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बैनर : पेन इंडिया प्रा. लि., वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, बाउंडस्क्रिप्ट मोशन पिक्चर्स प्रा. लि. निर्माता : सुजॉय घोष, कुशल गाडा निर्देशक : सुजॉय घोष संगीत : विशाल-शेखर कलाकार :‍ विद्या बालन, परमब्रत चट्टोपाध्याय, नवाजुद्दीन सिद्दकी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 8 मिनट * 7 रील बॉलीवुड में ऐसा कम ही होता है जब लगातार दो सप्ताह तक उम्दा फिल्में देखने को मिले। पिछले सप्ताह रिलीज हुई ‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस सप्ताह की फिल्म ‘कहानी’ भी देखने लायक है। कहानी एक थ्रिलर है, लेकिन बॉलीवुड की तमाम थ्रिलर्स से हटकर। यहां न कार की चेज़िंग सीक्वेंस हैं, न काला चश्मा और लेदर जैकेट्स पहने लोग। न खूबसूरत हसीनाएं हैं और न ही गन हाथ में लिए उनके इर्दगिर्द नाचते स्टार्स। इस फिल्म की कहानी हीरोइन के इर्दगिर्द घूमती है जो कि प्रेग्नेंट हैं। उसके साथ एक सामान्य-सा पुलिस ऑफिसर है और सिटी ऑफ जॉय कोलकाता शहर भी इस फिल्म में अहम भूमिका निभाता है। सेतु ने कोलकाता की गलियों में खूब कैमरा घूमाया है। संकरी गलियां, शानदार मेट्रो, खस्ताहाल ट्रॉम, पीले रंग की टेक्सियां, अस्त-व्यस्त ट्रेफिक और दुर्गा पूजा के लिए सजा हुआ कोलकाता कहानी में एक किरदार की तरह है। कहानी का सबसे मजबूत पहलू इसकी कहानी और स्क्रीनप्ले है। स्टोरी के बारे में ज्यादा बात नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे कई राज खुल जाएंगे जो कहानी को देखते समय आपका मजा किरकिरा कर सकते हैं। सिर्फ इतना ही बताया जा सकता है कि विद्या बागची लंदन से कोलकाता अपने पति अर्णब बागची को ढूंढने के लिए आई है जो दो महीनों से लापता है। वह पुलिस स्टेशन जाती है। उस ऑफिस में जाती है जहां अर्णब अपने प्रोजेक्ट के लिए आया था। उस होटल में जाती हैं जहां वह रूका हुआ था, लेकिन उसका कुछ पता नहीं चलता। सभी कहते हैं कि इस नाम का शख्स कभी भी लंदन से कोलकाता आया ही नहीं। विद्या को कुछ क्लू मिलते हैं, जिनके सहारे वह आगे बढ़ती हैं। इस काम में उसकी मदद करता है राना नामक पुलिस इंसपेक्टर। किस तरह से विद्या का सफर राना के सहारे आगे बढ़ता है यह रोचक तरीके से दिखाया गया है। स्क्रीनप्ले बहुत ही बारीकी से लिखा गया है। कुछ दृश्य या संवाद आपने चूके तो फिल्म समझने में तकलीफ हो सकती है। शुरुआत में कई तरह के प्रश्न दिमाग में उभरते हैं क्योंकि दर्शक की हालत भी विद्या बागची की तरह रहती है, लेकिन धीरे-धीरे एक-एक कर जवाब मिलने लगते हैं और ज्यादातर प्रश्नों के जवाब से संतुष्ट हुआ जा सकता है। विद्या के किरदार पर यदि निगाह रखी जाए तो क्लाइमेक्स के पहले आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म के अंत में क्या होगा। सुजॉय की कहानी में कुछ बातें थोड़ी अविश्वसनीय हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण वास्तविकता के बेहद करीब है इससे ये बातें विश्वसनीय लगती हैं। उनका लोकेशन और कलाकारों का चयन सराहनीय है। यदि फिल्म को वे थोड़ा मनोरंजक बनाते तो इससे उन्हें ज्यादा दर्शक फिल्म के लिए मिलते। आरडी बर्मन के सुजॉय बहुत बड़े फैन हैं और यह बात उन्होंने ‘झंकार बीट्स’ बनाकर जाहिर भी की। इस फिल्म के बैकग्राउंड म्युजिक में भी आरडी बर्मन के हिट हिंदी और बांग्ला गीत बजते रहते हैं। विद्या बालन वर्तमान दौर की नि:संदेह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री हैं। हीरो प्रधान बॉलीवुड में उनके लिए इससे बड़ी क्या बात हो सकती है कि उन्हें ध्यान में रखकर फिल्में लिखी जा रही हैं। पा, इश्किया, नो वन किल्ड जेसिका, द डर्टी पिक्चर के बाद कहानी भी ऐसी फिल्म है जिस पर वे गर्व कर सकती हैं। विद्या के अलावा फिल्म में कई अपरिचित लेकिन सशक्त कलाकार हैं। परमब्रत चट्टोपाध्याय (राना के किरदार में) और नवाजुद्दीन सिद्दकी (खान के किरदार में) का अभिनय बेहतरीन है। कहानी ऐसी फिल्म है जो थिएटर छोड़ने के बाद भी दर्शक के साथ मौजूद रहती है और वो फिल्म की गुत्थी को सुलझाते हुए घर पहुंचता है। इंटेलिजेंट थ्रिलर देखना चाहते हैं तो यह फिल्म आपके लिए है।
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डर @ द माल का सबसे बड़ा आकर्षण निर्देशक पवन कृपलानी है जिनकी पिछली फिल्म 'रागिनी एमएमएस' एक बेहतरीन हॉरर फिल्म थी। पवन अपनी दूसरी फिल्म में निराश करते हैं और बजाय उन्होंने कुछ नया करने के इस हॉरर मूवी में वही मसालों का उपयोग किया है जिन्हें हम सैकड़ों हॉरर मूवीज में देख चुके हैं। दर्शकों को डराने के लिए उन्होंने सब कुछ किया, जिनमें से कुछ कारगर सिद्ध हुए और ज्यादातर बेकार। यूं भी हॉरर फिल्मों की कहानियां और सिचुएशन लगभग एक जैसी ही होती है और सारा दारोमदार प्रस्तुतिकरण पर आ टिकता है। 'डर @ द माल' की न कहानी में दम है और न प्रस्तुतिकरण में। फिल्म में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। ऐसे में हॉरर फिल्म का सारा रोमांच खत्म हो जाता है। कहानी है एक मॉल की जिसके बारे में अफवाह है कि उसमें भूतों का वास है। मॉल के मालिक उसकी रिओ‍पनिंग करते हैं ताकि लोग वहां आने लगे और वे मॉल को बेच सके। सुरक्षा का जिम्मा वे एक नए सिक्यूरिटी ऑफिसर विष्णु (जिमी शेरगिल) को सौंपते हैं। क्या विष्णु रहस्य का पर्दाफाश कर पाएगा या शिकार बन जाएगा? निर्देशक पवन ने इस साधारण सी कहानी को खूब उलझाने की कोशिश की है और फिल्म को लंबा खींचा है, इसका परिणाम ये हुआ कि फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ लगती है। दर्शकों को डराने की उनकी ज्यादातर कोशिशें नाकामयाब हुई हैं। कई दृश्य अन्य फिल्मों से प्रेरित है। फ्लेशबैक सीन का जरूरत से ज्यादा उपयोग है और इन्हें छोटा किया जा सकता था। हॉरर फिल्मों में गाने रखने का कोई अर्थ नहीं है। बैकग्राउंड म्युजिक जरूर ठीक-ठाक है। जिमी शेरगिल अच्छे कलाकार हैं और इस तरह की भूमिकाएं निभाना उनके लिए बेहद आसान है। नुसरत भरूचा और आरिफ जकारिया ने अपना काम गंभीरता से किया है। कुल मिलाकर डर @ द माल प्रभावित करने में नाकाम है। बैनर : मल्टी स्क्रीन मीडिया मोशन पिक्चर्स, कॉन्टिलो एंटरटेनमेंट निर्देशक : पवन कृपलानी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : जिमी शेरगिल, नुसरत भरूचा, आरिफ जकारिया, आसिफ बसरा, नीरज सूद घंटे 4 मिनट
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ऐक्टर कमल हासन की फिल्में हमेशा से ही लीक से हटकर रहती हैं। उनकी फिल्मों की कहानियां आमतौर पर सृजनात्मक खुराक देने के अलावा मुद्दों के साथ डील करती दिखाई देती हैं। 'विश्वरूपम 2' भी आतंकवाद जैसे राक्षस के इर्द-गिर्द घूमती है, मगर इस बार उन्होंने अपनी फिल्म की कहानी बताने का का जो तरीका अपनाया है उससे फिल्म उलझकर रह जाती है। प्रीक्वल और सीक्वल के रूप में कहानी पास्ट और प्रेजेंट में आगे बढ़ती है और अतीत और वर्तमान के दृश्य बुरी तरह से कन्फ्यूज कर देते हैं। 2013 में जब इस फिल्म का पहला पार्ट आया था तो जमकर विवाद हुए थे। इस बार फिल्म में ऐसा कोई विवादस्पद पहलू नजर नहीं आता। कहानी: फिल्म कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पर समाप्त हुई थी। रॉ एजेंट मेजर विशाम अहमद कश्मीरी (कमल हासन) अपनी पत्नी निरूपमा (पूजा कुमार) और अपनी सहयोगी अस्मिता (ऐंड्रिया जेरेमिया) के साथ अलकायदा के मिशन को पूरा करके लौट रहा है। अब उस पर नई जिम्मेदारियां हैं। इस बार भी उसका लक्ष्य कुरैशी (राहुल बोस) द्वारा फैलाए गए आतंकवाद के तांडव को रोकना है। इस मिशन में उसके साथ उसकी पत्नी और सहयोगी के अलावा कर्नल जगन्नाथ (शेखर कपूर) भी हैं। आतंकवाद के नासूर को रोकने की उसकी इस लड़ाई में उसे जान से मारने की कोशिश भी की जाती है और उसकी सहयोगी अस्मिता अपनी जान से हाथ धो बैठती है, मगर इन चुनौतियों से उसके हौसले पस्त नहीं होते। उसे देश में होने वाले 66 बम धमाकों के खौफनाक कारनामे को रोकना है। उसकी हिम्मत को तोड़ने के लिए अल्जाइमर से पीड़ित उसकी मां (वहीदा रहमान) को भी मोहरा बनाया जाता है। सलीम (जयदीप अहलावत) कुरैशी की आतंकी विरासत को आगे बढ़ाता है। क्या विशाम देश को आतंक की आंधी से तहस-नहस होने से बचा पाएगा? इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी। रिव्यू: हमेशा की तरह इस बार भी कमल हासन ने निर्माता, निर्देशक, लेखक, अदाकार जैसी कई जिम्मेदारियों को जिया है। फिल्म का फर्स्ट हाफ स्लो है, मगर सेकंड हाफ में कहानी दिलचस्प हो जाती है। फिल्म के ऐक्शन दृश्यों की तारीफ करनी होगी। ये आपका दिल धड़काने में सक्षम हैं। फिल्म में कमल हासन और वहीदा रहमान के बीच के जज्बाती सीन कहानी को नया रंग देते हैं, मगर फिल्म का नरेटिव आपको सुस्त कर देता है। स्क्रीनप्ले कमजोर है, मगर संवाद दमदार हैं। अभिनय के मामले में फिल्म खरी उतरती है। कमल कमाल के अभिनेता हैं और इसका परिचय यहां भी देखने को मिलता है। कमल एक्प्रेशन से खेलना खूब जानते हैं। नायिकाओं में पूजा कुमार और ऐंड्रिया जेरेमिया ने अच्छा काम किया है। दोनों के बीच की नोक-झोंक फिल्म को राहत देती है। खलनायक के रूप में राहुल बोस कमजोर साबित हुए हैं। उनके किरदार को विस्तार दिया जाना चाहिए था। लंबे अरसे बाद जाने-माने फिल्मकार शेखर कपूर को परदे पर देखना अच्छा लगता है, मगर उनकी भूमिका का समुचित विकास नहीं किया गया। जयदीप अहलावत जैसे सक्षम अभिनेता को जाया कर दिया गया है। संगीत के मामले में 'इश्क किया तो' गाना ध्यान आकर्षित करता है।क्यों देखें: हिंदी के अलावा तमिल-तेलुगू में रिलीज की जानेवाली इस फिल्म को कमल हासन के चाहने वाले देख सकते हैं।
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भले ही रफ्तार अत्यंत धीमी हो, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिनका शादी नामक संस्था पर यकीन नहीं है। ‘इश्क इन पेरिस’ के हीरो और हीरोइन भी शादी नहीं करना चाहते हैं। उनका नारा है, नो कमिटमेंट प्लस नो लव इक्वल्स टू नो मैरिज। हीरो इसीलिए एक रात से आगे बात बढ़ने नहीं देता। यहां तक भी ठीक है, लेकिन वे शादी क्यों नहीं करना चाहते हैं, इसके पीछे हीरो के पास कोई ठोस वजह नहीं है और जहां तक हीरोइन का सवाल है उसके पास जो कारण है वो बेहद लचर है। इसलिए फिल्म में न तो ढंग की प्रेम कहानी है और न ही ये किसी बात या मुद्दे को पेश करती है। आकाश (रेहान मलिक) और इश्क (प्रीति जिंटा) की मुलाकात एक रेल में होती है। दोनों पेरिस जा रहे हैं। आकाश अपना नाम अ-कैश या ए-केश बोलता है। आकाश पेरिस से अनजान है। वह इश्क से पेरिस घुमाने को कहता है। ईमेल, मोबाइल नंबर और पता ‍ना देने की शर्त पर इश्क उसे पेरिस घुमाती है। पूरी रात वे साथ घुमते हैं। ड्रिंक करते हैं। डिनर लेते हैं। पब जाते हैं। रात 3 बजे मूवी देखने का मन करता है, लेकिन देर हो चुकी है। इसलिए वे खुद एक रोमांटिक सीन अभिनीत करते हैं। हीरो का मन सेक्स करने का है, लेकिन इश्क आधी फ्रेंच और आधी भारतीय है, इस मामले में भारतीय बन जाती है। घूमते-फिरते सुबह हो जाती है। वे साथ कॉफी पीते हैं और अब कभी न मिलने की शर्त पर अपनी-अपनी राह निकल जाते हैं। आकाश प्यार-मोहब्बत के खिलाफ है, लेकिन इश्क से इश्क कर बैठता है। अचानक उसके विचार बदल जाते हैं, लेखक और निर्देशक ने इसके लिए कोई भूमिका नहीं है। वह इश्क को प्रपोज करता है, लेकिन इश्क इसे ठुकरा देती है। वह शादी के खिलाफ इसलिए है क्योंकि उसके पैरेंट्स ने तलाक लिया था। इसको लेकर लंबी-चौड़ी बातें की गई हैं। इश्क को बुद्धिमान लड़की दिखाया गया है, लेकिन यहां उसके व्यवहार में बुद्धिमत्ता नहीं झलकती है। फिल्म के अंत में वह अचानक शादी के लिए राजी हो जाती है, क्योंकि फिल्म खत्म करना थी। प्रिती जिंटा के लिए कोई फिल्म नहीं लिख रहा है, इसलिए प्रेम राज के साथ मिलकर उन्होंने ने स्क्रिप्ट लिखी है। कुछ दृश्यों और संवादों को छोड़ दिया जाए तो दोनों का काम निराशाजनक है। फिल्म एक अच्छी शुरुआत ‍लेती है, लेकिन जल्दी ही कमजोर कहानी के कारण बिखर जाती है। निर्देशक के रूप में प्रेम राज बिना घटनाक्रमों के भी फिल्म को कुछ देर खींचने में कामयाब हुए हैं, लेकिन इसके बाद उनका नियंत्रण छूट गया। जहां तक अभिनय का सवाल है तो प्रीति जिंटा और रेहान मलिक का काम औसत दर्जे का है। सलमान खान यारों के यार हैं, ये बात ‘इश्क इन पेरिस’ से साबित हो जाती है। प्रीति की खातिर उन्होंने एक ऐसा गाना किया है जिसकी न धुन में दम है और न ही कोरियोग्राफी में। इस बात का इतना फायदा जरूर होता है कि सलमान के नाम पर ऊंघते दर्शकों की नींद कुछ देर के लिए भाग जाती है। सिनेमाटोग्राफर मनुष नंदन ने पेरिस को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। ‘इश्क इन पेरिस’ की सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म 96 मिनट में ही खत्म हो जाती है। बैनर : पीज़ेडएनज़ेड मीडिया प्रोडक्शन्स निर्माता : प्रीति जिंटा, नीलू जिंटा निर्देशक : प्रेम राज संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : प्रीति जिंटा, रेहान मलिक, इसाबेल अडजानी, मेहमान कलाकार- सलमान खान, चंकी पांडे, शेखर कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 36 मिनट
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निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, विशाल भारद्वाज निर्देशक व संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, नसीरुद्दीन शाह, जॉन अब्राहम, नील नितिन मुकेश, इरफान खान, अन्नू कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट उन निर्माता-निर्देशकों को विशाल भारद्वाज से सबक लेना चाहिए जो अच्छी कहानियों के अभाव का रोना रोते रहते हैं। हमारे साहित्य में ढेर सारी उम्दा कहानियाँ मौजूद हैं। विशाल इनमें से ही एक को चुनते हैं और अपने टच के साथ स्क्रीन पर पेश करते हैं। इसलिए विशाल की फिल्मों के प्रति उत्सुकता रहती है कि वे क्या नया इस बार पेश करेंगे। उनकी ताजा फिल्म ‘सात खून माफ’ रस्किन बांड द्वारा लिखी कहानी ‘सुजैन्स सेवन हस्बैंड्स’ पर आधारित है। सुजैन सात शादियाँ करती हैं और अपने आधा दर्जन पतियों को मौत के घाट उतार देती है। कहानी का चयन उम्दा है क्योंकि प्यार, नफरत, सेक्स, लालच जैसे जीवन के कई रंग इसमें नजर आते हैं। इस कहानी को आधार बनाकर जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है, उसमें थोड़ी कसर रह गई वरना एक बेहतरीन फिल्म देखने को मिलती। सुजैन की किस्मत ही खराब थी क्योंकि हर बार बुरे आदमी से ही उसकी शादी होती है। कोई उसकी सेक्स के दौरान पिटाई करता था तो कोई उसे धोखा दे रहा था। एक लालच के कारण उसकी हत्या करना चाहता था तो दूसरा तानाशाह किस्म का था। किसी के लिए सुजैन महज ट्राफी वाइफ थी। इन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए सुजैन को उनकी हत्या का ही उपाय सूझता था। तलाक जैसे दूसरे रास्ते पर वह चलने के लिए तैयार नहीं थी। बचपन से ही वह ऐसी थी। स्कूल जाते समय एक कुत्ता उसे डराता था। स्कूल जाने का दूसरा रास्ता भी था, लेकिन बजाय उसने उस राह को चुनने के कुत्ते का भेजा उड़ाना पसंद किया। ‘सात खून माफ’ एक डार्क फिल्म है, जो सुजैन के नजरिये से दिखाई गई है। उसे सच्चे प्यार की तलाश है, जो उसे नहीं मिल पाता, इसके बावजूद उसका प्यार और शादी से विश्वास नहीं उठता। उसके सारे पति किसी और ही मकसद से उससे शादी करते हैं। विशाल ने इस कहानी को बतौर निर्देशक अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने हर कैरेक्टर को दिखाते समय छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखा है। बेहतरीन तरीके से शॉट्स फिल्माए हैं। रंगों का, लाइट और शेड का तथा लोकेशन्स का चयन उम्दा है। घटनाक्रम किस समय में घट रहा है, ये उन्होंने रेडियो और टीवी में आने वाले समाचारों के जरिये बताया है। इसके बावजूद ‘सात खून माफ’ विशाल की पिछली फिल्मों ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के स्तर की नहीं है क्योंकि स्क्रिप्ट में कसावट नहीं है। कुछ ज्यादा ही संयोग इसमें नजर आते हैं। इरफान, जॉन और नसीर की हत्या करने के बाद सुजैन का बच निकलना हजम करना मुश्किल है। इतनी सारी रहस्यमय मौतों के बाद भी हर बार मामले की जाँच एक ही पुलिस ऑफिसर करता है। अंत में आग से सुजैन का बच निकलना भी थोड़ा फिल्मी हो गया है। प्रियंका चोपड़ा को अपने करियर की सबसे उम्दा भूमिका मिली और उन्होंने अपनी ओर से बेहतरीन अभिनय भी किया है, लेकिन उनके अभिनय की सीमाएँ नजर आती हैं। वे और अच्छा कर सकती थीं या उनके जगह कोई और प्रतिभाशाली अभिनेत्री होती तो सुजैन के किरदार में और धार आ जाती। अधिक उम्र का दिखाने के लिए उनका जो मेकअप किया गया है वो बेहद बनावटी लगता है। नसीरुद्दीन शाह और इरफान के किरदार ठीक से नहीं लिखे गए इसलिए वे अपना असर छोड़ने में नाकामयाब रहे। नील नितिन मुकेश का किरदार तानाशाह किस्म का था इसलिए एक्टिंग को छोड़ उनका सारा ध्यान अकड़ के रहने में था। विवान शाह और हरीश खन्ना का अभिनय सराहनीय है। फिल्म का संगीत अच्छा है और ‘डार्लिंग’ गीत सबसे बेहतरीन है। संपादन में कसावट की जरूरत महसूस होती है। कुल मिलाकर ‘सात खून माफ’ उन लोगों के लिए नहीं है, जो फिल्म में सिर्फ मनोरंजन के लिए जाते हैं। लीक से हटकर कुछ देखना यदि आप पसंद करते हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है।
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बैनर : विधु विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा निर्देशक : राजेश मापुस्कर संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ऋत्विक साहोरे, सीमा पाहवा, परेश रावल, विद्या बालन (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 18 मिनट * 18 रील सचिन तेंडुलकर ने न केवल भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, बल्कि उन्होंने कई बच्चों को सपना भी दिया कि वे उनके जैसे महान क्रिकेटर बनें। आने वाले दिनों में कई खिलाड़ी सामने आ सकते हैं जिन्हें सचिन को खेलता देख क्रिकेट खेलने की प्रेरणा मिली और वे भारतीय टीम तक आ पहुंचे। इसी सपने, सचिन और उनकी फरारी कार को लेकर राजकुमार हिरानी ने ‘फरारी की सवारी’ की कहानी लिखी है। रूसी (शरमन जोशी) के बेटे कायो (ऋत्विक साहोरे) का सपना है कि वह एक दिन बड़ा क्रिकेट खिलाड़ी बने। आरटीओ में क्लर्क होने के बावजूद रूसी के पास पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती है क्योंकि वह ईमानदार तो इतना कि रेड सिग्नल में यदि वह आगे बढ़ जाए तो खुद पुलिस के पास जाकर फाइन भरता है। अपने बेटे के सपने और पैसे की तंगी के बीच जूझ कर हताशा में वह कहता है कि हम जैसे (मिडिल क्लास) लोगों को तो सपने ही नहीं देखना चाहिए। बेटे के सपने को पूरा करने की जद्दोजहद में वह न चाहते हुए भी गलत काम कर बैठता है जिसके कारण कई परेशानियों से घिर जाता है। आखिरकार वह तमाम बिगड़ी हुई स्थिति को सही करता है और थोड़ी देर के लिए पुत्र मोह में बेईमानी के रास्ते पर आगे बढ़ने के बाद वह पुन: ईमानदारी की राह पर आ जाता है। रूसी जैसा किरदार इन दिनों फिल्मों से गायब है। शायद दुनिया में ही ऐसे लोग बहुत कम बचे हैं और इसी वजह से ये फिल्मों में नजर नहीं आते हैं। उसका भोलापन, ईमानदारी और जिंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया एक सुखद अहसास कराता है। हालांकि फिल्म में सहानुभूति बटोरने के लिए दया का पात्र बनाकर पेश किया गया है जो अखरता है। ये दिखाना जरूरी नहीं था कि उसके पास पुराना स्कूटर है। मोबाइल नहीं है। लोन पाने के लिए मोबाइल खरीदने वाला प्रसंग उसकी मासूमियत नहीं बल्कि बेवकूफी दर्शाता है। फिर भी पहली बार मोबाइल खरीदने की खुशी और अपने पिता देबू (बोमन ईरानी) से घर में ही मोबाइल द्वारा बात करने का सीन बढिया है। उम्दा सीन की बात निकली है तो ऐसे कई सीन हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है। इनमें से एक परेश रावल और बोमन ईरानी पर साथ में फिल्माया गया दृश्य है, जिसमें वे 38 वर्ष बाद मिलते हैं। परेश और बोमन की एक्टिंग इस दृश्य में देखने लायक है। इसी तरह सचिन के नौकर और गार्ड के सीन तथा सीमा पाहवा के दृश्य हंसाते हैं। फिल्म को थोड़ा कमजोर करता है इसका स्क्रीनप्ले। यही कारण है कि फिल्म उतनी अच्छी नहीं बन पाई है, जितनी कि इसे होना था। फिल्म सेकंड हाफ में धीमी पड़ती है। मराठी नेता और उसके बेटे वाले ट्रेक को जरूरत से ज्यादा फुटेज दिया गया है, जिसकी वजह से फिल्म काफी लंबी हो गई है। सचिन की फेरारी का उनके घर से ले जाने वाला प्रसंग भी अविश्वसनीय लगता है। इन कमियों के बावजूद फिल्म यदि ज्यादातर समय बांध कर रखती है तो निर्देशन और एक्टिंग के कारण। बतौर निर्देशक राजेश मापुस्कर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह है और उन्हें सिनेमा माध्यम की अच्छी समझ है। उन्होंने न केवल तमाम कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है बल्कि तीन पीढ़ी (दादा-बेटा-पोता) को अच्छी तरह से पेश किया है। सचिन तेंडुलकर के फिल्म में न होने के बावजूद पूरी फिल्म में उनकी उपस्थिति महसूस होती है और इसका श्रेय भी राजेश को जाता है। अभिनय की दृष्टि से शरमन जोशी के करियर की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाएगी क्योंकि इतना बड़ा अवसर उन्हें पहली बार मिला है। यदि वे अपने एक्सप्रेशन में वैरीएशन लाते तो उनका अभिनय और निखर जाता। मूंगफली खाने और दिन भर टीवी देखने वाले बूढ़े के रोल को बोमन ने जीवंत ‍कर दिया। बाल कलाकार ऋत्विक साहोरे को एक रेस्टोरेंट में देख कर निर्देशक ने अपनी फिल्म के लिए चुना था और उन्होंने अपने चयन को सार्थक किया। शरमन के साथ उनकी कैमिस्ट्री खूब जमी और उनके अभिनय में विविधता देखने को मिली। अच्छा कलाकार वहीं होता है जो छोटे से रोल में भी अपना प्रभाव छोड़ दे और परेश रावल यही करते हैं। विद्या बालन के आइटम सांग के लिए सही सिचुएशन बनाई गई है और विद्या ने बिंदास डांस किया है। सीमा पाहवा, दीपक शिरके सहित तमाम कलाकारों ने अपने छोटे-छोटे रोल में प्रभावशाली अभिनय किया है। फरारी की सवारी कही-कही बोर करती है, थीम से भटकती है, लेकिन पूरी फिल्म की बात करें तो इसे अच्छी फिल्म कहा जा सकता है। यह फिल्म उन लोगों की शिकायत भी दूर करती है जो कहते हैं कि आजकल साफ-सुथरी फिल्में नहीं बनती है ं।
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2004 में प्रदर्शित जूली न तो कोई महान फिल्म थी और न ही सुपरहिट कि इसका भाग दो बनाया जाए। चूंकि इस फिल्म के निर्देशक दीपक शिवदासानी पिछले आठ वर्षों से खाली बैठे थे, इसलिए वापसी के लिए उन्होंने जूली फिल्म की सनसनी को चुनते हुए जूली 2 बनाई। वैसे इस फिल्म का नाम है 'दीपक शिवदासानी की जूली 2'। फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि फिल्म की कहानी और पात्र काल्पनिक है। हालांकि दबी जुबां में कहा जा रहा है कि फिल्म अभिनेत्री नगमा के जीवन की कुछ घटनाएं इसमें डाली गई हैं। नगमा और दीपक का भी कनेक्शन है। नगमा ने अपनी पहली बॉलीवुड मूवी 'बागी' (1990) दीपक के साथ ही की थी। बात की जाए फिल्म की, तो यह जूली नामक अभिनेत्री की कहानी है। जूली को सफलता हासिल करने के लिए तमाम तरह के समझौते करने पड़ते हैं। वह नाजायज औलाद है। उसका पिता कौन है, उसे नहीं पता। सौतेला पिता उसे घर से निकाल देता है और जूली किस तरह फिल्मों में सफलता हासिल करती है यह दास्तां बताई गई है। जूली के इस संघर्ष की कहानी में थोड़ा थ्रिल डालने का प्रयास भी किया गया है। जूली को गोली मार दी जाती है। कौन है इसके पीछे और उसका क्या मकसद है, यह फिल्म में दर्शाया गया है। दीपक शिवदासानी की कहानी बहुत ही घटिया है। उन्होंने इस उद्देश्य से जूली के संघर्ष को दिखाया है कि दर्शक उसके दर्द को महसूस कर सके। जूली के प्रति उनकी सहानुभूति हो, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता। जूली के आगे कभी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न नहीं होती कि वह फिल्म निर्माताओं के साथ सोने के समझौते को मान ले। उसके हाथ से फिल्म निकल जाती है और कार की किश्त अदा न कर पाने के कारण बैंक कार जब्त कर लेती है। यह इतना बड़ा दु:ख तो है नहीं कि आप इस तरह का समझौता कर ले। कुल मिलाकर जूली को 'बेचारी' दिखाने के जो सीन लिखे गए हैं वे अत्यंत ही सतही हैं। लिहाजा जूली के संघर्ष की दास्तां बिलकुल भी असर नहीं करती। फिल्म में बार-बार जताया गया है कि सभी जूली के जिस्म से प्यार करते हैं और जूली से कोई प्यार नहीं करता, लेकिन जूली भी जिस तरह से सुपरस्टार, क्रिकेट खिलाड़ी, अंडरवर्ल्ड डॉन की बांहों में तुरंत पहुंच जाती है उससे ऐसा तो कतई नहीं लगता कि वह 'प्यार' चाहती है। थ्रिलर वाले ट्रैक की चर्चा करना बेकार है। खूब सस्पेंस पैदा करने की कोशिश की गई है कि जूली की जान कौन लेना चाहता है, लेकिन अंत में खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात सच हो जाती है। दक्षिण भारतीय फिल्म अभिनेत्री राय लक्ष्मी ने 'जूली 2' के जरिये हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत निराशाजनक रूप में की है। उनका अभिनय औसत से भी निचले दर्जे का है। उनका रोल भी कुछ इस तरह लिखा गया है कि वे दर्शकों से कनेक्ट ही नहीं हो पाती हैं। आदित्य श्रीवास्तव सीआईडी धारावाहिक वाले सीनियर इंस्पेक्टर अभिजीत के मोड से बाहर ही नहीं निकल पाए। अपने आपको सख्त दिखाने की उनकी कोशिश हास्यास्पद है। रवि किशन बेहद बनावटी लगे। रति अग्निहोत्री को तो ऐसे संवाद दिए गए कि वे फाल्तू का 'ज्ञान' बांटते नजर आईं। व्हाट्स एप में तो ऐसे ज्ञान की गंगा बहती है। घटिया निर्देशन और घटिया एक्टिंग का असर पंकज त्रिपाठी जैसे काबिल एक्टर पर भी हो गया और उनके अंदर का अभिनेता भी गुम हो गया। इस जूली 2 को देखने की बजाय मूली खाना बेहतर है। निर्माता : दीपक शिवदासानी, विजय नायर निर्देशक : दीपक शिवदासानी संगीत : विजू शाह कलाकार : राय लक्ष्मी, रवि किशन, आदित्य श्रीवास्तव, रति अग्निहोत्री, पंकज त्रिपाठी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट 55 सेकंड
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निर्माता : क्रिस्टोफर नोलान, चार्ल्स रॉवेन, एमा थॉमस निर्देशक : क्रिस्टोफर नोलान कलाकार : क्रिश्चियन बेल, एने हैथवे, टॉम हार्डी, गेरी ओल्डमैन, माइकल कैने सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 44 मिनट क्रिस्टोफर नोलान की बैटमैन सीरिज का ‘द डार्क नाइट राइज़ेस’ फाइनल पार्ट है। बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट से होते हुए द डार्क नाइट राइसेस तक पहुंचने में नोलान को आठ वर्ष लगे। बैटमैन के दीवानों को इस फिल्म से बहुत उम्मीदें हैं और ये उनकी उम्मीदों पर खरी भी उतरती है। यदि आपने पिछली फिल्में नहीं भी देखी हैं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हर किरदार को डिटेल के साथ पेश किया गया है जिससे यह फिल्म समझने में कोई कठिनाई पैदा नहीं होती है। क्रिस्टोफर नोलान ने डेविड एस. गॉयर और जोनाथन नोलान के साथ मिलकर ऐसी कहानी लिखी है जिसमें ढेर सारे सब-प्लाट हैं, लेकिन कुशल निर्देशन ने कहानी को बिखरने नहीं दिया। बैटमैन (क्रिश्चियन बेल) पर हार्वे डेंट की हत्या का दोष लग चुका है। आठ वर्ष से वह अपने महलनुमा घर से बाहर नहीं निकलता है। केवल बटलर एल्फ्रेड उसके साथ है। बैटमैन कमजोर हो चुका है। पहले जैसी उसमें ताकत नहीं है। अंदर से वह बेहद अकेला है क्योंकि अपना प्यार वह खो चुका है। सामाजिक जीवन से भी वह कट चुका है। लोगों के सामने ब्रूस वेन के रूप में उसकी पहचान है। ब्रूस को आर्थिक रूप से जबरदस्त घाटा होता है। विलेन बेन (टॉम हार्डी) का मकसद है गोथम सिटी को तहस-नहस कर देना। वह एक न्यूक्लियर साइंसटिस्ट का अपहरण कर लेता है और उस पर दबाव डालकर न्यूक्लियर बम से गोथम सिटी को बर्बाद कर देना चाहता है। गोथम शहर पर उसका कब्जा हो चुका है। उसके साथी ने शहर की सारी व्यवस्थाएं भंग कर दी है। उसकी अपनी पुलिस और न्याय प्रणाली है। बेन को रोकने की कोशिश बैटमैन करता है, लेकिन बेन उस पर भारी पड़ता है और कैद में डाल देता है। क्या बेन अपने मकसद में कामयाब हो पाएगा? क्या बैटमैन गोथम शहर की रक्षा कर पाएगा? इन प्रश्नों के जवाब क्लाइमेक्स में सरप्राइज के साथ मिलते हैं। जेम्स बांड नुमा स्टाइल में फिल्म की शुरुआत होती है जिसमें बेन अपने प्लेन के जरिये दूसरे प्लेन में बैठे वैज्ञानिक का हवा में ही अपहरण करता है। यह फिल्म के बेहतरीन दृश्यों में से एक है। इसके बाद कहानी ब्रूस वेन पर आकर थम-सी जाती है। एल्फ्रेड और ब्रूस के बीच के सीन बेहद लंबे हैं। इन दिनों तमाम सुपरहीरो को बेहद तनहा दिखाया जा रहा है, साथ ही वे कई बार विलेन के सामने कमजोर भी पड़ते हैं। सुपरमैन, स्पाइडरमैन के बाद बैटमैन का भी यही हाल है। बीच-बीच में सेक्सी चोर सेलिना (एने हैथवे) आकर फिल्म को गति प्रदान करती रहती है। फिल्म ऊंचाइयों को तब छूती है जब बेन गोथम सिटी में आ धमकता है और अपने साथियों के जरिये शहर को तहस-नहस कर डालता है। दरअसल फिल्म का क्लाइमेक्स 70-80 मिनट तक चलता है जिसमें वेन को काबू में करने के लिए बैटमैन, कमिश्नर और कुछ काबिल पुलिस ऑफिसर पूरी कोशिश करते हैं। क्लाइमेक्स में न्यूक्लियर बम के फटने का खतरा, शहर में अपराधियों का राज, बेन का खून-खराबा, बम को ढूंढ निकालने का रोमांच, बैटमैन का बेन की कैद से निकलकर गोथम सिटी में आना जैसे कई तत्व शामिल हैं जो सीट से हिलने नहीं देते हैं। निर्देशक क्रिस्टोफर नोलान का निर्देशन बेहतरीन है। उन्होंने बैटमैन के एकाकीपन को भी उभारा है और बीच-बीच में बैटमैन का उड़ना, फ्यूचरिस्टिक बाइक और कार का चलाना जैसे रोमांचकारी दृश्यों को डाला है ताकि फिल्म एक ही ट्रेक पर चलती हुई नहीं लगे। जहां तक माइनस पाइंट्स का सवाल है तो बैटमैन को कैद में रखने वाला प्रसंग बहुत लंबा रखा गया है जिसकी वजह से बैटमैन का एक्शन बहुत देर तक देखने को नहीं‍ मिलता है। साथ ‍ही यह फिल्म की लंबाई को भी बढ़ाता है। फिल्म शुरुआत में काफी धीमी भी है। बैटमैन के किरदार में कई शेड्स देखने को मिलते हैं और क्रिश्चियन बेल ने शानदार एक्टिंग से अपने किरदार में इन रंगों को खूब भरा है। दुनिया से मन उचटने वाले इंसान से लेकर बैटमैन के रूप में वापसी वाले किरदार को उन्होंने बेहतरीन तरीके से निभाया है। बेन बने टॉम हार्डी क्रूर लगते हैं। पूरी फिल्म में उनका चेहरा एक बार नजर आता है क्योंकि उन्होंने मास्क लगा रखा है। इस मास्क के कारण उनके द्वारा बोले गए कई संवाद समझ में नहीं आते हैं। एने हैथवे ने फिल्म को ग्लैमरस लुक दिया है। सिनेमाटोग्राफी, एक्शन और स्पेशल इफेक्टस टॉप क्लास हैं। द डार्क नाइट राइज़ेस में वो सारे मसाले हैं जो आप एक सुपरहीरो की फिल्म में देखना पसंद करते हैं।
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बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स निर्माता : कुमार एस. तौरानी, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : मनदीप कुमार संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : रि‍तेश देशमुख, जेनेलिया देशमुख, ओम पुरी, टीनू आनंद, चित्राशी रावत, स्मिता जयकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट * 16 रील स्क्रीनप्ले में मनोरंजन करने वाले मसाले हों, प्रस्तुतिकरण में ताजगी हो, कैरेक्टर को तरीके से पेश किया गया हो और कलाकारों का अभिनय बांधने वाला हो तो घिसी-पिटी कहानी पर बनी फिल्म भी अच्छी लगती है। इसकी मिसाल है ‘तेरे नाल लव हो गया’। इस तरह की कहानी पर बनी सैकड़ों फिल्में आपने देखी होगी। इसे देखते समय कई फिल्में आपको याद भी आएंगी, इसके बावजूद ‘तेरे नाल लव हो गया’ इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि इसमें भरपूर मनोरंजन है, फैमिली ड्रामा है, रोमांस है और किडनेपिंग के ट्विस्ट के साथ रितेश और जेनेलिया की जबरदस्त कैमिस्ट्री भी है। कहानी में कोई नई बात नहीं है। मिनी (जेनेलिया डिसूजा) के पिता जबरदस्ती उसकी शादी करवा रहे हैं। घटनाक्रम कुछ ऐसा घटता है कि टेक्सी ड्राइवर वीरेन (रितेश देशमुख) के साथ मिनी भाग जाती है और बात को ऐसा पेश करती है कि सभी को लगता है कि मिनी का वीरेन ने अपहरण कर लिया है। कुछ दिन वे साथ में रहते हैं और एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। वीरेन बेहद सीधा-सादा इंसान है और मिनी तेज-तर्रार लड़की। एक दिन सचमुच में मिनी और वीरेन का अपहरण हो जाता है। ये अपहरण करवाया है वीरेन के पिता चौधरी (ओम पुरी) ने जिनका तो यह धंधा ही है। चौधरी ने ऐसा क्यों किया? मिनी-रितेश की लव स्टोरी का क्या हुआ? ऐसे प्रश्नों के जवाब फिल्म में कॉमेडी, इमोशन और ड्रामे के जरिये देखने को मिलते हैं। कहानी पंजाब और हरियाणा में सेट है और वहां का लोकल फ्लेवर फिल्म पर छाया हुआ है। पहले हाफ में हल्के-फुल्के दृश्यों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया गया है। यहां पर वीरेन और मिनी की लव स्टोरी पर फोकस किया गया है। कई मजेदार दृश्यो के बीच कुछ ऐसे सीन भी हैं जहां पर लगता है कि हंसाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इनकी संख्या कम है। दूसरे हाफ में फिल्म और बेहतर हो जाती है जब मिनी के साथ वीरेन किडनैप होकर अपने ही घर पहुंच जाता है। यहां पर ओमपुरी की एंट्री होती है। इस हाफ में रितेश की तुलना में ओम पुरी- जेनेलिया को ज्यादा फुटेज मिले हैं और दोनों के बीच कई मजेदार दृश्य हैं। चौधरी के अपहरण के धंधे को कॉमेडी टच के साथ दिखाने के कारण चौधरी बड़ा ही मासूम नजर आता है और इसका फायदा उठाते हुए मिनी उसके दिल में जगह बनाती है। धियो संधू के लिखे स्क्रीनप्ले में कई खामियां भी हैं जैसे अपहरण होने के बावजूद पुलिस कहीं नजर नहीं आती। सभी को पता है कि चौधरी अपहरण करता है, लेकिन उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। मिनी-वीरेन के पास खाने के पैसे नहीं रहते, लेकिन उनकी ड्रेसेस लगातार बदलती रहती हैं। अपने पिता के काम को गलत मानने वाला वीरेन अंत में बड़ी जल्दी अपने पिता की बात समझ जाता है। वीना मलिक के आइटम सांग की भी कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन इन खामियों की उपेक्षा इसलिए की जा सकती है क्योंकि फिल्म का मनोरंजन वाला पक्ष बहुत भारी है। जब स्क्रीन पर चल रहे घटनाक्रम को देख मनोरंजन हो रहा हो तो फिर भला इन बातों पर कौन गौर करना चाहेगा। निर्देशक मनदीप कुमार की यह पहली हिंदी फिल्म है, लेकिन उनका काम अनुभवी निर्देशक की तरह है। उनका प्रस्तुतिकरण उम्दा है। कॉमेडी और इमोशनल सीन को उन्होंने अच्छे से पेश किया है। साथ ही सारे कलाकारों से उन्होंने अच्छा अभिनय भी कराया है। इस फिल्म के निर्माता एक म्युजिक कंपनी के मालिक भी हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने फिल्म का संगीत मधुर होने के बावजूद इनका ठीक से प्रचार नहीं किया है। सचिन-जिगर द्वारा संगीतबद्ध जीने दे, पी पा, तू मोहब्बत है, पिया जैसे गाने सुनने लायक हैं। रितेश-जेनेलिया की जोड़ी ‘क्यूट’ है। अफसोस की बात है कि वे सात साल बाद साथ आए हैं। रितेश का कैरेक्टर दबा हुआ है, लेकिन उनकी एक्टिंग अच्छी है। बबली गर्ल के रोल में जेनेलिया देशमुख हमेशा ही अच्छी लगती हैं और एक बार फिर लगी हैं। इंटरवल के बाद तो निर्देशक ने सारा भार उनके कंधों पर ही डाल दिया है और उन्होंने निराश नहीं किया। अरसे बाद ऐसा लगा कि ओम पुरी को एक्टिंग करने में मजा आ रहा है। चौधरी के रोल में उनका अभिनय प्रशंसनीय है और उनके आने के बाद फिल्म में जान आ जाती है। ‘तेरे नाल लव हो गया’ टिपिकल बॉलीवुड फिल्म है। साफ-सुथरी, हल्की-फुल्की, दिमाग पर जोर नहीं डालने वाली फिल्म देखना चाहते हैं तो इसे देखा जा सकता है।
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बैनर : विधु विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा निर्देशक : राजकुमार हिरानी लेखक : राजकुमार हिरानी, अभिजीत जोश ी, विधु विनोद चोपड़ा गीत : स्वानंद किरकिरे संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : आमिर खान, करीना कपूर, आर. माधवन, शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ओमी, मोना सिंह, परीक्षित साहनी, जावेद जाफरी यू/ए * 20 रील * 2 घंटे 50 मिनट राजकुमार हिरानी की खासियत है कि वे गंभीर बातें मनोरंजक और हँसते-हँसाते कह देते हैं। जिन्हें वो बातें समझ में नहीं भी आती हैं, उनका कम से कम मनोरंजन तो हो ही जाता है। चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पाइंट समवन' से प्रेरित फिल्म '3 इडियट्‌स' के जरिये हिरानी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली, पैरेंट्‌स का बच्चों पर कुछ बनने का दबाव और किताबी ज्ञान की उपयोगिता पर मनोरंजक तरीके से सवाल उठाए हैं। हर विद्यार्थी एक न एक बार यह सोचता है कि जो वो पढ़ रहा है, उसकी क्या उपयोगिता है। वर्षों पुरानी लिखी बातों को उसे रटना पड़ता है क्योंकि परीक्षा में नंबर लाने हैं, जिनके आधार पर नौकरी मिलती है। उसे एक ऐसे सिस्टम को मानना पड़ता है, जिसमें उसे वैचारिक आजादी नहीं मिल पाती है। माता-पिता भी इसलिए दबाव डालते हैं क्योंकि समाज में योग्यता मापने का डिग्री/ग्रेड्स पैमाने हैं। कई लड़के-लड़कियाँ इसलिए डिग्री लेते हैं ताकि उन्हें अच्छा जीवन-साथी मिले। इन सारी बातों को हिरानी ने बोझिल तरीके से या उपदेशात्मक तरीके से पेश नहीं किया है बल्कि मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर उन्होंने अपनी बात रखी है। आमिर-हिरानी कॉम्बिनेशन’ के कारण अपेक्षाएँ इस फिल्म से बहुत बढ़ गई हैं और ये दोनों प्रतिभाशाली व्यक्ति निराश नहीं करते हैं। रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़ का निक नेम रांचो है। इंजीनियरिंग कॉलेज में रांचो (आमिर खान), फरहान कुरैशी (आर माधवन) और राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) रूम पार्टनर्स हैं। फरहान वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनना चाहता है, लेकिन उसके पैदा होने के एक मिनट बाद ही उसे इंजीनियर बनना है ये उसके हिटलर पिता ने तय कर दिया था। वह मर-मर कर पढ़ रहा है। राजू का परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है। भविष्य का डर उसे सताता रहता है। विज्ञान का छात्र होने के बावजूद वह तमाम अंधविश्वासों से घिरा हुआ है। पढ़ाई से ज्यादा उसे पूजा-पाठ और हाथ में पहनी ग्रह शांति की अँगूठियों पर है। वह डर-डर कर पढ़ रहा है। रांचो एक अलग ही किस्म का इंसान है। बहती हवा-सा, उड़ती पतंग-सा। वह ग्रेड, मार्क्स, किताबी ज्ञान पर विश्वास नहीं करता है। आसान शब्दों में कही बात उसे पसंद है। उसका मानना है कि जिंदगी में वो करो, जो तुम्हारा दिल कहे। वह कामयाबी और काबिलियत का फर्क अपने दोस्तों को समझाता है। रांचो के विचारों से कॉलेज के प्रिंसीपल वीर सहस्त्रबुद्धे (बोमन ईरानी) बिलकुल सहमत नहीं है। वे जिंदगी की चूहा-दौड़ में हिस्सा लेने के लिए एक फैक्ट्री की तरह विद्यार्थियों को तैयार करते हैं। पढ़ाई खत्म होने के बाद रांचो अचानक गायब हो जाता है। वर्षों बाद रांचो के दोस्तों को उसके बारे में क्लू मिलता है और वे उसे तलाशने के लिए निकलते हैं। इस सफर में उन्हें रांचो के बारे में कई नई बातें पता चलती हैं। कहानी को स्क्रीन पर कहने में हिरानी माहिर हैं। फ्लेशबैक का उन्होंने यहाँ उम्दा प्रयोग किया है। हीरानी और अभिजात जोशी ने ज्यादातर दृश्य ऐसे लिखे हैं जो हँसने पर, रोने पर या सोचने पर मजबूर करते हैं। अपनी बात कहने के लिए उन्होंने मसाला फिल्मों के फॉर्मूलों से भी परहेज नहीं किया। माधवन का नाटक कर हवाई जहाज रूकवाना, करीना कपूर को शादी के मंडप से भगा ले जाना, जावेद जाफरी से आमिर का पता पूछने वाले सीन देख लगता है मानो डेविड धवन की फिल्म देख रहे हों। पहले हॉफ में सरपट भागती फिल्म दूसरे हाफ में कहीं-कहीं कमजोर हो गई है। खासतौर पर मोनासिंह के माँ बनने वाला सीन बेहद फिल्मी हो गया है। आमिर की फिल्म में एंट्री और रेगिंग वाला दृश्य, चमत्कार/बलात्कार वाला दृश्य, रांचो द्वारा बार-बार साबित करना कि पिया (करीना कपूर) ने गलत जीवन-साथी चुना है, ढोकला-फाफड़ा-थेपला-खाखरा-खांडवा वाला सीन, राजू के घर की हालत को व्यंग्यात्मक शैली (50 और 60 के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की तरह) में पेश किया गया सीन, बेहतरीन बन पड़े हैं। हिरानी पर अपनी पुरानी फिल्मों का प्रभाव नजर आया। वहाँ मुन्ना भाई था, यहाँ रांचो है। वहाँ बोमन ईरानी डीन थे, यहाँ वे प्रिंसीपल हैं। वहाँ मुन्ना भाई डीन की लड़की को चाहता था, यहाँ रांचो प्रिंसीपल की लड़की को चाहता है। हालाँकि इन बातों से फिल्म पर कोई खास असर नहीं पड़ता, लेकिन फिल्मकार पर दोहराव का असर दिखाई देता है। संवाद चुटीले है। 'इस देश में गारंटी के साथ 30 मिनट में पिज्जा आ जाता है, लेकिन एंबुलेंस नहीं', 'शेर भी रिंगमास्टर के डर से कुछ सीख जाता है लेकिन उसे वेल ट्रेंड कहा जाता है वेल एजुकेटेड नहीं’ जैसे संवाद फिल्म को धार प्रदान करते हैं। अभिनय में सभी कलाकारों ने अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। अपनी उम्र से आधी उम्र का किरदार निभाना आसान नहीं था, लेकिन आमिर ने यह कर दिखाया। आज की युवा पीढ़ी के हाव-भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ा। तेज तर्रार और अपनी शर्तों पर जीने वाले रांचो को उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ पर्दे पर जीवंत किया। आमिर खान के फिल्म में होने के बावजूद शरमन जोशी और माधवन अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हालाँकि माधवन फिटनेस के मामले में मार खा गए। एनआरआई चतुर के रूप में ओमी ने बेहतरीन अभिनय किया है। बोमन ईरानी ने फिर साबित किया है कि वे कमाल के अभिनेता हैं। ओवर एक्टिंग और एक्टिंग के बीच की रेखा पर वे कुशलता से चले हैं। आमिर और उनके बीच के दृश्य देखने लायक बन पड़े हैं। करीना कपूर के रोल की लंबाई कम है, इसके बावजूद वे अपनी छाप छोड़ती हैं। शांतुन मोइत्रा का संगीत सुनने में भले ही अच्छा नहीं लगता हो, लेकिन स्क्रीन पर देखते समय अलग ही असर छोड़ता है। 'जूबी-जूबी' गाने का फिल्मांकन उम्दा है। पिछले दो बार से (2007 तारे जमीं पर, 2008 गजनी) वर्ष का समापन बॉलीवुड बेहतरीन फिल्म के जरिये कर रहा है और 2009 में हैट्रिक पूरी हो गई है। अनूठे विषय, चुटीले संवाद और शानदार अभिनय के कारण यह फिल्म देखी जा सकती है।
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निर्देशक : फ्रांसिल लॉरेंस कलाकार : विल स्मिथ, एलिस ब्रागा, डेश मिहोक साइंस फिक्शन हॉलीवुड वालों का प्रिय विषय रहा है। कहीं ना कहीं उनके मन में नई तकनीक और उनका प्रयोग खौफ पैदा करता है। अनजान खतरों की वे कल्पनाएँ करते हैं, जिसमें मानव जाति समाप्त होने का डर रहता है। लेकिन अंत में मानव ही विजेता बनकर उभरता है। इसी श्रेणी के अंतर्गत ‘आई एम लीजेंड’ का निर्माण किया गया है। यह फिल्म रिचर्ड मैथसन के उपन्यास पर आधारित है। भव्य बजट की इस फिल्म की कहानी में 2009 का समय दिखाया गया है। उस वक्त ‘केवी वायरस’ का हर तरफ खौफ है। इंसानों में यह इतनी तेजी से फैलता है कि मानव सभ्यता लगभग समाप्त होने की कगार पर पहुँच जाती है। इस वायरस की चपेट में आने के बाद इंसान हैवान के रूप में बदल जाता है। रोशनी से खौफ खाने वाला यह हैवान रात के अंधेरे में बेहद शक्तिशाली हो जाता है। न्यूयार्क शहर को तत्काल खाली किया जाता है। डॉ. रॉबर्ट नेवल (विल स्मिथ) पर इस वायरस का कोई असर नहीं होता। अपने परिवार को बिदा कर वह अकेला न्यूयार्क में रहने का निर्णय लेता है। वह अनुसंधान करना चाहता है ताकि मानव जाति को बचा सके। पूरे न्यूयार्क में अकेले रहने वाले रॉबर्ट को लगने लगता है कि वह दुनिया में जीवित बचा एकमात्र मनुष्य है। फिर भी वह इस वायरस के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखता है इस उम्मीद में कि कहीं ना कहीं कोई मनुष्य जिंदा होगा और वह अपनी जाति को बचाने में कामयाब होगा। उसे इस वायरस के शिकार हैवानों से भी लड़ाई लड़नी पड़ती है। फिल्म की पटकथा बीच के बीस मिनट को छोड़ एकदम चुस्त है। फिल्म में ज्यादा पात्र नहीं हैं और तीन चौथाई दृश्यों में तो विल स्मिथ अकेले दिखाई देते हैं। बातचीत करने के लिए उसके पास सिर्फ कुत्ता रहता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म बांध कर रखती है। उजाड़ न्यूयार्क वाले दृश्य अद्‍भुत हैं। पूरे न्यूयार्क में जगह-जगह जंगली घास उग आई है। सड़कों पर कार बिखरी पड़ी हैं। शहर में एक ठहराव आ गया है। मानव के बिना एक शहर को देखना एक अनोखा नजारा पेश करता है। दिन के समय विल स्मिथ न्यूयार्क में अकेला घूमता है और रात में हैवानों का राज हो जाता है। हैवानों द्वारा विल और उसके कुत्ते सैम पर आक्रमण के दृश्य शानदार हैं। स्पेशल इफेक्ट इतनी सफाई से फिल्माए गए हैं कि कहीं भी नकलीपन नहीं झलकता। फिल्म निर्माण में पैसा पानी की तरह बहाया गया है। निर्देशक फ्रांसिस लॉरेंस ने डॉ. रॉबर्ट के अनुसंधान पर जोर देने के ‍बजाय एक अकेले इंसान की मुश्किल को ज्यादा दिखाया है। किस तरह एक अकेला इंसान पुराने वीडियो टेप देखता है। शो-रुम पर जाकर कल्पनाएँ करता है। उन्होंने फिल्म के कथानक पर तकनीक को ज्यादा हावी होने से भी बचाया है। पूरी फिल्म में लगभग पूरे समय कैमरा विल स्मिथ पर रहता है। बिना किसी अन्य पात्र के अकेले अभिनय करना मुश्किल है, लेकिन विल स्मिथ ने इसे बड़ी कुशलता से निभाया है। एलिस ब्रागा, डेश मिहोक और चार्ली टाहान का अभिनय भी उम्दा है। तकनीकी स्तर पर फिल्म बेहद सशक्त है। साइंस फिक्शन और हॉलीवुड की भव्य फिल्म देखने वालों को 100 मिनट की यह फिल्म पसंद आएगी।
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इसके बाद शुरू होता है प्यार, वफादारी, गद्दारी, दुश्मनी, राजनीति, षड्यंत्र का खूनी खेल जिसमें हर किरदार अपने स्वार्थ के मुता‍बिक पल-पल बदलता रहता है। स्क्रिप्ट में कुछ कमियां है, खासतौर पर फिल्म का क्लाइमेक्स जल्दबाजी में लिखा गया है, लेकिन साथ ही इतने ज्यादा उतार-चढ़ाव और गति है कि दर्शक फिल्म से बंधा रहता है। उसे उत्सुकता रहती है कि अगले पल क्या होने वाला है। फिल्म के कैरेक्टर इतने डिटेल के साथ लिखे गए हैं कि कमियों को नजरअंदाज किया जा सकता है। साहब, बीवी और गैंगस्टर के किरदार बेहद मजबूती के साथ उभर कर आते हैं। इन तीनों किरदारों के साथ वर्तमान में राजनीति की हालत और गुंडागर्दी का आइना भी फिल्म दिखाती है। ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ जैसी फिल्में भी इस फिल्म को देख याद आती हैं। संवाद किरदारों को धार प्रदान करता है। अच्छे संवाद इन दिनों बहुत कम सुनने को मिलते हैं। निर्देशक तिग्मांशु धुलिया ने फिल्म के विषय के साथ पूरा न्याय किया है। एक चुके हुए नवाब, उपेक्षित स्त्री और मौकापरस्त आम आदमी को उन्होंने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। फिल्म का आर्ट डायरेक्शन की तारीफ के काबिल है। लोकेशन का चुनाव सराहनीय है और हर शॉट पर तिगमांशु की मेहनत नजर आती है। इस फिल्म का अभिनय पक्ष भी इसे देखने की एक वजह है। जिमी शेरगिल ने साहब के किरदार को बेहतरीन तरीके से जिया है। जहां एक ओर उनके चेहरे पर रुतबा दिखता है तो दूसरी ओर खोखली शानो-शौकत के कारण पैदा हुई उदासी भी नजर आती है। माही गिल न केवल तब्बू जैसी दिखती है बल्कि अभिनय के मामले में भी उनके जैसी हैं। पति द्वारा बाहर रात गुजारने को वह अपनी बेइज्जती मानती है और यह बात उनके चेहरे पर नजर आती है। बोल्ड दृश्यों से भी माही ने परहेज नहीं किया है। रणदीप हुडा का अभिनय भी सराहनीय है और एक अतिमहत्वाकांक्षी युवक की भूमिका उन्होंने अच्छे से निभाई है, लेकिन उनकी अभिनय प्रतिभा सीमित है। एक बेहतर अभिनेता इस रोल में जान डाल सकता था। महुआ के रूप में श्रेया सरन अपनी छाप छोड़ती है। गेंदा सिंह के रूप में विपिन शर्मा और दीपल शॉ का अभिनय भी उल्लेखनीय है। फिल्म का संगीत मूड के अनुरूप है। असीम मिश्रा का कैमरावर्क बेहतरीन है और लाइट का उन्होंने अच्छा प्रयोग किया है। बैनर : तिग्मांशु धुलिया फिल्म्स, ब्रैंडस्मिथ मोशन पिक्चर्स, बोहरा ब्रदर्स प्रा.लि. निर्माता : तिग्मांशु धुलिया, राहुल मित्रा निर्देशक : तिग्मांश धुलिया कलाकार : जिमी शेरगिल, माही गिल, रणदीप हुडा, दीपल शॉ, विपिन शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 3 मिनट कहानी में एक नवाब है आदित्य प्रताप सिंह (जिमी शेरगिल) जिन्हें लोग साहब कहकर पुकारते हैं। साहब के पास रुतबा है, लेकिन रुपया नहीं है। अपना खर्च चलाने के लिए उन्हें टुच्चे लोगों का सामना करना होता है। एक टुच्चा बोलता है कि आप हम जैसे लोगों से लड़ते हैं तो साहब कहते हैं कि लड़ने के लिए अब राजा नहीं बचे हैं इसलिए टुच्चों का सामना करने के लिए उन्हें भी टुच्चा बनना पड़ रहा है। बीवी का नाम है माधवी (माही गिल), जिन पर साहब बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं। बीवी को जब वे पूछते हैं कि शहर जा रहा हूं, क्या लाऊं तो वह कहती है कि मुझे मेरी रातें लौटा दो। दरअसल साहब की मुहआ नामक रखैल है जो उन्हें मजा देने के साथ-साथ सुकून भी देती है। उपेक्षा से मायूस बीवी को प्यार दिखता है अपने ड्राइवर बबलू (रणदीप हुडा) में जो हाल ही में उनके यहां नौकरी करने आया है। दरअसल बबलू को साहब के दुश्मन गेंदा सिंह (विपिन शर्मा) ने भेजा है। बबलू जासूसी के लिए आया है ताकि गेंदा सिंह उन्हें रास्ते से हटा सके। साहब बीवी और गैंगस्टर अभिनय, संवाद, कैरेक्टर और कहानी में आने वाले उतार-चढ़ाव की वजह से देखने लायक है।
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एवेंजर्स : एज ऑफ अल्ट्रॉन को हिंदी में 'एवेंजर्स : कलयुग का महायुद्ध' नाम से रिलीज किया गया है और फिल्म की थीम पर यह नाम बिलकुल सटीक बैठता है। मार्वल कॉमिक्स के सुपरहीरो पर आधारित फिल्म का नाम भी कॉमिक्स जैसा ही होना चाहिए। अंग्रेजी के साथ-साथ इसे तमिल, तेलुगु और हिंदी में डब किया गया है और यूएस से एक सप्ताह पहले ही भारतीय दर्शकों को यह फिल्म देखने को मिल रही है। डबिंग आर्टिस्टों ने भी कुछ नया करने की कोशिश की है और फिल्म में दो अंग्रेज किरदारों को हरियाणवी स्टाइल में हिंदी बोलते देखना बड़ा ही मजेदार है। इसके पहले 'फ्यूरियस 7' में भी एक किरदार मुंबइया स्टाइल में हिंदी बोलता है। एवेंजर्स सीरिज की फिल्में मनोरंजन से भरपूर रहती हैं और 'द एवेंजर्स' (2012) का यह सीक्वल भी पहले भाग की तरह उम्दा है। सुपरहीरोज़ फिल्मों की कहानी के बारे में तो सभी को पता रहता है कि ये अच्छाई बनाम बुराई के इर्दगिर्द रहती है, लेकिन संघर्ष का रोमांच और नवीनता दर्शकों को खास आकर्षित करता है। साथ ही तकनीक का साथ फिल्म को और ऊंचाइयों पर ले जाता है। अल्ट्रॉन का एक ही मकसद है, विश्व की तबाही, लेकिन उसके रास्ते में एवेंजर्स टीम है। आयरन मैन (रॉबर्ट डाउनी जूनियर), कैप्टन अमेरिका (क्रिस इवांस), थॉर (क्रिस हेम्सवर्थ), ब्लैक विडो (स्कॉरलेट जोहानसन), हल्क (मार्क रफेलो), हॉक आई (जेरेमी रेनर) अपनी खूबियों के साथ विश्व को बचाने के लिए अपनी जान और परिवार की परवाह किए बिना अल्ट्रॉन से भिड़ जाते हैं। राह इतनी आसानी नहीं है। इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए उनको जम कर मशक्कत करना होती है और उनका संघर्ष फिल्म को देखने लायक बनाता है। एवेंजर्स में भले ही सुपरमैन, स्पाइडरमैन जैसे बड़े सुपरहीरो नहीं हैं, बावजूद इसके आयरन मैन सहित सारे सुपरहीरो के कारनामे रोमांचित करते हैं और आपके अंदर मौजूद बचपन को गुदगुदाते हैं। सभी सुपरहीरो को महत्व दिया गया है, लेकिन आयरन मैन पर निर्देशक की कृपा दृष्टि ज्यादा रही है। वहीं बलशाली हल्क को कम फुटेज मिले हैं। अपनी फड़कती भुजाओं से दुश्मनों को मसल देने वाले हल्क को ज्यादा समय तक देखने की हसरत दर्शकों में रहती है। जॉस व्हेडॉन ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है। एवेंजर्स और अल्ट्रॉन के महायुद्ध के बीच कुछ पारिवारिक दृश्य भी उन्होंने डाले हैं जो इमोशन से भरपूर हैं। आखिरकार सुपरहीरो को भी परिवार की जरूरत महसूस होती है और उनके दिल में भी भावनाओं के ज्वार उमड़ते हैं। हल्क और ब्लैक विडो के एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने को भी बखूबी दिखाया गया है। दोनों के अपने दर्द हैं और भले ही वे अद्वितीय शक्तियों से लैस हों, लेकिन आम इंसान की तरह जीने की तड़प उनमें भी नजर आती है। ब्लैक विडो का दु:ख उस समय उभर कर आता है जब वह हल्क को बताती है कि वह मां नहीं बन सकती क्योंकि ट्रेनिंग के दौरान उसे बांझ बना दिया गया है। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण ट्वीस्ट यह है कि अल्ट्रॉन एवेंजर्स टीम के सदस्यों को आपस में भी लड़ाने की कोशिश करता है। हल्क और आयरन मैन के बीच एक बेहतरीन फाइटिंग सीक्वेंस है जो तालियां बजाने पर मजबूर कर देता है। क्लाइमैक्स की फाइट भी जबरदस्त है। जॉस व्हेडॉन ने फिल्म को उन दर्शकों के अनुरूप बनाने की कोशिश की है जो सुपरहीरोज़ को पसंद करते हैं, हालांकि फिल्म में बीच में ऐसा वक्त भी आता है जब फिल्म ठहरी हुई लगती है। इस तेज गति से भागती फिल्म में कुछ दृश्य स्पीड ब्रेकर का काम करते हैं। फिल्म के अंत में कुछ नए सुपरहीरो की झलक भी दिखाई गई है जो शायद अगले भाग में अपने कारनामे दिखाएंगे। आयरन मैन के रूप में रॉबर्ट डाउनी जूनियर सभी पर भारी पड़े हैं और उन्हें जोरदार संवाद भी मिले हैं। गुस्से से हरा होने वाला हल्क का डॉ. बेनर के रूप में दूसरा रूप भी देखने को मिलता है और इसे मार्क रफेलो ने बेहतरीन तरीके से अदा किया है। कैप्टन अमेरिका के रूप में क्रिस इवांस बेहद फिट नजर आए। स्कॉरलेट जोहानसन ने ‍ब्लैक विडो का किरदार निभाया है। बाइक वाला स्टंट उन्होंने बखूबी किया है और वे सेक्सी भी नजर आईं। क्रिस हेम्सवर्थ, जेरेमी रेनर भी अपनी चमक बिखेरते हैं। सुपरह्यूमन स्पीड वाले टेलर जॉनसन और उनकी बहन स्कॉरलेट विच के किरदार भी प्रभावी हैं। तकनीकी रूप से फिल्म शानदार हैं। स्पेशल इफेक्ट्स इतनी सफाई से पेश किए गए हैं कि बिलकुल वास्तविक लगते हैं। बैकग्राउंड म्युजिक, सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग सहित फिल्म के सारे डिपार्टमेंट मजबूत है। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म को प्रभावी बनाता है। पॉपकॉर्न और कोला के साथ फिल्म का मजा ‍लीजिए। निर्देशक : जॉस व्हेडॉन कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जेरेमी रेनर
