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<s>[INST]पृथ्वी की सतह पर तापमान, वर्षण एवं वायु के वितरण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये। ये कारक विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में किस प्रकार भिन्न होते हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: उत्तर की शुरुआत उन कारकों से कीजिये जो पृथ्वी की सतह पर तापमान, वर्षा और हवा के वितरण को प्रभावित करते हैं। कारकों को विस्तार से समझाइए और ये कारक विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में कैसे भिन्न होते हैं। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। पृथ्वी की सतह पर तापमान, वर्षा और हवा का वितरण प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों कारकों की जटिल परस्पर क्रिया से प्रभावित होता है। ये कारक अलग-अलग जलवायु क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होते हैं, जिससे विश्व भर में अलग-अलग जलवायु पैटर्न बनते हैं। इन प्रमुख कारकों पर व्यापक रूप से चर्चा करने के लिये हम उन्हें प्राकृतिक तथा मानवजनित प्रभावों में वर्गीकृत कर सकते हैं। प्राकृतिक कारक: अक्षांश: तापमान वितरण को निर्धारित करने में अक्षांश महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भूमध्य रेखा के पास, जहाँ सूर्य का प्रकाश अधिक प्रत्यक्ष होता है, तापमान अधिक होता है, जबकि उच्च अक्षांशों पर, सूर्य के प्रकाश का कोण कम होता है, जिसके परिणामस्वरूप तापमान कम होता है। इससे उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु क्षेत्रों का निर्माण होता है। ऊँचाई: जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती है, तापमान आमतौर पर कम हो जाता है। इस घटना को चूक दर के रूप में जाना जाता है। पर्वत हवा के पैटर्न को अवरुद्ध या पुनर्निर्देशित कर सकते हैं, जिससे पर्वत शृंखला के दोनों ओर वर्षा और तापमान में भिन्नता हो सकती है। यह प्रभाव वर्षा की छाया में स्पष्ट होता है। महासागरीय धाराएँ: यह विभिन्न तापमानों पर जल का परिवहन कर सकती हैं। गर्म समुद्री धाराएँ गर्म पानी को उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से उच्च अक्षांशों तक ले जाती हैं, जिससे तटीय क्षेत्रों की जलवायु प्रभावित होती है। ठंडी धाराएँ ध्रुवीय क्षेत्रों से ठंडा पानी लाती हैं। भूमि-जल वितरण: महासागरों और समुद्रों जैसे जल निकायों का तापमान पर मध्यम प्रभाव पड़ता है, जिससे अंतर्देशीय क्षेत्रों की तुलना में समुद्र तट के पास हल्की जलवायु होती है। इस प्रभाव को समुद्री प्रभाव के रूप में जाना जाता है। स्थलाकृति: पहाड़ों, घाटियों और मैदानों सहित पृथ्वी की सतह की भौतिक विशेषताएँ तापमान, वर्षा एवं हवा के पैटर्न को प्रभावित कर सकती हैं। पवन पैटर्न को स्थलाकृतिक विशेषताओं द्वारा निर्देशित और तीव्र या कमज़ोर किया जा सकता है। मानवजनित कारक: शहरीकरण: शहरी ताप द्वीप प्रभाव के कारण शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक तापमान होता है, जो इमारतों, सड़कों और अन्य मानव निर्मित संरचनाओं के कारण होता है जो गर्मी को अवशोषित तथा विकिरण करते हैं। वनोन्मूलन: वनों को हटाने से स्थानीय जलवायु पैटर्न बाधित हो सकता है, जिससे तापमान, वर्षा और हवा के पैटर्न में बदलाव आ सकता है। वनों की कटाई कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के माध्यम से जलवायु परिवर्तन में भी योगदान देती है। औद्योगीकरण: औद्योगिक प्रक्रियाओं से ग्रीनहाउस गैसों का निकलना और जीवाश्म ईंधन का जलना ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है, जो बदले में वैश्विक स्तर पर तापमान तथा वर्षा के पैटर्न को प्रभावित करता है। कृषि: सिंचाई पद्धतियों सहित कृषि के लिये भूमि उपयोग में परिवर्तन, विशेष रूप से शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में, स्थानीय जलवायु स्थितियों को बदल सकता है। विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में भिन्नता: उष्णकटिबंधीय क्षेत्र: भूमध्य रेखा के पास, तापमान का प्राथमिक चालक अक्षांश है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष भर लगातार गर्म तापमान रहता है। वर्षा अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) से प्रभावित होती है, और व्यापारिक हवाएँ हवा के पैटर्न पर हावी होती हैं। शीतोष्ण क्षेत्र: इन क्षेत्रों में पृथ्वी की धुरी के झुकाव के कारण मौसमी तापमान में भिन्नता का अनुभव होता है। प्रचलित पछुआ हवाएँ और जेट धाराएँ हवा के पैटर्न को प्रभावित करती हैं, जबकि वर्षा मौसम के अनुसार बदलती रहती है। ध्रुवीय क्षेत्र: उच्च अक्षांशों में सूर्य के प्रकाश के निम्न कोण के कारण अत्यधिक ठंडे तापमान का अनुभव होता है। इन क्षेत्रों में कम वर्षा होती है और ध्रुवीय पूर्वी हवाएँ इनकी विशेषता होती हैं। पर्वतीय क्षेत्र: ऊँचाई और स्थलाकृति तापमान और वर्षा की विविधता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे पर्वतीय ढलानों पर विविध माइक्रॉक्लाइमेट बनते हैं। पृथ्वी की सतह पर तापमान, वर्षा और हवा का वितरण प्राकृतिक और मानवजनित कारकों की जटिल परस्पर क्रिया का परिणाम है। ये कारक अलग-अलग जलवायु क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न होते हैं, जिससे विश्व भर में हमारे द्वारा देखे जाने वाले विविध जलवायु पैटर्न बनते हैं। पृथ्वी की जलवायु प्रणाली और चल रहे पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति इसकी प्रतिक्रिया को समझने के लिये इन प्रभावों को समझना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]भारतीय स्थापत्य के इतिहास को आकार देने में विजयनगर साम्राज्य के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: विजयनगर साम्राज्य और उसके ऐतिहासिक संदर्भ का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारत के स्थापत्य इतिहास को आकार देने में विजयनगर साम्राज्य के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। भारत में आगे के वास्तुशिल्प विकास पर इसके स्थायी प्रभाव पर बल देते हुए निष्कर्ष दीजिये। विजयनगर साम्राज्य (जिसका 14वीं से 17वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में प्रभुत्व था) का भारत के स्थापत्य इतिहास को आकार देने में अत्यधिक महत्त्व रहा है। वास्तुशिल्प में इसके योगदान ने एक स्थायी विरासत छोड़ी है जो आज भी भारत की कला एवं वास्तुकला को प्रेरित और प्रभावित करती है। भारत के स्थापत्य इतिहास को आकार देने में विजयनगर साम्राज्य का महत्त्व: शैलियों का संलयन: विजयनगर वास्तुकला विभिन्न स्थापत्य शैलियों के मिश्रण के लिये प्रसिद्ध है। इसमें द्रविड़, चालुक्य, होयसल और इस्लामी वास्तुकला के तत्वों को एक साथ लाया गया, जिसके परिणामस्वरूप एक अद्वितीय और विशिष्ट वास्तुकला का विकास हुआ। इस संलयन से एक नई डिज़ाइन का विकास हुआ जो नवीनता के साथ सौंदर्य की दृष्टि से आकर्षक थी। स्मारकीय संरचनाएँ: यह साम्राज्य भव्य और विशाल मंदिर परिसरों, किलों, महलों और सिंचाई प्रणालियों के निर्माण के लिये जाना जाता है। इनमें से प्रमुख हैं विरुपाक्ष मंदिर, विट्ठल मंदिर और हम्पी के खंडहर। ये संरचनाएँ धार्मिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों को पूरा करने वाली स्मारकीय इमारतें बनाने के लिये साम्राज्य की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती हैं। प्रतिष्ठित मंदिर वास्तुकला: विजयनगर मंदिरों की विशेषता उनके विशाल गोपुरम, जटिल मूर्तियाँ और व्यापक परिसर हैं। इसमें सबसे प्रतिष्ठित उदाहरण विरुपाक्ष मंदिर का 160 फुट ऊँचा गोपुरम है, जो द्रविड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। ये मंदिर दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निर्माण तकनीकों में प्रगति: विजयनगर के वास्तुकारों और इंजीनियरों ने निर्माण तकनीकों में महत्त्वपूर्ण प्रगति की। उन्होंने टिकाऊ और देखने में आश्चर्यजनक संरचनाएँ बनाने के लिये बारीक नक्काशीदार पत्थर के ब्लॉक, जटिल प्लास्टर कार्य और उन्नत संरचनात्मक प्रणालियों का उपयोग किया। इस विशेषज्ञता ने भारत में बाद के वास्तुशिल्प विकास को प्रभावित किया। जल प्रबंधन और सिंचाई: जल प्रबंधन और सिंचाई प्रणालियों पर साम्राज्य का बल, इसकी वास्तुकला विरासत का एक और पहलू है। तुंगभद्रा बाँध और पुष्कर्णी टैंक जैसे विशाल टैंकों और नहरों के निर्माण से न केवल कृषि को समर्थन मिला बल्कि इसने इस साम्राज्य के इंजीनियरिंग कौशल को भी प्रदर्शित किया। कला का संरक्षण: विजयनगर साम्राज्य के शासक कला के महान संरक्षक थे। उन्होंने कारीगरों, मूर्तिकारों और वास्तुकारों को उत्कृष्ट कलाकृतियाँ बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। इस संरक्षण के परिणामस्वरूप कुशल कारीगरों का विकास हुआ तथा एक समृद्ध कलात्मक परंपरा विकसित हुई। सांस्कृतिक समन्वयवाद: विजयनगर साम्राज्य की स्थापत्य उपलब्धियाँ इस काल के सांस्कृतिक समन्वयवाद को दर्शाती हैं। इसमें हिंदू, इस्लामी और स्थानीय परंपराओं सहित विविध प्रभाव शामिल थे। यह सांस्कृतिक सम्मिश्रण साम्राज्य के समावेशी दृष्टिकोण का एक प्रमाण है, जिससे समृद्ध तथा विविध स्थापत्य विरासत को बढ़ावा मिला। विरासत का संरक्षण: अंततः साम्राज्य के पतन के बावजूद, इसके कई वास्तुशिल्प चमत्कार समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। ये महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल, पर्यटक आकर्षण और समकालीन वास्तुकारों के लिये प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं। निष्कर्ष: विजयनगर साम्राज्य की भारत के स्थापत्य इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसकी वास्तुकला विरासत न केवल साम्राज्य की भव्यता एवं कलात्मक उपलब्धियों को प्रदर्शित करती है बल्कि विविध वास्तुशिल्प परंपराओं के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण का भी प्रतिनिधित्व करती है। भारत में बाद के वास्तुशिल्प विकास पर विजयनगर वास्तुकला का स्थायी प्रभाव देश की वास्तुकला विरासत को आकार देने में इसके महत्त्व को रेखांकित करता है।</s>
<s>[INST]वैश्विक राजनीति और आर्थिक व्यवस्था पर प्रथम विश्व युद्ध के प्रभावों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: प्रथम विश्व युद्ध का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। वैश्विक राजनीति और आर्थिक व्यवस्था पर प्रथम विश्व युद्ध के प्रभावों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) एक वैश्विक संघर्ष था जिसमें विश्व की अधिकांश प्रमुख शक्तियाँ शामिल थीं और इसके परिणामस्वरूप काफी विनाश हुआ था। इसका विश्व की राजनीति और आर्थिक व्यवस्था पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ा था क्योंकि इससे शक्ति संतुलन, क्षेत्रों के मानचित्र एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति को नया आकार मिला। मुख्य भाग: शक्ति संतुलन: इस युद्ध ने ब्रिटेन, फ्राँस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, रूस और ऑटोमन तुर्की जैसे पुराने यूरोपीय साम्राज्यों को कमजोर कर दिया एवं संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान तथा सोवियत संघ जैसी नई शक्तियों का उदय हुआ। इस युद्ध के कारण एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में राष्ट्रवादी आंदोलनों का उदय हुआ, जिससे पश्चिम के औपनिवेशिक प्रभुत्व को चुनौती मिली थी। इस युद्ध से लोकतंत्र और पूंजीवाद की वैकल्पिक विचारधाराओं के रूप में फासीवाद और साम्यवाद के उदय का मार्ग भी प्रशस्त हुआ था। विभिन्न क्षेत्रों का मानचित्र परिवर्तन: इस युद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप तथा मध्य पूर्व के मानचित्र का फिर से निर्धारण हुआ, क्योंकि पुराने साम्राज्यों के विघटन से नए राज्य बनाए गए या विस्तारित किये गए। उदाहरण के लिये पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, फिनलैंड, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, तुर्की, इराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन और जॉर्डन कुछ नए या संशोधित राज्य थे जिनका उदय युद्ध के बाद हुआ था। इस युद्ध के कारण राष्ट्र संघ का गठन भी हुआ था जो एक सामूहिक सुरक्षा प्रणाली स्थापित करने तथा भविष्य के युद्धों को रोकने का एक प्रयास था। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति: इस युद्ध से बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का परिवर्तन द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था में हुआ, क्योंकि युद्ध के बाद दो प्रतिद्वंद्वी गुट उभरे: मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ्राँस और संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में) और धुरी राष्ट्र (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली के नेतृत्व में)। इस युद्ध में रासायनिक हथियार, पनडुब्बियों, टैंक एवं हवाई जहाज के उपयोग के साथ युद्ध के नए रूप देखने को मिले। इस युद्ध ने विदेश नीति संबंधी निर्णयों को प्रभावित करने में जनमत और जनसंचार माध्यमों की भूमिका भी बढ़ा दी। विचारधाराओं की भूमिका: इस युद्ध ने राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, उदारवाद और समाजवाद जैसी मौजूदा विचारधाराओं की कमियों और विरोधाभासों को उजागर किया। इसने फासीवाद (इटली और जर्मनी में) तथा साम्यवाद (रूस में) जैसी नई विचारधाराओं को भी प्रेरित किया। इस युद्ध के उपरांत कई बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने सभ्यता के मूल्यों और अर्थों पर सवाल उठाया। निष्कर्ष: प्रथम विश्व युद्ध, विश्व इतिहास की एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी जिसने वैश्विक राजनीति और आर्थिक व्यवस्था को बदल दिया। इसने राष्ट्रों के बीच शक्ति संतुलन को बदलने के साथ क्षेत्रों के मानचित्र को बदलने एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सहयोग की प्रकृति को नया आकार देने में भूमिका निभाई। इस युद्ध से 20वीं सदी में द्वितीय विश्व युद्ध, शीत युद्ध, उपनिवेशवाद से मुक्ति, वैश्वीकरण और आतंकवाद जैसे अन्य संघर्षों और संकटों के लिये भी मंच तैयार हुआ।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज पर वैश्वीकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिये। इसने महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले समूहों के सामाजिक सशक्तिकरण को किस प्रकार प्रभावित किया है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: वैश्वीकरण का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारतीय समाज पर वैश्वीकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिये। बताइये कि इसने महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले समूहों के सामाजिक सशक्तिकरण को किस प्रकार प्रभावित किया है। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: वैश्वीकरण विभिन्न देशों के लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच वार्ता, एकता एवं परस्पर निर्भरता की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। इसमें राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्ति शामिल है। समाज पर वैश्वीकरण के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों परिणाम देखे जाते हैं। मुख्य भाग: आर्थिक प्रभाव: वैश्वीकरण से भारत में व्यापार, निवेश, वृद्धि और विकास के नए अवसर सृजित हुए हैं। इससे प्रतिस्पर्धा, असमानता, बेरोज़गारी और पर्यावरणीय क्षरण को भी बढ़ावा मिला है। वैश्वीकरण के लाभ और लागत, समाज के विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों के बीच समान रूप से वितरित नहीं हुए हैं। राजनीतिक प्रभाव: वैश्वीकरण से वैश्विक स्तर पर भारत की भूमिका और प्रभाव को बढ़ावा मिला है। इससे भारत को आतंकवाद, साइबर अपराध, क्षेत्रीय संघर्ष और मानवाधिकार उल्लंघन जैसी विभिन्न चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है। वैश्वीकरण ने भारत में लोकतंत्र, संघवाद और शासन की कार्यप्रणाली को भी प्रभावित किया है। सामाजिक प्रभाव: वैश्वीकरण से विश्व भर के लोगों के बीच विचारों, मूल्यों, संस्कृतियों और जीवन शैली का आदान-प्रदान सुविधाजनक हुआ है। इससे प्रवासन, शहरीकरण, उपभोक्तावाद, व्यक्तिवाद और पहचान संकट जैसे नए सामाजिक मुद्दे भी सामने आए हैं। वैश्वीकरण ने भारत में महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले समूहों के सामाजिक सशक्तिकरण को भी विभिन्न तरीकों से प्रभावित किया है जैसे: महिलाएँ: वैश्वीकरण ने महिलाओं को शिक्षा, रोज़गार, उद्यमिता और राजनीति में भाग लेने के अधिक अवसर प्रदान किये हैं। इससे उनकी जागरूकता, गतिशीलता और स्वायत्तता भी बढ़ी है। हालाँकि वैश्वीकरण से महिलाओं को शोषण, भेदभाव, हिंसा और असुरक्षा के नए रूपों का भी सामना करना पड़ा है। इसने महिलाओं की पारंपरिक एवं आधुनिक भूमिकाओं और अपेक्षाओं के बीच संघर्ष भी उत्पन्न हुआ है। वंचित समूह: वैश्वीकरण ने हाशिये पर रहने वाले कुछ समूहों जैसे कि दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और LGBTQ+ को अपने अधिकारों, पहचान और गरिमा पर बल देने में सक्षम बनाया है। इससे उन्हें नए संसाधनों, नेटवर्क और प्लेटफार्मों तक पहुँच भी प्रदान हुई है। हालाँकि वैश्वीकरण से इनके बहिष्कार और उत्पीड़न को भी बढ़ावा मिला है। इससे उनकी संस्कृति, आजीविका और पर्यावरण को भी खतरा उत्पन्न हुआ है। निष्कर्ष: वैश्वीकरण एक जटिल और गतिशील घटना है जिसका भारतीय समाज पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभाव पड़ा है। इसने महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले समूहों के सामाजिक सशक्तिकरण को विभिन्न तरीकों से प्रभावित किया है। भारत के लिये वैश्वीकरण के अवसरों और जोखिमों को संतुलित करने के साथ यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इसके लाभ समाज के सभी वर्गों के लिये उपलब्ध हों।</s>
<s>[INST]वर्तमान के परस्पर संबंधित विश्व में, जनमत और विचार-विमर्श को आकार देने में सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की भूमिका निर्विवाद है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फेक न्यूज़ के प्रसार से उत्पन्न नैतिक चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। अपने उत्तर के पक्ष में उदाहरण भी दीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: फेक और भ्रामक न्यूज़ का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। फेक और भ्रामक न्यूज़ के प्रसार से उत्पन्न नैतिक चुनौतियों की व्याख्या कीजिये। समाज एवं लोकतंत्र पर इनके प्रभावों की चर्चा करते हुए इस संदर्भ में उपयोगकर्ताओं और मंच प्रदाताओं (सोशल मीडिया) की जिम्मेदारियों का उल्लेख कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: फेक और भ्रामक न्यूज़ का आशय जानबूझकर या अनजाने में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक उद्देश्यों हेतु गलत सूचनाओं के प्रसार करने से है। इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं जैसे मनगढ़ंत कहानियाँ, हेरफेर की गई छवियाँ या वीडियो, विकृत तथ्य या आँकड़े या भ्रामक शीर्षक या कैप्शन। मुख्य भाग: फेक और भ्रामक खबरों के प्रसार से उत्पन्न नैतिक चुनौतियाँ: सूचना स्रोतों की विश्वसनीयता और जबावदेहिता में कमी आना। जनमत को विकृत करने के साथ निर्णय लेने में पक्षपात होना। सोशल मीडिया के कारण लोगों में भ्रामक खबरों के प्रसार से दृष्टिकोण में बदलाव आना। भ्रामक खबरों के तीव्र प्रसार से दहशत एवं सामाजिक अशांति के साथ व्यक्तियों को नुकसान हो सकता है। इसमें सूचना की सटीकता की जिम्मेदारी के साथ स्वतंत्र अभिव्यक्ति को संतुलित करना मुश्किल हो जाता है। इन चुनौतियों का समाज और लोकतंत्र पर प्रभाव: समाज: फेक और भ्रामक खबरें विभिन्न समूहों या समुदायों के बीच विभाजन, संघर्ष और हिंसा पैदा करके समाज की सामाजिक एकजुटता, सद्भाव और विविधता को नष्ट कर सकती हैं। इससे उपयोगकर्ताओं की आलोचनात्मक सोच प्रभावित होने से सामाजिक भलाई, शिक्षा और विकास पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। लोकतंत्र: फेक और भ्रामक खबरें नागरिकों की स्वतंत्र और निष्पक्ष अभिव्यक्ति को प्रभावित कर एवं भागीदारी तथा प्रतिनिधित्व में हस्तक्षेप करके लोकतांत्रिक मूल्यों, सिद्धांतों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर सकती हैं। इससे लोकतांत्रिक शासन, जवाबदेहिता और पारदर्शिता पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इस संदर्भ में उपयोगकर्ताओं और प्लेटफॉर्म प्रदाताओं की ज़िम्मेदारियाँ: उपयोगकर्ता: फेक और भ्रामक खबरों के प्रचलन से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के उपयोगकर्ताओं की अधिक नैतिक जिम्मेदारियाँ हो जाती हैं जैसे कि वे जिस जानकारी का उपयोग या साझा करते हैं, उसकी सटीकता और विश्वसनीयता की पुष्टि करना, जिस जानकारी पर उन्हें गलत या भ्रामक होने का संदेह है, उसकी रिपोर्ट करना या चिह्नित करना, जिस जानकारी को वे गलत या भ्रामक मानते हैं, उसे सही करना। प्लेटफॉर्म प्रदाता: फेक और भ्रामक खबरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के प्लेटफॉर्म प्रदाताओं पर अधिक नैतिक जिम्मेदारियाँ डाल सकती हैं जैसे कि फेक या भ्रामक जानकारी का पता लगाना और उसे हटाना, विवादित या असत्यापित जानकारी के संदर्भ में चेतावनी देना, ऐसे अकाउंट को सीमित करना या ब्लॉक करना। फेक और भ्रामक खबरों से निपटने के लिये सरकारों, नियामकों, मीडिया या नागरिक समाज जैसे अन्य हितधारकों के साथ समन्वय करना। उदाहरण: वर्ष 2016 का अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव: कई अध्ययनों में पाया गया है कि वर्ष 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान के दौरान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फेक और भ्रामक खबरें व्यापक रूप से प्रसारित की गईं, जिसने कुछ मतदाताओं के मतदान व्यवहार और प्राथमिकताओं को प्रभावित किया। उदाहरण के लिये MIT शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में पाया गया है कि ट्विटर पर सच्ची खबरों की तुलना में झूठी खबरों को रीट्वीट किये जाने की संभावना 70% से अधिक देखने को मिली। कोविड-19 महामारी: कोविड-19 महामारी के दौरान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फेक और भ्रामक खबरें काफी प्रसारित की गईं, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया और पुनर्प्राप्ति प्रयासों में बाधा उत्पन्न हुई। उदाहरण के लिये शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में पाया गया कि जो उपयोगकर्ता आदतन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जानकारी साझा करते हैं, उनमें उन उपयोगकर्ताओं की तुलना में कोविड-19 के बारे में गलत सूचना फैलाने की अधिक संभावना दिखी जो कम बार जानकारी साझा करते हैं। निष्कर्ष: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फेक और भ्रामक खबरों के प्रसार से जटिल नैतिक चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। इससे विश्वसनीयता में कमी आने के साथ जनता की राय में विकृति आती है और लोकतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगता है। उपयोगकर्ताओं को इस संदर्भ में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार करना चाहिये, जबकि प्लेटफॉर्म प्रदाताओं का कर्तव्य है कि वे फेक और भ्रामक खबरों के प्रसार पर रोक लगाए। इन चुनौतियों का समाधान करके समाज अधिक तार्किक, लोकतांत्रिक और नैतिक रूप से व्यवहार करने हेतु सक्षम हो सकता है।</s>
<s>[INST]जलवायु परिवर्तन की अवधारणा तथा वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र एवं मानव समाज पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिये। जलवायु परिवर्तन में योगदान देने वाले प्रमुख कारकों का परीक्षण कीजिये तथा इसके प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के उपाय बताइये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: जलवायु परिवर्तन की अवधारणा को समझाते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज पर जलवायु परिवर्तन के निहितार्थ बताइये। जलवायु परिवर्तन में योगदान देने वाले प्रमुख कारकों को बताइये। जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के उपाय बताइये। परिचय: जलवायु परिवर्तन का तात्पर्य तापमान, वर्षा एवं पवन प्रतिरूप तथा पृथ्वी की जलवायु प्रणाली के अन्य पहलुओं में दीर्घकालिक बदलाव से है। इससे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज दोनों के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। मुख्य भाग: जलवायु परिवर्तन की अवधारणा और निहितार्थ: परिभाषा और कारण: जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण होता है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) का उत्सर्जन और वनों की कटाई शामिल है। GHGs से पृथ्वी के वायुमंडल में ऊष्मा का संकेंद्रण होता है जिससे ग्रीनहाउस प्रभाव के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग होती है। वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव: बढ़ता तापमान और वर्षा का बदलता प्रतिरूप पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को प्रभावित करता है। चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता से आवास, प्रजातियों के वितरण और पारिस्थितिकी संतुलन पर प्रभाव पड़ता है। ग्लेशियर और ध्रुवीय बर्फ की टोपियों के पिघलने से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ता है जिससे समुद्र स्तर में वृद्धि होती है। मानव समाज पर प्रभाव: जलवायु परिवर्तन से कृषि बाधित होने एवं फसल की पैदावार कम होने के साथ खाद्य असुरक्षा की स्थिति हो जाती है जिससे कृषक समुदायों की आजीविका पर प्रभाव पड़ता है। मौसम के प्रतिरूप में बदलाव से जल की उपलब्धता प्रभावित होती है, जिससे जल की कमी होने के साथ संसाधनों को लेकर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। समुद्र के बढ़ते स्तर से तटीय समुदायों को जोखिम होता है, जिसके परिणामस्वरूप मजबूरन प्रवासन होने के साथ प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है। जलवायु परिवर्तन में योगदान देने वाले कारक: ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन: जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) जलाने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जित होता है। औद्योगिक गतिविधियाँ, परिवहन और वनों की कटाई से GHG उत्सर्जन में योगदान मिलता है। वनों की कटाई: वनों को साफ़ करने के कारण प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से CO2 को अवशोषित करने की पृथ्वी की क्षमता कम हो जाती है, जिससे वायुमंडल में CO2 की सांद्रता में वृद्धि होती है। औद्योगीकरण और शहरीकरण: तीव्र औद्योगिक विकास और शहरीकरण से ऊर्जा की खपत और उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। शहरी ऊष्मा द्वीप प्रभाव से शहरों में स्थानीय तापमान में वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन को कम करने के उपाय: नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाना: जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लिये सौर, पवन और जल विद्युत जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देना। कुशल और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन के लिये नई प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करना। वन संरक्षण के साथ पुनर्वनीकरण पर बल देना: टिकाऊ वन प्रबंधन और कार्बन पृथक्करण को बढ़ाने के लिये पुनर्वनीकरण प्रयासों को बढ़ावा देना आवश्यक है। सतत् कृषि को अपनाना: जलवायु-अनुकूल कृषि तकनीकों, कृषि वानिकी और कुशल जल प्रबंधन प्रथाओं को प्रोत्साहित करना। जैविक कृषि को बढ़ावा देना और सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करना। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: GHG उत्सर्जन को कम करने और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये पेरिस समझौते जैसे वैश्विक सहयोग और समझौतों का पालन करना। निष्कर्ष: जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज दोनों के लिये महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके कारणों और निहितार्थों को समझने एवं प्रभावी शमन उपायों को लागू करके हम पर्यावरण की सुरक्षा एवं सतत् विकास सुनिश्चित करने के साथ आने वाली पीढ़ियों के लिये अनुकूल भविष्य प्रदान करने की दिशा में कार्य कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भक्ति साहित्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान की व्याख्या कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भक्ति साहित्य का आशय विभिन्न संतों, कवियों और फकीरों के भक्तिपूर्ण लेखन से है जिन्होंने विभिन्न भाषाओं और शैलियों के माध्यम से भगवान के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को व्यक्त किया। यह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में एक लोकप्रिय आंदोलन के रूप में उभरा था जिसमें ब्राह्मणवादी रूढ़िवाद और कर्मकांड के प्रभुत्व को चुनौती दी गई थी। मुख्य भाग: भक्ति साहित्य की प्रकृति: इसमें लेखन तमिल, तेलुगु, कन्नड़, हिंदी, मराठी, बंगाली आदि स्थानीय भाषाओं में किया गया जिससे यह आम जनता के लिये भी सुलभ हो गया। यह विभिन्न धार्मिक परंपराओं जैसे वैष्णववाद, शैववाद, सूफीवाद आदि से प्रभावित था, जो भारतीय संस्कृति की विविधता और समन्वय को दर्शाता है। इसमें सादगी, सहजता, भावनात्मक तीव्रता, व्यक्तिगत अनुभव और काव्य सौंदर्य जैसी विशेषताएँ थी, जिसने लोगों को आकर्षित किया था। इसमें संगीत, नृत्य, नाटक और भजन, कीर्तन, ध्रुपद, राग आदि जैसे कला रूप शामिल होते थे, जो इसके सौंदर्य और आध्यात्मिक आकर्षण को बढ़ाते थे। भारतीय संस्कृति में योगदान: इस दौरान दिव्य प्रबंधम, तिरुमुराई, वचन साहित्य, रामचरितमानस, सूर सागर, पदावली गीत गोविंद आदि जैसे महान साहित्यिक कार्य हुए थे जिससे भारत की भाषाई और साहित्यिक विरासत समृद्ध हुई। जातिगत और लैंगिक भेदभाव को दूर करने के साथ धार्मिक असहिष्णुता और अनुष्ठानिक औपचारिकता को अस्वीकार करने के कारण इससे सामाजिक सद्भाव और सुधार को बढ़ावा मिला। इसमें समानता, बंधुत्व, मानवतावाद और सार्वभौमिकता पर बल दिया गया। उदाहरण के लिये रामानंद ने सभी जातियों के शिष्यों को स्वीकार किया; कबीर ने हिंदू और मुस्लिम धर्म की अतार्किक प्रथाओं की आलोचना की; मीराबाई ने पितृसत्ता को चुनौती दी आदि। इसके द्वारा मातृभूमि और देश के प्रति प्रेम को बल मिलने से विदेशी आक्रमणों के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिरोध की भावना को बढ़ावा मिला उदाहरण के लिये गुरु नानक ने मुगलों के अत्याचारों की निंदा की थी तथा शिवाजी, तुकाराम की शिक्षाओं से प्रेरित थे आदि। निष्कर्ष: भक्ति साहित्य से भारत का सांस्कृतिक आयाम समृद्ध हुआ था। इसके द्वारा लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं के प्रतिबिंबित होने के साथ समग्र सांस्कृतिक विकास में योगदान मिला था।</s>
<s>[INST]स्वदेशी आंदोलन के उद्देश्यों एवं तरीकों को बताते हुए भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन पर इसके प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: स्वदेशी आंदोलन का संक्षिप्त परिचय दीजिये। मुख्य भाग: स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उद्देश्यों एवं इसमें प्रयुक्त विधियों को बताते हुए इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को संक्षेप में बताने के साथ स्वदेशी आंदोलन के महत्त्व को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: स्वदेशी आंदोलन, आत्मनिर्भरता पर आधारित आंदोलन था जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख भाग था। इसने भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में प्रमुख योगदान दिया था। इसकी शुरुआत वर्ष 1905 के बंगाल के विभाजन के फैसले की प्रतिक्रिया के रूप में हुई थी। विभाजन के फैसले को राष्ट्रवादी आंदोलन/स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के क्रम में फूट डालो और राज करो की नीति के रूप में देखा गया था। मुख्य भाग: स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उद्देश्य: विदेशी वस्तुओ (विशेषकर ब्रिटिश निर्मित कपड़े और नमक का बहिष्कार करना) और इसके स्थान पर घरेलू उत्पादों का उपयोग करना। स्वदेशी उद्योगों, शिक्षा, साहित्य, कला एवं संस्कृति को बढ़ावा देना। भारतीयों में एकता, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना को बढ़ावा देना। स्वदेशी आंदोलन में प्रयुक्त विधियाँ: स्वदेशी और बहिष्कार का संदेश प्रसारित करने हेतु सार्वजनिक बैठकों, रैलियों, जुलूस और प्रदर्शन का सहारा लेना। जनता को संगठित करने और सामाजिक सेवाएँ प्रदान करने हेतु बारीसाल में स्वदेश बांधव समिति जैसे संगठनों का गठन करना। एकजुटता हेतु महाराष्ट्र में शिवाजी और गणपति के प्रतीकों पर आधारित त्योहारों का आयोजन किया जाना। वैकल्पिक शिक्षा प्रदान करने के लिये राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज का निर्माण किया जाना जैसे कि नेशनल कॉलेज ऑफ़ बंगाल, जिसके प्रिंसिपल अरबिंदो थे। स्वदेशी उद्योगों को समर्थन देने के लिये स्वदेशी उद्यमों (जैसे कपड़ा मिलें, साबुन कारखाने, बैंक और बीमा कंपनियों आदि) को प्रोत्साहन देना। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव: इससे स्वतंत्रता आंदोलन के लिये व्यापक जन आधार तैयार हुआ और इसमें विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों, जातियों और धर्मों के लोग शामिल हुए। इससे ब्रिटिशों के आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व को चुनौती मिली तथा स्व-शासन या स्वराज के अधिकार को प्रोत्साहन मिला। इससे भारतीय उद्योगों, शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन मिलने के साथ राष्ट्रीय पहचान की भावना को बल मिला। इससे होमरूल आंदोलन एवं असहयोग आंदोलन जैसे अन्य आंदोलनों को प्रेरणा मिली, जिनमें स्वदेशी और बहिष्कार के समान रणनीतियों को अपनाया गया। इस आंदोलन में बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नए नेताओं का भी उदय हुआ, जिन्होंने आगे चलकर स्वतंत्रता संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निष्कर्ष: स्वदेशी आंदोलन का उद्देश्य आत्मनिर्भरता एवं एकजुटता को बढ़ावा देने के साथ बहिष्कार जैसे तरीकों को अपनाना एवं स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देना था। इससे ब्रिटिशों के आर्थिक प्रभुत्व को चुनौती मिली, राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहन मिला और इसके बाद होने वाले राष्ट्रवादी आंदोलनों का आधार तैयार हुआ।</s>
<s>[INST]सामाजिक-आर्थिक कारकों एवं नीतिगत हस्तक्षेपों को ध्यान में रखते हुए, भारत में शहरी गरीबी को दूर करने से संबंधित चुनौतियों और संभावित समाधानों पर चर्चा कीजिये।(150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: शहरी गरीबी को संक्षेप में बताइये। निकाय: शहरी गरीबी के कारण लोगों के समक्ष आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा करते हुए इस मुद्दे के समाधान हेतु कुछ नीतिगत उपाय बताइये। निष्कर्ष: आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत में शहरी गरीबी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। तीव्र शहरीकरण और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के कारण हाशिये पर रहने वाले लोगों की समस्याएँ और भी जटिल हो रही हैं। यह एक जटिल और बहुआयामी घटना है जिससे भारत में लाखों लोग प्रभावित हैं। भारत में शहरी गरीबी 25% से अधिक है और शहरी क्षेत्रों में लगभग 81 मिलियन लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। मुख्य भाग: शहरी गरीबों के समक्ष आने वाली कुछ प्रमुख चुनौतियाँ: बुनियादी सेवाओं तक पहुँच का अभाव: तीव्र शहरीकरण से मौजूदा बुनियादी ढाँचे पर दबाव पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुँच प्रभावित होती है। अनौपचारिक रोज़गार: शहरी गरीब अक्सर अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करते हैं जिससे यह कम वेतन एवं नौकरी की असुरक्षा के साथ शोषण के प्रति संवेदनशील होते हैं। इससे गरीबी को और भी बढ़ावा मिलता है तथा लोगों के अवसर सीमित हो जाते हैं। लैंगिक असमानता: शहरी गरीबी से महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। यह भेदभाव, नौकरी के सीमित विकल्पों के साथ संसाधनों एवं सेवाओं की असमान पहुँच के प्रति संवेदनशील होती हैं। शहरों में महिलाओं को लिंग आधारित हिंसा एवं उत्पीड़न और सामाजिक पूर्वाग्रहों का अधिक जोखिम होता है, जिससे उनकी गरीबी और असमानता को बढ़ावा मिलता है। हाशिये पर जाने के प्रति संवेदनशीलता: शहरी गरीबों को पर्यावरणीय जोखिम, सामाजिक बहिष्कार एवं हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह भीड़-भाड़ वाली वस्तियों में रहते हैं, जिससे यह असमानता के साथ हाशिये वाले समूहों में शामिल होने के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। भारत में शहरी गरीबी को दूर करने के कुछ संभावित समाधान: एकीकृत शहरी नियोजन: एकीकृत शहरी नियोजन रणनीतियों को लागू करना चाहिये जो समावेशी विकास, बुनियादी सेवाओं के प्रावधान तथा शहरी गरीबों के लिये किफायती आवास को प्राथमिकता देने पर आधारित हों। आजीविका के अवसरों को बढ़ावा देना: अनौपचारिक क्षेत्र में शहरी गरीबों के लिये स्थायी आजीविका के विकल्प उपलब्ध कराने हेतु कौशल विकास कार्यक्रमों, व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं उद्यमिता पहलों को बढ़ावा देना चाहिये। महात्मा गांधी राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA): रोज़गार के अवसर सृजित करने और शहरी बुनियादी ढाँचे में सुधार हेतु शहरी स्तर पर मनरेगा को लागू करना चाहिये। राजस्थान में शहरों के गरीब और जरूरतमंद परिवारों को प्रति वर्ष 100 दिनों के ऑन-डिमांड कार्य के माध्यम से आर्थिक सहायता प्रदान करने हेतु शहरी रोज़गार गारंटी योजना शुरू की गई है। सामाजिक सुरक्षा और कल्याण उपाय: शहरी गरीबों को पेंशन एवं स्वास्थ्य देखभाल योजनाओं जैसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में शामिल करने के साथ आवश्यक सेवाओं और वित्तीय सहायता तक उनकी पहुँच को सुनिश्चित किया जाना चाहिये। किफायती आवास: स्लम उन्नयन परियोजनाओं में निवेश करने एवं किफायती आवास योजनाओं को बढ़ावा देने के साथ रहने की स्थिति में सुधार करने तथा मलिन बस्तियों के प्रसार को रोकने हेतु पुनर्वास योजनाओं को लागू करना आवश्यक है। प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY): शहरी गरीबों के लिये किफायती आवास सुनिश्चित करने हेतु प्रधानमंत्री आवास योजना का विस्तार करना चाहिये। लैंगिक रूप से संवेदनशील नीतियों को विकसित करना: ऐसी नीतियों को लागू करना चाहिये जो महिलाओं को सशक्त बनाने एवं संसाधनों तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी को बढ़ावा देती हों। निष्कर्ष: भारत में शहरी गरीबी को दूर करने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें शहरी नियोजन, सामाजिक सुरक्षा उपाय, मलिन बस्तियों का उन्नयन, स्वास्थ्य देखभाल एवं शिक्षा सुधार तथा लैंगिक रूप से संवेदनशील नीतियों को विकसित करना शामिल है। इन रणनीतियों और नीतिगत हस्तक्षेपों को लागू करके भारत शहरी गरीबी को कम करने और समावेशी तथा सतत् शहरी विकास को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण प्रगति कर सकता है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. वर्ष 1920 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गए असहयोग आंदोलन की मुख्य विशेषताएँ और उपलब्धियाँ क्या थीं? इसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर क्या प्रभाव पड़ा था? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: असहयोग आंदोलन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। इसकी विशेषताएँ एवं उपलब्धियाँ बताइये। बताइये कि इसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर क्या प्रभाव पड़ा था। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: असहयोग आंदोलन वर्ष 1920 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया एक राजनीतिक अभियान था, जिसका उद्देश्य भारतीयों द्वारा ब्रिटिश सरकार को किये जाने वाले सहयोग को वापस लेना और उसे स्वशासन या स्वराज देने के लिये सहमत करना था। मुख्य भाग: विशेषताएँ: यह सत्य, अहिंसा और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार की संस्थाओं, वस्तुओं और सेवाओं का बहिष्कार करके ब्रिटिश सत्ता के प्रभाव को कमजोर करना था। इसमें भारतीय समाज के विभिन्न वर्ग जैसे छात्र, शिक्षक, वकील, किसान, श्रमिक, व्यापारी आदि शामिल हुए थे। इसे विभिन्न राजनीतिक दलों और समूहों जैसे कॉन्ग्रेस, खिलाफत समिति आदि का भी समर्थन प्राप्त था। इसके निम्नलिखित कार्यक्रम थे: अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त उपाधियों और सम्मानों को त्यागना। सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, न्यायालयों और कार्यालयों का बहिष्कार करना। विदेशी वस्त्र, शराब तथा अन्य वस्तुओं का बहिष्कार करना। करों का भुगतान न करना। इसमें हड़ताल, प्रदर्शन, धरना एवं स्वदेशीकारण को बढ़ावा देने के रूप में विरोध और प्रतिरोध को देखा गया। इसमें समानांतर संस्थाओं और आंदोलनों का भी उदय हुआ था जैसे राष्ट्रीय स्कूल, कॉलेज, पंचायतें, खादी समितियाँ आदि। उपलब्धियाँ: यह ऐसा पहला राष्ट्रव्यापी जन आंदोलन था जिसने विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और वर्गों के लाखों भारतीयों को एकजुट किया। इसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लोगों में एकता और एकजुटता की भावना पैदा की। इसके द्वारा भारत में ब्रिटिश शासन की वैधता और विश्वसनीयता को चुनौती मिली। इससे ब्रिटिश प्रशासन और अर्थव्यवस्था की कमजोरियाँ उजागर हुईं। इससे भारतीय लोगों की राजनीतिक चेतना और आकांक्षाओं को प्रेरणा मिली। इसने भारत के विभिन्न हिस्सों में कई अन्य आंदोलनों को प्रेरित किया जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि। इसने विश्व भर में विभिन्न उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलनों को भी प्रभावित किया। इसने अंग्रेजों को भारत के प्रति अधिक सौहार्दपूर्ण और सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिये मजबूर किया था। निषकर्ष: असहयोग आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक प्रमुख ऐतिहासिक घटना थी। इसमें प्रतिरोध के तरीकों के रूप में नरमपंथी से गरमपंथी विचारधारा की ओर बदलाव को देखा गया। इसके अंतर्गत दमनकारी शासन के खिलाफ अहिंसक जन आंदोलन की शक्ति और क्षमता का भी प्रदर्शन हुआ।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत में मृदा अपरदन के प्रमुख प्रकार एवं कारण क्या हैं? इसका भारत के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण मृदा अपरदन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। मृदा अपरदन के प्रकार बताते हुए चर्चा कीजिये कि यह पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित करता है। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: मृदा अपरदन का आशय विभिन्न प्राकृतिक या मानव-प्रेरित कारकों द्वारा मृदा की ऊपरी परत का क्षरण होना है। यह एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है जिससे भूमि संसाधनों की गुणवत्ता और उत्पादकता प्रभावित होती है। भारत में इसके मुख्य प्रकार एवं कारण निम्नलिखित हैं: मुख्य भाग: मृदा अपरदन के प्रकार: जल अपरदन: यह जल की क्रिया के कारण होता है जैसे वर्षा, अपवाह, धाराएँ, नदियाँ आदि। इसके परिणामस्वरूप नालियों, खड्डों आदि का निर्माण होता है। यह भारत में मृदा अपरदन का सबसे व्यापक और गंभीर प्रकार है। वायु अपरदन: यह विशेषकर शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में वायु की क्रिया के कारण होता है। इसके परिणामस्वरूप रेत के टीले का निर्माण होता है। यह भारत के पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भागों में अधिक सामान्य है। हिम अपरदन: यह ग्लेशियरों की गति के कारण होता जिसके तहत चट्टानों और मृदा का कटाव एवं विघटन होता है। इसके परिणामस्वरूप U-आकार की घाटियाँ, मोरेन आदि का निर्माण होता है। यह भारत के हिमालयी क्षेत्र में अधिक सामान्य है। तटीय कटाव: यह समुद्र तट पर लहरों, ज्वार-भाटा, धाराओं आदि की क्रिया के कारण होता है। इसके परिणामस्वरूप चट्टानों एवं गुफाओं आदि का निर्माण होता है। यह भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर अधिक सामान्य है। कारण: प्राकृतिक कारण: इनमें जलवायु संबंधी कारक (जैसे वर्षा की तीव्रता और वितरण, तापमान, वायु की गति और दिशा आदि) शामिल हैं। स्थलाकृतिक कारक (जैसे ढलान, उच्चावच, जल निकासी पैटर्न, आदि) भूवैज्ञानिक कारक (जैसे चट्टान का प्रकार, संरचना, बनावट, आदि) जैविक कारक (जैसे वनस्पति आवरण, मृदा के जीव, आदि)। मानव-प्रेरित कारण: इनमें वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, अविवेकपूर्ण कृषि, अनुचित सिंचाई, खनन, उत्खनन, निर्माण गतिविधियाँ, शहरीकरण, औद्योगीकरण आदि शामिल हैं। मृदा अपरदन भारत के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित करता है: पर्यावरणीय प्रभाव: मृदा अपरदन से मृदा की उर्वरता एवं जलधारण क्षमता कम हो जाती है। इससे मृदा से कार्बनिक पदार्थ और पोषक तत्वों की हानि होती है। इससे जल निकायों में गाद और प्रदूषण की समस्या होती है। जिससे बाढ़ और सूखे का खतरा बढ़ जाता है। इससे जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ भी प्रभावित होती हैं। आर्थिक प्रभाव: मृदा अपरदन से भारत की कृषि उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ता है। इससे मृदा संरक्षण और सुधार की लागत बढ़ जाती है। इससे पनबिजली उत्पादन और नदियों की परिवहन क्षमता प्रभावित होती है। इससे समुद्र तट के किनारे बुनियादी ढाँचे और संपत्ति को नुकसान पहुँचता है। इससे ग्रामीण लोगों की आय और आजीविका के अवसरों में कमी आती है। निष्कर्ष: इस प्रकार मृदा अपरदन भारत के सतत् विकास के लिये एक बड़ा खतरा है। भारत के मृदा संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन के लिये उचित रोकथाम और शमन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज की विविधता और बहुलवाद पर वैश्वीकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिये। अपने उत्तर के समर्थन में उपयुक्त उदाहरण दीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका: वैश्वीकरण के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये। मुख्य भाग: वैश्वीकरण ने भारतीय समाज को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से कैसे प्रभावित किया उदाहरण के देकर वर्णन कीजिये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को सारांशित करते हुए निष्कर्ष लिखिये भूमिका: वैश्वीकरण वस्तुओं, सेवाओं, सूचना, विचारों और प्रौद्योगिकी के आदान-प्रदान के माध्यम से देशों और उनकी अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती अंतर्संबंध और अन्योन्याश्रितता को संदर्भित करता है। वैश्वीकरण ने विभिन्न तरीकों से भारतीय समाज की विविधता और बहुलवाद को प्रभावित किया है। इसने संस्कृतियों, विचारों और मूल्यों की परस्पर क्रिया को उज़ागर किया है, जिससे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणाम उत्पन्न हुए हैं। मुख्य भाग: सकारात्मक पक्ष में, वैश्वीकरण ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को सक्षम बनाया है। उदाहरण के लिये लोग विभिन्न प्रकार के भोजन का आनंद ले सकते हैं और दुनिया भर में बॉलीवुड फिल्में देख सकते हैं, जिससे उन्हें विभिन्न संस्कृतियों के बारे में जानने और उनके मतभेदों का सम्मान करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, वैश्वीकरण ने शिक्षा और सूचना के प्रसार में वृद्धि की है, जो व्यक्तियों को विभिन्न दृष्टिकोणों तक पहुँचने और पारंपरिक मानदंडों पर सवाल उठाने का अधिकार देता है। नकारात्मक पक्ष में, वैश्वीकरण ने भारत की विविधता और बहुलवाद को भी चुनौती दी है। पश्चिमी मूल्यों और उपभोक्तावाद के प्रभुत्व ने विशेष रूप से युवाओं के बीच स्वदेशी संस्कृतियों और परंपराओं को कमज़ोर कर दिया है। इसके अलावा, वैश्वीकरण ने आर्थिक असमानताओं को उत्पन्न किया है, कुछ समूह दूसरों की तुलना में अधिक प्राप्त कर रहे हैं, जिससे सामाजिक विभाजन में वृद्धि हो रही हैं। उदाहरण के लिये, बहुराष्ट्रीय निगमों के उद्भव ने पश्चिमी जीवन शैली और उपभोक्ता जैसे विकल्पों को लाया है, जिसने भारतीय समाज के लक्ष्यों और उपभोग की प्रवृत्तियों को आकार दिया है। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय कारीगरों और शिल्पकारों का बहिष्कार हुआ है जो बड़े पैमाने पर उत्पादित उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकते हैं। निष्कर्ष: वैश्वीकरण ने भारतीय समाज की विविधता और बहुलवाद दोनों को बढ़ाया और खतरे में डाल दिया है। जबकि इसने सांस्कृतिक आदान-प्रदान और जागरूकता को बढ़ावा दिया है, इसने कठिनाइयों और असमानताओं को भी पेश किया है। इसलिये भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखते हुए वैश्वीकरण के लाभों को स्वीकार करने के बीच संतुलन बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]उन कारकों का विश्लेषण कीजिये जिनके कारण सिंधु घाटी सभ्यता का उत्थान और पतन हुआ। मानव इतिहास में इस सभ्यता के प्रमुख योगदान क्या रहे हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका: सिंधु घाटी सभ्यता के परिचय के साथ अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये मुख्य भाग: सिंधु घाटी सभ्यता के उत्थान और पतन के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये निष्कर्ष: निष्कर्ष में प्रमुख योगदानों का सारांश लिखिये। भूमिका: सिंधु घाटी सभ्यता एक कांस्य युगीन सभ्यता थी, जो दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में जो 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक चली थी, और 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक अपने परिपक्व रूप में थी। यह मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ प्राचीन विश्व की तीन प्रारंभिक सभ्यताओं में से एक थी। इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता के उत्थान और पतन के लिये विभिन्न कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है जिन्होंने इसको एक नया आकार प्रदान किया। मुख्य भाग: कई प्रमुख कारकों के कारण सभ्यता का उत्थान और विकास हुआ: भौगोलिक स्थिति: सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के घाटियों में उपजाऊ भूमि एवं जल संसाधनों की उपलब्धता ने कृषि और सिंचाई तथा खाद्य उत्पादन के अधिशेष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे शहरी केंद्रों का विकास और जनसंख्या में वृद्धि हुई। व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान: सिंधु घाटी सभ्यता के पड़ोसी क्षेत्रों और दूरस्थ देशों, जैसे मेसोपोटामिया, मध्य एशिया और फारस की खाड़ी के साथ व्यापक व्यावसयिक संबंध थे, जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक समृद्धि और मूल्यवान संसाधनों के आयात में मदद मिली। नगर-नियोजन और बुनियादी ढाँचा: सभ्यता ने उन्नत नगर-नियोजन और स्थापत्य तकनीकों को प्रदर्शित किया। इसके मुख्य विशेषता सुव्यवस्थित नगर नियोजन , पकी हुई ईंट से बने घर, विस्तृत जल निकासी व्यवस्था, जल आपूर्ति नेटवर्क, सार्वजनिक स्नानागार, अन्न भंडार और बड़े गैर-आवासीय भवन थे। यह कुशल आधारभूत संरचना एक अच्छी तरह से संरचित समाज को दर्शाती है। तकनीकी प्रगति: सिंधु घाटी सभ्यता ने विभिन्न शिल्प और प्रौद्योगिकियों में उल्लेखनीय कौशल का प्रदर्शन किया। मिट्टी के बर्तनों, मुहरों, मोतियों, आभूषणों, टेराकोटा की मूर्तियों, कांस्य के औज़ारों व हथियारों, और मानकीकृत वज़न एवं माप जैसी कलाकृतियों के उनके उत्पादन ने उनकी विशेषज्ञता का प्रदर्शन किया तथा आर्थिक विकास में योगदान दिया। हालाँकि, सिंधु घाटी सभ्यता को उन चुनौतियों का सामना करना पड़ा जो अंततः इसके पतन का कारण बनीं: पर्यावरणीय परिवर्तन: इस क्षेत्र ने जलवायु और जल विज्ञान में बदलाव का अनुभव किया, जिसमें मानसून की वर्षा में कमी, नदी के मार्ग में परिवर्तन और बाढ़ एवं सूखे की घटनाओं में वृद्धि शामिल है। इन पर्यावरणीय परिवर्तनों ने कृषि, जल उपलब्धता और सभ्यता की समग्र स्थिरता को प्रभावित किया। आक्रमण और पलायन: बाहरी समूहों के आगमन, संभवतः मध्य एशिया से इंडो-आर्यन, इस क्षेत्र में नए सांस्कृतिक तत्वों और भाषाओं को लेकर आए। इन प्रवासन और संभावित आक्रमणों ने सभ्यता के सामाजिक सामंजस्य और राजनीतिक स्थिरता को बाधित किया। व्यापार और संसाधनों में गिरावट: अन्य क्षेत्रों के साथ व्यापार और वाणिज्य में गिरावट के परिणामस्वरूप सिंधु लोगों की आय और प्रभाव में कमी आई। शहरी बुनियादी ढाँचे और सार्वजनिक सेवाओं में गिरावट ने निवासियों के जीवन एवं स्वास्थ्य की गुणवत्ता को भी प्रभावित किया। इसके पतन के बावजूद, सिंधु घाटी सभ्यता ने मानव इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया: नगर-नियोजन और इंजीनियरिंग: सभ्यता की परिष्कृत नगरीय योजना और इंजीनियरिंग प्रणाली, जिसमें जल निकासी, जल प्रबंधन और स्वच्छता शामिल है, ने लोक कल्याण के लिये उच्च मानक निर्धारित तथा भविष्य की सभ्यताओं को प्रभावित किया। भौतिक संस्कृति और शिल्प संबंधी कौशल: सिंधु लोगों की विविध और समृद्ध भौतिक संस्कृति, जिसमें उनके मिट्टी के बर्तन, मुहरें, आभूषण और कांस्य उपकरण शामिल हैं, ने उनकी कलात्मक उत्कृष्टता एवं तकनीकी नवाचार का प्रदर्शन किया। मिश्रित समाज और संभावित साक्षरता: एक संभावित लेखन प्रणाली के साथ एक मिश्रित समाज के अस्तित्व ने संचार, रिकॉर्ड रखने और धार्मिक विश्वासों एवं कलात्मक रचनात्मकता की अभिव्यक्ति का संकेत दिया। शांतिपूर्ण सभ्यता: पुरातात्विक रिकॉर्ड में हिंसा और युद्ध के स्पष्ट संकेतों की अनुपस्थिति एक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण सभ्यता का सुझाव देती है, जिसने सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक एकता को बनाए रखा। निष्कर्ष: सिंधु घाटी सभ्यता भौगोलिक, व्यापारिक, नगर-नियोजन और प्रौद्योगिकी के कारण के कारण परिपक्व थी। पर्यावरणीय परिवर्तनों, आक्रमणों और आर्थिक चुनौतियों के कारण इसमें गिरावट आई। इसके योगदान में प्रारंभिक शहरीकरण, उन्नत इंजीनियरिंग, समृद्ध भौतिक संस्कृति, शांतिपूर्ण और मिश्रित समाज के संकेत शामिल हैं।</s>
