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एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484 कि॰मी2 (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि॰मी2 (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण और 700 कि॰मी2 (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि॰मी॰ (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि॰मी॰ (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि॰मी2 या 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है। ". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि॰मी2 या 16 वर्ग मील) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि॰मी2 या 17 वर्ग मील) जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली 28.61°N 77.23°E / 28.61; 77.23 पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है। भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। | एनसीआर क्षेत्र की जनसंख्या कितनी है? | 4 करोड़ 70 | ensiaar kshetra kii jansankhya kitni he? |
एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484 कि॰मी2 (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि॰मी2 (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण और 700 कि॰मी2 (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि॰मी॰ (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि॰मी॰ (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि॰मी2 या 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है। ". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि॰मी2 या 16 वर्ग मील) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि॰मी2 या 17 वर्ग मील) जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली 28.61°N 77.23°E / 28.61; 77.23 पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है। भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। | समुद्र तल से दिल्ली की ऊंचाई कितनी है ? | ७०० से १००० फीट | samudr tal se dilli kii oonchai kitni he ? |
एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484 कि॰मी2 (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि॰मी2 (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण और 700 कि॰मी2 (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि॰मी॰ (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि॰मी॰ (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि॰मी2 या 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है। ". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि॰मी2 या 16 वर्ग मील) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि॰मी2 या 17 वर्ग मील) जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली 28.61°N 77.23°E / 28.61; 77.23 पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है। भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। | राष्ट्रीय राजधानी का क्या नाम है? | दिल्ली | rashtriya rajdhani kaa kya naam he? |
एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484 कि॰मी2 (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि॰मी2 (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण और 700 कि॰मी2 (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि॰मी॰ (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि॰मी॰ (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि॰मी2 या 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है। ". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि॰मी2 या 16 वर्ग मील) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि॰मी2 या 17 वर्ग मील) जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली 28.61°N 77.23°E / 28.61; 77.23 पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है। भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। | दिल्ली का कुल क्षेत्रफल कितना है ? | 1,484 कि॰मी2 | dilli kaa kul kshetrafal kitna he ? |
एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं। एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484 कि॰मी2 (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि॰मी2 (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण और 700 कि॰मी2 (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि॰मी॰ (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि॰मी॰ (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि॰मी2 या 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है। ". नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है उत्तरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि॰मी2 या 16 वर्ग मील) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद् का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है। दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि॰मी2 या 17 वर्ग मील) जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है। दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपर्युक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरम्भ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है। दिल्ली 28.61°N 77.23°E / 28.61; 77.23 पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊँचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरम्भ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है। भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था। व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी सम्पत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। | दिल्ली की शहरी बस्तियाँ किस पर्वतमाला से घिरी हुई है ? | अरावली पर्वतमाला | dilli kii shahari bastiyaan kis parvatamala se ghiri hui he ? |
ऐतरेय ब्राह्मण (ई.पू.800) और महाभारत जैसे संस्कृत महाकाव्यों में आन्ध्र शासन का उल्लेख किया गया था। भरत के नाट्यशास्त्र (ई.पू. पहली सदी) में भी "आन्ध्र" जाति का उल्लेख किया गया है। भट्टीप्रोलु में पाए गए शिलालेखों में तेलुगू भाषा की जड़ें खोजी गई हैं। चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 322-297) के न्यायालय का दौरा करने वाले मेगस्थनीस ने उल्लेख किया है कि आन्ध्र देश में 3 गढ़ वाले नगर और 100,000 पैदल सेना, 200 घुड़सवार फ़ौज और 1000 हाथियों की सेना थी। बौद्ध पुस्तकों से प्रकट होता है कि उस समय आन्ध्रवासियों ने गोदावरी क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी। अपने 13वें शिलालेख में अशोक ने हवाला दिया है कि आन्ध्रवासी उसके अधीनस्थ थे। शिलालेखीय प्रमाण दर्शाते हैं कि तटवर्ती आन्ध्र में कुबेरका द्वारा शासित एक प्रारंभिक राज्य था, जिसकी राजधानी प्रतिपालपुरा (भट्टीप्रोलु) थी। यह शायद भारत का सबसे पुराना राज्य है। लगता है इसी समय धान्यकटकम/धरणीकोटा (वर्तमान अमरावती) महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं, जिसका गौतम बुद्ध ने भी दौरा किया था। प्राचीन तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार: "अपने ज्ञानोदय के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को बुद्ध ने धान्यकटक के महान स्तूप के पास 'महान नक्षत्र' (कालचक्र) मंडलों का सूत्रपात किया। "मौर्यों ने ई.पू. चौथी शताब्दी में अपने शासन को आन्ध्र तक फैलाया। मौर्य वंश के पतन के बाद ई.पू. तीसरी शताब्दी में आन्ध्र शातवाहन स्वतंत्र हुए. 220 ई.सदी में शातवाहन के ह्रास के बाद, ईक्ष्वाकु राजवंश, पल्लव, आनंद गोत्रिका, विष्णुकुंडीना, पूर्वी चालुक्य और चोला ने तेलुगू भूमि पर शासन किया। तेलुगू भाषा का शिलालेख प्रमाण, 5वीं ईस्वी सदी में रेनाटी चोला (कडपा क्षेत्र) के शासन काल के दौरान मिला। इस अवधि में तेलुगू, प्राकृत और संस्कृत के आधिपत्य को कम करते हुए एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरी. अपनी राजधानी विनुकोंडा से शासन करने वाले विष्णुकुंडीन राजाओं ने तेलुगू को राजभाषा बनाया। | आंध्र शातवाहन कब स्वतंत्र हुए थे ? | तीसरी शताब्दी | andhra shatvahan kab swatantra hue the ? |
ऐतरेय ब्राह्मण (ई.पू.800) और महाभारत जैसे संस्कृत महाकाव्यों में आन्ध्र शासन का उल्लेख किया गया था। भरत के नाट्यशास्त्र (ई.पू. पहली सदी) में भी "आन्ध्र" जाति का उल्लेख किया गया है। भट्टीप्रोलु में पाए गए शिलालेखों में तेलुगू भाषा की जड़ें खोजी गई हैं। चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 322-297) के न्यायालय का दौरा करने वाले मेगस्थनीस ने उल्लेख किया है कि आन्ध्र देश में 3 गढ़ वाले नगर और 100,000 पैदल सेना, 200 घुड़सवार फ़ौज और 1000 हाथियों की सेना थी। बौद्ध पुस्तकों से प्रकट होता है कि उस समय आन्ध्रवासियों ने गोदावरी क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी। अपने 13वें शिलालेख में अशोक ने हवाला दिया है कि आन्ध्रवासी उसके अधीनस्थ थे। शिलालेखीय प्रमाण दर्शाते हैं कि तटवर्ती आन्ध्र में कुबेरका द्वारा शासित एक प्रारंभिक राज्य था, जिसकी राजधानी प्रतिपालपुरा (भट्टीप्रोलु) थी। यह शायद भारत का सबसे पुराना राज्य है। लगता है इसी समय धान्यकटकम/धरणीकोटा (वर्तमान अमरावती) महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं, जिसका गौतम बुद्ध ने भी दौरा किया था। प्राचीन तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार: "अपने ज्ञानोदय के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को बुद्ध ने धान्यकटक के महान स्तूप के पास 'महान नक्षत्र' (कालचक्र) मंडलों का सूत्रपात किया। "मौर्यों ने ई.पू. चौथी शताब्दी में अपने शासन को आन्ध्र तक फैलाया। मौर्य वंश के पतन के बाद ई.पू. तीसरी शताब्दी में आन्ध्र शातवाहन स्वतंत्र हुए. 220 ई.सदी में शातवाहन के ह्रास के बाद, ईक्ष्वाकु राजवंश, पल्लव, आनंद गोत्रिका, विष्णुकुंडीना, पूर्वी चालुक्य और चोला ने तेलुगू भूमि पर शासन किया। तेलुगू भाषा का शिलालेख प्रमाण, 5वीं ईस्वी सदी में रेनाटी चोला (कडपा क्षेत्र) के शासन काल के दौरान मिला। इस अवधि में तेलुगू, प्राकृत और संस्कृत के आधिपत्य को कम करते हुए एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरी. अपनी राजधानी विनुकोंडा से शासन करने वाले विष्णुकुंडीन राजाओं ने तेलुगू को राजभाषा बनाया। | विष्णुकुंडिन राजाओं ने किस भाषा को आधिकारिक भाषा बना दिया था ? | तेलुगू | vishnukundin raajaaon ne kis bhashaa ko aadhikarik bhashaa bana diya tha ? |
ऐतरेय ब्राह्मण (ई.पू.800) और महाभारत जैसे संस्कृत महाकाव्यों में आन्ध्र शासन का उल्लेख किया गया था। भरत के नाट्यशास्त्र (ई.पू. पहली सदी) में भी "आन्ध्र" जाति का उल्लेख किया गया है। भट्टीप्रोलु में पाए गए शिलालेखों में तेलुगू भाषा की जड़ें खोजी गई हैं। चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 322-297) के न्यायालय का दौरा करने वाले मेगस्थनीस ने उल्लेख किया है कि आन्ध्र देश में 3 गढ़ वाले नगर और 100,000 पैदल सेना, 200 घुड़सवार फ़ौज और 1000 हाथियों की सेना थी। बौद्ध पुस्तकों से प्रकट होता है कि उस समय आन्ध्रवासियों ने गोदावरी क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी। अपने 13वें शिलालेख में अशोक ने हवाला दिया है कि आन्ध्रवासी उसके अधीनस्थ थे। शिलालेखीय प्रमाण दर्शाते हैं कि तटवर्ती आन्ध्र में कुबेरका द्वारा शासित एक प्रारंभिक राज्य था, जिसकी राजधानी प्रतिपालपुरा (भट्टीप्रोलु) थी। यह शायद भारत का सबसे पुराना राज्य है। लगता है इसी समय धान्यकटकम/धरणीकोटा (वर्तमान अमरावती) महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं, जिसका गौतम बुद्ध ने भी दौरा किया था। प्राचीन तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार: "अपने ज्ञानोदय के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को बुद्ध ने धान्यकटक के महान स्तूप के पास 'महान नक्षत्र' (कालचक्र) मंडलों का सूत्रपात किया। "मौर्यों ने ई.पू. चौथी शताब्दी में अपने शासन को आन्ध्र तक फैलाया। मौर्य वंश के पतन के बाद ई.पू. तीसरी शताब्दी में आन्ध्र शातवाहन स्वतंत्र हुए. 220 ई.सदी में शातवाहन के ह्रास के बाद, ईक्ष्वाकु राजवंश, पल्लव, आनंद गोत्रिका, विष्णुकुंडीना, पूर्वी चालुक्य और चोला ने तेलुगू भूमि पर शासन किया। तेलुगू भाषा का शिलालेख प्रमाण, 5वीं ईस्वी सदी में रेनाटी चोला (कडपा क्षेत्र) के शासन काल के दौरान मिला। इस अवधि में तेलुगू, प्राकृत और संस्कृत के आधिपत्य को कम करते हुए एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरी. अपनी राजधानी विनुकोंडा से शासन करने वाले विष्णुकुंडीन राजाओं ने तेलुगू को राजभाषा बनाया। | बौद्ध ग्रंथों के अनुसार आंध्र के लोगों ने किस क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी ? | गोदावरी क्षेत्र | buddha granthon ke anusaar andhra ke logon ne kis kshetra main apane rajyon kii sthapana kii thi ? |
ऐतरेय ब्राह्मण (ई.पू.800) और महाभारत जैसे संस्कृत महाकाव्यों में आन्ध्र शासन का उल्लेख किया गया था। भरत के नाट्यशास्त्र (ई.पू. पहली सदी) में भी "आन्ध्र" जाति का उल्लेख किया गया है। भट्टीप्रोलु में पाए गए शिलालेखों में तेलुगू भाषा की जड़ें खोजी गई हैं। चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 322-297) के न्यायालय का दौरा करने वाले मेगस्थनीस ने उल्लेख किया है कि आन्ध्र देश में 3 गढ़ वाले नगर और 100,000 पैदल सेना, 200 घुड़सवार फ़ौज और 1000 हाथियों की सेना थी। बौद्ध पुस्तकों से प्रकट होता है कि उस समय आन्ध्रवासियों ने गोदावरी क्षेत्र में अपने राज्यों की स्थापना की थी। अपने 13वें शिलालेख में अशोक ने हवाला दिया है कि आन्ध्रवासी उसके अधीनस्थ थे। शिलालेखीय प्रमाण दर्शाते हैं कि तटवर्ती आन्ध्र में कुबेरका द्वारा शासित एक प्रारंभिक राज्य था, जिसकी राजधानी प्रतिपालपुरा (भट्टीप्रोलु) थी। यह शायद भारत का सबसे पुराना राज्य है। लगता है इसी समय धान्यकटकम/धरणीकोटा (वर्तमान अमरावती) महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं, जिसका गौतम बुद्ध ने भी दौरा किया था। प्राचीन तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार: "अपने ज्ञानोदय के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को बुद्ध ने धान्यकटक के महान स्तूप के पास 'महान नक्षत्र' (कालचक्र) मंडलों का सूत्रपात किया। "मौर्यों ने ई.पू. चौथी शताब्दी में अपने शासन को आन्ध्र तक फैलाया। मौर्य वंश के पतन के बाद ई.पू. तीसरी शताब्दी में आन्ध्र शातवाहन स्वतंत्र हुए. 220 ई.सदी में शातवाहन के ह्रास के बाद, ईक्ष्वाकु राजवंश, पल्लव, आनंद गोत्रिका, विष्णुकुंडीना, पूर्वी चालुक्य और चोला ने तेलुगू भूमि पर शासन किया। तेलुगू भाषा का शिलालेख प्रमाण, 5वीं ईस्वी सदी में रेनाटी चोला (कडपा क्षेत्र) के शासन काल के दौरान मिला। इस अवधि में तेलुगू, प्राकृत और संस्कृत के आधिपत्य को कम करते हुए एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरी. अपनी राजधानी विनुकोंडा से शासन करने वाले विष्णुकुंडीन राजाओं ने तेलुगू को राजभाषा बनाया। | 13वें शिलालेख में अशोक ने किस क्षेत्र के लोगों को अपने अधीन कहा था ? | आन्ध्रवासी | 13wein shilaalekh main ashok ne kis kshetra ke logon ko apane adheen kaha tha ? |