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चंद्रमोहन शर्मा संजय गुप्ता बॉलिवुड के उन डायरेक्टर्स में शामिल हैं जिनकी ज्यादातर फिल्में किसी न किसी विदेशी फिल्म का रीमेक होती हैं, या कहानी उस फिल्म से पूरी तरह से प्रेरित होती है। अर्से से वह सस्पेंस, थ्रिलर, एक्शन व मसाला फिल्में बनाते आए हैं। इसी कड़ी में 'जज्बा' भी आती है। 'जज्बा' आठ साल पहले रिलीज हुई साउथ कोरिया की फिल्म 'सेवन डेज' की रीमेक है। इस फिल्म के साथ ऐश्वर्या राय बच्चन का नाम भी जुड़ा है, जो हिंदी फिल्मों में पांच साल बाद लौटी हैं। संजय गुप्ता की 'कांटे', 'जिंदा' और 'शूटआउट ऐट लोखंडवाला' स्टाइल में बनी 'जज्बा' भी उसी स्टाइल में बनी ऐसी थ्रिलर फिल्म है, जो अंत तक बांधती तो जरूर है। लेकिन अगर आप इस फिल्म में कुछ नयापन देखने की चाह में हॉल में जाएंगे, तो यकीनन अपसेट होंगे। कहानी : अनुराधा वर्मा (ऐश्वर्या राय) ऐसी हाई-प्रोफाइल वकील है, जो सिर्फ उन्हीं के केस लड़ती है जो उसकी भारी-भरकम फीस अदा कर सके। उसे इससे कोई लेना-देना नहीं कि वह किस मुजरिम का केस लड़कर उसे कोर्ट से बरी करा रही है। योहान (इरफान खान) अनुराधा का स्कूल टाइम से दोस्त है। योहान अब क्राइम ब्रांच में इंस्पेक्टर है। योहान एक विभागीय जांच में ऐसा फंसता है कि उसे इससे निकलने के लिए अपने आला अफसरों को डेढ़ करोड़ रुपये की घूस देने की नौबत आ जाती है। योहान चाहता है कि अनुराधा उसका केस लड़े, लेकिन उसके पास टाइम नहीं है। इसी बीच अचानक एक दिन अनुराधा की बेटी सनाया (सारा अर्जुन) का अपहरण हो जाता है। किडनैपर उसे अपनी बेटी को बचाने के लिए नियाज शेख (चंदन राय सान्याल) को जेल से छुड़ाने के लिए कहता है। अनुराधा अब चाहती है पुलिस उसकी बेटी के मामले में ज्यादा कुछ न करे। इसकी बड़ी वजह किडनैपर द्वारा उस पर हर वक्त नजर रखना भी है। अनुराधा जब केस की जांच शुरू करती है तो उसे पता चलता है नियाज ने सिया (प्रिया बैनर्जी) का रेप करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी। उस वक्त इंस्पेक्टर योहान ने ही इस केस की जांच की और नियाज को अदालत ने मुजरिम पाकर सजा भी सुना दी थी। योहान को जब सनाया के अपहरण की खबर मिलती है तो वह अनुराधा की मदद करने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : एक मां और लॉयर के रोल में ऐश ने अच्छी एक्टिंग की है। उनके कमबैक के लिए यह फिल्म अच्छा प्लैटफॉर्म रही, पर कुछ सीन्स में वह ओवरएक्टिंग की शिकार रही हैं। इरफान का किरदार और उनकी बेहतरीन एक्टिंग के साथ-साथ उनके डायलॉग इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी हैं। योहान के किरदार में इरफान खूब जमे हैं, वहीं कुछ सीन्स में उनका किरदार सिंघम और चुलबुल पांडे की याद दिलाता है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं शबाना आजमी ने भी बेहतरीन ऐक्टिंग की है। जैकी श्रॉफ एक टिपिकल विलन नजर आए, तो अतुल कुलकर्णी अपने रोल में फिट हैं। यहां देखिए: ऐश्वर्या की फिल्म जज्बा का ऑफिशल ट्रेलर डायरेक्शन : संजय गुप्ता की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म को कहीं भी धीमा नहीं पड़ने दिया। शुरू से अंत तक संजय ने इस फिल्म को एक अनसुलझे केस की तहकीकात की तरह पेश किया है। इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक से कुछ भटकने लगती है, लेकिन क्लाइमेक्स में संजय ने सब कुछ अच्छी तरह से हैंडल कर लिया है। फिल्म का कैमरा वर्क भी इसका सबसे जानदार पक्ष है। संगीत : फिल्म की कहानी में इसकी जरा-भी गुंजाइश नहीं थी, ऐसे में कोई भी गाना आपको हॉल से बाहर आने के बाद याद नहीं रह पाता। क्यों देंखें : इरफान खान का लाजवाब अभिनय, अंत तक बांधते सस्पेंस के साथ अर्से बाद ऐश्वर्या राय की बढ़िया कमबैक मूवी।
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स्टोरी विद्या सिन्हा (विद्या बालन) की जिंदगी में सिर्फ एक चाहत है। वह अपनी पैरालाइज्ड (लकवाग्रस्त) टीनेजर बेटी मिनी को फिर से चलते हुए देखना चाहती है। लेकिन क्या यह सब इतना सहज है? या फिर विद्या सिन्या असल में कालीम्पोंग की दुर्गा रानी सिंह है जो किडनैपिंग और मर्डर केस में वॉन्टेड है? रिव्यू सुजॉय घोष ने चार साल पहले दर्शकों को 'कहानी' जैसी शानदार फिल्म दी थी। यह उसी का सीक्वल है। कहानी 2 आपके अंदर कौतूहल और जिज्ञासा तो जरूर पैदा करेगी लेकिन पूरी फिल्म के दौरान शायद आपको जकड़ कर न रख सके। इसमें पहली फिल्म जैसी धार और तीखापन नहीं है। हालांकि आप विद्या सिन्हा के किरदार में डूब जाते हैं। पश्चिम बंगाल के चंदन नगर में एक परेशान कामकाजी मां अपनी पैरालाइज्ड टीनेजर बेटी को संभाल रही है। विद्या सिन्हा का संघर्ष किसी मिडिल क्लास महिला की तरह है जो रोज नई कठिनाइयों से जूझती है। अचानक मिनी गायब हो जाती है और विद्या का एक्सिडेंट हो जाता है। फिर इंद्रजीत (अर्जुन रामपाल) की एंट्री होती है और उसे पता चलता है कि एक महिला का कालीम्पोंग के स्कूल की क्लर्क चेहरा दुर्गा रानी सिंह से मिलता है। विद्या रानी सिंह किडनैपिंग और मर्डर केस में वॉन्टेट है और वह फरार है। यहां यह बताना जरूरी है कि फिल्म इसलिए चलती है क्योंकि विद्या बालन के दोनों रोल यानी विद्या सिन्हा और दुर्गा रानी सिंह असल से लगते हैं। अब चूंकि पुलिस मामले की जांच कर रही है और यह एक मिस्ट्री है इसलिए फिल्म का प्लॉट रिवील करना ठीक नहीं होगा। फिल्म का बड़ा हिस्सा रात को शूट किया गया है और यह रियल लगता है। अगर आपको 2012 की 'कहानी' देखकर कोलकाता से प्यार हो गया था तो आपको कालीम्पोंग भी जरूर पसंद आएगा। बैकग्राउंड स्कोर आपको अंदर तक हिला देगी (थ्रिलर फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर ऐसा ही होना चाहिए) और कैमरा वर्क भी बढ़िया है। फिल्म में विद्या के लुक एकदम सादा और ग्लैमर से दूर है। प्रमोशन पाने की चाहत रखने वाले इंस्पेक्टर के रोल में प्रभावित करते हैं। अगर आपको थ्रिलर मूवीज पसंद हैं और आप विद्या बालन के कायल हैं तो कहानी 2 को एक बार देखना तो बनता है।
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सनी लियोन का क्रेज समाप्त हो गया है। उनकी पिछली फिल्में जिस तरह से बॉक्स ऑफिस पर असफल रही हैं वो दर्शाती है कि दर्शकों को उनकी फिल्मों में कोई रूचि नहीं है। उनकी हालिया फिल्म 'बेईमान लव' का महीनों तक अटक कर अब जाकर प्रदर्शित होना दर्शाता है कि वितरकों और सिनेमाघर वालों में भी उनकी कोई पूछ परख नहीं है। दिवाली के पूर्व 15 दिन फिल्म व्यवसाय के लिए सबसे कठिन दिन रहते हैं। लोग त्योहार की तैयारी में व्यस्त होकर सिनेमाघर का रास्ता भूल जाते हैं। बड़ी फिल्मों का प्रदर्शन नहीं होता और 'बेईमान लव' जैसी फिल्मों को रास्ता मिल जाता है। बेईमान लव में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी चर्चा की जाए। निर्देशन से लेकर एक्टिंग तक हर विभाग में फिल्म कमजोर है। इस फिल्म को झेलना वाकई हिम्मत का काम है। पहले मिनट से ही फिल्म बोर करना शुरू कर देती है और अंत तक इसे देखना सजा से कम नहीं है। गिने-चुने दर्शक इस फिल्म को देखने पहुंचे और थोड़ी देर बाद ही उन्हें समझ आ गया कि वे गलती कर बैठे हैं। फिल्म के बजाय वे बातचीत में व्यस्त हो गए। कुछ ने आधी फिल्म देखने के बाद ही थिएटर छोड़ कर बाहर जाना ठीक समझा। दर्शकों की यह प्रतिक्रिया ही काफी है कि 'बेईमान लव' किस तरह की फिल्म है। कहानी है सुनैना (सनी लियोन) की जो एक सफल व्यवसायी है। उसका सम्मान होता है जिससे केके मल्होत्रा (राजीव वर्मा) और राज (रजनीश दुग्गल) ईर्ष्या से भर जाते हैं। कहानी को पीछे ले जाकर बताया गया है कि सुनैना इन्हीं के ऑफिस में काम करती थी। उसे इन पर बहुत ज्यादा विश्वास था, लेकिन प्यार के बदले में उसे धोखा मिलता है। इस धोखे का बदला लेने के लिए वह व्यवसाय के मैदान में उतर कर मल्होत्रा को नुकसान पहुंचाती है। इस कहानी को लचर तरीके से लिखा और पेश किया गया है। निर्देशक ने बहुत सारी चीजें दिखाने और दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की है, लेकिन किसी भी तरह वे दर्शकों को बांध पाने में सफल नहीं रहे। असल में फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी बुरी तरह लिखी गई है कि निर्देशक राजीव चौधरी के लिए इस पर अच्छी फिल्म बनाना मुश्किल था। राजीव ने सिर्फ फिल्म को 'कूल लुक' देने में ही मेहनत की है और कहानी को दिलचस्प तरीके से वे पेश करने में असफल रहे। सनी लियोन की यह कोशिश साफ नजर आती है कि वे एक्टिंग कर रही हैं। संवाद के अनुरूप उनके चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, जबकि उन्हें इस भूमिका में करने के लिए बहुत कुछ था। रजनीश दुग्गल निराश करते हैं। अन्य सारे अभिनेताओं से भी निर्देशक अच्छा अभिनय नहीं करा पाए। कुल मिलाकर 'बेईमान लव' समय और धन की बरबादी है। बैनर : अवंति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता-निर्देशक : राजीव चौधरी संगीत : अंकित तिवारी, कनिका कपूर, राघव साचर, संजीव दर्शन, असद कलाकार : सनी लियोन, रजनीश दुग्गल, डेनियल वेबर
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com अजब संयोग है कि पिछले सप्ताह रिलीज हुई म्यूजिकल लव-स्टोरी 'सनम तेरी कसम' में भटके हीरो को राह पर लाने के लिए हिरोइन आखिर में एक बहुत बड़ा कदम उठाती है, वहीं दिव्या खोसला की इस म्यूजिकल लव-स्टोरी में हिरोइन की जान बचाने के लिए हीरो ऐसा कुछ करता है जो उसके प्यार को अमर बना देता है। दोनों फिल्मों में सच्चे प्यार को हासिल करने का तरीका काफी हद तक मिलता-जुलता है। फिल्मी खबरों के लिए जुड़े रहिए हमारे साथ, लाइक करें NBT Movies यंग डायरेक्टर दिव्या खोसला की बात करें तो उनकी पहली फिल्म यारियां बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही। दिव्या ने बजट का बड़ा हिस्सा दिल को छू लेने वाली लोकेशन में शूट करने में खर्च किया है। काश दिव्या कमाल की लोकेशन और फिल्म को बेहतर बनाने के लेटेस्ट तकनीक के साथ स्क्रीनप्ले और फिल्म की धीमी रफ्तार पर भी ध्यान देतीं तो यकीनन उनकी यह लव-स्टोरी बॉक्स ऑफिस पर पिछली फिल्म से आगे निकल पाती। कहानी : हिमाचल की बर्फीली वादियों से ढके एक छोटे से कस्बानुमा गांव में आकाश (पुलकित सम्राट) अपने दादा (ऋषि कपूर) के साथ रहता है। बचपन से ही आकाश को सच्चे प्यार की तलाश है, ऐसे में एक दिन आकाश का दादा उसे बताता है कि उसे यहां से 500 कदम की दूरी पर उसका सच्चा प्यार मिलेगा। आकाश को श्रुति से प्यार हो जाता है। हालांकि, आकाश दादा के साथ करियर बनाने के लिए अपना घर छोड़कर शहर चला जाता है। ऐसे में बचपन का प्यार वहीं छूट जाता है। यहां से कहानी में लव-ट्राइएंगल का ट्विस्ट आता है। आकाश को कंपनी का बॉस (मनोज जोशी) विदेश में एक बड़ी डील को फाइनल करने के मकसद के साथ विदेश भेजता है। यहां आकाश की मुलाकात अनुष्का (उर्वशी रातौला) से होती है, वह आकाश से इकतरफा प्यार करने लगती है। यहीं पर आकाश की मुलाकात एक अडवेंचर ट्रिप के दौरान श्रुति (यामी गौतम) से होती है। कुछ मुलाकातों के बाद आकाश को लगता है जैसे उसे उसका सच्चा प्यार यहां मिल गया है, लेकिन अडवेंचर ट्रिप खत्म होने के बाद श्रुति आकाश से कहती है कि उनका साथ बस यहां तक का था, अब वह दोबारा नहीं मिल पाएंगे। देखिए: फिल्म 'सनम रे' का ट्रेलर यहां ऐक्टिंग : 'फुकरे' फेम पुलकित सम्राट ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाने की कोशिश की है। हालांकि, कमजोर डायलॉग डिलीवरी उनकी इस मेहनत को कम करती है। यामी गौतम का किरदार गांव की एक मासूम पहाड़न लड़की का है, लेकिन चेहरे और एक्सप्रेशन से यामी कहीं भी गांव की पहाड़ी लड़की नहीं लगती। वहीं ऑन स्क्रीन पुलकित और यामी की केमिस्ट्री कमजोर और बेहद ठंडी है। एक बार फिर ऋषि कपूर ने अपना किरदार अच्छा निभाया है। उर्वशी कई सीन में जहां यामी पर भारी नजर आईं और कई बार यामी से ज्यादा खूबसूरत भी। निर्देशन : दिव्या ने इस छोटी सी लव-स्टोरी को पेश करने के लिए स्क्रिप्ट पर ज्यादा ध्यान देने की बजाए लोकेशन और गानों को खूबसूरती से फिल्माने में दिया है। ऐसे में दो घंटे की इस फिल्म के साथ भी दर्शक पूरी तरह से बंध नहीं पाते। दिव्या ने ऋषि कपूर जैसे मंझे हुए कलाकार से अच्छा काम लिया, लेकिन यामी गौतम के किरदार को संवारने में ज्यादा फोकस नहीं किया। संगीत : फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले ही यंगस्टर्स की जुबां पर है, फिल्म के कई गाने रिलीज से पहले कई चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। टाइटल सॉन्ग 'सनम रे' का फिल्मांकन गजब और दिल को छूने वाला है। क्यों देखें : अगर आप स्क्रीन पर खूबसूरत लोकेशन पर फिल्माए गानों को देखना चाहते है तो फिल्म एकबार देख सकते हैं। कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से यह छोटी सी लव-स्टोरी आपके दिल को छू नहीं पाती।
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chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के राइटर-डायरेक्टर मिलाप झावेरी को अल्ट्रा बोल्ड और डबल मीनिंग फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखने में महारत हासिल है। बॉक्स ऑफिस पर मिलाप की लिखी लगभग सभी फिल्मों ने प्रॉडक्शन कंपनियों को खासा मुनाफा कमा कर दिया है, लेकिन इस फिल्म की बात करें तो अब जब मिलाप ने इस फिल्म से डेब्यू किया है, तो उनकी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर शायद ही पिछली बार की तरह कोई करिश्मा कर पाए। बॉलिवुड की तमाम खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies 'मस्ती' सीरीज की पिछली दोनों फिल्मों को मिलाप ने लिखा तो एकता कपूर की 'क्या कूल हैं हम' सीरीज की लिखी उनकी दोनों फिल्मों ने पर औसत से ज्यादा बिज़नस कर दिखाया। यह अलग बात है कि मिलाप और सेंसर बोर्ड के बीच खासी रस्साकशी चली। 'क्या कूल हैं हम' पर बोर्ड ने न सिर्फ जमकर कैंची ही चलाई, बल्कि पर्दे तक पहुंचने के लिए फिल्म को ट्रिब्यूनल और रिव्यू कमिटी तक जाना पड़ा। कुछ ऐसा ही हाल बतौर डायरेक्टर मिलाप की इस पहली फिल्म 'मस्तीजादे' का भी रहा। अर्से से बनकर तैयार सनी लियोनी स्टारर इस फिल्म को सेंसर ने ऐसा बोल्ड और डबल मीनिंग डायलॉग से भरपूर समझा कि फिल्म को सेंसर का कोई भी सर्टिफिकेट देने से ही साफ इनकार कर दिया। लम्बे समय तक सेंसर की अलग-अलग कमिटियों से लेकर कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद अब जब 'मस्तीजादे' सिल्वर स्क्रीन पर उतरी है, तो फिल्म की अवधि सिमटते-सिमटते महज पौने दो घंटे के करीब ही रह गई है। अगर सनी लियोनी की बात करें तो एकता कपूर की 'रागिनी एमएमएस' के सीक्वल के बाद सनी की किसी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कामयाबी नहीं पाई। सनी और राम कपूर स्टारर पिछली फिल्म 'कुछ लोचा हो जाए' तो अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक नहीं निकाल पाई थी। ऐसे में मस्तीजादे सनी के करियर के लिए बेहद अहम है, लेकिन फिल्म देखने के बाद नहीं लगता कि इससे सनी के करियर को जरा भी फायदा होने वाला है। कहानी : जहां 'क्या कूल हैं हम' पॉर्न फिल्म और उनके स्टार्स के आसपास घूमती है, वहीं 'मस्तीजादे' की कहानी एक ऐड एजेंसी के आसपास टिकी है। ऐसा लगता है कि हमारे फिल्मकारों को ऐड एजेंसी और फिल्मी बैकग्राउंड पर फिल्में बनाना कुछ ज्यादा ही पसंद है। तभी तो मिलाप ने भी बतौर डायरेक्टर अपनी पहली फिल्म की कहानी का ताना-बाना भी ऐड एजेंसी के इर्द-गिर्द ही बुना। सनी केले (तुषार कपूर) और आदित्य चोटिया (वीर दास) एक ऐड एजेंसी में काम करते हैं। हालात ऐसे बनते हैं कि वीर और तुषार को ऐड एजेंसी से निकाल दिया जाता है। इन दोनों को लगता है कि ऐड फील्ड में इन दोनों को महारत हासिल है, बस यही सोचकर दोनों खुद की एक नई ऐड एजेंसी शुरू करते हैं। इन दोनों की मुलाकात एक जैसी नजर आने वाली अलग-अलग पर्सनैलिटी की दो खूबसूरत लड़कियों लिली लेले (सनी लियोन) और लैला लेले (सनी लियोनी) से होती है। इन दोनों को सनी से प्यार हो जाता है। इसके बाद कहानी में अलग-अलग टि्वस्ट आते हैं। ऐक्टिंग : सनी ने अपने डबल रोल में दोनों किरदारों को ठीक-ठाक निभाया है, लेकिन स्क्रिप्ट और किरदारों में दम न होने के चलते सनी खुद को बेहतरीन ऐक्ट्रेस के तौर पर साबित नहीं कर पाईं। यह कहना गलत होगा कि सनी ने इस बार भी अपने फैंस को लुभाने के लिए ऐक्टिंग पर ध्यान देने से ज्यादा अपनी बोल्ड अदाओं का ही सहारा लिया। वीर दास और तुषार कपूर ने अपने किरदारों को असरदार बनाने के लिए मेहनत तो की, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से ये दोनों भी कहीं असर नहीं छोड़ पाए। अन्य कलाकारों में असरानी, शाद रंधावा और सुरेश मेनन ने प्रभावित किया है, वहीं रितेश देशमुख की एंट्री मजेदार रही। संगीत : पौने दो घंटे की कहानी में बार-बार डाले गए गाने कहानी की पहले से धीमी रफ्तार को और कम करते हैं। अलबत्ता 'लैला तेरी' और 'बसंती' गानों का फिल्माकंन अच्छा हुआ है। क्यों देखें : अगर आप सनी लियोनी के पक्के फैन हैं और सिर्फ सनी की ब्यूटी और उनकी अदाओं को देखने के लिए थिएटर का रुख करते हैं तो इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है, वर्ना फिल्म में और कुछ ऐसा खास नहीं, जिसके लिए यह फिल्म देखी जाए। 50201959
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कैजाद गुस्ताद। ये नाम है उस शख्स का जिसे अमिताभ बच्चन कभी नहीं भूल पाएंगे। अमिताभ ने अपने करियर की महाघटिया फिल्म 'बूम' कैजाद के साथ ही की थी। फिल्म देखने के बाद बिग-बी के प्रशंसक भी नाराज हो गए थे कि उन्होंने इतनी घटिया फिल्म क्यों की। बूम को रिलीज हुए दस वर्ष हो गए हैं और अभी भी कैजाद फिल्म मेकिंग के गुर नहीं सीख पाए। उनकी ताजा फिल्म 'जैकपॉट' बेहद घटिया फिल्म है। पुरस्कारों का मौसम आने वाला है और संभव है कि 'जैकपॉट' वर्ष की सबसे घटिया फिल्म का अवॉर्ड अपने नाम कर ले। स्कूली बच्चों को अक्सर एक प्रश्न हल करने के लिए दिया जाता है। दस वाक्यों में लिखी गई कहानी में वाक्यों का क्रम ऊपर-नीचे कर दिया जाता है और फिर बच्चों से सही क्रम में करने के लिए कहा जाता है। कैजाद की यह फिल्म भी ऐसी ही है। 92 मिनट की फिल्म में 60 मिनट तो समझ में ही नहीं आता कि स्क्रीन पर क्या चल रहा है। कैजाद इस फिल्म के जरिये क्या बताना चाहते हैं? अंतिम आधे घंटे में कैजाद ने कहानी पर उठाए गए सवालों के जवाब दिए हैं जिन्हें जानकर सिवाय सिर पीटने के और कुछ नहीं किया जा सकता है। कैजाद ने अपनी फिल्म के जरिये ऑडियंस की इंटेलीजेंसी को टेस्ट करने की कोशिश की है, लेकिन इस परीक्षा में परीक्षक (कैजाद) ही फेल हो गया है। एक सीधी-सपाट कहानी को इतना तरोड़-मरोड़ के दिखाने का निर्णय केवल कैजाद ही ले सकते थे। शायद दर्शकों को कन्फ्यूज करना ही कैजाद एक काबिल निर्देशक की निशानी मानते हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट निहायत ही बकवास है। फिल्म में नसीरुद्दीन शाह का कैरेक्टर इतना मूर्ख है कि अपने पैसे वसूलने के लिए वह उसी नाव में छेद कर देता है जिस पर वह खड़ा है। वह इतना भी नहीं जानता कि पैसे मिल जाएंगे तो भी वह ‍जीवित नहीं रह पाएगा। कहानी है बॉस (नसीरुद्दीन शाह) की जो एक केसिनो गोआ में चलाता है। फ्रांसिस (सचिन जोशी), माया (सनी लियोन), एंथनी (भारत निवास) और कीर्ति (एल्विस मैस्केरेनहास) के साथ वह एक प्लान बनाता है कि वे गलत तरीकों से उसके केसिनो में पांच करोड़ रुपये का जैकपॉट जीत जाए। इस रकम की चोरी करवा दी जाएगी और यह रकम वे बीमा कंपनी से वसूलेंगे। दूसरी ओर फ्रांसिस अपने प्लान के जरिये बॉस के साथ फरेब कर देता है, जिसे देख अभिषेक बच्कन अभिनीत 'ब्लफमास्टर' फिल्म की याद आती है। लेकिन 'जैकपॉट' की तुलना में 'ब्लफमास्टर' महान फिल्म थी। कैजाद की काबिलियत पर पैसा लगाने का साहस सचिन जोशी ने किया है। सचिन बेहद पैसे वाले हैं और स्क्रीन पर अपना चेहरा देखने का उन्हें शौक है। लिहाजा खुद पैसा लगाते हैं और फिल्म बनाते हैं। ये एक अमीर व्यक्ति का शौक है, जिससे कैजाद जैसे निर्देशकों को काम मिल जाता है, लेकिन जेब दर्शक की कट जाती है। सचिन अभिनय का 'क ख ग' भी नहीं जानते हैं। न उनकी शख्सियत हीरो जैसी है और आवाज में भी जोर नहीं है। पूरी फिल्म में मिसफिट नजर आए। सनी लियोन को फिल्म में क्यों रखा जाता है, इसका जवाब सभी जानते हैं। अभिनय के मामले में वे अभी भी उतनी ही कच्ची हैं जितनी 'जिस्म 2' में थीं। संवाद बोलते ही उनकी पोल खुल जाती है क्योंकि संवाद के अनुरूप चेहरे पर भाव नहीं आते हैं। कैजाद गुस्ताद की यह बात तो माननी पड़ेगी कि बड़े कलाकारों को अपनी फिल्म में राजी करने की प्रतिभा उनमें हैं। 'बूम' में अमिताभ को राजी कर लिया था तो 'जैकपॉट' में नसीरुद्दीन शाह को। नसीर ने काम तो अच्छा किया है, लेकिन उनके जैसे काबिल अभिनेता को इस घटिया फिल्म में देखना दु:खद है। क्या नसीर को अभी भी कुछ सिद्ध करने की जरूरत है जो उन्होंने 'जैकपॉट' के लिए हामी भरी। जैकपॉट फिल्म हर डिपार्टमेंट में घटिया है। इसका सबसे अच्छा हिस्सा वो है जब स्क्रीन पर 'द एंड' लिखा आता है। बैनर : वाइकिंग मीडिया एंड एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : रैना सचिन जोशी निर्देशक : कैजाद गुस्ताद संगीत : शरीब साबरी, तोशी साबरी कलाकार : सनी लियोन, सचिन जोशी, नसीरुद्दीन शाह, मकरंद देशपांडे सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 32 मिनट
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सुजॉय घोष द्वारा निर्देशित फिल्म 'कहानी' (2012) बॉलीवुड में बनी बेहतरीन थ्रिलर मूवीज़ में से एक है। सुजॉय ने साबित किया कि बिना चेजिंग सीन, गन, स्टाइलिश लुक और लार्जर देन लाइफ के भी एक थ्रिलर फिल्म बनाई जा सकती है। वही सुजॉय, विद्या बालन और बंगाल एक बार फिर 'कहानी 2 : दुर्गा रानी सिंह' में लौट आए हैं। कहानी पार्ट टू में नई कहानी और किरदार हैं। विद्या बागची इस बार विद्या सिन्हा (विद्या बालन) है। कोलकाता से 35 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे चंदननगर में अपनी 14 वर्षीय बेटी मिनी (नायशा खन्ना) के साथ रहती है। मिनी चल नहीं पाती है और उसके इलाज के लिए विद्या पैसा इकट्ठा कर अमेरिका जाना चाहती है। एक दिन मिनी का अपहरण हो जाता है और विद्या बदहवास होकर उसे ढूंढने निकलती है। रास्ते में वह दुर्घटना का शिकार होकर कोमा में पहुंच जाती है। मामले की जांच के लिए इंस्पेक्टर इंद्रजीत सिंह (अर्जुन रामपाल) अस्पताल पहुंचता है और वह विद्या की पहचान दुर्गा रानी सिंह के रूप में करता है। दुर्गा एक अपराधी है जिसकी पुलिस को लंबे समय से तलाश है। उस पर अपहरण और हत्या का आरोप है। क्या विद्या और दुर्गा एक ही है? दुर्गा अपराधी क्यों बनी? इंद्रजीत सिंह उसे कैसे जानता है? जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है गुत्थियां सुलझती जाती हैं। फिल्म की कहानी सुजॉय घोष और सुरेश नायर ने मिलकर लिखी है जबकि स्क्रीनप्ले और निर्देशन सुजॉय घोष का है। फिल्म की शुरुआत बेहतरीन है। अलसाया सा चंदननगर और विद्या बालन का दमदार अभिनय फिल्म के मूड को सेट कर देता है। पहली फ्रेम से ही विद्या साबित कर देती है कि वह अपनी बेटी को कितना चाहती है। शुरुआती पंद्रह-बीस मिनट में जब आप सिनेमाघर की कुर्सी पर अपने आपको एडजस्ट करते हैं तब तक फिल्म में तेजी से घटनाक्रम घट जाते हैं। मिनी का अपहरण, विद्या का एक्सीडेंट और यह प्रश्न भी सामने आता है कि यह विद्या है या दुर्गा? अपनी इस तेज गति से निर्देशक चौंका देते हैं। इसके बाद फिल्म थोड़ा थमती है। कहानी आठ साल पीछे जाती है। विद्या के अतीत से पर्दा हटाती है। कहानी पश्चिम बंगाल के हिल स्टेशन कलिम्पोंग में शिफ्ट हो जाती है। यहां पर कहानी की इमोशन अपील बढ़ जाती है। बाल यौन शोषण वाला मुद्दा दर्शकों को परेशान करता है। आप सिहर जाते हैं। फर्स्ट हाफ तक निर्देशक सुजॉय घोष कमाल करते हैं। स्क्रिप्ट एक दम कसी हुई लगती है, लेकिन जैसे ही दूसरा हाफ शुरू होता है स्क्रिप्ट में क्रैक उभरने लगते हैं और सुजॉय के हाथों फिल्म फिसलने लगती है। स्क्रिप्ट की यहां ज्यादा बात इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे रहस्य की परतें उजागर हो जाएंगी, लेकिन यह कहा जा सकता है कि सेकंड हाफ में 'कहानी 2' फिल्मी होने लगती है और कुछ बातें अधूरी लगती हैं। जैसे- आठ साल तक विद्या कैसे पुलिस से बचती रही? मिनी के अपहरण का मकसद मात्र मिनी और विद्या की हत्या ही था तो उसका अपहरण क्यों किया गया? क्यों विद्या की असली पहचान पुलिस को अपहरणकर्ता ने नहीं बताई? विद्या और इंद्रजीत की शादी वाली बात फिल्म की कमजोर कड़ी है और इसे बहुत हल्के से लिया गया है। बाल यौन शोषण वाला ट्रैक थोड़ा लंबा हो गया है जो दर्शकों में उदासी पैदा करता है। स्क्रिप्ट की खूबियों की बात की जाए तो विद्या और मिनी के रिश्ते को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। मिनी के प्रति विद्या के प्यार को आप महसूस करते हैं। तनाव से भरी और उदास फिल्म में इंद्रजीत तथा उसकी पत्नी के बीच के प्रसंग थोड़ी राहत देते हैं। कहा नी-2 के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें स्क्रिप्ट की कमियों के बावजूद यदि फिल्म आपको बांध कर रखती है तो इसका श्रेय सुजॉय घोष के निर्देशन और विद्या बालन के अभिनय को जाता है। सुजॉय ने रियल लोकेशन पर शूटिंग की है जो कहानी को वास्तविकता के नजदीक ले जाता है। थ्रिलर फिल्म के लिए उन्होंने अच्छा माहौल बनाया है। चंदननगर, कलिम्पोंग, कोलकाता और बांग्ला संस्कृति को आप महसूस करते हैं। सुजॉय का प्रस्तुतिकरण शानदार है। स्क्रिप्ट की कमजोरी के कारण दूसरे हाफ में सुजॉय असहाय हो जाते हैं और फिल्म कही-कही बनावटी हो जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स ऐसा नहीं है जो सभी को अच्छा लगे, इस पर बहस हो सकती है। विद्या बालन ने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। एक ऐसी मां जो अपनी बेटी को बचाने के लिए कुछ भी कर सकती है, अन्याय न सहने वाली और किसी भी हद तक जाने वाली महिला का किरदार उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और वे फिल्म की 'हीरो' हैं। अर्जुन रामपाल भी अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं तो इसका श्रेय निर्देशक सुजॉय घोष को जाता है कि उन्होंने अर्जुन से एक्टिंग करा ली है। नायशा खन्ना, जुगल हंसराज, खरज मुखर्जी, कौशिक सेन और मनिनी चड्ढा अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक तारीफ के काबिल है। पार्श्व में बजते पुराने गीत और वातावरण में होने वाले कोलाहल का अच्छा प्रयोग किया गया है। कहानी 2 एक डार्क मूवी है। जिसमें थोड़ा रहस्य है, थोड़ा रोमांच है, कुछ खूबियां हैं तो कुछ कमजोरियां। फिल्म बहुत अच्छी नहीं है तो इतनी खराब भी नहीं कि देखी भी न जा सके। निर्माता : सुजॉय घोष, जयंतीलाल गढ़ा निर्देशक : सुजॉय घोष संगीत : क्लिंटन केरेजो कलाकार : विद्या बालन, अर्जुन रामपाल, जुगल हंसराज, मनिनी चड्ढा, नायशा खन्ना, कौशिक सेन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 मिनट 55 सेकंड्स
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'उम्मीद पे दुनिया कायम है' और उम्मीद की यही डोर निर्देशक सुदीप बंदोपाध्याय की फिल्म 'होप और हम' में तमाम कलाकारों को एक माला में बांधे रखती है। कहानी में हर किरदार किसी न किसी उम्मीद की आस में है और फिल्म के क्लाइमेक्स में जब हर किसी की उम्मीद पूरी होती है, तो आप खुद उम्मीद के उन टुकड़ों के साथ सिनेमा हॉल से विदा लेते हैं। कहानी बहुत ही सिंपल है। नागेश श्रीवास्तव (नसीरुद्दीन शाह) यूं तो बहुत ही समझदार और जिम्मेदार बुजुर्ग हैं, मगर जब उनकी बाबा आदम के जमाने की फोटोकॉपी मशीन को रिटायर करने की बात आती है, तो वे बच्चों की तरह उसे बचाए रखने की तिकड़म करने लगते हैं। असल में इस फोटोकॉपी मशीन ने उनके संघर्ष के दौर में परिवार को संबल और सुरक्षा दी थी। नागेश का बेटा नीरज (आमिर बशीर) प्रमोशन की जद्दोजहद में लगा है, जबकि उसकी पत्नी (सोनाली कुलकर्णी) चाहती है कि उसके ससुर उस मशीन को अलविदा कहकर उस जगह को बेटी के पढ़ने का कमरा बना दें। फोटोकॉपी मशीन से जुड़े नागेश के जज्बातों को सिर्फ उसका नन्हा पोता अनु (कबीर साजिद) ही समझ पाता है। नागेश को उम्मीद है कि पुरानी मशीन का खराब हो चुका पुर्जा कहीं न कहीं जरूर मिल जाएगा। उसी बीच नागेश का छोटा बेटा नितिन (नवीन कस्तुरिया) दुबई से अपने पिता के लिए नई-नकोर और अडवांस फोटोकॉपी मशीन लाता है और उसी दौरान उसका मंहगा फोन खो जाता है। यहां नानी के घर गए अनु से एक भूल हो जाती है और अब वो उस भूल को सुधारने की उम्मीद लगाए बैठा है। निर्देशक सुदीप बंदोपाध्याय की होप और हम ने कहानी में कई लेयर्स और मुद्दों को गूंथा है। उन्होंने फिल्म में उम्मीद के साथ-साथ किस्मत के फलसफे को भी बयान करने का प्रयास किया है। उनके किरदार सच्चे और सहज नजर आते हैं, मगर फिल्म में कई जगह वे अपनी पकड़ खो देते हैं और कहानी सपाट लगने लगती है। फिल्म को स्क्रीनप्ले की सहायता से और दिलचस्प बनाया जा सकता था, हां फिल्म में कुछ हलके-फुलके पल हैं, जो मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं। नसीरुद्दीन शाह ने हमेशा की तरह अपने किरदार को सहज रखा है। वे नागेश श्रीवास्तव के रोल में विश्वसनीय लगे हैं। वहीं, उनके साथ बाल कलाकार कबीर साजिद ने उम्दा अभिनय किया है। नन्हे कबीर ने अपने बाल मानसिक द्वंद्व को बखूबी दर्शाया है। सोनाली कुलकर्णी के रोल में करने जैसा कुछ नहीं था। उन जैसी सशक्त अभिनेत्री के हिस्से में बेहतर सीन होते, तो कहानी संवर सकती थी। आमिर बशीर और नितिन कस्तुरिया ठीक-ठाक लगे हैं। फिल्म में संगीतकार रूपर्ट फर्नांडिस संगीत पक्ष को कर्णप्रिय नहीं बना पाए। क्यों देखें-पारिवारिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।
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Made with a whopping 150 crore budget, shivaay is very close to ajay devgan's heart. Ajay started working on shivvay last year and to give his 100 percent to the film, he even said no to two other projects. ajay feels a different connection with lord shiva since his childhood and perhaps this is the reason he left no stone unturned to make this beautiful film. The film has been shot in the scenic paradise of snowy bulgaria. this terrain is so tough that even the native filmmakers hesistate in shooting there. polish sensation Errica Kar is playing the lead actress in shivaay. ajay wanted to shoot the movie in canada initially.it was snowing heavily in canda when he reached there with his crew, and it adversely affected film's budget. after this setback, bulgaria came into the picture. 'शिवाय' का रिव्यू हिन्दी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। As far as the movie is concerned, his role as an actor and producer of the film is worth its part. however, direction of the film seems weak. film begins slowly and takes time to develop. Love connection between the lead pair is ineffective. After the interval, the film focuses on the father-daughter relationship and drastically it turns into a hardcore action thriller. You see blood all around. you as a viwer, somehow fail to absorb this 'action-emotion' complexity. story: Film starts with injured shivvay with three dead bodies around. he is holding a doll and film goes in flashback mode. Shivaay lives in a village of uttarakhand. apart from helping indian army in adverse situation, shivaay takes tourists trekking prjects. Olga (errica kar) comes here on a trekking trip with few of her friends. shivaay comes for her rescue in an avalanche and they come close to each other. Olga stays in the village for quite some time and here she realizes that she is pregnant. Olga wants to return to her family in bulgaria and therefore she is not willing to continue with her pregnancy. Shivaay, on the other side, is too happy with the idea of his own kid and wants volga to give birth to the baby. finally olga gives birth to a girl and goes back to her country. Shivaay names the baby gaura. gaura is unable to speak, but the father-daughter duo are living happily in their small village. One fine day gaura comes to know about her mother and she insisted to go to her. Shivvay finally agrees to this deal and they reach bulgaria. As soon as they reack there, gaura gets kidnapped.
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आम आदमी के हीरो पर फिल्में बनाने का ट्रेंड बॉलिवुड में पुराना है, लेकिन भावेश जोशी आम आदमी से सुपरहीरो बनने की कहानी है। यह कोई सुपर पावर वाला सुपर हीरो नहीं है, बल्कि आम आदमी का बिना सुपर पावर वाला सुपर हीरो है, जिसकी ताकत उसका जज़्बा है। फिल्म में भावेश जोशी (प्रियांशु पैन्यूली ) अपने दोस्तों सिकंदर उर्फ सिक्कू ( हर्षवर्धन कपूर) और आशीष वर्मा के साथ कॉलेज में पढ़ता है। फिल्म की शुरुआत अन्ना आंदोलन के बैकग्राउंड में होती है, जहां ये दोस्त भी देश भर के युवाओं की तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरते हैं और भावेश और सिक्कू मिलकर इंसाफ नाम का सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म शुरू करते हैं, लेकिन आंदोलन फेल हो जाता है। जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ने लगती है और सिक्कू इंजिनियर बनकर नौकरी शुरू कर देता है। वहीं भावेश अब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ना चाहता है। सिक्कू को विदेश जाने का ऑफर मिलता है। पासपोर्ट बनवाने के लिए उसे न चाहते हुए भी रिश्वत देनी पड़ती है। वहीं भावेश को मुंबई के पानी माफिया के खिलाफ शिकायत मिलती है। जब भावेश को पता लगता है कि सिक्कू ने रिश्वत दी है, तो उनमें झगड़ा हो जाता है। सिक्कू भावेश का विडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर देता है, तो माफिया के आदमी उसकी पिटाई कर देते हैं। भावेश फिर भी नहीं मानता और पानी माफिया के खिलाफ जुटाने जाता है, तो उसकी हत्या हो जाती है। अपने दोस्त की मौत का बदला लेने के लिए सिक्कू दुनिया की नज़र में विदेश जाकर खुद भावेश जोशी सुपरहीरो का रूप धारण करता है, लेकिन वह विलन बने निशिकांत कामत से बदला ले पाता है या नहीं, यह देखने के लिए आपको सिनेमा घर जाना होगा।भावेश जोशी भ्रष्टाचार के खिलाफ युवा आक्रोश की कहानी कहती है। डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवाने ने लीक से हटकर फिल्म बनाई है। हालांकि ढाई घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई है। एडिटिंग टेबल पर फिल्म को 20-25 मिनट काम किया जा सकता था। हर्षवर्धन कपूर इससे पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा की मिर्जिया में नजर आ चुके हैं, लेकिन फिल्म कुछ खास नहीं कर पाई थी। अबकी बार भी उन्होंने लीक से हटकर फिल्म चुनी है। करियर की शुरुआत में वह एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं। फिल्म में हर्षवर्धन ने ठीकठाक ऐक्टिंग की है। वहीं प्रियांशु पैन्यूली ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म की कहानी अनुराग कश्यप और खुद विक्रमादित्य मोटवाने ने लिखी है, जो कि अपनी लीक से हटकर कहानियों को कहने के लिए जाने जाते हैं। भावेश जोशी देखते वक़्त आपको अक्षय कुमार की गब्बर भी याद आती है। अगर आप लीक से हटकर फिल्में देखना पसंद करते हैं, तो इस फिल्म को देख सकते हैं।
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भारत में कई आपराधिक मामले ऐसे हैं जिनमें अपराधी तक पुलिस पहुंचने में नाकाम रही। ऐसा नहीं है कि अपराधी बहुत चालाक है बल्कि पुलिस और जांच कर रही एजेंसी की लापरवाही के कारण भी ऐसा होता है। 2008 में नोएडा में आरूषि तलवार और हेमराज के मर्डर केस पर मेघना गुलजार की फिल्म 'तलवार' आधारित है और फिल्म दर्शाती है कि यदि पुलिस शुरुआत में लापरवाही नहीं बरतती तो मामला उतना उलझता नहीं। प्रारंभिक तौर पर 'ओपन एंड शट केस' मानकर पुलिस अतिआत्मविश्वास का शिकार हो गई। इस दोहरे हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था क्योंकि एक मध्यमवर्गीय परिवार के घर में ये घटना हुई थी। लोग स्तब्ध थे कि कैसे एक डॉक्टर पिता अपनी 14 वर्षीय बेटी की हत्या कर सकता है और उसकी मां भी इस अपराध में शामिल है? लेकिन धीरे-धीरे इस नजरिये में बदलाव आया क्योंकि माता-पिता के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। कोर्ट ने फैसला सुना दिया है, लेकिन इस फैसले के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह शत-प्रतिशत सही है। अभी भी मामला चल रहा है। 'तलवार' फिल्म को बेहद रिसर्च करके लिखा गया है और इस फिल्म के रियल हीरो लेखक विशाल भारद्वाज हैं। उन्होंने हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया और फिर स्क्रिप्ट लिखी। फिल्म में इस मामले से जुड़े हर शख्स के नजरिये को दिखाया गया है। फिल्म में श्रुति नामक लड़की का मर्डर हुआ है। उस रात क्या हुआ इसका विवरण श्रुति के माता-पिता के नजरिये से दिखाया गया, फिर बताया गया कि पुलिस ने जांच कर क्या निष्कर्ष निकाला, और अंत में सीडीआई (सीबीआई की जगह) का पक्ष। सीडीआई का अधिकारी अश्विन (इरफान खान) मामले की जांच करता है और उसे यह साबित करने में सफलता हासिल कर कर जाती है कि मर्डर घर के नौकर खेमराज के दोस्त ने किया है, लेकिन लैब की रिपोर्ट ऐन मौके पर बदल जाती है। फिर वह अपने ही ऑफिस के सहयोगियों की ईर्ष्या का कारण बन जाता है। जांच का जिम्मा दूसरे ऑफिसर को दिया जाता है जो साबित करता है कि श्रुति का मर्डर उसके ही माता-पिता ने किया है। यानी कि यह मामला अधिकारियों के ईगो का प्रश्न बन जाता है और उस लड़की के प्रति उनकी कोई संवेदना नहीं रहती है जो अपनी जान से हाथ धो बैठती है। 'तलवार' सभी पक्ष को दिखाती है, लेकिन फिल्म कही ना कही तलवार दंपत्ति का पक्ष लेती है और इस बात को छिपाया भी नहीं है। तलवार के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें 'तलवार' देखते समय आपके दिमाग में लगातार विचार चलते हैं और यह सि‍लसिला फिल्म खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होता। इसे देख गुस्सा भी आता है और शर्म भी आती है। फिल्म में एक सीन है जिसमें सीडीआई के ऑफिसर्स की दोनों टीमें बैठी हैं जो इस केस को लेकर अलग-अलग निर्णय पर पहुंची हैं। वे इस मामले को लेकर चुटकुले सुनाते हैं और हंसते हैं। यह दृश्य कई बातें बोलता है। मेघना गुलजार के लिए यह फिल्म निर्देशित करना आसान नहीं रहा होगा। कही यह डॉक्यूमेंट्री न बन जाए या ड्रामा रचने में विषय की गंभीरता न खत्म हो जाए, इस दोधारी तलवार से वे बच निकलीं। कुछ बातें ऐसी हैं जो फिजूल की हैं जैसे इरफान और तब्बू वाला ट्रेक, जिसे शायद दर्शकों को राहत देने के लिए रखा गया है जो बिलकुल प्रभावित नहीं करता। कई बार उनकी कल्पनाशीलता का अभाव भी झलकता है, लेकिन कुल मिलाकर यह कठिन फिल्म है जिसे बनाना आसान नहीं है। बावजूद इसके मेघना तारीफ के काबिल हैं। फिल्म के हर कलाकार का अभिनय बेहतरीन है। अफसोस इस बात का है कि नीरज कबी और कोंकणा सेन शर्मा जैसे समर्थ कलाकारों का ज्यादा उपयोग नहीं हो पाया। 'तलवार' हर दर्शक वर्ग के लिए है और इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। बैनर : जंगली पिक्चर्स, वीबी पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विनीत जैन, विशाल भारद्वाज निर्देशक : मेघना गुलजार संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इरफान खान, कोंकणा सेन शर्मा, सोहम शाह, नीरत कबी, तब्बू सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 20 सेकंड
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सीरिज में बनने वाली फिल्में तीसरी-चौथी कड़ी तक बासी लगने लगने लगती है, लेकिन 'मिशन इम्पॉसिबल' इसका अपवाद है। इस सीरिज के पांचवे भाग में भी ताजगी नजर आती है। अंग्रेजी में यह 'मिशन इम्पॉसिपल : रोग नेशन' तथा हिंदी में 'मिशन : इम्पॉसिबल - दुष्ट राष्ट्र' के नाम से रिलीज हुई है। इस बार स्क्रिप्ट की बुनावट बहुत ही अच्छे तरीके से की गई है और यह फिल्म पूरे समय आपको बांध कर रखती है। ट्रेलर में टॉम क्रूज के प्लेन पर लटकने वाला सीन देख लगा कि यह क्लाइमैक्स में होगा, लेकिन फिल्म की शुरुआत ही इससे होती है और फिल्म का स्तर एकदम ऊंचा उठ जाता है। ईथन हंट (टॉम क्रुज) के नेतृत्व में काम करने वाला 'मिशन इम्पॉसिबल फोर्स' बेलारूस के मिंस्क के एयरपोर्ट में घुस जाता है ताकि केमिकल हथियारों की खेप को आने से रोका जा सके। जब तकनीकी विशेषज्ञ बेंजी डन (सिमॉन पेग) प्लेन को उड़ने से रोकने में असफल हो जाता है, तब अचानक ईथन की एंट्री एकदम सुपरहीरो की स्टाइल में होती है और वह प्लेन से लटक जाता है। ईथन प्लेन में घुस जाता है और कार्गो के साथ निकल जाता है। कुछ समय बाद, सीआईए प्रमुख एलन 'मिशन इम्पोसिबल फोर्स' की बुराई कर इसे खत्म कर देना चाहता है। उसके अनुसार यह फोर्स अनियंत्रित है और एक साल पहले क्रेमलिन पर हुए हमले का दोषी है। हालांकि विलियम ब्रैंड्ट (जेरेमी रेनर) इस बात का विरोध करता है, लेकिन मिशन इम्पॉसिबल फोर्स के सारे काम बंद कर दिए जाते हैं। ईथन की खोज शुरू कर दी जाती है जो इस घटना के बाद गायब हो जाता है, लेकिन वह गुपचुप तरीके अपने मिशन में लगा रहता है। ईथन, लुथर, विलियम और बेंजी एक साथ जुड़कर सिंडीकेट (पुराने बदमाशों के एक समूह) के खिलाफ काम करना शुरू कर देते हैं। इस काम में इल्सा (रेबेका फर्ग्युसन) नामक एजेंट उसकी मदद करती है, जिसकी पहचान से ईथन अनजान है। प्लेन के एक शानदार स्टंट के बाद फिल्म थोड़ा उलझाती है। जिस तरह से ईथन को कुछ समझ नहीं आता कि उसके साथ क्या और क्यों हो रहा है, वही हाल दर्शकों का होता है। पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है और परत दर परत राज खुलने लगते हैं, जिससे दर्शकों की रूचि फिल्म में बढ़ने लगती है। स्क्रिप्ट की यह खासियत है कि आगे क्या होने वाला है इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। फिल्म का विलेन, हीरो से एक चाल आगे रहता है। आमतौर पर इस तरह की फिल्मों में महिला किरदार सिर्फ ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखे जाते हैं, लेकिन रेबेका का किरदार इतना बढ़िया तरीके से लिखा गया है कि अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वे ईथन के साथ हैं या उसके खिलाफ। फिल्म में एक्शन कम है, और एक्शन प्रेमियों को इसकी कमी खल सकती है, लेकिन दो सीक्वेंस ऐसे हैं जो एक्शन प्रेमियों को खुश कर देते हैं। इनमें फिल्म की शुरुआत में प्लेन वाला सीन और उसके बाद मोरक्को में फिल्माया गया कार और बाइक का चेज़ सीक्वेंस। पानी के अंदर फिल्माया गया घटनाक्रम इतना रोमांचक है कि ईथन के साथ-साथ दर्शकों की सांस भी रूक जाती है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के अपहरण वाला घटनाक्रम भी जबरदस्त है। निर्देशक क्रिस्टोफर मैक्वरी ने अपने प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह का है कि दर्शक आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा नहीं लगा सके। शुरुआत में उन्होंने दर्शकों को उलझाया है और फिर धीरे-धीरे ईथन के मिशन को दिलचस्प बनाया है। विलेन को यदि और बेहतर तरीके से पेश किया जाता तो बेहतर होता। साथ ही कुछ जगहों पर फिल्म को खींचा गया है। 53 वर्ष की उम्र में भी टॉम क्रूज 35 के नजर आते हैं। गौरतलब है कि प्लेन वाला स्टंट उन्होंने किया है। फिल्म के किरदार को जो लार्जर देन लाइफ वाला करिश्मा चाहिए था, उस कसौटी पर टॉम खरे उतरते हैं। जेरेमी रेन, सिमॉन पेग उम्दा कलाकार हैं और उन्हें भी निर्देशक ने अच्छे फुटेज दिए हैं। रेबेका फर्ग्युसन का रोल और अभिनय प्रभावी है। उन्होंने भी एक्शन और स्टंट्स शानदार तरीके से किए हैं। तकनीकी रूप से भी फिल्म प्रभावी है। सिनेमाटोग्राफी ऊंचे दर्जे की है। टॉम क्रूज, उतार-चढ़ाव से भरपूर कहानी, शानदार अभिनय और स्टाइलिश एक्शन के कारण मिशन इम्पॉसिबल रोग नेशन का देखना बनता है। निर्देशक : क्रिस्टोफर मैक्वरी कलाकार : टॉम क्रूज़, जर्मी रैनर, सिमन पेग, रेबेका फर्ग्युसन, सीन हैरिस
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बैनर : एस. स्पाइस स्टुडियोज़, प्लेटाइम क्रिएशन्स, ग्रेजिंग गोट प्रोडक्शन्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अक्षय कुमार, अश्विनी यार्डी, परेश रावल निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : हिमेश रेशमिया, अंजान-मीत ब्रदर्स, सचिन-जिगर कलाकार : अक्षय कुमार, परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, महेश मांजरेकर, गोविंद नामदेव, सोनाक्षी सिन्हा-प्रभुदेवा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 12 मिनट ओह माय गॉड भ गवान के खिलाफ न होकर उनके नाम पर व्यवसाय चलाने वालों के खिलाफ है। धर्म का भय बताकर धर्म के नाम पर जो लूट-खसोट की जा रही है उन लोगों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें बेनकाब करने की कोशिश की गई है। आस्था के नाम पर अंधे बने हुए लोग भी कम दोषी नहीं हैं। मंदिरों में चढ़ावे के नाम पर पैसे, हीरे-जवाहरात, मुकुट, सिंहासन चढ़ाए जाते हैं जिनकी कीमत सुन हम दंग रह जाते हैं। एक तरफ भोजन के अभाव में लोग भूखे मर रहे हैं तो दूसरी ओर लीटरों दूध भगवान पर चढ़ाया जा रहा है जो मंदिर से निकलकर गटर में मिल जाता है। लोगों को तन ढंकने के लिए चादर नहीं है और दरगाह में चादर चढ़ाई जाती हैं। कुछ साधु-संत भगवान का रूप बने हुए हैं, सोने के सिंहासन पर वे बैठते हैं, लाखों की कार में घूमते हैं और शानो-शौकत में राजा-महाराजाओं को पीछे छोड़ते हैं। इन लोगों के नकाब खींचने का काम ‘ओह माय गॉड’ करती है। धर्मभीरू लोग इतने डरे हुए हैं कि हजारो वर्ष पुरानी परंपराओं का पालन बिना सोचे-समझे अभी भी कर रहे हैं। उन्होंने यह बात अपने माता-पिता से सीखी है और इसे वे अपने बच्चों को भी सिखाते हैं। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि ये परंपराएं उस कालखंड में उस दौर के सामाजिक दशा को देखकर बनाई गई थी, जिनका वर्तमान में कोई महत्व नहीं है। रीतियां कुरीति बन चुकी हैं। भगवान से सौदे किए जाते हैं कि तुम मेरा ये काम कर दोगे तो मैं इतने रुपये चढ़ाऊंगा, उपवास करूंगा। ताबीज पहन कर, अंगुठियों में पत्थर पहन कर समझा जा रहा है कि उनका भविष्य सुधर जाएगा। ताज्जुब की बात तो ये है कि ये अनपढ़ नहीं बल्कि पढ़े-लिखे लोग भी कर रहे हैं जबकि आस्थाएं पाखंड में बदल चुकी हैं और अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं। सभी साधु-संतों को ढोंगी नहीं बताया गया है। फिल्म में एक संत ऐसा है जो ढोंगियों को पोल देखते हुए बहुत खुश होता है। फिल्म में बताया गया है कि गीता, कुरान और बाइबल को समझे बिना लोग धर्म की अपने तरीके से व्याख्या कर रहे हैं। कांजी मेहता के किरदार से इतनी गंभीर बातें बेहद हल्के-फुल्के तरीके से फिल्म में दिखाई गई है। मोटे तौर पर सोचा जाए तो भगवान को मानना भी एक तरह का अंधविश्वास है। लेकिन फिल्म में भगवान को भी दिखाया गया है और इसको लेकर कुछ लोगों को आपत्ति भी हो सकती है। खैर, भगवान यहां खुद खुश नहीं है कि उनके नाम पर किस तरह अंधविश्वास फैल चुका है। कांजी भाई की भूकंप में दुकान बरबाद हो जाती है और इंश्योरेंस कंपनी इसे ‘एक्ट ऑफ गॉड’ करार देते हुए हर्जाना देने से इंकार कर देती है। कांजी भाई भगवान के खिलाफ मुकदमा दायर करते हैं कि यदि उन्होंने उनकी दुकान बरबाद की है तो उन्हें हर्जाना देना पड़ेगा। कोर्ट का ंज ी भाई को कहती है कि वे भगवान होने का सबूत दें। कांजी भाई सभी धर्मों के पंडित, मौलवी और पादरी को लीगल नोटिस भेजते हैं। गुजराती नाटक ‘कांजी विरुद्ध कांजी’ और हिंदी नाटक ‘किशन वर्सेस कन्हैया’ पर यह फिल्म आधारित है। यह एक ऐसा विषय है जिसे ‍एक फिल्म में समेट पाना बेहद मुश्किल काम है। ‘ओह माय गॉड’ में भी कई बातें अनुत्तरित रह जाती है। कई जगह फिल्म दिशा भटक जाती है, लेकिन फिर भी यह फिल्म अपना मैसेज देने में कामयाब रहती है। खुद लेखक इस बात को जानते हैं कि कुछ लोगों की सोच इस फिल्म को देख बदल सकती है, लेकिन ये असर ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएगा। इसीलिए फिल्म के अंत में परेश रावल से संत बने मिथुन चक्रवर्ती कहते हैं कि धर्म और आस्था अफीम के नशे की तरह है, जिन लोगों की सोच तुमने बदली है थोड़े दिनों बाद मेरे आश्रमों में नजर आएंगे। मिथनु, पूनम झावर और गोविंद नामदेव के किरदार रियल लाइफ से प्रेरित हैं। किससे प्रेरित हैं, यह पता करने में ज्यादा देर नहीं लगती है। निर्देशक उमेश शुक्ला के पास नाटक तैयार था और उसको उन्होंने स्क्रीन पर अच्छे से उतारा। कलाकारों का चयन सटीक है जिससे उन्हें फिल्म को बेहतर बनाने में आसानी रही। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां हैं, लेकिन धर्म को लेकर हजारों सालों से बहस चली आ रही है इसलिए लेखक को दोष देना गलत होगा। ‍अंत में परेश रावल को बीमार करना और भगवान के चमत्कार से ठीक होना फिल्म को कमजोर करता है। फिल्म के कुछ संवाद तीखे हैं जो कुछ लोगों को चुभ सकते हैं। परेश रावल इस फिल्म के हीरो हैं। कांजी भाई के रूप में किसी और को सोचना मुश्किल है। परेश की एक्टिंग की खास शैली है और उसी शैली में उन्होंने कांजी भाई का रोल निभाया है। अक्षय कुमार का रोल बेहद छोटा है, लेकिन भगवान के रूप में वे प्रभावित करते हैं। इस रोल के लिए जो सौम्यता और चेहरे पर शांति का भाव चाहिए था वो उनके चेहरे पर नजर आता है। मिथुन चक्रवर्ती ने अपनी ‘अदाओं’ से दर्शकों को हंसाया है और उन्होंने अपने किरदार को अश्लील नहीं होने दिया है। गोविंद नामदेव की एक्टिंग लाउड है, लेकिन उनके किरदार पर सूट होती है। पूनम झावेर को कम फुटेज मिले। सोनाक्षी सिन्हा और प्रभुदेवा पर फिल्माया गया आइटम सांग ‘गो गो गोविंदा’ शानदार कोरियोग्राफी के कारण देखने लायक है। ‘ओह माय गॉड’ धर्मभीरू लोगों को यह बात सिखाती है कि भगवान से डरो नहीं बल्कि उनसे प्यार करो और इंसानियत को ही सबसे बड़ा धर्म मानो।