<s>[INST]भारत में राष्ट्रीय एकता और शासन पर क्षेत्रवाद के प्रभावों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: क्षेत्रवाद का परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। मुख्य भाग: भारत में क्षेत्रवाद की पृष्ठभूमि को संक्षेप में बताते हुए राष्ट्रीय एकता और शासन पर इसके प्रभावों का उल्लेख कीजिये। निष्कर्ष: आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: क्षेत्रवाद का आशय लोगों को किसी क्षेत्र या राज्य विशेष से अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक लगाव होना है जिसमें अक्सर क्षेत्रीय स्वायत्तता या अलग पहचान की मांग किया जाना भी शामिल होता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में क्षेत्रवाद का राष्ट्रीय एकीकरण और शासन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मुख्य भाग: भारत में क्षेत्रवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों जैसी विविधता के कारण क्षेत्रीय पहचान का उदय हुआ। 1950 के दशक में भाषाई पुनर्गठन और राज्य के दर्जे की मांगों ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को और भी मज़बूत किया। उदाहरण: भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होना। जैसे आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु। भाषाई आधार पर राज्यों का गठन और बाद में इसमें और भी विभाजन की मांग क्षेत्रवाद की स्थिति को दर्शाती है। राष्ट्रीय एकता पर प्रभाव: a) सकारात्मक प्रभाव: क्षेत्रीय आकांक्षाओं को मान्यता देने से वंचित समुदायों को मुख्य धारा में शामिल करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिये: अविकसित क्षेत्रों के समान विकास के लिये तेलंगाना का गठन। क्षेत्रीय स्वायत्तता से शक्तियों का विकेंद्रीकरण होता है जिससे बेहतर प्रतिनिधित्व और प्रशासन सुनिश्चित होता है। क्षेत्रीय भाषाओं, कला और संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन से भारतीय विरासत के समृद्ध होने में सहायता मिलती है। b) नकारात्मक प्रभाव: राष्ट्रीय हितों की तुलना में क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता मिलना। उदाहरण के लिये: कर्नाटक के एक छात्र ने एक विदेशी विश्वविद्यालय में अपने दीक्षांत समारोह के दौरान राज्य का झंडा फहराया। क्षेत्रीय पहचान को अधिक बल देने से राष्ट्रीय एकता को चुनौती मिलती है। उदाहरण के लिये: पंजाब में खालिस्तान आंदोलन। संघर्ष और अंतर-क्षेत्रीय तनाव से साझा पहचान और सहयोग की भावना में बाधा उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिये: केरल और तमिलनाडु के बीच मुल्लापेरियार बांध का मुद्दा। शासन पर प्रभाव: a) प्रशासनिक चुनौतियाँ: शक्ति और संसाधनों के विखंडन से प्रशासनिक जटिलताएँ पैदा हो सकती हैं। अंतर-राज्यीय विवाद और संघर्ष से सहकारी शासन में बाधा उत्पन्न होती है। विविध क्षेत्रीय मांगों के कारण समान नीतियों को लागू करने में कठिनाई आती है। उदाहरण के लिये: केरल की मांग और जरूरतें बिहार से भिन्न हैं। b) नीति निर्माण और कार्यान्वयन: क्षेत्रीय दल और नीतिगत निर्णयों पर इनके प्रभाव से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं की तुलना में क्षेत्रीय हितों को अधिक प्राथमिकता मिल सकती है। उदाहरण के लिये: महाराष्ट्र का सन्स ऑफ द सॉइल मूवमेंट। क्षेत्रीय मांगों की परिणति विशेष आर्थिक पैकेज या अधिमान्य उपचार की मांग के रूप में हो सकती है जिससे समान विकास प्रभावित होता है। राष्ट्रीय एकता और शासन को मज़बूत करने के उपाय: केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति के संतुलित वितरण के साथ संघवाद को मजबूत करना। सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के साथ विभिन्न क्षेत्रों के बीच संवाद के लिये मंच तैयार करना। क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने तथा समान विकास को बढ़ावा देने वाली समावेशी नीतियों को लागू करना। निष्कर्ष: भारत के राष्ट्रीय एकीकरण और शासन पर क्षेत्रवाद के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ते हैं। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को बढ़ावा देने और हाशिये पर स्थित समुदायों को मुख्यधारा में शामिल करने के साथ ही इससे राष्ट्रीय एकता और सहकारी शासन के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न होती है। इन दोनों में सामंजस्यपूर्ण संतुलन सुनिश्चित करने के लिये संघवाद को मजबूत करने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने वाली समावेशी नीतियों को लागू करना महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीय पहचान की भावना को बढ़ावा देते हुए क्षेत्रीय पहचान की विविधता को अपनाकर भारत, स्थायी राष्ट्रीय एकीकरण के साथ प्रभावी शासन के क्रम में क्षेत्रीयता के अवसरों का उपयोग कर सकता है।</s>
<s>[INST]भारत में इस्लामी शासन के आगमन के साथ ही भारत की तत्कालीन वास्तुकला किस प्रकार विकसित हुई थी? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: इंडो-इस्लामिक वास्तुकला को बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। मुख्य भाग: इस्लामिक शासन के आगमन के दौरान तत्कालीन भारतीय वास्तुकला की विशेषताओं को बताते हुए इसके बाद इसमें आए परिवर्तनों का संक्षेप में उल्लेख कीजिये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत में इस्लामी शासन के आगमन (13वीं शताब्दी में) का तत्कालीन वास्तुकला परिदृश्य पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। इससे इस्लामी प्रभावों के साथ स्वदेशी भारतीय स्थापत्य परंपराओं का मिश्रण सामने आया। इससे सांस्कृतिक और धार्मिक समन्वय के प्रतीक के रूप में इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का उदय हुआ था। मुख्य भाग: तत्कालीन भारतीय वास्तुकला: बल्ली और शहतीर वाली अनुप्रस्थ संरचनाओं का निर्माण। पत्थर का उपयोग। इमारतों में शीर्ष संरचना के रूप में शिखर/विमान का निर्माण। सहायक संरचनाओं जैसे गोपुरम, तोरण आदि का निर्माण। भारत में इस्लामी शासन के आगमन के बाद की वास्तुकला: इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव: नई निर्माण तकनीकों की शुरुआत: स्थापत्य में मेहराबों एवं गुंबदों का अनुप्रयोग। उदाहरण के लिये बुलंद दरवाजा के भव्य मेहराब। सामग्री के रूप में ईंट और चूना मोर्टार का उपयोग होना। नवीन कलात्मक तत्वों का समावेश: जटिल ज्यामितीय पैटर्न का उपयोग किया जाना। पुष्प रूपांकनों के साथ अराबेस्क डिज़ाइन का उपयोग किया जाना। कीमती धातुओं और पत्थरों को जड़ने के लिये पिएट्रा ड्यूरा तकनीक का उपयोग किया जाना। उदाहरण के लिये ताजमहल में पिएट्रा ड्यूरा का उपयोग। इस्लामी धार्मिक संरचनाओं का निर्माण: मीनारों और मेहराब जैसी विशेषताओं वाली मस्जिदों का निर्माण। उदाहरण के लिये, कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद। इस्लामिक शासकों और संतों के मकबरों का निर्माण होना। स्वदेशी भारतीय वास्तुकला के साथ मिश्रित होना: हिंदू और इस्लामी तत्वों का एकीकरण: स्थानीय सामग्रियों और निर्माण तकनीकों का उपयोग किया जाना। वास्तुशिल्प डिज़ाइनों में हिंदू और इस्लामी सजावट के तत्वों का सम्मिश्रण होना। स्थापत्य शैली का संश्लेषण: इंडो-इस्लामिक विशेषताओं वाले महलों और किलों का निर्माण होना। चारबाग शैली में इंडो-इस्लामिक उद्यानों का विकास होना। उदाहरण के लिये लोधी उद्यान, आरामबाग आदि। शहरी नियोजन पर प्रभाव: इस्लामिक स्थापत्य की विशेषताओं वाले शहरों का विकास: केंद्र में मस्जिदों और बाज़ारों के साथ नियोजित शहरों की स्थापना। उदाहरण के लिये, फतेहपुर सीकरी और तुगलकाबाद जैसे शहरों का निर्माण। निष्कर्ष: इस्लामी वास्तुकला के मिश्रण से मौजूदा भारतीय वास्तुकला में कई तत्त्वों का समावेश हुआ। भारत में इस्लामी शासन के आगमन के परिणामस्वरूप स्थापत्य शैली के साथ नियोजित शहरों विकास हुआ था। इस्लामी प्रभावों के साथ स्वदेशी भारतीय परंपराओं के संलयन से अनूठी वास्तुशिल्प का उदय हुआ जिससे उस समय की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता प्रदर्शित हुई। हिंदू और इस्लामी तत्त्वों के एकीकरण से समाज में सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का विकास हुआ था, जो कुतुबमीनार और जामा मस्जिद जैसी संरचनाओं से स्पष्ट होता है। इस वास्तुशिल्प विकास से न केवल भौतिक परिदृश्य में परिवर्तन हुआ बल्कि इसने भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ गंगा-जमुनी तहज़ीब को जन्म दिया।</s>
<s>[INST]अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट क्या है? इसके कारणों और परिणामों पर चर्चा कीजिये। साथ ही भारतीय शहरों में अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव को कम करने के लिये कुछ उपाय सुझाइये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: अर्बन हीट आइलैंड को संक्षेप में परिभाषित करते हुए अपने परिचय को और बेहतर बनाने के लिये इससे संबंधित आरेख बनाइये। मुख्य भाग: अर्बन हीट आइलैंड्स के कारणों और परिणामों का उल्लेख करते हुए डेटा या रिपोर्ट द्वारा समर्थित इसके न्यूनीकरण उपायों पर चर्चा कीजिये। निष्कर्ष: प्रमुख बिंदुओं को सारांशित करते हुए सतत् शहरी विकास हेतु अर्बन हीट आइलैंड के प्रभावों को कम करने के उपायों को अपनाने के महत्त्व पर बल देते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव का आशय ऐसी स्थिति से है जिसमें आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों की वायु का तापमान अधिक होता है। इस प्रभाव को विशेष रूप से रात के समय स्पष्ट देखा जा सकता है। इसके लिये कई कारक उत्तरदायी होते हैं जिसमें विनिर्माण में ऊष्मा अवशोषित करने वाले पदार्थों का उपयोग करना, वनस्पतियों की कमी होना एवं अत्यधिक मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा आदि शामिल हैं। मुख्य भाग: कारण: विनिर्माण में कम एल्बिडो वाले पदार्थों का उपयोग होना: एल्बिडो का आशय आपतित सौर ऊर्जा की तुलना में परावर्तित सौर ऊर्जा का अनुपात है। कम एल्बिडो वाले पदार्थों के उपयोग से अधिक सौर ऊष्मा अवशोषित होने से शहरी क्षेत्रों के तापमान में वृद्धि होती है। कंक्रीट की संरचना: पक्की सतहें जैसे सड़कें और पार्किंग स्थल सौर विकिरण से आने वाली ऊष्मा को अधिक अवशोषित करती हैं। यह सतहें पौधों या अन्य जल निकायों द्वारा होने वाले जल के अवशोषण में बाधक होती हैं, जिससे संबंधित क्षेत्र का तापमान अधिक बना रह सकता है। वनस्पतियों का अभाव होना: वनस्पतियों द्वारा होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण एवं ऑक्सीजन के उत्सर्जन के कारण वायु को ठंडा रखने में सहायता मिलती है। आमतौर पर कम वनस्पति वाले क्षेत्र हीट आइलैंड प्रभाव के प्रति अधिक सुभेद्य होते हैं। मानवीय गतिविधियाँ: मानवीय गतिविधियों जैसे कि बिजली उत्पादन, परिवहन, उद्योग और एयर कंडीशनिंग का उपयोग आदि से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को बढ़ावा मिलने से अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव को बढ़ावा मिलता है। परिणाम: अर्बन हीट आइलैंड के कई नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं जैसे: इमारतों और वाहनों को वातानुकूलित करने में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होना। जीवाश्म ईंधन के दहन से वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि होना। हीट स्ट्रोक एवं कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के रूप में स्वास्थ्य जोखिमों में वृद्धि होना। वाष्पीकरण में वृद्धि होने के कारण जल की गुणवत्ता में कमी आना। आवासों की क्षति और विखंडन के कारण जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में कमी आना। इसके शमन के उपाय: शहरी क्षेत्रों की विकास योजना में सुधार: शहरी क्षेत्रों की विकास योजना के तहत प्राकृतिक वेंटिलेशन को बढ़ाना, सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आने वाले सतही क्षेत्र को कम करना, एल्बिडो को बढ़ाना आदि विशेषताओं को शामिल करके अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिये फुटपाथ के लिये पारदर्शी पदार्थों का उपयोग करना, पवन के बेहतर संचलन हेतु खुली जगहों और गलियारों का निर्माण करना, इमारतों को हवादार बनाना तथा कृत्रिम झीलों या तालाबों का निर्माण करना। वनस्पति आवरण में वृद्धि करना: वनस्पतियों द्वारा छाया और ठंडक प्रदान करने के माध्यम से वायु के तापमान को कम किया जा सकता है। इस क्रम में पार्कों का विस्तार करना, सड़कों के किनारे पौधों को लगाना, हरित एवं पर्यावरण अनुकूल आवासों का विकास करना आदि पर बल दिया जा सकता है। एक अध्ययन में पाया गया है कि वनस्पतियों वाले क्षेत्र की वायु का तापमान आसपास के अन्य क्षेत्रों की वायु की तुलना में लगभग 4°F तक कम हो सकता है। हरित एवं पर्यावरण अनुकूल छतों और फुटपाथों का निर्माण करना: इसके तहत छतों और फुटपाथों में चमकदार कोटिंग्स के साथ वनस्पतियों का उपयोग होता है जिससे सौर ऊर्जा के अवशोषण में कमी आती है। इससे छतों और फुटपाथों की सतह के तापमान में 50°F तक कमी आने के साथ परिवेशी वायु के तापमान में काफी कमी आ सकती है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने हेतु सतत् परिवहन को बढ़ावा देने के साथ घरों और व्यवसायों में ऊर्जा दक्षता में सुधार पर बल दिया जा सकता है। निष्कर्ष: अर्बन हीट आइलैंड प्रभाव एक गंभीर समस्या है जिसके कई नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। हालाँकि इसके प्रभाव को कम करने के लिये कई कार्य किये जा सकते हैं। इससे संबंधित शमनकारी उपायों को अपनाकर हम अपने शहरों को अधिक सतत् एवं समावेशी बना सकते हैं।</s>
<s>[INST]द्रविड़ मंदिर वास्तुकला की विशिष्ट विशेषताओं पर प्रकाश डालिये और इस स्थापत्य शैली को आकार देने में चोल राजवंश द्वारा निभाई गई महत्त्वपूर्ण भूमिका का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: द्रविड़ वास्तुकला शैली के बारे में बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये मुख्य भाग: द्रविड़ वास्तुकला शैली की विशेषताओं को बताते हुए इसमें चोल राजवंश के योगदान का उल्लेख कीजिये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को सारांशित करते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: द्रविड़ मंदिर वास्तुकला शैली का विकास भारत के दक्षिणी क्षेत्रों (मुख्य रूप से तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश राज्यों) में हुआ है। इसकी कुछ विशेषताएँ इसे भारत की अन्य स्थापत्य शैली से अलग करती हैं। चोल राजवंश (जिसने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक दक्षिणी भारत के काफी बड़े हिस्से पर शासन किया था) ने द्रविड़ मंदिर वास्तुकला शैली को आकार देने और लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुख्य भाग: द्रविड़ मंदिर वास्तुकला शैली की विशेषताएँ: विमान: द्रविड़ मंदिर वास्तुकला के प्रमुख तत्त्वों में से एक विमान है, जिसे गोपुरम या शिखर के रूप में भी जाना जाता है। यह मंदिर के गर्भगृह के ऊपर विशाल, पिरामिड जैसी संरचना के रूप में होता है। विमान आमतौर पर जटिल नक्काशी, मूर्तियों से सुशोभित होने के साथ कई संस्तरों वाले होते हैं। मंडप: द्रविड़ मंदिरों में स्तंभों वाले कक्ष होते हैं जिन्हें मंडप कहा जाता है। इनका उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों, सभाओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिये किया जाता था। मंडपों के खंभे और छतों पर हिंदू पौराणिक कथाओं के दृश्यों को प्रदर्शित करने वाली जटिल नक्काशी देखने को मिलती है। शिखर: शिखर नुकीली, पिरामिडनुमा छत के रूप में विमान के शीर्ष पर होते हैं। यह अक्सर मूर्तियों और कलशों जैसे सजावटी तत्त्वों से सुशोभित होता है। गोपुरम: द्रविड़ मंदिरों को बड़े प्रवेश द्वारों के लिये जाना जाता है, जिन्हें गोपुरम कहा जाता है। ये विशाल संरचनाएँ देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं एवं हिंदू महाकाव्यों के दृश्यों को चित्रित करने वाली आकृतियों से अलंकृत होती हैं। गोष्टम: गोष्टम, गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर उकेरे गए देवता को कहा जाता है। ये आमतौर पर मंदिर के मुख्य देवता से संबंधित होते हैं जो भगवान् के विभिन्न पहलुओं या रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। द्रविड़ मंदिर वास्तुकला को आकार देने में चोल राजवंश की भूमिका: संरक्षण और निर्माण: चोल राजवंश ने कई भव्य मंदिरों को संरक्षण देने के साथ इनके निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस प्रकार इस राजवंश ने द्रविड़ मंदिर वास्तुकला के विकास और प्रसार में योगदान दिया था। चोल वंश के शासकों, विशेष रूप से राजराज चोल I और उनके उत्तराधिकारी राजेंद्र चोल I ने, बृहदेश्वर मंदिर और गंगईकोंडचोलपुरम मंदिर जैसे विशाल मंदिरों का निर्माण कराया था। वास्तुकला शैली में नवाचार लाना: चोल राजवंश ने वास्तुकला शैली से संबंधित कई नवाचारों को अपनाया था जो द्रविड़ मंदिर वास्तुकला की पहचान बन गए। उन्होंने बड़ी और अधिक विस्तृत संरचनाओं को शुरू करके विमानों की अवधारणा का विस्तार किया था। राजराज चोल I द्वारा निर्मित बृहदेश्वर मंदिर, चोल राजवंश की वास्तुकला शैली की प्रतिभा का परिचायक है। एकाश्म ग्रेनाइट चट्टान से निर्मित इसका विशाल विमान, अपने समय की महत्त्वपूर्ण विनिर्माण उपलब्धियों में से एक है। मूर्तिकला पर बल: चोल, कला के महान संरक्षक थे और उन्होंने द्रविड़ मंदिरों में जटिल मूर्तियों और नक्काशियों के प्रसार पर बल दिया था। उन्होंने अपने मंदिरों में विभिन्न देवताओं के साथ पौराणिक दृश्यों से संबंधित चित्रण को प्रोत्साहित किया था। चोल मंदिरों से संबंधित मूर्तियों (जैसे नटराज) से असाधारण कलात्मकता और भक्ति भाव का प्रदर्शन होता है। मंदिर प्रशासन और अनुष्ठान: चोल राजवंश ने एक सुव्यवस्थित मंदिर प्रशासन प्रणाली की स्थापना की थी। उन्होंने द्रविड़ मंदिरों से जुड़ी स्थापत्य और सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निष्कर्ष: द्रविड़ मंदिर वास्तुकला शैली की विमान, मंडप, गोपुरम, जटिल नक्काशी और मूर्तियों के रूप में प्रमुख विशेषताएँ हैं। चोल राजवंश ने मंदिरों के संरक्षण, भव्य मंदिरों के निर्माण, स्थापत्य शैली में नवाचार, मूर्तिकला को प्रोत्साहन देने एवं एक व्यवस्थित मंदिर प्रशासन की स्थापना के माध्यम से इस वास्तुकला शैली को प्रभावित किया था। इस वंश के योगदान ने द्रविड़ मंदिर वास्तुकला को आकार देने तथा लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।</s>
<s>[INST]'30*30 पहल' क्या है। जैव विविधता के संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन के शमन के संदर्भ में इसके क्या निहितार्थ हैं? इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के समक्ष विद्यमान चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: 30*30 पहल और इसके मुख्य उद्देश्यों के बारे में बताइये। मुख्य भाग: जैव विविधता के संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन के शमन के संदर्भ में इस पहल के निहितार्थों को बताते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के क्रम में भारत के समक्ष विद्यमान चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को बताते हुए सकारात्मक निष्कर्ष दीजिये। परिचय: 30×30 लक्ष्य का तात्पर्य वर्ष 2030 तक विश्व के 30% महासागर और स्थलों की सुरक्षा करना है। 30×30 लक्ष्य का उद्देश्य प्रजातियों के बढ़ते नुकसान को रोकने के साथ महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना है जो हमारे आर्थिक विकास का स्रोत हैं। इस पहल का यूरोपीय संघ, G7 और भारत सहित 100 से अधिक देशों ने समर्थन किया है तथा यह दिसंबर 2022 में अपनाए गए कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क के लक्ष्य में शामिल है। मुख्य भाग: इस पहल का जैव विविधता के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के शमन के संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रभाव है। इसके द्वारा अन्य वैश्विक लक्ष्यों जैसे सतत् विकास लक्ष्य और पेरिस जलवायु समझौता के संदर्भ में भी उपलब्धि प्राप्त होगी। मैकिन्से एंड कंपनी के एक अध्ययन के अनुसार 30*30 का लक्ष्य हासिल करने से वर्ष 2050 तक प्रति वर्ष $700 बिलियन तक का आर्थिक लाभ उत्पन्न हो सकता है। हालाँकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के समक्ष कई चुनौतियाँ और अवसर मौजूद हैं। इससे संबंधित चुनौतियाँ: उच्च जनसंख्या घनत्व, गरीबी और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भरता वाले क्षेत्रों के संदर्भ में संरक्षण और विकास के बीच संतुलन स्थापित करना। स्थानीय लोगों और स्थानीय समुदायों के अधिकारों एवं हितों का सम्मान करते हुए संरक्षित क्षेत्रों के साथ अन्य प्रभावी क्षेत्र-आधारित संरक्षण उपायों का न्यायसंगत और समावेशी प्रशासन सुनिश्चित करना। इस लक्ष्य को प्राप्त करने और इसकी निगरानी करने के साथ-साथ प्रभावित हितधारकों की जरूरतों को पूरा करने हेतु पर्याप्त वित्तीय और तकनीकी संसाधन जुटाना। संरक्षण योजना और प्रबंधन में शामिल विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, एजेंसियों, राज्यों और क्षेत्रों के बीच समन्वय और सहयोग को बढ़ावा देना। उच्च जैव विविधता एवं जलवायु महत्त्व के क्षेत्रों की पहचान करने के क्रम में वैज्ञानिक आधार और डेटा की उपलब्धता को मज़बूत बनाना। इससे संबंधित अवसर: जैव विविधता संरक्षण के संदर्भ में भारत की मौजूदा उपलब्धियाँ और प्रतिबद्धताएँ जैसे वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को बहाल करने की प्रतिबद्धता। प्रकृति को महत्त्व देने के साथ लोगों के बीच संरक्षण नैतिकता को बढ़ावा देने वाली भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएँ। संरक्षण प्रयासों जैसे अक्षय ऊर्जा, जैव प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष अनुसंधान एवं सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भारत के तकनीकी नवाचार और नेतृत्व क्षमता। 30*30 पहल के संदर्भ में जागरूकता बढ़ाने और कार्रवाई करने हेतु नागरिक समाज संगठनों, निजी क्षेत्र की संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थानों, मीडिया आउटलेट्स और युवा समूहों जैसे विभिन्न हितधारकों के के बीच समन्वय का लाभ उठाना। सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के साथ संरक्षण से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये अन्य देशों (विशेष रूप से दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र) के साथ सहयोग एवं समन्वय के अवसर। निष्कर्ष: 30*30 पहल, पृथ्वी पर प्रकृति और जीवन की रक्षा हेतु एक महत्त्वाकांक्षी वैश्विक प्रयास है। जैव विविधता के संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन के शमन के संदर्भ में इसके महत्त्वपूर्ण लाभ हैं लेकिन इसको प्राप्त करने के क्रम में भारत के समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी मौजूद हैं। सतत् विकास को सुनिश्चित करने के साथ इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अग्रणी भूमिका निभाने के क्रम में भारत के पास विशेष अवसर उपलब्ध है।</s>
<s>[INST]भारतीय मंदिर परंपरा में चौसठ योगिनी वास्तुकला के महत्त्व की चर्चा कीजिये। इस वास्तुकला से तत्कालीन समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक पहलू किस प्रकार परिलक्षित होते हैं? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: चौसठ योगिनी वास्तुकला और इसकी मुख्य विशेषताओं को परिभाषित कीजिये। मुख्य भाग: चौसठ योगिनी वास्तुकला के महत्त्व की व्याख्या करते हुए बताइये कि इससे उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक पहलू किस प्रकार परिलक्षित होते हैं। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: चौसठ योगिनी वास्तुकला 9वीं और 11वीं शताब्दी के दौरान निर्मित मंदिर वास्तुकला की एक विशिष्ट शैली है। इन मंदिरों में 64 योगिनियों (योग करती हुई महिलाओं) के संकुल होने से इन्हें चौसठ योगिनी मंदिर कहा जाता है। ये मंदिर आमतौर पर शिव या भैरव को समर्पित होते हैं जिन्हें मंदिर परिसर के केंद्र में स्थापित किया जाता है। इन योगिनियों को शक्तिशाली दिव्य स्त्री स्वरूप में दर्शाया गया है जो अक्सर तांत्रिक प्रथाओं और अनुष्ठानों से जुड़ी प्रतीत होती हैं। मुख्य भाग: चौसठ योगिनी वास्तुकला का महत्त्व: भारतीय मंदिर परंपरा में चौसठ योगिनी वास्तुकला का महत्त्व ब्रह्मांडीय ऊर्जा और शिव तथा शक्ति के बीच गतिशील संबंधों के प्रतिनिधित्व में निहित है। इन मंदिरों का गोलाकार आकार समय की चक्रीय प्रकृति और लौकिक व्यवस्था का प्रतीक है। इन योगिनियों को शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में दिखाया गया है। इन योगिनियों से मानव व्यक्तित्व, भावनाओं, इच्छाओं और शक्तियों के विभिन्न पहलुओं का भी प्रतिनिधित्व होता है। इन योगिनियों की पूजा द्वारा भक्त आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने के क्रम में अपने आंतरिक और बाहरी स्तर पर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं। चौसठ योगिनी वास्तुकला उस युग (जिसमें इसे बनाया गया था) की कई सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं को दर्शाती है जिससे उस समय की प्रचलित मान्यताओं, प्रथाओं और सामाजिक गतिशीलता के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है जैसे: देवी पूजा: चौसठ योगिनी मंदिर उस युग के दौरान देवी पूजा का परिचायक हैं और यह मंदिर देवी दुर्गा की 64 महिला अनुयायियों को समर्पित हैं, जिन्हें योगिनियों के रूप में जाना जाता है। इन शक्तिशाली प्रतिमाओं द्वारा दिव्य शक्ति के रूप में देवी की शक्ति की अवधारणा पर जोर देने के साथ इनकी आध्यात्मिक शक्ति और प्रभाव को महत्त्व दिया गया है। योगिक और तांत्रिक प्रभाव: इन योगिनियों को योग मुद्राओं में दर्शाया गया है, जो उस समय की योगिक और तांत्रिक परंपराओं को दर्शाती हैं। उस दौरान योग और ध्यान को आध्यात्मिक ज्ञान तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने के साधन के रूप में देखा जाता था। सादगी और तपस्या: चौसठ योगिनी मंदिर सादगी और तपस्वी स्थापत्य शैली के लिये प्रसिद्ध हैं। पहले के समय की मंदिर संरचनाओं की तुलना में इन मंदिरों का डिज़ाइन अधिक विशिष्ठ है। अलंकृत संरचनाओं एवं अत्यधिक सजावट की अनुपस्थिति के कारण इनसे पूजा के अधिक सरलीकृत और आध्यात्मिक रूप के प्रति केंद्रित दृष्टिकोण की ओर बदलाव का संकेत मिलता है। वृत्ताकार वास्तुकला का प्रतीक: चौसठ योगिनी मंदिरों की वृत्ताकार या अष्टकोणीय योजना ब्रह्मांड के लौकिक रूप का प्रतिनिधित्व करती है, जो समय की चक्रीय प्रकृति में विश्वास को दर्शाती है। यह चक्र ऊर्जा के निरंतर प्रवाह का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक गहरी आध्यात्मिक समझ और ब्रह्मांडीय क्रम और संतुलन में निहित विश्वदृष्टि का प्रतीक है। निष्कर्ष: भारतीय मंदिर परंपरा में चौसठ योगिनी वास्तुकला का अत्यधिक महत्त्व है। इसका अनोखा गोलाकार या अष्टकोणीय लेआउट, योगिनी देवी पर केंद्रित विषय-वस्तु एवं उस काल (जिसमें इसे बनाया गया था) के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं का प्रतिबिंब जैसी विशेषताएँ इसे एक विशिष्ट और प्रभावशाली स्थापत्य शैली बनाती हैं। चौसठ योगिनी वास्तुकला का प्रभाव बाद की मंदिर शैलियों में देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole- IOD) के बारे में बताते हुए हिंद महासागर क्षेत्र की जलवायु और मौसम प्रतिरूप पर इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। IOD के सकारात्मक और नकारात्मक चरणों के संभावित सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: परिचय: हिंद महासागर द्विध्रुव एवं इसके चरणों को संक्षेप में परिभाषित करते हुए इसकी प्रासंगिकता का उल्लेख कीजिये। मुख्य भाग: विभिन्न क्षेत्रों और मौसमों में जलवायु तथा मौसम प्रतिरूप पर IOD के प्रभावों की चर्चा कीजिये। IOD के सकारात्मक और नकारात्मक चरणों के संभावित सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय परिणामों के बारे में बताइये। निष्कर्ष: मुख्य बिंदुओं को बताते हुए इस संदर्भ में कुछ उपाय सुझाइए। परिचय: IOD समुद्री सतह के तापमान का एक अनियमित दोलन है, जिसमें पश्चिमी हिंद महासागर की सतह का तापमान पूर्वी हिंद महासागर की तुलना में क्रमिक रूप से कम एवं अधिक होता रहता है। हिंद महासागर द्विधुव (IOD) को भारतीय नीनो भी कहा जाता है। हिंद महासागर द्विध्रुव भारतीय मानसून को सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभावित करता है। हिंद महासागर द्विध्रुव भारतीय मानसून के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के ग्रीष्मकालीन मानसून को भी प्रभावित करता है। मुख्य भाग: जलवायु और मौसम प्रतिरूप पर IOD का प्रभाव: IOD का सकारात्मक चरण: IOD के सकारात्मक चरण के दौरान पश्चिमी हिंद महासागर में समुद्र की सतह का तापमान औसत से अधिक हो जाता है जबकि पूर्वी हिंद महासागर में औसत से कम तापमान होता है। यह प्रतिरूप पूरे बेसिन में तापमान प्रवणता को मज़बूत करने के साथ वाकर परिसंचरण को प्रभावित करता है। प्रभाव: वर्षा में वृद्धि: IOD के सकारात्मक चरण में पश्चिमी हिंद महासागर में (विशेष रूप से पूर्वी अफ्रीका, अरब प्रायद्वीप और भारत के पश्चिमी तट जैसे क्षेत्रों में) अधिक वर्षा होती है। दक्षिण पूर्व एशिया में सूखा: इसके विपरीत हिंद महासागर के पूर्वी हिस्से में सकारात्मक IOD के दौरान वर्षा कम होती है, जिससे इंडोनेशिया, मलेशिया और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में सूखा पड़ता है। उष्णकटिबंधीय चक्रवात: IOD के सकारात्मक चरण में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर सहित पूर्वी हिंद महासागर में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के विकास को भी बढ़ावा मिल सकता है। सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव: कृषि और खाद्य सुरक्षा: पूर्वी अफ्रीका और भारत के कुछ हिस्सों में वर्षा में वृद्धि होने से कृषि क्षेत्र को लाभ हो सकता है जिससे खाद्य सुरक्षा में सुधार हो सकता है। हालाँकि दक्षिण पूर्व एशिया में कम वर्षा होने से फसल की विफलता के कारण आर्थिक नुकसान हो सकता है। मात्स्यिकी: सकारात्मक IOD से समुद्र की धाराओं में परिवर्तन और पोषक तत्वों की उपलब्धता प्रभावित होने से मत्स्यन क्षेत्र प्रभावित हो सकता है जिससे मछलियों की संख्या के साथ इनके प्रवासन प्रतिरूप में परिवर्तन हो सकता है। मानव स्वास्थ्य: बदलते मौसम प्रतिरूप और सकारात्मक IOD के कारण होने वाली वर्षा से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है क्योंकि इससे मलेरिया जैसी जलजनित बीमारियों और वेक्टर जनित बीमारियों के प्रसार में योगदान मिल सकता है। IOD का नकारात्मक चरण: IOD के नकारात्मक चरण के दौरान, पश्चिमी हिंद महासागर में समुद्र की सतह का तापमान औसत से कम होता है जबकि पूर्वी हिंद महासागर में तापमान औसत से अधिक होता है। इस चरण में पूरे बेसिन में ताप प्रवणता कमजोर होती है और सकारात्मक चरण की तुलना में वायुमंडलीय परिसंचरण अलग तरह से प्रभावित होता है। प्रभाव: पश्चिमी हिंद महासागर में कम वर्षा होना: IOD के नकारात्मक चरण के परिणामस्वरूप पश्चिमी हिंद महासागर में वर्षा में कमी आती है जिससे पूर्वी अफ्रीका, अरब प्रायद्वीप और भारत के पश्चिमी तट जैसे क्षेत्र प्रभावित होते हैं। दक्षिण पूर्व एशिया में वर्षा में वृद्धि होना: इसके विपरीत IOD के नकारात्मक चरण के दौरान इंडोनेशिया, मलेशिया और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों सहित दक्षिण पूर्व एशिया में अधिक वर्षा होती है। उष्णकटिबंधीय चक्रवात: IOD के नकारात्मक चरण के दौरान उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की घटना और तीव्रता प्रभावित होती है जिससे संभावित रूप से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से संबंधित क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं। सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव: कृषि और खाद्य सुरक्षा: पश्चिमी हिंद महासागर में कम वर्षा से सूखा एवं फसल की विफलता के साथ जल की कमी हो सकती है जिससे कृषि और खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसके विपरीत दक्षिण पूर्व एशिया में वर्षा में वृद्धि से कृषि को लाभ हो सकता है लेकिन अत्यधिक वर्षा भी बाढ़ का कारण बन सकती है और फसलों को नुकसान पहुँचा सकती है। जल संसाधन: नकारात्मक IOD से नदी प्रवाह और जलाशय में जल स्तर सहित जल संसाधन प्रभावित हो सकते हैं जिससे जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई प्रणाली के साथ घरेलू उपयोग के लिये जल की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है। पारिस्थितिकी तंत्र: नकारात्मक IOD चरण के दौरान वर्षा प्रतिरूप और समुद्र संबंधी स्थितियों में परिवर्तन से समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र (जिसमें प्रवाल भित्तियाँ, मैंग्रोव और वन शामिल हैं) प्रभावित हो सकता है जो संभावित रूप से जैव विविधता की हानि और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान का कारण बन सकता है। निष्कर्ष: IOD की भारत और उसके पड़ोसी देशों में जलवायु परिवर्तनशीलता में प्रमुख भूमिका रहती है। लाखों लोगों पर इसके सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं। इसलिये इससे होने वाले नुकसान की रोकथाम हेतु योजना बनाने के क्रम में विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों पर IOD के प्रभावों को समझना एवं इसकी भविष्यवाणी करना महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]वैश्विक जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों पर पर्माफ्रॉस्ट विगलन (Permafrost thawing) की भूमिका की चर्चा कीजिये। पर्माफ्रॉस्ट विगलन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के सुझाव दीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: पर्माफ्रॉस्ट और पर्माफ्रॉस्ट विगलन का वर्णन करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। इसके प्रभावों को बताते हुए इसके शमन के उपायों का उल्लेख कीजिये। आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: पर्माफ्रॉस्ट का आशय किसी ऐसे स्थल से है जो कम से कम दो वर्ष तक पूरी तरह से जमा हुआ (0 डिग्री सेल्सियस या कम) की स्थिती में रहता है। इसके अंतर्गत पृथ्वी का लगभग 25% भूमि क्षेत्र आता है (ज्यादातर आर्कटिक और उप-आर्कटिक क्षेत्रों जैसे उच्च अक्षांश क्षेत्रों में)। पर्माफ्रॉस्ट में बड़ी मात्रा में कार्बन,सूक्ष्म जीव और वायरस होते हैं, जो इन स्थलों पर हजारों वर्षों तक संरक्षित रहते हैं। पर्माफ्रॉस्ट विगलन, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने और उसके पदार्थों के पर्यावरण में निष्कासन की प्रक्रिया से संबंधित है। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते तापमान और वर्षा से पर्माफ्रॉस्ट विगलन होता है। पर्माफ्रॉस्ट विगलन का वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और इसके विभिन्न प्रभाव होते हैं जैसे: इससे कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन होता है जिससे ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलता है। इससे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन होता है जैसे मृदा के कटाव और भूस्खलन को बढ़ावा मिलने के साथ पौधों और जानवरों के आवासों का बाधित होना। इससे मानव स्वास्थ्य और आजीविका पर प्रभाव पड़ता है जैसे बुनियादी ढाँचे और इमारतों को नुकसान पहुँचना,रोगाणुओं और विषाणुओं से संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ना और स्वदेशी समुदायों के लिये खाद्य सुरक्षा तथा जल की गुणवत्ता के संबंध में जोखिम उत्पन्न होना। इससे वातावरण में बैक्टीरिया और वायरस (जो बर्फ और मृदा में जमे हुए थे) के निष्कासित होने से मानव और पशु स्वास्थ्य के लिये खतरा उत्पन्न हो सकता है। पर्माफ्रॉस्ट विगलन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं: पर्माफ्रॉस्ट विगलन और ग्लोबल वार्मिंग की दर को सीमित करने के लिये विश्व स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC), पेरिस समझौते और क्योटो प्रोटोकॉल जैसी पर्यावरणीय संधियों को लागू करना। पर्माफ्रॉस्ट गतिशीलता और प्रतिक्रिया की समझ तथा इसकी भविष्यवाणी में सुधार के लिये पर्माफ्रॉस्ट निगरानी और अनुसंधान को बढ़ावा देना। इस संदर्भ में इंजीनियरिंग तकनीकों का उपयोग करना जैसे कि पाले के प्रति संवेदनशील मृदा को मोटे दाने वाले पदार्थ से बदलना, थर्मल इन्सुलेशन या वेंटिलेशन परतों का उपयोग करना या मृदा के गुणों को संशोधित करने के लिये एडिटिव्स का उपयोग करना। निष्कर्ष: पर्माफ्रॉस्ट विगलन तथा वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर इसके प्रभावों को कम करने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है जिसमें इस संदर्भ में लचीलापन बढ़ाने के लिये अनुकूलन रणनीतियों के साथ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन हेतु शमन प्रयास शामिल हैं। इन उपायों को लागू करके हम पर्माफ्रॉस्ट विगलन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने की दिशा में कार्य कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]जलवायु परिवर्तन से निपटने में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: बताइये कि जलवायु परिवर्तन से महिलाएँ किस प्रकार प्रभावित हुई हैं तथा महिला पर्यावरणविदों के कुछ उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। मुख्य भाग में बताइये कि पर्यावरण संरक्षण में यह किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: जलवायु परिवर्तन से सभी प्रभावित होते हैं लेकिन इसके सबसे विपरीत प्रभाव सबसे कमज़ोर लोगों पर पड़ते हैं। संकट के समय में महिलाएँ अक्सर पीछे रह जाने के साथ अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे और घरेलू देखभाल के असमान स्तर के कारण स्वास्थ्य और सुरक्षा के बढ़ते जोखिमों का सामना करती हैं। महिलाओं ने कृषि जैव विविधता के संरक्षण में प्रमुख भूमिका निभाई है। 30,000 से अधिक पौधे लगाने वाली और पिछले छह दशकों से पर्यावरण संरक्षण गतिविधियों में शामिल पर्यावरणविद तुलसी गौड़ा को वर्ष 2021 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सुनीता नारायण, रिद्धिमा पांडे और वंदना शिवा कुछ ऐसी महिलाएँ हैं जिनको जलवायु परिवर्तन के समाधान हेतु संघर्ष करने के लिये जाना जाता है। मुख्य भाग: जलवायु परिवर्तन से निपटने में महिलाएँ किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं? ज्ञान और कौशल: महिलाओं के पास प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, कृषि और संरक्षण प्रणालियों से संबंधित मूल्यवान पारंपरिक ज्ञान और कौशल होते हैं। इन्हें स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और सतत् प्रथाओं की काफी समझ होती है जिससे प्रभावी जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन रणनीतियों में योगदान मिल सकता है। जागरूकता और नेतृत्व: महिलाओं के नेतृत्व वाले संगठनों और आंदोलनों ने जागरूकता बढ़ाने, नीतिगत बदलावों पर जोर देने और सतत् प्रथाओं को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निर्णय प्रक्रिया में अधिक महिलाओं को शामिल करके हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जलवायु नीतियाँ और पहल अधिक समावेशी, न्यायसंगत और प्रभावी हों। संसद में उच्च महिला प्रतिनिधित्व वाले देशों की अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समझौतों का समर्थन करने की अधिक संभावना होती है। कार्यस्थलों पर भी महिलाओं के नेतृत्व से कार्बन फुटप्रिंट और उत्सर्जन की जानकारी के संबंध में अधिक पारदर्शिता देखने को मिलती है। सतत् ऊर्जा: स्वच्छ और सस्ती ऊर्जा सुविधाओं तक पहुँच, जलवायु परिवर्तन को कम करने और आजीविका में सुधार दोनों के लिये महत्त्वपूर्ण है। महिलाएँ (विशेष रूप से विकासशील देशों में) ऊर्जा की कमी से अधिक प्रभावित होती हैं। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (जैसे कि सौर या पवन ऊर्जा) से संबंधित मामलों में महिलाओं को शामिल करने से अधिक समावेशी और स्थायी समाधान प्राप्त हो सकते हैं। सतत् उपभोग और जीवन शैली को चुनना: महिलाएँ अक्सर घरेलू उपभोग से संबंधित निर्णयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अपने परिवारों और समुदायों में पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को बढ़ावा देकर महिलाएँ कार्बन फुटप्रिंट्स को कम करने के साथ सतत् विकास की संस्कृति को बढ़ावा देने में योगदान दे सकती हैं। जलवायु परिवर्तन के शमन हेतु अनुकूलन पर बल देना: जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों जैसे जल की कमी, खाद्य असुरक्षा और प्राकृतिक आपदाओं से अक्सर महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करने के बावजूद महिलाओं ने जलवायु संबंधी जोखिमों से निपटने में अनुकूली क्षमता का प्रदर्शन किया है। इनके दृष्टिकोण और अनुभव प्रभावी अनुकूलन रणनीतियों को विकसित करने में योगदान कर सकते हैं। निष्कर्ष: जलवायु संकट के समाधान में महिलाओं की भागीदारी से आर्थिक विकास होने के साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकेगा। महिलाओं की भूमिका को प्रोत्साहन देने से न केवल लैंगिक समानता को बल मिलेगा बल्कि संकट की स्थिति में पूर्ण संसाधनों का पूरी क्षमता के साथ उपयोग संभव हो सकेगा।</s>
<s>[INST]चक्रवात, तटीय क्षेत्रों के लिये जोखिम उत्पन्न करने वाली प्राकृतिक आपदाओं के प्रकार हैं। चक्रवातों के निर्माण, विशेषताओं और प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: चक्रवात को संक्षिप्त रूप से परिभाषित करते हुए और यह बताते हुए कि वे तटीय क्षेत्रों के लिये किस प्रकार जोखिम उत्पन्न करते हैं, अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। तटीय क्षेत्रों में चक्रवातों के निर्माण, विशेषताओं और प्रभावों पर चर्चा कीजिये। परिचय: चक्रवात, शक्तिशाली उष्णकटिबंधीय मौसम प्रणालियों से संबंधित हैं जो व्यापक विनाश का कारण बन सकते हैं तथा इनसे तटीय क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण जोखिम उत्पन्न हो सकते हैं। समुद्र से निकटता के कारण विशेष रूप से तटीय क्षेत्र चक्रवातों के प्रभावों के प्रति संवेदनशील होते हैं। तेज हवाएँ, भारी वर्षा, तूफानी लहरें इन प्राकृतिक आपदाओं की विशेषताएँ हैं। मुख्य भाग: चक्रवातों का निर्माण: जब गर्म, नम पवनें समुद्र से ऊपर की ओर उठती हैं तब चक्रवात बनता है। पवनों के ऊपर उठने से उसके नीचे एक कम दाब का क्षेत्र बन जाता है। इसके बाद इस कम दाब वाले क्षेत्र की ओर आसपास के उच्च दाब वाले क्षेत्रों की ओर से पवनों का प्रवाह होता है। समुद्र के ऊपर ठंडी पवनों का यह समूह गर्म और नम हो जाता है तथा ऊपर की ओर इसका प्रवाह होता है जिससे एक और कम दाब का क्षेत्र विकसित होता है। यह चक्र चलता रहता है और समुद्र से जल वाष्पित होने के परिणामस्वरूप पवन क्षेत्र में बादल बनते हैं जिससे एक तूफान प्रणाली का विकास होता है। इस तूफान प्रणाली के घूर्णित होने से चक्रवात के केंद्र में आँख का विकास होता है। चक्रवात की आँख निम्न वायुदाब का क्षेत्र होता है। विशेषताएँ: 1. वे बड़ी वायुराशियाँ कम दबाव वाले केंद्र के चारों ओर घूमती हैं। 2. इन्हें विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे कि अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय, उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय आदि। 3. इनसे खराब मौसम की परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं जैसे बादल, भारी वर्षा और तूफान। 4. उत्तरी गोलार्ध में इनका प्रवाह वामावर्त और दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिणावर्त होता है। 5. इनका विकास भूमध्य रेखा के आसपास समुद्र के गर्म जल (27 oC) पर होता है। तटीय क्षेत्रों पर प्रभाव: तेज हवाएँ इमारतों, बुनियादी ढाँचे और वनस्पतियों के व्यापक विनाश का कारण बन सकती हैं। भारी वर्षा से बाढ़ आती है, जिसके परिणामस्वरूप जीवन की हानि, संपत्ति को नुकसान और आवश्यक सेवाओं में व्यवधान हो सकता है। तूफान से तटीय क्षेत्रों में बाढ़ आने के साथ निचले इलाके जलमग्न हो जाते हैं और तटरेखा का क्षरण होता है। परिवहन और संचार प्रणालियों में व्यवधान से आपातकालीन प्रतिक्रिया और होने वाली क्षति के पुनर्बहाली प्रयासों में बाधा उत्पन्न होती है। क्षतिग्रस्त विद्युत बुनियादी ढाँचे के कारण विद्युत् आपूर्ति वाधित होती है। बाढ़ के कारण जल स्रोतों के दूषित होने से जलजनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है। लोगों का उनके घरों से होने वाला विस्थापन, अस्थायी या दीर्घकालिक विस्थापन के साथ संसाधनों पर अधिक दबाव का कारण बनता है। निष्कर्ष: चक्रवात, तटीय क्षेत्रों के लिये जोखिम उत्पन्न करने वाली प्राकृतिक आपदाओं के प्रकार हैं। चक्रवातों के प्रभाव को कम करने और तटीय समुदायों की सुरक्षा हेतु प्रभावी आपदा तैयारी, पूर्व चेतावनी प्रणाली और शमन उपाय करना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विशिष्ट संदर्भ में, 18वीं शताब्दी के भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में कर्नाटक युद्धों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: कर्नाटक युद्धों की व्याख्या करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। संक्षेप में तीन कर्नाटक युद्धों का वर्णन करने के साथ बताइए कि उन्होंने किस प्रकार उस समय की राजनीति को आकार दिया था। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: दक्षिण भारत में 18वीं शताब्दी में हुए कर्नाटक युद्धों का इस क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। ये युद्ध मुख्य रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी और आर्कोट के नवाब तथा मराठों सहित विभिन्न स्थानीय शक्तियों के बीच लड़े गए सैन्य संघर्षों की एक श्रृंखला थे। मुख्य भाग: प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748): यह उत्तराधिकार के ऑस्ट्रियाई युद्ध के कारण यूरोप में होने वाले एंग्लो-फ्राँसीसी युद्ध का विस्तार था। यह युद्ध फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था। यह ऐक्स-ला-चैपल की संधि पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ था। दूसरा कर्नाटक युद्ध (1749-1754): हैदराबाद के निज़ाम और कर्नाटक के नवाब के पदों के लिये विभिन्न दावेदारों के बीच यह युद्ध हुआ था; प्रत्येक दावेदार को ब्रिटिश या फ्राँस द्वारा समर्थन दिया जा रहा था। पांडिचेरी की संधि के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ था जिसने फ्राँसीसी की क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित कर दिया था। तीसरा कर्नाटक युद्ध (1757-1763): काउंट डी लाली और सर आयर कूट के नेतृत्व में क्रमशः फ्रेंच और ब्रिटिशों के बीच यह युद्ध हुआ था। इसमें ब्रिटिश विजयी हुए जिसकी परिणति भारत से फ्राँसीसियों की वापसी और ब्रिटिश प्रभुत्व में वृद्धि के रूप में हुई थी। वर्ष 1763 की पेरिस संधि द्वारा यह युद्ध औपचारिक रूप से समाप्त हुआ था। कर्नाटक युद्धों ने 18वीं सदी के भारत के राजनीतिक परिदृश्य को किस प्रकार आकार दिया? इन युद्धों के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी प्रमुख क्षेत्रों और व्यापार मार्गों पर नियंत्रण प्राप्त करने के बाद भारत में प्रमुख यूरोपीय शक्ति के रूप में उभरी। तीसरे कर्नाटक युद्ध से फ्राँसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी कमज़ोर हुई जिससे इसके प्रभाव में गिरावट आने के साथ कुछ क्षेत्रों में इसका प्रभाव समाप्त हो गया। कर्नाटक, मैसूर और हैदराबाद जैसे भारतीय राज्य यूरोपीय शक्ति संघर्ष में उलझ गए। जिससे उनके संसाधनों और सेना पर विपरीत प्रभाव पड़ने के साथ उनकी राजनीतिक स्थिरता कमज़ोर हुई। कर्नाटक युद्धों में ब्रिटिश जीत से भारत में इसके प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त हुआ था। मराठा साम्राज्य ने कर्नाटक युद्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन युद्धों ने उन्हें अपने पारंपरिक क्षेत्रों से परे अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद की थी। निष्कर्ष: कर्नाटक युद्धों ने राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप दिया था जिसमें ब्रिटिश प्रमुख यूरोपीय शक्ति के रूप में उभरे तथा इससे भविष्य के औपनिवेशिक शासन के लिये आधार तैयार हुआ था। इसमें फ्राँसीसियों को असफलताओं का सामना करना पड़ा और भारतीय शक्तियाँ भी कमजोर हुई थीं इससे अंततः भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।</s>
<s>[INST]भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति तिलक और महात्मा गांधी के दृष्टिकोण में समानताओं और भिन्नताओं पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: तिलक और गांधी के दृष्टिकोण को संक्षेप में समझाइए। दोनों नेताओं के दृष्टिकोण में समानताओं और भिन्नताओं पर प्रकाश डालिये। उचित निष्कर्ष दीजिये। परिचय: तिलक और गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दो महत्त्वपूर्ण नेता थे जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। इनके दृष्टिकोण में समानताएँ होने के साथ इनके तरीकों और विचारधाराओं में भिन्नताएँ भी थीं। मुख्य भाग: समानताएँ: तिलक और गांधी दोनों ही स्व-शासन के महत्त्व को समझने के साथ भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्त कराने में विश्वास करते थे। दोनों नेता स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिये जन आंदोलनों की शक्ति में विश्वास करते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया था। तिलक और गांधी दोनों ही ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के विरोध के साधन के रूप में असहयोग और सविनय अवज्ञा के उपयोग में विश्वास करते थे। वे दोनों भारतीय संस्कृति और विरासत के महत्त्व में विश्वास करने के साथ इसे संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल देते थे। भिन्नताएँ: स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिये यदि आवश्यक हो तो हिंसक साधनों के उपयोग में तिलक का विश्वास था। उनका मानना था कि स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने में बल का उपयोग उचित है। दूसरी ओर गांधी, अहिंसा में अधिक विश्वास रखते थे और विरोध तथा प्रतिरोध हेतु अहिंसक साधनों की वकालत करते थे। तिलक, कट्टर राष्ट्रवादी थे जो हिंदू धर्म और संस्कृति की प्रधानता में विश्वास करते थे। दूसरी ओर गांधी समग्र राष्ट्रवाद के विचार में विश्वास करते थे, जिसमें भारत के सभी समुदाय शामिल थे। स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में तिलक का दृष्टिकोण राजनीतिक सुधार पर अधिक केंद्रित था, जबकि गांधी का दृष्टिकोण अधिक समग्र था जिसमें सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सुधार शामिल थे। तिलक शिक्षा के महत्त्व में विश्वास करते थे और जनता के बीच शिक्षा के प्रसार की वकालत करते थे। दूसरी ओर गांधी, सभी के लिये साक्षरता और बुनियादी शिक्षा के महत्त्व में विश्वास करने के साथ कताई और बुनाई जैसे व्यवहारिक कौशल की आवश्यकता पर भी बल देते थे। निष्कर्ष: बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी का ब्रिटिश शासन से भारत को स्वतंत्रता दिलाने का साझा लक्ष्य था लेकिन उनके दृष्टिकोण अलग थे। तिलक, उग्रवादी राष्ट्रवाद के पक्षधर थे लेकिन गांधी ने अहिंसक प्रतिरोध को प्राथमिकता देते हुए स्वतंत्रता की अधिक व्यापक धारणा पर बल दिया था। दोनों ही नेताओं ने भारतीय लोगों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ अंततः भारत को आजादी दिलाने में काफी योगदान दिया था।</s>
<s>[INST]सात महाद्वीपों के निर्माण और विकास हेतु उत्तरदायी प्रमुख विवर्तनिकी और जलवायु कारकों पर चर्चा कीजिये। भू-वैज्ञानिक इतिहास और प्लेट विवर्तनिकी से इनकी भौतिक और पर्यावरणीय विशेषताओं को किस प्रकार आकार मिला है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: सात महाद्वीपों के विकास के लिये उत्तरदायी प्रमुख विवर्तनिकी और जलवायविक कारकों का संक्षिप्त परिचय दीजिये। भू-वैज्ञानिक इतिहास और प्लेट विवर्तनिकी संचलन पर भौतिक और पर्यावरणीय कारकों के प्रभाव पर प्रकाश डालिये। एक समग्र और उचित निष्कर्ष दीजिये। परिचय: पृथ्वी पर सात महाद्वीपों का एक जटिल भू-वैज्ञानिक इतिहास रहा है जिसने इनकी भौतिक और पर्यावरणीय विशेषताओं को आकार दिया है। महाद्वीपों का निर्माण और विकास विवर्तनिकी और जलवायु कारकों के संयोजन का परिणाम है। मुख्य भाग: विवर्तनिकी कारक: प्लेट विवर्तनिकी: पृथ्वी की परत कई प्लेटों में विभाजित है जो निरंतर गति की अवस्था में रहती हैं। यह गति पर्वत श्रृंखलाओं,घाटियों और महासागरीय घाटियों के निर्माण के लिये उत्तरदायी है, जिससे महाद्वीपों को आकार मिलता है। उदाहरण के लिये, भारतीय और यूरेशियन प्लेटों की टक्कर से हिमालय का निर्माण हुआ है जबकि दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी प्लेटों के अलग होने से अटलांटिक महासागर का निर्माण हुआ है। महाद्वीपीय विस्थापन: महाद्वीप स्थिर नहीं हैं बल्कि यह समय के साथ संचलित होते रहते हैं। महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत से पता चलता है कि महाद्वीप कभी एक ही भू-भाग का हिस्सा थे, जो लाखों वर्षों में अलग हो गए। महाद्वीपीय विस्थापन की इस प्रक्रिया ने महाद्वीपों के निर्माण और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ज्वालामुखी: महाद्वीपों के निर्माण में ज्वालामुखी गतिविधि एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारक है। ज्वालामुखीय विस्फोट से नई भू-आकृतियों जैसे द्वीपों और पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण होने के साथ नई चट्टानों और खनिजों के निर्माण में भी योगदान मिलता है। जलवायु कारक: जलवायु परिवर्तन: पृथ्वी की जलवायु समय के साथ बदलती रहती है, जिसका महाद्वीपों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिये अंतिम हिमयुग के दौरान, उत्तरी अमेरिका और यूरोप के बड़े हिस्से बर्फ की चादरों से ढक जाने के कारण भू-परिदृश्य में काफी परिवर्तन हुआ था। महासागरीय धाराएँ: महासागरीय धाराएँ पृथ्वी की जलवायु को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं जिसका महाद्वीपों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हो सकता है। गल्फ स्ट्रीम जैसी गर्म महासागरीय धाराएँ महाद्वीपों के तटों पर गर्म जल और वायु ला सकती हैं, जबकि ठंडी समुद्री धाराएँ शुष्क स्थिति पैदा कर सकती हैं। अपक्षय और अपरदन: अपक्षय और अपरदन ऐसी प्रक्रियाएँ हैं जो समय के साथ पृथ्वी की सतह को आकार देने के साथ चट्टानों को तोड़ने एवं नई भू-आकृतियों का निर्माण करने हेतु उत्तरदायी होती हैं। ये प्रक्रियाएँ जलवायु से प्रभावित होती हैं तथा यह महाद्वीपों पर घाटियों तथा अन्य आकृतियों के निर्माण में योगदान दे सकती हैं। भू-वैज्ञानिक इतिहास और प्लेट विवर्तनिकी संचलन ने सात महाद्वीपों की भौतिक और पर्यावरणीय विशेषताओं को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाई है। जैसे: पर्वत निर्माण: प्लेट विवर्तनिकी संचलन से महाद्वीपों पर पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण हुआ है। ये पर्वत वर्षा, तापमान और वनस्पति जैसे कारकों को प्रभावित करते हुए आसपास के क्षेत्रों की जलवायु और पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। ये खनिजों और अन्य संसाधनों के महत्त्वपूर्ण स्रोत भी होते हैं। महासागरीय बेसिन निर्माण: प्लेट विवर्तनिकी से महासागरीय बेसिनों का भी निर्माण होता है। जिसका महासागरों की सीमा वाले महाद्वीपों की जलवायु और पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हो सकता है। उदाहरण के लिये, अटलांटिक महासागर का यूरोप और अफ्रीका की जलवायु पर काफी प्रभाव पड़ा है, जबकि प्रशांत महासागर ने एशिया और अमेरिका की जलवायु को प्रभावित किया है। समुद्र के जल स्तर में परिवर्तन: पृथ्वी के पूरे कालक्रम में प्लेट विवर्तनिकी संचलन और जलवायु परिवर्तन सहित विभिन्न कारकों से समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और गिरावट देखी गई है। इन परिवर्तनों का महाद्वीपों को आकार देने के साथ इनकी विशेषताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है जिससे नई तटरेखाएँ बन सकती हैं और अपक्षय और अपरदन जैसे कारक भी प्रभावित हो सकते हैं। निष्कर्ष: सात महाद्वीपों के निर्माण और विकास में प्लेट विवर्तनिकी, जलवायु परिवर्तन, ज्वालामुखी, समुद्री धाराओं और अपक्षय तथा अपरदन सहित विभिन्न कारकों का प्रभाव रहा है। इन प्रक्रियाओं ने लाखों वर्षों में महाद्वीपों को प्रभावित किया है जिससे पर्वत निर्माण, महासागर बेसिन निर्माण, समुद्र स्तर में परिवर्तन और अन्य भौतिक तथा पर्यावरणीय विशेषताओं पर प्रभाव पड़ा है। इन प्रक्रियाओं को समझकर हम महाद्वीपों के इतिहास और भविष्य के संदर्भ में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के साथ इस ग्रह की गतिशील और निरंतर बदलती प्रकृति की बेहतर समझ प्राप्त कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज और संस्कृति पर भक्ति आंदोलन के प्रभाव की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भक्ति आंदोलन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भक्ति आंदोलन के प्रभावों की विवेचना कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भक्ति आंदोलन एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था। भक्ति की उत्पत्ति को वेदों में देखा जा सकता है लेकिन इसका वास्तविक विकास 7वीं ईस्वी के बाद हुआ था। इसकी शुरुआत दक्षिण भारत में शैव नयनारों और वैष्णव अलवारों द्वारा की गई थी, जिसका बाद में सभी क्षेत्रों में विस्तार हुआ था। इसका भारतीय समाज और संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। मुख्य भाग: भारतीय समाज और संस्कृति पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन ने जाति व्यवस्था को चुनौती दी और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। इसके तहत हिंदू धर्म की पारंपरिक कर्मकांड प्रथाओं के इतर भगवान की भक्ति के महत्त्व पर जोर दिया गया था। इसमें मध्यस्थ की आवश्यकता के बिना भगवान के साथ लोगों के प्रत्यक्ष जुड़ाव को प्रोत्साहित किया गया था। भक्ति संतों ने अपने संदेश को संप्रेषित करने के लिये स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया, जिससे क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार में मदद मिली थी। भक्ति आंदोलन ने जाति, लिंग और धार्मिक सीमाओं को तोड़ते हुए लोगों में अपनेपन की भावना विकसित की थी। राजनीतिक प्रभाव: भक्ति संतों ने शासक वर्ग की अन्यायपूर्ण प्रथाओं की आलोचना की थी, जिससे लोगों के मन में इनके प्रति प्रतिरोध की भावना विकसित हुई। भक्ति आंदोलन ने भक्ति संतों के विचारों को आकार देने में मदद की, जिन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य के विकास में योगदान दिया था। आर्थिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन ने उन लोगों के लिये आजीविका का एक वैकल्पिक स्रोत प्रदान किया जो जीविकोपार्जन की पारंपरिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे। भक्ति संत स्थानीय कला और शिल्प के संरक्षक थे, जिससे क्षेत्रीय कला और हस्तशिल्प को बढ़ावा देने में मदद मिली थी। धार्मिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन से हिंदू धर्म के तहत नए संप्रदायों और उप-संप्रदायों का उदय हुआ, जिससे एक विविध और बहुलवादी धार्मिक संस्कृति का विकास हुआ था। इससे गुरु के विचार और गुरु-शिष्य परंपरा के पुनरुद्धार में मदद मिली थी। भक्ति संतों ने क्षेत्रीय धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों के विकास में योगदान दिया था। निष्कर्ष: भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज और संस्कृति पर दूरगामी प्रभाव पड़ा था। इसने भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक परिदृश्य को आकार देने में मदद की थी। यह आंदोलन आज भी भारत और विश्व के लोगों को प्रेरित करता है। </s>