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों के बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। | स्वामी विवेकानंद के गुरु कौन थे ? | रामकृष्ण परमहंस | swami vivekanand ke guru koun the ? |
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों के बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। | स्वराज के पहले अधिवक्ता श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी किस क्षेत्र के रहने वाले थे ? | कोलकाता | swaraj ke pehle adhivaktaa shri surendranath banerjee kis kshetra ke rahane vaale the ? |
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों के बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। | बंकिम चंद्र चटर्जी किस भाषा के साहित्यकार थे ? | बांग्ला | bankim chandra chatarji kis bhashaa ke sahityakar the ? |
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों के बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। | वंदे मातरम गीत किसने लिखी थी ? | बंकिमचंद्र चटर्जी | vande maataram geet kisne likhi thi ? |
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों के बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया। | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष कौन थे ? | श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी | bhartiya rashtriya congress ke pehle adhyaksh koun the ? |
ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा ने १५३७ में बंगलौर की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवांगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य १८६४ में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। १९५८ में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गयाथा। नंदी की मूर्ति लंबाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊंचाई और 20 फीट लंबाई. पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केम्पे गौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है। बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है। दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवन गुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाऍ भी उपलब्ध है। टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बैंगलोर, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंगलैंड के वाइंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। ४५०० वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस ११० साल पुराना है। सन् १८८० में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है। इसके निर्माण में तब कुल १ करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुन्दर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है। बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। | भगवान शिव के वाहन का क्या नाम है? | नंदी | bhagwaan shiv ke vaahan kaa kya naam he? |
ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा ने १५३७ में बंगलौर की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवांगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य १८६४ में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। १९५८ में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गयाथा। नंदी की मूर्ति लंबाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊंचाई और 20 फीट लंबाई. पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केम्पे गौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है। बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है। दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवन गुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाऍ भी उपलब्ध है। टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बैंगलोर, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंगलैंड के वाइंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। ४५०० वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस ११० साल पुराना है। सन् १८८० में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है। इसके निर्माण में तब कुल १ करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुन्दर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है। बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। | बैंगलोर की स्थापना किसने की थी? | कैंपे गौड़ा | bangalore kii sthapana kisne kii thi? |
ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा ने १५३७ में बंगलौर की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवांगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य १८६४ में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। १९५८ में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गयाथा। नंदी की मूर्ति लंबाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊंचाई और 20 फीट लंबाई. पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केम्पे गौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है। बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है। दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवन गुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाऍ भी उपलब्ध है। टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बैंगलोर, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंगलैंड के वाइंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। ४५०० वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस ११० साल पुराना है। सन् १८८० में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है। इसके निर्माण में तब कुल १ करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुन्दर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है। बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। | बैंगलोर की स्थापना किस वर्ष हुई थी? | १५३७ | bangalore kii sthapana kis varsh hui thi? |
ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा ने १५३७ में बंगलौर की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवांगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य १८६४ में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। १९५८ में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गयाथा। नंदी की मूर्ति लंबाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊंचाई और 20 फीट लंबाई. पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केम्पे गौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है। बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है। दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवन गुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाऍ भी उपलब्ध है। टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बैंगलोर, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंगलैंड के वाइंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। ४५०० वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस ११० साल पुराना है। सन् १८८० में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है। इसके निर्माण में तब कुल १ करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुन्दर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है। बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। | कब्बन पार्क कब बनवाया गया था? | १८६४ | cubbon park kab banwaaya gaya tha? |
ऐसा माना जाता है कि सन १००० ईसा पूर्व से पहले महाराष्ट्र में खेती होती थी लेकिन उस समय मौसम में अचानक परिवर्तन आया और कृषि रुक गई थी। सन् ५०० इसापूर्व के आसपास बम्बई (प्राचीन नाम शुर्पारक, सोपर) एक महत्वपूर्ण पत्तन बनकर उभरा था। यह सोपर ओल्ड टेस्टामेंट का ओफिर था या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। प्राचीन १६ महाजनपद, महाजनपदों में अश्मक या अस्सक का स्थान आधुनिक अहमदनगर के आसपास है। सम्राट अशोक के शिलालेख भी मुम्बई के निकट पाए गए हैं। मौर्यों के पतन के बाद यहाँ यादवों का उदय वर्ष 230 में हुआ। वकटकों के समय अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पहले सन् 550-760 तथा पुनः 973-1180 रहा। इसके बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। अलाउद्दीन खिलजी वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। उसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५) ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद कर ली। यह स्थान पहले देवगिरि नाम से प्रसिद्ध था और औरंगाबाद के निकट स्थित है। बहमनी सल्तनत के टूटने पर यह प्रदेश गोलकुण्डा के आशसन में आया और उसके बाद औरंगजेब का संक्षिप्त शासन। इसके बाद मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वुद्धि हुई और अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे लगभग पूरे महाराष्ट्र पर तो फैल ही चुके थे और उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँच गया था। १८२० तक आते आते अंग्रेजों ने पेशवाओं को पूर्णतः हरा दिया था और यह प्रदेश भी अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन चुका था। देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का संमीलीकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला। आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए एक आंदोलन चल रहा है। नासिक गजट २४६ ईसा पूर्व में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक एक दूतावास भेजा जो करने के लिए स्थानों में से एक के रूप में उल्लेख किया है जो बताता है और यह तीन प्रांतों और ९९,००० गांवों सहित के रूप में ५८० आम था की एक चालुक्यों शिलालेख में दर्ज की गई है। नाम राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और यादव के शासन से पहले पश्चिमी चालुक्य का शासन था। चालुक्य वंश ८ वीं सदी के लिए ६ वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और दो प्रमुख शासकों ८ वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हराया जो उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित जो फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश १० वीं सदी के लिए ८ से महाराष्ट्र शासन किया। सुलेमान "दुनिया की ४ महान राजाओं में से एक के रूप में" राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक कहा जाता है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व था चोल राजवंश.कई लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था। जल्दी १४ वीं सदी में आज महाराष्ट्र के सबसे खारिज कर दिया जो यादव वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक आला उद दीन खलजी द्वारा परास्त किया गया था। बाद में, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में यादव रियासत देवगीरी किसी (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले १५० वर्षों के लिए इस क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। | उस पहले मुस्लिम शासक का नाम बताएं जिसने दक्षिण में मदुरै तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था ? | अलाउद्दीन खिलजी | us pehle muslim shaasha kaa naam bataaen jisane dakshin main madurai tak apane samrajya kaa vistaar kiya tha ? |
ऐसा माना जाता है कि सन १००० ईसा पूर्व से पहले महाराष्ट्र में खेती होती थी लेकिन उस समय मौसम में अचानक परिवर्तन आया और कृषि रुक गई थी। सन् ५०० इसापूर्व के आसपास बम्बई (प्राचीन नाम शुर्पारक, सोपर) एक महत्वपूर्ण पत्तन बनकर उभरा था। यह सोपर ओल्ड टेस्टामेंट का ओफिर था या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। प्राचीन १६ महाजनपद, महाजनपदों में अश्मक या अस्सक का स्थान आधुनिक अहमदनगर के आसपास है। सम्राट अशोक के शिलालेख भी मुम्बई के निकट पाए गए हैं। मौर्यों के पतन के बाद यहाँ यादवों का उदय वर्ष 230 में हुआ। वकटकों के समय अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पहले सन् 550-760 तथा पुनः 973-1180 रहा। इसके बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। अलाउद्दीन खिलजी वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। उसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५) ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद कर ली। यह स्थान पहले देवगिरि नाम से प्रसिद्ध था और औरंगाबाद के निकट स्थित है। बहमनी सल्तनत के टूटने पर यह प्रदेश गोलकुण्डा के आशसन में आया और उसके बाद औरंगजेब का संक्षिप्त शासन। इसके बाद मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वुद्धि हुई और अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे लगभग पूरे महाराष्ट्र पर तो फैल ही चुके थे और उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँच गया था। १८२० तक आते आते अंग्रेजों ने पेशवाओं को पूर्णतः हरा दिया था और यह प्रदेश भी अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन चुका था। देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का संमीलीकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला। आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए एक आंदोलन चल रहा है। नासिक गजट २४६ ईसा पूर्व में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक एक दूतावास भेजा जो करने के लिए स्थानों में से एक के रूप में उल्लेख किया है जो बताता है और यह तीन प्रांतों और ९९,००० गांवों सहित के रूप में ५८० आम था की एक चालुक्यों शिलालेख में दर्ज की गई है। नाम राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और यादव के शासन से पहले पश्चिमी चालुक्य का शासन था। चालुक्य वंश ८ वीं सदी के लिए ६ वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और दो प्रमुख शासकों ८ वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हराया जो उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित जो फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश १० वीं सदी के लिए ८ से महाराष्ट्र शासन किया। सुलेमान "दुनिया की ४ महान राजाओं में से एक के रूप में" राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक कहा जाता है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व था चोल राजवंश.कई लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था। जल्दी १४ वीं सदी में आज महाराष्ट्र के सबसे खारिज कर दिया जो यादव वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक आला उद दीन खलजी द्वारा परास्त किया गया था। बाद में, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में यादव रियासत देवगीरी किसी (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले १५० वर्षों के लिए इस क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। | महाराष्ट्र में कितने समय पहले से कृषि की जाती थी ? | १००० ईसा पूर्व | maharashtra main kitne samay pehle se krishi kii jaati thi ? |
