Hindi,Sanskrit इसलिए आँखों के सत्ताग्रहण से ब्रह्म को जाना जाता है यह स्पष्ट हो गया है।,अतः चक्षुषा सत्ताग्रहणात्‌ ब्रह्म ज्ञातमिति स्पष्टम्‌। व्याकरण के शरीर की किस अङ्ग से तुलना की है?,व्याकरणं शरीरस्य केन तुल्यम्‌? उन तात्पर्य ग्रहाकलिङ्गों के द्वारा ही वेदान्तवाक्यों के तात्पर्य का ग्रहण होता है।,तैरेव तात्पर्यग्राहकलिङ्गैः वेदान्तवाक्यानां तात्पर्य॑निर्णीयते। गोपि इस लौकिक विग्रह में गोपा डि अधि इस अलौकिक विग्रह में समास संज्ञा होने पर उपसर्जन का पूर्वनिपात होने पर प्रातिपदिक से सुप्‌ के ङे का लोप होने पर प्रक्रिया में अधिगोपा यह निष्पन्न होता है।,गोपि इति लौकिकविग्रहे गोपा ङि अधि इत्यलौकिकविग्रहे समाससंज्ञायाम्‌ उपसर्जनस्य पूर्वनिपाते प्रातिपदिकत्वात्‌ सुपः ङेर्लुकि प्रक्रियाकार्ये अधिगोपा इति निष्पन्नः। गोपथ ब्राह्मण का (३/२) कथन है की तीनों वेदों के द्वारा यज्ञ का अन्तर पक्ष को ही शुद्ध करते हैं।,गोपथब्राह्मणस्य (३/२) कथनम्‌ अस्ति यत्‌ त्रिभिः वेदैः यज्ञस्यान्तरः पक्ष एव संस्क्रियते। "पतञ्जलि योगदर्शन में तो शीतोष्ण, भूख, प्यास, सुख, दुःख इत्यादि द्वन्द्वो को सहना तथा कृच्छ चान्द्रायणादि व्रत, तप, शब्द के द्वारा कहे गये हैं।","पातञ्जलदर्शने तु शीतोष्णम्‌, जिघत्सापिपासे, सुखदुःखे - इत्यादीनां द्वन्द्वानां सहनं, कृच्छ-चान्द्रायणादिव्रतानि च तपश्शब्देन निर्दिष्ठानि।" वैदिकदेवता का बाह्यप्रतीक प्रत्येक एक एक प्राकृतिक घटना रूप में है।,वैदिकदेवतायाः बाह्यप्रतीकं प्रत्येकम्‌ एकम्‌ एकं प्राकृतिकघटनरूपम्‌। चित्तशुद्धि के बिना संन्यास विफल हो जाता है।,चित्तशुद्धिं विना संन्यासः विफलो भवति। और वह भिस्प्रत्यय झलादि है।,स च भिस्प्रत्ययः झलादिः वर्तते। तात्पर्य यह है कि मन के राज जनन से बन्धन का कारण होता है तथा वैराग्य जनन से मोक्ष कारण होता है।,रागजननद्वारा मनः बन्धस्य कारणं तथा वैराग्यजननद्वारा मोक्षकारणञ्च । ध्यान धारण तथा समाधि ये पतंजलि के योग शास्त्र में संयम पद के द्वारा कहे गये है।,ध्यान-धारणा-समाधयः पातञ्जलयोगसूत्रे संयमपदेन उक्ताः। आचार्य का यह वचन हैं कि अज्ञानकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्व शास्त्रों का होता है।,अज्ञानकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वात्‌ शास्त्राणामिति आचार्यवचनम्‌। स्वरभेद से अर्थभेद होता है।,स्वरभेदे अर्थभेदो भवति। अतः कर्मयोग का सभी मुमुक्षुओं के द्वारा हमेशा अनुष्ठान करना चाहिए।,अतः कर्मयोगः सर्वैः मुमुक्षिभिः नितराम्‌ अनुष्ठेयः। “प्राक्कडारात्समासः''' “ सहसुपा'' “तत्पुरुषः” “विभाषा” ये चार प्रकार के सूत्र अधिकृत किये गये हैं।,"""प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः"" ""विभाषा"" इति सूत्रचतुष्टयमधिकृतम्‌।" "मानवजाति की समस्याओं का समाधन समूह शक्ती संघ में गूहित है, अकेला मानव दुर्बल और स्वार्थी हो जाता है।","मानवजातेः समस्यानां समाधानं समूहशक्तौ किञ्च संघे गूहितं वर्तते, एकाकी मानवः दुर्बलः स्वार्थपरश्च सञ्जायते।" शब्द या वाक्य जो अर्थ परक होता है वह तात्पर्य कहलाता है।,शब्दः वाक्यं वा यदर्थपरं तत्‌ तस्य तात्पर्यम्‌। वेद प्रमाण विषय पर विस्तृत वर्णन कीजिए।,वेदप्रामाण्यविषये विस्तृतं वर्णनं कुरुत। किन्तु - आ नो मित्रावरुणा (ऋ. ३/६२/१६) इस मन्त्र के गायन का प्रयोग दीर्घरोग निवृत्ति के लिए ही है।,किञ्च - आ नो मित्रावरुणा (ऋ. ३/६२/१६) अस्य मन्त्रगायनस्य विनियोगः दीर्घरोगनिवृत्त्यर्थम्‌ एव अस्ति। उसी प्रकार मन से बन्धन बनाये जाते हैं तथा फिर मन के द्वारा ही उनका निरास कर दिया जाता है।,एवं मनसा बन्धः आनीयते। ततः मनसा तस्य निरासश्च क्रियते। यहाँ अग्निम्‌ ईळे इस स्थिति में 'तिङङतिङ:' इस सूत्र से सभी को अनुदात्त स्वर प्राप्त होता है।,अत्र अग्निम्‌ ईळे इति स्थिते तिङ्ङतिङः इति सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः। चित्त विषयों में आकृष्ट होता है।,चित्तं विषयेषु एव आकृष्टं भवति। यह लोक प्रज्ञा चक्षु है तथा इस जगत की प्रतिष्ठा प्रज्ञा ही है।,प्रज्ञाचक्षुर्वा सर्व एव लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा सर्वस्य जगतः। उस मनुष्य का पोषण करने के लिये किसी भी अपरिचित मनुष्य की शरण में जाना चाहिए।,तं जनं पोषणकरः कस्यापि अपरिचितस्य जनस्यैव शरणं गन्तव्यम्‌। "इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य, पैरों से शूद्र, नाभिप्रदेश से अन्तरिक्ष मण्डल, शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि, कर्ण से दिशाएं उत्पन्न हुई।","अस्य पुरुषस्य मुखात्‌ ब्राह्मणाः, बाहुभ्यां क्षत्रियाः, ऊरुभ्यां वैश्याः, पादाभ्यां शूद्राः, नाभिप्रदेशात्‌ अन्तरिक्षमण्डलं, शिरसः द्युलोकः, पादाभ्यां भूमिः, कर्णाभ्यां दिशः अजायन्त।" ““ अङ्गस्य'' यह अधिकृत सूत्र है।,"""अङ्गस्य"" इति सूत्रम्‌ अधिकृतम्‌ ।" पूर्ण रूप से कहा की निरुक्त का ज्ञान भी अत्यन्त आवश्यक है।,निःशेषेण उक्तस्य निरुक्तस्य ज्ञानम्‌ अपि अत्यावश्यकम्‌। इन्होने वेदों की अध्यात्म परक व्याख्या की है।,अनेन वेदानाम्‌ अध्यात्मपरका व्याख्या कृतास्ति। यहाँ कुछ पाठगत प्रश्‍न दिये जा रहे हैं।,अत्र केचन पाठगतप्रश्नाः प्रदीयन्ते। वसूनाम्‌ इसका क्या अर्थ है?,वसूनाम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। वह चैतन्य ही सभी जगह अनुस्यूत रहता है।,तच्चैतन्यं सर्वत्र एव अनुस्यूतं वर्तते। विशेष रूप से छिन्न।,विशेषतः छिन्नानि। उसके प्रति कहा गया है कि- न तो उसका समानजातीयत्व वाला और न ही भिन्न जातीयत्व वाला नियम है।,"तावत्समानजातीयम्‌ एवारभते, न भिन्नजातीयमिति नियमोऽस्ति ।" और दुःख से पीछा छुडाना चाहता है।,दुःखपरिजिहिर्षुश्च । यहां इसका अर्थ अङऱगुष्ठमात्र है।,अत्रार्थ अङ्गुष्ठमात्रः । 74. “तद्धिता” इस सूत्र का अधिकार कहाँ तक है?,"७४. ""तद्धिताः"" इति सूत्रस्याधिकारः कियत्पर्यन्तम्‌?" और इसके बाद शप्‌ का भी शित्व सार्वधातुक से सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से भू के ऊकार का गुण होने पर ओकार में एचोऽयवायावः सूत्र से अव्‌ आदेश होने पर भत्‌ अ अत्‌ होने पर अतो गुणे' सूत्र से पररूप होने पर भवत्‌ सिद्ध होता है।,ततश्च शपः अपि शित्त्वेन सार्वधातुकत्त्वात्‌ सार्वधातुकार्धधातुकयोः इति सूत्रेण भुवः ऊकारस्य गुणे ओकारे एचोऽयवायावः इति सूत्रेण अव्‌ इत्यादेशे च कृते भव्‌ अ अत्‌ इति जाते अतो गुणे इति सूत्रेण पररूपे भवत्‌ इति सिद्ध्यति। इसका भी समय अज्ञात ही है।,अस्य अपि समयः अज्ञातः एव। "और “विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधो पदम्‌"" इस मन्त्र का उच्चारण करके त्रिपद जाता है।","अपि च ""विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌"" इति मन्त्रम्‌ उच्चारयन्‌ त्रिपदं गच्छति।" इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे - पृथ्वी सूक्त के संहितापाठ को स्वर सहित जान पाने में। पृथ्वी सूक्त के पदपाठ को जान पाने में। पृथ्वी सूक्त के मन्त्रों का अन्वय कर पाने में। सरलता से पृथ्वी सूक्त के अर्थ को समझ पाने में। पृथ्वी सूक्त के शब्दों के व्याकरण बिन्दुओं को जान पाने में। पृथ्वी सूक्त का विविधरूप से वर्णन कर पाने में। वैदिक शब्दों को जान पाने में समर्थ हैं।,एतं पाठं पठित्वा भवान्‌- पृथिवीसूक्तस्य संहितापाठं संस्वरम्‌ ज्ञातुं शक्नुयात्‌। पृथिवीसूक्तस्य पदपाठं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। पृथिवीसूक्तस्य मन्त्राणाम्‌ अन्वयं कर्तुम्‌ समर्थो भविष्यति। ऋजुतया पृथिवीसूक्तस्य अर्थम्‌ अध्येष्यते। पृथिवीसूक्तस्य केषाञ्चित्‌ शब्दानाम्‌ व्याकरणं ज्ञास्यति। पृथिव्याः विविधरूपेण वर्णनं कर्तुं शक्नुयात्‌। वैदिकशब्दान्‌ ज्ञातुं शक्नुयात्‌। जैसे जल तथा नमक के मिश्रण होने पर उन दोनों में भेद ग्रहण किया जाता है।,यथा लवणजलयोः मिश्रणे सति न तयोः भेदो गृह्यते । इसके बाद पञ्चम्यन्त का पूवनियात होने पर चोर ङसि भय सु ऐसा होने पर प्रातिपदिकत्व से सुलोप होने पर निष्पन्न चोर भयशब्द से सु प्रत्यये की प्रक्रियाकार्य में यह रूप निष्पन्न होता है।,"ततः पञ्चम्यन्तस्य पूर्वनिपाते चोर ङसि भय सु इति स्थिते, प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ चोरभयशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये चोरभयम्‌ इति रूपं निष्पन्नम्‌।" विश्वंभरा इस शब्द का क्या अर्थ है?,विश्वंभरा इति शब्दस्य कः अर्थः? "यज्ञ का देव दान देने से, प्रकाश करने से, प्रकाशित होने से अथवा द्युस्थान में रहने से होता है।","यज्ञस्य देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा।" भूतपञ्चक से रस प्राप्त हुआ।,भूतपञ्चकात्‌ यो रसः सम्भृतः पुष्टः। शरवे - शृ-धातु से उ प्रत्यय करने पर शरु: हुआ इसके बाद चतुर्थी एकवचन में शरवे यह रूप बना।,शरवे- शृ-धातोः उप्रत्यये शरुः इति जाते चतुर्थ्येकवचने शरवे इति रूपम्‌। "जैसे घोड़े की पूंछ के बाल मक्खी आदि को हटाने के लिए इधर उधर होती है, वैसे ही तुम ने भी वृत्रगण का निराकरण किया यह अर्थ है।",अथाश्वस्य वालोऽनायासेन मोक्षाकादीन्निवारयति तद्वत्‌ वृत्रमगणयित्वा निराकृतवानित्यर्थः। समास में और इसमें समास विधायक सूत्र में यही अर्थ होता है।,समासे इत्यस्य च समासविधायकसूत्रे इत्यर्थः। कवि जहां कही पर भी अलङऱकारों का प्रयोग नहीं करता है।,कविः यत्र कुत्रापि अलङ्काराणां व्यवहारं न करोति। इसलिए देह आत्मा नहीं है।,अतः देहः नात्मा। 13. अपीपरम्‌ यहा पर क्या धातु है?,१३. अपीपरम्‌ इत्यत्र कः धातुः? इस प्रकार अन्य उदाहरण ही इस प्रकार सिद्ध होते हेैं।,अन्यानि उदाहरणानि एवमेव सिद्ध्यन्ती। यहाँ किसका वेत्ता नहीं होता हे?,"न तस्यास्ति वेत्ता, कस्य ?" जिसे विवेकचूडामणी में इस प्रकार से कहा गया है।,तदुक्तं विवेकचूडामणौ । सूत्र व्याख्या - अतिदेश सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - अतिदेशसूत्रमिदम्‌। "उसकी सम्पत्ति लाभ मे किसका अधिकार है, कौन अधिकृत है तथा कौन अधिकारी है।","तत्सम्पत्तिलाभे कस्य अधिकारः, कः अधिकृतः, कः अधिकारी।" आमन्त्रिते यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,आमन्त्रिते इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। अपनी इच्छा अनुसार शिक्षा शास्त्र के तीन ग्रन्थ के रचयिताओं का परिचय ऊपर निर्देश के अनुसार व्याख्या कीजिए।,यथेच्छं शिक्षाशास्त्रस्य ग्रन्थत्रयं रचयितृपरिचयनिर्देशपुरःसरं व्याख्यात। आदि में जो कहा गया है अन्त में भी उसका कथन उपक्रम तथा उपसंहार कहलाता है।,आदौ यत्‌ वदति अन्तिमे अपि तस्यैव कथनम्‌ उपक्रमोपसंहारौ। एकदेशिना इस तृतीया एकवचनान्त और एक अधिकरण में सप्तमी एकवचनान्त पद है।,एकदेशिना इति तृतीयैकवचनान्तम्‌ एकाधिकरणे इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। "अर्थात्‌ तिङन्त शब्द का उपसर्ग व्यवधान होने पर भी यावद्‌ यथा से योग तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय गम्यमान होने पर।",अर्थात्‌ तिङन्तशब्दस्य उपसर्गव्यवधाने सत्यपि यावद्यथाभ्यां योगे तिङन्तम्‌ अनुदात्तत्वं न भवति पूजायां गम्यमानायाम्‌। इसलिए इसे श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ में इस प्रकार से कहा है।,श्वेताश्वतरोपनिषदि निगद्यते। बिम्बभूत चैतन्य का कभी भी नाश नहीं होता है।,बिम्बभूतस्य चैतन्यस्य कदापि नाशः न भवति। जैसे -वह जलवर्षक औषधियों में गर्भरूप से बीज को धारणा करता है।,यथा- स जलवर्षकः ओषधीषु गर्भरूपेण बीजानि धारयति। ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुग्रैद्युभ्यः ( ६.१.१७६ ) सूत्र का अर्थ- इन शब्दों से उत्तर असर्वनाम स्थान विभक्ति उदात्त होती है।,ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रैद्युभ्यः (६.१.१७६) सूत्रार्थः- एभ्योऽसर्वनामस्थानविभक्तिरुदात्ता। श्रुति में ब्रह्म से सम्पूर्ण जगत्‌ को सृष्टि होती है तथा एक ही सृष्टा से सम्पूर्ण सृष्टि का उपदेश मिलता है।,श्रुतौ ब्रह्मण एव सर्वं सृज्यते इति एकस्मात्‌ स्रष्टुः सर्वसृष्ट्युपदेशात्‌ लौकिक में तो इष्टे रूप बनता है।,लौकिके तु इष्टे इति रूपम्‌। विवेकचूडामणी में इस प्रकार से कहा गया है प्राणापानव्यानोदानसमानाः भवत्यसौ प्राणः।,तदुक्तं विवेचूडामणौ प्राणापानव्यानोदानसमानाः भवत्यसौ प्राणः। "वहाँ एवादीनाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र एवादीनाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌, अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" "इसी प्रकार अल्पान्युक्तः, अन्तिकादागतः इरात्‌ आगतः (दूरादागतः) कृछ्रादागतः इत्यादि अन्य सूत्र के उदाहरण है।",एवमेव अल्पान्मुक्तः अन्तिकादागतः दूरादागतः कृच्छ्रादागतः इत्यादीन्यस्य सूत्रस्योदाहरणानि। "और अहि, वृत्रपृथ्वी के ऊपर सदा के लिए सोये अथवा कटी हुई लकडी के समान भूमि पर गिरे।",तथा सति अहिः वृत्रः पृथिव्याः उपरि उपपृक्‌ सामीप्येन संपृक्तः शयते शयनं करोति छिन्नकाष्ठवत्‌ भूमौ पततीत्यर्थः॥ ब्राह्मणों में शब्दों के निर्वचन का मार्मिक और वैज्ञानिक निर्देश निरुक्त में कहा है।,ब्राह्मणेषु शब्दानां निर्वचनस्य मार्मिकः वैज्ञानिकश्च निर्देशः निरुक्तिः इत्युच्यते। वर्षा करते हुए मेघ की धारो को नीचे की और प्रवाहित करो।,वर्षणं कुर्वतां मेघानां धारां प्रवाहयतु। "वैसे ही यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु इस सूत्र से जप, न्यूङ्ख, साम से भिन्न यज्ञकर्म में ही नित्य एकश्रुति का विधान है, अतः जप, न्यूङ्ख, साम से भिन्न में, और यज्ञकर्म से भिन्न स्थलों में छन्द में भी विकल्प से एकश्रुति हो उसके लिए इस नये सूत्र की रचना की है।","तथाहि यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु इति सूत्रेण जपभिन्नेषु न्यूङ्खभिन्नेषु सामभिन्नेषु यज्ञकर्मसु एव नित्यम्‌ ऐकश्रुत्यं विधीयते, अतः जपभिन्नेषु न्यूङ्खभिन्नेषु सामभिन्नेषु यज्ञकर्मभिन्नेषु च स्थलेषु छन्दस्सु अपि विकल्पेन ऐकश्रुत्यं यथा स्यात्‌ तदर्थं नूतनमिदं सूत्रं प्रणीतम्‌।" महाभाष्य के अनुसार से- “शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये।,महाभाष्यानुसारेण - 'शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये। सूत्र का अवतरणर- तद्धित कित्प्रत्ययान्त शब्द के अन्त स्वर को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणरम्‌- तद्धितकित्प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य अन्तस्य स्वरस्य उदात्तविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। यहाँ देवता विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतिनिधि स्वरूप हैं।,अत्र देवताः विभिन्नानां प्राकृतिकशक्तीनां प्रतिनिधिस्वरूपाः। "( ६.१.१८८ ) सूत्र का अर्थ - स्वपादि धातुओं को तथा हिंस धातु के अजादि अनिट सार्वधातुक परे हो, तो विकल्प से आदि को उदात हो जाता है।",(६.१.१८८) सूत्रार्थः - स्वपादीनां हिंसेश्चानिट्यजादौ लसार्वधातुके परे आदिरुदात्तो वा स्यात्‌। 3. आजहुः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,३. आजहुः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? "तिसृभ्य: यह पञ्चमी बहुवचनान्त पद है, जसः यह षष्ठी एकवचनान्त पद है।","तिसृभ्यः इति पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌, जसः इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌।" अब्राह्मणः- न ब्राह्मणः इस विग्रह में नजूतत्पुरुष समास में अब्राह्मण: यह रूप होता है।,अब्राह्मणः- न ब्राह्मणः इति विग्रहे नञ्तत्पुरुषसमासे अब्राह्मणः इति रूपं भवति। इस हेतु से सत्य आदि भी प्रतिपादित किए गए हैं।,इति हेतोः सत्यादयः प्रतिपादिता भवन्ति। इन घटनाओं का वर्णन पाठकों के मन में आनन्द को उत्पन्न करता है।,एतानि वर्णनानि पाठकानां मनःसु आनन्दं जनयन्ति। उदात्त निवृत्ति स्वर अपवाद भूत यह सूत्र है।,उदात्तनिवृत्तिस्वरापवादभूतम्‌ इदं सूत्रम्‌। समास संज्ञक होना।,समाससंज्ञं भवति इति। बृहन्महतोरुपसङ्ख्यानम्‌' से ङीप्‌ को उदात्त।,'बृहन्महतोरुपसङ्ख्यानम्‌' इति ङीप उदात्तत्वम्‌। "जितनी सुललित देववाणी का शास्त्रीय विवेचन वहाँ देखते हैं, अन्य जगह उस प्रकार की सुललिता दिखाई नहीं देती है।","यादृशं हि सुललितं देववाण्याः शास्त्रीयं विवेचनं तत्र दृश्यते, नान्यत्र तादृशं क्वापि विलोक्यते।" नहीं जानता हुआ तो स्थाणु में पुरुषविज्ञान के समान अविवेक से देहादिसङ्गात को में मानता हूँ।,"अजानंस्तु स्थाणौ पुरुषविज्ञानवत्‌ अविवेकतः देहादिसङ्खाते कुर्यात्‌ “अहम्‌ इति प्रत्ययं, न विवेकतः जानन्‌।" 5. क्रन्द्‌-धातु से यङ लुङन्त में प्रथमापुरुष एकवचन का यह रूप है।,५. क्रन्द्‌ - धातोः यङ्‌ तुङन्ते प्रथमापुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ । उस अग्नि के द्वारा निमित्तभूत यजमान धन- धान्य को विशेष रूप से प्राप्त करता है।,तेन अग्निना निमित्तभूतेन यजमानः रयिं धनम्‌ अश्नवत्‌ प्राप्नोति। मरण भी देह का धर्म होता है।,मरणं देहस्य धर्मः। अलग नहीं है फिर भी इनमें नामों में भिन्नता दिखाई देती है।,अभिन्ना तथापि एतेषु नामसु महती भिन्नता दृश्यते। व्याकरण के सभी प्रयोजन बताये गये महाभाष्य में - रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्‌।,व्याकरणस्य सर्वाणि प्रयोजनानि उक्तानि महाभाष्ये - रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्‌। क्योंकि अग्नि से ही यज्ञ भोजन आदि और शीतनिवारण होता था।,यतो हि अग्निना एव यज्ञः भोजनादिकं शीतनिवारणं च सम्पाद्यन्ते स्म। इसी प्रकार से अन्य शास्त्रों में भी तथा अन्य ग्रन्थों में भी देखना चाहिए।,"एवमेव अन्यानि शास्त्राणि, अन्ये ग्रन्थाः चापि द्रष्टव्याः।" इसलिए योगसूत्र में कहा गया है- “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌” इति।,तथाहि योगसूत्रे उच्यते - “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌” इति। और देवों का भी यज्ञस्थल में आह्वान करती है।,तथा देवानपि यज्ञस्थलमावहति। इसलिये व्याकरणदार्शनिकै के द्वारा स्फोटपरक व्याख्या की गई है।,अतो व्याकरणदार्शनिकैः स्फोटपरा व्याख्या प्राणायि। "वो कभी पुरुषरूप से, कभी हिरण्यगर्भ रूप से कभी प्रजापतिरूप से और कभी ब्रह्मरूप में सुशोभित होता है।","सः कदाचित्‌ पुरुषरूपेण, कदाचित्‌ हिरण्यगर्भरूपेण कदाचित्‌ प्रजापतिरूपेण कदाचिच्च ब्रह्मरूपेण विराजते।" निरुक्त का एकमात्र प्रतिनिधि होने से निरुक्त ग्रन्थ का सबसे अधिक महत्त्व है।,निरुक्तस्य एकमात्रप्रतिनिधित्वेन निरुक्तग्रन्थस्य सर्वातिशायि महत्त्वम्‌ अस्ति। अमावास्या पर दो दिन तथा पूर्णिमा पर दो दिन इस याग का अनुष्ठान करना चाहिए।,अमावास्यायां दिनद्वयं पूर्णिमायां च दिनद्वयम् अस्य यागस्य अनुष्ठानं कर्तव्यम्‌। घटावच्छिन्न ब्रह्म में ही अज्ञान होता है।,घटावच्छिन्ने ब्रह्मणि हि अज्ञानं वर्तते। अतः यहाँ प्रदत्त प्रकार द्वारा भिन्न प्रकार से छात्रको अपना उत्तर सिद्ध करना चाहिए।,अतः अत्र पदत्तप्रकारात्‌ भिन्नेन प्रकारेण छात्रः स्वस्य उत्तराणि सिद्धानि कुर्यात्‌। वैसे ही जैसे पट में धागे ओतप्रोत रूप से है वैसे ही प्रजाओं का सभी ज्ञान मन में रहता है।,तथाहि पटे यथा तन्तवः ओतप्रोतरूपेण वर्तन्ते तथैव प्रजानां सर्वं ज्ञानं मनसि तिष्ठति। "इन लघु आख्यानों में कुछ स्थलों पर अत्यधिक गम्भीर तत्व के तथ्यों का भी सङ्केत प्राप्त होता है, जो ब्राह्मण के कर्मकाण्ड वर्णन से बिल्कुल भिन्न होता है, तथा गहरे -गम्भीर अर्थ का भी प्रतिपादन होता है।","एतेषु लघ्वाख्यानेषु क्वचित्‌ स्थलेषु अतीव गम्भीरतात्त्विक-तथ्यानाम्‌ अपि सङ्केतः प्राप्यते, यद्‌ ब्राह्मणस्य कर्मकाण्डात्मकवर्णनाद्‌ नितान्तं भिन्नं भवति, तथा गूढ-गम्भीरार्थप्रतिपादकम्‌ अपि भवति।" "केवल धर्ममूल होने से ही वेदों का आदर नहीं किया जाता है, अपितु विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ होने से और ऊचें तत्वों के निरूपण करने से आदरविशेष को हमेशा प्राप्त होते है।","न केवलं धर्ममूलकतयैव वेदाः समादृताः, अपि तु विश्वस्मिन्‌ सर्वप्राचीनग्रन्थतया अत्युच्चतत्त्वप्रतिपादकतया च आदरविशेषं लभते सदा।" नयत - नी-धातु से लोट मध्यमपुरुषबहुवचन में (छान्दसदीर्घ)।,नयत - नी - धातोः लोटि मध्यमपुरुषबहुवचने ( छान्दसदीर्घः ) । समास अवयव और विभक्ति का लोप नहीं होता हे।,"समासावयवविभक्तेश्च लोपो न भवति"" इति।" गरजने वाले पर्जन्य पापियों का संहार करते है।,वर्षकर्मवतो यत्पर्जन्यः स्तनयन्‌ हन्ति दुष्कृतः पापकृतः इति ॥ "समास विधायक सूत्रार्थ लेखन अवसर पर बहुत ""समस्यते'' इस पद का प्रयोग है।","समासविधायकसूत्रार्थलेखनावसरे बहुत्र ""समस्यते"" इति पदस्य प्रयोगः अस्ति।" वेदान्त उपनिषद्‌ प्रमाण तथा तदुपकारी शारीरिक सूत्रादि होते हैं।,वेदान्तो नाम उपनिषदुप्रमाणं तदुपाकारीणि शारीकसूत्रादीनि च। इस जगत में छोटे-छोटे कीट से लेकर मनुष्यों तक प्राणियो को सुखप्राप्त करने के लिए और दुःख छोड़ने के लिए उनकी यह प्रवृत्ति हम दिन रात देखते हैं।,इह खलु जगति आकीटपतङ्गं प्राणिनां सुखप्राप्तये दुःखपरिहाराय च प्रवृत्तिद्वयम्‌ अहर्निशं दरीदृश्यते। "उससे यहाँ उदात्त से परे अनुदात्त के होने से 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस पूर्व सूत्र से अनुदात्त के स्थान में स्वरित की प्राप्ति, उसका उदात्त परे होने पर प्रकृत सूत्र से पूर्व सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर का निषेध होता है।",तेन अत्र उदात्तात्‌ परस्य अनुदात्तस्य सत्त्वाद्‌ उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इति पूर्वण सूत्रेण अनुदात्तस्य स्वरिते प्राप्ते तस्य उदात्तपरत्वाद्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण पूर्वेण प्राप्तस्य स्वरितस्वरस्य निषेधः भवति। इसके बाद अ ब्राह्मण सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न से अब्राह्मण शब्द से सु प्रक्रिया कार्य में अब्राह्मणः रूप होता है।,ततः अ ब्राह्मण इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नात्‌ अब्राह्मणशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये अब्राह्मणः इति रूपम्‌ । किन्तु पूर्णिमा तथा अमावास्या पर अस्वस्थ होते हुए भी ब्राह्मण को ही करना चाहिए।,किन्तु पूर्णिमायाम्‌ अमावास्यायाञ्च अस्वस्थतासत्त्वे अपि ब्राह्मणेनैव करणीयं भवति। सूत्र व्याख्या-यह अतिदेश सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - इदम्‌ अतिदेशसूत्रम्‌ । 62. सम्पत्ति अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है? 63. अन्त अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण हे?,६२. सम्पत्त्यर्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? ६३. अन्तार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? 43. “राजाहः सखिभ्यष्टच्‌'' सूत्र से।,४३. राजाहःसखिभ्यष्टच्‌ इति सूत्रेण। और विद्यारण्य स्वामी कहते है को “दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते।,अपि च विद्यारण्यस्वामिनः निगदन्ति यत्‌ -“दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते। "उन द्रोहो को और विरोध को दूर कर दो, जो मैंने अपने शरीर से किये।","तान्‌ द्रोहान्‌ विरोधान्‌ च अपह्नियताम्‌, ये मया स्वशरीरेण कृताः।" कुछ संवाद सूक्त के नाम लिखो।,केषाञ्चन संवादसूक्तानां नामानि लिखत। इन तीनों ज्योतिष शास्त्रों के भी लेखक लगध नाम के आचार्य है।,एतेषां त्रयाणाम्‌ अपि ज्यौतिषाणां प्रणेता लगधो नाम आचार्यः। उसका वैशिष्ट्य और स्वरूप का भी विस्तार से यहाँ वर्णन किया गया है।,तस्य वैशिष्ट्यं स्वरूपश्चापि प्रायशः विस्तरेण अत्र वर्णितः। महाभारत के शान्ति पर्व में आचार्य गालव द्वारा शिक्षा ग्रन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है।,महाभारते शान्तिपर्वणि आचार्यगालवकृतस्य शिक्षाग्रन्थस्य उल्लेखः लभ्यते। तब वह प्रतिबिम्ब जीव कहलाता है।,तदा स प्रतिबिम्बः जीव इत्युच्यते। ईर्मा इसका क्या अर्थ है?,ईर्मा इत्यस्य कः अर्थः। वेदों का अध्ययन करके काम्यादि कर्मों का त्याग करके नित्यादी अनुष्ठानों को करके चित्त शुद्ध तथा एकाग्र होता है तो संशय तथा विपर्यय की निवृत्ति भी सम्भव होती है।,वेदान्‌ अधीत्य काम्यादीनां त्यागम्‌ नित्यादीनाम्‌ अनुष्ठानं च कृत्वा चित्तं शुद्धम्‌ एकाग्रं च भवति चेत्‌ संशयविपर्यययोः निवृत्तिः सम्भवति। जल प्रलय के समय नौका में स्थिर होकर के प्रतीक्षा करो।,प्लावने सति नौकायां संवक्षसि प्रतीक्षां करिष्यसि। उससे 'ति' इसकी उदात्त भिन्न की लसार्वधातुक के परे होने से पूर्व अभ्यस्त संज्ञक धा धातु के आदि अच्‌ दकार से उत्तर अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,तेन 'ति' इति उदात्तभिन्नस्य लसार्वधातुकस्य परत्वात्‌ पूर्वस्य अभ्यस्तसंज्ञकस्य धाधातोः आदेः अचः दकारोत्तरस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। “पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्भष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः“ इस सूत्र से जाति की अनुवृत्ति होती है।,""" पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्भष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः "" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ जातिः इत्यनुवर्तते ।" "अन्तः करणशुद्धिकरण परक चित्तैकाग्र शुद्धि परक साधन, साधन चतुष्टय कहे जाते हैं वो सभी इनके अन्तर्गत होते हैं।",अन्तःकरणशुद्धिकराणि चित्तैग्रतासाधनानि साधनचतुष्टयम्‌ इति एतानि सर्वाण्यपि अत्र अन्तर्भवन्ति। सूत्र ही लक्षण बोला जाता है।,सूत्रं हि लक्षणम्‌ उच्यते। और क्या कहते हो।,किं तदित्युच्यते। 7. संयम के जीतने पर क्या होता है?,७. संयमजये सति किं भवति? दिव्य देवताओं का भी वह ही अधिपति है।,दिग्देवतानामपि सः अधिपतिः। अन्वय - येन अमृतेन (मनसा) इद्‌ भूतं भूवनं भविष्यत्‌ सर्व परिगृहीतम्‌।,अन्वयः - येन अमृतेन ( मनसा ) इदं भूतं भूवनं भविष्यत्‌ सर्व परिगृहीतम्‌। 7. प्रजापति के स्वरूप का वर्णन कोजिए।,७. प्रजापतिस्वरूपं वर्णयत। मनुष्य सुख में लिप्त रहना चाहता है।,सुखलिप्सुः मनुजः । शाडयायन आरण्यक दूष्टा के गुरु का क्या नाम है?,शाङ्यायनारण्यकस्य द्रष्टुः गुरोः नाम किम्‌? बोधक प्रमाण होता है।,बोधकं च प्रमाणम्‌। "जैसे इन्द्र सोम रस पीते है, युद्ध करते हैं, वृत्र को मरते हैं और अश्व चलाते हैं।","यथा इन्द्रः सोमरसं पिबति, युद्धं करोति, वृत्रं हन्ति, अश्वं चालयति।" इन सभी अङ्गो का क्रमानुसार अनुष्ठान करना चाहिए।,एतानि अङ्गानि यथाक्रमम्‌ अनुष्ठेयानि। छन्द में मन्त्रों की उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों की विकल्प से एकश्रुति होती है यह इस सूत्र का निष्कर्ष निकला है।,छन्दसि मन्त्राणाम्‌ उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणां विकल्पेन एकश्रुतिः भवति इति निष्कर्षः। नागरखण्ड ने भी इसको आदि वेद कहते है।,नागरखण्डः अपि इमम्‌ आद्यवेद इति वदति और वह छान्दोग्य उपनिषद्‌ है।,सा च छान्दोग्योपनिषत्‌। साधारण तया अन्ग विहीन आदि दोष रहित बकरे ही बली के लिए लाए जाते हैं।,साधारणतया दन्तुखञ्जत्वकाणत्वादिदोषरहिताः छागाः एव बलित्वेन आहूयन्ते। जहाँ उपलब्ध अवान्तर विषय तो उन विधियों के ही पोषक और निर्वाहक है।,यत्र समुपलब्धाः अवान्तरविषयाः तु तेषाम्‌ एव विधीनां पोषकाः निर्वाहकाश्च भवन्ति। और चैतन्यप्रदीप्त अतिसूक्ष्म अज्ञानवृत्ति के द्वारा आनन्द का अनुभव होता है।,तथा च चैतन्यप्रदीप्ताभिः अतिसूक्ष्माभिः अज्ञानवृत्तिभिः स आनन्दम्‌ अनुभवति। इसलिए जीवन्मुक्त के और भी कर्म फलों को भोगने के लिए अवशिष्ट नहीं होते है।,अतः इतोऽपि किमपि कर्म न अवशिष्यते जीवन्मुक्तस्य फलभोगाय। सृष्टि और संहार पुनः पुनः आते हैं।,सृष्टिसंहाराभ्यां पुनः पुनः आगच्छति। क्योंकि विदेहमुक्त का अज्ञान के अशेष से विनाश हो जाता है।,यतो हि विदेहमुक्तस्य अज्ञानस्य अशेषतः विनाशो भवति। अन्तिम मन्त्रत्रिष्टुप्‌ छन्द में है।,अन्त्यो मन्त्रः त्रिष्टुष्छन्दसा आम्नातः। उन “क नाम वाले प्रजापति देवता की हम हवी के द्वारा पूजा करेंगे अथवा हम हव्य द्वारा किन देवता की पूजा करें।,कं प्रजापतिं देवाय देवं दानादिगुणयुक्तं हविषा वयमृत्विजः परिचरेम। वैदिक वाङ्मय में अलङकारों के प्रयोग से रस का ही प्रतिपादन किया जाता है।,वैदिकवाङ्गये अलङ्काराणां प्रयोगेण रसः एव प्रतिपादितः। इसी प्रकार अन्य फिट्‌-स्वर विधायक सूत्रों का भी वर्णन है।,एवमेव अन्यानि फिट्-स्वरविधायकानि अपि वर्णितानि। उन दोनों में धातु प्रातिपदिक में इतरेतरयोगद्वन्दसमास है।,तयोः धातुप्रातिपदिकयोः इति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः। जो शब्द पूर्व गुणवाचक थे अब द्रव्यवाचक वे ही गुणवचनशब्द से गृहित होते हैं।,ये शब्दाः पूर्वं गुणवाचकाः आसन्‌ इदानीं द्रव्यवाचकास्ते एव गुणवचनशब्देन गृह्यन्ते। विन्दति - विद्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में (वैदिक) जरतः - जृ-धातु से शतृप्रत्यय करने पर षष्ठी एकवचन में।,विन्दति - विद्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने ( वैदिकम्‌ ) जरतः - जृ - धातोः शतृप्रत्यये षष्ठ्यैकवचने । लेकिन उन देवों द्वारा यजमान की अभीष्ट की सिद्धि होती है।,परं तैः देवैः यजमानस्य अभीष्टसिद्धिः भवति। 33. अव्ययीभावसमास के लक्षण में प्रायेण पद किसलिए ग्रहण किया गया है?,३३. अव्ययीभावसमासलक्षणे प्रायेण इति पदं किमर्थम्‌? उससे पूर्वपाणिनीयाः यह रूप बनता हे।,तस्मात्‌ पूर्वर्पाणिनीयाः इति रूपं भवति। * सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्‌' यह मुक्तिकोपनिषद्‌ का वाक्य है।,“सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्‌“ इत्येतद्‌ मुक्तिकोपनिषद्वाक्यम्‌। सम्भवतः इन ऋषियों द्वारा दुष्ट मन्त्रों का समूह अलग सत्ता को भी धारण करता है।,सम्भवतः आभ्याम्‌ ऋषिभ्यां दृष्टानां मन्त्रानां समूहः पृथक्‌ सत्ताम्‌ अपि धत्ते। गुहाहित क्या होता है?,गुहाहितं भवति किम्‌ ? सरलार्थ - हे मित्रवरुणतुम विशेषशरीर के दीप्ति को बढाने वाले हो।,सरलार्थः- हे मित्रवरुणौ युवां विशेषशरीरस्य दीप्तिं वर्धमानाः। वहाँ लौकिक वैदिक दोनों प्रकार के व्याकरण को बताया गया है।,तत्र लौकिकं वैदिकम्‌ उभयविधम्‌ अपि व्याकरणम्‌ आम्नातम्‌। “न लोपो नञः” इस सूत्र से नञ पद की अनुवृत्ति होती है और तत्‌ पञ्चमी विपरिणाम में होती है।,""" न लोपो नञः "" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ नञः इत्यनुवर्तते तच्च पञ्चम्यन्ततया विपरिणमते ।" "बहुत जगह विनियोग के प्रसङ्ग में कल्पना का ही विशेष रूप प्रभाव से परिलक्षित होता है, किन्तु ब्राह्मण की व्याख्या रीति से, और अनुगमन से इस प्रकार कल्पना आश्रितों में कुछ स्थलों में भी युक्तिमत का प्रतिपादन करता है।","बहुत्र विनियोगस्य प्रसङ्गे कल्पनाया एव विशेषरूपेण प्रभावः परिलक्षितो भवति, किन्तु ब्राह्मणस्य व्याख्या रीत्या, अनुगमनेन च एवंविधेषु कल्पनाम्‌ आश्रितेषु कतिपयस्थलेषु अपि युक्तिमत्तां प्रतिपादयति।" द्यूतक्रीडा का दुष्परिणाम ही लोक में जुए में आसक्त मनुष्य को निन्दा प्राप्त होती है।,द्यूतक्रीडायाः दुष्परिणामो हि लोके द्यूतासक्तः जनः निन्द्यः । वह स्वयं को स्थूल देह के रूप में मानने लगता है।,स्वयं स्थूलदेहः इति मनुते। स्वप्न में सूक्ष्मशरीर का भान स्पष्ट होता है।,स्वप्ने सूक्ष्मशरीरस्य भानञ्च स्पष्टमस्ति। उसकी विशिष्टता प्रदर्शन के लिए 'रहस्यब्राह्मण' इस नाम से भी जाना जाता है।,तस्य विशिष्टताप्रदर्शनाय “रहस्यब्राह्मणम्‌' इति नाम अपि प्रसृतम्‌ अस्ति। (प.द.1.53) अब कहते है की तात्पर्यनिर्णायक लिङ्ग क्या होते हैं?,(प.द्‌.१.५३) ननु किं वै तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गम्‌। पुंस्‌-शब्द का ब्राह्मण आदि गण में पाठ केसे हैं?,पुंस्‌-शब्दस्य कथं ब्राह्मणादिगणे पाठः? ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इस सूत्र को व्याख्या कोीजिए।,ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इति सूत्रं व्याख्यात। जो मन्द दुर्वासना वासित अन्तः करण वाले होते हैं वे वैराग्य के अभाव से श्रवणादिसाधनों से हीन होने पर निर्विशेष पर ब्रह्म का साक्षात्कार करने में अक्षम होते है।,ये मन्दाः दुर्वासनावासितान्तःकरणाः वैराग्यद्यभवात्‌ श्रवणादिसाधनहीना निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुम्‌ अनीश्वरा अक्षमाः । जब तक रागादि के द्वारा कलुषित चित्त रागादिवासनाक्षय सहित नहीं हो तब तक उसको अपने स्थान से विचलित नहीं करना चाहिए।,यावन्न रागादिकलुषितं चित्तं रागादिवासनाक्षयसहितं न भवेत्‌ तावत्‌ तच्चित्तं न स्वस्थानात्‌ चालयेत्‌। “ वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः' इस न्याय से अपीति उपसर्ग के अकार का लोप विकल्प से होता है।,"""वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः"" इति न्यायेन अपीति उपसर्गस्य अकारलोपः विकल्पेन भवति।" अव्ययीभाव समास का विवेचन करो।,अव्ययीभावसमासं विवृणुत। नित्य सुख ही मोक्ष कहलाता है।,नित्यसुखं हि मोक्षः कथ्यते। वस्तुतः अज्ञान एक ही होता है।,वस्तुतः अज्ञानमेकं भवति। लौकिक के और वैदिक के शास्त्रों के लिए यह शिक्षा नितान्त उपयोगी होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है।,लौकिकानां वैदिकानाञ्च शास्त्राणां कृते इयं शिक्षा नितान्तम्‌ उपयोगित्वेन अधिकमहत्त्वपूर्णा अस्ति। "पतञ्जलि ने यद्यपि इस वेद की नौ शाखा का उल्लेख किया फिर भी वर्त्तमान में पैप्पलाद, और शौनक संज्ञा की दो शाखा ही प्राप्त होती हैं।","पतञ्जलिः यद्यपि अस्य वेदस्य नवशाखाः इति समुल्लिखति, तथापि इदानीं तु पैप्पलाद-शौनकसंज्ञके द्वे एव शाखे लभ्येते।" समय पर मनु ने एक नाव का निर्माण करके समुद्रतट पर मछली की प्रतीक्षा करते हुए बैठा गये।,यथाकालं मनुः नावमेकां निर्माय समुद्रतटे मत्स्यस्य प्रतीक्षां कुर्वन्‌ तस्थौ। भूत अम्‌ पूर्व सु इस स्थिति में “कृत्तद्वितसमासाश्च'' इस सूत्र से समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है।,"भूत अम्‌ पूर्व सु इति स्थिते ""कृत्तद्धितसमासाश्च"" इत्यनेन समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञा भवति।" अथवा श्रवणादिसंस्कृतमनोनिबन्ध होता है।,अथवा श्रवणादिसंस्कृतमनोनिबन्धनम्‌। "और द्वितीय भाग में आठ अष्टक, चौसठ अध्याय और एक हजार सत्रह सूक्त हैं।","द्वितीये च भागे अष्टौ अष्टकानि, चतुष्षष्टिरध्यायाः, सप्तदशोत्तरसहस्राणि च सूक्तानि च सन्ति।" तब वास्तविक रस्सी पदार्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है।,तदा वास्तविकस्य रज्जुपदार्थस्य ज्ञानमुदेति। रुद्र के धनुष सम्बन्धि आयुध किस प्रकार के है?,रुद्रस्य धनुःसम्बन्धि आयुधं कीदृशम्‌? शार्ङ्गरवाद्यञ: यह पञ्चम्येकवचनान्त पद हैं।,शार्ङ्गरवाद्यञ: इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। "हिंसा जिसमें नहीं है, वह अध्वर है।",ध्वरणं ध्वरो हिंसा यस्मिन्नास्ति सः अध्वरः। शतुरनुमो नद्यजादी इस सूत्र से नद्यजादी इस प्रथमान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,शतुरनुमो नद्यजादी इति सूत्रात्‌ नद्यजादी इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। प्रश्‍न क्रम सही है अथवा नहीं।,प्रश्नक्रमः सम्यग्‌ न वा। वह ही इन्द्र अग्निमित्रवरुण आदि को धारण करती है।,सैव इन्द्राग्निमित्रावरुणादीनां धारयित्री। विषयों का भोग होने पर शीघ्र ही विषय का क्षय हो जाता है।,विषयोपभोगे सति शीघ्रमेव विषयस्य क्षयो भवतीति। अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इस सूत्र का उदाहरण में समन्वय कीजिए।,'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इति सूत्रस्य उदाहरणे समन्वयं कुरुत। अर्थात्‌ “सोऽयं देवदत्तः” यहाँ पर त्यक्त विरुद्ध सः शब्द तथा अयं शब्दों के अर्थो का लक्षणत्व होता है।,अर्थात्‌ “सोऽयं देवदत्तः” इत्यत्र त्यक्तयोः विरुद्धयोः सशब्दायंशब्दयोः तदर्थयोः च लक्षणत्वम्‌। चौ इस सूत्र में चौ इस पद का क्या अर्थ है?,चौ इत्यस्मिन्‌ सूत्रे चौ इति पदस्य कः अर्थः? अन्वचरन्‌ - अनु उपपदचर्‌-धातु से लङ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,अन्वचरन्‌- अनूपपदात्‌ चर्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। यहाँ समानाधिकरण तत्पुरुष का वर्णन किया जा रहा है।,ततः समानाधिकरणस्य तत्पुरुषस्य वर्णनमत्र विधीयते। "प्रधान वैदिक छन्दों में इनकी गणना होती है - गायत्री, उष्णिक्‌, अनुष्टुप्‌, प्रकृति, बृहती, पङिक्त, त्रिष्टुप्‌, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, कृति, आकृति, विकृति संस्कृति, अभिकृति, और उत्कृति।","प्रधानेषु वैदिकेषु छन्दःसु इमानि गण्यन्ते - गायत्री, उष्णिक्‌, अनुष्टुप्‌, प्रकृतिः, बृहती, पङ्क्तिः, त्रिष्टुफ्‌, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, कृतिः, आकृतिः, विकृतिः, संस्कृतिः, अभिकृतिः, उत्कृतिश्च ।" तीनों गुणों में सत्वगुण प्रकाशक होता है।,त्रिषु गुणेषु सत्त्वगुणः प्रकाशकः। "अथवा और भी, ते आपके, बाहुभ्याम्‌ - हाथों से नमस्कार स्तुति करता हूँ।","उत अपि च, ते तव, बाहुभ्याम्‌ - हस्ताभ्यं, नमः स्तुतिं करोमि।" "जगत में कोई भी पदार्थ सम्पूर्ण रूप से जड़ नहीं हो सकता है, क्योंकि चेतन सत्ता सभी जगह व्याप्त है।","जगति कोऽपि पदार्थः सम्पूर्णतया जडो भवितुं नार्हति, यतो हि चैतन्यसत्ता सर्वत्र परिव्याप्ता।" जैसे-जैसे जल नीचे की और लौटे वैसे ही तुम नीचे की और उतरना।,यावद्‌ अध्वनः उदकं समवायात्‌ ( सम्‌ ) एकीभावाय अव अधः अयात्‌ गच्छेत्‌ अवतरेदित्यर्थः। उसका उदर सोमरस से परिपूर्ण सरोवर के समान है।,तस्य उदरः सोमरसेन परिपूर्णः सरोवर इव। इस प्रकार कपिल का सांख्य दर्शन वेदांत के अति समीप है।,एवञ्च कपिलस्य सांख्यदर्शनं वेदान्तस्य अति निकटम्‌। “साम को जो जानता है वही वेद को जानता है” “वेदों में सामवेद हूँ' इति।,"""सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्‌"" इति। ""वेदानां सामवेदोऽस्मि"" इति।" श्रवण को श्रुति कहते है।,श्रवणं श्रुतिः एवं तत्पुरुष इस सूत्र से “शेषो बहुव्रीहिः'' इससे पहले सूत्रों से जो समास होता है वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"एवं ""तत्पुरुषः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ ""शेषो बहुव्रीहिः"" इत्यतः प्राग्‌ सूत्रैः यः समासः विधीयते स तत्पुरुषसंज्ञको भवति।" तुम सूर्य की सभी किरणों को चमकीला बनाते हो।,युवां परिभ्रमतः सूर्यस्य सकलकिरणसमूहस्य वर्धनम्‌ अकुरुतम्‌। वार्तिक व्याख्या-यह वार्तिक केवल समास विधायक है।,वार्तिकव्याख्या - इदं वार्तिकं केवलसमासविधायकम्‌। सूत्रार्थ-पञ्चम्यनत सुबन्त को भय प्रकृति के द्वारा सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,सूत्रार्थः - पञ्चम्यन्तं सुबन्तं भयप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमास संज्ञं भवति। प्रतीयमान गिरिनदी समुद्रादि भी सभी जीवन्मुक्त के लिए मिथ्या होते हैं।,प्रतीयमानं गिरिनदीसमुद्रादिकं सर्वं मिथ्यावत्‌ प्रतिभाति। संशायात्मिका अन्तः करणप्रवृत्ति क्या होती है?,संशयात्मिकान्तःकरणवृत्तिर्थवति किम्‌ ? यह एक रूप के द्वारा व्यवस्थित नहीं होता है।,एकरूपेण न व्यवस्थित इति तात्पर्यम्‌। इसी प्रकार “तत्त्वमसि” यहाँ पर तत्‌ तथा त्वम्‌ पदे के जो विरुद्धांश होते है।,एवमेव “तत्त्वमसि” इत्यत्र तत्त्वम्पदार्थयोः ये विरुद्धांशाः सन्ति । आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए यह ही एक प्रधान साधन होता है।,आत्मज्ञानप्राप्तये एतत्‌ एव प्रधानं साधनम्‌। श्रौतसूत्र और स्मार्त्तसूत्र।,श्रौतसूत्राणि स्मार्त्तसूत्राणि च। यद्वा नाभी के समीप से दशाङऱगुल दूर हृदय में संस्थित।,यद्वा--नाभेः सकाशाद्‌ दशाङ्गुलम्‌ अतिक्रम्य हृदि संस्थितः । परन्तु उन दोनों के समास के लिए कुछ राज के सम्बन्धीत पुरुष यह विशिष्ट अर्थ कहा जाता है।,परन्तु तयोः समासे कृते कश्चित्‌ राजसम्बन्धी पुरुषः इति विशिष्टः अर्थः अभिधीयते। अत इन दोनों उदात्त अनुदात्त के स्थान में जो ईकार रूप एकादेश हुआ वह प्रकृत सूत्र से विकल्प से स्वरित होता है।,अतः अनयोः उदात्तानुदात्तयोः स्थाने यः ईकाररूपः एकादेशः जातः स प्रकृतसूत्रेण विकल्पेन स्वरितः भवति। अर्थात्‌ सृष्टिकाल में एक पाद को रखा।,अर्थात्‌ सृष्टिकाले एकः पादप्रक्षेपः। इसलिए सम्पूर्ण ऋग्वेद में चौसठ अध्याय हैं।,अतः सम्पूर्ण ऋग्वेदे चतुष्षष्टिः अध्यायाः सन्ति। उसका कीर्ति यह भी अर्थ है।,तस्य कीर्तिः इत्यपि अर्थः अस्ति। "सूर्य मित्र, वरुण, द्यु, पूषा, सविता, आदित्य, अश्विनी कुमार, ऊषा, रात्रि इत्यादि देव द्युलोक के हैं।","सूर्यः मित्रः, वरुणः, द्युः, पूषा, सविता, आदित्यः, अश्विनीकुमारौ, उषा, रात्रिः इत्यादयः देवाः द्युलोकस्य च।" जघ्नुषः - हन्‌-धातु से क्वसु प्रत्यय करने पर जघन्वस्‌ यह हुआ उसके बाद षष्ठी एकवचन में जघ्नुष: रूप बना।,जघ्नुषः - हन्‌-धातोः क्वसुप्रत्यये जघन्वस्‌ इति जाते ततः षष्ठ्येकवचने जघ्नुषः इति रूपम्‌। तप के द्वारा मल के क्षय होने पर योगी लोग अणिमादिकायसिद्धियों को तथा दूरश्रवणादि इन्द्रियसिद्धियों को प्राप्त कर लेते हैं।,तपसा मलक्षये सति योगिनः अणिमादिकायसिद्धिः दूरश्रवणाद्धिः इन्द्रियसिद्धयोऽपि भवन्ति। सेवाभाव यहाँ पर सामान्य सेवाभाव नहीं होता है।,सेवाभावः इत्यत्र न सामान्यतया सेवाभावः। वर्धयतम्‌ - वृध्‌-धातु से णिच लोट्‌-लकार मध्यमपुरुष द्विवचन में वर्धयतम्‌ रूप है।,वर्धयतम्‌- वृध्‌-धातोः णिचि लोट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने वर्धयतम्‌ इति रूपम्‌। "“गोरतद्धितलुकि"" सूत्रार्थ-गो शब्द से तत्पुरुष से समासान्त टच्‌ प्रत्यय होता है।",गोरतद्धितलुकि सूत्रार्थः - गोशब्दान्तात्‌ तत्पुरुषात्‌ समासान्तः टच्प्रत्ययो भवति कला रहित जीवन किनको अच्छा नहीं लगता?,कलारहितं जीवनं केभ्यः न रोचते। 2 गुरु किस कारण से विधिवत्‌ उपासना के लिए उपदेश देता है?,2. गुरुः केन कारणेन उपदिशति विधिवदुपसन्नाय। "जिस प्रकार से असम्प्रज्ञातसमाधि में चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है , तथा संस्कार मात्र ही अवशिष्ट रहते है।","तथाहि असम्प्रज्ञातसमाधौ चित्तवृत्तयः तिरोभवन्ति, संस्कारमात्रम्‌ अवशिष्यते।" 7 फल क्या है तथा वह कहाँ पर होता है?,7. फलम्‌ किम्‌। क्वान्तर्भवति। वयसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,वयसि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। सर्प आदि और दुष्ट मनुष्यों से सदैव रक्षा करना।,सर्पनाशराक्षसीक्षेपौ सदैव कुर्वित्यर्थः। अपने उत्तर पत्र में प्रश्‍न पत्र की कुटसंख्या अवश्य लिखें।,स्वस्य उत्तरपत्रे प्रश्नपत्रस्य कुटसंख्या नूंन लेख्या। अव्ययीभाव समास का “अव्ययीभावश्च इस सूत्र से अव्यय संज्ञा होती है।,"अव्ययीभावसमासस्य ""अव्ययीभावश्च"" इत्यनेन सूत्रेण अव्ययसंज्ञा भवति।" लकड़ी और घी उसका भोजन है।,काष्ठं घृतं च तस्य भोज्यम्‌। इसलिए दुरित के नाश के बाद यथाप्रविधिश्रुतवेदान्त का जो मनन किया जाता है उससे यह संशय दूर हो जाता है।,अतो दुरितनाशपुरःसरं यथाप्रविधि श्रुतस्य वेदान्तस्य मननं क्रियते चेदयं संशयो दूरीभवेत्‌। 24.5 ) सविकल्पक समाधि विकल्प भेद को कहते है।,२४.५) सविकल्पकः समाधिः विकल्पो नाम भेदः। अचक्षु पर्याय से अक्ष्ण को समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,अचक्षुः पर्यायाद्‌ अक्ष्णः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अचप्रत्ययो भवति। घट लाओ इत्यादि मे घटत्वगेहत्वादि की अभिमतान्वयबोध योग्यता के द्वारा वहाँ पर भी घटादि पदों के विशेष्यमात्रपरत्व मे लक्षणा ही होनी चाहिए।,घटम्‌ आनय इत्यादौ घटत्वगेहत्वादेः अभिमतान्वयबोधयोग्यतया तत्रापि घटादिपदानां विशेष्यमात्रपरत्वे लक्षणा एव स्यात्‌” इति। कर्मफल शुभ होता है तो कर्ता सुख को प्राप्त करता है तथा कर्मफल अशुभ होता है तो कर्ता दुःख को प्राप्त करता है।,"कर्मफलं शुभं भवति चेत्‌ कर्ता सुखं प्राप्नोति, कर्मफलं दुष्टं चेत्‌ कर्ता दुःखम्‌ अवाप्नोति।" जीरदानू इस शब्द का क्या अर्थ है?,जीरदानू इति शब्दस्य कः अर्थः। उनमें सह अव्ययपद है।,तत्र सह इत्यव्ययपदम्‌। "स्तोक आदि शब्द से पूर्व सूत्र द्वारा उक्त (स्तोकान्तिक दूरार्थकृच्छ्राणां) स्तोक, अन्तिक, इरार्थ, कृच्छ आदि का ग्रहण किया गया है।",स्तोकादिशब्देन पूर्वसूत्रोक्तानां स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणां ग्रहणम्‌। पञज्चकोश के विषय में तैत्तिरीय श्रुति में यह प्रमाण है तस्माद्वा एतत्स्मादन्नरसमयादन्योन्तर आत्मा प्राणमयः।,पञ्चकोशविषये तैत्तिरीयश्रुतिः प्रमाणमस्ति। तस्माद्वा एतत्स्मादन्नरसमयादन्योन्तर आत्मा प्राणमयः। पहले देखी गई स्मृति ही प्रायः स्वप्न होते हैं।,पूर्वदृष्टस्य स्मृतिर्हि प्रायेण स्वप्नः। "इसलिए मैंने भी भाष्यकारों का अनुसरण किए बिना उत्कृष्ट रूप से उपनिषद्त्व तथा अन्य शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया, और अन्य शास्त्रों को समझने में समर्थ हुआ।","अस्माद्‌ एव लब्धशिक्षः अहम्‌ अन्ध इव भाष्यकाराणाम्‌ अनुसरणम्‌ अकृत्वा स्वतन्त्रतया उत्कृष्टरुपेण उपनिषत्तत्त्वम्‌, अन्यानि च शास्त्राणि बोद्धुं शक्तवान्‌।" ञित तद्धित पर होने पर अचों में आदि अच की “तद्धितेष्वचामादे:'' सूत्र से वृद्धि होती है।,ञिति तद्धिते परे सति अचाम्‌ आदेः अचः तद्धितेष्वचमादेः इति सूत्रेण वृद्धिः । इस सूत्र में विभाषा छन्दसि ये दो पद हैं।,अस्मिन्‌ सूत्रे विभाषा छन्दसि इति द्वे पदे स्तः। उपनिषद्‌ इस शब्द का रहस्य यह अर्थ है।,उपनिषत्‌ इति शब्दस्य रहस्यमर्थः। क्योंकि श्रुतियों में कहा है तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' (श्वे. उ. 3.क्र) इस प्रकार से उस विद्या के उसको जाने बिना और कोई मार्ग हैं को नहीं इस प्रकार से श्रुति ने कहा है।,“तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे. उ. ३.८) इति विद्याया अन्यः पन्थाः मोक्षाय न विद्यते इति श्रुतेः। विवेकानन्द के मत में प्राणायाम की क्या प्रक्रिया होती है।,विवेकानन्दमते प्राणायामे कति प्रक्रियाः सन्ति? समष्टिसूक्ष्मशरीराज्ञानोपहित चैतन्य हिरण्यगर्भ होता है।,समष्टिसूक्षशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं हिरण्यगर्भः। वहाँ प्रारम्भ मन्त्र में कहा की जो दूरगामी और ज्योतियों में अद्वितीय मन वह शुभसङ्कल्प वाला हो।,तत्र आदिमे मन्त्रे उक्तं यत्‌ यत्‌ दूरगामि किञ्च ज्योतिषाम्‌ अद्वितीयं मनः तत्‌ शुभसङ्कल्पं भवतु। माध्यान्दिन शाखा कहाँ प्राप्त होती है?,माध्यन्दिनशाखा कुत्र लभ्यते? अब यह प्रश्‍न होता है कि किस प्रकार से स्वविरोधि अज्ञान का नाश होता है।,अधुना प्रश्नो भवति ज्ञानं कथं स्वविरोधिनः अज्ञानस्य नाशको भवति। वह ही इस नामरूपात्मक जगत का आधार भूत होता है।,स एवास्य नामरूपात्मकस्य जगत आधारभूत आस्ते। और अधिहरि इससे पर द्वितीयादिविभक्तियों का भी “अव्ययादाप्सुपः” इससे लोप होता है।,"एवमेव अधिहरि इत्यस्मात्‌ परं द्वितीयादिविभक्तीनाम्‌ अपि ""अव्ययादाप्सुपः"" इत्यनेन लुक्‌ भवति।" ` अथादिः प्राक्‌ शकटे: इस अधिकार सूत्र से आदिः इस पद का यहाँ अधिकार है।,'अथादिः प्राक्‌ शकटेः इति अधिकारसूत्रात्‌ आदिः इति पदम्‌ अत्र अधिकृतं वर्तते। उससे सूत्र का अर्थ आता है अनुदात्त पद आदि के परे उदात्त के साथ एकादेश विकल्प से स्वरित होता है।,तेन सूत्रार्थः आयाति अनुदात्ते पदादौ परे उदात्तेन सह एकादेशः विकल्पेन स्वरितो भवति इति। जीव तथा ब्रह्म में अभेदार्थ ही यहाँ पर महान्‌ अर्थ है।,जीव-ब्रह्मणोः अभेदार्थः एवात्र महदर्थः। 82. “नस्तद्धिते” इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"८२. ""नस्तद्धिते"" इत्यस्य सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌ ?" मन्त्रों के देव चैतन्य स्वरूप है।,मन्त्राणां देवः चैतन्यस्वरूपः। सरलार्थ - मैं (वागाम्भृणी) रुद्रगण के साथ उनके समान होकर विचरण करती हूँ।,सरलार्थः- अहं (वागाम्भृणी) रुद्रगणैः सह रुद्रात्मिका भूत्वा विचरामि। मरने के बाद कर्म के फलों की उत्पत्ति के लिए फिर जन्म आवश्यक होता है।,मरणोत्तरं कर्मणः फलोत्तपत्तये पुनः जन्म आवश्यकम्‌। यही वैराग्य कहलाता है।,एतदेव वैराग्यम्‌। निघण्टु में कितने अध्याय हैं?,निघण्टौ कति अध्यायाः। "लौकिक काव्यों में छन्द का और पादबद्धता का सम्बन्ध इस प्रकार है की पद्यों में ही छन्दों की योजना मानते हैं, तथा गद्य तो छन्दोहीन रचना रूप से स्वीकार होता है।","लौकिककाव्येषु छन्दसः पादबद्धतायाः च सम्बन्धः एतावान्‌ अस्ति यत्‌ पद्येषु एव छन्दसो योजना मन्यते, तथा गद्यन्तु छन्दोहीनरचनारूपेण स्वीकृतं भवति।" जीमूतगर्भ की दामिनि के समान उसका प्रकाश है।,जीमूतगर्भाया दामिन्या दीप्तिरिव तस्य दीप्तिः। "चादिगणः आकृतिगण है, अथवा नहीं ?",चादिगणः आकृतिगणः न वा ? गर्जना करना।,शब्दायमानाः। यह कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्‌ और संहितोपनिषद्‌ अध्याय के अगले भाग में है।,एषा कौषीतकिब्राह्मणोपनिषत्‌ तथा संहितोपनिषत्‌ च अध्यायस्य पुरोभागे वर्तेते। युवा नरेन्द्रनाथ अज्ञेयवादसमाच्छन्नचित्त होते हुए उन्होंने बहुत आचार्यों से पूछा की क्या आप लोगों ने ईश्वर को देखा है।,युवको नरेन्द्रनाथः अज्ञेयवादसमाच्छन्नचित्तः बहुभ्यः आचार्येभ्यः ईश्वरं ते दृष्टवन्तः । और वह विग्रह लौकिक और अलौकिक दो प्रकार से विभक्त होता है।,स च विग्रहः लौकिकः अलौकिकश्चेति द्विधा विभक्तः। इसी प्रकार प्रहृ॑तः यहाँ पर भी।,एवं प्रहृ॑तः इत्यत्रापि। "इस प्रकृत सूत्र के वैकल्पिक होने से ' यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु' इस सूत्र से वहाँ निषेध जप, न्यूङख, और साम में प्रकृत सूत्र से विकल्प में एक श्रुति प्राप्त होती है।","प्रकृतसूत्रस्यास्य वैकल्पिकत्वात्‌ 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रेण तत्र निषिद्धेषु जपे, न्यूङ्गेषु सामसु च प्रकृतसूत्रेण विकल्पे ऐकश्रुत्यं प्राप्नोति|" इस प्रकार यहाँ यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - प्रकार आदि शब्दों के दो बार होने पर वहाँ दूसरे प्रकार आदि में अन्त का अच्‌ उदात्त स्वर होता है।,एवञ्च अत्र सूत्रार्थो लभ्यते - प्रकारादिशब्दानां द्विरुक्तौ सत्यां तत्र द्वितीयस्य प्रकारादेः अन्तस्य अचः उदात्तस्वरः भवति इति। उत्तर भारत में प्राप्त होती है।,उत्तरभारते प्राप्यते। सुख तथा दुःखों का भोग भी करवाते है।,सुखदुःखभोगं च कारयति। चौ इस सूत्र का एक उदाहरण लिखिए।,चौ इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं लिखत। सरलार्थ - उस मछली का वैसे ही पालन करके मनु उसको लेकर के समुद्र को गए।,सरलार्थः - तं मत्स्यं तथैव पालयित्वा मनुः तम्‌ आदाय समुद्रं जगाम। पाप से आपन्न चित्त मलिन हो जाता है।,पापापन्नं चित्तं मलिनं भवति। फिर इसी क्रम में उसके अन्दर विद्यमान विज्ञानमय कोश और फिर आनन्दमय कोश आत्मा होती है इस प्रकार से समझाया जाता है।,ततश्च क्रमेण तदन्तः तदन्तः विद्यमानः विज्ञानमयः आनन्दमयश्च आत्मा इति बोधयति। शुभागमन वाला और सुलभ उपाय वाला सूपायनः कहलाता है।,शोभनम्‌ उपायनम्‌ अस्य असौ सूपायनः। सदानन्द के द्वार अध्यारोपवाद पुरस्सर तत्वपदार्थौ का शोधन करके तत्त्वमसि इस वाक्य के द्वारा अखण्डार्थ में अवबोधित अधिकारि कौ मैं नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्यं स्वभाव परमान्द अनन्त अद्वितीय ब्रह्म हूँ इस प्रकार सी चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,सदानन्देन अध्यारोपापवादपुरस्सरं तत्त्वंपदार्थौ शोधयित्वा तत्त्वमसीति वाक्येन अखण्डार्थ अवबोधिते अधिकारिणः अहं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-सत्य-स्वभाव-परमानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्म अस्मीति अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिः उदेति। तैजस किसे कहते हैं?,तैजसः कः? तब मिट्टी के पदार्थ आदि का भान होने पर भी मृत्‌ भान के समान ही द्वैतभान होने पर अद्वैतवस्तु भासित होती है।,तदुपादानभूताया मृत्तिकाया ज्ञानं भवति तथैव ज्ञातृ-ज्ञानादीनाम्‌ ब्रह्मविवर्तत्वात्‌ वाचारम्भणमात्रत्वात्‌ ज्ञातृज्ञानादिभाने सति अपि अद्वैतं ब्रह्मवस्तु एव भासते। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ प्र यह गतिसंज्ञक है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र प्र इति गतिसंज्ञकः अस्ति। योद्धा आत्म रक्षा के लिए उसका ही आह्वान करते हैं।,योद्धारः आत्मरक्षार्थं तम्‌ एव आह्वयन्ति। “ नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌' इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,"""नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ 'इति सूत्रं व्याख्यात।" “अन्त्योऽवत्याः'' इस सूत्र से अन्तः इस पद की अनुवृति आती है।,"""अन्त्योऽवत्याः"" इति सूत्रात्‌ अन्तः इति पदम्‌ अनुवर्तते।" उभयादतः - उभयोः दन्ताः येषां ते(बहुव्रीहिसमासः) जज्ञिरे - जन्‌-धातु से लिट्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,उभयादतः- उभयोः दन्ताः येषां ते(बहुव्रीहिसमासः) जज्ञिरे- जन्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। उससे शुभस्पती इस पद को पाद का आदि ही होता है।,तेन शुभस्पती इति पदं पादादौ एव अस्ति। "सरलार्थ - मैं राष्ट्र की स्वामी हूँ, धन का संग्रह करने वाली हूँ, चेतन के समान, यज्ञ को चाहने वालो की मुख्या हूँ।","सरलार्थः- अहं राष्ट्री, धनस्य संग्राहिका, चैतन्यवती, यज्ञार्हगणेषु मुख्या।" काण्व शाखा कहाँ प्राप्त होती है?,काण्वशाखा कुत्र प्राप्यते? 8. जजान का लौकिक रूप क्या है?,8. जजान इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। लेकिन उसकी वृत्ति का अवभास नहीं होता है।,परन्तु तस्याः वृत्तेः अवभासो न भवति। उस रुद्रदेव का प्रतीक वज्र है।,तस्मात्‌ रुद्रदेवस्य प्रतीकं वज्रः इति। फिर यहाँ तीर्थ पद अश्रुत होता है।,पुनः अत्र तीरपदार्थः अश्रुतः अस्ति। कृषि- खेती ही करो।,कृषिमित्‌ कृषिमेव कृषस्व कुरु । वेद में तो विश्वा यह रूप है।,वेदे तु विश्वा इति स्थितिः। विवेकानन्द के द्वारा वर्णित चार प्रकार के योग कौन-कौन से हैं?,विवेकानन्देन वर्णिताः चत्वारः योगाः के? निर्विकल्प समाधि में अखण्डाकार चित्तवृत्ति का उदय होने पर अज्ञान बन्धन के नाश से जीव मुक्त हो जाता है।,निर्विकल्पकसमाधौ अखण्डाकारचित्तवृत्तेरुदये सति अज्ञानबन्धनाशात्‌ जीवो मुच्यते। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ कर्ता में लोट्‌ लकार है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र कर्तरि लोट्लकारः अस्ति। अलङकृत वर्णन में किनका मानवीकरण होता है?,अलङ्कृतवर्णने केषां मानवीकरणं भवति? उनकी उक्ति है -' मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुणः रात्र्यभिमानिनी।,तस्य उक्तिर्हि - मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुणः रात्र्यभिमानिनी। सूक्ष्म विचार से ज्ञात होता है कि वे तीनों देव परमात्मा की ही तीन अभिव्यक्तियां है।,सूक्ष्मविचारेण ज्ञायते यत्‌ ते त्रयोऽपि देवाः परमात्मन एव तिस्रः अभिव्यक्तयः। 6 इन अनुबन्धों में सबसे अन्यतम क्या हे?,6. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः। यह सुत्रार्थ।,इति सुत्रार्थः। "इससे एकश्रुति का निषेध होता है, और स्वरित के स्थान में उदात्त होता है।","अनेन ऐकश्रुत्यस्य निषेधः भवति, स्वरितस्य स्थाने उदात्तश्च भवति।" वहाँ विषय ज्ञान में मन कारण है।,तत्र विषयज्ञाने मनः कारणम्‌। व्याख्या - अङ्ग यह दुसरे को अपनी और अभिमुखी करने अर्थ में निपात है।,व्याख्या- अङ्ग इत्यभिमुखीकरणार्थो निपातः। इसलिए सुषुप्ति स्थूलसूक्ष्मलयस्थान वाली कही जाती है।,अतः सुषुप्तिः स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चलयस्थानमित्युच्यते। अज्ञान नाश से ही ज्ञान उत्पन्न होता है।,अज्ञाननाशाद्‌ एव ज्ञानं जायते। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ० अथर्ववेद के साहित्य विषय को समझ पाने में; ० अथर्ववेद रूप वृक्ष की अनेक दिशाओं में फैली हुई शाखाओं के विषय को जानने में; ० अथर्ववेद के मूल प्रतिपाद्य विषयों को समझ पाने में; और ० स्त्री-राजा आदि के वैदिक कर्म के विषयों को जानने में।,इमं पाठं पठित्वा भवन्तः- अथर्ववेदस्य साहित्यविषये ज्ञास्यन्ति। अथर्ववेदरूपवृक्षस्य विविधासु दिक्षु प्रसृतानां शाखानां विषये ज्ञातुं शक्ष्यन्ति। अथर्ववेदस्य मूलप्रतिपाद्यविषयान्‌ ज्ञास्यन्ति। स्त्री-राजादीनां वैदिककर्मविषये ज्ञास्यन्ति। “बृहती छन्द छत्तीस अक्षरों का होता है।,'बृहतीच्छन्दः षट्त्रिंशदक्षराणां भवति। अतः वेदान्त उक्त मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए यह सिद्धान्त होता है।,अत एव वेदान्तोक्तमार्ग एव अनसरणीय इति सिद्धान्तः। वृत्र युद्ध के समय में इन्द्र ने सोमपूर्ण तीन सरोवर को रिक्त कर दिया था।,वृत्तयुद्धसमये इन्द्रः सोमपूर्ण हृदत्रयमपि निश्शेषेण रिक्तं चकार। वेद धर्म का निरूपण करने में पृथक्‌ प्रमाण है।,वेदो धर्मनिरूपणे पृथक्‌ प्रमाणम्‌। उसका यहाँ सूत्र अर्थ होता है - अभि इस उपसर्ग को छोड़कर अन्य उपसर्ग आद्युदात्त हो।,ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- अभि इत्युपसर्ग वर्जयित्वा अन्ये उपसर्गाः आद्युदात्ताः स्युः इति। "उस वज्र के द्वारा मेघ के भिन्न होने पर गाय जैसे अपने बछडे की और भागती है, वैसे ही जल भी अपने वेगसहित नीचे समुद्र की ओर जाना प्रारम्भ करती है।",तेन वज्रेण मेघे भिन्ने सति गौः स्ववत्सं प्रति यथा धावति तथा जलमपि सवेगं नीचैः समुद्रं प्रति गन्तुम्‌ आरभत। उससे मन की शान्ति प्राप्त होती है।,तेन च मनसः शान्तिः लभ्यते। पादोऽस्य विश्वां भूतानि त्रिपार्द॑स्यामूर्त दिवि॥,पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥ प्रत्येक सूक्त में सायणभाष्य को व्याख्या रूप से दिया हुआ है।,प्रत्येकं सूक्तस्य सायणभाष्यं व्याख्यारूपेण प्रदत्तम्‌ अस्ति । 3 सगुण ब्रह्म कौ उपासना के कितने भेद होते हैं तथा वे कौन-कौन से हैं?,3 सगुणब्रह्मोपासनायाः भेदाः कति के च। अपने आशय को गुप्त रखने वाले के लिए।,अनातताय धनुष्यनारोपिताय। 1. त्रयीलक्षण क्या है?,१. त्रयीलक्षणं किम्‌? कर्तृत्व तथा करणत्व के भेद सद्भाव से यह दो प्रकार की होती है।,कर्तृत्वकरणत्वाभ्यां भेदसद्भावात्‌। "और सूत्र का अर्थ होता है-''प्रति, अनु, अव, पूर्वक सोमलोमन्‌ समास से समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय उदाहरण -सामासान्त का समास के समासान्त में उदाहरण है-प्रतिसामम्‌ प्रतिगमं साम इस लौकिक विग्रह में प्रति सामन्‌ सु इस अलौकिक विग्रह में “कुगतिप्रादयः” इस सूत्र से प्रादि तत्पुरुष समास होता है।","एवं च सूत्रार्थः - ""प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोमान्तात्समासात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति"" इति।उदाहरणम्‌ - सामान्तस्य समासस्य समासान्ते उदाहरणं प्रतिसामम्‌ इति। प्रतिगतं साम इति लौकिकविग्रह प्रति सामन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे ""कुगतिप्रादयः"" इत्यनेन सूत्रेण प्रादितत्पुरुषसमासो भवति।" सभी उपनिषदों के तात्पर्य का प्रतिपाद्यार्थ कहा है - तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमिति।,सर्ववेदान्तैः तात्पर्येण प्रतिपाद्यार्थम्‌ आह- तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमिति। पुनः शार्ङ्गरवादेः पद प्रातिपदिकात्‌ का विशेषण होता है।,पुनः शार्ङ्गरवादेः इति पदं प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। हमारे इस जीवन को श्रद्धामय बना दो।,अस्मानस्मिन्‌ जीवने श्रद्धामयान्‌ कुरु इति। दो पद वाला यह सूत्र है।,द्विपदात्मकं सूत्रम्‌ इदम्‌। क्योंकि जैसे आरण्यक यज्ञ के गूढ़ रहस्य का प्रतिपादन करता है वैसे ही कर्मकाण्ड की दार्शनिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है।,यतो हि यथा आरण्यकं यज्ञीयगूढरहस्यस्य प्रतिपादनं करोति तथा कर्मकाण्डस्य दार्शनिकव्याख्याम्‌ अपि प्रस्तौति। क्योंकि प्राचीन देवों ने यज्ञ से समस्त प्रपञ्च की सृजना की।,तथाहि पुरा देवाः यज्ञेन प्रपञ्चस्य सृष्टिम्‌ इष्टवन्तः। तिङन्त स्वर विधायक कुछ सूत्रों की यहाँ आलोचना की है।,तिङन्तस्वरविधायकानि चितानि सूत्राणि अत्र आलोचितानि। 2. वेदान्त के अनुबन्धों में सम्बन्ध क्या होता है?,2 वेदान्तस्य अनुबन्धेषु सम्बन्धः कः। "रथ आदि चेतना के समान मुख्य प्रवृत्ति चाहते हैं, बिना अधिकार के नहीं चाहते हैं।",रथादयः चेतनावद्‌ अधिष्ठिताः प्रवृत्तिमर्हन्ति न अनधिष्ठिताः। कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस पूर्वसूत्र से उदात्त इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इति पूर्वसूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। स्वरित संज्ञा विधायक सूत्र (समाहारः स्वरितः' है।,स्वरितसंज्ञाविधायकं सूत्रं हि समाहारः स्वरितः इति। चारों वेदों में अथर्ववेद सबसे अर्वाचीन है।,चतर्षु वेदेषु अथर्ववेदः अतीव अर्वाचीनः। अर्थात्‌ नपुंसकलिङ्ग विशिष्ट अर्थ का वाचक है।,अर्थात्‌ नपुंसकलिङ्गविशिष्टार्थस्य वाचकः अस्ति। बाघ ने क्या किया इस प्रकार से बार-बार प्रश्‍न करने पर हम अन्य के स्वप्न के अनुभव के विषय में पूर्ण रूप से जान सकते है।,व्याघ्रेण किं कृतम्‌ इत्येवं पौनःपुन्येन आकाङ्कया प्रश्नान्‌ कृत्वैव अपरस्य स्वप्नानुभवः सम्यगवबुध्यते। अब मूलपाठ समझते है सहस्र॑शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌।,इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌। तो इसका एक समाधान है।,अस्तीति समाधानम्‌। जिसके वीर पुत्र हो उसके समान।,यस्मिन्‌ वीराः पुत्राः सन्ति तद्‌ वीरवत्‌। तत्पुरुष का तृतीय भेद है द्विगुः।,तत्पुरुषस्य तृतीयो भेदः द्विगुः। शक्ति से स्तुति करते है यहाँ पर उदाहरण दिया गया है।,वीर्येण स्तूयमानत्वे दृष्टान्तः। प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते ( वार्तिकम्‌ ) वातिकार्थ-प्रतिपदविधान जो षष्ठी अन्त वाले पद को सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।,प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते (वार्तिकम्‌ ) वार्तिकार्थः - प्रतिपदविधाना या षष्ठी तदन्तं सुबन्तं न समस्यते। यह उपासना उद्गीतसङगीत का अङगभूत है।,एषा उपासना उद्गीतसङ्गीतस्य अङ्गभूता। उत्तरपदार्थ प्रधान है जिसमें वह उत्तरपदार्थप्रधान।,उत्तरपदार्थः प्रधानः यस्मिन्‌ स उत्तरपदार्थप्रधानः। आर्चज्योतिष में क्या कहा है?,आर्चज्योतिषे किमुच्यते? "25. “' भूतपूर्वः"" यहाँ पर भूतशब्द का पूर्वनिपात कैसे होता है?",२५ . भूतपूर्व इत्यत्र भूतशब्दस्य कथं पूर्वनिपातः? वहाँ विधि और विधान का मिलान होता है।,तत्र विधिविधानञ्च सयुक्तिकं भवति। घट के इन्द्रियों गोचरत्व के कारण ही घट है इस प्रकार से कहा जाता है।,घटस्येन्द्रियगोचरत्वात्‌ घटोऽस्ति इत्युच्यते। इसलिए आठवें अध्याय के “आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से सर्वानुदात्त स्वर की प्राप्ति होती है।,अतः आष्टमिकेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः विधीयते। "न गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः इस सूत्र से यहाँ न इस अव्यय कौ, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद कौ, सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इससे यहाँ विभक्तिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति है।","न गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः इति सूत्रात्‌ अत्र न इति अव्ययम्‌, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इत्यस्मात्‌ अत्र विभक्तिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तन्ते।" ऋग्वेद के सूक्तों में 'दानस्तुति' नाम के कुछ मन्त्र प्राप्त होते हैं।,ऋग्वेदस्य सूक्तेषु 'दानस्तुतिः' नाम्ना कतिपये मन्त्रा लभ्यन्ते। और कुछ तिथि-मास-पक्ष-नक्षत्र परक है।,केचन च तिथि-मास-पक्ष-नक्षत्रपरकाः वर्तन्ते। उनका बनाया हुआ ग्रन्थ- अष्टाध्यायी सभी अङऱगों में सुललित होकर के विराजमान है।,तत्कृतः ग्रन्थः- अष्टाध्यायी सर्वाङ्गसुललितो भूत्वा विभाति। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का बारहवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य द्वादशो मन्त्रः। पाप शब्द और अणकशब्द कुत्स्यमान समानाधिकरण सुबन्तों के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"पापशब्दः अणकशब्दश्च कुत्स्यमानैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" चौबिसवाँ पाठ समाप्त ॥,इति चतुर्विशः पाठः। 13. सम्बन्धत्रय के द्वारा “तत्त्वमसि” इस महावाक्य के अखण्डार्थत्व का विचार कीजिए।,१३. सम्बन्धत्रयेण “तत्त्वमसि” इति महावाक्यस्य अखण्डार्थत्वं विचारयतु? "इसप्रकार उसी को जानकर ही मृत्यु को पार करके स्वस्वरूप को प्राप्त करता है या परब्रह्म के पास जाता है, ये उपाय ही है।",अथ तमेव तं विदित्वा एव मृत्युम्‌ अत्येति मृत्युम्‌ अतिक्रम्य एति स्वस्वरूपं प्राप्नोति परब्रह्म एति गच्छति इत्युपचारः। धारयन्ति - धृ-धातु से णिच लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,धारयन्ति- धृ-धातोः णिचि लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। कर्मधारयश्च जातीयश्च देशीयश्च कर्मधारय जातीयाः तेषु कर्मधारयजातीय देशीयेषु यहां इतरेत्तरद्वन्द्व समास है।,कर्मधारयश्च जातीयश्च देशीयश्च कर्मधारयजातीयदेशीयास्तेषु कर्मधारयजातीयदेशीयेषु इति इतरेतरद्वन्द्वसमासः । "उनमें इस पाठ मे केवलसमास का और अव्ययीभावसमास का विवरण किया गया है । अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि, द्वन्द इत्यादि में विशेष संज्ञा विनिर्मुक्त समास होता है केवलसमास।","तेषु अस्मिन्‌ पाठे केवलसमासस्य अव्ययीभावसमासस्य च विवरणं कृतम्‌। अव्ययीभावः, तत्पुरुषः, बहुव्रीहिः, द्वन्द्वः इत्यादिविशेषसंज्ञाविनिर्मुक्तः समासो भवति केवलसमासः।" अत्ति - अद्-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में अत्ति यह रूप है।,अत्ति- अद्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने अत्ति इति रूपम्‌। अन्त अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण है साग्नि।,अन्तार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति साग्नि इति। स्वामी विवेकानन्दन भी योगचतुष्टय के विषय में अपने मत का प्रचार किया।,स्वामिविवेकानन्देन अपि योगचतुष्टयविषये स्वमतं विशदीकृतम्‌। यह ग्रन्थ संहिता शिक्षा इस नाम से व्यवहार में लाया गया है।,अयं ग्रन्थः संहिताशिक्षा इति नाम्ना व्यवहृतः अस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- अभिभञ्‌जतीनाम्‌ यहाँ पर अभिभञ्‌जती यह ङीप्प्रत्ययान्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अभिभञ्जतीनाम्‌ इत्यत्र अभिभञ्जती इति ङीप्प्रत्ययान्तं पदम्‌। इसलिए साधनों का जो क्रम है उसका प्रमाणों के साथ इस पाठ में उपस्थापन किया गया है।,अत एव साधनेषु यः क्रमः वर्तते तस्य प्रमाणोपन्यासपुरः प्रकटनं विधीयते । रुद्र का धनुष बाण और तलवार विफल हो।,रुद्रस्य धनुः बाणाः खड्गश्च विफलीभवतु। पासों से पराजित ऋणी मनुष्य।,अक्षपराजयादृणवान्‌ । "इसी प्रकार विश्वय॑शाः, विश्वम॑हान्‌ इत्यादि में भी जानना चाहिए।","एवं विश्वय॑शाः, विश्वम॑हान्‌ इत्यादौ अपि बोद्धव्यम्‌।" वहाँ पर गुरु उसको वेदान्त का श्रवण कराते है।,ततश्च गुरुः तं वेदान्तम्‌ श्रावयति। स्वर वर्ण आदि शिक्षा का सम्पूर्ण विषयों का सरल साङ्ग और उपाङ्ग सहित यहाँ विवेचना की है।,स्वरवर्णादिशिक्षायाः समग्रविषयाणां सरसं सरलं साङ्कोपाङ्गं च विवेचनम्‌ अत्र वर्तते। यदि एक बार ही सम्पादन करना हो तो उसका वर्षा ऋतु में सम्पादन करना चाहिए।,यदि सकृदेव सम्पादनीयः तर्हि स वर्षर्तौ सम्पादनीयः। "पुरुष के किस अङ्ग से क्या उत्पन्न हुआ, इसकी मन्त्रानुसार व्याख्या करो।",पुरुषस्य कस्मात्‌ अङ्गात्‌ किं किम्‌ उत्पन्नम्‌ इति मन्त्रानुसारेण व्याख्यात। निर्गुण ब्रह्म ज्ञानमात्रस्वरूप होता है।,निर्गुणं ब्रह्म ज्ञानमात्रस्वरूपम्‌। तब सर्वनामत्व से स्मै भाव सिद्ध होता हे।,तदा सर्वनामत्वात्‌ स्मैभावः सिद्धः। "यहाँ असुन्‌ प्रत्यय के नकार की इत्संज्ञा होती है, अतः असुन्‌ प्रत्यय नित्‌ होता है, उस नित में असुन्प्रत्यय के परे उस चनः इसके आदि अच्‌ अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।","अत्र असुन्प्रत्ययस्य नकारस्य इत्संज्ञा भवति अतः असुन्प्रत्ययः नित्‌ भवति, तेन निति असुन्प्रत्यये परे तदन्तस्य चनः इत्यस्य आदेः अचः अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः भवति।" न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये यहाँ पर नञ्तत्पुरुष समास है।,न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये इति नञ्तत्पुरुषसमासः। 42. प्रकरण प्रतिपाद्य अर्थ का प्रकरण के आदि में तथा अन्त में उपपादन उपक्रम तथा उपसंहार कहलाता है।,४२. प्रकरणप्रतिपाद्यस्य अर्थस्य प्रकरणस्य आदौ अन्ते च उपपादनम्‌ उपक्रमोपसंहारौ इति। इसलिए श्रुति कहती है - पूर्व में भी कहा कि ये था और है।,तदाह श्रुतिः- पूर्वमेवाहमिहासमिति > एक ही विषय में चित्‌ का धारण ही धारणा होती है।,एकस्मिन्‌ विषये चित्तस्य धारणं हि धारणा। यह प्रपाठक सामान्य रूप से `अरण' इस पद से जानी जाती है।,प्रपाठकोऽयं सामान्यतः “अरण इति पदेन ज्ञायते। """अग्निर्वै प्रथमो देवतानाम्‌”, ""अग्निर्वै देवानामवमः”, इत्यादि ब्राह्मणवाक्य देवताओं में अग्नि की प्रधानता को निःसन्देह प्रकट करते हैं।","""अग्निर्वै प्रथमो देवतानाम्‌”, ""अग्निर्वै देवानामवमः”, इत्यादीनि ब्राह्मणवाक्यानि देवतासु अग्नेः प्राथम्यं निःसन्देहं प्रकटयन्ति।" प्रलय कितने प्रकार के होते हैं तथा कौन-कौन से प्रलय होते हैं?,प्रलयः कतिविधः। के च ते। “स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" उससे उसका अधिष्ठाता देव रुद्र भीषण और गर्जनशील है।,तस्मात्‌ तस्य अधिष्ठाता देवः रुद्रः भीषणः गर्जनशीलश्च। लौहित्य स्फटिक का धर्म नहीं होता है फिर भी लोहित स्फटिक इस प्रकार का व्यवहार होता है।,"लौहित्यं स्फटिकस्य धर्मः नास्ति, तथापि लोहितः स्फटिक इति व्यवहारः अस्ति।" 2 जहत्‌ लक्षणा क्या होती है?,२. जहल्लक्षणा नाम किम्‌? सुख का क्या कारण है?,सुखस्य किं कारणम्‌ ? वेद के शाखा भेद के अनुसार ही आहुति के समय का भी भेद किया गया है।,वेदस्य शाखाभेदानुसारम्‌ आहुतेः समयस्य भेदः कृतः वर्तते। अर्थात्‌ श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयों को छोड़कर अन्यों से इन्द्रियों का निवर्तन करना चाहिए।,श्रवणादिविषयान्‌ विहाय अन्येभ्यः इन्द्रियाणां निवर्तनं कर्तव्यम्‌ इति फलितार्थः। कर्म यदि निष्काम भावना से हमारे द्वारा हो जाएँ तो हमें उन्हीं कर्मों से मोक्ष की भी प्राप्ति हो सकती हे।,यस्मात्‌ कर्म कर्तव्यम्‌ एव तस्मात्‌ यदि निष्कामतया कर्म अस्माभिः कर्तुं शक्यते तर्हि तत्‌ मोक्षाय कल्पते। 15. पुरुशब्द सेसप्तमी अर्थ में त्राप्रत्यय करने पर।,15. पुरुशब्दात्‌ सप्तम्यर्थे त्राप्रत्यये। इस मन्त्र का यह अर्थ है - कभी उषा भाई रहित बहिन के समान अपने दायभाग को प्राप्त करने के लिए पितृ स्थानीय सूर्य के समीप आती है।,अस्य मन्त्रस्य अयम्‌ अर्थः - कदाचिद्‌ उषा भ्रातृहीना भगिनी इव स्वदायभागं प्राप्तु पितृस्थानीयस्य सूर्यस्य समीपम्‌ आगच्छति। अथवा ये पुरुष ब्रह्माण्ड गोलकरूप भूमि में सभी ओर से ऊर्ध्व और अधोरूप में व्याप्त होकर विराजित है।,अथवा ब्रह्माण्डगोलकरूपां भूमिं सर्वतः तिर्यक्‌ ऊर्ध्वम्‌ अधश्च व्याप्य विराजते पुरुषोऽयम्‌। उदाहरण - न संख्यायाः इस सूत्र में प्रकृत सूत्र से विहित आदिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद का अधिकार होता है।,उदाहरणम्‌- न संख्यायाः इति सूत्रे प्रकृतसूत्रेण विहितः आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अधिकृतं भवति। अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यमनित्यसमासे इस सूत्र से किसका विधान है?,अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यमनित्यसमासे इति सूत्रेण किं विधीयते? "छात्र भारत की अति प्राचीन भारतीय ज्ञान संपदा , वैज्ञानिकता और सर्वजन उपकार की महिमा को गर्व के साथ संसार में प्रसारित करें।",अति प्राचीनाया भारतीयज्ञानसम्पदः वैज्ञानिकतां सर्वजनोपकारितां महिमानं च सगर्वं जगति प्रसारयेत्‌ छात्रः। जैसे ऋग्वेद में रुद्र के संहारक होने का अधिकवर्णन है।,यथा ऋग्वेदे रुद्रस्य संहारत्वेन अधिकवर्णना अस्ति। "इच्छित फल के लिए यज्ञ याग उपासना आदि जो कार्य करते हैं, अशुद्ध उच्चारण से उस कार्य से विशिष्ट लाभ कभी भी नहीं होता है।","इष्टलाभाय यज्ञयागोपासनादिकं यत्कार्यं क्रियते, अशुद्धेन उच्चारणेन तस्मात्‌ कार्यात्‌ विशिष्टलाभो न कदापि सञ्जायते।" साधक को साधना के द्वारा फल की प्राप्ति हो अतः इसके लिए उस फल की स्पष्टता आवश्यक है।,साधकः साधनेन किं फलं लभेत इति विषये तस्य स्पष्टता आवश्यकी। "तथा जो बहुत अधिक प्रयासरत है,कार्य में लग्न , वह योगी पुरुष अनेक जन्मों से परिशुद्ध होता हुआ उस परम गति को प्राप्त करता है।","प्रयत्नात्‌ - बहुयत्नेन। यतमानः प्रवर्तमानः, कार्ये लग्नः इत्यर्थः। योगी योगवान्‌ पुरुषः तु अनेकजन्मसंसिद्धः नानाजन्मसु परिशुद्धः याति गच्छति प्राप्नोति इति।" उनको यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।,तदेवात्र प्रस्तूयते। जातवेदा स्तुतो मध्ये स्तुतो वैश्वानरो दिवि॥,जातवेदा स्तुतो मध्ये स्तुतो वैश्वानरो दिवि॥ वह मछलियों में सबसे विशाल मछली हुई।,स मत्स्येषु बृहत्तमः अभवत्‌। क्योंकि मरण काल में फल देने के लिए अनङकुरीभूत कर्मो के अगले जन्म में अन्यकर्म आरब्ध होने पर वे उपभुज्य नहीं होते हैं इस प्रकार की उपपत्ति होती है।,न हि मरणकाले फलदानाय अनङ्कुरीभूतस्य कर्मणः फलम्‌ अन्यकर्मारब्धे जन्मनि उपभुज्यते इति उपपत्तिः। प्रत्येक दिन तथा सम्पूर्ण जीव जन्तु कर्म में रत रहता है।,आदिनम्‌ आजीवनं च जन्तुः कर्मरतः। रुद्र के वर्णन में भी उसका सभी स्वरूप प्रकट किया है।,रुद्रस्यापि वर्णनायां तस्य सर्वस्वरूपता प्रकटिता। वैसे ही सातवें मन्त्र में कहा गया है असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।,तथा हि सप्तममन्त्रे असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। शरीरादि में आत्मभावना तथा विपरीतभावना होती है।,शरीरादौ आत्मत्वभावना विपरीतभावना। सङ्कल्पविकल्पात्मक अन्तःकरण चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा निकलकर के घटादिविषय देश की और जाकर के घटादिविषयाकार के द्वारा जब परिणमित होता है तब वह परिणामविशेष वेदान्त वृत्ति कहलाती हे।,सङ्कल्पविकल्पात्मकम्‌ अन्तःकरणं चक्षुरादिभिः इन्द्रियैः निर्गत्य घटादिविषयदेशं प्रति गत्वा घटादिविषयाकारेण यदा परिणमते तदा स परिणामविशेषः वेदान्ते वृत्तिरुच्यते। थोड़ी सी शक्ति वाले मनुष्य का एक साथ ऊपर और नीचे होना सम्भव नहीं है।,क्षुद्रशक्तिमतः ससीमस्य मानवस्य युगपत्‌ ऊर्ध्वम्‌ अधः च अवस्थानं न सम्भवम्‌। स्वरितः यह प्रथमान्त होने से इसका ही विधायक है।,स्वरितः इत्यस्य प्रथमान्तत्वाद्‌ अस्यैव विधायकत्वम्‌। योगीयों के प्रत्याहार की सिद्धि होने पर इन्द्रियाँ उनके वशीभूत हो जाती हैं।,योगिनः प्रत्याहारसिद्धौ इन्द्रियाणि तस्य परमवश्यानि भवन्ति। होता हि यज्ञ का आवाहन कर्त्ता है।,होता हि यज्ञस्य आह्वानकर्त्ता। प्रसङ्ग के अनुसार ही उन अलङऱकारों का प्रयोग किया जाता है।,प्रसङ्गानुसारम्‌ एव तेन अलङ्काराणां व्यवहारः क्रियते। ब्रह्म सत्य है तथा जगत्‌ मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म के अलावा और कुछ भी नहीं यह अद्वैत का प्रतिपाद्य विषय है।,ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर इति भवति अद्वैतस्य मुख्यं प्रतिपाद्यम्‌। तत्पुरुष यह सप्तम्यन्त पद है।,तत्पुरुषे इति सप्तम्यन्तं पदम्‌। जैसे भ्रान्तिकाल में ही रज्जु में प्रतीत सर्प की सत्ता होती है।,यथा भ्रान्तिकाले एव रज्जौ प्रतीतस्य सर्पस्य सत्ता। और अन्यों के मत से पाणिनि के सूत्र विचित्र होते हैं इसको बताने के लिए यहाँ कार शब्द का ग्रहण किया है।,अन्येषां च मतेन पाणिनेः सूत्रं विचित्रं भवति इति ज्ञापनार्थम्‌ अत्र कारशब्दस्य ग्रहणं कृतम्‌। इससे ही ज्ञात होता है कि महाभाष्य काल में इस संहिता की विशिष्ट ख्याति थी।,अनेन एव ज्ञातो भवति यद्‌ महाभाष्यकाले अस्याः संहितायाः विशिष्टा ख्यातिः आसीद्‌ इति। और जो देखते है।,यश्च विपश्यति। कर्ष धातु को और आकार युक्त धातु को यह अर्थ है।,कर्षधातोः आकारयुक्तस्य धातोः च इत्यर्थः। दूसरी जगह कठ-तैत्तरीय-मैत्रायण शाखा के ब्राह्मण उदय के बाद में ही होम करें ऐसा विधान हेै।,अपरत्र कठ-तैत्तिरीय-मैत्रायणशाखानां ब्राह्मणाः उदयात्‌ परमेव होमं कुर्युः। जिसमे सामवेद प्रतिष्ठित है।,यस्मिन्‌ साम सामानि प्रतिष्ठितानि। इसके बाद “ आद्गुणः'' सूत्र से अकार का और उकार के स्थान पर एकार एकादेश होने पर निष्पन्न नीलोत्पलशब्द का एकदेशविकृत न्याय से प्रातिपदिकत्व होने पर “परवाल्लिंङ्ग द्वन्दतत्पुरुषयोः'' इस सूत्र से नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान से इसके बाद सु प्रत्यय होने पर सु का अम्‌ होने पर विभक्ति कार्य होने पर नीलोत्पलम्‌ रूप सिद्ध होता है।,"ततः ""आदू गुणः"" इति सूत्रेण अकारस्य उकारस्य च स्थाने एकारे एकादेशे निष्पन्नस्य नीलोत्पलशब्दस्य एकदेशविकृतन्यायेन प्रातिपदिकत्वात्‌ ""परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः"" इति सूत्रेण नपुंसके लिङ्गे वर्तमानात्‌ ततः सौ, सोरमि विभक्तिकार्य नीलोत्पलम्‌ इति रूपं सिद्धम्‌ ।" अतः यहाँ उदात्त स्वरो का ही समावेश दिखाई देता है।,अतः अत्र उदत्तस्वराणामेव समावेशः दृश्यते। अर्थ और उदाहरण के साथ उनकी व्याख्या कीजिये?,अर्थोदाहरणैः सह तानि व्याख्यात। स्वरित स्वर का विधान है।,स्वरितस्वरः विधीयते। अतः इस सूत्र का अर्थ होता है - यत शब्द से परे ही शब्द से परे तु शब्द से परे तिङन्त को छन्द विषय में अनुदात्त नहीं होता है।,अतः सूत्रस्य अस्य अर्थः भवति- यच्छब्दात्‌ परं हिशब्दात्‌ परं तुशब्दात्‌ परं तिङन्तं छन्दसि विषये अनुदात्तं न भवति इति। और ये अनुदात्त है।,एते च अनुदात्ताः सन्ति। नारदीयशिक्षा- यह शिक्षा ग्रन्थ सामवेद से सम्बद्ध है।,नारदीयशिक्षा- अयं शिक्षाग्रन्थः सामवेदेन सम्बद्धः अस्ति। तब तक संचित कर्म प्रारब्धत्व के रूप में परिणित होते जाते है।,तावत्‌ संचितं प्रारब्धत्वेन परिणमते। मनोगत भावों को प्रकट करने के लिए क्या आवश्यक होते हैं?,मनोगतभावानां प्रकाशाय के आवश्यकाः भवन्ति? बहुमास्य यहाँ पर पूर्वपद को प्रकृति स्वर होने का विधान बह्वन्यतरस्याम्‌ इस सूत्र से है।,बहुमास्य इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं बह्वन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रेण विधीयते। उसी प्रकार से ज्ञान होता है।,तथा ज्ञानम्‌। भले ही ऋग्वेदीय विषय समन्वय तत्व रूप में था फिर भी आधुनिक काल में श्रीरामकृष्ण के द्वारा ही प्रत्यक्षानुभूति के द्वारा इसकी सत्यता प्रमाणित की गई है।,"यद्यपि ऋग्वेदीया ऋषय एव समन्वयतत्त्वं निरुचुः, तथापि आधुनिककाले श्रीरामकृष्णदेवेन एव प्रत्यक्षानुभूतिद्वारा अस्य सत्यता प्रमाणिता।" तब वहाँ उपस्थित शिष्य के लिए गुरु करुणा के उपदेश देते हैं- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्‌ प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।,तदा तथा उपस्थिते शिष्याय गुरुः उपदिशति परकरुणया- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्‌ प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय। अक्षतः - क्षत्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर क्षतः यह रूप बना।,अक्षतः- क्षत्‌-धातोः क्तप्रत्यये क्षतः इति रूपम्‌। कोई भी धर्म कुकर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का उपदेश नहीं देता है।,न हि कश्चित्‌ धर्मः कुकर्मणा ईश्वरावाप्तिम्‌ उपदिशति। एक ही ईश्वर स्वयं बहुत प्रकार से प्रकाशित करता है यहाँ पर श्रुति का क्या प्रमाण है?,एक एव ईश्वरः आत्मानं बहुधा प्रकाशयति- इत्यत्र श्रुतिप्रमाणं किम्‌? भारतीय ज्योतिष शास्त्र का यह आदि ग्रन्थ है।,भारतीयस्य ज्यौतिषशास्त्रस्य अयम्‌ आद्यः ग्रन्थः। अविनाशीस्वरूप अनुभवरूप प्रज्ञा जिसकी होती है वह प्रज्ञ होता है तथा कुछ के मत में प्रज्ञ ही प्राज्ञ होता है।,"अविनाशिस्वरूपानुभवरूपा प्रज्ञा यस्य भवति सः प्रज्ञः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः इति केषाञ्चित्‌ मतम्‌।" अणु मन से आद्यकर्मारम्भ के उपगम के कारण ऐसा भी नियम नहीं है की वह एक अनेकों के द्वारा आरम्भ होता है।,"नापि अनेकमेवारभ्यते, नैकम्‌ इति नियमोऽस्ति, अणुमनसोः आद्यकर्मारम्भाभ्युपगमात्‌।" परमार्थतः उन दोनों में अभेद कथन के लिए लब्धूलब्धव्य भाव कहा गया है।,परमार्थतः तयोरभेदकथनाय लंब्धृलब्धव्यभावः कथितः। उनमें अन्यतम सम्बन्ध है।,तेषु अन्यतमः सम्बन्धः। नित्यादि कर्म चित्त के मल के नाशक होते हैं तथा चित्त की एकाग्रता को सम्पादित नहीं करते हैं।,नित्यादिकर्माणि चित्तमलं नाशयन्ति। चित्तैग्रतां न कुर्वन्ति। इसलिए भ्रान्ति का बाध करने पर जीवत्व का भी बाध होता है।,अतः भ्रान्तिबाधे जीवत्वमपि बाध्यते। वहाँ याग विषय पर अङ्क सहित विवेचना भी प्रस्तुत की है।,तत्र यागविषयकं साङ्कोपाङ्गम्‌ अपि प्रस्तूयते। जीव को स्वयं का ज्ञान नहीं होता है।,जीवस्य स्वयं क इति ज्ञानं नास्ति। "विह्गऊर्ध्व को जहाँ जाते है, दिक्चक्र वाले पोत जहां जाते है, सब वह देखता है।","विहगाः ऊर्ध्वं यत्र यान्ति, दिक्चक्रवाले पोताः यत्र यान्ति, सर्वं स पश्यति।" विशिष्टरूप से बंधे हुए जलपात्र को नीचे की और मुख करके जल को खोलो।,विशिष्टरूपेण बद्धं जलपात्रम्‌ अधोमुखीकृत्य जलं पिन्वताम्‌ । अतः प्रकृत सूत्र से चादिगण में पढ़े हुए उत इस निपात के आदि में उकार को अनुदात्त करने का विधान है।,अतः प्रकृतसूत्रेण चादिगणे पठितस्य उत इति निपातस्य आदेः उकारस्य अनुदात्तत्वं विधीयते। भक्ति के विषय में यह शाण्डिल्य सूत्र है “सा परानुरक्तिरीश्वरे” इस प्रकार से अविच्छिन्न तैलधारा के समान ध्येय ईश्वर के निरन्तर स्मरण के द्वारा बन्धनों का नाश हो जाता है।,"भक्तिविषये शाण्डिलसूत्रं हि ""सा परानुरक्तिरीश्वरे” इति। अविच्छिन्नतैलधारावत्‌ ध्येयस्य ईश्वरस्य निरन्तरं स्मरणेन हि बन्धनं नश्यति।" जिगीवांसः - जि-धातु से क्वसुन्प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में जिगीवांसः: रूप बना।,जिगीवांसः- जि-धातोः क्वसुन्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने जिगीवांसः इति रूपम्‌। अकार के लुप्त होने पर जो अज्‌च्‌ धातु है उस अञ्च्‌ धातु के परे होने पर पूर्व का अन्त उदात्त होता है 'चौ' इस सूत्र का अर्थ है।,अकारः लुप्तः जातः एवं यः अञ्चधातुः तस्मिन्‌ अञ्चधातौ परे सति पूर्वस्य अन्तोदात्तः भवति इति 'चौ' इति सूत्रार्थः। आकाश को सृजित करके तेज की सृष्टि करी यह भी विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ पर भी बहुत से विरोध हैं।,आकाशं सृष्ट्वा तेजः सृष्टि इति विकल्पोऽपि न सम्भवति इति सन्ति विरोधाः। वहाँ प्रत्येक दर्शनों में अपने मत अनुसार वेद के प्रमाण को कैसे स्वीकार करें उसकी आलोचना किया है।,तत्र प्रत्येकं दर्शनेषु स्वमतानुसारं वेदस्य प्रामाण्यं कथम्‌ अङ्गीकृतं तत्‌ आलोचितं वर्तते। संस्कृत व्याकरण में पाँच वृत्तियाँ होती हैं।,संस्कृतव्याकरणे पञ्च वृत्तयः सन्ति। निरन्तर गमन करना।,सततगन्ता। इस सूत्र से संज्ञा में ही दिशासंख्या वाचकों को सुबन्त के साथ समानाधिकरणतत्पुरुष समास होने का नियम है।,अनेन सूत्रेण संज्ञायामेव दिशासंख्यावाचकयोः सुबन्तेन सह समानाधिकरणतत्पुरुषसमासः इति नियम्यते। दधतः - धाधातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,दधतः - धाधातोः शतृप्रत्यये प्रथमाबहुवचने । 3. छः प्रकार के लिङग कौन-कौन है?,३. षड्विधानि लिङ्गानि कानि? पाणिनि पाण्डुपुत्र अर्जुन से परवर्त्ती सिद्ध होते है।,पाणिनिः पाण्डुपुत्राद्‌ अर्जुनात्‌ परवर्त्ती सिद्धो भवति। वेदान्त वाक्यों को हम सामाजिक जीवन तथा व्यवहारिक जीवन में किस प्रकार से प्रयोग करें इसका पूर्ण रूप से वर्णन कर के उन्होंने इसे अपने जीवन में भी धारण किया।,"वेदान्तवाक्यानि एव आश्रित्य समाजजीवने अस्माकं व्यवहारे च तानि कथं प्रयोक्तव्यानि, येन अस्माकम्‌ आत्मिकी वैषयिकी च समुन्नतिः स्यात्‌ इति भूयो भूयो दर्शितम्‌।" 14. “तत्त्वमसि” इस महावाक्य में लक्षणा सम्भव है अथवा नहीं वेदान्तपरिभाषाकार के मतानुसार विचार उपस्थापित कोजिए।,१४. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये लक्षणा सम्भवति न वा इति वेदान्तपरिभाषाकारस्य मतानुसारेण विचारः उपस्थाप्यताम्‌? अतः उगिदन्त प्रातिपदिक से पचत्‌ इससे उगितश्च सूत्र से ङीप्‌ प्रत्यय होता है।,अतः उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ पचत्‌ इत्यतः उगितश्च इति सूत्रेण ङीप्प्रत्ययःभवति। तब वहाँ पर वैराग्य को धारण करना चाहिए।,तदा तत्र वैराग्यमापादनीयम्‌। श्रवः इसका क्या अर्थ है?,श्रवः इत्यस्य कः अर्थः? "यहाँ पर छः ही मन्त्र है, और इसका विषय पूर्व से ही कम होने पर भी इस सूक्त का अत्यन्त महत्व है।","अत्र षड्‌ एव मन्त्राः सन्ति, किञ्च अस्य विषयस्यापूर्वत्वेन स्वल्पकायम्‌ अपि इदं सूक्तं अतीव माहात्म्यम्‌ बभर्ति।" वहाँ अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।,तत्र अन्यं प्रमाणम्‌ न अपेक्ष्यते। 55. पदार्थ के अनतिवृत्ति में अव्ययीभाव समास का उदाहरण लिखो?,५५. पदार्थानतिवृत्तौ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं लिखत। अतः वैदिक ज्ञान आज भी भ्रम रहित है।,अत एव वैदिकज्ञानम्‌ अद्यापि भ्रमरहितं वर्तते। पूषा भी इसका भाई कहलाता हैं।,पूषा अपि अस्य भ्राता इत्युच्यते। ध्यान दे: बाह्यप्रपञ्च के अनुभव के अभास से यह वह अन्तः प्रज्ञ भी होता है।,बाह्यप्रपञ्चानुभवाभावात्‌ स अन्तःप्रज्ञः भवति। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में श्रृंगार रस का उल्लेख प्राप्त होता है।,ऋग्वेदस्य अनेकेषु सूक्तेषु शृङ्गाररसस्य उल्लेखः प्राप्यते। बेद की रक्षा के लिए व्याकरण अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।,वेदस्य रक्षार्थं व्याकरणस्य अध्ययनम्‌ अत्यावश्यकम्‌। "वह मन सामान्य विशेषज्ञान का बोध कराता है, यह सिद्ध होता है।",तेन मनः सामान्यविशेषज्ञानजनकम्‌ इति सिद्ध्यति। इस सूक्त में सम्पूर्ण रूप से दश मन्त्र है।,अस्मिन्‌ सूक्ते साकल्येन दश मन्त्राः सन्ति । तत्पुरुष पाठ में सामान्यतत्पुरुष विधायक आठ सूत्र उल्लेखित हैं।,तत्पुरुषपाठे सामान्यतत्पुरुषविधायकानि अष्टौ सूत्राणि समुल्लिखितानि। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का दसवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य दशमो मन्त्रः। "उसके बाद यह समझाया जाता है कि अन्नमय आत्मा नहीं हो सकती है, अपितु उसके अन्तर्गत विद्यमान प्राणमय कोश ही आत्मा होती है फिर उसके बाद में इसका भी निरास करवाकर के यह कहा जाता है की प्राणमय कोश भी आत्मा नहीं होती है अपितु वर्तमान मनोमय कोश ही आत्मा है।","तदुत्तरम्‌ अन्नमयः नात्मा भवितुमर्हति, तदन्तः विद्यमानः प्राणमयकोश एव आत्मा इति बोधयति। तदुत्तरं प्राणमयः अपि नात्मा इत्युक्त्वा तदन्तः वर्तमानः मनोमय आत्मा इति बोधयति।" "कुछ अंश रूप में महाराष्ट्र प्रदेश और सम्पूर्ण रूप में आन्ध्र, कर्नाटक प्रदेश इस शाखा का अनुयायी है।",आंशिकरूपेण महाराष्ट्रप्रदेशीयाः समग्ररूपेण च अन्श्रद्रविडदेशीयाः अस्याः शाखायाः अनुयायिनः सन्ति। सूत्र का अवतरण- प्रकार आदि शब्दों के दो बार कहने पर वहाँ दूसरे प्रकार आदि शब्द के अन्त स्वर को उदात्त होने का विधान करने के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।,सूत्रावतरणम्‌- प्रकारादि शब्दानां द्विरुक्तौ तत्र द्वितीयस्य प्रकारादिशब्दस्य अन्तस्य स्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। वहाँ पर यह दोनों दृष्टान्त हैं।,तत्रोभयत्र दृष्टान्तः। उसका कर्ता आत्मवान कहलाता हैं ।,तस्य कर्ता आत्मविद्‌। अर्थात अग्नि में डाली जाती है।,आहवनीये प्रक्षिप्यते। यहाँ “पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन'' इस सूत्र से समानाधिकरणेन पद की अनुवृत्ति होती है।,"अत्र ""पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति पदम्‌ अनुवर्तते।" वह ही ही उत्पन्न होता है और वह ही उत्पन्न होगा।,सः एव उत्पन्नः भवति किञ्च स एव उत्पन्नः भविष्यति। 1 विदेहमुक्ति के क्या लक्षण होते हैं?,१.विदेहमुक्तेः किं लक्षणम्‌? उससे यहाँ सूत्र के पदों का अन्वय होता है - शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति।,ततश्च अत्र सूत्रस्यस्य पदान्वयः भवति- शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति। इस प्रकार से प्रजापति का वर्णन है।,इत्येवं प्रकारेण स प्रजापतिः वर्णितः। ऊपर काहे श्रद्धा के लक्षणा का श्रद्धा का अभिमानी देवता सेवनीय योग्य धन के शीश पर सबसे प्रधानभूत होकर के रहने के कारण वाणी से अथवा स्तोत्र से विशेष रूप से स्तुति करता हूँ।,श्रद्धाम्‌ उक्तलक्षणायाः श्रद्धायाः अभिमानिदेवतां भगस्य भजनीयस्य धनस्य मूर्धनि प्रधानभूते स्थाने अवस्थितां वचसा वचनेन स्तोत्रेण आ वेदयामसि अभितः प्रख्यापयामः। बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्‌ इस सूत्र से प्रकृत्या इस तृतीयान्त पद की यहाँ अनुवृति है।,बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्‌ इति सूत्रात्‌ प्रकृत्या इति तृतीयान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है।,असम्प्रज्ञातसमाधौ चित्तवृत्तयः तिरोभवन्ति। "पांच मन्त्र वाले इस सूक्त में वर्णन किया गया है की इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब प्रजापति ही है।","पञ्चमन्त्रात्मके सूक्तेऽस्मिन्‌ वर्णितमस्ति यत्‌ ब्रह्माण्डेऽस्मिन्‌ यत्किञ्चिदपि दृश्यते, तत्सर्वं प्रजापतिरेवास्ति।" यहाँ “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः” यह सूत्र प्रमाण है।,"अत्र ""तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः"" इति सूत्रं प्रमाणम्‌।" उदाहरण - इसका उदाहरण है - बिभ्रेती जराम्‌।,उदाहरणम्‌- अस्य उदाहरणं भवति - बिभ्रेती जराम्‌। ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मा के महान्‌ गौरव का अनेक जगह वर्णन है।,ब्राह्मणग्रन्थेषु ब्रह्मणः महान्‌ गौरवः अनेकत्र वर्णितः अस्ति। द्यावा और पृथिवी तेरे मुख को कहते है।,अश्विनौ द्यावापृथिव्यौ तव व्यात्तम्‌ मुखम्‌ । तृतीय लिङ्ग है अपूर्वता।,तृतीयं लिङ्गं तावत्‌ अपूर्वता। वेदान्त से तात्पर्य उपनिषद्‌ प्रमाण तदुपकारी शारीरिक सूत्रादि जो वेदान्त शास्त्र में कहे गये हैं।,वेदान्तो नाम उपनिषद्प्रमाणं तदुपकारीणि शरीरकसूत्रादीनि चेति उक्तं वेदान्तसारे। संसार बन्धनों से मुक्ति सभी चाहते हैं।,संसारबन्धनात्‌ मुक्तिं सर्व इच्छन्ति। आदि के 180 दिनों के अनुष्ठान में प्रथमदिन में अतिरात्र और अन्तिम दिन में स्वर साम विहित हैं परन्तु अन्तिम 180 दिनों के अनुष्ठान में प्रथम दिन स्वर साम और अन्तिम दिन में अतिरात्र विहित है।,आद्यानां १८० दिवसानाम्‌ अनुष्ठाने प्रथमदिवसे अतिरात्रः किञ्च अन्तिमदिवसे स्वरसामः विहितः परन्तु अन्तिमानां १८० दिवसानाम्‌ अनुष्ठाने प्रथमदिवसे स्वरसामः किञ्च अन्तिमदिवसे अतिरात्रः विहितः। "अर्थात्‌ आमन्त्रित पद में जिस प्रकार का स्वर है, उसी प्रकार का ही स्वर पूर्ववर्ति सुबन्त में भी लगाना चाहिए।",अर्थात्‌ आमन्त्रिते पदे यादृशः स्वरः अस्ति तादृशः एव स्वरः पूर्ववर्तिनि सुबन्ते अपि प्रयोज्यः। (क) विवेकः (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्तिः 15. तात्पर्यनिर्णायक छ लिङऱगों में यह नहीं है।,(क) विवेकः (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्तिः 15. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ नास्ति। यह संशय वेदान्त का जो विषय प्रमेय है वह जीवब्रह्मेक्य तथा तद्विषयक है।,अयं संशयः वेदान्तस्य यो विषयः प्रमेयं जीवब्रह्मैक्यं तद्विषयकोऽस्ति। इस नियम का उल्लङ्घन नहीं करता है।,अस्य नियमस्य उल्लङ्घनं न कुर्वन्ति। जैगीषव्य का शिष्य कौन हे?,जैगीषव्यस्य शिष्यः कः? मित्रवरुण की महानता से ही निरन्तर भ्रमणरत सूर्य दैनिक गति के द्वारा बन्ध जलराशि को छुडाने में समर्थ होती है।,मित्रावरुणयोः माहात्म्यात्‌ एव निरन्तरभ्रमणरतः सूर्यः दैनिकगत्या बद्धान्‌ जलराशीन्‌ आकर्षयितुं समर्थो भवति। जिससे उसे कभी कभी निधि की प्राप्ति होती है।,कदापि निधिप्राप्तिनि भवति। 18.4.1 ) अन्नमय का आत्मत्व निराश स्थूल देह अन्नमय कोश होता है।,१८.४.१) अन्नमयस्य आत्मत्वनिरासः स्थूलदेहः खलु अन्नमयकोशः। और निर्वकल्पकसमाधि में भी सभी चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है तथा अखण्डाकार ब्रह्मविषयणी चित्तवृत्ति का तिरोभाव होता है।,"निर्विकल्पकसमाधौ तु न हि सर्वासां चित्तवृत्तीनां तिरोभावो भवति, अखण्डाकारा ब्रह्मविषयिणी ।" अक्षसूक्त में कितवनाम का कोई जुआरी अक्षक्रीडा में मद रहता था।,अक्षसूक्ते कितवनामकः कश्चित्‌ अक्षक्रीडायां मत्तः आसीत्‌ । जगत्‌ में सभी प्राणी उसी की आज्ञा पालन करते है।,जगति सर्वे प्राणिनः तस्य एव आज्ञाकारिणः। सूत्र का अर्थ- यदवृत्त शब्द से उत्तर तिङन्त को नित्य ही अनुदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः - यत्र पदे यच्छब्दः ततः परं तिङन्तं नित्यम्‌ अनुदात्तं न भवति। "चाप्‌, टाप्‌, डाप्‌ प्रत्यय तीनों लिङ्गों के मध्य पुस्त्व बोध के लिए और नपुंसकत्व के ज्ञान के लिए प्रत्ययान्तर अपेक्षित नहीं है।",चाप्‌ टाप्‌ डाप्‌ प्रत्ययाः तत्र त्रिषु लिङ्गेषु मध्ये पुंस्त्वबोधनाय नपुंसकत्वबोधनाय च प्रत्ययान्तरम्‌ अपेक्षितं नास्ति। योगियों की अहिंसा में प्रतिष्ठा होने पर हिंस्रपशु भी उनके सामने हिंसा प्रकटी नहीं करते हैं।,योगिनः अहिंसायां प्रतिष्ठा भवति चेत्‌ हिंत्रपशवोऽपि तं प्रति हिंसां न प्रदर्शयन्ति। अथवा वेदों का वैदिक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन विषय -विधियों का निर्देश शिक्षा शास्त्र में किया है।,वेदानां वैदिकसाहित्यस्य वा अध्ययन-अध्यापनविषयक-विधीनां निर्देशः शिक्षाशास्त्रे कृतः। इसके बाद व्यधिकरण तत्पुरुष समास विधायकों सूत्रों द्वितीयाश्रितातीत इन सूत्रों की यहाँ आलोचना होती है।,ततः व्यधिकरणतत्पुरुषसमासविधायकानां द्वितीया श्रितातीतेत्यादीनां सूत्राणामालोचनम्‌ अत्र भवति। "यस्मात्‌ ऋते किञ्चन कर्म न क्रियते, तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।","यस्मात्‌ ऋते किञ्चन कर्म न क्रियते , तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।" वज्र के साथ भीषण-विनाश शब्दों का नित्य संम्बद्ध है।,वज्रेण सह भीषण-विनाशशब्दौ नित्यं संम्बद्धौ। वृत्र को मारकर इन्द्र ने बन्द जलमार्ग को खोल दिया।,वृत्रं हत्वा इन्द्रः पिहितं जलमार्ग मुमोच। 10. महिना इसका लौकिकरूप क्या है?,10. महिना इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। इसलिए शरीर का धारण होता है।,अतः शरीरस्य धारणं भवति। वहाँ पर जो भेद प्रतीति होती है वह अज्ञानमूला होती है।,तत्र या भेदप्रतीतिः सा अज्ञानमूला। “घोरझ्च मे घोरतरझ्च मे' यहाँ भीषणत्व तथा 'शिवाय च शिवतराय च' यहां कल्याणत्व घोषित है।,'घोरञ्च मे घोरतरञ्च मे' इति भीषणत्वम्‌ तथा 'शिवाय च शिवतराय च' इति कल्याणत्वं च विघोषितम्‌। अतः उसका एकस्वर होता है।,अतः तस्य ऐकस्वर्यं भवति। यह उपनिषद्‌ सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण का अंश विशेष है।,उपनिषदियं सामवेदस्य छान्दोग्यब्राह्मणस्य अंशविशेषा। वृक्ष के साथ शिलादि का जो भेद होता है वह विजातीय भेद कहलाता है।,वृक्षेण साकं शिलादीनां यः भेदः स विजातीयः भेदः। तथा उसे किस प्रकार से जाना जा सकता है।,तत्‌ कथं ज्ञायते। "पद से परे हो किन्तु पाद के आदि में वर्तमान नहीं है जो आमन्त्रित पद, उन सभी पद को अनुदात्त स्वर होता है यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है।","पदात्‌ परं किञ्च पादस्य आदौ अवर्तमानं यत्‌ आमन्त्रितं पदं, तस्य सर्वस्य पदस्य अनुदात्तस्वरः भवति इति सूत्रार्थः लभ्यते।" "हे मनुष्य, सभी जगह मुखविशिष्ट अर्थात्‌ जिसके विषय में कोई सोच नही सकता उस प्रकार की शक्ति सम्पन्न वह परमात्मा प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त होकर के रहता है।","हे मनुष्य, सर्वत्र मुखविशिष्टः अर्थात्‌ अचिन्त्यशक्तिसम्पन्नः परमात्मा प्रतिपदार्थं तिष्ठन्‌ अस्ति।" प्रज्वलित करते है।,संदीप्यते। मृत्यु के अतिक्रमण अर्थात्‌ मृत्युाहित्य के अलावा कोई मार्ग नहीं है - जो तम से परे है उस महान्‌ देशकाल आदि भेद से रहित आदित्यवर्ण पुरुष को जानकर ही मरण का अतिक्रम हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है।,"मृत्योः अतिक्रमाया, मृत्युराहित्याय। पन्थाः - यः तमसः परः तम्‌ महान्तम्‌ देशकालाद्यवच्छेदरहितम्‌ आदित्यवर्णं पुरुषं विदित्वा एव मरणातिक्रमः नान्यथा।" “षष्ठी” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""षष्ठी"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" उसकी दोनों उपाधियाँ सुषुप्ति में नहीं होती हैं।,तदुपाधिद्वयमपि सुषुप्तौ नास्ति। 2 सप्तदशावयवविशिष्ट लिङ्गशरीर का परिचय दीजिए?,२. सप्तदशावयवविशिष्टस्य लिङ्गशरीरस्य परिचयः दीयताम्‌। "“उच्चैरुदात्तः”, ` नीचैरनुदात्तः"", और ` समाहारः स्वरितः"" आचार्य गालव कृत शिक्षा ग्रन्थ।","'उच्चैरुदात्तः', 'नीचैरनुदात्तः', 'समाहारः स्वरितः' चेति।आचार्यगालवकृतः शिक्षाग्रन्थः।" कभी भी इसका कोई एक निश्‍चित वर्ण नहीं होता है।,कदाचित्‌ तस्य कश्चित्‌ अपि वर्णो न तिष्ठति इति। किंराजन्‌ से पुल्लिंग में सु प्रत्यय होने पर किंराजा रूप बना।,किंराजन्‌ इत्यस्मात्‌ पुंसि सौ किंराजा इति रूपम्‌। अमुष्येत्यन्तः इस वार्तिक से कैसे स्यान्तस्य षष्ठ्यन्त पद का अन्त उदात्त नहीं होता है?,अमुष्येत्यन्तः इति वार्तिकेन कथं स्यान्तस्य षष्ठ्यन्तपदस्य न अन्तोदात्तत्वम्‌ ? ततत्पुरुषः'' इस सूत्र से पहले प्राक्‌ अव्ययीभावः पद अधिग्रहण किया गया है।,"""तत्पुरुषः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक्‌ अव्ययीभावः इति पदम्‌ अधिक्रियते।" अर्थात्‌ सामानाधिकरण्य यह अर्थ है।,अर्थात्‌ सामानाधिकरण्यम्‌ इत्यर्थः। "ब्रह्मविद्या संसार के प्राणी को बनाता, विस्तृत करता और शिथिल करता है।",ब्रह्मविद्या संसाररिणः सादयति विशादयति शिथिलयति। बुद्धि से लेकर देह पर्यन्त अज्ञान का ही कार्य होता है।,बुद्धितः आरभ्य देहपर्यन्तं सर्वम्‌ अज्ञानस्य कार्य भवति। यहाँ इन दोनों ही पद प्रथमा एकवचनान्त है।,अत्र उभयमेव पदम्‌ प्रथमैकवचनान्तं बोध्यम्‌। तृतीय अर्थ है -यज्ञों के अनुष्ठान में देवों का आह्वान हविदान देवपूजा इत्यादि का कुछ स्थिर क्रम दिखाई देता है।,तृतीयोऽर्थः - यज्ञानाम्‌ अनुष्ठाने देवानाम्‌ आह्वानम्‌ हविरदानम्‌ देवपूजा इत्यादीनाम्‌ कश्चित्‌ स्थिरः क्रमः दृश्यते। प्रकृत सूत्र से विहित कार्य गोष्ठज इस शब्द स्वरूप को होता है।,प्रकृतसूत्रविहितं कार्यं गोष्ठज इति शब्दस्वरूपस्य भवति। विश्वम्भरा - विश्व का जो भरण - पोषण करती है वह विश्वम्भरा।,विश्वम्भरा- विश्वं भरतीति या सा विश्वम्भरा। वहाँ के लिए उदाहरण जैसे - गोधूमाः।,तत्र उदाहरणं यथा- गोधूमाः। इस प्रश्‍न का उत्तर देते हुए कहतें हैं कि प्रश्‍न के प्रशमन के लक्षण में आपततः इस पद का प्रयोग किया गया है।,अत एव अस्य प्रश्नस्य प्रशमनाय लक्षणे आपाततः इति पदस्य प्रयोगः। इसलिए सुषुप्ति में जगत को प्रतीति नहीं होती हे।,सुषुप्तौ मनोभावात्‌ जगतः प्रतीतिरेव नास्ति। पौर्णमासी अर्थात्‌ पूर्णिमा।,पौर्णमासी अर्थात्‌ पूर्णिमा। यहाँ यत्‌ यह प्रत्यय है।,अत्र यत्‌ इति प्रत्ययः। एक ही प्रपञज्चरूप अखिल कार्य का कारण अज्ञान नष्ट होता है तो अज्ञान के कार्यों का भी नाश हो जाता है।,एवमेव प्रपञ्चरूपस्य अखिलस्य कार्यस्य कारणम्‌ अज्ञानं नष्टं चेत्‌ अज्ञानकार्याणाम्‌ अपि नाशः भवति। रस नहीं होता है।,रसः नास्ति। "ऋषियों ने केवल मन्त्रों को देखा, वे उसके कर्ता नहीं हैं।",ऋषयः केवलं मन्त्राणि दृष्टवन्तः न तु कृतवन्तः। राजयोग प्रधान रूप से साधनों का उपदेश देता है।,राजयोगः प्राधान्येन साधनानि उपदिशति। स्वरित से परे अनुदात्तों की संहिता में या एकश्रुति हो यह अर्थ है।,स्वरितात्‌ परेषाम्‌ अनुदात्तानां संहितायामेकश्रुतिः स्यात्‌ इत्यर्थः। अविग्रह नित्यसमास का उदाहरण है-कृष्णसर्पः।,अविग्रहस्य नित्यसमासस्योदाहरणं यथा कृष्णसर्पः इति। ऋग्वेद का ज्योतिष क्या है?,ऋग्वेदस्य ज्यौतिषं किम्‌? किस प्रकार के गुरु के पास जाना चाहिए तो कहते हैं कि शमदमादि सम्पन्न आचार्य के पास जाना चाहिए।,कीदृशम्‌ गुरुम्‌ अभिगच्छेत्‌। आचार्यं शमदमादिसम्पन्नम्‌ अभिगच्छेत्‌। 2. जिन कर्मों का नरकादि अनिष्ट ही फल होता है वे शास्त्र के द्वारा प्रतिषिद्ध कर्म निषिद्ध कर्म कहलाते है।,२. येषां कर्मणां नरकादि अनिष्टम्‌ एव फलं तानि शास्त्रेण प्रतिषिद्धानि कर्माणि निषिद्धानि। तदेव शुक्रं तद्‌ ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः॥ १ ॥,तदेव शुक्रं तद्‌ ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः ॥ १ ॥ और ब्रह्मत्व को समझने पर कहे गये पञ्चकोशों की भी ब्रह्म में ही कल्पना करनी चाहिए।,तथा च ब्रह्मस्वरूपावगतये वक्ष्यमाणाः पञ्चकोशाः अपि ब्रह्मणि कल्पिताः वर्तन्ते। "गति अर्थ लोटा लकार को लृण्ण चेत्कारक सर्वान्यत्‌ इस सूत्र से गत्यर्थ लोट्‌ लकार है, चेत्‌ कारकम्‌, सर्वान्यत्‌ इन पदों की अनुवृति है।","गत्यर्थलोटा लृण्ण चेत्कारकं सर्वान्यत्‌ इति सूत्रात्‌ गत्यर्थलोटा, चेत्‌ कारकम्‌, सर्वान्यत्‌ इति पदानि अनुवर्तन्ते।" रुद्रो के साथ में (वागाम्भृणी) कैसे चलती हूँ?,रुद्रैः सह अहं(वागाम्भृणी) कथं चरामि। "यहाँ पूर्वकायः, अर्ध पिप्पली क्रम अनुसार उदाहरण हैं।","अत्र पूर्वकायः, अर्धपिप्पली इति यथाक्रमम्‌ उदाहरणम्‌।" अथवा अतीत अनागतवर्तमान में प्रयोग करने वाले पदार्थो का ग्राहक है।,यद्वा अतीतानागतवर्तमानविप्रकृष्टव्यवहितपदार्थानां ग्राहकम्‌ इत्यर्थः। जैसे सूर्य देव संसार में विचरण करता है।,यथा सविता देवो जगति विहरति । पाँच वायु कौन-कौन हैं?,पञ्च वायवः के ? यज्ञादि कर्म पापों का नाश करते हैं यदि वे फलों के आशा को त्याग करके किए गए होते हैं तो।,यज्ञादीनि कर्माणि पापनाशं कुर्वन्ति फलाशां त्यक्त्वा कृतानि चेत्‌। अन्तः करण में जितने निषिद्धकर्मजनित पाप होते हैं वे पाप निषिद्धकर्मो की और प्रेरित करते हैं।,अन्तःकरणे यावत्‌ निषिद्धकर्मजनितानि पापानि सन्ति तावत्‌ तानि पापानि निषिद्धकर्मसु प्रेरयन्ति। "और वे विधि जैसे विनियोग, हेतु, निरुक्ति, आख्यान इत्यादि।","ते च विधयः यथा विनियोगः, हेतुः, निरुक्तिः आख्यानम्‌ इत्यादयः।" 53. यथाअर्थ में अव्ययीभावसमास का अर्थ लिखो।,५३. यथार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं लिखत। निधेहि इसका अर्थ लिखिए।,निधेहि इत्यस्य अर्थं लिखत? वह ही वाणी के द्वारा असुर आदिशत्रुओं को मारकर प्रजाओं की रक्षा करती है।,सा वागेव असुरादिशत्रुनिधनद्वारा प्रजानां रक्षां विदधाति। अभि अभि इस स्थिति में 'इको यणचि” इस सूत्र से अच्‌ के परे अभि इसके इकार के स्थान में यण्‌ आदेश होने से अभ्यभि यह रूप सिद्ध होता है।,अभि अभि इति स्थिते 'इको यणचि' इति सूत्रेण अचि परे अभि इत्यस्य इकारस्य स्थाने यणादेशे अभ्यभि इति रूपं सिध्यति। ऐहिक और परलोक दोनों प्रकार के फलों से वाप्त अपूर्व साधन को जो बताता है वो भगवान्‌ वेद है।,ऐहिकामुष्मिकोभयविधफलावाप्तेः अपूर्वं साधनं वेदयति भगवान्‌ वेदः। यज्ञकर्मणि अजपन्यूङ्खसामसु यह सूत्र में आये पदच्छेद है।,यज्ञकर्मणि अजपन्यूङ्कसामसु इति सूत्रगतपदच्छेदः। सूत्र अर्थ का समन्वय - दाक्षेः यहाँ पर दाक्षि - शब्द का षष्ठी एकवचन का रूप है।,सूत्रार्थसमन्वयः - दाक्षेः इति दाक्षि - शब्दस्य षष्ठ्येकवचने रूपम्‌। काव्य में रस ही प्रधान है।,काव्ये रस एव प्रधानः। "इसके बाद चाप्‌ के चकार का चुदू सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, पकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से दोनों इत्संज्ञकों का लोप होने पर कारीषगन्ध्य आ स्थिति होती है।","ततः चापः चकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे सति कारीषगन्ध्य आ इति स्थितिः भवति।" योगियों के लिए शौच अत्यन्त अपेक्षित होता है शौच के बिना कोई आध्यात्मिक सिद्धि नहीं होती है।,योगिनः शौचम्‌ अत्यन्तमपेक्षितम्‌। शौचं विना न हि काचिद्‌ आध्यात्मिकी सिद्धिः सम्भवति। अतः अव्ययीभाव से सुप्‌ का लोप नहीं होने पर वाक्य का अर्थ होता है।,अतः अव्ययीभावात्‌ सुपो न लुक्‌ इति वाक्यस्यार्थो भवति । पूजायां नान्तरम्‌ इस सूत्र से पूजायाम्‌ इस सप्तम्यन्त नान्तरम्‌ इस प्रथमान्त दोनों पदों की अनुवृति है।,पूजायां नान्तरम्‌ इति सूत्रात्‌ पूजायाम्‌ इति सप्तम्यन्तं नान्तरम्‌ इति प्रथमान्तं पदद्वयमनुवर्तते। मध्याह्न में आकाश पर चढ़कर द्वितीय पाद को रखता है।,मध्याह्न आकाशम्‌ आरोढुं द्वितीयं पादं निक्षिपति। "अग्नि के सर्वज्ञ होने की भी कीर्ति है, क्योंकि वह यज्ञविषयक सभी कुछ जानती है।",अग्नेः सर्वज्ञत्वमपि कीर्तितं यतः स यज्ञविषयकं सर्वं वेत्ति। नित्य वस्तु ज्ञान के द्वारा तथा कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं की जाती है।,न हि नित्यं वस्तु कर्मणा ज्ञानेन वा क्रियते। गार्हपत्य आदि को कहा गया है।,गार्हपत्यादिः। वहाँ पर शरीर एक उपाधि होता है।,शरीरं तत्र एक उपाधिः। इस कर्म को विशेष रूप से जानते है।,इदन्तो मसिः। 17. नियम कितने हैं?,१७. नियमाः के? शरीर तीन प्रकार होता है।,शरीरञ्च त्रिविधम्‌। अध्यायः-4 अद्वैतवेदान्ते अपवादः- 90 36 पाठः-17 अवस्थात्रयविवेक:-जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः।,अध्यायः- ४ अद्वैतवेदान्ते अपवादः- ९० ३६पाठः - १७ अवस्थात्रयविवेकः-जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः। फल स्वरूप विविध विधि ही ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय है।,फलतः विविधाः विधयः एव ब्राह्मणग्रन्थानां मुख्यविषयाः सन्ति। तब अन्तःकरण प्रकाश होता हुआ अज्ञान का नाश करता है।,तदा अन्तःकरणं प्रकाशशीलं सत्‌ अज्ञानं नाशयति। तथा अधिकार प्राप्त करने पर करने योग्य श्रवणादि साधन अन्तरङ्ग साधन कहलाते हैं।,लब्धे चाधिकारे ऊर्ध्वं कर्तव्यानि श्रवणादिसाधनानि अन्तरङ्गसाधनानि कथ्यन्ते। (सू.भ.-3.2.3) इसलिए वहाँ पर क्रियमाण पुण्य तथा पाप के द्वारा जीव का सम्बन्ध ही नहीं होता है।,(सू भ.-३.२.३) अतः तत्र क्रियमाणेन पुण्येन पापेन वा जीवस्य सन्बन्ध एव नास्ति। "इस मन्त्र की ऋषिका श्रद्धा है, जो कामगोत्र में उत्पन्न हुई।","अस्य मन्त्रस्य ऋषिका श्रद्धा अस्ति, या कामगोत्रजा अस्ति।" यास्क ने भी कहा है - “तिस्त्र एवं देवता इति नैरुक्ता अग्निः पृथ्वी स्थानो वायुर्वेन्द्रो वाऽन्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः'” इति।,"यास्केनापि उक्तम्‌- ""तिस्र एव देवता इति नैरुक्ता अग्निः पृथिवीस्थानो वायुर्वेन्द्रो वाऽन्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः"" इति।" इस प्रकार अग्नि की तीन रूपों से कल्पना की गई है।,एवमग्निस्त्रिधामूर्त्तिः सञ्जातः। "इसी प्रकार अग्नि-यहाँ पर अकार अनुदात्त, इकार उदात्त ये सिद्ध होते है।",एवम्‌ अग्नि-इत्यत्र अकारः अनुदात्तः इकारः उदात्तः इति सिध्यति। सूत्र का अर्थ- चादय निपात अनुदात्त हो।,सूत्रार्थः- चादयः निपाताः अनुदात्ताः स्युः। सामान्य रूप से सभी प्रत्ययों का आदि स्वर उदात्त होता है।,सामान्यतः सर्वेषां प्रत्ययानां आदिः स्वरः उदात्तो भवति। इस वार्तिक से षष्ठीतत्पुरुषसमास का निषेध होता है।,अनेन वार्तिकेन षष्ठीतत्पुरुषसमासनिषेधो विधीयते। "हेतुपद से उनके कारणों का निर्देश होता है, जो कर्मकाण्ड विधि को सही रूप से सम्पन्न करते हैं।",हेतुपदेन च तेषां कारणानां निर्देशः भवति येः कर्मकाण्डविधयः सुष्टु सम्पद्यन्ते। व्याख्या - जो यह वर्तमान जगत्‌ है वह पुरुष ही है।,व्याख्या- यत्‌ इदं वर्तमानं जगत्‌ तत्‌ पुरुष एव। अनुदात्ते च इसका क्या अर्थ है?,अनुदात्ते च इत्यस्य कोऽर्थ? दोनों ही यत शब्द से परे है।,उभयमपि यच्छब्दात्‌ परम्‌ अस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में देवी: यह पद सम्बोधन विभक्ति अन्त वाला है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे देवीः इति पदं सम्बोधनविभक्त्यन्तं वर्तते। ब्राह्मण के समान ग्रन्थ अनुब्राह्मण।,ब्राह्मणसदृशो ग्रन्थः अनुब्राह्मणम्‌ रुद्राध्याय में काव्यरूप से यह मन्त्र काव्यकल्पना का और अलंकार से अलंकृत है।,रुद्राध्याये काव्यरूपेण एतानि मन्त्राणि काव्यकल्पनया अलंकारेण च अलंकृतानि सन्ति इति। 48. अर्थ अभाव अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?,४८. अर्थाभावार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? "वहाँ न यह अव्यय पद है, गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः यह समस्त पद पञ्चमी बहुवचनान्त है।","तत्र न इति अव्ययपदम्‌, गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः इति च समस्तं पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌।" समास वृत्तियों में अन्यतम होता है।,वृत्तिषु अन्यतमः भवति समासः। वहाँ पर स्थूलभुक वैश्वानर ही प्रमाण होता है।,स्थूलभुक्‌ वैश्वानर इति तत्र प्रमाणम्‌। एकवर्जम्‌ इस पद का “एक को छोड़कर' यह अर्थ है।,एकवर्जम्‌ इति पदस्य एकं वर्जयित्वा इत्यर्थः अस्ति। इस सूत्र का अर्थ है'' तृतीयान्त सुबन्त को तृतीयान्तर्थकृत गुणवचन और अर्थशब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,"अस्य सूत्रस्यार्थः- ""तृतीयान्तं सुबन्तं तृतीयान्तार्थकृत गुणवचनेन अर्थशब्देन च सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" और उसका विभक्ति विपरिणाम से व्याघ्र आदि विशेषण से समानाधिकरणैः होता है।,तच्च विभक्तिविपरिणामेन व्याघ्रादिभिः इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ समानाधिकरणैः इति भवति। "कुतत्पुरुष, गतितत्पुरुषः और प्रादितत्पुरुषः “कुगतिप्रादयः' सूत्र से विधान होता है।","कुतत्पुरुषः, गतितत्पुरुषः, प्रादितत्पुरुषश्च ""कुगतिप्रादयः"" इति सूत्रेण विधीयते।" रहस्य शब्द से किस विद्या का मुख्य रूप से प्रतिपादन करते है?,रहस्यशब्देन कस्याः विद्यायाः मुख्यतया प्रतिपादनं क्रियते? इस शब्द का प्रयोग भूट भास्कर ने तैत्तिरीय संहिता की भाष्यभूमिका में किया है।,अस्य शब्दस्य प्रयोगः भट्टभास्करेण तैत्तिरीयसंहितायाः भाष्यभूमिकायां कृतः। और अन्यत्र वेद में भी कहा गया है - “न वै वातात्किञ्चिनाशीयोस्ति न मनसः किञ्चनाशीयोस्ति'' इति।,"तदन्यत्रापि आम्नातं -""न वै वातात्किञ्चिनाशीयोस्ति न मनसः किञ्चनाशीयोस्ति"" इति।" च यह भी अव्ययपद है।,च इत्यपि अव्ययपदम्‌। दोनों अश्विन कुमारों को भी मैं धारण करता हूँ।,उभा उभौ अश्विना अश्विनावपि अहम्‌ एव धारयामि। यह न तो समष्टिरूप होता है और न ही व्यष्टिरूप होता है।,न अयं समष्टिरूपः न अयं व्यष्टिरूपः। इसी प्रकार अन्य जगह भी इस का बोध होता है।,एवमेवान्यत्रापि बोध्यम्‌। इस वेदाङ्ग का प्रतिनिधि-ग्रन्थ है पिङ्गल आचार्य द्वारा “छन्द:सूत्रम्‌'।,अस्य वेदाङ्गस्य प्रतिनिधि-ग्रन्थः अस्ति पिङ्गलाचार्यकृतं 'छन्दःसूत्रम्‌। अप्रसूत फल का पूर्वकृत दुःख का क्षय उपपद्य नहीं होता है।,अप्रसूतफलस्य हि पूर्वकृतदुरितस्य क्षयः न उपपद्यत इति प्रकृतम्‌। “रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति” इत्यादि श्रुति में रस इसको द्वितीयान्त पद के द्वारा तथा अयम्‌ इसमें प्रथमान्त पद के द्वारा जीव तथा ब्रह्म के लब्ध लब्धव्यभाव के द्वारा दिशा निर्देश किये गये।,"“रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति” इत्यस्यां श्रुतौ रसमिति द्वितीयान्तपदेन, अयमिति प्रथमान्तपदेन जीवब्रह्मणोः लब्धृलब्धव्यभावेन भेदनिर्देशः निगदितः।" “उस काल से विशिष्ट वह यह है ” यहाँ पर यह अर्थात्‌ एतत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से तथा सः (वह) अर्थात्‌ तत्काल विशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से अभिन्न जब प्रतीत होता है तब तत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड अभिन्न इसप्रकार से जब प्रतीत होता है तब तत्कालदेशविशिष्ट देवदत्तरूपपिण्ड का एतत्‌ काल एतत्‌ देश विशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से भेद व्यावृत होता है।,“तत्कालतद्वेशविशिष्टः सः अयम्‌” इत्यत्र अयम्‌ अर्थात्‌ एतत्कालैतद्वेशविशिष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ सः अर्थात्‌ तत्कालतद्वेशविशिष्टः देवदत्तरूपपिण्डः अभिन्नः इति यदा प्रतीयते तदा तत्कालतद्देशविशिष्टस्य देवदत्तरूपपिण्डस्य एतत्कालैतद्वेशविशिष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ भेदः व्यावृत्तः। यह शास्त्र प्रसिद्ध है।,इति शास्त्रप्रसिद्धम्‌। उससे युवन्‌ ति यह स्थिति होती है।,तेन युवन्‌ ति इति स्थितिः भवति। पुन रु गतौ इस धातु से गत्यर्थकअथवा ज्ञानार्थकधातु से रुद्रशब्द निष्पन्न होता है।,पुनः रु गतौ इतिधातोः गत्यर्थकाद्‌ ज्ञानार्थकाद्वाधातोः रुद्रशब्दो निष्पद्यते। “नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌ इस सूत्र से समानाधिकरणे आमन्त्रिते इस सप्तमी एकवचनान्त दो पद की अनुवृति आती है।,"""नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌' इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणे आमन्त्रिते इति सप्तम्येकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" "जो तीनों, प्राचीनकाल में, वर्तमानकाल में तथा भविष्यत्काल में विद्यमान है।",यः प्राचीनकाले वर्तमानकाले भविष्यत्काले च विद्यमानः। उसके द्वारा अखिल कार्यों के विनाश को प्राप्त करता है।,तेन च अखिलकार्याणि विनाशम्‌ आप्नुवन्ति। लेकिन जीवन्मुक्त तो यह जानता है की इस जगत में विद्यमान वस्तु प्रातिभासिक मिथ्यारूप में ही होती है।,परन्तु जीवन्मुक्तः जानाति एतत्‌ जगति विद्यमानं वस्तु प्रातिभासिकं मिथ्या इति। "जैसे - ` अधस्विदासीदुपरिस्विदासीत्‌' (ऋग्वेद १०-१२९-५) अर्थात्‌ वह नीचे भी था, और ऊपर भी था।",यथा - 'अधस्विदासीदुपरिस्विदीसीत्‌' (ऋग्वेदः १०-१२९-५) अर्थात्‌ सः अधः अपि आसीत्‌ उपरि अपि आसीत्‌ इति। "सूत्र का अवतरण- जिस शतृ प्रत्यय को नुम आगम नहीं होता है, तदन्त अन्तोदात्त से परे जो नदी प्रत्यय और अजादि शस आदि विभक्ति उसको उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है महर्षि पाणिनि ।",सूत्रावतरणम्‌- यस्य शतृप्रत्ययस्य नुमागमः न भवति तदन्तात्‌ अन्तोदात्तात्‌ परा या नदी अजादिश्च शसादिः विभक्तिः तस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतं महर्षिणा पाणिनिना। उनका चारों योगों का समन्वय बहुत ही प्रसिद्ध है।,तस्य चतुर्णां योगानां समन्वयः अतीव प्रसिद्धः। फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से यहाँ उदात्तः इस विधेय स्वर बोध क प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अत्र उदात्तः इति विधेयस्वरबोधकं प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। 60. यौगपद्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?,६०. यौगपद्यार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? सरलार्थ - देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञस्वरूप प्रजापति को पूजा।,सरलार्थः- देवाः यज्ञेन यज्ञस्वरूपं प्रजापतिं पूजितवन्तः। देवतावाची का द्वन्द्व समास में एक साथ दोनों को प्रकृत्ति स्वर होता है।,देवताद्वन्द्वे युगपत्‌ उभे प्रकृत्या भवतः इत्यर्थः। “नञस्तत्पुरुषात्‌”' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"""नञस्तत्पुरुषात्‌"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" अतः यह विशिष्ट अर्थ समास अवयवपदों के अर्थों से अलग अर्थ से है।,अतः अयं विशिष्टः अर्थः समासावयवपदानाम्‌ अर्थभ्यः परः भिन्नः। इसके द्वारा ही अन्तरिक्ष आश्रित तीनो लोक की रचना की।,अनेन अन्तरिक्षाश्रितं लोकत्रयमपि सृष्टवानित्युक्तं भवति। निषिद्धकर्मानुष्ठान से विषयासक्ति के कारण चित्त में अशुभ भावनाएँ भर जाती हैं अर्थात्‌ चित्त मलिन हो जाता है।,निषिद्धकर्मानुष्ठानाद्‌ विषयासक्त्या चित्तगताशुभवासनाभिश्च। अर्थात्‌ चित्ते मलिनत्वम्‌ अनुमीयते। ” (10/129/1) इति।,(१०/१२९/१) इति। वहाँ द्वितीय मन्त्र में कहा गया की अग्नि की किनके द्वारा स्तुति करनी चाहिए।,ततः द्वितीये मन्त्रे उक्तं यत्‌ अग्निः कैः स्तुत्यः। देवीसूक्त में अहंपद से कौन परामर्श देता है?,देवीसूक्ते अहंपदेन कः परामृश्यते। त्वष्टा एक सहस्र सुवर्ण वज्रों को बनाकर उसको समर्पित करता है।,त्वष्टा एकसहस्रं सुवर्णान्‌ वज्रान्‌ निर्माय तस्मै समर्पितवान्‌। फिर भी उनका समग्र जीवन श्रीराम कृष्ण के जीवन से प्रेरित था।,तथापि तस्य समग्रं जीवनं श्रीरामकृष्णजीवन-वचन-प्रचाराय एव विनिवेदितम्‌ आसीत्‌। "इस प्रकार से पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती है- वाक्‌, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ।",एवं कर्मेन्द्रियाणि पञ्च वाक्‌ पाणि पाद पायु उपस्थभेदेन। अतः आध्यात्मिक जीवन में शक्तिसञ्चारण से ही इन जनों की फिर अभ्युन्नति तथा नया जीवन संचार हो।,आध्यात्मिकजीवने शक्तिसञ्चारेण एव अस्याः जातेः पुनरभ्युन्नतिः नवजीवनलाभः च स्याताम्‌। व्याख्या - हे अग्नि वह तुम हमारे लिए अच्छी प्रकार से अर्थात आसानी से पहुँचने योग्य हो।,व्याख्या- हे अग्ने सः त्वं नः अस्मदर्थं सूपायनः शोभनप्राप्तियुक्तः भव। उन वज्र राशि से उसने असुरों का नाश किया।,तेन वज्रराशिना स असुरान्‌ अनाशयत्‌। इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से दीर्घ होने पर आजा रूप सिद्ध होता है। और इसके बाद स्वादिप्रत्यय प्रयोग से प्रथमा एकवचन में अजा सुबन्त पद सिद्ध होता है।,"ततः परम्‌ ""अकः सर्वर्ण दीर्घः"" इति सूत्रेण दीर्घे कृते सति अजा इति रूपं सिद्ध्यति। ततश्च स्वादिप्रत्यययोगेन प्रथमैकवचने अजा इति सुबन्तं पदं सिध्यति।" 6. ये जगत्‌ ब्रह्मस्वरूप की अपेक्षा अल्प होने से।,6. जगदिदं ब्रह्मस्वरूपापेक्षयाल्पमिति विवक्षितत्वात्‌ । विराट से भिन्न देवतिर्यङ्‌ मनुष्यादिरूप में हुआ।,विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्गनुष्यादिरूपोऽभूत्‌। वेद में कहा गया है - अहं रुद्राय धनुरातनोमि।