<s>[INST]विश्व पटल पर फ्राँसीसी क्रांति के महत्त्व का आकलन कीजिये। इसने आधुनिक इतिहास की दिशा को किस प्रकार परिवर्तित किया था? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: फ्राँसीसी क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। फ्राँसीसी क्रांति के महत्त्व की चर्चा कीजिये। फ्राँसीसी क्रांति के बाद आधुनिक इतिहास की दिशा में होने वाले परिवर्तनों पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: फ्राँसीसी क्रांति (वर्ष 1789 से 1799 तक), फ्राँस में कट्टरपंथी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के उथल-पुथल की अवधि थी। इस दौरान देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ-साथ व्यापक स्तर पर सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवर्तन हुए थे। इस क्रांति का न केवल फ्राँस पर बल्कि शेष यूरोप और विश्व पर भी गहरा प्रभाव पड़ा था जिसने स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के लिये होने वाले अन्य आंदोलनों को प्रेरित किया था। मुख्य भाग: फ्राँसीसी क्रांति का महत्त्व: क्रांतिकारी आदर्शों का प्रसार होना: फ्राँसीसी क्रांति ने पूरे यूरोप और अमेरिका में क्रांतिकारी आंदोलनों को प्रेरित करने के साथ स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों का प्रसार किया था। इसके द्वारा राजशाही और अभिजात वर्ग की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती मिलने के साथ प्रतिनिधि सरकार और संवैधानिक अधिकारों की वकालत की गई थी। राष्ट्रवाद का उदय होना: फ्राँसीसी क्रांति से राष्ट्रवाद एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के रूप में सामने आया। इसने सामान्य समस्याओं से पीड़ित और एकीकृत राष्ट्रीय पहचान के रूप फ्राँसीसी लोगों को एक एकजुट किया, जिससे अंततः आधुनिक फ्राँसीसी राष्ट्र-राज्य का गठन हुआ था। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को पुनर्परिभाषित करना: फ्राँसीसी क्रांति द्वारा यूरोप की पारंपरिक शासन व्यवस्था को चुनौती मिलने के साथ युद्ध और संघर्ष हुए जिससे इस महाद्वीप को एक नया आकार मिला था। इससे वियना कांग्रेस के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ था जिसका उद्देश्य यूरोप में शक्ति और स्थिरता के संतुलन को बहाल करना था। मानवाधिकारों को बढ़ावा मिलना: फ्राँसीसी क्रांति से मानवाधिकारों की अवधारणा को बढ़ावा मिला, जो आधुनिक लोकतंत्र की आधारशिला बने। इस क्रांति के दौरान अपनाई गई नागरिक अधिकारों की घोषणा ने व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्थापित किया था। फ्राँसीसी क्रांति के बाद आधुनिक इतिहास की दिशा में होने वाला परिवर्तन- पुरानी व्यवस्था का अंत होना: फ्राँसीसी क्रांति से यूरोप की पुरानी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर विराम लगा। पुरानी शासन व्यवस्था (जो सामंतवाद, निरंकुश राजतंत्र और पादरियों के विशेषाधिकारों पर आधारित थी) को क्रांतिकारियों द्वारा समाप्त कर दिया गया था। क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों की घोषणा की और एक नए लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की थी। अन्य क्रांतियों का प्रेरित होना: फ्राँसीसी क्रांति का शेष यूरोप और विश्व पर गहरा प्रभाव पड़ा था। इसने अन्य क्रांतिकारी आंदोलनों को प्रेरित किया, जैसे लैटिन अमेरिका का स्वतंत्रता संघर्ष और 1848 की यूरोपीय क्रांति। फ्राँसीसी क्रांति के विचारों ने आधुनिक लोकतंत्र, राष्ट्रवाद और मानवाधिकारों के विकास को भी प्रभावित किया था। नई राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना होना: फ्राँसीसी क्रांति से नए राजनीतिक संस्थानों की स्थापना हुई जो संप्रभुता और प्रतिनिधि सरकार के सिद्धांतों पर आधारित थीं। इस क्रांति के बाद के नेपोलियन युग में सिविल कोड और लीजन ऑफ ऑनर के रूप में नवीन विकास को देखा गया। अन्य युद्धों और संघर्षों को नेतृत्व मिलना: फ्राँसीसी क्रांतिकारी युद्ध, यूरोपीय शक्तियों के खिलाफ फ्राँस द्वारा लड़े गए युद्धों की एक श्रृंखला थे। इन युद्धों के परिणामस्वरूप फ्राँसीसी साम्राज्य का विस्तार हुआ, क्रांतिकारी आदर्शों का प्रसार हुआ और यूरोपीय शक्ति संतुलन अस्थिर हो गया था। निष्कर्ष: फ्राँसीसी क्रांति को आधुनिक इतिहास के एक ऐसे ऐतिहासिक घटनाक्रम के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसका विश्व पटल पर दूरगामी प्रभाव पड़ा था। इसने क्रांतिकारी आंदोलनों को प्रेरित किया, राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया, पारंपरिक सत्ता संरचनाओं को चुनौती दी तथा मानवाधिकारों और लोकतंत्र के आदर्शों को बढ़ावा दिया था। इसकी विरासत आज भी कई देशों की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं में देखी जा सकती है।</s>
<s>[INST]कार्स्ट स्थलाकृति क्या है? इसकी विशेषताओं एवं महत्त्व का वर्णन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: कार्स्ट स्थलाकृति के बारे में संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। इसकी विशेषताओं और महत्त्व पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: चूना पत्थर वाली चट्टानों के क्षेत्र में भूमिगत जल के द्वारा सतह के ऊपर तथा नीचे विचित्र प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण घोलन की क्रिया द्वारा होता है जिन्हें कार्स्ट स्थलाकृति कहा जाता है। ये स्थलरूप अन्य प्रकार की चट्टानों पर अपरदन के अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों से सर्वथा भिन्न होते हैं। कार्स्ट शब्द, पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया के पश्चिमी तट पर पूर्वी ऐड्रियाटिक सागर के सहारे स्थित कार्स्ट प्रदेश से लिया गया है। यहाँ चूना पत्थर की चट्टानें अत्यधिक वलित अवस्था में मिलती हैं। मुख्य भाग: कार्स्ट स्थलाकृति की विशेषताएँ: कार्स्ट स्थलाकृति की विशेषताओं वाली अपरदनात्मक भू-आकृतियाँ: सिंकहोल: यह चूना पत्थर/कार्स्ट क्षेत्रों में काफी सामान्य हैं। सिंकहोल शीर्ष पर अधिक या कम गोलाकार और नीचे की ओर फनल के आकार का होता है, जिसका आकार कुछ वर्ग मीटर से एक हेक्टेयर तक होता है। गुफाएँ: गुफाएँ चट्टान के अपघटन से निर्मित भूमिगत कक्ष और मार्ग हैं। ये छोटी गुहाओं से लेकर बड़ी जटिल प्रणालियों के रूप में हो सकती हैं जो कई मील तक विस्तृत हो सकती हैं। मैमथ केव नेशनल पार्क, केंटकी, यूएसए: यह पार्क विश्व की सबसे लंबी ज्ञात गुफा प्रणाली का स्थल है, जिसमें 650 किमी से अधिक लंबे गुफा मार्ग हैं। लैपीज: लैपीज असमान खाँचे और लकीरें होती हैं जो तब बनती हैं जब विलयन प्रक्रिया द्वारा चूना पत्थर की सतह का अधिकांश भाग अपघटित हो जाता है। कार्स्ट स्थलाकृति की विशेषताओं वाली निक्षेपित भू-आकृतियाँ: स्टैलेक्टाइट्स: स्टैलेक्टाइट्स विभिन्न व्यास के आइकल्स के रूप में लटकते हैं। आमतौर पर ये अपने स्रोत पर चौड़े होते हैं और विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले मुक्त सिरों की ओर झुके होते हैं। स्टैलेग्माइट्स: स्टैलेग्माइट्स स्तंभ और डिस्क का आकार ले सकते हैं, जिसमें चिकने, गोल उभारयुक्त अंतिम सिरे के साथ छोटा गड्ढा हो सकता है। स्तंभ: कभी-कभी स्टैलेक्टाइट और स्टैलेग्माइट एक साथ मिलकर एक पूर्ण स्तंभ बनाते हैं जिसे स्तंभ के रूप में जाना जाता है। हा लांग बे, वियतनाम: यह यूनेस्को विश्व विरासत स्थल अपने टॉवर जैसी चूना पत्थर संरचनाओं के लिये जाना जाता है, जो कार्स्ट स्थलाकृति द्वारा बनाई गई हैं। अन्य विशेषताएँ: विलुप्त धाराएँ: विलुप्त धाराएँ, भूमिगत जल निकासी प्रणालियों के रूप में बहने वाली धाराएँ होती हैं। भूमिगत झील: प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली अधिकांश भूमिगत झीलें ऐसे कार्स्ट स्थलाकृति क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जहाँ चूना पत्थर या अन्य घुलनशील चट्टानों के अपक्षय होने से निर्मित गड्ढे में जल का बहाव होने से जल जमा हो जाता है। कार्स्ट स्थलाकृतियों की विशेषताएँ: भूवैज्ञानिक महत्त्व: घुलनशील चट्टानों के विघटन के परिणामस्वरूप जटिल भूमिगत जल निकासी प्रणाली का विकास होता है जिससे विशाल गुफा प्रणाली का निर्माण हो सकता है। इन गुफाओं में महत्त्वपूर्ण भूवैज्ञानिक संरचनाएँ हो सकती हैं जैसे कि स्टैलेक्टाइट्स, स्टैलेग्माइट्स और फ्लोस्टोन, जिनसे पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास के संबंध में अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। मानव समुदाय के लिये महत्त्व: विश्व भर में कई कार्स्ट क्षेत्रों का उपयोग कृषि और वानिकी के लिये किया जाता है और यह अवसंरचना निर्माण के लिये चूना पत्थर जैसे कच्चे माल के महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। हालाँकि, मानव गतिविधियों का कार्स्ट पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जैसे भूजल संदूषण और मृदा क्षरण। पारिस्थितिकी महत्त्व: यह स्थलाकृतियाँ विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों के लिये आवास प्रदान करती हैं जिनमें से कई कार्स्ट वातावरण हेतु अद्वितीय होते हैं। चट्टानी संरचनाओं की छिद्रित प्रकृति से इनसे जल का रिसाव होने से भूमिगत जल प्रवाह प्रणाली का विकास होता है जिससे पीने, सिंचाई और उद्योग के लिये मीठे जल के महत्त्वपूर्ण स्रोत प्राप्त होते हैं। निष्कर्ष: कार्स्ट स्थलाकृतियाँ फ्राँस के कॉकस, चीन के क्वांगसी क्षेत्र, संयुक्त राज्य अमेरिका में युकाटन प्रायद्वीप सहित विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में मिलती हैं। मानव गतिविधियों का कार्स्ट पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने के कारण इन संवेदनशील स्थलाकृतियों की रक्षा और संरक्षण करना महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था को आकार देने में वर्साय की संधि का क्या महत्त्व था? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: वर्साय की संधि के बारे में संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। वर्साय की संधि के महत्त्व की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: वर्ष 1919 में हस्ताक्षरित वर्साय की संधि, विश्व इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसने प्रथम विश्व युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था को आकार दिया था। यह वुडरो विल्सन के 14 सूत्रीय भाषण (1918) के सिद्धांतों पर आधारित थी, जिसमें पूरी तरह से निरस्त्रीकरण के द्वारा स्वशासन, अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने पर बल दिया गया था। मुख्य भाग: इस संधि का महत्त्व: यूरोप के मानचित्र का पुनर्निर्धारण: इस संधि द्वारा यूरोप के मानचित्र का पुनर्निर्धारण करते हुए कुछ नए राज्यों का निर्माण किया गया और कुछ अन्य के क्षेत्रों का विस्तार किया गया। इसके तहत जर्मनी को अपने क्षेत्र को बेल्जियम, चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड को सौंपने तथा अल्सेस और लॉरेन क्षेत्रों को फ्राँस को वापस करने के लिये मजबूर किया गया था। राष्ट्र संघ (League of Nations) का गठन: इस संधि द्वारा सामूहिक सुरक्षा और निरस्त्रीकरण के माध्यम से भविष्य के युद्धों को रोकने के उद्देश्य से एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। जर्मनी पर कठोर शर्तों को आरोपित करना: इस संधि द्वारा जर्मनी पर कठोर शर्तों को लागू किया था। जिसमें जर्मनी को युद्ध की पूरी जिम्मेदारी लेने, इससे हुई क्षति की भरपाई करने और अपनी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति पर प्रतिबंध लगाने के लिये मजबूर किया गया था। इसमें युद्ध अपराधों के लिये जर्मनी के शासक कैसर विल्हेम-II पर मुकदमा चलाने के लिये कहा गया था। इसके साथ-साथ इसमें "युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद" शामिल किया गया था, जिसमें जर्मनी को युद्ध शुरू करने के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया गया था और उससे मित्र देशों को युद्ध के नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के लिये कहा गया था। राष्ट्रवाद का उदय: इस संधि से न केवल नवगठित राज्यों के बीच राष्ट्रवाद और गौरव की भावना विकसित हुई थी बल्कि पराजित शक्तियों के बीच आक्रोश और बदला लेने की इच्छा भी उत्पन्न हुई। इससे जर्मन लोगों में उत्पन्न होने वाले आक्रोश से एडॉल्फ हिटलर और नाजी पार्टी के उदय हेतु आधार तैयार हुआ था। असैन्यीकरण (Demilitarization): जर्मनी की सैन्य क्षमता को कमजोर करने के लिये उसे अपने सशस्त्र बलों को व्यापक स्तर पर कम करने के लिये मजबूर किया गया था। निष्कर्ष:: कुल मिलाकर, प्रथम विश्व युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था को आकार देने में वर्साय की संधि का महत्त्वपूर्ण योगदान था। यह संधि क्षमा, करुणा एवं देशों के बीच संबंधों की बहाली तथा दीर्घकालीन स्तर पर शांति सुनिश्चित करने की इच्छा के इतर भय एवं क्रोध पर आधारित थी। वर्साय की संधि के परिणामस्वरूप यूरोप में उदित होने वाले क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में हुई।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज में जाति-आधारित भेदभाव का एक लंबा इतिहास रहा है। इस समस्या को दूर करने के क्रम में डॉ भीमराव अंबेडकर के योगदानों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: जाति-आधारित भेदभाव की बेड़ियों से भारतीय समाज किस प्रकार जकड़ा हुआ था, यह बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। जातिवाद के उन्मूलन में डॉ. अंबेडकर की भूमिका पर चर्चा कीजिये। डॉ. अंबेडकर के योगदान के प्रभावों को बताते हुए चर्चा कीजिये कि किस प्रकार उनके प्रयास आज भी मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। परिचय: जाति नियंत्रण का दूसरा नाम है। जाति द्वारा लोगों के उपभोग पर सीमा आरोपित होती है। जाति किसी व्यक्ति को अपने उपभोग के लिये जाति की सीमाओं को लांघने की अनुमति नहीं देती है……... ― B R Ambedkar भारत की जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण के दुनिया के सबसे पुराने रूपों में से एक है। जाति व्यवस्था एक ऐसी सामाजिक संरचना है जो लोगों को उनके जन्म के आधार पर विभिन्न जातियों में विभाजित करती है, प्रत्येक जाति की अपनी सामाजिक स्थिति, व्यवसाय और प्रतिबंध होते हैं। हिंदू धर्म में चार मुख्य जातियाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थीं और जाति व्यवस्था के बाहर ऐसे समूह भी हैं जिन्हें दलित या "अछूत" कहा जाता है। ऐतिहासिक रूप से जाति-आधारित भेदभाव ने कई रूप ले लिये हैं जैसे कि अस्पृश्यता- जिसमें निम्न जातियों के लोगों को अनुष्ठानिक रूप से अशुद्ध माना जाता था और कुछ गतिविधियों या स्थानों से उन्हें वर्जित किया जाता था एवं निम्न जाति के व्यक्तियों की शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दलित मुक्ति के आंदोलन को प्रेरित करने में था। उन्हें दलित चेतना जगाने का श्रेय दिया जाता है जिससे समाज में समानता का मार्ग प्रशस्त हुआ था। मुख्य भाग: समाज से जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने की दिशा में डॉ. भीम राव अंबेडकर का योगदान: भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करना: प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अंबेडकर ने भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर बल देने के साथ विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से जाति-आधारित भेदभाव को गैरकानूनी घोषित किया (विशेष रूप से मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 से 18 तक)। इसके साथ ही राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत सामाजिक और आर्थिक न्याय हेतु एक ढाँचा भी प्रदान किया था। सामाजिक समानता के लिये अभियान चलाना: अंबेडकर जाति व्यवस्था के मुखर आलोचक थे और उन्होंने सामाजिक समानता के लिये अभियान चलाया था। उन्होंने अछूतों के कल्याण हेतु कार्य करने के लिये वर्ष 1924 में "बहिष्कृत हितकारिणी सभा" की स्थापना की थी और बाद में समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये "अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ" की स्थापना की थी। उन्होंने वर्ष 1927 में महाड सत्याग्रह का भी नेतृत्त्व किया था जिसे दलित आंदोलन की "आधारभूत घटना" माना जाता है। इससे पहले वर्ष 1930 में उन्होंने लगभग 15000 दलितों को पहली बार भगवान के दर्शन कराने में मदद करने के लिये कालाराम मंदिर में प्रवेश कराया था। आरक्षण प्रणाली का प्रावधान करना: अंबेडकर ने आरक्षण प्रणाली का प्रस्ताव रखा, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक सीटों का एक निश्चित प्रतिशत समाज के सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षित किया जाए। इससे इन वर्गों को शिक्षा और रोज़गार के अवसर मिलने के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से उनका उत्थान करने में सहायता मिली। अंबेडकर ने वर्ष 1932 में महात्मा गांधी के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किये, जिससे दलितों के लिये सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया था। शैक्षिक सुधार: अंबेडकर ने सामाजिक असमानता को दूर करने में शिक्षा के महत्त्व पर ज़ोर देने के साथ समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों हेतु शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के लिये कार्य किया था। निष्कर्ष: शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सकारात्मक नीतियों जैसे आरक्षण एवं मौलिक अधिकारों के प्रावधान जैसे कि समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17) और उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18) के माध्यम से दलितों और हाशिए पर स्थित अन्य समुदायों को सशक्त बनाने के अंबेडकर के प्रयासों का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। हाल के दशकों में हुई प्रगति के बावजूद, जाति आधारित भेदभाव भारतीय समाज के लिये एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। हालाँकि अंबेडकर की विरासत और दृष्टिकोण से अधिक समावेशी और न्यायसंगत भारत हेतु मार्ग प्रशस्त होता रहेगा।</s>
<s>[INST]भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के योगदान को बताते हुए चर्चा कीजिये कि उनकी विचारधाराओं और रणनीतियों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को किस प्रकार आकार दिया था? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी की भूमिका का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। चर्चा कीजिये कि उनकी विचारधाराओं और रणनीतियों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को किस प्रकार आकार दिया था। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: महात्मा गांधी ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह 1920 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरे और अहिंसक सविनय अवज्ञा के अपने सिद्धांतों के लिये जाने गए। गांधी ने वर्ष 1930 में नमक मार्च सहित कई सफल अभियानों का नेतृत्व किया था, जिसमें उन्होंने और उनके अनुयायियों ने नमक उत्पादन पर ब्रिटिश एकाधिकार का विरोध करने के लिये अरब सागर तक मार्च किया था। इस अभियान के परिणामस्वरूप भारतीय नमक अधिनियम को निरस्त कर दिया गया और ब्रिटिश सरकार ने इस संदर्भ में अधिक स्वायत्तता की भारतीय मांगों को मान लिया। मुख्य भाग: भारत के स्वतंत्रता संग्राम को आकार देने वाली इनकी विचारधाराएँ और रणनीतियाँ: अहिंसा: गांधी का अहिंसा का दर्शन उनकी राजनीतिक और सामाजिक मान्यताओं के मूल में था। उनका मानना था कि हिंसा केवल अधिक हिंसा को जन्म देती है और अहिंसक प्रतिरोध समाज में बदलाव लाने का एक अधिक प्रभावी तरीका है। गांधी के अहिंसक दृष्टिकोण ने विश्व भर में कई अन्य नागरिक अधिकारों और मुक्ति आंदोलनों को प्रभावित किया है। सत्याग्रह: सत्याग्रह (जिसका अर्थ है "सत्य पर टिके रहना") अहिंसक प्रतिरोध का एक तरीका था जिसे गांधी ने विकसित किया था जिसका भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया था। इसमें अन्यायपूर्ण कानूनों और दमनकारी नीतियों को चुनौती देने के लिये सविनय अवज्ञा, हड़ताल, बहिष्कार और अन्य अहिंसक साधनों का उपयोग किया जाना शामिल था। सत्याग्रह का उद्देश्य उत्पीड़नकर्त्ताओं के ह्रदय को परिवर्तित करना था और बल या जबरदस्ती के बजाय अंतरात्मा से संघर्ष करना था। असहयोग: असहयोग एक अन्य रणनीति थी जिसका उपयोग गांधी भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिये करते थे। उन्होंने भारतीयों से ब्रिटिश वस्तुओं, संस्थानों और कानूनों का बहिष्कार करने और करों का भुगतान न करने या ब्रिटिश द्वारा संचालित चुनावों में भाग न लेने का आह्वान किया था। असहयोग आंदोलन का उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता हेतु ब्रिटिशों पर दबाव बनाना था। सविनय अवज्ञा: सविनय अवज्ञा अहिंसक प्रतिरोध का एक रूप था जिसमें अन्यायपूर्ण कानूनों या विनियमों को तोड़ना और उन कार्यों के परिणामों को स्वीकार करना शामिल था। गांधी ने वर्ष 1930 में नमक मार्च का नेतृत्त्व किया था, जिसमें उन्होंने और हज़ारों अनुयायियों ने ब्रिटिश नमक कानूनों की अवहेलना के क्रम में अपना नमक बनाने के लिये अरब सागर तक मार्च किया था। गांधी की रणनीति में सविनय अवज्ञा एक शक्तिशाली उपकरण था और इसने स्वतंत्रता आंदोलन हेतु जन समर्थन जुटाने में सहायता की थी। निष्कर्ष: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान अतुलनीय था। अहिंसा और सविनय अवज्ञा के उनके दर्शन तथा असहयोग एवं सविनय अवज्ञा की उनकी रणनीति और उनके नेतृत्त्व ने भारतीय जनता को एकजुट करने के साथ ब्रिटिशों को भारतीयों की मांगों को मानने के लिये मजबूर किया था। गांधी की विरासत आज भी विश्व भर के लोगों को न्याय और स्वतंत्रता के लिये लड़ने हेतु प्रेरित करती है।</s>
<s>[INST]हिमालयी राज्यों में भू-धँसाव और भूस्खलन की हालिया घटनाओं के संदर्भ में बताइये कि ऐसी घटनाओं के घटित होने में विकासात्मक गतिविधियों की क्या भूमिका है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूस्खलन और भू-धँसाव का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भूस्खलन की घटना में विकासात्मक गतिविधियों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भूस्खलन के लिये उत्तरदायी अन्य कारणों पर चर्चा कीजिये। उचित निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भूस्खलन का अभिप्राय चट्टान के ढेर या मलबे का ढलान से नीचे की ओर विस्थापित होना है जबकि भूमि अवतलन का तात्पर्य पृथ्वी की सतह का धँसाव होना है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा प्रकाशित 'लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया' के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र में भारत की 66% भूस्खलन घटनाएँ होती हैं। उत्तराखंड में जोशीमठ का अवतलन होना, भू-धँसाव की हाल की प्रमुख घटना है। मुख्य भाग: भूस्खलन और भू-धँसाव में विकासात्मक गतिविधियों की भूमिका: शहरीकरण: हिमालयी क्षेत्र की विकासात्मक गतिविधियों से भूमि अवतलन और भूस्खलन को बढ़ावा मिल सकता है। उदाहरण के लिये गगनचुंबी इमारतों के निर्माण से, मृदा धँसाव हो सकता है। जोशीमठ के भूमि धँसाव में अन्य कारकों के साथ-साथ तेजी से हो रहा शहरीकरण एक महत्त्वपूर्ण कारक रहा है। जलवायु परिवर्तन: मानवजनित गतिविधियों से होने वाला जलवायु परिवर्तन भी हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन और भूमि धँसाव की घटना का प्रमुख कारक है। पिघलते ग्लेशियर, अनियमित वर्षा प्रतिरूप और बढ़ते तापमान से मृदा अस्थिर हो सकती है जिससे भूस्खलन और भूमि धँसाव का जोखिम बढ़ सकता है। भूमि का अनुचित उपयोग: अनुचित भूमि उपयोग जैसे कि अनियमित विनिर्माण से भूस्खलन और भूमि धँसाव को बढ़ावा मिल सकता है। उदाहरण के लिये पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र में अनियमित विनिर्माण और अतिक्रमण को केदारनाथ आपदा के प्रमुख कारकों में से एक के रूप में पहचाना गया है। खनन: खनन गतिविधियाँ से मृदा संरचना कमजोर हो सकती है जिससे भूमि धँसाव और भूस्खलन को बढ़ावा मिल सकता है। निर्वनीकरण: विकासात्मक गतिविधियों जैसे बाँधों, सड़कों और इमारतों के निर्माण हेतु वनों की कटाई करने के कारण मृदा अस्थिर होने से भूस्खलन के जोखिम में वृद्धि हो सकती है। उदाहरण के लिये उत्तराखंड में श्रीनगर हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के निर्माण में व्यापक स्तर पर वनों की कटाई की गई थी, जो इस राज्य में वर्ष 2013 में आई बाढ़ में योगदान देने वाले प्रमुख कारकों में से एक था। अन्य कारण: भारी वर्षा, बर्फबारी और ज्वालामुखी विस्फोट आदि जैसे प्राकृतिक कारणों से भी भूस्खलन हो सकता है। भूस्खलन के मलबे वाले पुराने क्षेत्र भूमि धँसाव हेतु अधिक प्रवण होते हैं। जोशीमठ में होने वाले भूमि धँसाव के संदर्भ में यह प्रमुख कारकों में से एक था। निष्कर्ष: सतत विकास प्रथाओं को अपनाने के साथ यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने वाली पर्यावरणीय अनुकूल विकासात्मक गतिविधियों पर बल दिया जाए। इसमें वनीकरण, खनन गतिविधियों का उचित नियमन और पर्यावरण अनुकूल शहरी नियोजन जैसी प्रथाओं को बढ़ावा देने जैसे उपाय शामिल हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिये पूर्व चेतावनी प्रणाली एवं आपदा पूर्व तैयारी योजना पर बल देने के साथ समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन पहलों को लागू किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]वैश्विक मौसम प्रतिरूप पर अल नीनो और ला नीना के प्रभाव की चर्चा करते हुए बताइये कि ये उष्णकटिबंधीय देशों की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अल नीनो और ला नीना के बारे में संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। अल नीनो और ला नीना के प्रभावों पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: अल नीनो और ला नीना, प्रशांत महासागर के तापमान में बदलाव के कारण होने वाली जलवायु घटनाएँ हैं। वैश्विक मौसम प्रतिरूप और उष्णकटिबंधीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मुख्य भाग: अल नीनो और ला नीना का वैश्विक मौसम प्रतिरूप पर प्रभाव अल नीनो के दौरान, पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र के अधिक तापमान के परिणामस्वरूप वायुमंडलीय परिसंचरण प्रतिरूप में परिवर्तन हो सकता है। इससे दक्षिण पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में कम वर्षा हो सकती है और इसके साथ ही दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के कुछ हिस्सों में वर्षा में वृद्धि हो सकती है। अल नीनो दक्षिण पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में सूखा, जंगल की आग और फसल की विफलता का कारण बन सकता है जबकि दक्षिण अमेरिका में यह बाढ़ और भूस्खलन का कारण बन सकता है। ला नीना के दौरान पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र के कम तापमान के कारण यह प्रतिरूप विपरीत हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण पूर्व एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया में वर्षा में वृद्धि हो सकती है और दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के कुछ हिस्सों में वर्षा में कमी आ सकती है। ला नीना दक्षिण पूर्व एशिया में बाढ़ और भूस्खलन का कारण बन सकता है जबकि दक्षिण अमेरिका में सूखा और फसल की विफलता का कारण बन सकता है। तापमान विसंगतियाँ: अल नीनो और ला नीना दोनों से ही विश्व स्तर पर तापमान विसंगतियों को जन्म मिल सकता है। अल नीनो के दौरान, प्रशांत क्षेत्र में तापमान औसत से अधिक हो सकता है जबकि अटलांटिक में कम हो सकता है। ला नीना के दौरान प्रशांत क्षेत्र में तापमान, औसत से कम हो सकता है जबकि अटलांटिक में अधिक होता है। हरिकेन और टाइफून पर प्रभाव: अल नीनो और ला नीना भी विश्व के विभिन्न हिस्सों में तूफान और टाइफून की आवृत्ति और तीव्रता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं। उदाहरण के लिये अल नीनो द्वारा अटलांटिक क्षेत्र में तूफान की गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है जबकि पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में तूफान की गतिविधि में कमी आती है। उष्णकटिबंधीय देशों पर अल नीनो और ला नीना के आर्थिक प्रभाव: कृषि: अल नीनो और ला नीना के दौरान वर्षा के प्रतिरूप में बदलाव का कृषि उत्पादन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है, जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कई देशों के लिये आय का एक प्रमुख स्रोत है। सूखे या बाढ़ से फसल की पैदावार में कमी आने के साथ खाद्य कीमतों में वृद्धि हो सकती है जिससे किसानों की आय कम हो सकती है। मत्स्यन: अल नीनो और ला नीना का मछलियों की संख्या पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है जो कई तटीय समुदायों के लिये खाद्य तथा आय के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत है। समुद्र के तापमान में बदलाव से मछलियों के प्रवास प्रतिरूप में बदलाव होने से मछुआरों की आय में कमी आ सकती है। ऊर्जा उत्पादन: अल नीनो और ला नीना से ऊर्जा उत्पादन (विशेष रूप से पनबिजली) क्षमता प्रभावित हो सकती है। वर्षा के प्रतिरूप में बदलाव से नदियों और जलाशयों के जल स्तर में उतार-चढ़ाव होने से जलविद्युत की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है। पर्यटन: अल नीनो और ला नीना के दौरान होने वाले मौसम के प्रतिरूप में परिवर्तन से उष्णकटिबंधीय देशों में पर्यटन प्रभावित हो सकता है। सूखे या बाढ़ के कारण पर्यटन में कमी आ सकती है जिससे पर्यटन से संबंधित व्यवसायों के लोगों की आय कम हो सकती है। निष्कर्ष: अल नीनो और ला नीना से सूखा एवं बाढ़ के साथ तापमान प्रतिरूप में परिवर्तन जैसी घटनाएँ देखी जा सकती हैं। इन घटनाओं के प्रभावों को कम करने के लिये इन्हें समझना और इनकी निगरानी करना महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]औद्योगिक क्रांति ने यूरोप और उत्तरी अमेरिका में समाज और अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित किया था? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। समाज और अर्थव्यवस्था पर औद्योगिक क्रांति के प्रभावों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: औद्योगिक क्रांति व्यापक परिवर्तनों की अवधि थी जिसने यूरोप और उत्तरी अमेरिका के समाज और अर्थव्यवस्था को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया था। इस अवधि में लोगों के कार्य करने, रहने और एक-दूसरे के साथ व्यवहार करने के तरीके में महत्त्वपूर्ण बदलाव देखा गया था। इस क्रांति से दोनों क्षेत्रों की अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन होने के साथ नई तकनीकों, नए सामाजिक वर्गों और जीवन के नए तरीकों का उदय हुआ था। मुख्य भाग: औद्योगिक क्रांति 18वीं सदी के अंत में शुरू हुई थी। ब्रिटेन में शुरू होकर तेजी से यूरोप और उत्तरी अमेरिका के अन्य हिस्सों में इसका विस्तार हुआ था। इस क्रांति से कृषि, परिवहन, संचार और विनिर्माण क्षेत्र में बड़े बदलाव आए थे। समाज और अर्थव्यवस्था पर औद्योगिक क्रांति के प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं: फैक्ट्री प्रणाली का उदय: औद्योगिक क्रांति से यूरोप और उत्तरी अमेरिका में फैक्ट्री प्रणाली का उदय देखा गया। इससे शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ, क्योंकि लोगों ने कारखानों में काम करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जाना शुरू किया था। इस प्रणाली से वस्तुओं के उत्पादन के तरीके में महत्त्वपूर्ण बदलाव आए थे क्योंकि मशीनों ने मानव श्रम का स्थान लिया था। इससे दक्षता और उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था का विकास हुआ था। नए सामाजिक वर्गों का उदय: औद्योगिक क्रांति के कारण यूरोप और उत्तरी अमेरिका में नए सामाजिक वर्गों का उदय हुआ था। कारखाने के मालिक और पूंजीपति नए अभिजात वर्ग के रूप में उभरे जबकि मजदूर वर्ग के रूप में भी नए वर्ग का उदय हुआ था। इससे ऐसी सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को जन्म मिला था जिसमें अमीर और अमीर तथा गरीब और भी गरीब होते जा रहे थे। व्यापार में वृद्धि और वैश्वीकरण: औद्योगिक क्रांति से यूरोप और उत्तरी अमेरिका में व्यापार में वृद्धि होने के साथ वैश्वीकरण को प्रोत्साहन मिला था। भाप के इंजन और रेलमार्ग जैसी नई तकनीकों से वस्तुओं और लोगों का लंबी दूरी तक गमन आसान हुआ। इससे विभिन्न क्षेत्रों के बीच व्यापार में वृद्धि होने के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हुई थी। तकनीकी प्रगति: औद्योगिक क्रांति से यूरोप और उत्तरी अमेरिका में महत्त्वपूर्ण तकनीकी प्रगति हुई थी। स्पिनिंग जेनी, पॉवर लूम और स्टीम इंजन जैसे नए आविष्कारों से वस्तुओं के उत्पादन के तरीके में क्रांति आई थी। इससे दक्षता और उत्पादकता में वृद्धि होने से अर्थव्यवस्था का विकास हुआ था। पर्यावरणीय प्रभाव: औद्योगिक क्रांति से यूरोप और उत्तरी अमेरिका के क्षेत्र में पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। इस दौरान कारखानों और शहरी क्षेत्रों के विकास के कारण प्रदूषण और पर्यावरणीय क्षरण में वृद्धि हुई। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर इसके दीर्घकालिक परिणाम हुए। संपत्ति में वृद्धि: औद्योगिक क्रांति से संपत्ति की मात्रा में वृद्धि होने से मध्यम वर्ग का उदय हुआ था। शहरीकरण में बदलाव: उद्योगों का विकास होने से और अधिक श्रमिकों की आवश्यकता हुई, जिसके कारण लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवासित हुए। इस क्रम में शहरीकरण में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया। इस प्रवासन के कारण शहरों में भीड़भाड़ एवं रहने की दयनीय स्थिति उत्पन्न होने के साथ स्वास्थ्य संबंधी मानकों में गिरावट को देखा गया। निष्कर्ष: औद्योगिक क्रांति व्यापक परिवर्तनों की अवधि थी जिसका यूरोप और उत्तरी अमेरिका के समाज तथा अर्थव्यवस्था पर काफी प्रभाव पड़ा था। वस्तुओं के उत्पादन के तरीके में परिवर्तन, नए सामाजिक वर्गों के उदय, व्यापार और वैश्वीकरण में वृद्धि, तकनीकी प्रगति एवं पर्यावरणीय क्षरण के रूप में इसके विभिन्न प्रभाव देखे गए। अर्थव्यवस्था पर कई सकारात्मक प्रभाव होने के साथ औद्योगिक क्रांति के समाज और पर्यावरण पर कई नकारात्मक प्रभाव भी पड़े थे। कुल मिलाकर औद्योगिक क्रांति का दौर मानव इतिहास में एक ऐसा निर्णायक चरण था जिससे हमारे जीने, कार्य करने और एक दूसरे के साथ व्यवहार करने के तरीकों में काफी परिवर्तन आया था।</s>
<s>[INST]भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों के विकास और वैश्विक नृत्य के रूप में उनकी स्थिति की व्याख्या कीजिये। समय के साथ इनके विकसित होने तथा वर्तमान में मौजूद इनके विभिन्न प्रकारों की चर्चा कीजिये? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारतीय नृत्य शैली का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। विभिन्न भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों के विकास पर चर्चा कीजिये। वैश्विक नृत्य रूप के रूप में भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों के विकास और स्थिति पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत को इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिये जाना जाता है तथा भारतीय शास्त्रीय नृत्य इसके अभिन्न अंग हैं। भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप हजारों वर्षों में विकसित हुए हैं तथा यह भारतीय संस्कृति, पौराणिक कथाओं और धार्मिक परंपराओं से गहराई से संबंधित हैं। ये नृत्य रूप न केवल भारत में लोकप्रिय हैं बल्कि इन्होंने पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर भी मान्यता प्राप्त की है। मुख्य भाग: भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों का विकास: भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों की शुरुआत को प्राचीन काल में 200 ईसा पूर्व से देखा जा सकता है। इनका आयोजन मंदिरों और महलों में होता था तथा इन्हें पूजा का रूप माना जाता था। समय के साथ ये नृत्य विकसित होने के साथ बौद्ध धर्म, जैन धर्म और इस्लामी परंपराओं सहित विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं से प्रभावित हुए थे। भारत में आठ शास्त्रीय नृत्य रूप हैं जिन्हें भारत में संगीत नाटक अकादमी द्वारा मान्यता प्राप्त है। इनमें से प्रत्येक नृत्य रूप की अनूठी शैली, इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व है। भरतनाट्यम: भरतनाट्यम भारत में सबसे लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक है। इसका विकास तमिलनाडु के मंदिरों में हुआ और इसका आयोजन 2,000 से अधिक वर्षों से किया जा रहा है। भरतनाट्यम को हाथ की गतियों, चेहरे के भाव और शरीर की आकर्षक गतिविधियों के लिये जाना जाता है। इसे अक्सर एकल नृत्य के रूप में किया जाता है। कथकली: कथकली केरल का एक पारंपरिक नृत्य है जिसकी उत्पत्ति 17वीं शताब्दी में हुई थी। इसे विस्तृत श्रृंगार, वेशभूषा और चेहरे के भावों के लिये जाना जाता है। कथकली के दौरान हिंदू पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन होता है और इसे पुरुष नर्तकों द्वारा किया जाता है। कथक: कथक उत्तरी भारत का एक शास्त्रीय नृत्य रूप है जिसकी उत्पत्ति मुगल काल में हुई थी। इसे पैरों की तेज़ गतियों, घुमाव तथा उत्साही गतियों के लिये जाना जाता है। कथक में भारतीय पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन होता है। कुचिपुड़ी: कुचिपुड़ी आंध्र प्रदेश का एक शास्त्रीय नृत्य रूप है जिसकी उत्पत्ति 17वीं शताब्दी में हुई थी। इसे पैरों की जटिल गतिविधियों और चेहरे के भावों के लिये जाना जाता है। इसमें हिंदू पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन होता है और अक्सर इसे एकल नृत्य के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। मणिपुरी: यह मणिपुर का एक शास्त्रीय नृत्य रूप है जिसकी उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में हुई थी। इसे निर्दिष्‍ट लयात्‍मक भंगिमाओं और शरीर की गतिविधियों के लिये जाना जाता है। मोहिनीअट्टम: मोहिनीअट्टम केरल का एक शास्त्रीय नृत्य है जिसकी उत्पत्ति 16वीं शताब्दी में हुई थी। इसे विशिष्ट लयात्‍मक भंगिमाओं और शरीर की विशेष गतियों के लिये जाना जाता है। इसमें हिंदू पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन होता है जिसे अक्सर महिला नर्तकियों द्वारा किया जाता है। ओडिसी: यह ओडिशा का एक शास्त्रीय नृत्य रूप है जिसकी उत्पत्ति दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी। इसे विशिष्ट गतिविधियों, पैरों के जटिल संचलन और सुंदर मुद्राओं के लिये जाना जाता है। सत्रिया: सत्रिया असम का एक शास्त्रीय नृत्य रूप है जिसकी उत्पत्ति 15वीं शताब्दी में हुई थी। इसे विशिष्ट गतिविधियों, पैरों के जटिल संचलन और सुंदर मुद्राओं के लिये जाना जाता है। वैश्विक नृत्य के रूप में भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों का विकास और इनकी स्थिति: सांस्कृतिक परंपराओं, सामाजिक परिवर्तनों और वैश्वीकरण जैसे विभिन्न कारकों से भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप समय के साथ विकसित हुए हैं। औपनिवेशिक युग में इन नृत्य रूपों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होने के बावजूद इनका आयोजन और प्रचार भारतीय नृत्य कलाकारों द्वारा किया गया। स्वतंत्रता के बाद विश्व स्तर पर इन नृत्य रूपों को मानकीकृत करने एवं लोकप्रिय बनाने के लिये कई संस्थानों और अकादमियों की स्थापना की गई थी। इसके साथ ही भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों को वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई और अब कई देशों में इनका प्रदर्शन और प्रचलन देखने को मिलता है। गैर-भारतीय नर्तकियों द्वारा भी इन नृत्य रूपों का प्रदर्शन होता है जिससे इनकी नवीन शैलियों का उदय हुआ है। निष्कर्ष: भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों का समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व है। समय के साथ विकसित यह नृत्य विभिन्न कारकों से प्रभावित हुए हैं। इन नृत्य रूपों को वैश्विक मान्यता प्राप्त हुई है और आज यह कई देशों में लोकप्रिय हैं। भारत की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने और विश्व स्तर पर सांस्कृतिक विविधता और समझ को बढ़ावा देने के लिये इन नृत्य रूपों का संरक्षण और प्रचार किया जाना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]भारतीय लोक कला और शिल्प की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जिससे भारतीय संस्कृति की विविधता प्रदर्शित होती है। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारतीय लोक और शिल्प कला के बारे में संक्षेप में बताते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भारतीय लोक और शिल्प कला के उन तत्त्वों पर चर्चा कीजिये जिनसे भारतीय संस्कृति की विविधता प्रदर्शित होती है। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत अपनी विविध और जीवंत संस्कृति के लिये जाना जाता है जो इसकी कला और शिल्प परंपराओं में परिलक्षित होती है। भारतीय लोक और शिल्प कला की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जो भारतीय संस्कृति की विविधता को प्रदर्शित करती है। ये कला रूप पीढ़ियों से अनवरत जारी रहने के साथ भारत की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मुख्य भाग: भारतीय लोक और शिल्प कला का इतिहास एवं महत्त्व: भारतीय लोक और शिल्प कला का एक लंबा इतिहास है जो प्राचीन काल से अनवरत जारी है। ये कला रूप स्थानीय कारीगरों और शिल्पकारों की देन हैं जिन्होंने अद्वितीय और जटिल डिज़ाइन बनाने के लिये प्राकृतिक सामग्रियों और पारंपरिक तकनीकों का उपयोग किया था। लोक और शिल्प कला का उपयोग अक्सर घरों, मंदिरों और सार्वजनिक स्थानों को सजाने के लिये किया जाता था और इन्होंने धार्मिक एवं सांस्कृतिक समारोहों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत के प्रत्येक क्षेत्र की लोक और शिल्प कला की अपनी अनूठी शैली है जो भारतीय संस्कृति की विविधता को दर्शाती है। भारतीय लोक और शिल्प कला के कुछ सबसे लोकप्रिय रूपों में निम्नलिखित शामिल हैं: मधुबनी पेंटिंग: बिहार के मिथिला क्षेत्र में विकसित मधुबनी पेंटिंग पारंपरिक भारतीय कला का एक रूप है जिसमें जटिल डिज़ाइन बनाने के लिये प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता है। इन पेंटिंग में पौराणिक कहानियों और दैनिक जीवन के दृश्यों को बनाया जाता है और बोल्ड लाइनों तथा चमकीले रंगों का उपयोग करना इनकी विशेषता है। वारली पेंटिंग: वारली पेंटिंग एक जनजातीय कला है जिसकी उत्पत्ति महाराष्ट्र-गुजरात सीमांत क्षेत्र में हुई थी। इसमें शिकार, कृषि और मछली पकड़ने जैसे रोजमर्रा के जीवन से संबंधित दृश्यों को चित्रित करने के लिये ज्यामितीय आकृतियों और सरल रेखाओं का उपयोग होता है। पट्टचित्र पेंटिंग: पट्टचित्र पेंटिंग ओडिशा राज्य की एक पारंपरिक कला है। इसे प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके बनाया जाता है और इसे जटिल विवरण और ज्वलंत रंगों के लिये जाना जाता है। पट्टाचित्र पेंटिंग में अक्सर हिंदू पौराणिक कथाओं एवं कहानियों को चित्रित किया जाता है तथा इसका धार्मिक समारोहों में उपयोग होता है। ब्लॉक प्रिंटिंग: भारत में वस्त्र और परिधान बनाने के लिये ब्लॉक प्रिंटिंग एक लोकप्रिय प्रिंटिंग तकनीक है। इसमें लकड़ी के ब्लॉकों पर जटिल डिज़ाइनों को तराशना और फिर प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके कपड़ों पर प्रिंट करने के लिये इनका उपयोग करना शामिल है। गोंड पेंटिंग्स: इसका विकास मध्य प्रदेश में हुआ है। इसमें डॉट्स और रेखाएँ, जीवंत रंग तथा लोक कथाओं के साथ वनस्पतियों, जीवों, देवताओं, मिथकों और किंवदंतियों को दर्शाया जाता है। कलामेझुथु: इसका विकास केरल में हुआ है। इसमें सममित पैटर्न के साथ धार्मिक विषय (हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित) देखने को मिलते हैं। फड़ः इसका विकास राजस्थान में हुआ है। इसमें क्षैतिज स्क्रॉल, चमकीले रंग के उपयोग के साथ कथात्मक विषय के रूप में लोक नायकों, महाकाव्यों और किंवदंतियों को चित्रित किया जाता है। ये भारतीय लोक और शिल्प कला के विभिन्न रूपों के कुछ उदाहरण हैं। इन कला रूपों में से प्रत्येक की अपनी अनूठी शैली, इतिहास और महत्त्व है और इन्होंने भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय लोक और शिल्प कला का विकास तथा इसका प्रभाव: भारतीय लोक और शिल्प कला का समय के साथ विकास हुआ है जो भारतीय समाज तथा संस्कृति में बदलाव को दर्शाती हैं। उदाहरण के लिये अब प्राकृतिक रंगों के उपयोग की जगह सिंथेटिक रंगों का उपयोग होने लगा है तथा पारंपरिक तकनीकों की जगह नई सामग्रियों और प्रौद्योगिकियों को अपनाया जाने लगा है। हालाँकि इन परिवर्तनों के बावजूद लोक और शिल्प कला भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भारतीय लोक और शिल्प कला ने आधुनिक कला और डिज़ाइन को प्रभावित किया है। कई समकालीन कलाकार और डिज़ाइनर पारंपरिक भारतीय कला रूपों से प्रेरणा लेने के साथ इनके डिज़ाइन और रूपांकनों को अपने कार्य में शामिल करते हैं। उदाहरण के लिये भारतीय वस्त्र और परिधान विश्व भर में लोकप्रिय हो गए हैं और कई डिज़ाइनरों ने आधुनिक कपड़ों के डिज़ाइन बनाने के लिये पारंपरिक ब्लॉक प्रिंटिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया है। निष्कर्ष: भारतीय लोक और शिल्प कला की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जिससे भारतीय संस्कृति की विविधता प्रदर्शित होती है। ये कला रूप पीढ़ियों से अनवरत जारी हैं तथा यह भारत की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इन कला रूपों में से प्रत्येक की अपनी अनूठी शैली, इतिहास और महत्त्व है और इन्होंने आधुनिक कला और डिज़ाइन को प्रभावित किया है। भारतीय लोक और शिल्प कला भारतीय संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा है तथा इनकी आने वाली पीढ़ियों के लिये भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी।</s>
<s>[INST]भारत के विभाजन का भारतीय समाज, राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ा था? इस विभाजन के कारणों, परिणामों के साथ इसके बाद की स्थितियों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत के विभाजन को संक्षेप में बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। इस विभाजन के कारणों और परिणामों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: वर्ष 1947 में भारत का विभाजन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी जिससे भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत का मार्ग प्रशस्त हुआ था। इस विभाजन के कारण दो अलग-अलग राष्ट्रों (भारत और पाकिस्तान) का निर्माण हुआ था। मुख्य भाग: विभाजन के कारण: भारत का विभाजन विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कारकों का परिणाम था। भारत को स्वतंत्रता देने का ब्रिटिश सरकार का निर्णय बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन और भारतीय लोगों की स्व-शासन की इच्छा से प्रभावित था। हालाँकि विभाजन मुख्य रूप से हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच धार्मिक तनाव का परिणाम था। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने भारत में मुसलमानों के लिये एक अलग राज्य की मांग की, जिसे उन्होंने पाकिस्तान कहा। पाकिस्तान की मांग को इस विश्वास से बल मिला कि हिंदू और मुसलमान एक ही राष्ट्र में सह-अस्तित्व से नहीं रह सकते हैं। ब्रिटिश सरकार ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया और 15 अगस्त, 1947 को भारत का विभाजन किया गया था। विभाजन के परिणाम: भारत के विभाजन का भारतीय समाज, राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा था। समाज: भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप मानव इतिहास में सबसे बड़ा सामूहिक प्रवासन हुआ था। इस दौरान लाखों हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत आए और लाखों मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए। इस प्रवासन में काफी हिंसा और रक्तपात हुआ था। इस हिंसा और विस्थापन से असुरक्षा की भावना विकसित हुई थी जो आज भी भारतीय समाज को प्रभावित करती है। राजनीति: भारत के विभाजन के कारण दो अलग-अलग राष्ट्रों (भारत और पाकिस्तान) का निर्माण हुआ था। विभाजन के साथ लाखों लोगों का हिंसक विस्थापन हुआ था और हिंसा की यह विरासत दोनों देशों के बीच राजनीतिक संबंधों को प्रभावित करती रही। विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान लगभग निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहे और इस क्रम में तीन बड़े युद्ध और कई छोटे संघर्ष हुए थे। इससे दोनों देश परमाणु हथियारों को पाने की दौड़ में शामिल हुए जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ावा मिला था। अंतर्राष्ट्रीय संबंध: भारत के विभाजन का अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। पाकिस्तान के निर्माण से एक नए मुस्लिम राज्य का उदय हुआ जो शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों के साथ शामिल हुआ था। दूसरी ओर भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ दोनों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने की मांग की। विभाजन के बाद: भारत के विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष और तनाव को बढ़ावा मिला था। तीन बड़े युद्धों और कई छोटे संघर्ष के साथ दोनों देश विभाजन के बाद से लगभग निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहे थे। इसी क्रम में दोनों देशों द्वारा परमाणु हथियारों के विकास को भी प्रोत्साहन दिया गया था। भारत के विभाजन का भारतीय समाज पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। लाखों लोगों के विस्थापन से शरणार्थियों को फिर से बसने और समाज की मुख्यधारा में शामिल होने में महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। इस विभाजन की हिंसा और आघात की विरासत आज भी भारतीय समाज को प्रभावित कर रही है। अभी भी देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव और संघर्ष बना हुआ है। निष्कर्ष: भारत के विभाजन का भारतीय समाज, राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा था। यह विभाजन हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच धार्मिक तनाव का परिणाम था, जो मुसलमानों के लिये एक अलग देश बनाने की मांग से प्रेरित था। इस दौरान लाखों लोगों के हिंसक विस्थापन से असुरक्षा की विरासत को जन्म मिला था जिससे आज भी भारतीय समाज प्रभावित हो रहा है। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले संघर्ष का न केवल क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था बल्कि दोनों देश परमाणु हथियारों की दौड़ में शामिल हुए थे।</s>
<s>[INST]लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देने में जवाबदेही और पारदर्शिता के महत्त्व का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: लोक प्रशासन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देने में जवाबदेहिता और पारदर्शिता के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। इनके कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियों पर चर्चा करते हुए इन चुनौतियों से निपटने का सुझाव दीजिये तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: लोक प्रशासन किसी भी सरकार का एक महत्त्वपूर्ण घटक होता है। यह नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने के लिये जिम्मेदार होता है। लोक प्रशासकों को काफी अधिक शक्ति और उत्तरदायित्व दिये गए हैं और इस प्रकार इनसे नैतिक और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है। हालाँकि इतिहास गवाह है कि हमेशा ऐसा नहीं होता है। लोक प्रशासकों को भ्रष्ट और अनैतिक व्यवहार में लिप्त भी पाया जाता है, जिसके कारण सरकार पर जनता का विश्वास कम होता है। इस समस्या का समाधान करने के लिये जवाबदेहिता और पारदर्शिता को प्रमुख सिद्धांतों के रूप में पहचाना गया है जिनसे लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा मिल सकता है। मुख्य भाग: जवाबदेहिता और पारदर्शिता का महत्त्व निकटता से संबंधित है: जवाबदेहिता का तात्पर्य लोक प्रशासकों के उस दायित्व से है जिससे वे अपने कार्यों और निर्णयों के लिये जवाबदेह होते हैं। इसमें निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और परिणामों के बारे में पारदर्शी होने के साथ उन निर्णयों से उत्पन्न होने वाले किसी भी नकारात्मक परिणाम के लिये जिम्मेदारी स्वीकार करना शामिल होता है। दूसरी ओर पारदर्शिता का आशय जनता के लिये सूचना तक सुलभ पहुँच प्रदान करना होता है। इसमें नागरिकों को समय पर और सुलभ तरीके से जानकारी उपलब्ध कराना और लिये गए किसी भी निर्णय या कार्रवाई के लिये स्पष्टीकरण प्रदान करना शामिल होता है। जवाबदेहिता और पारदर्शिता कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं: इनसे सरकार और जनता के बीच विश्वास को बढ़ावा मिलता है। जब लोक प्रशासक अपने कार्यों और निर्णयों के बारे में पारदर्शी होते हैं तो इससे सरकार पर लोगों के विश्वास में वृद्धि होती है। यह उन देशों में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जिनमें उच्च स्तर का भ्रष्टाचार होने के साथ सरकार पर लोगों का अविश्वास होता है। इसके साथ ही जवाबदेहिता और पारदर्शिता से भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यवहार को रोकने में मदद मिलती है। जब लोक सेवकों के कार्यों की जांच होती है तो उनके भ्रष्ट या अनैतिक व्यवहार में शामिल होने की संभावना कम होती है। इसके साथ ही जवाबदेहिता और पारदर्शिता से सुशासन को बढ़ावा मिलता है। जब लोक प्रशासकों को उनके कार्यों के लिये जवाबदेह ठहराया जाता है तो इससे यह सुनिश्चित होता है कि उनके द्वारा ऐसे निर्णय लिये जा रहे हैं जो लोगों के सर्वोत्तम हित में हैं। जवाबदेहिता और पारदर्शिता को लागू करने से संबंधित चुनौतियाँ: जवाबदेहिता और पारदर्शिता लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन इन सिद्धांतों को लागू करने में कुछ चुनौतियाँ मौजूद हैं जैसे: इससे संबंधित सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। कुछ देशों में जवाबदेहिता और पारदर्शिता को लागू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी देखी जाती है क्योंकि इससे भ्रष्ट प्रथाओं को उजागर किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इसके लिये लोक प्रशासकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है (यदि वह ऐसे वातावरण में काम करने के आदी हैं जहाँ उन्हें अपने कार्यों के लिये जवाबदेह नहीं ठहराया जाता है)। इससे संबंधित दूसरी चुनौती, संसाधनों की कमी होना है। जवाबदेहिता और पारदर्शिता को लागू करने के लिये वित्तीय और मानव संसाधनों की आवश्यकता होती है। जिन देशों में संसाधन सीमित हैं वहाँ इन उपायों को प्रभावी ढंग से लागू करना मुश्किल हो सकता है। विशेष रूप से विकासशील देशों में इनको लागू करने के क्रम में तकनीकी क्षमता की कमी का सामना करना पड़ सकता है। जवाबदेहिता और पारदर्शिता को प्रभावी बनाने में मौजूद चुनौतियों के बावजूद, इन चुनौतियों का समाधान करने के तरीके मौजूद हैं। सबसे पहले, इसके लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। इसमें राजनीतिक प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाना शामिल हो सकता है। इसमें लोक प्रशासकों को नैतिक रूप से व्यवहार करने हेतु प्रोत्साहन प्रदान करना और भ्रष्ट प्रथाओं में संलग्न लोगों को दंडित करना भी शामिल हो सकता है। इसके साथ ही इससे संबंधित संसाधनों में निवेश की जरूरत है। इसमें जवाबदेहिता और पारदर्शिता से संबंधित उपायों के कार्यान्वयन के लिये वित्तीय और मानव संसाधन के रूप में निवेश करना शामिल हो सकता है। इसमें प्रशिक्षण और सहायता के माध्यम से तकनीकी क्षमता विकसित करना भी शामिल हो सकता है। निष्कर्ष: लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देने के लिये जवाबदेहिता और पारदर्शिता महत्त्वपूर्ण हैं। इन उपायों को लागू करने में कई चुनौतियाँ विद्यमान हैं जिन्हें राजनीतिक इच्छाशक्ति, संसाधनों में निवेश और तकनीकी क्षमता निर्माण के जरिए हल किया जा सकता है। सरकारों और लोक प्रशासकों को यह सुनिश्चित करने के लिये जवाबदेहिता और पारदर्शिता को प्राथमिकता देनी चाहिये कि वे ऐसे निर्णय ले रहे हैं जो जनता के सर्वोत्तम हित में हैं। इससे न केवल लोक प्रशासन में नैतिक व्यवहार को बढ़ावा मिलेगा बल्कि लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूती मिलने के साथ शासन में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा मिलेगा।</s>