ऐसा माना जाता है कि सन १००० ईसा पूर्व से पहले महाराष्ट्र में खेती होती थी लेकिन उस समय मौसम में अचानक परिवर्तन आया और कृषि रुक गई थी। सन् ५०० इसापूर्व के आसपास बम्बई (प्राचीन नाम शुर्पारक, सोपर) एक महत्वपूर्ण पत्तन बनकर उभरा था। यह सोपर ओल्ड टेस्टामेंट का ओफिर था या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। प्राचीन १६ महाजनपद, महाजनपदों में अश्मक या अस्सक का स्थान आधुनिक अहमदनगर के आसपास है। सम्राट अशोक के शिलालेख भी मुम्बई के निकट पाए गए हैं। मौर्यों के पतन के बाद यहाँ यादवों का उदय वर्ष 230 में हुआ। वकटकों के समय अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पहले सन् 550-760 तथा पुनः 973-1180 रहा। इसके बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। अलाउद्दीन खिलजी वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। उसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५) ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद कर ली। यह स्थान पहले देवगिरि नाम से प्रसिद्ध था और औरंगाबाद के निकट स्थित है। बहमनी सल्तनत के टूटने पर यह प्रदेश गोलकुण्डा के आशसन में आया और उसके बाद औरंगजेब का संक्षिप्त शासन। इसके बाद मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वुद्धि हुई और अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे लगभग पूरे महाराष्ट्र पर तो फैल ही चुके थे और उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँच गया था। १८२० तक आते आते अंग्रेजों ने पेशवाओं को पूर्णतः हरा दिया था और यह प्रदेश भी अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन चुका था। देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का संमीलीकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला। आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए एक आंदोलन चल रहा है। नासिक गजट २४६ ईसा पूर्व में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक एक दूतावास भेजा जो करने के लिए स्थानों में से एक के रूप में उल्लेख किया है जो बताता है और यह तीन प्रांतों और ९९,००० गांवों सहित के रूप में ५८० आम था की एक चालुक्यों शिलालेख में दर्ज की गई है। नाम राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और यादव के शासन से पहले पश्चिमी चालुक्य का शासन था। चालुक्य वंश ८ वीं सदी के लिए ६ वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और दो प्रमुख शासकों ८ वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हराया जो उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित जो फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश १० वीं सदी के लिए ८ से महाराष्ट्र शासन किया। सुलेमान "दुनिया की ४ महान राजाओं में से एक के रूप में" राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक कहा जाता है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व था चोल राजवंश.कई लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था। जल्दी १४ वीं सदी में आज महाराष्ट्र के सबसे खारिज कर दिया जो यादव वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक आला उद दीन खलजी द्वारा परास्त किया गया था। बाद में, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में यादव रियासत देवगीरी किसी (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले १५० वर्षों के लिए इस क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। | अजंता की गुफाओं का निर्माण किस समय किया गया था ? | वकटकों | ajanta kii gufaaon kaa nirmaan kis samay kiya gaya tha ? |
ऐसा माना जाता है कि सन १००० ईसा पूर्व से पहले महाराष्ट्र में खेती होती थी लेकिन उस समय मौसम में अचानक परिवर्तन आया और कृषि रुक गई थी। सन् ५०० इसापूर्व के आसपास बम्बई (प्राचीन नाम शुर्पारक, सोपर) एक महत्वपूर्ण पत्तन बनकर उभरा था। यह सोपर ओल्ड टेस्टामेंट का ओफिर था या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। प्राचीन १६ महाजनपद, महाजनपदों में अश्मक या अस्सक का स्थान आधुनिक अहमदनगर के आसपास है। सम्राट अशोक के शिलालेख भी मुम्बई के निकट पाए गए हैं। मौर्यों के पतन के बाद यहाँ यादवों का उदय वर्ष 230 में हुआ। वकटकों के समय अजन्ता गुफाओं का निर्माण हुआ। चालुक्यों का शासन पहले सन् 550-760 तथा पुनः 973-1180 रहा। इसके बीच राष्ट्रकूटों का शासन आया था। अलाउद्दीन खिलजी वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। उसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५) ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद कर ली। यह स्थान पहले देवगिरि नाम से प्रसिद्ध था और औरंगाबाद के निकट स्थित है। बहमनी सल्तनत के टूटने पर यह प्रदेश गोलकुण्डा के आशसन में आया और उसके बाद औरंगजेब का संक्षिप्त शासन। इसके बाद मराठों की शक्ति में उत्तरोत्तर वुद्धि हुई और अठारहवीं सदी के अन्त तक मराठे लगभग पूरे महाराष्ट्र पर तो फैल ही चुके थे और उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक के दक्षिणी सिरे तक पहुँच गया था। १८२० तक आते आते अंग्रेजों ने पेशवाओं को पूर्णतः हरा दिया था और यह प्रदेश भी अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बन चुका था। देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का संमीलीकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला। आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई। राज्य के दक्षिण सरहद से लगे कर्नाटक के बेलगांव शहर और आसपास के गावों को महाराष्ट्र में शामील करने के लिए एक आंदोलन चल रहा है। नासिक गजट २४६ ईसा पूर्व में महाराष्ट्र में मौर्य सम्राट अशोक एक दूतावास भेजा जो करने के लिए स्थानों में से एक के रूप में उल्लेख किया है जो बताता है और यह तीन प्रांतों और ९९,००० गांवों सहित के रूप में ५८० आम था की एक चालुक्यों शिलालेख में दर्ज की गई है। नाम राजवंश, पश्चिमी क्षत्रपों, गुप्त साम्राज्य, गुर्जर, प्रतिहार, वकातका, कदाम्बस्, चालुक्य साम्राज्य, राष्ट्रकूट राजवंश और यादव के शासन से पहले पश्चिमी चालुक्य का शासन था। चालुक्य वंश ८ वीं सदी के लिए ६ वीं शताब्दी से महाराष्ट्र पर राज किया और दो प्रमुख शासकों ८ वीं सदी में अरब आक्रमणकारियों को हराया जो उत्तर भारतीय सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य द्वितीय, पराजित जो फुलकेशि द्वितीय, थे। राष्ट्रकूट राजवंश १० वीं सदी के लिए ८ से महाराष्ट्र शासन किया। सुलेमान "दुनिया की ४ महान राजाओं में से एक के रूप में" राष्ट्रकूट राजवंश (अमोघावर्ह) के शासक कहा जाता है। १२ वीं सदी में जल्दी ११ वीं सदी से अरब यात्री दक्कन के पठार के पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और प्रभुत्व था चोल राजवंश.कई लड़ाइयों पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और राजा राजा चोल, राजेंद्र चोल, जयसिम्ह द्वितीय, सोमेश्वरा मैं और विक्रमादित्य षष्ठम के राजा के दौरान दक्कन के पठार में चोल राजवंश के बीच लड़ा गया था। जल्दी १४ वीं सदी में आज महाराष्ट्र के सबसे खारिज कर दिया जो यादव वंश, दिल्ली सल्तनत के शासक आला उद दीन खलजी द्वारा परास्त किया गया था। बाद में, मुहम्मद बिन तुगलक डेक्कन के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अस्थायी रूप से महाराष्ट्र में यादव रियासत देवगीरी किसी (दौलताबाद ) के लिए दिल्ली से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दिया। १३४७ में तुगलक के पतन के बाद, गुलबर्ग के स्थानीय बहमनी सल्तनत अगले १५० वर्षों के लिए इस क्षेत्र गवर्निंग, पदभार संभाल लिया है। | मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दिल्ली से कहाँ स्थानांतरित कर दिया था ? | दौलताबाद | mohammad bin tughlaq ne apni rajdhani ko dilli se kahan sthanantarit kar diya tha ? |
ओडिशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओडिशा की लगभग 80प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओडिशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता में कमी, मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी, उर्वरकों का न्यूनतम उHI और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती हैचूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। | ओडिशा मे कुल कितने खेत हैं? | 40 लाख | odisha me kul kitne khet hai? |
ओडिशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओडिशा की लगभग 80प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओडिशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता में कमी, मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी, उर्वरकों का न्यूनतम उHI और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती हैचूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। | लिफ्ट इरीगेशन कॉरपोरेशन ने किस योजना के तहत 500 लिफ्ट इरीगेशन पॉइंट बनाए थे? | बीजू कृषक विकास योजना | lift irigation corporation ne kis yojana ke tahat 500 lift irigation point banaae the? |
ओडिशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओडिशा की लगभग 80प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओडिशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता में कमी, मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी, उर्वरकों का न्यूनतम उHI और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती हैचूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। | ओडिशा की मुख्य फसल का क्या नाम है? | चावल | odisha kii mukhya fasal kaa kya naam he? |
ओडिशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओडिशा की लगभग 80प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओडिशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता में कमी, मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी, उर्वरकों का न्यूनतम उHI और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती हैचूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। | ओडिशा की कितनी प्रतिशत आबादी कृषि कार्यो पर निर्भर करती है ? | 80प्रतिशत | odisha kii kitni pratishat aabaadi krishi kaaryo par nirbhar karti he ? |
ओडिशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओडिशा की लगभग 80प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओडिशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता में कमी, मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी, उर्वरकों का न्यूनतम उHI और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती हैचूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है-वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। | वर्ष 2004-2005 के दौरान ओडिशा में बिजली की उत्पादन क्षमता कितनी थी? | 4,845.34 मेगावाट | varsh 2004-2005 ke dauraan odisha main bijli kii utpaadan kshamta kitni thi? |
कंपनी पहले चरण के लिए 400 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है; दूसरे चरण के लिए अधिग्रहण शीघ्र ही शुरू हो जाएगा। यूनिटेक समूह और Altus अंतरिक्ष बिल्डर्स भी आवासीय टाउनशिप विकसित कर रहे हैं। अन्य डेवलपर्स रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह (ADAG), Ansals और Rahejas शामिल हैं। चंडीगढ़ (स्थानीय उच्चारण: [tʃə̃ˈɖiːɡəɽʱ] (यह ध्वनि सुनने के बाद में) एक शहर और एक संघ भारत के राज्यक्षेत्र कि हरियाणा और पंजाब के भारतीय राज्यों की राजधानी के रूप में कार्य करता है। एक केंद्र शासित प्रदेश, के रूप में शहर सीधे केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है और या तो राज्य का हिस्सा नहीं है। चंडीगढ़ पंजाब उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के लिए, और हरियाणा राज्य के पूर्व करने के लिए राज्य द्वारा bordered है। चंडीगढ़ चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र या ग्रेटर चंडीगढ़, चंडीगढ़, और शहर के पंचकुला (हरियाणा) में भी शामिल है जो का एक हिस्सा और Kharar, Kurali, मोहाली, (पंजाब) में ज़िरकपुर का शहर माना जाता है। यह शिमला के दक्षिण पश्चिम के अमृतसर और सिर्फ 116 मी (72 मील) दक्षिण-पूर्व स्थित 260 किमी (162 मील) उत्तर न्यू दिल्ली, 229 मी (143 मील) है। चंडीगढ़ आजादी के बाद भारत में प्रारंभिक नियोजित शहरों में से एक था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वास्तुकला और शहरी डिजाइन के लिए जाना जाता है। Le Corbusier, जो बदल से पहले की योजना बनाई गई स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट पोलिश वास्तुकार Maciej Nowicki और अमेरिकी नियोजक अल्बर्ट मेयर द्वारा द्वारा शहर का मास्टर प्लान तैयार किया गया था। अधिकांश सरकारी इमारतों और शहर में आवास चंडीगढ़ राजधानी परियोजना Le Corbusier, जेन आकर्षित और मैक्सवेल तलना द्वारा नेतृत्व टीम द्वारा डिजाइन किए गए थे। 2015 में बीबीसी द्वारा प्रकाशित लेख चंडीगढ़ वास्तुकला, सांस्कृतिक विकास और आधुनिकीकरण के मामले में दुनिया के आदर्श शहरों में से एक के रूप में नाम। नाम चंडीगढ़ चण्डी और गढ़ का एक सूटकेस है। चण्डी हिंदू देवी चण्डी, योद्धा देवी पार्वती का अवतार और गढ़ का मतलब है घर के लिए संदर्भित करता है। [18] नाम चंडी मंदिर, एक प्राचीन मंदिर हिंदू देवी चण्डी, पंचकुला जिले में शहर के पास करने के लिए समर्पित से ली गई है। [19]"सिटी सुंदर" के लोगो कि उत्तरी अमेरिकी शहरी 1890 और 1900s के दौरान योजना में एक लोकप्रिय दर्शन था शहर सुंदर आंदोलन से निकला है। वास्तुकार अल्बर्ट मेयर, चंडीगढ़, के प्रारंभिक योजनाकार शहर सुंदर अवधारणाओं की अमेरिकी अस्वीकृति का कहना था और घोषणा की "हम एक सुंदर शहर बनाने के लिए चाहते हैं" [20] वाक्यांश पर आधिकारिक प्रकाशनों में एक लोगो के रूप में 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया था, और अब है कैसे शहर ही का वर्णन करता है। [21] [22]इतिहास [संपादित करें]प्रारंभिक इतिहास [संपादित करें]शहर के एक पूर्व ऐतिहासिक अतीत है। झील की उपस्थिति के कारण, क्षेत्र जीवाश्म अवशेष निशान जलीय पौधों और पशुओं, और उभयचर जीवन, जो कि पर्यावरण द्वारा समर्थित थे की एक विशाल विविधता के साथ है। यह पंजाब क्षेत्र का एक हिस्सा था के रूप में, यह कई नदियाँ कहाँ शुरू हुआ प्राचीन और आदिम मनुष्य के बसने के पास था। तो, लगभग 8000 साल पहले, क्षेत्र भी एक घर हड़प्पावासियों के लिए किया जा करने के लिए जाना जाता था। [23]आधुनिक इतिहास1909 में ब्रिटिश पंजाब प्रांत का एक नक्शा। विभाजन के दौरान भारत रेडक्लिफ रेखा पर, पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में लाहौर, पंजाब प्रांत की राजधानी गिर गया। आवश्यकता है तो, भारत में पूर्वी पंजाब के लिए एक नई राजधानी चंडीगढ़ के विकास के लिए नेतृत्व किया। | चंडीगढ़ शहर से नई दिल्ली की दुरी कितनी है ? | 229 मी | chandigarh shahar se nai dilli kii duri kitni he ? |