,तदाम्नातम्‌- अहं रुद्राय धनुरातनोमि। "सुषुप्ति अवस्था में विद्यमान आत्मा प्राज्ञ होती है, सुषुप्तिकाल में स्थूल विषय तथा सूक्ष्म विषय नहीं होते हैं।",सुषुप्त्यवस्थायां विद्यमानः आत्मा प्राज्ञः भवति। सुषुप्तिकाले स्थूलविषयाः सूक्ष्मविषयाः वा न सन्ति। श्री शोभानुरूप होती है।,श्रीः शोभानुरूपा। सरलार्थ - प्राणियों की रक्षा के लिए स्थिर किया गया तथा मन के कम्पायमान होने पर द्युलोक और पृथिवी लोक जिसको देखते हैं।,सरलार्थः- प्राणिनां रक्षणानार्थं स्थिरीकृतं तथा मनसि कम्पमाने सति द्युलोकः पृथिवीलोकश्च यं पश्यति। इसलिए कहते है की नित्यकर्मानुष्ठानायासदु:ख पूर्वकृतदुरुतकर्मफल ही होता है।,अप्रकृतं च इदम्‌ उच्यते - नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं पूर्वकृतदुरितकर्मफलम्‌ इति। केवल प्रतिप्रस्थाता के अलावा सभी यजमान और पुरोहित समर्पित पुरोडाश के अवशेष को खाते हैं।,केवलं प्रतिप्रस्थातारं विना सर्वे यजमानाः पुरोहिताः च समर्पितपुरोडाशस्य अवशेषान्‌ भुञ्जते। "और इस प्रकार सम्पूर्ण सूत्र का अर्थ होता है की दो कहे हुए शब्दों के मध्य में जो पर है, उसको अनुदात्त हो।","एवञ्च साकल्येन सूत्रार्थो भवति द्विः उक्तयोः शब्दयोः मध्ये यः परः, तस्य अनुदात्तं स्यात्‌ इति।" उस पूजन से वो पुरुष प्रसिद्ध धर्म अर्थात जगद्रुप विकारों का धारक प्रथमया मुख्य है।,तस्मात्‌ पूजनात्‌ तानि प्रसिद्धानि धर्माणि जगद्रुपविकाराणां धारकाणि प्रथमानि मुख्यानि आसन्‌। जीवन्मुक्त लोक संग्रह के लिए मुक्ति के बाद भी कर्म करता है इस प्रकार से गीता में कहा है।,जीवन्मुक्तः लोकसंग्रहार्थं मुक्तेः परमपि कर्म करोति इति गीतासु निगदितम्‌। इस प्रकार हे मरुत तुम अन्तरिक्ष से हमारी और अभिमुख करके आओ।,इत्थं हे मरुतः यूयम्‌ अन्तरिक्षसकाशात्‌ अस्मदभिमुखम्‌ आगच्छ। देवशब्द का द्वितीयाबहुवचन में यह रूप बनता है।,देवशब्दस्य द्वितीयाबहुवचने रूपमिदम्‌। प्रतिपादित किया जाता है।,प्रतिपाद्यते। यास्ककृत निरुक्त तो निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या है।,यास्ककृतं निरुक्तं तु निघण्टुग्रन्थस्य व्याख्या अस्ति। उसी को पुरोडाशादि हवि के रूप में सङ्कल्पित किया।,तामेव पुरोडाशादिहविष्त्वेन सङ्कल्पितवन्त इत्यर्थः। श्रुति में भी कहा है कि - अग्नेर्वा आदित्यो जायते' इति।,श्रुतौ अपि आम्नातम्‌- ’अग्नेर्वा आदित्यो जायते' इति। शीतोष्णद्वन्दवसहिष्णुता ही तितिक्षा है।,शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता एव तितिक्षा । साम में प्रतिष्ठित है।,सामानि प्रतिष्ठितानि। उनका जीव बोधकत्व किस प्रकार से होता है इस प्रकार की शङ्का होती है।,तेषां जीवबोधकत्वं कथमिति शङ्का स्यात्‌। जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य।,जीवब्रह्मणोरेक्यम्‌ । क्योंकि वेद में अचेतनों की भी स्तुति विहित है।,यतो हि वेदे अचेतनानाम्‌ अपि स्तुतिर्विहिता। "जैमिनीय शाखा का श्रौतसूत्र, जैमिनि गृह्यसूत्र, गोभिल गृह्यसूत्र, और खादिर गृह्यसूत्र है।","जैमिनीयशाखायाः श्रौतसूत्रम्‌, जैमिनिगृह्यसूत्रम्‌, गोभिलगृह्यसूत्रम्‌, खादिरगृह्यसूत्रञ्चेति।" "उससे ही प्रातः, मध्याह्न, और सायंकाल अग्नि में हवन होता है।","तेन हि प्रातः, मध्याह्ने, सायंकाले चाग्नौ हवनं भवति।" राजकर्म विषय सूक्त राजा से सम्बद्ध बहुत सूक्त अथर्ववेद में प्राप्त होते है।,राजकर्मविषयकसूक्तानि राजभिः सम्बद्धानि बहूनि सूक्तानि अथर्ववेदे समुपलब्धानि सन्ति। जगत्‌ को रोग से मुक्त करने के लिए और कल्याण प्रदान करने के लिए।,जगत्‌ अयक्ष्मं तथा शोभनमनस्कं करणाय। उसका ज्ञान क्या है?,तज्ज्ञानं किम्‌। जो भी कर्म किये जाते है उनके कुछ फल तो तुरन्त प्राप्त हो जाते हैं।,यदपि कर्म क्रियते तस्य किमपि फलं सद्यः लभ्यते। सूत्र की व्याख्या- संज्ञा- परिभाषा- विधि- नियम अतिदेश और अधिकार छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह अधिकार सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- संज्ञा- परिभाषा- विधि- नियमातिदेशाधिकारात्मकेषु षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदम्‌ अधिकारसूत्रम्‌। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का तेरहवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य त्रयोदशो मन्त्रः। और अन्‌ अन्त से अव्ययीभाव से पर समासान्त तद्धित संज्ञक टच्‌ प्रत्यय होता है यही सूत्रार्थ है।,"एवम्‌ ""अन्नन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययः भवति"" इति सूत्रार्थः।" उससे पूजनार्थ से परे जो प्रातिपदिकान्तात्‌ समासात्‌ पद प्राप्त होता है।,तेन पूजनार्थात्परं यत्प्रातिपदिकम्‌ तस्माद्‌ इति लभ्यते। छठे दिन - ज्योतिष्टोम।,षष्ठदिवसः- ज्योतिष्टोमः। अतः दूसरे दिवे-शब्द का इस सूत्र से अनुदात्त स्वर होता है।,अतः द्वितीयस्य दिवे-शब्दस्य अनेन सूत्रेण अनुदात्तस्वरो भवतीति शम्‌। आदित्य रूप में अत्यधिक तेज से चमकता है और जिसको देवों के पुरोहित सभी कार्यों में आगे रखते है (यः देवानां पुरः अग्रे इन्द्रत्वेन स्थितः।,अतिशयेन तेजसा तपति आदित्यरूपेण। यश्च देवानां पुरोहितः सर्वकार्येषु अग्रे नीतः।(यः देवानां पुरः अग्रे इन्द्रत्वेन स्थितः। तब वह सम्प्रदायविद होता है।,तदा स सम्प्रदायविद्‌ भवेद्‌। अर्थात्‌ उपनिषदों से तात्पर्य है उस विषय में संशय ही प्रमाणगत असम्भावना के रूप में होता है।,अर्थात्‌ उपनिषदां कुत्र तात्पर्यमिति विषये संशयः एव प्रमाणगता असम्भावना। परन्तु प्रकृत सूत्र में अनावः कहने से नाव्यानाम इसके आदि अच्‌ नकार से उत्तर आकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर नहीं होता है।,परन्तु प्रकृतसूत्रे अनावः इत्युक्तत्वात्‌ नाव्यानामित्यस्य आदेः अचः नकारोत्तरस्य आकारस्य प्रकृतसूत्रेण न उदात्तस्वरः। और उससे स्त्रीत्व विवक्षा में ष्यङन्त कारीषगन्ध्य प्रातिपदिक से यङश्चाप्‌ सूत्र से चाप्‌ प्रत्यय होने पर कारीषगन्ध्य चाप्‌ स्थिति होती है।,तेन च स्त्रीत्वविवक्षायां ष्यङन्तात्‌ कारीषगन्ध्य इति प्रातिपदिकात्‌ यङश्चाप्‌ इति सूत्रेण चाप्‌ प्रत्यये सति कारीषगन्ध्य चाप्‌ इति स्थितिः भवति। वृत्ति नाम किसका है?,वृत्तिर्नाम का ? "प्रमाणभूत सूत्र है-''संख्या पूर्वोद्विगुः इति। 41. प्रादि समास के विधायक पाँच वार्तिकों का यहाँ उल्लेख किया गया है “'प्रादयोगताद्यर्थे प्रथमया '', “ अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया”, “ अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया'', “ पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या” “निरादयः क्रात्ताद्यर्थे पञ्चम्या। 42. “तत्पुरुषस्याङ्कुलेः संख्याव्ययादेः' और “अहः सर्वेकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः” ये दो सूत्र उल्लेखित हैं।","प्रमाणभूतं सूत्रं हि संख्यापूर्वो द्विगुः इति। ४१. प्रादिसमासस्य विधायकानि पञ्च वार्तिकान्यपि समुल्लिखितानि - ""प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया"", ""अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया"", ""अवादयः क्रुष्टाद्यर्थ तृतीयया"", ""पर्यादयो ग्लानाद्यर्थ चतुर्थ्या"", ""निरादयः क्रान्ताद्यर्थे पञ्चम्या"" इति। ४२. ""तत्पुरुषस्याङ्कुलेः संख्याव्ययादेः"" इति ""अहःसर्वैकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः"" इति सूत्रद्वयम्‌ उल्लिखितम्‌।" उपासते - उपपूर्वक आस्‌- धातु से लट्‌-लकार प्रथमपुरुष बहुवचनान्त का यह रूप है।,उपासते- उपपूर्वकात्‌ आस्‌- धातोः लट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य बहुवचनान्तं रूपम्‌ इदम्‌। यह महाव्रत ऐतरेय ब्राह्मण के तीसरे प्रपाठक के गवामयन का ही एक अंश है।,महाव्रतमिदम्‌ ऐतरेयब्राह्मणस्य प्रपाठकत्रयस्य गवामयनस्य एव एकांशोऽस्ति। "एवं वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शाश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌ - इत्यादि में भी इस सूत्र के उदाहरण जानने चाहिए।","एवं वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌ इत्यादिषु अपि सूत्रस्यास्य उदाहरणं बोध्यम्‌।" अपने पदों का बिना प्रयोग कर किया गया विग्रह अस्वपद विग्रह कहलाता है।,स्वस्य पदानि प्रयुज्य विग्रहः कृतः नास्ति स अस्वपदविग्रहः इति यावत्‌। अब कहते हैं की भले ही इस उपनिषद्‌ में आकाश की उत्पत्ति दिखाई गई है लेकिन यह तत्‌ 'तत्तेजोऽसृजत' इस श्रुति वाक्य के तो विपरीत है।,"ननु सत्यं दर्शितम्‌, परन्तु विरुद्धं तत्‌ ""तत्तेजोऽसृजत"" इत्यनेन श्रुत्यन्तरेण; इति ।" अत: दिक्शब्द यहाँ पूर्वपद है।,अतः दिक्शब्दः अत्र पूर्वपदम्‌। ( वा. ६५२) वार्तिक का अर्थ - षष्ठ्यन्त का भी अन्त उदात्त होता है।,वार्तिकार्थः - षष्ठ्यन्तस्यापि अन्त उदात्तः स्यात्‌। "जो जुआरी को उधार धन देता है, वह इस संदेह में रहता है की मेरा धन फिर मिलेगा अथवा नही मिलेगा।",ऋणावा अक्षपराजयादृणवान्‌ कितवः सर्वतो बिभ्यद्धनं स्तेयजनितम्‌ इच्छमानः कामयमानः अन्येषां ब्राह्मणादीनाम्‌ अस्तं गृहम्‌ । नि अर्थात्‌ निश्चय रूप से जो विद्या ब्रह्म की जीवात्मा को प्राप्ति करवाती है वह ब्रह्मविद्या इसलिए शङ्कराचार्य ने कठोपनिषद्‌ के भाष्य में कहा की “पूर्वोक्तविशेषणान्मुमुक्षून्‌ वा परं ब्रह्म गमयति इति ब्रह्मगमयितृत्वेन योगात्‌ ब्रह्मविद्या उपनिषत्‌” इति।,नि अर्थात्‌ निश्चयरूपेण ब्रह्मणि एव जीवात्मानं प्रापयति या विद्या सा ब्रह्मविद्या अतः एव शङ्कराचार्येण कठोपनिषदः भूमिकाभाष्ये उच्यते “पूर्वोक्तविशेषणान्मुमुक्षून्‌ वा परं ब्रह्म गमयति इति ब्रह्मगमयितृत्वेन योगात्‌ ब्रह्मविद्या उपनिषत्‌” इति। "इस पाठ के अध्ययन से आप समर्थ होंगे,अनुबन्धों को समास विधि से जानने में; अनुबन्धों के ज्ञान को आवश्यकता को जानने में; कर्म के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने में; कर्म का रहस्य जानने में समर्थ होंगे; साधना का कारण जानने में; अधिकारी तथा उसके द्वारा प्राप्तव्य सम्पत्ति के बारे में जानने में; सम्पत्ति के अर्जन के लिए क्या साधन क्रम से करना चाहिए यह विवेक जाग्रत हो जाता हैं ।",पाठस्यास्याध्ययनेन अनुबन्धान्‌ समासेन अवगच्छेत्‌। अनुबन्धानां ज्ञानस्य आवश्यकतां बुध्यात्‌। कर्मरहस्यं जानीयात्‌।साधनायाः कारणम्‌ अवधारयेत्‌।अधिकारिणः सम्पादनीया सम्पत्तिः स्पष्टा भवेत्‌।सम्पत्तेर्जनाय किं साधनं केन क्रमेण कर्तव्यमिति विवेको जायेत। प्रजानामिति प्र-जानाम्‌।,प्रजानामिति प्र - जानाम्‌। जो सब उत्पन्न है या जो सब उत्पन्न होने वाला है वो सब पुरुष ही हैं।,"यत्‌ सर्वम्‌ उत्पन्नं, यद्‌ वा सर्वम्‌ उत्पत्तिमेष्यति तत्‌ सर्वं पुरुष एव।" शब्द भी नहीं होता है।,शब्दश्च नास्ति। इस कारण से जन्तु जन्म जन्मांतरों को प्राप्त करता है।,एतेन कारणेन जन्मनः जन्मान्तरं लभते जन्तुः। वरुण और अग्नि इसके इष्ट देवता हैं।,वरुणः अग्निः च अस्याः इष्टेः देवते। "जैसे- छान्दोग्योपनिषद्‌ के छठे अध्याय में कहा गया है “आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद, तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्ये” (6/14/2) इति।","यथा- छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्याये आम्नायते “आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद, तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्ये” (६/१४/२) इति।" "तव्यति कृते कृत्‌ उत्तर पद प्रकृति स्वर से प्रकृति स्वर, तव्यत्‌ में तो फलभेद नहीं होता है।","तव्यति कृते कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरेण प्रकृतिस्वरः, तव्ये तु नेति फलभेदः।" पाठ्य विषय का उद्देश्य ( पाठ्य विषय के बिंदु ) उच्चतर माध्यमिक कक्षा हेतु भारतीय दर्शन की पुस्तक में निम्न विषय सम्मिलित हैं।,पाठ्यविषयस्य उद्देशः (पाठ्यविषयबिन्दवः) उच्चतरमाध्यमिककक्षाया भारतीयदर्शनस्य पुस्तके निम्नविषयाः अन्तर्भवन्ति। "पुरुषसूक्त का ऋषि, छन्द और देवता कौन है?","पुरुषसूक्तस्य कः ऋषिः, किं छन्दः, का च देवता।" पतञ्जलि के कथन अनुसार कठ संहिता का प्रचार तथा पठन-पाठन प्रत्येक गाँव में था (ग्रामे ग्रामे काठक कालापक च प्रोच्यते'- महाभाष्य में ४/३/१०१)।,पतञ्जलेः कथानुसारं कठसंहितायाः प्रसारः तथा पठन-पाठनं प्रतिग्रामम्‌ आसीत्‌ ('ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते”- महाभाष्यम्‌ ४/३/१०१)। इस प्रकार से अद्वैत की हानि होने पर वह नहीं होता है।,अतः अद्वैतहानिः खलु इति चेदुच्यते तन्न भवति। इस प्रकार से चित्प्रतिबिम्बभूत जीव के ह्वारा ही कुछ समझा जा सकता है।,अत एव चित्प्रतिबिम्बभूतेन जीवेन किञ्चिदिव अवगन्तुं शक्यते। "यहाँ उनमें आदि यजुर्वेद संहिता का सामान्य से परिचय करके माध्यन्दिन संहिता, काण्व संहिता, तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, कठ संहिता, और कापिष्ठल संहिता इत्यादि इनके विभागों की विस्तार से आलोचना करेगें।","अत्र तावत्‌ आदौ यजुर्वेदसंहितायाः सामान्येन परिचयं कृत्वा माध्यन्दिनसंहिता, काण्वसंहिता, तैत्तिरीयसंहिता, मैत्रायणीसंहिता, कठसंहिता, कापिष्ठलसंहिता च इत्येतेषां विभागानां विस्तरशः आलोचना करिष्यते।" उसके विधायक अनेक सूत्र हैं।,तस्य विधायकानि अनेकानि सूत्राणि सन्ति। व्याख्या - रथी जिस प्रकार से कशाघात द्वारा घोड़ों को उत्तेजित करके योद्धाओं का अविष्कृत करता है उसी प्रकार पर्जन्य भी मेघो को प्रेरित करके वारिवर्षक मेघों को प्रकट करते हैं।,व्याख्या- रथीव रथस्वामीव। स यथा कशया अश्वान्‌ अभिक्षिपन्‌ दूतान्‌ भटान्‌ आविष्करोति तद्वदसौ पर्जन्योऽपि कशया अश्वान्‌ मेघान्‌ अभिक्षिपन्‌ अभिप्रेरयन्‌ वर्ष्यान्‌ वर्षकान्‌ दूतान्‌ दूतवत्‌ वृष्टिप्रेरकान्‌ मेघान्‌ मरुतो वा आविः कृणुते प्रकटयति । वस्तुतः हम सुख को ही चाहते हैं।,वस्तुतः सुखमेव ना वाञ्छति। अज्ञान से अस्पृष्ट होता हे।,अज्ञानेन अस्पृष्टमस्ति। सभी कर्म अनित्य के ही साधन होते है।,सर्वं तु कर्म अनित्यस्यैव साधनम्‌ अस्ति। इसिलए दुःख के कारणों से बहुत से लोग प्रमाद करते हैं।,अतः दुःखकारणात्‌ प्रमादं कुर्वन्ति बहवः। "वहाँ उच्चौस्तराम्‌ इति और वा इति ये दो अव्ययपद हैं, वषट्कारः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र उच्चैस्तराम्‌ इति वा इति च द्वे अव्ययपदे, वषट्कारः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" अस्तवे “असु क्षेपणे' तुमर्थे तवेप्रत्ययः।,अस्तवे 'असु क्षेपणे' तुमर्थे तवेप्रत्ययः। "वेद भी जीवन कलायुक्त हो, ऐसा भाव प्रकट करता है।",वेदः अपि जीवनं कलायुक्तं भवेत्‌ इति सम्भावयति। और यह पद बहुवचनान्त भी है।,इदं च पदं बहुवचनान्तम्‌ अपि वर्तते। उनको किए बिना संन्यास फलवान नहीं होता है।,तानि न कृतानि चेत्‌ संन्यासः फलवान्‌ न भवति। 7 सत्य किसे कहते हैं?,७. किं नाम सत्यम्‌? 24. “' धातुप्रातिपदिकयोः'' यहाँ पर कौन सी विभक्ति और कौन समास है?,२४. धातुप्रातिपदिकयोः इत्यत्र का विभक्तिः कश्च समासः? उससे यह आरण्यक यास्क से पूर्ववर्ति माना जाता है।,तेन आरण्यकमिदं यास्कपूर्ववर्ति इति मन्यन्ते नैके। उसको मोक्ष लाभ प्राप्त होता है अथवा नहीं इस ज्ञान के लिए यह विषय प्रस्तुत किया जा रहा है।,तस्यैव मोक्षलाभाय सन्नद्धता अस्ति न वेति ज्ञानाय विषयः प्रस्तूयते। 4 गुरु के महात्म्य का वर्णन कीजिए।,4 गुरोः माहात्म्यं वर्णयत। इस प्रकार से अनेक विषय मुमुक्षु की जिज्ञासा करने वालों के होते है।,इत्यादयो नैके विषया मुमुक्षोः जिज्ञास्याः सन्ति। यह कथन भी कुछ आश्चर्यजनक प्रतीत होता है।,इदमपि कथनम्‌ किञ्चित्‌ आश्चर्यजनकम्‌ इति प्रतीयते। किस प्रकार का यश?,कीदृशं यशः। उदाहरण- इस सूत्र का उदाहरण है - तुर्भ्य हिन्वानः इति।,उदाहरणम्‌- अस्य सूत्रस्य उदाहरणं भवति तुभ्यं हिन्वानः इति। क्या चारों वेदों में अथर्ववेद बहुत विशिष्ट फल देता है।,किम्बहुना वेदेषु अथर्ववेदो बहुलविशिष्टतां निदधाति। "ब्रह्म ही केवल नित्य वस्तु है, उससे भिन्न अखिल आकाशादिप्रपज्च अनित्य है इस प्रकार का विचार पूर्वक ज्ञान।",ब्रह्म एव नित्यं वस्तु ततः अन्यत्‌ अखिलं सर्वम्‌ आकाशादिप्रपञ्चः अनित्यं वस्तु इति विचारपूर्वकं ज्ञानम्‌। सूत्र व्याख्या :- पाणिनीप्रणीत छ: विधि सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - पाणिनिप्रणीतेषु षड्विधेषु सूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। 7 अपवाद किसे कहते हैं?,७. अपवादः नाम किम्‌? अदादि गण के अन्तर्गत एक गण है।,अदादिगणान्तर्गतः एकः गणः। 7 अरोक्ष स्वभाव वाल ब्रह्म होता है यहाँ पर क्या श्रुति है?,७. अरोक्षस्वभावं ब्रह्म इत्यत्र का श्रुतिः? वायु जैसे आती है वैसे ही जाती है।,वायुः यथा आगच्छति निर्गच्छति च। "इसलिए वहाँ पर “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म"" इसमें ज्ञान शब्द का प्रकाश अर्थ है।","यत्र तु ""सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म"" इति ज्ञानशब्दः तस्य प्रकाशः अर्थः।" वैदिक ऋषि कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं।,वैदिकः ऋषिः कविषु श्रेष्ठः कविः अस्ति। 7 ब्रह्म स्वयं प्रकाश रूप होता है।,7 ब्रह्म स्वयं प्रकाशस्वरूपं भवति। प्रारब्धकर्म में विद्यमान होने पर मुक्त भी जीव भी शरीर नाश पर्यन्त शरीर में निर्लिप्ता के द्वारा विद्यमान होता है।,प्रारब्धकर्मणि विद्यमाने सति मुक्तोऽपि जीवः शरीरनाशपर्यन्तं शरीरे निर्लिप्ततया विद्यमानस्तिष्ठति । आहो इस अव्यय से युक्त है।,आहो इत्यव्ययेन युक्तम्‌ अस्ति। जिससे पद्यों के पढ्ने में सुस्वर का और लय का आविर्भाव अत्यधिक रुचिकर होता है।,येन पद्यानां पठने सुस्वरस्य लयस्य च आविर्भावः अतीव रुचिरतया सम्पद्यते। विवेकानन्द के द्वारा प्रचारित दर्शन का नाम वेदान्त दर्शन किस लिए हुआ।,विवेकानन्देन प्रचारितस्य दर्शनस्य नाम किमर्थं वेदान्तदर्शनम्‌ इति? इस प्रकार से बहुत जन्मों में वह शुद्ध होकर के मुक्तिरूप परमगति को प्राप्त करता है।,एवं बहुषु जन्मसु क्रमेण शुद्धो भूत्वा मुक्तिरूपां परमां गतिं प्राप्नोति इति । किन्तु मित्र वाच्य अर्थ तो बालिका हो सकती है और बालक भी हो सकता है।,"किन्तु मित्रवाच्यः अर्थः तु बालिका अपि भवितुमर्हति, बालकः अपि भवितुमर्हति।" 86. “ झयः'' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"८६. ""झयः"" इत्यस्य सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?" मैं स्वयं आत्मा हूँ इसका ज्ञान होता है।,अहं स्वम्‌ आत्मा इति ज्ञानम्‌। उदात्ताद्‌ अनुदात्तस्य स्वरितः ये सूत्र आये हुए पदच्छेद हैं।,उदात्ताद्‌ अनुदात्तस्य स्वरितः इति सूत्रगतपदच्छेदः। 2. वेदान्त में अधिकारी का वैराग्य क्या होता हे?,२. वेदान्ते अधिकारिणो वैराग्यं किम्‌। 7. प्र अमिनाः इसका क्या अर्थ है?,७. प्र अमिनाः इत्यस्य कः अर्थः? प्रकृति विकृति का भाव का ग्रहण।,प्रकृतिविकृतिभावस्य ग्रहणम्‌। ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निहोत्र करे “ब्राह्मणोऽहरहः अग्निहोत्रं जुहुयात्‌” यह श्रुति प्रमाण है।,"ब्राह्मणः प्रत्यहम्‌ अग्निहोत्रं कुर्यात्‌ तत्र ""ब्राह्मणोऽहरहः अग्निहोत्रं जुहुयात्‌"" इति श्रुतिः प्रमाणम्‌।" ® इसलिए इसमें तद्बुद्धि अध्यारोप होता है।,अतस्मिन्‌ तद्बुद्धिः अध्यारोपः। प्रकृतियाग प्रधानयाग कहलाते हें।,प्रकृतियागः प्रधानयागः इत्युच्यते। 4 अहिंसा का प्रतिपादन करने वाला श्रुतिवाक्य क्या है?,४. अहिंसाया उपोद्गलकं श्रुतिवाक्यं किम्‌? "उनमें कुछ विशिष्ट आरण्यक हैं जैसे ऐतरेय आरण्यक, बृहदारण्यक, शांख्यायन आरण्यक और तैत्तरीय आरण्यक यहाँ प्रस्तुत है।","तेषु कानिचित्‌ विशिष्टानि आरण्यकानि यथा ऐतरेयारण्यकं, बृहदारण्यकं , शांख्यायनारण्यकं तैत्तिरीयारण्यकं चेति अत्र प्रस्तूयन्ते।" केवल नारी नहीं अपितु नर और नारी दोनों ही वहाँ पर अपेक्षित है।,न केवला नारी प्रत्युत नरनायौं उभौ अपि तत्र अपेक्षितौ। जघ्नुषः यह रूप कैसे बना?,जघ्नुषः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। "अथवा, इस भूलोक के शिर के ऊपर पिता द्यौलोक है।","यद्वा, अस्य भूलोकस्य मूर्धन्‌ मूर्धन्युपर्यहं पितरमाकाशं सुवे।" इसलिए ग्रन्थ के आदि में अनुबन्धों को उपस्थापित किया जाता है।,अतो ग्रन्थादौ एते अनुबन्धाः उपन्यस्यन्ते। "इसके बाद कृदन्त होने से कृन्तद्धित समासाश्च सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा में कारक के अदन्त प्रातिपदिकत्व से अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से टाप्‌ प्रत्यय होने पर टाप्‌ के टकार का चुटू सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, पकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, तस्यलोपः सूत्र से दोनों इत्संज्ञको का लोप होने पर कारक आ स्थिति होती है।","ततः कृदन्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां जातायाम्‌, कारक इत्यस्य अदसन्तप्रातिपदिकत्वात्‌ अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रेण टाप्‌- प्रत्यये टापः टकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे सति कारक आ इति स्थितिः भवति।" परिमाण में छोटी होने पर भी सारभूत होने से इसके अनुशीलन से संस्कृत भाषा में उपयोगी विषय का सुन्दर ज्ञान प्राप्त कर सकते है।,परिमाणे न्यूनत्वेन अपि सारभूतत्वाद्‌ अस्य अनुशीलनेन संस्कृतभाषायाम्‌ उपयोगिनः विषयस्य सुष्टु ज्ञानं प्राप्तुं शक्यते। और वह प्रत्येक दिन वृद्धि को प्राप्त हो।,तच्च प्रतिदिनं वर्धमानम्‌। शचीपति कौन है?,कः शचीपतिः? इसी प्रकार उसकी दुरवस्था होता है।,एवं तस्य दुरवस्था भवति । श्रौतसूत्र किस शाखा में होते हैं?,श्रौतसूत्र कस्यां शाखायाम्‌ अन्तर्भवति? "निरीक्षण करें कौ प्रश्‍न पत्र की क्रम संख्या प्रश्‍नों की संख्या, प्रथम पृष्ठ के प्रारम्भ में दी हुई संख्या के समान है या नहीं।",निरीक्ष्यताम्‌ यत्‌ प्रश्नपत्रस्य पुटसंख्या प्रश्नानां च संख्या प्रथमपुटस्य प्रारम्भे प्रदत्तसंख्या समाना न वा। आज्ञाचक्र दोनों भौहों के बीच में होता है।,आज्ञा भ्रूद्वयमध्ये। तीसरे दिन यज्ञस्थल की पूर्व दिशा में प्राग्वंश-नामक महा वेदी का निर्माण होता है।,तृतीयदिवसे यज्ञस्थलस्य पूर्वदिशि प्राग्वंशनामिका महावेदी निर्मीयते। वहाँ पर भी सत्त्वरजतमोगुणमय अज्ञान से तथा सत्वगुण के प्राधान्य अन्तः करण उत्पन्न होता है।,तत्रापि सत्त्वरजस्तमोगुणमयाद्‌ अज्ञानाद्‌ सत्त्वगुणस्य प्राधान्येन उत्पन्नमन्तःकरणम्‌। इस याग में सोम लता का रस ही प्रधान आहुति द्रव्य है।,अस्मिन्‌ यागे सोमलतायाः रस एव प्रधानम्‌ आहुतिद्रव्यम्‌। पपाद यहाँ पर किस अर्थ में लिट्‌ है?,पपाद इत्यत्र कस्मिन्नर्थे लिट्‌ ? उदात्त का लोप उदात्तलोप यहाँ षष्ठीतत्पुरुष समास है।,उदात्तस्य लोपः उदात्तलोपः इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। जप क्या है?,को जपः? और पति शब्द उत्तरपद है।,पतिशब्दश्च उत्तरपदम्‌ अस्ति। "यहाँ अदेवन-शब्द से उसका अर्थ ग्रहण किया है, अदेवन नाम द्यूत क्रिया को छोड़्कर।","अत्र अदेवन-शब्देन तदर्थः गृह्यते, अदेवनं नाम अद्यूतक्रिया।" तब वह उपासना में अन्तर्भाव्य होता है।,तदा सा उपासनायाम्‌ अन्तर्भवति। "““पूर्वापशधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे'', “' अर्धनपुंसकम्‌'' इस षष्ठी समास का अपवादभूत समास विधायक दो सूत्रों की व्याख्या की गई है।","""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"", ""अर्धं नपुंसकम्‌"" इति षष्ठीसमासापवादभूतं समासविधायकं सूत्रद्वयं व्याख्यातम्‌।" उस श्रद्धा के द्वारा गार्हपत्य आदि अग्नि को प्रज्वलित करते हैं।,तया श्रद्धया अग्निः गार्हपत्यादिः समिध्यते संदीप्यते। इस सूक्त में विष्णु की शक्ति को प्रकट किया गया है।,अस्मिन्‌ सूक्ते विष्णोः वीर्यता प्रकटिता। हजार रश्मिरूप रुद्र कौन हे?,सहस्ररश्मिरूपो रुद्रः कः? उसके लाभ का प्रमाण क्या है?,तल्लाभस्य प्रमाणं किमिति । एक सौ तीस (१३०)।,त्रिंशदुत्तरशतम्‌(१३०)। यह अमृतत्व अर्थात देवत्व के ईशानः:- स्वामी है।,उत अपि चामृतत्वस्य देवत्वस्यायम्‌ ईशानः स्वामी। अत इसकी निन्दा इस वाक्य में है - अमेध्या वै माषा (तै. सं. ५/१/८/१)।,अतः अस्य निन्दा अस्मिन्‌ वाक्ये अस्ति - अमेध्या वै माषा (तै. सं. ५/१/८/१)। विष्णुसूक्त में भी विष्णुदेवता की स्तुति की गई है।,विष्णुसूक्ते अपि विष्णुदेवतायाः स्तुतिः विहिता। अभ्यस्तानामादिः इस सूत्र कौ व्याख्या कीजिए।,अभ्यस्तानामादिः इति सूत्रं व्याख्यात। 8 आत्मा के पाँच कोश के अतिरिक्त प्रबन्ध की रचना कीजिए।,8 आत्मनः पञ्चकोशातिरिक्तत्वे प्रबन्धमारचयत। षूञ्‌ प्राणिगर्भविमोचने धातु है।,षूञ्‌ प्राणिगर्भविमोचने। इसके बाद उपपद समास “'उपपदमतिङ्'' से किया गया है।,"तत उपपदसमासः "" उपपदमतिङ्‌ "" इत्यनेन सूत्रेण विधीयते ।" सूत्र का अर्थ- गत्तिसंजञक के परे रहते गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - गतौ परतः गतिः अनुदात्तः भवति। इसलिए उनसे उत्पन्न सुख ही अनित्य ही होता है।,अतः ततः जन्यं सुखम्‌ अपि अनित्यम्‌। यहाँ वषट्कारः इस पद से वौषट्‌ इस अव्ययपद को ग्रहण करते है।,अत्र वषट्कारः इति पदेन वौषट्‌ इति अव्ययपदं गृह्यते। कृष्णं श्रितः इस लौकिकविग्रह में कृष्ण अम्‌ श्रित सु इस अलौकिक विग्रह में द्वितीया पद का प्रथमानिदिष्ट होने से उस बोध का कृष्ण अम्‌ इसका “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपर्जनम्‌'' इससे उपसर्जन संज्ञा होती है।,"कृष्णं श्रितः इति लौकिकविग्रहे कृष्ण अम्‌ श्रित सु इत्यलौकिकविग्रहे द्वितीया इति पदस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्वोध्यस्य कृष्ण अम्‌ इत्यस्य ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेन उपसर्जनसंज्ञा भवति।" "न यह अव्ययपद है, अनुत्तमम्‌ चिदुत्तरं किवृत्त . . ये सूत्र का अन्वय है।","न इति अव्ययपदम्‌, अनुत्तमम्‌ चिदुत्तरं किंवृत्तं तिङन्तं न अनुदात्तम्‌ इति सूत्रान्वयः।" इसलिए तत्वज्ञान के बाद प्रपञ्च वस्तुओं के ऊपर उसका औदासीन्य होता है।,अतः तत्त्वज्ञानात्‌ परं प्रपञ्चस्य वस्तूनाम्‌ उपरि तस्य औदासीन्यं भवति। प्राचीन गद्य उपनिषद्‌ में कौन से उपनिषद्‌ आते हैं?,प्राचीनगद्योपनिषदि काः उपनिषदः अन्तर्गताः। तब फिर मृत्युलोक में जन्म होता है।,तदा पुनः मर्त्यलोके जन्म भवति। उनकी भी शान्ति की कामना की जाती है।,तस्यापि शान्तिः काम्यते। तत्पुरुष समास के बहुत से भेद होते हैं।,तत्पुरुषसमासस्य बहवः भेदा भवन्ति। समास पदविधियों में अन्यतम है।,समासः पदविधिषु अन्यतमः। "“'प्रत्ययः'', “परश्च, “*ङऱयाप्प्रातितेपदिकात्‌'', “ तद्धिताः” ये चारों अधिकृत सूत्र हैं।","""प्रत्ययः"", ""परश्च"", ""ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌"", ""तद्धिताः"" इति सूत्रचतुष्टयमधिकृतम्‌ ।" यहाँ कौनसी क्रिया है।,अत्र का क्रिया। "उपर्युक्त आवली में दोनों प्रकारों के षडह का उल्लेख दिखाई देता है, अभिप्लव षडह और पृष्ठ्य षडह।","उपर्युक्तायाम्‌ आवल्यां प्रकारद्वयस्य षडहस्य उल्लेखो दृश्यते , अभिप्लवषडहः पृष्ठ्यषडहश्च ।" उसकी अपेक्षा कुमार का शरीर भिन्न होता है।,तदपेक्षया कुमारस्य शरीरं भिन्नमस्ति। जात्वपूर्वम्‌ इस सूत्र से अपूर्वम्‌ इस प्रथमान्त सुबन्त पद की अनुवृति है।,जात्वपूर्वम्‌ इति सूत्रात्‌ अपूर्वम्‌ इति प्रथमान्तं सुबन्तं पदम्‌ अनुवर्तते। सुसारथिरिति सु-सारथिः।,सुसारथिरिति सु - सारथिः। "“ शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानाम्‌ "" इस वार्तिक का क्या अर्थ है?",""" शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌ "" इति वार्तिकस्यार्थः कः।" सभी विषयों का उपरमत्व होने से यह सुषुप्ति के रूप में भी जाना जाता है।,सर्वेषां विषयाणामिह उपरमत्वात्‌ सुषुप्तरिति नाम। इस अज्ञान से ही भ्रान्ति होती है।,अस्माद्‌ अज्ञानात्‌ भ्रान्तिर्भवति। राजा सोम यजमानों के मान्य अतिथि हैं।,राजा सोमः यजमानानां मान्यः अतिथिः वर्तते। अर्थात्‌- हे पृथानन्दन !,स यहाँ पर कर्त्तरि इस पद को षष्ठी इस अनुवृन्त पद के साथ अन्वय होता है।,अत्र कर्तरि इति पदं षष्ठी इति अनुवृत्तपदेन सह अन्वेति। इस आरण्यक में महाव्रत के पांचवे दिन में प्रयुक्त होने वाली महानाम्न ऋचा है।,अस्मिन्‌ आरण्यके महाव्रतस्य पञ्चमे दिने प्रयोक्तव्या महानाम्न्यः ऋचः सन्ति। लोमादित्व से पुस्त्व के लक्षण प्रतिफलित होते हैं।,लोमादिमत्त्वं पुंस्त्वस्य लक्षणं प्रतिफलति। इस अध्याय में रुद्र की कल्पना के लिये वेद वेदागों सहित विवेचना की है।,अस्मिन्‌ अध्याये रुद्रस्य कल्पनायाः साङ्कोपाङ्गविवेचनमस्ति। ' ( ऋग्वे. १०/५८ ) एक सूक्त में भिषग ऋषि ने औषधियों की भव्य स्तुति को सम्मुख रखा - “याः फलिनीर्या अफला अपुष्या याश्च पुष्पिणीः।,(ऋग्वे. १०/५८) एकस्मिन्‌ सूक्ते भिषगृषिः औषधीनां भव्यस्तुतिं समुपस्थापयति- 'याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। इसलिए अज्ञान का नाश होने पर अज्ञान कार्य वृत्ति का भी नाश हो जाता है।,अतः अज्ञाने नाशे सति अज्ञानकार्यस्य वृत्तेरपि नाशः भवति। "रूढी से प्रशंसावाचक समानाधिकरण सुबन्तों से जातिवाचक सुबन्त को समास होता है, और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।","रूढ्या प्रशंसावाचकैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः जातिवाचकं सुबन्तं समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग तथा राजयोग इस प्रकार से ये योग चतुष्टय भारतीय दर्शनों में प्रसिद्ध है।,कर्मयोगः ज्ञानयोगः भक्तियोगः राजयोगः चेति योगचतुष्टम्‌ भारतीयदर्शने नितरां प्रसिद्धम्‌। यहाँ वषट्कारः इसमें कार शब्द का कैसे ग्रहण किया है इस विषय में अनेक मत हैं।,अत्र वषट्कारः इत्यत्र कारशब्दस्य कथं ग्रहणं कृतम्‌ इति विषये बहूनि मतानि सन्ति। 5. सगुणब्रह्मोपासना तथा निर्गुणब्रह्मोपासना इन दोनों के मध्य मोक्ष का साधन क्या होता है?,5 सगुणब्रह्मोपासना निर्गुणब्रह्मोपासना इति द्वयोः मध्ये का साक्षात्‌ मोक्षस्य साधनम्‌। अग्निष्टोम में मुख्य आहुति कौन सी है?,अग्निष्टोमे मुख्या आहुतिः का ? ये इसके अर्थ हो सकते है।,इति इमे अर्थाः सम्भवन्ति। यज्ञ के लिए उपयुक्त मनुष्य कौन नहीं है?,यज्ञाय अनुपयुक्तो जनः कः? और उससे ही वे कर्मो के शुभ अशुभ फल को भोगते है।,तेन च ते तेषां कर्मणां शुभाशुभं फलम्‌ उपभुञ्जते। इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं तो सुखदुःखादि जिस प्रकार से प्रत्यक्ष होता उसी प्रकार सुखदुःखादि की स्मृति भी प्रत्यक्ष होती है इस प्रकार से अङ्गीकार करना चाहिए।,इन्द्रियजन्यं ज्ञानमेव प्रत्यक्षम्‌ इति स्वीक्रियते चेत्‌ सुखदुःखादिकं यथा प्रत्यक्षं भवति तथैव सुखदुःखादादीनां स्मृतिरपि प्रत्यक्षा भवति इति अङ्गीकार्यम्‌। भले ही लोक व्यवहार से लोग देखते हैं की जीवन्मुक्त पुरुष भी अज्ञानबद्ध पुरुषों के जैसे ही व्यवहार करते हैं फिर भी जादुगर के जादु के समान मिथ्या ही होता है।,यद्यपि व्यवहारतः जनाः पश्यन्ति जीवन्मुक्ताः पुरुषाः अज्ञानबद्धाः पुरुषाः इव व्यवहरन्ति तथापि यातुकारस्य इन्द्रजालवत्‌ तत्‌ मिथ्या एव। इसलिए आचार्य वासुदेव दीक्षित के द्वारा कहा गया है - “ फिडिति पूर्वाचार्यप्रसिद्धया प्रातिपदिकमुच्यते'।,अत एव उच्यते आचार्येण वासुदेवदीक्षितेन- 'फिडिति पूर्वाचार्यप्रसिद्ध्या प्रातिपदिकमुच्यते' इति। नखनिर्भिन्नः यहाँ पर पूर्वपद को प्रकृतिस्वर किस सूत्र से होता है?,नखनिर्भिन्नः इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं केन सूत्रेण? सभी दर्शन प्रमाण के विषय में अपने मत को स्थापित करते हैं वेदांती भी उसी प्रकार अपने मध्य पर दृढ़ हैं इसलिए अद्वैत वेदांत के मत में कितने प्रमाण हैं इसका भी इस पाठक्रम में विशिष्ट वर्णन है इस तरह के बहुत सारे पाठ्यक्रम छात्रों के हित के लिए निर्मित हैं।,सकलानि दर्शनानि प्रमाणविषये स्वमतम्‌ अभ्युपगच्छन्ति। वेदान्तिनोऽपि तथैव स्वमते दृढाः सन्ति। अतः अद्वैतवेदान्तमते कानि प्रमाणानि इत्यपि अस्यपाठ्यक्रमस्य वैशिष्ट्यम्‌ इत्थम्‌ बहुभिः प्रकारैः पाठ्यक्रमः छात्रहिताय निर्मितः। 11. अनुबन्धों में सम्बन्ध को उपस्थापित कोजिए।,११. अनुबन्धेषु सम्बन्धः उपस्थाप्यः। "और सूत्र का अर्थ होता है-नञ्‌ सुबन्त के साथ समास होता है, और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","एवं सूत्रार्थः भवति - "" नञ्‌ सुबन्तेन सह समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति "" इति ।" कार्तश्च कौजपश्च इस विग्रह में हन्द्वदसमास करने पर कार्तकौजपौ यह रूप है।,कार्तश्च कौजपश्च इति विग्रहे द्वन्द्वसमासे कार्तकौजपौ इति रूपम्‌। मुख्य रूप से वेदार्थ को जानने वाला निर्मलचित्त एकाग्रचित्त तथा साधनचतुष्य से सम्पन्न अधिकारी के रूप में गिना जाता है।,मुख्यत्वेन वेदार्थविद्‌ निर्मलचित्तः एकाग्रचित्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः अधिकारी गण्यते। किस प्रकार का जल।,कीदृशस्य आपः। भसंज्ञा में “पाद पत्‌' (पा०सू० ६. ४.१३०) से पद्भाव।,भसंज्ञायां 'पाद पत्‌' (पा०सू० ६. ४.१३०) इति पद्भावः। अनुष्ठान के और हवनीय द्रव्यों के देवताओं की बहुत प्रशसा से ब्राह्मणों के शरीर में वृद्धि हुई।,अनुष्ठानस्य हवनीयद्रव्यस्य च देवतानां भूयसीप्रशंसातः ब्राह्मणानां शरीरं वृद्धिं गतम्‌। प्रौक्षन्‌ रूप कैसे सिद्ध हुआ?,प्रौक्षन्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। लौकिक छन्दों में कितने चरण होते है?,लौकिकच्छन्दसि कति चरणाः? अहं सुवे पितरमस्य ... इत्यादिमन्त्र कौ व्याख्या करो।,अहं सुवे पितरमस्य... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। हे सखा सुनो।,हे श्रुत विश्रुत सखे श्रुधि। "जब वेद वाक्यों में सन्देह, ज्ञात अर्थ का बोध, बाधा इत्यादि दोष नहीं रहते तब वाक्य को प्रमाण रूप से मानते है।","यदा वेदवाक्येषु सन्देहः, ज्ञातस्य अर्थस्य ज्ञापनम्‌, बाधा इत्यादयः दोषाः न तिष्ठन्ति तदा वेदवाक्यं प्रमाणरूपेण गण्यते।" सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ मेरिरे यह तिङन्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र मेरिरे इति तिङन्तं पदम्‌ अस्ति। उसके बाद ` अङऱगेर्नलोपश्च' इस सूत्र से नि-प्रत्यय होने पर इस धातु का इकार इत होने से (अगि-धातु इकार इत्संज्ञक है) इदितो नुम्‌ धातोः इससे नुम आगम और अनुबन्ध लोप होने पर इस स्थिति में नकार का उससे ही (अङऱगेर्नलोपश्च) सूत्र से लोप होने पर अग्नि शब्द निष्पन्न होता है।,"ततः अङ्गर्नलोपश्च इति सूत्रेण नि-प्रत्यये, अस्य धातोः इदित्त्वाद्‌ (अगि-धातोः इकारः इत्संज्ञकः) इदितो नुम्‌ धातोः इत्यनेन नुमागमे अनुबन्धलोपे स्थितस्य नकारस्य तेनैव (अङ्गेर्नलोपश्च) सूत्रेण लोपे अग्निशब्दः निष्पद्यते।" "वह ही केवल गृहपति कहलाती है, क्योंकि कहा जाता है की, वह अतिथिरूप से यजमानों के एक घर से दूसरे घर की तरफ जाती है।","स एव केवलं गृहपतिरित्युच्यते, उच्यते यत्‌, सोऽतिथिरूपेण यजमानानां गृहाद्‌ गृहान्तरं व्रजति।" इसलिए अविद्यापूर्वक कर्म के होने से ही शुभ तथा अशुभ का क्षयकारण विशेष होता अशेषत होने से नित्याकर्मों का अनुष्ठान नहीं होता हे।,"अतश्च अविद्यापूर्वकस्य कर्मणः विद्यैव शुभस्य अशुभस्य वा क्षयकारणम्‌ अशेषतः, न नित्यकर्मानुष्ठानम्‌।" यथा-राज्ञः पुरुषः उन दोनों राजपुरुष पदों में अर्थो के मध्य परस्पर सम्बन्ध होता है।,यथा राज्ञः पुरुषः इत्यादौ राजपुरुषपदयोः अर्थयोः मध्ये परस्परं सम्बन्धः अस्ति। अतः तदन्त विधि में नकारान्त का होता है।,अतस्तदन्तविधौ नकारान्तस्येति भवति। यह प्रपाठक आरण्यक का परिशिष्ट भाग है।,अयं प्रपाठकः आरण्यकस्य परिशिष्टभागः वर्तते। "यदि माता अपने रक्त-मांस के एक भाग को एक नवजातक के निर्माण के लिए नही छोड़ती, प्रसव वेदना को सहन नहीं करती, नवजातक को दुग्ध नहीं पिलाती, पालन-पोषण आदि में यत्न नहीं करती, सब निःस्वार्थ भाव से नहीं करती, तो मनुष्यों का जीवन सम्भव नहीं है।","यदि माता स्वस्य रक्त-मांसेभ्यः भागम्‌ एकम्‌ एकस्य नवजातकस्य निर्माणाय न त्यजति, प्रसववेदनां न सहते, नवजातकं दुग्धं न पाययति, पालन-पोषणादिषु आयासं न करोति, सर्वं निःस्वार्थभावेन नैव करोति, तर्हि मनुष्याणां जीवनं नैव सम्भवति।" बृहदारण्यकोपनिषद मे कहा गया है कि “मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति हृदयेन हि रूपाणि जानाति” (1/5/3) यहाँ पर मन आदि शब्द के द्वारा चैतन्य रूप प्रज्ञान को ही कहा है।,बृहदारण्यकोपनिषदि आम्नायते “मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति हृदयेन हि रूपाणि जानाति” (१/५/३) इत्यत्र मनःआदिशब्देन चैतन्यरूपं प्रज्ञानमेव उक्तम्‌। सूत्र की व्याख्या- छ: प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह अतिदेश सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु अतिदेशसूत्रमिदम्‌। “ शमस्तावत्‌ श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः मनसः निग्रहः” इस प्रकार से वेदान्तसार में कहा गया है।,“शमस्तावत्‌ श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः मनसः निग्रहः” इति उक्तं वेदान्तसारे। अग्निर्होता कविक्रतुः ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अग्निर्होता कविक्रतुः... इत्यादिमन्त्रस्य व्याख्यात। अतः सन्नतर इसका अर्थ अनुदात्ततर है।,अतः सन्नतर इत्यस्य अनुदात्ततरः इत्यर्थः। इस प्रकार उद्देश्य को लक्षित करके व्यास ने पैल को ऋग्वेद पढ़ाया।,एनमुद्देश्यमभिलक्ष्य व्यासः पैलाय ऋग्वेदं पाठयामास। "जो पृथिवी सम्बद्ध अग्नि, वायु आदि का निर्माण किया।",यः पृथिवीसम्बद्धानि अग्निवाय्वादीनि निर्मितवान्‌। "हे रुद्रदेव बालकों का युवाओं का गर्भस्थ शिशु को, हमारे गुरु, पितृव्य आदि, माता-पिता और अपने सगे सम्बन्धियों का नाश मत करिए।","हे रुद्रदेव बालं तरुणं गर्भस्थं शिशुम्‌, अस्माकं गुरुपितृव्यादिकं, पितरं मातरं स्वजनान्‌ च न विनश्येः।" मात्र अर्थ में विद्यमान प्रति के साथ समर्थ का सुबन्त की अव्ययीभाव समास संज्ञा होती है।,मात्रार्थं विद्यमानेन प्रतिना सह समर्थं सुबन्तम्‌ अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति। 1.2 “प्राक्कडारात्‌ समासः '' सूत्रार्थः -'' कडाराः कर्मधारय'' इस सूत्र से प्राकृ समास यह अधिकार है।,"१.२ ""प्राक्कडारात्‌ समासः"" सूत्रार्थः - ""कडाराः कर्मधारये"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक समासः इत्यधिकारः अस्ति।" (गीता.18.5) यज्ञ दान तथा तप इस प्रकार से ये तीनों तपों का त्याग नहीं करना चाहिए अर्थात्‌ यह कार्य हमेशा करना चाहिए।,"(गीता.१८.५) यज्ञः दानं तपः इत्येतत्‌ त्रिविधं कर्म न त्याज्यं न त्यक्तव्यम्‌, कार्यं करणीयम्‌ एव तत्‌।" निदिध्यासन तथा समाधि के स्वरूप के विज्ञान के बिना उन दोनों के ऐक्य में अनेक्य प्रतिपादन नहीं कर सकते है।,निदिध्यासन-समाध्योः स्वरूपविज्ञानं विना न हि तयोरैक्यम्‌ अनैक्यं वा प्रतिपादयितुं शक्यते। प्राप्त हुआ यह उसका अर्थ है।,गन्तारः इति तदर्थः। व्याख्या - पूर्वमन्त्र में त्वाम्‌ उपैम इससे अग्नि को उद्दिश्य करके कहा है।,व्याख्या- पूर्वमन्त्रे त्वाम्‌ उपैम इत्यग्निम्‌ उद्दिश्य उक्तम्‌। सूत्र में कडारापद से “कडारा कर्मधारये” सूत्र से ग्रहण किया गया है।,"सूत्रे कडारपदेन ""कडाराः कर्मधारये"" इति सूत्रस्य ग्रहणम्‌।" अतः पर सुब्रह्मण्या + ओम्‌ इस अवस्था में ` ओमाङोश्च' इससे पररूप ओंकार होने पर ' सुब्रह्मण्योम्‌' इस शब्द का निपात अन्त होने से और उस निपात का “निपाता आद्युदात्ताः' इस सूत्र से आद्युदात्त होने से और वहाँ आकार के और ओकार के स्थान में विहित ओंकार का ही स्वरित स्वर होता है।,अतः परं सुब्रह्मण्या + ओम्‌ इत्यवस्थायाम्‌ 'ओमाङोश्च' इति पररूपे ओकारे जातस्य सुब्रह्मण्योम्‌ इति शब्दस्य निपातान्तत्वात्‌ तस्य च निपातस्य निपाता आद्युदात्ताः इति सूत्रेण आद्युदात्तत्वात्‌ तत्र च आकारस्य ओकारस्य स्थाने विहितस्य ओकारस्य स्वरितस्वरः भवति। 11.4.2 ) प्राकृत प्रलय प्राकृतप्रलय हिरण्यगर्भ विनाशक निमित्त अखिल कार्यों के नाश होने पर होता है।,११.४.२) प्राकृतप्रलयः प्राकृतप्रलयः नाम हिरण्यगर्भविनाशनिमित्तकः अखिलकार्यानां नाशः। (नैष्कर्म्यसि.1.41) जब तक कोई उपाय नहीं किया जाता है।,(नेष्कर्म्यसि.१.४१)यावत्‌ कश्चिदुपायः न क्रियते । 10. जीवन्मुक्ति तथा विदेहमुक्ति में क्या हेतु है?,१०.जीवन्मुक्तिः विदेहमुक्तेः हेतुः अस्ति वा? "यद्यपि लौकिक काव्य अनेक हैं, फिर भी विद्वानों को वैदिक वाङ्मय में ही अधिक आनन्द प्राप्त होता है।",यद्यपि लौकिकानि काव्यानि बहूनि सन्ति तथापि विद्वांसः वैदिकवाड्मये एव अधिकम्‌ आह्लादं प्राप्नुवन्ति। इस अर्थ में निरुक्त में कहा गया - 'मृगो न भीम: कुचरो गिरिष्ठाः'।,अस्मिन्नर्थे निरुक्तं- “मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः | इस सूत्र से समानाधिकरण के तत्पुरुष के कर्मधारय संज्ञा होती है।,अनेन सूत्रेण समानाधिकरणस्य तत्पुरुषस्य कर्मधारयसंज्ञा विधीयते । ये अज्ञानियों की दृष्टि में जगत्‌ तथा ज्ञानियों की दृष्टि में वो पुरुष ही हैं।,"एतेन अज्ञानिनां दृष्ट्या यज्जगत्‌, ज्ञानिदृशा तत्पुरुष एव।" याग में हि अभीष्टदेव को उद्दिश्य करके हवि के त्याग के द्वारा उसके अनुकूल से यजमान अपनी इच्छाओं की प्राप्ति करते हैं।,यागे हि अभीष्टदेवमुद्दिश्य हविस्त्यागेन तदानुकूल्याद्‌ इष्टप्राप्तिर्घटते यजमानानाम्‌। अहमेव स्वयमिदम्‌ ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अहमेव स्वयमिदम्‌... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। बन्धन से मोक्ष की प्राप्ति तक जो भी साधन हैं उनका क्या क्रम होता है।,"तथा च बन्धात्‌ मोक्षं यावत्‌ कानि साधनानि सन्ति, तेषां कः क्रमः वर्तते।" विष्णु ङसु अनु यह लौकिक विग्रह है।,विष्णु ङस्‌ अनु इत्यलौकिकविग्रहश्च। उनमें से एक उपाय है पञ्चकोश की कल्पना।,तेषु एक उपायो भवति पञ्चकोशकल्पनम्‌। मल की निवृत्ति के लिए निष्कामकर्मभूत यज्ञादि के द्वारा मल का निवारण करना चाहिए।,मलनिवृत्त्यर्थं निष्कामकर्म भूतयादि च मलं निवर्तयेत्‌। “तद्धितेष्वचामादेः'' ( 7.2.116 ) सूत्रार्थ-जित्‌ (ञ की इत्संज्ञा) और (णकार की इत्संज्ञा) होने पर तद्धित पर में अचों में आदि अच्‌ की वृद्धि होती है।,तद्धितेष्वचामादेः॥ (७.२.११७) सूत्रार्थः - ञिति णिति च तद्धिते परे अचाम्‌ आदेः अचो वृद्धिः भवति । "2. होता, पोता, मैत्रावरुण, ग्राववरुण, ब्राह्मणाच्छंदसी, आच्छावाक्‌ और अग्नीद।","होता, पोता, मैत्रावरुणः, ग्राववरुणः, ब्राह्मणाच्छंदसी, आच्छावाक्‌ एवम्‌ अग्नीदः।" परन्तु इस सूक्त में उस प्रकार की कोई कल्पनादि विद्यमान नही है।,परन्तु अस्मिन्‌ सूक्ते तथाविधं किमपि कल्पनादिकं न विद्यते। 4 मा हिस्यास्त सर्वभूतानि इस प्रकार से।,४. मा हिंस्यात्‌ सर्वा भूतानि इति। किसर उपनिषद में तेज प्रमुखों की सृष्टि प्रतिपादित की गई हे?,कस्याम्‌ उपनिषदि तेजःप्रमुखा सृष्टिः प्रतिपाद्यते। "वैसे हि वस्‌ अश्वाः इति स्थिति में `ससजुषो रुः' इससे पदान्त के सकार को रुत्व, अनुबन्ध लोप होने पर व अश्वाः यह स्थिति हुई ` अतो रोरप्लुतादप्लुते' इस सूत्र से अप्लुत अकार से पर रु के अप्लुत अकार परक होने से उत्वे व उ अश्वाः इस प्रकार की स्थिति होने पर आद्‌ गुणः इस सूत्र से पूर्व पर के उकार अकार के स्थान में ओकार रूप से गुण एकादेश वो अश्वाः ऐसा हुआ “एकः पूर्वपरयोः' इस अधिकार में पढने से “एङ: पदान्तादति' इस सूत्र से पूर्व पर के ओकार अकार के स्थान में ओकार रूप पूर्वरूप एकादेश होता है।",तथाहि वस्‌ अश्वाः इति स्थिते 'ससजुषो रुः' इति पदान्तस्य सकारस्य रुत्वे अनुबन्धलोपे वर्‌ अश्वाः इति जाते 'अतो रोरप्लुतादप्लुते' इति सूत्रेण अप्लुताद्‌ अकारात्‌ परस्य रोः अप्लुताकरपरकत्वात्‌ उत्वे व उ अश्वाः इति जाते आद्‌ गुणः इति सूत्रेण पूर्वपरयोः उकाराकारयोः स्थाने ओकाररूपे गुणैकादेशे वो अश्वाः इति जाते 'एकः पूर्वपरयोः' इत्यधिकारे पठितेन 'एङः पदान्तादति' इति सूत्रेण पूर्वपरयोः ओकाराकारयोः स्थाने ओकाररूपपूर्वरूपैकादेशः भवति। इस सूत्र में दो पद पुंबत्‌ और कर्मधारयजातीयदेशीयेषु हैं।,सूत्रे अस्मिन्‌ पदद्वयं पुंवत्‌ कर्मधारयजातीयदेशीयेषु चेति । लेकिन जीवन्मुक्ति के बाद जिसकी विदेहमुक्ति होती है उसका फिर जन्ममरणादि कार्य नहीं होते है।,"परन्तु जीवन्मुक्तेः अनन्तरं यस्य विदेहमुक्तिः भवति ,तस्य तु पुनः जन्ममराणादिकं न भवति।" इस ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त में सृष्टि प्रक्रिया यज्ञरूप में कल्पित है।,अस्मिन्‌ ऋग्वेदीयपुरुषसूक्ते सृष्टिप्रक्रिया यज्ञरूपेण कल्पिता। "“सप्तमी शौण्डैः"" इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये?","""सप्तमी शौण्डैः"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" "यच्च हि च तुश्च इति यद्धितु यहाँ समाहारद्वन्द समास है, उससे परे यद्धितुपरम्‌ यहाँ पञ्‌चमीतत्पुरुष समास है।","यच्च हि च तुश्च इति यद्धितु इति समाहारद्वन्द्वसमासः, तस्मात्‌ परं यद्धितुपरम्‌ इति पञ्चमीतत्पुरुषसमासः।" 40. द्विगु संज्ञा किसकी और किस सूत्र से होती है?,४०. द्विगुसंज्ञा कस्य केन च सूत्रेण? "“वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌'' सूत्रार्थ-पूज्यमान सुबन्त को वृन्दारक, नाग, कुञ्चर आदि से समान अधिकरणों से सुबन्त के साथ समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌ सूत्रार्थः - पूज्यमानं सुबन्तं वृन्दारकनागकुञ्जरेः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह वा समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" और उस उत्तरपद को पूर्व इस पद के साथ अन्वय किया गया है।,तच्च उत्तरपदं पूर्व इत्यनेन सह अन्वेति। इसलिए दर्शनों में श्रेष्ठ दर्शनों का ही सम विस्तारपूर्वक परिचय हो इस चिंतन के साथ अद्वैत वेदांत का प्रकरण अनुसार विभाग बना कर 12वीं कक्षा में कुछ प्रकरण स्थापित किए गए हैं।,अतः दर्शनेषु मूर्धन्यस्य दर्शनस्यैव सविस्तरं परिचयो भवतु इति धिया अद्वैतवेदान्तस्य प्रकरणशः विभागं परिकल्प्य द्वादश्याम्‌ उपन्यस्यन्ते। इसका सामान्य अर्थ ही उदात्त स्थान में जो यण्‌ किया है उस यण्‌ से पर वर्तमान अनुदात्त के स्थान में स्वरित होता है।,अस्य सामान्यः अर्थो हि उदात्तस्थाने यः यण्‌ विहितः तस्मात्‌ यणः परं वर्तमानस्य अनुदात्तस्य स्वरितः भवति। न्याय की भाषा अर्थात न्याय शास्त्र की शैली को जानता हो।,न्यायभाषाम्‌ अर्थात्‌ न्यायशास्त्रस्य शैलीं जानाति। जिसके द्वारा नित्यादिकर्मों उपासना तथा विवेक साधनाएँ की जाती है उसके द्वारा ही नित्यादि कर्म भी आगे त्यागे जाते हैं।,नित्यादिकर्माणि उपासनानि विवेकादिसाधनानि कृतानि तेन एव नित्यादिकर्माणि अपि अग्रे त्याज्यानि। उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित कहलाती है।,तदा तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवति। "सुनहरे रंग का, उदय काल में अत्यन्तलाल।",ताम्रः उदयेऽत्यन्तं रक्तः। इसी विषय को गीता की सहायता से आगे विस्तारपूर्वक कहा जाएगा।,अयमेव विषयः अग्रे गीतासाहाय्येन सविस्तरं वक्ष्यते। संबभूव - सम्पूर्वक भू-धातु से लिट उत्तमपुरुष एकवचन में संबभूव यह रूप बना।,संबभूव- सम्पूर्वकात्‌ भू-धातोः लिटि उत्तमपुरुषैकवचने संबभूव इति रूपम्‌। "अन्वय सहित प्रतिपदार्थ - पुरुषः = परमेश्वर या ब्रह्म, सहस्रशीर्षा = अनन्तमस्तकयुक्त, सहस्रशब्द बहुत्ववाची है।","सान्वयप्रतिपदार्थः - पुरुषः= परमेश्वरो ब्रह्म वा, सहस्रशीर्षा = अनन्तमस्तकयुतः, सहस्रशब्दोऽत्र बहुत्ववाची ।" आरुणि ने श्वेतकेतु को उपदेश दिया है की सच्चिदानन्द आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है।,आरुणिः श्वेतकेतुम्‌ उपदिष्टवान्‌ यत्‌ सच्चिदानन्द आत्मैव ब्रह्मस्वरूपः। "० बभूव - भू धातु से तिप्‌ णल्लिट्‌ (पा०सू० ३.१.१९३) प्रत्यय पूर्व को उदात्तत्व 'ईश ऐश्वर्य""।",बभूव - भवतेस्तिपि णलि लिटि (पा०सू० ३.१.१९३) इति प्रत्ययात्पूर्वस्योदात्तत्वम्‌। 'ईश ऐश्वर्य । अन्नमयादि कोशपरत्व होने पर भी उनके द्वारा तादात्म्य अध्यास से वह तत्‌ तन्मय हो जाता है।,अन्नमयादीनां कोशपरत्वेपि तैः तादात्म्याध्यासात्‌ तत्तन्मयो भवति। "( २.१.३४ ) सूत्र का अर्थ - यज्ञकर्म में मन्त्र एकश्रुति हो जाते है, जप न्यूङ्ख साम को छोड़कर।",(२.१.३४) सूत्रार्थः - यज्ञक्रियायां मन्त्र एकश्रुतिः स्याज्जपादीन्‌ वर्जयित्वा। शरदः समीप इस लौकिक विग्रह होने पर शरद्‌ ङस्‌ उप इसका अलौकिक विग्रह होने पर “अव्यय विभक्ति” इत्यादि सूत्र से अव्ययीभाव समास होने पर उपशरद शब्द निष्पन्न होता है।,"शरदः समीपमिति लौकिकविग्रह शरद्‌ ङस्‌ उप इत्यलौकिकविग्रहे ""अव्ययं विभक्ती'त्यादिना सूत्रेण अव्ययीभावसमासे उपशरद्‌ इति शब्दः निष्पद्यते।" प्रकरण में जिस वस्तु का प्रतिपादन किया जाता है उसी वस्तु का प्रमाणान्तर से अविषयीकरण करना अपूर्वता कहलाता है।,प्रकरणे यत्‌ वस्तु प्रतिपाद्यते तस्यैव वस्तुनः प्रमाणान्तरेण अविषयीकरणम्‌ अपूर्वता। "यहाँ पाणिपादम्‌, धानाशष्कुलि, शीतोष्णम्‌, अहिनकुलम्‌ इत्यादि उदाहरण है।","तत्र पाणिपादम्‌, धानाशष्कुलि, शीतोष्णम्‌, अहिनकुलम्‌ इत्यादिकम्‌ उदाहरणम्‌ ।" अत्‌-प्रत्यय के तकार कौ इत्संज्ञक होने से 'तित्स्वरितम्‌' इस सूत्र से अत्‌-प्रत्ययान्त के क्व-शब्द का अकार का स्वरित स्वर है।,अत्‌-प्रत्ययस्य तकारस्य इत्संज्ञकत्वात्‌ तित्स्वरितम्‌ इति सूत्रेण अत्‌-प्रत्ययान्तस्य क्व-शब्दस्य अकारस्य स्वरितस्वरः। 6. श्रद्धा को स्पष्ट कीजिए।,६. श्रद्धाम्‌ स्पष्ठीकुरुत। नित्य आदि निष्काम कर्मों के द्वारा चित्त की शुद्धि करनी चाहिए।,नित्यादिना निष्कामकर्मणा चित्तस्य शुद्धिः क्रियते। अतः वहाँ नपुसंक लिङ्ग में प्रथमा एकवचन है।,अतः तत्र क्लीबलिङ्गे प्रथमैकवचनम्‌। अतः विभक्तियों की अल्पता से लाघव होता है।,अतः विभक्तीनाम्‌ अल्पीयस्त्वात्‌ लाघवं भवति एव। और यह सुस्पष्ट है कि अधिहरि इस पद में विद्यमान अधि इस पूर्व पद के अर्थ की प्रधानता हेै।,एवञ्च इदं सुस्पष्टं यत्‌ अधिहरि इति पदे विद्यमानस्य अधि इति पूर्वपदस्यार्थस्य प्राधान्यम्‌ अस्ति। निर्दहन्ति - नि पूर्वक दह-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,निर्दहन्ति - निर्पूर्वकात्‌ दह्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । तथा एक विज्ञान के द्वारा सभी विज्ञान को जाना जाता है इस प्रतिज्ञा की भी हानि होती है।,एकविज्ञानेन सर्व विज्ञायत इतीयं प्रतिज्ञा हीयेत । आववर्त - आपूर्वकवृत्‌-धातु से लिट्‌-लकार प्रथमाबहुवचन में आववर्त यह रूप बना।,आववर्त- आपूर्वकवृत्‌-धातोः लिट्-लकारे प्रथमाबहुवचने आववर्त इति रूपम्‌। अतः प्रकृत सूत्र से विश्व शब्द अन्तोदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण विश्वशब्दः अन्तोदात्तः भवति। इस प्रकार से संशय विपर्यय के द्वारा प्रतिबद्ध निश्चयात्म ज्ञान ही यहाँ पर आपाततः वेदार्थज्ञान मानना चाहिए।,इत्थं संशयविपर्ययाभ्यां प्रतिबद्धं निश्चयात्मकं ज्ञानम्‌ अत्र आपाततः वेदार्थज्ञानमिति मन्तव्यम्‌। "वर्षा करने वाला पर्जन्य जब गर्जन करते हुए दुष्कर्मियो का नाश करते है, तो पाप रहित लोग भी उनसे डरते है।",यदा गर्जनं कुर्वन्‌ पर्जन्यः असुरान्‌ ताडयति तदा पापकर्म ये न कुर्वन्ति ते जनाः शक्तिशालिनः पर्जन्यात्‌ दूरम्‌ अपसरति । सप्तशती पाठ के अङ्गजप में भी तान्त्रिक विनियोग इसका जानना चाहिए।,सप्तशतीपाठाङ्गजपेऽपि तान्त्रिको विनियोगः अस्य वेदितव्यः। यहाँ पर कुछ भी नित्य नहीं होता है।,न नित्यं किञ्चिद्‌। अधीपूरण को कहते है।,अधिपूरणमिति कथ्यते। “पौर्वशालः'' यहाँ किस सूत्र से और वृद्धि कैसे होती है?,पौर्वशालः इत्यत्र केन सूत्रेण कथं च वृद्धिः ? विद्वांन इस शब्द के अनेकों अर्थ किये हैं।,विद्वांसः अस्य शब्दस्य अनेकान्‌ अर्थान्‌ कृतवन्तः । और उसका सुनना यह अर्थ है।,तस्य च श्रवणम्‌ इत्यर्थः। परन्तु आज भी वेद में स्वर की व्यवस्था अत्यधिक दिखाई देता है।,परन्तु सम्प्रति अपि वेदे तु स्वरस्य माहात्म्यं भूयशः परिलक्ष्यते। उससे ही वेद में भेषज और जलाष इन दो शब्द का रुद्रसम्पर्क में प्रयोग होता है।,तस्मादेव वेदे भेषज इति जलाष इति च शब्दद्वयं रुद्रसम्पर्क प्रयुक्तो भवति। अतः सपिषः इस षष्ठयन्त का सुबन्त का ज्ञान इससे सुबन्त के साथ “षष्ठी'' इस सूत्र से समास प्राप्त होने पर सपिषः का प्रतिपदविधानषष्ठयन्त होने से प्रोक्त वार्तिक से समास निषेध होता है।,"अतः सर्पिषः इति षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य ज्ञानम्‌ इत्यनेन सुबन्तेन सह ""षष्ठी"" इत्यनेन सूत्रेण समासे प्राप्ते सर्पिषः इत्यस्य प्रतिपदविधानषष्ठ्यन्तत्वात्‌ प्रोक्तवार्तिकेन समासनिषेधो भवति।" "अनुदात्त इसके हैं, इस अर्थ में अनुदात्त शब्द से ' अर्श-आदिभ्योऽच्‌' इस सूत्र से मत्वर्थीय-अच्‌ प्रत्यय होने पर अनुदात्त यह पद निष्पन्न होता है।",अनुदात्ताः अस्य सन्ति इत्यर्थे अनुदात्तशब्दात्‌ 'अर्श- आदिभ्योऽच्‌' इति सूत्रेण मत्वर्थीय-अच्प्रत्यये अनुदात्तम्‌ इति पदं निष्पद्यते। जैसे सुवर्णकुण्डलादि का ज्ञान होने पर उसके उपादान सुवर्ण का भी ज्ञान होता है।,यथा सुवर्णकुण्डलादिज्ञाने सति तदुपादानस्य सुवर्णस्य ज्ञानं भवति । उनको करने में शास्त्र प्रमाण क्या है इस प्रकार से इस स्थान पर अनेक प्रश्‍न उत्पन्न होते हैं।,तेषां करणे किं शास्त्रं प्रमाणम्‌ इति स्थाने एते प्रश्नाः। इसी ही शाखा के प्रथमकाण्ड के आठवे अध्याय में मनुमत्स्यकथा इस कथा को प्राप्त करता है।,अस्यामेव शाखायां प्रथमकाण्डस्य अष्टमाध्याये मनुमत्स्यकथा इति आख्यायिका पदं करोति। उस यूप के लिए यह लकडी है।,तस्मै यूपाय इदं दारु। इस पाठ में दो सूक्तो की आलोचना करते है।,अस्मिन्‌ पाठे द्वे सूक्ते आलोचिते। जन्म समय में स्वयं ही भीषण क्रन्दन करता है और भी जिसके- शब्द से सम्पूर्ण भुवन कम्पन करने लगता है वह रुद्र है।,जन्मसमये स्वयमेव भीषणं क्रन्दति अपि च तत्‌-शब्देन अखिलभुवनं यः कम्पयति सः रुद्रः। व्यकल्पयन्‌ - वि पूर्वक कघ्प्‌-धातु से णिच्‌ लङ् लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,व्यकल्पयन्‌- विपूर्वकात्‌ कुप्‌-धातोः णिचि लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। "रेचक, पूरक, कुम्भक इत्यादि के ह्वारा प्राण के निग्रह का उपाय प्राणायाम कहलाता है।",“रेचकपूरककुम्भकलक्षणाः प्राणनिग्रहोपायाः प्राणायामाः” । इन्द्र ऋग्वेद का सबसे अधिक लोकप्रिय देव है।,इन्द्रः ऋग्वेदस्य सर्वाधिकः लोकप्रियः देवः अस्ति। और सूत्र के पदों का अन्वय होता है - प्रकारादिद्विरुक्तौ परस्य अन्तः उदात्तः इति।,ततश्च सूत्रस्यास्य पदान्वयः भवति - प्रकारादिद्विरुक्तौ परस्य अन्तः उदात्तः इति। स्वस्तये - सुपूर्वक अस्‌-धातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में स्वस्तये यह रूप है।,स्वस्तये- सुपूर्वकात्‌ अस्‌-धातोः क्तिन्प्रत्यये चतुर्थ्यकवचने स्वस्तये इति रूपम्‌। यहाँ पर असि इस पद के द्वारा प्रत्यक्ष आत्मा तथा परमात्मा का ऐक्य सूचित किया गया है।,अत्र असीति पदेन प्रत्यगात्मपरमात्मनोः ऐक्यं सूचितम्‌। यहाँ कर्तरि पद सप्तम्यन्त एकवचनान्त है।,अत्र कर्तरि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। सूक्त में अग्नि के साथ इन्द्र की भी स्तुति प्राप्त होती है।,सूक्तेषु अग्निना सह इन्द्रस्यापि स्तुतिः प्राप्यते। अथवा न विद्यते योद्धा अस्य सः अयोद्धा यहाँ पर बहुव्रीहिसमास है।,अथवा न विद्यते योद्धा अस्य सः अयोद्धा इति बहुव्रीहिसमासः । यहाँ अविग्रह अथवा अस्वपदविग्रह नित्य समास होता है।,तत्र अविग्रहः अस्वपदविग्रहो वा नित्यसमासः। इसका अर्थ यह है कि सूक्ष्मशरीर के द्वारा जीवात्मा जानी जाती है इस कारण से सूक्ष्मशरीर लिङ्गशरीर कहलाता है।,अस्यार्थः सूक्ष्मशरीरेण जीवात्मा लिङ्ग्यते ज्ञाप्यते इति कारणात्‌ सूक्ष्मशरीरम्‌ लिङ्गशरीरमिति अभिधीयते। इस सम्पूर्ण जगत में परमात्म अंशत्व है।,अस्य सर्वस्य जगतः परमात्मलेशत्वम् । चौथे दिन निरूठ पशुबन्धयाग की प्रक्रियानुसार अग्नि और सोम को उद्देश्य करके एक पशुयाग विहित है।,चतुर्थदिवसे निरूठपशुबन्धयागस्य प्रक्रियानुसारम्‌ अग्निं सोमं च उद्दिश्य एकः पशुयागः विहितः। """द्वित्रिभ्यां ष मूर्ध्नः"" यह ष प्रत्यय विधायक सूत्र है।","""द्वित्रिभ्यां ष मूर्ध्नः"" इति षप्रत्ययविधायकम्‌।" ऋचाओं में बहुत से ऋषियों के द्वारा अनेक मधुर शब्दों से अनेक देवो की आदर से और भक्ति से स्तुति की गई है।,ऋक्षु बहुभिः ऋषिभिः विविधैः मधुरशब्दैः अनेके देवाः आदरेण भक्त्या च स्तुताः सन्ति। अनुदात्तम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अनुदात्तम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। कतर शब्द अन्तोदात्त होता है।,कतरशब्दः अन्तोदात्तः। 3. संन्यास के भेदों का वर्णन कीजिए।,3 संन्यासभेदः विशदनीयः। श्रुतियों ने इस प्रकार से उपदेश दिया है- “सत्यं वद” सत्य का महात्म्य मुण्डकोपिनिषद में इस प्रकार से बताया गया है- “सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।,श्रुतिरुपदिशति - “सत्यं वद” इति। सत्यस्य माहात्म्यं कीर्त्यते मुण्डकोपनिषदि - “सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः । “सप्तमी शौण्डैः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""सप्तमी शौण्डैः"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इनमें एक भी नहीं जानता तो वह किस प्रकार का वैद्य है?,एषु एकमपि न जानाति चेत्‌ कीदृशः स वैद्यः। और ज्ञान का आधार भी मन है।,किञ्च ज्ञानस्य आधारोऽपि मनः। इसलिए लक्षणा के द्वारा अश्रुत तीर्थ पद का ज्ञान अपेक्षित है।,अतः लक्षणया अश्रुतस्य तीरपदार्थस्य ज्ञामम्‌ अपेक्षितम्‌ । "19.3 देवीसूक्त का आशय मन्त्र तीन प्रकार के होते है परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत, और आध्यात्मिक।","१९.३) देवीसूक्तस्याशयः- त्रिविधा हि ऋचः परोक्षकृताः, प्रत्यक्षकृता, आध्यात्मिक्यश्च।" गोपाम्‌ - गायों की रक्षा करने वाला गोपा कहलाता है।,गोपाम्‌ - गां पाति इति गोपा। रात और दिन।,रात्रावहनि च। 34. निर्विकल्पकक समाधि की अङगभूत समाधि क्या है?,३४. निर्विकल्पकसमाधेः अङ्गभूतः समाधिः कः? शिवसङ्कल्पमिति शिव-सङ्कल्पम्‌। अस्तु॥२॥,शिवसङ्कल्पमिति शिव - सङ्कल्पम्‌। अस्तु॥२॥ देवों ने मुझे अनेक स्थानों से धारण किया है मैंने अपनी आत्मा का साक्षात्कार किया उस परं ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त किया।,चिकितुषी यत्‌ साक्षात्‌ कर्त्तव्यं परं ब्रहम तज्ज्ञातवती स्वात्मतया साक्षात्कृतवती। "मुखात्‌ = आननात, अग्निः = अनलः (वह्निः), अजायत = सरलार्थ - उस पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुआ, मुख से इन्द्र और अग्नि उत्पन्न हुए, प्राणों से वायु उत्पन्न हुई।","मुखात्‌ = आननात्‌, अग्निः = अनलः (वह्निः), अजायत = समुद्भूतः।तस्य पुरुषस्य मनसः चन्द्रमा उत्पन्नः, नेत्रात्‌ सूर्यः उत्पन्नः, मुखात्‌ इन्द्रः अग्निश्च उत्पन्नौ, प्राणेभ्यः वायुः उत्पन्नः।" उपसर्गपद से प्रादि का ग्रहण किया जाता है।,उपसर्गपदेन प्रादयो गृह्यन्ते। परिभाषा पद उपस्थित करता है।,परिभाषाः पदोपस्थापिकाः भवन्ति। "और उसके बाद प्रक्रिया कार्य में निगद: यह रूप सिद्ध होता है, यहाँ नि शब्द प्रकर्ष अर्थ में है।","ततश्च प्रक्रियाकार्ये निगदः इति रूपं सिद्धम्‌, अत्र निशब्दः प्रकर्षे अर्थ वर्तते।" इसलिए दृश्यमान प्रपञ्च मन से कल्पित ही होता है।,अतः दृश्यमानः प्रपञ्चः मनसा कल्पित एव। विभक्तिपद अधिकरणकारक बोधित होता है।,विभक्तिपदम्‌ अधिकरणकारकं बोधयति। 15. “तत्त्वमसि” इस महावाक्य में जहत्‌ लक्षणा किस प्रकार से नहीं है?,१५. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये कथं न जहल्लक्षणायाः सङ्गतिः भवति? अतः प्रकृत सूत्र से इन दोनों मन्त्र में उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों का विकल्प से एकश्रुति होती है।,अतः प्रकृतसूत्रेण मन्त्रद्वये अस्मिन्‌ उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणां विकल्पेन ऐकश्रुत्यं भवति। फिर दधिमिश्रित आज्य अर्थात्‌ घी बनाया।,तस्मात्‌ दधिमिश्रितमाज्यं सम्पादितम्‌। अर्थात्‌ प्रस्तुत शास्त्र के पठन से कोई प्रमा उत्पन्न होती है वह शास्त्रज्ञ प्रमा होती है।,अर्थात्‌- प्रस्तुतशास्त्रस्य पठनेन काचित्‌ प्रमा जायेत सा शास्त्रजप्रमा। इसी प्रकार की निरुक्ति स्वयं संहिता भाग में भी उपलब्ध होती है।,एतादृशी निरुक्तिः स्वयं संहिताभागे अपि उपलब्धा भवति। "इसका सामान्य अर्थ ही यदि सुबन्त से पर आमन्त्रितान्त पद रहता है, तो उस सुबन्त पद को समीप के आमन्त्रितान्त पद के अवयव के समान कार्य होता है।",अस्य सामान्यः अर्थो हि यदि सुबन्तात्‌ परम्‌ आमन्त्रितान्तं पदं तिष्ठति तर्हि तत्‌ सुबन्तपदं परवर्तिनः आमन्त्रितान्तपदस्य अवयववत्‌ भवति। इसलिए यहाँ पर जहत्‌ लक्षणा हो ऐसी आशङ्का के होने पर कहतें है कि ऐसा नहीं है।,अतः अत्र जहल्लक्षणा भवतु इति आशङ्कायां सत्याम्‌ उच्यते तत्‌ न भवति। यद्यपि सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (तै.आ.८.१; तै. उ. २.१) इस वचन का परब्रह्म के अभाव से पादचतुष्टय के निरूपण में असमर्थ है तथापि ये जगत ब्रह्म के स्वरूप की अपेक्षा से अल्प है विवक्षितत्वात्‌ पादत्वोपन्यासः।,यद्यपि 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तै०आ०८.१;तै० उ० २.१) इत्याम्नातस्य परब्रह्मण इयत्ताभावात्‌ पादचतुष्टयं निरूपयितुमशक्यं तथापि जगदिदं ब्रह्मस्वरूपापेक्षयाल्पमिति विवक्षितत्वात्‌ पादत्वोपन्यासः। "सरलार्थ - इस मन्त्र में इन्द्र को प्रति का गया है की हे इन्द्र तुम मेघों में प्रथम उत्पन्न को मारा, उसके बाद मायावी राक्षसों को मारा।","सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे इन्द्रं प्रति उच्यते यत्‌ हे इन्द्र त्वं अहीनां प्रथमोत्पन्नं हतवान्‌, तदनन्तरं मायाविनः राक्षसान्‌ हतवान्‌।" इसके बाद समास विधायक सूत्र में विशेषणम्‌ पद प्रथमानिर्देश से उनके बोध्य का नील सु इस पद कौ उपसर्जन से पूर्व निपात में नील सु उत्पलसु होता है।,ततः समासविधायकसूत्रे विशेषणम्‌ इत्यस्य प्रथमानिर्देशात्‌ तद्गोध्यस्य नील सु इति पदस्य उपसर्जनत्वेन पूर्वनिपाते नील सु उत्पल सु इति भवति । पुरुष के चक्षु से क्या उत्पन्न हुआ?,पुरुषस्य चक्षुषः कः जातः। वास्तविक रूप से अविद्या की ध्यान दें: हानि ही त्याग कहलाता है।,अविद्याहानिरेव त्यागः। "देव मनुष्य आदि रूप से जैसी उसकी स्थिति है, वैसे ही पर्णनी, हार आदिरूप से भी उसको ही प्रकट किया है।",देवमनुष्यदिरूपेण यथा तस्य स्थितिः तथा पर्णनीहारादिरूपेणापि स एव प्रकाशते। “छन्दोवत्सूत्राणि भवन्ति '' इस भाष्यवचन से “सुपां सुलुक'' इस सूत्र से तृतीया एकवचन का लोप होने पर तत्कृत रूप प्राप्त हुआ।,"""छन्दोवत्सूत्राणि भवन्ति"" इति भाष्यवचनात्‌ ""सुपां सुलुक्‌"" इत्यादिना सूत्रेण तृतीयैकवचनस्य लुकि तत्कृत इति रूपम्‌।" इसलिए यह प्राण आत्मा नहीं होता है।,अतः नायं प्राणः आत्मा। इष्टियाग की आलोचना में कहा गया कि यह कर्म ईडा भक्षण नाम से प्रसिद्ध है।,इष्टियागस्य आलोचनायाम्‌ उक्तं यदिदं कर्म इडाभक्षणम्‌ इति प्रसिद्धम्‌। "न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं, तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये यहाँ नञ्‌तत्पुरुष समास है।","न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं, तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये इति नञ्तत्पुरुषसमासः।" तृतीया यह प्रथमाविभक्ति एकवचनान्तपद है।,तृतीया इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। परन्तु अष्टाध्यायि में चितः इस सूत्र की अपेक्षा से इस सूत्र के परे होने से अन्त उदात्त स्वर को बांधकर इस सूत्र से आद्युदात्त स्वर होता है।,परन्तु अष्टाध्याय्यां चितः इति सूत्रापेक्षया अस्य सूत्रस्य परत्वात्‌ अन्तोदात्तस्वरं बाधित्वा अनेन सूत्रेण आद्युदात्तस्वरः। संस्कृत व्याकरण जगत में वैदिक व्याकरण और लौकिक व्याकरण विद्यमान है।,संस्कृतव्याकरणजगति वैदिकव्याकरणं लौकिकव्याकरणं च विद्यते। यह संशयाविरोधि निश्चयात्मक ज्ञान क्या होता है तो कहते हैं कि यदि निश्चय हो जाए तो संशय का निवारण हो जाता है।,किमिदं संशयाविरोधिनिश्चयात्मकं ज्ञानम्‌ यदि निश्चयः स्यात्‌ संशयो निवर्तते। यहाँ पर भागत्यागलक्षणा के द्वारा विरुद्धांशो के परित्याग से अविरुद्धचेतन्यमात्रत्व समझा जाता है।,अत्र भागत्यागलक्षणया विरुद्धांशपरित्यागेन अविरुद्धचैतन्यमात्रत्वम्‌ अवगम्यते। वैदिक व्याकरण के अनुसार से अर्थात्‌ निरुक्त के अनुसार से मित्रावरुण वायु कहलाते है।,वैदिकव्याकरणानुसारेण अर्थात्‌ निरुक्तानुसारेण मित्रावरुणौ वायू इति कथ्यते। श्रद्धा के द्वारा ही मनुष्य सम्पत्ति को प्राप्त करते है।,श्रद्धया एव मनुष्याः सम्पत्तिं प्राप्नुवन्ति। उक्षतु यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,उक्षतु इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? "द्वितीया तत्पुरुष का ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" यह विधायक सूत्र है।","द्वितीयातत्पुरुषस्य ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति विधायकं सूत्रम्‌।" "सूत्र अर्थ का समन्वय- गत्यर्थक अगि धातु के इकार की “उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌' इस सूत्र से इत्‌ संज्ञक है, अतः यह धातु इदित्‌ है।","सूत्रार्थसमन्वयः- गत्यर्थकस्य अगिधातोः इकारः ""उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌' इति सूत्रेण इत्संज्ञकः, अतः एष धातुः इदित्‌।" 3. कौन-कौन से कर्म नित्य कर्म होते हैं?,3. कानि नित्यानि कर्माणि। विवेकानन्द के वेदान्त का क्या नाम है?,किं नाम विवेकानन्दवेदान्तः? (गीता 5.17) सरलार्थ जो प्रकाशित हुआ परमज्ञान है उस परमार्थ तत्त्व में जिनकी बुद्धि जा पहुँची है वे तदबुद्धि हैं। वह परब्रह्म ही जिनका आत्मा है वे तदात्मा हैं । उस ब्रह्म में ही जिनकी निष्ठा दृढ़ आत्म भावना तत्परता है अर्थात्‌ जो सब कर्मों का संन्यास करके ब्रह्म में ही स्थित हो गये हैं वे तन्निष्ठ हैं।,॥ (गीता ५.१७)सरलार्थः- तस्मिन्‌ ब्रह्मणि गता स्थिता बुद्धिः येषां ते तद्बुद्धयः। तदात्मानः तदेव परं ब्रह्म आत्मा येषां ते तदात्मानः। तन्निष्ठाः निष्ठा अभिनिवेशः तात्पर्यं सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य तस्मिन्‌ ब्रह्मण्येव अवस्थानं येषां ते तन्निष्ठाः। इन समान फलदायक छः यागों का समूह दर्शपौर्ण मासयाग कहलाता है।,एतेषां समानफलदायकानां षण्णां यागानां समूहः दर्शपौर्णमासयागः इत्युच्यते। जुआ खेलना ही बुरा कर्म है।,अक्षक्रीडा हि गर्हितं कर्म । उन सबका कारण होने से में सम्पूर्ण भुवन में व्याप्त हूँ।,ततोऽहं कारणात्मिका सती सर्वाणि भूवनानि व्याप्नोमि। इस अवसर पर “शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपद लोपस्योपसंख्यानम्‌'' यह उत्तरपद लोप विधायक वार्तिक भी प्रस्तुत की गई है।,"एतदवसरे "" शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌ "" इत्युत्तरलोपसविधायकं वार्तिकमपि प्रस्तुतम्‌ ।" कुछ यज्ञ संवत्सर संबन्धित हैं।,केचन यज्ञाः संवत्सरसम्बन्धिनः सन्ति। "समास के तीन फल एकपद, एकस्वर और एक भाव होता है।",समासस्य फलत्रयम्‌ ऐकपद्यम्‌ ऐकस्वर्यम्‌ एकार्थीभावश्चेति। ' ( ऋग्वे. १०/९७/१५ ) एक सूक्त से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भी प्रजा ही राजा को चुनती थी।,(ऋग्वे. १०/९७/१५) एकस्मात्‌ सूक्तात्‌ ज्ञातो भवति यत्‌ प्राचीनकालेऽपि प्रजा एव राज्ञः वरणमकुर्वन्‌। प्रारब्ध रूप प्रतिबन्धक का कारण सामग्री में होने पर भी कार्य उत्पन्न नहीं होता है।,प्रारब्धरूपस्य प्रतिबन्धकस्य कारणात्‌ साम॒ऱ्यां सत्यामपि न कार्यम्‌ उत्पद्यते। 11. सङ्कल्पविकल्पात्मिका अन्तःकरण की प्रवृत्ति होती है?,सङ्कल्पविकल्पात्मिका अन्तःकरणवृत्तिः - इसी प्रकार मीमांसकदुर्दुरुटः इत्यादि इस सूत्र के उदाहरण है।,एवमेव मीमांसकदुर्दुरूटः इत्यादिकमेतस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ । इसलिए महाभारत में कहा गया है कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते।,तथाहि महाभारतवचः कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते। उक्षतु - उक्ष्‌-धातु से लोट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,उक्षतु- उक्ष्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने। वहाँ केवल मृत्तिका ही सत्य हेै।,तत्र मृत्तिका एव सत्यम्‌। जुआरियो को ऋण देने में भी भय लगता है।,कितवश्च ऋणदातुः बिभेति । इसलिए वह अन्तः करणोपाधिक होता हुआ विषयों को ग्रहण करता है।,अतः स अन्तःकरणोपाधिकः सन्‌ विषयान्‌ गृह्णाति। "उदाहरण - इसका उदाहरण है- कर्षः इति, दायः इति च।","उदाहरणम्‌- अस्य उदाहरणं भवति कर्षः इति, दायः इति च।" अमुया - अमुष्याम्‌ इस अर्थ में याच्य्रत्यय करने पर अमुया यह रूप है।,अमुया - अमुष्याम्‌ इत्यस्मिन्नर्थ याच्ग्रत्यये अमुया इति रूपम्‌। आचार्य उपसर्जन अन्तेवासी है आचार्योपसर्जनान्तेवासी।,आचार्योपसर्जनश्चासौ अन्तेवासी इति आचार्योपसर्जनान्तेवासी। निरुवाह - निर्‌ पूर्वक वह-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,निरुवाह - निर्पूर्वकात्‌ वह्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। बभूव - भूधातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,बभूव - भूधातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। अध्येषणा में लिङर्थे लेट्‌ (३.४.७)।,अध्येषणायां लिङर्थ लेट्‌ (३.४.७)। दर्शनों में वेदान्त का तथा वहाँ पर भी अद्वैत का स्थान सबसे अधिक प्रधान है।,दर्शनेषु वेदान्तस्य तत्राद्वैतस्य च स्थानम्‌ अतीवप्राधान्यमर्हति। वस्तुतः स्थूलत्वादि धर्म देह के होते है न की आत्मा के।,वस्तुतः स्थूलत्वादिधर्माः देहस्यैव नतु आत्मनः। विधि शब्द का क्या अर्थ है?,विधिशब्दस्य अर्थः कः। पूर्वे भूतपूर्वे इस सूत्र से पूर्व शब्द उत्तरपद रहते भूतपूर्ववाची अर्थ में तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।,पूर्व भूतपूर्वे इति सूत्रेण पूर्वशब्दे उत्तरपदे भूतपूर्वे अर्थ तत्पुरुषे पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं विधीयते। "उसके बाद कौथुमीय शाखा, राणायणीय शाखा, और जैमिनीय शाखा इन तीनों का सामवेदीय शाखाओं में विस्तार से आलोचना होगी।",। तदनन्तरं कौथुमीयशाखा राणायणीयशाखा जैमिनीयशाखा चेति तिसृणां सामवेदीयशाखानाम्‌ विस्तृता आलोचना भविष्यति। 10. तत्कृत इसका क्या अर्थ है?,१०. तत्कृत इत्यस्यार्थः कः? "व्याख्या - हे गिरिशन्त, आप जिस बाण को हाथ में धारण करते हो।","व्याख्या - हे गिरिशन्त, त्वं यामिषुं बाणं हस्ते बिभर्षि धारयसि।" विष्णु के चरित्र का एक विशेषहे की वह गर्भ के रक्षक है।,विष्णोः चरित्रस्य एकः विशेषः भवति यत्‌ स गर्भस्य रक्षकः। "सभी दर्शन, सम्पूर्ण शास्त्र, और सभी उपनिषद्‌ जिनका परम रहस्य भूत वेदों की सौन्दर्य सुधा को निरन्तर पीते हुए भी तृप्त नहीं होते हैं, उन वेदों का अनुशीलन करने का प्रयत्न किया है जैसे साकल्य, आत्रेय, गार्ग्य, स्कन्दस्वामी, माधवभट्ट, नारायण, उद्गीथ, वेङ्कटमाधव, आनन्दतीर्थ, भवस्वामी, गुरुदेव, क्षुर, भट्ट भास्करमिश्र, उव्वट, महीधर, भरतस्वामी, गुणविष्णु, सायण आदि ने प्रेम से और भक्ति से हमेशा ही प्रयास किया है, वैसे ही विदेशी विद्वानों ने भी वेद के अमृत को पीने के लिए उनकी व्याख्या करने का अथवा पढ़ने का प्रयत्न किया है।","सर्वाणि अपि दर्शनानि, सकलानि शास्त्राणि, सर्वाः च उपनिषदः येषां हि परमरहस्यभूतानां वेदानां सौन्दर्यसुधां सततं पिबन्त्यः अपि न तृप्यन्ति, तान्‌ वेदान्‌ अनुशिलयितुं यथा साकल्य-आत्रेय-गार्ग्य-स्कन्दस्वामि-माधवभट्ट-नारायण-उद्गीथ-वेङ्कटमाधव-आनन्दतीर्थ-भवस्वामि-गुरुदेव-क्षुर-भट्टभास्करमिश्र-उव्वट-महीधर-भरतस्वामि-गुणविष्णु -सायणप्रभृतयः प्रीत्या भक्त्या च नितान्तम्‌ एव प्रयासं कृतवन्तः, तथैव देशान्तरीयाः अपि विद्वांसः वेदस्य अमृतं पातुं तान्‌ व्याख्यातुम्‌ अध्येतुं वा प्रयत्नं कृतवन्तः।" तृतीया च सप्तमी च तृतीयासप्तम्योः में इतरेतरयोग द्वन्द समास हेै।,तृतीया च सप्तमी च तृतीयासप्तम्योः इति इतरेतरयोगद्वन्द्वः। "यहाँ “तुभ्यं, मह्यम्‌' इन दोनों से ङे प्रत्यय अन्तमें होते है।","अत्र ""तुभ्यं, मह्यम्‌' इत्यनयोः ङे इति प्रत्ययौ अन्ते विद्येते।" "वैदिक ऋषि ने अमर सन्देश का मनुष्यों में प्रचार किया की जुए में कभी भी आसक्त मत हो, और अपना नाश मत करो।","वैदिकः ऋषिः अमरसन्देशं जनेषु प्रचारयति यत्‌ अक्षेषु कदापि आसक्तः मा भवतु , स्वक्षतिं च मा करोतु ।" समास होने से प्रकृत सूत्र से राजपुरुष इसका अन्तिम अकार उदात्त होता है।,समासत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण राजपुरुष इत्यस्य अन्त्यः अकारः उदात्तः भवति। ९॥ 20.4.1 मूलपाठ की व्याख्या ( मित्रावरुणसूक्त ) ऋतेन॑ ऋतमपिहितं श्रुवं वां सूर्य॑स्य यत्र॑ विमुचन्त्यश्वान्‌।,९॥ २०.४.१) इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम (मित्रावरुणसूक्तम्‌) ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र॑ विमुचन्त्यश्वान्‌। अनुदात्त स्वर का निषेध इस सूत्र से होता है।,अनुदात्तस्वरस्य निषेधः सूत्रेण अनेन विधीयते। विदेहमुक्त का अशेषतः अज्ञान के नाश होने से उसके पुण्य भी नहीं रुकते हैं।,विदेहमुक्तस्य अशेषतः अज्ञाननाशात्‌ तस्य पुण्यम्‌ अपि न तिष्ठति। अतीत अनागत-वर्तमान-में प्रयोग करने वाले पदार्थो का ग्राहक है।,अतीतानागत - वर्तमान - विप्रकृष्ट - व्यवहित - पदार्थानां ग्राहकमित्यर्थः। "इस जिज्ञासा में कहते हैं, उदात्त आदि के स्वरो का।",इति जिज्ञासायामुच्यते उदात्तादीनां स्वराणाम्‌ इति। स्त्रीप्रत्यय प्रकरण संस्कृतभाषा में प्रातिपदिक संज्ञक शब्दों के तीन अर्थ हैं।,स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम्‌ संस्कृतभाषायां प्रातिपदिकसंज्ञकानां शब्दानां त्रयः अर्थाः भवन्ति। उससे प्रमाणगत असम्भावना निकल जाती है।,तेन प्रमाणगतासम्भावना अपगता। इस प्रकार से निषिद्धकर्म बहुत अनर्थो के मूल होते हैं।,इत्थम्‌ निषिद्धकर्माणि बहूनाम्‌ अनर्थानाम्‌ मूलम्‌ सन्ति। “गद्यात्मको यजुः' अथवा “शेषे यजुः' इस कथन का यह ही तात्पर्य है कि गद्यात्मक-मन्त्रों का अभिधान ही “यजुर्वेद' में है।,"""गद्यात्मको यजुस्तथा"" शेषे यजुः' इति कथनस्य तात्पर्यम्‌ इदम्‌ एवास्ति यत्‌ गद्यात्मक-मन्त्राणामभिधानमेव ""यजुः' वर्तते इति।" पराक्रम कार्यो को।,वीरकर्माणि। लोपः यह प्रथमा एकवचनान्त और नञः षष्ठयन्त पद है।,लोपः इति प्रथमैकवचनान्तं नञः इति च षष्ठ्यन्तं पदम्‌ । वहाँ उद्दालक से कहा `स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' इति।,तत्र उद्दालकेन उक्तं ' स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' इति। 2. शिवसङ्कल्प यहाँ पर शिव शब्द का क्या अर्थ है?,2. शिवसङ्कल्पम्‌ इत्यत्र शिवशब्दस्य कः अर्थः? (क) श्रवण (ख) मनन (ग) निदिध्यासन (घ) उपासना मोक्ष परमनिःश्रेयस्‌ कहलाता है।,(क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) उपासना मोक्षः परमनिःश्रेयसम्‌ कथ्यते। परिभूः - परिपूर्वक भूधातु से क्विप्‌ प्रत्यय करने पर परिभूः यह रूप बनता है।,परिभू:- परिपूर्वकात्‌ भूधातोः क्विप्प्रत्यये परिभूः इति रूपम्‌। प्रथमा से निर्दिष्ट प्रथमानिर्दिष्टम्‌ इसमें तृतीया तत्पुरुष समास है।,प्रथमया निर्दिष्टं प्रथमानिर्दिष्टम्‌ इति तृतीयातत्पुरुषसमासः। अज्मध्यस्थ डकार के स्थान पर।,अज्मध्यस्थस्य डकारस्य। कृष्ण यजुर्वेद की अभी चार शाखा प्राप्त होती है।,कृष्णयजुर्वेदस्य सम्प्रति चतस्रः शाखाः प्राप्यन्ते। "प्रारब्ध कर्म,संचित कर्म तथा क्रियमाण कर्म ।जो कर्म इस जन्म में फल देने के लिए आरम्भ होता है वह प्रारब्ध कर्म कहलाता है।","प्रारब्धकर्म, सञ्चितकर्म, क्रियमाणकर्म चेति। यत्‌ कर्म इह जन्मनि फलं प्रदातुम्‌ आरब्धवत्‌ तत्‌ प्रारब्धकर्म इति।" अर्थात्‌ वह ब्रह्माण्ड से बाहर भी बैठा है।,अर्थात्‌ ब्रह्माण्डात्‌ बहिः अपि स तिष्ठति इत्यर्थः। नित्याकरण में प्रत्यवायप्राप्ति से कैवल्य का ही नित्यत्व होता है।,"नित्याकरणे प्रत्यवायप्राप्तेः, कैवल्यस्य च नित्यत्वात्‌।" दीव्यति प्रकाशते इति देवः।,दीव्यति प्रकाशते इति देवः। 1.6 “सुपो धातु प्रातिपदिकयोः'' सूत्रार्थ-धातु का और प्रातिपदिक के अवयव के सुबन्त का लुक्‌ (लोप) होता है।,१.६ सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्रार्थः - धातोः प्रातिपदिकस्य च अवयवस्य सुपः लुक्‌ भवति। "दुर्गाचार्य ने निरुक्त को अपनीवृति में (७।२) किसी भी ब्राह्मण का वाक्य उदाहरण के रूप में लिखा है, जिसका आशय है छन्द के बिना वाणी अच्छी प्रकार से उच्चारण नहीं कर सकती है- “नाच्छन्दसि वागुच्चरति'।","दुर्गाचार्यण निरुक्तस्य स्ववृत्त्या (७।२) कस्यापि ब्राह्मणस्य वाक्यं समुद्धृतम्‌, यस्य आशयः अस्ति छन्दो विना वाणी समुच्चरिता न भवति--'नाच्छन्दसि वागुच्चरति'।" "अस्य = पुरुष का = मुखं = आनन, किम्‌ आसीत्‌ = कौन था, किम्‌ बाहू = भुज कौन, किम्‌ ऊरू = जङ्घा कौन,थे, किम्‌ पादौ = चरण कौन थे, उच्येते = अब कहते है।","अस्य = पुरुषस्य= मुखं = आननं, किम्‌ आसीत्‌ =किम्‌ बभूव, किम्‌ बाहू = भुजौ, किम्‌ ऊरू = जङ्के, आस्तामिति शेषः, किम्‌ पादौ = चरणौ, उच्येते = कथ्येते।" ऋग्वेद में प्रायःदो सौ सूक्तों द्वारा इन्द्र का आह्वान किया है।,ऋग्वेदे प्रायः द्विशताधिकैः सूक्तैः इन्द्रस्याह्वानं विहितम्‌। यज्ञकाल में उच्चरित वेदमन्त्रों से लोगों के अंतःकरण में सात्त्विक शुद्धता उत्पन्न होती है।,यज्ञकाले उच्चरितैः वेदमन्त्रैः जनानाम्‌ अंतःकरणे सात्त्विकी शुद्धता जायते। दार्शनिक दृष्टि से गम्भीर अर्थ के सूक्तों का नाम लिखो।,दार्शनिकदृष्ट्या गाम्भी्यार्थकानां सूक्तानां नाम लिखत। अधारयतम्‌ - धृ-धातु से णिच लङ-लकार में मध्यमपुरुषद्विवचन में अधारयतम्‌ यह रूप है।,अधारयतम्‌- धृ-धातोः णिचि लङ्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने अधारयतम्‌ इति रूपम्‌। तब जीवन्मुक्ति तथा मुक्त इस प्रकार से कहा जाता है।,तदा जीवन्नपि मुक्तः स जीवन्मुक्त इत्युच्यते । देवतावाची हन्द्व॒ समास में एक साथ दोनों को प्रकृतत स्वर होता है।,देवताद्वन्द्रे युगपत्‌ उभे प्रकृत्या भवतः। अति का ध्वंस होता है।,अत्ययो ध्वंसः। फलतः प्राचीन अनुष्टुप्‌ दसवें मण्डल में लौकिक संस्कृत के अनुष्टुप्‌ के समान हुआ।,फलतः प्राचीनानुष्टुप्‌ दशममण्डले लौकिकसंस्कृतस्य अनुष्टुप्‌ इव अभवत्‌। वेदान्त को अन्तिम निष्कर्ष रूप सिद्धान्त जहाँ होता है वह वेदान्त नाम से जाना जाता है।,वेदस्य अन्तः नाम सिद्धान्तः यत्र विद्यते तद्‌ वेदान्तनाम्ना अभिधीयते। इस पुरुष का मुख कौन था?,अस्य पुरुषस्य मुखं किमासीत्‌। फल स्वरूप दीर्घरोग निवारण के लिए इस मन्त्र का पूर्व में कहा विनियोग नितान्त युक्ति सहित है।,फलतः दीर्घरोगनिवारणार्थम्‌ अस्य मन्त्रस्य पूर्वोक्तः विनियोगः नितान्तं सयुक्तिकः अस्ति। 11.5.5 ) लक्ष्य लक्षण भाव सम्बन्ध जो वाक्य असाधारण धर्म का प्रतिपादन करता है।,11.5.5) लक्ष्यलक्षणभावसम्बन्धः- यत्‌ वाक्यम्‌ असाधारणधर्मं प्रतिपादयति । "6. “ अहंवाद"" किसे कहते हैं?","6 “अहंवादः"" नाम किम्‌?" राजृ ऐश्वर्यकर्मा यह स्कन्दस्वामी मानते हैं।,राजृ ऐश्वर्यकर्मा इति स्कन्दस्वामी। वह प्रायश्चित होता है।,तत्‌ प्रायश्चित्तम्‌। इस सूत्र से तत्पुरुष समास अधिकार का विधान होता है।,अनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासाधिकारः विधीयते। अर्थात्‌ वेद के प्रतिमन्त्र के देवता का ज्ञान प्रयास पूर्वक अर्जित करना चाहीए।,अर्थात्‌ वेदस्य प्रतिमन्त्रं देवताज्ञानं सयत्नम्‌ अर्जनीयम्‌। "“तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" सूत्र के समाहार होने पर वाच्य का क्या उदाहरण है?","""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रस्य समाहारे वाच्ये किमुदाहरणम्‌ ?" आत्मा में गौण देह इन्द्रिया आदि भी नहीं होती हैं।,न च गौणा आत्मानो देहेन्द्रियादयः। ऋन्नेभ्यः यह पञ्चमी बहुवचनान्त पद है।,ऋन्नेभ्यः इति पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌। वेदान्तसार में जीवन्मुक्ति के प्रतिपादनकाल में यह कहा गया है।,वेदान्तसारे जीवन्मुक्तिप्रतिपादनकाले उच्यते क्रन्दसी - क्रन्द्‌-धातु से असुन्‌ प्रत्यय स्त्रीलिङ्ग के प्रथमाद्विवचन में क्रन्दसी रूप बनता है।,क्रन्दसी- क्रन्द्‌-धातोः असुन्प्रत्यये स्त्रीलिङ्गे प्रथमाद्विवचने क्रन्दसी इति रूपम्‌। चेतनत्व होने से आत्मा शरीर तथा इन्द्रियों की नियामक होती है।,आत्मा शरीरेन्द्रियाणां नियामको अस्ति चेतनत्वात्‌। पूर्वपाठ में साधना का सामान्य निरूपण किया गया है।,पूर्वपाठे साधनायाः सामान्यं निरूपणम्‌ कृतम्‌। तत्पुरुष समास के अधिकार का इस सूत्र से विधान होता है।,तत्पुरुषसमासस्याधिकारः अनेन सूत्रेण विधीयते। तुम्हारे ही कर्म से ओषधि विविध रूप धारण करती है।,तव व्रते कर्मणि ओषधीः ओषधयः विश्वरूपाः नानारूपाः भवन्ति । वाणी को अपने पक्ष में लाने के लिए गन्धर्व प्रयत्नशील हुए।,वाचं स्वपक्षे आनेतुं गन्धर्वाः प्रयत्नशीलाः बभूव। अवसितस्य - अवपूर्वक साधातु से क्तप्रत्यय करने पर अवसित यह रूप बना।,अवसितस्य - अवपूर्वकात्‌ साधातोः क्तप्रत्यये अवसित इति रूपम्‌। विशेष रूप से अनेक कीर्ति से युक्त है।,अतिशयेन विविधकीर्तियुक्तः। पादेषु इस अर्थ में पाद शब्द को पद आदेश होने पर पत्सु यह हुआ इसके होने पर सप्तमी अर्थ में तसिल्प्रत्यय करने पर विभक्तिलोप अभाव में पत्सुतः यह रूप हुआ।,पादेषु इत्यस्मिन्नर्थे पादशब्दस्य पदादेशे पत्सु इति जाते सप्तम्यर्थे तसिल्प्रत्यये विभक्तिलोपाभावे पत्सुतः इति रूपम्‌। 7. अजिरम्‌ इसका क्या अर्थ है?,७. अजिरम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? ऋषियों के द्वारा दृष्ट शब्दों की आख्या को वेद कहते है।,ऋषिभिः दृष्टानां शब्दानाम्‌ आख्या वेद इति। विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति।,तद्यथा- विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति। 8 अज्ञान सत्‌ तथा असत्‌ के द्वारा अनिर्वचनीय त्रिगुणात्मक ज्ञानविरोधी भावरूप जो कुछ होता है।,८. अज्ञानं सदसद्भ्याम्‌ अनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत्‌ किञ्चित्‌ च इति। "“निदिध्यासनशीलस्य बाह्यप्रत्यय ईक्ष्यते "" इत्यादिविवेकचूडामणि के वचन से यह जाना जाता है कि यहाँ पर निदिध्यासन पद के द्वारा साधारणतया सविकल्प समाधि ही उपदिष्ट है।",“निदिध्यासनशीलस्य बाह्यप्रत्यय ईक्ष्यते” इत्यादिविवेकचूडामणिवचनाच्च इदं ज्ञायते यत्‌ अत्र निदिध्यासनपदेन साधारणतया सविकल्पकसमाधिः एव समुपदिश्यते। 41. प्रादितत्पुरुष समास विधायक वार्तिक कौन से हैं?,४१. प्रादितत्पुरुषसमासविधायकानि वार्तिकानि कानि? 2. मछली मनु के किस अंग पर गिरी?,२. मत्स्यः मनोः क्व अपतत्‌? उससे युक्त श्रद्धायत्न से प्राप्त करो।,तया युक्तं श्रद्धायत्नेन लभ्यमित्यर्थः। क्योंकि वेद वाक्य को सन्देह- ज्ञात अर्थ बताने में -व्याघात आदि भी दोषो से मुक्त नहीं है।,यतो हि वेदवाक्यं सन्देह- ज्ञातार्थज्ञापकता-व्याघातप्रभृतिभ्यः दोषेभ्यः न मुक्तम्‌। जैसे पशु रज्जु से बद्ध होता है।,पशुः रज्ज्वा बद्धो भवति। रसनेन्द्रिय के द्वारा निर्गत जिस अन्तःकरणवृत्युपहित चैतन्य से स्वाद तथा अस्वाद का ज्ञान होता है।,रसनेन्द्रयिण निर्गतेन येन अन्तःकरणवृत्त्युपहितचैतन्येन स्वादु अस्वादु च विजानाति। इस आशङ्का को दूर करने के लिए कहते हैं की अज्ञान ज्ञानविरोधी होता है।,इति आशङ्कां दूरीकरणाय उच्यते अज्ञानं ज्ञानविरोधि भवति। यह व्याख्या नितान्त प्रौढ और प्रसिद्ध है।,व्याख्येयं नितान्तप्रौढा प्रसिद्धा च अस्ति। सुबन्तेन इसके विशेषण से कृता पद इसका तदन्तविधि में कृदन्त से सुबन्तेन (सुबन्त से) प्राप्त होता है।,सुबन्तेनेत्यस्य विशेषणत्वात्‌ कृता इत्यस्य तदन्तविधौ कृदन्तेन सुबन्तेनेति लभ्यते। उसके द्वारा सूत्र का अर्थ होता है - दूर से बुलाने के अर्थ में अर्थात्‌ सम्बोधन वाक्य में एक श्रुति होती है।,तेनात्र सूत्रार्थः भवति- दूरात्‌ सम्बुद्धौ अर्थात्‌ सम्बोधने वाक्यं एकश्रुति भवति इति। "जब इन्द्रवृत्र के मध्य में युद्धचल रहा था, तब वृत्र के द्वारा माया से जो विद्युत्‌ प्रयुक्त की गई वह इन्द्र की ओर नहीं गई, गर्जना उसकी ओर नहीं गई, वृत्र के ह्वारा प्रेरित वर्षा और वज्र भी इन्द्र की ओर नहीं गया।","यदा इन्द्रवृत्रयोः मध्ये युद्धं चलत्‌ आसीत्‌ तदा वृत्रेण मायया या विद्युत्‌ प्रयुक्ता सा इन्द्रं प्रति न गता, गर्जनं न गतं, वृत्रेण प्रेरिता वृष्टिः प्रेरतं च वज्रम्‌ अपि इन्द्रं न सिषिधतुः।" ङ्याश्छन्दसि बहुलम्‌ इस सूत्र कौ व्याख्या कीजिए।,ङ्याश्छन्दसि बहुलम्‌ इति सूत्रं व्याख्यात। वह सूर्य के समान तेज है।,स सूर्य इव तपति। चित्त की अशुद्धि निषिद्ध कर्मजन्य पाप ही होता है।,चित्तस्य अशुद्धिश्च निषिद्धकर्मजन्यं पापमेव। "इन्द्र युद्ध जय, असुर वध, दुष्टों का नाशक, जल निष्कासन इत्यादि कर्म करता था।","इन्द्रः युद्धजयः, असुरवधः, दस्यूनां पराभवः, जलनिष्कासनं इत्यादीनि कर्माणि करोति स्म।" अड़तालीस अध्यायो में यह ग्रन्थ सम्पूर्ण होता है।,अष्टचत्वारिंशदध्याये ग्रन्थोऽयं सम्पूर्णो भवति। अद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक कौन है?,अद्वैतवेदान्तप्रवर्तकः कः? "अन्वय का अर्थ - गिरिशन्त - हे गिरिश, याम्‌ - जो बाण को, अस्तवे-फेकने के लिए, हस्ते-हाथ में, बिभर्षि- धारण करता है, गिरित्र - हे पर्वत के रक्षक, ताम्‌ - उसको, शिवां-मंगलकारी करो।","अन्वयार्थः - गिरिशन्त - हे गिरिश, याम्‌ - इषुम्‌ यं बाणं, अस्तवे - निक्षेपणाय, हस्ते - करे, बिभर्षि - धारयन्‌ अस्ति, गिरित्र- हे पर्वतरक्षक, ताम्‌ पूर्वोक्तां- शिवां कल्याणकारिणिं कुरु।" वेद आदि अनेक देवतावाद के वर्तमान होने में भी वे मन्त्र एक ही अद्वितीय देव की स्तुति करते है।,वेदादिषु बहुदेवतावादस्य वर्तमानादपि ते मन्त्राः एकमेवाद्वितीयं देवं स्तुवन्ति। “प्रशंसावचनैश्च“ सूत्रार्थ-रूढी से प्रशंसावाचक समानाधिकरण सुबन्तों से जातिवाचक सुबन्त को समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"प्रशंसावचनैश्च ॥ सूत्रार्थः - रूढ्या प्रशंसावाचकैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः जातिवाचकं सुबन्तं समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" इस सूत्र से “शेषो बहुव्रीहिः” से पहले तक जो सूत्र हैं उनसे विहित समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है।,"एतस्मात्‌ सूत्रात्‌ ""शेषो बहुव्रीहिः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्प्राक्‌ पर्यन्तं यानि सूत्राणि सन्ति तैः विहितः समासः तत्पुरुषसंज्ञको भवति।" वह चाहते हैं की जीवन प्रेम से पवित्र हो।,स इच्छति यत्‌ जीवनं प्रेम्णा पवित्रं भवेत्‌। उदाहरण - अभ्युद्धरति यह इस सूत्र को एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- अभ्युद्धरति इति अस्य सूत्रस्य एकम्‌ उदारणम्‌। मन की एकाग्रता के लिए उपदिष्ट उपासना सगुणब्रह्मविषयक होती है।,मनसः एकाग्रतायै उपदिष्टम्‌ उपासनम्‌ सगुणब्रह्मविषयकम्‌। विशिष्यते अनेन इति विशेषणम्‌ (विशेषता बताई जाती है जिससे वह विशेषण है) अन्य से व्यावर्तक भेद है।,"विशिष्यते अनेनेति विशेषणम्‌, अन्यस्मात्‌ व्यावर्तकं भेदकम्‌ ।" जो हमें कष्टों से दूर करता है।,सः यथा अस्मान्‌ न पीडयेत्‌। किन्तु ऋक्संहिता में 3.1.9 तथा 10.52.6 संख्या के मन्त्र में 3339 देव है ऐसा कहा गया है।,किन्तु ऋक्संहितायां ३.१.९ संख्यानां तथा १०.५२.६ संख्यानां मन्त्रे ३३३९ देवाः सन्ति इत्युच्यते। इस सूत्र में पांच पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे पञ्च पदानि सन्ति। "उसी ब्रह्म का तद पद के द्वारा यहाँ पर वर्णन किया गया है, इस प्रकार से छान्दोग्योपनिषद्‌ में कहा गया हैं कि “सदेव सोम्य इदमग्र आसीदेकमेव अद्वितीयम्‌।",तदेव ब्रह्म अत्र तदिति पदेन निगद्यते। छान्दोग्योपनिषदि निगद्यते -“सदेव सोम्य इदमग्र आसीदेकमेव अद्वितीयम्। मण्डूक सूक्त में भी (७/१०३) वर्षा काल का एक रमणीय दृश्य का वर्णन है।,मण्डूकसूक्ते अपि (७/१०३) वर्षाकालस्य एकं रमणीयं दृश्यं वर्णितम्‌ अस्ति। ये ही पुरुष अमृतत्व का तथा मुक्ति का स्वामी है।,अयमेव पुरुषः अमृतत्वस्य तथा मुक्तेरीशः। उत्पत्ति समय में वह गाय के बछडे के समान ही होता है।,उत्पत्तिसमये स गोवत्स इव भवति। "सामवेद के कल्पसूत्र - लाट्यायन श्रौतसूत्र, और द्राह्यायण।","सामवेदस्य कल्पसूत्रम्‌ - लाट्यायनश्रौतसूत्रम्‌, द्राह्मायणञ्चेति।" यदि सम्पूर्ण मन का निग्रह सभी विषयों से हो जाए तो वेदान्त श्रवण भी नहीं हो ।,यदि सम्पूर्णतया मनोनिग्रहः स्यात्‌ तर्हि वेदान्तश्रवणमपि न स्यात्‌। 26. वृत्तिभेद से प्राण कितने प्रकार के होते हैं?,२६. वृत्तभेदेन प्राणाः कति ? इसी को ही कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं।,इयमेव कुण्डलिनीशक्तिः इत्युच्यते। इस प्रकार को यह अविद्या अनादि काल से प्रवृत्त होती हुई आ रही है।,इति इयम्‌ अविद्या अनादिकालप्रवृत्ता। उप पूर्वक भी धातु के करण में ल्युट्‌ उपमान शब्द निष्पन्न होता है।,उपपूर्वकात्‌ मीधातोः करणे ल्युटि उपमानशब्दो निष्पद्यते । इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता।,नैनां प्राप्य विमुद्यति। परिनिष्ठित नाम संस्कृत व्याकरण का है।,परिनिष्ठितो नाम व्याकरणसंस्कृतः। वह त्यक्तसर्वधर्मकर्मसाधना के द्वारा सभी कर्मो के तथा उनेक संकल्प में निवृत्त होता है।,स त्यक्तसर्वकर्मसाधनतया सर्वकर्मतत्फलविषयं सङ्कल्पं प्रवृत्तिहेतुकामकारणं संन्यस्यति। इसलिए आठवें अध्याय में ' आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से यहाँ सभी को अनुदात्त प्राप्त होता है।,अतः आष्टमिकेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण अत्र सर्वानुदात्तः विधीयते। "उदात्त अनुदात्त आदि अच्‌ ही हो सकते हैं, अतः अच्‌ इसका भी यहाँ संयोग है।",उदात्तानुदात्तादिकं च अचः एव सम्भवति अतः अच्‌ इत्यपि संयुज्यते। "पाठगत प्रश्नों के उत्तर- वाक्‌ ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, २ जगती, वाक्‌ देवता।","पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि - वाक्‌ ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, २ जगती, वाक्‌ देवता।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण होता है शाकप्रति।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति शाकप्रति इति। 5. दामा यहाँ कौन सा स्त्री प्रत्यय है?,५. दामा इत्यत्र कः स्त्रीप्रत्ययः अस्ति? उन दोनों में (उप और राम) उप इस पद को त्यागकर उसके अर्थ के लिए दूसरा समीप इस पद का प्रयोग कर विग्रह होता है-रामस्य समीपम्‌ (राम के समीप)।,तयोः उप इति पदं त्यक्त्वा तदर्थकम्‌ अपरं समीपम्‌ इति पदं प्रयुज्य विग्रहः यथा रामस्य समीपम्‌ इति। इस प्रकार से चित्त के व्युत्थानसंस्कार का अभिभव होने पर निरोधसंस्कार का प्रादुर्भाव होने पर चित्त की एकाग्र स्थिति होती है वह ही समाधि कहलाती है।,"एवं चित्तस्य व्युत्थानसंस्कारस्य अभिभवे निरोधसंस्कारस्य प्रादुर्भवि च सति चित्तस्य या एकाग्रतया स्थितिः, सा एव समाधिः।" चोर चुरालेगा इस प्रकार से उसकी रक्षा में दोष होता है।,तस्करः अपहरिष्यतिति दुश्चिन्ता एव रक्षादोषः। नाटकों का उदय विद्वान किससे मानते हैं?,नाटकानामुदयः कस्माज्जातः इति विद्वांसः कथयन्ति? इसलिए वह बोधक कहलाता है।,अतः तद्‌ बोधकम्‌ इति उच्यते। उपमान और उपमेय में उपमान का ही पूर्व निपात प्राप्त होने पर उपमित का पूर्वनिपात के विधान के लिए यह सूत्र है।,उपमानोपमेययोः उपमानस्यैव पूर्वनिपाते प्राप्ते उपमितस्य पूर्वनिपातविधानार्थम्‌ इदम्‌ । "यदि वह पूर्णयुक्त अधिकारी होता है तो, उसे उसी क्षण ही ब्रह्मज्ञान हो जाता है।",यदि युक्तः अधिकारः अस्ति तर्हि तत्क्षणमेव ब्रह्मज्ञानम्‌ उत्पद्यते। उससे वेद अर्थ को जानने के लिए वेदाङ्गों की अपेक्षा होती है।,तस्माद्‌ वेदार्थस्य अवगमनाय वेदाङ्गानाम्‌ अपेक्षा भवति। पुरुष का चतुर्थ पाद क्या है?,पुरुषस्य चतुर्थः पादः कः। अन्धकार के नष्ट होने पर यह अश्विन है।,अन्धकारे नष्टे अयम्‌ अश्विनः। चतुर्थी तदर्थे इस सूत्र से चतुर्थी इस पद की अनुवृति है।,चतुर्थी तदर्थे इति सूत्रात्‌ चतुर्थी इति पदम्‌ अनुवर्तते। 11.2.4 ) विज्ञानमय कोश यह चौथा कोश होता है।,१८.२.४) विज्ञानमयकोशः अयं चतुर्थः कोशः। देहारम्भक प्रारब्ध के उपभोग के द्वारा ही विदेहमुक्त होती है।,देहारम्भकस्य प्रारब्धस्य उपभोगेन एव विदेहमुक्तिः भवति। नौ रसों में किस रस को रसराज के रूप में सभी साहित्य शास्त्रज्ञ बताते हैं?,नवसु अपि रसेषु कं रसं रसराजरूपेण सर्वे अपि साहित्यशास्त्रज्ञाः विदन्ति? निपुणता से रथ में जोड़े गये आप अश्वगण को ले जाते है।,निपुणतया रथे योजिताः भवतोः अश्वगणाः भवन्तौ वहन्तु इति। 6. अपूर्वत्‌ किसे कहते है तथा वह कहाँ होती है?,6. अपूर्वता का। क्वान्तर्भवति। 13. विद्यारण्य स्वामी के द्वारा समाधि का लक्षण किस प्रकार से विहित हैं ?,१३. विद्यारण्यस्वामिना समाधिलक्षणं किं विहितम्‌? “कर्त्तरि च'' इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये?,"""कर्तरि च"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" 9 आपः का लौकिक रूप क्या है?,9. आपः इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। ऊपर कहे गए सभी जीवों के चारों और व्याप्त होकर के रहता है।,ता तानि पूर्वोक्तानि जङ्गमादीनि सर्वाणि परि बभूव व्याप्तवान्‌। वाक्‌ इन्द्रिय वचन साधती है।,तथा च वागिन्द्रियं वचनं साधयति। सभी दर्शन मार्गों के द्वारा एक ही परमेश्‍वर विविध रूपों में बताया गया है।,सर्वैः दर्शनमार्गैः एकः एव परमेश्वरः विविधरूपेण आप्यते इति। तथा धर्म तथा ब्रह्म जिज्ञासा का पूर्व पर भाव नहीं कहा गया है।,अत्रापि धर्मब्रह्मजिज्ञासयोः पूर्वपरीभावो नास्तीति उक्तम्‌। समाधि का लक्षण इस प्रकार से हैं ।,तथाहि समाधिलक्षणं तेनैवं विधीयते - यहाँ पर नमः कर्मरूप से ग्रहण किया गया है।,नमः अत्र कर्मरूपेण ग्राह्यम्‌। प्रजापति ने अपना निर्णय मन के पक्ष में ही दिया।,प्रजापतिना स्वनिर्णयः मनसः पक्षे एव प्रदत्तः। "किन्तु बाह्य द्रव्य अभाव से हवि के विना यज्ञ असम्भवत्व से और पुरुष स्वरूप से देवों ने हवि द्वारा मानसयाग किया, और कहा - “यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत'' इति।","किन्तु बाह्यद्रव्याभावात्‌ हविषं विना यज्ञस्य असम्भवत्वात्‌ च पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्ट्वेन सङ्कल्प्य मानसं यागं चक्रुः देवाः, उच्यते च- ""यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत"" इति।" आद्युदात्रच इस सूत्र से किसका नियम किया गया है?,आद्युदात्तश्च इति सूत्रेण किं विधीयते? पूर्वपद परमा यह अन्तोदात्त है।,पूर्वपदं परमा इति च अन्तोदात्तम्‌। शिक्षा के अन्य विषयों का यहाँ पर अभाव है।,शिक्षायाः अन्येषां विषयाणाम्‌ अभावः अत्र विद्यते। वह निराकार होता है तथा साकार भी होता है।,"स निराकारः, पुनश्च साकारः।" वेद में कहा गया है - “अग्निना रयिमश्नवत्‌ ..” इति।,"तथाहि आम्नातम्‌ - ""अग्निना रयिमश्नवत्‌ ..” इति।" श्रद्धासूक्त की प्रस्तावना आदि पाठ के उत्तरभाग में दी गई है।,श्रद्धासूक्तस्य प्रस्तावनादिकम्‌ पाठस्य उत्तरभागे विद्यते। अतः तद्धितान्त कौञ्जायन इस शब्द के अन्त्य स्वर अकार को उदात्त करने का विधान है।,अतः तद्धितान्तस्य कौञ्जायन इति शब्दस्य अन्त्यस्य स्वरस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। गमनागमनादि भी देह के धर्म होते हैं।,गमनागमनादिकं देहस्य धर्मः। यह इसका एक अर्थ है तथा विहित कर्मों को विधि के द्वारा परित्याग करना यह दूसरा अर्थ है अर्थात्‌ श्रवणादि व्यतिरिक्ति विषयों से उपरति करना।,"एकः अर्थः। द्वितीयोऽपि अर्थोऽस्ति। स हि विहितानां कर्मणां विधिना परित्यागः इति,श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः उपरतिः।" वह रूद्र हमे सुखी बनाए ।,स रुद्रो अस्मान् सुखयतु। इस पाठ में श्रद्धासूक्त के पाच मन्त्र लिखे गये है।,अस्मिन्‌ पाठे श्रद्धासूक्तस्य पञ्च मन्त्राः लिखिताः। दुर्गाचार्य के अनुसार से निरुक्तों की चौदह संख्या थी।,दुर्गाचायानुसारेण निरुक्तं चतुर्दशसङ्ख्यकम्‌ आसीत्‌। उपनिषद्‌ अत्यधिक सरल शैली में तत्त्व को ग्रहण कराते है।,उपनिषद्‌ अतिसरलशैल्यां तत्त्वं ग्राहयन्ति। उपनिषद्‌ लोकप्रिय कैसे है?,कथम्‌ उपनिषदः लोकप्रियाः। "(ग) उत्तरकालिक गद्य उपनिषद्‌- (११) प्रश्न उपनिषद्‌, (१२) मैत्रायणी उपनिषद्‌ (१३) माण्डूक्य उपनिषद्‌।","(ग) उत्तरकालिकगद्योपनिषदः- (११) प्रश्नोपनिषद्‌, (१२) मैत्रायणीयोपनिषद्‌ (१३) माण्डूक्योपनिषच्चेति।" "रत्नधातमम्‌ - रत्नों को धारण करने वाली रत्नधा कहलाती है, रत्नधाशब्द से क्विप्प्रत्यय करने पर और तमप्प्र्यय करने पर द्वितीया एकवचन में रत्नधातमम्‌ यह रूप बनता है।","रत्नधातमम्‌- रत्नानि दधाति इति रत्नधाः, रत्नधाशब्दस्य क्विप्प्रत्यये तमप्प्रत्यये च द्वितीयैकवचने रत्नधातमम्‌ इति रूपम्‌।" "अतएव सूर्य रात्रि में भी रहता है ये आर्य जानते थे, ऐसा ज्ञात होता है, और भी ऐतरेय-कौषीतकि-पञ्चविंशब्राह्मण में ये विषय सुस्पष्ट उल्लिखित है।","अत एव सूर्यः रात्रौ अपि तिष्ठतीति आर्याः जानन्ति स्म इति ज्ञायते, तथा च ऐतरेय- कौषीतकि-पञ्चविंशब्राह्मणेषु अयं विषयः सुस्पष्टम्‌ उल्लिखितः।" प्रत्येक अध्याय में अनुवाक हैं।,प्रत्येकस्मिन्‌ अध्याये अनुवाकाः सन्ति। “चतुर्थीतदर्थार्थ बलिहित सुखरक्षितैः”' इस सूत्र की व्याख्या करा है?,"""चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः"" इति सूत्रं व्याख्यात।" इष्टियाग के चार पुरोहित कौन से हैं?,इष्टियागस्य चत्वारः पुरोहिताः के ? वेदों में कहे हुए प्रसिद्ध सूक्तों में यह प्रसिद्ध मित्रावरुणसूक्त है।,वेदोक्तेषु प्रसिद्धेषु सूक्तेषु अन्यतममिदं प्रसिद्धं मित्रावरुणसूक्तम्‌। "इससे वौषट्‌- शब्द की विकल्प से उदात्ततर, और एक श्रुतिका विधान है।","अनेन वौषट्‌- शब्दस्य विकल्पेन उदात्ततरत्वं, एकश्रुतित्वं च विधीयते।" "शुक्ल यजुर्वेद की शाखा शुक्ल यजुर्वेद की माध्यान्दिन शाखा, और काण्व शाखा ये दो शाखा हैं।","शुक्लयजुर्वेदस्य शाखा- शुक्लयजुर्वेदस्य माध्यन्दिनशाखा, काण्वशाखा चेति द्वे शाखे स्तः।" उदाहरण -तदर्थ का उदाहरण है “यूपदारु”'।,उदाहरणम्‌ - तदर्थस्योदाहरणं यथा यूपदारु इति। जैसे मैं अज्ञ हूँ इत्यादि अनुभव से इसका पता चलता है।,अहमज्ञः इत्याद्यनुभवात्‌। वच्‌ धातु से कर्म में ल्युट्‌ होने पर वचन शब्द निष्पन्न होता है।,वचधातोः कर्मणि ल्युटि वचनशब्दो निष्पन्नः। इसी प्रकार से भक्ति रूप शैत्य के द्वारा अखण्डसच्चिदानन्दसागर जल रूप में घनीभूत होकर के भिन्न भिन्न आकार को प्राप्त कर लेता है।,एवम्‌ एव भक्तिरूपेण शैत्येन अखण्डसच्चिदानन्दसागरजलं घनीभूतं सद्‌ भिन्नं भिन्नम्‌ आकारं धत्ते । कात्यायन ने छन्दों के विषय में क्या कहा है?,कात्यायनेन छन्दोविषये किमुक्तम्‌? 4. किस प्रकार के वृत्र ने इन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा?,कीदृशः वृत्रः इन्द्रम्‌ अपृतन्यत्‌। "इस जिज्ञासा में कहते है, शेष प्रकार आदि के द्वित्व होने से अन्य।",इति जिज्ञासायामुच्यते शेषं प्रकारादिद्वित्वाद्‌ अन्यत्‌ इति। ऋग्वेद की दो शाखाएँ कौन कौन सी है?,ऋग्वेदस्य द्वे शाखे के? उसके उपासक स्वर्गलोक को प्राप्त करते है।,तस्य उपासकाः स्वर्गलोकं प्राप्नुवन्ति। प्रथमा इससे विभक्ति इसका अन्वय है।,प्रथमा इति विभक्तिः इत्यनेन अन्वेति। भौज्योष्णम्‌ यहाँ पूर्वपद को प्रकृति स्वर तत्पुरुष समास में तुल्यार्थं तृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः इस सूत्र से किया गया है।,भौज्योष्णम्‌ इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः इति सूत्रेण विधीयते। अक्षसूक्त भी इसी प्रकार का एक सूक्त है जहाँ अक्षक्रीडा के दुष्परिणाम का वर्णन किया है।,अक्षसूक्तमपि एतादृशमेकं सूक्तं यत्र अक्षक्रीडायाः दुष्परिणामो वर्णितो वर्तते । "विश्वा - विश्वशब्द, नपुंसकलिङ्ग प्रथमा बहुवचन का वैदिक रूप है।","विश्वा- विश्वशब्दः, नपुंसकलिङ्गस्य प्रथमाबहुवचने वैदिकं रूपम्‌।" “तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' (श्वे. उ. 3.8) इस प्रकार से विद्या के अन्य मार्ग मोक्ष के लिए नहीं हैं इस प्रकार से यह श्रुति इन पन्थों का निराकरण करती है।,तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे. उ. ३.८) इति विद्याया अन्यः पन्थाः मोक्षाय न विद्यते इति श्रुतिः इतरपन्थानं निराकरोति। वस्तुतः यहाँ मात्रार्थ के उत्तरपद का ही प्राधान्य है और पूर्वपदार्थ का अप्राधान्य है।,"वस्तुतः अत्र मात्रार्थस्य उत्तरपदार्थस्यैव प्राधान्यमस्ति, पूर्वपदार्थस्य च अप्राधान्यम्‌।" यहाँ ऋषि अपने मन को कल्याणकारी सङ्कल्प के साथ संयोग करके कहता है।,अत्र ऋषिः स्वमनः कल्याणकारिणा सङ्कल्पेन सह संयोगाय कथयति। 3. कुम्भक प्राणायाम किस प्रकार से होता है?,३. कः कुम्भकः? मेरी वाणी को सुनो।,मया वक्ष्यमाणं शृृणु। (क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) उपक्रम उपसंहार 13. तात्पर्यनिर्णायक छ: लिङ्गो में यह अन्यतम है।,(क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) उपक्रमौपसंहारौ 13. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌॥ इसलिए यहाँ पर श्रवणादिव्यतिरिक्त विषय कहा गया है।,अत उक्तं श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः इति। 14. तमेव भृत्वा... इस कथा अंश की व्याख्या करो।,१४. तमेव भृत्वा ... इति कथांशं व्याख्यात। और इनके मत के अनुसार ( अस्तु श्रोषट्‌' यहाँ पर भी श्रोषद्‌- शब्द उदात्ततर स्वर विशिष्ट होता है।,एतेषाञ्च मतानुसारम्‌ 'अस्तु श्रौषट्‌' इत्यत्रापि श्रौषट्‌- शब्दः उदात्ततरस्वरविशिष्टः भवति। गार्ग्य आदि मत को छोड़कर।,गार्ग्यादिमते तु स्यादेव। इनमें काम्य तथा निषिद्ध कर्म को छोड़कर के अन्य तीन प्रकार के कर्म अधिकार लाभ करने पर ही करने होते हैं।,एषु काम्यं निषिद्धं च वर्जयित्वा अन्यानि त्रिविधानि कर्माणि अधिकारलाभाय कर्तव्यानि भवन्ति। स्वामी विवेकानन्द ने देखा उनके गुरुदेव ने न केवल वेदान्त दर्शन परीक्षण करके प्रमाणित किया अपितु उन्होंने वेदान्त के सारगर्भित धर्मीप्रयोजन के अशों को अलग करके अपने जीवन के माध्यम से व्यवहारिक प्रयोग को सिद्ध करके वेदान्ततत्व को आधुनिक काल में उपयोगी बनाया।,"स्वामिविवेकानन्देन अवलोकितं यत्‌- श्रीरामकृष्णदेवो न केवलं वैदान्तिकसत्यसमूहानां परीक्षणं प्रामाण्यं च व्यवस्थापयामास, अपि तु वेदान्तस्य सारभागं धर्मीयाप्रयोजनीयांशेभ्यः पृथक्‌ कृत्वा स्वीयजीवनमाध्यमेन तस्य व्यावहारिकं प्रयोगं च संसाध्य वेदान्ततत्त्वम्‌ आधुनिककालोपयोगित्वेन संस्थापितवान्‌।" आज भी दाक्षिणात्य पुरोहित पशुयाग में आहूत पशु का अवशिष्ट मांस प्रसाद के रूप में ही खाते हैं।,अद्यापि दाक्षिणात्यादिषु पुरोहिताः पशुयागे आहूतस्य पशोः अवशिष्टमांसं (प्रसादरूपेण) खादन्ति। श्रित आदि शब्दों के तत्प्रकृति क्या लक्षण है।,श्रितादीनां शब्दानां तत्प्रकृतिके लक्षणा। यही दूसरी अवधारणा है।,एवमेव अन्यत्र अवधेयम्‌। जहाँ अक्षरों का परिमाण हो उसे छन्द कहते है।,यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः 4 क्या देकर के यजमान का कल्याण करते हैं?,4. किं प्रयच्छतः यजमानस्य प्रियं कुरु। "कर्षात्वतः यहाँ पर कर्षश्च आत्वतश्च, इस प्रकार का विग्रह है।",कर्षात्वतः इत्यत्र कर्षश्च आत्वतश्च इति विग्रह। किन्तु आधुनिक शोधकों के अनुसार अड्सठ सूक्तों में दान स्तुति का वर्णन है।,किञ्चाधुनिकशोधदृष्ट्या अष्टाषष्टिसूक्तेषु दानस्तुतीनां वर्णनमस्ति। वहाँ पर यह भाग पुरुषसुक्त का ही भाग माना गया है।,तत्र पुरुषसुक्तस्यैव अंशभूतः गण्यते। "ब्रह्म से भिन्न सभी का अनित्यत्व के विषय में “नेह नानास्ति किञ्चन” (बृ.उ.4.4.19) , “एकमेवाद्वितीयम्‌ (छा.उ. 6.2.1), “ अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्‌” (छा.उ. 7.24.1)।","ब्रह्मभिन्नानां सर्वेषाम्‌ अनित्यत्वविषये “नेह नानास्ति किञ्चन” (बृ.उ.४.४.१९), “एकमेवाद्वितीयम्‌ (छा.उ. ६.२.१), “अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्‌"" (छा.उ. ७.२४.१) ।" घी सोम आदि के द्वारा स्निग्ध और कल्याणकारी क्षेत्र में निर्मित लकड़ी के खम्भे स्थित है।,घृतसोमादिना स्निग्धे भद्रे च क्षेत्रे निर्मिता स्थूणा यूपयष्टिरिव स्थितः। "इन जटाधारी रूद्र का धनुष प्रत्यंचा से रहित हो जाए। और तरकस फल वाले बाणों से खाली हो। इनके जो बाण हैं, वे दिखाई न पड़े । इनके खड्ग रखने का स्थान भी खाली हो। हमारे लिए रूद्र हथियारों को नितांत त्याग दे।","अस्यार्थो हि, जटाधारिणः (रुद्रस्य) धनुः ज्यारहितं भवतु। बाणवान्‌ (त्वं) बाणरहितो भव। किञ्च अस्य (रुद्रस्य) ये बाणाः वर्तन्ते, ते अपि नष्टा भवन्तु। पुनः अयं खड्गरहितो भवतु।" सब और से ग्रहण कर सकता है।,जग्रभत्‌। "और उन्होंने कहा ही “ मैंने एक ऐसे व्यक्ति का प्रत्यक्ष किया जो एकपक्ष में प्रबल द्वैतवादी तथा अपरपक्ष में एकनिष्ठ अद्वैतवादी, अन्यपक्षों में परमभक्त तथा परमज्ञानी है।","तथाहि तेनोच्यते- “विधातुरिच्छया तादृशमेकं जनमहं प्रत्यक्षीकृतवान्‌ य एकस्मिन्‌ पक्षे प्रबलद्वैेतवादी, अपरपक्ष एकनिष्ठः अद्वैतवादी, अन्यस्मिन्‌ पक्षे परमो भक्तः, पुनश्च परमो ज्ञानी।" राजाहः सखिभ्यः टच्‌ इस सूत्र से ट्च प्रञ्मान्त की अनुवृत्ति है।,राजाहः सखिभ्यष्टच्‌ इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ टच्‌ इति प्रथमान्तम्‌ अनुवर्तते। इस प्रकार से श्रवण मनन निदिध्यासन आदि ब्रह्मसाक्षात्कार के प्रति कारण होते है।,एवं श्रवण-मनन-निदिध्यासनानि ब्रह्मसाक्षात्कारं प्रति कारणानि। यह शंका (प्रश्‍न) पैदा होती है।,इति शङ्कायां। और भी उदाहरण हैं - “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।,अपरमपि उदाहरणम्‌ अस्त्ति 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। जैसै कोई प्यासे से कहता है की समीपस्थ कुएँ में जल है तथा कुछ परिश्रम करने पर वह प्राप्त भी हो सकता है।,यथा कश्चित्‌ कञ्चित्‌ तृषार्तमाह- समीपे कूपोऽस्ति। जलं चास्ति तस्मिन्‌। कृते प्रयत्ने लभेत इति। इस कारण शरीर की असाधारणी अवस्था सुषुप्ति होती है।,अस्य कारणशरीरस्य असाधारणी अवस्था भवति सुषुप्तिः। अश्नवत्‌ इसका क्या अर्थ है?,अश्नवत्‌ इत्यस्य कः अर्थः? वैसे ही मुक्त आत्मा उपाधिकृत संसार का त्याग करके अपने स्वरूप में अवतिष्ठित होता है।,तथा मुक्तः आत्मा उपाधिकृतं संसारं त्यक्त्वा स्वस्वरूपेण अवतिष्ठते। वेद के छ: अङ्गों में ज्योतिष नाम का अङ्ग निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण अङ्ग है।,वेदस्य षट्त्सु अङ्गेषु ज्यौतिषनाम अङ्गं नितान्तं महत्त्वपूर्णम्‌ अङ्गम्‌ अस्ति। "अन्नमय कोश अनयन्त स्थूल होता है, प्राणमय कोश उतना स्थूल नहीं होता है।",अन्नमयकोशः अत्यन्तं स्थूलः भवति। तावान्‌ स्थूलः न भवति प्राणमयकोशः। "सर्वतः = सम्पूर्ण विश्व में, ऊर्ध्वम्‌ अधः अग्रादितः अन्तर्बहिश्च।","सर्वतः= विश्वतः, ऊर्ध्वम्‌ अधः अग्रादितः अन्तर्बहिश्च।" परमेश्वर ब्रह्म में यह सब है ।,परमेश्वरे ब्रह्मणि एतत्‌ सर्वम्‌ अस्ति। इसलिए इसे प्रमेयगता असम्भावना कहते है।,अत इयं प्रमेयगता असम्भावना। हमारी स्तुति पृथिवीजलतेज स्वरूप शाश्वत आनन्ददायकआकाश का तथा विश्व के धाता विष्णु को प्राप्त हो।,अस्माकं स्तुतिः पृथिवीजलतेजस्स्वरूपं शाश्वतम्‌ आनन्ददायकम्‌ अकाशस्य तथा विश्वस्य धातारं विष्णुं प्राप्नुयात्‌। क्रिया आदि विशेष रहित का आत्मा मन आदि प्रवृत्ति का निमित्त है उत्तरार्थ के लिए।,विक्रियादिविशेषरहितस्य आत्मनो मनआदिप्रवृत्तौ निमित्तत्वम्‌ इति उत्तरार्थः। मन्त्रों की संख्या भी कही पर अधिक है।,मन्त्राणां संख्याऽपि कुतश्चिदधिकाऽस्ति। वाक्य से निन्दा भी जानी जाती है।,वाक्यात्‌ निन्दा अपि अवगम्यते। निष्काम कर्म के द्वारा चित्त की शुद्धि करनी चाहिए।,निष्कामकर्मणा चित्तस्य शुद्धिः क्रियते। "तैत्तिरीय संहिता के अनुसार यज्ञों के लिये जो विधान है, वहाँ उस प्रकार की दृढ़ता नहीं दिखाई देती है।",तैत्तिरीयसंहितानुसारं यज्ञानां कृते यानि विधानानि सन्ति तत्र तादृशी दृढता न परिलक्ष्यते। 11.4.4 ) आत्यन्तिकप्रलय ब्रह्म के साक्षात्कार के कारण अशेषमोक्ष ही आत्यन्ति क प्रलय कहलाता है।,११.४.४) आत्यन्तिकप्रलयः ब्रह्मसाक्षात्कारकारणात्‌ अशेषमोक्षः एव आत्यन्तिकः प्रलयः कथ्यते। जिस जीव में प्रेम होता है वह ही ईश्वर की सेवा करता है।,जीवे प्रेम यस्य अस्ति स एव ईश्वरं सेवते इति। निरुक्त आदि ग्रन्थ इस प्रकार जाना जाता है ऐसा कहकर ब्राह्मण ग्रन्थों का ही प्रमाण रूप से निर्देश किया है।,निरुक्तादिग्रन्थेषु 'इति विज्ञायते' इति कथयित्वा ब्राह्मणग्रन्थानाम्‌ एव प्रमाणरूपेण निर्देशः कृतः। "और कहा - “दक्षिणतोऽसुरान्‌ रक्षांसि त्वष्ट्वान्यपहन्ति त्रिष्टुब्जिर्वज्रो वैरविष्टुद्‌ वैदिक छन्दों में अनेक भेद, उपभेद होते है।",उक्तञ्च-'दक्षिणतोऽसुरान्‌ रक्षांसि त्वष्ट्रान्यपहन्ति त्रिष्टुब्जिर्वज्रो वैरविष्टुद्‌'। वैदिकानि छन्दांसि अनेकभेद-उपभेदवन्ति सन्ति। उनमें परमपुरुषार्थ मोक्ष होता है।,तेषु परमः पुरुषार्थः मोक्षः। "10. सत्व, रज, तम् प्राकृत गुणों का स्थिति मात्र नपुंसकत्व है।",१०. सत्त्वरजस्तमसां प्राकृतगुणानां स्थितिमात्रं नपुंसकत्वम्‌। देदीप्यमान आदित्य जो ब्राह्मण के समान है।,रुचं ब्राह्यं देदीप्यमानं ब्राह्यं ब्राह्मणजातिं । 25. स्वाध्याय किसे कहते हैं?,२५. कः स्वाध्यायः? यणः यह पञ्चमी का एकवचनान्त पद है।,यणः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। लेकिन शास्त्रत अधिकारी को भी स्वातन्त्रय से ब्रह्मज्ञानान्वेषण नहीं करना चाहिए।,परन्तु शास्त्रविदपि अधिकारी स्वातन्त्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात्‌| तुपश्यपश्यताहैः: यह तृतीयान्त पद है।,पश्यपश्यताहैः इति तृतीयान्तं पदम्‌। संहितोपनिषद्‌ में किसका वर्णन है?,संहितोपनिषदि कस्य वर्णनम्‌ अस्ति? "और जो मन प्रजाओं में, मनुष्यों में अन्तरवर्तमान होने से सभी इन्द्रियों का ज्योति प्रकाशक है।",यच्च मनः प्रजासु जनेषु अन्तर्वर्तमानं सत्‌ ज्योतिः प्रकाशकं सर्वेन्द्रियाणाम्‌। एक सूक्त में (५/१३) असित-तैमात-आलिङ्गी-विलिङ्गी-उरु-गूल आदि सांपो का नाम उल्लेखित है।,एकस्मिन्‌ सूक्ते (५/१३) असित-तैमात-आलिङ्गी-विलिङ्गी-उरु-गूलादिसर्पाणां नाम उल्लिखितम्‌ अस्ति। अथ इतिथीम्‌ यह मत्स्य का वचन।,अथेतिथीम्‌ इति मत्स्यवचनम्‌। इसलिए विरोध के परिहार के असम्भव होने से यहाँ पर अजहत्‌ लक्षणा सङ्गत नहीं होती है।,अतः विरोधपरिहारस्य असम्भवात्‌ अत्र अजहल्लक्षणा न सङ्गच्छते। घटरूप घटगतसंख्या चाक्षुष प्रत्यक्ष होती है।,"घटरूपम्‌, घटगतसंख्या चाक्षुषप्रत्यक्षा भवति ।" श्रीमद्भगवद्गीता को दूसरा प्रस्थान कहते है।,श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीयं प्रस्थानमिति कथ्यते। अन्त में स्वाश्रित काष्ठखण्ड का नाश करके स्वयं भी नष्ट हो जाता है।,अन्तिमे स्वाश्रितं काष्ठखण्डं नाशयित्वा स्वयमपि नश्यति। व्याख्या - यहाँ आदित्यरूप से रुद्र की स्तुति की गई है।,व्याख्या - आदित्यरूपेणात्र रुद्रः स्तूयते। उससे योग में “कर्तृकर्मणो: कृति'' इस सूत्र से भवतः इस पद में कर्ता में षष्ठी विभक्ति होती है।,"तेन योगे ""कर्तृकर्मणोः कृति"" इति सूत्रेण भवतः इत्यत्र कर्तरि षष्ठी।" न राजा इस लौकिक विग्रह में न राजन्‌ सु इस अलौकिक विग्रगह में नञ्‌ सूत्र से तत्पुरुष समास होने पर प्रातिपदिक से सुप्‌ का लोप होने पर न लोपे अराजन्‌ शब्द निष्पन्न होता है।,"न राजा इति लौकिकविग्रहे न राजन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे नञ्‌ इत्यनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासे, प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि, नलोपे अराजन्‌ इति निष्पद्यते।" अर्थात्‌ देवतावाची हुन्द्व॒ समास में पूर्वपद को और उत्तरपद दोनों को प्रकृत्ति स्वर होता है।,अर्थात्‌ देवतावाचिनां द्वन्द्वे समासे पूर्वपदम्‌ उत्तरपदञ्च उभौ प्रकृत्या भवतः। "न दर्शनम्‌, अदर्शनम्‌, तस्मात्‌ अदर्शनात्‌ इति नञ्तत्पुरुष समास है।","न दर्शनम्‌ अदर्शनम्‌, तस्माद्‌ अदर्शनात् इति नञ्तत्पुरुषसमासः।" इसके बाद समास का प्रातिपदिकत्व से सुप्‌ का लोप होने पर सु राजन निष्पन्न होता है।,"ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि, सुराजन्‌ इति निष्पद्यते।" पद्यभाग अत्यधिक रोचकता के साथ आज भी प्राप्त होता है।,पद्यभागः अतिरोचकतया सम्प्रति अवशिष्यते। "कोई भी स्वयं कहता है, कि मैं सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त होकर मौनी हूँ।",कोऽपि स्वयं कथयति यत्‌ अहं सम्पूर्णं जीवनं व्याप्य मौनी अस्मि। कारण यह है कि यदि अज्ञान है तो किसी भी अवस्था में उसका बाध नहीं हो।,कारणं हि यदि अज्ञानम्‌ अस्ति तर्हि कस्याम्‌ अपि अवस्थायां तस्य बाधः न स्यात्‌। आश्रितकरके निवास करता है यह उसका अर्थ है।,आश्रित्य निवसन्ति इति तदर्थः। दु:ख का कारण अधर्म होता है।,दुःखस्य कारणम्‌ अधर्मः। समानाधिकरण तत्पुरुषसमास कर्मधारय संज्ञक होता है।,समानाधिकरणः तत्पुरुषसमासः कर्मधारयसंज्ञको भवति । तृच्‌ प्रत्ययान्त और ण्वुल्‌ प्रत्ययान्त तृूजक अंश से स्वीकार किया गया है।,तृच्प्रत्ययान्ताः ण्वुल्प्रत्ययान्ताश्च तृजकेत्यंशेन स्वीक्रियन्ते। यदि धन है तो वह जाने के लिए योग्य है तथा अधिकारी भी है।,"यदि धनमस्ति तर्हि गमनाय योग्यः, सः अधिकारी।" तुम सुवर्ण रथ में आरूढ हो।,त्वं सुवर्णरथे आरूढा असि। किसी वेदग्रन्थ में देखा जाता है कि - `सदस्य' - नामक पुरोहित सत्तरह संख्या का परिपूरक होता है।,कस्मिंश्चित्‌ वेदग्रन्थे दृश्यते यत्‌ - 'सदस्यः' - इत्याख्यः पुरोहितः सप्तदशसंख्यायाः परिपूरको भवति। "“सनाद्यन्ता धातवः' इससे गोपाय इसकी धातु संज्ञा है, अतः उसके अन्त अकार की भी प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।","""सनाद्यन्ता धातवः"" इत्यनेन गोपाय इति धातुसंज्ञकः, अतः तस्य अन्तस्य अकारस्यापि प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः भवति।" "श्रौतसूत्र में अग्नित्रय आधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, पशुयाग और अनेक प्रकार के सोमयाग के विषयों का उल्लेख है।","श्रौतसूत्रेषु अग्नित्रयाधानम्‌, अग्निहोत्रम्‌, दर्शपूर्णमासः, पशुयागः इत्येते नानाविधाः सोमयागाश्चेति विषयाः समुपपादिताः।" "इकत्तीसवें अध्याय में प्रसिद्ध पुरुष सूक्त है, जिसमें ऋग्वेद की अपेक्षा से छः मन्त्र अधिक है।","एकत्रिंशदध्याये प्रसिद्धपुरुषसूक्तमस्ति, यस्मिन्नृग्वेदापेक्षया षट्‌ मन्त्रा अधिकाः सन्ति।" वेदान्त के द्वारा दुःख की निवृत्ति निश्चय पूर्वक होती है।,वेदान्तेन दुःखनिवृत्तिः निश्चयेन भवति। 16. अपूर्वता किसे कहते हैं।,१६. अपूर्वता नाम किम्‌? प्राणशालि होने से।,प्राणशालित्वात्‌। इस तत्त्व की आलोचना भगवान्‌ वेदव्यास ने अपने रचित ब्रह्मसूत्र के ` अभिमानिव्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम्‌' (ब्रह्मसृत्र २-१-५) - इस सूत्र में किया है।,अस्य तत्त्वस्य आलोचनं भगवान्‌ वेदव्यासः स्वरचितस्य ब्रह्मसूत्रस्य 'अभिमानिव्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम्‌'ब्रह्मसूत्र २-१-५) - इत्यस्मिन्‌ सूत्रे कृतवान्‌। चित्र चित्रीकरणे यह अन्य धातु है।,चित्र चित्रीकरणे इति अपरः धातुः अस्ति। भुवनपतिः यहाँ भुवन शब्द आद्युदात्त है।,भुवनपतिः इत्यत्र भुवनशब्दः आद्युदात्तः। अस्वपदविग्रह का नित्य समास का उदाहरण जैसेः:-कुपुरुषः।,अस्वपदविग्रहस्य नित्यसमासस्योदाहरणं यथा कुपुरुषः इति। व्याख्या - साधनभूत यज्ञ को उन्होंने पुरुष को पशुत्व भावना से बलि के लिए खूटे से बाँधा ऋषियों ने मानस यज्ञ में शुद्ध किया।,व्याख्या- यज्ञं यज्ञसाधनभूतं ते पुरुषं पशुत्वभावनया यूपे बद्धं बर्हिषि मानसे यज्ञे प्रौक्षन्‌ प्रोक्षितवन्तः। भोजन में कुछ भी विलम्ब सहन नहीं कर सकता है।,भोजने किञ्चिदपि विलम्बः सोढुं न शक्‍यते। ये दोनों अन्तिम आचार्य है।,उभौ एतौ अन्तिमाचार्यौ स्तः। उत्पन्न होते ही जगत के स्वामी हो गये।,उत्पन्नात्‌ परमेव जगतः स्वामी अभवत्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- अग्निम्‌ ईळे यह उदाहरण है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अग्निम्‌ ईळे इति उदाहरणम्‌ अस्ति। इसी प्रकार ईशावास्यमिदं सर्वम्‌ इति मन्त्रा अंश से आरम्भ होने के कारण ईशावास्य उपनिषद्‌ इस नाम से भी सुना जाता है।,एवम्‌ ईशावास्यमिदं सर्वम्‌ इति मन्त्रांशमादाय ईशावास्योपनिषदिति नामापि श्रूयते। """बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्‌"" यह डच्‌ प्रत्यय विधायक सूत्र है।","""बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्‌"" इति डच्प्रत्ययस्य विधायकम्‌।" जहाँ पर शक्यार्थ के परम्परासम्बन्ध से वाच्यार्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति होती है।,यत्र शक्यार्थस्य परम्परासम्बन्धेन वाच्यार्थात्‌ भिन्नस्य अर्थस्य प्रतीतिः भवति । ऋगादि वेद भी उसी यज्ञ से उत्पन्न हुए।,ऋगादिदेवा अपि तस्माद्‌ यज्ञाद्‌ जज्ञिरे। हरौ इस लौकिक विग्रह में हरि डि अधि इस अलौकिक विग्रह में अधिहरि रूप निष्पन्न होता है।,हरौ इति लौकिकविग्रहे हरि ङि अधि इत्यलौकिकविग्रहे अधिहरि इति रूपं निष्पद्यते। तब प्रकृत सूत्र से तद्धित में जित्‌ ञ प्रत्यय होने पर पूर्वशालाशब्द के आदि अच के ऊकार का वृद्धि होने पर औकार में पौर्वशाला अ रूप होता है।,तदा प्रकृतसूत्रेण तद्धिते ञिति ञप्रत्यये परे पूर्वशालाशब्दस्य आद्यचः ऊकारस्य वृद्धौ औकारे पौर्वशाला अ इति भवति। अच्‌ के चकार का “हलन्त्यम्‌'' इससे इत्संज्ञा होने पर “तस्यलोपः'' इससे लोप होने पर प्रतिसामन्‌ अ होता है।,"अचः चकारस्य ""हलन्त्यम्‌"" इत्यनेन इत्संज्ञायां ""तस्य लोपः"" इत्यनेन लोपे प्रतिसामन्‌ अ इति भवति।" इसलिए ये प्रमाणिक होते है।,अतः एताः प्रामाणिकाः भवन्ति। व्याकरणाध्यनकाले कुत्र अवधानं देयम्‌ बहुत जगह शास्त्रों में मूल के कण्ठपाठ भी आवश्यक नहीं होना चाहिए।,व्याकरणाध्यनकाले कुत्र अवधानं देयम्‌ - बहुत्र शास्त्रेषु मूलस्य कण्ठपाठः नापि आवश्यकः स्यात्‌। इहामुत्रफलभोगविराग यहाँ पर वैराग्य पद का अर्थ है।,इहामुत्रफलभोगविरागः अत्र वैराग्यपदार्थः। प्रथमतया सामान्यरूप से प्रश्‍न है पश्चात्‌ मुख कौन है इत्यादि विशेष विषयगत प्रश्‍न बताए गये है।,प्रथमं सामान्यरूपः प्रश्नः पश्चात्‌ मुखं किमित्यदिना विशेषविषयाः प्रश्नाः। निदिध्यासन की पक्वावस्था ही निर्विकल्प समाधि है।,निदिध्यासनस्य पक्वावस्था हि निर्विकल्पसमाधिः। ऋग्वेद के सारसंग्रह का परिचय भी यहाँ पर प्राप्त होता है।,ऋग्वेदस्य सारसंग्रहाणां परिचयोऽपि अत्र प्राप्स्यते। "मेरे में ही सभी जगत शुक्ति, चांदी के समान दिखाई देती है।",मयि हि सर्वं जगच्छुक्तौ रजतमिवाध्यस्तं स दृश्यते। इसलिए धर्मराजध्वरीन्द्र के द्वारा वेदान्तपरिभाषा मे कहा गया है कि “इसी प्रकार से तत्वमसि इस वाक्य में भी शक्ति के स्वतन्त्र उपस्थित तत्‌ तथा त्वम्‌ पदार्थों के अभेदान्वयक बाधक भाव से लक्षणा नहीं है।