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बैंड को जोड़ा गया है जेल से। जहां एक प्रतियोगिता के लिए लखनऊ सेंट्रल जेल का बैंड तैयार होता है जिसमें कैदी परफॉर्म करने वाले हैं। कैदियों का प्लान है कि इस तैयारी की आड़ में जेल से भाग निकला जाए। एक हत्या के आरोप में किशन लखनऊ सेंट्रल जेल में सजा काट रहा है और वहां बैंड बनाता है। उसके बैंड में दिक्कत अंसारी, विक्टर चटोपाध्याय, पुरुषोत्तम पंडित और परमिंदर शामिल हैं। किस तरह वे प्लानिंग करते हैं? क्या जेल से भाग निकलने में कामयाब होते हैं? यह फिल्म का सार है। आइडिया अच्छा था, लेकिन इस आइडिये पर लिखी कहानी दमदार नहीं है। रंजीत तिवारी और असीम अरोरा द्वारा लिखी कहानी बहुत फॉर्मूलाबद्ध है। जैसे बैंड में अलग-अलग धर्म के लोग है। जेल में कैदियों का आपसी संघर्ष है। फिल्म में एक हीरोइन भी होना चाहिए तो गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) का किरदार भी रखा गया है, जिसके किरदार को ठीक से फिट करने के लिए सिचुएशन भी नहीं बनाई गई। फिल्म के लेखन में कई कमजोरियां भी हैं। किशन को जिस तरह से जेल में डाला गया और निकाला गया वो बेहद सतही है। जेल के अंदर का ड्रामा भी बेहद बोर है। किरदारों का परिचय कराने और बैंड की तैयारियों में बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं कि यह दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। समझ में नहीं आता कि मुद्दे पर आने में इतना ज्यादा समय क्यों खर्च किया गया? जेल के अंदर रह कर किशन और उसके साथी जेल से भागने की तैयारी करते हैं वो भी विश्वसीनय नहीं है। लखनऊ सेंट्रल जेल का जेलर राजा श्रीवास्तव (रोनित रॉय) को बेहद खूंखार बताया गया है। वह यह बात सूंघ लेता है कि ये कैदी भागने की तैयारी में है, इसके बावजूद वह कड़े कदम क्यों नहीं उठाता समझ के परे है। किशन और उसके साथी बड़ी आसानी से कपड़े जुटा लेते हैं, नकली चाबी बना लेते हैं, कुछ धारदार चीजें प्राप्त कर लेते हैं। फिल्म अंतिम कुछ मिनटों में ही गति पकड़ती है जब ये कैदी जेल से भागने की तैयारी में रहते हैं, लेकिन तब तक फिल्म में दर्शक अपनी रूचि खो बैठते हैं और चाहते हैं कि फिल्म खत्म हो और वे सिनेमाघर की कैद से मुक्त हों। रंजीत तिवारी का निर्देशन औसत है। उन्होंने बात कहने में ज्यादा समय लिया है। फिल्म को वे न मनोरंजक बना पाए और न जेल से भागने का थ्रिल पैदा कर पाए। किसी किरदार के प्रति वे दर्शकों में सहानुभूति भी नहीं जगा पाए। किशन, गायत्री और राजा के किरदारों को भी उन्होंने ठीक से पेश नहीं किया है। रोनित रॉय के किरदार को ऐसे पेश किया मानो वह खलनायक हो, जबकि वह पूरी मुस्तैदी के साथ अपने जेलर होने के फर्ज को निभाता है। हां, वह जेल में शराब जरूर पीता है, लेकिन इसके अलावा कोई कमी उसमें नजर नहीं आती। किशन को बेवजह हीरो बनाने की कोशिश भी अखरती है। फरहान आम कैदी न लगते हुए भीड़ में अलग ही नजर आते हैं। गायत्री का किरदार मिसफिट है। फिल्म में कई बेतहरीन कलाकार भी हैं, लेकिन रंजीत उनका उपयोग ही नहीं ले पाए। कहने को तो ये एक बैंड की फिल्म है, लेकिन संगीत बेहद कमजोर है, जबकि संगीत फिल्म की जान होना था। लगभग पूरी फिल्म जेल के अंदर फिल्माई गई है जिससे राहत नहीं मिलती। फरहान अख्तर का अभिनय औसत है। किशन के रोल में उन्होंने कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की। डायना पेंटी का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया और वैसा ही उनका अभिनय भी रहा है। रोनित रॉय अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। दीपक डोब्रियाल, गिप्पी ग्रेवाल, राजेश शर्मा को ज्यादा कुछ करने का अवसर नहीं मिला। रवि किशन नाटकीय हो गए। कुल मिलाकर लखनऊ सेंट्रल एक उबाऊ फिल्म है। कुल मिलाकर लखनऊ सेंट्रल एक उबाऊ फिल्म है। निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, निखिल अडवाणी, मोनिषा अडवाणी, मधु भोजवानी निर्देशक : रंजीत तिवारी संगीत : अर्जुन हरजाई, रोचक कोहली, तनिष्क बागची कलाकार : फरहान अख्तर, डायना पेंटी, गिप्पी ग्रेवाल, रोनित रॉय, दीपक डोब्रियाल, इनाम उल हक, राजेश शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com प्रकाश झा के नाम के साथ मृत्युदंड, राजनीति, गंगाजल, अपहरण सहित कई बेहतरीन फिल्में जुड़ी हैं। झा अक्सर अपनी हर नई फिल्म में कोई सोशल मेसेज देने की कोशिश करते है। करीब तेरह साल पहले आई झा की अजय देवगन स्टारर 'गंगाजल' ने बॉक्स आफिस पर जबर्दस्त कामयाबी हासिल की थी। अब जब बॉक्स आफिस पर सीक्वल और रीमेक का ट्रेंड चल निकला है, तो झा ने अपनी इस सुपर हिट फिल्म का सीक्वल बनाकर पेश किया। कमजोर स्क्रिप्ट और सतही कहानी के साथ पुराने मसालों को पेश करके झा ने नई फिल्म तो बना डाली, लेकिन मल्टिप्लेक्स कल्चर और बॉक्स आफिस पर वर्चस्व करने वाली यंग जेनरेशन की कसौटी पर ऐसे मसालों पर बनी फिल्में बॉक्स आफिस पर कमजोर मानी जाती हैं। वैसे अगर झा की पिछली तीन फिल्मों चक्रव्यूह, आरक्षण और सत्याग्रह की बात करें तो जबर्दस्त प्रमोशन और बॉक्स आफिस पर बिकाऊ स्टार कास्ट के बावजूद उनकी यह फिल्में अपनी प्रॉडक्शन कास्ट तक बटोर नहीं पाईं। अफसोस, करीब डेढ़ दशक के बाद झा ने जब गंगाजल का सीक्वल बनाया तो कहानी में से नयापन गायब है। मेरीकॉम में अपने अभिनय की हर किसी की प्रशंसा बटोर चुकी प्रियंका चोपड़ा को झा अपनी इस फिल्म में लेडी सिघंम और दबंग की तर्ज पर पेश किया है। कहानी: बांकेपुर के दंबग विधायक बबलू पांडे (मानव कौल) का अपने इलाके में जबर्दस्त दबदबा है। बबलू पांडे को हर गैरकानूनी काम को करने के लिए स्टेट के मिनिस्टर ( किरण करमाकर ) का फुल सपॉर्ट है। विधायक पांडे का भाई डब्लू पांडे (निनाद कुमार ) एक बिजली कंपनी को अपने इलाके में 1600 मेगावॉट बिजली प्रॉजेक्ट लगाने के लिए जमीन उपलब्ध कराने की डील करता है। इलाके में डब्लू पांडे का ऐसा खौफ है कि कोई उसके सामने जुबां खोलने की जुर्रत नहीं कर सकता। ऐसे में डब्लू पांडे इलाके के अधिकांश गरीबों-किसानों की जमीन की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेता है, लेकिन जमीन के एक छोटे से टुकड़े के न मिल पाने की वजह से पावर कंपनी के साथ डब्लू पांडे की डील फाइनल नहीं हो पा रही है और इस डील में पांडे का करोड़ों रूपया अटका पड़ा है। ऐसे माहौल में, बांकेपुर में दबंग एसपी आभा माथुर (प्रियंका चोपडा) की एंट्री होती है। जमीन छीनने और पहले से कर्ज में दबे किसानों का दर्द और डब्लू पांडे के चौतरफा आंतक के साथ साथ पुलिस अफसरों को अपनी मुठ्ठी में रखने के किस्से आभा माथुर तक पहुंचते हैं। वहीं एक के बाद यहां हो रही गरीब किसानों की आत्महत्याओं के पीछे जब आभा माथुर को अपने ही डिपार्टमेंट के सर्कल बाबू भोलानाथ सिंह (प्रकाश झा) और कुछ दूसरे अफसरों के शामिल होने के साथ साथ बबलू पांडे डब्लू पांडे को पूरी तरह से सपॉर्ट करने की जानकारी मिलती है, तब एसपी आभा माथुर अपने डिपार्टमेंट के टॉप अफसरों के अहयोग और राजनीतिक अड़चनों और विरोध के बावजूद बबलू पांडे और उसके भाई से गांव वालों को हमेशा के लिए छुटकारा दिलाने का फैसला करती है। ऐक्टिंग: मेरीकॉम के बाद एकबार प्रियंका चोपड़ा ने इस किरदार को निभाने के लिए जबर्दस्त मेहनत की है। प्रियंका पर फिल्माएं कई ऐक्शन सीन्स खूब बन पड़े हैं। एसपी के चेहरे पर गुस्सा दिखाने की कोशिश करती हैं। बेशक आभा माथुर का किरदार प्रियंका को लेडी सिंघम और दबंग की कैटिगिरी में लाता है, लेकिन अगर हम उनकी ऐक्टिंग की तुलना यश राज बैनर की फिल्म मर्दानी में रानी मुखर्जी के किरदार से करते हैं यहां यकीनन प्रियंका रानी के पीछे नजर आती हैं। समझ नहीं आता प्रियंका के किरदार के बाद कहानी के सबसे अहम किरदार सर्कल आफिसर भोला नाथ सिंह का रोल झा ने खुद करने का फैसला क्यों किया? चलिए मानते है झा ऐक्टिंग के अपने शौक को पूरा करना चाहते थे तो कहानी के किसी हल्के किरदार को ही अपने पास रखते। ऐसे में फिल्म में बार-बार मैडम, सर बोलकर दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेने वाले झा साहब को सुझाव है फिलहाल तो ऐक्टिंग से दूर ही रहें। बबलू पांडे के किरदार मानव कौल ने अच्छा अभिनया किया है, मानव ने बबलू पांडे के नेगेटिव किरदार को कहानी के मुताबिक ऐसा बनाया कि हॉल में बैठे दर्शक इस किरदार से नफरत करने लगते हैं। मुरली शर्मा की ऐक्टिंग बरसों पहले सड़क में सदाशिवराव अमरापुरकर की याद दिलाती है। डब्लू पांडे के रोल में में निनाद कामत ने ओवर ऐक्टिंग की हैं। निर्देशन: आज मल्टिप्लेक्स कल्चर के दौर में ऐसी कहानी आउटडेटेड मानी जाती है। कई सीन्स को जबर्दस्ती खींचा गया है। बार-बार स्क्रीन पर खुद झा का आना भी अखरता है ऐसे में बतौर डायरेक्टर अपनी इस फिल्म में तेरह साल पहले वाला जादू नहीं बिखेर पाए, कहानी की धीमी रफ्तार कई बार आपके सब्र का इम्तिहान लेती है तो कई किरदार ऐसे रखे गए हैं जिन्हें कहानी से आसानी से दूर किया जा सकता था। बेशक झा ने एकबार फिर अपनी इस फिल्म में एकबार फिर सोशल मेसेज देने की कोशिश की है। वैसे झा अगर चाहते तो गरीब किसानों की खेती योग्य जमीनों के अधिग्रहण के पीछे राजनेताओं, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत पर एक अच्छी फिल्म बना सकते थे, लेकिन यहां उनकी कहानी डब्लू और बबलू के आगे-पीछे ही घूमती रही। ऐसे में कहानी को ढाई घंटे तक बेवजह खींचना समझ से परे है। संगीत: ऐसी कहानी में गानों को फिट करना मुश्किल होता है। ऐसे में झा ने गानों का बैकग्राउंड में फिल्माया है, लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की जुंबा पर आए। क्यों देखें: इस फिल्म को देखने की बस दो ही वजह हो सकती है- पहली कि आप प्रकाश झा की फिल्मों को मिस नहीं करना चाहते। दूसरी यह कि आप प्रियंका चोपड़ा के पक्के फैन हैं और अपनी चहेती ऐक्ट्रेस की फिल्में जरूर देखते हैं तो जय गंगाजल आपके लिए पैसा वसूल है।
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पिछले कुछ दिनों से बॉलीवुड में खेल की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनने लगी हैं और सुपरस्टार सलमान खान की फिल्म 'सुल्तान' देसी खेल कुश्ती के इर्दगिर्द बुनी गई प्रेम कथा है। कहानी है हरियाणा के एक गांव की। 30 साल का सुल्तान अली खान (सलमान खान) इस उम्र में भी पतंग लूटता रहता है और जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं है। आरफा हुसैन (अनुष्का शर्मा) एक पहलवान की बेटी है और उसका सपना भारत के लिए कुश्ती में ओलिंपिक में गोल्ड मैडल जीतना है। आरफा को सुल्तान दिल दे बैठता है, लेकिन आरफा उसे उसकी औकात या‍द दिला देती है। इस बेइज्जती से सुल्तान जिंदगी को सीरियसली लेने लगता है और पहलवानी शुरू करता है। कामयाबी उसके कदम चूमती है और आरफा से उसका निकाह हो जाता है। विवाह के बाद एक ऐसी घटना घटती है कि आरफा और सुल्तान के बीच दीवार खड़ी हो जाती है। एक-दूसरे को चाहने के बावजूद दोनों अलग हो जाते हैं। इससे सुल्तान टूट जाता है। हालात ऐसे बनते है कि वह 'प्रो टेक डाउन' स्पर्धा में हिस्सा लेता है। चालीस की उम्र में तोंद के साथ सुल्तान के लिए विश्व के दिग्गज खिलाड़ियों से भिड़ना आसान बात नहीं है। क्या वह सफल वापसी कर पाएगा? क्या आरफा और सुल्तान के बीच की दूरी मिटेगी? इन बातों का जवाब फिल्म में मिलता है। फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद और निर्देशन अली अब्बास ज़फर ने किया है। अली ने अपनी कहानी को दो भागों में बांटा है। एक तरफ सुल्तान, आरफा और पहलवानी है तो दूसरी ओर सुल्तान-आरफा की मोहब्बत है। इन दोनों कहानियों को उन्होंने पिरोकर खूबसूरती से साथ चलाया है। दोनों कहानियों की तुलना की जाए तो खेल पर प्रेम भारी पड़ता है। सलमान की जो पहलवान के रूप में यात्रा दिखाई गई है वो अविश्वसनीय है। अधिक उम्र में एक खिलाड़ी का कुश्ती सीखना आरंभ करना और देखते ही देखते अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में मैडल जीतना, यह बात हजम नहीं होती। यहां कहानी पर सुपरस्टार सलमान भारी पड़ते हैं। खेल को गंभीरता से न लेते हुए निर्देशक ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि सलमान सुपरस्टार हैं, इसलिए उनके लिए यह सब मुमकिन है। फिल्म में जहां-जहां खेल आता है वहां-वहां सलमान मिसफिट लगते हैं। ऐसा लगता है कि उनकी जगह युवा सितारा होना चाहिए था, लेकिन युवा सितारों के स्टारडम में इतना दम नहीं है कि वे सलमान की तरह भीड़ खींच सके। सुल्तान और आरफा की प्रेम कहानी बहुत ही उम्दा तरीके से पेश की गई है। यहां दो प्रेमियों की जिद, अहं का टकराव, जुनून वाला इश्क और अलगाव है। सुल्तान और आरफा के किरदार सीधे दर्शकों से जुड़ जाते हैं। दर्शक उनकी मोहब्बत और जुदाई को महसूस करते हैं। 'सुल्तान' की कहानी पिछले वर्ष रिलीज हुई 'ब्रदर्स' से मिलती-जुलती है, लेकिन 'ब्रदर्स' एक सूखी फिल्म थी जिसमें इमोशन नकली लगे, सुल्तान में इमोशनल की लहर पूरी फिल्म में बहती रहती है और इस लहर के नीचे कहानी और स्क्रिप्ट की कमियां छुप जाती हैं। सुल्तान-आरफा की प्रेम कहानी को धार देते हैं फिल्म के गीत। इरशाद कामिल ने सार्थक बोल लिखे हैं, भले ही गाने हिट नहीं हुए हैं, लेकिन फिल्म देखते समय ये कहानी को आगे बढ़ाने और दर्शकों को फिल्म से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निर्देशक के रूप में अली अब्बास ज़फर ने अपना काम इत्मीनान से किया है। उन्होंने फिल्म को दो घंटे 50 मिनट की बनाया है ताकि सलमान के फैंस परदे पर भरपूर सलमान दर्शन कर सकें। अली ने कमर्शियल फॉर्मेट का ध्यान रखा है, लेकिन साथ ही उन्होंने फिल्म को फॉर्मूलाबद्ध होने से बचाया है। सुल्तान और आरफा के किरदार को गढ़ने में भरपूर समय लिया है और फिर सुल्तान को खेल की दुनिया में उतारा है। सलमान को उन्होंने उसी मासूमियत के साथ पेश किया है जिसे देखना दर्शकों को पसंद है। बेटे-बेटी के उपदेशात्मक जैसे कुछ दृश्यों से बचा जा सकता था। पहले हाफ में फिल्म तेजी से चलती है। दूसरे हाफ के शुरुआत में फिल्म लड़खड़ाती है, लेकिन अंत में फिर संभल जाती है। फिल्म के अंत में क्या होने वाला है, सभी जानते हैं, लेकिन सलमान अपनी उपस्थिति से इस जाने-पहचाने क्लाइमेक्स में जोश भर देते हैं। फिल्म को आर्टर ज़ुरावस्की नामक पोलिश सिनेमाटोग्राफर ने शूट किया है। उन्होंने न केवल हरियाणा बल्कि कुश्ती और मार्शल आर्ट वाले सीन भी उम्दा तरीके से शूट किए हैं। आमतौर पर स्पोर्ट्स वाले सीन फिल्म में बहुत ज्यादा होते हैं तो उनकी एकरसता से दर्शक बोर हो जाते हैं, लेकिन यह आर्टर की सिनेमाटोग्राफी का कमाल है कि उन्होंने हर फाइट को अलग-अलग कोणों से शूट किया है। > > 'सुल्तान' के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म के सभी कलाकारों का काम अच्छा है। सलमान खान ने कुश्ती वाले सीन में काफी मेहनत की है। धोबी पछाड़ वाले दृश्य वास्तविक लगते हैं। दौड़-भाग वाले सीन में वे उतने फुर्तीले नहीं लगते हैं जितना की फिल्म में उन्हें दिखाया गया है। उनका अभिनय अच्छा और ठहराव लिए है। खास बात यह है कि सुल्तान को उन्होंने सलमान खान नहीं बनने दिया। हरियाणवी लहजे में हिंदी बोली है। कहीं-कहीं वे जल्दी बोल गए हैं जिससे कुछ संवाद समझ में नहीं आते हैं। निर्देशक को हरियाणवी के कठिन शब्दों से बचना था। अनुष्का शर्मा ने अपने किरदार को खास एटीट्यूड दिया है। वे महिला पहलवान के रूप में विश्वसनीय लगी हैं और भावनात्मक दृश्यों में उनका अभिनय देखते ही बनता है। रणदीप हुड्डा छोटे रोल में अपना असर छोड़ जाते हैं। सुल्तान के दोस्त के रूप में अनंत शर्मा प्रभावित करते हैं। अमित सध, परीक्षित साहनी सहित अन्य अभिनेताओं की एक्टिंग बेहतरीन है। 'सुल्तान' परफेक्ट फिल्म नहीं है, लेकिन मनोरंजन का झरना फिल्म में निरंतर बहता रहता है इसलिए देखी जा सकती है। यदि आप सलमान के फैन हैं तो कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अली अब्बास जफर संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सलमान खान, अनुष्का शर्मा, रणदीप हुड्डा, अमित सध सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 50 मिनट
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कहानी: इंसिया मलिक (जायरा) एक 15 साल की टैलंटेड स्कूल गर्ल है जो बड़ौदा की रहने वाली है। इंसिया की भावनाएं बहुत आहत होती हैं क्योंकि उसके मां-बाप के रिश्ते अच्छे नहीं है। फिर भी इंसिया अपने गायक बनने के सपने को पूरा करने के लिए जी-जान से कोशिश करती है। इसके अलावा वह अपनी मां को अपने कंजर्वेटिव और हिंसक पिता से दूर करने के प्रयास भी करती है। रिव्यू: जब आमिर खान किसी फिल्म के पीछे हों तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म बेहतरीन होगी। आमिर ने फिल्म में एक अजीब से म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार की भूमिका निभाई है। इस फिल्म से डायरेक्शन में डेब्यू करने वाले डायरेक्टर अद्वैत चंदन हैं जिन्होंने आमिर के साथ काम सीखा है। इस फिल्म में आपको इमोशंस, खुशी, आंसू, जोश और उत्सुकता देखने को मिलेगी।फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। यह एक लड़की की लड़ाई है या एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपनी हिंसक शादी से बाहर निकलना चाहती है। ऐसी कहनियों पर पहले भी फिल्में बन चुकीं हैं लेकिन इस फिल्म को अलग तरह से नैरेट करने का तरीका इसे औरों से अलग करता है जो आपको फिल्म के साथ बांधे रखता है। आप फिल्म मां-बेटी की फ्रस्टेशन को समझ सकते हैं जिनके घर में उनके इमोशंस तक को बंधक बना लिया गया है। जब इंसिया खुद को आजाद कर लेती है तो आप अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे होंगे और उसकी इस जीत के लिए ताली जरूर बजाएंगे। आमिर अपनी अदाकारी से पूरे सीन पर छा जाते हैं। फिल्म में उनका कैरक्टर अमेरिकन आयडल के जज ब्रैश सिमोन कॉवेल और बॉलिवुड के 90 के दशक के म्यूजिक डायरक्टरों का मिला-जुला रूप दिखता है लेकिन फिल्म में आगे आप इस किरदार की बारीकियों को देखते हैं। यह भी देखना अच्छा लगता है कि फिल्म में खुद को लाइम लाइट में लाने के लिए आमिर ने छोटी सी जायरा के साथ कहीं भी अन्याय नहीं किया है। जायरा को फिल्म में देखना खुशी देता है। फिल्म में मां के रोल में नज़मा (मेहर), चिंतन (तीर्थ शर्मा) और चाइल्ड ऐक्टर गुड्डू (कबीर) ने भी अपने किरदार बखूबी निभाए हैं। फिल्म में अमित त्रिवेदी का म्यूजिक आपको सुकून देता है लेकिन फिल्म के लिहाज से यह उतना बेहतरीन नहीं है जैसा इसे होना चाहिए था। कौसर मुनीर के गीत भी ठीकठाक हैं। क्यों देखें: अगर आपकी दुनिया आपकी मां के इर्द-गिर्द घूमती है तो आप इस फिल्म को ज़रूर देखें। लड़कियों को तो यह फिल्म हर हालत में देखनी ही चाहिए।
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गोलमाल सीरिज बेहद पॉपुलर है, लेकिन इसका चौथा भाग (गोलमाल अगेन) इस सीरिज की सबसे कमजोर फिल्म है। लगता है कि इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए रोहित को जो समझ में आया वो बना दिया गया है। रोहित ने सोचा होगा कि चलो यार गोलमाल का चौथा भाग बनाते हैं। गोपाल, माधव, लकी, लक्ष्मण, पप्पी भाई, वसूली भाई, इंस्पेक्टर दांडे के किरदार तो लोगों को याद ही हैं। इन किरदारों को पिरोने के लिए जो कहानी चुनी गई है वो दर्शाती है यह महज 'प्रोजेक्ट' है। पूरी फिल्म में घटिया हरकतें होती रहती है और दर्शक हैरान होते रहते हैं कि क्या ये वही रोहित शेट्टी की फिल्म है जो मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं। फिल्म में बार-बार कहा गया है कि 'लॉजिक' नहीं 'मैजिक' होता है, लेकिन फिल्म में न तो लॉजिक है और न ही मैजिक। पूरी फिल्म खोखली है जिसमें न कहानी है, न कॉमेडी है, न अच्छे गाने हैं, न रोमांस है। फॉर्मूला फिल्म की खूबियों पर भी ये फिल्म खरी नहीं उतर पाती। एक अनाथ आश्रम को बचाने की जद्दोजहद की कहानी है। एक तरफ गोपाल और लक्ष्मण है तो दूसरी तरफ माधव, लकी और लक्ष्मण। ये बचपन में इसी अनाथ आश्रम में पले बढ़े हैं। इस आश्रम को चलाने वाले व्यक्ति तथा इन सबकी दोस्त खुशी की हत्या कर दी गई है। कुछ लोग इस आश्रम पर कब्जा कर करोड़ों की जमीन हथियाना चाहते हैं। खुशी की आत्मा भटक रही है। वह इन सबके साथ एनी को भी नजर आती है। खुशी इन सबको अपनी हत्या वाली बात बताती है और ये बदला लेते हैं। दिखाया गया है खुशी की आत्मा जो चाहे वो कर सकती है। क्लाइमैक्स में विलेन की धुनाई करती है। सवाल यह उठता है कि जब ये वह सब खुद कर सकती है तो गोपाल और इसकी गैंग की जरूरत ही क्या है? क्यों इतना तानाबाना बुना गया है? ये सवाल कहानी को कमजोर करता है जो खुद रोहित शेट्टी ने लिखी है। फिल्म के पहले हाफ में गोपाल-लक्ष्मण बनाम माधव-लकी-लक्ष्मण की तकरार को दिखाया है। हंसाने की भरसक कोशिश की गई है और यह कोशिश साफ नजर आती है। गूंगी फिल्मों के जमाने में जिस तरह की कॉमेडी हुआ करती थी उसकी घटिया नकल करने की कोशिश भी की गई है। गोपाल का किरदार भूत-प्रेत और अंधेरे से डरता है, इसको लेकर की कुछ हास्य सीन रचने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है कि मुस्कान भी आ जाए। गोपाल और खुशी का रोमांस अधूरे मन से रखा गया है। दोनों की उम्र में अंतर दर्शाया गया है। कभी वे रोमांस करते हैं तो कभी उन्हें बाप-बेटी कह कर चिढ़ाया जाता है। आखिर इस सबकी जरूरत ही क्या थी? फिल्म में दो विलेन भी हैं, प्रकाश राज और नील नितिन मुकेश। इनकी एंट्री तब होती है जब इनको मार खानी होती है। गाने, एक्शन सीन खाली स्थान पर भरे गए हैं ताकि फिल्म को लंबा खींचा जा सके। गोपाल और उसकी गैंग की एनर्जी इस फिल्म में मिसिंग है। कुछ ही दृश्यों में वे हंसा पाए हैं और इसमें सारा दोष लेखकों को है जो कुछ भी ढंग का सोच नहीं पाए। बतौर निर्देशक रोहित शेट्टी निराश करते हैं। यह उनकी सबसे कमजोर फिल्म है। उनका 'टच' गायब है। एक रूटीन काम की तरह उन्होंने यह फिल्म बनाई है। लॉजिक को घर पर भी रख कर जाए तो भी यह फिल्म 'मैजिक' नहीं करती। कुछ सीन तो इसलिए रचे गए है ताकि कुछ कंपनियों के विज्ञापन किए जा सके। अजय देवगन, अरशद वारसी और तब्बू को ही कुछ कर दिखाने का मौका मिला है, लेकिन दमदार स्क्रिप्ट के अभाव में ये भी एक सीमा तक ही कुछ कर सके हैं। कुणाल खेमू, तुषार कपूर, परिणीति चोपड़ा, श्रेयस तलपदे भीड़ बढ़ाने के काम आए हैं। जॉनी लीवर जरूर अपने दम पर कुछ सीन में हंसाते हैं। प्रकाश राज और नील नितिन मुकेश के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, मुरली शर्मा जैसे कलाकारों को इसलिए लिया गया क्योंकि ये गोलमाल सीरिज की फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। इनसे ज्यादा तो नाना पाटेकर की आवाज मनोरंजन करती है। फिल्म में कई संगीतकारों ने संगीत दिया है, लेकिन एक भी ढंग का गाना नहीं बना है। दो पुराने हिट गीतों का भी सहारा लेकर काम चलाया गया है। कुल मिलाकर 'गोलमाल अगेन' दिवाली का फुस्सी बम है। बैनर : रोहित शेट्टी प्रोडक्शन्स, रिलायंस एंटरटेनमेंट, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता-निर्देशक : रोहित शेट्टी संगीत : एस. थमन, अमाल मलिक, डीजे चीताज़, अभिषेक अरोरा, न्यू‍क्लिया कलाकार : अजय देवगन, परिणीति चोपड़ा, तब्बू, अरशद वारसी, तुषार कपूर, श्रेयस तलपदे, कुणाल खेमू, मुकेश तिवारी, जॉनी लीवर, संजय मिश्रा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनट 3 सेकंड
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अगर आप मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, लेकिन अगर आप कलाकारों के अभिनय की रैंज और कुशल निर्देशन देखना चाहते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपके लिए ही है। गैंग्स ऑफ वासेपुर 1947 से 2004 के बीच बनते बिगड़ते वासेपुर शहर की कहानी है, जहां कोल और स्क्रैप ट्रेड माफिया का जंगल राज है। कहानी दो बाहुबली परिवारों पर आधारित है, जिसमें बदले की भावना, खून खराबा, लूट मार के साथ ही इसमें प्रेम कहानियों को भी जगह दी गई है। सरदार खान (मनोज वाजपेयी) की जिंदगी का एक ही मकसद है। अपने सबसे बड़े दुश्मन कोल माफिया से राजनेता बने रामधीर सिंह (तिग्मांशु धुलिया) से अपने पिता की मौत का बदला लेना। सरदार खान की प्रेम कहानी के साथ उसका इंतकाम भी चलता रहता है और कहानी दूसरी पीढ़ी पर आ जाती है। सरदार खान का बेटा (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) दुश्मन परिवार की बेटी से प्यार करने लगता है और सरदार के 'बदला' अभियान पर विराम लगाने की कोशिश करता है। फिल्म में किरदारों के ‍ह्रदय परिवर्तन से कहानी के उतार चढ़ाव को समझाया गया है, लेकिन यह फिल्म की कहानी को पेंचीदा बनाता है। कहानी में दहशत है और किसी की जान लेना मामूली बात। इसमें राजनीति, षड्यंत्र, अवैध कमाई और खून के खेल ने पूरे शहर को लहुलुहान बताया गया है। ठेट देसी कहानी फिल्माने के नाम पर फिल्म में गालियों की भरमार है। फिल्म में इंटरटेंमेंट की मात्रा कम और अपशब्द तथा हिंसा को ज्यादा जगह दी गई है। पहला भाग एवरेस्ट की चढ़ाई की तरह थका देने वाला है, इंटरवल से पहले फिल्म की गति बेहद धीमी है। हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म में जान आती है और दर्शकों को कुछ अच्छे सीन (भले ही वे मारधाड़, खून खराबा वाले हों) देखने को मिलते हैं। फिल्म के डायरेक्टर अनुराग कश्यप का निर्देशन सशक्त है। कई सीन देखने लायक हैं, लेकिन उलझी हुई कहानी के बजाय अगर वे एक सामान्य 'रिवेंज स्टोरी' पर फिल्म बनाते तो यह अधिक लोगों को अपील कर सकती थी। कहानी के मुख्य पात्र सरदार खान को अनुराग ने इतनी चतुराई से पर्दे पर उकेरा है कि दर्शकों को वह सिनेमा घर से निकलने के बाद भी याद रहता है। सैयद जि़शान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन लाडिया के साथ अनुराग कश्यप ने पटकथा का जिम्मा संभाला है। कुछ संवाद बेहतरीन हैं, लेकिन दो पीढ़ियों की कहानी के संवाद के जरिये तात्कालिक परिस्थितियों को निर्मित करने की कोशिश में फिल्म बोझिल सी हो गई है। फिल्म के मुख्य किरदारों ने छाप छोड़ने वाला अभिनय किया है। मनोज वाजपेयी ने बेहतरीन अभिनय किया है और अपने अभिनय के दम पर दर्शकों को सिनेमा घरों में रोकने की चुनौती में वे सफल रहे हैं। तिग्मांशु धुलिया‍ ने अपना का अच्छी तरह से अंजाम दिया। नवाजुद्दीन सिद्दकी ने नई उम्र के प्रेमी की भूमिका में सफल प्रयास किए। रीमा सेन और रिचा चड्ढा के लिए करने को बहुत कम था, लेकिन दोनों ही ठीक ठाक रहीं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंग ा निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : स्नेहा खानवलकर कलाकार : मनोज बाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दकी, पीयूष मिश्रा, रीमा सेन, जयदीप अहलावत, रिचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, राजकुमार यादव, तिग्मांशु धुलिया अगर आप मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, लेकिन अगर आप कलाकारों के अभिनय की रैंज और कुशल निर्देशन देखना चाहते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपके लिए ही है।
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chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म से एक और राइटर ने कैमरे के पीछे की कमान संभाली है तो लंबे अर्से बाद राजीव खंडेलवाल ने साबित किया कि अगर उन्हें दमदार किरदार मिले तो वह ऐसे किरदारों को असरदार ढंग से निभाने का दम रखते हैं। वैसे इस फिल्म के राइटर राजेश झावेरी ने इस फिल्म से पहले बतौर राइटर बॉक्स ऑफिस पर अलग-अलग सब्जेक्ट पर बनी कई हिट और औसत हिट फिल्में दी हैं, लेकिन खुद जब कैमरे के पीछे की कमान संभाली तो अपने लिए ऐसी कहानी चुनी जिसमें सेक्स और सस्पेंस का जमकर तड़का लगाया जा सके। बेशक राजेश की इस फिल्म का क्लाइमैक्स कुछ कमजोर रह गया हो, लेकिन इसके बावजूद फिल्म में इतने मसाले जरूर नजर आते हैं जो किसी फिल्म को बी और सी सेंटरों पर हिट नहीं तो औसत हिट करा सकते हैं। कहानी : कॉन्ट्रैक्ट किलर आर्मिन सेलम (राजीव खंडेलवाल) की एक भीषण ऐक्सिडेंट के बाद याददाश्त चली जाती है। इस ऐक्सिडेंट के बाद आर्मिन को सिर्फ काव्या चौधरी (गौहर खान) के बारे में जानकारी है। दरअसल, काव्या ही इस ऐक्सिडेंट के बाद याददाश्त खो चुके सलेम की देखभाल कर रही है। काव्या इस कोशिश में लगी है, जिससे आर्मिन की याददाशत जल्दी से लौट आए। काव्या का यह काम इतना आसान भी नहीं है। इस सिंपल स्टोरी में टिवस्ट् उस वक्त आता है, जब इस कहानी में एक के बाद एक कई दूसरे किरदारों की एंट्री होती है, जिससे आर्मिन की बीती जिदंगी के बारे में थोड़ा-बहुत पता चलता है तो वहीं इस बीच काव्या भी सलेम को प्यार करने लगती है। ऐक्टिंग : राजीव खंडेलवाल ने अपने किरदार के मुताबिक अच्छी ऐक्टिंग की है। ऐसा लगता है कि याद्दाश्त भूल चुके सलेम के किरदार को निभाने के लिए राजीव ने अच्छा होमवर्क किया। लंबे अर्से बाद किसी फिल्म में गौहर खान को एक पावरफुल किरदार मिला और गौहर ने खुद को ऐसी कलाकार साबित किया, जिन्हें ऐक्टिंग की एबीसी आती है। वहीं कटरीना मुनीरो और अंकिता मखवाना ने जहां अपनी ब्यूटी को कैमरे के सामने जमकर परोसने के साथ दमदार ऐक्टिंग भी की, विक्टर बैनर्जी अपने रोल में फिट रहे। डायरेक्शन : इस फिल्म से पहले झावेरी कुछ अलग किस्म की बनी 'कुछ तो है' और 'ढूंढते रह जाआगे' सहित कुछ और फिल्मों की कहानी लिख चुके हैं, लेकिन बतौर डायरेक्टर उन्होंने इस प्रॉजेक्ट पर कम्प्लीट होमवर्क के बाद ही काम शुरू किया, फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है, कहानी की डिमांड के मुताबिक झावेरी ने फिल्म को स्विट्ज़रलैंड की लोकेशन में शूट हुआ है। लंबे अर्से बाद किसी हिंदी फिल्म में ऐसी बेहतरीन लोकेशन नजर आई, दूसरी और झावेरी दो घंटे की इस फिल्म की गति को ऐसा नहीं रख पाए जो दर्शकों को स्टार्ट टु लास्ट तक पूरी तरह से बांध पाती। इंटरवल के बाद की फिल्म बोझिल लगने लगती है, अगर झावेरी स्क्रिप्ट के साथ-साथ क्लाइमैक्स पर कुछ ज्यादा मेहनत करते तो इस फीवर का नशा दर्शकों पर कुछ ज्यादा ही चढ़ पाता। संगीत : आपको ताज्जुब होगा कि सिर्फ दो घंटे की इस फिल्म के साथ एक दो नहीं बल्कि नौ संगीतकारों का नाम जुड़ा है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म का म्यूजिक केवल सिनेमाहॉल में ही आपको थिरकाने का दम रखता है। वैसे रिलीज़ से पहले फिल्म के दो गाने यंगस्टर्स की जुबां पर आए हुए हैं। डायरेक्टर झावेरी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन गानों को फिल्म की कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया, वर्ना अक्सर सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों में गाने फिल्म की कहानी की रफ्तार को रोकने या कम करने का ही काम करते रहे हैं। क्यों देखें : अगर आप राजीव खंडेलवाल के पक्के फैन हैं और सस्पेंस थ्रिलर, हॉट अडल्ट फिल्मों के शौकीन हैं तो 'फीवर' सिर्फ आपके लिए ही है और हां स्विटजरलैंड की बेहतरीन लोकेशन और गजब फटॉग्रफ़ी इस फिल्म को देखने की एक और वजह हो सकती है।
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वर्षों से परंपरा चली आ रही है कि पुरुष बाहर के काम संभाले और स्त्री घर के। परिवर्तन ये हुआ है कि कुछ स्त्रियां भी बाहरी जवाबदारी निभाने लगी हैं और उन्हें घर तथा बाहर की दोहरी भूमिका निभानी पड़ती हैं, लेकिन पुरुष ने कभी घर का जिम्मा नहीं संभाला। यदि कोई पुरुष ऐसा करता है भी है तो उसे ताना दिया जाता है कि वह पत्नी के कमाए टुकड़ों पर पलता है। दरअसल हाउसवाइफ की कोई कीमत ही नहीं है क्योंकि वह पैसा नहीं कमाती है जबकि उसका काम भी कम जवाबदारी वाला नहीं रहता है। पैसा कमाने वाला अपने आपको दूसरे के मुकाबले अधिक आंकता है। जब हाउसवाइफ को ही तवज्जो नहीं दी जाती हो तो हाउसहसबैंड को भला कौन पूछेगा? आर बाल्की की फिल्म 'की एंड का' इसी विचार पर आधारित है जिसमें में स्त्री और पुरुष की भूमिकाओं को पलट दिया गया है। फिल्म का नायक कबीर (अर्जुन कपूर) अपनी मां की तरह बन कर गृहस्थी का भार उठाना चाहता है। दूसरी ओर नायिका किया (करीना कपूर) महत्वाकांक्षी महिला है और पैसा कमाती है। दोनों में प्रेम विवाह होता है। खाना पकाना, साफ-सफाई और घरेलू काम कबीर करता है। वह अपनी पत्नी के लिए सुबह कॉफी बनाता है और शाम को उसके घर आने की बाट जोहता है। फिल्म के निर्देशक और लेखक आर बाल्की ने इंटरवल तक फिल्म को अच्छी तरह से बनाया है। कबीर और किया की बातचीत सुनने लायक है और इस दौरान कुछ ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जिनमें मनोरंजन का स्तर ऊंचा है। इंटरवल के समय उत्सुकता जागती है कि विचार तो बेहतरीन है अब कहानी को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा? दूसरे हाफ में फिल्म लड़खड़ाती है और बढ़ी हुई अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती, इसके बावजूद दर्शकों को बांध कर रखती है। यहां पर नई बात यह देखने को मिलती है कि कमाने वाला चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने आपको सुपीरियर समझता है। कबीर और किया में विवाद होता है और किया के मुंह से ये बातें निकल ही जाती हैं। किया को ऐसी महिला दिखाया गया है जो बच्चा नहीं चाहती। यह सोच सभी की नहीं होती। दरअसल कहानी में तब और गहराई आती जब दिखाया जाता कि किया मां बनती और बच्चों की परवरिश करती तब क्या होता? लेकिन आर बाल्की इतना आगे जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाई है कि यदि ऐसा हो तो कैसा हो। लेखन के बजाय वे ‍अपने निर्देशन से ज्यादा प्रभावित करते हैं। बतौर लेखक उनके पास सिर्फ विचार था जिसे दृश्यों के माध्यम से उन्होंने फैलाया। इस पर उन्हें खासी मेहनत करना पड़ी। कई छोटे-छोटे लम्हें उन्होंने बखूबी गढ़े हैं और फिल्म की ताजगी को बरकरार रखा। की एंड का के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में लीड कलाकारों का अभिनय भी दर्शकों को फिल्म से जोड़ कर रखता है। करीना कपूर का अभिनय बढ़िया है। उन्होंने अपने किरदार को ठीक से समझा और वैसा ही परफॉर्म किया। अर्जुन कपूर के साथ उनकी जोड़ी अच्छी लगती है। अर्जुन कपूर तेजी से सीख रहे हैं। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय अच्छा तो कुछ में कमजोर रहा है। स्वरूप सम्पत लंबे समय बाद नजर आईं और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। अमिताभ बच्चन और जया बच्चन का छोटे से रोल में अच्छा उपयोग किया गया है। फिल्म के संवाद गुदगुदाते हैं। कुछ गाने भी अच्छे हैं। कबीर की रेल के प्रति दीवानगी को भी फिल्म में अच्छे से दिखाया गया है। एक उम्दा विचार पर बनाई गई 'की एंड का' और अच्छी हो सकती थी, बावजूद इसके देखी जा सकती है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, होप प्रोडक्शन्स निर्माता : सुनील लुल्ला, राकेश झुनझुनवाला, आरके दमानी, आर बाल्की निर्देशक : आर बाल्की संगीत : इलैयाराजा कलाकार : अर्जुन कपूर, करीना कपूर खान, स्वरूप सम्पत, रजत कपूर, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट
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बैनर : वॉर्नर ब्रॉस. पिक्चर्स, वाइड फ्रेम फिल्म्स निर्माता : अमिता पाठक, वॉनर ब्रॉस. निर्देशक : अश्वनी धीर संगीत : प्रीतम कलाकार : अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल यू सर्टिफिकेट * 13 रील * एक घंटा 59 मिनट इस बिज़ी लाइफ और महँगाई के दौर में अतिथि किसी को भी अच्छा नहीं लगता। वो जमाना बीत चुका है जब गेस्ट घर में कई दिनों तक डेरा डालकर रखते थे और बुरे नहीं लगते थे। इस बात को लेकर निर्देशक अश्विनी धीर ने ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ बनाई है। वैसे तो इसकी स्टोरी टीवी के लिए ज्यादा फिट है, लेकिन अश्विनी ‍ने फिल्म बना डाली है। लेकिन फिल्म बुरी नहीं है और समय काटने के लिए देखी जा सकती है। मुंबई में रहने वाले पुनीत (अजय देवगन) और मुनमुन (कोंकणा सेन शर्मा) की अपनी-अपनी व्यस्त लाइफ है। पुनीत फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखता है और मुनमुन एक ऑफिस में काम करती है। दोनों का एक बेटा है, जो अक्सर उनसे सवाल करता रहता है कि अपने घर गेस्ट क्यों नहीं आते? आखिरकार एक दिन पुनीत के दूर के रिश्तेदार लम्बोदर (परेश रावल) उनके घर आ धमकता है। उन्हें सब चाचाजी कहते हैं। चाचाजी का अंदाज बड़ा निराला है। घर की बाई से ऐसा काम लेते हैं कि वह नौकरी छोड़कर भाग जाती है। मुनमुन इससे बड़ी निराश होती है। उसका कहना है कि पति यदि छोड़ के चले जाए तो तुरंत दूसरा मिल जाता है, लेकिन बाई नहीं मिलती। चाचाजी के लिए खाना बनाना हो तो नहा कर ही किचन में जाना पड़ता है। ऐसे कई उनके नियम कायदे हैं। एक-दो दिन तो अच्छा लगता है, लेकिन जब चाचाजी जाने का नाम ही नहीं लेते तो पुनीत-मुनमुन उन्हें घर से निकालने के लिए नई-नई तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन चाचाजी के आगे ‍सारी ट्रिक्स फेल हो जाती है। पुनीत अंडरवर्ल्ड के पास भी जाता है, लेकिन फिर भी उसे नाकामी मिलती है। किस तरह वे कामयाब होते हैं और उन्हें चाचाजी का महत्व समझ में आता है ‍यह फिल्म का सार है। अश्विनी धीर ने इसके पहले ‘वन टू थ्री’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें उन्होंने अश्लीलता से परहेज नहीं किया था। लेकिन इस फिल्म को उन्होंने फूहड़ता से बचाए रखा और एकदम साफ-सुथरी फिल्म पेश की है। गणेश जी से अतिथि को जोड़ना और कालिया (विजू खोटे) तथा चाचाजी के वाले कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। फिल्म अंतिम कुछ रीलों में कमजोर पड़ जाती है और कहानी को ठीक से समेटा नहीं गया है। साथ ही कुछ दृश्यों का दोहराव भी है। अंत में जो ड्रामा और उपदेश दिए गए हैं वो बोरियत भरे हैं। चाचा की हरकतों से परेशान पुनीत का किरदार अजय ने अच्‍छी तरह से निभाया है। कोंकणा सेन को निर्देशक ने कम मौके दिए। परेश रावल इस फिल्म के हीरो हैं। गोरखपुर में रहने वाले लम्बोदर चाचा की बारीकियों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पर्दे पर पेश किया है। सतीश कौशिक, विजू खोटे का अभिनय भी उम्दा है। संगीत के नाम पर एकाध गाना है और कुछ पैरोडियाँ हैं, जो नहीं भी होती तो खास फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’ एक साफ-सुथरी हास्य फिल्म है जो देखी जा सकती है।
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बैनर : इरोज इंटरनेशनल मीडिया लि., एक्सेल एंटरटेनमेंट निर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर निर्देशक : ज़ोया अख्तर संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, अभय देओल, फरहान अख्‍तर, कल्कि कोचलिन, नसीरुद्दीन शाह सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 34 मिनट * 17 रील बैचलर पार्टी, रोड ट्रिप, एडवेंचर स्पोर्ट्स, स्कूल-कॉलेज के दोस्तों के साथ गप्पे हांकना ऐसी बाते हैं जो हर उम्र और वर्ग के लोगों को पसंद आती है। कुछ उस दौर से गुजर रहे होते हैं और कुछ को बीते दिन याद आ जाते हैं। इसी को आधार बनाकर जोया अख्तर ने ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ फिल्म बनाई है। कुछ इसी तरह की फिल्म जोया के भाई फरहान अखतर ने भी दस वर्ष पहले ‘दिल चाहता है’ नाम से बनाई थी। जोया की फिल्म अपने भाई की फिल्म के स्तर तक तो नहीं पहुंची है, लेकिन दोस्ती, प्यार, जिंदगी के प्रति नजरिया, जीवन जीने का स्टाइल जैसी बातों को उन्होंने अपनी फिल्म के जरिये अच्छी तरह से पेश किया है। अगर वे अपने द्वारा फिल्माए गए दृश्यों को छोटा करने की या काटने की हिम्मत दिखाती तो दर्शक भी कुछ जगह बोर होने से बच जाते और फिल्म में भी चुस्ती आ जाती। कहानी तीन दोस्तों की है। कबीर (अभय देओल) की नताशा (कल्कि कोचलिन) से शादी होने वाली है। शादी के पहले वह अपने दो दोस्तों इमरान (फरहान अख्तर) और अर्जुन (रितिक रोशन) के साथ स्पेन में लंबी रोड ट्रिप पर जाता है। तीनों का मिजाज, जिंदगी के प्रति नजरिया बिलकुल अलग है। इमरा न अभी भी बड़ा नहीं हुआ है। स्कूल-कॉलेज वाली हरकतें अभी भी जारी है। लगता है कि जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं है। दूसरी ओर अर्जुन परिपक्व हो चुका है। 40 वर्ष की उम्र तक वह ढेर सारा पैसा कमा लेना चाहता है ताकि बाद में रिटायर होकर जिंदगी का मजा लूट सके। कबीर अपने संकोची स्वभाव के कारण परेशान रहता है। इस बाहरी यात्रा के साथ तीनों किरदार आंतरिक यात्रा भी करते हैं। उनकी मुलाकात खुद से होती है। साथ ही वे कुछ लोगों से मिलते हैं, कुछ घटनाएँ उनके साथ घटती है जिसके जरिये उन्हें अपने आपको समझने का अवसर मिलता है। वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं, इस बात से वे रूबरू होते हैं। रितिक रोशन वाला ट्रेक इन सबमें उम्दा है। रितिक का जिंदगी के प्रति नजरिया और उसमें बदलाव तर्कसंगत है। फरहान अख्तर की कहानी में उनके पिता वाला ट्रैक कमजोर है, लेकिन फरहान का मस्तमौला किरदार इस बात को ढंक देता है। अभय देओल की कहानी ठीक है। चंद लाइनों की कहानी में, जिसमें ज्यादा घुमाव-फिराव नहीं होते हैं, स्क्रीनप्ले का रोल बहुत महत्वपूर्ण होता है। कहानी बहुत धीमे आगे बढ़ती है और बीच की जगह को भरने के लिए सशक्त दृश्यों की जरूरत पड़ती है। संवाद भी असरदायक होना चाहिए क्योंकि पात्रों के मन में क्या चल रहा है यह संवादों से ही पता चलता है। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ इस कसौटी पर कुछ हद तक खरी उतरती है। पहले हाफ में कई दृश्य उम्दा बन पड़े हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कई जगह पटरी से उतरती है क्योंकि दृश्यों को लंबा खींचा गया है। खासतौर पर एडवेंचर स्पोर्ट्स के सीन लंबे हो गए हैं। फिल्म का अंत भी कुछ लोगों को चौंका सकता है क्योंकि आकस्मिक रूप से फिल्म खत्म हो जाती है, लेकिन बात को समाप्त करने का यही सबसे उचित तरीका है। निर्देशक के रूप में जोया अख्तर प्रभावित करती हैं। उन्होंने बड़े ही इत्मीनान और ठहराव के साथ अपनी बात सामने रखी है। हर किरदार की खूबी और कमजोरी को उन्होंने बखूबी परदे पर पेश किया है। कुछ सीन उन्होंने शानदार तरीके से फिल्माए हैं खासतौर पर रितिक और कैटरीना कैफ के चुंबन दृश्य के लिए जो उन्होंने सिचुएशन पैदा की है वो लाजवाब है। फिल्म को संपादित करने की हिम्मत वे दिखाती तो फिल्म में पैनापन बढ़ सकता था। रितिक रोशन न केवल हैंडसम लगे बल्कि उन्होंने अपने पात्र की बारीकियों को अच्छे से पकड़ा है। फरहान अख्तर ने अपने अभिनय के जरिये अपने पात्र को बेहद मनोरंजक बनाया है। अभय देओल का किरदार रितिक और फरहान की तुलना में थोड़ा दबा हुआ है, लेकिन उन्होंने अपनी छटपाहट को अच्‍छे से पेश किया है। कैटरीना कैफ की एक्टिंग इस फिल्म का सरप्राइज हैं। उनका स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त है और जब-जब वे स्क्रीन पर नहीं दिखती हैं उनकी कमी महसूस होती है। उनके रोल को लंबा किया जा सकता था। कल्कि और छोटे से रोल में नसीरुद्दीन शाह प्रभावित करते हैं। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत फिल्म के मूड को मैच करता है। कार्लोस कैटेलन ने स्पेन की खूबसूरती को बखूबी कैमरे में कैद किया है। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ जिंदगी के प्रति सोच को सकारात्मक करने में मददगार साबित होती है। बेकार, 2-औसत, 2:5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-शानदार, 5-अद्‍भुत
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आप सेंसर सर्टिफिकेट में इस फिल्म का टाइटल देखेंगे तो इस फिल्म का नाम 'दूरंतो' लिखा नजर आता है। इसी टाइटल से इस फिल्म ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में बेस्ट चिल्ड्रन्स फिल्म का अवॉर्ड हासिल किया था। कमर्शल रिलीज करने के लिए टाइटल बदलकर 'बुधिया सिंह : बॉर्न टु रन' कर दिया गया, ताकि बॉक्स ऑफिस पर बुधिया के नाम का कुछ फायदा मिल सके। यह फिल्म एक ऐसे बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है, जो 9-10 साल पहले तक मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ था। चार-पांच साल के आदिवासी बच्चे बुधिया पर बेस्ड इस फिल्म को डायरेक्टर ने पूरी ईमानदारी के साथ बनाया है। अजीब विडंबना यह है कि दस साल पहले जिस बच्चे को 2016 में ओलिंपिक में भारत की ओर से गोल्ड का दावेदार माना जा रहा था, वह दावेदार अब गुमनामी के अंधेरे में गुम हो चुका है। बुधिया सिंह अब भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम स्पोर्ट्स अथॉरिटी के हॉस्टल में रहता है और उसकी मां भुवनेश्वर की सालियासाही झोपड़पट्टी में रहती हैं। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT MOVIES ​ बुधिया की मैराथन हमेशा के लिए बंद हो गई है, बेशक सरकार बुधिया की पढ़ाई एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल में करवा रही है, लेकिन बुधिया यहां खुद को बंधा हुआ पाता है। कोच अब उसे अधिकतम 1500 मीटर की रेस ही दौड़ने की तैयारी करवाते हैं, लेकिन 65 किलोमीटर में दौड़ चुके बुधिया को यह पसंद नहीं। आज बुधिया दस साल पहले वाला वंडरकिड नहीं रहा और हॉस्टल में रहने वाले दूसरे बच्चों जैसा बन गया है। दूसरी ओर बुधिया को लगता है कि वह आज भी कई किमी दौड़ सकता है, लेकिन उसे अब सरकार की ओर से सही ट्रेनिंग और डाइट नहीं मिलती है। इस फिल्म के बाद खेल संगठनों को बुधिया की थोड़ी भी याद आती है तो यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। कहानी : करीब चार साल के बुधिया सिंह (मास्टर मयूर) को उसकी गरीब मां (तिलोत्तमा शोम ) ने कोच बिरंची दास को 800 रुपये में दे दिया था, क्योंकि वह उसका पेट नहीं पाल सकती थी। जूडो सेंटर चला रहे कोच बिरंची दास (मनोज बाजपेयी) ने बुधिया को अपनी सरपरस्ती में ले लिया। एक दिन बुधिया ने सेंटर के एक बच्चे को गाली दी तो बिरंची ने उसे सजा के तौर पर सेंटर का चक्कर लगाने की सजा दी। उसके बाद वह वाइफ के साथ मार्केट चले गए। घंटों बाद लौटे तो देखा बुधिया वहीं पर घंटों से दौड़ रहा है। इसके बाद बिरंची को लगा बुधिया में दौड़ने की अद्भुत क्षमता है और उन्होंने बुधिया की खास ट्रेनिंग शुरू कर दी। इसी ट्रेनिंग और बुधिया की लगन का ही परिणाम था कि बुधिया ने 65 किमी की दूरी सिर्फ 7 घंटे 2 मिनट में दौड़कर पूरी कर ली। इसके बाद चाइल्ड वेलफेयर सहित कई खेल संगठनों में कब्जा जमाएं नेताओं और अफसरों के होश उड़ गए। बुधिया ने पुरी से भुवनेश्वर तक की जिस दूरी को दौड़कर पूरा किया वह दूरी मैराथन रेस से भी कहीं ज्यादा थी। इस दौड़ में बुधिया और उसके कोच के साथ शहर के हजारों लोग और सीआरपीएफ के जवान भी शामिल हुए। करीब चार साल के बुधिया सिंह का नाम सबसे कम उम्र के मैराथन रेसर के रूप में लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में दर्ज हुआ। इसके बाद ओडिसा सहित देश के हिस्सों में भी लोगों ने इस बच्चे को 2016 में होने वाले ओलिंपिक में स्वर्ण पदक का दावेदार घोषित कर दिया। वहीं ओडिसा के चाइल्ड वेलफेयर डिपार्टमेंट सहित दूसरे खेल संगठनों को यह सब रास नहीं आ रहा था। इस वजह से बुधिया के मेडिकल टेस्ट करवाए जाने लगे। निर्देशन : निर्देशक सौमेन्द्र पढ़ी कहीं भी सब्जेक्ट से नहीं भटके। स्टार्ट टु लास्ट तक उनकी फिल्म और किरदारों पर पूरी पकड़ है। हालांकि, इंटरवल से पहले फिल्म की सुस्त रफ्तार खटकती है तो वहीं फिल्म का कई सवालों का जवाब दिए बिना अचानक खत्म हो जाना दर्शकों पसंद नहीं आया। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल पर फिट है, बैकग्राउंड में फिल्माए गाने कहानी का हिस्सा हैं। क्यों देखें : खेल संगठन और नेता आपसी खींचतान के बीच एक उभरते हुए प्रतिभा सम्पन्न यंग खिलाड़ी के सपनों को कैसे तोड़ते हैं, इस फिल्म में आप देख सकते हैं। मास्टर मयूर की बेहतरीन ऐक्टिंग फिल्म का प्लस पॉइंट है।
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रेमो डिसूजा का नाम जब 'रेस 3' के डायरेक्टर के रूप में घोषित हुआ था तभी कई लोगों ने चिंता जाहिर कर दी थी। एबीसीडी तक तो ठीक है, लेकिन क्या वे रेस जैसी बड़े बजट और सलमान खान जैसे सुपरसितारे की फिल्म को ठीक से हैंडल कर पाएंगे? यह प्रश्न उठा था। 'रेस 3' देखने के बाद लगता है कि यह चिंता जायज थी। यदि रेस 3 अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है तो रेमो अकेले ही जिम्मेदार नहीं हैं। शिराज अहमद ढंग की कहानी नहीं लिख पाए, एक्टर्स और एक्टिंग में छत्तीस का आंकड़ा रहा और करोड़ों रुपये लगाने वाले निर्माता ने भी नहीं देखा कि पैसे का क्या हो रहा है। रेस (2008) और रेस 2 (2013) की कहानियां भी मजबूत नहीं थी, लेकिन अब्बास-मस्तान के प्रस्तुतिकरण, हिट म्युजिक और ग्लैमर के तड़के के कारण टाइम पास फिल्म तो बन ही गई थी, लेकिन रेस 3 इस सीरिज की सबसे कमजोर मूवी साबित हुई है। न माल अच्छा है और न ही पैकेजिंग। फिल्म की शुरुआत में शमशेर सिंह (अनिल कपूर) के परिवार का परिचय दिया जाता है। संजना (डेज़ी शाह) और सूरज (शाकिब सलीम) उसकी जुड़वां संतानें हैं। सिकंदर (सलमान खान) उसका सौतेला बेटा है। यश (बॉबी देओल) सिकंदर का बॉडी गार्ड है। जेसिका (जैकलीन फर्नांडीस) सिकंदर की प्रेमिका है। इन सबका दुश्मन राणा (फ्रेडी दारूवाला) है। शमशेर का अल शिफा में हथियार बनाने का अवैध कारखाना है। रेस सीरिज की फिल्मों की खासियत है कि जो जैसा दिखता है वो वैसा होता नहीं। यह बात रिश्ते से लेकर तो विश्वास तक पर लागू होती है। यहां भी ऐसा ही है। शमशेर के हाथ भारत के कुछ मंत्रियों के फोटो लगते हैं जिनमें वे रंगरेलिया मना रहे हैं। रंगरेलिया मनाने के वीडियो एक हार्ड डिस्क में है जो एक बैंक लॉकर में रखी हुई है। शमशेर चाहता है कि वो हार्ड डिस्क सिकंदर उसके लिए चुराए ताकि वह मं‍त्रियों को ब्लैकमेल कर सके। इस ऊटपटांग कहानी में कई अगर-मगर हैं जो समय-समय पर परेशान करते रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब मंत्रियों के फोटो ही हाथ लग गए हैं तो ही उन्हें ब्लैकमेल किया जा सकता है। हार्ड डिस्क चुराने की मेहनत ही क्यों जाए? इतनी सी बात अरबों की बात करने वालों के दिमाग में नहीं आती जबकि सभी को बेहद चालाक बताया गया है। इंटरवल के बाद सारा घटनाक्रम इसी बात को लेकर है और जब बुनियाद ही इतनी कमजोर है तो इस ड्रामेबाजी में बिलकुल मजा नहीं आता। साथ ही हार्ड डिस्क चुराने वाला ट्रैक इतना बेदम है कि इसमें कोई रोमांच ही नहीं है। शिराज़ अहमद का लेखन बेहद कमजोर है। उन्हें लगा कि कुछ-कुछ देर में दर्शकों को चौंकाया जाना चाहिए, बस काम हो जाएगा। फिल्म में इतने ट्विस्ट एंड टर्न्स डाल दिए कि चौंकने का मजा ही जाता रहा। कारण भी ठोस नहीं होने के कारण ये प्रभावित नहीं करते। फिल्म की स्क्रिप्ट अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखी गई है। जब जो चाहे कर दिया गया और बाद में उसे किसी तरह जस्टिफाई किया गया। लॉजिक की बात करना फिजूल है कि विदेशी धरती पर सड़कों पर मर्डर और बम विस्फोट कैसे हो रहे हैं? जहां तक प्लस पाइंट की बात है तो कुछ एक्शन सीन अच्छे लगते हैं। थ्री-डी में इन्हें देखने से मजा बढ़ जाता है। सिनेमाटोग्राफी शानदार हैं और फिल्म को भव्य लुक देती है। फिल्म के निर्माण में पैसा पानी की तरह बहाया गया है। बैकग्राउंड म्युजिक अच्छा है। फिल्म का संगीत कामचलाऊ है। केवल 'हिरिये' ही अच्छा लगता है। रेमो बेहतरीन कोरियोग्राफर हैं, लेकिन उनकी ही फिल्म में गानों की कोरियोग्राफी दमदार नहीं है। गानों की फिल्म में अधिकता है और ये 'ब्रेक' का काम करते हैं। फिल्म के संवाद अत्यंत साधारण हैं। एक्टिंग डिपार्टमेंट में भी फिल्म निराश करती है। सलमान खान पूरे रंग में नजर नहीं आए। उन्हें वैसे सीन मिले ही नहीं जिसमें वे अपने स्टारडम को साबित कर सके। उनकी एक्टिंग भी कमजोर है। इससे ज्यादा मनोरंजन तो वे बिग बॉस शो में करते हैं। जैकलीन फर्नांडीस और डेज़ी शाह में इस बात की रेस थी कि कौन सबसे घटिया एक्टिंग करता है। दोनों को एक्टिंग की 'एबीसीडी' भी नहीं आती। डेज़ी तो इस तरह से डायलॉग बोलती हैं कि हंसी छूटती है। बॉबी देओल ने जितनी मेहनत बॉडी बनाने में की है उसकी आधी भी एक्टिंग में कर लेते तो काम बन जाता। अनिल कपूर ही पूरी फिल्म में ईमानदारी से काम करते दिखे। राणा के नाम पर पूरी फिल्म में फ्रेडी दारूवाला का खूब डर खड़ा किया गया, लेकिन मुश्किल से चंद सीन उन्हें मिले। साकिब सलीम का रोल नहीं भी होता तो भी फिल्म पर कोई असर नहीं होता। फिल्म में बॉबी देओल एक संवाद बोलते हैं कि यदि रेस में तुम अकेले भी दौड़ो तो भी सेकंड ही आओगे। यही बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है। बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स, सलमान खान फिल्म्स निर्माता : रमेश एस. तौरानी, कुमार एस. तौरानी, सलमा खान निर्देशक : रेमो डिसूजा संगीत : मीत ब्रदर्स, विशाल मिश्रा, विक्की हार्दिक, शिवल व्यास, गुरिंदर सैगल, किरण कामत कलाकार : सलमान खान, जैकलीन फर्नांडीज़, बॉबी देओल, डेज़ी शाह, अनिल कपूर, साकिब सलीम, फ्रेडी दारूवाला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 41 सेकंड