कंपनी पहले चरण के लिए 400 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है; दूसरे चरण के लिए अधिग्रहण शीघ्र ही शुरू हो जाएगा। यूनिटेक समूह और Altus अंतरिक्ष बिल्डर्स भी आवासीय टाउनशिप विकसित कर रहे हैं। अन्य डेवलपर्स रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह (ADAG), Ansals और Rahejas शामिल हैं। चंडीगढ़ (स्थानीय उच्चारण: [tʃə̃ˈɖiːɡəɽʱ] (यह ध्वनि सुनने के बाद में) एक शहर और एक संघ भारत के राज्यक्षेत्र कि हरियाणा और पंजाब के भारतीय राज्यों की राजधानी के रूप में कार्य करता है। एक केंद्र शासित प्रदेश, के रूप में शहर सीधे केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है और या तो राज्य का हिस्सा नहीं है। चंडीगढ़ पंजाब उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के लिए, और हरियाणा राज्य के पूर्व करने के लिए राज्य द्वारा bordered है। चंडीगढ़ चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र या ग्रेटर चंडीगढ़, चंडीगढ़, और शहर के पंचकुला (हरियाणा) में भी शामिल है जो का एक हिस्सा और Kharar, Kurali, मोहाली, (पंजाब) में ज़िरकपुर का शहर माना जाता है। यह शिमला के दक्षिण पश्चिम के अमृतसर और सिर्फ 116 मी (72 मील) दक्षिण-पूर्व स्थित 260 किमी (162 मील) उत्तर न्यू दिल्ली, 229 मी (143 मील) है। चंडीगढ़ आजादी के बाद भारत में प्रारंभिक नियोजित शहरों में से एक था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वास्तुकला और शहरी डिजाइन के लिए जाना जाता है। Le Corbusier, जो बदल से पहले की योजना बनाई गई स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट पोलिश वास्तुकार Maciej Nowicki और अमेरिकी नियोजक अल्बर्ट मेयर द्वारा द्वारा शहर का मास्टर प्लान तैयार किया गया था। अधिकांश सरकारी इमारतों और शहर में आवास चंडीगढ़ राजधानी परियोजना Le Corbusier, जेन आकर्षित और मैक्सवेल तलना द्वारा नेतृत्व टीम द्वारा डिजाइन किए गए थे। 2015 में बीबीसी द्वारा प्रकाशित लेख चंडीगढ़ वास्तुकला, सांस्कृतिक विकास और आधुनिकीकरण के मामले में दुनिया के आदर्श शहरों में से एक के रूप में नाम। नाम चंडीगढ़ चण्डी और गढ़ का एक सूटकेस है। चण्डी हिंदू देवी चण्डी, योद्धा देवी पार्वती का अवतार और गढ़ का मतलब है घर के लिए संदर्भित करता है। [18] नाम चंडी मंदिर, एक प्राचीन मंदिर हिंदू देवी चण्डी, पंचकुला जिले में शहर के पास करने के लिए समर्पित से ली गई है। [19]"सिटी सुंदर" के लोगो कि उत्तरी अमेरिकी शहरी 1890 और 1900s के दौरान योजना में एक लोकप्रिय दर्शन था शहर सुंदर आंदोलन से निकला है। वास्तुकार अल्बर्ट मेयर, चंडीगढ़, के प्रारंभिक योजनाकार शहर सुंदर अवधारणाओं की अमेरिकी अस्वीकृति का कहना था और घोषणा की "हम एक सुंदर शहर बनाने के लिए चाहते हैं" [20] वाक्यांश पर आधिकारिक प्रकाशनों में एक लोगो के रूप में 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया था, और अब है कैसे शहर ही का वर्णन करता है। [21] [22]इतिहास [संपादित करें]प्रारंभिक इतिहास [संपादित करें]शहर के एक पूर्व ऐतिहासिक अतीत है। झील की उपस्थिति के कारण, क्षेत्र जीवाश्म अवशेष निशान जलीय पौधों और पशुओं, और उभयचर जीवन, जो कि पर्यावरण द्वारा समर्थित थे की एक विशाल विविधता के साथ है। यह पंजाब क्षेत्र का एक हिस्सा था के रूप में, यह कई नदियाँ कहाँ शुरू हुआ प्राचीन और आदिम मनुष्य के बसने के पास था। तो, लगभग 8000 साल पहले, क्षेत्र भी एक घर हड़प्पावासियों के लिए किया जा करने के लिए जाना जाता था। [23]आधुनिक इतिहास1909 में ब्रिटिश पंजाब प्रांत का एक नक्शा। विभाजन के दौरान भारत रेडक्लिफ रेखा पर, पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में लाहौर, पंजाब प्रांत की राजधानी गिर गया। आवश्यकता है तो, भारत में पूर्वी पंजाब के लिए एक नई राजधानी चंडीगढ़ के विकास के लिए नेतृत्व किया। | चंडीगढ़ का मास्टर प्लान किसके द्वारा तैयार किया गया था? | अल्बर्ट मेयर | chandigarh kaa master plan kiske dwaara taiyaar kiya gaya tha? |
कंपनी पहले चरण के लिए 400 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है; दूसरे चरण के लिए अधिग्रहण शीघ्र ही शुरू हो जाएगा। यूनिटेक समूह और Altus अंतरिक्ष बिल्डर्स भी आवासीय टाउनशिप विकसित कर रहे हैं। अन्य डेवलपर्स रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह (ADAG), Ansals और Rahejas शामिल हैं। चंडीगढ़ (स्थानीय उच्चारण: [tʃə̃ˈɖiːɡəɽʱ] (यह ध्वनि सुनने के बाद में) एक शहर और एक संघ भारत के राज्यक्षेत्र कि हरियाणा और पंजाब के भारतीय राज्यों की राजधानी के रूप में कार्य करता है। एक केंद्र शासित प्रदेश, के रूप में शहर सीधे केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है और या तो राज्य का हिस्सा नहीं है। चंडीगढ़ पंजाब उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के लिए, और हरियाणा राज्य के पूर्व करने के लिए राज्य द्वारा bordered है। चंडीगढ़ चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र या ग्रेटर चंडीगढ़, चंडीगढ़, और शहर के पंचकुला (हरियाणा) में भी शामिल है जो का एक हिस्सा और Kharar, Kurali, मोहाली, (पंजाब) में ज़िरकपुर का शहर माना जाता है। यह शिमला के दक्षिण पश्चिम के अमृतसर और सिर्फ 116 मी (72 मील) दक्षिण-पूर्व स्थित 260 किमी (162 मील) उत्तर न्यू दिल्ली, 229 मी (143 मील) है। चंडीगढ़ आजादी के बाद भारत में प्रारंभिक नियोजित शहरों में से एक था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वास्तुकला और शहरी डिजाइन के लिए जाना जाता है। Le Corbusier, जो बदल से पहले की योजना बनाई गई स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट पोलिश वास्तुकार Maciej Nowicki और अमेरिकी नियोजक अल्बर्ट मेयर द्वारा द्वारा शहर का मास्टर प्लान तैयार किया गया था। अधिकांश सरकारी इमारतों और शहर में आवास चंडीगढ़ राजधानी परियोजना Le Corbusier, जेन आकर्षित और मैक्सवेल तलना द्वारा नेतृत्व टीम द्वारा डिजाइन किए गए थे। 2015 में बीबीसी द्वारा प्रकाशित लेख चंडीगढ़ वास्तुकला, सांस्कृतिक विकास और आधुनिकीकरण के मामले में दुनिया के आदर्श शहरों में से एक के रूप में नाम। नाम चंडीगढ़ चण्डी और गढ़ का एक सूटकेस है। चण्डी हिंदू देवी चण्डी, योद्धा देवी पार्वती का अवतार और गढ़ का मतलब है घर के लिए संदर्भित करता है। [18] नाम चंडी मंदिर, एक प्राचीन मंदिर हिंदू देवी चण्डी, पंचकुला जिले में शहर के पास करने के लिए समर्पित से ली गई है। [19]"सिटी सुंदर" के लोगो कि उत्तरी अमेरिकी शहरी 1890 और 1900s के दौरान योजना में एक लोकप्रिय दर्शन था शहर सुंदर आंदोलन से निकला है। वास्तुकार अल्बर्ट मेयर, चंडीगढ़, के प्रारंभिक योजनाकार शहर सुंदर अवधारणाओं की अमेरिकी अस्वीकृति का कहना था और घोषणा की "हम एक सुंदर शहर बनाने के लिए चाहते हैं" [20] वाक्यांश पर आधिकारिक प्रकाशनों में एक लोगो के रूप में 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया था, और अब है कैसे शहर ही का वर्णन करता है। [21] [22]इतिहास [संपादित करें]प्रारंभिक इतिहास [संपादित करें]शहर के एक पूर्व ऐतिहासिक अतीत है। झील की उपस्थिति के कारण, क्षेत्र जीवाश्म अवशेष निशान जलीय पौधों और पशुओं, और उभयचर जीवन, जो कि पर्यावरण द्वारा समर्थित थे की एक विशाल विविधता के साथ है। यह पंजाब क्षेत्र का एक हिस्सा था के रूप में, यह कई नदियाँ कहाँ शुरू हुआ प्राचीन और आदिम मनुष्य के बसने के पास था। तो, लगभग 8000 साल पहले, क्षेत्र भी एक घर हड़प्पावासियों के लिए किया जा करने के लिए जाना जाता था। [23]आधुनिक इतिहास1909 में ब्रिटिश पंजाब प्रांत का एक नक्शा। विभाजन के दौरान भारत रेडक्लिफ रेखा पर, पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में लाहौर, पंजाब प्रांत की राजधानी गिर गया। आवश्यकता है तो, भारत में पूर्वी पंजाब के लिए एक नई राजधानी चंडीगढ़ के विकास के लिए नेतृत्व किया। | हरियाणा और पंजाब की राजधानी का क्या नाम है? | चंडीगढ़ | haryana or punjab kii rajdhani kaa kya naam he? |
कंपनी पहले चरण के लिए 400 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है; दूसरे चरण के लिए अधिग्रहण शीघ्र ही शुरू हो जाएगा। यूनिटेक समूह और Altus अंतरिक्ष बिल्डर्स भी आवासीय टाउनशिप विकसित कर रहे हैं। अन्य डेवलपर्स रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह (ADAG), Ansals और Rahejas शामिल हैं। चंडीगढ़ (स्थानीय उच्चारण: [tʃə̃ˈɖiːɡəɽʱ] (यह ध्वनि सुनने के बाद में) एक शहर और एक संघ भारत के राज्यक्षेत्र कि हरियाणा और पंजाब के भारतीय राज्यों की राजधानी के रूप में कार्य करता है। एक केंद्र शासित प्रदेश, के रूप में शहर सीधे केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है और या तो राज्य का हिस्सा नहीं है। चंडीगढ़ पंजाब उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के लिए, और हरियाणा राज्य के पूर्व करने के लिए राज्य द्वारा bordered है। चंडीगढ़ चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र या ग्रेटर चंडीगढ़, चंडीगढ़, और शहर के पंचकुला (हरियाणा) में भी शामिल है जो का एक हिस्सा और Kharar, Kurali, मोहाली, (पंजाब) में ज़िरकपुर का शहर माना जाता है। यह शिमला के दक्षिण पश्चिम के अमृतसर और सिर्फ 116 मी (72 मील) दक्षिण-पूर्व स्थित 260 किमी (162 मील) उत्तर न्यू दिल्ली, 229 मी (143 मील) है। चंडीगढ़ आजादी के बाद भारत में प्रारंभिक नियोजित शहरों में से एक था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वास्तुकला और शहरी डिजाइन के लिए जाना जाता है। Le Corbusier, जो बदल से पहले की योजना बनाई गई स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट पोलिश वास्तुकार Maciej Nowicki और अमेरिकी नियोजक अल्बर्ट मेयर द्वारा द्वारा शहर का मास्टर प्लान तैयार किया गया था। अधिकांश सरकारी इमारतों और शहर में आवास चंडीगढ़ राजधानी परियोजना Le Corbusier, जेन आकर्षित और मैक्सवेल तलना द्वारा नेतृत्व टीम द्वारा डिजाइन किए गए थे। 2015 में बीबीसी द्वारा प्रकाशित लेख चंडीगढ़ वास्तुकला, सांस्कृतिक विकास और आधुनिकीकरण के मामले में दुनिया के आदर्श शहरों में से एक के रूप में नाम। नाम चंडीगढ़ चण्डी और गढ़ का एक सूटकेस है। चण्डी हिंदू देवी चण्डी, योद्धा देवी पार्वती का अवतार और गढ़ का मतलब है घर के लिए संदर्भित करता है। [18] नाम चंडी मंदिर, एक प्राचीन मंदिर हिंदू देवी चण्डी, पंचकुला जिले में शहर के पास करने के लिए समर्पित से ली गई है। [19]"सिटी सुंदर" के लोगो कि उत्तरी अमेरिकी शहरी 1890 और 1900s के दौरान योजना में एक लोकप्रिय दर्शन था शहर सुंदर आंदोलन से निकला है। वास्तुकार अल्बर्ट मेयर, चंडीगढ़, के प्रारंभिक योजनाकार शहर सुंदर अवधारणाओं की अमेरिकी अस्वीकृति का कहना था और घोषणा की "हम एक सुंदर शहर बनाने के लिए चाहते हैं" [20] वाक्यांश पर आधिकारिक प्रकाशनों में एक लोगो के रूप में 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया था, और अब है कैसे शहर ही का वर्णन करता है। [21] [22]इतिहास [संपादित करें]प्रारंभिक इतिहास [संपादित करें]शहर के एक पूर्व ऐतिहासिक अतीत है। झील की उपस्थिति के कारण, क्षेत्र जीवाश्म अवशेष निशान जलीय पौधों और पशुओं, और उभयचर जीवन, जो कि पर्यावरण द्वारा समर्थित थे की एक विशाल विविधता के साथ है। यह पंजाब क्षेत्र का एक हिस्सा था के रूप में, यह कई नदियाँ कहाँ शुरू हुआ प्राचीन और आदिम मनुष्य के बसने के पास था। तो, लगभग 8000 साल पहले, क्षेत्र भी एक घर हड़प्पावासियों के लिए किया जा करने के लिए जाना जाता था। [23]आधुनिक इतिहास1909 में ब्रिटिश पंजाब प्रांत का एक नक्शा। विभाजन के दौरान भारत रेडक्लिफ रेखा पर, पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में लाहौर, पंजाब प्रांत की राजधानी गिर गया। आवश्यकता है तो, भारत में पूर्वी पंजाब के लिए एक नई राजधानी चंडीगढ़ के विकास के लिए नेतृत्व किया। | चंडीगढ़ के उत्तर दिशा में कौन सा राज्य है ? | पंजाब | chandigarh ke uttar disha main koun sa rajya he ? |
कई वर्षों से लगातार प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश कभी दोहरे अंकों में आर्थिक विकास हासिल नहीं कर पाया है। २०१७-१८ में जीएसडीपी ७ प्रतिशत और २०१८-१९ में ६.५ प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमएआई) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार २०१०-२० के दशक में उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी दर ११.४ प्रतिशत अंक से बढ़ी, जो अप्रैल २०२० में २१.५ प्रतिशत आंकी गयी। उत्तर प्रदेश में राज्य से बाहर प्रवास करने वाले अप्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या है। प्रवास पर २०११ की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग १.४४ करोड़ (१४.७ %) लोग उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए थे। पुरुषों में प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण कार्य/रोजगार जबकि महिलाओं के बीच प्रवास का प्रमुख कारण अप्रवासी पुरुषों से विवाह उद्धृत किया गया। २००९-१० में, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, वानिकी और पर्यटन) के राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में ४४% के योगदान और द्वितीयक क्षेत्र (औद्योगिक और विनिर्माण) के ११.२% के योगदान की तुलना में तृतीयक क्षेत्र (सेवा उद्योग) ४४.८% के योगदान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्ता था। एमएसएमई क्षेत्र उत्तर प्रदेश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजनकर्ता है, पहला कृषि है जो राज्य भर में ९२ लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ११वीं पंचवर्षीय योजना (२००७-२०१२) के दौरान, औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर ७.३% थी, जो देश के अन्य सभी राज्यों के औसत १५.५% से कम थी। ₹२९,४१७ की राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी भी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति जीएसडीपी ₹६०.९७२ से कम थी। हालाँकि, राज्य की श्रम दक्षता २६ थी, जो २५ के राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। कपड़ा और चीनी शोधन, दोनों उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चले आ रहे उद्योग हैं, जो राज्य के कुल कारखाना श्रम के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं। राज्य के पर्यटन उद्योग से भी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। राज्य के निर्यात में जूते, चमड़े के सामान और खेल के सामान शामिल हैं। राज्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी सफल रहा है, जो ज्यादातर सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में आया है; नोएडा, कानपुर और लखनऊ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग के लिए प्रमुख केंद्र बन रहे हैं और अधिकांश प्रमुख कॉर्पोरेट, मीडिया और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालय इन्हीं नगरों में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित सोनभद्र जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग हैं, और इसके दक्षिणी क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। | उत्तर प्रदेश का पहला सबसे बड़ा रोजगार देने वाला कौन सा क्षेत्र है ? | कृषि | uttar pradesh kaa pehla sabase bada rojgaar dene vaala koun sa kshetra he ? |