,"अतः एव धर्मराजाध्वरीन्द्रेण वेदान्तपरिभाषायां निगद्यते “एवमेव तत्त्वमसि इति वाक्ये अपि न लक्षणा, शक्त्या स्वातन्त्र्येण उपस्थितयोः तत्त्वम्पदार्थयोः अभेदान्वये बाधकाभावात्‌।" "छन्दसि च, घृतादीनां च, जेष्ठकनिष्ठयोर्वयसि, तृणधान्यानां च द्रव्यषाम्‌ इत्यादि सूत्र से फिट्‌-स्वर का प्रतिपादन किया है।","छन्दसि च, घृतादीनां च, जेष्ठकनिष्ठयोर्वयसि, तृणधान्यानां च द्रव्यषाम्‌ इत्यादिशास्त्रेण फिट्-स्वराः प्रतिपाद्यन्ते।" 6. कृधि इसका लौकिक रूप क्या है?,6. कृधि इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। "अचि यह सार्वधातुक इसका विशेषण है, उससे “विधिस्तदादावल्ग्रहणे' इस परिभाषा से उसके आदि में विधि होती है, उससे अजादि लसार्वधातुक में यह अर्थ प्राप्त होता है।","अचि इति लसार्वधातुके इत्यस्य विशेषणं तेन यस्मिन्‌ ""विधिस्तदादावल्ग्रहणे"" इत्यनया परिभाषया तदादिविधिः भवति, तेन अजादौ लसार्वधातुके इति प्राप्यते।" कारण यह है कि ब्रह्म अपरोक्षस्वभाव वाला होता है।,कारणं हि ब्रह्म अपरोक्षस्वभावं भवति। इसलिए इन सभी विषयों का विचार करके ही किन्हीं शब्दों के तात्पर्य को समझना चाहिए।,तस्मात्‌ एतान्‌ सर्वान्‌ विषयान्‌ विचार्य एव केनचित्‌ शब्दानाम्‌ तात्पर्यम्‌ अवगन्तव्यम्‌ इति। तिङन्त में स्वर विषयक सूत्रों की अच्छी प्रकार से आलोचना की है।,तिङन्ते स्वरविषयकानि सूत्राणि सम्यक्‌ आलोचितानि। उस आदिपुरुष से विराड्‌ उत्पन्न हुआ।,तस्माद्‌ आदिपुरुषाद्‌ विराड्‌ उत्पन्नः। "9 केवल लक्षणा किसे कहते हैं, उदाहरण पूर्वक लिखिए।","९. केवललक्षणा नाम किम्‌, उदाहरणेन लिख्यताम्‌?" कृणोति - कृ-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,कृणोति - कृ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌ । 5 कषाय होने पर योगी को क्या करना चाहिए?,५. कषाये सति योगिनः किं कर्तव्यम्‌? यस्य त्री पूर्णा ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,यस्य त्री पूर्णा... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। इससे उनमें अपने आप युक्ति समन्वित चिन्तन शक्ति का विकास होगा।,अनेन तेषु स्वतः युक्तिसमन्वितचिन्तनशक्तेः विकासः भविष्यति। यहाँ आम्बष्ठ्य शब्द ञ्यङन्तः है।,अत्र आम्बष्ठ्य इति शब्दः ञ्यङन्तः अस्ति। जातिवाचक अनुपसर्जन अञन्त और अदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीन्‌ प्रत्यय होता है।,जातिवाचकात्‌ अनुपसर्जनात्‌ अञन्तात्‌ अदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीन्‌ प्रत्ययः परः भवति। 44. “प्रायेण अन्य पदार्थ प्रधानः बहुव्रीहिः” यह बहुव्रीहि समास का लक्षण है।,"४४. ""प्रायेण अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः"" इति बहुव्रीहिसमासस्य लक्षणम्‌।" ये नाम वैदिक साहित्य में अन्य जगह दुर्लभ हैं।,एतानि नामानि वैदिकसाहित्येऽन्यत्र दुर्लभानि सन्ति। व्यृद्धि अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण दुर्यवनम्‌।,व्यृद्ध्यर्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति दुर्यवनम्‌ इति। इस प्रकार से चैतन्यभासित बुद्धिवृत्ती है ज्ञान तथा करण के द्वारा आत्मा के आवरक अज्ञान का नाश करते आत्मा को प्रकाश मान बनाती है।,इत्थम्‌ चैतन्यभासितया एव बुद्धिवृत्त्या ज्ञानेन करणेन आत्मावरकस्य अज्ञानस्य नाशद्वारा आत्मा प्रकाशते। अतः इसका निरोध भी नहीं है तथा जीव की उत्पत्ति भी नहीं है।,अतः निरोधः नास्ति। जीवस्य उत्पत्तिः अपि नास्ति। अग्नि को उपलक्षित करके समस्त भूतपदार्थ उत्पन्न करने के बाद गर्भ से उत्पन्न प्रजापति ने धारण किया।,अग्न्युपलक्षितं सर्व वियदादिभूतजातं जनयन्तीः जनयन्त्यः तदर्थं गर्भं हिरण्मयाण्डस्य गर्भभूतं प्रजापतिं दधानाः धारयन्त्यः । "जब वह लकडी के घर्षण से उत्पन्न तब वह देवों का वाहक है, देवों के प्रति दी गई हवि का वाहक घोड़े के समान ही यागरूप से रथ के साथ यजमान के द्वारा जोड़ा जाता है इस प्रकार का भी कहीं पर वर्णन प्राप्त होता है।",यदा सः अरणिप्रघर्षनाद्‌ उत्पाद्यते तदा स देवानां वाहकस्तथा देवान्‌ प्रति दत्तानां हविषां वाहकः अश्व इव यागरूपेण रथेन सह यजमानैर्युज्यते इत्यपि क्वचिद्‌ वर्णितम्‌। "विशेष - पद के आदि में नहीं, पद अभाव से सूत्र का अर्थ होता है की पद से पर विद्यमान सम्पूर्ण आमन्त्रित पद को अनुदात्त स्वर होता है।",विशेषः - अपादादौ इति पदाभावात्‌ सूत्रस्य अर्थः भवति यत्‌ पदात्‌ परं विद्यमानस्य सम्पूर्णस्य आमन्त्रितस्य पदस्य अनुदात्तस्वरः भवति इति। अतः सूत्र का अर्थ है “भाषित पुंसक से ऊङ अभाव है जिसमें तथाभूत स्त्रीलिङक पूर्व पद का कर्मधारय में जाति और देश के पर में होने पर पुंसकवाचक का ही रूप होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ - ""भाषितपुंस्कात्र ऊङोऽभावो यस्मिन्‌ तथाभूतस्य स्त्रीलिङ्गकस्य पूर्वपदस्य कर्मधारये जातीयदेशीययोश्च परतः पुंवाचकस्येव रूपं भवति"" इति।" प्रय आ रुः यहाँ पर ये यह यत्‌ शब्द का प्रथमा बहुवचन फिट स्वर से 'फिषोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से अन्त उदात्त है।,प्रय आ रुः इत्यत्र ये इति यच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनं फिट्स्वरेण 'फिषोऽन्त उदात्तः' इति सूत्रेण अन्तोदात्तम्‌। तब तक अनित्यवस्तु में वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है।,तावत्‌ अनित्ये वस्तुनि वैराग्यं न उत्पद्यते। शिवज्ञान के द्वारा जीवसेवा इसका अर्थ जीवो में शिवत्व का आरोप करके जीव साक्षात्‌ शिव को सेवा करता है।,शिवज्ञानेन जीवसेवा इत्यस्य अर्थः जीवेषु शिवत्वम्‌ आरोप्य जीवः साक्षात्‌ शिवः इति निःसंशयं निश्चित्य तस्य सेवनम्‌। द्यूतकार पतिव्रता अपनी पत्नी को भी द्यूत क्रीडा में मुद्रा के रूप से स्थापित करता है।,द्यूतकारः पतिव्रतां स्वपत्नीम्‌ अपि द्यूतक्रीडायां पणरूपेण स्थापयति । शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा और काण्व शाखा दो शाखा है।,"शुक्लयजुर्वेदस्य माध्यन्दिनशाखा, काण्वशाखा चेति द्वे शाखे।" वैदिक काल में ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य के लिए प्रतिदिन अग्निहोत्र अनिवार्य था।,वैदिककाले ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यैः प्रत्यहम्‌ अग्निहोत्रम् अनुष्ठेयम् आसीत्‌। विविदिषु कर्मयोग अनुवर्तन चित्तशुद्धि होने तक करना चाहिए।,विविदिषुः कर्मयोगम्‌ अनुवर्तयति चित्तशुद्धिं यावत्‌। विश्व में भाई किस प्रकार का होना चाहिए उसको बताने के लिये इस सूक्त को लिखा गया है।,विश्वे भ्रातृत्वं कीदृशं भवितव्यमिति बोधयितुमेव प्रवृत्तमिदं सूक्तम्‌। अत: दोषयुक्त यह लक्षण है।,अतः दोषयुक्तमपि इदं लक्षणम्‌ अस्ति। 4 सभी कौ विदेह मुक्ति होती हैं अथवा नहीं?,४.सर्वेषां विदेहमुक्तिः भवति वा? विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु इस सूत्र से किसका विधान है?,विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु इति सूत्रेण किं विधीयते? सूत्रार्थ-तत्पुरुष इस सूत्र से प्राक्‌ अव्ययीभावः इति अधिकार। सूत्र व्याख्या-पाणिनीय सूत्रों में यह अधिकार सूत्र है।,सूत्रार्थः - तत्पुरुषः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक्‌ अव्ययीभावः इत्यधिकारः। सूत्रव्याख्या - पाणिनीयसूत्रेषु इदम्‌ अधिकारसूत्रम्‌। सम्पत्ति क्या होती है?,सम्पत्तिः का। प्राचीन काल में इस संहिता की विशेष ख्याति थी।,पुरा अस्याः संहितायाः विशिष्टा ख्यातिः आसीत्‌। “प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः” इस परिभाषा से तदन्त विधि में पञ्चमी इसके द्वारा पञ्चम्यन्त सुबन्त को ग्राह्य करना चाहिए।,"""प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः"" इति परिभाषया तदन्तविधौ पञ्चमी इत्यनेन पञ्चम्यन्तं सुबन्तं ग्राह्यम्‌।" वान्ति - वा-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,वान्ति - वा - धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । "व्याख्या - हे अग्नि तुम जो यज्ञ को विश्व की सभी दिशाओं के चारों ओर से व्याप्त हो, वह ही यज्ञ में देवों की तृप्ति के लिए स्वर्ग में जाती है।",व्याख्या- हे अग्ने त्वं यं यज्ञं विश्वतः सर्वासु दिक्षु परीभूः परितः प्राप्तवान्‌ असि सः इत्‌ स एव यज्ञो देवेषु तृप्तिं प्रणेतुं स्वर्गे गच्छति। चारों युगों की सहस्रावाधि ब्रह्मा का दिन कहा जाता है।,चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणः दिनमुच्यते। "इस सम्बन्ध में इस प्रकार के मन्त्र है, जो शारीरिक दुर्बलता से, मानसिक त्रुटि से, दुःस्वप्न, अपशकुन आदि का निराकरण करें, और उनसे हटा देते है।","एतत्सम्बन्धिनः एवंविधाः मन्त्राः सन्ति यैः शारीरिकदुर्बलता, मानसिकत्रुटि, दुःस्वप्न, अपशकुनादीनां निराकरणम्‌ अपसरणञ्च भवति।" इससे पूर्वपाठ में उसके लिए अवस्थात्रय का विचार तथा शरीरत्रय का विचार भी किया गया है।,पूर्वस्मिन्‌ पाठे तदर्थम्‌ अवस्थात्रयविचारः शरीरत्रयविचारश्च कृतौ। शुक्लयजुर्वेद में केबल वज्र का ही नहीं वायु के साथ ही नहीं अपितु सूर्य के साथ भी रुद्र का अभिन्नत्व अनेक मन्त्रों के द्वारा प्रतिपादित किया है।,"शुक्लयजुर्वेदे न केवलं वज्रस्य वातस्य, अपि तु सूर्येण साकं रुद्रस्य अभिन्नत्वं नैकन मन्त्रेण प्रतिपादितम्‌।" आशा शब्द किस सूत्र से अन्तोदात्त है?,आशाशब्दः केन सूत्रेण अन्तोदात्तः वर्तते ? ऋग्वेद में व्याकरण के किस रूप का प्रतिपादन किया है?,ऋग्वेदे व्याकरणं किंरूपकत्वेन प्रतिपादितम्‌? सौत्रामणि यज्ञ में सोमरस के साथ सुरापान का भी विधान है।,सौत्रामणियज्ञे सोमरसेन सह सुरापानस्याऽपि विधानं वर्त्तते। "“पदस्य', “पदात्‌', और ` अनुदात्तं सर्वमापादादौ' है।","'पदस्य', 'पदात्‌“, 'अनुदात्तं सर्वमापादादौ' चेति।" सरलार्थ- इस मन्त्र में अग्नि के प्रति कहते है की हे अग्नि तुम जैसे हिंसा रहित यज्ञ के चारों ओर व्याप्त होकर रहते हो वह यज्ञ अवश्य देवों की ओर जाता है।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे अग्निं प्रति उच्यते यत्‌ हे अग्ने त्वं यथा हिंसारहितं यज्ञं परितः व्याप्नोषि तेन अवश्यं यज्ञः देवान्‌ प्रति गच्छति। "तु, पश्य, पश्यत, अह से युक्त तिङन्त को पूजा के विषय में किस सूत्र से अनुदात्त नहीं होता है?",तुपश्यपश्यताहैः युक्तं तिङन्तं पूजायाः विषये न अनुदात्तं भवति केन सूत्रेण? कल्मषों के निकल जाने से जिसका अन्तः करण नितान्त निर्मल है।,कल्मषापगमात्‌ यस्य अन्तःकरणं नितान्तं निर्मलम्‌ अस्ति। यह अनुष्ठान सोमाभिषव अथवा सोमसवन कहलाता है।,इदम्‌ अनुष्ठानं सोमाभिषवः सोमसवनं वा इति उच्यते। जघन्वान्‌ - हन्‌-धातु से लिट्‌ अर्थ में क्वसुन्प्त्यय करने पर प्रथमपुरुष एकवचन में जघन्वान्‌ यह रूप है।,जघन्वान्‌ - हन्‌-धातोः लिट्यर्थ क्वसुन्प्रत्यये प्रथमपुरुषैकवचने जघन्वान्‌ इति रूपम्‌। शाक पूर्णि ने किसी की व्याख्या करते हुए कहा -विष्णु ने तीन पैर के द्वारा तीनो भवनों को पार कर लिया तीन भाव के द्वारा पृथिवी अन्तरिक्ष और दिव में।,शाकपूर्णिः नाम कश्चित्‌ व्याख्याता आह - विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्याम्‌ अन्तरिक्षे दिवि इति। पुरुष: पद का अर्थ है पुरुष।,पुरुषः इति पदस्य च पुरुष इत्यर्थः। 6. प्रजापतिसूक्त का सार लिखिए।,६. प्रजापतिसूक्तस्य सारं लिखत। अतः यह समास तृतीयातत्पुरुषसमास कहा जाता है।,अतः अयं समासः तृतीयातत्पुरुषः इत्यभिधीयते। सूत्र का अर्थ - अतिङन्त पद से उत्तर जो तिङ पद उसको अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - अतिङन्तात्‌ पदात्‌ परं तिङन्तं सर्वम्‌ अनुदात्तं भवति। "साधनचतुष्टय में अन्यतम साधन हैं , शमादिष्टसम्पत्ति उस सम्पत्ति में द्वितीय भाग दम होता है।",साधनचतुष्टये अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः। तत्सम्पत्तौ द्वितीयो दमः। इसका तात्पर्य है कि सुबन्त का सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,एतस्य तात्पर्यं तावत्‌ सुबन्तं सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। अत्राह तर्दुरुगायस्य वृष्ण॑ः परमं पदमव भाति भूरि॥,अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं प॒दमव॑ भाति भूरि॥ ६।। श्रद्धासुक्त में तो देवतास्वरूप से ही श्रद्धा का चित्रण किया है।,श्रद्धासुक्ते तु देवतास्वरूपेणैव श्रद्धा चित्रिताऽस्ति। यातः - या-धातु से क्विप तुक्‌ आगम होने पर यातृ यह रूप बना।,यातः - या-धातोः क्विपि तुगागमे यातृ इति रूपम्‌। उदाहरण -तृतीयान्त का तृतीयान्तार्थ गुण और वचन के साथ समास में इस सूत्र का उदाहरण है शङ्कुलाखण्डः है।,उदाहरणम्‌ - तृतीयान्तस्य तृतीयान्तार्थगुणवचनेन सह समासे एतस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति शङ्कुलाखण्डः इति। अत एव कर्मों के साथ तत्त्वप्रतिपादनपरक सूक्त स्थान-स्थान पर उल्लेखित किये गये है।,अत एव कर्मभिः सह तत्त्वप्रतिपादनपरं सूक्तं स्थाने स्थाने समाम्नातम्‌। और वह फल देवों की सन्तुष्टी के लिए देव ही पाते हैं।,तच्च फलं देवानां सन्तुष्टेः परं देवेभ्य एव लभ्यते। मन जाग्रतावस्था में पुरुष से दूर जाता है।,मनः जाग्रतः पुरुषात्‌ दुरं गच्छति। क्षिप्तमूढ विक्षिप्त अवस्था ही चित्त की व्युत्थानावस्था है।,क्षिप्त-मूढ-विक्षिप्तावस्था हि चित्तस्य व्युत्थानावस्थाः। सरलार्थ - सोने से निर्मित इनके रथ की थुन लौह निर्मित है।,सरलार्थः- हिरण्यनिर्मिताः अनयोः रथस्य स्थूणाः लोहनिर्मिताः। जीव अन्तः करण अवच्छिन्न चैतन्य को जानना चाहिए।,जीवो नाम अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यमिति ज्ञेयम्‌। यह शौनक बृहद्देवता का निर्माता है।,अयं शौनको बृहद्देवतायाः निर्माताऽस्ति। तब में तुम्हारी रक्षा करूँगी।,तदा अहं त्वां रक्षिष्यामि। "ईश्वर साकार, निराकार, साकार तथा निराकार के द्वारा भिन्न भी, तथा वह इस प्रकार से ऐसा है ऐसा नहीं कहा जा सकता है।","'ईश्वरः साकारः, निराकारः, साकारनिराकाराभ्यां भिन्नोऽपि, स एवमित्थमिति वक्तुं न।" वृद्धावस्था में बाल्य तथा कौमार आदि अवस्थाओं से अत्यन्त ही भिन्न होता है।,वार्धक्ये बाल्याद्‌ कौमाराच्च शरीरम्‌ अत्यन्तं भिन्नमस्ति। इसलिए गङगा में घोष इस वाक्य के मुख्यार्थ का विरोध होने पर मुख्यार्थ का परित्याग करके लक्षणा के द्वारा उससे सम्बन्धित तीर में घोष के अवस्थान सम्भव से यहाँ पर जहत्‌ लक्षणा स्वीकार की जाती है।,अतः गङ्गायां घोषः इति वाक्यस्य मुख्यार्थे विरोधे सति मुख्यम्‌ अर्थं परित्यज्य लक्षणया तत्सम्बन्धिनि तीरे घोषस्य अवस्थानसम्भवात्‌ जहल्लक्षणा अत्र स्वीक्रियते। "इनेक इसी क्रम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध ये विषय होते है।",यथाक्रमं शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः तेषां विषयाश्च भवन्ति। एक शिक्षक अंकित -मूल्यांकन प्रपत्र दिया जायेगा।,एकं शिक्षकाङ्कित-मूल्याङ्कनप्रपत्रम्‌ प्रदास्यते। सुख से उपाय है जिसका वह सूपायनः कहलाता है।,सुखेन उपायनं यस्य सः सूपायनः। 12.किस न्याय के द्वारा दुर्विज्ञेय आत्मा का प्रतिपादन किया जाता हे?,१२. केन न्यायेन दुर्विज्ञेयस्य आत्मनः प्रतिपादनं क्रियते? "वहाँ पहले दिन यजमान पुरोहितों को अभिनन्दन करता है, और दक्षिणा की प्रति श्रुति देकर तथा यज्ञ का नियोजन होता है।","तत्र प्रथमदिवसे यजमानः पुरोहितान्‌ अभिनन्दति, दक्षिणायाः प्रतिश्रुतिं प्रदाय यज्ञे नियोजयति च।" अध्यात्म प्रकरण में मुख्य रूप से ब्रह्मजीव विषय पर और परमात्मा विषय पर वर्णन है।,"अध्यात्मप्रकरणे-मुख्यतः ब्रह्मजीवविषयकम्‌, परमात्मविषयकं च वर्णनम्‌ अस्ति।" उससे इस सूत्र का यह अर्थ होता है- क्षय शब्द का आदि उदात्त होता है निवास अर्थ में।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति क्षयशब्दस्य आदिः उदात्तः भवति निवासे अर्थे इति। “यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्‌ प्रयोजनम्‌” (1.1.24) यह गौतमीय सूत्र भी कहता है की जिस-जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए कोई भी पुरुष किसी भी कार्य में प्रवृत्त होता है वह ही प्रयोजन कहलाता है।,"“यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्‌ प्रयोजनम्‌”(१.१.२४) इति गौतमीयं सूत्रम्‌ अपि कथयति यत्‌ यद्‌ वस्तु अधिकृत्य अर्थात्‌ यस्य वस्तुनः प्राप्तये पुरुषः कस्मिन्नपि कार्ये प्रवृत्तः भवति, तद्‌ वस्तु एव प्रयोजनम्‌।" सभी प्रकार के बाह्यप्रयत्नों को छोड़कर के बिना कम्पन किए बैठने के द्वारा आकाशादि अनंत विषयों में मन के समाधान से के द्वारा आसनसिद्धि होती है।,सर्वविधबाह्यप्रयत्नं वर्जयित्वा निष्कम्पतया उपवेशनेन आकाशादिषु अनन्तविषयेषु मनःसमाधानेन च आसनसिद्धिः सम्भवति। "जाति, व्यक्ति और लिङ्ग।",जातिः व्यक्तिः लिङ्गं चेति। मालावरीय नारायण भट्ट द्वारा रचित सूक्त श्लोक प्राप्त होते हैं।,मालावारीयेण नारायणभट्टन विरचितः सूक्तश्लोकः समुपलब्धो भवति। इसलिए प्रतिपाद्यमान फल के लाभ के लिए अधिकारी सुस्पष्ट होना चाहिए।,अतः प्रतिपाद्यमानस्य फलस्य लाभे अधिकारी इति सुस्पष्टम्‌। और यहाँ बहुव्रीहि समास है।,अत्र च बहुव्रीहिसमासः अस्ति। "सरलार्थ - सृष्टि की शक्ति का धारक, सृष्ट्युत्पत्ति रूप यज्ञ के उत्पादक जलसमूह जो भूमिरूप में दिख रहा है, जो देवों का अद्वितीय स्वामी है, उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।","सरलार्थः- सृष्टिशक्तिधारकः सृष्ट्युत्पत्तिरुपयज्ञोत्पादकः जलसमूहं स्वमहम्ना यः पश्यति, यः देवानाम्‌ अद्वितीयः स्वामी तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम।" 6. निगलने अर्थ में।,६. निगरणम्‌। इस पाठ में देवीसूक्त और श्रद्धासूक्त दो सूक्तों को लिया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे देवीसूक्तं श्रद्धासूक्तं चेति सूक्तद्वयम्‌ अन्तर्भवति। और अध्यात्म के भी विश्व तैजस प्राज्ञ भेद से तीन रूप होते हैं।,अध्यात्मं तु विश्वतैजसप्राज्ञभेदेन त्रीणि रूपाणि। तीन धातु से तीन काल से अथवा तीन गुण से धारण किया हुआ हेै।,त्रिधातु कालत्रयं गुणत्रयं वा दाधारेत्यन्वयः। सह शब्द का स आदेश होता है।,सहशब्दस्य सादेशो विधीयते। "जैस ऋत्वकि का कर्म यजमान का तथा देहादि का कर्म आत्मा का होता है, फल के आत्मगामित्व से।","यथा च ऋत्विक्कर्म यजमानस्य, तथा देहादीनां कर्म आत्मकृतं स्यात्‌ , फलस्य आत्मगामित्वात्‌।" क्त प्रत्यय की और क्तवतु प्रत्यय की निष्ठा संज्ञा होती है।,क्तप्रत्ययस्य क्तवतुप्रत्ययस्य च निष्ठासंज्ञा भवति। फिर भी जो यह जीवब्रह्म का अभेद प्रतिपादित है वह अभेद वास्तविक भेद है अथवा नहीं इस प्रकार का संशय उत्पन्न होता है।,तथापि योऽयं जीवब्रह्मणोः अभेदः प्रतिपाद्यते सः अभेदः वास्तविक उत भेद इति संशयो जायते। वेदान्त में अधिकारी के वैराग्य का प्रतिपादन कीजिए।,वेदान्ते अधिकारिणो वैराग्यं प्रतिपादयत। "यहाँ जो देवों के लिए यज्ञ कर रहा है या जो देवोंका पुरोहित है, उस प्रजापति की उत्पत्ति का वर्णन है।","अत्र यो देवेभ्यः आतपति, यो देवां पुरोहितः स प्रजापतिः जातः।" तव्यत्प्रत्ययान्त से निषेध होने पर ब्राह्मणस्य कर्तव्यम्‌ इसका यहाँ उदाहरण है।,तव्यप्रत्ययान्तेन निषेधे ब्राह्मणस्य कर्तव्यम्‌ इत्याद्यत्रोदाहरणम्‌। 4 पञ्चीकरण की प्रक्रिया का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन कीजिए?,४. पञ्चीकरण प्रक्रियां विस्तरेण प्रतिपाद्यताम्‌। "इस पाठ में उन सूत्रों के व्याख्यान है, उदाहरण, और उदाहरण सङ्गति का यहाँ प्रदर्शन किया है।","पाठे अस्मिन्‌ तेषां सूत्राणां व्याख्यानम्‌, उदाहरणम्‌, उदाहरणसङ्गतिश्च प्रदर्श्यते।" वेदाङ्गो का ज्ञान सम्पूर्ण वेद ज्ञान के लिए अत्यंत आवश्यक ही है।,वेदाङ्गानां ज्ञानं निखिलवेदज्ञानाय अत्यावश्यकम्‌ एव। इन दोनों प्रकार की उपासनाओं के भी अपने फल होते हैं।,एषां द्विविधानाम्‌ अपि उपासनानां स्वकीयानि फलानि सन्ति। देवब्रह्मणोरनुदात्तः इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,देवब्रह्मणोरनुदात्तः इति सूत्रं व्याख्यात। सू: - षूङ्‌ प्राणिगर्भविमोचने इस धातु से क्विप करने पर सू: यह रूप बनता है।,सूः - षूङ्‌ प्राणिगर्भविमोचने इति धातोः क्विपि सूः इति रूपम्‌। और नहीं गुरु के समीप जाकर के श्रवणादि करना चाहिए।,नापि गुरुसमीपं गत्वा श्रवणादिकं कर्तव्यम्‌ इति। "( क) प्राचीन गद्य उपनिषद्‌ - जो गद्य ब्राह्मण गद्य के समान ही प्राचीन, लघुकाय और सरल है।","(क) प्राचीनगद्योपनिषदः- यासां गद्यं ब्राह्मणगद्यमिव प्राचीनं, लघुकायं सरलं च अस्ति।" 79. “ अनश्च'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"७९ . ""अनश्च"" इत्यस्य सूत्रस्य कः अर्थः?" वेदान्तसार में सादनन्द योगीन्द्र ने कहा है - “एवम्‌ अस्य अङिगनः निर्विकल्पककस्य लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादलक्षणाः चत्वारः विघ्नाः सम्भवन्ति” इति।,उक्तं च वेदान्तसारे सदानन्दयोगीन्द्रेण - “एवम्‌ अस्य अङ्गिनः निर्विकल्पकस्य लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादलक्षणाः चत्वारः विघ्नाः सम्भवन्ति” इति। शब्दावली-समास प्रकरण में बाहुल्य से प्रयुक्त कुछ पारिभाषिक शब्दों का परिचय नीचे दिया जा रहा है।,शब्दाबली - समासप्रकरणे बाहुल्येन प्रयुक्तानां केषाञ्चित्‌ पारिभाषिक शब्दानां परिचयः अधस्तात्‌ दीयते। लेकिन पहली कक्षा में पढ़ता हुआ छात्र बारहवीं कक्षा के योग्य नहीं होता है।,परन्तु प्रथमकक्षां पठन्‌ छात्रः न द्वादशकक्षायोग्यः। अक्षशौण्डः इसका विग्रह वाक्य अक्षेषु शौण्डः है।,अक्षशौण्डः इत्यस्य विग्रहवाक्यं अक्षेषु शौण्डः इति। "इस संहिता के अपने ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषत्‌, श्रौतसूत्र, तथा गृह्यसूत्र आदि अक्षुण्ण हैं।",अस्याः संहितायाः स्वकीयाः ब्राह्मण- आरण्यक-उपनिषत्‌-श्रौतसूत्र-गृह्यसूत्रप्रभृतयः अक्षुण्णाः सन्ति। """द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम्‌"" ""गोरतद्धितलुकि"" इस सूत्र वार्तिक में द्विगुसमास का रूप निष्पादन में उपयोगी है।","""द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम्‌"" ""गोरतद्धितलुकि"" इति सूत्रवार्तिके च द्विगुसमासस्य रूपनिष्पादने उपयोगिनी।" यहाँ स्थूलदेह के अभाव से सृक्ष्मदेह में अभिमान होता है।,अत्र स्थूलदेहाभावात्‌ सूक्ष्मदेहे एव अभिमानो भवति। "12. चित्त के चाञ्चल्यों से विक्षेप होता है,विषयों के प्रति चित्त का आकर्षण विक्षेप कहलाता है।","१२. चित्तस्य चाञ्चल्यम्‌ एव विक्षेपः, विषयान्‌ प्रति चित्तस्य आकर्षणं विक्षेपः।" "देवदर्श के चार शिष्य थे - ब्रह्मवलि, पिप्पलाद, शौष्कायणि, और शौक्लायनि।",देवदर्शस्य चत्वारः शिष्याः आसन्‌ - ब्रह्मवलिः पिप्पलादः शौष्कायणिः अथवा शौक्लायनिः च। इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे- रुद्रदेव के रूप को समझ पाने में। शुक्लयजुर्वेद के रुद्राध्याय को सस्वर पढ़ पाने में। रुद्र अध्याय में स्थित मन्त्रों का अर्थ ज्ञान कर पाने में। वैदिक मन्त्रों की व्याख्यान की पद्धति को जान सकने में। रुद्र के माहात्म्य को जान पाने में। स्वयं ही मन्त्र की व्याख्या कर पाने में। स्वयं ही मन्त्र का अन्वय कर पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌- रुद्रदेवस्य तथा शिवस्य रूपं ज्ञातुं शक्ष्यति। शुक्लयजुर्वेदस्य रुद्राध्यायं सस्वरं पठितुं शक्ष्यति। रुद्राध्याये स्थितानां मन्त्राणाम्‌ अर्थं ज्ञातुं शक्ष्यति। वैदिकमन्त्रव्याख्यानस्य पद्धतिं ज्ञातुं शक्ष्यति। रुद्रस्य माहात्म्यं ज्ञातुं शक्ष्यति। स्वयमेव मन्त्रस्य व्याख्यानं कर्तु समर्थो भवेत्‌। स्वयमेव मन्त्रस्य अन्वयं कर्तु समर्थो भवेत्‌। कितव ने इस शिक्षा को मनुष्यों में प्रचार किया की - ` अक्षैर्मा दीव्य कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः’ इति।,"कितवः एनां शिक्षां जनेषु प्रचारयति यत्‌ - "" अक्षैर्मा दीव्य कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः "" इति ।" इससे अध्ययन सायण भाष्य में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है।,आसामाध्ययने तु पञ्चत्वं भवति।' सायणभाष्येऽपि अस्योल्लोखः प्राप्यते। अतः उसको अनुदात्त नहीं होता है।,अतः तत्‌ अनुदात्तं न भवति। 59. “ आनुपूर्व्यार्थे अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?,५९. आनुपूर्व्यार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? यजुर्वेद शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का होता है।,यजुर्वेदः शुक्लकृष्णभेदेन द्विविधो भवति। महाभाष्य में कितनी शाखा का निर्देश हे?,महाभाष्ये कति शाखाः निर्दिष्टाः? "यज्ञ में ऋत्विज कितने होते है, और वे कौन कौन से है?","यज्ञे कति ऋत्विजो भवन्ति, के च ते?" जब मन स्थिर होता है अर्थात्‌ मन में देहादि प्रत्ययों का आविर्भाव नहीं होता है।,"यदा मनः स्थिरं भवति, अर्थात्‌ मनसि देहादिप्रत्ययाः न आविर्भवन्ति।" एक प्रस्तर खण्ड पर सोमलता को स्थापित करके उसके ऊपर 'वसतीवरी' नामक जल का सिञ्चन करते हैं।,एकस्मिन्‌ प्रस्तरखण्डे सोमलतां संस्थाप्य तदुपरि 'वसतीवरी' इति नामकस्य जलस्य सिञ्चनं करणीयम्‌। कब प्राप्त करता है?,कदा प्रोप्नोति। 16. नित्यादि कर्मो से भी अधिक नाम जप की क्या विशेषता हे?,१६. नित्यादिकर्मभ्योऽपि नामजपस्य को विशेषः। विवेचना विषय पर भी अंतर दिखते हैं।,विविच्यविषयेऽप्यन्तरं दृश्यते। "कुछ इन्द्र का असुर वध को आर्यों द्वारा अनार्य के वध का प्रतीक कहते हैं, और कुछ सुर्य द्वारा असुरनाश भी कहते हैं।","केचन इन्द्रस्य असुरवधः इति आर्याणाम्‌ अनार्यवधस्य प्रतीकम्‌ इत्याहुः, केचन वा सूर्येण असुरनाशः कल्प्यते।" 5. प्रकरण में प्रतिपाद्य वस्तु के प्रतिपाद्य स्थल में प्रशंसा अर्थवाद कहलाती है।,५. प्रकरणे प्रतिपाद्यस्य वस्तुनः प्रतिपाद्यस्थले प्रशंसनम्‌ अर्थवादः। ऋचाओं में शब्दो की संख्या १५३८२३ है।,ऋचां शब्दानां संख्या १५३८२३ वर्तते। बहुत से दर्शन सुख प्रतिपादन में प्रवृत्त हैं और कुछ उनके विरुद्ध है।,बहूनि दर्शनानि सुखप्रतिपादनाय प्रवृत्तानि विरुध्यन्ते। इसमें चालीस अध्याय है।,अस्य चत्वारिंशत्‌ अध्यायाः सन्ति। इस सूत्र से वाच आदि शब्दों के दोनों वर्ण उदात्त हो।,अनेन सूत्रेण वाचादीनां शब्दानाम्‌ उभौ वर्णौ उदात्तौ भवतः। 'महान्तं कोशम्‌...' इस मन्त्र को पूर्ण करो।,महान्तं कोशम्‌ .... इति मन्त्रं पूरयत । वेदान्त में प्रधान रूप से द्वैत-विशिष्टाद्वैत अचिन्त्यभेदाभेदा अभिधेय तत्व है।,वेदान्ते प्रधानतः द्वैत-विशिष्टाद्वैत- अचिन्त्यभेदाभेदाभिधेयानि तत्त्वानि सन्ति। अव्यय से युक्त तिङन्त में उदाहरण जैसे- अङग कुरु इत्यादि।,अव्यययुक्ते तिङन्ते उदाहरणं यथा अङ्ग कुरु इत्यादि। ऋग्वेद अष्टक-अध्याय-सूक्त भेद से तथा मण्डल-अनुवाक-वर्ग भेद से विभक्त है।,ऋग्वेदः अष्टक-अध्याय-सूक्तभेदेन तथा मण्डल-अनुवाक-वर्गभेदेन विभक्तः। यहाँ पर और समाहार में वाक्याधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।,समाहारे इत्यत्र च वाच्याधिकरणे सप्तमी । अयजन्त - यज्‌-धातु से लङ्‌ लकार आत्मनेपद प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,अयजन्त- यज्‌-धातोः लङि आत्मनेपदे प्रथमपुरुषबहुवचने। वह सर्व कर्म संन्यास सहित ज्ञाननिष्ठा के द्वारा आत्यन्तिक संसारों पर इस प्रकार से सिद्ध होता है।,ततश्च संर्वकर्मसंन्याससहितज्ञाननिष्ठया आत्यन्तिकः संसारोपरम इति सिद्धम्‌। इसका प्रधान कार्य सभी कार्यो पर अच्छी प्रकार से निरीक्षण करना तथा होने वाली त्रुटी को हटाना।,अस्य प्रधानकार्य सर्वत्र कार्येषु सम्यक्तया निरीक्षणं तथा सम्भावितायाः त्रुट्याः मार्जनम्‌ इति। "वृषायमाणः - वृष इव आचरन्‌ इस अर्थ में क्यङ्, दीर्घ शानच् और मुगाग करने पर वृषायमाणः यह रूप बनता है।",वृषायमाणः - वृष इव आचरन्‌ इत्यर्थ क्यङि दीर्घे शानचि मुगागे वृषायमाणः इति रूपम्‌। इसलिए अङ्ग सहित वेद ही पढ़ने चाहिए।,तस्मात्‌ साङ्गाः एव वेदाः अध्येयाः। यदि किसी धर्म का मार्ग ईश्वरतत्व का उपदेश नहीं देता है तो उन धर्म प्रवर्तकों का अनुभव भी मिथ्या ही है।,"अपि च, कृत्स्नैः धर्ममार्गैः यदि ईश्वरतत्त्वं न उपदिश्येत तर्हि तत्तद्धर्मप्रवर्तकानाम्‌ अनुभवो अपि मिथ्यात्वेन पर्यवस्येत।" प्रपूर्वक ज्ञाधातु से ल्युट्प्रत्यय करने पर (अन्‌) प्रज्ञानम्‌ रूप बनता है।,प्रपूर्वकात्‌ ज्ञाधातोः ल्युट्प्रत्यय ( अन्‌ ) प्रज्ञानम्‌ इति रूपम्‌। इसलिए शास्त्रों को अनुभवसिद्ध लोगों के द्वारा लिखे गये के रूप में स्वीकार करना चाहिए।,अतः शास्त्राणि अनुभवविद्किरेव लिखितानीति स्वीकार्यम्‌। इस सूत्र में तीन पद विराजमान है।,अस्मिन्‌ सूत्रे पदत्रयं विराजते। "2. “द्विगुश्च"" इस सूत्र का क्या अर्थ है?","२. द्विगुश्च"" इति सूत्रस्यार्थः कः।" फिर भी यदि वह वेदान्त अधिकारी आवश्यक कहे गये लक्षणों से सम्पन्न नहीं होता है तो उसे कहे गये फल की प्राप्ति नहीं होती है।,तथापि स यदि वेदान्ताधिकारिणि आवश्यकैः प्रोक्तलक्षणैः सम्पन्नः न स्यात्‌ तर्हि प्रोक्तं फलं न लभेत। और उससे दामन्‌ डाप्‌ स्थिति होती है।,तेन च दामन्‌ डाप्‌ इति स्थितिः भवति। पुरुषसूक्त भी ऐसा ही सूक्त है।,पुरुषसूक्तमपि एवमेव सूक्तम्‌ अस्ति। 17. अधिकारी विषय सम्बन्ध तथा प्रयोजन इस प्रकार से चार अनुबन्ध होते है।,१७. अधिकारी विषयः सम्बन्धः प्रयोजनम्‌ इति चत्वारः अनुबन्धाः सन्ति। इसलिए काम्याग्निहोत्रादि का फल अन्य स्वर्गादि तदनुष्ठानायासदुःख भी भिन्न ही होता है।,"अथ काम्याग्निहोत्रादिफलम्‌ अन्यदेव स्वर्गादि, तदनुष्ठानायासदुःखमपि भिन्नं प्रसज्येत।" विषयों के अर्जन करनें में बहुत कष्ट होता है।,विषयार्जने अस्ति कष्टं महत्‌। ज्ञानशक्तिविशिष्ट अन्तः करण का सुषुप्ति में नाश हो जाता है।,ज्ञानशक्तिविशिष्टस्य अन्तःकरणस्य सुषुप्तौ नाशः भवति। प्राचीन काल में सहिताग्रन्थों में और ब्राह्मणग्रन्थो में चूतचलन सम्बन्धियों की उक्तीयों की तालिका प्राप्त होती है।,परस्मिन्‌ समये संहिताग्रन्थेषु ब्राह्मणग्रन्थेषु च द्यूतचालनासम्बन्धिनाम्‌ उक्तीनां तालिका समुपलभ्यते । "इसमें सात, आठ और नौवें प्रपाठकों को मिलाकर “तैत्तिरीय उपनिषद्‌' कहलाता है।","अस्मिन्‌ सप्तम, अष्टम, नवम प्रपाठकाः मिलित्वा 'तैत्तिरीयोपनिषदि'ति कथ्यते।" 11. पदार्थनिष्ठ।,११. पदार्थनिष्ठम्‌। तिलक महोदय के अनुसार से उपनिषद्‌ काल कब आरम्भ होता है?,तिलकमहोदयानुसारेण उपनिषत्कालः कदा आरभ्यते। अग्नि और सोम इन दोनों देवताओं की सहायता से इन्द्र ने वृत्र का वध किया।,अग्नीषोमाभ्याम्‌ उभाभ्यां देवताभ्याम्‌ इन्द्रः वृत्रम्‌ अवधीत्‌। उदाहरण -यहाँ उदाहरण है तावत्‌ कृष्ण चतुर्दशी।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ कृष्णचतुर्दशी इति। उगितः पञ्चमी एक वचनान्त पद है।,उगितः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। उससे इससे नञ के अन्वय से लुप्तनकार से नञः तात्पर्य होता है।,तस्मादित्यनेन नञः अन्वयात्‌ लुप्तनकारात्‌ नञः इति तात्पर्यम्‌ । ये दोनों ही समान ही रथ निरन्तर भ्रमण करते है।,एतयोः उभयोः समान एव रथः निरन्तरं भ्रमति। 4 प्रारब्ध किसे कहते हैं?,४.किं प्रारब्धकर्म? जब चित्तवृत्ति का निद्रारूपी लय होता है तब मुमुक्षु को उसके निवारण के लिए जाड्यादि का परित्याग करके चित्त को सम्बोधित करना चाहिए।,तथाहि यदा चित्तवृत्तेः निद्रारूपः लयो भवति तदा तन्निवृत्त्यर्थं जाङ्यादिकं परित्यज्य चित्तं सम्बोधयेत्‌ मुमुक्षुः। इष्टि मूलक यागों में होता ही अनुवाक्य और याज्य उभयविध मन्त्रों का व्यवहार करता है।,इष्टिमूलकयागेषु होता एव अनुवाक्या याज्या इति उभयविधान्‌ मन्त्रान्‌ व्याहरति। तैत्तरीय उपनिषद्‌ में आकाश की उत्पत्ति दिखाई गई है- “तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः' (तै. उ. 2.1.1)।,"तैत्तिरीयोपनिषदि आकाशोत्पत्तेः दर्शितत्वात्‌ - ""तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः"" (तै. उ. २.१.१) इति।" 31. “अव्ययीभावः'' इत्यादि सूत्र का अर्थ क्या है?,"३१. ""अव्ययं विभक्ति"" इत्यादिसूत्रस्यार्थः कः?" स्वप्न स्वप्नकाल में सत्य के समान लगता है तथा जगने पर असद्‌ हो जात है।,स्वप्नः स्वकाले सत्यवद्भाति प्रबोधे चासद्भवेत्‌। मन शरीर आदि द्वारा निरुद्ध किया यह अर्थ है।,मनः देहादिभिर्निरुद्धानित्यर्थः। यहाँ षष्ठयन्त का द्विजशब्द का कुर्वन्‌ इससे कुर्वाणः इस योग में प्राप्त हुआ इससे षष्ठी समास का निषेध होता है।,अत्र षष्ठ्यन्तस्य द्विजशब्दस्य कुर्वन्‌ इत्यनेन कुर्वाणः इत्यनेन वा योगे प्राप्तः षष्ठीसमासः अनेन निषिध्यते। और कहते है - “तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।,"उच्यते च- ""तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।" (क) अनुबन्धों के (ख) साधनचतुष्टय के (ग) शमादिषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णय लिङ्गों में 18. विवेक किसके अन्तर्गत होता है?,(क) अनुबन्धेषु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु 18. विवेकः क्वान्तर्भवति। "किसी भी पदार्थ का स्वाभाविक रूप से जो वर्णन होता है, वही वर्णन कला को उत्कृष्ट रूप को प्रकाशित करता है।",कस्यचन पदार्थस्य स्वाभाविकतया यद्‌ वर्णनं भवति तदेव वर्णनं कलायाः उत्कृष्टत्वं द्योतयति। यहाँ श्रुतिः यह वेद का पर्यायवाची शब्द नहीं है।,अत्र श्रुतिः इति न हि वेदपर्यायः शब्दः। उसको प्रकृत सूत्र से यहाँ तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण अत्र तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। अर्थात्‌ जिस निवृत्ति के बाद में फिर दुःखों की उत्पत्ति नहीं होती है वह आत्यन्तिक निवृत्ति कहलाती है।,अर्थात्‌ तथा निवृत्तिः यतः परं पुनः दुःखोत्पत्तिः न भवति सा आत्यन्तिकनिवृत्तिः। इसलिए दृष्टमिथ्याज्ञाननिमित्त अहं प्रत्यय के देहादिसङ्घात में गौणत्व कल्पित नहीं कर सकते हैं।,तस्मात्‌ न दृष्टमिथ्याज्ञाननिमित्तस्य अहंप्रत्ययस्य देहादिसङ्घाते गौणत्वं कल्पयितुं शक्यम्‌। यदि नियम हो तो संयोगसचिव द्रव्य द्रव्यान्तर का आरम्भ समझा जाए।,भवेदेष नियमः -- यदि संयोगसचिवं द्रव्यं द्रव्यान्तरस्य आरम्भकम्‌ । सूत्र अर्थ का समन्वय- नभ॑न्तामन्यके स॑मे इसमें अन्यके यहाँ पर अकच्‌ प्रत्यय विहित है।,सूत्रार्थसमन्वयः- नभ॑न्तामन्यके स॑मे इत्यत्र अन्यके इत्यत्र अकच्प्रत्ययः विहितः। संकल्प तथा फल का विषय अभिसन्धि कहलाती है।,संकल्पश्च फलविषयः अभिसन्धिः। इस प्रकार की जो अग्नि है वह देवों का यज्ञ में आवाहन करे।,एवं यः अग्निः स देवान्‌ यज्ञे आह्वयेत्‌। शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिँसीः पुरुषं जगत्‌॥,शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिँसीः पुरुषं जगत्‌॥३॥ वे संयम किरने यहाँ रुके।,तेषां नियन्त्रणार्थम् अत्र स्थगितवन्तः। अरण्य में अध्ययन के कारण ही इनको आरण्यक कहते है।,अरण्याध्यनादेतद्‌ आरण्यकमितीर्यते। 8 मनन किसे कहते हैं?,८. किं नाम मननम्‌? जो दोनों विरुद्ध पक्षों का हितैषी होता है वह मध्यस्थ कहलाता है।,यो विरुद्धयोः उभयोः हितैषी स मध्यस्थः कथ्यते। "और जो कितव होता है, उसकी पत्नी को भी अन्ये जुआरी केश आदि आकर्षण से स्पृश करते है।",किञ्च यः कितवः भवति तस्य भार्याम्‌ अन्ये कितवाः केशाद्याकर्षणेन स्पृशन्ति । "इस सूक्त के आदि श्रुतिमें विष्णु के प्रति कहा गया है की जो शीघ्र ही महान गति से युक्तविष्णु के पराक्रम पूर्ण कार्य का वर्णन करता हूँ, वह कैसे तीन पैर के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया, सज्जनो के लिए उच्चस्थान का निर्माण किया इत्यादि कहा है।","अस्य सूक्तस्य आदावेव श्रुतिः प्रतिजानीते यद्‌ शीघ्रमेव महद्गतियुक्तस्य विष्णोः वीरत्वपूर्णं कार्य वर्णयामि, कथं स पादत्रयगमनेन समग्रं विश्वं व्याप्तवान्‌, सज्जनानां कृते उच्चस्थानं निर्मितवान्‌ इत्यादिकञ्च वक्ष्यामि इति।" अखण्डाकार चित्तवृत्ति भी अज्ञान के कार्यत्व से विनष्ट हो जाती है।,अखण्डाकारचित्तवृत्तेरपि अज्ञानकार्यत्वात्‌ तदपि विनश्यति। वह उत्पन्न हुआ विराट्पुरुष भिन्न हो गया।,स जातः विराट्पुरुषः अत्यरिच्यत अतिरिक्तोऽभूत्‌। "ज्ञान तथा अविद्या में विरोध तो सुप्रसिद्ध है तो, किस प्रकार से अविद्या ज्ञानत्मक आत्मा का आवरण करती है।","ज्ञानाविद्ययोः विरोधस्तु सुप्रसिद्धः, तर्हि कथम्‌ अविद्या ज्ञानात्मकम्‌ अपि आत्मानम्‌ आवृणोति।" शाखा के साथ किसका सम्बन्ध है?,शाखया सह कस्य सम्बन्धोऽस्ति? बुद्धे मान्द्यम्‌ (बुद्धि से मंदता) बुद्धिमान्धम्‌ आदि में निषेध नहीं होता है।,बुद्धेः मान्द्यं बुद्धिमान्द्यम्‌ इत्यादिषु नायं निषेधः। अर्वाङतेन॑ स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुंर: पिता नः॥,अर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः॥ ६ ॥ इस सूत्र से अनुदात्तस्वर का निषेध होता है।,अनेन सूत्रेण अनुदात्तस्वरस्य निषेधः विधीयते। अतः उससे परे याति यह अनुदात्त नहीं होता है।,अतः तस्मात्‌ परस्य याति इति अनुदात्तं न भवति। चित्त शान्त है अथवा नहीं इसके ज्ञान के लिए जैसे वायु रहित स्थान में स्थित दीपक प्रज्वलित होता है अथवा जैसे जैसे तेलधारा अविच्छिन्न होती हुई गिरती है।,"चित्तं शान्तं न वेति ज्ञानार्थं - यथा दीपो निवतस्थो नेङ्गते, यथा वा तैलधारा अविच्छिन्ना पतति ।" सगुण ब्रह्म में भक्ति का किस प्रकार से अभ्यास करना चाहिए यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है।,सगुणब्रह्मणि भक्तिः कथम्‌ अभ्यसनीया इति जिज्ञासा सम्भवति। ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि सूत्र का अर्थ- अवस्था अर्थ में ज्येष्ठ कनिष्ठ शब्दों को अन्त उदात्त होता है।,ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि सूत्रार्थः- वयसि अर्थे ज्येष्ठकनिष्ठयोः शब्दयोः अन्तः उदात्तः स्यात्‌। धन की वह स्वामी है।,धनस्य सा धारिका। तप्-धातु से णिच इष्णुच्ग्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,तप्‌ - धातोः णिचि इष्णुच्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने । और वह अध्याय रुद्राध्याय कहलाता है।,स च अध्यायः रुद्राध्यायः इति कथ्यते। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ० वैदिक वाङमय की विलक्षणता को जान पाने में; ० वेदों में रस का विधान समझ पाने में; ० वैदिक ऋषियों के काव्य के विषय में जान पाने में; ० वेद में अलंकारों का उपयोग समझ पाने में; ० वेद में सौन्दर्य का वर्णन को जान पाने में; ० वेद के प्रमाण के विषय में जान पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ वैदिकवाङ्गयस्य विलक्षणताम्‌ अधिगमिष्यति। वेदेषु रसस्य विधानं कथं भवति इति बोद्धुं शक्नुयात्‌। वैदिकानाम्‌ ऋषीणां कवित्वविषये ज्ञास्यति। वेदे अलंकाराणाम्‌ उपयोगः कथम्‌ अस्ति इति अवगच्छेत्‌। वेदे सौन्दर्यपरिकल्पनं कथम्‌ अस्ति तद्विषये ज्ञातुं समर्थः भवेत्‌। वेदस्य प्रामाण्यविषये जानीयात्‌। चित्त की शान्ति होने पर क्या करना चाहिए।,चित्तशान्तेः परं किं कर्तव्यम्‌ होमयाग में किस समय आहुति दी जाती है?,होमयागे कस्मिन्‌ काले आहुतिः प्रदीयते? 54. द्वन्द समास में पूर्वपर निपात विधायक वार्तिक लिखो?,५४. द्वन्द्वसमासे पूर्वपरनिपातविधायकानि वार्तिकानि लिखत? पथिशब्दान्त से नञ्तत्पुरुष समास से विकल्प से समासान्त नहीं होते हैं।,पथिन्शब्दान्तात्‌ नञ्तत्पुरुषसमासात्‌ विकल्पेन समासान्ताः न भवन्ति। क्योंकि यह ही वहाँ पर वेदान्त का तात्पर्य होता हे।,यतो हि तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यमस्ति॥ आत्मा सर्वत्र सभी में होता है।,आत्मा सर्वत्र अस्ति सर्वेषामस्ति। न ब्राह्मण: इस लौकिक विग्रह में न ब्राह्मण सु अलौकिक विग्रह में न अव्ययपद है।,न ब्राह्मणः इति लौकिकविग्रहे न ब्राह्मण सु इत्यलौकिकविग्रहे न इत्यव्ययम्‌ । दोनों प्रजापति के पास गये।,उभौ प्रजापतिसन्निधौ गतवन्तौ। "यहाँ जञ्निति यह सप्तमी एकवचनान्त, आदिः यह प्रथमा एकवचनान्त, नित्यम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","अत्र ञ्निति इति सप्तम्येकवचनान्तं, आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं, नित्यम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" मुक्त विद्यालय में प्रवेश के बाद इस पाठ्यक्रम को विद्यार्थी एक वर्ष से प्रारंभ कर अधिक से अधिक पांच वर्षों में पूर्ण कर सकते हैं।,मुक्तविद्यालये प्रवेशोत्तरं पाठ्यक्रममिमं विद्यार्थी एकवर्षतः अधिकाधिकं पञ्चवर्षेषु पूरयितुं शक्नोति। प्रत्येक स्वरों में एक-एक चिह्न है।,प्रत्येकं स्वरेषु एकैकं चिह्नम्‌ अस्ति। वहाँ कहा जाता है कि वह अच्‌ उदात्त अथवा स्वरित होता है।,तत्र उच्यते यत्‌ सः अच्‌ उदात्तः स्वरितः वा भवति इति। नित्य अनित्य वस्तु विवेक यहाँ पर विवेक पदार्थ है।,नित्यानित्यवस्तुविवेकः अत्र विवेकपदार्थः। अतः प्रकृत सूत्र से उस गोष्ठज शब्द के स्वर वर्णों को क्रम से उदात्त होने का विधान है।,अतः प्रकृतसूत्रेण तस्य गोष्ठजशब्दस्य स्वरवर्णानाम्‌ पर्यायक्रमेण उदात्तत्वं विधीयते। "पञ्चमीतत्पुरुष का ""पञ्चमी भयेन""और ""स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन"" ये दो विधायक सूत्र हैं।","पञ्चमीतत्पुरुषस्य ""पञ्चमी भयेन"" ""स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन"" इति विधायकं सूत्रद्वयम्‌।" कम्‌ यह पादपूरण अर्थ में निपात है।,कम्‌ इति पादपूर्णार्थो निपातः। इस सूत्र में 'ज्नित्यादिर्नित्यम्‌' इस सूत्र से आदि: इसकी अनुवृति आ रही है।,अस्मिन्‌ सूत्रे 'ज्नित्यादिर्नित्यम्‌' इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ आदिरिति अनुवर्तते। अतरः - तृ-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन का रूप है।,अतरः - तृ-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने रूपम्‌। इस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र का चौथा चरण तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु' इस वाक्य से समाप्त होता है।,अस्य सूक्तस्य प्रत्येकं मन्त्रस्य चतुर्थचरणः 'तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु' इति वाक्येन समाप्तो भवति। अत: ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ ' इस सूत्र से उसका आदि आकार अनुदात्त सिद्ध होता है।,अतः 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रेण तस्य आदिमः आकारः अनुदात्तः इति सिध्यति। शुक्लयजुर्वेद में रुद्राष्टाध्ययी में रुद्र का भीषण रूप तथा कल्याण रूप दोनों को वर्णित किया गया है। “घोरझ्च मे घोरतरझ्च मे' यहाँ भीषणत्व तथा 'शिवाय च शिवतराय च' यहां कल्याणत्व घोषित है।,शुक्लयजुर्वेदे रुद्राष्टाध्याय्यां रुद्रस्य भीषणरूपं तथा कल्याणरूपम्‌ उभयमपि वर्णितम्‌ । 'घोरञ्च मे घोरतरञ्च मे' इति भीषणत्वम्‌ तथा 'शिवाय च शिवतराय च' इति कल्याणत्वं च विघोषितम्‌। इसका उवटभाष्य और महीधरभाष्य उपलब्ध है।,अत्र उवटभाष्यं महीधरभाष्यं चोपलभ्यते। 7. प्रज्ञानम्‌ इसका क्या अर्थ है?,७. प्रज्ञानम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? समान विभक्ति पदों का जब तत्पुरुषसमास होता है तब कर्मधारय संज्ञा होती है।,समानविभक्त्यन्तपदानां यदा तत्पुरुषसमासस्तदा कर्मधारयसंज्ञा। "हिरण्यगर्भ इत्यादि चार अनुवाक मन्त्र हिरण्यगर्भः, यः प्राणतः, यस्येमे, य आत्मदा इति (२५/१०-१३)।",हिरण्यगर्भ इत्येषोऽनुवाकश्चतुर्क्रचः हिरण्यगर्भः यः प्राणतःयस्येमे य आत्मदा इति (२५/१०-१३)। और इस प्रकार पर्जन्यसूक्त में पर्जन्यदेव के अनेक महानता को जाना जाता है।,एवञ्च पर्जन्यसूक्ते पर्जन्यदेवस्य बहूनि माहात्म्यानि ज्ञायन्ते। “अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः” इस सूत्र कौ व्याख्या कीजिये।,"""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" इति सूत्रं व्याख्यात।" अब उपासना और उसका फलानुवादक भाग का अर्थ बताते हैं।,अथोपासनतत्फलानुवादकभागार्थः संगृह्यते। 7. अमृतम्‌ इत्यत्र मृत्‌ में कौनसा स्वर है?,7. अमृतम्‌ इत्यत्र मृ-इत्यत्र कः स्वरः। यहाँ उदाहरण है दीर्घसक्थः।,दीर्घसक्थः इत्यादिकम्‌ अत्रोदाहरणम्‌। "शैवधर्म की उत्पति का तथा प्रसार के इतिहास में शुक्लयजुर्वेद का अत्यन्त महत्त्व है, यहाँ लेशमात्र भी सन्देह नहीं है।",शैवधर्मस्य उत्पत्तेः तथा प्रसारस्य इतिहासे शुक्लयजुर्वेदस्य अतीव महत्त्वं वर्तते इत्यत्र नास्ति सन्देहलेशावसरः। ये वेद भगवान से अभिन्न और परोक्ष होने से दुर्गम है।,भगवदभिन्नत्वात्‌ परोक्षत्वात्‌ वेदोऽयं दुरवगाहः। "ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे"" इस सूत्र में अनक्षे पद का क्यों है?","ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे"" इति सूत्रे अनक्षे इति पदं किमर्थम्‌?" अतः भोज्योष्णम्‌ इस समस्त पद का भोज्य शब्द स्वरित ही रहता है।,अतः भोज्योष्णम्‌ इति समस्तपदस्य भोज्यशब्दः स्वरितः एव तिष्ठति। इस प्रकार से दुर्विज्ञेय आत्मा का उपदेश देने के लिए शास्त्र अरुन्धती नक्षत्र के निर्देशन के समान लोकबुद्धि का अनुसरण करता है।,एवं दुर्विज्ञेयम्‌ आत्मानं उपदेष्टुं शास्त्रम्‌ अरुन्धतीनक्षत्रनिदर्शनवत्‌ लोकबुद्धिम्‌ अनुसरति। तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इस लौकिक विग्रह में पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इस अलौकिक विग्रह में “तद्धितार्थोत्तपदसमाहारे च'' इससे समास प्रक्रिया होने से निष्पन्न पञ्चगवशब्द का 'संख्यापूर्वोद्विगुः”' इससे द्विगु समास होता है।,"तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इति लौकिकविग्रहे पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन समासे प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नस्य पञ्चगवशब्दस्य ""संख्यापूर्वो द्विगुः"" इत्यनेन द्विगुसमासो भवति ।" मनन के द्वारा शास्त्र के द्वारा निर्धारित अर्थ में दृढ मति होती है।,मननेन शास्त्रावधारिते अर्थे दृढा मतिर्भवति। असम्भावना की अनिवृत्ति से तथा विपरीतभावना को अनिवृत्ति से वह प्रतिबन्धक हो जाता है।,असम्भावनानिवृत्तेः विपरीतभावनानिवृत्तेश्च प्रतिबन्धको भवति। "“प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः”' इस परिभाषा से यहाँ चतुर्थी विभक्ति, तदन्त विधि में चतुर्थ्यन्त सुबन्तम्‌ पद होता है।","""प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः"" इति परिभाषया चतुर्थीत्यत्र तदन्तविधौ चतुर्थ्यन्तं सुबन्तम्‌ इति भवति।" 11.5.11 ) पञ्चदशीकारों के मत में तत्त्वम्पदार्थनिरूपण विद्यारण्य स्वामी नें पञ्चदशी के महावाक्य विवेक प्रकरण में कहा है “एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्‌।,पञ्चदशीकाराणां मते तत्त्वम्पदार्थनिरूपणम्‌ विद्यारण्यस्वामिना पञ्चदश्याः महावाक्यविवेकप्रकरणे उच्यते -“एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्‌। "इस छन्द की यहाँ पर संख्या १,३४६ है।","अस्य छन्दसः संख्याऽत्र १,३४६ वर्त्तते" और वह यजु संहिता कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद भेद से दो प्रकार के हैं।,सा च यजुःसंहिता कृष्णयजुश्शुक्लयजुर्भेदेन द्विविधा। पदपाठ - गिरयः।,पदपाठः- गिरयः। ब्रह्म का पुत्र ब्राह्मि ः।,ब्रह्मणः अपत्यं ब्राह्मि। निहत पशु के अङग पुरोहित समान रूप में काटता है।,निहतपशोः अङ्गानि शमितानामकः पुरोहितः भिनक्ति। "अदृश्रन्‌ - दृश लुङ में इरितो वा (पा.३.१.५७) इस सूत्र से च्ले को अङ्‌, रुक आगम छन्द में।","अदृश्रन्‌-दृशेर्लुङि इरितो वा (पा.३.१.५७) इति सूत्रेण च्लेरङ्‌, रुगागमश्छान्दसः।" “ अज्ञान सद्‌ तथा असद्‌ के द्वारा अनिर्वचनीय त्रिगुणात्मक ज्ञानविरोधी भावरूप जो कुछ भी लोग कहते हैं।,“अज्ञानं तु सदसद्भ्याम्‌ अनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत्‌ किञ्चित्‌ इति वदन्ति। इळासु इसका क्या अर्थ है?,इळासु इत्यस्य कः अर्थः। 25. अन्नमय कोश में तन्मय होकर कौन संसरण करता है?,२५. अन्नमयकोशे तन्मयो भूत्वा कः संसरति? सत्पुत्रों से गृहस्थी लोग अमृतत्व प्राप्त नहीं होता है।,सत्पुत्रेभ्यश्च गृहस्थानाम्‌ अमृतत्वं न लभ्यते। "आठवें अध्याय का ` आमन्त्रितस्य च' यह सूत्र क्या प्राप्ति कराता है - (क) अनुदात्त (ख) अन्तोदात्त (ग) सर्वानुदात्त (घ) आद्युदात्त, छठे अध्याय का ' आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से क्या प्राप्ति होती है - (क) अनुदात्त (ख) अन्तोदात्त (ग) सर्वानुदात्त (घ) आद्युदात्त, उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य॥","आष्टमिकेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण किं विधीयते - (क) अनुदात्तः (ख) अन्तोदात्तः (ग) सर्वानुदात्तः (घ)आद्युदात्तः, षाष्ठेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण किं विधीयते - (क) अनुदात्तः (ख) अन्तोदात्तः (ग) सर्वानुदात्तः (घ)आद्युदात्तः, उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य॥ (८.२.४)" द्वितीय उदाहरण में क्व इस शाब्द में स्वरित स्वर विद्यमान है।,द्वितीये उदाहरणे क्व इति शब्दे स्वरितस्वरो विद्यते। व्याख्या - पासे कभी नीचे उतरते है तो कभी ऊपर उठते है।,व्याख्या - अपि चेैतेऽक्षाः नीचा नीचीनस्थले वर्तन्ते । "समासान्त लोप विधान के लिए ""पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः"" ""संख्यासुपूर्वस्य"" ""उद्विभ्यां काकुदस्य"" ""पूर्णाद्विभाषा"" ये चार सूत्र पढ़े गये हैं।","समासान्तलोपविधानाय ""पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः"" ""संख्यासुपूर्वस्य"" ""उद्विभ्यां काकुदस्य"" ""पूर्णाद्विभाषा"" इत्येतानि चत्वारि सूत्राणि पठितानि।" ऋक्‌ क्या है?,का ऋक्‌। धान्येन अर्थ: धान्यार्थः। 2.5 ““कर्तृकरणेकृता बहुलम्‌'' सूत्रार्थ-कर्ता और करण में विद्यमान तृतीयान्त सुबन्त को कृदन्त के साथ बहुल तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"धान्येनार्थो धान्यार्थः इति।२.५"" कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌"" सूत्रार्थः - कर्तरि करणे च विद्यमानं तृतीयान्तं सुबन्तं कृदन्तेन सह बहुलं तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" सचस्व यह रूप कैसे सिद्ध होता हे?,सचस्व इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? भक्तों के लिए वह साकार होता है।,भक्तानां कृते स साकारः। इसलिए ब्रह्मभिन्न घटादि चित्तवृत्ति को विषय होते हैं।,अतो ब्रह्मभिन्नो घटादिः चित्तवृत्तेः विषयो भवति। उससे स्त्रीत्व द्योतन के लिए अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से टाप्‌ प्रत्यय होता है।,तस्मात्‌ स्त्रीत्वद्योतनाय अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रेण टाप्‌ प्रत्ययः भवति। राजपुरुष पद का अर्थ होता है राजविशिष्ट पुरुष।,राजपुरुष इति पदस्यार्थो भवति राजविशिष्टपुरुषः इति। वह जड होती है।,स च जडः भवति। "हे भगवन्‌ रुद्रदेव अपनी धनुष बाण से मुक्तकरो, अपने हाथो में धारण किये बाणों को हटा दीजिए।","हे भगवन्‌ रुद्रदेव स्वकीयं धनुः ज्यामुक्तं कुरु, स्वहस्तधृतान्‌ वाणान्‌ च पराक्षिय।" 34. गुरु करुणा के द्वारा विधिवत्‌ उपासना के लिए उपदेश देता है।,३४. गुरुः करुणया एव उपदिशति विधिवदुपसन्नाय। पञ्चमी समास के अवसर पर “पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः” इस पञ्चमी से अलुक्‌ विधायक सूत्र को व्याख्या को गई है।,"पञ्चमीसमासावसरे ""पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः"" इति पञ्चम्या अलुग्विधायकं सूत्रं व्याख्यातम्‌।" इस प्रकार अवस्थाओं से भिन्न और कोई अवस्था जीव को नहीं होती है।,एताभ्यः अवस्थाभ्यः भिन्ना काचिदवस्था जीवस्य नास्ति एव। वह अज्ञान से आवृत्त है इस कारण से सुषुप्ति कालीन आनन्द मुख्य नहीं होता है।,अज्ञानेनावृतमिति कारणात्‌ सुषुप्तिकालीनः आनन्दः न मुख्यः। क्रियाशक्ति विशिष्ट अन्तःकरण का तो नाश शरीर के विनाश होने पर होता है।,क्रियाशक्तिविशिष्टस्य अन्तःकरणस्य तु नाशः शरीरविनाशे भवति। प्रायश्चित कर्म निषिद्धजन्य पाप के प्रतिबन्धक होते है।,प्रायश्चित्तकर्माणि निषिद्धजन्यस्य पापस्य प्रतिबन्धकानि भवन्ति। "इस प्रकार दुःखम्‌ अतीतः दुःखातीतः, नरकं पतितः नरकपतितः, ग्राम गतः ग्रामगतः, ग्रामं अस्त्यस्तः ग्रामाम्त्यस्तः, यामं प्राप्तः ग्राम प्राप्तः संशयम्‌ आपन्नः संशयापन्नः आदि इस सूत्र के उदाहरण है।","एवमेव दुःखम्‌ अतीतः दुःखातीतः, नरकं पतितः नरकपतितः, ग्रामं गतः ग्रामगतः, ग्राममत्यस्तः ग्रामात्यस्तः, ग्रामं प्राप्तः ग्रामप्राप्तः, संशयम्‌ आपन्नः संशयापन्नः इत्यादिकम्‌ एतस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌।" वहाँ पत्नी होती है।,तत्र जायाः भवन्ति । इस प्रकार से आत्मा स्थूल आत्मा कृश इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होती है।,एवम्‌ आत्मा स्थूलः आत्मा कृशः इति दुस्थितिः जायते। "ऋग्वेदीय उपनिषदों में एतरेय, कौषीतकि, साम परक उपनिषदों में छान्दोग्य, केन उपनिषद्‌, कृष्ण यजुर्वेद विषयी उपनिषदों में तैत्तरीय, महानारायण, कठ, श्वेताश्वतर, मैत्रायणी उपनिषद्‌, शुक्ल यजुर्वेद पर लिखे हुए ईशावास्य उपनिषद्‌ बृहदारण्यक और अथर्ववेद में मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्‍न उपनिषद्‌ गहरे चर्चित प्राचीन सभी जगह प्राप्त है।","ऋग्वेदीयोपनिषत्सु एतरेय-कौषीतकी, सामपरकोपनिषत्सु छान्दोग्य-केनोपनिषदौ, कृष्णयजुर्विषयकासु उपनिषत्सु तैत्तिरीय-महानारायण-कठ-श्वेताश्वेतर-मैत्रायण्युपनिषदः, शुक्लयजुरित्यधिकृत्य लिखिता ईशावास्योपनिषद्‌ बृहदारण्यकं किञ्च अथर्ववेदीयासु मुण्डक-माण्डुक्य- प्रश्नोपनिषदः नितरां प्रथिताः प्राचीनाः सर्वत्र लभ्यमानाश्च सन्ति।" तब प्रजापति ने कहा -मेरा महत्त्व तुझे देकर में कः कैसे होऊंगा।,तदा प्रजापतिः आह - मदीयं महत्त्वं तुभ्यं प्रदाय अहं कः कीदृशः स्याम्‌ इति। अक्षासः - अक्षशब्द का प्रथमाबहुवचन में वैदिक रूप है।,अक्षासः - अक्षशब्दस्य प्रथमाबहुवचने वैदिकं रूपम्‌ । तब विग्रह क्या होता है ऐसा प्रश्‍न पैदा होता है।,तदा विग्रहः कः प्रश्नः समायाति। और जिससे प्राणी श्वास ग्रहण करते है और छोड़ते है वह भी मेरे द्वारा ही करते है।,यश्च प्राणिति श्वासोच्छ्कासरूपव्यापारं करोति सोऽपि मयैव। तथा उसके द्वारा यह भी नहीं सोचना चाहिए की बारहवीं कक्षा में अध्ययन के द्वारा ही बारहवीं कक्षा पास होती है तो पहले कक्षा में अध्ययन की कोई आवश्यक्ता ही नहीं है।,नापि तेनेदं चिन्तनीयं यद्‌ यदि द्वादशकक्षायाः परीक्षया एव द्वादशकक्षोत्तीर्णता स्यात्‌ तर्हि किं प्रथमकक्षाध्ययनेन इति न कुर्यात्‌। यह भगवान्‌ वासुदेव का निश्चय है।,अयं भवगतः वासुदेवस्य निश्चयः अस्ति। पशुयाग में आहुति के रूप में क्या दिया जाता हे?,पथशुयागे आहुतिरूपेण किं दीयते ? "देवों का निवास स्थल पृथ्वी, अन्तरिक्ष द्युलोक यथाक्रम से भूः, भुवः, स्वः इन नामों से जाने जाते है।","देवानां निवासस्थलम्‌ पृथिवी, अन्तरिक्षं द्युलोकश्च यथाक्रमं भूः, भुवः, स्वः चेति व्याहृतित्रयेण कीर्तितम्‌।" उस पुरुष की प्रतिमा प्रतिमान परिमाण वाली कोई वस्तु नही है।,तस्य पुरुषस्य प्रतिमा प्रतिमानमुपमानं किंचिद्वस्तु नास्ति। अतः कहा जाता है।,अत एवोच्यते। “केवलाघो भवति केवलादी' इति वेदों में वर्णित सूक्तों के द्वारा।,'केवलाघो भवति केवलादी' इति वेदस्थसूक्तेभ्य इति। "* अथर्वाङिगरस '-इस पद की व्याख्या से प्रतीत होता है, की जो यह दो ऋषि द्वारा दृष्ट मन्त्रों का समूह प्रस्तुत किया है।",अथर्वाङ्गिरस”-इति पदस्य व्याख्यया प्रतीतो भवति यद्वेदोऽयं ऋषिद्वयेन द्रष्टानां मन्त्राणां समूहं प्रस्तौति। "उसका अर्थ ही एक पद में यदि एक उदात्त अथवा स्वरित अच्‌ रहता है, तो उस एक अच्‌ को छोड़कर अन्य सभी अच्‌ अनुदात्त होते है।","तस्याः अर्थो हि एकस्मिन्‌ पदे यदि एकः उदात्तः अनुदात्तः वा अच्‌ तिष्ठति, तर्हि तम्‌ एकम्‌ अचं वर्जयित्वा अन्ये सर्वे अचः अनुदात्ताः भवन्ति इति।" "यद्यपि यहाँ भेद है, फिर भी दोनों ग्रन्थ रहस्य ग्रन्थ है।",यद्यपि अत्र भेदः वर्तते तथापि द्वौ अपि ग्रन्थौ रहस्यग्रन्थौ स्तः। समष्टि अज्ञानोपाहित चैतन्य ईश्वर होता है।,समधष्ट्यज्ञानोपहितं चैतन्यं भवति ईश्वरः। किन्तु उदात्त स्वर के बोध के लिए इस प्रकार का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है।,किन्तु उदात्तस्वरस्य बोधनार्थम्‌ एतादृशः कश्चन विशेषः प्रयत्नः न क्रियते। व्यदधुः - वि पूर्वक धा-धातु से लुङ प्रथमपुरुषबहुवचन में व्यदधुः यह रूप है।,व्यदधुः- विपूर्वकात्‌ धा-धातोः लुङि प्रथमपुरुषबहुवचने व्यदधुः इति रूपम्‌। क्व॑ वोऽश्वाः इस रूप को सिद्ध कीजिए।,क्व॑ वोऽश्वाः इति रूपं साधयत। पदक्रम पाठ आदि का वर्णन है।,पदक्रमपाठादीनां वर्णनम्‌ अस्ति। इसका न आदि होता है न अन्त होता है।,अस्य आदिर्नास्ति अन्तश्च नास्ति। इसलिए पञ्चदशी में विद्यारण्य स्वामी ने कहा है “फलव्याप्यत्वमेवास्य शास्त्रकृदिभर्निवारितम्‌।,उच्यते च पञ्चदश्यां विद्यारण्याचार्येण - “फल्व्याप्यत्वमेवास्य शास्त्रकृद्भिर्निवारितम्‌। वहाँ पर अपरोक्ष ज्ञान निष्ठा होती है जिससे विदेहकैवल्यात्म का मोक्ष प्राप्त होता है।,"ततः अपरोक्षज्ञाननिष्ठा, ततः विदेहकैवल्यात्मको मोक्षः इति।" अतिरोहति - अतिपूर्वक रुह-धातु से लट लकार प्रथमपुरुषैकवचन में यह रूप बनता है।,अतिरोहति-अतिपूर्वकात्‌ रुह्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने। अविद्यमानवत्त्‌ होने से उसके आश्रित्‌ बहुत से विधान सम्भव है।,अविद्यमानवत्त्वे सञ्जाते तद्‌ आश्रित्य बहूनि विधानानि सम्भवन्ति। गवामयन याग सोमयाग के अन्तर्गत आता है।,गवामयनयागो हि सोमयागे अन्तर्गतः। शीघ्र ही वह मछली एक बड़ी मछली के समान हो गई।,शीघ्रं सः मत्स्यः एकः महामत्स्यः सञ्जातः। शरीर में अहं इस प्रकार की तादात्म्य बुद्धि कौन करता है?,शरीरे अहमिति तादात्म्यबुद्धिं करोति कः? न क्रूरता से तथा पैङ्गल्य से मुख्यसिंह तथा अग्नि के स्तुत्यर्थत्व के कारण तथा उपक्षीणत्व के कारण कोई कार्य करते है।,"न च क्रौर्येण पैङ्गल्येन वा मुख्यसिंहाग्न्योः कार्यं किञ्चित्‌ क्रियते, स्तुत्यर्थत्वेन उपक्षीणत्वात्‌।" यहाँ पर सः इस शब्दार्थ का तत्काल तत्देशविशिष्ट भेद व्यावृत्त होता है।,अत्र सः इति शब्दार्थस्य तत्कालतद्देशविशिष्टस्य भेदः व्यावृत्तः। अधर्म का कारण वेदादिविहित निषिद्ध कर्म होते है।,अधर्मस्य कारणं वेदादिभिः निषिद्धानि कर्माणि। स्यन्दन्ताम्‌ - स्यन्द्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुषबहुवचन में।,स्यन्दन्ताम्‌ - स्यन्द - धातोः लोटि मध्यमपुरुषबहुवचने । परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वुणक्तु विश्वतः।,परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः। इसलिए अद्वैततत्व उपपन्न होता है।,अतः अद्वैततत्त्वम्‌ उपपन्नं भवति। इस प्रकार से चित्त की विविध प्रकार की अवस्थाएँ वृत्ति विशेष शमदमोपरतितितिक्षा शब्दों के द्वारा कही गयी है।,एवं चित्तस्य विविधाः अवस्थाः वृत्तिविशेषाः शमदमोपरतितितिक्षाशब्दैः उच्यन्ते। कुत्सितैः का अर्थ है कुत्स्यमानों से।,कुत्सितैः नाम कुत्स्यमानैः । यहाँ अन्तोदात्त बहु शब्द पूर्वपद है।,अत्र अन्तोदात्तः बहुशब्दः पूर्वपदम्‌। जाग्रत अवस्था में जीव के स्थूल विषय भोग होते हैं।,जीवस्य स्थूलविषयोपभोगः भवति जाग्रदवस्थायाम्‌। वहाँ न का षष्ठ्येकवचनान्त तद्धित होने पर सप्तमी एकवचनान्त पद है।,तत्र नः इति षष्ठ्येकवचनान्तं तद्धिते इति च सप्तमेकवचनान्तं पदम्‌। "अर्थात्‌ उदात्त के लोप निमित्त करने पर * अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इस सूत्र से अनुदात्त के स्थान में जो उदात्त स्वर का विधान होता है, उसका अपवाद भूत यह सूत्र है।","अर्थात्‌ उदात्तस्य लोपं निमित्तीकृत्य 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इति सूत्रेण अनुदात्तस्य स्थाने यत्‌ उदात्तस्वरविधानं भवति, तस्य अपवादभूतं भवति एतत्‌ सूत्रम्‌।" उस आदिपुरुष से विराट्‌ उत्पन्न हुआ और विराट से जीवात्मा उत्पन्न हुआ।,"आदिपुरुषात्‌ विराट्‌ उत्पन्नः, विराजः जीवात्मा उत्पन्नः अभवत्‌।" इसीलिए पुरुषार्थ के भी प्रकार हैं।,अतः एव पुरुषार्थस्य प्रकाराः सन्ति। यूपदारु' इसका विग्रह वाक्य क्या है?,यूपदारु इत्यस्य विग्रहवाक्यं किम्‌? द्वैत वेदान्त के प्रवर्तक कौन हैं?,द्वैतवेदान्तप्रवर्तकः कः? दानशील विश्वरक्षक ये मित्रवरुण सुख को प्रदान करने में समर्थ हुए।,दानशीलौ विश्वरक्षकौ एतौ मित्रावरुणौ निरवच्छिन्नसुखस्य प्रदाने समर्थौ। वह स यह लिङग व्यत्यय है।,तत्‌ स इति लिङ्गव्यत्ययः। “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः'' इस सूत्र बल से यह समास कर्मधारयसंज्ञक भी होती है।,"""तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः"" इति सूत्रबलात्‌ अयं समासः कर्मधारयसंज्ञकोऽपि भवति ।" 44. “तृतीया सप्तम्योबर्हुलम्‌' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,४४. तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌ इति सूत्रस्यार्थः कः? य उ त्रिधातुं पृथिवीमुत द्या-मेकों दाधार भुव॑नानि विश्वा॥,य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्या- मेको दाधार भुव॑नानि विश्वा॥ ४।॥। "सरलार्थ - इस मन्त्र में पत्नी न मुझसे कभी अप्रसन्न हुई और न इसने कभी मुझसे लज्जा को, यह मेरे मित्रो और मेरे प्रति सुखकारी थी, इस प्रकार सर्वथा अनुकूल पत्नी को भी मैने एकमात्र पासों के कारण त्याग दिया।",सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे अक्षस्य परिणामः कथ्यते यत्‌ मम पत्नी कदापि कलहं न कृतवती। मयि न क्रोधं चकार। मम मित्राणां च कृते सा कल्याणकारी आसीत्‌। परन्तु अक्षस्य कारणेन मम अनुकूला जाया मया परित्यक्ता। पूर्वा च असौ इषुकामशयी च लौकिक विग्रह में पूर्वा मु इषु कामी सु इस अलौकिक विग्रह में पूर्वा सु इस दिग्वाचक सुबन्त को इषुकामशमी सु इस सुबन्त के साथ प्रस्तुत सूत्र से देश विशेष संज्ञा गम्यमान होने पर तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,पूर्वा चासौ इषुकामशमी च इति लौकिकविग्रहे पूर्वा सु इषुकामी सु इत्यलौकिकविग्रहे पूर्वा सु इति दिग्वाचकं सुबन्तं इषुकामशमी सु इति सुबन्तेन सह प्रस्तुतसूत्रेण देशविशेषसंज्ञायां गम्यमानायां तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। अत: चित्रश्रवस्तम इसका एक से अधिक अर्थ होता है।,अतः चित्रश्रवस्तम इत्यस्य एकाधिकाः अर्था भवन्ति। विश्व इस सर्वनाम का विश्वानि यह रूप है।,विश्व इति सर्वनाम्नः विश्वानि इति रूपम्‌। "यागों का सामान्य परिचय यागों के सामान्यतः पांच प्रकार देखे जाते हैं- होम, इष्टि, पशु, सोम, और सत्र।","यागानां सामान्यतः पञ्च प्रकाराः दृश्यन्ते - होमः, इष्टिः, पशुः, सोमः, सत्रः च।" इन्द्र शत्रु जिस वृत्र का उस प्रकार का वृत्र इन्द्र के हाथों से मरकर नदियों में गिरता हुआ उन नदियों को पूर्ण रूप से भर देता है।,इन्द्रशत्रुः इन्द्रः शत्रुर्घातको यस्य वृत्रस्य तादृशो वृत्रः इन्द्रेण हतो नदीषु पतितः सन्‌ रुजानाः नदीः सं पिपिषे सम्यक्‌ पिष्टवान्‌। वह वृत्तिविशेष दम कहलाता है।,स वृत्तिविशेषः दमः भवति। वह प्रेम का परम उपासक महान भावुक और सौन्दर्य प्रियों में शिरोमणि है।,सः प्रेम्णः परमोपासकः महान्‌ भावुकः सौन्दर्यप्रियेषु शिरोमणिः च वर्तते। ऋग्‌ यजुर्वेद भेद से उस रुद्र का वर्णन भी पृथक्‌ होता है।,ऋग्यजुर्वेदभदात्‌ तस्य रुद्रस्य वर्णना अपि पृथक्‌ भवति। किम्‌ शब्द का वृत्त किंवृत्त है।,किम्शब्दस्य वृत्तम्‌ इति किंवृत्तम्‌। इसलिए भोग किए बिना कोट कल्पों में भी कर्मों का नाश नहीं होता है।,अतः भोगं विहाय कोटिकल्पकैः न कर्म क्षीयते। अथवा जैसे कोई नदी अपने जल को फैलाती है।,अथवा यथा काऽपि नदी स्वजलानि प्रसारयति। वैसे ही श्लोक- “प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।,"तथाहि श्लोकः - "" प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते ।" आहुः - ब्रू-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,आहुः - ब्रू - धातोःलिटि प्रथमपुरुषबहुवचने । वहाँ इन्द्रसूक्त में यह प्रमाण है- यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमृतेमाहुर्नेषो अस्तीत्येनम्‌॥,तावद्‌ इन्द्रसूक्ते - यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमृतेमाहुर्नेषो अस्तीत्येनम्‌॥ जब आलस्य एक कारण बाह्यशब्दादि विषयों का ग्रहण नहीं होता है।,यदा च आलस्यवशात्‌ बाह्यशब्दाविषयग्रहणं न भवति। अतः प्रकृत सूत्र से प्र यहाँ इसका प्रकृति स्वर है।,अतः प्रकृतसूत्रेण प्र इति अस्य प्रकृतिस्वरः भवति। जैसे चतुर सारथि लगाम से घोड़ो को इधर उधर अपने वश में चलाता है।,यथा सुसारथिरभीशुभिः प्रग्रहैः वाजिनः अश्वान्‌ नेनीयत इत्यनुषङ्गः। यह ही सभी चर अचरजीवो का आधार है।,अयमेव सर्वेषां चराचरजीवानाम्‌ आधारः। भक्त ही भगवान का अत्यन्त प्रिय होता है।,भक्तः हि भगवतः अत्यन्तं प्रियः। तेन कृष्णसर्पः इत्यादि में नित्यसमास है।,तेन कृष्णसर्पः इत्यादौ नित्यसमासः । वर्तमान भूत और भविष्य सब में वह व्याप्त होकर के रहता है।,वर्तमानं भूतं भव्यञ्च सर्वं तमेव व्याप्य प्रवर्तते। इस प्रकार से अन्य भी प्रायश्चित होते हे।,एवमन्यानि अपि प्रायश्चित्तकर्माणि सन्ति। इस प्रकार से तीन प्रकार की वृत्तियों के द्वारा यह आनन्दमय कोश प्रसिद्ध है।,एवंविधैः त्रिभिः वृत्तिभिः आनन्दमयकोशस्य प्रसिद्धिर्भवति। उससे देवों का प्राणभूत प्रजापति उत्पन्न हुआ[उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।,तस्मात्‌ देवानां प्राणभूतः प्रजापतिः आविर्बभूव । तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम। आरब्ध कर्मों के उपभोग के द्वारा ही क्षीणत्व होने से अपूर्व कर्मों के अनारम्भ में अयत्नसिद्ध कैवल्य की प्राप्ति हो जाए तो ऐसा भी नहीं है।,आरब्धानां च कर्मणाम्‌ उपभोगेनैव क्षीणत्वात्‌ अपूर्वाणां च कर्मणाम्‌ अनारम्भे अयत्नसिद्धं कैवल्यमिति। न। 8. विवृक्णा इस रूप को सिद्ध करो?,८. विवृक्णा इति रूपं साधयत? यथा-''सहसुपा'' इस सूत्र द्वारा सुबन्त की सुबन्त के साथ समास होता है।,"यथा -""सह सुपा"" इति सूत्रस्य ""सुबन्तं सुबन्तेन सह समस्यते"" इत्यर्थः।" इस प्रकार से घट वृत्तिविषय तथा फल विषय होता है।,अतो घटः वृत्तिविषयः फलविषयश्च भवति। समवर्तत - सम्पूर्वक वृद्‌-धातू से लड्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में समवर्तत रूप सिद्ध होता है।,व्याकरणम्‌ - समवर्तत- सम्पूर्वकात्‌ वृद्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने समवर्तत इति रूपम्‌। 5 चित्त के मल की मीमांसा कीजिए?,५. चित्तमलो मीमांस्यताम्‌। 4. यूनस्ति सूत्र से क्या विधान होता है?,"४. ""यूनस्तिः"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" उदाहरण -अनश्वः इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - अनश्वः इत्यादिकमस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ । 36. लब्धाधिकार मुमुक्षु गुरु समीप जाकर के गुरुपदेशानुगुण ब्रह्मा का अन्वेषण करता है।,३६. लब्धाधिकारः मुमुक्षुः गुरुसमीपं गत्वा गुरूपदेशानुगुणं ब्रह्मान्वेषणं कुर्यात्‌। जन्मसमय में वह अपनी माता को मारकर उसकी भुजाओं के मूल से बाहर आना चाहता था।,जन्मसमये स स्वमातारं हत्वा तस्याः बाहुमूलाद्‌ बहिः आगन्तुम्‌ ऐच्छत्‌। व्याख्या - उषस और व्युष्टौ का प्रातःकाल में यह अर्थ है।,व्याख्या- उषसः व्युष्टौ प्रातःकाले इत्यर्थः। भिन्नम्‌ - भिद्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर उसको न आदेश होने पर भिन्नम्‌ यह रूप है।,भिन्नम्‌ - भिद्‌-धातोः क्तप्रत्यये तस्य नादेशे भिन्नम्‌ इति रूपम्‌। जिस प्रकार से सूर्य के ताप से दग्धमस्तिक की दाहनिवृत्ति के लिए वह शीतल जलराशि का अनुसरण करता है।,तद्यथा सूर्यातपेन दग्धमस्तको दाहनिवृत्तिकामः शीतलं जलराशिम्‌ अनुसरति । "उस पुरुष का कौनसा मुख है, बाहू कौन है ,उसकी उरू कौन है, और उसके पाद कौन है?","तस्य पुरुषस्य किं मुखं, कौ तस्य बाहू, कौ तस्य ऊरू, कौ वा तस्य पादौ।" वैदिक याग प्रकृति और विकृति के भेद से दो प्रकार के हैं।,वैदिकयागः प्रकृतिविकृतिभेदेन द्विविधः। समान जातीय यागों का मूल स्वरूप प्रकृति याग कहलाता है।,समानजातीययागानां मूलं स्वरूपं प्रकृतिः यागः इत्युच्यते। ब्राह्मणों का मुख्य विषय है विधि- किसका विधान कब होना चाहिए।,ब्राह्मणानां मुख्यविषयः अस्ति विधिः- कस्य विधानं कदा भवितव्यम्‌। कात्‌ पञ्चम्यन्त पद है।,कात्‌ इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌। दृष्ट्वाय - दृश्‌-धातु से कत्वाय(वैदिक) लोक में तो दृष्ट्वा।,दृष्ट्वाय - दृश्‌ - धातोः कत्वाय ( वैदिकः ) लोके तु दृष्ट्वा । "फिर भी हिंसारहित है, ऐसा किस लिये कहा जाता है?",तथापि हिंसारहितः इति कथमुच्यते। यहाँ कर्मधारय समास है।,अत्र कर्मधारयसमासः वर्तते। जो बन्धन का अनुभव करता है उसको मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।,स च मोक्षः तेन लब्धव्यो यो बन्धम्‌ अनुभवति। अर्थ सूक्त क्या है?,किम्‌ अर्थसूक्तम्‌। उनका फल मरने के बाद प्राप्त होता है।,तच्च फलं मरणोत्तरं लभ्यते। पदविधियों में अन्यतम का समास होता है।,पदविधिषु अन्यतमः भवति समासः। वेदों को आधारित करके स्मृति आदि रचना की है।,वेदान्‌ अवलम्ब्य एव स्मृत्यादयः प्रणीताः सन्ति। देव शब्द से तल्‌ प्रत्यय करने पर देवता बनता है।,देवशब्दात्‌ तल्प्रत्यये देवता इति रूपम्‌। कृत का अपत्य इस अर्थ में कार्त: शब्द है।,कृतस्य अपत्यम्‌ इति कार्तः। 'फिषोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से यहाँ उदात्तः इस विधेय स्वर बोधक पद की अनुवृति आती है।,' फिषोऽन्त उदात्तः' इति सूत्रात्‌ अत्र उदात्तः इति विधेयस्वरबोधकं पदमनुवर्तते। "और जब पर्जन्य अन्तरिक्ष में वर्षा करता है, तब वह रथ में जुडे हुए घोड़ो को तेजी से चलाता हुआ वर्षा के दूतो को अथवा मेघो को प्रकट करता है।","अन्यच्च यदा पर्जन्यः अन्तरिक्षं वर्षेपेतं करोमि, तदा स कशया अश्वान्‌ अभिक्षिपन्‌ प्रभिप्रेस्यन्‌ वर्षकान्‌ दूतान्‌ मेघान्‌ वा प्रकटयति।" किन्तु दसवें मण्डल में अधिकतया तुम्‌ इति प्रत्यय का ही प्रयोग प्राप्त होता है।,किञ्च दशममण्डले आधिक्येन तुम्‌ इति प्रत्ययस्यैव प्रयोगः प्राप्यते। सूत्र का अर्थ- हस्वान्त स्त्री विषय का आदि उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- ह्रस्वान्तस्य स्त्रीविषयस्य आदिः उदात्तः स्यात्‌। उपमा आदि अलंकारो का अवतरण उतना ही प्राचीन है जितना जगत में कविता प्राचीन है।,उपमाद्यलंकाराणाम्‌ अवतारणं तावद्‌ एव प्राचीनम्‌ अस्ति यावद्‌ जगति कविता प्राचीना। निपूर्वक कृद्‌-धातु से क्वनिप्प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,निपूर्वकात्‌ कृद्‌ - धातोः क्वनिप्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने । "पूज्यमान सुबन्त वृन्दारक, नाग, कुञ्जर समानाधिकरण सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।","पूज्यमानं सुबन्तं वृन्दारकनागकुञ्जरैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह वा समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" यह सूत्र ' नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌' इस पूर्व सूत्र का अपवाद है।,इदं सूत्रं 'नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌' इति पूर्वसूत्रस्य अपवादभूतं वर्तते। 5 गुरु के लाभ का क्या हेतु होता है?,5. गुरुलाभे को हेतुः। कर्तृपद ऋदन्त प्रातिपदिक है।,एवञ्च ऋदन्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति कर्तृ इति। 8. नाष्ट्रा: यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,८. नाष्ट्राः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? जिस समास का विग्रह नहीं होता है वह अविग्रह नित्य समास होता है।,एवं यस्य समासस्य विग्रहो नास्ति सः अविग्रहः नित्यसमासः। वेदान्त सार में कहा गया है कि छः प्रकार के अशेष वेदान्त के अद्वितीय वस्तु का तात्पर्यनिधारण श्रवण कहलाता है।,वेदान्तसारे उच्यते “श्रवणं नाम षड्विधलिङ्गैः अशेषवेदान्तानाम्‌ अद्वितीयवस्तुनि तात्पर्यावधारणम्‌। क्या रन्धनाय स्थाली यहाँ पर भी तदर्थसत्व होने से उससे चतुर्थान्त का सुबन्त समास होना चाहिए?,ननु रन्धनाय स्थाली इत्यत्रापि तदर्थसत्त्वात्‌ तेन चतुर्थ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासोऽस्तु ? "और जिससे सभी प्राणी उत्पन्न हुए, वह सोलह अवयव वाले लिङग शरीर प्रजापति ही हैं।","यश्च सर्वाणि भूतजातानि आविर्बभूव , स षोडशावलिङ्गशरीरी प्रजापतिः एव अस्ति।" अनाहत चक्र हृदय में होता है।,अनाहत हृदये। वह जन्म मृत्यु लोक में हो अथवा स्वर्ग लोक में।,तच्च जन्म मृत्युलोके वा भवतु स्वर्गलोके वा भवतु। पाँचवे प्रपाठक में यज्ञों के सङ्केत नाम उपलब्ध होते हैं।,पञ्चमे प्रपाठके यज्ञीयानां सङ्केतानाम्‌ उपलब्धिः भवति। अखण्डाकार वृत्ति ही अखण्डब्रह्म गत अज्ञान का नाश करती है।,अखण्डाकारवृत्तिः अखण्डब्रह्मगतम्‌ अज्ञानं नाशयति। उस पशु के क्रूरत्वादिसम्बन्ध के ह्वार माणवक की प्रतीति होती है।,तस्य पशोः क्रुरत्वादिसम्बन्धेन माणवकस्य प्रतीतिः भवति। "वहाँ के लिए उदाहरण है, जैसे - आम्रः इति।",तत्र उदाहरणं यथा- आम्रः इति। उदाहरण- कुत्सन अर्थ में इस सूत्र का उदाहरण है -पचति गोत्रम्‌।,उदाहरणम्‌- कुत्सनार्थ अस्य सूत्रस्य उदाहरणं हि-पचति गोत्रम्‌। क्रतु शब्द का अर्थ यज्ञ या कर्म है।,क्रतुशब्दस्य यज्ञः कर्म वा अर्थः। प्रथम दो पद के समास से एक पद का निर्माण होता है।,आदौ पदद्वयस्य समासेन एकं पदं निर्मीयते । यहाँ सताम्‌ षष्ठयन्त का पूरणार्थक षष्ठ शब्द से “घषष्ठी'' इससे षष्ठी समास होने पर उसका निषेध प्रकृत सूत्र से होता है।,"अत्र सताम्‌ इति षष्ठ्यन्तस्य पूरणार्थकषष्ठशब्देन ""षष्ठी"" इत्यनेन षष्ठीसमासे प्राप्ते तन्निषेधः प्रकृतसूत्रेण विधीयते।" "तीन पद वाले इस सूत्र में उदात्ताद्‌ यह पञ्चमी का एकवचनान्त है, अनुदात्तस्य यह षष्ठी का एकवचनान्त है, स्वरितः यह प्रथमा का एकवचनान्त पद है।","त्रिपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे उदात्ताद्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तम्‌, अनुदात्तस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं, स्वरितः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" सम्यक्‌ ज्ञान होने पर ही वह अविद्या नष्ट हो जाती है।,सम्यग्ज्ञाने सति सा अविद्या नश्यति। 37. “ अव्ययीभावश्च'' इस सूत्र से क्या विधान होता है।,"३७. ""अव्ययीभावश्च"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" (बृ.सू.भा. 4.3.9) इस जन्म में अनुभूत विषयों का ही स्वप्न में दर्शन होता है केवल ऐसा नहीं मानना चाहिए अपितु इसके अतिरिक्त यहाँ अनुभूत विषय के साथ-साथ परलोकस्थ विषयों का भी स्वप्न में दर्शन होता है।,(बृ.सू भा.४.३.९) इह जन्मनि अनुभूतनानां विषयाणामेव स्वप्नदर्शनं भवतीति न मन्तव्यं तद्व्यतिरिक्तम्‌ इह अननुभूतमपि स्वप्नस्य विषयो भवति। परलोकस्थविषयाणामपि दर्शनं स्वप्नकाले अस्ति। आरण्यक के मनन के लिए उपयुक्त स्थान क्या है?,आरण्यकस्य मननाय उपयुक्तस्थानं किम्‌? मैं आपको पार लेकर के जाऊँगी।,"अहं भवन्तं पारयिष्यामि "" इति।" “न च पुनरावर्तते ' इति श्रुति से उसको मित्र के समान माना गया है।,'न च पुनरावर्तते” इति श्रुतेस्तस्य बन्धुत्वम्‌। आचार्य सदान्दयोगीन्द्र ने कहा है कि ज्ञान के द्वारा पुण्यात्मा के अज्ञान का बाध होता है।,आचार्यः सदानन्दयोगीन्द्रः उक्तवान्‌ यत्‌ ज्ञानेन पुण्यात्मनः अज्ञानस्य बोधो भवति। मिहम्‌ - मिह-धातु से क्विप्‌ करने पर द्वितीया एकवचन में मिहम्‌ यह रूप है।,मिहम्‌ - मिह्‌-धातोः क्विपि द्वितीयैकवचने मिहम्‌ इति रूपम्‌। इनके ब्राह्मण ग्रथ आज भी उपलब्ध है।,अनयोः ब्राह्मणग्रन्थौ अद्यापि समुपलब्धौ स्तः। "यकार से उत्तर अकार का और शप्‌ से उत्तर अकार का अतो गुणे इससे पररूप एकादेश होता है, और उसको एकादेश उदात्तेनोदात्तः इससे उदात्त स्वर होता है।","यकारोत्तरस्य अकारस्य शपः अकारस्य च अतो गुणे इत्यनेन पररूपैकादेशः,तस्य च एकादेश उदात्तेनोदात्तः इत्यनेन उदात्तस्वरः।" सरलार्थ - बृहत्‌ जलसमूह जब समग्र विश्व में व्याप्त था तब देवों ने गर्भरूप से प्रजापति को धारण किया और फिर अग्नि के द्वारा समग्र भुवन को बनाया।,सरलार्थः- बृहज्जलसमूहः यदा समग्रं विश्वं परिव्याप्य आसीत्‌ तदा देवाः गर्भरूपेण प्रजापतिं धत्तवन्तः अग्निना उपलक्षितं समग्रं भुवनं च सम्पादितवन्तः। इस उपाय से दुर्विज्ञेय भी सुविज्ञेय हो जाता है।,तेन च अनेन उपायेन दुर्विज्ञेयमपि सुविज्ञेयमभवत्‌। "छान्दोग्य उपनिषद में नारद ने जब पढे हुए शास्त्रों के विषय में सनत्कुमार के प्रति जो कहा, तब चारो वेदों का भी उल्लेख किया।",छान्दोग्योपनिषदि नारदः यदा अधीतशास्त्रविषये सनत्कुमारं प्रति उक्तवान्‌ तदा चतुर्णा वेदानाम्‌ उल्लेखम्‌ अपि कृतवान्‌। "प्रातः दो आहुति एक सूर्य, और दूसरी प्रजापति को उद्दे्य करके दी जाती है।","प्रातः आहुतिद्वयोः मध्ये एका सूर्याय, अपरा च प्रजापतिम्‌ उद्दिश्य प्रदीयते।" इस पाठ से हम दस सूत्र पढ़ेगें।,अस्मिन्‌ पाठे दश सूत्राणि वयं पठामः। उसने कहा यह जो कृकलाश वृक्ष है यह कालभेद के द्वारा स्वयं के वर्णों में परिवर्तन करता है।,स उवाच यद्‌ अयं कृकलासः कालभेदेन स्वीयं वर्णं परिवर्तयति। और उसने नदियों को पूर्ण किया।,स च नदीः सम्यक्‌ पिष्टवान्‌। वहाँ इष्ट प्राप्त के लिए और अनिष्ट परिहार के लिए अलौकिक उपाय जो बताता है वह वेद कहलाता है।,तत्र इष्टप्राप्त्यनिष्ठपरिहारयोः अलौकिकम्‌ उपायं वेदयति वेदः । 'विशेष- विस्पष्टकटुकम्‌ यहाँ कर्मधारय समास नहीं है।,विशेषः- विस्पष्टकटुकम्‌ इत्यत्र न कर्मधारयसमासः। प्र यह गति संज्ञक और आद्युदात्त है।,प्र इति गतिसंज्ञकः आद्युदात्तश्च। सूपायनः यहाँ पर धातु क्या है?,सूपायनः इत्यत्र कः धातुः? कामायनी श्रद्धा का अत्यधिक रोचक वर्णन सूक्त में है - श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः।,कामायनीश्रद्धायाः अतीव रोचकवर्णनं सूक्ते अस्ति - श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः। उदाहरण- हन्त प्रविश यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- हन्त प्रविश इति अस्य सूत्रस्य एकमुदाहरणम्‌। उससे इस प्रकृत सूत्र से उस कुश-शब्द के आदि स्वर उकार का उदात्त होने का विधान किया है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य कुश-शब्दस्य आदेः स्वरस्य उकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। उस व्युत्थान का संस्कार ही व्युत्थानसंस्कार कहलाता है।,तस्य व्युत्थानस्य संस्कारा हि व्युत्थानसंस्काराः। 16.अज्ञानावरण नाश के उपाय किसके द्वारा होते हैं?,१६. अज्ञानावरणनाशः केनोपायेन भवति। प्रत्येक पार्थिव पदार्थ की चौतन्य सत्ता या अधिष्ठाता कोई न कोई देव होता है।,प्रत्येकम्‌ पार्थिवपदार्थस्य चैतन्यसत्ता अधिष्ठाता वा कश्चिदेकः देवो भवति। रसों में प्रधान शृंगार भी वेद में वर्णित है।,रसेषु प्रधानः शृङ्गारः अपि वेदे वर्णितः। सप्त सिन्धून्‌ “इमं मे गङगे' (ऋ - सं - १०.७५.१) इन ऋचाओं में गङ्गा आदि सात नदियों का प्रवाह बाधाहीन कर दिया।,सप्त सिन्धून्‌ 'इमं मे गङ्गेः (ऋ - सं - १०.७५.१) इत्यस्यामृच्याम्नाता गङ्गाद्याः सप्तसङ्ख्याका नदीः सर्तवे सर्तुं प्रवाहरूपेण गन्तुम्‌ अवासृजः त्यक्तवान्‌ । (10.3) वयसिप्रथमे ( 4.1.20 ) सूत्रार्थ- प्रथमवयवाचक अदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीप्‌ प्रत्यय होता है।,(१०.३) वयसि प्रथमे (४.१.२०) सूत्रार्थः - प्रथमवयोवाचकात्‌ अदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीप्‌ प्रत्ययः भवति। उसने पशुओं को वायु को (ऋ. १/६५) इति दस ऋचा में उल्लेख है।,तेन पश्वान वायुम्‌(ऋ. १/६५) इति शंसने दर्शचत्वम्‌। विशुद्ध चक्र कण्ठ में होता है।,विशुद्धः कण्ठे। ऋग्वेद मन्त्रों के विषय में यहाँ संक्षेप में आलोचना की जायेगी और संहिता में अष्टक क्रम और मण्डल क्रम देखते हैं।,ऋङ्गन्त्राणां विषये अत्र संक्षेपेण आलोचितम्‌। संहितायां च अष्टकक्रमः मण्डलक्रमश्च दृश्यते। समानाधिकरण तत्पुरुष की “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः'' इससे कर्मधारय संज्ञा होती है।,"समानाधिकरणतत्पुरुषस्य ""तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः"" इत्यनेन कर्मधारयसंज्ञा भवति।" "““ द्वितीयाश्रितातीतपतितगतात्यस्त प्राप्तापन्नैः”', ““तृतीयातत्कृतार्थेन गुणवचनेन'' और “कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌'' इसका तृतीयातत्पुरुष का ““चतुर्थीतदर्थार्थबलि हित सुखरक्षितैः'' इस चतुर्थी तत्पुरुष का “पञ्चमीभंयेन'' इस और * स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्ाणि क्तेन'' इससे पञ्चमी तत्पुरुष का `षष्ठी” इस षष्ठी तत्पुरुष “* सप्तमीशौण्डै :'' सप्तमीतत्पुरुष विधायक सूत्रों की व्याख्या की गई है।","""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति द्वितीयातत्पुरुषस्य, ""तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन"" इति ""कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌"" इति च तृतीयातत्पुरुषस्य, ""चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः"" इति चतुर्थीतत्पुरुषस्य, ""पञ्चमी भयेन"" इति ""स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन"" इति च पञ्चमीतत्पुरुषस्य, ""ष॒ष्ठी"" इति षष्ठीतत्पुरुषस्य ""सप्तमी शौण्डैः"" इति सप्तमीतत्पुरुषस्य च विधायकानि सूत्राणि व्याख्यातानि।" मित्रशब्द की व्युत्पत्ति दिखाने के लिए भगवान यास्क ने कहा - मित्रः प्रमीतेस्त्रायते इति।,मित्रशब्दस्य व्युत्पत्तिदर्शनावसरे भगवान्‌ यास्कः उक्तवान्‌ - मित्रः प्रमीतेस्त्रायते इति। 14. आत्मा के चार पैर कौन-कौन से है?,१४ आत्मनः चत्वारः पादाः के? "एक सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति, इस प्रकार का श्रुति वाक्य है।",एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति' इति श्रुतिवाक्यम्‌। 8. ऋग्वेद के शेषभाग में कितने अनुष्टुप्‌ छन्द है?,ऋग्वेदस्य शेषभागे कति अनुष्टुप्च्छन्दांसि वर्तन्ते? कर्मधारये यहाँ अधिकरण सप्तमी है और जातीयदेशीय में यहाँ पर सप्तमी है।,"कर्मधारये इत्यत्र अधिकरणसप्तमी, जातीयदेशीयेषु इत्यत्र परसप्तमी ।" सूत्र अर्थ का समन्वय- मात्रे इदम्‌ इस विग्रह में मात्रार्थम्‌ यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- मात्रे इदम्‌ इति विग्रहे मात्रार्थम्‌ इति रूपम्‌। "अन्वय का अर्थ - नीलग्रीवाय - नीलकण्ठ वाला, सहस्राक्षाय - हजार नेत्रों वाला, मीढुषे - पराक्रम युक्त, नमः - स्तुति करता हूँ अस्तु - वैसे ही हो।","अन्वयार्थः- नीलग्रीवाय - नीलकण्ठाय, सहस्राक्षाय - सहस्राक्षिणे, मीढुषे - वर्षनकारिणे, नमः - स्तौमि, अस्तु - भवतु तावत्‌।" "और उससे सूत्र का अर्थ इस प्रकार होता है - छन्द विषय में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों की एकश्रुति विकल्प से होती है।",ततश्च सूत्रार्थः एवं भवति - छन्दसि विषये उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणाम्‌ एकश्रुतिः विकल्पेन भवति इति। ` आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्‌' इस सम्पूर्ण सूत्र की यहाँ पर अनुवृति आती है।,'आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्‌' इति सम्पूर्णमपि सूत्रम्‌ अत्र अनुवर्तते। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ पठति पचति ये तिङन्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र पठति पचति इति तिङन्तं पदम्‌। घटविषयक अज्ञान ही घटावच्छिन्न चैतन्य में होता है।,घटविषयकम्‌ अज्ञानं घटावच्छिन्नचैतन्ये विद्यते। इसका उदाहरण है।,इत्यस्योदाहरणम्‌। बृहद्देवता ग्रन्थ में देखें तो - इहाग्निभूतस्तु ऋषिभिर्लोके स्तुतिभिरीडितः।,बृहद्देवताग्रन्थे दृश्यते- इहाग्निभूतस्तु ऋषिभिर्लोके स्तुतिभिरीडितः। "यहाँ अव्ययपद से सन्तव्य इस पूर्व और उत्तर के साहचर्य से कृदन्त क्त्वा, तोसुन्‌, सुन्नन्त प्रत्ययों का ग्रहण किया गया है।",अव्ययपदेनात्र सत्तव्येति पूर्वोत्तरयोः साहचर्यात्‌ कृदन्तानां क्त्वातोसुन्कसुन्नन्तानां ग्रहणम्‌। रक्षा सूक्त में दानवों से गर्भ की रक्षा के लिए मन्त्र है।,रक्षोहासूक्ते दानवात्‌ गर्भस्य त्राणार्थं मन्त्रोऽस्ति। "अथर्ववेद, ब्रह्मवेद, अङिगरोवेद, अथर्वाङिगरसवेद, आदि नाम मुख्य है।","अथर्ववेद, ब्रह्मवेद, अङ्गिरोवेद, अथर्वाङ्गिरसवेदादीनि अभिधानानि मुख्यानि।" 5 सुख का कारण क्या है?,५. सुखस्य कारणं किम्‌। व्याख्या - हे पर्जन्य तुम्हारे ही कर्म से भूमि अवन्नत होती है तुम्हारे ही कर्म से पाद युक्त या खुर विशिष्ट पशु पुष्ट होते है या गमन करते है।,व्याख्या - यस्य पर्जनस्य व्रते कर्मणि पृथिवी नन्नमीति अत्यर्थं नमति सर्वेषामधो भवति । यस्य व्रते शफवत्‌ पादोपेतं जर्भुरीति भ्रियते पूर्यते गच्छतीति वा । इसका तात्पर्य होता है सुबन्त की सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,"एतस्य तात्पर्यं भवति ""सुबन्तं सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति"" इति।" वेद में बहूत से देवों के तथा बहुत सी देवियों के नाम मिलते हैं।,वेदे बहूनां देवानां तथा बह्वीनां देवीनां नामानि दृश्यन्ते। अमावास्या पर भी इसी प्रकार का अनुष्ठान विहित है।,अमावास्यायामपि एवमेव अनुष्ठानं विहितम्‌। भले ही ब्रह्म ज्ञानस्वरूप ही होता है फिर भी वह अज्ञान का विरोधी नहीं होता है।,यद्यपि ब्रह्म ज्ञानस्वरूपमेव तथापि तद्‌ अज्ञानस्य विरोधि नास्ति। और अजादे: का अर्थ होता है अजादिगण पठितशब्दान्त से है।,एवञ्च अजादेः इत्यस्यार्थो भवति अजादिगणपठितशब्दान्तात्‌ इति। धीवर भी यदि आत्मत्व के द्वारा स्वयं का चिन्तन करता है तो वह उत्तम धीवर होगा।,धीवरो यदि स्वम्‌ आत्मत्वेन चिन्तयति तर्हि स उत्तमो धीवरो भविष्यति। सूत्र में उसके अंश से चतुर्थ्यन्त दिखाई देता है।,सूत्रे तदंशेन चतुर्थ्यन्तं परामृश्यते। तो फिर बुद्धिमानों को तो बात ही क्या है।,तर्हि मतिमतां का कथा। 29. मन किसका कार्य होता है?,२९. मनः कस्याः कार्यम्‌ ? आभीक्ष्ण्य में उदाहरण है - पचति पचति गोत्रम्‌ इस सूत्र के दो उदाहरण है।,आभीक्ष्ण्ये उदाहरणं तावत्‌ पचति पचति गोत्रम्‌ इति सूत्रस्य अस्य द्वे उदाहरणे। इसी प्रकार ऋग्वेद में प्रायः चतुर्थ अंश इन्द्र का ही गुण वर्णन किया गया है।,एवम्‌ ऋग्वेदे प्रायः चतुर्थांशः इन्द्रस्यैव गुणः वर्णितः। 18.4.2) मूढ तथा अमूढ कौन है अथवा पण्डित कौन है इस प्रकार से विचार किया जाता है।,१८.४.२) मूढामूढयोर्वैलक्षण्यम्‌ मूढः कः अमूढः अथवा पण्डितश्च क इति चिन्त्यते। अनाव: इसका नौ इस शब्द को छोड़कर यह अर्थ है।,अनावः इत्यस्य नौ इति शब्दं विना इत्यर्थः। गति अर्थ है जिसका वह गत्यर्थ यहाँ शाकपार्थिव आदि के समान समास।,गत्यर्थः अर्थः यस्य इति गत्यर्थः इति शाकपार्थिवादिवत्समासः। धन्वनो हेतिः इसका क्या अर्थ है?,धन्वनो हेतिः इत्यस्य अर्थः कः? उनके वश में नही होते है।,न वशे वर्तन्ते । 11.2 ) विवेकानन्द वेदान्त दर्शन क्या हे भारतीयशास्त्रपरम्परा में न्याय तथा ग्रंथों दार्शनिकों की तथा दार्शनिकतत्वों की समुत्पत्ति हुई।,११.२) किं नाम विवेकानन्दवेदान्तदर्शनम्‌? भारतीयशास्त्रपरम्परायाम्‌ आबहोः कालाद्‌ बहूनां दार्शनिकतत्त्वानां तथा दार्शनिकानां समुत्पत्तिः अभूत्‌। इस सूत्र में “कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आ रही है।,"अस्मिन्‌ सूत्रे ""कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।" 10. निर्विकल्पकसमाधि किस चित्त भूमि में उत्पन्न होती है?,१०. निर्विकल्पकसमाधिः कस्यां चित्तभूमौ जायते? जिस प्रकार से भूखे को भोजन बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।,न हि अभुक्ताय भोजनं विना किञ्चित्‌ रोचते। उसका आगे वर्णन किया जा रहा है।,स च प्रकारः प्रपञ्च्यते अग्रे। आत्म विषय में श्रवण मनन तथा निदिध्यासन में उसके अनुगुणविषय गुरु शुश्रुषा आदि में अवस्थान ही समाधान होता है।,आत्मविषये श्रवण-मनन- निदिध्यासने तथा तस्य अनुगुणविषये गुरुशुश्रूषादौ अवस्थानम्‌ एव समाधानम्‌। आदीध्ये - आपूर्वक आत्मनेपद धी-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में।,आदीध्ये - आपूर्वकात्‌ आत्मनेपदिनः धी - धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने । "उसरी यज्ञ से ऋग, साम, यजू, गायत्र्यादि छन्द तथा अश्वगर्दभ आदि पशु उत्पन्न हुए।","तस्मादेव यज्ञात्‌ ऋचः सामानि यजूंषि, गायत्र्यादीनि च्छन्दांसि तथा अश्वगर्दभादयश्च पशवः उत्पन्नाः।" तत्पुरुष इस सूत्र से पहले (प्राक्‌) अव्ययीभाव का अधिकार है।,तत्पुरुषः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक्‌ अव्ययीभावः इत्यधिकारः। अथ आदिः प्राक्‌ शकटे: ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,अथ आदिः प्राक्‌ शकटेः इति सूत्रगतपदच्छेदः। इसलिए देहनाश से विदेहमुक्ति होती है।,अतः देहनाशाद्‌ विदेहमुक्तिः भवति। परमात्म चैतन्य बुद्धि में प्रतिबिम्ब के रूप मे रहता है।,परमात्मचैतन्यं बुद्धौ प्रतिबिम्बते। सप्तम मन्त्र में वृत्र का युद्ध के बाद क्या क्या हुआ यह दिखाया गया।,सप्तमे मन्त्रे वृत्रस्य युद्धात्‌ परं किं सञ्जातमिति दर्शितम्‌। उसके आशीर्वाद से लोगों को स्वर्गादि का लाभ सम्भव हो जाता है।,तस्य आशीर्वादमात्रेण जनानां धर्मस्वर्गादिलाभः सम्भवति। स्वामीविवेकानन्द के कर्मदर्शन भी अपूर्व है।,स्वामिविवेकानन्दस्य कर्मदर्शनमपि अपूर्वम्‌। "तब कैसे आप मछली का भरण करूंगा, ऐसा मनु के द्वारा पूछा गया।",तदा कथं मत्स्यः भरणीयः इति मनुः पृष्टवान्‌। इसे उपाकरण कहते हैं।,इदम्‌ उपाकरणम्‌ इति कथ्यते। मनुष्य के मेरु डण्ड में मस्तिष्क से लेकर के अधोभग तक दो नाड़ी होती है ईडा तथा पिङ्गला।,मनुष्याणां मेरुदण्डे मस्तिष्कात्‌ आरभ्य अधोभागपर्यन्तं द्वे नाङ्यौ विस्तृते स्तः - ईडा पिङ्गला चेति। पतञ्जलि मुनि ने लिखा है - “पुरा कल्प एतद्‌ आसीत्‌ संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते।,पतञ्जलिमुनिः लिखति -'पुरा कल्प एतद्‌ आसीत्‌ संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते। अतः पूर्वपद यहाँ अनिष्ठान्त है।,अतः पूर्वपदम्‌ अत्र अनिष्ठान्तम्‌। 1. शिवसंकल्पसूक्त का सार लिखिए।,१. शिवसङ्कल्पसूक्तस्य सारं लिखत। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन शिवसडऱकल्पमस्तु॥१ ॥,दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योत्रिकं तन्मे मन शिवसङ्कल्पमस्तृ॥१ ॥ श्रीरामकृष्ण का जीवन देखकर के विवेकानन्द ने समझा है।,श्रीरामकृष्णजीवनम्‌ अवलोक्य विवेकानन्देन विज्ञातम्‌। "इन अपञ्चीकृत पांचसृक्ष्मभूतों से पञ्चीकरण की प्रक्रिया के द्वारा पांचस्थूलभूत, पांचज्ञानेन्द्रियां, पांचकर्मेन्द्रियां, पांचवायु, बुद्धि तथा मन उत्पन्न होता है।","एतेभ्यः अपञ्चीकृतेभ्यः पञ्चसूक्ष्मभूतेभ्यः पञ्चीकरणप्रक्रियया पञ्च स्थूलभूतानि, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, पञ्च वायवः, बुद्धिः मनश्चेति उत्पद्यन्ते।" छन्दस्यनेकमपि साकाङक्षम्‌' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,छन्दस्यनेकमपि साकाङ्कम्‌ इति सूत्रस्य कः अर्थः। जैसे तुल्य॑श्वेतः।,यथा तुल्य॑श्वेतः इति। इस प्रकार से पंतजलि ने कहा है- ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्‌ 31. इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन ही प्रत्याहार कहलाता है।,सूत्रितं च पतञ्जलिना - ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्‌ इति। ३१. इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्यावर्तनमेव प्रत्याहारः। अन्यारादितर्र्ते (पा०सू० २.३.२९) इत्यादि से यस्माद इसका ऋत के योग में पञ्चमी ।,अन्यारादितरर्ते ( पा ० सू ० २ . ३ .२९ ) इत्यादिना यस्मादिति ऋतेयोगे पञ्चमी। यास्क के अग्नि का तथा कात्यायन के सूर्य का सकल देवतात्व परस्पर विरुद्ध होने पर भी यास्क द्वारा उनका समन्वय प्रदर्शित किया है।,यास्कस्य अग्नेः तथा कात्यायनस्य सूर्यस्य सकलदेवतात्वं परस्परविरुद्धं सदपि यास्केन तत्समन्वयः प्रदर्शितः। "वे हैं जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था तथा सुषुप्ति अवस्था।",तथा च जाग्रदवस्था स्वप्नावस्था सुषुप्त्यवस्था च। देवाँ - देव शब्द का द्वितीया बहुवचन में यह रूप बनता है।,देवाँ- देवशब्दस्य द्वितीयाबहुवचने रूपमिदम्‌। उस अग्नि की में स्तुति करता हूँ।,तम्‌ अग्निं स्तौमि। “ क्रियाग्रहणं कर्त्तव्यम्‌' इससे कर्म में सम्प्रदान होने से चतुर्थी हुई।,'क्रियाग्रहणं कर्त्तव्यम्‌' इति कर्मणः सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी। इसलिए परमार्थतः आकाश आअनित्यत्व ही होता है।,तस्मात्‌ परमार्थतः अनित्यत्वमेव आकाशस्य। वहाँ पर पाँच प्राण कर्मेन्द्र्यों के साथ मिलकर के प्राणमय कोश का निर्माण करतें है।,तत्र प्राणादिपञ्चकं कर्मेन्द्रियैः सहितं सत्‌ प्राणमयकोशो भवति। जिस प्रकार से देखा सुना उसी प्रकार से उसका कथन तथा चिन्तन सत्य कहलाता है।,यथा दृष्टम्‌ अनुमितं श्रुतं वा तथैव कथनं चिन्तनं च सत्यम्‌ । "वो अधार ओष्ठ से चारु, नासिका से उन्नत, और वर्ण से उज्ज्वल है।","स ओष्ठाधरेण चारुः, नासिकया उन्नतः, वर्णेन उज्ज्वलः च।" किस प्रकार से चित्त मलिन होता है।,कथं चित्तं मलिनं भवति। तद्धितस्य इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,तद्धितस्य इति सूत्रं व्याख्यात। तुम ने अमृत प्राप्त किया।,त्वम्‌ अमृतत्वं प्राप्तवती। प्रत्येक दिन और प्रत्येक काल में और प्रत्येक क्षण में।,"दिवे दिवे, दिने दिने, अहनि अहनि।" 15. व्युत्थान संस्कार का अभिभव कैसे होता है?,१५ . व्युत्थानसंस्कारस्य अभिभवः कथं भवति? जाग्रत अवस्था में विद्यमान आत्मा प्रथम पाद के रूप में होता है।,जाग्रतावस्थायां जीवस्य वैश्वनर इति नाम भवति इस प्रकार से जो पुरुष राग पाश के द्वारा बन्ध जाता है वह विषयों के अधीन होकर ही जीवन जीता है।,एवं रागपाशेन बन्धः यस्य पुरुषस्य अभवत्‌ सः विषयाधीनतया जीवति। "सरलार्थ - उस परमात्मा की उपमा कोई नही कर सकता है, जिसका यश आदि में उत्पन्न हुआ।",सरलार्थः- तस्य परमात्मनः उपमां कर्तुं कोपि नास्ति यस्य यशः आदौ उत्पन्नम्‌। "पांचवे काण्ड के दसवें सूक्त में कवि की दृष्टि से और मनोहर भावों के प्रदर्शन से अत्यधिक रोचक, सरल तथा अभिव्यञ्‌जनात्मक है।","पञ्चमकाण्डस्य दशमसूक्तं कवित्वदृष्ट्या, मनोहरभावानां प्रदर्शनेन च अतीव रोचकं, सरसं तथा अभिव्यञ्जनात्मकञ्च अस्ति।" "निदिध्यासन की प्राथमिकी अवस्था तो सविकल्पक समाधि होती है, तथा उसकी पराकाष्ठा ही निर्विकल्पकसमाधि होती है।","निदिध्यासनस्य प्राथमिकी अवस्था तावत्‌ सविकल्पकसमाधिः, पराकाष्ठा तावत्‌ निर्विकल्पकसमाधिः।" ऋग्वेद ही धर्म संबंधी स्तोत्रों का समुद्र के समान महासागर है।,ऋग्वेदो हि धर्मसम्बन्धिनां स्तोत्राणाम्‌ महान्‌ समुद्रतुल्यः। ऐतरेय के प्रथम आरण्यक में किसका वर्णन है?,ऐतरेयस्य प्रथमारण्यके कस्य वर्णनम्‌ अस्ति? व्याख्या - प्राचीन काल में त्रिपुर राक्षस को जीतने के लिए रुद्र का षष्ठी अर्थ में चतुर्थी है।,व्याख्या- पुरा त्रिपुरविजयसमये रुद्राय रुद्रस्य। षष्ठ्यर्थ चतुर्थी । उद्गाता क्या करता हे?,उद्गाता किं करोति। "इस सूक्त में मुख्य रूप से कहा गया है कि जुआ खेल कभी नही खेलना चाहिये, उसके स्थान पर कृषि इत्यादि कार्य करना चाहिए।",अस्मिन्‌ सूक्ते यत्‌ मुख्यतया उक्तं तत्‌ अक्षक्रीडा न करणीया तत्स्थाने कृषिकर्म इत्यादिकर्म कर्तव्यम्‌। जहाँ यमी अपने भाई यम के समीप जाकर के सङ्गम के लिए प्रार्थना करती है।,यत्र यमी स्वभ्रातुः यमस्य समीपं गत्वा सङ्गमार्थं प्रार्थनां करोति। वहाँ पर यह कारण है कि सभी इन्द्रियों का अध्यक्ष मन होता है।,सर्वेषामपि इन्द्रियाणां मनः अध्यक्षः भवति। वस्त्रकेश आदि के आकर्षण से स्पर्श करते है।,वस्त्रकेशाद्याकर्षणेन संस्पृशन्ति । “ दिक्संख्येसज्ञायाम्‌ “ सूत्र की व्याख्या की गई है ?,""" दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌ "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" अश्वमेध यज्ञ के विषय में निर्देश शुक्ल यजुर्वेद में कहाँ प्राप्त होते है?,अश्वमेधयज्ञविषये निर्देशः शुक्लयजुर्वेदे कुत्र प्राप्यते? मेरे वचनों का विशवास करो जुआ मत खेलो।,बहु मन्यमानः मद्वचने विश्वासं कुर्वस्त्वम्‌ अक्षैर्मा दीव्यः द्यूतं मा कुरु । मल के अशुद्ध चित्त विषयों में आकृष्ट होता है।,मलवशात्‌ अशुद्धं चित्तं विषयेषु आकृष्टं भवति। दर्श शब्द का क्या अर्थ है?,दर्शशब्दस्य कोऽर्थः ? "वहाँ अष्टनः, और दीर्घात्‌ दोनों पद पञ्चमी एकवचनान्त है।","तत्र अष्टनः, दीर्घात्‌ चेति पञ्चम्येकवचनान्तं पदद्वयम्‌।" सूत्र का अवतरण - चित्प्रत्ययों के अन्त स्वर का उदात्त विधान करने के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- चित्प्रत्ययानाम्‌ अन्तस्य स्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌ । सूत्र का अर्थ - जिस अनुदात्त के पर उदात्त का लोप होता है तो उसको उदात्त होता है।,सूत्रार्थः - यस्मिन्‌ अनुदात्ते परे उदात्तः लुप्यते तस्य उदात्तः भवति। निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमनां भव॥,निशीर्य्यं शल्यानां मुखां शिवो नः सुमना भव॥१३॥ परम्परा से प्राप्त साधन ही शास्त्रों में कुछ बहिङ्गसाधन इस प्रकार से कहे जाते है।,परम्परासाधनानि एव शास्त्रेषु क्वचित्‌ बहिरङ्गसाधनानि इत्यपि उच्यन्ते। अधारयतम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,अधारयतम्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्यति। उदाहरण -तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इस लौकिक विग्रह में पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इस अलौकिक विग्रह में “तद्धितार्थोत्तपदसमाहारेच'' इससे समास में प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न के पञ्चगव शब्द का “संख्यापूर्वो द्विगुः” द्विगु समास में प्रस्तुत सूत्र से एकवद्‌ भाव होता है।,"उदाहरणम्‌ - तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इति लौकिकविग्रहे पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन समासे प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नस्य पञ्चगवशब्दस्य ""संख्यापूर्वो द्विगुः"" इत्यनेन द्विगुसमासे प्रस्तुतसूत्रेण एकवद्भावः विधीयते ।" अतः वे मन्त्र हमारे मन को प्रधान रूप से आकर्षित करते है।,अतः ते मन्त्राः अस्माकं मनसः प्रधानम्‌ आकर्षणम्‌ अस्ति। “उपसर्गादध्वनः'' इस सूत्र का उदाहरण क्या है?,"""उपसर्गादध्वनः"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" "आधान,पुनराधान, अग्निहोत्र, उपस्थापन, आग्रायण, दाक्षायण आदि कुछ यज्ञों के नाम है।",आधान-पुनराधान-अग्निहोत्र-उपस्थापन-आग्रायण-दाक्षायणादीनि केषाञ्चन यज्ञानां नामानि। वे तो प्रयोजन के अभाव में अवश्य ही प्रवृत्त नहीं होंगे।,ते तु अवश्यम्‌ एव प्रवृत्ता न भविष्यन्ति प्रयोजनज्ञानाभावे। गुरु शिष्य का पापक्षालन करता है।,गुरुः शिष्यस्य पापक्षालनं करोति। उन कामों के ज्ञेय विषय में विद्यमान संशयों का नाश ब्रह्मनिष्ठ पुरुष का होता है।,"तेषां कामानाम्‌, ज्ञेयविषये विद्यमानानां संशयानां च नाशः ब्रह्मनिष्ठस्य पुरुषस्य भवति।" "व्याख्या - हे स्तोता, तुम बलवान पर्जन्य देव के अभिमुख्यवर्ती होकर उनको प्रार्थना करो।",व्याख्या - हे स्तोतः तवसं बलवन्तं पर्जन्यम्‌ अच्छ अभिप्रप्य वद प्रार्थय । इस प्रकार से अनुभूत ये पुरुष सभी प्राणियों के नाभि से दश अङऱगुल छोड़कर हृदय में बैठा है।,ईदृशानुभावोऽयं पुरुषः सर्वेषां प्राणिनां नाभेः सकाशाद्‌ दशाङ्गुलमतिक्रम्य हृदि तिष्ठन्नस्ति। यदि मोक्ष उत्पन्न होता तो मोक्ष का भी नाश होना चाहिए कारण यह है कि जगत में जो वस्तु उत्पन्न होती हैं वह नष्ट भी होती है।,यदि मोक्षः जायेत तर्हि मोक्षस्य अपि नाशः स्यात्‌। कारणं हि जगति यानि वस्तुनि उत्पद्यन्ते तानि वस्तूनि नश्यन्ति च। मुण्डक- उपनिषद में ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद और अथर्ववेद का उल्लेख है।,मुण्डकोपनिषदि ऋग्वेद-यजुर्वद-सामवेद-अथर्ववेदानां च उल्लेखः अस्ति। उत्तररूप से मछली ने कहा की जब तक हम छोटी रहती है तब तक हमारे ऊपर विपत्ति होती है।,"उत्तररूपेण मत्स्य उक्तवान्‌ यत्‌ "" यावद्‌ वयं मत्स्याः क्षुद्राः तिष्ठामः तावत्‌ प्रतिपदं विपत्‌ भवति।" सम्पूर्ण ऋग्वेद में कितने वर्ग हैं?,सम्पूर्ण ऋग्वेदे कति वर्गाः सन्ति? अज्मध्यस्थढकार को ळहकार यथा क्रम से होता है।,अज्मध्यस्थढकारस्य ळहकारं वै यथाक्रमम्‌ इति। इसलिए सभी आत्मा के द्वारा जाने जाते हैं।,अतः आत्मना ज्ञायते सर्वमपि। "( 8.3.2 ) अव्ययी भाव समास ""प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानः अव्ययीभावः""यह अव्ययीभाव समास का लक्षण है।","(८.३.२) अव्ययीभावसमासः ""प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानः अव्ययीभावः"" इत्यव्ययीभावसमासस्य लक्षणम्‌।" ' इस प्रकार से यह रूप ही आत्म विषय ज्ञान का उत्पद्यमान कर्मप्रवृत्तिहेतुभूता भेदबुद्धि से निवर्तकत्व से होता है।,” इत्येवंरूपम्‌ आत्मविषयं ज्ञानम्‌ उत्पद्यमानम्‌ कर्मप्रवृत्तिहेतुभूतायाः भेदबुद्धेः निवर्तकत्वात्‌। केवल धन को ही नहीं।,न च केवलं धनम्‌। "प्रसङ्गतः समासान्त निषेध सूत्र ""न पूजनात्‌"" इति, ""किमः क्षेपे"" इति, ""नञस्तत्पुरुषात्‌"" इति ""पथो विभाषा"" समासान्त निषेध सूत्र प्रतिपादित हैं।","प्रसङ्गतः समासान्तनिषेधकानि ""न पूजनात्‌"" इति,""किमः क्षेपे"" इति, ""नञस्तत्पुरुषात्‌"" इति ""पथो विभाषा"" इति च समासान्तनिषेधकानि सूत्राणि प्रतिपादितानि।" इसके बाद यस्येति च' सूत्र से अकारलोप होने पर और वर्ण सम्मेलन होने पर बैदी रूप सिद्ध होता है। और इसकी रूप प्रक्रिया अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरण में गौरीशब्द के समान जानना चाहिए।,ततः यस्येति च इति सूत्रेण अकारलोपे कृते वर्णसम्मेलने च कृते बैदी इति रूपं सिध्यति। अस्य रूपप्रक्रिया च अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणे गौरीशब्दवद्‌ बोध्या। वैदिक विधानों के अनुसार यह न तो वध और न ही पाप होता है।,वैदिकविधानानुगुणम्‌ अयं न वधः न च पापाय भवति। 10. तात्पर्यनिर्णायक छ: लिङ्गो में यह अन्यतम है।,10. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌॥ समाधि में भी वैसे ही होता है।,समाधौ अपि तथा। इस प्रस्तुत पाठ के उत्तरार्ध में मित्रावरुणसूक्त को प्रस्तुत करते है।,प्रस्तुतेऽस्मिन्‌ पाठस्य उत्तरार्धे मित्रावरुणसूक्तम्‌ प्रस्तूयते। महाभारत के सभापर्व में भी इस कर्म की अच्छी प्रकार से निन्दा की।,महाभारतस्य सभापर्वणि अपि एतत्‌ कर्म समं निन्दितम्‌ । "उसी की महिमा से हिमालयादि पर्वत और महाभाग्य, नदी सागरादि बने उसकी भुजाएं सभी दिशाओं में है।","तस्यैव माहात्म्यं हिमालयादिनिखिलपर्वताः, महाभाग्यं च नदीसागरादयः, तस्य भुजाः सर्वाः दिशः।" पद्यों के पढ्ने में रुचिता कैसे आती है?,पद्यानां पठने रुचिरता कथमागच्छति? व्याख्या - पर्वत में रहने योग्य आश्रित अहि मेघ को मरता है।,व्याख्या- पर्वते शिश्रियाणम्‌ आश्रितम्‌ अहिं मेघम्‌ अहन्‌ हतवान्‌। वहाँ उपकृष्ण शब्द से तृतीया एकवचन की विवक्षा में टाप्‌ प्रत्यय उपकृष्ण टा इस स्थिति में सुप्‌ का लोप प्राप्त को बाधकर “नाव्ययी भावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः'' इस सूत्र से टा प्रत्यय का नित्य अमादेश प्राप्त होता है।,"तत्र उपकृष्णशब्दात्‌ तृतीयैकवचनविवक्षायां टाप्रत्यये उपकृष्ण टा इति स्थिते सुब्लुकं प्राप्तं प्रबाध्य ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" इत्यनेन सूत्रेण टाप्रत्ययस्य नित्यः अमादेशः प्राप्नोति।" "'विशेष- यहाँ पर ` अग्निम्‌ ईळे' उदात्त अनुदात्त के (इकार-ईकार के) मध्य में मकार की विद्यमानता होने से कैसे इकार से परे ईकार को स्वरित स्वर होता है इस प्रकार कहा है, (स्वरविधौ वेदाध्ययन ३४५ (पुसतक२) `` ( पुस्तक -१ ) व्यञज्जनमविद्यमानवद्‌ ' इस परिभाषा से यहाँ मकार के विद्यमान होने पर भी स्वर विधि के नहीं होने से उसको ग्रहण नहीं करते है, उससे यहाँ मकार से व्यवधान का अभाव होने से स्वरित का कोई तोड नहीं है।","विशेषः- ननु अत्र अग्निम्‌ ईळे इत्यत्र उदात्तानुदात्तयोः (इकार-ईकारयोः) मध्ये मकारस्य विद्यमानत्वात्‌ कथम्‌ इकारात्परस्य ईकारस्य स्वरितस्वरः इति चेद्‌ उच्यते, स्वरविधौ व्यञ्जनमविद्यमानवद्‌ इति परिभाषया अत्र मकारस्य विद्यमानत्वेऽपि स्वरविधित्वात्‌ तन्नास्ति इति गृह्यते तेन अत्र मकारेण व्यवधानाभावात्‌ न स्वरितत्वबाधः इति।" आठवें अध्याय के सूत्र से यहाँ सभी अनुदात्त स्वर हो नहीं सकते हैं।,आष्टमिकेन सूत्रेण अत्र सर्वानुदात्तस्वरः भवितुं नार्हति। "वर्षाकाल में जल जैसे नदी का उल्लंघन करके सभी और फैल जाता है, वैसे ही वृत्र के द्वारा रोका गया जलवृत्र का उल्लङ्घन करके सभी और फैल गया।",वर्षाकाले वारि यथा नदीम्‌ उल्लङ्घ्य सर्वत्र प्रसरति तथा वृत्रेण रुद्धं जलमेव वृत्रम्‌ उल्लङ्घ्या सर्वत्र विस्तृतम्‌ अभवत्‌। ये रागादि तीन प्रकार के बाह्य तथा आभ्यान्तर वासना रूप होते हैं।,एते रागादयः त्रिविधाः बाह्याः आभ्यन्तरा वासनारूपाश्च। "प्रपञ्चहृदय, चरणव्यूह, सायणभाष्य आदि के उदाहरणों में यद्यपि शाखाओं की सङ्ख्या",प्रपञ्चहृदय-चरणव्यूह- सायणभाष्यादीनाम्‌ उपोद्धातेषु यद्यपि शाखानां सङ्ख्या 10. “प्राक्कडारात्‌ समासः'' इस सूत्र में कडारापद से किसका ग्रहण होता है?,"१०."" प्राक्कडारात्‌ समासः"" इति सूत्रे कडारपदेन कस्य ग्रहणम्‌ ?" उसको सम्पूर्णरूप से यहाँ पर प्रकट करना सम्भव नहीं है।,तस्य समग्रस्य अत्र प्रकटनं नैव सम्भवति। अव्ययीभाव आदि विशेष संज्ञाओं से विनिर्मुक्त जो समास है वह केवल समास होता है।,अव्ययीभावादिविशेषसंज्ञाभिः विनिर्मुक्तः यः समासः स केवलसमासः। अष्टाङ्ग मैथुन को दक्ष संहिता मे इस प्रकार से निरूपित किया है।,अष्टाङ्गमैथुनं दक्षसंहिताग्रन्थे निरूपितम्‌। कर्मयोग के द्वारा किसको दूर करना चाहिए जिससे कर्मयोग का साफल्य प्राप्त हो सके।,कर्मयोगः कियद्दूरं कर्तव्यः। कथं कर्मयोगसाफल्यं ज्ञातुं शक्यते। "उसमे भेद नहीं होता है, भेद तो प्रकट शेली में होता है।","तत्र भेदो नास्ति, भेदस्तु प्रकटशैल्यामस्ति।" इसका उत्तर सुप्रत्यय स्वार्थिक है।,तदुत्तरः सु-प्रत्ययः स्वार्थिकः अस्ति। क्रिया के प्रश्‍न अर्थ में विद्यमान किम्‌ शब्द का लोप हुआ।,क्रियाप्रश्ने अर्थे विद्यमानस्य किम्शब्दस्य लोपः जातः। 10.यदि सभी कर्मों के त्याग से ही मोक्ष होता है तो नित्यादि कर्म क्यों करना चाहिए?,१०. यदि सर्वकर्मत्यागेनैव मोक्षः भवति तर्हि नित्यादिकर्माणि कुतः कर्तव्यानि। "जिन मंत्रों के छन्द॒ समान ही है, उन मंत्र समूहों को ही छन्द सूक्त कहते है।",येषां मन्त्राणां कृते छन्दः समानमेव अस्ति तेषां समूहो हि छन्दःसूक्तम्‌। इस प्रकार परोक्ष कहकर प्रत्यक्ष कहते है।,एवं परोक्षमुक्त्वा प्रत्यक्षमाह। ब्राह्मण नामधेय गोष्ठज शब्द का अक्षर अक्षर क्रम से उदात्त किस सूत्र से होता है?,ब्राह्मणनामधेयस्य गोष्ठजशब्दस्य अक्षरमक्षरं पर्यायेण उदात्तत्वं केन सूत्रेण ? "विशेष- प्रकृत सूत्र में छन्दसि इस पद की अनुवृति नहीं आ रही है, आद्युदात्रच यह भाष्यकार द्वारा कहे गए प्रमाण से।","विशेषः- प्रकृतसूत्रे छन्दसि इति पदं न अनुवर्तते, आद्युदात्तश्च इति भाष्यकारोक्तस्य प्रामाण्यात्‌।" 13. प्रपूर्वक अन्‌-धातु से लट प्रथमपुरुष एकवचन में।,13. प्रपूर्वकात्‌ अन्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने। इस प्रकार से वेदज्ञ निर्मल एकाग्र साधनचतुष्टय सम्पन्न ही अधिकारी बन्धन को नहीं सहता हुआ गुरु के पास विधिवत्‌ जाता है।,इत्थं वेदज्ञः निर्मलः एकाग्रः साधनचतुष्टयसम्पन्नः एव अधिकारी बन्धनम्‌ असहमानः गुरुम्‌ विधिवत्‌ उपसर्पति। पञ्चम मन्त्र में कहा गया है की किस प्रकार की अग्नि देवता के साथ आती है।,पञ्चमे मन्त्रे उच्यते कीदृशः अग्निः देवताभिः सह आगच्छति। "व्याख्या - जुआरी की स्त्री दीन-हीन वेश में यातना भोगती रहती है, पुत्र कहाँ कहाँ घुमा करता है, ऐसा सोचकर जुआरी की माता व्याकुल रहा करती है, त्यक्ता के रूप में उसकी पत्नी वियोग सन्ताप से सन्तप्त रहती है।",व्याख्या - क्व चित्‌ क्वापि चरतः निर्वेदादुगच्छतः कितवस्य जाया भार्या हीना परित्यक्ता सती तप्यते वियोगजसन्तापेन सन्तप्ता भवति । माता जनन्यपि पुत्रस्य क्वापि चरतः कितवस्य सम्बन्धाद्धीना तप्यते । जिस प्रकार बूढे घोड़े का कुछ भी मूल्य नही लगता उसी प्रकार मुझ जुआरी का कही आदर नही होता है।,बहुमूल्ययुक्तः वृद्धः अश्वः इव अहं(कितवः) जीवनं न इच्छामि। विवास - विपूर्वक वस्‌-धातु से मध्यम पुरुष एकवचन का यह रूप है।,विवास - विपूर्वकात्‌ वस्‌ - धातोः मध्यमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ । ये देवों के अधिपतित्व का वर्णन है।,देवानाम्‌ अधिपतित्वेन वर्णितः अयम्‌। ` मतुवसो रुः संबुद्धौ छन्दसि' (पा. ८/३/१) इससे रुत्व हुआ।,'मतुवसो रुः संबुद्धौ छन्दसि' (पा. ८/३/१) इति रुत्वम्‌। जैसे सूर्य का आतप स्वयं तृणादि का नाशक नहीं होता है।,यथा- सूर्यस्य आतपः स्वतः तृणादीनां नाशकः न भवति। "वह वायु को बहता है, बिजली को प्रकट करता है, औषधियों को उत्पन्न करते है और जल से पृथिवी के प्राणियो की रक्षा करता है।","स वायुं प्रवाहयति , विद्युतं प्रकटयति , ओषधीश्च उत्पादयति जलेन पृथिव्यां प्राणिनः रक्षति च।" इस प्रकार से श्रुतियों में कहा है ““यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः।,"तथाहि श्रुतिः- ""यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः।" और वे अनुवाको में विभक्त है।,ते च अनुवाकेषु विभज्यन्ते। पूर्व के दो पाठ में धातुस्वर प्रातिपदिकस्वर और फिट्‌-स्वर की आलोचना की है।,पूर्वतने पाठद्वये धातुस्वरः प्रातिपदिकस्वरः फिट्-स्वरश्च आलोचिताः सन्ति। "पाठगत प्रश्नों के उत्तर 1. नारायणत्ऋषि, अनुष्टुप्‌ छन्द, १६-त्रिष्टुप, विराट्‌ पुरुष देवता।","पाठगतप्रश्‍श्नानाम्‌ उत्तराणि -१ नारायणः ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, १६-त्रिष्टुप्‌, विराट्‌ पुरुषः देवता।" किसी कोश का जाग्रत अवस्था में प्राधान्य है तो कोई कोश किस अवस्था मे प्राधान्य है इस प्रकार का विचार किया गया है।,कस्य कोशस्य जाग्रदादिषु कस्याम्‌ अवस्थायां प्राधान्यमस्तीति विचारिम्‌। जिसका अर्थ विष्णु है।,तस्य अर्थः विष्णुः इति। भगवद्गीता भी उपनिषद्‌ का ही बोध कराता है।,भगवद्गीतापि उपनिषदमेव इति बोधयति इस अध्याय में अथर्ववेद की संहिता विषय पर आलोचना प्रस्तुत है।,अस्मिन्‌ अध्याये अथर्ववेदस्य संहिताविषये आलोचना प्रस्तूयते। नानावीर्याः - नाना वीर्याणि यासां ताः इति बहुव्रीहिसमास।,नानावीर्याः- नाना वीर्याणि यासां ताः इति बहुव्रीहिसमासः। इसका सामान्य अर्थ है की यदि आमन्त्रित अन्त समानाधिकरण विशेषणपद बाद में रहता है तो आमन्त्रित अन्त बहुवचन अन्त पद विकल्प से अविद्यमान के समान होता है।,अस्य सामान्यः अर्थः हि यदि आमन्त्रितान्तं समानाधिकरणं विशेषणपदं परं तिष्ठति तर्हि आमन्त्रितान्तं बहुवचनान्तं पदं विकल्पेन अविद्यमानवत्‌ भवति। उनके मत में एक एक योग मोक्ष लिए पर्याप्त है।,तन्मते एकैकः योगः मोक्षाय अलम्‌। "असर्वनामस्थान विभक्तिः इस पद का विशेषण है, अत लिङ्ग के व्यत्यय होने से असर्वनामस्थाना यह रूप प्राप्त होता है।",तच्च असर्वनामस्थानं विभक्तिः इति पदस्य विशेषणम्‌ अतो लिङ्गविपरिणामेन असर्वनामस्थाना इति रूपं लभते। कुछ यज्ञ संवत्सर सम्बन्धित होते हैं और कुछ ऋतु सम्बन्धित होते हैं।,केचन यज्ञाः संवत्सरसम्बन्धिनः सन्ति।केचन यज्ञाः संवत्सरसम्बन्धिनः सन्ति। परीक्षण के बाद क्या करना चाहिए।,परीक्षणानन्तरं किं कुर्यात्‌। इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे : इन्द्रसूक्त को जान पाने में। इन्द्र के महत्व को जान पाने में। इन्द्र की कोर्ति को जान पाने में। मनुष्यों की रक्षा के लिये इन्द्र के विषय में जान पाने में। हइन्द्रसूक्त में विद्यमान वैदिक शब्दों का प्रयोग जान पाने में। लौकिक वैदिक प्रयोग के मध्य में भेद कर पाने में। वेद में विविध स्वरों के प्रयोग में जान पाने में।,एतं पाठं पठित्वा भवान्‌- इन्द्रसूक्तं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। इन्द्रस्य माहात्म्यं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। इन्द्रस्य कीर्ति ज्ञातुं शक्नुयात्‌। मनुष्याणां रक्षकस्य इन्द्रस्य विषये ज्ञानं स्यात्‌। इन्द्रसूक्ते विद्यमानानां वैदिकशब्दानां प्रयोगं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। लौकिकवैदिकप्रयोगयोः मध्ये भेदं कर्तु शक्नुयात्‌। वेदे विविधस्वराणां प्रयोगं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। शरीर के गुण क्षण क्षण में बदलते रहते हैं इसका कोई नियत एक निश्‍चित स्वभाव नहीं होता है।,शरीरस्य गुणः क्षणे क्षणे भिद्यते। अस्य नियतः स्वभावः नास्ति। अच्छन्‌ - छन्द्‌-धातु से लुङ प्रथमपुरुष एकवचन में।,अच्छन्‌-छन्द्‌-धातोः लुङि प्रथमपुरुषैकवचने। वहाँ पर अज्ञान कारण होता है।,तत्र कारणं भवति अज्ञानम्‌। लेकिन मतभेद होने पर भी सभी वेदान्त दर्शन एक ही परमेश्वर का निर्देश करते है।,परन्तु एवं मतभेदे सति अपि सर्वाणि वेदान्तदर्शनानि एकम्‌ एव परमेश्वरं निर्दिशन्ति। सचते। सः षोडशी॥५॥,सचते। सः षोडशी॥ ५॥ पतञ्जलि ने वेदाङ्ग के विषय में क्या कहा है?,पतञ्जलिना वेदाङ्गविषये किमुक्तम्‌। इसका निरुध्यमानत्व प्रसिद्ध है।,अस्य निरुद्ध्यमानत्वं प्रसिद्धमस्ति। (बृह. भा. 4.3.19) पक्षी ताप को झेलने से तथा उडने की थकान को दूर करने के लिए जिस प्रकार से अपने घोंसले में आते हैं उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में तथा स्वप्नावस्था में कार्यकरण संयोग क्रियाफल के द्वारा जो संयुज्मान श्रम होता है।,"(बृह.भा. ४.३.१९)पक्षिणः परिपतनश्रमम्‌ अपनोतुं स्वनीडं प्रति यथा आगच्छति, तथा जाग्रदवस्थायां स्वप्नावस्थायाञ्च कार्यकरणसंयोगजक्रियाफलैः संयुज्यमानस्य श्रमो भवति।" कौन प्रस्थानत्रय का उपजीव्य है?,कः प्रस्थानत्रयस्य उपजीवी। अव्यय से षष्ठी समास निषेध होने का कौन सा उदाहरण है?,अव्ययेन षष्ठीसमासनिषेधे किमुदाहरणम्‌? ( 1.19 ) अव्ययीभावेशरत्प्रभुतिभ्यः सूत्रार्थ-अव्ययीभाव समास होने पर शरदादि प्रातिपदिक से पर समासान्त तद्धितसंज्ञक टच्‌ प्रत्यय होता है।,(१.१९) अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः सूत्रार्थः - अव्ययीभावसमासे शरदादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययो भवति। इसके द्वारा आदि: इस पद का अधिकार किया जाता है।,अनेन आदिः इति पदम्‌ अधिक्रियते। इस प्रकार से मन को ही बन्धन का कारण बताया गया है।,मनः बन्धस्य कारणमित्युक्तम्‌। वो है संध्यावंदनादि नित्यकर्म इसलिए श्रुतियों में कहा है अहरह सन्ध्यामुपासीत इस प्रकार से।,तानि च नित्यानि कर्माणि सन्ध्यावन्दनादीनि सन्ति। तथाहि श्रुतिः- अहरहः सन्ध्यामुपासीत इति। 22. विज्ञानमय कोश क्या है?,२२. विज्ञानमयकोशः कः? वहाँ पर मन्त्र वैदिक तत्त्व के रूप में प्रसिद्ध हैं।,तत्र मन्त्राः वैदिकेषु तत्त्वेन प्रसिद्धाः। और यहाँ पद का अन्वय इस प्रकार है - फिषः अन्तः उदात्तः इति।,एवञ्च अत्र पदान्वयः इत्थं - फिषः अन्तः उदात्तः इति। आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप होती है।,आत्मा च सच्चिदानन्दस्वरूपञ्च। इत्यादि श्रुतियों में ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व का फल कहा गया है।,इत्यादिषु श्रुतिषु ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानमेव फलमिति कथितम्‌। मन का अस्तित्व जाग्रत तथा स्वप्न में ही होता है।,मनसः अस्तित्वं जाग्रति स्वप्ने चैव भवति। क्योंकि अम्बष्ठ शब्द से अम्बष्ठस्य अपत्यं स्त्री (अम्बष्ठय की पुत्री) इस अर्थ में वृद्धेत्कोसलाजादाञ्ञ्यङ्‌ सूत्र से ञ्यङ्‌ प्रत्यय होने पर अम्बष्ठ ञ्यङ्‌ होने पर ञकार का चुटू सूत्र से इत्संज्ञा होने पर ङकार का हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः इस सूत्र से उन दोनों का लोप होने पर अम्बष्ठ य यह स्थिति होती है।,"यतोहि अम्बष्ठशब्दात्‌ अम्बष्ठस्य अपत्यं स्त्री इत्यर्थे वृद्धेत्कोसलाजादाञ्ञ्यङ्‌ इति सूत्रेण ञ्यङ्‌ इति प्रत्यये अम्बष्ठ ञ्यङ्‌ इति जाते ञकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, ङकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे च सति अम्बष्ठ य इति स्थितिः भवति।" एवं कहा जाता है-'' प्रायेण उभयपदार्थप्रधानद्वन्द''।,अत एवोच्यते प्रायेण उभयपदार्थप्रधानः द्वन्द्वः। "यजुर्वेद का ज्योतिष शास्त्र है - याजुषज्योतिष, ऊनचत्वारिंशत्पद्यात्मक।","यजुर्वेदस्य ज्यौतिषम्‌ - याजुषज्यौतिषम्‌,ऊनचत्वारिंशत्पद्यात्मकम्‌।" इसी प्रकार कतमकठः यहाँ पर भी कतमश्चासौ कठः इस विग्रह में कर्मधारय समास करने पर कतमकठः यह रूप बनता है।,एवं कतमकठः इत्यत्रापि कतमश्चासौ कठः इति विग्रहे कर्मधारयसमासे कतमकठः इति रूपं भवति। 5 जीव की उपाधि क्या होती है?,५. जीवस्य उपाधिः कः? स्वप्नविषय वैसा नहीं होता है उसका मिथ्यात्व सभी को समझ में आता ही है।,स्वप्नविषये तथा नास्ति। तस्य मिथ्यात्वं सर्वानुभवगम्यमेव। प्रकृति स्वर का नाम स्वाभाविक स्वर है।,प्रकृतिस्वरः नाम स्वाभाविकः स्वरः। वह नपुंसक होता है।,तन्नपुंसकं भवति इति भावः। वेदान्त का मुख्य विषय क्या है?,वेदान्तस्य मुख्यः विषयः कः? इससे क्रम से उदात्त स्वर का विधान है।,अनेन पर्येण उदात्तस्वरः विधीयते। पथ्य के तीन शिष्य कौन थे?,पथ्यस्य त्रयः शिष्याः के आसन्‌? बृहद्देवता में तथा पुराणों में शाकपूर्णी रथीतर शाकपूर्णि-नाम से जाने जाते हैं।,बृहद्देवतायां तथा पुराणेषु च शाकपूणिः रथीतरशाकपूणि-नाम्ना स्मृतः अस्ति। सूर्योदय का दृश्य भी अत्यधिक मनोहर है।,सूर्योदयस्य दृश्यम्‌ अपि तस्य अतीव प्रियम्‌ अस्ति। इसके बाद नुमागम होने पर और अनुबन्धलोप होने पर भवन्ती रूप सिद्ध होता है।,ततः नुमागमे अनुबन्धलोपे च सति भवन्ती इति रूपं सिध्यति। योगसूत्र में इस प्रकार से उन्होंने इस प्रकार से कहा है- “तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्‌” इति।,सूत्रितं च - “तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्‌” इति। उससे शार्ङ्गरव ङीन्‌ यह स्थिति होती है।,तेन शार्ङ्गरव ङीन्‌ इति स्थितिः भवति। यह ही बन्धन है जो चक्र के समान जन्म तथा मृत्यु के रूप मे प्रवर्तित होता है।,इदमेव बन्धनं यत्‌ चक्रवत्‌ जन्म मृत्युश्च प्रवर्तेते इति। 32. “प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधान अव्ययीभावः'' यह अव्ययीभाव समास का लक्षण है।,"३२. ""प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानः अव्ययीभावः"" इत्यव्ययीभावसमासस्य लक्षणम्‌।" लोग स्फटिक में प्रतीयमान रक्तिमा को पुष्प की रक्तिमा इस प्रकार से नहीं जानकर के अविवेक से लोहित स्फटिक इस प्रकार से ही कहते है।,जनाः स्फटिके प्रतीयमानः रक्तिमा पुष्पस्य भवतीत्यज्ञात्वा अविवेकेन लोहतः स्फटिकः इति कथयन्ति। इस लोक में सत्य वस्तु क्या है इसका वेदान्त शास्त्र के द्वारा अन्वेषण होता है।,लोके सत्यवस्तु किमस्ति इत्यन्वेषणं भवति वेदान्तशास्त्रस्य। एवं सूत्रार्थ होता है- नञ्‌ तत्पुरुष समास से समासान्त नहीं होते हैं।