकेगा; क्योंकि पाश्चात्य विद्वानों की पूर्व परिभाषा के अनुसार वह सब लोगों का हित सम्पादन नहीं करता। इस प्रश्न के सामने आने पर पश्चिमी विद्वानों ने अपनी परिभाषा बदल दी । उन्होंने कहा कि धर्म वह है, जो अधिकांश मनुष्यों को अधिक लाभ पहुँचानेवाला हो । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने गीतारहस्य ग्रन्थ में इस प्रकार के समस्त पाश्चात्य मतों को सामने रखकर उनकी आलोचना प्रस्तुत करके यह सिद्ध कर दिया है कि धर्म-अधर्म या कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय भौतिक दृष्टि से कथमपि सम्भव नहीं । उसके निर्णय के लिए तो आध्यात्मिक दृष्टि को ही अपनाना होगा । भौतिक परिभाषा में उन्होंने अनेक दृष्टान्तों से दोष दिखाये हैं । मान लीजिए कि गर्मी में तृपार्त्त जनों की प्यास बुझाने के लिए किसी ने प्याऊ लगाया। लोग उसके प्याऊ पर आते हैं और सुखादु शीतल जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं । उसके प्याऊ पर जल पीनेवालों की भीड़ देखकर सामनेवाले दूकानदार वनिये ने भी एक प्याऊ खोल दिया, जो पानी के साथ चने भी खिलाता है। वनिये का उद्देश्य लोगों को जल से तृप्त करना नहीं है, अपि तु अपना व्यापार चमकाना है। ज्यादा भीड़ बढ़ने पर लोग उसकी दूकान पर बैठकर खरीददारी भी करते हैं। अब यदि पाश्चात्य दृष्टि से कर्त्तव्याकर्त्तव्य का या धर्माधर्म का विचार करें, तो बनिया ही धर्मात्मा सिद्ध भारतीय संस्कृति चच सकेगी। और, यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कर्त्तव्य-निष्ठा वर्णाश्रम व्यवस्था के आधार पर ही स्थित हो सकती है, अन्यथा कर्त्तव्य का ज्ञान ही किस आधार पर हो सकेगा ? वर्ण व्यवस्था ही अपने-अपने वर्ण के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य निश्चित करती है । जिस वर्ण का जो धर्म है, उसमें फल का कुछ भी विचार न करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को प्रवृत्त होना चाहिए । यही कर्त्तव्य-निष्ठा है। भारतीय संस्कृति के मुख्य ग्रन्थ भगवद्गीता में भी कर्त्तव्य बुद्धि को ही मुख्य माना गया है, और फल की अपेक्षा न कर कर्त्तव्य-पालन का नाम ही कर्मयोग रखा है। कर्मयोग एक बहुत उच्चकोटि की वस्तु है, जो क्या सामाजिक, क्या राजनीतिक, क्या धार्मिक सभी विषयों में अत्यन्त उपादेय सिद्ध होती है, किन्तु जब यह प्रश्न उठाया जाय कि फल की इच्छा न करें, तो किस कार्य में प्रवृत्ति करें ? क्योंकि, प्रवृत्ति का क्रम तो शास्त्रों में यही निर्धारित किया गया है कि पहले फल की इच्छा होती है, तब उसके साधन रूप से उपाय की इच्छा और उपाय की इच्छा से आत्मा में प्रयत्न होता है । प्रयत्न नाम की एक प्रेरणा उठती है और उस प्रेरणा से हाथ-पैर आदि इन्द्रियाँ प्रवृत्त होती हैं। यदि फलेच्छा ही न होगी, तो आगे का क्रम चलेगा ही कैसे ? और, प्रवृत्ति ही क्यों होगी ? तब इसका उत्तर यही हो सकता है कि जिसके लिए जो कर्म नियत है, उसमें उसे प्रवृत्त रहना चाहिए । 'नियतं कुरु कर्मलम्', यही भगवद्गीता का आदेश है । परन्तु किसके लिए क
ौन सा कर्म नियत है - इसका उत्तर तो वर्ण-व्यवस्था ही दे सकती है। उसमें ही भिन्न-भिन्न वर्णों के अपने-अपने कर्म नियत हैं, उनका अनुष्ठान विना फल की इच्छा के ही करते रहना चाहिए । यदि विना वर्ण व्यवस्था माने भी कर्त्तव्य-निष्ठा का कोई यह समाधान करे कि जगत् के लाभदायक कर्म फल की इच्छा विना ही करते रहना चाहिए अथवा आत्मा की आज्ञा जिन कर्मों के लिए मिले, वे कर्म करते रहना चाहिए, तो इन पक्षों में जो दोप आते हैं, उनका विवरण आरम्भ में ही दे दिया गया है कि सबका लाभदायक कोई भी कर्म हो नहीं सकता और किनको लाभ पहुँचाने का यत्न करें और किनकी हानि की उपेक्षा करें - इसका भी नियामक कुछ नहीं मिल सकता । आत्मा की आज्ञा भी भिन्न-भिन्न परिस्थिति में भिन्नभिन्न प्रकार की मिलती है। एक बार अनुचित कार्य करके जब आत्मा मलिन हो जाता है, तब वहाँ से अनुचित कार्यों की ही अनुमति मिलने लगती है। इससे आत्मा की आज्ञा पर भी निर्भर रहना बन नहीं सकता । सारांश यह है कि कर्मयोग-सिद्धान्त वर्णव्यवस्था के आधार पर ही बन सकता है और वह कर्मयोग - सिद्धान्त व्यवहार क्षेत्र से पार पाने का सबसे उत्तम साधन है । इसलिए, कर्त्तव्य निष्ठा वा कर्मयोग की सिद्धि के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था को भारतीय संस्कृति में प्रधान स्थान दिया गया है । वर्त्तमान में वर्ण-व्यवस्था पर बहुत आक्षेप होते हैं और इसी पर भारत की अवनति का बहुत-कुछ दायित्व रखा जाता है। इसे दूषित करनेवाले विद्वानों का कथन है कि वर्ण-व्यवस्था ने ही समाज मे आपस में फूट डाल दी । परस्पर ऊँच-नीच हिस्टेदार बनाइए । तब याज्ञवल्क्य ने उसको ज्ञानोपदेश देना प्रारम्भ किया। तालर्य यह कि प्राचीन काल में भारत की त्रियों में भी आत्मतत्व के सामने समस्त संसार की सम्पत्ति को भी तुच्छ समझने की भावना थी । आध्यात्मिकता का एक खरूप कर्त्तव्य-निष्ठा भी है। वह कर्तव्य-निष्ठा ही भारत की देन है। कर्त्तव्य-निष्ठा की शिक्षा गुरुओं द्वारा आश्रमों में दी जाती थी । वचनों में शक्ति भी इसी निठा से उत्पन्न होती है । कौन-सी वह शक्ति है, पुत्र से पिता की, शिष्य से गुरु की आज्ञा का पालन करा देती है। यह शक्ति कर्त्तव्य-निठा ही है। कर्तव्य-निष्ठा का तालये यह है कि किसी भी कार्य को इसलिए करना कि वह कर्त्तव्य है। इसलिए नहीं कि उसके करने से अच्छा फल मिलेगा । चाहे फल हो या नहीं, पिता और गुरु की आज्ञा का पालन करना ही होगा । आजकल अँगरेजी में इसे 'ड्यूटी' चन्द से कहा जाने लगा है। भारतीय चरित्रों में आप इस कर्त्तव्य-निठा के जगह-जगह दर्शन करेंगे। भारत का एक सुन्दर सन्दर्भ है। वन में क्षत्राणी द्रौपदी ने महाराज युधिष्ठिर को छेड़ दिया कि आप जो धर्म को इतना श्रेष्ठ कहा करते हैं, वह बात तो व्यवहार में ठीक नहीं जँचती । आप स्वयं इतने धर्मात्मा, यज्ञ, दान, व्रत पालन करनेवाले वा नियमों से रहनेवाले वन में भटकते हैं, और दम्न की प्रतिमृत्ति, निरन्तर पाप-कमों में लीन रहनेवाला दुर्योधन संसार-भर का ऐश्वर्य भोग रहा है । तत्र क्या यह समझा जाय कि यदि वनों में भटकना हो, तो धर्म से ताल्लुक रखो और यदि उन्नति करना हो, तो छल-कपट, दम्म को अपनाओ । इसका बड़ा अच्छा उत्तर युधिष्ठिर ने दिया कि द्रौपदी ! तुमको यह किसने बहका दिया कि मैं फल की इच्छा से कर्म करता हूँ । यह सष्ट समझो कि मैं दान, यज्ञादि कर्म-फल की आकांक्षा से कभी नहीं करता । दान करना चाहिए, इसलिए दान करता हूँ-नाहं धर्मफलाकांक्षी राजपुत्रि चरामि भो । ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ।। यज्ञ करना चाहिए, इसलिए यज्ञ करता हूँ । इस उत्तर से स्पष्ट सिद्ध होता है कि भारत के महापुरुष कर्त्तव्य-निष्ठा से प्रेरित होकर ही कर्म किया करते थे । भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने भी कर्म करने की यही युक्ति अर्जुन को बताई है और इस प्रकार किया हुआ कर्म आत्मा को आवद्ध करनेवाला नहीं होता~यह लष्ट उपदेश किया है । सारांश यह है कि भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता पर अवलम्वित है और कर्म करने में कर्तव्य निष्ठा को इसमें मुख्य स्थान दिया गया है। यदि आध्यात्मिकता न रहे, तो समझ लेना होगा कि भारतीय संस्कृति का लोप हो चुका । अतः, भारतीय संस्कृति के रक्षकों को आध्यात्मिकता की ओर अवस्य ध्यान देना चाहिए। वर्त्तमान युग में जो एकमात्र पेट की चिन्ता ही संसार में सब कुछ बन गई है, वह भारतीय संस्कृति की सर्वथा विघातिनी है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल पेट भर लेना नहीं है । आत्मिक उन्नति ही मनुष्य-जीवन का मुख्य फल है । यही प्रवृत्ति जनता में फैलाने से संग्रह - शक्ति वाले ऊरु वा उदरस्थानीय वैश्य हैं और सेवा-शक्तिवाले पादस्थानीय शूद्र हैं। अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार ही शरीर में प्रकृति ने ऊच्चावच भाव से रखा है। प्रकृति का किसी के साथ पक्षपात नहीं । ज्ञान-शक्ति का ही यह प्रभाव है कि वह सबसे ऊँचे स्थ
ान में बैठती है। इसीलिए, प्रकृति ने शिर को सव अवयवों में ऊँचा स्थान दिया है । शिर सब अवयवों से सदा ऊँचा ही रहना चाहता है। यदि आप सब अंगों को एक सीध में लिटाना चाहें, तब भी एक तकिया लगाकर शिर को कुछ ऊँचा कर ही देना पड़ेगा । नहीं तो शरीर को चैन ही नहीं मिलेगा । यह ज्ञान शक्ति की ही महिमा है। इसी प्रकार प्रपंच में भी ज्ञान-शक्ति के कारण ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था द्वारा उच्च स्थान पाते हैं । अन्यान्य शक्तियाँ भी अपने-अपने प्रभावानुसार क्रम से सन्निविष्ट होती हैं। उसी के अनुसार तत्तत् शक्तिः प्रधान वर्णों का भी स्थान नियत किया गया है। इसमें राग-द्वेप की कोई भी बात नहीं है। शरीर के अवयवों में उच्च-नीच भाव का कभी झगड़ा नहीं होता, सदा सबका सहयोग रहता है। पैर यदि मार्ग में चलते हैं, तो उन्हें मार्ग बताने को आँख प्रस्तुत रहती है । यदि पैर ठोकर खाय, तो दोप आँख पर ही दिया जाता है। इसी प्रकार उदर में क्षुधा लगे, तो भोजन का सामान जुटाने को हाथ सदा प्रस्तुत रहते हैं और उदर मे भी कभी ऐसी प्रवृत्ति नहीं होती कि जो अन्न-पान मुझे मिल गया, वह मैं ही रखूँ और अवयवों के पालन में इसे क्यों लगाऊँ ? यदि कदाचिद् ऐसी प्रवृत्ति हो जाय, तो उदर भी रोगाक्रान्त होकर दुःखी होगा और अन्य अंग भी दुर्बल हो जायेंगे । आत्मा भी विकल हो जायगा । अतः, इससे सव अवयवों के परस्पर सहयोग से ही शरीर का और शरीर के अधिष्ठाता आत्मा का निर्वाह होता है। शरीर के अवयवों के अनुसार वर्ण व्यवस्था बतानेवाले शास्त्रों ने समाज को इसी प्रकार के सहयोग की आज्ञा दी है। अपनी-अपनी शक्ति लगाकर अपने अपने कार्यों द्वारा सत्र वर्ण समाज का हित करते रहें - इसीसे प्रपंच का अधिष्ठाता परमात्मा प्रसन्न रहता है । परस्पर राग-द्वेष का यहाँ कोई भी स्थान नहीं । कदाचित् यह प्रश्न हो कि जिन-जिन में उक्त प्रकार की शक्तियाँ देखी जायँ, उन्हें उन कार्यों में लगाया जाय, यह तो ठीक है, किन्तु केवल जन्मानुसार वर्ण व्यवस्था स्थिर रखना तो उचित नहीं हो सकता । ब्राह्मण वा क्षत्रिय के घर जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण वा क्षत्रिय क्यों हो जाय ? और अन्य वर्णों की अपेक्षा अपने को क्यों मानने लगे। इसका उत्तर है कि कारण के गुणों के अनुसार ही कार्य में गुण होते हैं यह भी विज्ञान-सिद्ध नियम है । काली मिट्टी से घड़ा बनाया जायगा, तो वह काला ही होगा । लाल धागों से कपड़ा बनाया जायगा, से तो लाल ही होगा। मीठे आम के बीज से जो वृक्ष बना है, उसके फल मीठे ही होंगे । इत्यादि प्रकृति-सिद्ध नियम सर्वत्र ही देखा जाता है । तब माता-पिता के रज-वीर्य में जैसी शक्तियाँ हैं, वे ही सन्तान में विकास पायेंगी । यदि कहीं इससे उल्टा देखा जाय, •तो समझना चाहिए कि आहार-विहार, रहन-सहन' आदि में कुछ व्यतिक्रम वा दोष हुआ है। उसका प्रतिकार करना चाहिए । विज्ञान- सिद्ध वर्ण व्यवस्था पर क्यों दोष दिया जाय । शिल्पियों में आज भी परीक्षा करके देखा जा सकता है कि एक बढ़ई का भाव पैदा कर दिया, और यही सब अवनति की जड़ हुई। किन्तु, विचार करने पर यह आक्षेप निर्मूल ही सिद्ध होता है। वर्ण व्यवस्था कभी परस्पर विरोध वा आपस की फूट नहीं सिखाती । वेद-मन्त्रों से स्मृति पुराणादि तक जहाँ कहीं वर्ण-व्यवस्था का वर्णन है, वहाँ सर्वत्र सब वर्णों को एक शरीर का अंग माना गया है । ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् वाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत । ।। ( पुरुपसूक्त ) अर्थात्, विराट् पुरुष का ब्राह्मण मुख था, अर्थात् विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ था। क्षत्रिय उसके बाहु थे, वैश्य कटि वा उदर थे और विराट पुरुष के पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए थे। इसी वेद-मन्त्र का अनुवाद सव स्मृति पुराणों में है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक वंश के शरीर में जैसे प्रकृति के द्वारा चार भाग बनाये गये हैं शिर, वक्षःस्थल, उदर और पाद, वैसे ही परमात्मा का जो ब्रह्माण्ड रूप विराट शरीर है, उसमें भी चार भाग हैं। हमारे शरीर के प्रथम भाग शिर में ज्ञानशक्ति है । ज्ञान की इन्द्रियाँ आँख, कान, नाक आदि शिर में ही हैं, और वर्त्तमान विज्ञान भी यही कहता है कि शिर में ही ज्ञान-तन्तु रहते हैं, उनके अभिज्वलन से ही ज्ञान पैदा हुआ करता है। विचार का कार्य अधिक करनेवालों को शिर में ही पीड़ा होती है । द्वितीय भाग वक्षःस्थल में बल की शक्ति है । बल की इन्द्रियाँ, जिनसे बल का काम होता है, हाथ इसी अंग में आते हैं। और बल का कार्य अधिक करनेवाले को छाती में ही पीड़ा होती है। शरीर के तीसरे उदर-भाग में संग्रह और पालन की शक्ति है । बाहर से सब वस्तुओं को उदर ही लेता है और उनका विभाग करके आवश्यकतानुसार सत्र अंगों में भेज देता है। उनके ही द्वारा सब अंगों का पालन होता है । अन्न-पानादि बाहर से पहले उदर में भी पहुँचाये जाते
हैं और वहीं से विभक्त होकर सच अंगों का पोषण करते हैं । यहाँ तक कि मस्तक में वा पैर में भी पीड़ा हो, तो औषधि उदर में ही डाली जाती है। वही से वह शिर आदि में पहुँचकर पीड़ा शान्त करती है। चौथे भाग पाद में सेवा-शक्ति है । यह उक्त तीनों अंगों को अपने-अपने कार्य में सहायता देता है। देखने की इच्छा आँख को होती है। उसी को उत्तम दृश्य देखने से सुख मिलता है। मधुर गान सुनने की इच्छा कान को होती है, किन्तु दृश्य देखने वा गान सुनने के स्थानों में आँख वा कान को पैर ही पहुँचाते हैं। बल का कार्य करने के लिए और उदर-पोषण की सामग्री के लिए भी नियत स्थानों पैर ही ले जायेंगे । इन्हीं चारों शक्तियों के परस्पर सहयोग से सव काम चलता है, और सव अंगों के अपने-अपने कार्य में व्याप्त रहने पर आत्मा प्रसन्न रहता है। जैसे, हमारा यह व्यष्टि शरीर है, उसी प्रकार परमात्मा का शरीर यह सम्पूर्ण प्रपंच है। इसमें भी समष्टि रूप से चारों शक्तियाँ भिन्न-भिन्न अवयवों में वर्त्तमान हैं, और परस्पर सहयोग से कार्य करती हैं। जहाँ प्रधान रूप से ज्ञान-शक्ति है, वे प्रपंच-रूप परमात्मा के शिरःस्थानीय ब्राह्मण हैं। जहाँ चल-शक्ति है, वे वक्षःस्थल-रूप क्षत्रिय हैं। जैसा कि भारत के ग्रामों में जाट, गूजर, मीना, अहीर आदि बहुत-सी जातियाँ मिलती हैं । वे उन आगत जातियों के रूपान्तर हैं -- यह सम्भव है, किन्तु यहाँ के वर्णों में वे आगत जातियाँ सम्मिलित हो गई हों, यह सम्भव नहीं । भारत को सदा से वर्णव्यवस्था का पूर्ण आग्रह रहा है और वह व्यवस्था प्राकृतिक वा विज्ञानानुमोदित है । शरीर संगठन की दृष्टि से वर्ण-व्यवस्था का महत्त्व दिखाया गया। अब समाज-संगठन की दृष्टि से विचार किया जायगा । विद्या, बल, द्रव्य आदि सत्र शक्तियों में दुर्बल किसी समाज की संगठन द्वारा उन्नति करने को उसके नेता प्रस्तुत हों, तो सबसे पहले उनका ध्यान शिल्प की उन्नति की ओर जायगा । सब प्रकार के शिल्पों की उन्नति के विना देश या समाज उन्नत हो ही नहीं सकता । प्रथम महायुद्ध के अवसर पर देखा गया कि भारत में वस्त्रों की कमी जो हुई, सो तो हुई, किन्तु वस्त्रों को सीने के लिए सूई की भी कमी हो गई । सूई भी हमें दूसरे देशों से लेनी पड़ती थी । भला, ऐसा समाज सभ्यता की श्रेणी में आकर उन्नति की ओर कैसे पैर बढ़ा सकता है। अतएव, उसके अनन्तर हमारे नेताओं की दृष्टि शिल्प की उन्नति की ओर गई और उनके उद्योग और ईश्वर कृपा से आज भारत शिल्प में बहुत कुछ उन्नत हो गया है । अस्तु; प्राचीन भारत में भी इस बात पर पूरा ध्यान दिया गया था, और वर्ण व्यवस्था में प्रचुर संख्या में रहनेवाली शूद्र जाति के हाथ में शिल्प-चल दिया गया था । शिल्पैर्वा विविधैर्जीवेत् द्विजातिहितमाचरन् । ( याज्ञवल्क्य स्मृति) शूद्रों में भी भिन्न-भिन्न शिल्पों के लिए भिन्न जातियों का विभाग कर दिया गया था । किसी जाति को वस्त्र बनाने का व्यवसाय, किसी को सीने का, किसी को लकड़ी का, किसी को लोहे का, किसी जाति को सोने का, इस प्रकार से भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न शिल्प बाँट दिये गये थे, जो आज भी चले आ रहे हैं। यह शिल्पबल शूद्र-बल है । शूद्रों के बुद्धि विकास से शिल्पों की उन्नति यहाँ पूर्ण मात्रा में हुई । ढाके की मलमल की बरावरी आज तक भी पाश्चात्य जगत् न कर सका । प्राचीन भारत के नेता ऋषि-महपियों का यह भी ध्यान था कि सब प्रकार के बलों की उन्नति समाज में की जाय, किन्तु उन बलों के दुरुपयोग से समाज को क्लेश न हो, इसका भी ध्यान रखा जाय । इसलिए, उन्होंने अपनी व्यवस्था में एक वल का नियन्त्रण दूसरे बल के द्वारा किया । नियन्त्रण निग्रह और अनुग्रह दोनों से होता है । हितैषिता भी हो और साथ ही दुरुपयोग से बचाया जाय, तभी ठीक नियंत्रण हो सकता है। इस दृष्टि से शूद्र बल का नियन्त्रण व्यापार-बल के द्वारा किया गया । वह व्यापार-वल वैश्य-वल है । और वर्ण-व्यवस्था में शूद्रों से ऊपर वैश्यों का स्थान है । शिल्पी को अपने शिल्प के अधिकाधिक प्रसार की इच्छा रहती है और वह प्रसार व्यापार-बल के द्वारा ही हो सकता है । एक ग्राम, नगर और देश के शिल्प को सैकड़ों-हजारों कोसों तक प्रचारित कर देना व्यापार-वल का ही काम है। इसलिए व्यापार-वल शिल्प-चल की सहायता भी करता है और आलस्यादि दुरुपयोग से उसे बचाता भी है । प्रसार की लालसा से शिल्पियों को
यह नहीं है कि ख्वाब सिर्फ निद्रावस्था में ही दिखाई देते हों, अपितु जाग्रतावस्था में भी उतनी ही सरलता से ख्वाब देखे जा सकते हैं । फर्क सिर्फ इतना होता है कि जाग्रतावस्था में हम अपनी इच्छानुसार ख्वाब देख सकते हैं जबकि निद्रावस्था में देखे जाने वाले ख्वाबों पर हमारा या हमारे मन का कोई नियंत्रण नहीं होता है । अंगूठी - विवाहित मनुष्य द्वारा ख्वाब में सोने की अंगूठी देखना द्रष्टा के व्यापार में उन्नति और सफलता का सूचक है । विवाहित स्त्री यही ख्वाब देखे तो उसे पुत्र पैदा होगा । यदि कोई कुंवारा यह देखे तो उसका विवाह मनचाही स्त्री से होगा । अण्डे - ख्वाब में अण्डे देखना या अण्डे खाना बहुत शुभ होता है । टूटे हुए अण्डे देखना झगड़े और मुकदमेबाजी की सूचना देता है । मुर्गी के अण्डों का ढेर देखना व्यापार में वृद्धि और लाभ का सूचक है । अर्थी - यदि ख्वाब में अर्थी देखे तो वह विवाह अथवा किसी समारोह में शामिल होगा । यदि वह अर्थी ले जाने वालों के साथ सम्मिलित हो तो उसे किसी बारात का निमंत्रण मिलेगा । अप्सरा - यदि कोई पुरुष ख्वाब में अप्सरा देखे तो उसे समस्त प्रकार का सुख और प्रसन्नताओं की प्राप्ति होगी । यदि कोई स्त्री यही ख्वाब देखे तो अच्छा शगुन है । कुंवारी कन्या यही ख्वाब देखे तो उसका शीघ्र ही विवाह होगा । आग के शोले देखना - जो व्यक्ति जलती हुई आग के शोले देखे उसे बहुत खुश होना चाहिए, अगर ख्वाब में आग का देखने वाला कुंवारा है तो जीवन साथी मन पसन्द मिलेगा, यदि सूखा पड़ा हो तो बरसात बहुत होने का संकेत है । आसमान देखना - ख्वाब में आसमान देखना बहुत अच्छा है । ऊँची पदवी प्राप्त हो, समाज में ऊँचा स्थान मिले, भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न हो, अगर आसमान पर स्वयं को उड़ता हुआ देखे तो यात्रा को अवसर मिले और जिस उद्देश्य से यात्रा हो उसमें पूर्ण सफलता मिले । आग जलाकर भोजन बनाना - यदि कोई चूल्हे या भट्टी की जलती आग में खाने का कोई सामान बनाते हुए देखे तो उसे बहुत प्रसन्न होना चाहिए । यदि वह व्यापारी है तो बहुत लाभ हो । नौकर है तो वेतन बढ़ जाए, अकारण खर्च न बढ़ेंगे और हर प्रकार का सन्तोष प्राप्त होगा । यदि आग जलाते हुये खवाब में कपड़ा जल जाए तो कई प्रकार के दुःख मिले, आंखों को किसी प्रकार की पीडा या रोग हो । अखरोट देखना - खूब बढ़िया भरपूर भोजन पाए । धन में लाभ और संतोष मिले । इमारत देखना - धनाढ्य बन जाए, नगर सेठों में नाम आए. इज्जत और सम्मान मिले । इकरार करते देखना - किसी को झूठी दिलासा न दे । सत्य वचन कहे तो खुशी हो । इश्तेहार पढ़ना - कुछ खो जाये, झूठे व्यापारी से हानि हो, कष्ट मिले । इम्तेहान पास करना - काम पूरा होगा, प्रेमिका मिले, यश और धन का लाभ । इत्र (इतर) लगाना - अच्छे कर्मों का पुण्य हो, मनचाही स्त्री से निकटता मिले, संसार में इज्जत मिले, ख्याति पाये । उल्लू देखना - किसी की मृत्यु का समाचार मिले, तबाही आए, सूखा पड़े या बाढ़ या भूचाल आये, दुःख का संकेत है यही हाल उजड़ा गाँव या खेत देखने पर होगा । उबकाई लेना - बुरे कामों से घृणा हो । लोगों को सीधा मार्ग बताये । उस्तरा देखना - चिन्ता मुक्त हो, जेब कट जाए, बीमारी दूर हो । ऊबड़-खाबड़ रास्ता देखना - परेशानी उठाए लेकिन अन्त में सफलता पाये । ऊँचे वृक्ष देखना - उद्देश्य पूर्ति में देर लगेगी, इज्जत और मान प्राप्त हो । ऊन देखना - ऊन वाली भेड़ या ऊनी कपड़े या ऊन का ढेर देखे तो धन का लाभ हो, चिन्तायें मिटे, कई प्रकार का सुख भोगने को मिले । ऊँचे पहाड़ देखना - कठिनाई के बाद राहत पायेगा, कोई बड़ा कार्य करें । कब (लम्बा ढीला कुर्ता ) पहनना - विवाह हो जाए, खुशहाली हो । इज्जत और स्नेह प्राप्त हो । दुश्मन मित्र बन जायें, शुभ समाचार मिले। कत्ल करना (स्वयं को) - अच्छा सपना है, लेकिन बुरे कामों से बचें और धर्म कर्म की ओर ध्यान दें, बुरों की संगति से बचना आवश्यक है । कब्र खोदना - नव निर्माण करे, मकान बनाए, धन पाए, खुशहाल बने । कदम देखना - शान शौकत बढ़े । धन और विश्वास का पात्र मिले । स्त्री देखे तो पुत्र प्राप्त हो, दुःखी देखे तो दुःख मुक्त हो । मालदार देखे तो कोई सुन्दर स्त्री हाथ थामे जिसके साथ आनन्द मिले । बीमार देखे तो स्वस्थ हो जाए । कैंची देखना - प्रेमीजी, पत्नी या मित्र से आदवत हो, दुःख पहुंचे । काफिला देखना - यदि खुशहाल लोगों को आते देखे तो तबाही आए, जाते देखे तो मनोकामना सिद्ध होगी । यात्रा करनी पड़े और कष्ट के बाद राहत पाए । किला देखना - खुशी प्राप्त होगी । दुश्मन से सुरक्षित रहे, शान्ति और सुख का संदेह है । कहीं से शुभ संदेश मिले जिससे खुशी बढ़ जाए । कफन देखना - चिरायु हो । हर प्रकार की बीमारी से स्वास्थ्य लाभ होगा । कोई सगा सम्बन्धी बीमार हो तो अच्छा हो जाए । काबा शरीफ का दीदार करना - बहुत बड़ा ओहदा मिले या धन का
लाभ हो । अच्छे कार्य करके नामवर हो जाए । हर प्रकार का सुख मिले । कमंद देखना - बड़ा काम पड़े किन्तु सहयोगी मिले । सफलता और ऊँचा स्थान प्राप्त होगा । किसी प्रकार का सुख मिले । शुभ समाचार आए । कमल देखना - साधुसन्तों से ज्ञान की प्राप्ति हो । विद्या धन मिले । उत्तीर्ण हो, पत्नी सुन्दर मिले । प्रेमिका सुन्दर और बुद्धिमान मिले । कोयल देखना - प्रेम जाल में फंसकर दुःख पाय, लेकिन प्रेयसी से मिलन हो और सुख पाये । मुसीबत आए पर तुरन्त दूर हो जाए । धन मिले पर शीघ्र ही खर्च हो जाए । काला कुत्ता देखना - कार्य में सफलता होगी । बिगड़े काम बनेंगे । दुश्मन अपने आप दोस्त बन जायेंगे । कूड़े करकट का ढेर देखना - धन मिलेगा लेकिन बहुत कठिनाई के बाद, अभी तो बहुत दिन दुःख भोगने है । काले कपड़े पहिनना - नगर का कोई बड़ा आदमी संसार से विदा होगा, देखने वाले को राहत मिलेगी । खून पीना - हराम का माल खाए, बुराई करे किसी की हत्या करे और फिर पापों का प्रायश्चित करे बुरे काम को छोड़ दे । खाक (धूल-मिट्टी) की बारिश देखना - मुसीबतें टल जायें, धन मिले । दुश्मनी समाप्त हो जाए दुश्मन दोस्त बन जाये । खाना परोसना - सुख शांति का आगमन हो, शादी हो । पत्नी सुशील मिले । खिलौने देखना - सन्तान का जन्म हो, आँखों का सुख मिले । पत्नी राजी हो । खच्चर का दूध पीना - हर समय चिन्ता में उलझा रहे । कोई काम बनाये न बने । लज्जित और तुच्छ बना रहे । खजूर देखना - विद्या मिले, अच्छे कामों से मन को खुशी मिले । दीन का ज्ञान प्राप्त हो । खजूर की गुठली देखे तो रंज हो, यात्रा करनी पड़े । खजूर बटोरते देखे तो अच्छी बातें सुने, अच्छे काम करे । खजूर चीरकर गुठली निकालें तो मनोकामना पूर्ण हो, पुत्र प्राप्त हो । खूबानी देखना - बीमारी या दुःख सामने आए, किन्तु शीघ्र ही राहत हो । खसखस देखना - खसखस पोस्त के बीज को कहते हैं, देखे तो हलाल रोजी पाए, नेकी के काम करे और लोगों में सम्मान पाए, खुदा के सामने अच्छे बने । खेमा देखना - बादशाह अर्थात् सरकारी अधिकारियों, मंत्रियों की निकटता प्राप्त हो, प्रेमिका कुंवारी से काम सुख मिले, जायदाद खरीदे या पाये, काफी ख्याति अर्जित करे । खाल देखना - खाल हलाल जानवर की है जो रोजी खूब मिले, मुरदार हो तो दुःख और गुनाहों में फंसे, हिरण की खाल हो तो काम करे और बहुत नाम पाए, खाल शेर की हो तो शत्रु से विजय पाये । खाट देखना - मनहूस हैं, देखने वाले को खुदा को याद करना चाहिए यदि खाट पर बिछौना देखे तो शादी हो, आराम मिले, काम खराब मिले, इतना कि हरदम उसी में खोया रहे और सब कुछ बन जाए । बीमार पड़े । खेत देखना - विद्या और धन का लाभ हो, खुशहाली हो, घर भूरा पूरा रहे । खलिहान देखना - जो इरादा है वह पूरा हो जाये, कोई काम अटकेगा सम्मान मिले जमीन जायदाद से लाभ होगा मालिक या अधिकारी से दोस्ती जो खुशी का संकेत है । खुले किवाड़ देखना - हर काम जो करेगा उसमें सफलता, हर यात्रा सफल हर दुश्मन परास्त कोई चिन्ता न रहे बिगड़ी बन जायेगी खुशहाली आयेगी । आशा के विपरीत धन मिले, विपत्तियां दूर हो शोहरत और इज्जत मिले, व्यापार में लाभ हो, सरकारी दरबार में जाने का अवसर मिले । गधा देखना - प्रेम और स्नेह का चिन्ह है यदि लदा हुआ पाये तो बहुत लाभ हो हर तरह का सुख मिले । व्यापार में लाभ हो । गधे की सवारी करना - सरकारी दरबार में स्थान मिले, व्यापार में लाभ हो संकट टल जाये, कोई शुभ समाचार मिले । गुलाब देखना - ऊंचा स्थान मिले जनता में लोकप्रियता, व्यापार करे तो बहुत लाभ हो । शुभ समाचार मिले । दोस्तों से स्नेह और दुश्मनों से सन्धि पड़े, प्रेमिका से मिलन हो । गोश्त (कच्चा ) खाना - भाई से दुःख मिले, हराम का माल हाथ आए और वही दुःखों का कारण बने । गालियां देते देखना - देते हुये या सुनते हुये देखे तो बुरी बातों से बचे, बुरा काम करे और बदनामी पाये । गली देखना - यदि सुनसान है तो लाभ होगा । लोगों से भरी है तो मुहल्ले में किसी की मृत्यु हो, खुशहाली कठिनाई से जाएगी । गोबर देखना - कुबेर का धन मिले । खेती में अन्न उपजे, दूध घी की कमी न हो । शुभ समाचार आये । घोडा (काले रंग का) देखना - बड़ा स्थान पाएगा, नामबर होगा. सब जगह सम्मान होगा । घोड़ी देखना - कुंवारा हो तो शादी की तैयारी करे पत्नी सुन्दर मिलेगी । घी देखना - धन दौलत मिलेगी, तंगी नहीं रहेगी । घास देखना - लाभ ही लाभ होगा । खुशहाली आयेगी, कोई शुभ समाचार मिलें । घर (लोहे का ) देखना - बहुत शक्ति, धन, यश, सन्तान, पत्नी, प्रेमिका मित्र, सम्बन्धी हर प्रकार का सुख प्राप्त होगा । चाँद देखना - बादशाह (प्रधान या प्रधानमंत्री) बन जाये, पत्नी सुन्दर और सुघड़ मिले, कुबेर का धन प्राप्त हो । चाँदी गलाते हुए देखना - अपने ही लोगों से बैर हो, चिन्ताओं के संकट में घिर जाए और कई प्रकार का दुःख पाये । चादर द
ेखना - पत्नी वफादार और सुशील मिले । कोई बुरा करने की भूल हो जाय जिसके परिणामस्वरूप लज्जित होना पड़े । चक्की देखना - जनता में सम्मान पाए, लोगों को अच्छी सलाह दे, यात्रा सामने आए, सकुशल वापसी हो । चींटियां देखना - वह घर उजड़ जाए । रहने वाले कम हो जायें, दुःख हो संकट आए । जाम देखना - हर काम में सफलता होगी, बुद्धि बढ़ेगी और कई प्रकार की ऐसी विशेषताएं प्राप्त होगी जिनसे मनुष्य लोकप्रिय होता है । जेल देखना - जग हँसाई हो, बदनामी के काम करे, जेल से बाहर आता देखे तो उद्देश्य सफल होगा । जहाज देखना - क्रोध और अदावत से मुक्ति मिले, माल का व्यय बहुत हो किन्तु मन का संतोष रहे किसी प्रकार की चिन्ता हो वह दूर हो जाये । जल्लाद देखना - कोई बुरा काम करे, दुःख पाये, दुश्मन का भय रहे किन्तु आयु बढ़ेगी । जंग देखना - किसी पर लांछन न लगाये । पीठ पीछे बुराई न करे अन्यथा बड़ी मुसीबत खड़ी हो जायेगी और सपना देखने वाला ही नहीं सारा परिवार परेशान हो सकता है । जंगल देखना - कोई कष्ट चल रहा है वो शीघ्र दूर होगा, आराम और खुशी का सन्देश है । यदि जंगल में सूखे पेड़ है तो दुःख बीमारी का संकेत भी है । जालिम को देखना - बुरे काम में फंस जाए, दुःखों का सामना करना । बहुत दुःख पाये, दान करे, शुभ कार्य में मन लगाए । झाडू देखना - ख्वाब मनहूस है, परेशानी हो तंगी जाए, दान देना चाहिए । जलसा देखना - अगर जलसे में लोगों को प्रसन्न देखे तो सुख पाये यदि दुःखी देखे तो अपने किसी निकटवर्ती के विषय में अशुभ समाचार सुने । जंजीर हाथ में लेना - गुनाहों में फंस जाए, पकड़ा जाए या मुकदमा चले. सवारी होगी, दुःख झेलना होगा । किसी से प्रेम में कष्ट उठाए । जिन्दा व्यक्ति को मृत देखना - जिसे देखे उसकी आयु बढ़े, परेशानी दूर हो । खोये हुये के मिलने का समाचार मिले । किसी प्रकार का भी शुभ समाचार मिल सकता है । जहर खाना - लोगों में अकारण बुरा बनना होगा । बदनाम होना पड़ेगा. गलत कामों से बचें । अच्छे लोगों की संगति में बैठे । ठण्ड से ठिठुरना - अगर देखने वाला बहुत दिनों से दुःखी है तो उसे हर तरह का सुख शीघ्र ही मिलने वाला है । ठोकर मारना - बड़ा स्थान मिले । शत्रु पर विजय पाए । सुन्दर स्त्री मिले या फिर सन्तान की प्राप्ति हो । धन दौलत का सुख भी मिल सकता है । डोली सजाते देखना - मनोकामना पूरी हो । कोई ऊँचा स्थान मिले । विवाह हो या नेता चुना जाए । डिबिया देखना - मन की बात खुल जाने के कारण शर्मिन्दा होना पड़े कोई ऐसी बात हो जाए जिससे अकारण की उलझन हो । डाकिया देखना - शुभ सूचना आए, चिरायू हो, किसी बिछुड़े यार का पत्र कुशलता का आए । डलिया देखना - मनोकामना पूरी होगी, किसी ऐसे साधन से लाभ होगा जिसके विषय में कभी सोचा तक नहीं होगा । डाकू देखना - दुश्मन से डर है, कोशिश करो कि मामला बातचीत से तय हो जाए, कोई ऐसा मित्र भी दुश्मन हो सकता है, जिस पर बहुत भरोसा हो । बेटी बहिन जवान है तो शीघ्र विवाह का प्रयास करना चाहिए, अपनी पत्नी पर नजर रखना आवश्यक है । ढाक का वृक्ष देखना - किसी साधु, सन्त, पीर, फकीर की संगत मिले, भोजन भरपूर मिले, मनोकामना सिद्ध होने का संकेत है । ढलता हुआ सूरज देखना - परेशानी और धन के विघटन की निशानी है, सूर्य अस्त होता देखे तो किसी की मौत का समाचार मिले । ताबूत देखना - अपना ताबूत, अर्थी या जनाजा देखने का फल यह है कि जिस काम को कर रहे है, उसमें पूर्ण सफलता, जिस दुश्मन से दुश्मनी चल रही है उस पर विजय होगी । तोशक (गद्दा ) देखना - विवाह हो । पत्नी कुंवारी से प्रेम और कामसुख । तुर्श (खट्टा मेदा) खाना - रंज और दुःख का सामना हो । चिन्ताएं घेरे रहे । परेशानी सामने आए । दान के शुभ कार्य करे तो कठिनाई दूर हो । तिलिस्म देखना - चिरायु हो, बड़े लोगों की संगति हो, दुश्मन नीचा देखें । कोई शुभ समाचार आए । थूकना किसी पर - जिस पर थूकेगा उस पर दुःख पहुंचे । यदि दुश्मन पर थूके तो दुश्मन परास्त हो, थूक जिस पर गिरे वह मर जाए या फिर अपमानित हो । दाँत (अपना) उखाड़ना - माल जमा हो, लोगों के साथ निर्दयता का व्यवहार करे । सावधान रहना चाहिए । कांटेदार दरख्त देखना - बीमारी और दुःख पाए परेशानियां भोगे, व्यापार शुरू करने का इरादा हो तो न करे घाटा होगा । दाँत कुरेदना - अपनों से दुश्मनी हो या कोई ऐसा काम करे जिसमें उसे अपनों बेगानों के सामने लज्जित होना पड़े । दाढ़ी देखना - हर तरफ इज्जत हो । समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त हो । लोग बात को मानें और पसन्द करे । दाढ़ी जितनी घनी देखेंगे उतनी ही इज्जत बढेगी । दुशाला देखना - किसी बड़े आदमी की बातों से खुशी हो, विद्या की प्राप्ति हो । विद्यार्थी देखे तो परीक्षा में उत्तीर्ण हो । दवाई पीना - बुरे काम त्याग दे और सीधा रास्ता अपनाए । पापों का प्रायश्चित करे अच्छा आदमी बन जाए । दरिया (नदी) देखना -
नेता या बड़े अधिकारी से दोस्ती का लाभ हो । धन बहुत हाथ आए, जिस व्यापार में हाथ लगाए घाटा न हो तो इरादा करे पूरा हो जाए, खुशी का समाचार मिले डूबता देखे तो हानि हो तैरना देखे तो सफलता पाए । दौलत देखना - पत्नी गर्भवती हो, किसी स्त्री से लाभ हो, सन्तान की प्राप्ति हो, व्यापार में लाभ हो, खुशी ही खुशी है । दलदल देखना - परेशानी हर प्रकार के होने का संकेत है । चिन्तायें घेरे रहेगी । देगची देखना - पवित्र स्त्री से निकटता पाए, धन मिले, शुभ समाचार मिले चूल्हा भी साथ में देखे तो बढ़िया घर बनवाए खाने की कभी तंगी न हो । धुआँ देखना - दुःख कष्ट, यातनायें मिले, शहर में दंगा फसाद हो, देश में युद्ध हो, मित्रों से बुराई हो, दान करे और शुभ कार्यों तथा अच्छी संगत में समय लगाएं । धोबी देखना - काम सफल होगा, बुरी आदतों का मैल जीवन से धुल जाएगा, चिंता की बात नहीं । धार्मिक ग्रन्थ देखना - विद्वान बने, इज्जत पाए, दीन दुखियों में भलाई हो, किसी प्रकार का दुःख न रहे । खुशहाल रहे । नाव देखना - कुंवारी से काम सुख प्राप्त हो । यदि स्त्री देखे तो पुरुष मनपसंद मिले और लाभ उठाए । हर प्रकार का सुख मिले । नान देखना - मित्रों से मिलन हो । धन और आराम का संकेत है चिरायु हो, बिगड़े काम बन जायेंगे । नशे में (स्वयं को) देखना - अमीरी और ऐश का संकेत है, इतना धन मिले कि अपने कर्त्तव्य को भूल जाए जैसे नशे में मनुष्य को कुछ याद नहीं रहता है । नमाज पढ़ते देखना - हर प्रकार के सांसारिक कष्टों से बचाव होगा. व्यापार में वृद्धि और दोस्तों की संख्या बढ़ेगी । दुश्मन घटेंगे, कोई कष्ट नहीं होगा । जीवन में खुशहाली आने का संकेत है । नदी / नाले में गिरते देखना - कई प्रकार के संकट घेर लें लेकिन अन्त में दुःख दूर हो और खुशहाली आए । दान देकर संकट दूर करें । नथनी देखना - पत्नी कुंवारी मिले । काम सुख मिले । वेश्यागमन न करे अन्यथा बदनाम होकर अपमानित होगा । नीम का पेड़ देखना - रोग कटेगा, प्रतिदिन सेवन करें, पुत्र शक्तिशाली पत्नी निरोग मिले । नीलम ( रत्न ) देखना - मनोकामना पूर्ण होगी । दुश्मन परास्त होंगे, प्रेमिका से मिलन होगा । पाँव देखना - जिसे देखे उसकी आयु बढ़े, परेशानी दूर हो । खोये हुए के मिलने का समाचार मिले । पालदार नौका देखना - शत्रु पर विजय प्राप्त हो । तीर कमान और अन्य हथियारों के विषय में भी यही फल विचारने वालों ने बताया है । पासा फेंकते देखना - मुकद्दर से संघर्ष हो रहा है, अभी थोड़ा समय है सफलता में । पंजा कटा देखना - कष्ट और दुःखों का संकेत है, किसी प्रकार की हानि का सामना करना पड़ सकता है । सावधान रहना चाहिए । पिस्तान (औरत की छाती) देखना - पत्नी मिले, सन्तान की प्राप्ति हो, हर प्रकार का सुख मिलने का संकेत है । पलंग देखना - दुनिया में झूठा बनकर अपमानित होगा, लोग विश्वास नहीं करेंगे, अत्यन्त नीच समझा जाएगा, सावधान रहे । फूल देखना - सपने में सफेद तथा रंगीन फूल दिखाई दे तो पुत्र की प्राप्ति हो, धन का लाभ हो, चैन राहत मिले । फूल काले हो तो दुःख मिले । फूल के पास कंटीली झाड़ियां देखे तो मुसीबतों के बाद राहत मिले । फावड़ा देखना - कठिन परिश्रम के पश्चात् ही सुख मिलेगा । मेहनत की कमाई खायेगा और हर प्रकार की शान्ति रहेगी किन्तु धन की कमी रहेगी । फटे हुए कपड़े देखना - चिन्ताओं में घिर जाना पड़े । दुःख मिले, धन की हानि । यही हाल फटे पुराने जूते देखने का है । दान करें ईश्वर की उपासना करें । फकीर देखना - दुनिया और दीन में भलाई होगी । मनोकामना पूरी होगी । साधु सन्तों की संगति मिलेगी, जीवन सफल हो जाएगा । फर्श (बिछा हुआ) देखना - किसी की शादी या मृत्यु का समाचार मिले । सरकार दरबार में सम्मान पाए । बालू रेत देखना - अधिक देखे तो कम धन का लाभ, कम देखे तो अधिक धन का लाभ होता है । बालू को छानते देखे तो परेशानी हो लेकिन दुश्मन से मुक्ति माल का व्यय, अकारण राज्य पर संकट । बिच्छू देखना - दुश्मनों से कष्ट मिले, हानि पहुंचे, सावधान रहना आवश्यक है । बर्फ खाते देखना - दिल की खुशी हो, किसी तरह की चिन्ता हो तो दूर हो जाए, खुशी और समृद्धि मिले । बादाम देखना - धन, व्यापार और काम में उन्नति नौकरी में ऊँची पदवी मिले, हर तरह का सुख मिले, स्त्री चैन पाये । बरसात देखना - यदि तमाम बस्ती पर पानी बरसता देखे तो खुशहाली और सुख है । केवल अपने घर में देखे तो तबाही और दुःख होगा । बरसाती या छतरी लगाकर के चलता देखे तो दुःख दूर होंगे, सुख मिलेगा । बांसुरी देखना - मृत्यु निकट है या फिर बहुत दुःखदायी बीमारी का सामना करना होगा । दान दे शुभ कार्य करे । बाजू देखना - यदि कोई खुवाब देखे कि उसकी अपनी बांह कट गई है अपने भाई या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी की मृत्यु का समाचार है । भोजन की थाली देखना - ऐश और आराम का संकेत है, लेकिन कठिन मेहनत क
े पश्चात् । भिखारी देखना - कोई अच्छा कार्य करे, राहत होगी । भैंस देखना - धन भोजन की प्राप्ति । मिठाई खाना - सुख पाए, दोस्ती बढ़े, प्रेम और स्नेह पाए, प्रेमिका से मिलन हो पत्नी मन पसन्द पाए, बिगड़े काम बन जायेंगे । मछली देखना - एक या दो देखे तो सुन्दर हसीना से विवाह हो, बड़ी हो तो खूब धन पाए और छोटी हो तो गरीबी और तंगी का सामना करना पड़े । मुर्दा शरीर से आवाज सुनना - उस उद्देश्य की प्राप्ति होगी । जिसको पाने के बाद भी निराशा ही हाथ लगेगी, लाभ नहीं होगा, होगा तो काम न आएगा । मुर्दा उठाकर ले जाते हुए देखना - हराम का माल हाथ आए जिसका लाभ दूसरे उठायें । राहत नहीं मिलेगी । ऐसे माल के न मिलने की दुआ मांगे जो मुसीबतों में उलझा दे । मुर्दे को जिन्दा देखना - यदि वह वृद्ध हो तो ज्ञान प्राप्त करे, अच्छा काम करे । यदि वह सुन्दर और जवान है तो खुशहाली पाए । चिन्तायें समाप्त हों । मस्जिद देखना - यदि बनाते देखे तो मनोकामना पूरी हो, केवल देखे तो भी राहत हो । कहीं से शुभ समाचार होगा । मीट देखना - ज्ञान की वृद्धि, मनोकामना पूरी होगी जो इरादा है वह शीघ्र पूरा होगा । मिर्च खाना - लड़ाई हो लेकिन सुलह हो जाए, परीक्षा में उत्तीर्ण हो किसी की बात सहन न हो । मलाई खाना - धन का लाभ हो, बिना मेहनत दौलत मिले प्रेमिका से मिलन की आशा के विपरीत हो । खोया हुआ माल मिल जाये, जीवन में शान्ति और आराम मिले । मुरझाए फूल देखना - दुःख होगा, अशांति बढ़ेगी सन्तान की हानि । मोमबत्ती देखना - विद्वान बने खुशी पाये, पुत्र पाये, पत्नी सुन्दर से विवाह होगा । मुर्ग-मुसल्लम खाना - बहुत जल्दी उन्नति कारोबार की हो । धन का लाभ हो ख्याति पाये । मल-मूत्र देखना - लज्जा के काम करे । माहवारी के कपड़े, वीर्य के धब्बे देखे, तो भी ऐसा ही हो । जग हँसाई हो, पाप कमाये, दान दे, सज्जन पुरुषों की संगति करे तो काफी लाभ होगा । रेलगाड़ी देखना - यात्रा हो, कष्ट हो लेकिन अन्त में राहत मिले, कोई शुभ सन्देश मिलेगा, सावधानी की आवश्यकता है । रेलवे स्टेशन देखना - यात्रा होगी, लाभ होगा, सकुशल लौटना होगा, खुशी मिलेगी । रेडियो देखना - कोई लाभ न कोई हानि केवल समय का ध्यान आपको नहीं है इस मारे प्रगति नहीं कर रहे । रद्दी का ढेर देखना - धन काठ कबाड़ से प्राप्त हो, रोकड़ हाथ आये, व्यापार पुराने माल का शुभ है । लिबास मैला देखना - रंज परेशानी और बदहाली का संकेत है । ऐसे काम हो जिनसे लज्जित होना पड़े । लिबास साफ सफेद हो तो सुख हो । पीला छोड़कर किसी रंग का लिबास दरबार में पहुंचे हो । केवल पीले वस्त्र देखने पर तबाही, बरबादी और दुःख की सम्भावना है । लिंग (बड़ा) देखना - सन्तान खूब हो । स्त्री सुख प्राप्त हो । काम वासना बढ़ी रहे । शक्ति प्राप्त हो और वासना के नशे में चूर रहे । लिंग और योनी एक साथ देखने का फल यह है कि चिन्तायें घेर लें । यदि किसी से सम्बन्ध हो तो उससे राहत पाये । लगाम देखना - ईमानदारी और अच्छे काम करके लोकप्रिय हो जाएगा । लुहार देखना - कड़ी मेहनत करनी होगी तब अपार सुख मिलेगा शक्ति बढ़ेगी, शत्रु नीचा देखेंगे, तेज और ख्याति बढ़ेगी । लोमड़ी देखना - मक्कार निकटवर्ती लोगों से हानि हो, पत्नी मनपसन्द न मिले । लंगूर देखना - मुसीबतों का अन्त होने का समय आ गया है यदि लंगूर पेड़ पर है तो देर लगेगी, धरती पर है तो शीघ्र सारी उलझनों का अन्त होगा । कहीं से आशा के विपरीत शुभ समाचार मिलेगा । लंगोटी देखना - आर्थिक कठिनाइयों का सामना रहे, परदेश जाना पडे तो भलाई की आशा है । वसीयत करना - समय कम है जितने नेक काम कर सकता हो कर ले । दान और खुदा से दुआ मांगे कि अन्त अच्छा हो । वकील देखना - कोई सहायक और मित्र बने जो उसे कठिनाइयों से निकाले मुकदमा चल जाए लेकिन विजय उसी की है । शराब देखना - हराम की कमाई से माल मिले, इज्जत खराब हो या दुश्मनी लडाई से कष्ट उठाने का संकट है । शरबत देखना - चिरायु हो, बीमार हो तो अच्छा हो जाए, परेशानी दूर हो, मित्रों से प्यार बढें रंज दूर हो । शतरंज देखना - वाहियात और व्यर्थ के कामों में समय बरबाद न करे यदि किसी से लड़ाई हो तो विजय पाये । सिलबट्टा देखना - सास ननद में कलह हो दुःख पाये अशांत रहे । सांप देखना - यदि सांप को मार दिया है या पकड़ लिया देखा है तो दुश्मन पर विजय मिले । आशा के विपरीत धन मिले । यदि साप से डर गया है तो दुश्मन से खतरा है, कोई मित्र ही शत्रु का रूप धारण कर सकता है । सांप को घर में देखे तो पत्नी से बेवफाई का डर है । सर्कस देखना - बहुत कठिनाई से दुनिया को खुश कर सकते हैं । सारंगी देखना - वेश्यागमन में समय, धन नष्ट करे । सीमा पार करना - विदेशी व्यापार से लाभ । सूअर देखना - बदमाशों और कमीनों का मुखिया बने, बेशर्म और कुकर्मी बनकर बदनाम हो । सुअर देखने वाला सावधान होकर ईश्वर की उपासना करे ।
सूर्य देखना - तेज बढ़े, ख्याति और धन की समृद्धि बढ़े, यशस्वी पुत्र प्राप्त हो । पत्नी का सुख मिले । सुलगती हुई आग देखना - दुःख बीमारी, दुश्मन से चिन्ता, शोक समाचार मिले । स्त्री की छाती से दूध टपकना - काम सुख मिले, पुत्र का जन्म हो, ससुराल से माल मिले । सीपी देखना - पानी में देखें तो हानि रेत पर पाये तो लाभ होगा । स्याही देखना - अपने कुल का मुखिया बने । टोले मुहल्ले के लोगों का अगुवा बने । सरकार में सम्मान प्राप्त हो । सायरन सुनना - भय से चिन्ता हो, शत्रु शक्तिशाली हो, लेकिन शीघ्र ही चिन्ता मुक्त हो । संदूक देखना - पत्नी या बांदी ऐसी मिले जिससे खूब सेवा मिले, दिल को चैन हो. खुशी का समाचार मिले आशा के विपरीत धन मिले ।
मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन हुई, उसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए। मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन ...Read Moreउसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए। कैदखाने से छूटने के बाद मियाँ आजाद को रिसाले में एक ओहदा मिल गया। मगर अब मुश्किल यह पड़ी कि आजाद के पास रुपए न थे। दस हजार रुपए के बगैर तैयारी मुश्किल। अजनबी आदमी, पराया मुल्क, इतने रुपयों ...Read Moreइंतजाम करना आसान न था। इस फिक्र में मियाँ आजाद कई दिन तक गोते खाते रहे। आखिर यही सोचा कि यहाँ कोई नौकरी कर लें और रुपए जमा हो जाने के बाद फौज में जायँ। मन मारे बैठे थे कि मीडा आ कर कुर्सी पर बैठ गई। जिस तपाक के साथ आजाद रोज पेश आया करते थे, उसका आज पता न था! चकरा कर बोली - उदास क्यों हो! मैं तो तुम्हें मुबारकबाद देने आई थी। यह उल्टी बात कैसी? जोगिन शहसवार से जान बचा कर भागी, तो रास्ते में एक वकील साहब मिले। उसे अकेले देखा, तो छेड़ने की सूझी। बोले - हुजूर को आदाब। आप इस अँधेरी रात में अकेले कहाँ जाती हैं? जोगिन - हमें न छे़ड़िए। वकील ...Read Moreशाहजादी हो? नवाबजादी हो? आखिर हो कौन? जोगिन - गरीबजादी हूँ। वकील - लेकिन आवारा। जोगिन - जैसा आप समझिए। वकील - मुझे डर लगता है कि तुम्हें अकेला पा कर कोई दिक न करे। मेरा मकान करीब है, वहीं चल कर आराम से रहो। जमाना भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही अलारक्खी जो इधर-उधर ठोकरें खाती-फिरती थी, जो जोगिन बनी हुई एक गाँव में पड़ी थी, आज सुरैया बेगम बनी हुई सरकस के तमाशे में बड़े ठाट से बैठी हुई है। ...Read Moreसब रुपए का खेल है। सुरैया बेगम - क्यों महरी, रोशनी काहे की है? न लैंप, न झाड़, न कँवल और सारा खेमा जगमगा रहा है। महरी - हुजूर, अक्ल काम नहीं करती, जादू का खेल है। बस, दो अंगारे जला दिए और दुनिया भर जगमगाने लगी। हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने ही दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं ...Read Moreमगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए। शाहजादा हुमायूँ फिर कई महीने तक नेपाल की तराई में शिकार खेल कर लौटे तो हुस्नआरा की महरी अब्बासी को बुलवा भेजा। अब्बासी ने शाहजादा के आने की खबर सुनी तो चमकती हुई आई। शाहजादे ने देखा तो फड़क ...Read Moreबोले - आइए, बी महरी साहबा हुस्नआरा बेगम का मिजाज तो अच्छा है? अब्बासी - हाँ, हुजूर! सुरैया बेगम ने आजाद मिरजा के कैद होने की खबर सुनी तो दिल पर बिजली सी गिर पड़ी। पहले तो यकीन न आया, मगर जब खबर सच्ची निकली तो हाय-हाय करने लगी। अब्बासी - हुजूर, कुछ समझ में नहीं आया। ...Read Moreउनके एक अजीज हैं। वह पैरवी करने वाले हैं। रुपए भी खर्च करेंगे। सुरैया बेगम - रुपया निगोड़ा क्या चीज है। तुम जा कर कहो कि जितने रुपयों की जरुरत हो, हमसे लें। अब्बासी आजाद मिरजा के चा
चा के पास जा कर बोली - बेगम साहब ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि रुपए की जरूरत हो तो हम हाजिर हैं। जितने रुपए कहिए, भेज दें। आजाद अपनी फौज के साथ एक मैदान में पड़े हुए थे कि एक सवार ने फौज में आ कर कहा - अभी बिगुल दो। दुश्मन सिर पर आ पहुँचा। बिगुल की आवाज सुनते ही अफसर, प्यादे, सवार सब चौंक ...Read Moreसवार ऐंठते हुए चले, प्यादे अकड़ते हुए बढ़े। एक बोला - मार लिया है। दूसरे ने कहा - भगा दिया है। मगर अभी तक किसी को मालूम नहीं कि दुश्मन कहाँ है। मुखबिर दौड़ाए गए तो पता चला कि रूस की फौज दरिया के उस पार पैर जमाए खड़ी है। दरिया पर पुल बनाया जा रहा है और अनोखी बात यह थी कि रूसी फौज के साथ एक लेडी, शहसवारों की तरह रान-पटरी जमाए, कमर से तलवार लटकाए, चेहरे पर नकाब से छिपाए, अजब शोखी और बाँकपन के साथ लड़ाई में शरीक होने के लिए आई है। उसके साथ दस जवान औरतें घोड़ों पर सवार चली आ रही हैं। मुखबिर ने इन औरतें की कुछ ऐसी तारीफ की कि लोग सुन कर दंग रह गए। दूसरे दिन आजाद का उस रूसी नाजनीन से मुकाबिला था। आजाद को रातभर नींद नहीं आई। सवेरे उठ कर बाहर आए तो देखा कि दोनों तरफ की फौजें आमने-सामने खड़ी हैं और दोनों तरफ से तोपें चल रही हैं। खोजी ...Read Moreसे एक ऊँचे दरख्त की शाख पर बैठे लड़ाई का रंग देख रहे थे और चिल्ला रहे थे, होशियार, होशियार! यारों, कुछ खबर भी है? हाय! इस वक्त अगर तोड़ेदार बंदूक होती तो परे के परे साफ कर देता। इतने में आजाद पाशा ने देखा कि रूसी फौज के सामने एक हसीना कमर में तलवार लटकाए, हाथ में नेजा लिए, घोड़े पर शान से बैठी सिपाहियों को आगे बढ़ने के लिए ललकार रही है। आजाद की उस पर निगाह पड़ी तो दिल में सोचे, खुदा इसे बुरी नजर से बचाए। यह तो इस काबिल है कि इसकी पूजा करे। यह, और मैदान जंग! हाय-हाय, ऐसा न हो कि उस पर किसी का हाथ पड़ जाय। गजब की चीज है यह हुस्न, इंसान लाख चाहता है, मगर दिल खिंच ही जाता है, तबीयत आ ही जाती है। शाम के वक्त हलकी-फुलकी और साफ-सुथरी छोलदारी में मिस क्लारिसा बनाव-चुनाव करके एक नाजुक आराम-कुर्सी पर बैठी थी। चाँदनी निखरी हुई थी, पेड़ और पत्ते दूध में नहाये हुए और हवा आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी! उधर मियाँ आजाद कैद ...Read Moreपड़े हुए हुस्नआरा को याद करके सिर धुनते थे कि एक आदमी ने आ कर कहा - चलिए, आपको मिस साहब बुलाती हैं। आजाद छोलदारी के करीब पहुँचे तो सोचने लगे, देखें यह किस तरह पेश आती है। मगर कहीं साइबेरिया भेज दिया तो बेमौत ही मर जाएँगे। अंदर जा कर सलाम किया और हाथ बाँध कर खड़े हो गए। क्लारिसा ने तीखी चितवन कर कहा - कहिए मिजाज ठंडा हुआ या नहीं? आजाद तो साइबेरिया की तरफ रवाना हुए, इधर खोजी ने दरख्त पर बैठे-बैठे अफीम की डिबिया निकाली। वहाँ पानी कहाँ? एक आदमी दरख्त के नीचे बैठा था। आपने उससे कहा - भाईजान, जरा पानी पिला दो। उसने ऊपर देखा, ...Read Moreएक बौना बैठा हुआ है। बोला - तुम कौन हो? दिल्लगी यह हुई कि वह फ्रांसीसी था। खोजी उर्दू में बात करते थे, वह फ्रांसीसी में जवाब देता था। बड़ी बेगम का बाग परीखाना बना हुआ है। चारों बहनें रविशों में अठखेलियाँ करती हैं। नाजो-अदा से तौल-तौल कर कदम धरती हैं। अब्बासी फूल तोड़-तोड़ कर झोलियाँ भर रही है। इतने में सिपहआरा ने शोखी के साथ गुलाब का ...Read Moreतोड़ कर गेतीआरा की तरफ फेंका। गेतीआरा ने उछाला तो सिपहआरा की जुल्फ को छूता हुआ नीचे गिरा। हुस्नआरा ने कई फूल तोड़े और जहाँनारा बेगम से गेंद खेलने लगीं। जिस वक्त गेंद फेंकने के लिए हाथ उठाती थीं, सितम ढाती थीं। वह कमर का लचकाना और गेसू का बिखरना, प्यारे-प्यारे हाथों की लोच और मुसकिरा-मुसकिरा कर निशाने बाजी करना अजब लुत्फ दिखाता था। कोठे पर चौका बिछा है और एक नाजुक पलंग पर सुरैया बेगम सादी और हलकी पोशाक पहने आराम से लेटी हैं। अभी हम्माम से आई हैं। कपड़े इत्र में बसे हुए हैं। इधर-उधर फूलों के हार और गजरे रखे ...Read Moreठंडी-ठंडी हवा चल रही है। मगर तब भी महरी पंखा लिए खड़ी है। इतने में एक महरी ने आ कर कहा - दारोगा जी हुजूर से कुछ अर्ज करना चाहते हैं। बेगम साहब ने कहा - अब इस वक्त कौन उठे। कहो, सुबह को आएँ। महरी बोली - हुजूर कहते हैं, बड़ा जरूरी काम है। हुक्म हुआ कि दो औरतें चादर ताने रहें और दारोगा साहब चादर के उस पार बैठें। खोजी आजाद के बाप बन गए तो उनकी इज्जत होने लगी। तुर्की कैदी हरदम उनकी खिदमत करने को मुस्तैद रहते थे। एक दिन एक रूसी फौजी अफसर ने उनकी अनोखी सूरत और माशे-माशे भर के हाथ-पाँव देखे तो जी ...Read Moreकि इनसे बातें करें। एक फारसीदाँ तुर्क को मुतरज्जिम बना कर ख्वाजा साहब से बातें करने लगा। आजाद को साइबेरिया भेज कर मिस क्लारिसा अपने वतन को रवाना हुई और रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव किया। वहाँ की आब-
हवा उसको ऐसी पसंद आई कि कई दिन तक उसी पड़ाव पर शिकार खेलती रही। एक ...Read Moreमिस-कलरिसा ने सुबह को देखा कि उसके खेमे के सामने एक दूसरा बहुत बड़ा खेमा खड़ा हुआ है। हैरत हुई कि या खुदा, यह किसका सामान है। आधी रात तक सन्नाटा था, एकाएक खेमे कहाँ से आ गए! एक औरत को भेजा कि जा कर पता लगाए कि ये कौन लोग है। वह औरत जो खेमे में गई तो क्या देखती है कि एक जवाहिरनिगार तख्त पर एक हूरों को शरमाने वाली शाहजादी बैठी हुई है। देखते ही दंग हो गई। जा कर मिस क्लारिसा से बोली - हुजूर, कुछ न पूछिए, जो कुछ देखा, अगर ख्वाब नहीं तो जादू जरूर है। ऐसी औरत देखी कि परी भी उसकी बलाएँ ले। जिस वक्त खोजी ने पहला गोता खाया तो ऐसे उलझे कि उभरना मुश्किल हो गया। मगर थोड़ी ही देर में तुर्कों ने गोते लगा कर इन्हें ढूँढ़ निकाला। आप किसी कदर पानी पी गए थे। बहुत देर तक तो ...Read Moreही ठिकाने न थे। जब जरा होश आया तो सबको एक सिरे से गालियाँ देना शुरू कीं। सोचे कि दो-एक रोज में जरा टाँठा हो लूँ तो इनसे खूब समझूँ। डेरे पर आ कर आजाद के नाम खत लिखने लगे। उनसे एक आदमी ने कह दिया था कि अगर किसी आदमी के नाम खत भेजना हो और पता न मिलता हो तो खत को पत्तों में लपेट दरिया कि किनारे खड़ा हो और तीन बार 'भेजो-भेजो' कह कर खत को दरिया में डाल दे, खत आप ही आप पहुँच जायगा। खोजी के दिल में यह बात बैठ गई। आजाद के नाम एक खत लिख कर दरिया में डाल आए। उस खत में आपने बहादुरी के कामों की खूब डींगे मारी थीं। खोजी थे तो मसखरे, मगर वफादार थे। उन्हें हमेशा आजाद की धुन सवार रहती थी। बराबर याद किया करते थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि आजाद को पोलैंड की शाहजादी ने कैद कर दिया है तो वह आजाद को ...Read Moreनिकले। पूछते-पूछते किसी तरह आजाद के कैदखाने तक पहुँच ही तो गए। आजाद ने उन्हें देखते ही गोद में उठा लिया। इन दोनों शाहजादों में एक का नाम मिस्टर क्लार्क था और दूसरे का हेनरी! दोनों की उठती जवानी थी। निहायत खूबसूरत। शाहजादी दिन के दिन उन्हीं के पास बैठी रहती, उनकी बातें सुनने से उसका जी न भरता था। ...Read Moreआजाद तो मारे जलन के अपने महल से निकलते ही न थे। मगर खोजी टोह लेने के लिए दिन में कई बार यहाँ आ बैठते थे। उन दोनों को भी खोजी की बातों में बड़ा मजा आता। उधर आजाद जब फौज से गायब हुए तो चारों तरफ उनकी तलाश होने लगी। दो सिपाही घूमते-घामते शाहजादी के महल की तरफ आ निकले। इत्तिफाक से खोजी भी अफीम की तलाश में घूम रहे थे। उन दोनों सिपाहियों ने ...Read Moreको आजाद के साथ पहले देखा था। खोजी को देखते ही पकड़ लिया और आजाद का पता पूछने लगे। एक दिन दो घड़ी दिन रहे चारों परियाँ बनाव-चुनाव हँस-खेल रही थीं। सिपहआरा का दुपट्टा हवा के झोंकों से उड़ा जाता था। जहाँनारा मोतिये के इत्र में बसी थीं। गेतीआरा का स्याह रेशमी दुपट्टा खूब खिल रहा था। हुस्नआरा - ...Read Moreयह गरमी के दिन और काला रेशमी दुपट्टा! अब कहने से तो बुरा मानिएगा, जहाँनारा बहन निखरें तो आज दूल्हा भाई आने वाले हैं यह आपने रेशमी दुपट्टा क्या समझ के फड़काया! सुरैया बेगम चोरी के बाद बहुत गमगीन रहने लगीं। एक दिन अब्बासी से बोलीं - अब्बासी, दिल को जरा तकसीन नहीं होती अब हम समझ गए कि जो बात हमारे दिल में है वह हासिल न होगी। साकिया ले तेरी महफिल से चले भर पाया। सारी खुदाई में हमारा कोई नहीं। अब्बासी ने कहा - बीबी, आज तक मेरी समझ में न आया कि वह, जिसके लिए आप रोया करती हैं, कौन हैं? और यह जो आजाद आए थे, यह कौन हैं। एक दिन बाँकी औरत के भेष में आए, एक दिन गोसाई बनके आए। शाहजादा हुमायूँ फर भी शादी की तैयारियाँ करने लगे। सौदागरों की कोठियों में जा-जा कर सामान खरीदना शुरू किया। एक दिन एक नवाब साहब से मुलाकात हो गई। बोले - क्यों हजरत, यह तैयारियाँ! शाहजादा - आपके मारे कोई सौदा ...Read Moreखरीदे? नवाब - जनाब, चितवनों से ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाय। शाहजादा - आपको यकीन ही न आए तो क्या इलाज? इधर बड़ी बेगम के यहाँ शादी की तैयारियाँ हो रही थीं, डोमिनियों का गाना हो रहा था। उधर शाहजादा हुमायूँ फर एक दिन दरिया की सैर करने गए। घटा छाई हुई थी। हवा जोरों के साथ चल रही थी। ...Read Moreहोते-होते आँधी आ गई और किश्ती दरिया में चक्कर खा कर डूब गई। मल्लाह ने किश्ती के बचाने की बहुत कोशिश की, मगर मौत से किसी का क्या बस चलता है। घर पर यह खबर आई तो कुहराम मच गया। अभी कल की बात है कि दरवाज पर भाँड़ मुबारकबाद गा रहे थे, आज बैन हो रहा है, कल हुमायूँ फर जामे में फूले नहीं समाते थे कि दूल्हा बनेंगे, आज दरिया में गोते खाते हैं। किसी तरफ से आवाज आती है - हाय मेरे बच्चे! कोई कहता है - हैं, मेरे लाला को क्या हुआ! रोने वाला घर भर और समझाने वाला कोई नहीं। एक पुरानी, मगर उजाड़ बस्ती में कुछ दिनों से दो औ
रतों ने रहना शुरू किया है। एक का नाम फिरोजा है, दूसरी का फारखुंदा। इस गाँव में कोई डेढ़ हजार घर आबाद होंगे, मगर उन सब में दो ठाकुरों ...Read Moreमकान आलीशान थे। फिरोजा का मकान छोटा था, मगर बहुत खुशनुमा। वह जवान औरत थी, कपड़ेलत्ते भी साफ-सुथरे पहनती थी, लेकिन उसकी बातचीत से उदासी पाई जाती थी। फरखुंदा इतनी हसीन तो न थी, मगर खुशमिजाज थी। गाँववालों को हैरत थी कि यह दोनों औरतें इस गाँव में कैसे आ गईं और कोई मर्द भी साथ नहीं! उनके बारे में लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। गाँव की सिर्फ दो औरतें उनके पास जाती थीं, एक तंबोलिन, दूसरी बेलदारिन। यार लोग टोह में थे कि यहाँ का कुछ भेद खुले, मगर कुछ पता न चलता था। तंबोलिन और बेलदारिन से पूछते थे तो वह भी आँय-बाँय-साँय उड़ा देती थीं। फीरोजा बेगम और फरखुंदा रात के वक्त सो रही थीं कि धमाके की आवाज हुई फरखुंदा की आँख खुल गई। यह धमाका कैसा? मुँह पर से चादर उठाई, मगर अँधेरा देख कर उठने की हिम्मत न पड़ी। इतने में ...Read Moreकी आहट मिली, रोएँ खड़े हो गए। सोची, अगर बोली तो यह सब हलाल कर डालेंगे। दबकी पड़ी रही। चोर ने उसे गोद में उठाया और बाहर ले जा कर बोला - सुनो अब्बासी, हमको तुम खूब पहचानती हो? अगर न पहचान सकी हो, तो अब पहचान लो। खाँ साहब पर मुकदमा तो दायर ही हो गया था उस पर दारोगा जी दुश्मन थे। दो साल की सजा हो गई। तब दारोगा जी ने एक औरत को सुरैया बेगम के मकान पर भेजा। औरत ने आ ...Read Moreसलाम किया और बैठ गई। सुरैया - कौन हो? कुछ काम है यहाँ? औरत - ऐ हुजूर, भला बगैर काम के कोई भी किसी के यहाँ जाता है? हुजूर से कुछ कहना है, आपके हुस्न का दूर-दूर तक शोहरा है। इसका क्या सबब है कि हुजूर इस उम्र में, इस हालत में जिंदगी बसर करती हैं? आध कोस चलने के बाद इन चोरों ने सुरैया बेगम को दो और चोरों के हवाले किया। इनमें एक का नाम बुधसिंह था, दूसरे का हुलास। यह दोनों डाकू दूर-दूर तक मशहूर थे, अच्छे-अच्छे डकैत उनके नाम सुन कर ...Read Moreकान पकड़ते थे। किसी आदमी की जान लेना उनके लिए दिल्लगी थी। सुरैया बेगम काँप रही थी कि देखें आबरू बचती है या नहीं। हुलास बोला, कहो बुद्धसिंह, अब क्या करना चाहिए? सुरैया बेगम ने अब थानेदार के साथ रहना मुनासिब न समझा। रात को जब थानेदार खा पी कर लेटा तो सुरैया बेगम वहाँ से भागी। अभी सोच ही रही थी कि एक चौकीदार मिला। सुरैया बेगम को देख कर ...Read More- आप कहाँ? मैंने आपको पहचान लिया है। आप ही तो थानेदार साहब के साथ उस मकान में ठहरी थीं। मालूम होता है, रूठ कर चली आई हो। मैं खूब जानता हूँ। नेपाल की तराई में रिसायत खैरीगढ़ के पास एक लक व दक जंगल है। वहाँ कई शिकारी शेर का शिकार करने के लिए आए हुए हें। एक हाथी पर दो नौजवान बैठे हुए हैं। एक का सिन बीस-बाईस बरस ...Read Moreहै, दूसरे का मुश्किल से अट्ठारह का। एक का नाम है वजाहत अली, दूसरे का माशूक हुसैन। वजाहत अली दोहरे बदन का मजबूत आदमी है। माशूक हुसैन दुबला-पतला छरहरा आदमी है। उसकी शक्ल-सूरत और चाल-ढाल से ऐसा मालूम होता है कि अगर इसे जनाने कपड़े पहना दिए जायँ, तो बिलकुल औरत मालूम हो। पीछे-पीछे छह हाथी और आते थे। जंगल में पहुँच कर लोगों ने हाथी रोक लिए ताकि शेर का हाल दरियाफ्त कर लिया जाय कि कहाँ है। जब रात को सब लो खा-पी कर लेटे, तो नवाब साहब ने दोनों बंगालियों को बुलाया और बोले - खुदा ने आप दोनों साहबों को बहुत बचाया, वरना शेरनी खा जाती। बोस - हम डरता नहीं थ, हम शाला ईश ...Read Moreका बान को मारना चाहता था कि हम ईश देश का आदमी नहीं है। इस माफिक हमारे को डराने सकता और हाथी को बोदजाती से हिलाने माँगें। जब तो हम लोग बड़ा गुस्सा हुआ कि अरे सब लोग का हाथी हिलने नहीं माँगता, तुम क्यों हिलने माँगता है। और हमसे बोला कि बाबू शाब, अब तो मरेगा। हाथी का पाँव फिसलेगी और तुम मर जायँगे। हम बोला - अरे, जो हाथी की पाँव फिसल जायगी तो तुम शाले का शाला कहाँ बच जायगा? तुम भी तो हमारा एक साथ मरेगा। आज तो कलम की बाँछें खिली जाती हैं। नौजवानों के मिजाज की तरह अठखेलियाँ पर है। सुरैया बेगम खूब निखर के बैठी हैं। लौंडियाँ-महरियाँ बनाव-चुनाव किए घेरे खड़ी हैं। घर में जश्न हो रहा है। न जाने सुरैया बेगम ...Read Moreदौलत कहाँ से लाईं। यह ठाट तो पहले भी नहीं था। महरी - ऐ बी सैदानी, आज तो मिजाज ही नहीं मिलते। इस गुलाबी जोड़े पर इतना इतरा गईं? सैदानी - हाँ, कभी बाबराज काहे को पहना था? आज पहले-पहल मिला है। तुम अपने जोड़े का हाल तो कहो। सुरैया बेगम के यहाँ वही धमाचौकड़ी मची थी। परियों का झुरमुट, हसीनों का जमघट, आपस की चुहल और हँसी से मकान गुलजार बना हुआ था। मजे-मजे की बातें हो रही थीं कि महरी ने आ कर कहा - हुजूर, ...Read Moreसे असगर मियाँ की बीवी आई हैं। अभी-अभी बहली से उत
री हैं। जानी बेगम ने पूछा - असगर मियाँ कौन हैं? कोई देहाती भाई हैं? इस पर हशमत बहू ने कहा, बहन वह कोई हों। अब तो हमारे मेहमान हैं। फीरीजा बेगम बोलीं - हाँ-हाँ तमीज से बात करो, मगर वह जो आई है, उनको नाम क्या है? महरी ने आहिस्ता से कहा - फैजन। इस पर दो-तीन बेगमों ने एक दूसरे की तरफ देखा। आजाद पोलेंड की शाहजादी से रुखसत हो कर रातोंरात भागे। रास्ते में रूसियों की कई फौजें मिलीं। आजाद को गिरफ्तार करने की जोरों से कोशिश हो रही थी, मगर आजाद के साथ शाहजादी का जो आदमी था वह उन्हें ...Read Moreकी नजरें बचा कर ऐसे अनजान रास्तों से ले गया कि किसी को खबर तक न हुई। दोनों आदमी रात को चलते थे और दिन को कहीं छिप कर पड़ रहते थे। एक हफ्ते तक भागा-भाग चलने के बाद आजाद पिलौना पहुँच गए। इस मुकाम को रूसी फौजों ने चारों तरफ से घेर लिया था। आजाद के आने की खबर सुनते ही पिलौने वालों ने कई हजार सवार रवाना किए कि आजाद को रूसी फौजों से बचा कर निकाल लाएँ। शाम होते-होते आजाद पिलौनावालों से जा मिले। जिस दिन आजाद कुस्तुनतुनिया पहुँचे, उनकी बड़ी इज्जत हुई। बादशाह ने उनकी दावत की और उन्हें पाशा का खिताब दिया। शाम का आजाद होटल में पहुँचे और घोड़े से उतरे ही थे कि यह आवाज कान में आई, भला ...Read Moreजाता कहाँ है। आजाद ने कहा - अरे भई, जाने दो। आजाद की आवाज सुन कर खोजी बेकरार हो गए। कमरे से बाहर आए और उनके कदमों पर टोपी रख कर कहा - आजाद, खुदा गवाह है, इस वक्त तुम्हें देख कर कलेजा ठंडा हो गया, मुँह-माँगी मुराद पाई। आजाद, मीडा, क्लारिसा और खोजी जहाज पर सवार हैं। आजाद लेडियों का दिल बहलाने के लिए लतीफें और चुटकुले कह रहे हैं। खोजी भी बीच-बीच में अपना जिक्र छेड़ देते हैं। खोजी - एक दिन का जिक्र है, मैं होली ...Read Moreदिन बाजार निकला। लोगों ने मना किया कि आज बहार न निकलिए, वरना रंग पड़ जायगा। मैं उन दिनों बिलकुल गैंडा बना हुआ था। हाथी की दुम पकड़ ली तो हुमस न सका। चें से बोल कर चाहा कि भागे, मगर क्या मजाल! जिसने देखा, दातों उँगली दबाई कि वाह पट्ठे। सुरैया बेगम का मकान परीखाना बना हुआ था। एक कमरे में वजीर डोमिनी नाच रही थी। दूसरे में शहजादी का मुजरा होता था। फीरोजा - क्यों फैजन बहन, तुमको इस उजड़े हुए शहर की डोमिनियों का गाना काहे को अच्छा ...Read Moreहोगा? जानी बेगम - इनके लिए देहात की मीरासिनें बुलवा दो। फैजन - हाँ, फिर देहाती तो हम हैं ही, इसका कहना क्या? इस फिकरे पर वह कहकहा पड़ा कि घर भर गूँज उठा और फैजन बहुत शरमाईं। जानी बेगम ने कहा - बस यही बात तो हमें अच्छी नहीं लगती। एक तो बेचारी इतनी देर के बाद बोलीं, उस पर भी सबने मिल कर उनको बना डाला। शाहजादा हुमायूँ फर की मौत जिसने सुनी, कलेजा हाथों से थाम लिया। लोगों का खयाल था कि सिपहआरा यह सदमा बरदाश्त न कर सकेगी और सिसक-सिसक कर शाहजादे की याद में जान दे देगी। घर में किसी की हिम्मत ...Read Moreपड़ती थी कि सिपहआरा को समझाए या तसकीन दे, अगर किसी ने डरते-डरते समझाया भी तो वह और रोने लगती और कहती - क्या अब तुम्हारी यह मर्जी है कि मैं रोऊँ भी न, दिल ही में घुट-घुट कर मरूँ। दो-तीन दिन तक वह कब्र पर जा कर फूल चुनती रही, कभी कब्र को चूमती, कभी खुदा से दुआ माँगती कि ऐ खुदा, शाहजादे बहादुर की सूरत दिखा दे, कभी आप ही आप मुसकिराती, कभी कब्र की चट-चट बलाएँ लेती। एक आँख से हँसती, एक आँख से रोती। चौथे दिन वह अपनी बहनों के साथ वहाँ गई। चमन में टहलते-टहलते उसे आजाद की याद आ गई। हुस्नआरा से बोली - बहन, अगर दूल्हा भाई आ जायँ तो हमारे दिल को तसकीन हो। खुदा ने चाहा तो वह दो-चार दिन में आना ही चाहते हैं। नवाब वजाहत हुसैन सुबह को जब दरबार में आए तो नींद से आँखें झुकी पड़ती थीं। दोस्तों मे जो आता था, नवाब साहब को देख कर पहले मुसकिराता था। नवाब साहब भी मुसकिरा देते थे। इन दोस्तों में रौनकदौला ...Read Moreमुबारक हुसैन बहुत बेतकल्लुफ थे। उन्होंने नवाब साहब से कहा - भाई, आज चौथी के दिन नाच न दिखाओगे? कुछ जरूरी है कि जब कोई तायफा बुलवाया जाय तो बदी ही दिल में हो? अरे साहब, गाना सुनिए, नाच देखिए, हँसिए, बोलिए, शादी को दो दिन भी नहीं हुए और हुजूर मुल्ला बन बैठे। मगर यह मौलवीपन हमारे सामने न चलने पाएगा। और दोस्तों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ तक कि मुबारक हुसैन जा कर कई तायफे बुला लाए, गाना होने लगा। रौनकदौला ने कहा - कोई फारसी गजल कहिए तो खूब रंग जमे। शाहजादा हुमायूँ फर के जी उठने की खबर घर-घर मशहूर हो गई। अखबारों में जिसका जिक्र होने लगा। एक अखबार ने लिखा, जो लोग इस मामले में कुछ शक करते है उन्हें सोचना चाहिए कि खुदा के लिए किसी ...Read Moreको जिला देना कोई मुश्किल बात नहीं। जब उनकी माँ और बहनों को पूरा यकीन है तो फिर शक की गुंजाइश नहीं रहती।
आजाद पाशा को इस्कंदरिया में कई दिन रहना पड़ा। हैजे की वजह से जहाजों का आना-जाना बंद था। एक दिन उन्होंने खोजी से कहा - भाई, अब तो यहाँ से रिहाई पाना मुश्किल है। खोजी - खुदा का शुक्र करो ...Read Moreबचके चले आए, इतनी जल्दी क्या है? आजाद - मगर यार, तुमने वहाँ नाम न किया, अफसोस की बात है। खोजी - क्या खूब, हमने नाम नहीं किया तो क्या तुमने नाम किया? आखिर आपने क्या किया, कुछ मालूम तो हो, कौन गढ़ फतह किया, कौन लड़ाई लड़े! यहाँ तो दुश्मनों को खदेड़-खदेड़ के मारा। आप बस मिसों पर आशिक हुए, और तो कुछ नहीं किया। चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की तारीफ की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली - अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे ...Read Moreकि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं। नवाब - तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ। सुरैया - ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती। नवाब - तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है? कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को इनके आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी। कांसल - मुझे ...Read Moreसख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी ? आजाद बंबई से चले तो सबसे पहले जीनत और अख्तर से मुलाकात करने की याद आई। उस कस्बे में पहुँचे तो एक जगह मियाँ खोजी की याद आ गई। आप ही आप हँसने लगे। इत्तिफाक से एक गाड़ी पर ...Read Moreसवारियाँ चली जाती थीं। उनमें से एक ने हँस कर कहा - वाह रे भलेमानस, क्या दिमाग पर गरमी चढ़ गई है क्या आजाद रंगीन मिजाज आदमी तो थे ही। आहिस्ता से बोले - जब ऐसी-ऐसी प्यारी सूरतें नजर आएँ तो आदमी के होश-हवास क्योंकर ठिकाने रहें। इस पर वह नाजनीन तिनक कर बोली - अरे, यह तो देखने को ही दीवाना मालूम होते थे, अपने मतलब के बड़े पक्के निकले। क्यों मियाँ, यह क्या सूरत बनाई है, आधा तीतर और आधा बटेर? खुदा ने तुमको वह चेहरा-मोहरा दिया है कि लाख दो लाख में एक हो। वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब साहब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा ...Read Moreगए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले - भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं। आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस की सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब ...Read Moreकुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला - वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ ? बहार बेगम - यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा? खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो बहुत झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी - भाइयों! ...Read Moreका खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं। आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही हैं। जानी - दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ ...Read Moreकि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं। प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम भी अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब ...Read Moreक्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन
तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं।
जान-पहचान और संपर्क की घनिष्ठता बढ़ने पर यार-दोस्तों की मंडली जुड़ती गयी । विद्यालय की सीमा छोड़ने पर खत्ता-दड़ी, धुन्ना, अंटा, और लट्टू खेलने की ऐसी बान पड़ी कि दूसरी कोई भी बात अच्छी नही लगती थी । खाना खाते समय मन खत्ता-दड़ी के साथ गुड़कने लग जाता ; पढ़ते समय धुन्ना के डण्डों में सराबोर हो जाता । धुन्ने की जीत में कोई लकड़ियों की जीत थोड़े ही होती थी, गढ़- किलों की जीत होती थी । जीते हुए अंटों के बहाने तो मानो चमकते सितारे ही जेबों में छिपे रहते । लट्टू की गरणाटी के बहाने मेरे अंतस की सारी दुनिया ही घूमने लगती । जाग्रत अवस्था में जीती हुई लकड़ियां व काच की गोलियां तो सुरक्षित रहतीं, लेकिन नीद में जीता हुआ राज्य आंख खुलते ही वापस छिन जाता । सपने में खोये हुए अंटों और धुन्नों का वास्तविक खजाने की लूट से भी ज्यादा दुख होता । दिन, पर्वत से ढले झरने की भांति प्रबल वेग से ढल रहे थे । रात-दिन से आगे छलांगें भर रही थी और दिन-रात से आगे चौकड़ियां भर रहा था। समझ नही पड़ता कि आज अंटा, धुन्ना और लट्टू खेले बिना दिन क्योंकर अस्त होता है और रात किस तरह ढलती है ? उन दिनों तो इस बात के लिए भगवान के कहे का भी विश्वास नहीं करता । मगर आज तो उन बातो को बरस पचास बीत गये । घोड़ों की क्या बिसात, उन बीती बातों को तो रॉकेट भी नही पहुंच सकता । कभी-कभार तो मन में यह संदेह होने लगता है कि पिछली सारी ख्यात अख्यात मेरे ही जीवन में बीती या किसी और के ? वह बालक क्या मैं ही था ? यदि सचमुच मैं ही था तो मेरी उसी काया में वे अनगिन स्वरूप कहां लुप्त हो गये ? वह बाल्य - रूप कहां दुबक गया ? वह चंचल यौवन कहां ओझल हो गया ? उन दिनों तो ऐसा महसूस होता था कि धुन्ना, खत्ता-दड़ी और अंटा खेलने के सिवाय मनुष्य दूसरे काम करता ही क्यों है ? क्यों इधर-उधर ललचाता है और क्यों प्रपंच करता है ? क्यों चाकरी करता है, क्यों व्यापार करता है और क्यो खेती करता है ? किन्तु आज स्वय मुझे ही धुन्ना, खत्ता - दडी, अंटा और लट्टू खेले हुए युग बीत गये ! कभी भी वापस खेलने की इच्छा नही हुई । फकत आज तुम्हें यह पाती लिखते समय अंतस में दुबकी हुई पुरानी बातें कुलबुला उठी है। मेरा - मुझ से ही यह अलंध्य फासला कैसे हो गया ? क्यों हो गया ? तुम्हारे माध्यम से मैं स्वयं अपने-आपसे यह सवाल कर रहा हूं ! बीती हुई सारी जिन्दगी ही एक बड़ा सवाल बन गयी है, जिसका जवाब देना चाहूं तो दे नही सकूगा ? और मुझे यों ही जवाब देने से बेहद खीज है । परीक्षा के डर से भी जवाब देने की इच्छा नही होती थी । स्वयं मनुष्य ही अपने आप में एक भरकम और अंतिम सवाल है। सवाल-दर-सवाल परस्पर गुथे हुए हैं, जिसका कही भी कोई उत्तर नही है। मिथ्या संतोष को बहलाने की खातिर जवाब मिलता भी है तो थोड़ी देर के लिए, फिर अगले ही क्षण वह जवाब ही स्वय एक सवाल बन कर फुफकारने लगता है ! बात कुछ भटक गयी, फिर से सीधी राह लौटता हू । तो--- गुरुओं के ठोले-घूसों का कुछ ऐसा करिश्मा हुआ इरपिंदर, कि मैं बरस गुजरने के पहले-पहले कोरी पाटी पर सन्नाट लिखने लग गया, छपी हुई पोथी फर्राट बांचने लगा । ऐसा महसूस होने लगा, जैसे उस पढ़ाई के बहाने मैं प्रकृति का अगम रहस्य खोल रहा हूं । पाटी पर अंकित अक्षर आंखों के सामने नाचने लगते । आंखों की दृष्टि के द्वारा हृदय के भीतर प्रवेश करने वाले अक्षर अनहद घूमर की धमा-चौकड़ी मचाने लगते । दूसरी कक्षा पास करके तीसरी मे आया । अंग्रेजी राज्य की दुहाई गांव-गांव तक फैल चुकी थी। गुरुओं का मन भी अंग्रेजी सिखाने के लिए व्याकुल रहता था। मगर राम-जाने क्यों मेरे मन में अंग्रेजी का ऐसा आतंक पैदा हुआ कि याद करने के पहले ही उसे भूल जाता । अंग्रेजी की ए, बी, सी, डी, तो मेरी सीढ़ी [अर्थी] ही निकालती थी । बेइन्तहा मार खाने पर इस म्लेच्छ भाषा से ऐसा मन फटा कि अब भी अनगिन पुस्तकें बांचने के बावजूद न तो अच्छी तरह अंग्रेजी बोल सकता हू और न लिख सकता हू । सदा-सदैव इस से किनारा करने का आखिर यह परिणाम हुआ ! अब भी किसी हिन्दुस्तानी को फर्राट अंग्रेजी बोलते सुनता हू तो ऐसा प्रतीत होता है कि सर्कस का चतुर बंदर गिटपिट-गिटपिट नकल कर रहा है । या कोई होशियार मिट्ठू रटे-रटाये बोलों की उलटी कर रहा है । उन दिनों अंग्रेजी का फकत यही मायना समझता था कि यह मार खाने की विद्या है । जब अंग्रेजों ने भी अपने अधीन गुलामों पर जुल्म करने में कोई कसर नहीं रखी तो उनकी भाषा क्यों हम पर रहम करेगी ? एक मर्तबा सयोग की बात ऐसी बनी कि अंग्रेजी के गुरु आनंदीलालजी ने मुझ से अंग्रेजी के किसी शब्द की स्पेलिंग पूछी। आधी-अधूरी जानता था, वह भी भूल गया । होंठों पर अंजलि का संकेत करके प्याऊ की तरफ रवाना हो गया। अपने हाथ से ही पानी पीने लगा तो पीछा करते मा 'ट सा'ब आग-बबूला होकर भड़क उठे । वे केवल नाम मात्
र के ही आनदीलालजी थे. विद्यार्थियों को दुख पहुंचाने में उनका कोई जवाब नही था । कान उमेठ कर मुझे बुरी तरह पीटा - लातों में, घूसों से और ठोलों से । पसली में किसी एक घूस की असह्य चोट से मै मूच्छित हो गया। विद्या मीखने के निमित्त मार जरूरी होते हुए भी मुझे वैसी बेजा मार का सपने में भी अनुमान नहीं था । होश आते ही गुस्सा तो ऐसा भभका कि गुरुजी की लुग्धी बना दूं, मगर कुछ भी राह नहीं सूझी। फिर भी थकी हुई निर्बल देह में वैताल प्रवेश करन के बाद मुझ से सब्र नही रखा गया । गुरुजी की दक्षिणा' मटकियो को चुकायी। एक-एक ठोकर के साथ-ही-साथ तमाम मटकियों का सफाया हो गया। यह तो सांप्रत यमराज को चुनौती थी। फिर आनंदीलालजी पीटने के आनंद मे क्यों कसर रखते ? सटाक्-सटाक् बल खाती बेत से ठौरकुठौर सारा शरीर धुन डाला। चौडी नीली रेखाओं से तमाम शरीर में जाली चित्रित हो गयी । सरस्वती देवी का महाप्रसाद इसी रूप में मिलता था । तब से मेरे रोम-रोम में अंग्रेजी के प्रति भयंकर उबकाई पैठ गयी । किन्तु संयोग की ऐसी बेजा कारस्तानी इरपिदर, कि पिछले चालीस बरस से अंग्रेजी बांचने के सिवाय दूसरा विकल्प ही नहीं है । नितनेम की तरह अंग्रेजी की पोथियों का पारायण करना पड़ता है, किन्तु उस दिन के आतंक से ऐसा कुण्ठाग्रस्त हुआ कि आज दिन भी न अंग्रेजी बोल पाता हूं और न लिख पाता हूं । मानो यह कोई चेत- अचेत कुकर्म हो । बांचने की विशेषता के लिए अंग्रेजी भाषा का कोई श्रेय नही । 'विलायत' की बजाय यदि म फ्रांस या जर्मनी के गुलाम होते तो फ्रेंच या जर्मन सीखनी पड़ती । अंग्रेजों के पहले फारसी का ऐसा ही बोलबाला था। गुलाम स्वप्न में भी आजादी का स्वाद नहीं चख सकता । इस परम पूजनीय देश की पावन धरती को परदेशियो के चरण स्पर्श का उछाह बेशुमार है । आजादी के ये चालीस बरस ही आज पवित्र गंगा-जमुना के लिए असह्य हो गये हैं । गुलामी की मधुर स्मृति जन-मन में छटपटाने लगी है । नौकरी करने वाले अह्लकार का एक पांव घर में तो दूसरा गली में । सुमेरजी वाभा की बदली बाड़मेर हुई तो मुझे भी पढ़ने के लिए बाड़मेर जाना पड़ा । आखिर छंटते-छंटते हम तीन जने ही बाकी बचे । जैतारण मे मिडल स्कूल नही था । इसलिए कुबेरजी वाभा को पाचवी कक्षा के बाद बिलाड़ा जाने की खातिर मजबूर होना पड़ा । मैंने और खूमदानजी ने जैतारण की जमपुरी से टी. सी. कटायी । वे मुझ से एक क्लास टी.सी. आगे थे । जोधपुर के 'बड़े-ऐसण' पहली बार रेल के इंजन का आर्त्तनाद सुना । सही पता नहीं लगा कि वह आर्त्तनाद अंग्रेजी में था, हिन्दी में या मारवाड़ी में ? गोरों की हिकमत से बनाये इंजन शायद अंग्रेजी में ही आतंनाद करते होंगे । श्वास-प्रश्वास के साथ काले स्याह धुएं के वगूले-ही-बगूले ! भक्ख-भक्ख की कर्कश आवाज के साथ वह लोहे की पटरियों पर फिसल रहा था । दैत्य - खईस के समान वीभत्स आकृति ! बेहद खौफनाक, मानो पिछले जन्म में अंग्रेजी का अध्यापक हो । लंबी-ही-लंबी रेल के अनगिनत डिब्बों से आखिर वह इंजन जुड़ा । प्रचड वैताल की तरह एक नथुने से काला धुआं और दूसरे नथुने से उबलती भाप ! एक नथुना सर पर और दूसरा पांव तले । मेरी आंखें चकन-बकन ! माथा आक-वाक ! गोरो की कारीगरी का कोई तूमार है भला ! सारी दुनिया पर राज्य करें तो भी कम है ! गांव की तमाम बस्ती समाये जितनी बडी गाड़ी । डिब्बे - ही - डिब्बे । न बैल जुते हुए और न घोड़े ! किस तरह चलेगी? यह गाड़ी तो दस हाथियों से भी नहीं खिच पायेगी ! गार्ड-बाबू की दूसरी या तीसरी सीटी के साथ ही इंजन ने जोर से आर्त्तनाद किया और चीखता - चिल्लाता आगे रपटने लगा । हड्डी-हड्डी मचक गयी होगी । परस्पर एक-दूसरे से गुथे हुए डिब्बे अपनी जगह छोड़ने के साथ ही चीत्कार करते हुए गुड़कने लगे । रेल तो सचमुच रवाना हो गयी लगती है ! अब किसी के रोकने पर रुकेगी थोड़े ही ! धीरे-धीरे बवडर की नाई वेग बढने लगा - खड़द-खड़द का डका बजाता हुआ । मानो कोई तूफान पटरियों पर धन्नाट भागने लगा हो । रेल को पकड़ने के लिए एक-एक झाड़-झंखाड़ उसका पीछा करने लगा, पर रेल तो रेल ही थी, किसी की पकड़ में नहीं आयी। स्टेशन आने पर अपने आप रुकती तो रुकती, नही तो अप्रतिहत गति से हाहाकार मचाती हुई दौड़ रही थी। ईश्वर न करे, शैतान भी मेहर-माया रखे - यदि पटरियों से फिसल पड़ी तो धरती के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे । यही बातें मुझे सोचनी चाहिए थी तो मैंने शायद यही बातें सोची होंगी । काफी देर बाद अपनी कर्कश ताल के साथ रेल ने न जाने किस तरह की लोरी सुनायी कि अत्यधिक आश्चर्य व आशंका के बावजूद मेरी आंखें स्वतः ही मुदने लगी और मैं नींद की गोद में अचेत हो गया । सुमेरजी वाभा के झिंझोड़ने पर मैंने आखें खोली । कुली दनादन सामान उतार रहे थे । मेरी चेतना के परे ही बरबस वाड़मेर स्टेशन आ गया ! तो क्या हठीली रेल अपनी निरंकुश धत् में ही उड़ती जा
रही थी ! थकावट मिटाने के बहाने वह तेजी से सांस खींच रही थी । दौड़ते-दौड़ते आखिर बेदम होकर हांफना पड़े तो इस में आश्चर्य की क्या बात ? सूरज से भी काफी देर बाद - घड़ी-डेढ़-घड़ी के उपरांत मेरी आंख खुली । अपरिचित स्टेशन । अजनबी मानुस । अजाना हाट-बाजार। अजानी राह । अजाने घर । अजाने गाछ-बिरछ । अजाने कुत्ते और अजाने ही कौए । पर जानी-पहचानी-सी कांव-कांव ! मानो मेरे शुभागमन का सहर्ष स्वागत कर रहे हों । राम-जाने उन कौओं को किस तरह यह सुराग लगा कि अंग्रेजी मे निपट ठोट बालक समय आने पर संयोग के चमत्कार से मातृभाषा के मर्मज्ञ पाठकों का अविस्मरणीय कथानवीस बनेगा ! इस पुस्तक की भूमिका के माध्यम से तुमने मेरी इसी सृजन-यात्रा की खातिर उत्सुकता प्रकट की थी । सचमुच, तुम्हारे उकसाने पर मैंने मुड़ कर पीछे देखा, चिर विस्मृत यात्रा के पदचिह्नों पर नजर गड़ायी । निस्संदेह मुझे कभी इस बात की अ शंका नही थी कि सृजन को बाद देकर मुझे उसकी कोख का हिसाब भी समझाना पड़ेगा। प्रसव के दौरान छटपटाती मां के लिए संतान को जन्म देना तो वाकई कष्टप्रद है, पर उस से भी बड़ी यातना है- प्रजनन की प्रक्रिया को अक्षरों के द्वारा व्यक्त करना । मैं आज वैसी ही गुत्थी में उलझ गया हूं । दूसरे दिन मैं और खूमजी वाभा स्कूल मे भरती होने के लिए हाब- गाब रवाना हुए तो रास्ते में सिपाहियों के साथ हथकड़ी और वेडियों में जकड़े सात-आठेक कैदी मिले । उन दिनों मुझे कैदियों से जबरदस्त डर लगता था । चोर, डाकू और हत्यारे ! देखते ही कंपकंपी छूटने लगती । समूचा शरीर रोमाचित हो उठता । उन कैदियों पर नजर पडते ही जैतारण की एक वीभत्स स्मृति का दंश मेरे हृदय मे गड़ गया-खुले चौक में मोटी लकड़ियों की टिकटी जमीन के भीतर गहरी गड़ी हुई । एक कैदी के हाथ-पांव, पूरमपूर चौड़े उस टिकटी से बंधे हुए । चारों तरफ मनुष्यों की तमाणबीन भीड़ । बेंतों का आदेश होते ही दो मेहतरों ने पानी में भीगी हुई कंटीली छड़ियां संभाली । एक मेहतर ने कैदी की लटकती तहमद उठाकर कमर से बांधी। उसकी बैठक पूरमपूर उघड़ गयी ! मैं गिनती अच्छी तरह जानता था । कंटीली छड़ी के प्रहार उड़ने लगे - एक... दो... तीन.........चार.......! प्रहार-दर-प्रहार वह कैदी इस कदर जोर से चिल्लाया कि मेरा समूचा शरीर थरथर कांपने लगा । कानों में जैसे खौलता तेल रिस रहा हो । फिर भी गिनती करूं इतना होश अवश्य था - पांच छः सात... । मनुष्य का ऐसा दर्दनाक चीत्कार पहली बार ही सुना था, मगर आज भी याद आने पर कंपकंपी छूटने लगती है। मेरे खयाल से उस कैदी का वह चीत्कार अब भी मिटा नहीं है ! तमाशा देखने की उत्सुक भीड़ में से कुछ शूरमा जोर से हंसे । आज सोचता हू कि हंसने वाले वे वीतराग व्यक्ति ज्यादा अपराधी थे या वह कैदी ? पंद्रह... सोलह... सत्रह । गिनती में कतई चूक नहीं थी । मानो मेरे शरीर को धुनते वे कंटीले प्रहार अचानक थम गये हों। कैदी को भी राहत का सांस मिला होगा । गिनती की संख्या तो अब भी काफी शेष है, मगर सजा की सीमा तो सत्रह बेंतों के उपरांत ही चुक गयी । हाकिम की मेहरबानी ! कैदी के नितंबों से खून झरने लगा। उस दिन की वह भयंकर छबि बरसों तक मुझे बेचैन करती रही । कैदी का वह हृदयविदारक चीत्कार, कंटीली बेंतों के प्रहार ! नितंबों से रिसता लहू ! हाथ-पांव बंधे हुए ! साथ-ही-साथ मुंह में डूंजा खसोल उसका मुह बांध देते तो बेहतर था । खाना खाते समय मुझे उबकाई तो नहीं आती। इरपिंदर ! आठ-दस बरस से एक सवाल मुझे निरंतर पछाड़ रहा है कि जब नेता, मंत्री, वकील, जज, डॉक्टर, साहूकार, संपादक, पंडे-पुजारी, मौलवी, प्रोफेसर, पुलिस, लेखक, आलोचक और अफसर इत्यादि - ये उजले-बुक अजगर जेलो से बाहर है तो जेलों के भीतर कौन हैं ? ? क्यू हैं ? ? ये श्रीमंत... ये सिरायत जेलों के बाहर गुलछरें उड़ा रहे हैं तो कानून के भरकम पोथों का मायना क्या है ? इन जेलों की सार्थकता क्या है ? यह बेकार इतना खर्च खाता फिर किसलिए ? भेड़ियों के हवाले इन निरीह भेड़ों की कब तक रखवाली होगी ? जब अपराधियों के जिम्मे ही सिंहासन है तो इन्हें कौन दंडित करेगा ? ये तो दंड सुनाने वाले हैं, तब इन्हें कौन सजा सुनाये ? आजकल आठों-पहर ऐसे सवालो के चाबुक मुझ पर बरसते रहते हैं ! क्षत-विक्षत करते है । कही मेरा सर तो नहीं चकरा गया ? इन सवालों का जवाब कौन गुरु जानता है ? केवल जानने मात्र से क्या होगा ? सरे आम दहाड़ने की हिम्मत चाहिए । वह इस देश के बाशिंदों से बिलकुल निःशेष हो गयी है । आजादी का छीका हाथ लगने पर वे पूरमपूर गुलाम हो गये हैं। मनुष्यों का रूप धर ढाणी-ढाणी, गांव-गांव और नगर-नगर गंडक, चीते, नाहर, जरख, बिज्जू, बन - बिलाव, नाग, अजगर, चील, गिद्ध, बाज, सिकरे और कौए मौज कर रहे हैं । प्रति वर्ष इनकी नफरी बढ़ रही है - असंख्य, अपरम्पार ! बढ़ते-बढ़ते सत्तर करोड़ के आसपास इनक
ी आबादी फैल गयी है । जानवरों की उपमा देने पर मनुष्य बुरा मानेगे या जानवर ? तुम्हे क्या लगता है ? तुम्हारा प्रत्युत्तर बांचने से मुझे काफी राहत मिलेगी । हमेशा की तरह देरी से जवाब न देकर, जरा जल्दी देना । आज की बात अलहदा है । उस दिन की बात अलहदा थी । इसी एक नाम से कक्षा में हाजरी देता था और आज भी उसी नाम से मेरी पहचान है । अधिकांश मित्रअधिकांश ही क्यों, लगभग सभी घनिष्ठ मित्र विजयदान देथा के बदले बिज्जी के नाम से संबोधित करते है । इस कोरे-मोरे एकल संबोधन के तहत क्या मैं सदावंत एक ही व्यक्ति रहा ? आठ-दस बरसों से एक - एक क्षण में बदलता रहा हू । कल था सो आज नही । आज हूं सो परसा नहीं रहूंगा, सवेरे ह सो सांझ नही । सांझ हू सो रात नही । रात हू सो प्रभात नही । फिर भी नाम का संबोधन जीवन पर्यन्त एक ही रहेगा । अर्जुन और कृष्ण भगवान के सहस्र नामों का मर्म अब कही अच्छी तरह समझ मे आने लगा है । जैतारण वाले कैदी की दारुण स्मृति में उलझा हुआ मैं स्कूल पहुंचा। मटिया निकर, मटिया कमीज । पीली टोपी ! बेहद दुबला-पतला । मरियल टांगें । डेढ़ अंगुल का ललाट । बदसूरत काठी । खूमजी वाभा काफी कुछ फबते और सुंदर थे । स्कूल के मनमौजी छात्रों ने मेरा हुलिया देखा तो उसी दिन से चिढ़ाने लगे। मन पूरमपूर कसैला हो उठा । पर जोर क्या करता, निपट निजोरी बात थी । भरती होने पर कोई पांच-सातेक दिन जैसे-तैसे कट गये । एक दिन क्लास में अंग्रेजी पढ़ाते समय मा'ट सा'ब ने मुझे पाठ बाचने का आदेश किया। धूजती टांगों पर बड़ी मुश्किल से खड़ा हो सका । अंग्रेजी के नाम पर फकत बुखार ही नही चढ़ा । बोलना शुरू किया तो जीभ मानो चिपक गयी। आधी मूर्च्छा की हालत में दो- एक पंक्तियां बड़ी मुश्किल से पढ़ पाया कि सारी क्लास एक साथ जोर से ठहाका मारकर हंस पड़ी । उच्चारण की चार-पांचेक ऐसी ही गलतिया हो गयी थी। रोकर नीचे बैठ गया। अंग्रेजी के लिए उस दिन बचे-खुचे उत्साह पर भी पाला पड़ गया । फांसी के तख्ते की बनिस्बत मुझे अंग्रेजी का डर ज्यादा लगता था । न किसी दौड़ मे पारंगत था और न किसी खेल में । हिन्दी, गणित और संस्कृत में काफी तर्राट था । मगर अंग्रेजी में एकदम भोट । तिस पर स्कूल में कभी खेल-कूद की प्रतियोगिता होती तो मंगते की नाई जीतने वाले की तरफ ललचाई निगाह से देखता । इधर एक ही घर मे बूमदानजी छोटी या लंबी दौड़ में एक भी इनाम नही छोड़ते । जिस किसी में भाग लेते उस में अव्वल । इनाम-ही- इनाम बुहार कर लाते । अक्सर टोकरी छोटी पड़ जाती । तेल की बोतल, काच, रेशमी रूमाल, बनियान, तौलिये इत्यादि । और मेरे पास कुछ भी नही । वही स्कूल का बस्ता और वही पीली टोपी । खूब ही लज्जित होता । शर्म के मारे केवल जमीन में गड़ना शेष रहता। क्या करता, जमीन फटती ही नहीं थी। अपने आप से घिन होने लगी। सचमुच मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता कि सूरज का प्रकाश फकत खूमदानजी की खातिर ही चमकता है और रात का काला - गहन अंधियारा फकत मेरे लेखे घुटन फैलाता है। करवट बदलते-बदलते काफी रात ढलने पर नीद आती। नीद के सपनो में भी सब से ढंगी रहता । दौड़ते-दौड़ते लड़खड़ा कर गिर पड़ता । न जगने पर शांति और न नीद में चैन । नग आकर हिन्दी, संस्कृत व गणित से कुश्ती लडता । कद-काठी में सब से छोटा और दुबला होने के कारण लडकियो के साथ बैठने की इजाजत मिल जाती थी। लड़कियो के सामने हेटी न लगे, मन-ही-मन ऐसी तरकीबें सोचता। किसी सीगे मे नाम करने की खातिर मन खूब छटपटाता । आखिर मर खप कर संस्कृत और हिन्दी में पूर्ण सफलता प्राप्त की । संस्कृत के पंडितजी ने एक बार डिक्टेशन दिया तो एक भी अशुद्धि नही ! मैं संस्कृत में हमेशा अव्वल रहता और हेड मा 'ट सा'ब की बिटिया दोयम । नाम था मृदुलता देवी । मगर हम सभी उसे देवी के नाम से ही पुकारते थे । हिन्दी में कई मर्त्तबा मैं अव्वल रहता और कई मर्तबा नृसिंह राजपुरोहित । मेरा सब से पुराना दोस्त । आज तक राजस्थानी साहित्य में अपनी गणित के जोर से आगे बढ़ता र है । पर मैं अब भी लेखक की बनिस्बत बंधु के रूप में उसका ज्यादा लिहाज रखता हूं । संस्कृत के रूप मुझे इस तरह कंठस्थ थे, मानो पिछले जन्म से ही रट रखे हों। चारों लड़कियां मुझ से संस्कृत सीखती थी । संस्कृत के पंडितजी ब्रह्मचारी के गुमान में क्लास के अतिरिक्त और कहीं भी लड़कियों से बात नहीं करते थे ; इसलिए मेरा भाग्य खुल गया । पर देवी से घनिष्ठ आत्मीयता की बानगी ही निराली थी । उसकी पालर सूरत और गुलाबी होंठों की स्मित मुस्कान देखते ही पीतल के सचित्र ग्लास के धारोष्ण झाग मेरी आंखों के सामने तैरने लगते । उसकी मुस्कान वैसी ही अबोट और पावन थी। फिर भी किसी-न-किसी सीगे चर्चित होने के लिए मन खूब ही कसमसाता, पर कोई भी युक्ति पार नही पड़ी । हिन्दी और संस्कृत के प्रताप से मेरे नाम की फुसफुसाहट स्कूल के पत्थरों में फैलने लगी ।