<s>[INST]मौर्य साम्राज्य द्वारा किस प्रकार से भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े भू-भाग पर प्रभुत्व स्थापित किया गया था? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण मौर्य साम्राज्य का संक्षिप्त परिचय देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल भाग में मौर्य वंश की स्थापना के कारणों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय मौर्य साम्राज्य का कार्यकाल भारतीय इतिहास में एक उल्लेखनीय अवधि थी, जहाँ गंगा बेसिन में एक छोटा राज्य अपने समय के सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक बन गया। 321 ईसा पूर्व में अपनी स्थापना के बाद से, मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से पर हावी था, जो आधुनिक अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक फैला हुआ था। साम्राज्य की प्रभुत्व की स्थापना कई कारकों का परिणाम थी, जिसमें भू-राजनीति, सैन्य विजय, प्रशासनिक सुधार और धार्मिक सहिष्णुता तथा धर्मांतरण की नीतियाँ शामिल थीं। मुख्य भाग भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल भाग में मौर्य साम्राज्य का प्रभुत्व स्थापित करने वाले कारक: भौगोलिक कारक: मौर्य साम्राज्य के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप छोटे-छोटे राज्यों से मिलकर बना था, जिनमें से प्रत्येक सत्ता और प्रभाव के लिये होड़ कर रहा था। इस राजनीतिक और सैन्य शून्यता ने मौर्य साम्राज्य को अपने क्षेत्र का तेजी से विस्तार करने का अवसर प्रदान किया। साम्राज्य रणनीतिक रूप से कई व्यापार मार्गों के चौराहे पर स्थित था, जिससे इसे मूल्यवान संसाधनों तक पहुंच मिली और इसकी आर्थिक शक्ति में वृद्धि हुई। सैन्य विजय: मौर्य साम्राज्य की सैन्य शक्ति उसके प्रभुत्व की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण कारक थी। साम्राज्य ने युद्ध के लिये हाथियों और रथों के उपयोग जैसी कई नवीन सैन्य युक्तियों का प्रयोग किया, जिससे उन्हें युद्ध में बढ़त मिली। 321 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य की नंद साम्राज्य पर विजय एक महत्त्वपूर्ण जीत थी जिसने मौर्य साम्राज्य के विस्तार की शुरुआत को चिह्नित किया। अशोक की विजय और धर्म परिवर्तन की नीति: तीसरे मौर्य सम्राट अशोक ने सैन्य विजय और रणनीतिक गठजोड़ के संयोजन के माध्यम से साम्राज्य के क्षेत्र का विस्तार किया। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की नीति भी अपनाई और सक्रिय रूप से बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, जिससे उन्हें स्थानीय आबादी का समर्थन हासिल करने में मदद मिली। अशोक के बौद्ध धर्म में रूपांतरण ने भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह आज भी इस क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण धर्म है। प्रशासनिक सुधार: मौर्य साम्राज्य के प्रशासनिक सुधार इसके प्रभुत्व की स्थापना में एक और महत्त्वपूर्ण कारक थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने एक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली की शुरुआत की जिसने उन्हें एक विशाल क्षेत्र पर प्रभावी ढंग से शासन करने की अनुमति दी। उन्होंने जासूसी की एक प्रणाली भी स्थापित की जिससे उन्हें अपनी शक्ति के लिये संभावित खतरों पर नज़र रखने में मदद मिली। अशोक ने साम्राज्य के विभिन्न पहलुओं के प्रबंधन के लिये जिम्मेदार अधिकारियों और नौकरशाहों का एक नेटवर्क स्थापित करके प्रशासनिक प्रणाली को और परिष्कृत किया। कूटनीति: मौर्य साम्राज्य ने अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने और अपनी शक्ति बनाए रखने के लिये कूटनीति का इस्तेमाल किया। चंद्रगुप्त मौर्य ने पड़ोसी राज्यों के साथ गठजोड़ किया और शक्तिशाली क्षेत्रीय शासकों का समर्थन मांगा। उसने व्यापारिक संबंध स्थापित करने और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लिये दुनिया के अन्य हिस्सों में भी राजदूत भेजे। सांस्कृतिक एकीकरण: मौर्य साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप की विविध संस्कृतियों और धर्मों को एकजुट करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। साम्राज्य ने बौद्ध धर्म के प्रसार का समर्थन किया, जो पूरे क्षेत्र में एक एकीकृत शक्ति बन गया और कला एवं साहित्य को संरक्षण दिया, जिससे एक साझा सांस्कृतिक पहचान बनाने में मदद मिली। कौटिल्य का संरक्षण: भारतीय उपमहाद्वीप पर मौर्य साम्राज्य के प्रभुत्व को स्थापित करने में कौटिल्य की सलाह एक और महत्त्वपूर्ण कारक थी। कौटिल्य की सलाह ने चंद्रगुप्त को कई प्रशासनिक और आर्थिक सुधारों को लागू करने में मदद की जिससे उनकी शक्ति को मजबूत करने और भारतीय उपमहाद्वीप पर मौर्य साम्राज्य का प्रभुत्व स्थापित करने में मदद मिली। निष्कर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से पर मौर्य साम्राज्य की प्रभुत्व की स्थापना कई कारकों का परिणाम थी। मौर्य साम्राज्य की विरासत आज भी भारत में देखी जा सकती है, इसके कई प्रशासनिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अभ्यास अभी भी उपयोग में हैं। मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास में एक उल्लेखनीय अवधि थी और इस क्षेत्र पर इसके प्रभाव को कम नहीं आँका जा सकता।</s>
<s>[INST]भारत में मानसूनी पवनों की उत्पत्ति में भौगोलिक कारकों के योगदान को बताते हुए इस क्षेत्र की जलवायु और अर्थव्यवस्था पर इन पवनों के प्रभावों की चर्चा कीजिये? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत में मानसूनी हवाओं के निर्माण में योगदान देने वाले भौगोलिक कारकों का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। जलवायु और अर्थव्यवस्था पर मानसूनी हवाओं के प्रभाव की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय भारतीय उपमहाद्वीप अपनी मानसूनी जलवायु के लिये प्रसिद्ध है, जो गर्मियों के महीनों में भारी वर्षा और शेष वर्ष के दौरान अपेक्षाकृत शुष्क मौसम की विशेषता है। इन मानसूनी हवाओं के निर्माण का मुख्य कारण क्षेत्र को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारक हैं। मुख्य भाग मानसूनी हवाओं में योगदान करने वाले भौगोलिक कारक: भारत में मानसूनी हवाएँ मुख्य रूप से इस क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं से प्रभावित होती हैं, जिनमें हिमालय पर्वत, थार रेगिस्तान और हिंद महासागर शामिल हैं। मानसूनी हवाओं के निर्माण में योगदान देने वाले प्रमुख भौगोलिक कारक निम्नलिखित हैं: हिमालय पर्वत: भारत में मानसूनी पवनों के निर्माण में हिमालय एक प्रमुख कारक है। गर्मियों के महीनों के दौरान, भारतीय उपमहाद्वीप का भूभाग तेजी से गर्म होता है, जिससे निम्न दबाव प्रणाली का निर्माण होता है। हिमालय, जो एक बाधा के रूप में कार्य करता है, उत्तर से ठंडी, शुष्क हवा को इस क्षेत्र में बहने से रोकता है, जिसके परिणामस्वरूप दाब प्रवणता हिंद महासागर से गर्म, नम हवा को खींचती है। मरुस्थल: थार रेगिस्तान, जिसे ग्रेट इंडियन डेजर्ट के रूप में भी जाना जाता है, भारत में मानसूनी हवाओं के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यह मानसून की बंगाल की खाड़ी की शाखा के लिये वर्षा छाया क्षेत्र के रूप में कार्य करता है, जिसका अर्थ है कि यह अरावली पर्वत श्रृंखला द्वारा निर्मित अवरोध के कारण बहुत कम वर्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार मानसून की अरब शाखा, जो थार मरुस्थल के समानांतर चलती है, के कारण भी निकटवर्ती क्षेत्रों में बहुत कम वर्षा होती है। वर्षा की इस कमी का क्षेत्र में कृषि और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। रेगिस्तान से गर्म और शुष्क हवा भारत के पूरे उत्तर पश्चिम भागों में एक कम दबाव का क्षेत्र बनाती है, जो हिंद महासागर से नमी वाली हवाओं को खींचती है, जिसके परिणामस्वरूप गर्मी के महीनों में भारी वर्षा होती है। हिंद महासागर: भारत में मानसूनी हवाओं के निर्माण में हिंद महासागर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। महासागर की गर्म और नम हवा भारतीय उपमहाद्वीप पर कम दबाव प्रणाली के साथ संपर्क करती है, जिसके परिणामस्वरूप मानसूनी वायु का निर्माण होता है। जलवायु और अर्थव्यवस्था पर मानसूनी हवाओं का प्रभाव: मानसूनी हवाओं का भारत की जलवायु और अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इस क्षेत्र पर मानसूनी हवाओं के कुछ प्रभाव निम्नलिखित हैं: जलवायु: मानसूनी हवाएँ भारत की जलवायु में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, विशेषकर गर्मियों के महीनों में जब देश में अधिकांश वर्षा होती है। बारिश कृषि के लिये आवश्यक है और फसलों, पशुधन और जलविद्युत उत्पादन के लिये पानी उपलब्ध कराकर देश की अर्थव्यवस्था का समर्थन करती है। कृषि: मानसून की बारिश भारत में कृषि के लिये एक जीवन रेखा है, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 17% हिस्सा है और 50% से अधिक आबादी को रोज़गार देती है। बारिश फसलों के विकास के लिये आवश्यक है, विशेष रूप से चावल, गेहूँ और गन्ना, जो देश के प्राथमिक कृषि उत्पाद हैं। अर्थशास्त्र: मानसूनी हवाएँ देश की अर्थव्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, विशेषकर बिजली और पानी के क्षेत्रों में। मानसून के मौसम के दौरान भारी वर्षा सिंचाई, पनबिजली उत्पादन और घरेलू उपयोग के लिये जल प्रदान करती है, विभिन्न उद्योगों और घरों का समर्थन करती है। प्राकृतिक आपदाएँ: हालाँकि, अत्यधिक वर्षा से बाढ़, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाएँ भी हो सकती हैं, जिससे जीवन और संपत्ति को काफी नुकसान होता है। निष्कर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के भौगोलिक कारक, भारत में मानसूनी हवाओं के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मानसूनी हवाएँ गर्मी के महीनों के दौरान भारी वर्षा लाती हैं, जो फसलों के विकास के लिये आवश्यक है। इसलिये, क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और समाज पर मानसूनी हवाओं के प्रभाव को कम करने के लिये जल संसाधनों की उचित योजना और प्रबंधन महत्त्वपूर्ण हैं। कुल मिलाकर, हमारी दुनिया को आकार देने में भूगोल, जलवायु और मानव गतिविधि के बीच जटिल संबंधों को समझने के लिये मानसूनी हवाओं और भारत की जलवायु तथा अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]अपने सभी नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के क्रम में भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष विद्यमान चुनौतियों का परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में शिक्षा से संबंधित वर्तमान तथ्यों को संक्षेप में बताते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष विद्यमान विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। भारत की शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु उपाय सुझाइए। परिचय: शिक्षा किसी देश की वृद्धि और विकास के लिये आवश्यक उपकरण है। यह एक मजबूत और समृद्ध समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि विकासशील देश होने के नाते भारत को अपने सभी नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यूनेस्को के अनुसार, भारत में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या विश्व स्तर पर सबसे अधिक है (अनुमानतः 6-14 वर्ष की आयु के बीच के 17 मिलियन बच्चे अभी भी स्कूल से बंचित हैं)। मुख्य भाग: भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ: अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा: भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष प्रमुख चुनौतियों में से एक अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा का होना है। ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश विद्यालयों में उचित कक्षाओं, फर्नीचर और स्वच्छ पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव रहता है। इससे छात्रों की सीखने की क्षमता प्रभावित होती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) द्वारा वर्ष 2016 में किये गए सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में लगभग 30% स्कूलों में लड़कियों के लिये अलग शौचालय नहीं है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी होना: एक अन्य महत्त्वपूर्ण चुनौती भारत में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों के कई स्कूलों में विज्ञान और गणित जैसे विषयों को पढ़ाने के लिये पर्याप्त योग्य शिक्षक नहीं हैं। शिक्षा की गुणवत्ता: भारत ने शिक्षा की पहुँच में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण प्रगति की है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता अभी भी एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है। भारत के कई स्कूलों के पाठ्यक्रम में जीवन कौशल और व्यावहारिक ज्ञान शामिल नहीं है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि भारत के ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 43% छात्र और शहरी क्षेत्र में 34% छात्र अपनी भाषा में सरल वाक्य पढ़ और लिख नहीं सकते हैं। नामांकन दर कम होना: शिक्षा तक पहुँच में सुधार के सरकार के प्रयासों के बावजूद, भारत में स्कूलों में नामांकन दर अभी भी कम है (खासकर लड़कियों के संदर्भ में)। MHRD की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) केवल 26.3% है, जो विकासशील देशों के औसत GER (36%) से कम है। शिक्षा में असमानता होना: शिक्षा में असमानता भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष एक और महत्त्वपूर्ण चुनौती है। वंचित समुदायों जैसे दलित और आदिवासी समुदायों के छात्रों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है और उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के छात्रों के समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, शिक्षा में वंचित समुदायों के छात्रों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। तकनीकी अंतराल: डिजिटल अंतराल भारत की शिक्षा प्रणाली के समक्ष एक और चुनौती है। प्रौद्योगिकी के उपयोग से शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि हो सकती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में कई छात्रों की कंप्यूटर और इंटरनेट तक पहुँच नहीं होती है। निष्कर्ष: भारत की शिक्षा प्रणाली में सुधार के उपाय: शिक्षा पर सरकारी खर्च को बढ़ाना: सभी बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सरकार को शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ाने की ज़रूरत है। इसमें शिक्षा के लिये बजट आवंटन में वृद्धि करने के साथ यह सुनिश्चित करना शामिल होगा कि धन का उपयोग शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिये प्रभावी ढंग से किया जा रहा है। शिक्षकों के प्रशिक्षण और वेतन में सुधार करना: योग्य शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिये सरकार को शिक्षकों को बेहतर प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त योग्य शिक्षकों को प्रेरित करने के लिये शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की जानी चाहिये। शिक्षा तक पहुँच का विस्तार करना: शिक्षा तक पहुँच का विस्तार करने के लिये, सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे में सुधार करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि सभी बच्चों की स्कूलों तक पहुँच हो। ऐसा अधिक स्कूलों के निर्माण के साथ परिवहन से संबंधित बुनियादी ढाँचे में सुधार करके प्राप्त किया जा सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चे सुरक्षित तरीके से स्कूल जा सकें। शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना: शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिये सरकार को अपना ध्यान रटने वाली शिक्षा से हटाकर तार्किक शिक्षा में लगाने के साथ छात्रों के समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। ऐसा पाठ्यक्रम को अधिक व्यावहारिक बनाकर किया जा सकता है। लैंगिक असमानता को समाप्त करना: शिक्षा में लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये सरकार द्वरा लोगों को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त सरकार को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि स्कूलों में लड़कियों के लिये अलग शौचालय और चेंजिंग रूम जैसी पर्याप्त सुविधाएँ हों। प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देना: शिक्षा में तकनीकी अंतराल को कम करने के लिये सरकार को स्कूलों में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। ऐसा ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में कंप्यूटर और इंटरनेट तक पहुँच प्रदान करके और शिक्षकों को पाठ्यक्रम में प्रौद्योगिकी को शामिल करने के तरीके पर प्रशिक्षण देकर किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के प्रमुख कारण क्या थे? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: सिंधु घाटी सभ्यता का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारणों की विवेचना कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: सिंधु घाटी सभ्यता (IVC) सबसे शुरुआती और सबसे उन्नत सभ्यताओं में से एक थी। यह लगभग 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व में आधुनिक पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्र में विस्तृत थी। आगे चलकर इस सभ्यता का पतन हो गया था। मुख्य भाग: सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारक: पर्यावरणीय कारक: सिंधु घाटी सभ्यता सिंधु नदी के उपजाऊ क्षेत्र में फली-फूली थी। हालाँकि जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं की इसके पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उदाहरण के लिये संभावित रूप से लंबे समय तक सूखे की अवधि यहाँ पर जल और भोजन सहित प्राकृतिक संसाधनों की कमी का कारण बनी होगी। इसी तरह से भूकंप और बाढ़ से बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचने के साथ व्यापार नेटवर्क भी बाधित हुआ होगा। इसके अलावा सिंधु नदी के मार्ग में परिवर्तन से मोहनजोदड़ो जैसे कुछ शहरों का पतन हुआ होगा। इसके अलावा सरस्वती नदी के सूखने (जो सिंधु घाटी सभ्यता के लिये जल के मुख्य स्रोतों में से एक थी) से इस सभ्यता का पतन हुआ होगा। जल संसाधनों की कमी से कृषि (अर्थव्यवस्था का आधार) प्रभावित हुई होगी। आर्थिक कारक: सिंधु घाटी सभ्यता सुविकसित व्यापार और वाणिज्य प्रणाली वाली थी जिसमें समकालीन अन्य सभ्यताओं के साथ लंबी दूरी का व्यापार होता था। हालाँकि आर्थिक कारक जैसे कि एक ही फसल पर अत्यधिक निर्भरता, व्यापार नेटवर्क में गिरावट और नए व्यापारिक मार्गों के उद्भव ने इस सभ्यता की आर्थिक स्थिरता को प्रभावित किया होगा। इसके अलावा मृदा क्षरण या पर्यावरणीय कारकों से कृषि उत्पादकता में गिरावट से खादान्न की कमी होने के साथ आर्थिक गिरावट हुई होगी। उदाहरण के लिये सिंधु घाटी सभ्यता और मेसोपोटामिया के बीच व्यापारिक नेटवर्क की गिरावट (जो इसके प्रमुख व्यापारिक भागीदारों में से एक था) ने इसके पतन में योगदान दिया होगा। व्यापारिक नेटवर्क के पतन के कारण स्पष्ट नहीं हैं लेकिन ये राजनीतिक या आर्थिक कारकों से संबंधित हो सकते हैं। सामाजिक कारक: सिंधु घाटी सभ्यता की पदानुक्रमिक सामाजिक संरचना थी। हालाँकि यह प्रणाली समय के साथ कम प्रभावी हुई होगी। परिष्कृत जल निकासी और सीवेज प्रणाली के साथ, सिंधु घाटी सभ्यता के शहर अत्यधिक योजनाबद्ध और संगठित थे। हालांकि इस सभ्यता के अंत में बुनियादी ढाँचा का पतन होना शुरू हो गया था। ऐसा संसाधनों एवं जनशक्ति या प्रभावी नेतृत्व की कमी के कारण हुआ होगा। निष्कर्ष: सिंधु घाटी सभ्यता का पतन संभवतः पर्यावरणीय, भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक कारकों से हुआ था। नदियों का सूखना, प्राकृतिक आपदाएँ, व्यापार नेटवर्क में गिरावट और सामाजिक एवं आर्थिक बुनियादी ढाँचे की गिरावट ने इस सभ्यता के पतन में भूमिका निभाई थी। हालाँकि अभी भी IVC के पतन के बारे में बहुत कुछ अज्ञात है लेकिन इसके पतन का अध्ययन करने से सभ्यताओं के उत्थान और पतन में योगदान करने वाले कारकों के संबंध में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि मिल सकती है।</s>
<s>[INST]शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों जैसे जीवन के विभिन्न आयामों में महिलाओं तथा महिला संगठनों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: महिलाओं और महिला संगठनों के महत्त्व पर संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में इनकी भूमिका की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: महिलाओं ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हाल के दिनों में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमता का परिचय दिया है और समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मुख्य भाग: शिक्षा: शिक्षा में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि ये बच्चे की पहली शिक्षक होती हैं। महिलाओं ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ इन्होंने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। महिला संगठनों ने लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिससे इन्हें आत्मनिर्भर बनने और समाज में योगदान करने में मदद मिली है। ऐसे संगठन का एक उदाहरण मलाला फंड है जिसकी स्थापना पाकिस्तानी शैक्षिक कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई से प्रेरित है। इसका उद्देश्य विकासशील देशों में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करना है और इसने लाखों लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में मदद की है। इसके अलावा सरकार ने लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये कई पहल की हैं। भारत में बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान का उद्देश्य लड़कियों के लिये शिक्षा प्रदान करना है और यह स्कूलों में लड़कियों के नामांकन को बढ़ाने में सफल रहा है। स्वास्थ्य: महिलाओं ने हमेशा स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है (विशेषकर मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य के क्षेत्र में)। महिला संगठनों ने (विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में) महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा ही एक संगठन व्हाइट रिबन एलायंस है जिसका उद्देश्य विश्व भर में मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में सुधार करना है। यह विकासशील देशों में महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने में सफल रहा है, जिससे मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। सरकार ने महिलाओं के लिये स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देने के लिये कई पहल भी की हैं उदाहरण के लिये राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का उद्देश्य विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने में सफल रहा है। अर्थव्यवस्था: महिलाओं ने अर्थव्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन उनके योगदान को अक्सर नजरअंदाज किया गया है। महिला संगठनों ने महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिससे उन्हें आत्मनिर्भर बनने में मदद मिली है। ऐसे संगठन का एक उदाहरण स्व-नियोजित महिला संघ (SEWA) है इसका उद्देश्य महिलाओं को रोज़गार के अवसर और प्रशिक्षण प्रदान करके उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है। इसके अलावा विभिन्न सरकारी पहलें हैं जो महिलाओं के लिये आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देती हैं जैसे महिला ई-हाट पहल का उद्देश्य महिला उद्यमियों को अपने उत्पादों और सेवाओं को प्रदर्शित करने के लिये एक मंच प्रदान करना है। यह महिलाओं के लिये रोज़गार के अवसर प्रदान करने में सफल रहा है और उन्हें आत्मनिर्भर बनने में मदद मिली है। राजनीति: राजनीति में महिलाओं की भूमिका हमेशा महत्त्वपूर्ण रही है लेकिन राजनीति में इनका प्रतिनिधित्व सीमित रहा है। महिला संगठनों ने राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिये इस तरह के एक संगठन, राष्ट्रीय महिला गठबंधन (NAWO) ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने महिलाओं को राजनीति में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने के लिये कई जागरूकता अभियान चलाए हैं। सरकार ने राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिये कई पहल की हैं जैसे महिला आरक्षण विधेयक का उद्देश्य महिलाओं के लिये लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करना है। महिला आरक्षण विधेयक अभी पारित नहीं हुआ है लेकिन इसने राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर चर्चा को प्रोत्साहन दिया है। सामाजिक आंदोलन: भारत में कई सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब विरोधी आंदोलन कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहाँ महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन (NFIW) और अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) जैसे महिला संगठनों ने महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने और महिलाओं को सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन संगठनों ने घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को भी सहायता प्रदान की है। इसके अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) का उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना है और इसने सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निष्कर्ष: शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं और महिला संगठनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सामाजिक परिवर्तन लाने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में महिलाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। सरकार ने भी महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये कई पहल की हैं। हालाँकि इस दिशा में अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।</s>
<s>[INST]ग्लेशियरों, प्रवाल भित्तियों, आर्द्रभूमियों और वनों जैसी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों के कारणों और प्रभावों का मूल्यांकन कीजिये। हम इनका संरक्षण और पुनर्विकास किस प्रकार कर सकते हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं के महत्त्व को संक्षेप में समझाते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भौगोलिक विशेषताओं में परिवर्तन के कारणों और प्रभावों पर चर्चा करते हुए इनके संरक्षण और पुनर्विकास की रणनीतियों का सुझाव दीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ जैसे ग्लेशियर, प्रवाल भित्तियाँ, आर्द्रभूमि और वन पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। पिछले कुछ दशकों में विभिन्न प्राकृतिक और मानव-प्रेरित कारकों से इन विशेषताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों का पर्यावरण, जैव विविधता और मानव समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसलिये प्रभावी संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियों को विकसित करने में इन परिवर्तनों के कारणों और प्रभावों को समझना महत्त्वपूर्ण है। मुख्य भाग: महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं में परिवर्तन के कारण और प्रभाव: ग्लेशियर: ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ग्लेशियर के पिघलने का प्राथमिक कारण ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ता तापमान है। जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं इससे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होती है जिसका तटीय समुदायों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा ग्लेशियरों के पिघलने से मीठे जल की उपलब्धता कम हो जाती है जिससे कृषि, जलविद्युत और अन्य क्षेत्र प्रभावित होते हैं। प्रवाल भित्तियाँ: प्रवाल भित्तियाँ पृथ्वी पर सबसे अधिक जैव विविधता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों में शामिल हैं लेकिन ये सबसे अधिक खतरे में भी हैं। अत्यधिक मछली पकड़ने और प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियों एवं जलवायु परिवर्तन से प्रवाल भित्तियों को काफी नुकसान हुआ है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का बढ़ता तापमान प्रवाल विरंजन का कारण बनता है जो प्रवाल भित्तियों की मृत्यु का कारण बनता है। प्रवाल भित्तियों के विनाश का समुद्री जीवन और उन लाखों लोगों पर गंभीर प्रभाव होता है जो अपनी आजीविका के लिये प्रवाल भित्तियों पर निर्भर होते हैं। आर्द्रभूमि: जल की गुणवत्ता, बाढ़ नियंत्रण और जैव विविधता को बनाए रखने के लिये आर्द्रभूमि आवश्यक हैं। हालाँकि भूमि उपयोग प्रतिरूप में परिवर्तन, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी गतिविधियों के कारण इनमें काफी गिरावट आई है। आर्द्रभूमि के नुकसान का जैव विविधता और जल शोधन, बाढ़ नियंत्रण एवं कार्बन प्रच्छादन सहित पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। वन: यह पृथ्वी पर सबसे महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में शामिल हैं जो मनुष्यों को कई लाभ प्रदान करते हैं जिनमें इमारती लकड़ी, औषधि और कार्बन प्रच्छादन शामिल हैं। वनों की कटाई से वनों को काफी खतरा है, जिसका कारण कृषि विस्तार और खनन जैसी मानवीय गतिविधियाँ हैं। इसके अलावा इसका जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता हानि और पारिस्थितिक तंत्र की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियाँ: जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिये ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: इसका अर्थ कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसों की मात्रा में कटौती करना है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती हैं। ऐसा करने के कुछ तरीकों में सार्वजनिक परिवहन का अधिक उपयोग करना, ड्राइविंग के बजाय साइकिल चलाना या पैदल चलने पर बल देना; ऊर्जा-कुशल उपकरणों को अपनाना; कार्बन को अवशोषित करने वाले पेड़ और झाड़ियाँ लगाना; और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सीमित करने वाली सहायक नीतियों को अपनाना शामिल है। जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना: इसका तात्पर्य सतत प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना है जैसे कि सौर, पवन, जल या बायोमास ऊर्जा। इनसे हानिकारक उत्सर्जन या अपशिष्ट उत्पन्न न होने के साथ आयातित तेल या गैस पर निर्भरता में भी कमी आ सकती है। जल संरक्षण और पुनर्चक्रण को अपनाना: इसका अर्थ है जल का कुशलता से उपयोग करने के साथ जब भी संभव हो इसके पुन: उपयोग करने पर बल दिया जाए। ऐसा करने के कुछ तरीकों में कम प्रवाह वाले नल और शावरहेड पर बल देना; सिंचाई के लिये वर्षा जल एकत्र करना; लीक पाइप की मरम्मत करना और बोतलबंद जल से परहेज करना शामिल है। इमारती लकड़ी और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से बचना: इसका मतलब है कि इन संसाधनों का दोहन उस स्तर तक करना है ताकि दोहन की दर इनके पुनर्भरण से अधिक न हो। ऐसा करने के कुछ तरीकों में धातु, प्लास्टिक और कागज की रीसाइक्लिंग करना और गैर-आवश्यक वस्तुओं की खपत को कम करना शामिल हैं। स्थायी कृषि और वानिकी प्रथाओं को अपनाना: इसका अर्थ है कृषि और पशुपालन को इस तरीके से किया जाए जिससे पर्यावरण या मानव स्वास्थ्य को नुकसान न हो। ऐसा करने के कुछ तरीकों में जैविक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करना; उत्पादन प्रणालियों में विविधता लाना; एग्रोफोरेस्ट्री अपनाना; मृदा संरक्षण करना; परागणकों (जैसे मधुमक्खियों) और लाभकारी कीटों की रक्षा करना शामिल है। वन्यजीवों के लिये संरक्षित क्षेत्रों और गलियारों का निर्माण करना: इसका अर्थ है जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये भूमि या जल क्षेत्रों को संरक्षित किया जाए। ऐसे क्षेत्र संकटग्रस्त प्रजातियों के लिये आवास प्रदान कर सकते हैं, अवैध शिकार को रोक सकते हैं, पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं को बनाए रख सकते हैं (जैसे पोषक चक्रण), मनोरंजन के अवसर प्रदान कर सकते हैं (जैसे इकोटूरिज्म), सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा दे सकते हैं (जैसे पवित्र स्थल)। संरक्षित गलियारों से वन्यजीव स्वतंत्र रूप से आ-जा सकते हैं। निष्कर्ष: पृथ्वी की महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ विभिन्न प्राकृतिक और मानव-प्रेरित कारकों से खतरे में हैं। इन परिवर्तनों के प्रभाव गंभीर और दूरगामी हैं जो जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज को प्रभावित करते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये हमें संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियों को अपनाने की आवश्यकता है और इन रणनीतियों को लागू करके हम प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग सुनिश्चित कर सकते हैं एवं उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं की रक्षा कर सकते हैं। अपने ग्रह की महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं की रक्षा करने और सभी के लिये एक स्वस्थ एवं समृद्ध भविष्य सुरक्षित करने की दिशा में प्रयास किया जाना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की अवस्थिति हेतु उत्तरदायी कारकों का विश्लेषण कीजिये। इस उद्योग ने भारत की आर्थिक संवृद्धि और विकास में किस प्रकार योगदान दिया है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की अवस्थिति के लिये उत्तरदायी कारकों की चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भारत की आर्थिक संवृद्धि और विकास में इसके योगदान की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: सॉफ्टवेयर उद्योग का भारत की आर्थिक संवृद्धि और विकास में प्रमुख योगदान रहा है। भारत सॉफ्टवेयर विकास और आउटसोर्सिंग के लिये विश्व के अग्रणी देशों में से एक के रूप में उभरा है। भारत के सॉफ्टवेयर उद्योग की देश के सकल घरेलू उत्पाद में महत्त्वपूर्ण भागीदारी है। NASSCOM (नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग के वित्त वर्ष 2021-22 में 12-14% की दर से बढ़ने की उम्मीद है और वर्ष 2025 तक इसके 194 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है। इस वर्ष भी भारत का सॉफ्टवेयर निर्यात (156 बिलियन अमेरिकी डॉलर) सऊदी अरब द्वारा निर्यात किये जाने वाले तेल के मूल्य (135 बिलियन अमेरिकी डॉलर) से अधिक है। मुख्य भाग: भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की अवस्थिति हेतु उत्तरदायी कारक: मानव पूंजी: भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की अवस्थिति हेतु उत्तरदायी प्राथमिक कारकों में से एक इसकी कुशल और योग्य मानव पूंजी है। भारत में कई तकनीकी विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं जिनसे बड़ी संख्या में कुशल इंजीनियर, कंप्यूटर विज्ञान स्नातक और अन्य आईटी पेशेवर निकलते हैं। भारत में शिक्षा की गुणवत्ता और कुशल मानव संसाधनों की उपलब्धता ने इसे सॉफ्टवेयर विकास और आउटसोर्सिंग के लिये एक आकर्षक गंतव्य बना दिया है। लागत प्रभावी होना: भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग की अवस्थिति हेतु उत्तरदायी एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारक इसका लागत प्रभावी होना है। भारत में श्रम और बुनियादी ढाँचा विकसित देशों की तुलना में सस्ता है, जिससे यह सॉफ्टवेयर विकास और आउटसोर्सिंग के लिये लागत प्रभावी स्थान बन गया है। इसके कारण कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत में अपने सॉफ्टवेयर विकास केंद्र स्थापित करने के लिये आकर्षित हुई हैं। सरकारी सहायता: भारत सरकार देश में सॉफ्टवेयर उद्योग के विकास को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रही है। सरकार ने भारत में सॉफ्टवेयर कंपनियों को आकर्षित करने के लिये कर लाभ, सब्सिडी और बुनियादी ढाँचा समर्थन जैसे विभिन्न प्रोत्साहन प्रदान किये हैं। इससे भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग के विकास के लिये अनुकूल वातावरण बनाने में मदद मिली है। अंग्रेजी भाषा: भारत में अंग्रेजी भाषा जानने वाले लोगों की उपलब्धता से सॉफ्टवेयर उद्योग के विकास में योगदान मिला है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ अंग्रेजी भाषा व्यापक रूप से बोली और पढ़ाई जाती है। इसने भारतीय आईटी पेशेवरों के लिये अंग्रेजी बोलने वाले देशों के ग्राहकों के साथ संवाद करना और कार्य करना आसान बना दिया है, जिससे भारत सॉफ्टवेयर विकास और आउटसोर्सिंग के लिये एक आकर्षक स्थान बन गया है। भारत की आर्थिक संवृद्धि और विकास में सॉफ्टवेयर उद्योग का योगदान: रोज़गार सृजन: भारत में रोज़गार सृजन में सॉफ्टवेयर उद्योग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस उद्योग ने भारत में कुशल पेशेवरों के लिये रोज़गार के कई अवसर सृजित किये हैं जिससे देश भर में लाखों लोगों को रोज़गार मिला है। विदेशी मुद्रा का आगमन: भारत में विदेशी मुद्रा के आगमन में सॉफ्टवेयर उद्योग का प्रमुख योगदान रहा है। भारत का सॉफ्टवेयर निर्यात तीव्र गति से बढ़ रहा है, जो देश के विदेशी मुद्रा भंडार में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहा है। आर्थिक विकास: सॉफ्टवेयर उद्योग ने भारत के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस उद्योग ने देश के सकल घरेलू उत्पाद में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है जिसका भारत के समग्र आर्थिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। तकनीकी प्रगति: सॉफ्टवेयर उद्योग भारत में तकनीकी प्रगति लाने में सहायक रहा है। इस उद्योग ने स्वदेशी तकनीक को विकसित करने और बढ़ावा देने में मदद की है, जिससे देश के प्रौद्योगिकी क्षेत्र का विकास हुआ है। निष्कर्ष: सॉफ्टवेयर उद्योग का भारत की आर्थिक संवृद्धि और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अलावा इस उद्योग को वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये नवाचार और अनुसंधान पर ध्यान देना जरूरी है। ग्राहकों की बदलती मांगों को पूरा करने एवं अत्याधुनिक तकनीकों और समाधानों को विकसित करने हेतु कंपनियों को विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान संस्थानों के साथ सहयोग करना चाहिये। अंततः इस उद्योग को पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को अपनाने, विविधता और समावेशिता को बढ़ावा देने और समुदायों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में योगदान देकर स्थिरता और कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी पर बल देना चाहिये।</s>
<s>[INST]1857 का विद्रोह केवल एक सिपाही विद्रोह नहीं था बल्कि यह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ शुरू होने वाला स्वतंत्रता संग्राम था। इस विद्रोह के कारणों, प्रकृति और परिणामों के संदर्भ में इस कथन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: 1857 के विद्रोह का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। इसके कारणों, प्रकृति और परिणामों की विवेचना कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: 1857 का भारतीय विद्रोह (जिसे आमतौर पर सिपाही विद्रोह के रूप में जाना जाता है) भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। यह भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह था। यह विद्रोह भारतीय सैनिकों या सिपाहियों द्वारा शुरू किया गया था, जो ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवारत थे। कुछ इसे केवल सैनिक विद्रोह मानते हैं जबकि अन्य इसे ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ शुरू हुए स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखते हैं। मुख्य भाग: इस विद्रोह के कारण: 1857 के विद्रोह के अनेक कारण (आर्थिक और सामाजिक से लेकर राजनीतिक और धार्मिक तक) थे। आर्थिक: भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों का नकारात्मक प्रभाव पड़ा था जिसने भारतीय कारीगरों और व्यापारियों को व्यवसाय से बाहर कर दिया था। कंपनी की भू-राजस्व नीतियों के कारण भी भारत के कई हिस्सों में व्यापक गरीबी और अकाल की स्थिति उत्पन्न हुई थी। सामाजिक: अंग्रेजों ने कुछ ऐसी नीतियों की शुरुआत की थी जो पारंपरिक सत्ता संरचनाओं और भारतीय कुलीनों एवं उच्च जाति के हिंदुओं के विशेषाधिकारों के लिये खतरा थीं। अंग्रेजी शिक्षा की शुरूआत और ईसाई मिशनरियों के आगमन ने भी भारतीय अभिजात वर्ग के बीच सांस्कृतिक खतरे की भावना पैदा की। धार्मिक: धार्मिक कारकों ने भी इस विद्रोह में भूमिका निभाई थी। अंग्रेजों द्वारा शुरू किये गए नए धार्मिक सुधारों और प्रथाओं की शुरूआत से कई भारतीयों, विशेषकर सिपाहियों (जो ज्यादातर हिंदू और मुसलमान थे) के धार्मिक विश्वासों पर प्रश्नचिन्ह लगा था। राजनीतिक: अंग्रेजों ने कई भारतीय राज्यों पर कब्जा कर लिया था और भारतीय शासकों को नाममात्र का शासक बना दिया था। लॉर्ड डलहौजी द्वारा शुरू किये गए व्यपगत के सिद्धांत के कारण कई भारतीय शासकों में असंतोष उत्पन्न हुआ था। इस विद्रोह की प्रकृति: व्यापक भागीदारी: 1857 का विद्रोह केवल सिपाहियों का विद्रोह नहीं था बल्कि इसमें भारतीय समाज के विभिन्न वर्ग शामिल थे। सिपाही मात्र शुरुआती उत्प्रेरक थे, लेकिन जल्द ही यह विद्रोह समाज के अन्य हिस्सों में फैल गया था जिसमें किसान, कारीगर और यहाँ तक कि कुछ शासक वर्ग भी शामिल थे। यह विद्रोह उत्तरी भारत तक ही सीमित नहीं था बल्कि यह बंगाल, बिहार और मद्रास सहित देश के अन्य हिस्सों में फैल गया था। गठबंधनों पर बल देना: विद्रोहियों का स्पष्ट उद्देश्य ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकना और एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना करना था। विद्रोहियों ने कानपुर के नाना साहब और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई समेत विभिन्न भारतीय शासकों के साथ गठबंधन किया था जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। इस दौरान विद्रोहियों की स्वतंत्र भारतीय राज्य के संदर्भ में स्पष्ट दृष्टि थी इसमें कुछ नेताओं ने स्वतंत्रता के बाद समाज में पारंपरिक भारतीय मूल्यों की स्थापना का प्रस्ताव दिया था और अन्य ने आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण की वकालत की थी। विद्रोह के परिणाम: 1857 के विद्रोह के भारत और ब्रिटिश साम्राज्य दोनों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े थे जैसे: बाँटो और राज करो की नीति: इसके तत्काल प्रभाव के रूप में अंग्रेजों द्वारा विद्रोह का क्रूरता से दमन किया गया था जिसके परिणामस्वरूप हजारों भारतीयों की मौत हुई थी। अंग्रेजों ने भारतीय प्रतिरोध को कमजोर करने और भविष्य के विद्रोह को रोकने के लिये बाँटो और राज करो की नीतियों को भी लागू किया था। ब्रिटेन को सत्ता का हस्तांतरण होना: इसके पश्चात ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था तथा ब्रिटिश सरकार ने कुछ शिकायतों को दूर करने के लिये विभिन्न सुधारों की शुरुआत की थी। प्रमुख सुधार करना: भारतीय उद्योगों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये आर्थिक नीतियों को संशोधित किया गया और भारतीय किसानों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये भू-राजस्व नीतियों में सुधार किया गया था। भारतीय राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान होना: इस विद्रोह का भारतीय राष्ट्रवाद पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। कई इतिहासकार इसे भारतीय स्वतंत्रता की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम मानते हैं। बहादुर शाह ज़फर सहित विद्रोह के नेतृत्वकर्ता, भारतीय प्रतिरोध के प्रतीक बन गए और उनकी विरासत ने महात्मा गांधी सहित बाद के भारतीय राष्ट्रवादियों को प्रेरित किया। निष्कर्ष: इस विद्रोह का ब्रिटिश जनता और सरकार पर भी काफी प्रभाव पड़ा था जिससे ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों का पुनर्मूल्यांकन किया गया था तथा भारतीय मांगों के प्रति अधिक समझौतावादी दृष्टिकोण को अपनाया गया था। इसलिये इसे स्वतंत्रता के लिये होने वाला प्रथम संग्राम कहा जा सकता है क्योंकि यह पहली बार था जब विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और सामाजिक समूहों से संबंधित लोग भारतीय ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिये एक साथ आए थे। ये सभी औपनिवेशिक उत्पीड़न से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे और अपने को पुनर्स्थापित करना चाहते थे।</s>
<s>[INST]कला, संस्कृति और वास्तुकला के संदर्भ में भारतीय इतिहास में मुगल साम्राज्य के योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: मुगल कला, संस्कृति और स्थापत्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारतीय इतिहास में इनके योगदानों की उदाहरण सहित चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारतीय इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक मुगल साम्राज्य ने भारत पर तीन शताब्दियों तक शासन किया था। मुगलों ने कला, संस्कृति और वास्तुकला में अपने योगदान के माध्यम से भारतीय इतिहास पर काफी व्यापक प्रभाव डाला था। मुख्य भाग: कला, संस्कृति और वास्तुकला के संदर्भ में भारतीय इतिहास में मुगल साम्राज्य का योगदान: कला: मुगल कला, भारतीय और फारसी तत्वों का मिश्रण थी। मुगल शासक कला के महान संरक्षक थे और भारतीय इतिहास में कला के कुछ बेहतरीन उदाहरणों के लिये जिम्मेदार थे। लघु चित्रकला शैली: लघु चित्रकला शैली के रूप में भारतीय कला में मुगलों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। मुगल लघुचित्रों को विस्तृत वर्णन, बेहतरीन ब्रशवर्क और ज्वलंत रंगों के उपयोग के रूप में जाना जाता था। कहानी प्रदर्शन के रूप में: ये पेंटिंग मुख्य रूप से पांडुलिपियों को चित्रित करने के लिये उपयोग की जाती थीं और यह किसी कहानी वर्णन का महत्त्वपूर्ण माध्यम थीं। मुगल लघु चित्रों के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरणों में बाबरनामा और अकबरनामा शामिल हैं। संस्कृति: मुगल, एक विशिष्ट संस्कृति के विकास के लिये जिम्मेदार थे जो भारतीय, फारसी और इस्लामी परंपराओं का मिश्रण थी। मुगल, साहित्य और कविता के महान संरक्षक थे तथा उनका दरबार शिक्षा एवं संस्कृति का केंद्र था। उर्दू भाषा: भारतीय संस्कृति में मुगलों के सबसे महत्त्वपूर्ण योगदानों में से एक उर्दू भाषा है। उर्दू भारतीय और फारसी भाषाओं का मिश्रण है और इसका विकास मुगल काल के दौरान हुआ था। इनके दरबार की भाषा फारसी थी तथा कविता, साहित्य और कलात्मक अभिव्यक्ति के अन्य रूपों में इसका इस्तेमाल किया जाने लगा था। संगीत के रूप: मुगलों ने संगीत में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। मुगल दरबार संगीत का केंद्र था और मुगल बादशाह संगीत के महान संरक्षक थे। कव्वाली और गज़ल सहित नए संगीत रूपों के विकास में मुगल शासकों की भूमिका थी। स्थापत्य: मुगल विशिष्ट स्थापत्य शैली के विकास के लिये जिम्मेदार थे जिसकी विशेषताओं में भव्यता, समरूपता और विस्तृत सजावट के पहलू शामिल थे। भारतीय वास्तुकला में मुगलों के सबसे महत्त्वपूर्ण योगदानों में से एक ताजमहल का निर्माण करना है। ताजमहल विश्व की सबसे प्रतिष्ठित इमारतों में से एक है। ताजमहल को शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में बनवाया था और यह प्रेम तथा समर्पण का प्रतीक है। लाल किला मुगल वास्तुकला का एक और महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। लाल किला सम्राट शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया था और यह मुगल भव्यता का प्रतीक है। लाल किला यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है और भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों में से एक है। निष्कर्ष: मुगल साम्राज्य ने कला, संस्कृति और वास्तुकला के मामले में भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। मुगल शासक भारतीय इतिहास में कला के कुछ बेहतरीन पहलुओं के लिये जिम्मेदार थे तथा यह साहित्य और कविता के महान संरक्षक थे। ताजमहल और लाल किले सहित भारतीय इतिहास में निर्मित कुछ सबसे प्रतिष्ठित इमारतों के लिये भी मुगल जिम्मेदार थे। मुगलों ने एक अलग संस्कृति विकसित की जो भारतीय, फारसी और इस्लामी परंपराओं का मिश्रण थी।</s>
<s>[INST]"हिमालय न केवल भारत की प्राकृतिक सीमाएँ बनाता है बल्कि यह भारत की नदियों के लिये जल का एक प्रमुख स्रोत भी है"। इस कथन के आलोक में भारत के लिये हिमालय क्षेत्र के महत्त्व तथा इस क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संरक्षण से संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: हिमालय क्षेत्र के महत्त्व पर संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। इसकी पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और इस स्थिति को सुधारने के लिये कुछ उपाय सुझाइए। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत के लिये हिमालय क्षेत्र का महत्त्व: हिमालय क्षेत्र का भारत के लिये काफी महत्त्व है क्योंकि इससे कई प्रकार के पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ मिलते हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु सहित भारत की कई प्रमुख नदियों के लिये हिमालय जल का स्रोत है। ये नदियाँ कृषि, उद्योगों और मानव बस्तियों के लिये जल उपलब्ध कराती हैं जिससे ये देश के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन बन जाती हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की लगभग 80% जल की जरूरतें गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों से पूरी होती हैं। इसके अलावा यह नदियाँ कई जलीय जीवों का आवास भी हैं और इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करती हैं। ये प्रजातियाँ क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण होने के साथ खाद्य श्रृंखला में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मुख्य भाग: हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित चुनौतियाँ: जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के ग्लेशियर गंभीर दर से पिघल रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र की जल आपूर्ति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो सकते हैं। इससे बाढ़ भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाएँ आ सकती हैं जो स्थानीय समुदायों और पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर सकती हैं। तीव्र शहरीकरण और औद्योगीकरण होना: इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक आवासों का विनाश, वनों की कटाई और मृदा क्षरण हुआ है। सड़कों, बाँधों और अन्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के निर्माण का भी इस क्षेत्र के पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है जिससे मृदा क्षरण, बाढ़ और अन्य पर्यावरणीय मुद्दे सामने आए हैं। अस्थिर पर्यटन: हिमालयी क्षेत्र में हर साल लाखों पर्यटक ट्रेकिंग, पर्वतारोहण और स्कीइंग जैसी गतिविधियों में संलग्न होने के लिये आते हैं। हालांकि पर्यटन के तेजी से विकास से वनों की कटाई, मृदा के कटाव और अपशिष्ट प्रबंधन की समस्याओं सहित कई पर्यावरणीय और पारिस्थितिक मुद्दों को जन्म मिला है। इसके अलावा पर्यटन ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और स्थानीय समुदायों के विस्थापन को भी बढ़ावा दिया है जिससे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक मुद्दे सामने आए हैं। जागरूकता और शिक्षा की कमी: हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिकी और पर्यावरण के संरक्षण में यह एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। इस क्षेत्र में रहने वाले कई स्थानीय समुदाय प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्त्व से अनभिज्ञ हैं जिसके कारण यहाँ अत्यधिक चराई और शिकार जैसी प्रथाएँ प्रचलित हैं। शिक्षा और जागरूकता की कमी भी नीति निर्माताओं को प्रभावित करती है जिससे यह पर्यावरणीय क्षरण के परिणामों की उचित समझ नहीं रखते हैं। इस स्थिति में सुधार हेतु उपाय: सतत पर्यटन को बढ़ावा देना: इको-टूरिज्म को प्रोत्साहित करके तथा जिम्मेदार पर्यटन प्रथाओं को बढ़ावा देकर हिमालयी क्षेत्र में स्थायी पर्यटन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके लिये पर्यटकों को जिम्मेदार करने तथा पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देने वाली नीतियाँ विकसित की जा सकती हैं। वनीकरण को प्रोत्साहित करना: सरकार, स्थानीय समुदायों को पेड़ लगाने और वनों की रक्षा करने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करके हिमालयी क्षेत्र में वनीकरण को प्रोत्साहित कर सकती है। अक्षय ऊर्जा स्रोतों का विकास करना: गैर-नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम करने के लिये सरकार हिमालयी क्षेत्र में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों जैसे सौर, पवन और जल विद्युत के विकास को बढ़ावा दे सकती है। यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में मदद कर सकता है। पर्यावरणीय विनियमों को सुदृढ़ बनाना: समय की मांग है कि पर्यावरणीय विनियमों को सुदृढ़ किया जाए और इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिये उन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। जैसे निगरानी प्रणाली स्थापित करना, उल्लंघनों के लिये दंड देना और निर्णय लेने में पारदर्शिता को बढ़ावा देना। निष्कर्ष: भारत में हिमालय क्षेत्र के पारिस्थितिकी और पर्यावरण को संरक्षित करने के लिये नीति निर्माताओं, स्थानीय समुदायों और पर्यटन उद्योग सहित विभिन्न हितधारकों के सहयोग की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधन भविष्य की पीढ़ियों के लिये संरक्षित और सुरक्षित हैं। इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय प्रणालियों की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये नवीन समाधानों और स्थायी प्रथाओं की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय महिलाओं की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भूमिका और उनके समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता हासिल करने के उद्देश्य से शुरू किया गया भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष था। यह आंदोलन एक लंबा और जटिल संघर्ष था जो 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर 1947 तक जारी रहा था। भारतीय महिलाओं ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके योगदान ने इस आंदोलन को आकार देने और भारत के लिये स्वतंत्रता हासिल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मुख्य भाग: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय महिलाओं की भूमिका: अहिंसक प्रतिरोध आंदोलन: भारतीय महिलाओं ने नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अहिंसक प्रतिरोध आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया था। उदाहरण के लिये अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी जैसी महिलाएँ भारत छोड़ो आंदोलन की प्रमुख नेता थीं और उन्होंने बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों और हड़तालों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और हड़तालें: भारतीय महिलाएँ बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों और हड़तालों में शामिल हुई थीं और इन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरोध के रूप में ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया था। उदाहरण के लिये महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने नमक सत्याग्रह में भाग लिया था जिसके कारण उन्हें कैद कर लिया गया था। भूमिगत गतिविधियाँ: भारतीय महिलाएँ विभिन्न भूमिगत गतिविधियों में शामिल हुई थीं। इसमें उपनिवेश विरोधी लेखन और इसका प्रसार शामिल है जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में जागरूकता फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उदाहरण के लिये आजाद हिंद फौज का हिस्सा रही कैप्टन लक्ष्मी सहगल जैसी महिलाओं ने भूमिगत आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजनीतिक कैदियों का समर्थन करना: भारतीय महिलाओं ने राजनीतिक कैदियों को सहायता प्रदान करने के साथ स्वतंत्रता आंदोलन हेतु धन संग्रह करने वाली गतिविधियों में भाग लिया था। उदाहरण के लिये कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी महिलाओं ने राजनीतिक कैदियों और उनके परिवारों के लिये राहत प्रयासों की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सामाजिक सुधार आंदोलन: स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय महिलाओं ने सामाजिक सुधार आंदोलनों में शामिल होने के साथ महिलाओं के अधिकार, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दों के समाधान की दिशा में काम किया था। उदाहरण के लिये सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट जैसी महिलाएँ महिला अधिकार आंदोलन की प्रमुख नेता थीं और उन्होंने महिला सशक्तिकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका अतुलनीय और महत्त्वपूर्ण थी लेकिन उनके समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी थीं जैसे: पितृसत्ता और सांस्कृतिक मानदंड: इससे उन भारतीय महिलाओं के समक्ष एक बड़ी चुनौती बनी हुई थी जो राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेना चाहती थीं। महिलाओं को अक्सर दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में देखा जाता था। सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाओं ने महिलाओं की गतिशीलता और सार्वजनिक जीवन में इनकी भागीदारी को सीमित कर दिया था। शिक्षा और राजनीतिक स्तर पर इनकी कम भागीदारी थी। आर्थिक और सामाजिक बाधाएँ: आर्थिक और सामाजिक बाधाओं जैसे- गरीबी, सामाजिक कलंक और भेदभाव एवं शारीरिक हिंसा तथा दुर्व्यवहार से राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सीमित हुई थी। निष्कर्ष: कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, भारतीय महिलाओं ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उनके प्रयासों और बलिदानों ने भारत के लिये स्वतंत्रता हासिल करने और आंदोलन को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय महिलाओं की भूमिका, विपरीत परिस्थितियों में महिलाओं की क्षमता और साहस के रूप में प्रेरणा का परिचायक है।</s>