कई वर्षों से लगातार प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश कभी दोहरे अंकों में आर्थिक विकास हासिल नहीं कर पाया है। २०१७-१८ में जीएसडीपी ७ प्रतिशत और २०१८-१९ में ६.५ प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमएआई) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार २०१०-२० के दशक में उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी दर ११.४ प्रतिशत अंक से बढ़ी, जो अप्रैल २०२० में २१.५ प्रतिशत आंकी गयी। उत्तर प्रदेश में राज्य से बाहर प्रवास करने वाले अप्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या है। प्रवास पर २०११ की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग १.४४ करोड़ (१४.७ %) लोग उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए थे। पुरुषों में प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण कार्य/रोजगार जबकि महिलाओं के बीच प्रवास का प्रमुख कारण अप्रवासी पुरुषों से विवाह उद्धृत किया गया। २००९-१० में, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, वानिकी और पर्यटन) के राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में ४४% के योगदान और द्वितीयक क्षेत्र (औद्योगिक और विनिर्माण) के ११.२% के योगदान की तुलना में तृतीयक क्षेत्र (सेवा उद्योग) ४४.८% के योगदान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्ता था। एमएसएमई क्षेत्र उत्तर प्रदेश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजनकर्ता है, पहला कृषि है जो राज्य भर में ९२ लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ११वीं पंचवर्षीय योजना (२००७-२०१२) के दौरान, औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर ७.३% थी, जो देश के अन्य सभी राज्यों के औसत १५.५% से कम थी। ₹२९,४१७ की राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी भी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति जीएसडीपी ₹६०.९७२ से कम थी। हालाँकि, राज्य की श्रम दक्षता २६ थी, जो २५ के राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। कपड़ा और चीनी शोधन, दोनों उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चले आ रहे उद्योग हैं, जो राज्य के कुल कारखाना श्रम के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं। राज्य के पर्यटन उद्योग से भी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। राज्य के निर्यात में जूते, चमड़े के सामान और खेल के सामान शामिल हैं। राज्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी सफल रहा है, जो ज्यादातर सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में आया है; नोएडा, कानपुर और लखनऊ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग के लिए प्रमुख केंद्र बन रहे हैं और अधिकांश प्रमुख कॉर्पोरेट, मीडिया और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालय इन्हीं नगरों में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित सोनभद्र जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग हैं, और इसके दक्षिणी क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। | उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा रोजगार उत्पादक क्षेत्र कौन सा है ? | एमएसएमई क्षेत्र | uttar pradesh kaa doosraa sabase bada rojgaar utpaadak kshetra koun sa he ? |
कई वर्षों से लगातार प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश कभी दोहरे अंकों में आर्थिक विकास हासिल नहीं कर पाया है। २०१७-१८ में जीएसडीपी ७ प्रतिशत और २०१८-१९ में ६.५ प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमएआई) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार २०१०-२० के दशक में उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी दर ११.४ प्रतिशत अंक से बढ़ी, जो अप्रैल २०२० में २१.५ प्रतिशत आंकी गयी। उत्तर प्रदेश में राज्य से बाहर प्रवास करने वाले अप्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या है। प्रवास पर २०११ की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग १.४४ करोड़ (१४.७ %) लोग उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए थे। पुरुषों में प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण कार्य/रोजगार जबकि महिलाओं के बीच प्रवास का प्रमुख कारण अप्रवासी पुरुषों से विवाह उद्धृत किया गया। २००९-१० में, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, वानिकी और पर्यटन) के राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में ४४% के योगदान और द्वितीयक क्षेत्र (औद्योगिक और विनिर्माण) के ११.२% के योगदान की तुलना में तृतीयक क्षेत्र (सेवा उद्योग) ४४.८% के योगदान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्ता था। एमएसएमई क्षेत्र उत्तर प्रदेश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजनकर्ता है, पहला कृषि है जो राज्य भर में ९२ लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ११वीं पंचवर्षीय योजना (२००७-२०१२) के दौरान, औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर ७.३% थी, जो देश के अन्य सभी राज्यों के औसत १५.५% से कम थी। ₹२९,४१७ की राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी भी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति जीएसडीपी ₹६०.९७२ से कम थी। हालाँकि, राज्य की श्रम दक्षता २६ थी, जो २५ के राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। कपड़ा और चीनी शोधन, दोनों उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चले आ रहे उद्योग हैं, जो राज्य के कुल कारखाना श्रम के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं। राज्य के पर्यटन उद्योग से भी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। राज्य के निर्यात में जूते, चमड़े के सामान और खेल के सामान शामिल हैं। राज्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी सफल रहा है, जो ज्यादातर सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में आया है; नोएडा, कानपुर और लखनऊ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग के लिए प्रमुख केंद्र बन रहे हैं और अधिकांश प्रमुख कॉर्पोरेट, मीडिया और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालय इन्हीं नगरों में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित सोनभद्र जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग हैं, और इसके दक्षिणी क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। | पूर्वी उत्तर प्रदेश के किस जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग स्थापित है ? | सोनभद्र | purvi uttar pradesh ke kis jile main bade paimaane par udyog sthapit he ? |
कई वर्षों से लगातार प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश कभी दोहरे अंकों में आर्थिक विकास हासिल नहीं कर पाया है। २०१७-१८ में जीएसडीपी ७ प्रतिशत और २०१८-१९ में ६.५ प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमएआई) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार २०१०-२० के दशक में उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी दर ११.४ प्रतिशत अंक से बढ़ी, जो अप्रैल २०२० में २१.५ प्रतिशत आंकी गयी। उत्तर प्रदेश में राज्य से बाहर प्रवास करने वाले अप्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या है। प्रवास पर २०११ की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग १.४४ करोड़ (१४.७ %) लोग उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए थे। पुरुषों में प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण कार्य/रोजगार जबकि महिलाओं के बीच प्रवास का प्रमुख कारण अप्रवासी पुरुषों से विवाह उद्धृत किया गया। २००९-१० में, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, वानिकी और पर्यटन) के राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में ४४% के योगदान और द्वितीयक क्षेत्र (औद्योगिक और विनिर्माण) के ११.२% के योगदान की तुलना में तृतीयक क्षेत्र (सेवा उद्योग) ४४.८% के योगदान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्ता था। एमएसएमई क्षेत्र उत्तर प्रदेश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजनकर्ता है, पहला कृषि है जो राज्य भर में ९२ लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ११वीं पंचवर्षीय योजना (२००७-२०१२) के दौरान, औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर ७.३% थी, जो देश के अन्य सभी राज्यों के औसत १५.५% से कम थी। ₹२९,४१७ की राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी भी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति जीएसडीपी ₹६०.९७२ से कम थी। हालाँकि, राज्य की श्रम दक्षता २६ थी, जो २५ के राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। कपड़ा और चीनी शोधन, दोनों उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चले आ रहे उद्योग हैं, जो राज्य के कुल कारखाना श्रम के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं। राज्य के पर्यटन उद्योग से भी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। राज्य के निर्यात में जूते, चमड़े के सामान और खेल के सामान शामिल हैं। राज्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी सफल रहा है, जो ज्यादातर सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में आया है; नोएडा, कानपुर और लखनऊ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग के लिए प्रमुख केंद्र बन रहे हैं और अधिकांश प्रमुख कॉर्पोरेट, मीडिया और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालय इन्हीं नगरों में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित सोनभद्र जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग हैं, और इसके दक्षिणी क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। | उत्तर प्रदेश में पुरुषों के प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण क्या है ? | कार्य/रोजगार | uttar pradesh main purushon ke pravaas kaa sabase mahatvapurn kaaran kya he ? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | मोर को राष्ट्रीय पक्षी कब घोषित किया गया था? | 1963 में | mor ko rashtriya pakshi kab ghoshit kiya gaya tha? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | मोर का पंख किस भगवान के सिर पर बंधा हुआ होता है? | कृष्णा | mor kaa pankh kis bhagwaan ke sir par bandhaa hua hota he? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | मोर के पंखों पर आंख के आकार की तस्वीर सबसे पहले किसने बनाई थी? | अब्बोत्त हन्देरसों थायेर | mor ke pankhons par aankh ke aakaar kii tasviir sabase pehle kisne banaai thi? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | मोर किस भगवान का साथी है? | शिव | mor kis bhagwaan kaa saathi he? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | बाइबिल में किस राजा के स्वामित्व वाले मोर का उल्लेख किया गया है? | राजा सुलैमान | bible main kis raja ke swaamitv vaale mor kaa ullekh kiya gaya he? |
कई संस्कृतियों में मोर को प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है, अनेक प्रतिष्ठिानों में इसे आईकन के रूप में प्रयोग किया गया है, 1963 में इसे भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। मोर, को संस्कृत में मयूर कहते हैं, भारत में अक्सर इसे परंपराओं, मंदिर में चित्रित कला, पुराण, काव्य, लोक संगीत में जगह मिली है। कई हिंदू देवता पक्षी के साथ जुड़े हैं, कृष्णा के सिर पर मोर का पंख बंधा रहता, जबकि यह शिव का सहयोगी पक्षी है जिसे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाने जाते हैं। बौद्ध दर्शन में, मोर ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। मोर पंख का प्रयोग कई रस्में और अलंकरण में किया जाता है। मोर रूपांकनों वस्त्रों, सिक्कों, पुराने और भारतीय मंदिर वास्तुकला और उपयोगी और कला के कई आधुनिक मदों में इसका प्रयोग व्यापक रूप से होता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मोर का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मोर को सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है। इन पक्षियों को पिंजरे में अक्सर और बड़े बगीचों और गहनों के रूप में रखा गया है। बाइबिल में एक संदर्भ में राजा सुलैमान (I किंग, चैप्टर X 22 और 23) के स्वामित्व में मोर का उल्लेख है। मध्यकालीन समय में, यूरोप में शूरवीर "मयूर की शपथ" लिया करते थे और अपने हेलमेट को इसके पंखों से सजाते थे। पंख को विजयी योद्धाओं के साथ दफन किया जाता था और इस पक्षी के मांस से सांप के जहर और अन्य कई विकृतियों का इलाज किया जाता था। आयुर्वेद में इसके कई उपयोग को प्रलेखित किया गया है। कहा जाता है कि मोर के रहने से क्षेत्र सांपों से मुक्त रहता है। मोर और मोरनी के रंग में अंतर की पहेली के विरोधाभास पर कई विचारक सोचने लगे थे। चार्ल्स डार्विन ने आसा ग्रे को लिखा है कि " जब भी मैं मोर के पंखों को टकटकी लगा कर देखता हूं, यह मुझे बीमार बनाता है ! " वह असाधारण पूंछ के एक अनुकूली लाभ को देखने में असफल रहे थे जिसे वह केवल एक भार समझते थे। डार्विन को 'यौन चयन "का एक दूसरा सिद्धांत विकसित करने के लिए समस्या को सुलझाने की कोशिश की. 1907 में अमेरिकी कलाकार अब्बोत्त हन्देरसों थायेर ने कल्पना से अपने ही में छलावरण से पंखों पर बने आंखो के आकार को एक चित्र में दर्शाया. 1970 में यह स्पष्ट विरोधाभास ज़हावी अमोत्ज़ के सिद्धांत बाधा और हल आधारित ईमानदार संकेतन इसके विकास पर लिखा गया, हालांकि यह हो सकता है कि सीधे वास्तविक तंत्र - हार्मोन के कारण शायद पंखों का विकास हुआ हो और जो प्रतिरक्षा प्रणाली को दबाता हो.1850 के दशक में एंग्लो इंडियन समझते थे कि सुबह मोर देखने का मतलब है दिनभर सज्जनों और देवियों का दौरा चलता रहेगा. 1890 में, ऑस्ट्रेलिया में "पीकॉकिंग" का अर्थ था जमीन का सबसे अच्छा भाग ("पीकिंग द आईज़") खरीदा जाएगा. अंग्रेजी शब्द में "मोर" का संबध ऐसे व्यक्ति से किया जाता था जो अपने कपड़ों की ओर ध्यान दिया करता था और बहुत दंभी था। | ऑस्ट्रेलिया में भूमि के अच्छे हिस्से को खरीदे जाने का क्या मतलब होता है? | पीकॉकिंग | australia main bhoomi ke achche hisse ko kharide jane kaa kya matlab hota he? |
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। | इतिहासकारों को कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध कब मिला? | ३००० ई.पू | itihaaskaaron ko karnataka or sindhu ghati sabhyataa ke bich sambandh kab mila? |
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। | चोलो ने आधुनिक कर्नाटक के कुछ हिस्से में कब कब्ज़ा किया था ? | ९९०-१२१० ई. | cholo ne aadhunik karnataka ke kuch hisse main kab kabza kiya tha ? |
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। | कदंब वंश की स्थापना किसने की थी? | मयूर शर्मा | kadamb vansh kii sthapana kisne kii thi? |
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। | तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले कर्नाटक पर किस राजवंश का शासन था? | नंद वंश | teesri shatabdi isa purv se pehle karnataka par kis rajvansh kaa shashan tha? |