दिन-ब-दिन परिचय का दायरा बढ़ने लगा । किसी दूसरे माध्यम से पार नहीं पड़ी तो कुबद और कुलंगों की ओर मेरा मन स्वतः ही खिंचने लगा । और कुछ ही दिनों में हिन्दी व संस्कृत की अपेक्षा बदमाशी के सीगे में मेरा नाम भीतर ही भीतर चमकने लगा । कभी-कभार हेड माट सा'ब यों ही अपनी रौ मे प्रार्थना के बाद पूछ बैठते कि स्कूल में सबसे ज्यादा बदमाश कौन है ? यह सवाल सुनते ही मैं तो सर नवा कर चुपचाप खड़ा हो जाता । पर मेरे अतिरिक्त स्कूल के तमाम छोटे-बड़े विद्यार्थी एक साथ उत्साह से मेरा नाम लेते । कभी कोई दूसरा नाम भूल-चूक से भी उनकी जबान पर नहीं आया। पान चबाते हुए हेड-मा'ट सा'ब मुस्करा कर मुझे इशारा करते - 'इधर आ चोट्टे...।' मै पूरी तरह सर झुकाये चुपचाप विनम्रतापूर्वक उनके सामने खड़ा हो जाता। वे दुलार से कान उमेठ कर हलकी-सी दो-चार थप्पड़ लगाते । वे शायद मन-ही-मन सोचते होंगे कि पिछी-सा हुलिया और नाम हाथी से भी भारी । सच इरपिंदर, सब के सामने मार खाने के बावजूद मैं भीतर ही भीतर खुशी से फूल उठता । उन दिनों स्कूल के सारी दुनिया से बड़ा मालूम होता था। बुरा हो चाहे भला, मेरा नाम तो स्कूल में उफन ही रहा था । हेड मा ट सा'ब जब भी पूछते, बदनामी के सीगे में मेरा एकछत्र नाम सब के कंठ से हुंकार मचाता । आराम से गहरी नीद आने लगी। पांखों के बिना ही रात के अंधियारे में अलंध्य उड़ानें भरने लगा । अंधियारे में आंखें बंद कर लेने पर भी मुझे मंद-मंद उजाला दिखायी पड़ता । उन दिनों हमारी कक्षा में एक अजीब ही विषय था - नेचर स्टडी । मूलचंदजी मा'ट सा'ब पढ़ाते थे । ओछा और धुगधुगा शरीर, कसा हुआ गोल मुह, कायरी आंखें, छोटी गर्दन । पढ़ाते समय ज्यादातर उनकी निगाह लड़कियो के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती । अबोध बालक होते हुए भी मैंने उनके कुटिल अंतस की जासूसी कर ली थी । भीतर ही भीतर भाड़ के चने की तरह भडकता । नेचर स्टडी मे वे बिना किसी अपवाद के हमेशा देवी को सबसे ज्यादा नंबर देते थे । एक बार उन्होंने उसे घर पर पढ़ाने का न्यौता दिया ! एकल-छड़ा कुंवारा मास्टर था । पढ़ाने की मंशा का मायना मैं अच्छी तरह समझ गया । मौका मिलते ही देवी को वहां जाने की खातिर मना किया, खूब मना किया; पर वह भोली अबोध कब्बु नहीं मानी सो नही मानी । उलटे मुझे ही लतेड़ सुननी पड़ी कि मैं बेकार ही वहम कर रहा यह फकत मेरे मन का ही मैल है । भला, पढ़ाने वाले पूजनीय गुरु ऐसे लंपट थोड़े ही होते हैं। सच इरपिंदर, वह वैसे ही आदर्श बाप की वैसी ही निर्मल लाडली थी, जिनकी सूरत निहारने से तीन भव का पाप धुलता है। आज भी जी भर कर उनकी स्तुति करूं तो भी कम है। उन दिनों की नैसर्गिक छवि को कलम से आंकने की खातिर मन बिकता है । स्कूल में इकडंकी बदमाश होने के कारण छोटी-मोटी चौकड़ी अपने-आप जुड़ गयी थी । तत्काल यार-दोस्तों को इकट्ठा किया और महाभारत की योजना सोच ली । बार-बार मना करने पर देवी नहीं मानी तो मुझे सतर्क होना पड़ा । ऐयारी का माकूल मोर्चा बनाया । समाचार मिलते ही हम सात-आठेक योद्धा मूलचंदजी मा'ट सा'ब के घर के पिछवाड़े अंग्रेजी बबूलों की ओट मे छिप गये। पहले से ही हाथों में अंग्रेजी । बबूल की कंटीली छड़ियां थाम रखी थी। जिस आशंका की अविकल प्रतीक्षा थी, उसकी अस्पष्ट-सी फुसफुसाहट सुनाई पडी- 'मा'ट सा'ब.. माट सा'ब... मै तो आपकी बेटी... ... के समान हूं । नही.. मा 'ट सा'व... नही ।' जैसे सारा आकाश ही धरती पर उलट पड़ा हो । मेरा रोम-रोम बिजली के सांत्र में ढल गया । फटाफट हत्था लांघ कर भीतर कूदे । डरी-सहमी हिरणी की आहत निगाह से देवी ने मेरी ओर झांका । मानो अचीते देव अवतरित हुए हों । उसकी सिहरन नही मिटी तब तक हम गुरुजी को अंधाधुंध दक्षिणा चुकाते रहे । अंग्रेजी बबूल के कांटे इस कदर सार्थक होंगे, सपने में भी नहीं सोचा था । संज्ञा - विहीन गुरुजी ने जाने-अनजाने कोई प्रतिरोध नही किया । आखिरं हाथ । न जवाब दिया तो हम दरवाजा उघाड़ कर देवी के साथ बाहर निकल आये । उसे तब भी विश्वास नही हुआ कि वह दैत्य की गुफा से बाहर आ गयी और मैं उस के साथ हूं । उस अचीते दुःस्वप्न से वह तब भी पूर्णतया मुक्त नही हुई थी। अनुभवों की दृष्टि से नितात अपरिपक्व उम्र होते हुए भी यह बात बिना सोचे ही मेरी समझ में आ गई कि मेरा कहा टालने के फलस्वरूप उलाहना देने का यह उचित अवसर नही है । फिर कोई अवांछित बकवास न करके हेड मा 'ट सा'ब को यह भेद बताने की राय जाहिर की तो वह तुरंत मान गयी । गढ़-किला जीतने का उत्साह लिये हम सभी देवी के साथ घर की सीढ़ियां चढ़ने लगे- बेंतों के प्रमाण सहित । हेड मा'ट सा'ब ने पान चबाते हुए अत्यधिक धैर्य से हमारी अंट-शट वार्ता सुनी । न कुछ बोल और न कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया दरसायी । पान की पीक के बहाने मानो कोई हलाहल जहर का घूट गले उतारा हो । दहकती आंखो से उन्होंने मेरी पीठ थप
थपायी और शाबाशी दी। आज तुम्हें यह पत्र लिखते समय, वाकई ऐसा महसूस हो रहा है इरपिंदर कि हेड मा 'ट सा'ब का वह अदृष्ट हाथ अभी-अभी मेरी पीठ थपथपा रहा है और वे अदृष्ट अधखुले होंठ मुझे बार-बार शाबाशी दे रहे हैं । देवी ठेठ सीढ़ियों तक नीचे हमें छोड़ने आयी । ऐसा महसूस हुआ कि मैं नीचे उतरने की बजाय ऊपर-ही- ऊपर चढ़ रहा हूं। उस के एक-एक कदम मे मेरा एहसान मानने का पहाड़ी बोझ व्यक्त हो रहा था । चार आंखो में तीन लोक के असंख्य गीतों ने जैसे अनहद गुजार गुनगुनायी हो । उस मांगलिक वेला के दौरान मैं दुनिया का सर्वोपरि सुखी बन्दा था । चुटकियों की रफ्तार से तुरंत रात ढली । हजार-हजार आलोक से प्रमुदित सूरज के बदले जैसे मैं ही उदित हुआ हूं । मेरी दुर्बल मरियल काठी में अनंत आनंद और अप्रतिम प्रकाश जगमगा रहा था । हमेशा की तरह उस दिन भी प्रार्थना का वैसा ही नितनेम हुआ । हेड मांट सा'ब ने खुद अपने हाथों से पेटी बजायी। चारों लड़कियो ने सदैव की भांति आगे-आगे प्रार्थना गायी। उस दिन मेरा स्वर मेरे अनजाने ही अपनेआप तेज व सुरीला हो गया था । मैने चुपके से झांका - हेड मा 'ट सा'ब की आंखों मे अंगारे दहक रहे थे । प्रार्थना संपूर्ण होते ही हेड मा 'ट सा'ब किचित् भी सयम नहीं रख सके । नेचर स्टडी के मूलचंदजी को भद्दे संबोधन से पुकार कर पास आने के लिए हाथ का इशारा किया । तमतमाये मुह से रक्तिम फुहार-सी छूटी । दहाड़ते हुए बोले, 'दोगले कुत्ते, इधर मर.....!' मुझे स्वप्न में भी यह विश्वास नहीं था कि हेड मा 'ट सा व खचाखच भरी सभा म सरेआम अपने मुंह से वह कुकर्म प्रकट कर देंगे । देवी ने एक बार भी मेरी तरफ नही देखा । आखें नीची किये पाव के अंगूठे से चुपचाप धूल कुचर रही थी । आज लाख चेष्टा करने पर भी पुख्ता तौर से सही अंदाज नहीं कर पाता कि वह बायें अंगूठे से धूल से कुचर रही थी या दाहिने अंगूठे से । हेड मा ट सा'ब न निःशंक खुले आम मूलचंद पुराण सुनाया। फिर हाथ के इशारे से मुझे पास बुलाकर मेरी पीठ थपथपायी । पान चबाते -चबाते ही भरी सभा में मेरे प्रति आभार प्रकट करके बोले, 'इस बदमाश खोके ने मेरी बेटी और तुम्हारी देवी की लाज बचायी.. ।' काफी कुछ बोलना चाहते थे, पर उसके बाद कुछ भी बोल नहीं सके। उस दिन शायद पहली बार यत्किचित् आभास हुआ कि मौन की भाषा भी कम ताकतवर नही होती ! बेहद दुबला-पतला होने के कारण सभी विद्यार्थी मुझे 'खोका' कहकर पुकारते थे । पर इरपिंदर, उस समय बीस गामा पहलवान होते तो भी मैं उन्हें टिकने नहीं देता। एक-एक को बारी- सर ऐसा पछाड़ता कि ताजिदगी याद रखते । सचमुच, एक ऐसा ही अपूर्व जोश मेरे रोम-रोम में बिजली की नाई चमक रहा था और आज उम्र की ढलती वेला में भी उस प्राचीन बानगी का स्वाद नही भूला । उन दिनों जोधपुर रियासत मे सभी विभागों के सर्वोच्च अधिकारी अंग्रेज ही होते थे । शिक्षा विभाग का निदेशक ए. पी. कॉक्स नाम का अंग्रेज था । अत्यधिक मिलनसार, बेइन्तहा उदार । हमारे हेड मा 'ट सा'ब की बहुत ही उज्जत करता था। कॉक्स साहब ने कई मर्त्तवा अपनी चौपामनी स्कूल मे उनकी बदली के आदेश निकाले, मगर बाड़मेर की जनता ने उन्हें एक बार भी विदाई नही दी । सारा बाजार बंद । सारा कामकाज ठप्प । और उदार कॉक्स साहब ने भी जनता की मर्यादा को एक बार भी खंडित नही किया। तार-पर-तार खड़खडाने से उन्हें मन मार कर वापस तार से ही बदली रद्द करनी पड़ती । वह एक-से-एक आला चुनिदा अध्यापक चौपासनी स्कूल मे रखता था, पर हमारे हेड मा'ट सा'ब को वह नही बुला सका, जिसकी उसे बेइन्तहा खुशी थी । आजादी के बाद कुछ वैसे असली 'सा'ब' हम हिन्दुस्तान में रख लेते तो अच्छा रहता । अपने काले साहबों को कुछ तो नसीहत मिलती । वाकई ए. पी. कॉक्स अकृत्रिम उदारता व निष्ठा का आदर्श पुतला था ! मरा तब तक न्यूजीलैण्ड से उसके पत्र चंद मित्रों के नाम बराबर आते रहते । अब तुम्ही बताओ इरपिंदर कि वह सौ टंच विशुद्ध सोना था कि नही ? हेड मा 'ट सा'ब न नेचर स्टडी के अध्यापक मूलचंदजी को अदेर मौकूफ करके कॉक्स सा'ब के नाम दस्ती कागज भेजा तो उन्होंने बिना जांच-पड़ताल किये उनकी बात रख ली। उन की बात से मुकरना तो न्याय व सच्चाई से मुकरना होता । ऐसे थे गर्व-गुमान के योग्य हमारे पूज्य हेड माट सा'ब । देवी के चिरअविस्मरणीय बापू । उस दिन वाली प्रार्थना तो जैसे मेरी ही खातिर हुई हो । मुझे ऐसा अनहद गुमान हुआ कि क्या बताऊ ? मेरा सिप्पा जमने में कोई कमर बाकी नही रही । तत्पश्चात् हेड मा'ट सा'ब ने तो सर्वोपरि बदमाश का नाम जानने की कभी उत्कंठा प्रकट नहीं की, पर मेरे अंतस में कही गहरे दबी लालमा उस सवाल की खातिर भीतर ही भीतर फड़फड़ा रही थी, इस में कोई संदेह नहीं । आज तुम्हारे सामने व्यर्थ के शिष्टाचार का दिखावा करूं तो सत्य की मर्यादा विकृत होगी ! यदि उस दिन हेड मा 'ट सा'ब अपने मुह से मूलचंदजी की बा
त सरे आम उजागर नहीं करते तो आज मुझे लिखते समय दो बार सोचना पडता । किन्तु उस खांटी बन्दे ने बाप होकर जब बेटी के बुरे भले की रंचमात्र भी चिन्ता न करके निर्भय - निशंक सबके सामने सत्य पर पर्दा नही डाला तो आज किसे, कैसी जोखिम है ? जोखिम तो उस दिन थी । पर सत्य की टेक रखने वाले जवामर्द बिरले ही जन्म लेते है । सुना है कि धरती बीज नही चुराती, किन्तु इरपिंदर, आजकल तो कुछ ऐसी आशंका खटकने लगी है कि सफेद पोश प्रतिष्ठित चोरों के पावन चरण का स्पर्श पाकर कही धरती तो चोरी कर्ना नही सीख गयी ? मुझे तो अब यह पुख्ता विश्वास होने लगा है कि अपनी धरती से सत्य का बीज बिल्कुल नदारद हो जायेगा । हा, तो उस दिन बाल-प्रीत की निर्मल आत्मीयता के वशीभूत कल्पना के उड़न खटोल पर राजकुमार की तरह आकाश मे चक्कर काटने लगा। 'खोका' का संबोधन तब भी मेरे दिल में कही काटे-सा खटक रहा था । ऐसा क्या गुल खिलाऊ कि लोग मेरे नाम का यथेष्ट सम्मान करें । मेरा नाम उच्चरित करते समय उनका मुह भर आये । शनिवार की नियमित सभा मे रटे-रटाये सवैये, मनहर छद और कवित्त तो सुनाता ही था । तालियों की गड़गड़ाहट उड़ने लगी थी । आखिर सोचते विचारते, बुझतेघुटते एक अटकल सूझी कि दूसरो की कविता नहीं सुना कर खुद कविता बनाऊं तो ज्यादा धाक जमेगी । बलवती आकाक्षा के उकसाने पर नृसिह राजपुरोहित से सलाह-मशविरा किया । वह तो जैसे इसी सुझाव की प्रतीक्षा कर रहा था । तुरंत मान गया । साधुओ के वेश मे बैर्गिये नाले की ओट में चोरी करने वाले तीन चोरों पर दोनों ने साथ बैठ कर कविता करने की सोची। एक- एक पंक्ति पूरी होने पर मानो इंद्रलोक का राज्य हाथ लगता । स्कूल में समय मिलता तो स्कूल में और बोर्डिंग में समय मिलता तो बोडिंग मे नृसिंह के पास अपूर्व खुशी में उड़ कर जाता । सिकंदर को भी अपनी विजय का डंका सुनते समय ऐसा आनंद तो क्या हुआ होगा, जितना हमें वह पहली कविता सम्पूर्ण करने पर हुआ। स्कूल के कण-कण में हमारे नाम की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ने लगी कि मैने व नृसिंह ने कविता बनायी है, कविता ! हां कविता !! मानो धरती पर कोई नया चांद उगा हो । उन दिनों कविता का कुछ ऐसा ही दबदबा था । कई अध्यापकों ने पूछताछ की तो मैंने अभिमान के साथ विनम्र हामी भरी । फिर तो मैने हेकड़ी हेकड़ी मे संस्कृत के चार-पांच श्लोक भी बनाये । पडितजी ने भरे स्कूल के सामने मेरी हिम्मत बधायी । इतने जोर से मेरी पीठ थपथपायी कि सारे शरीर में सनसनाहट-सी फैल गयी। फिर भी दर्द की जगह आंखों में खुशी के मोती भर आये थे। उस दिन की भविष्यवाणी आज की तरह याद है कि मैं पंडितजी का होनहार विद्यार्थी समय आने पर, सारे देश में अपना नाम रौशन करूंगा । गाडी के नीचे चलने वाले कुत्ते की तरह मेरे मन में भी इसी गलतफहमी का ज्वार हिलोरे भरने लगा कि स्कूल की गाड़ी मेरे बूते पर ही चलती है। उन दिनों स्कूल की चहारदीवारी में ही समूची दुनिया समायी हुई थी । हमेशा कविता करना तो हाथ की बात नही थी, पर हमेशा कुबद करना तो हाथ की बात थी । नामवरी का लहू तो होठों लग चुका था । दूसरों की रटी हुई कविताओं की तुलना में मेरी अपनी कविताएं खराब लगती थीं । मगर बदमाशी मे मेरी होड करने वाला कोई नहीं था । नामवरी का उछाह इस राह धीरे-धीरे तुष्ट होने लगा । नादान देवी समझाने की चेष्टा करती; पर निरर्थक । आखिर समझ तो अपनी ही काम देती है, इरपिंदर । शाहजी की सीख फलसे तक । वह कई वार नाराज होती, रूठती, पर बदमाशी की लत मुझ से नही छूटी । कविता की सफलता अभी काफी दूर थी । उस मे नामवरी हासिल करने के लिए बरसों - बरसों तक धैर्य रखने की दरकार थी । बदमाशी के सतोष का चमत्कार तो हाथोहाथ मिलता था । हमारे परिवार मे कुबेरजी वाभा के पास कविता लिखने का अच्छा खासा हुनर था । पढ़ाई और खेलकूद के प्रति उत्साह भी कम नहीं था। बिलाड़ा से सातवी कक्षा पास करके वे आगे पढ़ने के लिए जोबनेर भरती हुए। मुझ से मन पसद कविताएं नहीं लिखी गयी तो मै उनकी कविताएं याद करके सुनाने लगा। सुनने वालो की आंखे ऊंची ललाट में चढ़ जाती । पर मन से छिपी तो कोई चोरी नही होती, इरपिंदर ! मैं स्वयं तो अपना बूता जानता ही था । वैसी कविताएं लिखना मेरे वश की बात नही थी । एक दफा तो शनिवार की सभा में ऐसा ठाट जमा कि क्या बताऊ ! पूरी कविता तो फिलहाल याद नहीं है, पर उसकी अंतिम कड़ी भुलना चाहूं तो भी भूल नही सकता : अड़ी अगरेजी छोड़, धारौ अंग रेजी को काफी लम्बी कविता थी, सात-आठेक मनहर छंदों की । अंग्रेजी फैशन और अंग्रेजी भाषा की बुराई से सराबोर । मेरा मनचीता प्रतिशोध ! ऐसी मालजादी अंग्रेजी छोड़ कर सारे देशवासियो अंग रेजी धारण करो । रेजी कहते हैं हाथों से कती बुनी खादी को । महात्मा गांधी की दुलारी खादी ! फिर क्या कसर बाकी रहती । तालियों पर तालियों की गड़गड़ाहट ! तीसरी बार सुनने के बाद भी श्रोताओं का मन
नहीं भरा । हेड मा ट सा'ब ने अत्यधिक खुशी में छक कर मुझे शाबाशी दी। देवी के आनंद का भी वारापार नहीं था । उस रात दमकते सितारों के बीच उसका मन भी दमका होगा, जरूर दमका होगा। मुझे स्वयं भी कुछ देर के लिए यह भ्रम हुआ कि इस अथाह यश-कीत्ति का दावेदार मैं ही हूं । पर उस रात के सघन अधियारे मे मेरी आंखों के सामने यह स्पष्ट हो गया कि यह तो सरासर चोरी की नामवरी है। क्योंकर कबूल करूं ? किसी एक व्यक्ति को तो सच्चा भेद बताये बिना क्षण भर के लिए चैन नही पड़ेगा । सारी रात नीद नही आयी। पर सवेरे सूरज के छलछलाते उजाले में सब कुछ फिर से अंधियारे के बीच दब गया । समय से घडी डेढ़-घडी पहले स्कूल पहुंचा, पर सिले हुए होंठ तो खुले ही नही । हेड मा ट सा'ब का घर स्कूल से एकदम सटा हुआ ही था । भीतर ही भीतर मन तो खूब ही छटपटाया, मगर जिसे भेद बताना था, उसे नही बता सका । आज पहली बार यह रहस्य उजागर कर रहा हू । मन-ही-मन कुण्ठाग्रस्त होकर मैने उस दिन ज्यादा बदमाशी की। पर साथ ही साथ यह दृढ़ संकल्प किया कि कुबेरजी वाभा जैसी कविताए करके ही दम लूगा । अन्यथा मनुष्य की जिंदगी पाकर धूल ही फांकी । इस तरह जीने को धिक्कार है । इसकी अपेक्षा तो मौत ज्यादा श्रेयस्कर है । पहले ही कहा था कि सरकारी अहलकार का एक पांव दफ्तर में तो दूसरा गली में । सुमेरजी वाभा की बदली जोधपुर हो गयी । सुनते ही ऐसा लगा कि बाड़मेर छूटने के साथ मेरे प्राण भी छूट जायेंगे । इस तरह की अविच्छिन्न आत्मीय मडली से क्योंकर दूर छिटक सकूगा ? वियोग की दाह सुलगते ही यार-दोस्तो की घनिष्ठता का अहसास हुआ। वे कोई मित्र थोड़े ही थे, तारों का जमघट था, जमघट नृसिह, आसूलाल, रामजीवन, राधेश्वर, गिरधारी, हमीरसिंह, मेघसंह इत्यादि... इत्यादि ! आखिरी नाम के आगे इत्यादि इत्यादि की अर्गला जड़ने पर निश्चय ही तुम्हारी मुस्कान थमेगी नही । हरगिज नही थमेगी । पर वह नाम कलम की कालिख द्वारा प्रकट होते ही निर्मल प्रेम की मर्यादा भ्रष्ट हो जायेगी । बादला के पानी में कीच घुल जायेगा । बिजली की पावन दमक पर काजल की तूलिका फिर जायेगी । ऐसा महसूस हुआ कि जैसे फूलों पर मंडराती तितली की पाखे कतर ली गयी हो । तितली मे पांखो के अलावा शेष बचता ही क्या है ? नृसिंह वाली बोडिंग मे भरती होकर वही पढ़ने के लिए सुमेरजी वाभा के सामने डरते-डरते मशा प्रकट की, पर पार नही पड़ी । सयोग तो अपनी लीला अपने हिसाब से रचता है । जितना 'अंजल' था उतना सपना देख लिया। सपने की क्या बिसात ? टूट कर ही रहता है । आंख खुलने के साथ ही सुहाना सपना ध्वस्त हो गया । एक ही क्षण में एक साथ । आशाओं के बादल महल की ढेरी होने मे यह देर लगी, इरपिंदर ! सभी यार-दोस्त गले मिल-मिल कर खूब ही रोये, पर जाने वाले के लिए रुकना हाथ की बात नहीं थी । क्यों तो कलमुंही रेल ने इतनी दूर लाकर जोर से पछाड़ा और अब क्यों क्षत-विक्षत पिड को सहेज कर वापस ले जा रही है ? प्रीत के घरौदे रौंद कर इसे क्या हाथ लगेगा ? पर जिसके निःश्वास से ही काला धुआं निकले, उस से कुछ आशा रखना ही बेकार है। आज तो अधिकांश मित्रों के नाम सोचने पर भी याद नहीं आते, पर उस दिन वाकई वियोग की दाह का कोई पार नहीं था। वैसे घनिष्ठ अंतरंग मित्र पीछे रह गये और मैं अकेला जीवित मुर्दे की तरह आधे-अधूरे होश में गाड़ी रवाना होने के साथ जुदा हो गया । उस समय नृसिंह ने जाली के धागों से गुंथी एक थैली और एक पेन मुझे सौंपा । अत्यधिक स्नेह के साथ, उछाह के साथ । वह थैली उसके हाथ से गुंथी हुई थी चार आंखों से, एक ही सांचे में ढले मोती झार-झार बरसने लगे। पर लम्बा-ही-लम्बा अजगर फुफकारे भरता सब यात्रियों को अपनी ओजरी में समेट कर आगे रपटता ही गया, रपटता ही गया । कलेजे को मसलता हुआ, रौदता हुआ । इत्यादि-इत्यादि बातों पर वही विराम-चिह्न जड़ गया । वसोले की तीखी-तच्च धार से कच्ची कदली के टुकड़े होने पर उन्हें वापस कैसे जोड़ा जा सकता है ? बदली की अशुभ खबर मिलने के बाद एक व्यक्ति से भेंट करने की हिम्मत नही हुई । वह तो स्वयं अपने आप से अपना ही वियोग था, इरपिंदर ! कोई क्योंकर सहन कर सकता है । जीवन और मृत्यु का वियोग तो समझ में आता है, पर मौत-स-मौत का वियोग तो विधात्री भी नही जानती । चार-पांच दिन तक किस तरह अपने-आप से छिपता रहा, आज चाहूं तो भी विश्वास नहीं होता। वैसी शूरवीरता से तो कायरता लाख गुना श्रेष्ठ है। आज दिन तक वापस उस से मिलन नहीं हुआ। उस दिन का 'खोका' और आज का 'बिज्जी' एक ही व्यक्ति है क्या ? मुझे तो ऐसा नही लगता । और न दो मानने के लिए ही मन राजी होता है ! कैसे स्नेहमयी है संयोग की लीला !! कैसी निर्मम है संयोग की लीला !!! तब का जोधपुर शहर भी बाड़मेर से बहुत बड़ा और विचित्र था । दरबार हाईस्कूल, बाड़मेर के मिडल स्कूल में अत्यधिक ठसके वाला था । हेड मास्टर सिंहल साहब के नाम के
पत्थर तैरते थे । शहर का चुनिंदा स्कूल था । वैसे ही नामजद गुरु और वैसे ही कुशल विद्यार्थी ! कुए के मेंढ़क ने जैसे विशाल सरोवर मे छलांग मारी हो । कई दिन तक तो घबराया-घबराया-सा रहा । मानो अपने ठिकाने पर स्वयं खो गया हूं । किसी तरह का कोई संपट ही नहीं जुड़ पाया । जगल की नीलगाय बस्ती मे आने पर जिस तरह होश भूल जाती है, ठीक मेरी भी वही हालत हुई । पर धीरे-धीरे कविता के बूते पर आश्वस्त होने लगा। खिलाड़ी और दौड़ने वालों की पूछ काफी थी। खूमदानजी ने तो आते ही अपनी धाक जमा ली । वे फुटबाल के निहायत उम्दा खिलाड़ी थे । सौ गज की दौड़ मे दांत भींचकर दौड़ते तो अव्वल नंबर में कोई खामी नहीं रहती। पर मैं तो खेल-कूद में एकदम अनाड़ी था। फिर भी नामवरी की भूख तो किसी तरह शांत होना ही नहीं चाहती थी। कुछ तो कविता ने बाजी रखी और कुछ वाद-विवाद की प्रतियोगिता ने । पर बदमाशी, कुबद व कुलंगों का पलड़ा तब भी भारी था । छठी कक्षा पास करके सातवीं में आया तब तक काफी शोहरत हासिल कर ली थी। आज तो भाषण व साक्षात्कार के नाम से कलेजा धुकधुक करने लगता है, पर उन दिनों मंच पर सामने खड़ा
तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जाँच करनी चाहिए कि अपने पूरे जीवन में तुमने परमेश्वर पर किस तरह से विश्वास किया है, ताकि तुम यह देख सको कि परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम परमेश्वर को वास्तव में समझ, बूझ और जान पाए हो या नहीं, तुम वास्तव में जानते हो या नहीं कि विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के प्रति परमेश्वर कैसा रवैया रखता है, और तुम वास्तव में उस कार्य को समझ पाए हो या नहीं, जो परमेश्वर तुम पर कर रहा है और परमेश्वर तुम्हारे प्रत्येक कार्य को किस तरह परिभाषित करता है। यह परमेश्वर, जो तुम्हारे साथ है, तुम्हारी प्रगति को दिशा दे रहा है, तुम्हारी नियति निर्धारित कर रहा है, और तुम्हारी आवश्यकताओं के लिए आपूर्ति कर रहा है - आखिर तुम इस परमेश्वर को कितना समझते हो? तुम इस परमेश्वर के बारे में वास्तव में कितना जानते हो? क्या तुम जानते हो कि हर दिन वह तुम पर क्या कार्य करता है? क्या तुम उन सिद्धांतों और उद्देश्यों को जानते हो, जिन पर वह अपने हर क्रियाकलाप को आधारित करता है? क्या तुम जानते हो, वह कैसे तुम्हारा मार्गदर्शन करता है? क्या तुम उन साधनों को जानते हो, जिनसे वह तुम्हारे लिए आपूर्ति करता है? क्या तुम जानते हो कि किन तरीकों से वह तुम्हारी अगुआई करता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे क्या प्राप्त करना चाहता है और तुम में क्या हासिल करना चाहता है? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे अलग-अलग तरह के व्यवहार के प्रति उसका क्या रवैया रहता है? क्या तुम जानते हो कि तुम उसके प्रिय व्यक्ति हो या नहीं? क्या तुम उसके आनंद, क्रोध, दुःख और प्रसन्नता के उद्गम और उनके पीछे छिपे विचारों और अभिप्रायों तथा उसके सत्व को जानते हो? अंततः, क्या तुम जानते हो कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह किस प्रकार का परमेश्वर है? क्या ये और इसी प्रकार के अन्य प्रश्न, ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में तुमने पहले कभी नहीं सोचा या समझा? परमेश्वर पर अपने विश्वास का अनुसरण करते हुए, क्या तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविक समझ और उनके अनुभव से उसके बारे में अपनी सभी गलतफहमियाँ दूर की हैं? क्या तुमने परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना से गुज़र कर सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह पाई है? क्या तुम परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के दौरान मनुष्य की विद्रोहशीलता और शैतानी प्रकृति को जान पाए हो और क्या तुमने परमेश्वर की पवित्रता के बारे में थोड़ी-सी भी समझ प्राप्त की है? क्या तुमने परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता से जीवन का कोई नया नज़रिया अपनाया है? क्या तुमने परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों के दौरान मनुष्य के अपराधों के प्रति उसकी असहिष्णुता के साथ-साथ यह महसूस किया है कि वह तुमसे क्या अपेक्षा रखता है और वह तुम्हें कैसे बचा रहा है? यदि तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर को गलत समझना क्या है या इस गलतफहमी को कैसे दूर किया जाए, तो यह कहा जा सकता है कि तुमने परमेश्वर के साथ कभी भी वास्तविक समागम में प्रवेश नहीं किया है और परमेश्वर को कभी नहीं समझा है, या कम-से-कम यह कहा जा सकता है कि तुमने उसे कभी समझना नहीं चाहा है। यदि तुम नहीं जानते कि परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना क्या हैं, तो निश्चित रूप से तुम नहीं जानते कि आज्ञाकारिता और परवाह क्या हैं, या कम से कम तुमने कभी वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन और उसकी परवाह नहीं की। यदि तुमने कभी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का अनुभव नहीं किया है, तो तुम निश्चित रूप से नहीं जान पाओगे कि उसकी पवित्रता क्या है, और यह तो बिलकुल भी नहीं समझ पाओगे कि मनुष्यों का विद्रोह क्या होता है। यदि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण कभी उचित नहीं रहा है या जीवन में सही उद्देश्य नहीं रहा है, बल्कि तुम अभी भी अपने भविष्य के मार्ग के प्रति दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में हो, यहाँ तक कि तुम्हें आगे बढ़ने में भी हिचकिचाहट महसूस होती है, तो यह निश्चित है कि तुमने कभी परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन नहीं पाया है; यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हें कभी वास्तव में परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति या पुनःपूर्ति प्राप्त नहीं हुई है। यदि तुम अभी तक परमेश्वर के परीक्षणों से नहीं गुज़रे हो, तो कहने की आवश्यकता नहीं है कि तुम निश्चित रूप से नहीं जान पाओगे कि मनुष्य के अपराधों के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता क्या है, न ही तुम यह समझ पाओगे कि आख़िरकार परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है, और यह तो बिलकुल भी नहीं समझ पाओगे कि अंततः मनुष्य के प्रबंधन और बचाव का उसका कार्य क्या है। चाहे कोई व्यक्ति कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा हो, यदि उसने कभी उसके वचनों में कुछ अनुभव नहीं किया या उनसे कोई बोध हासिल नहीं किया है, तो फिर वह निश्चित रूप से उद्धार के मार्ग पर
नहीं चल रहा है, परमेश्वर पर उसका विश्वास किसी वास्तविक तत्त्व से रहित है, उसका परमेश्वर का ज्ञान भी निश्चित ही शून्य है, और कहने की आवश्यकता नहीं कि परमेश्वर के प्रति श्रद्धा क्या होती है, इसका उसे बिलकुल भी पता नहीं है। परमेश्वर का स्वरूप और अस्तित्व, परमेश्वर का सार, परमेश्वर का स्वभाव - यह सब मानवजाति को उसके वचनों के माध्यम से अवगत कराया जा चुका है। जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है, तो उन्हें अभ्यास में लाने की प्रक्रिया में वह परमेश्वर के कहे वचनों के पीछे छिपे उद्देश्य को समझेगा, परमेश्वर के वचनों के स्रोत और पृष्ठभूमि को समझेगा, और परमेश्वर के वचनों के अभीष्ट प्रभाव को समझेगा और बूझेगा। जीवन और सत्य में प्रवेश करने, परमेश्वर के इरादों को समझने, अपना स्वभाव परिवर्तित करने, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारी होने में सक्षम होने के लिए मनुष्य को ये सब चीज़ें अनुभव करनी, समझनी और प्राप्त करनी चाहिए। जिस समय मनुष्य इन चीज़ों को अनुभव करता, समझता और प्राप्त करता है, उसी समय वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ प्राप्त कर लेता है, और साथ ही उसके विषय में वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त कर लेता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य द्वारा कल्पित या निर्मित किसी चीज़ से नहीं आती, बल्कि उससे आती है, जिसे वह अपने भीतर समझता, अनुभव करता, महसूस करता और पुष्टि करता है। इन बातों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और पुष्टि करने के बाद ही मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान में तत्त्व की प्राप्ति होती है; केवल मनुष्य द्वारा इस समय प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक, असली और सटीक होता है और यह प्रक्रिया - परमेश्वर के वचनों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और उनकी पुष्टि करने के माध्यम से परमेश्वर की वास्तविक समझ और ज्ञान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं, वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य सच में परमेश्वर के उद्देश्यों को समझ-बूझ पाता है, परमेश्वर के स्वरूप और अस्तित्व को जान पाता है, सच में परमेश्वर के सार को समझ और जान पाता है, धीरे-धीरे परमेश्वर के स्वभाव को जान और समझ पाता है, संपूर्ण सृष्टि के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व के बारे में निश्चितता और उसकी सही परिभाषा पर पहुँच पाता है और परमेश्वर की पहचान और स्थिति का ज्ञान और अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी स्थिति की अनिवार्य समझ प्राप्त कर पाता है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने विचार थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, वह परमेश्वर को अपनी कल्पना की उड़ान नहीं मानता, या वह उसके बारे में अपने संदेहों को बेलगाम नहीं दौड़ाता, या उसे गलत नहीं समझता, उसकी निंदा नहीं करता, उसकी आलोचना नहीं करता या उस पर संदेह नहीं करता। इस प्रकार, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद बहुत कम होंगे, वह परमेश्वर के साथ कम संघर्ष करेगा, और ऐसे मौके कम आएँगे, जब वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करेगा। इसके विपरीत, मनुष्य द्वारा परमेश्वर की परवाह और आज्ञाकारिता बढ़ेगी और परमेश्वर के प्रति उसका आदर अधिक वास्तविक और गहन होगा। ऐसे समागम के मध्य, मनुष्य न केवल सत्य का पोषण और जीवन का बपतिस्मा प्राप्त करेगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान भी प्राप्त करेगा। ऐसे समागम के मध्य न केवल मनुष्य का स्वभाव बदलेगा और वह उद्धार पाएगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी की वास्तविक श्रद्धा और आराधना भी प्राप्त करेगा। इस प्रकार का समागम कर लेने के बाद मनुष्य का परमेश्वर पर विश्वास किसी कोरे कागज़ की तरह या दिखावटी प्रतिज्ञा के समान, या एक अंधानुकरण अथवा मूर्ति-पूजा के रूप में नहीं रहेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन परिपक्वता की ओर बढ़ेगा, और तभी उसका स्वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होगा और परमेश्वर के प्रति उसका विश्वास कदम-दर-कदम अस्पष्ट और अनिश्चित विश्वास से एक सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह में, वास्तविक श्रद्धा में बदलेगा और परमेश्वर के अनुसरण की प्रक्रिया में मनुष्य का रुख भी उत्तरोत्तर निष्क्रियता से सक्रियता, नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ-बूझ और सच्चा ज्ञान प्राप्त करेगा। चूँकि अधिकतर लोगों ने कभी परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं किया है, अतः परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान सिद्धांत, शब्द और वाद पर आकर ठहर जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, भले ही कितने भी सालों से परमेश्वर पर विश्वास करता आ रहा हो, लेकिन परमेश्वर को जानने के संबंध में अभी भी उसी स्थान पर है, जहाँ से उसने शुरुआत की थी, और वह सामंती
अंधविश्वासों और रोमानी रंगों से युक्त भक्ति के पारंपरिक रूपों की बुनियाद पर ही अटका हुआ है। मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान के प्रस्थान-बिंदु पर ही रुके होने का अर्थ व्यावहारिक रूप से उसका न होना है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर की स्थिति और पहचान की पुष्टि के अलावा परमेश्वर पर मनुष्य का विश्वास अभी भी अस्पष्ट अनिश्चतता की स्थिति में ही है। ऐसा होने से, मनुष्य परमेश्वर के प्रति कितनी वास्तविक श्रद्धा रख सकता है? चाहे तुम कितनी भी दृढ़ता से परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास क्यों न करो, वह परमेश्वर संबंधी तुम्हारे ज्ञान की जगह नहीं ले सकता, न ही वह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा की जगह ले सकता है। चाहे तुमने उसके आशीष और अनुग्रह का कितना भी आनंद क्यों न लिया हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान की जगह नहीं ले सकता। चाहे तुम उस पर अपना सर्वस्व अर्पित करने और उसके लिए अपना सब-कुछ व्यय करने के लिए कितने भी तैयार हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद तुम परमेश्वर के कहे हुए वचनों से बहुत परिचित हो गए हो, या शायद तुमने उन्हें रट भी लिया हो और तुम उन्हें तेजी से दोहरा सकते हो; लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करने का कितना भी अभिलाषी हो, यदि उसका परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं हुआ है, या उसने परमेश्वर के वचनों का वास्तविक अनुभव नहीं किया है, तो परमेश्वर संबंधी उसका ज्ञान खाली शून्य या एक अंतहीन दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं होगा; तुम भले ही आते-जाते परमेश्वर से "टकराए" हो या उससे रूबरू हुए हो, तुम्हारा परमेश्वर संबंधी ज्ञान फिर भी शून्य ही है और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्शवादी अवधारणा के अलावा और कुछ नहीं है। कई लोग परमेश्वर के वचनों को दिन-रात पढ़ते रहते हैं, यहाँ तक कि उनके उत्कृष्ट अंशों को सबसे बेशकीमती संपत्ति के तौर पर स्मृति में अंकित कर लेते हैं, इतना ही नहीं, वे जगह-जगह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, और दूसरों को भी परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति करके उनकी सहायता करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर की गवाही देना है, उसके वचनों की गवाही देना है; ऐसा करना परमेश्वर के मार्ग का पालन करना है; वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना है, ऐसा करना उसके वचनों को अपने जीवन में लागू करना है, ऐसा करना उन्हें परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने, बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने योग्य बनाएगा। परंतु परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हुए भी वे कभी परमेश्वर के वचनों पर खुद अमल नहीं करते या परमेश्वर के वचनों में जो प्रकाशित किया गया है, उससे अपनी तुलना करने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग छल से दूसरों की प्रशंसा और विश्वास प्राप्त करने, अपने दम पर प्रबंधन में प्रवेश करने, परमेश्वर की महिमा का गबन और उसकी चोरी करने के लिए करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के प्रसार से मिले अवसर का दोहन परमेश्वर का कार्य और उसकी प्रशंसा पाने के लिए करने की व्यर्थ आशा करते हैं। कितने ही वर्ष गुज़र चुके हैं, परंतु ये लोग परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में न केवल परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं, परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की प्रक्रिया में न केवल उस मार्ग को खोजने में असफल रहे हैं जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए, दूसरों को परमेश्वर के वचनों से सहायता और पोषण प्रदान करने की प्रक्रिया में न केवल उन्होंने स्वयं सहायता और पोषण नहीं पाया है, और इन सब चीज़ों को करने की प्रक्रिया में वे न केवल परमेश्वर को जानने या परमेश्वर के प्रति स्वयं में वास्तविक श्रद्धा जगाने में असमर्थ रहे हैं; बल्कि, इसके विपरीत, परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ और अधिक गहरी हो रही हैं; उस पर अविश्वास और अधिक बढ़ रहा है और उसके बारे में उनकी कल्पनाएँ और अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण होती जा रही हैं। परमेश्वर के वचनों के बारे में अपने सिद्धांतों से आपूर्ति और निर्देशन पाकर वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे बिलकुल मनोनुकूल परिस्थिति में हों, मानो वे अपने कौशल का सरलता से इस्तेमाल कर रहे हों, मानो उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य, अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो, और मानो उन्होंने एक नया जीवन जीत लिया हो और वे बचा लिए गए हों, मानो परमेश्वर के वचनों को धाराप्रवाह बोलने से उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया हो, परमेश्वर के इरादे समझ लिए हों, और परमेश्वर को जानने का मार्ग खोज लिया हो, मानो परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में वे अकसर परमेश्वर से रूबरू होते हों। साथ ही, अक्सर वे "द्रवित" होकर बार-बार रोते हैं और
बहुधा परमेश्वर के वचनों में "परमेश्वर" की अगुआई प्राप्त करते हुए, वे उसकी गंभीर परवाह और उदार मंतव्य समझते प्रतीत होते हैं और साथ ही लगता है कि उन्होंने मनुष्य के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रबंधन को भी जान लिया है, उसके सार को भी जान लिया है और उसके धार्मिक स्वभाव को भी समझ लिया है। इस नींव के आधार पर, वे परमेश्वर के अस्तित्व पर और अधिक दृढ़ता से विश्वास करते, उसकी उत्कृष्टता की स्थिति से और अधिक परिचित होते और उसकी भव्यता एवं श्रेष्ठता को और अधिक गहराई से महसूस करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के वचनों के सतही ज्ञान से ओतप्रोत होने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विश्वास में वृद्धि हुई है, कष्ट सहने का उनका संकल्प दृढ़ हुआ है, और परमेश्वर संबंधी उनका ज्ञान और अधिक गहरा हुआ है। वे नहीं जानते कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव नहीं करेंगे, तब तक उनका परमेश्वर संबंधी सारा ज्ञान और उसके बारे में उनके विचार उनकी अपनी इच्छित कल्पनाओं और अनुमान से निकलते हैं। उनका विश्वास परमेश्वर की किसी भी प्रकार की परीक्षा के सामने नहीं ठहरेगा, उनकी तथाकथित आध्यात्मिकता और उनका आध्यात्मिक कद परमेश्वर के किसी भी परीक्षण या निरीक्षण के तहत बिलकुल नहीं ठहरेगी, उनका संकल्प रेत पर बने हुए महल से अधिक कुछ नहीं है, और उनका परमेश्वर संबंधी तथाकथित ज्ञान उनकी कल्पना की उड़ान से अधिक कुछ नहीं है। वास्तव में इन लोगों ने, जिन्होंने एक तरह से परमेश्वर के वचनों पर काफी परिश्रम किया है, कभी यह एहसास ही नहीं किया कि सच्ची आस्था क्या है, सच्ची आज्ञाकारिता क्या है, सच्ची देखभाल क्या है, या परमेश्वर का सच्चा ज्ञान क्या है। वे सिद्धांत, कल्पना, ज्ञान, हुनर, परंपरा, अंधविश्वास, यहाँ तक कि मानवता के नैतिक मूल्यों को भी परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए "पूँजी" और "हथियार" का रूप दे देते हैं, उन्हें परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का आधार बना लेते हैं। साथ ही, वे इस पूँजी और हथियार का जादुई तावीज़ भी बना लेते हैं और उसके माध्यम से परमेश्वर को जानते हैं और उसके निरीक्षणों, परीक्षणों, ताड़ना और न्याय का सामना करते हैं। अंत में जो कुछ वे प्राप्त करते हैं, उसमें फिर भी परमेश्वर के बारे में धार्मिक संकेतार्थों और सामंती अंधविश्वासों से ओतप्रोत निष्कर्षों से अधिक कुछ नहीं होता, जो हर तरह से रोमानी, विकृत और रहस्यमय होता है। परमेश्वर को जानने और उसे परिभाषित करने का उनका तरीका उन्हीं लोगों के साँचे में ढला होता है, जो केवल ऊपर स्वर्ग में या आसमान में किसी वृद्ध के होने में विश्वास करते हैं, जबकि परमेश्वर की वास्तविकता, उसका सार, उसका स्वभाव, उसका स्वरूप और अस्तित्व आदि - वह सब, जो वास्तविक स्वयं परमेश्वर से संबंध रखता है - ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें समझने में उनका ज्ञान विफल रहा है, जिनसे उनके ज्ञान का पूरी तरह से संबंध-विच्छेद हो गया है, यहाँ तक कि वे इतने अलग हैं, जितने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव। इस तरह, हालाँकि वे लोग परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति और पोषण में जीते हैं, फिर भी वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर सचमुच चलने में असमर्थ हैं। इसका वास्तविक कारण यह है कि वे कभी भी परमेश्वर से परिचित नहीं हुए हैं, न ही उन्होंने उसके साथ कभी वास्तविक संपर्क या समागम किया है, अतः उनके लिए परमेश्वर के साथ पारस्परिक समझ पर पहुँचना, या अपने भीतर परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास पैदा कर पाना, उसका सच्चा अनुसरण या उसकी सच्ची आराधना जाग्रत कर पाना असंभव है। इस परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण ने - कि उन्हें इस प्रकार परमेश्वर के वचनों को देखना चाहिए, उन्हें इस प्रकार परमेश्वर को देखना चाहिए, उन्हें अनंत काल तक अपने प्रयासों में खाली हाथ लौटने, और परमेश्वर का भय मानने तथा बुराई से दूर रहने के मार्ग पर न चल पाने के लिए अभिशप्त कर दिया है। जिस लक्ष्य को वे साध रहे हैं और जिस ओर वे जा रहे हैं, वह प्रदर्शित करता है कि अनंत काल से वे परमेश्वर के शत्रु हैं और अनंत काल तक वे कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यदि किसी ऐसे व्यक्ति की, जिसने कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है और कई सालों तक उसके वचनों के पोषण का आनंद लिया है, परमेश्वर संबंधी परिभाषा अनिवार्यतः वैसी ही है, जैसी मूर्तियों के सामने भक्ति-भाव से दंडवत करने वाले व्यक्ति की होती है, तो यह इस बात का सूचक है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता प्राप्त नहीं की है। इसका कारण यह है कि उसने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में बिलकुल भी प्रवेश नहीं किया है और इस कारण से, परमेश्वर के वचनों में निहित वास्तविकता, सत्य, इरादों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं का उस व्यक्ति से कुछ