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अगर इस फिल्म के डायरेक्टर साकेत चौधरी की बात करें तो उनके नाम शाहरुख खान की फिल्म 'फिर भी दिल है हिदुस्तानी' भी दर्ज है। अब यह बात अलग है कि साकेत उस वक्त इस फिल्म के डायरेक्टर के सहायक हुआ करते थे। बतौर डायरेक्टर उनके नाम लीक से हटकर बनी फिल्में 'प्यार के साइड इफेक्ट्स' और बाद में इसी फिल्म का सीक्वल 'शादी के साइड इफेक्ट्स' भी दर्ज है। अब अगर उनकी इस नई फिल्म की बात करें तो यकीनन यह फिल्म साकेत की अब तक की पिछली फिल्मों के मुकाबले कहीं दर्जे बेहतर है। उन्होंने इस बार यह भी साबित करने की कोशिश की है कि अगर उनके पास दमदार और अच्छी स्क्रिप्ट हो तो वह एक ऐसी फिल्म बनाने का दम भी रखते हैं जो दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती हो।कहानी- फिल्म की कहानी चांदनी चौक की मेन बाजार में रेडीमेड गार्मेंट्स का शोरूम चलाने वाले पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में रहने वाले राज बत्रा (इरफान खान) की है। राज सरकारी स्कूल में हिंदी मीडियम से पढ़ा हुआ है और उसे टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलनी भी आती है। वहीं, अगर उसकी खूबसूरत वाइफ मीता उर्फ मीठू (सबा कमर) की बात करें तो उसे जमकर अंग्रेजी बोलनी आती है। मीता का बस एक ही सपना है कि उसकी इकलौती बेटी पिया बत्रा शहर के टॉप अंग्रेजी मीडियम में स्टडी करे। राज अपनी वाइफ को बहुत चाहता है और अपनी वाइफ के इस सपने को पूरा करने की कोशिश में लग जाता है। राज और मीता अपनी ओर से बहुत कोशिश करते हैं कि उनकी बेटी का ऐडमिशन अंग्रेजी मीडियम स्कूल में हो जाए। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए दोनों चांदनी चौक से दूर वसंत विहार रहने के लिए जाते है और कई स्कूलों में पूरी तैयारी के साथ इंटरव्यू देने जाते है। लेकिन उनकी सभी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं और तब उन्हें पता चलता है इन टॉप स्कूलों में गरीब कोटे में उनकी बेटी का ऐडमिशन हो सकता है। बस फिर क्या दोनों बेटी को साथ लेकर एक स्लम बस्ती में रहने भी आ जाते हैं। ऐक्टिंग- तारीफ करनी होगी इरफान खान की जिन्होंने चांदनी चौक के एक ऐसे बिजनसमैन के रोल को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है जो सरकारी स्कूल से पढ़ा हुआ है। यकीनन इस किरदार में इरफान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है और इरफान की वाइफ के रोल में सबा कमर का परफॉरमेंस भी तारीफ के काबिल है। इन दो कलाकारों के बीच दीपक डोबरियाल ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के दम पर कम फुटेज मिलने के बावजूद कमाल का अभिनय किया है। स्कूल को अपने कायदे-कानूनों पर चलाने वाली प्रिसिंपल के रोल में अमृता सिंह अपने किरदार में जमीं हैं। निर्देशन- साकेत चौधरी ने एक कसी हुई दमदार स्क्रिप्ट पर पूरी ईमानदारी के साथ काम किया है। वहीं, साकेत ने ऐसे टॉपिक पर बनी फिल्म में कई ऐसे लाइट सीन भी रखे जो दर्शकों को गुदगुदाने का काम करते हैं। दिल्ली की लोकेशन को साकेत ने अच्छे ढंग से पेश किया है। फिल्म में कई बेहतरीन वन लाइनर भी हैं। बेशक इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार कम हो जाती है लेकिन यह साकेत के दमदार निर्देशन का ही कमाल है कि उन्होंने फिल्म को कहीं भी डॉक्युमेंट्री नहीं बनने दिया। संगीत- इस फिल्म की रिलीज से कई हफ्ते पहले ही फिल्म के दो गाने 'सूट-सूट जिंदड़ी' और 'इश्क तेरा तड़पावे' म्यूजिक लवर्स की जुबान पर हैं। वहीं, डायरेक्टर साकेत की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन गानों को ऐसी सिचुएशन पर फिट किया है जहां यह कहानी में रुकावट नहीं बनते।इस फिल्म का रिव्यू गुजराती में पढ़ने के लिए क्लिक करें
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हीरो के डबल रोल वाली फिल्में पिछले कुछ अरसे में कईं रिलीज हो चुकी हैं, लेकिन अब से करीब दो दशक पहले सलमान खान के साथ 'जुड़वा' बना चुके डायरेक्टर डेविड धवन ने एक बार फिर दिखा दिया है कि बात चाहे हीरो को डबल रोल में लेकर डबल एंटरटेनमेंट की हो या फिर डबल मस्ती की, वह इस जॉनर के मास्टर हैं। फिर चाहे उनका हीरो सलमान खान हो या फिर उनका खुद का बेटा वरुण धवन। करीब 20 साल बाद फिर से बनी जुड़वा 2 की कहानी वही पुरानी है और डायरेक्टर भी डेविड धवन ही हैं। लेकिन फिल्म को उन्होंने आज के अंदाज में एकदम नए फ्लेवर में पेश किया है। फिल्म में राजा (वरुण धवन) और प्रेम (वरुण धवन) जुड़वा बच्चे हैं, जिन्हें एक स्मगलर उनके पापा से दुश्मनी की वजह से अलग कर देता है। स्मगलर के गुंडों से बचने के लिए प्रेम के पैरंट्स उसे लेकर लंदन ले जाते हैं। जबकि राजा को मुंबई में एक गरीब औरत ने पाला है। वक्त के साथ दोनों राजा और प्रेम मुंबई व लंदन में जवान होते हैं। वक्त एक बार फिर खुद को दोहराता है, जब राजा उस स्मगलर के बेटे के गुंडों से बचने के लिए लंदन भागता है। लंदन की फ्लाइट में तेज-तर्रार राजा की मुलाकात अलीष्का (जैकलीन फर्नांडिस) से होती है। वहीं सीधा-सादा प्रेम जब कॉलेज पहुंचता है, तो वहां समारा (तापसी पन्नू) उसे रैंगिंग से बचाती है। उसके बाद शुरू होता है फुल मस्ती का दौर। प्रेम और राजा के हमशक्ल होने के चलते उनकी गर्लफ्रेंड्स से लेकर फैमिली, कॉलेज और वर्कप्लेस तक पर कंफ्यूजन होता है और साथ में फुल एंटरटेनमेंट भी।इंटरवल तक फिल्म में फुल मस्ती होती है। उसके बाद वही होता है, जो हिंदी फिल्मों में हमेशा से होता आया है। राजा अपनी बिछड़ी हुई फैमिली से मिल जाता है और साथ ही स्मगलर और उसके बेटे को भी सबक सिखा देता है। प्रेम और राजा का कंफ्यूजन खत्म होता है और दोनों की गर्लफ्रेंड्स भी उनकी हो जाती हैं। इस तरह हैपी एंडिंग पर फिल्म दी एंड होती है। डेविड धवन ने दो दशक बाद दोबारा से जुड़वा बनाने का रिस्क लिया, तो हर किसी को यह आशंका थी कि सलमान खान की जगह कोई और कैसे ले सकता है, लेकिन वरुण धवन ने न सिर्फ इस चैलेंज को स्वीकार किया, बल्कि खूबसूरती से निभाया भी। वहीं फिल्म के क्लाईमैक्स में सलमान खान की डबल रोल में एंट्री दर्शकों के एंटरटेनमेंट को डबल कर देती है। वरुण ने न सिर्फ प्रेम और राजा दोनों के रोल को बखूबी निभाया है, बल्कि शाहरुख से लेकन सलमान तक की हिट फिल्मों के डायलॉग की मजेदार मिमिक्री भी की है, जिन्हें सुनकर दर्शक सिनेमा में ही लोट-पोट हो जाते हैं। वरुण ने दिखा दिया है कि वह लंबी रेस का घोड़ा हैं और उनकी पिछली सफलताएं कोई तुक्का नहीं थीं। पिंक और नाम शबाना में सीरियस रोल करने वाली तापसी पन्नू समारा जैसी कूल लड़की के रोल में बिंदास लगती हैं। उन्होंने दिखा दिया कि वह किसी भी तरह के रोल कर सकती हैं। वहीं जैकलीन फर्नांडिस हमेशा की तरह बिंदास लगी हैं। मानना पड़ेगा कि जैकलीन ने बॉलिवुड में बखूबी अपनी जगह बना ली है। इनके अलावा फिल्म में राजपाल यादव, जॉनी लीवर, अनुपम खेर, पवन मल्होत्रा, उपासना सिंह और अली असगर जैसे कलाकारों की लंबी फौज है, जो कि अलग-अलग रोल्स में दर्शकों को गुदगुदाने का काम करते हैं। तापसी की मम्मी के रोल उपासना सिंह मस्त कॉमेडी करती हैं, तो जैकलीन के पापा के रोल में अनुपम खेर का जवाब नहीं। राजा के दोस्त के रोल में राजपाल यादव ने अच्छी वापसी की है। उधर फर्जी पासपोर्ट एजेंट के रोल में जॉनी लीवर, पुलिस ऑफिसर के रोल में पवन मल्होत्रा और डॉक्टर के रोल में अली असगर ने भी बढ़िया कॉमेडी की है। फिल्म के डायरेक्टर डेविड धवन ने दिखा दिया कि वह कॉमेडी के मास्टर हैं। फिल्म में कुछ चीजें और सीन आपको अटपटे लग सकते हैं, लेकिन असल में यही डेविड धवन का स्टाइल है। डेविड ने पुरानी जुड़वा से न सिर्फ कुछ गाने, बल्कि कुछ सीन भी कॉपी किए हैं। फिल्म के गाने 'गणपति बप्पा मोरिया', 'ऊंची है बिल्डिंग' और 'चलती है क्या 9 से 12' पहले से ही लोगों की जुबान पर हैं। दशहरा लॉन्ग वीकेंड पर अगर फैमिली के साथ फुल मस्ती करना चाहते हैं, तो जुड़वा 2 आपको निराश नहीं करेगी।
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निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा निर्देशक : बिजॉय नाम्बियार संगीत : प्रशांत पिल्लई कलाकार : राजीव खंडेलवाल, कल्कि कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, रामकुमार यादव सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट ‘शैतान’ देखते समय अक्षय कुमार वाली ‘खिलाड़ी’ की याद आती है जिसकी कहानी ‘शैतान’ से मिलती-जुलती है, इसके बावजूद शैतान देखने में मजा आता है क्योंकि इस कहानी को निर्देशक बिजॉय नाम्बियार ने अलग ही तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। साथ ही उन्होंने पुलिस डिपार्टमेंट खामियों और खूबियों तथा टीनएजर्स और उनके पैरेंट्स के बीच बढ़ती दूरियाँ वाला एंगल भी जोड़ा है, जिससे फिल्म को धार मिल गई है। एमी, डैश, केसी, जुबिन और तान्या किसी ना किसी वजह से अपने माता-पिता से नाराज है। किसी की अपने पैरेंट्स से इसलिए नहीं बनती क्योंकि उन्होंने दूसरी शादी कर ली तो कोई सिर्फ पैसा कमाने में व्यस्त है। एमी और उसकी गैंग को प्यार नहीं मिलता इसलिए उनके माँ-बाप उनकी जेबें रुपये से भर देते हैं, जिसकी वजह से ये शराब और ड्रग्स के नशे में हमेशा डूबे रहते हैं। टाइम पास करने के लिए तरह-तरह के जोखिम उठाते हैं जिनमें कार रेस भी शामिल है। ऐसी ही एक कार रेस में वे दो लोगों को कुचल देते हैं और इसके बाद उनकी जिंदगी में यू टर्न आ जाता है। अपने अपराध को छिपाने के लिए वे झूठ बोलकर एक नाटक रचते हैं, लेकिन बजाय बचने के पुलिस का फंदा कसता जाता है। परिस्थितियाँ बदलती हैं तो एक-दूसरे पर भरोसा करने वाले ये दोस्त कैसे एक-दूसरे के सामने खड़ा हो जाता है यह निर्देशक बिजॉय ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। जब आदमी को अपनी जान बचाना होती है तो वह नैतिकता, यारी-दोस्ती, कसमें-वादे सब कुछ भूलाकर अपने आपको बचाने में लग जाता है। उसका यह शैतान रूप तभी सामने आता है। पुलिस विभाग की सच्चाई को भी सामने रखा गया है। एक ओर ईमानदार पुलिस ऑफिसर भी हैं जो जान की बाजी लगाकर अपना काम करते हैं तो दूसरी ओर ऐसे ऑफिसर भी हैं जो साढ़े आठ हजार रुपये में ‘नि:स्वार्थ भाव’ से सेवा नहीं कर सकते हैं। अनुराग कश्यप से प्रभावित निर्देशक बिजॉय नाम्बियार की पकड़ फिल्म पर नजर आती है। हालाँकि बुरका वाला सीन ‘जाने भी दो यारो’ और मेडिकल स्टोर पर चोरी करने वाला सीन ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ की याद दिलाता है। बिजॉय ने ना केवल अपने कलाकारों से अच्छा काम लिया है, बल्कि कहानी को तेज रफ्तार से दौड़ाया है जिससे फिल्म का रोमांच बढ़ जाता है। रियल लोकेशन पर शूटिंग करने की वजह से फिल्म में वास्तविकता दिखाई देती है। दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी खींची हुई लगती है, लेकिन इससे फिल्म देखने का मजा खराब नहीं होता है। क्लासिक गीत ‘खोया खोया चाँद’ का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है जो पार्श्व में बजता रहता है और उस वक्त स्क्रीन पर गोलीबारी होती रहती हैं। बिजॉय का शॉट टेकिंग उम्दा है हालाँकि स्लो मोशन का उन्होंने ज्यादा उपयोग किया है। एमी के अतीत का बार-बार दिखाया जाना जिसमें उसकी माँ उसे बाथ टब में डूबा रही है फिल्म की गति को प्रभावित करता है। राजीव खंडेलवाल ‘आमिर’ के बाद एक बार फिर प्रभावित करते हैं। ‘रागिनी एमएमएस’ वाले रामकुमार यादव और कल्कि के अलावा ज्यादातर चेहरे अपरिचित हैं, लेकिन सभी अपने किरदार में डूबे हुए नजर आते हैं। कैमरा वर्क, लाइटिंग और संपादन के मामले में फिल्म सशक्त है। दो-तीन गाने थीम के अनुरुप हैं। अनूठे प्रस्तुतिकरण और रोमांच का मजा लेना चाहते हैं तो ‘शैतान’ को देखा जा सकता है।
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महिलाओं में माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसका भारतीय समाज में बहुत बड़ा हौव्वा बना कर रखा गया है। इस बारे में बात करते समय लोग असहज हो जाते हैं। माहवारी के दिनों में 82 प्रतिशत महिलाएं गंदे कपड़े, राख और पत्तों का इस्तेमाल करती हैं। उन्हें कोई छूता नहीं है। घर या रसोई से उन्हें बाहर बैठा दिया जाता है। सभी उसे हेय दृष्टि से देखते हैं मानो उसने अपराध कर दिया हो। गरीबी और अशिक्षा इसका मूल कारण है। इन कठिन दिनों में सेनिटरी पैड्स के उपयोग से कई बीमारियों से बचा जा सकता है, लेकिन भारत की ज्यादातर महिलाओं ने इसके बारे सुना भी नहीं होगा क्योंकि इस देश में मात्र 18 प्रतिशत इसका इस्तेमाल करती हैं। कुछ करना चाहती हैं, लेकिन गरीबी उनके हाथ रोक देती है क्योंकि इनका उत्पादन करने वाली कं‍पनियां महंगे दामों में इन्हें बेचती है। आश्चर्य की बात है कि सरकार का भी अभी तक इस ओर ध्यान नहीं गया है। अरुणाचलम मुरुगानांथम नामक शख्स से यह नहीं देखा गया कि उनकी पत्नी पैड्स की बजाय घटिया तरीके आजमाए और बीमारियों को आमंत्रित करे। पैसा नहीं था तो खुद ही पैड बनाने की सोची। आठवीं पास इस इंसान ने बड़े इंजीनियरों को भी हैरत में डाल दिया जब उन्होंने पैड बनाने की मशीन का ईजाद किया। उन्होंने मात्र दो रुपये की लागत में पैड उपलब्ध कराए और लाखों महिलाओं को फायदा पहुंचाया। इन्हीं अरुणाचलम का जिक्र ट्विंकल खन्ना ने अपनी किताब 'द लीजैंड ऑफ लक्ष्मी प्रसाद' में किया। ट्विंकल यही नहीं रूकी। उन्होंने अरुणाचलम पर 'पैड मैन' नामक फिल्म भी बना डाली। जिसमें अक्षय कुमार ने लीड रोल निभाया है। यह फिल्म अरुणाचलम के जीवन से प्रेरित है। चूंकि इस पर फिल्म बनाना आसान बात नहीं है इसलिए लेखक और निर्देशक ने अपनी कल्पना के रेशे भी कहानी में जोड़े हैं। महेश्वर में रहने वाले लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) की शादी होती है। जब वह पत्नी को माहवारी के दिनों में गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करते देखता है तो सिहर जाता है। पैड्स खरीदने की उसकी हैसियत नहीं है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला लक्ष्मी दिमाग से तेज है। उसके दिमाग में आइडिए की कमी नहीं है। चीजों को बेहतर बनाकर जिंदगी को वह आसान बनाता है। उसकी पत्नी हनुमानजी के नारियल खाने और प्रसाद देने से चकित है, लेकिन वह जानता है कि हनुमानजी के अंदर एक मशीन काम कर रही है। लक्ष्मीकांत पैड बनाने की सोचता है। कुछ प्रयोग करता है जो असफल रहते हैं। महिलाओं, रिश्तेदारों, गांव वालों की बातें सुनना पड़ती है। यहां तक कि उसकी मां, बहनें और पत्नी भी उसे छोड़ कर चली जाती है, लेकिन वह पैड बनाने की मशीन बनाने की धुन में लगा रहता है और कामयाब होता है। उसकी इस यात्रा को फिल्म में बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। फिल्म को दो भागों में बांटा है। पहले भाग में इस मुद्दे पर लोगों की सोच को बताया है। लक्ष्मी जब पैड्स बनाने का काम शुरू करता है तो उसे 'ढीले नाड़े का आदमी' कह कर ताने मारे जाते हैं। उसे गांव तक छोड़ना पड़ता है। दूसरे भाग में पैड्स बनाने की मशीन को लेकर लक्ष्मीकांत के संघर्ष को दर्शाया गया है कि कैसे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होता है। लक्ष्मी के प्रयोगों को लेकर कई मजेदार सीन रचे गए हैं। वह पैंटी खरीदता है। पैड बनाता है। खुद पैड लगाता है। प्रयोग के लिए बकरे का खून उसमें डालता है। उसकी पैंट पर लगे खून को देख लोग घबरा जाते हैं। पैड के प्रयोग के लिए वह मारा-मारा घूमता है, लेकिन उसे फीडबैक ही नहीं मिलता कि वह सही कर रहा है या गलत। दुकानदार पैड को टेबल के नीचे से देता है मानो चरस-गांजा दे रहा हो। लक्ष्मी और उसकी पत्नी का रोमांस भी दिल को छू जाने वाला है। दूसरे हाफ में परी (सोनम कपूर) की एंट्री फिल्म को ताजगी देती है। परी उसकी पहली ग्राहक रहती है। परी के मुंह से लक्ष्मी का यह सुनना कि उसके द्वारा बनाया गया पैड भी अन्य पैड्स की तरह ही है, वाला सीन बेहतरीन है। इसमें अक्षय कुमार के एक्प्रेशन देखने लायक हैं। परी और उसके पिता की बॉण्डिंग भी प्रभावित करती है, 'पिता बच्चे को मां की तरह पाले तो ही मजा है' वाली बातें दिखाने में बाल्की माहिर हैं। निर्देशक रूप में बाल्की का काम शानदार हैं। एक ऐसा विषय जिस पर लोग बात करना पसंद नहीं करते, उस पर ऐसी फिल्म बनाना जो लोग पसंद करें, ढेढ़ा काम है, लेकिन बाल्की ने यह कर दिखाया। वे विषय की गहराई में गए। दर्शकों को बांधने के लिए मनोरंजक सीन बनाए और अपनी बात दर्शकों के सामने रखने में सफल रहे। बाल्की की तारीफ इसलिए भी की जा सकती है कि उन्होंने न तो फिल्म को डॉक्यूमेंट्री बनने दी और न ही सरकारी भोंपू। पहले हाफ में जरूर कुछ सीन अति नाटकीय हो गए, जैसे पंचायत पूरे गांव के सामने लक्ष्मीकांत को फटकार लगाती है। इस तरह के दृश्यों से बचा जा सकता था जिससे फिल्म की लंबाई भी कम हो जाती। लक्ष्मी और परी का एक-दूसरे की ओर आकर्षित होना भी थोड़ा अखरता है, लेकिन अरुणाचलम ने स्वीकारा है कि वे अपनी अंग्रेजी पढ़ाने वाली टीचर की ओर आकर्षित हो गए थे और उसी रिश्ते यहां पर निर्देशक ने दिखाया है। राधिका आप्टे उम्दा अभिनेत्री हैं। 'पैड मैन' में उन्हें ग्रामीण स्त्री का कैरेक्टर मिला है जिसे लोक-लाज का हमेशा भय सताता रहता है। इस किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। सोनम कपूर फिल्म को अलग ऊंचाई पर ले जाती हैं। परी के रूप में उनका अभिनय देखने लायक है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी का अभिनय उल्लेखनीय है। पी.सी. श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी शानदार हैं। उनके एरियल शॉट्स देखने लायक हैं। गाने थीम के अनुरुप हैं। अरुणाचलम मुरुगानांथम बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ऐसी मशीन बनाई जो सस्ते पैड्स बनाती है। 'पैड मैन' की टीम इसलिए बधाई की पा‍त्र है किइस कठिन विषय पर फिल्म बना कर लोगों का ध्यान इस ओर खींचा है। अब सरकारी की बारी है जो उन 82 प्रतिशत महिलाओं के बारे में सोचेजो पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं। बैनर : मिसेस फनीबोन्स मूवीज़, सोनी पिक्चर्स, क्रिअर्ज एंटरटेनमेंट, होप प्रोडक्शन्स, केप ऑफ गुड फिल्म्स निर्माता : ट्विंकल खन्ना, गौरी शिंदे, प्रेरणा अरोरा, अर्जुन एन. कपूर निर्देशक : आर. बाल्की संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : अक्षय कुमार, सोनम कपूर, राधिका आप्टे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 59 सेकंड
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कहानी: फिल्म की कहानी 1962 के भारत- चीन युद्ध के बैकड्रॉप में कुमायूं के एक कस्बे जगतपुर में रहने वाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की है, जिसे उसके साथी उसकी बेवकूफाना हरकतों के चलते ट्यूबलाइट कहकर पुकारते हैं। रिव्यू: ट्यूबलाइट फिल्म के शुरुआती सीन में गांधी जी लोगों को को उपदेश देते नजर आते हैं, 'अगर मुझे यकीन है, तो मैं वह काम भी कर सकता हूं, जो करने की ताकत मुझमें नहीं है।' शायद इसी यकीन की बदौलत डायरेक्टर कबीर खान ने भी अमेरिकी फिल्म लिटिल बॉय की हिंदी अडप्टेशन में सलमान खान को साइन कर लिया, लेकिन वह भूल गए कि जिस चीज पर उन्हें यकीन है, जरूरी नहीं कि उस पर दर्शकों को भी यकीन होगा। जहां असल फिल्म लिटिल बॉय में एक बच्चा युद्ध में गए अपने पिता को वापस लाने की कोशिश करता है वहीं यहां सलमान खान युद्ध में गए अपने छोटे भाई सोहेल खान को वापस लाने की कोशिशें करते नजर आते हैं। पहले एक भोंदू बच्चे और फिर एक भोंदू आदमी के रोल में सलमान के फैंस उन्हें हजम नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी 1962 के भारत- चीन युद्ध के बैकड्रॉप में कुमायूं के एक कस्बे जगतपुर में रहने वाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की है, जिसे उसके साथी उसकी बेवकूफाना हरकतों के चलते ट्यूबलाइट कहकर पुकारते हैं। हालांकि उसका छोटा भाई भरत सिंह बिष्ट (सोहेल खान) अपने भाई को पूरा सपॉर्ट करता है। अपने मां-बाप के मर जाने के बाद लक्ष्मण और भरत जगतपुर में बन्ने चाचा (ओम पुरी) की सरपरस्ती में रह रहे हैं। इसी बीच भारत-चीन में युद्ध छिड़ जाता है और भरत मोर्चे पर चला जाता है। अपने भाई के बिना साइकल की चेन तक भी नहीं चढ़ा पाने वाला लक्ष्मण उसे बेहद मिस करता है और उसे वापस लाने की कोशिशों में जुट जाता है। इसके लिए लक्ष्मण बन्ने चाचा से गांधी जी की शिक्षाएं सीखता है। इसी बीच उनके कस्बे में चीनी महिला ली लिन (जू जू)और उसका बेटा गूवो (मातिन रे तांगुं) आ जाते हैं। चीन से लड़ाई की वजह से नाराज कस्बे वाले खासकर नारायण तिवारी (मोहम्मद जीशान अय्यूब) उन पर हमला करते हैं, लेकिन लक्ष्मण उनकी मदद करता है। कस्बे में एक जादूगर गोगो पाशा (शाहरुख खान) आता है, जो कि लक्ष्मण को यकीन जगा देता है कि वह चाहे तो कुछ भी कर सकता है। उधर लक्ष्मण को खबर मिलती है कि उसका भाई भरत चीनी फौज की कैद में है। तो क्या लक्ष्मण अपने भाई को वापस लाने में कामयाब हो पाता है? बात अगर डायरेक्शन की करें, तो कबीर खान की फिल्म पर कतई पकड़ नजर नहीं आती। एक अच्छी कहानी पर बनी फिल्म प्लॉट की गड़बड़ी के चलते दर्शकों को निराश करती है। खुद पर यकीन करने के फंडे के चलते कबीर ने फिल्म में सलमान से तमाम अटपटी चीजें कराई हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ कमजोर है, तो सेकंड हाफ में चीजें और भी खराब हो जाती हैं। कईं सीन तो बेहट अटपटे हैं। मसलन एक सीन में सलमान शर्ट-पैंट-स्वेटर और जूते पहनकर नदी में छलांग लगाते नजर आते हैं वहीं एक दूसरे सीन में सोहेल खान को गोली लग जाती है, तो वह अपने साथी को उसके फटे हुए जूतों की बजाय अपने जूते पहनने को कहता है। उसका साथी सोहेल के जूते पहनता है, इतने में उसे भी गोली लग जाती है, लेकिन जब भारतीय सेना के सिपाही उनके पास पहुंचते हैं, तो वहां उन्हें दोनों के पैरों में जूते नजर आते हैं। सलमान खान के फैंस उन्हें दबंग अंदाज वाले रोल्स में देखना पसंद करते हैं, लेकिन इस फिल्म में वह एक निरीह आदमी के रोल में नजर आते हैं, जो कि पूरी फिल्म में दूसरों के सामने रोता-गिड़गिड़ाता ही रहता है। सलमान जितनी बार इमोशनल सीन करते हैं, उतनी बार फैंस हंसते नजर आते हैं। खासकर सेना की भर्ती वाले सीन में और पूरी फिल्म के दौरान अपनी जिप बंद करने के दौरान सलमान फैंस का खूब मनोरंजन करते हैं वहीं रोने के सींस में कई बार सलमान ओवर ऐक्टिंग करते नजर आते हैं। सोहेल खान के पास फिल्म में ज्यादा सीन नहीं हैं, लेकिन कास्टिंग के लिहाज से देखें, तो वह सलमान के छोटे कम और बड़े भाई ज्यादा नजर आते हैं। बन्ने चाचा के रोल में ओम पुरी जमे हैं, तो मोहम्मद जीशान ने भी अच्छा रोल किया है वहीं जू जू और मातिन रे तांगुं फिल्म का सरप्राइज पैकेज हैं। हालांकि शाहरुख खान ने इस फिल्म में बेहद छोटा जादूगर का रोल क्यों साइन किया? इसका जवाब वह खुद ही दे सकते हैं। फिल्म में लद्दाख की वादियां खूबसूरत लगती हैं इंडो-चाइना वॉर को भी दर्शाने की बेहतर कोशिश की गई है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी दर्शकों को बांधने वाला है। बात अगर म्यूजिक की करें, तो रेडियो सॉन्ग पहले से ही फैंस के बीच पॉप्युलर हो चुका है, जिसका पिक्चराइजेशन खूबसूरत तरीके से किया गया है। फिल्म के बाकी गाने भी दर्शकों को बांधते हैं। पहले यह फिल्म 2 घंटे 35 मिनट की शूट हुई थी, लेकिन फिर इसे एडिट करते 2 घंटे 16 मिनट कर दिया गया। अगर कबीर चाहते, तो फिल्म पर 15 मिनट की और कैंची चलाकर इसे और टाइट बना सकते थे। बावजूद इसके अगर आप सलमान के जबर्दस्त फैन हैं, तो ईद पर उनसे मिलने सिनेमाघर जा सकते हैं। रिव्यू गुजराती में पढ़ें
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रेणुका व्यवहारेकहानी: पुणे में रहने वाले नेत्रहीन पियानिस्ट आकाश (आयुष्मान खुराना) एक मर्डर के बाद छिपा हुआ है। परिस्थितियां उसे इस मर्डर की शिकायत करने के लिए मजबूर करती हैं। हालांकि टेक्निकली वह मर्डर का 'गवाह' नहीं है लेकिन आंखें नहीं होने के बावजूद इस मर्डर को रिपोर्ट करना उसके लिए जरूरी बन जाता है। रिव्यू: श्रीराम राघवन अपनी थ्रिलर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं और अपने इस हुनर का इस्तेमाल 'अंधाधुन' में उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। बहुत ही कम फिल्म मेकर ऐसे हैं जो इस जॉनर की फिल्में बेहतरीन तरीके से बना पाते हैं। फिल्म बताती है कि जरूरी नहीं कि जो दिखता है वही सच हो। एक नेत्रहीन पियानिस्ट के रूप में आयुष्मान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। यह फिल्म 2010 में आई ऑलिवर ट्रीनर की फ्रेंच शॉर्ट फिल्म 'लैकोकरों' से प्रेरित है। पूरी फिल्म आपको कहानी से बांधे रखती है और आप का दिमाग फिल्म में डूबा रहता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है और कहानी के ट्विस्ट इसे दर्शकों के लिए रोमांचक बना देते हैं। हालांकि कैरक्टर्स के बीच लंबी बातचीत कभी-कभी कहानी को रोक देती है और फिल्म को बोझिल सा बना देती हैं। लेकिन इससे कहानी पर असर नहीं पड़ता है और क्लाइमैक्स आपको चौंका देता है। 'अंधाधुन' में आयुष्मान का रोल उनके करियर का अब तक का सबसे बेहतरीन कैरक्टर है। इस फिल्म से उन्होंने यह साबित कर दिया है कि वह हर तरह का किरदार निभा सकते हैं। तबू हमेशा की तरह अपने रोल में बेहतरीन दिखी हैं जबकि सुपरहिट मराठी फिल्म 'सैराट' में काम कर चुकीं ऐक्ट्रेस छाया कदम और अश्विनी कलसेकर अपनी छाप छोड़ती हैं। अमित त्रिवेदी ने अच्छा म्यूजिक दिया है जो कहानी के साथ मैच करता है। कुल मिलाकर अगर आप थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं तो 'अंधाधुन' आपके लिए एक अच्छा पैकेज है।
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वह अपनी पत्नी की 'औरतों वाली बात' यानी मेंस्ट्रुअल हाइजीन के मुद्दे को लेकर इतना ज्यादा विचलित हो जाता है कि उस समस्या का निवारण करने के लिए खुद सैनिटरी पैड बनाने की ठान लेता है, मगर वह जिस दौर में यह निर्णय लेता है, वह है करीब 16 साल पहले यानी 2001 की बात, जब टीवी पर किसी सैनिटरी पैड के विज्ञापन के आने पर या तो चैनल बदल दिया जाता था या पूछे जाने पर उसे साबुन या किसी और ऐड का नाम दिया जाता था। ग्रामीण इलाकों में तो इसे गंदा और अपवित्र मानकर इसके बारे में बात करना भी पाप समझा जाता था। उस परिवेश की अरुणाचलम मुरुगनंथम की सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म पैडमैन के जरिए निर्देशक आर. बाल्की और अक्षय कुमार ने मेंस्ट्रुअल हाइजीन के प्रति लोगों को जागरूक करने की दमदार पहल की है। कहानी: लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) को गायत्री (राधिका आप्टे) से शादी करने के बाद पता चलता है कि माहवारी के दौरान उसकी पत्नी न केवल गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती है बल्कि उसे अछूत कन्या की तरह 5 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है। उसे जब डॉक्टर से पता चलता है कि उन दिनों में महिलाएं गंदे कपड़े, राख, छाल आदि का इस्तेमाल करके कई जानलेवा और खतरनाक रोगों को दावत देती हैं तो वह खुद सैनिटरी पैड बनाने की कवायद में जुट जाता है। जानिए, दर्शकों को कैसी लगी यह फिल्म इस सिलसिले में उसे पहले अपनी पत्नी, बहन, मां के तिरस्कार का सामना करना पड़ता है और फिर गांववाले और समाज उसे एक तरह से बहिष्कृत कर देते हैं, मगर जितना वह जलील होता जाता है उतनी ही उसकी सैनिटरी पैड बनाने की जिद पक्की होती जाती है। परिवार उसे छोड़ देता है, मगर वह अपनी धुन नहीं छोड़ता और आगे इस सफर में उसकी जिद को सच में बदलने के लिए दिल्ली की एमबीए स्टूडेंट परी (सोनम कपूर) उसका साथ देती है। रिव्यू: 'चीनी कम', 'पा', 'शमिताभ' और 'की ऐंड का' जैसी लीक से हटकर फिल्में परोसनेवाले निर्देशक आर. बाल्की ने पूरी कोशिश की है कि वह मेंस्ट्रुअल हाइजीन के मुद्दे को हर तरह से भुना लें। इसमें कोई दो राय नहीं कि मासिक धर्म को लेकर समाज में जितने भी टैबू हैं उनसे पार पाने के लिए यह आज के दौर की सबसे जरूरी फिल्म है, मगर कई जगहों पर बाल्की भावनाओं में बहकर फिल्म को उपदेशात्मक बना बैठे हैं। सैनिटरी पैड को लेकर फैलाई जानेवाली जागरूकता की कहानी कई जगहों पर खिंची हुई लगती है। हालांकि बाल्की ने उसे चुटीले संवादों और लाइट कॉमिक दृश्यों के बलबूते पर संतुलित करने की कोशिश जरूर की है। फिल्म का दूसरा भाग पहले भाग की तुलना में ज्यादा मजबूत है। बाल्की ने दक्षिण के बजाय मध्यप्रदेश का बैकड्रॉप रखा जो कहानी को दिलचस्प बनाता है। अक्षय कुमार फिल्म का सबसे मजबूत पहलू हैं। उन्होंने पैडमैन के किरदार के हर रंग को दिल से जिया है। एक अदाकार के रूप में वह फिल्म में हर तरह से स्वछंद नजर आते हैं और अपने रोल में दर्शकों को निश्चिंत कर ले जाते हैं कि परिवार और समाज द्वारा हीनता का शिकार बनाए जाने के बावजूद वह सैनिटरी पैड क्यों बनाना चाहते हैं? राधिका आप्टे आज के दौर की नैचरल अभिनेत्रियों में से एक हैं और उन्होंने अपने रोल को सहजता से अंजाम दिया है। परी के रूप में सोनम कपूर कहानी ही नहीं बल्कि फिल्म में भी राहत का काम करती हैं। फिल्म की सपॉर्टिंग कास्ट भी मजबूत है। फिल्म में महानायक अमिताभ बच्चन की एंट्री प्रभाव छोड़ जाती है। अमित त्रिवेदी के संगीत में 'पैडमैन पैडमैन', 'हूबहू', 'आज से मेरा हो गया' जैसे गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही हिट हो चुके हैं। क्यों देखें: अक्षय कुमार की ऐक्टिंग के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है। इसके साथ ही अगर आप खास मुद्दों पर बनीं फिल्में देखना पसंद करते हैं तो 'पैडमैन' देखें।
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कुछ साल पहले तक दिल्ली सहित कई दूसरे शहरों के सिनेमाघरों में हर वीकेंड सुबह के शोज़ में बच्चों के लिए फिल्में प्रदर्शित हुआ करती थीं। इन फिल्मों में चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी के साथ-साथ दूसरे मेकर की बरसों से रिलीज के लटकती ऐसी फिल्में भी होती थीं, जो खासतौर से बच्चों की पसंद को ध्यान में रखकर बनाई गई हो। अब ऐसा नहीं है कि सिनेमा संचालक अपने यहां बच्चों के लिए बनी फिल्में लगाना सौ फीसदी घाटे का सौदा मानते हैं। पहले इन फिल्मों को सरकार की ओर से टैक्स फ्री किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पूरे साल बच्चों की पंसद को ध्यान में रखकर बनी फिल्मों की बात की जाए तो इन फिल्मों की संख्या साल दर साल कम हो रही हैं। मेकर इसकी बड़ी वजह मल्टिप्लेक्सों में स्क्रीन का न मिलने के साथ-साथ सरकारी रवैया भी मानते हैं। 'ब्लू माउंटेन' भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसमें बच्चों को जीत के साथ हार से कुछ सीखने और आगे बढ़ने का दमदार मेसेज दिया गया है। स्मॉल स्क्रीन पर इन दिनों चल रहे रीऐलिटी शो से ग्लैमर की दुनिया में अपनी पहचान का ख्वाब देख रही जेन एक्स की इस कहानी में जहां इन शोज के पीछे की सच्चाई को ईमानदारी से दिखाया गया है तो वहीं शोज में विनर न बन पाने वालों के लिए भी एक अच्छा दमदार मेसेज है। इस फिल्म को कई फिल्म फेस्टिवल में सराहा गया तो फिल्म ने कई अवॉर्ड भी अपने नाम किए। लगान और मुन्ना भाई एमबीबीएस से सुर्खियों में आई ग्रेसी सिंह लंबे अर्से बाद इस फिल्म में नजर आईं, तो वहीं म्यूजिक डायरेक्टर आदेश श्रीवास्तव की भी यह आखिरी फिल्म है। आदेश ने मृत्यु से पहले इस फिल्म के दो गानों का संगीत तैयार किया। शिमला, कुफरी और नारकंडा की लोकेशन पर शून्य से पांच डिग्री से भी कम तापमान में फिल्म की शूटिंग की गई है, बर्फबारी के बीच और फौरन बाद इन लोकेशन पर फिल्माए फिल्म के कई सीन का जवाब नहीं। कहानी : वाणी शर्मा (ग्रेसी सिंह) एक जानीमानी सिंगर और डांसर हैं। वाणी की सुरीली आवाज का पूरा शहर दीवाना है। संगीत की दुनिया में वाणी की खास पहचान बन चुकी है। वाणी अपने संगीत के इस सफर को अपने प्रेमी ओम (रणवीर शौरी) की खुशी के लिए हमेशा के लिए अलविदा कह देती है। वाणी अब ओम की वाइफ बन चुकी है। वाणी और ओम शिमला में अपने बेटे सोम शर्मा (यथार्थ रत्नम) के साथ रहते हैं। सोम के मन में कभी इंजिनियर तो कभी क्रिकेटर बनने की चाह जगती रहती है। ओम भी यही चाहता है कि सोम स्टडी में हमेशा टॉप आकर आगे की स्टडी के लिए विदेश जाए। सोम एक दिन शहर में हो रहे एक टॉप सिगिंग रिऐलिटी शो के ऑडिशन में हिस्सा लेता है। यहां उसे चुन लिया जाता है। दूसरी ओर ओम को यह पसंद नहीं कि उसका बेटा बोर्ड की परीक्षा की तैयारी छोड़कर किसी टीवी शो के रिऐलिटी शो में हिस्सा लेने मुंबई जाए। वहीं, वाणी को लगता है सोम के दवारा वह अब अपने अधूरे टॉप सिंगर बनने के सपने को साकार होते देख सकती है। वाणी की जिद के सामने ओम हार मान लेता है, वाणी और सोम पूरी तैयारी करने के बाद मुंबई पहुंचते हैं। सोम को इस शो के हर एपिसोड में लगातार कामयाबी मिल रही है। शो के तीनों जज उसकी आवाज की जी भरकर तारीफें करने के साथ-साथ उसे दस में से दस अंक भी दे रहे हैं। सोम अब टीवी का स्टार बन रहा है, लोग उसके ऑटोग्राफ लेने लगे हैं, लेकिन शो के फाइनल एपिसोड में अचानक सोम की आवाज उसका साथ नहीं देती और उसे शो से बाहर कर दिया जाता है। ऐक्टिंग : वाणी शर्मा के किरदार में ग्रेसी सिंह ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। ग्रेसी ने इस किरदार को अपने जीवंत अभिनय से स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है, वहीं ग्रेसी ने खुद को ऐसी बेहतरीन ऐक्ट्रेस भी साबित कर दिखाया जो किसी भी किरदार में फिट हो सकती है। रणवीर शौरी का काम बस ठीकठाक रहा तो सोम शर्मा के रोल में यथार्थ रत्नम ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। घरों में दूध की सप्लाई करने दामोदर के रोल में राजपाल यादव खूब जमे हैं। निर्देशन : सुमन गांगुली ने पूरी ईमानदारी के साथ स्क्रिप्ट पर काम किया है। समीर ने जहां फिल्म के सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया तो वहीं हर किरदारों को दमदार बनाने के लिए होमवर्क भी किया है। इंटरवल के बाद फिल्म की गति अचानक रुक सी जाती है, खासकर शो से बाहर होने के बाद सोम के रुख को कुछ ज्यादा ही अग्रेसिव दिखाया गया है तो वहीं फिल्म का क्लाइमैक्स भी आसानी से हजम नहीं होता। संगीत : फिल्म के गाने, कहानी और माहौल पर पूरी तरह से फिट हैं, लंबे अर्से बाद गानों में क्लासिकल संगीत का अच्छा सामंजस्य नजर आया। 'आई लव यू मॉम' फिल्म का बेहतरीन गाना है। क्यों देखें: शिमला, कुफरी, नारकंडा की ऐसी गजब खूबसूरत बर्फीली लोकेशन जो आपको स्वीटजरलैंड की लोकेशन का एहसास कराएगी। मधुर संगीत, ग्रेसी सिंह की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ बच्चों के लिए अच्छा मेसेज इस फिल्म को देखने की वजह हो सकती है।
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एअरलिफ्ट की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया जाता है कि रंजीत कटियाल नामक कोई बंदा है ही नहीं, हालांकि प्रचार में यह बात छिपाई गई थी। 36 वर्ष पूर्व घटी घटना को काल्पनिक चरित्र डालकर पेश किया गया है। रंजीत कटियाल की प्रेरणा मैथ्युज और वेदी नामक दो भारतीयों से ली गई है जिन्होंने 1990 में कुवैत में फंसे एक लाख सत्तर हजार भारतीयों की वापसी में अहम भूमिका निभाई थी, जब वहां पर सद्दाम हुसैन की इराकी सेना ने हमला बोल दिया था। यह ऐसी घटना है जिसमें कई गुमनाम हीरो ने बहादुरी दिखाई और उनकी चर्चा भी नहीं हुई। रंजीत कटियाल कुवैत में बिज़नेस करने वाला भारतीय है जो अपने आपको कुवैती मानता है। हिंदी फिल्मों के गाने सुनने की बजाय अरबी धुन सुनना पसंद करता है। ये बात और है कि अगले सीन में ही वह हिंदी में गाना गाते दिखता है। 'जब चोट लगती है तो मम्मी ही याद आती है', इस बात का उसे तब अहसास होता है जब कुवैत पर हमला हो जाता है और वहां की सरकार कोई मदद नहीं करती। वह अपने परिवार को लेकर भारत जाना चाहता है, लेकिन उसके अंदर का मसीहा तब जाग जाता है जब वह देखता है कि उसके जैसे एक लाख सत्तर हजार लोग हैं जो अपने देश लौटना चाहते हैं। वह सबको इकट्ठा करता है। उनके खाने का इंतजाम कर अपने स्तर पर घर वापसी की कोशिश शुरू कर देता है। रंजीत भारत सरकार के एक ऑफिसर्स से बात करता है। इराक जाकर मंत्री से मिलता है। उसकी इस कोशिश को फिल्म में मुख्य रूप से उभारा गया है। भारत सरकार की सुस्त रफ्तार, मामले को गंभीरता से नहीं लेना, कदम-कदम पर इराकी लड़ाकों से खतरा, चारों तरफ हताश लोग, बावजूद इसके रंजीत हिम्मत नहीं खोता और अंत में भारत सरकार से उसे मदद मिलती है। तारीफ एअर इंडिया के पायलेट्स की भी करना होगी जो पौने पांच सौ से ज्यादा उड़ानों के जरिये वहां फंसे भारतीयों को देश लाते हैं जो कि एक बड़ा बचाव ऑपरेशन था। फिल्म में डिटेल पर खासा ध्यान दिया गया है। कुवैत में शूटिंग, उस दौर के टीवी, फोन, युवा सचिन तेंडुलकर, बालों में फूल लगाकर समाचार पढ़ती सलमा सुल्तान जैसी समा‍चार वाचिका की वजह से हम 90 के दशक में पहुंच जाते हैं। इराकी सैनिकों की बर्बरता और भारतीयों की लाचारी भी दिखाई देती है, लेकिन फिल्म से वो उतार-चढ़ाव नदारद हैं कि दर्शक अपनी सीट से चिपके रहें। अक्षय कुमार फिल्म के हीरो हैं, लेकिन उन्हें हीरोगिरी दिखाने के अवसर नहीं मिलते। ज्यादातर समय वे सिर्फ बात करते रहते हैं और कोई ठोस योजना नहीं बनाते। बातचीत वाले सीन दिलचस्प नहीं हैं, इस वजह से बीच-बीच में बोरियत से भी सामना होता है और फिल्म ठहरी हुई लगती है। निर्देशक राजा कृष्ण मेनन ने भले ही काल्पनिक चरि‍त्र डाले हों, लेकिन घटना को वास्तविक तरीके से दर्शाने के चक्कर में उनकी फिल्म इंटरवल तक सपाट है। इंटरवल के बाद फिल्म में रफ्तार आती है जब परदे पर घटनाक्रम होते हैं। यदि कहानी में थोड़ी कल्पनाशीलता डाली जाती तो फिल्म में थ्रिल पैदा होता। जहां एक ओर भारतीय सरकार की सुस्त शैली दिखाई गई है तो कोहली जैसा सामान्य ऑफिसर भी दिखाया है जो दिल्ली में बैठ कुवैत में फंसे भारतीयों के लिए परेशान होता रहता है। फिल्म से स्पष्ट होता है कि इस ऑपरेशन में सरकार की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी और ऑफिसर्स के दम पर ही यह संभव हो पाया है। एअर लिफ्ट के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में दो किरदार ऐसे हैं जिनका उल्लेख जरूरी है। प्रकाश वेलावडी ने जॉर्ज नामक किरदार निभाया है, जो हर किसी को अपने सवालों से बेहद परेशान करता है। वह करता कुछ नहीं है, लेकिन हर चीज में मीनमेख निकालता है। प्रकाश ने बेहतरीन अभिनय किया है। दूसरा किरदार इराकी मेजर खलफ बिन ज़ायद का है जिसे इनामुलहक ने अदा किया है। उनका हिंदी बोलने का लहजा और बॉडी लैंग्वेज जबरदस्त है। वे जब स्क्रीन पर आते हैं, राहत देते हैं। कुछ किरदार स्टीरियोटाइप लगे हैं जैसे पूरब कोहली और निमरत कौर के किरदार। इन्हें एक-दो सीन इसलिए दे दिए गए हैं ताकि इन्हें अपना हुनर दिखाने का मौका मिले। अक्षय कुमार ने ऐसा चरित्र पहली बार निभाया है। रंजीत ‍कटियाल का गुरूर और फिर हताशा को उन्होंने अच्छे से दर्शाया है। निर्देशक ने उन्हें सिनेमा के नाम पर कोई छूट नहीं लेने दी है और उनके कैरेक्टर को रियलिटी के करीब रखा है। रंजीत के किरदार में अक्षय ऐसे घुसे की कभी भी वह उनकी पकड़ से नहीं छूटा। प्रिया सेठ की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। गाने फिल्म में अड़चन पैदा करते हैं और निर्देशक को इससे बचना चाहिए था। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., केप ऑफ गुड फिल्म्स, क्राउचिंग टाइगर मोशन पिक्चर्स, एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : अरूणा भाटिया, मोनिषा आडवाणी, मधु भोजवानी, विक्रम मल्होत्रा, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार निर्देशक : राजा कृष्ण मेनन संगीत : अमाल मलिक, अंकित तिवारी कलाकार : अक्षय कुमार, निमरत कौर, पूरब कोहली, प्रकाश वेलावडी, इनामुलहक सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 4 मिनट 30 सेकंड
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कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘हरि पुत्तर’ समय और पैसे की बर्बादी है। निर्माता : लकी कोहली, मुनीष पुरी, ए पी पारिगी निर्देशक : लकी कोहली, राजेश बजाज संगीत : आदेश श्रीवास्तव, गुरु शर्मा कलाकार : ज़ैन खान, सारिका, जैकी श्रॉफ़ सौरभ शुक्ला, विजय राज, स्विनी खारा, शमिता शेट्टी (विशेष भूमिका) लंबे-चौड़े सिनेमाघर में ‘हरि पुत्तर’ देखने की हिम्मत पंद्रह-बीस लोग जुटा पाए थे। पहले पाँच मिनट में ही समझ में आ गया कि कितनी घटिया फिल्म आगे झेलना पड़ेगी। थोड़ी देर बाद कुछ दर्शक पैसा बर्बाद होने का रोना रोने लगे थे। इंटरवल होते ही एक दर्शक चिल्लाया इंटरवल हो गया। अरे, भई सबको पता है, इसमें चिल्लाने वाली क्या बात है। लेकिन वह शायद इसलिए खुश था कि थोड़ी देर के लिए वह इस कैद से छूट गया। पॉपकॉर्न लेकर मैं फिर फिल्म देखने के लिए बैठा। फिल्म शुरू हुई तो आधे से ज्यादा दर्शक गायब हो चुके थे। वे समझदार थे। जो बैठे थे उनकी अपनी कुछ मजबूरी होगी। बात की जाए फिल्म की। इस फिल्म से जुड़े लोगों ने अपनी अकल बिलकुल भी खर्च नहीं की। ‘हैरी पॉटर’ से नाम कॉपी कर उसका देशी संस्करण ‘हरि पुत्तर’ कर दिया। कहानी ‘होम अलोन’ नामक फिल्म से उठा ली, लेकिन नकल में भी अकल चाहिए, जो निर्देशकों में नहीं थी। एक नहीं बल्कि दो लोगों (लकी और राजेश) ने इसे निर्देशित किया, पता नहीं एक बनाता तो क्या हाल होता। लगता है कि उन्होंने आज के बच्चों को भी अपने जैसा ही समझ लिया है और ‘हरि पुत्तर’ नामक घटिया फिल्म बना डाली। इस तरह की फिल्म को आज के बच्चे पसंद करेंगे, पता नहीं उन्होंने यह कैसे सोच लिया। हैरत होती है फिल्म पर पैसा लगाने वालों की समझ पर। हरिप्रसाद (ज़ैन खान) उर्फ हरि पुत्तर दस वर्ष का समझदार लड़का है। हाल ही में वह भारत से यूके रहने आया है। उसके पिता प्रोफेसर ढूंडा एक सीक्रेट मिशन पर हैं और उन्होंने घर पर एक चिप में कुछ गोपनीय जानकारी रखी है। उस चिप की तलाश में कुछ भाई किस्म के लोग हैं। हरि के घर पर उसकी आंटी (लिलेट दुबे) और अंकल (जैकी श्रॉफ) ढेर सारे बच्चों के साथ आते हैं। वे बच्चे न केवल ‍हरि को सताते हैं, बल्कि हरि को अपने कमरे से भी हाथ धोना पड़ता है। पूरा परिवार छुट्टियों के लिए दूसरे शहर जाता है, लेकिन वे घर पर हरि पुत्तर और टुकटुक (स्विनी खारा) को भूल जाते हैं। उस चिप की तलाश में दो गुंडे (सौरभ शुक्ला और विजय राज) हरि के घर में घुसते हैं। हरि और टुकटुक उनसे मुकाबला कर उस चिप को बचाते हैं। फिल्म का एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसे अच्छा कहा जा सके। फिल्म की पटकथा इतनी बुरी लिखी गई है कि एक दृश्य दूसरे से मेल नहीं खाता। ऐसा लगता है कि कुछ दृश्यों को फिल्माकर आपस में जोड़ दिया गया है। कई घटनाक्रम ऐसे हैं, जो क्यों रखे गए हैं, समझ के बाहर है। जब भाई के आदमी (सौरभ और विजय) चिप चुराने हैरी के घर जाते हैं तो रास्ते में वे एक दुकान पर महिला से पूछते हैं कि घर में कोई है या नहीं, जबकि उस महिला का उस घर से कोई संबंध नहीं है। निर्देशन नामक कोई चीज है, फिल्म देखकर महसूस नहीं होता। फिल्म की फोटोग्राफी धुँधली है। सौरभ शुक्ला, विजय राज, जैकी श्रॉफ और सारिका ने अपने घटिया अभिनय से खूब बोर किया। ज़ैन खान का काम ठीक-ठाक है, जबकि स्विनी को ज्यादा अवसर नहीं मिला। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘हरि पुत्तर’ समय और पैसे की बर्बादी है।
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बैनर : यूटीवी स्पॉट बॉय निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : अभिषेक कपूर संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, अमित साध, राजकुमार यादव, अमृता पुरी सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 6 मिनट मेल बॉडिंग पर पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्में जैसे रंग दे बसंती, थ्री इडियट्स, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हैं। ‘काई पो छे’ के निर्देशक अभिषेक कपूर की पिछली फिल्म ‘रॉक ऑन’ भी मेल बांडिंग पर आधारित थी और नई फिल्म भी है। रॉक ऑन में बैंड बनाने को लेकर दोस्तों के आपसी संघर्ष को दिखाया गया था, जबकि काई पो छे में गुजरात की पृष्ठभूमि में दोस्तों की कहानी कही गई है। एक अभिनेता के रूप में असफल रहने के बाद अभिषेक कपूर उर्फ गट्टू ने कैमरे के पीछे जाने का निर्णय लिया और रॉक ऑन जैसी फिल्म बनाकर सभी को चौंका दिया। ‘काई पो छे’ देखने के बाद कहा जा सकता है कि उनका यह निर्णय एकदम सही है। एक निर्देशक के रूप में न केवल उन्होंने बेहतरीन कहानी चुनी बल्कि उसे सराहनीय तरीके से परदे पर पेश किया। फिल्म में ऐसे कई घटनाक्रम हैं जहां पर निर्देशक लाउड हो सकता था, ड्रामा क्रिएट कर सकता था, लेकिन अभिषेक ने कहानी को विश्वसनीय रहने दिया और सिनेमा के नाम पर लिबर्टी नहीं ली। कहानी वर्ष 2000 की है। ईशान (सुशांत राजपूत), गोविंद (राजकुमार यादव) और ओमी (अमित साध) की पढ़ाई पूरी हो चुकी है। वे एक औसत विद्यार्थी रहे हैं और उनके मां-बाप का कोई व्यवसाय भी नहीं है। वे निठल्ले बैठ क्रिकेट मैच देखते रहते हैं। जब माता-पिता का दबाव बढ़ता है तो एक मंदिर के पास खेल का सामान बेचने की दुकान और क्रिकेट ट्रेनिंग सेंटर खोलते हैं। ओमी के मामा इस मामले में तीनों की सहायता करते हैं जो खुद एक राजनीतिक पार्टी से जुड़े हैं। गोविंद का नजरिया व्यावसायिक है। वह बच्चों की ट्यूशन भी लेता है और दुकान भी संभालता है। हर काम हिसाब-किताब लगाकर करता है। ईशान का क्रिकेट ही धर्म है और हमेशा दिल से फैसले लेता है। ओमी थोड़ा इमोशनल बंदा है और वह इन दोनों के साथ इसलिए है क्योंकि वह इन्हें पसंद करता है। ईशान की नजर अली नामक एक लड़के पर पड़ती है जो बहुत अच्छी बैटिंग करता है। ईशान उसकी प्रतिभा को निखारने का जिम्मा उठाता है। गुजरात में आए भूकंप, गोधरा कांड और उसके बाद की स्थिति से उनके समीकरण किस तरह बदलते हैं, ये फिल्म का सार है। क्रिकेट, धर्म और राजनीति के इर्दगिर्द भारतीय समाज घूमता है और यही सब कुछ ‘काई पो छे’ की कहानी में देखने को मिलता है। फिल्म देखकर लगता है कि क्रिकेट और सिनेमा ही भारतीयों को एक करते हैं, जबकि राजनीति और धर्म लोगों को बांटते हैं। फिल्म में बहुत सारी बातें हैं, इसके बावजूद कही संतुलन बिगड़ता नहीं है। कई ट्रैक साथ चलते हैं। गोविंद-ईशान-ओमी की दोस्ती, गोविंद की प्रेम कहानी, ईशान का क्रिकेट के प्रति दीवानापन, ओमी का राजनीतिक दल से जुड़ना, धर्म के नाम पर राजनीति, इन सभी बातों को फिल्म में बहुत ही शानदार तरीके से गूंथा गया है। कही कोई फालतू सीन नजर नहीं आता। फिल्म में ढेर सारे ऐसे दृश्य हैं जो बेहतरीन कहे जा सकते हैं। निर्देशक अभिषेक कपूर छोटी-छोटी गैप्स को बहुत अच्छे तरीके से भरते हैं। कई दृश्यों में वे बिना संवाद के भी कई बातें कह जाते हैं। मिसाल के तौर पर ओमी-ईशान-गोविंद जब अली के घर जाते हैं तो वहां ओमी शरबत पीने से मना कर देता है। फिल्म की शुरुआत में निर्देशक ने इस छोटे-से दृश्य ओमी की मानसिकता से परिचय कराया है और बाद में ओमी का सांप्रदायिक रूप हमें देखने को मिलता है। भारत-ऑस्ट्रेलिया के ऐतिहासिक कोलकाता टेस्ट (जिसमें वीवीएस लक्ष्मण और हरभजन सिंह ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था) का पृष्ठभूमि में बेहतरीन उपयोग किया गया है। ये ‍अभिषेक का साहस कहा जाना चाहिए कि उन्होंने नई स्टार कास्ट लेने का साहस किया है और कलाकारों से बेहतरीन अभिनय कराया है। सुशांत राजपूत ने अपने कैरेक्टर को गजब की ऊर्जा दी है। उनके जैसे क्रिकेट के कई दीवाने हमारे इर्दगिर्द मिल जाएंगे। राजुकमार यादव ने अपने कैरेक्टर को दांतों से पकड़कर रखा है। उनकी बॉडी लैंग्वेज बताती है कि वह किस तरह का आदमी है। अमित साध को संवाद कम मिले क्योंकि उनके फैशियल एक्सप्रेशन का निर्देशक ने बखूबी उपयोग किया। विद्या के रूप में अमृता पुरी ने भी शानदार अभिनय किया है। अनय गोस्वामी की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। रंग संयोजन के साथ उन्होंने कलाकारों की क्षमता के अनुरूप उनके चेहरे के भावों को बखूबी पकड़ा है। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म की थीम के अनुरूप है और गाने फिल्म में किसी तरह की बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं। चेतन भगत के उपन्यास ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ’ पर आधारित ‘काई पो छे’ को मिस करना एक मिस्टेक होगी। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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‘रामू पागल हो गया’ ये नाम है उस फिल्म का जिसे हाल ही में एक व्यक्ति ने रजिस्टर्ड कराया है। हो सकता है उसे ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ देखने का मौका पहले मिल गया हो और उसे रामू पर फिल्म बनाने का आइडिया आया हो, क्योंकि ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ देखने के बाद यही खयाल आता है। जिस तरह एक हिट गाने की मधुरता को बिगाड़कर रीमिक्स वर्जन बनाया जाता है, कुछ वैसा ही रामू ने ‘शोले’ के साथ किया है। ‘शोले’ को उन्होंने अपने अंदाज में बनाया है। सलीम-जावेद की पटकथा पर फिल्म कैसे बनाई जाती है, यह रमेश‍ सिप्पी ने ‘शोले’ बनाकर बताया था। उसी तरह रामू ने यह बताया है कि फिल्म कैसे नहीं बनाई जानी चाहिए थी। प्रयोग के नाम पर रामू ने ‘शोले’ के साथ छेड़छाड़ की और उसका बिगड़ा हुआ हुलिया ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ में दिखाई देता है। आप ये उम्मीद लेकर फिल्म देखने मत जाइए कि रमेश सिप्पी की शोले जैसी फिल्म आपको देखने को मिलेगी, क्योंकि रामू ने हूबहू कॉपी नहीं की है। उन्होंने मूल कथा को वैसा ही रखा है और वातावरण को बदल दिया है। गाँव की जगह शहर आ गया और डाकू की जगह भाई। ‘शोले’ के दृश्यों को थोड़े-बहुत फेरबदल कर पेश किया गया है। फिल्म में ‘तेरा क्या होगा कालिया’ या ‘अरे ओ सांबा’ जैसे संवाद नहीं सुनाई देंगे, बल्कि इनकी जगह दूसरे संवाद रखे गए है। कहानी वही है, जो ‘शोले’ की थी। इंस्पेक्टर नरसिम्हा के परिवार के सदस्यों को बब्बन मार डालता है। बब्बन से बदला लेने के लिए नरसिम्हा हीरू और राज को चुनता है। ‘शोले’ में हर किरदार लार्जर देन लाइफ था, लेकिन रामू ने अपनी फिल्म के किरदारों को यथार्थ के नजदीक रखा है। फिल्म में से रोमांस और मस्ती गायब है। अमिताभ और धर्मेन्द्र की जो केमे‍स्ट्री थी, वह प्रशांत और अजय देवगन के बीच कहीं नजर नहीं आती। अजय और निशा के रोमांटिक सीन बिलकुल भी अपील नहीं करते। अजय देवगन का सुसाइड वाला दृश्य तथा राज का हीरू के लिए घुँघरू की माँ से शादी की बात करने वाले दृश्य हास्यास्पद हैं। फिल्म का पहला हाफ तो किसी तरह झेला जाता है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म झेलना मुश्किल हो जाती है। दूसरे हाफ में हिंसात्मक दृश्यों की भरमार है। रामू ने सबसे ज्यादा मेहनत बब्बन (अमिताभ बच्चन) पर की है और अन्य किरदारों को महत्व नहीं दिया है। अमिताभ कुछ दृश्यों में जमे, लेकिन कहीं-कहीं ओवर-एक्टिंग का शिकार हो गए। अजय देवगन और प्रशांत राज अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे, क्योंकि उनके किरदार भी कमजोर थे। सुष्मिता सेन और निशा कोठारी ने अच्छा अभिनय किया है। मोहनलाल का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनका हिंदी बोलने का लहजा अखरता है। राजपाल यादव से तो खीझ पैदा होती है। अमित राय ने फोटोग्राफी के नाम पर काफी प्रयोग किए हैं, लेकिन सारे प्रयोग अच्छे लगें, यह जरूरी नहीं है। उन्होंने फिल्म को कई आड़े-तिरछे कोणों से शूट किया है। कई बार परदे पर आधे-अधूरे चेहरे दिखाई देते हैं। अमिताभ का सेब उछालने वाला शॉट उन्होंने बेहतरीन फिल्माया है। फिल्म में गाने आते-जाते रहते हैं और लोगों को ‘ब्रेक’ मिल जाता है। ‘शोले’ से केवल एक गाना ‘मेहबूबा’ उठाया गया है, जिस पर उर्मिला ने अपने जलवे दिखाए हैं। अभिषेक बच्चन ने भी इस गाने में अपना चेहरा दिखाया है। ‘शोले’ में आउटडोर शूटिंग थी, तेज धूप थी, उजाला था, वीरू-बसंती की मस्ती थी। रामू की फिल्म में अंधेरा है, मटमैलापन है, सीलन है, बदसूरत चेहरे हैं। यदि ‘शोले’ से फिल्म की तुलना नहीं भ ी की जाए और एक नई फिल्म के रूप में भी ‘आग’ को देखा जाए तो भी फिल्म कहीं से प्रभावित नहीं करती। ह ो सकत ा ह ै को ई सिरफिर ा ' शोल े' स े छेड़छाड ़ क े आरो प मे ं राम ू प र मुकदम ा दाय र क र दे। निर्माता : रामगोपाल वर्मा निर्देशक : रामगोपाल वर्मा कलाकार : अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, सुष्मिता सेन, निशा कोठारी, प्रशांत राज, मोहनला ल