,एवं सूत्रार्थो भवति - नञ्तत्पुरुषसमासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति इति। "विशेष- आदिः सिचोऽन्यतरस्याम्‌ इस सूत्र से इस सूत्र में आदिः इस पद की अनुवृति आती है, फिर भी यहाँ आदि इस पद को ग्रहण करने से आद्युदात्त स्वर का नित्य विधान किया है, अन्यथा आदि ग्रहण अभाव में उस सूत्र से ही (आदि: सिचोऽन्यतरस्याम्‌) अन्यतरस्याम्‌ इसको अनुवृति आयेगी, उससे इस सूत्र को आद्युदात्त स्वर विकल्प से होगा, वैसा न हो इसलिए यहाँ पर आदि ग्रहण किया है ऐसा जानना चाहिए।","विशेषः- आदिः सिचोऽन्यतरस्याम्‌ इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ अस्मिन्‌ सूत्रे आदिः इति पदम्‌ अनुवर्तते तथापि अत्र आदि इति पदग्रहणम्‌ आद्युदात्तस्वरस्य नित्यविधानार्थम्‌, अन्यथा आदिग्रहणाभावे तस्मादेव सूत्राद्‌(. आदिः सिचोऽन्यतरस्याम्‌ ) अन्यतरस्याम्‌ इति आगमिष्यति, तेन अनेन सूत्रेण आद्युदात्तस्वरः विकल्पेन भविष्यति, तद्यथा न स्यात्‌ तदर्थम्‌ आदिग्रहणमिति बोध्यम्‌।" इसीलिए पूर्व में जो पुरुष को हवि का रूप कहा गया है।,एतदेवाभिप्रेत्य पूर्वत्र यत्पुरुषेण हविषा' इत्युक्तम्‌। "उससे सूत्र का अर्थ होता है - गति अर्थ वाले लोट लकार से युक्त लृडन्त जो तिङन्त उसको अनुदात्त नहीं होता है, जहाँ कारक में लोट्‌ लकार है वहाँ पर भी।",तेन सूत्रस्य अस्य अर्थः भवति- गत्यर्थलोटा युक्तं लृडन्तं यत्‌ तिङन्तं तत्‌ अनुदात्तं न भवति यत्रैव कारके लोट्‌ तत्रैव लृडपि चेत्‌ इति। तथा ब्रह्मविदुषीवाग्‌ आत्मा के ब्रह्मरूप का अनुभव करती हुई और ब्रह्मण जगत्कारण से अपनी अपने कर्ता भाव का गुणगान करती है।,तथाहि ब्रह्मविदुषीवाग्‌ आत्मनो ब्रह्मरूपताम्‌ अनुभवन्ती ब्रह्मणश्च जगत्कारणतया स्वस्याः सर्वकर्तृतां कीर्तयति। विचरण करते हे।,आस्फारे । उस यज्ञ से यजुर्वेद भी उत्पन्न हुआ।,तस्मात्‌ यज्ञात्‌ यजुः अपि अजायत। "बहुव्रीहि समास के पञ्च विधायक सूत्र है- ""अनेकमन्यपदार्थे"", ""संख्ययाव्ययासन्नदूराधिक-संख्याः संख्येये"", ""दिङ्नामान्यन्तराले"" ""तत्र तेनेदमिति सरूपे"", ""तेन सहेति तुल्ययोगे""।","बहुव्रीहिसमासस्य विधायकानि पञ्च सूत्राणि सन्ति ""अनेकमन्यपदार्थे"", ""संख्ययाव्ययासन्नदूराधिक-संख्याः संख्येये"", ""दिङ्नामान्यन्तराले"" ""तत्र तेनेदमिति सरूपे"", ""तेन सहेति तुल्ययोगे"" इति।" वैसे ही श्रुतियों में कहा है की नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।,तथैव श्रुत्या आम्नायते यत्‌ नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि इति। 2 आत्मविषय में अन्त्य प्रमाण क्या है?,२. आत्मविषये अन्त्यं प्रमाणं किम्‌? "वा भुवनम्‌, पूर्वे भूतपूर्वे इत्यादि सूत्र से पूर्वपद को विकल्प से प्रकतिस्वर होता है।","वा भुवनम्‌, पूर्वे भूतपूर्व इत्यादीनि सूत्राणि पूर्वपदस्य विकल्पेन प्रकतिस्वरः विधीयते।" "जल से पृथिवी का ग्रहण है, जो भूतपञ्चमहाभूत का उपलक्षक है।",अद्भ्यः जलात्‌ पृथिव्याः सकाशाच्च पृथिव्यपां ग्रहणं भूतपञ्चकोपलक्षणकम्‌। इस अक्षसूक्त में मूलरूप से अक्ष खेलने के बुरे फल को ही कहा गया है।,अस्मिन्‌ अक्षसूक्ते मूलतः अक्षक्रीडनस्य कुफलम्‌ एव उक्तम्‌ । अनिट्‌ अजादि में लसार्वधातुके के परे अभ्यस्त का आदि उदात्त होता है।,अनिट्यजादौ लसार्वधातुके परे अभ्यस्तानामादिरुदात्तः। यह ही वास्तविक परमार्थता है।,एषा एव परमार्थता इति। वैसे ही वेदरूप ज्ञान के विशाल पर्वत से अनेक स्रोत जनकल्याण के लिए प्रवाहित होते हैं।,तथा वेदरूपात्‌ ज्ञानस्य महापर्वतात्‌ नैकानि स्रोतांसि प्रवहन्ति जनकल्याणाय। इस शिक्षा में चौसठ (६४) श्लोक है।,अस्यां शिक्षायां चतुःषष्टिः (६४) श्लोकाः सन्ति। "राजकीय विषय में भी - शत्रुओं के वध के लिए, सैन्य सञ्चालन के लिए तथा उसके उपयोगी साधनों का विस्तार सहित विवरण है।","राजकीयविषयेऽपि- शत्रूणां संहाराय, सैन्यसञ्चालनाय तथा तदुपयोगिनां साधनानां सविस्तरेण विवरणम्‌ अस्ति।" इसलिए इस शरीर की विभक्त्यवस्था तथा भेदकावस्था स्वप्न मे होती है।,अतः अस्य शरीरस्य विभक्त्यवस्था भेदकावस्था भवति स्वप्नः। ऋक्‌ सर्वानुक्रमणि में इसका उल्लेख प्राप्त होते हैं - 'द्विर्दिपदास्त्वृचः समामनन्ति' इस सूत्र की व्याख्या में षड्गुरु शिष्य का स्पष्ट कथन है - 'ऋचा के अध्ययन में तो पाठक दो-दो पाद में एक-एक ऋचा करके वेदपाठी अध्ययन करते हैं।,ऋक्स्वानुक्रमण्याम्‌ अस्योल्लेखः प्राप्यते- 'द्विर्द्विपदास्त्वृचः समामनन्ति' अस्य सूत्रस्य व्याख्यायां षड्गुरुशिष्यस्य स्पष्टकथनमस्ति- 'ऋचोऽध्ययने तु अध्येतारो द्वे द्वे द्विपदे एकैकामृचं कृत्वा समामनन्ति। जैस सुषुप्ति अवस्था में स्थित होकर सुषुप्ति से उठा हुआ व्यक्ति सत्त्वमात्र को ही समझता है।,यथा-सुषुप्त्यवस्थायां स्थित्वा सुषुप्तात्‌ उत्थितः जनः सत्त्वमात्रम्‌ अवगच्छति। केवल वेद पाठ से ही वेद में कहा पर क्या स्वर होगा ऐसा विद्वान मनुष्य जानने में समर्थ नहीं हो सकते है।,केवलं वेदपाठेन एव वेदे कुत्र कः स्वरः भविष्यति इति विद्वांसः ज्ञातुं न प्रभवन्ति। 3. वेदान्तशास्त्र का तात्पर्य क्या है?,३. वेदान्तशास्त्रस्य तात्पर्यं किम्‌? नित्यसमास के लौकिक में अस्वपदविग्रह होता है।,नित्यसमासस्य लौकिकः अस्वपदविग्रहः भवति। पाँच दिन तक यह याग चलता है।,पञ्च दिनं यावत् अयं यागः प्रचलति। न केवल वेदान्त सम्प्रदायों का समन्वय अपितु भिन्न भिन्न धर्मो का भी समन्वय यहाँ पर प्राप्त होता है।,"न केवलं वेदान्तसम्प्रदायानां समन्वयः, भिन्नभिन्नधर्माणाम्‌ अपि समन्वयः अत्र लभ्यते।" 12. “तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन'' सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।,"१२. ""तृतीया तत्कृतार्थन गुणवचनेन"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" इस पाठ्य विषय के ज्ञान से उस दर्शन में विद्यमान अन्य आकार ग्रंथों के अध्ययन में समर्थ हों।,अस्य पाठ्यविषयस्य ज्ञानेन तस्मिन्‌ दर्शने विद्यामानानाम्‌ अन्येषाम्‌ आकरग्रन्थानाम्‌ अध्ययने समर्थो भवेत्‌। "उनमे कुछ अंश ही गद्यात्मक है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ सभी प्रकार से गद्यात्मक ही है।","तेषां कतिपयांशा एव गद्यात्मकाः सन्ति, किन्तु ब्राह्मणग्रन्थाः सर्वथा गद्यात्मका एव भवन्ति।" "व्याख्या - किन्तु कभी कभी वह ही पासा बे हाथ हो जाता है, अङ्कुश के समान चुभता है, बाण के समान छेदता है, छुरे के समान काटता है, तप्त पदार्थ के समान संताप देता है।",व्याख्या - अक्षास इत्‌ अक्षा एव अङ्कुशिनः अङ्कुशवन्तः नितोदिनः नितोदितवन्तश्च निकृत्वानः पराजये निकर्तनशीलाश्छेत्तारो वा तपनाः पराजये कितवस्य सन्तापकाः तापयिष्णवः सर्वस्वहारकत्वेन कुटुम्बस्य सन्तापशीलाश्च भवन्ति । ऋषि सूक्त क्या है?,किम्‌ ऋषिसूक्तम्‌? चकारः आदिः येषां ते चादयः तेषु चादिषु यहाँ बहुव्रीहि समास है।,चकारः आदिः येषां ते चादयः तेषु चादिषु इति बहुव्रीहिसमासः। विद्यारण्यस्वामी ने पञ्चदशी ग्रन्थ में निदिध्यासन का लक्षण इस श्लोक में कहा है “ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्य यत्‌।,विद्यारण्यस्वामी पञ्चदशीग्रन्थे निदिध्यासनलक्षणं श्लोकेनाह -“ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्य यत्‌। परीक्षा भी संस्कृत माध्यम से ही होगी।,परीक्षा अपि संस्कृतमाध्यमेन एव भविष्यति। "कार्तकौजपादयश्च इस सूत्र से कार्तकौजपादि जो द्वन्द हैं, उनमे पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होने का विधान है।",कार्तकौजपादयश्च इति सूत्रेण कार्तकौजपादयो ये द्वन्द्वास्तेषु पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं विधीयते। इससे भी व्याकरण के प्रति लोक की प्रवृत्ति दीर्घ काल से थी ऐसा जाना जाता है।,इत्येतेन अपि व्याकरणं प्रति लोकस्य प्रवृत्तिः चिरात्‌ आसीद्‌ इति ज्ञायते। कनिक्रदत्‌ यह पद कैसे बना?,कनिक्रदत्‌ इति पदस्य निष्पत्तिः कुतः ? वैदिक छन्द विषय में यह धारणा मान्य नहीं है।,वैदिकच्छन्दसो विषये इयं धारणा अमान्या अस्ति। "ष्यञ्‌ प्रत्यय के ञकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोप: इससे लोप होता है, अतः शेष जो 'ष्य' उसको ञिद्‌ कहते है।",ष्यञ्प्रत्ययस्य ञकारस्य इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः इत्यनेन लोपश्च भवति अतः अवशिष्टं यत्‌ ष्य-इति तत्‌ ञिद्‌ इत्युच्यते। सोपाधिक ब्रह्म तथा निरूपाधिक ब्रह्म।,"सोपाधिकं ब्रह्म, निरुपाधिकं ब्रह्म च।" "इस सूत्र में जो विभाषा है, वह व्यवस्थित विभाषा है।",अस्मिन्‌ सूत्रे या विभाषा वर्तते सा व्यवस्थितविभाषा वर्तते। और षष्ठी एकवचन में।,अपि च षष्ठ्यैकवचने । किन्तु दसवें मण्डल में लकार युक्त शब्द का ही प्रयोग प्राप्त होता है।,किञ्च दशममण्डले लकारयुक्तशब्दस्यैव प्रयोगः प्राप्यते। पुष्टि को भी प्राप्त करता है।,पोषम्‌ पुष्टिम्‌ अपि। इस प्रकार से पुष्प में रक्तिमा भी होती है।,एवञ्च पुष्पे रक्तिमा अस्ति। और सूत्रार्थ होता है-“द्विगुरपि तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"एवं सूत्रार्थः भवति - ""द्विगुरपि तत्पुरुषसंज्ञः भवति"" इति।" कौन उसकी स्तुति करती है।,के तस्य स्तुतिं कुर्वन्ति। और अज्ञान ज्ञानविरोधि सत्त्वरजतमगुणात्मक होता है।,पुनः च अज्ञानं ज्ञानविरोधि सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकं च भवति। इसलिए स्वप्नस्थ जीवन तथा मुक्ति में क्या भेद होता है।,अतः स्वप्नस्थजीवन्मुक्तयोः कः भेदः इति। प्रकरणप्रतिपाद्य आत्मज्ञान का तथा उसके अनुष्ठान का वहाँ-वहाँ सुनाई देने वाला प्रयोजन फल होता है।,प्रकरणप्रतिपाद्यस्य आत्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य वा तत्र तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनं फलम्‌। अतः लौकिक लिङ्ग के लक्षण में दोषों को देखकर शास्त्रकर्त्ताओं द्वार लिङ्ग का शास्त्रीय लक्षण कल्पित है।,अतः लौकिकलिङ्गस्य लक्षणे दोषान्‌ दृष्ट्वा शास्त्रकर्तृभिः लिङ्गस्य शास्त्रीयं लक्षणं कल्पितम्‌ अस्ति। दाशुषे - दाशृ - धातु से क्वसुप्रत्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में दाशुषे यह रूप बनता है।,दाशुषे- दाशृ - धातोः क्वसुप्रत्यये चतुर्थ्येकवचने दाशुषे इति रूपम्‌। श्रीमदभगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोति ददासि यत्‌।,उच्यते च श्रीमद्भगवद्गीतायां भगवता कृष्णेन - यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोति ददासि यत्‌। दुःख बुरे कर्मो के अनुष्ठान से होता है।,दुःखम्‌ अशोभनकर्मानुष्ठानाद्‌ जायते। आचार्य के बिना मार्गदर्शन नहीं होता है।,आचार्य विना मार्गोदेष्टा नास्ति। और कुछ विद्वान रामलीला और कृष्णलीला का यहाँ पर निर्देश करते है।,अपरे कतिपये विद्वांसः रामलीला कृष्णलीला चात्र निर्दशनभावं भजतः। "स्वस्थ मन में ही वेदत्रयी प्रकट होते है, इस मन में शब्द मात्र स्थिर होते है 'अन्नमयं हि सोम्य मनः' इति छान्दोग्य में स्वस्थ मन से ही वेदो का उच्चारण प्रतिपादित किया गया है।",मनसः स्वास्थ्ये एव वेदत्रयीस्फूर्तेः मनसि शब्दमात्रस्य प्रतिष्ठितत्वम्‌ 'अन्नमयं हि सोम्य मनः' इति छान्दोग्ये मनस एव स्वास्थ्ये वेदोच्चारणशक्तिः प्रतिपादिता । भूमि विविध रूप से क्रम पूर्वक वह महद्‌ आदि के द्वारा अनेक गीत गाती है।,भूमिं विविधरूपेण क्रममाणः सः महद्भिः प्रभूतं गीयते। और इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है उदात्त से परे अनुदात्त को स्वरित स्वर होता है।,एवञ्च अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति उदात्तात्परस्य अनुदात्तस्य स्वरितस्वरो भवति इति। आहिताग्नि शब्द का अर्थ जिसने गार्ह पत्याग्नि को प्रतिष्ठित किया है।,आहिताग्निशब्दस्य अर्थो हि येन गार्हपत्याग्निः प्रतिष्ठितो वर्तते। पूर्वभिः - पूर्वेः इसका वैदिक रूप है।,पूर्वेभिः- पूर्वैः इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। परः यह सकारान्तकिस अर्थ में है।,परः इति सकारान्तं कस्मिन्नर्थे वर्तते। धृषेः क्नुप्रत्यय है।,धृषेः क्नुप्रत्ययः। वस्तुतः वेदान्तदर्शन के पराम्परागत आचार्य आगम तथा श्रुति को ही चरमप्रमाणत्व के रूप में स्वीकार करतें है।,वस्तुतः वेदान्तदर्शनस्य परम्परागता आचार्या आगमं तथा श्रुतिमेव चरमप्रमाणत्वेन अङ्गीकुर्वन्ति। उसे मैं स्तोता ब्रह्माण बना देती हूँ।,तमेव ब्रह्माणं स्रष्टारं करोमि। वहाँ पर आप अप्रसूत फल का अर्थ नहीं कर सकते है।,"भवान्‌ , न अप्रसूतफलस्येति।" उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - हन्त इससे युक्त लोडन्त अनुत्तम तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थ भवति- हन्त इत्यनेन युक्तं लोडन्तं अनुत्तमं तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं भवति इति। साहित्य शास्त्रों में अनभिज्ञ व्यक्ति क्या नहीं जान सकता?,साहित्यशास्त्रेषु अनभिज्ञः किं ज्ञातुं न प्रभवति? इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः सूत्र से दीर्घ होने पर कारीषगन्ध्या रूप सिद्ध होता है।,ततः अकः सवर्णे दीर्घः इति सूत्रेण दीर्घे च सति कारीषगन्ध्या इति रूपं सिध्यति। इसलिए शङ्कराचार्य का वचन है।,तथाहि शाङ्करवचनम्‌। उपासना चित्त के विक्षेप की शान्ति के लिए की जाती है।,उपासना चित्तविक्षेपशान्तये क्रियते। सरलार्थ - किस प्रकार की अग्नि के समीप यज्ञ करने वाले ऋत्विग जाते हैं।,सरलार्थः- ननु कीदृशस्य अग्नेः समीपं यज्ञकारिणः यान्ति। ये सब कैसे हुआ वो यहां बताया गया है।,कीदृशमित्यत्राह। इस विषय में महाभारत में कहा है - नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैभवैः समन्वितम्‌।,तदुक्तं महाभारते- नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैभविः समन्वितम्‌ । षोडश अर्च में अनुवाक एकरसुद्रदैव आदि गायत्री तीन अनुष्टुप तीन पंक्तियों में सात अनुष्टुप में दो जगति में।,षोडशर्चोऽनुवाकः एकसरुद्रदैवत्यः आद्या गायत्री तिस्नोऽनुष्टुभः तिस्रः पङ्क्तयः सप्तानुष्टुभः द्वे जगत्यौ। और वह प्रसङ्ग भेद से भिन्न हो सकता है।,तच्च प्रसङ्गभेदेन भिन्नं भवितुमर्हति। 9 साधनचतुष्टय में कार्यकारणभाव को बताइये।,९. साधनचतुष्टये कार्यकारणभावः वक्तव्यः। "सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्माद्‌ = उस आदिपुरुष से, विराट्‌ = ब्रह्माण्डदेह, अजायत = उत्पन्न हुआ, विराजः अधि = विराट देह के ऊपर, उसी देह को अधिकरण करके, पूरुषः = एक पुरुष (अजायत), स जातः = उत्पन्न विराट्पुरुष, अत्यरिच्यत = अतिरिक्त हुआ, देव-तिर्यङ-मनुष्यादिरूप हुए।","सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्माद्‌ = आदिपुरुषात्‌, विराट्‌ = ब्रह्माण्डदेहः, अजायत = जातः, विराजः अधि = विराड्देहस्य उपरि, तमेव देहम्‌ अधिकरणं कृत्वा, पूरुषः = एकः पुमान्‌ (अजायत) , स जातः = समुत्पन्नो विराट्पुरुषः, अत्यरिच्यत = अतिरिक्तोऽभवत्‌, देव-तिर्यङ्-मनुष्यादिरूपः अभूत्‌।" सरलार्थ - उस सर्वहुत यज्ञ से दधिमिश्रित घृत एकत्र किया।,सरलार्थः- तस्मात्‌ सर्वहुतः यज्ञात्‌ दधिमिश्रितं घृतम्‌ एकत्री कृतम्‌। उसके जडत्व होने पर चैतन्य के द्वारा वह प्रदीप्त होती है।,तस्य जडत्वेऽपि चैतन्येन प्रदीप्ता भवति। उस ब्रह्म ज्ञान के लिए सर्वप्रथम अन्तः करण की शुद्धि यत्नपूर्वक करना चाहिए।,तस्माद्‌ ब्रह्मलाभाय प्रथमम्‌ अन्तःकरणस्य शुद्धिः यत्नेन सम्पादनीया भवति। 6. यस्य व्रते पृथिवी ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,६. यस्य व्रते पृथिवी ..... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। सह॑ ते पुत्र सूरिभिः इत्यादि में सह यह अन्तोदात्त होने से यहाँ पढ़ा गया है।,सह॑ ते पुत्र सूरिभिः इत्यादिषु सह इति अन्तोदात्तत्वेन पठितम्‌। "वेद में देवों के अश्व, रथ, वज्र, गृह, पत्नी, दुर्ग आदि का भी वर्णन प्रमाणित करता है कि मनुष्य के समान देव भी शरीरधारी हैं।","वेदे देवानां अश्वः, रथः, वज्रः, गृहम्‌, पत्नी, दुर्गः इत्येतेषामपि वर्णना प्रमापयति यत्‌ मनुष्याः इव देवाः अपि शरीरिणः आसन्‌।" इस प्रकार से नियम्य तथा नियामक में भेद नहीं होता है।,न खलु नियम्यनियामकयोरभेदः। जैसे तडाग से नहरों में प्रवेश करता है तथा नहरों में प्रविष्ट होकर के नहर के आकार में परिणित हो जाता है।,"यथा तडागात्‌ जलं कुल्याद्वारा केदारान्‌ प्रविशति, केदारान्‌ प्रविश्य च केदाराकारं धत्ते ।" "वो है जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति।",ताश्च जाग्रत्‌ स्वप्नः सुषुप्तिः च। निपात आद्युदात्त किस सूत्र से है?,निपाताः आद्युदात्ताः केन सूत्रेण ? अतः इस सूत्र का अर्थ है “उपमानवाचक सुबन्त सामान्य वाचकों समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ उपमानवाचकानि सुबन्तानि सामान्यवचनैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह वा समस्यन्ते स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति"" इति ।" इस सन्दर्भ में अथर्ववेद का कथन है कि बुखार पीडित लोग पित और परेशान रहते है।,अस्मिन्‌ सन्दर्भेऽथर्ववेदस्य कथनम्‌ अस्ति यद्‌ ज्वरपीडिताः जनाः पीताः सन्तप्ताश्च भवन्ति। वह समास इससे निषेध किया गया है।,स समासः अनेन निषिध्यते। अतः कहा गया है- श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः।,तथाहि उच्यते - श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः। 7 अनुबन्ध के अर्थ का विवरण दीजिए?,७. अनुबन्धार्थः वित्रियताम्‌। प्रजापति के नाभि में अन्तरिक्ष था।,नाभ्याः प्रजापतेनभिः अन्तरिक्षमासीत्‌। व्याख्या - प्रजापति ने क्रन्दन करते हुए द्युलोक और पृथिवी लोक की रक्षा की।,व्याख्या- क्रन्दितवान्‌ रोदितवाननयोः प्रजापतिरिति क्रन्दसी द्यावापृथिव्यौ। निर्धारण में षष्ठयन्त सुबन्त को समास नहीं होता है।,निर्धारणे षष्ठ्यन्तं सुबन्तं न समस्यते। जिस के द्वारा प्रमाण किया जाता है वह प्रमेय कहलाता है।,यत्‌ प्रमीयते तत्‌ प्रमेयमिति विवेकः। "देवता के विचार में निरुक्त में यास्क ने कहा है कि -देवतायाः एक आत्मा बहुध स्तूयते (निरुक्ते 7-4) ""| जैसे एक ही देह के भिन्न-भिन्न अङ्ग होते है वैसे ही एक ही अडिग आत्मा के वे भिन्न देव अङग स्वरूप होते हैं - एक ही आत्मा के अन्य देव प्रत्यङ्ग होते हैं।",देवताविचारकाले निरुक्ते यास्केन उक्तम्‌--- देवतायाः एक आत्मा बहुधा स्तूयते (निरुक्ते ७-४) । यथा एकस्यैव देहस्य भिन्नानि अङ्गानि तथा एकस्यैव अङ्गिनः आत्मनः ते भिन्नाः देवाः अङ्गस्वरूपाः - --एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति| विधि विधानों के अपने स्वरूप की व्याख्या ही इन आख्यानों की माता है।,विधिविधानानां स्वस्वरूपस्य व्याख्या एतेषाम्‌ आख्यानानां जननी अस्ति। वेद आवरण होने से छन्द यह पद युक्त ही है।,वेदावरणकारित्वात्‌ छन्दः इति पदं युक्तम्‌ एव। 20. मद मान असूया आदि अन्तः करण के मलों को दूर करना ही आन्तरिक शौच होता है।,२०. मदमानासूयादीनाम्‌ अन्तःकरणमलानाम्‌ अपसारणम्‌ आभ्यन्तरं शौचम्‌। सामान्य दानस्तुति प्रतिपादक एक भव्य सूक्त है।,सामान्यदानस्तुतिप्रतिपादकमेकं भव्यं सूक्तमस्ति। और कात्यायन ने कहा है - “यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः।,उक्तञ्च कात्यायनेन - 'यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः। 1 जगज्जन्मानुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्व 2. जगत्स्थित्यनुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्व 3. जगल्लयानुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्व 4 जगज्जन्मानुकूलचिकीर्षावत्त्व 5. जगत्स्थित्यनुकूलचिकीर्षावत्त्व 6 जगल्लयानुकूलचिकीर्षावत्त्व 7 जगज्जन्मानुकूलप्रयत्नवत्त्व 8 जगत्स्थित्यनुकूलप्रयत्नवत्त्व 9 जगल्लयानुकूलप्रयत्नवत्त्व इस प्रकार से ब्रह्म शब्दार्थ कहकर के यजुर्वेद के बृहदारण्यकोपनिषद्‌ गत महावाक्य कहते हैं।,१ ) जगज्जन्मानुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्वम्‌ २) जगत्स्थित्यनुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्वम्‌ ३) जगल्लयानुकूलापरोक्षज्ञानवत्त्वम्‌ ४) जगज्जन्मानुकूलचिकीर्षावत्त्वम्‌ ५) जगत्स्थित्यनुकूलचिकीर्षावत्त्वम्‌ ६) जगल्लयानुकूलचिकीर्षावत्त्वम्‌ ७) जगज्जन्मानुकूलप्रयत्नवत्त्वम्‌ ८) जगत्स्थित्यनुकूलप्रयत्नवत्त्वम्‌ ९) जगल्लयानुकूलप्रयत्नवत्त्वम्‌ एवं ब्रह्मशब्दार्थम्‌ उक्त्वा यजुर्वेदस्य बृहदारण्यकोपनिषद्गतं महावाक्यं विचार्यते। वे सभी वचन ही जीवन्मुक्ति में प्रमाण हैं “ऐषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।,"तानि सर्वाण्येव वचांसि जीवन्मुक्तौ प्रमाणम्‌। उक्तं च - ""एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।" वेदों में वर्णित जो यज्ञ आदि है वही धर्म है।,वेदविहितयागादिः धर्मः। "माध्यमिका के बारह स्थानकों में सावित्री, पञज्चचूड, स्वर्ग, दीक्षित, आयुष्य आदि का विवेचन है।",माध्यमिकायाः द्वादशस्थानकेषु सावित्री-पञ्चचूड-स्वर्ग-दीक्षित-आयुष्यादीनां विवेचनमस्ति। दूसरा समाधान होता है की पर्यायवाची के ग्रहण करने में लघु गुरु की चिन्ता नहीं करते है इस नियम से यहाँ पर-पर्याय का उदय शब्द के ग्रहण करने में कोई हानि नहीं है।,अपरं समाधानं भवति यत्‌ पर्यायवचकानां ग्रहणे लघुगुरुचिन्ता नाद्रियते इति नियमेन अत्र पर- पर्यायस्य उदयशब्दस्य ग्रहणे न हानिः इति शम्‌। अच्‌ है आदि मे जिसके।,अजः आदिः येषां ते अजादयः। "“""राजाहः सखिभ्यष्टच्‌"" इस सूत्र से टच्‌ इस प्रथमान्त पद की अनुवर्ती होती है।","""राजाहः सखिभ्यष्टच्‌"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ टच्‌ इति प्रथमान्तम्‌ अनुवर्तते। """ इसके बाद सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न होने पर उपशरद इस प्रातिपदिक से सुके स्थान पर अम्‌ होने पर प्रक्रिया कार्य में उपशरदम्‌ रूप निष्पन्न होता है।,ततः सर्वसंयोगे निष्पन्नाद्‌ उपशरद इत्यस्मात्‌ प्रातिपदिकात्‌ सौ सोरमि प्रक्रियाकार्ये उपशरदम्‌ इति रूपम्‌। किसी निमित्त की उपस्थिति में शास्त्रोपदेश के द्वारा जो कर्म करना होता है वह नैमित्तिक कर्म होता है।,कस्यचित्‌ निमित्तस्य उपस्थितौ शास्त्रोपदेशेन यत्‌ कर्म कर्तव्यं भवति तत्‌ नैमित्तिकं कर्म। सभी जीव सुख के द्वारा आनन्द का अनुभव करते है।,सर्वे जीवाः सुखेन आनन्दम्‌ अनुभवन्ति। इस सूत्र में विग्रह वाक्य में यावत्‌ इस तद्धितान्त का उपयोग होता है समास में तो यावत्‌ इस अव्यय का विशेष अर्थ है।,अस्मिन्‌ सूत्रे विग्रहवाक्ये यावदिति तद्धितान्तस्योपयोगो भवति समासे तु यावत्‌ इत्यव्ययस्येति विशेषः। ऐसे ब्रह्मवादियों का ब्रह्म के जैसे पुरुष का जगत्‌ उत्पादन करना श्रुतिसम्मत है।,एतेन ब्रह्मवादिनां ब्रह्मण इव पुरुषस्य जगदुपादनत्वं श्रुतिसम्मतम्‌। "अपादादौ यहाँ पर औपश्लोषिक सप्तमी है, अत “पाद के आदि में नहीं स्थित' का यह अर्थ प्राप्त होता है।","अपादादौ इत्यत्र औपश्लोषिकसप्तमी वर्तते, अतः अपादादौ स्थितस्य इत्यर्थः लभ्यते।" 7. वेदान्तो के अद्वितीय ब्रह्म में तात्पर्यावधारणानुकूला मानसी क्रिया होती है।,७. वेदान्तानाम्‌ अद्वितीये ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणानुकूला मानसी क्रिया। "जिससे उसकी वहीं पर उपलब्धि होती है, वहाँ पर गीता ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।",यतः तस्य तत्रैवोपलब्धिरस्ति। तत्र गीतावचनं प्रमाणम्‌- ईश्वरः सर्वभूतानां हृददेशेर्जुन तिषठति। यहाँ बहुव्रीहि समास हुआ है।,अत्र बहुव्रीहिसमासः जातः। ““ तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च'' सूत्र की व्याख्या की गई है?,""" तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" सूत्र का अवतरण- तिसृ शब्द से परे जस्‌ के अन्त्य स्वर को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- तिसृशब्दात्‌ परस्य जसः अन्त्यस्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थ सूत्रमिदं प्रणीतम्‌ । उपासना के द्वारा विक्षेप का तथा ब्रह्मज्ञान के द्वारा अज्ञानावरण का नाश होता है।,उपासनया विक्षेपक्षयः ब्रह्मज्ञानेन अज्ञानावरणनिवृत्तिः इति । प्रायश्चित शब्द का अर्थ है “प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत्‌ प्रायश्चित्तम्‌” जिसके द्वारा चित्त संतुष्ट हो जाए वह प्रायश्चित्त कहलाता है।,प्रायश्चित्तशब्दार्थः “प्रायः तुष्टं चित्तं यत्र तत्‌ प्रायश्चित्तम्‌” इति। इष्टियाग किनके लिए नित्य है और किनके लिए काम्य है?,इष्टियागः केषां कृते नित्यः केषां कृते काम्यः इति विचार्यताम्‌। यह सूत्र ही भारतीय ज्यामिति शास्त्र का प्रवर्तक है।,इदं सूत्रम्‌ एव भारतीयज्यामितिशास्त्रस्य प्रवर्तकम्‌। जैसे अग्निसूक्त में अग्नि की स्तुति की गई वैसे ही इन्द्रसूक्त में भी इन्द्र के महत्व का वर्णन किया गया है।,यथा अग्निसूक्ते अग्नेः स्तुतिः विहिता तथैव इन्द्रसूक्ते अपि इन्द्रस्य माहात्म्यं वर्णितम्‌। 20. अर्थवाद किसे कहते हैं?,२०. अर्थवादः नाम किम्‌? "अविद्यमान उदात्त को, अनुदात्त है।",अविद्यमानम्‌ उदात्तम्‌ अनुदात्तम्‌ इति। किया है।,इति एवम्‌। गवामयन याग के सम्पादन के लिए एक वत्सर अपेक्षित है।,गवामयनयागस्य सम्पादनाय एकवत्सरः अपेक्ष्यते। उससे इस सूत्र का अर्थ होता होता है- घञन्त कर्ष धातु और घञन्त आकार युक्त ध तु से अन्त अच्‌ उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति घञन्तकर्षधातोः घञन्ताकारयुक्तधातोश्च अन्तः अच्‌ उदात्तः भवति इति। अपितु शिवज्ञान के द्वारा जीव को सेवा ही जीव सेवाभाव है।,किन्तु शिवज्ञानेन जीवसेवाभावः। "शरत प्रभृति येषां ते शरत्प्रभृतयः तेभ्यः शरद्‌ प्रभुतिभ्यः, तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि समास है।","शरत्‌ प्रभृतिः येषां ते शरत्प्रभृतयः, तेभ्यः शरत्प्रभृतिभ्यः इति तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिसमासः।" वहाँ पर कोई छोटा सर्प सोता हुआ कुण्डली के आकार में होता है इस प्राकर से योगियों ।,तत्र कश्चित्‌ क्षुद्रः निद्रितः सर्पः कुण्डलीकृतः तिष्ठति इति योगिनः कल्पन्ते। सच्चिदानन्द अद्वितीय ब्रह्म ही वस्तु होता है।,सच्चिदानन्दम्‌ अद्वयं ब्रह्म वस्तु। उपासासै - उपपूर्वक अस्‌-धातु से लेट मध्यमपुरुष एकवचन में।,उपासासै - उपपूर्वकात्‌ अस्‌ - धातोः लेटि मध्यमपुरुषैकवचने। उसको कहा गया है की - “मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुण: रात्र्यभिमानिनी।,तस्य उक्तिर्हि - 'मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुणः रात्र्यभिमानिनी। भले ही वह स्वामी रामकृष्ण के विषय में बहुत कम ही कहते थे।,यद्यपि श्रीरामकृष्णविषये स स्वल्पमेव कथयति स्म । इस प्रकार सूत्र अर्थ होता है - सुब्रह्मण्य नाम यजुर्वेद के मन्त्र विशेष में देव ब्रह्मन्‌ शब्द के स्वरित के स्थान में अनुदात्त स्वर होता है।,एवञ्च सूत्रार्थो भवति- सुब्रह्मण्यनामके यजुर्वेदस्य मन्त्रविशेषे देवब्रह्मणोः शब्दयोः स्वरितस्य अनुदात्तस्वरः भवति। इन्द्र ने ही दो पत्थरों के टुकड़ों से अग्नि को उत्पन्न किया।,इन्द्र एव द्वाभ्यां पाषाणखण्डाभ्याम्‌ अग्निं समुत्पादितवान्‌। तथा उसका उपाय भी।,तदुपायाश्च। तब मछली ने कहा की विशालजल प्रलय के समय समस्त प्राणिमण्डल जल में लीन हो जायेगा।,तदा मत्स्यः अब्रवीत्‌ विशालजलप्रवाहे समस्तं प्राणिमण्डलम्‌ अन्ते वक्ष्यामि। 24.3 रुद्र देवता का स्वरुप और वैशिष्ट्य शुक्ल यजुर्वेद में रुद्र अध्याय में रुद्र देवता का स्वरूप तथा वैशिष्ट्य की विस्तार से समालोचना की है।,२४.३ रुद्रदेवतायाः स्वरुपं वैशिष्ट्यञ्च शुक्लयजुर्वेदे रुद्राध्याये रुद्रदेवतायाः स्वरूपं तथा वैशिष्ट्यं विस्तारेण समालोचितम्‌। "यहाँ उदय शब्द के प्रयोग से पाणिनि के द्वारा मङ्गल किया है, ये एक समाधान है।",अत्र उदयशब्दप्रयोगेन पाणिनिना मङ्गलं कृतम्‌ इति एकं समाधानम्‌। "चौ यहाँ पर सप्तमी है, उससे “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इस परिभाषा बल से पूर्वस्य यह पद उपस्थित होता है।","चौ इत्यत्र सप्तमी वर्तते, तस्मात्‌ 'तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' इति परिभाषाबलात्‌ पूर्वस्य इति पदम्‌ उपतिष्ठते।" शाकप्रियः पार्थिवः इस लौकिक विग्रह में शाकप्रिय सु पार्थिव सु इस अलौकिक विग्रह में “विशेषेण विशेष्येणबहुलम्‌'' इस सूत्र से समास होने पर प्रक्रियाकार्य में शाकप्रिय पार्थिव शब्द निष्पन्न होता है।,शाकप्रियः पार्थिवः इति लौकिकविग्रहे शाकप्रिय सु पार्थिव सु इत्यलौकिकविग्रहे विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ इत्यनेन सूत्रेण समासे प्रक्रियाकार्ये शाकप्रियपार्थिवशब्दो निष्पन्नः । """अस्तं पस्त्यम्‌"" इति गृहनाम में पढ़ा हुआ है।",'अस्तं पस्त्यम्‌' इति गृहनामसु पाठात्‌ । और उनका विवरण इस अध्याय में करते है।,तेषां च विवरणम्‌ अस्मिन्‌ अध्याये क्रियते। (गीता 9.21) उत्तर-2 10. मानवों का अन्तः करण तीन प्रकार के दोषों से दूषित होता है।,(गीता ९.२१)उत्तराणि-२.१०. मानवान्तःकरणं त्रिदोषदुष्टम्‌। "पाठगत प्रश्नों के उत्तर 1. हिरण्यस्तूप ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, और इन्द्र देवता है।","पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि-१ हिरण्यस्तूपः ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, इन्द्रश्च देवता।" पूर्वपद का अर्थ प्रधान जिस में हैं वही पूर्वपदार्थ प्रधान है।,पूर्वपदार्थः प्रधानं यस्य स पूर्वपदार्थप्रधानः। पतंजलि योगसूत्र में लिखा भी है- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌।,सूत्रं च पातञ्जलम्‌ -सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌ इति। बालक चला गया तो उसे ले आया गया।,बालो गतश्चेद्‌ आनीतः। उसके द्वारा अहिह॑तः ही प्रयोग होता है।,तेन अहिह॑तः एवं प्रयोगो भवति। ऐश्वर्य का ऊर्ध्व स्थान को जाने के लिए हम वाणी द्वारा श्रद्धा से स्तुति करते है।,ऐश्वरस्य ऊर्ध्वस्थानं गमनाय वयं वचसा श्रद्धायाः स्तुतिं कुर्मः। दूसरा उदाहरण पित्‌ प्रत्यय के विषय में है।,द्वितीयमुदाहरणमस्ति पित्प्रत्ययस्य विषये। यहाँ अजादे: पद का अजादिगणपठितशब्द से है।,तत्र अजादेः इत्यस्य अजादिगणपठितशब्दात्‌ इत्यर्थः। इस प्रकार से उपनिषद्‌ काल का शुभारम्भ २५०० सौ वि० पूर्व कह सकते है।,अनेन प्रकारेण उपनिषत्कालस्य समारम्भः २५०० वि० पूर्वं शतकं कथयितुं शक्यते। "“न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः ' इस सूत्र से सुब्रह्मण्य नामवाले निगद में 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इस सूत्र से विभाषा छन्दसि इस सूत्र से प्राप्त एक श्रुति का निषेध होता, और स्वरित स्वर के स्थान में उदात्त स्वर का विधान है।","""न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इति सूत्रेण सुब्रह्मण्याख्ये निगदे 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रेण विभाषा छन्दसि इति सूत्रेण च प्राप्ता एकश्रुतिः निषिध्यते, स्वरितस्वरस्य च स्थाने उदात्तस्वरः विधीयते।" वहाँ आधिभौतिक दुःख मनुष पशुपक्षी सरीसृप आधिस्थावरों के कारण होता है।,तत्र आधिभौतिकं मानुषपशुपक्षिसरीसृपस्थावरनिमित्तम्‌। तथा अप्रमेय होता है।,अतः अप्रमेयः। उत्तर देते हुए कहते हैं कि इसके द्वारा इच्छा ही तात्पर्यत्व के रूप में अभिहित नहीं हो तो ऐसा भी नहीं है उससे इतर प्रतीतिजननेच्छा से अनुच्चारितत्व होने पर भी तत्प्रतीति जनन योग्यत्व का तात्पर्यत्व से विविक्षितत्व से उसका वही अर्थ होता है।,"ननु एतेन इच्छा एव तात्पर्यत्वेन अभिहिता इति चेन्न, तदितरप्रतीतिजननेच्छया अनुच्चारितत्वे सति तत्प्रतीतिजननयोग्यत्वस्य तात्पर्यत्वेन विवक्षितत्वात्‌।" सर्वसमासान्त प्रत्ययाः विषय आश्रित टिप्पणी लिखो।,सर्वसमासान्तप्रत्ययाः इति विषयम्‌ आश्रित्य टिप्पणीं लिखत। अन्य उपनिषदों के समान ही ईश उपनिषद्‌ आरण्यक का अंश न होकर माध्यन्दिन संहिता का भाग है।,अन्यासाम्‌ उपनिषदाम्‌ इव ईशोपनिषद्‌ आरण्यकस्य अंशो न भूत्वा माध्यन्दिनसंहितायाः भागः अस्ति। "जप अनुकरण मन्त्र को कहते है, न्यूङ्खा नाम सोलह प्रकार के ओकार को कहते है, और साम वाक्य विशेषस्थ गीत को कहते है।","जपः अनुकरणमन्त्रः, न्यूङ्खाः नाम षोडश ओकाराः, सामानि च वाक्यविशेषस्था गीतयः।" नीर तथा क्षीर दोनों ही भिन्न होते हैं।,नीरं क्षीरम्‌ उभयं भिन्नम्‌। अज्ञान है इस प्रकार से नहीं कह सकते हैं।,अज्ञानम्‌ अस्ति इति वक्तुं न शक्यते। ऋग्वेद के अपर मन्त्र में कहा है - “एकं वै इदं विभु बभूव सर्वम्‌' इति।,ऋग्वेदस्य अपरस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते-'एकं वै इदं विभु बभूव सर्वम्‌' इति। तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः इत्यादि सूत्र से पूर्वपद को प्रकृति स्वर का विधान है।,तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः इत्यादिसूत्रेण पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः विधीयते। क्षत्रियत्व भाव से तात्पर्य है की उस व्यक्ति में पर्याप्त क्षत्रियत्व होना चाहिए।,इत्थम्‌ क्षत्रिय इति पदप्रयोगाय तस्मिन्‌ जने पर्याप्तं क्षत्रियत्वम्‌ आवश्यकम्‌। विक्षेपचित्त की शान्ति किस प्रकार से करनी चाहिए।,चित्तविक्षेपस्य शान्तिः कथं क्रियते। "ऐसे याग में जो बारह स्तोत्र गाए जाते हैं, उनमें अन्तिम स्तोत्र को अग्निष्टोम कहते हैं।","एतादृशयागे यानि द्वादश स्तोत्राणि गीयन्ते, तेषु अन्तिमं स्तोत्रम्‌ अग्निष्टोमम्‌ इत्युच्यते।" "कल में अच्छे से सोया ऐसा सुनकर शयन किस प्रकार का था, तथा क्या अनुभव किया इस प्रकार के प्रश्‍न कोई भी नहीं करता है।",ह्यः मया सम्यक्‌ सुप्तम्‌ इति श्रुत्वा स्वापः कथमासीत्‌ तत्र किं किमनुभूतमित्यादिप्रश्नाः न क्रियन्ते केनचिदपि। जब ज्ञान उत्पन्न होता है।,यदा ज्ञानम्‌ उत्पद्यते। पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से भी यास्क ने ये प्रमाणित किया है - सूर्य की रश्मि काँच या मणि का भेदन कर शुष्कतृण के उपर गिरती है तो अग्नि उत्पन्न होती है।,पदार्थविज्ञानदृष्ट्या अपि यास्केन एतत्‌ प्रमाणितम्‌- सूर्यरश्मिः काचं मणिं वा भित्त्वा शुष्कतृणस्य उपरि पतति चेत्‌ अग्निः उत्पद्यते। "व्याख्या - जैसे दधि आनज्यादि द्रव्यों से गवादि पशु, ऋगादिवेद, ब्राह्मणादि मनुष्य उससे उत्पन्न हुए उसी प्रकार से चन्द्रादि देव भी उसी से उत्पन्न हुए।",व्याख्या- यथा दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशवः ऋगादिवेदा ब्राह्मणादयो मनुष्याश्च तस्मादुत्पन्ना एवं चन्द्रादयो देवा अपि तस्माद्देवोत्पन्ना इत्याह। एक विषय का भोग होने पर अपर के विषय से ईर्ष्या होने लगती है यह विषय का हिंसा दोष होता है।,एकस्य विषयोपभोगः अपरस्य ईर्ष्यायाः कारणं भवतीति विषयस्य हिंसादोषः। अथवा अपूर्व अनपर अबाह्य ऐसा कहने पर अपूर्व आत्मरूप यह अर्थ है।,यद्वा अपूर्वम्‌ अनपरम्‌ अबाह्यम्‌ इत्युक्तेः अपूर्वम्‌ आत्मरूपमित्यर्थः। समस्यमान पदार्थपेक्षता से भित्र पदार्थ अन्यपदार्थ होता है।,समस्यमानपदार्थपेक्षया भिन्नः पदार्थः अन्यपदार्थो भवति। 57. “अव्ययीभावे चाकाले'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"५७. ""अव्ययीभावे चाकाले"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इस यज्ञ के विषय में एक जनश्रुति है को अधिक सोमपान से इन्द्र रोगी हुए।,अस्य यज्ञस्य विषये अस्ति एका जनश्रुतिः यत्‌ अधिकसोमपानेन इन्द्रः रुग्णोऽभवत्‌। "यहाँ पर व्यूढोरस्कः बहुदण्डिका, महायशस्कः इत्यादि उदाहरण है।","व्यूढोरस्कः, बहुदण्डिका, महायशस्कः इत्यादीनि अत्रोदाहरणानि।" वहाँ मन्त्र के आदि में केने इस पाठ से केन उपनिषद्‌ नाम को प्राप्त करता है।,तत्र मन्त्रादौ केनेति पाठात्‌ केनोपनिषदिति अन्वयसंज्ञा। अब फिर प्रश्‍न होता है कि यदि जीव चिरमुक्त होता है तो उस जीव का मोक्ष क्रियासाध्य नहीं होता है।,अत्र पुनः प्रश्नः भवति यदि जीवः चिरमुक्तः भवति तर्हि तस्य जीवस्य मोक्षः क्रियासाध्यः नास्ति। उससे भवत्‌ ङीप्‌ होता है।,तेन भवत्‌ ङीप्‌ इति भवति। उदाहरण -पञ्चगवम्‌ यह उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - पञ्चगवम्‌ इत्युदाहरणम्‌ । सञ्चितादि कर्मों का तो पहले ही नाश हो जाता है।,सञ्चितादिकर्मणां तु पूर्वमेव नाशः जातः। 8 सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विनतो देवयानः 9 योगियों की सत्य में प्रतिष्ठा हो जाने पर वे क्रियाफल के दाता हो जाते हैं।,८. सत्यमेव जयते नानृतम्‌ इति। ९. योगिनः सत्ये प्रतिष्ठा भवति चेत्‌ स क्रियाफलदाता भवति। श्री रामकृष्ण का मत यह है कि जितने मत होते हैं उतने ही पन्थ होते हैं।,श्रीरामकृष्णमतं हि 'यावन्ति मतानि तावन्तः पन्थानः' इति। यथा देवा असुरेषु ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या करो।,यथा देवा असुरेषु... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। सर्पिषः यहाँ पर “ज्ञोऽविदर्थस्थ करणे इससे षष्ठी विहित है।,"सर्पिषः इत्यत्र ""ज्ञोऽविदर्थस्य करणे"" इत्यनेन षष्ठी विहिता।" प्रजापति के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ।,प्रजापतेः मनसः सकाशात्‌ चन्द्रमाः जातः। अर्थात्‌ गुरुपदिष्ट शास्त्रवाक्यों को सत्यता के द्वारा ग्रहण ग्रहण करने में जिसके द्वारा आत्मवस्तु उपलब्ध होती है।,यया येन निश्चयेन वस्तूपलभ्यते आत्मनः उपलब्धिः भवति । इसी प्रकार अक्षद्युवे इत्यादि में भी समान रूप से प्रक्रिया कार्य समझना चाहिए।,एवम्‌ अक्षद्युवे इत्यदौ अपि समानरूपेण प्रक्रियाकार्यं बोध्यम्‌। "सत्रयाग तीन भागों में विभक्त है - प्रथमार्ध में 180 दिन, द्वितीयार्थ में 180 दिन और तृतीयार्थ में 180 दिनों की अपेक्षा है।","सत्रयागः त्रिषु भागेषु विभज्यते- प्रथमार्धे १८० दिवसाः , द्वितीयार्धे १८० दिवसाः किञ्च तृतीयार्थे १८० दिवसाः अपेक्षन्ते।" "ये विघ्न है लय, विक्षेप, कषाय तथा रसास्वाद।",एते विघ्ना हि लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादरूपाः। अथर्ववेद संहिता साहित्य भारतीय ज्ञान गङगा के स्नोत वेद ही है।,अथर्ववेदसंहितासाहित्यम्‌ भारतीयज्ञानगङ्गायाः स्रोतांसि वेदा एव सन्ति। ब्रह्माका क्या कार्य है?,ब्रह्मणः किं कार्यम्‌? और पूर्वपद तृतीयान्त है।,पूर्वपदं च तृतीयान्तम्‌। इस कारण दो प्रकार के मन्त्रों के होने के कारण वायु पुराण में (६५।२७) तथा ब्रह्माण्ड पुराण में (२।१।३६) अथर्ववेद को दो शरीर शिर वाला कहते हैं।,एवं द्विविधमन्त्राणां सत्त्वाद्‌ वायुपुराणे(६५।२७) तथा ब्रह्माण्डपुराणे(२।१।३६) अथर्ववेदः 'द्विशरीरशिराः' इति कथ्यते। पतञ्जलि ने भी कहा है - “ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्म: षडङऱगों वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' इति।,पतञ्जलिना अपि उक्तम्‌ - 'ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' इति। रचनात्मक (Fommative) योगात्मक (Summative) दो प्रकार से मूल्यांकन होगा।,क्रमिकम्‌ (Fommative) समुच्चितं (Summative) चेति द्विविधं मूल्यायनं भविष्यति। समान अधिकरण जिन दोनों में वे पद पद समानाधिकरण कहा जाता है।,समानम्‌ अधिकरणं ययोस्ते समानाधिकरणे। प्रतिपदविधान षष्ठी का समास नहीं होता है षष्ठी समास निषेध से यहाँ से षष्ठी समास होता है।,प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते इति षष्ठीसमासनिषेधात्‌ नात्र षष्ठीसमासः। अनिन्द्रिय शमदमादि के संस्कृत से शुद्ध मन से ब्रह्म का प्रत्यक्ष होता है।,अनिन्द्रियेण शमदमादिसंस्कृतेन शुद्धेन मनसा ब्रह्म प्रत्यक्षं भवति। (३) दूसरे प्रपाठक के आरम्भ में ही संध्या में प्रयुक्त सूर्य के अर्घजल की महिमा का वर्णन है।,(३) द्वितीयप्रपाठकस्यारम्भे एव सन्ध्यायां प्रयुक्तस्य सूर्यस्य अर्घजलस्य महिमा वर्ण्यते। "जहाँ अर्थवश से पाद व्यवस्था की वह है ऋक्‌, इस प्रकार मीमांसक कहते है।",यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋगिति मीमांसकाः कथयन्ति। गुणक्रियावाचक समभिव्यहार में विशेषण विशेष्य भाव का उदाहरण दीजिये।,गुणक्रियावाचकानां समभिव्याहारे विशेषणविशेष्यभावस्योदाहरणं देयम्‌ । इष्टियाग कब-कब अनुष्ठीत होते हैं?,इष्टियागः कदा कदा अनुष्ठीयते? इस सूक्त में पुरुष स्वरूप निरूपित है।,अस्मिन्‌ सूक्ते पुरुषस्वरूपं सुनिरूपितम्‌। ब्रह्म के स्वप्रकाशत्व से फलविषयत्व नहीं होता है।,ब्रह्मणः स्वप्रकाशत्वात्‌ फलविषयत्वं न सम्भवति। यह ज्ञान प्रकाश तथा प्रकाशक दोनों ही होता है।,इदं ज्ञानम्‌ प्रकाशः प्रकाशकः अपि भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय- आङः पूर्वक अश्‌ धातु से कर्ता में क्त प्रत्यय करने पर आशितम्‌ यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- आङ्पूर्वकात्‌ अश्धातोः कर्तरि क्तप्रत्यये आशितम्‌ इति रूपम्‌। आदित्य का उपासक जगत पूज्य होता हेै।,आदित्यस्य उपासिता जगत्पूज्यो भवतीत्यर्थः। व्याख्या - मैं स्वयं ही ब्रह्मात्मक वस्तु को कहती हूँ अथवा उपदेश देती हूँ।,व्याख्या- अहं स्वयमेवेदं वस्तु ब्रह्मात्मकं वदामि उपदिशामि। "आप ओषधियों को सूर्य किरणों से और बढाओ, और वर्षा को करो।","भवन्तौ ओषधीन्‌ गोसमूहान्‌ च वर्धयताम्‌, वर्षणं च कुरुताम्‌।" अतः उत्तरपद यहाँ कर्मवाचक क्त प्रत्ययान्त है।,अतः उत्तरपदमत्र कर्मवाचकं क्तप्रत्ययान्तम्‌। उन्होंने उत्तर दिया है कि हाँ बिल्कुल सत्य है और एक ही सत्य वस्तु को एक ही मन के द्वारा भिन्न भिन्न काल में भिन्न भिन्न चित्त भूमि के द्वारा ग्रहण किया जाता है।,"स्वामिना उक्तम्‌ - आम्‌, किञ्च, श्रीरामकृष्णपरमहंसेन सह अहं पुनः एतत्‌ संयोजयामि यत्‌ एकं बहु च वस्तुतः एकमेव सत्यतत्त्वम्‌, यद्धि एकेन एव मनसा भिन्नकाले भिन्नचित्तभूमौ च गृह्यते” ।" हमेशा मेरे सहायक हो।,सदैव मम सहायको भव । वासिष्ठी शिक्षा का सम्बन्ध किस संहिता के साथ है?,वासिष्ठीशिक्षायाः सम्बन्धः कया संहितया सह अस्ति। "अच्छी प्रकार से और सरलता से जैसे अध्ययन हो, उसी प्रकार का यहाँ पर वर्ग भेद किया गया है।",सुष्ठुतया सारल्येन च यथा अध्ययनं भवेत्‌ तस्मादेव एतादृशः वर्गभेदः कृतः अस्ति। पर्जन्य देवता का स्वरूप पर्जन्यसूक्त में पर्जन्यदेवता के स्वरूप को बताया गया है।,पर्जन्यसूक्ते पर्जन्यदेवतायाः स्वरूपं ज्ञायते । "उदाहरण -इस सूत्र का तृजक से निषेध होने पर “तावत्‌ अपां स्रष्टा"" इत्यादि उदाहरण बना।",उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्य तृजन्तेन निषेधे तावत्‌ अपां स्रष्टा इत्यादिकम्‌ उदाहरणम्‌। "स्वप्‌-धातुः आदि में जिसके वह स्वपादि, स्वपादि और हिस्‌ स्वपादिहिसः छन्द में बहुवचन है, उन स्वपादि हिंसा को।","स्वप्‌-धातुः आदिः यस्य सः स्वपादिः,स्वपादिश्च हिंस्‌ च स्वपादिहिंसः छन्दसि बहुवचनम्‌, तेषां स्वपादिहिंसाम्‌ इति।" इससे प्रतीत होता है कि ब्राह्मण का ही अन्तरभाग अनुब्राह्मण पद से प्रयोग किया।,अनेन प्रतीतो भवति यत्‌ ब्राह्मणस्य एव अन्तरभागम्‌ अनुब्राह्मणपदेन व्यपदिश्यते। यहाँ राजपद का राजन्‌ यह अर्थ है।,अत्र राजपदस्य राजन्‌ इत्यर्थः। वह ऋग्वेद सूक्त-मण्डल भेद से दो भागों में विभक्त है।,स ऋग्वेदः सूक्त-मण्डलभेदेन द्विधा विभक्तः। "अद्वैत वेदांत के मत से अध्यारोप, अपवाद, मोक्ष, और उनके साधन इत्यादि बहुत से विषयों का ज्ञान हो।",अद्वैतवेदान्तमतेन अध्यारोपः अपवादः मोक्षः तत्साधनानि इत्यादीनां बहूनां विषयाणां ज्ञानं भवेत्‌। उनेक पूर्वजन्म में सम्पादित नित्यादि कर्मों के द्वारा उनका चित्त शुद्ध होता है।,तेषां पूर्वजन्मनि सम्पादितेन नित्यादिकर्मणा चित्तं शुद्धम्‌ अस्ति। इतरेतऱयोग द्वन्द है।,इतरेतरयोगद्वन्द्वः अस्ति। इसलिए इस विषय को प्रकट करने के लिए अनुबन्ध उपस्थापित किये जाते हैं।,अतः एतस्य विषयस्य प्रकटनाय अनुबन्धा उपस्थाप्यन्ते। पूर्वमन्त्र में जो कहा गया की विष्णु ने ऊपर के लोक और अधोलोक की रचना की।,पूर्वमन्त्रे उक्तं यद्‌ विष्णुः उपरि लोकान्‌ अधोलोकान्‌ च सृष्टवान्‌। "यज्ञ में निषिद्ध पदों की निन्दा का जहाँ विधान हो वह अर्थवाद, उपयोग विधि का आस्था पूर्वक सिद्धि के लिए ही ये अर्थवाद होते।","यज्ञे निषिद्धपदानां निन्दाः यत्र विधीयन्ते स भवति अर्थवादः, उपयोगविधेः आस्थापूर्वकपुष्ट्यर्थम्‌ एव एते अर्थवादाः भवन्ति।" इसकी प्रक्रिया का संक्षिप्त विवरण उन्नीसवें अध्याय के महीधर भाष्य के प्रारम्भ में प्राप्त होती है।,स्याः प्रक्रियायाः संक्षिप्तं विवरणम्‌ ऊनविंशत्यध्यायस्य महीधरभाष्यस्य प्रारम्भे समुपलब्धमस्ति। यहाँ नित्य समास होता है वहाँ लौकिक स्वपद विग्रह नहीं होता है।,यत्र नित्यसमासः भवति तत्र लौकिकः स्वपदविग्रहः न भवति। उदात्त-अनुदात्त-स्वरित संज्ञाः अष्टाध्यायी में विहित है।,उदात्त-अनुदात्त- स्वरितसंज्ञाः अष्टाध्याय्यां विहिताः। उसके प्रतिपादन के लिए प्रमाण उपनिषदादि हैं।,तत्प्रतिपादकम्‌ प्रमाणम्‌ उपनिषदादि। जो शब्द पूर्व गुणवाचक थे अब जो द्रव्यवाचक हैं वे ही गुणवाची शब्दों से ग्रहण किये जाते हैं।,ये शब्दाः पूर्वं गुणवाचकाः आसन्‌ इदानीं द्रव्यवाचकास्ते एव गुणवचनशब्देन गृह्यन्त। "ऊह खलु भी, न सभी लिङऱगों के द्वारा, न सभी विभक्ति के द्वारा वेद में मन्त्र पढ़े गये है, यज्ञ गत पुरुष जिसको अवश्य यथा योग्य विपरिणाम करना चाहिए ,उनको अवैयाकरण यथायोग्य विपरिणाम नहीं कर सकते है।","ऊहः खल्वपि, न सर्वैः लिङ्गैः, न सर्वाभिः विभक्तिभिः वेदे मन्त्राः निगदिताः, यज्ञगतेन पुरुषेण येषाम्‌ अवश्यं यथायथं विपरिणामः कर्तव्यः,तान्‌ अवैयाकरणः यथायथं विपिरणमयितुं न शक्नोति।" अग्निष्टोम याग की विशेष प्रशंसा ताण्ड्य ब्राह्मण में (६/३) प्राप्त होती है।,अमग्निष्टोमयागस्य विशिष्टप्रशंसा ताण्ड्यब्राह्मणे (६/३) प्राप्यते। "जैमिनि महोदय ने भी पूर्वपक्ष रूप से कहा है कि वेद में केवल विधि वाक्यों का ही अस्तित्व नहीं है, अपितु उसके विभिन्न विषयों के प्रतिपादक वाक्यों की भी सत्ता है।",जैमिनिमहोदयेनापि पूर्वपक्षरूपेण उच्यते यत्‌ वेदे न केवलं विधिवाक्यानाम्‌ अस्तित्वम्‌ अस्ति अपि तु तद्किन्नषयाणां प्रतिपादकानां वाक्यानाम्‌ अपि सत्ता वर्त्तते। "सरलार्थ - जिसकी आज्ञा से पृथिवी झुकती है, जिसकी आज्ञा से खुरधारी पशु विचरण करते है, जिसकी आज्ञा से ओषधियाँ विविध रूपों में होती है।","सरलार्थः - यस्य आज्ञया पृथिवी नमति , यस्य आज्ञया क्षुरधारिणः पशवः विचरन्ति , यस्य आज्ञया ओषधयः विविधरूपाः भवन्ति ।" सायण ने तो अपौरुषेय वाक्य को वेद कहा है।,सायणस्तु अपौरुषेयं वाक्यं वेद इत्याह। इसलिए फिर नये कर्मों को करता है।,अतः पुनः कर्माणि कर्तुं फलानि भञ्जते । समाधि के दो प्रकार समाधि के दो प्रकार होते है।,समाधिद्वैविध्यम्‌ समाधिः द्विविधः । इस पाठ में शिवसंकल्पसूक्त और प्रजापतिसूक्त पाठ्यरूप से विद्यमान है।,अस्मिन्‌ पाठे शिवसंकल्पसूक्तं प्रजापतिसूक्तं च पाठ्यत्वेन विद्यते। पूर्वार्ध शिवसंकल्पसूक्तं विद्यते। इस कारण उसका प्रत्येक पद अनेक अर्थो को प्रकाशित करता है।,अतः तस्य प्रत्येकं पदं बहून्‌ अर्थान्‌ प्रकाशयति। अतः ' अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इस सूत्र से इसका आदि इकार अनुदात्त है।,अतः 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रेण अस्य आदिमः इकारः अनुदात्तः वर्तते। इस पाठ में तिङन्त स्वर विषय में विशेष रूप से और विस्तार से आलोचना की है।,अस्मिन्‌ पाठे तिङन्तस्वरविषये वस्तुतः विस्तरेण आलोचितम्‌ अस्ति। तिलाः इस शब्द में भी दो अच्‌ है।,एवं तिलाः इति शब्देऽपि द्वौ अचौ स्तः। “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे” इस सूत्र का उदाहरण दीजिये?,"""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌।" क्षत्रिय और वैश्य तो पुरोहित से करवाते थे।,क्षत्रियवैश्यौ तु पुरोहितेन इदं साधयतः स्म। "यद्यपि महाभाष्य में ऋग्वेद की इक्कीस शाखा का निर्देश है, परन्तु शाकल-वाष्कल- आश्वलायन-शाङखायन-माण्डूकायन-नाम की पांच शाखा मुख्य हैं।",यद्यपि महाभाष्ये ऋग्वेदस्य एकविंशतिशाखाः निर्दिष्टाः परं शाकल-वाष्कल-आश्‍श्वलायन- शाङ्खायन-माण्डूकायन-नामधेयाः पञ्च शाखाः सन्ति मुख्याः। आत्यन्तिक प्रलय किसे कहते हैं?,आत्यन्तिकप्रलयः नाम कः। "पहले वृत्र के जीवित होने पर उसके द्वारा रुका हुआ मेघ स्थित जल भूमि पर वर्षा नहीं करता है, उस समय लोगों का मन दुखी होता है।",पुरा वृत्रे जीवति सति तेन निरुद्धा मेघस्थिता आपो भूमौ वृष्टा न भवन्ति तदानीं नृणां मनः खिद्यते। सोलहवां पाठ समाप्त ॥,इति षोडशः पाठः ॥ "इस सम्पूर्ण जगत में वह ही अग्नि देवों का यज्ञ में आवाहन कर सकती है, अन्य कोई भी नहीं।","इह समग्रे जगति स एव अग्निः देवान्‌ यज्ञेषु आह्वयति, नान्यः कश्चिदपि।" उससे बहुवचनान्त में सभी पर्वत लक्षित होते हैं।,तेन बहुवचनान्तेन सर्वे पर्वताः लक्ष्यन्ते। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार से देवराजयज्वा ने नैघण्टुक काण्ड के निर्वचनों का ही अधिक विस्तार के साथ किया है (विरचयति देवराजो नैघण्टुककाण्डनिर्वचनम्‌ -श्लो. ६)।,स्वप्रतिज्ञानुसारेण देवराजयज्वा नैघण्टुककाण्डस्य एव निर्वचनम्‌ अधिकेन विस्तरेण कृतवान्‌ (विरचयति देवराजो नैघण्टुककाण्डनिर्वचनम्‌ -श्लो. ६)। इदम्‌-शब्द किस सूत्र से अन्तोदात्त है?,इदम्‌-शब्दः केन सूत्रेण अन्तोदात्तः वर्तते ? (क) शम (ख) विवेक (ग) अधिकारी (घ) वैरण्ग्य 7 इन अनुबन्धों में अन्यतम क्या होता है?,(क) शमः (ख) विवेकः (ग) अधिकारी (घ) वैराग्यम्‌ 7. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः। "अन्वय - (हे) पृथिवि यः नः द्वेषत्‌ य: पृतन्यात्‌ यः मनसा यः वधेन अभिदासात्‌ (हे) भूमे (हे) पूर्वकृत्वरि, तं नः रन्धय।","अन्वयः- (हे) पृथिवि यः नः द्वेषत्‌ यः पृतन्यात्‌ यः मनसा यः वधेन अभिदासात्‌ (हे) भूमे (हे) पूर्वकृत्वरि, तं नः रन्धय।" यह उल्लेख देवराजयज्वा के भाष्य में भी कुछ पाठान्तर के रूप में उपलब्ध होता है।,उल्लेखोऽयं देवराजयज्वनः भाष्ये अपि किञ्चित्‌ पाठान्तरेण समुपलब्धः भवति। ऋक्‌ मंत्रो में अक्षरो की संख्या है?,ऋङ्गन्त्रेषु अक्षरसंख्या का अस्ति? यहाँ प्रथमानिर्दिष्ट समास में संज्ञिदलम्‌ और उपसर्जन संज्ञापद है।,अत्र प्रथमानिर्दिष्टं समासे इति संज्ञिदलम्‌ उपसर्जनम्‌ इति च संज्ञापदम्‌। इस प्रकार के ब्रह्म का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है।,ईदृशस्य ब्रह्मणः प्रतिपादनं कर्तुं न शक्‍यते। "लाट्यायन श्रौतसूत्र, और द्राह्यायण।","लाट्यायनश्रौतसूत्रम्‌, द्राह्यायणञ्चेति" ऋग्वेद के आदिसूक्त अग्निसूक्त से ही अग्नि की प्रधानता स्पष्ट हो जाती है।,ऋग्वेदे आदिमसूक्तमेव अग्निसूक्तम्‌ इत्यतः अग्नेः प्राधान्यम्‌ स्पष्टम्‌ ज्ञायते। अथर्ववेद का ज्योतिष क्या है?,अथर्ववेदस्य ज्यौतिषम्‌ किम्‌? और वह सेना खण्डित बल होकर नीचे गिर पड़ी।,सा च दानुः दानवी वृत्रमाता शये मृता शयनं कृतवती। """आकडारादेका संज्ञा"" इस एक संज्ञा अधिकार से अन्य प्रकार से द्विगु तत्पुरुष का बाधक होता है।","""आकडारादेका संज्ञा"" इति एकसंज्ञाधिकाराद्‌ अन्यथा तत्पुरुषस्य बाधको भवति द्विगुः।" इसी प्रकार 'दूराद्धूते च' इत्यादि सूत्र में भी जानना चाहिए।,एवं 'दूराद्धूते' च इत्यादौ सूत्रे अपि बोद्धव्यम्‌। "सरलार्थ - आदिपुरुष से विराट्‌ उत्पन्न हुआ, विराट से जीवात्मा उत्पन्न हुआ।","सरलार्थः- आदिपुरुषात्‌ विराट्‌ उत्पन्नः, विराजः जीवात्मा उत्पन्नः अभवत्‌।" पुरुषस्वरूप का वर्णन करो।,पुरुषस्वरूपं वर्णयत। "उससे आमन्त्रितान्त सुबन्त पद के परे के अङ्ग के समान कार्य होता है, स्वर करने में यह सूत्र का अर्थ आता है।",तेन सुबन्तम्‌ आमन्त्रितान्ते पदे परे परस्य अङ्गवत्‌ भवति स्वरे कर्तव्ये इति सूत्रार्थः आयाति। इच्छमानः - इष्‌-धातु से शानच प्रथमा एकवचन में।,इच्छमानः - इष्‌ - धातोः शनचि प्रथमैकवचने । प्रतिमानम्‌ -प्रतिपूर्वक मा-धातु से ल्युट्‌ प्रत्यय करने पर प्रतिमानम्‌ यह रूप है।,प्रतिमानम्‌ - प्रतिपूर्वकात्‌ मा-धातोः ल्युट्प्रत्यये प्रतिमानम्‌ इति रूपम्‌। फिर भी गृह घटादि शब्दों के द्वार कहे जाते हैं।,तथापि गृहघटादिभिः शब्दैः कथ्यते। सविकल्पसमाधि में ही आनन्द का रसास्वादन रसास्वाद कहलाता है।,सविकल्पकसमाधौ एव आनन्दास्वादनं हि रसास्वादः। राजयोग ही आन्तरिक विज्ञान होता है।,राजयोगः हि अन्तर्विज्ञानम्‌। 80. “ अनश्च'' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"८०. ""अनश्च"" इत्यस्य सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?" ऋग्वेद सूक्त-मण्डल भेद से दो भागों में विभक्त है।,ऋग्वेदः सूक्त-मण्डलभेदेन द्विधा विभक्तः। और स्त्रीत्व विवक्षा में युवन्‌ प्रातिपदिक से यूनस्ति सूत्र से तिप्‌ प्रत्यय होता है।,एवञ्च स्त्रित्वविवक्षायां युवन्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ यूनस्ति इति सूत्रेण ति प्रत्ययः भवति। वज्र का उत्पन्नकाल में अर्थात्‌ वज्रपतनकाल में उसका भीषणशब्द से त्रिभूवन भयभीत होता है।,वज्रस्य उत्पन्नकाले अर्थात्‌ वज्रपतनकाले तस्य भीषणशब्देन त्रिभूवनं भयभीतं भवति। "सान्वयप्रतिपदार्थ - अस्य = पुरुष या परमेश्वर का, मुखम्‌ = आनन, ब्राह्मणः = द्विज, आसीत्‌ = था।","सान्वयप्रतिपदार्थः - अस्य = पुरुषस्य, परमेश्वरस्य वा, मुखम्‌ = आननं, ब्राह्मणः = द्विजः, आसीत्‌ = अभूत्‌।" सूत्र अर्थ का समन्वय- ज्येष्ठ आह चमसा यह प्रयोग वेद में प्राप्त होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- ज्येष्ठ आह चमसा इति प्रयोगः वेदे लभ्यते। "वर्त्तमान में प्राप्त हुए प्रमुख ब्राह्मण वेदों का अनुसरण करने की सङ्ख्या इस प्रकार से है - १. ऐतरेय ब्राह्मण, २. शाङख़ायन ब्राह्मण (ऋग्वेदीय), ३. शतपथ ब्राह्मण (शुक्लयजुर्वेदीय) , ४. तैत्तिरीय ब्राह्मण (कृष्णयजुर्वेदीय), ५. ताण्ड्य, ६. षड्विंश, ७. सामविधान, ८. आर्षेय, ९. दैवत, १०. उपनिषद्- ब्राह्मण, ११. संहितोपनिषद्‌ ब्राह्मण, १२. वंश ब्राह्मण, १३. जैमिनीय ब्राह्मण (सामवेदीय), १४ और गोपथ ब्राह्मण (अथर्ववेदीय) है।","सम्प्रति सम्प्राप्तानां प्रमुखब्राह्मणानां वेदान्‌ अनुसरन्ती सङ्ख्या अनेन प्रकारेण अस्ति- (१)एऐतरेयब्राह्मणम्‌, (२) शाङ्खायनब्राह्मणम्‌ (ऋग्वेदीयम्‌), (३) शतपथब्राह्मणम्‌ (शुक्लयजुर्वेदीयम्‌), (३) तैत्तिरीयब्राह्मणम्‌ (कृष्णयजुर्वदीयम्‌), (५) ताण्ड्यम्‌, (६) षड्विंशम्‌, (७) सामविधानम्‌, (८) आर्षेयम्‌, (९) दैवतम्‌, (१०) उपनिषद्‌-ब्राह्मणम्‌, (११) संहितोपनिषदुब्राह्मणम्‌, (१२) वंशब्राह्मणम्‌, (१३) जैमिनीयब्राह्मणम्‌ (सामवेदीयम्‌), (१४) गोपथब्राह्मणं (अथर्ववेदीयम्‌) चेति।" उसका विशेषण से सुप्‌ की तदत्तनिधि में सुबन्तम्‌ रूप होता है।,तस्य विशेषणत्वात्‌ सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ सुबन्तमिति भवति । चारों योगों में सबसे अन्यतम भक्तियोग होता है।,चतुर्षु योगेषु अन्यतमः भक्तियोगः। इन्द्र का भोजन बैल का मांस है।,इन्द्रस्य भोजनं भवति वृषभाणां मांसम्‌ इत्युच्यते। अविद्याकार्य का अनादित्व होने पर भी विद्या का उदय होने पर सूर्योदय के समय अन्धकार के नष्ट होने के समान अविद्या भी अस्त हो जाती है।,अविद्याकार्यस्य अनादित्वे अपि विद्यायाः उदये सूर्योदये तमस इव अस्तमयो भवति। अथम्‌ अधिकारः “शेषोबहुव्रीहिः” इस सूत्र से प्राक पर्यन्त है।,"अयमधिकारः ""शेषो बहुव्रीहिः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्प्राक्पर्यन्तम्‌।" सङग्राम भूमि पर जाने के लिए वीरो को उत्साहित करने के लिए दुन्दुभि का वर्णन अत्यधिक सरल और वीररस पूर्ण है।,सङ्ग्रामभूमौ गमनाय वीरान्‌ समुत्साहयितुं दुन्दुभेः वर्णनम्‌ अतीव साहित्यिकं वीररसपूर्णञ्च अस्ति। "सरलार्थ - जो पृथ्वी प्रारम्भ में समुद्र के मध्य में स्थित थी, मनस्वियों को जो बुद्धि से प्राप्त होती है, जिस पृथ्वी के अमृतहृदय को सत्य से ढका हुआ है वह पृथ्वी हमारे उत्तमराष्ट्र में समृद्धि प्रदान करे अथवा वह भूमि हमारे लिए उत्तमराष्ट्र के लिए तेज और शक्ति को प्रदान करे।","सरलार्थः- या पृथिवी आदौ समुद्रमध्ये स्थिता आसीत्‌, मनीषिणः यां बुद्ध्या प्राप्नुवन्ति, यस्याः पृथिव्याः अमृतहृदयं सत्येनावृतं सा पृथिवी अस्मान्‌ उत्तमराष्ट्रे प्रस्थापयतु अथवा सा भूमिः अस्मभ्यम्‌ उत्तमराष्ट्रार्थं तेजः शक्तिं च प्रयच्छतु।" तिल्विलम्‌ इसका विग्रह क्या है?,तिल्विलम्‌ इत्यस्य कः विग्रहः। अतः प्रकृतसूत्र सामर्थ्य से यहाँ अनुदात्त विकल्प से होता है।,अतः प्रकृतसूत्रसामर्थ्यात्‌ अत्र अनुदात्तं विकल्पेन भवति। परमवाघ्चा इस रूप को सिद्ध कीजिए।,परमवाचा इति रूपं साधयत। देवीसूक्त में आठ मंत्रों के द्वारा जो कहा गया है उसे साररूप से कहते है।,देवीसूक्ते अष्टमन्त्रैः यदुक्तं तत्‌ साररूपेण कथ्यते। इसी प्रकार इस लोक के साधनों का और परलोक के विषयों का प्रतिपादन करने से अथर्ववेद का वैदिक संहिता में अपना विशिष्ट स्थान है।,एवम्‌ ऐहिक-आमुष्मिक-लौकिकानां पारलौकिकानां च विषयाणां प्रतिपादकत्वेन अथर्ववेदः वैदिकसंहितायां स्ववैशिष्ट्यं स्थापयति। केवल सातवें मन्त्र को छोडकर सभी में त्रिष्टुप्छन्द है।,केवलं सप्तममन्त्रं विहाय सर्वत्र त्रिष्टुप्छन्दः । नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌ का अपवाद है।,नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌ इत्यस्य अपवादः। ( 9.2 ) डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ ( 4.1.13 ) सूत्रार्थ-मन्नन्त प्रातिपदिक से अन्नत बहुव्रीहिसंज्ञाक से और प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर विकल्प से डाप्‌ प्रत्यय होता है।,(९.२) डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ (४.१.१३) सूत्रार्थः - मन्नन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ अन्नन्तात्‌ बहुव्रीहिसंज्ञकात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च स्त्रीत्वे द्योत्ये वा डाप्‌ प्रत्ययः स्यात्‌। प्रत्येक विशेषणवाचकशब्द का अर्थ कल्याणजनितसुख है।,प्रत्येकं विशेषणवाचकशब्दस्यार्थः कल्याणजनितसुखम्‌ इति। अङ्गप्रातिलोम्ये इस सूत्र से अप्रातिलोम्ये इस सप्तम्यन्त पद की अनुवृति है।,अङ्गप्रातिलोम्ये इति सूत्रात्‌ अप्रातिलोम्ये इति सप्तम्यन्तं पदम्‌ अनुवर्तते। "इसी प्रकार ही सर्वम्‌ यह पद षष्ठ्यन्त का विपरिणाम होता है, उससे सर्वस्य यह होता है।","एवम्‌ एव सर्वम्‌ इति पदं षष्ठ्यन्ततया विपरिणमते, तेन सर्वस्य इति भवति।" इन शिष्यों में शौनक के शिष्य बभ्रु तथा सैन्धवायन कहा है।,एषु शिष्येषु शौनकस्य शिष्यः बभ्रुः तथा सैन्धवायनः इति कथितम्‌। 40. संख्यापूर्व तत्पुरुष समासको द्विगु सज्ञा प्राप्त होती है।,४०. संख्यापूर्वः तत्पुरुषसमासो द्विगुसंज्ञां लभते। यह सूत्र त्रि पदात्मक है।,सूत्रमिदं पदत्रयात्मकम्‌ । इस गीता शास्त्र में परमनि:श्रेयस का साधन ज्ञान है अथवा कर्म या दोनों।,अस्मिन्गीताशास्त्रे परमनिःश्रेयससाधनं निश्चितं किं ज्ञानं कर्म वा । वह ही तीन पाद में सृष्टि को अतिक्रमण करके रहता है।,स एव त्रिषु पादप्रक्षेपेषु सृष्टिम्‌ अतिक्रामति। वेद रक्षा क्षमता ही व्याकरण के वेदाङ्ग का भी समर्थ करता है।,वेदरक्षाक्षमतयैव व्याकरणस्य वेदाङ्गत्वम्‌ अपि समर्थ्यते। ऐक्यज्ञान के द्वारा ही मोक्ष सिद्ध होता है तथा संसार की आत्यान्तिक निवृत्ति भी होती है।,ऐक्यज्ञानेन मोक्षः सिध्यति। संसारस्य आत्यन्तिकनिवृत्तिः भवति। "मन्त्र और ब्राह्मण से वेद का आधेय ऐसा जानना चाहिए श्रुति अनुसार मन्त्र, ब्राह्मण दो वेद के भाग है।",मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्‌ इति श्रुत्यनुसारेण मन्त्रब्राह्मणौ वेदस्य द्वौ भागौ। दो पद वाले इस सूत्र में लोपे यह सप्तम्यन्त पद है।,द्विपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे लोपे इति सप्तम्यन्तं पदम्‌। जीव का स्वरूप ही ब्रह्म होता है।,जीवस्य स्वरूपं हि ब्रह्म। तत्पदार्थ का “तत्त्वमसि” यहाँ पर भी त्वम्‌ अर्थात्‌ अपरोक्षत्व अल्पज्चत्वादिविशिष्ट चैतन्य से तत्‌ अर्थात्‌ परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य अभिन्न होता है इस प्रकार की जब प्रतीति होती है।,“तत्त्वमसि” इत्यत्रापि त्वम्‌ अर्थात्‌ अरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टात्‌ चैतन्यात्‌ तत्‌ अर्थात्‌ परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टं चैतन्यम्‌ अभिन्नम्‌ इति यदा प्रतीयते । "और भी ऋग्वेद में बहुत से संवाद सूक्त हैं यथा सरमापणि संवाद, ऊर्वशी पुरुरवा संवाद, यमयमी संवाद इत्यादि।","तथा च ऋग्वेदे सन्ति बहूनि संवादसूक्तानि यथा सरमापणिसंवादः, ऊर्वशीपुरुरवासंवादः, यमयमीसंवादः इत्यादीनि।" समास में प्राय उत्तर पदार्थ का प्राधान्य दिखाई देता है।,अस्मिन्‌ समासे प्रायेण उत्तरपदार्थस्य प्राधान्यं दृश्यते। ( ६.१.१९० ) सूत्र का अर्थ- जिसमे उदात्त अविद्यमान हो ऐसे लसार्वधातुक के परे रहते भी अभ्यस्त संज्ञको के आदि को उदात्त होता है।,(६.१.१९०) सूत्रार्थः- अविद्यमानोदात्ते लसार्वधातुके परेऽभ्यस्तानामादिरुदात्तः। ब्रह्म न तो सत्‌ होता है और न ही असत्‌ इस प्रकार ऋग्वेद में कहा गया है।,"ब्रह्म न सत्‌, नाप्यसदिति ऋग्वेदे निगदितम्‌।" वह चार्वाक आदि के मत को पूर्वपक्ष मत रूप से स्थापित करके उनके मतों का खण्डन करते हैं।,सः चार्वाकादीनां मतं पूर्वपक्षमतरूपेण संस्थाप्य तेषां मतानां खण्डनं कृतवान्‌। जिसके कारण सूर्य उदित होकर चमकता है।,यम्‌ आधारीकृत्य सूर्यः उदितो भूत्वा विभाति । (पञ्चदशी-1.5) अविद्या ही आत्मा का कारण शरीर होता है।,१७.१३) कारणशरीरम्‌ अविद्या एव आत्मनः कारणशरीरं भवति। श्रद्धा किसे कहते है तो कहते हैं की- “गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा”।,श्रद्धा का इति चेदुच्यते - “गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा ”इति। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है गवाक्षः।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं गवाक्षः इति। इस प्रकार निश्चय के द्वारा किसी के भी शत्रु नहीं रहते हैं।,एवं चेत्‌ निश्चयेन कश्चिदपि शत्रुः न विद्यते। हन्त च इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिए?,हन्त च इति सूत्रस्य एकम्‌ उदाहरणं दीयताम्‌। जहत्‌ लक्षणा अजहत्‌ लक्षणा तथा जहत्‌ अजहत्‌ लक्षणा।,जहल्लक्षणा अजहल्लक्षणा जहदजहल्लक्षणा च इति। ब्रह्माकार अबाधितनिरवच्छिन्न चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,ब्रह्माकारा अबाधितनिरवरच्छिन्नचित्तवृत्ति्चि उदेति । इसलिए भी अनित्य का त्याग करना चाहिए।,अतोऽपि अनित्यस्य त्यागः क्रियते। वेद में सलिल शब्द के स्थान में किसका प्रयोग दिखाई देता हे?,वेदे सलिलशब्दस्य स्थाने कस्य प्रयोगो दृश्यते? कीचड से संयुक्त जल जिस प्रकार से स्पष्ट रूप में प्रकाशित नहीं होता है।,पङ्कसंयुक्तं जलं यथा स्पष्टं न प्रकाशते । पहले पुरुष की हवि को सामान्यरूप से नहीं माना गया है।,पूर्वपुरुषस्य हविः सामान्यरूपत्वं न सङ्कल्पः। पदपाठ - येन।,पदपाठः - येन। कृताकृतम्‌ यहाँ पर कृतञ्च तत्‌ अकृतम्‌ इस विग्रह में कर्मधारय समास करने पर कृताकृतम्‌ यह रूप बनता है।,कृताकृतम्‌ इत्यत्र कृतञ्च तत्‌ अकृतम्‌ इति विग्रहे कर्मधारयसमासे कृताकृतम्‌ इति रूपम्‌। इसी प्रकार दान आदिकर्म से यजमान यश को प्राप्त होता है।,एवं दानादिकर्मणा यजमानः यशश्च लभते। अतः वेदोक्त कर्म का लक्ष्य देवों को सन्तुष्टि प्रदान करना है।,अतः वेदोक्तस्य कर्मणः लक्ष्यं देवानां सन्तुष्टिविधानमेव। “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे” इस सूत्र का क्या प्रयोजन है?,"""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" इति सूत्रस्य किं प्रयोजनम्‌।" पूरण अर्थ से षष्ठी समास निषेध होने का उदाहरण कौन सा है?,पूरणार्थन षष्ठीसमासनिषेधे किमुदाहरणम्‌? मी यहाँ ईकार स्वरित है।,मी इत्यत्र ईकारः स्वरितः। उदाहरण- इस सूत्र का उदाहरण है - नहिषस्तव नो मम इति।,उदाहरणम्‌- अस्य सूत्रस्य उदाहरणं भवति - नहिषस्तव नो मम इति। स्वर्ग का मुख्य वैद्य कौन हे?,स्वर्गस्य मुख्यः वैद्यो कः? और उत्पत्ति मानने वालों के मत में तेज से लेकर के पूर्वोत्तर तथा काल में विशेष सम्भवाना होती है।,"अपि च, उत्पत्तिमतां च तेजःप्रभृतीनां पूर्वोत्तरकालयोर्विशेषः सम्भाव्यते ।" ज्योतिष शास्त्र यज्ञ विधान के लिए उचित काल का निर्देश करता है उससे यह शास्त्र तत्कालविधायक शास्त्र इस नाम से और ज्योतिष नाम से भूमि पर सभी जगह प्रख्यात है।,ज्यौतिःशास्त्रं यज्ञविधानस्य युक्ततरं कालं निर्दिशति तस्मात्‌ एतत्‌ शास्त्रं तत्कालविधायकशास्त्रम्‌ इत्येतेन च नाम्ना भुवि सर्वत्र प्रख्यातं वर्तते। "सृष्टि के क्रम में सभी जगहों पर आत्मभावापन्न से अनुवृत्ति करना चाहिए, अन्यथा अचेतन से चेतन की उत्पत्ति अपरिहर्तव्या हो जाएगी।","सृष्टिक्रमे सर्वत्रापि आत्मभावापन्नादिति अनुवृत्तिः कर्तव्या, अन्यथा अचेतनात्‌ अचेतनस्य उत्पत्तिः अपरिहर्तव्या स्यात्‌।" इस छन्द में चार पाद हैं।,अस्मिन्‌ छन्दसि चत्वारः पादाः सन्ति। "वहाँ अर्थवाद के विस्तृत वर्णन प्राप्त होते हैं, जिससे पाठक प्रसन्न होते हैं।","तत्र अर्थवादस्य विस्तृतं वर्णनं प्राप्यते, येन पाठकाः समुद्वेलिताः भवन्ति।" निधिध्यासन तथा समाधि में अभेद जानने में; समाधि की आवश्यकता जानने में; समाधि के दो भेदों को जानने में; चित्तवृत्ति का अज्ञाननाशकत्व जानने में; अखण्डाकार चित्तवृत्ति का स्वरूप तथा अज्ञान नाश के प्रकारों को जानने में; जानने का वृत्ति विषयत्व तथा फल विषयत्व ज्ञान जानने में; “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः” इस प्रकार से अद्वैतवेदान्त का सिद्धान्त हैं ।,"निदिध्यासनसमाध्योरभेदः।समाधेरावश्यकता। समाधेः भेदद्वयम्‌। चित्तवृत्तेः अज्ञाननाशकत्वम्‌। अखण्डाकारचित्तवृत्तिस्वरूपम्‌ अज्ञाननाशप्रकारश्च। ज्ञेयानां वृत्तिविषयत्वं फलविषयत्वं च।“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः"" इति अद्वैतवेदान्तसिद्धान्तः।" उस दिव्य रूप को देखकर वह मोहित होता है।,तद्‌ दिव्यरूपं दृष्ट्वा स मोहितो भवति। उससे हे अग्नि तुम भद्र करोगी यह अर्थ प्राप्त होता है।,तेन हे अग्ने त्वं भद्रं दास्यसि इत्यर्थो लभ्यते। "पृथिवी इसकी पत्नी कहलाती है, परन्तु अन्य जगह वशा इनको पत्नी है, ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है।",पृथिवी अस्य पत्नी इति कथ्यते परन्तु अन्यत्र वशा अस्य पत्नी इत्यपि उल्लेखः प्राप्यते। कोश के समान आच्छादकत्व होने से इसका कोश नाम दिया गया है।,कोशवदाच्छादकत्वात्‌ कोश इति नाम। सादृश्यरूप में यथार्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण है सहरि।,सादृश्यरूपे यथार्थे अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति सहरि इति। "श्री रामकृष्ण ही उस प्रकार के साधक थे जिनके जीवन में द्वैत, विशिष्टाद्वैत, अद्वैत इस प्रकार के सभी तत्व परस्पर विरोध बिना ही रहते हैं।",श्रीरामकृष्णः हि तादृशः अध्यात्मसाधकः यस्य जीवने द्वैतं विशिष्टाद्वैतम्‌ अद्वैतं च तत्त्वं परस्परम्‌ अविरुद्धतया अनयासेन विराजते। उसे वेदान्तसार में इस प्रकार से कहा गया है।,तथाहि वेदान्तसारकार आह। "विशेष- आठवें अध्याय में निष्ठा च द्व्यजनात्‌' इससे परे सात सूत्र है, उसके बाद यतोऽनावः यह प्रकृत सूत्र है।","विशेषः- अष्टाध्याय्यां निष्ठा च द्व्यजनात्‌ इत्यस्मात्‌ परम्‌ सप्त सूत्राणि सन्ति, ततः परं यतोऽनावः इति प्रकृतसूत्रं विद्यते।" शौण्डादि में उसका तत्प्रकृतिक में लक्षणा है।,शौण्डादीनां तत्प्रकृतिके लक्षणा। वहाँ पर हाथ रहित और पैर से रहित वृत्र को इन्द्र ने मारा।,तत्र हस्तरहितं पादरहितं वृत्रम्‌ इन्द्रः प्रहृतवान्‌। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा ज्ञान के आवरण क्लेश कर्म अधर्म आदि का क्षय होता है।,प्राणायामस्य अभ्यासेन ज्ञानावरकाणां क्लेशकर्माधर्मादीनां क्षयो भवति। इसके बाद समास का प्रातिपदिकत्व से सुप्‌ का लोप होने पर प्रतिसामन्‌ होता है।,ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि प्रतिसामन्‌ इति भवति। बिम्ब व्यतिरेक से प्रतिबिम्ब के निरपेक्ष सत्व के अभाव से प्रतिबिम्ब बिम्ब से भिन्न होता है।,बिम्बव्यतिरेकेण प्रतिबिम्बस्य निरपेक्षसत्त्वाभावात्‌ प्रतिबिम्बं बिम्बाभिन्नम्‌। "इस सूक्त के अत्रि ऋषि, पर्जन्य देवता, और जगति आदि छन्द है।","अस्य सूक्तस्य अत्रिः ऋषिः , पर्जन्यो देवता , जगत्यादीनि च छन्दांसि ।" "अतः कहा जाता है ”प्रायेण अन्य पदार्थ प्रधानः बहुव्रीहिः”। 46. “'प्रादिभ्योधातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः” ` नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः”, सप्तम्युपमानपूर्वपदस्योत्तर पदलोपश्च'' ये वार्तिक बहुव्रीहि विधायक हैं।","अत एवोच्यते प्रायेण अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः इति। ४६. ""प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः"", ""नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः"", ""सप्तम्युपमानपूर्वपदस्योत्तरपदलोपश्च"" इत्येतानि वार्तिकानि बहुव्रीहिविधायकानि सन्ति।" इनके अतिरिक्त भी अनेक याग हैं।,एतद्विहाय सन्ति नैके यागाः। इसी प्रकार सभी स्थित भावनाओं की अभिव्यक्ति कवि के द्वारा उचित प्रकार से और प्रशंसनीय रूप से की गई है।,इत्थं सर्वत्र स्थितानां भावानाम्‌ अभिव्यक्तिः कविना समुचितेन प्रशंसनीयेन च प्रकारेण कृता अस्ति। अविद्या के द्वार पञ्चकोशो से में अभिन्न हूँ इस प्रकार से मानता है।,अविद्यया पञ्चकोशेभ्यः अहम्‌ अभिन्न एव इति मनुते। श्रद्धा के ह्वारा ही पुरोडाश आदि हवि की आहुति दी जाती है।,श्रद्धया एव हविः पुरोडाशादिहविश्च हूयते। पत्सुतःशीः - पादेषु इस अर्थ में पाद शब्द को पद आदेश होने पर पत्सु यह हुआ सप्तमी अर्थ में तसिल्प्रत्यय करने पर विभक्ति लोप अभाव में पत्सुतः यह रूप है।,पत्सुतःशीः - पादेषु इत्यस्मिन्नर्थ पादशब्दस्य पदादेशे पत्सु इति जाते सप्तम्यर्थे तसिल्प्रत्यये विभक्तिलोपाभावे पत्सुतः इति रूपम्‌। अबध्नन्‌ - बन्ध्‌-धातु से लङ् लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,अबध्नन्‌- बन्ध्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। वै-तत इन दोनों के प्रयोग होने से तुह्यादिपरिभाषा के द्वारा ग्यारह सूक्तो में मित्रावरुणदेव की स्तुति की गई है।,वै-तदित्युभयोः प्रयोगात्‌ तुह्यादिपरिभाषयैतदादीन्येकादशसूक्तानि मित्रावरुणदेवत्यानि। उसके बाद फिर दस भाग को प्राप्त करते हैं।,ततः परं दश भागाः प्राप्यन्ते। वहाँ निवास अर्थ में क्षियन्ति निवसन्ति इस प्रकार के विग्रह में अधिकरण क्षि धातु को “पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण' इससे घ प्रत्यय की प्रक्रिया में क्षय शब्द सिद्ध होता है।,"तत्र निवासेऽर्थ क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन्‌ इति विग्रहे अधिकरणे क्षिधातोः ""पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण"" इत्यनेन घप्रत्यये प्रक्रियायां क्षयशब्दः निष्पद्यते।" निर्वकल्पसमाधि में तो चित्तवृत्तियाँ होती हैं लेकिन उनका भान नहीं होता है।,निर्विकल्पकसमाधौ तु चित्तवृत्तिर्वर्तते परन्तु तस्याः भानं न भवति। "और मन धेर्यस्वरूप, मरणरहित, सभी प्राणियों के अन्तर विद्यमान, सभी इन्द्रियों का प्रकाशक है।","किञ्च मनः धेर्यस्वरूपं, मरणरहितं, सर्वेषां प्राणिनाम्‌ अन्तर्विद्यमानं, सर्वेन्द्रियाणां प्रकाशकम्‌।" स्तभितम्‌ - स्तम्भ-धातु से क्तप्रत्यय करने पर स्तम्भितम्‌ रूप बनता है।,स्तभितम्‌- स्तम्भ्‌-धातोः क्तप्रत्यये स्तम्भितम्‌ इति रूपम्‌। प्रत्येक अध्याय के अन्दर विभाग का क्या नाम है?,प्रत्येकम्‌ अध्यायस्य अन्तरविभागस्य नाम किम्‌ अस्ति? "इसलिए तत्वमसि यह महावाक्य अभेदार्थ से भिन्नार्थक होता है, लेकिन इस आशङ्का के सत्य होते हुए भी वह नहीं होता है।",अतः तत्त्वमसि इति वाक्यम्‌ अभेदार्थात्‌ भिन्नार्थकं भवति इति आशङ्कायां सत्यामुच्यते तत्‌ न भवति। सब और से उसको प्राप्त हो यह उसका अन्वय है।,तदश्यामित्यन्वयः। इग्निस्‌ यह लातिनशब्द से संस्कृत का अग्निशब्द का ध्वनिगत और अर्थगत समानता पर विस्मय किया जाता है।,इग्निस्‌ इति लातिनशब्देन संस्कृतस्य अग्निशब्दस्य ध्वनिगतम्‌ अर्थगतञ्च साम्यं परं विस्मयमावहति। बहुलम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,बहुलम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। उसके बाद बाह्येन्द्रियों का निग्रह करना चाहिए।,ततः बाह्येन्द्रियाणां निग्रहः। “उपसर्जनं पूर्वम्‌” इससे उसका पूर्व निपात होता है।,"""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इत्यनेन च तस्य पूर्वनिपातः भवति।" भुवनपतिः यहाँ पर भुवन शब्द का स्वर क्या है?,भुवनपतिः इत्यत्र भुवनशब्दस्य कः स्वरः? 6. अपसः यहाँ पर इष्ठ के अभाव होने पर भी विन का लुक्‌ कैसे हुआ?,६. अपसः इत्यत्र इष्ठाभावेपि कथं विनः लुक्‌? किन्तु दसवें मण्डले में उल्लिखित देवों में बहुत से नये देवता जोड़ दिये।,किञ्च दशममण्डले उतल्लिखितेषु देवेषु बहवो नवीनाः देवताः सन्निविष्टाः अभवन्‌। शेषे इसका अनन्तर से भिन्न यह अर्थ है।,शेषे इत्यस्य च अनन्तरभिन्ने इत्यर्थः। अनुपूर्वम्‌ अनुक्रमः उसका भाव ही आनुपूर्व्यम्‌ है।,"अनुपूर्वम्‌ अनुक्रमः, तस्य भाव आनुपूर्व्यम्‌।" इस सूत्र से असंज्ञा होने पर गम्यमान होने पर तद्धित ञप्रत्यय होता है।,अनेन सूत्रेण असंज्ञायां गम्यमानायां तद्धितः ञप्रत्ययो विधीयते। 1. वेदान्त में अन्तरङगसाधन तथा बहिरङ्ग साधन इस प्रकार के दो विभाग किए गए हैं?,1 वेदान्ते अन्तरङ्गसाधनानि बहिरङ्गसाधनानि इति विभागः करणीयः। "“'प्राक्कडारात्समासः'', ““सहसुपा'', ““तत्पुरुषः'' ये तीन सूत्र अधिकृत है।","""प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः"" इति सूत्रत्रयमधिकृतम्‌।" "जैसे यह घट है,यहाँ पर घटाकार चित्तवृत्ति अज्ञानविषयीभूत चैतन्य विषयीकृत होकर घटावच्छिन्न चैतन्यगत अज्ञान का नाश करके स्वगत चिदाभास से जड घट का प्रकाश करता है।",यथा- अयं घटः इत्यत्र घटाकाराकारिता चित्तवृत्तिः अज्ञानविषयीभूतं घटावच्छिन्नं चैतन्यं विषयीकृत्य घटावच्छिन्नचैतन्यगतम्‌ अज्ञानं नाशयित्वा स्वगतचिदाभासेन जडं घटमपि प्रकाशयति। चक्र के भ्रमण के द्वारा घट का निर्माण करना चाहिए।,चक्रभ्रमणद्वारा घटः निर्मातव्यः। अनित्य सुख का कारण ही धर्म कहलाता है।,अनित्यसुखस्य कारणं हि धर्मः। इस प्रकार की देवी को केवल पास के कारण मैने उस परम अनुरागिणी भार्या को छोड़ दिया।,इत्थम्‌ अनुव्रताम्‌ अनुकूलां जायाम्‌ एकपरस्य एकः परः प्रधानं यस्य तस्य अक्षस्य हेतोः कारणात्‌ अहम्‌ परित्यक्तवानस्मीत्यर्थः। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है तवै-प्रत्ययान्त के आदि और अन्त दोनों को एक साथ उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्यार्थो भवति तवै-प्रत्ययान्तस्य आदिः अन्तश्च युगपद्‌ उदात्तः भवति इति। "सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ दधासि इसमें धा धातु से मध्यमपुरुष एकवचन में सिप्‌ प्रत्यय करने पर धा सिप्‌ इस स्थिति में शप्‌ और उसका “जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' इससे लोप करने पर “श्लौ' इससे धा धातु को द्वित्व होता है, उससे इस धातु को द्वित्व होने से यह धातु अभ्यस्त संज्ञक है।","सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र दधासि इत्यत्र धाधातोः मध्यमपुरुषैकवचने सिप्प्रत्यये धा सिप्‌ इति स्थिते शपि तस्य च ""जुहोत्यादिभ्यः श्लुः"" इत्यनेन लोपे श्लौ इत्यनेन धाधातोः द्वित्वं सम्भवति तेन अस्य धातोः द्वित्वत्वाद्‌ अयं धातुः अभ्यस्तसंज्ञकः।" यहाँ भेद में खिल भेद से अथवा काल भेद से मन्त्रों में वृद्धि लोप हेतु का कारण है।,अत्र भेदे खिलभेदेन कालभेदेन वा मन्त्रवृद्धिलोपावेव हेतुतयोन्नयौ भवतः। और यह चादिगण आकृतिगण है।,अयं च चादिगणः आकृतिगणः भवति। त द्विपदात्मक इस सूत्र में किमः पञ्चमी एकवचनान्त रूप है।,पदद्वयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ किमः इति पञ्चम्येकवचनान्तं रूपं। षष्ठी समास निषेध सूत्र कौन से हैं?,षष्ठीसमासनिषेधकानि सूत्राणि कानि “एकदेशविकृत न्याय” से उसका प्रातिपदिक होने के बाद प्रथमा एकवचन में सौ उपकृष्ण सु होने पर “अव्ययीभावश्च “ इससे समास की अव्ययसंज्ञा होने पर “ अव्यथादाप्सुपः'' इससे सुप्‌ का लोप होने पर उसको बाधकर “नाव्ययी भावादन्तोऽम्त्वपञ्चम्याः'' इस सूत्र से सु को अमादेश होने पर “अमि पूर्वः”' सूत्र द्वारा दो अकार के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होने पर उपकृष्णम्‌ प्रयोग सिद्ध होता है।,"""एकदेशविकृतन्यायेन"" तस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ ततः प्रथमैकवचने सौ उपकृष्ण सु इति जाते, ""अव्ययीभावश्च"" इत्यनेन समासस्य अव्ययसंज्ञायाम्‌, ""अव्ययादाप्सुपः"" इत्यनेन सुब्लुकि प्राप्ते तं प्रबाध्य ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" इत्यनेन सूत्रेण सोरमादेशे ""अमि पूर्वः"" इत्यनेन अकारद्वयस्य स्थाने पूर्वरूपे एकादेशे उपकृष्णम्‌ इति प्रयोगः सिध्यति।" गीता में कर्म योग अत्यन्त प्रसिद्ध है।,गीतासु कर्मयोगः अत्यन्तं प्रसिद्धः। आरण्यक भी ब्राह्मण का ही अंश है।,आरण्यकमपि ब्राह्मणस्य एव अंशः अस्ति। वागर्थौ इव इस लौकिक विग्रह में वागर्थ और इव इस अलौकिकविग्रह में प्रकृतकार्तिक से इव शब्द के साथ वागर्थ और इस सुबन्त का समास संज्ञा होती है।,वागर्थौ इव इति लौकिकविग्रहे वागर्थौ इव इत्यलौकिकविग्रहे प्रकृतवार्तिकेन इवशब्देन सह वागर्थ औ इति सुबन्तं समाससंज्ञं भवति "यद्यपि आजकल वाष्कल शाखा की संहिता प्राप्त नहीं होती है, फिर भी इसको विशिष्टता का वर्णन विविध स्थलो में प्राप्त होता है।",यद्यपि सम्प्रति वाष्कलशाखायाः संहिता समुपलब्धा न भवति तथाप्यस्याः विशिष्टतायाः वर्णनं विविधेषु स्थलेषु प्राप्यते। तत्त्वदृष्टि से उसकी इन्द्रियाँ सम्भव नहीं होती हैं।,तत्त्वदृष्ट्या तु इन्द्रियादिकं न तस्य सम्भवति। उदात्ताद्‌ अनुदात्तस्य स्वरितः इति सूत्र में आये हुए पद योजना है।,उदात्ताद्‌ अनुदात्तस्य स्वरितः इति सूत्रगतपदयोजना। "सूर्य के उत्तरायण में होने से दिन के स्थिति काल कौ वृद्धि होती है, दक्षिणायन में दिन के स्थिति काल का ह्यासहोता है।","सूर्यस्य उत्तरायणेन दिवसस्य स्थितिकालवृद्धिः भवति , दक्षिणायनेन दिवसस्य स्थितिकालह्रासो भवति।" “नञस्तत्पुरुषात्‌”' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""नञस्तत्पुरुषात्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" अतः “येन विधिस्तदन्तस्य'' इस सूत्र से मनः यहाँ पर और अनः यहाँ पर तदन्त विधि होती है।,"अतः ""येन विधिस्तदन्तस्य"" इति सूत्रेण मनः इत्यत्र अनः इत्यत्र च तदन्तविधिः भवति।" यहाँ यह पदों का अन्वय होता है - ङ्याः छन्दसि बहुलं नाम्‌ उदात्तः इति।,ततश्च अत्र अयं पदान्वयः भवति- ङ्याः छन्दसि बहुलं नाम्‌ उदात्तः इति। इसलिए वहाँ सत्त्वगुण की अविशुद्धता होती है।,अत एव सत्त्वगुणस्य अविशुद्धता भवति। अत: सूत्र का अर्थ होता है - चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को अर्थ उत्तरपद रहते प्रकृत्ति स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - चतुर्थ्यन्तं पूर्वपदं अर्थ उत्तरपदे प्रकृत्या भवति इति। इसलिए शिष्य का अनुभव अपरोक्ष ही होता है।,अतः शिष्यस्य अनुभवः अपरोक्षः एव। सख्यम्‌ भगवान के साथ सौहार्द आत्मनिवेदनम्‌ भगवान में आत्मसमर्पण।,सख्यम्‌ - भगवता सह सौहार्दम्‌। आत्मनिवेदनम्‌ - भगवति आत्मसमर्पणम्‌ ब्रह्म के जगत्‌ जन्मादिकारणत्व में श्रुति प्रमाण होती है।,ब्रह्मणः जगज्जन्मादिकारणत्वे श्रुतिः प्रमाणम्‌। अम्‌ पक्ष में पहले के समान प्रक्रियाकार्य में उपकृष्णम्‌ रूप सिद्ध होता है।,अम्पक्षे पूर्ववत्‌ प्रक्रियाकार्ये उपकृष्णम्‌ इति रूपम्‌। (क) ग्रन्थाध्ययन में (ख) वेदान्तश्रवण में वेदान्तशास्त्र में पुरुष परमत्वरूप से क्या कामना करता है?,(क) ग्रन्थाध्ययने (ख) वेदान्तश्रवणे वेदान्तशास्त्रे पुरुषः परमत्वेन किं कामयते। उससे ही द्रोणकलश से सोमरस को पीकर देव अमर हुए।,तस्माद्‌ एव द्रोणकलशात्‌ सोमरसं पीत्वा देवा अमरा बभूवुः। किन्तु श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ भी प्रसिद्ध है।,किञ्च श्वेताश्वेतरोपनिषद्‌ अपि प्रसिद्धा। और इसके बाद युवोरनाकौ सूत्र से वु के स्थान पर अक आदेश होने पर कृ अक होता है।,ततश्च युवोरनाकौ इति सूत्रेण वोः स्थाने अक इति आदेशे कृ अक इति जायते। स्वयं सविता देव इस सत्य के साक्षिरूप से है।,स्वयं सवितृदेवः अस्य सत्यस्य साक्षिरूपेण अस्ति । अतः जिसके लाभ से मनुष्य सुख का अनुभव करता है वह कल्याण भद्र कहलाता है।,अतः यस्य लाभेन जनः सुखम्‌ अनुभवति तत्‌ कल्याणम्‌ भद्रम्‌। उससे यत्‌ प्रत्ययान्त का यह अर्थ है।,तेन यत्प्रत्ययान्तस्य इत्यर्थः। इस सम्पूर्ण चर अचर जगत का प्रेरक सूर्य दिन बर्षा ऋतू के स्थावर जलो का दोहन करता है।,ईर्मा सततगन्ता सर्वस्य प्रेरको वादित्यः अहभिः अहोभिर्वर्षतुसम्बन्धिभिः तस्थुषीः स्थावरभूता अपो दुदुहे दुग्धे। चतुर्थी तदर्थे इस सूत्र से चतुर्थी इस पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,चतुर्थी तदर्थ इति सूत्रात्‌ चतुर्थी इति पदम्‌ अनुवर्तते। अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ इस सूत्र में अनुदात्तम्‌ इस पद में किस अर्थ में क्या प्रत्यय है?,अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ इत्यस्मिन्‌ सूत्रे अनुदात्तम्‌ इति पदे कस्मिन्‌ अर्थे कः प्रत्ययः वर्तते? अतः प्रकृत सूत्र से कताकृतम्‌ यहाँ पर कृत इस पूर्वपद को प्रकृतिस्वर नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण कताकृतम्‌ इत्यत्र कृत इति पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः न भवति। अर्थात्‌ प्रक्रिया दशा में प्रत्येक अर्थवत्व से प्रथम विगृहीता पदों समुदाय शक्ति से विशिष्टार्थप्रातिपदिक वृत्ति है।,अर्थात्‌ प्रक्रियादशायां प्रत्येकमर्थवत्त्वेन प्रथमविगृहीतानां पदानां समुदायशक्त्या विशिष्टैकार्थप्रतिपादिका वृत्तिः। "न दिन था और न ही रात थी, सृष्टि के अभिव्यञ्‌जना का कोई चिह्न तब नहीं था।","न दिनमासीत्‌ न वा रात्रिः, सृष्टेः अभिव्यञ्जकं किमपि चिह्नं तदा नासीत्‌।" व्यवस्थित विभाषा विषय पर टिप्पणी को लिखकर उसका एक उदाहरण बताइए।,व्यवस्थितविभाषाविषये टिप्पणीं लिखित्वा तस्य एकम्‌ उदाहरणं प्रदर्शयत। सरलार्थः - हे मित्रवरुण तुम उषा के प्रारम्भ में सूर्य के उदय होने पर सोने से निर्मित लौहदण्डयुक्त रथ में बैठते हो।,सरलार्थः- हे मित्रवरुणौ युवां उषायाः प्रारम्भे सूर्यस्य उदये सति हिरण्यनिर्मिते लोहदण्डयुक्ते रथे आरोहणं कुरुताम्‌। इष्टियाग के अन्तमें पुरोहित क्या करते हैं?,इष्टियागस्य अन्ते पुरोहिताः किं कुर्वन्ति? चौ यह सूत्र किसका अपवाद है?,चौ इति सूत्रम्‌ कस्य अपवादभूतम्‌? आरण्य आचार्य कौन है?,आरण्याचार्यः कः? "हे शोभन दानियों, हे भुवन के रक्षक, तुम दोनों अतिशय महाँन बलशाली युक्त बाधा रहित और निर्दोष सुख को धारण करते हो।","हे सुदानू शोभनदानौ, हे भुवनस्य गोपा, युवां बंहिष्ठ बहुलतमं यत्‌ अच्छिदम्‌ अनवच्छिन्नं शर्म सुखं गृहं वा नातिविधे अतिवेद्धुमशक्यं शर्म इति शर्मविशेषणम्‌।" "ब्राह्मण वेदविधि का अनुसरण करके यज्ञादि करते हैं, और उससे स्वर्गादि प्राप्ति, मानवों के अच्छे जीवन तथा प्राकृतिक दुर्योग आदि से स्वयं की तथा दुसरे को रक्षा, इत्यादि रूप फल प्राप्त करते हैं।","ब्राह्मणैः वेदविधिम्‌ अनुसृत्य यज्ञादिकं क्रियते, तेन च स्वर्गादिप्राप्तिः, मानवानां सुष्ठुतया जीवनं तथा प्राकृतिकदुर्योगादिभ्यः आत्मनः परेषां च रक्षणम्‌, इत्यादिरूपं फलं प्राप्यते।" गति: यह प्रथमान्त पद है।,गतिः इति प्रथमान्तं पदम्‌। 7. विग्रह का लक्षण क्या हैं?,७. विग्रहलक्षणं किम्‌? 7. भरण पोषण करना।,७. भरणं पुष्टिः वा। "तीसरे, सातवें, आठवें प्रपाठकों का नाम लिखिए।","तृतीय, सप्तम, अष्टमप्रपाठकानां नामानि लिखत।" यह अविद्या का संस्कार ही जीव की परममुक्ति में बाधक होता है।,अयम्‌ अविद्यासंस्कारः एव जीवस्य परममुक्तौ बाधकः भवति। वह ही परम सत्यरूप है।,स एव परमसत्यरूपः। वे इन कर्मो की ज्ञानसंपत्ति के लिए वेदार्थज्ञान को सरल करने की अपेक्षा करते है।,तदेतेषां कर्मणाम्‌ ज्ञानसंपत्तये वेदार्थज्ञानम्‌ सुतराम्‌ अपेक्षते। जिस प्रकार से कोई एक चञ्चल बालक इधर से उधर दोड॒ता है।,तद्यथा कश्चिद्‌ चञ्चलो बालः इतस्ततः धावति। "सूत्र अर्थ का समन्वय- तिसृ शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर, उसके बाद डऱयाप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङयोस्सुप्‌ इस सूत्र से खल कपोत न्याय से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों की प्राप्ति में प्रथमा बहुवचन की विवक्षा में जस्‌ प्रत्यय करने पर जस्‌ प्रत्यय के आदि जकार की चुटू इस सूत्र से इत्‌ संज्ञा करने पर तस्य लोप: इस सूत्र से उस इत्‌ संज्ञक जकार के लोप होने पर तिसृ अस्‌ इस स्थित्ति में अचि र ऋत: इस सूत्र से अच्‌ परक होने से तिसृ शब्द के ऋकार के स्थान में रेफ आदेश होने पर तिसृस्‌ इस स्थित्ति में उस शब्द के सुबन्त होने से उस सकार के स्थान में ससजुषोः रुः इससे सकार के स्थान में रु आदेश होने पर और रु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इससे इत्‌ संज्ञा करने पर और लोप करने पर तिस्रर्‌ इस स्थित्ति में रेफ उच्चारण से परे वर्ण अभाव होने पर विरामोऽवसानम्‌ इस सूत्र से अवसान संज्ञा करने पर उसके परे होने पर पूर्व रेफ के स्थान में खरवसानयोर्विसर्जनीयः इस सूत्र से रेफ के स्थान में विसर्ग करने पर तिस्रः यह सुबन्त रूप सिद्ध होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- तिसृशब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः झ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्डेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण खले कपोतन्यायेन एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमाबहुवचनविवक्षायां जस्प्रत्यये जस्प्रत्ययादेः जकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण च तस्य इत्संज्ञकस्य जकारस्य लोपे तिसृ अस्‌ इति स्थिते अचि र ऋतः इति सूत्रेण अच्परकत्वात्‌ तिसृशब्दस्य ऋकास्य स्थाने रेफादेशे तिस्रस्‌ इति स्थिते तस्य शब्दस्य सुबन्तत्वात्‌ तदन्तस्य सकारस्य स्थाने ससजुषोः रुः इति आदेशे रोः उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति इत्संज्ञायां लोपे च कृते तिस्रर्‌ इति स्थिते रेफोच्चारणात्‌ परस्य वर्णाभावस्य विरामोऽवसानम्‌ इति सूत्रेण अवसानसंज्ञायां तत्परकत्वात्‌ पूर्वस्य रेफस्य स्थाने खरवसानयोर्विसर्जनीयः इति सूत्रेण रेफस्य स्थाने विसर्गे तिस्रः इति सुबन्तं रूपं सिद्ध्यति।" आम्रः यहाँ पर 'तृणधान्यानां च द्वयषाम्‌' इस सूत्र से आद्युदात्त कैसे नहीं हुआ?,आम्रः इत्यत्र तृणधान्यानां च दुव्यषाम्‌ इति सूत्रेण कथं न आद्युदात्तत्वम्‌? जैसे मिट्टी से निर्मित घट शुरई थाली आदि परस्पर भिन्न हैं परन्तु मिट्टी की दृष्टि से सभी एक ही है परन्तु देव की दृष्टि से सभी देव भिन्न हैं परन्तु एकत्व की दृष्टि से सभी में परमात्मा का स्वरूप निहित है।,यथा मृन्निर्मितं घटशरावस्थाल्यादिकं परस्परं भिन्नं परन्तु मृदः दृष्ट्या सर्वम्‌ एकमेव तथा देवस्य दृष्ट्या सर्वे देवाः भिन्नाः परन्तु एकत्वेन सर्वे परमात्मस्वरूपा एव। यह ब्राह्मण का नित्य कर्म है।,ब्राह्मणस्य इदं नित्यं कर्म। अतः प्रकृत सूत्र से अब्राह्मणः यहाँ पूर्वपद आद्युदात्त ही रहता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अब्राह्मणः इत्यत्र पूर्वपदम्‌ अद्युदात्तमेव तिष्ठति। "और जहाँ उपमान नहीं है, वहाँ पर भी इस सूत्र की प्रवृति नहीं होती है, जैसे- चौत्रः इति, यहाँ पर संज्ञा के होने पर भी उपमान नहीं है।","यत्र च उपमानं नास्ति तत्रापि नेदं सूत्रं प्रवर्तते यथा चैत्रः इति, अत्र संज्ञात्वे अपि उपमानत्वं नास्ति।" “नञ्‌'' नञ्तत्पुरुषविधायक सूत्र है।,"""नञ्‌"" इति नञ्तत्पुरुषविधायकं सूत्रम्‌।" अपिहितम्‌ - अपिपूर्वक धा धातु से क्तप्रत्यय करने पर अपिहितिम्‌ बना।,अपिहितम्‌ - अपिपूर्वकात्‌ धाधातोः क्तप्रत्यये अपिहितिम्‌ इति। "अशित: यह प्रथमा एकवचनान्त, कर्ता यह भी प्रथमा एकवचनान्त पद है।",अशितः इति प्रथमैकवचनान्तं कर्ता इत्यपि प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। लेकिन जब वह जाने के लिए तैयार होता है तो माता उसे हमेशा समझाती है।,परन्तु तत्र गमनाय उद्युक्तश्चेत्‌ माता सदा बोधयति। इन दोनों के पुत्र होने की परिकल्पना से अग्नि पृथिवी पर रहती है।,अनयोः पुत्रत्वेन परिकल्पितः अग्निः पृथिव्याम्‌ अवतिष्ठते। किस प्रकार का वाक्य प्रमाण है?,कीदृशं वाक्यं प्रमाणम्‌? उसी प्रकार हम भी हिरणों को खोजने वाला शत्रुओ के समान वह भंयकर है।,तद्द्वयमपि मृगोऽन्वेष्ठा शत्रूणां भीमो भयानकः सर्वेषां भीत्यपादानभूतः। सकार के लोप होने पर 'उदात्तस्वरितपरस्य.' इससे अनुदात्त स्वर होता है।,सत्यशब्दे सकारस्य 'उदात्तस्वरितपरस्य' इत्यनेन इत्यनुदात्तस्वरः। जीवन्रह्म में अविद्याकल्पित भेद होने पर भी परमार्थ रूप से वह अभेद ही होता है।,जीवब्रह्मणोः अविद्याकल्पितभेदे सति अपि परमार्थतः अभेदः एव। विदेहमुक्ति होने पर जीव ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है।,विदेहमुक्तौ जीवः ब्रह्मस्वरूप एव भवति। इसके बाद सूत्र में प्रथमानिर्दिष्ट होने पर पूर्व+सु इश सुबन्त का उपसर्जन संज्ञा होने पर पूर्व नियात होने पर पूर्व सु काय ङस्‌ होता है।,ततः स्त्रे प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ पूर्व सु इति सुबन्तस्य उपसर्जनसंज्ञायां पूर्वनिपाते पूर्व सु काय ङस्‌ इति भवति। राक्षसों का समूह।,राक्षसीसमूहः इति। प्रभात काल में सूर्य की किरणों से आलोकित पूर्व आकाश किस सहृदय के हदय को आनन्दित नहीं करता है।,प्रभाते सूर्यस्य किरणैः आलोकितं पूर्वाकाशं कस्य सहृदस्य हृदयं न आह्णादयति। अधिकार लाभ प्राप्त करके श्रवणादि के लिए गुरु के समीप में जाना चाहिए।,अतः अधिकारलाभोत्तरं श्रवणादीनां कृते गुरुसमीपं गन्तव्यमेव। उदाहरण -सूत्र का उदाहरण है जैसे-पौर्वशालः पूर्वस्यां शालायां भवः इस विग्रह में प्रक्रिया अर्थ में निष्पन्न दिशावाची पूर्व पद से पूर्वशाला इस प्रातिपदिक से “' दिक्पूर्वपदादसंज्ञायांजः'' इससे ञ प्रत्यय होने पर अनुबन्ध लोप होने पर पूर्वशाला अ होता है।,"उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा पौर्वशालः इति। पूर्वस्यां शालायां भवः इति विग्रहे प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ दिक्पूर्वपदात्‌ पूर्वशाला इत्यस्मात्‌ प्रातिपदिकात्‌ ""दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः"" इत्यनेन ञप्रत्यये अनुबन्धलोपे पूर्वशाला अ इति भवति।" चिकितुषी - किद्‌-धातु से क्वसु प्रत्यय और ङीप्‌ करने पर प्रथमा एकवचन में चिकितुषी रूप बना।,चिकितुषी- किद्‌-धातोः क्वसुप्रत्यये ङीपि प्रथमैकवचने चिकितुषी इति रूपम्‌। "परन्तु पृष्ठ्य षडह के प्रथमदिन ज्योतिष्टोम याग होने पर भी अन्तिमदिन उक्थ्ययाग विहित होता है, इस दिन ज्योतिष्टोम याग नहीं होता है।","परन्तु पृष्ठ्यषडहस्य प्रथमदिवसे ज्योतिष्टोमयागसत्वेऽपि अन्तिमदिवसे उक्थ्ययागो विहितो भवति ,अस्मिन्‌ दिने ज्योतिष्टोमयागो न भवति।" अग्नि के द्वारा ही सम्पूर्ण संसार का प्रकाश हुआ।,अग्निना एव सम्पूर्णसंसारस्य प्रकाशः जातः। किसकी जानकर मृत्यु को पार किया जा सकता हे?,कं विदित्वा मृत्युम्‌ अत्येति। 17. ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन कीजिए?,१७. ब्रह्मणः स्वरूपं वर्णयतु? और वहाँ यज्ञादियों में दो नियम पालन की नितान्त आवश्यकता होती है।,तत्र च यज्ञादिषु नियमद्वयस्य पालनं नितान्तम्‌ आवश्यकं भवति। "पाठः:-10 प्रमाणानि- अर्थापत्तिः, अनुपलब्धिः, प्रामाण्यम्‌।","पाठः -१० - १० प्रमाणानि- अर्थापत्तिः, अनुपलब्धिः, प्रामाण्यम्‌ ।" "“अजो नित्यः शाश्वतः” (कठोपनिषद्‌ 1.2.18), “सत्यं ज्ञानम्‌ अनन्तं ब्रह्म” (तै.उ. 2.1) इत्यादि श्रुतियों में।","“अजो नित्यः शाश्वतः” (कठोपनिषद्‌ १.२.१८), “सत्यं ज्ञानम्‌ अनन्तं ब्रह्म” (तै.उ. २.१) इत्यादयः श्रुतयः।" 4 प्रलय पर्यन्त ही आकाश का नित्यत्व साथ में होता है।,४.प्रयलपर्यन्तं हि आकाशस्य नित्यत्वमिति नित्यता सङ्गच्छते। आत्मतत्वजिज्ञासु की श्रद्धा ही उसकी साधना का मेरुदण्ड होती है।,आत्मतत्त्वजिज्ञासोः श्रद्धा एव मेरुदण्डः। “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तु उदात्तः ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,"""न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तु उदात्तः इति सूत्रगतपदच्छेदः।" आत्मज्ञान होने पर सभी उपाधियाँ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं।,आत्मज्ञाने सति सर्वे उपाधयः सम्पूर्णतः नश्यन्ति यत शब्द से परे हि शब्द से परे तु शब्द से परे यह अर्थ है।,यच्छाब्दात्‌ परं हिशब्दात्‌ परं तुशब्दात्‌ परम्‌ इत्यर्थः। 3. कर्मभोग योनि का परिचय दीजिए?,३. कर्मभोगयोनिपरिचयं दद्यात्‌। इसलिए शास्त्रादि में तथा ग्रन्थादि में शास्त्र का तथा ग्रन्थ का जो प्रयोजन कहा गया है वह अनुबन्धचतुष्टय के प्रयोजन के अन्तर्गत ही आता है।,अतः शास्त्रादौ ग्रन्थादौ वा शास्त्रस्य ग्रन्थस्य वा प्रयोजनम्‌ उक्तं भवति। तस्मात्‌ अनुबन्धचतुष्टये प्रयोजनस्य अन्तर्भावः। वेद से शेष ये ब्राह्मण ग्रन्थ यज्ञानुष्ठान का विस्तृत वर्णन करते हैं।,वेदशेषभूताः इमे ब्राह्मणग्रन्थाः यज्ञानुष्ठानस्य विस्तृतं वर्णनं कुर्वन्ति। स्तनकेशवती स्त्री स्थाल्लोमशः पुरुषः स्मृतः।,स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः। "मन्त्रों का प्रधान उद्देश्य यज्ञों में उपास्य देवता के अनुकूल कार्य में ही है, तथा यह भी निश्चय से कह सकते है की देवता के अनुकूल प्रमुख साधन मन्त्रों का गान ही हो सकता है।","मन्त्राणां प्रधानम्‌ उद्देश्यं यज्ञेषु उपास्यदेवतायाः प्रसादनकार्ये एवाऽस्ति, तथा इदम्‌ अपि निश्चयेन वक्तुं शक्यते यद्‌ देवतायाः प्रसादनस्य प्रमुखसाधनं मन्त्राणां गानम्‌ एव भवितुं शक्यते।" जीव अखिलबन्धरहित होकर ब्रह्म में प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है।,जीवश्च अखिलबन्धरहितः सन्‌ ब्रह्मणि प्रतिष्ठां लभते। उसका व्यास जीने इस प्रकार से कहा है।,तथा चोक्तं व्यासेन । "इस अध्याय का कथन है कि अग्निहोत्र से जिस देव के संतुष्टि का विधान है, अथवा देव को तृप्त करते है, वह देव जीव के अंदर ही विद्यमान है।","अस्य अध्यायस्य कथनमस्ति यद्‌ अग्निहोत्रेण यस्य देवस्य सन्तृप्तिः विधीयते, यस्य वा देवस्य आप्यायनं क्रियते, स देवः जीवस्य अभ्यन्तरे एव विद्यमानः अस्ति।" और ज्योति आदि तीन यज्ञों में स्नानीय सोम को पिया।,किञ्च ज्योत्यादिषु त्रिषु यज्ञेषु स्नानीयं सोमम्‌ अपिबत्‌। ईमहे - ई-धातु से आत्मनेपद लट्‌-लकार उत्तम पुरुष बहुवचन का रूप है।,ईमहे- ई-धातोः आत्मनेपदिनः लट्-लकारस्य उत्तमपुरुषस्य बहुवचने रूपम्‌। यह ज्ञानकर्म समुच्चय कहलाता है।,अयं ज्ञानकर्मसमुच्चयः उच्यते। "इन आख्यानों में कुछ मुख्य आख्यान है - ' वाचः देवान्‌ परित्यज्य सलिले तदनु वनस्पतौ च प्रवेशः (ताण्ड्य.६/५/१०-१२) ; यज्ञस्वरूपे देवताभिः अनाक्रमणं तथा दर्भमुष्ट्या तस्य प्रत्यावर्त्तनं (ता. ६/७/१८) , अग्निमन्थनकाले घोटकस्य अग्रे स्थापनम्‌ (शत. १/६/४/१५) , देवासुराणां मध्ये बहुविध सङऱय़्रामः' (शत. २/१/६/८-१८, ऐत. १/४/२३, ६/२/१)।","एतेषु आख्यानेषु कतिपयानि मुख्याख्यानि सन्ति- 'वाचः देवान्‌ परित्यज्य सलिले तदनु वनस्पतौ च प्रवेशः (ताण्ड्य.६/५/१०-१२); यज्ञस्वरूपे देवताभिः अनाक्रमणं तथा दर्भमुष्ट्या तस्य प्रत्यावर्त्तनं (ता. ६/७/१८), अग्निमन्थनकाले घोटकस्य अग्रे स्थापनम्‌ (शत. १/६/४/१५), देवासुराणां मध्ये बहुविधसङ्ग्रामः' (शत. २/१/६/८-१८, ऐत. १/४/२३, ६/२/१)।" वहाँ पर दुःख मन का होता है तथा धर्म तथा सुख आनन्दमय धर्म का होता है इस प्रकार से विवेचना करके जानना चाहिए 18.5 ) पञ्चकोशों से अतिरिक्त आत्मा स्थूल शरीर से लेकर सुषुप्ति के आनन्द तक ज्ञान की कोई सीमा होती है।,तत्र दुःखं मनसः धर्मः सुखं आनन्दमयस्य धर्मश्च इति विविच्य ज्ञेयम्‌। १८.५) पञ्चकोशातिरिक्तः आत्मा स्थूलशरीरादारभ्य सुषुप्तानन्दपर्यन्तं खलु कस्यचित्‌ ज्ञानस्य सीमा। यहाँ पर आत्मा के परोक्षत्व से व्यावर्त के लिए अपरोक्ष शब्द का प्रयोग विहित है।,अत्र आत्मनः परोक्षत्वं व्यावर्तयितुम्‌ अपरोक्षशब्दस्य प्रयोगः विहितः। प्रलयकाल में तीसरा पाद रखा।,प्रलयकाले तृतीयः पादप्रक्षेपः। 27. नित्यसमास का लक्षण क्या हे?,२७. नित्यसमासस्य किं लक्षणम्‌? और बहते है।,एवम् अनुगच्छतः। इस लोक में होने वाले को ऐहिक कहते हैं।,इहलोके भव ऐहिकः। लोट च इस सूत्र से लोट्‌ यहाँ प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,लोट्‌ च इति सूत्रात्‌ लोट्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। "जैसे - (७) कठ उपनिषद्‌, (८) ईश उपनिषद्‌, (९) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ (१०) और महानारायण उपनिषद्‌।","यथा- (७) कठोपनिषद्‌, (८) ईशोपनिषद्‌, (९) श्वेताश्वेतरोपनिषद्‌ (१०) महानारायणोपनिषच्चेति।" जैमिनी के मत में तो देवों का अलग रूप नहीं है। मन्त्रमयी देवता हैं।,जैमिनेः मतेन तु देवानां पृथक्तया रूपादिकं नास्त्येव । मन्त्रमयी देवता। "3. श्रवण, मनन तथा निद्धिध्यासन ही मोक्ष के उपाय होते हैं।",३. श्रवण-मनन-निदिध्यासनानि हि मोक्षोपायाः। अब यहाँ चितः सप्रकृतेर्बह्वकजर्थम्‌ इस वार्तिक से चित्प्र्यय के समान समुदाय का यह अर्थ प्राप्त होता है।,इदानीम्‌ अत्र चितः सप्रकृतेर्बह्वकजर्थम्‌ इति वार्तिकेन चित्प्रत्ययवतः समुदायस्य इत्यर्थः लभ्यते। अर्थेन गुणवचनेन ये दो पद तृतीया एकवचनान्त हैं।,अर्थेन गुणवचनेनेति पदद्वयं तृतीयैकवचनान्तम्‌। और उससे बहुयज्वत्‌ डाप्‌ स्थिति होती है।,तेन च बहुयज्वन्‌ डाप्‌ इति स्थितिः भवति। कल्पसूत्र उसका इसका सम्बन्ध बन्धन भेद युक्त है।,कल्पसूत्राणि तत्तद्वेदसम्बन्धनिबन्धनभेदयुतानि। पुरुत्रा - पुरु शब्द से सप्तमी अर्थ में त्रा प्रत्यय करने पर पुरुत्रा रूप है।,पुरुत्रा- पुरुशब्दात्‌ सप्तम्यर्थे त्राप्रत्यये पुरुत्रा इति रूपम्‌। निर्विकल्पक ज्ञातृज्ञानादि विकल्पों के लय की अपेक्षा से अद्वितीयवस्तु में तदाकारकारिता का चित्तवृत्ति का एकीभाव से अवस्थान होता है।,निर्विकल्पकः तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अतितराम्‌ एकीभावेन अवस्थानम्‌ इति। विभक्त्यर्थक वाचक अव्यय का सुबन्त के समर्थ से सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,विभक्त्यर्थवाचकम्‌ अव्ययं सुबन्तं समर्थेन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। पाप से रक्षा करने वाले हे वरुण मित्रावरुणतुम उस यजमान की यज्ञभूमि में याग के मध्य और अन्तमं रक्षा करते हुए उसके लिए दानवीर बनकर उसकी पाप से रक्षा करो।,परस्पा परस्तात्‌ पातारौ रक्षितारौ हे वरुणा मित्रावरुणौ युवां यं यजमानम्‌ इळासु यागभूमिषु अन्तः मध्ये त्रासाथे रक्षथः तस्मै सुकृते अक्रविहस्ता परस्पा च भवथ इति सम्बन्धः। जैसे:-राजपुरुषः इस समास वृत्ति में राज्ञः पुरुषः यह वाक्य तदर्थबोधक है।,यथा राजपुरुषः इति समासवृत्तौ राज्ञः पुरुषः इति वाक्यं तदर्थबोधकम् । प्रत्यक्ष की अपेक्षा से आगम का अपौरुषेयत्व से बलत्व होता है।,"प्रत्यक्षापेक्षया आगमस्य एव बलवत्वम्‌, अपौरुषेयत्वात्‌।" यह उपलक्षण है।,उपलक्षणमेतत्‌। जो यह कहा गया है कि- समानजातीय अनेक कारण द्रव्य आकाश का नहीं है तो ऐसा भी नहीं है।,"यत्तूक्तं समानजातीयमनेकं कारणद्रव्यम्‌ आकाशस्य नास्तीति, तत्प्रत्युच्यते - न।" ऋक्‌ मन्त्रों में इन्द्र स्तुति में वीररस का अच्छी प्रकार से वर्णन किया।,ऋङ्गन्त्रेषु इन्द्रस्तुतौ वीररसस्य सम्यग्‌ अभिव्यक्तिः जाता। "नित्य, प्राकृत, नैमित्तिक तथा आत्यन्तिक । नित्यप्रलय सुषुप्ति होती है।","नित्यः, प्राकृतः ,नैमित्तिकः, आत्यन्तिकः चेति। नित्यप्रलयः नाम सुषुप्तिः।" ' वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन करने चाहिए।,वेदानाम्‌ रक्षार्थम्‌ व्याकरणस्य अध्ययनं करणीयम्‌। भलेही जीवन्मुक्त पुरुष साधारण जन के समान आचरण करता हे फिर भी उसमें अभिमान कहीं भी नहीं होता है।,यद्यपि जीवन्मुक्तपुरुषः साधारणजनः इव आचरणं करोति तथापि तस्य कुत्रापि अभिमानं न तिष्ठति। अभ्यस्तानामादिः इस सूत्र का क्या अर्थ है?,अभ्यस्तानामादिः इति सूत्रस्य कोऽर्थः? मछली ने मनु को कहा की शीघ्र ही जल प्रलय होने वाला है।,"मत्स्यः मनुम्‌ अवोचत्‌ यत्‌ "" यथाकालं तदौघः आगन्ता।" पवस्व - पू-धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में।,पवस्व- पू-धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने। तिङ्ङतिङः इस सूत्र का अर्थ लिखिए।,तिङ्ङतिङः इति सूत्रस्य अर्थं लिखत। कारणपद के द्वारा ब्रह्म में कर्तृत्व होता है इस प्रकार से यह कहा गया है।,कारणपदेन ब्रह्मणि कर्तृत्वम्‌ अस्ति इति निगदितम्‌। वह मेरा मन शुभसङ्कल्प वाला हो।,तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पं भवतु। “तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च'' इस सूत्र से विहित संख्यापूर्व तत्पुरुष समासः द्विगु संज्ञा प्राप्त होता है।,"""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन सूत्रेण विहितः संख्यापूर्वः तत्पुरुषसमासो द्विगुसंज्ञां लभते।" कहा गया -धन को प्राप्त हो।,उक्तं- धनं लभते। "न यह अव्ययपद है, अनुत्तमम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति है।","न इति अव्ययपदम्‌, अनुत्तमम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।" 36. “प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः'' यह तत्पुरुष का लक्षण है।,"३६. ""प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः"" इति तत्पुरुषसमासस्य लक्षणम्‌।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है चोरभयम्‌।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा चोरभयम्‌ इति। प्रत्ययः(1/1) यह अधिकार परश्च अधिकार और तद्धिताः यह अधिकार यहाँ आ रहा है।,प्रत्ययः (१/१) इति अधिकारः परश्च इति अधिकारः तद्धिताः इति अधिकारः च अत्र आगच्छति। सब कुछ यह ब्रह्म ही होता है समस्त संसार इसी से ही उत्पन्न हुआ है।,सर्वम्‌ इदं ब्रह्मणः एव समुत्पन्नम्‌। और पहले ब्रह्मजिज्ञासा होने पर बुद्धिगोचर के लिए सविशेष का प्रतिपादन करके अन्त में उसका निषेध किया जाता है।,तथा च प्रथमं ब्रह्मजिज्ञासायां बुद्धिगोचराय सविशेषमिति प्रतिपाद्य अन्ते तन्निषेधः क्रियते। "तीन पद वाले इस सूत्र में फिषः यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, उदात्तः यह भी प्रथमा एकवचनान्त पद है।","त्रिपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे फिषः इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, अन्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, उदात्तः इत्यपि प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" "गद्यभाग तो केवल वर्णन परक है, इस कारण यह भाग लगभग समाप्त जैसा हो गया है।","गद्यभागस्तु केवलवर्णनपरकः, अतः अयं भागः लुप्तप्रायो जातः।" इनके निर्देश के द्वारा इन्द्र ने व्याकरण की रचना की यह वर्णन प्रकट ही होता है।,एतैः निर्देशैः इन्द्रेण व्याकरणस्य रचना कृता इत्यस्य वर्णनं स्फुटम्‌ एव प्रतिभाति। खिल शब्द का क्या अर्थ है?,खिलशब्दस्य कः अर्थः। देहादिसङ्घात में आत्माभिमान अविद्यात्मक होता है।,देहादिसङ्घाते आत्माभिमानः अविद्यात्मकः। इस प्रकार का संशय होता है।,कुतः संशयः। अनक्षे यह निषेध यद्यपि युक्त तथापि अन्यों के साथ निषेध असम्भव से धुर्‌ से सम्बन्ध स्वीकृत किया जाता है।,अनक्षे इति निषेधः यद्यप्युक्तः तथापि अन्यैः सह निषेधासम्भवात्‌ धुर्‌ इत्यनेनैव सम्बन्धः स्वीक्रियते। "इस प्रकार यहाँ यकार से उत्तर अकार उदात्त है, आकार अनुदात्त है, और रुः का उकार उदात्त है।","एवमत्र यकारोत्तरः अकारः उदात्तः, आकारः अनुदात्तः, रुः इत्यत्र उकारः उदात्तः इति।" किसने चारो वर्ण का सृजन किया?,केन चत्वारः वर्णाः सृष्टाः इसलिए गुरु की आराधना करना चाहिए।,अतः गुरोः आराधना कर्तव्या। उदङ्मुख नमस्त इत्याध्याय से।,उदङ्गुखो नमस्त इत्याध्यायेन। 16.1 अब मूलपाठ को पढेंगे इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्नी।,१६.१ सम्प्रति मूलपाठं पठाम- इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकारं प्रथमानि वज्री। "सरलार्थः - शीघ्र ही मै विष्णु के शक्ति पूर्वक पराक्रमो का वर्णन करूँगा, जो महान गति सम्पन्न तीन पैरो के द्वारा जाकर के पार्थिव लोक आदि की रचना की।","सरलार्थः- शीघ्रमेव अहं विष्णोः वीर्यपूर्णकार्याणां वर्णनं करिष्यामि, यः महान्‌ गतिसम्पन्नः पादत्रयं गत्वा पार्थिवानि अमायत।" तो कहतें की अव्यक्तादिस्थावर आदि सभी लोकों का परीक्षण करना चाहिए।,अव्यक्तादिस्थावरान्ताः सर्वेऽपि परीक्षणीयाः। ( महाभा० १।२६५ ) मन्त्र ब्राह्मणात्मक का वेद के जिस अंश में प्राण विद्या का प्रतीक और उपासना के विषय में वर्णन है वह ही अंश आरण्यक है ऐसा कहते है।,(महाभा० १।२६५) मन्त्रब्राह्मणात्मकस्य वेदस्य यस्मिन्‌ अंशे प्राणविद्यायाः प्रतीकोपासनायाश्च विषये वर्णनमस्ति स एव अंशः आरण्यकमिति कथ्यते। सम्वर-अहि-वृत्र-अर्वुद-विश्वरूप आदि असुरों का इन्द्र ने नाश किया।,सम्वर-अहि-वृत्र-अर्वुद-विश्वरूपादीन्‌ असुरान्‌ इन्द्रः नाशितवान्‌। आकाशादि सृष्टि को जाना।,“तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः। वहाँ ङीप्प्रत्यय के पकार की इत संज्ञा होने से वह प्रत्यय पित्‌ होता है।,तत्र ङीप्प्रत्ययस्य पकारस्य इत्त्वात्‌ स प्रत्ययः पित्‌ भवति। योगात्मक मूल्याकन- वर्ष में दो बार (मार्च मास में और अक्टूबर मास में ) बाह्यपरीक्षा होगी।,समुच्चितं मूल्यायनम्‌ - वर्षे वारद्वयं (मार्चमासि अक्टोबरमासि च) बाह्यपरीक्षा भविष्यति। वैसे धीरा धीमन्तमेधा विद्यमान है जिसमे कर्मण्यण्‌ (पा०सू० ३.२.१)।,तथा धीराः धीमन्तः धीर्विद्यते येषां ते धीराः कर्मण्यण्‌ ( पा०सू० ३.२. १)। इसलिए वेदान्त एकान्तोपाय कहा जाता है।,अतः वेदान्तः एकान्तोपायः। चित्त का विषयाकार परिणाम ही चित्तवृत्ति होता हे।,चित्तस्य विषयाकारः परिणाम एव चित्तवृत्तिः। काठक संहिता के समान इसका मूल ग्रन्थ भी स्वराङकन पद्धति में ऋग्वेद के समान ही है।,काठकसंहितावत्‌ मूलग्रन्थस्य समानत्वेऽपि अस्याः स्वराङ्कनपद्धतिः ऋग्वेदसदृशी। मुझे देव अनेक स्थान पर रखते है।,मां देवाः बहुस्थाने स्थापयति। इसलिए जबतक चित्त में विक्षेप का कारण उपस्थित रहता है तब तक उपासना अर्थात्‌ एकाग्रता का प्रयास कष्टकारी होता है।,अतः चित्तस्य विक्षेपस्य कारणं यावद्‌ वर्तते तावद्‌ उपासना अर्थात्‌ एकाग्रतायाः प्रयासः कष्टाय कल्पेत। "उसके भेद के बिना ही उसके अतिरिक्त दुवर्चनीय कार्य विवर्त कहलाता है, इस प्रकार से यह विवर्त तथा परिणाम में विवेक होता है।",तदभेदं विना तद्व्यतिरिक्तेन दुर्वचं कार्यं विवर्त्त इति वा विवर्त्तपरिणामयोः विवेकः” इति। "तेन कृतं तकृतम्‌, तेन इति उससे तृतीयातत्पुरुष समास हुआ।","तेन कृतं तत्कृतम्‌, तेनेति तृतीयातत्पुरुषः।" "सरलार्थ - सास जुआ खेलने वाले की निन्दा करती है, एवं पत्नी उसे छोड़ देती है, यदि वह धन मागे तो उसे कोई धन नही देता है।",सरलार्थः- यः कितवः भवति तस्य श्वश्रूः तं द्वेष्टि। तस्य पत्नी अपि तम्‌ अपसारयति। धनं याचमानः कितवः सुखदं जनं न प्राप्नोति । "सिद्धान्तलेश सङ्ग्रह में कहा गया है कि “ब्रह्म का उपादानत्व अद्विती यक्कूटस्थ चैतन्य स्वरूप के न परमाणुओं की तरह ही आरम्भकत्व रूप वाले होते हैं, न की प्रकृति के समान परिणामित्व रूप वाले होते हैं।","सिद्धान्तलेशसङ्ग्रहे कथ्यते “ब्रह्मणश्च उपादानत्वम्‌ अद्वितीयकूटस्थचैतन्यरूपस्य न परमाणूनाम्‌ इव आरम्भकत्वरूपम्‌, न वा प्रकृतेरिव परिणामित्वरूपम्‌।" "इसके बाद “एकदेशविकृतमनन्यवद्‌'' इस परिभाषा से अधि हरि ङि यहाँ पर प्रातिपदिक संज्ञा वह अधिहरि यहाँ पर है। उससे प्रातिपदिक लेकर “स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङऱयोस्सुप”""स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्सुप्‌"" ' इस सूत्र से क्रम से खादय विभक्तियाँ प्राप्त होती हैं।","ततः ""एकदेशविकृतमनन्यवद्‌"" इति परिभाषया अधि हरि ङि इत्यत्र या प्रातिपदिकसंज्ञा सा अधिहरि इत्यत्र अव्याहता। तत्‌ प्रातिपदिकत्वम्‌ आदाय ""स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्सुप्‌"" इति सूत्रेण क्रमेण स्वादयः विभक्तयः प्राप्नुवन्ति।" "15. श्रवण मनन निदिध्यासन को जाना, श्रवण तात्पर्य में लिङ्गों को जाना वेदान्त में अधिकारी के विवेकी को उपस्थापित कीजिए।",१५. श्रवणं विशदयत। तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गानि व्याख्यात। मननं विवृणुत। निदिध्यासनं प्रकटनीयम्‌। श्रवणादिकं प्रतिबन्धकानि कानि। कथं वा तन्निवृत्तिः। १. वेदान्ते अधिकारिणो विवेकः उपस्थाप्यः। जैसे - ऋक्‌ मंत्रो में देव-स्तुति की प्रधानता है।,यथा- ऋङ्गन्त्रेषु देव-स्तुतीनां प्राध्यान्यम्‌ अस्ति। अक्षस्य धूः इस विग्रह में प्रक्रिया कार्य में अक्षधुर्‌ होने पर अनक्षे इससे अप्रत्यय नहीं होता है।,अक्षस्य धूः इति विग्रहे प्रक्रियाकार्य अक्षधुर्‌ इति जाते अनक्षे इत्यनेन न अप्रत्ययः। ब्राह्मण काल में याग का उतना प्रचार हुआ की उनका यथावत ज्ञान के लिए पूर्ण परिचय देने वाले ग्रन्थों कौ आवश्यकता अनुभव हुई।,ब्राह्मणकाले यागस्य तावान्‌ प्रचारो जातो यत्‌ तेषां यथावत्‌ ज्ञानाय पूर्णपरिचयप्रदायक-ग्रन्थानाम्‌ आवश्यकता अनुभूयते स्म। "इस वेद से सम्बद्ध जो उपनिषद्‌ है, वे किसी भी आरण्यक के अंश नहीं होकर प्रारम्भ से ही स्वतन्त्र ग्रन्थ रूप से विद्यमान है।","अनेन वेदेन सम्बद्धाः या उपनिषदः सन्ति, ताः कस्यापि आरण्यकस्यांशो न भूत्वा प्रारम्भादेव स्वतन्त्रग्रन्थरूपेण विद्यमानाः सन्ति।" इस सूत्र में सह शब्द का उल्लेख नहीं है।,सूत्रेऽस्मिन्‌ सहशब्दस्य उल्लेखः नास्ति। इसलिए यह ऐतरेय उपनिषद में कहा गया है- “यदेतद्धृदयं मनश्चौतत संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दुष्टिर्धृतिर्मतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः सङ्कल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति सर्वाण्येवेतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति” (3/1/2) इति।,अतः एव ऐतरेयोपनिषदि आम्नायते - “यदेतद्धृदयं मनश्चैतत्‌। संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिर्धृतिर्मतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः सङ्कल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति” (३/१/२) इति। "शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आदित्य यजु-शुक्ल यजुर्वेद के नाम से प्रसिद्ध है, और भी याज्ञवल्क्य आख्यान में - आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते' (श.ब्रा. १४/९/५/३३)।","शतपथब्राह्मणानुसारेण आदित्ययजुः शुक्लयजुर्वदनाम्ना विख्यातमस्ति, तथा च याज्ञवल्क्येन आख्यातम्‌ - 'आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते' (श.ब्रा. १४/९/५/३३)।" ऋग्वेद का प्रथम पद भी 'अग्निम्‌' यह है।,ऋग्वेदस्य प्रथमं पदमपि 'अग्निम्‌' इति अस्ति। विग्रह के दो भेदों में।,विग्रहस्य द्वौ भेदौ। और फिर अज्ञान भावरूप होता है।,पुनः च अज्ञानं भावरूपं भवति। गायों के आने के साथ गायों के पालक गोपाल भी सूर्यरूप रुद्र के साथ सृष्टि के परिवेश से आकृष्ट होकर के उस रुद्रदेव को देखते हैं।,गवां प्रत्यागमनेन साकम्‌ आगतः गवां पालकः गोपालः अपि सूर्यरूपेण रुद्रेण सृष्टस्य परिवेशेन आकृष्टं भूत्वा तं रुद्रदेवं पश्यति। "सरलार्थ - शक्तिशाली पासे जिस जुआरी के धन को लालच की दृष्टि से देखते है, उसकी व्याभिचारिणी पत्नी का दुसरे लोग स्पर्श करते है।","सरलार्थः - यस्य कितवस्य धने बलवान्‌ अक्षः इष्यते अन्यैः कितवैः, तस्य भार्याम्‌ अन्ये कितवाः वस्त्रकेशाद्याकर्षणेन स्पृशन्ति ।" यत्ते दिवो दुहितर्मर्त भोज॑नम्‌ सूत्र अर्थ का समन्वय- शुभस्प॑ती यह यहाँ पर उदाहरण है।,यत्तं दिवो दुहितर्मर्त भोज॑नम्‌। सूत्रार्थसमन्वयः- शुभस्प॑ती इति अत्र उदाहरणं वर्तते। राज्ञाम्‌ इष्यमाण यही अर्थ होता है।,राज्ञाम्‌ इष्यमाणः इत्यर्थः। "बधिया बैल के समान निर्बल पुरुष भी सांढ के समान बलवान पुरुष से मुकाबला करना चाहता है, अनेक स्थानों पर पछाड़ खाकर के परास्त होकर के भूमि पर गिर जाता है उसी प्रकार यह है।",वर्निः छिन्नमुष्कः पुरुषः वृष्णः रेतःसेचनसमर्थस्य पुरुषान्तरस्य प्रतिमानं सादृश्यं बुभूषन्‌ प्राप्तुमिच्छन्‌ यथा न शक्नोति तद्वदयमिति शेषः। अपने से अन्य को रमाये।,भवद्‌ रमयति। उपासना विद्यारूपी होती है।,उपासना विद्यारूपा। यहाँ यह भी जानना चाहिए कि इस सूत्र से विधीयमान समास संज्ञा उन दोनों सुबनतों के मध्य होता है जिन दोनों के मध्य एकार्थीभावसामर्थ्य है।,अत्रेदमपि बोध्यं यत्‌ अनेन सूत्रेण विधीयमाना समाससंज्ञा तयोः सुबन्तयोः भवति ययोः मध्ये एकार्थीभावसामर्थ्यम्‌ अस्ति। सूत्र का अवतरण- इस सूत्र से आरम्भ करके 'शकटिशकटयोरिति' सूत्र तक आदिः- इस पद के अधिकार के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- अस्मात्‌ सूत्रात्‌ आरभ्य शकटिशकटयोरिति सूत्रं यावत्‌ आदिः- इति पदस्य अधिकारार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। अर्थात्‌ ऐक्य शब्द से यहाँ पर केवल नीरक्षीर के समान गौण ऐक्य ही विवक्षित नहीं है।,अर्थात्‌ ऐक्यशब्देन अत्र नीरक्षीरवत्‌ गौणम्‌ ऐक्यं न विवक्षितम्‌। 10. करण अर्थ में।,१०. करणे। यह शब्द के द्वारा सभी को परामर्श देती है।,एतच्छब्देनोक्तं सर्वं परामृश्यते। इसलिए सुषुप्ति से युक्त पुरुष जीवन्मुक्त नहीं कहा गया है।,अतः जीवमुक्तः न सौषुप्तकः पुरुषः। “तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्‌'' इस सूत्र में संज्ञा के गुणभूतप्रमाणिता खण्ड के साथ समास दर्शन से होता है।,"""तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्‌"" इति सूत्रे संज्ञायाः गुणभूतप्रमाणत्वशब्देन सह समासदर्शनात्‌।" 9. कारीषगन्ध्या प्रयोग की सिद्धि प्रक्रिया लिखो?,९. कारीषगन्ध्या इति प्रयोगस्य सिद्धिप्रक्रियां लिखत। इस आरण्यक में ऋक्‌ मन्त्र उद्धृत है।,अस्मिन्‌ आरण्यके ऋङ्गन्त्राः उद्धृताः। नयते: क्रियासमभिहारे यङ हुआ।,नयतेः क्रियासमभिहारे यङ्। इस प्रकार से संशय होने पर अद्वेतवादी कहते हैं को प्रत्यक्षज्ञान केवल इन्द्रिय निर्भर नहीं होता है अपितु वह विषय निर्भर होता है।,एवं संशये सति अद्वैतिनः कथयन्ति प्रत्यक्षं न केवलम्‌ इन्द्रियनिर्भरशीलम्‌। अपि तु विषयनिर्भरशीलम्‌। और अव्ययीभावसामससंज्ञक शब्द नपुंसक होता है।,एवम्‌ अव्ययीभावसमाससंज्ञकः शब्दः नपुंसकं भवति। जो अच्छी प्रकार से अज्ञ है वह प्राज्ञ कहलाता है।,प्रकर्षेण अज्ञः इति प्राज्ञो भवति। क्या करने में “सुबामन्त्रिते पराङगवत्स्वरे' यह सूत्र प्रवृत्त होता है?,कस्मिन्‌ कर्तव्ये 'सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे' इति सूत्रं प्रवर्तते ? जहाँ जिसका विग्रह नहीं है वह अविग्रह है।,तत्र नास्ति विग्रहो यस्य सः अविग्रहः। चौथे दिन निरूठ पशुबन्ध याग की प्रक्रिया के अनुसार अग्नि और सोम को उद्देय करके एक पशुयाग किया जाता है।,चतुर्थदिवसे निरूठपशुबन्धयागस्य प्रक्रियानुसारम्‌ अग्निं सोमं च उद्दिश्य एकः पशुयागः विधीयते। तृष्णा के क्षय के द्वारा जो सुख प्राप्त होता है वह सुख इहलौकिक तथा पारलौकिक वस्तुओं के भोगों के द्वारा भी प्राप्त नहीं होता है।,तृष्णाक्षयेण यत्‌ सुखं लभ्यते इहलोकस्थानां परलोकस्थानां च वस्तूनां भोगेनापि तत्‌ सुखं न लब्धुं शक्यते। उद्गाता का भी सम्बन्ध प्रजापति के साथ ही है।,उद्गातुरपि सम्बन्धः प्रजापतिना सह एव अस्ति। चक्षाथे - चक्ष्‌-धातु से लट्‌-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में चक्षाथे रूप बना।,चक्षाथे- चक्ष्‌-धातोः लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने चक्षाथे इति रूपम्‌। यहाँ पर ही कहे विषय इस के बाद में प्रतिपादनीय है।,अत्रोक्ता एव विषया इतः परं प्रतिपादनीयाः सन्ति। धापय - धा-धातु से णिच लोट्‌-लकार मध्यमपुरुष एकवचन का यह रूप है।,धापय - धा-धातोः णिचि लोट्-लकारस्य मध्यमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌ इदम्‌। सोमर रस ही सरोम याग की प्रधान आहुति है।,सोमरसः एव सोमयागस्य प्रधानम्‌ आहुतिः। इसी प्रकार हि शब्द से युक्त परस्पर साकाङ्क्ष अनेक तिङन्त पदों को अनुदात्त नहीं होता है वेद में यह इस सूत्र का अर्थ हुआ।,एवञ्च हिशब्दयुक्तं परस्परसाकाङ्कम्‌ अनेकमपि तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति वेदे इति सूत्रार्थः जायते। उस मछली के शृङ्ग पर उस निष्पादित नाव को पाश से (प्रतिमुमोच) बाँध लिया।,तस्य मत्स्यस्य शृङ्गे भवितव्यतयैव निष्पादिते नावः पाशं ( प्रतिमुमोच ) प्रतिबद्धवान्‌। (क) शम (ख) विवेक (ग) प्रयोजन (घ) वैरण्ग्य 5 इन अनुबन्धों में सबसे अन्यतम क्या हे?,(क) शमः (ख) विवेकः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) वैराग्यम्‌ 5. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः। जो उद्गाता गाता है वह ही उपद्रव है।,यत्‌ उद्गाता गायति तदेव उपद्रवः। अज्ञान तो हमेशा ब्रह्म में ही रुकता है।,अज्ञानं तु सर्वदा ब्रह्मणि एव तिष्ठति। इन्द्रऋषभा इसका विग्रह और समास लिखो। अस्वप्नाः इसका क्या अर्थ हे?,इन्द्रऋषभा इत्यस्य विग्रहं समासं च लिखत। अस्वप्नाः इत्यस्य कः अर्थः? विज्ञानमय के समान ही उदय तथा अस्तमय कौन नहीं होता है?,"विज्ञानमयवत्‌ उदयः अस्तमयो वा नास्ति, कस्य?" महान्तं कोशामुर्द॑चा नि षिञ्च स्यन्द॑न्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌। घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भ॑वत्वघ्न्याभ्यः॥,महान्तं कोशमुद॑चा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌ । घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्व॒घ्न्याभ्यः ॥ ८ ॥ क्योंकि विषय ज्ञानहीन अधिकारी की शास्त्र में प्रवृत्त असम्भव होती है।,यतो हि विषयज्ञानहीनस्य अधिकारिणः शास्त्रे प्रवृत्तिः असम्भवा भवति। इस दृष्टान्त में वस्तु रज्जु होती है।,दृष्टान्ते वस्तु आसीत्‌ रज्जुः। "जिस प्रकाश वैद्य लोगों को देखकर उनके रोग आदि के विषय में चिंतन करता है, चोर धनकोष के विषय में चिंतन करता हैं , व्यापारी क्रेताओं को देखता हैं उसी प्रकार जगत को दार्शनिक रूप से देखने में समर्थ हो ।",यथा वैद्यः जनं दृष्ट्वा तस्य रोगादिकं चिन्तयति| चौरः वित्तकाषादिकं चिन्तयति। वणिक्‌ क्रेतारम्‌ पश्यति। तथा जगतः दार्शनिकरूपेण दर्शने समर्थो भवेत्‌। अश्नवत्‌ यह रूप किस धातु और किस लकार में है?,अश्नवत्‌ इति रूपं कस्य धातोः कस्मिन्‌ लकारे च विद्यते? इसका समाधान बताया गया है कि सूत्र में तदर्थशब्द से जहाँ प्रकृति विकृति भाव हो वहीं पर ही समास की प्रसक्ति होती हैं दूसरी जगह नहीं।,अत्र समाधानमुच्यते यत्‌ सूत्रे तदर्थशब्देन यत्र प्रकृतिविकृतिभावस्तत्रैव समासस्यास्य प्रसक्तिनन्यत्र। और सूत्र का अर्थ होता है।