लेना-देना नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के सतही अर्थ पर चाहे कितनी भी मेहनत से कार्य करे, वह सब व्यर्थ है : क्योंकि वह मात्र शब्दों का अनुसरण करता है, इसलिए उसे अनिवार्य रूप से मात्र शब्द ही प्राप्त होंगे। परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन दिखने में भले ही सीधे-सादे या गहन हों, लेकिन वे सभी सत्य हैं, और जीवन में प्रवेश करने वाले मनुष्य के लिए अपरिहार्य हैं; वे जीवन-जल के ऐसे झरने हैं, जो मनुष्य को आत्मा और देह दोनों से जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। वे मनुष्य को जीवित रहने के लिए हर ज़रूरी चीज़ मुहैया कराते हैं; उसके दैनिक जीवन के लिए सिद्धांत और मत; उद्धार पाने के लिए जो मार्ग उसे अपनाना आवश्यक है साथ ही उस मार्ग के लक्ष्य और दिशा; उसके अंदर परमेश्वर के समक्ष एक सृजित प्राणी के रूप में हर सत्य होना चाहिए; तथा हर वह सत्य होना चाहिए कि मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाकारिता और आराधना कैसे करता है। वे मनुष्य का अस्तित्व सुनिश्चित करने वाली गारंटी हैं, वे मनुष्य का दैनिक आहार हैं, और ऐसा मजबूत सहारा भी हैं, जो मनुष्य को सशक्त और अटल रहने में सक्षम बनाते हैं। वे सत्य की वास्तविकता से संपन्न हैं जिससे सृजित मनुष्य सामान्य मानवता को जीता है, वे उस सत्य से संपन्न हैं, जिससे मनुष्य भ्रष्टता से मुक्त होता है और शैतान के जाल से बचता है, वे उस अथक शिक्षा, उपदेश, प्रोत्साहन और सांत्वना से संपन्न हैं, जो स्रष्टा सृजित मानवजाति को देता है। वे ऐसे प्रकाश-स्तंभ हैं, जो मनुष्य को सभी सकारात्मक बातों को समझने के लिए मार्गदर्शन और प्रबुद्धता देते हैं, ऐसी गारंटी हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि मनुष्य उस सबको जो धार्मिक और अच्छा है, उन मापदंडों को जिन पर सभी लोगों, घटनाओं और वस्तुओं को मापा जाता है, तथा ऐसे सभी दिशानिर्देशों को जिए और प्राप्त करे, जो मनुष्य को उद्धार और प्रकाश के मार्ग पर ले जाते हैं। केवल परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों में ही मनुष्य को सत्य और जीवन की आपूर्ति की जा सकती है; केवल इनसे ही मनुष्य की समझ में आ सकता है कि सामान्य मानवता क्या है, सार्थक जीवन क्या है, वास्तविक सृजित प्राणी क्या है, परमेश्वर के प्रति वास्तविक आज्ञाकारिता क्या है; केवल इनसे ही मनुष्य को समझ में आ सकता है कि उसे परमेश्वर की परवाह किस तरह करनी चाहिए, सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए, और एक वास्तविक मनुष्य की समानता कैसे प्राप्त करनी चाहिए; केवल इनसे ही मनुष्य को समझ में आ सकता है कि सच्ची आस्था और सच्ची आराधना क्या है; केवल इनसे ही मनुष्य समझ पाता है कि स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों का शासक कौन है; केवल इनसे ही मनुष्य समझ सकता है कि वह जो समस्त सृष्टि का स्वामी है, किन साधनों से सृष्टि पर शासन करता है, उसकी अगुआई करता है और उसका पोषण करता है; और केवल इनसे ही मनुष्य समझ-बूझ सकता है कि वह, जो समस्त सृष्टि का स्वामी है, किन साधनों के ज़रिये मौजूद रहता है, स्वयं को अभिव्यक्त करता है और कार्य करता है। परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों से अलग, मनुष्य के पास परमेश्वर के वचनों और सत्य का कोई वास्तविक ज्ञान या अंतदृष्टि नहीं होती। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से एक ज़िंदा लाश, पूरा घोंघा होता है, और स्रष्टा से संबंधित किसी भी ज्ञान का उससे कोई वास्ता नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, ऐसे व्यक्ति ने कभी उस पर विश्वास नहीं किया है, न कभी उसका अनुसरण किया है, और इसलिए परमेश्वर न तो उसे अपना विश्वासी मानता है और न ही अपना अनुयायी, एक सच्चा सृजित प्राणी मानना तो दूर की बात रही। एक सच्चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि स्रष्टा कौन है, मनुष्य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की ज़िम्मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, उसे स्रष्टा के इरादों, इच्छाओं और अपेक्षाओं को समझना, बूझना और जानना चाहिए, उनकी परवाह करनी चाहिए, और स्रष्टा के तरीके के अनुरूप कार्य करना चाहिए - परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो। परमेश्वर का भय मानना क्या है? और बुराई से दूर कैसे रहा जा सकता है? "परमेश्वर का भय मानने" का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्वास होता है। वरन् यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, आज्ञाकारिता, समर्पण और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण होता है। परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची श्रद्धा, सच्चा विश्वास, सच्ची समझ, सच्ची परवाह या आज्ञाकारिता नहीं होगी, वरन् केवल डर और व्यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच
्चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची आराधना और समर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्वास होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य परमेश्वर के तरीके के अनुसार कार्य नहीं कर पाएगा, या परमेश्वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्य और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्ट आचरण से भरा होगा। जब मनुष्य को परमेश्वर में सच्चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्वर पर सच्चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्वर के वास्तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्तविक परवाह आती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्ची आज्ञाकारिता आ सकती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता से ही मनुष्य में सच्चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्चे विश्वास और निर्भरता, सच्ची समझ और परवाह, सच्ची आज्ञाकारिता, सच्चे समर्पण और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव और सार को जान सकता है, स्रष्टा की पहचान को जान सकता है; स्रष्टा को वास्तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्ची आराधना और समर्पण जाग्रत कर सकता है; स्रष्टा के प्रति सच्ची आराधना और समर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में बुरे मार्गों का त्याग कर पाएगा, अर्थात्, बुराई से दूर रह पाएगा। इससे "परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की संपूर्ण प्रक्रिया बनती है, और यही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मूल तत्व भी है। यही वह मार्ग है, जिसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए पार करना आवश्यक है। "परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता का त्याग करना" तथा परमेश्वर को जानना अभिन्न रूप से असंख्य सूत्रों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्वतः स्पष्ट है। यदि कोई बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का वास्तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का वास्तविक भय मानना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों के रूबरू आना चाहिए, परमेश्वर के रूबरू आना चाहिए, और परमेश्वर से निवेदन करना चाहिए कि वह लोगों, घटनाओं और वस्तुओं से युक्त सभी प्रकार के परिवेशों के रूप में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के अवसर प्रदान करे; यदि कोई परमेश्वर और उसके वचनों के रूबरू आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्चा हृदय, सत्य को स्वीकार करने की तत्परता, कष्ट झेलने की इच्छा, और बुराई से दूर रहने का संकल्प और साहस, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, तुम परमेश्वर के निरंतर करीब आते जाओगे, तुम्हारा हृदय निरंतर शुद्ध होता जाएगा, और तुम्हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्य, परमेश्वर को जान पाने के कारण निरंतर अधिक अर्थपूर्ण और दीप्तिमान होते जाएँगे। फिर एक दिन तुम अनुभव करोगे कि स्रष्टा अब कोई पहेली नहीं रह गया है, स्रष्टा कभी तुमसे छिपा नहीं था, स्रष्टा ने कभी अपना चेहरा तुमसे छिपाया नहीं था, स्रष्टा तुमसे बिलकुल भी दूर नहीं है, स्रष्टा अब बिलकुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, वह वाकई और सच में तुम्हारे दाएँ-बाएँ खड़ा तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह सुदूर क्षितिज पर नहीं है, न ही उसने अपने आपको ऊपर कहीं बादलों में छिपाया हुआ है। वह एकदम तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे सर्वस्व पर आधिपत्य कर रहा है, वह वो सब है जो तुम्हारे पास है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्हारे पास है। ऐसा परमेश्वर तुम्हें स्वयं को अपने हृदय से प्रेम करने देता है, स्वयं से लिपटने देता है, स्वयं को पकड़ने देता है, अपनी स्तुति करने देता है, गँवा देने का भय पैदा करता है, अपना त्याग करने, अपनी अवज्ञा करने, अपने को टालने या दूर करने का अनिच्छुक बना देता है। तुम बस उसकी परवाह करना, उसका आज्ञापालन करना, जो भी वह देता है उस सबका
प्रतिदान करना और उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होना चाहते हो। तुम अब उसके द्वारा मार्गदर्शन किए जाने, पोषण दिए जाने, निगरानी किए जाने, उसके द्वारा देखभाल किए जाने से इंकार नहीं करते और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करने से इंकार करते हो। तुम सिर्फ़ उसका अनुसरण करना चाहते हो, उसके साथ उसके आस-पास रहना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र जीवन स्वीकार करना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्वर स्वीकार करना चाहते हो।
कृपा करें और पूरी तरह अश्रद्धालु हो जाएं। डरें मत। भय भी न खाएं। तर्क ही करना है, तो पूरा कर लें। कुतर्क की सीमा का भी कुछ संकोच न करें। पूरी तरह उतर जाएं अपनी अश्रद्धा में। वह पूरी तरह उतर जाना ही आपको नरक में ले जाएगा। और नरक में जाए बिना नरक से कोई छुटकारा नहीं है। और दूसरों की बातें मत सुनें। क्योंकि अधकचरी दूसरों की बातें कोई सहायता न पहुंचाएंगी। जब आप नरक की तरफ जा रहे हों, तो स्वर्ग की बात ही भूल जाएं और पूरी तरह नरक में उतर जाएं। एक बार अनुभव कर लें ठीक से, तो फिर किसी को कहना नहीं पड़ेगा कि श्रद्धा का अमृत क्या है। अश्रद्धा का जहर जिसने देख लिया, वह अपने आप श्रद्धा के अमृत की तरफ चलना शुरू हो जाता है। इस युग की तकलीफ अश्रद्धा नहीं है। इस युग की तकलीफ अधूरापन है। आपका आधा हिस्सा श्रद्धा से भरा है और आधा अश्रद्धा से भरा है। कोई भी यात्रा पूरी नहीं हो पाती। और ध्यान रहे, बुराई से भी छूटने का कोई उपाय नहीं है, जब तक बुराई पूरी न हो जाए। और पाप के भी बाहर उठने का कोई रास्ता नहीं है, जब तक कि पाप में आप पूरी तरह डूब न जाएं। जिसमें हम पूरी तरह डूबते हैं, जिसका हमें पूरा अनुभव हो जाता है, फिर किसी को कहने की जरूरत नहीं होती कि आप इसके बाहर निकल आएं। आप स्वयं ही निकलना शुरू कर देते हैं। अभी तो बहुत लोग आपको समझाते हैं कि श्रद्धा करो और श्रद्धा नहीं आती। क्योंकि जिसने अश्रद्धा ही ठीक से नहीं की है, उसे श्रद्धा कैसे आ सकेगी! श्रद्धा अश्रद्धा के बाद का चरण है। आस्तिक वही हो सकता है, जो नास्तिक हो चुका है। नास्तिकता के पहले सारी आस्तिकता बचकानी, दो कौड़ी की होती है। जिसने नास्तिकता नहीं जानी, वह आस्तिक हो कैसे सकेगा? जिसने अभी इनकार करना नहीं सीखा, उसके हं। का भी कोई मूल्य नहीं है। उसके स्वीकार में भी कोई जान नहीं है। उसका स्वीकार नपुंसक है, इम्पोटेंट है कोई डर नहीं है। न कहें, परमात्मा नाराज नहीं होता है। लेकिन पूरे हृदय से न कहें, तो न भी उबारने वाली हो जाती है। और जिसने पूरी तरह से न कहकर देख लिया और देख लिया कि न कहने का दुख और संताप क्या है और झेल ली चिंता और आग की लपटें, वह आज नहीं कल ही कहने की तरफ बढ़ेगा। उसकी हा में बल होगा। उसकी ही में उसके जीवन का अनुभव होगा। तो मुझसे यह मत पूछें कि आपका चित्त अश्रद्धा से भरा है, तो आप प्रार्थना की तरफ कैसे जाएं। पूरी तरह अश्रद्धा से भर जाएं। आपके लिए प्रार्थना की तरफ जाने के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। मगर अधूरे - अधूरे होना अच्छा नहीं है। परमात्मा की प्रार्थना भी कर रहे हैं और भीतर संदेह भी है, तो प्रार्थना क्यों कर रहे हैं? बंद करें यह प्रार्थना। अभी संदेह ही कर लें ठीक से। और जब संदेह न बचे, तब प्रार्थना शुरू करें। कुछ भी पूरा करना सीखना चाहिए। क्योंकि पूरा करते ही व्यक्तित्व अखंड हो जाता है। आप टुकड़े-टुकड़े में नहीं होते। आपके भीतर पच्चीस तरह के आदमी हैं। आप एक भीड़ हैं। एक मन का हिस्सा कुछ कहता है। दूसरा मन का हिस्सा कुछ कहता है। तीसरा मन का हिस्सा कुछ कहता है। एक देवी मेरे पास आज सुबह ही आई थीं। कहती हैं कि बीस साल से ईश्वर की खोज कर रही हैं। मैंने उनसे कहा कि कल सुबह चौपाटी पर ध्यान के लिए पहुंच जाएं छः बजे। उन्होंने कहा, छः बजे आना तो बहुत मुश्किल होगा। बीस साल से ईश्वर की खोज चल रही है! सुबह छः बजे चौपाटी पर आना मुश्किल है! यह ईश्वर की खोज है! इस तरह के अधूरे लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। ये त्रिशंकु की भांति अटके रह जाते हैं। संकोच भी नहीं होता, सोचने में खयाल भी नहीं आता कि मैं कह रही हूं कि बीस साल से मैं ईश्वर को खोज रही हूं और सुबह छः बजे पहुंचना मुश्किल है! यह खोज कितनी कीमत की है ? बीस जन्म भी इस तरह खोजो, तो कहीं पहुंचना नहीं हो पाएगा। यह खोज है ही नहीं। यह सिर्फ धोखा है। ईश्वर से कुछ लेना - देना भी मालूम नहीं पड़ता है। यह भी ऐसे रास्ते चलते पूछ लिया है। यह भी ऐसे ही कि कहीं ईश्वर पड़ा हुआ मिल जाए और फुर्सत का समय हो, तो जैसा ताश खेल लेते हैं, ऐसा उसको भी उठा लेंगे। ईश्वर अगर कहीं ऐसे ही मिलता हों - बिना कुछ खर्च किए, बिना कुछ श्रम किए, बिना कुछ छोड़े, बिना कुछ मेहनत उठाए-तो सोचेंगे; ले लेंगे। इस भाव से जो चलता है, उसकी श्रद्धा भी झूठी है, उसकी अश्रद्धा भी झूठी है। उसकी खोज भी झूठी है। उसका व्यक्तित्व ही पूरा झूठा है। सच्चे होना सीखें। सच्चे होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं है। नास्तिक भी सच्चा हो सकता है। फिर नास्तिकता पूरी होनी चाहिए; तो आप सच्चे नास्तिक हो गए। और मैंने अब तक नहीं सुना है कि कोई सच्चा नास्तिक आस्तिक बनने से बच गया हो। सच्चे नास्तिक को आस्तिक बनना ही पड़ता है। क्योंकि जिसकी नास्तिकता तक में सच्चाई है, वह कितने देर तक अपने को आस्तिक बनाने से रोक सकता ह
ै! लेकिन तुम्हारी आस्तिकता तक झूठी है। और जिसकी आस्तिकता तक झूठी है, वह कैसे परमात्मा तक पहुंच सकता है! धार्मिकता भी झूठी है, ऊपर-ऊपर है। जरा - सा खोदो, तो हर आदमी के भीतर नास्तिक मिल जाता है। बस, ऊपर से एक पर्त है आस्तिकता की, स्किन डीप। चमड़ी जरा - सी खरोंच दो, नास्तिक बाहर आ जाता है। और वह जो भीतर है, वही असली है। वह जो ऊपर-ऊपर है, उसका कोई मूल्य नहीं है। तो पहले तो ईमानदारी से इस बात की खोज करें कि अश्रद्धा है, शंका है, तो ठीक है। मेरे चित्त में जो स्वाभाविक है, मैं उसका पीछा करूंगा। तो मैं शंका पूरी करूंगा जब तक कि हार न जाऊं। और जब तक कि मेरी शंका टूट न जाए, तब तक जहां मेरी शंका मुझे ले जाएगी, मैं जाऊंगा। थोड़ी हिम्मत करें और शंका के रास्ते पर चलें। ज्यादा आगे आप नहीं जा सकेंगे। क्योंकि शंका का रास्ता कहां ले जाएगा? शंका का अंतिम परिणाम क्या होगा? संदेह करके कहां पहुंचेंगे? क्या मिलेगा? आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि संदेह से उसे आनंद मिला हो। और आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि शंका से उसे जीवन की परम अनुभूति का अनुभव हुआ हो। आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि इनकार करके उसने अस्तित्व की गहराई में प्रवेश कर लिया हो। आज नहीं कल आपको दिखाई पड़ने लगेगा कि आप अस्तित्व के बाहर - बाहर परिधि पर भटक रहे हैं। आज नहीं कल आपको खुद ही दिखाई पड़ने लगेगा, आपकी शंका ईश्वर को नहीं मिटा रही है, आपको मिटा रही है। और आपका संदेह धर्म के खिलाफ नहीं है, आपके ही खिलाफ है, आपके ही पैरों को और जड़ों को काटे डाल रहा है। जब तक आपको यह दिखाई न पड़ जाए कि आपकी शंका आपकी ही शत्रु है, तब तक, तब तक आप प्रार्थना की यात्रा पर नहीं निकल सकते हैं। मेरे कहने से आप नहीं निकलेंगे। किसी के कहने से आप नहीं निकलेंगे। जब आपकी शंका आपको आग की तरह जलाने लगेगी, तभी! बुद्ध के पास एक आदमी आया था। और वह आदमी कहने लगा, आपकी बातें सुनते हैं, अच्छा लगता है; लेकिन संसार से छूटने का मन नहीं होता अभी। और आप कहते हैं कि संसार दुख है, यह भी समझ में आता है, लेकिन फिर भी अभी संसार में रस है। तो बुद्ध ने कहा, मेरे कहने से कि संसार दुख है, तुझे कैसे समझ में आ सकेगा! और जिस दिन तुझे समझ में आ जाएगा कि संसार में दुख है, तू मेरे लिए रुकेगा! तू छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। बुद्ध ने कहा, तू ऐसा समझ कि तेरे घर में आग लग गई है। तो तू मुझसे पूछने आएगा कि घर से बाहर निकलूं न निकलूं? तू किस से पूछने रुकेगा? अगर मैं तेरे घर में मेहमान भी हूं तो भी तू मुझे भीतर ही छोड़कर बाहर निकल जाएगा। पहले तू बाहर निकल जाएगा। लेकिन तुझे खुद ही अनुभव होना चाहिए कि घर में आग लगी है। तुझे तो लग रहा हो कि घर के चारों तरफ फूल खिले हैं और आनंद की वर्षा हो रही है, और मैं तुझसे कह रहा हूं कि तेरे घर में आग लगी है, तो तू मुझसे कहता है, आपकी बात समझ में आती है। क्योंकि तेरी इतनी हिम्मत भी नहीं है कहने की कि आपकी बात मुझे समझ में नहीं आती। तेरा यह भी साहस नहीं है कहने का कि तुम झूठ बोल रहे हो। यह घर तो बड़े आनंद से भरा है। आग कहां लगी है! तू बिलकुल कमजोर है। तो तू कहता है कि बात समझ में आती है कि घर में आग लगी है, फिर भी छोड़ने का मन नहीं होता। ये दोनों बातें विरोधी अगर घर में आग लगी है, तो छोड़ने का मन होगा ही। छोड़ने का मन कहना भी ठीक नहीं है। घर में आग लगी हो, तो आपको पता भी नहीं चलता कि आग लगी है। जब आप घर के बाहर हो जाते हैं, ठीक से सांस लेते हैं, तब पता चलता है कि घर में आग लगी है। घर में आग लगी है, यह सोचने के लिए भी समय नहीं गंवाते। भागकर पहले बाहर हो जाते हैं। जिस दिन आपकी शंका, संदेह, अनास्था आपके लिए अग्नि की लपटें बन जाएगी, उसी दिन आप प्रार्थना की तरफ दौड़ेंगे, उसके पहले नहीं । इसलिए मैं आपसे कहता हूं किसी की सुनकर प्रार्थना के रास्ते पर मत चले जाना। किसी की मानकर कि संसार दुख है, परमात्मा को मत खोजने लगना। अपनी ही मानना, क्योंकि आपके अतिरिक्त आप जब भी किसी और की मान लेंगे, आप झूठे हो जाएंगे। तो अच्छा है; बुरा कुछ भी नहीं है। आपकी अश्रद्धा भी आपके जीवन में निखार लाएगी। आपकी नास्तिकता भी आपको तैयार करेगी आस्तिक के लिए। आपका संदेह भी आपको छांटेगा, काटेगा, तराशेगा, और आप ग्य बनेंगे कि परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकें। मेरी दृष्टि में परमात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं है। हो भी नहीं सकता। इसलिए अगर कोई कहता है कि नास्तिक परमात्मा के विरोध में है, तो वह नासमझ है। उसे आस्तिकता की कोई खबर नहीं है। नास्तिक भी तैयारी कर रहा है आस्तिक होने की। वह भी कह रहा है कि नहीं है परमात्मा। उसके भीतर भी खोज शुरू हो गई है। नहीं तो क्या प्रयोजन है यह कहने से भी कि परमात्मा नहीं है? क्या प्रयोजन है सोचने से कि वह है या नहीं? क्या जरूरत है क
ि अश्रद्धा करके हम अपनी शक्ति नष्ट करें ? वह जो अश्रद्धा कर रहा है, वह असल में श्रद्धा की तलाश में है। वह चाहता है कि हो। लेकिन उसे मालूम नहीं पड़ता कि है। इसलिए इनकार करता है। और इनकार करता है, तो पीड़ा अनुभव करता है। इनकार पूरा होने दें। यह धार तलवार की गहरे उतर जाए और हृदय को काट डाले पूरा। आप प्रार्थना के रास्ते पर आ जाएंगे। प्रार्थना के रास्ते पर आना स्वाभाविक हो जाता है। और जल्दी मत करें। बिना अनुभव के कहीं से भी निकल जाना खतरनाक है। बिना अनुभव के कहीं से भी भाग जाना खतरा है। क्योंकि जहां से भी आप बिना अनुभव के भाग जाते हैं, वह जगह आपका पीछा करेगी। और आपके मन में रस तो बना ही रहेगा। और आपके मन की दौड़ तो उसी तरफ होती ही रहेगी। आप भाग सकते हैं कहीं से भी। लेकिन जिससे आप बिना अनुभव के भाग रहे हैं, वह आपका पीछा करेगा, वह छाया की तरह आपके साथ होगा। तो मेरी दृष्टि भागने की नहीं है। मेरी दृष्टि तो किसी चीज के अनुभव की परिपक्वता में उतर जाने की है। जब पका हुआ पता वृक्ष से गिरता है, तो उसका सौंदर्य अनूठा है। न तो वृक्ष को पता चलता कि पत्ता कब लरि गया; न वृक्ष में कोई घाव होता है पत्ते के गिरने से; न कोई पीड़ा होती। न पत्ते को पता चलता है कि मैंने वृक्ष को कब छोड़ दिया। हवा का एक हलका - सा झोंका काफी हो जाता है। लेकिन कचुचे पत्ते की भी नस-नस तन जाती है। कच्चे पत्ते का टूटना दुर्घटना है। पके पत्ते का गिरना एक सुखद, शात, नैसर्गिक बात है। आप जहां से भी हटें, पके पत्ते होकर हटना। कच्चे पत्ते की तरह मत टूट जाना, नहीं तो घाव रह जाएंगे। और पके पत्ते का जो सौंदर्य है, उससे आप वंचित रह जाएंगे। डरें मत। अभी संदेह है, तो संदेह को पकने दें। और किसी की मत सुनना। क्योंकि चारों तरफ सुनाने वाले लोग बहुत हैं। चारों तरफ आपको सुधारने वाले लोग बहुत हैं। उनसे सावधान रहना। चारों तरफ आपको बनाने वाले लोग बहुत हैं, उनसे जरा बचना। अपनी जीवन - धारा को मौका देना कि वह स्वभावतः जो भी चाहती है, उसके पूरे अनुभव से गुजर जाए। नहीं तो बड़ा उपद्रव होता है। पूरे इतिहास में यह उपद्रव हुआ है। हमारी तकलीफ क्या है? जिस मित्र ने पूछा है, संदेह मन में होगा, प्रार्थना का लोभ भी नहीं छूटता। क्योंकि हमने देखा है उन लोगों को, जो प्रार्थना में आनंदित हैं। तकलीफ कहां खड़ी होती है? मीरा नाच रही है। आपको लगता है कि काश, मैं भी ऐसा नाच सकता! यह नाच संक्रामक है। यह आपके हृदय में भी पुलक जगाता है; प्रलोभन पैदा करता है। यह मीरा की मुस्कुराहट, यह उसकी आंखों की ज्योति, यह उसके चेहरे से बरसती हुई अमृत की धारा, यह आपको भी लगती है कि मेरे जीवन में भी हो। लेकिन मीरा कहती है कि मैं कृष्ण को देखकर नाच रही हूं। भीतर संदेह खड़ा हो जाता है। कृष्ण आपको कहीं दिखाई नहीं पड़ते। मीरा पागल मालूम पड़ती है। यह कृष्ण पर भरोसा करना मुश्किल है। मीरा जिसके लिए नाच रही है, उस पर भरोसा करना मुश्किल है; और मीरा के नाच से बचना भी मुश्किल है। इससे तकलीफ खड़ी होती है। लगता है, काश, हम भी ऐसा नाच सकते! लेकिन जिस कारण मीरा नाच रही है, उसके लिए तर्कयुक्त प्रमाण नहीं मिलते। किस ईश्वर के लिए नाच रही है, वह ईश्वर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। हजार शंकाएं बुद्धि खड़ी करती है। तो हम कहते हैं, कोई ईश्वर वगैरह नहीं है। तो फिर मीरा पागल है, दिमाग इसका खराब है, ऐसा कहकर अपने को समझा लेते हैं। फिर भी वह मीरा की धुन, वह नाच पीछा करता है। वह आपके सपनों में आपके साथ जाएगा। आप उठेंगे और बैठेंगे और लगेगा, कहीं मन का कोई कोना कहेगा, काश! मीरा का ईश्वर सच होता, तो हम भी नाच सकते थे। नाचना आप चाहते हैं; आनंदित आप होना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसकी आनंद की आकांक्षा न हो। और संदेह से आनंद मिलता नहीं। अश्रद्धा से आनंद मिलता नहीं। अनास्था से आनंद मिलता नहीं। और आनंद की आकांक्षा है, और बुद्धि संदेह खड़े कर देती है। जहां आनंद मिल सकता है, वहां बुद्धि सवाल खड़ा कर देती है। और हृदय मांगता है आनंद। और बुद्धि आनंद दे नहीं सकती। इस दुविधा में प्राण उलझ जाते हैं। तो आप भी नकली नाच - नाच सकते हैं। आप भी मजीरा उठाकर नाच सकते हैं। लेकिन वह ऊपर-ऊपर होगा। क्योंकि मीरा के नाच में मीरा के पांव असली काम नहीं कर रहे हैं, मीरा की श्रद्धा असली काम कर रही है। मीरा से अच्छी नर्तकियां होंगी, जो ज्यादा अच्छा नाच लेंगी। लेकिन मीरा के नाच का गुण और है। कितनी ही बड़ी कोई नर्तकी और नर्तक हो, मीरा के नाच में जो बात है, वह उसके नाच में नहीं हो सकती। मीरा के पैर अनगढ़ होंगे। ताल न हो; लय न हो; संगीत का अनुभव न हो; लेकिन कुछ और है, जो संगीत से भी बड़ा है। और कुछ और है, जो व्यवस्था से भी बड़ा है। और कुछ इतना गहन उतर गया है भीतर कि उसके उतरने के कारण नाच हो रहा
है। इस नाच के पीछे कुछ अलौकिक खड़ा है। वह अलौकिक की श्रद्धा न हो, तो नाच तो आप भी सकते हैं, लेकिन आपकी आत्मा में आनंद पैदा नहीं होगा। नाच बाहर - बाहर रह जाएगा। आप भीतर खाली के खाली, रिक्त, उदास, वैसे के वैसे रह जाएंगे। मीरा की श्रद्धा ही केंद्र है। आप संदेह के केंद्र पर नाच सकते हैं, लेकिन मीरा के सुख की अनुभूति आपको नहीं होगी। और बडी कठिनाई इससे खड़ी होती है कि जाग्रत पुरुषों का भी बाहर का जीवन ही हमें दिखाई पड़ता है। उनके भीतर का तो हमें कुछ पता नहीं है। पड़ती है। उनकी आंखों का मौन दिखाई पड़ता है। मन प्रलोभन से भर जाता है। काश, ऐसा हमें भी हो सके! फिर महावीर की बात सुनते हैं, उस पर श्रद्धा नहीं आती। बुद्ध को देखते हैं। उनके आस-पास जो हवा बहती है शांति की, वह हमें भी छूती है। उनके पास पहुंचकर जो स्थान हो जाता है, कि पोर - पोर जैसे किसी ताजगी से भर गए, वह हमें भी प्रतीत होता है। लेकिन बुद्ध की बात सुनकर श्रद्धा नहीं आती। बुद्ध के भीतर जो है, उसका हमें पता नहीं। बाहर जो है, हमें पता है। तो एक बड़ी उलटी प्रक्रिया शुरू होती है कि हम सोचते हैं, जिस भांति बुद्ध बैठे हैं, हम भी बैठ जाएं, तो शायद जो भीतर घटा है, वह हमें भी घट जाएगा। तो महावीर जैसा चलते हैं, हम भी चलने लगें। महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए, तो हम भी वस्त्र छोड़ दें। तो अनेक लोग महावीर को देखकर नग्न खड़े हो गए हैं! वे सिर्फ नंगे हैं; दिगंबर नहीं हैं। क्योंकि महावीर की नग्नता के पहले भीतर एक आकाश उत्पन्न हो गया है। उस आकाश में वस्त्र छोड़ दिए हैं। इनके भीतर वह आकाश उत्पन्न नहीं हुआ। इन्होंने सिर्फ वस्त्र छोड़ दिए हैं। इनकी देह भर नंगी हो गई है। महावीर चींटी भी हो, तो पांव फूंक-फूंककर रखते हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें डर है कि कहीं चींटी मर न जाए। उनके पीछे चलने वाला भी पांव फूंक-फूंककर रखने लगता है कि कहीं चींटी मर न जाए। लेकिन इसे अपनी ही आत्मा का पता नहीं है, इसे चींटी की आत्मा का पता कैसे हो सकता है! इसे अपने ही भीतर के जीवन का कोई अनुभव नहीं है, चींटी के जीवन का अनुभव कैसे हो सकता है! इसकी अहिंसा थोथी, उथली, ऊपर-ऊपर हो जाती है। ऊपर से आचरण हो जाता है। भीतर का अंतस वैसा का वैसा बना रहता है। भीतर अंतस बदले, तो ही बाहर जो क्रांति घटित होती है; वह वास्तविक होती है। लेकिन यह भूल होती रही है। मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर हुआ, बालशेम। थोड़े से जमीन पर हुए कीमती फकीरों में एक। बालशेम से किसी ने पूछा कि तुम जब भी बोलते हो, तो तुम ऐसी चोट करने वाली मौजू कहानी कह देते हो। कहा से खोज लेते हो ये कहानियां? तो बालशेम ने कहा, एक कहानी से समझाता हूं। और बालशेम ने कहा कि एक सेनापति एक छोटे गांव से गुजरता था। बड़ा कुशल निशानेबाज था। उस जमाने में उस जैसा निशानेबाज कोई भी न था। सौ में सौ निशाने उसके लगते थे। अचानक उसने देखा गाव से गुजरते वक्त अपने घोड़े पर, एक बगीचे की चारदीवारी पर, लकड़ी की चारदीवारी, फेंसिंग, उसमें कम से कम डेढ़ सौ गोली के निशान हैं। और हर निशान चाक के एक गोल घेरे के ठीक बीच केंद्र पर है। डेढ़ सौ ! सेनापति चकित हो गया। इतना बड़ा निशानेबाज इस छोटे गांव में कहा छिपा है! और जो चाक का गोल घेरा है, ठीक उसके केंद्र पर गोली का निशान है। गोली लकड़ी को आर - पार करके निकल गई है। और एकाध मामला नहीं है, डेढ़ सौ निशान हैं ! उसे लगा कि कोई मुझ से भी बड़ा निशानेबाज पैदा हो गया। पास से निकलते एक राहगीर से उसने पूछा कि भाई, यह कौन आदमी है? किसने ये निशान लगाए हैं? किसने ये गोलियां चलाई हैं? इसकी मुझे कुछ खबर दो। मैं इसके दर्शन करना चाहूंगा! उस ग्रामीण ने कहा कि ज्यादा चिंता मत करो। गांव का जो चमार है, उसका लड़का है। जरा दिमाग उसका खराब है। नट-बोल्ट थोड़े ढीले हैं ! उस सेनापति ने कहा, मुझे उसके दिमाग की फिक्र नहीं है। जो आदमी डेढ़ सौ निशाने लगा सकता है इस अचूक ढंग से, वर्तुल के ठीक मध्य में, उसके दिमाग की मुझे चिंता नहीं। वह महानतम निशानेबाज है। मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। उस ग्रामीण ने कहा कि थोड़ा समझ लो पहले। वह गोली पहले मार देता है, चाक का निशान बाद में बनाता है। करीब - करीब धर्म के इतिहास में ऐसा हुआ है। हम सब गोली पहले मार रहे हैं, चाक का निशान बाद में बना रहे हैं! लेकिन राहगीर को तो यही दिखाई पड़ेगा कि गजब हो गया। जिसे पता नहीं, उसे तो दिखाई पड़ेगा कि गजब हो जिंदगी बाहर से भीतर की तरफ उलटी नहीं चलती है। जिंदगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ है, वही सम्यक धारा है। गंगोत्री भीतर है। गंगा बहती है सागर की तरफ। हम सागर से गंगोत्री की तरफ बहाने की कोशिश में लगे रहते हैं। अगर आपके भीतर संदेह है, तो घबडाएं मत। संदेह की गंगा को सागर तक पहुंचने दें। और रुकावट मत डालें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि सं
देह ही आपको समर्पण तक ले आया। इससे उलटा कभी भी नहीं हुआ है। सभी संदेह करने वाले, सम्यक संदेह करने वाले, राइट डाउट करने वाले लोग समर्पण पर पहुंच गए हैं। अश्रद्धा ही श्रद्धा का द्वार बन जाती है। मगर पूरी अश्रद्धा । अनास्था ईमानदार, प्रामाणिक अनास्था आस्था की जननी है। थोपें मत। ऊपर - ऊपर से थोपें मत। ऊपर की चिंता मत करें। मत पूछें कि मन अनास्था से भरा है, तो कैसे प्रार्थना करें। अनास्था से पूरा भर जाने दें। और मैं आपको कहता हूं कि प्रार्थना का बीज आपके भीतर छिपा है। अनास्था को पूरी तरह बढ़ने दें। यह अनास्था ही उस बीज के लिए भूमि बन जाएगी। प्रार्थना का अंकुर आपके भीतर पैदा होगा। नास्तिक होने से मत डरें अगर आस्तिक होना है। और अगर किसी दिन ईश्वर के चरणों में पूरा सिर रखकर हौ भर देनी है, तो अभी जब तक आपको लगे कि वह नहीं है, तब तक ईमानदारी से इनकार करना । जल्दी ही मत भरना। जल्दी भरी गई ही गर्भपात है, एबार्शन है। उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह मुर्दा पैदा होता है। अनास्था के गर्भ को कम से कम नौ महीने तक तो चलने दें। और अगर यह गर्भ पूरा हो गया हो, तो फिर मुझसे पूछने की जरूरत न रह जाएगी। अगर आप सच में ही ऊब गए हों अपनी अश्रद्धा से, तो आप उसे छोड़ ही देंगे, फेंक ही देंगे। न ऊबे हों, तो थोड़ी प्रतीक्षा करें। थोड़ा ऊबे। डर इसलिए नहीं है मुझे, क्योंकि अश्रद्धा से कभी आनंद मिलता नहीं, इसलिए आप तृप्त नहीं हो सकते। आज नहीं कल आप उसे फेंक ही देंगे। श्रद्धा से ही आनंद मिलता है। और बिना आनंद के कोई व्यक्ति कब तक जीवित रह सकता है? धर्म को पृथ्वी से मिटाया नहीं जा सकता तब तक, जब तक कि आदमी आनंद की मांग कर रहा है। जिस दिन आदमी आनंद के बिना जीने को राजी हो जाएगा, उस दिन धर्म को मिटाया जा सकता है, उसके पहले नहीं । धर्म परमात्मा की खोज नहीं है, आनंद की खोज है। और जिन्हें आनंद खोजना है, उन्हें परमात्मा खोजना पड़ता है। और आनंद की खोज हमारे भीतर का नैसर्गिक स्वर है। इससे ही संबंधित एक प्रश्न और एक मित्र ने पूछा है, ईश्वर की ओर श्रद्धा बढाना बहुत कठिन लगता है, क्योंकि उसके अस्तित्व को मानने का कोई ठोस सबूत या कारण नहीं मिलता! ईश्वर की श्रद्धा बढ़ाना बहुत ही कठिन मालूम पड़ता है। बढ़ाइए ही क्यों? ऐसी झंझट करनी क्यों! कौन - सी अड़चन आ रही है आपको कि ईश्वर की श्रद्धा बढ़ानी है! मत बढ़ाइए। छोड़िए ईश्वर की बात ही। बेचैनी क्या है? क्यों चाहते हैं कि ईश्वर की श्रद्धा बढ़े? तो अपने भीतर तलाश करिए। बिना ईश्वर के आपको शांति नहीं मालूम पड़ती। बिना ईश्वर के चैन नहीं मालूम पड़ता। इसलिए श्रद्धा बढ़ाना चाहते हैं। पहले अपने भीतर की इस बात को समझिए कि मेरे भीतर कोई बेचैनी है, जिसकी वजह से ईश्वर की श्रद्धा बढाना चाहता हूं। और अगर बेचैनी ठीक से समझ में आ जाए, तो आप फिर प्रमाण नहीं पूछेंगे, सबूत नहीं पूछेंगे। प्यासा आदमी यह नहीं पूछता कि पानी है या नहीं म् प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहा है? प्यास न लगी हो, तो आदमी पूछता है, पता नहीं, पानी है या नहीं! प्यासे आदमी ने अब तक नहीं पूछा है कि पानी है या नहीं! प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है? कैसे खोजूं? ईश्वर के प्रमाण की जरूरत क्या है? आपके भीतर ईश्वर के बिना बेचैनी है, यह काफी प्यास है। और यही उसका प्रमाण है। इस बात के फर्क को समझ लें। एक आदमी पूछता है, ईश्वर है या नहीं, इसका प्रमाण चाहिए। मैं प्रमाण नहीं देता। मैं कहता हूं छोड़ो फिक्र। जिसका प्रमाण नहीं, उसकी फिक्र क्यों करनी? ईश्वर को जाने दो, उसकी बला। तुम अपने रास्ते पर जाओ। ईश्वर तुमसे कभी कहने आता नहीं कि मेरा प्रमाण तुमने अभी तक पता लगाया कि नहीं। तो झंझट में पड़ते क्यों हो? क्यों अपने मन को खराब करते हो? शांति से सोओ। क्यों नींद खराब करनी ! अनिद्रा मोल लेनी! क्या बात है ? चैन नहीं है भीतर। कहीं भीतर कोई एक प्यास है, जो बिना ईश्वर के नहीं बुझ सकती। बिना ईश्वर के प्यास नहीं बुझ सकती। वह प्यास भीतर से धक्के देती है कि पता लगाओ ईश्वर का । अपनी प्यास को समझो, ईश्वर को छोड़ो। पानी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी प्यास महत्वपूर्ण है। पानी तो गौण है। अगर प्यास न हो, तो पानी का करिएगा भी क्या ! और अगर प्यास हो, तो हम पानी खोज ही लेंगे। एक नियम जीवन का है कि उसी चीज की प्यास होती है, जो है। जो नहीं है, उसकी प्यास भी नहीं होती। जो नहीं है, उसका कोई अनुभव भी नहीं होता, प्यास का भी अनुभव नहीं होता। उसके अभाव का भी अनुभव नहीं होता। आदमी की प्यास ही प्रमाण है। इसका मतलब यह हुआ कि आपको सब कुछ मिल जाए तो भी तृप्ति न होगी, जब तक कि आपको ईश्वर न मिल जाए। अगर आपको तृप्ति हो सकती है बिना उसके, तो आप तृप्त हो जाएं; ईश्वर को कोई एतराज नहीं है। आप मजे से तृप्त हो जाएं। वह आपकी तृप्ति में बाधा डा
लने नहीं आएगा। लेकिन आप तृप्त हो नहीं सकते। यह कठिनाई ईश्वर की नहीं है। यह आदमी के आदमी के होने के ढंग की कठिनाई है। आदमी इस ढंग का है कि बिना ईश्वर के तृप्त नहीं हो सकता। और इसलिए जब हम आदमी से ईश्वर छीन लेते हैं, तो वह न मालूम किस-किस तरह के ईश्वर गढ़ लेता है। रूस में एक बड़ा प्रयोग हुआ कि कम्युनिस्टों ने ईश्वर छीन लिया। तो आपको पता है क्या हुआ? जैसे ही ईश्वर छिन गया, लोगों ने राज्य को ईश्वर मानना शुरू कर दिया। चर्च से जीसस की मूर्ति तो हट गई, लेकिन क्रेमलिन के चौराहे पर लेनिन की लाश रख दी गई। लोग उसको ही फूल चढ़ाने लगे, उसके ही चरणों में सिर रखने लगे! यह बड़े मजे की बात है। लेनिन तो नास्तिक था। मानता नहीं है कि मृत्यु के बाद कुछ भी बचता है। लेकिन उसकी लाश रखी है क्रेमलिन में। लाखों लोग प्रतिवर्ष चरण छू रहे हैं। किसके चरण छू रहे हैं? जो नहीं है अब उसके? और जो अब नहीं है, वह कभी भी नहीं था। इस मुर्दे को क्यों छू रहे हैं? गहरी प्यास है। कहीं किसी चरण में सिर रखने की आकांक्षा है। किसी अज्ञात के सामने झुकने का मन है। तृप्ति न होगी; तो लेनिन के ही चरणों में सिर रख रहे हैं। ईश्वर को हमने छीन लिया है। तो हमने फिर कुछ भी गढ़ लिया है। लेकिन आदमी बिना श्रद्धा के नहीं रह पाता। ईश्वर की श्रद्धा छीनी, राज्य की श्रद्धा करेगा, नेता की श्रद्धा करेगा। यहां तक कि अभिनेता की श्रद्धा करेगा! कुछ चाहिए जो उसके श्रद्धा का आश्रय बन जाए। कुछ चाहिए जिसके लिए वह समझे कि जी सकता हूं। लेकिन आदमी बिना ईश्वर के नहीं रह सकता। आदमी ईश्वर के बिना बेचैन ही रहता है। एक परम आश्रय चाहिए। तो मैं आपसे नहीं कहता कि कोई प्रमाण है उसका। कोई प्रमाण नहीं है आपकी प्यास के अतिरिक्त। अपनी प्यास को मिटा लो, आपने ईश्वर को मिटा दिया। ईश्वर को मिटाने की फिक्र मत करो। वह आपके वश की बात नहीं है। अपनी प्यास को मिटा लो; ईश्वर मिट गया। और आपकी प्यास के मिटाने का कोई उपाय नहीं है। आप ही हो वह प्यास। अगर प्यास आपसे कोई अलग चीज होती, तो हम उसे मिटा भी लेते। आप ही हो प्यास। आदमी परमात्मा की एक प्यास है। आदमी अलग होता, तो प्यास को हम काट देते। कोई सर्जरी कर लेते। और आदमी को अलग कर लेते। आदमी खुद ही प्यास है। नीत्शे ने कहा है, जिस दिन आदमी अपने से ऊपर जाना बंद कर देगा, उस दिन मर जाएगा। यह अपने से ऊपर जाने की एक प्यास है आदमी के भीतर। जैसे बीज टूटता है और आकाश की तरफ उठना शुरू हो जाता है। वह आकाश की तरफ उठने की आकांक्षा ही वृक्ष बन जाती है। आदमी भी निरंतर अपने से ऊपर उठकर आकाश की तरफ जाना चाहता है। वह आकाश की तरफ जाने की आकांक्षा ही ईश्वर है। आप तब तक बीज ही रहेंगे, जब तक ईश्वर का वृक्ष आप में न लग जाए। जब तक आप ईश्वर न हो जाएं, तब तक कोई संतोष संभव नहीं है। ईश्वर से कम में कोई तृप्ति नहीं है। यही प्रमाण है कि आपके भीतर प्यास है। इसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण नहीं है। कोई गणित नहीं है ईश्वर का, कि सिद्ध किया जा सके कि दो और दो चार होते हैं, ऐसा कोई गणित हो। कोई तर्क नहीं है, जिससे साबित किया जा सके कि वह है। और अच्छा है कि कोई तर्क नहीं है। क्योंकि तर्कों से जो सिद्ध होता है, वह और कुछ भी हो - गणित की थ्योरम हो, विज्ञान का फार्मूला हो - धर्म की अनुभूति नहीं होगी। और अच्छा है कि तर्क से वह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तर्क से कोई चीज कितनी ही सिद्ध हो जाए उससे प्यास नहीं बुझती । समझें। प्यास तो पानी से बुझती है। लेकिन एच टू ओ का फार्मूला कागज पर लिखा रखा हो, बिलकुल गणित से व्यवस्थित, उससे नहीं बुझती। एच टू ओ के फार्मूले को आप पी जाना घोलकर, प्यास नहीं बुझेगी। प्यास तो पानी से बुझेगी। क्योंकि प्यास एक अनुभव मांगती है, एक ठंडक मांगती है, जो आपके प्राणों में उतर जाए। एक रस मांगती है, जो आपके भीतर जाए और आपको रूपांतरित कर दे। फार्मूला तो किताब पर होता है। ईश्वर का कोई फार्मूला नहीं है। और जितनी किताबें ईश्वर के लिए लिखी गई हैं, वे केवल इशारे हैं; उनमें ईश्वर का कोई फार्मूला नहीं है। सब शास्त्र हार गए हैं, अब तक उसे कह नहीं पाए हैं। कभी उसे कहा भी नहीं जा सकेगा। लेकिन शास्त्रों ने कोशिश की है। कोशिश इशारे की तरह है; मील के पत्थर की तरह है कि और आगे और आगे। हिम्मत देने के लिए है, कि बढ़े जाओ; दो कदम और; ज्यादा दूर नहीं है; पास ही है। हिम्मत से कोई बढ़ा चला जाए, तो एक दिन उस अनुभव में उतर जाता है। लेकिन प्रमाण मत खोजना आप। प्रमाण कोई है नहीं। और या फिर हर चीज प्रमाण है। फिर ऐसी कौन - सी चीज है, जो उसका प्रमाण नहीं है? फिर चारों तरफ आंखें डालें। आकाश में सूरज का उगना, और रात आकाश में तारों का भर जाना, और एक बीज का फूटकर वृक्ष बनना, और एक झरने का सागर की तरफ बहना, और एक पक्षी के कंठ से गीत का निकलना। ए
क बच्चे की आंखों में झांकें; और एक काई जमे हुए पत्थर को देखें; और सागर के किनारे की रेत को, और सागर की लहरों को - तो फिर हर जगह उसका प्रमाण है। फिर वही वही है । एक दफा खयाल में आ जाए कि वह है, तो फिर सब जगह उसका प्रमाण है। और जब तक उसका खयाल न आए, तब तक उसका कोई प्रमाण नहीं है।
"हुजूर, माई-बाप, मुझ पर कैसी विपदा आ पड़ी है। कल रात जवान लड़के को पाखाना हुआ। मैं गरीब भीख माँग कर खाने वाला आदमी। डॉक्टर का खर्चा कहाँ से लाता? सोच रहा था, सुबह होते ही सरकारी अस्पताल ले जाऊँगा। डॉक्टर बाबू के पाँव पडूँगा। क्या कहूँ हुजूर, भगवान बड़ा ही निष्ठुर है। मुझसे मेरा कालिया छीन लिया। सुबह होते-होते बेटे की नाड़ी बंद हो गई। मेरा इकलौता बेटा बिशिकेशन जैसा था, हुजूर। भीख माँग-माँगकर बड़ा किया था। बिन माँ के बच्चे को कितने कष्ट से बड़ा किया था। भगवान को यह भी सहन नहीं हुआ, हुजूर। अभी मेरी जेब में इतने पैसे नहीं है उसे श्मशान-घाट ले जा सकूँ, उसकी अंत्येष्टि-क्रिया करा सकूँ। हुजूर, भाई-बाप। कुछ पैसा देते तो लकड़ी खरीदता, श्मशान का खर्चा देता और बच्चे का अंतिम संस्कार करवा देता।" दस-बारह साल के लड़के की लाश के ऊपर एक गंदी धोती ओढाया हुआ है। उसका बाप रोते-रोते जमीन पर लोट रहा है। चेहरे पर है उसकी रुखी दाढ़ी। आँखों से आँसुओं की धारा बह रही हैं। रोते-रोते मुँह से लार भी गिर रही है। पहना हुआ है सात जगह से सिला हुआ एक मैला कोट, फटी-पुरानी धोती जिसे अभी साफ नहीं किया हो - धूल-वूल लगने से मटमैला रंग हो गया है। बड़ी-बड़ी आँखों में गिड, आँखों के नीचे कालापन। नाक से थोड़ा सेंडा निकलकर मूँछों पर चिपक गया है। वह आदमी घूम-घूमकर दया की भीख माँग रहा है। "हुजूर, माई-बाप, दया कीजिए इस गरीब-असहाय भिखारी के ऊपर। मेरा बेटा मर गया है, हुजूर। मेरा सर्वनाश हो गया है।" देखने वाले कुछ लोग वहाँ से खिसक गए, और कुछ लोगों ने पाँच पैसे-दस पैसे फेंक दिए। कुछ लोग पीछे से कौतूहलवश झाँककर देख रहे थे, क्या हो रहा है? सोच रहे थे कोई जादू वाला बाजीगर होगा या फिर जमीन में अपना सिर गाड़ने वाला होगा। अभी ऐसा मंत्र फूँकेगा, लड़के का गला काटकर खून से लथपथ छूरी दिखाएगा! सामने वाले लोग यह देखकर कि कोई मैजिक-वैजिक नहीं हो रहा है, वहाँ से खिसकने लगे थे। पीछे के लोग धक्का मारकर आगे बढ़ रहे थे. लड़के के ऊपर पैसे गिर रहे थे, पाँच पैसे, दस पैसे, पच्चीस पैसे। बूढ़ा रोते-रोते गिड़गिड़ा रहा था "हुजूर, माई-बाप मेरा तो सर्वनाश हो गया। मैं पूरी तरह से लुट गया, हुजूर। मुझ पर दया कीजिए।" बंधुगण! एक जीप भागते हुए चली गई। जीप के अंदर ठसाठस भरे हुए थे छः-सात आदमी। जीप के सामने लगा हुआ था विरोधी दल का झंडा। और पीछे लगा हुआ था एक लाउडस्पीकर। बंधुगण! तूफान पीड़ित उड़ीसावासियों के प्रति शासक दल की घोर अपेक्षा के खिलाफ विरोध करने के लिए सामने आइए। प्रधानमंत्री के उड़ीसा आगमन के खिलाफ विरोधीदल की तरफ से आयोजित विक्षोभ प्रदर्शन में एकजुट होकर सहयोग दीजिए तथा दिखा दीजिए कि उड़िया लोग कमजोर नहीं हैं, भीख-मँगे नहीं हैं। उड़िया आदमी विरोध करना जानते है, अन्यायी, अत्याचारी शासक दल को मुँह तोड़ जवाब देना जानता है। आप संकल्प लीजिए आज प्रधानमंत्री परेड़-ग्राउण्ड में एक भी शब्द नहीं बोल सके। उसके लिए बंधुगण! आइए मेरे साथ जोर से नारा लगाइए "शासक दल, मुर्दाबाद, मुर्दाबाद! प्रधानमंत्री, लौट जाओ, लौट जाओ!" कोई घुड़सवार तेजी से घोड़ा रपटते हुए जा रहा है। घोड़ा? रपट नहीं रहा है, उड़ रहा है। चारो तरफ धूएँ जैसे कुँहासे के भीतर घुड़सवार उड़ते हुए जा रहा है, ये कैसा घोड़ा है? पक्षीराज? एकदम झकझक सफेद घोड़ा। उसके ऊपर किस तरह वह राजा का मुकुट पहनकर बैठा है। ओ पक्षीराज, ओ पक्षीराज, तुम कहाँ जा रहे हो? चलते रास्ते के किनारे लाश बनकर वह सोया हुआ है। गंदी धोती से ढ़का हुआ केवल पैंट पहने हुए उसका खुला बदन। नींद से उसकी बोझिल आँखें। कैसे आ रही है उसको इतनी गहरी नींद? नींद टूटती है, तो भूख लगती है, भूख मिटती है, तो फिर नींद आने लगती है। बूड़ा अभी पैसे माँग रहा है। चतुर बूढ़ा रोने का अच्छा अभिनय कर रहा था। फिर से वह नींद के आगोश में जाने की चेष्टा करने लगा। भूख मिटाने का यह समय नहीं है। यह तो सपना देखने का समय है। बुढ़े ने पहले से ही आगाह कर दिया है कि धंधे के समय बिल्कुल भी हलचल नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि अगर चींटी या बिच्छू भी डंक मार दे, तब भी किसी तरह की हलचल नजर नहीं आनी चाहिए। खाँसी आने से भी मत खाँसना। छींक आने से भी मत छींकना। बूढ़े ने इसके लिए दो साल तक पक्की ट्रेनिंग दी है। पहले-पहले कुछ दिक्कत हो रही थी। आजकल शरीर में बिलकुल हलचल नहीं होती है। साँस लेते या छोड़ते समय भी छाती ऊपर-नीचे नहीं होती है। देखने वाले जरुर सोचेंगे कि सचमुच में एक लाश पड़ी हुई है। दीवारों के ऊपर, बाड़ों के ऊपर प्रधानमंत्री के चित्र वाले पोस्टर - चलिए, परेड ग्राउंड। प्रधानमंत्री भाषण देंगे। रास्ते-रास्ते, नुक्कड़-नुक्कड़ पर लाल कपड़े पर सफेद अक्षरों में लिखा हुआ है - 'स्वागतम् प्रधानमंत्री'। दीवारों पर बाड़ों पर काले अक्षरों में लिखे