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में धर्म और आस्था के नाम पर क्रिमिनल की ऐंट्री और अपराध कर चुके धर्मगुरुओं पर फिल्में बनाने का ट्रेंड बरसों से चला आ रहा है। बेशक ऐसे पाखंडी बाबाओं या धर्मगुरुओं पर बनी अक्षय कुमार की 'ओएमजी' और आमिर खान स्टारर 'पीके' ने बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कमाई करने के साथ हर किसी से जमकर वाहवाही बटोरी, लेकिन ऐसा सिर्फ टॉप ऐक्टर या बैनर की फिल्मों के साथ हुआ है, वर्ना नई स्टार कास्ट के साथ सीमित बजट में बनी ऐसी ज्यादतर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना तो दूर अपनी लागत तक भी वसूल नहीं कर पाती। इस सप्ताह रिलीज हुई ग्लोबल बाबा भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे मेकर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्टार्ट टू लास्ट एक ही ट्रैक पर बनाया है, लेकिन इसके बावजूद कमजोर प्रमोशन और बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ स्टार की गैरमौजूदगी के चलते इस फिल्म को न तो कमाई करने वाले सिनेमाघर मिल पाए। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBTMovies कहानी : क्रिमिनल चिलम पहलवान (अभिमन्यु सिंह) का स्टेट की एक प्रभावशाली एक्स मिनिस्टर भानुमती एनकाउंटर कराना चाहती है। दरअसल, इस बार चुनाव में भानुमती की पार्टी हार गई और भानुमति नहीं चाहती कि उसके इशारों पर काम करने वाला क्रिमिनल आने वाले दिनों में उसके खिलाफत करने लगे। ऐसे में भानुमती अपने एक खास विश्वासपात्र पुलिस अफसर जैकब (रवि किशन) को चिलम पहलवान का एनकाउंटर करने के काम पर लगाती है। चिलम पहलवान जैकब को चकमा देकर भागने में कामयाब हो जाता है। चिलम पहवान पुलिस से बचते बचाते बुरी तरह घायल अवस्था में हरिद्वार पहुंचता है, जहां कुंभ का मेला चल रहा है। यहीं चिलम की मुलाकात डमरू बाबा (पकंज त्रिपाठी) से होती है जो कभी उसी तरह का क्रिमिनल था, लेकिन अब वह यहां मौनी बाबा बनकर भोले भाले लोगों को लूटने में लगा है। डमरू बाबा चिलम पहलवान को समझाता है अगर दिन रात मौजमस्ती करना और बैठे बिठाएं करोड़ों की दौलत और नाम कमाना है तो बाबा बन जाओ। राजनेता और पुलिस भी आपके सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। बस यहीं से अपराध की दुनिया का सरगना चिलम बाबा ग्लोबल बाबा का चोला पहनकर अपना दबदबा बनाना शुरू करता है। ऐक्टिंग : डमरू बाबा उर्फ मौनी बाबा के किरदार में पंकज त्रिपाठी ने बेहतरीन अभिनय किया है। अभिमन्यु सिंह अपने किरदार में पूरी तरह से फिट रहे, वहीं रवि किशन को लंबे अर्से बाद अच्छा किरदार मिला और अपने किरदार को उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। टीवी रिपोर्टर के रोल में संदीपा घर बस ठीक-ठाक रही। प्रदेश के होम मिनिस्टर दल्लु यादव के रोल में अखिलेंद्र मिश्रा का काम परफेक्ट है। डायरेक्शन : तारीफ करनी होगी यंग डायरेक्टर मनोज तिवारी की जिन्होंने स्टार्ट टू लास्ट कहानी को ट्रैक पर रखा। सीमित बजट के बावजूद उन्होंने फिल्म को किसी स्टूडियो में शूट न करके कहानी और माहौल पर फिट लोकेशन पर शूट किया। संगीत : फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं जो थिएटर से बाहर आने के बाद आपको याद रह सके। क्यों देखें : अगर आप समाज में कुकुरमुत्ते की तरह जगह बना रहे पाखंडी बाबाओं और धर्मगुरुओं से जुड़े विषयों पर बनी फिल्में देखना पसंद करते हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं, लेकिन कुछ नया और अलग देखने की चाह में थिऐटर जा रहे हैं तो निराश हो सकते हैं।
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सीक्वल बनाने का सबसे बड़ा फायदा यह रहता है कि कहानी और किरदारों से दर्शक भलीभांति परिचित रहते हैं। फिल्म के सफल होने से दर्शकों की पसंद पता चलती है। नुकसान यह रहता है कि ‍सीक्वल से अपेक्षा बहुत ज्यादा रहती है और यही पर ज्यादातर फिल्मकार मार खा जाते हैं। चार साल बाद 'तनु वेड्स मनु' का सीक्वल 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के नाम से आया है और दूसरा भाग पहले भाग से बढ़कर है। कहानी वही से शुरू होती है जहां पहली खत्म हुई थी। तनु और मनु की शादी को चार वर्ष बीत चुके हैं। लंदन में रहकर तनु (कंगना रनौट) बोर हो चुकी है। उसे लगता है कि पति मनु (आर. माधवन) में स्पार्क नहीं बचा। वह पहले जैसा रोमांटिक नहीं रहा। अदरक की तरह यहां-वहां से फैल गया। मनु को पागलखाने में भरती करवा कर तनु कानपुर लौट आती है। उसके इस कदम से मनु चकित रह जाता है। किसी तरह पागलखाने से छूटकर वह भी भारत आता है और तलाक का नोटिस भिजवा देता है। जिसका जवाब उसी शैली में तनु की ओर से दिया जाता है। नई दिल्ली में मनु की निगाह एक लड़की कुसुम (फिर कंगना रनौट) पर पड़ती है जो दिखने में बिलकुल तनु जैसी है। मनु का दिल आ जाता है। यह हरियाणवी लड़की एथलीट है और मनचलों की हॉकी से धुलाई करना जानती है। मनु और कुसुम में उम्र का अंतर है, लेकिन कुसुम शादी के लिए मान ही जाती है। फिर एंट्री होती है राजा अवस्थी (जिमी शेरगिल) की जिनकी नाक के नीचे से पिछली बार तनु को मनु ले उड़े थे। एक बार फिर राजा भैया और मनु की राहें टकरा रही हैं। इधर मनु और तनु का दिल भी एक-दूसरे के लिए धड़कता है। क्या तनु-मनु फिर मिलेंगे? क्या कुसुम और मनु की शादी होगी? राजा भैया की राह में किस तरह मनु फिर रोड़ा बन गया? इन बातों के जवाब मिलते हैं फिल्म में। कहानी की बुनियाद कमजोर है। तनु और मनु एक-दूसरे को नापसंद क्यों करने लगे इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई। एक बेहद बोरिंग सीन के जरिये यह सब दिखाया गया है जहां पागलखाने में तनु और मनु डॉक्टर्स के सामने एक-दूसरे से बहस करते हैं। यहां कॉमेडी करने की कोशिश की गई है, लेकिन बात नहीं बनती। कुसुम और मनु की उम्र में फासला बताया गया है। कुसुम का भाई दोनों के रिश्ते के लिए मना भी कर देता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कुसुम शादी के लिए क्यों मान जाती है। इसी तरह की कुछ कमजोरियां कहानी में हैं, लेकिन बेहतरीन स्क्रीनप्ले, दमदार अभिनय और शानदार निर्देशन इन कमजोरियों को ढंक लेता है क्योंकि इनके कारण फिल्म मनोरंजक बन पड़ी है। तनु वेड्स मनु रि टर्न्स के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें तनु वेड्स मनु रिटर्न्स शुरुआत के पन्द्रह-बीस मिनट में लड़खड़ाती है, लेकिन धीरे-धीरे पात्रों और प्रसंगों को दर्शक सोख लेता है और फिल्म में मजा आने लगता है। हिमांशु शर्मा की कहानी जरूर कुछ सवाल खड़े करती है, लेकिन स्क्रीनप्ले और संवाद जबरदस्त है। कई संवाद आपको ठहाके लगाने पर मजबूर करते हैं। तनु जैसी दिखने वाली कुसुम का कैरेक्टर फिल्म से जोड़ा जाना मास्टर स्ट्रोक है। कुसुम का किरदार फिल्म में जान फूंक देता है और क्लाइमैक्स तक इसका असर देखने को मिलता है। निर्देशक आनंद एल. राय का प्रस्तुतिकरण तारीफ के योग्य है। उनकी अतिरिक्त मेहनत और कल्पनाशीलता परदे पर झलकती है। छोटे शहर और वहां रहने वाले लोगों के मिजाज को पेश करने में वे मास्टर हैं। उन्होंने छोटे-छोटे सीन से माहौल बनाया है। उदाहरण के लिए कैमरा कंगना पर है और वे संवाद बोल रही है, वहीं पृष्ठभूमि में एक आदमी बिजली के तार से बिजली चोरी करने की कोशिश कर रहा है। फिल्म की कहानी ऐसी है जो हम कई बार देख चुके हैं, लेकिन आनंद एल. राय का प्रस्तुतिकरण इसको जुदा बनाता है। फिल्म बहती हुई प्रतीत होती है और इंटरवल इतनी जल्दी हो जाता है कि अखरता है। उन्होंने कोई भी फालतू सीन नहीं रखा है और किरदारों की भीड़ रखी है, लेकिन हर किरदार हंसाता है। हास्य और इमोशन साथ-साथ चलने से फिल्म के कई सीन दिल को छूते है। कंगना रनौट का अभिनय ऊंचे दर्जे का है। वे लगातार साबित कर रही हैं कि वे अपनी समकक्ष अभिनेत्रियों से कहीं आगे हैं। इस फिल्म में डबल कंगना को देखना डबल मजा देता है। बिंदास, मुंहफट और अनिश्चित तनु के रूप में उनका अभिनय लाजवाब है। कुसुम और मनु की शादी के दौरान उनके हाव-भाव देखने लायक है। एथलीट कुसुम के रूप में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। कंगना अपने अभिनय के जरिये किरदारों को इतना प्रभावी बना देती है कि दर्शक फिल्म की खामियों को भूल जाते हैं। आर माधवन, जिमी शेरगिल, दीपक डोब्रियाल, स्वरा भास्कर, जीशान अय्युब सहित सारे कलाकारों का काम उम्दा है और सभी के किरदार याद रहते हैं। गीत फिल्म की थीम को आगे बढ़ाते हैं। बन्नो, मूव ऑन, ओल्ड स्कूल गर्ल, मत जा रे, सुनने लायक है। आमतौर पर सीक्वल निराश करते हैं, लेकिन तनु वेड्स मनु रिटर्न्स पहले भाग से बेहतर है। कंगना का उत्कृष्ट अभिनय, गुदगुदाने वाले संवाद और मनोरंजक प्रस्तुतिकरण इस रोमांटिक-कॉमेडी को देखने के लिए पर्याप्त कारण हैं। थिएटर से आप कुछ किरदारों को साथ लिए मुस्कुराते हुए बाहर आते हैं। बैनर : इरोज इंटरनेशनल निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, कृषिका लुल्ला निर्देशक : आनंद एल. राय संगीत : कृष्णा सोलो, तनिष्क-वायु कलाकार : कंगना रनौट, आर. माधवन, जिम्मी शेरगिल, दीपिक डोब्रियाल, मोहम्मद जीशान अय्युब, स्वरा भास्कर, एजाज खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 सेकंड
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विदेश में कई तरह के सुपरहीरो पर आधारित फिल्में बनाई जाती हैं जिन्हें हमारे देश में भी काफी पसंद किया जाता है। कुछ निर्माताओं ने देसी सुपरहीरो गढ़ने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर नाकाम रहे हैं। मि. एक्स, मि. इंडिया, कृष, जी.वन जैसे कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं। इनमें से रितिक रोशन अभिनीत कृष ही सफलता हासिल कर पाया। सुपरस्टार शाहरुख खान नाकाम रहे। रेमो डिसूजा ने 'ए फ्लाइंग जट्ट' के जरिये एक प्रयास किया है जिसमें टाइगर श्रॉफ लीड रोल में हैं। टाइगर के पिता जैकी श्रॉफ भी शिवा का इंसाफ में सुपरहीरो बन चुके हैं। सुपरहीरो की कहानी लगभग एक जैसी होती है। सुपर पॉवर हासिल करने के बाद दुनिया को बुरी शक्ति से बचाना होता है और सभी जानते हैं कि सुपरहीरो इस काम में सफल साबित होगा। बात प्रस्तुतिकरण पर आ टिकती है। सुपरहीरो यह कैसे करता है इसमें सभी की दिलचस्पी रहती है। रेमो डिसूजा को हम गरीबों का रोहित शेट्टी मान सकते हैं। वे रोहित शेट्टी जैसी मनोरंजक फिल्में गढ़ते हैं हालांकि रोहित जैसे स्टार्स और बजट उन्हें नहीं मिलते हैं। कम बजट और छोटे सितारों के साथ उन्होंने 'फालतू' और 'एबीसीडी' सीरिज की सफल फिल्में बनाई हैं। ये फिल्में खामियों से भरपूर थीं, लेकिन मनोरंजन का तत्व इन फिल्मों में ज्यादा था, लिहाजा दर्शकों ने इन फिल्मों को सफल बनाया। 'ए फ्लाइंग जट्ट' में रेमो अपनी दिशा भटक गए। बहुत कुछ एक ही फिल्म में समेटने के चक्कर में मनोरंजन पीछे छूट गया। पंजाब में रहने वाला अमन (टाइगर श्रॉफ) डरपोक किस्म का इंसान है जो अपनी मां (अमृता सिंह) के साथ रहता है। इनकी जमीन पर एक पुराना पेड़ है जिसे लोग पूजते हैं। उद्योगपति मल्होत्रा (केके मेनन) को यह जमीन चाहिए क्योंकि इसमें उसका फायदा है। जब पैसे से बात नहीं बनती तो मल्होत्रा अपने गुंडे राका (नाथन जोंस) को पेड़ काटने के लिए भेजता है। अमन और राका की लड़ाई होती है। अमन पेड़ से टकराता है और उसे दिव्य शक्तियां हासिल हो जाती हैं। वह फ्लाइंग जट्ट बन असहाय लोगों की सहायता करता है। इधर राका भी सुपरविलेन बन जाता है। प्रदूषण के जरिये वह शक्ति हासिल करता है। इसके बाद क्या होता है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। रेमो डिसूजा ने इस कहानी को लिखा है जो बहुत ही साधारण है। शुरुआती आधा घंटा किरदारों को जमाने में करने में खर्च किया गया है। इसके बाद जब अमन को जब शक्ति हासिल होती है तब फिल्म थोड़ी रोचक होती है। हालांकि यहां पर लेखक और निर्देशक की कल्पना का अभाव नजर आता है जबकि शक्ति हासिल होने के बाद कई मनोरंजक दृश्य सोच जा सकते थे। इंटरवल तक फिल्म किसी तरह लड़खड़ाते हुए पहुंचती है, लेकिन इंटरवल के बाद वाला हिस्सा दर्शकों को थका देता है। यहां पर से मनोरंजन बैकफुट पर चला जाता है और पर्यावरण का मुद्दा फिल्म को कुछ ज्यादा ही गंभीर बना देता है। रेमो का मजबूत पक्ष मनोरंजक फिल्म बनाना है। संदेश देने वाली फिल्म बनाने की योग्यता उनमें नहीं है। प्रदूषण से ताकत हासिल करने वाला राका और फ्लाइंग जट्ट की भिड़ंत मजा नहीं देती। सुपरहीरो जब ताकतवर लगता है जब विलेन भी ताकतवर हो। यहां पर विलेन के प्रति नफरत पैदा नहीं होती। वह एक मशीन जैसा लगता है इसलिए सुपरहीरो के कारनामे भी रोमांचित नहीं करते। दूसरे हाफ में कई बातों का समावेश फिल्म में किया गया है। फ्लाइंग जट्ट के दोस्त की बेवजह मौत दिखा कर इमोशन पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई है। फिल्म को धार्मिक रंग देने का प्रयास किया गया है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये प्रयास निरर्थक लगता है। फिल्म की शुरुआत में मल्होत्रा को बहुत ताकतवर विलेन के रूप में पेश किया गया है, लेकिन बाद में उसे भूला ही दिया गया है। रोमांस केवल इसलिए डाला गया है कि फिल्म में रोमांस होना चाहिए। अमन और कीर्ति का रोमांस बहुत ही फीका है। सुपरहीरो की फिल्मों में क्लाइमैक्स जबरदस्त होना चाहिए, लेकिन इस मामले में 'ए फ्लाइंग जट्ट' कंगाल साबित होती है। ए फ्लाइं ग जट्ट के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में रेमो डिसूजा तय नहीं कर पाए कि वे किस दर्शक वर्ग के लिए फिल्म बना रहे हैं। उनकी फिल्म न बच्चों को खुश करती है और न वयस्कों को। हास्य सीन पर उनकी पकड़ नजर आती है, लेकिन जब ड्रामा गंभीर होता है तो उनके हाथों से फिल्म फिसल जाती है। साधारण लड़के से सुपरहीरो बनने वाले हिस्से को तो उन्होंने अच्छे से दिखाया, लेकिन इसके बाद वे फिल्म को कैसे आगे बढ़ाएं समझ ही नहीं पाए। मां-बेटा, दोस्त, अमीर विलेन, गोरी चमड़ी वाला ताकतवर गुंडा जैसे चिर-परिचित फॉर्मूले यहां नहीं चल पाएं। फिल्म के अन्य पक्ष भी कमजोर हैं। सचिन-जिगर एक भी ऐसी धुन नहीं दे सके जो याद रह सके। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। रेमो जैसे कोरियोग्राफर होने के बावजूद गानों की कोरियोग्राफी भी औसत दर्जे की रही है। सीजीआई इफेक्ट्स कहानी से मेल नहीं खाते। टाइगर श्रॉफ पूरी फिल्म में बुझे-बुझे नजर आएं। वे खुल कर अभिनय नहीं कर पाएं। न तो वे ऐसे इंसान लगे जो ऊंचाई से घबराता है और न ही सुपरहीरो के रूप में ताकतवर लगे। जैकलीन फर्नांडीस की याद तो निर्देशक को इंटरवल के बाद आती है। जैकलीन तो इस फिल्म को भूल जाना ही पसंद करेगी। टाइगर के दोस्त के रूप में गौरव पांडे जरूर थोड़ी राहत देते हैं। अमृता सिंह ठीक रही हैं। विलेन के रूप में केके मेनन एक ही तरह का अभिनय कर अपनी प्रतिभा को बरबाद कर रहे हैं। नाथन जोंस हट्टे-कट्टे जरूर लगे, लेकिन दहशत पैदा नहीं कर पाए। उनके बोले गए संवाद अस्पष्ट हैं। कुल मिलाकर सुपरहीरो 'फ्लाइंग जट्ट' निराश करता है। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : रेमो डिसूजा संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : टाइगर श्रॉफ, जैकलीन फर्नांडीस, नाथन जोंस, अमृता सिंह, केके मेनन, श्रद्धा कपूर (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 31 मिनट 5 सेकंड
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कॉमेडी कैसे ट्रेजेडी में बदल जाती है इसका सटीक उदाहरण है 'बैंगिस्तान'। फरहान अख्तर ने बतौर निर्माता भी कुछ अच्छी फिल्में बनाई हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि वे 'बैंगिस्तान' पर पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गए। फिल्म के शुरू होने के दस मिनट बाद ही समझ आ जाता है कि आपके अगले कुछ घंटे परेशानी में बितने वाले हैं और फिल्म इस अंदेशे को गलत साबित नहीं करती है। इन दिनों आतंकवाद और धर्म हिंदी फिल्ममेकर्स के प्रिय विषय बन गए हैं। 'बैंगिस्तान' भी इसी के इर्दगिर्द घूमती है। उत्तरी बैंगिस्तान और दक्षिण बैंगिस्तान पृथ्वी पर कहीं मौजूद हैं। उत्तरी बैंगिस्तान में मुसलमान तो दक्षिण बैंगिस्तान में हिंदू रहते हैं। आए दिन इनमें लड़ाई होती रहती है। 13वीं वर्ल्ड रिलिजियस कांफ्रेंस पोलैण्ड में होती है जिसमें उत्तरी बैंगिस्तान के इमाम (टॉम अल्टर) और दक्षिण बैंगिस्तान के शंकराचार्य ‍(शिव सुब्रमण्यम) भी मुलाकात कर बैंगिस्तान में शांति स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन 'मां का दल' और 'अल काम तमाम' ऐसा नहीं चाहते हैं। अल काम तमाम हफीज़ बिन अली उर्फ हेरॉल्ड (रितेश देशमुख) को हिंदू बना कर तथा मां का दल प्रवीण चतुर्वेदी (पुलकित सम्राट) को मुसलमान बना कर पोलैण्ड भेजते हैं ताकि वे वहां पर बम धमाका कर दुनिया में शांति स्थापित करने वालों के मंसूबों पर पानी फेर दे तथा हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई और चौड़ी हो जाए। पोलैण्ड में ये दोनो आतंकवादी साथ में रूकते हैं और इनके इरादे बदल जाते हैं। एक गंभीर विषय को कॉमेडी का तड़का लगाकर निर्देशक करण अंशुमन ने पेश किया है। फिल्म में बिना नाम लिए उन्होंने कई दृश्य ऐसे रचे हैं जिसका अंदाजा दर्शक लगा सकते हैं कि उनका इशारा किस ओर है, लेकिन जिस कॉमिक अंदाज में बात को पेश किया गया है वो बेहूदा है। कॉमेडी के नाम पर कुछ प्रसंग रचे गए हैं वो खीज पैदा करते हैं। न फिल्म के व्यंग्य में धार है और न ही विषय के साथ यह न्याय कर पाती है। जितना खराब निर्देशन है उससे ज्यादा खराब स्क्रिप्ट है। दृश्यों को बहुत लंबा लिखा गया है और हंसाने की कोशिश साफ नजर आती है। कुछ दृश्यों को रखने का तो उद्देश्य ही समझ में नहीं आता है। स्थिति और बदतर हो जाती है जब संवाद भी साथ नहीं देते हैं। दो-तीन दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो पूरी फिल्म इतनी उबाऊ है कि खत्म होने के पहले आपको नींद आ सकती है या आप थिएटर से बाहर निकल सकते हैं। बैंगिस्तान के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें कई बार ऐसा होता है कि खराब फिल्म को अच्छे अभिनेता संभाल लेते हैं, लेकिन इस डिपार्टमेंट में भी फिल्म कंगाल साबित हुई है। रितेश देशमुख को तो फिर भी झेला जा सकता है, लेकिन पुलकित सम्राट का 'सलमान खान हैंगओवर' पता नहीं कब खत्म होगा। वे बहुत ज्यादा प्रयास करते हैं और ये बात आंखों को चुभती है। उनकी खराब एक्टिंग का असर रितेश पर भी हो गया। जैकलीन फर्नांडिस का रोल बहुत छोटा है और उन्हें इसलिए जगह मिली है कि फिल्म में एक नामी हीरोइन भी होना चाहिए। यह रोल इतना महत्वहीन है कि यदि हटा भी दिया जाए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर समय और धन की बरबादी है 'बैंगिस्तान'। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, जंगली पिक्चर्स निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी निर्देशक : करण अंशुमन संगीत : राम सम्पत कलाकार : रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, पुलकित सम्राट, कुमुद मिश्रा, चंदन रॉय सान्याल, आर्य बब्बर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट
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’उड़ान’ से विक्रमादित्य मोटवाने ने अच्छे सिनेमा की उम्मीद जगाई थी और ‘लुटेरा’ में उन्होंने उम्मीदों को पूरा किया। एक बेहतरीन प्रेम कहानी लंबे समय बाद परदे पर आई है। ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ को आधार बनाकर उसे गुजरे जमाने का टच दिया और अपने शानदार प्रस्तुति के बल पर विक्रम ने ‍’लुटेरे’ को देखने लायक बनाया है। पूरी फिल्म में निर्देशक का दबदबा है। उन्होंने दूसरी चीजों को हावी नहीं होने दिया और अपनी पकड़ बनाए रखी है। कई बार कहानी हिचकोले खाती है, लेकिन विक्रमादित्य ने इन झटकों को भी अच्छी तरह संभाल लिया है। कहानी पचास के दशक में सेट है। माणिकपुर का जमींदार उदास है। वह एक आम आदमी से कहता है कि आजादी तुम्हारे लिए खुशियां लाई हैं, लेकिन हमारी जिंदगी खराब हो गई है। सरकार ने जमींदारों से जमीन और कीमती सामान लेना शुरू कर दिए हैं। उनके दबदबे को खत्म किया जा रहा है। इस बात का फायदा कई लोग उठा रहे हैं और सरकारी ऑफिसर बन जमींदारों के माल पर हाथ साफ कर रहे हैं। मनिकपुर में पुरातन विभाग का अधिकारी वरुण श्रीवास्तव आता है। जमींदार के मंदिर के आसपास खुदाई की इजाजत लेता है। उसका कहना है कि यहां कोई सभ्यता दफन है। युवा वरुण से जमींदार बाबू प्रभावित हो जाते हैं। भरोसा करते हुए इजाजत भी देते हैं। जमींदार बाबू की जान अपनी बेटी पाखी में रहती है। वरुण का जादू पाखी पर भी चल जाता है। पेंटिंग सीखने-सीखाने के बहाने दोनों का मेल-जोल बढ़ता है और वे करीब आ जाते हैं। लेकिन वरूण का असली चेहरा और नाम वो नहीं है जो पाखी और जमींदार बाबू समझ रहे थे। यही पर एक ट्विस्ट आता है। पाखी और जमींदार बाबू के होश उड़ जाते हैं। ‘लुटेरा’ एक धीमी गति की फिल्म है। उसमें एक किस्म का ठहराव है। शुरुआत के कुछ मिनट सुस्ती भरे लगते हैं, लेकिन जैसे ही आप फिल्म की गति से तालमेल बिठाते हैं, फिल्म अच्छीम लगने लगती है। फिल्म दूसरे हाफ में डलहौजी में शिफ्ट होती है, यहां पर जरूर थोड़ी लंबी प्रतीत होती है, लेकिन एक शानदार क्लाइमेक्स के जरिये इसे संभाल लिया गया है। दूसरे हाफ में सोनाक्षी सिन्हा का रोल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। वह वरुण से इतना प्रेम करती है कि अपने साथ किए गए धोखे और इससे पिता की हुई मौत के बावजूद उसे पुलिस के सुपुर्द नहीं करती है। वह समझ नहीं पाती कि वह ऐसा क्यों कर रही है। दरअसल वह प्रेम में इतनी ऊंचाई तक पहुंच जाती है कि हर अपराध के लिए अपने प्रेमी को क्षमा कर देती है। विक्रमादित्य ने ‘लुटेरा’ में पचास के दशक के माहौल को ‍बहुत ही खूबी के साथ पेश किया है। समय जैसा ठहरा हुआ लगता है। उस दौर के सुकून को महसूस किया जा सकता है। इसके लिए बंगाल से बेहतरीन जगह नहीं हो सकती थी। लंबी-चौड़ी‍ हवेली जमींदार के ठाठ-बाट को अच्छी तरह से पेश करती है। जहां तक खामियों का सवाल है तो एक चीज अखरती है। पाखी को जब पता चल जाता है कि वरुण को गोली लगी है तो एक बार ‍भी वह उससे इस बारे में बात नहीं करती। फिल्म में एक जगह देव आनंद पर कमेंट किया गया है कि वे फिल्म में गुंडों से फाइट करते थे, लेकिन उनका जमे बाल कभी नहीं बिखरते थे। ऐसी ही एक गलती विक्रमादित्य ने भी की है। डलहौजी की संकरी गलियों में एक लंबा चेज सीन फिल्माया गया है। गोलियां चलती है, लेकिन एक इंसान भी खिड़की खोलकर यह नहीं देखता कि बाहर क्या हो रहा है। एक सीन में नए जमाने की माचिस भी नजर आती है। कई बार संवाद किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाते। लेकिन ये छोटी-मोटी बातें हैं और इससे फिल्म या कहानी पर ज्यादा असर नहीं होता। सोनाक्षी सिन्हा और ‍रणवीर सिंह जैसे कलाकारों को लेकर विक्रमादित्य ने जोखिम उठाया है। दोनों ने अब तक ऐसी फिल्म नहीं दी है, जिसको उनके ‍अभिनय के लिए याद किया जाए। अब दोनों कह सकते हैं कि ‘लुटेरा’ उनके करियर की बेहतरीन फिल्म है। नि:संदेह ये दोनों के करियर का अब तक सबसे अच्छा काम है, लेकिन इसके बावजूद दोनों की सीमा नजर आती है। यदि दोनों की जगह और बेहतरीन कलाकार होते तो फिल्म का प्रभाव और गहरा हो जाता है। जमींदार के रूप में बरुण चंद्रा ने कमाल का अभिनय किया है। अपनी बुलंद आवाज और शख्सियत के कारण वे रौबदार नजर आते हैं। उन्होंने उस जमींदार की भूमिका बेहतरीन तरीके से जिया है जो यह विश्वास ही नहीं कर पाता कि अब उसका समय जा चुका है। रणवीर के दोस्त के रूप में विक्रम मेसै ने भी अच्छा काम किया है। संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है। संगीतकार अमित त्रिवेदी ने क्वांटिटी के बावजूद क्वालिटी मेंटेन कर रखी है। ‘संवार लूं’ तो हिट हो ही चुका है। अनकही, शिकायतें भी सुनने लायक हैं। क्लाइमेक्स में ‘जिंदा’ का बेहतरीन प्रयोग है। अमिताभ भट्टाचार्य ने उम्दा गीत लिखे हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक भी जबरदस्त है और इसका विक्रमादित्य ने बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया है। कई दृश्य बिना बैकग्राउंड म्युजिक के कारण प्रभावी बने हैं। महेंद्र शेट्टी की सिनेमाटोग्राफी उन्हें कई अवॉर्ड्स दिला सकती है। कलाकारों के मूड और प्राकृतिक सौंदर्य को उन्होंने बखूबी कैद किया। ‘लुटेरा’ शानदार प्रस्तुतिकरण के कारण देखी जानी चाहिए, बस ये थोड़ा धैर्य मांगती है। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर, अनुराग कश्यप, विकास बहल, मधु मटेंना, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : विक्रमादित्य मोटव ान े संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : रणवीर सिंह, सोनाक्षी सिन्हा, बरुण चंद्रा, विक्रम मेसै, आदिल हुसैन, आरिफ जकारिया सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 22 मिनट 44 सेकंड
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पुलिसवालों पर एक से एक मुश्किल केस सुलझाने की जिम्मेदारी होती है लेकिन कई बार केस इतने मुश्किल होते हैं कि वे खुद भी उनमें उलझ जाते हैं। फिल्म 'वोदका डायरीज' भी एक ऐसे ही पुलिस वाले की कहानी है जो एक केस को सुलझाते-सुलझाते खुद उसमें बुरी तरह उलझ जाता है।मनाली के वोदका डायरीज क्लब में एक ही रात में एक के बाद एक कई खून होते हैं, जिन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी एसीपी अश्विनी दीक्षित (के.के. मेनन) पर आती है। अभी छुट्टी से लौटा अश्विनी इस केस तब और बुरी तरह उलझ जाता है जब इस केस की वजह से उसकी पत्नी शिखा (मंदिरा बेदी) भी गायब हो जाती हैं। अश्विनी की पत्नी कविता लिखती हैं। कई बार अश्विनी को अपनी पत्नी पर हमला होने के भी सपने आते थे लेकिन उसके गायब होने से वह काफी परेशान हो जाते हैं। इसी बीच अश्विनी एक रहस्यमय लड़की रोशनी बनर्जी (राइमा सेन) से मिलते हैं जिस पर उसे शक होता है लेकिन इसी बीच चीजें और भी ज्यादा उलझ जाती हैं और अश्विनी एक ऐसे जाल में फंस जाते हैं जिससे निकलना आसान नहीं है। उनके सब अपने पराये हो जाते हैं। बेशक, फिल्म एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। के.के. मेनन हमेशा की तरह की शानदार लगे हैं। उन्होंने बेहतरीन काम किया है। खासकर एसीपी के रोल में वह जंचे हैं। हालांकि मंदिरा बेदी जरूर कई सीन्स में ओवर ऐक्टिंग करती नजर आती हैं। वहीं राइमा सेन ने जरूर रोल की डिमांड के मुताबिक ऐक्टिंग की है। फिल्म की कहानी आपको शुरू से आखिर तक बांधे रखती है। इंटरवल से पहले तक कहानी दिलचस्प है और उसके बाद आपकी जिज्ञासा और बढ़ जाती है। ऐड फिल्म मेकिंग से फिल्म निर्देशन में आए इस फिल्म के निर्देशक कुशल श्रीवास्तव ने अच्छी कोशिश की है। अगर आपको थ्रिलर फिल्में पसंद हैं, तो आप निराश नहीं होंगे। साथ ही मनाली की खूबसूरत लोकेशन आपको पसंद आएंगी।
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अगर आपके पास दमदार स्टार्स और एक शानदार स्क्रिप्ट है तो कम बजट में भी आप एक ऐसी फिल्म बना सकते हैं जो दर्शकों को बांधकर रखने का दम रखती है। वैसे इस फिल्म के बैनर और प्रॉडक्शन टीम ने इससे पहले सौ करोड़ के बजट में भी फिल्में बनाई हैं, लेकिन इस बार करीब पौने दो घंटे की ऐसी तीन कहानियों को जो बेशक एक ही जगह से शुरू होती है, लेकिन हर पल तीनों कहानियों का अंदाज़ और इनका सब्जेक्ट पूरी तरह से बदल जाता है। करीब पांच करोड़ से भी कम बजट में बनी इस फिल्म से अर्जुन मुखर्जी ने डायरेक्शन की फील्ड में एंट्री की है, लेकिन अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने साबित कर दिया कि ग्लैमर इंडस्ट्री में उनका सफर काफी लंबा चलना तय है। मुंबई के एक इलाके के एक चॉल के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म की तीनों कहानियों का क्लाइमैक्स आपको चौंकाने का दम रखता है। बेशक चॉल में रहने वाले फिल्म के इन किरदारों का आपस में एक रिश्ता बना हुआ है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे खिसकती है, वैसे-वैसे यह सभी किरदार एक-दूसरे से काफी जुदा नजर आते हैं। कहानी : मुंबई के माया नगर इलाके की एक चॉल में अधेड़ उम्र की विधवा फ्लोरी मेडोसा (रेणुका शहाने) को अपना घर बेचना है, लेकिन फ्लोरी का यह मकान इसलिए बिक नहीं पा रहा है कि फ्लोरी को अपने इस मकान की प्राइस पूरे 80 लाख चाहिए। कई ब्रोकर इस मकान के खरीददार लेकर आते हैं लेकिन कीमत सुनते ही कस्टमर गायब हो जाते हैं। इस बार हैदराबाद से मुंबई में अपना डायमंड जूलरी का बिजनेस जमाने आया यंग बिज़नसमैन सुदीप (पुलकित सम्राट) इस मकान को खरीदने के लिए आया है। सुदीप करीब 20 लाख रुपए की कीमत वाले इस पुराने मकान को 80 लाख में खरीदने की डील फाइनल कर लेता है। आखिर सुदीप ने एक साधारण चॉल के छोटे से मकान की चार गुणा प्राइस क्यों दी, यही इस कहानी का क्लाइमैक्स है। दूसरी कहानी वर्षा (मसुमेह मखीजा) और शंकर वर्मा (शरमन जोशी) की है। इसी चॉल में अपने करीब 7 साल के बेटे के साथ वर्षा अपने शराबी पति के साथ रहती है जो अक्सर उसकी पिटाई करता है। वर्षा खुद कमाती है और पति दिन भर घर पर रहता है। इसी चॉल में वर्षा की सहेली सुहानी भी रहती है, जिसका पति दुबई में बिज़नस के लिए गया हुआ है। वर्षा अक्सर सुहानी से अपनी आपबीती बयां करती है, सुहानी का हज्बंड शंकर वर्मा जब दुबई से वापस लौटता है तब वर्षा और शंकर के पुराने रिश्तों की एक अलग कहानी सामने आती है। तीसरी कहानी रिजवान (दधि पांडे) की है, उसकी चाल में रोजमर्रा के सामान का स्टॉल है। रिजवान का जवान बेटा सुहेल (अंकित राठी) इसी स्टॉल को संभालता है, सुहेल चॉल में रहने वाली मालिनी (आएशा अहमद) से प्यार करता है। दोनों एक-दूसरे को बेइंतहा चाहते हैं, लेकिन मालिनी की ममी और सुहेल के अब्बा को किसी भी सूरत में इनकी शादी कबूल नहीं है। इन कहानियों के बीच लीला (रिचा चड्डा) भी दिखाई देती है और लीला ही इन तीनों कहानियों को अंजाम तक पहुंचाती है। अगर ऐक्टिंग, स्क्रीनप्ले, डायरेक्शन की बात करें तो ऐक्टिंग के मापदंड पर तीनों स्टोरीज दमदार है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर लौटी रेणुका शहाणे की ऐक्टिंग इस फिल्म की यूएसपी है, रेणुका के काम की जितनी तारीफ की जाए कम है। पुलकित सम्राट इस बार अपने रोल को ईमानदारी के साथ निभाने में कामयाब रहे। शरमन जोशी, मसुमेह मखीजा, अंकित राठी, आएशा अहमद हर किसी ने अपने किरदार को दमदार ढंग से निभाया। वहीं रिचा चड्डा का बदला अलग अंदाज आपको पसंद आ सकता है। यंग डायरेक्टर अर्जुन मुखर्जी की कहानी और किरदारों पर अच्छी पकड़ है। गाने बेवजह फिट किए गए जो कहानी की रफ्तार को धीमा करने का काम करते हैं। रेणुका शहाणे की शानदार ऐक्टिंग, कसी हुई स्क्रिप्ट और लीक से हटकर बनी यह फिल्म उन दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती है जो रोमांटिक, मसाला, ऐक्शन फिल्मों की भीड़ से अलग कुछ नया देखना चाहते है, तो इस फिल्म को देख सकते हैं।
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मेघना गुलजार की 'राजी' उस हर इंसान को एक खूबसूरत तोहफा है, जिसे अपने वतन से प्यार है। यह फिल्म एक भारतीय अंडरकवर एजेंट की सच्ची कहानी से प्रेरित है। 1971 में जिस दौरान भारत-और पाकिस्तान के बीच जंग के हालात बन रहे थे उस वक्त अंडरकवर एजेंट किस तरह पाकिस्तान से जरूरी जानकारी हासिल कर भारत की मदद करती है, यही फिल्म में दिखाया गया है। रिटायर्ड नेवी ऑफिसर हरिंदर सिक्का के नॉवल 'कॉलिंग सहमत' पर बेस्ड इस फिल्म को जंगली पिक्चर्स और धर्मा प्रॉडक्शन ने मिलकर प्रड्यूस किया है। इस फिल्म में आपको पाकिस्तान की छवि उन सभी फिल्मों से अलग लगेगी जैसा कि अब तक अन्य फिल्मों में दिखाई जा चुकी है। उन्हें देखकर आपको एक पल के लिए मन में यह एहसास जरूर होगा कि पाकिस्तानी भी नरम दिल होते हैं।कहानी: फिल्म की कहानी है 1971 के दौरान भारत-पाक के बीच तनावपूर्ण माहौल को दिखाती है, जो बाद युद्ध में तब्दील होता है। कहानी शुरू होती है पाकिस्तान से जब पाकिस्तान भारत को तबाह करने के मंसूबों को लेकर युद्ध की तैयारी और इसका तान-बाने बुन रह होता है। इसकी भनक एक कश्मीरी बिज़नसमैन हिदायत खान (रजित कपूर) को लग जाती है। हिदायत व्यापार के सिलसिले में अक्सर भारत से पाकिस्तान आया-जाया करता है और उसकी पाकिस्तानी आर्मी में ब्रिगेडियर परवेज सैय्यद (शिशिर शर्मा) से अच्छी दोस्ती है। हिदायत इसी दोस्ती का सहारा लेकर अपने वतन की रक्षा के लिए एक बड़ा फैसला लेता है। वह अपनी बेटी सहमत (आलिया भट्ट) के लिए ब्रिगेडियर से उनके बेटे इकबाल (विकी कौशल) का हाथ मांगता है, जो एक आर्मी ऑफिसर है। सहमत बेहद नाजुक सी एक कश्मीरी लड़की है, जिसे पता तक नहीं कि उसके पिता उसका भविष्य पाकिस्तान में लिख आए हैं। हालांकि वतन के लिए परेशान पिता को देखकर सहमत इस रिश्ते के लिए हां कहने में देर नहीं लगाती है। सहमत अब अपने पिता और वतन के खातिर पाकिस्तान में भारत की आंख और कान बनकर रहने को तैयार है। इससे पहले सहमत खुद को एक जांबाज जासूस बनने की तैयारी में झोंक देती है और उसे पाकिस्तान से इस लड़ाई के लिए तैयार करते हैं रॉ एजेंट खालिद मीर (जयदीप अहलावत)। इकबाल से सहमत की शादी होती है और वह एक बेटी से बहू बनकर भारत की दहलीज पार करती है। एक दुश्मन देश में मौजूद अपने ससुराल और अपने शौहर के दिल में जगह बनाती हुई सहमत इसी के साथ-साथ पाकिस्तान आर्मी में चल रहे षड्यंत्रों की जानकारी भारत तक पहुंचाने में कामयाब होती है। एक आर्मी परिवार के बीच रहकर यह सब कर पाना सहमत के लिए मुश्किल साबित होता है।अपने देश के लिए जासूसी करते हुए आलिया को कुछ ऐसे काम करने पड़ जाते हैं, जिसके लिए उसे बेहद अफसोस भी होता है।। इस पूरी कहानी के बीच एक छोटी से प्रेम-कहानी भी पनपती है, जो सहमत और इकबाल की है। फिल्म में कमी की बात करें तो कहानी काफी तेज रफ्तार से आगे बढ़ती है। फिल्म के साथ-साथ आपको इसकी आगे की कहानी का भी अंदाज़ा आसानी से लगने लगता है। ऐक्टिंग: आलिया ने अपने कंधों पर पूरी कहानी बखूबी संभाल ली है। परदे पर आप सिर्फ आलिया की खूबसूरती नहीं बल्कि उनकी ऐक्टिंग के भी उतने ही कायल होंगे। पाक आर्मी ऑफिसर के किरदार में विकी कौशल लाजवाब लगे हैं। एक रॉयल, संतुलित और बेहद संजीदा शख्स, जो पाक में भारत के खिलाफ होनेवाली बातों से अपनी पत्नी के मन को लगने वाली ठेस को भी समझता है। रॉ एजेंट की भूमिका में जयदीप अहलावत को देखकर आपका दिल खुश हो जाएगा। रजित कपूर, शिशिर शर्मा, आरिफ जकारिया ने अपने-अपने किरदार का सौ फीसदी दिया है। आलिया की मां के रोल में उनकी असली मां सोनी राजदान के सीन काफी कम हैं। 'तलवार' के बाद अब 'राजी'... मेघना गुलज़ार उन निर्देशकों में हैं जिन्हें कहानी और अपने किरदारों पर पकड़ बनाना अच्छी तरह आता है। उनके निर्देशन की कला ही कहिए कि आप पल भर के लिए भी स्क्रीन से बाहर की दुनिया में लौट नहीं सकेंगे। उनके निर्देशन में इतना दम है कि फिल्म की कहानी के साथ-साथ सीमा पार पाकिस्तान की सरहदों के पीछे आप खुद को भी महसूस करने लगेंगे। गीत-संगीतः फिल्म में 'दिलबरो', 'ऐ वतन', 'राजी' और 'ऐ वतन' (फीमेल) चारों गाने बेहद ही उम्दा हैं। 'ऐ वतन' के लिए म्यूजिक डायरेक्टर शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी ने लेजंड्री गीतकार गुलजार के साथ हाथ मिलाया है और अपनी आवाज से इसे और भी खूबसूरत बना दिया है अरिजीत सिंह ने। बेटी की विदाई पर फिल्माया गाना 'दिलबरो' एक बाप-बेटी के इमोशनल रिश्ते के बेहद करीब है। फिल्म का टाइटल ट्रैक 'राजी' आलिया के जासूस बनने तक के सफर को दिखाता है। क्यों देखें: कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की से लेकर पाकिस्तान में रहकर भारत की जासूसी करने वाली एक लड़की की यह कहानी, उन सभी अनजाने-अपरिचित चेहरों की कहानी कहती है जिन्होंने देश की सेवा अपना सबकुछ निसार तो किया लेकिन उनका कहीं कोई जिक्र नहीं हो पाया। ऐसे हीरोज़ की अनकही कहानी कहती यह फिल्म आपको निराश नहीं करती। देखें फिल्म को देखने के बाद दर्शकों का क्या कहना है:
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कहानी: फिल्म 'पलटन' एक सत्य घटना पर आधारित है। यह घटना भारत और चीन के बीच लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल पर स्थित नाथु ला दर्रे की है। यह भारत और तिब्बत के बीच जाने का एक अहम रणनीतिक रास्ता है। यह घटना 1965 में हुई थी जब भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट ने अदम्य साहस दिखाते हुए चीनी सेना को धूल चटा दी थी। यह घटना भारत और चीन के बीच हुए युद्ध के केवल 3 साल बाद हुई थी और चीन को ऐसा अंदाजा नहीं था कि उसे भारतीय सेना से ऐसा करारा जवाब मिल सकता है। रिव्यू: डायरेक्टर जेपी दत्ता इससे पहले 'बॉर्डर' और 'एलओसी करगिल' जैसी युद्ध आधारित देशभक्ति वाली फिल्में बना चुके हैं। नाथु ला पास पर हुई यह घटना एक छोटी झड़प से शुरू हुई थी लेकिन यही झड़प बड़ी बन गई। इस बार भारतीय सेना सिक्किम को बचाने के लिए चीनी सेना से भिड़ जाती है। इस बार दत्ता ने यंग और अनुभवी दोनों तरह के कलाकारों को अपनी फिल्म में लिया है जो ऐसे रियल हीरोज का किरदार निभा रहे हैं हैं जिन्हें इतिहास में लगभग भुला दिया गया। अर्जुन रामपाल ने लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह और सोनू सूद ने मेजर बिशन सिंह के किरदारों को अच्छी तरह से जिया है। इनके अलावा हर्षवर्धन राणे और गुरमीत चौधरी जैसे यंग ऐक्टर्स ने भी अच्छी परफॉर्मेंस दी है। लव सिन्हा भी अतर सिंह के किरदार में अच्छे लगे हैं जबकि सिद्धांत कपूर के पास करने के लिए कुछ खास नहीं था। फिल्म में चीनी आर्मी के जवानों का किरदार करने वालों ने अच्छी ऐक्टिंग नहीं की है। खासतौर पर कुछ-कुछ समय में उनके द्वारा 'हिंदी-चीनी भाई भाई' का नारा लगाया जाना और हिंदी में डायलॉग बोलना अजीब सा लगता है। फिल्म की शूटिंग रियल लोकेशन पर हुई है और सेना के हथियारों और यूनिफॉर्म को देखकर ऐसा लगता है कि यह 1965 के समय की कहानी है। जेपी दत्ता ने ही इस फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले लिखा है जो अच्छा है लेकिन जबरन ठूंसी गई आधी-अधूरी बैकस्टोरीज फिल्म को लंबा और बोझिल बनाती हैं। फिल्म बहुत ज्यादा इमोशनल नहीं लगती है लेकिन ओवरऑल फिल्म आपको बोर नहीं करेगी। फिल्म में अच्छा ऐक्शन दिखाया गया है और फिल्म के अंत में जेपी दत्ता अपने सभी मसालों के साथ भारतीय सेना की जीत दिखाने में कामयाब होते हैं। रौनक कोटेचा
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'कैश' एक स्टाइलिश एक्शन फिल्म है : अनुभव सिन्हा जो सफलता अनुभव सिन्हा ने ‘दस’ में पाई थी, उसे दोहराने की कोशिश उन्होंने ‘कैश’ में की है। ‘दस’ की तुलना में ‘कैश’ सात भी नहीं है। इस फिल्म को स्टाइलिश बनाने के चक्कर में उन्होंने कहानी को ड्राइविंग सीट के बजाय पिछली सीट पर बैठा दिया। यह एक चोर मंडली की कहानी है, जो पेट भरने के लिए चोरी नहीं करते। वे करोड़ों-अरबों रुपयों की चोरी करते हैं। ये चोर बहुत ही आधुनिक और बुद्धिमान हैं। वे चोरी करते समय अपना तकनीकी कौशल उपयोग में लाते हैं। बहुमूल्य हीरों के पीछे अजय देवगन की गैंग और सुनील शेट्टी पड़े रहते हैं। इन हीरों की रक्षा की जिम्मेदारी शमिता शेट्टी पर रहती है। शमिता और अजय एक-दूसरे को चाहते हैं और शमिता को अजय का राज पता नहीं रहता। शमिता कितनी होशियार पुलिस ऑफिसर है ये इसी बात से पता चल जाता है कि उसे करोड़ों रुपयों के हीरों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, लेकिन वह अपने प्रेमी के बारे में साथ रहते हुए भी कुछ नहीं जानती। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने होशियारी दिखाई है, लेकिन कमियों को छुपाने में। कहानी को कमजोर देखते हुए उन्होंने फिल्म की गति इतनी तेज रखी है कि दर्शक कुछ भी सोच न पाएँ। पहले हाफ में फिल्म इतनी तेज गति से भागती है कि दर्शकों को उस गति से तालमेल बैठाना मुश्किल हो जाता है। दूसरे हाफ में फिल्म की गति थोड़ी कम होती है। दूसरी होशियारी उन्होंने स्टंट दृश्यों में दिखाई है। फिल्म के जो भी स्टंट दृश्य सोचे गए हैं, वे इतने मुश्किल थे कि उनका फिल्मांकन करना कठिन काम था। यदि फिल्माए भी जा सकते हों तो उनमें इतना पैसा लग जाता कि उतने पैसों में तो ‘कैश’ जैसी दस फिल्म बन जाती। इसलिए उन्होंने उन स्टंट दृश्यों को एनिमेशन के घालमेल के साथ दिखाया। अजय देवगन जिन खिलौनेनुमा एअरक्राफ्ट के जरिये पैसे लूटता है वह दृश्य बड़ा हास्यास्पद लगता है। फिल्म में शॉट बदलने की रफ्तार इतनी तेज है कि कोई भी शॉट दस सेकंड से ज्यादा का नहीं है। इतनी तेजी से कट करने की वजह से तमाम बुराइयाँ छिप जाती है। नि:संदेह फिल्म स्टाइलिश है, लेकिन यह स्टाइल तब निरर्थक साबित हो जाती है, जब उसके पीछे कोई ठोस आधार न हो या अति का शिकार न हो। फिल्म में से रोमांस गायब है। कुछ हास्य दृश्य हैं जो हँसाते हैं, खासकर अजय और शमिता वाला वह दृश्य जिसमें शमिता की कार खराब हो जाती है। अजय देवगन अपने रंग में नहीं दिखे। शायद उन्हें भी दृश्य समझने में कठिनाई महसूस हुई होगी। उन्होंने एक चुटकुला दो बार सुनाया, लेकिन दोनों ही बार उनके अस्पष्ट उच्चारण की ‍वजह से शायद ही किसी को समझ में आया हो। रितेश का तो हुलिया ही बिगाड़ दिया। पूरी फिल्म में ऐसा लगता रहा कि वे गहरी नींद से जागकर सीधे सेट पर आ गए हों। ज़ायद ठीक रहे। सुनील शेट्टी हर फिल्म में एक जैसे रहते हैं और बोर करते हैं। नायिकाओं में सबसे ज्यादा फुटेज शमिता को मिला। शमिता ने अपना किरदार अच्छी तरह निभाया। दीया सुंदर दिखाई दीं, लेकिन ईशा का मेकअप खराब था। विशाल-शेखर का संगीत फिल्म के मूड को सूट करता है। ‘माइंडब्लोइंग माहिया’ गीत अच्छा है। रेमो और राजीव गोस्वामी की कोरियोग्राफी उल्लेखनीय है। कुल मिलाकर ‘कैश’ एक ऐसा नोट है, जो देखने में बेहद मूल्यवान लगता है, लेकिन बाजार में इसका कोई मोल नहीं है। निर्माता : अनीष निर्देशक : अनुभव सिन्हा संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : अजय देवगन, रितेश देशमुख, ज़ायद खान, शमिता शेट्टी, ईशा देओल, दीया मिर्जा, सुनील शेट्ट ी
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चंद्रमोहन शर्मा अगर हम बतौर डायरेक्टर बिजॉय नांबियार की बात करें तो बॉलिवुड में अपने करीब दस साल के करियर में उन्होंने सिर्फ दो ही फिल्में बनाई हैं, लेकिन बिजॉय ने अपनी इन दो फिल्मों में दर्शकों और क्रिटिक्स को यह तो बता ही दिया कि वह ग्लैमर इंडस्ट्री में बॉक्स ऑफिस की डिमांड पर फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर्स से अलग हैं। जॉय के निर्देशन में बनी पिछली दोनों फिल्में 'शैतान' और 'डेविड' ने टिकट खिड़की पर बेशक अच्छा बिज़नस नहीं किया, लेकिन इन फिल्मों को देखने वाली क्लास ने जरूर बिजॉय की जमकर तारीफें की। शैतान और डेविड के बीच बतौर प्रड्यूसर बिजॉय की पिछली सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म 'पिज्जा' बॉक्स ऑफिस पर औसत बिज़नस करने में कामयाब रही। बेशक वजीर फिल्म की शुरुआत जबर्दस्त है, कहानी की रफ्तार तेज और पूरी तरह से ट्रैक पर है, लेकिन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म में दर्शकों को अगर एंड से पहले क्लाइमेक्स पता चल जाए तो यह यकीनन डायरेक्टर की कमजोरी है और ऐसा ही कुछ फिल्म के सेकंड पार्ट में नजर आता है। कहानी : दानिश अली (फरहान अख्तर) एक एटीएस अफसर हैं। अपनी खूबसूरत पत्नी रुहाना (अदिति राव हैदरी) और चार साल की बेटी नूरी के साथ खुशहाल जिंदगी जी रहा है। अचानक, एक दिन फैमिली के साथ जा रहे दानिश का सामना आतंकियों से हो जाता है, आतंकी दानिश पर गोलियों की बौछार कर देते हैं। इस एनकाउंटर में दानिश की बेटी नूरी बुरी तरह से घायल होने के बाद अस्पताल में दम तोड़ देती है। नूरी की मौत के बाद रुहाना भी अपनी बेटी की मौत के लिए दानिश को जिम्मेदार समझती है। इस घटना से दानिश पूरी तरह से टूट सा जाता है। इसी बीच एक दिन दानिश को आतंकियों के इसी गिरोह के गाजियाबाद छिपे होने की खबर मिलती है तो वह डिपार्टमेंट के परमिशन के बिना वहां पहुंचकर आतंकियों को मार डालता है। दानिश के आला अफसर उसे लंबी मेडिकल लीव पर भेज देते हैं। इस मुश्किल वक्त में एक दिन दानिश की मुलाकात वील चेयर पर लाइफ काट रहे पंडित ओंकार नाथ धर (अमिताभ बच्चन) से होती है। पंडित जी शतरंज के लाजवाब खिलाड़ी हैं। वील चेयर पर वक्त गुजार रहे पंडित जी घर में छोटे बच्चों को शतरंज सिखा कर अपना वक्त गुजारते हैं। शतरंज का यह स्कूल पंडित जी की बेटी नीना धर ने शुरू किया था, जो अचानक एक हादसे में मारी जाती हैं। पंडित जी को लगता है मिनिस्टर कुरैशी (मानव कौल) ने उनकी बेटी को मरवाया है। पंडित जी वील चेयर पर होने के बावजूद बेटी की हत्या का बदला लेने को बेताब हैं। कुछ मुलाकातों के बाद दानिश पंडित जी का साथ देने का वादा करता है। इस कहानी के साथ इसमें शतरंज का खेल भी चलता है जिसमें राजा है, वजीर है और उसके प्यादे भी मौजूद हैं। ऐक्टिंग : वजीर की सबसे बड़ी खासियत अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर की बेहतरीन ऐक्टिंग है। फिल्म के जिन सीन में भी यह दोनों नजर आए वहीं दर्शकों की रोचकता बढ़ जाती है, वहीं अमिताभ के किरदार में एक खामी भी नजर आई। फिल्म में उन्हें कश्मीरी पंडित दिखाया गया है, लेकिन उनका किरदार कहीं भी कश्मीरी पंडित होने का एहसास नहीं कराता। फरहान की पत्नी के किरदार में अदिति राव हैदरी ने अपने किरदार को ठीक-ठाक निभाया है। मानव कौल को फुटेज कम मिली, लेकिन इन दो दिग्गज कलाकारों के बीच में मानव अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे। नील नितिन मुकेश अपने किरदार में फिट नजर आए। कैमियो किरदार निभा रहे जॉन अब्राहम अपने रोल में फिट लगे। डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर बिजॉय ने फिल्म की जबर्दस्त शुरूआत की, लेकिन इंटरवल के बाद ट्रैक से ऐसे भटके कि आखिर तक सही ट्रैक पर लौट नहीं पाए। यही वजह है कि इंटरवल तक यह वजीर दर्शकों को कहानी के साथ बांधे रखता है, लेकिन इंटरवल के बाद यह वजीर भी दूसरी बॉलिवुड थ्रिलर फिल्मों की तरह एक चालू मसाला फिल्म बनकर रह जाती है और यही बिजॉय की सबसे बड़ी कमजोरी है। हां, बिजॉय ने कहानी के दोनों अहम किरदारों पंडित जी और दानिश अली को कहीं कमजोर नहीं होने दिया। संगीत : फिल्म का एक गाना तेरे बिन पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। इस गाने का फिल्मांकन भी अच्छा बन पड़ा है। मौला, तू मेरे पास और खेल खेल में का फिल्मांकन ठीक-ठाक है। क्यों देखें : स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर की गजब की केमिस्ट्री यकीनन आपको पसंद आएगी। अगर आप बिजॉय के निर्देशन में बनी फिल्में पंसद करते हैं तो एक बार वजीर देखी जा सकती है। वहीं मसाला, टोटली एंटरटेनमेंट की चाह में अलग थिएटर जा रहे हैं तो अपसेट होंगे।
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राजीव ढींगरा ने फिल्म फिरंगी की कहानी लिखी है और निर्देशन भी किया है। कहानी लिखते समय कहीं न कहीं उनके दिमाग में 'लगान' थी। लगान की तरह फिरंगी भी अमिताभ बच्चन की आवाज के साथ शुरू होती है और आजादी के पहले की कहानी को दिखाती है जब फिरंगियों का भारत पर राज था। 1921 का समय फिल्म में दिखाया गया है यानी कि आज से 96 वर्ष पहले की बात है। यदि ये बात नहीं बताई जाए तो लगे कि आज का ही कोई गांव देख रहे हैं क्योंकि फिल्म में अतीत वाला वो लुक और फील ही पैदा नहीं होता है। निर्देशक और लेखक से इस मामले में चूक हो गई और दर्शक फिल्म से कनेक्ट ही नहीं हो पाते हैं। फिरंगी की कहानी भी साधारण है। मंगतराम उर्फ मंगा (कपिल शर्मा) एक अंग्रेज मार्क डेनियल (एडवर्ड सनेनब्लिक) का अर्दली है। उसे गांव की एक लड़की सरगी (ईशिता दत्ता) से प्यार हो जाता है। सरगी के दादा गांधीजी की राह पर चलते हैं और सरगी का विवाह मंगा से इसलिए नहीं होने देते क्योंकि वह अंग्रेजों की नौकरी करता है। राजा (कुमुद मिश्रा) के साथ मिलकर मार्क गांव की जमीन पर शराब की फैक्ट्री डालना चाहता है। गांव के लोगों का दिल जीतने की कोशिश में मंगा, मार्क और राजा से बात करता है, लेकिन वे धोखे में गांव वालों से जमीन बेचने के कागजातों पर अंगूठा लगवा लेते हैं और मंगा फंस जाता है। राजा की तिजोरी से कागज चुराने की योजना मंगा बनाता है जिसमें कुछ गांव वाले उसकी मदद करते हैं। फिल्म की शुरुआत अच्छी है जब सरगी को देख मंगा उसे दिल दे बैठता है। कुछ सीन अच्छे बनाए गए हैं और फिल्म को सॉफ्ट टच दिया गया है। भोले-भाले गांव वाले और खुशमिजाज मंगा को देखना अच्छा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है वैसे-वैसे अपना असर खोने लगती है। मंगा-सरगी की लव स्टोरी से जब फिल्म शराब फैक्ट्री और जमीन के कागजों वाले मुद्दे पर शिफ्ट होती है, हांफने लगती है। जिस तरह से गांव वालों को धोखे में रखकर राजा कागज पर उनके अंगूठे लगवा लेता है वो दर्शाता है कि लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए जबकि यह कहानी का अहम मोड़ है। शरबत में नशे की दवाई मिलाने वाली बात बीसियों बार दोहराई जा चुकी है। फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत लंबा है जब राजा की तिजोरी से मंगा कागज चुराता है, लेकिन इसमें कोई थ्रिल नहीं है। सब कुछ आसानी से हो जाता है। फिल्म की सबसे बड़ी समस्या इसकी लंबाई है। 160 मिनट तक दर्शकों को बांधने का मसाला निर्देशक के पास मौजूद नहीं था और बेवजह फिल्म को लंबा खींचा गया है। कुछ सीन बेहद उबाऊ हैं और लगता है कि फिल्म का संपादन करने वाला ही सो गया। फिल्म को आसानी से 30 मिनट छोटा किया जा सकता है। फिरंगी निर्देशित करते समय निर्देशक राजीव ढींगरा पर कई फिल्मों का प्रभाव रहा। शुरुआत से लेकर अंत तक कई दृश्यों को देख आपको कई बार लगेगा कि इस तरह का सीक्वेंस देख चुके हैं। वे दर्शकों का मनोरंजन करने में भी कामयाब नहीं हुए। जरूरी नहीं है कि कपिल शर्मा हमेशा कॉमेडी करें, लेकिन कपिल की फिल्म है तो दर्शक इस उम्मीद से टिकट खरीदते हैं कि कुछ ठहाके लगाने को मिलेंगे, लेकिन ऐसे मौके नहीं के बराबर आते हैं। कपिल के कॉमेडी पक्ष की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई है जो के फिल्म के हित में ठीक बात नहीं है। कपिल शर्मा अपने अभिनय में उतार-चढ़ाव नहीं ला पाए। ज्यादातर समय उनके चेहरे पर एक जैसे भाव रहे हैं। ईशिता दत्ता को करने को ज्यादा कुछ नहीं था। शुरुआती मिनटों बाद तो उन्हें भूला ही दिया गया। कुमुद मिश्रा, एडवर्ड सननेब्लिक, अंजन श्रीवास्तव, राजेश शर्मा, मोनिका गिली अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अन्य सपोर्टिंग एक्टर्स का काम भी ठीक है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत है। लाइट कम रखने का निर्णय सही नहीं कहा जा सकता है। संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है और गानों के लिए ठीक सिचुएशन भी नहीं बनाई गई है। बैनर : के9 फिल्म्स निर्माता : कपिल शर्मा निर्देशक : राजीव ढींगरा संगीत : जतिंदर शाह कलाकार : कपिल शर्मा, ईशिता दत्ता, एडवर्ड सननेब्लिक, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, अंजन श्रीवास्तव, मोनिका गिल सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 40 मिनट 30 सेकंड
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कहानी: दूसरी दुनिया को एलियन से लड़ने और दुनिया को विनाश से बचाने के लिए शेर दिल, एक बहादुर शूरवीर को प्राचीन हथियार की तलाश है, जो एक किसी गुप्त गुफा में छिपाकर रखा गया है। इसके बाद वह योद्धा और उनके चार सहयोगी मिलकर उन एलियन पर जीत हासिल करते हैं, लेकिन दूसरी दुनिया के ये एलियन एक बार फिर वापस लौटते हैं और इस बार अपनी बड़ी फौज के साथ। रिव्यू: कुछ चीजें बदल नहीं सकतीं, जिनमें से एक एमएसजी फ्रेचाइजी भी है। वाकई इस तरह के उपदेशात्मक फिल्मों को बनाने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। इस फिल्म में बिल्कुल बेपरवाह होकर उन चीजों को दिखाया गया है। फ्लावर प्रिंट वाले जूते, चमकते हुए हुडी टी-शर्ट, तलवार जो कलम में बदल जाता है और भाला, जो कि सनग्लास में तब्दील हो जाता है- और यही हैं यह रॉकस्टार गुरुजी। हवे में उछलकर किए गए उनके स्टंट, कार्डबोर्ड के कवच देख शायद न्यूटन और रजनीकांत के भी पसीने छूट जाएं। यह पूरी फिल्म में नज़र आ रहा है कि किस तरह उनपर अपना खुद का ही जुनून हावी है और संत डॉ. एमएसजी (जी हां, यही नाम है) इस बार और ज्यादा तड़कते-भड़कते अंदाज़ में नज़र आ रहे हैं। इस बार संत डॉ. एमएसजी स्प्रिचुअल गुरु नहीं, बल्कि एक योद्धा लॉयन हार्ट (शेर दिल) की भूमिका में हैं, जो अजर और अमर है। एलियन की हमले से दुनिया खतरे में है, जिसपर लॉयन हार्ट जवाबी हमला करता है। लेकिन, यह केवल एक मौका भर है फ्लैशबैक में जाने का, जब शेरदिल ने 100 साल पहले ऐसे ही एलियन को अपने ताकत के बल पर पस्त किया था। और ध्यान रहे, क्योंकि ये एलियन वैसे रेग्युलर एलियन नहीं, जैसे कि आपने अब तक हॉलिवुड फिल्मों में देखा है। ये इंसान हैं, जिन्हें देख ऐसा लगता है कि इन्होंने अमिताभ बच्चन से उनका लाइट बल्ब वाला कॉस्ट्यूम उधार लिया है, जो उन्होंने 'सारा जमाना' गाने में पहना था। फिल्म में एक सीन है जब यूएफओ दिखने पर लोग पागल हो जाते हैं जो एक औसत फिल्म देखने वाले का एक्सपीरियंस है लेकिन संत डॉ एमएसजी के फैन्स तो इस फिल्म के लिए भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकेंगे। सिनेमा हॉल में बज रही तालियां और सीटियां इस बात का सबूत हैं। फिल्म के प्लॉट में आने वाले एक से बढ़कर एक ट्विस्ट टीवी के डेली सॉप यानी दैनिक धारावाहिक को भी शर्मिंदा होने पर मजबूर कर दें। इन सबके बाद भी फिल्म अचानक ही खत्म हो ही जाती है। क्यों, अगर ऐसा नहीं हुआ तो 'एमएसजी- द वॉरियर लायन हार्ट 2' कैसे बनेगी।