<s>[INST]भारत की प्रमुख सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता क्या है? किस प्रकार से इससे देश की सामाजिक संरचना प्रभावित होने के साथ इसकी पहचान को आकार मिलता है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता पर चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। सामाजिक संरचना और देश को आकार देने के रूप में इनके प्रभाव की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत अपनी विविध सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विरासत के लिये प्रसिद्ध है। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता का देश के सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव पड़ा है और इससे राष्ट्रीय पहचान को आकार मिला है। मुख्य भाग: भारत की सांस्कृतिक विविधता: भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जो कला, संगीत, नृत्य, वास्तुकला और व्यंजनों के विविध रूपों में परिलक्षित होती है। यह विविधता देश के लंबे इतिहास और सदियों से इस क्षेत्र में रहने वाली विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के प्रभाव का परिणाम है। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में योगदान देने वाले कुछ प्रमुख सांस्कृतिक तत्व: संगीत और नृत्य: भारत में संगीत और नृत्य की एक समृद्ध परंपरा है जो इसकी विविध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती है। यह देश भरतनाट्यम, कथक और मणिपुरी रासलीला जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों के साथ-साथ विविध लोक नृत्य रूपों के लिये जाना जाता है। कला और स्थापत्य: भारत में कला और स्थापत्य की समृद्ध परंपरा है। इसमें अजंता और एलोरा के प्राचीन गुफा चित्रों से लेकर ताजमहल के रूप में मुगल वास्तुकला शामिल है। व्यंजन: भारत अपने विविध व्यंजनों के लिये प्रसिद्ध है। इसके प्रत्येक क्षेत्र में खान-पान और स्वाद की अपनी अनूठी शैली है। दक्षिण की मसालेदार करी से लेकर उत्तर के तंदूरी व्यंजन तक, भारतीय व्यंजन देश की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हैं। भारत में भाषाई विविधता: भारत में 22 से अधिक आधिकारिक भाषाओं के साथ 1,600 से अधिक बोलियाँ बोली जाती हैं। अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार देश की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी है लेकिन यहाँ विभिन्न जातीय समूहों द्वारा बोली जाने वाली कई अन्य भाषाएँ हैं जैसे बंगाली, मराठी, तमिल, तेलुगु और पंजाबी आदि। यह भाषाई विविधता देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती है और इसने इसके सामाजिक ताने-बाने में कई तरह से योगदान दिया है। उदाहरण के लिये भाषाओं की विविधता से भारत में विभिन्न जातीय समूहों के बीच क्षेत्रीय पहचान और गौरव की एक मजबूत भावना का विकास हुआ है। भारत में धार्मिक विविधता: भारत में सबसे व्यापक रूप से प्रचलित धर्मों में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के साथ धार्मिक विश्वासों की विविध परंपरा मौजूद है। भारत की धार्मिक विविधता देश के लंबे इतिहास और सदियों से इस क्षेत्र में रहने वाली विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के प्रभाव का परिणाम है। भारत की धार्मिक विविधता ने देश के सामाजिक ताने-बाने और पहचान को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिये धार्मिक विश्वासों की विविधता से सहिष्णुता और बहुलवाद की समृद्ध परंपरा विकसित हुई है जहाँ विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रहते हैं। भारत की सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता का देश के सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव पड़ता है और कई तरह से इससे इसकी पहचान को आकार मिलता है: सामाजिक एकता: भारत में विशाल सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक मतभेदों के बावजूद देश अभी भी समग्र रूप से एकजुट है। देश की विविधता से एकता की भावना के विकास में मदद मिली है जिससे इतनी विविधता के बावजूद लोग अभी भी शांति और सद्भाव में एक साथ रहते हैं। सहिष्णुता और बहुलवाद: भारत में सहिष्णुता और बहुलवाद का एक लंबा इतिहास रहा है जहाँ विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते हैं और एक-दूसरे की मान्यताओं और प्रथाओं का सम्मान करते हैं। इससे एक विविध और समावेशी समाज का विकास हुआ है। सांस्कृतिक समारोह: भारत में सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता देश के त्योहारों और समारोहों में परिलक्षित होती है। दिवाली जैसे हिंदू त्योहार से लेकर ईद-उल-फितर जैसे मुस्लिम त्योहार लोगों को एक साथ लाते हैं। राष्ट्रीय पहचान: भारत की सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता ने देश की राष्ट्रीय पहचान को आकार देने में मदद की है। भारत की विविधतापूर्ण विरासत इसकी कला, साहित्य, संगीत, नृत्य और वास्तुकला में परिलक्षित होती है और इससे एक अद्वितीय सांस्कृतिक पहचान का विकास होता है जो किसी भी अन्य देश से अलग है। आर्थिक विकास: भारत की विविधता ने इसके आर्थिक विकास में भी भूमिका निभाई है। देश की विविध संस्कृतियों और भाषाओं से जीवंत और विविधीकृत अर्थव्यवस्था विकसित हुई है। निष्कर्ष: भारत में सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण है। इस विविधता से देश के सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव पड़ने के साथ अद्वितीय और जीवंत समाज का विकास और राष्ट्रीय पहचान को आकार मिलता है। इस विविधता ने एक मजबूत और जीवंत सामाजिक ताने-बाने का विकास करते हुए भारत में विभिन्न सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक समूहों के बीच एकता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देने में मदद की है। भारत में सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता राष्ट्रीय पहचान को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेगी।</s>
<s>[INST]भारत में जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत में जनसंख्या के वर्तमान परिदृश्य पर संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भारत में जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महिलाओं की भूमिका की चर्चा कीजिये। तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये। भूमिका हाल के वर्षों में, जनसंख्या वृद्धि भारत सहित कई देशों के लिये एक प्रमुख चिंता का विषय बन गई है। भारत की जनसंख्या 2050 तक 170 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है, जिससे यह विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। जनसंख्या वृद्धि के मुद्दे को संबोधित करने के प्रमुख तरीकों में से एक महिलाओं को सशक्त बनाना और उन्हें अपने प्रजनन स्वास्थ्य पर स्वनियंत्रण प्रदान करना है। मुख्य भाग वर्तमान परिदृश्य: लगभग 150 करोड़ की जनसंख्या के साथ भारत विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। भारत में जनसंख्या वृद्धि दर लगभग 1.2% है, जो अन्य विकसित देशों की तुलना में अधिक मानी जाती है। उच्च जनसंख्या वृद्धि दर के पीछे प्रमुख कारण प्रजनन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन विधियों के बारे में महिलाओं में शिक्षा और जागरूकता की कमी है। इसलिये महिलाओं को सशक्त बनाना समय की मांग है, ताकि वे जनसंख्या नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकें। भारत में जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महिलाओं की भूमिका: सूचित निर्णय लेना: जनसंख्या वृद्धि में महिला सशक्तिकरण महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह महिलाओं को अपने प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में सूचित निर्णय लेने का अधिकार देता है। जब महिलाएँ सशक्त होती हैं, तो उन्हें परिवार नियोजन सेवाओं सहित गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने का अधिकार होता है, और वे जितने बच्चे पैदा करना चाहती हैं, उसका निर्णय स्वयं कर सकती हैं। भारत सरकार ने महिलाओं को सशक्त बनाने और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच प्रदान करने के लिये विभिन्न कार्यक्रमों और पहलों को लागू किया है। उदाहरण के लिये, जननी सुरक्षा योजना (JSY) कार्यक्रम उन महिलाओं को वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करता है जो अपने बच्चों को स्वास्थ्य संस्थानों में जन्म देती हैं और संस्थागत प्रसव करवाती हैं। जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में शिक्षा की भूमिका: शिक्षा महिलाओं को सशक्त बनाने और जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जो महिलाएँ शिक्षित हैं, वे परिवार नियोजन के तरीकों के बारे में अधिक जागरूक होती हैं और उनके परिवारों में उच्च स्तर के निर्णय लेने की शक्ति होती है। भारत में, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान सहित लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न कार्यक्रम लागू किये गए हैं। अभियान का उद्देश्य लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना एवं कन्या भ्रूण हत्या और लिंग-चयनात्मक गर्भपात के मुद्दे को संबोधित करना है। परिवार नियोजन सेवाओं में भूमिका: जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के लिये महिलाओं हेतु परिवार नियोजन सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। भारत में, प्राकृतिक और आधुनिक तरीकों सहित परिवार नियोजन के विभिन्न तरीके उपलब्ध हैं। हालाँकि, इन सेवाओं की उपलब्धता सीमित है और कई महिलाओं की गुणवत्तापूर्ण परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच नहीं है। सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) कार्यक्रम सहित परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच में सुधार के लिये विभिन्न कार्यक्रमों और पहलों को लागू किया है। NRHM कार्यक्रम परिवार नियोजन सेवाएँ प्रदान करने वाले ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना के लिये पूंजी उपलब्ध कराता है। निष्कर्ष भारत में जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने के लिये महिला सशक्तिकरण एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार, शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच आवश्यक है। सरकार ने इन मुद्दों के समाधान के लिये विभिन्न कार्यक्रमों और पहलों को लागू किया है, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिये और अधिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है कि सभी महिलाओं की इन सेवाओं तक पहुँच हो। भारत में स्थायी जनसंख्या वृद्धि सुनिश्चित करने के लिये महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना और निर्बाध गुणवत्तापूर्ण परिवार नियोजन सेवाएँ प्रदान करना अधिक महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]19वीं शताब्दी तक मराठा साम्राज्य के पतन के कारणों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण मराठा साम्राज्य का संक्षिप्त परिचय देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। उनके पतन के कारणों की विवेचना कीजिये। तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय मराठा साम्राज्य 17वीं शताब्दी के अंत से 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में एक प्रमुख शक्ति था। यह 17वीं शताब्दी में मराठा शासक शिवाजी द्वारा स्थापित किया गया था और 18वीं शताब्दी की शुरुआत में पेशवा बाजी राव प्रथम के शासन में अपने चरम पर पहुँच गया था। हालाँकि, 19वीं शताब्दी के मध्य तक, मराठा साम्राज्य में काफी गिरावट आई थी, जिससे भारत के अधिकांश हिस्सों में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना हुई। मुख्य भाग मराठा साम्राज्य के पतन के कारण: आंतरिक कारक: केंद्रीकरण का अभाव: मराठा साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण इसके प्रशासन में केंद्रीकरण का अभाव था। मराठा शासकों ने अपने अधिकांश अधिकार स्थानीय नेताओं को सौंप दिये, जो अक्सर स्वतंत्र रूप से और अपने हित में काम करते थे। इससे साम्राज्य के भीतर सामंजस्य की कमी हुई और क्षेत्रीय गुटों का उदय हुआ जिन्हें नियंत्रित करना मुश्किल था। कमज़ोर नेतृत्व: मराठा साम्राज्य भी कमज़ोर नेतृत्व से त्रस्त था, क्योंकि इसके कई शासक अपने क्षेत्रों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने या अपने अधिकार को लागू करने में असमर्थ थे। शिवाजी और बाजीराव प्रथम जैसे मज़बूत शासकों की मृत्यु और बाद में सक्षम नेतृत्व की कमी ने साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। आंतरिक विवाद: मराठा साम्राज्य स्वतंत्र राज्यों के एक संघ से बना था जिसमें प्रत्येक संघ का अपना शासक था। ये शासक अक्सर एक-दूसरे के विरोधी होते थे और सत्ता संघर्ष में लगे रहते थे, जिससे साम्राज्य बाह्य आक्रमणों के लिये सुभेद्य हो जाता था। उदाहरण के लिये, 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पेशवा और गायकवाड़ शासकों के बीच संघर्ष ने मराठा साम्राज्य को कमज़ोर कर दिया और इसे अंग्रेज़ों के हमले के लिये कमज़ोर बना दिया। प्रौद्योगिक प्रगति का अभाव और खराब युद्ध रणनीति: मराठा साम्राज्य में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तुलना में प्रौद्योगिक प्रगति का अभाव था, जिसकी पहुँच बेहतर हथियारों तक थी और अधिक प्रभावी सैन्य रणनीति का इस्तेमाल करती थी। इन कारकों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई में मराठा साम्राज्य की पराजय में भूमिका निभाई। आर्थिक अस्थिरता: मराठा साम्राज्य को कृषि और व्यापार से घटते राजस्व और सैन्य खर्चों में वृद्धि के साथ महत्त्वपूर्ण आर्थिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा। यह आंशिक रूप से आंतरिक गुटों और क्षेत्रीय शक्तियों के उदय के कारण निरंतर युद्ध और अस्थिरता के कारण था। आर्थिक अस्थिरता ने मराठा शासकों के लिये अपनी सैन्य शक्ति को बनाए रखना मुश्किल बना दिया, जिससे उनके राजनीतिक प्रभाव में गिरावट आई। बाह्य कारक: ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति का उदय: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, जिसे 1600 में भारत में स्थापित किया गया था, ने धीरे-धीरे व्यापार और सैन्य विस्तार के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्से पर नियंत्रण कर लिया। मराठा साम्राज्य ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का विरोध करने वाली अंतिम प्रमुख भारतीय शक्तियों में से एक था, लेकिन इसके पतन ने अंग्रेज़ों के लिये नियंत्रण प्राप्त करना आसान बना दिया। तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818) ने मराठा प्रतिरोध के अंत और अधिकांश भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की शुरुआत को चिह्नित किया। मुगल साम्राज्य का पतन: मराठा साम्राज्य भी मुगल साम्राज्य के पतन से प्रभावित था, जो सदियों से भारत में प्रमुख शक्ति था। मुगल साम्राज्य के पतन के कारण मराठों जैसी क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ, लेकिन इसने उपमहाद्वीप में व्याप्त अस्थिरता और परस्पर फूट में भी योगदान दिया। मराठा साम्राज्य मुगलों द्वारा निर्वातित शक्ति क्षेत्र की पूर्ति में असमर्थ था और धीरे-धीरे ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति के उदय से पतन की ओर अग्रसर हो गया। निष्कर्ष मराठा साम्राज्य का पतन आंतरिक और बाह्य कारकों के संयोजन का परिणाम था। 19वीं शताब्दी तक केंद्रीय सत्ता का अभाव, कमज़ोर नेतृत्व और आर्थिक अस्थिरता, ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति के उदय तथा मुगल साम्राज्य का पतन, मराठा साम्राज्य के पतन के कारण थें। मराठा साम्राज्य का पतन भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी और इसने भारत के अधिकांश हिस्सों पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।</s>
<s>[INST]विभिन्न प्रकार की अभिवृत्तियों की चर्चा करते हुए बताइये कि इनसे हमारा व्यवहार और विचार किस प्रकार प्रभावित होते हैं। (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]प्रश्न. औपनिवेशिक काल के दौरान भारतीय कृषि पर ब्रिटिश नीतियों के प्रभाव की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारतीय कृषि पर ब्रिटिश नीतियों के बारे में संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। इनके नकारात्मक और सकारात्मक प्रभावों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का देश के कृषि क्षेत्र पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू की गई नीतियों का कृषि उत्पादन, व्यापार और वितरण पर स्थायी प्रभाव पड़ा था। इसके कुछ प्रमुख प्रभावों की चर्चा नीचे की गई है। मुख्य भाग: भारतीय कृषि पर ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव: सकारात्मक प्रभाव: कृषि का व्यावसायीकरण: ब्रिटिश नीतियों ने नकदी फसलों को बढ़ावा देकर तथा उनकी बिक्री के लिये बाजार उपलब्ध कराकर भारत में कृषि के व्यावसायीकरण को प्रेरित किया था। इससे उत्पादन में वृद्धि हुई और किसानों की आय में वृद्धि हुई। उदाहरण के लिये ब्रिटिशों द्वारा बंगाल में नील की खेती की शुरूआत की गई थी जो एक प्रमुख नकदी फसल बन गई। आधुनिक उपकरणों और तकनीकों का उपयोग: ब्रिटिश नीतियों से कृषि में आधुनिक उपकरणों और तकनीकों के उपयोग को प्रोत्साहन मिला था। इससे कृषि दक्षता और उत्पादकता में वृद्धि हुई। उदाहरण के लिये ब्रिटिशों ने ड्रिलिंग कुओं और नहर सिंचाई जैसी नई सिंचाई तकनीकों की शुरुआत की थी जिससे कृषि उत्पादन में सुधार हुआ था। शोषणकारी जमींदारों से मुक्ति: कई मामलों में ब्रिटिश नीतियों ने गरीब किसानों को शोषणकारी जमींदारों से मुक्त कराया था। ब्रिटिशों द्वारा शुरू की गई राजस्व नीतियों से जमींदारों की शक्ति में कमीं आई और किसानों को अधिक सुरक्षा मिली थी। नकारात्मक प्रभाव: भूमि पर बढ़ता दबाव: ब्रिटिश नीतियों के कारण भूमि पर दबाव बढ़ा क्योंकि कई कारीगरों ने कम लाभ और दमनकारी नीतियों के कारण अपने व्यवसायों को छोड़ दिया और कृषि में लग गए। इससे शिल्प क्षेत्र में गिरावट आई तथा कृषि पर दबाव बढ़ा। जिससे उत्पादकता और लाभप्रदता में कमी आई थी। कृषि क्षेत्र पर अत्यधिक बोझ: कृषि क्षेत्र पर अत्यधिक बोझ बढ़ने से ब्रिटिश शासन के दौरान गरीबी में वृद्धि हुई थी। ब्रिटिशों ने ऐसी नीतियाँ लागू की थीं जिससे किसानों पर राजस्व दर को बढ़ा दिया गया था। इससे बीज और उर्वरक जैसे इनपुट पर खर्च कम किये जाने के कारण पैदावार और किसानों की आय में कमी आई थी। किसानों की स्थिति में गिरावट आना: ब्रिटिश नीतियों के कारण किसानों की स्थिति में गिरावट आई थी। इन नीतियों द्वारा खाद्य फसलों की तुलना में नकदी फसलों का समर्थन किया गया जिससे खाद्यान्न की कमी पैदा हुई और खाद्य कीमतों में वृद्धि हुई थी। इसके अतिरिक्त रैयतवाड़ी जैसी राजस्व प्रणाली द्वारा भूमि के स्वामित्व का अधिकार किसानों को सौंप दिया गया था और राज्य द्वारा सीधे किसानों से राजस्व एकत्र किया गया था। इस प्रणाली में राजस्व की दर गैर-सिंचित भूमि के लिये 50% तथा सिंचित भूमि के लिये 60% थी। जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक करों के कारण किसान और गरीब हो गए थे। आत्मनिर्भर ग्रामीण क्षेत्र का पतन होना: ब्रिटिश नीतियों के कारण आत्मनिर्भर ग्रामीण क्षेत्र का पतन हुआ था। ब्रिटिश नीतियों का उद्देश्य भारतीय कृषि को विश्व बाजार से एकीकृत करना था, जिससे उत्पादन के तरीकों में बदलाव होने के साथ पारंपरिक प्रणालियों का पतन हुआ था। इससे पारंपरिक, आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गिरावट आई और मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था का उदय हुआ था। निष्कर्ष: भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों का सकारात्मक और नकारात्मक प्रकृति के साथ देश के कृषि क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा था। ब्रिटिश नीतियों से कृषि के व्यावसायीकरण एवं इसमें आधुनिक उपकरणों और प्रौद्योगिकियों के उपयोग को बढ़ावा मिलने के साथ किसानों को शोषक जमींदारों से कुछ राहत मिली थी। दूसरी ओर इन नीतियों से भूमि और कृषि पर बोझ बढ़ने के साथ किसानों की स्थिति दयनीय हुई तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पतन हुआ था। ये प्रभाव आज भी भारत के कृषि क्षेत्र को आकार देने के रूप में परिलक्षित होते हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न. गरीबी, निरक्षरता और शोषण जैसे मुद्दों के संबंध में भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन कीजिये। क्या वास्तविक अर्थों में हम विकसित देश बनने की राह पर आगे बढ़ रहे हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: गरीबी, निरक्षरता और शोषण जैसे मुद्दों पर भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति पर संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। चर्चा कीजिये कि क्या इसे विकसित देश माना जा सकता है और इसकी स्थिति में सुधार के कुछ उपाय सुझाइए। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारतीय समाज पारंपरिक और आधुनिक तत्वों के मिश्रण एवं समय के साथ विकसित एक जटिल संरचना है। देश के तीव्र आर्थिक विकास के बावजूद, गरीबी, अशिक्षा और शोषण जैसे मुद्दे अभी भी समाज में बने हुए हैं। मुख्य भाग: भारतीय समाज के समक्ष मौजूद मुद्दे: गरीबी: हाल के आर्थिक विकास के बावजूद गरीबी एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है। यहाँ 16.4% आबादी गरीबी में रहती है और 4.2% को अत्यंत गरीब माना जाता है। वर्ष 2021 में प्रतिदिन $1.90 क्रय शक्ति समता से नीचे नियोजित जनसंख्या का अनुपात 7.6% था। वर्ष 2016 में 49.3% आबादी को बहुआयामी रूप से गरीब माना गया था जिसमें से 23.6% लोग बहुआयामी गरीब और वंचित श्रेणी में थे। निरक्षरता: देश में साक्षरता दर में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है लेकिन अभी भी विभिन्न क्षेत्रों और जनसांख्यिकीय समूहों के बीच असमानताएँ मौजूद हैं। उदाहरण के लिये कुछ राज्यों में साक्षरता दर 90% से अधिक है, जबकि झारखंड और बिहार जैसे अन्य राज्यों में अभी भी साक्षरता दर काफी कम है। शोषण: यह भारतीय समाज में एक और बड़ी समस्या है (विशेष रूप से महिलाओं, दलितों और आदिवासियों जैसे कुछ समूहों के साथ भेदभाव और उनके हाशिए पर जाने के रूप में)। सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे: भारतीय समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों को हल करने की आवश्यकता है जैसे लोगों की सुरक्षा (विशेष रूप से कमजोर वर्गों) के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों पर बल देना। संबंधित सरकारी पहल: भारत में गरीबी, निरक्षरता और शोषण को दूर करने के उद्देश्य से विभिन्न योजनाएँ और कार्यक्रम शुरू किये गए हैं। गरीबी उन्मूलन: सरकार ने गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) जैसी विभिन्न पहलों को शरू किया है। जिसका उद्देश्य गरीबों को रोज़गार के अवसर और खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है। साक्षरता में सुधार: सरकार ने साक्षरता दर में सुधार के लिये कई पहल की हैं जैसे कि राष्ट्रीय साक्षरता मिशन और सर्व शिक्षा अभियान। जिसका उद्देश्य सभी नागरिकों को सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करना है। शोषण का मुकाबला करना: सरकार ने शोषण का मुकाबला करने के उद्देश्य से विभिन्न कानूनों और नीतियों को लागू किया है। जैसे बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम और बंधुआ श्रम प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम। जिनका उद्देश्य क्रमशः बाल श्रम एवं बंधुआ श्रम को प्रतिबंधित और विनियमित करना है विकसित देश की स्थिति: एक विकसित देश माने जाने के रूप में यह तर्क दिया जा सकता है कि भारत अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है और विकसित देश बनने में अभी एक लंबा रास्ता तय करना है। हालांकि अर्थव्यवस्था और प्रौद्योगिकी जैसे कुछ क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है लेकिन गरीबी, निरक्षरता और शोषण अभी भी प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस स्थिति में सुधार के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में निवेश, प्रभावी गरीबी-निवारक कार्यक्रमों को लागू करने तथा बाल श्रम एवं शोषण से निपटने के उपायों को मजबूत करने जैसे उपाय करना महत्त्वपूर्ण हैं। इसके अलावा जाति व्यवस्था, लैंगिक हिंसा और सांप्रदायिकता जैसे सामाजिक मुद्दों को हल करना भी अधिक समावेशी और न्यायसंगत समाज की दिशा में महत्त्वपूर्ण होगा। गरीबी, निरक्षरता और शोषण जैसे मुद्दों को हल करने के सुझाव: लैंगिक वेतन अंतराल को समाप्त करने के साथ महिलाओं की आर्थिक संसाधनों और अवसरों तक पहुँच बढ़ाना। क्योंकि कृषि कार्यबल का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के बाद भी यह काफी कम कृषि भूमि की मालिक हैं। भोजन, स्वच्छ जल और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच में सुधार करना। कमजोर समुदायों के बीच छोटे व्यवसाय के विकास और रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करना। भारतीय समाज में निरक्षरता को समाप्त करना: सभी व्यक्तियों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच प्रदान करना (चाहे उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो)। जिन लोगों को स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला है उनके लिये प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम लागू करना। सीखने की संस्कृति को प्रोत्साहित करने के साथ लोगों के बीच शिक्षा को प्राथमिकता देना। भारतीय समाज में शोषण को समाप्त करना: मानव तस्करी एवं जबरन श्रम जैसी शोषणकारी प्रथाओं के खिलाफ कानूनों और इनके प्रवर्तन को मजबूत करना। नीतियों और विनियमों के माध्यम से श्रम मानकों तथा कार्य स्थितियों में सुधार करना। शोषण की पहचान करने और उसे हल करने के लिये समुदाय एवं सरकार के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना निष्कर्ष: भारत अभी भी गरीबी, निरक्षरता और शोषण जैसी महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है लेकिन सरकारी पहल और प्रस्तावित उपाय इन मुद्दों को हल करने में मदद कर सकते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश करके, गरीबी-निवारक कार्यक्रमों को लागू करके तथा शोषण का मुकाबला करके, भारत अधिक समावेशी एवं न्यायसंगत समाज की दिशा में आगे बढ़ सकता है।</s>
<s>[INST]भारत में शीत लहर की उत्पत्ति में पश्चिमी विक्षोभ की भूमिका पर चर्चा करते हुए बताइये कि ला नीना से शीत लहर की गंभीरता किस प्रकार प्रभावित हो सकती है। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: शीत लहर के कारण के रूप में पश्चिमी विक्षोभ की भूमिका पर चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। चर्चा कीजिये कि ला नीना से शीत लहर की गंभीरता किस प्रकार प्रभावित होती है। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: शीत लहर का तात्पर्य 24 घंटे के अंदर तापमान में एक ऐसे स्तर तक तेजी से गिरावट होना है जिसमें कृषि, उद्योग, वाणिज्य और सामाजिक गतिविधियों के लिये पर्याप्त रूप से बढ़ी हुई सुरक्षा की आवश्यकता होती है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार भारत में शीत लहर के विकास के लिये आवश्यक मानदंड हैं: मैदानी इलाकों में रिकॉर्ड किया गया न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या उससे कम होना चाहिये। अधिक ऊँचाई वाली पहाड़ियों के लिये, न्यूनतम तापमान 0 डिग्री या कम होना चाहिये। उच्चतम तापमान सामान्य तापमान की तुलना में 4.5-6.4 डिग्री सेल्सियस तक कम होना चाहिये। मुख्य भाग: भूमध्यसागरीय क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले पश्चिमी विक्षोभ का भारत सहित हिमालयी क्षेत्र के मौसम पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह फसल के नुकसान, भूस्खलन, बाढ़, हिमस्खलन के साथ शीत लहर की स्थिति एवं घने कोहरे जैसी कई चरम मौसमी घटनाओं का कारण बन सकते हैं। भारत में शीत लहर के विकास में पश्चिमी विक्षोभ की भूमिका: जैसे ही पश्चिमी विक्षोभ भारत की ओर बढ़ता है, यह अपने साथ नमीयुक्त हवाएँ लाता है जो सर्द और शुष्क उत्तर-पश्चिमी हवाओं को गर्म और नम पूर्वी हवाओं से बदल देता है। हवा की दिशा में इस बदलाव से तापमान में गिरावट के साथ शीत लहरों का विकास हो सकता है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी विक्षोभ के कारण होने वाली अत्यधिक वर्षा से घना कोहरा और दृश्यता में कमी आने के साथ शीत लहर की स्थिति की गंभीरता में वृद्धि हो सकती है। ला नीना और शीत लहर: ला नीना एक ऐसी मौसमी घटना है जो मध्य और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के औसत से कम तापमान को दर्शाती है। ला नीना के दौरान भारतीय मानसून आमतौर पर कमजोर हो जाता है, जिससे कम वर्षा होने के साथ भारत में सूखे की संभावना बढ़ सकती है। इससे तापमान में गिरावट और शीत लहर का विकास हो सकता है। इसके अलावा कमजोर मानसून भी पश्चिमी विक्षोभ की आवृत्ति में वृद्धि कर सकता है, जो शीत लहर की स्थिति की संभावना और गंभीरता को और बढ़ा सकता है। निष्कर्ष: पश्चिमी विक्षोभ, भारत में शीत लहर के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर्द्र हवाएँ और इन मौसम प्रणालियों के कारण होने वाली अत्यधिक वर्षा से तापमान में गिरावट के साथ शीत लहर का विकास हो सकता है। इसके अतिरिक्त ला नीना की स्थिति भारतीय मानसून को कमजोर करके और सूखे की संभावना को बढ़ाकर शीत लहर की गंभीरता को प्रभावित कर सकती है।</s>
<s>[INST]दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर भारतीय कला एवं संस्कृति के प्रभावों का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर भारतीय कला और संस्कृति के प्रभाव का संक्षेप में परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। दक्षिण पूर्व एशिया पर भारतीय कला और संस्कृति के विभिन्न प्रभावों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: दक्षिण पूर्व एशिया की सभ्यताओं पर भारतीय कला और संस्कृति का महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा है। दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रसार का पता भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच प्राचीन समुद्री व्यापार मार्गों से लगाया जा सकता है, जिससे वस्तुओं, विचारों और सांस्कृतिक प्रथाओं का आदान-प्रदान हुआ था। भारतीय कला और संस्कृति का दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं के विकास पर स्थायी प्रभाव पड़ा है (विशेष रूप से धर्म, वास्तुकला और साहित्य के क्षेत्रों में)। ल्मुख्य दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर भारतीय कला एवं संस्कृति का प्रभाव: धर्म: भारतीय धर्म का दक्षिण पूर्व एशिया की संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। बौद्ध धर्म: भारत से दक्षिण पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ और इसका दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा है। दक्षिण पूर्व एशिया में शुरुआती बौद्ध साम्राज्य (जैसे कि वर्तमान म्यांमार और थाईलैंड), भारतीय बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थे, और इन राज्यों के शासक बौद्ध धर्म के संरक्षक थे तथा उन्होंने कई बौद्ध मंदिरों और मठों का निर्माण कराया था। हिंदू धर्म: हिंदू धर्म को भारतीय व्यापारियों और भिक्षुओं के माध्यम से दक्षिण पूर्व एशिया में ले जाया गया था और इसका कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के धार्मिक विश्वासों एवं प्रथाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। दक्षिण पूर्व एशिया के मंदिर और मूर्तियाँ भी भारतीय रूपांकनों से प्रेरित हैं और कई दक्षिण पूर्व एशियाई शासक भारतीय हिंदू धर्म से काफी प्रभावित थे। स्थापत्य कला: भारतीय वास्तुकला का भी दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। दक्षिण पूर्व एशिया में मंदिरों और अन्य धार्मिक भवनों के निर्माण में भारतीय स्थापत्य शैली और तकनीकों का उपयोग देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये कंबोडिया में अंकोरवाट की वास्तुकला भारतीय शैलियों और तकनीकों से काफी प्रभावित है और इस मंदिर परिसर को दक्षिण पूर्व एशिया में भारत से प्रेरित वास्तुकला के सबसे प्रमुख उदाहरणों में से एक माना जाता है। साहित्य और कलात्मक प्रभाव: भारतीय साहित्य का प्रभाव दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर भी पड़ा है। रामायण और महाभारत जैसे दो महान भारतीय महाकाव्यों को दक्षिण पूर्व एशिया में भी लोकप्रियता मिली है और इनके संस्करण को कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में देखा जा सकता है। इनकी कहानियों को स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं को प्रतिबिंबित करने के लिये विकसित किया गया है लेकिन भारतीय साहित्य का प्रभाव अभी भी इन रूपांतरों में प्रयुक्त विषयों और पात्रों में देखा जा सकता है। निष्कर्ष: भारतीय कला और संस्कृति का दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रसार का पता प्राचीन समुद्री व्यापार मार्गों से लगाया जा सकता है और इसका दक्षिण पूर्व एशियाई सभ्यताओं के विकास पर स्थायी प्रभाव पड़ा है। भारतीय संस्कृति ने धर्म, वास्तुकला और साहित्य के क्षेत्रों में दक्षिण पूर्व एशिया को प्रभावित किया है जिसे आज भी देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने में संग्रहालयों तथा संस्थानों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में संक्षेप में वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने में संग्रहालयों तथा संस्थानों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: भारत समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला देश है और इसकी कला तथा वास्तुकला सदियों के इतिहास और परंपरा से विकसित हुई है। हालाँकि यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि इन सांस्कृतिक विरासत को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिये संरक्षित करना महत्त्वपूर्ण है। इसके अलावा भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत के पतन के मुद्दे को हल करने की आवश्यकता है क्योंकि सांस्कृतिक स्मारकों पर ध्यान न देने से यह असामाजिक गतिविधियों का स्थान बन जाते हैं। मुख्य भाग: प्राचीन गुफा चित्रों और मूर्तियों से लेकर मध्ययुगीन मंदिरों एवं महलों के रुप में भारतीय कला और वास्तुकला समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का उदाहरण है। इसलिये इस समृद्ध विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। इसमें संग्रहालय और अन्य संबंधित संस्थान अपनी भूमिका निभाते हैं जैसे कि: भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें कलाकृतियों, पांडुलिपियों और अन्य सांस्कृतिक वस्तुओं का संरक्षण शामिल है। संग्रहालय और संस्थान यह सुनिश्चित करने के लिये जिम्मेदार हैं कि इन कलाकृतियों को इस तरह से संरक्षित किया जाए जो उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ के अनुरूप हो। जनता के लिये सुलभ विरासत: भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में संग्रहालयों और संस्थानों की मुख्य भूमिकाओं में से एक यह है कि इन कलाकृतियों और वस्तुओं तक लोगों की सुलभ पहुँच हो जाती है। इनके द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम और प्रदर्शनियों के माध्यम से लोगों को भारतीय कला एवं सांस्कृतिक विरासत के इतिहास तथा महत्त्व के बारे में शिक्षित करने में मदद मिलती है। यह वैश्विक दर्शकों के लिये भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को सुलभ बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिये कई संग्रहालय और संस्थान विदेशों में भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत की प्रदर्शनियों का आयोजन करते हैं, जो वैश्विक दर्शकों के लिये भारतीय कला और संस्कृति को सुलभ बनाने में मदद करते हैं। अतीत का व्यापक शोध: भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में संग्रहालयों और संस्थानों की एक और महत्त्वपूर्ण भूमिका विद्वानों और शोधकर्ताओं के लिये अनुसंधान के अवसर प्रदान करना है। कई संग्रहालयों और संस्थानों में शोध पुस्तकालय और अभिलेखागार ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जानकारी तक पहुँच प्रदान करते हैं। भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देना: सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के अलावा संग्रहालय और संस्थान भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दर्शकों के बीच जिज्ञासा बढ़ाना: ये दर्शकों के लिये देश की कलात्मक और सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करके भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु एक मंच के रूप में कार्य करते हैं। ये लोगों को देश की समृद्ध विरासत के बारे में जानने और उसकी सराहना करने का अवसर प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में भारतीय कला को समर्पित एक खंड है। यहाँ आगंतुक मूर्तियों, चित्रों और पांडुलिपियों सहित भारतीय कला की विस्तृत श्रृंखला देख सकते हैं। यह संग्रहालय देश की कलात्मक विरासत को प्रदर्शित करने के लिये नियमित प्रदर्शनियों और कार्यक्रमों का भी आयोजन करता है। भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था का एक उदाहरण भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) है। यह भारत सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थान है जो प्रदर्शनियों, व्याख्यानों और अन्य शैक्षिक कार्यक्रमों सहित विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देता है। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम भी आयोजित करता है जो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने में मदद करता है। देश के संग्रहालयों के उदाहरण- इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (INTACH), भारतीय संग्रहालय कोलकाता, छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय, मुंबई, राष्ट्रीय हस्तशिल्प और हथकरघा संग्रहालय, नई दिल्ली। भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और इसे बढ़ावा देने के लिये प्रमुख सरकारी पहल: शताब्दी एवं वर्षगांठ योजना और कला संस्कृति विकास योजना: इन योजनाओं को संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रशासित किया जाता है और इसके द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों और प्रदर्शनियों के लिये धन उपलब्ध कराया जाता है जो भारत एवं विदेश दोनों में भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों और अभिलेखागार का विकास: सरकार यह सुनिश्चित करने के लिये संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों और अभिलेखागार के विकास पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है कि भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखा जाए और इसे जनता के लिये सुलभ बनाया जाए। निष्कर्ष: संग्रहालय एवं संस्थान भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये शैक्षिक कार्यक्रमों, प्रदर्शनियों और अनुसंधान के अवसरों के माध्यम से भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को जनता के लिये सुलभ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण और संवर्धन देश की अनूठी पहचान को बनाए रखने एवं भावी पीढ़ियों को इसके समृद्ध इतिहास के बारे में शिक्षित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]भारत में प्राकृतिक खेती की अवधारणा तथा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने में इसके महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: प्राकृतिक कृषि का संक्षेप में परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और स्थायी कृषि को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका पर प्रकाश डालिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: प्राकृतिक कृषि एक ऐसी कृषि पद्धति है जो रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों पर निर्भर रहने के बजाय फसलों के उत्पादन और पशुपालन के लिये प्राकृतिक प्रक्रियाओं और स्थानीय रूप से अनुकूलित पारिस्थितिक तंत्र के उपयोग पर बल देती है। इसमें अक्सर फसल चक्रण, इंटरक्रॉपिंग और मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और जैव विविधता को बढ़ावा देने के लिये कवर फसलों के उपयोग जैसे तत्त्व शामिल होते हैं। प्राकृतिक कृषि का लक्ष्य ऐसा आत्मनिर्भर कृषि पारिस्थितिकी तंत्र सृजित करना है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य पर आधारित हो। मुख्य भाग: भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और स्थायी कृषि को बढ़ावा देने में प्राकृतिक कृषि का महत्त्व: प्राकृतिक कृषि का उद्देश्य लागत में कमी, कम जोखिम, समान उपज द्वारा किसानों की शुद्ध आय में वृद्धि करके कृषि को व्यवहार्य और आकांक्षी बनाना है। खाद्य और पोषण सुरक्षा: प्राकृतिक कृषि भारत में खाद्य सुरक्षा में सुधार करने में मदद कर सकती है, विशेष रूप से छोटे स्तर के किसानों के लिये जिनके पास आधुनिक इनपुट तक पहुँच नहीं है या वह अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं हैं। प्राकृतिक तकनीकों पर भरोसा करके किसान उच्च लागत के बिना स्वस्थ, पौष्टिक अनाज का उत्पादन कर सकते हैं। सतत कृषि: शून्य बजट प्राकृतिक कृषि (ZNBF): प्राकृतिक कृषि की प्रमुख प्रक्रियाओं में से एक, शून्य बजट प्राकृतिक कृषि (ZNBF) है। यह कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों जैसे किसी बाहरी निवेश के उपयोग के बिना फसलों के उत्पादन की प्रणाली है। शून्य बजट वाक्यांश, शून्य उत्पादन लागत वाली फसलों को संदर्भित करता है। लागत कम होने और पैदावार बढ़ाने में सहायक होने के कारण इससे किसानों के राजस्व में वृद्धि होती है। उत्पादन लागत कम करना: प्राकृतिक प्रक्रियाओं के सिद्धांतों पर आधारित होने से इसमें कीटनाशकों और उर्वरकों जैसे बाहरी आदानों पर निर्भरता में कमी आती है। उत्पादन की कुल लागत में कमी आने से यह किसानों के लिये अधिक व्यवहार्य हो जाता है। मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार: प्राकृतिक कृषि मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद करती है जिससे फसल उत्पादन में वृद्धि होने के साथ कीट संक्रमण की घटनाओं में कमी आती है। SDG-2 प्राप्त करने में सहायक: भारत में प्राकृतिक कृषि कोई नई अवधारणा नहीं है। प्राचीन काल से जैविक अवशेषों जैसे गाय के गोबर और प्राकृतिक खाद का कृषि में उपयोग होता आ रहा है। यह सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 2 के अनुरूप है, जिसका लक्ष्य 'भूखमरी खत्म करना, खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण हासिल करना और सतत कृषि को बढ़ावा देना' है। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना: ग्रामीण क्षेत्र श्रम प्रधान जैविक कृषि में रोजगार के सृजन से लाभान्वित हो सकते हैं और उन महिलाओं की भागीदारी को भी सुगम बना सकते हैं जिनकी औपचारिक ऋण बाजार तक कम पहुँच है और वे अक्सर कृषि इनपुट नहीं खरीद सकती हैं। रोजगार सृजन और गरीबी कम करने में सहायक: आर्थिक दृष्टिकोण से जैविक कृषि से किसानों के लिये कई लाभ हैं जिनमें सस्ता इनपुट, उच्च और अधिक स्थिर मूल्य शामिल हैं। भारत जैसे उभरते हुए देश में सतत कृषि, खाद्य सुरक्षा और रोजगार सृजन की दोहरी चुनौतियों का सामना करने में मदद कर सकती है, यह गरीबी कम करने में भी मदद करती है। भारत में प्राकृतिक कृषि से संबंधित चुनौतियाँ: कम बजटीय समर्थन: भारत में ‘सतत कृषि पर राष्ट्रीय मिशन’ को कृषि बजट का केवल 0.8% प्राप्त होता है जो प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने और समर्थन करने के लिये पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त कीट प्रकोप को नियंत्रित करने के लिये प्राकृतिक कृषि समाधान नहीं हो सकता है, किसानों को ऐसी स्थितियों के दौरान रासायनिक आदानों की आवश्यकता हो सकती है। सिंचाई सुविधा का अभाव: राष्ट्रीय स्तर पर भारत के सकल फसली क्षेत्र (GCA) का केवल 52% क्षेत्र सिंचित है। आजादी के बाद से भारत ने महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, इसके बावजूद मानसून से फसल उत्पादन प्रभावित होता है। कृषि विविधीकरण का अभाव: भारत में कृषि के तेजी से व्यावसायीकरण के बावजूद अधिकांश किसान अनाज उत्पादन पर बल देते हैं जिससे फसल विविधीकरण की उपेक्षा होती है। प्राकृतिक कृषि से संबंधित सरकारी पहल: राष्ट्रीय जैविक उत्पाद कार्यक्रम (NPOP): इसका उद्देश्य प्राकृतिक कृषि और गुणवत्तापूर्ण उत्पादों का केंद्रित और सुनिर्देशित विकास करना है। राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र (NCOF): इसका उद्देश्य मानव संसाधन विकास, प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण, गुणवत्ता वाले जैविक आदानों के प्रचार और उत्पादन सहित सभी हितधारकों की तकनीकी क्षमता निर्माण के माध्यम से देश में जैविक कृषि को बढ़ावा देना है। राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA): इसका उद्देश्य उपयुक्त अनुकूलन और शमन योजना बनाकर जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिमों के संदर्भ में 'सतत कृषि' से संबंधित समस्याओं और मुद्दों का समाधान करना है। परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY): यह योजना क्लस्टर गठन, प्रमाणन, प्रशिक्षण और विपणन में सहायता प्रदान करती है। एकीकृत बागवानी विकास मिशन (MIDH): यह फल, सब्जियों, जड़ और कंद फसलों, मशरूम, मसालों, फूलों, सुगंधित पौधों, नारियल, काजू, कोको और बाँस को कवर करने वाले बागवानी क्षेत्र के समग्र विकास के लिये एक केंद्र प्रायोजित योजना है। निष्कर्ष: भारत को आत्मनिर्भर बनने के लिये कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करना होगा। इसके लिये ऐसे दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये जो किसानों को अधिक पैसा कमाने में सहायक होने के साथ कम रसायनों एवं कीटनाशकों का उपयोग करते हुए प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और पौष्टिक भोजन का उत्पादन करने में सक्षम हो। यदि अधिक से अधिक किसान जैविक और प्राकृतिक कृषि के तरीकों को सफलतापूर्वक अपना लें तो भारतीय कृषि टिकाऊ हो सकती है। इसके लिये राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सरकारों को वर्तमान प्रयासों की तुलना में बड़े पैमाने पर इस परिवर्तन का नेतृत्व करने और समर्थन करने के लिये समन्वित उपाय करने की आवश्यकता होगी। यह उपाय राजनीतिक नेतृत्व की प्रतिबद्धता के साथ पर्याप्त बजट द्वारा समर्थित होने चाहिये।</s>
<s>[INST]पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव की व्याख्या कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव की संक्षिप्त चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। इन मुद्दों को हल करने के लिये कुछ उपायों पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: हाल के वर्षों में पर्यावरण पर मानव गतिविधियों के प्रभाव, चिंता का विषय रहे हैं। कृषि से लेकर शहरीकरण और संसाधन निष्कर्षण तक सभी मानवीय गतिविधियों का पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। मुख्य भाग: इन प्रभावों में शामिल हैं: शहरीकरण: जैसे-जैसे शहर बढ़ते हैं इनसे अक्सर प्राकृतिक आवासों का विनाश होने के साथ स्थानीय परिदृश्य में परिवर्तन हो सकता है। इसका स्थानीय जलवायु पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि इससे निर्मित वातावरण द्वारा ऊष्मा को अवशोषित करने के कारण आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में उच्च तापमान हो जाता है। वनों की कटाई: कृषि, शहरीकरण और अन्य उद्देश्यों के लिये वनों की कटाई के कारण महत्त्वपूर्ण आवासों के साथ पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं जैसे कार्बन प्रच्छादन का नुकसान होने के साथ मृदा क्षरण होता है। इससे मिट्टी का कटाव, भूस्खलन होने के साथ स्थानीय जलवायु पैटर्न में बदलाव हो सकता है। निष्कर्षण उद्योग: तेल, गैस और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों के निष्कर्षण में अक्सर सड़कों और पाइपलाइनों जैसे बुनियादी ढाँचे का निर्माण किया जाता है जिससे स्थानीय परिदृश्य में बदलाव आ सकता है। इन संसाधनों के निष्कर्षण से वायु और जल प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय प्रभाव भी हो सकते हैं। प्रदूषण: मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण में औद्योगिक और कृषि रसायनों के मिलने के कारण पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर कई नकारात्मक प्रभाव हुए हैं। ये रसायन मिट्टी, जल और हवा को दूषित कर सकते हैं। जिससे प्राकृतिक पर्यावरण पर कई तरह के नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। इसके अलावा भारत में पराली जलाने की परंपरा (जिसमें कृषि अपशिष्ट जलाना शामिल है) से भी प्रदूषण और श्वसन संबंधी समस्याएँ हो सकती हैं। जलवायु परिवर्तन: मानव गतिविधियों जैसे कि जीवाश्म ईंधन के जलने और वनों की कटाई ने पृथ्वी की बदलती जलवायु में योगदान दिया है। जिससे पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर कई प्रभाव पड़ रहे हैं। इनमें ग्लेशियरों और ध्रुवीय बर्फ की चोटियों का पिघलना, समुद्र के स्तर में वृद्धि और स्थानीय और क्षेत्रीय जलवायु में परिवर्तन शामिल हैं। पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव को कम करने के लिये कई कदम उठाए जा सकते हैं: रिड्यूस, रीयूज और रिसायकल (R3): संसाधनों का उपयोग और पुन: उपयोग एवं पुनर्चक्रण करके हम पर्यावरण पर संसाधन निष्कर्षण तथा कचरे के प्रभाव को कम कर सकते हैं। नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करना: सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करके हम जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम कर सकते हैं, जो जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण में योगदान करते हैं। प्राकृतिक आवासों का संरक्षण करना: वनों, आर्द्रभूमियों और घास के मैदानों जैसे प्राकृतिक आवासों की रक्षा और संरक्षण करके हम जैव विविधता को बनाए रखने और पर्यावरण पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। व्यावहारिक प्रबंधन रणनीतियों को लागू करना: कृषि, वानिकी और अन्य उद्योगों में व्यावहारिक प्रबंधन रणनीतियों को लागू करके हम पर्यावरण पर इन गतिविधियों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके हम पर्यावरण पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। इसे ऊर्जा दक्षता में सुधार और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने जैसे उपायों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। जल की खपत को कम करना: जल का कुशलतापूर्वक उपयोग करके और जल प्रदूषण को कम करके हम इस महत्त्वपूर्ण संसाधन को संरक्षित करने एवं जलमंडल पर मानव गतिविधियों के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। संरक्षण प्रयासों का समर्थन करना: संरक्षण पहलों का समर्थन करके हम पर्यावरण की रक्षा करने और पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानव गतिविधियों के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। इससे संबंधित अंतर्राष्ट्रीय और भारत सरकार की पहलें: अंतर्राष्ट्रीय: पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानव गतिविधियों के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से कई अंतर्राष्ट्रीय पहलें की गईं हैं। जैसे: जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC): यह विश्व के लगभग सभी देशों द्वारा हस्ताक्षरित एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका उद्देश्य वातावरण में ग्रीनहाउस गैस सांद्रता को स्थिर करना और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना है। जैव विविधता पर सम्मेलन (CBD): यह वर्ष 1992 में रियो डि जेनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में हस्ताक्षरित एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है। CBD का मुख्य उद्देश्य जैव विविधता (पृथ्वी पर जीवन की विविधता) के संरक्षण के साथ इसके सतत उपयोग को बढ़ावा देना है। भारत सरकार ने पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानव गतिविधियों के प्रभाव को कम करने के लिये कई योजनाओं और पहलों को शुरु किया है। जैसे: जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना: इस योजना का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और भारत में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देना है। इसमें विशिष्ट क्षेत्रों पर केंद्रित कई उप-योजनाएँ शामिल हैं जैसे कि सौर ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता और सतत आवास। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना: इस योजना का उद्देश्य जल की गुणवत्ता में सुधार और प्रदूषण को कम करके भारत की नदियों की रक्षा और संरक्षण करना है। इसमें सीवेज उपचार संयंत्र, वनीकरण और रिवरफ्रंट विकास जैसे उपाय शामिल हैं। स्वच्छ भारत अभियान: इस अभियान का उद्देश्य भारत के शहरों और कस्बों की सड़कों के साथ बुनियादी ढाँचे को स्वच्छ बनाना है। इसमें सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण, अपशिष्ट पृथक्करण एवं अपशिष्ट प्रबंधन प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने जैसी पहलें शामिल हैं। निष्कर्ष: इन मुद्दों को हल करने के लिये सतत प्रबंधन प्रक्रियाओं को अपनाना और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को बढ़ावा देने वाली सरकारी पहलों को लागू करना महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही अभिनव और परिणामोन्मुखी कदम उठाने की आवश्यकता है जिससे हम पृथ्वी के भौतिक भूगोल पर मानव गतिविधियों के प्रभाव को कम करने के साथ आने वाली पीढ़ियों के लिये पर्यावरण की रक्षा कर सकेंगे।</s>