हुए हैं स्लोगन - "प्रधानमंत्री लौट जाओ"। खूब सारी जीपें इधर से उधर भाग रही हैं। कहीं शासक दल के झंडें दिख रहे हैं। कहीं-कहीं पर विरोधी दल के झंडें। कहीं अधिकारीगण व्यग्र होकर भाग रहे हैं। चारों तरफ माइक बज रहे हैं। चारों तरफ प्रचार-पत्र नजर आ रहे हैं। "बंधुगण! बंधुगण! प्रधानमंत्री की सभा को सफल बनाइए। प्रधानमंत्री को काले झंडें दिखाइए। प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत कीजिए। प्रधानमंत्री मुर्दाबाद, जिंदाबाद।" भुवनेश्वर के आस-पास के इलाकों के लोग पैदल आ रहे हैं। बालकाटी, बाली अंता, बाली पाटना, रेतंग जैसे गाँवों के लोग पैदल चलकर भुवनेश्वर आए हैं। देहात के लोग पहने हुए हैं धोती और कुर्ता, सिर पर अजीब ढंग के बाल। चेहरे पर भोलेपन और धूर्तता के मिश्रित भाव। प्रधानमंत्री को नजदीकी से देखने की इच्छा। प्रधानमंत्री मतलब हमारे देश का राजा नहीं तो और क्या है? शायद गाँव का सबसे बड़ा चलता पुर्जा होगा। राजधानी के रुप-रंग देखकर बुद्धू बन गया। किधर जाएँगे? बंधुगण! प्रधानमंत्री का बायकाट कीजिए। बंधुगण! प्रधानमंत्री का स्वागत कीजिए। किधर जाएँ? बुद्धू बनकर इधर-उधर देखते जा रहे थे दौड़ती हुई जीपों को। लाश को रखकर विलाप करते हुए बूढ़े के चारों तरफ धीरे-धीरे भीड़ घटते-घटते पूरी तरह से खत्म हो गई। बूढ़े ने जमीन पर फेंके हुए पैसों को उठाकर धोती के ऊपर रखा। सड़ाक से नाक साफ किया। शर्ट के हाथ से मुँह पोंछा। पाँच पैसे के सिक्के, दस पैसे के सिक्कें और चवलियाँ। किसी-किसी बेचारे ने एक रुपए का सिक्का भी फेंका है। उसको धन्यवाद देना होगा. इस कलयुग में भी दानवीर कर्ण! बूढ़ा गिनने लगा, सब मिलाकर सात रुपया पचपन पैसा। उसमें एक चवन्नी खोटी भी है। जो नहीं चलेगी। इसे रहने देते हैं, यहाँ नहीं चलेगी तो कहीं और चला देंगे। कोई मौका मिलने से किसी न किसी दिन नहीं चलेगी यह चवन्नी क्या? बेटे, केवल सात रुपए पचपन पैसे। इतने कम पसों से क्या होगा? दो पेट के लिए दो दिन के दो समय का जुगाड़, तीन रुपए के हिसाब से भी जोड़ते हैं तो चाहिए कम से कम बारह रुपए। उसके बाद चाय-नाश्ता का खर्च अलग से। आठ आना तो गाँजा, बीड़ी और सिगरेट खरीदने में लग जाएगा। आने-जाने का खर्च? बेटे, यह दुनिया बहुत महँगी हो गई है। लोगों के मन की दया, ममता और भी महँगी। तू अभी मत उठना। और दो तीन घंटे तक ऐसे ही लेटे रहो। मैं जानता हूँ, बेटे, धूप से जमीन तपने लगी है। तेरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया होगा। फिर भी मेरे बच्चे, पापी पेट के लिए और थोड़ी देर के लिए ऐसे ही पड़े रहो। आज अच्छा-खासा पैसा मिलेगा। प्रधानमंत्री आ रहे हैं। लोगों की अच्छी -खासी भीड़ इकट्ठा होगी। यदि सौ रुपए के लगभग मिल गए तो बेटे कम से कम तुम्हारे लिए एक गमछा अवश्य खरीद लूँगा। "तीन ट्रकों में मात्र डेढ़ सौ आदमी। इतने में क्या होगा? जानते हो तुम्हारे विधान सभा क्षेत्र से कमसे कम आठ सौ आदमी होने चाहिए।" "लोग राजी नहीं हो रहें हैं। खेती-बाड़ी का समय है। इस दौरान चक्रवात आने से कई घर टूट गए हैं। हमारी तरफ तो काम करने के लिए मजदूर तक नसीब नहीं हो रहे हैं। तब सभा में आने की किसको फुर्सत है? पार्टी की तरफ से प्रति व्यक्ति पाँच रुपया दिया जा रहा था, फिर लोग आने के लिए राजी नहीं हो रहे थे. वो तो मैं हूँ जो उन्हें एक आदमी के लिए आठ रुपए देकर लाया हूँ। तीन रुपए मैने अपने हाथ से लगाए हैं। आप समझ जाइए साढ़े चार सौ रुपए घर के लगे हैं। मैं तो ठहरा एक साधारण विधायक इतने पैसे कहाँ से लाता? मुख्यमंत्री ने निवेदन किया था, कम से कम राज्यमंत्री का एक पद दे देते। मगर मुझे कौन पूछेगा? "तुम एक विधायक होकर ऐसी बात करते हो। जानते नहीं हो, पैसा कैसे आता है?" "आजकल विधायकों की कहाँ पूछ है? तहसीलदार, बी.डी.ओ सभी ने बड़े-बड़े मंत्रियों के साथ अपना याराना सम्बंध स्थापित कर लिया है। सचिव लोगों से उनकी अव्वल नंबर की जान-पह्चान है। तब वे विधायकों को क्यों पूछेंगे? किसी मारवाड़ी के सामने हाथ फैलाकर माँगने से वह कितने पैसे देगा उससे तीन गुणा वसूल करके छोड़ेगा।" "कहो, तब क्या किया जाए? तीस हजार लोगों को इकट्ठा करने की बात हुई है। अभी तक जुगाड़ हुआ है केवल चार हजार आदमियों का। देखने वाले भी आएँगे तो ज्यादा से ज्यादा तीन-चार हजार आदमी। तब भी बीस-पचीस हजार आदमी शेष रह जाते हैं। कम से कम इतनी भीड़ होने पर ही तो यह कहा जा सकता है कि एक लाख से ज्यादा आदमी जुटे थे इस प्रोग्राम में। परेड़ ग्राउंड में पाँच-छ हजार लोग कम पड़ जाएँगे। अगर अच्छी खासी भीड़ नहीं हुई तो मुख्यमंत्री क्या सोचेंगे? प्रधानमंत्री जी के सामने उनकी क्या इज्जत रह जाएगी?"सवेरे के स्वच्छ आकाश में एक घोड़ा उड़ते हुए जा रहा है। कौन से देश? हरी-हरी घास के ऊपर ओस के बूँद अभी भी झिलमिला रही हैं। घोड़ा उड़ते हुए जा रहा है। कौन से देश में? कौन
से गाँव में? इतनी सुबह -सुबह किसान अपना हल लेकर खेत की तरफ जा रहा है। कोई आदमी अपने दोस्तों के साथ हँसते-हँसते तालाब की तरफ जा रहा है। एक ओह, इतनी सुंदर राजकन्या! इतनी सुंदर कन्या होती भी है क्या? अगर थोड़ी सी भी धूप लग गई तो सारा सौन्दर्य दुःख और कष्ट में पिघल जाएगा। आहा, यह सुंदर कन्या ऐसे ही हमेशा हँसती रहे। घोड़ा सरपट दौड़ाकर वह चला गया। वह अपने शरीर पर राजकुमार की पोशाक धारण किए हुए था। घोड़े की हिनहिनाहट से गर्वान्मत्र राजकुमार का शरीर नाचने-झूमने लगा। थकावट के मारे उसकी आँखें बोझिल हो रही थी। केवल अभी तक हुआ था बारह रुपए अस्सीपैसे। सीने के भीतर अजीब-सा लग रहा था। एक कप चारा मिलने से कुछ होता। जेब के अंदर दो-तीन बीड़ी तो जरुर होगी। लेकिन अभी रहने देते हैं। लोग क्या सोचेंगे? बेटा तो मर गया है और इधर बूढ़ा चाय-बीड़ी पी रहा है। धन्धा चौपट हो जाएगा। ऐसे भी इन सब धंधों में खतरा कुछ ज्यादा ही होता है। अगर लड़का थोड़ा भी हिल गया तो बात वहीं खत्म। इसके अलावा, अगर किसी ने ज्यादा पूछताछ की, तो उससे छिपकर जल्दी ही खिसकना पड़ेगा। हमेशा सतर्क रहना पड़ता है - कोई संदेही आँखें घूर तो नहीं रही है। इसके आगे भी, एक शहर में एक दिन से ज्यादा रुकना ठीक नहीं है। परसो थे टाटा में, उत्कल एक्सप्रेस से आज ही भुवनेश्वर उतरा हैं। आज रात को ही किसी दूसरी जगह चले जाएँगे। कहाँ जाएँगे यह तो उसको भी मालूम नहीं है। स्टेशन जाकर जो भी ट्रेन मिलेगी, उसी में चढ़ जाएँगे। ट्रेन छूटने के बाद ही राहत की साँस ले पाएँगे। मुख्य सचिव के कानों में बोला गया था मगर यह बात दो-तीन अन्य आदमियों ने भी सुन ली। एक साथ चार-पाँच रुमाल लिए हाथ प्रधानमंत्री की ओर बढ़े। प्रधानमंत्री किसके हाथ से रुमाल लेंगे? किसको धन्यवाद देंगे? मगर थैंक्स कहकर प्रधानमंत्री ने अपनी पॉकेट से अपना रुमाल निकाल लिया। तूफान प्रभावित इलाकों का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री लौट आए हैं। अभी वह जाएँगे राजभवन की ओर। वहाँ संवाददाता सम्मेलन होने वाला है। कैमरामेन दौड़ रहे हैं। फ्लैश पड़ने लगा है। हवाई-अड्डे पर पुलिस के घेरे में कुछ अधिकारीगण, स्थानीय नागरिक और संवाददाता। फोन बजने लगा. हेलो, हेलो। प्रधानमंत्री ने तूफान प्रबावित इलाकों का दौरा करके लौट आए हैं। अच्छा, अभी वे जाएँगे राजभवन। टेलेक्स चल पड़ा। खड्-खड् रिपोर्ट करने लगा। प्राइम मिनिस्टर अराइव्स एट एअरपोर्ट ऑफ्टर विजिटिंग साइक्लोन एफेक्टेड एरियाज। नेक्सट पोग्र्राम, प्रेस कान्फ्रेंस एट राजभवन। हेलो, हेलो, मैं अमुक अखबार का संपादक बोल रहा हूँ। हेलो, फलाना बाबू हैं? हमारी पत्रिका के रिपोर्टर, हेलो, आप राजभवन पहुँच गए हैं? सुनिए, प्रधानमंत्रीजी को आप तीसरे नंबर का प्रश्न जरुर पूछिएगा। इस बात पर ध्यान दीजिएगा, प्रधानमंत्रीजी का उत्तर सीधा-साधा होना चाहिए। अगर जरुरत पड़ी तो घुमा-घुमाकर भी पूछ सकते हो। हेलो, पूरी बातचीत की रिकार्डिंग कर लीजिएगा। प्रधानमंत्री के मुँह से यह बात कबूल करवा के ही छोडिएगा। आप इतने सीनियर आदमी हो। बहुत सारी प्रेस कान्फ्रेंस का भी अनुभव है आपको। याद है ना, रिलीफ कमीशनर के कान्फ्रेंस की सारी बातें। "देखिए हुजूर, मुझ पर कैसी आफत आ पड़ी है।" नाक से नेटा बह रहा है। फों करके उसनेनाक साफ कर दिया। उसके मुँह से कुछ भी बात नहीं निकल रही है। जमीन पर बिछी हुई धोती की तरफ उसने एक नजर घुमाई। चवन्नियां और दस पैसों के सिक्के। एक बार इच्छा हो रही थी सब पैसे गिन ले। लेकिन अपने आप को संभाल लिया। इस धंधे में खूब सावधानी बरतनी पड़ती है। किसी को पता भी नहीं लगना चाहिए कि उसकी निगाहें पैसों पर टिकी हुई है। तुम्हारा बेटा मर गया है, इसलिए तुम रो रहे हो। पैसा-फोड़ी क्या चीज है?" एक बार फिर उसने चिल्लाने की कोशिश की "मेरा इकलौता बेटा था हुजूर।" बोलते-बोलते वह अनुभव कर रहा था कि उसका गला खुल नहीं रहा था। ज्यादा थकान की वजह से उसकी आवाज मानो भर गई हो। आँखों से और पानी निकालना संभव नहीं हो पा रहा था। कितने पैसे हुए होंगे? ज्यादा से ज्यादा चार-पाँच रुपए और बढ़े होंगे। अभी तक पन्द्रह और पाँच यानि बीस रुपए। इतने में क्या होगा? आज के दिन प्रधानमंत्री आ रहे हैं।खूब भीड़ इकट्ठी हो रही है। खूब आमदनी होनी चाहिए। लोगों के झुंड के झुंड जा रहे हैं, मगर मरे हुए लड़के के लिए केवल बीस रुपए। उसके मन में एक बात याद आ गई, मानो उसे कुछ शब्द मिल गए हो। उठकर खड़ा होकर वह कहने लगा, "हुजूर, मानवता मर गई है क्या? एक इंसान के लिए दूसरे इंसान का कोई कर्तव्य नहीं है। एक बारह साल के बच्चे के शव दाह के लिए भी पैसों का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है, हुजूर। यहाँ इतनी भीड़ होने से क्या फायदा, हुजूर? राजकन्या के हजार-हजार सपनों से भरी हुई मुलायम पलकों की निगाहों की तरह ओस से भीगी सुबह की कोमल-किरण
ों में घोड़ा अचानक चौंककर खड़ा हो गया। कुछ लोग सामने में घोड़े पर भागते हुए इधर आ रहे थे। राजकुमार की पोशाक धारण किया हुआ दस-बारह साल का लड़का अचानक चौंक पड़ा। कौन हैं वे लोग? क्या दस्युगण? या शत्रु राज्य की सेना? कमर में कसी हुई तलवार को अपनी मुट्ठी से जोर से पकड़ लिया। "महाराज, महाराज! हमारी मदद कीजिए, महाराज।" आगंतुक आश्वारोहियों में से जो मुखिया था, शायद सेनापति होगा। हाथ उठाकर कहने लगा, "महाराज, हमारी राजकुमारी को राक्षस उठाकर ले गए हैं।" "राजकुमारी? तुम्हारी राजकुमारी? कौन है वह? मैं तो उसे नहीं पहचानता हूँ।" "आप जानते हैं, महाराज। आप सरपट घोड़ा भगाते हुए आ रहे थे। हमारी राजधानी के पास कुछ लड़कियों हँसती हुई नदी की तरफ जा रही थी। उन लड़कियों में जो सर्वोत्तम और सबसे ज्यादा सुंदर थी, वही तो हमारी राजकुमारी थी। महाराज, राजकुमारी समेत उन सभी लड़कियों को वह राक्षस उठाकर ले गया है अपनी गुफा में। उन्हें बचाइए, महाराज।" पचहत्तर लोगों का चावल पकाने से तीन बजे तक खत्म नहीं हो पाएगा। कुछ बच ही जाएगा। बचे हुए चावल को शाम के लिए पके भात में मिलाना पड़ता था। लेकिन आज तीन सौ लोगों के लिए चावल पकाया जा चुका है और साढ़े बारह बजे आकर रसोइया पूछ रहा है कि चावल सब खत्म हो गए है ; और पकाना है अथवा नहीं? आहा, प्रधानमंत्री हमारे लिए लक्ष्मीपुत्र है। मगर हर महीने दो बार कम से कम उड़ीसा का दौरा करते, परेड़ ग्राउंड में सभा का आयोजन करवाते तो मजा ही आ जाता। प्रधानमंत्रीजी की ऐसी ही दया रहेगी तो सरकारी बस-स्टैंड के बाहर बाँस की पट्टियों से घेरकर तथा रास्ते में लकड़ी के टेबल-कुर्सी डालकर बनाए गए इस आदर्श हिंदू होटल को एक भव्य भवन में क्यों नहीं परिवर्तित कर देगा पूर्ण साहू। उसके नगदी-डिब्बे के पास में लटकाया हुआ था प्रधानमंत्री का कैलेण्डर साइज फोटो। फोटो के सामने अगरबत्ती लगाई हुई थी। तभी तो शायद आज उसे साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही थी। आहा, हमारे प्रधानमंत्री जैसे दिग्गज नेता और कहीं मिलेंगे? बंधुगण! प्रधानमंत्री के उड़ीसा आगमन पर शासक दल के छलावे से भरे और पक्षपातपूर्ण रवैये के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन कीजिए। पूछिए, शासक दल के मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री को, भयंकर आँधी-तूफान के पाँच दिन बाद भी पीड़ित गाँवों तक राहत क्यों नहीं पहुँची? तभी माइक बंद हो गया। आदर्श हिंदू होटल के सामने अचानक एक जीप खड़ी हो गई। सात-आठ आदमी जीप से कूद पड़े "चावल बने हैं या चिकन?" पूर्ण साहू हड़बड़ाते हुए उठकर खड़ा हो गया। अपने काले दाँतो को निपोरकर हंसने लगा। "आइए, आइए, सब कुछ है साहब? गरमा-गरम।" कोई कहने लगा, "ओह! अंदर काफी भीड़ है।" "अभी जगह खाली हो जाएगी, साहब। अरे, लोचन, साहब लोगों को इधर खाली जगह पर बिठाओ।" "प्रधानमंत्री का यह फोटो क्यों लगवाए हो?" "ऐसे ही साहब, कुछ भी नहीं। आप कहते हैं तो अभी खोल देता हूँ। बिल्कुल अच्छा आदमी नहीं है, साहब। अपने उड़ीसा के लिए कुछ भी नहीं कर रहा है। सब कुछ तो अपने राज्य को दे रहा है। अरे, लोचन, सात प्लेट चावल और सात फुल प्लेट चिकन इधर ले आ।" प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री बैठे हुए थे। पहना हुआ था उन्होंने सफेद कुर्ता और सफेद चूड़ीदार पायजामा। सिर के ऊपर थी गाँधी टोपी। दो या तीन ऊँगलियों में धारण किए हुए थे रत्न जडित सोने की अंगूठियाँ। हाथ पर एक कीमती घड़ी, पाँव में कीमती चप्पलें और होठों पर मंद-मंद मुस्कराहट। उनको घेरकर खड़े हुए थे बहुत सारे संवाददाता। कुछ कैमरामेन इधर-उधर दौड़ रहे थे। फ्लैश के ऊपर फ्लैश पड़ रही थी। मुख्यमंत्री आज्ञाकारी, दास की भाँति उनके पास बैठे हुए थे। प्रधानमंत्री मुड़कर उनसे कुछ बोल रहे थे। मुख्यमंत्री का सीना फूले नहीं समा रहा था। असंतुष्ट दल के लोगों, आकर देखो, नहीं देख रहे हो मैं प्रधानमंत्री का सबसे नजदीकी आदमी हूँ। देख नहीं रहे हो, कितने अटूट विश्वास के साथ मुझसे बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री का ऐसा व्यवहार सबके लिए, कदापि नहीं, ऐसा व्यवहार सिर्फ मेरे लिए है। "मान्यवर, प्रधानमंत्री जी! क्या आप इस बात को स्वीकार करते हैं कि रिलीफ बाँटने में आपके अधिकारियों ने खूब अनियमितताएँ बरती है, बड़े-बड़े घोटाले किए हैं तथा उड़ीसा का शासक दल उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थ है? प्रधानमंत्री गंभीर, मगर होठों पर मुस्कराहट तथावत। "मैं इस बात को नहीं मानता हूँ। उड़ीसा सरकार अपने सच्चे मन से आँधी-तूफान के खिलाफ एक लड़ाई लड़ रही है। यह बात अलग है, कुछ अधिकारीगण हमेशा भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। लेकिन मुझे इस बात पर पूर्ण यकीन है कि उड़ीसा सरकार उन लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने में पीछे नहीं हटेगी।" "आँधी-तूफान आने से पहले अगर लोगों को उनके गाँव से हटा दिया गया होता तो शायद इतने लोग ह
ताहत नहीं होते। सरकार यह बात पहले से जानती थी कि उड़िसा के इन इलाकों में तेज आँधी-तूफान आ सकते हैं, तब बचाव के उपायों की व्यवस्ता क्यों नहीं की गई?" "कोई भी प्राकृतिक आपदा कितनी भी भयंकर हो, गाँव के सारे लोगों को उनकी जमीन-जायदाद छोड़कर हटाना क्या इतना सहज है? धन दौलत, जमीन-जायदाद तथा उनसे जुड़ी हुई उनकीस्मृतियाँ,उनके सेंटीमेंट, उनके इमोशन।" "शासक दल की असंतुष्ट गोष्ठी के बारे में आपकी क्या राय है?" शार्टहैंड की विकृत रेखाएँ, टेपरिकार्डर में रिकार्ड होती जा रही थी प्रधानमंत्री की सारी बातें। टी.वी कैमरे से एक फोटोग्राफर अलग-अलग कोण से प्रधानमंत्री के फोटो ले रहा था। राजभवन के पोस्ट ऑफिस में भयंकर भीड़। टेलीफोन, टेलीग्राम सभी एकदम व्यस्त। अभी पत्रकार लोग समाचार बना रहे हैं, फिर उन्हें भेजने में व्यस्त हो जाएँगे। प्रधानमंत्री यहाँ से रवाना होंगे शासक दल के मुख्य कार्यालय की तरफ। वहाँ सांसदों, विधायकों तथा कार्यकर्ताओं से मुलाकात करेंगे। शासक दल की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इधर-उधर दौड़ रही हैं। कहीं किसी घनघोर जंगल में, चारों तरफ घुप अंधेरा जिधर भी देखो, दिन की भरी दुपहरी में भी रात के काले अंधेरे का भ्रम हो रहा है। वहाँ पर वे लोग सेनापति के साथ खड़े हो गए हैं। इस दुर्बल सेनापति से क्या होगा? ए.डी.एम पलटा सिंह का व्यक्तित्व .................... वह इस चीज को अच्छी तरह जानता है कि उसके व्यक्तित्व में कहीं न कहीं कोई दोष जरुर है, जिसकी वजह से कोई भी पास नहीं फटकता। वह जानता है, कि कोई दूसरा होता तो एस.पी इस तरह चिल्लाकर बात नहीं करता, वरन डर से धीरे-धीरे सँभल कर बातचीत करता। लेकिन पता नहीं क्यों, कई भी उसकी खातिरदारी नहीं करता। विवश होकर पलटा सिंह ने आदेश-पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर लिए। कुछ विरोध भी नहीं कर पाया। हस्ताक्षर करते समय उसके हाथ काँप रहे थे। उसे लग रहा था, उसके पाँव भी काँप रहे हैं। लेकिन किस वजह से? दस-बारह के बच्चे की लाश पर रोता हुआ उसका बूढ़ा बाप। इमेज फोटो स्टूडियों के डार्क रुम टेक्निशियन-कम-फोटोग्राफर-कम-प्रोपराइटर, श्री पुण्यश्लोक दास ने फोटो उठाया, फिर रीलघुमाकर देखने लगे। केवल और आठ फोटो लिए जा सकते थे बची हुई रील में। प्रधानमंत्री की मीटींग में थोड़ी और देर लगेगी। पुण्यश्लोक हिसाब लगाने लगा, अभी प्रधानमंत्री एम.एल.ए. मीटिंग में व्यस्त है। उसके बाद लंच करने जाएँगे। भाषण देते हुए प्रधानमंत्री का एक फोटो खींचकर तुरंत ही उसको मास्टर कैंटीन चौक तक दौड़-दौड़कर जाना पड़ेगा। वहाँ अपने डार्करुम में फोटो एक्सपोज करने के बाद वह दौड़ेगा पहले कटक, उसके बाद भुवनेश्वर। जो भी कोई अखबारों के संपादकों के पास पहले पहुँचेगा, उसीका फोटो ग्रहण किया जाएगा। लेकिन बहुत ही मुश्किल काम है, अखबार वालों के कार्यालय कटक और भुवनेश्वर शहर में बहुत दूर-दूर है, एक ही साथ सबको स्पर्श करना नामुमकिन है। भुवनेश्वर से बादामबाड़ी, वहाँ से चाँदनी चौक, फिर आगे जेल रोड़, बक्सी बाजार। इतना घूम-घमकर 'समाज' कार्यालय पहुँचने पर पता चलेगा कि कोई और फोटोग्राफर फोटो देकर जा चुका है। अगर 'समाज' ऑफिस के लिए बक्शी बाजार की तरफ से जाते हैं, तो बिहारी बाग पहुँचते-पहुँचते पता चलेगा कि 'प्रजातंत्र' कार्यालय में किसी दूसरे फोटोग्राफर ने फोटो दे दिया है। ऊपर से न्यूज एडीचटों का भाव। कहने लगेंगे, मेरा स्टॉफ भी फोटोग्राफर का काम करता है। उसने भी फोटो खींचा है, लेकिन अपने अनुभव से पुण्यश्लोक यह बात अच्छी तरह जानता है कि कौन से अखबार वाले ज्यादा डरपोक हैं। वह बहुत डरा हुआ था। वह राजकुमार की पोशाक पहना हुआ था। उसने सेनापति को डाँटा, "अगर इतना डरोगे तो फिर युद्ध कैसे कर पाओगे?" सीधे वह गुफा के अंदर चला गया। बाकी लोग बाहर खड़े रहे। अंदर था घनघोर अंधेरा। यही अंधेरे में कहीं छुपा होगा वह राक्षस। हो सकता है अभी निकल कर सामने आ जाएगा। वह डरते हुए पाँव बढ़ा रहा था। आगे बढ़ते ही जा रहा था। बढ़ते-बढ़ते सामने एक दरवाजा दिखाई दिया। दरवाजे के भीतर से हल्की-हल्की रोशनी आ रही थी। दरवाजे की फाँक से उसने झाँककर देखा, राजकुमारी समेत वे सारी लड़कियाँ सिर नीचे झुकाकर बैठी हुई थी। उसने दरवाजे को धक्का दिया। खट की आवाज के साथ दरवाजा खुला। राजकुमारी मुँह ऊपर करके देखने लगी। जैसे ही उसने देखा, उसके चेहरे पर प्यार भरी मुस्कराहट छा गई। ए.डी.एम जीप से नीचे उतरे। लोगों की बेशुमार भीड़ देखते ही, वह ए.डी.एम. की जगह ए.एन. पलटा सिंह हो गया। वह हीन भावना से ग्रस्त था. भुवनेश्वर में कई आई.ए.एस अधिकारियों को देखकर उसकी हीन-ग्रंथि जागृत हो उठती है। उसको अक्सर ऐसा लगता है कि उसके व्यक्तित्व में ऐसी कोई न कोई कमी अवश्य है जिस वजह से वह एक परफेक्ट ऑफिसर नहीं बन पा रहा है। उसे इस बात का अनुभव है कि उसके नीचे काम करने
वाले कर्मचारीगण उसकी अवहेलना करते हैं। ऊपर के अधिकारी उसको उचित सम्मान नहीं देते हैं क्योंकि वह एक प्रमोटेड आई.ए.एस ऑफिसर है। ऐसी ही कुछ हीन-भावना हमेशा उसके मस्तिष्क में छाई रहती है। तभी एस.पी. ने आकर कुछ कागज उसके सामने रख दिए। "इन सब कागजों पर हस्ताक्षर कर दीजिए। आवश्यकता पड़ने पर काम आएँगे।" "ये सब क्या कागज हैं? आँखें तरेरते हुए एस.एन. पलटा सिंह ने पूछा। "लाठी चार्ज, गैस फायरिंग, ब्लैंक फायरिंग और फायरिंग आर्डर।" पलटा सिंह के भीतर ए.डी.एम. वाला व्यक्तित्व जाग उठा। वह सिर उठाकर कहने लगा, "सही समय आने दो, जब भीड़ ज्यादा हो जाएगी, तथा स्थिति कंट्रोल के बाहर हो जाएगी या फिर जनता ऐसी कुछ बदमाशी करेगी। उन्हीं अवस्थाओं मं तो इन कागजों पर दस्तखत किए जाएँगे।" "आपको इन चीजों का कितना अनुभव है? पहले कभी ऐसी मीटींग अटेण्ड किए हैं?" एस.पी. ने जोर से चिल्लाकर कहा। "ठीक समय पर ऐसे कार्यक्रम में आदेश पर दस्तखत करवाना क्या संभव है? लोगों में धक्का-मुक्की, लड़ाई-ढगडे, दंगा-फसाद औ मारपीट हो रही होगी। उसी समय पर इन आदेशों पर दस्तखत करवाकर लाठीचार्ज किया जाए तो क्या पुलिस संभाल सकेगी?" तरह मक्खीचूस है। इस वजह से इस बार पुण्यश्लोक ने ठान लिया है कि भुवनेश्वर की प्रेस वालों को पहले फोटो नहीं देगा। परेड़ ग्राउन्ड पहुँचने पर पुण्यश्लोक ने देखा कि सामने से उत्कल फोटो स्टूडियो का राना आ रहा है हँसते हुए मैने उससे कहा, "कितने स्नैप ले लिए हो?" पुण्यश्लोक ने अपनी जेब के अंदर हाथ घुसाकर अपना पास चेक कर लिया। पास जेब में पाकर वह खुश हो गया। फिर उसके दिमाग में इधर-उधर की बातें आने लगी, कहीं ऐसा तो नहीं है राना मुझसे झूठ बोल रहा होगा। अंदर ही अंदर अपना काम कर लिया होगा। सोच रहा होगा कहीं पहले मं फोटो ना सबमिट कर दूँ इसलिए उसने चाल चली होगी। पुण्यश्लोक ने मुँह बिगाड़कर सहानुभूति दिखाने का अभिनय किया। उसके बाद माफी माँगकर वह चला गया। बहुत काम बाकी था उसका। उसके कैमरे में आठ स्वैप लेने अभी भी बाकी थे. फ्लैश लाइट के बल्ब बेग में से बाहर निकालकर वह गिनने लगा। अगर फ्लैश लाइट ने धोखा नहीं दिया तो वह कटक के प्रेस कार्यलयों को जरुर कवर कर लेगा। मंगलू स्वाँई, राज्य मंत्रिमंडल से निष्कासित मंत्री, राज्य सरकार के पार्टी कार्यालय में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हो रही विधायकों की सभा में बाहर चला आया। देखिए, असंतुष्ट गोष्ठी के नाम पर कूदने वाले सभी युबा विधायक कितनी शांति से चुपचाप बैठे हुए हैं। इधर स्वाँई अकेला पड़ गया। मुख्यमंत्री इस तरह कह रहे थे, मानो उनके सरकार में केवल स्वाँई ही उनका अकेले विरोधी है। गुस्से में लाल-पीला होकर प्रधानमंत्री उसकी तरफ तिरछी निगाहों से देखने लगे। स्वाँई के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। असंतुष्ट गोष्ठी के विधायकगण जो स्वाँई को उकसा रहे थे, अभी एकदम चुपचाप हैं। कहाँ चला गयाउनका मुख्यमंत्री के विरोध में सोलह बिंदुओं वाला अभियोग पत्र। किसीके मुँह से यह आवाज नहीं निकली कि मुख्यमंत्री सचिवालय में बैटकर केवल अधिकारिक निर्णय लेते हैं। किसी ने यह बी नहीं कहा कि खदान मालिकों का रायल्टी माफ करने के लिए मुख्यमंत्री नेचार करोड़ रुपए की घूस ली है। किसी ने एक बार भी यह आवाज नहीं उठाई कि फुलवाड़ी जिले में डोनामाइट खदान कीलीज अवैध तरीके से आवंटित करने के लिए एक कंपनी से भीतर ही भीतर साँठ-गाँठ की है। विरोधी दल के विधायकों की बात मुख्यमंत्री बिल्कुल नहीं सुनते हैं। ब तक कोई उनके साले की खुशामद नहीं करता है, तब तक उनका कोई काम नहीं होता है। ये सब बातें धरी की धरी रह गई। स्वाँई क्रोध के मारे काँप रहा था। प्रधानमंत्री की घूरती हुई वे गुस्से भरी आँखें उसको बैचेन कर रही थी। अपमान से वह तिलमिला रहा था। भीतर ही बीतर वह इस चीज को भी जानता है कि प्रधानमंत्री के सामने भले मुँह नहं खोले, मगर उसके हाथ में अभी भी उसका समर्थन करने वाले चार-पाँच विधायक हैं। पिछले चुनाव में अपना आदमी समझकर उसने बीस आदमियों को टिकट दिलवाया था। देखते-देखते वे सभी उसकी मुट्ठी से निकल गए। लेकिन आज भी पाच-छ ऐसे विधायक हैं, जो उसके रिजाइन करने पर वे भी साथ में रिजाइन कर देंगे। उसने मन ही मन इस बात को ठान लिया कि एक न एक दिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को किसी न किसी लपेटे में जरुरु लेगा। भले ही, उसके लिए उसे इस्तीफा क्यों न देना पड़े। हालाँकि उससे पहले उसको असंतुष्ट गोष्ठी के विधायकों को मंत्रीपद का लोभ दिखाकर एकजुट करना पड़ेगा। अगर चालीस-पचास विधायक मेरी तरफ हो जाते हैं तो विरोधी दल के साथ मिलकर एक गठबंधन वाली सरकार बनाई जा सकती है। इस विषय पर विरोधी दल के नेता के साथ गोपनीय समझौता करना उचित रहेगा। स्वाँई ने उस बात का निश्चय कर लिया, कैसे भी करके वह मंत्रिमंडल को भंग कर देगा। प्रधानमंत्
री की उन तमतमाई आँखों का वह र्इंट का जवाब पत्थर से देगा। प्रधानंत्री को बी यह बात समझ में आ जाएगी कि मंगलू स्वाँई कितना ताकतवर है। उसके जैसी एक मिल जाए तो जीवन में उसके कोई चाह बाकी नहीं रहेगी. उसने राजकुमारी को हथेली से पकड़ लिया। उसकी मुलायम-मुलायम हथेलियों से उसका सारा शरीर सिहर उठा। कितनी सुंदर अनुभूति थी वह! राजकुमारी कहने लगी, "लौट जाओ राजकुमार, आप लौट जाइए। राक्षस आने ही वाला है। वह आपको मारकर खा जाएगा।" "लौट जाऊँगा?" लड़के ने सीना तानकर कहा! लौटकर जाने के लिए मैं नहीं आया हँ राजकुमारी, आपको यहाँ से छुड़वाने के लिए आया हूँ।" "ऐसा मतकरो, राजकुमार। आप यहाँ से चले जाइए। मेरे जैसी एक साधारण राजकुमारी के लिए आप अपना जीवन खतरे में मत डालिए।" "आपको यहां से किसी भी हालात में लिए बिना नहीं जा सकता हूँ राजकुमारी। जिस दिन मैने आपको नदी की तरफ किलकारी मारते हुए जाते देखा, उसी दिन मैं आपका दिवाना हो गया हूँ।" "राजकुमार।" राजकुमारी ने भागकर उस लड़के को अपनी बाँहों में जकड़ लिया। राजकुमारी के आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। "मुझे आप ही की प्रतीक्षा थी राजकुमार। आपकी जान के लिए मैने दिन-रात भगवान शिव की आराधना की है। राजकुमार, आज से मैं आपकी दासी, चिर-सहचरी हूँ।" विरोधी दल के ऑफिस में टेबल के चारों तरफ आठ-दस आदमी बैठे हुए थे। चपरासी और दरवान का काम करने वाले लड़के ने एक बार सभी को चाय पिला दी। उन आदमियों में से कॉलेज में अध्ययनरत एक युवा कॉलेज यूनियन का सभापति था, उसे जोरदार भूख लग रही थी। मगर कहने में वह हिचकिचा रहा था। पता नहीं, आज लंच नसीब होगा या नहीं। कोई भी लंच के बारे में बात नहीं छेड़ रहा था। विरोधी दल के नेता ने खद्दर का कुरता -पायजामा पहन रखे थे। पाँव में बाटा की चप्पलें, गले में सोने की मोटी चेन तथा हाथ में पहनी हुई थी एक महँगी घड़ी। चेहरे से सौम्य व्यक्तित्व झलक रहा था। हाथ में महँगी सिगरेट पकड़ी हुई है। उसके सामने सभी आदमी भीगी बिल्ली की तरह लग रहे थे, मगर विरोधी दल के नेता के चेहरे पर कोई शिकन नहीं नजर आ रही थी। वह खुश नजर आ रहा था। वह कहने लगा "प्रधानमंत्री, जैसे ही अपने स्थान से उठेंगे वैसे ही हमारा एक्शन शुरु हो जाना चाहिए। प्रदीप, कितने आदमियों का प्रबंध हुआ है?" प्रदीप, जो कि छात्र नेता था, खड़ा होकर कहने लगा, "हमारी यूनियन के समर्थक और बाकी सबी युवक मिलाकर डेढ़ सौ के तकरीबन होंगे, सर।" "वेरी गुड, उन लोगों को कहना कि वे सभी जोर-जोर से नारे लगाएँगे। पुलिस आने से भी उन्हें डरने की कोई जरुरत नहीं है, बल्कि पुलिस से डटकर मुकावला करना होगा। और उनकी सारी लाठियाँ छन लेनी होगी। और अरिंदम, तुम, तुम्हारे साथ जितने आदमी हैं उन सभी की जेब में सडे अंडे और संतरे रखे हैं ना? उनको अच्छी तरह समझा देना कि सभा के शुरुआत में सडे हुए फल फेकेंगे। केवल प्रधानमंत्री के ऊपर ही सड़े हुए अंडे फेकेंगे। अंडे जैसी महँगी चीज किसी दूसरे के ऊपर न फेंके। पहले से उन्हें समझा देना।" जैसे ही सब हँसने लगे, वैसे ही सेंस ऑफ ह्रूमर के लिए विख्यात विरोधी दल के नेता ने अचानक सबके सामने एक चौंकने वाली खबर दी "आप सभी के लिए एक खुशी की खबर है। प्रधानमंत्री की मीटिंग से स्वाँई ने बॉयकट कर दिया है। वह पार्टी छोड़ने को तैयार हो सकता है। अगर मंगलू स्वाँई अपने साथ बीस विधायक लेकर आता है तो हमारे लिए दस-पंद्रह और विधायक कूटनीति और रुपयों के बल पर खींचना मुश्किल नहीं है। बस, उसके बाद मंत्रिमंडल मैं हमारा वर्चस्व होगा।" की सभा से ही शुरु होती है हमारी योजना। आज से ही अखबारों में चर्चा का विषय छेड़ देने से जनता का भरपूर समर्थन हमारे पक्ष में होगा।" लड़के के चारों तरफ फेंके हुए पैसों को बुढ़े ने उठा लिया। गिनने पर आठ रुपे पचहत्तर पैसे हुए। मन ही मन उसने हिसाब कर लिया कुल मिलाकर अठहत्तर रुपए साठ पैसे होते है और नहीं चलने लायक अठन्नी-चबन्नी मिलाकर दो रुपए अतिरिक्त। सुबह से ही पेट खाली है। पेट में चूहे कूदने लगे हैं। बच्चे ने अभी तक संभाल लिया है। इधर मिट्टी तपने लगी है, कहीं ऐसा न हो कि गर्मी की वजह से बच्चा बेहोश हो जाय अथवा किसी ने उसका हाथ-पाँव खींच लिया तो किए कराए पर पानी फिर जाएगा। लोग पीट-पीटकर मार देंगे, लेकिन अभी तक तो केवल अठहत्तर रुपए ही हुए हैं।भीड़ बेशुमार बढ़ रही है। कुछ और आमदनी होने की संभावना है। ज्यादा नहीं तो कम से कम सौ रुपए तक तो हो ही सकते हैं। "कुछ और देर के लिए धीरज धर, बेटे।" सबकी निगाहों से अपने आपको बचाकर लड़के के पास झककर धीरे से कहने लगा, "और आधे घंटे बाद तुझे ले जाऊँग। मुझे मालूम है कि धरती तपने लगी है। मेरे लाड़ले, सुबह से कुछ भी नहीं खाए हो। तुझे भयंकर भूख लग रही होगी। आज मैं तुझे एक अच्छे होटल में चिकन खिलाऊँगा। केवल और आधे घंटे की बात है बे
टे।" बूढ़ा ड़र रहा है। इतनी भयंकर भीड़। इतनी भयंकर भीड़ का बूढ़े ने कभी सामना नहीं किया था. जहाँ पकड़े गए, वहाँ मारे गए। यहां से निकलते ही, थोडा-बहुत नाश्ता कर लेने के बाद खिसकना पड़ेगा। बूढ़े ने मन ही मन सोच लिया है, यहाँ से खिसकते ही कटक जाना उचित रहेगा। खाना-पीना भी कटक में ही खाया जाएगा। उसके बाद जितना जल्दी हो सकेगा, बस या ट्रेन पकड़कर वह बरहमपुर, राऊरकेला, खड़गपुर और फिर कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर देगा। उसे हिन्दी, बंगला, उड़िया, तेलगू सभी भाषाओं की अच्छी जानकारी है। अगर उसे तामिल और मलयालम भाषा आ जाती तो एक बार मद्रास भी घूम लेता। लखनऊ, काशी, इलाहाबाद की तरफ उसने कबी रुख नहीं किया है। बूढ़े ने सुन रखा था कि काशी की तरफ इन सब में अच्छी आमदनी हो जाती है। बूढ़े ने चादर की तरफ देखा। लगभग और दो रुपए जमा हो गए थे। जैसे ही सौ रुपए हो जाएगा वह वहाँ से चला जाएगा। पुलिसवालों ने भी इधर दो-तीन चक्कर काटे हैं। और ज्यादा लोभ नहीं। यह अंतिम बार है। उसने फिर चिल्लाना शुरु किया "हुजूर, माई-बाप! कैसी विपदा आ पड़ी है मुझ पर......." एक ग्रामीण दूसरे ग्रामीण को बता रहा था........ "उस आदमी को देख रहे हो, जिसके सिर पर गाँधी टोपी है, वह आदमी ही हमारा प्रधानमंत्री है। समझे, वही भारत देश का राजा है।" दूसरे ग्रामीण ने हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया। "गजपति महाराज की तरह भगवान है। मानते हो ना? इतने बड़े देश पर जिसका शासन चल रहा है दुर्योधन और युधिष्ठिर की भाँति।" तभी लोगों के बीच धक्का-मुक्की शुरु हो गई। प्रधनमंत्री मंचासीन हो गए। मुख्यमंत्री उठक स्वागत-भाषण देने जा रहे हैं। मुख्यसचिव झुककर के प्रधानमंत्री के कान में कुछ फुसफुसा रहा था। उसकी बात सनक प्रधानमंत्री ने विरक्त भाव से नाक-मौं सिकोड़ लिया। ठीक उसी समय पुण्यश्लोक ने फोटो खींच लिया। तब दिन में एक बजकर पैतीस मिनट हो रहे थे। उसने मन ही मन इस बात का आकलन कर लिया फोटो डेबलेप करने के बाद वह तीन बजे तक कटक पहुँच सकता है। छात्र नेता प्रदीप अपने साथियों को उत्तेजित होकर कहने लगा, "देखते क्या हो? फेंको, फेंको, सड़े हुए फल फेंको।" तभी मुख्यमंत्री खड़ा हो गया। उसी समय एक लड़के ने एक सड़ा हुआ आलू उनकी तरफ फेंका, मगर वह आलू मंच के नजदीक नहीं पहुँच पाया। भीड़ में ही कहीं गिर गया। उसके बाद एक और लड़के ने सड़े फल फेंकने का प्रयास किया, परन्तु कोई भी फल मंच के ऊपर नहीं गिर रहा था। यह देखकर प्रदीप चिल्लाते हुए कहने लगा, "प्रधानमंत्री, मुर्दाबाद!" बाकी लड़के पीछे-पीछे नारे लगाते हुए चिल्लाने लगे, "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।" "शासक दल, मुर्दाबाद।" "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।" "प्रधानमंत्री लौट जाओ।" "लौट जाओ, लौट जाओ।" इर्द-गिर्द की भीड़ पीछे मुड़कर देखने लगी, क्या हो रहा है? तभी प्रदीप ने अपने झोले में से पुआल का बना हुआ एक पुतला निकाला। बड़ी मुश्किल से उस पुतले को बचा कर लाया था सबकी निगाहों से। देखते-देखते उसने पुतले को आग लगा दी। अचानक धुँए और आग को देखकर भीड़ डर से तितर-बितर होने लगी। कुछ लोग प्रधानमंत्री के भाषण की उपेक्षा पुतलाजलाने के कार्यक्रम को बड़े चाव से देखने लगे। वे जलते हुए पुतले के चारों तरफ खड़े हो गए। प्रदीप ने जोर से नारा लगाया, "प्रधानमंत्री, मुर्दाबाद!" अभी केवल उसके समर्थक ही नहीं वरन अन्य लोग भी उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद!" "प्रधानमंत्री लौट जाओ।" "लौट जाओ। लौट जाओ।" पुण्यश्लोक ने भीड़ में से उठते हुए धुँए को देखा। कुछ लोग हाथ उठा-उठाकर नारे लगा रहे थे। पुण्यश्लोक को मानो इसी क्षण के फोटो लेने का इंतजार था। सरकार विरोधी अखबार वाले इस फोटो को अवश्य खरीदेंगे। पुण्यश्लोक मंच के ऊपर से नीचे कूद कर भागने लगा। भीड़ को चीरते हुए, लोहे की पाइप-रेलिंग को कूदते फांदते हुए, औरतों की भीड़ के भीतर से हड़बड़ाकर भागे जा रहा था। तभी राज्य की अर्द्ध सैनिक पुलिस ने उसको उठाकर नीचे पटक दिया। पुण्यश्लोक को पुलिस द्वारा पीटे जाने वाले इस दृश्य का स्नैप अनजाने में उत्कल फोटो स्टूड़ियो के राना ने उठा लिया। पुलिसवालों की मार से पत्रकार तथा फोटोग्राफर घायल नामक शीर्षक वाले फोटो विरोधी दल के अखबार अवश्य खरीद लेंगे। राना मन ही मन प्रफुल्लित हो गया, उसको एक अच्छा स्नैप मिल गया। पुतला जलाने वाले लड़को पर पुलिस वाले टूट पड़े। भीड़ तितर-बितर कर इधर-उधर भागना शुरु हुई। तभी प्रदीप को लगा कि किसी ने उसकी पीठ पर जोर से लाठी मार दी हो। वह घड़ाम से पेट के बल पर गिर गया। भीड़ ने पाँव तले उसको रौंदना शुरु किया। उसका सारा शरीर असहाय पीड़ा से दर्द करने लगा। प्रदीप कुछ समझ नहीं पा रहा था, तभी पीछे से किसी ने अपने जूतों से जोरदार लात मारकर उसको लुढ़का दिया। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलने का प्रयास कर रहा था, मगर आँख
ें नहीं खोल पा रहा था। तभी किसी ने उसके पेट पर लाठी से वार कर दिया। उसने अपनी आत्मरक्षा के लिए ज्यों ही हाथ ऊपर किया, वैसे ही लाठी का दूसरा वार हुआ। उस वार से उसके हाथ की हड्डी टूट गई। टूटी हुई डाल की तरह उसका हाथ झूलने लगा। सारे शरीर में दर्द के मारे वह कराहने लगा। राजकुमारी कहने लगी, "राक्षस आने का वक्त हो गया है। राजकुमार, आप चले जाइए यहाँ से।" वह लड़का आत्म-सम्मान के साथ कहने लगा, "किसी भी परिस्थिति में आपको लिए बिना मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा, राजकुमारी। देखिए तो सही, मैं किस तरह राक्षस के छक्के छुड़ाता हूँ। आपका कोई भी बाल बाँका नहीं होने दूँगा।" "राक्षस बहुत ताकतवर है।" "तो मेरी भी बुद्धि कम नहीं है।" "इधर देखिए, राजकुमार, राक्षस आ रहा है। किस तरह धड़धड़ की आवाज हो रही है। कितनी भयंकर आवाजें। जब भी राक्षस आता है, तो आँधी तूफान चलने लगते हैं। पेड़-पौधे हिलने लगते हैं। जमीन थर्राने लगती है, 'हो, हो' करते हुए वह आता है। चले जाइए, राजकुमार, चले जाइए।" परेड़ ग्राउंड में लोगों में भगदड़ मच गई है। क्या हो रहा है? लाठीचार्ज। धोती के ऊपर और जमीन पर बिखरे हुए पैसों को हड़बड़ाकर उठाते हुए बुड्ढा कहने लगा, "उठ जा, बेटे, उठ जा। लाठीचार्ज हो रहा है उधर। चलो, हम लोग भी भगाते हैं यहाँ से।" राजकुमारी की पीठ थपथपाते हुए लड़के ने कहना शुरु किया, "देखती रहो, कुछ भी नहीं होगा। मैं राक्षस के साथ युद्ध करुँगा।" परेड़ ग्राउंड की ओर से लोग एक दूसरे को धक्का-मुक्की करते हुए भागे जा रहे थे. बुड्ढा कहने लगा, "उठ बेटे, काफी कमाई हो चुकी है। जान बच गई तो और कमाएँगे। भीड़ हमारी तरफ ही बढ़ते हुए आ रही है। उठ मेरे, लाड़ले, जल्दी उठ।" अपनी गर्जना से आकाश और पाताल को एक करते हुए क्रोध से फुफकारते हुए उसी की तरफ लपक रहा था वह राक्षस। डर के मारे राजकुमारी काँप रही थी। लड़के मन में लेशमात्र भी भय नहीं था। तलवार तानकर वह राक्षस के सामने खड़ा हो गया। भीड़ बूढ़े के सामने से गुजरने लगी। डरकर लड़के को हिलाते हुए कहने लगा, "उठ, उठ, मेरे बेटे, मेरे लाड़ले। ये कैसी सर्वनाश करने वाली नींद है? उठ, बेटे। भागेंगे। जान बची तो लाखों पाए। उठ मेरे बेटे, मेरे लाड़ले। उठ, उठ,जल्दी उठ।" राक्षस ने गुफा का द्वार खोल दिया और गरजते हुए कहने लगा, "मेरी गुफा में किसने घुसने का दुस्साहस किया। रुक, आज मैं तुझे कच्चा चबा जाऊँगा।" राजकुमारी ने ड़रकर अपनी आँखे भींच ली, "राजकुमार, राजकुमार।" लड़के ने हँसते हुए कहा, "रुक जा राक्षस, तेरा आखिरी समय आ गया है। आज तू जिंदा नहीं बचेगा मेरे हाथों।" भीड़ को अपनी तरफ बढ़ता आते देख बूढ़ा अपने बेटे को गोद में उठाकर भागने लगा। "क्या हो गया है तुझे आज, मेरे बेटे? जाग क्यों नहीं रहा है? क्या मुझ पर गुस्सा हो गए हो? जाग जा, मेरे बेटे। देख, बाहर किस तरह भगदड़ मची हुई है। तू भी दौड़, मेरे साथ, मेरे बेटे। ओह, मेरे प्यारे बेटे।" अकस्मात् बूढ़े के हाथ से छूटकर वह लड़का नीचे गिर गया। बूढ़े को पीछे धकेलते हुए भीड़ आगे बढ़ी जा रही थी। 'मेरे बेटे, मेरे बच्चे, मेरे लाड़ले' रोते-रोते कहते-कहते वह भीड़ के बहाव में दूर फेंका गया। नीचे गिरा हुआ था उसका लड़का। किसी के पाँव से टकराया तो वह आदमी उसको फाँदकर आगे निकल गया। उसके बाद तो फिर कहना ही क्या, लातों के ऊपर लातें। कुछ खाली पाँव, तो कुछ जूते पहने हुए, तो कुछ चप्पल पहने हुए, तो कुछ धूल से भरे पाँव। देखते-देखते ऐसे असंख्य पाँव उस लड़के को रौंदते हुए आगे बढ़ते गए। वह राक्षस उठाकर ले गया उस लड़के को। पता नहीं, उसको मरोड़ दिया क्या, उस राक्षस ने। लड़के का सारा शरीर यंत्रणा से बिलबिला उठा। बहुत ही अस्पष्ट स्वर में वह पुकार रहा था, "राजकुमारी!" राजकुमारी ने भी बिलखते हुए राजकुमार को आवाज लगाई होगी मगर राक्षस की हुंकार के आगे कुछ सुनाई नहीं पड़ी। पीड़ा सहते-सहते हुए भी वह लड़का राजकुमारी के कंठ से दर्द भरी चीत्कार सुनना चाह रहा था। 'राजकुमार,राजकुमार' की करुणा पुकार वह अपने कानों से सुनना चाह रहा था, मगर सुन नहीं पा रहा था। थाने से मुक्त होने के बाद अस्पताल जाकर लौटते समय परेड़ ग्राउंड और यूनिट थ्री के बीच रास्ते में उस दृश्य को देखकर पुण्यश्लोक चौंक उठा। उस समय तक प्रधानमंत्री जा चुके थे। परेड़ ग्राउंड में पूरी निर्जनता छाई हुई थी। भुवनेश्वर संध्या की चपेट में आ चुका था। पुलिस के डंडे खाने से उसके फ्लैश के बल्ब टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गए थे, केवल एक ही फ्लैश बल्ब अक्षत बचा हुआ था। इस बात को लेकर पुण्यश्लोक का मन भारी हो रहा था, मगर जैसे ही उसने उस दृश्य को देखा तो वह अपना दुःख भूल गया। पुण्यश्लोक ने तुरंत अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया और सोचने लगा कि अगर इस दृश्य का फोटो लिया जाए तो उसका एक अलग महत्व रहेगा। प्रधानमंत्री के बार
े में रिपोर्ट देते समय यह फोटो नहीं भी चलेगा तो कोई बात नहीं, मगर आँधी-तूफान, अकाल आदि किसी भी परिस्थिति में यह फोटो काम आ जाएगा। अंतिम बचे हुए एक फ्लैश बल्ब की सहायता से पुण्यश्लोक ने इस दृश्य को अपने कैमरे में अंकित कर लिया और खुश होने लगा। पुण्यश्लोक द्वारा लिए गए फोटो का दृश्य इस प्रकार था। शिरीष पेड़ के सहारे बैठकर अपनी उदास आँखों से ढ़लती हुई शाम को देख रहा है एक बूढ़ा। बहुत समय से बहते हुए आँसू उसकी गाल के ऊपर सूखकर जम चुके थे। पास में पड़ी हुई थी खून से लथपथ एक लड़के की लाश। बूढ़ा और चिल्ला-चिल्लाकर कोई पैसा नहीं माँग रहा था।