,एवं च सूत्रार्थः भवति| उसके बाद संचितकर्मों में जो कर्म फलोन्मुख होते है।,ततः परं संचितेषु कर्मसु यत्‌ कर्म फलोन्मुखं भवति। "परन्तु, अक्षक्रीडा के बाद वह ही अनुकूल स्त्री परित्यक्ता होती है।","परन्तु, अक्षक्रीडनात्‌ परं सैव अनुकूला स्त्री परित्यक्ता भवति ।" ब्रह्मसाक्षात्कार के कारण से अशेष मोक्ष ही आत्यन्तिक प्रलय कहलाता है।,ब्रह्मसाक्षात्कारकारणात्‌ अशेषमोक्षः एव आत्यन्तिकः प्रलयः। इस प्रकार से ज्ञान स्थल में यह तीन पुट हमेशा होते हैं।,एवं ज्ञानस्थले एतत्‌ पुटत्रयं सुतरां तिष्ठति। उस के द्वारा उदात्त स्वरित दोनों ही स्वर सुने जाते है।,तेन उदात्तस्वरितौ उभावपि स्वरौ श्रूयेते इति शम्‌। वा ग्रहण से ही सिद्ध सूत्र होने पर बहुल ग्रहण से सर्व उपव्यभिचार या अभिव्यभिचार है।,वाग्रहणेनैव सिद्धे सूत्रे बहुलग्रहणात्‌ सर्वोपाधिव्यभिचारः । अनुदात्ते पदादौ उदात्तेन एकादेश स्वरितो वा इस प्रकार की पद योजना है।,अनुदात्ते पदादौ उदात्तेन एकादेश स्वरितो वा इति पदयोजना। "उपनिषद्‌ में रस, गुण, अलङ्कार आदि से गुम्फित शब्द राशि के द्वारा ब्रह्मतत्त्व का प्रतिपादन किया जाता है।",उपनिषदि रस-गुण-अलङ्कारादिभिः गुम्फितैः शब्दराशिभिः ब्रह्मतत्त्वं प्रतिपादितम्‌। पदपाठ - त्वत्‌।,पदपाठः- त्वत्‌। "यहाँ दीर्घात्‌ यह पद अष्टनः इसका विशेषण है, तदन्त विधि से यहाँ दीर्घान्त अष्टन्‌ से यह अर्थ प्राप्त होता है।",अत्र दीर्घात्‌ इति पदम्‌ अष्टनः इत्यस्य विशेषणम्‌ तदन्तविधिना अत्र दीर्घान्तात्‌ अष्टनः इति अर्थः लभ्यते। प्रथमानिर्दिष्टं समास होने पर संज्ञदल और उपसर्जन संज्ञापद है।,"प्रथमानिर्दिष्टं समासे इति संज्ञिदलम्‌, उपसर्जनम्‌ इति च संज्ञापदम्‌।" मेरे सम्बन्धियो में भोगार्थियो में और यज्ञ कर्ताओं को मनचाह फल देने की अनुकम्पा करे अथवा कल्याण करो।,मे मम संबंधिषु भोजेषु भोक्तृषु भोगार्थिषु यज्वसु कृतयज्ञेषु इदमुदितमुक्तं प्रियं कृधि कुरु। असुरों की परिभाषा का निर्देश करते हुए वेद का वचन है - “ते असुरा अयज्ञा अदक्षिणा अनक्षत्राः।,असुराणां परिभाषां निर्दिशन्त्याः श्रुतेः वचनम्‌- ` ते असुरा अयज्ञा अदक्षिणा अनक्षत्राः। तथा त्याग से अध्यास के त्याग का ग्रहण किया गया है।,त्यागो हि अध्यासस्य त्यागः। "और वे क्रमशः इठिमिका, माध्यमिका, ओरमिका, याज्यानुवाक्या, अश्वमेधाद्यनुवचन नामों से विख्यात है।",ते च क्रमशः इठिमिका-माध्यमिका-ओरमिका- याज्यानुवाक्या-अश्वमेधाद्यनुवचननामभिः ख्याताः सन्ति। तत्पुरुषसमास में “समासान्ताः'' इससे अधिकृत कुछ समासान्त प्रत्ययों का विधान किये जाते हैं।,"तत्पुरुषसमासे ""समासान्ताः"" इत्यधिकृत्य केचन समासान्ताः प्रत्यया विधीयन्ते ।" ञ प्रत्यय का ञकार का “चुटू'' इससे संज्ञा होने पर ““तस्यलोपऽ” इससे लोप होने पर पूर्वशाला अ होता है।,"ञप्रत्ययस्य ञकारस्य ""चुटू"" इत्यनेनेत्संज्ञायां ""तस्य लोपः"" इत्यनेन लोपे पूर्वशाला अ इति भवति ।" आश्वलायन शाखा के प्रमाण कहाँ प्राप्त होते है?,आश्वालायनशाखायाः प्रमाणं कुतः प्राप्यते? तथा भविष्य में भी होगी वह वस्तु नित्य कहलाती है।,भविष्यत्काले अपि भविष्यति तत्‌ नित्यं वस्तु। परन्तु यदि किम्‌ सर्वनाम का ही रूप है कः तो यह किं शब्द है।,परन्तु यदि किम्‌ इति सर्वनाम्नः एव रूपम्‌ कः इति तर्हि असौ किंशब्दः। सञ्चित प्रारब्ध तथा क्रियमाण।,सञ्चितप्रारब्धक्रियमाणभेदात्‌। और वहा एक हजार किरने रहती है।,यत्र च सहस्ररश्मयः मिथः अवतिष्ठन्ते। विवेकानन्द के दर्शनानुसार सेवा भाव का वर्णन कीजिए।,विवेकानन्ददर्शनानुसारेण सेवाभावं पर्यालोचयत। "समान अधिकरण वाले आमन्त्रित पद परे हो तो उससे पूर्ववाला आमन्त्रित पद अविद्यमान नहीं होता, किन्तु विद्यमान होता है यह उस सूत्र का अर्थ है।",आमन्त्रितान्ते समानाधिकरणे पदे परे पूर्वम्‌ आमन्त्रितान्तं सामान्यवचनं पदम्‌ अविद्यमानवद्‌ न भवति इति तस्य सूत्रस्य अर्थः। इन्द्रियमन अहङकार आदि उपाधियों के द्वारा अलग अलग अवच्छिन्न आत्मा ही जीव कहलाती है।,इन्द्रियमनोऽहंकाराद्युपाधिभिः पृथक्‌ पृथक्‌ अविच्छिन्नः आत्मैव जीवः। विवेकानन्द के विषय में लघु विवरण दीजिए।,विवेकानन्दविषये लघुविवरणं दीयताम्‌। सरलार्थ - मद से युक्त वृत्र ने अनेक गुणों से सम्पन्न वीर अनेक शत्रुओं को मारने वाले इन्द्र को अकुशल योद्धा के समान ललकारा।,सरलार्थः- दर्पयुक्तः वृत्रः महद्गुणसम्पन्नं वीरं बहुशत्रुघातकं असमर्थम्‌ इव युद्धे आहूतवान्‌। यहाँ षष्ठयन्त रूप राज्ञाम्‌ का सुबन्त के मतः सुबन्त के साथ प्राप्त षष्ठी समास प्रकृतसूत्र से निषेध होता है।,अत्र षष्ठ्यन्तस्य राज्ञाम्‌ इत्यस्य सुबन्तस्य मतः इति सुबन्तेन सह प्राप्तः षष्ठीसमासः प्रकृतसूत्रेण निषिध्यते। "अर्थात्‌ जो दान करता है, जो चमकता है और जो अन्य को प्रकाशित करता है वह देव है।","अर्थात्‌ यः दानं करोति, यः द्योतते, यः द्योतयति च सः देवः इति।" मुण्डक उपनिषद्‌ में उपनिषदों की संख्या निम्न रूप से वर्णित है - “ईश-केन-कठ-प्रश्‍न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरिः।,मुण्डकोपनिषदि उपनिषदां संख्या निम्नरूपेण वर्णितास्ति- “ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरिः। सूअर उस आहुति को स्वीकार करता है।,शूकरः तामाहुतिं स्वीकरोति। ( ६.१.२२३ ) सूत्र का अर्थ- समास का अन्त उदात्त होता है।,(६.१.२२३) सूत्रार्थः- समासस्य अन्तः उदात्तः भवति। वहाँ पूर्व के समान इस अभ्यास संज्ञा में 'हस्व:' इससे अभ्यास के अच्‌ को हस्व करने पर और उसके बाद जश्त्व करने पर दधा सिप्‌ इस स्थिति में सिप्‌ के पित्‌ होने से अनुदात्तौ सुप्पितौ इससे सकार से उत्तर इकार की अनुदात्त संज्ञा होती है।,ततः पूर्ववत्‌ अस्य अभ्याससंज्ञायां 'हस्वः' इत्यनेन अभ्यासस्य अचः ह्रस्वे ततः जश्त्वे च दधा सिप्‌ इति स्थिते सिपः पित्त्वात्‌ अनुदात्तौ सुप्पितौ इत्यनेन सकारोत्तरः इकारः अनुदात्तसंज्ञकः। ब्रह्म कर्म का प्रतिपादन करने से अथर्ववेद 'ब्रह्मवेद' कहलाता है।,ब्रह्मकर्मणः प्रतिपादकत्वेनार्ववेदः 'ब्रह्मवेदः' कथ्यते। मन कल्पित संसार की वास्तविकता नहीं होती हे स्वप्न के समान ही।,मनःकल्पितस्य संसारस्य वास्तविकता नास्ति स्वप्नवत्‌। इस प्रकार की ऋचाओं की प्रजापति ने रचना की' (शत.ब्रा. १०/४/२/२/२३) ।,एतावस्तौ ह्यर्चीयाः प्रजापतिसृष्टाः' (शत.ब्रा. १०/४/२/२/२३)। विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यार्थभावाऽल्ययाऽसम्प्रति-शब्दप्रादुर्भाव-पश्चाद्यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्याऽन्तवचनेषु यही सप्तमी बहुवचनान्त पद है।,विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावाऽत्ययाऽसम्प्रति- शब्दप्रादुर्भाव-पश्चाद्यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य-सम्पत्ति-साकल्याऽन्तवचनेषु इति सप्तमीबहुवचनान्तं पदम्‌। देवताओं का द्वन्द्व देवता हठन्द्व उसमें देवता द्वन्द्व में यहाँ पर षष्ठीतत्पुरुष समास है।,देवतानां द्वन्द्वः देवताद्वन्द्वः तस्मिन्‌ देवताद्वन्द्वे इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। "वेदांत का जगत में प्रचार - प्रसार का कार्य जिसने किया जिसके परिश्रम से भारतीय ज्ञान का गौरव जगत में विद्यमान है उन स्वामी विवेकानंद के मत क्या है इस विषय में, वह एक पाठ अंत में संलग्न है।",वेदान्तस्य जगति प्रचारस्य प्रमुखं कार्यं येन कृतं यद्वशाद्‌ भारतीयज्ञानस्य गौरवं जगति वर्तते तस्य स्वामिनो विवेकानन्दस्य मतं किमिति विषये एकः अन्ते योजितः अस्ति। कोशों में अभिमान से स्वयं जीव उस उस कोश को मानता है।,कोशेषु अभिमानात्‌ स्वयं जीवः तत्तत्कोश इति मनुते। अब्राह्मणः यहाँ नञ्‌ के नकार का लोप किस सूत्र से होता है?,अब्राह्मणः इत्यत्र नञः नकारस्य लोपः केन सूत्रेण ? दुहाम्‌ - दुह्धातु से लोट्‌-लकार प्रथमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,दुहाम्‌ - दुह्‌-धातोः लोट्‌-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने वैदिकं रूपम्‌। "11.5.3 ) सामानाधिकरण्य सम्बन्ध वह यह देवदत्त है, इस वाक्य में तत्कालविशिष्ट देवदत्तवाचक तत्‌ पद का अर्थात्‌ 'सः' (वह)इस पद का, फिर एतत्‌ विशिष्ट देवदत्तवाचक ` अयम्‌' ( यह) इस पद का एकदेवदत्तरूप पिण्ड में ही तात्पर्यसम्बन्ध है।","२०.५.३) सामानाधिकरण्यसम्बन्धः- 'सोऽयं देवदत्तः” इत्यस्मिन्‌ वाक्ये तत्कालविशिष्टस्य देवदत्तवाचकस्य तत्पदस्य अर्थात्‌ 'स' इति पदस्य, पुनः च एतत्कालविशिष्टस्य देवदत्तवाचकस्य अयम्‌“ इति पदस्य एकस्मिन्‌ देवदत्तरूपपिण्डे एव तात्पर्यसम्बन्धः।" इस प्रकार इस पाठ में हम छः मन्त्रों को पढेंगे।,एवम्‌ अस्मिन्‌ पाठे वयं षट्‌ मन्त्रान्‌ पठिष्यामः। ये घटादि वस्तुतः मृत्तिका ही होते हैं।,एते गृहघटादयः वस्तुतस्तु मृत्तिका एव। यहाँ कारणात्मब्रह्म पुरुष पर स्थित होने का प्रसंग है।,इत्यत्र कारणात्मनि ब्रह्मणि पुरुषे तस्थुः। गवामयन याग सोमयाग के अन्तर्गत आता है अतः सोमयाग की प्रकृति अग्निष्टोम है।,"गवामयनयागः सोमयागस्य अन्तर्गतः, अतः सोमयागस्य प्रकृतिः अग्निष्टोमः।" "उदाहरणः-अजा, खट्वा।",उदाहरणम्‌ - अजा। खट्वा। देवों में यह निकटतम हैं (अग्निर्वै देवानामवमः)।,देवेषु अयं निकटतमः (अग्निर्वै देवानामवमः)। टच्‌ के टकार का और “चुटू” इस चकार का “हलन्त्यम्‌” यह इत्संज्ञा होने पर ““तस्यलोपः'' यह लोप होने पर उपशरद्‌ अ होता है।,"टचः टकारस्य ""चुटू"" इत्यनेन चकारस्य च ""हलन्त्यम्‌"" इत्यनेन इत्संज्ञायां ""तस्य लोपः"" इत्यनेन लोपे उपशरद्‌ अ इति भवति।" "(गीता 5.11) काया के द्वारा, मन के द्वारा तथा बुद्धि के द्वारा ममत्ववर्जित केवल ईश्वर के लिए ही कर्म करता हूँ न की स्वयं के फल के लिए।","(गीता ५.११) कायेन देहेन मनसा बुद्ध्या च केवलैः ममत्ववर्जितैः ईश्वरायैव कर्म करोमि, न मम फलाय” इति ।" "अर्थात्‌ कार्तकौजपादि शब्दों के मध्य में जो द्वन्द्व समास सिद्ध है, उनमें पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।",अर्थात्‌ कार्तकौजपादिशब्दानां मध्ये ये द्वन्द्वसमासनिष्पन्नाः तेषां पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति इत्यर्थः। उसके समीप में सुख तथा दुःख दोनों ही समान होते हैं।,तस्य समीपे सुखं दुःखम्‌ उभयम्‌ अपि समानम्‌। बहुलग्रहण सामर्थ्य से यहाँ सप्तमी होने पर नित्य अमादेश होता है।,बहुलग्रहणसामर्थ्यात्‌ अत्र सप्तम्यां नित्यः अमादेशो भवति। शुक्लयजुर्वेद के ब्राह्मण का नाम शतपथब्राह्मण है।,शुक्लयजुर्वेदस्य ब्राह्मणस्य नाम शतपथब्राह्मणम्‌ इति। स्वपदविग्रह और अस्वपर विग्रह इस भेद से भी विग्रह दो प्रकार होता है।,स्वपदविग्रहः अस्वपदविग्रहः इति भेदेनापि विग्रहः द्विविधः। "इसलिए ही इस धातु के इदित्‌ होने से अङऱगेर्नलोपश्च इस सूत्र से अगि धातु से परे प्रकृत सूत्र से नि प्रत्यय करने पर अग्‌ नि इस स्थिति में सभी का संयोग करने पर अग्नि इस स्थित्ति में शब्द स्वरूप के कृदन्त होने से कृत्तद्धितसमासाश्च इससे उसकी प्रातिपदिक संज्ञा होने पर, और उसके बाद डऱयाप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इसने अधिकार में वर्तमान से स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसांडऱयोस्सुप्‌ इस सूत्र से खाले कपोत न्याय से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों की प्राप्ति में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय करने पर अनुनासिक होने से पाणिनीय की प्रतिज्ञा से उस उकार की उपदेशेऽजनुनासिक: इत्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः इस सूत्र से इत्‌ संज्ञक उकार का लोप होने पर अग्नि स्‌ इस स्थित्ति में संयोग करने पर अग्निस्‌ इस शब्द स्वरूप के सुबन्त होने से उस सकार के स्थान में ससजुषोः रु: इससे आदेश होने पर रु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इससे इत्‌ संज्ञा में लोप करने पर अग्नि र्‌ इस स्थित्ति में रेफ उच्चारण से परे वर्ण अभाव के कारण विरामोऽवसानम्‌ इस सूत्र से अवसान संज्ञा होने पर उससे पूर्व रेफ के स्थान में खरवसानयोर्विसर्जनीयः इस सूत्र से रेफ के स्थान में विसर्ग करने पर अग्नि: यह सुबन्त रूप सिद्ध होता है।","अत एव धातोरस्य इदित्त्वात्‌ अङ्गेर्नलोपश्च इति सूत्रेण अगिधातोः परं प्रकृतसूत्रेण निप्रत्यये अग्‌ नि इति स्थिते सर्वसंयोगे अग्नि इति स्थिते शब्दस्वरूपस्य कृदन्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इत्यनेन तस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ततश्च ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण खले कपोतन्यायेन एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमैकवचनविवक्षायां सुप्रत्यये अनुनासिकत्वेन पाणिनीयैः प्रतिज्ञातस्य उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिकः इत्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण इत्संज्ञकस्य उकारस्य लोपे अग्नि स्‌ इति स्थिते संयोगे निष्पन्नस्य अग्निस्‌ इति शब्दस्वरूपस्य सुबन्तत्वात्‌ तदन्तस्य सकारस्य स्थाने ससजुषोः रुः इति आदेशे रोः उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति इत्संज्ञायां लोपे च कृते अग्नि र्‌ इति स्थिते रेफोच्चारणात्‌ परस्य वर्णाभावस्य विरामोऽवसानम्‌ इति सूत्रेण अवसानसंज्ञायां तत्परकत्वात्‌ पूर्वस्य रेफस्य स्थाने खरवसानयोर्विसर्जनीयः इति सूत्रेण रेफस्य स्थाने विसर्गे अग्निः इति सुबन्तं रूपं सिद्ध्यति।" पृच्छमानः - प्रच्छ्‌-धातु से शानच् प्रथमा एकवचन में।,पृच्छमानः - प्रच्छ्‌ - धातोः शानचि प्रथमैकवचने । जिस लोक में ब्रह्मज्ञान होता है वहाँ पर ही उसका मोक्ष हो जाता है।,"यस्मिन्‌ लोके ब्रह्मज्ञानं भवति, तत्रैव तस्य मोक्षो भवति।" 7. शृ-धातु से उप्रत्यय करने पर शरुः यह चतुर्थी एकवचन में हुआ।,7. शृ-धातोः उप्रत्यये शरुः इति जाते चतुर्थ्यकवचने। आप अब जल को पूर्णरूप से रोक लो।,भवान्‌ यत्‌ पूर्णरूपेण रोधं करोतु । 1 “तत्त्वमसि” यह महावाक्य है।,१. “तत्त्वमसि” इति महावाक्यम्‌। इसलिए बृहदारण्यक आदि ग्रन्थ को उपनिषद्‌ इस शब्द से भी प्रयोग किया जाता है।,अतो बृहदारण्यकादिग्रन्थाः उपनिषदिति शब्देन अपि व्यवह्नियन्ते। "सरलार्थ - (हे स्तोता) सामने जाकर बलवान पर्जन्य को अपना अभिप्राय ठीक से बताओ, स्तुति वचनो से उनकी प्रशंसा करो एवं हव्य अन्न द्वारा उनकी सेवा करो, गर्जन शब्द करने वाले, वर्षा कारक एवं शीघ्र दान करने वाले पर्जन्य ओषधियों में गर्भ धारण करते है।","सरलार्थः - ( हे स्तोतः ) आभिः स्तुतिभिः बलशालिनः प्रार्थनां कुरु। हविषा स्तुतिं कुरु तथा सर्वथा सेवां कुरु । शीघ्रं यच्छत्सु , वर्षनकारकेषु , गर्जनं कुर्वत्सु ओषधिषु गर्भस्वरूपं जलं धारयति ।" कपर्दिनः - उग्र कपर्दी श्रीकण्ठ शितिकण्ठः कपालभृत्‌ इत्यमरः।,कपर्दिनः- उग्रः कपर्दी श्रीकण्ठः शितिकण्ठः कपालभृत्‌ इत्यमरः। आयुष्य सूक्तों में दीर्घायु के लिए प्रार्थना की है।,आयुष्यसूक्तेषु दीर्घायुषः कृते प्रार्थना विहिता। "सरलार्थ - जिस पृथ्वी पर पूर्वजों ने अनेक कर्म किये, जिस पृथ्वी पर देवों ने असुरों को पराजित किया, जिस पृथ्वी ने गाय आदि को अनेक प्रकार का आश्रय स्थान दिया, वह पृथ्वी हमारे लिए ऐश्वर्य और तेज दे।","सरलार्थः- यस्यां पृथिव्यां पूर्वजाः विविधकर्माणि अकुर्वन्‌, यस्यां पृथिव्यां देवाः असुरान्‌ पराजीतवन्तः, या पृथिवी गवादीनां विचित्रम्‌ आश्रयस्थानम्‌, सा पृथिवी अस्मभ्यम्‌ ऐश्वर्यं तेजश्च प्रयच्छतु।" वैदिक मन्त्रों में अनेक रस प्रकट होते है।,वैदिकमन्त्रेषु विविधरसाः स्फुटाः वर्तन्ते। गीता कैसे दूसरा प्रस्थान है यह निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट होता है - “सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।,कथं गीता द्वितीयप्रस्थानम्‌ इति अधःस्थितेन श्लोकेन स्पष्टं भवति- “सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः। पशु इस याग का आहूतिद्रव्य है।,पशुः अस्य यागस्य आहूतिद्रव्यम्‌। "अवभृथ-इष्टी में सभी आहुतियाँ जल में ही दी जाती हैं, न की अग्नि में।","अवभृथ-इष्टौ सर्वाः आहुतयः एव जले दीयन्ते, न तु अग्नै।" "और सूत्रार्थ होता है “ तद्धितप्रत्ययार्थ विषय में और उत्तरपद में परे और समाहार में वाच्य में दिशावाची और संख्यावाची सुबन्त को समानाधिकरण से सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।","एवं च सूत्रार्थः भवति - ""तद्धितप्रत्ययार्थ विषये, उत्तरपदे च परे, समाहारे च वाच्ये दिशावाचि तथा संख्यावाचि सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह वा समस्यते, स तत्पुरुषसंज्ञको भवति"" इति।" "इस सूत्र में दो पद है, यद्वृत्तात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।",द्विपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे यद्वृत्तात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। सुषुप्तिस्थान एकीभूत प्रज्ञानघन चेतोमुख प्राज्ञस्तृतीय इस प्रकार से आनन्दभुक्‌ माण्डुक्योपनिषद्‌ में कहा गया है।,सुषुप्तस्थानः एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दभुक्‌ चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः इति माण्डूक्ये अस्ति। ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्निसूक्त है।,ऋग्वेदस्य प्रथमं सूक्तम्‌ अग्निसूक्तम्‌। "असत्‌ - अत्र लेट्लकार, अतः लेटोडाटौ इससे अडागम, इलोप होता है।","असत्‌- अत्र लेट्लकारः, अतः लेटोडाटौ इत्यनेन अडागमः, इलोपः।" वेदों के पाठ गुरु परम्परा के अनुसार स्वर सहित करते है।,वेदानां पाठः गुरुपरम्परानुसारं सस्वरं क्रियते। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - वृषादिगण में पढ़े हुए शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति वृषादिगणे पठितानां शब्दानाम्‌ आदिस्वरः उदात्तः भवति। ( 8.7 ) “नञस्तत्पुरुषात्‌ ' ( 5.4.69 ) सूत्रार्थ-नञ्‌ तत्पुरुष समास से समासान्त नहीं होते हैं।,"(८.७) ""नञस्तत्पुरुषात्‌' (५.४.७१) सूत्रार्थः - नञ्तत्पुरुषसमासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति।" अपववार - अपपूर्वक वृ-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,अपववार - अपपूर्वकात्‌ वृ-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। "अपृतन्यत्‌ -पृतना शब्द से क्यच्प्रत्यय करने पर पृतन्य यह होता है, उसी का लङः प्रथमपुरुष एकवचन में रूप हे।",अपृतन्यत्‌ - पृतनाशब्दात्‌ क्यच्प्रत्यये पृतन्य इति जाते लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। इस मत निर्देश से वेदार्थ अनुशीलन के इतिहास के ऊपर विशिष्ट रूप से बल दिया गया है।,अनेन मतनिर्देशेन वेदार्थानुशीलनस्य इतिहासस्य उपरि विशिष्टरूपेण प्रकाशः प्रसरति। समासः इस अव्ययीभाव में दो पद अधिकृत किया गया है।,समासः इति अव्ययीभावः इति च पदद्वयमधिकृतम्‌। इसलिए यहाँ पर पर्जन्यदेव को उद्देश्य करके विविध प्रार्थना का उच्चारण करते हैं।,एतदनन्तरम्‌ अत्र पर्जन्यदेवम्‌ उद्दिश्य विविधाः प्रार्थनाः उच्चार्यन्ते । यूप शब्द आद्युदात्त होता है।,यूपशब्दः आद्युदात्तः। "यह ही अग्नि होम को पूर्ण करती है, क्रान्तप्रज्ञा वाली झूठ से रहित विविधकीर्ति से युक्त ऐसी कीर्ति है।",अयमेव अग्निः होमनिष्पादकः क्रान्तप्रज्ञः अनृतरहितः विविधकीर्तियुक्तः इति कीर्तितः। उसका अर्थ ही अधिकरण (आधार) है।,तदर्थः अधिकरणम्‌। उसी प्रकार जाग्रत्प्रपज्च भी स्वप्न के समान ही देखना चाहिए।,एवं जाग्रत्प्रपञ्च अपि स्वप्नतुल्यो द्रष्टव्यः। "गत्यर्थः चासौ लोट्‌ च इति गत्यर्थलोट्‌, तेन गत्यर्थलोटा यहाँ कर्मधारय समास है।","गत्यर्थः चासौ लोट्‌ च इति गत्यर्थलोट्‌, तेन गत्यर्थलोटा इति कर्मधारयसमासः।" उपनिषद्‌-शब्द कौ व्युत्पत्ति को लिखिए?,उपनिषद्‌-शब्दस्य व्युत्पत्तिं लिखत? मृत्यु सत्य होने पर इन्द्रियाँ सूक्ष्म शरीर के साथ नये देह में चली जाती है।,"मृत्यौ सत्याम्‌ इन्द्रियाणि सूक्ष्मशरीरावयवतया उत्क्रान्तानि भवन्ति, नूतनदेहं प्रति गच्छन्ति।" व्याख्या - इस कल्पिक यज्ञ की गायत्र्यादी सप्त छन्द परिधियाँ थी।,व्याख्या- अस्य साङ्कल्पिकयज्ञस्य गायत्र्यादीनि सप्त छन्दांसि परिधयः आसन्‌। इसका यह अर्थ है की जब निर्विकल्प अद्वैत की आत्मा का ज्ञान होता है तब ही अज्ञानरूपहृदयग्रन्थी का निःशेष विलय होता है।,अत्रार्थी हि - यदा निर्विकल्पकसमाधिना अद्वैतस्य आत्मनः ज्ञानं भवति तदा एव अज्ञानरूपहृदयग्रन्थीनां निःशेषं विलयो भवति इति। रुद्र का बाण किसके लिए है?,रुद्रस्य शरीरं कीदृशम्‌? पर्वतो की संबन्धि प्रवहणशीला नदियों को दो तटो द्वारा प्रवाहित किया।,पर्वतानां संबन्धिनीः प्रवहणशीलाः नदीः कूलद्वयकर्षणेन प्रवाहितवान्‌। सत्र और गवामयन के मध्य श्रेणी विन्यास पर्यालोचना की जाती है।,सत्रगवामयनयोः मध्ये श्रेणीविन्यासस्य पर्यालोचना क्रियते। शब्द प्रादुर्भाव नाम शब्द का नाम प्रादुर्भावः प्रसिद्ध है।,शब्दप्रादुर्भावः नाम शब्दस्य नाम्नः प्रादुर्भावः प्रसिद्धिः। 1.सञ्चित्‌ तथा प्रारब्ध किसे कहते हैं?,१.संचितं किमुच्यते। प्रारब्धं वा किम्‌। उस रुद्र का रुद्ररूपदर्शन के साथ उसका कल्याणमयरूप का भी वर्णनवेद में अनेक जगह प्राप्त होता है।,तस्य रुद्रस्य रुद्ररूपदर्शनेन साकं तस्य कल्याणमयरूपस्य अपि वर्णना वेदे बहुत्र प्राप्यते। यद्बंहिष्ठं नातिविध `... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,यद्बंहिष्ठं नातिविधे... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। और अन्य पदार्थ का प्राधान्यभाव है।,अन्यपदार्थस्य च प्राधान्याभावः। इस प्रकार से विविध कर्मों के द्वारा विविध जो लोक प्राप्त होते है वे इस श्लोक में संक्षेप से कहे गये है।,एवं विविधैः कर्मभिः विविधा ये लोका लभ्यन्ते ते अस्मिन्‌ श्लोके संक्षेपेण उक्ताः सन्ति- 5. द्युलोक में।,5. दिवि। प्रत्ययस्थात्‌ यह पद कात्‌ पद का विशेषण है।,प्रत्ययस्थात्‌ इति पदं कात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ सूत्र से प्रातिपदिक (5/9) की अनुवृत्ति आती है।,ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ इति सूत्रात्‌ प्रातिपदिकात्‌ (५/१) इति अनुवर्तते। भले ही शास्त्र प्रत्येक क्षण हमारा ही उपकार करते है।,यद्यपि शास्त्रं प्रतिमुहूर्तम्‌ अस्मान्‌ उपकरोति। रुद्रदेव के चारित्रिक वर्णन भी ऋग्‌ यजुर्वेदभेद से भिन्न होता है।,रुद्रदेवस्य चारित्रिकवर्णना अपि ऋग्यजुर्वदभेदेन भिन्ना भवति। उसके लिए विशिष्ट नियमों का इस ग्रन्थ में विवरण है।,तदर्थं विशिष्टनियमानाम्‌ अस्मिन्‌ ग्रन्थे विवरणम्‌ अस्ति। "अरापथिन्‌ से ""ऋक्पूरब्धू: पथामानक्ष'' इससे अच्‌ प्रत्यय प्राप्त होने पर पथिन शब्दान्त नञ्तत्पुरुष से प्रोक्त सूत्र से विकल्प से निषेध होने पर अपथिन्‌ से पुल्लिंग में सु प्रत्यय होने पर प्रक्रिया कार्य में अपन्थाः रूप होता है।","अरापथिन्‌ इत्यस्मात्‌ ""कऋक्पूरब्धू: पथामानक्ष' इत्यनेन अचि प्राप्ते पथिन्शब्दान्तनञ्तत्पुरुषत्वात्‌ प्रोक्तसूत्रेण विकल्पेन तन्निषेधे अपथिन्‌ इत्यस्मात्‌ पुंसि सौ प्रक्रियाकार्ये अपन्थाः इति रूपम्‌।" "उससे उदात्त स्थान में और स्वरित स्थान में जो यण्‌ है, उसके बाद अनुदात्त को स्वरित होता है इस प्रकार का सूत्र का अर्थ आता है।",तेन उदात्तस्थाने स्वरितस्थाने च यः यण्‌ वर्तते ततः परस्य अनुदात्तस्य स्वरितः भवति इति सूत्रार्थः आयाति। आचार्य सायण के द्वारा ऋग्वेद के मन्त्र का (१/६२/३) अपने भाष्य में निघण्टु भाष्य वचन का उल्लेख किया है।,आचार्यसायणेन ऋग्वेदीयमन्त्रस्य (१/६२/३) स्वकीये भाष्ये निघण्टुभाष्यवचनस्य उल्लेखः कृतः। "यहाँ तृणधान्य पद से उनका शब्द स्वरूप का ग्रहण नहीं है, अपितु उन दोनों का अर्थ ही ग्रहण किया है।","अत्र तृणधान्यपदेन न हि तयोः शब्दयोः स्वरूपं ग्राह्यम्‌, अपि तु तयोः अर्थः एव ग्राह्यः।" लक्षण और प्रमाण के बिना किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं होती है।,लक्षणं प्रमाणं च विहाय कस्य अपि वस्तुनः सिद्धिः न भवति। “तासां त्रिवृतं त्रिवृतम्‌ एकैकं करवाणि” इस प्रकार से।,“तासां त्रिवृतं त्रिवृतम्‌ एकैकं करवाणि” इति। यहाँ यूपाय यह चतुर्थ्यन्त पद है।,अत्र यूपाय इति चतुर्थ्यन्तं पदम्‌। अन्य भी दिगभ्रमित लोगों के जीवन में पथ प्रदर्शक रूपी दीपक के समान सहायक होंगे।,अन्येषामपि दिग्भ्रान्तानां जनानां जीवने पथप्रदर्शकप्रदीपवत्‌ सहायो भविष्यति। जो स्थिर नहीं रहता कहीं पर भी आसन रूप से स्थिर नहीं होने वाला बहने के स्वभाव से इनकी घुमने फिरने वाले मनुष्य के समान कोई भी स्थिर स्थिति सम्भव नहीं है।,अतिष्ठन्तीनां स्थितिरहितानाम्‌ अनिवेशनानाम्‌ उपवेशनरहितानां प्रवहणस्वभावत्वात्‌ एतानां मनुष्यवन्न क्वापि स्थितिः सम्भवति। पिघला हुआ घी उसका प्रिय भोजन है।,गलितं घृतं तस्य प्रियम्‌। इस प्रकार का रूप मैं तुझसे माँगना चाहता हुँ।,इत एवं रूपं त्वामिदमहं याचे। जैसे कठ उपनिषद्‌ में - “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।,यथा कठोपनिषदि- “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। "आत्मनः पुत्रम्‌ इच्छति इस विग्रह में “सुपः आत्मनः क्यच्‌'' इस सूत्र से पुत्र अम्‌ इस द्वितीयान्त से क्यच्‌ होने पर पुत्र अम्‌ क्यच्‌ यह होने पर पुत्र अम्‌ क्यच्‌ इस समुदाय के क्यच्‌ प्रत्यय होने पर ""सनाद्यन्ता धातवः'' इससे धातु संज्ञा होती है।","आत्मनः पुत्रम्‌ इच्छति इति विग्रहे ""सुप आत्मनः क्यच्‌"" इत्यनेन सूत्रेण पुत्र अम्‌ इति द्वितीयान्तात्‌ क्यचि पुत्र अम्‌ क्यच्‌ इति जाते, पुत्र अम्‌ क्यच्‌ इति समुदायस्य क्यजन्तत्वेन ""सनाद्यन्ता धातवः"" इत्यनेन धातुसंज्ञा भवति।" और यहाँ बहुव्रीहिगर्भसमाहारद्वन्द है।,अत्र च बहुव्रीहिगर्भसमाहारद्वन्द्वसमासः अस्ति। द्विगु भी तत्पुरुष संज्ञक होता है।,द्विगुरपि तत्पुरुषसंज्ञकः भवति। भरन्तः यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,भरन्तः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? मित्रवरुण अपने सामर्थ्यवश से इस पृथिवी और स्वर्ग को धारण किया हुआ है।,मित्रावरुणौ स्वसामर्थ्यवशात्‌ इमां पृथिवीं स्वर्गं च धारयतः। यज्ञ में कौनसी ऋतु आज्य थी?,यज्ञे कः ऋतुः आज्यम्‌ आसीत्‌। अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे इस सूत्र से यहाँ अन्तोदात्तात्‌ इस पञ्चमी एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति है।,अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे इति सूत्रात्‌ अत्र अन्तोदात्तात्‌ त्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तते। 17.1 मूल पाठ ( हिरण्यगर्भसूक्त समग्र),१७.१ इदानीं मूलपाठं पठाम (हिरण्यगर्भसूक्तम्‌ समग्रम्‌।) इस प्रकार से कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वादि धर्म आत्मा के होते हैं इस प्रकार से अविवेकी लोग चिन्तन करते हैं।,एवञ्च कर्तृत्वभोक्तृत्वादिधर्माः आत्मनः भवन्तीति अविवेकिनः चिन्तयन्ति। बुद्धि क्रियात्व का उपपादन करती है।,इतश्च तस्य क्रियात्वमुपपादयति। नैष्कर्म्यसिद्धि में सुरेश्‍वराचार्य ने इस प्रकार से कहा है।,नैष्कर्म्यसिद्धौ सुरेश्वराचार्येण उक्तम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय -यहा वाक्य आग॑च्छ भों माणवक देववत्त यह है।,सूत्रार्थसमन्वयः -अत्र वाक्यम्‌ आग॑च्छ भौ माणवक देववत्त इत्येवम्‌ अस्ति। उसी प्रकार सद्‌ ही सौम्य रूप में सबसे पहले था।,तथैव सदेव सोम्य इदम्‌ अग्र आसीत्‌। "54. ""धर्मादिष्वनियमः"" ""अनेकप्राप्तावेकत्र नियमोऽनियमः शेषे"", ""ऋतुनक्षत्राणांसमाक्षराणामानुपूर्व्येण"" ""लघ्वक्षरं पूर्वम्‌” ""अभ्यर्हितं च"", ""वर्णानामानुपूर्व्यण"" ""भ्रातुरज्यायसः"" इत्यादि पूर्वपद निपात बोधक वार्तिक हैं।","५४. ""धर्मादिष्वनियमः"" ""अनेकप्राप्तावेकत्र नियमोऽनियमः शेषे"", ""ऋतुनक्षत्राणां समाक्षराणामानुपूर्व्येण"" ""लघ्वक्षरं पूर्वम्‌” ""अभ्यर्हितं च"", ""वर्णानामानुपूर्व्यण"" ""भ्रातुरज्यायसः"" इत्यादीनि पूर्वपरनिपातबोधकानि वार्तिकानि सन्ति।" पहले तीन अध्यायों में पृथ्वी आदि बोध कराने वाले अनेक शब्दों का एक जगह ही सङ्ग्रह है।,प्रथमतः त्रिषु अध्यायेषु पृथिव्यादिबोधकानाम्‌ अनेकशब्दानाम्‌ एकत्र सङ्ग्रहः अस्ति। करण नाम कार है काम के करण का नाम कामकार है उसमें तृतीया विभक्ति जोड़ने से काम के कारण से अर्थात्‌ काम की प्रेरणा से यह अर्थ हुआ।,"यस्तु अयुक्तः असमाहितः फलाशाविक्षिप्तचित्तः कामकारः कामस्य आशायाः कारः करणं कामकारः, तेन फलाशायुक्तत्वेन।" एकाग्रमन से चित्तवृत्तियों के निरोध के द्वारा आत्मवस्वरूप में स्थिति समाधि होती है।,एकाग्रेण मनसा चित्तवृत्तिनिरोधद्वारा आत्मस्वरूपस्थितिः समाधिः। विभक्ति पद से यहाँ अधिकरण कारक का ग्रहण किया गया है।,विभक्तिपदेनात्र अधिकरणकारकस्य ग्रहणम्‌। द्यौ लोक ऊपर है।,परो दिवा। और फिर मन्त्र भी निरर्थक होने चाहिए।,मन्त्राः च निरर्थकाः भवेयुः। ' देवताद्वन्द्वे च' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,देवताद्वन्द्वे च इति सूत्रस्य कः अर्थः? वैदिक दृष्टि से यज्ञ ही श्रेष्ठतम वैदिक कर्म है।,वैदिकदृशा यज्ञ एव श्रेष्ठतमं वैदिकं कर्म। अतः व्याकरण के छात्र द्वारा उसके लक्षण और लक्ष्य का अच्छी प्रकार से ज्ञान होना चाहिए।,अतः व्याकरणस्य छात्रेण लक्षणं तल्लक्ष्यं च सुष्ठु बोध्यम्‌। इसलिए परमेश्वर ब्रह्म कर्तृत्व ही होता है।,अतः परमेश्वरे कर्तृत्वम्‌ अस्ति एव। अतः उपशरद इस अव्ययीभाव संज्ञा होने पर प्रस्तुत सूत्र से समासान्त टच्‌ प्रत्यय होता है।,अतः उपशरद्‌ इति अव्ययीभावसंज्ञकात्‌ प्रस्तुतसूत्रेण समासान्तः टच्प्रत्ययः भवति। इन ग्रन्थों की रचना याज्ञवल्क्य मुनि ने की है।,एतेषां ग्रन्थानां रचयिता याज्ञवल्क्यमुनिः अस्ति। और सभी कर्मों के नाश के कारण उसका फिर दूसरा जन्म भी नहीं होता है।,"किञ्च, सर्वेषां कर्मणां नाशात्‌ तस्य पुनः जन्म न भवति।" और जिसने अतिविस्तृत अन्तरिक्ष का आधाररूप से निर्माण किया।,यः अतिविस्तीर्णम्‌ अन्तरिक्षं च निर्मितवान्‌ आधाररूपेण। उस प्रकार के पुरुष को मारने में तुम्हे कोई भय नहीं था यह अर्थ है।,तादृशस्य पुरुषान्तरस्याभावात्‌ मा भुत्‌ तव भयमित्यर्थः। जब तक नित्य तथा अनित्य वस्तु विवेक नहीं होता है।,यावत्‌ नित्यानित्यवस्तुविवेकः न भवति । मनन के द्वारा प्रमेयगता सम्भावना की निवृत्ति होती है ।,मननेन प्रमेयगतासम्भावनाया निवृत्तिः भवति। प्रायश्चित्त सूक्त इन सूक्तों में प्रायश्चित्त का विधान उपलब्ध होता है।,प्रायश्चित्तसूक्तानि एतेषु सूक्तेषु प्रायश्चित्तस्य विधानम्‌ उपलब्धम्‌ अस्ति। दशाङगुल यह उपलक्षण है।,दशाङ्गुलमित्युपलक्षणम्‌। क्षय शब्द किस अर्थ में आदि उदात्त होता है?,क्षयशब्दस्य कस्मिन्‌ अर्थे आदिः उदात्तः भवति? और भी प्रमाणित करते है कि अथर्ववेद ही सभी लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए मुख्य रूप से प्रयुक्त होता है।,किञ्च प्रमापयति अपि यद्‌ अथर्ववेद एव सार्वेषां लौकिकानां कार्याणां सिद्ध्यर्थं मुख्यरूपेण प्रयुक्तो भवति। कारणभिन्न कार्य का परिणाम होता है।,कारणाभिन्नं कार्यं परिणामः। और सूत्र में कहा `आ नो मित्रावरुणा यद्‌' बहिष्ठं नातिविधे सुदानू (आ० श्रौ० २।१४।११) इति।,सूत्रितञ्च 'आ नो मित्रावरुणा यद्‌' बंहिष्ठं नातिविधे सुदानू (आ० श्रौ० २।१४।११) इति। सूत्र अर्थ का समन्वय- इन्द्र वाजेषु नोऽव इस वाक्य में अव यह तिङन्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- इन्द्र वाज॑षु नोऽव इत्यस्मिन्‌ वाक्ये अव इति तिङन्तं पदम्‌। आगच्छ देव ग्रामं पश्य ये किस सूत्र का उदाहरण है?,आगच्छ देव ग्रामं पश्य इति कस्य सूत्रस्य उदाहरणम्‌? तब चित्तवृत्ति को स्तब्ध भावरूपा जो निद्रा वृत्ति होती है वह ही लय कहलाती है।,तदा चित्तवृत्तेः स्तब्धीभावरूपा या निद्रा सा हि लयः। जीव तथा ब्रह्म में ऐक्य का प्रतिपादन ही वेदान्त ज्ञान का मुख्य विषय है।,जीवब्रह्मणोः ऐक्यस्य प्रतिपादनमेव वेदान्तस्य मुख्यो विषयः। उससे दिवः इस पद को भी आमन्त्रित होता है।,तेन दिवः इति पदम्‌ अपि आमन्त्रितं भवति। पाँचवे दिन सोमरस का निष्काशन करना चाहिए।,पञ्चमदिवसे सोमरसः निष्काशनीयः। हवामहे - हू्‌- धातु से लट्‌-लकार उत्तमपुरुष बहुवचन का यह रूप है।,हवामहे - हू- धातोः लट्-लकारस्य उत्तमपुरुषस्य बहुवचने रूपम्‌ इदम्‌। तथा वेद में कहा गया है -भिषक्त त्वां भिषजां शृणोमि (ऋ २।३३।४)।,तथा हि आम्नातं -भिषक्तं त्वां भिषजां शृणोमि(ऋ २।३३।४)। (1) संयोग से (1) समवाय से 6. 'शुक्तिरजतभ्रमस्थले रजतं विज्ञानस्वरूपम्‌' यह किसका मत है?,(1 ) संयोगेन (1 ) समवायेन ६) शुक्तिरजतभ्रमस्थले रजतं विज्ञानस्वरूपम्‌ इति केषां मतम्‌। नित्यकर्मों का परिचय दीजिए।,नित्यानि कर्माणि परिचाययत। 11.3 ) प्रज्ञानं ब्रह्म यह सबकुछ ब्रह्म ही है।,11.3) प्रज्ञानं ब्रह्म सर्वम्‌ इदं ब्रह्म एव। ईश्वर प्रणिधान के द्वारा सिद्ध योगी हमेशा स्वरूपस्थ होता हुआ संशयविपर्ययादि रहित होकर के अविद्यासंस्कारादि के क्षय का अनुभव करता है।,ईश्वरप्रणिधानेन सिद्धो योगी सर्वदा स्वरूपस्थः सन्‌ संशयविपर्ययादिरहितः सन्‌ अविद्यासंस्कारादीनां क्षयमनुभवति। इन तेरह आचार्यो के अतिरिक्त चौदहवां आचार्य कौन है।,एतेषां त्रयोदशानाम्‌ आचार्याणाम्‌ अतिरिक्तः कोऽस्ति चतुर्दशः आचार्यः। इसलिए काम कर्मो में प्रवृत्ति उत्पन्न करता है।,अतः कामः कर्मणि प्रवृत्तिं जनयति। और स्वेददुर्गन्धादि से अत्यन्त ही अशुद्ध होता है।,एवं स्वेददुर्गन्धादिभूयिष्ठतया अत्यन्तम्‌ अशुद्धः भवति स देहः। ब्रह्म वहाँ पर अधिष्ठान तथा पञ्चकोश आरोपित होते हैं।,"ब्रह्म तत्र अधिष्ठानं, पञ्चकोशाः आरोपिताश्च।" निर्मल अन्तः करण में जब चैतन्य प्रतिबिम्बित होता है।,निर्मले अन्तःकरणे यदा चैतन्यं प्रतिबिम्बितं भवति । दिव्‌-धातु से क्विन्प्रत्यय करने पर द्वित्व द्वितीया एकवचन में।,दिव्‌-धातोः क्विन्प्रत्यये द्वित्वे द्वितीयैकवचने। उनमें तद्धितार्थ विषयें दिक्समास का उदाहरण है यथा पौर्वशाल।,तत्र तद्धितार्थ विषये दिक्समासस्योदाहरणं यथा पौर्वशाल इति। इस प्रकार से भेदत्रय रहित ब्रह्म होता है।,एतत्‌ भेदत्रयरहितं ब्रह्म भवति। उदात्तस्वरितयोः यणः स्वरितः अनुदात्तस्य ये सूत्र में आये हुए पदच्छेद है।,उदात्तस्वरितयोः यणः स्वरितः अनुदात्तस्य इति सूत्रगतपदच्छेदः। इस इन्द्र के लिए निर्मित विद्युत्‌ इन्द्र को पाश में बाँधने में असमर्थ हुई।,अस्मै इन्द्रार्थं निर्मिता विद्युत्‌ न सिषेध इन्द्रं न प्राप्नोत्‌। "उस यज्ञ का दाता, प्रकाश देने वाला अथवा प्रकाशित करने वाला यह अग्नि है ऐसा कहा गया है।",तेन यज्ञस्य दाता दीपयिता द्योतयिता अयम्‌ अग्निः इति उक्तं भवति। हिरण्यगर्भ अशेष ब्रह्माण्ड का अधिकारी सबसे पहला जीव है।,हिरण्यगर्भः अशेषब्रह्माण्डस्य अधिकारी प्रथमः जीवः। "अभ्यस्तानाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त है, आदिः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","अभ्यस्तानाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तम, आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" वेदान्तसार में सदानन्दयोगीन्द्र के द्वारा कहा गया है।,वेदान्तसारे सदानन्दयोगीन्द्रसरस्वत्या उच्यते । और जो उत्पद्यमान नहीं होते हुए भी बहुत रूपों में कार्य कारण रूप से रहता है।,यश्च अजायमानः अनुत्पद्यमानो नित्यः सन्‌ बहुधा कार्यकारणरूपेण विजायते । जिससे वह रागद्वेष वश भिन्न भिन्न कर्म करता है।,ततश्च रागद्वेषादिवशात्‌ भिन्नं भिन्नं कर्म करोति। "दोनों पदों में सामानाधिकरण, दोनों पदार्थों में विशेषण विशेष्य भाव तथा प्रत्यगात्मपदार्थों में लक्ष्यलक्षण भाव इस प्रकार से तीन प्रकार के सम्बन्ध होते है।","पदयोः सामानाधिकरण्यम्‌, पदार्थयोः विशेषणविशेष्यभावः, प्रत्यगात्मपदार्थयोः लक्ष्यलक्षणभावः इति सम्बन्धत्रयम्‌।" यहाँ पर अद्वैत वेदान्तियों के द्वारा कहा गया है कि ज्ञान अज्ञान का नाश का कारण तो है लेकिन जैसे मूलोच्छेदन के द्वारा वृक्ष का भी उच्छेद होता है उसी प्रकार से यहाँ पर अज्ञान का नाश होने पर भी उसी क्षण शरीर का नाश नहीं होता है।,अत्र उच्यते अद्वैतवेदान्तिभिः यत्‌ ज्ञानम्‌ अज्ञानस्य नाशकारणं परन्तु यथा मूलोच्छेदेन वृक्षस्य अपि उच्छेदः भवति तथा अत्र ज्ञानेन अज्ञानस्य नाशे सति तत्क्षणात्‌ एव शरीरस्य नाशो न भवति। और जिस विष्णु के जांघो से विस्तीर्णतीन संख्याओ में विक्रम पैर प्रक्षेप में विश्व के सभी भुवनउत्पन्न आश्रित होकर के निवास करते है वह विष्णु की स्तुति करता है।,किंच यस्य विष्णोः उरुषु विस्तीर्णेषु त्रिसंख्याकेषु विक्रमणेषु पादप्रक्षेपेषु विश्वा सर्वाणि भुवनानि भूतजातानि आश्रित्य निवसन्ति स विष्णुः स्तूयते। पञ्चीकृतस्थूलों से बना हुआ देह अन्न संज्ञक होता है।,पञ्चीकृतस्थूलोत्थः देहो अन्नसंज्ञिक इति । '' इस सूत्र की व्याख्या कीजिये?,इति सूत्रं व्याख्यात। क्षीण हुए संसार के द्वारा हीन होते हैं।,उपक्षीणाः संसारेण हीनाः भवन्ति। प्रत्येक योगमार्गो के समान ही राजयोग का भी लक्ष्य परमपुरुषार्थ का लाभ प्राप्त करना है वह ही मोक्ष तथा समाधि को प्राप्त करता है।,"प्रत्येकं योगमार्गाणाम्‌ इव राजयोगस्य अपि लक्ष्यं परमपुरुषार्थलाभः मोक्षः, स च मोक्षः समाधौ लभ्यते।" क्योंकि प्रारब्ध के उपभोग के द्वार उनका क्षय होने लगता है।,यतो हि उपभोगेन क्षयः भवति प्रारब्धस्य। फिर भी उसको विशेष रूप से कहा गया है।,पुनरपि तदेव विशेष्यते। उससे गो शब्द अन्तोदात्त ही रहता है।,तेन गोशब्दः अन्तोदात्तः एव तिष्ठति। ब्रह्म का यह जगत विवर्तरूप है।,ब्रह्मणः इदं जगत्‌ विवर्तरूपम्‌। परमात्मा के रूप में मैं हमेशा ही विद्यमान हूँ इस प्रकार से शिष्य को अनुभव होता है।,परमात्मा अहं सर्वदा एव विद्यमानः अस्मीति शिष्यस्य अनुभवो भवति। ये स्पर्श में ठंडे है किन्तु हृदय को जलाता है।,एते शीतस्पर्शाः अङ्गारसदृशाः सन्तः अपि कितवान्‌ हृदयं दहन्ति । उस आम्रेडित संज्ञक की इस सूत्र से अनुदात्त स्वर होता है।,तस्य आम्रेडितसंज्ञकस्य अनेन सूत्रेण अनुदात्तस्वरः स्यात्‌। "(ङ) अथर्ववेद में मुख्य उपनिषद् - प्रश्नोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद् और नृसिंहतापनीयोपनिषद् यह हैं।","ङ) अथर्ववेदे मुख्या उपनिषदः - प्रश्नोपनिषत्‌, मुण्डकोपनिषत्‌, माण्डूक्योपनिषत्‌, नृसिंहतापनीयोपनिषत्‌ चेति।" सायण ने तो “ अपौरुषेयं वाक्यं वेद” ऐसा कहा।,"सायणस्तु ""अपौरुषेयं वाक्यं वेद"" इत्याह।" वेदान्तसार में निदिध्यासन के विषय में इस प्रकार से कहा गया है।,वेदान्तसारे तु निदिध्यासनविषये उच्यते । वह श्रद्धा कहलाती है इस प्रकार से सभी ने कहा है।,सा श्रद्धा कथिता सर्वैः उक्ता। 2.पञ्चीकरण प्रतिपादक पञ्चदशी का श्लोक कौन-सा है?,२.पञ्चीकरण प्रतिपादकः पञ्चदशीश्लोकः कः। ऋग्वेद क्या है?,कः ऋग्वेदः? वृत्ति भी अज्ञान का कार्य ही होती है ।,वृत्तिरपि अज्ञानकार्यमेव। अस्ताचल होने वाले सूर्य को।,अस्ताचलगमनशीलं सूर्यम्‌। प्राक्‌ इस आवर्ति का फल एक संज्ञा अधिकार में समास संज्ञा के साथ अव्ययीभाव आदि संज्ञाओं का समावेश होता है।,प्राक्‌ इत्यस्य आवर्तितस्य फलमेकसंज्ञाधिकारेऽपि समाससंज्ञया सह अव्ययीभावादिसंज्ञानां समावेशः। “आमन्त्रिते समानाधिकरणे विशेषवचने '' पद में आमन्त्रित को बहुवचन पद विकल्प से अविद्यमान के समान होता है इस प्रकार की पद योजना है।,“आमन्त्रिते समानाधिकरणे विशेषवचने “ पदे आमन्त्रितं बहुवचनं पदं विभाषितम्‌ अविद्यमानवत्‌ इति पदयोजना। तथा अज्ञान का आवरण क्या होता है।,उत अज्ञानस्य आवरणं किम् । अनेक महापुरुष एक ही जन्म में विधि पूर्वक वेदाध्ययन के द्वार नित्यादिकर्मो के अनुष्ठान के द्वारा वेदान्त में अधिकार के लाभ के लिए प्रयास करते हैं।,अनेके महापुरुषाः एकस्मिन्‌ एव जन्मनि विधिपूर्वकवेदाध्ययनेन नित्यादिकर्मानुष्ठानेन वेदान्ते अधिकारलाभाय यतन्ते। 35. लय विक्षेप कषाय तथा रसास्वाद ये निर्वकल्पक समाधि के विघ्न होते है।,३५. लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादा हि निर्विकल्पकसमाधेः विघ्नाः। प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः सूत्र की व्याख्यान की गई और उदाहरणों की सिद्धि दर्शायी गई है।,प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः इति सूत्रस्य व्याख्यानं तदुदाहरणानां च सिद्धिः दर्शिता इति। और सप्तमी होने से उपकृष्णम्‌ और उपकृष्णे ऐसा दो रूप हुए।,एवमेव सप्तम्याम्‌ उपकृष्णम्‌ उपकृष्णे इति रूपद्वयम्‌। जाने की प्रवृत्ति ही रुक जाती है।,गमनप्रवृत्तरिेव अपाकृता। वहाँ पर प्रथम पाठ में साधना का सामान्य स्वरूप बताया गया हैं ।,तत्र प्रथमपाठे साधनायाः सामान्यस्वरूपम्‌ उक्तम्‌। 1 नित्यानित्यवस्तु विवेक से ब्रह्म ही नित्य वस्तु है उससे भिन्न सभी अनित्य है इस प्रकार विवेचन वेदान्त में अधिकारी का विवेक होता है।,१. नित्यानित्यवस्तुविवेकस्तावत्‌ ब्रह्मैव नित्यं वस्तु ततोऽन्यदखिलमनित्यमिति विवेचनम्‌ इति वेदान्ते अधिकारिणो विवेकः। भारतीय दर्शन की महिमा को जानकर उसके प्रचार में आदर और श्रद्धा पूर्वक प्रवर्तित हों।,भारतीयदर्शनस्य महिमानम्‌ अवगम्य तस्य प्रचारे बद्धादरः सश्रद्धं प्रवर्तताम्‌। वायु कौन से देव उत्पन्न करते है ?,वायोः सकाशात् के देवाः सृष्टाः ? "अन्वय - यस्याः पृथिव्याः चतस्रः प्रदिशः, यस्याम्‌ अन्नं कृष्टयः सम्बभूवुः, या प्राणत्‌ एजत्‌ बहुधा बिभर्ति, मा भूमिः नः गोषु अपि अन्नेषु दधातु।","अन्वयः- यस्याः पृथिव्याः चतस्रः प्रदिशः, यस्याम्‌ अन्नं कृष्टयः सम्बभूवुः, या प्राणत्‌ एजत्‌ बहुधा बिभर्ति, मा भूमिः नः गोषु अपि अन्नेषु दधातु।" फिर उन दस भागों में प्राथमिक पाँच भागों से प्रत्येक चार भागों में बट जाते है।,पुनः तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्‌ पञ्च भागान्‌ प्रत्येकं चतुर्धा विभज्यते। सुब्रह्मण्यायाम्‌ इसका क्या अर्थ है?,सुब्रह्मण्यायाम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? इसके बाद समास अधिकार कहां तक है इस बोधक “'प्राक्कडारात्समासः'' यह सूत्र प्रस्तुत किया गया।,"ततः समासाधिकारः कियत्पर्यन्तम्‌ इति बोधकं ""प्राक्कडारात्समासः"" इति सूत्रं प्रस्तुतम्‌।" इसी ही कारण से इस शाङ्ख्यायन आरण्यक के अन्तर्गत उपनिषद्‌ कौषीतकि नाम से विख्यात है।,अनेन एव कारणेन अस्य शाङ्ख्यायनारण्यकस्य अन्तर्गता उपनिषद्‌ कौषीतकि नाम्ना ख्याता अस्ति। उससे भी सभी वाक्यों का ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध होता है।,तेन सर्वेषामपि वाक्यानां ब्रह्मनिष्ठत्वं सिध्यति। इन्द्र का वृत्रघ्न ये नामकरण क्यों है?,इन्द्रस्य वृत्रघ्नः इति नामकरणं कथम्‌ ? 7 जीवन्मुक्त का यदि अज्ञान नहीं रुकता है तो विदेमुक्त का क्या नष्ट होता हेै।,७.जीवन्मुक्तस्य यदि अज्ञानं न तिष्ठति तर्हि विदेहमुक्त्या किं नश्यते? इन सूक्तों में कुछ विख्यात और बहुत चर्चा वाले सूक्त हैं।,एतेषु सूक्तेषु कतिपयानि नितान्तप्रख्यातानि बहुशः चर्चितानि च सूक्तानि सन्ति। 10. हिंसीत्‌ किस लकार का में बनता है?,10. हिंसीत्‌ इति कस्मिन्‌ लकारे भवति। तैजस आत्म का दूसरा पाद होता है।,तैजसः आत्मनो द्वितीयः पादः भवति। "अर्थात्‌ समास से पूर्व पद का जो स्वाभाविक स्वर है, समास से बाद में वह ही स्वर रहता है।","अर्थात्‌ समासात्‌ पूर्वं पदस्य यः स्वाभाविकः स्वरः भवति, समासात्‌ परं स एव स्वरः तिष्ठति।" इसके बाद सूत्र का अर्थ होता है- उगित प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीप्‌ प्रत्यय होता उदाहरण -पचन्ती।,ततश्च सूत्रार्थः भवति - उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीप्‌ प्रत्ययः भवति उदाहरणम्‌ - पचन्ती। अधि अस्थाम्‌ - अधि उपसर्ग स्था धातु से लङ उत्तमपुरुष एकवचन में।,अधि अस्थाम्‌- अध्युपसर्गात्‌ स्थाधातो लङि उत्तमपुरुषैकवचने। यह नियम है।,इत्येव नियमः। "यहां पर व्यधिकरणतत्पुरुष का द्वितीयातत्पुरुष, तृतीयातत्पुरुष, चतुर्थीतत्पुरुष, पञ्चमी तत्पुरुष, षष्ठीतत्पुरुष और सप्तमीतत्पुरुष से छः भेद होते हैं।","तत्र व्यधिकरणतत्पुरुषस्य द्वितीयातत्पुरुषः, तृतीयातत्पुरुषः, चतुर्थीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः, षष्ठीतत्पुरुषः सप्तमीतत्पुरुषश्चेति षट्‌ भेदाः सन्ति।" अविदेह कैवल्य संसारकारणभूता बुद्धि का अनादित्व अवश्य कहना चाहिए।,आविदेहकैवल्यं संसारकारणभूतायाः बुद्धेः अनादित्वम्‌ अवश्यं वक्तव्यम्‌। और ये दोनों सुषुप्ति अवस्था में नहीं होती हैं।,ते द्वे अपि सुषुप्तौ न स्तः। फिर उन चार भागों का अपना-अपना दूसरा भाग का त्याग करके भागान्तर में संयोजन ही पञ्चीकरण कहलाता है।,पुनः तेषां चतुर्णां भागानां स्वस्वद्वितीयार्द्धभागं परित्यज्य भागान्तरेषु संयोजनम्‌ एव पञ्चीकरणम्‌। सूत्र का अर्थ- निपात आद्युदात्त होते हैं।,सूत्रार्थः- निपाता आद्युदात्ताः स्युः। सुखी दुःखी हो जाता है।,सुखी दुःखी च भवति। वैशेषिक दर्शन के आचार्य कौन है?,वैशेषिकदर्शनाचार्यः कः? सायणभाष्य का भी सन्धिविच्छेदादि करके कठिनांशों के अलावा दिया है ) अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः सम॑वर्त्तताग्रै।,सायणभाष्यमपि सन्धिविच्छेदादिकं कृत्वा कठिनांशान्‌ परित्यज्य प्रदत्तमस्ति।) अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे। "वह व्याकरण शास्त्र हमेशा प्राचीन शास्त्र हैं, ऐसा जानते है।",तेन व्याकरणशास्त्रं नितरां प्राचीनं शास्त्रम्‌ अस्ति इति ज्ञायते। संबभूवुः - सम्पूर्वक भू-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,संबभूवुः- सम्पूर्वकभू-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। 45. प्रकरणप्रतिपाद्य आत्मज्ञान का तथा उसके अनुष्ठान का वहाँ श्रूयमाण प्रयोजन फल होता है।,४५. प्रकरणप्रतिपाद्यस्य आत्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य वा तत्र तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनं फलम्‌। यहाँ बहु शब्द पूर्वपद है।,अत्र बहुशब्दः पूर्वपदम्‌। इसलिए विवेकचूडामणी में कहा गया है- तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः।,विवेकचूडामणौ अपि उक्तम्‌ - तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः। इसी को ही अग्नि मन्थन कहा जाता है।,एतदेव अग्निमन्थनम्‌ इति कथ्यते। विस्पष्ट शब्द गतिरनन्तरः इस सूत्र से आद्युदात्त है।,विस्पष्टशब्दः गतिरनन्तरः इति सूत्रेण आद्युदात्तः। सोमरस के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी लिखो?,सोमरसविषये संक्षिप्तां टिप्पणीं लिखतु। अर्थात्‌ मित्ररक्षा करते है मृत्यु से वर्षा के द्वारा सम्पूर्ण मनुष्यों की रक्षा करते है।,अर्थात्‌ मित्रः प्रमीतेः मरणात्‌ वर्षणद्वारा निखिलजनान्‌ त्रायते। इस पाठ में संहिता विषय में और ब्राह्मण विषय में सामान्य रूप से आलोचना करेगें।,अस्मिन्‌ पाठे संहिताविषये ब्राह्मणविषये च सामान्यतया आलोचितम्‌। विशेष्येण यह तृतीया एकवचनान्त पद है।,विशेष्येण इति तृतीयैकवचनान्तं । नेत्रवाचिभिन्न से तात्पर्य अचक्षु पर्याय से है।,नेत्रवाचिभिन्नाद्‌ अचक्षुः पर्यायाद्‌ इति। पिपिषे - आत्मनेपद पिष्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,पिपिषे - आत्मनेपदिनः पिष्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। जो निरन्तर पूर्णिमा तथा अमावास्या पर इसका अनुष्ठान करते हैं उनके लिए नित्य।,ये निरन्तरं पूर्णिमायाम्‌ अमावास्यायां च अस्य अनुष्ठानं कुर्वन्ति तेषां कृते नित्यं कर्म। और कहते है अरण्य में अध्ययन के कारण ही इनको आरण्यक कहते है।,उच्यते च अरण्याध्ययनादेतद्‌ आरण्यकमितीर्यते इति। असम्भावना प्रमाणगत तथा प्रमेयगत होता है।,असम्भावना प्रमाणगता प्रमेयगता च भवति। इस ब्राह्मण के आदि में ही इष्टी की आलोचना देखी जाती है।,अस्य ब्राह्मणस्य आदावेव इष्टेः आलोचना दृश्यते। "७ साधन चतुष्टय के बारे में, ® विषय प्रयोजन में अनुबंधों को जाना ® अधिकारी को कब गुरु के पास जाना चाहिए जाना।","९. साधनचतुष्टये कार्यकारणभावः वक्तव्यः। १०. वेदान्तस्य विषयः स्पष्टीकर्तव्यः, अनुबन्धेषु सम्बन्धः उपस्थाप्यः। १२. वेदान्तस्य प्रयोजनं विशदयत ,गुरूपसदनं लिखत।" "इस सन्दर्भ में यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए की जयन्त भूट ने न्यायमञ्जरी में अथर्ववेद की ही प्राथमिकता की उदगोषणा की है - “वहाँ चारों वेद में, प्रथम अथर्ववेद'' है।","अस्मिन्‌ सन्दर्भ ध्यातव्यम्‌ इदम्‌ अस्ति यत्‌- जयन्तभट्टेण न्यायमञ्जर्याम्‌ अथर्ववेदस्य एव प्राथमिकत्वम्‌ उद्घोषितम्‌ - ""तत्र वेदाश्चत्वारः, प्रथमोऽथर्ववेदः"" इति।" जैसे - “उसने ऋचाओं की रचना की।,तद्यथा- 'स ऋचो व्यौहत्‌। खांसी (६/१०५) तथा दन्तपीडा आदि रोगों का तथा उनकी औषधी का वर्णन अत्यधिक सुंदर रीति से अथर्ववेद में वर्णित है।,कासः (६/१०५) तथा दन्तपीडादिरोगाणां तथा तेषाम्‌ ओषधीनां वर्णनम्‌ अतीव उत्तमरीत्या अथर्ववेदेऽस्ति। अतः इस पाठ में साधारण स्वर प्रतिपादक पाणिनीय सूत्र तथा वार्तिको को आलोचना कौ है।,अतः अस्मिन्‌ पाठे साधारणस्वरप्रतिपादकानि पाणिनीयसूत्राणि तथा वार्तिकानि आलोच्यन्ते। यह सम्पूर्ण मायामय ही है।,मायामयम्‌ इदं जगत्‌। उनके मुख में वेदान्त वाणी ने सजीवता को प्राप्त करके जनमनस में नया रूप धारण कर लिया उन्होंने जिस वेदान्त का प्रचार किया वह वेदान्त इस प्रकार से सम्बोधित होता है।,तस्य मुखे वेदान्तस्य वाणी सजीवतां प्राप्य जनमनसि नूतनं रूपं धृतवती। तस्मात्‌ तत्प्रचारितं वेदान्तं विद्वांसः नव्यवेदान्तः (Ne०-४९daa) इत्यभिधानेन सम्बोधयन्ति। अहंकारादि सूक्ष्म तत्व से आरम्भ करके स्थूल देह पर्यन्त तक एवं अज्ञान से उत्पन्न बन्धन तथा बन्धन समूहों की स्वस्वरूप अवबोध से तथा आत्मज्ञान के बोध से जो मुक्ति की इच्छा होती है वह मुमुक्षुता कहलाती है।,"अहंकारादिदेहान्तान्‌ सूक्ष्मात्‌ अहंकारात्‌ आरभ्य स्थूलदेहपर्यन्तम्‌, अज्ञानकल्पितान्‌ अज्ञानात्‌ उत्पन्नान्‌ बन्धान्‌ बन्धसहमूहान्‌ स्वस्वरूपावबोधेन आत्मज्ञानेन मोक्तुम्‌ इच्छा एव मुमुक्षुता इति।" आजहृः - आङपूर्वक ह-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,आजहृः - आङ्पूर्वकात्‌ हृ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। तद्धितार्थ द्विगु का उदाहरण है पौर्वशालः।,तद्धितार्थद्विगोः उदाहरणं पौर्वशालः इति। डकार के स्थान पर ळकार बह्वृचाध्येतृसम्प्रदाय में प्राप्त होता है।,डकारस्य ळकारो बहृुचाध्येतृसम्प्रदायप्राप्तः। इस सूत्र से मन्त्र एकश्रुति होता है यह इसका सार है।,अनेन सूत्रेण मन्त्रः एकश्रुतिः भवति इति सारः। "श्रेणिकृताः यहाँ पर कौन सा समास स्वीकार करते है, तो पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है?",श्रेणिकृताः इत्यत्र कः समासः स्वीक्रियते चेत्‌ पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं भवति? तथा यज्ञ के द्वारा उसकी आत्मा ने विष्णु सायुज्य प्राप्त कर लिया।,किञ्च यज्ञद्वारा तस्य आत्मा विष्णुसायुज्यम्‌ प्राप्तवान्‌। वह प्रातिभासिक वस्तु ही होती है।,एतत्‌ प्रातिभासिकं वस्तु इति। इसके तीन अंश द्युलोक में अवस्थित है।,तस्य त्रयः अंशाः द्युलोके अवस्थिताः। यहाँ बैदी शब्द है।,अत्र बैद इति शब्दः अस्ति। इसलिए सत्‌ ब्रह्म ही अद्वितीय इस प्रकार से कह जाता है।,अतः सत्‌ ब्रह्म अद्वितीयमिति उच्यते। अपितु ब्रह्म का प्रकाश ही सूर्यादि सभी को प्रकाशित करता है।,अपि तु ब्रह्मणः प्रकाशः सूर्यादीन्‌ सर्वान्‌ प्रकाशयति। और भी द्यो में स्थित स्वर्गलोक की रचना भी मेरे द्वारा ही की गई है।,उतापि चामूं द्यां विप्रकृष्टदेशेऽवस्थितं स्वर्गलोकम्‌। 6 शम कौन कहलाता है तथा किस का शम किया जाता हे?,६. शमः कः कथ्यते। कस्य शमः क्रियते। प्राणत्‌ - प्रपूर्वक अन्‌-धातु से शतृप्रत्यय करने पर।,प्राणत्‌- प्रपूर्वकात्‌ अन्‌-धातोः शतृप्रत्यये। और इस प्रकार पित्‌ में सार्वधातुक संज्ञक में तिप्‌ प्रत्यय के परे होने पर पूर्व के हकार से उत्तर ओकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,एवञ्च पिति सार्वधातुकसंज्ञके तिप्प्रत्यये परे सति पूर्वस्य हकारोत्तस्य ओकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। जयन्त स्वामी नाम के किसी विद्वान ने इसकी टीका को लिखा था।,जयन्तस्वामिनामा कोऽपि विद्वान्‌ अस्याः टीकां लिखितवान्‌। इसके बाद समासविधायकसूत्र में द्वितीया इसका प्रथमानिर्दिष्ट होने से उसके बोध्य का कृष्ण अम्‌ इसका “प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌ इससे उपसर्जन संज्ञा होने पर “उपसर्जनं पूर्वम्‌” इससे पूर्व निपात होने पर कृष्ण अम्‌ श्रित सु होता है।,"ततः समासविधायकसूत्रे द्वितीया इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्वोध्यस्य कृष्ण अम्‌ इत्यस्य ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेनोपसर्जनसंज्ञायाम्‌ ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इत्यनेन पूर्वनिपाते कृष्ण अम्‌ श्रित सु इति भवति।" अर्वाङतेन॑ स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुर: पिता नः॥,अर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ॥ ६ ॥ अलङ्कृत वर्णन अवसर में उषा के मनोहर रूप का और व्यापार का हदयग्राहि वर्णन प्राप्त होता है - जायेव पत्या उशती सुवासा उषा हस्रेव निरिणीते अप्सः।,अलङ्कृतवर्णनावसरे उषायाः मनोहररूपस्य व्यापारस्य च हृदयग्राहि वर्णनं प्राप्यते - जायेव पत्या उशती सुवासा उषा हस्रेव निरिणीते अप्सः। धन का विशेष रूप से दाता अग्नि है।,धनानाम्‌ अतिशयेन दाता अग्निः। (छा.उ. भा.6.14.2) आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद (छा.उ. 6.14.2) इस श्रुति के माध्यम से यह समझा जाता है की आचार्य के द्वारा ही ब्रह्म का अनुभव होता है अचार्य के बिना कोई मार्गदर्शक नहीं होता हे।,(छा.उ.भा.६.१४.२) आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद॥ (छा.उ. ६.१४.२) इति श्रुतितः अवगम्यते यद्‌ यस्य आचार्यः अस्ति स ब्रह्म जानाति। आचार्य विना मार्गोदेष्टा नास्ति। यहाँ झल्‌ यह विभक्ति का विशेषण है।,अत्र झल्‌ इति विभक्तेः विशेषणम्‌। पञ्च गावः धनं मस्य इस लौकिक विग्रह में पञ्चन्‌ जस्‌ गोजस्‌ धन सु इस अलौकिक विग्रह में “ अनेकमन्यपदार्थे” इससे बहुव्रीहि समास होने पर समुदाय का समास होने पर प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुप्‌ का लोप होने पर पञ्चन्‌ जो धन रूप बना।,"पञ्च गावः धनं यस्य इति लौकिकविग्रहे पञ्चन्‌ जस्‌ गो जस्‌ धन सु इत्यलौकिकविग्रहे ""अनेकमन्यपदार्थे"" इत्यनेन बहुव्रीहिसमासे समुदायस्य समासत्वात्‌ प्रातिपदिकसंज्ञायां सुपां लुकि पञ्चन्‌ गो धन इति भवति ।" किन्तु सुमद्रे में नहीं।,न तु सुमद्रे इति। अज्ञान के आवरण का नाश किस उपाय के द्वारा होता है ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।,अज्ञानावरणस्य नाशः केनोपायेन भवति ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। "ऋग्वेद में रुद्र अन्तरीक्षस्थान के देव, मरुतो के पिता के रूप में प्रसिद्ध है।","ऋग्वेदे रुद्रः अन्तरीक्षस्थानस्य देवः, मरुतां पितेति प्रसिद्धः।" "बहुत संख्या के मन्त्र छन्दोबद्ध है, उनमे कुछ अंश ही गद्यात्मक है।","बहुसंख्यकाः संहिताः छन्दोबद्धाः सन्ति, तेषां कतिपयांशाः च गद्यात्मकाः सन्ति।." अत: यही वृत्ति है।,अतः वृत्तिः। अत: मन्नन्त दामन्‌ प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योतन के लिए डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌'' सूत्र से विकल्प से डाप्‌ प्रत्यय होता है।,अतः मन्नन्तात्‌ दामन्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वद्योतनाय डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रेण विकल्पेन डाप्‌ प्रत्ययः भवति। "त्रिष्ठुप्‌-छन्द में चार पाद होते हैं, और ग्यारह अक्षर होते है।",त्रिष्ठुप्‌-छन्दसि चत्वारः पादाः एकादश अक्षराणि च भवन्ति। "एकं च तदधि करणं च एकाधिकरणम्‌, उस एकाधिकरणे पद में कर्मधारय समास होता है।","एकं च तदधिकरणं च एकाधिकरणम्‌, तस्मिन्‌ एकाधिकरणे इति कर्मधारयसमासः।" "उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों के लोप को ही एक श्रुति कहते हैं।",उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणां तिरोधानम्‌ एकश्रुतिः। क्योंकि यज्ञ दान तथा तप मनीषियों को पावन करते हैं।,यज्ञः दानं तपश्चैव पावनानि विशुद्धिकराणि मनीषिणां इत्येतत्‌। इसलिए श्री मदभगवद्गीता मे भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- “यदा संहरते चायं कूर्मोऽडऱगानीव सर्वशः।,श्रीमद्भगवद्गीतायाम्‌ भगवता श्रीकृष्णेन निगद्यते-“यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। उसके बाद उस पुरुष के भेदज्ञानशून्य होने पर परमकैवल्यरूप अखण्डब्रह्म में अवस्थान होता है।,ततः परं तस्य पुरुषस्य भेदज्ञानशून्ये परमकैवल्यरूपे अखण्डब्रह्मणि अवस्थानं भवति। अतः वेदान्तसार में कहा गया है-,उच्यते च वेदान्तसारे - बैल के समान आचरण करते हुए इन्द्र में त्रिकद्रुक संज्ञकयाग में अभिषिक्त सोम को पिया।,वृषभः इव आचरन्‌ इन्द्रः त्रिकद्रुकसंज्ञकयागे अभिषुतं सोमं अपिबत। सरलार्थ - जो मन सामान्य और विशेषज्ञान का बोध कराता है।,सरलार्थः - यत्‌ सामान्यविशेषयोः ज्ञानयोः जनकम्‌ अस्ति। 16.1.3 अब इन्द्रसूक्त के मूलपाठ को जानेंगे दासप॑त्नीरहिंगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः।,१६.१.३) इदानीम्‌ इन्द्रसूक्तस्य मूलपाठम्‌ अवगच्छाम दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः। अध्यात्म विद्या का रहस्य प्रतिपादक वेदभाग उपनिषद्‌ ऐसा कहलाता है।,अध्यात्मविद्यायाः रहस्यप्रतिपादका वेदभागा उपनिषदः इति कथ्यन्ते। विपूर्वक व्रश्च्‌ धातु से क्तप्रत्यय करने परविवृक्ण यह रुप है।,विपूर्वकात्‌ व्रश्च् धातो क्तप्रत्यये विवृक्ण इति रुपम्‌। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है किं राजा।,उदाहरणम्‌ - किंराजा इति। "वहाँ प्रकार आदि इस प्रथमा एकवचनान्त पद है, द्विरुक्तौ यह सप्तमी एकवचनान्त पद है, परस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, और उदात्तः यह भी प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र प्रकारादि इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, द्विरुक्तौ इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌, परस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, अन्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, उदात्तः इत्यपि च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" जैसे भास्कर के द्वारा कहा गया है - “अष्टौ व्याकरणानि षट्‌ च भिषजां व्याचष्टा ताः संहिताः' इस प्रकार भविष्य पुराण में उक्त व्याकरण तो प्रसिद्ध है।,यथोक्तं भास्करेण - 'अष्टौ व्याकरणानि षट्‌ च भिषजां व्याचष्टा ताः संहिताः' इति भविष्यपुराणोक्तानि व्याकरणानि तु प्रसिद्धानि। उस के द्वारा कतमक॑ठ: और कतमकठः ये दोनों रूप सिद्ध होते है।,"तेन कत॒मर्कठः इति, कतमकठः इति च रूपद्वयं प्राप्यते।" प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा अनुमान से जो विषय नहीं जाना जाता है उसका ज्ञान वेद से होता है।,प्रत्यक्षप्रमाणेन अनुमानेन वा यो विषयो न ज्ञायते तस्य ज्ञानम्‌ वेदाद्‌ भवति। (अ और ण्‌ की इत्संज्ञा हुई है जिसमें वही ञ्णित है।,यत्र अ च ण् च इत्यस्य इत्संज्ञा भवति तत्र ज्णित भवति । आत्मा मन के संयोग के बिना कुछ भी ज्ञान श्रोत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा सम्भव नही है।,आत्ममनःसंयोगं विना किमपि ज्ञानं श्रोत्रादीन्द्रियैः न सम्भवति। अतः गुणवाचकों का विशेषणविशेष्यभाव में खञ्जकुब्जः कुब्जखञ्जः ये दो रूप होते हैं।,अतः गुणवाचकयोः विशेषणविशेष्यभावे खञ्जकुब्जः कुब्जखञ्जः इति रूपद्वयं भवति । 49. समासान्तलोपविधायक कुछ सूत्र लिखिये?,४९. समासान्तलोपविधायकानि कानिचन सूत्राणि लिखत? यहाँ पर परामर्थतः जगत होता ही नहीं है।,अत्र परमार्थतः जगत्‌ नास्ति एव। उसके कर्म के द्वारा ये लोक प्राप्त होते हैं।,तत्कर्मणा एते लोकाः प्राप्यन्ते। "हे दोनों राजन, तुम क्रोध से रहित होकर के एक हजार खम्भे वाले यज्ञशाला को धारण करते हो।","हे राजानौ, युवां क्रोधहीनौ भूत्वा एकत्रीभूतशक्त्या सहस्रस्तम्भयुक्तस्थूणं धारयताम् ।" और अम भाव पक्ष में “टाङसिङसामिनात्स्याः' इस सूत्र से इन आदेश होने पर उपकृष्ण इन होने पर आदगुणः इस सूत्र से अकार और इकार के स्थान पर एकार गुण होने पर उपकृष्णेन रूप हुआ।,"अमभावपक्षे च टाप्रत्ययस्य ""टाङसिङसामिनात्स्याः"" इत्यनेन सूत्रेण इनादेशे उपकृष्ण इन इति जाते आद्‌ गुणः इति सूत्रेण अकारस्य इकारस्य च स्थाने गुणे एकारे उपकृष्णेन इति रूपम्‌।" "होता- आह्वान कर्त्ता है, वह ही यज्ञ अवसर पर देवताओ की प्रशंसा के लिये लिखे मन्त्रों का उच्चारण करके देवताओ को बुलाते हैं, उस कार्य के लिये सङ्कलित मन्त्र स्तुति रूप में वर्णित है, उनका सङ्ग्रह ही ऋग्वेद है।","होता- आह्वानकर्त्ता, स हि यज्ञावसरे देवतानां प्रशंसायै रचितान्‌ मन्त्रान्‌ उच्चारयन्‌ देवताः आह्वयति, तत्कार्याय सङ्कलिताः मन्त्राः स्तुतिरूपतया समाख्याताः, तेषां सङ्ग्रह एव ऋग्वेदः।" जीवन्मुक्त का आत्मसाक्षात्कार भले ही हो जाता है।,जीवन्मुक्तस्य आत्मसाक्षात्कारः यद्यपि जातः। वहाँ पर जहल्लक्षणा होती है।,तत्र अजहल्लक्षणा भवति। ये अलङ्कार अपने आप उत्पन्न हुए है।,एते अलङ्काराः स्वतः आविर्भूताः सन्ति। इसलिए इसका ` उपनिषद्‌ ' यह नाम ( संज्ञा) युक्त ही है।,अतः अस्य 'उपनिषद्‌' इत्येषा संज्ञा युक्ता एव। भूत और भविष्य में आने वाले प्राणियों को यह पत्नी रूपी पृथ्वी हमारे लिए महान ऐश्वर्य धन धान्य आदि प्रदान करे।,अतीतानागतानां पत्नी पृथिवी अस्माकं कृते महल्लोकं प्रयच्छेत्‌। न तत्र रथा रथयोगानपन्थानो भवन्त्यथ रथयोगान्‌ पथः सृजते - (बृह. 4.3.10) स्वप्न विषय जाग्रत काल के समान परमार्थ नहीं होते हैं अपितु मिथ्या ही होते हैं।,न तत्र रथा रथयोगानपन्थानो भवन्त्यथ रथयोगान्‌ पथः सृजते -(बृह. ४.३.१०) स्वप्नस्थविषयाः जाग्रत्कालीनवत्‌ न परमार्थाः किन्तु मिथ्या एव। विचारान्तर ही पुरुष की प्रवृत्ति होती है।,विचारानन्तरं हि पुरुषस्य प्रवृत्तिः। संशय तथा निश्चय क्या होता है तो कहते हैं कि प्राथमिक वेदाध्ययन के द्वारा जो निश्चय होता है उससे असम्भवाना विपरीत भावना तथा संशय विपर्यय का निवारण नहीं होता है।,"कथं संशयोऽपि अस्ति, निश्चयोऽप्यस्ति , प्राथमिकवेदाध्ययनेन यो निश्चयो जायते तेन असम्भावना विपरीतभावना इति संशयविपर्ययौ न निवर्तते।" अरणि के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है।,अरणिद्वयघर्षणेन अग्निरुत्पद्यते। वे उपासक भी दिव्यस्वर्ग को प्राप्त करते है जहाँ स्वर्ग में सिद्धिप्राप्त प्राचीन देव है।,"ते उपासकाः दिव्यं स्वर्गं प्राप्नुवन्ति, यत्र प्राचीनाः सिद्धिं प्राप्तवन्तः देवाः सन्ति।" 1. त्रयीलक्षणवह ब्रह्म ही है।,१. त्रयीलक्षणं तत्‌ ब्रह्मैव। जिसने इन पृथिवी और द्विलोक को धारण किया है।,पृथिवीं द्विलोकं च स दधार। समवायात्‌ - सम्पूर्वक अवपूर्वक इधातु से विधिलिङ प्रथमपुरुष एकवचन में।,समवायात्‌ - सम्पूर्वकात्‌ अवपूर्वकात्‌ इधातोः विधिलिङि प्रथमपुरुषैकवचने। कितने समय तक करना चाहिए।,कियन्तं कालं कर्तव्यः। योगियों को तो हमेशा हिँसा रहित ही होना चाहिए।,योगिनस्तु सर्वथा हिंसारहिताः भवेयुः। शरीर भी अन्न का ही विकार होता है।,शरीरम्‌ अन्नस्य विकारः भवति। यह ही अपवाद कहलाता है।,एतदेवापवाद इत्युच्यते। प्रयोजन की सिद्धि आत्मज्ञान के द्वारा होती है।,प्रयोजनसिद्धिश्च आत्मज्ञानेन भवति। और ग्राम्य गौ अश्व आदि भी हुए।,तथा ये च ग्राम्याः गवाश्वादयः तानपि चक्रे। इस श्रुति में अद्वितीय ब्रह्मज्ञान का अद्वितीय ब्रह्मप्राप्ति परक ही फल बताया है।,अस्यां श्रुतौ अद्वितीयब्रह्मज्ञानस्य अद्वितीयब्रह्मप्राप्तिरेव फलम्‌ इति उक्तम्‌ अस्ति। अपनी माया से समस्त अजायमान से संमोहित होते हुए भी स्वयं बहुधा उत्पन्न होता है।,स्वमायया सर्वान्‌ अजायमानः विक्षेपयन्‌ संमोहयन्‌ स्वयं बहुधा विजायत इति। हम यजमान जैसे उपयुक्तस्थान पर दलिया और लकड़ी सहित यज्ञभूमि पर रथ के ऊपर सोमरस को स्थापित करने में समर्थ हो उस प्रकार का अनुग्रह आप करो यह प्रार्थना की गई।,वयं यजमानाः यथा उपयुक्तस्थाने यूपयष्टिसमन्वितायां यज्ञभूमौ रथोपरि सोमरसं स्थापयितुं समर्थाः भवेम तादृशम्‌ अनुग्रहं भवन्तौ कुरुताम्‌ इति प्रार्थना और वर्णसम्मेलन होने पर बहुयज्वा रूप सिद्ध होता है।,वर्णसम्मेलने च सति बहुयज्वा इति रूपं सिध्यति। "इसी कारण ही इसे आदि वेद कहते है, जयन्तभूटट ने तो न्यायमञ्जरी में इस विषय में विस्तार सहित विचार किया है।","अत एव अयं आद्यवेदः इति प्रथितः, जयन्तभद्टस्तु न्यायमञ्जर्याम्‌ अस्मिन्‌ विषये सविस्तरं विचारं कृतवान्‌।" ये ही सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म के रूप में माने जाते है।,"एते एव सगुणं ब्रह्म, निर्गुणं ब्रह्म चेति अभिधीयेते।" 7.दम से तात्पर्य है बाह्येन्द्रियों को उनसे अतिरिक्त विषयों से हटाना अर्थात्‌ बाह्येन्द्रियों का दमन करना।,७. दमो हि बाह्येन्द्रियाणां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्‌। बाह्येन्द्रियाणि दमनीयानि। दूसरा एक याग गवामयन याग है।,अपरः एकः यागो हि गवामयनयागः। और यहाँ यथा यह शब्द पाद के अन्त में है।,किञ्च अत्र यथा इति शब्दः पादस्य अन्ते अस्ति। प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।,प्रयोजन के विना मंद भी प्रवर्तित नही होता हैं । उस प्रकार की आत्मा ही आत्म की बन्धु होती है।,तादृश एव आत्मा आत्मनः बन्धुः। ऐतरेयब्राह्मण में लिखा है कि यदि उसकी पत्नी मर चुकी है तो पुनर्विवाह करना चाहिए अथवा श्रद्धा को पत्नी रूप में कल्पित करके ब्राह्मण अग्निहोत्र करे।,ऐतरेयब्राह्मणे लिखितमस्ति यद्‌ यदि पत्नी विगता स्यात्‌ तर्हि पुनः विवाहः कार्यः नो चेत्‌ श्रद्धां पत्नीरूपेण कल्पयित्वा ब्राह्मणः अग्निहोत्रं कुर्यात्‌ इति। इसका उदाहरण है शाकपार्थिवः।,शाकपार्थिवः इत्यादिकमिहोदाहरणम्‌। स्वराङ्कशशिक्षा- इस शिक्षा का रचयिता जयन्त स्वामी नाम का कोई विद्वान था।,स्वराङ्कशशिक्षा- अस्याः शिक्षाया रचयिता जयन्तस्वामीनामकः कोऽपि विद्वान्‌ आसीत्‌। यह मात्र आगम के द्वारा गम्य होता है।,अयम्‌ आगमैकगम्यः विषयः। वहाँ पर केबल अभिमान ही कारण होता है।,अभिमानमेव तत्र कारणम्‌। भाषा की शुद्धि में व्याकरण की अपेक्षा होती ही है।,भाषायाः शुद्धये व्याकरणस्य अपेक्षा भवत्येव। उसी प्रकार जीवात्मा के अध्यात्म सविशेष तीन रूप होते हैं।,तथैव जीवात्मनः अध्यात्मं च सविशेषाणि त्रीणि रूपाणि सन्ति। प्रत्ययः (1/1) अधिकार और परश्च यह अधिकार यहाँ आ रहा है।,प्रत्ययः(१/१) इति अधिकारः परश्च इति अधिकारः च अत्र आगच्छति। जीवन मुक्ति के स्वरूप ।,जीवन्मुक्तलक्षणस्य व्याख्यानं कुरु? आततायी छः प्रकार के माने गए हैं।,षडेते आततायिनः ॥ जो कुछ हुआ और जो कुछ होगा वो सब भी वह पुरुष ही है।,"यत्‌ जातं, यच्च भविष्यति तत्‌ अपि स पुरुष एव।" तब ब्रह्मविषयक अज्ञान का नाश हो जाता है।,तदा ब्रह्मविषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति । इसमें कुछ भी विशेष नहीं होता है।,कोऽपि विशेषः तत्र नास्ति। इसी तरह अणककुलालः इसका उदाहरण है।,एवमेव अणककुलालः इति अस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ । अंतिम से पहले दो अनुष्टुभ और शेष त्रिष्टुभ में है।,उपान्त्ये द्वे अनुष्टुभौ शेषाः त्रिष्टभः। स्वप्न काल में प्राण के सत्त्व होने से शरीर की जडता नहीं होती है।,स्वप्नकाले शरीरस्य जडता नास्ति प्राणस्य सत्त्वात्‌। यह इष्ट अनिष्ट सुख तथा दुख को नहीं जानता है।,यतश्च इष्टमनिष्टं वा सुखं दःखं वा नायं जानाति। गिरिशश्चासावन्तश्च गिरिशन्तस्तत्संबुद्धि:।,गिरिशश्चासावन्तश्च गिरिशन्तस्तत्संबुद्धिः। विष्ठा - विपूर्वक स्था-धातु से कप्रत्यय करने पर।,विष्ठा- विपूर्वकात्‌ स्था-धातोः कप्रत्यये। इसलिए ये विषय ऐहिक कहलाते हैं।,अत एते विषया ऐहिकाः। सबसे पहले तो उसकी वाराणसी जाने की इच्छा है अथवा नहीं।,प्रथमन्तु तस्य वारणसीगमने इच्छा अस्ति न वा। यहाँ कृत यह क्त प्रत्ययान्त उत्तरपद है।,अत्र कृत इति क्तप्रत्ययान्तम्‌ उत्तरपदम्‌। "इस प्रकार गत्ति अर्थ वाले लोट्‌ से युक्त जो लोडन्त तिङन्त पद है, उसको अनुदात्त नहीं होता यह सूत्र अर्थ होता है।",एवञ्च गत्यर्थलोटा युक्तं यत्‌ लोडन्तं तिङन्तं तत्‌ अनुदात्तं न भवति इति सूत्रार्थः समायाति। अर्थात्‌ बहुत पुत्र वीर हो।,अर्थात्‌ बहवः पुत्राः वीराः स्युः। द्वन्द्वसमास के लक्षण में प्रायेण पद क्यों लिया गया है?,५१. द्वन्द्वसमासलक्षणे प्रायेण इति पदं किमर्थम्‌? अन्तः करण के घटकद्रव्य सत्वरजतम इस प्रकार से तीन गुण होते हैं।,अन्तःकरणस्य घटकद्रव्याणि सत्त्वरजस्तमांसि त्रयो गुणाः सन्ति। इसका सार यह है कि- आनन्दरूपब्रह्म की प्राप्ति ही मोक्ष कहलाती है।,तदयं संग्रयः- आनन्दरूपब्रह्मप्राप्तिरेव मोक्ष । क्रियाशील विश्वास है यह भी उसका अर्थात्‌ है और भी आस्तिक्यबुद्धिः श्रद्धा यह श्रद्धाशब्द का अर्थकठोपनिषद शाङ्करभाष्य में कहा गया है।,क्रियाशीलः विश्वासः इत्यपि अर्थान्तरम्‌। तथाहि आस्तिक्यबुद्धिः श्रद्धा इति श्रद्धाशब्दार्थः उक्तः कठोपनिषदः शाङ्करभाष्ये। प्रथम उत्पन्न होने पर समग्रजगत्‌ का स्वामी हुआ।,प्रथमोत्पन्ने सति समग्रजगतः स्वामी अभूत्‌। इन्दियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन ही प्रत्याहार कहलाता है।,इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्यावर्तनमेव प्रत्याहारः। मूलाधार मेरूदण्ड के निम्नदेश में होता है।,मूलाधारः मेरुदण्डस्य निम्नदेशे विराजन्ते। स्वयं तर्क द्वारा ब्रह्मज्ञान का अन्वेषण नहीं करे इस प्रकार का निषेध भी श्रुतियों में प्राप्त होता है।,स्वयं तर्केण ब्रह्मज्ञानस्य अन्वेषणं न कर्तव्यमिति इति निषेधोऽपि श्रुतौ उपलभ्यते। कोई भी दर्शन सभी लोगों के लिए उपयोगी तभी होगा जब वह सर्वजनग्राह्यव हो जाएगा।,तस्माद्‌ यदि किञ्चिद्दर्शनं सर्वेषाम्‌ आध्यात्मिकं प्रयोजनं परिपूरयितुं समर्थं स्यात्‌ तर्हि तत्‌ सर्वजनग्राह्यं स्यात्‌। अब प्रश्‍न करते हैं कि यहाँ विषय क्या है।,कश्च विषयः। "“उपसर्गादध्वनः"" इस सूत्र का क्या अर्थ है।","""उपसर्गादध्वनः"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" वह देवों का यज्ञ में आह्वान करती है।,स देवान्‌ यज्ञे आह्वयति। "कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से अन्तः, उदात्तः प्रथमा एकवचनान्त दो पदों की यहाँ अनुवृति आ रही है।","कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अन्तः, उदात्तः चेति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अत्र अनुवर्तते।" जिनकी महिमा से सृष्टि सागर धरित्री कही जाती है और दिशा जिनकी बाहुस्वरूप है उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।,यस्य महिम्ना दिशः बाहुस्वरूपाः तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम। 5 अज्ञान के नाश के लिए ब्रह्म में वृत्तिव्याप्ति अपेक्षिता है।,5 अज्ञाननाशाय ब्रह्मणि वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता। “विभाषा छन्दसि' इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,"""विभाषा छन्दसि"" इति सूत्रं व्याख्यात।" साङ्ख्य दर्शन में लौकिक वाक्यों के शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव स्वीकार नहीं करते हैं।,साङ्ख्यदर्शने लौकिकवाक्यानां शब्दप्रमाणे अन्तर्भावः न स्वीक्रियते। यशसम्‌ - यश शब्द का अच्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में यशसम्‌ यह रूप बनता है।,यशसम्‌- यशश्शब्दस्य अच्प्रत्यये द्वितीयैकवचने यशसम्‌ इति रूपम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- कुमारी च इयं कुलटा इस विग्रह में कर्मधारय समास में कुमारी इसका पुंवद्‌भाव करने पर कुमार कुलटा यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- कुमारी च इयं कुलटा इति विग्रहे कर्मधारयसमासे कुमारी इत्यस्य पुंवद्भावे कुमारकुलटा इति रूपम्‌। "इस याग में छह पुरोहित अपेक्षित होते हैं - अधवर्यु, प्रतिप्रस्थाता, होता, मैत्रावरुण, अग्नि, और ब्रह्मा।","अस्मिन्‌ यागे षट्‌ पुरोहिताः अपेक्षिताः भवन्ति - अध्वर्युः, प्रतिप्रस्थाता, होता, मैत्रावरुणः, अग्निः, ब्रह्मा च।" 6. यङश्चाप्‌ सूत्र से चाप्‌ प्रत्यय होता है।,"६. ""यङश्चाप्‌"" इति सूत्रेण चाप्प्रत्ययः विधीयते।" "दस उपनिषद्‌ प्रसिद्ध है - ईश, केन, कठ, प्रश्‍न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक उपनिषद्‌।",दश उपनिषदः प्रसिद्धाः- ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तैत्तिरीय-ऐतरेय- छान्दोग्य-बृहदारण्यकोपनिषदः। उदाहार्यः उदक हरन्ति ता उदहार्यः ` मन्थौदन-' (पा. ६/३/६०) इत्यादि से उदक को उद आदेश।,उदाहार्यः उदकं हरन्ति ता उदहार्यः 'मन्थौदन-” (पा. ६/३/६०) इत्यादिना उदकस्योदादेशः। लेकिन पुरुष प्राणियों के कर्मफल भोग के कारण अपनी कारणावस्था को छोड़कर परिदुश्यमान जगदवस्था को प्राप्त करता हैद्य ये पुरुष प्राणियों के कर्मफलभोग के लिए जगदवस्था को प्राप्त करता है इसलिए ये उसका वास्तविक रूप नहीं है।,"यतः प्राणिनां भोग्येन निमित्तेन स्वकीयां कारणावस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमाना जगदवस्थां प्राप्नोति पुरुषः, ततः प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारात्‌ नेदं तस्य वास्तविकं रूपम्‌।" वेदान्त का विषय क्या है?,वेदान्तस्य विषयः कः? उन अर्थो में प्रयोजन अभाव वाली बुद्धि के द्वारा कर्त्तव्य बुद्धि नहीं करता है तथा उनका सङ्ग भी नहीं करता है।,"तेषु अर्थेषु कर्मसु च प्रयोजनाभावबुद्ध्या कर्तव्यताबुद्धिं न करोति, न अनुषज्जते।" अर्थात सभी को जल से परिपूर्ण करो।,भवन्तु उदकपूर्णा भवन्त्वित्यर्थः । चारों वेदों की भिन्न भिन्न शाखाओं में शिक्षा का सम्बन्ध है।,चतुर्णाम्‌ अपि वेदानां भिन्नभिन्नशाखासु शिक्षायाः सम्बन्धः वर्तते। 15. चित्त के विक्षेप का नाशक क्या होता है?,१५. चित्तविक्षपनाशकं किम्‌। पुराण में यह विष्णु उपेन्द्ररूप से भी (इन्द्र के छोटे भाई के रूप) में वर्णन किया गया है।,पुराणेषु एष विष्णुः उपेन्द्ररूपेणापि (इन्द्रस्य अनुजः) वर्णितः। इस प्रकार से इनके अनेक उपाय होते हैं।,इत्थं सन्ति नैके उपायाः। विवेक मन के द्वारा उत्पन्न होता है।,विवेकश्च मनसा भवति। और जिनके सुबन्तत्व नहीं होता है उनका श्रितादित्व नहीं होता है।,येषां च सुबन्तत्वं तेषां श्रितादित्वं नास्ति। "वो ही प्राणदाता और बलदाता है, जिसके आदेश की पालना सभी देवता करते हैं।","स प्राणदाता, बलदाता, यस्य आदेशः सर्वदेवताभिः पाल्यते।" आपका क्रोधबाण हाथ हमारी रक्षा के लिए फैल न की हमारे नाश के लिए यह अर्थ है ।,तव क्रोधबाणहस्ता अस्मदरिष्वेव प्रसरन्तु नास्मास्वित्यर्थः। इन्द्रारुणौ यहाँ पर देवतावाचक द्वन्द्वसमास है।,इन्द्रारुणौ इत्यत्र देवतावाचकानां द्वन्द्वसमासः अस्ति। क्रन्द - क्रन्द्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,क्रन्द - क्रन्द्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने । स्वर वर्ण आदि का उच्चारण प्रकार का जहाँ शिक्षा अथवा उपदेश देते है वह शिक्षा है।,स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा इति। उसको इस सूत्र से स्य प्रत्यय के यकार से उत्तर अकार को अनुदात्त होना सिद्ध है।,ततश्च प्रकृतसूत्रेण स्यप्रत्ययस्य यकारोत्तरस्य अकारस्य अनुदात्तत्वं सिद्ध्यति। इन्होंने ही पणिगण को मारकर गायों को छुड़ाया।,अनेन पणिगणं हत्वा गवां मोचनं विहितम्‌। बिना शक्ति के भी युद्ध की इच्छा करता है।,अशक्तस्यापि युद्धेच्छायां दृष्टान्तः। तमशब्द का अर्थ अविद्या है।,तमःशब्देन अविद्या उच्यते। पाण्डुपुत्रो का समय तो राजतरङिगणी में ही वर्णित है - “शतेषु षट्सु सार्ऽर्धेषु त्र्यधिकेषु च भूतले।,पाण्डुपुत्राणां समयः तु राजतरकङ्गिण्याम्‌ एव वर्णितम्‌ - 'शतेषु षट्सु साऽर्धेषु त्र्यधिकेषु च भूतले। किस प्रकार की पृथ्वी ऐश्वर्य और तेज प्रदान करती है?,कीदृशी पृथिवी ऐश्वर्य तेजश्च प्रयच्छतु? 52. पश्चात्‌ अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण क्या है।,५२. पश्चादर्थे अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? और ये अन्तोदात्त आदि स्वर व्यवस्था फिट्‌ सूत्रों के विना सम्भव नहीं है।,एताश्च अन्तोदात्तादिस्वरव्यवस्थाः फिट्‌- सूत्राणि विना न सम्भवन्ति। "तत्पुरुषसमास होने पर पूर्वपद यदि तुल्यार्थवाचक, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त, उपमानवाचक, अव्यय, अथवा कृत्यप्रत्ययान्त है तो पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।","तत्पुरुषसमासे पूर्वपदं यदि तुल्यार्थवाचकं, तृतीयान्तं, सप्तम्यन्तं, उपमानवाचकम्‌, अव्ययं, कृत्यप्रत्ययान्तं वा भवति तर्हि पूर्वपदं प्रकृत्या भवति।" ऋग्वेद के शब्द अक्षर आदि की गणना प्रसङ्ग में यहाँ वहाँ भिन्नता भी देखी जा सकती है।,ऋग्वेदस्य शब्दाक्षरादीनां गणनाप्रसङ्गे यत्र तत्र पार्थक्यमपि परिदृश्यते। तु शब्द से अथवा अह शब्द से युक्त है।,तुशब्देन अहशब्देन वा युक्तम्‌ अस्ति। उसी प्रकार से सुनता हुआ भी नहीं सुनता है।,तथैव शृण्वन्नपि न शृणोति। इस प्रकार की श्रुतियों को अनेक बार देखने से यह स्पष्ट होता है कि श्रवण मनन निदिध्यासनादि की आवृत्ति जबतक ब्रह्म साक्षात्कार नहीं हो जाए तबतक करनी चाहिए।,एतादृशीनां श्रुतीनां नैकवारं दर्शनादेव इदं स्पष्टं भवति यत्‌ श्रवण-मनन- निदिध्यासनादीनां ब्रह्मसाक्षात्कारं यावत्‌ आवृत्तिः उपदिश्यते इति। "यहां अस्था त्रय, पंचकोश महावाक्य विचार, समाधि और उसको साधने हेतु विषय यहां प्रतिपादित है।",अत्र अस्थात्रयं पञ्चकोशाः महावाक्यविचारः समाधिः तत्साधनमितीमे विषयाः अत्र प्रतिपाद्याः सन्ति। सारथि जैसे घोड़ो को अपने हाथ से इधर उधर करता हुआ और नियन्त्रित करता है उसी प्रकार मन भी मनुष्यों को इधर उधर करता हुआ और नियंत्रित करता है।,सुसारथिः यथा अश्वान्‌ प्रग्रहः इतस्ततः नेनीयते नियन्त्रयति च तथैव मनः अपि मनुष्यान्‌ इतस्ततः नेनीयते नियन्त्रयति च। और उससे युवति होता है।,तेन च युवति इति जायते। आहुति के अवशिष्ट सोमरस का चमस से पुरोहितगण और यजमान को पान कराया जाता है।,आहुतेः अवशिष्टः सोमरसः चमसेन पुरोहितगणाय यजमानाय च पानं कार्यते। निर्वकल्पकसमाधि में ज्ञातृज्ञानज्ञेयादि विकल्पों का लय होने पर अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में तदाकारकारिता चित्तवृत्ति का निरन्तर एकीभाव से अवस्थान होता है।,निर्विकल्पकसमाधिर्हि ज्ञातृज्ञानादीनां विकल्पानां लये सति अद्भितीयवस्तुनि ब्रह्मणि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः निरन्तरम्‌ एकीभावेन अवस्थानम्‌। इनेक द्वारा ही वैश्वानर शब्दादि स्थूल विषयों का भोग करता है।,एतैः वैश्वानरः शब्दादिस्थूलविषयान्‌ भुङ्क्ते। इसी प्रकार से ज्ञान के साथ कर्म भी करना चाहिए।,एवं ज्ञानेन सह कर्मापि कर्तव्यमेव। "सामान्यतः समास के पाँच भेद हैं और वे हैं- केवल समास, अव्ययीभावसमास, तत्पुरुष, बहुव्रीहि, और दन्द समास है।","सामान्यतः समासस्य पञ्च भेदाः सन्ति ते च - केवलसमासः, अव्ययीभावसमासः, तत्पुरुषः, बहुव्रीहिः, द्वन्द्वः चेति।" इष्टियाग नित्य और काम्य दोनों प्रकार का हो सकता है।,इष्टियागः नित्यः काम्यो वा उभयप्रकारकः भवितुम्‌ अर्हति। "“दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌""( 2.9.50 ) सूत्रार्थ-दिशावाचक और संख्यावाचक को सुबन्त समानाधिकरण को सुबन्त के साथ संज्ञा में गम्यमान होने पर ही तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।",दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌॥ (२.१.५०) सूत्रार्थः - दिशावाचकं संख्यावाचकं च सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह संज्ञायां गम्यमानायामेव तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। उसकी भुजाएं सभी दिशाओं में है।,तस्य भुजाः सर्वाः दिशः। तमू अकृण्व त्रेधा भुवे इसका क्या तात्पर्य है ?,तमू अकृण्व त्रेधा भुवे इत्यनेन किं ज्ञायते ? अथर्ववेद का कल्पसूत्र - वैतान श्रौतसूत्र और कौशिक सूत्र है।,"अथर्ववेदस्य कल्पसूत्रम्‌ - वैतानश्रौतसूत्रम्‌, कौशिकसूत्रञ्चेति।" शबर स्वामी ने शबर भाष्य को लिखा।,शबरस्वामिनः शबरभाष्यमिति। इसलिए ही भगवान ने गीता में अर्जुन को वर्णाश्रम धर्म प्राप्त युद्ध करने का उपदेश दिया।,अत एव भगवान्‌ गीतासु अर्जुनं वर्णाश्रमधर्मप्राप्तं युद्धं कर्तुम्‌ उपदिदेश। चितः इस पूर्व सूत्र से चितः इस षष्ठ्यर्थ में प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आती है।,चितः इति पूर्वसूत्रात्‌ चितः इति षष्ठ्यर्थ प्रथमैकवचनान्तं पदमत्र अनुवर्तते। हिरण्यगर्भ इत्येष मा मां हिसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः॥ ३ ॥,हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः॥ ३ ॥ पदपाठ - सर्वे।,पदपाठः - सर्वे। "वहाँ सुगन्धितेजनस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, ते यह षष्ठ्यन्त अनुकरण प्रथमा एकवचनान्त पद है, वा यह अव्यय पद है।","तत्र सुगन्धितेजनस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, ते इति षष्ठ्यन्तानुकरणकं प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, वा इति अव्ययपदम्‌।" सूत्र का अर्थ- द्विगु समास में इगन्त आदि उत्तरपद रहते पूर्वपद बहु शब्द को विकल्प करके प्रकृत्तिस्वर होता है।,सूत्रार्थः- द्विगौ समासे इगन्तादिषु उत्तरपदेषु पूर्वपदस्थः बहुशब्दः अन्यतरस्यां प्रकृत्या भवति। आरण्यक के भाग उनके नाम और प्रपाठक आदि का चित्र रुप से प्रकटीकरण कीजिए।,आरण्यकस्य भागानि तेषां नामनि प्रपाठकादीनि च चित्ररुपेण प्रकटयत। मन-आदि जड़ की लोक में प्रवृत्ति देखी जाती है।,मन-आदीनां च अचेतनानां लोके प्रवृत्तिर्दृश्यते। """विभाषितं विशेषवचने ' इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।","""विभाषितं विशेषवचने' इत्यस्य सूत्रस्य व्याख्यां कुरुत।" वह इस प्रकार से श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्‌ पादसेवनम्‌।,तथाहि- श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्‌ पादसेवनम्‌। श्री निवास दीक्षित द्वारा रचित सिद्धान्त शिक्षा भी इस शिक्षा के विषय प्रतिपादन में ही अनुसरण करती है।,श्रीनिवासदीक्षीतेन रचिता सिद्धान्तशिक्षा अपि अस्याः शिक्षायाः विषयप्रतिपादने अनुगमनं करोति। शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है “एतद्वै जरामर्य॑सत्रं जरया ह्येवास्मात्‌ मुच्यते मृत्युना वा” अर्थात्‌ अग्रिहोत्र ही जरामर्यसत्र कहा जाता है।,"शतपथब्राह्मणस्य उक्तिः ""एतद्वै जरामर्यं सत्रं जरया ह्येवास्मात्‌ मुच्यते मृत्युना वा"" अर्थात्‌ अग्रिहोत्रमेव एव जरामर्यसत्रम् इत्युच्यते।" उदात्तस्वरितपरस्य यहाँ पर “पर' शब्द का प्रत्येक के साथ अभिसम्बन्ध है।,उदात्तस्वरितपरस्य इत्यत्र परशब्दः प्रत्येकम्‌ अभिसम्बध्यते। अथर्व-ऋषि द्वारा दुष्ट मन्त्र शान्ति और पौष्टिक कर्म के साथ सम्बद्ध है।,अथर्व-ऋषिणा दृष्टाः मन्त्राः शान्तिपुष्टिकर्मभिः सह सम्बद्धाः सन्ति। मानस याग को निष्पादित किया।,मानसयागं निष्पादितवन्त इत्यर्थः। जैसे- शुक्लयजुर्वेदीय पुरुषसूक्त में वेद पुरुष का बड़ा ही विस्तृत वर्णन है।,यथा शुक्लयजुर्वेदीये पुरुषसूक्ते वेदपुरुषस्य महती वर्णना वर्तते। ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि इति सूत्रं व्याख्यात। उसी प्रकार से कर्म से भी निःश्रेयस साधनत्व नहीं होता है।,तस्मात्‌ न कर्मणोऽस्ति निःश्रेयससाधनत्वम्‌। धर्म का साधन ही अर्थ कहलाता है।,धर्मस्य साधनं हि अर्थः कथ्यते। वह ही सभी प्रपञ्च का निर्माता है।,सः सर्वस्य प्रपञ्चस्य स्रष्टा। वेदाङ्ग ज्योतिष शास्त्र के कर्त्ता असन्दिग्ध रूप से लगध ही थे।,वेदाङ्गज्यौतिषशास्त्रस्य कर्त्ता असन्दिग्धरूपेण लगधः आसीत्‌। "भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्‌ इस क्रम से ऊपर के सात लोक।","तानि हि भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्‌ इति सप्त क्रमेण ऊरद्र्ध्वलोकाः।" प्रस्तुत सूत्र का अर्थ धातु के और प्रातिपदिक के अवयव के सुबन्त (सुप) का लोप होता है।,"एवं प्रस्तुतस्य सूत्रस्यार्थः - ""धातोः प्रातिपदिकस्य च अवयवस्य सुपः लुक्‌ भवति"" इति।" सन्‌ वैद्यः इस लौकिक विग्रह में सत्‌ सु वैद्य सु इस अलौकिक विग्रह में सत्‌ सु इसका समानाधिकरण से वैद्य सु इससे पूज्यमानवाचकों का सुबन्तों के साथ विकल्प से प्रकृतसूत्र से प्रक्रिया कार्य में सद्वैद्यः रूप सिद्ध होता है।,सन्‌ वैद्यः इति लौकिकविग्रहे सत्‌ सु वैद्य सु इत्यलौकिकविग्रहे सत्‌ सु इत्यस्य समानाधिकरणेन वैद्य सु इत्यनेन पूज्यमानवाचकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन प्रकृतसूत्रेण समासे प्रक्रियाकार्ये सद्वैद्यः इति रूपं सिद्धम्‌। चौथे अध्याय में संन्यासी के उपयोगी मन्त्रों का सङ्ग्रह है।,चतुर्थाध्याये प्रवर्ग्यस्य उपयोगिनां मन्त्राणां सङ्ग्रहोऽस्ति। अतः प्रत्यय ग्रहण की परिभाषा से सुबन्त को प्राप्त है।,अतः प्रत्ययग्रहणपरिभाषया सुबन्तमिति लाभः। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में वरुण देव कैसे प्रतिपादित है?,ऋग्वेदस्य दशममण्डले वरुणदेवः कथं प्रतिपादितः? पूजनात्‌ और प्रातिपदिकात्‌ को अन्वयव है।,पूजनात्‌ प्रातिपदिकात्‌ इत्यनेनान्वयः। यहाँ महर्षि वशिष्ठ वरुण देव से प्रार्थना करते हैं - हे देव!,अत्र महर्षिः वशिष्ठः वरुणदेवं प्रार्थयति - हे देव! उसकी आसक्ति के कारण ही चित्त में मल स्थित होता है।,तस्य आसक्तेः कारणं हि चित्तस्थो मलः। और उसका पत्ति इस शब्द के साथ अन्वय किया है।,तच्च पत्यौ इत्यनेन सह अन्वेति। वि.चू. 177 यदि विषयों को अरण्य के रूप मे स्वीकार करें तो मन वहाँ पर बाधित होता है।,वि.चू १७७ विषयाः यदि अरण्यमिति स्वीकुर्मः। तर्हि मनः तत्र व्याघ्रः भवति। और अजादिगणपठितशब्दात्त प्रातिपदिक है।,"एवञ्च अजादिगणपठितशब्दान्तं प्रातिपदिकम्‌," वहाँ विद्यमान षट्‌ इस पद को भी सम्बोधन विभक्त्यन्त होने से आमन्त्रित है।,ततः विद्यमानं षट्‌ इति पदम्‌ अपि सम्बोधनविभक्त्यन्तत्वात्‌ आमन्त्रितं वर्तते। जैसे ग्रक्‌ चन्दन स्त्री घर इत्यादि विषय इस लोक मे होते हैं।,स्रक्‌ चन्दनं वनिता गृहम्‌ इत्यादिविषया इहलोके भवाः। यजमान अवगाहन रत पुरोहितों के शिर पर जल सिञ्चता है।,यजमानः अवगाहनरतानां पुरोहितानां शिरसि जलं सिञ्चति। 11. श्वेताश्वतरोपनिषद में यह कहा है कि “अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।,११. श्वेताश्वतरोपनिषदि निगद्यते “अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। “यदा सर्वे प्रमुच्यते सचक्षुः अचक्षुरिव सकर्म अकर्म इव” इत्यादि श्रुतिवाक्य जीवन्मुक्त पुरुष के स्वरूप को प्रस्तुत करते है।,"यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते' ""सचक्षुः अचक्षुरिव सकर्ण अकर्ण इव""इत्यादिश्रुतिवाक्यानि जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य स्वरूपं प्रस्तुवन्ति।" (ख.) जो उपासना को त्यागता है (ग.) जो नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित को त्यागता है।,(ख) यः उपासनां त्यजति। (ग) यः नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानि त्यजति। अग्नि किसके द्वारा स्तुति करने के योग्य है?,अग्निः कैः स्तुत्यः? प्रत्येक पाद में आठ अक्षर होते हैं।,प्रतिपादम्‌ अष्टौ अक्षराणि भवन्ति। तब तद्धित पर में होने पर आदिवृद्धि में सूत्र प्रवृत्त होता है।,तदा तद्धिते परे आदिवृद्धये सूत्रं प्रवृत्तम्‌ । वैदिक ऋषि अपने उपास्य देव को सदैव पूजते थे।,वैदिकाः ऋषयः स्वस्य उपास्यदेवं सदैव अपूजयन्‌। "इस वर्णन को पढ़कर साधारण पाठक प्रसन्न होते हैं, इनमें कुछ उद्ठिग्न करने वाले विषय समूह पर यहाँ वहाँ अत्यन्त रोचक, आकर्षक और महत्त्वपूर्ण आख्यान भी प्राप्त होते है।","इदं वर्णनं पठित्वा साधारणपाठकः समुद्वेलितो भवति, किञ्चैतेषु उद्वेजकविषयसमूहेषु यत्र तत्र अत्यन्तरोचकम्‌ आकर्षकं महत्त्वपूर्ण च आख्यानम्‌ अपि प्राप्यते।" इसलिए वह प्रज्ञान ब्रह्म होता है।,तस्मात्‌ प्रज्ञानं ब्रह्म” इति। साधन चतुष्टय में अन्यतम साधन शमादिष्ट सम्पत्ति है। तथा उस सम्पत्ति में पञ्चमी श्रद्धा होती है।,साधनचतुष्टये अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः। तत्सम्पत्तौ पञ्चमी श्रद्धा। ईशानः - ईश्‌-धातु से शानच प्रत्यय होने पर प्रथमा एकवचन में ईशन यह रूप बनता है।,ईशानः-ईश्‌-धातोः शानचि प्रथमैकवचने। इसी प्रकार यहाँ उदात्त से (इकार से) पर अनुदात्त का (ईकार का) वर्तमान से प्रकृत सूत्र के द्वारा पर अनुदात्त के स्थान में स्वरित स्वर होता है।,एवमत्र उदात्तात्‌ (इकारात्‌) परस्य अनुदात्तस्य (ईकारस्य) वर्तमानात्‌ प्रकृतसूत्रेण परस्य अनुदात्तस्य स्वरितस्वरः। कस्मै के अनैक अर्थ किये हैं व्याख्याकारों ने।,कस्मै इत्यस्य नैके अर्थाः व्याखाकारैः कृताः। अश्वनत्‌ - अश्‌ - धातु से लेट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में अश्वनत्‌ यह रूप बनता है।,अश्वनत्‌- अश्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने अश्वनत्‌ इति रूपम्‌। स्वप्न तथा जागरण में आनन्द का अल्प ही स्फुरण होता है।,स्वप्नजागरणयोः आनन्दस्य अल्पमेव स्फुरणं भवति। जो यह पुरुष है उस पुरुष को देवों ने प्रजापति ने मानस यज्ञरूप में बढ़ाया विराट्पुरुष को ही पशुरूप में मान कर बाँधा।,यत्‌ यः पुरुषो वैराजोऽस्ति तं पुरुषं देवाः प्रजापतिप्राणेन्द्रियरूपाः यज्ञं तन्वानाः मानसं यज्ञं तन्वानाः कुर्वाणाः पशुम्‌ अबध्नम्‌ विराट्पुरुषमेव पशुत्वेन भावितवन्तः। सरलार्थ - (हे पर्जन्य देव) आप वर्षा करो।,सरलार्थः - ( हे पर्जन्य देव ) भवान्‌ वर्षणं करोतु । 3. ब्राह्मणादि वर्ण ब्रह्मचर्यादि आश्रमो का उद्देश्य करने नित्यकर्तव्यता के द्वारा जिन शास्त्रविहित कर्मों को करते हैं वे कर्म नित्य कर्म कहलाते हैं।,३. ब्राह्मणादीन्‌ वर्णान्‌ ब्रह्मचर्यादीन्‌ आश्रमान्‌ च उद्दिश्य नित्यकर्तव्यतया शास्त्रेण विहितानि कर्माणि नित्यानि। देवेभिः - देवशब्द का तृतीयाबहुवचन में यह वैदिक रूप है।,देवेभिः- देवशब्दस्य तृतीयाबहुवचने वैदिकं रूपमिदम्‌। तबतक अज्ञानावरण का नाश भी नहीं होता है।,तावद्‌ अज्ञानावरणनाशो न भवति। और भी पढ़ा गया है अज्मध्यस्थडकार को ळकार बह्वृचा में जानना चाहिए।,तथा च पठ्यते अज्मध्यस्थडकारस्य ळकारं बह्वृचा जगुः। कारीषगन्धि किसी आदमी का नाम है।,कारीषगन्धिः इति कस्यचित्‌ जनस्य नाम। उसी प्रकार से जीव भी संसार रूपी आवर्त में बहुत जन्मों को भोगकर के सत्कर्म के परिपाक होने से करुणानिधि परमकृपालु गुरु के द्वारा उद्धृत होकर के रक्षित होते है।,तथैव जीवाः संसारावर्ते बहु जन्म यापयित्वा सत्कर्मपरिपाकात्‌ करुणानिधिना परमकृपालुना गुरुणा उद्धृताः सन्तः रक्षिताः भवन्ति। पैप्लाद संहिता की एक प्रतिलिपि शारदा लिपि में कश्मीर में उपलब्ध होती है।,पिप्पलादसंहितायाः एका प्रतिलिपिः शारदालिप्यां कश्मीरे उपलब्धा अभवत्‌। "१ आध्यात्मिक, २ आधिभौतिक, ३ और आधिदैविक।","(१) आध्यात्मिकम्‌, (२) आधिभौतिकम्‌, (३) आधिदैविकशञ्चेति।" लेकिन फल विषय नहीं होता है।,परन्तु फलविषयो न भवति। स्मार्त्तसूत्र भी दो प्रकार के है - गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र।,स्मार्त्तसूत्राणि अपि द्विधा - गृह्यसूत्राणि धर्मसूत्राणि चेति। लौकिक काव्यों से वैदिक वाङमय की विलक्षणता विद्यमान है।,लौकिक काव्यादिभ्यः वैदिकवाड्मयस्य विलक्षणता विद्यते। प्र वाता वान्ति प॒तर्यन्ति विद्युत उदो्ष॑धीर्जिह॑ते पिन्व॑ते स्वः।,प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः । देव ब्रह्मण शब्द में स्वरित के स्थान में अनुदात्त हो यह अर्थ है।,देवब्रह्मणोः स्वरितस्य अनुदात्तः स्यात्‌ इत्यर्थः। विशेषवचनम्‌ इसके विशेषण इस अर्थ में है।,विशेषवचनम्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌ इत्यर्थः। "1. शिवसङ्कल्पसूक्त का ऋषि कौन है, छन्द क्या, और देवता कौन है?","१. शिवसङ्कल्पसूक्तस्य कः ऋषिः , किं छन्दः , का च देवता?" यहाँ पर यह स्पष्ट किया गया है कि अज्ञान का नाश कर्म के द्वारा नहीं होता हैं अपितु ज्ञान के द्वारा ही होता है।,"अत्रेदं स्पष्टं यद्‌ अज्ञानस्य नाशः कर्मणा न भवति, ज्ञानेनैव अज्ञाननाशः भवति।" पुनः यहाँ पर ष्यङन्तात्‌ और ञ्यङन्तात्‌ इन दोनों पदों में प्रातिपदिक से अन्वय होता है।,पुनः ष्यङन्तात्‌ ञ्यङन्तात्‌ इति अनयोः च प्रातिपदिकात्‌ इत्यत्र अन्वयः भवति। 13. “सह सुपा'' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"१३. ""सह सुपा"" इत्यस्य सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?" जिससे प्रमाणगत असम्भावना दूर होती है।,तदा प्रमाणगता असम्भावना दूरीभवेत्‌। ज्ञान का आवरण क्या होता है।,ज्ञानस्य आवरणं किम्‌। वर्षणकारी और सर्वव्यापी मेघ की उदक धारा को क्षरित करो।,वृष्णः वर्षकस्य अश्वस्य व्यापकस्य मेघस्य सम्बन्धिन्यः धाराः उदकधाराः प्रपिन्वतः प्रक्षरत । उत्तरपदार्थ प्रधान हर जहाँ प्रधान वह उत्तरपदार्थप्रधान बहुव्रीहि समास होता है।,उत्तरपदार्थः प्रधानो यत्र स उत्तरपदार्थप्रधानः इति बहुव्रीहिः। मैं ही समस्तभुवन की रचना करती हुई वायु के समान चलती हूँ।,अहमेव समस्तभुवनं सृजन्ती वायुः इव प्रवहामि। यहाँ वार्तिक अर्थ होता है'' इन शब्द के साथ सुबन्त को समास होता है।,"अत्र वार्तिकार्थो भवति - ""इवेति शब्देन सह सुबन्तं समाससंज्ञं भवति।" 15. जागरितस्थान कौन-सा है?,१५.जागरितस्थानः कः? समुद्र के समान हम प्राणियों की उत्पति समुद्र परमात्मा से हुई है।,समुदुद्रवन्त्यस्माद्‌ भूतजातानीति समुद्रः परमात्मा। इन मन्त्रों में रुद्र अध्याय में रुद्रदेवता का स्वरूप और वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करते हैं।,"एषु मन्त्रेषु रुद्राध्याये रुद्रदेवतायाः स्वरूपं, वैशिष्ट्यं च प्रस्तूयते।" और यह अविद्यमानवत्त वैकल्पिक है।,इदं च अविद्यमानवत्त्वं वैकल्पिकं वर्तते। "इस सूत्र से ""चार्थ द्वन्द्वः"" इस सूत्र से पहले तक जो सूत्र हैं उनसे विहित समास बहुव्रीहि संज्ञक होता है।","एतस्मात्‌ सूत्रात्‌ ""चार्थ द्वन्द्वः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्प्राक्‌ पर्यन्तं यानि सूत्राणि सन्ति तैः विहितः समासः बहुव्रीहिसंज्ञको भवति।" चौंतिसवें अध्याय के प्रारम्भ में छ: विशिष्ट मन्त्र 'शिवसङ्कल्प सूक्त के है' (तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु) हमेशा उपयोगी है।,चतुस्त्रिंशदध्यायस्य प्रारम्भे षण्मन्त्रविशिष्टा 'शिवसङ्कल्पसूक्तम्‌' (तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु) नितान्तम्‌ उपादेया अस्ति। चेतना के समान अधिष्ठान के लिए अस्तित्व में उसी को ही लिङग कहते हैं।,चेतनावतः अधिष्ठातुः अस्तित्वे तदेव लिङ्गम्‌। इस प्रकार से विषयों में आकृष्यमाण चित्त जिस मनोवृत्तिविशेषण के द्वारा विषयों से खींचा जाता है तथा आत्मविषयों में स्थिरता सम्पादित की जाती है वह ही ब्रह्मसाक्षात्कार में साक्षात्कारण होता है।,एवञ्च विषयेषु आकृष्यमाणं चित्तं येन मनोवृत्तिविशेषेण विषयेभ्यः अपकृष्यते किञ्च आत्मविषयिणि स्थिरता सम्पाद्यते तत्‌ निदिध्यासनम्‌ उच्यते। ब्रह्मसाक्षात्कारे साक्षात्कारणम्‌। और अन्त में कितव अक्षाभिमानी देवता को प्रणाम करते है।,अन्ते च कितवः अक्षाभिमानिनीं देवतां प्रणमति । सबसे ऊपर वह यजमान के पिता भाई और सखा होता है।,सर्वोपरि स यजमानस्य पिता भ्राता आत्मीयश्च भवति। बृहद्देवता-ग्रथ किसकी रचना है ?,बृहद्देवता-ग्रन्थः केन रचितः? ' वृजी वर्जने' रुधादि होने से श्नम्‌ प्रत्यय।,'वृजी वर्जने' रुधादित्वात्‌ श्नम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- तुल्यश्वेतः- यहाँ कृत्यतुल्याख्या अजात्या इस सूत्र से कर्मधारय समास हुआ है।,सूत्रार्थसमन्वयः- तुल्यश्वेतः- अत्र कृत्यतुल्याख्या अजात्या इति सूत्रेण कर्मधारयसमासः जातः। इस प्रकार से इन दोनों में भेद होता है।,इत्यनयोर्भेदः। (तै.उ.भा.वार्तिकम्‌ 4) भगवान्‌ भाष्यकार ने किल्बिष पाप को ही गीता के भाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है।,(ते.उ.भा.वार्तिकम्‌ ४) भगवान्‌ भाष्यकारः किल्बिषं पापमेव इति स्पष्टं कथयति गीताभाष्ये। इनके प्रतिपाद्य विषयों में भी अन्तर है।,अनयोः प्रतिपाद्ये विषये अपि अन्तरम्‌ अस्ति। """Did Buddha teach that the many was real And the ego unreal, while orthodofi Hinduism regarosQ the OneAs the real,And the manyAs unreal?","“Did Buddha teach that the many was real and the ego unreal, while orthodox Hinduism regards the One as the real, and the many as unreal?”" इसलिए यह जीव तब आनन्दभुक्‌ होता है।,अतः आनन्दभुक्‌ भवति। सूत्र का अर्थ - हन्त से युक्त सोपसर्ग उत्तमपुरुष को छोड़कर लोडन्त तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - हन्तेत्यनेन युक्तमनुदात्तं लोडन्तं विकल्पेन अनुदात्तं भवति। विष्णु का प्रिय लोक मेरा भी हो जहा मनुष्यबिना किसी बाधा के आनन्द को प्राप्त करते है।,विष्णोः प्रियः लोकः ममापि भवतु यत्र मनुष्याः निरविच्छिन्नम्‌ आनन्दं प्राप्नुवन्ति। ब्राह्मण में यज्ञ के सम्बद्ध में और उसके विविध उपदेशों का वर्णन है।,ब्राह्मणेषु यज्ञस्य तत्सम्बद्धानां विविधानाम्‌ उपदेशानां च वर्णनम्‌ अस्ति। "इन्द्रियों के अभाव में स्वप्नस्थ विषयों का दर्शन किस प्रकार से सम्भव होता है यह जिज्ञासा उत्पन्न होती हे ,तो कहते हैं की साक्षी के द्वारा।",इन्द्रियाणाम्‌ अभावे स्वप्नस्थविषयाणां दर्शनं कथं सम्भवतीति जिज्ञासायामुच्यते साक्षिद्वारा इति। अधिकारी के द्वारा बहुत साधनों को करने के लिए उपदेश दिया गया है।,अधिकारिणा बहूनि साधनानि कर्तव्यत्वेन उपदिष्टानि। तो कहते हैं कि जो उस व्यक्ति का पुत्र होता है।,यः तस्य जनस्य पुत्रः अस्ति । शरीरस्थ जीवात्मा की तीसरा अवस्थाएँ होती हैं।,शरीरस्थस्य जीवात्मनः तिस्रः अवस्थाः सन्ति। न की अभाव रूप में इसलिए ज्ञान अज्ञान के द्वारा ही आवृत्त होता है।,न तु अभावरूपम्‌। अत एव अज्ञानेन आवृतं भवति ज्ञानम्‌। भले ही जीवन्मुक्त अज्ञान नहीं रुकता है फिर भी उसका प्रारब्ध कर्म तो होता ही है जब प्रारब्ध कर्म का नाश होता है तब विदेहमुक्ति होती है।,यद्यपि जीवन्मुक्तस्य अज्ञानं न तिष्ठति तथापि तस्य प्रारब्धकर्म तु तिष्ठति। यदा प्रारब्धस्य नाशो भवति तदा विदेहमुक्तिः भवति। "वरुण समस्त जगत का नियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्‌ देवस्वरूप से पूर्व चित्रित थे, किन्तु इस मण्डल में उसका शासन क्षेत्र कम होकर जलमात्र तक शेष दिखाई देता है।","वरुणः समस्तजगतां नियन्ता, सर्वज्ञः, सर्वशक्तिमान्‌ देवस्वरूपेण पूर्व चित्रितः आसीत्‌, किञ्चाऽस्मिन्‌ मण्डले तस्य शासनक्षेत्रं सङ्कीर्णं भूत्वा जलमात्रम्‌ अवशिष्टमिति दृश्यते।" वहाँ पर कहा गया है की अग्नि ही यज्ञ में सभी देवों का आवाहन करती है।,तत्र उक्तम्‌ अग्निः एव यज्ञे सर्वान्‌ देवान्‌ आह्वयति। (रुद्राध्याय के सातवें मन्त्र में काव्यसौन्दर्य का)।,(रुद्राध्यायस्य सप्तममन्त्रे काव्यसौन्दर्य)। इस प्रकार के सद्गुरु को सेवा के महान लाभ बताए गये हैं।,ईदृश्या सद्गुरुसेवया महान्‌ लाभ उक्तः। "(शां.भा) इस भाष्य में भाष्यकार ने साधनों का क्रम इस प्रकार से कहा है सत्वशुद्धि, ज्ञान प्राप्ति, सर्व कर्म सन्यास तथा ज्ञाननिष्ठा।",(शां.भा) अत्र भाष्ये भाष्यकारः साधनानां क्रमम्‌ आह- संत्त्वशुद्धि-ज्ञानप्राप्ति-सर्वकर्मसंन्यास- ज्ञाननिष्ठा-क्रमेणेति। यहाँ यज्ञकाल में इन्द्र द्वारा प्रदत्त वर की परिपूर्ति के लिए अग्नि और सोम को पशु बली का विधान है।,अत्र यज्ञकाले इन्द्रप्रदत्तस्य वरस्य परिपूर्तये अग्निं सोमं च उद्दिश्य पशुबलिः विहितः। दिन मात्र में ही समाप्त सवन को “एकाहः' कहते है।,दिनमात्रमेव समाप्य सवनम्‌ 'एकाहः' इति कथ्यते। सारस्वत प्रक्रिया में अनुभूति स्वरूप आचार्य के द्वारा कहा कहा गया है - “इन्द्रादयोऽपि यस्यान्तं न ययुः शब्दवारिधेः।,सारस्वतप्रक्रियायाम्‌ अनुभूतिस्वरूपाचार्यण निगदितम्‌ - 'इन्द्रादयोऽपि यस्यान्तं न ययुः शब्दवारिधेः। इसलिये यजमान प्रार्थना करते है की -आप हमारे लिये उस प्रकार का सुख दीजिये।,अतः यजमानः प्रार्थयति यत्‌ - भवन्तौ अस्मभ्यं तादृशं सुखं प्रयच्छताम्‌ इति। गिरिस्थायी गिरि पर्वत होते है पर्ववान्‌ पर्वत को कहते है।,गिरिष्ठा गिरिस्थायी गिरिः पर्वतः समुद्गीर्णो भवति पर्ववान्‌ पर्वतः। छः अङ्गों में प्रधान रूप से क्या-क्या प्रतिपादन किया है?,षट्सु अङ्गेषु प्राधान्येन किं किं प्रतिपादितम्‌? जब बालक के अनुकूल तथा प्रतिकूल आघात होते हैं तब वह विचलित नहीं होता है यह उसकी तितिक्षा होती है।,यदा बाले अनुकूलाः प्रतिकूला वा आघाता भवन्ति तदापि स न विचलितो भवति। इयं तस्य तितिक्षा। यह सभी को विचार करना चाहिए ईस्वी से नौ सौ वर्ष पहले यास्क हुए ऐसा प्रतीत होता है।,इदं सर्वं विचार्य ख्रीष्टपूर्वनवमशतकस्य पूर्वाद्धे यास्कः अजायत इति प्रतीयते। उस रुद्र रूप के साथ उसका कल्याणमयरूप भी है।,तस्य रुद्ररुण सहितं तस्य कल्याणमयरूपमपि अस्ति। सुराजन्‌ से “राजाहःसखिभ्यष्टच्‌'' इससे टच्‌ प्राप्त होता है।,"सुराजन्‌ इत्यस्मात्‌ ""राजाहः सखिभ्यष्टच्‌"" इत्यनेन टचि प्राप्नोति।" सूत्र अर्थ का समन्वय - सुब्रह्मण्यनाम यजुर्वेद के मन्त्र विशेष में देवशब्द तथा ब्रह्मण्‌-शब्द का प्रयोग है।,सूत्रार्थसमन्वयः - अस्मिन्‌ सुब्रह्मण्यनामके यजुर्वेदस्य मन्त्रविशेषे देवशब्दः तथा ब्रह्मण्‌-शब्दः प्रयुक्तः अस्ति। ऋग्वेद में आये मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि गृत्समद-विश्वामित्र-वामदेव-अत्रि-भरद्वाज-वशिष्ठ आदि हैं।,ऋग्वेदगतमन्त्रद्रष्टारो ऋषयः गृत्समद-विश्वामित्र- वामदेवा-अत्रि-भरद्वाज-वशिष्ठादयः सन्ति। 6. “श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः'' यहाँ कौन सा समास है और कौन सा विग्रह है?,"६. ""श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इत्यत्र कः समासः, कश्च विग्रहः।" 19.4 मूलपाठ-श्रद्धासूक्त श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धयां हूयते हविः।,१९.४) मूलपाठः - श्रद्धासूक्तम्‌ श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धयां हूयते हविः। "यज्ञादि कर्मो के अनारम्भ से, बिना अनुष्ठन किए कोई भी पुरुष नैष्कर्म्य निष्कर्मभाव को प्राप्त करता है तथा न केलव संन्यास के द्वारा ही अर्थात्‌ केवल कर्मपरित्यग मात्र से ज्ञानरहित नैष्कर्म्य सिद्ध को प्राप्त करता है।","कर्मणाम्‌ यज्ञादीनाम्‌ , अनारम्भात्‌ अननुष्ठानात्‌ नैष्कर्म्यं निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां पुरुषः न अश्नुते, न प्राप्नोति इत्यर्थः। नापि संन्यसनादेव केवलात्‌ कर्मपरित्यागमात्रादेव ज्ञानरहितात्‌ सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां समधिगच्छति।" इस सूत्र से समासान्त अच्‌ प्रत्यय होता है।,अनेन सूत्रेण समासान्तः अच्प्रत्ययो विधीयते। प्रथम उस इन्द्र ने मेघ को मारा।,प्रथमं स इन्द्रः मेघं हतवान्‌। और जो हृदय में स्थित वृद्धावस्था से रहित अत्यन्त ही वेगवान वह मेरा मन मंगलमय हो।,यच्च हृदयस्थं जरारहितम्‌ अतिशयेन वेगवत्‌ तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पं भवतु। इस तरह की जिज्ञासा उत्पन्न होती हे।,किमिति जिज्ञासा। जो अविद्यावान होता है वह सकाम तथा विहित कर्मों को करता है।,यश्च अविद्यावान्‌ भवति स एव सकामो विहितानि कर्माणि करोति। इस प्रकार से “ब्रह्मवित्‌ ब्रह्मैव भवति” (मुण्डकोपनिषत्‌ 3.2.9) “तरति शोकम्‌ आत्मवित्‌” (छान्दोग्योपनिषत्‌ 7.1.3 )।,एवं “ब्रह्मवित्‌ ब्रह्मैव भवति” (मुण्डकोपनिषत्‌ ३.२.९) “तरति शोकम्‌ आत्मवित्‌” (छान्दोग्योपनिषत्‌ (७.१.३)। स्वप्न में तद्वासनाविशिष्ट होता हुआ स्वप्न देखता हुआ मन शब्द वाच्य होता है।,स्वप्ने तद्वासनाविशिष्टः सन्‌ स्वप्नं पश्यन्‌ मनःशब्दवाच्यो भवति। उससे इस सूत्र का यह अर्थ है - अविद्यमान पूर्व चित्‌ से उत्तर जो किंवृत्त उससे युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,तेन सूत्रस्य अस्य अर्थः भवति- अविद्यमानपूर्वं चिदुत्तरं यत्‌ किंवृत्तं तेन युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति। इस सूत्र में दो पद है - उपोत्तमम्‌ और रिति।,"अस्मिन्‌ सूत्रे द्वे पदे स्तः- उपोत्तमम्‌ इति, रिति इति च।" वह यहाँ सप्तम्यन्त से विपरीत का ग्रहण किया है।,तच्चात्र सप्तम्यन्ततया विपरिणम्यते। क्योंकि कवीन्द्र आचार्य की (१७ शताब्दि में) ग्रन्थों की सूची में इस नाम का उल्लेख स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है।,यतो हि कवीन्द्राचार्यस्य (१७ शताब्द्याः) सूच्यामेतेषां ग्रन्थानां नामोल्लेखः स्पष्टरूपेणोपलब्धो भवति। उनमें पुरुषसूक्त अतिप्रसिद्ध है।,तेषु पुरुषसूक्तमतिप्रसिद्धमिति वेदविदो वदन्ति। 12. अभ्यास किसे कहते हैं?,12 अभ्यासः नाम किम्‌? व्याकरण ज्ञान से शून्य उचित शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता है।,न हि व्याकरणज्ञानशून्यः साधून्‌ शब्दान्‌ प्रयोक्तुं शक्नोति । महाभाष्यकार भी इसीलिये कहते है - “एक इन्द्रशब्दः क्रतुशते प्रादुर्भूतः' इति।,महाभाष्यकारोऽपि अत एव आह -'एक इन्द्रशब्दः क्रतुशते प्रादुर्भूतः 'इति। सचन्त - सच्‌-धातु से लङ् लकार प्रथमपुरुष बहुवचन में वैदिकरूप बनता है।,सचन्त- सच्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने वैदिकरूपम्‌। इस प्रकार यहाँ सूत्र का यह अर्थ प्राप्त होता है - अवस्था अर्थ में ज्येष्ठ कनिष्ठ शब्दों का अन्त उदात्त होता है।,एवञ्च अत्र सूत्रस्यास्य अर्थोऽयं लभ्यते- वयसि अर्थे ज्येष्ठकनिष्ठयोः शब्दयोः अन्तः उदात्तः स्यात्‌ इति। हे शूर शौर्य युक्त इन्द्र ने अजय सोम को जीत लिया।,हे शूर शौर्ययुक्त इन्द्र सोमम्‌ अजयः जितवान्‌। "तब आत्मा, आत्मा में देखती है।",तदा आत्मानम्‌ आत्मनि पश्यति। तो वेदान्त दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सभी के लिए उपकारी हो।,वेदान्ते एव केवलं विश्‍श्वजनीनं सत्यं निहितमस्ति। सविकल्प समाधि में यह त्रिपुटी रहती है।,सविकल्पकसमाधौ एषा त्रिपुटी विद्यते। अल्पकाय आख्यान में उन कथाओं की गणना होती है जिन कथाओं में युक्ति का प्रदर्शन हो।,स्वल्पकायिकेषु आख्यानेषु तासां कथानां गणना भवति यासु कथासु सयुक्ति प्रदर्शनं भवति। और अन्त में द्यूतकार को बोध हो जाता है।,अन्ते च द्यूतकारस्य बोधोदयः जातः । अरण्य का एकान्त शान्त वातावरण को।,अरण्यस्य एकान्तशान्तवातावरणम्‌। इस प्रकार से गुरु के पास जाकर के परम अक्षर परमपुरुष के विषय में पूछना चाहिए।,स तं गुरुं विधिवदुपसन्नः प्रसाद्य पृच्छेद्‌ अक्षरं पुरुषं सत्यम्‌। जिहीळे - हीड्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,जिहीळे-हीड्-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। न केवल जगत अपितु शास्त्र भी उसको मिथ्या रूप में ही दिखाई देते हैं।,न केवलं जगत्‌ अपि तु शास्त्रम्‌ अपि तस्य निकटे मिथ्यावत्‌ प्रतिभाति। सर्वम्‌ इस प्रथमान्त अपदादौ इस सप्तम्यन्त पद की अनुवृति है।,सर्वम्‌ इति प्रथमान्तम्‌ अपदादौ इति सप्तम्यन्तं पदं च अनुवर्तते। निर्विकल्पकसमाधि में चित्तवृत्तित्वसत्व होने पर भी उसका अवभास नहीं होता है।,निर्विकल्पकसमाधौ चित्तवृत्तिसत्त्व॑ऽपि तस्य अवभासो न भवति। सुषुप्ति में प्राण जागृत होता है इसका श्रुतियों में भी प्रमाण है।,सुषुप्तौ प्राणः जागर्ति इत्यत्र श्रुतिप्रमाणं हि - वैसे भी वेद में कहा गया है - “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌।,"तथाहि तत्राम्नातम्‌ - ""अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। """ अठारह सौ से भी अधिक।,अष्टोत्तरशततोऽप्यधिका। जो यहाँ कितव होता है उस की पत्नी अन्य जुआरियों के लिए केश आदि के आकर्षण से स्पृश करते है।,यः अत्र कितवः भवति तस्य भार्याम्‌ अन्ये कितवाः केशाद्याकर्षणेन स्पृशन्ति । वहाँ केवल संस्कार मात्र ही अवशिष्ट होता है।,संस्कारमात्रम्‌ अवशिष्यते। विदेह मुक्ति के बाद में फिर जन्म नहीं होता है।,विदेहमुक्तेः अनन्तरं पुनः जन्म न भवति। तात्पर्यनिर्णय के लिए जिस लिङग का प्रयोग होता है वह तात्पर्यनिर्णायक लिङग कहलाता है।,तात्पर्यनिर्णयाय लिङ्गम्‌ इति तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गम्‌। "निरुक्त की टीका में (१।४) दुर्गाचार्य ने, 'ऐतरेयके रहस्यब्राह्मणम्‌' ऐसा कह करके ऐतरेय आरण्यक उदाहरण दिया है (२।२।१)।",निरुक्तस्य टीकायां (१।४) दुर्गाचार्यण 'ऐतरेयके रहस्यब्राह्मणम्‌' इति कथयित्वा ऐतरेयारण्यकस्य उद्धरणं दत्तम्‌ (२।२।१)। देवेभिः - देवैः इसका वैदिक रूप है।,देवेभिः- देवैः इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। "और वह यहाँ पर पद से बाद में विद्यमान है, पाद के आदि में विद्यमान नहीं हैं।","तच्च अत्र पदात्‌ परं विद्यते, पादादौ न विद्यते।" इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे; विवेकानन्द के विषय में सामान्यज्ञान प्राप्त करने में; विवेकानन्द के दर्शन के विषय में विस्तार से जान पाने में; विवेकानन्द के दर्शन में श्री रामकृष्ण का प्रभाव समझने में; विवेकानन्द का सेवा भाव जानने में; योग चतुष्टय में विवेकानन्दकृत समन्वय को जान पाने में; अन्य दर्शनों से भी विवेकानन्द दर्शन का वैलक्षण्य जानने में;,इमं पाठं पठित्वा भवद्भिः -स्वामिनः विवेकानन्दस्य विषये सामान्यतः ज्ञायते। विवेकानन्दस्य दर्शनविषये विस्तरेण ज्ञायते। विवेकानन्ददर्शने श्रीरामकृष्णस्य प्रभावः ज्ञायते। विवेकानन्दस्य सेवाभावः ज्ञायते।योगचतुष्टयस्य विवेकानन्दकृतः समन्वयः ज्ञायते।अन्यदर्शनेभ्यः विवेकनन्ददर्शनस्य वैलक्षण्यं ज्ञायते। इसलिए वह बोध्य कहलाता है।,अतः स बोध्यः इति उच्यते। यहां अनुष्टुप छन्द है।,अनुष्टुब्वृत्तमत्र।। अथवा हम तुम दोनों के मध्य में सूर्य के मण्डल को देखते है ऐसी व्याख्या की “मैत्रं वा अहः' इस श्रुत्ति से मित्र ही सूर्य आदित्य है ऐसा आशय है।,"अथवा वां युवयोर्मध्ये सूर्यस्य मण्डलमपश्यमिति व्याख्येयं ""मैत्रं वा अहः"" इति श्रुतेर्मित्रस्यैव सूर्यत्वादित्याशयेन।" वैदिक मन्त्रों में भी अनेक अलङडङऱकार प्राप्त होते हैं।,वैदिकमन्त्रेषु अपि बहुशः अलङ्काराः प्राप्यन्ते। "इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : यजुर्वेद के विभागों को जान पाने में; यजुर्वेदीय संहिताओं के प्रकारों को जान पाने में; माध्यन्दिन संहिता, काण्व संहिता, तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, कठ सहिता, कापिष्ठल संहिता -इन मुख्य संहिता के विषय में जान पाने में; साम-शब्द का अर्थ समझ पाने में; सामवेदीय संहिता के प्रकारों को समझ पाने में; कौथुमीय शाखा, राणायनीय शाखा और जैमिनीय शाखा इन तीन सामवेदीय शाखा को जान पाने में और; सामगान के सामान्य परिचय को और साम विभाग को जान पाने में।","इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - यजुर्वेदस्य विभागं ज्ञास्यति। यजुर्वेदीयसंहितानां प्रकारं ज्ञास्यति। माध्यन्दिनसंहिता, काण्वसंहिता, तैत्तिरीयसंहिता, मैत्रायणीसंहिता, कठसंहिता, कापिष्ठलसंहिता - इत्येतासां मुख्यसंहितानां विषये ज्ञास्यति। साम-शब्दस्य अर्थ ज्ञास्यति। सामवेदीयसंहितानां प्रकाराणि अवगमिष्यति। कौथुमीयशाखा, राणायनीयशाखा जैमिनीयशाखा चेति तिस्रः सामवेदीयशाखाः ज्ञास्यति। सामगानसामान्यपरिचयं सामविभागं च ज्ञास्यति।" 11.5 ) अहं आकार वृत्ति उसके बाद शिष्य की मै नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्य स्वभाव वाला परमानन्दाननताद्वयं बह्य हूँ इस प्रकार की अखण्डाकार चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,11.5) अहमाकारा वृत्तिः- ततः परं शिष्यस्य अहं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यस्वभावं परमानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्म अस्मीति अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिः उदेति। इसलिए मुण्डकोपनिषद में कहा गया है- “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।,अतैव मुण्डकोपिनिषदि आम्नायते -“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। नपुंसकत्वं का विधान होता है।,नपुंसकत्वं विधीयते। उसके बाद विषयम्बन्ध तथा प्रयोजन ये तीन अनुबन्ध उपवर्णित है।,ततः विषयसम्बन्धप्रयोजनानि इति त्रयोऽनुबन्धाः उपवर्णिताः। उससे जैसे द्युलोक वैसे ही पृथिवीलोक भी निर्मित है।,तेन यथा द्युलोकस्तथा पृथिवीलोकोऽपि निर्मितः। इषुधिः - तूणोपासङ्गतूणीरनिषङ्गा इषुधिर्द्वयोः इत्यमरः।,इषुधिः- तूणोपासङ्गतूणीरनिषङ्गा इषुधिर्द्वयोः इत्यमरः। तब इन्द्रियों के उपरमित सत्य होने पर भी मनस की प्रवृत्ति नहीं होती है।,तदा इन्द्रियाणाम्‌ उपरमे सत्यपि मनसः प्रवृत्तिर्शवति। इसलिए इस साम का नाम बृहत्साम यह विशिष्ट नामकरण है।,अतः अस्य साम्नः बृहत्साम इति विशिष्टं नामकरणम्‌ अस्ति। आरण्यक का सामान्य परिचय लिखिए।,आरण्यकस्य सामान्यपिरचयं लिखत। पूरण आदि अर्थों से और सदादि से षष्ठयन्त सुबन्त को समास संज्ञा नहीं होती है (समास “* तदशिष्यं संज्ञा प्रमाणत्वात्‌'' इस सूत्र में संज्ञा क॑ गुणभूतप्रमाणत्व शब्द के साथ समास दर्शन से।,"पूरणाद्यर्थेः सदादिभिश्च षष्ठ्यन्तं सुबन्तं समाससंज्ञं न भवति। ""तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्‌"" इति सूत्रे संज्ञायाः गुणभूतप्रमाणत्वशब्देन सह समासदर्शनात्‌।" अतः इसका वेदाङ्गत्व सिद्ध ही है।,अतः अस्य वेदाङ्गत्वं सिद्धम्‌। स यतिथीं तत्स॒मां परिदिदेष ततिथीं समां नावमुपकाल्प्योपासांचक्रे स ऽअऔघऽ उत्थिते नावमापेदे तं स मत्स्य उपन्यापुप्लुवे तस्य शुडऱगे नावः पाश प्रतिमुमोच तेनैतमुत्तरं गिरिमतिदुद्राव॥५ ॥,स॒ यतिथीं तत्स॒मां परिदिदेश ततिथीं स॒मां नावमुपकल्प्योपासाञ्चक्रे स ऽऔघऽ उत्थिते नावमापेदे तं स मत्स्य उपन्यापुप्लुवे तस्य शृङ्गे नावः पाशं प्रतिमुमोच तेनैतमुत्तरं गिरिमतिदुद्राव ॥५ ॥ गौण आत्मा से भोजनादि तथा प्रमार्थ कार्य नहीं किए जा सकते है।,गौणेन च आत्मना भोजनादिवत्‌ परमार्थकार्यं न शक्यते । अतः अङ्ग इससे युक्त तिङन्त पद को अनुदात्त नहीं होता है यह अर्थ है।,अतः अङ्ग इत्यनेन युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इत्यर्थः समायाति। अव्ययीभावात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,अव्ययीभावादिति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। वहाँ प्रसङग्‌ से उपसर्जन संज्ञा विधायक “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌'' और इस पूर्वनियात विधायक 'उपसर्जनपूर्वम्‌'' पर सूत्र प्रस्तुत किया गया।,"तत्र प्रसङ्गतः उपसर्जनसंज्ञाविधायकं ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रं पूर्वनिपातविधायकं च ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इति सूत्रं प्रस्तुतम्‌।" मन का कथन था कि मेरे बिना बताये बात को वाणी प्रकट नहीं कर सकती है।,मनसः कथनम्‌ आसीत्‌ यन्मयाऽनभिगतवार्त्ता अर्थात्‌ वाणी न उच्यते। होता कविक्रतु सत्यअतिशयेण विविध कीर्ति से युक्त।,होता कविक्रतुः सत्यः चित्रश्रवस्तमः। "यद्यपि नु कम्‌ ये भिन्न निपात है, फिर भी निघण्टू में हिकम्‌ नुकम्‌ सुकम्‌ आहिकम्‌ आकीम्‌ नकिः माकिः नकीम्‌ आकृतम्‌ इन नौ का एक पद के द्वारा गणना की।",यद्यपि नु कम्‌ इति भिन्नौ निपातौ तथापि निघण्टौ हिकम्‌ नुकम्‌ सुकम्‌ आहिकम्‌ आकीम्‌ नकिः माकिः नकीम्‌ आकृतम्‌ इति नवानाम्‌ एकपद्वेन गणना कृता। इन कर्मो से कोई विषय भी नहीं है।,नातः परं कर्मणो विषयोऽस्ति। इस कारण से जल स्पर्श से यह पाप को छोड़कर पवित्र होता है।,अस्मात्‌ कारणात्‌ जलस्पर्शन असौ पापं त्यक्त्वा मेध्यो भवति। अतः प्रकृत सूत्र से कतर शब्द को विकल्प से प्रकृति स्वर होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण कतरशब्दस्य विकल्पेन प्रकृतिस्वरः भवति। वैसे ही अखण्डाकार चित्तवृत्ति अज्ञान का नाश करके स्वयं भी अज्ञानकार्यत्व से नष्ट हो जाती है।,तथैव अखण्डाकारचित्तवृत्तिः अज्ञानं विनाश्य स्वयमपि अज्ञानकार्यत्वात्‌ नश्यति। भारत के अज्ञात इतिहास में मनुष्य जीवन का ज्ञान वेद ज्ञान के बिना सम्भव नही है।,भारतस्य अज्ञातेतिहास्य जनजीवनस्य ज्ञानं वेदज्ञानं विना नैव सम्भवति । समष्टिस्थूलशरीणज्ञानोपहित चैतन्य विराट्‌ होता है व्यष्टि स्थूलशरीराज्ञानोपहित चैतन्य विश्व होता है।,समष्टिस्थूलशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं विराड्। व्यष्टिस्थूलशरीराज्ञानोपहितं विश्वः। तीसरे आरण्यक का अन्य नाम है संहितोपनिषद्‌।,तृतीयारण्यकस्य अपरं नाम अस्ति संहितोपनिषद्‌। अत: प्रथमा तिङ्‌ विभक्ति यह अर्थ प्राप्त हुआ।,अतः प्रथमा तिङ्विभक्तिः इत्यर्थलाभः। श्रवण का जो अर्थ निश्चित होता है वहाँ पर प्रमाणान्तरों के द्वारा बहुत सारे विरोध उपस्थित हो जाते है।,श्रवणेन यः अर्थः निश्चितः भवति तत्र प्रमाणान्तरेण बहवः विरोधाः समागच्छन्ति। यहाँ ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ सूत्र से ङीप्‌ की अनुवृत्ति आती है।,अत्र ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इति सूत्रात्‌ ङीप्‌ इति अनुवर्तते। "तुम महान बढ़े हुए कोशस्थानीय मेघ का उद्गम है, वैसे करके हमारा सेचन करो, जिससे नदिया परिपूर्ण होकर प्रवाहित होकर बहती है।","हे पर्जन्य त्वं महान्तं प्रवृद्धं कोशस्थानीयं मेघम्‌ उद्गमय, तथा कृत्वा नःषिञ्च च, येन नद्यः विष्यूताः सत्यः प्रवहन्तु।" यही सूत्रार्थ फलित होता है।,इति सूत्रार्थः फलति। 22 सन्तोष किसे कहते है?,२२. कः सन्तोषः? "जगत का जन्म स्थिति तथ लय का कारण जो चैतन्य उत्तमदेवादि, मध्यम मनुष्यादि में तथा अधम अश्वादि में, पृथ्वी आदि में होता है वह ब्रह्म होता है।","जगज्जन्मस्थितिलयकारणं यत्‌ चैतन्यं उत्तमदेवादिषु, मध्यममनुष्यादिषु, अधमेषु अश्वादिषु पृथिव्यादिषु च भूतेषु अस्ति तत्‌ ब्रह्म एव।" उनकी अवज्ञा नही करते है यह अर्थ है।,अवज्ञां न कुर्वन्ति इत्यर्थः । जुहुमः - हु-धातु से लट्‌ लकार के उत्तमपुरुषबहुवचन में जुहुमः रूप।,जुहुमः- हु-धातोः लटि उत्तमपुरुषबहुवचने जुहुमः इति रूपम्‌। प्रत्यक्ष अनुमान शब्द आगम प्रमाणों से।,प्रत्यक्षानुमानशब्दागमप्रमाणैः। पूर्वं कायस्य इति लौकिक विग्रह में पूर्व सु काय ङस्‌ इस अलौकिक विग्रह में “षष्ठी'' से षष्ठीतत्पुरुषसमास होने पर उसको बाँधकर प्रकृतसूत्र से काय ङस्‌ एकत्वसंख्याविशिष्ट से अवयव वाची सुबन्त के साथ पूर्व+सु इस सुबन्त प्रोक्त सूत्र से तत्पुरुषसमास संज्ञा होता है।,"पूर्व कायस्येति लौकिकविग्रहे पूर्व सु काय ङस्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""षष्ठी"" इत्यनेन षष्ठीतत्पुरुषसमासे प्राप्ते तं प्रबाध्य प्रकृतसूत्रेण काय ङस्‌ इति एकत्वसंख्याविशिष्टेन अवयविवाचकेन सुबन्तेन पूर्व सु इति सुबन्तं प्रोक्तसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" स्वरितात्संहितायामनुदात्तानाम्‌ इस सूत्र का क्या अर्थ है?,स्वरितात्संहितायामनुदात्तानाम्‌ इति सूत्रस्य कोऽर्थः? बिभृहि मा पारयिष्यामि त्वेति कस्मान्मा पारयिष्यसीत्यौघ इमाः सर्वाः प्र॒जा निर्वोढा ततस्त्वा पारयितास्मीति कथं ते भृतिरिति॥ २॥,बिभृहि मा पारयिष्यामि त्वेति कस्मान्मा पारयिष्यसीत्यौघ इमाः सर्वाः प्र॒जा नितद्र्वोढा ततस्त्वा पारयितास्मीति कथं ते भृतिरिति॥ २॥ 3. प्रातिभासिक सत्ता का लक्षण क्या है?,३) प्रातिभासिकसत्तायाः लक्षणं किम्‌। पुरोहित गणों के द्वारा चालित दो बैलों के द्वारा वाहित दो शकटों से सोम यज्ञ स्थल पर लाया जाता है।,पुरोहितगणैः चालिताभ्यां बलीवर्दद्वयेन वाहिताभ्यां द्वाभ्यां शकटाभ्यां सोमः यज्ञस्थले नीयते। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का नौंवा मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य नवमो मन्त्रः। पूना में भण्डारकर शोध संस्थान से भारद्वाज शिक्षा का प्रकाशन हुआ है।,पूनायां भण्डारकरशोधसंस्थानतः भरद्वाजशिक्षायाः प्रकाशनं जातम्‌ अस्ति। अनुकरण मन्त्र अथवा उपांशु प्रयोग जप है।,अनुकरणमन्त्रः उपांशुप्रयोगो वा जपः। फिर प्रतिबिम्ब के द्वारा घट प्रकाशित होता है।,पुनः प्रतिबिम्बेन घटः प्रकाश्यते। "इस सूत्र में अथादि: प्राक्‌: शकटे: इस सूत्र से आदिः इस प्रथमा ए वचनान्त पद का अधिकार आ रहा है, उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से आ रही है।","अस्मिन्‌ सूत्रे अथादिः प्राक्ः शकटेः इति सूत्रात्‌ आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अधिकृतम्‌, उदात्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदं फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अनुवर्तते।" तव्यत्‌ प्रत्यय के योग से समास होता है।,तव्यत्‌-प्रत्ययेन योगात्‌ समासः। संसार में स्थित व्यक्ति कर्मफल का अतिक्रमण करनें में समर्थ नहीं होता है।,संसारस्थितः जनः कर्मफलम्‌ अतिक्रान्तुं न समर्थः। इमसि - इधातु से लट्‌ उत्तमपुरुष बहुवचन में इमसि यह रूप बनता है।,इमसि- इधातोः लटि उत्तमपुरुषबहुवचने इमसि इति रूपम्‌। "प्र, परा, अप, सम्‌, अनु, अव, निस्‌, निर्‌ दुस्‌, दुर, वि, आङ, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्‌, अभि, प्रति, परि, उप - ये प्रादयः है।","प्र, परा, अप, सम्‌, अनु, अव, निस्‌, निर्‌, दुस्‌, दुर, वि, आङ्‌, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्‌, अभि, प्रति, परि, उप - एते प्रादयः।" 8 अज्ञान का लक्षण क्या हैं?,८. अज्ञानस्य लक्षणं किम्‌? भाषा लोक व्यवहार में प्रवृत्त कराती है।,भाषा लोकव्यवहारं प्रवर्तयति। अपश्यः - दृश्‌-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में अपश्यः यह रूप है।,अपश्यः - दृश्‌-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने अपश्यः इति रूपम्‌। सूत्र का अवतरण- वाच्‌ आदि शब्दों के दोनों वर्णों के उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी द्वारा की गई है।,सूत्रावतरणम्‌- वाचादीनां शब्दानाम्‌ उभयोः वर्णयोः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। एकस्य वचनम्‌ (एक का वचन) एकवचनम्‌ यही षष्ठीतत्पुरुषसमास है।,एकस्य वचनम्‌ एकवचनम्‌ इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। ज्ञान के साथ प्रारब्ध कर्म का विरोध नहीं है।,ज्ञानेन साकं प्रारब्धकर्मणः विरोधः नास्ति। (i) संविद (i) आत्मा 8. वेदांतसार के रचयिता कौन हैं?,(i) संविद्‌ (i) आत्मा ८) वेदान्तसारस्य रचयिता कः। इसके पिता द्यौ है।,अस्य पिता भवति द्यौः। पूर्व से “तस्य परमाम्रेडितम्‌ इस सूत्र में आम्रेडित संज्ञा करते है।,"पूर्वस्मात्‌ ""तस्य परमाम्रेडितम्‌ इति सूत्रे आम्रेडितसंज्ञा क्रियते।" ऋतम्‌ इसका क्या अर्थ है?,ऋतम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। सूत्र से क्वचित्‌ समास होता है परन्तु उस समास की विशेषसंज्ञा नहीं की जाती है।,सूत्रेण क्वचित्‌ समासो विधीयते परन्तु तस्य समासस्य विशेषसंज्ञा न क्रियते। जिसका वह प्रकृति स्वर।,यस्य सः प्रकृतिस्वरः। उदाहरणः-वार्तिक का उदाहरण है-शाकपार्थिवः।,उदाहरणम्‌ - वार्तिकस्यास्योदाहरणं भवति शाकपार्थिवः इति । "जैसे स्वपितः, श्वसित: इत्यादि में इट्‌ आगम के विद्यमान होने से आद्युदात्त स्वर नहीं होता है।","यथा स्वपितः, श्वसितः इत्यादौ इडागमस्य विद्यमानत्वात्‌ न आद्युदात्तस्वरः।" इस प्रकार से पञज्चकोश का विचार किया जाता है।,इह तु पञ्चकोशविचारः क्रियते। और कहा गया है - इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।,तदुक्तम्‌- इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या। जीव बद्ध होता है।,च जीवः बद्धो वर्तते। सरलार्थ - मैं पत्थर से पीसे जाने वाले सोम को त्वष्टा को पूषा को और भग को धारण करती हूँ।,सरलार्थः- अहं ताडनकारिका सोमं त्वष्टारं पूषां भगं च बिभर्मि। "दूसरा ऋक्‌ जगती, शिष्ट त्रेष्टुभ छद है।","द्वितीया ऋक्‌ जागती, शिष्टं त्रैष्ठुभम्‌।" "(क) शम (ख) दम (ग) उपरति (घ) वैराग्य 19, शीतोष्णादियों का द्वन्द्व सहन क्या कहलाता है?",(क) शमः (ख) दमः (ग) उपरतिः (घ) वैराग्यम्‌ 19.शीतोष्णादिद्वन्द्वसहनं किमुच्यते। ऋग्वेद के दो भाग कौन से है?,ऋग्वेदस्य भागद्वयं किम्‌? विष्णु-वरुण-वायु-वृहस्पति-इत्यादि के साथ भी इन्द्र की स्तुति दिखाई देता है।,विष्णु-वरुण-वायु-वृहस्पति-इत्यादिभिः सहापि इन्द्रस्य स्तुतिः दृश्यते। कुत्सितो राजा इस लौकिक विग्रह में किम्‌ राजन्‌ सु इस अलौकिक विग्रह में किम्‌ इस अव्यय को निन्दार्थक समानाधिकरण से राजन्‌ मु इस सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास संज्ञा होती हैं इसके बाद प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न किराजन्‌ इससे सु प्रत्यय होने पर किंराजा रूप बनता है।,कुत्सितो राजा इति लौकिकविग्रह किम्‌ राजन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे किम्‌ इत्यव्ययं निन्दार्थकं समानाधिकरणेन राजन्‌ सु इत्यनेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । वह ही अलग प्रकार से- आत्यान्तिक संसारनिवृत्ति तथा ब्रह्मप्राप्तिलक्षणा होती हे।,तदेव प्रकारान्तरेण कथ्यते - आत्यन्तिकी संसारनिवृत्तिः ब्रह्मप्राप्तिलक्षणा। स्वप्नावस्था में यह तैजस के रूप में होता है।,स्वप्नावस्थायाम्‌ अयं तैजसो भवति। दुदुहे - दुह् धातु से लिट्‌-लकार आत्मनेपद प्रथमपुरुषबहुवचन में दुदुहे यह रूप है।,दुदुहे- दुह्‌-धातोः लिट्-लकारे आत्मनेपदे प्रथमपुरुषबहुवचने दुदुहे इति रूपम्‌। आधुनिक इतिहासकारों का कथन है की इन छः वेदाङ्गो का निर्माण भी वैदिक युग के उत्तरा्द्ध भाग में ही हुआ था।,आधुनिकानाम्‌ इतिहासकाराणां कथनम्‌ इदं यत्‌ षण्णाम्‌ अपि वेदाङ्गानां निर्माणं वैदिकयुगस्य उत्तरार्द्धभागे अभवत्‌। इसलिए वेद ज्ञान हमेशा आवश्यक है।,अतः वेदज्ञानं नितराम्‌ आवश्यकम्‌। वा भुवनम्‌ इस सूत्र का अर्थ है ऐश्वर्यवाची अर्थ में तत्पुरुष समास में पति उत्तरपद रहते भुवन पूर्वपद को विकल्प से प्रकृति स्वर होता है।,वा भुवनम्‌ इति सूत्रस्य अर्थः ऐश्वर्य अर्थ तत्पुरुषे पत्यौ उत्तरपदे भुवनं पूर्वपदं वा प्रकृत्या स्यात्‌ इति। किस समास में पूर्वपद कुमार शब्द को प्रकृति स्वर होता है?,कस्मिन्‌ समासे पूर्वपदस्य कुमारशब्दस्य प्रकृतिस्वरः भवति? इसका यह अर्थ है कि है मित्र दरिद्रानामरूप समीपस्थित ईश्वर को त्यागकर के तो ईश्वर का कहाँ पर चिन्तन करता है।,अस्यार्थः - हे मित्र! द्ररिद्रादिनानारूपैः समीपे स्थितम्‌ ईश्वरं परित्यज्य कुत्र ईश्वरम्‌ अन्विषति। तुम्हारे भयङ्कर प्रभाव से हमारी रक्षा करो।,तव भयडङ्करप्रभावात्‌ अस्मान्‌ रक्षत । पदं पद्‌ प्रति इस प्रतिपदम्‌ इस वीप्सा में अव्ययीभाव है।,पदं पदं प्रति इति प्रतिपदम्‌ इति वीप्सायामव्ययीभावः। अग्नि का मानव जीवन के साथ दृढता से सम्बद्ध है।,अग्निः मानवजीवनेन सह दृढतया सम्बद्धः अस्ति। वर्तमान विश्व और सभी भूत पदार्थों को उसके अलावा कोई नहीं धारण करता है अर्थात्‌ सब में वो ही व्याप्त है वो ही इस सब को धारणकर उत्पन्नकर सकता है।,"वर्तमानानि विश्वानि, सर्वाणि भूतजातानि तस्मात्‌ अन्यं कमपि न व्याप्नोति, स एव एतानि परिगृह्य स्रष्टुं शक्नोति इति शम्‌।" "अज्ञान के आकार से ऊपर अपने तेज से अज्ञानान्धकार को निम्न करके इस वर्तमान महान्त अर्थात्‌ आदित्यान्तस्थ पूर्ण पुरुष का साक्षाद्‌ दर्शन, अह- शोधित-पदार्थ मै जानता हूँ।","अज्ञानाकाराद्‌ उपरि स्वतेजसा अज्ञानान्धकारम्‌ अधःकृत्य वर्तमानम्‌ एतं महान्तम्‌ आदित्यान्तस्थं पूर्णं पुरुषम्‌ एनं साक्षाद्‌ परोक्षभूतम्‌, अहं- शोधित-त्वंपदार्थः अहं वेद जानामि।" जलहीन प्रदेश का अतिक्रमण करके जाने योग्य हो।,जलहीन प्रदेशम्‌ अतिक्रम्य गमनयोग्यः भवतु । और उसका श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः'' इसके विशेषण से वचन परिणाम से तदन्तविधि में सुबन्त के द्वारा समाज प्राप्त होता है।,तस्य च श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः इत्यस्य विशेषणत्वाद्‌ वचनविपरिणामेन तदन्तविधौ सुबन्तैः इति लभ्यते। देव रहते हैं उस विराट्‌ प्राप्ति रूप स्वर्ग को महिमाशाली वे उपासक महात्मा प्राप्त करते है।,देवाः सन्ति तिष्ठन्ति तत्‌ नाकं विराट्प्राप्तिरूपं स्वर्गं ते महिमानः तदुपासकाः महात्मानः सचन्त समवयन्ति प्राप्नुवन्ति॥ अमृत के नित्य तथा उत्पत्ति को भी नहीं समझा जा सकता है।,न हि अमृतस्य नित्यस्य च उत्पत्तिः अभ्युपगन्तुं शक्यते। अग्नि के सभी सूक्त गायत्री छन्द में वर्णित/लिखित है।,अग्नेः सर्वाणि सूक्तानि गायत्रीछन्दोबद्धानि। भेदन क्रिया में नख करण और भिन्नशब्द कृदन्त है।,"भेदनक्रियायां नखाः करणानि, भिन्नशब्दश्च कृदन्तः।" कर्मोपासना ब्रह्मविद्या की यहाँ अच्छी प्रकार से आलोचना की है।,कर्मोपासनाब्रह्मविद्यानां समन्वयोऽत्र आलोचितः। यत्‌ कृतकं तदनित्यम्‌ यह नियम होता है।,यत्‌ कृतकं तदनित्यम्‌ इति नियमः। 12. अष्टाङ्गमैथुनों का त्याग के द्वारा ब्रह्मचर्य का पालन हो पाता है।,१२. अष्टाङ्गमैथुनवर्जनमेव ब्रह्मचर्यम्‌। व्याख्या - अतीत और अनागत वर्तमान रूप जगद्‌ आदि ये सब भी इस पुरुष की महिमा का अपना सामर्थ्य विशेष है।,व्याख्या- अतीतानागतवर्तमानरूपं जगद्यावदस्ति एतावान्‌ सर्वोऽपि अस्य पुरुषस्य महिमा स्वकीयसामर्थ्यविशेषः। सूत्र का अवतरण - यहाँ च आदि में निपातानाम्‌ आद्युदात्ताः इस सूत्र से प्राप्त आद्युदात्त के निषेध के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।,सूत्रावतरणम्‌- अत्र चादीनां निपातानाम्‌ आद्युदात्ताः इति सूत्रेण प्राप्तस्य आद्युदात्तत्वस्य बाधार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। इसलिए ब्रह्मवृत्तिविषय होता है।,अतो ब्रह्म वृत्तिविषयो भवति। धन कष्ट से कमाया जाता है।,कहष्टेनार्जितं । जर्मन विद्वान्‌ डायसन महोदय ने तो उपनिषदों को चार स्तरों में विभक्त किया है।,जर्मनविद्वान्‌ डायसनमहोदयः तु उपनिषदं चतुर्षु स्तरेषु विभक्तां कृतवान्‌। व्याख्या - जो यह त्रिपात्पुरुष संसार रहित ब्रह्मस्वरूप है वो द्युलोक को चल गया इस अज्ञान कार्यरूपी संसार से रहित गुणदोष में पूर्णरूप से स्थित है।,व्याख्या- योऽयं त्रिपात्पुरुषः संसाररहितो ब्रह्मस्वरूपः सोऽयं ऊर्ध्व उदैत्‌ अस्मादज्ञानकार्यात्संसाराद्वहितोऽत्रत्यैर्गुणदोषैरस्पृष्ठ उत्कर्षेण स्थितवान्‌। विवित्से - विद्‌-धातु से आत्मनेपद लिट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में विवित्से यह रूप है।,विवित्से - विद्‌-धातोः आत्मनेपदिनः लिटि मध्यमपुरुषैकवचने विवित्से इति रूपम्‌। कहीं पर तो काम्य अग्निहोत्रादि का अनुष्ठान करने पर नित्यकर्मों का भी अग्निहोत्रादि तन्त्र के द्वारा अनुष्ठान हो जाता है।,"किञ्च, काम्याग्निहोत्रादौ अनुष्ठीयमाने नित्यमपि अग्निहोत्रादि तन्त्रेणैव अनुष्ठितं भवतीति ।" शाखा के साथ 'चरण'-शब्द का भी सम्बन्ध है।,शाखया सह 'चरण”-शब्दस्यापि सम्बन्धोऽस्ति। पिप्पलाद मुनि एक महान्‌ अध्यात्म वेत्ता ऐसा प्रतीत होती है।,पिप्पलादमुनिः एकः महान्‌ अध्यात्मवेत्ता इति प्रतीतः भवति। अथवा जीवात्मा का तथा परमात्मा का अभेद ज्ञान है।,अथवा जीवात्मनः परमात्मनश्च अभेदज्ञानम्‌। जहाँ पर शक्यार्थ ही अन्तर्भाव्य ही अर्थान्तर प्रतीति करवाता है वहाँ पर अजहल्‌ लक्षणा होती है।,यत्र शक्यार्थम्‌ अन्तर्भाव्य एव अर्थान्तरप्रतीतिः तत्र अजहल्लक्षणा भवति। कर्मयुक्त वाले की कर्मयोग तथा आत्मज्ञान के परस्पर विरोध के कारण ब्रह्मनिष्ठता सम्भव नहीं है।,"न हि कर्मिणो ब्रह्मनिष्ठता सम्भवति, कर्मात्मज्ञानयोः विरोधात्‌।" 6. गृधातु किस अर्थ में होती है?,६. गृधातुः कस्मिन्नर्थे भवति? नहीं तो शरीर में विद्यमान के कभी भी विद्या का उदय नहीं हो।,अन्यथा शरीरे विद्यमानस्य कदाचिदपि विद्योदयः न स्यात्‌। 5.किस प्रकार का ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है?,५. कीदृशं ज्ञानम्‌ अज्ञानस्य नाशकम्‌। इसलिए कर्म के नाश से विदेहमुक्त का कहीं भी गमन नहीं होता है।,अतः कर्मणः नाशात्‌ विदेहमुक्तस्य कुत्रापि गमनं न भवति। उषा वर्णन में प्रकृति कैसे शोभित होती हे?,उषावर्णने प्रकृतिः कथं विराजते? "सरलार्थ - हे दानशील विश्व के रक्षक मित्रवरुणतुम दोनों अतिशय महान, बाधा रहित तथा विनाश हीन सुख के द्वारा हमारी रक्षा करो।","सरलार्थः- हे दानशीलौ विश्वस्य रक्षकौ मित्रवरुणौ युवां द्वौ महत्तमौ, छेदहीनेन तथा क्षतिहीनेन सुखेन अस्माकं रक्षतम्‌।" सर्वान्यत्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,सर्वान्यत्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। सूत्र का अर्थ- घृतादि शब्दों का अन्तिम स्वर उदात्त हो।,सूत्रार्थः- घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्वरः उदात्तः स्यात्‌। "व्यतिरेक का अन्य उदाहारण भी ऋतु चक्र के वर्णन में प्राप्त होता है, जैसे - “द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वत्ति चक्रं परिधामृतस्य' इति।",व्यतिरेकस्य अपरम्‌ अपि सुष्ठु उदाहरणम्‌ ऋतचक्रस्य वर्णने प्राप्यते - 'द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वत्ति चक्रं परिधामृतस्य' इति। "यहाँ समाधान है-जब तक जातिगुणक्रियावाची शब्दों के समभिव्यवहार में जातिवाचक ही विशेष्य है, अन्यपद विशेषण स्वभाव से।","अत्र समाधानं तावद्‌ जातिगुणक्रियावाचिनां शब्दानां समभिव्याहारे जातिवाचक एव विशेष्यम्‌, अन्यद्‌ विशेषणं स्वभावात्‌ ।" जो भुत भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानने वाले सर्वज्ञ हैं।,अमनि गच्छति जानातीत्यन्तः सर्वज्ञः। सूत्र की व्याख्या- पाणिनीय के छः प्रकार के सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- पाणिनीयेषु षड्विधेषु सूत्रेषु विधिसूत्रमिदम्‌। गश्रिताः - शृङ्-धातु से तप्रत्ययान्त का रूप है।,श्रिताः - शृृङ्-धातोः तप्रत्ययान्तं रूपम्‌। “कर्तरि करणे च'' विद्यमान तृतीयान्त सुबन्त को कृदन्त के साथ बहुल तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"""कर्तरि करणे च"" विद्यमानं तृतीयान्तं सुबन्तं कृदन्तेन सह बहुलं तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति>" 13.अनात्म में आत्मबुद्ध आवरण से होती है।,१३. अनात्मसु आत्मत्वबुद्धिः आवरणाद्‌ भवति। यास्क ने साकार या शारीरिक इस अर्थ में पुरुषविध शब्द और निराकार या अशारिक इस अर्थ में अपुरुषविध शब्द प्रयुक्त किया है।,"साकारः शरीरी वा इत्यर्थे पुरुषविधशब्दं, निराकारः अशरीरी वा इत्यर्थे अपुरुषविधशब्दं च प्रयुक्तवान्‌ यास्कः।" जाग्रत काल में तो क्या अनुभूत किया गया है इस प्रकार से पूछने पर ही जाना जा सकता है।,जाग्रत्काले स्वप्नकाले च किं किम्‌ अनुभूतमिति पृष्ट्वा एव ज्ञातुं शक्यते। "चार पद वाले इस सूत्र में शकटिशकट्योः यह षष्ठी द्विवचनान्त पद है, अक्षरम्‌, और अक्षरं ये दोनों पद प्रथमा एकवचनान्त है, और पर्यायेण यह तृतीया एकवचनान्त पद है।","चतुष्पदात्मकेऽस्मिन्‌ सूत्रे शकटिशकट्योः इति षष्ठीद्विवचनान्तं पदम्‌, अक्षरम्‌, अक्षरं चेति पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तं, पर्यायेण इति च तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌।" भारत वर्ष में कभी भी पुरुषमेध नहीं हुआ।,भारतवर्ष कदापि पुरुषमेधो नाभवत्‌। मुख्य रूप से ब्रह्मविद्या रहस्य शब्द से जानी जाती है।,मुख्यतः ब्रह्मविद्या रहस्यशब्देन ज्ञायते। सूत्र का अवतरणम्‌- छन्द में मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशी शब्दों का और अन्य शब्दों के आदि और दूसरा स्वर विकल्प से उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य ने को है।,सूत्रावतरणम्‌- छन्दसि मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशीनां शब्दानाम्‌ अन्येषां च शब्दानाम्‌ आदेः द्वितीयस्य वा स्वरस्य विकल्पेन उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। "इसके बाद “अव्ययीभावसमास विधायक सूत्र “यावदवधारणे '', “सुप्प्रतिना मात्रार्थे”, “ संख्या वेश्येन'', ““नदीभिश्च'' ये चार सूत्र इस पाठ में प्रस्तुत किया गया है।","ततः अव्ययीभावसमासविधायकानि ""यावदवधारणे"", ""सुप्प्रतिना मात्रार्थे"", ""संख्या वंश्येन"", ""नदीभिश्च"" इत्येतानि चत्वारि सूत्राणि अस्मिन्‌ पाठे प्रस्तुतानि।" शङ्कराचार्य के द्वारा उपदेशसाहसी में कहा गया है।,शङ्कराचार्येण उपदेशसाहस्यां निगद्यते। "शंयोरभिस्रवन्तु नः' अथर्ववेद का यह प्रथम मन्त्र है, किन्तु अभी प्रचलित शौनक संहिता के छठे सूक्त का यह प्रथम मन्त्र है।","शंयोरभिस्रवन्तु नः' अथर्ववेदस्य प्रथमः अयं मन्त्रः अस्ति, किञ्च सम्प्रति प्रचलितायां शौनकसंहितायां षष्ठसूक्तस्य अयं प्रथमः मन्त्रः अस्ति।" पीताम्बररूप समस्यमान पदों की अर्थ अपेक्षा से अन्यपदार्थ विष्णु रूप होता है।,पीताम्बररूपसमस्यमानपदयोः अथपिक्षया अन्यपदार्थः भवति विष्णुरूपः। उसका प्रथमा एकवचन में निर्णिक्‌ रूप बना।,तस्य प्रथमैकवचने निर्णिक्‌ इति रूपम्‌। काम्यकर्म बन्धन करतें है इसलिए उनके त्याग का ही विधान किया गया है।,काम्यकर्माणि बन्धनं कुर्वन्ति। तेषां त्याग एव विधीयते। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में ही स्पष्ट किया गया है की श्रद्धा के द्वारा ही अग्नि प्रज्वलित होती है।,अस्य सूक्तस्य प्रथममन्त्रे एव स्पष्टीकृतम्‌ अस्ति यत्‌ श्रद्धया एवाग्नेः समिन्धनं भवति। इनके दादा जी का नाम भी देवराजयज्वा ही था।,अस्य पितामहस्य अपि नाम देवराजयज्वा एव आसीत्‌। वहाँ पर इसका क्या अर्थ है कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग नित्य कर्म नहीं करते हैं तो उनको प्रत्यवाय दोष लगता है।,तत्र कोऽस्यार्थः। केचिदाहुः यत्‌ नित्यानि न कृतानि चेत्‌ प्रत्ययवायः दोषः पापं जायते। प्रतिपदविधान षष्ठी तदन्त सुबन्त को समास नहीं होता है।,प्रतिपदविधाना या षष्ठी तदन्तं सुबन्तं न समस्यते। समानम्‌ एकम्‌ अधिकरणं वाच्यं ययोः समानाधिकरणे पद में बहुब्रीहि समास है।,समानम्‌ एकम्‌ अधिकरणं वाच्यं ययोः ते समानाधिकरणे पदे इति बहुव्रीहिः । विष्णु के तीन क्रम है “इद्‌ विष्णुर्विचक्रमे' (ऋ० स० १.२२.१७) इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है।,विष्णोस्त्रेधा क्रमणम्‌ “इदं विष्णुर्विचक्रमे' (ऋ० स० १.२२.१७) इत्यादिश्रुतिषु प्रसिद्धम्‌। इससे इस आरण्यक के समय की पूर्व सीमा विक्रम से एक हजार वर्ष पहले मानते हैं।,एतेन अस्य आरण्यकस्य समयस्य पूर्वसीमा विक्रमपूर्वसहस्रशतकम्‌ इति मन्तव्यं भवति। इसके विविध देवों के साथ सम्पर्क हैं।,अस्य विविधैः देवैः सह सम्पर्कः वर्तते। कापिष्ठल संहिता विषय पर छोटा निबन्ध लिखिए।,कापिष्ठलसंहिताविषये लघुप्रबन्धो लेख्यः। उपनिषदों का सामान्य परिचय लिखिए।,उपनिषदां सामान्यपरिचयं लिखत। जो याग एकाधिक दिवसीय अथवा बारह दिनों से कम दिनों में सम्पन होते हैं वे अहीनयाग होते हैं।,ये यागाः एकाधिकदिवसीयाः किञ्च द्वादशदिवसेभ्यः न्युनदिवसीयाः ते अहीनयागाः । निगद क्या है?,को निगदः ? उसके द्वार देहादि विपरीत भावनाओं का निवारण होता है।,तेन देहादिविपरीतभावना निवर्तते। गुरुशास्त्र वाक्यों का ब्रह्म में तात्पर्य समझकर के ब्रह्मविषय में समापतित विरोधियुक्तियों के खण्डन के लिए विहित मानसी क्रिया मनन होती है।,गुरुशास्त्रवाक्यानां ब्रह्मणि तात्पर्यं बुद्ध्वा ब्रह्मविषये समापतितानां विरोधियुक्तीनां खण्डनाय विहिता मानसी क्रिया तावत्‌ मननम्‌। उसने दक्ष को धारण किया।,सः दक्षं धृतवान्‌। इष्टियाग के काम्यानुष्ठान का क्या-क्या वैशिष्टय है?,इष्टियागस्य काम्यानुष्ठाने किं किं वैशिष्ट्यं वर्तते? कृष्ण यजुर्वेद की कितनी शाखा प्राप्त होती हैं?,कृष्णयजुर्वेदस्य कति शाखाः प्राप्यन्ते? वाक्यार्थ ज्ञान पदार्थज्ञान सापेक्ष होता है।,वाक्यार्थज्ञानं पदार्थज्ञानसापेक्षं भवति। "तब जिस एक को छोड़कर अन्य अनुदात्त होते हैं ऐसा कहते हैं, वह एक अच्‌ किस प्रकार का होता है यह शङ्का उत्पन्न होती है।",तदा यम्‌ एकं वर्जयित्वा अन्ये अनुदात्ताः भवन्ति इति उच्यते स एकः अच्‌ कीदृशः भवेत्‌ इति शङ्का उत्पद्यते। अगत्ति इसका अर्थ है- गति संज्ञा भिन्न से।,अगतेः इत्यस्य गतिसंज्ञाभिन्नात्‌ इति अर्थः। तो स्वप्नकाल में किस शरीर का भास होता है यह जिज्ञासा होती है तब उत्तर देते हैं की सूक्ष्म शरीर का भास होता है।,तर्हि स्वप्नकाले कस्य शरीरस्य भानमिति जिज्ञासायामुच्यते सूक्ष्मशरीरस्य इति। मालतीमाधव के टीका कर्ता जगद्धर के कथन अनुसार से - चरण शब्द शाखा विशेष अध्ययन-पर एकतापन्न जटा संघवाची है।,मालतीमाधवस्य टीकाकर्त्तः जगद्धरस्य कथनानुसारेण-'चरणशब्दः शाखाविशेषाध्ययन- परैकतापन्नजटासंघवाची'। स्कन्दस्वामी के अनुसार उसका अर्थ ही यज्ञ प्रकृतमन्त्र में है।,स्कन्दस्वामिमतेन तदर्थो हि यज्ञः प्रकृते मन्त्रे। उनकी भी विशिष्ट मात्रा अभीष्ट होती है।,तेषां च विशिष्टा मात्रा अभीष्टा। 24. वेदान्तसार में निर्विकल्पक समाधि के स्वरूप के विषय में क्या कह गया है?,२४. वेदान्तसारे निर्विकल्पकसमाधेः स्वरूपविषये किमुक्तम्‌? (191) उपाधिसम्बन्धवशात्‌ परात्माप्युपाधिधर्माननुभाति तत्गुणः।,उपाधिसम्बन्धवशात्‌ परात्माप्युपाधिधर्माननुभाति तत्गुणः। (१९३) “एका श्रुतिः यस्य तत्‌ एकश्रुति' इति बहुव्रीहि समास है।,एका श्रुतिः यस्य तत्‌ एकश्रुति इति बहुव्रीहिः। (वि.चू. 172) सुषुप्तिकाल में मन का लय सम्भव होने से मन के कारण भूत जगत्‌ प्रपञ्च तथा स्वप्नप्रपञ्च नहीं होते हैं।,(वि.चू. १७२) सुषुप्तिकाले मनसः लयसम्भवात्‌ मनःकारणभूतः जाग्रत्प्रपञ्चः स्वप्नप्रपञ्चो वा न स्तः। इनका उपस्थापन किया गया है।,इति सुव्यस्थापितम्‌। भेदक भेद से समान अधिकरण के साथ बहुल का समास होता है।,भेदकं भेद्येन समानाधिकरणेन सह बहुलं समस्यते यागों का अधिक महत्त्व होने से यह ही सबसे बड़े यज्ञ के नाम से सुशोभित है (ताण्ड्य. ६/३/८-९)।,यागानां समधिकमहत्त्वशालित्वेन अयम्‌ एव ज्येष्ठयज्ञाभिधानेन मण्डितः अस्ति (ताण्ड्य. ६/३/८-९)। दुख का कुछ ना कुछ कारण तो होगा ही।,दुःखस्य किमपि कारणं तु स्यादेव। कब तृतीयान्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है?,कदा तृतीयान्तं पूर्वपदं प्रकृत्या भवति? भूतकाल में भी थी।,अतीते काले अपि आसीत्‌। छन्द्‌-धातु से लुङ प्रथमपुरुष एकवचन में।,छन्द्‌ - धातोः लुङि प्रथमपुरुषैकवचने । सूर्य तथा चन्द्र भी ब्रह्म से ही प्रकाशित होते हैं।,सूर्यचन्द्रादयः अपि ब्रह्मणा एव प्रकाशिताः भवन्ति। हिरण्यगर्भः समवर्रताग्रे... मन्त्र की व्याख्या करो।,हिरण्यगर्भः समवर्रताग्रे... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। “सह सुपा'' इत्यादि सूत्रों द्वारा विहित “समासपदवाच्या भवन्तु” ऐसा संकेत पाणिनी द्वारा किया गया है।,"""सह सुपा"" इत्यादिभिः सूत्रैः विहिताः ""समासपदवाच्या भवन्तु"" इति सङ्केतः पाणिनिना कृतः।" सूत्र का अवतरण- दीर्घ अन्त वाला जो अष्टन्‌-शब्द उससे उत्तर शस आदि असर्वनामस्थान संज्ञक के उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना कौ है।,सूत्रावतरणम्‌- दीर्घान्तात्‌ अष्टन्‌-शब्दात्‌ परेषां शसादीनाम्‌ असर्वनामस्थानसंज्ञकानाम्‌ उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - ञित्‌ और नित्‌ के परे तदन्त शब्द को नित्य आदि उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्यार्थो भवति ञिति निति च परे तदन्तस्य शब्दस्य नित्यम्‌ आदिः उदात्तः भवति। अर्थात्‌ उसमें क्षत्रियत्व की सम्पत्ति नहीं है इस प्रकार से कह सकते है।,अर्थात्‌ तस्मिन्‌ क्षत्रियत्वस्य सम्पत्तिः नास्ति इति कथ्यते। क्षरन्ति - क्षर्‌ इस अर्थ से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।,क्षरन्ति - क्षर्‌ इति अर्थकात्‌ लटि प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। "उसके मत में वह प्रेम नहीं है, को जो अनाचार दोष से दूषित हो अथवा स्वार्थ विशेष साधक हो।",तस्य मते न तत्‌ प्रेम यत्‌ अनाचारदोषेण दूषितं स्वार्थविशेषसाधकं वा विद्यते। जैसे श्वेतशब्द का गुणवाचक गुण और गुणिन (गुणयों) के मध्य उपचार से श्वेतगुणविशिष्ट पदार्थ का अर्थ स्वीकार किया है।,यथा श्वेतशब्दस्य गुणवाचकस्य गुणगुणिनोरभेदोपचारात्‌ श्वेतगुणविशिष्टपदार्थः इत्यर्थः स्वीक्रियते। चतुर्थी तदर्थ (६.२.४३ ) सूत्र का अर्थ- चतुर्थी पूर्वपद को चतुर्थ्यन्तार्थ के उत्तर पद रहते प्रकृति स्वर होता है।,चतुर्थी तदर्थ(६.२.४३) सूत्रार्थः- चतुर्थ्यन्तार्थाय यत्तद्वाचिन्युत्तरपदे चतुर्थ्यन्तं प्रकृत्या। और निराकार ब्रह्म का आकार धारण करना अयुक्त है।,निराकारस्य ब्रह्मणः आकारधारणम्‌ अयुक्तं खलु। और कहा गया है अग्निर्वै देवानां मुखम्‌' ` अग्निर्मुखं प्रथमो देवतानामि' इस प्रकार।,तदुक्तम्‌ 'अग्निर्वैदेवानां मुखम्‌' 'अग्निर्मुखं प्रथमो देवतानामि'ति। ( ६.१.२०० ) सूत्र का अर्थ- तवै-प्रत्ययान्त शब्द का अन्त और आदि को एक साथ उदात्त होता है।,(६.१.२००) सूत्रार्थः- तवै-प्रत्ययान्तस्याद्यन्तौ युगपदादुदात्तौ स्तः। प्राचीन सिन्धू आदि आप की कृपा से ही प्रवाहित होती है।,युवयोरनुग्रहात्‌ प्राचीनाः सिन्ध्वादि नद्यः प्रवहन्ति। सूत्र की व्याख्या - छ: प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं तावत्‌ विधिसूत्रम्‌। वहाँ पर लक्षित लक्षणा होती है।,तत्र लक्षितलक्षणा भवति। वक्षति यह रूप किस-किस लकार में सम्भव है?,वक्षति इति रूपं कस्मिन्‌ कस्मिन्‌ लकारे सम्भवति? इसलिए वेदान्त वाक्यों को सुनकर के अद्वैतब्रह्म में ही वेदान्तों का तात्पर्य समझकर के विरोधी युक्तियों का वेद सिद्धान्त विरोधी युक्तियों के द्वारा निराकरण करना ही मनन रूपी अर्थ फलित होता है।,अतः वेदान्तवाक्यानि श्रुत्वा अद्वैतं ब्रह्मैव वेदान्तानाम्‌ तात्पर्यम्‌ इति विज्ञाय विरुद्धयुक्तीनां वेदसिद्धान्ताविरोधियुक्तिभिः निराकरणम्‌ एव मननम्‌ इति अर्थः फलति। 4. विपूर्वक वस्‌-धातु से मध्यमपुरुष एकवचन का यह रूप है।,४. विपूर्वकात्‌ वस्‌ - धातोः मध्यमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌। देखकर के भार्या पूछती है कि क्या वह अरुन्ध ती नक्षत्र है।,दृष्टं तद्वा अरुन्धतीनक्षत्रमिति भार्या पृच्छति। वहा अनन्त विष्णु की महिमा का उत्कृष्ट रूप से उसका वर्णन किया।,तत्र तदुरुगायस्य विष्णोः महागतेः परमं पदं परार्ध्यस्थम्‌ अवभाति। यहाँ जल की सीमा का अतिक्रर्मण करके किसी वृक्ष में अपनी नाव को बाँध लीजिए।,अत्र उदकसीमाम्‌ अतिक्रम्य कस्मिंश्चित्‌ वृक्षे नावं बध्नातु। कदाचित्‌ जो आवश्यक होता है वह ही मुख्य कर्म होने योग्य होता है।,कदाचित्‌ यद्‌ आवश्यकं तदेव मुख्यमिति भवितुमर्हति। सुख तथा दुःख का परिहार रूपी विषय होता है।,"सुखं दुःखपरिहारश्च विषयः, भवति ।" मीढुष्टम - अतिशयेन मीढ्वान्मीढुष्टमः तसौ मत्वर्थे' (पा. १/४/१९) इससे भसंज्ञा होने पर “वसोः संप्रसारणम्‌' (पा. ६/४/३१) इससे संप्रसारण।,मीढुष्टम-अतिशयेन मीढ्वान्मीढुष्टमः 'तसौ मत्वर्थ' (पा. १/४/१९) इति भसंज्ञायां 'वसोः संप्रसारणम्‌' (पा. ६/४/३१) इति संप्रसारणम्‌। निमिषतः - निपूर्वकमिष-धातु से शतृ प्रत्यय के षष्ठ्येकवचन में निमिषतः: रूप सिद्ध होता है।,निमिषतः- निपूर्वकमिष्‌-धातोः शतृप्रत्यये षष्ठ्येकवचने निमिषतः इति रूपम्‌। इन विषयों को भोगने से ही जन्तु आत्मा को सुखी मानता हैं।,एतेषां विषयाणां भोगेन एव जन्तुः आत्मानं सुखिनं मन्यते। ग्यारहवां पाठ समाप्त॥,इति एकादशः पाठः।। गीतिप्रधान सामवेद का भी अग्न आयाहि वीतये इति अग्नि के आह्वान से ही आरम्भ प्राप्त होता है।,गीतिप्रधानस्य सामवेदस्यापि अग्न आयाहि वीतये इति अग्नेः आह्वानपर आरम्भो लभ्यते। शतपथब्राह्मण में भी इन दोनों का उल्लेख प्राप्त होता है (१३/४/३/२)।,शतपथब्राह्मणे अपि एतयोरुभयोरुल्लेखः प्राप्यते (१३/४/३/२)। यदि किन्ही शाखाओं में परस्पर विरोध होता है तो वेद के समर्थन मत को ही प्रमाणिक मानते है।,यदि क्वापि शाखासु परस्परविरोधो भवति तर्हि वेदेन समर्थितं मतमेव प्रामाणिकम्‌ गण्यते। "जैसे रज्जु का विवर्त रूप सर्प होता है, वह उस रज्जु से भिन्न नहीं होता है।",यथा रज्जोः विवर्तरूपः सर्पः तस्मात्‌ रज्जोः न भिन्नः । इस प्रकार से सुप्त को अज्ञानानन्द का अनुभव होता है।,सुप्तस्य अज्ञानानन्दयोरनुभवः। इस विग्रह में “नज्‌'' से समास में नकार का लोप होने पर अ अश्व इस स्थिति में अज आदि में उत्तरपद पर रहने पर नञ्‌ समास में नुडागम विधायक यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है- “तस्मान्तुडचि '' सूत्रार्थ-लुप्त नकार से नञ्‌ के उत्तर पद के अच्‌ आदि का नुडागम होता है।,"इति विग्रहे "" नञ्‌ "" इत्यनेन समासे नकारलोपे अ अश्व इति स्थिते अजादौ उत्तरपदे परे नञ्समासे नुडागमविधायकं सूत्रं प्रवृत्तम्‌ - तस्मान्नुडचि ॥ सूत्रार्थः - लुप्तनकारात्‌ नञः उत्तरपदस्य अजादेः नुडागमो भवति ।" उत्पाद्य आप्य विकार्य तथा संस्कार्य।,उत्पाद्यम्‌ आप्यं विकार्यं संस्कार्यं वा। हीनलोक की प्राप्ति नहीं होती है।,हीनलोकप्राप्तिः न भवति। "वहाँ 'उदात्तस्वरितपरस्य' यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, सन्नतरः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, किन्तु अनुदात्तानाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है।","तत्र उदात्तस्वरितपरस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं, सन्नतरः इति प्रथमैकवचनान्तं, किञ्च अनुदात्तानाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌।" जीव साक्षात्‌ ईश्वर होता है।,जीवः साक्षात्‌ ईश्वरः। यहाँ पदों का अन्वय है - तिसृभ्यः परस्य जसः अन्तः उदात्तः स्यात्‌ इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- तिसृभ्यः परस्य जसः अन्तः उदात्तः स्यात्‌ इति। "वेदान्तसार में सदान्द योगीन्द्र नें कहा है- अस्य अङ्गानि यम, नियमासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधयः” इस प्रकार से तथा महर्षि पतञ्जलि नें भी योगसूत्र में आठ अङ्ग बताए है- “यम, नियमासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधयोऽष्टावङ्गानि, अर्थात्‌ यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस प्रकार से ये आठ अङ्ग होते हैं।",उच्यते च वेदान्तसारे सदानन्दयोगीन्द्रेण - “अस्य अङ्गानि यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-ध्यान-धारणा-समाधयः” इति। महर्षि-पतञ्जलि-प्रणीते योगसूत्रेऽपि उच्यते - “यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-ध्यान-धारणा-समाधयोऽष्टावङ्गानि” इति। अर्थात्‌ अधर्म रूप से कहे जाने वाले संस्कार होने पर वेदान्त का श्रवण करने पर भी असम्भावना को निवृत्ति नहीं होती है।,अर्थात्‌ अधर्माख्ये संस्कारे सति कृतेऽपि वेदान्तश्रवणे असम्भावना न निवर्तते। द्वितीयभाग में ब्राह्मण है।,द्वितीयभागो ब्राह्मणम्‌। सरलार्थ-पादरहित और हाथ रहित वृत्र ने इन्द्र के प्रति युद्ध के लिए इच्छा की।,सरलार्थः - पादरहितः हस्तरहितश्च वृत्रः इन्द्रं प्रति युद्धाय ऐच्छत्‌। जब उसके प्रारब्धकर्म का अशेषता के कारण नाश होता है तब वह उसकी विदेह मुक्ति होती है।,यदा तस्य प्रारब्धकर्मणः अशेषतया विनाशः भवति तदा तस्य विदेहमुक्तिः भवति। 6. दोनों (ऊपर - नीचे) दांत है जिनके।,6. उभयोः दन्ताः येषां ते। मूलपाठ ( पर्जन्यसूक्त ) अच्छा वद तवर्स गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विंवास।,मूलपाठः ( पर्जन्यसूक्तम्‌ )- अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नम॒सा विवास । श्रोत्रेन्द्रिय स्वतन्त्रता से शब्द का ग्रहण नहीं कर सकती हैं।,श्रीत्रेन्द्रियं स्वतन्त्रतया शब्दं ग्रहीतुं न समर्थम्‌। वह ही इन्द्रवरुण आदिनाम से अनेक रूपों में उसका वर्णन किया गया है।,स एव इन्द्रवरुणादिनाम्ना बहुभिः प्रकारैः वर्ण्यते। विश्वास में तथा श्रद्धा में विषय का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता है।,विश्वासे श्रद्धायां वा विषयस्य प्रत्यक्षानुभवः नास्ति। ये पृथिव्याम्‌?,'ये पृथिव्याम्‌? ( ६.२.२० ) सूत्र का अर्थ- ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को विकल्प से प्रकृति स्वर हो जाता है।,(६.२.२०) सूत्रार्थः- ऐश्वर्य अर्थ तत्पुरुषे पत्यौ उत्तरपदे भुवनं पूर्वपदं वा प्रकृत्या। दूसरा काण्ड तेरह प्रपाठको में विभक्त है।,द्वितीयः काण्डः त्रयोदशप्रपाठकेषु विभक्तः अस्ति। "सूत्र का अर्थ - जिससे उत्तर चित्‌ है, तथा जिससे पूर्व कोई शब्द नहीं है, ऐसा किंवृत्त शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।",सूत्रार्थः - अविद्यमानपूर्वं चिदुत्तरं यत्किवृत्तं तेन युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। "उस जन्म में प्रारब्ध का नाश तो होता है, लेकिन क्रियमाण कर्म संचितत्व के रूप में परिणित होते है।",तस्मिन्‌ जन्मनि प्रारब्धनाशस्तु भवति परन्तु क्रियमाणं कर्म संचितत्वेन परिणमते। इस मन्त्र का यह अर्थ है - इन्द्र के बिना कोई भी मानवों को विजय प्राप्त नहीं करा सकता।,अस्य मन्त्रस्य अयम्‌ अर्थः - इन्द्रं विना न कोऽपि मानवो विजयं प्राप्नोति। इसलि पञ्चदशीकार विद्यारण्य आचार्य के द्वारा कह गया है “बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावेव व्याप्नुतो घटम्‌।,उच्यते च पञ्चदश्यां विद्यारण्याचार्येण - “बुद्धितत्स्थचिदाभासो द्वावेव व्याप्नुतो घटम्‌। लय तथा विक्षेप का अभाव होने पर चित्तवृत्ति की रागादिवासना के द्वारा स्तब्धीभाव होने से अखण्डवस्तु का अनवलम्ब ही कषाय कहलाता है।,लयविक्षेपाभावेऽपि चित्तवृत्तेः रागादिवासनया स्तब्धीभावात्‌ अखण्डवस्त्वनवलम्बनं कषायः इति। "व्याख्या - पासे का आकर्षण बड़ा कठिन है, यदि किसी का धन के प्रति अक्ष की लोभ दृष्टि हो जाए, तो पास वाले की पत्नी व्यभिचारिणी हो जाती है, उस पर चालक जुआरियो की दृष्टि पड़ी रहती है, अन्ये जुआरी उसके वस्त्रकेश आदि के आकर्षण से उसका स्पर्श करते है।",व्याख्या - यस्य कितवस्य वेदने धने वाजी बलवान्‌ अक्षः देवः अगृधत्‌ अभिकाङ्क्षां करोति तस्य अस्य कितवस्य जायां भार्याम्‌ अन्ये प्रतिकितवाः परिमृशन्ति वस्त्रकेशाद्याकर्षणेन संस्पृशन्ति । उसी प्रकार से हमेशा प्रकाशमान चैतन्य में अज्ञानावरणकारण से उसका प्रकाश नहीं जाना जाता है।,तथैव सर्वदा प्रकाशमाने चैतन्ये अज्ञानावरणकारणात्‌ तस्य प्रकाशो नैव ज्ञायते । शत्रुओं पर फेकने के लिए यह अर्थ है।,असितुं शत्रून्‌ क्षेप्रुमित्यर्थः। 3. स्वर्ग को प्राप्त करने पर भी जब पुण्यों का क्षय होता है तब जन्म ग्रहण करना चाहिए।,३. स्वर्गोऽपि लब्धश्चेत्‌ यदा पुण्यक्षयः भवति तदा पुनः जन्मग्रहणं कर्तव्यम्‌ भवति। 2 उपासना का परम प्रयोजन क्या होता है?,उपासनायाः परं प्रयोजनं किम्‌। "“कुत्सितानि कुत्सनैः सूत्रार्थ-कुत्स्यमान सुबन्तों को कुत्सन सामानाधिकरण सुबन्त के साथ समास होता है, और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।","कुत्सितानि कुत्सनैः॥ (२.१.५३) सूत्रार्थः - कुत्स्यमानानि सुबन्तानि कुत्सनैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" उसका मन निर्मल हो जाता है।,तस्य मनः निर्मलं भवति। अध्याय-2 वेदांत में प्रमाण (पाठ 5 से 10) निर्भ्रात ज्ञान हमारा हो कौन नहीं चाहता है।,अध्यायः - २ वेदान्ते प्रमाणानि (पाठाः ५-१०)निभ्रन्तिं ज्ञानं ममास्तु को वा न वाञ्छति। आप्त पुरुषों के उपदेश ही शब्द प्रमाण है।,आप्तपुरुषाणाम्‌ उपदेशः हि शब्दप्रमाणम्‌। इसलिए पूर्व और मूल पक्ष से संख्याओं का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है हेतु के लिए यहां पर सांख्य दर्शन के प्रोक्त विषय यहां उद्धृत हैं।,अतः पूर्वपक्षत्वेन मूलत्वेन च सांख्यानाम्‌ अध्ययनम्‌ अत्यन्तम्‌ आवश्यकमिति हेतोः अत्र सांख्यदर्शनस्य प्रोक्ताः विषयाः अत्र उपन्यस्याः। जनयन्तीः - जन्‌-धातु से णिच शतृ और ङीप्‌ करने पर प्रथमाबहुवचन में जनयन्ती: रूपद्य जनयन्त्यः इसका वैदिक रूप है।,जनयन्तीः- जन्‌-धातोः णिचि शतरि ङीपि च प्रथमाबहुवचने जनयन्तीः इति रूपम्‌। जनयन्त्यः इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। "उसके बाद थसः तम्‌ यह आदेश होते हैं, उसका अत्‌ उपदेश परे होने से 'तास्यानुदात्तेन्ङि दुपदेशात्‌' इससे अनुदात्त स्वर होता है, वहाँ उदात्तानुदात्तस्य स्वरितः इससे तकार से उत्तर अकार को स्वरित स्वर इस प्रकार गोपायतम यह रूप सिद्ध होता है।","ततः थसः तम्‌ इत्यादेशः, तस्य अदुपदेशपरत्वात्‌ तास्यानुदात्तेन्ङिदुपदेशात्‌ इत्यनेन अनुदात्तस्वरः, ततः उदात्तानुदात्तस्य स्वरितः इत्यनेन तकारोत्तरवर्तिनः अकारस्य स्वरितस्वरः एवं गोपायतम्‌ इति सिध्यति।" चतुर्थी तदर्थे' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,चतुर्थी तदर्थ इति सूत्रस्य कः अर्थः? "जिस मन्त्र वाक्‍य में पाद व्यवस्था नहीं होती है, उसे निगद कहते है।",यस्मिन्‌ मन्त्रवाक्ये पादव्यवस्था न वर्तते तत्‌ निगद इत्युच्यते। उत्तरपद में पर का दिक्‌ समास का उदाहरण है पञ्चगवधनः।,उत्तरपदे परतः दिक्समासस्योदाहरणं पञ्चगवधनः इति। आदि सात पाठों में समासभेद वर्णित हैं।,आद्येषु सप्तसु पाठेषु समासभेदा वर्णिताः। 11. समाधान क्या होता है तथा किसमे समाधान होता है?,११. समाधानं किम्‌। कस्मिन्‌ समाधानम्‌। (क) शम (ख) दम (ग) उपरति (घ) वैराग्य 17. विषयों से बाह्य इन्द्रियों का निग्रह क्या कहलाता है?,(क) शमः (ख) दमः (ग) उपरतिः (घ) वैराग्यम्‌ 17. विषयेभ्यो बाह्येन्द्रियाणां निग्रहः किमुच्यते। इसके श्रोत्र से दिशाएँ उत्पन्न हुई।,अस्य श्रोत्रात्‌ दिशः उत्पन्नाः। "सरलार्थ - पुरुष के नाभिमण्डल से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ, शिर से द्युलोक, पाद से भूमि, कर्ण से दिशा उत्पन्न हुए।","सरलार्थः- पुरुषस्य नाभिमण्डलात्‌ अन्तरिक्षम्‌ उत्पन्नं, शिरसः द्युलोकः, पादात्‌ भूमिः, कर्णात्‌ च दिशः उत्पन्नाः।" अतएव दो अरणीयाँ पार्थिव अग्नि की माता-पिता कहलाती हैं।,अत एव द्वे अरणी पार्थिवाग्नेः पितरौ इति उच्येते। और समास सामान्यतः दो प्रकार का होता है नित्य और अनित्य।,स च समासः सामान्यतः नित्यः अनित्यश्चेति द्विधा विभक्तः। वह जन्य नहीं है।,तत्‌ जन्यम्‌ नास्ति। आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि यहाँ पर उपसर्जन नाम अप्रधान को कहते है।,आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि इत्यत्र उपसर्जनं नाम अप्रधानम्‌। दासयति इस अर्थ में घञ्‌ करने पर दास शब्द बनता है।,दासयति इत्यर्थ घञि निष्पन्नः दासशब्दः। विद्वत्संन्यास मोक्ष का हेतु होता है।,विद्वत्संन्यासः साक्षात्‌ मोक्षहेतुः अस्ति। नास्ति विग्रहो यस्य सः अविग्रहः।,नास्ति विग्रहो यस्य सः अविग्रहः इति। "सरलार्थ - इस मन्त्र में कभी-कभी पासे अंकुश के समान चुभने वाले, हृदय को टुकड़े ठुकडे करने वाले एवं गरम पदार्थ के समान जलाने वाले बन जाते है, पासे जीतने वाले जुआरी के लिए पुत्र जन्म के समान आनंदाता एवं मधु से लिपटे ही लगते है, पर हारने वाले की तो जान निकाल लेते है।","सरलार्थः - अस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते यत्‌ अक्षाः अवश्यमेव अङ्कुशिनः इव अर्थात्‌ यथा अङ्कुशिनः हस्तिनः शासनं कुर्वन्ति तथा अक्षाः अपि कितवस्य शासनं कुर्वन्ति, नितोदिनः इव अर्थात्‌ यथा नितोदिनः अश्वं परिचालयन्ति तथैव अक्षाः अपि कितवान्‌ परिचालयन्ति , विनाशिनः , सन्तापदाः अर्थात्‌ कितवैः स्वपरिवाराय कष्टं अक्षाय प्रदीयते , पुत्रतुल्यधनदाः , विजयिनं पुनः हननकारिणः इव सन्ति ।" "अविद्या सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के द्वारा युक्त होती है।",अविद्यायां रजोगुणेन तमोगुणेन च युक्तः भवति सत्त्वगुणः। लृट और लेट्‌ में।,लृटि लेटि च। इन्द्र की स्तुति जिस सूक्त में वह यह इन्द्रसूक्त है।,इन्द्रस्य स्तुतिः यस्मिन्‌ सूक्ते तदिम्‌ इन्द्रसूक्तम्‌। संहिता और ब्राह्मण में महान्‌ भेद है।,संहिताब्राह्मणयोः च महान्‌ भेदः वर्तते। आबभूव - आङ इस उपसर्गपूर्वक भू (सत्तायाम्‌) इस अर्थ की धातु से लिट्‌-लकार का प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,आबभूव - आङ्‌ इत्युपसर्गपूर्वकात्‌ भू (सत्तायाम्‌) इत्यर्थकात्‌ धातोः लिट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। मालतीमाधव के टीकाकर्ता कौन हैं?,मालतीमाधवस्य टीकाकर्ता कः? होमयाग की प्रकृति क्या है?,होमयागस्य प्रकृतिः का ? लेखक ने क्या ग्रहण करने के लिए ग्रन्थ की रचना की यदि इसको स्पष्टता हो जाती है तो तात्पर्य को ग्रहण करने में भ्रम नहीं होता है।,लेखकः किं ग्राहयितुम्‌ ग्रन्थं प्रणीतवान्‌ इति स्पष्टता यदि अस्ति तर्हि तात्पर्यग्रहणे भ्रमो न भवति। "अर्थात्‌ प्रकार आदि द्वित्व होने पर पर का अन्त उदात्त है, इस सूत्र में प्रकार आदि शब्दों को द्वित्व कहा है, उससे अन्य द्वित्व होने पर यहाँ शेष पद वाच्य है।",अर्थात्‌ प्रकारादिद्विरुक्तौ परस्यान्त उदात्तः इति सूत्रे प्रकारादिशब्दानां यद्‌ द्वित्वमुक्तं तस्मात्‌ अन्यद्‌ द्वित्वम्‌ अत्र शेषपदवाच्यम्‌। अतः वह विग्रह कहलाता है।,अतः स विग्रहः। टिप्पणी - इस मन्त्र में तीनो लोक का विस्तार किया उसके पराक्रमो का इस प्रकार यहाँ अनेक प्रकार के मत आचार्यो के है।,टिप्पणी - अस्मिन्‌ मन्त्रे उरुषु त्रिषु विक्रमणेषु इति अत्र बहुविधानि मतानि आचार्याणां सन्ति। मनन तथा निधिध्यासन की संशय तथा विपर्यय की निवृत्ति में उपयोगित्व होता है।,मनननिदिध्यासनयोः संशयविपर्ययनिवृत्तौ उपयोगित्वम्‌ भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय- क्षि निवासगत्योः इस क्षि धातु के दो अर्थ है।,सूत्रार्थसमन्वयः- क्षि निवासगत्योः इति क्षिधातोः अर्थद्वयमस्ति। अखण्डाकारचित्तवृत्ति निदिध्यासन के द्वारा सम्भव होती है।,अखण्डाकारचित्तवृत्तिश्च निदिध्यासनेन सम्भवति। इसलिए उस वाक्य में श्रूयमाण शोणपद स्वार्थ का परित्याग किए बिना ही अपने आश्रयभूत अश्वादि को लक्षित करता है।,अतः तस्मिन्‌ वाक्ये श्रूयमाणं शोणपदं स्वार्थम्‌ अपरित्यज्य स्वस्य आश्रयभूतम्‌ अश्वादिकं लक्षयति। उनमें असम्भावना होती है।,तद्गता असम्भावना। ४. ऐतरेय ब्राह्मण में आख्यान है।,४) ऐतरेयब्राह्मणे आख्यानमस्ति। 3. गुरु के समीप में जाकर के अधिकारी क्या करता है?,3 . गुरुसमीपं गत्वा अधिकारी किं करोति। इसलिए सत्‌ ब्रह्म ही अद्वितीय कहलाता हे।,अतः सत्‌ ब्रह्मैव अद्वितीयमिति उच्यते। वह ही काल प्रकाणन्तर से कहते है।,स एव कालः प्रकारान्तरेणोक्तेः। उसको और भी सरल करके प्रस्तुत किया गया है।,तदपि सरलीकृत्य दीयते। और वह याग अग्नि के द्वारा ही सिद्ध होता है।,स च यागः अग्निसाध्यः। उस सरोवर में मेरा पालन करो।,तत्र पुष्करिण्यां मां पालयतु। वह अग्निहोत्री गाय कहलाती है।,सा अग्निहोत्री गौरित्युच्यते। श्रीमदभगवद्गीता में भगवान्‌ श्री कृष्ण ने भी कहा है “ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।,श्रीमद्भगवद्गीतायां श्रीकृष्णेनाप्युच्यते -“ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्चुते। दिखाई देता है।,दृश्यते। "और उसका यहाँ विग्रह है ऋत्‌ च नश्च इति ऋन्न, तेभ्यः, ऋन्नेभ्यः।","तस्य च विग्रहः भवति ऋत्‌ च नश्च इति ऋन्नः, तेभ्यः ऋन्नेभ्यः।" धारण किया।,धृतवान्‌। ब्राह्मण ग्रन्थ विषय पर भट्टभास्कर का क्या मत है?,ब्राह्मणग्रन्थविषये भट्टभास्करस्य मतं किम्‌? "सूत्र अर्थ का समन्वय- तेन नाक्षः इस उदाहरण वाक्य में अक्ष्‌- शब्द का द्युत अर्थ को छोड़कर प्रयोग है, उसको प्रकृत सूत्र से उस अक्ष शब्द का आदि स्वर आकार को उदात्त होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- तेन नाक्षः इति उदाहरणवाक्ये अक्ष- शब्दस्य अदेवनार्थे प्रयोगः अस्ति, तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण तस्य अक्षशब्दस्य आदेः स्वरस्य आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते।" "वहाँ सायणाचार्य के अनुसार यज्ञ की, पतञ्जलि के अनुसार शब्द की, अथवा राजशेखर के अनुसार काव्य की स्तुति कि गई है।","तत्र सायणानुसारं यज्ञस्य, पतञ्जल्यानुसारं शब्दस्य, राजशेखरानुसारं काव्यस्य वा स्तुतिः कृता अस्ति।" यहाँ कारीषगन्ध्य शब्द ष्यङन्त है।,अत्र कारीषगन्ध्य इति शब्दः ष्यङन्तः अस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- प्रप्रायम्‌ इस उदाहरण में प्र इस शब्द के द्वित्व होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- प्रप्रायम्‌ इत्युदाहरणे प्र इति शब्दस्य द्वित्वं भवति। पाद के आदि में विद्यमान आमन्त्रित पद को छठे अध्याय के ` आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से सभी को अनुदात्त स्वर हो नहीं सकते हैं।,पादादौ विद्यमानस्य आमन्त्रितपदस्य षाष्ठेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः भवितुं नार्हति। यहाँ पच्‌ धातु का “'ण्वुल्वृचौ'' इससे कर्ता में ण्वुल्‌ प्रत्यये होने पर अकादेश होने पर पाचकः रूप बना पाचकः इससे योग होने पर ओदन का षष्ठयन्त को प्राप्त होने पर षष्ठी समास प्रस्तुत सूत्र से निषेध होता है।,"अत्र पच्धातोः ""ण्वुल्तृचौ"" इत्यनेन कर्तरि ण्वुलि अकादेशे पाचकः इति रूपम्‌। पाचकः इत्यनेन योगे ओदनस्य इति षष्ठ्यन्तस्य प्राप्तः षष्ठीसमासः प्रस्तुतसूत्रेण निषिध्यते।" निषिद्ध जैसे पाप के द्वारा दुःख को उत्पन्न करते हैं।,निषिद्धानि यथा पापद्वारा दुःखं जनयन्ति । वह मुक्ति दो प्रकार की होती है जीवन्मुक्ति तथा विदेह मुक्ति।,सा मुक्तिः द्विविधा जीवन्मुक्तिः विदेहमुक्तिश्च। पिन्वतम्‌ - पिव्‌-धातु से लोट्‌-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में पिन्वतम्‌ रूप है।,पिन्वतम्‌- पिव्‌-धातोः लोट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने पिन्वतम्‌ इति रूपम्‌। इसलिए यह अभिधान कहलाती है।,तस्मादेवम्‌ अभिधानम्‌। यह प्रयोग दृष्टि से भाषा में भेद है।,अयं प्रयोगदृष्ट्या भाषायां भेदः। शस्त्रीश्यामा- शस्त्री इव श्यामा इस विग्रह करने पर उपमानानि सामान्यवचनैः इस सूत्र से तत्पुरुष समास हुआ।,शस्त्रीश्यामा- शस्त्री इव श्यामा इति विग्रहे उपमानानि सामान्यवचनैः इति सूत्रेण तत्पुरुषसमासः जातः। क्व अवरम्‌ इस स्थिति में “एकः पूर्वपरयोः' इस अधिकार में पढ़ा हुआ ` अकः सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से पूर्व पर अकार अकार के स्थान में आकार रूप सवर्ण दीर्घ एकादेश होता है।,क्व अवरम्‌ इति स्थिते 'एकः पूर्वपरयोः' इत्यधिकारे पठितेन 'अकः सवर्ण दीर्घः' इति सूत्रेण पूर्वपरयोः अकाराकारयोः स्थाने आकाररूपसवर्णदीर्घेकादेशः भवति। इस प्रकार से घट का ज्ञान होता है।,इति घटस्य ज्ञानं भवति। आसीत्‌- अस्‌-धातु से लङि प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,आसीत्‌- अस्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है उपचर्मम्‌।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति उपचर्मम्‌ इति। बंहिष्ठम्‌ इसका क्या अर्थ है?,बंहिष्ठम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। इस सूत्र से विधीयमान समास नित्य होता है।,अनेन सूत्रेण विधीयमानः समासः नित्यः अस्ति। उस आदित्य को जानकर उस ब्रह्म के वश में देव है।,तस्य ब्रह्मणस्य वशे देवाः असन्‌ अभवत्‌ भवन्ति "व्याख्या - हे रुद्र, आपके आयुध के लिए नमस्कार हो।","व्याख्या - हे रुद्र, ते तवायुधाय नमोऽस्तु ।" 10 मानवों के अन्तः करण के दोष कितने होते हैं तथा बे कौन-कौन से हैं?,१०. मानवान्तःकरणस्य दोषाः कति के च। निरूक्त में जिन शब्दों की व्युत्पत्ति प्राप्त होती है उनका मूल इन ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है।,निरूक्ते येषां शब्दानां व्युत्पत्तयो लभ्यन्ते तेषां मूलम्‌ एतेषु ब्राह्मणग्रन्थेषु उपलब्धम्‌ अस्ति। व्याख्या - यह इन्द्र वज्र से सम्पादित जो महान्‌ वज्र है उससे वज्र से आकाश को घेर लेने वाले बादलो को बड़े भरी वज्र से प्रहार करता है।,व्याख्या- अयम्‌ इन्द्रः वज्रेण सम्पादितो यो महान्‌ वज्रः तेन वज्रेण वृत्रतरम्‌ अतिशयेन लोकानाम्‌ आवरकम्‌ अन्धकाररूपम्‌। इस प्रकार से बुद्धि का स्थैर्य सम्पादन के द्वारा लक्ष्यप्राप्ति तक जो कुछ भी परिकल्पना करके साक्षात्कार होने पर लक्ष्य में परिकल्पित का निषेध करना चाहिए।,एवञ्च बुद्धेः स्थैर्यसम्पादनद्वारा लक्ष्यप्रा्तिपर्यन्तं यत्किञ्चित्‌ परिकल्पनं कृत्वा साक्षात्कृते लक्ष्ये परिकल्पितस्य निषेधः कार्यः। न क्षतः अक्षतः इति नञ तत्पुरुषसमास।,न क्षतः अक्षतः इति नञ्तत्पुरुषसमासः। "1. हिरण्यगर्भ सूक्त का ऋषि, छन्द और देवता कौन है?","१. हिरण्यगर्भसूक्तस्य कः ऋषिः, किँ छन्दः, का च देवता।" यहाँ यह जानना चाहिए की स्यान्त के विना अन्य षष्ठ्यन्त पदो की यहाँ विवक्षा है।,इदमत्र अवधेयं यत्‌ स्यान्तं विना अन्यानि षष्ठ्यन्तानि पदानि अत्र विवक्षितानि। "सूत्र की व्याख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम, अतिदेश, अधिकार सूत्रों में यह विधिसूत्र है।",सूत्रव्याख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियमातिदेशाधिकारात्मकेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। "इसका समास विधायक शास्त्र में उपमान के प्रथमा के निर्दित्व से उसके बोध्य का घन सु इसका उपसर्जन संज्ञा में पूर्व निपात होने पर, समुदाय के समास से सुप्‌ का लोप होने पर निष्पन्न घनश्याम शब्द से सुप्रत्यय प्रक्रिया कार्य में घनश्याम रूप निष्पन्न होता है।","ततः समासविधायकशास्त्रे उपमानानि इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्भोध्यस्य घन सु इत्यस्य उपसर्जनसंज्ञायां पूर्वनिपाते, समुदायस्य समासत्वात्‌ सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ घनश्यामशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये घनश्यामः इति रूपं निष्पन्नम्‌" अतः सूत्र का अर्थ होता है - क्तान्त उत्तरपद रहते चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को प्रकृतत स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - क्तान्ते उत्तरपदे चतुर्थ्यन्तस्य पूर्वपदं प्रकृत्या भवति इति। खलपू-शब्द में क्या समास हे - (क) अव्ययीभावसमास (ख) उपपदसमास (ग) तत्पुरुषसमास (घ) कर्मधारयसमास किम्‌ के स्थान में क्व आदेश किस सूत्र से होता है?,खलपू-शब्दे कः समासः वर्तते - (क) अव्ययीभावसमासः (ख) उपपदसमासः (ग) तत्पुरुषसमासः (घ) कर्मधारयसमासः किमः स्थाने क्वादेशः केन सूत्रेण भवति ? श्री रामकृष्ण के सदृश ही कोई जो सभी मतों से तथा सभी मार्गों से अतिक्रान्त है वह ही यह कह सकता है।,"श्रीरामकृष्णदेवसदृश एव कश्चन यः सर्वाणि मतानि, सर्वं च पन्थानम्‌ अतिक्रान्तः स एव एतद्‌ वक्तुं शक्नोति।" उससे पचत्‌ उगिदन्त प्रातिपदिक है।,तेन पचत्‌ इति उगिदन्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति। वधः - जिससे मारा जाता है उसे वध कहते है।,वधः - हन्यते अनेन इति वधः। किन्तु ऐतरेय ब्राह्मण में इस मत को समालोचित और खण्डित किया गया है।,किन्तु ऐतरेयब्राह्मणे इदं मतं समालोचितं खण्डितं च। "जो अन्नको खाते है देखते है, प्राणों को धारण करते है, कहे हुए विषयो को सुनते है, वह मेरे द्वारा ही ये सभी कार्य करते है।","यः अन्नं खादति, पश्यति, प्राणान्‌ धारयति, उक्तविषयान्‌ शृणोति, स मया एव एतत्‌ सर्वं कार्यं करोति।" "इसका विस्तार सहित वर्णन वहीं अन्य अध्यायों में भी (१।४।५,२=१-१७) उपलब्ध होता है।","अस्य सविस्तृतं वर्णनं तत्र एव अन्येषु अध्यायेषु (१।४।५,२=१- १७) उपलभ्यते।" उसके द्वारा घटावच्छिन्न चैतन्य प्रकाशित होता है।,तेन च घटावच्छिन्नं चैतन्यं प्रकाशते। और कुछ काल बाद -पर्वत पर जो जल चढ़ गया है धीरे -धीरे वह नीचे की और उतरेगा तब तक तुम यही पर रहो।,किञ्चापरम्‌ - गिरौ सन्तं त्वा त्वाम्‌ उदकं मा अन्तश्छैत्सीत्‌ तद्देशमध्यं भित्त्वा पृथगकार्षीत्‌। 6. महावाक्य किसे कहते हैं?,६. महावाक्यं नाम किम्‌? "वह इस प्रकार से है ""विद्वराहादितुल्यत्वं मा काङ्कीस्ततत्त्वविद्भवान्‌।","तद्यथा-""विद्वराहादितुल्यत्वं मा काङ्कीस्ततत्त्वविद्भवान्‌।" 4. वाश्राः इसका क्या अर्थ है?,४. वाश्राः इत्यस्य कः अर्थः? 17.4 हिरण्यगर्भ का स्वरूप ऋग्वेद के दशवें मण्डल के हिरण्यगर्भसूक्त में प्रजापति के पुत्र हिरण्यगर्भ की विशिष्टता वर्णित है।,१७.४) हिरण्यगर्भस्वरूपम्‌ ऋग्वेदस्य दशमे मण्डले विराजमाने हिरण्यगर्भसूक्ते प्रजापतिपुत्रः हिरण्यगर्भाख्यः वर्णितः स्तुतः च दृश्यते। "सरलार्थ - जिस पृथ्वी की चार दिशा है, जिस पृथ्वी पर धान्य आदि शस्य (फसल) और मनुष्य उत्पन्न होते है, जो पृथ्वी प्राण शीलों को और गतिशीलों को (कम्पशील को) विविध प्रकार से धारण करती है, वह पृथ्वी हमे गाय आदि पशुधन में और अन्न आदि में रखे।","सरलार्थः- यस्याः पृथिव्याः चतस्रः दिशः सन्ति, यस्यां पृथिव्याम्‌ शस्यानि उत्पन्नानि मनुष्याश्च उत्पन्नाः, या पृथिवी प्राणशीलान्‌ गतिशीलान्‌(कम्पशीलान्‌) च विविधप्रकारेण धारयति, सा पृथिवी अस्मान्‌ गवादिपशुषु शस्ये च प्रस्थापयतु।" अङग कुरु यह किस सूत्र का उदाहरण है?,अङ्ग कुरु इति कस्य सूत्रस्य उदाहरणम्‌ । अवसा - अव्‌-धातु से असुन्प्रत्यय तृतीया एकवचन में अवसा रूप बनता है।,अवसा- अव्‌-धातोः असुन्प्रत्यये तृतीयैकवचने अवसा इति रूपम्‌। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है अराजा।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं अराजा इति। वैदिक छन्दों में यह विशिष्टता है की उनमें अक्षर गणना में निश्चित अक्षर होते हैं।,वैदिकच्छन्दसां विशिष्टता इयं यत्‌ तानि अक्षरगणनायां नियतानि भवन्ति। अर्थात्‌ शमादि के अनुष्ठान से गुण आस्वादनीय होते है।,अर्थात्‌ शमादीनाम्‌ अनुष्ठानेन गुणा आसादनीयाः सन्ति। जैसे पुष्पसामीप्य स्फटिक का कारण होता है।,यथा पुष्पसामीप्यं स्फटिकस्य। 26.2 ) जीवन्मुक्ति का प्रमाण श्रुति ही जीवनमुक्त की सिद्धि में प्रमाण होती है।,२६.२) जीवन्मुक्तेः प्रमाणम्‌ श्रुतिरेव प्रमाणं जीवन्मुक्तिसिद्धौ। जो सभी कर्मो को तथा उनके फलों को त्यागता है वह परमार्थ सन्यासी कहलाता है।,यश्च सर्वकर्माणि तत्फलानि च त्यज्यति स परमार्थसंन्यासी इत्युच्यते। वहाँ अक्षरों के गुरु लघु क्रम का कोई नियम विशेष नहीं हैं।,न तत्र अक्षराणां गुरुलघुक्रमस्य कश्चित्‌ नियमविशेषः वर्तते। परिनिष्ठतत्व से साधुः लौकिक विग्रह होता है।,परिनिष्ठितत्वात्साधुर्लौकिकः। व्यचक्षयत्स्वः यहाँ पर “वि-इति' उपसर्ग होने से आद्युदात्त है।,"व्यचक्षयत्स्वः इत्यत्र ""वि-इति' उपसर्गत्वाद्‌ आद्युदात्तः।" उसी अन्तिम भाग को वेदान्त के नाम से जाना जाता है।,तस्य वेदान्त इति नामधेयम्‌। दूसरे प्रपाठक में।,द्वितीयप्रपाठके। राजा भी उनकी अवज्ञा नही करता है।,राजा अपि तान्‌ अवज्ञां न करोति । और उससे सुब्रह्मण्या नाम वाले निगद को जानना चाहिए।,तेन च सुब्रह्मण्याख्यो निगदो बोद्धव्यः। “उपमानानि सामान्य वचनैः'' इस सूत्र का उदाहरण दीजिये?,""" उपमानानि सामान्यवचनैः "" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌ ।" वह वेदवाक्य निरर्थक होता है।,तद्‌ वेदवाक्यं निरर्थकमिति । स्तुति करने वाला ऋग्वेद है।,स्तुत्यात्मक ऋग्वेदः। अग्नि ग्रन्थ पर्यन्तम्‌ यह लौकिक विग्रह है और अग्नि टा सह यह अलौकिक विग्रह है।,अग्निग्रन्थपर्यन्तम्‌ इति लौकिकविग्रहः अग्नि टा सह इत्यलौकिकविग्रहश्च। "चार पद वाले इस सूत्र में अथ यह अव्यय पद है, आदिः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, प्राक्‌ यह भी प्रथमा एकवचनान्त पद है, और शकटे: यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।","चतुष्पदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे अथ इति अव्ययपदम्‌, आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, प्राक्‌ इत्यपि प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, शकटेः इति च पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌।" लेकिन लोक में दर्शनत्व के कारण शास्त्रों में कहा गया है और तो नैयायिक भी दर्शवश ही परमाणु को स्वीकार करतें है।,परन्तु लोके दर्शनात्‌ एव शास्त्रेण उच्यते। अपि च नैयायिकाः अपि दर्शनवशात्‌ एव परमाणुं स्वीकुर्वन्ति। "इसी प्रकार नखनिर्भिन्नः, दात्र॑लूनः इत्यादि में भी जानना चाहिए।","एवं नखनिर्भिन्नः, दात्र॑लूनः इत्यादौ अपि बोद्धव्यम्‌।" श्रद्धा के द्वारा धन की प्राप्ति होती है।,श्रद्धया धनस्य प्राप्तिर्भवति। सुख का कारण धर्म होता है।,सुखस्य कारणं धर्मः। अभिलषित फल को देने वाला सत्य है।,सत्यः अभिसम्पादकः यथाभिलषितफलदः इति यावत्‌। वैदिक ऋषियों ने मनोगत भावों को प्रकट किया था।,वैदिकाः ऋषयः मनोगतानां भावानां प्रकटने पटव आसन्‌। इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे : शिक्षा ग्रन्थों क॑ विषय में विस्तार से जान पाने में,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - शिक्षाग्रन्थानां विषये विस्तारेण ज्ञास्यति। निघण्टुग्रन्थानां विषये अधिकतया ज्ञास्यति। अन्येषां वेदस्य अङ्गानां विषये ज्ञास्यति। यास्कस्य निरुक्तविषयकं ज्ञानं प्राप्स्यति। 10. दृळहा शब्दका अर्थ क्या है?,१०. दृळहा इति शब्दस्य कः अर्थः। परन्तु उसको बाध करके प्रकृत सूत्र से दो अचों से युक्त काम्या इसका आदि अच्‌ ककार से उत्तर आकार को उदात्त स्वर होता है।,परन्तु तं बाधित्वा प्रकृतसूत्रेण अज्द्वययुक्तस्य काम्या इत्यस्य आदेः अचः ककारोत्तरस्य आकारस्य उदात्तस्वरः भवति। और विदेहमुक्त का अस्त भी नहीं होता है।,विदेहमुक्तस्य अस्तोऽपि न भवति। यही सूत्रार्थ प्रतीत होता है।,इति सूत्रार्थः प्रतीयते। इसलिए धर्म और अर्थ गौण हैं।,अथः धर्मार्थौ गौणौ। तो कहते हैं को आँख के द्वारा दिखाई दिये जाने वाले हाथ पैर मस्तकादि इस स्थूल देह के अंश होते हैं।,चक्षुषा वीक्षमाणाः हस्तपादमस्तकादयः स्थूदेहस्य अंशाः भवन्ति। इन्द्र॒ को क्यों मघवा कहा जाता है ?,इन्द्रः कुतः मघवा इत्युच्यते ? अन्तिम अध्याय में ईशावास्य उपनिषद्‌ है।,अन्तिमाध्याये ईशावास्योपनिषत्‌ अस्ति। आख्यानों में दो बाते हैं - वृतान्तज्ञान तथा प्ररोचना।,आख्यानेषु द्वे वार्त्ते स्तः- वृतान्तज्ञानं तथा प्ररोचना। कृणुध्वम्‌ - आत्मनेपद कृधातु से लोट मध्यमपुरुषबहुवचने में।,कृणुध्वम्‌ - आत्मनेपदिनः कृधातोः लोटि मध्यमपुरुषबहुवचने । यह गवामयन याग सोमयाग के अन्तर्गत आता है।,अयं गवामयनयागः हि सोमयागे अन्तर्गतः। ब्रह्मा- नाम के ऋत्विज का प्रधानकार्य क्या है?,ब्रह्मा- नामकस्य ऋत्विजः प्रधानकार्य किम्‌ अस्ति? इत्‌ में यहाँ तकार उच्चारण के लिए है किन्तु श्रवण के लिए नहीं होता है।,इत्‌ इत्यत्र तकारः उच्चारणार्थः न तु श्रवणार्थः। इस प्रपाठक की संख्या का भी निर्देश नहीं है।,अस्य प्रपाठकसंख्याऽपि निर्दिष्टा नास्ति। वैदिक साहित्य में वैदिक व्याकरण की अत्यधिक प्रमुखता है।,वैदिकव्याकरणम्‌ अत्यन्तं प्रमुखतां भजते। सामवेद की दो दूसरी भी शिक्षा (१७) गौतमी (१८) और लोमेशी शिक्षा।,सामवेदीये द्वे अन्येऽपि शिक्षे स्तः- (१७) गौतमी (१८) लोमेंशीशिक्षा चेति। "व्याकरण ही वेदों का रक्षक है, वेदार्थ के जानने में सहायक है, और भी प्रकृति प्रत्यय उपदेश के पद स्वरूप का प्रतिपादक है, उससे अर्थ निर्णायक साधनों में सबसे श्रेष्ठ साधन होने से उसका प्रयोग होता है, इस कारण से ही व्याकरण नाम वेदाङ्ग नितान्त ही प्रसिद्ध है, और वेदाङऱों में श्रेष्ठ स्थान को सुशोभित करता है।","व्याकरणं हि वेदानां रक्षकम्‌, वेदार्थस्य अवबोधने सहायकम्‌, अपि च प्रकृतिप्रत्ययोपदेशपुरःसरं पदस्वरूपस्य प्रतिपादकं वर्तते, तस्मात्‌ अर्थनिर्णायकसाधनेषु अन्यतमसाधनत्वेन तस्य प्रयोगः भवति, अस्मात्‌ एव कारणात्‌ व्याकरणं नाम वेदाङ्गं नितान्तम्‌ एव प्रसिद्धं वर्तते, तत्‌ च वेदाङ्गेषु श्रेष्ठस्थानम्‌ अलङ्करोति।" सम्प्रति (अब) प्रयोग नहीं है असम्प्रति।,सम्प्रति न युज्यते इत्यसम्प्रति। इसलिए ऐतरेयोपनिषद्‌ में कहा है “एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च पञ्च महाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव बीजानि इतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोदिभजानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि च यच्च स्थावरं सर्व तत्प्रज्ञानेत्रम प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानेत्रो ल,अतः एव ऐतरेयोपनिषदि उच्यते “एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्व देवा इमानि च पञ्च महाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव बीजानि इतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोङद्किजानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि च यच्च स्थावरं सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रम्‌। सबसे पहले केवल परमात्मा वा हिरण्यगर्भ थे।,पतिरासीदेव अपि तर्हि सः हिरण्यगर्भः । सामवेद का कल्पसूत्र क्या है?,सामवेदस्य कल्पसूत्रं किम्‌? मन के विनष्ट हो जाने पर सबकुछ विनष्ट हो जाता है।,मनसि विनष्टे सर्वं विनष्टं भवति। "दोष युक्त चक्षु आदि से मैं अन्धा हूँ, मैं मूक हूँ, इस प्रकार का प्रत्यक्ष होता है।","दोषयुक्तेभ्यः चक्षुरादिकरणेभ्यः अहमन्धः, अहं मूकः इत्यादि प्रत्यक्षं भवति।" श्रद्धा उसी प्रकार का एक मनोभाव है।,श्रद्धा तादृश एको मनोभावः। कठोपनिषद्‌ में भी यह कहा गया है की आत्मन के प्रिय भक्त के स्वरूप यह दिखाई देता है।,कठोपनिषदि अपि आम्नायते यत्‌ भगवान्‌ आत्मनः प्रियाय भक्ताय स्वस्वरूपं दर्शयति इति - कर्मयोग निष्काम भावना के द्वारा कर्तृत्व बुद्धि का परित्याग करके फलकामना राहित्य के साथ साधक द्वारा कर्तव्य कर्मो को किया जाना चाहिए।,कर्मयोगः नाम निष्कामभावनया कर्तृत्वबुद्धिं परित्यज्य फलकामनाराहित्येन साधकेन कर्तव्यं कर्म सम्पादनम्‌। घ्राणेन्द्रिय के द्वारा निर्गत जिस अन्तःकरणवृत्युपहितचैतन्य के द्वारा गन्धसमूहों को सूँघता है।,प्राणेन्द्रियेण निर्गतेन येन अन्तःकरणवृत्त्युपहितचैतन्येन गन्धसमूहान्‌ जिघ्रति। यहाँ ज्येष्ठ इस शब्द का प्रयोग अवस्था अर्थ में है।,अत्र ज्येष्ठ इति शब्दस्य प्रयोगः वयसि अर्थ वर्तते। इन्द्र के स्तुतिपरक सूक्त किस छन्द में रचित है ?,इन्द्रस्य स्तुतिपरकाणि सूक्तानि केन छन्दसा रचितानि ? रक्तिमा पुष्प का धर्म होता है।,रक्तिमा पुष्पस्य धर्मः। "“च '' अर्थ है - समुच्च्य, अन्वाचय, इतरेतरयोग समाहार।",चार्थाः समुच्चयान्वाचयेतरेतरयोगसमाहाराः। चैतन्यप्रतिबिम्मयुक्त वृत्ति होने पर ही वह अज्ञान का नाश करनें में समर्थ होती है।,चैतन्यप्रतिबम्बयुक्ता सती वृत्तिः अज्ञानं नाशयति। """अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इस सूत्र से क्या विधान है?","""अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" नखनिर्भिन्नः यहाँ पर पूर्वपद को प्रकृति स्वर तृतीया कर्मणि इस सूत्र से है।,नखनिर्भिन्नः इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं तृतीया कर्मणि इति सूत्रेण। दोषा इसका रात्रि यह अर्थ है।,दोषा इत्यस्य रात्रिरर्थः। महिना यह रूप कहाँ दिखाई देता है?,महिना इति रूपं क्व दृश्यते। जिसने सत्यधर्मा अर्थात्‌ सत्य से आच्छादित जगत्‌ को धारण करता है उस प्रजापति ने अन्तरिक्ष आदि सभी लोकों को उत्पन्न किया।,यो वा यश्च सत्यधर्मा सत्यमवितथं धर्मः जगतो धारणं यस्य स तादृशः प्रजापतिः दिवम्‌ अन्तरिक्षोपलक्षितान्‌ सर्वान्‌ लोकान्‌ जजान जनयामास। प्राणतः - प्रपूर्वका अन्‌-धातु से शतृप्रत्यय के षष्ठी एकवचन में प्राणतः रूप सिद्ध होता है।,प्राणतः- प्रपूर्वकात्‌ अन्‌-धातोः शतृप्रत्यये षष्ठ्येकवचने प्राणतः इति रूपम्‌। 15. अखण्डाकारिता चित्तवृत्ति यहाँ पर आकार शब्द का क्या तात्पर्य है।,१५. अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिः इत्यत्र आकारशब्दस्य तात्पर्यं किम्‌? इन्द्रियों से भी विषय श्रेष्ठ होते हैं।,इन्द्रियेभ्यः अपि विषयाः श्रेष्ठाः। वेदों में मन के विभिन्न भावका अत्यधिक स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है।,वेदेषु मनसः विभिन्नाः भावाः अति स्पष्टतया वर्णिताः सन्ति। यहाँ उदात ही मुख्य स्वर है।,अत्र उदात्तः एव स्वरः मुख्यः। "यह यहाँ जानना चाहिए - यदि सुबन्त आमन्त्रितान्त दो पद पाद के आदि में रहते हैं, तो वहाँ 'आमन्त्रितस्य च' इस छठे अध्याय में स्थित सूत्र से आद्युदात्त होता है।",इदमत्र अवधेयम्‌ - यदि सुबन्तम्‌ आमन्त्रितान्तम्‌ इति पदद्वयं पादादौ तिष्ठति तर्हि तत्र 'आमन्त्रितस्य च' इत्यनेन षष्ठाध्यायस्थेन सूत्रेण आद्युदात्तः भवति। अन्वय - यत्‌ प्रज्ञानम्‌ उत चेतः धृतिः च यत्‌ प्रजासु अन्तः अमृतं ज्योतिः।,अन्वयः - यत्‌ प्रज्ञानम्‌ उत चेतः धृतिः च यत्‌ प्रजासु अन्तः अमृतं ज्योतिः। 21. वेदान्तसार में उक्त अधिकारी के लक्षण में आपततः इस शब्द का तात्पर्य यह है कि शाब्दिक ज्ञान से तो संशय का निरवारण होता है लेकिन आत्मज्ञान के प्रतिबन्धिका असम्भावना विपरीतभावना तथा विवर्त होती है।,२१. वेदान्तसारोक्ते अधिकारिलक्षणे आपापतः इत्यनेन इत्यस्यार्थस्तावत्‌ तथा शाब्दिकं ज्ञानं येन संशयो निवर्तते परन्तु आत्मज्ञानस्य प्रतिबन्धिका असम्भावना विपरीतभावना च विवर्तते इति। यहाँ विधीयमान उदात्त धर्म का तृतीया आदि विभक्ति के परे स्वर को होता है।,अत्र विधीयमानः उदात्तत्वधर्मः तृतीयादिविभक्तेः स्वरस्य भवति। "श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्वसूत्र।","श्रौतसूत्रम्‌, गृह्यसूत्रम्‌, धर्मसूत्रम्‌, शुल्वसूत्रं चेति।" ङयि च इस सूत्र का क्या अर्थ है?,ङयि च इति सूत्रस्य कोऽर्थः? 6. देवों ने ब्रह्म के पुत्र आदित्य का उल्लेख करते हुए कहा है कि -यो ब्राह्मणः आदित्यम्‌ उक्तविधिना उत्पन्नम्‌ जानीयात्‌ तस्य देवा वशे स्यु:।,6. देवाः ब्रह्मणः अपत्यम्‌ आदित्यम्‌ उत्पाद्य उक्तवन्तो यद्‌ यो ब्राह्मणः आदित्यम्‌ उक्तविधिना उत्पन्नम्‌ जानीयात्‌ तस्य देवा वशे स्युः। न्यूङ्ख क्या?,के न्यूङ्खः ? पुरुत्रा यह रूप कैसे हुआ?,पुरुत्रा इति रूपं कथं भवेत्‌। "अर्थात्‌ समास करने से कहाँ क्या स्वर होता है, उसकी आलोचना करेंगे।",अर्थात्‌ समासकरणेन कुत्र कः स्वरः भवति तद्‌ आलोचयामः। संयमित एकाग्र मन के द्वारा ही परमतत्वरूप के साक्षात्कार से समाधि अधिगत होती है।,संयतेन एकाग्रेण च मनसा परमतत्त्वसाक्षात्काररूपः समाधिः अधिगतः भवति। लेकिन तत्वमसि यहाँ पर अजहत्‌ लक्षणा भी सङ्गत नहीं होती है।,किन्तु तत्त्वमसि इत्यत्र अजहल्लक्षणा न सङ्गच्छते। संस्कार ही प्रबल होते है।,संस्कारा हि प्रबला भवन्ति। पृथिवी की सभी ये प्रजा देशान्तर को प्राप्त होंगे।,पृथिव्याः सर्वाः इमे प्रजाः देशान्तरं प्रापयिता। एकाच: इस पद की अनुवृति होने से वर्तमान पद के विशेष्य रूप से शब्दस्य इस षष्ठी एवचनान्त पद का यहाँ ग्रहण है।,एकाचः इति अनुवर्तमानस्य पदस्य विशेष्यरूपेण शब्दस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदमत्र ग्राह्यम्‌। उसका ण्वुल्प्रत्यान्त से यही अर्थ है।,तस्य ण्वुल्प्रत्ययान्तेन इत्यर्थः। और भी बहुत सारी वृत्तियाँ होती हैं।,अपि तु बह्व्यः वृत्तयः सन्ति। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है वैयाकरणखसूचिः।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ वैयाकरणखसूचिः इति । "यहां भाषा में आये हुए वैशिष्ट्य को, छन्द में आये हुए वैशिष्ट्य को और देवता में आये हुए वैशिष्ट्य को आलोचना की है।","अत्र भाषागतवैशिष्ट्यं, छन्दोगतवैशिष्ट्यं तथा देवतागतं च वैशिष्ट्यञ्च आलोचितम्‌।" वह एक जन्म में अथवा बहुत जन्मों में हो।,तत्‌ एकस्मिन्‌ एव जन्मनि अथवा बहुषु जन्मसु भवतु। अतः स्त्रीत्व विवक्षा में शार्ङ्गरवाद्यओो ङीन्‌ सूत्र से ङीन्‌ प्रत्यय होता है।,अतः स्त्रीत्वविवक्षायां शार्ङ्गरवाद्यओो ङीन्‌ इति सूत्रेण ङीन्‌ प्रत्ययः भवति। उनका पुन संहिता भेद भी है।,तयोः पुनः संहिताभेदोऽपि अस्ति। और कहा गया है - अग्नि मन्ये पितरमग्निमापिमग्नि / भ्रतरं सदमित्‌ सखायम्‌' इति।,तदुक्तम्‌- अग्नि मन्ये पितरमग्निमापिमग्नि / भ्रतरं सदमित्‌ सखायम्‌' इति। अन्यथा केवल वेदाध्ययन से सामूहिक ज्ञान पाठक के मन में उत्पन्न नहीं होता है।,अन्यथा केवलं वेदाध्ययनेन सामूहिकं ज्ञानं अध्येतृ-मनसि न जायते। सरलार्थ - स्वामी मेघ के द्वारा रक्षित जल वृत्र के द्वारा रोका गया जैसे पणिनाम के राक्षसगण ने गायों को छुपाया था।,सरलार्थः- स्वामित्वे स्थित्वा मेघैः रक्षिताः आपः वृत्रेण निरुद्धाः यथा पणिनामकराक्षसः गाः अगोपायत्‌। क्षीरस्वामी के मत का उल्लेख यहाँ पर अत्यधिक किया है।,क्षीरस्वामिनः मतस्य उल्लेखः अत्र बहुलतया कृतः अस्ति। पदपाठ - यस्मिन्‌।,पदपाठः - यस्मिन्‌। शरीरविशिष्ट जीव होता है।,शरीरविशिष्टः जीव हलन्त्यम्‌ सूत्र से षकार की इत्संज्ञा होती है।,हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण षकारस्य इत्संज्ञा भवति। अस्ति - अस्‌-धातु से लट्‌-लकार का प्रथमपुरुष का एकवचन में रूप है।,अस्ति - अस्‌-धातोः लट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। "आम्रेडित का उदाहरण है- चौर चौर, वृषल वृषल, दस्यो दस्यो घातयिष्यामि त्वा, बन्धयिष्यामि त्वा इत्यादि।","आम्रेडितस्य उदाहरणानि भवन्ति चौर चौर, वृषल वृषल, दस्यो दस्यो घातयिष्यामि त्वा, बन्धयिष्यामि त्वा इत्यादि|" इसकी व्याख्या की कामना के लिए भगवान्‌ भाष्यकार ने दो भाष्य लिखे।,एनां व्याख्यातुकामो भगवान्‌ भाष्यकारः भाष्यद्वयं विरचितवान्‌। "इस सूक्त में वर्षा का अत्यधिक रमणीय, और साहित्यिक दृष्टि में सुंदर वर्णन है।","अस्मिन्‌ सूक्ते वृष्ट्याः अतीव रमणीयं, साहित्यिकं तथा समुज्वलं वर्णनम्‌ अस्ति।" यह ही प्रतिबन्धिका तथा दुरित की परिणामरूपा है।,"इयमेव प्रतिबन्धिका, दुरितस्य परिणामरूपा।" विवेकानन्द के दर्शन के ज्ञान के लिए पृष्ठभूमि का विचार कीजिए।,विवेकानन्ददर्शनस्य ज्ञानाय पृष्ठभूमि विचारयत। "अधिकरणवाची जो क्त प्रत्यय, उस तदन्त षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।","अधिरकरणवाची यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति।" उससे यहाँ पद का अन्वय होता है - घृतादीनां शब्दानां च उदात्तः इति।,तेन अत्र पदान्वयः भवति- घृतादीनां शब्दानां च उदात्तः इति। कतरकतमौ यह प्रथमान्त समस्त पद है।,कतरकतमौ इति प्रथमान्तं समस्तं पदम्‌। 4 श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्म का सत्‌ तथा असत्‌ अनिर्वचनीयत्व प्रतिपादक श्लोक कौन-सा है?,४. श्रीमद्भगवदुगीतायां ब्रह्मणः सदसदनिर्वचनीयत्वप्रतिपादकः श्लोकः कः? इष्टि नाम इच्छसप्रतिपादक वचन है।,इष्टिः नाम इच्छाप्रतिपादकं वचनम्‌। जब प्रारब्धक्मों के भोग के द्वारा क्षय के अभाव से जीव का शरीर अनुवर्तित होता है लेकिन ब्रह्मज्ञान के उदय होने से कर्तृत्वादि बन्ध दूर हो जाते है।,यदा च प्रारब्धकर्मणः भोगेन क्षयाभावात्‌ जीवस्य शरीरम्‌ अनुवर्तते परन्तु ब्रह्मज्ञानोदयात्‌ कर्तृत्वादयो बन्धा दूरीभूता भवन्ति। "जञ्निति यहाँ पर “ञ्‌ च न्‌ च ञ्नौ', ञ्नौ इत्‌ है जिसके वह ज्नित्‌ उस जिनत में यहाँ पर ञ्नित् में और नित्‌ में यह अर्थ है।","जञ्निति इत्यत्र ञ्‌ च न्‌ च ञ्नौ, ञ्नौ इतौ यस्य स ज्नित्‌ इति तस्मिन्‌ ञ्निति इति ञिति निति च इत्यर्थः।" "11.4 ) शमादिषट्कसम्पत्ति शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान ये छः शमादि षट्‌ सम्पत्ति होती है।",11.4) शमादिषट्कसम्पत्तिः- शमः दमः उपरतिः तितिक्षा श्रद्धा समाधानम्‌ इति एतत्‌ शमादिषट्कम्‌। "वज्र को धारण करने से ही यह देव इन्द्र वज्रिन्‌, वज्रबाहु, वज्रहस्त-इत्यादिनाम से जाना जाता है।",वज्रस्य धारणादेव अयम्‌ इन्द्रः वज्रिन्‌ वज्रबाहुः वज्रहस्तः-इत्यादिनाम्ना अभिधीयते। "अग्नि के विशेषण भेद से या कार्य भेद से वैश्वानर, जातवेदा, नाराशंस, सुसमिद्ध, तदनुपात्‌ इत्यादि नाम, और भी वायु से मातरिश्वा, इन्द्र, रुद्र, अपान्नपात्‌ अनेक देवों के नाम तथा सूर्य से आदित्य, विष्णु, मित्र, वरुण, पूषा, भग, ऊषा, अश्विनीकुमार, सविता ये नाम उत्पन्न हुए।","अग्नेः विशेषणभेदात्‌ कार्यभेदाद्वा वैश्वानरः, जातवेदाः, नाराशंसः, सुसमिद्धः, तदनुपात्‌ इत्यादीनि नामानि, एवञ्च वायोः मातरिश्वा, इन्द्रः, रुद्रः, अपान्नपात्‌ प्रभृतीनाम्‌ देवानां नामानि तथा सूर्यात्‌ आदित्यः, विष्णुः, मित्रः, वरुणः, पूषा, भगः, उषा, अश्विनीकुमारौ, सविता इत्येतेषां नामानि जातानि।" वर्ग भेद किस लिये किये गये हैं?,वर्गभेदः किमर्थं कृतः? "और उसके बाद सूर्य को, उषःकाल को, और आकाश निर्माण किया।","दनन्तरं सूर्य, उषःकालम्‌, आकाशं च सृष्टवान्‌।" वह ही वेद है।,तद्धि वेदः । जिसमे यजुर्वेद प्रतिष्ठित है।,यस्मिन्‌ यजूंषि प्रतिष्ठितानि। 360 दिनों से अधिक दिनों में निष्पाद्य सभी सत्र यागों की प्रकृति गवामयन याग है और 360 दिन से कम दिनों में निष्पाद्य सकल सत्र यागों की प्रकृति द्वादशाहनामक याग है।,"३६० दिवसेभ्यः अधिकदिवसे निष्पाद्यानां सकलसत्रयागानां प्रकृतिः गवामयनयागः, किञ्च ३६० दिवसेभ्यः न्यूनदिवसे निष्पाद्यानां सकलसत्रयागानां प्रकृतिः द्वादशाहनामकयागः।" मध्वा इसका लौकिक रूप क्या है।,मध्वा इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌ ? वैदिक कवियों के काव्य में जैसे रस की उत्कर्षता है वैसी उत्कर्षता लौकिक कवियों के काव्य में नहीं दिखाई देती है।,वैदिककवीनां काव्येषु रसस्य यथा उत्कर्षता अस्ति तथा उत्कर्षता लौकिककवीनां काव्येषु न दृश्यते। विश्वा - नपुंसकलिङ्ग द्वितीयाबहुवचन में विश्वानि इसका यह वैदिक रूप हे।,विश्वा- नपुंसकलिङ्गे द्वितीयाबहुवचने विश्वानि इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। ( ग) लौकिक विग्रह-राजपुरुष यह समास वृत्ति है।,(ग) लौकिकविग्रहः - राजपुरुषः इति समासः वृत्तिः। ब्रह्म ही यहाँ अहं पद के द्वारा परिलक्षित होता है।,तदेव प्रकाशस्वरूपं ब्रह्म अत्र अहं पदेन परिलक्ष्यते। "धातु को जब द्वित्व होता है, तब द्वित्व विशिष्ट धातु अभ्यस्त संज्ञक होती है।",धातोः यदा द्वित्वं भवति तदा द्वित्वविशिष्टधातुः अभ्यस्तसंज्ञकः। "किस मन्त्र का किस समय में प्रयोग होना चाहिए, इत्यादि विधि का उपदेश यहाँ दिया है।",कस्य मन्त्रस्य कस्मिन्‌ समये प्रयोगः स्यात्‌ इत्यादयः विधयः अत्रोपदिश्यन्ते। तब कहते हैं की सूक्ष्म शरीर सप्तदश अवयवों वाला लिङ्ग शरीर होता है।,सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिङ्गशरीराणि। छन्द:पादौ तु वेदस्य *छन्द' इस पद की इस प्रकार की व्युत्पत्ति है - छन्दयति (पृणाति) इति छन्दों वा छन्दयति ( आह्लादयति) इति छन्द्‌ः अथवा छन्द्यते अनेनेति छन्दः।,छन्दःपादौ तु वेदस्य'। “छन्दः' इत्येतस्य पदस्य इयं व्युत्पत्तिः - छन्दयति (पृणाति) इति छन्दो वा छन्दयति (आह्लादयति ) इति छन्दः अथवा छन्द्यते अनेनेति छन्दः। सृञ्‌ धातु ये “ वुल्तृचौ”' इससे तृच्‌ स्रष्टा रूप बना स्रष्टा इसके योग से षष्ठयन्त अयाम्‌ का प्राप्त षष्ठीसमास प्रस्तुत सूत्र से निषेध होता है।,"सृज्धातोः ""ण्वुल्तृचौ"" इत्यनेन तृचि स्रष्टा इति रूपम्‌। स्रष्टा इत्यनेन योगे षष्ठ्यन्तस्य अपाम्‌ इत्यस्य प्राप्तः षष्ठीसमासः प्रस्तुतसूत्रेण निषिध्यते।" "मे इस पद से परे गङ्गे यह पद है, किन्तु वह गडऱगे पद पाद के आदि में विद्यमान नहीं है, अतः आमन्त्रित संज्ञक सम्पूर्ण गङ्गे इस पद की प्रकृत सूत्र से अनुदात्त स्वर का विधान है।","मे इत्यस्मात्‌ पदात्‌ परं गङ्गे इति पदम्‌ अस्ति, किञ्च तत्‌ गङ्गे इति पदं पादस्य आदौ न विद्यते, अतः आमन्त्रितसंज्ञकस्य सम्पूर्णस्य गङ्गे इति पदस्य प्रकृतसूत्रेण अनुदात्तस्वरः विधीयते।" "तीसरे अध्याय से छठे अध्याय तक कौषीतकि, उपनिषद्‌ कहलाता है, तथा सातवां, आठवा अध्याय संहितोपनिषद्‌ कहलाता है।","आतृतीयाध्यायात्‌ षष्ठ्याध्यायपर्यन्तं कौषीतकि-उपनिषदिति कथ्यते, तथा सप्तमाष्टमौ अध्यायौ संहितोपनिषदिति कथ्येते।" "षष्ठी समास निषेधक “न निर्धारणे “* पूरणगुणसुहितार्थसदग्ययलव्यसमानाधिकरणेन'', “क्तेन च पूजायाम्‌'' ` अधिकरणवाचिना च'', “* कर्मणि च'', “ तृजकायञ्यांकर्त्तरि”', ` कर्त्तरिच'' इन सात सूत्रों “ प्रतिपदविधान से षष्ठी समास नहीं होता है “प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते” वार्तिक की व्याख्या की गई है।","षष्ठीसमासनिषेधकानि ""न निर्धारणे"", ""पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन"", ""क्तेन च पूजायाम्‌"", ""अधिकरणवाचिना च"", ""कर्मणि च"", ""तृजकाभ्यां कर्तरि"", ""कर्तरि च"" इत्येतानि सप्त सूत्राणि ""प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते"" इति वार्तिकं च व्याख्यातम्‌।" "मुख्य रूप से कल्प सूत्र चार प्रकार के है -१. श्रौतसूत्र , २. गृह्यसूत्र , ३. धर्मसूत्र, ४ और शुल्वसूत्र।","मुख्यतः कल्पसूत्राणि सन्ति चतुर्विधानि-१.श्रौतसूत्रम्‌,२. गृह्यसूत्रम्‌, ३. धंर्मसूत्रम्‌, ४.शुल्वसूत्रञ्चेति।" हम से मैत्री करो।,अस्मासु मैत्रीं कुरुत । मनोविज्ञान में मन की एक आवश्यक तत्त्व के रूप में कल्पना की गई है।,मनोविज्ञाने मनः एकम्‌ आवश्यकतत्त्वरूपाय कल्प्यते। "इन उपनिषदों का काल भिन्न भिन्न है, पुराने काल में प्रसिद्ध कुछ उपनिषद्‌ बुद्ध काल से प्राचीन है ऐसा संस्कृत साहित्य के इतिहासकार कहते हैं।","आसामुपनिषदां कालो विभिन्नः, परस्मिन्‌ काले प्रसिद्धाः कतिचन उपनिषदो बुद्धकालात्‌ प्राचीनाः इति संस्कृतसाहित्यस्य इतिहासविदो वदन्ति।" उससे उस रुद्र में अनेक विपरीत धर्मो का एक ही जगह समावेश दिखाई देता है।,तस्मात्‌ तस्मिन्‌ रुद्रे बहुविपरीतधर्माणाम्‌ एकत्र समावेशः दृश्यते। 'विशेष- वृत्तिकार के अनुरोध से कित्‌ और ङित्‌ के परे ही यह आद्युदात्त स्वर होता है।,'विशेषः- वृत्तिकारानुरोधेन किति ङिति च परे एव अयम्‌ आद्युदात्तस्वरः भवति। "2. पुरुषसूक्त में कहे गये पुरुष का योनि अर्थात्‌ कारणस्थान के स्वरूप को धीर अर्थात्‌ ब्रह्मवेत्ता देखते है या जानते है, अह॑ ब्रह्मास्मि इस रूप ने जानते है।","2. पुरुषसूक्तोक्तपुरुषस्य योनिं स्थानं स्वरूपं परिपश्यन्ति धीराः ब्रह्मविदः, अहं ब्रह्मास्मि इति जानन्ति।" 5. दामा यहाँ डाप्‌ प्रत्यय है।,५. दामा इत्यत्र डाप्प्रत्ययः अस्ति। रात्रि समाप्ति पर अल्प अन्धकार में ये सविता है।,रात्रेः समाप्तौ स्वल्पान्धकारे अयं सवितेति। सरलार्थ - जिसने द्युलोक को उग्र किया और पृथिवी को दुढ अर्थात्‌ स्थिर किया।,"सरलार्थः- येन द्युलोकः उग्रः कृतः, पृथिवा दृढा कृता।" पुष्टि यश और वीर के समान।,पोषं यशसं वीरवत्तमम्‌। "अन्तरीक्षादि लोक प्रजापति की नाभि से उत्पन्न हुए,शीर्ष से द्य उत्पन्न हुआ, पाद से भूमि तथा श्रोत्र से दिशाएं उत्पन्न हुई।","अन्तरीक्षादयो लोकाः प्रजापतेः नाभेर्जाताः, शीर्ष्णश्च द्यौः उत्पन्नः, पादाभ्यां भूमिस्तथा श्रोत्रात्‌ दिशः उत्पन्नाः।" बहुकपालः- बहुषु कपालेषु संस्कृतः इस विग्रह में द्विगुसमास में बहुकपाल: यह रूप होता है।,बहुकपालः- बहुषु कपालेषु संस्कृतः इति विग्रहे द्विगुसमासे बहुकपालः इति रूपं भवति। चरणव्यूह के टीका कर्ता कौन है?,चरणव्यूहस्य टीकाकर्ता कः? इसलिए शुभवासनाओं को ही अनुवृत्ति होती है।,अतः शुभवासनानाम्‌ एव अनुवृत्तिः स्यात्‌। स नः पवस्व शंगवे (ऋ. १/११/३) इस ऋचा के गायन से पशुओं की रोग निवृत्ति होती है।,स नः पवस्व शंगवे (ऋ. १/११/३) अस्या ऋचः गायनं पशूनां रोगनिवृत्त्यर्थं भवति। जो लक्षण का अर्थ जानता है वही लक्ष्य का संस्कार करने के लिए होता है।,लक्षणस्य अर्थं जानाति चेदेव लक्ष्यस्य संस्कारं कर्तु प्रभवति। इसका वर्णन बहुत से अलङऱकारों को आश्रित करके किया।,अस्य वर्णनं स बहून्‌ अलङ्कारान्‌ आश्रित्य कृतवान्‌। समास प्रकरण में विद्यमान समासविधायक सूत्रों द्वारा समास होता है।,समासप्रकरणे विद्यमानैः समासविधायकैः सूत्रैः समासः विधीयते। वहाँ 'सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे' इस सूत्र से आमन्त्रित पद के परे पूर्ववर्ति सुबन्त पद का अडगवत्त के समान कार्य होता है।,ततः 'सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे' इति सूत्रेण आमन्त्रिते पदे परे पूर्ववर्तिनः सुबन्तस्य पदस्य अङ्गवत्त्वम्‌ अतिदिष्टम्‌। "देवा: = अमर, साध्याः = सृष्टिसाधन के योग्यप्रजापति आदि, ये = पुरुष,और ऋषियों ने जो ब्रह्मवेत्ता और मन्त्रद्रष्टा है, (उन सभी ने) तेन = प्रथित पुरुष से, अयजन्त = याग किया।","देवाः= अमराः, साध्याः= सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः, ये= प्रथिताः, ऋषयश्च= बह्यवेत्तारः, मन्त्रद्रष्टारश्च, (आसन्‌, ते सर्वे) तेन= प्रथितेन पुरुषेण, अयजन्त= यागं विहितवन्तः।" इस प्रकार से इन्द्रियों की अपेक्षा मन के प्रधान होने से इस कोश का नाम मनोमय कोश है।,इत्थं मनसः इन्द्रियापेक्षया प्रधानत्वात्‌ मनोमयकोश इति नाम। तृतीय मन्त्र में इन्द्र का सोमपान विषय में कहा गया है।,ततः तृतीये मन्त्रे उक्तम्‌ इन्द्रस्य सोमपानविषये। वह अन्तरङगसाधन के अन्तर्गत होती है।,तत्‌ अन्तरङ्गसाधनेषु अन्तर्भवति। रामकृष्णमिशन्‌ इसके प्रतीक रूप में समन्वय के द्वारा अच्छे से प्रदर्शित है।,रामकृष्णमिशन्‌ इत्यस्य प्रतीके अयं समन्वयः तेन सम्यक्‌ प्रदर्शितः। ये बेद कर्मप्रधानता से साधकों के हित कर लिए कर्मविधान का वर्णन करते है।,कर्ममुख्याय कर्माणि विधत्ते साधकानां हितार्थमयं वेदः।अत एव कर्मभिः। 'मैं अज्ञ हूँ ' मैं अद्वैत को नहीं जानता हूँ इस प्रकार का अनुभव होता है।,"'अहम्‌ अज्ञः, अहम्‌ अद्वैतं न जानामि” इत्येवम्‌ अनुभवः।" "व्याख्या - हे पर्जन्य जब तुम गंभीर गर्जन करके पापिष्ठ मेघो को विदीर्ण करते हो, तब यह सम्पूर्ण विश्व और अधिष्ठाता चराचरात्मक पदार्थ वृष्ट होते है अर्थात वृष्टि होने से सम्पूर्ण जगत प्रसन्न होता है।",व्याख्या - हे पर्जन्य यत्‌ यदा त्वं कनिक्रदत्‌ अत्यर्थं शब्दयन्‌ स्तनयन्‌ दुष्कृतः पापकृतो मेघान्‌ हंसि विदारयसि तदानीम्‌ इदं विश्वं जगत्‌ प्रति मोदते । इस प्रकार से भक्ति योग के द्वारा भगवान के अनुग्रह से भगवान का साक्षात्कार करके मोक्ष को प्राप्त करता है यही भक्ति योग मोक्ष का साधक होता है।,एवं भक्तियोगेन भगवदनुग्रहेण भगवन्तं साक्षात्कृत्य परमानन्दरूपं मोक्षम्‌ आप्नोति इति भक्तियोगः अपि मोक्षसाधकः । हेतुपद से उनके कारणों का निर्देश होता है जिनके द्वारा कर्मकाण्ड विधि विशेष रूप से सम्पन्न होता है।,हेतुपदेन तेषां कारणानां निर्देशो भवति यैः कर्मकाण्डविधयः विशेषरूपेण सम्पन्ना भवन्ति। 20. वेदान्त में कहे गये प्रयोजन के लाभ के लिए अधिकारी कौन होता है?,२०. वेदान्तोक्तप्रयोजनलाभे कोऽधिकारी। "सामान्यतः समास के पाँच भेद होते हैं यह कह सकते हैं और वे है-केवल समास, अव्ययीभावसमास, तत्पुरुषसमास, बहुव्रीहि समास और द्वन्द समास होता है।","सामान्यतः समासस्य पञ्च भेदा इति वक्तुं शक्यन्ते, ते च - केवलसमासः, अव्ययीभावसमासः, तत्पुरुषसमासः, बहुव्रीहिसमासः, द्वन्द्वसमासः चेति।" माध्यन्दिनशाखा का ब्राह्मण के चौदह काण्ड और सौ अध्याय है।,माध्यन्दिनशाखायां ब्राह्मणस्य चतुर्दश काण्डानि शतम्‌ अध्यायाः च सन्ति। सामान्यतया समास के पञ्च (पाँच) भेद होते हैं।,सामान्यतया समासस्य पञ्च भेदा सन्ति। वहाँ लौकिक विग्रह परिनिष्ठित होता है।,तत्र लौकिकविग्रहः परिनिष्ठितो भवति। और उत्तरपद शराव शब्द है।,उत्तरपदञ्च शरावशब्दः। अत एव “परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुलौकिकः'' लौकिक विग्रह वाक्य का लक्षण हैं।,"अत एव ""परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुर्लौकिकः"" इति लौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌।" और जिस मन के द्वारा यज्ञ अग्निष्टोम आदि को आगे विस्तृत करते है।,येन च मनसा यज्ञो अग्निष्टोमादिः तायते विस्तार्यते। जैसे सोम के लिए मौजवत पर्वत है।,सोमस्येव यथा सोमस्य मौजवतस्य। जो अन्यों के लिए धन देता है वह अधिक धनवान होता उसीप्रकार।,"यथा य अन्येषां कृते धनं यच्छति सः अधिकधनवान्‌ स्यात्‌, तद्वत्‌।" उससे सूत्र का अर्थ आता है - आमन्त्रित अन्त में समानाधिकरण में विशेषण में पद के पर आमन्त्रित अन्त बहुवचनान्त पद विकल्प से अविद्यमान के समान होता है।,तेन सूत्रस्य अर्थः आयाति - आमन्त्रितान्ते समानाधिकरणे विशेषणे पदे परे आमन्त्रितान्तं बहुवचनान्तं पदं विकल्पेन अविद्यमानवत्‌ भवति इति। "मीढुषे - मिमेहेति मीढ्वन्‌, तस्मै “मिह सेचने ' दाश्वान्साह्वान्मीढ्वांश्च (पा ६.१.१२) इससे क्वसु अन्त निपात है।","मीढुषे -मिमेहेति मीढ्वन्‌, तस्मै 'मिह सेचने' दाश्वान्साह्वान्मीढ्वांश्च (पा ६.१.१२) इत्यनेन क्वस्वन्तो निपातः।" ( वा. ६५३ ) वार्तिक का अर्थ - स्यान्त के और उपोत्तम के अन्त्य को उदात्त स्वर होता हे।,वार्तिकार्थः - स्यान्तस्य उपोत्तमस्य अन्त्यस्य च उदात्तस्वरः स्यात्‌। (ऋग्वेद १/१२४/७) यहाँ कवि नारी के कोमल हृदय का स्पर्श करता है।,(ऋग्वेद १/१२४/७) अत्र कविः नारीणां कोमलहृदयस्य स्पर्शं करोति। भाष्यकार पतञ्जलि ने कहा - चत्वार वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुधा भिन्नाः।,भाष्यकारेण पतञ्जलिनोक्तम्‌- चत्वार वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुधा भिन्नाः। न कि गौंणसिहा अग्नि के द्वारा किया गया कर्म मुख्यसिंहाग्नियों के द्वारा किया गया होता है।,न हि गौणसिंहाग्निभ्यां कृतं कर्म मुख्यसिंहाग्निभ्यां कृतं स्यात्‌। "वहाँ बहुदेवतावाद की उपयोगिता में संदेह करते हुए ऋषि प्रजापति को ही विश्व का, सृष्टिकर्ता मानते हैं।",तत्र बहुदेवतावादस्य उपयोगितायां सन्दिहानाः ऋषयः प्रजापतिमेव विश्वस्य सृष्टिकर्तारं मन्वते। तब तो क्त प्रत्यय और उपधा को दीर्घ दोनों ही निपातन से सिद्ध करते है।,तदा तु क्तप्रत्ययः उपधादीर्घश्च उभौ एव निपात्येते इति। उससे महाविनाश भी होता है।,तेन महाविनाशोऽपि भवति। "अतः इन दोनों के उदात्त अनुदात्त के स्थान में जो ईकार रूप एकादेश हुआ, वहाँ पर प्रकृत सूत्र से स्वरित स्वर प्राप्त हुआ।",अतः अनयोः उदात्तानुदात्तयोः स्थाने यः ईकाररूपः एकादेशः जातः तत्र प्रकृतसूत्रेण स्वरितस्वरः प्राप्तः आसीत्‌। जुहोति यहाँ पर हकार से उत्तर ओकार का क्या स्वर है?,जुहोति इत्यत्र हकारोत्तरस्य ओकारस्य कः स्वरः? यतरश्मयः - यताः रश्ययः येषां ते यतरश्मयः यहाँ बहुव्रीहिसमास है।,यतरश्मयः- यताः रश्ययः येषां ते यतरश्मयः इति बहुव्रीहिसमासः। श्रवणादि तो श्रद्धा पूर्वक करना ही चाहिए।,श्रवणादिकं श्रद्धापूर्वकं कर्तव्यम्‌ एव। और सूत्रार्थ होता है-जातिवाचक अनुपसर्जन दो शा्र्ङ्गरवादिगण में पठित अदन्त प्रातिपदिक से द्योत्य होने ङीन्‌ प्रत्यय होता है।,एवञ्च सूत्रार्थो भवति - जातिवाचकात्‌ अनुपसर्जनात्‌ शा्र्ङ्गरवादिगणपठितात्‌ अदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीन्‌ प्रत्ययः परः भवति। यह वेदान्तों का तात्पर्य होता है।,यतो हि तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यमस्ति। अग्नि के द्वारा पका हुआ तीस भैसों का मांस भी इसके भोजन के रूप में उसका वर्णन प्राप्त होता है।,अग्निना पक्वं त्रिंशतमहिषाणां मांसमपि अस्य भोजनत्वेन वर्ण्यते। वह विषय आपने दसवीं कक्षा में पढ़ा होगा।,स विषयः दशम्याम्‌ पठितः स्यात्‌। "“एकवचनं सम्बुद्धि:' इस सूत्र में निर्दिष्ट सम्बुद्धि शब्द का सम्बन्ध तो दूर से है, प्रकृत सूत्र स्थित पद से नहीं हो सकता है।","""एकवचनं सम्बुद्धिः' इति सूत्रे निर्दिष्टस्य सम्बुद्धिश्ब्दस्य सम्बन्धः तु दूरात्‌ इति प्रकृतसूत्रस्थेन पदेन भवितुं नार्हति।" उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इस सूत्र के उदाहरण के प्रकारों को लिखिए।,उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इति सूत्रस्य उदाहरणं समन्वयत। "असि सत्यः यहाँ पर अस्‌-धातु से मध्यम पुरुष एकवचन में सिप्‌ प्रत्यय करने पर अनुबन्ध लोप होने पर अस्‌ सि इस स्थिति में 'तासस्त्योर्लोपः' इससे सकार के लोप होने पर अकार को उदात्त स्वर, और उससे परे स्वरित स्वर होता है।","असि सत्यः इत्यत्र अस्‌-धातोः मध्यमपुरुषैकवचने सिप्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे अस्‌ सि इति स्थिते 'तासस्त्योर्लोपः' इत्यनेन सकारलोपे अकारस्य उदात्तस्वरः, ततः परस्य च स्वरितस्वरः।" "किस शब्द का कब किस अर्थ में कहाँ पर कौन सा स्वर हो, इन सभी की विस्तार से इन सूत्रों में आलोचना कौ है।",कस्य शब्दस्य कदा कस्मिंश्च अर्थ कुत्र कः स्वरः स्यात्‌ इति सर्वमेव विस्तृततया एषु सूत्रेषु आलोचितानि। शरीर में विद्यमान रहते हुए ही ब्रह्मभाव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।,शरीरे विद्यमान एव ब्रह्मभावं मोक्षं प्राप्नोति। अर्था: - अत्यर्थम्‌।,अर्थाः-अत्यर्थम्‌। अनक्षे इस प्रतिषेध से अक्षशब्द से धुर्‌ का समास में नहीं होता है।,अनक्षे इति प्रतिषेधात्‌ अक्षशब्देन धुर्‌ इत्यस्य समासे न समासः। सूत्रार्थ-नञ्‌ के नकार का लोप होता है उत्तरपद परे।,सूत्रार्थः - नञो नकारस्य लोपः भवति उत्तरपदे परे । हम लोग दस ही हैं क्या इसका निर्णय करने के लिए उनमें से कोई सभी को गणना करता है।,दशजनाः एव सन्ति न वा इति निश्चेतुं तेषु कश्चन स्वेषां गणनां करोति। 30. चित्तवृत्ति किसे कहते हैं?,३०. चित्तवृत्तिर्नाम का? 23. निर्विकल्प समाधि कब होती है?,२३. कदा निर्विकल्पकः समाधिः भवति? जाग्रत अवस्था में स्वप्न नहीं होता है।,जाग्रदवस्थायां स्वप्नः नास्ति। पुरुष सद्भाव के जो कारण सांख्यकारिका में लिखित हैं उनका संक्षेप में परिचय दीजिए अथवा पुरुष बहुत्व साधक हेतुओं का विस्तार से विचार लिखें।,पुरुषसद्भावे यानि कारणानि सांख्यकारिकायां निगदितानि तेषां सक्षेपेण परिचयः प्रदीयताम्‌। अथवा पुरुषबहुत्वसाधकाः हेतवः विस्तरेण विचार्यन्ताम्‌। यहाँ बहुयज्वन्‌ शब्द प्रातिपदिक है।,अत्र बहुयज्वन्‌ इति प्रातिपदिकम्‌। इस महान पुरुष आदित्य वर्ण पुरुष को जानो।,एतं पुरुषं महान्तम्‌ आदित्यवर्णपुरुषं वेद। इसलिए आत्मा में उसका लय होता है यह इसका तात्पर्य है।,अतः आत्मनि तस्य लयो भवतीति तात्पर्यम्‌। इस पाठ में आदि में तत्पुरुष अधिकार का वर्णन है।,अस्मिन्‌ पाठे आदौ तत्पुरुषाधिकारस्य वर्णनमस्ति। वाणी और मन के आख्यान का प्रतिपादन कीजिए।,वाङ्गनसोः आख्यानं प्रतिपादयत। 'उजञ्छादिगण' में कितने गणसूत्र है?,'उञ्छादिगणे' कति गणसूत्राणि सन्ति? भुवना इसका लौकिक रूप क्या है?,भुवना इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। विहित कर्मों के अनुष्ठान के द्वारा तथा निषिद्ध कर्मो के अनुष्ठान के द्वारा मनुष्य पाप के भागी होते हैं।,विहितकर्मणाम्‌ अननुष्ठानेन निषिद्धकर्मणां च अनुष्ठानेन मनुष्याः पापभाजः भवन्ति। मरणानन्तर स्वर्ग की प्राप्ति हो इस फल के लाभ के लिए ज्योतिष्टोमादियाग किए जाते हैं वे काम्य कर्म कहलाते है।,मरणादनन्तरं स्वर्गप्राप्तिः भवतु इति फललाभाय ज्योतिष्टोमादियागः अनुष्ठीयते। अतः स्वर्गरूपफल प्राप्तये यो ज्योतिष्टोमादियागः क्रियते स काम्यं कर्म। जो की कर्म देवों से श्रेष्ठ है।,ते कर्मदेवेभ्यः श्रेष्ठाः । सूत्र अर्थ का समन्वय- वाचा विरूपः इस उदारहरण में विरूपः यह सु प्रत्ययान्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- वाचा विरूपः इति उदारहरणे विरूपः इति सुप्रत्ययान्तं पदम्‌। यह किस प्रकार का है।,कीदृशोऽसौ। यदि छान्दोग्य श्रुति के अनुसार ही जाना जाए तो आकाश की उत्पत्ति ही नहीं होती है।,ननु छान्दोग्यश्रुतेरेव ज्ञायते यत्‌ नास्ति वियत उत्पत्तिः। "महाजलपात्र से पृथिवी पर जल की वर्षा करे और नदियाँ बन्धनरहित होकर आगे प्रवाहित होकर बहें, अवध्य गायों के लिए पर्याप्त जल हो।","महाजलपात्रतः पृथिव्यां जलं वर्षयतु , अपि च नद्यः बन्धनरहिताः भूत्वा अग्रे प्रवहन्तु , अवध्यानां गवां कृते पर्याप्तं जलं भवतु ।" "एवं पार्थिव पवन वायु, झञ्झावात आदि के देव मरुत हैं, विद्युत के अपान्नपात्‌, मेघ के पर्जन्य हैं।","एवं पार्थिवपवनस्य वायुः, झञ्झावातादीनां मरुद्देवः, विद्युतः अपान्नपात्‌, मेघस्य पर्जन्यः।" “दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः'' इस सूत्र का अर्थ क्या है?,"""दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" छन्दोबद्ध और पादबढद्धऋडः मन्त्रों की देवस्तुति देवों को उद्दे्य करके अभीष्ट प्रार्थना आदि मुख्य रूप की गयी है।,छन्दोबद्धानां पादबद्धानां च ऋङ्गन्त्राणां देवस्तुतिः देवान्‌ उद्देश्य अभीष्टप्रार्थनादिकं च मुख्योद्देश्यत्वेन गण्यते। नित्यम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,नित्यम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। विकल्प से समासान्त टच्‌ विधान के लिए यह प्रवृत्त हुआ है।,विकल्पेन समासान्तटज्विधानाय प्रवृत्तमिदम्‌। "यत्‌ = जो, वैश्यः = वैश्यजातिमान्‌ पुरुष है, तत्‌ = वो ऊरू = जङ्घा से।","यत्‌ = यः, वैश्यः = वैश्यजातिमान्‌ पुरुषः, तत्‌ = सः, ऊरू = जङ्घे ।" तथा फल की आशा से कर्म करता है वह कर्मबद्ध हो जाता है।,फलाशया कर्म करोति स कर्मबद्धो भवति। "विशेष- आद्युदात्त वह ही होता है, जो प्रत्यय संज्ञक है, उस नाम के प्रत्यय अधिकार में जो-जो पढ़े गए है, उस-उस शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है।","विशेषः- आद्युदात्तः स एव भवति यः प्रत्ययसंज्ञः भवति, तन्नाम यः यः शब्दः प्रत्ययाधिकारे पठितः, तस्य तस्य शब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तः भवति।" "यह ब्राह्मणप्रिय है, इसलिये कहते है की ब्राह्मनो में पदाघात के लक्षण विद्यमान है।",अयं ब्राह्मणप्रियः अतः अस्य वक्षसि ब्राह्मणानां पदाघातस्य लक्षणं विद्यते। विशेष- प्रकृति स्वर में प्राप्त पर के स्थान में अनुदात्त कहा है।,विशेषः- प्रकृतिस्वरे प्राप्ते परस्य अनुदात्तत्वम्‌ उच्यते। "इस परमात्मा को ऊर्ध्वभाग से, तिर्यग्भाग से, मध्यभाग से जाना नही जा सकता है।","एनं परमात्मानम्‌ ऊर्ध्वभागात्‌, तिर्यग्भागात्‌, मध्यभागात्‌ बोद्धुं न शक्यते।" यह घट है इस प्रकार से घट का ज्ञान होता है।,अयं घटः इति घटज्ञानम्‌। “अधिकरणवाचिना '' इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये।,"""अधिकरणवाचिना च"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" जब पटाकार चित्तवृत्ति होती है तो वह पट विषयक अज्ञान का नाश करती है तथा पट को प्रकाशित करती है।,यदा च पटाकारा चित्तवृत्तिर्भवति तदा पटविषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति पटश्च प्रकाशितो भवति। वेदांत के मत में स्वीकृत प्रमाणों का विस्तार से ज्ञान हो।,वेदान्तमते स्वीकृतानां प्रमाणानां सविस्तरं ज्ञानं भवेत्‌। "“द्वितीयाश्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इस सूत्र की व्याख्या करा हैं?","""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रं व्याख्यात।" ऋग्वेद के एक सूक्त में (ऋग्वेद ७/८६) अपने आराध्यदेव वरुण के प्रति महर्षि वसिष्ठ की विनम्रता प्रकट की।,ऋग्वेदस्य एकस्मिन्‌ सूक्ते (ऋग्वेदः ७/८६) स्वकीयम्‌ आराध्यदेवं वरुणं प्रति महर्षेः वसिष्ठस्य विनम्रता प्रकटिता। इस कारण से ही इस प्रकृत सूत्र को अलग से बनाया है।,अस्मादेव कारणात्‌ इदं प्रकृतसूत्रं पृथक्तया उपन्यस्तम्‌। पतञ्जलि के भी प्राचीनतर यास्क ने भी ' चत्वारि वाक्‌' इत्यादि मन्त्र की व्याख्या व्याकरण शास्त्र परक ही की है।,पतञ्जलेः अपि प्राचीनतरो यास्कः अपि 'चत्वारि वाक्‌' इत्येतस्य मन्त्रस्य व्याख्यां व्याकरणशास्त्रपरकाम्‌ एव चकार। 15. समास पद से “'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌” इस सूत्र में किसका ग्रहण किया गया है?,"१५. समासपदेन ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रे कस्य ग्रहणम्‌?" मरुत्‌ इन्द्र का मित्र है।,मरुत्‌ इन्द्रस्य मित्रं भवति। "वैसे ही दिवस में आदित्य का नाम सूर्य, रात्री में वह अकृश्य होता है तब वह वरुण है।","तथाहि दिवसे आदित्यस्य नाम सूर्यः, रात्रौ सः अदृश्योऽपि जायते, तदा स वरुणः।" इसलिए मुमुक्षु के लिए प्रत्याहार उपेक्षित होता है।,अतः मुमुक्षोः प्रत्याहारः सुतरामपेक्षते। योगसूत्रे प्रत्याहारस्वरूपविषये उच्यते । जनयन्तीः इसका लौकिक रूप क्या है?,जनयन्तीः इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। इस प्रकार अग्निमीळे यह रूप सिद्ध होता है।,एवम्‌ अग्निमीळे इति रूपं सिध्यति। "ये अलङ्कार कवि कथन को प्रभावशाली करने में, विषयों को रमणीय बनाने में, और हृदयगत भावों को प्रकाशित करने में सभी रूप से समर्थ हैं।","एते अलङ्काराः कविकथनं प्रभावशालि कर्तु, विषयान्‌ रमणीयतया प्रतिपादयितुं, हृदयगतभावं च प्रकाशयितुं सर्वथा समर्थाः सन्ति।" वेदों में अथर्ववेद ने वेदान्त के समान स्थान का अधिकार किया है।,वेदेष्वथर्वर्वदः वेदान्तवत्‌ महत्‌ स्थानम्‌ अधिकरोति। और शीघ्र जीवन प्रदान करने वाले तुम वर्षा करो।,"किञ्च हे क्षिप्रदानौ, युवां वृष्टिप्रेरणं कुरुतम्‌।" ऋग्वेद का कल्पसूत्र क्या है?,ऋग्वेदस्य कल्पसूत्रं किम्‌? सुषुप्ति में चित्तवृत्ति का अभाव होता है।,सुषुप्तौ अपि चित्तवृत्तेः अभानं भवति । कुत्सित का अर्थ कुत्स्यमान है।,कुत्सितानि इत्यस्य कुत्स्यमानानि इत्यर्थः । "सत्य से तात्पर्य है यथार्थ भाषण, अस्तेय से तात्पर्य चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है अष्टाङ्ग मैथुनों का त्याग करना, अपरिग्रह से तात्पर्य संचयन न करना है।","सत्यं नाम यथार्थभाषणम्‌, अस्तेयं च परस्वहरणरहितता, ब्रह्मचर्यं च अष्टाङ्गमैथुनवर्जनम्‌, अपरिग्रहश्च समाधेः अनुष्ठानार्थम्‌।" जैमिनीय उपनिषद्‌ ब्राह्मण। चौथे अध्याय के दसवें अनुवाक में।,जैमिनीयोपनिषदुब्राह्मणम्‌। चतुर्थाध्यायस्य दशमानुवाके। अतः व्याकरण से स्वर निर्णय करने की कुशलता सभी को विदित ही है।,अतः व्याकरणेन स्वरनिर्णयस्य कौशलं सर्वैः ज्ञातव्यमेव। 2. वागाम्भृणीदेवी की महिमा का वर्णन करो।,२. वागाम्भृणीदेव्याः महिमानं वर्णयत। "और उससे यहाँ सूत्र का यह अर्थ प्राप्त होता है, हल्‌ परक उदात्त स्थान में विहित जो यण्‌ उससे परे सर्वनामस्थान संज्ञक विभक्ति के अवयव स्वरों की और नदी संज्ञक ङीप्‌-ङीष्‌-ङीन्‌-प्रत्ययों के ईकार को उदात्त होता है।",तेन च सूत्रस्यास्य अयमर्थो भवति हल्परकोदात्तस्थाने विहितः यः यण्‌ ततः परेषां सर्वनामस्थानसंज्ञकविभक्त्यवयवस्वराणां नदीसंज्ञकानां ङीप्‌-ङीष्‌-ङीन्‌-प्रत्ययानां ईकारस्य च उदात्तत्वं भवति इति। 5 अभ्यास क्या होता है तथा कहाँ होता है?,5. अभ्यासः कः। क्वान्तर्भवति। अभ्यस्तानामादिः इस सूत्र से अभ्यस्तानाम्‌ इस षष्ठी बहुवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,अभ्यस्तानामादिः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ अभ्यस्तानाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदमत्र अनुवर्तते इसलिए में ही श्रेष्ठ हूँ।,अतः अहम्‌ एव श्रेष्ठाऽस्मि। अपीपरम्‌ - पृ-धातु से लुङ उत्तमपुरुष एकवचन में।,अपीपरम्‌ - पृ - धातोः लुङि उत्तमपुरुषैकवचने। जीवनमुक्त यदि स्वेच्छाचारी हो जाए तो साधारण मानवों से उसका कोई भेद ही नहीं हो।,जीवन्मुक्तश्च यदि स्वेच्छाचारी स्यात्‌ तर्हि साधारणमानवेभ्यो न तस्य भेदः स्यात्‌। विवेकानन्द का जन्म दिवस कब होता हे?,विवेकानन्दस्य जन्मदिवसः कः? वहाँ पर विशाल स्वर्गलोक का भोग करके फिर पुण्यक्षीण होने पर मृत्यु लोक में आ जाते हैं।,ते तं स्वर्गलोकं विशालं विस्तीर्णं भुक्त्वा क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति आविशन्ति। 14. ब्रह्मचर्य कौ प्रतिष्ठा होने पर योगियों को क्या लाभ होता है।,१४. ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां योगिनः किं भवति? 8 सत्य का वर्णन करने वाला मुण्डक श्रुति का वाक्य कौन-सा है?,८. सत्यमाहात्यकीर्तकं मुण्डकश्रुतिवाक्यं किम्‌? इसी को ही 'सवन' इस नाम से जाना जाता है।,अस्यैव 'सवनमि'त्यभिधानमस्ति। उदाहरण में कहाँ पर उदात्त स्वर होता है इसको प्रक्रिया के साथ दिखाई गई है।,उदाहरणेषु कुत्र उदात्तस्वरः भवति इति प्रक्रिया पुरःसरं प्रदर्शितम्‌ वह चैतन्य न तो कार्य होता है और ना ही कारण।,"तत्‌ चैतन्यं न कार्यम्‌, नापि कारणं भवति।" "वीदम्‌ इसमे जो ईकार है, उसमे कौन सा स्वर है?",वीदम्‌ इत्यत्र यः ईकारः वर्तते तत्र कः स्वरः वर्तते ? तब जीव नित्य शुद्ध मुक्त स्वभाव वाला स्वरूप भूत ब्रह्म ही होता है।,तदा जीवः नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं स्वरूपभूतं ब्रह्म एव भवति। चलायमान धर्म वाले।,कम्पनशीलाः । श्येन पक्षी के साथ किसकी तुलना की?,श्येनविहगेन सह कस्य तुलना कृता। उससे पिहितम्‌ और अपिहितं ये दो रूप बनते है।,तेन पिहितम्‌ अपिहितं च इति रूपद्वयं भवति। "प्राण, अपान, व्यान, उदान तथा समान पाँच वायु होती है।",प्राणापानव्यानोदानसमानाः पञ्च वायवः। एकाग्रवस्था में उत्पन्न सविकल्पक भी निर्विकल्पक की दृष्टि से व्युत्थानरूप ही होता है।,एकाग्रवस्थायां जायमानः सविकल्पकोऽपि निर्विकल्पकदृष्ट्या व्युत्थानरूप एव। "यहाँ शङ्कराचार्य का यह उपदेश है कि स्थूल देह में इस प्रकार की आत्मबुद्धि का त्याग करके निर्विकल्प शुद्ध ब्रह्म में, मैं ब्रह्मा हूँ इस प्रकार कौ बुद्धि का सम्पादन करना चाहिए आत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे त्वङऱमांसमेदोस्थिपुरीषराशौ।",अत्र शङ्कराचार्यस्य उपदेशोऽस्ति। स्थूलदेहस्थम्‌ अहमिति आत्मत्वबुद्धिं त्यक्त्वा निर्विकल्पे शुद्धे ब्रह्मणि अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिं सम्पादयतु इति। आतत्रात्मबुदिं त्यज मूढबुद्धे त्वड्यांसमेदोस्थिपुरीषराशौ। और वह षष्ठी प्रतिपदविधाना षष्ठी होती है।,सा च षष्ठी प्रतिपदविधाना षष्ठी भवति। "सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः ( ६.१.१८६ ) सूत्र का अर्थ- सु के परे रहते जो एक अच्‌ वाला शब्द, उससे परे जो तृतीय विभक्ति से लेकर आगे की विभक्तियाँ, उनको उदात्त हो।",सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः (६.१.१८६) सूत्रार्थः- सौ परे सति पूर्वस्मात्‌ एकाचः शब्दात्‌ परस्य तृतीयादिविभक्तेः स्वरः उदात्तः स्यात्‌। 45. बहुव्रीहि समास लक्षण में प्रायेण क्यों लिया गया है।,४५ . बहुव्रीहिसमासलक्षणे प्रायेण इति पदं किमर्थम्‌? 21. मनोमय कोश क्या है?,२१. मनोमयकोशः कः ? यहाँ पर सिर्फ चैतन्य का ही अवधान किया गया हे।,चैतन्यस्यैव प्रत्यक्त्वेनात्र अवधानात्‌। इस सूत्र से कुगति प्रादि समास होते हैं।,अनेन सूत्रेण कुगतिप्रादिसमासाः विधीयन्ते । नित्य प्रलय किसे कहते हैं?,नित्यप्रलयः नाम कः। कात्यायन ने इस मत का समर्थन नहीं किया।,कात्यायनः मतमिदं न समर्थितवान्‌। श्रवण अर्थात्‌ सभी उपनिषदों का ब्रह्म में ही तात्पर्य होता है।,श्रवणं हि सर्वेषाम्‌ उपनिषदां ब्रह्मणि एव तात्पर्यम्‌ । "25.3. ) अङ्गभूत धारणा, ध्यान तथा समाधीयों के भेद विषयों से निवर्तित करके अद्वितीय वस्तु में चित्त की स्थापना करना ही धारणा होती है।",२५.३) अङ्गभूतानां धारणा-ध्यान-समाधीनां भेदः विषयान्तरात्‌ प्रतिनिवर्त्य अद्वितीयवस्तुनि चित्तस्य स्थापनमेव धारणा। वह अन्तः करणवृत्ति ही घटावच्छिन्नचैतन्य के आवरक अज्ञान का नाश करती है।,सा च अन्तःकरणवृत्तिः घटावच्छिन्नचैतन्यस्यावरकम्‌ अज्ञानं नाशयति। वैसे चकार इत्‌ है जिसका वह चित्‌ यहाँ बहुव्रीहि समास है।,तथाहि चकारः इत्‌ यस्य स चित्‌ इति बहुव्रीहिसमासः। सामान्य उक्तियाँ ही सामान्य वचन है।,सामान्यम्‌ उक्तवन्तः इति सामान्यवचनाः और उस सूत्र का अनुदात्त पद आदि के परे उदात्त के साथ एकादेश विकल्प से स्वरित होता है।,तस्य च सूत्रस्य अनुदात्ते पदादौ परे उदात्तेन सह एकादेशः विकल्पेन स्वरितः भवति। इसलिए यह आमन्त्रित है।,अतः इदं आमन्त्रितं वर्तते। ये ब्रह्म स्वरूप पुरुष तीन चौथाई अंश में अज्ञानरुपी कार्यसंसार से बाहर इन गुणदोषों से पृथक हरते हुए ऊपर स्थित अमृतलोक में स्थित है।,त्रिचतुर्थांशः ब्रह्मस्वरूपः पुरुषोऽयं अज्ञानकार्यात्‌ संसारात्‌ बहिर्भूतः अत्रत्यैः गुणदोषैः अस्पृष्टः सन्‌ उपरिष्टात्‌ अमृते दिवि उत्कर्षेण स्थितवान्‌। इस विषय को स्पष्ट ज्ञान छात्रों को हो यह लक्ष्य है।,तद्विषयकं स्पष्टं ज्ञानं छात्रस्य भवतु इति लक्ष्यम्‌। किस प्रकार रक्षा करता है।,ननु कथं रक्षति। भरद्वाजशिक्षा- तैत्तरीय संहिता के साथ इस ग्रन्थ का सम्बन्ध है।,भरद्वाजशिक्षा - तैत्तिरीयसंहितया सह अस्य ग्रन्थस्य सम्बन्धः अस्ति। सूत्र की व्याख्या- यह सूत्र विधायक सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- सूत्रमिदं विधायकम्‌। अतरः यह किस धातु का किस लकार में रूप है?,अतरः इति कस्य धातोः कस्मिन्‌ लकारे रूपम्‌। इस कारण किसी भी संकट की आशङ्का नहीं होती ऐसा सिद्धान्तियों का मत है।,अतः कस्य अपि व्याघातस्य आशङ्का नास्ति इति सिद्धान्तिना मतम्‌। "( 1.12 ) “अव्ययीभावे चाकाले'' सूत्रार्थ-सह शब्द का स आदेश होता है अव्ययीभाव में, कालविशेष वाचक और उत्तरपद में पर होने पर नहीं होता है।","(१.१२) ""अव्ययीभावे चाकाले"" सूत्रार्थः - सहशब्दस्य सादेशः भवति अव्ययीभावे, कालविशेषवाचके उत्तरपदे परे न भवति।" उसका प्रातिपदिक होने पर प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय होने पर सौ शङ्कुलाखण्डः रूप सिद्ध होता है।,तस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ प्रथमैकवचनविवक्षायां सौ शङ्कुलाखण्डः इति रूपम्‌। दोनों पक्षियों का स्वभाव समान नहीं है।,पक्षिद्वयस्य स्वभावः समानः नास्ति। इत्‌ शब्द ही अर्थ में है।,इत्‌ शब्दः एवर्थे वर्तते। उदाहरण -यहाँ उदाहरण है तावत्‌ पापनापितः।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ पापनापितः इति । वे उच्च श्रेणी को प्राप्त होते हैं।,उच्छ्रितिं ते प्राप्नुवन्ति। जिसे पञ्चदशी में इस प्रकार से कहा है।,तदुक्तं पञ्चदश्याम्‌। ब्राह्मण आदि आकृतिगण होने से।,ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात्‌। प्रथताम्‌ - प्रथ्‌-धातु से लोट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,प्रथताम्‌- प्रथ्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने। हम पर दया करो।,अस्मासु दयां कुरुत । उदाहरणः- इस सूत्र का उदाहरण है उपसमिधम्‌।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति उपसमिधम्‌ इति। अकिरत्‌ - कृ-धातु से लङ्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में अकिरत्‌ यह रूप है।,अकिरत्‌ - कृ-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने अकिरत्‌ इति रूपम्‌। सूत्र का अवतरण- प्रत्यय के आदि उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- प्रत्ययस्य आद्युदात्तत्वविधानार्थमिदं सूत्रं प्रणीतम्‌। वैसे ही वेद के हिरण्यगर्भसूक्त में कहा गया है- यश्चिदापो महिना पर्यपश्यदृक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्‌।,तथाहि आम्नातं हिरण्यगर्भसूक्ते - यश्चिदापो महिना पर्यपश्यदृक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्‌। कर्मधारयसमास विशेष्य और विशेषण के मध्य में होता है।,कर्मधारयसमासः विशेष्यविशेषणयोः मध्ये भवति। व्याकरण दृष्टि से भी भाषा में भिन्नता दिखाई देती है।,व्याकरणदृष्ट्या अपि भाषायां पार्थक्यं परिलक्ष्यते। वैसे ही साङ्ख्य सूत्र में कहा है - निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतप्रामाण्यम्‌ (५.५१)।,तथाहि साङ्ख्यसूत्रे उक्तम्‌- निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतप्रामाण्यम्‌ (५.५१)। और उसके लिए यह नामरूपात्मक जगत्‌ केवल चित्स्वरूप से दिखाई देता है।,अपि च एतत्‌ नामरूपात्मकं जगत्‌ केवलं चित्स्वरूपेण प्रतिभाति। वह शौच दो प्रकार का होता है।,तच्च शौचं द्विविधं । "मज्जास्ति मेद चर्म, रक्त मांसादि उसके ही अंश होते हैं इसलिए कहा गया हैं मज्जास्तिमेदः पलरक्तचर्मत्वगाहवयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्‌ पादोरुवक्षो भुजपृष्ठमस्तकैरंगैरुपांगैरुपयुक्तमेतत्‌।",मज्जास्तिमेदाः चर्मरक्तमांसादयश्च तस्यांशा एव तदुक्तं- मज्जास्तिमेदः पररक्तचर्मत्वगाह्वयेर्घातुभिरेभिरन्वितम्‌ पादोरुवक्षो भुजपृष्ठमस्तकेरंगैरुपांगैरुपयुक्तमेतत्‌। 20.1 मूलपाठ विष्णुसूक्त विष्णोर्नु क॑ वीर्याणि प्र वाचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि।,20.1 मूलपाठं पठाम (विष्णुसूक्तम्‌)- विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विम॒मे रजांसि। 8 स्थितप्रज्ञ का क्या लक्षण होता है?,८. स्थितप्रज्ञस्य लक्षणं किम्‌? सायण तो इस पद्धति का अनुसरण करके वेदभाष्य रचना में प्रवृत हुए।,सायणः तु अस्याः पद्धत्या अनुसरणं कृत्वा वेदभाष्यरचनायां कृतकार्यः अभवत्‌। मृगः - मृज्‌ गतौ इस धातु से कप्रत्यय करने पर मृगशब्द से निष्पन्न होता है।,मृगः - मृज्‌ गतौ इति धातोः कप्रत्यये मृगशब्दो निष्पद्यते। स्वयं जड होते हुए भी आत्म प्रतिबिम्ब के सम्भव होने से यह चेतन के समान प्रतीत होता है।,स्वयं जडश्चेदपि आत्मप्रतिबिम्बसम्भवात्‌ चेतन इव प्रतीयते। स्वस्वरूप अज्ञान के नाश होने पर ब्रह्मस्वरूप साक्षात्कार से मुक्ति होती है।,स्वस्वरूपाज्ञानस्य नाशे सति ब्रह्मस्वरूपसाक्षात्कारात्‌ मुक्तिः भवति। `अनुदात्तं च' इस सूत्र का अर्थ लिखिए।,'अनुदात्तं च' इति सूत्रस्य अर्थं लिखत। राजा ईश्वर प्रथम मुख्य उस पासों को मैं पासों के लिए हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।,राजा ईश्वरः प्रथमः मुख्यो बभूव तस्मै अक्षाय कृणोमि अहमञ्जलिं करोमि । अक्षेषु शौण्डः इस लौकिकविग्रह में अक्ष सुप शौण्ड सु इस अलौकिक विग्रह में अक्षसुप्‌ इस सप्तम्यन्त सुबन्त को शौण्ड यु इससे शौण्डप्रकृतिक को सुबन्त के साथ प्रकृतसूत्र से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,अक्षेषु शौण्डः इति लौकिकविग्रहे अक्ष सुप्‌ शौण्ड सु इत्यलौकिकविग्रहे अक्ष सुप्‌ इति सप्तम्यन्तं सुबन्तं शौण्ड सु इत्यनेन शौण्डप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह प्रकृतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। सरलार्थ - जो हिरण्यगर्भ अपनी महिमा से श्वास प्रश्‍वास ग्रहण करने वाले दर्शनेंद्रिय और गतिशील प्राणिजगत का एका की राजा हुआ।,सरलार्थः- यः हिरण्यगर्भः स्वमहिम्ना श्वासप्रश्वासग्रहणकारिणां अक्षिपक्ष्मचलनकारिणां गतिशीलप्राणिजगतः एकाकी एव राजा अभूत्‌। मनुसंहिता के राजधर्म प्रसङ्ग में (७.४७) जिन दस काम व्यसनों का उल्लेख प्राप्त होता है वहाँ पर जुआ खेल का भी उल्लेख है।,मनुसंहितायाः राजधर्मप्रसङ्गे ( ७ . ४७ ) येषां दशानां कामजव्यसनानाम्‌ उल्लेखः प्राप्यते तत्र अक्षक्रीडा उल्लिखिता अस्ति । इन खण्ड के अंश का नाम स्थानक है।,एतेषां खण्डानाम्‌ अंशस्य नाम स्थानकमस्ति। "वहाँ के लिए उदाहरण है जैसे - अभ्य॑भिहि, अभराममस्थानम्‌ इत्यादि।","तत्र उदाहरणं यथा- अभ्य॑भिहि, अभराममस्थानम्‌ इत्यदीनि।" अपितु कामादिलक्षण और सम्पूर्णदोष के नाश के द्वार सभी लोगों के द्वारा देवता समान पूजित हो।,किन्तु कामादिलक्षणसकलमनोदोषनाशेन सर्वजनैः देववत्‌ पूज्यो भवेत्‌। शरीर को सुंदर बनाने वाले यह अर्थ है।,शरीरदीप्तिमित्यर्थः। अतः विपरीत अनुक्रमानुसरण वश दो की दर्पण प्रतिविम्ब से तुलना की जाती है।,अतः विपरीतानुक्रमानुसरणवशात्‌ द्वयोः दर्पणप्रतिविम्बेन तुलना क्रियते। महावाक्य क्या है महावाक्य कितने हैं और वह कहां उद्धृत है अथवा अजहल्लक्षण का उदाहरण सहित वर्णन करें।,महावाक्यं नाम किम्‌। कानि च महावाक्यानि। तानि च कुत्र वर्तन्ते। अथवा अजहल्लक्षणां सोदाहरणं वर्णयत। इस प्रकार से यह दूसरा अर्थ है।,इति द्वितीयोऽर्थः। ` अथर्व'-शब्द की व्याख्या तथा उसके निर्वचन को निरुक्त में तथा और गोपथब्राह्मण में प्राप्त होते है।,अथर्व -शब्दस्य व्याख्या तथा तस्य निर्वचनं निरुक्ते तथा गोपथब्राह्मणे च प्राप्यते। "अथादि: प्राक्‌ शकटे: इस सूत्र से यहाँ पर आदिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद का अधिकार है, और उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद 'फिषोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से इसकी अनुवृति आती है।","अथादिः प्राक्‌ शकटे: इति सूत्रात्‌ अत्र आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अधिकृतम्‌, उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं च पदं 'फिषोऽन्त उदात्तः' इति सूत्रात्‌ अनुवर्तते।" "( १.२.३७) सूत्र का अर्थ - सुब्रह्मण्या नामवाले निगद में “यज्ञकर्मणि' इससे और “विभाषा छन्दसि' इससे प्राप्त एकश्रुति नहीं होती है, किन्तु स्वरित को उदात्त हो जाता है।",(१.२.३७) सूत्रार्थः - सुब्रह्मण्याख्ये निगदे ' यज्ञकर्मणि ' इति ' विभाषा छन्दसि ' इति च प्राप्ता एकश्रुतिर्न स्यात्‌ स्वरितस्योदात्तश्च स्यात्‌। ' वेदपाठ के समय में शुद्ध उच्चारण और स्वर विधि होनी चाहिए।,वेदपाठावसरे शुद्धम्‌ उच्चारणं स्वरविधिः च भवेताम्‌। सु+अस्‌ भुवि इस धातु से क्तिन्‌-प्रत्यय के योग से स्वस्ति यह शब्द बनता है।,सु+अस्‌ भुवि इति धातोः क्तिन्‌-प्रत्यययोगेन स्वस्ति इति शब्दः निष्पद्यते। यहाँ भुवन शब्द पूर्वपद है।,अत्र भुवनशब्दः पूर्वपदम्‌। 44. प्रकरणप्रतिपाद्य अर्थ का प्रमाणान्तर के द्वारा अविषयीकरण करना अपूर्वता होती है।,४४. प्रकरण प्रतिपाद्यस्य अर्थस्य प्रमाणान्तरेण अविषयीकरणम्‌ अपूर्वता इति। नवतिं; नाव्यानाम्‌ इत्यादि में नावा तार्यम्‌ यह विग्रह करने पर 'नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्यस्तार्यतुल्यप्राप्य-वध्यानाम्यसमसमितसम्मितेषु ' इससे यत्प्रत्यय करने पर निष्पन्न नाव्य शब्द का षष्ठी बहुवचनान्त रूप है।,नवतिं नाव्यानाम्‌ इत्यादिषु नावा तार्यम्‌ इति विग्रहे नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्यस्तार्यतुल्यप्राप्य-वध्यानाम्यसमसमितसम्मितेषु इत्यनेन यत्प्रत्यये निष्पन्नस्य नाव्यशब्दस्य षष्ठीबहुवचनान्तं रूपमस्ति। 23. आनन्दमय कोश क्या है?,२३. आनन्दमयकोशः कः? इस शतपथब्राह्मण में मनुमत्स्य कथा प्राप्त होती है।,अस्मिन्‌ शतपथब्राह्मण मनुमत्स्यकथा प्राप्यते। यह ज्योतिष काल के विषय में बताने वाला शास्त्र है।,इदं ज्योतिषम्‌ कालविज्ञापकं शास्त्रम्‌| इसलिए विवेकचूडामणि में कहा है- “श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि।,उच्यते च विवेकचूडामणौ - “श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि। ङ्याश्छन्दसि बहुलम्‌ ( ६.१.१७८ ) सूत्र का अर्थ- ङ्यन्त से उत्तर बहुल करके नाम को उदात्त होता है।,ङ्याश्छन्दसि बहुलम्‌(६.१.१७८) सूत्रार्थः- ङ्याः परो नामुदात्तो वा। सुख ही इष्ट है और दुख ही अनिष्ट है।,सुखम्‌ इष्टम्‌ दुःखं हि अनिष्ठम्‌। अङ्गाऽप्रातिलोम्ये' इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,अङ्गाऽप्रातिलोम्ये अस्य सूत्रस्य व्याख्यानं कुरुत। "कुछ वेद मन्त्रों के अर्थ सन्दिग्ध है, अर्थात्‌ उनका प्रकृत अर्थ क्या है, इस विषय में मन में सन्देह होता है।",कतिपयानां वेदमन्त्राणाम्‌ अर्थः सन्दिग्धः अस्ति अर्थात्‌ तेषां प्रकृतः अर्थः कः इत्यस्मिन्‌ विषये मनसि सन्देहः भवति। स्तुति कृत उसी से देवों के शरीर होते हैं ये कारण अयुक्त हैं।,स्तुतिः कृता तस्मादेव देवानां शरीरं वर्तते इति कारणम्‌ अयुक्तम्‌। नदी विशेषवाचक सुबन्त के साथ संख्यावाचक सुबन्त का विकल्प से अव्ययीभाव समास संज्ञा होती है।,नदीविशेषवाचकेन सुबन्तेन सह संख्यावाचकं सुबन्तं विकल्पेन अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति। वहाँ एक सूक्त में पुरूरवा-उर्वशी विवाह प्रसङ्ग में विरह पीड़ित नायक के कथन में विप्रलम्भ श्रृंगार रस का सङ्केत प्राप्त होता है - “इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।,तत्र एकस्मिन्‌ सूक्ते पुरूरवा-उर्वश्योः प्रणयप्रसङ्गे विरहपीडितस्य नायकस्य कथने विप्रलम्भशृङ्गाररसस्य सङ्केतः प्राप्यते- 'इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः। पाठ्य विषय का उद्देश्य ( पाठ्य विषय बिंदु ) माध्यमिक कक्षा हेतु भारतीय दर्शन की पुस्तक में निम्न विषय सम्मिलित है पाठ्य विषय के उद्देश्य पाठ्य विषय बिन्दवः उच्चतर माध्यमिक कक्षा के भारतीय दर्शन की पुस्तक में निम्नलिखित विषय है।,पाठ्यविषयस्य उद्देशः (पाठ्यविषयबिन्दवः) उच्चतरमाध्यमिककक्षायाः भारतीयदर्शनस्य पुस्तके निम्नविषयाः अन्तर्भवन्ति । अब आरण्यकों का परिचय प्रस्तुत करते है।,अधुना आरण्यकानां परिचयः प्रस्तूयते। "भीहीभृहुमदजनधनदरिद्राजागरां प्रत्ययात्‌ पूर्व पिति' इस सूत्र से प्रत्ययाद्‌ इस्रोपञ्चम्यन्त, और पूर्वम इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।","भीहीभृहुमदजनधनदरिद्राजागरां प्रत्ययात्‌ पूर्वं पिति इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्रत्ययाद्‌ इति पञ्चम्यन्तं, पूर्वमिति प्रथमान्तं पदं च अनुवर्तते।" गोपथ ब्राह्मण में व्याकरण विषयों का निर्देश है।,गोपथब्राह्मणे व्याकरणविषयाः निर्दिष्टाः सन्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- युष्मत् शब्द से और अस्मत् शब्द से ङे इस प्रत्यय के परे रहने पर ङे-प्रथमयोरम्‌ इससे ङे इसको अम आदेश होने पर तुभ्यमह्यौ ङयि इससे युष्मद्‌ के म पर्यन्त भाग को तुभ्य और अस्मद्‌ के म पर्यन्त भाग को मह्य आदेश होने पर प्रक्रिया कार्य में तुभ्यं मह्यम्‌ ये दो रुप सिद्ध होते है।,सूत्रार्थसमन्वयः- युष्मत्‌-शब्दात्‌ अस्मत्‌- शब्दाच्च ङे इति प्रत्यये ङे-प्रथमयोरम्‌ इत्यनेन ङे इत्यस्य अमादेशे तुभ्यमह्यौ ङयि इत्यनेन युष्मदः मपर्यन्तस्य तुभ्य इत्यादेशे अस्मदः मपर्यन्तस्य च मह्य इत्यादेशे प्रक्रियाकार्ये तुभ्यं मह्यम्‌ इति रुपद्वयं सिध्यति। "उदात्त और अनुदात्त आदि अच्‌ को ही सम्भव है, अत: अच्‌ इस पद को जोड़ा जाता है।",उदात्तानुदात्तादिकं च अचः एव सम्भवति अतः अच्‌ इति संयुज्यते। और इसी प्रकार सभी जगह पढना चाहिए।,एवं सर्वत्र एवं प्रकारेण अध्येतव्यम्। "वह मूर्ति जब अग्नि में दग्ध होकर भस्मसात्‌ होती है, तब यजमान इस प्रकार चिन्तन करता है कि उसका पार्थिव शरीर दग्ध हो गया।","सा मूर्तिः यदा अग्नौ दग्धा सती भस्मसात्‌ भवति, तदा यजमानः एवं चिन्तयति यत्‌ तस्य पार्थिवशरीरं दग्धम्‌ अभूत्‌।" पढ़ी हुई सामग्री पर आश्रित प्रश्‍नों के उत्तर देंगे।,पठितसामग्रीम्‌ आश्रितानां प्रश्नानाम्‌ उत्तराणि दास्यन्ति। चौथा पाठ समाप्त।,इति चतुर्थः पाठः।। सूत्रार्थ-नजञ्‌ सुबन्त के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"सूत्रार्थः - नञ्‌ सुबन्तेन सह समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" निघण्टु-व्याख्याकार अभी निघण्टु ग्रन्थ की एक ही व्याख्या उपलब्ध होती है।,निर्घण्टु-व्याख्याकाराः सम्प्रति निघण्टुग्रन्थस्य एका एव व्याख्या समुपलब्धा भवति। रुजानाः - रुज्‌-धातु से शानच्प्रत्यय करने पर रुजान यह है।,रुजानाः - रुज्‌-धातोः शानच्प्रत्यये रुजान इति। 