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बाजीराव मस्तानी की कहानी पर फिल्म बनाने का सपना संजय लीला भंसाली वर्षों से संजोये हुए थे जो अब जाकर साकार हुआ। उन्होंने यह फिल्म सलमान खान और ऐश्वर्या राय को लेकर प्लान की थी और अब इसे रणवीर सिंह, प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के साथ बनाया है। फिल्म एक लंबे 'डिस्क्लेमर' से शुरू होती है जो कि किसी तरह के विवाद से बचने की पतली गली है। स्पष्ट है कि यह बाजीराव और मस्तानी की प्रेम कहानी पर आधारित है, लेकिन निर्देशक ने ड्रामे को मनोरंजक बनाने के लिए अपनी ओर से भी बहुत कुछ जोड़ा है। फिल्म एन.एम. इनामदार के उपन्यास 'राउ' पर आधारित है। मराठा शासक बाजीराव पेशवा (रणवीर सिंह) से बुंदेलखंड के राजा अपनी बेटी मस्तानी (दीपिका पादुकोण) के जरिये दु‍श्मन से निपटने के लिए मदद मांगते हैं। बाजीराव अपनी सेना लेकर पहुंच जाते हैं। मस्तानी भी युद्ध में बाजीराव के साथ हिस्सा लेती है। उसके सौंदर्य और बहादुरी से बाजीराव प्रभावित होते हैं। दूसरी ओर मस्तानी, बाजीराव के इश्क में दीवानी हो जाती है। बाजीराव उसे बताते हैं कि वे शादीशुदा हैं। काशी (प्रियंका चोपड़ा) उनकी पत्नी है, एक बेटा है, लेकिन मस्तानी तो इश्क में डूब चुकी थी। युद्ध के बाद बाजीराव पूना अपने नए महल शनिवारवाड़ा में लौट आते हैं। कुछ दिनों बाद मस्तानी भी बुंदेलखंड से पूना आ जाती है। जब बाजीराव और मस्तानी की मोहब्बत की बात बाजीराव की पत्नी काशी और मां (तनवी आजमी) को पता चलती है तो उन्हें दु:ख पहुंचता है। मस्तानी का अपमान किया जाता है। मस्तानी हिंदू पिता और मुस्लिम मां की संतान है, मुस्लिम धर्म को मानती है इस वजह से ब्राह्मण इस रिश्ते का विरोध करते हैं। बाजीराव देखते हैं कि मस्तानी को मान-सम्मान नहीं मिल रहा है तो वे मस्तानी से विवाह रचा लेते हैं और उसके लिए मस्तानी महल बनवा देते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद मस्तानी और बाजीराव का इश्क कम होने के बजाय दिन-प्रतिदिन परवान चढ़ता है और कहानी मुख्यत: काशी, बाजीराव और मस्तानी के इर्दगिर्द घूमती है। फिल्म का स्क्रीनप्ले प्रकाश आर. कपाड़िया, संजय लीला भंसाली और मल्लिका दत्त घारडे ने मिलकर लिखा है। इसमें कितना हकीकत है और कितना फसाना, ये तो वे ही बेहतर जानते हैं, लेकिन स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है कि फिल्म बांध कर रखती है। एक के बाद एक बेहतरीन दृश्य आते रहते हैं और आप बाजीराव-मस्तानी-काशी की दुनिया में खो जाते हैं। फिल्म एक शानदार युद्ध दृश्य से शुरू होती है और फिर बाजीराव-मस्तानी के इश्क पर आ जाती है। ड्रामे में जान तब आती है जब मस्तानी पूना आती है और तमाम विरोध, अपमान सहते हुए बाजीराव के प्रति इश्क जारी रखती है। यहां से तीनों किरदारों की मनोदशा को बेहद सूक्ष्मता के साथ संजय लीला भंसाली ने पेश किया है। एक ओर मस्तानी है, जिसका बिना शर्त वाला इश्क जो उसके लिए इबादत है, खुदा है तो दूसरी ओर महज़ब और रिश्तों के बीच जकड़ा हुआ बाजीराव है, जिसके इश्क को दुनिया समझ नहीं पाती और वह सभी की नजर में खलनायक बन गया है। मस्तानी को मान-सम्मान दिलाने के लिए वह सबसे भिड़ जाता है। इन दोनों के बीच काशी पिसती है जो चुपचाप सब सहती है और बिना अपराध के भी अपने पति को दूसरी स्त्री की बांहों में देखने का दु:ख उठाती है। इन तीनों किरदारों के मन की हलचल, बेहतरीन अभिनय और निर्देशन के कारण सतह पर आ जाती है और दर्शक इसे महसूस करता है। जरूरत है धैर्य के साथ सब कुछ देखने और महसूस करने की। बाजी राव मस्तानी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें किस किरदार से आपको सहानुभूति है ये आपकी सोच और समझ पर निर्भर है, लेकिन एक आम दर्शक की नजर में बाजीराव और मस्तानी की नकारात्मक छवि बनती है क्योंकि शादीशुदा होने के बावजूद बाजीराव ने इश्क फरमाया और बिना कारण अपनी पत्नी काशी को दु:ख पहुंचाया। पर ये इश्क है, उम्र-जाति-महजब-रिश्ते नहीं देखता, कब किससे हो जाए कहा नहीं जा सकता। संजय लीला भंसाली का निर्देशन लाजवाब है। हर सीन को उन्होंने पेंटिंग की तरह पेश किया है। उनका प्रस्तुतिकरण जादुई है जो दर्शकों को अलग दुनिया में ले जाता है। हर सीन को उन्होंने भव्य बनाया है जो कही-कही अतिरेक भी लगता है। जरूरी नहीं है कि हर दृश्य में भीड़ खड़ी कर दी जाए। कुछ प्रसंग जल्दबाजी में भी निपटाए गए हैं, शायद समय का बंधन होगा। बाजीराव को नाचते देखना भी नहीं सुहाता, लेकिन ये फिल्म की छोटी-मोटी कमियां हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन है जिसमें मृत्यु के पूर्व बाजीराव को नदी में दुश्मन की सेना खड़ी नजर आती है और वह हवा में तलवार चलाता है। प्रकाश आर. कापड़िया द्वारा लिखा गया हर संवाद तारीफ के काबिल है और यह ड्रामे का मजा दोगुना कर देते हैं। फिल्म के सेट देखने लायक हैं और सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी में रंग, लाइट, शेड्स का कमाल देखने को मिलता है। संगीत खुद संजय लीला भंसाली का है और फिल्म के मूड के अनुरूप है। 'दीवानी' और 'पिंगा' इसमें से बेहतरीन हैं। इनकी कोरियोग्राफी और फिल्मांकन जबरदस्त है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद मजबूत है और फिल्म के तकनीशियनों की मेहनत नजर आती है। रणवीर सिंह को अपने करियर में इतनी जल्दी ही इतना भारी-भरकम रोल मिल गया। डर था कि क्या वे निभा पाएंगे, लेकिन उन्होंने कर दिखाया। वे कैरेक्टर में घुस गए और बाजीराव के गेटअप में वे जमे हैं। अपने लहजे, फिजिक पर भी उन्होंने खूब मेहनत की और उनका काम शानदार रहा है। हालांकि उनके अभिनय की भी सीमा है, लेकिन अपनी सीमा के भीतर रहते हुए उन्होंने जितना बन बड़ा उससे ज्यादा किया। मस्तानी के किरदार में दीपिका पादुकोण का अभिनय देखने लायक है। वे बेहद खूबसूरत लगी हैं और 'दीवानी' में उनकी खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है। इश्क में दीवानी एक राजकुमारी का किरदार उन्होंने बखूबी जीवंत किया है। प्रियंका चोपड़ा के पास संवाद कम थे और ज्यादातर उन्हें चेहरे के भाव से ही अपने दर्द को बयां करना था और यह काम उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया। 'पिंगा' में उनका डांस दीपिका से बेहतर रहा। बाजीराव की मां के रूप में तनवी आजमी अपने दमदार अभिनय के बूते पर पूरी ताकत के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। 'बाजीराव मस्तानी' को देखने के अनेक कारण हैं और इसे देखा जाना चाहिए। बैनर : इरोज़ इंटरनेशनल, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : किशोर लुल्ला-संजय लीला भंसाली निर्देशक-संगीत : संजय लीला भंसाली कलाकार : रणवीर सिंह, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, तनवी आजमी, महेश मांजरेकर, मिलिंद सोमण सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 38 मिनट
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आखिरकार फैंस के फेवरेट दिलजीत दोसांझ एक बार फिर फिल्म 'सूरमा' के साथ बड़े परदे पर आ ही गए। उम्मीद के मुताबिक फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर तो अच्छा प्रदर्शन कर रही है लेकिन दर्शक इस फिल्म से कुछ असमंजस में हैं। असमंजस यह कि संदीप सिंह की यह बायोपिक 'सूरमा' आखिर उनकी इंस्पिरेशनल कहानी है या उनकी लव स्टोरी। दरअसल, कहानी उनके 'फ्लिकर सिंह' बनने से ज़्यादा उनकी 'लव स्टोरी' बयां करती है। शुरू से शुरू करना बेहतर होगा। दिलजीत दोसांझ स्टारर हॉकी लीजेंड संदीप सिंह की यह बायोपिक 'सूरमा' शुरू होती है संदीप के बचपन से। बचपन से ही पिता ने अपने दोनों बेटों को हॉकी की ट्रेनिंग में लगा दिया था ताकि वे इंडिया टीम में सिलेक्ट होकर कोई सरकारी नौकरी पा लें। सपना ज़्यादा बड़ा नहीं थी लेकिन इस वजह से परिवार में हॉकी का ही माहौल था। संदीप ने बचपन में ही हॉकी छोड़ अपने बड़े भाई बिक्रमजीत सिंह (अंगद बेदी) का सपोर्ट किया। मस्ती करते हुए संदीप बड़े हुए और एक लड़की हरप्रीत (तापसी पन्नू) से सिर्फ आकर्षित होने पर ही हॉकी खेलने की इच्छा रखी। बस यहीं से असली कहानी शुरू होती है। संदीप उस लड़की से मिलने के लिए रोज़ हॉकी मैदान पर जाकर प्रेक्टिस करने लगे। 9 वर्षों से हॉकी छोड़ चुके संदीप की कहानी यूं ही चलती रही और वे अपना टैलेंट दिखाते रहे। लेकिन इस लव स्टोरी में भी हमेशा की तरह एक विलेन था जिसने संदीप को आगे नहीं बढ़ने नहीं दिया और लव स्टोरी पर लग गया ब्रेक। अब कहानी आगे बढ़ाने के लिए संदीप ने अपने बड़े भाई की मदद ली। बड़े भाई के जिक्र से याद आया कि फिल्म में सबसे बेहतरीन इंस्पिरेशन यही था कि चाहे जीवन में कुछ भी हो जाए, परिवार का साथ हमेशा बहुत ज़रुरी होता है। इस बात को निर्देशक ने बहुत अच्छी तरह से दर्शाया है। बड़े भाई ने हर मोड़ पर संदीप का साथ दिया, या ऐसा कह सकते हैं कि उन्हीं की वजह से संदीप इतने बड़े प्लेयर बन पाए हैं। लव स्टोरी और हॉकी दोनों ही बहुत बेहतरीन चल रहा था। संदीप और हरप्रीत का इंडिया टीम में सिलेक्शन भी हुआ और शादी भी तय हुई। ट्रेजेडी तब हुई जब संदीप सिंह को गोली लग गई और उनके जीवन में सब कुछ बिखर गया। निर्देशक ने फर्स्ट हाफ में कहानी को पॉइंट टू पॉइंट दर्शाया, इसलिए यह बेहतर लगी। हालांकि दर्शक कंफ्युस होना शुरू हो चुके थे कि यह इंस्पिरेशनल स्टोरी है या लव स्टोरी। सेकंड हाफ की कहानी सभी को पता है इसलिए इसे कम शब्दों में ही बताया जा सकता है। कोमा से बाहर निकलने के बाद दोबारा अपने पैरों पर खड़े होना और हॉकी में भारत को इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर रिप्रेज़ेंट करना कोई आसान बात नहीं। और यही कहानी है लीजेंड संदीप सिंह की। लेकिन दर्शकों को इसमें सबसे ज़्यादा अखरा कि इस पार्ट में भी लव स्टोरी को ज़्यादा बढ़ावा दिया गया। 'सूरमा' में दिलजीत दोसांझ की एक्टिंग दिल जीतने वाली थी। वे अपने किरदार में पूरी तरह से डुब गए थे। इसके अलावा उनका साथ दिया तापसी पन्नू ने। लव स्टोरी के तौर पर देखें तो तापसी इस फिल्म की दूसरी लीड कास्ट थी लेकिन तापसी के टैलेंट का बेहतर उपयोग निर्देशक फिल्म में नहीं कर पाए। हालांकि दोनों की हॉकी प्रैक्टिस शानदार थी और फिल्म में उन्होंने इसे बहुत अच्छे से प्रदर्शित किया है। बड़े भाई के किरदार में अंगद बेदी शानदार थे। नेहा धूपिया से शादी के बाद यह अंगद की पहली फिल्म थी और वाकई नेहा को अपने पति की एक्टिंग पर बहुत गर्व होगा। सतीश कौशिक ने भी बेहतरीन काम किया है। कोच के रूप में विजय राज़ शानदार थे। फिल्म में थोड़ा ह्युमर देने की बेहे कोशिश की गई जो कि सफल रही। ALSO READ:हनुमान वर्सेस महिरावण : फिल्म समीक्षा ALSO READ:हनुमान वर्सेस महिरावण : फिल्म समीक्षा दर्शकों को इमोशनल करने की कोशिश की गई लेकिन रोना नहीं आया। कहीं सीन को जबर्दस्ती बहुत लंबा खींचा गया तो कहीं बहुत छोटे से सीन दिखाकर अधुरापन रखा गया। हालांकि फिल्म दर्शकों को सवा दो घंटे तक बांधे रखने में कामयाब रही। दर्शक फिल्म के किसी सीन से बोर नहीं हुए। दिलजीत, तापसी और अंगद की शानदार एक्टिंग और संदीप सिंह की पूरी कहानी को दर्शकों तक पहुंचाने का पूरा क्रेडिट जाता है निर्देशक शाद अली को। उन्होंने कहानी को कम समय में दर्शाने की कोशिश की जिसमें वे सफल रहे। फिल्म के गाने और म्युज़िक कुछ खास नहीं है। हालांकि 'सूरमा एंथम' रिलीज़ होते ही बहुत फेमस हो गया था। जिसे गाया है शंकर महादेवन ने। साथ ही 'इश्क दी बाजियां' आजकल यूथ का फेवरेट लव सांग बन चुका है। इसके अलावा इस स्पोर्ट्स फिल्म को शाहरुख खान की 'चक दे इंडिया' से भी कम्पेयर किया गया था लेकिन आपको बता दें कि यह उस कहानी से बिल्कुल मेल नहीं खाती। वीकेंड एंजॉय करने के लिए यह अच्छी और पैसा वसूल पिक्चर है। वेबदुनिया की ओर से फिल्म 'सूरमा' को 3 स्टार। निर्देशक : शाद अली संगीत : शंकर एहसान लॉय कलाकार : दिलजीत दोसांझ, तापसी पन्नू, अंगद बेदी, सिद्धार्थ शुक्ला, कुलभुषण खरबंदा, पितोबश, विजय राज, हैरी तंगीरी, अम्मार तालवाला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com ​बॉलिवुड में चंद ऐसे फिल्म मेकर हैं जो बॉक्स ऑफिस की कमाई का मोह छोड़कर अपने मिजाज की ऐसी ऑफ बीट फिल्में बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते जो उनकी अपनी कसौटी पर खरी उतरती हैं। यकीनन इन फिल्मों की ज्यादा बड़ी मार्केट नहीं होती। सिंगल स्क्रीन थिअटरों और बी-सी क्लास जैसे छोटे सेंटरों पर ऐसी फिल्मों को अक्सर सिनेमा मालिक नहीं लगाते। हंसल मेहता इंडस्ट्री के ऐसे ही चंद गिने चुने मेकर्स में से हैं जो अक्सर अपनी फिल्मों में ऐसा जोखिम उठाते रहे हैं। हंसल की पिछली दो फिल्मों 'शाहिद' और 'सिटी लाइफ' को तारीफें और अवॉर्ड तो बहुत मिले, वहीं बॉक्स ऑफिस पर दोनों ही फिल्मों ने कुछ खास कमाल नहीं किया। अब एक बार फिर हंसल अपने मिजाज की एक और फिल्म 'अलीगढ़' लेकर दर्शकों की उस क्लास के सामने रूबरू हुए हैं। डायरेक्टर हंसल की फिल्म शाहिद ने बॉक्स ऑफिस में कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन नैशनल अवॉर्ड अपने नाम किया। हंसल की यह फिल्म कुछ साल पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई एक घटना पर आधारित है। हंसल की इस फिल्म को रिलीज से पहले बुसान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया, जहां हर किसी ने इस फिल्म को जमकर सराहा तो वहीं मुंबई के अलावा लंदन फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को दिखाया गया। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी: प्रफेसर डॉक्टर एस. आर. सिरस (मनोज बाजपेयी) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी के प्रफेसर हैं। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने डॉक्टर सिरस को करीब 6 साल पहले एक रिक्शा वाले युवक के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में सस्पेंड कर दिया। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने एक लोकल टीवी चैनल के दो लोगों द्वारा प्रफेसर सिरस के बेडरूम में किए एक स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर उन्हें सस्पेंड करके अगले सात दिनों में स्टाफ क्वॉटर खाली करने का आदेश जारी किया। दिल्ली में एक प्रमुख अंग्रेजी न्यूजपेपर की रिर्पोटिंग हेड नमिता (डिलनाज ईरानी) इस पूरी खबर पर नजर रखे हुए हैं। नमिता अपने न्यूजपेपर के यंग रिपोर्टर दीपू सेबेस्टियन (राजकुमार राव) के साथ एक फोटोग्राफर को इस न्यूज की जांच पड़ताल करने के लिए अलीगढ़ भेजती हैं। अलीगढ़ आने के बाद दीपू कुछ मुश्किलों के बाद अंततः डॉक्टर सिरस तक पहुंचने और उनका विश्वास जीतने में कामयाब होता है। इसी बीच दिल्ली में समलैंगिंग के अधिकारों के लिए काम करने और धारा 377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ के लोग प्रफेसर सिरस को अप्रोच करते हैं। प्रफेसर सिरस का केस इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंचता है, जहां सिरस और एनजीओ की ओर से पेश ऐडवोकेट आनंद ग्रोवर (आशीष विधार्थी) इस केस में प्रफेसर सिरस की ओर से बहस करते हैं। हाईकोर्ट प्रफेसर सिरस को बेगुनाह मानकर यूनिवर्सिटी प्रशासन को 64 साल के प्रफेसर सिरस को बहाल करने का आदेश देती है। इसके बाद कहानी में टर्न आता है जो आपको झकझोर देता है। इस फिल्म में बेहद सजींदगी से यह सवाल प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है कि क्या होमोसेक्शुअलिटी अपराध है और ऐसा करने वाले का समाज द्वारा तिरस्कृत करना सही है? ऐक्टिंग: इस फिल्म में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन ऐक्टिंग करके अपने उन आलोचकों को करारा जवाब दिया है जो उनकी पिछली एक-आध फिल्म फलॉप होने के बाद उनके करियर पर सवाल उठा रहे थे। प्रफेसर डॉक्टर सिरस के किरदार की बारीकी को हरेक फ्रेम में आसानी से देखा जा सकता है। यूनिवर्सिटी द्वारा सस्पेंड होने के बाद अपने फ्लैट में अकेला और डरा-डरा रहने वाले प्रफेसर के किरदार में मनोज ने लाजवाब अभिनय किया है। एक साउथ इंडियन जर्नलिस्ट के किरदार को राज कुमार राव ने प्रभावशाली ढंग से निभाया है। ऐडवोकेट ग्रोवर के रोल में आशीष विद्यार्थी ने अपने से रोल में ऐसी छाप छोड़ी है कि दर्शक उनके किरदार की चर्चा करते हैं। फिल्म 'अलीगढ़' का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें। निर्देशन : हंसल ने फिल्म के कई सीन्स को अलीगढ़ की रियल लोकेशन पर बखूबी शूट किया है। वहीं बतौर डायरेक्टर हंसल ने प्रफेसर के अकेलेपन को बेहद संजीदगी से पेश किया है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार सुस्त है, लेकिन ऐसे गंभीर सब्जेक्ट पर बनने वाली फिल्म को एक अलग ट्रैक पर ही शूट किया जाता है, जिसमें हंसल पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। हंसल ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों से अच्छा काम लिया और कहानी की डिमांड के मुताबिक उन्हें अच्छी फुटेज भी दी है। संगीत : ऐसी कहानी में म्यूजिक के लिए कोई खास जगह नहीं बन पाती। बैकग्राउंड म्यूजिक प्रभावशाली है तो वहीं कहानी की डिमांड के मुताबिक फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गानों को जगह दी है जो प्रभावशाली है। क्यों देखें : अगर आप कुछ नया और रियल लाइफ से जुड़ी घटनाओं पर बनी उम्दा फिल्मों के शौकीन हैं तो फिल्म आपके लिए है। वहीं मनोज वाजपेयी के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार को एक बार फिर ऐसे लाजवाब किरदार में देखिए जो शायद उन्हीं के लिए रचा गया। वहीं मसाला ऐक्शन फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ नहीं है।
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बतौर एक्ट्रेस कोंकणा सेन शर्मा ने बॉलीवुड में अपनी खास और अलग पहचान बनाई, लेकिन कोंकणा करियर की शुरूआत से ही अलग टेस्ट की फिल्में करती आ रही हैं और इसी कारण चर्चा में भी रहती हैं। अगर कोंकणा की बात करें तो करियर की शुरूआत में ही उन्होंने साफ किया था कि जब भी उनके पास अच्छी और दमदार स्क्रिप्ट होगी तभी वह निर्देशन की फील्ड में एंट्री करेंगी। कोंकणा ने अपने पिता मुकुल शर्मा की लिखी एक कहानी पर जब इस फिल्म को बनाना शुरू किया तो उस वक्त शायद यह तय ही नहीं कर पाईं कि वह दर्शकों की किस क्लास के लिए फिल्म बना रही हैं। करीब पौने दो घंटे की इस फिल्म का कोई किरदार फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करता है, तो कोई ठेठ हिंदी में बात करता है। ऐसे में फिल्म किसी एक भाषा पर फोकस नहीं करती। वहीं, कोंकणा के निर्देशन में उनकी मां अपर्णा सेन की छाप भी नजर आती है। बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शकों की एक बेहद सीमित क्लास के लिए बनाई गई है। फिल्म देखते वक्त कई बार ऐसा लगता है जैसे आप बांग्ला फिल्म देख रहे हैं, यह बात अलग है कि फिल्म अंग्रेजी में बनी है। कहानी: इस फिल्म की कहानी 1979 से शुरू होती है। रांची शहर के पास एक् छोटा सा कस्बानुमा गांव है मैकलुस्कीगंज। घने जंगल के बीचोंबीच मिस्टर एंड मिसेज बख्शी (ओम पुरी और तनुजा) का एक बड़ा-सा बंगलानुमा घर है। बख्शी साहब के इसी घर में उनके कुछ नजदीकी रिश्तेदार हॉलीडे के लिए डेरा जमाते हैं। बेशक ये सभी बख्शी फैमिली का हिस्सा हैं, लेकिन सभी एक दूसरे पर ना जाने क्यों शक करते हैं और एक दूसरे को हमेशा नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। फिलहाल बख्शी साहब के यहां बिक्रम, बोनी, मिमी, ब्रायन और तानी हैं। इन सभी की अपनी अलग-अलग टेंशन हैं। इनके साथ शुटू भी इन दिनों ठहरा हुआ है। इस बड़ी-सी फैमिली में शुटू हमेशा अपने को हमेशा अलग-थलग पाता है, यहां शुटू को काम बताने वाले तो सभी हैं लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं। बेशक, बख्शी साहब के यहां ठहरे ये सभी लोग इन्जॉय कर रहे है लेकिन इनके जहन में हर वक्त कुछ और ही चल रहा है। ऐक्टिंग: अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो शुटू के किरदार में विक्रांत मेसी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रणवीर शौरी ज्यादातर सीन्स में चीखते-चिल्लाते नजर आए हैं, तो काल्कि हमेशा की तरह इस बार भी अपने बोल्ड और सेक्सी अंदाज से बाहर नहीं निकल पाईं। ओम पुरी की अचानक मृत्यु के बाद रिलीज हुई उनकी यह पहली फिल्म है, औ ओम पुरी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। निर्देशन: कोंकणा सेन शर्मा ने कहानी और किरदारों के साथ पूरी ईमानदारी बरती है। जिस किरदार को जितनी फुटेज मिलनी चाहिए उतनी फुटेज ही उस किरदार को दी गई है। फिल्म शुरू से अंत तक बेहद धीमी गति से चलती है। यह समझ से परे है कि कोंकणा ने फिल्म को किसी एक भाषा पर फोकस न करके तीन भाषाओं का इस्तेमाल क्यों किया है। कोंकणा अगर फिल्म को उत्तर भारत सहित दूसरे हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी सबटाइटल्स के साथ रिलीज करतीं तो ज्यादा अच्छा रहता। क्यों देखें: अगर आप लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं और कुछ अलग देखना चाहते हैं, तभी इस फिल्म को देखने जाएं। विक्रांत मेसी की बेहतरीन ऐक्टिंग इस फिल्म का प्लस पॉइंट है।
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कुल मिलाकर ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ बेहद घटिया फिल्म है, जिसे अक्षय कुमार के प्रशंसक भी पसंद नहीं करेंगे। निर्माता : शैलेन्द्र सिंह निर्देशक : नागेश कुकुनूर संगीत : सलीम-सुलैमान, नीरज श्रीधर कलाकार : अक्षय कुमार, आयशा टाकिया, शर्मिला टैगोर, जावेद जाफरी, गिरीश कर्नाड, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी जिन लोगों के परिवार का कोई सदस्य गुम हो जाता है और जिसे ढूँढ पाने में वे नाकाम रहते हैं, उनमें से कुछ लोग ऐसे बाबाओं के पास जाते हैं जो उन्हें बताते हैं कि वो इनसान किस दिशा में है या कौन से शहर में है। कहा जाता है कि उनके पास ऐसी शक्ति (?) रहती है। ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ के नायक जय (अक्षय कुमार) को भी ऐसी विशिष्ट शक्ति प्राप्त है। वह तस्वीर देखकर एकदम सटीक बता देता है कि फलाँ इनसान कहाँ है। लोगों को उस पर विश्वास है क्योंकि वह सब कुछ सही बताता है, लेकिन उसकी प्रेमिका, दोस्त, माँ पता नहीं उस पर क्यों अविश्वास करते हैं। जय अपने पिता से नाराज है क्योंकि उनके व्यवसाय करने के तरीके उसे पसंद नहीं हैं। आखिर तक पता नहीं चलता कि वो तौर-तरीके क्या थे, जिससे दोनों के बीच अनबन थी। जय के पिता (बेंजामिन गिलानी) की जहाज पर से गिरने की वजह से मौत हो जाती है। मरने के ठीक पूर्व वे अपने भाई और दो दोस्तों के साथ फोटो उतरवाते हैं। ये फोटो खींचती हैं जय की माँ (शर्मिला टैगोर)। अचानक एक पुलिस कम जासूस (जावेद जाफरी) टपक पड़ता है, जो जय को बताता है उसके पिता की हत्या हुई है। जय तस्वीर को देखता है। एक-एक कर उन आदमियों की आँखों में चला जाता है जो वहाँ पर मौजूद थे। उसे पता चल जाता है कि कौन लोग उसके पिता की मौत के कारण हैं। आधी से ज्यादा फिल्म तक तो गलत विश्लेषण करता रहता है और अंत में वह सही कातिल तक पहुँचता है। निर्देशक और लेखक नागेश कुकुनूर जब सही कातिल पर से परदा उठाते हैं तो आप लेखक की बेवकूफी पर सिवाय आश्चर्य के कुछ नहीं कर सकते। उस कातिल को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिए गए हैं वे बेहद बेहूदा हैं। आश्चर्य होता है नागेश की समझ पर, उन लोगों की समझ पर जो इस फिल्म से जुड़े हुए हैं। क्यों कातिल अपने पिता की हत्या करता है? वह क्यों अपनी माँ को चाकू मारता है? ऐसे सैकड़ों प्रश्न आपके दिमाग में उठेंगे, जिनका जवाब कहीं नहीं मिलता। अनेक गलतियों से स्क्रीनप्ले भरा हुआ है। कुछ पर गौर फरमाइए। जय की माँ को चाकू मारा गया है। वह जय को कातिल का नाम बताने के बजाय उसे एक बक्सा खोलकर तस्वीर देखने की बात कहती है। जय भी एक बार भी नहीं पूछता कि माँ आपको चाकू किसने मारा है। बताया गया है कि जय तस्वीर देखते समय वहीं पहुँच जाता है जहाँ तस्वीर उतारी गई है। यदि उसी समय कोई तस्वीर को नष्ट कर दे तो वह वर्तमान में वापस नहीं आ सकता है। फिल्म के अंत में कातिल तस्वीर को जला देता है और फिर भी जय वर्तमान में लौट आता है। कैसे? कोई जवाब नहीं है। नागेश कुकुनूर की कहानी का मूल विचार अच्छा था, लेकिन उसका वे सही तरीके से निर्वाह नहीं कर सके और ढेर सारी अविश्वसनीय गलतियाँ कर बैठे। निर्देशक के रूप में भी वे प्रभावित नहीं कर पाए। ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ के बाद उन्होंने लगातार दूसरी घटिया फिल्म दी है, इससे साबित होता है कि कमर्शियल फिल्म बनाना उनके बस की बात नहीं है। अक्षय कुमार के चेहरे के भाव पूरी फिल्म में एक जैसे रहे, चाहे दृश्य रोमांटिक हो या भावनात्मक। आयशा टाकिया को करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। जावेद जाफरी कहीं हँसाते हैं तो कहीं खिजाते हैं। गिरीश कर्नाड, शर्मिला टैगोर, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी और रुशाद राणा ने अपने किरदार अच्छे से निभाए। विकास शिवरमण ने कनाडा और दक्षिण अफ्रीका को बड़ी खूबसूरती के साथ स्क्रीन पर पेश किया। कुल मिलाकर ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ बेहद घटिया फिल्म है, जिसे अक्षय कुमार के प्रशंसक भी पसंद नहीं करेंगे।
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सिमरन की कहानी: प्रफुल पटेल (कंगना) एक 30 साल की तलाकशुदा महिला है और जॉर्जा में अपनी मिडिल क्‍लास फैमिली के साथ रहती है। पेशे से हाउसकीपर प्रफुल क्राइम की दुनिया के लिए उस वक्‍त तैयार हो जाती है जब उसका वास्‍ता लॉस वेगस स्‍थ‍ित एक कसीनो में गैम्‍बल‍िंग से पड़ता है। सिर्फ एक गलत कदम से आगे कई चीजें गलत हो जाती हैं और जब तक आप इस बारे में जानते हैं, प्रफुल एक बड़ी गड़बड़ में फंस चुकी होती है। रिव्‍यू: सिमरन की खास और अच्‍छी बात यह है कि फ‍िल्‍म उस पार्ट से कनेक्‍ट करती है जहां बॉलिवुड हिरोइन बदमाश होने के लिए अपना कोई बचाव नहीं करती है। निडर होकर वह अपनी शर्तों पर जीती है और उसी से प्‍यार करती है। वह ब‍िना प्रोटेक्‍शन के सेक्‍स से इनकार कर देती है और लगातार नए-नए अडवेंचर करती है। वह क्राइम की दुनिया में जा रही है, इस पर वह दो बार सोचती तक नहीं। जैसा है, सही है। उफ्फ! 'सिमरन' में कंगना के कितने सारे अवतार लोकेशन के अलावा फिल्म में सब बिखरा-बिखरा सा है। कहानी कई जगह टूटती सी लगती है। जिस तरह प्रफुल बैंक लूटती है और छूट जाती है वह भी हर जगह अपने फिंगर प्रिंट और लिप्स्टिक से लिखे नोट छोड़ने के बाद, उसपर विश्वास करना नामुमकिन है। मीडिया उसे 'लिपस्टिक लूटेरा' नाम देती है और अटलांटा की पुलिस बैंक के पीड़ित कर्मचारी जैसे पूरी फिल्म में जोकर की तरह नज़र आते हैं, जो चुपचाप उन्हें देखते रहते हैं और वह करीब आधे दर्जन लूट को अंजाम दे देती है। ऐसा लग रहा है जैसे हंसल मेहता ने फालतू कॉमिडी फिल्म बनाई है। इसमें बुरा तो कुछ भी नहीं लेकिन लेकिन अगर सब्जेक्ट जो कि असली कहानी है, इसे लाइटली ट्रीट किया भी गया है तो ऑडियंस को और हंसाने की कोशिश करनी चाहिए थी। फ‍िल्‍म का सबसे अच्‍छा पार्ट कंगना ही हैं। भले वह व‍िनम्र या साहसी हों, पर्दे पर उनका महत्‍व द‍िखता है। हालांक‍ि, कई मौकों पर कंगना का फोकस फ‍िसलता द‍िखता है, लेक‍िन क्‍या इसके ल‍िए उन्‍हें ज‍िम्‍मेदार मानना चाह‍िए? शायद फ‍िल्‍ममेकर के पास कोई दूसरा ऐसा स्‍टार भी नहीं है। फिल्म में स‍िमरन के पैरंट्स, उसके मंगेतर समीर (सोहम) और बाकी देसी-व‍िदेशी कलाकारों ने बहुत ज्‍यादा कमाल नहीं क‍िया है। सच कहें, तो आप 'सिमरन' को लेकर भावुक नहीं हो पाएंगे चाहे जितनी कोशिश कर लें। लेकिन जब आप फिल्म देखेंगे तो कहीं-कहीं उसकी फीलिंग्स को महसूस ज़रूर करेंगे और वह भी कंगना की अदाकारी की वजह से। उनकी तारीफ़ तो बनती है।
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बैनर : 20 सेंचुरी फॉक्स निर्माता-निर्देशक : जेम्स कैमरून संगीत : जेम्स हॉर्नर कलाकार : सैम वर्थिंगटन, सीगोर्नी विवर, स्टीफन लैंग, ज़ो सल्डाना यू/ए * 2 घंटे 43 मिनट ‘अवतार’ की कहानी जेम्स कैमरून ने वर्षों पहले सोची थी, लेकिन वे इसको स्क्रीन पर लंबे समय तक इसलिए नहीं पेश कर सके क्योंकि तकनीक उन्नत नहीं हुई थी। वर्षों उन्होंने इंतजार किया और जब तकनीक ने उनका साथ दिया तब उन्होंने ‘अवतार’ फिल्म बनाई। ‘अवतार’ की कहानी बेहद सरल है और आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा भी आप लगा सकते हैं। लेकिन यह कैसे होगा और फिल्म के विज्युअल इफेक्ट इस फिल्म को खास बनाते हैं। एक ऐसी दुनिया दिखाई गई है, जिसकी कल्पना रोमांचित कर देती है। ये कहानी सन् 2154 की है। पृथ्वी से कुछ प्रकाश वर्ष दूर पेंडोरा नामक ग्रह है। पृथ्वीवासियों के इरादे नेक नहीं है। वे पेंडोरा से कुछ जानकारी जुटाने, उस पर कॉलोनी बनाने के साथ-साथ वहाँ की बहुमूल्य संपदा को ले जाना चाहते हैं, लेकिन उनके रास्ते में वहाँ के स्थानीय निवासी बाधा हैं, जिन्हें वे ‘ब्लू मंकी’ कहते हैं। वैसे उन्हें नावी कहा जाता है और इंसान उन्हें अपने से पिछड़ा हुआ मानते हैं। अवतार प्रोग्राम का जैक सुली (सैम वर्थिंगटन) भी हिस्सा है। इस प्रोग्राम में जैक अपने जुड़वाँ भाई की जगह आया है क्योंकि उसके भाई की मौत हो गई है। मनुष्य और नावी के डीएनए को मिलाकर एक ऐसा शरीर बनाया जाता है, जिसे अवतार कहते हैं। इसे गहरी नींद में जाकर दूर से नियंत्रित किया जा सकता है। जैक सुली का अवतार पेंडोरा के निवासियों के बीच फँस जाता है, लेकिन वह उनसे दोस्ती कर जानकारी जुटाता है। वहाँ उसे प्यार भी हो जाता है और उनकी दुनिया को वह उनकी निगाहों से देखता है। लेकिन जब उसे इंसानों के खतरनाक इरादों का पता चलता है तो वह उनकी तरफ से लड़ता है और पेंडोरा को बचाता है। जेम्स कैमरून ने इस कहानी को कहने के लिए जो कल्पना गढ़ी है वो अद्‍भुत है। चमत्कारी पेड़-पौधे, उड़ते हुए भीमकाय ड्रेगन, घना जंगल, पहाड़, अजीबो-गरीब कीड़े-मकोड़े और पक्षी, खतरनाक जंगली कुत्ते, पेंडोरा के शक्तिशाली नीले रंग के निवासी चकित करते हैं। सन् 2154 में मनुष्य के पास किस तरह के हवाई जहाज और हथियार होंगे इसकी झलक भी फिल्म में देखने को मिलती है। फिल्म का क्लाइमैक्स जबरदस्त है जब दोनों पक्षों में लड़ाई होती है। इसे बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है और एक्शन प्रेमी इसे देखकर रोमांचित हो जाते हैं। फिल्म की कहानी युद्ध के खिलाफ है और शांति की बात करती है। आपसी विश्वास और प्यार के जरिये लोगों का दिल जीतने का संदेश भी इस फिल्म के जरिये दिया गया है। जेम्स कैमरून नि:संदेह इस फिल्म के हीरो है। छोटी-छोटी बातों पर उन्होंने ध्यान रखा है और हर किरदार का ठीक से विस्तार किया है। विज्युअल इफेक्ट, कहानी और एक्शन का उन्होंने संतुलन बनाए रखा है और तकनीक को फिल्म पर हावी नहीं होने दिया है। आमतौर पर महँगी फिल्मों में निर्देशक अपने दृश्यों को काँटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है, इसलिए यह फिल्म भी थोड़ी लंबी हो गई है। तकनीकी रूप से फिल्म लाजवाब है। फोटोग्राफी, स्पेशल/विज्युअल इफेक्ट, कास्ट्यूम डिजाइन, संपादन बेहतरीन है। लाइट और शेड का प्रयोग फिल्म को खूबसूरत बनाता है। इस फिल्म में सीजीआई (कम्प्यूटर जनरेटेड इमेज) के सबसे अत्याधुनिक वर्जन का प्रयोग किया गया है, जिससे फिल्म के ग्राफिक्स की गुणवत्ता और अच्छी हो गई है। सैम वर्थिंगटन, सीगोर्नी विवर, स्टीफन लैंग, ज़ो सल्डाना सहित सारे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है। एक अनोखी दुनिया देखने के लिए ‘अवतार’ देखी जा सकती है।
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बड़ी आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस अक्सर ऐसे कई लोगों को शक के आधार पर जेल में बंद कर देती है ताकि अपनी असफलता को छिपा सके। इनमें से कुछ निर्दोष भी रहते हैं। गरीब, अनपढ़ और असहाय होने के कारण वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं। कई किस्से पढ़ने को मिलते हैं कि निर्दोष को वर्षों तक जेल में बंद रहना पड़ा। ऐसे लोगों का केस लड़ता था शाहिद आजमी नामक नौजवान। शाहिद की जब हत्या की गई तब उसकी उम्र थी मात्र 32 वर्ष। शाहिद के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा था जब 1992 में मुंबई में हुए दंगों के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद वह पाकिस्तान स्थित काश्मीर के ट्रेनिंग केम्प में गया, लेकिन वहां उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि अन्याय के खिलाफ लड़ने का यह सही रास्ता नहीं है। टाडा के कारण उसे सात वर्ष तिहाड़ जेल में बिताना पड़े। जेल में उसे सही सीख मिली कि समाज के व्याप्त अन्याय के खिलाफ लड़ना है तो समाज का हिस्सा बनकर यह काम करना होगा। जेल से ही वह पढ़ाई करता है और वकील बन उन लोगों के लिए लड़ता है जो निर्दोष होकर जेल में सड़ रहे हैं। शाहिद आजमी की कहानी को सेल्युलाइड पर हंसल मेहता नामक निर्देशक ने उतारा है। हंसल की पिछली फिल्म थी ‘वुडस्टॉक विला’। रिलीज के पहले ही हंसल को समझ में आ गया था कि उन्होंने बहुत बुरी फिल्म बनाई है, लिहाजा वे मुंबई छोड़कर चले गए। शाहिद के बारे में उन्होंने पढ़ा तो फिल्म बनाने का विचार जागा। हंसल ने काफी रिसर्च किया है यह फिल्म में झलकता है। फिल्म में उन्होंने शाहिद के जीवन के उत्तरार्ध को ज्यादा दिखाया है। किस तरह से शाहिद 26/11 मुंबई अटैक में आरोपी बनाए गए फहीम अंसारी का केस लड़कर उसे न्याय दिलाते हैं इसे निर्देशक ने अच्छे तरीके से पेश किया है, लेकिन शाहिद के आतंकवादी केम्प में प्रशिक्षण लेने और वासप आने वाले मुद्दे को उन्होंने चंद सेकंड में ही दिखा दिया। जबकि इस मुद्दे पर दर्शक ज्यादा से ज्यादा जानना चाहता है। हंसल ने कोर्ट रूम ड्राम को ज्यादा महत्व दिया। नि:संदेह इससे शाहिद एक काबिल और नेकदिल वकील के रूप में उभर कर आते हैं, लेकिन ये प्रसंग बहुत लंबे हैं। हंसल का निर्देशन अच्छा है, लेकिन इस शाहिद के जीवन की कहानी को और अच्छे तरीके से पेश किया जा सकता था। फिल्म में कई बेहतरीन सीन और संवाद हैं। एक सीन में शाहिद जज से पूछता है ‘अगर इसका नाम डोनाल्ड, मैथ्यु, सुरेश या मोरे होता तो क्या यहां ये खड़ा होता?’ यहां निर्देशक स्पष्ट इशारा देता है कि कुछ लोगों की गलती की सजा पूरी कौम को दिया जाना सही नहीं है। फिल्म कई सवाल खड़े करती हैं जिन पर सोचा जाना जरूरी है। पुलिस, मीडिया और आम जनता पर सवालिया निशान लगाती है कि किसी पर आरोप लगते ही वे उसे आतंकवादी मान लेते हैं। शाहिद के किरदार में राजकुमार यादव इस तरह घुस गए हैं कि कहीं भी वे राजकुमार या अभिनय करते नजर नहीं आते। ऐसा लगता है कि जैसे सामने शाहिद खड़ा हो। प्रभलीन संधु, मोहम्मद जीशान अय्यूब, विपिन शर्मा, बलजिंदर कौर सहित कई अपरिचित चेहरों ने बेहतरीन अभिनय से फिल्म को दमदार बनाया है। कुछ फिल्में मनोरंजन करती हैं। कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं, ‘शाहिद’ भी इनमें से एक है। बैनर : बोहरा ब्रदर्स प्रा.लि., एकेएफपीएल प्रोडक्शन निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर, अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा निर्देशक : हंसल मेहता कलाकार : राजकुमार यादव, प्रभलीन संधु, तिग्मांशु धुलिया, मोहम्मद जीशान अय्यूब, बलजिंदर कौर सेंसर सर्टिफिकेट : ए
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सुपर नानी को देख ऐसा लगता है जैसे वर्षों पुरानी फिल्म देख रहे हो। इस तरह की फिल्मों का जमाना कब का लद चुका है, लेकिन इंद्र कुमार अभी भी 'बेटा' और 'दिल' के जमाने में जी रहे हैं जब अतिनाटकीय फिल्में चल निकलती थी। फिल्म की थीम अच्छी है कि किस तरह से एक हाउसवाइफ जो सबसे ज्यादा काम करती है उसी की घरवाले सबसे ज्यादा उपेक्षा करते हैं। पिछले दिनों 'इंग्लिश विंग्लिश' नामक एक बेहतरीन फिल्म इसी विषय पर आधारित थी। लेकिन 'सुपर नानी' का लेखन और निर्देशन इस तरह का है कि ज्यादातर दर्शक फिल्म खत्म होने तक सरदर्द की शिकायत कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि एकता कपूर के किसी धारावाहिक का सवा दो घंटे का एपिसोड देख रहे हैं जिसमें कलाकार चीख कर संवाद बोल रहे हो और ढेर सारा ज्ञान दिया जा रहा हो। भारती भाटिया (रेखा) का सारा समय अपने परिवार की देखभाल में गुजरता है। पति (रणधीर कपूर) अपने बिजनेस में व्यस्त है। बेटा, बेटी और बहू अपने कामों में व्यस्त हैं। भारती अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाती है इसके बावजूद उसकी हैसियत घर वालों की नजर में डोर-मेट से ज्यादा नहीं है। कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब मन अपनी नानी भारती भाटिया से मिलने आता है। वह भारती का हुलिया बदल देता है और उसके कुछ फोटो उतारकर एड एजेंसी में वितरित करता है। देखते ही देखते भारती प्रसिद्ध हो जाती है। गुजराती नाटक 'बा ऐ मारी बाउंड्री' से प्रेरित 'सुपर नानी' में ऐसा कुछ भी नहीं है जो देखा या सुना न गया हो। इस तरह की ढेर सारी फिल्में बनी हैं। फिल्म में रेखा को अबला नारी दिखाने के चक्कर में अन्य किरदारों को बेवजह विलेन बनाने की कोशिश की गई है। रेखा के प्रति सभी का व्यवहार ऐसा क्यों है इस बारे में कुछ खास नहीं बताया गया है। इंद्र कुमार का सारा ध्यान इस बात पर रहा है कि हर सीन आंसू बहाऊ हो। ज्यादा से ज्यादा रोना-धोना हो। स्क्रीन पर किरदार रोते रहते हैं और दर्शक बेचारे इसलिए आंसू बहाते हैं कि क्यों उन्होंने इस फिल्म को देखने का निर्णय लिया। बैकग्राउंड म्युजिक बहुत ज्यादा लाउड है। संवाद में बहुत ज्यादा ज्ञान बांटा गया है। रेखा ने अपने अभिनय से फिल्म में जान डालने की कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बन पाई। रणधीर कपूर, शरमन जोशी सहित अन्य कलाकार औसत हैं। कुल मिलाकर सुपर नानी निराश करती है। बैनर : मारुति इंटरनेशनल निर्माता : इंद्र कुमार, अशोक ठकेरिया निर्देशक : इंद्र कुमार संगीत : हर्षित सक्सेना, संजीव दर्शन कलाकार : रेखा, शरमन जोशी, श्वेता कुमार, रणधीर कपूर, अनुपम खेर * 2 घंटे 13 मिनट
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बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है जब कलाकार, स्क्रिप्ट और निर्देशन के स्तर से ऊंचे उठ कर फिल्म को देखने लायक बना देते हैं। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर ये कमाल फिल्म '102 नॉट आउट' में कर दिखाते है। पुरानी शराब की तरह इन दोनों के अभिनय में उम्र बढ़ने के साथ-साथ और निखार आता जा रहा है। फिल्म की कहानी साधारण है, लेकिन जो बात उसे अनोखी बनाती है वो हैं इसके किरदार- 102 वर्ष का दत्तात्रय वखारिया (अमिताभ बच्चन) बाप है और उसका 75 वर्षीय बेटा बाबूलाल (ऋषि कपूर), शायद ही पहले ऐसे किरदार हिंदी फिल्म में देखे गए हों। पिता तो कूल है, लेकिन बेटा ओल्ड स्कूल है। बाबूलाल ने बुढ़ापा ओढ़ लिया है और गुमसुम, निराश रहता है। दूसरी ओर दत्तात्रय जिंदगी के हर क्षण का भरपूर मजा लेता है। वह बाबूलाल को सुधारने के लिए एक अनोखा प्लान बनाता है। कथा, पटकथा और संवाद सौम्या जोशी के हैं। बाबूलाल को सुधारने वाले प्लान में कल्पना का अभाव नजर आता है और सब कुछ बड़ी ही आसानी से हो जाता है। यह कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी है, लेकिन कुछ अच्छे सीन और कलाकारों का अभिनय फिल्म को डूबने से लगातार बचाते रहते हैं। निर्देशक उमेश शुक्ला ने बेहद सरल तरीके से कहानी को फिल्माया है। उन्होंने कुछ विशेष करने की कोशिश भी नहीं की है। लेखक की तरह उनका काम भी इसलिए आसान हो गया कि दो बेहतरीन कलाकार का साथ उन्हें मिला। अमिताभ और ऋषि के अभिनय में दर्शक इतने सम्मोहित हो जाते हैं कि खामियों की ओर उनका ध्यान जाता नहीं है। वैसे इस बात के लिए उमेश की तारीफ की जा सकती है कि दो वृद्ध अभिनेताओं को लीड रोल देने का जोखिम उन्होंने उठाया है। दत्तात्रय वखारिया के रूप में अमिताभ बच्चन का अभिनय जबरदस्त है। 102 उम्र के जिंदादिल और 'युवा' वृद्ध के रूप में उन्होंने जान फूंक दी। गुजराती एक्सेंट में उनकी हिंदी सुनते ही बनती है। उन्होंने अपनी संवाद अदायगी में भी खासा बदलाव किया है। बाबूलाल की पत्नी की मृत्यु वाला किस्सा जब वे सुनाते हैं तो उनका अभिनय देखते ही बनता है। ऋषि कपूर भी अभिनय के मामले में अमिताभ से कम नहीं रहे। उन्हें संवाद कम मिले और उनका किरदार एक 'दबा' हुआ व्यक्ति है, लेकिन एक निराश बूढ़े से हंसमुख 'युवा' में आने वाले परिवर्तन को उन्होंने अपने अभिनय से बखूबी दर्शाया है। इन दो दिग्गज कलाकारों के बीच जिमीत त्रिवेदी अपनी जगह बनाने में सफल रहे हैं। बैनर : बेंचमार्क पिक्चर्स, ट्रीटॉप एंटरटेनमेंट, सोनी पिक्चर्स निर्माता-निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : सलीम मर्चेण्ट, सुलेमान मर्चेण्ट कलाकार : अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी
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डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा अमूमन जाने-पहचाने स्टार्स को लेकर फिल्में बनाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने करीब 40 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म में 2 नए कलाकारों को लॉन्च किया है। 'मिर्ज्या' से अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर अपने करियर की शुरुआत कर रहे हैं, तो वहीं उनके ऑपजिट सैयामी खेर की भी यह पहली फिल्म है। फिल्म सदियों पुरानी प्रेम कहानी पर आधारित है। राकेश अगर चाहते तो इस सीधी-सादी कहानी पर एक रोमांटिक और म्यूजिकल लव स्टोरी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे पर्दे पर पेश करते हुए कई प्रयोग किए, जो 'मिर्ज्या' के सबसे बड़े माइनस पॉइंट बनकर रह गए। हालांकि, जबर्दस्त लोकेशन के अलावा कमाल की फटॉग्रफी इस फिल्म की यूएसपी है। कहानी: स्कूल में मुनीश (हर्षवर्धन कपूर) और सूची (सैयामी) साथ पढ़ते हैं। दोनों बेहद अच्छे दोस्त हैं। स्कूल का एक टीचर सूची की गलती पर उसकी पिटाई करता है। मुनीश को यह बात इतनी नागवार गुजरती है कि वह सूची के पुलिस अधिकारी रहे पापा की रिवॉल्वर चुराकर टीचर की हत्या कर देता है। मुनीश को बाल सुधार गृह में सजा काटने के लिए भेजा जाता है। इस बीच सूची के पिता उसे आगे की स्टडी के लिए विदेश भेज देते हैं। इधर मुनीश बाल सुधार गृह से भागने में कामयाब हो जाता है और लुहारों की बस्ती में जा पहुंचता है। इसी बस्ती में रहकर वह आदिल के नाम से बड़ा होता है। सूची विदेश से पढ़कर लौटती है। उसकी शादी प्रिंस करण (अनुज चौधरी) से तय हो जाती है। मुनीश अपनी असलियत सूची को नहीं बताता, लेकिन सूची को पता चल जाता है। प्रिंस चाहता है कि आदिल उसकी होने वाली राजकुमारी को घुड़सवारी सिखाए। सूची आदिल से घुड़सवारी सीखती है और दोनों एक-दूसरे के करीब आते हैं। ऐक्टिंग: अपनी पहली फिल्म के लिहाज से दोनों लीड कलाकारों- हर्षवर्धन कपूर और सैयामी ने अच्छी मेहनत की है। अक्सर स्टार्स के बेटे बॉलिवुड में अपनी एंट्री के लिए बॉक्स आफिस पर भीड़ बटोरने वाली फिल्म चुनते हैं, लेकिन हर्षवर्धन की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक चैलेंजिंग किरदार के साथ अपने करियर की शुरुआत की। सूची के रोल में सैयामी जंची हैं, लेकिन उनकी डायलॉग डिलिवरी में अभी दम नहीं है। प्रिंस के रोल में अनुज चौधरी फिट रहे तो ओम पुरी ने अपने रोल को बस निभा भर दिया। डायरेक्शन: राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने शायद पहले से सोच लिया था कि इस कहानी को वह एक आर्ट फिल्म की तरह पेश करेंगे। कहानी की रफ्तार बेहद सुस्त है, लेकिन फिल्म का कैनवस भव्य है। राजस्थान और लेह-लद्दाख की आउटडोर लोकेशन के दृश्य बेहतरीन हैं। अगर राकेश लोकेशन और सिनेमटॉग्रफी को बेहतर बनाने के साथ-साथ फिल्म की स्क्रिप्ट पर भी कुछ और मेहनत करते तो शायद यह फिल्म युवा दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरती। संगीत: संगीत इस फिल्म का मजबूत पक्ष है। भले ही गानों की भरमार है, लेकिन इन्हें कहानी के साथ जोड़कर पेश करने की अच्छी कोशिश की गई है। शंकर-एहसान-लॉय की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और माहौल के मुताबिक फिल्म में संगीत दिया। क्यों देखें: बेहतरीन फोटॉग्रफी और लोकेशन इस फिल्म को देखने की कुछ वजहें हो सकती हैं। वहीं कमजोर स्क्रिप्ट, फिल्म की सुस्त रफ्तार के अलावा सदियों पुरानी एक प्रेम कहानी को नए प्रयोग के साथ परोसना बॉक्स ऑफिस पर इसके बिजनस पर असर डालेगा।
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बैनर : एसएलबी फिल्म्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशन व संगीत : संजय लीला भंसाली कलाकार : रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, आदित्य रॉय कपूर, मोनिकांगना दत्ता, शेरनाज पटेल, नफीस अली, रजत कपूर ‘हूज लाइफ इज इट एनीवे’ और ‘द सी इनसाइड’ से प्रेरित संजय लीला भसाली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गुजारिश’ एथेन मैस्केरेहास (रितिक रोशन) नामक जादूगर की कहानी है जो क्वाड्रोप्लेजिया नामक बीमारी की वजह से पिछले चौदह वर्षों से बिस्तर पर अपनी जिंदगी गुजार रहा है। बिना किसी की मदद के वह हिल-डुल भी नहीं सकता। नाक पर बैठी मक्खी भी नहीं उड़ा सकता। एक रेडियो शो होस्ट कर सुनने वालों के मन में वह जिंदगी में वह आशा और विश्वास जगाता है। जिंदगी को जिंदादिली से जीता है, लेकिन चौदह वर्ष की परेशानी के बाद अदालत से ‘इच्छा मृत्यु’ की माँग करता है। अपनी जिंदगी से निराश एक आदमी के दर्द को संजय लीला भंसाली ने बहुत ही खूबसूरती से सेल्यूलाइड पर उतारा है। फिल्म शुरू होते ही आप एथेन की दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं। उसके दर्द और असहाय स्थिति महसूस करने लगते हैं। उसकी हालत देख समझ में आता है कि मैदान पर फुटबॉल खेलना या अपने पैरों पर चलना कितनी बड़ी बात है। साथ ही फिल्म देखते समय इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने की कोशिश करते हैं कि उसे इच्छा मृत्यु की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं? मर्सी किलिंग वाली कहानी के साथ-साथ एथेन और सोफिया (ऐश्वर्या राय) की खूबसूरत-सी प्रेम कहानी भी चलती है। ऐसी मोहब्बत जो सेक्स से ऊपर है। बिना कुछ कहे सुने उनकी खामोशी ही सब कुछ बयाँ कर देती है। फिल्म का विषय भले ही गंभीर है, लेकिन भंसाली ने फिल्म को ‍बोझिल नहीं बनने दिया है। वे भव्यता को हमेशा से महत्व देते आए हैं। ‘गुजारिश’ की हर फ्रेम खूबसूरत पेंटिंग की तरह नजर आती है। लाइड, शेड और कलर स्कीम का बेहतरीन नमूना देखने को मिलता है। लेकिन भंसाली की यही भव्यता कई बार कहानी पर भारी पड़ती है। मसलन एक बड़ी-सी हवेली में रहने वाला, चौदह वर्ष से बीमार, जिसके घर में कई नौकर है, आखिर खर्चा कैसे चला रहा है? जबकि फिल्म में दिखाया गया है कि उसकी आर्थिक हालत बेहद खराब है। फिल्म में मर्सी किलिंग की बात जरूर की गई है, लेकिन यह मुद्दा फिल्म में ठीक से नहीं उठाया गया है। इसको लेकर अदालत में जो बहस दिखाई गई है, वो उतनी प्रभावशाली नहीं बन प ाई है। इन कमियों के बावजूद फिल्म बाँधकर जरूर रखती है। कई दृश्य दिल को छू जाते हैं। छत से टपकती बूँदों से अपने को बचाने की कोशिश करता एथेन, एथेन का सोफिया के साथ सेक्स करने की कल्पना करना और सोफिया द्वारा उसका उत्तर देना, 12 वर्ष बाद एथेन का घर से बाहर निकलकर दुनिया देखने वाले दृश्य और फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन बन पड़े हैं। अभिनय इस फिल्म सशक्त पहलू है। रितिक को सिर्फ चेहरे से ही अभिनय करना था और कहा जा सकता है कि ‘गुजारिश’ उनके बेतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। एक ही एक्सप्रेशन में उन्होंने खुशी और गम को एक साथ पेश किया है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ ऐश्वर्या राय खूबसूरत होती जा रही हैं। अपने कैरेक्टर में पूरी तरह डूबी नजर आईं। मोनीकंगना ने इस फिल्म से अपना करियर शुरू किया है, लेकिन उन्हें बहुत कम फुटेज मिला है। शेरनाज पटेल, आदित्य राय कपूर, सुहेल सेठ, नफीसा अली ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं से न्याय किया है। रजत कपूर ने ओवर एक्टिंग की है। पहली बार भंसाली की फिल्म का संगीत कमजोर है। गाने अच्छे लिखे गए हैं, लेकिन उनके साथ न्याय करने वाली धुनें भंसाली नहीं बना पाए। ‘उड़ी’ और ‘जिक्र है’ ही पसंद आने योग्य है। ‘उड़ी’ गाने को बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक पर बहुत मेहनत की गई है। सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी ने फिल्म को दर्शनीय बनाया है। फूहड़ फिल्मों के दौर में ‘गुजारिश’ जैसी फिल्में राहत प्रदान करती हैं।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के लीड किरदार में नजर आ रहे अरविंद स्वामी ने 90 के दशक में 'रोजा' और 'बॉम्बे' जैसी सुपरहिट फिल्मों से पहचान बनाई। बॉक्स आफिस पर इन दोनों फिल्मों ने कामयाबी हासिल की तो वहीं अरविंद ने भी इन फिल्मों में अपने किरदार से खुद को बेहतरीन कलाकार साबित किया। चर्चा है, अरविंद साउथ के जानेमाने डायरेक्टर मणिरत्नम के खास चहेते स्टार्स में शामिल हैं और यही वजह है कि अब जब लंबे अर्से बाद उन्होंने कैमरे को दोबारा सामना किया तो इस बार भी उन्होंने मणिरत्नम की फिल्म 'कादल' के साथ। करीब तीन साल पहले अरविंद ने सिल्वर स्क्रीन पर 'कादल' के साथ वापसी की और उनकी यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर हिट साबित रही। सुनते हैं, इस फिल्म के डायरेक्टर तनुज भ्रमर अपनी इस फिल्म में लीड किरदार में सिर्फ अरविंद को ही लेना चाहते थे, यही वजह रही कि इस फिल्म को बनाने के लिए उन्हें कुछ इंतजार भी करना पड़ा। बता दें कि डायरेक्टर तनुज भ्रमर की बेशक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पहचान न हो, लेकिन तनुज ने विदेश में अलग-अलग तरह के कई प्रॉजेक्ट पर काम किया और अपनी खास पहचान बनाई, अब जब तनुज अपनी पहली हिंदी फिल्म के साथ दर्शकों के सामने हाजिर हैं तो इस फिल्म का बेशक बॉक्स ऑफिस या ट्रेड में क्रेज़ नजर न आए, लेकिन लीक से हटकर कुछ नया देखने वाली क्लास को इस फिल्म का इंतजार है तो इसकी कुछ वजह अरविंद स्वामी की हिंदी फिल्मों में वापसी भी है, बेशक तनुज ने अपनी पहली हिंदी फिल्म के लिए एक अलग सब्जेक्ट चुना है। 'डियर डैड' का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें। कहानी : नितिन स्वामीनाथन (अरविन्द स्वामी) की फैमिली हर एंगल से एक हैप्पी फैमिली नजर आती है। दिल्ली की पॉश कॉलोनी में नितिन का आलीशान बंगला है। नितिन अपनी खूबसूरत वाइफ और अपने बेटे शिवम (हिमांशु शर्मा) और छोटी बेटी के रहता है। शिवम एक नामी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा है, फिलहाल शिवम अपनी फैमिली के साथ छुटिट्यां मनाने दिल्ली आया हुआ है। अब जब शिवम अपने दोस्तों के साथ वापसी कर रहा है तो नितिन चाहता है कि वह अपनी कार से शिवम को छोड़ने जाए, वहीं शिवम अपने दोस्तों के साथ ही जाना चाहता है लेकिन नितिन जब उसे कहता है कि रास्ते में उसे कुछ बेहद जरूरी बातचीत करनी है तो शिवम न चाहते हुए भी डैडी की कार में जाने को राजी हो जाता है। दिल्ली से शुरू हुई इस रोड जर्नी के दौरान नितिन जब शिवम को बताता है कि वह गे है और जल्दी ही अपनी फैमिली से अलग होने वाला है तो शिवम को अपने डैडी से नफरत हो जाती है। कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब शिवम का बेस्ट फ्रेंड उसे बताता है कि गे होना एक बीमारी है और इसका इलाज किया जा सकता है तो शिवम अपने डैडी की इस बीमारी का इलाज कराने के लिए एक बंगाली बाबा के पास जाता है। ऐक्टिंग : लंबे अरसे बाद अरविंद स्वामी ने सिल्वर स्क्रीन पर वापसी की है। अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से अरविंद ने एक बार फिर खुद को ऐसा बेहतरीन कलाकार साबित किया जो हर किरदार को आसानी से निभा सकता है। शिवम के किरदार में हिमांशु शर्मा परफेक्ट हैं, फिल्म के कई सीन में हिमांशु ने बेहतरीन परफोर्मेंस की है। निर्देशन : तनुज ने एक बेहद सिंपल कहानी को एक रोड ट्रिप का प्लॉट बनाकर पेश किया है। तनुज ने एक पिता और बेटे के बीच बनते बिगड़ते रिश्तों को बॉक्स ऑफिस की परवाह किए बना सादगी से पेश किया है। यकीनन तनुज की इस स्क्रिप्ट में नयापन है, लेकिन डेढ घंटे की इस कहानी को उन्होंने इतनी धीमी रफ्तार से पर्दे पर उतारा है कि दर्शक किरदारों के साथ बंध नहीं पाता। फिल्म की फटॉग्रफ़ी का जवाब नहीं। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी की डिमांड के मुताबिक है। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं तो एकबार देख सकते हैं।