एक बार देवलोक की परम सुंदरी अप्सरा उर्वशी अपनी सखियों के साथ कुबेर के भवन से लौट रही थी। मार्ग में केशी दैत्य ने उन्हें देख लिया और तब उसे उसकी सखी चित्रलेखा सहित वह बीच रास्ते से ही पकड़ कर ले गया। यह देखकर दूसरी अप्सराएँ सहायता के लिए पुकारने लगीं, "आर्यों! जो कोई भी देवताओं का मित्र हो और आकाश में आ-जा सके, वह आकर हमारी रक्षा करें।" उसी समय प्रतिष्ठान देश के राजा पुरुरवा भगवान सूर्य की उपासना करके उधर से लौट रहे थे। उन्होंने यह करूण पुकार सुनी तो तुरंत अप्सराओं के पास जा पहुँचे। उन्हें ढाढ़स बँधाया और जिस ओर वह दुष्ट दैत्य उर्वशी को ले गया था, उसी ओर अपना रथ हाँकने की आज्ञा दी। अप्सराएँ जानती थीं कि पुरुरवा चंद्रवंश के प्रतापी राजा है और जब-जब देवताओं की विजय के लिए युद्ध करना होता है तब-तब इंद्र इन्हीं को, बड़े आदर के साथ बुलाकर अपना सेनापति बनाते हैं। इस बात से उन्हें बड़ा संतोष हुआ और वे उत्सुकता से उनके लौटने की राह देखने लगी। उधर राजा पुरुरवा ने बहुत शीघ्र ही राक्षसों को मार भगाया और उर्वशी को लेकर वह अप्सराओं की ओर लौट चले। रास्ते में जब उर्वशी को होश आया और उसे पता लगा कि वह राक्षसों की कैद से छूट गई है, तो वह समझी कि यह काम इंद्र का है। परंतु चित्रलेखा ने उसे बताया कि वह राजा पुरुरवा की कृपा से मुक्त हुई है। यह सुनकर उर्वशी ने सहसा राजा की ओर देखा, उसका मन पुलक उठा। राजा भी इस अनोखे रूप को देखकर मन-ही-मन उसे सराहने लगे। अप्सराएँ उर्वशी को फिर से अपने बीच में पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और गदगद होकर राजा के लिए मंगल कामना करने लगीं, "महाराज सैंकड़ों कल्पों तक पृथ्वी का पालन करते रहें।" इसी समय गंधर्वराज चित्ररथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने बताया कि जब इंद्र को नारद से इस दुर्घटना का पता लगा, तो उन्होंने गंधर्वों की सेना को आज्ञा दी, "तुरंत जाकर उर्वशी को छुड़ा लाओ।" वे चले लेकिन मार्ग में ही चारण मिल गए, जो राजा पुरुरवा की विजय के गीत गा रहे थे। इसलिए वह भी उधर चले आए। पुरुरवा और चित्ररथ पुराने मित्र थे। बड़े प्रेम से मिले। चित्ररथ ने उनसे कहा, "अब आप उर्वशी को लेकर हमारे साथ देवराज इंद्र के पास चलिए। सचमुच आपने उनका बड़ा भरी उपकार किया है।" लेकिन विजयी राजा ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसे इंद्र की कृपा ही माना। बोले, "मित्र! इस समय तो मैं देवराज इंद्र के दर्शन नहीं कर सकूँगा। इसलिए आप ही इन्हें स्वामी के पास पहुँचा आइए।" चलते समय लाज के कारण उर्वशी राजा से विदा नहीं माँग सकी। उसकी आज्ञा से चित्रलेखा को ही यह काम करना पड़ा, "महाराज! उर्वशी कहती है कि महाराज की आज्ञा से मैं उनकी कीर्ति को अपनी सखी बनाकर इंद्रलोक ले जाना चाहती हूँ।" राजा ने उत्तर दिया, "जाइए, परंतु फिर दर्शन अवश्य दीजिए।" उर्वशी जा रही थी, पर उसका मन उसे पीछे खींच रहा था। मानो उसकी सहायता करने के लिए ही उसकी वैजयंती की माला लता में उलझ गई। उसने चित्रलेखा से सहायता की प्रार्थना की और अपने आप पीछे मुड़कर राजा की ओर देखने लगी। चित्रलेखा सब कुछ समझती थी। बोली, "यह तो छूटती नहीं दिखाई देती, फिर भी कोशिश कर देखती हूँ।" उर्वशी ने हँसते हुए कहा, "प्यारी सखी। अपने ये शब्द याद रखना। भूलना मत।" राजा का मन भी उधर ही लगा हुआ था। जब-तक वे सब उड़ न गई; तब तक वह उधर ही देखते रहे। उसके बाद बरबस रथ पर चढ़कर वह भी अपनी राजधानी की ओर लौट गए। महाराज राजधानी लौट तो आये; पर मन उसका किसी काम में नहीं लगता था। वह अनमने-से रहते थे। उनकी रानी ने भी, जो काशीनरेश की कन्या थी, इस उदासी को देखा और अपनी दासी को आज्ञा दी कि वह राजा के मित्र विदूषक माणवक से इस उदासी का कारण पूछकर आए। दासी का नाम निपुणिका था। वह अपने काम में भी निपुण थी। उसने बहुत शीघ्र इस बात का पता लगा लिया कि महाराज की इस उदासी का कारण उर्वशी है। विदूषक के पेट में राजा के गुप्त प्रेम की बातें भला कैसे पच सकती थीं। यहीं नहीं, रानी का भला बनने के लिए उसने यह भी कहा कि वह राजा को इस मृगतृष्णा से बचाने के लिए कोशिश करते-करते थक गया है। यह समाचार देने के लिए निपुणिका तुरंत महारानी के पास चली गई और विदूषक डरता-डरता महाराज के पास पहुँचा। तीसरे प्रहर का समय था। राजकाज से छुट्टी पाकर महाराज विश्राम के लिए जा रहे थे। मन उनका उदास था ही। विदूषक परिहासादि से अनेक प्रकार उनका मन बहलाने की कोशिश करने लगा, पर सब व्यर्थ हुआ। प्रमद वन में भी उनका मन नहीं लगा। जी उलटा भारी हो आया। उस समय वसंत ऋतु थी। आम के पेड़ों में कोंपलें फूट आई थीं। कुरबक और अशोक के फूल खिल रहे थे। भौंरों के उड़ने से जगह-जगह फूल बिखरे पड़े थे; लेकिन उर्वशी की सुंदरता ने उनपर कुछ ऐसा जादू कर दिया था कि उनकी आँखों को फूलों के भार से झुकी हुई लताएँ और कोमल पौधे भी
अच्छे नहीं लगते थे। इसलिए उन्होंने विदूषक से कहा, "कोई ऐसा उपाय सोचो कि मेरे मन की साध पूरी हो सके।" विदूषक ऐसा उपाय सोचने का नाटक कर ही रहा था कि अच्छे शकुन होने लगे और चित्रलेखा के साथ उर्वशी ने वहाँ प्रवेश किया। उन्होंने माया के वस्त्र ओढ़ रखे थे, इसलिए उन्हें कोई देख नहीं सकता था, वे सबको देख सकती थीं। जब प्रमद वन में उतर कर उन्होंने राजा को बैठे देखा तो चित्रलेखा बोली, "सखी ! जैसे नया चाँद चाँदनी की राह देखता है वैसे ही ये भी तेरे आने की बाट जोह रहे हैं।" उर्वशी को उस दिन राजा पहले से भी सुंदर लगे। लेकिन उन्होंने अपने-आपको प्रगट नहीं किया। महाराज के पास खड़े होकर उनकी बातें सुनने लगीं। विदूषक तब उन्हें अपने सोचे हुए उपाय के बारे में बता रहा था। बोला, "या तो आप सो जाइए, जिससे सपने में उर्वशी से भेंट हो सके। या फिर चित्र-फलक पर उसका चित्र बनाइए और उसे एकटक देखते रहिए।" राजा ने उत्तर दिया कि ये दोनों ही बातें नहीं हो सकती। मन इतना दुखी है कि नींद आ ही नहीं सकती। आँखों में बार-बार आँसू आ जाने के कारण चित्र का पूरा होना भी संभव नहीं है। इसी तरह की बातें सुनकर उर्वशी को विश्वास हो गया कि महाराज उसी के प्रेम के कारण इतने दुखी हैं; पर वह अभी प्रगट नहीं होना चाहती थी। इसलिए उसने भोजपत्र पर महाराज की शंकाओं के उत्तर में एक प्रेमपत्र लिखा और उनके सामने फेंक दिया। महाराज ने उस पत्र को पढ़ा तो पुलक उठे। उन्हें लगा जैसे वे दोनों आमने-सामने खड़े होकर बातें कर रहे हैं। कहीं वह पत्र उनकी उंगलियों के पसीने से पुछ न जाए, इस डर से उसे उन्होंने विदूषक को सौंप दिया। उर्वशी को यह सब देख-सुनकर बड़ा संतोष हुआ; पर वह अब भी सामने आने में झिझक रही थी। इसलिए पहले उसने चित्रलेखा को भेजा। पर जब महाराज के मुँह से उसने सुना कि दोनों ओर प्रेम एक जैसा ही बढ़ा हुआ है तो वह भी प्रगट हो गई। आगे बढ़ कर उसने महाराज का जय-जयकार किया। महाराज उर्वशी को देखकर बड़े प्रसन्न हुए; लेकिन अभी वे दो बातें भी नहीं कर पाए थे कि उन्होंने एक देवदूत का स्वर सुना। वह कह रहा था, "चित्रलेखा! उर्वशी को शीघ्र ले आओ। भरत मुनि ने तुम लोगों को आठों रसों से पूर्ण जिस नाटक की शिक्षा दे रखी है, उसी का सुंदर अभिनय देवराज इंद्र और लोक-पाल देखना चाहते हैं।" यह सुनकर चित्रलेखा ने उर्वशी से कहा, "तुमने देवदूत के वचन सुने। अब महाराज से विदा लो।" लेकिन उर्वशी इतनी दुखी हो रही थी कि बोल न सकी। चित्रलेखा ने उसकी ओर से निवेदन किया, "महाराज, उर्वशी प्रार्थना करती है कि मैं पराधीन हूँ। जाने के लिए महाराज की आज्ञा चाहती हूँ, जिससे देवताओं का अपराध करने से बच सकूँ।" महाराज भी दुखी हो रहे थे। बड़ी कठिनता से बोल सके, "भला मैं आपके स्वामी की आज्ञा का कैसे विरोध कर सकता हूँ, लेकिन मुझे भूलिएगा नहीं।" महाराज की ओर बार-बार देखती हुई उर्वशी अपनी सखी के साथ वहाँ से चली गई। उसके जाने के बाद विदूषक को पता लगा कि महाराज ने उसे उर्वशी का जो पत्र रखने को दिया था वह कहीं उड़ गया है। वह डरने लगा कि कहीं महाराज उसे माँग न बैठें। यही हुआ भी। पत्र न पाकर महाराज बड़े क्रुद्ध हुए और तुरंत उसे ढूँढ़ने की आज्ञा दी। यही नहीं वह स्वयं भी उसे ढूँढ़ने लगे। इसी समय महारानी अपनी दासियों के साथ उधर ही आ रही थी। उन्हें उर्वशी के प्रेम का पता लग गया था। वह अपने कानों से महाराज की बातें सुनकर इस बात की सच्चाई को परखना चाहती थीं। मार्ग में आते समय उन्हें उर्वशी का वही पत्र उड़ता हुआ मिल गया। उसे पढ़ने पर सब बातें उनकी समझ में आ गई। उस पत्र को लेकर जब वह महाराज के पास पहुँची तो वे दोनों बड़ी व्यग्रता से उसे खोज रहे थे। महाराज कह रहे थे कि मैं तो सब प्रकार से लुट गया। यह सुनकर महारानी एकाएक आगे बढ़ीं और बोलीं, "आर्यपुत्र! घबराइए नहीं। वह भोजपत्र यह रहा!" महारानी को और उन्हीं के हाथ में उस पत्र को देखकर महाराज और भी घबरा उठे, लेकिन किसी तरह अपने को सँभालकर उन्होंने महारानी का स्वागत किया और कहा, "मैं इसे नहीं खोज रहा था, देवी। मुझे तो किसी और ही वस्तु की तलाश थी।" विदूषक ने भी अपने विनोद से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह क्यों माननेवाली थीं। बोली, "मैं ऐसे समय में आपके काम में बाधा डालने आ गई। मैंने अपराध किया। लीजिए मैं चली जाती हूँ।" और वह गुस्से में भरकर लौट चलीं। महाराज पीछे-पीछे मनाने के लिए दौड़े। पैर तक पकड़े, पर महारानी इतनी भोली नहीं थीं कि महाराज की इन चिकनी- चुपड़ी बातों में आ जाती। लेकिन पतिव्रता होने के कारण उन्होंने कोई कड़ा बर्ताव भी नहीं किया। ऐसा करती तो पछताना पड़ता। बस वह चली गई। महाराज भी अधीर होकर स्नान-भोजन के लिए चले गए। वह महारानी को अब भी पहले के समान ही प्यार करते, लेकिन जब वह हाथ-पैर जोड़ने पर भ
ी नहीं मानीं तो वह भी क्रुद्ध हो उठे। देवसभा में भरत मुनि ने लक्ष्मी-स्वयंवर नाम का जो नाटक खेला था, उसके गीत स्वयं सरस्वती देवी ने बनाये थे। उसमें रसों का परिपाक इतना सुंदर हुआ था कि देखते समय पूरी-की-पूरी सभा मगन हो उठती थी। लेकिन उस नाटक में उर्वशी ने बोलने में एक बड़ी भूल कर दी। जिस समय वारुणी बनी हुई मेनका ने, लक्ष्मी बनी हुई उर्वशी से पूछा, " सखी! यहाँ पर तीनों लोक के एक से एक सुन्दर पुरुष, लोकपाल और स्वयं विष्णु भगवान आए हुए हैं, इनमें तुम्हें कौन सबसे अधिक अच्छा लगता है?" उस समय उसे कहना चाहिए था'पुरुषोत्तम', पर उसके मुँह से निकल गया 'पुरुख'। इसपर भरत मुनि ने उसे शाप दिया, "तूने मेरे सिखाए पाठ के अनुसार काम नहीं किया है, इसलिए तुझे यह दंड दिया जाता है कि तू स्वर्ग में नहीं रहने पाएगी।" लेकिन नाटक के समाप्त हो जाने पर जब उर्वशी लज्जा से सिर नीचा किए खड़ी थी, तो सबके मन की बात जाननेवाले इंद्र उसके पास गए और बोलो, "जिसे तुम प्रेम करती हो, वह राजर्षि रणक्षेत्र में सदा मेरी सहायता करनेवाला है। कुछ उसका प्रिय भी करना ही चाहिए। इसलिए जब तक वह तुम्हारी संतान का मुँह न देखे, तब तक तुम उसके साथ रह सकती हो।" इधर काशीराज की कन्या महारानी ने मान छोड़कर एक व्रत करना शुरू किया और उसे सफल करने के लिए महाराज को बुला भेजा। कंचुकी यह संदेश लेकर जब महाराज के पास पहुँचा तो संध्या हो चली थी। राजद्वार बड़ा सुहावना लग रहा था। नींद में अलसाये हुए मोर ऐसे लगते थे जैसे किसी कुशल मूर्तिकार ने उन्हें पत्थर में अंकित कर दिया हो। जगह जगह संध्या के पूजन की तैयारी हो रही थी। दीप सजाये जा रहे थे। अनेक दासियाँ दीपक लिए महाराज के चारों ओर चली आ रही थीं। इसी समय कंचुकी ने आगे बढ़कर महाराज की जय-जयकार की और कहा, "देव, देवी निवेदन करती हैं कि चंद्रमा मणिहर्म्य-भवन से अच्छी तरह दिखाई देगा। इसलिए मेरी इच्छा है कि महाराज के साथ मैं वही से चंद्रमा और रोहिणी का मिलन देखूँ।" महाराज न उत्तर दिया, "देवी से कहना कि जो वह कहेंगी वह मैं करूँगा।" यह कहकर वह विदूषक के साथ मणिहर्म्य-भवन की ओर चल पड़े। चंद्रमा उदय हो रहा था। उसे प्रणाम करके वे वहीं बैठ गए और उर्वशी के बारे में बातें करने लगे। उसी समय माया के वस्त्र ओढ़े उर्वशी भी चित्रलेखा के साथ उसी भवन की छत पर उतरी और उनकी बातें सुनने लगी, लेकिन जब वह प्रगट होने का विचार कर रही थी, तभी महारानी के आने की सूचना मिली। वह पूजा की सामग्री लिए और व्रत को वेशभूषा में अति सुंदर लग रही थीं। महाराज ने सोचा कि उस दिन मेरे मनाने पर भी जो रूठकर चली गई थी, उसी का पछतावा महारानी को ही रहा है। व्रत के बहाने यह मान छोड़कर मुझ पर प्रसन्न हो गई है। महारानी ने आगे बढ़कर महाराज की जय-जयकार की और कहा, "मैं आर्यपुत्र को साथ लेकर एक विशेष व्रत करना चाहती हूँ, इसलिए प्रार्थना है कि आप मेरे लिए कुछ देर कष्ट सहने की कृपा करें।" महाराज ने उत्तर में ऐसे प्रिय वचन कहे कि जिन्हें सुनकर महारानी मुसकुरा उठीं। उन्होंने सबसे पहले गंध-फलादि से चंद्रमा की किरणों की पूजा की, फिर पूजा के लड्डू विदूषक को देकर महाराज की पूजा की। उसके बाद बालीं, "आज मैं रोहिणी और चंद्रमा को साक्षी करके आर्यपुत्र को प्रसन्न कर रहीं हूँ। आज से आर्यपुत्र जिस किसी स्त्री की इच्छा करेंगे और जो भी स्त्री आर्यपुत्र की पत्नी बनना चाहेगी, उसके साथ मैं सदा प्रेम करूँगी।" यह सुनकर उर्वशी को बड़ा संतोष हुआ। महाराज बोले, "देवी! मुझे किसी दूसरे को दे दो या अपना दास बनाकर रखो, पर तुम मुझे जो दूर समझ बैठी हो वह ठीक नहीं है।" महारानी ने उत्तर दिया, "दूर हो या न हो, पर मैंने व्रत करने का निश्चय किया था वह पूरा हो चुका है।" यह कहकर वह दास-दासियों के साथ वहाँ से चली गईं। महाराज ने रोकना चाहा, पर व्रत के कारण वह रुकी नहीं। उनके जाने के बाद महाराज फिर उर्वशी की याद करने लगे। उदार-हृदय पतिव्रता महारानी की कृपा से अब उनके मिलने में जो रुकावट थी वह भी दूर हो चुकी थी। उर्वशी ने, जो अबतक सबकुछ देख-सुन रही थी, इस सुंदर अवसर से लाभ उठाया और वह प्रकट हो गई। उसने चुपचाप पीछे से आकर महाराज की आँखें मींच लीं। महाराज ने उसको तुरंत पहचान लिया और अपने ही आसन पर बैठा लिया। तब उर्वशी ने अपनी सखी से कहा, "सखी! देवी ने महाराज को मुझे दे दिया है, इसलिए मैं इनकी विवाहिता स्त्री के समान ही इनके पास बैठी हूँ। तुम मुझे दुराचारिणी मत समझ बैठना।" चित्रलेखा ने भी महाराज से अपनी सखी की भली प्रकार देखभाल करने की प्रार्थना की, जिससे वह स्वर्ग जाने के लिए घबरा न उठे। फिर सबसे मिल-भेंटकर वह स्वर्ग लौट गई। इस प्रकार महाराज का मनोरथ पूरा हुआ। खुशी-खुशी वह भी विदूषक और उर्वशी के साथ वहाँ से अपने महल क ओर चले गए। उर्वशी के आने के बा
द महाराज पुरुरवा ने राजकाज मंत्रियों को सौंप दिया और स्वयं गंधमादन पर्वत पर चले गए। उर्वशी साथ ही थी। वहाँ वे बहुत दिन तक आनंद मनाते रहे। एक दिन उर्वशी मंदाकिनी के तट पर बालू के पहाड़ बना-बनाकर खेल रही थी कि अचानक उसने देखा- महाराज एक विद्याधर की परम सुंदर बेटी की ओर एकटक देख रहे हैं। बस वह इसी बात पर रूठ गई और रूठी भी ऐसी कि महाराज के बार-बार मनाने पर भी नहीं मानी। उन्हें छोड़ कर चली गई। वहाँ से चलकर वह कुमार वन में आई। इस वन में स्त्रियों को आने की आज्ञा नहीं थी। ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर भगवान कार्तिकेय यहाँ रहते थे। उन्होंने यह नियम बना दिया था कि जो भी स्त्री यहाँ आएगी वह लता बन जाएगी। इसलिए जैसे ही उर्वशी ने उस वन में प्रवेश किया, वह लता बन गई। इधर महाराज उसके वियोग में पागल ही हो गए और अपने मन की व्यथा प्रकट करते हुए इधर-उधर घूमने लगे। कभी वह समझते कि कोई राक्षस उर्वशी को उठाए लिए जा रहा है। बस वह उसे ललकारते, लेकिन तभी उन्हें पता लगता कि जिसे वह राक्षस समझ बैठे थे कि वह तो पानी से भरा हुआ बादल है। उन्होंने इंद्रधनुष को गलती से राक्षस का धनुष समझ लिया है। ये बाण नहीं बरस रहे हैं, ये बूँदें टपक रही हैं और वह जो कसौटी पर सोने की रेखा के समान चमक रही है, वह भी उर्वशी नहीं है, बिजली है। कभी सोचते, कहीं क्रोध में आकर वह अपने दैवी प्रभाव से छिप तो नहीं गई। कभी हरी घास पर पड़ी हुई बीरबहूटियों को देखकर यह समझते कि ये उसके ओठों के रंग से लाल हुए आँसुओं की बूँदें हैं। अवश्य वह इधर से ही गई हैं। कभी वह मोर को देखकर उससे उर्वशी का पता पूछते, "अरे मोर! मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि अगर घूमते-फिरते तुमने मेरी पत्नी को देखा हो तो मुझे बता दो।" लेकिन मोर उत्तर न देकर नाचने लगता। महाराज उसके पास से हटकर कोयल के पास जाते। पक्षियों में कोयल सबसे चतुर समझी जाती है। उसके आगे घुटने टेककर वह कहते, "हे मीठा बोलने वाली सुंदर कोयल! यदि तुमने इधर-उधर घूमती हुई उर्वशी को देखा हो तो बता दो। तुम तो रूठी हुई स्त्रियों का मान दूर करनेवाली हो। तुम या तो उसे मेरे पास ले आओ या झटपट मुझे ही उसके पास पहुँचा दो। क्या कहा तुमने? वह मुझसे क्यों रूठ गई है। मुझे तो एक भी बात ऐसी याद नहीं आती कि जिस पर वह रूठी हो। अरे, स्त्रियाँ तो वैसे ही अपने पतियों पर शासन जमाया करती है। यह ज़रूरी नहीं कि पति कोई अपराध ही करे तभी वे क्रोध करेंगी।" लेकिन कोयल भी इन बातों का क्या जवाब देती! वह अपने काम में लगी रहती। दूसरे का दुख लोग कम समझते हैं। राजा कहते, "अच्छा बैठी रहो सुख से! हम ही यहाँ से चले जाते हैं।" फिर सहसा उन्हें दक्खिन की ओर बिछुओं की सी झनझन सुनाई देती। लेकिन पता लगता वह तो राजहंसों की कूक है जो बादलों की अंधियारी देखकर मानससरोवर जाने को उतावले हो रहे हैं। वह उनके पास जाकर कहते, "तुम मानससरोवर बाद में जाना। ये जो तुमने कमलनाल सँभाली है, इन्हें भी अभी छोड़ दो। पहले तुम मुझे उर्वशी का समाचार बताओ। सज्जन लोग अपने मित्रों की सहायता करना अपने स्वार्थ से बढ़कर अच्छा समझते हैं। हे हंस! तुम तो ऐसे ही चलते हो, जैसे उर्वशी चलती है। तुमने उसकी चाल कहाँ से चुराई। अरे,तुम तो उड़ गए। (हँसकर) तुम समझ गए कि मैं चोरों को दंड देनेवाला राजा हूँ। अच्छा चलूँ, कहीं और खोजूँ।" फिर वह चकवे के पास जा पहुँचते। उससे वही प्रश्न करते, लेकिन उन्हें लगता जैसे चकवा उनसे पूछ रहा है -- "तुम कौन हो?" वह कहते, "अरे, तुम मुझे नहीं जानते? सूर्य मेरे नाना और चंद्रमा मेरे दादा हैं। उर्वशी और धरती ने अपने-आप मुझे अपना स्वामी बनाया है। में वहीं पुरुरवा हूँ।" लेकिन चकवा भी चुप रहता। महाराज वहाँ से हटकर कमल पर मंडराते हुए भौरों से पूछने लगते। पर वे भी क्या जवाब देते! फिर उन्हें हाथी दिखाई दे जाता। उसके पास जाकर वह पूछते, "हे मतवाले हाथी! तुम दूर तक देख सकते हो। क्या तुमने सदा जवान रहनेवाली उर्वशी को देखा है। तुम मेरे समान बलवान हो। मैं राजाओं का स्वामी हूँ। तुम गजों के स्वामी हो। तुम दिन-रात अपना दान यानी मद बहाया करते हो, मेरे यहाँ भी दिन-रात दान दिया जाता है। तुमसे मुझे बड़ा स्नेह हो गया है। अच्छा, सुखी रहो। हम तो जा रहे हैं।" और फिर उनको दिखाई दे जाता एक सुहावना पर्वत। उसीसे पूछने लगते, "हे पर्वतों के स्वामी! क्या तुमने मुझसे बिछुड़ी हुई सुंदरी उर्वशी को कहीं इस वन में देखा है। उन्हें ऐसा लगता जैसे पर्वतराज ने कुछ उत्तर दिया है। उन्हें खुशी होती, पर तभी मालूम होता कि वह पर्वतराज का उत्तर नहीं था, बल्कि पहाड़ की गुफा से टकराकर निकलनेवाली उन्हीं के शब्दों की गूँज थी। यहाँ से हटे तो नदी दिखाई दे गई। उसी से उर्वशी की तुलना करने लगे। लेकिन जब वह भी कुछ नहीं बोली तो हिरन के पास जा पहुँचे। उसने भी उनकी बातें अन
सुनी करके दूसरी ओर मुँह फेर लिया।ठीक ही है, जब खोटे दिन आते हैं तो सभी दुरदुराने लगते हैं। लेकिन तभी उन्होंने लाल अशोक के पेड़ को देखा। उससे भी वही प्रश्न किया और जब वह हवा से हिलने लगा तो समझे कि वह मना कर रहा है - उसने उर्वशी को नहीं देखा। इसी प्रकार पागलों की तरह प्रलाप करते हुए जब वह यहाँ से मुड़े तो उन्हें एक पत्थर की दरार में लाल मणि-सा कुछ दिखाई दिया।सोचने लगे कि न तो यह शेर से मारे हुए हाथी का मांस हो सकता है और न आग की चिनगारी। मांस इतना नहीं चमकता और चूँ कि अभी भारी वर्षा होकर चुकी है, इसलिए आग के रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता। यह तो अवश्य लाल अशोक के समान लाल मणि है। इसे देखकर मेरा मन ललचा रहा है।यह सोचकर वह आगे बढ़े और मणि को निकाल लिया। लेकिन फिर ध्यान आया कि जब उर्वशी ही नहीं है तो मणि का क्या होगा! इसलिए उसे गिरा दिया। उसी समय नेपथ्य में से किसी की वाणी सुनाई दी, "वत्स! इसे ले लो, ले लो, यह प्रियजनों को मिलानेवाली है और पार्वती के चरणों की लाली से बनी है। जो इसे अपने पास रखता है उसे वह शीघ्र ही प्रिय से मिलवा देती है।" यह वाणी सुनकर महाराज चकित रह गए। उन्हें जान पड़ा कि मानो किसी मुनि ने यह कृपा की है। उन्होंने उस अज्ञात मुनि को धन्यवाद दिया और मणि को उठा लिया। इसी समय उनकी दृष्टि बिना फूलवाली एक लता पर पड़ी। न जाने क्यों उनका मन उछल पड़ा। उन्हें सुख मिला। वह उन्हें उर्वशी के समान दिखाई पड़ी और जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उर्वशी सचमुच वहाँ आ गई; पर उनकी आँखें बंद थीं। उसी तरह कुछ देर बोलते रहे। जब आँखें खोली और उर्वशी को देखा तो वह मूच्र्छित होकर गिर पड़े। उर्वशी भी रोने लगी और उन्हें धीरज बँधाने लगी। कुछ देर बाद महाराज की मूर्च्छा दूर हुई तो उन्हें कार्तिकेय के श्राप के कारण उर्वशी के लता बन जाने के रहस्य का पता लगा। यह भी पता लगा कि पार्वती के चरणों की लाली से पैदा होनेवाली मणि से ही इसे शाप से मुक्ति मिली है। उर्वशी उनसे बार-बार क्षमा माँगने लगी, "मुझे क्षमा कर दीजिए, क्यों कि मैंने ही क्रोध करके आपको इतना कष्ट पहुँचाया।" महाराज बोले, "कल्याणी! तुम क्षमा क्यों माँगती हो! तुम्हें देखते ही मेरी आत्मा तक प्रसन्न हो गई है।" और फिर उन्होंने उसे वह मणि दिखाई, जिसके कारण उसका श्राप दूर हो गया था। उर्वशी ने उस मणि को सिर पर धारण किया तो उसके प्रकाश में उसका मुख अरुण-किरणों से चमकते हुए कमल के समान सुहावना लगने लगा। इसी समय उर्वशी ने याद दिलाया, "हे प्रिय बोलनेवाले! आप बहुत दिनों से प्रतिष्ठान पुरी से बाहर हैं। आपकी प्रजा इसके लिए मुझे कोस रही होगी। इसलिए आइए अब लौट चलें। महाराज ने उत्तर दिया, "जैसा तुम चाहो।" और लौट पड़े। नंदन वन आदि देवताओं के बनों में घूमकर महाराज पुरुरवा फिर अपने नगर में लौट आए। नागरिकों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और वह प्रसन्न होकर राज करने लगे। संतान को छोड़ कर उन्हें अब और किसी बात की कमी नहीं थीं। उन्हीं दिनों एक दिन एक सेवक महारानी के माथे की मणि ताड़ की पिटारी में रखे ला रहा था कि इतने में एक गिद्ध झपटा और उसे मांस का टुकड़ा समझकर उठाकर उड़ गया। यह समाचार पाकर महाराज आसन छोड़कर दौड़ पड़े। पक्षी अभी दिखाई दे रहा था। उन्होंने अपना धनुषबाण लाने की आज्ञा दी। लेकिन जबतक धनुष आया तब तक वह पक्षी बाण की पहुँच से बाहर निकल चुका था और ऐसा लगने लगा था मानो रात के समय घने बादलों के दल के साथ मंगल तारा चमक रहा हो। यह देखकर महाराज ने नगर में यह घोषणा करवाने की आज्ञा दी कि जब यह चोर पक्षी संध्या को अपने घोंसले में पहुँचे तो इसकी खोज की जाए। यह वही मणि थी, जिसके कारण उर्वशी और महाराज का मिलन हुआ था। इसलिए महाराज उसका विशेष आदर करते थे। वह यह बात विदूषक को बता ही रहे थे कि कंचुकी ने आकर महाराज की जय-जयकार की। उसने कहा, "आपके क्रोध ने बाण बनकर इस पक्षी को मार डाला और इस मणि के साथ यह धरती पर गिर पड़ा।"महाराज ने उस मणि को आग में शुद्ध करके पेटी में रखने की आज्ञा दी और यह जानने के लिए कि बाण किसका है उसपर अंकित नाम पढ़ने लगे। पढ़कर वह सोच में पड़ गए। उस पर लिखा हुआ था - यह बाण पुरुरवा और उर्वशी के धनुर्धारी पुत्र का है। उसका नाम आयु है और वह शत्रुओं के प्राण खींचनेवाला है। विदूषक यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने महाराज को बधाई दी, पर वह तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे। यह पुत्र कैसे पैदा हुआ। वह तो कुछ जानते ही नहीं। शायद उर्वशी ने दैवी-शक्ति से इस बात को छिपा रखा हो। पर उसने पुत्र को क्यों छिपा रखा? वह इसी उधेड़बुन में थे कि च्यवन ऋषि के आश्रम से एक कुमार को लिये किसी तपस्विनी के आने का समाचार मिला। महाराज ने उन्हें वहीं बुला भेजा और कुमार को देखते ही उनकी आँखें भर आईं। हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा और उनका मन करने ल
गा कि उसे कसकर छाती से लगा ले। पर ऊपर से वह शांत ही बने रहे। उन्होंने तापसी को प्रणाम किया आशीर्वाद देकर तापसी ने कुमार से कहा, "बेटा, अपने पिताजी को प्रणाम करो।" कुमार ने ऐसा ही किया। महाराज ने उसे गदगद होकर आशीर्वाद दिया और तब तापसी बोली, "महाराज! जब यह पुत्र पैदा हुआ तभी कुछ सोचकर उर्वशी इसे मेरे पास छोड़ आई थी। क्षत्रिय-कुमार के जितने संस्कार होते है वे सब भगवान च्यवन ने करा दिए हैं। विद्याधन के बाद धनुष चलाना भी सिखा दिया गया है, लेकिन आज जब यह फूल और समिधादि लाने के लिए ऋषिकुमारों के साथ जा रहा था तो इसने आश्रम के नियमों के विरुद्ध काम कर डाला।" विदूषक ने घबराकर पूछा, "क्या कर डाला?"तापसी बोली, "एक गिद्ध मांस का टुकड़ा लिए हुए पेड़ पर बैठा था। उस पर लक्ष्य बाँधकर इसने बाण चला दिया। जब भगवान च्यवन ने यह सुना तो उन्होंने उर्वशी की यह धरोहर उसे सौंप आने की आज्ञा दी। इसलिए मैं उर्वशी से मिलने आई हूँ।" महाराज ने तुरंत उर्वशी को बुला भेजा और पुत्र को गले से लगाकर प्यार करने लगे। उर्वशी ने आते ही दूर से उसे देखा तो यह सोच में पड़ गई, पर तापसी को उसने पहचान लिया। अब तो वह सबकुछ समझ गई। पिता के कहने पर जब पुत्र ने माता को प्रणाम किया तो उसने पुत्र को छाती से चिपका लिया। तापसी ने उसके स्वामी के सामने उसका पुत्र उसे सौंपते हुए कहा, "ठीक से पढ़-लिखकर अब यह कुमार कवच धारण करने योग्य हो गया है, इसलिए तुम्हारे स्वामी के सामने ही तुम्हारी धरोहर तुम्हें सौंप रही हूँ और अब जाना भी चाहती हूँ। आश्रम का बहुत-सा काम रुका पड़ा है।" जाते समय कुमार भी साथ जाने के लिए मचल उठा, पर जब सबने समझाया तो वह आश्रम-जैसी सरलता से तापसी से बोला, "तो आप बड़े-बड़े पंखों वाले मेरे उस मणिकंठक नाम के मोर को भेज देना। वह मेरी गोद में सोकर मेरे हाथों से अपना सिर खुजलाये जाने का आनंद लिया करता था।" तापसी हँस पड़ी और ऐसा ही करने का वचन देकर चली गई।महाराज पुत्र पाकर बड़े प्रसन्न हुए परंतु उर्वशी रोने लगी। यह देखकर महाराज घबरा उठे और इस विषाद का कारण पूछने लगे। उर्वशी बोली, "बहुत दिन हुए, आपसे प्रेम करने पर भरत मुनि ने मुझे शाप दिया था। उस शाप से मैं बहुत घबरा गई थी तब देवराज इंद्र ने मुझे आज्ञा दी थी कि जब हमारे प्यारे मित्र राजर्षि तुमसे उत्पन्न हुए पुत्र का मुँह देख लें तब तुम फिर मेरे पास लौट आना। आपसे बिछोह होने के डर से ही मैं इस कुमार को पैदा होते ही च्यवन ऋषि के आश्रम में पढ़ने-लिखाने के बहाने छोड़ आई थी। आज उन्होंने इसे पिता की सेवा करने के योग्य समझकर लौटा दिया है। बस आज तक ही मैं महाराज के साथ रह सकती थी।" यह कथा सुनकर सबको बड़ा दुख हुआ। महाराज तो मूर्छित हो गए।जब जागे तो उन्होंने तुरंत ही पुत्र को राज्य सौंपकर तपोवन में जाकर रहने की इच्छा प्रगट की। लेकिन इसी समय नारद मुनि ने वहाँ प्रवेश किया। आकाश से उतरते हुए पीली जटावाले, कंधे पर चंद्रमा की कला के समान उजला जनेऊ और गले में मोतियों की माला पहने, वह ऐसे लगते थे जैसे सुनहरी शाखावाला कोई चलता-फिरता कल्पवृक्ष चला आ रहा हो। पूजा-अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि मैं देवराज इंद्र का संदेशा लेकर आया हूँ। वह अपनी दैवी शक्ति से सबके मन की बातें जाननेवाले हैं। उन्होंने जब देखा कि आप वन जाने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने कहलाया है -- "तीनों कालों को जाननेवाले मुनियों ने भविष्यवाणी की है कि देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध होनेवाला है। युद्ध-विद्या में कुशल आप हम लोगों की सदा सहायता करते ही रहें इसलिए आप शस्त्र न छोड़े। उर्वशी जीवन भर आपके साथ रहेगी।" देवराज इंद्र का यह संदेश सुनकर उर्वशी और पुरुरवा दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इंद्र ने कुमार आयु के युवराज बनने के उत्सव के लिए भी सामग्री भेजी थी। उसी से रंभा ने आयु का अभिषेक किया। अभिषेक के बाद कुमार ने सबको प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद पाया। लेकिन बड़ी महारानी वहाँ नहीं थीं। इसलिए उर्वशी ने आयु से कहा, "चलो बेटा! बड़ी माँ को प्रणाम कर आओ।" और वह उसे लेकर बड़ी महारानी के पास चली। महाराज बोले, "ठहरो, हम सब लोग साथ ही देवी के पास चलते हैं।" लेकिन चलने से पहले नारद मुनि ने उनसे पूछा, "हे राजन। इंद्र आपकी और कौन सी इच्छा पूरी करें।"राजा बोले, "इंद्र की प्रसन्नता से बढ़कर और मुझे क्या चाहिए। फिर भी मैं चाहता हूँ कि जो लक्ष्मी और सरस्वती सदा एक-दूसरे से रूठी रहती हैं, सज्जनों के कल्याण के लिए सदा एकसाथ रहने लगें। सब आपत्तियाँ दूर हो जाए, सब फलें-फूलें, सबके मनोरथ पूरे हों और सब कहीं सुख-ही-सुख फैल जाए।
एक मंजिल ही नहीं ए मेरे दिल, जिंदगी और भी है। अब तक तुमने जो जाना है, वह कुछ भी नहीं अक्षय विवेक ! अभी असली तो जानने कोशेष है। अब तक तुमने जो जीआ है वह कुछ भी नहीं, अक्षय विवेक ! असली जीने को तो अभी शेष है। " है कोई लेवनहारा" -- उसी के लिए पुकार उठाई जा रही है। और तुम्हारे हृदय तक पुकार पहुंची। अब साहस करो। अब हिम्मत जुड़ाओ। चुनौती अंगीकार करो। अज्ञात सागर की चुनौती है! और माना कि नाव हम सबकी छोटी-छोटी है और सागर की उत्ताल तरंगें और अपनी छोटी नाव और अपने छोटे हाथ और अपनी छोटी पतवार देख कर भरोसा नहीं आता कि पार हो सकेंगे! मगर मैं तुमसे कहता हूं : इतने ही छोटे हाथ मेरे, इतनी ही छोटी नाव मेरी -- और मैं पार हुआ। इतने ही छोटे हाथ बुद्ध के, इतनी ही छोटी नाव बुद्ध की और बुद्ध पार हुए। तुम भी पार हो सकोगे। असल में जिसने साहस कर लिया नाव को छोड़ देने का सागर में, वह उसी क्षण पार हो जाता है। जिसने साहस कर लिया सागर में उतरने का, सागर की लहरें ही उसको पार करा देती हैं। रामकृष्ण कहते थेः दोढंग हैं नाव को नदी में छोड़ने के। एक तो पतवार उठाओ, खेओ नाव; और एक है पाल खोलो। रामकृष्ण कहते थेः जिसमें साहस होता है, वह तो पाल खोल देता है। पतवार रख देता है और मस्त होकर लेट जाता है। हवाएं ले चलती हैं। तुम ही परमात्मा से मिलने को उत्सुक नहीं हो, परमात्मा भी तुमसे इतना ही मिलने को उत्सुक है। उसकी हवाएं तुम्हें ले चलेंगी। मगर साहस तो चाहिए, नहीं तो हम किनारे से ही जंजीर बांध कर बैठे रहते हैं। हम किनारा नहीं छोड़ते, किनारे की सुरक्षा नहीं छोड़ते, किनारे की सुविधा नहीं छोड़ते। और मैं तुमसे कह दूंः किनारे पर जीए भी तो मौत से बदतर है । और जिस सागर ने तुम्हें पुकारा है, अगर मझधार में भी डुब गए तो किनारा मिल जाता है। आखिरी प्रश्नः ओशो! प्रार्थना कैसे करें? सुशीला! प्रार्थना प्रेम का परिष्कार है। प्रार्थना प्रेम की सुगंध है। प्रेम अगर फूल तो प्रार्थना फूल की सुवास। प्रेम थोड़ा स्थूल है, प्रार्थना बिल्कुल सूक्ष्म है। प्रेम के जगत में तोशायद शब्दों को थोड़ा लेन-देन हो जाए, प्रार्थना के जगत में तोशब्द बिल्कुल ही व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तो मौन ही निवेदन करना होता है। तू पूछती हैः प्रार्थना कैसे करें? प्रार्थना कोई विधि नहीं है। ध्यान की तो विधि होती है, प्रार्थना की कोई विधि नहीं होती। प्रार्थना तो स्वस्फूर्त है, सहज भाव है। जो विधि से करेगा प्रार्थना, उसकी प्रार्थना तो व्यर्थ हो गई; उसकी प्रार्थना तो नकली हो गई; प्रथम से ही झूठी हो गई। प्रार्थना तो आंख खोल कर, हृदय को खोल कर इस जगत में जो महा उत्सव चल रहा है, इसके साथ सम्मिलित हो जाने का नाम है। वृक्ष हरे हैं, तुम भी हरे हो जाओ - - प्रार्थना हो गई ! फूल खिले हैं, तुम भी खिल जाओ -- प्रार्थना हो गई। सूर्य निकला है, तुम भी जग जाओ -प्रार्थना हो गई। हवाएं नाच रही हैं, तुम भी नाचो-प्रार्थना हो गई। प्रार्थना को कोई ढंग नहीं, रूप नहीं, आकार नहीं, व्यवस्था नहीं। प्रार्थना तो मस्ती है, उन्मत्तता है, दीवानगी है। प्रार्थना तो परमात्मा की शराब को पी लेने का नाम है। बस मत कर देना अरे पिलाने वाले! हम नहीं विमुख हो वापस जाने वाले! अपनी असीम तृष्णा है --तेरा वैभव अक्षय है अक्षय--अरे लुटाने वाले! हम अलख जगाने आए तेरे दर पै! हम मिट जाने आए तेरे दर पै! इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे! मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे! हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के, हो जाएं अमर--ऐ अमर हमें तू वर दे! है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का; परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का! फिर और! यहां पर पाना ही है खोना, हंस कर पीने में छिपा प्यास का रोना! चलने दे, सुख के दौर अरे चलने दे! भर जाए दुख से उर का कोना-कोना! अपना असीम अस्तित्व दिखा दे हमको ! बस लय हो जाना अरे सिखा दे हमको! तेरी मदिरा का बूंद-बूंद दीवाना ! हम नहीं जानते अपना हाथ हटाना! इस पथ का अथ है नहीं, न इसकी इति है, गति है, गति है, गति है बस बढ़ते जाना! किस ओर चले हैं, है हुआ कहां से आना ? किसने जाना, निज को किसने पहचाना? माना कि कल्पना और ज्ञान है--माना! पर अविश्वास का, भ्रम का यहीं ठिकाना! है एक आवरण, बुना हुआ जिसमें, दिन-रात और सुख-दुख का ताना-बाना! उस ओर? व्यर्थ का यह प्रयास--जाने दे! पाने दे, हमको मुक्ति यहीं पाने दे ! निज आत्मघात कर जग को पछताने दे! लाने दे अपनी मुक्ति, लाने दे अपनी भुक्ति हमें लाने दे! इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे! मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे ! हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के, हो जाएं अमर--ऐ अमर, हमें तू वर दे! है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का; परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का! प्रार्थना हैः अपने भिक्षापात्र को अस्तित्व के सामने फैला देना। प्रार्थना हैः अपने आंच
ल को चांद-तारों के सामने फैला देना। कहने की बात नहीं। प्रार्थना एक भाव - दशा है, वक्तव्य नहीं। कोई हरे कृष्ण, हरे राम, ऐसा कहने से कोई प्रार्थना नहीं होती। कि "अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सनमति दे भगवान," ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती! प्रार्थना मौन निवेदन है। प्रार्थनाझुकने की कला है। जहां झुक जाओ घुटने टेक कर पृथ्वी पर, वहीं प्रार्थना है। प्रार्थना अंतर्तम की बात है। शायद आंसू टपकें, या शायद गीत फूटे--कौन जाने! किशायद नाच उठो, कि पैरों में घूंघर बांध लो, कि बांसुरी उठा कर बजाने लगो--कौन जाने! कि चुप हो जाओ, कि बिल्कुल चुप जाओ, कि वाणी सदा को खो जाए--कौन जाने! प्रत्येक को प्रार्थना अनूठे ढंग से घटती है। अद्वितीय ढंग से घटती है। एक की प्रार्थना दूसरे की प्रार्थना नहीं होती। इसलिए प्रार्थना की नकल मत करना । और वहीं अड़चन हो गई है। हमें प्रार्थनाएं सिखा दी गई हैं - - हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, ईसाइयों की। कोई पढ़ रहा है गायत्री; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है नमोकार मंत्र; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है कुरान की आयतें। सुंदर हैं वे आयतें और सुंदर हैं वे मंत्र और प्यारे हैं उनके अर्थ; मगर प्रार्थना इतने से नहीं होती। उधार नहीं होती प्रार्थना । प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय का बहाव है। सुशीला, सौंदर्य के प्रति संवेदना को बढ़ाओ, फिर प्रार्थना अपने से पैदा होगी। संगीत सुनो--झरनों का, वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं का, कि किसी वीणा पर किसी वीणावादक का। संगीत सुनो सुबह पक्षियों का, कि रात सन्नाटे में झींगुरों का सौंदर्य देखो -- वृक्षों का, चांद-तारों का, पशुओं का, पक्षियों का, मनुष्यों का! जहां-जहां तुम्हें सौंदर्य का, संगीत का, लयबद्धता का, रसमयता का बोध हो, वहां-वहां अपने हृदय को खोल कर बैठ जाओ। वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है। धीरे-धीरे प्रार्थना का स्वाद लग जाएगा। मैं नहीं कह सकता प्रार्थना क्या है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि प्रार्थना कैसी परिस्थिति में अनुभव होती है। संवेदनशीलता की जितनी गहराई बढ़ेगी उतनी ही प्रार्थना अनुभव होगी। उस पर किसी की छाप नहीं होगी। फिर जब जगेगी प्रार्थना, तो तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी होगी। उस पर बस तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और ईश्वर तक वही प्रार्थना पहुंचती है जो तुम्हारी है, अपनी है, निज है। उधार बातें वहां तक नहीं पहुंचतीं । लोग तो प्रेम-पत्र तक दूसरों से लिखवा लेते हैं। प्रेम-पत्र दूसरों से लिखवाए का क्या मूल्य होगा? कितना ही सुंदर कोई लिख दे, कितने ही बड़े पंडित से तुम प्रेम पत्र लिखवा लो... । मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। फिर प्रेम टूटा, तो अपनी चीजें वापस मांगने आया, जो-जो उसने भेंट की थीं। स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब चीजें लौटा दीं। फिर भी मुल्ला खड़ा था। तो उसने कहाः अब और क्या चाहिए! सब तो दे दिया जो तुमने मुझे दिया था। उसने कहाः मेरे प्रेम-पत्र? स्त्री ने कहाः उनका क्या करोगे, प्रेम-पत्रों का ? मुल्ला ने कहाः अब तुझसे क्या छिपाना, एक पंडित जी से लिखवाता था! और अभी मेरी जिंदगी खत्म तो नहीं हो गई। अभी किसी और से प्रेम करूंगा। अब नाहक फिर पंडित जी को पैसे देने पड़ेंगे। तू लौटा दे वे प्रेम-पत्र, फिर मेरे काम आ जाएंगे। जरा नाम ऊपर का बदल दिया। प्रेम-पत्र भी तुम दूसरों से लिखवाओगे? प्रार्थनाएं भी तुम दूसरों से सीखोगे? बस वहीं चूक हो जाएगी। मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखा सकता। इतना ही कह सकता हूं कि किन अवसरों में प्रार्थना पैदा होती है। किस परिप्रेक्ष्य में, किस पृष्ठभूमि में प्रार्थना का जन्म होता है। तुम मुझसे यह पूछो अगर कि कलियों को फूल कैसे बनाएं, तो मैं कुछ नहीं कह सकता। क्या मैं तुमसे कहूं कि कलियों को खींच-खींच कर खोल देना, ताकि वे फूल बन जाएं? मर जाएंगी कलियां, फूल तो नहीं बनेंगी। तुम अगर मुझसे पूछो कि वृक्षों से हम फूलों को कैसे निकालें, तो क्या मैं तुमसे कहूं कि खींचो, ताकत लगाओ? ऐसे तो नहीं होगा। मैं इतना ही कह सकता हूं-- खाद देना, पानी देना, भूमि देना, बागुड़ लगा देना। सूरज आ सके, इसका ख्याल रखना। बस तुम परिस्थिति पैदा करना । एक दिन फूल खिलेंगे। कलियां अपने से फूल बन जाएंगी। तुम परिस्थिति देना। प्रार्थना मत सीखो, परिस्थिति दो। और परिस्थिति है--सौंदर्य का बोध, संगीत का बोध । परिस्थिति है-गहन संवेदनशीलता। उसी भाव-भूमि में तुम्हारी प्रार्थना का फूल खिलेगा। और जब फूल खिले, तो फिर फूल जो करवाए करना। पहले से बंधी हुई धारणाएं लेकर मत बैठे रहना। फिर फूल जो करवाए, वही करना। और फूल रास्ता दिखाएगा। फूल मार्गदर्शक हो जाएगा। फूल कहेगा नाचो तो नाचना। फूल कहे गाओ तो गाना। फूल कहे चुप बैठ जाओ तो चुप बैठ जाना। अपने भीतर संवेदना में खिले फूल का इशारा
पहचानना और उसके पीछे चले चलना । वह कच्चा सा धागा तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा देगा; या उस कच्चे धागे में बंधा हुआ परमात्मा तुम तक आ जाएगा। कुछ भी हो, बूंद सागर में गिरे कि सागर बूंद में गिरे, बात एक ही है। छठवां प्रवचन विद्रोह के पंख पहला प्रश्नः ओशो! किसी अन्य आश्रम से--जैसे युग निर्माण योजना, मथुरा; रामकृष्ण आश्रम आदि-संबंधित कुछ मित्र आपके आश्रम आना चाहते हैं और यहां के विविध ध्यान-प्रयोगों में भाग लेना चाहते हैं। कुछ ऐसे मित्र हैं जिनके लिए शेगांव के प्रसिद्ध संत गजानन महाराज या शिरडी के साईंबाबा श्रद्धा-स्थान हैं; वे भी आपके आश्रम के ध्यान शिविर में भाग लेना चाहते हैं। परंतु इस धारणा से कि किसी एक जगह श्रद्धा हो तो दूसरी ओर जाना नहीं चाहिए, वह पाप है-इसलिए हिचकिचाते हैं। ओशो, इस पर कुछ समझाने की कृपा करें! युगल किशोर! श्रद्धा साहस की अभिव्यक्ति है। श्रद्धा कायरता नहीं है, श्रद्धा कमजोरी नहीं है। जीवनऊर्जा के कमल के खिलने का नाम श्रद्धा है --श्रद्धा इतनी नपुंसक नहीं होती कि हिचकिचाए, भयभीत हो । श्रद्धा का तो अर्थ ही यही है कि अब कुछ भी उसे डिगा न सकेगा--जहां जाना हो जाओ, जो सुनना हो सुनो, जो समझना हो समझो। हिचकिचाहट तो बताती है कि श्रद्धा कमजोर की है, कायर की है, नपुंसक की है। श्रद्धा के पीछे कहीं संदेह छिपा है। श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, भीतर संदेह है। तो डर है कि जरा सी खरोंच लग गई तो श्रद्धा तो टूट जाएगी। कांच की बनी है, सम्हाल-सम्हाल कर चलना होता है। और भीतर का पता है कि भीतर संदेह भरा है; कोई भी उकसा देगा, कोई भी भड़का देगा, तो संदेह प्रकट हो जाएगा। जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो उन्हें मैं श्रद्धालु नहीं कहता। वे तो संदेह से भरे लोग हैं। लेकिन इतना साहस भी नहीं है कि अपने संदेह को स्वीकार कर सकें। इतनी भी आत्मश्रद्धा नहीं है कि अपने संदेह को अंगीकार कर सकें; कि ईमानदारी से कह सकें कि हम संदिग्ध हैं, कि अभी श्रद्धा का जन्म नहीं हुआ है। बेईमान हैं, श्रद्धालु नहीं हैं। धोखा दे रहे हैं - दूसरों को ही नहीं, अपने को भी। और जो अपने को धोखा दे रहा है वह परमात्मा को धोखा दे रहा है। आत्मवंचक हैं। श्रद्धा का भय से क्या संबंध? श्रद्धा तो इतनी समर्थ है कि किसी भी परिस्थिति में प्रवेश कर सकती है। आग से गुजरने को राजी है। असली सोना तो आग से गुजर कर और शुद्ध हो जाता है। नकली सोना डरेगा, भयभीत होगा, हिचकिचाएगा, आग में जाने से घबड़ाएगा, भागेगा, बचेगा। जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो वे श्रद्धालु नहीं हैं; संदेहग्रस्त लोग हैं। भय के कारण श्रद्धा को ओढ़ लिया है। फिर चाहे वे रामकृष्ण के आश्रम में हों और चाहे अरविंद के और चाहे रमण के, इससे कुछ नहीं पड़ता कि वे कहां हैं। उनकी श्रद्धा ऊपर से ओढ़ी गई श्रद्धा है। और उन्हें अच्छी तरह, भलीभांति पता है कि भीतर संदेह की अग्नि जल रही है, जो कभी भी प्रकट हो सकती है। अवसर की भर बात है, अवसर मिल गया तो आग भीतर की प्रकट हो जाएगी; इसलिए डरते हैं, इसलिए भयभीत होते हैं। श्रद्धालु को कोई भय नहीं है। रामकृष्ण में जिसकी श्रद्धा है वह मुझमें भी रामकृष्ण को ही पाएगा। मेरे कारण रामकृष्ण में उसकी श्रद्धा कम नहीं होगी, बढ़ेगी। और अगर मेरे कारण कम हो जाए तो न तो उसने रामकृष्ण को पहचाना है और न अभी श्रद्धा से उसका कोई संबंध हुआ है। स्वर होंगे अलग, गीत तो वही है। वाद्य होंगे अलग, संगीत तो वही है। रामकृष्ण हों, रमण हों कि कोई और, अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं--एक ही सत्य की! और जिसकी सत्य पर श्रद्धा है वह सत्य की सारी अभिव्यक्तियों को प्रेम करने में समर्थ होगा। श्रद्धा की सीमा नहीं होती, और सीमा हो तो जानना वह श्रद्धा नहीं है। जो कहे मुझे तो सिर्फ गुलाब के फूल पर श्रद्धा है, मैं चंपा के फूल के पास नहीं जा सकता; कैसे जाऊं, मेरी तो गुलाब के फूल पर श्रद्धा है-वह सिर्फ इतना ही बता रहा है कि वह डरता है के कि कहीं ऐसा न हो कि चंपा की सुगंध आवेष्टित कर ले! कहीं ऐसा न हो कि चंपा में डूब जाऊं और गुलाब भूल जाए! कहीं ऐसा न हो कि चंपा अटका ले, फिर गुलाब तक न आ सकूं! नहीं; जिसकी श्रद्धा है वह तो गुलाब का भी आनंद लेगा और चंपा का भी और चमेली का भी। क्योंकि उसकी श्रद्धा सौंदर्य में होती है। सौंदर्य की कोई सीमा नहीं है; सौंदर्य असीम है, अमाप है, अपरिभाष्य है। श्रद्धा इतनी संकीर्ण नहीं होती कि एक से बंध जाए। श्रद्धा और संकीर्ण, विरोधाभासी शब्द हैं। श्रद्धा विस्तीर्ण होती है, आकाश जैसी होती है। चर्च में भी जा सकता है श्रद्धालु और मंदिर में भी और मस्जिद में भी और गुरुद्वारे में भी-और उसकी श्रद्धा को आंच नहीं आएगी। उसकी श्रद्धा पकेगी, बढ़ेगी, और फूलेगी, और समृद्ध होगी। क्योंकि निश्चित ही जीसस के वचनों में कुछ है जो कृष्ण के वचनों में नहीं