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं। राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी; एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट, और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। | पश्चिमी गंगा राजवंश की स्थापना किसने की थी? | कोंगणिवर्मन माधव | pashchimi ganga rajvansh kii sthapana kisne kii thi? |
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। | वर्ष 2004-05 में कर्नाटक राज्य ने भारत के जीडीपी में कितने
प्रतिशत का योगदान दिया था? | ५.२% | varsh 2004-05 main karnataka rajya ne bharat ke jidipi main kitne
pratishat kaa yogadan diya tha? |
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। | वर्ष 2007-08 में कर्नाटक राज्य का सकल राज्य घरेलु उत्पाद कितना बिलियन डॉलर था? | $ ५१.२५ बिलियन | varsh 2007-08 main karnataka rajya kaa sakal rajya gharelu utpaada kitna billian dollar tha? |
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। | जीडीपी के आधार पर कर्नाटक राज्य का देश में कितना स्थान है ? | छठे स्थान | jidipi ke aadhaar par karnataka rajya kaa desh main kitna sthaan he ? |
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। | वर्ष 2004 में कर्नाटक राज्य का बेरोज़गारी दर कितना प्रतिशत था? | ४.९४% | varsh 2004 main karnataka rajya kaa berojgaare dar kitna pratishat tha? |
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा। २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी। भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था। कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है। सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिए ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था। वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी। वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी। वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है। कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है। राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है। यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है। यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। | कर्नाटक राज्य की कितनी हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यो में सम्मिलित है ? | १.२३१ करोड़ हेक्टेयर | karnataka rajya kii kitni hectare bhoomi krishi kaaryo main sammilit he ? |
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 225 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद् एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं। कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं। विधान परिषद् के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। | कर्नाटक विधान सभा में पांच साल की अवधि के लिए चुने गए कितने सदस्य होते हैं? | 225 सदस्य | karnataka vidhaan sabha main paanch saal kii avadhi ke liye chune gaye kitne sadsy hote hai? |
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 225 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद् एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं। कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं। विधान परिषद् के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। | कर्नाटक राज्य में कुल कितने जिले है ? | २९ जिलों | karnataka rajya main kul kitne jile he ? |
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 225 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद् एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं। कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं। विधान परिषद् के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। | कर्नाटक विधान परिषद के सदस्य राज्यसभा के लिए कितने सदस्यों का चुनाव करते हैं? | १२ सदस्य | karnataka vidhaan parishad ke sadsy rajyasabha ke liye kitne sadasyon kaa chunaav karte hai? |
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 225 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद् एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं। कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं। विधान परिषद् के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। | किसी भी जिले में न्याय के प्रशासन के लिए पुलिस विभाग के कौन से अधिकारी का उत्तरदायित्व होता है ? | डिप्टी कमिश्नर | kisi bhi jile main nyaay ke prashasan ke liye police vibhaag ke koun se adhikari kaa uttardaayitv hota he ? |
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से उब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। | अशोक के शासनकाल के समय तीसरा बौद्ध कार्यक्रम कहाँ आयोजित किया गया था ? | पाटलिपुत्र | ashok ke shasankaal ke samay teesraa buddha kaarykram kahan yojit kiya gaya tha ? |
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से उब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। | अशोक के पुत्र का क्या नाम था? | महेन्द्र | ashok ke putr kaa kya naam tha? |
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से उब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। | अशोक की पुत्री का क्या नाम था? | संघमित्रा | ashok kii putree kaa kya naam tha? |
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से उब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। | अशोक द्वारा अधिकारियों के वर्ग को क्या कहा गया था? | धर्म महापात्र | ashok dwaara adhikariyon ke varg ko kya kaha gaya tha? |
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से उब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस,सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। | महेंद्र ने बौद्ध धर्म में किस शासक को परिवर्तित किया था? | श्रीलंका के राजा तिस्स | mahendra ne buddha dharm main kis shaasha ko parivartit kiya tha? |
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं। विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं। सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। | गुलमर्ग समुद्र तल से कितनी ऊंचाई पर स्थित है? | 2680 मीटर | gulmarg samudr tal se kitni oonchai par sthit he? |
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं। विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं। सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। | गुलमर्ग का मतलब क्या है? | फूलों का मैदान | gulmarg kaa matlab kya he? |
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं। विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं। सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। | सोनमर्ग का अर्थ क्या है? | सोने से बना घास का मैदान | sonmarg kaa arth kya he? |
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं। विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं। सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। | सोनमर्ग श्रीनगर से कितनी दूरी पर स्थित है? | 87 किलोमीटर | sonmarg srinagar se kitni duuri par sthit he? |
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं। विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं। सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। | पहाड़ी ढलान को उत्तराखंड में क्या कहा जाता है? | बुग्याल | pahari dhalaan ko uttarakhand main kya kaha jaataa he? |
कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। | कैथरीन डी बर्गंज़ा की शादी किससे हुई थी ? | चार्ल्स | catherine di berganza kii shaadi kisase hui thi ? |
कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। | पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से द्वीपों पर कब्जा कब किया था ? | १५३४ | portugaliyon ne gujarat ke bahadur shah se dwipon par kabja kab kiya tha ? |
कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। | मुंबई में हिंदू सिलहारा राजवंश के राजाओं ने कब तक शासन किया था ? | १३४३ तक | mumbai main hindu silhara rajvansh ke raajaaon ne kab tak shashan kiya tha ? |
कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। | ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय सूरत से मुंबई किस वर्ष स्थापित किया था ? | १६८७ | east india company ne apana mukhyalay surat se mumbai kis varsh sthapit kiya tha ? |
काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया.औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। | आंध्र प्रदेश की अंतिम राजधानी का क्या नाम था ? | कर्नूल | andhra pradesh kii antim rajdhani kaa kya naam tha ? |
काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया.औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। | हैदराबाद भारत का अंग किस वर्ष बना ? | 1948 | hyderabad bharat kaa ang kis varsh bana ? |
काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया.औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। | तेलुगु भूमि को एकजुट किसने किया था ? | काकतीयों | telegu bhoomi ko ekajute kisne kiya tha ? |
काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया.औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। | तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए गयास-उद-दीन तुगलक ने किसके अंतर्गत एक बड़ी सेना भेजी थी ? | उलघ ख़ान | telugu desh ko jeetne or warangal ko qabje main karne ke liye gayas-ud-deen tughlaq ne kiske antargat ek badi sena bheji thi ? |
काकतीय, वरंगल के छोटे प्रदेश पर शासन करने वाले राष्ट्रकूटों के प्रथम सामंत थे। सभी तेलुगू भूमि को काकतीयों ने एकजुट किया। 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ ने उलघ ख़ान के तहत तेलुगू देश को जीतने और वारंगल को क़ब्जे में करने के लिए बड़ी सेना भेजी. राजा प्रतापरुद्र बंदी बनाए गए। 1326 ई. में मुसुनूरी नायकों ने दिल्ली सल्तनत से वारंगल को छुड़ा कर उस पर पुनः क़ब्जा किया और पचास वर्षों तक शासन किया। उनकी सफलता से प्रेरित होकर, वारंगल के काकतीयों के पास राजकोष अधिकारियों के तौर पर काम करने वाले हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो कि आन्ध्र प्रदेश और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य है। 1347 ई. में दिल्ली सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हुए अला-उद-दीन हसन गंगू द्वारा दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, बहमनी राज्य की स्थापना की गई। 16वीं सदी के प्रारंभ से 17वीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ वर्षों के लिए कुतुबशाही राजवंश ने आन्ध्र देश पर आधिपत्य जमाया.औपनिवेशिक भारत में, उत्तरी सरकार ब्रिटिश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गए। अंततः यह क्षेत्र तटीय आन्ध्र प्रदेश के रूप में उभरा. बाद में निज़ाम ने ब्रिटिश को पांच क्षेत्र सौंपे, जो अंततः रायलसीमा क्षेत्र के रूप में उभरा. निज़ाम ने स्थानीय स्वायत्तता के बदले में ब्रिटिश शासन को स्वीकार करते हुए विशाल राज्य हैदराबाद के रूप में आंतरिक प्रांतों पर नियंत्रण बनाए रखा। इस बीच फ़्रांसीसियों ने गोदावरी डेल्टा में यानम (यानौं) पर क़ब्जा किया और (ब्रिटिश नियंत्रण की अवधि को छोड़ कर) 1954 तक उसे अपने अधीन रखा। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत स्वतंत्र हुआ. हैदराबाद के निज़ाम ने भारत से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहा, लेकिन इस क्षेत्र के लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए आंदोलन शुरू किया। 5 दिनों तक चलने वाले ऑपरेशन पोलो के बाद, जिसको हैदराबाद राज्य की जनता का पूरा समर्थन प्राप्त था, 1948 में हैदराबाद राज्य को भारत गणराज्य का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया गया। एक स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने के प्रयास में और मद्रास राज्य के तेलुगू लोगों के हितों की रक्षा के लिए, अमरजीवी पोट्टी श्रीरामुलु ने आमरण उपवास किया। उनकी मौत के बाद सार्वजनिक दुहाई और नागरिक अशांति ने सरकार को मजबूर किया कि तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक नए राज्य के गठन की घोषणा करें। 1 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र ने कर्नूल को अपनी राजधानी के साथ राज्य का दर्जा पाया। | वर्ष 1323 ई. में दिल्ली के सुल्तान कोन थे ? | ग़ियास-उद-दिन तुग़लक़ | varsh 1323 i. main dilli ke sultan cone the ? |
कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया। 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। | जवाहरलाल नेहरू ने किस कमेटी के महासचिव के रूप में कार्य किया था ? | अखिल भारतीय कांग्रेस समिति | jawaharlal nehru ne kis cameti ke mahasachiv ke rup main kaary kiya tha ? |
कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया। 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। | कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए नेहरु कब चुने गए थे ? | दिसम्बर 1929 | congress ke adhyaksh pad ke liye nehru kab chune gaye the ? |
कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया। 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। | जवाहरलाल नेहरू कब इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए थे ? | 1924 | jawaharlal nehru kab elahabaad nagar nigam ke adhyaksh chune gaye the ? |
कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया। 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। | दिसंबर 1929 में कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन किसकी अध्यक्षता में किया गया था ? | मोतीलाल नेहरू | disambar 1929 main congress ke vaarshik satr kaa aayojan kiski adhyakshata main kiya gaya tha ? |
कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया। 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। | सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत किस वर्ष हुई थी ? | 1930 | savinay avagya andolan kii shuruyaat kis varsh hui thi ? |
