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---|---|---|---|---|---|
قصیده | 19 | 0 | مگیر چشم عنایت ز حال حافظ باز | حافظ | 78 |
قصیده | 20 | 1 | وگرنه حال بگویم به آصف ثانی | حافظ | 78 |
قصیده | 21 | 0 | وزیر شاهنشان خواجهی زمین و زمان | حافظ | 78 |
قصیده | 22 | 1 | که خرم است بدو حال انسی و جانی | حافظ | 78 |
قصیده | 23 | 0 | قوام دولت دنیی محمد بن علی | حافظ | 78 |
قصیده | 24 | 1 | که میدرخشدش از چهره فر یزدانی | حافظ | 78 |
قصیده | 25 | 0 | زهی حمیده خصالی که گاه فکر صواب | حافظ | 78 |
قصیده | 26 | 1 | تو را رسد که کنی دعوی جهانبانی | حافظ | 78 |
قصیده | 27 | 0 | طراز دولت باقی تو را همیزیبد | حافظ | 78 |
قصیده | 28 | 1 | که همتت نبرد نام عالم فانی | حافظ | 78 |
قصیده | 29 | 0 | اگر نه گنج عطای تو دستگیر شود | حافظ | 78 |
قصیده | 30 | 1 | همه بسیط زمین رو نهد به ویرانی | حافظ | 78 |
قصیده | 31 | 0 | تو را که صورت جسم تو را هیولایی است | حافظ | 78 |
قصیده | 32 | 1 | چو جوهر ملکی در لباس انسانی | حافظ | 78 |
قصیده | 33 | 0 | کدام پایهی تعظیم نصب شاید کرد | حافظ | 78 |
قصیده | 34 | 1 | که در مسالک فکرت نه برتر از آنی | حافظ | 78 |
قصیده | 35 | 0 | درون خلوت کروبیان عالم قدس | حافظ | 78 |
قصیده | 36 | 1 | صریر کلک تو باشد سماع روحانی | حافظ | 78 |
قصیده | 37 | 0 | تو را رسد شکر آویز خواجگی گه جود | حافظ | 78 |
قصیده | 38 | 1 | که آستین به کریمان عالم افشانی | حافظ | 78 |
قصیده | 39 | 0 | صواعق سخطت را چگونه شرح دهم | حافظ | 78 |
قصیده | 40 | 1 | نعوذ بالله از آن فتنههای طوفانی | حافظ | 78 |
قصیده | 41 | 0 | سوابق کرمت را بیان چگونه کنم | حافظ | 78 |
قصیده | 42 | 1 | تبارکالله از آن کارساز ربانی | حافظ | 78 |
قصیده | 43 | 0 | کنون که شاهد گل را به جلوهگاه چمن | حافظ | 78 |
قصیده | 44 | 1 | به جز نسیم صبا نیست همدم جانی | حافظ | 78 |
قصیده | 45 | 0 | شقایق از پی سلطان گل سپارد باز | حافظ | 78 |
قصیده | 46 | 1 | به بادبان صبا کلههای نعمانی | حافظ | 78 |
قصیده | 47 | 0 | بدان رسید ز سعی نسیم باد بهار | حافظ | 78 |
قصیده | 48 | 1 | که لاف میزند از لطف روح حیوانی | حافظ | 78 |
قصیده | 49 | 0 | سحرگهم چه خوش آمد که بلبلی گلبانگ | حافظ | 78 |
قصیده | 50 | 1 | به غنچه میزد و میگفت در سخنرانی | حافظ | 78 |
قصیده | 51 | 0 | که تنگدل چه نشینی ز پرده بیرون آی | حافظ | 78 |
قصیده | 52 | 1 | که در خم است شرابی چو لعل رمانی | حافظ | 78 |
قصیده | 53 | 0 | مکن که می نخوری بر جمال گل یک ماه | حافظ | 78 |
قصیده | 54 | 1 | که باز ماه دگر میخوری پشیمانی | حافظ | 78 |
قصیده | 55 | 0 | به شکر تهمت تکفیر کز میان برخاست | حافظ | 78 |
قصیده | 56 | 1 | بکوش کز گل و مل داد عیش بستانی | حافظ | 78 |
قصیده | 57 | 0 | جفا نه شیوهی دینپروری بود حاشا | حافظ | 78 |
قصیده | 58 | 1 | همه کرامت و لطف است شرع یزدانی | حافظ | 78 |
قصیده | 59 | 0 | رموز سر اناالحق چه داند آن غافل | حافظ | 78 |
قصیده | 60 | 1 | که منجذب نشد از جذبههای سبحانی | حافظ | 78 |
قصیده | 61 | 0 | درون پردهی گل غنچه بین که میسازد | حافظ | 78 |
قصیده | 62 | 1 | ز بهر دیدهی خصم تو لعل پیکانی | حافظ | 78 |
قصیده | 63 | 0 | طربسرای وزیر است ساقیا مگذار | حافظ | 78 |
قصیده | 64 | 1 | که غیر جام می آنجا کند گرانجانی | حافظ | 78 |
قصیده | 65 | 0 | تو بودی آن دم صبح امید کز سر مهر | حافظ | 78 |
قصیده | 66 | 1 | برآمدی و سر آمد شبان ظلمانی | حافظ | 78 |
قصیده | 67 | 0 | شنیدهام که ز من یاد میکنی گه گه | حافظ | 78 |
قصیده | 68 | 1 | ولی به مجلس خاص خودم نمیخوانی | حافظ | 78 |
قصیده | 69 | 0 | طلب نمیکنی از من سخن جفا این است | حافظ | 78 |
قصیده | 70 | 1 | وگرنه با تو چه بحث است در سخندانی | حافظ | 78 |
قصیده | 71 | 0 | ز حافظان جهان کس چو بنده جمع نکرد | حافظ | 78 |