है। और कृष्ण के वचनों में कुछ है जो जीसस के वचनों में नहीं है। कृष्ण के वचनों में एक अपूर्व सुसंस्कृत अभिव्यक्ति है। जीसस के वचनों में एक ग्राम्य सौम्यता है, सरलता है, सीधापन है, सादगी है। बुद्ध के वचनों में कुछ है--सम्राट के बेटे के वचन हैं - बहुत परिष्कृत हैं। कबीर के वचनों में भी कुछ है -- माटी की सुगंध है। होंगे बुद्ध के वचन आकाश के, लेकिन कबीर के वचनों में कुछ है जो बुद्ध के वचनों में नहीं है। माटी की सुगंध नहीं है बुद्ध के वचनों में। और पहली-पहली वर्षा में माटी की सुगंध फूलों को भी मात कर देती है। माटी की सोंधी सुगंध का अपना जगत है। जिसको श्रद्धा है वह तो कबीर में भी डुबकी लगा लेगा और फरीद में भी और नानक में भी और सब जगह से हीरे बटोर लेगा। ऐसा समझो कि एक आदमी कहता हो कि मुझे तैरना आता है, मगर मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं, मैं नर्मदा में न तैरूंगा। कहीं डूब जाऊं तो! मैं गोदावरी में न तैरूंगा, कोई जान थोड़े ही गंवानी है। मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं। ऐसे तैरने वाले पर तुम्हारे मन में क्या विचार उठेगा? इसका तैरना जरूर भ्रांति है। क्योंकि जिसे तैरना आता है, गंगा में तैर सकता है तो नर्मदा में क्या अड़चन है? गोदावरी में क्या अड़चन है? तैरना जिसको आ गया उसके लिए नदियों की बाधा नहीं रह जाती। उसके लिए तो सारी नदियां अपनी हो गईं। उसके लिए तो सारे सागर भी एक दिन अपने हो जाने वाले हैं। और जो पृथ्वी पर तैर लिया है, अगर चांद पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा और मंगल पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा। क्योंकि तैरने की कला नदियों से नहीं बंधती, तालाबों से नहीं बंधती। ऐसी ही श्रद्धा है। श्रद्धा एक कला है। जिसे भरोसा आ गया है कि परमात्मा है; जिसे प्रतीति होने लगी कि अस्तित्व मिट्टी और पत्थर से ही नहीं बना है, मिट्टी और पत्थर में भी चैतन्य छिपा है; मृण्मय में जिसे चिन्मय का बोध होने लगा--उस बोध का नाम श्रद्धा है। फिर यह बोध किस बहाने हुआ, रामकृष्ण के, कि रमण के, कि कृष्ण मूर्ति के, इससे क्या भेद पड़ता है? मेरी अंगुली से तुम्हें चांद दिखाई पड़ा कि कृष्ण की अंगुली से कि क्राइस्ट की अंगुली से, चांद में थोड़े ही फर्क पड़ जाएगा! अंगुलियां भिन्न होंगी-- काली होगी अंगुली, गोरी होगी अंगुली, लंबी होगी, छोटी होगी, दुबली होगी, मोटी होगी; ये अंगुलियों के भेद हैं, इनसे चांद में कोई अंतर न पड़ेगा। जिसको चांद की झलक मिलने लगी वह श्रद्धालु है। और अब जितनी अंगुलियों से मिल सके, लूटेगा, बेधड़क लूटेगा! अब उसे कोई रुकावट नहीं। सारे मंदिर उसके हैं, सारे तीर्थ उसके हैं। काबा भी उसका, काशी भी उसकी, कैलाश भी उसका। लेकिन तुम जिनकी बातें कर रहे हो, युगल किशोर, ये नपुंसक लोग हैं। इन्हें श्रद्धा का कोई भी पता नहीं है। इनकी श्रद्धा भी बड़ी संकीर्ण है। इनकी श्रद्धा बड़ी छोटी है, बड़ी उथली है। है ही नहीं, ढांके बैठे हैं संदेह को। किसी भांति मना-मनु कर अपने को सम्हाल लिया है। इसलिए डरे हुए हैं। नास्तिक से बात करने में आस्तिक डरता है, यह कैसा आस्तिक? नास्तिक नहीं डरता, आस्तिक डरता है! मैंने किसी नास्तिक को आस्तिक से बात करते डरते नहीं देखा। और मैं तथाकथित आस्तिकों को नास्तिकों से बात करते डरते देखता हूं। यह तो बड़ी उलटी बात हो गई। नास्तिक डरे, अकेला है बेचारा, ईश्वर का कोई सहारा नहीं है, अस्तित्व उसका सूना है, जीवन उसका अर्थहीन है--नास्तिक डरे, गणित ठीक बैठता है। लेकिन आस्तिक डरता है, जो कहता है सारा जगत, कण-कण परमात्मा से व्याप्त है --यह कंपता है ! यह तो बड़ी बेबूझ बात हो गई। यह पहेली कैसे सुलझाओ! यह तो कबीर की उलटबांसी हो गई। मगर कारण साफ है। नास्तिक ईमानदार है, आस्तिक बेईमान है। तुम्हारा तथाकथित आस्तिक बिल्कुल बेईमान है, इसलिए डरता है । डर बाहर से नहीं आता-- नास्तिक क्या कर लेगा? डर भीतर से आता है। उसे अपने ही संदेह का भय है। उसे पता है कि संदेह दबाए बैठा है। कहीं कोई उकसा दे, कहीं कोई कुरेद दे, कहीं कोई ऐसी बात कह दे कि संदेह प्रज्वलित हो उठे, कि श्रद्धा डगमगा जाए ! तो ऐसी जगह जाना ही नहीं। जैन शास्त्र कहते हैंः पागल हाथी भी तुम्हारे पीछे पड़ा हो और पास में हिंदू मंदिर हो तो शरण मत लेना। हाथी के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, हिंदू मंदिर में शरण लेना बेहतर नहीं है। क्यों? क्योंकि वहां कोई असद्भ वचन सुनने को मिल जाएं; वहां कोई मिथ्याज्ञान की बात कान में पड़ जाए तो जन्म-जन्म भटकोगे। हाथी क्या करेगा, सिर्फ शरीर ही ले सकता है; मगर मिथ्या वचन, मिथ्या गुरु, मिथ्या शास्त्र... अगर उनकी बात कान में पड़ गई तो शरीर ही नहीं आत्मा भ्रष्ट हो जाएगी। और यही बात हिंदू ग्रंथों में भी लिखी है, क्योंकि ये सब ग्रंथ एक ही जैसे लोगों ने लिखे हैं--कि अगर जैन मंदिर
के भीतर शरण मिलती हो तो उससे तो बेहतर हाथी के पैर कि नीचे दब कर मर जाना है। तुमने घंटाकरण की कहानी तो सुनी है न, जो अपने कानों में घंटे बांधे रखता था! ये तुम्हारे आस्तिक बस घंटाकरण हैं। वह कानों में घंटे बांधे रखता था, क्यों? ताकि उसके कान में उसके इष्ट देवता के अतिरिक्त और कोई नाम सुनाई न पड़े। अगर उसके इष्ट देवता राम हैं तो राम-राम, राम-राम जपता है और कानों में घंटे बांधे हुए है; चलता है तो घंटे बजते रहते हैं। इसलिए कोई दूसरा इष्ट देवता, कोई कृष्ण-भक्त कहीं कृष्ण का नाम न डाल दे, कहीं कान में कृष्ण का नाम न पड़ जाए। छोटे-छोटे आस्तिकों की तो बात छोड़ दो, तुम्हारे बड़े-बड़े आस्तिक, वे भी कसौटी पर उतरते नहीं। तुलसीदास के जीवन में कथा है कि उन्हें ले जाया गया मथुरा में कृष्ण के मंदिर में तो वे झुके नहीं। जो मित्र उन्हें ले गए थे उन्होंने कहाः आप नमस्कार न करेंगे? उन्होंने कहाः नहीं, मैं तो सिर्फ राम को ही नमस्कार करता हूं। जब तक धनुषबाण हाथ में न लोगे, मैं नमस्कार नहीं करूंगा। तुलसीदास को कण-कण में राम दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कृष्ण में राम नहीं दिखाई पड़ते। यह कैसा मजा हुआ! तो वह कण-कण में राम दिखाई पड़ने वाली बात बकवास है। तुलसीदास को कृष्ण से कुछ लेना-देना नहीं, 'से से कुछ लेना-देना नहीं, धनुषबाण ज्यादा मूल्यवान मालूम होता हैं - मार्का, सरकारी मार्का, वह ज्यादा मूल्यवान मालूम होता है। लेबल नहीं झुकेंगे कृष्ण के सामने, राम के सामने झुकेंगे ! और शर्त कि धनुषबाण अगर हाथ लेते हो तो मैं झुक सकता हूं। अब यह राम पर छोड़ दिया, कृष्ण पर छोड़ दिया कि तुम्हारी मर्जी, अगर मेरे झुकने का मजा लेना हो तो ले लो धनुषबाण हाथ में । जिन्होंने कहानी लिखी है, बेईमान रहे होंगे। उन्होंने कहानी लिखी है कि और कृष्ण ने जल्दी से धनुषबाण हाथ में ले लिया। मूर्ति ने धनुषबाण हाथ में ले लिया। तब तुलसीदास झुके। मगर इसमें एक बात साफ है कि यह भक्ति न हुई, यह तो भगवान पर भी शर्त हुई ! यह तो भगवान से भी सौदा हुआ। इसमें तुलसीदास तो दो कौड़ी के हो ही गए। अगर कृष्ण ने धनुषबाण हाथ लिया तो वे भी दो कौड़ी के हो गए। यह भी क्या बात हुई? तुलसीदास न झुकते तो क्या बिगड़ता है? यह तो झुकाने का बड़ा रस हुआ! ये तो जैसे बैठे ही थे। वह तो अच्छा हुआ कि उन्होंने धनुषबाण कहा, कोई और पहुंच जाते, कोई तुलाधर वैश्य के भक्त पहुंच जाते, कहते कि तराजू हाथ में लो, तो वे तराजू हाथ में लेते। कोई मोहम्मद के भक्त पहुंच जाते, वे कहते कि तलवार हाथ में लो। तो कृष्ण को पूरी दुकान ही सजानी पड़ती, सब सामान सामने रखना पड़ता, जब जो आए । कोई जैन भक्त पहुंच जाते, वे कहते नग्न खड़े होओ, दिगंबर, तो जल्दी से चड्ढी इत्यादि उतार कर खड़े होना पड़ता। यह तो बड़ी बेहूदगी हो जाती। मगर यही तुम्हारे आस्तिक की स्थिति है। तुम्हारा आस्तिक कमजोर है, झूठा है। मुझे तो वह नास्तिक प्यारा है जो कम से कम ईमानदार है; जो कहता है मुझे पता नहीं है, इसलिए मैं कैसे मानूं? इसे कभी पता चल सकता है, क्योंकि इसने अपने अज्ञान को छिपाया नहीं, स्वीकार किया है। और अज्ञान की स्वीकृति सत्य की तरफ पहला चरण है। तो पहली तो बात, युगल किशोर, जिन मित्रों की तुम पूछ रहे हो उनकी आस्था झूठी है, उनकी श्रद्धा बांझ है। दूसरी बात, जहां-जहां वे अटके हैं वहां उन्हें कुछ मिला नहीं, नहीं तो यहां आने की जरूरत क्या? क्या प्रयोजन? गंगा के किनारे जो बसा है और जिसकी प्यास तृप्त हो रही है, अब वह किसलिए जाएगा ब्रह्मपुत्र की तलाश में? पानी तो पानी है । प्यास बुझ गई, बात समाप्त हो गई तो तुम जिनकी बात कर रहे हो--रामकृष्ण आश्रम, अरविंद आश्रम, रमण आश्रम--वहां जो लोग हैं वे यहां आना चाहते हैं, उनका आना चाहना ही बता रहा है कि वहां कुछ हुआ नहीं है । और नपुंसक श्रद्धा से कहीं भी कुछ नहीं होता। रामकृष्ण क्या करेंगे? रमण क्या करेंगे? मैं क्या करूंगा? कोई भी क्या करेगा? तुम्हारी श्रद्धा ही अगर नहीं है, तुम अगर भीतर बिल्कुल निर्बल हो, तुम अगर भीतर बिल्कुल झूठे हो, थोथे हो, ओछे हो, तो तुम्हारी श्रद्धा लेकर तुम जहां भी जाओगे वहीं कुछ भी होने वाला नहीं। वहां कुछ हुआ नहीं है इसलिए यहां आना चाहते हैं। नहीं तो आने की बात क्या थी? अब डर भी लगता है कि कहीं छोड़ कर गए तो कहीं जिन पर अब तक श्रद्धा की वे नाराज न हो जाएं! मिला भी कुछ नहीं है वहां नाराज न हो जाएं, कहीं श्रद्धा डांवाडोल न हो जाए। और तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें ऐसा सिखाते रहे हैं। तुम्हारे पंडित - पुरोहितों ने शिष्य और गुरु के संबंध को तो करीब-करीब पति-पत्नी का संबंध बना दिया है --एक पत्नी-व्रत ! यह कोई विवाह थोड़े ही है-खोज है, अन्वेषण है, जिज्ञासा है। ठीक है तुमने तलाशा एक जगह, पूरा श्रम लगाओ, हो सकता है तुम्हें वहां न मिल स
के। जरूरी नहीं है कि तुम्हें नहीं मिला, इसका यह अर्थ है कि वहां नहीं है। तुमसे तालमेल न बैठा हो, तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुकूल न पड़ा हो। रामकृष्ण सभी के अनुकूल नहीं पड़ सकते, नहीं तो वैविध्य मिट जाए। किसी को कुरान ही जमती है और कुरान के वचन ही किसी के प्राणों में पड़े हुए जन्मों-जन्मों के बीजों को अंकुरित करते हैं। और किसी को गीता में ही वर्षा होती है। जहां वर्षा हो जाए... प्रयोजन आम खाने से है या गुठलियां गिनने से? लेकिन लोग गुठलियों से बंधे हुए हैं; आम-वाम खाने का तो पता नहीं है, गुठलियों के ढेर लगाए बैठे हैं। तुम्हें अगर वहां मिल गया तो यहां आने का अकारण कष्ट न करो। अगर नहीं मिला है तो क्षण भर भी रुकना आत्मघात है क्योंकि कौन जाने कल मौत हो! तो तलाशो, दौड़ो, भागो, जहां मिल सकता हो, जहां से खबर मिले कि सूरज उगा है वहां जाओ। यह तो खोजी की जिंदगी है। साधक की जिंदगी तलाश है। जहां तालमेल बैठ जाएगा, कौन जाने कहां बैठ जाए! किससे हृदय की लयबद्धता हो जाए, कौन सा वाद्य तुम्हें मोहित कर ले! जब तक वैसी जगह न आ जाए तब तक बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं। अपने द्वार पर पहुंचने के लिए बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं, अपना मंदिर खोजने के लिए बहुत मंदिरों में तलाश करनी पड़ती है। लेकिन लोग तलाश नहीं करना चाहते--गोबरगणेश हैं! जहां बैठ गए बैठ गए। फिर वहां से उठने का नाम नहीं लेते, चाहे कुछ मिले, चाहे न मिले। मैं पुनः याद दिला दूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वहां कुछ नहीं है। होगा, जरूर होगा। लेकिन तुम्हें नहीं मिला, यह सवाल है। दूसरों को मिला होगा, दूसरे जानें। तुम्हें अगर नहीं मिला है तो उठो, चलो। पृथ्वी खाली नहीं है; यहां विविध-विविध रंगों में परमात्मा प्रकट होता है। और फिर, शिरडी के साईंबाबा या गजानन महाराज अब तो मौजूद नहीं हैं, न रामकृष्ण, न रमण। जैसे ही सदगुरु विदा होता है वैसे ही एक जाल इकट्ठा हो जाता है वहां, जो सदगुरु के नाम का शोषण शुरू कर देते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता। इसे रोकना असंभव है। कौन रोके, कैसे रोके? यह होता ही रहेगा। चालबाज आदमी, होशियार आदमी सदगुरु के नाम का लाभ उठाएंगे। उसकी जिंदगी में तो नहीं ले सकते, उसकी मौजूदगी में तो मुश्किल पड़ती है; लेकिन जब वह मौजूद नहीं रहेगा तो उसकी कब्र बना कर बैठ जाएंगे, चमत्कारों की चर्चाएं चलाएंगे, कहानियां फैलाएंगे, बाजार लगाएंगे, दुकान खोल लेंगे। ऐसी ही दुकानें शिरडी के साईंबाबा और गजानन महाराज, ऐसे लोगों के समाधि स्थलों पर इकट्ठी हो गई हैं। हर चीज की वे एक ही उपयोगिता जानते हैं--कैसे उससे शोषण किया जा सके? जरूर वे तुमसे कहेंगे कि यहां से अगर छोड़ कर गए तो बाबा नाराज हो जाएंगे। बाबा प्रसन्न तो हो नहीं रहे हैं, मगर नाराज जरूर हो जाएंगे! जो बाबा प्रसन्न ही नहीं हो रहे हैं, अब उनके नाराज होने से भी क्या होने वाला है? बाबा जा चुके । और वे बाबा ही नहीं हैं जो नाराज हो जाएं। तुम अगर शिरडी छोड़ कर यहां आओगे तो शिरडी के साईंबाबा की आत्मा प्रसन्न होगी, आनंदित होगी, कि तुम फिर तलाश पर निकल पड़े हो, शायद कोई द्वार मिल जाए। वह द्वार तो बंद हो गया। जैसे ही कोई सदगुरु विदा होता है इस पृथ्वी से, उसकी सुगंध आकाश में लीन हो जाती है, पीछे छूट जाते हैं पग-चिह्न और पग-चिह्नों के आस-पास इकट्ठे पंडितों पुरोहितों की भीड़। और पंडित-पुरोहित बड़े कुशल हैं शोषण करने में। वे सब भांति का शोषण शुरू कर देते हैं। युगल किशोर! अपने मित्रों को कहनाः तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि श्रद्धा झूठी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि अभी तुम्हें जो मिलना था नहीं मिला । तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम्हें अभी मंदिर की तलाश करनी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम दुकानदारों के चक्कर में पड़ गए हो । और श्रद्धा इतनी बड़ी है, आकाश जैसी, सबको समा लेती है। श्रद्धा जिसके पास है उसमें राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर और नानक और कबीर सब समाविष्ट हो जाते हैं। श्रद्धा का जादू ऐसा है, श्रद्धा की रसायन ऐसी है कि उसमें राम और कृष्ण में भेद नहीं रह जाता, जीसस और जरथुस्त्र में भेद नहीं रह जाता, महावीर और मीरा में भेद नहीं रह जाता। श्रद्धा की रासायनिक प्रक्रिया ऐसी है कि वह सारे सत्यों को समाविष्ट कर लेती है। और सारे सत्यों को समाविष्ट करके जो परम सत्य प्रकट होता है उसकी समृद्धि अनूठी है, आनंद अपूर्व है। श्रद्धा सारे वाद्यों को इकट्ठा करके आर्केस्टर बना लेती है। हां, बांसुरी का भी एक मजा है-- एकाकी बजती बांसुरी का, जरूर मजा है! लेकिन जब तबले पर थाप भी पड़ती हो और बांसुरी बजती हो तो मजा और गहन हो गया। और जब पीछे कोई सितार भी, सोए सितार को भी जगा दे तो रस और बढ़ा। और फिर कोई तानपूरा भी लेकर बैठ जाए तो बात और गहन होने लगी, नये-नये आयाम जुड़ने लगे। परम
ात्मा अभी भी चुक नहीं गया है, अभी बहुत महावीर होंगे और बहुत बुद्ध होंगे और बहुत मोहम्मद होंगे और बहुत जीसस होंगे। और परमात्मा तब भी चुकेगा नहीं। नये-नये वाद्य जुड़ते जाएंगे, संगीत और सघन होता जाएगा, संगीत और गहन होता जाएगा। कृपण न बनो, कंजूस न बनो । हृदय को खोलो इस विराट आकाश के प्रति। पूरे परमात्मा को ही अंगीकार करो, उसके सब रूपों को अंगीकार करो । फिर जो तुम्हें प्रीतिकर लगता हो, वहां रम रहो। लेकिन इनकार तो कोई भी न हो । श्रद्धा का अर्थ होता है भीतर "हां" का भाव उठा। और "हां" में "नहीं" नहीं होती। "हां" में कोई शर्तबंदी नहीं होती। अपने मित्रों को कहना... और कौन जाने मित्रों के नाम से सिर्फ तुम अपने संबंध में पूछ रहे हो। इसका भी बहुत डर है। इसकी भी बहुत संभावना है। हम सीधा-सीधा भी नहीं पूछते, क्योंकि सीधा-सीधा पूछो, कौन जाने मैं लट्ठ की तरह तुम्हारे सिर पर चोट करूं! तो लोग मित्रों के नाम से पूछते हैं। एक सज्जन आए। वे कहने लगेः मेरे मित्र नपुंसक हैं! उनके लिए कोई ध्यान की विधि हो सकती है? मैंने कहाः तुमने नाहक कष्ट किया! अपने मित्र को क्यों नहीं भेज दिया? उन्होंने कहाः मैंने तो उनसे बहुत कहा, मगर वे संकोचवश आए नहीं। मैंने कहाः उनसे तुम यह कह सकते थे कि तुम चले जाओ और कहना कि मेरे एक मित्र हैं, जो नपुंसक हैं, उनको ध्यान की कोई विधि... । वे थोड़े बेचैन हुए। मैंने कहाः तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा सब कह रहा है कि तुम किस मित्र की बात कर रहे हो । सीधी-सीधी बात करो, अपनी बात करो। युगल किशोर ठाकुर ! ठाकुर होकर तुम भी कैसी बात कर रहे! कहां कि मित्रों की बात उठा रहे हो? अपनी ही बात करो, सीधी-सीधी बात करो। ये परिकल्पित मित्र, अगर हों कोई तो जरूर उनको कह देना, मगर अपनी तो गुन लो। उनकी उन पर छोड़ो। यहां तुम आए हो, तुम भी कहीं दूर-दूर खड़े न रह जाना डर के मारे कि अपनी तो श्रद्धा और, आ तो गए तो ठीक, मगर दूर-दूर खड़े रहें। न ध्यान में उतरें, न प्रार्थना में डूबें। सुनें भी तो एक पर्दे की आड़ से, अपने सिद्धांतों की दीवाल बीच में खड़ी रख कर । ऐसा करोगे तो चूक जाओगे। ऐसा करोगे तो एक अवसर और आया था, वह भी व्यर्थ चला जाएगा। अवसर खोओ नहीं, अवसर बहुत मुश्किल से आते हैं। दूसरा प्रश्नः ओशो! एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र - विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा। दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यताओं की विडंबनाओं का भी बखान करते हैं। "या तो यंत्र बचेगा या मनुष्य"--यह आपका ही वाक्य है। इसके अलावा आप अतीत के जिन महापुरुषों, संतों और भक्तों की वाणी की व्याख्या करते हैं, उनमें से कोई नहीं मानता था कि धर्म गरीबों के लिए नहीं है। इन सबकी पारस्परिक संगति कैसे बिठाई जाए? राजकिशोर! मैं यंत्र-विधि के पक्ष में हूं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यंत्र - विधि के साथ जुड़ी कुछ घातक संभावनाएं नहीं हैं। उन घातक संभावनाओं से भी मैं सचेष्ट करता हूं। बुद्धिमान व्यक्ति तो जहर से भी अमृत बना लेता है और बुद्धू अमृत से भी जहर। विज्ञान ने बहुत बड़ी शक्ति मनुष्य के हाथ में दी है-- टेक्नालॉजी की, यंत्र-विधि की। इससे यह सारी पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। सदियों-सदियों का सपना, जो हम देखते थे कहीं दूर आकाश में स्वर्ग है, वह पृथ्वी पर उतर सकता है। इस पृथ्वी पर, हमारी पृथ्वी पर उतर सकता है! विज्ञान ने एक विराट ऊर्जा का विस्फोट कर दिया है। लेकिन उसके खतरे हैं। उन खतरों से भी मैं सावधान करता हूं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि कहीं यांत्रिकता मनुष्य के ऊपर हावी न हो जाए ! कहीं ऐसा न हो कि मनुष्य सिर्फ मशीन का एक गुलाम होकर रह जाए। मनुष्य की मालकियत तो रहनी ही चाहिए । मनुष्य मालिक हो, यंत्र सेवक हो, तो शुभ है। यंत्र मालिक हो, मनुष्य सेवक हो जाए, तो अशुभ है। इसलिए मैं एक और यंत्र - विधि का पूर्ण समर्थन करता हूं। क्योंकि उसके बिना अब पृथ्वी भूखी मरेगी। उसके बिना अब आदमी समृद्ध नहीं हो सकेगा। समृद्धि तो दूर, जीवन की सामान्य सुविधाएं भी आदमी को उपलब्ध नहीं हो सकेंगी। हमने इतनी संख्या बढ़ा ली है! संख्या रोज बढ़ती जा रही है। पृथ्वी उतनी की उतनी है। हर आदमी अपने साथ सौ-पचास एकड़ जमीन भी ले आता तो ठीक था। आदमी चले आते हैं, जमीन उतनी की उतनी है। बुद्ध के जमाने में इस देश की कुल जनसंख्या दो करोड़ थी। आज पाकिस्तान को छोड़ कर, बंगलादेश को छोड़ कर इस देश की जनसंख्या साठ करोड़ है। अगर उन दोनों को भी हम जोड़ लें तो अस्सी करोड़ के करीब पहुंच रही है। इस सदी के पूरे होते-होते एक अरब जनसंख्या भारत की होगी। इस एक अरब जनसंख्या को न तुम भोजन दे सकोगे, न कपड़े दे सकोगे, न दवा दे सकोगे, न छप्पर दे सकोगे। लोग कीड़े-मकोड़े की तरह बिल्लाने लगेंगे। और तुम
हो कि चरखे का गीत गाए जाते हो! इस सदी के पूरे होते-होते तुम्हें पता चलेगा कि गांधीवाद के नाम पर तुमने जो मूढ़ता की है, इससे बड़ी और कोई मूढ़ता नहीं हो सकती थी। गांधी को भविष्य का कोई बोध नहीं था। गांधी मरे - मराए अतीत के प्रशंसक थे। वे रेलगाड़ी के खिलाफ थे, टेलीफोन के खिलाफ थे, पोस्ट आफिस के खिलाफ थे, दवाइयों के खिलाफ थे। मनुष्य ने जो भी मनुष्य के जीवन को सुसमृद्ध करने के लिए विकसित किया, सबके खिलाफ थे। वे चाहते थे, आदमी बाबा आदम के जमाने में वापस लौट चले । मगर यह हो नहीं सकता। यह करना हो, तो करोड़ों लोगों की हत्या करनी होगी पहले। बुद्ध के जमाने में जब दो करोड़ आदमी थे भारत में तो एक तरह की संपन्नता थी। स्वभावतः, इतनी भूमि, इतना विशाल देश और कुल दो करोड़ आदमी! आज भी दो करोड़ हों तो फिर संपन्न हो जाएगा देश। कोई भूखा नहीं मरेगा। और आज भी दो करोड़ संख्या हो तो घरों में ताले न लगाने पड़ेंगे। ये कोई आदमियों की खूबियां नहीं थीं। ये कोई नैतिक गुण नहीं थे बुद्ध के जमाने में, कि लोग घरों में ताला नहीं लगाते थे। ताला लगाने का सवाल ही नहीं था। लेकिन आज उसी देश में अस्सी करोड़ लोग हैं । चालीस गुनी संख्या बढ़ गई; और जमीन उतनी की उतनी है। और ढाई हजार साल में हमने जमीन का शोषण कर लिया। उसके जितने रासायनिक द्रव्य थे, हम सब पी गए। और वापस हमने कुछ नहीं डाला । दूसरे मुल्कों में तो लोग, आदमी मर जाता है तो उसे जमीन में गड़ा देते हैं। तो जो कुछ उसके शरीर में खनिज, विटामिन, जो कुछ भी होते हैं, वापस जमीन में पहुंच जाते हैं। हम वह भी नहीं करते, हम उसे जला देते हैं। तो जिंदगी भर जो खाया-पीया, उसको हम राख कर देते हैं। जमीन में वापस नहीं पहुंच पाता वह फिर । तो ढाई हजार सालों में हम आदमी जलाते रहे और जमीन का शोषण करते रहे। जमीन बांझ हो गई है। उसमें अब कुछ फलता-फूलता नहीं मालूम पड़ता। और संख्या बढ़ती जाती है। यंत्र के अतिरिक्त अब कोई उपाय नहीं है। इसलिए मैं यंत्र-विधि के पूरे पक्ष में हूं, समग्ररूपेण पक्ष में हूं। देश के द्वार दरवाजे खोल दिए जाने चाहिए। हमने देश को एक बंद कारागृह बना लिया है, इसलिए हम सड़ रहे हैं। मेरा बस चले तो मैं देश के सारे द्वार-दरवाजे खोल दूं; सारी दुनिया को निमंत्रित करूं कि आओ! सारी दुनिया की पूंजी निमंत्रित होनी चाहिए कि लोग पूंजी लाएं, कि लोग यंत्र लाएं, कि लोग विज्ञान के नये-नये उपकरण लाएं। और इस देश में जितने ज्यादा उद्योग हो सकें उतने उद्योग फैलें। और दुनिया से लोग आना चाहते हैं। मगर इस देश की मूढ़ताएं ऐसी हैं कि हम चाहते हैं कि दुनिया की पूंजी भारत में न आ जाए, कहीं भारत का शोषण न हो जाए। है कुछ भी पास नहीं... शोषण हो जाने का बड़ा डर है! नंगा नहाए... नहाता ही नहीं। वह नहाता इसलिए नहीं कि अगर नहाऊंगा तो निचोडूंगा कहां? निचोड़ने को कुछ है ही नहीं! वह नहाता ही नहीं है, क्योंकि नहाऊंगा तो फिर सुखाऊंगा कहां? सुखाने को कुछ है ही नहीं। और इस देश के पूंजीपति हैं, उनको भय है कि अगर दुनिया की पूंजी भारत में आए, और दुनिया का विज्ञान भारत में आए तो उनके कचरा उत्पादन की क्या कीमत रह जाएगी! तुम सोचते हो एंबेसेडर कार की कितनी कीमत होगी? बैलगाड़ी से कम हो जाएगी! अगर इस देश में फोर्ड और शेवरलेट और रॉल्स रॉयस और बें.ज, ये सारे कारखाने खुल जाएं तो एंबेसेडर गाड़ी का तुम सोचते हो क्या हाल होगा? कोई मुफ्त भी लेने को राजी नहीं होगा। क्योंकि जितनी कीमत पर एंबेसेडर मिल रही है उतनी कीमत पर तो बें. ज गाड़ी मिल सकती है। जो तीस साल, चालीस साल चले और फिर भी ऐसा लगे कि ताजी है, नई है। और एंबेसेडर गाड़ी तुम शोरूम से घर तक लाओ और खात्मा। जब युगल किशोर बिरला मरे, तो कहते हैं उन्हें स्वर्ग ले जाया गया... मुझे पक्का पता नहीं कहानी कहां तक सच है, मगर सच ही होगी... वे खुद भी चौंके। मगर फिर सोचा कि शायद मैंने इतने बिरला मंदिर बनवाए इसलिए मुझे स्वर्ग में लाया जा रहा है। स्वर्ग में उन्होंने द्वारपाल से पूछा कि मुझे किसलिए स्वर्ग लाया जा रहा है? तो उन्होंने कहा, इसलिए कि जो-जो तुम्हारी गाड़ी खरीदते हैं, वे कहते हैंः हे राम! तुमने लोगों को जितना राम का नाम याद दिलवाया है, उतना किसी ने नहीं! बड़े-बड़े पंडित - पुरोहित हार गए। तुमने एंबेसेडर क्या बनाई है, ऐसी गाड़ी दुनिया में कोई नहीं! जिसमें हर चीज बजती है, सिर्फ हार्न को छोड़ कर ! तो यह हिंदुस्तानी पूंजीपति है, जिसकी प्रेइंग-लिस्ट पर इस देश के सारे नेताओं के नाम हैं; जो इस देश में बाहर की संपदा को, तकनीक को, विज्ञान को नहीं आने देना चाहता। इसलिए तुम गरीब हो, इसलिए तुम परेशान हो। और तुम परेशान रहोगे। इस देश के द्वार खोल दिए जाने चाहिए। अब यह पृथ्वी खंड-खंड में नहीं होनी चाहिए। अब दुनिया के पास इतना वैज्ञानिक विकास है
कि अगर हम अपने द्वार खोल दें तो यह देश समृद्ध हो सकता है। लेकिन हम पिटी-पिटाई बातें दोहराए चले जाते हैं। हमारे अर्थशास्त्री कौन हैं? चौधरी चरणसिंह जैसे लोग हमारे अर्थशास्त्री हैं। जिनको अर्थशास्त्र का अ ब स भी नहीं आता। अनर्थशास्त्र का आता होगा, अर्थशास्त्र का बिल्कुल नहीं आता। वे अभी तक गांवों का गुणगान किए जा रहे हैं। वे अभी तक गांव की ही प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हैं। गांव का कोई भविष्य नहीं है। गांव जा चुके, गांव का कोई भविष्य होना भी नहीं चाहिए। अब नगरों का भविष्य है--सुसंपन्न, सुशिक्षित, सुनियोजित नगरों का भविष्य है। दुनिया से गांव विदा हो रहे हैं। इधर हम गांव की तरफ सारी ताकत लगा रहे हैं। हमारे गांव भी विदा होने चाहिए। और गांव में कुछ भी नहीं है। बीमारी है, गरीबी है, मच्छर है, मक्खियां हैं, कीचड़ है, कबाड़ है। और एक गुलामी है। जब तक गांव नहीं मिटेगा, वह गुलामी नहीं मिटेगी। छोटे-छोटे गांव की गुलामी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। तुम कवियों की कहानियां और कविताएं पढ़ लेते हो, सोचते हो कि अहा, गांवों में कैसा राम-राज्य! कैसा पंचायत राज्य! और गांव में कैसे लोग मजा कर रहे हैं--कैसी स्वाभाविकता, प्राकृतिकता! तुम्हें गांव की स्थिति का कोई अंदाज नहीं है। इस देश का गांव एक तरह का कारागृह है। इस गांव में जितना शोषण हो सकता है, शहर में नहीं हो सकता। गांव में हरिजन है, उसको कुएं पर पानी नहीं भरने दिया जा सकता। वह सबके साथ पांत में बैठ कर भोजन नहीं कर सकता। पांत में बैठ कर भोजन करने की तो बात दूर, उसकी छाया किसी पर पड़ जाए, तो पाप हो जाए, तो गांव के लोग मिल कर उसकी हत्या कर दें। अगर हरिजनों से कोई मिले-जुले, तो उसका हुक्का-पानी बंद कर दें। गांव इतनी छोटी जगह है कि वहां कोई आदमी व्यक्तिगत जीवन तो जी ही नहीं सकता। वहां कोई निजी जीवन नहीं है। और जहां निजता नहीं है वहां स्वतंत्रता नहीं हो सकती। शहरों ने निजता दी है। शहरों में व्यक्ति निजी हो गए हैं। मैं पक्ष में हूं इस बात के कि यंत्र बढ़ने चाहिए। औद्योगिकता बढ़नी चाहिए। धीरे-धीरे हमारे गांव छोटेछोटे नगरों में रूपांतरित होने चाहिए। लेकिन खतरे हैं, वे भी हमें जान लेने चाहिए। एक खतरा है सबसे बड़ा कि कहीं मनुष्य यंत्र से छोटा न हो जाए। कहीं यंत्र मनुष्य की छाती पर न बैठ जाए। नहीं तो भंयकर गुलामी शुरू हो जाएगी। यंत्र का हमें उपयोग करना है, यंत्र हमारा उपयोग न करने लगे। वैसा डर पश्चिम में पैदा हो गया है कि यंत्र आदमी का उपयोग करने लगा है। हम सावधान हो सकते हैं उससे। कहीं ऐसा न हो जाए कि यंत्र मनुष्य की सारी गरिमा और गौरव छीन ले। यह भी हो सकता है, क्योंकि यंत्र इतना कुशल है। उससे प्रतिस्पर्धा मनुष्य नहीं कर पाएगा। यंत्र की कुशलता इतनी बड़ी है कि जो काम हजार आदमी करें, एक यंत्र कर देगा। तो हजार आदमी बेकार हो गए। तो ये बेकार आदमियों की गरिमा खो जाएगी। ये बेकार आदमी कहां जाएंगे, क्या करेंगे? पश्चिम में जितना ही स्वचालित यंत्र बढ़ते जाते हैं उतना ही सवाल उठता है कि बेकार आदमियों का क्या करना? लेकिन पश्चिम में समझ है। यहां तो काम जो करता है उसको भी तनख्वाह नहीं मिलती, लेकिन पश्चिम के समृद्ध देशों में जो काम नहीं जिसे मिलता है, उसे काम नहीं मिलने की तनख्वाह मिलती है। बेरोजगारी के लिए तनख्वाह मिलती है। क्योंकि वह भी जिम्मा समाज का है। अगर तुमने यंत्रों के हाथ में काम दे दिया और लोगों को काम नहीं मिलता, तो उनको तनख्वाह दो! वे काम करने को तैयार हैं। धीरे-धीरे यंत्र सारा काम सम्हाल लेंगे। तब खतरे बहुत हैं। एक खतरा तो यह है कि आदमी सदियों से काम का आदी रहा है, खाली बैठने की उसे अकल नहीं है। खाली बैठेगा तो उपद्रव करेगा। झगड़े-झांसे करेगा... झंडा ऊंचा रहे हमारा! चले! अब कुछ काम ही नहीं है... । हिंदू, मुसलमान, ईसाई जूझने लगेंगे, झगड़ने लगेंगे, व्यर्थ के विवाद खड़े हो जाएंगे। या लोग शराब पीएंगे। या दिन - दिन भर टेलीविजन देखेंगे, आंखें खराब करेंगे। या वेश्यागामी हो जाएंगे। तो ये खतरे हैं। और ये खतरे रोके जा सकते हैं। सच तो यह है, सदियों-सदियों का सपना पूरे होने के करीब है। अब आदमी के लिए मौका है संगीत सीखे; अब मौका है ध्यान करे; अब मौका है काव्य रचे, मूर्ति गढ़े; अब मौका है सुंदर बगीचा बनाए । तो इसके पहले कि यंत्र मनुष्य से सारे काम छीन ले, हमें आदमी को जीवन का एक नया ढंग और एक शैली देनी होगी। ध्यान उसमें केंद्र होगा। बिना ध्यान के मनुष्य मर जाएगा, यंत्र उसकी छाती पर बैठ जाएगा। ध्यान का अर्थ ही होता हैः खाली बैठने का मजा । पुराने जमानों में कहा जाता थाः खाली मत बैठो, खाली बैठना शैतान का घर है। पुराने जमाने में जो खाली बैठता उसको गाली देनी ही पड़ती, क्योंकि दस आदमी कमाते, मेहनत करते, तब मुश्किल से पेट भरता था। खा
ली आदमी जो बैठता, आलसी होता, उसकी निंदा करनी होती थी। नये भविष्य में जब यंत्र सारा उद्योग हाथ में ले लेंगे तो हमें कहना पड़ेगाः खाली बैठो, खाली बैठना भगवान का मंदिर है। मैं उसी खाली बैठने की कला को सिखा रहा हूं, ध्यान कह रहा हूं उसको। तो ध्यान अनिवार्य होगा। कला के नये-नये आयाम हमें खोल देने चाहिए, जो सिर्फ राजाओं-महाराजाओं को उपलब्ध थे। ठीक, किसी के दरबार में तानसेन था और किसी के दरबार में बैजू बावरा था, लेकिन अब हमें घर-घर में तानसेन और बैजू बावरा को लाना होगा। तो ही आदमी सुखी रह सकेगा। अन्य यंत्र सारा काम कर लेगा, आदमी क्या करेगा! और खाली आदमी खतरनाक हो सकता है। खाली आदमी बहुत खतरनाक हो सकता है। क्योंकि उसके भीतर सदियों-सदियों के दबे हुए रोग पड़े हैं--क्रोध के, घृणा के, ईर्ष्या के, वे उभरने लगेंगे। इसीलिए यंत्र से जो खतरा है, उससे में सावधान करता हूं, लेकिन यंत्र-विरोधी मैं नहीं हूं। यंत्र के पूरे पक्ष में हूं। खतरा यंत्र से नहीं आता; खतरा आता है आदमी की नासमझी से । तो आदमी को समझदार किया जा सकता है। यंत्र का दूसरा खतरा है कि कहीं प्रकृति को यंत्र नष्ट न कर दे। पश्चिम में वह खतरा पैदा हो गया है। ऐसी झीलें हैं जो मुर्दा हो गई हैं, जिनमें मछलियां मर गईं; क्योंकि फैक्टरियों का इतना तेल उन झीलों में पहुंच गया कि उस तेल ने जहर का काम किया। समुद्र तेल से भरे जा रहे हैं। कबीर ने कहा है... वे तो समझे थे उलटबांसी है, उन्हें क्या पता कि आगे क्या हालत होगी! और उन्होंने कहाः "एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागि आगि!" अब लौटो महाराज! तब तुम ऐसा न कहोगे कि एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागि आगि। नदियों में आग लग रही है। अब अचंभा नहीं है यह। क्योंकि नदियों में जहाजों का, कारखानों का इतना तेल पहुंच रहा है कि नदियों के ऊपर तेल की तह जम जाती है, उसमें आग लग जाती है। नदियां मर रही हैं, झीलें मर रही हैं। ऐसी झीलें हैं जिनकी सारी मछलियां मर गईं। और वह झील ही क्या जिसमें मछलियां न हों! उन झीलों का पानी पीया नहीं जा सकता, जहरीला हो गया है। समुद्र में लाखों मछलियां मर रही हैं, सिर्फ इसलिए कि बहुत तेल हमारे जहाजों से छूट रहा है। हवा में इतना धुआं फैल रहा है-- कारखानों का, कारों का, हवाई जहाजों का! जंगल काटे जा रहे हैं, पृथ्वी की हरियाली नष्ट होती जा रही है। बस बनते जा रहे हैं कोलतार के रास्ते, और खड़ी होती जा रही हैं सीमेंट की बड़ी-बड़ी आकाश छूती हुई गगनचुंबी इमारतें और शेष सब नष्ट होता जा रहा है। इसलिए सावधान करना भी जरूरी है। लाभ तो बहुत हैं यांत्रिकता के हानियां भी बहुत हैं! और बुद्धिमानी इसमें नहीं है, जैसा गांधी कहते हैं कि यंत्र ही छोड़ दो। गांधी तो कह रहे हैंः न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वे तो कहते हैं, यंत्र को ही जाने दो तो खतरा नहीं रहेगा। लेकिन यंत्र के जाने से जो खतरे पैदा होंगे, वे यंत्र के खतरे से ज्यादा बड़े हैं। जरा सोचो तो! बिजली न रह जाए, ट्रेनें न रह जाएं, सड़कों पर कारें और बसें न रह जाएं, कारखाने बंद हो जाएं, जरा सोचो सात दिन के लिए सब बंद हो जाएं, जैसे विज्ञान रहा ही नहीं, विज्ञान ने जो भी दिया सात दिन के लिए बंद हो जाए, तुम्हारी दुनिया की क्या स्थिति होगी? सात दिन में भस्मीभूत हो जाएगी। सात दिन में सब गिर जाएगा। तीन दिन के लिए अमरीका के कुछ नगरों में बिजली चली गई, तो बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। एकदम लूट-पाट मच गई! अंधेरा हो गया तीन दिन के लिए, रास्तों पर गुंडे ही गुंडे हो गए! ये गुंडे कहां छिपे थे, पता ही नहीं चलता था पहले। बिजली की रोशनी में छिपे थे। अब अंधेरे में मौका मिल गया। बलात्कार हो गए, स्त्रियां चुरा ली गईं, बच्चों की हत्याएं हो गईं, दुकानें ता. ेड डाली गईं; रास्तों पर निकलना खतरनाक हो गया। बिजली चली गई तो जैसे आदमियत चली गई। तुम जरा सोचो, सात दिन के लिए सारा विज्ञान ने जो भी दिया है बंद हो जाए... । तुम एकदम ऐसे भयंकर उत्पात में पड़ जाओगे कि कल्पना भी नहीं कर सकते। एकदम लूटपाट, आदमी का जंगलीपन प्रकट हो जाएगा। गांधी जो कहते हैं, मैं उसके पक्ष में नहीं हूं। विज्ञान ने जो टेक्नालॉजी दी है वह बहुत उपयोगी है। लेकिन आदमी को थोड़ा समझदार होना पड़ेगा। विज्ञान ने टेक्नालॉजी दी है वह अभी ऐसी है, जैसे बच्चे के हाथ में तलवार। आदमी उतने योग्य नहीं है जितना कि विज्ञान ने उसे साधन दे दिए हैं। आदमी की योग्यता बढ़ानी है; उसे ध्यान देना है, उसे शांति देनी है, उसे आनंदमग्न होने की अवस्था देनी है, उसे थोड़ी करुणा देनी है, उसे थोड़ा प्रेम देना है। वही प्रयोग मैं यहां कर रहा हूं, राजकिशोर! उद्योग के बिना तो कोई उपाय नहीं है, विज्ञान के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है, पीछे लौटा नहीं जा सकता। आगे ही जाना है! लेकिन आदमी को इस योग्य बनाना है कि वह विज्ञ
ान के खतरों से बच सके और विज्ञान का सदुपयोग कर ले। जरूरी नहीं है कि विज्ञान जंगलों को काटे । हमने गलती से काट डाले हैं। विज्ञान ने अब इस तरह की सुविधा जुटा दी है कि अगर हम चाहें तो समुद्र में बस्तियां बस सकती हैं, जंगल काटने की जरूरत नहीं है। समुद्र में बस्तियां तैराई जा सकती हैं। जमीन पैदावार के काम में लाई जा सकती है और बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। और समुद्र काफी बड़ा है । पृथ्वी का जितना हिस्सा समुद्र के बाहर है, उससे बहुत ज्यादा हिस्सा समुद्र के भीतर है। सारी बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। अब विज्ञान ने इसके उपाय बता दिए हैं। अब इसमें कोई अड़चन नहीं है। यही नहीं, बस्तियां आकाश में उड़ाई जा सकती हैं- पूरी की पूरी बस्तियां! जैसे बादल तैरते हों आकाश में जमीन पूरी की पूरी उत्पादन में लग सकती है। ये सारे कोलतार के रास्ते और ये बड़े-बड़े भवन, ये सब विदा किए जा सकते हैं जमीन से। ये सब आकाश में उठाए जा सकते हैं, जहां इनसे कोई खतरा नहीं होगा। और पृथ्वी एक सुंदर उपवन हो सकती है--जिसमें तुम उतर सकते हो कभी-कभी आनंद लेने को और फिर वापस जा सकते हो। समुद्र में और आकाश में बस्तियां होंगी भविष्य में जमीन को तो हमें खाली करना पड़ेगा। इतनी बड़ी संख्या के लिए तभी उत्पादन हो सकता है। और अब हम चांद पर पहुंच गए हैं। आज नहीं कल, जो-जो खतरनाक उत्पादन हैं, जिनसे कि विषाक्त होता है वायुमंडल, वे चांद पर हटाए जा सकते हैं। जिनसे वायुमंडल में जहर फैलता है, वे सब चांद पर हटाए जा सकते हैं। चांद पर कोई खतरा नहीं है क्योंकि कोई आदमी नहीं, कोई जानवर नहीं, कोई पशु-पक्षी नहीं। अगर अणुबम बनाना है तो चांद पर बनाओ, जमीन पर बनाने की कोई जरूरत नहीं है। यह सब संभव है--सिर्फ एक चीज की कमी है और वह यह कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता को मुक्त करो। मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर पुराने बंधन गिराओ; उसकी बुद्धिमत्ता को निखारो, तराशो, धार धरो। उसी महत कार्य में मैं संलग्न हूं। मेरे काम का मूल्य आज नहीं आंका जा सकता, इस मूल्य को आंकने में सदियां लग जाएंगी। तुम मूल्य `को आंकते हो पुराने हिसाब-किताब से कि शंकराचार्य ने ऐसा किया और बुद्ध ने ऐसा किया और महावीर ने ऐसा किया, आप ऐसा क्यों नहीं करते हैं? मेरे लिए वे कोई मापदंड नहीं हैं। जो बीत गया बीत गया। उसका अब कोई मूल्य नहीं है। भविष्य एक बिल्कुल नया भविष्य है-- जिसका बुद्ध को कोई अंदाज नहीं था; जिसकी कबीर को कोई कल्पना नहीं थी। वे उसके संबंध में सोच भी क्या सकते थे! उसके संबंध में कह भी क्या सकते थे! बीसवीं सदी का कोई बुद्ध ही भविष्य के संबंध में कुछ कह सकता है। एक विराट भविष्य हमारे सामने है। अगर हमने नासमझी की तो आदमी आत्महत्या कर लेगा। अगर हमने थोड़ी समझदारी बरती; अगर हम हिंदू, मुसलमान, ईसाई जैसी क्षुद्रताओं से ऊपर उठ गए; अगर हम भारतीय, पाकिस्तानी, चीनी, ऐसी बेहूदगियों से ऊपर उठ गए; अगर हम काले-गोरे की नासमझियों से ऊपर उठ गए -- तो पृथ्वी इतना सुरम्य स्वर्ग बन सकती है कि हमारी सारी कल्पनाएं फीकी पड़ जाएं! स्वर्ग की जो हमने कल्पनाएं की थीं, वे फीकी पड़ सकती हैं। शक्ति हमारे हाथ में है। समझ अभी हमारे हाथ में नहीं है। राजकुमार, तुमने पूछाः "एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र - विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा।" निश्चित ही! क्योंकि धर्म मनुष्य की सर्वाधिक ऊंची अवस्था है। जीवन में एक क्रमबद्धता है। भूखा पेट हो तो भजन नहीं हो सकता। भूखे भजन न होहिं गोपाला। पहले तो पेट भरा होना चाहिए, शरीर पर कपड़े होने चाहिए, छप्पर होना चाहिए। शरीर की जरूरत पहली सीढ़ी है। जिसकी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं वह ईश्वर की बातें कर सकता है लेकिन ईश्वर का अनुभव नहीं कर सकेगा। उसकी ईश्वर की बातें भी सिर्फ भूखे पेट को भरने की बातें होंगी। उसकी ईश्वर की बातें वैसी ही होंगी जैसे सड़क के किनारे बैठे भिखमंगे की बातें, जो तुमसे कहता है कि दो, भगवान तुम्हें खूब देगा। जो भगवान तुम्हें खूब देगा, वह इसी को क्यों नहीं खूब दे देता? इससे कभी पूछो भी तो कि तू हमारे लिए आशीर्वाद दे रहा है, तू सीधे ही क्यों नहीं मांग लेता? हम तुझे दें, फिर भगवान हमें दे, इतना चक्कर क्यों? इतना सरकारी लालफीताबाजी क्यों? तू उसी से मांग ले सीधा, झंझट खत्म कर ! जब इतना बड़ा दाता है भगवान, तो तुझे ही दे देगा, हम क्यों बीच में आएं? लेकिन वह तुमसे मांग रहा है कि दो मुझे कुछ, वह तुम्हें करोड़ गुना देगा। उसका न तो भगवान सच्चा है, न उसकी दान की बात सच्ची है, वह सिर्फ तुम्हारा शोषण कर रहा है, तुम्हारी धारणाओं का शोषण कर रहा है। और ध्यान रखना, भिखमंगे को जो देता है, भिखमंगा समझता है कि बुद्धू है। खूब बनाया! भिखमंगे आपस में बैठ कर बात करते ह
ैंः किसको बनाया आज, आज किसको फांसा, आज कौन लुटा? जो नहीं देता, भिखमंगा जानता हैः होशियार आदमी है। भिखमंगे के मन में सम्मान उसका है जो नहीं देता उसको, क्योंकि वह देखता है कि मेरी बातों में नहीं आता। लेकिन भिखमंगे तुम्हारे पुराने संस्कारों को जगा लेते हैं। तुम अगर भूखे हो तो मंदिर में जाकर भी मांगोगे क्या? रोटी, रोजी, कपड़ा। तुम जरा मंदिरों में जाकर खड़े हो जाओ चुपचाप और लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, लोग क्या मांग रहे हैं? कोई मांग रहा है कि बेटे को नौकरी मिल जाए; कोई मांग रहा है पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए; कोई मांग रहा है कि मकान मिल जाए, मकान नहीं मिल रहा है। तुम भगवान से ये चीजें मांग रहे हो! तुम्हारा भगवान से कोई नाता नहीं है। तुम भगवान को नहीं मांग रहे हो; तुम कुछ और मांग रहे हो। शरीर की जरूरतें पहले पूरी होनी चाहिए। शरीर की जरूरतें पूरी होती हैं तो मन की जरूरतें पैदा होती मन की जरूरतें हैंः संगीत, कला, साहित्य । अब जिस आदमी का पेट भूखा है, उससे कहोः पढ़ो कालिदास! कि पढ़ो मेघदूत, कि यक्ष ने मेघदूत से अपनी प्रेयसी के लिए निवेदन भेजा है! वह कहेगा, भाड़ में जाने दो मेघदूत और उसकी प्रेयसी! अगर बादल कोई संदेश ले जाते हों, तो हमारा संदेश भगवान तक पहुंचा देना कि रोटी कब तक आएगी? कल मैं पढ़ रहा था कि बुद्ध के सामने सुजाता ने जाकर खीर की थाली रखी । बुद्ध ने एक कौर खीर का लिया और थू-थू करके थूक दिया। कहा, यह किस तरह की खीर? सुजाता ने कहाः क्या करें महाराज, राशन के चावल हैं। कालिदास, शेक्सपियर, बायरन, रवींद्रनाथ, इनको समझने के लिए शरीर तृप्त, छप्पर हो, बगिया हो, घर में पुस्तकालय हो, वीणा बजाने की सुविधा हो, रात दीया जला कर शांति से बैठ कर पढ़ने का अवसर हो, संग-साथ हो, वैसा वातावरण-माहौल हो, संगति हो, तो मजा है! भूखे पड़े हैं बंबई के रास्ते के किनारे और पढ़ रहे हैं मेघदूत, यह संभव नहीं है । जब मन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। जो तृप्त हो जाता है कला से, संगीत से, साहित्य से, उनके मन में ध्यान, प्रार्थना, योग, तंत्र, इन ऊंचाइयों की बातें आनी शुरू होती हैं। ये सीढ़ियां हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म तो जब कोई देश समृद्ध होता है तभी पैदा होता है । यह देश जब समृद्ध था तो धार्मिक था। अब यह देश धार्मिक नहीं है। लाख तुम्हारे शंकराचार्य चिल्लाते रहें। यह देश धार्मिक नहीं है। यह देश अब धार्मिक अभी हो नहीं सकता। पहले इस देश को इसकी मौलिक जरूरतें पूरी होनी चाहिए, तब यह देश धार्मिक हो सकता है। धर्म पश्चिम में ऊगेगा। सूरज पश्चिम में ऊगेगा, पूरब में तो डूब चुका । हमने ही डुबा दिया। हमने ही मूढ़तापूर्ण बातें कर-कर के डुबा दिया, कि संसार में कुछ सार नहीं है, कि सब माया है, कि शरीर में क्या रखा है, यह तो मिट्टी है! हमने इस तरह की बातें कर-कर के जीवन का एक ऐसा निषेध पैदा कर दिया कि उस निषेध का अंतिम परिणाम यह हुआ कि हम दीन हुए, दरिद्र हुए, गुलाम हुए, सड़ गए, गल गए। अब इस सड़े-गले देश में धर्म की बात करनी मखौल उड़ाना है, लोगों का मजाक करना है। धर्म तो औद्योगिक रूप से संपन्नता में ही पैदा होगा। तो निश्चित ही मैं कहता हूं कि उन्नत देशों में ही धर्म का सूरज ऊगेगा। और तुमने पूछा हैः "दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता की विडंबनाओं का बखान भी करते निश्चित ही! अगर मैं नाव की तारीफ करता हूं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि नाव के छेदों की भी तारीफ करूं। नाव की तारीफ करता हूं और सचेत करता हूं कि नाव में छेद हों तो उन्हें भर लेना, अन्यथा डूबोगे, तैराने वाली नाव ही डुबाने वाली हो जाएगी। और पश्चिम की नाव में बहुत छेद हैं। नाव तो है उनके पास कम से कम; हमारे पास तो नाव ही नहीं है, छेद का तो सवाल ही कहां उठता है। पहले तो नाव होनी चाहिए, तब छेद हों। पश्चिम के पास कम से कम नाव तो है ! छेद वाली है, छेद भरे जा सकते हैं। लेकिन नाव ही न हो तो क्या खाक भरोगे!