कृषि उत्तर प्रदेश में प्रमुख व्यवसाय है और राज्य के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निवल देशीय उत्पाद (एनएसडीपी) के सन्दर्भ में, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका अनुमानित सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹१४.८९ लाख करोड़ है, जो भारत के कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद का ८.४% है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, २०१४-१५ में देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी १९% है। राज्य ने पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास की उच्च दर का अनुभव किया है। राज्य में २०१४-१५ में खाद्यान्न उत्पादन ४७,७७३.४ हजार टन था। गेहूं राज्य की प्रमुख खाद्य फसल है, और गन्ना, जो मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उगाया जाता है, राज्य की मुख्य व्यावसायिक फसल है। भारत की लगभग ७०% चीनी उत्तर प्रदेश से आती है। गन्ना सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है क्योंकि राज्य देश में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर २०१५ की वित्तीय तिमाही में भारत में कुल २८.३ मिलियन टन गन्ना उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था, जिसमें से १०.४७ मिलियन टन महाराष्ट्र से और ७.३५ मिलियन टन उत्तर प्रदेश से था। राज्य के अधिकतर उद्योग कानपुर क्षेत्र, पूर्वांचल की उपजाऊ भूमि और नोएडा क्षेत्र में स्थानीयकृत हैं। मुगलसराय में कई प्रमुख लोकोमोटिव संयंत्र हैं। राज्य के प्रमुख विनिर्माण उत्पादों में इंजीनियरिंग उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक्स, विद्युत उपकरण, केबल, स्टील, चमड़ा, कपड़ा, आभूषण, फ्रिगेट, ऑटोमोबाइल, रेलवे कोच और वैगन शामिल हैं। मेरठ भारत की खेल राजधानी होने के साथ-साथ ज्वैलरी हब भी है। उत्तर प्रदेश में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सर्वाधिक लघु-स्तरीय औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं; कुल २३ लाख इकाइयों के १२ प्रतिशत से अधिक। ३५९ विनिर्माण समूहों के साथ सीमेंट उत्तर प्रदेश में लघु उद्योगों में शीर्ष क्षेत्र पर है। उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम (यूपीएफसी) की स्थापना १९५४ में एसएफसी अधिनियम १९५१ के तहत राज्य में लघु और मध्यम स्तर के उद्योगों को विकसित करने के लिए की गई थी। यूपीएफसी अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाली वर्तमान इकाइयों तथा नयी इकाइयों को एकल खिड़की योजना के तहत कार्यशील पूंजी भी प्रदान करता था, किन्तु जुलाई २०१२ में वित्तीय बाधाओं और राज्य सरकार के निर्देशों के कारण राज्य सरकार की योजनाओं को छोड़कर अन्य सभी ऋण गतिविधियों को निलंबित कर दिया गया। राज्य में २०१२ और २०१६ के वर्षों के दौरान २५,०८१ करोड़ रुपये से अधिक का कुल निजी निवेश हुआ है। | कौन सा राज्य भारत की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं ? | महाराष्ट्र | koun sa rajya bharat kii sabase badi arthvyavastha hai ? |
कृषि उत्तर प्रदेश में प्रमुख व्यवसाय है और राज्य के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निवल देशीय उत्पाद (एनएसडीपी) के सन्दर्भ में, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका अनुमानित सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹१४.८९ लाख करोड़ है, जो भारत के कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद का ८.४% है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, २०१४-१५ में देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी १९% है। राज्य ने पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास की उच्च दर का अनुभव किया है। राज्य में २०१४-१५ में खाद्यान्न उत्पादन ४७,७७३.४ हजार टन था। गेहूं राज्य की प्रमुख खाद्य फसल है, और गन्ना, जो मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उगाया जाता है, राज्य की मुख्य व्यावसायिक फसल है। भारत की लगभग ७०% चीनी उत्तर प्रदेश से आती है। गन्ना सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है क्योंकि राज्य देश में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर २०१५ की वित्तीय तिमाही में भारत में कुल २८.३ मिलियन टन गन्ना उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था, जिसमें से १०.४७ मिलियन टन महाराष्ट्र से और ७.३५ मिलियन टन उत्तर प्रदेश से था। राज्य के अधिकतर उद्योग कानपुर क्षेत्र, पूर्वांचल की उपजाऊ भूमि और नोएडा क्षेत्र में स्थानीयकृत हैं। मुगलसराय में कई प्रमुख लोकोमोटिव संयंत्र हैं। राज्य के प्रमुख विनिर्माण उत्पादों में इंजीनियरिंग उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक्स, विद्युत उपकरण, केबल, स्टील, चमड़ा, कपड़ा, आभूषण, फ्रिगेट, ऑटोमोबाइल, रेलवे कोच और वैगन शामिल हैं। मेरठ भारत की खेल राजधानी होने के साथ-साथ ज्वैलरी हब भी है। उत्तर प्रदेश में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सर्वाधिक लघु-स्तरीय औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं; कुल २३ लाख इकाइयों के १२ प्रतिशत से अधिक। ३५९ विनिर्माण समूहों के साथ सीमेंट उत्तर प्रदेश में लघु उद्योगों में शीर्ष क्षेत्र पर है। उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम (यूपीएफसी) की स्थापना १९५४ में एसएफसी अधिनियम १९५१ के तहत राज्य में लघु और मध्यम स्तर के उद्योगों को विकसित करने के लिए की गई थी। यूपीएफसी अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाली वर्तमान इकाइयों तथा नयी इकाइयों को एकल खिड़की योजना के तहत कार्यशील पूंजी भी प्रदान करता था, किन्तु जुलाई २०१२ में वित्तीय बाधाओं और राज्य सरकार के निर्देशों के कारण राज्य सरकार की योजनाओं को छोड़कर अन्य सभी ऋण गतिविधियों को निलंबित कर दिया गया। राज्य में २०१२ और २०१६ के वर्षों के दौरान २५,०८१ करोड़ रुपये से अधिक का कुल निजी निवेश हुआ है। | उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में उगाये जाने वाले प्रमुख फसल का क्या नाम है ? | गन्ना | uttar pradesh ke pashchimi ilaake main ugaaye jane vaale pramukh fasal kaa kya naam he ? |
कृषि उत्तर प्रदेश में प्रमुख व्यवसाय है और राज्य के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निवल देशीय उत्पाद (एनएसडीपी) के सन्दर्भ में, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका अनुमानित सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹१४.८९ लाख करोड़ है, जो भारत के कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद का ८.४% है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, २०१४-१५ में देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी १९% है। राज्य ने पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास की उच्च दर का अनुभव किया है। राज्य में २०१४-१५ में खाद्यान्न उत्पादन ४७,७७३.४ हजार टन था। गेहूं राज्य की प्रमुख खाद्य फसल है, और गन्ना, जो मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उगाया जाता है, राज्य की मुख्य व्यावसायिक फसल है। भारत की लगभग ७०% चीनी उत्तर प्रदेश से आती है। गन्ना सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है क्योंकि राज्य देश में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर २०१५ की वित्तीय तिमाही में भारत में कुल २८.३ मिलियन टन गन्ना उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था, जिसमें से १०.४७ मिलियन टन महाराष्ट्र से और ७.३५ मिलियन टन उत्तर प्रदेश से था। राज्य के अधिकतर उद्योग कानपुर क्षेत्र, पूर्वांचल की उपजाऊ भूमि और नोएडा क्षेत्र में स्थानीयकृत हैं। मुगलसराय में कई प्रमुख लोकोमोटिव संयंत्र हैं। राज्य के प्रमुख विनिर्माण उत्पादों में इंजीनियरिंग उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक्स, विद्युत उपकरण, केबल, स्टील, चमड़ा, कपड़ा, आभूषण, फ्रिगेट, ऑटोमोबाइल, रेलवे कोच और वैगन शामिल हैं। मेरठ भारत की खेल राजधानी होने के साथ-साथ ज्वैलरी हब भी है। उत्तर प्रदेश में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सर्वाधिक लघु-स्तरीय औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं; कुल २३ लाख इकाइयों के १२ प्रतिशत से अधिक। ३५९ विनिर्माण समूहों के साथ सीमेंट उत्तर प्रदेश में लघु उद्योगों में शीर्ष क्षेत्र पर है। उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम (यूपीएफसी) की स्थापना १९५४ में एसएफसी अधिनियम १९५१ के तहत राज्य में लघु और मध्यम स्तर के उद्योगों को विकसित करने के लिए की गई थी। यूपीएफसी अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाली वर्तमान इकाइयों तथा नयी इकाइयों को एकल खिड़की योजना के तहत कार्यशील पूंजी भी प्रदान करता था, किन्तु जुलाई २०१२ में वित्तीय बाधाओं और राज्य सरकार के निर्देशों के कारण राज्य सरकार की योजनाओं को छोड़कर अन्य सभी ऋण गतिविधियों को निलंबित कर दिया गया। राज्य में २०१२ और २०१६ के वर्षों के दौरान २५,०८१ करोड़ रुपये से अधिक का कुल निजी निवेश हुआ है। | भारत की खेल राजधानी कहाँ हैं ? | मेरठ | bharat kii khel rajdhani kahan hai ? |
केवल खादी या हाथ से काता गया कपड़ा ही झंडे के लिए उपयुक्त माना जाता है। खादी के लिए कच्चा माल केवल कपास, रेशम और ऊन हैं। झंडा बनाने में दो तरह के खादी का उपयोग किया जाता है, एक वह खादी, जिससे कपडा बनता है और दूसरा है खादी-टाट, जो बेज रंग का होता है और खम्भे में पहनाया जाता है। खादी टाट एक असामान्य प्रकार की बुनाई है जिसमें तीन धागों के जाल जैसे बनते हैं। यह परम्परागत बुनाई से भिन्न है, जहाँ दो धागों को बुना जाता है। इस प्रकार की बुनाई अत्यंत दुर्लभ है, इस कौशल को बनाए रखने वाले बुनकर भारत में एक दर्जन से भी कम हैं। दिशा-निर्देश में यह भी बताया गया है कि प्रति वर्ग सेंटीमीटर में १५० सूत्र होने चाहिए, इसके साथ ही कपड़े में प्रति चार सूत्र और एक वर्ग फुट का शुद्ध भार २०५ ग्राम ही होना चाहिये। इस बुनी खादी को दो इकाइयों से प्राप्त किया जाता है, धारवाड़ के निकट गदग से और उत्तरी कर्नाटक के बागलकोट जिलों से। वर्तमान में, हुबली में स्थित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ को ही एक मात्र लाइसेंस प्राप्त है जो झंडा उत्पादन और आपूर्ति करता है। यद्यपि भारत में झंडा विनिर्माण इकाइयों की स्थापना की अनुमति खादी विकास और ग्रामीण उद्योग आयोग (के॰वी॰आई॰सी॰) द्वारा दिया जाता है परन्तु यदि दिशा-निर्देशों की अवज्ञा की गयी तो बी॰आई॰एस॰ को इन्हें रद्द करने के सारे अधिकार प्राप्त हैं। बुनाई पूरी होने के बाद, सामग्री को परीक्षण के लिए बी॰आई॰एस॰ प्रयोगशालाओं में भेजा जाता है। कड़े गुणवत्ता परीक्षण करने के बाद, यदि झंडा अनुमोदित हो जाता है तो, उसे कारखाने वापस भेज दिया जाता है। तब उसे प्रक्षालित कर संबंधित रंगों में रंग दिया जाता है। केंद्र में अशोक चक्र को स्क्रीन मुद्रित, स्टेंसिल्ड या काढ़ा जाता है। विशेष ध्यान इस बात को दिया जाना चाहिए कि चक्र अच्छी तरह से मिलता हो और दोनों तरफ ठीक से दिखाई देता हो। | झंडे के लिए कैसा कपड़ा उपयुक्त माना जाता है? | हाथ से काता गया कपड़ा | jhande ke liye kaisaa kapadaa upyukt mana jaataa he? |
केवल खादी या हाथ से काता गया कपड़ा ही झंडे के लिए उपयुक्त माना जाता है। खादी के लिए कच्चा माल केवल कपास, रेशम और ऊन हैं। झंडा बनाने में दो तरह के खादी का उपयोग किया जाता है, एक वह खादी, जिससे कपडा बनता है और दूसरा है खादी-टाट, जो बेज रंग का होता है और खम्भे में पहनाया जाता है। खादी टाट एक असामान्य प्रकार की बुनाई है जिसमें तीन धागों के जाल जैसे बनते हैं। यह परम्परागत बुनाई से भिन्न है, जहाँ दो धागों को बुना जाता है। इस प्रकार की बुनाई अत्यंत दुर्लभ है, इस कौशल को बनाए रखने वाले बुनकर भारत में एक दर्जन से भी कम हैं। दिशा-निर्देश में यह भी बताया गया है कि प्रति वर्ग सेंटीमीटर में १५० सूत्र होने चाहिए, इसके साथ ही कपड़े में प्रति चार सूत्र और एक वर्ग फुट का शुद्ध भार २०५ ग्राम ही होना चाहिये। इस बुनी खादी को दो इकाइयों से प्राप्त किया जाता है, धारवाड़ के निकट गदग से और उत्तरी कर्नाटक के बागलकोट जिलों से। वर्तमान में, हुबली में स्थित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ को ही एक मात्र लाइसेंस प्राप्त है जो झंडा उत्पादन और आपूर्ति करता है। यद्यपि भारत में झंडा विनिर्माण इकाइयों की स्थापना की अनुमति खादी विकास और ग्रामीण उद्योग आयोग (के॰वी॰आई॰सी॰) द्वारा दिया जाता है परन्तु यदि दिशा-निर्देशों की अवज्ञा की गयी तो बी॰आई॰एस॰ को इन्हें रद्द करने के सारे अधिकार प्राप्त हैं। बुनाई पूरी होने के बाद, सामग्री को परीक्षण के लिए बी॰आई॰एस॰ प्रयोगशालाओं में भेजा जाता है। कड़े गुणवत्ता परीक्षण करने के बाद, यदि झंडा अनुमोदित हो जाता है तो, उसे कारखाने वापस भेज दिया जाता है। तब उसे प्रक्षालित कर संबंधित रंगों में रंग दिया जाता है। केंद्र में अशोक चक्र को स्क्रीन मुद्रित, स्टेंसिल्ड या काढ़ा जाता है। विशेष ध्यान इस बात को दिया जाना चाहिए कि चक्र अच्छी तरह से मिलता हो और दोनों तरफ ठीक से दिखाई देता हो। | कर्नाटक खादी कहां स्थित है? | बागलकोट | karnataka khaadi kahaan sthit he? |
केवल खादी या हाथ से काता गया कपड़ा ही झंडे के लिए उपयुक्त माना जाता है। खादी के लिए कच्चा माल केवल कपास, रेशम और ऊन हैं। झंडा बनाने में दो तरह के खादी का उपयोग किया जाता है, एक वह खादी, जिससे कपडा बनता है और दूसरा है खादी-टाट, जो बेज रंग का होता है और खम्भे में पहनाया जाता है। खादी टाट एक असामान्य प्रकार की बुनाई है जिसमें तीन धागों के जाल जैसे बनते हैं। यह परम्परागत बुनाई से भिन्न है, जहाँ दो धागों को बुना जाता है। इस प्रकार की बुनाई अत्यंत दुर्लभ है, इस कौशल को बनाए रखने वाले बुनकर भारत में एक दर्जन से भी कम हैं। दिशा-निर्देश में यह भी बताया गया है कि प्रति वर्ग सेंटीमीटर में १५० सूत्र होने चाहिए, इसके साथ ही कपड़े में प्रति चार सूत्र और एक वर्ग फुट का शुद्ध भार २०५ ग्राम ही होना चाहिये। इस बुनी खादी को दो इकाइयों से प्राप्त किया जाता है, धारवाड़ के निकट गदग से और उत्तरी कर्नाटक के बागलकोट जिलों से। वर्तमान में, हुबली में स्थित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ को ही एक मात्र लाइसेंस प्राप्त है जो झंडा उत्पादन और आपूर्ति करता है। यद्यपि भारत में झंडा विनिर्माण इकाइयों की स्थापना की अनुमति खादी विकास और ग्रामीण उद्योग आयोग (के॰वी॰आई॰सी॰) द्वारा दिया जाता है परन्तु यदि दिशा-निर्देशों की अवज्ञा की गयी तो बी॰आई॰एस॰ को इन्हें रद्द करने के सारे अधिकार प्राप्त हैं। बुनाई पूरी होने के बाद, सामग्री को परीक्षण के लिए बी॰आई॰एस॰ प्रयोगशालाओं में भेजा जाता है। कड़े गुणवत्ता परीक्षण करने के बाद, यदि झंडा अनुमोदित हो जाता है तो, उसे कारखाने वापस भेज दिया जाता है। तब उसे प्रक्षालित कर संबंधित रंगों में रंग दिया जाता है। केंद्र में अशोक चक्र को स्क्रीन मुद्रित, स्टेंसिल्ड या काढ़ा जाता है। विशेष ध्यान इस बात को दिया जाना चाहिए कि चक्र अच्छी तरह से मिलता हो और दोनों तरफ ठीक से दिखाई देता हो। | खादी कपड़ा बनाने के लिए किन कच्चे मालों का उपयोग किया जाता है? | कपास, रेशम और ऊन | khaadi kapadaa banane ke liye kin kachche maalon kaa upyog kiya jaataa he? |