<s>[INST]आधुनिक विश्व के विकास पर द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव का परीक्षण कीजिये, जिसमें वैश्विक शक्ति संतुलन में स्थानांतरण और नई विचारधाराओं का उदय शामिल है। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: द्वितीय विश्व युद्ध की संक्षेप में व्याख्या करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख प्रभावों की विवेचना कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: द्वितीय विश्व युद्ध वर्ष 1939 और 1945 के बीच हुआ एक वैश्विक संघर्ष था। इसमें धुरी शक्तियाँ-जर्मनी, इटली और जापान के साथ मित्र राष्ट्र-फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ एवं कुछ हद तक चीन शामिल थे। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप लगभग 100 मिलियन लोगों का सैन्यीकरण किया गया था और 50 मिलियन लोग मारे गए थे (विश्व की जनसंख्या का लगभग 3%)। मुख्य भाग: द्वितीय विश्व युद्ध का आधुनिक विश्व के विकास पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा था। इसके अलावा इसने युद्ध के बाद की अवधि में वैश्विक शक्ति संतुलन, राजनीतिक विचारधाराओं और सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को प्रभावित किया था। आधुनिक विश्व पर द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव: वैश्विक शक्ति संतुलन में स्थानांतरण: द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभावों में से एक वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव होना था। इस युद्ध से पहले यूरोप प्रमुख वैश्विक शक्ति था। जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अग्रणी भूमिका निभाते थे। हालाँकि युद्ध से हुई तबाही (विशेष रूप से यूरोप में) से शक्ति संतुलन में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया था। शीत युद्ध: इस दौरान वैश्विक मंच पर संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ प्रमुख वैश्विक महाशक्तियों के रूप में उभरे थे। इससे साम्यवाद का प्रसार हुआ और सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। वैचारिक बदलाव के कारण शीत युद्ध का उदय हुआ था। जिसमें सोवियत संघ एकमात्र विचारधारा के रूप में साम्यवाद को बढ़ावा दे रहा था जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका उदारवाद, पूँजीवाद और मुक्त व्यापार का पक्षधर था। जिससे आगे चलकर दो विरोधी सैन्य गठबंधनों, पश्चिमी नेतृत्व वाले उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले वारसॉ पैक्ट का गठन किया गया था। उपनिवेशवाद का अंत: युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस को विभिन्न घरेलू और बाहरी समस्याओं का सामना करना पड़ा था। यह दोनों अपने-अपने उपनिवेशों पर प्रभाव रखने में असमर्थ हुए थे जिससे युद्ध के बाद के विश्व में अफ्रीका और एशिया में उपनिवेशवाद का अंत देखा गया था। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना: युद्ध के महत्त्वपूर्ण परिणामों में से एक, संयुक्त राष्ट्र संगठन का गठन होना था। संयुक्त राष्ट्र चार्टर द्वारा लोगों की आशाओं और आदर्शों को स्थापित किया गया जिसके आधार पर देश स्थायी शांति बनाए रखने के लिये मिलकर काम करने हेतु सहमत हुए थे। हालांकि अटलांटिक चार्टर के तहत द्वितीय विश्व युद्ध के अंत से बहुत पहले ही संयुक्त राष्ट्र की स्थापना पर सहमति व्यक्त हुई थी। सामाजिक और सांस्कृतिक विकास: इस युद्ध से महिलाओं की भूमिकाओं और अपेक्षाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए थे क्योंकि इसमें कई महिलाएँ परंपरागत रूप से पुरुष भूमिका वाले सैन्य बल में शामिल हुईं थीं जबकि कुछ पुरुष युद्ध से दूर रहे थे। कई देशों में कल्याणकारी राज्य के उदय के साथ-साथ सरकार और राज्य की भूमिका के बारे में लोगों के सोचने के तरीके पर भी युद्ध का बड़ा प्रभाव पड़ा था क्योंकि सरकारों ने अपने नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने पर बल दिया था। आर्थिक प्रभाव: द्वितीय विश्व युद्ध के आर्थिक प्रभाव भी अल्पावधिक और दीर्घावधिक दोनों संदर्भ में महत्त्वपूर्ण थे। अल्पावधि में युद्ध ने वैश्विक व्यापार को बाधित कर दिया जिससे प्रमुख संसाधनों की कमी हो गई थी। इससे कई देशों में आर्थिक कठिनाई पैदा हो गई थी। दीर्घावधि में इस युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान दिया था क्योंकि इससे नई आर्थिक विश्व व्यवस्था का उदय हुआ था जैसे: उदाहरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका की मार्शल योजना द्वारा युद्ध के बाद यूरोपीय देशों को महत्त्वपूर्ण आर्थिक सहायता प्रदान की गई थी। जिसने उनकी अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण में मदद की थी और भविष्य के आर्थिक विकास की नींव रखी थी। ब्रेटन वुड्स सम्मेलन द्वारा विदेशी सहायता की आवश्यकता वाले देशों को दीर्घकालिक पूंजी उपलब्ध कराने के लिये पुनर्निर्माण और विकास हेतु अंतर्राष्ट्रीय बैंक (जिसे अब विश्व बैंक के रूप में जाना जाता है) और मुद्रा विनिमय दरों को स्थिर करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना की गई थी। प्रशुल्क और व्यापार पर सामान्य समझौता (GATT) ने भी व्यापार बाधाओं को कम करने के साथ आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में भूमिका निभाई थी। साथ ही अमेरिकी डॉलर को विश्व व्यापार हेतु आरक्षित मुद्रा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई थी। निष्कर्ष: द्वितीय विश्व युद्ध का आधुनिक विश्व के विकास पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा था। इसने वैश्विक शक्ति संतुलन के स्थानांतरण के साथ नई राजनीतिक विचारधाराओं के उदय एवं युद्ध के बाद की अवधि के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को आकार दिया था। महत्त्वपूर्ण आर्थिक प्रभावों के साथ विश्व पर इस युद्ध के प्रभाव अनवरत जारी रहे।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत में जाति व्यवस्था की अवधारणा की व्याख्या कीजिये और समाज के विभिन्न समूहों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर इसके प्रभाव की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत में जाति व्यवस्था की व्याख्या करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर जाति व्यवस्था के प्रभाव की चर्चा कीजिये तदनुसार निष्कर्ष लिखिये परिचय भारत में जाति व्यवस्था एक जटिल सामाजिक पदानुक्रम है जिसने परंपरागत रूप से भारतीय समाज के भीतर व्यक्तियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति निर्धारित की है। पारंपरिक हिंदू जाति व्यवस्था में चार मुख्य जातियाँ हैं: ब्राह्मण (पुजारी और विद्वान), क्षत्रिय (योद्धा और शासक), वैश्य (व्यापारी और ज़मींदार), और शूद्र (कारीगर और मज़दूर)। मुख्य भाग समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर जाति व्यवस्था का प्रभाव: सामाजिक प्रगति में बाधा: जाति व्यवस्था सामाजिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है क्योंकि यह समाज में परिवर्तनों को आसानी से लागू नहीं होने देती है। जाति व्यवस्था के तहत, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है क्योंकि उसे अपनी जाति के सदियों पुराने रीति-रिवाजों के अनुरूप होना पड़ता है। व्यवस्था की इस कठोरता ने हमारे समाज में सामाजिक प्रगति में बाधा उत्पन्न की है। बाधित आर्थिक प्रगति: चूँकि व्यवसायों को स्थिति द्वारा निर्धारित किया जाता है, अतः कार्यकर्ता को अपनी पसंद का व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। यह श्रम की गतिहीनता और अक्षमता की ओर जाता है और इस तरह आर्थिक प्रगति बाधित होती है। राजनीतिक विभाजन की ओर ले जाता है: जाति व्यवस्था में, किसी व्यक्ति को किसी अन्य समूह की तुलना में अपनी जाति के प्रति अधिक वफादार होना आवश्यक है। इसलिये, यह लोगों के बीच राष्ट्रवाद के बजाय जातिवाद को बढ़ावा देता है। सामाजिक असमानताओं को कायम रखता है: जाति व्यवस्था ने समाज में अपनी खुद की विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति को बनाए रखने के लिये ऊँची जातियों के हाथों में एक उपकरण के रूप में काम किया है। इसने उच्च जातियों की निरंकुशता को जन्म दिया है और निचली जातियों के लोगों के मन में हीनता और असुरक्षा की स्थायी भावनाएँ पैदा की हैं। महिलाओं पर दबाव डालता है: कई मामलों में, जाति व्यवस्था महिलाओं के लिये शोषणकारी साबित हुई है। जाति व्यवस्था के तहत, जाति पदानुक्रम में अपनी स्थिति को बढ़ाने की इच्छा रखने वाली जाति को बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर रोक और महिलाओं को अलग-थलग करने जैसी कुछ प्रथाओं का पालन करना चाहिए, जो उनके लिये कठिनाइयों का कारण बनती हैं और समाज में उनकी स्थिति में गिरावट आती हैं। अस्पृश्यता की भावना पैदा करता है: यह प्रथा, जैसा कि इस देश में ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई है, हिंदू जाति व्यवस्था का एक उत्पाद है, जिसके अनुसार हिंदुओं के बीच विशेष वर्ग को उस समाज के अन्य वर्गों द्वारा अछूतों के रूप में देखा जाता था। अस्पृश्यता अब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है। लोकतांत्रिक आदर्शों के विरुद्ध: जाति व्यवस्था लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है। लोकतांत्रिक आदर्श मानव समानता की पूर्वधारणा रखते हैं, परंतु जाति व्यवस्था असमानता में विश्वास करती है। जातियों की चार गुना पदानुक्रमित व्यवस्था थी जहाँ उच्च जातियों द्वारा निचली जातियों का हर क्षेत्र में शोषण किया जाता था। विवाह: भारत में होने वाले अधिकाँश विवाह माता-पिता द्वारा तय किये जाते हैं। आदर्श जीवनसाथी खोजने के लिये उनके द्वारा कई कारकों पर विचार किया जाता है, जिनमें से जाति एक महत्वपूर्ण कारक है। लोग नहीं चाहते कि उनका बेटा या उनकी बेटी किसी दूसरी जाति के व्यक्ति से शादी करें। जैसे शब्द "अछूत" बताता है, एक ब्राह्मण कभी भी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति से विवाह नहीं करेगा। शिक्षा: सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के लिये जाति आधारित आरक्षण है। इसलिये, सामाजिक पिछड़े समुदाय का एक व्यक्ति आरक्षण के आधार पर शीर्ष स्तरीय कॉलेज में सीट सुरक्षित कर सकता है। नौकरियाँ: गरीब समुदायों के लोगों को बड़ी मात्रा में सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियाँ मिलती हैं क्योंकि नौकरियाँ जातिगत आरक्षण के आधार पर आवंटित की जाती हैं। भेदभाव को खत्म करने के लिये की गई पहलें: संवैधानिक प्रावधान: विभेद का प्रतिषेध: भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि ‘‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।’’ अवसर की समता: भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि ‘‘राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समता होगी।’’ ‘‘राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा।’’ अनिवार्य शिक्षा: संविधान के अनुच्छेद 21A में अंतःस्थापित ‘शिक्षा का अधिकार’ के तहत कहा गया है कि ‘‘राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बच्चों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में, जो राज्य विधि द्वारा अवधारित करे, उपबंध करेगा।’’ भूमि सुधार: भूमि की सीमा: कानूनों ने एक सीमा निर्धारित की कि कोई व्यक्ति या निगम कितनी भूमि धारण कर सकता है, (जिसे ‘सीलिंग’ के रूप में भी जाना जाता है) और सरकार को भूमिहीनों को अधिशेष भूमि का पुन:वितरण करने की अनुमति दी गई है। मानव विकास: प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY): यह उत्पादकता बढ़ाने और देश की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रशिक्षण एवं प्रमाणन को संरेखित करने के उद्देश्य से युवाओं को कौशल प्रशिक्षण लेने के लिये प्रेरित करने पर लक्षित है। संकल्प योजना: आजीविका संवर्द्धन के लिये कौशल अधिग्रहण और ज्ञान जागरूकता या ‘संकल्प’ (SANKALP- Skills Acquisition and Knowledge Awareness for Livelihood Promotion)कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (MSDE) का एक परिणाम-उन्मुख कार्यक्रम है जहाँ विकेंद्रीकृत योजना-निर्माण और गुणवत्ता सुधार पर विशेष बल दिया गया है। ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना: इसे अप्रैल, 2016 में आर्थिक सशक्तिकरण और रोज़गार सृजन पर ध्यान केंद्रित रखते हुए ज़मीनी स्तर पर उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये लॉन्च किया गया। इसका उद्देश्य संस्थागत ऋण संरचना की पहुँच अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिला उद्यमियों जैसे सेवा-वंचित समूहों तक सुनिश्चित करना है ताकि वे इसके लाभ उठा सकें। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना: यह बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) और सूक्ष्म वित्त संस्थानों (MFIs) जैसे विभिन्न अंत-पहुँच वित्तीय संस्थानों के माध्यम से गैर-कॉर्पोरेट लघु व्यवसाय क्षेत्र को वित्तपोषण प्रदान करती है। इसके तहत समाज के वंचित वर्गों, जैसे महिला उद्यमियों, एससी/एसटी/ओबीसी उधारकर्ताओं, अल्पसंख्यक समुदाय के उधारकर्ताओं आदि को ऋण दिया गया है। योजना ने नए उद्यमियों का भी विशेष ध्यान रखा है। निष्कर्ष हाल के वर्षों में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों और शिक्षा जैसे उपायों के माध्यम से जाति व्यवस्था को खत्म करने और अधिक सामाजिक तथा आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के प्रयास किये गए हैं। हालाँकि, जाति व्यवस्था भारतीय समाज का एक गहरा उलझा हुआ पहलू है और इसके नकारात्मक प्रभावों को दूर करना एक बड़ी चुनौती है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. 19वीं और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रणाली पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये। औपनिवेशिक शासन की प्रतिक्रिया में उदित होने वाले प्रतिरोध के विभिन्न रूपों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: उपनिवेशवाद के बारे में संक्षेप में वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान पड़े उपनिवेशवाद के विभिन्न प्रभावों की चर्चा कीजिये। औपनिवेशिक शासन की प्रतिक्रिया में उभरने वाले विभिन्न प्रतिरोधों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: उपनिवेशवाद का तात्पर्य लोगों के जीवन और संस्कृति पर प्रभुत्व स्थापित करना है। उपनिवेशवाद का मुख्य लक्ष्य आर्थिक लाभ प्राप्त करना होता है। उपनिवेशवाद के कारण राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में लोगों के जीवन पर नियंत्रण स्थापित होता है। मुख्य भाग: 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे पर विभिन्न तरीकों से उपनिवेशवाद का गहरा प्रभाव पड़ा था जैसे: आर्थिक: ब्रिटिशों द्वारा शुरू की गई आर्थिक नीतियों का उद्देश्य देश से अधिकतम संसाधनों और धन का निष्कासन करना था। खाद्य फसलों की जगह वाणिज्यिक फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देना: ब्रिटिशों ने नील और अफीम की खेती के रुप में कृषि के नए रूपों की शुरुआत की थी जिसके कारण पारंपरिक कृषि पद्धतियों का विस्थापन होने के साथ स्थानीय किसानों का शोषण हुआ था। भारत के संसाधनों का दोहन: ब्रिटिशों द्वारा स्थापित रेलवे और बंदरगाहों के नेटवर्क से भारत, कच्चे माल के निर्यात और ब्रिटेन की निर्मित वस्तुओं का आयात स्थल बन गया था। इससे भारत का वि-औद्योगीकरण हुआ और अर्थव्यवस्था भी निर्भर हो गई थी। शोषणकारी नीतियाँ: इन नीतियों में भारतीय वस्तुओं पर उच्च शुल्क लगाना, एकाधिकार को प्रोत्साहन देना और नई भू- राजस्व प्रणाली की शुरुआत करना शामिल था जिसका उद्देश्य भारतीय किसानों से अधिक धन की उगाही करना था। इन नीतियों का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा था क्योंकि इससे भारतीय उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता कम होने के साथ किसानों पर बोझ बढ़ गया था। सामाजिक: सामाजिक विभाजन का लाभ उठाना: ब्रिटिशों ने जाति-आधारित भेदभाव की प्रणाली को लागू किया था जिसे "फूट डालो और राज करो" की नीति के रूप में जाना जाता है। जिससे मौजूदा सामाजिक विभाजनों को प्रोत्साहन मिलने के साथ कुछ समूह हाशिए पर चले गए थे। पश्चिमी विचारों को थोपना: ब्रिटिशों ने पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों को बढ़ावा दिया था जिसके कारण भारत में पश्चिमी-शिक्षित अभिजात वर्ग का उदय हुआ था। जिससे पारंपरिक सांस्कृतिक प्रथाओं का क्षरण हुआ था। राजनीतिक: संसदीय प्रणाली की शुरुआत करना: ब्रिटिशों ने संसदीय लोकतंत्र प्रणाली की शुरुआत की थी लेकिन इसमें केवल कुलीन लोगों को ही लाभ मिल पाया था। केंद्रीकृत प्रशासन: केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली लागू करने के कारण शासन के पारंपरिक रूपों का क्षरण होने के साथ स्थानीय स्वायत्तता की हानि हुई थी। औपनिवेशिक शासन की प्रतिक्रिया में उभरे प्रतिरोध के विभिन्न रूप: औपनिवेशिक शासन की प्रतिक्रिया में भारत में कई प्रकार के प्रतिरोध और विद्रोह सामने आए थे। इनमें अहिंसक आंदोलन जैसे असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह के साथ ही सशस्त्र विद्रोह जैसे 1857 का विद्रोह और भारत छोड़ो आंदोलन शामिल थे। राजनीतिक आंदोलन: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिये एक राजनीतिक संघर्ष था। इसका नेतृत्व महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे लोगों ने किया था और इसमें सविनय अवज्ञा आंदोलन एवं असहयोग आंदोलन के साथ ब्रिटिश सरकार के साथ वार्ता करने जैसी रणनीतियों को अपनाया गया था। सशस्त्र प्रतिरोध: भारत में 1857 का विद्रोह, गदर पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) से संबंधित कई अन्य क्रांतिकारियों ने ब्रिटिशों को भारत से बाहर करने के लिये सशस्त्र बल का सहारा लिया था। सांस्कृतिक प्रतिरोध: कुछ भारतीय राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक शासन के प्रतिरोध के साधन के रूप में सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया था। इसमें भारतीय पहचान पर बल देने और ब्रिटिश सांस्कृतिक वर्चस्व को समाप्त करने के तरीके के रूप में भारतीय भाषाओं, साहित्य और कला को बढ़ावा देना शामिल था। धार्मिक प्रतिरोध: भारत में कुछ धार्मिक आंदोलनों जैसे कि आर्य समाज द्वारा हिंदू धर्म के "शुद्धिकरण" को बढ़ावा देते हुए औपनिवेशिक शासन का विरोध किया गया था। जिसमें पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करने के साथ ब्रिटिशों के खिलाफ हिंदुओं को एकजुट करना शामिल था। श्रमिक प्रतिरोध: औपनिवेशिक नीतियों के विरोध के साथ बेहतर कार्य स्थितियों की मांग के लिये भारतीय श्रमिकों द्वारा हड़तालों एवं कार्रवाई के अन्य साधनों का उपयोग किया गया था। निष्कर्ष: इन आंदोलनों की प्रभावशीलता अलग-अलग थी। असहयोग आंदोलन जैसे अहिंसक आंदोलन से ब्रिटिशों पर दबाव डालने के साथ भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ था। हालाँकि सशस्त्र विद्रोह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में काफी हद तक असफल रहे थे लेकिन अहिंसक और हिंसक प्रतिरोध आंदोलनों के समन्वित प्रभाव की परिणति भारत में औपनिवेशिक शासन के अंत के रुप में हुई थी।</s>
<s>[INST]पश्चिमी विक्षोभ से आप क्या समझते हैं? भारत की जलवायु को प्रभावित करने में इसकी भूमिका की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: पश्चिमी विक्षोभ को संक्षेप में समझाते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। पश्चिमी विक्षोभ की क्रियाविधि पर चर्चा कीजिये। भारत में जलवायु को प्रभावित करने में इसकी भूमिका की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: पश्चिमी विक्षोभ सर्दियों के महीनों की मौसम संबंधी घटनाएँ हैं जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र की ओर से होने वाले वायु के पश्चिमी प्रवाह से संबंधित है। इसमें ‘विक्षोभ’ शब्द का तात्पर्य मौसम की अनियमितता और पश्चिमी से तात्पर्य उस दिशा से है जिसमें यह भारत के संदर्भ में उत्पन्न होते हैं। इसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में सर्दियों में वर्षा होती है। ये ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करते हैं। मुख्य भाग: क्रियाविधि: उत्पत्ति: सर्दियों के दौरान, यूक्रेन के आसपास के क्षेत्रों में उच्च वायुदाब प्रणाली विकसित होती है जिसके कारण ध्रुवीय क्षेत्रों की ठंडी हवा निचले/समशीतोष्ण अक्षांशों के पास अपेक्षाकृत गर्म और नम हवा से टकराती है। यह गर्म वायुराशियाँ आमतौर पर पछुआ हवाओं का भाग होती हैं जिनमें बहुत अधिक नमी होती है। जब अलग-अलग तापमान वाली दो वायुराशियाँ मिलती हैं तब वाताग्र का विकास होता है। पूर्व दिशा में भारत की ओर प्रवाह: वाताग्र बनने से बादल बनते हैं जिससे इन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है। इससे ऊपरी वायुमंडल में समशीतोष्ण चक्रवातों का निर्माण होता है। इतनी ऊँचाई पर ये चक्रवात उपोष्णकटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम के संपर्क में आते हैं जिसके कारण इनका प्रवाह पूर्व की ओर होता है। यह चक्रवात कैस्पियन सागर और फारस की खाड़ी से नमी ग्रहण करते हैं। यह मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान राज्यों से होते हुए भारत में प्रवेश करता है। पश्चिमी विक्षोभ (WD) का प्रभाव: भारतीय जलवायु पर: पश्चिमी विक्षोभ उत्तरी भारत में वर्षा, हिमपात और कोहरे से संबंधित होता है। इसके कारण पाकिस्तान और उत्तरी भारत में वर्षा एवं हिमपात की घटनाएँ होती हैं। WD भूमध्य सागर और/या अटलांटिक महासागर से आर्द्रता ग्रहण करता है। WD के कारण शीत ऋतु में मानसून पूर्व वर्षा होती है और यह उत्तरी उपमहाद्वीप में रबी फसलों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। WD हमेशा अच्छे मौसम का परिचायक नहीं होता है। कभी-कभी यह बाढ़, फ्लैश फ्लड, भूस्खलन, धूल भरी आँधी, ओलावृष्टि और शीत लहर जैसी चरम मौसमी घटनाओं का कारण बन सकते हैं जिससे जन-धन की हानि होती है। मानसून के दौरान, पश्चिमी विक्षोभ कभी-कभी घने बादल और भारी वर्षा का कारण बन सकता है। कमज़ोर पश्चिमी विक्षोभ पूरे उत्तर भारत में फसल उत्पादन में कमी और जल की समस्याओं का कारण बनता है। मज़बूत पश्चिमी विक्षोभ किसानों और सरकारों को जल की कमी से जुड़ी कई समस्याओं के निदान में सहायक हो सकता है। कृषि: सर्दियों के मौसम में औसतन 4-5 पश्चिमी विक्षोभ का निर्माण होता है और प्रत्येक पश्चिमी विक्षोभ में वर्षा का वितरण अलग-अलग होता है। सर्दियों के मौसम में वर्षा का कृषि में (विशेष रूप से गेहूँ जैसी रबी फसलों के लिये) बहुत महत्त्व होता है। पश्चिमी विक्षोभ से होने वाली वर्षा का प्रत्यक्ष प्रभाव हरियाणा और पंजाब जैसे गेहूँ उत्पादक राज्यों की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। आपदा का संभावित जोखिम: पश्चिमी विक्षोभ के कारण हुई बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण कभी-कभी उत्तर भारतीय राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान में फसलों को नुकसान भी होता है। इस तूफान के कारण तड़ित/बिजली गिरने से काफी क्षति होती है। हाल ही में राजस्थान में पश्चिमी विक्षोभ के कारण बिजली गिरने से जन-धन की हानि हुई थी। वर्ष 2010 में लेह में बादल फटना, वर्ष 2014 में कश्मीर में बाढ़ आना और यहाँ तक कि वर्ष 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का कारण पश्चिमी विक्षोभ था। इन आपदाओं के कारण व्यापक स्तर पर जन-धन का नुकसान हुआ था। निष्कर्ष: पश्चिमी विक्षोभ एक जटिल मौसमी घटना है और इसका भारत की जलवायु एवं कृषि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह भारत में हर साल होने वाली कई प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बनता है, जिससे जन-धन का काफी नुकसान होता है। इस प्रकार पश्चिमी विक्षोभ का और अधिक विस्तार से अध्ययन करने की आवश्यकता है। उष्णकटिबंधीय चक्रवातों या मानसून की तरह ही पश्चिमी विक्षोभ की बेहतर निगरानी आवश्यक है ताकि इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।</s>
<s>[INST]सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत, गांधी जी के प्रसिद्ध दांडी मार्च के साथ हुई थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के क्या कारण थे? इसके महत्त्व का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: दांडी मार्च के साथ शुरू हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन के बारे में संक्षेप में वर्णन करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारणों की विवेचना कीजिये। इसके महत्त्व का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष दीजिये। परिचय: सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी मार्च से हुई थी, जिसे नमक सत्याग्रह के रूप में भी जाना जाता है । दांडी मार्च, मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में शुरु हुआ अहिंसक आंदोलन था। यह नमक पर ब्रिटिशो के एकाधिकार के खिलाफ शुरु हुआ,अहिंसक विरोध प्रदर्शन आंदोलन था। इसमें गांधी और उनके समर्थकों ने समुद्री जल से नमक बनाकर ब्रिटिश कानून को तोड़ा था। इस दौरान दांडी में हजारों लोगों ने उनका अनुसरण किया और बंबई एवं कराची के तटीय शहरों में, भारतीय राष्ट्रवादियों ने नमक बनाने में नागरिकों का नेतृत्व किया था। नमक कानून तोड़ने के इस कृत्य से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई थी। मुख्य भाग: सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण: सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी नमक सत्याग्रह के कारण हुई थी, जिसे नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार के नियंत्रण के कारण शुरू किया गया था। इस दौरान कानून इतने सख्त थे कि अगर कोई रेत पर पड़ा एक मुट्ठी समुद्री नमक भी उठा लेता था तो उस पर जुर्माना लगाया जा सकता था। इसके अलावा वर्ष 1928 के साइमन कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल न करने और क्रांतिकारियों की गैरकानूनी गिरफ्तारी के कारण भी जनता के बीच राष्ट्रवादी भावना पनपने लगी थी। इस तनावपूर्ण स्थिति के आलोक में सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ था। सविनय अवज्ञा आंदोलन का महत्त्व: ब्रिटेन से होने वाले आयात में गिरावट आई: उदाहरण के लिये इस दौरान ब्रिटेन से होने वाले वस्त्रों का आयात आधा हो गया था। अखिल भारतीय भागीदारी: भारत के पश्चिमी तट से शुरू हुआ यह आंदोलन आगे चलकर लगभग पूरे देश में विस्तारित हुआ था। अप्रैल और मई में क्रमशः नेहरू और गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में मद्रास, कलकत्ता, कराची, बॉम्बे, दिल्ली और शोलापुर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। समाज के विभिन्न वर्गों की भागीदारी: यह आंदोलन पूर्व में हुए आंदोलनों की तुलना में अधिक व्यापक था। इसमें महिलाओं, किसानों, श्रमिकों, छात्रों और व्यापारियों ने भाग लिया था जिससे कांग्रेस को अखिल भारतीय पहचान प्राप्त हुई थी। शहरी और ग्रामीण इलाकों में गरीबों और निरक्षरों द्वारा इस आंदोलन को जो समर्थन दिया गया था वह उल्लेखनीय था। वैश्विक मान्यता: इस आंदोलन की शुरुआत में किसी को भी नमक कानून तोड़ने के महत्त्व का एहसास नहीं हुआ था। यहाँ तक कि वायसराय लॉर्ड इरविन का भी यह मानना था कि आम जनता पर इसका बहुत कम प्रभाव पड़ेगा। दांडी यात्रा के दौरान गांधी ने हजारों लोगों से बात की और लोगों को इसमें शामिल होने के लिये प्रेरित किया था। इस प्रतिष्ठित मार्च से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। यहाँ तक कि अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ के पहले पृष्ठ पर गांधी की तस्वीर के साथ ब्रिटिश सरकार की क्रूरता और अहिंसा को प्रदर्शित किया गया था। महिलाओं की भागीदारी: इस आंदोलन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू महिलाओं की भागीदारी थी। अफीम, शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर महिलाओं के विरोध का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इस दौरान नागा नेतृत्वकर्ता रानी गाइदिन्ल्यू ने ब्रिटिशों के खिलाफ विद्रोह किया था। मूल्यांकन: इससे कपड़ों और सिगरेट के आयात में गिरावट आने के साथ सरकारी राजस्व में कमी तो आई थी लेकिन फिर भी भारतीय घरेलू उद्योग में बहुत कम वृद्धि हुई और आगे चलकर भारतीय निर्यात में भी पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई थी। अंत में इस आंदोलन के विराम की घोषणा की गई, जिसे गांधी-इरविन समझौते में औपचारिक रूप दिया गया था। इससे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन (सितंबर-दिसंबर 1931) में भाग लेने के लिये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि के रुप में गांधी का मार्ग प्रशस्त हुआ। निष्कर्ष: जहाँ एक ओर पूर्व के आंदोलन शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित थे वहीं सविनय अवज्ञा आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित होने वाला पहला आंदोलन था। ग्रामीण लोग भी इस आंदोलन में शामिल हुए थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को पूर्ण स्वतंत्रता की ओर अग्रसर करने के क्रम में यह आंदोलन निर्णायक था।</s>
<s>[INST]"विशेष रूप से बच्चे, कोविड-19 से नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए थे"। इस कथन के आलोक में बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और मानसिक एवं शारीरिक कल्याण के विशेष संदर्भ में इन पर कोविड-19 महामारी के प्रभावों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: बच्चों पर कोविड-19 के प्रभाव का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। बच्चों पर महामारी के विभिन्न प्रभावों पर चर्चा कीजिये। बच्चों के समग्र स्वास्थ्य देखभाल के लिये आवश्यक कारकों पर चर्चा कीजिये। उचित निष्कर्ष दीजिये। परिचय: कोविड-19 (विनाशकारी महामारी) ने विश्व स्तर पर लोगों को प्रभावित किया है। विभिन्न समूह इस वायरस से भिन्न तरीके से प्रभावित हुए हैं लेकिन इसका सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव बच्चों पर देखा गया है। मुख्य भाग: बच्चों पर महामारी का प्रभाव: शिक्षा: सभी उम्र और सभी देशों के बच्चे और किशोर इस महामारी के परिणामों से गंभीर रूप से पीड़ित हुए हैं। कोविड-19 का इनके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है और कुछ के लिये यह प्रभाव दीर्घकालिक रहेगा। उदाहरण के लिये, कोविड-19 के कारण शिक्षा प्रणाली में सबसे अधिक व्यवधान देखा गया है, जिसके कारण 190 से अधिक देशों में लगभग 1.6 बिलियन छात्र प्रभावित हुए हैं। स्वास्थ्य: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के पल्स सर्वेक्षण के अनुसार, कोविड-19 महामारी शुरू होने के बाद से 90% देशों में आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं में व्यवधान उत्पन्न हुआ है। इसके अनुसार बच्चों के लिये आवश्यक सेवाएँ व्यापक स्तर पर वाधित हुई हैं जैसे, नियमित टीकाकरण - जिसमें 70% आउटरीच सेवाएँ और 61% सुविधा-आधारित सेवाएँ प्रभावित हुई हैं। कुपोषण: आज भी अधिक संवेदनशील बच्चे महामारी से आहार की बिगड़ती गुणवत्ता और और इसके नियंत्रण उपायों के प्रभाव के कारण कुपोषित हो रहे हैं। इसके अलावा कोविड-19 के प्रसार को कम करने के प्रयासों से खाद्य प्रणाली बाधित होने के साथ स्वास्थ्य और पोषण सेवाएँ प्रभावित हो रही हैं साथ ही आजीविका और खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ रही हैं। मानसिक स्वास्थय : कोविड-19 के कारण बच्चों द्वारा डर, निराशा, उदासी, चिंता, क्रोध आदि जैसी नकारात्मक भावनाओं का अनुभव किया जाना असामान्य नहीं है। घर में ही रहने की गतिहीन और तनावपूर्ण जीवन शैली बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिये अतिरिक्त चुनौतियाँ पैदा करती है। ऐसे में कुछ बच्चों में गंभीर चिंता, अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति विकसित होने का अधिक खतरा होता है। पहले से मौजूद कोई भी मानसिक स्वास्थ्य समस्या, पिछले दर्दनाक अनुभव या दुर्व्यवहार, पारिवारिक अस्थिरता, या किसी प्रियजन को खोने से बच्चे गंभीर मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो सकते हैं। हिंसा के संपर्क में आना: लॉकडाउन ने बच्चों को कई तरह के जोखिमों में डाल दिया था। घर में आर्थिक अनिश्चितता, नौकरी छूटना या आजीविका में व्यवधान और सामाजिक अलगाव जैसे कारकों से होने वाले तनाव के परिणामस्वरूप बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ा। बच्चों के समग्र कल्याण हेतु निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है: सरकारी शिक्षा को बेहतर बनाने के साथ सभी बाधाओं को दूर करके इसे और अधिक सुलभ बनाना आवश्यक है। सरकार को डिजिटल अंतराल को कम करने की आवश्यकता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले आर्थिक रूप से कमजोर छात्र अपने उन साथियों से पिछड़ गए जिनकी डिजिटल उपकरण और इंटरनेट तक बेहतर पहुँच है। इसके अलावा, समाज के वंचित तबके के परिवारों को पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है ताकि कठिन समय में उनके समग्र कल्याण का ध्यान रखा जा सके। सरकार को ज़रूरतमंद बच्चों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक लाभ प्रदान करने के लिये विभिन्न बाल संरक्षण योजनाओं में निवेश करने की आवश्यकता है। सरकार द्वारा की गई पहल: विशेष प्रशिक्षण केन्द्रों में शिक्षा के माध्यम से पुनर्वास किया जाना। चाइल्डलाइन 1098 जैसी चाइल्ड हेल्पलाइन की शुरुआत करना। जिससे आवश्यकता पड़ने पर बच्चों के लिये मुफ्त, आपातकालीन फोन सेवा प्रदान की जाती है और इसे चाइल्डलाइन फाउंडेशन द्वारा प्रबंधित किया जाता है। निष्कर्ष: वर्तमानकालीन संकट के संदर्भ में मानसिक स्वास्थ्य सहायता सेवाओं तक बच्चों और किशोरों की पहुँच में सुधार करने की आवश्यकता है। इस क्रम में मनोचिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों, बाल रोग विशेषज्ञों और सामुदायिक स्वयंसेवकों के प्रत्यक्ष और डिजिटल सहयोगी नेटवर्क से प्रेरित व्यवहारिक अभिनव बाल और किशोर मानसिक स्वास्थ्य नीतियों की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]प्लेट विवर्तनिकी (plate tectonics) सिद्धांत के संदर्भ में, विश्व के विभिन्न प्रकार के प्लेट विवर्तनिकी किनारों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। विश्व में विभिन्न प्लेट विवर्तनिक सीमाओं पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय विवर्तनिक प्लेट (जिसे लिथोस्फेरिक प्लेट भी कहा जाता है) ठोस चट्टान का एक विशाल, अनियमित आकार का स्लैब है, जो आमतौर पर महाद्वीपीय एवं महासागरीय स्थलमंडल दोनों से मिलकर बना होता है। लिथोस्फीयर में क्रस्ट और ऊपरी मेंटल दोनों शामिल होते हैं, जिसकी मोटाई समुद्री भागों में 5-100 किमी. और महाद्वीपीय क्षेत्रों में लगभग 200 किमी. तक होती है। विवर्तनिक प्लेट्स की अवधारणा पहली बार वर्ष 1967 में पेश की गई थी। विवर्तनिक/टेक्टोनिक प्लेट एक महाद्वीपीय प्लेट या एक महासागरीय प्लेट हो सकती है, जो कि इस बात पर निर्भर करता है कि किसी विशिष्ट प्लेट में सबसे अधिक हिस्सा किसका है। मुख्य भाग प्लेटों का संचलन तीन प्रकार से होता है: अभिसारी संचलन- जहाँ प्लेटें एक-दूसरे की ओर गति करती हैं। अपसारी संचलन- जहाँ प्लेटें एक-दूसरे की विपरीत दिशा में गमन करती हैं समानांतर प्लेट संचलन- जहाँ प्लेटें एक-दूसरे के समानांतर गति करती हैं। अभिसारी सीमाएँ: अभिसरण प्लेट सीमा का निर्माण तब होता है जब विवर्तनिक प्लेटें एक-दूसरे से टकराती हैं। इसे विनाशात्मक सीमा एवं सीमांत भी कहते हैं। ये सीमाएँ अक्सर सबडक्शन ज़ोन होती हैं जहाँ पर भारी (अधिक घनत्व वाली) एवं तेज़ गति वाली प्लेट का हल्की व कम गति वाली प्लेट के नीचे क्षेपण होता है। क्षेपण के कारण यहाँ क्षेपित सीमांत का क्षय होता है। जिससे पर्वतों तथा द्वीप चापों का निर्माण होता है। यदि दोनों अभिसरण प्लेट महासागरीय हैं, तो ज्वालामुखी, द्वीपों की एक घुमावदार रेखा बनाते हैं जिसे एक द्वीप चाप के रूप में जाना जाता है जो ट्रेंच के समानांतर होता है। अभिसारी प्लेट संचलन तीन प्रकार से होता है। महाद्वीपीय- महासागरीय संचलन महाद्वीपीय- महाद्वीपीय संचलन महासागरीय- महासागरीय संचलन उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका की वाशिंगटन-ओरेगन तटरेखा महासागरीय-महाद्वीपीय अभिसरण प्लेट सीमा का एक उदाहरण है। अपसारी सीमाएँ: जब दो प्लेटें एक-दूसरे की विपरीत दिशा में गमन करती हैं तो उसे अपसारी संचलन कहा जाता हैं। इन्हें रचनात्मक सीमा तथा सीमांत के रूप भी जाना जाता हैं। अपसारी सीमाएँ समुद्रीय नितल प्रसरण और भ्रंश घाटियों के स्थल हैं। महासागरों में अपसारी सीमाएँ, पृथ्वी की आंतरिक परतों से मैग्मा पृथ्वी की सतह की ओर बढ़ता है और दो या दो से अधिक प्लेटों को अलग करता है। पर्वत और ज्वालामुखी ऊपर की ओर उठते हैं। यह प्रक्रिया समुद्रीय नितल को नवीनीकृत करती है और विशाल घाटियों की चौड़ाई में वृद्धि करती है। उदाहरण: अपसारी सीमाओं का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण मिड-अटलांटिक रिज है जहाँ अमेरिकी प्लेटें यूरेशियन और अफ्रीकी प्लेट्स से अलग हो जाती हैं। सतह पर अफ्रीका में ग्रेट रिफ्ट वैली जैसे विशाल गर्त का निर्माण होता हैं जहाँ प्लेटें विपरीत दिशा में गमन करती हैं। समानांतर प्लेट सीमाएँ: विवर्तनिक प्लेटें एक-दूसरे से क्षैतिज रूप से गति करती हैं, लेकिन इन प्लेटों के हिस्सों के बीच उस जगह पर घर्षण होता है जहाँ वे स्पर्श करते हैं, समानांतर प्लेट सीमाएँ के रूप में जानी जाती है। ये समानांतर प्लेट संचलन संरक्षी होते है क्योकि इन प्लेटों के परस्पर क्रिया से किसी प्रकार का न तो निर्माण और न ही विनाश होता है। अतः इनसे पर्वतों या महासागरों का निर्माण नहीं होता है, परंतु इस सीमा पर प्लेटों के आपसी घर्षण के कारण उच्च परिमाप वाले भूकम्प उत्पन्न होते हैं. जैसे वर्ष 1906 का भूकंप जिसने सैन फ्रांसिस्को को तबाह कर दिया था। घर्षण के इन क्षेत्रों में तनाव का निर्माण होता है जिसके कारण चट्टानें टूट जाती हैं या प्लेटें अचानक आगे की ओर खिसक जाती हैं जो भूकंप का कारण बनती हैं। टूट-फूट या फिसलन के इन क्षेत्रों को फॉल्ट कहा जाता है। उदाहरण: रिंग ऑफ फायर में समानांतर सीमाओं के साथ पृथ्वी के अधिकांश फॉल्ट पाए जा सकते हैं। कैलिफोर्निया में सैन एंड्रियास फॉल्ट समानांतर या सीमांत सीमा का एक उदाहरण है, जहाँ पैसिफिक प्लेट उत्तर अमेरिकी प्लेट से उत्तर की ओर गति करती है। निष्कर्ष विवर्तनिकी प्लेटें निश्चित नहीं हैं, लेकिन एस्थेनोस्फीयर पर लगातार कठोर इकाइयों के रूप में गति करती हैं। कभी-कभी ये प्लेटें आपस में टकराती हैं, अलग हो जाती हैं या एक-दूसरे के समानांतर खिसक जाती हैं जिससे भूकंप या ज्वालामुखी विस्फोट होते हैं।</s>
<s>[INST]भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा जैसी परियोजनाओं के क्या लाभ हैं? इससे संबंधित चुनौतियों पर चर्चा करने के साथ इनके समाधान के उपाय सुझाइए। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण अपतटीय पवन ऊर्जा को संक्षेप बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा के लाभों पर चर्चा कीजिये। भारत में पवन ऊर्जा से उत्पन्न विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों को हल करने के उपायों का सुझाव देकर निष्कर्ष लिखिये। परिचय अपतटीय पवन ऊर्जा उच्च समुद्रों पर उत्पादित पवन के बल का उपयोग कर प्राप्त की जाने वाली स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा है, जहाँ यह बाधाओं की अनुपस्थिति के कारण भूमि की तुलना में उच्च और अधिक निरंतर गति तक पहुँचती है। इस संसाधन का अधिकतम लाभ उठाने के लिये, मेगा-संरचनाएँ स्थापित की जाती हैं जो समुद्र तल से लगी होती हैं तथा नवीनतम तकनीकी नवाचारों से लैस होते हैं। मुख्य भाग वर्ष 2010 और 2020 के बीच पवन उत्पादन की कुल वार्षिक वृद्धि दर 11.39% रही है, जबकि स्थापित क्षमता के मामले में यह दर 8.78% रही है। इसके अलावा, केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने वर्ष 2022 तक 5 गीगावॉट और 2030 तक 30 गीगावॉट ऑफशोर क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अपतटीय पवन ऊर्जा के लाभ: तटवर्ती ऊर्जा की तुलना में कुशल: यह सिद्ध हो चुका है कि अपतटीय पवन टर्बाइन तटवर्ती पवन टर्बाइनों की तुलना में अधिक कुशल हैं। जल निकायों पर हवा की गति अधिक है और दिशा में सुसंगत है। नतीजतन, अपतटीय पवन फार्म प्रति स्थापित क्षमता से अधिक बिजली उत्पन्न करते हैं। तटवर्ती टर्बाइनों की तुलना में ऊर्जा की समान क्षमता का उत्पादन करने के लिये कम अपतटीय टर्बाइनों की आवश्यकता होती है। चूँकि अपतटीय पवन दिन के दौरान मज़बूत होती है, यह उपभोक्ता की मांग उच्चतम होने पर अधिक सुसंगत और कुशल बिजली उत्पादन सुनिश्चित करती है। इसके विपरीत भूमि पर पवन ऊर्जा रात में बेहतर प्रदर्शन करती है जब बिजली की खपत कम होती है। उच्च उत्पादकता: पवन की उपलब्धता के अलावा, जनरेटर का आकार और टरबाइन का बहाव क्षेत्र इसकी उत्पादकता निर्धारित करेगा, अतः क्षेत्र जितना अधिक होगा, उत्पादकता उतनी ही अधिक होगी। अधिक परिचालन समय: अपतटीय पवन फार्म में तटवर्ती पवन फार्म की तुलना में अधिक उपयोग क्षमता (CUF) होती है। इसलिये अपतटीय पवन ऊर्जा लंबे समय तक संचालन की अनुमति देती है। बड़े क्षेत्र को कवर करना: बड़ी और ऊँची अपतटीय पवन चक्कियों का निर्माण संभव है, जिसके परिणामस्वरूप ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि होती है। इसके अलावा, पवन का प्रवाह पहाड़ियों या इमारतों द्वारा प्रतिबंधित नहीं है। भारत में अपतटीय ऊर्जा से संबंधित चुनौतियाँ: अपतटीय पवन परिसंपत्तियाँ भी चुनौतियों का एक सेट पेश करती हैं जिन्होंने उन्हें भारत को आगे बड़ने से रोक दिया है। तकनीकी, नियामक और परिचालन चुनौतियों को समझना महत्त्वपूर्ण है। इनमें शामिल हैं: अत्यधिक स्थापना लागत: भारत में स्थानीय सबस्ट्रक्चर निर्माताओं, इनस्टॉलेशन जहाज़ों और प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी है। अपतटीय पवन टर्बाइनों को तटवर्ती पवन फार्मों की तुलना में मज़बूत संरचनाओं की आवश्यकता होती है। यह उच्च स्थापना लागत का कारण बन सकता है। नतीजतन, भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा शुल्क तटवर्ती पवन ऊर्जा से अधिक होने की उम्मीद है। प्रशिक्षित कर्मियों की कमी: टरबाइन, टरबाइन नींव निर्माण, पनडुब्बी विद्युत और संचार केबलों के रखरखाव, दोषों और मरम्मत के लिये मौलिक तकनीकी क्षमताओं, शिक्षा और विशेषज्ञता के साथ प्रशिक्षित कर्मियों की कमी। पवन में उतार-चढ़ाव: पवन के वितरण में बदलाव ग्रिड में पवन ऊर्जा के इनपुट और भार की दैनिक मांग के बीच संतुलन को प्रभावित कर सकता है। गंभीर जलवायु स्थिति: कोई भी घटना बुनियादी ढाँचे को नष्ट कर सकती है और पहुँच को और अधिक जटिल बना सकती है। तूफान या तूफान की लहरें उस संबंध में अपतटीय खेतों तथा पवन टरबाइन के जीवनकाल को प्रभावित कर सकती हैं। आगे की राह कम कर: भारत में जीएसटी कानून, बिजली और इसकी बिक्री को जीएसटी से छूट देता है। इसके विपरीत पवन ऊर्जा उत्पादन कंपनियाँ परियोजना की स्थापना के लिये वस्तुओं और/या सेवाओं की खरीद हेतु जीएसटी का भुगतान करते समय इनपुट टैक्स क्रेडिट (Input Tax Credit) का दावा नहीं कर सकती हैं। अधिकांश पवन फार्म घटकों को आयात करने की आवश्यकता है। उनके अधिग्रहण के लिये भुगतान किये गए करों के कारण टर्बाइन, ट्रांसफार्मर, इनवर्टर और निकासी के बुनियादी ढाँचे महंगे हैं। यदि उत्पाद शुल्क और जीएसटी को माफ किया जाए, तो प्रारंभिक परियोजना विकास अधिक किफायती हो सकती है। अनुसंधान और विकास में वृद्धि: सरकार को भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा में सुधार के लिये अपनी अनुसंधान सुविधाओं को बढ़ाने और विभिन्न कार्यक्रमों को सृजित करने की आवश्यकता है। निजी क्षेत्र की भूमिका में वृद्धि: सरकार को इस उद्योग को निजी क्षेत्र के लिये खोलने की आवश्यकता है, जैसा कि हमने हाल के समय में देखा है कि विभिन्न स्टार्ट-अप ने अपनी क्षमता दिखाई है, अतः निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी से नवाचार शुरू होगा और भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा की कीमत कम होगी। संपूर्ण समुद्र तट में विशाल क्षमता के कारण, भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा जलवायु प्रतिबद्धता और ऊर्जा सुरक्षा को साकार करने के लिये वांछित परिणाम प्रदान कर सकती है, जिसके लिये देश संपन्न है।</s>
<s>[INST]पालने/जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर चरण में महिलाओं के खिलाफ हिंसा होती रहती है। चर्चा कीजिये (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के बारे में आँकड़ों को संक्षेप में उज़ागर करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। महिलाओं के खिलाफ हिंसा से संबंधित विभिन्न कारकों और कारणों पर चर्चा कीजिये। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने के उपाय सुझाते हुए निष्कर्ष लिखिये। परिचय संयुक्त राष्ट्र महिलाओं के खिलाफ हिंसा को "लिंग आधारित हिंसा के किसी भी कार्य के रूप में परिभाषित करता है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मानसिक नुकसान या पीड़ा होती है, या होने की संभावना है, जिसमें इस तरह के कृत्यों की धमकी, जबरदस्ती या मनमाने तरीके से स्वतंत्रता से वंचित करना शामिल है हिंसा सार्वजनिक रूप या निजी जीवन किसी में भी हो सकती है। विश्व स्तर पर दुनिया भर में लगभग 3 में से 1 (30%) महिलाएँ अपने जीवनकाल में या तो शारीरिक और/या यौन अंतरंग साथी हिंसा या गैर-साथी यौन हिंसा का शिकार हुई हैं। भारतीय राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर वर्ष 2020 में 56.5% से बढ़कर वर्ष 2021 में 64.5% हो गई है। इसके अलावा रिपोर्ट ने दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, यातना, बलात्कार और घरेलू हिंसा के रूप में भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में भारी वृद्धि पर भी प्रकाश डाला है। मुख्य भाग महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक सामाजिक, आर्थिक, विकासात्मक, कानूनी, शैक्षिक, मानव अधिकार और स्वास्थ्य (शारीरिक और मानसिक) संबंधी मुद्दा है। जन्म से लेकर मृत्यु/कब्र तक महिलाओं को भारी मात्रा में मानसिक और शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है, जिनका वर्णन नीचे किया गया है: कन्या भ्रूण हत्या: इसे लड़कों के लिये प्राथमिकता और बालिकाओं के जन्म से जुड़े कम मूल्य के कारण जानबूझकर बच्चियों की हत्या के रूप में वर्णित किया गया है। वर्ष 1921 में भारत में प्रति 100 पुरुषों पर 97 से अधिक महिलाएँ थीं। सत्तर साल बाद यह संख्या घटकर 92.7 रह गई। यदि भारत में महिलाओं के साथ समान व्यवहार किया जाता, तो वर्तमान एक अरब की आबादी में 512 मिलियन महिलाएँ होनी चाहिये थीं। इसके अलावा हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की आबादी से 50 मिलियन लड़कियाँ और महिलाएँ गायब हैं, जो आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित यौन भेदभाव के कारण कन्या भ्रूण हत्या का परिणाम हैं। शिक्षा में कमी: आमतौर पर रूढ़िवादी भारतीय समाज में रहने वाले लोग अपनी लड़की को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते हैं, जो आगे चलकर पुरुष और महिला शिक्षा के बीच असमानता पैदा करता है तथा भोजन एवं चिकित्सा देखभाल तक पहुँच को बढ़ावा देता है। बालिका विवाह: जो महिला जननांग विकृति, रिश्तेदारों या अजनबियों द्वारा यौन और मानसिक दुर्व्यवहार, भोजन एवं चिकित्सा देखभाल के लिये अलग-अलग पहुँच, बाल वेश्यावृत्ति और अश्लील साहित्य जैसे कई अन्य अत्याचारों की ओर ले जाता है। बालिका श्रम: बालिका बाल घरेलू कामगार के रूप में कार्य करती है, जिसे उनके नियोक्ताओं द्वारा शोषण किया जाता है, गर्म लोहे से उन्हें दागा जाता है या जंजीरों में जकड़ा जाता है। कई लड़कियों की या तो उनके दुखवादी नियोक्ताओं द्वारा हत्या कर दी गई है या उन्होंने आत्महत्या कर ली। दहेज हत्या: दहेज हत्या के अंतर्गत दहेज से संबंधित विवादों के कारण विवाहित महिलाओं की हत्या कर दी जाती है या आत्महत्या के लिये उन्हें मज़बूर कर दिया जाता है। घरेलू हिंसा: घरेलू हिंसा निजी क्षेत्र में आमतौर पर उन व्यक्तियों के बीच हिंसा है जो अंतरंगता, रक्त या कानून के माध्यम से संबंधित हैं। घरेलू हिंसा शब्द की स्पष्ट तटस्थता के बावजूद लगभग हमेशा एक लिंग विशिष्ट अपराध है, जो महिलाओं के खिलाफ पुरुषों द्वारा किया जाता है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न: विभिन्न रिपोर्टों में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि प्राथमिक तौर पर पीड़ितों में अपनी पहली नौकरी कर रही युवा महिलाएँ या करियर ब्रेक के बाद कार्यस्थल पर लौटने वाली महिलाएँ हैं। उदाहरण के लिये उम्र या रोज़गार की स्थिति के कारण पीड़ित आमतौर पर कमज़ोर होता है। बुजुर्ग महिलाओं के खिलाफ हिंसा: वृद्ध महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और बलात्कार, परिवारों द्वारा वृद्धावस्था में महिलाओं को छोड़ना या उन्हें अमानवीय वृद्धाश्रम में भेज देना, जैसे कई मामले है जहाँ दुख और अपमान का जीवन उनका इंतजार करता है, महिलाओं का जीवन वास्तव में दुखद है। प्रतिकूल कानून और सामाजिक मानसिकता: भारतीय संविधान महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकारों की गारंटी देता है, लेकिन मज़बूत पितृसत्तात्मक परंपराएँ बनी हुई हैं। महिलाओं के जीवन को उन रीति-रिवाजों द्वारा आकार दिया जाता है जो सदियों पुराने हैं। अधिकांश भारतीय परिवारों में, एक बेटी को एक दायित्व के रूप में माना जाता है और उसे यह विश्वास करने के लिये अनुकूलित किया जाता है कि वह पुरुषों से कमतर और अधीनस्थ है। घर के बाहर की असुरक्षा महिलाओं की राह में सबसे बड़ी बाधा है। घर के बाहर होने वाले अत्याचारों की तुलना में घर के भीतर अत्याचार असहनीय हैं, महिलाएँ घर और समाज में अपनी हीनता को स्वीकार करती रहीं है। निष्कर्ष लैंगिक समानता को बढ़ावा देने हेतु आवश्यक उपाय इस प्रकार हैं: प्रवर्तन: समय की मांग है कि कानून को लागू किया जाए और उन नीतियों को विकसित और कार्यान्वित किया जाए जो विवाह, तलाक और हिरासत, उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों एवं संपत्ति के स्वामित्व में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करके लैंगिक समानता को बढ़ावा देती हैं। वित्तीय स्वतंत्रता: सवैतनिक रोज़गार तक महिलाओं की पहुँच में सुधार। राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियों का विकास और संसाधन: इसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा को संबोधित करना होगा। क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: यह महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों को नियंत्रित करने के लिये सेवा प्रदाताओं और कानून प्रवर्तन अधिकारियों को बढ़ाएगा। पुरुष मध्यस्थता पहल: दुराचारियों के लिये कार्यक्रम तैयार करने में पुरुष की भागीदारी सुनिश्चित करना। हिंसा की पुनरावृत्ति को रोकना: हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं और बच्चों की शुरुआती पहचान के माध्यम से और उचित परामर्श के साथ सहायता प्रदान करना। समतावादी लिंग मानदंडों को बढ़ावा देना: इसे युवा लोगों को पढ़ाए जाने वाले जीवन कौशल और व्यापक कामुकता शिक्षा पाठ्यक्रम के एक हिस्से के रूप में बढ़ावा दिया जाएगा।</s>
<s>[INST]भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सुभाष चंद्र बोस की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में संक्षेप में वर्णन करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये। परिचय: सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें नेताजी के नाम से जाना जाता है, सबसे महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वह उत्कृष्ट नेतृत्व क्षमता के साथ उत्कृष्ट वक्ता भी थे। उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिये जाना जाता है। उनके नेतृत्व ने बहुत से लोगों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिये प्रेरित किया। मुख्य भाग: स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: सी.आर. दास के साथ संबंध: वह सी.आर. दास के साथ राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न थे और उनके साथ जेल भी गए। जब सीआर. दास को कलकत्ता को-ऑपरेशन का मेयर चुना गया तो उन्होंने बोस को मुख्य कार्यकारी नामित किया था। उन्हें वर्ष 1924 में उनकी राजनीतिक गतिविधियों के लिये गिरफ्तार किया गया था। ट्रेड यूनियन आंदोलन: उन्होंने युवाओं को संगठित किया और ट्रेड यूनियन आंदोलन को बढ़ावा दिया। वर्ष 1930 में उन्हें कलकत्ता का मेयर चुना गया, उसी वर्ष उन्हें अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष भी चुना गया। कॉन्ग्रेस के साथ संबंध: उन्होंने बिना शर्त स्वराज अर्थात् स्वतंत्रता का समर्थन किया और मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट का विरोध किया जिसमें भारत के लिये डोमिनियन के दर्जे की बात कही गई थी। उन्होंने वर्ष 1930 के नमक सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लिया और वर्ष 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के निलंबन तथा गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर करने का विरोध किया। वर्ष 1930 के दशक में वह जवाहरलाल नेहरू और एम.एन. रॉय के साथ कॉन्ग्रेस की वामपंथी राजनीति में संलग्न रहे। वामपंथी समूह के प्रयासों के कारण कॉन्ग्रेस ने वर्ष 1931 में कराची में दूरगामी प्रस्ताव पारित किये, जिसमें कॉन्ग्रेस के प्रमुख लक्ष्य के रुप में मौलिक अधिकारों की गारंटी देने के अलावा उत्पादन के साधनों के समाजीकरण पर बल दिया गया। कॉन्ग्रेस की अध्यक्षता: बोस ने वर्ष 1938 में हरिपुरा में कॉन्ग्रेस की अध्यक्षता की। अगले ही वर्ष उन्होंने त्रिपुरी में गांधी जी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या के खिलाफ फिर से अध्यक्ष पद का चुनाव जीता। लेकिन गांधी जी के साथ वैचारिक मतभेद के कारण बोस ने कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और 'फॉरवर्ड ब्लॉक' नामक नए दल की स्थापना की। इसका उद्देश्य उनके गृह राज्य बंगाल में वामपंथी राजनीति के प्रमुख समर्थन आधार को समेकित करना था। सविनय अवज्ञा आंदोलन: जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्हें फिर से सविनय अवज्ञा में भाग लेने के कारण कैद कर लिया गया और कोलकाता में नज़रबंद कर दिया गया। भारतीय सेना: बोस ने बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की और युद्ध के लिये भारतीय कैदियों को मिलाकर भारतीय सेना का गठन किया, जिन्होंने धुरी शक्तियों (जर्मनी, इटली और जापान) द्वारा बंदी बनाए जाने से पहले उत्तरी अफ्रीका में अंग्रेज़ों के लिये युद्ध लड़ा था। यूरोप में बोस ने भारत की आज़ादी के लिये हिटलर और मुसोलिनी से मदद मांगी। आज़ाद हिंद रेडियो का आरंभ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्त्व में जर्मनी में किया गया था। इस रेडियो का उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु संघर्ष करने के लिये प्रेरित करना था। इस रेडियो पर बोस ने 6 जुलाई, 1944 को महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' के रूप में संबोधित किया। भारतीय राष्ट्रीय सेना: वह जुलाई 1943 में जर्मनी से जापान-नियंत्रित सिंगापुर पहुँचे वहाँ से उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा ‘दिल्ली चलो’ दिया और 21 अक्तूबर, 1943 को आज़ाद हिंद सरकार तथा भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन की घोषणा की। INA का गठन पहली बार मोहन सिंह और जापानी मेजर इविची फुजिवारा के नेतृत्त्व में किया गया था तथा इसमें मलायन (वर्तमान मलेशिया) अभियान में सिंगापुर में ब्रिटिश-भारतीय सेना की तरफ से युद्ध में शामिल, जापान द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय कैदियों को शामिल किया गया था। निष्कर्ष: बोस का स्वतंत्रता संग्राम न केवल भारत के लिये बल्कि तीसरे विश्व के सभी देशों के लिये प्रेरणा का स्रोत सिद्ध हुआ। बोस के नेतृत्व वाले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इन सभी देशों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। नेताजी का योगदान उन्हें विश्व स्तर पर "स्वतंत्रता के नायक" के रूप में स्थापित करता है।</s>