ठीक दाएँ जहाँ 'लर्न इंगलिश विद दीपिशखा क्लासेज' का बोर्ड था और बाएँ 'तीन महीने में वजन घटाएँ' का ऐलान करती होर्डिंग, उसने अपने संस्थान का बोर्ड लगवाया था और यह उसे खासा उत्साहित करता था 'रिलेशनशिप' बढ़ते-बढ़ते दोनों बोर्डों को निगल चुका था। उसकी वर्कशॉप में ज्यादातर युवा होते या अभी-अभी युवावस्था का पड़ाव पार किए प्रौढ़ जिनके प्रेम, शादी, संतान जैसे उलझे रिश्तों में फँसे होने की गुंजाइश हुआ करती। कुछ पहले से ही शादीशुदा लोग होते या फिर जल्दी ही उनकी शादी की संभावना होती। उस दिन जब उस रहस्यमयी महिला का फोन आया तो वह रूटीन कक्षाओं के बाद दिन भर के केस भी सुलझा चुका था। उस दिन के एक केस में एक महिला अपनी शादी के बारह साल बाद अब अपने पति को छोड़कर अपने उस प्रेमी के पास जाना चाहती थी जिसने महिला की शादी के दस साल बाद तक उसका इंतजार किया था। प्रेमी ने दो साल पहले शादी की थी और अब उसकी पुरानी प्रेमिका लौटकर उसके पास जाना चाहती थी। समस्या यह थी कि जब उसका पुराना प्रेमी उससे मिला, जिसने उससे वादा किया था कि वह कभी भी उसके पास लौटना चाहेगी तो वह उसे सारी मजबूरियों के बावजूद अपना लेगा, तो उसने कहा कि शादी ही नहीं दुनिया के सभी रिश्तों से उसका मोहभंग हो चुका है। प्रेमिका का कहना था कि वह अपने पुराने प्रेमी के भीतर जीवन के प्रति आस्था भरना चहती है और यह काम सिर्फ वही कर सकती है। उसने बड़ी मुश्किल से महिला को यह समझाने में सफलता पाई कि दरअसल वह अपने पुराने प्रेमी के पास नहीं जाना चाहती बल्कि अपने पति को छोड़ना चाहती हैं पति को छोड़ने के बाद अगर वह प्रेमी के पास गई तो शर्तिया वह उसे भी कुछ समय बाद छोड़ने की इच्छा जताएगी क्योंकि हर प्रेमी शादी के बाद पति हो जाता है और बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार करता है जैसे पतियों के लिए तय मानकों के अनुसार निर्धारित है और भले ही वह उस समय अपनी काउंसलिंग के लिए वह अपनी फीस में डिस्काउंट पा सकती है लेकिन सुप्रीमो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता। (रिलेशनिशप में हर अगली काउंसलिंग में फीस कम हो जाती है।) सुप्रीमो के नाम से जाने जाने से पहले उसका एक सम्मानजनक नाम था जिसका अर्थ था तेजोमय इनसान। उसका नाम बहुत बड़ा झूठ साबित हुआ था इसलिए उसने आत्महत्या को स्थगित करके लौटने के बाद अपने लिए एक नया नाम चुना था जिसके कई अर्थ थे और जो अपमानजनक व सम्मानजनक दोनों ही परिस्थितियों में लागू होते थे। दुनिया के हर रिश्ते में असफल होने के बाद उसने हर कोच की तरह एक सफल रिश्ते निभानेवाले कोचिंग की नींव डाली जो बहुत सफल हो रही थी। रिश्ते कैसे निभाएँ' नाम से शुरू की गई उस कार्यशाला को जब उसने स्थायी संस्थान में बदला तो उसका नाम उसने 'रिलेशनिशप - ए क्वेश्चन टू सॉल्व' रख दिया जो अंग्रेजी में होने के कारण पहले से ज्यादा भीड़ खींचता था। उसके संस्थान में हर तरह के रिश्ते आते थे लेकिन सबसे ज्यादा स्वाभाविक तौर पर प्रेमी प्रेमिका और पति-पत्नी ही आते थे। उसके पास अनुभवों के अलावा कुछ नहीं था और बाद में उसने जाना कि दुनिया में यही सबसे ज्यादा कीमती चीजें हैं। उन्हें चाहे जैसे प्रयोग कर सकते हैं। उसने इसका व्यवसायिक प्रयोग किया और आजकल शहर में बड़े आदमियों में गिना जाता है। उस रहस्यमयी महिला का फोन जिस दिन आया वह रात में बिस्तर पर लेटा अपनी दूसरी प्रेमिका को याद कर रहा था और संसार के इस झूठ पर मुस्करा रहा था कि पहला प्यार ही सबसे आकर्षक होता है और इनसान इसे जीवन भर नहीं भूलता। हालाँकि उसके दोनों प्रेम संबंधों का हस्र एक ही रहा था पर फिर भी उसे अपनी दूसरी प्रेमिका की याद ज्यादा आती थी। वह दुनिया के इस झूठ पर भी हँसता था कि इनसान सच्चा प्रेम सिर्फ एक बार करता है। वह जानता था कि ऐसा सिर्फ इंसानों को अपने मन पर नियंत्रण करने के लिए अपनाई गई एक बकवास चाल के अलावा कुछ नहीं है। उस महिला ने उससे फोन पर कहा कि वह एक असाध्य बीमारी से ग्रस्त है और उसने आज तक प्रेम नहीं किया। यह बीमारी अनुवांशिक है और उसके खानदान में इससे बचने की लाखों कोशिशों के बावजूद पिछले पाँच सालों में तीन मौतें हो चुकी हैं और वह अपना समय इससे बचने में लगाकर जाया नहीं करना चाहती। डॉक्टरों के अनुसार वह बहुत जल्दी ही मर जाएगी और उसकी यह अंतिम इच्छा है कि वह मरने से पहले किसी से प्रेम करे। वह मरने से पहले अपने अनुभव दुनिया से बाँटना चाहती है और इसलिए प्रेम करके उसके अनुभवों पर एक किताब लिखना चाहती है। वह उस महिला की पागल इच्छा से पहली बार में जरा भी प्रभावित नहीं हुआ। उसे लगा जैसे टीवी में उसे देखकर कई प्रशंसिकाएँ बार-बार फोन कर उसे परेशान करती रहती हैं, यह भी उनमें से एक है। उसने उसे पाँच लगातार दिनों तक दस से अधिक बार मना किया कि वह उसे दुबारा फोन न करे क्योंकि उसका काम न प्रेम कराना है न ही किताब
लिखवाना। वह किसी ऐसे इनसान की तलाश करे जो उसकी तरह की महिलाओं को पसंद करता हो और अगर प्रेम का रिश्ता निभाने में कोई दिक्कत आती है तब वह उसे निस्संकोच संपर्क करे। वह कुछ प्रकाशन संस्थानों से बात करे और उन्हें इस बात पर राजी करे कि वह उसका शोधग्रंथ छाप दें। उसकी दोनों प्रेमिकाओं ने उससे बहुत टूट कर ठीक उसी तरह उससे प्रेम किया था जिस तरह उसने। वह हर दिन बदलता था क्योंकि हर दिन उसकी उम्र का एक दिन कम होता जाता था पर प्रेमिकाओं को यह बिल्कुल पसंद नहीं था। वह उसे हर रोज उतना ही फ़्रेश और ताजा चाहती थीं जितना वह एक दिन पहले था। वे खुद महीने में एक हफ्ता बुरी तरह डिप्रेशन और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जातीं जो उसे अपनी गलती की तरह झेलना पड़ता मगर उसे रोज एक ही तरह ताजा रहना था। 'अगर आप अपने सेक्रेटरी का नंबर दें तो मैं उनसे कल के लिए समय ले लूँ।' महिला ने मीठी आवाज में कहा था। 'मेरा कोई सेक्रेटरी नहीं। मैं अपने सारे काम खुद करता हूँ। आप अपनी समस्या बताइए। अगर मेरे लायक कुछ हुआ तो मैं आपको जरूर समय दूँगा।' उसने टालनेवाले अंदाज में कहा था। उसकी पिछली जिंदगी, जिसमें वह अकेले दौड़ने पर भी सेकेंड आया करता था, उसके सामने फि़ल्म के कुछ दृश्यों की तरह खुलती थी। सारे दृश्यों को मिलाकर एक धूसर रंग की फिल्म बनती थी और हर बार कलाकार चाहें अलग-अलग हों, उसका क्लाइमेक्स तय था। हर फि़ल्म के अंत में खुद को फि़ल्म का नायक मान रहा व्यक्ति आत्महत्या करने पहुँचता था। फि़ल्म के एक दृश्य में खुद को नायक समझनेवाला व्यक्ति अपने घर में कई बातों को लेकर प्रताड़ित किया जा रहा है। यह प्रताड़ित किया जाना ऐसा है कि किसी को दिखाई नहीं देता, इतना सूक्ष्म कि कभी-कभी तो नायक को भी नहीं। उसके दोनों बड़े भाइयों से हमेशा उसकी तुलना की जाती है और वह हर बार ऐसा महसूस करता है कि अब इससे ज्यादा किसी का अपमान किया जाना मुमकिन नहीं लेकिन अगली बार वह गलत साबित होता है। घर का छोटा बेटा होने के कारण वह शुरू से माँ-बाप का दुलारा था पर पिता की मौत के बाद माँ अचानक बदल गई। उसने करीब जाकर माँ को पहचानने की कोशिश की तो पाया कि वह अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रही थी। भाभियाँ वैसे तो अच्छी थी पर उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं होता था कि कोई पूरी मेहनत से नौकरी खोजे तो उसे क्यों नहीं मिल सकती। वे मेहनत की पुरातन परिभाषा से इस तरह से चिपकी थीं जिस तरह वह ईमानदारी नाम के झूठे और हास्यास्पद विशेषण से। ईमानदारी एक ऐसा शब्द था जो सुनने में बहुत मीठा और नमकीन लगता था और खाना खाने के बाद इसका जाप करने से भोजन पचाने में सहायता मिलती थी। इस शब्द के प्रयोग से अच्छे निबंध लिखे जा सकते थे और बच्चों को डराया और बोर किया जा सकता था। खाली पेट रहने पर अजीर्ण की शिकायत होने पर भी इस शब्द को प्रयोग किया जा सकता था और कई वैद्यों ने इसकी तगड़ी अनुशंसा की थी। कुछ लोगों को इसका जाप करने का नशा भी था और कुछ ऐसे भी लोग थे जो इसे अपने घर के उस सदस्य की तरह मानते थे जिसकी अरसा पहले मौत हो चुकी हो और उसकी बरसी भी धूमधाम से मनाते थे। एक दृश्य में उसकी प्रेमिका उसे सिर्फ इसलिए छोड़ रही है कि उसे अचानक पता चल गया था कि वह अब भी, उस बला की खूबसूरत लड़की के उसके जीवन में आ जाने के बावजूद ईश्वर को नहीं मानता। पहले अगर नहीं मानता था तो कोई बात नहीं थी, लेकिन अब जबकि वह लड़की उसकी प्रेमिका बनकर उसके जीवन में आ गई है, उसे ईश्वर की सत्ता में विश्वास हो जाना चाहिए, ऐसी लड़की की दृढ़ मान्यता थी। वह बहुत कोशिश करके भी ऐसा नहीं कर पाया। वाकई उस लड़की का उसके जीवन में आना एक असाधारण और स्वप्न के सच होने सरीखी आश्चर्यजनक घटना थी और इसके लिए वह वाकई किसी का, किसी का भी शुक्रगुजार होना चाहता था। वह पेड़ों, नदियों, बादलों, हवाओं और सूरज का आभार प्रकट करना चाहता था। किसी ईश्वर के अस्तित्व को मानने के लिए उसके अंदर से आवाज उसी तरह नहीं आती थी जिस तरह से तमाम दर्द और परेशानियों के बावजूद सिगरेट छोड़ने की नहीं आती थी। वह यह भी जानता था कि जिस दिन अंदर से आवाज आई वह तुरंत छोड़ देगा। 'मैं ईश्वर से आजादी चाहता हूँ', यह उसने अपनी प्रेमिका के उस सवाल के जवाब में कहा था जब उसने पूछा था कि उसका सपना क्या है। बाद में उसे सोचने पर कभी विश्वास नहीं होता कि उस घोर आस्तिक प्रेमिका से उसके अलगाव का कारण उसका यह एक वक्तव्य बना था। अलगाव के बाद उसे पता चला कि दरअसल उसकी प्रेमिका का मकसद उससे प्रेम करना नहीं था बल्कि उसे अपनी तरह बनाना था। वह आज तक नहीं समझ पाया कि उसके वक्तव्य के बदले उसकी प्रेमिका ने जो वक्तव्य दिया था, उसका अर्थ क्या था, सिवाय इसके कि वह खुद को ईश्वर मानती थी। पार्क के एक अँधेरे कोने में बैठ कर पीने का उसका एक ही मकसद था कि मरने
से पहले इतना पी ले कि मरते वक्त दर्द का एहसास न हो। मरना मुश्किल काम है, यह पहला पैग जज्ब होते ही उसे समझ में आ गया था। उसने ढेर सारी सिगरेटें पीं और उनका धुआँ बाहर नहीं निकाला। उसने अँधेरे से खूब बातें कीं और उसे बताया कि वह हमेशा से उससे प्रेम करता है। अँधेरे ने उससे कहा कि वह खूब पीए और उसकी बाँहों में खुद को ढीला छोड़ दे। उसने अँधेरे से कहा कि उसे कई बार लगता है कि दुनिया में उसके कई हमशक्ल घूम रहे हैं और उनके कारण वह हर बार असफल हो जाता है। काम वह करता है और क्रेडिट कोई और ले जाता है। अँधेरे ने कहा कि असफलता मात्र एक शब्द है और उसका कोई अर्थ नहीं होता। एक काँपती परछायीं अचानक उसके सामने आ खड़ी हुई तो वह एकबारगी डर गया। फिर उसे हँसी आई, अब किसी से क्या डरना। सामने मैले कुचैले फटे पुराने कपड़ों में एक भिखारीनुमा आदमी खड़ा था। 'कौन हो तुम...?' उसने सिगरेट का धुआँ अंदर खींचते हुए पूछा था। वह उस बकवास से ऊबकर अपनी बची हुई शराब का अंतिम पैग पीने लगा। उसने उसकी बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। 'तुम पागल हो और मैं पागलों से बहस कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहता।' उसने अंतिम सिगरेट जलाई। इस बार वह मुस्कराया। भुवन ने सिगरेट लेने के लिए उँगलियाँ आगे बढ़ाईं तो उसने उसे सिगरेट थमा दी। उसने उसे सारी बातें कह सुनाई जो उसकी जिंदगी में इस तरह हुई थीं जैसे उनका होना उसकी गलतियों से निश्चित था और इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। 'घर, परिवार, दोस्ती, प्रेम हर रिश्ते में असफल होने के बाद तुम मरकर क्या यह साबित करना चाहते हो कि इन रिश्तों में अगर तुम सफल हो जाते तो नहीं मरते...?' भुवन ने पूछा। वह कुछ नहीं बोला। भुवन उससे पूछता रहा। वह चुप रहा। वह उसे चुप रहने की आखिरी सीमा तक ले आया और वहाँ से धक्का दे दिया। बदले में भुवन ने एडिसन और बल्ब जैसा कुछ बुदबुदाते हुए अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले। दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए। थोड़ी देर तक भुवन चुप रहा। उसके बाद उसने दूर पड़ी एक नारियल का खाली खोखड़ की तरफ इशारा करते हुए उसे कहा, उसे ले आने के बाद भुवन ने उसमें पास के गड्ढे से पानी लाकर भर दिया। अचानक उसने उसका सिर पकड़ा और उस छोटे खोखड़ में उसकी नाक घुसा दी। खोखड़ के किनारे से उसकी नाक छिल गई। उसने प्रतिरोध किया। उसने प्रतिरोध करना छोड़ दिया और खुद को भुवन के हवाले कर दिया। उसने अपनी साँस रोक ली और उस पानी में कुछ देर बाद उसका दम घुटने लगा। उसने पूरी ताकत से अपनी साँस को रोक रखा था। ऐन उस वक्त जब उसका दम निकलनेवाला था और उसे अपनी मौत सामने नजर आ रही थी, भुवन ने उसका सिर पानी से बाहर खींच लिया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। भुवनेश्वर ने उसे गौर से देखा। उसने भुवन से कहा कि वह एक प्रयास और करेगा पर पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसे फिर जल्दी ही यही काम करने यहीं आना पड़ेगा। वह अपना शहर छोड़ कर दूर एक अनजान शहर चला गया। वहाँ कुछ दिनों भटकने के बाद उसे एक काम मिल गया। वहाँ से कुछ दिन काम कर कुछ पैसे बनाने के बाद उसने एक प्रयोग के तौर पर एक हफ्ते के लिए अपनी कंपनी में ही 'रिश्ते कैसे निभाएँ' नाम की कार्यशाला शुरू की थी जिसने उसकी तकदीर बदल दी। उस महिला का नाम अप्रतिममाधुरी था और वह अपने नाम की तरह ही अजीब थी। जब वह उससे मिलने आई तो आते ही उसने सबसे पहला सवाल यही पूछा कि क्या उसने किसी से प्रेम किया है। वह हँसा क्योंकि वह इस सवाल का मतलब कई जन्मों से खोज रहा था। वह आई और वह उसके प्रवाह को रोक नहीं पाया। लगा सब कुछ पहले से तय था और वह इस घटनाक्रम का एक छोटा सा हिस्सा था। उससे मिलने में उसे जरा भी रुचि नहीं थी मगर जब मिला तो पाया कि वह उसके साथ समय बिताने लगा है। एएम जैसा नॉनरोमांटिक नाम रखे जाने के बावजूद वह जरा भी हतोत्साहित नहीं हुई। वह हर रोज सुप्रीमो के साथ घंटो बैठती और दुनिया की उन तमाम चीजों पर बारहा बहस करती जो न तो उसकी जिंदगी में आई थीं और न ही कभी आने की उम्मीद थी जैसे अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव, प्रियदर्शन की फि़ल्मों की गिरती क्वालिटी, सचिन के बैट का वजन, धार्मिक चैनलों की प्रासंगिकता, बरमूडा ट्राएंगल का रहस्य आदि। उसने एक तरह से सुप्रीमो की अवैतनिक सेक्रेटरी का काम सँभाल लिया था। ऑफि़स में काम तो ज्यादा था ही, सुप्रीमो को आराम मिलने लगा तो उसके मन में अप्रतिम के लिए झल्लाहट कुछ कम हो गई। कुछ समय बाद उसे लगने लगा कि उसकी बातें भले बेसिर-पैर की हों, बोर करनेवाली नहीं हैं। उनसे अच्छा खासा टाइम पास किया जा सकता है। खासतौर पर उन अभ्यर्थियों से जो हर इतवार अखबार में विज्ञापन पढ़कर विवाह प्रस्ताव लेकर आ जाते हैं। सुप्रीमो इतवार की अपनी छुट्टी मजे से उनका साक्षात्कार लेने में गुजार देता था और सारे अभ्यर्थियों के चले जाने के बाद दोनों उनकी चर्चा कर घंटों
हँसते रहते थे। आवश्यकता है एक ऐसे इनसान की जिसकी जिंदगी में हवा से ज्यादा प्रेम हो। जो मानता हो कि प्रेम से पेट भी भर सकता है। एक ऐसी महिला को अपने लिए प्रेमी की जरूरत है जिसके अंदर ढेर सारा प्रेम भरा हुआ है। तलाश है एक ऐसे इनसान की जो इतना प्रेम सँभाल सके...। जो पिछले एक वर्ष में कभी किसी चिड़िया की मौत पर रोया हो, किसी तितली को पानी में से निकालकर उसके पंख सुखा उड़ने में मदद की हो, किसी दूसरे के सफल होने पर जिसकी आँख भर आई हो...। 'तुम इनसे शादी क्यों करना चाहते हो यह जानते हुए भी कि इनकी जिंदगी सिर्फ चंद महीने ही बची है?' इस एक मासूम सवाल के एक से एक मनोरंजक जवाब आते। 'मैं मैडम को इनके अंतिम दिनों में प्रेम देकर यह साबित करना चाहता हूँ कि दुनिया से प्रेम अभी खत्म नहीं हुआ है।' एक निरीह से प्राणी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए अपना प्रेम प्रस्ताव प्रस्तुत किया। वह फूट पड़ी, 'मुझे नौकर नहीं चाहिए रामू, भागो यहाँ से...।' रामू बोलते ही उसका गुस्सा अचानक हँसी में बदल गया और उसको इतना अचानक रंग बदलते देख वह भी हँस पड़ा। एक बूढ़ा आया जिसे देख कर यह साफ था कि इसके पेट में आँत और मुँह में दाँत न्यूनतम जरूरत पूरी करने तक ही बच पाए थे पर उसके जज्बात बहुत ताकतवर थे। उसने कहा कि वह बच्चों से बहुत प्यार करता है। उसकी इच्छा थी कि वह अप्रतिम से विवाह कर बच्चे पैदा करे और अप्रतिम के चले जाने के बाद उन बच्चों को अपने प्रेम की निशानी मानकर बाकी की जिंदगी, जो कि वास्तव में बहुत कम बाकी थी, बिताए। दो ऐसे भी लड़के आए जो आज तक हर काम साथ करते आए थे। वे चाहते थे कि वे दोनों मिलकर उससे विवाह करें क्योंकि दोनों मिलाकर ही एक पूरे इनसान जैसे नजर आते थे। उनकी समस्या विकट थी। उन्हें अपने मेलजोल पर घरवालों के दिनोंदिन बढ़ते जा रहे ऐतराज के मद्देनजर अपनी-अपनी जिंदगियों में एक लड़की की व्यवस्था करनी थी। उन्होंने कहा कि वे हफ्ते में आधा-आधा वक्त अप्रतिम को अपने साथ रखना चाहते हैं ताकि उनके घरों में उनकी छवि साफ रह सके। वे दोनों भौंचक रह गए। ऐसा भी हो सकता है, उन्हें भनक भी नहीं थी। एएम पहले तो रविवार को साक्षात्कार लेती, पूरा सोमवार हँसती, मंगलवार को अचानक संजीदा हो जाती और बुधवार को इसे याद कर उसके सामने रोती और कहती कि उसे लोगों की भावनाओं से खेलने का कोई हक नहीं है। वह समझ नहीं पाता था कि एएम की समस्या क्या है। वह उसकी हालत देखकर अपने भीतर झाँकता और धूसर रंग के दृश्यों में खो जाता। रिश्ते इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ हैं और सबसे बड़ा आकर्षण। अचानक मेरे आसपास की भीड़ बहुत तेज भागने लगती है और मैं सिर्फ चुपचाप खड़ा रह जाता हूँ। सब मुझे कुचलते रौंदते मेरे बीच से निकलकर कहीं न कहीं भागने लगते हैं और मैं शरीर पर बिना कोई चोट खाए ये सोचने लगता हूँ कि अभी थोड़ी देर पहले मैं कहाँ भाग रहा था। मुझे भी भागना है और अगर मैं तुरंत नहीं भागा तो मेरा बहुत कुछ छूट जाएगा। मैं अपनी कँपकँपाती टाँगों से भागने लगता हूँ और भागते-भागते मेरे मन में कोई भूला सा खयाल परेशान करता हुआ पूछता है कि भागते हुए मैं जो छोड़ता जा रहा हूँ उसका नाम क्या है ? क्योंकि हम ही रखते हैं उन्हें...।' उसने सरल भाव से कहा। सुप्रीमो धीरे-धीरे अप्रतिम के लिए सचमुच चिंतित होने लगा था। पहले उसका सोचना था कि अप्रतिम को किसी भी ठीकठाक लड़के के साथ जोड़ दिया जाय लेकिन अब उसे लगने लगा था कि अगर यह लड़का गलत निकल गया तो? अगर फलाँ लड़का बाद में चरित्रहीन निकल गया तो? अप्रतिम प्रेम पर जो किताब लिखना चाहती है उसके लिए निहायत जरूरी है कि वह उसे किसी ऐसे हाथ में सौंपे जो बिल्कुल सुरक्षित हो। वह किताब लिखे तो ऐसी कि दुनिया का प्रेम पर विश्वास कायम रह सके। उसे अपने पर फिर कोफ्त हो आई। वह बार-बार ऐसा क्यों सोचने लगता है? उसे क्या जरूरत है किसी के लिए इतनी चिंता करने की और वह भी किसके लिए? एक ऐसी लड़की के लिए जो प्रेम पर किताब लिखना चाहती है? एक ऐसी चीज पर जो दुनिया का सबसे खौफनाक झूठ है... सभी रिश्ते झूठ हैं और इनका सरताज है प्रेम। उसने तय किया अब भी उसकी भावनाएँ कभी-कभी जोर मारती हैं जिसका निष्कर्ष उसने यह निकाला कि चूँकि यह दुनिया का सबसे मजबूत जाल है, कभी-कभी इसकी ओर खिंचाव हो जाना स्वाभाविक है। कल से वह अपने ध्यान की अवधि को बढ़ाएगा। उसकी खुद से इस दौरान रोज ही मुलाकात होने लगी। वह इस तथ्य पर अटल था कि एक आम आदमी बनकर जीने में कोई मजा नहीं। वही पुराने रिश्ते, वही एक तयशुदा एडवेंचर, नहीं उसकी जिंदगी ठीक है। उसे इस जमीन के मियादी रिश्ते नहीं चाहिए। उसने टीवी बंद कर दिया। उसकी नजर अपने आप एएम के कमरे की तरफ चली गई। उसके कमरे की लाइट जल रही थी। उसने खुद अपना मुँह सूँघने की कोशिश की तो उसे लगा कि शराब की महक के अलावा भी कोई महक
उसकी साँसों में शामिल हो रही है। 'हाँ-हाँ क्यों नहीं आइए।' एएम अपने बिस्तर पर लैपटॉप पर कुछ कर रही थी। वह सीधी होकर बैठ गई। 'क्या कर रही थी?' उसने एक तरफ बैठते हुए पूछा। उसने लैपटॉप सुप्रीमो की तरफ मोड़ दिया। सुप्रीमो ने कुछ देर तक स्क्रीन पर निगाहें जमाए रखीं। उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। 'क्या तुम्हारा कोई ब... ब... ब्वायफ्रेंड है?' उसने लड़खड़ाती जबान में पूछा और उसी वक्त उसे लगा कि शराब की महक आने से और ब्वायफ्रेंड जैसे बाजारू शब्द को इस्तेमाल करने से उसकी बात को कहीं हल्के में न ले लिया जाय। 'नहीं... आप तो जानते ही...।' एएम ने आराम से मुस्कराते हुए जवाब दिया। एएम उसका चेहरा देखती रही। 'प्रेम में बहुत नंगी बातें होती हैं।' उसकी उँगलियाँ लैपटॉप पर फिसलने लगीं। उसने कुछ लाइनें लिखीं और उन्हें सेलेक्ट कर बोल्ड कर दिया। - प्रेम का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि जिसके बिना जीने की एक वक्त कोई सूरत नहीं होती, हम उसके बिना भी जी लेते हैं। - प्रेम में हम हर रोज किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। - प्रेम में कोई भी निष्कर्ष अंतिम नहीं होता। - प्रेम में हम सबसे ज्यादा उदार होते हैं और सबसे ज्यादा क्रूर। - पूरी दुनिया में आज तक प्रेम की कमी से किसी की मौत नहीं हुई। - इनसान को प्रेम की कोई जरूरत नहीं लेकिन बाजार ने इसे उसके लिए अपरिहार्य बना दिया है। - प्रेम इनसान को उसके वास्तविक स्वरूप से दूर ले जाता है। एएम उसके पास आई तो उसे लगा एक मीठे पानी की नहर उसे छू गई। उसका शरीर एक बार जोर से काँपा और उसे याद आया कि उसे बहुत देर से पेशाब लगी है। वह बिना कुछ बोले निकल गया। अपनी राह पर अकेले चलते-चलते मुझे अचानक कभी-कभी लगने लगता है कि मेरे साथ कोई और भी चल रहा है। अब चूँकि मुझे ऐसी आदत नहीं रही है और मैंने हमेशा अकेला रहने का चुनाव किया है, मुझे अजीब लगता है। मैं यह यकीन से नहीं कह सकता कि मुझे अच्छा लगता है या खराब। - मैं समझ सकती हूँ। - यही तो दिक्कत है कि तुम कुछ नहीं समझ सकती क्योंकि मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा हूँ। - जरूरी है कि तुम्हारे समझे बिना मैं कुछ न समझूँ? ये उसी तरह है न कि जेब में मोबाइल के वाइब्रेट करने का भ्रम हो, तुम हाथ जेब में डालो तो पता चले कि मोबाइल तो आज घर पर ही छूट गया। - एह...।' वह चुप हो गया। चीजें उसके आस-पास बदल रही थीं, उसके बाहर बदल रही थीं और उसके भीतर बदल रही थीं। वह पूरी ऊर्जा से उन्हें बदलने से रोक रहा था। हालाँकि उसे कारण नहीं पता था कि वह इन बदलावों को क्यों नहीं होने देना चाहता। यह रोकना कुछ ऐसा था कि किसी लड़के की दाढ़ी मूँछें उग रही हों और वह उन्हें रोकना चाहे। उसने पाया कि वह कभी-कभी किशोरों की तरह फि़ल्मी गीत गुनगुनाने लगा है। उसे कभी खुद पर झल्लाहट होती और अगले ही पल वह खुद को शीशे में देखकर सोचने लगता कि अड़तीस की उम्र में भी वह पैंतीस से ज्यादा का नहीं लगता... ज्यादा से ज्यादा छत्तीस... तो क्या... वह भी तो करीब बत्तीस की होगी ही...। उसकी झल्लाहट कभी-कभी हद से पार हो जाती तो वह रिश्तों के जाल पर अपनी लिखी कोई किताब पढ़ने लगता। इससे भी हारता तो डायरी लिखने लगता। - लगता है जिंदगी फिर से मुझे अपने जाल में जकड़ रही है। जिंदगी की पकड़ में आने का मतलब है मौत के लिए तैयार रहना, ठीक उसी तरह जैसे किसी रिश्ते को शुरू करने का मतलब है उसके खात्मे के लिए तैयार रहना। किसी रिश्ते की शुरुआत की बात करते वक्त मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आखिर मैं किस रिश्ते की बात कर रहा हूँ और यह जानना ही मेरे डर का कारण है। मैं जानता हूँ कि मैं निराशावादी इनसान हूँ और यही मेरी सफलता का कारण रहा है। मैं अच्छे दिनों का सुख कभी नहीं उठा पाता क्योंकि उस समय लगातार मेरे मन में यह चलता रहता है कि ये एक दिन खत्म हो जाएँगे। मैं क्या करूँ...? उसकी वर्कशाप में आनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अब इनमें काफी विदेशी भी आने लगे थे जो उसकी ख्याति से प्रभावित होकर अपने रिश्तो की जटिलताओं का समाधान खोजने आ रहे थे। वह उनकी समस्याओं को सुलझा रहा था और अपनी समस्या में उलझता जा रहा था। मगर अब वर्कशॉप में कुछ बदल रहा था। उसके विचार एक रिश्ते को लेकर बदल रहे थे। कुछ नियमित लोग जो अपने कई प्रकार के रिश्तों को लेकर अक्सर भ्रमित रहा करते थे, उसके स्थायी विद्यार्थी थे। वे इन बदलावों को नोट कर रहे थे। 'जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसका अनुगमन करो हालाँकि उसकी राहें विकट और विषम हैं। जब उसके पंख तुम्हें ढक लेना चाहें, तो तुम आत्मसमर्पण कर दो, भले ही उन पंखों के नीचे छिपी तलवार तुम्हें घायल करे। ...और जब वह तुमसे बोले तो उसमें विश्वास रखो, भले ही उसकी आवाज तुम्हारे स्वप्नों को चकनाचूर कर डाले, जिस तरह झंझावात उपवन को उजाड़ डालता है। ...क्योंकि प्रेम जिस तरह त
ुम्हें मुकुट पहनाएगा उसी तरह सूली पर भी चढ़ाएगा। जिस तरह वह तुम्हारे विकास के लिए है, उसकी तरह तुम्हारी काट-छाँट के लिए भी। अनाज की बालियों की तरह वह तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। तुम्हारी भूसी दूर के लिए तुम्हें फटकता है। तुम्हें पीसकर श्वेत बनाता है। तुम्हें नरम बनाने तक गूँथता है। ...और तब तुम्हें अपनी पवित्र अग्नि पर सेंकता है जिससे तुम प्रभु के पावन थाल की रोटी बन सको। उसने पाया कि प्रेम में चोट खाए लोग इस तरह की बातों पर सहमत नहीं होते। क्या वे सचमुच प्रेम में ही थे। उसे पहली बार लगा कि प्रेम से मिलते जुलते बहुत सारे रिश्ते आजकल चलन में हैं जो प्रेम का आभास या कहें धोखा देते हैं। उनसे चोट खाकर यह प्रवचननुमा क्लास लेना क्या उसी तरह नहीं है जैसे खासे बुखार के बाद पैरासीटॉमॉल की जगह डाइजीन खाना? जो बर्न इंजरीवाले लोग नहीं उन्हें बरनॉल क्यूँ लगाना। 'देखो तुम्हारे चक्कर में मैं सोच भी दवाइयों की भाषा में रहा हूँ।' उसने अभिभूत से मुस्कराते हुए कहा जिससे उसकी मुलाकात एक डॉक्टर के यहाँ हुई थी। वह एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव था और उसके चेहरे से पता नहीं क्यों यह झलकता था कि उसके साथ जो लड़की रहेगी वह हमेशा खुश रहेगी। सुप्रीमो ने कुछ समय पहले उससे एएम के बारे में बात की थी और आज वह अचानक ही चला आया था, मन में एएम से मिलने की इच्छा लेकर। काफी देर तक वह उसे अपनी लाइन की मजबूरियाँ बताता रहा जैसे डॉक्टर बिना महँगे गिफ्ट लिए दवाइयाँ लिखते ही नहीं और कुछ बड़े एमआर बड़े ऑर्डर पाने के लिए अपनी बीवियों को डॉक्टर्स के पास भेजते हैं। वह जान बूझकर बीवी का जिक्र ले आया और बोला कि अगर उसकी शादी हो जाय तो वह कभी अपनी बीवी को किसी डॉक्टर के पास नहीं भेजेगा चाहे वह भगवानदास अस्पताल का डॉक्टर खुराना ही क्यों न हो। खाना अप्रतिम ने बनाया और परोसा भी। स्वाद और परोसने दोनों में सबसे ज्यादा आकर्षित करनेवाली बात थी प्रेम और स्नेह। एमआर खाता रहा और भद्दी नजरों से एएम की ओर देख कर तारीफ करता रहा। वह बार-बार दाल की माँग करता और एएम जब उसके पास जाकर थोड़ा झुक कर दाल देती तो उसके गले की गहराइयाँ देखता हुआ वह अचानक कह उठता - 'बस बस, अब नहीं।' मगर फिर थोड़ी देर बाद फिर दाल की या सलाद की माँग उठाता। 'खाना कैसा लगा ?' एएम को जैसे इन सबसे कोई मतलब ही नहीं था। वह उसी उत्साह से सुप्रीमो को चपातियाँ परोसती एमआर की तरफ मुखातिब हो पूछ बैठी। 'बहुत शानदार। बिल्कुल आपकी तरह...।' वह बेशर्मी से बोला। सुप्रीमो आश्चर्य में था। उसे पहले लगता था कि यह युवक बहुत शालीन और सभ्य है मगर आज उसके मजाक उसके भीतर आग पैदा कर रहे थे। 'सबसे अच्छा क्या लगा आपको...?' एएम ने मुस्कराते हुए पूछा। 'सबसे अच्छा तो लगा आपका इतने प्यार से झुक झुककर परोसना। खाने का स्वाद दुगुना हो गया।' वह हँसता हुआ बोला। एएम भी उसकी हँसी में शामिल हो गई। दोनों हँसने लगे। हँसी की आवाजे धीरे-धीरे उसके कान से दिमाग में गूँजने लगीं। अचानक वह खाना छोड़ उठ खड़ा हुआ। 'क्या हुआ...?' एमआर हैरानी में था। 'बाहर निकलो। मेरे सामने से हटो वरना मैं कुछ कर बैठूँगा...।' वह आखिरी लाइन कुछ इस आवाज में चिल्लाया कि एमआर डर गया और अपना हाथ पास पड़ी नैपकिन में पोंछ, अपना बैग उठा निकल गया। सुप्रीमो पास रखी कुर्सी पर निढाल सा टेढ़ा हो गया। उसने एमआर की दी हुई दवाइयों में से एक सरदर्द की गोली खाई और सोफे पर ही ढेर हो गया। उसकी इच्छा थी कि एएम उसके पास आकर उसका मूड खराब होने का कारण पूछे और उसे समझाए कि छोटी-छोटी बातों पर अपना मूड खराब नहीं करना चाहिए लेकिन वह जब चुपचाप अपने कमरे में चली गई तो उसे अपनी कार्यशाला में अक्सर दोहराई जानेवाली बात याद आई - दुनिया में किसी रिश्ते से कोई भी अपेक्षा उसके खत्म करने की शुरुआत है। उसे लगा उसकी जिंदगी में शतरंज की बिसात की तरह काले और सफेद घर बने हैं और वह कभी काले घर में चला जाता है और कभी सफेद घर में। शायद उससे खेलनेवाला यह भी भूल गया है कि जब उसने खेलना शुरू किया था तो उसकी गोटियाँ किस रंग की थीं। 'मेरी किताब आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है।' एक दिन एएम ने उसे अचानक ही बताया तो वह निराश सा हो गया। 'हाँ।' अद्भुत आत्मविश्वास भरे उत्तर से वह थोड़ा सहम सा गया पर उसने हार नहीं मानी। पहली बार किसी ने सुप्रीमो की बात काटी थी। वह हतप्रभ था और उसे आराम से अपने कमरे में जाते देखता रहा। जैसे-जैसे उसकी जिंदगी ढलान पर जा रही है, मुझे एक अजीब से डर ने जकड़ लिया है। वह आजकल बहुत कमजोर दिखती है। उसके बाल पहले भी काफी कम थे मगर पिछले कुछ समय से तो अजीब तरीके से उड़ते जा रहे हैं। हालाँकि वह हमेशा दुपट्टे से सिर ढक कर रहती है मगर जब कभी उसके सिर से दुपट्टा जरा भी हटता है तो मैं अपनी आँखें फे
र लेता हूँ। वह बहुत कमजोर हो गई है। ऐसी बीमारी उसे वाकई है, मुझे अब भी विश्वास नहीं होता। उसकी दवाइयाँ उसके साथ हँसी खेल कर रही हैं। मगर अब भी वह हर दूसरे रविवार को विज्ञापन जरूर निकलवाती है। मैं बहुत मना करता हूँ कि अब उसे साक्षात्कार लेने नहीं बैठना चाहिए लेकिन वह नहीं मानती और दो दिन खूब हँसती है और दो दिन खूब रोती है। मुझे तो लगता है ज्यादा हँसना और ज्यादा रोना भी उसके लिए खतरनाक ही होगा। शाम को डॉक्टर के यहाँ जाना है। देखते हैं क्या बताता है। 'मैं मर जाऊँगी तो तुम्हें मेरी याद आएगी?' सुप्रीमो को उसका तुम पुकारना बहुत भला लगता था। आजकल वह ऐसे-ऐसे सवाल करती थी कि उसे सँभालना एक बच्चे को सँभालने से भी ज्यादा कठिन हो जाता था। वह ऐसे सवालों पर चुप रह जाता था। मन में बहुत कुछ आता था लेकिन बरसों तक चुप रहने के अभ्यास ने उसे अब थोड़ा संकोची बना दिया था। बादलों से खाली हो चुकी एक शाम को जब वह डॉक्टर के यहाँ से उसे बिना बताए बोझिल कदमों से वापस आ रहा था, उसने आसमान में दो इंद्रधनुष देखे। दोनों इंद्रधनुष एक दूसरे के समानांतर अपनी आभा बिखेर रहे थे। उसने अपनी अड़तीस साल की जिंदगी में पहली बार दो इंद्रधनुष एक साथ देखे थे। उसे बहुत अच्छा लगा और उस वक्त उसे फिर महसूस हुआ कि इस बात को वह किसी से बाँटना चाहता है और उसके कंधे पर सिर रखकर खूब खूब रोना चाहता है। वह थोड़ी देर तक सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर नम आँखें लिए बैठा रहा और फिर घर की ओर चल पड़ा। उसने निश्चय किया कि यह बात वह एएम को जरूर बताएगा कि आज उसने जिंदगी में पहली बार दो इंद्रधनुष एक साथ देखे हैं। वह घर पहुँचा तो एक आश्चर्य उसका इंतजार कर रहा था। उसके कमरे की सफाई कर दी गई थी और उसकी किताबें यहाँ वहाँ रख दी गई थीं। वह अपने कमरे खासकर किताबों को किसी को भी हाथ नहीं लगाने देता था। पिछले दो नौकर सिर्फ इसी गलती के कारण नौकरी से निकाले गए थे कि उन्होंने मालिक को खुश करने के लिए मालिक की किताबों की आलमारी साफ कर दी थी। उसे जरा भी गुस्सा नहीं आया बल्कि वह शेल्फ के पास जाकर किताबों को प्यार से सहलाने लगा। 'मैंने तुमसे बिना पूछे यह किया, यह जानते हुए कि तुम्हें अपनी किताबों को किसी का हाथ लगाया जाना पसंद नहीं।' वह पास खड़ी मुस्करा रही थी। वह भी मुस्कराया। उसकी याद में इस नई जिंदगी में पहली बार किसी ने उसकी अकारण तानाशाही को चुनौती दी थी और उसे यह अच्छा लगा था। मगर उसने कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया और शेल्फ में से एक महान दार्शनिक की किताब पढ़ने लगा। 'तुमने दवाई खाई?' उसने बात को मोड़ने की गरज से पूछा। 'मैं दर्शन कैसे खाऊँ?' वह हँसने लगी। उसे इस तरह के घटिया मजाकों पर उसे बहुत गुस्सा आता था पर आज वह भी हँस दिया। उसका मन अचानक बहुत उदास हो गया। उसने इंद्रधनुषवाली बात एएम को नहीं बतायी और यूँ ही अकेला खाली सड़कों की खाक छानने निकल गया। जब वह रात शुरू होने के थोड़ी देर बाद लौटा तो उसका मन पूरी तरह बदल चुका था और वह इंद्रधनुष की बात पूरी तरह भूल चुका था। उसकी मन हो रहा था कि वह पूरी तरह से खुद को भुला दे। उसे अचानक ही उस दिन भुवनेश्वर की बेतरह याद आई और शक भी हुआ कि क्या वह कभी वाकई इस नाम के आदमी से मिला था। उसने अपनी मिलास, एक बोतल जो रूस से उसका एक शिष्य लाया था और कुछ नमकीन लेकर लॉन में मेज पर ले आया। एएम बरामदे से बाहर आकर खड़ी हो गई। वह थोड़ी देर तक वहीं खड़ी बोतल और गिलास को घूरती रही। फिर बिना कुछ कहे अंदर चली गई। जब वह दो लार्ज पीकर खत्म कर चुका था और उसे हल्का सुरूर आना शुरू हो गया था, उसने देखा कि एएम उसकी मेज के पास खड़ी है। उसे अचानक गुस्सा आया लेकिन उसके हाथ में कुछ देखकर वह अपने गुस्से को दबा गया। एएम ने एक प्लेट मेज पर रखी और चुपचाप वापस भीतर मुड़ गई। उसके जाने के बाद उसने प्लेट में से एक पकौड़ा उठाया और एक पकौड़ा मुँह में डालते ही उसे तीन पैग का नशा महसूस हुआ। इतना स्वादिष्ट पकौड़ा उसने अपनी माँ के हाथ का खाया था जब उसके पिता जिंदा थे। पिता की मौत के बाद माँ के हाथ के पकौड़े उसे कभी पहले जैसे स्वादिष्ट नहीं लगे। माँ के हाथ के पकौड़े पिता का पसंदीदा व्यंजन था। पिता के साथ माँ के हाथ का स्वाद भी चला गया। वह पीना छोड़ बेतहाशा पकौड़े खाने लगा। जब पीने की याद आई तो उसने अचानक एक डबल लार्ज बनाकर एक साँस में खींच गया और बोतल किनारे कर दी। वह पकौड़े खाने लगा और सारे पकौड़े साफ कर गया। इसके बाद प्लेट में बचे पकौड़ों के टुकड़ों को बीन-बीन कर खाने लगा। रात की चाँदनी उसकी प्लेट में भी पड़ रही थी और प्लेट का खालीपन साफ साफ दिख रहा था। वह धीरे से उठा और अंदर एएम के कमरे की ओर चल पड़ा। वह पलँग पर अधलेटी मुद्रा में कुछ पढ़ रही थी। 'मैंने सारा खा लिया। इसमें तुम्हारा भी था क्या?' उसने लड़खड़ाती
आवाज में पूछा। 'नहीं नहीं वो सारा आपका था।' उसने मुस्कराती आवाज में कहा। वह चुप हो गया। इसके बाद के संवाद बोलने में उसे नशे में भी शर्म आई। उसने मन में कहा 'उसमें से एकाध दोगी?' और पलटकर जाने लगा। 'आप और लेंगे?' एएम ने पलँग से उतरते हुए पूछा। वह चुपचाप उसकी ओर देखने लगा और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे जो धीरे-धीरे अतिक्रमण करते हुए उसके गालों और वहाँ से उसकी गर्दन तक फिसलने लगे। एएम किचन में यूँ गई जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं। उसे उतने नशे में भी इस बात पर शर्मिंदगी हुई कि वह पकौड़ियों के लिए रो रहा है मगर उसे आश्चर्य तब हुआ जब यह सोचते ही उसकी रुलाई और तेज हो गई। इतनी तेज कि वह खुद को रोक नहीं पाया और रोता हुआ अपने कमरे में भाग गया। थोड़ी देर बाद जब एएम उसके कमरे में पहुँची तो उसने पाया कि उसकी देह आरामकुर्सी पर हिल रही है और वह कहीं दूर निकल चुका है। उसने उसे झकझोरा तो वापस आने में उसे थोड़ी देर लगी। 'आप पकौड़ियाँ लेंगे?' एएम के हाथ में प्लेट थी जिसमें पकौड़ियाँ थीं। उसने पकौड़ियों की ओर ध्यान नहीं दिया और एएम का हाथ पकड़ कर अपने सामनेवाली कुर्सी पर बिठा दिया। 'जानती हो इनसान को सबसे ज्यादा दुख कब होता है?' उसकी आवाज लड़खड़ा रही थी। 'जब उसे अपनी माँ की याद आती है।' एएम ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहा। 'बकवास... इनसान को सबसे ज्यादा दुख तब होता है कि उसकी जिंदगी के अड़तीस साल बेकार में निकल जाएँ और उसे आधी से ज्यादा जिंदगी खत्म हो जाने पर अचानक किसी दिन यह पता चले कि दो इंद्रधनुष एक साथ भी निकल सकते हैं और वो इतने सुंदर होते हैं एक साथ कि...।' उसकी आवाज टूटने लगी। 'मैं समझ सकती हूँ।' वह उसका सिर सहलाने लगी। 'तुम एक सुंदर इंद्रधनुष हो जिसमें खुशबू भी है। तुम ये पकौड़ियाँ खाओ और बताओ कैसी बनी हैं। ये अभी बनाई अलग से...।' एएम ने पकौड़ियाँ जबरदस्ती उसके मुँह में डाल दीं। वह धीरे-धीरे खाने लगा और एएम की बाँहों में दुबक गया। वहाँ उसे कब नींद आ गई, उसे पता भी नहीं चला। 'बरसों हो गए मुझे माँ से बात किए।' उसने उसके कंधे पर सिर रखते हुए अगले दिन कहा था। 'कमजोर अपनी कमजोरियों को रोकर छिपाते हैं।' उसने निर्णायक आवाज में कहा। उसे लगा एएम अभी बहुत मासूम है, उसे नहीं पता कि किसी के सहारे की चाहत इनसान का सबसे कमजोर पहलू है। वह थोड़ी देर बाद चुपचाप उठ गया। शाम को जब वह अपने घर में दाखिल हुआ तो उसे लगा जैसे किसी बहुत जाने पहचाने घर में घुस रहा है। ऐसा अनुभव उसे पिछले दस साल में कभी नहीं हुआ था। घर की छतें दीवारें और घर की खूश्बू उसे अपनी बाँहों में भर लेने को आतुर थी। उसकी आहट सुन कर एक बूढ़ी औरत किचेन से बाहर निकली जिसे पहचानने में उसे वक्त लगा। उसने इशारों-इशारों में उसे समझाने की कोशिश की कि वह भावुक होकर नहीं रो रहा बल्कि उसे माँ के साथ बिताई बचपन की कुछ बातें याद आ गई हैं। भावुक लोगों के लिए उसके मन में कोई स्नेह या सहानुभूति नहीं होती, वे कमजोर लोग होते हैं। एएम ने कहा कि उसके मन में भावुक लोगों के लिए बहुत सम्मान होता है क्योंकि वे बहुत मजबूत और बहुत कोमल होते हैं। वह किचेन में चली गई। दस साल का समय भी भुवनेश्वर के चेहरे पर कोई असर नहीं छोड़ पाया था। उसे आश्चर्य हुआ जब भुवन इतनी आसानी से मिल गया। उसे लगा था कि अगर वह उसे खोजने निकलेगा तो कभी नहीं खोज पाएगा, इसलिए अपने आप को इस बात से उदासीन रखता था कि उसकी अक्सर उससे मिलने की तीव्र इच्छा उठती है। उसने बताया कि दस साल में वह जरा भी नहीं बदला। 'जानते हो क्यों?' भुवन ने उसकी सिगरेट छीनते हुए पूछा। 'और न तुम्हारी बातें बदलीं...।' उसने हँसते हुए दूसरी सिगरेट जलाई। 'क्योंकि धुएँ का स्वाद नहीं बदला।' उसने खूब सारा धुआँ छोड़ते हुए अट्टहास लगाया। उसने भुवन के कंधे का सहारा पाकर पिछले दस साल के अपने सारे लिफाफे खोल डाले और बताया कि उसे शक है कि उसके सभी लिफाफों में रखे नोट जाली हैं। भुवन ने उसे सलाह दी कि उसे दूसरी बोतल खोल लेनी चाहिए। दोनों ने खूब पिया और खूब बे-सरो-पा बातें कीं। उसने अपना सिर भुवन के कंधे पर रख दिया। जिस दिन उसने एएम से शादी करने की इच्छा जाहिर की, उसकी माँ गाँव जा चुकी थी और जाने से पहले उसके और एएम के भविष्य में होनेवाले बच्चे का नामकरण कर गई थी। एएम ने वह नाम उसे ही दे दिया और कहा कि अगर वह अपनी पूरी उम्र जिंदा रहती तो उसे गोद ले लेती। उसे नींद में भी ऐसा लगता था कि उसकी जिंदगी बस कुछ पलों की है और वह अक्सर चिहुंक कर जाग जाता था। जागते ही वह एएम के कमरे के पास जाता और धीरे से दरवाजा खोलकर उसके पास जाकर खड़ा हो जाता। अगर एएम के शरीर में कोई हलचल नहीं दीखती तो वह धीरे से उसकी नाक के सामने हथेली रखता और साँस चलती पाकर सुकून भरे कदमों से चलकर वापस अपने बिस्तर पर आ जाता। यह लगभ