कोटगढ़ को कुमारसैन उपतहसील में मिला गया। उत्तर प्रदेश के दो गांव संसोग और भटाड़ जुब्बल तहसील में शामिल कर दिए गए। पंजाब के नालागढ़ से सात गांव लेकर सोलन तहसील में शामिल किए गए। इसके बदले में शिमला के नजदीक कुसुम्पटी, भराड़ी, संजौली, वाक्ना, भारी, काटो, रामपुर। इसके साथ ही पेप्सी (पंजाब) के छबरोट क्षेत्र कुसुम्पटी तहसील में शामिल कर दिया गया। बिलासपुर जिला का विलयबिलासपुर रियासत को 1948 ई. में प्रदेश से अलग रखा गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलाने के कारण इसे प्रदेश में अलग रखा गया। एक जुलाई, 1954 ई. को कहलूर रियासत को प्रदेश में शामिल करके इसे बिलासपुर का नाम दिया गया। उस समय बिलासपुर तथा घुमारवीं नामक दो तहसीलें बनाई गईं। यह प्रदेश का पांचवां जिला बना। 1954 में जब ‘ग’ श्रेणी की रियासत बिलासपुर को इसमें मिलाया गया, तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर 28,241 वर्ग कि.मी.हो गया। किन्नौर जिला की स्थापनाएक मई, 1960 को छठे जिला के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इस जिला में महासू जिला की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील को 14 गांव शामिल गए गए। इसकी तीन तहसीलें कल्पा, निचार और पूह बनाई गईं। पंजाब का पुनर्गठनवर्ष 1966 में पंजाब का पुनर्गठन किया गया तथा पंजाब व हरियाणा दो राज्य बना दिए गए। भाषा तथा तिहाड़ी क्षेत्र के पंजाब से लेकर हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिए गए। संजौली, भराड़ी, कुसुमपटी आदि क्षेत्र जो पहले पंजाब में थे तथा नालागढ़ आदि जो पंजाब में थे, उन्हें पुनः हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिया गया। | उत्तर प्रदेश के किन दो गांवों को जुब्बल तहसील में मिला दिया गया है? | संसोग और भटाड़ | uttar pradesh ke kin do gaanvon ko jubbal tehsil main mila diya gaya he? |
कोटगढ़ को कुमारसैन उपतहसील में मिला गया। उत्तर प्रदेश के दो गांव संसोग और भटाड़ जुब्बल तहसील में शामिल कर दिए गए। पंजाब के नालागढ़ से सात गांव लेकर सोलन तहसील में शामिल किए गए। इसके बदले में शिमला के नजदीक कुसुम्पटी, भराड़ी, संजौली, वाक्ना, भारी, काटो, रामपुर। इसके साथ ही पेप्सी (पंजाब) के छबरोट क्षेत्र कुसुम्पटी तहसील में शामिल कर दिया गया। बिलासपुर जिला का विलयबिलासपुर रियासत को 1948 ई. में प्रदेश से अलग रखा गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलाने के कारण इसे प्रदेश में अलग रखा गया। एक जुलाई, 1954 ई. को कहलूर रियासत को प्रदेश में शामिल करके इसे बिलासपुर का नाम दिया गया। उस समय बिलासपुर तथा घुमारवीं नामक दो तहसीलें बनाई गईं। यह प्रदेश का पांचवां जिला बना। 1954 में जब ‘ग’ श्रेणी की रियासत बिलासपुर को इसमें मिलाया गया, तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर 28,241 वर्ग कि.मी.हो गया। किन्नौर जिला की स्थापनाएक मई, 1960 को छठे जिला के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इस जिला में महासू जिला की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील को 14 गांव शामिल गए गए। इसकी तीन तहसीलें कल्पा, निचार और पूह बनाई गईं। पंजाब का पुनर्गठनवर्ष 1966 में पंजाब का पुनर्गठन किया गया तथा पंजाब व हरियाणा दो राज्य बना दिए गए। भाषा तथा तिहाड़ी क्षेत्र के पंजाब से लेकर हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिए गए। संजौली, भराड़ी, कुसुमपटी आदि क्षेत्र जो पहले पंजाब में थे तथा नालागढ़ आदि जो पंजाब में थे, उन्हें पुनः हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिया गया। | किन्नौर जिले का गठन कब किया गया था ? | मई, 1960 | kinnaur jile kaa gathan kab kiya gaya tha ? |
कोटगढ़ को कुमारसैन उपतहसील में मिला गया। उत्तर प्रदेश के दो गांव संसोग और भटाड़ जुब्बल तहसील में शामिल कर दिए गए। पंजाब के नालागढ़ से सात गांव लेकर सोलन तहसील में शामिल किए गए। इसके बदले में शिमला के नजदीक कुसुम्पटी, भराड़ी, संजौली, वाक्ना, भारी, काटो, रामपुर। इसके साथ ही पेप्सी (पंजाब) के छबरोट क्षेत्र कुसुम्पटी तहसील में शामिल कर दिया गया। बिलासपुर जिला का विलयबिलासपुर रियासत को 1948 ई. में प्रदेश से अलग रखा गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलाने के कारण इसे प्रदेश में अलग रखा गया। एक जुलाई, 1954 ई. को कहलूर रियासत को प्रदेश में शामिल करके इसे बिलासपुर का नाम दिया गया। उस समय बिलासपुर तथा घुमारवीं नामक दो तहसीलें बनाई गईं। यह प्रदेश का पांचवां जिला बना। 1954 में जब ‘ग’ श्रेणी की रियासत बिलासपुर को इसमें मिलाया गया, तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर 28,241 वर्ग कि.मी.हो गया। किन्नौर जिला की स्थापनाएक मई, 1960 को छठे जिला के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इस जिला में महासू जिला की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील को 14 गांव शामिल गए गए। इसकी तीन तहसीलें कल्पा, निचार और पूह बनाई गईं। पंजाब का पुनर्गठनवर्ष 1966 में पंजाब का पुनर्गठन किया गया तथा पंजाब व हरियाणा दो राज्य बना दिए गए। भाषा तथा तिहाड़ी क्षेत्र के पंजाब से लेकर हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिए गए। संजौली, भराड़ी, कुसुमपटी आदि क्षेत्र जो पहले पंजाब में थे तथा नालागढ़ आदि जो पंजाब में थे, उन्हें पुनः हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिया गया। | कोटगढ़ कहां पाया गया था? | कुमारसैन | kotgarh kahaan paaya gaya tha? |
क्रान्ति प्रारम्भ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांन्तिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रान्तिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इन्तजाम भी किया। जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रान्तिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परन्तु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता। बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियाँ चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहाँ 1902 में उनकी मृत्यु हुई परन्तु कुछ लोग उनका सम्बन्ध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई। .जुलाई 1, 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रान्तिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रान्तिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनन्तर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखण्ड की ओर चले गए। रुहेलखण्ड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रान्तिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। | नाना साहब ने युद्ध की घोषणा कहाँ से की थी? | कल्यानपुर | naanaa sahab ne yuddh kii ghoshnaa kahan se kii thi? |
क्रान्ति प्रारम्भ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांन्तिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रान्तिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इन्तजाम भी किया। जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रान्तिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परन्तु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता। बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियाँ चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहाँ 1902 में उनकी मृत्यु हुई परन्तु कुछ लोग उनका सम्बन्ध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई। .जुलाई 1, 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रान्तिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रान्तिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनन्तर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखण्ड की ओर चले गए। रुहेलखण्ड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रान्तिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। | अवध को छोड़ने के बाद नाना साहेब कहाँ चले गए थे ? | रुहेलखण्ड | avadh ko chhodane ke baad naanaa sahib kahan chale gaye the ? |
क्रान्ति प्रारम्भ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांन्तिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रान्तिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इन्तजाम भी किया। जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रान्तिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परन्तु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता। बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियाँ चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहाँ 1902 में उनकी मृत्यु हुई परन्तु कुछ लोग उनका सम्बन्ध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई। .जुलाई 1, 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रान्तिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रान्तिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनन्तर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखण्ड की ओर चले गए। रुहेलखण्ड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रान्तिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। | नाना साहब ने पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कब की थी ? | जुलाई 1, 1857 | naanaa sahab ne purna swatantraaa kii ghoshnaa kab kii thi ? |
क्रान्ति प्रारम्भ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांन्तिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रान्तिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इन्तजाम भी किया। जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रान्तिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परन्तु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता। बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियाँ चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहाँ 1902 में उनकी मृत्यु हुई परन्तु कुछ लोग उनका सम्बन्ध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई। .जुलाई 1, 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रान्तिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रान्तिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनन्तर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखण्ड की ओर चले गए। रुहेलखण्ड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रान्तिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। | 200 महिलाओ को समाप्त करने के बाद नाना साहेब कहाँ चले गए थे ? | नेपाल | 200 mahilao ko samaapt karne ke baad naanaa sahib kahan chale gaye the ? |
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन् १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन् १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदलदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। | हुमायूँ के पुत्र का क्या नाम था ? | अकबर | humayun ke putr kaa kya naam tha ? |
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन् १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन् १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदलदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। | कितने वर्ष की उम्र में अकबर को राजा बनाया गया था ? | १४ वर्ष | kitne varsh kii umr main akbar ko raja banaaya gaya tha ? |
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन् १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन् १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदलदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। | अकबर के पहले संरक्षक का क्या नाम था ? | बैराम खान | akbar ke pehle sangrakshak kaa kya naam tha ? |
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन् १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन् १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदलदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। | अकबर का राज्याभिषेक किस प्रदेश में हुआ था ? | कलनौर | akbar kaa rajbhishek kis pradesh main hua tha ? |
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अन्ततः सफल हुए और वह सन् १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन् १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदलदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। | हुमायूँ की मृत्यु किस वर्ष हुई थी ? | १५५६ | humayun kii mrityu kis varsh hui thi ? |
गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरम्भ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखागाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे। हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरम्भ के बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है। 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30 अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22 नवंबर 1925 तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने 1928 में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद ने 1950 और 1961 में प्रकाशित किया था। आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरम्भ हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। | गांधीजी द्वारा लिखी गई पुस्तक "हिंद स्वराज" कहाँ प्रकाशित हुई थी ? | इंडियन ओपिनियन | gandhiji dwaara likhi gai pustak "hind swaraj" kahan prakashit hui thi ? |
गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरम्भ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखागाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे। हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरम्भ के बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है। 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30 अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22 नवंबर 1925 तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने 1928 में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद ने 1950 और 1961 में प्रकाशित किया था। आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरम्भ हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। | हिन्द स्वराज को पुस्तक के रूप में कब प्रकाशित किया गया था ? | जनवरी 1910 | hind swaraj ko pustak ke rup main kab prakashit kiya gaya tha ? |
गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरम्भ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखागाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे। हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरम्भ के बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है। 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30 अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22 नवंबर 1925 तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने 1928 में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद ने 1950 और 1961 में प्रकाशित किया था। आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरम्भ हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। | नवजीवन नामक मासिक पत्रिका किसने निकाली थी ? | गाँधी जी | navajivan naamak masik patrika kisne nikaali thi ? |