7 जीवन्मुक्ति के लक्षण क्या होते हैं?,७. जीवन्मुक्तलक्षणं किम्‌? "उदाहरण -कारिका, बालिका इत्यादि उदाहरण है।",उदाहरणम्‌ - कारिका बालिका इत्यादीनि उदाहरणानि सन्ति। और उसका वृन्दारक नागकुञ्जर आदि अन्वय से विभक्ति विपरिणाम से “समानाधिकरणै:' होता है।,तस्य च वृन्दारकनागकुञ्जरैः इत्यनेनान्वयाद्‌ विभक्तिविपरिणामेन समानाधिकरणैः इति भवति । इसलिए लौकिक सुख तथा स्वर्ग का सुख दोनों ही अनित्य है।,अतो लौकिकं सुखं तथा स्वर्गसुखम्‌ उभयम्‌ अपि अनित्यम्‌। साधन चतुष्टय में अन्यतम साधन शमादिषट्सम्पत्ति है तथा उस सम्पत्ति में अन्तिम समाधान है।,साधनचतुष्टय अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः।तत्सम्पत्तौ अन्त्यं षष्ठं समाधानम्‌। वैदिक काल से ही जुआ खेल बहुत प्रचलित सामाजिक कुत्सित खेल है।,वैदिककालतः एव अक्षक्रीडा बहुप्रचलितसामाजिककुक्रीडा अस्ति। शङ्कराचार्य जी नें भी विवेकचूडामणि में निदिध्यास के भेद के द्वारा समाधि को कहा है।,शङ्कराचार्या अपि विवेकचूडामणौ निदिध्यासनाद्‌ भेदेन समाधिमाहुः। तुमने मरुभुमियों को सुगम बनाने के लिए जल युक्त किया है।,धन्वानि निरुदकप्रदेशान्‌ अकः जलवतः कृतवानसि । फिर घटादि के जैसे दृश्यत्व तथा व्यावर्त के लिए स्वप्रकाशत्व कहा गया है।,पुनः घटादिवत्‌ दृश्यत्वं व्यावर्तयितुं स्वप्रकाशत्वं निगदितम्‌। 27. “इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च इस वार्तिक का क्या अर्थ है?,"२७. ""इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च"" इत्यस्य वार्तिकस्यार्थः कः?" उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम्‌।,उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम्‌ । कर्मयोगानुष्ठान में कर्मफल की तृष्णा का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।,कर्मफलतृष्णां परिहृत्य कर्मयोगोऽनुष्ठेयः। """अर्धं नपुंसकम्‌"" इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये?","""अर्धं नपुंसकम्‌"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" "और उसके बाद सूर्य, उषा, द्यौ और आकाश को उत्पन्न करके अन्धकार और मेघ को हटा करके प्रकाश किया।",अनन्तरं सूर्यम्‌ उषसम्‌ उषःकालं द्याम्‌ आकाशं च जनयन्‌ उत्पादयन्‌ आवरकमेघनिवारणेन प्रकाशयन्‌ वर्तसे। "यद्यपि जल के पैर नहीं है, फिर भी वृत्र को लाघने से पैरों तले रोंधा यह आशय है।",यद्यप्यपां पादो नास्ति तथाप्यङ्भिर्वृत्रस्य अभिलङ्कितत्वात्‌ पादस्याधः शयनमुपपद्यते॥ पुरुष स्वरूप को बताना अत्यन्त कठिन कार्य है।,पुरुषस्वरूपम्‌ दुरवगाहम्‌। "इस सूत्र में कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से अन्तः इस प्रथमान्त, और उदात्तः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।","अस्मिन्‌ सूत्रे कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ अन्तः इति प्रथमान्तम्‌, उदात्तः इति प्रथमान्तञ्च पदमनुवर्तते।" यह आत्यन्तिक दुःखनाश ही मोक्ष कहलाता है।,अयम्‌ आत्यन्तिकदुःखनाश एव मोक्षः। जिस रस्सी के द्वारा पशु का बन्धन होता है उसके द्वारा ही उसकी मुक्ति भी होती है।,यया रज्ज्वा पशोः बन्धः जातः तयैव मोचनमपि भवितुमर्हति। अग्नि इन्द्र रुद्र का यथा क्रम अग्नायी-इन्द्राणी-रुद्राणी स्त्रीयों का भी वर्णन प्राप्त होता हेै।,अग्नीन्द्ररुद्राणां यथाक्रमं अग्नायी-इन्द्राणी-रुद्राणी प्रभृतीनां स्त्रीणामपि वर्णना प्राप्यते। नमोऽस्त्विति कण्डिका तीन से प्रतिलोम होम।,नमोऽस्त्विति कण्डिकात्रयेण प्रतिलोमं होमः। “षष्ठी” इससे षष्ठी पद को “न निर्धारणे'' इससे पद की अनुवृत्ति नहीं होती है।,"""षष्ठी"" इत्यस्मात्‌ षष्ठी इति पदं ""न निर्धारणे"" इत्यस्मात्‌ नेति पदमनुवर्तते।" शिवज्ञान के द्वारा जीव को सेवाभाव ही विवेकानन्द के दर्शन का अन्यतम तथा प्रधान विषय है।,शिवज्ञानेन जीवसेवा सेवाभावः विवेकानन्ददर्शनस्य अन्यतमः प्रधानः विषयः। वाक्य कब एकश्रुति होता है?,वाक्यं कदा एकश्रुति भवति ? इसके बाद एकवदभाव होने पर प्रकृत सूत्र से उसका नपुंसकलिंग होता है।,ततः एकवद्भावे प्रकृतसूत्रेण तस्य नपुंसकलिङ्गत्वं विधीयते । "हमारे पालक, प्राण देने वाले आप जलदेने कके लिए गर्जना करते हुए मेघो के साथ आओ।","अस्माकं पालकः , प्राणदः त्वं जलं प्रयच्छन्‌ गर्जनं कुर्वता मेघेन सह आगच्छ ।" अत: वह ज्ञान भ्रमप्रमाद आदिदोष वर्जित ही होता है।,अतः तद्‌ ज्ञानं भ्रमप्रमादादिदोषवर्जितमेव भवति। इसलिए शङ्कराचार्य जी ने कहा है ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या यही वेदान्त शास्त्र का तात्पर्य है।,तदुक्तं शङ्कराचार्यः ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या इदं तु वेदान्तशास्त्रस्य तात्पर्यमिति। "सरलार्थः - हे पृथ्वी जो हमसे द्वेष करते है, जो युद्ध करते है, जो मन से तथा शस्त्र से दमन करते है, हे श्रेष्ठों के लिए काम करने वाली तुम उनका नाश करो।","सरलार्थः- हे पृथिवि यः अस्मान्‌ द्वेष्टि, यः युद्धं करोति, यः मनसा तथा शस्त्रेण दमनं करोति, हे पूर्वकृत्वरि तं त्वं नाशय।" "सूत्र अर्थ का समन्वय- आलोचित सूत्र में एव इत्यादि शब्द एव आदि के अन्तर्गत होते है, अतः प्रकृत सूत्र से एव इसका अन्त स्वर उदात्त होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- आलोचिते सूत्रे एव इत्यादयः शब्दाः एवादौ अन्तर्भवन्ति, अतः प्रकृतसूत्रे एव इत्यस्य अन्तः स्वरः उदात्तो भवति।" और यहाँ इतरेतरयाग द्वन्द्व समास है।,अत्र च इतरेतरयोगद्वन्द्वसममासः अस्ति। यहाँ पर अधिहरि इस समस्त पद हरि आधार है।,अधिहरि इति समस्तपदस्य च हर्यधिकरणम्‌ इत्यर्थः। रमस्व-रम्‌-धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचने में।,रमस्व - रम्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने । अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग साधन के निमित्त विभाग का यहाँ पर संक्षेप से प्रकटन किया गया है।,अन्तरङ्गबहिरङ्गसाधनमिति विभागः संक्षेपेण प्रकटितः। उस निर्वकल्पक समाधि के आठ अङ्ग होते है।,तस्य च निर्विकल्पकसमाधेः अष्टौ अङ्गानि सन्ति। किं क्रियाप्रश्‍ने अनुपसर्गम्‌ अप्रतिषिद्धम्‌' इस सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृति है।,किँ क्रियाप्रश्ने अनुपसर्गम्‌ अप्रतिषिद्धम्‌ इति सम्पूर्णं सूत्रम्‌ अनुवर्तते। अविद्या त्रिगुणात्मिक होती है।,अविद्या त्रिगुणात्मिका। लोभादि के वश में होकर निषिद्ध कर्मो का आचरण करता है।,लोभादीनां वशम्‌ आगत्य निषिद्धमपि आचरन्ति। परन्तु इस सूत्र को उसको अवरुद्ध करके घञन्ताकारयुक्त धातु को और घञन्त आकार युक्त धातु को प्रकृत सूत्र से अन्त अच्‌ उदात्त होता है।,परन्तु इदं सूत्रं बाधित्वा घञन्तस्य कर्षधातोः घञन्ताकारयुक्तधातोश्च प्रकृतसूत्रेण अन्तः अच्‌ उदात्तः भवति। इस कारण वे अनुदित होमी कहलाते हैं।,तत्कारणात्‌ ते अनुदितहोमिनः इत्युच्यन्ते। तथा वह विषय किस प्रकार से है?,स एव विषयः कुतः। देवता विषय में यास्कमत और कात्यायनमत निरुक्तकार यास्क के मत में सभी देवों का मूल अग्निः ही है।,देवताविषये यास्कमतं कात्यायनमतञ्च निरुक्तकारस्य यास्कस्य मतेन सर्वेषां देवानां मूलम्‌ अग्निः एव। सभी ओर देखा।,परितो दृष्टवान्‌। प्रातः सूर्य को तथा सायं को अग्नि उद्देश्य करके मन्त्रपाठ आहुति दी जाती है।,प्रातः सूर्यम्‌ उद्दिश्य सायं च अग्निम्‌ उद्दिश्य मन्त्रपाठः आहुतिश्च क्रियते। "ग्रह नामक पात्र में निष्काशित सोमरस स्थापित किया जाता है, बकरे के चर्म से निर्मित 'दशापवित्र' नामक तित उसे उसका परिशोधन किया जाता है।","ग्रहनामके पात्रे निष्कासितः सोमरसः स्थाप्यते, छागचर्मनिर्मितेन 'दशापवित्र' इति नामकेन तितउना तस्य परिशोधनं क्रियते।" "सूत्र अर्थ का समन्वय- रूढिपक्ष में यज्ञ शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्' इस सूत्र से उसको प्रातिपदिक संज्ञा होती है, उसके बाद डऱयाप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसांङऱयोस्सुप्‌ इस सूत्र से इक्कीस प्रत्ययों की प्राप्ति में षष्ठी एकवचन की विवक्षा में ङसू प्रत्यय करने पर यज्ञ ङस्‌ इस स्थित्ति में ङस्‌ के ङकार की लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर तस्य लोपः इस सूत्र से इत्संज़क ङकार के लोप करने पर यज्ञ अस्‌ इस स्थित्ति में अदन्त प्रातिपदिक से परे अस स्थान में टाङसिङसामिनात्स्याः इस सूत्र से स्य यह आदेश होने पर यज्ञ स्य इस स्थित्ति में सभी का संयोग करने पर यज्ञस्य यह रूप सिद्ध होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- रूढिपक्षे यज्ञशब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इत्यनेन सूत्रेण तस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ततश्च झ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्डेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण एकविंशतिस्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु षष्ठ्येकवचनविवक्षायां ङस्प्रत्यये यज्ञ ङस्‌ इति स्थिते ङसः ङकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌ तस्य लोपः इति सूत्रेण च इत्संज्ञकस्य ङकारस्य लोपे कृते यज्ञ अस्‌ इति स्थिते अदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ परस्य असः स्थाने टाङसिङसामिनात्स्याः इति सूत्रेण स्य इत्यादेशे यज्ञ स्य इति स्थिते सर्वसंयोगे यज्ञस्य इति रूपं सिद्ध्यति।" उत्तरपर्वत का वह स्थान अवतरणमार्ग (अवसर्पण) इस नाम से प्रसिद्ध है।,ततः उत्तरपर्वतस्य तत्‌ स्थानम्‌ अवतरणमार्गः इत्यनेन आख्यातम्‌। कुरु इस अर्थ में ही प्रयोग होता है।,कुरु इत्यस्मिन्‌ अर्थ एव प्रयोगः भवति। यदि सम्पूर्ण रूप से इन्द्रियाँ निवृत्त हो जाए तो वेदान्तश्रवणादि कार्य भी नहीं हो सकेंगे।,यदि सम्पूर्णतया इन्द्रियाणि निवृत्तानि तर्हि वेदान्तश्रवणमपि न स्यात्‌। और ये गुण जड़ में और चेतन में होते हैं।,एते च गुणाः जडे चेतने च तिष्ठन्ति। उनके अनुसार उनको समझाने के लिए आत्मा अन्नमय होता है इस प्रकार से उनको समझाया जाता है।,तदनुसारम्‌ अन्नमयः आत्मा भवतीति प्रथमं बोधयति। सविकल्पक समाधि तथा निर्विकल्प समाधि। व्युत्थान तथा निरोध संस्कार में अभिभव का प्रादुर्भाव होने पर चित्त की एकाग्रता का परिणाम समाधि होती है।,सविकल्पकः समाधिः निर्विकल्पकः समाधिश्चेति। व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोः अभिभवप्रादुभवि सति चित्तस्य एकाग्रतापरिणामः समाधिः इति। ज्ञान का आवरण कर्म तो होने योग्य नहीं है क्योंकि कर्म द्रव्य नहीं होता है।,ज्ञानस्य आवरणं कर्म भवितुम्‌ नार्हति यतोहि कर्म द्रव्यं नास्ति। किसके समान पासों का संघ स्वच्छंद रूप से विचरण करते है।,किमिव अक्षाणां संघः आस्फारे विहरति ? 4 अखण्डाकार चित्तवृत्ति जीव के स्वस्वरूपविषयक अज्ञान का नाश करती है।,४. अखण्डाकारा चित्तवृत्तिः जीवस्य स्वस्वरूपविषयकम्‌ अज्ञानं नाशयति। इस प्रकार से अलङकारों की किरण आलोचकों की दृष्टि को अनायास ही आकर्षित करती है।,अनेन प्रकारेण अलङ्काराणां प्रभा आलोचकानां दृष्टिम्‌ असकृत्‌ आकर्षति। समानाधिकरण से निषेध होने पर तक्षकस्य सर्पस्य इति आदि उदाहरण है।,समानाधिकरणेन निषेधे तक्षकस्य सर्पस्य इत्याद्युदाहरणम्‌। स्वयं का ही स्वरूप होता है इसलिए ब्रह्म हेयोपादेय रहित होता है।,स्वस्यैव स्वरूपं भवतीत्यतः ब्रह्म हेयोपादेयरहितं भवति। तथा श्रद्धा का विषय क्या होता है?,श्रद्धाविषयः कः। "जैसे दही और जल शब्द की व्याख्या संहिता ग्रन्थों में इस प्रकार से है - तद्दध्नोदधित्वम्‌ (तै. सं. २/५/३/३/) , उदानिषुर्मही : इति तस्मादुदकमुच्यते( अर्थ. ३/१/३/१ )।","यथा दधि उदकशब्दस्य च व्याख्या संहिताग्रन्थेषु अनेन प्रकारेण अस्ति- तद्दध्नोदधित्वम्‌ (तै. सं. २/५/३/३/), उदानिषुर्गहीः इति तस्मादुदकमुच्यते(अर्थ. ३/१/३/१)।" फिषोऽन्त उदात्तः सूत्र का अर्थ- प्रातिपदिक फिट्‌ हो।,फिषोऽन्त उदात्तः सूत्रार्थः- प्रातिपदिकं फिट्‌ स्यात्‌। "चारों वेदों मे चार महावाक्य है ऋग्वेद में “प्रज्ञानं ब्रह्म"" (3/1/3) तब यह महावाक्य है।",चतुर्षु वेदेषु चत्वारि महावाक्यानि सन्ति- ऋग्वेदे “प्रज्ञानं ब्रह्म” (३/१/३) इति महावाक्यम्‌ अस्ति। उसी प्रकार से वेदान्त सार में कहा गया है “उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि”।,तथाहि वेदान्तसार आह-“उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि”। "इस प्रकार भोगायतन चार प्रकार के सम्पूर्ण स्थूल शरीर, भोग्यरूप अन्नादि भू: आदि चौदह भुवन तथा ब्रह्माण्ड और सभी कारण ये ही पञ्चीकृत महाभूत मात्र होते हैं।","तथाहि भोगायतनं चतुर्विधसकलस्थूलशरीरजातं भोग्यरूपान्नपानादिकम्‌ एतदायनतभूतानि भूरादिरचतुर्दशभुवनानि, एतदायतनभूतं ब्रह्माण्डं चैतत्‌ सर्वम्‌ एतेषां कारणरूपं पञ्चीकृतभूतमात्रं भवति।" "दुर्गाचार्य ने कहा है - “यदेभिरात्मानमाच्छादयन्‌ देवा मृत्योर्बिभ्यतः, तत्‌ छन्दसां छन्दस्त्वम्‌।","दुर्गाचार्य आह - 'यदेभिरात्मानमाच्छादयन्‌ देवा मृत्योर्बिभ्यतः, तत्‌ छन्दसां छन्दस्त्वम्‌।" तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्यय -द्वितीयाकृत्याः यह प्रथमान्त पद है।,तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्यय-द्वितीयाकृत्याः इति प्रथमान्तं पदम्‌। "सान्वयप्रतिपदार्थः - देवाः = सुर, यत्‌ = जब, पुरुषेण = पुरुष को कहने वाली हवि द्वारा, यज्ञम्‌ = मानसयाग, अतन्वत = विस्तारित किये।","सान्वयप्रतिपदार्थः - देवाः= सुराः, यत्‌= यदा, पुरुषेण= पुरुषाख्येन हविषा, यज्ञम्‌= मानसं यागम्‌, अतन्वत= विस्तारितवन्तः।" गुरु शब्द वर्ण त्रयात्मक होता है।,गुरुशब्दः वर्णत्रयात्मकः। "उदाहरण- इसका उदाहरण होता है - चिकीर्षकः इति, यत्र॑ बाणाः (तै.सं.-४-६-४-५) इति च।","उदाहरणम्‌- अस्य उदाहरणं भवति चिकीर्षकः इति, यत्र॑ बाणाः(तै.सं.-४-६-४-५) इति च।" अतीतादि कालत्रयवर्ती प्राणिजात इसका चतुर्थ अंश है।,अतीतादिकालत्रयवर्तीनि प्राणिजातानि अस्य चतुर्थोंऽशः। "सरलार्थ - जो हिरण्यगर्भ प्राणदाता बलदाता है, जसके आदेश का पालन सब देव करते हैं, जिसकी छाया अमृत है, और जिसकी छाया मृत्यु है, उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।","सरलार्थः- यः हिरण्यगर्भः प्राणदाता बलदाता, यस्य आदेशः सर्वैः देवैः पाल्यते, यस्य छाया अमृतं, यस्य छाया मृत्युः, तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम।" उससे देवद्रीचीं नयत देवयन्तः यह प्रयोग सिद्ध होता है।,तेन देवद्रीचीं नयत देव॒यन्तः इति प्रयोगः सिध्यति। यहाँ दण्डिन्‌ शब्द नान्त है और कृत्तद्धितसामासाश्च सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञक भी है।,"अत्र दण्डिन्‌ इति शब्दः नान्तः अस्ति, अपि च कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञकः अपि अस्ति।" तो कहते हैं की लोक में भी देखा जाता हैं कि विद्युत्‌ जाती है तो भी कुछ क्षण तक पंखा चलता ही है।,चेदुच्यते दृश्यते हि लोके यत्‌ विद्युत्‌ गच्छति चेद्‌ अपि किञ्चित्क्षणपर्यन्तं व्यजनं तु चलति एव। उच्येते - ब्रू-धातु से कर्म में लट्‌ लकार प्रथमपुरुष्विवचन में यह रूप बनता है।,उच्येते- ब्रू-धातोः कर्मणि लटि प्रथमपुरुषद्विवचने। "वि इदम्‌ इस स्थिति में “एकः पूर्वपरयोः' इस अधिकार में पढ़ा हुआ ' अकः सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से पूर्व पर इकार, इकार के स्थान में ईकार रूप सवर्ण दीर्घ एकादेश होने पर वीदम्‌ यह रूप सिद्ध होता है।",वि इदम्‌ इति स्थिते 'एकः पूर्वपरयोः' इत्यधिकारे पठितेन 'अकः सवर्णे दीर्घः' इति सूत्रेण पूर्वपरयोः इकारेकारयोः स्थाने ईकाररूपसवर्णदीर्घेकादेशे वीदम्‌ इति रूपं सिध्यति। ब्राह्मण ग्रन्थों में अर्थवाद का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।,ब्राह्मणग्रन्थेषु अर्थवादस्य विस्तृतं वर्णनं प्राप्यते। किस प्रकार से योगी लोगों को अपनी रक्षा करनी चाहिए।,कथं च अन्तरायेभ्यः योगिनः आत्मानं रक्षेयुः। शास्त्रविहित नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित कर्मों का विधिपूर्व परित्याग ही उपरति होती है।,शास्त्रविहितानां नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानां विधिपूर्वकं परित्यागः एव उपरतिः। विशेष- चञ्‌चा-शब्द से कन्‌ प्रत्यय करने पर और अनुबन्ध लोप करने पर चञ्चा क(कन्‌) इस स्थित्ति में कन्प्रत्यय के नकार की इत्‌ संज्ञा होने से और उसका लोप होने पर प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्‌ इससे कन्प्रत्यय नित्‌ होता है।,विशेषः- ननु चञ्चा-शब्दात्‌ कन्प्रत्यये अनुबन्धलोपे च चञ्चा क(कन्‌) इति स्थिते कन्प्रत्ययस्य नकारस्य इत्संज्ञकत्वात्‌ तस्य लोपे च प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्‌ इत्यनेन कन्प्रत्ययः नित्‌ भवति। प्रथम काण्ड ग्यारह प्रपाठकों में विभक्त है।,प्रथमकाण्डः एकादशप्रपाठकेषु विभक्तोऽस्ति। यदि उतनी मात्रा होती है तो वह मोक्ष के लिए पर्याप्त होती है।,तावती मात्रा अस्ति चेत्‌ मोक्षाय अलम्‌। "इस भ्रम का कारण है - ऋग्वेद में कितनी ऋचा हैं, इस प्रकार की है, जो अध्ययन काल में चार पाद होते हैं, किन्तु प्रयोग काल में दो पाद ही मानते हैं।","अस्य भ्रमोदयस्य कारणमस्ति- ऋग्वेदे कियत्यः ऋचः एवंविधाः सन्ति, या अध्ययनकाले चतुष्पदा भवन्ति, किञ्च प्रयोगकाले द्विपदा एव मन्यते।" "असर्वनामस्थानम्‌ यह संज्ञा बोधक पद है, सुडनपुंसकस्य इस सूत्र से च सु, औ, जस्‌, अम्‌, औट इनकी सर्वनामस्थान संज्ञा होती है, उनसे भिन्न प्रत्यय असर्वनामस्थान कहलाते हैं, शस आदि विभक्ति असर्वनामस्थान कहलाते है।","असर्वनामस्थानम्‌ इति च संज्ञाबोधकं पदम्‌, सुडनपुंसकस्य इति सूत्रेण च सु, औ, जस्‌, अम्‌, औट्‌ चेत्यादीनां सर्वनामस्थानसंज्ञा भवति, तद्भिन्नाश्च प्रत्ययाः असर्वनामस्थानम्‌ इत्युच्यन्ते शसादयः विभक्तयः असर्वनामस्थान इत्यनेन उच्यन्ते।" गिरि+क्षिते रूप बनता है।,गिरि+क्षिते। स्वस्वरूप अज्ञान में जो आनन्द होता है उसको प्राप्ति होती है ।,स्वरूपज्ञाने य आनन्दः तस्य प्राप्तिः। अतः राजन्‌ ङ्स पुरुष सु यहाँ समुदाय शक्ति से विशिष्ट अर्थ प्रतिपादित होने से एकार्थीभावरूप सामर्थ्य होता है।,अतः राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इत्यत्र समुदायशक्त्या विशिष्टार्थप्रतिपादकत्वात्‌ अस्ति एकार्थीभावरूपं सामर्थ्यम्‌। प्राण सुषुप्ति में जागता है।,प्राणः सुषुप्तौ जागर्ति। ना ही किसी कारण से वह सुख उत्पन्न होता है।,न केनापि कारणेन तत्‌ सुखम्‌ उत्पद्यते। और जैसा कहा गया है - “ऋतेन नव श्रुतविन्मैत्रावरुणं वै तत्‌' इति।,तथा चानुक्रम्यते- ' ऋतेन नव श्रुतविन्मैत्रावरुणं वै तत्‌ ' इति। नित्य तो हमेश एकरूप में ही रहता है।,नित्यश्चेत्‌ सर्वदा एकरूपेण भवत्येव । छन्दसि अनेकम्‌ अपि साकाङ्क्षम्‌ ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,छन्दसि अनेकम्‌ अपि साकाङ्क्षम्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः। इसलिए जो आकशोत्पत्तिवादिनी श्रुति है वह गौणत्व के रूप में समझी जानी चाहिए।,अतः या वियदुत्पत्तिवादिनी श्रुतिः विद्यते सा सर्वापि गौणत्वेन अवगम्या। “तत्पुरुषस्याङ्गुलेः संख्याव्ययादेः” इस सूत्र से तत्पुरुषस्य पद की अनुवृत्ति होती है।,"""तत्पुरुषस्याङ्गुलेः संख्याव्ययादेः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ तत्पुरुषस्येति पदम्‌ अनुवर्तते ।" "फिर भी मन के सूक्ष्म भावक्‍या है, उनका परिणाम क्या है, भावो का संरक्षण कैसे किया जा सकता है, भाव के दृढकरने के बाद क्या होता है इत्यादिविषय भी वेद में प्राप्त होते है।","तथापि मनसः सूक्ष्मा भावाः के, तेषां परिणामाः के, भावानां सवर्धनं कथं भवितुमर्हति, भावस्य दृढीकरणे के अन्तरायाः सन्ति इत्यादिविषयोऽपि वेदे समुलभ्यते।" इसमें एक सौ उन्नासी (१७९) श्लोक हैं।,अस्याम्‌ ऊनाशीत्यधिकशतं (१७९) श्लोकाः सन्ति। नहीं तो पूर्वसाधनों का फिर से अनुष्ठान करना होता है।,अन्यथा पूर्वपूर्वसाधनानि पुनः अनुष्ठेयानि। यास्क का निरुक्त निरुक्त वेदों के छ: अङ्गों में अन्यतम है।,निरुक्तं वेदानां षडङ्गेषु अन्यतमम्‌ अस्ति। 2. हिरण्यगर्भ किसको कहते है?,२. कः हिरण्यगर्भः इत्युच्यते। सूत्र का अवतरण- घृतादि शब्दों क॑ अन्त्य स्वर के स्थान में उदात्त स्वर के विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य के द्वारा की गई है।,सूत्रावतरणम्‌- घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्वरस्य स्थाने उदात्तस्वरस्य विधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्यण। यज्ञवेत्ता मृदा के एक पात्र से दुग्ध गर्म करता है।,यज्ञवेद्यां मृत्पात्रेण एकेन दुग्धम्‌ उष्णीक्रियते। और पाठ के अंतिम भाग में उपनिषदों के विषय में कहा है।,पाठस्य परस्मिन्‌ भागे च उपनिषदां विषये उक्तम्‌। 3. पदविधि क्या है?,३. पदविधिः नाम किम्‌? मोचय यह अर्थ है।,मोचय इत्यर्थः। वह ही दम परिकीर्तित कहलाता हे।,सः दमः परिकीर्तितः कथितः। इस प्रकार से इसे उपरति कह सकते है।,इत्थमियम्‌ उपरतिः इति वक्तुं शक्यते। दो प्रकार के।,द्विविधः । युवति कन्या की कल्पना उसका सूर्य के समीप में जाना इत्यादि भावना यहाँ कवि की व्यापक दृष्टि का बोध कराती है।,युवतिकन्यायाः कल्पना तस्याः सूर्यस्य समीपे गमनम्‌ इत्यादयः भावनाः अत्र कवेः व्यापकदृष्टित्वं ज्ञापयति। "किस मन्त्र का प्रयोग किस उद्देश्य से होता है, इसकी युक्ति सहित व्यवस्था ब्राह्मण ग्रन्थ में सब जगह उपलब्ध होती है।","कस्य मन्त्रस्य प्रयोगः किमुद्दिश्य भवति, अस्य सयुक्ति व्यवस्था ब्राह्मणग्रन्थे सर्वत्र उपलब्धा भवति।" वह साधचतुष्टय को सम्पादन में स्वयं को नियोजित करता है।,सः साधनचतुष्टयसम्पादने स्वं नियोजयति। नित्य वस्तु किसे कहते हैं जो तीनों कालों में होती है वह नित्य वस्तु कहलाती हे।,नित्यं वस्तु किं भवति। यत्‌ कालत्रये एव तिष्ठति तत्‌ नित्यं वस्तु। "ऋग्वेद में सभी देव के नाम नहीं उल्लेखित है, केवल तीन नाम उल्लेखन से उनका मुख्यत्व प्रतिपादित होता है।","ऋग्वेदे सर्वेषां देवानां नामानि नोल्लिखितानि, केवलं त्रयाणां नामोल्लेखात्‌ तेषां मुख्यत्वं प्रतिपादितम्‌।" उसके बाद उसको लेकर के उत्तर पर्वत (भाष्य के मत में हिमालय को) की और गई।,ततः तमादाय उत्तरगिरिं ( भाष्यमते हिमालयं ) गतः। वीरशब्द से मतुप्प्रत्य और तमप्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में।,वीरशब्दस्य मतुप्प्रत्यये तमप्प्रत्यये च द्वितीयैकवचने। बारह दिनों से अधिक दिन जिस याग में लगते हैं वह सत्रयाग कहलाता है।,द्वादशदिवसेभ्यः अधिकदिवसाः यस्मिन्‌ यागे प्रयोजनं भवति तर्हि सत्रयागः। इस सूत्र से अविद्यमान होने का अतिदेश देते है।,अनेन सूत्रेण अविद्यमानवत्त्वम्‌ अतिदिश्यते। वह समास केवलसमास कहा जाता है।,स समासः केवलसमास इत्युच्यते। ( १।२।३६ ) सूत्र का अर्थ - वेद विषय में तीनो स्वरों को विकल्प से एकश्रुति हो जाती है।,(१।२।३६) सूत्रार्थः - छन्दसि विभाषा एकश्रुतिः स्यात्‌। आत्मा तो निर्विकार तथा निराभिमानी होता है।,आत्मा निर्विकारः निरभिमानी च भवति। ग्रन्थवाची ब्राह्मण शब्द विशेष रूप से नपुंसकलिङ्ग में ही प्रयुक्त होता है।,ग्रन्थवाची ब्राह्मणशब्दः विशेषतः नपुंसकलिङ्गे एव प्रयुक्तो भवति। मृत्यु को भगाने के लिए एक विशिष्ट याग का ग्यारहवें अध्याय में विस्तृत विवरण दिया है।,मृत्योः अपसारणाय एकस्य विशिष्टयागस्य एकादशतमाध्याये विस्तृतं विवरणं प्रदत्तमस्ति। अथवा रथ के ऊपर मधु सोमरस को स्थापित कर दो।,अथवा गर्तस्याधि रथस्योपरि मध्वः मधु सोमरसं सनेम स्थापयेमेत्यर्थः। इसलिए उनका एक सूत्र है “त्रयमेकत्र संयमः” संयम होने पर समाधिजनिता प्रज्ञा का विकास होता है।,तथाहि सूत्रितं - त्रयमेकत्र संयमः इति। संयमजये सति समाधिजनितायाः प्रज्ञायाः विकासो भवति। और वह दिशावाची है।,स च दिग्वाची। “तृजकम्भ्यां कर्तरि'' इससे अकेन इस अंश की अनुवृत्ति होती है।,"""तृजकाभ्यां कर्तरि"" इत्यतः अकेनेत्यंशः अनुवर्तते।" उससे दण्डिन्‌ ई स्थिति होती है।,तेन दण्डिन्‌ ई इति स्थितिः भवति। "जैसे छान्दोग्योपनिषद्‌ में पिता उद्दालक पुत्र श्वेतकेतु से कहता है कि “सदेव सोम्य इदम्‌ अग्र आसीत्‌, एकमेवाद्वितीयम्‌” (6/2/1) इति।","यथा- छान्दोग्योपनिषदि पिता उद्दालकः पुत्रं श्वेतकेतुं कथयति यत्‌ “सदेव सोम्य इदम्‌ अग्र आसीत्‌, एकमेवाद्वितीयम्‌” (६/२/१) इति।" लसार्वधातुकम्‌ यहाँ पर सप्तमी निर्देश होने से तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इससे उसके परे होने पर पूर्व का कार्य भी जाना जाता है।,लसार्वधातुकम्‌ इत्यत्र सप्तमीनिर्देशात्‌ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इत्यनेन तस्मिन्‌ परे सति पूर्वस्य कार्यम्‌ इति ज्ञायते। अतः प्रत्यय ग्रहण की परिभाषा से तिङन्त में यह अर्थ प्राप्त होता है।,अतः प्रत्ययग्रहणपरिभाषया तिङन्ते इति लाभः। “सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे” इस सूत्र से सुप्‌ को और “नित्य क्रीडाजीविकयोः“ सूत्र से नित्यम्‌ की अनुवृत्ति होती है।,""" सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे "" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सुप्‌ इति "" नित्यं क्रीडाजीविकयोः "" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ नित्यमिति चानुवर्तते ।" विभाय - भी धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,विभाय - भीधातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ । "वे तीन दोष है मल, विक्षेप तथा आवरण।",दोषत्रयं हि मलः विक्षेपः आवरणं चेति। बन्धे हुए बैल के समान निर्बल पुरुष।,छिन्नमुष्कः पुरुषः। उसी प्रकार से अज्ञान के नाश होने पर जीव तथा चैतन्य शुद्धचैतन्य रूप के द्वारा ब्रह्मचैतन्य के साथ एकात्मभाव को प्राप्त कर लेते हैं।,तथैव अज्ञाननाशे जाते जीवचैतन्यं शुद्धचैतन्यरूपेण ब्रह्मचैतन्येन सह एकात्मभावं प्राप्नोति। सविकल्प तथा निर्विकल्प।,सविकल्पकः निर्विकल्पकश्च । जगत की प्रारम्भिक स्थिति का वर्णन करते हुए इस सूक्त के ऋषि कहते है - सृष्टि के आरम्भ काल में न सत्‌ था और न ही असत्‌ था।,जगतः प्रारम्भिकस्थितेः वर्णनं कुर्वन्‌ अस्य सूक्तस्य ऋषिः कथयति- सृष्टेः आरम्भकाले नासीत्‌ सद्वस्तु न वा असद्वस्तु। गिरिक्षित-इत्यादि उपाधि से युक्त विष्णु सूर्य के प्रतिनिधि होने के रूप में वर्णन किया गया है।,गिरिक्षितः - इत्याद्युपाधियुक्तः विष्णुः सूर्यस्य प्रतिनिधित्वेनापि वर्णितः। नकार का यही अर्थ है।,नकारस्येत्यर्थः । जैसे - फिषोन्तः उदात्तः इस सूत्र से फिषः अथवा प्रातिपदिक के अन्त्य को उदात्त करने का नियम किया है।,यथा - फिषोन्तः उदात्तः इति सूत्रेण फिषः प्रातिपदिकस्य वा अन्त्यस्य उदात्तः विधीयते। एना यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,एना इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। उपनिषद्‌ ग्रन्थो में इस ग्रन्थ की प्रधानता का कारण यह ही है की इस संहिता का आदित्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध की भी सूचना इसके ही अन्तिम मन्त्र के द्वारा प्राप्त होती है - “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌।,"उपनिषदुग्रन्थेषु अस्य ग्रन्थस्य प्राथम्यस्य इदमेव कारणमस्ति। अस्याः संहितायाः आदित्येन सह घनिष्ठसम्बन्धस्यापि सूचना अस्याः एव अन्तिममन्त्रेण प्राप्यते- ""हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌।" इनको भी छोड़कर अन्य भी कुछ उपनिषद्‌ हैं।,एताः विहाय अन्याः अपि काश्चन उपनिषदः वर्तन्ते। “कि क्षेपे” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,""" किं क्षेपे "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" व्याख्या - हे भगवान भग आदि छ ऐश्वर्य है जिसके पास वह भगवान्‌।,व्याख्या - हे भगवः भगं षड्विधमैश्वर्यमस्यास्तीति भगवान्‌। (स्कन्दस्वामी) - शान्तिपौष्टिक कर्मो के द्वारा जो राजा को विपत्ति से रक्षा करता है वह पुरोहित कहलाता है।,(स्कन्दस्वामी) - शान्तिकपौष्टिकैः कर्मभिः यो राजानम्‌ आपद्भ्यः त्रायते स पुरोहितः इत्युच्यते। जो सूर्य सभी को प्रकाशित करता है।,यः सूर्यः सर्वान्‌ प्रकाशयति । 'तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्हिविङोः' इस सूत्र से लसार्वधातुकम्‌ इस पद की अनुवृति आती है और वह यहाँ सप्तम्यन्त से विपरिणाम आती है।,'तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्निङोः' इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लसार्वधातुकम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते तच्चात्र सप्तम्यन्ततया विपरिणम्यते। बृहदारण्यकोपनिषद्‌ में “ अहं ब्रह्मास्मि” यह महावाक्य है।,बृहदारण्यकोपनिषदि “अहं ब्रह्मास्मि” इति महावाक्यम्‌ अस्ति। 8. पुस्त्व का शास्त्रीय लक्षण क्या है?,८. पुंस्त्वस्य शास्त्रीयं लक्षणं किम्‌? कुल्हाड़ी से छिन्न वृक्षशाखा के समान वूृत्रासुर को पृथिवी की गोद में उसको गिराया।,कुठारेण छिन्ना वृक्षशाखा इव वृत्रासुरं पृथिव्याः क्रोडे शयितवान सः। अथर्व'-शब्द की व्याख्या तथा उसका निर्वचन निरुक्त में (११/२/१७) तथा गोपथ ब्राह्मण में (१/४) प्राप्त होती है।,अथर्व -शब्दस्य व्याख्या तथा तस्य निर्वचनं निरुक्ते (११/२/१७) तथा गोपथब्राह्मणे च (१/४) प्राप्यते। जो यह राजन्य अर्थात क्षत्रियत्व जातिमान्‌ है वो बाहु से निष्पादित है या बाहु से उत्पादित है।,योऽयं राजन्यः क्षत्रियत्वजातिमान्‌ सः बाहु कृतः बाहुत्येन निष्पादितः। बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः। स्वामी विवेकानन्द जी का विचार था 'वेदान्त से परिचित भारतवर्ष के प्राचीन आध्यात्मिक दर्शन में इस प्रकार से बल सम्पन्न आध्यात्मिक तत्व निहित हैं।,स्वामिविवेकानन्दस्य प्रत्ययः आसीत्‌ यत्‌ - 'वेदान्त'नाम्ना परिचिते भारतवर्षस्य प्राचीनाध्यात्मिकदर्शने एतादृशानि बलसम्पन्नानि आध्यात्मिकतत्त्वानि निहितानि सन्ति। बाणके आगे का भाग तेज नुकीला हमारे लिए न हो।,बाणाग्रगतो लोहभागः शल्यम्‌ इषुधिर्निरग्रबाणोऽस्तु। ईयते यह किस धातु का रूप है?,ईयते इति कस्य धातोः रूपम्‌ ? जिस प्रकार से सूर्योदय होने पर अन्धकार की निवृत्ति होती है उसी प्रकार ज्ञान होने पर अज्ञान की निवृत्ति होती है।,सूर्योदये तमसः यथा बाधः भवति तथा ज्ञानोदये अज्ञानस्य नाशः भवति। "और सूत्रार्थ होता है- ञ्यङन्त प्रातिपदिक से, और ष्यङन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर चाप्‌ प्रत्यय होता है।","एवञ्च सूत्रार्थो भवति - ञ्यङन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌, ष्यङन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च स्त्रीत्वे द्योत्ये चाप्‌ प्रत्ययः परः भवति।" “तृजकाभ्यां कर्त्तरि” इस सूत्र का अर्थ क्या है?,"""तृजकाभ्यां कर्तरि"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" "प्रकृत उदाहरण में आहवनीये यह अनीयर्‌-प्रत्ययान्त पद है, और वह अनीयर्‌-प्रत्यय रिद्‌ होता है।","प्रकृते उदाहरणे आहवनीये इति अनीयर्‌- प्रत्ययान्तं पदम्‌, स च अनीयर्‌-प्रत्ययः रिद्‌ भवति।" तद्धित पर में होने पर नान्त वाले टि का लोप होता है।,नान्तस्य भसंज्ञकस्य टेः लोपः भवति तद्धिते परे। उभे इसका पूर्व और उत्तरपद में यह अर्थ है।,उभे इत्यस्य पूर्वोत्तरपदे इत्यर्थः। यज्ञ का तात्पर्य त्याग होता है।,यज्ञस्य महत्‌ तात्पर्यं भवति त्यागः। सबसे पहले उन कर्मों को करना चाहिए जो चित्त की शुद्धि करते हैं।,आदौ तानि कर्माणि कर्तव्यानि यानि चित्तशुद्धिं कुर्वन्ति। और जिसमे सब वस्तुओं के आधार सब लोक वर्तमान है।,यश्च विश्वा विश्वानि सर्वाणि भुवनानि भूतजातानि आबभूव समन्ताद्भावयामास। लेकिन योग प्रोक्त असम्प्रज्ञात में तथा वेदान्त प्रतिपादित निर्विकल्प समाधि में कुछ भेद होते हैं।,परन्तु योगप्रोक्तस्य असम्प्रज्ञातसमाधेः वेदान्तप्रतिपादितस्य निर्विकल्पकसमाधेश्च सन्ति भेदाः। "आजकल भी पाश्चात्यों में उपनिषदों का महान्‌ प्रभाव विद्यमान है, प्राय: सभी ही सभ्य भाषाओ में इन उपनिषदों का अनुवाद किया है।","सम्प्रति अपि पाश्चात्येषु उपनिषदां महान्‌ प्रभावो विद्यते, प्रायः सर्वासु एव सभ्यभाषासु आसाम्‌ उपनिषदाम्‌ अनुवादो जातः।" तद्धित अर्थ में विषय में संख्यातत्पुरुषसमास का उदाहरण है जैसे-षाण्मातुर।,तद्धितार्थ विषये संख्यातत्पुरुषसमासस्योदाहरणं यथा षाण्मातुर इति। उससे घटावच्छिन्न चौत्यन्य प्रकाशित होता हेै।,"तेन च घटावच्छिन्नचैतन्यं प्रकाशते, प्रकाशमानम् ।" अतः इन दोनों के स्थान में होने वाला आकार रूप सवर्ण दीर्घ एकादेश प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः अनयोः स्थाने जायमानः आकाररूपसवर्णदीर्घकादेशः प्रकृतसूत्रेण उदात्तः भवति। "इन्द्र, मरुत्‌, अपान्नपात्‌ (विद्युत्‌), पर्जन्य जैसे अनेक अन्तरिक्ष के देव है।","इन्द्रः, मरुत्‌, अपान्नपात्‌ (विद्युत्‌), पर्जन्यः प्रभृतयः अन्तरिक्षस्य देवाः।" उसका ही ये चतुर्थाश इस मायामय लोक के रूप में पुनः उत्पन्न हुआ।,तस्यास्य सोऽयं चतुर्थांशः इह मायामये लोके पुनरभवत्‌। इस रुद्र का जो बाण है वह नष्ट हो सकते है “णश अदर्शने' नशेरत एत्व को अङि वा इत्येत्वम्‌ पुषादित्व होने से च्लेरङ्‌।,अस्य रुद्रस्य या इषवः ता अनेशन्‌ नश्यन्तु 'णश अदर्शने' नशेरत एत्वम्‌ अङि वेत्येत्वम्‌ पुषादित्वात्‌ च्लेरङ्‌। सरलार्थ - इस मन्त्र में श्रद्धा के प्रति कहा गया है की हे श्रद्धा घी पुरोडाश आदि देने की इच्छा वाले उदारयजमान की अभीष्टपूर्ति करो।,"सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे श्रद्धां प्रति उच्यते यत्‌ हे श्रद्धे चरुपुरोडाशादीनि दातुः, दातुम्‌ इच्छतः, उदारयजमानस्य अभीष्टपूर्ति कुरु।" कपिष्ठल किसी ऋषि विशेष का नाम था।,कपिष्ठलः कस्यचित्‌ ऋषिविशेषस्य नाम आसीत्‌। जो देवों का आगे से हित करता है।,यश्च देवानाम्‌ अग्रतः हितम्‌ आचरति। परन्तु द्विगु की तत्पुरुष संज्ञा अभीष्ट होती है अतः विशेषण सूत्र से तत्पुरुषसंज्ञा का विधान किया गया है।,"परन्तु द्विगोः तत्पुरुषसंज्ञा अभीष्टा, अतः विशेषेण सूत्रेण तत्पुरुषसंज्ञाया विधानं कृतम्‌।" "पुरुषं- पुरुष को, जगत्‌- पृथिवी को, मा- मत, हिसीः - मारो।","पुरुषं - पुरुषं, जगत्‌ - पृथिवीं, मा - न, हिंसीः - हिसां कार्षीः।" इसलिए वह अज्ञानमात्र साक्षी होता है।,अतः सः अज्ञानमात्रसाक्षी भवति। वह देव अक्ष उसी प्रकार श्रद्धा को धारण करते है जैसे शिल्पकार अपने उपकरण को धारण करते है।,सः देवः अक्षं तथा श्रद्दधति यथा शिल्पकारः स्वोपकरणानि श्रद्दधाति । उसको ही विशेष रूप से कहते है।,तदेव विशेष्यते। इसलिए जो यह आगमप्रभूत मति है वह आगम को समझने वाले आचार्य के द्वारा ही प्राप्त होती है जिससे ही सुविज्ञान होता हे।,अत एव च या इयम्‌ आगमप्रभूता मतिः तार्किकात्‌ अन्येनैव आगमाभिज्ञेन आचार्येणैव प्रोक्ता सती सुज्ञानाय भवति। जब चित्त रागादिकषायसहित होता है।,यदा चित्तं रागादिकषायसहितं भवेत्‌। श्रवण के द्वारा शास्त्रगुरुवाक्य आदि का ब्रह्म में तात्पर्य समझकर के मनन के द्वारा ब्रह्मविषयक विरुद्ध युक्तियों का खण्डन करके ब्रह्मविषय में असन्दिग्ध अविपर्यस्त बुद्धि होती है।,"श्रवणेन शास्त्रगुरुवाक्यादीनां ब्रह्मणि तात्पर्यं बुद्ध्वा, मननेन च ब्रह्मविषयकविरुद्धयुक्तीनां खण्डनं विधाय ब्रह्मविषये असन्दिग्धा अविपर्यस्ता च बुद्धिः भवति।" यहाँ सर्वप्रथम टाप्‌ प्रत्यय विधायक अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र की व्याख्यान है।,अत्र सर्वप्रथमं टाप्प्रत्ययविधायकस्य अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रस्य व्याख्यानम्‌ अस्ति। असृजः - सृज्‌-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में रूप है।,असृजः - सृज्‌-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने रूपम्‌। "निर्विकल्पक समाधि के ये आठ अङ्ग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान तथा समाधि ' श्रेयांसि बहुविघ्नानि इस प्रकार से प्राज्ञों का वचन है।",निर्विकल्पकसमाधेः एतानि अष्टौ अङ्गानि तावत्‌ यम-नियमासन- प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयः। श्रेयांसि बहुविघ्नानि इति हि प्राज्ञानां वचनम्‌। निर्विकल्पकसमाधेरपि सन्ति विघ्नाः। एक ही आत्मा नाममात्र के भेद के द्वार बहुत प्रकार से समझी जाती है।,'एको ह्ययमात्मा नाममात्रभेदेन बहुधाभिधीयते' इति। रक्षन्ति - रक्ष्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,रक्षन्ति- रक्ष्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। उसके द्वारा तत्स्वरूप प्रतिष्ठा के लिए तर्क सहायता करता है।,तेन तत्स्वरूपप्रतिष्ठायै तर्क सहायीकरोति। तथा तीनों कालों में अविकृतरूप से विद्यामान रहती है।,त्रिषु कालेषु अविकृतरूपेण विद्यमानः तिष्ठति। अतः उस प्रकार के सु परक होने से पूर्व एक अच्‌ वाले वाच्‌- शब्द से परे टा रूप तृतीया विभक्ति में स्वर आकार का प्रकृत सूत्र से उदात्त करने का विधान है।,अतः तादृशसुपरकत्वात्‌ पूर्वस्मात्‌ एकाचः वाच्‌- शब्दात्‌ परस्य टारूपस्य तृतीयाविभक्तेः स्वरस्य आकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं विधीयते। सामवेद के छान्दोग्योपनिषद्‌ में “तत्त्वमसि” (6/8/7 ) यह महावाक्य है।,सामवेदस्य छान्दोग्योपनिषदि “तत्त्वमसि” (६/८/७) इति महावाक्यं विद्यते। “ईळे' यहाँ पर ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' यह सूत्र कैसे नहीं लगा?,"""ईळे' इत्यत्र 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रं कथं न प्रवर्तते?" "5. प्राण, अपान, समान व्यान तथा उदान ये पाँच वायु होती हैं।","५.प्राणः, अपानः, व्यानः, उदानः, समानः चेति पञ्च वायवः।" "उपनिषद्‌ में भी जैसे 'एक सद्विप्रा बहुधा' वदन्ति इस श्रुति से आत्मा को एकत्व प्रतिपादित करते है, इसी प्रकार प्रजापतिसूक्त में भी यह ही तत्त्व प्रकाशित है।",उपनिषदि यथा एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति इति श्रुतेः आत्मनः एकत्वं प्रतिपाद्यते एवमेव प्रजापतिसूक्तेऽपि इदमेव तत्त्वं प्रकाशितम्‌। सामवेद में ही आर्षेयकल्प की भी गणना होती है।,सामवेदे एव आर्षेयकल्पस्य अपि गणना भवति। “एक सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति ' इस प्रकार से मार्ग बहुत है।,'एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति' इति। इस पाठ में निर्विकल्पक समाधि के अङ्गो का भेद सहित आलोचन किया जाएगा।,अस्मिन्‌ पाठे निर्विकल्पकसमाधेः अङ्गानां स्वरूपं भेदपुरःसरम्‌ आलोचयिष्यते। पहले तो अध्यारोप क्या है तथा अपवाद क्या है इसका सुष्ठु विचार किया गया है।,प्रथमं तावत्‌ अध्यारोपः कः अपवादश्च क इति सुष्टु विचारितमस्ति। शुक्ल यजुर्वेदीय मन्त्र संहिता वाजसनेयी संहिता इस नाम से विख्यात है।,शुक्लयजुर्वदीय-मन्त्रसंहिता वाजसनेयीसंहिता इति नाम्ना विख्याता। वस्तुत तो विष्णुसूर्य का एक प्रतिरूप है।,वस्तुतस्तु विष्णुः सूर्यस्य एकः प्रतिरूपः अस्ति। वहाँ पर प्रसूतफल कर्म का फल नित्यकर्मानुष्ठानायसदुःख कहा गया है।,तत्र प्रसूतफलस्य कर्मणः फलं नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखम्‌ आह । भाविनी पृथ्वी की सिद्धि के लिए देवता ही मत्स्यरूप से आये॥ १ ॥,भाविनोर्थस्य सिद्ध्यर्थं देवतैव मत्स्यरूपेण आजगाम॥ १ ॥ दिवेदिवे - दिव शब्द का सप्तमी एकवचन में दिवेदिवे यह रूप बनता है।,दिवेदिवे- दिवशब्दस्य सप्तम्येकवचने दिवेदिवे इति रूपम्‌। असुरेषु - असुर इस प्रातिपदिक का सप्तमी एकवचन में यह रुप बनता है।,व्याकरणम्‌- असुरेषु - असुर इति प्रातिपदिकस्य सप्तम्यैकवचने रुपम्‌। वहाँ उदात्तस्वरितयोः यह सप्तमी का द्विवचनान्त पद है।,तत्र उदात्तस्वरितयोः इति सप्तमीद्विवचनान्तं पदम्‌। ग्रीव के नीलवर्ण होने से सूर्य नीलग्रीव नीलकण्ठ इस नामका प्रसिद्ध है।,ग्रीवस्य नीलवर्णत्वात्‌ सूर्यः नीलग्रीवो नीलकण्ठ इति नाम्ना प्रसिद्धः इति। "अक्षसूक्त के ऋषि कौन, छन्द क्या, और देवता कौन है?","अक्षसूक्तस्य कः ऋषिः , किं छन्दः , का च देवता ?" द्वितीयपाठ में निष्कामकर्मयोग उपासना विषय साधनक बाधक युक्तियाँ तथा द्वितीय पाठ में ही उपासना तक ही विषय को सम्पूर्ण किया गया है।,द्वितीयपाठे निष्कामकर्मयोगः उपासना चेति विषयः साधकबाधकयुक्तिभिः उपन्यस्तः। द्वितीये पाठे उपासनां यावत्‌ विषयः समापितः। इस सूत्र में ' कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।,"अस्मिन्‌ सूत्रे ""कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदमनुवर्तते।" उदैत्‌ ये रूप कैसे सिद्ध हुआ?,उदैत्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। "आज्यस्तोत्र की व्याख्या अजि शब्द से कहते हुए उसके व्याख्यान का भी क्रम प्राप्त होता है, जैसे - “यदाजिमायन्‌ तदा आनज्यानाम्‌ आजत्वम्‌' (ता. ७/२/१) रथन्तर की निरुक्ति इस प्रकार होती है - ` रथं मर्या क्षेप्लातारीत्‌ इति तद्रथन्तरस्य रथन्तरत्वम्‌' (ताण्ड्य. ७/६/४)।","आज्यस्तोत्रस्य व्याख्या अजिशब्दात्‌ कथयित्वा सुष्ठु व्याख्यानस्य अपि उपक्रमः प्राप्यते, यथा - 'यदाजिमायन्‌ तदा आज्यानाम्‌ आजत्वम्‌' (ता. ७/२/१)। रथन्तरस्य निरुक्तिः इदृशी भवति- 'रथं मर्या क्षेप्लातारीत्‌ इति तद्रथन्तरस्य रथन्तरत्वम्‌' (ताण्ड्य. ७/६/४)।" "उस व्याकरण कर्ताओं में विद्वानों में - इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र, ये आठ बहुत ही प्रसिद्ध हैं।","तेषु व्याकरणकर्तृषु विद्वत्सत्तमेषु - इन्द्रः, चन्द्रः, काशकृत्स्नः, आपिशलिः, शाकटायनः, पाणिनिः, अमरः, जैनेन्द्रः, इत्येते अष्टौ सन्ति सुप्रथिताः।" अन्तः करणोपहित ब्रह्म ही जीव कहलाता है।,अन्तःकरणोपहितं ब्रह्म एव जीवः। "न यह अव्यय है, अनुदात्तम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त दो पदों की यहाँ अनुवृति है।","न इति अव्ययम्‌, अनुदात्तम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" यजते औणादिक सन्प्रत्यय है।,यजतेः औणादिकः सन्प्रत्ययः। और “हलन्त्यम्‌” सूत्र से पकार की इत्संज्ञा होती है।,हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण च पकारस्य इत्संज्ञा भवति। "जिनके नाम इस प्रकार से दिये हुए है - १) अधिदैवत, २) अध्यात्म, ३) आख्यातसमय, ४) ऐतिहासिक, ५) नैदान, ६) नैरुक्त, ७) परिव्राजक, ८) और याज्ञिक।","येषां नामानि अनेन प्रकारेण प्रदत्तानि सन्ति - १)अधिदैवतः,२)अध्यात्मः, ३)आख्यातसमयः,४)ऐतिहासिकाः ५)नैदानाःः ६)नैरुक्ताः, ७)परिब्राजकाः, ८) याज्ञिकाः च।" "मा नौ हिंसीज्जनिता... इत्यादिमन्त्र में पृथिव्याः में पृथिवीशब्द में विभक्त का स्वर क्या होगा।""",मा नौं हिंसीज्जनिता... इत्यादिमन्त्रे पृथिव्याः इत्यत्र पृथिवीशब्दात्‌ विभक्तेः कः स्वरः। मनुष्यों के भोग के लिए ओषधियों को उत्पन्न किया है।,किमर्थम्‌ अत्येतवा उ अतिक्रम्य गन्तुम्‌ । ओषधीः अजीजनः उत्पादय । किमर्थम्‌ । भोजनाय धनाय भोगाय वा कम्‌ इति । उसी प्रकार से स्वर्ग लोक पुण्य को भोगने से भी पुण्यक्षीण होते हैं।,तथैव पुण्येन चितो लोकः स्वर्गलोकः अपि भोगेन क्षीयते। अस्त काल में भी लाल।,अरुणः रक्तोऽस्तकाले। "छन्द॒ अभिधान इस अङ्ग से छन्दों के सभी उच्चारण विधि, उसके प्रकार और उसकी संख्या का ज्ञान होता है।",छन्दोभिधेन एतेन अङ्गेन छन्दसां सर्वेषाम्‌ उच्चारणविधिः तद्गतिप्रकारः तद्गानरीतिश्च विदिता भवति। और उत्तरपद भगाल शब्द है।,उत्तरपदञ्च भगालशब्दः। इस पाठ में तिङन्त स्वर को आश्रित करके विस्तार से आलोचना की है।,ततः पाठे अस्मिन्‌ तिङन्तस्वरम्‌ अवलम्ब्य विस्तरेण आलोचितम्‌। वहाँ प्रथम मन्त्र में इन्द्र के पराक्रम युक्त कार्य के विषय में कहा गया है।,तत्र प्रथममन्त्रे इन्द्रस्य पराक्रमयुक्तकार्याणि उक्तानि। 'जञ्नित्यादिर्नित्यम्‌' इस सूत्र से आदि इसकी अनुवृति आती है।,'जञ्नित्यादिर्नित्यम्‌' इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ आदिरिति अनुवर्तते। वहाँ पर वह कर्ता तथा भोक्ता होता है।,ततः कर्ता भोक्ता च भवति। उसके प्रवर्तक आदिशङर्‍काराचार्य हैं।,तस्य प्रवर्तको भवति शङ्कराचार्यः। "मुहूर्त आदि का शोध करके करने योग्य यज्ञ आदि क्रिया विशेष फल के लिए कल्पना करते हैं, अन्यों की नहीं, और उस मुहूर्त ज्ञान को ज्योतिष कहते हैं, अतः इस ज्योतिष शास्त्र को वेदाङ्ग स्वीकार किया है।","मुहूर्त शोधयित्वा क्रियमाणाः यज्ञादिक्रियाविशेषाः फलाय कल्प्यन्ते, नान्यथा, तन्मुहूर्तज्ञानं च ज्योतिषायत्तम्‌ अतः अस्य ज्यौतिषशास्त्रस्य वेदाङ्गत्वं स्वीकृतम्‌।" "शुक्ल यजुर्वेद की पच्चासी शाखाओं में केवल चार तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कापिष्ठल नाम की शाखा उपलब्ध होती है।",शुक्लयजुर्वेदस्य सम्प्रति पञ्चाशीतिशाखासु केवलं चतस्रः तैत्तिरीय-मैत्रायणी-काठक-कापिष्ठलाख्याः शाखाः समुपलभ्यन्ते। यहाँ काल शब्द से कालवाचक शब्दों का ग्रहण होता है।,अत्र कालशब्देन कालवाचकस्य शब्दस्य ग्रहणं भवति। इसलिए सबसे पहले नित्यानित्यवस्तु विवेक उसके बाद इहामुत्रफलभोगविराग तथा उसके बाद शमादिषटक सम्पत्ति तथा उसके बाद मुमुक्षुत्व इनका उल्लेख किया गया है।,तस्मात्‌ आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः ततः इहामुत्रफलभोगविरागः ततः शमादिषट्कसम्पत्तिः ततः मुमुक्षुत्वम्‌ इति क्रमेण तेषामुल्लेखः। इसलिए उसका दर्शन भी कठिन होता है।,अत एव तस्य दर्शनं दुष्करमपि। वेद में इसके अनेक अर्थ है।,वेदे अस्य नैके अर्थाः। भू धातु से वर्तमानेलट्‌ सूत्र से लट्‌ प्रत्यय होने पर भू लट्‌ होता है।,भू इति धातोः वर्तमाने लट्‌ इति सूत्रेण लट्प्रत्यये सति भू लट्‌ इति जायते। लौकिक दृष्टि से तो यथेच्छाचरित्व जीवन्मुक्त हो सकता है।,किञ्च लोकदृष्ट्या तु यथेच्छाचरित्वं जीवन्मुक्तस्य भवितुं शक्नोति। यज्ञ में पशु नहीं मारे जाते हैं।,यज्ञे पशुः न वध्यते। "यहाँ पर वह वेदपाठकों के सामने झञ्‌झावत के साथ वृष्टि, समुद्र के प्रति जल का वेग प्रवाह, उस वर्षा का अत्यधिक सुंदर और सरल शब्दों में वर्णन किया है।","अत्र स वेदपाठकानां पुरस्तात्‌ झञ्झावातेन सह वृष्टिः, समुद्रं प्रति जलस्य वेगेन प्रवाहः, तस्या वृष्टेः अलङ्घनीयता चेत्यादिकं सर्व सरसं वर्णयति।" अतः यावद्‌ यथा से युक्त उपसर्ग रहित तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है पूजा विषय में यह सूत्र का अर्थ यहाँ आता है।,अतः यावद्यथाभ्यां युक्तम्‌ उपसर्गव्यवहितं तिङन्तं न अनुदात्तं पूजायाम्‌ इति सूत्रार्थः समायाति। 2 तात्पर्य क्या होता है?,2. तात्पर्यं किम्‌। "बे है ध्यान, योग तथा भक्ति योग।","ध्यानयोगः, भक्तियोगश्च इति।" उरुगायः - ऊर्णु आच्छादने इस धातु से उण्-प्रत्यय के योग से उरुशब्द प्राप्त होता है।,उरुगायः - ऊर्णु आच्छादने इति धातोः उण्‌-प्रत्यययोगेन उरुशब्दः लभ्यते। किस प्रकार का यज्ञ।,कीदृशो यज्ञः। द्वितीय अर्थ यह हे की- जगत में सूर्य-चन्द्र-पृथिवी-नक्षत्र- ऋतु-दिन-रात इत्यादि सभी विशिष्ट नियम के अनुसार प्रवृत करता है।,द्वितीयोऽर्थः - जगति सूर्य-चन्द्र-पृथिवी-नक्षत्र-ऋतु-दिन-रात्रीत्यादयः सर्वेऽपि विशिष्टं नियमम्‌ अवलम्ब्य प्रवर्तन्ते। पर्वत के समान वाणी उन्नतप्रदेश हो अथवा अनेक रूपों में उसकी स्तुति करते हुए उसकी कामना करते है।,गिरिक्षिते वाचि गिरिवदुन्नतप्रदेशे वा तिष्ठते उरुगायाय बहुभिर्गीयमानाय वृष्णे वर्षित्रे कामानाम्‌। इसके बाद लट्‌ के स्थान पर लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे सूत्र से शतृ प्रत्यय होने पर पच्‌ शतृ होने पर शकार की लशक्ततद्धिते सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः सूत्र से लोप होने पर ऋकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से लोप होने पर पच्‌ अत्‌ होता है।,"ततः लटः स्थाने लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इति सूत्रेण शतृप्रत्यये कृते पच्‌ शतृ इति जाते शकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे, ऋकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌, इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे सति पच्‌ अत्‌ इति जायते।" इसके बाद नञ्‌ समास का वर्णन इस पाठ में है।,ततः नञ्समासस्य वर्णनम्‌ अस्मिन्‌ पाठे अस्ति। वैदिक मन्त्रों में प्रकृति का वर्णन भी सुंदर प्राप्त होता है।,वैदिकमन्त्रेषु प्रकृतेः अपि मनोहरं वर्णनं प्राप्यते। लेकिन अज्ञान का अपरोक्ष प्रतिभासरूप संसार प्रतीत होता है।,किन्तु अज्ञानस्य अपरोक्षः प्रतिभासरूपः संसारः प्रतीयते। ऋग्वेद में केवल अग्नि की दो सूक्तों में स्तुति देखी जाती है।,ऋग्वेदे केवलस्य अग्नेः द्विशतसूक्तेषु स्तुतिः कृता दृश्यते। आचार्य नें कहा है कि जो मुमुक्षु अद्वैतत्व का साक्षात्कार करके यदि वह यथेच्छाचारी होता है तो उसका साधारण व्यक्ति से क्या भेद होगा।,आचार्यः उक्तवान्‌ यदि यः मुमुक्षुः अद्वैततत्त्वस्य साक्षात्कारं कृत्वा यथेच्छाचारी भवति तर्हि साधारणजनतः को भेदः तस्य। इसीलिए वैदिक ज्ञान निर्भ्र्त और प्रमाद रहित कहा जाता है।,तदिदं वैदिकं ज्ञानं निभ्रन्तिम्‌ प्रमादरहितं च। असौ इति अन्तः ये वार्तिक में आये पदच्छेद हैं।,असौ इति अन्तः इति वार्तिकगदपदच्छेदः। और अन्य घर की पत्नी को देखकर द्यूत से उन्मत्त मनुष्य खेद करते हैं।,अपरस्य गृहं पत्नीं च दृष्ट्वा दयूतोन्मत्तः जनः खेदं करोति । विष्णु के तीन पाद जितने ही सभी लोक है।,विष्णोः त्रिषु पादप्रक्षेपेषु सर्वाणि भुवनानि सन्ति। "च, वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌, कूपत्‌, कुवित्‌ नेत्‌, चेत्‌, चणकच्चित्‌ , यत्र, नह, हन्त, माकिः, माकिम्‌, नकिः नकिम्‌, माङ्‌, नञ्‌, यावत्‌, तावत्‌ त्वै, द्वै, न्वै, रै, श्रौषट्‌, वौषट्‌, स्वाहा, स्वधा, वषट्‌, तुम्‌, तथाहि, खलु, किल, अथो, अथ, सुष्टु, स्म, आदह इत्यादि चादय हैं।","च, वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌, कूपत्‌, कुवित्‌, नेत्‌, चेत्‌, चणकच्चित्‌, यत्र, नह, हन्त, माकिः, माकिम्‌, नकिः नकिम्‌, माङ्‌, नञ्‌, यावत्‌, तावत्‌, त्वै, द्वै, न्वै, रै, श्रौषट्‌, वौषट्‌, स्वाहा, स्वधा, वषट्‌, तुम्‌, तथाहि, खलु, किल, अथो, अथ, सुष्ठु, स्म, आदह इत्यादयः चादयः।" नहीं तो स्वर्गफलोपभोग के लिए अग्निहोत्रादि कर्मों के आरम्भ करने पर नरकफलोपभोगं की अनुपपत्ति नहीं हो।,अन्यथा स्वर्गफलोपभोगाय अग्निहोत्रादिकर्मारब्धे जन्मनि नरकफलोपभोगानुपपत्तिः न स्यात्‌। और बृहदारण्यक में भी कहा गया है - ““यदा सर्वे प्रमुच्यते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः।,"तथा च बृहदारण्यके आम्नायते - ""यदा सर्वे प्रमुच्यते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः।" निर्विकल्पककसमाधि होने पर अज्ञाननाश से जीव जीवन्मुक्त हो जाता है।,निर्विकल्पकसमाधौ सत्याम्‌ अज्ञाननाशात्‌ जीवो जीवन्मुक्तो भवति। इस प्रकार के मनुष्यों के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित कर्मों का विधान किया गया है।,एतादृशानां मनुष्याणां कृते एव शास्त्रे प्रायश्चित्तकर्माणि विधीयन्ते। इस पाठ में वेद में श्रद्धाविषय में क्या कहा गया है उसको प्रस्तुत किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे वेदे श्रद्धाविषये किम्‌ उक्तं तद्‌ प्रस्तूयते। "सुपा का तदन्तविधि में (वृन्दारकनागकुञ्जरैः) वृन्दारक, नाग, कुञ्जर आदि से अन्तय से सुबन्तैः पद प्राप्त होता है।",सुपा इत्यस्य तदन्तविधौ वृन्दारकनागकुञ्जरैः इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तैः इति लभ्यते । "स्वरिंताद्‌ यह पञ्चम्यन्त पद है, अतः तस्मादित्युत्तरस्य इस परिभाषा से स्वरित से परे इस अर्थ को जानना चाहिए।","स्वरिताद्‌ इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌, अतः तस्मादित्युत्तरस्य इति परिभाषया स्वरितात्‌ परस्य इत्यर्थो बोध्यः।" प्रज्ञानमिति प्र-ज्ञानम्‌।,प्रज्ञानमिति प्र- ज्ञानम्‌। दीव-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में।,दीव्‌ - धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने । सभी जीव अविद्यायुक्त होते है इस प्रकार से सुरेशवराचार्य के द्वारा नैष्कर्म्यसिद्धि के तृतीय अध्याय में 111 वाँ श्लोक है - “ अहो धार्ष्ट्यमविद्यायाः न कश्चिदतिवर्तते।,सर्वे जीवा अविद्यामन्त एवेति दर्शयितुमुच्यते सुरेश्वराचार्येण नैष्कर्म्यसिद्धेः तृतीयाध्यायगते एकादशाधिकशततमे श्लोके-अहो धार्ष्ट्यमविद्यायाः न कश्चिदतिवर्तते। "वेदों में श्रुति, उसके अनुसार युक्ति और अनुभव यह तीनों हमेशा प्रमाण के साथ उल्लिखित किए जाते हैं।",वेदान्ते श्रुतिः तदुनुकूला युक्तिः अनुभवश्च इति एतत्‌ त्रितयम्‌ सदा प्रमाणत्वेन उपन्यस्यते। इस प्रकार से मन की शुद्धि को सम्पादित करके वह प्रसन्न चित्त होकर के संसार से मुक्त हो जाता है।,एवं मनसः शुद्धिं सम्पाद्य प्रशान्तचित्तः सन्‌ संसारात्‌ मुक्तो भवेत्‌। साधनचतुष्टय में कार्यकारणभाव इस प्रकार से साधनचतुष्टय का निरूपण किया गया है।,साधनचतुष्टये कार्यकारणभावः। एवं साधनचतुष्टयं निरूपितम्‌। इन्द्र से परम तथा गुरुत्व दृष्टी में अग्नि का नाम आता है।,इन्द्रात्‌ परमेव गुरुत्वस्य दृष्ट्या अग्नेः नाम आयाति। सभी इन्द्रियां बुद्धि तथा उनकी वृत्तियाँ वहाँ पर नहीं होती हैं।,सर्वाणि इन्द्रियाणि बुद्धिः तद्गृत्तयश्च तत्र न सन्तीति तात्पर्यम्‌। दास्यम्‌ भगवान के दास रूप में आचरण।,दास्यम्‌ - भगवतः दासरूपेण आचरणम्‌। 12.चित्त का विक्षेप क्या होता है तथा उसे किस प्रकार से जाना जा सकता है?,१२. चित्तविक्षेपः कः। स च कथं ज्ञायते। 1. “समर्थः पदविधिः'” यह किस प्रकार का सूत्र है।,"१. ""समर्थः पदविधिः"" इति सूत्रं कीदृशं सूत्रम्‌।" दसवें मण्डल की अर्वाचीनता दसवां मण्डल सबसे अर्वाचीन मण्डल है।,दशममण्डलस्य अर्वाचीनत्वम्‌ दशमं मण्डलं सर्वतः अर्वाचीनं मण्डलं वर्तते। आहनसम्‌ - आपूर्वक हन्‌-धातु से असुन्प्रत्यय करने पर आहनसम्‌ यह रूप बना।,आहनसम्‌- आपूर्वकात्‌ हन्‌-धातोः असुन्प्रत्यये आहनसम्‌ इति रूपम्‌। भूतपूर्व: वागर्थाविव इत्यादि इस समास का उदाहरण है।,भूतपूर्वः वागर्थाविव इत्यादिकम्‌ अस्य समासस्य उदाहरणम्‌। इसके बाद समास के प्रातिपदिकत्व होने पर सुप्‌ का लोप होने पर प्र अध्वन्‌ इस स्थिति में दो अकारों के स्थान पर सवर्णदीर्घ में आकार होने पर प्राध्वन्‌ निष्पन्न होता है।,ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि प्र अध्वन्‌ इति स्थिते अकारद्वयस्य स्थाने सवर्णदीर्घे आकारे प्राध्वन्‌ इति निष्पद्यते। इस मण्डल में प्रमुख सूक्तों की संख्या बयानवे (92) है।,अस्मिन्मण्डले प्रमुखसूक्तानि आहत्य द्विनवतिः सन्ति। अतः प्रकृत सूत्र से वाच्‌-शब्द से प्रथमा द्विवचन में सिद्ध वाचौ इस शब्द के दोनों ही स्वर उदात्त होते हैं।,अतः प्रकृतसूत्रेण वाच्‌- शब्दात्‌ प्रथमाद्विवचने निष्पन्नस्य वाचौ इति शब्दस्य उभौ एव स्वरौ उदात्तौ भवतः। व्याख्या -जो यह सूर्य उदय और अस्त होता हुआ निरंतर चलता रहता है।,व्याख्या - योऽसावादित्यरुपोऽवसर्पति उदयास्तामयौ कुर्वन्निरन्तरं गच्छति। लेकिन श्रवण मनन के द्वारा निश्चित होने पर जो 'श्रुति के द्वारा तथा उसके प्रतिपादकत्व से आत्मा देहादि से व्यतिरिक्त होती है ' इत्यादि युक्तियों के द्वारा उसमें बताया गया है।,परन्तु श्रवणमननाभ्यां निश्चितं यद्‌ 'आत्मा देहादिव्यतिरिक्तः श्रुत्या तथा प्रतिपादितत्वात्‌' इत्यादिभिः युक्तिभिः । 10. अस्तेय से तात्पर्य है शास्त्रविधि का त्याग करके दूसरों के धन को लेना अथवा दूसरों के धन को हरण करने की अभिलाषा रखना।,१०. स्तेयं नाम शास्त्रविधिमुत्सृज्य द्रव्याणाम्‌ परतः स्वीकरणम्‌ परद्रव्यहरणाभिलाषो वा। अतः प्रजापति को आख्या क है।,अतः प्रजापतेः आख्या कः इति। युग के अन्त में सम्पूर्ण सृष्टिजल में समाहित हो जाती है।,युगान्ते सम्पूर्णा सृष्टिः पयसा समावृता भवति। यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में खूटा स्थापित करना चाहिए।,यज्ञवेद्याः पूर्वस्यां दिशि यूपः स्थापनीयः। पुत्र शोक से सन्तप्त होती है।,पुत्रशोकेन सन्तप्ता भवति । अध्वर्यु विधिवत यज्ञ को पूर्ण करता है।,अध्वर्युर्विधिवद्यज्ञं सम्पादयति। ब्रह्म का ही प्रकाश सभी को प्रकाशित करता है।,ब्रह्मणः एव प्रकाशः सर्वं प्रकाशयति। कहा भी है - “एकं सद्विप्रा बहुध वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः” इति।,तथाहि “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः” इति। "इसलिए जिन्होंने निरुक्त आदि ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया, वे इन मन्त्रों के अर्थ नहीं समझ सकते हैं।",अतः ये निरुक्तप्रभृतीनां ग्रन्थानाम्‌ अध्ययनं न कृतवन्तः ते एतेषां मन्त्राणाम्‌ अर्थं ज्ञातुं न शक्नुवन्ति। देहत्याग के बाद उसको लोकान्तर की प्राप्ति नहीं होती है।,देहत्यागात्‌ अनन्तरं न तस्य लोकान्तरप्राप्तिः भवति। निरुक्तयुगम्‌ - निघण्टुकाल के बाद निरुक्त का समय प्रारम्भ होता है।,निरुक्तयुगम्‌ - निघण्टुकालानन्तरं निरुक्तानां समयः प्रारम्भो भवति। निघण्टु के पांचवे अध्याय में कौन सा काण्ड हे?,निघण्टौ पञ्चमे अध्याये किं काण्डं वर्तते। अर्थात्‌ पद के अर्थ का अनुल्लङघन है।,पदार्थस्यानुल्लङ्घनम्‌ इत्यर्थः। "जो पर्जन्यजल को शीघ्र बरसाता है गर्जना युक्त शब्द को करता है, औषधियों में गर्भस्थानीय शक्ति को जल के रूप में धारण करता है उसकी देव की स्तुति करो।","यः पर्जन्यः अपां वर्षता क्षिप्रदानः गर्जनशब्दं कुर्वन्‌ , ओषधीषु गर्भस्थानीयं रेतः उदकं दधासि स्थापयति वा तं स्तुहि।" इसमें शास्त्र का कोई दोष नहीं है।,परन्तु अत्र शास्त्रस्य को दोषः। इस प्रकार के पासे होते है।,एवंभूताः अक्षाः भवन्ति । वैसे ही पाणिनीय शास्त्र में निपात यह संज्ञा बोधक पद है।,तथाहि पाणिनीयशास्त्रे निपात इति संज्ञाबोधकं पदम्‌। "आत्माज्ञानस्वरूप, चित्स्वरूप तथा चैतन्यस्वरूप होता है।","ननु आत्मा ज्ञानस्वरूपः, चित्स्वरूपः, चैतन्यस्वरूपः।" "शरीर तीन प्रकार के होते हैं कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा स्थूल शरीर।","शरीरत्रयं भवति कारणशरीरम्‌, सूक्ष्मशरीरम्‌, स्थूलशरीरं च।" पञ्चकोशों में भी सर्वप्रथम ब्रह्मत्वबुद्धि की कल्पना करके फिर उसके द्वारा यथार्थ ब्रह्म में गति होती है।,पञ्चस्वपि कोशेषु ब्रह्मत्वबुद्धिं प्रथमं प्रकल्प्य पुनस्तन्निरसनद्वारा यथार्थब्रह्मावगतिः भवति। "वहाँ जप में, न्यूङख में और साम में उदात्त अनुदात्त आदि स्वर युक्त मन्त्रों का उच्चारण है।",तत्र जपे न्यूङ्खेषु सामसु च उदात्तानुदात्तादिस्वरयुक्तानां मन्त्राणाम्‌ उच्चारणम्‌ अस्ति। इसलिए वेदान्तसार में निदिध्यासन के स्वरूप को कहने के अनन्तर ही समाधिस्वरूप को बिना कहे ही साक्षात्समाधि को दो प्रकार से कहा है।,अतः वेदान्तसारे निदिध्यासनस्वरूपकथनाद्‌ अनन्तरमेव समाधिस्वरूपम्‌ अकथयित्वा साक्षात्‌ समाधिः द्विविध इति कथ्यते। किन्तु दसवें मण्डल में लघु-गुरू के ऊपर भी उचित विन्यास में भी सब जगह विशेष बल दिया।,प्राचीनकाले वर्णानां संख्याया उपरि छन्दोविन्यासे विशेषः आग्रहः आसीत्‌। “षष्ठी'' इस सूत्र से यहाँ समास किया जाता है।,"""षष्ठी"" इति सूत्रेण अत्र समासः क्रियते।" असुपः यह पद समस्त है।,असुपः इति पदं समस्तम्‌ अस्ति। भूतपूर्वे चरट्‌ (भूतपूर्व में चरट्‌) इस निर्देश से।,भूतपूर्वे चरडिति निर्देशात्‌। आसीत्‌ - अस्‌-धातु से लङः प्रथमपुरुष एकवचन में आसीत्‌ यह रूप है।,आसीत्‌ - अस्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने आसीत्‌ इति रूपम्‌। शास्त्र से तथा ग्रन्थ से उत्पन्न बोध जो विषय होता है वही ग्रन्थप्रतिपाद्य विषय होता है।,शास्त्रात्‌ ग्रन्थात्‌ वा उत्पन्नस्य बोधस्य विषयः भवति ग्रन्थप्रतिपाद्यविषयः। "उससे लुप्त अकार विशिष्ट होने पर अजचु धातु के पर होने पर पूर्व का जो अन्तिम अच्‌ है, उसको उदात्त स्वर होता है यह सूत्र अर्थ प्राप्त होता है।","तेन लुप्त-अकारविशिष्टे अञ्चु-धातौ परे सति पूर्वस्य यः अन्त्यः अच्‌, तस्य उदात्तस्वरः भवति इति सूत्रार्थः लभ्यते।" तब तक विपरीत भावना का निवारण नहीं होता है।,तावत्‌ विपरीतभावना न निवर्तते। उनमें अन्यतम अनुबन्ध विषय है।,तेषु अन्यतमः विषयः । यज्ञम्‌ - यज्‌-धातु से घञ्‌प्रत्यय करने पर यज्ञम्‌ रूप बनता है।,यज्ञम्‌ - यज्‌ - धातोः घञ्प्रत्यये यज्ञम्‌ इति रूपम्‌। ( 9.3 ) यङश्चाप्‌( 4.1.74 ) सूत्रार्थ-ञ्यङन्ता प्रातिपदिक से और ष्यङन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर चाप्‌ प्रत्यय परे होता है।,"(९.३) यङश्चाप्‌ सूत्रार्थः - यङन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌, ष्यङन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च स्त्रीत्वे द्योत्ये चाप्‌ प्रत्ययः परः भवति।" तद्धिद्वतार्थादि तत्पुरुष समास व्यधिकरण तत्पुरुष का लोचन से पर इस पाठ में आदि द्विगु समास का वर्णन किया जाता है।,तद्धितार्थादितत्पुरुषसमासः प्रस्तावना व्यधिकरणतत्पुरुषस्यालोचनात्‌ परम्‌ अस्मिन्‌ पाठे आदौ द्विगुसमासस्य वर्णनं क्रियते। और उन मन्त्रों में पर्जन्यदेवता को उद्दिश्य करके अनेक प्रार्थना की गई है।,तेषु च मन्त्रेषु पर्जन्यदेवताम्‌ उद्दिस्य विविधाः प्रार्थनाः विहिताः । "भरतमुनि ने भी छन्द के बिना शब्द को स्वीकार नहीं किया है - “छन्दहीना न शब्दोऽस्ति, न छन्दः शब्दवर्जितमम्‌।","भरतमुनिः अपि छन्दोविरहितं शब्दं नैव स्वीकरोति 'छन्दहीना न शब्दोऽस्ति, न छन्दः शब्दवर्जितम्‌।'" "उपनिषद्‌ प्रस्थान त्रयी में प्रथम प्रस्थान कहलाता है, क्योंकि यह ही भारतीय विचार शास्त्र का श्रेष्ठ उपजीव्य ग्रन्थ है।",उपनिषत्‌ प्रस्थानत्रय्यां प्रथमप्रस्थानम्‌ आवहति यतो हि एषा एव भारतीयविचारशास्त्रस्य श्रेष्ठः उपजीव्यग्रन्थः। व्याख्या - हे मनुष्यों विष्णु के व्यापकशीलदेव के पराक्रम को हम बहुत शीघ्र ही कहते है।,व्याख्या- हे नराः विष्णोः व्यापनशीलस्य देवस्य वीर्याणि वीरकर्माणि नु कम्‌ अतिशीघ्रं प्र वोचम्‌ प्रब्रवीमि। अत्यन्तकर्मो के कर्ता विष्णु के उत्कृष्ट स्थान में मधुर सरोवर है।,अत्यन्तं क्रममाणस्य विष्णोः उत्कृष्टे स्थाने मधुरनिःस्यन्दो वर्तते। "उसकी पत्नी, श्वश्रू, और अन्य शुभ आकाङ्क्षि उससे द्वेष करते है।","तस्य पत्नी , श्वश्रूः , अन्ये शुभाकाङ्क्षिणः च तस्मै द्विषन्ति ।" समाधि के अनुष्ठान के लिए अनुपयुक्त वस्तुओं का असंग्रह| अहिंसा आदि के विषय में विस्तार से आलोचन पतञ्जलि के योग सूत्र में वर्णित है उसके अनुसार अहिंसादि का निरूपण किया जा रहा है।,समाधेः अनुष्ठानार्थम्‌ अनुपयुक्तानां वस्तूनाम्‌ असङ्ग्रहः। अहिंसादीनां विषये विस्तरशः आलोचनं पातञ्जलयोगसूत्रे दृश्यते।तदनुसारेण अहिंसादीनां निरूपणम्‌ अधो विधीयते। 14. बहुल ग्रहण का क्या फल है?,१४. बहुलग्रहणस्य किं फलम्‌? यह ही चित्रशब्द लोक में प्रचलित है।,अयमेव चित्रशब्दः लोके प्रचलितः अस्ति। पुनः ङीन्‌ प्रत्ययविधायक शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्‌ सूत्र की व्याख्या की गई और उसके उदाहरण साधे गये हैं।,"पुनः ङीन्प्रत्ययविधायकस्य ""शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्‌"" इति सूत्रस्य व्याख्या कृता तदुदाहरणानि च साधितानि।" "इसी प्रकार प्रजापति के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, चक्षु से रवि, मुख से इन्द्र और अग्नि देव तथा प्राण से वायु उत्पन्न हुआ।","एवमेव प्रजापतेः मनसः चन्द्रमाः जातः, चक्षुर्भ्यां रविः, मुखाद्‌ इन्द्राग्नी देवौ तथा प्राणाद्‌ वायुः जातः।" "सरलार्थ - हे दोनों स्वामी, मित्र और वरुण तुम दोनों तेज से पृथिवी और द्युलोक को धारण किये हुए हो।","सरलार्थः- हे राजद्वय, मित्र वरुण च युवां तेजसा पृथिवीं द्युलोकं च धारयथः।" तब प्रस्तुत सूत्र से पञ्चमी के ङसि प्रत्यये का अलुक्‌ होता है।,तदा प्रस्तुतसूत्रेण पञ्चम्याः ङसेः अलुग्‌ विधीयते। "वह मेघ को मारकर जल को भूमि पर गिराता है, तथा पर्वतों के मध्य में नदी को प्रवाहित करता है।",स मेघं हतवान्‌ जलानि भूमौ पातितवान्‌ तथा पर्वतानां मध्ये नदीः प्रवाहितवान्‌। 18.2.5 ) आनन्दमय कोश कारण शरीर का भान सुषुप्ति अवस्था में होता है इस प्रकार से कहा भी जा चुका है।,१८.२.५) आनन्दमयकोशः कारणशरीरस्य भानं सुषुप्त्यवस्थाया भवतीत्युक्तम्‌। उसको ` आमन्त्रितस्य च' इस छठे अध्याय के सूत्र से शुभस्पती इस समुदाय के आदि स्वर उदात्त का विधान होता है।,तेन 'आमन्त्रितस्य च' इति षाष्ठेन सूत्रेण शुभस्पती इत्यस्य समुदायस्य आदिस्वरः उदात्तः विधीयते। "जो मनुष्य शास्त्र के नियम का पालन नहीं करते है, वे अधोगति को प्राप्त करते है और कहा है - अथैतयोः पथोर्न कतरेणचन तानीमानि।",ये जनाः शास्त्रीयाचारं न पालयन्ति तैः अधोगतिः प्राप्यते। तदुक्तम्‌ - अथैतयोः पथोर्न कतरेणचन तानीमानि। इस प्रकार निश्चय से ही वह सभी के मित्र के समान ही है।,एवं निश्चयमेव स सर्वेषां मित्रमेव। ये पुरुष का वास्तविक स्वरूप नहीं है।,नेदं पुरुषस्य वास्तवं स्वरूपम्‌। और स्वस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।,स्वस्वरूपं च साक्षात्कृतं भवति। तत्कृत का गुणवचन से यहाँ अन्वय हुआ है।,तत्कृत इत्यस्य गुणवचनेन इत्यत्रान्वयः। उदयनीय-इष्टी में दूध-मधु-दही-श्करा-आदि के मिश्रण से निर्मित चरु आहुति के रूपमें दी जाती है।,उदयनीय-इष्टौ दुग्ध-मधु-दधि-शर्करा-प्रभृतीनां मिश्रणेन निर्मितं चरु आहुतिरूपेण दीयते। 1. क) तैत्तिरीयोपनिषद्‌ ख) कठोपनिषद्‌ ग) बृहदारण्यकोपनिषद्‌ घ) छान्दोग्योपनिषद्‌ अद्वैत सिद्धान्त में आकाश की उत्पत्ति हैं अथवा नहीं?,क) तैत्तिरीयोपनिषदि ख) कठोपनिषदि ग) बृहदारण्यकोपनिषदि घ) छान्दोग्योपनिषदि अद्वैतसिद्धान्ते आकाशस्य उत्पत्तिरस्ति न वा। "हलू पूर्व में है जिसके वह हल्पूर्व यहाँ बहुव्रीहि समास है, उस हसल्पूर्व से।","हल्‌ पूर्व अस्ति यस्य स हल्पूर्वः इति बहुव्रीहिसमासः, तस्मात्‌ हल्पूर्वात्‌।" जो दो सत्ता आपस में भिन्न होती है उनमें विवर्त भाव होता है।,ययोः द्वयोः सत्ता परस्परं भिद्यते तयोः विवर्तभावः। शरीर वातपित्तलेष आदि के वैषम्य के निमित्त होता है।,तत्र शारीरं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तम्‌। नहीं प्रवत्ति की अनुपपत्ति होती है।,अन्यथा प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । "तट शब्द, तीनों लिङ्गों में होता है।",तट शब्द त्रिषु लिङ्गेषु वर्तते। हृत्प्रतिष्ठं यरदजिरं जविष्ठं तन्मे मन शिवसडऱकल्पमस्तु॥६ ॥,हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन शिवसङ्कल्पमस्तु॥६ ॥ सुषुप्ति मे आनन्दमय कोश का अच्छी प्रकार से स्फुरण होता है।,सुषुप्तौ आनन्दमयस्य सम्यक्‌ स्फुरणं भवति। तस्थुषीः - स्था-धातु क्वसुन् प्रत्यय करने पर स्त्रियाम्‌ ङीप्प्रत्यय करने पर द्वितीयाबहुवचन में तस्थुषी: यह रूप है।,तस्थुषीः- स्था-धातोः क्वसुन्प्रत्यये स्त्रियाम्‌ ङीप्प्रत्यये द्वितीयाबहुवचने तस्थुषीः इति रूपम्‌। अथर्ववेद में केवल अपने स्वयं के मन्त्र जो अन्य वेदों में प्राप्त नहीं होते है इस प्रकार के मन्त्र बहुत ही कम है।,अथर्ववेदे केवलं स्वस्य मन्त्राः यदन्येषु वेदेषु नोपलब्धाः-एतादृशाः मन्त्राः अतीव स्वल्पाः सन्ति। टिप्पणी - पूर्वमन्त्र कहा गया है की तुम अग्नि हमारे समीप आओ।,टिप्पणी - पूर्वमन्त्रे उक्तं यत्‌ त्वाम्‌ अग्निम्‌ आगच्छामः इति। "और भी मधुरिमा से युक्त होता है और मानो मीठे वचन से सम्भाषण करता है, किन्तु हारे हुए जुआरी को तो मार ही डालता है।",अपि च मध्वा मधुना सम्पृक्ताः प्रतिकितवेन बर्हणा परिवृद्धेन सर्वस्वहरणेन कितवस्य पुनर्हणः पुनर्हन्तारो भवन्ति । प्रमेय प्रमाण का सम्बन्ध तथा बोध्यबोधक भाव सम्बन्ध।,प्रमेयप्रमाणयोः सम्बन्धः बोध्यबोधकभावसम्बन्धः। स्वप्नप्रपज्च किस प्रकार का होता है?,स्वप्नप्रपञ्चः कीदृशः? मत भेद के द्वारा वेदान्त बहुत प्रकार से व्यवहार में लाया जाता है।,मतभेदेन वेदान्तः बहुधा व्यवह्नियते। “पञ्चमी भयेन'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""पञ्चमी भयेन"" इति सूत्रस्यार्थः कः।" "जिसका विधान किया जाता है, उसे विधेय कहते है, अतः अनुदात्तौ यह विधेय बोधक प्रथमा द्विवचनान्त पद है।","यत्‌ विधीयते तत्‌ विधेयम्‌ इत्युच्यते, अतः अनुदात्तौ इति च विधेयबोधकं प्रथमाद्विवचनान्तं पदम्‌।" "इस सूक्त का ऋषि हिरण्यगर्भ, छन्द त्रिष्टुप्‌, प्रजापतिर्देवता है।","अस्य सूक्तस्य ऋषिः हिरण्यगर्भः, छन्दः त्रिष्टुप्‌, प्रजापतिर्देवता।" और सूत्र के पठित अर्थों का वाचकों का अव्ययों के समर्थन से सुबन्त के साथ समास होता है यहीं फलितार्थ है।,एवञ्च सूत्रपठितार्थानां वाचकानाम्‌ अव्ययानाम्‌ समर्थन सुबन्तेन सह समासः भवति इति फलितार्थः। विविदिषासंन्यास तथा विहवत्संन्यास के भेद से संन्यास दो प्रकार का होता है।,विविदिषासंन्यासः विद्वत्संन्यास इति भेदात्‌ संन्यासस्य द्वैविध्यमस्ति। वेदान्तसाधनों मे जो क्रम है उसी क्रम का अनुसरण यहाँ पर इन पाठों में किया गया है।,वेदान्तसाधने यः क्रमः अस्ति तमेव क्रमम्‌ अनुसृत्य उपस्थाप्यन्ते पाठेषु एषु। कहां चारो वर्ण की उत्पत्ति लिखी हुई हे?,कुत्र वर्णचतुष्टयस्य उत्पत्तिः लिखिता? ब्राह्मणों में भी इस प्रसङ्ग का सुंदर वर्णन प्राप्त होता है।,ब्राह्मणेषु अपि अस्य प्रसङ्गस्य सुष्ठु वर्णनं प्राप्यते। 36. लय किसे कहते हैं?,३६. लयो नाम कः? "इसके बाद प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न, “ गोतल्लजशब्द से सु प्रत्यय होने पर गोतल्लजः रूप निष्पन्न होता है।",ततः प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ गोतल्लजशब्दात्‌ सौ गोतल्लजः इति रूपं निष्पन्नम्‌। अतः सत्‌ का सहकारी कारण दूसरा नहीं है।,सत: सहकारिकारणं द्वितीयं नास्ति। 4. साध्यसृष्टि और साधनयोग्य प्रजापति आदि तदनुकुलऋषि जो मन्त्रद्रष्टा है।,4. साध्याः सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः तदनुकुलाः ऋषयः मन्त्रद्रष्टारः। “तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌'' का बहुल अमादेश विधान के लिए यह सूत्र प्रवृत्त होता है।,तृतीयासप्तम्योः बहुलम्‌ अमादेशविधानाय इदं सूत्रं प्रवृत्तम्‌। तैत्तिरीय उपनिषद्‌ में शिक्षा विषय में क्या कहा है?,तैत्तिरीयोपनिषदि शिक्षाविषये किमुक्तम्‌? "स्वपादिसहिंसाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त है, अचि यह सप्तम्यन्त है, अनिटि यह सप्तम्यन्त पद है।","स्वपादिसहिंसाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तम, अचि इति सप्तम्यन्तम्‌, अनिटि इति सप्तम्यन्तं पदम्‌।" "द्वन्द समास में पूर्वनिपात विधायक ""द्वन्द्वे घि"" ""अजाद्यन्तम्‌"" ""अल्पाच्तरम्‌"" ये सूत्र हैं।","द्वन्द्वसमासे पूर्वनिपातविधायकानि ""द्वन्द्वे घि"" ""अजाद्यन्तम्‌"" ""अल्पाच्तरम्‌"" इति सूत्राणि सन्ति।" 2. इन्द्र का प्रथमपराक्रम क्या था?,२. इन्द्रस्य प्रथमं वीर्यं किम्‌ आसीत्‌? "सुब्रह्मण्योम्‌ सुब्रह्मण्योम्‌ सुब्रह्मण्योम्‌ इन्द्रागच्छ हरिव आगच्छ ...... वासुदेवस्य पुत्रः पशुपते: पौत्रो नारायणस्य नप्ता रामभद्रस्य पिता महेन्द्रस्य पौत्रः कमलाकस्य प्रपौत्रो देवदत्तो यजते सुत्याम्‌' - निगद में इस प्रकार का विधान होने से जाना जाता है की मन्त्र में यजमान के नाम प्रथमान्त से प्रयोग करने चाहिए, और उससे पूर्व पुरूषों के नाम षष्ठ्यन्त से प्रयोग करने चाहिए।","सुब्रह्मण्योम्‌ सुब्रह्मण्योम्‌ सुब्रह्मण्योम्‌ इन्द्रागच्छ हरिव आगच्छ ...... वासुदेवस्य पुत्रः पशुपतेः पौत्रो नारायणस्य नप्ता रामभद्रस्य पिता महेन्द्रस्य पौत्रः कमलाकस्य प्रपौत्रो देवदत्तो यजते सुत्याम्‌' - निगदे एवं विधानेन ज्ञायते यत्‌ मन्त्रे यजमानस्य नाम प्रथमान्ततया प्रयोक्तव्यम्‌, तस्य पूर्वपुरूषाणां नामानि च षष्ठ्यन्ततया प्रयोक्तव्यानि इति।" "कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है, और उसका लिङग व्यत्यय होने से उदात्त होता है।",कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ उदात्तः चेति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तते तच्च लिङ्गविपरिणामेन उदात्ता इति भवति। "उदाहरण -इस सूत्र का तद्वित अर्थ विषय में पञ्चकलापः उत्तरपद परे पञ्चगवधनः, और समाहार में वाच्य होने पर पञ्चगवम्‌ उदाहरण बना।","उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्य तद्धितार्थे विषये पञ्चकलापः इति, उत्तरपदे परतः पञ्चगवधनः इति, समाहारे च वाच्ये पञ्चगवम्‌ इत्युदाहरणं भवति ।" "वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण पढ़ना चाहिए, लोप, आगम, वर्ण विकार को जानने वाला ही पुरुष अच्छी प्रकार से वेदों का पालन करते हैं, ऐसा पतञ्जलि ने कहा है।","रक्षार्थं वेदानाम्‌ अध्येयं व्याकरणम्‌, लोपागमवर्णविकारज्ञो हि पुरुषः सम्यग्‌ वेदान्‌ परिपालयिष्यति' इति पतञ्जलिः।" इन सभी का साक्षी आत्मा होता है।,अस्य सर्वस्यापि आत्मा साक्षी भवति। मुख्य रूप से कल्पसूत्र कितने है?,मुख्यतः कति कल्पसूत्राणि? "सरलार्थ - पासे कभी नीचे गिरते है और कभी ऊपर उछल ते है, ये बिना हाथ के होकर भी हाथवालो को पराजित करते है, ये दिव्य पासे जुआ खेलने के तख्ते पर फॅके जाते समय अंगार बन जाते है ये छूने में ठंडे है, पर हारने वाले के मन को जलाते है।",सरलार्थः - एते अक्षाः अधः पतन्ति। पराजयात्‌ भीतानां कितवानां हृदयस्य उपरि च स्फुरन्ति। एते हस्तरहिताः सन्तः अपि कितवान्‌ अभिभवन्ति। एते शीतस्पर्शाः अङ्गारसदृशाः सन्तः अपि कितवान्‌ हृदयं दहन्ति । "उपनिषदो में छोटे आकार का यह उपनिषद्‌ सबसे पहला उपनिषद है, क्योकि अन्य उपनिषद संहिता के भाग नहीं है।","उपनिषत्सु लघुकाशिकेयमुपनिषद्‌ आदिमोपनिषदस्ति, यतो हि अन्योपनिषत्संहितायाः भागो नास्ति।" यह प्राण अचेतन तथा परतन्त्र होता है।,अयं प्राणः अचेतनः परतन्त्रश्च अस्ति। यह ही एक नियम है।,अयमेको नियम एव। विश्वानि इसका लौकिकरूप है।,विश्वानि इति अस्य लौकिकं रूपम्‌। (क) दम (ख) विवेक (ग) प्रयोजन (घ) वैरण्ग्य 10. यह अनुबन्धों में अन्यतम नहीं होता है।,(क) दमः (ख) विवेकः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) वैराग्यम्‌ 10. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः नास्ति। शमदमवान पुरुष ही स्थित प्रज्ञ होता है इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है यदा संहरते चायं कुर्मोऽङगानीव सर्वशः।,शमदमवान्‌ पुरुषः एव स्थितप्रज्ञः इति भगवान्‌ श्रीकृष्णः अपि गीतायाम्‌ उक्तवान्‌ - यदा संहरते चायं कुर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। यावद्वै क्षुल्लका भवामो बह्वी वै नस्तावन्नाष्टा भवत्युत मत्स्य एव मत्स्यं गिलति कुम्भ्यां माऽग्ने बिभरासि स॒ यदा तामतिव्वर्धा अथ कर्षु खात्वा तस्यां मा बिभरासि स॒ यदा तामतिव्वर्धाऽअथ मा समुद्रमभ्यवहरासि तर्हि वा अतिनाष्टो भवितास्मीति॥ ३ ॥,यावद्वै क्षुल्लका भवामो बह्वी वै नस्तावन्नाष्ट्रा भवत्युत मत्स्य एव मत्स्यं गिलति कुम्भ्यां माग्ने बिभरासि स यदा तामतिवर्धा अथ कर्ष्‌ खात्वा तस्यां मा बिभरासि स यदा तामतिवर्धा अथ मा समुद्रमभ्यवहरासि तर्हि वा अतिनाष्ट्रो भवितास्मीति॥ ३ ॥ शिश्रियाणम्‌ - श्रि-धातु से लिडर्थ में कानच इयङ आदेश होने पर नकार को णत्व करने पर शिश्रियाणम्‌ यह रूप बनता है।,शिश्रियाणम्‌ - श्रि-धातोः लिडर्थे कानचि इयङादेशे नस्य णत्वे शिश्रियाणम्‌ इति रूपम्‌। प्रादि से अध्वन समासान्त तद्धितसंजञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,प्रादिभ्यः अध्वनः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है राज्ञां मतः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा राज्ञां मतः इति। धाः - धा-धातु से लुङ मध्यमपुरुष एकवचन में।,धाः - धा - धातोः लुङि मध्यमपुरुषैकवचने । समास का अन्त समासान्त है। समास के इस अन्वय से विभक्ति विरिणाम तदन्तविधि में अचक्षुः पर्यायान्तस्य समासस्य प्राप्त होता है।,समासस्यान्तः समासान्तः। समासस्येत्यनेनान्वयाद्‌ विभक्तिविरिणामेन तदन्तविधौ अचक्षुः पर्यायान्तस्य समासस्य इति लभ्यते। ज्ञान का आवरण क्या होता है?,६. ज्ञानस्य आवरणं किम्‌। अथर्ववेद की विषय विवेचना अथर्ववेद की विषय विवेचना अन्य वेदों की अपेक्षा नितान्त गूढ़ और विलक्षण है।,अथर्ववेदस्य विषयविवेचनम्‌ अन्यवेदानाम्‌ अपेक्षया नितान्तं निगूढं विलक्षणञ्च अस्ति। पूर्वस्य यह षष्ठयन्त पद है।,पूर्वस्य इति षष्ठ्यन्तं पदम्‌। 19. “उपसर्जनं पूर्वम्‌” इस सूत्र से क्या होता हे?,"१९. ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इति सूत्रेण किं भवति।" वहाँ अग्नि अम्‌ इस स्थिति में ` अमि पूर्वः' इससे उदात्त-इकार का और अनुदात्त-अकार के स्थान में पूर्वरूप एकादेश इकार में “एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इससे उसका (इकार का) उदात्त स्वर है।,ततः अग्नि अम्‌ इति स्थिते अमि पूर्वः इत्यनेन उदात्त-इकारस्य अनुदात्त-अकारस्य च स्थाने पूर्वरूपैकादेशे इकारे 'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इत्यनेन तस्य (इकारस्य) उदात्तस्वरः। ( ८.४.६७ ) सूत्र का अर्थ - उदात्त परे है जिससे एवं स्वरित परे है जिससे ऐसे अनुदात्त को स्वरित नहीं होता है।,(८.४.६६) सूत्रार्थः - उदात्तपरः स्वरितपरश्चानुदात्तः स्वरितो न स्यात्‌। "इस पाठ में हम उन उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आख्या स्वरों को और उसके विधायक सूत्रों को पढेगे।",अस्मिन्‌ पाठे वयं तान्‌ एव उदात्तानुदात्तस्वरिताख्यान्‌ स्वरान्‌ तद्विधायकानि सूत्राणि च पठामः। जैसे - इस प्रकरण में रोगों के चिकित्सा सम्बन्धी मन्त्रों का तथा विधि विशेषणों का अन्तर्भाव होता है।,तद्यथा- ४.२.५) भैषज्यसूक्तानि अस्मिन्‌ प्रकरणे रोगाणां चिकित्सासम्बन्धिनां मन्त्राणां तथा विधिविशेषाणाम्‌ अन्तर्भावो भवति। वह ही विषय अनुबन्धों में अन्यतम विषय होता है।,स एव विषयः अनुबन्धेषु अन्यतमः विषयः भवति। "क्षुद्रजीवों के साथ उनके कारण सर्पादि बीज, अण्डों से पक्षी आदि, जरायु से मनुष्य आदि उत्पन्न हुए, स्वेद से जूं मच्छरादि उत्पन्न हुए, तथा उदिभज वृक्षादि, और अश्व गायें हाथी आदि ब्रह्म से उत्पन्न हुए है।","क्षुद्रजीवैः सह तत्कारणानि सर्पादीनि बीजानि, अण्डेभ्यः जातानि पक्ष्यादीनि, जरायुजेभ्यः जातानि मनुष्यादीनि, स्वेदेभ्यः जातानि यूकमशकादीनि उद्भिज्जानि वृक्षादीनि, अश्वाः गावः हस्तिनः च ब्रह्मणः एव उत्पद्यन्ते।" ज्ञानवैराग्ययोश्चौव षण्णां भग इतीरणा' ऐसा कहा गया।,ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा' इत्युक्तः। अथवा पापी मनुष्यों को दुःखभोग से रुलाता है वह रुद्र है।,यद्वा पापिनो नरान्‌ दुःखभोगेन रोदयतीति रुद्रः। "समाहार द्विगु, तद्धितार्थ द्विगु और उत्तरपद द्विगु।","समाहारद्विगुः, तद्धितार्थद्विगुः, उत्तरपदद्विगुश्चेति।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण यथा “'द्वितीयाकीतातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्तैः'' सूत्र है।,"उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं यथा ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रम्‌।" "नक्षत्र, तारे तेरे रूप है।",नक्षत्राणि गगनगाः ताराः तव रूपम्‌। 4 मानवों के अन्तः करण तीन दोषों का परिचय दीजिए?,४. मानवान्तःकरणस्य त्रीन्‌ दोषान्‌ परिचाययत। राध्यताम्‌ - राध्‌-धातु से लोट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,राध्यताम्‌- राध्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने। वेद का यथार्थ ज्ञान लाभ के लिए छः विषयों का ज्ञान अपेक्षित होता है।,वेदस्य यथार्थज्ञानलाभाय षण्णां विषयाणां ज्ञानम्‌ अपेक्षितं भवति। इसका सविस्तार आलोचन आगे उपस्थापित किया जाएगा।,अस्य सविस्तरम्‌ आलोचनम्‌ अग्रे उपस्थाप्यते। इस सूत्र से दक्षिण शब्द के अन्त और आदि में उदात्त होने का नियम किया है।,अनेन सूत्रेण दक्षिणशब्दस्य अन्तस्य आदेः च उदात्तत्वं विधीयते। ® महावाक्य जीव तथा ब्रह्म के ऐक्य का प्रतिपादन करते है।,महावाक्यं जीवब्रह्मणोः ऐक्यं प्रतिपादयन्ति। कर्म के द्वारा चित्त पृथ्वी लोक के भोगों को भोगने से क्षीण होते हैं।,कर्मणा चितः पृथिवीलोको भोगेन क्षीयते । 8 पुनः संसार बन्धन होता है अथवा नहीं।,८. पुनः संसारबन्धो भवति वा? शरीर तथा इन्द्रियों का नियामक कौन है?,शरीरेन्द्रियाणां नियामकः कः ? दिशावाचक और संख्या वाचक सुबन्त को समानाधिकरण सुबन्त के साथ संज्ञा में गम्यमान होने पर तत्पुरुषसमास संज्ञा होता है।,दिशावाचकं संख्यावाचकं च सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह संज्ञायां गम्यमानायामेव तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । अनेक जन्मान्तर कृत स्वर्गनरकादिप्राप्तिफल वाले अनारब्ध कार्यो का अतिक्रमण करके उपभोग अनुपपत्ति से यदि क्षय का अभाव होता है तो ऐसा भी नहीं।,अतिक्रान्तानेकजन्मान्तरकृतस्य स्वर्गनरकादिप्राप्तिफलस्य अनारब्धकार्यस्य उपभोगानुपपत्तेः क्षयाभावः इति चेत्‌। न। अभ्यैक्षेताम्‌ - अभिपूर्वक ईक्ष्‌ दर्शने धातु से लङ्‌ लकार को प्रथमपुरुष द्विवचन में अभ्यैक्षेताम्‌ रूप बनता है।,अभ्येक्षेताम्‌- अभिपूर्वकात्‌ ईक्ष्‌ दर्शने इत्यर्थकात्‌ धातोः लङि प्रथमपुरुषद्विवचने अभ्यैक्षेताम्‌ इति रूपम्‌। "सौन्दर्य की कल्पना - उषादेवी के विषय में जो सूक्त प्राप्त होते हैं, उनकी पर्यालोचना से ज्ञात होता है, की जो ये सूक्त है, काव्य दृष्टि से भी अत्यंत सरल और भव्य भाव से पूर्ण है।",सौन्दर्यपरिकल्पनम्‌- उषादेव्याः विषये यानि सूक्तानि समुपलब्धानि तेषां पर्यालोचनेन ज्ञातं भवति यद्‌ एतानि सूक्तानि काव्यदृष्ट्या अपि सरसानि सरलानि भव्यभावपूर्णानि च सन्ति। बाह्य अग्निहोत्र से इसको तृप्ति होती है।,बाह्याग्निहोत्रेण अस्य तृप्तिर्भवति। यहाँ पर कुछ सूत्रों के द्वारा तिङन्तस्वर का विधान है।,अत्र च कैश्चित्‌ सूत्रैः तिङन्तस्वरः विधीयते। इस भ्रमोदय का कारण है - ऋग्वेद में कितनी ऋचा इस प्रकार की है जो ऋचा अध्ययन काल में चार पाद वाली होती है किन्तु प्रयोग काल में दो पाद वाली ही मानते हैं।,अस्य भ्रमोदयस्य कारणमस्ति- ऋग्वेदे कियत्यः ऋचः एवंविधाः सन्ति या ऋचः अध्ययनकाले चतुष्पदा भवन्ति किञ्च प्रयोगकाले द्विपदा एव मन्यते इति। अपने से अन्य पुरुषों की पत्नियों को और उनके घर वैभव को देखकर और अपनी दुर्दशा को देखकर दुखी होता है।,स्वव्यतिरिक्तपुरुषाणां सुखेन वर्तमानां जायां सुष्टुकृतं गृहं च दृष्ट्वा मज्जाया दुःखिता गृहं चासंस्कृतमिति ज्ञात्वा । यदि दो बार करना हो तो प्रथम सूर्य की उत्तरायण वेला में तथा द्वितीय दक्षिणायन के समय में करना चाहिए।,यदि वारद्वयं तर्हि प्रथमः सूर्यस्य उत्तरायणवेलायाम्‌ अपरश्च दक्षिणायनसमये। आठवें अध्याय में विद्यमान ' आमन्त्रितस्य च इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,अष्टमाध्याये विद्यमानम्‌ 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रं व्याख्यात। "परन्तु जिसकी सत्ता सम्पूर्ण विश्व में ओत प्रोत रूप से व्याप्त है, और सुना जाता है कि वह परब्रह्म एक साथ ऊपर -नीचे और सभी जगह रह सकता है।",परन्तु यस्य सत्ता समग्रे विश्वे ओतप्रोतरूपेण व्याप्ताअनुस्यूता च तत्‌ परं ब्रह्म युगपत्‌ ऊर्ध्वम्‌ अधः च सर्वत्र अवस्थातुं शक्नोति। मछली ने भी बड़े जल प्रलय के समय मनु को कभी रक्षा के लिए कहा।,मत्स्यः अपि महति प्लावने सति मनोः कदाचित्‌ रक्षणाय उक्तवान्‌। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - ङयि के परे होने पर पूर्व के युष्मद्‌ अस्मद्‌ का आदि अच्‌ उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति ङयि परे सति पूर्वयोः युष्मदस्मदोः आदिः अच्‌ उदात्तः भवति इति। सुख या दुख बिना कारण के उत्पन्न नहीं होते।,सुखं वा दुःखं वा कारणं विना नैव उत्पद्येते। वह इस प्रकार से है जैस चुम्बक में लोहे की आकर्षण शक्ति होती है।,तद्यथा- चुम्बके लौहाकर्षणशक्तिरस्ति। इससे यह पता चलता है की उनका मन्त्रोच्चारण काल में ही आविर्भाव होता है।,तेन मन्त्रोच्चारणकाले एव तेषाम्‌ आविर्भावः इति गम्यते। दोनों प्रकार की मुक्ति सिद्धि होने पर प्रमाणों का भी यथा प्रयोजन उपस्थापन किया जाएगा।,उभयविधमुक्तिसिद्धौ प्रमाणानि अपि यथाप्रयोजनम्‌ उपस्थापयिष्यन्ते। 4.जो फलाशय कर्म करता है उसकी क्या गति होती है?,४. यः फलाशया कर्म करोति तस्य का गतिः। जैसे किसी व्यक्ति की सम्पत्ति होती है।,यथा कस्यचिद्‌ जनस्य सम्पत्तिः अस्ति। धना इसका लौकिक रूप क्या है?,धना इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌ ? तीन प्रकार से।,त्रेधा। “तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये” इस श्रुति के अनुसार आचार्य के उपदेश से अविद्या बन्धन से मुक्त होकर के तत्वदर्शी व्यक्ति जब ब्रह्मस्वरूप को जानता है।,"""तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये"" इति श्रुत्यनुसारेण आचार्योपदेशात्‌ अविद्याबन्धनात्‌ मुक्तः तत्त्वदर्शी व्यक्तिः यदा ब्रह्मस्वरूपं जानाति ।" प्रयोगा अनर्हो असाधुरलौकिक विग्रह है।,प्रयोगानर्होऽसाधुरलौकिकः विग्रः इति। 4 उपक्रम तथा उपसंहार क्या होते हैं तथा किसके अन्तर होते हैं?,4. उपक्रमोपसंहारौ कौ। क्वान्तर्भवति। और सूत्रार्थ है: “जब अवयवी एकत्वविशिष्ट पर हो तब अवयव के साथ पूर्व आदि सुबनन्तों के साथ विकल्प से समास होता है।,"एवं च सूत्रार्थः - ""यदा अवयवी एकत्वविशिष्टः तदा अवयविना सह पूर्वादीनां सुबन्तानां विकल्पेन तत्पुरुषसमासो भवति"" इति।" अन्य पद का अर्थ अन्य पदार्थ होता है।,अन्यपदस्यार्थः अन्यपदार्थः। वेदों का अर्थ ज्ञान वेदाङ्गज्ञानपूर्वक ही सम्भव होता है।,वेदानाम्‌ अर्थज्ञानं वेदाङ्गज्ञानपूर्वकमेव सम्भवति। क्योंकि नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखोपभोग की तत्फलोपत्ति होती है।,नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखोपभोगस्य तत्फलोपभोगत्वोपपत्तेः। "और उससे यह सूत्र जहाँ कार्य करता है, वहाँ आद्युदात्तश्च इस सामान्य सूत्र की प्रवृति नहीं होती है।",तेन च एतत्‌ सूत्रं यत्र प्रवर्तते तत्र आद्युदात्तश्च इति सामान्यसूत्रं न प्रवर्तते। इस प्रकार से कहते हैं की फिर एक ही भूत में आकाशादि का व्यपदेश क्यों किया गया है।,इत्यतः कथम्‌ एकस्मिन्‌ भूते आकाशादिव्यपदेशः स्यादिति चेदुच्यते । दण्डि के द्वारा।,दण्डिना तेरे इस प्रकार के रूप को कौन भूल सकता है।,तव ईदृशं रूपं कः विस्मर्त्तु शक्नेति। "इसी ही क्रम से अथर्ववेद के मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि क्रियाओं के बहुत प्रयोगों का वर्णन है।","अनेन एव क्रमेण अथर्ववेदस्य मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरणादीनां क्रियाणां बहुलप्रयोगाः वर्णिताः सन्ति।" व्याकरण से संस्कृतों में ही पदों का प्रयोग अर्हत्व से लोक में साधुत्व (सम्यक) होता है।,व्याकरणेन संस्कृतानामेव पदानां प्रयोगार्हत्वात्‌ लोके साधुत्वम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में “मे' इस शब्द में स्वरित स्वर है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे मे इति शब्दे स्वरितस्वरः वर्तते। उदाहरण- “यावत्‌ प्रपचति शोभनम्‌' यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- यावत्‌ प्रपचति शोभनम्‌ इति अस्य सुत्रस्य एकमुदाहरणम्‌। और इसमें दस ऋचाएं हैं।,अस्मिन्‌ दश ऋचः सन्ति। श्रद्धा की महानता के गुण गीता में भी गाये है - “श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।,श्रद्धायाः माहात्म्यं गीतमपि गीतायां- 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ( ६.१.२०१ ) सूत्र का अर्थ- क्षय शब्द आद्युदात्त होता है।,(६.१.२०१) सूत्रार्थः- क्षयो आद्युदात्तः स्यात्‌। तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इस लौकिक विग्रह में पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इस अलौकिक विग्रह में “तद्धितार्थोत्तपदसमाहारेच'' इससे समास प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न होने से गो शब्दान्त से पञ्च गो शब्द से “ गोरतद्धितलुकि '' इस सूत्र से टच्‌ प्रत्यय होने पर पञ्च गो अ होता है।,"तथाहि पञ्चानां गवां समाहारः इति लौकिकविग्रहे पञ्चन्‌ आम्‌ गो आम्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन समासे प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ गोशब्दान्तात्‌ पञ्चगोशब्दात्‌ ""गोरतद्धितलुकि"" इति सूत्रेण टच्प्रत्यये पञ्चगे अ इति भवति ।" 15. समाधि के अनुष्ठान के लिए जो द्रव्य अपेक्षित है।,१५. समाधेः अनुष्ठानार्थं यानि द्रव्याणि अपेक्षितानि । सूर्य के साथ रुद्र का अभेदप्रतिपादन होने से रुद्र का भी नाम नीलकण्ठ है।,सूर्येण साकं रुद्रस्य अभेदप्रतिपादनत्वात्‌ रुद्रस्यापि नाम नीलकण्ठः। अक्रविहस्ता इसका विग्रह और समास क्या है?,अक्रविहस्ता इत्यस्य कः विग्रहः कश्च समासः। "“क्तेन च पूजायाम्‌"" इस सूत्र क्या अर्थ है?","""क्तेन च पूजायाम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" सभी उपनिषदों में अखण्ड ब्रह्म के स्वरूप की विशेष आत्म तत्त्व उपनिषदों में मुख्य रूप से प्रतिपाद्य विषय है।,सर्वासामुपनिषदाम्‌ अखण्डे ब्रह्मणि पर्यवसानाद्‌ निर्विशेषमात्मतत्त्वम्‌ उपनिषत्सु मुख्यतया प्रतिपाद्यम्‌। व्याख्या - अतिशयेन मीढ्वान्मीढुष्टमः ` तसौ मत्वर्थे” (पा. १/४/१९) इससे भसंज्ञा होने पर ` वसोः संप्रसारणम्‌' (पा. ६/४/३१) इससे संप्रसारण हुआ।,व्याख्या - अतिशयेन मीढ्वान्मीढुष्टमः 'तसौ मत्वर्थ' (पा. १/४/१९) इति भसंज्ञायां 'वसोः संप्रसारणम्‌' (पा. ६/४/३१) इति संप्रसारणम्‌। "( 8.2 ) विग्रहवाक्यसवरूपम्‌, तद्‌भेदाश्च वृत्तिलक्षणावसर पर परार्थ नाम क्या है ऐसा पूछने पर विग्रह वाक्य अवयवपदार्थों से परे जो अर्थ होता है वह परार्थ होता है ऐसा कहा गया है।","(८.२) विग्रहवाक्यस्वरूपम्‌, तद्भेदाश्च वृत्तिलक्षणावसरे परार्थो नाम कः इति पृष्टे विग्रहवाक्यावयवपदार्थेभ्यः परः यः अर्थः इति उक्तः।" जैसे पुत्र के कल्याण के लिये पिता समीप ही रहता है उसी प्रकार।,"यथा सूनवे पुत्राय पिता सुप्रापः प्रायेण समवेतो भवति, तद्वत्‌।" घट का स्वप्रकाशत्व नहीं होता है।,घटस्य स्वपकाशत्वं नास्ति। उसका षष्ठी एकवचन में अवसितस्य यह रूप बना।,तस्य षष्ठ्येकवचने अवसितस्य इति रूपम्‌। सूत्र का अर्थ- गुण को कहने वाले शब्दों के उत्तरपद रहते विस्पष्टादि पूर्वपद को तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर होता है।,सूत्रार्थः- विस्पष्टादीनि पूर्वपदानि गुणवचनेषूत्तरपदेषु प्रकृतिस्वराणि भवन्ति। जिसने बृहत्‌ दीप्यमान जलराशि को बनाया।,यः वृहतीं दीप्यमानां जलराशिं सृष्टवान्‌। पीये हुए जल का मध्यम भाग चर्म तथा स्थूलावरण होता है।,"पीतानाम्‌ अपां मध्यमो भागः, चर्म स्थूलावरणम् ।" इस विभाषा की प्रवृत्ति में वैसे कोई भी निर्दिष्ट नियम नहीं है।,अस्याः विभाषायाः प्रवृत्तेः तथा कोपि निर्दिष्टः नियमः नास्ति। लेकिन उसका अनुमान किया जाता है।,किन्तु अनुमीयते। 9. अधिकारी कौन होता है इसका विचार कीजिए?,९. अधिकारी कुत्र इति विचार्यताम्‌। वेद में अनेक देवताओं की स्तुति की गई है।,वेदे नैका देवताः स्तुताः। उनके मत का समर्थन ब्राह्मण ग्रन्थ में स्थित प्रमाण से मिलता है “अग्निः सर्वा देवता:' इति।,तन्मतं समर्थयितुम्‌ ब्राह्मणग्रन्थस्थं मन्त्रमाह- 'अग्निः सर्वा देवताः' इति। अथर्ववेद में जीवन काल को बढ़ाने के लिए रक्षासूत्र के धारण का विशेष विधान प्राप्त होता है।,अथर्ववेदे जीवनकालस्य वर्द्धनाय करे रक्षासूत्रधारणस्य विशेषविधानं प्राप्यते। अतितर उदात्त हे।,अतितराम्‌ उदात्तः इति। आकाशादिय के सात्विकांशों से मिलकर के अन्तःकरण उत्पन्न होता है।,आकाशादीनां सात्त्विकांशेभ्यः मिलितेभ्यः अन्तःकरणम्‌ उत्पद्यते। इनके हाथ नही है परन्तु जिनके हाथ है वे उनसे पराजय होते है।,तथापि उपरि पराजयात्‌ भीतानां द्यूतकराणां कितवानां हृदयस्योपरि स्फुरन्ति । "वेद छन्दोबद्ध हैं, अतः: उनके उच्चारण निमित्त के लिए छन्द का ज्ञान हमेशा अपेक्षित होता है।","वेदाः सन्ति छन्दोबद्धाः, अतः तेषाम्‌ उच्चारणनिमित्ताय छन्दोज्ञानं नितराम्‌ अपेक्षितं भवति।" गुणों का चित्त में प्रभाव ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्यामान संसार की निवृत्ति नित्यनिरतिशयानन्द की प्राप्तिरूप महान प्रयोजन की सिद्धि होती है।,गुणानां चित्ते प्रभावः ब्रह्मविद्यया अविद्यामयस्य संसारस्य निवृत्तिः नित्यनिरतिशयानन्दप्राप्तिश्चेति महत्‌ प्रयोजनं सिदुध्यति। समस्यमान अपने पदों से विग्रह जिस् समास का नहीं होता है वहअस्वपदविग्रह।,अर्थात्‌ समस्यमानैः स्वैः पदैः विग्रहः यस्य समासस्य न भवति सः अस्वपदविग्रहः। ररीध्वम्‌ यह रूप कैसे बना?,ररीध्वम्‌ इति कुत्रत्यं रूपम्‌ ? "और में ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, इस प्रकार के विशेष रूप से होते हैं।",अहं ब्रह्मणः अहं क्षत्रियः इति तत्र विशेषः। "छन्द ज्ञान से वेद का उचित पाठ होता है, पढने वाले के मन में आनन्द उत्पन्न होता है।","छन्दोज्ञानेन वेदस्य सम्यक्‌ पाठः भवति, पठितृमनसि च आनन्दोद्भवः भवति।" सभी धर्मो का मूल वेद ही है।,सर्वेषां धर्माणां वेदः एव मूलम्‌। अभि शब्द को “नित्यवीप्सयोः' इस सूत्र से द्वित्व होने पर अभि अभि इस प्रकार की प्राप्ति होती है।,अभिशब्दस्य 'नित्यवीप्सयोः' इति सूत्रेण द्वित्वे अभि अभि इति लभ्यते। उदाहरण -कु समास का उदाहरण है कुपुरुषः।,उदाहरणम्‌ - कुसमासस्योदाहरणं भवति कुपुरुषः इति । पुरुषसूक्त अतीव महत्त्वपूर्ण है।,पुरुषसूक्तम्‌ अतीव महत्त्वपूर्णम्‌ अस्ति। शुक्तिरजत का परिणाम उपादान क्या है और विवर्त उपादान क्या है?,किं तावत्‌ शुक्तिरजतस्य परिणाम्युपादानम्‌। किञ्च विवर्तापादानम्‌। अतः वस्‌ यह आदेश अनुदात्त है।,अतः वस्‌ इत्यादेशः अनुदात्तः अस्ति। "( नाग,पुरा. १/४/२१ ) शाखा के साथ 'चरण'-शब्द का भी सम्बन्ध है।",(नाग.पुरा. १/४/२१) शाखया सह 'चरण'-शब्दस्यापि सम्बन्धोऽस्ति। "जहाँ अन्य मनुष्यों की पत्नी सौभाग्य सुख से जीवन बिताती है, वहीं उसकी पत्नी हीन और दीन होकर के अन्तःदुख से जलती रहती है।",यत्र अपरजनानां पत्न्यः सौभाग्यसुखेन जीवन्ति तत्र तत्पत्नी हीना दीना च भूत्वा अन्तर्दुःखेन दग्धा भवति । किन्तु पूजा से भिन्न अर्थ जाना जाता है।,किञ्च पूजाभिन्नः अर्थः अवगम्यते। यह सूत्र एकपदात्मक (एक पद वाला) है।,सूत्रमिदम्‌ एकपदात्मकम्‌। "व्यष्टिकारणशरीर अज्ञानोपहित चैतन्य प्राज्ञ से,व्यष्टिसृक्ष्मशरीर अज्ञानोपहित तेज से, व्युष्टिस्थूलशरीर अज्ञानोपहित चैतन्य से विश्व से तुरी चैतन्य अर्थात्‌ प्राज्ञ तैजसविश्व का आधारभूत चैतन्य भेद से अवभासमान त्वं पद का वाच्यार्थ होता है।","व्यष्टिकारणशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ प्राज्ञात्‌, व्यष्टिसूक्षशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ तैजसात्‌, व्यष्टिस्थूलशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ विश्वात्‌ तुरीयं चैतन्यम्‌ अर्थात्‌ प्राज्ञतैजसविश्वानाम्‌ आधारभूत चैतन्यं भेदेन अवभासमानं त्वम्पदस्य लक्ष्यार्थः भवति।" उसी देह को अधिकरण करके एक पुरुष उत्पन्न हुआ।,तमेव देहमधिकरणं कृत्वा यत्र एकः पुमान्‌ अजायत। "अस्य = ब्रह्म के, पादः = चतुर्थाश, विश्वा = समग्र, भूतानि = प्राणिजात, अस्य = जगत्स्रष्टा, त्रिपात्‌ = एक तीन चोथाई, अमृतं = विनाशरहित, दिवि = स्वप्रकाश स्वरूप में या आकाश में रहता है।","अस्य= ब्रह्मणः, पादः-चतुर्थांशः विश्वा= समग्रानि, भूतानि=प्राणिजातानि, अस्य= जगत्स्रष्टुः , त्रिपात्‌= त्रिचतुर्थाशः अमृतं= विनाशारहितं, दिवि=स्वप्रकाशस्वरूपे, आकाशे वा विद्यत इति।" और इसका विग्रह है न सुप्‌ इति असुप्‌।,अस्य च विग्रहः भवति न सुप्‌ इति असुप्‌। तायते - तन्‌-धातु से कर्म लट प्रथमपुरुष एकवचन में।,तायते -तन्‌-धातोः कर्मणि लटि प्रथमपुरुषैकवचने। अर्थात्‌ मनुष्य शरीर अनित्य है इस प्रकार से सभी जानते हैं।,अर्थात्‌ मनुष्यशरीरम्‌ अनित्यम्‌ इति सर्वे एव जानन्ति। "“ नञस्तत्पुरुषात्‌"" सूत्र की अनुवृत्ति आती है।","""नञस्तत्पुरुषात्‌"" इति सूत्रमनुवर्तते।" और इस समासविधायक सूत्र की पाँच प्रकार से समास विधायक सम्भव होता है।,एवं समासविधायकसूत्रस्यास्य पञ्चधा समासविधायकत्वं सम्भवति यहाँ पूर्वपदं पूर्व यह शब्द है।,अत्र पूर्वपदं पूर्व इति शब्दः। इसलिए वेदों के अर्थ के परिज्ञान के लिए विधि पूर्वक षडङ्ग सहित वेदों का अध्ययन आवश्यक है।,अतो वेदानाम्‌ अर्थस्य परिज्ञानाय विधिपूर्वकं षडङ्गसहितं वेदाध्ययनम्‌ आवश्यकम्‌। पञ्चम्यन्त सुबन्त को त्रयप्रकृतिक को सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,पञ्चम्यन्तं सुबन्तं भयप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमास-संज्ञं भवति। सूत्र की व्याख्या - छः प्रकार के सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु इदं विधिसूत्रम्‌। अपरदृष्टि के द्वारा भलेही वह कार्य करता हुआ है लेकिन जीवन्मुक्त निष्क्रिय ही रहता है।,अपरदृष्ट्या यद्यपि स कार्य कुर्वन्‌ अस्ति परन्तु जीवन्मुक्तः निष्क्रियः एव। उपशरदम्‌ रूप को सिद्ध करो?,उपशरदम्‌ इति रूपं साधयत। किस प्रातिपदिक से टाप्‌ होता है अथवा डाप्‌ होता है ऐसा जानने के लिए प्रकृत प्रकरण प्रवर्त्त होते हैं।,तत्र कस्माद्‌ प्रातिपदिकात्‌ टाप्‌ भवति कस्मात्‌ वा डाप्‌ भवति इति बोधयितुं प्रकृतं प्रकरणं प्रवर्तते। उससे अधिक दिनों में सम्पन्न याग सत्र याग होता है।,ततोऽधिकदिनेषु सम्पन्नयागः सत्रयागः। चतुर्थी तदर्थ इस सूत्र का चतुर्थ्यन्तार्थ के उत्तर पद रहते चतुर्थी पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।,चतुर्थी तदर्थ इति सूत्रस्य चतुर्थ्यन्तार्थाय यत्तद्वाचिन्युत्तरपदे चतुर्थ्यन्तं प्रकृत्या भवति इत्यर्थः। 22. ब्रह्म की सर्वात्मकद्योतिका श्रुतियाँ कौन-सी हैं?,२२. ब्रह्मणः सर्वात्मकत्वद्योतिकाः श्रुतयः काः? गुरु से संन्यास दीक्षा प्राप्त करके परिव्राजक जीवन का निर्वहन करते हुए भारतवर्ष के विविध स्थानों में घूमते हुए धर्म प्रचार करके १८९३ ईस्वी सन में शिकागो नगरी में अनुष्ठित धर्मसम्मेलन में भाग ग्रहण करके वहाँ पर सनातन धर्म का महत्व उद्घोष करके जगत में प्रसिद्धि प्राप्त करी।,गुरोः सकाशात्‌ सन्न्यासदीक्षां प्राप्य परिव्राजकजीवनं निर्वहन्‌ भारतवर्षस्य विविधस्थानेषु अटन्‌ धर्मप्रचारं कृत्वा १८९३ -ईशवीयाब्दे चिकागो इति नगर्याम्‌ अनुष्ठिते विश्वधर्मसम्मेलने भागं गृहीत्वा तत्र सनातनधर्मस्य महत्त्वम्‌ उद्घोष्य स जगति प्रसिद्धिं प्राप्तवान्‌। "अथो = भूमि के सर्जन के अनन्तर, पुरः = शरीर, बनाये।","अथो = भूमिसृष्टेः अनन्तरं, पुरः = शरीराणि, ससर्ज इत्याशयः।" उसका यहाँ पदों का अन्वय होता है - हृस्वान्तस्य स्त्रीविषयस्य आदिः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- हृस्वान्तस्य स्त्रीविषयस्य आदिः उदात्तः इति। 1 कर्म कितने प्रकार के होते हैं?,९. कर्म कतिविधं वर्तते? "आत्मीय पुत्र में ' आत्मा वै पुत्रनामासि' (तै. आ. एका. 2.11) इति, लोके च “मम प्राण एव अयं गौः' इस प्रकार से यह मिथ्याप्रत्यय नहीं होता है।","यथा आत्मीये पुत्रे ""आत्मा वै पुत्रनामासि” (तै. आ. एका. २.११) इति, लोके च “मम प्राण एव अयं गौः"" इति, तद्वत्‌। नैवायं मिथ्याप्रत्ययः।" यहाँ ही 'यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते तदेव ब्रह्म तं भेदं यदिदमुपासते' इत्यादि मन्त्र देखना चाहिए।,अत्र एव 'यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते तदेव ब्रह्म तं भेदं यदिदमुपासते' इत्यादयो मन्त्राः द्रष्टव्याः। और सूत्रार्थ होता है “उभयप्राप्तौ कर्मणि” इससे निहित जो षष्ठी तदन्त सुबन्त का सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""उभयप्राप्तौ कर्मणि"" इत्यनेन विहिता या षष्ठी तदन्तस्य सुबन्तस्य सुबन्तेन समासो न भवति"" इति।" "और वे अङ्कुशिन, नितोदिन, विनाशिन, सन्तापदा, पुत्रतुल्यधनदा।","तानि च - अङ्कुशिनः , नितोदिनः , विनाशिनः , सन्तापदाः , पुत्रतुल्यधनदाः ।" यहाँ मन्‌ का और अन्‌ का प्रातिपदिक से विशेषण होता है।,अत्र मनः इति अनः इति च प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। जब उसका भी अतिक्रमण करुँगी तो मुझे समुद्र के प्रति ले जाना।,यदा तस्यापि अतिक्रमणं करिष्यमि तदा मां समुद्रं प्रति गमय। 33. वस्तुतः यहाँ मात्रार्थं का उत्तरपदार्थ का ही प्राधान्य है।,३३. वस्तुतः अत्र मात्रार्थस्य उत्तरपदार्थस्यैव प्राधान्यमस्ति। इस प्रकार से आत्मा तथा अनात्म का विवेक प्रदर्शित किया गया है।,इति आत्मानात्मविवेकः प्रदर्शितः। 8. प्रपूर्वक उक्ष्‌-धातु से लड लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में।,8. प्रपूर्वकात्‌ उक्ष्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। अधिहरि इसका हरौ यह लौकिक विग्रह है।,अधिहरि इत्यस्य हरौ इति लौकिकविग्रहः। समस्त प्राणी इसके चतुर्थ अंश है।,समस्तप्राणिनः अस्य चतुर्थः अंशः अस्ति। सरल संस्कृत को समझ सके।,सरलसंस्कृतं बोद्धुं शक्नोति। परमात्मा से ही देवों की उत्पत्ति हुई है- शुक्लयजुर्वेद में स्पष्ट शब्दों में कहा है - “एतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ ह्येव सर्वे देवाः इति।,"परमात्मनः एव देवानाम्‌ उत्पत्तिरिति स्पष्टया वाचा शुक्लयजुर्वेदे उच्यते-""एतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ ह्येव सर्वे देवाः"" इति।" यहाँ पर अहं पद से आत्मा विवक्षित होती है।,अहंपदेन आत्मा विविक्षतः। "इस प्रकार से ही “तत्त्वमसि” इस वाक्य में परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादि विशिष्ट चैतन्यवाचक तत्पद का, फिर अपरोक्षत्व अल्पज्ञादिविशिष्ट चैतन्य वाचक त्वम्‌ पद का एक ही चैतन्य में तात्पर्य सम्बन्ध अर्थात्‌ सामानाधिकरण्य यह अर्थ होता है।","एवमेव “तत्त्वमसि” इत्यस्मिन्‌ वाक्ये परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यवाचकस्य तत्पदस्य, पुनः अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यवाचकस्य त्वम्पदस्य एकस्मिन्‌ चैतन्ये एव तात्पर्यसम्बन्धः अर्थात्‌ सामानाधिकरण्यम्‌ इत्यर्थः।" पुरुष के बाहों से कौन उत्पन्न हुए?,पुरुषस्य हस्ताभ्यां कौ उत्पन्नौ। पुरुष के पाद से से कौन उत्पन्न हुए?,पुरुषस्य पादाभ्यां कौ उत्पन्नौ। व्याख्या - जो हिरण्यगर्भ प्राण से प्रश्‍वसत है।,व्याख्या- य हिरण्यगर्भः प्राणतः प्रश्‍वसतः। नीचे गीता के कुछ श्लोक दिये गये है यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि कर्मयोग किनके द्वारा करना चाहिए।,अधो गीतायाः श्लोकाः दीयन्ते यत्र स्पष्टमुक्तं यत्‌ कर्मयोगः केन कर्तव्यः। विभाषितम्‌ सोपसर्गमनुत्तमम्‌ इस सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृति है।,विभाषितम्‌ सोपसर्गमनुत्तमम्‌ इति सम्पूर्णं सूत्रमनुवर्तते। व्याख्या - प्रश्नोत्तर रूप से ब्राह्मणादि सृष्टि को ब्रह्मवादियों के प्रश्‍न कहते है।,व्याख्या- प्रश्नोत्तररूपेण ब्राह्मणादिसृष्टिं ब्रह्मवादिनां प्रश्ना उच्यन्ते। 38. “ अव्ययीभावश्च'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"३८. ""अव्ययीभावश्च"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" उसका राज्ञः पुरुषः जो विग्रह लौकिक संस्कृत भाषा में व्यवहार करने योग्य वह लौकिक विग्रह कहलाता है।,तस्य राज्ञः पुरुषः इति यो विग्रहः लौकिक संस्कृतभाषायां व्यवहर्तुं योग्यः स लौकिकविग्रहः कथ्यते। सुप्‌ आमन्त्रित पद में पराङ्गवत्‌ स्वरे यह पदयोजना है।,सुप्‌ आमन्त्रिते पदे पराङ्गवत्‌ स्वरे इति पदयोजना। ब्रह्मज्ञान होने पर क्रियमाण तथा सजिचित कर्मों का नाश हो जाता है।,ब्रह्मज्ञाने सति क्रियमाण-सञ्चितकर्मणोः नाशो भवति । यह जीवन्मुक्तावस्था विदेहमुक्तावस्था की हेतु है।,एषा जीवन्मुक्तावस्था विदेहमुक्तावस्थायाः हेतुः। दूरङ्गमं ज्योतिषाम्‌ एक ज्योतिः मे तत्‌ मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।,दूरङ्गमं ज्योतिषाम्‌ एकःज्योतिः मे तत्‌ मनः शिवसङ्कल्पमस्तु। उस आचार्य महीधरभाष्य को कहते है।,तत्‌ महीधरभाष्यमित्युच्यते। अर्थात्‌ योग्य स्वचित भाव सम्पत्ति इससे कहा गया है।,अर्थात्‌ योग्यः स्वोचितभावः सम्पत्तिः इत्यनेनोच्यते। इसके बाद समास विधायकशास्त्र में सप्तमी इसका प्रथमानिर्दित्व से उस बोध का अक्ष सुप्‌ इसकी उपसर्जन संज्ञा होने पर पूर्वनिपात में अक्षसुप्‌ शौण्ड सु इस प्रथमाएकवचन में सु प्रत्यय होने पर अक्षशौण्डः रूप बना।,ततः समासविधायकशास्त्रे सप्तमी इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्भोध्यस्य अक्ष सुप्‌ इत्यस्य उपसर्जनसंज्ञायां पूर्वनिपाते अक्ष सुप्‌ शौण्ड सु इति भवति। ततः समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां सुपः सोश्च लुकि सर्वसंयोगे अक्षशौण्ड इति निष्पद्यते। दृतिं सु्कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भ॑वन्तूद्वतों निपादाः।,दृतिं सुर्कर्ष विषितं न्य॑ञ्चं समा भ॑वन्तूद्वतो निपादाः ॥ ७ ॥ कर्तृ अर्थक जो तृजक दो प्रत्ययों को उस तदन्त सुबन्त के साथ षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।,कर्त्रर्थकौ यौ तृजकौ प्रत्ययौ तदन्तेन सुबन्तेन सह षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति। "ऋग्वेद क पुरुषसूक्त में जो विराट्‌ पुरुष का वर्णन प्राप्त हुआ, उसके मुख से इन्द्र उत्पन्न हुआ ऐसा पुरुषसूक्त से जाना जाता है।",ऋग्वेदस्य पुरुषसूक्ते यः विराट्‌ पुरुषः वर्णितः तस्य मुखाद्‌ इन्द्रः जातः इति पुरुषसूक्ताद्‌ ज्ञायते। “नदीभिश्च” इस सूत्र का उदाहरण है पञ्चगङ्गम्‌ ।,"""नदीभिश्च"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ भवति पञ्चगङ्गम्‌ ।" """न निर्धारणे"" ""पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्य-समानाधिकरणेन"" ""क्तेन च पूजायाम्‌"" ""अधिकरणवाचिना च"" ""कर्मणि च"" ""तृजकाभ्यां कर्तरि"" ""कर्तरि च"" ।","""न निर्धारणे"" ""पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्य-समानाधिकरणेन"" ""क्तेन च पूजायाम्‌"" ""अधिकरणवाचिना च"" ""कर्मणि च"" ""तृजकाभ्यां कर्तरि"" ""कर्तरि च"" इति।" जीव किसे कहते हैं?,जीवो नाम कः ? जुआरी यदि एक बार जीत भी जाता है तो भी उसके मन में भय बना रहता है की अगली बार हार नही जाऊ।,अहस्तासः हस्तरहिताः अप्यक्षाः हस्तवन्तं द्युतकरं कितवं सहन्ते पराजयकरणेनाभिभवन्ति । उदाहरण- इन्द्र वाजेषु नोऽव यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- इन्द्र वाज॑षु नोऽव इति सूत्रस्य एकमुदाहरणम्‌। यहाँ सूत्र के पदों का अन्वय इस प्रकार है - सुप्पितौ अनुदात्तौ इति।,अत्र सूत्रस्यास्य पदान्वयः च इत्थम्‌- सुप्पितौ अनुदात्तौ इति। यहाँ पर विद्या शब्द का अर्थ है कि जिसके द्वारा चित्त उपसास्य में स्थित होता है।,अत्र विद्याशब्दस्य अर्थो हि विद्यते लभ्यते उपास्ये चित्तस्थैर्यम्। यस्मान्न जातः इन्द्रश्‍च सम्राडिति (८/३६-३७) यह दो अनुवाक है।,यस्मान्न जातः इन्द्रश्च सम्राडिति ( ८/३६-३७ ) द्व्यृचोऽनुवाकः। इस कारण से ही यहाँ क्रम से शकटि शकटी शब्दों के स्वर उदात्त होते है।,अस्मात्‌ एव कारणात्‌ अत्र पययिण शकटिशकट्योः शब्दयोः स्वराः उदात्ताः भवन्ति। ब्रह्म से यदि आकाश की उत्पत्ति नहीं हो तो ब्रहविज्ञान के द्वारा आकाश का विज्ञान भी नहीं होता।,ब्रह्मणः यदि आकाशस्योत्पत्तिः न स्यात्तर्हि ब्रह्मविज्ञानेन आकाशविज्ञानं न स्यादिति । "' स्यान्तस्योपोत्तमं च' इस वार्तिक से यहाँ स्यान्तस्य इस षष्ठी एकवचनान्त पद, उपोत्तमम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।","'स्यान्तस्योपोत्तमं च' इति वार्तिकात्‌ अत्र स्यान्तस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, उपोत्तमम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तते।" 8. अर्थवाद क्या होता है?,8. अर्थवादः कः। वस्तुतः जाग्रत प्रपञ्च मिथ्या होता है।,वस्तुतः जाग्रत्प्रञ्चः मिथ्या भवति । जैसे:-उपरामम्‌ अव्ययीभाव समास में समास के अवयवों में उपराम ये दो पद हैं।,यथा उपरामम्‌ इति अव्ययीभावसमासे समासस्य अवयवौ उप राम इति द्वौ। यह देव सभी दिशाओं में व्याप्त होकर के रहता है।,एषो ह देवः सर्वाः प्रदिशः अनुतिष्ठति व्याप्य स्थितः। “व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेनेति व्याकरणम्‌ ' इस व्युत्पत्ति से व्याकरण पद का अर्थ होता है पद मीमांसाकर शास्त्र।,व्याक्रियन्ते शब्दाः व्युत्पाद्यन्ते अनेनेति व्याकरणम्‌' इति व्युत्पत्तेः व्याकरणपदस्य अर्थः भवति पदमीमांसाकरं शास्त्रम्‌ इति। उसी प्रकार से यहाँ पर भी जिसने साङ्गपूर्वक सभी वेदों का अध्ययन कर लिया है।,तद्वदेवेहापि यः साङ्गं वेदान्‌ अधीतवान्‌ । पूर्वपद का स्वर परिवर्तन नहीं होता है।,पूर्वपदस्य स्वरपरिवर्तनं न भवति। उस प्रकार के प्रत्यक्ष में दोष सम्भव होते हैं।,तादृशे प्रत्यक्षे दोषाः सम्भवन्ति। इसके वादं उपसर्जन संज्ञक का सह के साथ पूर्व निपात में सह हरि ङस्‌ ऐसा होने पर समास के प्रातिपदिक होने पर उसके अवयव सुपः ङसः लुकि सहहरि पद निष्पन्न होता है।,"ततः उपसर्जनसंज्ञकस्य सह इत्यस्य पूर्वनिपाते सह हरि ङस्‌ इति जाते, समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ तदवयवस्य सुपः ङसः लुकि सहहरि इति निष्पद्यते।" उदार हाथो से।,अकृपणहस्तौ। ( क) वृत्ति-समाज एक से अधिक पदों का होता है।,(क) वृत्तिः - समासः एकाधिकानां पदानां भवति। अग्नि और यह भी सत्य है और इसमें यहाँ पर भी किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है।,"अग्ने एतच्च सत्यं, नत्वत्र विसंवादोऽस्ति।" सूत्रव्याख्या-यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्याख्यया - इदं विधिसूत्रम्‌। "तथाहि ""ऋक्पूरब्धू: पथामानक्षे"" इस समासान्त अप्रत्यय विधायक हैं।","तथाहि ""ऋक्पूरब्धू: पथामानक्षे"" इति समासान्तस्य अप्रत्ययस्य विधायकम्‌," उन पदों का अन्वय होता है - पादान्ते यथा इति अनुदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति - पादान्ते यथा इति अनुदात्तः इति। कात्यायन की ऋक्सर्वानुक्रमणि में केवल बाईस सूक्तों में दान स्तुति का उल्लेख है।,कात्यायनस्य ऋक्सवनुक्रमण्यां केवलं द्वाविंशतिसंख्यकेषु सूक्तेषु दानस्तुतीनाम्‌ उल्लेखो वर्त्तते। रोकता है यह अर्थ है।,स्तम्भिवान्‌ इत्यर्थः। "दूर से बुलाने पर, उदात्त-अनुदात्त-स्वरित स्वरों की एकश्रुति होती है।","दूरादाह्वाने सति, उदात्त-अनुदात्त-स्वरितस्वराणाम्‌ एकश्रुतिः भवति।" अङ्ग सहित वेद के अध्ययन से ये प्राप्त कर सकते हैं।,साङ्गवेदस्य अध्ययनेन एते लब्धुं शक्याः। ऋग्वेद के ही बहुत से मन्त्र यहाँ वैसे ही स्वरूप में लिखे है।,ऋग्वेदादेव बहवः मन्त्राः अत्र यथास्वरूपम्‌ अनुकृताः। क्योंकि यहाँ स्तनकेश आदि नहीं है।,यतो हि तत्र स्तनकेशादिकं नास्ति। इसी प्रकार समष्टि कारण सूक्ष्म स्थूल शरीर ज्ञान समष्टि होती है।,एवमेव समष्टिकारणसूक्ष्मस्थूलशरीराज्ञानसमष्टिः। "और यहाँ वाचादीनाम्‌ षष्ठी बहुवचनान्त पद है, उभौ यह प्रथमा द्विवचनान्त पद है, उदात्तौ यह भी प्रथमा द्विवचनान्त पद है।","किञ्च अत्र वाचादीनाम्‌ षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌, उभौ इति प्रथमाद्विवचनान्तं पदम्‌, उदात्तौ इत्यपि प्रथमाद्विवचनान्तं पदम्‌।" जैसे तुझे देखता हूँ उसी प्रकार से ईश्वर को भी देखता हूँ।,यथा त्वां पश्यामि ईश्वरम्‌ अपि तथैव सुस्पष्टं पश्यामि' इति। पूर्व “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इस सूत्र से स्वरितस्य इस षष्ठ्यन्त तथा सुब्रह्मण्यायाम्‌ इस सप्तम्यन्त पद की यहाँ अनुवृति है।,पूर्वस्मात्‌ 'न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इति सूत्रात्‌ स्वरितस्य इति षष्ठ्यन्तं तथा सुब्रह्मण्यायाम्‌ इति सप्तम्यन्तं पदं च अत्र अनुवर्तेते। मूजवत पर्वत पर उत्पन्न होने वाली मौजवत कहलाती है।,मूजवति पर्वते जातो मौजवतः। अवशिष्ट त्रिपाद्‌ विनाश रहित स्वप्रकाश स्वरूप में स्वर्गलोक में विद्यमान है।,अवशिष्टं त्रिपाद्‌ विनाशरहिते स्वप्रकाशस्वरूपे स्वर्लोके विद्यते। उनके द्वारा सभी परमत्व अनुभवयुक्त साधक तथा महापुरुषों की अनुभूति ही प्रमाणभूत होती हुई शास्त्र के द्वारा अविरुद्ध होती हे।,तेन च सर्वेषाम्‌ परमतत्त्वानुभवसम्पन्नानां साधकानां महापुरुषाणां च अनुभूतिः प्रमाणभूता सती शास्त्रेण अविरुद्धा भवति। सभी जगह अधिकांश अङिगरस का ही अभिधान प्राप्त होता है।,सर्वत्र बाहुल्येन अङ्गिरसाभिधानम्‌ एव उपलभ्यते। श्रद्धा के विविध रूप और प्रयोजन को प्रदर्शित किये गए है।,श्रद्धाया विविधरूपाणि प्रयोजनानि च प्रदर्श्यन्ते। वृत्रासुर के वधकाल में विष्णु ने इन्द्र की सहायता की।,वृत्रासुरस्य वधसमये विष्णुः इन्द्रस्य सहायतां विहितवान्‌ । सूत्र का अवतरणम्‌- तद्धित चित्प्रत्ययान्त के प्रकृति प्रत्यय समुदाय का अन्तिम स्वर के उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- तद्धितचित्प्रत्ययान्तस्य प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य अन्तिमस्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। तब कहते हैं की अविद्या आत्मा की विरोधी नहीं है।,अविद्याया आत्मना विरोधो नास्ति। प्रादि समास विधायक सूत्रों और वार्तिकों की व्याख्या की गई है।,प्रादिसमासविधायकानां वार्तिकानां च व्याख्यानं कृतम्‌ । अग्निमीळे पुरोहितम्‌ ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अग्निमीळे पुरोहितम्‌... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "अश्विन देवता सदा युगलरूप में तथा यमजरूप मर कल्पित है, अतः अश्विनौ ये द्विवचन प्रयोग दिखता है।","अश्विनदेवता सदा युगलरूपेण तथा यमजरूपेण कल्पिता, अतः अश्विनौ इति द्विवचनप्रयोगः दृश्यते।" वहाँ निपात संज्ञा का विधान करने वाले अनेक सूत्र हैं।,तत्र निपातसंज्ञाविधायकानि नैकानि सूत्राणि सन्ति। मोक्ष लाभ के लिए गुरु के समीप जाना चाहिए।,अत इतः परं तेन मोक्षलाभाय गुरुसमीपं गन्तव्यम्‌। समास का अन्त समासान्त समास पद से अन्वय से प्रातिपदिकातात्‌ समासात्‌ प्राप्त होता है।,समासस्य अन्ताः समासान्ताः समासपदेनान्वयात्‌ प्रातिपदिकान्तात्‌ समासात्‌ इति लभ्यते। यहाँ भाषितपुंस्कादनूड इस लुप्त षष्ठयेकवचनात्त समस्त पद को स्त्रियाः शब्द का विशेषण हैं।,अत्र भाषितपुंस्कादनूङ्‌ इति लुप्तषष्ठ्येकवचनान्तं समस्तं पदं स्त्रियाः इत्यस्य विशेषणम्‌। कृष्णस्थ समीपम्‌ (कृष्ण के समीप) इस लौकिक विग्रह होने पर कृष्ण ङस उप इस अलौकिकविग्रह में “अव्ययं विभक्ति'' इत्यादिसूत्र से समीप अर्थ में विद्यमान उप इस अव्यय कृष्ण ङस्‌ इस समर्थ होने से सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास संज्ञा होती है।,"कृष्णस्य समीपम्‌ इति लौकिकविग्रहे कृष्ण ङस्‌ उप इत्यलौकिकविग्रहे ""अव्ययं विभक्ती""त्यादिना सूत्रेण समीपार्थे विद्यमानम्‌ उपेत्यव्ययं कृष्ण ङस्‌ इति समर्थन सुबन्तेन सह अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति।" """ऋक्पूरब्धूपथामानक्षे"" इस सूत्र से क्या विधान है?","""ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" "अनन्त पराक्रम युक्त अत्यधिकसभी जगत का कारण वह व्यापक शक्तिशाली विष्णु ही है, वह केवलसुखात्मक स्थान पर मधुर की अनुभूति करता है।",उरुक्रमस्य अत्यधिकं सर्वं जगदाक्रममाणस्य तत्तदात्मना अत एव विष्णोः व्यापकस्य परमेश्वरस्य परमे उत्कृष्टे निरतिशये केवलसुखात्मके पदे स्थाने मध्वः मधुरस्य उत्सः निष्पन्दो वर्तते। इस अक्षसूक्त में मूल रूप से अक्षक्रीडा के बुरे फल को ही कहा।,अस्मिन्‌ अक्षसूक्ते मूलतः अक्षक्रीडनस्य कुफलमेव उक्तम्‌ । 'सामन्त्रितम्‌' यह आमन्त्रित सज्ञा विधायक सूत्र है।,'सामन्त्रितम्‌' इति आमन्त्रितसंज्ञाविधायकं सूत्रम्‌। लेकिन यदि यही कर्म कर्तृत्व बुद्धि के द्वारा नहीं करके केवल निष्काम भावना के द्वारा किया जाए तो यह पल को जन्म नहीं दे सकती है।,परन्तु इदं कर्म कर्तृत्वबुद्धिपूर्वकं न क्रियते चेत्‌ अर्थात्‌ निष्कामतया क्रियते चेत्‌ फलं न जनयति। उदाहरण -पुरुषव्याघ्रः इत्यादि सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - पुरुषव्याघ्रः इत्यादिकमस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌। अग्नि के द्वारा सभी रक्षित यज्ञ को ही देव ग्रहण करते हैं यह अर्थ है।,अग्निना सर्वतः रक्षितं यज्ञम्‌ एव देवाः स्वीकुर्वन्ति इत्यर्थः। 13. प्रमाता कौन होता है?,१३ प्रमाता कः? साधन चतुष्टय में अन्यतम साधन शमादिषट्क सम्पत्ति है । तथा उस सम्पत्ति में चौथी तितिक्षा है।,साधनचतुष्टये अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः। तत्सम्पत्तौ चतुर्थी तितिक्षा । इस विद्या का निवर्तक “यह मैं हूँ केबल अकर्ता हूँ अक्रिय तथा अकल युक्त हूँ मेरे अलावा कोई नहीं है।,अस्या अविद्याया निवर्तकम्‌ अयमहमस्मि केवलोऽकर्ता अक्रियोऽफलः; न मत्तोऽन्योऽस्ति कश्चित्‌। सरलार्थ - सज्जित घोडे आप को लेकर चलते है।,सरलार्थः- सुसज्जिताः अश्वाः युवां वहन्ति। अत: देवा ब्रह्माण आगच्छत्‌ इस उदाहरण में देवा यहाँ पर वकार से उत्तर आकार का तथा ब्रह्माण यहाँ ह्या से उत्तर आकार का “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इससे उदात्त की प्राप्ति है इस प्रकृत सूत्र से उसको अनुदात्त स्वर का विधान है।,अतः देवा ब्रह्माण आगच्छत इत्यस्मिन्‌ उदाहरणे देवा इत्यत्र वकारोत्तरस्य आकारस्य तथा ब्रह्माण इत्यत्र ह्योत्तरस्य आकारस्य 'न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इत्यनेन उदात्ते प्राप्ते अनेन प्रकृतसूत्रेण तयोः अनुदात्तस्वरः विधीयते। उपरे के पाठ में ऋक्‌ आदि तीन वेदों की संहिता विषयों पर चर्चा हुई अथवा उन वेदों की संहिता को समझा।,पूर्वस्मिन्‌ पाठे ऋगादिवेदत्रयस्य संहिताविषये पूर्वपूर्वाध्याये भवन्तः भवत्यो वा ज्ञातवन्तः ज्ञातवत्यो वा। पत्सुतः शेते इस अर्थ में क्विप करने पर पत्सुतःशी: यह रूप हुआ।,पत्सुतः- शेते इत्यर्थे क्विपि पत्सुतःशीः इति रूपम्‌। इस पाठ में केवल सामस के अव्ययीभाव समास के विधायक और उससे सम्बन्धीकार्य विधायक सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है।,एवम्‌ अस्मिन्‌ पाठे केवलसमासस्य अव्ययीभावसमासस्य विधायकानि तत्सम्बन्धिकार्यविधायकानि च सूत्राणि प्रतिपादितानि। . वेदों की अध्यात्म परक व्याख्या किसने की है?,वेदानाम्‌ अध्यात्मिकपरका व्याख्या केना कृता अस्ति? 7. कारिका प्रयोग की सिद्धि प्रक्रिया को लिखो।,७. कारिका इति प्रयोगस्य सिद्धिप्रक्रियां लिखन्तु। "स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, तथा कारण शरीर ये तीनों आत्मा में कल्पित होते हैं।",स्थूलशरीरं सूक्ष्मशरीरं कारणशरीरञ्च। त्रीणि शरीराणि आत्मनि कल्पितानि भवन्ति। अतिङ: यह पञ्चम्यन्त पद है।,अतिङः इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌। इसके बाद समास के प्रातिपदिक होने पर प्रातिपदिक अवयव का सुबन्त का टा प्रत्यय क और सु का लोप होने पर शङकुलाखण्ड शब्द निष्पन्न होता है।,ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ प्रातिपदिकावयवस्य सुपः टाप्रत्ययस्य सोश्च लुकि शङ्कुलाखण्ड इति शब्दो निष्पद्यते। यह सूक्त ऋग्वेद के पाचवें मण्डल में विद्यमान तैयासीवाँ सूक्त है।,ऋग्वेदीयं सूक्तमिदं पञ्चममण्डले विद्यमानं त्र्यशितितमम्‌ । उत्तर पद का अर्थ उत्तरपदार्थ।,उत्तरपदस्यार्थः उत्तरपदार्थः। १७॥ व्याख्या - अद्भ्यः संभृत इति उत्तरनारायणेन आदित्यम्‌ उपस्थाय इति (१.३.६.२.२०) षट्‌ मन्त्र उत्तरनारायण द्वारा।,१७॥ व्याख्या- अद्भ्यः संभृत इति उत्तरनारायणेन आदित्यम्‌ उपस्थाय इति (१.३.६.२.