<s>[INST]समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में प्रवाल भित्तियों द्वारा निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालिये। प्रवाल भित्तियों पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण प्रवाल भित्तियों का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका पर चर्चा कीजिये। मूंगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय प्रवाल समुद्री अकशेरुकी या ऐसे जीव हैं जिनकी रीढ़ नहीं होती है। वे पृथ्वी पर सबसे बड़ी जीवित संरचनाएँ हैं। प्रत्येक प्रवाल/रीफ/मूंगे को पॉलीप कहा जाता है और ऐसे हज़ारों पॉलीप्स कॉलोनी बनाने के लिये एक साथ रहते हैं, जो तब बढ़ते हैं जब पॉलीप्स खुद की प्रतियाँ बनाने के लिये गुणन करते हैं मुख्य भाग महासागर पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में कोरल का महत्त्व: प्रवाल भित्तियों को समुद्र के उष्णकटिबंधीय जंगलों या महासागरीय मरुस्थलों के रूप में वर्णित किया जाता है। वह 25% से अधिक समुद्री जैव विविधता का समर्थन करते हैं, भले ही वे समुद्र तल का केवल 1% हिस्सा आच्छादित करते हैं। प्रवाल भित्तियाँ पृथ्वी पर सबसे विविध और मूल्यवान पारिस्थितिक तंत्रों में से कुछ हैं। दुनिया के महासागरों में रहने वाली 500,000 जीवों की प्रजातियों में से लगभग एक चौथाई प्रवाल भित्तियों वाले क्षेत्रों में निवास करती हैं। इसके अलावा, वे किसी भी अन्य समुद्री पर्यावरण की तुलना में प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक प्रजातियों का समर्थन करते हैं, जिनमें मछलियों की लगभग 4,000 प्रजातियाँ, कठोर मूंगों की 800 प्रजातियाँ तथा सैकड़ों अन्य प्रजातियाँ शामिल हैं। जब चट्टानें क्षतिग्रस्त या नष्ट हो जाती हैं, तो इस प्राकृतिक अवरोध की अनुपस्थिति तटीय समुदायों को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है और प्रचंड तूफानों से होने वाली क्षति को बढ़ा सकती है। प्रवाल भित्तियों संरचनाएँ लहरों, तूफानों और बाढ़ से 97% ऊर्जा के खिलाफ तटरेखाओं को बफर करती हैं, जिससे जीवन की हानि, संपत्ति की क्षति और कटाव को रोकने में मदद मिलती है। प्रवाल भित्तियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: मानवीय गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन और समुद्र का अम्लीकरण होता है। वैश्विक महासागर एक विशाल सिंक है जो कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को अवशोषित करता है। हालाँकि इसने ग्लोबल वार्मिंग को धीमा कर दिया है, यह महासागर रसायन विज्ञान को भी बदल रहा है। उनके आर्थिक और मनोरंजक मूल्य के बावजूद, प्रवाल भित्तियों को प्रदूषण, बीमारी और आवास के विनाश का गंभीर खतरा है। एक बार प्रवाल भित्तियों के क्षतिग्रस्त हो जाने के बाद, वह उन जीवों का समर्थन करने में कम सक्षम होते हैं जो उनमें और उनके आस-पास के समुदायों में रहते हैं। प्रवाल भित्तियों पर विभिन्न अन्य प्रभाव इस प्रकार हैं: महासागरों का लगातार गर्म होना: यह थर्मल तनाव का कारण बनता है जो कोरल ब्लीचिंग और संक्रामक बीमारी में योगदान देता है। समुद्र के स्तर में वृद्धि: यह तलछट के भूमि आधारित स्रोतों के पास स्थित भित्तियों के अवसादन में वृद्धि का कारण बन सकता है। अवसादों का तीव्र प्रवाह प्रवाल के नष्ट होने का कारण बन सकता है। तूफान के पैटर्न में बदलाव: मजबूत और लगातार आ रहे तीव्र तूफान प्रवाल भित्तियों के विनाश का कारण बन सकता है। अवक्षेपण में परिवर्तन: ताजे पानी, तलछट और भूमि आधारित प्रदूषकों के अपवाह में वृद्धि, एल्गी की वृद्धि में योगदान करती है जिससे जल की सतह के अंदर कम प्रकाश पहुँच पाता है और वनस्पति अपना भोज नहीं बना पाते हैं । परिवर्तित महासागरीय धाराएँ: यह तापमान व्यवस्था के परिवर्तन को बढ़ावा देती है जो कोरल के लिये भोजन की कमी की समस्या उत्पन्न करती है और कोरल लार्वा के फैलाव को बाधित करती है। महासागर अम्लीकरण (बढ़ी हुई CO2 का परिणाम): यह पीएच स्तर में कमी का कारण बनता है जो प्रवाल वृद्धि और संरचनात्मक अखंडता को कम करता है। निष्कर्ष बहरहाल, जलवायु परिवर्तन हमारे पूरे महासागर तंत्र के लिये एक गंभीर चुनौती है, लेकिन यह हमारे लिये नया करने और अनुकूलन करने का एक अवसर भी है। हमें जलवायु-स्मार्ट नागरिक, राज्य, देश, विश्व बनने के लिये मिलकर काम करना चाहिये और आवश्यक तकनीकी नीति के साथ-साथ निवेश समाधानों का समर्थन करना चाहिये, जिसकी हमारे समुद्री जीवन और महासागर पारिस्थितिकी तंत्र को पहले कभी आवश्यकता नहीं थी।</s>
<s>[INST]राष्ट्रकूटों ने दक्कन की स्थापत्य संबंधी विरासत में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत राष्ट्रकूटों का संक्षिप्त परिचय देकर कीजिये। दक्कन के वास्तुकार को आकार देने में राष्ट्रकूटों की भूमिका की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय राष्ट्रकूट वंश ने 8वीं से 10वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया। उनकी चरम सफलता की स्थिति में उनके राज्य में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और गुजरात के वर्तमान भारतीय राज्यों के कुछ हिस्सों के साथ-साथ पूरी तरह से कर्नाटक का आधुनिक राज्य शामिल था। यह न केवल उस समय के सबसे शक्तिशाली शासक थे बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच एक सेतु के रूप में भी काम करती थी। मुख्य भाग दक्कन वास्तुकला पर राष्ट्रकूट का प्रभाव: राष्ट्रकूटों ने एक कलात्मक स्थापत्य शैली की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसे अब कर्नाटक द्रविड़ शैली के रूप में जाना जाता है। एलोरा का आश्चर्यजनक कैलाश मंदिर (रॉक-कट संरचना) राष्ट्रकूट वास्तुशिल्प उपलब्धि का प्रतीक है, इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं: यह कर्नाटक द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित, महाराष्ट्र में एलोरा की गुफाओं में रॉक-कट हिंदू मंदिरों में सबसे बड़ा है। मुख्य मंदिर, एक प्रवेश द्वार, नंदी मंडप और चारों ओर से घेरे हुए प्रांगण के साथ एक प्रांगण इस मंदिर के चार प्रमुख घटक हैं। कैलाश मंदिर अपनी अद्भुत मूर्तियों के साथ उत्कर्ष वास्तुशिल्प का भी उदाहरण है। मूर्तिकला महिष राक्षस को देवी दुर्गा द्वारा मारे जाने का प्रतिनिधित्व करती है। एक अन्य मूर्ति में रावण शिव के घर कैलाश पर्वत को स्थानांतरित करने का प्रयास कर रहा है। दीवारें भी रामायण के चित्रों से आच्छादित हैं। कैलाश मंदिर में द्रविड़ कला का प्रभाव अधिक है। अन्य प्रमुख स्थापत्य स्थल: एलिफेंटा की गुफाएँ: एलिफेंटा की गुफाएँ, एक द्वीप पर स्थित है, जिसे मुंबई के पास श्रीपुरी के नाम से जाना जाता है। इसका नाम हाथी की बड़ी सी मूर्ती की उपस्थिति के कारण एलिफेंटा रखा गया था। एलोरा की गुफाओं और एलिफेंटा की गुफाओं में कई समानताएँ हैं जो कारीगरों की निरंतरता को प्रदर्शित करती हैं। एलिफेंटा गुफाओं के प्रवेश द्वार में विशाल द्वार-पालक मूर्तियाँ शामिल हैं। गर्भगृह के चारों ओर प्राकार को घेरने वाली दीवार पर नटराज, गंगाधर, अर्धनारीश्वर, सोमस्कंद और त्रिमूर्ति की मूर्तियाँ हैं। नवलिंग मंदिर: अमोघवर्ष प्रथम या उनके पुत्र कृष्ण द्वितीय, जो राष्ट्रकूट राजवंश के एक शासक थे, ने नौवीं शताब्दी में नवलिंग मंदिर परिसर का निर्माण किया था। कुक्कनूर वह शहर है जहाँ यह मंदिर स्थित है। यह भारतीय राज्य कर्नाटक के कोप्पल ज़िले में, इटागी के उत्तर में और गदग के पूर्व में स्थित है। दक्षिण भारत में नौ मंदिर समूह द्रविड़ स्थापत्य शैली में बनाए गए थे। इसका नाम, नवलिंग, एक लिंग की उपस्थिति से आता है, जो हिंदू धर्म में शिव का सामान्य प्रतिनिधित्व है। निष्कर्ष: राष्ट्रकूट वंश का अंत हो गया, लेकिन उनका प्रभाव बना रहा। उनके राज्य के कुछ हिस्सों पर बाद के चोलों और अन्य राजवंशों द्वारा कब्जा कर लिया गया था, लेकिन उनकी शासन की प्रणाली और कई अन्य सांस्कृतिक प्रथाओं का पालन बाद के साम्राज्यों द्वारा भी किया गया था।</s>
<s>[INST]प्र. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के अनुसार भारत वर्ष 2023 तक विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने वाला है। बढ़ती जनसंख्या की चुनौतियों और अवसरों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की नवीनतम रिपोर्ट के तथ्यों पर संक्षेप में चर्चा करते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये। बढ़ती हुई जनसंख्या की चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या के समाधान हेतु कुछ उपाय बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNPFA) के अनुसार, विश्व भर में मानव आबादी 8 बिलियन तक पहुँच गई है। विश्व जनसंख्या संभावना, 2022 में चीन की 1.426 बिलियन जनसंख्या की तुलना में वर्ष 2022 में भारत की जनसंख्या 1.412 बिलियन होने का अनुमान लगाया है। वर्ष 2048 तक भारत की जनसंख्या चरम स्थिति के साथ 1.7 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है और फिर इस सदी के अंत तक गिरावट के साथ इसके 1.1 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है। मुख्य भाग: संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भारत की प्रजनन दर 2.1 तक पहुँच गई है (अर्थात् प्रतिस्थापन स्तर तक) और इसमें और भी गिरावट जारी है। वर्ष 2022 के आँकड़ों के अनुसार दुनिया की आधी से अधिक आबादी एशिया में रहती है। चीन और भारत (प्रत्येक की 1.4 बिलियन से अधिक आबादी) दो सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं। भारत की जनसंख्या वृद्धि स्थिर होने के बावजूद अभी भी यह 0.7% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है और वर्ष 2023 में इसकी जनसंख्या विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश, चीन से अधिक होने की संभावना है। चुनौतियाँ: स्थिर जनसंख्या: नमूना पंजीकरण प्रणाली डेटा के अनुसार बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में स्थिर जनसंख्या वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करना बड़ी चुनौती बनी हुई है। जीवन की गुणवत्ता: नागरिकों को न्यूनतम जीवन गुणवत्ता प्रदान करने के लिये शिक्षा और स्वास्थ प्रणाली के विकास पर निवेश करना होगा, अनाजों और खाद्यान्नों का अधिक-से-अधिक उत्पादन करना होगा, लोगों को रहने के लिये घर देना होगा, स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति बढ़ानी होगी एवं सड़क, परिवहन और विद्युत उत्पादन तथा वितरण जैसे बुनियादी ढाँचे को मज़बूत बनाने पर काम करना होगा। जनसांख्यिकीय विभाजन: भारत की निम्न साक्षरता दर और मानव पूंजी का अभाव, जनसांख्यिकीय लाभांश को बोझ में परिणत कर देगा। बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund) द्वारा जारी इंडिया एजिंग रिपोर्ट (India Ageing Report) 2017 के अनुसार, एक ओर जहाँ वर्ष 2015 में भारत की कुल आबादी का 8 प्रतिशत हिस्सा 60 वर्ष की उम्र से अधिक का था वहीं वर्ष 2050 में यह संख्या 19 प्रतिशत से अधिक होने की संभावना है। भारत को स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने की आवश्यकता होगी असमान आय वितरण: आय का असमान वितरण और लोगों के बीच बढ़ती असमानता, अत्यधिक जनसंख्या के नकारात्मक परिणामों के रूप में सामने आएगी। अवसर: विशाल मानव संसाधन पूल: भारत एक युवा राष्ट्र है जहाँ विश्व स्तर पर युवाओं का सबसे बड़ा समूह है यहाँ पर जनसांख्यिकीय लाभांश को प्राप्त करने की काफी संभावना है। विश्व स्तर पर बुजुर्गों की संख्या में होने वाली वृद्धि के आलोक में, भारत की युवा आबादी वैश्विक समस्याओं को हल करने के लिये एक वैश्विक संसाधन हो सकती है। पिछले एक दशक में भारत, विश्व स्तर पर प्रमुख सेवा प्रदाता के रूप में उभरा है, जहाँ वैश्विक कंपनियाँ देश में कम वेतन पर शिक्षित और अंग्रेजी बोलने वाले कर्मचारियों का लाभ उठाने के लिये आउटसोर्सिंग करती हैं। भारत में हर साल 2.5 मिलियन युवा आईटी, इंजीनियरिंग और जीव विज्ञान में स्नातक होते हैं। इसके अलावा विज्ञान और आईटी से संबंधित विषयों में लगभग 650,000 पोस्ट ग्रेजुएट करते हैं। आईटी क्षेत्र में अकेले लगभग 850,000 स्नातकों और पेशेवरों को रोजगार प्राप्त है। इसके साथ ही फार्मास्युटिकल और जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र भी काफी लोगों को रोजगार प्रदान कर रहे हैं। निष्कर्ष: युवा और किशोर जनसंख्या के लिये कौशल प्रदान करने की आवश्यकता है जो इन्हें अधिक उत्पादक बनाने के साथ इनकी बेहतर आय सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है। महिलाओं की स्थिति को उन्नत करना : हमारे समाज के कई वर्गों में अभी भी महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। शिक्षा के कम अवसर होने के कारण इन्हें घर का काम करते हुए अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। महिलाओं को घर के कामों तक सीमित रखने के बजाय अन्य क्षेत्रों में इनकी भागीदारी को बढ़ावा देकर महिलाओं की स्थिति को उन्नत करने के साथ इनके लिये आय का अतिरिक्त स्रोत मिल सकता है। गर्भ निरोधकों के उपयोग हेतु जागरूकता बढ़ाना: गर्भ निरोधकों के बारे में बात करना अभी भी हमारे समाज के विभिन्न वर्गों में सही नहीं माना जाता है। गर्भ निरोधकों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने वाले शिविर लगाए जाने चाहिये। परिवार नियोजन: जनसंख्या को नियंत्रित करने की दिशा में, परिवार नियोजन महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक है। बेहतर परिवार नियोजन से व्यक्ति के जीवन में स्थिरता आ सकती है। विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के संभावित लाभों को अधिकतम करने के लिये देश को स्वास्थ्य देखभाल और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच सुनिश्चित करने के साथ उत्पादक रोजगार और अवसरों पर बल देकर मानव पूंजी के विकास में निवेश करने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]प्र. "पाल साम्राज्य भारत में बौद्ध धर्म और बौद्ध कला के अंतिम महान चरण का साक्षी रहा"। कथन के आलोक में पालकालीन कला की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण: पाल वंश का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। चर्चा कीजिये कि किस प्रकार पाल शासन बौद्ध धर्म का अंतिम महान चरण था। पाल कला की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिये। उचित निष्कर्ष दीजिये। परिचय: "पाल" एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ "रक्षक" होता है। इसे सम्राटों के नाम के साथ जोड़ा गया था जिससे इस साम्राज्य को "पाल" नाम दिया गया। पाल साम्राज्य की स्थापना गोपाल ने संभवत: 750 ई. में की थी। पाल वंश ने 8वीं से 12वीं शताब्दी तक भारत के पूर्वी भाग पर शासन किया। मुख्य भाग: पाल कला, जिसे पाल-सेन कला या पूर्वी भारतीय कला भी कहा जाता है, वर्तमान के भारत के बिहार और पश्चिम बंगाल राज्य के साथ बांग्लादेश में विकसित हुई कलात्मक शैली है। पाल काल बौद्ध धर्म का अंतिम महान चरण था: नालंदा और विक्रमशिला जैसे विभिन्न मठ बौद्ध शिक्षा और कला के महान केंद्र थे। यहाँ पर बौद्ध विषयों से संबंधित कई पांडुलिपियों को तैयार करने के साथ ताड़ के पत्तों पर वज्रयान बौद्ध देवताओं को चित्रित किया गया था। पाल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपने राज्य धर्म के रूप में संरक्षण दिया और उनके काल के मंदिरों में बौद्ध स्तूप (अंड शैली) जैसी छतें होती थीं जिन्हें बंगला छत कहा जाता है। उन्होंने गौंड के शासक, शशांक द्वारा नष्ट किये गए बौद्ध स्थानों का कायाकल्प किया और बौद्ध धर्म के अंतर्राष्ट्रीयकरण को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, पाल वंश भारत में ऐसा प्रमुख अंतिम वंश था जिसके तहत बौद्ध धर्म को राज्य का समर्थन प्राप्त था। पाल वंश के पतन के साथ ही भारत में बौद्ध धर्म का भी तेजी से पतन हुआ। पाल कला की मुख्य विशेषताएँ: पाल वंश की कला और स्थापत्य के विकास से " पाल मूर्तिकला शैली" का विकास हुआ। उस समय की कला और स्थापत्य में बंगाली समाज के कई क्षेत्रीय पहलू देखे जा सकते हैं। पाल वंश की कला और स्थापत्य में टेराकोटा, मूर्तिकला और चित्रकला को महत्व दिया गया था। पहाड़पुर में धर्मपाल द्वारा बनवाया गया सोमपुर महाविहार, पाल वंश के बेहतरीन स्थापत्य में से एक है। महान मठ (जिसे सोमपुर महाविहार के नाम से भी जाना जाता है), 12वीं शताब्दी तक एक प्रसिद्ध बौद्धिक केंद्र था। विक्रमशिला विहार, ओदंतपुरी विहार और जगद्दल विहार जैसे प्रमुख स्थापत्य पाल शासन से संबंधित हैं। इस अवधि के दौरान उत्तम नक्काशी के साथ कांस्य मूर्ति निर्माण को बढ़ावा मिला। इस दौरान स्थापत्य के उन्नत होने के क्रम में विभिन्न बौद्ध विहारों का उदय हुआ। टेराकोटा पट्टिकाओं का अनुप्रयोग इनकी कलात्मक प्रतिभा का एक अन्य उदाहरण है। इन पट्टिकाओं का उपयोग दीवार की सतह की सजावट के रूप में किया जाता था और इसे बंगाल के कलाकारों की प्रतिभा के रूप में पहचाना जाता है। निष्कर्ष: पाल वंश ने विभिन्न दक्षिण एशियाई देशों में बौद्ध मठों के प्रसार के साथ विचारों के मुक्त आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त किया ।</s>
<s>[INST]1. समय के लिये धन खर्च किया जा सकता है , धन के लिये समय नहीं। क्योंकि समय वह वस्तु है जो आपके पास पहले खत्म हो जाएगा। 2. ज्ञान और तर्क के विकास के बिना सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]प्रश्न. विश्व में भूकंप के वितरण पर प्रकाश डालिये। भूकंप संबंधी खतरों के प्रति भारत की सुभेद्यता की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूकंप का संक्षेप में वर्णन करते हुए अपने उत्तर का परिचय दीजिये। विश्व में भूकंप के वितरण की चर्चा कीजिये। भारत में भूकंप संबंधी खतरों की भेद्यता पर चर्चा कीजिये। परिचय साधारण शब्दों में भूकंप का अर्थ पृथ्वी की कंपन से होता है। यह एक प्राकृतिक घटना है, जिसमें पृथ्वी के अंदर से ऊर्जा के निकलने के कारण तरंगें उत्पन्न होती हैं जो सभी दिशाओं में फैलकर पृथ्वी को कंपित करती हैं। भूकंप से उत्पन्न तरगों को भूकंपीय तरगें कहा जाता है, जो पृथ्वी की सतह पर गति करती हैं तथा इन्हें ‘सिस्मोग्राफ’ (Seismographs) से मापा जाता है। पृथ्वी की सतह के नीचे का स्थान जहाँ भूकंप का केंद्र स्थित होता है, हाइपोसेंटर (Hypocenter) कहलाता है और पृथ्वी की सतह के ऊपर स्थित वह स्थान जहाँ भूकंपीय तरगें सबसे पहले पहुँचती है अधिकेंद्र (Epicenter) कहलाता है। भूकंप के प्रकार: फाल्ट ज़ोन, विवर्तनिक भूकंप, ज्वालामुखी भूकंप, मानव प्रेरित भूकंप। भूकंप का वितरण: परि-प्रशांत भूकंपीय पेटी: विश्व की सबसे बड़ी भूकंप पेटी, परि-प्रशांत भूकंपीय पेटी, प्रशांत महासागर के किनारे पाई जाती है, जहाँ हमारे ग्रह के सबसे बड़े भूकंपों के लगभग 81% आते हैं। इसने "रिंग ऑफ फायर" उपनाम अर्जित किया है। यह पेटी विवर्तनिक प्लेटों की सीमाओं में मौजूद है, जहाँ अधिकतर समुद्री क्रस्ट की प्लेटें दूसरी प्लेट के नीचे जा रही हैं। इसका कारण इन ‘सबडक्शन ज़ोन’ में भूकंप, प्लेटों के बीच फिसलन और प्लेटों का भीतर से टूटना है। मध्य महाद्वीपीय बेल्ट: एल्पाइड भूकंप बेल्ट (मध्य महाद्वीपीय बेल्ट) जावा से सुमात्रा तक हिमालय, भूमध्यसागर और अटलांटिक में फैली हुई है। इस बेल्ट में दुनिया के सबसे बड़े भूकंपों का लगभग 17% भूकंप आते है, जिसमें कुछ सबसे विनाशकारी भी शामिल हैं। मध्य अटलांटिक कटक: तीसरा प्रमुख बेल्ट जलमग्न मध्य-अटलांटिक रिज में है। रिज वह क्षेत्र होता है, जहाँ दो टेक्टोनिक प्लेट अलग-अलग विस्तृत होती हैं। मध्य अटलांटिक रिज का अधिकांश भाग गहरे पानी के भीतर है और मानव हस्तक्षेप से बहुत दूर है। भारत अल्पाइन भूकंप बेल्ट में स्थित है जो भूकंपों के सबसे विनाशकारी बेल्ट में से एक है। इसलिये भारत भूकंप संबंधी खतरों के प्रति सुभेद्य है : भारत भूकंप के प्रति संवेदनशील है क्योंकि: भूभाग यूरेशियन प्लेट में प्रवेश कर रहा है, जो देश को बहुत अधिक तीव्रता के भूकंपों के प्रति संवेदनशील बनाता है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों, व्यापक अवैज्ञानिक निर्माणों और अनियोजित शहरीकरण ने जोखिमों को बढ़ा दिया है। हिमालय की तलहटी में स्थित क्षेत्र भूकंप के कारण भूस्खलन की चपेट में हैं। इसके अलावा, भारत का लगभग 59% क्षेत्र विभिन्न तीव्रता के भूकंपों के लिये प्रवण है। इन्हें चार भूकंपीय ज़ोन में वर्गीकृत किया गया है: ज़ोन -V (अति उच्च जोखिम), ज़ोन - IV (उच्च जोखिम), ज़ोन -III (मध्यम जोखिम), ज़ोन - II (कम जोखिम)। देश के वर्तमान सिस्मिक ज़ोन मैप के अनुसार भारत की भूमि का लगभग 59% हिस्सा सामान्य से गंभीर भूकंपीय खतरों के अधीन है। भारतीय प्लेट प्रति वर्ष उत्तर व उत्तर-पूर्व दिशा में 1 सेमी. खिसक रही है परंतु उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट के अवरोध के परिणामस्वरूप हिमालय का तलहटी क्षेत्र भूकंप, द्रवीकरण और भूस्खलन की चपेट में है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एक अंतर-प्लेट सीमा पर स्थित होने के कारण अक्सर विनाशकारी भूकंपों का अनुभव करते हैं। भारत की बढ़ती आबादी, व्यापक अवैज्ञानिक निर्माणों एवं अनियोजित शहरीकरण आदि ने भी भूकंप से जुड़े जोखिमों को बढ़ा दिया है। पिछले तीन दशकों में भूकंप के कारण क्रमश: कई आपदाएँ हुईं; जैसे-1993 में लातूर और उस्मानाबाद में भूकंप आया, जिसमें अपेक्षाकृत उथली गहराई के कारण सतह की बड़ी क्षति हुई। 1999 में चमोली में थ्रस्ट फॉल्ट के कारण भूकंप आया। परिणामस्वरूप भूस्खलन, सतही जल प्रवाह में परिवर्तन, सतह का टूटना और कटी हुई घाटियों को देखा गया। 2001 में रिएक्टिवेटेड फॉल्ट के कारण भुज में भूकंप आया और जान-माल की भारी क्षति हुई। 2004 में हिंद महासागर में नीचे भूकंपीय गतिविधि के कारण सुनामी आई जिसने भारत के तटीय क्षेत्रों को प्रभावित किया। निष्कर्ष भूकंप जनित खतरों के प्रति सुभेद्यता के अनुरूप विकास योजनाएँ बनाने की आवश्यकता है, ताकि पर्यावरण संतुलन के साथ सतत विकास को बढ़ावा मिले और जान-माल की क्षति कम की जा सके।</s>
<s>[INST]प्रश्न. सिंधु घाटी सभ्यता की शहरी योजना और संस्कृति किस हद तक वर्तमान शहरीकरण के लिये इनपुट प्रदान करती है? चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में संक्षिप्त परिचय देकर कीजिये। सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताओं की विवेचना कीजिये। वर्तमान समय में सिंधु घाटी योजना और संस्कृति के विभिन्न प्रभावों की चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय: यह सभ्यता लगभग 2500 ईस्वी पूर्व दक्षिण एशिया के पश्चिमी भाग मैं फैली हुई थी,जो कि वर्तमान में पाकिस्तान तथा पश्चिमी भारत के नाम से जाना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता मिस्र,मेसोपोटामिया,भारत और चीन की चार सबसे बड़ी प्राचीन नगरीय सभ्यताओं से भी अधिक उन्नत थी। 1920 में, भारतीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा किये गए सिंधु घाटी के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से हड़प्पा तथा मोहनजोदडो जैसे दो प्राचीन नगरों की खोज हुई। भारतीय पुरातत्त्व विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने सन 1924 में सिंधु घाटी में एक नई सभ्यता की खोज की घोषणा की। प्रारूप: सिन्धु सभ्यता की मुख्य विशेषताएँ हैं: इसमें शहरी नियोजन की अच्छी तरह से उन्नत प्रणाली है। इसमें गढ़ या एक्रोपोलिस शामिल है, जिस पर संभवतः शासक वर्ग के सदस्यों का कब्जा था। प्रत्येक शहर में गढ़ के नीचे एक निचला शहर था जिसमें ईंट के घर थे, जिनमें आम लोग रहते थे। शहरों में घरों की व्यवस्था के बारे में उल्लेखनीय बात यह है यहाँ ग्रिड प्रणाली का पालन किया गया। हड़प्पा के नगरों में अन्न भंडार एक महत्वपूर्ण भाग थे। हड़प्पा के नगरों में पकी हुई ईंटों का प्रयोग। मोहनजोदड़ो की जल निकासी व्यवस्था बहुत प्रभावशाली थी। लगभग सभी शहरों में हर बड़े या छोटे घर का अपना आंगन और स्नानघर होता था। सड़कें चौड़ी थीं और 90 डिग्री पर एक दूसरे को काटती थीं, जिससे ग्रिड योजना आधुनिक समाज का एक सामान्य तत्व बन गई। वर्तमान समय में सिंधु घाटी सभ्यता का प्रभाव: आधुनिक शहर, चंडीगढ़: आयताकार और ग्रिड प्रणाली के आधार पर बने होने के कारण इस आधुनिक शहर में सुलभ यातायात के साथ कम फुटप्रिंट देखने को मिलता है। निजी आवासों और सार्वजनिक स्थानों के बीच की दूरी को भी काफी हद तक सिंधु घाटी सभ्यता के समान निर्धारित किया गया था। आधुनिक समय में ऊपरी और निचले शहर: सिंधु घाटी सभ्यता का आधुनिक महानगरीय क्षेत्रों के विभाजन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव प्रतीत होता है। उस समय शहर को अभिजात वर्ग, आम लोगों, बड़े स्नानागार आदि के लिये विभाजित किया गया था। ये निर्विवाद रूप से वर्तमान में शहरी क्षेत्र , उपनगरीय समुदायों, सरकारी बिल्डिंग और अन्य संरचनाओं के लिये प्रेरणा के रूप में कार्य करते हैं। भंडारण क्षमता: आधुनिक भंडारण केंद्रों की योजना को उस समय के व्यापारिक ज़िलों, अन्नागारों से प्रेरित माना जाता हैै। अपवाह प्रणाली : सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान बनाए गए शहरों में परिष्कृत अपवाह प्रणाली मौजूद थी। कई सिंधु घाटी स्थलों में एक,दो या अधिक कमरे वाले घर थे जो आपस में संलग्न होने के साथ उत्कृष्ट जल निकासी व्यवस्था से सुसज्जित थे। इसके अतिरिक्त रसोई और स्नानघर के अपशिष्ट जल को गली की नालियों तक पहुँचाने के लिये प्रणाली मौजूद थी। इस प्रकार की अपवाह प्रणाली को हम आधुनिक शहरों में देख सकते हैं जिसमें घरों का गंदा पानी बंद नालों के माध्यम से शहरों के बाहर ले जाया जाता है। संस्कृति और धर्म: सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक पूजा पद्धति आधुनिक समय में भी प्रचलित हैं। उदाहरण के लिये, सिंधु घाटी सभ्यता के पशुपति भगवान को अभी भी शिव के रूप में पूजा जाता है और इसके अलावा, वर्तमान में भारत और अन्य पड़ोसी देशों में पेड़, सांप और लैंगिक प्रतीक चिन्हों की पूजा प्रचलित है। निष्कर्ष: आधुनिक समय के शहरी नियोजन की अनेक विशेषताएँ, सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित हैं। उस समय का नगर नियोजन नए तरीकों के उपयोग के साथ भविष्योनमुखी था।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा निभाई गई भूमिका की चर्चा कीजिये (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका की विवेचना कीजिये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनकी भूमिका की विवेचना कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय: सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के पहले गृह मंत्री और उप प्रधान मंत्री थे। भारत को एकीकृत करने और एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने में उनके महान योगदान के लिये उन्हें भारत के वास्तविक एकीकरणकर्ता के रूप में पहचाना जाता है। उन्होंने श्रेष्ठ भारत बनाने के लिये भारत के लोगों से एकजुट होकर रहने का अनुरोध किया। यह विचारधारा अभी भी आत्मानिर्भर भारत पहल में परिलक्षित होती है जो भारत को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करती है। उन्हें 'भारत के सिविल सेवकों के संरक्षक' के रूप में भी याद किया जाता है क्योंकि उन्होंने आधुनिक अखिल भारतीय सेवा प्रणाली की स्थापना की, जिसे आधुनिक भारत के स्टील फ्रेम के रूप में भी जाना जाता है। प्रारूप: स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका: उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ खेड़ा सत्याग्रह (1918) और बारदोली सत्याग्रह (1928) में किसान हित को एकीकृत किया। बारदोली की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि दी, जिसका अर्थ है 'एक नेता'। 1930 के नमक सत्याग्रह (प्रार्थना और उपवास आंदोलन) के दौरान, सरदार पटेल ने तीन महीने की कैद भी काटी। मार्च 1931 में पटेल ने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची अधिवेशन (46वें सत्र) की अध्यक्षता की, जिसे गांधी-इरविन समझौते की पुष्टि करने के लिये बुलाया गया था। इसके अलावा, उन्होंने शराब के सेवन, छुआछूत, जातिगत भेदभाव और गुजरात तथा उसके बाहर महिला मुक्ति के लिये बड़े पैमाने पर काम किया। स्वतंत्रता के बाद के भारत में योगदान: संविधान निर्माण में भूमिका: उन्होंने भारत की संविधान सभा की विभिन्न समितियों का नेतृत्त्व किया, अर्थात्: मौलिक अधिकारों पर सलाहकार समिति। अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों पर समिति। प्रांतीय संविधान समिति। रियासतों का एकीकरण: सरदार पटेल ने लगभग 565 रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। त्रावणकोर, हैदराबाद, जूनागढ़, भोपाल और कश्मीर जैसी कुछ रियासतें भारत राज्य में शामिल होने के खिलाफ थीं। सरदार पटेल ने रियासतों के साथ आम सहमति बनाने के लिये अथक प्रयास किया लेकिन जहाँ भी आवश्यक था, साम, दाम, दंड और भेद के तरीकों को अपनाने में संकोच नहीं किया। उन्होंने नवाब द्वारा शासित जूनागढ़ और निज़ाम द्वारा शासित हैदराबाद की रियासतों को भारत में शामिल करने जोड़ने के लिये बल का इस्तेमाल किया था, दोनों ने अपने-अपने राज्यों को भारत संघ के साथ विलय नहीं करने की इच्छा जताई थी। निष्कर्ष: सरदार वल्लभभाई पटेल ने ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र के साथ-साथ रियासतों को एकीकृत किया और भारत के बाल्कनीकरण को रोका। उन्हें भारतीय रियासतों के भारतीय संघ में एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने और रियासतों को भारतीय संघ के साथ गठबंधन करने हेतु राजी करने के लिये "भारत के लौह पुरुष" के रूप में जाना जाता है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. मैंग्रोव के पतन के कारणों और तटीय पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिये उनके महत्त्व की व्याख्या कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: मैंग्रोव के बारे में संक्षेप में समझाइये। मैंग्रोव के ह्रास के कारणों की विवेचना कीजिये। तटीय पारिस्थितिकी के संरक्षण में उनकी भूमिका की व्याख्या कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय एक मैंग्रोव एक छोटा पेड़ या झाड़ी है जो समुद्र तट के किनारे उगता है, इसकी जड़ें अक्सर पानी के नीचे नमकीन तलछट में होती हैं। 'मैंग्रोव' शब्द दलदल में पेड़ों और झाड़ियों को संदर्भित करता है। मैंग्रोव फूल वाले पेड़ हैं, जो राइजोफोरेसी, एकेंथेसी, लिथ्रेसी, कॉम्ब्रेटेसी और अरेकेसी परिवारों से संबंधित हैं। मैंग्रोव द्वारा सामना किये जाने वाले खतरे तटीय क्षेत्रों का व्यावसायीकरण: जलीय कृषि, तटीय विकास, चावल और ताड़ के तेल की खेती और औद्योगिक गतिविधियाँ तेज़ी से इन मैंग्रोव और उनके पारिस्थितिक तंत्र की जगह ले रही हैं। यूनेस्को के अनुसार, बुनियादी ढाँचे के विकास, शहरीकरण और कृषि भूमि रूपांतरण के कारण वैश्विक वन आवरण के समग्र नुकसान की तुलना में मैंग्रोव तीन से पांच गुना तेज़ी से गायब हो रहे हैं। पिछले 40 वर्षों में मैंग्रोव कवरेज आधे से कम हो गया है। 1% से भी कम उष्णकटिबंधीय वन मैंग्रोव हैं। झींगा फार्म: मैंग्रोव वनों के कुल नुकसान का कम से कम 35% झींगा फार्मों के उद्भव से हुआ है। झींगा की कृषि का उदय हाल के दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, जापान और चीन में झींगा के प्रति बढ़ते झुकाव की प्रतिक्रिया है। तापमान संबंधित मुद्दे: कम समय में दस डिग्री का उतार-चढ़ाव पौधे को नुकसान पहुँचाने के लिये पर्याप्त होता है और कुछ घंटों के लिये भी बेहद कम तापमान कुछ मैंग्रोव प्रजातियों के लिये अत्यधिक खतरनाक या जानलेवा हो सकता है। मिट्टी से संबंधित मुद्दे: जिस मिट्टी में मैंग्रोव की जड़ें होती हैं, वह पौधों के लिये एक चुनौती बन जाती है क्योंकि इसमें ऑक्सीजन की भारी कमी होती है। अधिकांश पौधे आसपास की मिट्टी में मौजूद गैसों से आसानी से ऑक्सीजन ले सकते हैं, लेकिन मैंग्रोव जड़ों के लिये यह विकल्प नहीं होता है क्योंकि न केवल उनकी जड़ें भूमिगत होती हैं, बल्कि उनमें दिन में दो बार तक पानी भर जाता है। अत्यधिक मानव हस्तक्षेप: पिछले कुछ समय से समुद्र के स्तर में परिवर्तनों के दौरान, मैंग्रोव ज़मीन की तरफ बढ़ गए हैं, लेकिन कई जगहों पर मानव विकास अब एक बाधा है जो मैंग्रोव के विस्तार सीमित करता है। मैंग्रोव अक्सर तेल रिसाव से भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं। मैंग्रोव का महत्त्व पारिस्थितिक स्थिरीकरण: पारिस्थितिक रूप से मैंग्रोव मिट्टी को उपजाऊ बनाने में एवं उसकी क्षमता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण हैं। ये चक्रवातों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। वे भूमि संचय को बढ़ावा देने, मिट्टी के किनारों को ठीक करने, तेज़ हवाओं , ज्वार और तरंग ऊर्जा को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मैंग्रोव और ज्वार: जड़ों का घनत्व पेड़ों को ज्वार में आने वाली दैनिक वृद्धि और कमी को सहने की क्षमता देती है। अधिकांश मैंग्रोव में दिन में कम से कम दो बार बाढ़ आ जाती है। तटीय स्थिरीकरण: मैंग्रोव वन समुद्री तट को स्थिर करते हैं। यह तूफानी लहरों, धाराओं और ज्वार से समुद्री कटाव को कम करते हैं। जल शोधन: मैंग्रोव अपवाह से पोषक तत्वों को अवशोषित करके पानी की गुणवत्ता में सुधार करते हैं अन्यथा हानिकारक शैवाल तटों पर उग सकते हैं। कोरल रीफ और समुद्री घास दोनों ही पानी को साफ और स्वस्थ रखने के लिये मैंग्रोव वनों की जल शोधन क्षमता पर निर्भर करते हैं। ब्लू कार्बन का भंडारण: समुद्री वातावरण का 2% से भी कम हिस्सा मैंग्रोव का है, लेकिन 10-15% कार्बन अवशोषित करते हैं। एक बार जब पत्ते और पुराने पेड़ मर जाते हैं तो वे समुद्र तल पर गिर जाते हैं और संग्रहीत कार्बन को अपने साथ मिट्टी में दबा लेते हैं। इस दबे हुए कार्बन को "ब्लू कार्बन" के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह मैंग्रोव जंगलों, समुद्री घास और नमक के दलदल जैसे तटीय पारिस्थितिक तंत्र में पानी के नीचे जमा होता है। जैव विविधता को बढ़ावा: मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र जैव विविधता को भी बढ़ावा देता है, जिसमें कुछ प्रजातियाँ मैंग्रोव वनों के लिये अद्वितीय हैं। वे पक्षियों, मछलियों, अकशेरूकीय, स्तनधारियों और पौधों जैसे वन्यजीवों की एक विस्तृत श्रृंखला को आवास और आश्रय प्रदान करते हैं। चूँकि मैंग्रोव तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने और संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मानवीय गतिविधियों से कई खतरे हैं जो पारिस्थितिकी के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ सकते हैं और मैंग्रोव को ह्रास की ओर ले जा सकते हैं। इसके अलावा तटीय नियामक उपायों, वैज्ञानिक प्रबंधन प्रथाओं और संरक्षण तथा प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है जो मूल्यवान मैंग्रोव वनों के संरक्षण और स्थायी प्रबंधन के लिये आवश्यक हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली (IRNSS) की आवश्यकता क्यों है? यह नेविगेशन में कैसे मदद करती है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: आईआरएनएसएस को संक्षेप में समझाइये। आईआरएनएसएस की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। नेविगेशन में आईआरएनएसएस के लाभों पर चर्चा कीजिये। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय: आईआरएनएसएस का पूरा नाम भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम (Indian Regional Navigation Satellite System) है। यह उपग्रहों अर्थात् सेटेलाइट का एक सेट है जो एक साथ भारत को जीपीएस के समान एक क्षेत्रीय स्थिति वाला सिस्टम प्रदान कर सकता है। इसरो की वेबसाइट के मुताबिक, यह प्रणाली उपयोगकर्त्ताओं के प्राथमिक कवरेज क्षेत्र में 20 मीटर से अधिक तक की सटीक स्थिति हेतु डिज़ाइन की गई है। यह भारत की सीमा के करीब 1500 किमी. के घेरे में भी अपनी सेवाएँ प्रदान कर सकता है। प्रारूप स्वदेशी नौवहन उपग्रह प्रणाली की आवश्यकता: जीपीएस और ग्लोनास संबंधित देशों की रक्षा एजेंसियों द्वारा संचालित होते हैं। यह संभव है कि नागरिक सेवा को अपमानित या अस्वीकार किया जा सकता है। आईआरएनएसएस भारतीय क्षेत्र में एक स्वतंत्र क्षेत्रीय प्रणाली है और सेवा प्रदान करने के लिये अन्य प्रणालियों पर निर्भर नहीं है। आईआरएनएसएस के विभिन्न लाभ: दोहरे उद्देश्य की पूर्ति: यह 2 सेवाओं के लिये वास्तविक समय की जानकारी प्रदान करेगा अर्थात, नागरिक उपयोग के लिये मानक स्थिति सेवा और सेना के लिये प्रतिबंधित सेवा जिसे अधिकृत उपयोगकर्ताओं के लिये एन्क्रिप्ट किया जा सकता है। विदेशी उपग्रहों पर निर्भरता में कमी: भारत उन 5 देशों में से एक बन गया है जिनके पास अपना स्वयं का नेविगेशन सिस्टम है। इसलिये, नेविगेशन उद्देश्यों के लिये अन्य देशों पर भारत की निर्भरता कम हो जाती है। इसके अलावा, यह भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति में मदद करेगा। यह देश की संप्रभुता और सामरिक आवश्यकताओं के लिये महत्वपूर्ण है। वाणिज्यिक वाहन की ट्रैकिंग: अप्रैल 2019 में, सरकार ने निर्भया मामले के फैसले के अनुसार देश के सभी वाणिज्यिक वाहनों के लिये IRNSS-आधारित वाहन ट्रैकर्स को अनिवार्य कर दिया। अंतर्राष्ट्रीय मान्यता: इसके अलावा, क्वालकॉम टेक्नोलॉजीज ने आईआरएनएसएस का समर्थन करने वाले मोबाइल चिपसेट का अनावरण किया है। भारत की सॉफ्ट पावर कूटनीति को बढ़ावा: इसके अलावा व्यापक कवरेज के साथ, परियोजना के भविष्य के उपयोगों में से एक में सार्क देशों के साथ परियोजना को साझा करना शामिल है। इससे क्षेत्रीय नौवहन प्रणाली को और एकीकृत करने में मदद मिलेगी तथा इस क्षेत्र के देशों के प्रति भारत की ओर से कूटनीतिक सद्भावना का संकेत मिलेगा। निष्कर्ष: आईआरएनएसएस की शुरुआत के साथ, भारत उपग्रह नेविगेशन क्षमता वाले कुछ चुनिंदा देशों के विशिष्ट क्लब में शामिल हो गया है। इसने भारत को नौवहन क्षमताओं के मामले में, विशेष रूप से सैन्य दृष्टि से स्वतंत्र बना दिया है। भविष्य में, आईआरएनएसएस की सेवाएँ पड़ोसी देशों को वाणिज्यिक आधार पर या भू-रणनीतिक कदम के हिस्से के रूप में निशुल्क दी जा सकती हैं। उपग्रहों की संख्या में और वृद्धि के साथ, आईआरएनएसएस की पहुँच तब तक बढ़ती रहेगी जब तक कि यह वैश्विक कवरेज हासिल नहीं कर लेता।</s>
<s>[INST]प्रश्न. स्वामी विवेकानंद भारतीय दार्शनिक विचारों में क्रांति लेकर आए तथा भारतीयों को जाग्रत किया। उन्हें अनेकता में एकता के दर्शन के महान गुरु के रूप में देखा जा सकता है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय दीजिये। स्वामी विवेकानंद के दर्शन की विवेचना कीजिये। संक्षेप में चर्चा कीजिये कि कैसे उनका दर्शन विविधता में एकता को बढ़ावा देता है। तदनुसार निष्कर्ष लिखिये। परिचय: स्वामी विवेकानंद का नाम मूल रूप से नरेंद्र नाथ दत्त था। वह भारतीय और पश्चिमी संस्कृति दोनों से प्रभावित थे। प्रारंभ में हिंदू देवताओं की उपासना तथा उनकी मान्यताओं का ईसाई धर्म के सिद्धांतों से अक्सर विरोध होता था। यह तब तक था जब तक उन्होंने रामकृष्ण को अपने गुरु के रूप में स्वीकार नहीं किया और एक भिक्षु बन गए। संस्कृति के उनके विशाल ज्ञान ने उन्हें अंतर-धार्मिक जागरूकता बढ़ाने का अवसर दिया और उन्हें मान्यता भी दिलाई। प्रारूप : विवेकानंद का दर्शन वेदांत पर आधारित है, इसके मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं: यह उपनिषदों और उनकी व्याख्या पर आधारित था। इसका उद्देश्य 'ब्राह्मण' (परम वास्तविकता) के बारे में पूछताछ करना था जो उपनिषदों की केंद्रीय अवधारणा थी। इसने वेद को सूचना के अंतिम स्रोत के रूप में देखा और जिसके अधिकार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता था। इसने बलिदान (कर्म) के विपरीत ज्ञान (ज्ञान) के मार्ग पर जोर दिया। ज्ञान का अंतिम उद्देश्य 'मोक्ष' यानि 'संसार' से मुक्ति था। स्वामी विवेकानंद के दर्शन के मूल मूल्य: आधुनिक दुनिया में स्वामी विवेकानंद द्वारा की गई धर्म की व्याख्या उनके सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक है। धर्म की उनकी व्याख्या उन्होंने पारलौकिक वास्तविकता के एक सार्वभौमिक अनुभव के रूप में की है जो समग्र मानवता के लिये सामान्य है। यह सार्वभौमिक अवधारणा धर्म को अंधविश्वास, हठधर्मिता, आडम्बर और असहिष्णुता की पकड़ से मुक्त करती है। विविधता में एकता को बढ़ावा देने में उनके दर्शन का प्रभाव: वह पृथ्वी, स्वर्ग, देवता, नरक , भूत आदि जैसे विभिन्न रूपों के अस्तित्व की बुनियादी एकता में विश्वास करते थे और सभी भेदभावों से परे शाश्वत समानता या समरूपता तथा सभी व्यक्तित्वों की एकता की दृढ़ता से वकालत करते थे। उनका संदेश अनिवार्य रूप से जाति, वर्ग और लिंग के भेद के बिना दूसरों की सेवा करना था। उनका मानना था कि प्रत्येक प्राणी में ईश्वर है और इस प्रकार प्रत्येक प्राणी को विनम्रता और विशेष रूप से गरीबों की सेवा करनी चाहिये। दूसरों की सेवा करने से मानवता की भावना को बढ़ावा मिला जो उन्हें प्रिय थी। उनका राष्ट्रवाद मानवतावाद और सार्वभौमिकता पर आधारित है, जो भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं। पश्चिमी राष्ट्रवाद के विपरीत, जो प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष है, स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित है जो भारतीय लोगों का जीवन रक्त है। उनके राष्ट्रवाद के आधार हैं: जनता की स्वतंत्रता और समानता के लिये गहरी चिंता जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं को व्यक्त करता है तथा सार्वभौमिक भाईचारे के आधार पर दुनिया का आध्यात्मिक एकीकरण। "कर्मयोग" निःस्वार्थ सेवा के माध्यम से राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिये नैतिकता की एक प्रणाली है। निष्कर्ष: स्वामी विवेकानंद 19वीं शताब्दी के थे, फिर भी उनका संदेश और उनका जीवन अतीत की तुलना में आज अधिक प्रासंगिक है और शायद भविष्य में भी अधिक प्रासंगिक होगा। स्वामी विवेकानंद जैसे व्यक्तियों का अस्तित्व उनकी शारीरिक मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता है बल्कि उनका प्रभाव और उनके विचार समय के साथ अंततः उस पूर्णता तक पहुँचते हैं जिसकी उन्होंने परिकल्पना की थी।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत में घटते भूजल संसाधनों का आदर्श समाधान जल संचयन प्रणाली है। इसे शहरी क्षेत्रों में कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में जल संसाधनों की स्थिति के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये। वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली और इसके महत्त्व पर चर्चा कीजिये। चर्चा कीजिये कि इसे शहरी क्षेत्रों में कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है। जल प्रबंधन से संबंधित सरकारी पहलों के कुछ उदाहरण प्रदान कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय लगभग 75% घरों में पीने योग्य जल नहीं है, 84% ग्रामीण घरों में पाइप के माध्यम से जल की आपूर्ति नहीं है और भारत का 70% जल प्रदूषित है, देश वर्तमान में जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 में से 120 वें स्थान पर है। 2030 तक, देश की जल की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी होने का अनुमान है, जिसका अर्थ है कि करोड़ों लोगों के लिये जल की गंभीर कमी और देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 6% का नुकसान होगा। भारत में भूजल का महत्त्व: भूजल 26 करोड़ से अधिक किसानों और खेतिहर मज़दूरों की आजीविका हेतु आवश्यक है। भूजल भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण जल स्रोतों में से एक है, जो कुल सिंचाई का 63% है और ग्रामीण तथा शहरी घरेलू जल आपूर्ति में इसका योगदान 80% से अधिक है। खोदे गए कुओं, उथले नलकूपों और गहरे नलकूपों सहित कुओं से सिंचाई के लिये लगभग 61.6% जल की प्राप्ति होती है, इसके बाद 24.5 प्रतिशत नहरें आती हैं। वाटर हार्वेस्टिंग (WH) का अर्थ है वर्षा का जल जहाँ गिरता है, उसके प्रवाह को नियंत्रित करते हुए जल का संचय करना। भारत में वाटर हार्वेस्टिंग का महत्त्व: वर्षा जल के संचयन से जलभृतों को रिचार्ज करने में मदद मिलती है। यह अधिक बारिश के कारण शहरी बाढ़ को रोकने में मदद करता है। संग्रहित जल का उपयोग कृषि क्षेत्र में सिंचाई पद्धतियों के लिये किया जा सकता है। इस जल का उपयोग दैनिक उपयोग के लिये किया जा सकता है और कस्बों तथा शहरों में पानी के बिल को कम करने में मदद कर सकता है। शुष्क और बंजर क्षेत्रों में पानी की कमी से निपटने का एक सहायक तरीका है। यह भूजल स्तर को बहाल करने में मदद करता है। जल प्रबंधन का यह नवीकरणीय स्रोत पानी से संबंधित प्रमुख समस्याओं पर काबू पाने में मदद कर सकता है, जो न केवल इस समय दुनिया को त्रस्त कर रही हैं बल्कि भविष्य में वैश्विक आबादी और पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव डाल सकती हैं। शहरी क्षेत्रों में वाटर हार्वेस्टिंग : वाटर हार्वेस्टिंग सतही अपवाह संचयन और छत पर वर्षा जल के संचयन द्वारा की जाती है। चूँकि वर्तमान समय में शहरीकरण के परिणामस्वरूप खुले स्थान सिकुड़ रहे हैं और बहुत कम क्षेत्र कच्चा रह गया है, इसलिये पुनर्भरण पिट, पुनर्भरण ट्रेंच, खोदे गए कुएँ, पुनर्भरण शाफ्ट और रिसाव टैंक जैसी छोटी संरचनाएँ वर्षा के प्रवाह को रोकने में मदद करती हैं तथा फिर इस जल का रिसाव मृदा में हो पाता है और जल स्तर बढ़ जाता है । भारत में जल संरक्षण के लिये सुझाव: एकीकृत शहरी जल प्रबंधन (IUWM) प्रणाली: IUWM, जल की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जल प्रबंधन और स्वच्छता योजना को आर्थिक विकास एवं भूमि उपयोग के अनुरूप तैयार किया जा सकता है। लाभ: यह समग्र प्रक्रिया स्थानीय स्तर पर जल विभागों के बीच समन्वय को आसान बनाती है। यह शहरों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने और जल की आपूर्ति को अधिक कुशलता से प्रबंधित करने में भी मदद करता है। सरकार द्वारा की गई पहलें: जल शक्ति मंत्रालय तथा जल जीवन मिशन: जल शक्ति मंत्रालय का गठन जल के मुद्दों से समग्र रूप से निपटने के लिये किया गया था। जल जीवन मिशन का लक्ष्य वर्ष 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में पाइप द्वारा जलापूर्ति सुनिश्चित है। अटल भूजल योजना: यह जल उपयोगकर्त्ता संघों, जल बजट, ग्राम-पंचायत-वार जल सुरक्षा योजनाओं की तैयारी और कार्यान्वयन के माध्यम से सामुदायिक भागीदारी के साथ भूजल के स्थायी प्रबंधन हेतु केंद्रीय क्षेत्र की योजना है। जल शक्ति अभियान: इसकी शुरुआत जुलाई 2019 में देश में जल संरक्षण और जल सुरक्षा के लिये एक अभियान के रूप में की गई। राष्ट्रीय जल मिशन: इसका उद्देश्य एकीकृत जल संसाधन विकास और प्रबंधन के माध्यम से जल का संरक्षण करना, अपव्यय को कम करना और राज्यों के बाहर तथा भीतर जल का अधिक समान वितरण सुनिश्चित करना है। निष्कर्ष: जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि के कारण जल के उपयोग में वृद्धि हुई है, बेहतर शहरी जल प्रबंधन के लिये नए समाधानों की कल्पना की जानी चाहिये। विभिन्न स्थानीय संदर्भों में अधिक लोगों को चुनौतियों से अवगत कराने की आवश्यकता है। इसी तरह, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले स्थानीय विभागों जैसे संस्थानों में बदलाव की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि जल संबंधी मुद्दों को हल करने के लिये समग्र और प्रणालीगत समाधान लागू किये जाएँ ।</s>
<s>[INST]प्रश्न. "पराली जलाने से चारा नष्ट होता है, वायु प्रदूषित होती है, श्वसन संबंधी बीमारियाँ होती हैं और ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि होती है"। इस कथन के आलोक में भारत में पराली जलाने से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये और आगे की राह सुझाइये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण पराली जलाने को परिभाषित करते हुए परिचय दीजिये। पराली जलाने से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये। पराली जलाने से निपटने के लिये उठाए गए कदमों का वर्णन कीजिये। पराली जलाने से निपटने के लिये कुछ सरकारी पहलों के कुछ उदाहरण दीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये । परिचय पराली दहन, अगली फसल बोने के लिये फसल के अवशेषों को खेत में आग लगाने की क्रिया है। इसी क्रम में सर्दियों की फसल (रबी की फसल) की बुवाई हरियाणा और पंजाब के किसानों द्वारा कम अंतराल पर की जाती है तथा अगर सर्दी की छोटी अवधि के कारण फसल बुवाई में देरी होती है तो उन्हें काफी नुकसान हो सकता है, इसलिये पराली दहन पराली की समस्या का सबसे सस्ता और तीव्र तरीका है। पराली दहन की यह प्रक्रिया अक्तूबर के आसपास शुरू होती है और नवंबर में अपने चरम पर होती है, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी का समय भी है। पराली दहन का प्रभाव: प्रदूषण: खुले में पराली दहन से वातावरण में बड़ी मात्रा में ज़हरीले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं। वातावरण में छोड़े जाने के बाद ये प्रदूषक वातावरण में फैल जाते हैं, भौतिक और रासायनिक परिवर्तन से गुज़र सकते हैं तथा अंततः स्मॉग (धूम्र कोहरा) की मोटी चादर बनाकर मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। मिट्टी की उर्वरता: भूसी को ज़मीन पर दहन से मिट्टी के पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे इसकी उर्वरकता कम हो जाती है। गर्मी उत्पन्न होना: पराली दहन से उत्पन्न गर्मी मिट्टी में प्रवेश करती है, जिससे नमी और उपयोगी रोगाणुओं को नुकसान होता है। पराली जलाने से निपटने के लिये सरकार की पहल: पंजाब, एनसीआर राज्यों और जीएनसीटीडी की राज्य सरकारों ने कृषि पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) द्वारा दी गई रूपरेखा के आधार पर निगरानी के लिये विस्तृत कार्य योजना तैयार की हैं। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गौठान स्थापित कर एक अभिनव प्रयोग किया गया है। गौठान एक समर्पित 5 एकड़ का भूखंड है, जिसे प्रत्येक गाँव द्वारा साझा किया जाता है, जहाँ सभी अप्रयुक्त पराली दान (लोगों के दान) के माध्यम से एकत्रित की जाती है और गाय के गोबर तथा कुछ प्राकृतिक एंजाइमों को मिलाकर जैविक उर्वरक में परिवर्तित किया जाता है। निष्कर्ष: जैसा कि हम जानते हैं, पराली दहन से उपयोगी कच्चा माल नष्ट हो जाता है, वायु प्रदूषित हो जाती है, श्वसन संबंधी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ जाता है। इसलिये समय की मांग है कि पराली का पशु आहार के रूप में रचनात्मक उपयोग किया जाए तथा टर्बो-हैप्पी सीडर मशीन एवं बायो-डीकंपोज़र आदि जैसे विभिन्न विकल्पों को सक्षम करके प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत में चीनी उद्योग के सामने आने वाली समस्याओं की व्याख्या करते हुए, सरकार द्वारा इसे समर्थन देने के लिये किये गए उपायों के बारे में बताइये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत भारत में चीनी उद्योग को संक्षेप में समझाकर कीजिये। चीनी उद्योग में निहित समस्याओं का वर्णन कीजिये। चीनी उद्योग के संबंध में विभिन्न सरकारी पहलों का वर्णन कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय: भले ही भारत ब्राज़ील को पछाड़कर दुनिया में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया हो, लेकिन चीनी क्षेत्र विभिन्न कारणों से मुश्किलों से जूझ रहा है। चीनी उद्योग एक महत्त्वपूर्ण कृषि आधारित उद्योग है जो लगभग 50 मिलियन गन्ना किसानों और चीनी मिलों में सीधे कार्यरत लगभग 5 लाख श्रमिकों की ग्रामीण आजीविका को प्रभावित करता है। चीनी उद्योग कपास के बाद भारत में दूसरा सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग है। भारत में गन्ना उद्योग से संबंधित मुद्दे: अनिश्चित उत्पादन निर्गत: गन्ने को कई अन्य खाद्य और नकदी फसलों, जैसे- कपास, तिलहन, चावल इत्यादि से प्रतिस्पर्द्धा करनी पड़ती है। इससे मिलों को गन्ने की आपूर्ति प्रभावित होती है और चीनी का उत्पादन भी साल-दर-साल बदलता रहता है जिससे कीमतों में उतार-चढ़ाव होता है। कम कीमतों के कारण अतिरिक्त उत्पादन के समय में चीनी मिलों को नुकसान उठाना पड़ता है। गन्ने की कम उपज: दुनिया के कुछ प्रमुख गन्ना उत्पादक देशों की तुलना में भारत में प्रति हेक्टेयर उपज बेहद कम है। उदाहरण के लिये जावा में 90 टन प्रति हेक्टेयर और हवाई में 121 टन प्रति हेक्टेयर की तुलना में भारत की उपज केवल 64.5 टन/ हेक्टेयर है। लघु पेराई अवधि: चीनी उत्पादन एक मौसमी उद्योग है जिसमें एक वर्ष में सामान्य रूप से 4 से 7 महीने की छोटी पेराई अवधि होती है। यह श्रमिकों के वित्तीय नुकसान और मौसमी रोज़गार के साथ चीनी मिलों के पूर्ण उपयोग न होने का कारण बनता है। चीनी की कम रिकवरी दर: भारत में गन्ने से चीनी की औसत रिकवरी दर 10% से कम है जो अन्य प्रमुख चीनी उत्पादक देशों की तुलना में काफी कम है। उत्पादन की उच्च लागत: गन्ने की उच्च लागत, अकुशल तकनीक, उत्पादन की अनौपचारिक प्रक्रिया और भारी उत्पाद शुल्क के कारण विनिर्माण की लागत बढ़ जाती है। भारत में अधिकांश चीनी मिलें छोटे आकार की हैं जिनकी पेराई क्षमता 1,000 से 1,500 टन प्रतिदिन है जिससे यह उचित लाभ उठाने में विफल रहती हैं। सरकार द्वारा की गई पहलें इथेनॉल उत्पादन को प्रोत्साहन: सरकार ने चीनी मिलों को चीनी को इथेनॉल में बदलने और अधिशेष चीनी का निर्यात करने के लिये प्रोत्साहित किया है ताकि मिलों के परिचालन जारी रखने के लिये उनकी बेहतर वित्तीय स्थिति हो। इसके अलावा तेज़ी से भुगतान, कम कार्यशील पूंजी आवश्यकताओं और मिलों में अतिरिक्त चीनी की कमी के कारण कम नकदी ब्लॉकेज के कारण चीनी मिलों की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ है। उचित और लाभकारी मूल्य (Fair and remunerative price-FRP): FRP वह न्यूनतम मूल्य है जो चीनी मिलों को गन्ना किसानों को गन्ने की खरीद के लिये चुकानी पड़ती है। यह कृषि लागत और मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs and Prices-CACP) की सिफारिशों के आधार पर तथा राज्य सरकारों एवं अन्य हितधारकों के परामर्श के बाद निर्धारित किया जाता है। राज्य की सलाह का महत्त्व: हालाँकि केंद्र सरकार FRP तय करती है, राज्य सरकारें एक राज्य सलाहकारी मूल्य भी निर्धारित कर सकती हैं जो चीनी मिल को किसानों को चुकानी पड़ती है। चीनी उद्योग के नियमन पर सिफारिशें देने के लिये रंगराजन समिति (2012) द्वारा दी गई सिफारिशें: चीनी के निर्यात और आयात पर मात्रात्मक नियंत्रण को समाप्त करने के लिये इन्हें उचित टैरिफ द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये। उप-उत्पादों की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिये और कीमतें बाज़ार निर्धारित होनी चाहिये। मिलों को खोई से उत्पन्न विद्युत का उपयोग करने की अनुमति देने के लिये राज्यों को नीतिगत सुधार भी करने चाहिये। निष्कर्ष: सरकार को विभिन्न प्रस्तावों पर काम करने की आवश्यकता है ताकि समर्पित रूप से भारत चीनी की मातृभूमि के रूप में अपनी स्थिति को पुनः प्राप्त करने में सक्षम हो सके।</s>
<s>[INST]प्रश्न. कमाल पाशा द्वारा निर्देशित तुर्की पुनर्जागरण ने वहाँ कई स्तरों पर क्रांति ला दी। विस्तार से चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत तुर्की पुनर्जागरण के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। कमाल पाशा द्वारा उठाए गए विभिन्न उपायों की चर्चा कीजिये। उपरोक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय: मुस्तफा कमाल अतातुर्क (1881-1938) को तुर्की राष्ट्र की आधुनिकीकरण प्रक्रिया के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता था। अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा और आधुनिक राजनीतिक सुधारों के माध्यम से, कमाल पश्चिमी देशों के प्रत्यक्ष शासन से तुर्की की स्वतंत्रता को बनाए रखने में सक्षम थे। जैसा कि प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की हार हुई थी और उसे सेव्रेस की संधि (10 अगस्त, 1920) पर हस्ताक्षर करने के लिये मज़बूर किया गया था, लेकिन कमाल पाशा ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने इसके खिलाफ मज़बूत जनमत को संग्रहित किया और मित्र राष्ट्रों को तुर्की के साथ 24 जुलाई, 1923 को लुसाने की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिये मज़बूर किया गया, जिसके माध्यम से तुर्की ने वे अधिकांश भाग प्राप्त किये जो उसे पहले सौंपने के लिये मज़बूर किया गया था। कांस्टेंटिनोपल, थ्रेस और अनातोलिया तुर्की के साथ रहे। मित्र राष्ट्रों ने युद्ध क्षतिपूर्ति का दावा त्याग दिया। थल सेना, नौसेना और वायु सेना पर से प्रतिबंध हटा लिये गए। कमाल पाशा ने एक राष्ट्रीय सभा का आयोजन किया और अनातोलिया में अंकारा को अपनी राजधानी के साथ एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया। सुल्तान को गद्दी से उतार दिया गया। कमाल पाशा को तुर्की गणराज्य का राष्ट्रपति बनाया गया था उन्होंने तुर्की को पश्चिमी सभ्यता पर आधारित एक मज़बूत और आधुनिक राज्य में बदल दिया। उन्हें अतातुर्क या आधुनिक तुर्की के पिता की उपाधि से अलंकृत किया गया था। इसके अलावा, युद्ध के पुनर्निर्माण के लिये निम्नलिखित छह सिद्धांतों को अपनाया गया: गणतंत्रवाद: ओटोमन राजवंश की पूर्ण राजशाही को कानून के शासन के साथ बदल दिया गया। राष्ट्रवाद: यह एक राजनीतिक विचारधारा है जो एक राष्ट्रीय, जातीय या भाषाई समूह के रूप में तुर्की के लोगों को संगठित करती है और उन्हें गौरान्वित करती है। समानता: प्राथमिक विद्यालय से लेकर स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा को निःशुल्क, सह-शैक्षिक और धर्मनिरपेक्ष बनाया गया और प्राथमिक विद्यालय को अनिवार्य कर दिया गया। लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया गया, ऐसे कानून पेश किये गए जिससे महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार मिले, उन्हें वोट देने और संसद के लिये चुने जाने का अधिकार मिले। नियंत्रित अर्थव्यवस्था: राज्य ने नियोजित अर्थव्यवस्था की शुरुआत की। धर्मनिरपेक्षता: सरकार और धर्म का पूर्ण अलगाव था, शैक्षणिक संस्थान और सेना भी राजनीति से अलग हो गए थे धार्मिक स्कूलों को बंद कर दिया गया था, धर्म व्यक्तिगत विवेक का विषय बन गए थे और सार्वजनिक शिक्षा धर्मनिरपेक्ष थी। सुधारवाद: उन्होंने विवाह (बहुविवाह को समाप्त करना) और पारिवारिक संबंधों (विशेषकर तलाक, हिरासत और विरासत में महिलाओं के लिये समान अधिकार) में सुधार किया। निष्कर्ष: तुर्की को पहला मुस्लिम देश माना जाता है जिसे धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया था। मुस्तफा कमाल अतातुर्क जिन्हें राष्ट्रपिता के रूप में याद किया जाता है, आधुनिक तुर्की की स्थापना के लिये ज़िम्मेदार थे। उनकी क्रांतियों और सुधारों ने तुर्की को विकास के एक नए चरण में ला दिया है।</s>