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बैनर : बीजीवी फिल्म्स निर्माता : विक्रम भट्ट निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री संगीत : हर्षित सक्सेना कलाकार : गुलशन देवैया, पाउली दाम, निखिल द्विवेदी, मोहन कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * अवधि : 2 घंटे 18 मिनट विक्रम भट्ट अब तक हॉरर बेचते थे, अब उन्होंने सेक्स का सहारा लिया है। हेट स्टोरी की कहानी यही सोच कर लिखी गई है कि इसमें ज्यादा से ज्यादा सेक्स सीन हो। सेंसर बोर्ड ने कुछ काट दिए और कुछ दृश्यों को कम कर दिया। हेट स्टोरी एक रिवेंज ड्रामा है, जिसमें फिल्म की हीरोइन अपना बदला लेने के लिए अपने जिस्म का इस्तेमाल करती है। काव्या (पाउली दाम) एक पत्रकार है जो एक सीमेंट कंपनी के खिलाफ लेख लिखती है, जिससे उस कंपनी की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान पहुंचता है। उस कंपनी के मालिक का बेटा सिद्धार्थ (गुलशन देवैया) इसका बदला लेने के लिए काव्या को अपने प्रेम जाल में फंसाता है। दोनों सारी हदें पार कर जाते हैं। इसके बाद सिद्धार्थ उसे छोड़ देता है क्योंकि उसने अपना बदला ले लिया है। काव्या प्रेग्नेंट हो जाती है और यह बात सिद्धार्थ को बताती है ताकि उसकी आधी जायदाद पाकर वह बदला ले सके। सिद्धार्थ न केवल उसका बच्चा कोख में ही मार देता है बल्कि काव्या की ऐसी हालत कर देता है कि वह कभी मां नहीं बन पाए। इसके बाद काव्या अपने जिस्म का इस्तेमाल करती है। सिद्धार्थ की कंपनी के ऊंचे अफसरों के साथ सोती है ताकि उनसे कंपनी के राज मालूम कर सकें। नेताओं के साथ बिस्तर शेयर कर ऊंचा पद हासिल करती है और अंत में सिद्धार्थ की कंपनी को खत्म कर देती है। फिल्म को इरोटिक थ्रिलर कहा जा रहा है, लेकिन फिल्म में कहीं भी थ्रिल नजर नहीं आता है। सारे किरदार आला दर्जे के बेवकूफ हैं। काव्या ने जिस कंपनी के खिलाफ लेख लिखा है उसी कंपनी के भ्रष्ट मालिक सिद्धार्थ को वह एक ही मुलाकात के बाद अपना दिल कैसे दे देती है? साथ ही वह उसकी कंपनी में नौकरी करने लगती है। सिद्धार्थ भी इतना बड़ा बेवकूफ है कि काव्या से बदला लेने के लिए उसके साथ संबंध बनाता है और सावधानी नहीं बरतता। उसे प्रेग्नेंट कर देता है। काव्या यह बात बताने उसके घर पहुंच जाती है ये जानते हुए ‍भी कि वह खतरनाक इंसान है। कुछ भी कर सकता है। काव्या के सेक्स जाल में नेता और अफसर इतनी आसान फंसते हैं और राज उगलते हैं कि हैरत होती है क्या हजारों करोड़ों रुपयों की बात करने वाले ये लोग इतने मूर्ख हैं। बदले की कहानी का जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है वो बेहद घटिया और सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है। स्क्रीनप्ले की तरह निर्देशन भी कमजोर है। विवेक अग्निहोत्री अपने प्रस्तुतिकरण में वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाए कि दर्शक काव्या की बदले की आग की आंच को महसूस कर सके। फिल्म की गति भी उन्होंने जरूरत से ज्यादा तेज रखी है जिससे फिल्म विश्वसनीय नजर नहीं आती। पाउली दाम अभिनय के मामले में कमजोर हैं, लेकिन बोल्ड सीन उन्होंने बिंदास तरीके से किए हैं। गुलशन देवैया का अभिनय औसत दर्जे का है और हकलाते समय उन्होंने ओवर एक्टिंग की है। निखिल द्विवेदी का किरदार नहीं भी होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। फिल्म को रिच लुक देने की कोशिश की गई है, लेकिन सी-ग्रेड कहानी, घटिया स्क्रीनप्ले, कमजोर निर्देशन और एक्टिंग की वजह से ‘हेट स्टोरी’ हेट करने के लायक ही है।
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तमंचे फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही समझ में आ जाता है आने वाले चंद घंटे बुरे गुजरने वाले हैं और 'तमंचे' कभी भी इस बात को झुठलाती नजर नहीं आती। कुछ दिनों पहले 'देसी कट्टे' नामक फिल्म रिलीज हुई थी, जिसमें एक ताकतवर गुंडे की रखैल पर एक छोटे-मोटे अपराधी का दिल आ जाता है, यही कहानी 'तमंचे' की है। फिल्म का नाम भी मिलता-जुलता है। 'तमंचे' से एक एक्शन फिल्म होने का आभास होता है, लेकिन मूलत: आपराधिक पृष्ठभूमि लिए यह एक प्रेम कहानी है। बाबू (रिचा चड्ढा) और मुन्ना (निखिल द्विवेदी) अपराध जगत से जुड़े हैं। पुलिस वैन में बैठे हुए हैं। कोई जान-पहचान नहीं है। वैन दुर्घटनाग्रस्त होती है। बाबू और मुन्ना भाग निकलते हैं। एक-दूसरे के साथ वे क्यों रहते हैं, ये समझ से परे है। कुछ बकवास से कारण भी बताए गए हैं जो निहायत ही बेहूदा है। निर्देशक और लेखक पूरी कोशिश करते हैं कि दोनों के बीच रोमांस पैदा हो, लेकिन जो परिस्थितियां पैदा की गई है वो बचकानी हैं। रेल के डिब्बे में दोनों सारी हदें भी पार कर देते हैं, लेकिन दर्शकों को तब भी यकीन ही नहीं होता कि दोनों में प्यार जैसा कुछ है। बताया जा रहा है इसलिए मानना पड़ता है कि फिल्म का हीरो और हीरोइन 'लैला-मजनू' से कम नहीं हैं। कहानी की बात न ही की जाए तो बेहतर है। जो सूझता गया वो लिखते गए। न कोई ओर न कोई छोर। परदे पर अजीबोगरीब घटनाक्रम घटते रहते हैं। बैंकों को ऐसे लूटा जाता है मानो बच्चे के हाथ से खिलौना छिनना हो। एक्शन घिसा-पिटा है। हीरो-हीरोइन टमाटरों के बीच और बैंक के लॉकर रूम में रोमांस करते हैं, लेकिन झपकी ले रहे है दर्शक को नींद से नहीं जगा पाते। गाना कभी भी टपक पड़ता है। हीरो अपराध जगत में क्यों है इसका कोई जवाब नहीं है। फिल्म का निर्देशन नवनीत बहल ने किया है। उन्हें शायद पता नहीं हो कि कुछ शॉट्स अच्छे से फिल्मा लेना ही निर्देशन नहीं होता। लोकल फ्लेवर डालने के हर तरह की भाषा अपने किरदारों से बुलवाई गई है। यूपी/बिहार के देहातों के लहजे में हीरो ने हिंदी बोली है तो हीरोइन की हिंदी दिल्ली वाली है, विलेन हरियाणा के ताऊ जैसा बोलता है, लेकिन इससे फिल्म की कहानी या प्रस्तुतिकरण पर असर नहीं पड़ता। रिचा चड्ढा एकमात्र ऐसी कलाकार रहीं जिन्होंने अपना काम गंभीरता से किया है, लेकिन 'तमंचे' जैसी फुस्सी फिल्म में हीरोइन बनने के बजाय 'गोलियों की रासलीला- रामलीला' में छोटा रोल करना ज्यादा बेहतर है। निखिल द्विवेदी ने जमकर बोर किया है। दमनदीप सिंह औसत रहे हैं। यह 'तमंचा' जंग लगा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं है। बैनर : फैशनटीवी फिल्म्स, ए वाइल्ड एलिफेन्ट्स मोशन पिक्चर्स निर्माता : सूर्यवीर सिंह भुल्लर निर्देशक : नवनीत बहल संगीत : कृष्णा कलाकार : निखिल द्विवेदी, रिचा चड्ढा, दमनदीप सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 53 मिनट 37 सेकंड
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com हिमेश रेशमिया के आलोचक बतौर ऐक्टर भले ही उनकी जमकर आलोचना करते रहे हों, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बतौर सोलो ऐक्टर उनकी पिछली फिल्म 'द एक्सपोज' ने बॉक्स ऑफिस पर न सिर्फ अपनी लागत बटोरी, बल्कि अच्छा-खासा मुनाफा भी कमाया। वैसे हिमेश ने इससे पहले 'खिलाड़ी 786' जैसी हिट फिल्म में ऐक्टिंग की है, लेकिन उस फिल्म की कामयाबी का सारा क्रेडिट अक्षय कुमार के नाम गया। हिमेश को ऐसा भी दौर देखना पड़ा जब प्रॉडक्शन कंपनी ने उनकी फिल्म 'कजरारे' को कम्प्लीट होने के बाद सिनेमा घरों पर यह कहकर रिलीज करने से इनकार कर दिया कि मार्केट और बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म का जरा भी क्रेज नहीं है। खैर, किसी तरह रस्म अदायगी के तौर पर वह फिल्म मुंबई के इक्का-दुक्का सिनेमा हॉल में रिलीज की गई। ​लेकिन हिमेश की ऐक्टिंग पर उंगलियां उठाने वाले भी इस बात को मानते हैं कि बतौर म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर वह बेहतरीन हैं। यह दिलचस्प है कि हिमेश की पिछली तीन फिल्मों 'आपका सुरूर', 'कर्ज' और 'रेडियो' ने बॉक्स ऑफिस से कहीं ज्यादा कमाई इस फिल्म के म्यूजिक राइट्स से की। हिमेश 'सुरूर' टाइटल को अपने लिए लकी मानते हैं। इस टाइटल पर बनी उनकी म्यूजिक ऐल्बम सुपरहिट रही है, ऐसे में हिमेश की इस नई फिल्म का म्यूजिक लवर्स में कुछ क्रेज तो जरूर है। कहानी : रघु (हिमेश रेशमिया) के सिर से पिता का साया बचपन में ही छिन चुका है। अपनी बीमार मां का इलाज कराने के लिए उसे दस हजार रुपये चाहिए। रघु को एंथनी दस हजार रुपये इस शर्त पर देता है कि वह एक ड्रग डीलर की हत्या करेगा। रघु ऐसा ही करता है, लेकिन अपनी बीमार मां को नहीं बचा पाता। अब वह जवान हो चुका है और अच्छी-खासी कमाई कर रहा है। रघु को तारा (फराह करीमी) से बेइंतहा मोहब्बत है। रघु अब एक नामी गैंगस्टर बन चुका है, जबकि तारा की नजरों में वह बिज़नसमैन है। रघु तारा से कुछ भी छिपाना नहीं चाहता, लेकिन एक दिन जब वह तारा को बताता है कि उसने एक रात किसी दूसरी लड़की के साथ गुजारी है तो तारा इसे बर्दाश्त नहीं कर पाती और आयरलैंड के शहर डबलिन चली जाती है। डबलिन जाते ही तारा को वहां की पुलिस ड्रग्स तस्करी के आरोप में जेल भेज देती है। अब अपने प्यार को बचाने की खातिर रघु भी डबलिन पहुंच जाता है। यहां आने के बाद रघु का एक ही मकसद है, अपने साथ तारा को किसी तरह वापस लेकर जाना। ऐक्टिंग : हिमेश ने पहली बार इंडस्ट्री के दिग्गजों शेखर कपूर, कबीर बेदी और नसीरुद्दीन शाह के साथ कैमरा फेस किया है। यह जरूर है कि ऐक्टिंग की फील्ड में हिमेश को अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना होगा। इस फिल्म में हिमेश ने भी कई सीन्स में शर्ट उतारे हैं, लेकिन इसकी तुलना सलमान के साथ करना बेईमानी होगा। पहली बार कैमरा फेस कर रही इंटरनैशनल मॉडल फराह करीमी ने किरदार के मुताबिक अच्छा काम किया है। वहीं इंडस्ट्री के तीन दिग्गजों की मौजूदगी ऐक्टिंग के लिहाज से प्लस पॉइंट है। डायरेक्शन : शॉन अरान्हा के कमजोर निर्देशन को फिल्म की शानदार सिनेमटोग्रफ़ी के साथ-साथ बेहतरीन गानों ने काफी हद तक संभाल लिया है। हर पांच-दस मिनट में स्क्रीन पर एक गाना या किसी गाने का अंतरा आता है, लेकिन फिल्म की रफ्तार इतनी सुस्त है कि पौने दो घंटे की फिल्म में दर्शक कहानी से खुद को कहीं बांध नहीं पाते। इंडस्ट्री के दिग्गज अभिनेताओं नसीरुद्दीन शाह, शेखर कपूर और कबीर बेदी की मौजूदगी को निर्देशक ढंग से पेश नहीं कर पाए, तो वहीं इन तीनों का किरदार भी थमा-थमा सा लगता है। इंटरवल के बाद हालांकि कहानी थोड़ी ट्रैक पकड़ती लगती है, लेकिन कुछ ही पल बाद स्क्रीन पर 'द एंड' लिखा नजर आ जाता है। संगीत : हिमेश का म्यूजिक इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है। टाइटल सॉन्ग 'तेरा सुरूर' बेहतरीन बन पड़ा है, वहीं फिल्म के दूसरे गाने भी रिलीज से पहले ही हिट हो चुके हैं, लेकिन इस बार म्यूजिक में 'आपका सुरूर' जैसा जलवा तो नहीं है। क्यों देखें : अगर आपको आयरलैंड की खूबसरती देखनी है और आप बतौर म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर हिमेश रेशमिया के फैन हैं तो अपसेट नहीं होंगे, लेकिन कुछ नया देखने या इस बार हिमेश की ऐक्टिंग में दम देखने की चाह में थिएटर जा रहे हैं, तो अपसेट हो सकते हैं।
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बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : करण जौहर, रॉनी स्क्रूवाला, हीरू जौहर निर्देशक : शकुन बत्रा संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, राम कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 52 मिनट * 15 रील ‘एक मैं और एक तू’ में करीना कपूर की ही हिट फिल्म ‘जब वी मेट’ को महसूस किया जा सकता है। उसमें भी बोरिंग किस्म का लड़का संयोग से जिंदगी के हर सेकंड का आनंद उठाने वाली लड़की के संपर्क में आता है। उससे जिंदगी जीने का अंदाज सीखता है और प्यार कर बैठता है। इसी से मिलती-जुलती स्टोरी ‘एक मैं और एक तू’ में भी देखने को मिलती है। हालांकि ‘एक मैं और एक तू’ में नई बात यह है कि हीरो-हीरोइन में शादी हो जाती है। दोनों शादी तोड़ने की कार्रवाई करते हैं और इस दौरान उनमें दोस्ती हो जाती है। राहुल (इमरान खान) और रिहाना (करीना कपूर) की परवरिश बिलकुल अलग माहौल में हुई है। राहुल अपने डैडी के सामने मुंह नहीं खोल पाता। टाई भी वो अपने पिता से पूछ कर पहनता है। मम्मी के कहने पर हर कौर 32 बार चबा कर खाता है। दिन में तीन बार ब्रश करता है और अंडरवियर भी इस्त्री कर पहनता है। माना कि इनमें से कुछ अच्छी आदते हैं, लेकिन उस पर बहुत ज्यादा मैनर्स लाद दिए गए हैं जिनका वजन ढोते-ढोते वह परेशान हो गया है। वह 25 वर्ष का हो गया है, लेकिन उसके पैरेंट्सं अभी भी उसे दस वर्ष का बच्चा मानते हैं। दूसरी ओर रिहाना अपनी मर्जी की मालकिन है। अपनी तरीके से लाइफ एंजॉय करती है। पैरेंट्स का किसी किस्म का उस पर प्रेशर नहीं है। रिहाना और उसके डैड के संबंध इतने खुले हुए हैं कि वे अपनी बेटी से पूछ लेते हैं कि जिस इंसान से उसने गलती से शादी कर ली है, उसके साथ वह सोई है या नहीं। लास वेगास में रहने वाले ये दोनों बंदे जॉबलेस हैं। क्रिसमस के पहले वाली रात में खूब शराब पी लेते हैं और नशे में वेडिंग चैपल जाकर शादी कर लेते हैं। लास वेगास में आप कभी भी और किसी भी हाल में शादी कर सकते हैं। सुबह नींद खुलती है तो गलती का अहसास होता है। वे अपनी शादी को रद्द (एनल्ड) करने के लिए दौड़ते हैं। इसमें कुछ दिन लगते हैं और इस दौरान दोनों की जिंदगी में कई बदलाव आते हैं। कहानी जानी-पहचानी लगती है, लेकिन शकुन बत्रा का निर्देशन इतना बढिया है कि फिल्म बांध कर रखती है। हल्के-फुल्के तरीके से उन्होंने बात कही है। कहीं भी इमोशनल या ड्रामेटिक सीन का ओवरडोज नहीं है। फिल्म के दोनों कैरेक्टर्स एक-दूसरे से जुदा है और शकुन ने डिटेल के साथ उन्हें पेश किया है। इमरान और करीना के स्वभाव को देख अंदाज लगाया जा सकता है कि उनकी परवरिश किस माहौल में हुई है। आमतौर पर इंटरवल के बाद वाले हिस्से में लव स्टोरीज पर आधारित फिल्में बिखर जाती हैं, लेकिन इस हिस्से को शकुन ने बहुत ही अच्छी तरह संभाला है। कहानी मुंबई शिफ्ट होती है और कुछ करीना के परिवार वाले कुछ उम्दा सीन देखने को मिलते हैं। अभिजात्य वर्ग के बनावटीपन को डिनर टेबल पर फिल्माए गए सीन के जरिये बखूबी पेश किया गया है, जिसमें इमरान का गुस्सा फूट पड़ता है। इमरान और करीना की प्यार को लेकर गलतफहमी वाला सीन और इमरान के पिता द्वारा उसको टाई पहनाने वाले दृश्य भी तारीफ के काबिल हैं। लड़के और लड़की के बीच दोस्ती और प्यार की लाइन बड़ी धुंधली होती है और इसके इर्दगिर्द फिल्म बनाना आसान नहीं है, लेकिन शकुन इसमें सफल रहे हैं और फिल्म का अंत भी ताजगी लिए हुए है। फिल्म में कनवर्सेशन (बातचीत) ज्यादा है और एक्शन कम, इसलिए स्क्रिप्ट और डायलॉग कसे हुए होना चाहिए। इसमें लेखक आयशा देवित्रे और शकुन बत्रा कामयाब रहे हैं क्योंकि इमरान और करीना की बातचीत सुनना अच्छा लगता है। संगीतकार अमित त्रिवेदी और गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य का उल्लेख भी जरूरी है। दोनों ने सुनने लायक और युवा संगीत दिया है। गानों को स्क्रिप्ट में ऐसे गूंथा गया है कि गानों के जरिये कहानी आगे बढ़ती रहती है। गुब्बारे, आंटीजी और एक मैं और एक तू जैसे गाने तो पहली बार सुनने में ही पसंद आ जाते हैं। फिल्म की लीड पेयर करीना कपू र और इमरान खा न की कैमिस्ट्री खूब जमी है। इसका सारा श्रेय उनकी एक्टिंग को जाता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ करीना न केवल सुंदर होती जा रही हैं बल्कि उनका अभिनय भी निखरता जा रहा है। रिहाना की जिंदादिली को उन्होंने जिया है और पूरी फिल्म में उनका अभिनय देखने लायक है। अभिनय के मामले में इमरान भी कम नहीं है। उनके किरदार की अपने पिता के सामने बोलती बंद हो जाती है और इन दृश्यों में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, राम कपूर सहित सारे कलाकारों ने अच्छा काम किया है। ‘एक मैं और एक तू’ स्वी ट रोमांटिक मूवी है। इस फिल्म को देख वेलेंटाइन वीक को बेहतर बनाया जा सकता है।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में अब अलग तरह की फिल्में बनने लगी है, अलग-अलग दमदार सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्में बनने लगी हैं जिन्हें कुछ वक्त पहले बनाने की मेकर सोच तक नहीं सकते थे। इस फिल्म के हीरो विकी कौशल की बात करें तो उनकी पहली फिल्म मसान की कहानी श्मशान घाट के आसपास घूमती है तो यह फिल्म पंजाब और संगीत से जुड़ी है। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies पंजाब और म्यूज़िक का खास रिश्ता है, यहां की वादियों में संगीत बसा है, फिल्म मेकर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्म बनाई जो उन दर्शकों की कसौटी पर यकीनन खरी उतरने का दम रखती है जो लीक से हटकर ऐसी फिल्में देखने के शौकीन हैं, जो इंडस्ट्री के टॉप मंहगे स्टार्स के साथ बनी चालू मसालों पर बनी फिल्मों की भीड़ से दूर ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो दमदार कहानी के दम पर उनके दिल को छूने का दम रखती है। प्रॉडक्शन कंपनी ने स्टोरी की डिमांड पर इस फिल्म को मुंबई के किसी स्टूडियो में सेट लगाकर शूट करने की बजाए पंजाब की रियल लोकेशन पर शूट किया। बॉक्स आफिस पर रिजल्ट की परवाह किए बिना फिल्म को उन्हीं कलाकारों के साथ बनाया जो किरदार की कसौटी पर सौ फीसदी फिट बैठते हैं। आज जब मीडिया में पंजाब की युवा पीढ़ी के नशे की और धीरे-धीरे अग्रसर होने की खबरें आ रही हैं तो ऐसे में वहां संगीत अपना सबसे महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है, इसी मेसेज को जुबान में एक अलग अंदाज में पेश करने की पहल की गई है। कहानी : दिलशेर सिंह (विकी कौशल) अपने पिता के साथ गुरदासपुर के एक गुरुद्वारे में जाकर गुरुबाणी और सबद गाता है। दिलशेर के पिता की सुनने की शक्ति अब धीरे धीरे कम होने लगी है, एक दिन ऐसा आता है जब उन्हें सुनाई देना बंद हो जाता है। संगीत से उनका रिश्ता खत्म हो जाता है, दिलशेर के पिता इस सदमे से हताश होकर अपनी जान दे देते हैं। दिलशेर का भी यहीं से संगीत के साथ रिश्ता खत्म हो जाता है। स्कूली दिनों में दिलशेर को जब स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स पीट रहे थे तो उस वक्त वहां मौजूद गुरुचरण सिकंद (मनीष चौधरी) उसकी मदद नहीं करता। दिलशेर जब पास पड़ा बड़ा सा पत्थर उठाकर उनका सामना करता है तो सभी भाग खड़े होते हैं। दिलशेर उस वक्त सिकंद से पूछता है कि उन्होंने उसकी मदद क्यों नहीं की? उस वक्त गुरुचरण उसे कहता है जो कुछ भी करना है खुद ही करना है, किसी के सहारे की आस रखोगे तो कुछ भी नहीं कर पाओगे, सो हमेशा खुद पर भरोसा करो। पिता की मौत के बाद दिलशेर अपने गांव से दिल्ली जाता है, जहां सिकंद की कई कंपनियों का मालिक बन चुका है। दिल्ली में दिलशेर का मकसद गुरदासपुर के लॉयन यानी सिकंद से मिलना है, क्योंकि दिलशेर भी सिकंद जैसा बनना चाहता है। एक दिन दिलशेर सिकंद तक पहुंचने में कामयाब होता है। दिलशेर जब सिकंद के पास पहुंचता है तो पाता है सिकंद अपनी वाइफ मंदिरा मेंडी (मेघना मलिक) और इकलौते बेटे सूर्या (राघव चानना) से बेइंतहा नफरत करता है। हर बात पर सिकंद बेटे सिकंद को नीचा दिखाना चाहता है, दिलशेर के आने के बाद सिकंद को लगता है मंदिरा और सूर्या दिलशेर से बेहद नफरत करते हैं, ऐसे में वह जानबूझकर दोनों को और जलाने के लिए दिलशेर को तवज्जो देना शुरू कर देता है। इसी बीच दिलशेर की मुलाकात सूर्या की गर्लफ्रेंड अमीरा (सारा जेन डयास) से होती है। हर वक्त म्यूजिक और अपनी बसाई एक अलग दुनिया में रहने वाली अमीरा दिलशेर को एहसास कराती है कि जब वह गाता है तो हकलाता नहीं है। बस यहीं से दिलशेर को लगता है कि उसकी मंजिल कुछ और ही है। ऐक्टिंग : पूरी फिल्म मनीष चौधरी और विकी कौशल के आसपास टिकी है। मसान के बाद एक बार फिर विकी कौशल ने इस फिल्म में अपने किरदार दिलशेर को स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है। कई सीन में विकी ने गजब का अभिनया किया है। लॉयन ऑफ गुरदासपुर, गुरुचरण सिकंद के रोल में मनीष चौधरी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। सारा जेन डयास के हिस्से में कुछ सीन और गाने ही आए है, जन्हें डयास ने बस निभा भर दिया। सिकंद की पत्नी के रोल में मेघना मलिक और इकलौते बेटे के रोल राघव चानना परफेक्ट रहे। संगीत : म्यूजिक फिल्म का प्लस है, बाबा बुल्ले शाह की बाणी का अच्छा प्रयोग किया गया है। फिल्म का एक गाना म्यूजिक इज माई लव, म्यूजिक इज माई होम जुगनू सा जले पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। निर्देशन : निर्देशक मोजेज सिंह ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। ग्लैमर इंडस्ट्री में बतौर डायरेक्टर अपनी पहचान बनाने में लगे मोजेज सिंह की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और किरदारों के साथ पूरा इंसाफ किया। अच्छी शुरुआत के बाद अचानक फिल्म की रफ्तार कुछ सुस्त हो जाती है, वहीं सिकंद के घर दिलशेर की एंट्री और उसके मकसद को निर्देशक सही ढंग से पेश नहीं कर पाए। वहीं उन्होंने फिल्म के सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर फिल्मों के शौकीन हैं तो जुबान एकबार देखी जा सकती है, विकी और मनीष चौधरी की गजब दमदार परफार्मेंस और मधुर संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है।
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कहानी: विद्या चौहान (रवीना टंडन) जो एक स्कूल टीचर हैं उनका और उनकी टीनएज बेटी टीया (अलीशा खान) का रेप होता है, उनके साथ मारपीट होती है और उन्हें बीच सड़क पर छोड़ दिया जाता है। इस घटना के बाद टीया की मौत हो जाती है जबकि विद्या बच जाती है। इस पूरे मामले की जांच में पुलिस जहां अपनी चप्पल घिस रही है वहीं, विद्या आरोपियों से खुद बदला लेने की ठानती है। ये कहानी दिल्ली शहर की है जिसे अक्सर भारत के रेप कैपिटल के तौर पर जाना जाता है। इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ आए दिन हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना है। इसलिए आप इस मकसद के लिए फिल्म की तारीफ कर सकते हैं। लेकिन फिल्म में इस जघन्य अपराध और इसके बाद होने वाली घटनाओं में जरूरत से ज्यादा ड्रामा दिखाया गया है। फिल्म शुरू होने के कुछ ही मिनटों बाद आप देखते हैं कि दोनों मां-बेटी सड़क पर एक गलत टर्न ले लेती हैं और अनजाने में अपूर्व मलिक (मधुर मित्तल) के घर पहुंच जाती हैं जो किसी राजनेता का जिद्दी बेटा है। पैसे और शराब के नशे में चूर अपूर्व और उसके दोस्तों का गैंग बेहद नृशंस तरीके से विद्या और टीया का रेप करते हैं। इस घटना को देखकर ऑडियंस को भी दुख होता है। इससे पहले की आप इस घटना से उबर पाएं विद्या और टीया को निर्भया वाली घटना की तरह कार से बाहर सड़क पर फेंक दिया जाता है। इस पूरी घटना का मकसद लोगों को उनकी नींद से जगाना है लेकिन बेहतर नतीजे पाने के लिए फिल्म के स्क्रीनप्ले और चरित्र चित्रण को और मजबूत बनाने की जरूरत थी। ऐसा नहीं होने की वजह से यह पूरी घटना एक ड्रिल की तरह लगती है। विद्या अस्पताल में भर्ती है लेकिन उसका असंवेदनशील पति अपनी बेटी की मौत का तो शोक मनाता है लेकिन पत्नी के साथ हुई घटना के बाद उसे तलाक देना चाहता है। इस दौरान विद्या की एक दोस्त रितू (दिव्या जगदाले) उसकी मदद करती है। फिल्म में पुलिसवालों का रोल भी घिसा पिटा है जो यह कहते हुए सुने जाते हैं- 'पीएम देश को शेप करने की बात कर रहे हैं और यह रेप की बात कर रही है।' इसके बाद विद्या अपने बैंडेज हटाकर ट्रेडमिल पर दौड़ना शुरू करती है ताकि वह अपने साथ हुई इस घटना का बदला ले सके। एक एक कर वह उन लोगों की हत्या की साजिश रचती है जिसने उसके साथ यह गलत हरकत की थी। चूंकि उसके साथ हुई यह घटना इतनी भयंकर थी कि शुरुआत में तो आप विद्या के साथ हमदर्दी जताते हैं लेकिन बाद में उसके द्वारा की जा रही हिंसा भी उतनी ही ज्यादा परेशान करने वाली बन जाती है। रवीना ने न्याय पाने के जुगत में लगी एक पीड़ित महिला के किरदार को बखूबी निभाया है। लेकिन फिल्म में जितना खून खराबा दिखाया गया है वह आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कि इसमें ज्यादा बुरा क्या था। वह रेप की घटना या फिर उस अपराध को अंजाम देने वाले दोषियों के साथ हुआ खून खराबा।
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सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाले आइडिए पर इतनी फिल्में बनी हैं कि अब इनमें नया दिखाने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया है। गब्बर इज बैक का भी यही विषय है। यह तमिल फिल्म रामना का रीमेक है जो आज से 13 वर्ष पहले बनी थी। गब्बर, फिल्म 'शोले' में विलेन था जिसका नाम सुनकर बच्चे सो जाते थे। 'गब्बर इज बैक' में नाम विलेन का है, पर काम हीरो वाला है। इस गब्बर से रिश्वत लेने वालों के हाथ कांपने लगते हैं और वे बिना पैसा खाए काम करने लगते हैं। हकीकत में ये संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह सुनने या पढ़ने में ये बातें अच्छी लगती हैं, इसी तरह स्क्रीन पर देखते समय भी अच्छी लगती हैं। आम आदमी जो काम कर नहीं पाता है वह हीरो को करते देख खुश हो जाता है। गब्बर इज बैक दर्शकों में यह भावना जगाने में सफल रही है। फिल्म महाराष्ट्र में सेट है। प्रदेश में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला है। पुलिस को समोसे खाने से फुरसत नहीं है। डॉक्टर्स मुर्दे का इलाज कर पैसा कमाने में लगे हुए हैं। नेता जन-सेवा का मतलब भूल गए हैं। अचानक गब्बर का नाम चारों ओर सुनाई देने लगता है। वह भ्रष्ट कर्मचारियों का किडनैप कर उन्हें अपने मुताबिक सजा देता है। जरूरत पड़े तो वह उनकी हत्या करने में भी नहीं हिचकता। फिल्म अपने पहले सीन से ही दर्शकों तैयार कर देती है कि वे किस तरह की फिल्म देखने वाले हैं जब महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों से दस तहसीलदारों का एक साथ अपहरण हो जाता है। गब्बर और उसके जैसी सोच रखने वाले लोग इस काम को अंजाम देते हैं। अफरा-तफरी मच जाती है। फिल्म की कहानी एआर मुरुगदास ने लिखी है। मूल कहानी के समानांतर कुछ ट्रेक चलते रहते हैं। जैसे आदित्य क्यों गब्बर बना? फिल्म में धीरे-धीरे इस राज को खोला गया। पुलिेस के आला ऑफिसर निकम्मे हैं, लेकिन पुलिस में ड्रायवर की नौकरी करने वाले साधु (सुनील ग्रोवर) अपनी बुद्धिमत्ता से गब्बर को ढूंढने की कोशिश करता है और बहुत नजदीक पहुंच जाता है। इस ट्रेक को मूल कहानी के साथ खूबसूरती से लपेटा गया है। फिल्म में दो दमदार किरदार दिग्विजय पाटिल (सुमन तलवार) और सीबीआई ऑफिसर कुलदीप पाहवा (जयदीप अहलावत) की एंट्री से नए उतार-चढ़ाव आते हैं। दिग्विजय से गब्बर को पुराना हिसाब चुकता करना है तो गब्बर को पकड़ने के लिए कुलदीप जाल बिछाता है। फिल्म अच्छाई बनाम बुराई के सरल ट्रेक पर चलती है। आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है, लेकिन निर्देशक कृष का प्रस्तुतिकरण फिल्म को बचा ले जाता है। उन्होंने फिल्म की गति तेज रखी है ताकि दर्शकों को सोचने का वक्त ‍कम मिले। साथ ही बीच-बीच में ताली पीटने और सीटी बजाने वाले सीन उन्होंने रखे हैं जिससे फिल्म न केवल फिल्म में रूचि बनी रहती है बल्कि मनोरंजन का डोज भी लगातार मिलता रहता है। गब्बर इज बैक के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें> अस्पताल में मुर्दे का इलाज कर पैसे लूटने का सीन गजब का है। रियल लाइफ में ऐसे कई किस्से हो चुके हैं इसलिए इसे फिल्मी कहकर टालना उचित नहीं रहेगा। थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर इसे पेश किया गया है बावजूद इसके इस प्रसंग को दर्शकों की तालियां मिलती हैं। अस्पताल और डॉक्टर्स की मिलीभगत की पोल यह प्रसंग खोलता है। इसी तरह दिग्विजय पाटिल को उसके घर से किडनैप करने वाला सीन भी बेहतरीन बन पड़ा है। फिल्म के आखिर में जब गब्बर को गिरफ्तार कर जेल ले जाया जाता है तब गब्बर के प्रशंसक पुलिस वैन को चारों ओर से घेर लेते हैं। गब्बर से पुलिस ऑफिसर कहता है कि वह अपने प्रशंसकों को रास्ता छोड़ने के लिए कहे। पुलिस वैन की छत पर चढ़ने के लिए वह अपनी हथेलियों को आगे करता है ताकि गब्बर ऊपर चढ़ सके। इस सीन के जरिये दिखाया गया है कि एक काबिल अफसर भी गब्बर के विचारों से सहमत है, लेकिन कानून का सेवक होने के कारण वह भी मजबूर है। यह छोटा-सा सीन कई बातें कह जाता है। खामियां भी कई हैं। गब्बर सब कुछ आसानी से कर लेता है। वह कहीं भी कभी भी पहुंच जाता है। भेष बदलना उसके लिए बाएं हाथ का खेल है। दिग्विजय पाटिल जैसे शक्तिशाली आदमी के घर वह ऐसे घुस जाता है जैसे खुद का घर हो। ताज्जुब की बात यह है कि दिग्विजय के घर एक भी आदमी नहीं रहता। गब्बर कैसे अपनी टीम खड़ी कर लेता है इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई जबकि इसके बारे में जानने के लिए उत्सुकता रहती है। श्रुति हासन का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। श्रुति और अक्षय के बीच का रोमांस निर्देशक और लेखक ने अधूरे मन से रखा है। अक्षय की उम्र तब अचानक बढ़ जाती है जब वे श्रुति के साथ होते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह यह लाउड है जिसमें गाने कहीं से भी टपक पकड़ते हैं। चूंकि मनोरंजन का पलड़ा खामियों के पलड़े से भारी है इसलिए फिल्म अच्छी लगती है। दाढ़ी अक्षय ने अमजद खान से उधार ली है और किरदार को अपने तरीके से निभाया है। चूंकि उनका किरदार लार्जर देन लाइफ है इसलिए लटके-झटकों के साथ दर्शकों को खुश करने वाला उन्होंने अभिनय किया है। 'सिस्टम बच्चों के डायपर जैसा हो गया है, कहीं से गीला और कहीं से ढीला' जैसे कुछ दमदार संवाद उन्होंने बोले हैं। श्रुति हासन खूबसूरत लगी, लेकिन उनके किरदार को फिल्म में बिलकुल महत्व नहीं दिया गया है। उनका अभिनय ठीक-ठाक है। 'गुत्थी' के रूप में मशहूर सुनील ग्रोवर ने गंभीर भूमिका बेहद कुशलता के साथ निभाई है। उनका किरदार फिल्म में दिचलस्पी पैदा करता है। विलेन के रूप में सुमन तलवार ठीक-ठाक रहे। दरअसल उनका किरदार ठीक से स्थापित नहीं किया गया और 'ब्रैंड' वाला संवाद बार-बार बोल उन्होंने दर्शकों को पकाया। सीबीआई ऑफिसर के रूप में जयदीप अहलावत प्रभावित करते हैं। कैमियो में करीना कपूर स्क्रीन को जगमगा देती हैं। चित्रांगदा सिंह को पता नहीं क्यों इस तरह के आइटम सांग करने पड़ रहे हैं? रजत अरोरा ने फिल्म के संवाद लिखे हैं, लेकिन ये अपेक्षा के अनुरूप दमदार नहीं हैं। अक्षय-करीना पर फिल्माया गया 'तेरी मेरी कहानी' ही सुनने लायक है। सिनेमाटोग्राफी खास नहीं है। संपादन ढीला है। कम से कम 15 मिनट फिल्म को छोटा किया जा सकता है। खासतौर में क्लाइमैक्स में की गई अक्षय की भाषणबाजी को संक्षिप्त करना अति आवश्यक है। गब्बर इज बैक दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह है जिसमें लाउड ड्रामा, धमाकेदार हीरो, भारी-भरकम डायलॉग्स, तेज बैकग्राउंड म्युजिक, धांसू फाइट सीन जैसे मसाले हैं जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, संजय लीला भंसाली, शबीना खान निर्देशक : कृष संगीत : चिरंतन भट्ट, हनी सिंह कलाकार : अक्षय कुमार, श्रुति हासन, सुनील ग्रोवर, सुमन तलवार, जयदीप अहलावत, मेहमान कलाकार - करीना कपूर, चित्रांगदा सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट
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करीब दो साल पहले डायरेक्टर श्रीजीत मुखर्जी के निर्देशन में बनी बांग्ला फिल्म राजकहिनी बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित रही। मीडिया में इस फिल्म को जबर्दस्त तारीफें मिली, वहीं फिल्म ने धमाकेदार बिज़नस भी किया। बांग्ला की यह फिल्म 70 के दशक में रिलीज़ हुई श्याम बेनेगल की फिल्म मंडी की याद दिलाती थी। उस वक्त श्रीजीत ने अपनी इस फिल्म में लीड किरदार के लिए विद्या बालन को अप्रोच किया, लेकिन बिजी शेडयूल के चलते विद्या चाहते हुए भी इस फिल्म को नहीं कर पाई। पिछले साल महेश भट्ट ने बांग्ला की इस सुपरहिट फिल्म को हिंदी में बनाने के प्रॉजेक्ट की कमान श्रीजीत मुखर्जी को सौंपी। श्रीजीत की इस फिल्म की एक खासयित यह भी है कि फिल्म में एक दो नहीं, बल्कि दस फीमेल आर्टिस्ट हैं। यह फिल्म भारत-पाक विभाजन के उस पहलू को टच करती है जो बॉलिवुड फिल्मकारों से अछूता रहा है। भारत-पाक विभाजन के सब्जेक्ट पर मारकाट के बीच कई प्रेम कहानियां पर फिल्में बनी, लेकिन श्रीजीत की इस फिल्म का ताना-बाना बंगाल के विभाजन के इर्द-गिर्द बुना गया है। फिल्म की लीड किरदार बेगम जान एक ऐसे कोठे की मालकिन हैं जो अंग्रेजों दवारा दोनों देशों के बीच बनाई गई बंटवारे की लाइन के बीचोंबीच आ रहा है। दोनों देशों के बंटवारे के काम का निपटारा करने के लिए बेगम जान के इस कोठे को तोड़ना बेहद जरूरी है। फिल्म में एक से एक मंझे हुए कलाकारों की पूरी फौज है तो भट्ट कैंप ने इस फिल्म में भी बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों को फिट करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अब यह बात अलग है कि सेंसर की प्रिव्यू कमिटी ने फिल्म के कई डबल मीनिंग संवादों और कई लंबे लव मेकिंग सीन पर कैंची चला दी, वहीं सब्जेक्ट की डिमांड के चलते सेंसर ने कई बेहद हॉट सीन और हॉट संवादों को फिल्म से अलग नहीं किया। यह फिल्म उस वक्त एकबार फिर सुर्खियों में आई जब पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड ने भारत-पाक विभाजन के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन करने का फैसला किया। कहानी : बेगम जान (विद्या बालन) एक ऐसे कोठे की मालकिन हैं, जो ऐसी जगह पर बना हुआ है जिसे बंटवारे के बाद भारत-पाक के बीच बंटवारे की लाइन खींचने और इस बॉर्डर पर सीमा चौंकी बनाने के लिए प्रशासन को अपने कब्जे में लेना बेहद जरूरी है। बेगम जान की इस कोठे में एक अधेड़ उम्र की महिला (ईला अरुण) भी रहती है, जिसे इस कोठे पर धंधा करने वाली सभी लड़कियां दादी मां कहती हैं। करीब दस से ज्यादा लड़कियों के इस कोठे की मालकिन बेगम जान पर यहां के राजा जी (नसीरुद्दीन शाह) पूरी तरह से मेहरबान हैं। सो किसी में हिम्मत नहीं जो बेगम जान के इस कोठे की ओर बुरी नजर डाल सके। यहां का कोतवाल (राजेश शर्मा) और इलाके का मुखिया भी अक्सर देर रात को मस्ती के लिए इसी कोठे पर आते हैं। बेगम को किसी की जरा भी परवाह नहीं, कोठे पर रहने वालीं लड़कियों की दुनिया इस कोठे तक ही सीमित है। इस कोठे के सभी कायदे-कानून खुद बेगम जान ही बनाती है और इन कायदे-कानूनों पर कोठे को चलाती भी है। बेगम का एक चेहरा बेशक जालिम है जो यहां रहने वाली लड़कियों से मारपीट करके धंधा कराती है तो वहीं दूसरा चेहरा ऐसा भी है जो इन लड़कियों के दुख के वक्त में हमेशा उनके साथ है। इस कोठे की दुनिया उस वक्त बदलती है जब भारत-पाक को विभाजित करने के लिए सरकारी अफसर दोनों देशों के बीच बंटवारे की लाइन खींचने का काम शुरू करते हैं। बेगम को इस बंटवारे या देश को मिल रही आजादी से कुछ लेना-देना नहीं, उसे तो बस अपने धंधे को और ज्यादा चमकाने और अपने इस कोठे को बचाने के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। बेगम और यहां रहने वाली सभी लड़कियां किसी भी हालात में अपनी इस कोठी (जिसे हर कोई कोठा कहता है) खाली करने को राजी नहीं, बेगम की आाखिरी उम्मीदें राजाजी पर टिकी हैं जिन्होंने उससे दिल्ली जाकर उसके इस कोठे को बचाने का वादा किया है। दूसरी ओर, इस कोठे के आस-पास बंटवारे की कांटेदार लगने का काम शुरू हो चुका है। दो सरकारी ऑफिसर इलियास (रजत कपूर), श्रीवास्तव जी (आशीष विद्यार्थी) यहां के पुलिस कोतवाल और सिपाहियों की टुकड़ी के साथ यह काम कर रहे हैं, लेकिन बेगम जान के कोठे को तोड़कर यहां तार लगाने काम शुरू नहीं हो पा रहा है। बेगम जान की मुश्किलें उस वक्त बढ़ जाती है जब दिल्ली से लौटकर राजाजी उसे कोठा खाली करने की सलाह देते हैं, लेकिन बेगम और यहां रहने वाली लड़कियां इस कोठे को खाली करने के लिए तैयार नहीं। सो दोनों सरकारी ऑफिसर कोठा खाली कराने की डील इलाके के एक शातिर बदमाश कबीर (चंकी पांडे) को सौंपते है, जिसे अब किसी भी कीमत पर बेगम जान के कोठे को खाली कराना है। ऐक्टिंग : फिल्म में मंझे हुए कलाकारों की पूरी फौज है। इन सबके बावजूद फिल्म के लीड बेगम जान के किरदार में विद्या बालन का जवाब नहीं। 'द डर्टी पिक्चर', 'कहानी' जैसी कई हिट फिल्में करने के बाद विद्या ने इस किरदार को जिस बेबाकी और बिंदास अंदाज के साथ कैमरे के सामने जीवंत कर दिखाया है उसका जवाब नहीं। विद्या बालन की इस जानदार परफॉर्मेंस को देखने के बाद उन आलोचकों को भी जवाब मिलेगा जो विद्या की पिछली दो-तीन फिल्मों को मिली नाकामयाबी के बाद विद्या के करियर पर सवाल उठा रहे थे। विद्या के अलावा फिल्म के लगभग सभी कलाकारों ने पूरी ईमानदारी के साथ अपने किरदार को निभाया है। राजाजी के छोटे से किरदार में नसीरुद्दीन शाह अपनी पहचान छोड़ जाते हैं तो लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आए विवेक मुशरान एक अलग लुक में नजर आए। गौहर खान, पल्लवी शारदा, ईला अरुण, रविजा चौहान, मिष्ठी सहित फिल्म के हर आर्टिस्ट ने अपने किरदार को पूरी मेहनत के साथ निभाया। डायरेक्शन : श्रीजीत ने पूरी ईमानदारी के साथ सब्जेक्ट पर काम किया, उनकी तारीफ करनी होगी कि 'बेगम जान' के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी में उन्होंने कहानी के हर किरदार को अपनी पहचान बनाने के लिए दमदार प्लैटफॉर्म दिया। फिल्म का संवाद जानदार है, फिल्म का हर संवाद दिल को छू जाता है, तवायफ के लिए क्या आजादी, लाइट बंद होने के बाद सब एक बराबर। ऐसे कई संवाद हैं जो हॉल में बैठे दर्शकों को कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं, वहीं फिल्म की कहानी में कई झोलझाल भी हैं, इंटरवल से पहले की फिल्म की रफ्तार कुछ सुस्त है, फिल्मकार अगर चाहते तो फिल्म के कई बेहद बोल्ड सीन से बचा जा सकता था। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है, जो बेशक म्यूजिक लवर्स और जेन एक्स की कसौटी पर खरा न उतर पाए, लेकिन क्लासिकल म्यूजिक के शौकीनों की कसौटी पर जरूर खरा उतर सकता है। क्यों देखें : अगर आप विद्या के फैन हैं तो इस फिल्म को बिल्कुल मिस न करें। आजादी के जश्न में विभाजन का दर्द और बंटवारे के बैकग्राउंड पर बनी 'बेगम जान' लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीनों के लिए है। वहीं टोटली एंटरटेनमेंट और वीकेंड पर फैमिली के साथ मौज-मस्ती करने की चाह में थिअटर जा रहे हैं तो अपसेट हो सकते हैं। फिल्म को मिले 'ए' सर्टिफिकेट को देख आप समझ सकते हैं कि 'बेगम जान' फैमिली क्लास के लिए नहीं।
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में रीमेक और सीक्वल बनाने का ट्रेंड कोई नया नहीं हैं। अगर किसी भी मेकर की पिछली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर लागत बटोरने के बाद कमाई करने में कामयाब होती है तो प्रॉडक्शन कंपनी को लगता है कि अब इसका सीक्वल बनाकर कमाई की जाए। दरअसल, मेकर्स को सीक्वल बनाना नई फिल्म की बजाय ज्यादा आसान और कमाई का सौदा लगता है। शायद यही वजह है करीब 6 साल पहले बिना किसी प्रमोशन के लगभग नई स्टार कास्ट के साथ सीमित बजट में बनी तेरे बिन लादेन की प्रॉडक्शन कंपनी अपनी पिछली फिल्म के डायरेक्टर को सीक्वल बनाने के लिए ग्रीन सिग्नल दिया। अब ऐसी कहानी का जो पिछली फिल्म में लगभग पूरी तरह से खत्म सी हो गई हो, उसे आगे खींचना आसान काम नहीं होता लेकिन इस कहानी के साथ इस बार एक प्लस पॉइंट यह नजर आ रहा था कि अमेरिका ने एक सीक्रेट मिलिटरी ऑपरेशन में आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार दिया था। इसी प्लॉट को लेकर स्टोरी राइटर ने इस सीक्वल पर काम शुरू किया। इसकी शुरुआत तो ठीकठाक रही, लेकिन बाद में स्टोरी ट्रैक से ऐसे उतरी कि फिर ट्रैक पर लौट नहीं पाई। कहानी : फिल्म की शुरुआत में पिछली फिल्म का जिक्र करके डायरेक्टर ने अपनी इस फिल्म की कहानी को पिछली फिल्म के साथ जोड़ने के लिए एक प्लॉट पेश किया है। शर्मा (मनीष पॉल) के पिता हलवाई हैं, लेकिन शर्मा नहीं चाहता कि वह अपने पिता के काम को आगे बढ़ाए। शर्मा के अपने कुछ अलग सपने हैं। अपने इन्हीं सपनों को साकार करने के लिए शर्मा मुंबई जाता है। मुंबई में उसकी मुलाकात प्रदीप उर्फ ओसामा (प्रद्युम्न सिंह) से होती है। पीद्दी उर्फ ओसामा शर्मा को बताता है कि उसे पिछली फिल्म में लादेन बनाया गया और फिल्म सुपरहिट रही। शर्मा उसकी पिछली फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला करता है, लेकिन इसी बीच लादेन मारा जाता है। दूसरी ओर अमेरिका के प्रेजिडेंट ओबामा पर विपक्ष और दूसरे नेताओं का दबाव है कि आतंकी लादेन को कैसे मारा गया और उसे कहां दफनाया गया इस बारे में सबूत पेश करे। वहीं, अफगानिस्तान में एक आतंकवादी संगठन का सरगना खलीली (पीयूष मिश्रा) किसी भी सूरत में यह साबित करना चाहता है कि लादेन जिंदा है, क्योंकि लादेन के मारे जाने की खबर के बाद खलीली का गैरकानूनी हथियार बेचने का बिज़नस ठप हो रहा है। ऐसे में इनका ध्यान ड्यूप्लिकेट लादेन पर पड़ता है। ड्यूप्लिकेट लादेन को लेकर जहां यूएसए की ओर से आया डेविड (सिकंदर खेर) एक फिल्म शुरू करता है। इस फिल्म का डायरेक्टर शर्मा है और लादेन का किरदार प्रदुम्मन को सौंपा जाता है। डेविड इस फिल्म को किसी सीक्रेट मकसद को पूरा करने के लिए बना रहा है। डायरेक्शन : ऐसा लगता है फिल्म शुरू करने के बाद कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए इसी को लेकर अभिषेक शर्मा असंमजस में ऐसे फंसे कि कहानी लगातार कमजोर पड़ती गई। ऐसा लगता है अभिषेक यह समझ ही नहीं पाए कि क्लाइमेक्स में क्या किया जाए। हां, इंटरवल से पहले अभिषेक ने कई सीन में अच्छी मेहनत की है। संगीत : फिल्म का कोई ऐसा गाना नहीं जो हॉल से बाहर आने के बाद आपकी जुबां पर आ सके। क्यों देखें : इंटरवल से पहले आपको इस सीक्वल में जहां कॉमिडी का जोरदार पंच मिलेगा तो वहीं इंटरवल के बाद आप अपसेट हो सकते हैं।
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यश राज बैनर का नाम ऐसा है जो दर्शकों में अपनी कुछ अलग पहचान बना चुका है। अब दर्शक भी इस बैनर से ऐसी फिल्में चाहते हैं, जो उनकी कसौटी पर सौ फीसदी ना सहीं कुछ तो खरी उतरने का दम रखती हो। अब अगर आप इस कसौटी पर बैनर की इस फिल्म को रखे तो यकीनन फिल्म आपको अपसेट करने का पूरा दम रखती है। बेशक इस फिल्म का प्रॉडक्शन कंपनी ने बहुत ज्यादा प्रमोशन नहीं किया, लेकिन फिल्म को दर्शकों और ट्रेड में हॉट बनाने के मकसद से फिल्म की रिलीज डेट से पहले चोरी के इंटरव्यू, चोरी का ट्रेलर, औैर चोरी के पोस्टर सहित कई प्रमोशनल कैंम्पेन जरूर चलाए। लेकिन आज जब फिल्म ने सिल्वर स्क्रीन पर दस्तक दी तो बॉक्स आफिस पर छाई वीरानी और हॉल में औसतन 20% की ओपनिंग को देखने के बाद तो यहीं लगता है कि दर्शकों पर मेकर कंपनी के इस प्रमोशन कैम्पेन का खास असर नहीं पड़ा। इस फिल्म के साथ एक और खास बात जुड़ी है फिल्म शुरू करने से पहले प्रॉडक्शन कंपनी ने एक अहम किरदार के लिए कपिल शर्मा को अप्रोच किया था लेकिन ऐन वक्त पर बात बन नहीं पाई। इस फिल्म से यंग डायरेक्टर बम्पी ने बॉलिवुड में डेब्यू किया है। कहानी मुंबई का रहने वाला चंपक (रितेश देशमुख) एक बैंक को लूटने की प्लैनिंग करता है। दरअसल, चंपक को अपने बीमार पापा का इलाज कराने के लिए मोटी रकम चाहिए। बैंक चोरी की अपनी इस प्लैनिंग को अंजाम देने के लिए चंपक अपने दो दोस्तों को दिल्ली से बुलाता है। चंपक की इस चोरी की प्लैनिंग में उसके साथ गेंदा (विक्रम थापा) और गुलाब (भुवन अरोरा) भी शामिल हो जाते हैं। दरअसल, गुलाब और गेंदा बहुत बड़े बेवकूफ हैं, लेकिन खुद को अक्लमंद समझते हैं, फुल प्लैनिंग के बाद तीनों बैंक ऑफ इंडियंस लूटने के लिए निकलते हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि इस बैंक डकैती की मीडिया को पहले से खबर मिल जाती है और बैंक के बाहर पहले से जमावड़ा सा लग जाता है। बेहद कड़क पुलिस इंस्पेक्टर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) भी यहां आ पहुंचता है। इसके बाद मीडिया, राजनीति के साथ पुलिस और चोर का खेल शुरू होता है। ऐक्टिंग अगर ऐक्टिंग की बात करें तो रितेश अब कॉमिडी की फिल्म में मास्टर हो चुके हैं। वहीं फिल्म में उनके साथी चोर बने विक्रम थापा और भुवन अरोड़ा ने अपने किरदारों को बेहतरीन ढंग से निभाया। फिल्म में इन तीनों की केमिस्ट्री गजब की बन पड़ी है। इन तीन अहम किरदारों के बीच जर्नलिस्ट के किरदार में रिया चक्रवर्ती अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। विवेक ओबेरॉय अपने किरदार में 100% फिट नजर आए। निर्देशन फिल्म की कहानी में बेशक नयापन ना हो, लेकिन डायरेक्टर बम्पी ने फिल्म को कहीं ट्रैक से उतरने नहीं दिया। उनके डायरेक्शन की सबसे बड़ी खूबी यही है कि बेजान कहानी के बावजूद पर फिल्म पर उनकी पकड़ बरकरार है। स्क्रीनप्ले पर बम्पी ने अच्छी-खासी मेहनत की है, तो फिल्म की फोटोग्रााफी बेहतरीन है, कैमरामैन ने कई सीन्स को अलग-अलग एंगलों से बेहद शानदार ढंग से शूट किया है। संगीत ऐसी कहानी में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं बचती। फिर भी बैंक चोर का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें अगर आप मांइड को रेस्ट देकर सिर्फ एंटरटेनमेंट के मकसद से थिअटर जा रहे है तो बैंक चोर आपको अपसेट नहीं कर करेगी।
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com हर दो तीन साल बाद बॉलिवुड से ऐसी एक फिल्म जरूर आती है जिसमें स्टार बनने की चाह में मुंबई जाने वाले स्ट्रगलर की दास्तां को अलग-अलग नजरिए से पेश किया गया। वैसे भी यह ऐसा टॉपिक है जिसपर मेकर हर बार नए स्टाइल और डिफरेंट किरदारों के साथ नई फिल्म बना सकते हैं, लेकिन अगर हम इस फिल्म की बात करें तो यकीनन प्रॉडक्शन कंपनी की तारीफ करनी होगी कि मेकर ने इस टॉपिक पर पूरी ईमानदारी के साथ एक ऐसी फिल्म बनाई जो कहीं न कहीं हॉल में बैठे दर्शकों को मुंबई में अलग-अलग जगह से आने वाले स्ट्रगलर की दास्तां पेश करती है। बेशक इस फिल्म के तीनों किरदारों में से कोई भी अपना सपना साकार करने के लिए मुंबई तक नहीं पहुंच पाता, लेकिन इन तीनों का अपने शहर में स्टार बनने की अपनी चाह और स्ट्रगल को ऐसे पावरफुल ढंग से पेश किया कि कम बजट और बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ न बटोरने वाले स्टार्स के बावजूद फिल्म अपना मेसेज दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब रही है। अगर देखा जाए तो हर दिन ग्लैमर नगरी में अपने सपनों को साकार करने की चाह में छोटे गांवों और दूर-दराज के कस्बों से स्ट्रगलर मुंबई तक पहुंचते तो जरूर है लेकिन इनमें से ऐसे कम ही मुकद्दर के सिकंदर होते हैं जो अपने सपनों को यहां साकार कर पाते हैं। कहानी : कोलकाता के रेड लाइट एरिया की सेक्स वर्कर इमली (रायमा सेन) का बचपन से बस एक ही सपना है कि एक दिन उसे सिनेमा के बड़े पर्दे तक पहुंचना है। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इमली कुछ भी करने को हरदम तैयार है। वहीं भिलाई के सरकारी डिर्पाटमेंट का बाबू विष्णु श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को स्कूल और कॉलेज के वक्त से ऐक्टिंग का ऐसा जुनून सवार हुआ कि ऐक्टिंग उनके खून में जैसे समा गई। स्टेज पर कई नाटक करने के बावजूद विष्णु अपने ऐक्टर बनने के सपने को इसलिए साकार नहीं पाया क्योंकि फैमिली का सहयोग नहीं मिला और उसे भी शादी करके नाइन टू सिक्स का जॉब करना पड़ा। शादी के बाद विष्णु की पत्नी लता श्रीवास्तव ने उससे वादा किया कि अपनी बेटी की शादी करने के बाद वह ऐक्टर बनने के अपने अधूरे सपने को साकार करने के लिए मुंबई जा सकते हैं। बेटी की शादी के वक्त विष्णु की उम्र करीब 52 साल हो गई, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत जरा भी कम नहीं हुआ। दिल्ली की मिडिल क्लास फैमिली का रोहित गुप्ता (सलीम दीवान) एक कॉल सेंटर में जॉब करता है, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत उस पर सवार है कि अपने ऑफिस में भी अपने इस अधूरे सपने को पूरा में लगा रहता है। मेकर्स के यहां धक्के खाने के बावजूद उसका ऐक्टर बनने का जुनून कम नहीं हो रहा, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इन तीनों को अपने अधूरे सपने को साकार करना है, लेकिन इन सबकी राह अलग है, लेकिन मंजिल एक ही है, जो उन तीनों से अभी भी कोसों दूर है। ऐक्टिंग : आशीष विद्यार्थी ने कमाल का अभिनय किया है। विष्णु के किरदार को आशीष ने जीवंत कर दिखाया है। इमली के रोल में रायमा सेन ने अपने जानदार अभिनय से दर्शकों के दिल को छू लिया। एक स्ट्रगलर ऐक्टर के किरदार में सलीम दीवान ने अच्छा काम किया है। विष्णु की पत्नी के किरदार में करुणा पाण्डेय ने हर सीन में अच्छा अभिनय करके दर्शकों की सहानुभूति पाई। संगीत : इस फिल्म का का एक गाना मन का मिरगा माहौल पर फिट नजर आता है। फिल्म का बैकग्राउंड संगीत भी पावरफुल है। डायरेक्शन : डायरेक्टर सत्यम की इंटरवल से पहले हर सीन पर पूरी पकड़ नजर आती है, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार थम सी जाती है। काश सत्यम अपनी कहानी के किसी एक किरदार को स्ट्रगल के लिए मुंबई तक पहुंचाते तो कहानी में और जान आती। हां, सत्यम ने अपनी कहानी के तीनों किरदारों से अच्छा काम लिया तो स्पोर्टिंग स्टार कास्ट को भी अच्छी फुटेज दी। क्यों देखें : स्टार बनने का जुनून किस को कहां तक और किस हाल में पहुंचा देता है, इस फिल्म में आप रील से रियल में देख सकते हैं। आशीष और राइमा सेन का दिल को छू लेने वाला अभिनय, करुणा पांडे की ऐक्टिंग फिल्म की एक और यूएसपी कही जा सकती है।
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आखिरकार, इस शुक्रवार को श्रीदेवी की बेटी जान्‍हवी कपूर की पहली फिल्म धड़क रिलीज हुई। शाहिद कपूर के भाई ईशान खट्टर इससे पहले इंटरनैशनल फेम डायरेक्टर माजिद की फिल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड' में अपनी प्रतिभा का लोहा दर्शकों और क्रिटिक्स से मनवा ही चुके हैं। यही वजह है कि रिलीज़ से पहले ही इस युवा जोड़ी की इस फिल्म का यंगस्टर्स में जबर्दस्त क्रेज रहा। वहीं, इस फिल्म के डायरेक्टर शशांक खेतान की पिछली दोनों फिल्में 'हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया' और 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' बॉक्स आफिस पर हिट रही। यही वजह रही धड़क से दर्शकों और ट्रेड को कुछ ज्यादा ही उम्मीदें हैं। बता दें कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कलेक्शन करने वाली सुपरहिट मराठी फिल्म 'सैराट' का हिंदी रीमेक है। वैसे, इससे पहले सैराट तमिल और पंजाबी में बन चुकी है और इन दोनों फिल्मों को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। आपको ताज्जुब होगा कि मराठी में बनी फिल्म का बजट कुल 04 करोड़ रहा तो फिल्म ने टिकट खिड़की पर 105 करोड़ के करीब कलेक्शन की। ऐसे में शंशाक ने भी अपनी इस फिल्म को भी लगभग वही लुक दिया है जो मराठी फिल्म में नजर आया। इतना ही नहीं 'धड़क' के म्यूजिक में मराठी टच साफ सुनाई देता है। देश-विदेश में रिलीज हुई इस फिल्म का ट्रेड में क्रेज इसी से लगाया जा सकता है कि मल्टिप्लेक्सों में इस फिल्म के औसतन दस से ज्यादा शोज रखे गए हैं तो अडवांस बुकिंग में भी फिल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। नई दिल्ली के डिलाइट सिनेप्लैक्स पर पहले तीन की 50 फीसदी से ज्यादा टिकटें अडवांस में ही बिक चुकी हैं। स्टोरी प्लॉट: धड़क की कहानी राजस्‍थान के उदयपुर शहर से शुरू होती है। राज परिवार से जुड़ी पार्थवी (जाह्नवी कपूर) न तो अपने राजपरिवार के बंधनों और कायदों को दिल से स्वीकार करती है और न ही उसे अपनी आजादी में भाई चाचा या फिर अपने पिता तक का दखल देना पसंद है। दूसरी ओर पार्थवी के पिता ठाकुर रतन सिंह (आशुतोष राणा) को भी कतई बर्दाश्त नहीं कि कोई उसके किसी भी फैसले के खिलाफ जाए। पार्थवी के कॉलेज में पढ़ने वाले मधुकर (ईशान खट्टर) को पहली नजर में ही पार्थवी से प्यार हो जाता है, मधुकर के पिता को मंजूर नहीं कि उनका बेटा ऊंची जाति और राजघराने की पार्थवी से मिले, लेकिन मधुकर और पार्थवी इन सब की परवाह किए बिना एक-दूसरे से मिलते हैं। दूसरी ओर ठाकुर साहब चुनाव लड़ने की तैयारी में लगे हैं, ऐसे में उन्हें वोटर को रिझाना भी मजबूरी बनता जा रहा है। रतन सिंह को पार्थवी और मधुकर के प्यार के बारे में जब पता लगता है तो मधुकर और उसकी फैमिली पर उनका कहर टूट पड़ता है। ऐसे में दोनों उदयपुर से भाग जाते हैं, अब आगे क्या होगा यह जानने के लिए आपको थिअटर का रुख करना होगा। जानिए, जाह्नवी और ईशान की फिल्म 'धड़क' देख क्या बोले फिल्मी सितारेऐक्टिंग, डायरेक्शन, म्यूजिक: जाह्नवी ने अपनी पहली ही फिल्म में साबित किया कि कैमरा फेस करने से पहले उन्होंने लंबा होमवर्क किया तो ईशान खट्टर एक बार फिर अपने फैन्स की कसौटी पर खरे उतरे। इन दोनों की ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री देखते ही बनती है। वहीं, जाह्नवी क्लोजअप सीन्स में ईशान से बड़ी नजर आईं। ठाकुर रतन सिंह के रोल में आशुतोष राणा का जवाब नहीं। मधुकर के दोस्त बने अंकित बिष्ठ और श्रीधरन अपने अपने रोल में फिट रहे। फिल्म के डायरेक्टर शशांक रायजादा ने इंटरवल से पहले की फिल्म को कुछ ज्यादा ही खींच दिया। खासकर पार्थवी और मधुकर की मुलाकातों के लंबे सीन पर आसानी से कैंची चलाई जा सकती थी। इस फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है तो फिल्म के दो गाने 'धड़क है न' और 'पहली बार' का फिल्मांकन देखते ही बनता है। क्यों देखें : जाह्नवी और ईशान की बेहतरीन केमिस्ट्री, राजस्थान की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म की कहानी में बेशक नया कुछ न हो लेकिन कहानी को ऐसे दिलचस्प ढंग से पेश किया गया है कि आप कहानी से बंधे रहते हैं। क्रिटिक्स की तरफ से इस फिल्म को मिले हैं साढ़े 3 स्टार।