قصیده | 72 | 1 | لطایف حکمی با کتاب قرآنی | حافظ | 78 |
قصیده | 73 | 0 | هزار سال بقا بخشدت مدایح من | حافظ | 78 |
قصیده | 74 | 1 | چنین نفیس متاعی به چون تو ارزانی | حافظ | 78 |
قصیده | 75 | 0 | سخن دراز کشیدم ولی امیدم هست | حافظ | 78 |
قصیده | 76 | 1 | که ذیل عفو بدین ماجرا بپوشانی | حافظ | 78 |
قصیده | 77 | 0 | همیشه تا به بهاران هوا به صفحهی باغ | حافظ | 78 |
قصیده | 78 | 1 | هزار نقش نگارد ز خط ریحانی | حافظ | 78 |
قصیده | 79 | 0 | به باغ ملک ز شاخ امل به عمر دراز | حافظ | 78 |
قصیده | 80 | 1 | شکفته باد گل دولتت به آسانی | حافظ | 78 |
قصیده | 1 | 0 | سپیدهدم که صبا بوی لطف جان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 2 | 1 | چمن ز لطف هوا نکته برجنان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 3 | 0 | هوا ز نکهت گل در چمن تتق بندد | حافظ | 79 |
قصیده | 4 | 1 | افق ز عکس شفق رنگ گلستان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 5 | 0 | نوای چنگ بدانسان زند صلای صبوح | حافظ | 79 |
قصیده | 6 | 1 | که پیر صومعه راه در مغان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 7 | 0 | نکال شب که کند در قدح سیاهی مشک | حافظ | 79 |
قصیده | 8 | 1 | در او شرار چراغ سحرگهان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 9 | 0 | شه سپهر چو زرین سپر کشد در روی | حافظ | 79 |
قصیده | 10 | 1 | به تیغ صبح و عمود افق جهان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 11 | 0 | به رغم زال سیه شاهباز زرین بال | حافظ | 79 |
قصیده | 12 | 1 | در این مقرنس زنگاری آشیان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 13 | 0 | به بزمگاه چمن رو که خوش تماشایی است | حافظ | 79 |
قصیده | 14 | 1 | چو لاله کاسهی نسرین و ارغوان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 15 | 0 | چو شهسوار فلک بنگرد به جام صبوح | حافظ | 79 |
قصیده | 16 | 1 | که چون به شعشعهی مهر خاوران گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 17 | 0 | محیط شمس کشد سوی خویش در خوشاب | حافظ | 79 |
قصیده | 18 | 1 | که تا به قبضهی شمشیر زرفشان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 19 | 0 | صبا نگر که دمادم چو رند شاهدباز | حافظ | 79 |
قصیده | 20 | 1 | گهی لب گل و گه زلف ضیمران گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 21 | 0 | ز اتحاد هیولا و اختلاف صور | حافظ | 79 |
قصیده | 22 | 1 | خرد ز هر گل نو، نقش صد بتان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 23 | 0 | من اندر آن که دم کیست این مبارک دم | حافظ | 79 |
قصیده | 24 | 1 | که وقت صبح در این تیره خاکدان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 25 | 0 | چه حالت است که گل در سحر نماید روی | حافظ | 79 |
قصیده | 26 | 1 | چه شعله است که در شمع آسمان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 27 | 0 | چرا به صد غم و حسرت سپهر دایرهشکل | حافظ | 79 |
قصیده | 28 | 1 | مرا چو نقطهی پرگار در میان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 29 | 0 | ضمیر دل نگشایم به کس مرا آن به | حافظ | 79 |
قصیده | 30 | 1 | که روزگار غیور است و ناگهان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 31 | 0 | چو شمع هر که به افشای راز شد مشغول | حافظ | 79 |
قصیده | 32 | 1 | بسش زمانه چو مقراض در زبان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 33 | 0 | کجاست ساقی مهروی که من از سر مهر | حافظ | 79 |
قصیده | 34 | 1 | چو چشم مست خودش ساغر گران گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 35 | 0 | پیامی آورد از یار و در پیاش جامی | حافظ | 79 |
قصیده | 36 | 1 | به شادی رخ آن یار مهربان گیرد | حافظ | 79 |
قصیده | 37 | 0 | نوای مجلس ما چو برکشد مطرب | حافظ | 79 |
قصیده | 38 | 1 | گهی عراق زند گاهی اصفهان گیرد | حافظ | 79 |