<s>[INST]प्र. क्षेत्रवाद की विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। इस कथन की व्याख्या करते हुए इससे निपटने के उपाय सुझाइये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत क्षेत्रवाद के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। विभिन्न प्रकार के क्षेत्रवाद की विवेचना कीजिये। क्षेत्रवाद के कारणों की विवेचना कीजिये। आगे की राह बताते हुए अपना उत्तर समाप्त कीजिये। परिचय क्षेत्रवाद एक विचारधारा है जिसका संबंध ऐसे क्षेत्र से होता है जो धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिये जाग्रत होती है या ऐसे क्षेत्र की पृथकता को बनाए रखने के लिये प्रयासरत रहती है। इसमें राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और भाषायी आधार पर क्षेत्रों का विभाजन इत्यादि से संबंधित मुद्दों को शामिल किया जा सकता है। जब क्षेत्रवाद की विचारधारा को किसी क्षेत्र विशेष के विकास से जोड़कर देखा जाता है तो यह अवधारणा नकारात्मक बन जाती है प्रारूप क्षेत्रीय आंदोलनों के प्रकार अलगाववाद: यह क्षेत्रवाद का एक रूप है जिसमें उग्रवादी और कट्टरपंथी समूह शामिल होते हैं जो जातीयता या किसी अन्य कारक के आधार पर भारत से अलग होने की वकालत करते हैं। पृथक्करण: यह भारतीय संघ के भीतर अलग राज्य की मांग है। इस तरह के उप-क्षेत्रवाद को 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम द्वारा मान्यता दी गई थी। सबसे हालिया उदाहरणों में उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना का गठन शामिल है। विभिन्न राज्यों द्वारा की जा रही पूर्ण राज्य की मांग जैेसी मांगें केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली द्वारा की जा रही मांगों से प्रेरित हैं। ऐसी अधिकांश मांगों को पहले ही स्वीकार कर लिया गया है। 1971 में, हिमाचल प्रदेश को एक पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और उसके बाद मणिपुर, त्रिपुरा, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश (पूर्व नेफा) तथा सिक्किम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। स्वायत्तता की मांग: राज्यों द्वारा की जा रही स्वायत्तता की मांग 1960 के दशक से, क्षेत्रीय दलों के उदय के साथ तथा केंद्रीय राजनीतिक हस्तक्षेपों के कारण अधिक से अधिक बल प्राप्त कर रही है। एक राज्य के भीतर क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग: कुछ राज्यों में, विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपनी क्षेत्रीय पहचान को मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। ऐसी मांगों की उत्पत्ति अकुशल योजना के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय असंतुलन में निहित है, उदाहरण के लिये जम्मू-कश्मीर में, लद्दाखी एक क्षेत्रीय स्थिति की मांग कर रहे हैं। क्षेत्रवाद के कारण भाषा: भाषायी राज्यों की मांग ने क्षेत्रीयता को बढ़ावा दिया है जिसके कारण आंध्र प्रदेश, पंजाब आदि जैसे नए राज्यों का निर्माण हुआ है। धर्म: यह भी क्षेत्रवाद के प्रमुख कारकों में से एक है। उदाहरणतः जम्मू और कश्मीर में तीन स्वायत्त राज्यों की मांग धर्म पर आधारित है। उनकी माँगों के आधार हैं- मुस्लिम बहुल जनसंख्या के लिये कश्मीर, हिन्दू बहुल जनसंख्या के लिये जम्मू और बौद्ध बहुल जनसंख्या के लिये लद्दाख। क्षेत्रीय संस्कृति/नृजातीय पहचान: विभिन्न जनजातीय समूहों द्वारा अपनी नृजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखने के प्रयास भी क्षेत्रवाद का कारण बनते हैं, जैसे- बोडोलैंड और झारखंड का आंदोलन। आर्थिक पिछड़ापन: सामाजिक आर्थिक विकास के असमान प्रतिरूप ने क्षेत्रीय विषमताएँ पैदा की हैं। सामाजिक आर्थिक विकास और संसाधनों के उपयोग के आधार पर राज्यों के वर्गीकरण और उप-वर्गीकरण ने नाराज़गी पैदा की है, जिससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है। उदाहरणतः:आंध्र प्रदेश से तेलंगाना का विभाजन, विदर्भ, सौराष्ट्र आदि के लिये अलग राज्य की मांग। राजनीतिक दलों का उदय: गठबंधन की राजनीति और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उदय ने क्षेत्रवाद को वोट हासिल करने हेतु एक राजनीतिक उपकरण के रूप में प्रेरित किया है। भूमि पुत्र का सिद्धांत: यह सिद्धांत बताता है कि एक सीमित भगौलिक क्षेत्र के समस्त संसाधनों पर केवल उन्हीं लोगों का अधिकार होना चाहिये जिनका जन्म उस क्षेत्र में हुआ है। जिनका जन्म उस क्षेत्र से बाहर हुआ हो, उनका उस क्षेत्र में कोई अधिकार नहीं है। प्रवासी और स्थानीय शिक्षित मध्यम वर्ग के युवाओं के बीच नौकरियों और संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के कारण इस सिद्धांत का चलन बढ़ा है। उदाहरणतः मराठों के लिये महाराष्ट्र, गुजरातियों के लिये गुजरात आदि। आगे की राह भारतीय राष्ट्र के बहुलवादी चरित्र के लिये विविधता में एकता की प्रकृति को संरक्षित करने की आवश्यकता है। विविध आबादी की बहु आकांक्षाओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है। बॉटम-अप दृष्टिकोण: नीति आयोग का गठन बॉटम-अप दृष्टिकोण का उपयोग करके आर्थिक नीति-निर्माण प्रक्रिया में भारत की राज्य सरकारों की भागीदारी को बढ़ावा देकर सहकारी संघवाद को बढ़ाने के लिये एक सकारात्मक कदम रहा है। सरकारी योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन: जहाँ सरकार द्वारा समावेशी विकास के लिये केंद्र प्रायोजित योजनाओं की शुरुआत और पिछड़े राज्यों में विकास के लिये निजी खिलाड़ियों को प्रोत्साहन जैसे कई कदम उठाए गए हैं, उनके प्रभावी कार्यान्वयन की अधिक आवश्यकता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर राज्यों द्वारा सामाजिक व्यय के स्तर को बढ़ाने की आवश्यकता है जो मानव संसाधन विकास के लिये महत्वपूर्ण हैं। राष्ट्रीय शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली की शुरुआत करना जो लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को दूर करने और राष्ट्र के प्रति लगाव विकसित करने में मदद करेगी, यह क्षेत्रवाद की समस्या के दीर्घकालिक समाधान के रूप में कार्य कर सकती है। राष्ट्रीय एकता परिषद का पूर्ण उपयोग: 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद की स्थापना की गई थी, इसकी क्षमता का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. सांप्रदायिकता के प्रसार के लिये कौन-से कारक ज़िम्मेदार हैं और इससे निपटने के उपायों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत साम्प्रदायिकता के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। साम्प्रदायिकता के प्रसार के लिये उत्तरदायी कारकों की विवेचना कीजिये। सांप्रदायिकता से निपटने के उपायों पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है। सांप्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है। एक समुदाय या धर्म के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय या धर्म के विरुद्ध किये गए शत्रुभाव को सांप्रदायकिता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। सांप्रदायिकता के कारण: वर्तमान परिदृश्य में सांप्रदायिकता की उत्पत्ति के लिये किसी एक कारण को पूर्णत: ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि यह विभिन्न कारणों का एक मिला-जुला रूप बन गया है। सांप्रदायिकता के लिये ज़िम्मेदार कुछ महत्त्वपूर्ण कारण इस प्रकार हैं- राजनीतिक कारण: वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायिकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है। आर्थिक कारण: विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं। असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है। प्रशासनिक कारण: पुलिस एवं अन्य प्रशासनिक इकाइयों के बीच समन्वय की कमी। कभी-कभी पुलिस कर्मियों को उचित प्रशिक्षण प्राप्त न होना, पुलिस ज़्यादती इत्यादि भी सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले कारकों में शामिल होते हैं। मनोवैज्ञानिक कारण: दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न,आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है। इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है। मीडिया संबंधी कारण: मिडिया द्वारा अक्सर सनसनीखेज आरोप लगाना तथा अफवाहों को समाचार के रूप में प्रसारित करना। इसका परिणाम कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी धार्मिक समूहों के बीच तनाव और दंगों के रूप में देखने को मिलता है। वहीं सोशल मीडिया भी देश के किसी भी हिस्से में सांप्रदायिक तनाव या दंगों से संबंधित संदेश को फैलाने का एक सशक्त माध्यम बन गया है। समाधान: वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करने के साथ-साथ, शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा दिये जाने की आवश्यकता है, जो पीड़ितों के लिये निवारक के रूप में कार्य कर सके। शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों / विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, के मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर जोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। सांप्रदायिक दंगों को रोकने हेतु प्रशासन के लिये संहिताबद्ध दिशा-निर्देश जारी कर तथा, पुलिस बल के लिये विशेष प्रशिक्षण साथ ही, जाँच और अभियोजन एजेंसियों का गठन कर सांप्रदायिकता के कारण होने वाली हिंसक घटनाओं में कमी की जा सकती है। सरकार, नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों को सांप्रदायिकता के खिलाफ जागरूकता के प्रसार में मदद करने वाली परियोजनाओं को चलाने के लिये उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन प्रदान कर सकती है, ताकि आने वाली पीढ़ियों में मजबूत सांप्रदायिक सद्भाव के मूल्यों का निर्माण किया जा सके और इस प्रकार एक बेहतर समाज का निर्माण करने में मदद मिल सकती है । सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है।अत: सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005 को मज़बूती के साथ लागू करने की आवश्यकता है। साथ ही बिना किसी भेदभाव के युवाओं की शिक्षा एवं बेरोज़गारी की समस्या का उन्मूलन किये जाने की आवश्यकता है ताकि एक आदर्श समाज की स्थापना की जा सके। निष्कर्ष साम्प्रदायिकता न केवल एक व्यक्ति के लिये खतरनाक है बल्कि यह पूरे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये एक गंभीर खतरा है। इस प्रकार, सांप्रदायिकता का उन्मूलन आज के समय की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. "नीली अर्थव्यवस्था बड़ी संभावनाओं के साथ आर्थिक गतिविधियों का एक नया क्षेत्र प्रस्तुत करती है"। इस कथन के आलोक में नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये भारत द्वारा उठाए गए कदमों तथा इसके महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: नीली अर्थव्यवस्था के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। नीली अर्थव्यवस्था के विभिन्न घटकों की चर्चा कीजिये। नीली अर्थव्यवस्था से जुड़े महत्व और चुनौतियों की चर्चा कीजिये। आगे की राह बताते हुए अपना उत्तर समाप्त कीजिये। परिचय यह अवधारणा आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका और नौकरियों के सृजन तथा महासागर पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के लिये महासागरीय संसाधनों का सतत् उपयोग को संदर्भित करती है। नीली अर्थव्यवस्था सामाजिक समावेश, पर्यावरणीय स्थिरता के साथ महासागरीय अर्थव्यवस्था के विकास के एकीकरण पर ज़ोर देती है, जो कि अभिनव व्यापार मॉडल के साथ संयुक्त है। इसमें शामिल हैं- अक्षय ऊर्जा:  सतत् समुद्री ऊर्जा सामाजिक और आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। मत्स्य पालन: सतत् मत्स्य पालन अधिक राजस्व, मछली उत्पादन और मछली के स्टॉक को बहाल करने में मदद कर सकता है। समुद्री परिवहन: 80 प्रतिशत से अधिक अंतर्राष्ट्रीय वस्तुओं का व्यापार समुद्री मार्ग से किया जाता है। पर्यटन: महासागरीय और तटीय पर्यटन रोज़गार में बढ़ोतरी करने के साथ-साथ आर्थिक विकास को बल दे सकता है। जलवायु परिवर्तन: महासागर एक महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक (ब्लू कार्बन) के रूप में कार्य करते हैं और जलवायु परिवर्तन को कम करने में मददगार हो सकते हैं। अपशिष्ट प्रबंधन: भूमि पर बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन के माध्यम से महासागरों के पारिस्थितिक तंत्र में सुधार किया जा सकता है। ‘नीली अर्थव्यवस्था’ का महत्त्व: निवेश पर उच्च प्रतिलाभ: सतत् महासागरीय अर्थव्यवस्था हेतु उच्च स्तरीय पैनल द्वारा किये गए एक शोध के अनुसार, प्रमुख महासागरीय गतिविधियों में निवेश किये गए 1 अमेरिकी डॉलर के निवेश से पाँच गुना अधिक यानी 5 अमेरिकी डॉलर का रिटर्न मिलता है। SDG के साथ तालमेल: यह  SDGs) विशेष रूप से ‘SDG14’ 'पानी के नीचे जीवन' का समर्थन करता है। सतत् ऊर्जा: नवीकरणीय ऊर्जा की बढ़ती मांग का समर्थन करते हुए अपतटीय क्षेत्रों में अपतटीय पवन, लहरों, ज्वारीय धाराओं सहित महासागरीय धाराओं एवं तापीय ऊर्जा के रूप में काफी बेहतर संभावनाएँ हैं। भारत के लिये महत्त्व: नौ तटीय राज्यों, 12 प्रमुख और 200 छोटे बंदरगाहों में फैली 7,500 किलोमीटर से अधिक लंबी तटरेखा के साथ भारत की ‘नीली अर्थव्यवस्था’ परिवहन के माध्यम से देश के व्यापार के 95% का समर्थन करती है और इसके सकल घरेलू उत्पाद में अनुमानित 4% का योगदान करती है। ‘नीली अर्थव्यवस्था’ को बढ़ावा देने हेतु उठाए गए कदम: डीप ओशन मिशन: इसे गहरे महासागरों से जीवित एवं निर्जीव संसाधनों का दोहन करने के लिये प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के इरादे से शुरू किया गया था। सतत् विकास हेतु ‘नीली अर्थव्यवस्था’ पर भारत-नॉर्वे टास्क फोर्स: दोनों देशों के बीच संयुक्त पहल को विकसित करने और उसका पालन करने हेतु वर्ष 2020 में दोनों देशों द्वारा संयुक्त रूप से इसका उद्घाटन किया गया था। सागरमाला परियोजना बंदरगाहों के आधुनिकीकरण हेतु आईटी सक्षम सेवाओं के व्यापक उपयोग के माध्यम से बंदरगाह विकास के लिये एक रणनीतिक पहल है। ओ-स्मार्ट: ओ-स्मार्ट एक अम्ब्रेला योजना है जिसका उद्देश्य सतत् विकास के लिये महासागरों और समुद्री संसाधनों का विनियमित उपयोग करना है। एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन: यह तटीय और समुद्री संसाधनों के संरक्षण तथा तटीय समुदायों के लिये आजीविका के अवसरों में सुधार पर केंद्रित है। राष्ट्रीय मत्स्य नीति: भारत में समुद्री और अन्य जलीय संसाधनों से मत्स्य संपदा के सतत् उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर 'ब्लू ग्रोथ इनिशिएटिव' को बढ़ावा देने हेतु एक राष्ट्रीय मत्स्य नीति मौजूद है। आगे की राह भारत के विशाल समुद्री हितों के कारण ‘नीली अर्थव्यवस्था’ को देश की आर्थिक वृद्धि में काफी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। नीली अर्थव्यवस्था देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और आम जनजीवन के कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकती है, हालाँकि यह आवश्यक है कि सतत् विकास एवं सामाजिक-आर्थिक कल्याण को केंद्र में रखा जाए। भारत को विकास, रोज़गार सृजन, समानता और पर्यावरण की सुरक्षा के व्यापक लक्ष्यों को पूरा करने हेतु स्थिरता के साथ आर्थिक लाभों को संतुलित करने के लिये गांधीवादी दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्रश्न. "भारत के शहर भारत के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 66% का योगदान करते हैं और व्यक्तियों को उनके व्यक्तिगत क्षेत्र में बहुत अधिक स्वतंत्रता देते हैं"। इस कथन के आलोक में भारत में शहरीकरण से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये और आगे की राह बताइये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में शहरीकरण पर एक संक्षिप्त विवरण देकर अपना उत्तर शुरू कीजिये। शहरीकरण के महत्त्व के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी दीजिये। शहरीकरण से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये। आगे राह बताते हुए अपना उत्तर समाप्त कीजिये। परिचय शहरीकरण का तात्पर्य ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या की आवाजाही से है, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के अनुपात में कमी एवं समाज का इस परिवर्तन के साथ अनुकूलन से है। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग द्वारा तैयार की गई 'विश्व शहरीकरण संभावनाएँ, 2018' रिपोर्ट के अनुसार, भविष्य में दुनिया की शहरी आबादी के आकार में वृद्धि कुछ ही देशों में अत्यधिक केंद्रित रहने की उम्मीद है। वर्ष 2050 तक भारत के शहरी निवासियों की संख्या में 416 मिलियन की बढ़ोतरी होने का अनुमान है।भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, वर्तमान में भारत की जनसंख्या 31.1% के शहरीकरण स्तर के साथ वर्ष 2011 में 1210 मिलियन थी। शहरी जीवन का महत्त्व सुविधाओं तक आसान पहुँच: शहरी जीवन में साक्षरता और शिक्षा का उच्च स्तर, बेहतर स्वास्थ्य, लंबी जीवन प्रत्याशा, सामाजिक सेवाओं तक अधिक पहुँच एवं सांस्कृतिक एवं राजनीतिक भागीदारी के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। शहरीकरण सामान्य रूप से अस्पतालों, क्लीनिकों और स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुँच से जुड़ा है। इन सेवाओं से आपातकालीन देखभाल के साथ-साथ सामान्य स्वास्थ्य में सुधार होता है। सूचना तक पहुँच: रेडियो और टेलीविज़न जैसे सूचना के स्रोतों तक आसान पहुँच के लाभ भी हैं, जिनका उपयोग आम जनता को स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देने के लिये किया जा सकता है। उदाहरण के लिये कस्बों और शहरों में रहने वाली महिलाओं को परिवार नियोजन के बारे में अधिक जानकारी की संभावना होती है जिसके परिणामस्वरूप परिवार के आकार में कमी आती है और बच्चों का जन्म दर कम रहता है। व्यक्तिवाद: यह अवसरों की बहुलता, सामाजिक विविधता, निर्णय लेने को लेकर पारिवारिक और सामाजिक नियंत्रण की कमी तथा व्यक्ति द्वारा स्वयं के लिये निर्णय लेने की सुविधा प्रदान करता है और अपने स्वयं के कॅरियर एवं कार्यों को चुनने में मदद करता है। शहरीकरण से जुड़े मुद्दे अत्यधिक जनसंख्या दबाव: एक ओर ग्रामीण-शहरी प्रवास शहरीकरण की गति को तेज़ करता है, दूसरी ओर, यह मौजूदा सार्वजनिक संसाधनों पर अत्यधिक जनसंख्या दबाव पैदा करता है। नतीजतन शहर मलिन बस्तियों, अपराध, बेरोज़गारी, शहरी गरीबी, प्रदूषण, भीड़भाड़, खराब स्वास्थ्य और कई विकृत सामाजिक गतिविधियों जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं। मलिन बस्तियों की बढ़ती संख्या: देश में लगभग 13.7 मिलियन झुग्गी-झोपड़ियाँ 65.49 मिलियन लोगों को आश्रय देते हैं। लगभग 65% भारतीय शहरों के बाहरी इलाके में झुग्गियाँ हैं, जहाँ लोग एक-दूसरे से सटे छोटे घरों में रहते हैं। अपर्याप्त आवास: शहरीकरण की अनेक सामाजिक समस्याओं में से आवास की समस्या सबसे अधिक चिंताजनक है। शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी की स्थिति में और अत्यधिक भीड़भाड़ वाले स्थानों में रहता है। भारत में आधे से अधिक शहरी परिवार एक कमरे में रहते हैं, जिसमें प्रति कमरा औसतन 4.4 व्यक्ति रहते हैं। अनियोजित विकास: एक विकसित शहर के निर्माण मॉडल की तुलना में अनियोजित विकास के कारण शहरों में अमीर और गरीब के बीच प्रचलित द्वंद्व मज़बूत होता है। महामारी-प्रेरित समस्याएँ: कोविड-19 महामारी ने शहरी गरीबों या झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की परेशानी को बढ़ा दिया है। अचानक पूर्ण कोविड लॉकडाउन के कारण झुग्गीवासियों की आजीविका कमाने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई। गैर-समावेशी कल्याण योजनाएँ: शहरी गरीबों की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ अक्सर लक्षित लाभार्थियों के एक छोटे से हिस्से तक ही पहुँचता है। अधिकांश राहत कोष और लाभ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों तक नहीं पहुँचता है, इसका मुख्य कारण यह है कि इन बस्तियों को सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी जाती है। आगे की राह सफल विकास के लिये सतत् शहरीकरण: सतत् विकास शहरी विकास के सफल प्रबंधन पर निर्भर करता है, विशेष रूप से निम्न आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में जहाँ शहरीकरण की गति सबसे तेज़ होने का अनुमान है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच संबंधों को मज़बूत करते हुए उनके मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों पर ध्यान देकर शहरी एवं ग्रामीण दोनों के निवासियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिये एकीकृत नीतियों की आवश्यकता है। स्वास्थ्य सुविधाओं और कल्याण योजनाओं तक पहुँच में सुधार: मलिन बस्तियों में मुफ्त टीके, खाद्य सुरक्षा और पर्याप्त आश्रय तक पहुँच सुनिश्चित करने के साथ-साथ कल्याण एवं राहत योजनाओं की दक्षता में तेज़ी लाना। मलिन बस्तियों में स्वच्छता और परिवहन सुविधाओं में सुधार तथा क्लीनिक एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थापना करना। उन गैर-लाभकारी संस्थाओं और स्थानीय सहायता निकायों को सहयोग प्रदान करना, जिनकी इन हाशिये के समुदायों तक बेहतर पहुँच है। शहरीकरण के लिये नया दृष्टिकोण: शहरी नियोजन और प्रभावी शासन के नए दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करना समय की आवश्यकता है। टिकाऊ, मज़बूत और समावेशी बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिये आवश्यक कार्रवाई की जानी चाहिये। शहरी गरीबों के सामने आने वाली चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने के लिये टॉप-डाउन दृष्टिकोण के बजाय, बॉटम-अप दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्रश्न. मंदिर वास्तुकला की नागर शैली अधिकतर उत्तरी भारत में प्रचलित थी। इस संदर्भ में नागर शैली की स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: मंदिर वास्तुकला की नागर शैली के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये। मंदिर स्थापत्य की नागर शैली की विशेषताओं की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय पाँचवी शताब्दी ईस्वी के बाद से, भारत के उत्तरी भाग में मंदिर वास्तुकला की एक विशिष्ट शैली विकसित हुई, जिसे वास्तुकला की नागर शैली के रूप में जाना जाता है। नागर शैली की तरह दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली का प्रचलन था। नागर शैली में भी, देश के पश्चिमी, मध्य और पूर्वी हिस्सों में विभिन्न उप-शैलियों का उदय हुआ।। मंदिर वास्तुकला की नागर शैली की विशेषताएँ: मंदिरों ने आम तौर पर निर्माण की पंचायतन शैली का पालन किया। नागर शैली में शिखर अपनी ऊँचाई के क्रम में ऊपर की ओर क्रमश: पतला होता जाता है। मंदिर में सभा भवन और प्रदक्षिणा-पथ भी होता था। शिखर के नियोजन में बाहरी रूपरेखा बड़ी स्पष्ट तथा प्रभावशाली ढंग से उभरती है। अत: इसे रेखा शिखर भी कहते हैं। शिखर पर आमलक की स्थापना होती है। मुख्य मंदिर के सामने सभा हॉल या मंडप की उपस्थिति। गर्भगृह के बाहर, गंगा और यमुना नदी की देवी की छवियों की उपस्थिति। मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली के विपरीत मंदिर परिसर में कोई पानी की टंकी या जलाशय मौजूद नहीं है। मंदिर आमतौर पर ऊँचे चबूतरे पर बनाए जाते थे। शिखर आमतौर पर तीन प्रकार के होते थे: लैटिना या रेखा-प्रसाद: उनका आधार वर्गाकार था और दीवारें ऊपर की ओर एक बिंदु की ओर मुड़ी हुई थीं। फमसाणा: उनका आधार व्यापक था और लैटिना की तुलना में ऊँचाई में छोटा था। वे एक सीधी रेखा में ऊपर की ओर झुकते हैं। वल्लभी: उनके पास एक आयताकार आधार था जिसकी छत गुंबददार कक्षों के रूप में थी। उन्हें वैगन-वॉल्टेड रूफ्स भी कहा जाता था। शिखर का ऊर्ध्वाधर सिरा एक क्षैतिज फ्लेवर्ड डिस्क में समाप्त होता है, जिसे अमलक के नाम से जाना जाता है। उसके ऊपर एक गोलाकार आकृति रखी गई थी जिसे कलश कहा जाता था। मंदिर के अंदर, दीवार को तीन ऊर्ध्वाधर विमानों में विभाजित किया गया था जिन्हें रथ कहा जाता है। इन्हें त्रिरथ मंदिर के नाम से जाना जाता था। बाद में, पंचरथ, सप्तरथ और यहाँ तक कि नवरथ मंदिर भी अस्तित्व में आए। कथात्मक मूर्तियाँ बनाने के लिए ऊर्ध्वाधर विमानों का उपयोग विभिन्न पैनलों के रूप में किया गया था। द्रविड़ शैली के विपरीत, मंदिर परिसर में विस्तृत चारदीवारी या प्रवेश द्वार नहीं थे। कोणार्क (ओडिशा) में सूर्य मंदिर, पुरी में जगन्नाथ मंदिर, भुवनेश्वर में लिंगराज मंदिर आदि मंदिर वास्तुकला की नागर शैली के बेहतरीन नमूने हैं जो लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न. 1857 के विद्रोह को सिपाही विद्रोह भी कहा जाता है। इस कथन पर विचार करते हुए 1857 के विद्रोह के कारणों के साथ-साथ इसकी विफलता पर भी चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत 1857 के विद्रोह के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। 1857 के विद्रोह के कारणों की विवेचना कीजिये। 1857 के विद्रोह की असफलता के कारणों की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय 1857 का विद्रोह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ संगठित प्रतिरोध की पहली अभिव्यक्ति थी। यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ लेकिन अंततः जनता की भागीदारी हासिल कर ली। विद्रोह के कारण राजनीतिक कारण: 1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनैतिक कारण अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति और व्यपगत का सिद्धांत था। बड़ी संख्या में भारतीय शासकों और प्रमुखों को हटा दिया गया, जिससे अन्य सत्तारुढ़ परिवारों के मन में भय पैदा हो गया। सामाजिक और धार्मिक कारण: भारत में तेजी से फैल रही पश्चिमी सभ्यता पूरे देश में चिंताजनक थी। उदाहरण के लिए, सती और कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथाओं का उन्मूलन और विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाने वाले कानून को स्थापित सामाजिक संरचना के लिए खतरा माना जाता था। शिक्षा के पश्चिमी तरीकों को पेश करना हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों के लिए रूढ़िवादिता को सीधे चुनौती दे रहा था। यहाँ तक कि रेलवे और टेलीग्राफ की शुरूआत को भी संदेह की नज़र से देखा गया। आर्थिक कारण: ग्रामीण क्षेत्रों में, भूमि पर भारी करों और कंपनी द्वारा अपनाए गए राजस्व संग्रह के कड़े तरीकों से किसान और जमींदार क्रोधित थे। सैन्य कारण: 1857 का विद्रोह एक सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ। भारतीय सिपाहियों ने भारत में 87% से अधिक ब्रिटिश सैनिकों का गठन किया, लेकिन उन्हें ब्रिटिश सैनिकों से हीन माना जाता था। एक भारतीय सिपाही को समान रैंक के यूरोपीय सिपाही से कम वेतन दिया जाता था। तात्कालिक कारण: एक अफवाह फैल गई कि नई एनफील्ड राइफल्स के कारतूस गायों और सूअरों की चर्बी से भरे हुए थे। इन राइफलों को लोड करने से पहले सिपाहियों को कारतूसों पर लगे कागज को मुँह से काटना पड़ता था। हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों ने उनका इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। विद्रोह की विफलता के कारण सीमित विद्रोह: यद्यपि विद्रोह काफी व्यापक था, लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा इससे अप्रभावित रहा। विद्रोह मुख्यतः दोआब क्षेत्र तक ही सीमित था। बड़ी रियासतें, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर और कश्मीर, साथ ही राजपुताना की छोटी रियासतें विद्रोह में शामिल नहीं हुईं। कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं: विद्रोहियों के पास एक प्रभावी नेता की कमी थी। हालांकि नाना साहब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई बहादुर नेता थे, लेकिन वे समग्र रूप से आंदोलन को प्रभावी नेतृत्व नहीं दे सके। सीमित संसाधन: विद्रोहियों के पास पुरुषों और धन के मामले में संसाधनों की कमी थी। दूसरी ओर, अंग्रेजों को भारत में पुरुषों, धन और हथियारों की निरंतर आपूर्ति प्राप्त हुई। मध्यम वर्ग की कोई भागीदारी नहीं: अंग्रेजी शिक्षित मध्यम वर्ग, अमीर व्यापारियों, व्यापारियों और बंगाल के जमींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की मदद की। निष्कर्ष 1857 का विद्रोह भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। हालांकि इसने सीमित तरीके से भारतीय समाज के कई वर्गों को एक साझा उद्देश्य के लिए एकजुट किया। यद्यपि विद्रोह वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहा लेकिन इसने भारतीय राष्ट्रवाद के बीज बोए।</s>
<s>[INST]प्रश्न. मौलिक अधिकार (FR) और नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के बीच प्रमुख अंतर क्या हैं। मौलिक अधिकारों (FR) और नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के बीच टकराव को दर्शाने वाले संबंधित मामलों पर चर्चा कीजिये।.[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत मौलिक अधिकारों (FR) और नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। FR और DPSP के बीच अंतर बताइये। FR और DPSP के बीच टकराव की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय मौलिक अधिकारों के साथ ही नीति निदेशक सिद्धांतों में संविधान का दर्शन निहित है और यह संविधान की आत्मा है। ग्रानविले ऑस्टिन ने निदेशक तत्वों और मौलिक अधिकारों को 'संविधान की अंतरात्मा' के रूप में वर्णित किया है। प्रारूप मौलिक अधिकारों (FR) और नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के बीच में अंतर: 1.नीति निदेशक सिद्धांत (डीपीएसपी) सकारात्मक हैं क्योंकि यह राज्य को नागरिकों के हित में कार्य करने हेतु प्रेरित करते हैं जबकि मौलिक अधिकार (एफआर) नकारात्मक होते हैं क्योंकि वे राज्य के विरुद्ध नागरिकों को प्राप्त होते हैं। 2. मौलिक अधिकार (FR) न्यायोचित हैं, अर्थात, उनके उल्लंघन के मामले में वे अदालतों द्वारा कानूनी रूप से लागू करने योग्य हैं, लेकिन नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP) गैर- न्यायोचित हैं। 3. मौलिक अधिकार (FR) का उद्देश्य देश में राजनीतिक लोकतंत्र स्थापित करना है लेकिन नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP) का उद्देश्य देश में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है। 4. मौलिक अधिकारों (FR) में कानूनी प्रतिबंध होते हैं लेकिन राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) में नैतिक और राजनीतिक प्रतिबंध होते हैं। 5. मौलिक अधिकार (FR) व्यक्ति के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। इसलिए, वे व्यक्तिगत और व्यक्तिवादी हैं जबकि नीति निदेशक सिद्धांत (डीपीएसपी) समुदाय के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। इसलिए, वे समाजवादी हैं। 6. मौलिक अधिकारों (FR) को उनके कार्यान्वयन के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं है। वे स्वचालित रूप से लागू होते हैं जबकि राज्य नीतियों के निदेशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) को उनके कार्यान्वयन के लिए कानून की आवश्यकता होती है। वे स्वचालित रूप से लागू नहीं होते हैं। मौलिक अधिकारों और DPSP के मध्य संघर्ष: संबद्ध मामले चंपकम दोरायराजन बनाम मद्रास राज्य (वर्ष 1951): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में मौलिक अधिकार मान्य होगा। इसने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिये और उन्हें सहायक के रूप में कार्य करना चाहिये। इसने यह भी माना कि संवैधानिक संशोधन अधिनियमों को लागू करके संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1967): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि निदेशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के लिये भी संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है। यह 'शंकरी प्रसाद मामले' में अपने स्वयं के निर्णय के विपरीत था। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ (1967) के अपने फैसले को खारिज़ कर दिया और घोषणा की कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह अपनी "मूल संरचना" को बदल नहीं सकती है। इस प्रकार, संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है लेकिन वह संविधान के "मूल ढाँचे" को नहीं बदल सकती है। निष्कर्ष वस्तुतः किसी व्यक्ति की क्षमता की पूर्ण प्राप्ति के लिए मौलिक अधिकारों (FR) और नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP)दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न. प्राचीन इतिहास हमें पुराने भारतीय समाज का एक मूल्यवान विवरण देता है। इस संदर्भ में प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये। प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय इतिहास अतीत की घटनाओं का अध्ययन है। यह हमें उन प्रक्रियाओं को समझने में मदद करता है जिन्होंने प्रारंभिक मनुष्यों को अपने पर्यावरण पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त करने और वर्तमान सभ्यताओं को विकसित करने में सक्षम बनाया। यह केवल युद्धों और राजाओं का अध्ययन नहीं है जैसा कि आमतौर पर कुछ लोग समझते हैं। यह उपलब्ध स्रोतों में परिलक्षित एक लंबी अवधि में समाज, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण है। प्राचीन इतिहास को समझने के लिए विभिन्न स्रोत हैं जो प्राचीन समाज का स्पष्ट विवरण प्रदान करते हैं। प्रारूप साहित्यिक स्रोत धार्मिक साहित्य: अधिकांश प्राचीन भारतीय ग्रंथों में धार्मिक विषय शामिल हैं और इन्हें वेद के रूप में जाना जाता है। वेदों की संख्या चार है। ऋग्वेद में मुख्य रूप से प्रार्थनाएँ शामिल हैं। अन्य तीन, साम, यजुर और अथर्व- में प्रार्थना, अनुष्ठान, जादूटोना और पौराणिक कहानियाँ हैं। उपनिषदों में आत्मा और परमात्मा पर दार्शनिक चर्चा है। उन्हें वेदांत भी कहा जाता है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य: साहित्य की इस श्रेणी का विषय धर्म नहीं है। इस वर्ग के अंतर्गत धर्मशास्त्र या कानून की किताबें हैं जो विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए कर्तव्यों को निर्धारित करती हैं। इसमें चोरी, हत्या, व्यभिचार आदि के दोषी व्यक्तियों के लिए दंड की व्यवस्था की गी है। सबसे प्रारंभिक कानून की किताबें मनु स्मृति है। यह अंग्रेजों द्वारा अनुवादित पहली पुस्तक थी और हिंदू कानून संहिता का आधार बनी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र मौर्य काल की भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति के अध्ययन के लिए समृद्ध सामग्री प्रदान करता है। ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के लिए कभी-कभी शब्दशास्त्र पर कार्य भी उपयोगी होते हैं। गैर साहित्यिक स्रोत अभिलेख : पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख है। यह पाण्डुलिपियों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित कहे जा सकते है। वही, अभिलेख अपने समकालीन भी होते है, और उसमें उपलब्ध सूचनाओं का काल एवं समय दोनों ही चिन्हित किया जा सकता है। उत्कीर्ण अभिलेख प्रायः संक्षिप्त होते है लेकिन बड़ी संख्या में प्राप्त लघु अभिलेखों में भी अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचना दी गई होती है। मुद्रा शास्त्र: सिक्कों का अध्ययन: सिक्कों के अध्ययन को न्यूमिसमैटिक्स (Numismatics) कहते है जिसमें सिक्कों में प्रयुक्त धातु, सिक्के का आकार तथा स्वरूप, सिक्के की माप की पद्धति, निर्माण विधि, सिक्कों पर उत्कीर्ण लिपि आदि जैसे सभी पक्षों का अध्ययन किया जाता है। हालांकि प्राचीन सिक्के ज़्यादातर आकस्मिक रूप से प्राप्त होते रहे है। सिक्कों के कभी-कभी ढेर भी प्राप्त हुए है जिसे मुद्रानिधि की संज्ञा दी गई है। मुद्रा निधियों में ऐसे सिक्के मिलते है जो जमीन में दब जाते है इसके पीछे कोई भी कारण संभव हो सकता है जैसे- आगजनी, बाढ़ या अन्य विभीषिकाओं के कारण लोगों की पहुंच से बाहर हो गया हो तथा अब उसे प्राप्त किया गया हो। पुरातात्विक स्रोत : पुरातात्त्विक स्रोतों से प्राचीन इतिहास की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। इनके अंतर्गत अभिलेख, स्मारक भवन, सिक्के, मूर्तियाँ, चित्रकला, मुहरें आदि अवशेष आते हैं। विदेशी साहित्य (विदेशी यात्रियों के विवरण): कई आगंतुक, तीर्थयात्रियों, व्यापारियों, उपनिवेशिकों, सैनिकों तथा राजदूतों के रूप में भारत आए। उन्होंने जिन जगहों और वस्तुओं को देखा, उन पर अपना विवरण दिया। यदि इनका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाए तो ये लेख बहुत सारी ऐतिहासिक जानकारी देते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत में विदेशी साहित्य के अंतर्गत यूनान, रोम, चीन एवं अरब देशों से आए यात्रियों द्वारा प्राप्त विवरणों को सम्मिलित किया गया है। निष्कर्ष इस प्रकार, उपरोक्त सभी स्रोतों ने उस काल के इतिहास के निर्माण में मदद की है जिससे हमें उस काल की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों को जानने में मदद मिली है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. हड़प्पा संस्कृति नगर नियोजन की एक महान भावना का प्रतिनिधित्व करती थी। इस कथन के आलोक में सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अपने उत्तर की शुरुआत सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर कीजिये सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन की विशेषताओं की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में विकसित सिंधु सभ्यता अपनी परिपक्वता एवं शहरी सभ्यता होने के कारण महत्त्वपूर्ण है। इस सभ्यता में कई नगरीय केंद्रों का विकास हुआ, जो अपने नगर विन्यास के साथ-साथ नगरीय जनजीवन की दृष्टि से भी समकालीन तथा अपने से प्राचीन सभ्यताओं और समाजों की तुलना में विलक्षण थे। प्रारूप सिंधु घाटी सभ्यता की नगर योजना की मुख्य विशेषताएँ: ग्रिड पैटर्न: भवन जाल/ग्रिड पद्धति पर व्यवस्थित थे। नगरों में सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थी, जिसके कारण नगर कई खंडों में विभक्त थे।। प्रत्येक क्रॉसिंग के चौराहे पर एक लाइट पोस्ट था और यह लंबवत था। सड़कों के दोनों ओर मकान बने थे। एक अच्छी तरह से स्थापित ड्रेनेज सिस्टम: राजमार्गों के दोनों किनारों पर, विशाल सीवर खोदे गए, और उन्हें पकी हुई ईंटों से बनाया गया। उन्हें ढकने के कारण नालियाँ दिखाई नहीं दे रही थीं। इन नगरों में पहले नालियों के साथ गलियों को बनाया गया तथा फिर अगल-बगल अधिवासों का निर्माण किया गया। इनमें ढकी हुई नालियों का निर्माण किया गया। ढकी नालियों के कारण साफ-सफाई के लिये इन नालियों में मैनहोल का निर्माण किया गया। जल निकास में अपशिष्ट फिल्ट्रेशन की भी व्यवस्था थी। घरों की नालियाँ पहले घर में मलकुंड में खाली हेाती थी, जिसमें ठोस अपशिष्ट पदार्थ जमा हो जाते थे और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था। पकी हुई ईंटों की इमारतें: आवासीय संरचनाओं में कमरों से घिरी एक खुली छत थी और यह मुख्य रूप से ईंट से बनी थी। इन निर्माणों को बनाने के लिए इस्तेमाल की गई ईंटें समान रूप से पकी हुई और धूप में सुखाई गई थीं। कुछ घरों में तो कई मंजिलें और पक्की मंजिलें भी थीं। निचला और ऊपरी शहर: एक आदर्श शहर को दो भागों में विभाजित किया गया था और प्रत्येक को अलग-अलग तरीके से संरक्षित किया गया था। ऊपरी शहर मानव निर्मित पहाड़ी पर था, जबकि निचला शहर समतल ज़मीन पर था (जिसे एक्रोपोलिस भी कहा जाता है)। शहर की सबसे महत्वपूर्ण इमारतें, जैसे असेंबली हॉल, धार्मिक भवन, अन्न भंडार, और मोहनजोदड़ो के मामले में, बड़ा स्नानागार और निचला शहर, एक्रोपोलिस पर स्थित थे। निष्कर्ष हड़प्पा समाज में नगर नियोजन वास्तव में अत्यधिक परिष्कृत था। उनका बुनियादी ढाँचा एक जीवंत नागरिक जीवन को दर्शाता है।</s>
<s>[INST]भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 इन समस्याओं को दूर करने और इस समुदाय को न्याय दिलाने में कितना सक्षम होगा? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: ‘ट्रांसजेंडर’ की परिभाषा और भारतीय समाज में उनकी स्थिति के साथ उत्तर की शुरूआत कीजिये। इस समुदाय के समक्ष विद्यमान चुनौतियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये। विधेयक के विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। ‘ट्रांसजेंडर’ शब्द का उपयोग प्राय: उन लोगों को संदर्भित करने के लिये किया जाता है जिनकी लैंगिक पहचान उनके जन्म लिंग से भिन्न होती है। भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय लंबे समय से पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक पूर्वाग्रहों और वैकल्पिक यौनिकता को अपराध मानने वाले क्रूर कानूनों का खामियाज भुगत रहे हैं। भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की प्रमुख समस्याएँ भेदभाव: शिक्षा, रोज़गार और सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुँच के मामले में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। पुलिस द्वारा भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और वे सामाजिक न्याय के लिये संघर्षरत होते हैं। पारिवारिक समर्थन का अभाव: उनकी लैंगिक पहचान की सिद्धि के बाद उन्हें समाज द्वारा माता-पिता का घर छोड़ने के लिये मज़बूर किया जाता है क्योंकि उन्हें सामान्य समुदाय और वर्ग का हिस्सा नहीं माना जाता है। अवांछित ध्यान: सार्वजनिक स्थल पर ये लोगों के अवांछित ध्यान का शिकार बनते हैं। चिकित्सीय सहायता की कमी: ये एच.आई.वी., अवसाद, हार्मोन की गोली के दुरुपयोग, तंबाकू एवं शराब सेवन, पेनेकटॉमी (penectomy) जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के शिकार हैं। वे वैवाहिक और गोद लेने संबंधी कानूनी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 के प्रावधान इस विधेयक में कहा गया है कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को स्व-कथित लिंग पहचान का अधिकार होगा और यह विभिन्न आधारों पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। प्रत्येक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपने परिवार के साथ रहने का अधिकार होगा और यदि निकटस्थ संबंधी उसका देखभाल रखने में असमर्थ है तो उसे पुनर्वास केंद्र में रखा जा सकता है। सरकार ट्रांसजेंडर लोगों के लिये शिक्षा, खेल और मनोरंजक सुविधाएँ प्रदान करेगी। विधेयक के अनुसार सरकार द्वारा उनके लिये अलग एच.आई.वी. निगरानी केंद्र और ‘सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये। ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 के प्रावधानों और कार्यों के अनुपालन के लिये सरकार राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर व्यक्ति परिषद (National Council for Transgender Persons–NCT) की स्थापना करेगी। यह निकाय केंद्र सरकार द्वारा ट्रांसजेंडर लोगों के लिये बनाई गई नीतियों और योजनाओं पर सलाह देने तथा उसकी निगरानी एवं समीक्षा का कार्य करेगा। एक उदार और समग्र दृष्टिकोण के बावजूद ट्रांसजेंडर विधेयक की आलोचना निम्नलिखित कारणों से की जा रही है- यह व्यक्तियों को पहचान प्रमाण पत्र जारी करने के लिये विशेषज्ञों की एक ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ का प्रस्ताव करता है जिस बारे में कार्यकर्त्ताओं का मानना है कि यह ट्रांसजेंडर लोगों को दुर्व्यवहार के लिये भेद्य बना सकता है। भिक्षावृत्ति भारत में ट्रांस व्यक्तियों के लिये आजीविका का एक प्राथमिक स्रोत रही है। इस गतिविधि को आपराधिक कृत्य घोषित करने वाला यह विधेयक उन्हें वंचना की ओर धकेलता है। ट्रांसजेंडर समुदाय के लिये शिक्षा तथा सकारात्मक कार्रवाई के बारे में किसी विशेष प्रावधान का अभाव इस विधेयक की एक और बड़ी कमी है। यौन अभिविन्यास और लैंगिक पहचान प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा तथा मानवता के साथ अभिन्न है और यह किसी लोकतांत्रिक समाज में भेदभाव या दुर्व्यवहार का आधार नहीं होना चाहिये। इस प्रकार, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 इस दिशा में उठाया गया एक सराहनीय कदम है।</s>
<s>[INST]स्वतंत्र भारत में सहकारी आंदोलनों के उद्भव के लिये उत्तरदायी सामाजिक-आर्थिक कारक कौन-से थे? साथ ही इन आंदोलनों की मुख्य विशेषताओं को भी रेखांकित कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: सहकारिता आंदोलन की संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ भूमिका लिखिये। भारत में सहकारी आंदोलन के उद्भव के लिये उत्तरदायी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिये। इन आंदोलनों की प्रमुख विशेषताओं को बताइये। सहकारी आंदोलन के प्रभाव के साथ निष्कर्ष लिखिये। भारत में सहकारिता आंदोलन का एक लंबा एवं विस्तृत इतिहास रहा है। लगभग 100 वर्ष से भी अधिक अवधि के दौरान इन आंदोलनों ने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। भारत में वर्ष 1904 में सहकारी समिति विधेयक लाया गया था तथा वर्ष 1912 में यह कानून बन गया। वर्ष 1919 में रिफॉर्म एक्ट पारित कर सहकारी विषय राज्यों को हस्तांतरित किया गया। इसके बाद समय-समय पर सहकारी संस्थाओं के लिये अनेक कानून बनाए गए। भारत में सहकारी आंदोलन के उद्भव हेतु निम्नलिखित आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं- भारतीय जनता में व्याप्त अशिक्षा एवं गरीबी के कारण वे साहूकारों के ऋण जाल में फँसे तथा उनका अत्यधिक शोषण हो रहा था। अत्यधिक विभाजित एवं विखंडित जोत का आकार, वैकल्पिक रोज़गार का अभाव, अकाल, बीमारी, बाढ़ एवं सूखे की समस्या, मुकदमेबाजी तथा अत्यधिक ऋणग्रस्तता की उपस्थिति। सहकारी व्रेडिट सोसायटीज़ के 50 वर्षों से अस्तित्व में होने के बावजूद, ग्रामीण ऋण आवश्यकताओं के लिये औपचारिक ऋण संस्थाओं की हिस्सेदारी 9 प्रतिशत से कम थी, और इसके भीतर सहकारी समितियों का हिस्सा 5% से कम था। व्यापारियों और अमीर ज़मींदारों द्वारा दिये गए उधार में 75 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण ऋण थे। भारत में इन सहकारी आंदोलन की मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं- लंबे एवं सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन तथा कृषक आंदोलनों की औपनिवेशिक विरासत को इन आंदोलनों ने सफलतापूर्वक बदल दिया। इसने संसाधनों और स्वामित्व की उनकी बढ़ती हुई वर्ग परंपरा द्वारा वर्गीकृत संगठनों के सामूहिक स्वामित्व को आगे बढ़ाया। ये आंदोलन कृषि सुधार के साथ-साथ ग्रामीण हस्तशिल्पों एवं लघु उद्योगों के सुधार पर केंद्रित रहे। इन आंदोलनों ने अनगिनत भागीदारी व्यवसाय-प्रतिष्ठान, प्राइवेट लिमिटेड फर्म के रूप में तथा मिश्रित पूंजी कंपनियों आदि के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार देखा जाए तो सहकारी आंदोलन ने भारत में अभूतपूर्व सुधार लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा कृषि स्थायित्व के साथ-साथ कृषक अशांति को कम करने का अद्वितीय कार्य किया।</s>
<s>[INST]दुर्लभ मृदा तत्त्व क्या हैं? भारत के संबंध में इनके रणनीतिक एवं पर्यावरणीय महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: दुर्लभ मृदा तत्त्वों का परिचय दीजिये। भारत के संबंध में इसके रणनीतिक एवं पर्यावरणीय महत्त्व को बताइये। आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। दुर्लभ मृदा तत्त्व, आवर्त सारणी में लेंथेनाइड समूह के 15 तत्त्वों तथा स्कैंडियम एवं यटीरियम को मिलाकर कुल सत्रह धात्विक खनिजों का समूह है, जो कि पृथ्वी की ऊपरी सतह पर पाए जाते हैं। इन्हें दुर्लभ मृदा ऑक्साइड भी कहा जाता है। अपने नाम के विपरीत ये मृदा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, किंतु इनकी प्रसंस्करण की तकनीक अत्यधिक जटिल एवं दुर्लभ है। इन तत्त्वों का प्रयोग उच्च तकनीकी उत्पादों, जैसे- सेलुलर फोन, कंप्यूटर हार्ड ड्राइव, इलेक्ट्रिक एवं हाइब्रिड वाहन तथा फ्लैट स्व्रीन मॉनीटर और टी.वी. बनाने में किया जाता है। वर्तमान समय में इन तत्त्वों की मांग अत्यधिक निम्न है, जो कि धीरे-धीरे समय के साथ बढ़ती जा रही है। पर्यावरणीय महत्त्व: अपने चुंबकीय, ल्यूमिनेसेंट एवं वैद्युत-रासायनिक गुणों के कारण ये प्रौद्योगिकी को अल्प वज़नी, अल्प उत्सर्जन तथा अल्प ऊर्जा खपत के साथ उच्च प्रदर्शन करने में मदद करते हैं। इस प्रकार ये अधिक दक्षता, प्रदर्शन, गति एवं तापीय स्थिरता प्रदर्शित करते हैं। इनके विशिष्ट वैद्युत, धातु कर्म, उत्प्रेरक, परमाणु-चुंबकीय तथा ल्यूमिनेसेंट गुणों के कारण भविष्य की प्रौद्योगिकियों को उच्च-तापमान युक्त अतिचालकता, ईंधन हेतु हाइड्रोजन का सुरक्षित भंडारण, वैश्विक तापन तथा ऊर्जा सुरक्षा जैसे मुद्दों का समाधान किया जाएगा। रणनीतिक महत्त्व: स्थायी चुंबकत्व युक्त दुर्लभ मृदा धातुओं का प्रयोग रक्षा उपकरणों के निर्माण, मिसाइलों के लिये स्मार्ट पथ प्रदर्शक प्रणाली को नियंत्रित करने, लड़ाकू विमानों के पुर्जों के निर्माण एवं हवाई पट्टियों के रखरखाव के लिये किया जाता है। वर्तमान जलवायु परिवर्तन के दौर में स्वच्छ एवं हरित प्रौद्योगिकियों की तरफ बढ़ते वैश्विक रुझानों के साथ-साथ दुर्लभ मृदा तत्त्वों की मांग में भी वृद्धि होगी। ऐसे में भारत सरकार इस दिशा में अभूतपूर्व प्रयास कर रही है। परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की निगरानी में दुर्लभ मृदा तत्त्वों का सीमित खनन कर रही है तथा इंडियन रेयर अर्थ लिमिटेड इस क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास पर बल दे ही है, जिससे भविष्य में इस क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास होने की संभावना है।</s>
<s>[INST]यह कहना कहाँ तक न्यायसंगत है कि आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता की समस्या औपनिवेशिक विरासत का ही एक उत्पाद है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारतीय समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता पर उपनिवेशवाद के प्रभाव के साथ उत्तर की शुरुआत कीजिये। सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देने में औपनिवेशिक नीतियों की भूमिका को बताइये। संतुलित निष्कर्ष दीजिये। सांप्रदायिकता पद का प्रयोग विभिन्न समुदायों के मध्य धार्मिक/जातीय पहचान के रूप में किया जाता है। वस्तुत: भारतीय औपनिवेशिक दासता के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा इसी जातीय पहचान का प्रयोग ‘‘बाँटो और राज करो’’ की नीति के तहत किया गया, जहाँ उन्होंने भारतीय समाज को विभिन्न जातियों एवं संप्रदायों में बाँटा तथा उनकी जातीय पहचान का दुरुपयोग समाज में वैमनस्य फैलाने में किया। वस्तुत: सांप्रदायिकता का अर्थ वर्तमान में नकारात्मक स्वरूप लिये है, जो समाज में भेदभाव, कटुता एवं नफरत फैलाती है। वर्तमान में देखा जाए तो कई मायनों में वर्तमान सांप्रदायिकता की जड़ें औपनिवेशिक काल की ही विरासत महसूस होती हैं, जहाँ भारतीय समाज की विविधता का दुरुपयोग कर ब्रिटिश एवं अन्य यूरोपियों ने बाँटो और राज करो की नीति का अनुसरण करते हुए भारत पर शासन करने का मौका प्राप्त किया। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य भारत के दो बड़े धार्मिक समूहों-हिंदू एवं मुस्लिम के बीच दरार उत्पन्न कर उनकी आपसी लड़ाई का लाभ स्वयं लेना था, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति ने भारत में हिंदू-मुस्लिम धार्मिक विविधता का दुरुपयोग बंगाल विभाजन से प्रारंभ कर सांप्रदायिक निर्वाचन, सांप्रदायिक पंचाट एवं भारत विभाजन तक किया, जिसकी परिणति रही कि भारत में सांप्रदायिकता के मुद्दे पर समय-समय पर कई विवाद एवं हिंसा होती आई है, जो वर्तमान में भी कहीं-न-कहीं दिखाई देती रहती है, फिर चाहे वह मुज़फ्फरनगर हिंसा हो, राम मंदिर विवाद हो, सहारनपुर विवाद हो या फिर वर्तमान में जारी सी.ए.ए. प्रोटेस्ट ही क्यों न हो, इनमें कहीं-न-कहीं सांप्रदायिक तत्त्व विद्यमान हैं। वस्तुत: भारत में सांप्रदायिकता के बीज औपनिवेशिक काल में बोए गए थे, किंतु पूर्णत: यह मान लेना कि सिर्फ यही एक कारण सांप्रदायिकता के लिये उत्तरदायी है तो यह गलत होगा। इसके लिये कुछ अन्य कारण, जैसे- एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना, सहिष्णुता की कमी एवं राजनीतिक पार्टियों द्वारा की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति आदि प्रमुख हैं। यद्यपि भारतीय संविधान निर्माण के साथ ही भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया, जहाँ सर्व धर्म समभाव की बात कही गई। हमें वर्तमान में भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को पूर्णत: लागू करने हेतु अपनी ‘सर्व धर्म समभाव’ की नीति को यथासंभव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर स्थानांतरित करना चाहिये।</s>
<s>[INST]स्वतंत्रता के पश्चात् से भारत में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी की पृष्ठभूमि को बताते हुए इसकी स्वतंत्रता पश्चात् निरंतरता को बताएँ। उन प्रमुख सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों को बताइये, जिनमें महिलाओं की भागीदारी अहम रही। संतुलित निष्कर्ष दीजिये। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी चरण के दौरान हड़तालों एवं धरनों में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा स्वतंत्रता के पश्चात् भी भारतीय महिलाओं ने कई सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में अहम योगदान दिया तथा समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने में प्रमुख भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के पश्चात् प्रमुख आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका को निम्नवत् देखा जा सकता है- राजनीतिक आंदोलनों में: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-326 के तहत महिलाओं को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के माध्यम से राजनीतिक समानता प्रदान की गई है, जिसका भरपूर प्रयोग भारतीय महिलाओं ने किया है। यद्यपि राजनीति में महिलाओं का योगदान सीमित रहा, किंतु महँगाई विरोधी आंदोलन, जेपी आंदोलन, आदिवासी एवं कृषक आंदोलनों में भारतीय महिलाओं ने अहम योगदान दिया। सामाजिक आंदोलनों में: भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं का स्थान पदानुव्रम में निम्न स्तर पर आता है। इसके बावजूद सामाजिक आंदोलनों में इनकी भूमिका प्रमुख रही। लैंगिक भेदभाव, हिंसा, शराब, बलात्कार एवं पितृसत्ता के खिलाफ आंदोलनों में भारतीय महिलाओं ने अहम योगदान दिया। सहेली, स्वरोज़गार महिला संघ (SEWA), नगा मदर्स एसोशिएशन आदि महिला संगठनों ने सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई। पर्यावरणीय आंदोलन में: भारत में पर्यावरण संरक्षण संबंधी आंदोलनों में महिलाओं की अहम भागीदारी है। भारत में चिपको, नर्मदा बचाओ, टिहरी बांध पुनर्वास आंदोलन, मैती आंदोलन एवं नवद्या जैसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका प्रशंसनीय है। वस्तुत: यदि देखा जाए तो भारत में राजनीति एवं आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति उनकी जनसंख्या के अनुपात में अत्यधिक न्यून है, इसके बावजूद भी भारत के प्रमुख सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में इनकी भूमिका अत्यधिक सराहनीय है।</s>