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चंद्रमोहन शर्मा ऐक्टर और डायरेक्टर रजत कपूर की बॉलिवुड में अलग इमेज बनी हुई है। विनय पाठक और रजत कपूर की जोड़ी ने बॉक्स ऑफिस पर 'भेजा फ्राई' जैसी सीमित बजट में कई फिल्में भी बनाईं, जिन्हें पब्लिक और क्रिटिक्स का अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला। इस शुक्रवार को रिलीज हो रही रजत स्टारर इस फिल्म में उनके साथ ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी कुछ अलग पहचान बना चुकीं कई ऐक्ट्रेस हैं, लेकिन स्टार्ट टू लास्ट तक फिल्म रजत कपूर के किरदार के आस-पास ही घूमती रहती है। करीब डेढ़ घंटे की इस फिल्म के लिए ग्यारह डायरेक्टरों ने अपनी अलग-अलग कहानी पर काम किया, लेकिन स्क्रिप्ट के नजरिए से फिल्म बिखरी नजर आती है। फिल्म के किरदारों का कहीं कोई सामंजस्य नहीं बन पाता और हर दस बारह मिनट में कहानी में एक नया ऐसा टर्न आता है जो समझ से परे लगता है। कई डायरेक्टर्स ने अपने-अपने हिस्से को बेहद बोल्ड बनाने की कोशिश तो की, लेकिन इसमें नाकामयाब रहे। कहानी : किशन (रजत कपूर) लीक से हटकर अलग टाइप की फिल्में बनाने वाला ऐसा फिल्मकार है, जिसकी जिंदगी में कई महिलाएं आती हैं। वह अब तक करीब पंद्रह-बीस फिल्म बना चुका है, लेकिन उसकी दर्शकों और ट्रेड में अभी तक खास पहचान नहीं बन पाई है। किशन खुद को के कहलाना ज्यादा पंसद करता है। अपनी लाइफ में आने वाली नई लड़की को वह अपना इतना ही परिचय देता है। के को लाइफ में सच्चा प्यार भी हो चुका है। रिजा (राधिका आप्टे) के साथ के ने अपनी लाइफ के बेहतरीन कई साल गुजारे हैं, लेकिन उसके बाद उसे पिछली जिंदगी की उन कड़वी यादों ने परेशान करना शुरू कर दिया जब वह अपनी पहचान बनाने के लिए स्ट्रगल कर रहा था। इस दौर में रजत अपनी अगली फिल्म के लिए हर बार नई कहानी पर काम शुरू करता, लेकिन उसके साथ कई तरह की ऐसी घटनाएं घटती हैं कि अपनी फिल्म की लीड ऐक्ट्रेस के लिए उसकी भागदौड़ उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है। के को तो तलाश थी अपनी नई अलग कहानी के लिए नए चेहरे की, लेकिन उसकी अपनी जिंदगी ही अब तक बिखर कर ऐसे मोड़ पर चुकी थी जहां उसे आगे का कुछ नहीं सूझ रहा है। ऐक्टिंग : के यानी किशन के किरदार में रजत कपूर एकबार उसी लुक में नजर आए, जिसमें आप उन्हें पहले भी कई बार देख चुके हैं, लेकिन रजत ने अपने किरदार की डिमांड के मुताबिक काम जरूर किया। महिला कलाकारों की लंबी भीड़ में स्वरा भास्कर और राधिका आप्टे अपनी पहचान साबित करने में कामयाब रहीं। डायरेक्शन : इस फिल्म के साथ एक दो नहीं, कई यंग डायरेक्टरों के नाम जुड़े हैं। यही वजह है कहानी में कई ऐसे टर्न हैं जो समझ से परे हैं। ऐसा लगता है डायरेक्शन टीम ने पहले से अपनी इस फिल्म को मल्टिप्लेक्स कल्चर की ऐसी फिल्म बनाने का फैसला कर लिया था जो कुछ नया और बॉलिवुड फिल्मों से टोटली डिफरेंट देखने की चाह में थिऐटर का रुख करते हैं, लेकिन कई डायरेक्टर्स ने अपनी-अपनी कहानी को बेहतरीन कैमरा एंगल के साथ शूट किया। फिल्म के कई सीन्स में कैमरा इस फिल्म का हीरो बन जाता है। संगीत : फिल्म के बैकग्राउंड में गाने हैं, लेकिन न तो इनकी जरूरत कहानी में कहीं थी और न ही इनमें दम है कि आप हॉल से बाहर आने के बाद इन गानों का पहला अंतरा भी याद रख पाएं। क्यों देखें : अगर हिंग्लिश कल्चर में बनी कुछ ज्यादा बोल्ड और अलग टाइप की फिल्मों को देखने का आपको जुनून है या रजत कपूर, स्वरा और राधिका आप्टे के पक्के फैन हैं तभी देखने जाएं।
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जॉन अब्राहम स्टारर यह फिल्म ऐसे वक्त रिलीज हुई है जब पांच सौ और 1000 रुपए के पुराने नोट के बंद होने की वजह से लोग परेशान हैं। इसका साइड इफेक्ट् पिछले हफ्ते रिलीज हुई फरहान अख्तर स्टारर 'रॉक ऑन 2' को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा। करीब 50 करोड़ से ज्यादा में बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत का एक तिहाई भी नहीं बटोर पाई। वहीं, नई स्टार कास्ट को लेकर बनी 'डोंगरी का राजा' ने अपनी लागत तो छोड़िए प्रमोशन तक का खर्च भी नहीं निकाल पाई। ऐसे में इस वीक रिलीज हुई 'फोर्स 2' और 'तुम बिन 2' टिकट खिड़की पर टिक नहीं पाती तो मेकर्स अपनी-अपनी फिल्म को मिली नाकामयाबी के लिए नोटबंदी को ही दोष देंगे। जॉन स्टारर इस फिल्म में मेकर्स ने देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले रॉ के गुमनाम एजेंट्स को श्रृदाजलि दी है। अक्सर सरकार इनकी पहचान बताना और इन्हें सम्मानित करना तो दूर, इन्हें अपने देश का नागरिक तक मानने से इनकार कर देती है। चाइना और बुडापेस्ट की लोकेशन में फिल्माई इस इस फिल्म के ऐक्शन सीन हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन सीन की याद दिलाते हैं। 'डेल्ही बेली' से अपनी पहचान बना चुके यंग डायरेक्टर अभिनेव देव ने फिल्म को अंत एक ही ट्रैक पर रखा, जहां हॉल में बैठे दर्शकों को सोचने के लिए एक पल का भी वक्त नहीं मिलता। अगर सूत्रों की माने तो जॉन की यह फिल्म सवा दो घंटे से ज्यादा अवधि की बनी, लेकिन बाद में मेकर्स ने फिल्म की फिर एडिटिंग की और इसे 128 मिनट में समेट दिया, यही वजह है फिल्म की रफ्तार कहीं धीमी नहीं पड़ती। कहानी : चीन के शंघाई शहर से फिल्म की शुरुआत होती है, जहां रॉ के एजेंट हरीश चर्तुवेदी की हत्या कर दी जाती है। इस हत्या के बाद यहां के दो और अलग-अलग शहरों में रॉ के एजेंट की हत्या होने के बाद दिल्ली में रॉ के हेड ऑफिस में इस मुद्दे को लेकर मीटिंग जारी है। चाइना में मारा गया रॉ एजेंट हरीश मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर यशवर्धन (जॉन अब्राहम) का दोस्त हरीश है। हरीश अपनी हत्या से चंद दिनों पहले यश को एक किताब भेजता है। इस किताब में रॉ के कुछ और एजेंट्स को मारे जाने की सूचना कोड में दी गई है। रॉ के हेड क्वार्टर में चल रही मीटिंग में यश को रॉ के इन एजेंट्स की हत्याओं की जांच के लिए एक टीम का भेजने का फैसला होता है। इस टीम यश के साथ रॉ की एजेंट के के उर्फ कंवल जीत कौर (सोनाक्षी सिन्हा) भी जाती है। यश की जांच के बाद शक की सुई बुडापेस्ट स्थित इंडियन एंबेसी के स्टाफ पर टिकती है। यहां पहुंचने के बाद यश और के के इस केस की जांच अपने अपने ढंग से शुरू करते है, यहां पहुंचते ही इन पर जानलेवा हमला होता है, इसके बाद इनकी नजरें इसी एंबेसी में काम करने वाले शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) पर आकर ठहर जाती है। यहीं से शुरू होता है शिव शर्मा को गिरफ्तार करके इंडिया लेकर जाने का मिशन जो आसान नहीं है। अभिनय : ऐक्शन सीन के लिए जॉन को फुल अंक मिलने चाहिए, लेकिन वहीं, भाव विहीन चेहरे के साथ आखिर तक पूरी फिल्म में जॉन का एक जैसे लुक में नजर आना यकीनन जॉन के अभिनय करियर के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता। कैमरे के सामने शर्ट उतारकर जेम्स बॉन्ड स्टाइल जैसा ऐक्शन करते बेशक जॉन जंचते हैं, लेकिन एक साथ बीस तीस को अकेले मारकर निकल जाने का स्टाइल अब पुराना हो चला है, सो जॉन को अब डिफरेंट स्टाइल के किरदार निभाने चाहिए। रॉ एजेंट की भूमिका में सोनाक्षी सिन्हा के ऐक्शन सीन देखकर एकबार फिर उनकी पिछली फिल्म 'अकीरा' की याद आती है। हां सोनाक्षी ने इस बार अपनी और से कुछ नया करने की कोशिश तो की है, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कि उनकी ऐक्टिंग की तारीफ की जाएं। रानी मुखर्जी के साथ 'मर्दानी' में मेन विलेन का किरदार निभा चुके ताहिर राज भसीन ने इस बार भी अच्छी ऐक्टिंग की है, वहीं पारस अरोड़ा, नरेंद्र झा अपने किरदार में जंचे हैं। बेशक, जेनेलिया डिसूजा और बोमन ईरानी एक-आध सीन में नजर आए, लेकिन अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन : अभिनव देव ने ऐक्शन, स्टंट्स और थ्रिल की अच्छी कमान संभाली है तो वहीं बुडापेस्ट की बेहतरीन नयनाभिराम लोकेशन में फिल्म को शूट किया जो फिल्म का प्लस पॉइंट है। वहीं इंटरवल के बाद ऐक्शन के यही सीन ओवरडोज का काम करते हैं, ऐसा लगता है अभिनव ने स्क्रिप्ट और किरदारों को और ज्यादा बेहतर बनाने की बजाए तकनीक को और कैसे बेहतर बनाया जाए इस पर ज्यादा ध्यान दिया। इन्हीं बेहतरीन ऐक्शन सीन के दम पर अभिनव को दर्शकों की एक खास क्लास की यकीनन वाह-वाही मिलेगी। फिल्म में जॉन के दो संवाद जानदार हैं, खासकर 'कभी न कभी तो मिनिस्टरों को भी देश के काम आना चाहिए' और 'अब अपना घर बेच दे, बिना खिड़की के घर में रहने की आदत डाल ले', सहित फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं जिन पर सिंगल स्क्रीन वाले थिअटरों में तालियां बजेंगी। संगीत : फिल्म में गीत-संगीत का ज्यादा स्कोप नहीं था, ऐसे में अभिनव भी इनसे दूर ही रहे। फिल्म के क्लाइमेक्स से ठीक पहले मिस्टर इंडिया के सुपरहिट सॉन्ग 'काटे नहीं कटते ये दिन ये रात' को नए स्टाइल में फिल्माया गया है, जो अखरता नहीं हैं। वहीं, फिल्म के अंत में टाइटिल के साथ शूट किए गए गाने को फिल्म में क्यों रखा गया समझ से परे है। क्यों देखें : अगर आप रॉ एजेंट्स के बारे में कुछ और जानना चाहते हैं, जॉन के पक्के फैन हैं और उनकी पिछली ड्रग माफिया पर बनी 'फोर्स' देखी है तो देश की रक्षा के लिए गुमनाम होने वाले रॉ एजेंट्स पर बनी इस फिल्म को एकबार देखें। लोकेशन, तकनीक के मामले में फिल्म का जवाब नहीं तो वहीं कहानी, स्क्रिप्ट और ऐक्टिंग के मामले में फिल्म बस औसत ही है।
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यंग डायरेक्टर-प्रड्यूसर रेमी कोहली ने जब इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया तो इस फिल्म को एक ऐसे डिफरेंट सब्जेक्ट पर बनाने का फैसला किया जिसमें एक दो नहीं कई ट्रैक एकसाथ चलते हो। बेशक रेमी फिल्म बनाने में तो कामयाब रहे लेकिन करीब दो घंटे की ऐसी फिल्म को एक ट्रैक पर नहीं रख पाए, बेरोजगारी, आरक्षण से होते हुए कहानी सिस्टम की खामियों में जाकर अटक जाती है। यहीं वजह है जमीनी हकीकत के साथ मेल खाती एक कहानी को रेमी ने ऐसी स्टार कॉस्ट के साथ पेश किया जो ऐक्टिंग की फील्ड में तो अपनी अलग पहचान बनाए हुए है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के साथ फिल्म की बेहद धीमी रफ्तार के साथ कहानी और किरदारों के साथ दर्शक वर्ग को जोड़ने में रेमी कामयाब नहीं हो पाए। कहानी के मुताबिक बेहतरीन परफेक्ट आउटडोर लोकेशंस, किरदारों के मुताबिक सही कलाकारों का सिलेक्शन जहां फिल्म का प्लस प्वाइंट है तो वहीं लचर और झोलझाल में फंसी कहानी में फिल्म के लीड किरदार के साथ भी डायरेक्टर का न्याय नहीं कर पाना फिल्म को कमजोर बनाता है। वहीं रेमी ने फिल्म के टाइटिल को कुछ ऐसा डिफरेंट कर दिया कि दर्शकों की बहुत बड़ी क्लास के पल्ले ही नहीं पड़ पाता। स्टोरी प्लॉट : गोलियों की आवाज से शुरू होती इस फिल्म की कहानी एक छोटे से गांवनुमा कस्बे भारतपुर में कुलदीप पटवाल (दीपक डोबरियाल) की है जो अपनी छोटी सी परचून की दुकान चलाता है। कुलदीप कभी रेहड़ी पर गली-गली जाकर सब्जी वगैरह बेचने का काम करता था। वैसे कुलदीप ने भी पढ़ाई करने के बाद नौकरी के लिए बहुत धक्के खाए लेकिन हर बार उसे नाकामी मिली। बेशक इसकी वजह कभी आरक्षण होता तो कभी कुछ और, लेकिन कुलदीप की जब नौकरी पाने की सारी उम्मीदें जवाब दे गईं तब उसने अपनी शॉप पर ही बैठना ठीक समझा। कुलदीप के पिता बेटे पर डिपेंड न होकर ऑटो चलाकर अच्छी खासी आमदनी कर लेते है। ऐसे में इन सभी का गुजारा आराम से चल जाता । कुलदीप की लाइफ में टर्निंग प्वाइंट उस वक्त आता है जब स्टेट के सीएम वरूण चड्डा (परवीन डबास) की एक रैली में गोली लगने के बाद मौत हो जाती है। कुलदीप भी इस रैली में मौजूद था, ऐसे में सीएम के हत्यारों की खोज में लगी पुलिस के शक के घेरे में कुलदीप भी आ जाता है, कुलदीप को इस मुश्किल से निकालने के लिए अडवोकेट प्रदुमन शाहपुरी (गुलशन देवैया) सामने आते हैं तो दूसरी और सीएम की वाइफ सिमरत चड्डा (रायमा सेन) अपने हज्बंड का केस खुद लड़ती है, अगर आप आगे क्या होता है यह भी जानना चाहते हैं तो आपको फिल्म देखनी होगी। अगर फिल्म के सब्जेक्ट की बात करते हैं तो यकीनन रेमी ने फिल्म के लिए एक अच्छा सब्जेक्ट तो चुना लेकिन स्क्रीनप्ले पर भी अगर थोड़ा फोकस करते तो फिल्म शुरू होने के चंद मिनटों बाद ही अपने ट्रैक से यूं ही ना भटक जाती। यहां यह भी अजीब सा है कि फिल्म का टाइटल कुलदीप पटवाल है लेकिन डायरेक्टर ने इस किरदार को पॉवरफुल बनाने पर कतई ध्यान नहीं दिया। वैसे भी अगर दीपक डोबरियाल जैसा उम्दा लाजवाब कलाकार इस किरदार में हो तो किरदार पर ज्यादा वर्क करना बनता है। वहीं कहानी में बार-बार फ्लैश बैक का आना खटकता है तो फिल्म का क्लाइमेक्स भी दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने का दम नहीं रखता। अगर हम ऐक्टिंग की बात करें तो दीपक इस बार फिर बाजी मार गए, कुलदीप के कमजोर किरदार में दीपक ने अपने शानदार अभिनय के दम पर जान डालने की कोशिश की है तो वहीं गुलशन देवैया जब भी स्क्रीन पर नजर आते है वहीं फिल्म दर्शकों को अपनी और खींचती है। पंजाबी में जब गुलशन बात करते हैं तो बस मजा आ जाता है। रायमा सेन अपने किरदार में बस ठीकठाक रहीं तो जमील खान अपने रोल में परफेक्ट रहे। यह अच्छा ही है कि डायरेक्टर रेमी ने फिल्म में कोई गाना नहीं रखा है वर्ना पहले से स्लो स्पीड से आगे खिसकती यह फिल्म दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती नजर आती। कुलदीप पटवाल यकीनन ऐसे सब्जेक्ट पर बनी फिल्म है जिससे नामी मेकर भागते है, बतौर डायरेक्टर रेमी कुछ हद तक जरूर कामयाब रहे हैं। सीमित बजट में बनी इस फिल्म को पहले से थिएटरों में जमी पद्मावत के चलते बेहद कम मिले हैं, ऐसे में मल्टिप्लेक्स थिएटरों में इक्का-दुक्का शोज में चल रही यह फिल्म अगर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट वसूल करने में कामयाब रहती है तो यह रेमी की उपलिब्ध होगी ।
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पिंक देखते समय 'नो वन किल्ड जेसिका' याद आती है। वकील के किरदार में अमिताभ बच्चन को देख 'दामिनी' वाले सनी देओल भी याद आते हैं। इन फिल्मों में महिलाओं के साथ हुए अन्याय के खिलाफ न्याय की बातें की गई थी। 'पिंक' भी यही बात करती है, लेकिन अलग अंदाज में। इस फिल्म में समाज में व्याप्त स्त्री और पुरुष के लिए दोहरे मापदंड पर आधारित प्रश्न ड्राइविंग सीट पर है और कहानी बैक सीट पर। 'पिंक' उन प्रश्नों को उठाती है जिनके आधार पर लड़कियों के चरित्र के बारे में बात की जाती है। लड़कियों के चरित्र घड़ी की सुइयों के आधार पर तय किए जाते हैं। कोई लड़की किसी से हंस बोल ली या किसी लड़के के साथ कमरे में चली गई या फिर उसने शराब पी ली तो लड़का यह मान लेता है कि लड़की 'चालू' है। उसे सेक्स के लिए आमंत्रित कर रही है। यह फिल्म उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा जड़ती है जो लड़कियों के जींस या स्कर्ट पहनने पर सवाल उठाते हैं। अदालत में अमिताभ बच्चन व्यंग्य करते हैं कि हमें 'सेव गर्ल' नहीं बल्कि 'सेव बॉय' पर काम करना चाहिए क्योंकि जींस पहनी लड़की को देख लड़के उत्तेजित हो जाते हैं और लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं। फिल्म में ये सीन इतना कमाल का है कि आप सीट पर बैठे-बैठे कसमसाने लगते हैं। कई बातें कचोटती हैं। ये उन लोगों के दिमाग के जाले साफ कर देती है जिनकी सोच रू‍ढ़िवादी है और जो लड़कियों के आर्थिक स्वतंत्रता के हिमायती नहीं है। 'पिंक' में ये सारी बातें बिना किसी शोर-शराबे के उठाई गई है। फिल्म इस बात का पुरजोर तरीके से समर्थन करती है कि लड़कियों को कब, कहां, क्या और कैसे करना है इसके बजाय हमें अपनी सोच बदलना होगी। इस सोच ने लड़कियों की सामान्य जिंदगी को भी परेशानी भरा बना दिया है। वे अपने घर की बालकनी में भी चैन से बैठ नहीं सकती क्योंकि उन्हें घूरने वाले हाजिर हो जाते हैं। कहानी को दिल्ली-फरीदाबाद में सेट किया गया है। यह जगह शायद इसलिए चुनी गई क्योंकि पिछले दिनों यही पर महिलाओं पर हुए अत्याचारों की गूंज पूरे देश में सुनाई दी थी। दिल्ली के नाम से ही कई महिलाएं घबराने लगती हैं। मीनल (तापसी पन्नू), फलक (‍कीर्ति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तारियांग) अपने पैरों पर खड़ी लड़कियां है जो साथ में रहती हैं। एक रात वे सूरजकुंड में रॉक शो के लिए जाती हैं, जहां राजवीर (अंगद बेदी) और उनके साथियों से मुलाकात होती है। मीनल और उसकी सहेलियों का बिंदास अंदाज देख वे अंदाज लगाते हैं कि इन लड़कियों के साथ कुछ भी किया जा सकता है। राजवीर हद पार कर मीनल को छूने लगता है। मीनल अपने बचाव में उसके सिर पर बोतल मार कर उसे घायल कर देती है। राजवीर एक ऐसे परिवार से है जिसकी राजनीति में गहरी दखल है। मीनल से बदला लेने के लिए राजबीर और उसके दोस्त पुलिस में शिकायत दर्ज करा देते हैं कि मीनल ने उन पर जानलेवा हमला किया है। साथ ही वह कॉलगर्ल है। लड़कियों को मुसीबत में देख दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) उनकी ओर से केस लड़ने का फैसला करता है। दीपक सहगल के किरदार के जरिये फिल्म में विचार रखे गए हैं जो थोपे हुए नहीं लगते क्योंकि वो फिल्म की कहानी से जुड़े हुए हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में बदल जाती है। पिछले महीने रिलीज हुई 'रुस्तम' में भी कोर्ट रूम ड्रामा था, लेकिन हकीकत में ये कैसा होता है इसके लिए 'पिंक' देखी जानी चाहिए। पिं क के टिकट बुक करवाने के लिए क्लिक करें फिल्म का निर्देशन अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने किया है। उनके निर्देशन पर सुजीत सरकार का प्रभाव नजर आता है। गौरतलब है कि सुजीत इस फिल्म से जुड़े हैं। अनिरुद्ध की प्रस्तुति में खास बात यह रही कि उन्होंने उस एक्सीडेंट को दिखाया ही नहीं जिसके कारण मामला अदालत तक पहुंचा। उस घटना का जैसा वर्णन अदालत को बताया जाता है वैसा ही दर्शकों को पता चलता है। इस कारण दर्शक की अपनी कल्पना के कारण फिल्म में दिलचस्पी बढ़ती है। फिल्म के अंत में क्रेडिट टाइटल्स के साथ वो घटनाक्रम दिखाया गया है। अनिरुद्ध अपनी बात कहने में सफल रहे हैं जिसके लिए उन्होंने फिल्म बनाई। यह फिल्म केवल महिलाओं या लड़कियों के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी है। मीनल के किरदार के जरिये अनिरुद्ध ने दिखाया है कि महिलाओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अनिरुद्ध ने कई बातें दर्शकों की समझ पर भी छोड़ी है। मसलन उन्होंने अमिताभ को मास्क पहने मॉर्निंग वॉक करते दिखाया है जो दिल्ली के प्रदूषण का हाल बताता है और राजनीतिक प्रदूषण की ओर भी इशारा करता है। फिल्म में एक किरदार मेघालय में रहने वाली लड़की का है जो बताती है कि उसे आम लड़कियों की तुलना में ज्यादा छेड़छाड़ का शिकार बनना होता है और यह हकीकत भी है। फिल्म में दो कमियां लगती हैं। अमिताभ के किरदार के बारे में थोड़ा विस्तार से बताया गया होता तो बेहतर होता। साथ ही फिल्म को थोड़ा सरल करके बनाया जाता तो बात ज्यादा दर्शकों तक पहुंचती। कुछ दिनों बाद अमिताभ बच्चन 74 वर्ष के हो जाएंगे, लेकिन अभी भी उनके पास देने को बहुत कुछ है। 'पिंक' में इंटरवल के बाद वे उन्हें ज्यादा अवसर मिलता है जब फिल्म अदालत में सेट हो जाती है। अमिताभ की स्टार छवि को निर्देशक ने उनके किरदार और फिल्म पर हावी नहीं होने दिया है और बच्चन ने भी अपने अभिनय में इसका पूरा ख्याल रखा है। फिल्म के दो-तीन दृश्यों में तो अमिताभ ने अपने अभिनय से गजब ढा दिया है। खासतौर पर उस सीन में जब वे किसी महिला के 'नो' के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि नहीं का मतलब 'हां' या 'शायद' न होकर केवल 'नहीं' होता है चाहे वो अनजान औरत हो, सेक्स वर्कर हो या आपकी पत्नी हो। तापसी पन्नू का कद 'पिंक' के बाद बढ़ जाएगा और उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में गंभीरता से लिया जाएगा। मीनल की दबंगता और झटपटाहट को उन्होंने अच्छे से पेश किया है। फलक के रूप में कीर्ति कुल्हारी प्रभावित करती हैं। एंड्रिया छोटे रोल में अपना असर छोड़ती है। पियूष मिश्रा वकील के रूप में अमिताभ के सामने खड़े रहे और जोरदार मुकाबला किया। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक उम्दा है और कई जगह खामोशी का अच्छा उपयोग किया गया है। जरूरी नहीं है कि हर फिल्म मनोरंजन के लिए ही बनाई जाए। कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं जो अपनी शानदार स्क्रिप्ट और जोरदार अभिनय के कारण आपकी सोच को प्रभावित करती हैं, 'पिंक' भी ऐसी ही फिल्म है। जरूर देखी जानी चाहिए। बैनर : राइजि़ग सन फिल्म्स प्रोडक्शन निर्माता : रश्मि शर्मा, रॉनी लाहिरी निर्देशक : अनिरुद्ध रॉय चौधरी संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू, पियूष मिश्रा, अंगद बेदी, कीर्ति कुल्हारी, एंड्रिया तारियांग सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 16 मिनट 5 सेकंड
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वन्य जीवन पर बॉलीवुड में कम ही फिल्में बनी हैं। 'जंगल क्वीन' जैसे कई 'सी' ग्रेड प्रयास हुए हैं जिनमें जंगल की आड़ में सेक्सी सीन परोसे गए हैं। 'रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स' में कुछ अलग करने की कोशिश की गई है, लेकिन कमजोर निर्देशन और लेखन ने पूरा मामला बिगाड़ दिया। एक उबाऊ और दिशाहीन फिल्म बना दी गई है जो न रोचक है और न ही मनोरंजक। उदय नाम का एक फोटो जर्नलिस्‍ट सुंदरबन में एक शिकारी के जाल में फंसे सफेद बाघ के बच्‍चे को बचा लेता है और उसे गांव में स्‍थित अपने घर ले आता है। इस शावक को फॉरेस्ट वार्डन ले जाती है। अपने बच्‍चे की तलाश में मादा शावक उसकी गंध को सूंघते हुए उदय के घर तक आ जाती है और उदय को मार डालती है। उदय का भाई पंडित बाघिन से बदला लेना चाहता है। वह अपने निजी कमांडो की टीम लेकर सुंदरबन में उस बाघिन को खोजने निकलता है। फिल्म की कहानी कमल सदानाह और आबिस रिजवी ने लिखी है। इस कहानी पर फिल्म बनाने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लिहाजा ये दोनों ही निर्माता और निर्देशक बन गए। एक छोटी सी बात को बेवजह लंबा खींचा गया है और कहानी में लॉजिक नाम की कोई चीज ही नहीं है। दुनिया में वैसे ही बाघों की संख्या लगातार कम हो रही है, लेकिन यह फिल्म बाघ को विलेन के रूप में प्रस्तुत करती है। पंडित फिल्म को फिल्म का हीरो बताया गया है, लेकिन दर्शक उससे कभी नहीं जुड़ पाते क्योंकि उसका काम विलेन जैसा है। वह उस बाघिन को मारना चाहता है जिसने उसके भाई को मारा है। फिल्म में इस बाघिन की कोई गलती नजर नहीं आती और दर्शक समझ ही नहीं पाते कि आखिर पंडित बदला लेने के लिए क्यों इतना बेसब्र हो रहा है। हद तो तब हो गई जब पंडित को बाघिन को मारने का अवसर मिलता है तो अचानक उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। पंडित के इरादे क्यों बदल जाते हैं इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई है और ढूंढने की कोशिश भी नहीं करना चाहिए। खुले हथियार लिए जंगल में एक दल घूमता रहता है, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। फॉरेस्ट वॉर्डन का किरदार जरूर है, लेकिन नाममात्र के लिए। फिल्म में कई किरदार हैं, लेकिन उनका दर्शकों से परिचय करने की जहमत भी नहीं उठाई गई। लेखकों ने कामचलाऊ काम किया है और रिसर्च भी नहीं की है। निर्देशक के रूप में कमल सदानाह का काम स्तरीय नहीं है। वे खुद ही नहीं तय कर पाए कि क्या दिखाना चाहते हैं और उनका ये कन्फ्यूज पूरी फिल्म में नजर आता है। पूरी फिल्म दिशाहीन है। ऐसा लगता है कि जंगल में जाकर जो दिखा उसे शूट कर लिया और जोड़कर एक फिल्म तैयार कर दी। कहीं वे कमर्शियल फिल्म बनाने की कोशिश करते हैं तो कहीं पर फिल्म डॉक्यूमेंट्री लगने लगती है। ड्रामा मनोरंजनहीन है, इस वजह से परदे पर चल रहे घटनाक्रम बोरियत से भरे हैं। दो-तीन सीन छोड़ दिए जाए तो कहीं भी फिल्म रोमांचक नहीं लगती। अभिनेताओं की टीम ने भी फिल्म को घटिया बनाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। सी ग्रेड कलाकारों की फौज जमा कर ली गई है। ऐसा लगता है कि जिम में तराशा गया शरीर ही कलाकारों के चयन का मापदंड हो। शब्दों के सही उच्चारण तक इन तथाकथित अभिनेताओं से नहीं हो रहे थे। फिल्म में दो महिला पात्र भी हैं जो जंगल में छोटी ड्रेसेस पहन कर घूमती रहती हैं। फिल्म का वीएफएक्स अच्छा है, हालांकि उसका नकलीपन आंखों से छिप नहीं पाता। सिनेमाटोग्राफी उम्दा है। लेकिन केवल इसी वजह से फिल्म का टिकट नहीं खरीदा जा सकता है। बेहतर है कि रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स देखने के बजाय वाइल्ड लाइफ पर आधारित कोई टीवी कार्यक्रम देख लिया जाए। निर्माता : आबिस रिज़वी निर्देशक : कमल सदानाह संगीत : रमोना एरिना कलाकार : अभिनव शुक्ला, हिमर्षा वी, अंचित कौर, अली कुली, सुब्रत दत्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट
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रौनक कोटेचा कहानी: कहानी एक ऐसे वैद्य के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपनी असरकारी दवाओं की वजह से बड़ी-बड़ी दवाइयों की कंपनियों के आंख की किरकिरी बन गया है। कंपनियां उसे डरा-धमका रही हैं। उसके बरसों पुराने फ़ॉर्म्युले 'वज्र कवच' में हर बीमारी का इलाज है। पिंपल से लेकर नपुंसकता दूर करने से लेकर सबकुछ। रिव्‍यू: फिल्‍म में वैद्य पूरन (सनी देओल) बहुत कम बोलते हैं, लेकिन कोई उनकी चुप्‍पी को तुड़वाने का प्रयास करता है तो वह उसको छोड़ते नहीं हैं। फिल्‍म में धर्मेंद्र ने जयंत नाम परमार नाम के शख्‍स का किरदार निभाया है तो बॉबी देओल 'काला' नाम के एक लड़के के रोल में हैं और सनी देओल वैद्य बने हैं। पूरन की पूरे शहर में अच्‍छी खासी इज्‍जत है जबकि उसके भाई काला को कोई नहीं पसंद करता। काला 40 साल का अविवाहित युवक है जो कनैडा (कनाडा) जाने के सपने संजोए बैठा है। दूसरी ओर जयंत रंगीन मिजाज वकील हैं जो ख्‍वाबों में हसीनों का दीदार करते रहते हैं। उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है। वह साइड ट्रॉली वाले स्‍कूटर की सवारी करते रहते हैं। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि 'यमला पगला दीवाना फिर से' ने नई कहानी के साथ पॉप्युलर ब्रैंड को फिर से स्‍थापित करने का काम किया है। इस फिल्‍म ने देओल ब्रैंड को एक अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया है। फिल्‍म काफी हद तक दर्शकों को एक लाइट कमिडी डोज देने में सफल रही है। धर्मेंद्र ने अपने फन पैक को बड़े ईजी वे में दर्शकों के सामने पेश किया है। सनी देओल की वही ढाई किलो के हाथ वाली इमेज इस बार दर्शकों को थोड़ा कॉमिक स्‍टाइल में देखने को मिली है। वहीं बॉबी देओल स्‍क्रीन पर सबसे अधिक समय के लिए दिखे जरूर हैं लेकिन कुछ नया कर पाने में खासे सफल नहीं हो सके। फिल्‍म में कुछ मिनट के लिए सलमान खान भी दिखाई दिए हैं। इस फिल्‍म में देओल परिवार के अलावा कृति खरबंदा भी काफी ग्‍लैमरस लग रही हैं। फिल्‍म में कई मौके ऐसे भी आए हैं जहां कमेडी में जान नहीं लगी है। कुल मिलाकर फर्स्‍ट हाफ में मूवी ठीकठाक रही है, लेकिन सेकंड हाफ में कुछ स्‍लो होती दिखी है। अगर आप भी देओल ब्रैंड के फैन हैं तो एक बार यह मूवी देख सकते हैं।
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निर्माता : विनोद बच्चन, शैलेन्द्र आर.सिंह, सूर्या सिंह निर्देशक : आनंद एल. राय कलाकार : आर.माधवन, कंगना, जिमी शेरगिल, दीपक डोब्रियाल, एजाज खान सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * अवधि : 2 घंटे * 14 रील ज्यादातर फिल्मों में हीरोइन का किरदार वैसा ही पेश किया जाता है, जिस तरह वैवाहिक विज्ञापनों में वधू चाहने वाले लोग अपनी पसंद बताते हैं। सुंदर, सुशील, सभ्य...। हीरोइनों को सिगरेट पीते, शराब गटकते और अपने माँ-बाप से बगावत करते हुए बहुत कम देखने को मिलता है। ‘तनु वेड्स मनु’ की हीरोइन ऐसी ही है, आदर्श लड़की से एकदम अलग। बिंदास, मुँहफट, लगातार बॉयफ्रेंड बदलने वाली और विद्रोही। तनु नामक यही कैरेक्टर फिल्म को एक अलग लुक प्रदान करता है और फिल्म ज्यादातर वक्त बाँधकर रखती है। ‘तनु वेड्स मनु’ देखते समय ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘जब वी मेट’, ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी कई फिल्में याद आती हैं क्योंकि इसकी धागे जैसी पतली कहानी और फिल्म का ट्रीटमेंट इन हिट फिल्मों जैसा है, लेकिन फिल्म के किरदार और यूपी का बैकग्राउंड फिल्म को एक अलग लुक देता है। तनु (कंगना) को अपने माँ-बाप की पसंद के लड़के से शादी नहीं करना है। उधर मनु (माधवन) पर भी उसके माता-पिता शादी का दबाव डालते हैं। दोनों की मुलाकात करवाई जाती है और तनु से मनु प्यार कर बैठता है। शादी के लिए हाँ कह देता है, लेकिन तनु इसके लिए राजी नहीं है। वह किसी और को चाहती है और उसके कहने से मनु शादी से इंकार कर देता है। तनु को मनु भूला नहीं पाता है और पंजाब में अपने दोस्त की शादी के दौरान उसकी मुलाकात फिर तनु से होती है। दोनों में अच्छी दोस्ती हो जाती है, लेकिन तनु अपने बॉयफ्रेंड से शादी करने वाली है। इसके बाद कुछ घटनाक्रम घटते हैं और तनु, मनु की हो जाती है। कुछ लोगों को तनु का शादी और प्यार को लेकर इतना कन्फ्यूज होना अखर सकता है क्योंकि वह बार-बार अपना निर्णय बदलती रहती है और किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच पाती है, लेकिन निर्देशक ने शुरू से ही दिखाया है कि वह है ही ऐसी। जिंदगी के प्रति उसका नजरिया लापरवाह किस्म का है और इसका असर उसके निर्णय लेने पर भी पड़ता है। फिल्म का पहला हिस्सा मजेदार है। चुटीले संवाद और उम्दा सीन लगातार मनोरंजन करते रहते हैं। मध्यांतर ऐसे बिंदु पर आकर किया गया है कि उत्सुकता बनती है कि मध्यांतर के बाद क्या होगा, लेकिन दूसरा हिस्सा अपेक्षाकृत कमजोर है। तनु और मनु की अनिर्णय की स्थिति को लंबा खींचा गया है और मेलोड्रामा थोड़ा ज्यादा ही हो गया है। जिमी शेरगिल वाला ट्रेक ठूँसा हुआ लगता है। वह माधवन की ठुकाई करने का जिम्मा रवि किशन को देता है, इसके बावजूद वह माधवन को नहीं पहचान पाता। लेकिन इन कमजोरियों के बावजूद फिल्म मनोरंजक लगती है क्योंकि तनु और मनु के अलावा कुछ बेहतरीन किरदार फिल्म में देखने को मिलते हैं। इनमें दीपक डोब्रियाल और स्वरा भास्कर का उल्लेख जरूरी है जो तनु और मनु के दोस्त के रूप में नजर आते हैं। निर्देशक आनंद एल. राय ने फिल्म के चरित्रों पर खासी मेहनत की है और इसी वजह से फिल्म रोचक बन पड़ी है। उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि और वहाँ के रहने वाले लोगों के मिजाज को बखूबी पेश किया गया है। दूसरे हाफ में यदि स्क्रिप्ट की थोड़ी मदद उन्हें‍ मिली होती तो फिल्म बेहतरीन बन जाती। कंगना फिल्म की कमजोर कड़ी साबित हुई है। वे लीड रोल में हैं लिहाजा उनका अभिनय फिल्म की बेहतरी के लिए बहुत मायने रखता है, लेकिन कंगना अपने रोल के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाईं। तनु का जो कैरेक्टर है उसमें कंगना चमक नहीं ला पाईं। डायलॉग डिलीवरी सुधारने की उन्हें सख्त जरूरत है। लंदन से लड़की की तलाश में भारत आए मनु के किरदार में माधवन जमे हैं। एक भला इंसान, माँ-बाप का आज्ञाकारी बेटा और सच्चे प्रेमी की झलक उनके अभिनय में देखने को मिलती है। जिमी शेरगिल का रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। हिट नहीं होने के बावजूद फिल्म का संगीत मधुर है। ‘तनु वेड्स मनु’ की कहानी में नयापन नहीं है, लेकिन इसके कैरेक्टर, संवाद और कलाकारों की एक्टिंग फिल्म को मनोरंजक बनाते हैं।
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विक्रम भट्ट उन निर्देशकों में से हैं जो हॉलीवुड की फिल्मों से प्रेरणा लेकर फिल्म बनाते हैं। उनकी ताजा फिल्म ‘स्पीड’ ‘सेल्युलर’ से प्रेरित है। वैसे कई लोगों को यह फिल्म देखते समय अब्बास-मस्तान की ‘बादशाह’ के अंतिम 45 मिनट याद आ सकते हैं, जिसमें शाहरुख खान को मंत्री बनी राखी की हत्या करने का जिम्मा सौंपा जाता है। अब्बास-मस्तान ने उन दृश्यों को बेहद अच्छा फिल्माया था। ‘स्पीड’ में आफताब प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाता है। इस काम के लिए वह एमआय 5 एजेंट संजय सूरी को चुनता है। वह उसकी बीवी उर्मिला और बच्चे का अपहरण कर उसे इस काम के लिए मजबूर करता है। आफताब की गिरफ्त में उर्मिला एक टूटे-फूटे फोन के जरिये अपने पति को फोन लगाने की कोशिश करती है। गलती से वह फोन ज़ायद खान को लग जाता है। उर्मिला उससे सारा मामला बयाँ करती है। उर्मिला फोन कट भी नहीं कर सकती, क्योंकि उसे उम्मीद नहीं है कि उस फोन से दोबारा फोन लगाया जा सकता है। ज़ायद मोबाइल के जरिये लगातार उसके संपर्क में रहता है। वह न केवल उर्मिला और उसके बच्चों को बचाता है, बल्कि उन आतंकवादियों के चंगुल से संजय सूरी को भी छुड़ाता है। प्रधानमंत्री की भी जान बच जाती है। यह सारा घटनाक्रम कुछ घंटों का है, जिसे निर्देशक विक्रम भट्ट ने दो घंटे में समेटा है। फिल्म की कहानी रोचक है, लेकिन पटकथा में कई खामियाँ हैं जिसकी वजह से फिल्म का प्रभाव कम हो जाता है। फिल्म देखने के बाद कई सवाल मन में आते हैं, जिनका जवाब देने की जरूरत नहीं समझी गई। उर्मिला को बचाने के लिए क्यों ज़ायद खान सिर्फ एक ही बार पुलिस के पास जाता है? उर्मिला, ज़ायद को अपने पति का मोबाइल नंबर क्यों नहीं देती? जब ज़ायद उर्मिला को बचा लेता है, इसके बाद उर्मिला अपने पति से फोन पर बात क्यों नहीं करती? लंदन जैसी जगह में आफताब के कैमरे हर जगह लगे हैं, क्या ये संभव है? संजय सूरी पुलिस की मदद क्यों नहीं लेता? ज़ायद को जब भी कार की जरूरत पड़ती है वह फौरन चुरा लेता है। उसे हर कार में चाबी लगी हुई मिलती है। उर्मिला को अपहरण कर आफताब जिस जगह रखता है उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ रहती हैं। उर्मिला फिर भी भागने का प्रयास नहीं करती। जब ज़ायद खान उर्मिला को बचाने पहुँचता है तो वहाँ आफताब की सहयोगी सोफिया उसे मिलती है। आधुनिक तकनीक से लैस सोफिया उसे बजाय बंदूक से मारने के महाभारत के जमाने के हथियार से मारने की कोशिश क्यों करती है? पटकथा लिखते समय हर पहलू पर बारीकी से गौर किया जाना चाहिए, जो नहीं किया गया है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी लंबाई ज्यादा नहीं रखी गई है। विक्रम भट्ट ने फिल्म की गति बनाए रखी है, लेकिन जिस रोचक अंदाज में फिल्म शुरू होती है अंत तक पहुँचते-पहुँचते मामला गड़बड़ हो जाता है। विक्रम अपने कलाकारों से भी अच्छा काम नहीं ले सके। ज़ायद खान को अच्छी भूमिका मिली है, लेकिन वे पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाए। कई दृश्यों में उन्होंने ओवर एक्टिंग की है, खासकर तनुश्री के साथ वाले दृश्यों में। उर्मिला मातोंडकर का अभिनय भी फीका रहा। तनुश्री दत्ता की भूमिका में दम नहीं था। आशीष चौधरी और संजय सूरी का अभिनय ठीक है। आशीष और अमृता अरोरा वाला प्रेम प्रसंग फिल्म में नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आफताब शिवदासानी खौफ पैदा नहीं कर सके। यू/ए) * 12 री ल निर्माता : हैरी बावेजा निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीत : प्रीतम कलाकार : ज़ायद खान, उर्मिला मातोंडकर, तनुश्री दत्ता, आफताब शिवदासानी, संजय सूरी, अमृता अरोरा, आशीष चौधरी इस ‍तरह के फिल्म में गीत की सिचुएशन कम बनती है, फिर भी कुछ गीत रखे गए हैं, जिनमें दम नहीं है। पूरी फिल्म लंदन में फिल्माई गई है और ‍प्रवीण भट्ट का कैमरावर्क अच्छा है। कुल मिलाकर ‘स्पीड’ ऐसी फिल्म है, जिसे नहीं भी देखा गया तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
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बमुश्किल पांच वर्ष का होगा बुधिया सिंह। पुरी से भुवनेश्वर के बीच वह दौड़ता है। दूरी 65 किलोमीटर। तापमान 47 डिग्री। सात घंटे और दो मिनट में वह यह दूरी तय करता है, लगातार दौड़ते हुए। फिल्म में जब उसकी यह दौड़ दिखाई जाती है तो आप असहज हो जाते हैं। पसीने में लथपथ दौड़ते हुए बुधिया की सांस की आवाज दर्शकों को विचलित कर देती है। बुधिया का कोच बिरंची जो अब तक फिल्म में भला आदमी लगता है अचानक दर्शकों की नजरों में विलेन बन जाता है। बुधिया पानी मांगता है तो वह पानी नहीं देता। ऐसा महसूस होता है कि वह एक छोटे बच्चे पर जुल्म कर रहा है। दिमाग में प्रश्न उठने लगते हैं कि क्या बिरंची सही है या फिर चिल्ड्रन वेलफेअर वाले जो बुधिया से ऐसी दौड़ लगवाने के खिलाफ हैं। फिल्म का यह सीक्वेंस उलट-पुलट कर रख देता है। ऐसे ही कुछ बेहतरीन दृश्य 'बुधिया सिंह: बोर्न टू रन' नामक फिल्म में देखने को मिलते हैं जो बुधिया नामक उस धावक की कहानी है जिसे कभी उड़ीसा का वंडर बॉय कहा गया था। यह बात लगभग दस वर्ष पुरानी है। बुधिया के नाम 'वर्ल्डस यंगेस्ट मैराथन रनर' के नाम का रिकॉर्ड है। उड़ीसा की गरीबी भी फिल्म में नजर आती है। बुधिया इतने गरीब परिवार में वह पैदा हुआ था कि उसकी मां महज आठ सौ रुपये में उसे बेच देती है। जब बिरंची नामक जूडो कोच को यह बात पता चलती है तो वह बुधिया को अपने पास रख लेता है। 22 अनाथ बच्चों को अपने घर में पनाह देकर बिरंची उन्हें जूडो सिखाता है। बुधिया में बिरंची को एक धावक दिखता है और उसके बाद बुधिया की लोकप्रियता दुनिया में हो जाती है। बिरंची का सपना है कि 2016 के ओलिम्पिक में बुधिया भारत की ओर से दौड़े और पदक लाए, लेकिन सपनों को हकीकत में बदलना इतना आसान कहां है। बुधिया की लोकप्रियता बढ़ते ही अचानक सरकार और संगठन सक्रिय हो जाते हैं। बुधिया को जन्म देने वाली मां उसे अपने पास इस आस से ले जाती है कि शायद बुधिया के बहाने उसकी गरीबी दूर हो जाए, लेकिन उसकी छत से पानी का टपकना फिर भी बंद नहीं होता। मां से बुधिया को सरकार छिन लेती है। बुधिया और बिरंची में दूरियां पैदा कर दी जाती है। बुधिया को तब यह कह कर दौड़ने से रोक दिया था कि उसकी उम्र मैराथन दौड़ने के लायक नहीं है। अब वह 16 वर्ष का है, लेकिन उस पर लगा प्रतिबंध अब तक हटा नहीं है। 2016 के ओलिम्पिक शुरू होने वाले है और बुधिया का नाम उसमें नहीं है। फिल्म पुरजोर तरीके से बुधिया के पक्ष में आवाज उठाकर लोगों से अपील करती है कि बुधिया से अब तो प्रतिबंध हटाया जाना चाहिए। निर्देशक सोमेन्द्र पाढ़ी ने बुधिया की कहानी बेहद खूबसूरती के साथ परदे पर उतारी है। बुधिया को उन्होंने चमत्कारी बालक के रूप में पेश न करते हुए दिखाया है कि कड़े अभ्यास और इच्छाशक्ति के बल पर बुधिया ने यह सफलता हासिल की है। बुधिया के साथ-साथ बिरंची के किरदार को भी बखूबी उभारा है। आश्चर्य होता है कि बिरंची जैसे लोग भी हैं जिनकी कमाई ज्यादा नहीं है लेकिन 22 अनाथ बच्चों को वह पालता है। प्रशिक्षण देता है। बुधिया सिंह- बोर्न टू रन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें बुधिया और बिरंची की खूबसूरत दुनिया में तब खलल पड़ता है जब नेता, अफसर और समाज दखल देते हैं। राजनीति की अमर बेल किस तरह से बुधिया नामक छोटे पौधे को लील जाती है इस बात को फिल्म में अच्छी तरह से उभारा है। आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि किस तरह से हमारा देश पहले तो उभरते सितारे को पूजता है और फिर उसका करियर खत्म करने में भी देर नहीं लगाता। फिल्म को थोड़ा और बेहतर बनाया जा सकता था, लेकिन संभवत: सोमेन्द्र के आगे बजट आड़े आ गया होगा। बुधिया के साथ पिछले दस वर्ष में क्या हुआ, यह जानने की उत्सुकता रहती है, लेकिन फिल्म में इस बारे में ज्यादा बात नहीं की गई है। सोमेन्द्र का निर्देशन उम्दा है। उन्होंने बुधिया की कहानी जस की तस प्रस्तुत कर सवाल दर्शकों के सामने छोड़ दिए हैं। क्या बुधिया की प्रतिभा को पहचाना नहीं गया? क्या खिलाड़ियों की प्रतिभाओं का गला इसी तरह हमारे देश में घोंटा जाता है और इसी कारण हम खेलों में फिसड्डी है? वंडर बॉय के बारे में पीटी उषा, नारायण मूर्ति ने भी बात की है और उनके ओरिजनल फुटेज का इस्तेमाल फिल्म को धार देता है। कलाकारों के अभिनय ने फिल्म को विश्वसनीयता प्रदान की है। इस वर्ष 'अलीगढ' में अपने अभिनय से दिल जीतने वाले मनोज बाजपेयी का 'बुधिया सिंह' में भी अभिनय देखने लायक है। जमीन से जुड़े एक सकारात्मक कोच की भूमिका को उन्होंने बखूबी जिया है। उनके किरदार ने फिल्म को गहराई दी है। मयूर पाटोले तो बिलकुल 5 वर्षीय बुधिया ही लगा है। एक ऐसा बच्चा जो खुद नहीं जानता कि वह क्या कारनामे कर रहा है और किस तरह उसका करियर लोगों ने चौपट कर दिया है। तिलोत्तमा शोम, छाया कदम, श्रुति मराठे का अभिनय भी देखने लायक है। बुधिया सिंह: बोर्न टू रन दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल है, दु:ख तो इस बात का है कि दर्शक ऐसी फिल्मों से दूरी बना लेते हैं। बुधिया सिंह की कहानी को जिस शो में मैंने देखा उसका एकमात्र दर्शक मैं ही था। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, कोड रेड फिल्म प्रोडक्शन्स निर्माता : सुब्रत रे, गजराज राव, सुभामित्रा सेन निर्देशक: सोमेन्द्र पाढ़ी संगीत : सिद्धांत माथुर कलाकार : मनोज बाजपेयी, मयूर पाटोले, तिलोत्तमा शोम, छाया कदम, श्रुति मराठे सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 51 मिनट 22 सेकंड
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पिछले सप्ताह रिलीज हुई महाघटिया फिल्म 'क्या कूल हैं हम 3' के लेखक मिलाप ज़वेरी और मुश्ताक खान इस सप्ताह फिर एक फिल्म लेकर हाजिर हैं। लगता कि बॉलीवुड में सचमुच अच्छे लेखकों का टोटा है या फिर बॉलीवुड निर्माता-निर्देशक अपने कुएं से बाहर ही नहीं झांकते। ये भी हो सकता है कि घटिया फिल्म लिखने के काम ये दो जनाब ही जानते हों और जब समझदारी भरी बातें करने वाला प्रीतिश नंदी जैसा व्यक्ति जब घटिया फिल्म बनाने की इच्छा रखता हो तो इनके पास ही जाता हो। मिलाप ज़वेरी को निर्देशन की बागडोर भी सौंप दी गई है और मिलाप अपने आप पर इतने मोहित हो गए कि एक सीन में अपना चेहरा दिखाने का लालच भी पैदा हो गया। फूहड़ फिल्मों के सुभाष घई बनने का हैंगओवर! सनी लियोन का कहना है कि उन्होंने और उनके पति ने इस फिल्म की स्क्रिप्ट (यदि है तो) सुनी तो हंस-हंस कर लोटपोट हो गए जबकि फिल्म देखते समय मजाल है कि आपके चेहरे पर मुस्कान भी तैर जाए। शायद दोनों को हिंदी समझ नहीं आई होगी। मिलाप को लगा कि सनी लियोन को साइन कर लिया है, अब जैसा मन करे, जो सूझे, शूट कर लो। निकल पड़े कैमरा लेकर। सनी लियोन को डबल रोल सौंप दिए। अब सनी लियोन कोई कंगना रनौट तो है नहीं कि अपने अभिनय से दोहरी भूमिकाओं में अंतर पैदा कर सके। इसलिए एक सनी की आंखों पर चश्मा चढ़ा दिया ताकि दर्शक समझ जाए कि यह लैला लेले है और ये लिली लेले। वैसे सनी को देखने आए दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं है। उनकी निगाहें सनी के चेहरे पर टिकती कहां है? वे तो सनी की देह दर्शन करने आए हैं। मस्ती ज़ादे के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें सनी लियोन के फैंस को खुश किया गया है। वे सुंदर और सेक्सी लगी हैं। फिल्म की हर फ्रेम में सनी को कम कपड़ों में पेश किया गया है। समुंदर किनारे। पुल साइड। बगीचे में। बेडरूम में। घर में। ऑफिस में। हर जगह सनी पर इस तरह के सीन फिल्माने के बाद एक बेवकूफाना किस्म की कहानी लिख दृश्यों को पिरो दिया गया जिसमें ढेर सारे द्विअर्थी संवादों को रखा गया, भले ही उनकी जगह नहीं बनती हो। मिलाप ज़वेरी का दिमाग भी अश्लील सीन और संवाद एक-सा ही सोचने लगा है। ग्रैंड मस्ती हो, क्या कूल हैं हम हो या मस्तीज़ादे, एक सी लगती हैं। वहीं संतरे, जानवर, बड़ा, छोटा, खड़ा, बैठा, गोटी, नामों को लेकर बनाए गए मजाक (खोलकर, आदित्य चोटिया, केले), मर्द-औरत के प्राइवेट पार्ट्स को लेकर अश्लील इशारे और घिस-घिस कर गल गए जोक्स। बस करो यार, कुछ नया सोचो। मिलाप कहते हैं कि भारतीय दर्शक अमेरिकी एडल्ट फिल्म चाव से देखते हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। एडल्ट कॉमेडी से परहेज नहीं है, लेकिन बात कहने का सलीका तो सीखो जनाब, फिर ऐसी बातें करो। एक गे किरदार भी रखा गया है जिसे थुलथुले सुरेश मेनन ने निभाया है। सनी-तुषार से ज्यादा रोमांस तो सुरेश-तुषार का रोमांस दिखाया गया है जिसे देख उबकाइयां आती है। गानों में भी फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल है। शुरुआती आधे घंटे तो आप किसी तरह यह फिल्म झेल लेते हैं, लेकिन ये सिलसिला लंबा चलता है तो फिल्म नॉन स्टॉप नॉनसेंस बन जाती है। थाली में हर प्रकार की वैरायटी होना चाहिए। केवल चटनी से पेट भरता है क्या भला। बैनर : प्रीतिश नंदी कम्यूनिकेशन्स, पीएनसी प्रोडक्शन्स निर्माता : पीएनसी प्रोडक्शन्स निर्देशक : मिलाप ज़वेरी संगीत : अमाल मलिक, मीत ब्रदर्स, आनंद राज आनंद कलाकार : सनी लियोन, तुषार कपूर, वीर दास, शाद रंधावा, गिज़ेल ठकराल, रितेश देशमुख (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 48 मिनट 6 सेकंड
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Rekha.Khan@timesgroup.com फिल्मकारों द्वारा फिल्मों के विषयों को लेकर जिस तरह के नए प्रयोग हो रहे हैं, उनमें 'वेटिंग' सुखद अनुभव है, जहां निर्देशक अनु मेनन ने अस्पताल जैसे दुख और अवसाद वाले माहौल को बैकड्रॉप बनाया, मगर नसीरुद्दीन शाह और कल्कि कोचलिन जैसे समर्थ ऐक्टर्स की सहज जुगलबंदी से फिल्म को उदास नहीं रहने दिया। कहानी: कहानी की शुरुआत होती है तारा (कल्कि कोचीन) से जो बदहवास कोच्चि के एक अस्पताल में प्रवेश करती है। वहां उसका पति रजत (अर्जुन माथुर ) गंभीर दुर्घटना के बाद कोमा जैसी स्थिति में दाखिल है। तारा और रजत की नई-नई शादी हुई है। अस्पताल में तारा की मुलाकात शिव (नसीरुद्दीन शाह) से होती है। शिव की पत्नी पिछले 6 महीनों से कोमा में है और डॉक्टर उसके ठीक होने की उम्मीद छोड़ चुके हैं, मगर शिव को पूरी आशा है कि उसकी पत्नी स्वस्थ हो जाएगी। यही वजह है कि वह लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने नहीं देता। रिटायर शिव की जिंदगी का केंद्र बिंदु उसकी पत्नी ही है, जबकि तारा भी बिलकुल अकेली है। उसके माता -पिता अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं और वह अपनी सास को इस दुर्घटना के बारे में नहीं बताना चाहती। उसे डर है की राहु-केतू में विश्वास करनेवाली उसकी अंधविश्वासी सास कहीं रजत की दुर्घटना के लिए उसे जिम्मेदार न मान ले। तारा को इस बात का दुख है कि फेसबुक और ट्विटर पर हजारों की तादाद में फॉलोवर्स होने के बावजूद इस जरूरत की घड़ी में वह अकेली है। उसकी सहेली इशिता उसे हिम्मत बंधाने आती है, मगर पारिवारिक मजबूरियों के कारण उसे भी लौटना पड़ता है। अब ये दो अजनबी मिलते हैं। दुख और परेशानी के इस माहौल में दोस्ती के रिश्ते में बांधकर जिंदगी से वो पल चुराते हैं, जो उन्हें डिप्रेशन से दूर ले जाता है। फिल्म के क्लाइमैक्स में आते-आते दोनों अपने साथियों की जिंदगी से जुड़े निर्णयों पर आकर रुक जाते हैं, मगर फिर वे जिंदगी को जीने का तरीका ढूंढ ही लेते हैं। देखें: फिल्म 'वेटिंग' का ट्रेलर निर्देशन: निर्देशक अनु मेनन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि कहानी डर, हताशा, बुरे की आकांक्षा में जीनेवाले दो ऐसे किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनके पार्टनर कोमा में हैं, इसके बावजूद उन्होंने फिल्म को कहीं भी भारी या मेलोड्रैमेटिक नहीं होने दिया। उन्होंने मौत जैसे विषय को बहुत ही लाइवली हैंडल किया है। निर्देशक ने रिश्तों का एक अलग संसार रचा है, जहां ये जिंदगी और मौत के बीच एक-दूसरे के लिए सपॉर्ट सिस्टम बनते हैं। निर्देशक अगर अस्पताल और घर के अलावा कोच्चि के आउटडोर लोकेशनों को भी परदे पर उकेरती तो फिल्म और ज्यादा दर्शनीय हो सकती थी। अभिनय: एक लंबे अरसे बाद नसीरुद्दीन शाह को अपने पुराने रंग में रंगा देखकर अच्छा लगा। बीच में उन्होंने कुछ ऐसी निरर्थक भूमिकाएं भी की थी, जिन्हे देखकर उनके चाहनेवालों को निराशा हुई थी। उन्होंने अंदर से टूटे हुए मगर बाहरी तौर पर मजबूत शिव को अपनी अंडर करंट परफॉर्मेंस से एक नया आयाम दिया है। अभिनय के मामले में कल्कि ने उन्हें जबरदस्त टक्कर दी है। ऐक्शन-रिएक्शन के सिलसिले को वे बखूबी निभाती हैं। वे सही मायनों में अपने किरदार की परतों में समाई हुई नजर आती हैं। डॉक्टर की भूमिका में रजत कपूर ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्शाई है। राजीव रविंद्रनाथ, सुहासिनी मणिरत्नम, अर्जुन माथुर सहयोगी भूमिकाओं में अच्छे रहे हैं। संगीत: मिकी मैक्लिरी के संगीत में फिल्म के बैकग्राउंड में बजनेवाला गाना 'तू है तो मैं हूं' फिल्म के विषय के मुताबिक है। क्यों देखें: लीक से हटकर बनी हुई फिल्मों के शौकीन तथा नसीर और कल्कि के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।
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रॉय के प्रचार में रणबीर कपूर को चोर और फिल्म को थ्रिलर बताया गया है, लिहाजा दर्शक एक रोमांचक फिल्म की अपेक्षा लेकर फिल्म देखने के लिए जाता है, लेकिन फिल्म में थ्रिल की बजाय रोमांस और इमोशनल ड्रामा देखने को मिलता है। इस ड्रामे की रफ्तार इतनी सुस्त है कि आपको झपकी भी लग सकती है। फिल्म का एक किरदार कहता है कि यदि कहानी आगे नहीं बढ़ रही हो तो उसे वही खत्म कर देना चाहिए। अफसोस की बात यह है कि अपनी फिल्म के जरिये यह बात कहने वाले फिल्मकार ने खुद की बात को गंभीरता से नहीं लिया है। 22 लड़कियों से रोमांस कर चुका कबीर ग्रेवाल (अर्जुन रामपाल) एक फिल्ममेकर है। मलेशिया में अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान उसकी मुलाकात लंदन में रहने वाली फिल्म मेकर आयशा आमिर (जैकलीन फर्नांडिस) से होती है। रॉय (रणबीर कपूर) एक मशहूर चोर है जिससे प्रेरित होकर कबीर फिल्म बनाता है। कबीर और आयशा एक-दूसरे के करीब आ जाते हैं और आयशा के जरिये कबीर अपनी कहानी आगे बढ़ाता है। रील लाइफ और रियल लाइफ के किरदार आपस में उलझ जाते हैं और मामला जटिल हो जाता है। विक्रमजीत सिंह ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है। कंसेप्ट अच्छा है, लेकिन स्क्रीन पर इसे पेश करने में निर्देशक खुद ही कन्फ्यूज हो गए, तो दर्शकों की बात ही छोड़ दीजिए। फिल्म की शुरुआत अच्छी है जब एक मूल्यवान पेंटिंग को चुराने के लिए रॉय को कहा जाता है। उम्मीद बंधती है कि एक थ्रिलर मूवी देखने को मिलेगी, लेकिन धीरे-धीरे यह कबीर और आयशा की प्रेम कहानी में परिवर्तित हो जाती है। यह रोमांटिक ट्रेक बहुत ही ठंडा है। कबीर के प्रति आयशा का आकर्षित होने और रुठने को ठीक से पेश नहीं किया गया है। साथ ही इस प्रेम की वजह से कबीर का अपने आपको जान पाने वाला ट्रेक भी प्रभावित नहीं करता। कबीर और उसके पिता के बीच के दृश्य भी फिजूल के हैं और इनका मुख्‍य कहानी से कोई संबंध नहीं है। रॉय का पेंटिंग चुराने वाला प्रसंग बहुत ही सतही है। फिल्म के जरिये क्या कहने की कोशिश की जा रही है, समझ पाना बहुत मुश्किल है। रॉय के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें विक्रमजीत सिंह ने स्क्रिप्ट की बजाय शॉट टेकिंग को ज्यादा महत्व दिया है। किरदारों की लाइफ स्टाइल को बेहतरीन तरीके से पेश किया है लेकिन कहानी को कहने का उनका तरीका बहुत ही उलझा हुआ है। उन्होंने संवादों के जरिये बात कहने की कोशिश ज्यादा की है। कुछ जगह किरदारों की बातचीत अच्छी लगती है, लेकिन कुछ समय बाद यही चीज बोरियत पैदा करती है। फिल्म का उन्होंने जो मूड रखा है उसमें गानों की बिलकुल जगह नहीं बनती। यही वजह है कि हिट गीतों का फिल्मांकन इतना खराब है कि देखने में मजा ही नहीं आता। रॉय का ट्रेलर देखें प्रमुख कलाकारों का अभिनय के मामले में गरीब होना भी फिल्म की कमजोर कड़ी है। अर्जुन रामपाल अपने लुक से प्रभावित करते हैं, एक्टिंग से नहीं। हैट और सिगरेट से उड़ते धुएं के जरिये उन्होंने अपने चेहरे को उन्होंने छिपाने की कोशिश की है। जैकलीन फर्नांडिस एक भूमिका तो ठीक से कर नहीं पाती हैं, ऐसे में दोहरी भूमिका उन्हें सौंपना उनके नाजुक कंधों पर बहुत भारी भार रखने के समान है। मेकअप और हेअर स्टाइल से अंतर पैदा करने की कोशिश की गई है, वरना दोनों किरदारों को जैकलीन ने एक ही तरीके से निभाया है। रणबीर कपूर का रोल छोटा है जिसे पूरी फिल्म में फैलाया गया है। विक्रमजीत सिंह उनके दोस्त हैं शायद इसीलिए रणबीर ने यह फिल्म की है। इसका दु:ख पूरी फिल्म में उनके चेहरे पर नजर आता है। पूरी फिल्म में बोरिंग एक्सप्रेशन लिए वे घूमते रहे। अंकित तिवारी, अमाल मलिक, मीत ब्रदर्स अंजान का संगीत मधुर है। हिम्मन धमीजा की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है। कुछ संवाद भी अच्‍छे हैं, लेकिन एक फिल्म को देखने के लिए ये बातें काफी नहीं हैं। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., फ्रीवे पिक्चर्स निर्माता : दिव्या खोसला कुमार, भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : विक्रमजीत सिंह संगीत : अंकित तिवारी, मीत ब्रदर्स, अमाल मलिक कलाकार : रणबीर कपूर, जैकलीन फर्नांडिज, अर्जुन रामपाल, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट
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