२०) षट्‌ कण्डिका उत्तरनारायाणम्‌। पुरुष ही समग्र विश्व में व्याप्त है।,पुरुषः एव समग्रविश्वरूपः। करण में समारा का उदाहरण है नखैभिन्नः नखभिन्न।,करणे समासस्योदाहरणं भवति नखैर्भिन्नः नखभिन्नः इति। बारह हजार बृहती छंद में।,द्वादशबृहतीसहस्राणि। व्याकरण विचार भी स्थान स्थान पर पाठकों के ज्ञान के लिये किया गया है।,व्याकरणविचारोऽपि स्थाने स्थाने कृतोऽस्ति अध्येतृणां सुबोधाय। द्वित्राः यहाँ उभयपदार्थ का प्राधान्य है।,द्वित्राः इत्यत्र उभयपदार्थस्य प्राधान्यमस्ति। अन्नन्त अव्ययीभाव समासान्त तद्धित संज्ञक टच्‌ प्रत्यय होता है।,अन्नन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययो भवति। मनन तथा निदिध्यासन प्रतिबन्ध की निवृत्ति के लिए अनुष्ठेय होते हैं।,मननं निदिध्यासनं च प्रतिबन्धकनिवृत्त्पं अनुष्ठेयं भवति। पदपाठ - तत्‌।,पदपाठः -तत्‌। 11.10.1 ) तात्पर्यनिर्णायक छः लिङग प्रकृत उपक्रमादि के द्वारा तात्पर्य का निर्णय किया जाता है इस प्रकार से उपक्रमादि का सामान्यपरिचय दिया जा रहा है- उपक्रमादि तात्पर्य निर्णाय कलिङ्ग प्रतिपादक श्लोक यह है- उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम्‌।,11.10.1) तात्पर्यनिर्णायकानि षट्‌ लिङ्गानि प्रकृते उपक्रमादिना तात्पर्यनिर्णयः क्रियते इत्यतः उपक्रमादीनां सामान्यपरिचयः प्रदीयते। उपक्रमादितात्पर्यनिर्णायकलिङ्गप्रतिपादकः श्लोको हि - उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम्‌। "विवाहित है किन्तु जो विपत्नीक हो गया, उसको भी अधिकार नहीं है।","विवाहितः किन्तु विपत्नीकः जातः, तस्यापि अधिकारः नास्ति।" मैं दशसंख्या अङगुली को आप के सम्मुख जोड़कर प्रणाम करता हूँ।,दशसंख्याका अङ्गुलीः प्राचीः प्राङ्गुखीः करोमि । लेकिन वही ब्रह्म भक्तो के लिए जैसा जल से बर्फ बनता है उसी प्रकार से वह भक्तों के लिए सगुण साकार विग्रह बन जाता हेै।,"भक्तिशैत्येन मध्ये मध्ये जलं तुहिनं सञ्जातम्‌, तुहिनरूपेण घनीभूतं भवति। अर्थात्‌ भक्तानुग्रहाय स व्यक्ततया, कदाचित्‌ साकाररूपं धत्ते।" संशय विपर्यय का निवारण नहीं होने पर ब्रह्म ज्ञान भी नहीं होता है।,संशयविपर्यययोः सत्त्वे ब्रह्मज्ञानं नोदेति। यहाँ इसका उत्तर है यह सूत्र पूर्व का अपवादभूत सूत्र है।,अत्रोत्तरं तावत्‌ पूर्वसूत्रस्यापवादभूतमिदं सूत्रम्‌ । और दो पैर वाले और चार पैर वाले विशिष्ट प्राणियों का ईश्वर है उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।,यश्च पादद्वयविशिष्टस्य पादचतुष्टयविशिष्टस्य च इश्वरः तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम। गीता का दूसरा प्रस्थान होने में क्या प्रमाण है?,गीतायाः द्वितीयप्रस्थानत्वेन किं प्रमाणम्‌। "भोग करने के लिए औषधियों को उत्पन्न करो, तथा लोक से प्रशंसा को प्राप्त करो।","भोगकरणाय ओषधीनाम्‌ उत्पन्नं करोतु, तथा लोकात्‌ प्रशंसां प्राप्नोतु ।" अन्यथा अर्थशब्द की नित्य पुसकता से “परवल्लिङ्गं द्वन्द तत्पुरुषयोः' इससे सभी जगह पुंसत्व होनी चाहिए।,"अन्यथा अर्थशब्दस्य नित्यपुंस्त्वात्‌ ""परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः"" इत्यनेन सर्वत्रैव पुंस्त्वमेव स्यात्‌।" इस मत के समर्थन करते हुए उक्ति भी कही गई है की देवों का पृथक रूप से शरीर होता है यदि एक ही क्षण में भिन्न-भिन्न यज्यों में एक साथ सम्पूर्ण यज्ञ में उपस्थिति सम्भव नहीं है।,मतमेतत्‌ समर्थयन्‌ युक्तिमपि ब्रूते यद्‌ देवानां पृथक्तया शरीरं भवति चेत्‌ एकस्मिन्‌ क्षणे एव भिन्नेषु यज्ञेषु यौगपद्येन सकलयज्ञे उपस्थितिः न सम्भवति। इंद्रिय जन्य सुख क्षणिक है वह भी अनित्य ही है ऐसा अनुभव सिद्ध है।,इन्द्रियजन्यं सुखम्‌ क्षणिकम्‌ इति तदपि अनित्यमेव इति अनुभवसिद्धम्‌। 10. सू-धातु से लट आत्मनेपद उत्तमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,10. सू-धातोः लटि आत्मनेपदे उत्तमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌। लेकिन सुषुप्ति में चित्तवृत्तियाँ नहीं होती है।,परन्तु सुषुप्तौ न हि चित्तवृत्तिः विद्यते। पिपर्तु - पृ-धातु से प्रथमपुरुष एकवचन में।,पिपर्तु- पृ-धातोः प्रथमपुरुषैकवचने। अतः सूत्र का अर्थ है - पूर्व शब्द के उत्तरपद रहते भूतपूर्ववाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति- पूर्वशब्दे उत्तरपदे भूतपूर्ववाचिनि तत्पुरुषे समासे पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति इति। "वधेन - वधः येन स वधः, उससे यहाँ पर तृतीया तत्पुरुष समास है।","वधेन - वधः येन स वधः, तेन इति तृतीया तत्पुरुषसमासः।" और सूत्रार्थ होता है-:“सम्‌ अंशवाची नित्यनपुंसकलिङग में विद्यमान अर्घशब्द एकत्व संख्या-विशिष्ट-द्रव्यवाची का अवयव के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"एवं च सूत्रार्थः भवति - ""समांशवाची नित्यं नपुंसकलिङ्गे विद्यमानः अर्धशब्दः एकत्वसंख्या-विशिष्टेन द्रव्यवाचकेन अवयविना सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" 9. यस्मान्न ऋते इस मन्त्र के अंश में किस सूत्र से पञ्चमी होती है?,९. यस्मान्न ऋते इति मन्त्रांशे केन सूत्रेण पञ्चमी? इसलिए उसका चतुर्थ स्थान में उल्लेख किया गया है।,तस्मात्‌ तस्य चतुर्थे स्थाने उल्लेखः विद्यते। ( ८.१.७४ ) सूत्र का अर्थ - आमन्त्रितान्त विशेषण परे होने पर पूर्व बहुवचनान्त अविद्यमान के समान विकल्प से होता है।,(८.१.७४) सूत्रार्थः - आमन्त्रितान्ते विशेषणे परे पूर्वं बहुवचनान्तम्‌ अविद्यमानवद्‌ वा भवति। दसवें अध्याय के अन्तर अग्निहोत्र का अङ्ग सहित और उपाङ्ग इत्यादि का वर्णन है।,दशमाध्याये आन्तराग्निहोत्रस्य साङ्गम्‌ उपाङ्गम्‌ इत्यादिकं वर्णितमस्ति। "सूक्त और संवाद-लौकिक-दार्शनिक की तरह होता है, उस की यहाँ आलोचना की गई है।","सूक्तानि च संवाद-लौकिक-दार्शनिकानि भवन्ति, तदत्र आलोचितम्‌।" इसके बाद चाप्‌ प्रत्यय के चकार का चुटू सूत्र से इत्संज्ञा होने पर पकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से उन दोनों का लोप होने पर आम्बष्ठय आ स्थिति होती है।,"ततः चापः चकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे सति आम्बष्ठ्य आ इति स्थितिः भवति।" अतः शरीर में रस का कर्ता अग्नि अङिगरस्‌ कहलाता है।,अतः शरीरे रसस्य कर्ता अग्निः अङ्गिरस्‌ इति कथ्यते। वेद ही समस्त धर्म का मूल है।,वेद एवाखिलधर्ममूलम्‌। पर्जन्य शब्द को यास्क ने अनेक प्रकार से निरुक्त में कहा - ' पर्जन्यस्तृपेराद्यन्त विपरीतस्य तर्पयिता जन्यः परो जेता वा जनयिता वा प्रार्जयिता वा रसानाम्‌' (निरु० १०.१०) इति।,पर्जन्यशब्दो यास्केन बहुधा निरुक्तः -' पर्जन्यस्तृपेराद्यन्त विपरीतस्य तर्पयिता जन्यः परो जेता वा जनयिता वा प्रार्जयिता वा ' रसानाम्‌ ' ( निरु ० १० . १० ) इति । 7 ब्रह्म का वृत्तिविषयत्व किसलिए अपेक्षित है?,७. ब्रह्मणः वृत्तिविषयत्वं किमर्थम्‌ अपेक्षितम्‌? लेकिन शङ्कर के अद्वैतदर्शन में अपरोक्षानुभव ही प्रमाणत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है।,परन्तु शङ्करस्य अद्वैतदर्शने अपरोक्षानुभवः प्रमाणत्वेन स्वीक्रियते एव। अष्टाङ्ग योग क्या होते हैं?,अष्टङ्गयोगः नाम किम्‌? यहाँ यदि अभि यह उपसर्ग हो तो प्रकृत सूत्र से वहाँ उस अभि उपसर्ग को आदि उदात्त नहीं होता है।,अत्र यदि अभि इत्युपसर्ग स्यात्‌ तर्हि प्रकृतसूत्रेण तत्र न तस्य अभ्युसर्गस्य आद्युदात्तत्वम्‌। मनवे वैवस्वताय तादर्थ्य अर्थ में चतुर्थी।,मनवे वैवस्वताय तादर्थ्ये चतुर्थी। "उसी यज्ञ में वसन्तर्तुः घृत, ग्रीष्मर्तु इन्धन और शरदृतु हवि थे।","तस्मिन्नेव यज्ञे वसन्तर्तुः घृतं, ग्रीष्मर्तुः इन्धनं, शरदृतुः हविः च आसन्‌।" शबर स्वामी के मत अनुसार से ब्राह्मण विधि की संख्या दस है।,शबरस्वामिनः मतानुसारेण ब्राह्मणविधीनां संख्या दशधा भवति। लेकिन साधन चतुष्टय सम्पत्ति के उत्तर में ही ब्रह्मजिज्ञासा यह क्रम स्पष्टरूप से समझा गया है।,किन्तु साधनचतुष्टयसम्पत्तेः उत्तरमेव ब्रह्मजिज्ञासा इति क्रमः स्पष्टम्‌ अवगम्यते। वह रथ विद्युत्‌ के समान अन्तरिक्षलोक में शोभित होता है।,स रथः विद्युत्‌ इव अन्तरिक्षलोके शोभितः भवति। "तब एक ही तत्त्व था, जो बिना वायु के श्वास ग्रहण करता था, तथा अपनी स्वाभाविक शक्ति से वह तत्व जीवित था।","तदा एकम्‌ एव तत्त्वमासीत्‌, यद्‌ विना वातं श्वासग्रहणमकरोत्‌ तथा स्वस्य स्वाभाविकशक्त्या जीवितमासीत्‌ तत्‌ तत्त्वम्‌।" नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌' इससे | गार्ग्य-काश्यप-गालव ऋषियों के मत में।,नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ इत्यनेन। गार्ग्य-काश्यप-गालवानाम्‌ ऋषीणां मते। “क्तेन च पूजायाम्‌'' इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये।,"क्तेन च पूजायाम्‌"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" वस्तुतः तत्समसत्ता का अन्यथाभाव परिणाम होता है।,वस्तुनः तत्समसत्ताकः अन्यथाभावः परिणामः। इस सूत्र से अन्तोदात्त स्वर का विधान है।,अनेन सूत्रेण अन्तोदात्तस्वरः विधीयते। इस पाठ के अध्ययन से आप सक्षम होंगे : वेदों में विद्यमान दार्शनिक सूक्त का परिचय प्राप्त करने में; हिरण्यगर्भ सूक्त के मूल मन्त्र सस्वर जानने में; हिरण्यगर्भ सूक्त का पदपाठ जानने में; हिरण्यगर्भ सूक्त के मन्त्रों का अन्वय करने में; सायणाचार्य के मतानुसार हिरण्यगर्भ सूक्त की व्याख्या पढ्ने में; ऋजुता से हिरण्यगर्भ सूक्त के अर्थ का अधिगम करने में; हिरण्यगर्भ सूक्त के कुछ शब्दों का व्याकरण ज्ञान होगा।,हिरण्यगर्भसूक्तस्य पदपाठं जानीयात्‌। हिरण्यगर्भसूक्तस्य मन्त्राणाम्‌ अन्वयं कर्तुम्‌ समर्थो भविष्यति। सायणाचार्यमतानुसारेण हिरण्यगर्भसूक्तस्य व्याख्यां पठिष्यति। ऋजुतया हिरण्यगर्भसूक्तस्य अर्थम्‌ अधिगमिष्यति। हिरण्यगर्भसूक्तस्य केषाञ्चित्‌ शब्दानाम्‌ व्याकरणं ज्ञास्यति। इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोः अलौकिकम्‌ उपायं यो वेदयति स वेद इति।,इष्टप्राप्त्यनिष्ठपरिहारयोः अलौकिकम्‌ उपायं यो वेदयति स वेद इति। "कुछ देव इस प्रकार है - अग्नि, वायु, इन्द्र, सूर्य, विष्णु, सोम, वरुण, पूषा, मरुत्‌, रुद्र, सविता, अर्यमा, अपान्नपात्‌, अश्विन, आदित्य, द्यो, ऋभु, यम आदि अनेक है।","केचन देवाः तावत्‌- अग्निः, वायुः, इन्द्रः, सूर्यः, विष्णुः, सोमः, वरुणः, पूषा, मरुत्‌, रुद्रः, सविता, अर्यमा, अपान्नपात्‌, अश्विनः, आदित्यः, द्यौः, ऋभुः, यमः प्रभृतयः।" नीलं च तदुत्पलम्‌ इस लौकिक विग्रह में नील सु उत्पल सु इस अलौकिक विग्रह में विशेषण वाचक नील सु इस सुबन्त को समानाधिकरण से विशेष्य से उत्पल सु इससे सुबन्त से प्रस्तुत सूत्र से तत्पुरुषसमास संज्ञं होता है।,नीलं च तदुत्पलम्‌ इति लौकिकविग्रहे नील सु उत्पल सु इत्यलौकिकविग्रहे विशेषणवाचकं नील सु इति सुबन्तं समानाधिकरणेन विशेष्येण उत्पल सु इत्यनेन सुबन्तेन प्रस्तुतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । इसी प्रकार वाचादि गण में पढ़े हुए अन्य शब्दों के अन्य भी रूपों के यहाँ उदाहरण हैं।,एवं वाचादिगणे पठितानाम्‌ अन्येषां शब्दानाम्‌ अन्यान्यपि रूपाणि अत्र उदाहरणानि। व्याकरण का नितान्त ही उपयोग और श्रेष्ठता वहाँ वहाँ देखनी चाहिए उसकी महिमा विद्वानों के द्वारा बताई गई है - “यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्‌।,व्याकरणस्य नितान्तम्‌ एव उपादेयतां श्रेष्ठताञ्च तत्र तत्र अवलोक्य एव तस्य महिम्नि बुधैः अभिहितम्‌ इदम्‌ - 'यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्‌। उनका परोक्षत्वसर्वज्ञादिविशिष्ट अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादि विशिष्ट अंशों के परित्याग से अविरुद्ध अखण्डैकरस चैतन्य के साथ परोक्षत्व सर्वक्षत्व अपरोक्षत्व अल्पज्ञत्वादि विशिष्ट तत्‌ तथा त्वम्‌ पद का लक्ष्य लक्षण भाव सम्बन्ध होता है।,तेषां परोक्षत्वसर्वज्ञादिविशिष्टापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टांशानां परित्यागेन अविरुद्धेन अखण्डैकरसचैतन्येन साकम्‌ परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टयोः तत्त्वम्पदयोः लक्ष्यलक्षणभावसम्बन्धः। और उसका सुपा यहाँ पर तदन्त विधि में सुबन्त से इससे अन्वय होता है।,तस्य च सुपा इत्यत्र तदन्तविधौ सुबन्तेनेत्यनेनान्वयो भवति । "सम्पूर्ण संहिता में २१४४ मन्त्र हैं, जिनमें १७०१ ऋचा प्रत्येक काण्ड में ऋग्वेद से उद्धृत की है।","समग्रसंहितायां २१४४ मन्त्राः सन्ति, येषु १७०१ ऋचः प्रतिकाण्डम्‌ ऋग्वेदात्‌ समुद्धृताः सन्ति।" आचार्य उपसर्जन अप्रधान है जिसका वह आचार्योपसर्जन है।,आचार्यः उपसर्जनम्‌ अप्रधानं यस्य सः आचार्योपसर्जनः। यस्य॑ व्व ओष॑धीर्विश्वस्ूंपाः स नः पर्जन्य महि शर्म॑ यच्छ।,यस्य॑ व्रत ओषधीर्विश्रूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥ ५ ॥ समानाधिकरण तत्पुरुष विधायक तत्पुरुष समास का पाठ में नौ सूत्र संग्रहित हैं।,समानाधिकरणतत्पुरुषविधायकानि तत्पुरुषसमासस्य पाठे नव सूत्राणि संगृहीतानि। सूर्यविम्ब के मध्य में नीलवर्ण की एक रेखा लक्षित है।,सूर्यविम्बस्य मध्ये नीलवर्णरेखा एका लक्ष्यते। वह इस प्रकार से कोई भी पुरुष किसी भी विषय में मन का नियोग करता है।,तद्यथा कोऽपि पुरुषः कस्मिंश्चित्‌ विषये मनसः नियोगं करोति । मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम्‌ । मन से ही अप्रमेय कोई ध्रुव वस्तुओ का दर्शन कर सकते है।,मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम्‌। मनसा एव अप्रमेयस्य किञ्च ध्रुवस्य च वस्तुनः दर्शनं कर्तुं शक्यते। तथा द्यौ पृथिवी में और दिन रात में मैं ही व्याप्त होकर के रहती हूँ।,तथा द्यावापृथिवीं दिवं च पृथिवीं चान्तर्यामितयाहमेवाविवेश प्रविष्टवती। काम्य कर्मों का फल स्वर्गादि होते हैं।,काम्यकर्मणः फलं स्वर्गादि। जिसकी महिमा से हिमवान्‌ पर्वत बने औरनदी व सागर उत्पन्न हुए।,"यस्य महिम्ना हिमवन्तः पर्वताः स्थिताः, नद्यः सागराश्च उत्पन्नाः।" विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक कोन हे?,विशिष्टाद्वैतस्य प्रवर्तकः कः? डाप्‌ प्रत्यय के अभाव में तो दामन्‌ रूप ही बैठता है।,डाप्‌ इत्यस्य अभावे तु दामन्‌ इत्येव रूपं तिष्ठति। धना - द्वितीयाबहुवचन में वैदिक रूप है।,धना - द्वितीयाबहुवचने वैदिकं रूपम्‌ । इसके बाद समुदाय का समास होने पर प्रातिपदिकत्व होने पर “सुपोधातुप्रातिपतिकयोः'' इससे सुप्‌ के सु द्वय का लोप होने पर नील उत्पल होता है।,"ततः समुदायस्य समासत्वेन प्रातिपदिकत्वात्‌ ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सुपः सुद्वयस्य लुकि नील उत्पल इति भवति।" और तुम दोनों राजा के समान बुलाने पर क्रोध रहित होकर सम्पत्ति एवं हजार खम्भों वाले भवन को धारण करते हो।,किञ्च युवां राजाना राजमानौ अहृणीयमाना अक्रुध्यन्तौ द्वौ परस्परं सह साहित्येन क्षत्रं धनं सहस्रस्थूणम्‌ अनेकसहस्रस्तम्भोपेतं सौधादिरूपं गृहं च बभृथः धारयथः। विधि विधानों के अपने स्वरूप की व्याख्या ही इस आख्यान की माता है।,विधिविधानानां स्वस्वरूपस्य व्याख्या एवास्य आख्यानस्य जननी अस्ति| जैसे कतकरेणु जलस्थ मल का नाश करके स्वयं का भी लय हो जाता है।,यथा कतकरेणुः जलस्थं मलं विनाश्य स्वयमपि लीयते । मृशन्ति - मृश्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,मृशन्ति - मृश्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । "जब वह अन्धकार रूपी तामस का अनुसरण करती है तो वह सम्पूर्ण जंगल को जलाती है, तब वह नाई के समान ब्लेड से पृथ्वी की दाडी को काटती है।","स कृष्णेन वर्त्मना उपसर्पन्‌ अरण्यानीमाक्रम्य यदा निःशेषं दहति, तदा स नापितवत्‌ क्षुरपत्रेण पृथिव्याः श्मश्रुजातं मुन्तयति।" यहाँ “ अधिकरणवाचिनश्च '' इससे अधिकरणवाची क्तप्रत्यय के योग में “एषाम्‌” में षष्ठी विभक्ति हुई।,"अत्र ""अधिकरणवाचिनश्च"" इत्यनेन अधिकरणवाचिक्तान्तेन योगे एषाम्‌ इत्यत्र षष्ठीविभक्तिः।" इसमें ष्यञ्‌ प्रत्यय है।,भावे ष्यञ्प्रत्ययः। "सर्व संसार धर्म विलक्षण सर्व क्रिया कारक फलायासशून्य जो आत्मा होती है वह आत्मस्वरूप में प्रवेश करता है, इसका इस प्रकार का तात्पर्य है।",सर्वसंसारधर्मविलक्षणः सर्वक्रियाकारकफलायासशून्यश्च यः आत्मा तमात्मानं प्रविशतीति तात्पर्यम्‌। वेदान्त के तत्वज्ञान के लिए वेदों का आपाततः अर्थज्ञान होना आवश्यक है।,वेदान्ततत्त्वज्ञानाय वेदानाम्‌ आपाततः अर्थज्ञानम्‌ आवश्यकम्‌। सोना आदि का दान करना रूप क्रियाएँ मोक्ष को चाहने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा की जाती हैं।,हिरण्यप्रदानादिलक्षणाः क्रियन्ते निर्वर्त्यन्ते मोक्षकाङ्किभिः मोक्षार्थिभिः मुमुक्षुभिः। 7. वृद्धावस्थ से रहित।,७. जरारहितम्‌। कुछ यज्ञों का नाम लिखिए।,केषाञ्चन यज्ञानां नाम लिखत? इसके बाद शकार की लशक्वतद्धिते सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से लोप होने पर पकार कौ हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः' सूत्र से लोप होने पर पच्‌ अ अत्‌ होता है। और इसके बाद अतो गुणे सूत्र से पररूप होने पर पचत्‌ सिद्ध होता है।,"ततः शकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे, पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे सति पच्‌ अ अत्‌ इति जायते। ततश्च अतो गुणे इति सूत्रेण पररूपे पचत्‌ इति सिद्ध्यति।" शङ्कुलाखण्डः नखभिन्नः इत्यादि क्रमानुसार उदाहरण है।,शङ्कुलाखण्डः नखभिन्नः इत्यादिकं यथाक्रमम्‌ उदाहरणम्‌। इस याग में प्रातः सूर्य तथा सायं अग्नि को उद्दे्य मानकर आहुति दी जाती है।,अस्मिन्‌ यागे प्रातः सूर्यमुद्दिश्य सायं च अग्निमुद्दिश्य आहुतिः प्रदीयते। यहाँ “पापाणके“ यह प्रथमाद्विवचनान्त और “कुत्सितैः” तृतीया बहुवचनान्त पद है।,अत्र पापाणके इति प्रथमाद्विवचनान्तं कुत्सितैः इति च तृतीयाबहुवचनान्तं पदम्‌ । और ब्राह्मये का मूलशब्द और अर्थ लिखो।,ब्राह्मये इत्यस्य मूलशब्दम्‌ अर्थं च लिखत। बाह्य वायु का अन्दर ग्रहण करना श्वास कहलाता है।,बाह्यस्य वायोः अन्तः ग्रहणं श्वासः। यह अर्थ इस प्रकार से उपनिषद्‌ शब्द की व्युत्पत्ति के द्वारा प्राप्त होता है।,एषः अर्थः उपनिषदिति शब्दस्य व्युत्पत्त्या प्राप्यते। तैत्तिरीय संहिता में वृजिन्‌ -शब्द का अर्थ उपलब्ध होता है।,तैत्तिरीयसंहितायां वृजिन्‌-शब्दस्य उपलब्धिः भवति। द्विपदात्मक इस सूत्र में उपसर्गाद्‌ अध्वनः यह पदच्छोद है।,पदद्वयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ उपसर्गाद्‌ अध्वनः इति पदच्छेदः। तथा न ही विपरीत भावना की निवृत्ति होती है।,विपरीतभावना च न निवर्तते सुप्राव्ये - सुपूर्वक प्रपूर्वक अव्‌-धातु से ईप्रत्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में सुप्राव्ये यह रूप है।,सुप्राव्ये- सुपूर्वकात्‌ प्रपूर्वकात्‌ अव्‌-धातोः ईप्रत्यये चतुर्थ्यकवचने सुप्राव्ये इति रूपम्‌। वहाँ इन्द्र ने वृत्र पर कैसे विजय प्राप्त की यह भी बताया।,तत्र कथम्‌ इन्द्रः वृत्रं जीतवान्‌ इत्यपि उक्तम्‌। "१॥ अन्वय - अह रुद्रेभिः वसुभिः चरामि, अहम्‌ आदित्यैः उत्‌ विश्वदेवैः (चरामि), अहं मित्रावरुणा उभा विभर्मि, अहम्‌ इन्द्रानी अहम्‌ उभा अश्विना (बिभर्मि)।","अन्वयः - अहं रुद्रेभिः वसुभिः चरामि, अहम्‌ आदित्यैः उत्‌ विश्वदेवैः (चरामि), अहं मित्रावरुणा उभा बिभर्मि, अहम्‌ इन्द्राग्नी अहम्‌ उभा अश्विना (बिभर्मि) ।" अन्यथा लेखक द्वारा दिए गए अभीष्ट का त्यागकर के पाठ कर अन्य कुछ और ही ग्रहण कर लेता है।,अन्यथा लेखकेन अभीष्टं त्यक्त्वा अन्यदेव गृह्णीयात्‌ पाठकः। यज्ञकर्ता फल की कामना करने वाले यज्ञ करते हैं।,यज्ञकर्तारः फलं कामयमानाः यज्ञं कुर्वन्ति। उस काल में हिरण्यरूप वाले रथ में बैठकर के हे वरुण हे मित्र तुम दोनों यज्ञ स्थल को प्राप्त होते हो।,तस्मिन्‌ काले हिरण्यरूपम्‌ अयःस्थूणम्‌ अयोमयशङ्कं गर्तं रथं हे वरुण हे मित्र युवां गर्तम्‌ आरोहथः यज्ञं प्राप्नुम्‌। 6. काम्यकर्मजन्य अन्तः करण में कौन-सा संस्कार होता है?,६. काम्यकर्मजन्यः अन्तःकरणे कः संस्कारः भवति। अतः इस सूत्र का यह अर्थ होता है “कुत्स्यमान सुबन्त कुत्सन समान अधिकरण (समानाधिकरण) सुबन्त के साथ समास होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थः ""कुत्स्यमानानि सुबन्तानि कुत्सनैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते" यहाँ पर शास्त्र के द्वारा प्रतिपादित अर्थ का यथार्थ विद्या का बोध होता है।,अत्र विद्या नाम शास्त्रेण प्रतिपाद्यस्य अर्थस्य यथार्थतया बोधः। "इन सूत्रों के यथाक्रम उदाहरण हैं- नीलोत्पलम्‌, वैयाकरणखसूचिः, पापनापितः, घनश्यामः, पुरुषव्याघ्रः, सद्वैद्यः, गोवृन्दारकः, किंराजा गोतल्लजः। यहाँ “शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌'' वार्तिक भी पढ़ा गया है।","नीलोत्पलम्‌, वैयाकरणखसूचिः, पापनापितः, घनश्यामः, पुरुषव्याघ्रः, सद्वैद्यः, गोवृन्दारकः, किंराजा गोतल्लजः इत्यादीनि यथाक्रमं सूत्राणाम्‌ उदाहरणानि। अत्र ""शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌"" इति वार्तिकमपि पठितम्‌।" तथा अन्तःस्थ वायु को बाहर निकालना प्रश्‍वास कहलाता हैरेचक से तात्पर्य है प्राणवायु को बाँए नासापुट से अथवा दक्षिण नासापुट से धीरे धीरे बाहर निकालना तथा पूरक प्राणायाम से तात्पर्य है बाँए नासा पुट से अथवा दक्षिण नासापुट से श्वास को धीरे धीरे अन्दर ग्रहण करना।,"अन्तः ग्रहणं श्वासः, कौष्ठस्य वायोः बहिः निःसारणं प्रशवासः। रेचको नाम प्राणवायोः शनैः वामनासापुटाद्‌ दक्षिणनासापुटाद्‌ वा सव्यापसव्यन्यायेन बहिर्निःसारणम्‌। पूरको नाम तेनैव प्रकारेण वायोः अन्तःप्रवेशनम्‌।" इसका अन्य उदाहरण होता है।,एतस्यान्यदुहरणं भवति इससे उपहित चैतन्य अर्थात्‌ ईश्वर हिरण्यगर्भ अथवा विराट्‌ कहा जाता है।,एतदुपहितं चैतन्यम्‌ अर्थात्‌ ईश्वरः हिरण्यगर्भः विराड्‌ च। तो सिद्धान्ती कहते हैं कि आकाश की उत्पत्ति होती है।,चेदुच्यते सिद्धान्तिना - अस्ति हि आकाशस्य उत्पत्तिः। "स्मृतियों में भी जीवनमुक्त, स्थितप्रज्ञ, गुणातीतादिनामों के द्वारा वहाँ-वहाँ उसका व्यवहार किया गया है।",स्मृतिषु जीवन्मुक्तः स्थितप्रज्ञ-गुणातीतादिनामभिः तत्र तत्र व्यवह्नियते। और वह इन्द्र ही मनुष्यों का राजा बनकर के निवास किया।,सेदु स एवेन्द्रः चर्षणीनां मनुष्याणां राजा भूत्वा क्षयति निवसति। "अग्रायण, औपमन्यव, औदुम्बरायण, और्णवाभ, काथक्य, क्रोष्टुकि, गार्ग्य, मालव, तैटिकि, वार्ष्यायणि, शाकपूर्णि और स्थौलाष्ठिवि।","अग्रायणः, औपमन्यवः, औदुम्बरायणः, और्णवाभः, काथक्यः, क्रौष्टुकिः, गार्ग्यः, मालवः, तैटिकिः, वार्ष्यायणिः, शाकपूणिः, स्थौलाष्ठिविश्च।" महाभारत के मोक्षपर्व अनुसार से निघण्टु कर्ता यास्क नहीं थे।,महाभारतस्य मोक्षपर्वानुसारेण निघण्टोः कर्ता यास्को नासीत्‌। फिर भी दोनों की कल्पना रस्सी में की जाती है।,तथापि तदुभयमपि कल्प्यते रज्जौ। आत्मा के चार पाद होते हैं।,आत्मनः चत्वारः पादाः सन्ति। वह भी इस प्रकार संवाद सूक्त मूल का ही भाग है।,दपि एतादृशसंवादसूक्तमूलकम्‌ एव। बादरायण व्यास प्रणीत ब्रह्मसूत्र को तीसरा प्रस्थान कहते है।,बादरायणव्यास प्रणीतं ब्रह्मसूत्रं तृतीयप्रस्थानमस्ति। इस सूक्त में हिरण्यगर्भ के विविधगुण वर्णित है।,अस्मिन्‌ सूक्ते हिरण्यगर्भस्य विविधगुणाः वर्णिताः। पृथिवी जल अग्नि तीन रूपों जैसा विशिष्टहोता है और उसको धारण करने वाला धृतवान्‌ कहलाता है।,पृथिव्यप्तेजोरूपधातुत्रयविशिष्टं यथा भवति तथा दाधार धृतवान्‌। लेकिन तत्वमसि यहाँ पर तत्‌ तथा त्वम्‌ दोनों पदों से ही उन दोनों के परोक्षत्व सर्वज्ञत्वादि विशिष्टापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादि विशिष्ट अर्थ श्रुत होता है।,किन्तु तत्त्वमसि इत्यत्र तत्त्मम्पदाभ्याम्‌/ एव तयोः परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टः अर्थः श्रुतः वर्तते। सूत्रार्थ-षष्ठयन्त सुबन्त को समर्थ से सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुषसमास संज्ञा वाला होता है।,सूत्रार्थः - षष्ठ्यन्तं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते स च तत्पुरुषसमाससंज्ञः भवति। आपेदे - आङ्पूर्वकपद्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,आपेदे - आङ्पूर्वकपद्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। और भी तिङन्त की परस्पर साकाङ्क्ष है।,अपि च तिङन्तं परस्परं साकाङ्कमस्ति। वह ही चित्त विक्षेप कहलाता है।,स एव चित्तस्य विक्षेपः। 19. अन्नमय कोश क्या है?,१९. अन्नमयकोशः कः ? “श्रद्धयाग्निः समिध्यते” यह मन्त्र सम्पूर्ण लिखिए।,"""श्रद्धयाग्निः समिध्यते"" इति मन्त्रं सम्पूर्ण लिखत।" “अलुगुत्तरपदे” इस सूत्र से उत्तरपद में अनुवृत्ति होती है।,""" अलुगुत्तरपदे "" इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ उत्तरदपदे इत्यनुवर्तते ।" वेद चार होते हैं।,वेदाः चत्वारः भवन्ति। अज्ञान का नाश होने पर ब्रह्म का प्रकाश स्वयं ही होता है।,अज्ञाननाशे सति ब्रह्मणः प्रकाशः स्वत एव भवति । 6 “तत्त्वमसि” इस महा वाक्य में त्वपद के लक्ष्यार्थ का तथा वाच्यार्थ का वर्णन कीजिए।,६. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये त्वम्पदस्य लक्ष्यार्थं वाच्यार्थं च विवृणुत? "उद्‌ यह भी गतिसंज्ञक पद है, अभि इस गतिसंज्ञक पद से परे है।",उदिति गतिसंज्ञकं पदम्‌ अभि इति गतिसंज्ञकात्‌ पदात्‌ परम्‌ अस्ति। शुक्लयजुर्वेद में चौतींसवें अध्याय में यह शिवसङकल्पसूक्त प्राप्त होता है।,शुक्लयजुर्वेदे चतुर्त्रिशत्तमे अध्याये इदं शिवसङ्कल्पसूक्तं प्राप्यते। “सर्वस्य द्वे' इस अधिकार में यह सूत्र है।,"""सर्वस्य द्वे"" इत्यस्मिन्‌ अधिकारे वर्तते इदं सूत्रम्‌।" प्रतिमुमोच - प्रतिपूर्वक मुच्‌-धातु से लिट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,प्रतिमुमोच - प्रतिपूर्वकात्‌ मुच्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। 1 पञ्चीकरण किसे कहते हैं?,१.किं नाम पञ्चीकरणम्‌। इस सूत्र में 'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से अन्तः उदात्तः इन दो पद की अनुवृति आती है।,अस्मिन्‌ सूत्रे 'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ अन्तः उदात्तः इति पदद्वयम्‌ अनुवर्तते। सायणभाष्य - श्री अर्थात्‌ लक्ष्मी तेरी पत्नी है।,सायणभाष्यम्‌- श्रीश्च लक्ष्मीश्च ते सवितुः तव पत्न्यौ। 24. कोश इस प्रकार के नाम का क्या अभिप्राय है?,२४. कोश इति नाम कथं युज्यते? यहाँ पर तीनो लोक भी पृथिवीवाची शब्द है।,अत्र त्रयो लोका अपि पृथिवीशब्दवाच्याः। तदनन्तर दीक्षणीय-इष्टी का अनुष्ठान होता है।,तदनन्तरं दीक्षणीय-इष्टेः अनुष्ठानं भवति। "सान्वयप्रतिपदार्थः - (देवाः = पुरन्दर या इंद्र आदि ने ) यत्‌ = जब, पुरुषं = विराट रूप को, व्यदधुः = सङ्कल्प से समुत्पादित किया, (तद्‌) कतिधा = कितने प्रकार से, व्यकल्पयन्‌ = विविधरूपों की कल्पना की।","सान्वयप्रतिपदार्थः - (देवाः= पुरन्दरप्रभृतयः) यत्‌ = यदा, पुरुषं =विराडूपं, व्यदधुः = सङ्कल्पेन समुत्पादितवन्तः, (तद्‌) कतिधा = कतिभिः प्रकारैः, व्यकल्पयन्‌ = विविधं कल्पितवन्तः।" वेदान्त शास्त्र में तो पुरुषपरमत्व के द्वारा मोक्ष की कामना को बताया गया है।,वेदान्तशास्त्रे पुरुषः परतमत्वेन मोक्षं कामयते। सरलार्थ - मैं ही रुद्र के लिए ब्राह्मणों के द्वेषी त्रिपुर राक्षस को मारने के लिए उसके धनुष को विस्तृत करती हूँ।,सरलार्थः- अहं रुद्राय ब्रह्मद्वेषकारिणं घतकं शत्रुं हन्तुं तस्य धनुषं गृह्णामि। इस प्रकार के जन से दूर जाना ही श्रेयस्कर होता है।,एवंविधजनात्‌ दूरगमनमेव श्रेयस्करं भवति। लेकिन ब्रह्मज्ञान होने पर अज्ञान का बाध अर्थात्‌ नाश हो जाता है।,किन्तु ब्रह्मज्ञाने सति अज्ञानस्य बाधः अर्थात्‌ नाशः भवति। और जो मन ज्योतिप्रकाशको का श्रोत्र आदि इन्द्रियों का एक ही ज्योति प्रकाशक प्रवर्तक है।,यच्च मनो ज्योतिषां प्रकाशकानां श्रोत्रादीन्द्रियाणाम्‌ एकमेव ज्योतिः प्रकाशकं प्रवर्तकमित्यर्थः। ( ८) दस का कुछ विस्तार से उत्तर के द्वारा समाधान करो- अध्यास का लक्षण लिखिए अथवा ख्यातिवाद और उसके भेदों का वर्णन करें।,[८] दश अनतिदीर्घोत्तरैः समाधत्त।अध्यासलक्षणं निरूपयत। अथवा ख्यातिवादं तद्भेदान्‌ च वर्णयत। गौणी भक्ति वस्तुतः समान्यतया इष्ठ में निष्ठ होती है।,गौणी भक्तिः वस्तुतः सामान्यतया इष्टनिष्ठा । दीक्षणीय-इष्टिकाल में यजमान और उसकी पत्नी पांच दिन तक परिधृत वस्त्र अवभृथ स्नान के अनन्तर छोड़ कर उन्नेता नामक पुरोहित द्वारा प्रदत्त नवीन वस्त्र का परिधान करते हैं।,दीक्षणीय-इष्टिकाले यजमानः तत्पत्नी च पञ्चसु दिनेषु परिधृतं वस्त्रम्‌ अवभृथस्नानानन्तरं त्यक्त्वा उन्नेता इति नामकेन पुरोहितेन प्रदत्तस्य नववस्त्रस्य परिधानं कुरुतः। और निर्भिन्नः इस गतिपूर्वक कृदन्त के साथ नखैः इस करण में तृतीयान्त वार्तिक सहायता से प्रस्तुत सूत्र से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,एवं निर्भिन्नः इति गतिपूर्वकेन कृदन्तेन सह नखैः इति करणे तृतीयान्तं वार्तिकसाहाय्येन प्रस्तुतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। 1.5 “उपसर्जनं पूर्वम्‌'' ( 2.2.30 ) सूत्रार्थ-समासे में उपसर्जन संज्ञक को पूर्व में प्रयोग करना चाहिए।,"१.५ ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" (२.२.३०) सूत्रार्थः - समासे उपसर्जनसंज्ञकं पूर्वं प्रयोज्यम्‌।" अतिष्ठत्‌- स्थाधातु से लङ में प्रथमपुरुषेकवचन का रूप बनता है।,अतिष्ठत्‌- स्थाधातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। 23. सन्तोष से निरतिशय आनन्द का लाभ होता है।,२३. सन्तोषात्‌ निरतिशयानन्दलाभो भवति। "यहाँ दक्षिण शब्द से दक्षिण शब्द का अर्थ ग्रहण नहीं किया है, अपितु दक्षिण इस शब्द स्वरूप का ही ग्रहण किया है।",अत्र दक्षिणशब्देन न हि दक्षिणशब्दस्य अर्थः ग्राह्यः अपि तु दक्षिण इति शब्दस्वरूपमेव ग्राह्यम्‌। उसके बाद उस यज्ञ से गाय उत्पन्न हुई।,तथा तस्मात्‌ यज्ञात्‌ गावः च यज्ञिरे। ब्राह्मणशब्द नपुंसकलिङ्ग में और क्लीब्‌ में कोई लिङग नहीं है।,ब्राह्मणशब्दः नपुंसकलिङ्गी क्लीबलिङ्गी चास्ति। "इसी कारण ही इन श्लोकों से काव्य सौन्दर्य, ओज छटा, रीति उन्नत रूप से पूर्णोपमा इत्यादी पाठकों के चित को अपनी और आकर्षित करती है।","अत एव एतस्मात्‌ श्लोकात्‌ काव्यसौन्दर्यम्‌, ओजसः छटा, रीतेः प्रकर्षः, पूर्णोपमा इत्यादीनि पाठकानां चेतांसि युगपत्‌ आकर्षन्ति।" सूत्र का अवतरण- स्त्रीविषय के हस्वान्त शब्द का आदि उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य द्वारा की गई है।,सूत्रावतरणम्‌- स्त्रीविषयस्य हस्वान्तस्य शब्दस्य आदेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। दृष्ट्वाय यह रूप क्या सही है?,दृष्द्वाय इति रूपं क्व साधु ? वह दो प्रकार का होता है।,स द्विविधः। "उदात्त, अनुदात्त, स्वरित भेद से स्वर तीन प्रकार के हैं।",उदात्तानुदात्तस्वरितभेदेन स्वरः त्रिविधः वर्तते। "“अर्धं नपुंसकम्‌"" सूत्रार्थ-समांशवाची नित्य नपुंसकलिङ्ग में विद्यमान अर्थशब्द अवयव के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है, एकत्व संख्या विशिष्ट अवयवीपद है।","अर्धं नपुंसकम्‌॥ (२.२.२) सूत्रार्थः - समांशवाची नित्यं नपुंसकलिङ्गे विद्यमानः अर्धशब्दः अवयविना सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति, एकत्वसंख्याविशिष्टः चेद्‌ अवयवी।" अचेतन पदार्थ का इस प्रकार चेतन के समान सम्बोधन कोई भी नहीं करता है।,अचेतनस्य पदार्थस्य इत्थं चेतनवत्‌ सम्बोधनं कोऽपि न करोति। वह ही मुख्य कर्तृत्व होता है आत्मा का।,तदेव मुख्यं कर्तृत्वम्‌ आत्मनः। सुषुप्ति अर्थात्‌ सभी विषयों के ज्ञान का अभाव।,सुषुप्तिर्नाम सर्वविषयज्ञानाभावः। इन्द्र ने वृत्र को मारकर जलप्रवाह के बन्द दरवाजों को खोल दिया।,इन्द्रः वृत्रं हत्वा जलप्रवाहस्य पिहितद्वारम्‌ उद्घाटितवान्‌। इसके बाद “'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌'' इस समास विधायक सूत्र में दिक्‌ इसका प्रथमानिर्दित्व से और उसके बोध्य का पूर्वा सु इस दिशावाचक का उपसर्जन संज्ञा में “* उपसर्जनं पूर्वम्‌'' इससे इसका पूर्व निपात होता है।,"ततः ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेन समासविधायकसूत्रे दिक्‌ इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्कोध्यस्य पूर्वा सु इत्यस्य दिग्वाचकस्य उपसर्जनसंज्ञायाम्‌ ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इत्यनेन तस्य पूर्वनिपातो भवति।" धेनाः यह शब्द किस धातु से निष्पन्न हुआ?,धेनाः इति शब्दः कस्मात्धातोः निष्पन्नः। इस प्रकार पाणिनी यह आचार्य उपसर्जन वेदाध्ययन-३४५ ( पुस्तक-१ ) अन्तेवासीवाचि उत्तरपद को होता है।,एवं पाणिनीयाः इति आचार्योपसर्चनान्तेवासिवाचि उत्तरपदं भवति। दात्रेण लूनवान्‌ इत्यादि में समास नहीं होता है।,दात्रेण लूनवान्‌ इत्यादौ समासः न। जैसे अधिहरिः भक्तिः अस्ति यहाँ पर अधिहरि पद में अव्ययीभाव समास है।,यथा अधिहरिः भक्तिः अस्ति इत्यत्र अधिहरि इति अव्ययीभावसमासः अस्ति। तव्यत्प्रत्ययान्त के योग होने पर तो समास होता ही है।,तव्यत्प्रत्ययान्तेन योगे तु समासो भवत्येव। इसलिए पतञ्चलि ने कहा है - “अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्‌” इति।,तथाहि सूत्रितं योगसूत्रे पतञ्जलिना - “अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्‌” इति। "प्राण, अपान, समान, व्यान तथा उदान।",प्राणः अपानः व्यानः उदानः समानश्च। '' उदाहरण -जैसे सूत्र का उदाहरण है अर्धपिप्पली।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा अर्धपिप्पली इति। लेकिन अपौरुषेय वेद में दोष सम्भव नहीं होते हैं।,किन्तु अपौरुषेये वेदे दोषाः न सम्भवन्ति। जैसे अपने विरोधियों को हिरण के समान भयभीत करता है जैसे शेर से हिरण भयभीत होते है वैसे ही डरपोक मनुष्य कुटिलगामी अर्थात ऊचे नीचे नाना प्रकार विषम स्थलों में चलने और पर्वत कन्दराओं में स्थिर होने वाले हिरण के समान भंयकर समस्त लोक लोकान्तरो को प्रशासित करता है।,यथा स्वविरोधिनो मृगयिता सिँहः भीमः भीतिजनकः कुचरः कुत्सितहिंसादिकर्ता दुर्गमप्रदेशगन्ता वा गिरिष्ठाः पर्वताद्युन्नतप्रदेशस्थायी सर्वैः स्तूयते। तैत्तिरीयसंहिता वेद में कहा गया है- प्रजापतिर्वै हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपत्वाय॥ (५.५.१.२),तैत्तिरीयसंहितायामाम्नातम्‌ - प्रजापतिर्वै हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपत्वाय॥ (५.५.१.२) जिन दो पदों के अर्थो में परस्पर सम्बन्ध नहीं होता है उन पदों के मध्ये समान नहीं होता है।,ययोः अर्थयोः मध्ये परस्परं सम्बन्धः न भवति तद्वाचकपदयोः मध्ये समासः न भवति। महाभाष्य में ऋग्वेद की कितनी शाखाओं का निर्देश है?,महाभाष्ये ऋग्वेदस्य कति शाखाः निर्दिष्टाः? थर्व'-धातुः कुटिलता अर्थ में तथा हिंसावाचक है।,र्थव'-धातुः कौटिल्यार्थकः तथा हिंसावाचकः अस्ति। इस सूत्र के दिशावाचक का समासे उदाहरण दीजिये?,इति सूत्रस्य संख्यावाचकेन समासे किमुदाहरणम्‌। यजमान के प्रतीक के लिए पशुबली नहीं दी जाती।,यजमानस्य प्रतीकतया पशुबलिः न प्रदत्तः। इक्कीसवाँ पाठ समाप्त ॥,इति एकविंशः पाठः समाप्तः ॥ "जान लेने पर तो उस तत्त्व को, मृत्यु को जीतकर अमृतत्व को प्राप्त करता है साधक।","विज्ञाते तु तस्मिन्‌ परे तत्त्वे, मृत्युमतिक्रम्य अमृतत्वम्‌ अधिगच्छन्ति साधकाः।" "यहाँ अगि धातु से अकार का उदात्त स्वर धातुपाठ में निर्देश किया है, परन्तु नि-प्रत्यय के इकार का उदात्त स्वर सूत्र से उपदेश किया है, अतः सतिशिष्टस्वरो बलीयान्‌' (६.१.१५८) इस परिभाषा सूत्र से बाद में होने वाला स्वर का (पर निर्देश किया स्वर) बलवान होता है।",अत्र अगिधातोः अकारस्य उदात्तस्वरः धातुपाठे निर्दिष्टः परन्तु नि-प्रत्ययस्य इकारस्य उदात्तस्वरः सूत्रेण उपदिष्टः अतः 'सतिशिष्टस्वरो बलीयान्‌' (६.१.१५८) इति परिभाषासूत्रेण सतिशिष्टस्वरस्य (परं निर्दिष्टस्य स्वरस्य) बलवत्तरत्वम्‌ इति। "उव्वट ने अपने यजुर्वेद भाष्य में (१८/७७) , निरुक्त में (१३/१३) उपलब्ध वाक्य का निर्देश किया है।","उव्वटः स्वकीये यजुर्वदभाष्ये (१८/७७), निरुक्ते (१३/१३) समुपलब्धं वाक्यं निर्दिष्टम्‌ अकरोत्‌।" यदि यहाँ पर ही चित्तवृत्तिनिरोध हो तो साधनचतुष्टयसम्पन्न गुरु के पास में नहीं जाए।,यदि अत्रैव चित्तवृत्तिनिरोधः स्यात्‌ तर्हि साधनचतुष्टयसम्पन्नः गुरुसमीपं न गच्छेत्‌। फिर पैरों से शूद्र अर्थात शूद्रत्व जातिमान्‌ पुरुष हुआ।,तथा पद्भ्यां पादाभ्यां शूद्रः शूद्रत्वजातिमान्पुरुषः अजायत। अब कहते हैं कि जीव तथा ईश्वर में अनेक भेद देखे जाते हैं।,ननु जीवेश्वरयोः अत्यन्तं भेदः दृश्यते खलु। "क्योंकि अग्निष्टोम नामक सामगान से यज्ञ समाप्त होता है, अतः तज्जन्य याग भी अग्निष्टोम कहलाता है।","यतः अग्निष्टोमनामके सामगाने यज्ञः समाप्यते, तस्मात्‌ तज्जन्ययागः अपि अग्निष्टोमः इति आख्यायते।" ' उदाहरण -सूत्र का उदाहरण है पूर्वेषुकामशयी।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा पूर्वेषुकामशमी इति। "यहाँ द्व्यङ्गुलम्‌, सर्वरात्रः इत्यादि क्रम अनुसार उदाहरण हैं।","अत्र द्व्यङ्गुलम्‌, सर्वरात्रः इत्यादीनि क्रमेण उदाहरणानि।" "यह सूक्त किजिचत्‌ परिवर्तन के साथ सामवेद, शुक्लयजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्राप्त होता है।",किञ्चित्‌ परिवर्तनानन्तरं सामवेदे शुक्लयजुर्वेदे तथा अथर्ववेदे इदमेव सूक्तं प्राप्यते। कल्याणकारी स्थान में अथवा देवपूजित स्थान में निश्चल स्तम्भ के समान मधुमय रथ के ऊपर सोम रस को स्थापित करते है।,कल्याणकारके स्थाने अथवा देवपूजितस्थाने निश्चलस्तम्भ इव मधुमयरथस्योपरि सोमरसं स्थापयामः। इस विषय में शास्त्रों के प्रमाणों को नीचे उपस्थापित किया जा रहा है।,इति विषये शास्त्राणि प्रमाणत्वेन उपस्थाप्यन्ते अधः। इस पृथिवी से परे है।,अस्याः पृथिव्याः परः परस्तात्‌। बाल्ययौवन और वृदावस्था में भी मन एक समान रहता है।,बाल्ययौवनस्थविरेषु अपि मनः अतिजववत्‌। "“अचोञ्णिति"" इस सूत्र से अचः ञ्णिति इन दो पदों की अनुवृत्ति होती है।","""अचो ञ्णिति"" इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ अचः ञ्णिति इति पदद्वयमनुवर्तते ।" स्तवते - स्तु प्रशंसायाम्‌ इस धातु से कर्म में यह आत्मनेपद का।,स्तवते - स्तु प्रशंसायाम्‌ इति धातोः कर्मणि आत्मनेपदम्‌ इदम्‌। आभीक्ष्ण्यम्‌ इसका पुनः पुनः यह अर्थ है।,आभीक्ष्ण्यम्‌ इत्यस्य पुनः पुनः इत्यर्थः। महाभारत युद्धकाल वर्तनि यास्क निरुक्त में बहुत व्याकरण आचार्यो का उल्लेख देखते हैं।,महाभारतयुद्धकालवर्तिनि यास्क-निरुक्ते बहूनां व्याकरणाचार्याणाम्‌ उल्लेखः दृश्यते। शीघ्र प्रदान करना।,क्षिप्रदानौ। तित्‌ इस पद के विशेष्य रूप से प्रत्ययः इस पद को यहाँ जोड़ना चाहिए।,तित्‌ इति पदस्य विशेष्यरूपेण प्रत्ययः इति पदमत्र योज्यम्‌। स्वर प्रकरण में प्रकृति प्रत्ययों के स्वर विषय में चर्चा की गई है।,स्वरप्रकरणे प्रकृतिप्रत्यययोः स्वरविषये चर्चा विहिता। "जो कुछ भी दृश्यमान है वो सब वही पुरुष है और वो भूत, भविष्यत्‌ अतीत कालीन है।",यत्‌ किमपि दृश्यमानं तत्‌ सर्वमपि स पुरुष एव। स च भूतभविष्यदतीतकालीनः। एकादेशः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,एकादेशः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। "द्विगुसमास से आनुषङिगकता से “दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌”', “' तद्धितार्थोन्तरपदसमाहारे च” ये दो सूत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं।","द्विगुसमासेन आनुषङ्गिकतया ""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रद्वयं प्रस्तूयते।" इन्द्र और अहि ने इन्द्र और वृत्र दोनों ने जब युद्ध किया।,इन्द्रश्च अहिश्च इन्द्रवृत्रावुभावपि यत्‌ यदा युयुधाते युद्धं कृतवन्तौ। कुछ देवों के नाम लिखो।,केषाञ्चिद्देवानां नामानि लिखत। सहस्रशब्द का उपलक्षण अनन्त शिरों से युक्त है।,सहस्रशब्दस्योपलक्षणत्वादनन्तःशिरोभिर्युक्तः इत्यर्थः। 39. श्रवण से तात्पर्य है छ: प्रकार के लिङ्गो का अद्वितीय वस्तु का तात्पर्यावधारण।,३९ . श्रवणं नाम षड्विधलिङ्गैः अशेषवेदान्तानाम्‌ अद्वितीयवस्तुनि तात्पर्यावधारणम्‌। मोह के अन्ध कार में भ्रान्ति बुद्धि से वह अपने आप को जीव रूप में मानने लगता है।,मोहान्धकारे अहमिति भ्रान्तिबुद्ध्या जीवत्वं भजति। परिशिशिषे - परिपूर्वक शिष्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,परिशिशिषे - परिपूर्वकात्‌ शिष्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैवचने। यहाँ खट्व शब्द प्रातिपदिक है।,अत्र खट्व इति प्रातिपदिकम्‌ अस्ति। सूत्र की व्याख्या - छ प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह निषेध विधायक सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं निषेधविधायकं सूत्रम्‌। 14. छान्दोग्योपनिषद में कथित अभ्यास वाक्य क्या है?,14 छान्दोग्योपनिषदि कथितम्‌ अभ्यासवाक्यं किम्‌? यह तो अज्ञात ही है।,इति तु अज्ञातम्‌ एव अस्ति। उसके बाद अजन्त कामि-धातु से `अचो यत्‌' इससे यत्प्रत्यय तथा अनुबन्ध लोप करने पर “णेरनिटि” इससे मकार से उत्तर णिङ: के इकार का लोप करने पर प्रथमा द्विवचन प्रक्रिया कार्य में काम्या यह रूप सिद्ध होता है।,"ततः अजन्तस्य कमि-धातोः 'अचो यत्‌' इत्यनेन यत्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे ""णेरनिटि"" इत्यनेन मकारोत्तरस्य णिङः इकारस्य लोपे प्रथमाद्विवचने प्रक्रियाकार्ये काम्या इति सिध्यति।" इन सूक्तों का उस समय के समाज के स्वरूप को जानने में विशेषरूप से सहायक होते है।,एतानि सूक्तानि तत्कालिकसमाजस्य स्वरूपज्ञाने विशेषरूपेण सहायकानि भवन्ति। वृषादिगण में उन वृष-जन-त्वर-हय-गय-नय-तय-अंश-वेद-सूद-पद-गुहाः इत्यादि शब्द है।,वृषादिगणे तावत्‌ वृष-जन-त्वर-हय-गय-नय-तय-अंश-वेद-सूद-पद-गुहाः इत्यादयः शब्दाः सन्ति। स्थापित करो।,स्थापयतु इति। ' उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस सूत्र से अनुदात्तस्य इस षष्ठ्यन्त पद की और स्वरितः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।,उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इति सूत्राद्‌ अनुदात्तस्य इति षष्ठ्यन्तं पदं स्वरितः इति प्रथमान्तं पदं चानुवर्तते। जो की इस वामीयभाष्य में आत्मानन्द ने लिखा है- ` अध्यात्मविषयां शौनकादिरीतिम्‌'| पद्य पुराण का विज्ञान आरण्यक शब्द भी आरण्यक स्वरूप का परिचायक है।,यतः अस्य वामीयभाष्ये आत्मानन्देन लिखितम्‌- “अध्यात्मविषयां शौनकादिरीतिम्‌। पद्मपुराणस्य विज्ञानारण्यकशब्दोऽपि आरण्यकस्वरूपस्य परिचायकोऽस्ति। लेकिन वह अपने को छोड़कर के नौ जनों को ही गिनता है।,किन्तु स स्वं विहाय नवजनानां गणनां कृतवान्‌। षष्ठ अष्टक- तैंतालीस अध्याय को छोड़कर अन्य सभी अध्याय प्राप्त होते है।,षष्ठमष्टकम्‌- त्रयश्चत्वारिंशदध्यायं विना सर्वेऽप्यध्यायाः समुपलब्धाः। वह रुद्र हमको देखता हुआ हमें धन धान्य से पूर्ण करे।,स रुद्रो दृष्टः सन्नोऽस्मान्मृडयाति सुखयतु। यजुर्वेद संहिता का विवेच्य विषय पूर्व वर्णित विषयों से नितान्त भिन्न ही है।,यजुर्वेदसंहितायां विविच्यविषयः पूर्ववर्णितेभ्यो विषयेभ्यः नितान्तं भिन्नः एवास्ति। चार प्रयाजों और दो अनुयाजों का अनुष्ठान विहित है।,चतुर्णा प्रयाजानां द्वयोः अनुयाजयोः च अनुष्ठानं विहितम्‌। "पराक्रम कार्यो की स्तुति करता हुआ सिंह आदि के समान भयानक, शत्नुवधकर्त्ता, उन्नत वाचक के रूप मन्त्रों में स्थित है, जिस विष्णु के पादप्रक्षेप के द्वारा यह सभी भुवन को आश्रित किया हुआ है, उस विष्णु की प्रकर्षरूप से स्तुति करते है।","वीरकर्मणा स्तूयमानः सिंहादिवत्‌ भयानकः, शत्रुवधकर्त्ता, उन्नतवाचि मन्त्रेषु स्थितः, यस्य विष्णोः पादप्रक्षेपैः इदं सर्वं भुवनम्‌ आश्रितं जातं, सः विष्णुः प्रकर्षेण स्तूयते।" 'मश्रु पीले रंग से युक्त है।,श्मश्रूः पिङ्गलवर्णयुक्ता। अभिपूर्वक ईक्ष्‌-धातु से लङ् लकार में प्रथमपुरुषद्विवचन ।,अभिपूर्वकात्‌ ईक्ष्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषद्विवचने। ग्नि यहाँ इकार उदात्त है।,ग्नि इत्यस्य इकारः उदात्तः। वह नियम है की शास्त्र के ज्ञाता के बिना शास्त्र में प्रवृत्त सम्भव नहीं होती है।,स उच्यते - शास्त्रस्य ज्ञातारं विना शास्त्रे प्रवृत्तिः नैव सम्भवति। अन्तःकरण चार प्रकार का होता है।,अन्तःकरणं चतुर्धा भवति। सत्य ज्ञान के पश्चात्‌ अद्वितीय वस्तु को अपने शरीर में हृदयरूपी गुहा के अन्दर जानना होता है।,सत्यज्ञानान्तम्‌ अद्वितीयं वस्तु स्वशरीरे हृदयगुहायामेव अवगन्तव्यं भवति। "यहाँ सहस्र शब्द उपलक्षण मात्र है, सहस्रपद असङ्ख्य अर्थ का द्योतक है।","अत्र सहस्रशब्दः उपलक्षणमात्रं वर्तते,सहस्रपदस्यात्र असङ्ख्यमित्यर्थः।" "हे शक्तिशाली रूद्र, आपके हाथ में जो धनुष या धनूरूप आयुध हैं।","हे मीढुष्टम, ते तव हस्ते या धनुः हेतिः धनूरूपमायुधं अस्ति।" इस सूत्र से अमादेश होता है।,अनेन सूत्रेण अमादेशो विधीयते। "मेंढक जैसे उछल-उछल कर कुछ-कुछ स्थान को छोड़कर जाता है, वैसे ही यह भी कुछ-कुछ सूत्रों को छोड़कर उत्तर उत्तर के सूत्रों में प्रवृत्त होता ऐसा जानना चाहिए।",मण्डूकः यथा उत्प्लुत्य किञ्चित्‌ किञ्चित्‌ स्थानं परित्यज्य गच्छति तद्वद्‌ इदम्‌ अपि किञ्चित्‌ किञ्चित्‌ सूत्रं परित्यज्य उत्तरोत्तरसूत्रे प्रवर्तते इति ज्ञेयम्‌। ““ सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे”' इस सूत्र से सुप्‌ की अनुवृत्ति होती है।,"""सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सुप्‌ इत्यनुवर्तते।" सूर्य सूक्त में सूर्य के विवाह में बहूत से देवों का आवाहन दिखाई देता है।,सूर्यसूक्ते सूर्यस्य विवाहे बहूनां देवानाम्‌ आह्वानं दृश्यते। पशु को उद्देय करके इस प्रसँग में ऋक्संहिता का एक ऋम्‌मन्त्र उल्लिखित है - “न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवा - इदेसि पथिभिः सुगेभिः।,"पशुम्‌ उद्दिश्य अस्मिन्‌ प्रसङ्गे ऋक्संहितायाः एकः ऋङ्मन्त्रः उल्लिख्यते - ""न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवा - इदेसि पथिभिः सुगेभिः।""" द्यूत आसक्त मनुष्य द्यूतकार्य से विमुख होऊंगा ऐसा सोचता हुआ भी द्यूतस्थल पर अपने संकल्पं को भूल जाता है।,द्यूतासक्तः जनः द्यूतकार्यविमुखः भविष्यति इति चिन्तयन्‌ अपि द्यूतस्थले स्वसंकल्पं विस्मरति । इसके बाद अर्ध सु इसका प्रथमानिर्दिष्टत्व उपसर्जन संज्ञा का पूर्व निपात होने पर सुप्‌ लोप होने पर निष्पन्न अर्धपिप्पली इससे सु प्रत्यये अर्धपिप्पली रूप होता है।,ततः अर्ध सु इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वाद्‌ उपसर्जनसंज्ञायां पूर्वनिपाते सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ अर्धपिप्पली इत्यस्मात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये अर्धपिप्पली इति रूपम्‌। आकाश की उत्पत्ति को नहीं मानने पर प्रतिज्ञा हानि होती है।,आकाशस्य उत्पत्त्यनभ्युपगमे प्रतिज्ञाहानिः स्यात्‌। यहाँ पञ्चम्यन्त के सम् अर्थ से सुबन्त के साथ समास होता है।,अत्र पञ्चम्यन्तं समर्थेन सुबन्तेन समस्यते। "कर्म विधि श्रुति के समान ब्रह्म विद्या श्रुति भी अप्राप्य प्रसङ्ग वाली हो तो, ऐसा भी बाधक प्रत्यय अनुपपत्ति के कारण नहीं है।",कर्मविधिश्रुतिवत्‌ ब्रह्मविद्याविधिश्रुतेरपि अप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्न; बाधकप्रत्ययानुपपत्तेः। उससे यहाँ यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - चित्प्रत्यय के समान प्रकृति प्रत्यय समुदाय का अन्त स्वर उदात्त होता है।,ततश्चायम्‌ अत्र सूत्रार्थः- चित्प्रत्ययवतः प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य अन्तः स्वरः उदात्तः स्यात्‌ इति। इसलिए उन्होंने अपने पद्य में कहा है-केशम्‌ अन्वेषति त्यक्तवा बहुरूपैः पुरःस्थितम्‌।,तथाहि उच्यते तेन स्वकीये पद्ये - केशम्‌ अन्वेषति त्यक्तवा बहुरूपैः पुरःस्थितम्‌। यह ब्राह्मणसाहित्य में सबसे विशाल है।,एतत्‌ ब्राह्मणसाहित्ये बृहत्तममस्ति। दो प्रकार का।,द्विविधः। "19. श्रवणादि के प्रतिबन्धक क्या क्या होते हैं, तथा उनकी निवृत्ति किस प्रकार से होती है।",१९. श्रवणादिकं प्रतिबन्धकानि कानि। कथं वा तन्निवृत्तिः। और कहीं पर इन्द्र विषयक मन्त्रों में तेजस्विता की अधिकता परिलक्षित होती है।,क्वचित्‌ च हइन्द्रविषयकमन्त्रेषु तेजस्वितायाः प्राचुर्यं॑ परिलक्ष्यते। स्त्रीकर्म विषय पर अथर्ववेद में जो कहा है उसे विस्तार से लिखिए।,"स्त्रीकर्मविषये अथर्ववेदे यद्‌ उक्तं, तद्विस्तारेण लिखत।" इसके द्वारा तो जीव का मोक्ष नहीं यह संदेह होता है।,तेन च जीवस्य न मोक्षश्च इति संदेहः स्यात्‌। "सान्वयप्रतिपदार्थ - तं = पुरुष को, अग्रतः = बाद में, जातं = प्रादुर्भूत, यज्ञं = यज्ञ के साधनभूतया सम्पूजनीय, पुरुषं = पशुत्वभावना से खूटे पर बाँधा गया है, (देवाः = सुराः) बर्हिषि = मानसिकयाग में, दुर्वा या, कुशा पर पूर्णरूप से शुद्ध किया।","सान्वयप्रतिपदार्थः - तं= प्रथितम्‌, अग्रतः= प्राक्‌, जातं= प्रादुर्भूतम्‌, यज्ञं= यज्ञसाधनभूतं सम्पूजनीयं वा, पुरुषं= पशुत्वभावनया यूपे बद्धं, (देवाः= सुराः) बर्हिषि= मानसे यागे, दूर्वायां वा, कुशेषु वा, प्र औक्षन= प्रकर्षेण प्रोक्षितवन्तः।" "सामाजिक कुरीतियों का, मनुष्यों में वर्तमान के दुर्व्यसनों का सम्पूर्ण रूप से नाश के लिए इस सूक्त का आरम्भ किया गया है।","सामाजिकानां कुरीतीनां, मानवेषु वर्तमानानां दुर्वासनानां च सम्पूर्णतः नाशाय अस्य सूक्तस्य आरम्भः ।" आदि में तथा अन्त में एक ही विषय कहा गया है इस प्रकार से एक ही वह एक विषय कहलाता है तो वह ही प्रकार का प्रतिपाद्य विषय होता है।,आदौ अन्तिमे च एकः एव विषयः कथ्यते चेत्‌ स एव प्रकरणस्य प्रतिपाद्यः विषयः। आपूर्वक आत्मनेपद धीधातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में।,आपूर्वकात्‌ आत्मनेपदिनः धीधातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने । इस प्रकार से प्रत्येक वेदान्त में वे वे शब्द उन उन दुष्टान्तों के द्वारा उसी की प्रतीज्ञा को ज्ञापित करते हैं 'इदं सर्व यदयमात्मा” (छा. उ. 2.4.6) 'ब्रह्मवेदममृतं पुरस्तात्‌' (मु. उ. 2. 0 उच्चतर माध्यमिक माध्यमिक इस प्रकार से अग्नि आदि की तरह ही गगन की उत्पत्ति होती है।,"तथा हि प्रतिवेदान्तं ते ते शब्दास्तेन तेन दृष्टान्तेन तामेव प्रतिज्ञां ज्ञापयन्ति ""इदं सर्वं यदयमात्मा"" (छा. उ. २.४.६) ""ब्रह्मवेदममृतं पुरस्तात्‌"" (मु. उ. २.२.१२) इत्येवमादयः; तस्माद्‌ अग्न्यादिवदेव गगनमप्युत्पद्यते।" क्योंकि देवता ज्ञान होने पर ही मन्त्र का अर्थहृदयगत होता है।,यतो हि देवताज्ञानं जायते चेदेव मन्त्रस्य अर्थो हृद्गतो भवति। जो पृथिवी को उत्पन्न करने वाला है।,यः पृथिव्याः भूमेः जनिता जनयिता स्रष्टा। शृणोति - ' श्रु श्रवणे' इस धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में शृणोति यह रूप है।,शृणोति- 'श्रु श्रवणे' इति धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने शृणोति इति रूपम्‌। क) सूक्ष्मभूतों के सात्विकांश से ख) सूक्ष्मभूतों के रजांश से ग) सूक्ष्मभूतों के तम अंश से 8 उदान किसे कहते हैं?,क) सूक्ष्मभूतानां सात्त्विकांशेभ्यः ख) सूक्ष्मभूतानां रजोंऽशेभ्यः ग) सूक्ष्मभूतानां तमोऽशेभ्यः८. उदानो नाम कः। इसलिए उसके लिए अत्यन्त सूक्ष्म अरुन्धती नक्षत्र का दर्शन सुलभ नहीं होता है।,अतः अत्यन्तं सूक्ष्मभूतस्य अरुन्धतीनक्षत्रस्य दर्शनं न सुलभम्‌। उवाद - वद्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,उवाद - वद्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। "अचि यहाँ पर लसार्वधातुक में इसका विशेषण है उससे “यस्मिन्‌ विधिस्तदादावल्ग्रहणे' इस परिभाषा से उसके आदि में विधि होती है, उससे अजादि में लसार्वधातुक यह प्राप्त होता है।","अचि इति लसार्वधातुके इत्यस्य विशेषणं तेन ""यस्मिन्‌ विधिस्तदादावल्ग्रहणे' इत्यनया परिभाषया तदादिविधिः भवति, तेन अजादौ लसार्वधातुके इति प्राप्यते।" पाठगत प्रश्नों के उत्तर 1. इहलोक का फल भी देते है।,पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि १ ऐहिकमपि फलं प्रददाति? और कुछ ऋतु संबन्धित है।,केचन क्रतुसम्बन्धिनः च वर्तन्ते। ये आरण्यक भिन्न ग्रन्थ रूप से माने जाते हैं।,एतानि आरण्यकानि भिन्नग्रन्थरूपेण मन्यन्ते। इस प्रकार से क्रमशः सत्यज्ञानानन्तलक्षण के द्वारा यथार्थ तत्व के प्रति जाना जाता है।,एवं क्रमशः मुमुक्षवः सत्यज्ञानानन्तलक्षणद्वारा यथार्थतत्त्वं प्रति नीयन्ते। वेदों में ही भावना के सहज और सरल रूप की अभिव्यक्ति है।,वेदेषु एव भावानां सहजा सरला च अभिव्यक्तिः अस्ति। "सभी और से निवृत्त चित्त पुरुष सुखदुःखशीतोष्णप्रेमघृणादि में, देहादियों में तथा अनात्मवस्तु युक्त धर्मों में उदासीन होता है।",सर्वतः निवृत्तचित्तः पुरुषः सुखदुःखशीतोष्णप्रेमघृणादिषु देहादिषु अनात्मवस्तुधर्मेषु उदासीनः भवति। "और होने पर नित्य के फल श्रवण से और उनका विधान अन्यथा अनुपपत्ति से नित्यानुष्ठानायासदुःख पूर्वकृतदुरितफल के अर्थापत्ति को कल्पना अनुपपन्न होती है, इस प्रकार से विधान के अन्यथा अनुपपत्ति के अनुष्ठानायासदुःखव्यतिरिक्तफलत्व अनुमान नित्य होता है।","तथा च सति नित्यानां फलाश्रवणात्‌ तद्विधानान्यथानुपपत्तेश्च नित्यानुष्ठानायासदुःखं पूर्वकृतदुरितफलम्‌ इति अर्थापत्तिकल्पना च अनुपपन्ना, एवं विधानान्यथानुपपत्तेः अनुष्ठानायासदुःखव्यतिरिक्तफलत्वानुमानाच्च नित्यानाम्‌।" यहाँ भी कनिष्ठ शब्द का आयु अर्थ में प्रयोग है।,किञ्च अत्रापि कनिष्ठशब्दस्य वयसि अर्थे प्रयोगः अस्ति। वर्तमान युग के ही समान उस युग में भी अशुभ स्वप्न में मनुष्यों का विश्वास था।,वर्तमानयुगे इव तस्मिन्नपि युगे अशुभस्वप्ने मानवानां विश्वासः आसीत्‌। अभ्यवजहार - अभिपूर्वक अव पूर्वक हृधातु से लिट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,अभ्यवजहार - अभिपूर्वकात्‌ अवपूर्वकात्‌ हृधातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। उससे सूत्र का अर्थ होता है - उदात्त के साथ एकादेश उदात्त होता है।,तेन सूत्रस्य अर्थः भवति - उदात्तेन सह एकादेशः उदात्तः भवति। वेदोक्तसाधनसम्पत्ति अनन्तर ही ब्रह्मजिज्ञासा करनी चाहिए।,वेदान्तोक्तसाधनसम्पत्त्यनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासा कर्तव्या। षष्ठमन्त्र में मन शरीरके परिचालक के रूप में उसे प्रतिपादित किया।,षष्ठे मन्त्रे मनः शरीराणां परिचालकत्वेन प्रतिपादितम्‌। एकबार सुने गये सृष्टा के प्रथम बार मे दो सृजित पदार्थो के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है।,सकृच्छरुतस्य स्रष्टुः स्रष्टव्यद्वयेन सम्बन्धः न सम्भवति। अथर्ववेद को अनेक प्रकार के विचार से जाना जाता है कि दो धाराओं के मिश्रण का परिणाम स्वरूप यह फल है।,अथर्ववेदस्य बहुविधविचारेण ज्ञायते - यद्‌ द्वयोः धारयोः मिश्रणस्य परिणतफलम्‌ इदम्‌ अस्ति। उसके बाद पुरुष सर्वबन्धनरहित होता हुआ ब्रह्मनिष्ठ जीवन्मुक्त हो जाता है।,ततः परं पुरुषः सर्वबन्धनरहितः सन्‌ ब्रह्मनिष्ठः जीवन्मुक्तः भवति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन शिवसडऱकल्पमस्तु ॥ १ ॥,दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन शिवसङ्कल्पमस्तु ॥१ ॥ 18. फलरूप के लिङ्ग का एक उपनिषद्‌ वाक्य लिखिए।,१८. फलरूपस्य लिङ्गस्य एकम्‌ उपनिषद्वाक्यं लिखतु? जिससे वेद मन्त्रों के उच्चारण शुद्ध होते हो उस शास्त्र को शिक्षा कहते हैं।,येन वेदमन्त्राणाम्‌ उच्चारणं शुद्धं सम्पाद्यते तच्छास्त्रं शिक्षा इत्युच्यते। कैवल्यफलसायित्व से भेदप्रत्ययनिवर्तकत्व के द्वारा आत्मज्ञान का तो केवल निः:श्रेयसहेतुत्व होता है।,आत्मज्ञानस्य तु केवलस्य निःश्रेयसहेतुत्वं भेदप्रत्ययनिवर्तकत्वेन कैवल्यफलावसायित्वात्‌। केवल जगत्‌ का सत्त्वमात्र ही ग्रहण किया जा सकता है।,केवलं जगतः सत्त्वमात्रं ग्रहीतुं शक्यते। वरुण नैतिकी जगत में नियम का रक्षक है।,वरुणः नैतिकजगतः नियमस्य रक्षकः। इसलिए इस शरीर का नाम अन्नमय शरीर किया गया है।,अतः अन्नमयः इति शरीरस्य नाम अन्वर्थ एव। यह सवन समय के अनुसार से विभिन्न नामों से विख्यात है।,सवनमिदं समयानुसारेण विभिन्ननाम्ना विख्यातमस्ति। इस प्रकार से जो ब्रह्म का जीव तथा जगत्‌ का विशिष्टत्व नहीं मानते हैं वे अद्वैतवादी कहलाते हैं।,एवञ्च ब्रह्मणः जीवजगद्भ्यां विशिष्टत्वं ये नानुमन्यन्ते त एवाद्वैतिनः। "नौ रसो में भी शृंगार नाम का रस रसराज है, ऐसा सभी साहित्य शास्त्रज्ञ बताते हैं।",नवसु अपि रसेषु शृङ्गारो नाम रसो रसराज इति सर्वे अपि साहित्यशास्त्रज्ञाः वदन्ति। जाग्रत तथा स्वप्न में मन चञ्चल हो जाता है और सुषुप्ति में वह निश्चल होता है।,जाग्रत्स्वप्नयोः मनः चञ्चलं भवति। सुषुप्तौ तु निश्चलं भवति। मन के असत्व होने से सुषुप्ति में उसकी अनुपलब्धि होती है।,मनसः असत्त्वात्‌ सुषुप्तौ तदनुपलब्धिश्च। उसको अनेक स्थानों से देव और पुरुष धारण करते है।,तां भूरिस्थात्रां भूरि आवेशयन्तीं मा देवाः पुरुत्रा वि अदधुः। और इस समास को तत्पुरुषसमास समानाधिकरण और व्याधिकरण दो प्रकार से कह सकते हैं।,अयं च तत्पुरुषसमासः समानाधिकरणः व्यधिकरणः चेति द्विधा विभक्त इति वक्तुं शक्यते। वहाँ प्रमाणों के द्वारा जो अर्थ को प्रमाण के द्वारा प्राप्त करता है वह प्रमाता कहलाता है।,तत्र प्रमाणैः यः अर्थं प्रमिणोति स प्रमाता। इसके बाद चाप्‌ प्रत्यय विधायक यङश्चाप्‌ सूत्र का व्याख्यान और उदाहरण हैं।,ततः परं चाप्प्रत्ययविधायकस्य यङश्चाप्‌ इति सूत्रस्य व्याख्यानं तदुदाहरणं च अस्ति। "धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - ये चार पुरुषार्थ हैं।",धर्मार्थकाममोक्षाः - इत्येते चत्वारः पुरुषार्थाः वर्तन्ते। इसके पश्चात्‌ प्रक्रियाकार्य में पुत्रीयति रूप सिद्ध होता है।,ततः प्रक्रियाकार्ये पुत्रीयति इति रूपं सिध्यति। इस सूत्र से इत्‌ आदेश का विधि होता है।,इदं सूत्रम्‌ इत्‌ इति आदेशं विदधाति। "जैस घटाकाश,मठाकाश, करकाकाश, गृहाकाश, इस प्रकार से एक ही अकाश जातीय भेद व्यपदेश से गौण होता है उसी प्रकार श्रुति में भी आकाश की उत्पत्ति गैणता के द्वारा देखनी चाहिए।","यथा च - घटाकाशः, करकाकाशः, गृहाकाशः इत्येकस्याप्याकाशस्य एवंजातीयको भेदव्यपदेशो गौणो भवति तद्वत्‌ श्रुतौ आकाशस्योत्पत्तिः गौणतया द्रष्टव्या।" लघु त्रिमुनि कल्पतरु करने पर तो नौ व्याकरण को स्मरण करते हैं - 'शन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम्‌।,लघुत्रिमुनिकल्पतरुकृतः तु नव व्याकरणानि स्मरन्ति- 'एन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम्‌। वस्तु का दर्शन हो गया वह मिल भी गयी तथा जब उसका उपभोग किया तो उससे उत्पन्न होने वाली वृत्ति प्रमोद कहलाती है।,वस्तुनः दर्शनमभवत्‌। तस्य प्राप्तिरपि जाता। ततश्च तदनुभवः यदा भवति तदा जायमाना वृत्तिः प्रमोद इत्युच्यते। (३वे.उ.6.23) 11. वेदान्त में कितने कर्म होते हैं तथा वे कौन-कौन से हैं?,(श्वे.उ.६.२३) ११. वेदान्ते कति कर्माणि। कानि च तानि। वह मेरा मन शुभ सकल्प वाला हो।,तन्मे मन शुभसङ्कल्पम् अस्तु। 29. '' अव्ययीभावः'' यह सूत्र किस प्रकार का है?,"२९. ""अव्ययीभावः"" इति सूत्रं किंप्रकारकम्‌?" यास्काचार्य ने निरुक्त में इन मन्त्रों की व्याख्या की।,यास्काचार्यः निरुक्ते एतेषां मन्त्राणां व्याख्यां कृतवान्‌। 2 मुक्ति कितने प्रकार की होती है?,२. मुक्तिः कतिविधा? अश्वमेध यज्ञ तो सार्वभौम के स्वामी की अभिलाषा से सम्राट करते थे।,अश्वमेधयज्ञस्तु सार्वभौमाधिपत्याभिलाषिसम्राजे विहितोऽस्ति। परिभूः यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,परिभूः इति रूपं कथं सिद्धम्‌? "दिन का देवता मित्र है, उससे यह प्राणों का प्रतिनिधि है।","दिवसानां देवता मित्रः अस्ति, तेन असो प्राणानां प्रतिनिधिः अस्ति।" उसके बाद में दूसरा अनुबन्ध विषय अब उपस्थापित किया जा रहा है।,द्वितीयः अनुबन्धस्तावद्‌ विषयः। सोऽधुनात्रोपस्थाप्यते। और तृतीयावचनान्त होने से विपरिभाग होने पर और उसके समर्थन से यह होता है।,तच्च तृतीयान्तत्वेन विपरिणमते। तेन समर्थेन इति भवति। "गोपि इस विग्रह में अधिगोप इस स्थिति में अदत्त अव्ययीभाव से पर सु का अमादेश विधायक “ ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः""” और “तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌'' इन दोनों सूत्रों की व्याख्या की गई।","गोपि इति विग्रहे अधिगोप इति स्थिते अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्परस्य सोरमादेशविधायकं ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" ""तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इति सूत्रद्वयं व्याख्यातम्‌।" "जैसे राजा का पुरोहित उसके अभीष्ट को पूर्ण करता है, वैसे अग्नि भी यज्ञ का अपेक्षित होम को पूर्ण करता है।","यथा राज्ञः पुरोहितः तदभीष्टं सम्पादयति, तथा अग्निरपि यज्ञस्य अपेक्षितं होमं सम्पादयति।" 1863-ईस्वी जन्वरिमासस्य 12-दिनाङ्कः।,१८६३-ईशवीयाब्दस्य जन्वरिमासस्य १२-दिनाङ्कः "ये अग्नि तीन प्रकार की है अर्थात्‌ पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक ये तीनों स्थान भेद से भिन्न है।","अयमग्निः त्रेधा अर्थात्‌ पृथिवी, अन्तरिक्षम्‌, द्युलोकः इति स्थानत्रयभेदेन भिन्नः।" अश्विनौ इसका वैदिक रूप क्या है?,अश्विनौ इत्यस्य वैदिकं रूपं किम्‌। उपैति इसका अर्थ समीप जाता है।,उपैति इति समीपं गच्छति। उसका क्या आकर और साधनों की आवश्यकता होती है।,तेषु किमाकाराणां साधनानाम्‌ आवश्यकता भवति। बार बार अभ्यास के द्वारा मन संयमित हो जाता है।,पुनः पुनः अभ्यासेन मनः संयतं भवति भाषितपुस्कात्पर होने पर ऊङ अभाव जिसमें तथाभूत स्त्रीलिङ्ग का पूर्वपद का कर्मधारय में जातीय और देशीय परत: (आगे से) पुंबाचक का ही रूप होता है।,भाषितपुंस्कात्पर ऊङोऽभावो यस्मिन्‌ तथाभूतस्य स्त्रीलिङ्गकस्य पूर्वपदस्य कर्मधारये जातीयदेशीययोश्च परतः पुंवाचकस्येव रूपं भवति । "दिव्याः - दिवि भवाः दिव्याः, दिव-धातु सेर यत्प्रत्यय करने पर, प्रथमाबहुवचन में।","दिव्याः - दिवि भवाः दिव्याः , दिव्‌ - धातोः यत्प्रत्यये, प्रथमाबहुवचने ।" पुरुषसूक्त में किसने आदित्यरूप को प्राप्त किया?,पुरुषसूक्ते कः आदित्यरूपं प्राप्तः। उस फल के उपभोग के लिए बार बार जन्म सम्भव होता है।,तस्य फलस्य उपभोगाय पुनः पुनः जन्म सम्भवति। अर्थात्‌ आहो उताहो इनसे युक्त व्यवधान तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त होता है।,अर्थात्‌ आहो उताहो इत्याभ्यां युक्तमपि व्यवहितं तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं भवति। तीन धातुओ का समाहार त्रिधातु कहलाता है।,त्रयाणां धातूनां समाहारस्त्रिधातु। "यजु संहिता साहित्य ऋग्वेद संहिता, सामवेद संहिता, यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता इन चारो संहिता में भी यजु संहिता अत्यधिक महत्त्व पूर्ण है।",यजुःसंहितासाहित्यम्‌ ऋग्वेदसंहिता सामवेदसंहिता यजुर्वेदसंहिता अथर्ववेदसंहिता इति एतासु चतसृष्वपि संहितासु यजुःसंहिता अतीव महत्त्वपूर्णा। उदात्त के लिए किसी भी चिह्न नहीं किया है।,उदात्तस्य कृते किमपि चिह्नं नास्ति। २०॥ सायणभाष्यम्‌ - देवों के लिए तप करोति प्रकाशयति च प्रकाशते।,२०॥। सायणभाष्यम्‌- देवेभ्यः अर्थाय आतपति आतपं करोति प्रकाशयति च प्रकाशते। इसके बाद समास का प्रातिपदिकत्व से ““सुपोधातुप्रातिपदिकयोः'' इससे सुप्‌ का लोप होने पर न ब्राह्मण होता है।,"ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ "" सुपो धातुप्रातिपदिकयोः "" इत्यनेन सुब्लुकि न ब्राह्मण इति भवति ।" लेकिन जगने पर तो वह दरिद्र ही होता है न की राजा।,प्रबोधे च स दरिद्र एव भवति न तु राजा। “शेषो बहुव्रीहिः” यह अधिकृत करके विहित समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है।,"""शेषो बहुव्रीहिः"" इत्यधिकृत्य विहितः समासः तत्पुरुषसंज्ञकः भवति।" "2.8 तृतीयातत्कृतार्थेन गुणवचनेन सूत्रार्थ - तृतीयान्त सुबन्त को तृतीयान्त विभक्ति अर्थ में गुण, वचन और अर्थ शब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।",तृतीया तत्कृतार्थन गुणवचनेन सूत्रार्थः - तृतीयान्तं सुबन्तं तृतीयान्तार्थकृतगुणवचनेन अर्थशब्देन च सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। इससे इस संहिता का प्राचीन काल में अत्यधिक प्रचार का बोध होता है।,अनेन अस्याः संहितायाः प्राचीनकाले विपुलप्रचारस्य बोधो भवति। अतः प्रकृत सूत्र से यूपदारु यहाँ पर यूप इस पूर्वपद में प्रकृति स्वर होता है।,अतः प्रकृतसूत्रे यूपदारु इत्यत्र यूप इति पूर्वपदे प्रकृतिस्वरः भवति। कृ धातु से *“तव्यतव्यानीयरः'' इससे तव्यत्‌ प्रत्यय होने पर कर्त्तव्यम्‌ रूप होता है।,कृधातोः तव्यत्तव्यानीयरः इत्यनेन तव्यप्रत्यये कर्तव्यम्‌ इति रूपम्‌। "यद्यपि कितव सोचता है की अब नही खेलूंगा, फिर भी पीले पासों को देखकर पतित व्यभिचारिणी स्त्री के समान ही चला जाता है।",यद्यपि कितवः चिन्तयति यत्‌ न क्रीडिष्यामीति तथापि इरिणे अक्षेषु पतितेषु व्यभिचारिणीः स्त्रीः एव गच्छति । रुद्र के कण्ठ का क्या वर्ण है?,रुद्रस्य कण्ठः किंवर्णीयः? वस्तुत आरण्यक का परिशिष्टभूत उपनिषद्‌ है।,वस्तुतः आरण्यकस्य परिशिष्टभूता उपनिषत्‌। इसके बाद सुराजन्‌ से पुल्लिंग का लोप होने पर सुप्रत्यय में प्रक्रियाकार्य में सुराजा रूप बना।,ततः सुराजन्‌ इत्यस्मात्‌ पुंसि सौ प्रक्रियाकार्ये सुराजा इति रूपम्‌। उसके बाद श्रवण मनन निदिध्यासनादि के विषय में भी कहा जाएगा।,ततश्च श्रवणमनननिदिध्यासनानि वक्ष्यन्ते। 85. “झयः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,८५. झयः इति सूत्रस्य कः अर्थः? और तैत्तिरीय में कहा गया ` त्वष्टा हतपुत्रः' इस उपाख्यान में कहा गया है - “स यज्ञवेशसं कृत्वा प्रासहा सोममपिबत्‌' (तैः - २.४.१२.१) इति।,तथा च तैत्तिरीयाः 'त्वष्टाहतपुत्रः' इत्येतस्मिन्नुपाख्याने समामनन्ति - 'स यज्ञवेशसं कृत्वा प्रासहा सोममपिबत्‌' (तैः - २.४.१२.१) इति। अतः भगवद्गीता में कहा गया है- “प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्‌ पार्थ मनोगतान्‌।,उच्यते च भगवता श्रीमद्भगवद्गीतासु स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम्‌ - “प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्‌ पार्थ मनोगतान्‌। अथर्ववेद की शाखाओं का विस्तार पुराणों में वर्णित है।,अथर्ववेदस्य शाखानां विस्तारः पुराणेषु वर्णितः अस्ति। "जैसे छान्दोग्योपनिषद में “उत तमादेशमप्राक्ष्यः', येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌ (छा.उ.6.1.3) इति इस प्रकार से अद्वितीय वस्तु की प्रशंसा की जाती है।","यथा छान्दोग्योपनिषदि 'उत तमादेशमप्राक्ष्यः, येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌' (छा.उ.६.१.३) इति अद्वितीयवस्तुनः प्रशंसनम्‌ क्रियते।" काम क्रोधादि की लघुता से शुद्धि की मात्रा का अनुमान लगाना चाहिए।,कामक्रोधादीनां लाघवेन शुद्धैः मात्रा अनुमीयते। आचार्य सायण की यह अपनी शाखा थी।,आचार्यसायणस्य इयं स्वकीया शाखासीत्‌। जिस प्रकार से जादुगर अपने जादु को जानता हुआ उसको सत्य को रूप में ग्रहण नहीं करता है।,तथाहि ऐन्द्रजालिकः स्वक्रीडाम्‌ इन्द्रजालम्‌ इति ज्ञात्वा सत्यरूपेण यथा न गृह्णाति । "वे यज्ञ के अनुष्ठाता या उपासक है, ह = निश्चय से, महिमानः = माहात्म्ययुक्त हुए, नाक = स्वर्ग को, सचन्त = प्राप्त हुए, यत्र = स्वर्ग में, पूर्व = पुरातन, साध्याः = देवगण, देवाः = सुर, सन्ति = है।","ते यज्ञानुष्ठाताः उपासकाः वा, ह= निश्चयेन, महिमानः= माहात्म्ययुक्ताः सन्तः, नाकं= स्वर्ग, सचन्त= प्राप्नुवन्ति, यत्र= स्वर्गे, पूर्वे= पुरातनाः, साध्याः= देवगणाः, देवाः= सुराः, सन्ति= वर्तन्ते।" सूत्र अर्थ का समन्वय- कुश-इस शब्द में दो अच्‌ है।,सूत्रार्थसमन्वयः- कुश-इति शब्दे अज्द्वयं वर्तते। स एव जातः स जनिष्यर्माणः प्रत्यङजनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥४ ॥,स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ॥४ ॥ "अस्य = यज्ञ का, आज्यं = घृत, वसन्तः = ऋतु ही, आसीत्‌ = था।","अस्य= यज्ञस्य, आज्यं= घृतम्‌, वसन्तः= ऋतुः एव, आसीत्‌= अभूत्‌।" सरलार्थ- मनुष्यों के मनोहारि वर्षा जैसे वृष्टिकाल में कभी नदी का अतिक्रमण करके जाती है वैसे ही पृथिवी पर जल वृत्र के शरीर को अतिक्रमण करके गिरता है।,सरलार्थः - मनुष्याणां मनोहारि वारि यथा वृष्टिसमये कदाचित्‌ नदीम्‌ अतिक्रम्य गच्छति तथैव पृथिव्यां आपः पतितः वृत्रस्य शरीरम्‌ अतिक्राम्यन्ति। धनुष्ट्वम्‌ इसका सन्धि विच्छेद करो?,धनुष्ट्वमित्यस्य सन्धिं विच्छेदयतु? “प्रत्यय ग्रहणे यस्मात्स विहितस्तदादेसदन्तस्य च ग्रहणम्‌'' इस परिभाषा से सुप्‌ प्रत्ययबोधक प्रत्याहार के ग्रहण से तदन्तविधि है।,"""प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स विहितस्तदादेस्तदन्तस्य च ग्रहणम्‌"" इति परिभाषया सुप्‌ इति प्रत्ययबोधकस्य प्रत्याहारस्य ग्रहणात्‌ तत्र तदन्तविधिः।" उस सुप्‌ प्रत्यय से सुबन्तम्‌ यह अर्थ और सुपा इस पद से सुबन्तेन यह अर्थ लिया गया है।,"तेन सुप्‌ इत्यस्य सुबन्तम्‌ इत्यर्थः, सुपा इत्यस्य च सुबन्तेन इत्यर्थः।" तन्त्र मन्त्रादि के प्रयोग से प्रेत पिशाचादि के दुःखों को निवृत्ति हो जाती है।,तन्त्रमन्त्रप्रयोगेण च प्रेतपिशाचादिजदुःखनिवृत्तिः। अर्थात्‌ कर्मयोग के द्वारा सत्वशुद्धि उसके बाद परोक्षज्ञान को प्राप्ति उसके बाद काम्यनिषिद्ध नित्य नैमित्तिक रूप जो कर्म है उनका विधिवत्‌ त्याग करना इस प्रकार से सर्वकर्म सन्यास होता है।,"अर्थात्‌ कर्मयोगेन सत्त्वशुद्धिः, ततः परोक्षज्ञानप्राप्तिः, ततः काम्य-निषिद्ध-नित्य- नैमित्तिक-रूपाणि यानि कर्माणि सन्ति तेषां विधिवत्‌ त्यागः, स एव सर्वकर्मसन्न्यासः।" इससे जाना जाता है की इस वेद में पहले शान्ति पौष्टिक मन्त्रों की सत्ता थी उसके बाद आभिचारिक मन्त्रों का सन्निवेश हुआ।,एतस्माद्‌ ज्ञायते यदस्मिन्‌ वेदे प्रथमतः शान्तिपौष्टिक-मन्त्राणां सत्ता आसीत्‌ तदनन्तरम्‌ आभिचारिकमन्त्राणां सन्निवेशः अभवत्‌। क्योंकि श्रित आदि सुबन्त्व नहीं है।,यतो हि श्रितादीनां सुबन्तत्वं नास्ति। इसलिए सभी प्रकार के आनन्द का हेतु आत्मा ही है।,नाम सर्वस्यापि आनन्दस्य हेतुः आत्मा एव। किस प्रकार उनका घर का वैभव होता है इत्यादि चौदह मन्त्रो में कहा गया है।,कीदृशं तेषां गृहवैभवं भवति इत्येते मन्त्राः चतुर्दश । "दूसरे प्रपाठक के पहले तीन अध्यायों में उक्थ, निष्कैवल्य, शस्त्र, प्राणविद्या, पुरुष आदि की विवेचना है।","द्वितीयप्रपाठकस्य प्रथमेषु त्रिषु अध्यायेषु उक्थ,निष्कैवल्य, शस्त्र, प्राणविद्या, पुरुषप्रभृतीनां विवेचनमस्ति।" यहाँ इससे नुट्‌ अचि यह पदच्छेद है।,अत्र तस्मात्‌ नुट्‌ अचि इति पदच्छेदः । पदपाठ - यस्या:।,पदपाठः- यस्याः। संसार में यह दिखाई भी देता है की जब दीपक का प्रकाश होता है तब उसके पास में स्थित वस्तुएँ भी प्रकाशित होने लग जाती हैं।,दृश्यते च लोके दीपः प्रकाशते चेत्‌ तत्सन्निधौ विद्यमानानां द्रव्याणामपि प्रकाशो भवति। सूत्र का अवतरण- सु के परे होने पर उससे पूर्व एक अच वाले शब्द से परे तृतीया आदि विभक्ति में उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- सौ परे सति पूर्वस्मात्‌ एकाचः शब्दात्‌ परस्य तृतीयादिविभक्तेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। उससे ही कहा - 'असन्दिग्ध -अनधिगत-अबाधित अर्थ बोधक वाक्य प्रमाण' है।,तस्मादेव उक्तम्‌ - 'असन्दिग्ध-अनधिगत- अबाधितार्थबोधकं वाक्यं प्रमाणम्‌' इति। 31. प्रत्याहार का स्वरूप क्या होता है?,३१. प्रत्याहारस्वरूपं किम्‌? "वेदों से, औषधी से।",वेदेभ्यः ओषधिभ्यः। किस प्रकार का अशित शब्द आद्युदात्त है?,कीदृशः अशितशब्दः आद्युदात्तः? 4. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्‌ ... यहाँ पुरुष का महत्त्व ही सर्वोत्कृष्टतायुक्त और देशकाल आदि के भेद से रहित है।,4. वेदाहमेतं पुरुषं म॒हान्त॑म्‌ इत्यत्र पुरुषस्य महत्त्वं हि सर्वोत्कृष्टत्वं देशकालाद्यवच्छेदरहितत्वम्‌। अन्त मे आनन्दमय कोश आत्मा नहीं है इस प्रकार से प्रतिपादित किया गया है।,अन्ते च आनन्दमयः नात्मा इति प्रतिपादितम्‌। सेनापति उस समय कहता है यहाँ पर क्रियाफल का सम्बन्ध राजा का तथा सेनापति का देखा गया है।,तथा सेनापतिः वाचैव करोति; क्रियाफलसम्बन्धश्च राज्ञः सेनापतेश्च दृष्टः। इसी प्रकार अन्य जगह भी पारेवत आदि शब्दों में भी जानना चाहिए।,एवंप्रकारेण अन्यत्रापि पारेवतादिषु शब्देषु अवगन्तव्यम्‌। शक्यसाक्षात्सम्बन्ध वाली लक्षणा केवललक्षणा कहलाती है।,शक्यसाक्षात्सम्बन्धः केवललक्षणा । प्राण सबसे पूर्व चलेन वाला नासाग्रवर्ती होता है।,प्राणो हि प्राग्गमनवान्‌ नासाग्रवर्ती। इसलिए निर्विकल्प समाधि ही वहाँ पर ह्वारभूत सविकल्प समाधि का स्वरूप आलोचित किया गया है।,अतः निर्विकल्पसमाधेः तत्र च द्वारभूतस्य सविकल्पसमाधेः स्वरूपं सुतरामालोचनीयम्‌ । आचार्यो के तीन गण कौन-कौन से है?,आचार्याणां त्रयो गणाः के? तब उत्तर देते हुए कहते हैं की मोक्ष के नित्यत्व होने के कारण यहाँ पर यह दोष नहीं है।,नैष दोषः। नित्यत्वात्‌ मोक्षस्य। अर्थात्‌ अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में अन्तरिन्द्रिय चित्त का स्थापन करना ही धारण कहलाती है।,अद्वितीयवस्तुनि ब्रह्मणि अन्तरिन्द्रियस्य चित्तस्य स्थापनं हि धारणा। बाईसवे अध्याय से आरम्भ करके पच्चीसवे अध्याय तक अश्वमेध यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों का निर्देश है।,द्वाविंशत्यध्यायाद्‌ आरभ्य पञ्चविंशत्यध्यायपर्यन्तम्‌ अश्वमेधयज्ञस्य विशिष्टमन्त्राणां निर्देशोऽस्ति। कुछ लोग कहते हैं की कर्मकाण्ड के बिना ज्ञानकाण्ड सम्भव नहीं होता है।,केचिद्‌ वदन्ति यत्‌ कर्मकाण्डं विना ज्ञानकाण्डं न सम्भवति। "जैसे - नन्दिकेश्वर काशिका-वृत्ति में तत्त्वविमर्शनी व्याख्या में उपमन्यु के द्वारा लिखा गया है - “तथा चोक्तम्‌ इन्द्रेण अन्तर्वर्णसमुदभूता धातवः परिकीर्तिता इति।"" वररुचि ने ऐन्द्र निघण्टु इसके आरम्भ में ही इसका निर्देश किया है - “पूर्व पद्मभुवा प्रोक्तं श्रुत्वेन्द्रेण प्रकाशितम्‌।",यथा - नन्दिकेश्वरः काशिका-वृत्तेः तत्त्वविमर्शनीव्याख्यायाम्‌ उपमन्युना लिखितम्‌ - 'तथा चोक्तम्‌ इन्द्रेण अन्तर्वर्णसमुद्भूता धातवः परिकीर्तिता इति।' वररुचिः ऐन्द्रनिघण्टुः इत्येतस्य आरम्भे एव अस्य निर्देशं कृतवान्‌- 'पूर्वं पद्मभुवा प्रोक्तं श्रुत्वेन्द्रेण प्रकाशितम्‌। जो हजारों वर्षों से सनातन धर्म के मूल को बचाए हुए है।,यच्च सहस्रवर्षेभ्यः सनातनधर्मस्य अन्तर्निहिततत्त्वरूपेण विराजते। कुत्स्यमान सुबन्तों को कुत्सन समानाधिकरण सुबन्तों के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"कुत्स्यमानानि सुबन्तानि कुत्सनैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" 56. “ अव्ययीभावे चाकाले'' इस सूत्र से क्या विधान होता है?,"५६. ""अव्ययीभावे चाकाले"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" परिपूर्वक भू-धातु से क्विप्प्रत्यय करने पर।,परिपूर्वकात्‌ भू-धातोः क्विप्प्रत्यये। तब चक्षु इन्द्रियों के द्वारा मन घट के साथ संयुक्त होता है।,तदा चक्षुरिन्द्रियद्वारा मनः घटेन सह संयुनक्ति। यातारम्‌ -या धातु तृच्‌ करने पर द्वितीया एकवचन में रूप है।,यातारम्‌ - याधातोः तृचि द्वितीयैकवचने रूपम्‌। इसी प्रकार यह मन भी पुरुष में दुढ॒ता को जन्म देकर के पुरुष को बाँध लेता है।,एवमेव मनः पुरुषे दृढं रागं जनयित्वा पुरुषं बध्नाति। उससे प्रत्यय ग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः इस परिभाषा से वहाँ तदन्तविधि होती है।,तेन प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः इति परिभाषया तत्र तदन्तविधिः भवति। स्वयं के द्वार सम्पादित वासनाओं के अनुरोध से मन के द्वारा अन्दर ही प्रज्ञारूप में जीव की उत्पत्ति होती है।,स्वेन सम्पादितानां वासनानाम्‌ अनुरोधेन मनोद्वारा अन्तः एव प्रज्ञा जीवस्य उत्पद्यते। विश्वशब्दः अन्तोदात्त कब होता है?,विश्वशब्दः कदा अन्तोदात्तः भवति? अतः यहाँ विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है।,अतः अत्र विकल्पेन अनुदात्तं न भवति। पतयन्ति - पत्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,पतयन्ति - पत्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । 11.5.10 ) तत्त्वमसि यहाँ पर कोई भी लक्षणा नहीं है।,11.5.10) तत्त्वमसीत्यत्र न कापि लक्षणा। इस प्रकार से जब चित्त की शुद्धि होती है।,इत्थं चित्तशुद्धिः भवति चेत्‌ । "तीन पदात्मक इस सूत्र में कर्तृकरणे में सप्तमी एकवचनान्त, कृता यह तृतीया एकवचनान्त बहुल यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","पदत्रयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ कर्तृकरणे इति सप्तम्येकवचनान्तम्‌, कृता इति तृतीयैकवचनान्तम्‌ बहुलम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" काम कर्म के हेतुओं का प्रवर्तक होता है।,कामः कर्महेतुः प्रवर्तकत्वात्‌। यह क्या है।,किमिव। जैसे- १. कश्यप का अर्थ होता है सूर्य।,यथा (१) कश्यपस्यार्थो भवति सूर्यः। नीलग्रीव विषधारण करने से नीली गर्दन कंठ है जिसका अस्तमय में नीलकण्ठ के समान लक्ष्य करके कहा।,नीलग्रीवः विषधारणेन नीला ग्रीवा कण्ठो यस्य अस्तमये नीलकण्ठ इव लक्ष्यः। "बलास(क्षय आदि) रोग (६/१४), गण्डमाला (६/८३) , यक्ष्मा (६/८५) आदि रोगों को दूर करने के लिए वरुण नाम की औषधि सेवन का उपयोग प्राप्त होते है।","बलासः(क्षयादिः) रोगः (६/१४), गण्डमाला (६/८३), यक्ष्मा (६/८५) प्रभृतीनां रोगाणां दूरीकरणाय वरुणनामकस्य ओषधेः सेवनस्य उपयोगः प्राप्यते।" इस सूत्र से समास होता है।,अनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासो विधीयते । सरलार्थः - इस मन्त्र में जुआरी पासरों के प्रति कहते है की हे पासों तुम हमारे साथ मित्रता करो।,सरलार्थः - अस्मिन्‌ मन्त्रे कितवाः अक्षान्‌ प्रति वदति यत्‌ हे अक्षाः यूयम्‌ अस्माभिः सह मित्रं कुरुत । इस प्रकार से वस्तुओं का परस्पर अध्यास होता है।,एवञ्च अध्यासः वस्तुनोः परस्परं भवत्येव। यहाँ आत्म तत्त्व का विशेष विवेचन होने से।,अत्र आत्मतत्त्वस्य विशेषविवेचकत्वात्‌। और जिसने प्रलय के बाद एक साथ के स्थान को तीन प्रकार से विशेष कर कम्पाता हुआ पुण्यकृत मनुष्यों के साथ निवासयोग्य भू आदि सात लोकों की रचना की।,किञ्च यश्चोत्तरम्‌ उद्गततरम्‌ उत्तरभाविनं सधस्थं सहस्थानं पुण्यकृतां सहनिवासयोग्यं भूरादिलोकसप्तकम्‌ अस्कभायत्‌ स्कम्भितवान्‌ सृष्टवानित्यर्थः। तीन प्रकार के दुःखों के नाश को सभी चाहते हैं।,त्रिविधदुःखनाशं को वा न वाञ्छति। 15.1.1 मूलपाठ की व्याख्या- अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌।,१५.१.१ इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। इस निद्रित सर्प के जगने को ही चिन्तन कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कहते हैं।,अस्य निद्रितसर्पस्य जागरणमेव कुण्डलिनीशक्तेः जागरणम्‌ इत्युच्यते। व्याख्या - इन्द्र को रोकने के लिये वृत्र ने जिस माया से विद्युत आदि का निर्माण किया वे भी इन्द्र को रोक नहीं सके।,व्याख्या- इन्द्रं निषेद्धुं वृत्रो यान्‌ विद्युदादीन्‌ मायया निर्मितवान्‌ ते सर्वेप्येनं निषेद्धुमशक्ताः। इसमें तादात्म्य का कोई दोष नहीं है।,नायं दोषः तादात्म्यात्‌। और वे खण्ड अष्टक शब्द से और काण्ड शब्द से प्रयोग करते हैं।,ते च खण्डाः अष्टकशब्देन काण्डशब्देन च व्यवह्नियन्ते। इसलिए जीव ही संसारी होता है।,जीव एव संसारी भवति। महान्‌ अर्थ का प्रतिपादन करने से महावाक्य कहलाते हैं।,महदर्थप्रतिपादकत्वात्‌ महावाक्यम्‌ इति अभिधानम्‌। 12. निश्चयात्मिका अन्तःकरण की प्रवृत्ति होती हैं ?,निश्चयात्मिका अन्तःकरणवृत्तिः - "गति समास का ऊरीकृत्य, शुक्लीकृत्य, पटपटाकृत्य इत्यादि यहाँ उदाहरण हैं।",गतिसमासस्य ऊरीकृत्य शुक्लीकृत्य पटपटाकृत्य इत्यादीनि अत्रोदाहरणानि । इस प्रकार का जो यह अग्नि है वह देवता के साथ यज्ञ में आये।,एवं यः अग्निः स देवताभिः सह यज्ञम्‌ आगच्छतु। “शेषो बहुव्रीहिः'' इस सूत्र तक।,"""शेषो बहुव्रीहिः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्प्राक्पर्यन्तम्‌।" समास यह प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पद है।,समासः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। निर्विकल्प समाधि ही निदिध्यासन की पराकाष्ठा होती है।,निर्विकल्पसमाधिरेव निदिध्यासनस्य पराकाष्ठा। इस प्रकार से जीव का स्वरूप ब्रह्म के अज्ञान के द्वारा आवृत्त होता है।,एवं जीवस्य स्वरूपं ब्रह्म अज्ञानेन आवृतम् । "वहाँ आपिशलि, शाकटायन, गालवेन्द्र आदि व्याकरण कर्ताओं का उल्लेख किया है।",तत्र आपिशलि-शाकटायन- गालवेन्द्रादीनां व्याकरणकर्तृणाम्‌ उल्लेखः कृतः वर्तते। "स्त्रीत्व, पुंस्त्व और नपुंसकत्व हैं।","स्त्रीत्वम्‌, पुंस्त्वम्‌ नपुंसकत्वम्‌ च इति।" देह अशुद्ध पदार्थ होता है।,देहः अशुद्धः पदार्थः भवति। जीवन्मुक्त के आचरण के विषय में लिखिए।,जीवन्मुक्तस्य आचरणविषये लिख्यताम्‌? इसलिए उसके बारे में ऐसा सुना जाता है “ब्रह्म समश्नुते ” इस प्रकार से।,श्रूयते च - अत्र ब्रह्म समश्नुते इति। "भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्‌ इति सप्त ऊद्धर्वलोकाः, अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल तथा पाताल इस प्रकार से सात अधोलोक होते हैं।","भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्‌ इति सप्त ऊद्‌र्ध्वलोकाः, अतल-वितल-सुतल- रसातल-तलातल-महातल-पातालाः इति सप्त च अधोलोकाः इति चतुर्दश भुवनानि।" सूत्र अर्थ का समन्वय- शकटी इस पद में प्रत्येक स्वर उदात्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- शकटी इत्यस्मिन्‌ पदे प्रत्येकं स्वराः उदात्ताः सन्ति। “कश्यप देखने वाला होता है।,“कश्यपः पश्यको भवति। सुन्वते - सु-धातु से श्नुप्रत्यय और शतृप्रत्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में सुन्वते रूप है।,सुन्वते- सु-धातोः श्नुप्रत्यये शतृप्रत्यये च चतुर्थ्येकवचने सुन्वते इति रूपम्‌। साकल्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण होता है सतृणम्‌।,साकल्यार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति सतृणम्‌ इति। उससे समाहार में वाच्य होने पर यह अर्थ प्राप्त होता है।,तेन समाहारे वाच्ये इत्यर्थः प्राप्यते । इन अर्थवाद से और प्रशंसा वचन से ब्राह्मण ग्रन्थ आदि से अन्त तक भरे हुए है।,एतैः अर्थवादैः प्रशंसावचनैः च आद्यन्तब्राह्मणग्रन्थाः सम्पूरिताः सन्ति। अपसः अप इति कर्मनाम (निघ० २.१.१)।,अपसः अप इति कर्मनाम (निघ ० २.१.१)। सूत्र का अर्थ है - तित्प्रत्यय स्वरित हो।,ततश्च सूत्रार्थः भवति- तित्प्रत्ययः स्वरितः स्यात्‌ इति। इस सूत्र से एकवद्‌ भाव होता है।,अनेन सूत्रेण एकवद्भावः विधीयते । अतन्वत - तनु विस्तारे इस धातु से लङ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,अतन्वत- तनु विस्तारे इति धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। व्याख्या - पूर्व में कहे गये प्रपञ्च का अर्थ संक्षिप्त करके दिखाते है।,व्याख्या- पूर्वं प्रपञ्चेनोक्तमर्थ संक्षिप्यात्र दर्शयति । गच्छति - गम्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुष एकवचन में गच्छति यह रूप बनता है।,गच्छति- गम्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने गच्छति इति रूपम्‌। सृष्टिक्रम में श्रुतिणें के विरोध को जाना।,सृष्टिक्रम: श्रुतेः विरोध: ज्ञायते। येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीर।,येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। अक्ष भगवन्‌ मेरे साथ मित्रता करो।,अतः हे अक्षभगवन्‌ मया सह सख्यतां विधेहि । सरलार्थ - इस मन्त्र में इन्द्र के पराक्रम युक्त कार्यों का वर्णन किया गया है।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे इन्द्रस्य पराक्रमयुक्तकार्याणि वर्णितानि। यहाँ सूत्र में “स्त्रियाम्‌” (7. 1) यह अधिकार आ रहा है।,"अत्र सूत्रे ""स्त्रियाम्‌"" (७.१) इति अधिकारः आगच्छति।" विद्वत्‌ संन्यासी परमहंस भी कहलाता है।,विद्वत्संन्यासी परमहंसः अपि कथ्यते। 7. पृष्‌-धातु से शतृप्रत्यय होने पर और पृषत्‌ च तद्‌ आज्यं च पृषदाज्यम्‌।,"7. पृष्‌-धातोः शतृप्रत्यये, पृषत्‌ च तद्‌ आज्यं च।" "उदात्त के साथ एकादेश तीन प्रकार का हो सकता है - उदात्त अनुदात्त के स्थान में एकादेश, उदात्त उदात्त के स्थान में एकादेश, और उदात्त स्वरित के स्थान में एकादेश।","उदात्तेन सह एकादेशः त्रिविधः भवितुम्‌ अर्हति - उदात्तानुदात्तयोः स्थाने एकादेशः, उदात्तोदात्तयोः स्थाने एकादेशः, उदात्तस्वरितयोः स्थाने एकादेशः च।" 3. तायते इसका क्या अर्थ है?,३. तायते इत्यस्य कः अर्थः? अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इस सूत्र का क्या अर्थ है?,अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इति सूत्रस्य कः अर्थः? सायणभाष्यम्‌ - उत्तरनारायण आदित्य को मानते है।,सायणभाष्यम्‌- उत्तरनारायणेन आदित्यम्‌ उपतिष्ठते। यहाँ उदाहरण दिया जाता है की जैसे बछडे सहित गाय सोती है वैसे ही मृत वृत्र भी अपनी माता सहित सोया था।,अत्र दृष्टान्तः दीयते यथा वत्सेन सह गौः शेते तथैव मृतः वृत्रोऽपि स्वजनन्या शयानः आसीत्‌। जैमिनि सूक्त-गुणवाद का (मी. सू १/२/९०) शबरभाष्य भारतीय सिद्धान्त की चाभी है।,जैमिनिसूक्तस्थ-गुणवादस्य (मी. सू १/२/१०) शबरभाष्यं भारतीयसिद्धान्तस्य कुञ्जिकाऽस्ति। "रस काव्य की आत्मा है, ऐसा आलंकारिक मानते हैं।",रसः आत्मा काव्यस्य इति आलंकारिकैः प्रतिपादितम्‌। ऋग्वेद की संहिता में “त्रिष्टुप्‌' - छन्द का प्रयोग अधिक है।,ऋग्वेदस्य संहितायां 'त्रिष्टुप्‌-छन्दसः आधिक्यं दृश्यते। आभ्यन्तर शौच मद मान असूया आदि चित्त के मलों के प्रक्षालन से होता है।,आभ्यन्तरं शौचं तावत्‌ मदमानासूयादीनां चित्तमलानां प्रक्षालनम्‌। वेद वचनो से संशय नहीं होते है।,समामनन्तीति वचनात्‌ शंसनादौ न भवन्ति| "होता, अधवर्यु, पुरोहित और ब्रह्मा ये चार नाम अग्नि को उद्देश्य करके प्रयुक्त हैं।",होता अध्वर्युः पुरोहितः ब्रह्मा चेति चतस्रः संज्ञाः अग्निमुद्दिश्य प्रयुज्यन्ते। ऋग्वेद के मन्त्रों में उपमा आदि अलंकारो का प्रयोग देखा जाता है।,ऋग्वेदमन्त्रषु उपमाद्यलंकाराणां प्रयोगः दृश्यते। सुख के प्रकार हैं।,सुखस्य प्रकाराः सन्ति। ( १.२.३५ ) सूत्र का अर्थ - यज्ञकर्म में वौषट्‌- शब्द उदाततर विकल्प से होता है पक्ष में एकश्रुति है।,(१.२.३५) सूत्रार्थः - यज्ञकर्मणि वौषट्‌- शब्द उच्चैस्तरां वा स्यादेकश्रुतिर्वा। उदाहरण- आम्बष्ठ्या। कारीषगन्ध्या।,उदाहरणम्‌ - आम्बष्ठ्या। कारीषगन्ध्या। इसलिए यहाँ पर अयम्‌ (यह) शब्द में विशेष्यत्व होता है।,अतः अयम्‌ इति शब्दार्थस्य विशेष्यत्वम्‌। इसलिए परमार्थिक स्वरूप के ज्ञान के लिए मुनि अरण्य में ही अपने आश्रम आदि का निर्माण करके शिष्यों के लिए तत्त्व ज्ञान का उपदेश दिया है।,अतः पारमार्थिकस्वरूपस्य ज्ञानाय मुनयः अरण्ये एव स्वाश्रमादिकं निर्माय शिष्येभ्यः तत्त्वज्ञानम्‌ उपदिष्टवन्तः। तथा इसी जन्म में उस पाप से मुक्ति के प्राप्त करने लिए प्रयास भी करते हैं।,अस्मिन्नेव जन्मनि तस्मात्‌ पापात्‌ मुक्तिं प्राप्तुं यतन्ते च। वह मछली जिस दिन नौका निर्माण करने के लिए कहा उस दिन ही मनु ने नौका का निर्माण किया।,स मत्स्यः यस्मिन्‌ वत्सरे नौकानिर्माणाय उक्तवान्‌ तस्मिन्‌ वत्सरे एव मनुः नौकां निर्मितवान्‌। वसुधानी - वसु उपपद धा-धातु से ल्युट्‌ ङीप करने पर।,वसुधानी- वसूपपदात्‌ धा-धातोः ल्युटि ङीपि। वही वेद में हिरण्यगर्भ आदि के रूपमें प्रकटित किया गया।,तदेव वेदे हिरण्यगर्भादिरूपेण प्रकटितम्‌। रात दिन तेरे पास में रहने वाली होने पर।,अहोरात्रे तव पार्श्वे पार्श्वस्थानीये। तस्य देवा असन्‌ वशे इसमें किसके वश में देव है और उसका तात्पर्य क्या है?,तस्य देवा असन्‌ वशे इत्यत्र कस्य वशे देवाः। किमत्र तात्पर्यम्‌। देवो का स्थान और शारीर श्रेष्ठ है।,देवानां वपुषां शरीराणां श्रेष्ठम्‌। वैदिक पदों की व्युत्पति ही निरुक्त का विषय है।,वैदिकपदानां व्युत्पादनं हि निरुक्तस्य विषयः अस्ति। अङ्ग- यह किस प्रकार का निपात है?,अङ्ग- इति कीदृशः निपातः? समस्यते इस पद का अर्थ होता है।,समस्यते इति पदस्यार्थो भवति। अनित्य सुख का कारण धर्म भी अर्थात अनित्य है।,अनित्यसुखस्य कारणं धर्मः अपि अर्थात्‌ अनित्यः एव। सोलहवें अध्याय में सौ रुद्र यज्ञ का प्रसङ्ग है।,षोडशाध्याये शतसरुद्रीयहोमस्य प्रसङ्गः अस्ति। इसप्रकार यह समस्त वेदान्त को जानने वाला परमात्मा स्वयं ही देवतात्म जीव हो गया।,सोऽयं सर्ववेदान्तवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया देवतात्मजीवोऽभवत्‌। शुक्लयजुर्वेद में।,शुक्लयजुर्वेदे। यज्ञ विधान के लिए ज्योतिष शास्त्र का इस महत्त्व को भास्कर आचार्य ने भी स्वीकार किया है - “वेदास्तावत्‌ यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण।,यज्ञविधानाय ज्यौतिषशास्त्रस्य इदं महत्त्वं भास्कराचार्येण अपि स्वीकृतम्‌ -'वेदास्तावत्‌ यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण। जैसे मन्त्र में ही कहा गया है की अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व इत्यादि।,यथा मन्त्रे एव उक्तं- अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व इत्यादि। यह ही अक्षसूक्त इस नाम से विख्यात है।,इदमेव अक्षसूक्तम्‌ इति नाम्ना विख्यातम्‌। श्रवण तथा मनन के द्वारा निःसन्दिग्ध ब्रह्म विषय में स्थापित चित्त का यदेकतानत्व एकाकार वृत्तिप्रवाह ही निदिध्यासन होता है।,श्रवणमननाभ्याम्‌ अवधारिते निःसन्दिग्धे ब्रह्मविषये स्थापितस्य चित्तस्य यदेकतानत्वम्‌ एकाकारवृत्तिप्रवाहः तदेव निदिध्यासनम्‌ । उससे सिद्धान्तों में भी बहुत से स्थलों में उनेक स्वभाविक भेद दिए गए है।,तस्मात्‌ सिद्धान्तेषु अपि बहुषु स्थलेषु अस्ति तेषां स्वाभाविकः भेदः। विपश्यति - विपूर्वक दुश्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में विपश्यति यह रूप है।,विपश्यति- विपूर्वकात्‌ दृश्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने विपश्यति इति रूपम्‌। प्रधान शिक्षा का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया है - व्यासशिक्षा - इस ग्रन्थ के ऊपर महामहोपाध्याय-पण्डित वैङकटराम शर्मा द्वारा रचित वेद तैजस नाम की व्याख्या ग्रन्थ उपलब्ध है।,प्रधानशिक्षायाः संक्षिप्तपरिचयं दातुं प्रयासः क्रियते -व्यासशिक्षा- अस्य ग्रन्थस्य उपरि महामहोपाध्याय-पण्डितवैङ्कटरामशर्मणा रचितो वेदतैजसनाम्ना व्याख्याग्रन्थः समुपलब्धः अस्ति। पुस्त्व क्या है?,किं पुंस्त्वम्‌? धर्म के हेतु रागद्वेषमोहादि के अन्य जगह आत्मज्ञान से उच्छेदानुपपत्ति होने से धर्माधर्मोच्छेदानुपपत्ति होती है।,धर्माधर्महेतूनां च रागद्वेषमोहानाम्‌ अन्यत्र आत्मज्ञानात्‌ उच्छेदानुपपत्तेः धर्माधर्मोच्छेदानुपपत्तिः। उसकी महावाक्यों के श्रवण से ही अद्वैत्‌ आत्मसाक्षात्कार की सिद्धि हो जाती है।,तस्य महावाक्यश्रवणमात्रेणैव अद्वैतात्मसाक्षात्कारः सिद्ध्यति। उसी प्रकार यहाँ उक्त तथा अनुक्त समस्त इन्द्रिय अन्तःकरणवृत्तिभेद के द्वारा उपलक्षित चैतन्य ही प्रज्ञान होता है।,अत्र उक्तानुक्तैः सकलैः इन्द्रियैः अन्तःकरणवृत्तिभेदैः उपलक्षितं चैतन्यमेव प्रज्ञानम्‌। फिर अज्ञान असत्‌ अर्थात्‌ अज्ञान नहीं है ऐसा कभी भी नहीं कह सकते हैं।,पुनः च अज्ञानम्‌ असत्‌ अर्थात्‌ अज्ञानं नास्ति इति अपि वक्तुं न शक्यते। 8. विग्रह के कितने भेद होते है?,८. विग्रहस्य कति भेदाः? यह आदित्य रूप से उदय अस्त करते है।,सः अस्ताचलस्थितः सूर्यरूपी। भृधातु से शतृप्रत्यय के योग से भरत्‌ यह प्रातिपदिक प्राप्त होता है।,भृधातोः शतृप्रत्यययोगेन भरत्‌ इति प्रातिपदिकम्‌ लभ्यते। इस धर्म समन्वय को दर्शन तत्वों के समन्वय के रूप में भी कह सकते हैं।,अयं धर्मसमन्वयः दर्शनतत्त्वसमन्वयनाम्ना अपि वक्तुं युक्तः। उस मेघ से भिन्न जल समुद्र की ओर गया।,तेन मेघे भिन्ने जलानि समुद्रम्‌ अगच्छन्‌। काम की कल्पना ही धर्म और अर्थ का पालन करवाती हैं अन्यथा नहीं।,कामलाभाय एव धर्मः अर्थः च सेव्यते नान्यथा। सोमयाग की प्रकृति अग्निष्टोम है अतः दोनों के समान संख्यक पुरोहित समानाहुति द्रव्य प्रयोजन होते हैं।,सोमयागस्य प्रकृतिः अग्निष्टोमः अतः उभयोः समानसंख्याकपुरोहितानां समानाहुतिद्रव्याणां प्रयोजनं भवति। "यहाँ यह जानना चाहिए की जब जप में, न्यूङ्क में, और साम में मन्त्रों का प्रयोग होता है, तब प्रकृत सूत्र से यह एकश्रुति नहीं होती है।","अत्रेदमवधेयं यत्‌ यदा जपे न्यूङ्केषु सामसु च मन्त्राणां प्रयोगो भवति, तदा प्रकृतसूत्रेम न इयम्‌ एकश्रुतिः भवति इति।" बादरायण के द्वारा।,बादरायणेन। "महावीर गुण के द्वारा महान होकर शौर्य से युक्त अनेक शत्रुओं को पीटने में समर्थ, उत्तम गुण उत ऐश्वर्य युक्त धर्मात्मा नीतिमान को।",महावीरं गुणैः महान्‌ भूत्वा शौर्योपेतं तुविबाधं बहूनां बाधकम्‌ ऋजीषं शत्रूणामपार्जकम्‌। श्रितश्च अतीतश्च पतितश्च गतश्च अत्यस्तश्च प्राप्तश्च आपननश्च श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नाः उनके द्वारा इतरेतरयोगद्वन्दसमास हैं।,"श्रितश्च अतीतश्च पतितश्च गतश्च अत्यस्तश्च प्राप्तश्च आपन्नश्च श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नाः, तैः इति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः।" "काम, मद, मान आदि में लिप्त चित्त का शास्त्र प्रतिपादन विषयों में स्थेर्य सम्भव नहीं होता है।",काममदमानादिषु लिप्तस्य चित्तस्य शास्त्रप्रतिपादितविषयेषु स्थैर्यं न सम्भवति। आमन्त्रितस्य इस पद को पदस्य इसके साथ सम्बद्ध है।,आमन्त्रितस्य इति पदं पदस्य इत्यनेन सह सम्बद्धते। अन्तः करण के चार प्रकार कौन-कौन हैं?,अन्तःकरणस्य चातुर्विध्यम्‌ किम्‌? व्याख्या - विश्व के सभी भुवन प्राणियों का कार्य आरम्भ करने का कारण रूप से मैं ही अपने चारो और से अधिष्ठाता के रूप में प्रवृत होता हूँ।,व्याख्या- विश्वा विश्वानि सर्वाणि भुवनानि भूतजातानि कार्याणि आरभमाणा कारणरूपेणोत्पादयन्ती अहमेव परेणानधिष्ठिता स्वयमेव प्रवामि। प्रवर्ते। “विभाषितं विशेषवचने' इस सूत्र में बहुवचनम्‌ यह पद कैसे आता है?,""" विभाषितं विशेषवचने' इति सूत्रे बहुवचनम्‌ इति पदं कथम्‌ आगच्छति ?" वेदाङ्ग ज्योतिष के मत में ज्योतिष का स्थान वेदाङ्गों में सबसे ऊचा स्थान है - यथा शिखामयूराणां नागानां मणयो यथा।,वेदाङ्गज्यौतिषस्य सम्मत्यां ज्यौतिषसमयः वेदाङ्गेषु मूर्धस्थानीयः अस्ति - यथा शिखामयूराणां नागानां मणयो यथा। सहस्र नेत्र किसके है?,सहस्रं लोचनानि कस्य? "संपूर्ण पाठ्य विषय के तीन भाग किए गए हैं प्रत्येक भाग में कुछ पाठ, स्वाध्याय के लिए कितने घंटे, सैद्धांतिक परीक्षा में कितने अंश, प्रायोगिक परीक्षा में कितने अंश, और प्रत्येक अध्याय में अंक विभाजन विषय यहां दिए गए हैं।","समग्रस्य पाठ्यविषयस्य त्रयो भागाः प्रकल्पिताः सन्ति। प्रतिभागम्‌ कति पाठाः, स्वाध्यायाय कति होराः, सैद्धान्तिकपरीक्षायाम्‌ कियान्‌ अंशः, प्रायोगिकपरीक्षायाम्‌ कियान्‌ अंशः, प्रत्यध्यायम्‌ अङ्कविभाजनं चेति विषयाः अत्र प्रदीयन्ते।" आरण्यक किस बेद के अन्तर्गत आता है?,ऐतरेयारण्यकं कस्मिन्‌ वेदे अन्तर्गतम्‌? अमरसन्देश- अक्षसूक्त का अधिक से अधिक स्थानों में द्यूतक्रीडा का दुष्परिणाम कहा गया है।,अमरसन्देशः- अक्षसूक्तस्य अधिकाधिके स्थले द्यूतक्रीडायाः दुष्परिणामं अकथयत् । स्वयं ऋक्‌ संहिता में इस व्याकरण शास्त्र की प्रशंसा में अनेक मन्त्र भिन्न-भिन्न स्थानों में उपलब्ध होते है।,स्वयम्‌ ऋक्संहितायाम्‌ अस्य व्याकरणशास्त्रस्य प्रशंसायाम्‌ अनेके मन्त्राः भिन्न-भिन्नस्थानेषु उपलब्धाः भवन्ति। अतः उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों की एक अभिन्न श्रुति होती है ऐसा अर्थ यहाँ पर समझना चाहिए।,अतः उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणाम्‌ एका अभिन्ना श्रुतिः भवति इति अर्थः अत्र बोद्धव्यः। और आठ भागो में प्रत्येक भाग में आठ अध्याय है।,अष्टसु च भागेषु प्रत्येकम्‌ अष्टौ अध्यायाः सन्ति। इसलिए पदार्थ ज्ञान से परे ही वाक्यार्थ ज्ञान होता है।,अतः पदार्थज्ञानात्‌ परमेव वाक्यार्थस्य ज्ञानं भवति। इस प्रकार से यह कोश कर्तृलक्षण कोश होता है।,कर्तृलक्षणः अयं कोशः। उसकी इस प्रकार व्याख्या भी सम्भव है - जो सृष्टिकर्ता है वह विष्णु है।,तस्य इत्थमपि व्याख्या सम्भवति - यः सृष्टिकर्ता स एव विष्णुः। जिसमें श्वास को ग्रहण किया जाता है वह पूरक कहलाता है।,पूरको नाम श्वासग्रहणम् । तिङन्त आश्रित भी स्वर का विधान है जैसे - पचति गोत्रम्‌ इत्यादि।,तिङन्तमाश्रित्य अपि कदाचित्‌ स्वरः विधीयते यथा पचति गोत्रम्‌ इत्यादि। "वायव्यान्‌ - वायुशब्द से यत्प्रत्यय, उससे द्वितीयाबहुवचन में यह रूप बनता है।","वायव्यान्‌- वायुशब्दात्‌ यत्प्रत्ययः, ततः द्वितीयाबहुवचनम्‌।" उत्तरपक्षपश्चिमकोण में जो परिश्रित जडङऱघामात्र आदि पूर्व निखातास्तासु होम।,उत्तरपक्षपश्चिमकोणे याः परिश्रितो जङ्कामात्र्यादयः पूर्व निखातास्तासु होमः। अभिदासात्‌ - अभि इस उपपदपूर्वक दस्‌-धातु से लेट्‌-लकार का प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।,अभिदासात्‌- अभि इति उपपदपूर्वकात्‌ दस्‌-धातोः लेट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। वैदिक काल में आर्यों की शरीराकृति कैसी थी इस विषय में विद्वान्‌ इन्द्र का रूप वर्णन दिखाकर ही सिद्धान्तमत को पुष्ट करते है।,वैदिककाले आर्याणां शरीराकृतिः कथमासीत्‌ इति विषये इन्द्रस्य रूपवर्णनमेव दर्शयित्वा सिद्धान्तमतं पोषयन्ति विद्वांसः। सूत्र अर्थ का समन्वय- यह पटु- शब्द प्रकार आदिगण में पढ़ा गया है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अयं पटु- शब्दः प्रकारादिगणे पठितः। गन्धर्वनगराकारस्वप्नजलबुद्बुदफेन के समान होते हैं।,गन्धर्वनगराकारस्वप्नजलबुद्गुदफेनसमाः सन्ति। वह अंश ही साधनचतुष्टय है।,स चांशः साधनचतुष्टयमिति। मित्रावरुणा - मित्र और वरुण मित्रावरुणा मित्रावरुणौ इसके स्थान पर यह वेदिक रूप है।,मित्रावरुणा- मित्राश्च वरुणश्च मित्रावरुणा। मित्रावरुणौ इत्यस्य स्थाने वैदिकं रूपमिदम्‌। निर्णिक्‌ - निर्‌ पूर्वकनिज्‌-धातु से क्विप्प्रत्यय करने पर निर्णिज्‌-शब्दनिष्पन्न हुआ।,निर्णिक्‌- निर् पूर्वकनिज्‌-धातोः क्विप्प्रत्यये निर्णिज्‌-शब्दः निष्पन्नः। "इसकी रचना में स्कन्दस्वामी के ऋग्भाष्य टीका से, और महेश्वर की निरुक्त भाष्यटीका से सहायता ग्रहण की है।","अस्मिन्‌ उपोद्धाते स्कन्दस्वामिनः ऋग्भाष्यटीकातः, महेश्वरस्य निरुक्तभाष्यटीकातः च साहाय्यं गृहीतम्‌ अस्ति।" और सूत्रार्थ होता है “सुबन्त का सुबन्त के साथ समास होता है यह अर्थ लिया गया है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""सुबन्तं सुबन्तेन सह समस्यते"" इति।" ऋग्यजुसामार्थव भेद से वेद चार प्रकार के होते हैं।,ऋग्यजुःसामाथर्वभेनदेन तेषां चातुर्विध्यम्‌। इसलिए सबसे पहले दरिद्रों के लिए भोजन औषधि निवास स्थान तथा शिक्षा देनी चाहिए।,तस्मात्‌ आदौ दरिद्राणां कृते भोजनम्‌ औषधं वासस्थानं शिक्षा च देयम्‌। जैसे आँखों से यह घट है।,यथा चक्षुषा अयं घटः अस्ति। भ्रान्ति के नाश होने पर रज्जु में कल्पित सर्पत्व का भी नाश हो जाता है।,भ्रान्तिनाशे सति रज्जौ कल्पितं सर्पत्वमपि नश्यति। यदङ्गदाशुषे ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,यदङ्गदाशुषे... इत्यादिमन्त्रस्य व्याख्यात। इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से हटा करके स्वयं में उन्मुखी करना ही प्रत्याहार कहलाता है।,इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहरणपुरःसरं चित्तस्वरूपग्रहणं प्रत्याहारः। और उसकी पत्नी उसको त्याग देती है।,किञ्च जाया भार्या अप रुणद्धि निरुणद्धि। तम तमस का निवर्तक नहीं होता है।,न हि तमः तमसः निवर्तकम्‌। और सृष्टि के उत्पति में जीवनस्वरूप जल को सभी जगह फैला दिया।,किञ्च सृष्टेः उत्पत्तौ जीवनस्वरूपं जलं सर्वत्र प्रसारितवान्‌। अवर शब्द किस सूत्र से आद्युदात्त है?,अवरशब्दः केन सूत्रेण आद्युदात्तः वर्तते ? "यहाँ अग्नि के प्रति कहते हैं, हे अग्नि पिता जैसे पुत्र के कल्याण के लिए उसके समीप में रहता है, अनायास से ही उनको प्राप्ति का विषय है जैसे तुम भी हमारे कल्याण के लिये अनायास प्राप्ति का विषय हो।",अत्र अग्निं प्रति उच्यते हे अग्ने पिता यथा पुत्रस्य समीपे अनायासेन प्राप्तिविषयः भवति तथैव त्वमपि अस्माकं कल्याणाय अनायासेन प्राप्तिविषयः भव। 5. अध्यारोप किसे कहते हैं?,५. अध्यारोपः कः ? इसलिए अविद्याकल्पितत्व से जीव का ब्रह्म अभिन्न अधिष्ठान्न अवश्य कहना चाहिए।,अत अविद्याकल्पितत्वात्‌ जीवस्य ब्रह्माभिन्नमधिष्ठानमवश्यं वक्तव्यम्‌। दैवतज्ञो हि मन्त्राणां तदर्थ मवगच्छति॥,दैवतज्ञो हि मन्त्राणां तदर्थमवगच्छति॥ किन्तु दोनों ही सूर्योदय से पूर्व ही गार्ह पत्याग्नि का चयन करके होम कुण्ड का प्रज्वालन करें।,किन्तु उभाभ्याम्‌ एव सूर्योदयात्‌ पूर्वमेव गार्हपत्याग्नेः चयनं कृत्वा होमकुण्डस्य प्रज्वालनं कर्तव्यम्‌| उषा का प्रतिदिन निकलने से उसके अमरत्व का भी यहाँ वर्णन किया है - उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्घ्वा तिष्ठस्य मृतस्य केतुः।,"उषा प्रतिदिनम्‌ उदेति इति तस्याः अमरत्वम्‌ अपि अत्र वर्ण्यते - उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्घ्वा तिष्ठस्य मृतस्य केतुः।""" वो ही देवों का अद्वितीय या एकमात्र ईश्वर है।,स एव देवानामपि अद्वितीयः ईश्वरः यह इसका परिमाण है।,एतत्परिमाणमस्याः। उदाहरण के साथ लिखिए।,उदाहरणेन लिख्यताम्‌? यश्चिदापो महिना पर्यप॑श्यहक्षं दर्धांना जनय॑न्तीर्यज्ञम्‌।,यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्‌। और गुरुमुख से वेदान्तों के तात्पर्यनिर्धारणरूप श्रवण अभिन्न विचार ही आत्मसाक्षात्कार में हेतु होता है।,तथा च गुरुमुखाद्‌ वेदान्तानां तात्पर्यनिर्धारणरूपश्रवणाभिन्नो विचार एव आत्मसाक्षात्कारे हेतुः। "कारण यह है कि भेद विषयक प्रत्यक्ष , चक्षु आदि कारणों के दोष सम्भव होते हैं।",कारणं हि भेदविषयकप्रत्यक्षे चक्षुरादिकरणानां दोषाः सम्भवन्ति। जो बोला जाता है वचन उसका अर्थ है वाच्यः।,तेन उच्यते असौ वचनः इति तस्यार्थः वाच्यः इति यावत्‌। इसलिए निवर्तित बाह्येन्द्रियवाले मन से श्रवणादिव्यतिरिक्त विषयों में बार बार दोषदर्शन करने से जो उपरमण निवृत्ति होती है वह ही उपरति कहलाती है।,अतः निवर्तितानाम्‌ बाह्येन्द्रियाणाम्‌ मनसः च श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः पुनः पुनः दोषदर्शनेन उपरमणम्‌ निवृत्तिः एव उपरतिः। ऋग्वेद में रुद्र वज्र का अथवा वायु का देवता है।,ऋग्वेदे रुद्रः वज्रस्य वातस्य वा देवता। और सामान्यतः उत्तरपदार्थ प्राधान्य को तत्पुरुष समास में दिखाई देता है।,एवं सामान्यतया उत्तरपदार्थप्राधान्यं तत्पुरुषसमासे दृश्यते। सूर्योदय से पहले पूर्व दिशा रक्त वर्ण युक्त होती है तब ये उषा कहलाता है।,"सूर्योदयात्‌ प्राक्‌ पूर्वा दिक्‌ रक्तवर्णयुता भवति, तदा अयम्‌ उषा इत्युच्यते।" "इस सूत्र में आदिः, उदात्तः इन प्रथमा एकवचनान्त दो पदों की अनुवृति आ रही है।","अस्मिन्‌ सूत्रे आदिः, उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" "यहाँ संख्यापूर्व का तत्पुरुष का द्विगुविधायक ““संख्यापूर्वोद्विगुः” सूत्र, द्विगुसंख्या होने पर एक वह भाव विधायक का “द्विगुरेकवचनम्‌ सूत्र, “ स नपुंसकम्‌"" यह द्विगु का और नपुंसकत्वविधायक सूत्र की व्याख्या की गई है।","तत्र संख्यापूर्वस्य तत्पुरुषस्य द्विगुसंज्ञाविधायकं "" संख्यापूर्वो द्विगुः "" इति सूत्र, द्विगुसंज्ञायां सत्याम्‌ एकवद्भावविधायकस्य "" द्विगुरेकवचनम्‌ "" इति सूत्रं, "" स नपुंसकम्‌ "" इति द्विगोः नपुंसकत्वविधायकं च सूत्रं व्याख्यातम्‌ ।" क्षयति - क्षि-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में क्षयति यह रूप बना।,क्षयति - क्षि-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने क्षयति इति रूपम्‌। उस रस को प्रतिपादित करने के लिये सभी कवि प्रयत्न करते हैं।,तम्‌ एव रसं प्रतिपादयितुं सर्वे कवयः यतन्ते। इससे राजपुरुष प्रयोग सिद्ध होता है।,तेन राजपुरुषः इति प्रयोगः सिध्यति। इस प्रकार से यह निश्चित हो चुका है।,इति निश्चप्रचम्‌। सुप्‌ का तदन्त विधि में उपमितम्‌ इस अन्वय से सुबन्तम्‌ पद प्राप्त होता है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ उपमितम्‌ इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तम्‌ इति लभ्यते । "वैसे ही अग्नि शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा और उसके बाद ढक्‌- इस तद्भित प्रत्यय के करने पर अग्नि ढक्‌ इस स्थित्ति में ढक्‌- प्रत्ययान्त के ककार की हलन्त्यम्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा और तस्य लोपः इस सूत्र से इत्संज्ञक ककार के लोप करने पर अग्नि ढ इस स्थित्ति में ढकार के स्थान में आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्‌ इस सूत्र से एय्‌ यह आदेश होने पर अग्नि एय्‌ अ इस स्थित्ति में ढक्प्रत्यय के कित्त्‌ होने से किति च इस सूत्र से अग्नि शब्द के आदि अकार को वृद्धि करने पर आकार, भसंज्ञक अग्नि इस शब्द के अन्त्य इकार की यस्येति च इस सूत्र से लोप करने पर वर्ण संयोग करने पर आग्नेय इस शब्द स्वरूप के तद्धितान्त होने से कृत्तद्धितसमासाश्च इस सूत्र से उसकी प्रातिपदिक संज्ञा करने पर उसके बाद ड्ऱ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङ सिभ्याम्भ्यस्ङसोसांङ्योस्सुप्‌ इस सूत्रे से खाले कपोत न्याय से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों कौ प्राप्ति में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय करने पर अनुनासिक होने से पाणिनि की प्रतिज्ञा से उस उकार की उपदेशेऽजनुनासिकः इत्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः इस सूत्र से इत्संज्ञक उकार का लोप होने पर आग्नेय स्‌ इस स्थित्ति में संयोग करने पर निष्पन्न आग्नेयस्‌ इस शब्द स्वरूप के सुबन्त होने से उस सकार के स्थान में ससजुषो: रुः इससे रु आदेश होता है, और उस रु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इससे इत्संज्ञा होने पर और लोप करने पर आग्नेयर्‌ इस स्थित्ति में रेफ के उच्चारण से परे वर्ण के अभाव होने से विरामोऽवसानम्‌ इस सूत्र से अवसान संज्ञा होने पर उससे पूर्व रेफ के स्थान में खरवसानयोर्विसर्जनीयः इस सूत्र से रेफ के स्थान में विसर्ग करने पर आग्नेयः इस सुबन्त रूप की प्राप्ति होती है।","तथाहि अग्निशब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः ढक्‌- इति तद्धितप्रत्यये अग्नि ढक्‌ इति स्थिते ढक्‌- प्रत्ययान्तस्य ककारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण इत्संज्ञकस्य ककारस्य लोपे अग्नि ढ इति स्थिते ढकारस्य स्थाने आयनेयीनीयियः फढखछधां प्रत्ययादीनाम्‌ इति सूत्रेण एय्‌ इत्यादेशे अग्नि एय्‌ अ इति स्थिते ढक्प्रत्ययस्य कित्त्वात्‌ किति च इति सूत्रेण अग्निशब्दस्य आदेः अकारस्य वृद्धौ आकारे भसंज्ञकस्य आग्नि इति शब्दस्य अन्त्यस्य इकारस्य यस्येति च इति सूत्रेण लोपे वर्णसंयोगे निष्पन्नस्य आग्नेय इति शब्दस्वरूपस्य तद्धितान्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण तस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण खले कणपोतन्यायेन एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमैकवचनविवक्षायां सुप्रत्यये अनुनासिकत्वेन पाणिनीयैः प्रतिज्ञातस्य उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिकः इत्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण इत्संज्ञकस्य उकारस्य लोपे आग्नेय स्‌ इति स्थिते संयोगे निष्पन्नस्य आग्नेयस्‌ इति शब्दस्वरूपस्य सुबन्तत्वात्‌ तदन्तस्य सकारस्य स्थाने ससजुषोः रुः इति आदेशे रोः उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति इत्संज्ञायां लोपे च कृते आग्नेयर्‌ इति स्थिते रेफोच्चारणात्‌ परस्य वर्णाभावस्य विरामोऽवसानम्‌ इति सूत्रेण अवसानसंज्ञायां तत्परकत्वात्‌ पूर्वस्य रेफस्य स्थाने खरवसानयोर्विसर्जनीयः इति सूत्रेण रेफस्य स्थाने विसर्गे आग्नेयः इति सुबन्तं रूपं सिद्ध्यति।" यदि एक घट का ही निरन्तर ज्ञान हो तब निरन्तर घटविषयी चित्तवृत्ति होती है।,यदि एकस्य घटस्यैव निरन्तरं ज्ञानं भवेत्‌ तदा निरन्तरं घटविषयिणी चित्तवृत्तिर्भवति। दुशेर्लुङि 'इरिंतो वा' (पा. ३/९/५७) इति च्लेरङ्‌ रुगागमश्छान्दसः।,दृशेर्लुङि 'इरितो वा' (पा. ३/१/५७) इति च्लेरङ्‌ रुगागमश्छान्दसः। और कहा है - “सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्‌ वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम्‌॥,तदुक्तम्‌ -“सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्‌ वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम्‌॥ यदि मन वश में होता है तो चक्षु आदि इन्द्रियों का निग्रह सम्भव हो जाता है।,यदि मनः वशीभूतं भवति तर्हि चक्षुरादीनां निग्रहः शक्यसम्भवः। देहव्यतिरिक्त आत्मा के अज्ञात होने पर प्रवृत्ति नित्यादि कर्मो में अनुपपन्न हो चलनात्मक कर्म की तथा अनात्मक कर्तृक की ` मैं करता हूँ' इस प्रकार की प्रवृत्त के दर्शन के कारण ऐसा भी नहीं होता है।,देहव्यतिरिक्तात्मनि अज्ञाते प्रवृत्तिः नित्यादिकर्मसु अनुपपन्ना इति चेन्नन; चलनात्मकस्य कर्मणः अनात्मकर्तृकस्य अहं करोमि” इति प्रवृत्तिदर्शनात्‌। अग्निष्टोम का अन्तिम अनुष्ठान क्या हे?,अग्निष्टोमस्य अन्तिमम्‌ अनुष्ठानं किम्‌ ? इस प्रकार चौदह लोकों को विश्व भुवनसभी उसके अन्तर्गत आते है।,एवं चतुर्दश लोकान्‌ विश्वा भुवनानि सर्वाण्यपि तत्रत्यानि भूतजातानि। तद्वितार्थ उत्तरपद में और समाहार में यही अर्थ है।,तद्धितार्थे उत्तरपदे समाहारे च इत्यर्थः । इसलिए समाधि के द्वारा ब्रह्म के लाभ में समाधि का ब्रह्मज्ञान तक आवृत्ति के विधान से श्रुतियों का विरोध नहीं है।,"अतो समाधिना ब्रह्मलाभे न श्रुतिविरोधः, ब्रह्मज्ञानं यावत्‌ निदिध्यासनस्य आवृत्तिविधानात्‌।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है- ““इदमेषामासितम्‌'' इत्यादि है।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं तावत्‌ इदमेषामासितम्‌ इत्यादिकम्‌। अतः पुनर्विवाह करना होता है।,तेन पुनः दारपरिग्रहः कर्तव्यो भवति। "गतिः अर्थः यस्य सः गत्यर्थः यहाँ बहुव्रीहि समास है, गत्यर्थः अर्थः यस्य इति गत्यर्थः यहाँ शाकपार्थिव आदि के सामान समास।","गतिः अर्थः यस्य सः गत्यर्थः इति बहुव्रीहिसमासः, गत्यर्थः अर्थः यस्य इति गत्यर्थः इति शाकपार्थिवादिवत्समासः।" जैसे - शत्रु के विनाश के लिए प्रार्थना के साथ सङ्ग्राम का तथा उसके उपयोगी साधनों का विशेष विविरण प्राप्त होता है।,यथा- शत्रूणां विनाशाय प्रार्थनया सह सङ्ग्रामस्य तथा तदुपयोगिनां साधनानां विशेषविविरणं प्राप्यते। अज्ञान सत्त्वरज तथा तमोगुणात्मक होता है।,अज्ञानं सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकं भवति। अन्नमय आत्मा होता है यह बोध होने पर उसका वहाँ पर निरास किया जाता है।,अन्नमय आत्मा इति यदा मूढस्य बोधः भवति तदा तस्य निरासः क्रियते। "यहाँ जो यण्‌ है, वह उदात्त के स्थान में विहित है।",अत्र यः यण्‌ वर्तते स उदात्तस्य स्थाने विहितः। (वि.चू.) सभी प्रकार के दुःखों की चिन्ता तथा विलाप को त्यागकर उसका अप्रतिकार कर पूर्व उसका प्रतिकार नहीं करके सहन तथा उसे स्वीकार करना ही तितिक्षा कहलाती है।,(वि.चू ) सर्वदुःखानां सर्वविधदुःखानां चिन्ताविलापरहितं चिन्तां विलापं च त्यक्त्वा अप्रतीकारपूर्वकम्‌ प्रतीकारम्‌ अकृत्वा सहनं स्वीकारः एव तितिक्षा निगद्यते उच्यते इत्यर्थः। सूक्ष्मशरीर किसे कहते हैं?,किं सूक्ष्मशरीरम्‌? उस स्वयं प्रकाश स्वरूप ब्रह्म के ही प्रकाश से हम सभी प्रकाश मान होते है।,स्वयंप्रकाशस्वरूपस्य ब्रह्मणः प्रकाशेन सर्वे वयं प्रकाशवन्तः। दासपत्नी: - दासः पतिः यासां ताः दासपत्नी: यहाँ बहुव्रीहिसमास है।,दासपत्नीः - दासः पतिः यासां ताः दासपत्नीः इति बहुव्रीहिसमासः। 13. अखण्ड ब्रह्म किसे कहते हैं?,13 अखण्डं ब्रह्म नाम किम्‌? इनका स्वरूप का नीचे आलोचन किया जा रहा है।,एतेषां स्वरूपम्‌ अध आलोच्यते। यहाँ बार -बार दो इस अर्थ में है।,पुनःपुनः दाता इति अत्रार्थः। अक्रविहस्ता सुकृते ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अक्रविहस्ता सुकृते... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। प्रत्येक पदार्थ में तीन गुण होते हैं।,तत्र प्रत्येकं पदार्थे एते त्रयः गुणाः तिष्ठन्ति। "अनुदात्तौ, सुप्पितौ ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।","अनुदात्तौ, सुप्पितौ इति पदगतच्छेदः ज्ञायते।" यत्‌-जिस कारण से प्राणियों के भोग्य पदार्थ के निमित्त से बढ़ता है।,यत्‌ यस्मात्कारणात्‌ अन्नेन प्राणिनां भोग्येनान्नेन निमित्तभूतेन अतिरोहति । उत्तरभाग उत्तरनारायण कहलाता है।,उत्तरभागः उत्तरनारायणः इत्युच्यते। "यहाँ युग के अन्त में सृष्टि को ध्वंस करते हैं, पुनः प्राणियों की सृष्टि के विवरण प्राप्त होता है।","अत्र युगान्तरे सृष्टेः ध्वंसः, पुनः प्राणिनां सृष्टेः विवरणं प्राप्यते।" इसके के अवतः पद से षष्ठयन्त से शायिका इस ण्वुल्प्रत्ययान्त का षष्ठी तत्पुरुष समास होने पर प्रस्तुत सूत्र से भवत: यहाँ षष्ठी का कर्तरि पद के विधान से षष्ठी समास का निषेध होता है।,ततः भवतः इत्यनेन षष्ठ्यन्तेन शायिका इत्यस्य ण्वुल्प्रत्ययान्तस्य षष्ठीतत्पुरुषसमासे प्राप्ते प्रस्तुतसूत्रेण भवतः इत्यत्र षष्ठ्याः कर्तरि विधानात्‌ षष्ठीसमासनिषेधो भवति। उसी प्रकार से जबतक ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता तब तक नहीं होता है तब श्रवणादि की आवृत्ति करते रहना चाहिए।,तथैव प्रकृतेऽपि यावन्न ब्रह्मज्ञानं भवति तावत्‌ श्रवणादीनाम्‌ आवृत्तिः विधातव्येति स्पष्टम्‌। वषट्‌ कार से किस शब्द का ग्रहण होता है?,वषट्‌ - कारेण कः शब्दः गृह्यते ? विज्यं धनुः ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,विज्यं धनुः....इति मन्त्रं व्याख्यात। परन्तु व्याकरण के रूप साधना चाहिए क्योंकि सूत्रों के उल्लेख के आगे रूप साधे गये हैं।,परन्तु व्याकरणस्य रूपाणि साधनीयानि चेत्‌ सूत्रोल्लेखपुरःसरं रूपाणि साध्यन्ते। और इसका यही पर्याय है।,चेति इति पर्यायः। जिस प्रकार से लोक में “गवादिभ्योऽन्योहम्‌ मत्तश्चान्ये गवादयः इस प्रकार से जानता हुआ अपने को मैं मानता है।,"न हि लोके “गवादिभ्योऽन्योऽहम्‌ , मत्तश्चान्ये गवादयः” इति जानन्‌ तान्‌ “अहम्‌' इति मन्यते ।" शत्रुओं के विनाश के लिए प्रार्थना के साथ सङ्ग्राम का तथा उसके उपयोगी साधनों के वर्णन से अथर्ववेद 'क्षत्रवेद' इस नाम से प्रसिद्ध है।,शत्रूणां विनाशाय प्रार्थनया सह सङ्ग्रामस्य तथा तदुपयोगिनां साधनानां वर्णनात्‌ अथर्ववेदः 'क्षत्रवेदः' इति नाम्ना प्रसिद्धः। ( ६.१.२०३ ) सूत्र का अर्थ- वृषादि शब्दों के भी आदि उदात्त होता है।,(६.१.२०३) सूत्रार्थः- वृषादिगणपठिताः शब्दाः आद्युदात्ताः स्युः। शस आदि विभक्ति को उदात्त होता है किस सूत्र का अर्थ है?,शसादिविभक्तिरुदात्ता इति कस्य सूत्रस्य अर्थः? फिर भी अनादिकाल से कोई दुर्वासना अन्तःकरण में विद्यमान होती है।,तथापि अनादिकालाद्‌ दुर्वासना काचिद्‌ अन्तःकरणे विद्यते। देह धर्म देह के कर्म देह के सम्बन्ध और अवस्थाएँ इन सभी की साक्षी आत्मा होती है।,देहः देहधर्माः देहस्य कर्माणि देहसम्बद्धाः अवस्थाश्च एतेषां सर्वेषामपि साक्षी भवत्यात्मा। यत्र यह भी अव्यय पद है।,यत्र इत्यपि अव्ययपदम्‌। समान एक अधिकरण कहा जाता है उसका वह समानाधिकरण है और उससे बहुव्रीहि समास होता है।,"समानम्‌ एकम्‌ अधिकरणं वाच्यं यस्य तत्‌ समानाधिकरणम्‌, तेनेति बहुव्रीहिसमासः।" मम यहाँ पर मकार से उत्तर अकार को उदात्त स्वर किससे सिद्ध होता है?,मम इत्यत्र मकारोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः केन सिध्यति? अर्ककाष्ठ से संतत क्षारपरिश्रित में गिरता हुआ अकपत्र को दाहिने हाथ से अककाष्ठ को वाम से लेकर उसमे आहुति डालनी चाहिए।,अर्ककाष्ठेन संततं क्षारयन्‌ परिश्रित्सु पातयन्‌ अर्कपत्रं दक्षकरेणादायार्ककाष्ठं वामेनादाय तेन पातनीयम्‌। व्यपदेशिवदभाव के आश्रित होने से इसको भी आमन्त्रितान्तत्व सिद्ध होता है।,यपदेशिवद्भावम्‌ आश्रित्य अस्य आमन्त्रितान्तत्वम्‌ अपि सिध्यति। 28. “इवेन समासो विभक्त्थलोपश्च'' इस वार्तिक का क्या उदाहरण हे?,"२८. ""इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च"" इत्यस्य वार्तिकस्य किमुदाहरणम्‌?" "ग्रन्थ को कोई भी पढ़ता है, शाब्दिक अर्थ भी जानता है।","ग्रन्थं यः कोऽपि पठेत्‌, शाब्दिकम्‌ अर्थमपि जानीयात्‌।" सरलार्थ - (हे पर्जन्यदेव) मेघ को ऊपर की और ले जाकर के जल को नीचे की और बरसाओ।,सरलार्थः - ( हे पर्जन्यदेव ) मेघम्‌ उर्ध्वभागम्‌ आदाय गच्छतु किञ्च वर्षणं करोतु । तो इस प्रकार से विलक्षण जीव तथा ईश्वर में कैसे तत्‌ त्वं असि आदि वाक्य अखण्ड एक रस ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं।,विलक्षणयोः जीवेश्वरयोः कथं तत्त्वमस्यादीनि वाक्यानि कथम्‌ अखण्डैकरसं ब्रह्म प्रतिपादयन्ति। यहाँ पर विचारशील पुरुष तो देहविलक्षण निर्मल परमार्थस्वरूप परमात्मा को ही अपने स्वरूप के रूप में जानता है।,अत्र विचारशील: पुरुषस्तु देहविलक्षणः निर्मलः परमार्थस्वरूपं परमात्मानमेव स्वस्य आत्मानं जानाति। 4. महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌।,४. महान्तं कोशमुर्चा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌। जो इस प्रकार अन्तर्यामि रूप से स्थित मुझको नहीं जानते हैं वे मनुष्य क्षीण हो जाते हैं।,ये दृशीमन्तर्यामिरूपेण स्थितां मां न जानन्ति ते अमन्तवोऽमन्यमाना अजानन्त उपक्षियन्ति। शरीर नियम्य होने के कारण जड होता है।,शरीरञ्च नियम्यञ्च जडत्वात्‌। जल प्रलय भारतीय इतिहास में एक ऐसी घटना है जो मनु को देवो से विशिष्ट और मानवो की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया मनु भारत के इतिहास के आदि पुरुष है।,जलप्रलयः इति भारतीयेतिहासे एका घटना यया मनवे एका भिन्ना देवविशिष्टा मानवीसंस्कृतेः प्रतिष्ठापनाय अवसरः दत्तः मनुः भारतस्य इतिहासस्य आदिपुरुषः वर्तते। ताण्ड्य ब्राह्मण दो तीन दृष्टान्त ही पर्याप्त होते है।,ताण्ड्यब्राह्मणस्य द्वित्रा एव दृष्टान्ताः पर्याप्ताः भवन्ति। ज्येष्ठकनिष्ठयोः वयसि ये यहाँ पदच्छेद है।,ज्येष्ठकनिष्ठयोः वयसि इति अत्र पदच्छेदः। 8. हन्‌-धातु से तुमुन्प्रत्यय अर्थ में वैदिक तवैप्रत्यय करने पर।,8. हन्‌-धातोः तुमुन्प्रत्ययार्थ वैदिके तवैप्रत्यये। बुद्धि वृत्ति रूप ज्ञान प्रकाशक नहीं होता है।,बुद्धिवृत्तिरूपं ज्ञानं न प्रकाशकम्‌। आत्मविज्ञान के द्वारा सभी का विज्ञान प्राप्त होता है इस प्रकार से वेदान्त प्रतिज्ञा करता है।,आत्मविज्ञानेन सर्वविज्ञानं भवतीति प्रतिवेदान्तं प्रतिज्ञा क्रियते। वस्तुत तो यजमान उसको ही सोम आदि हवि के द्वारा यागो में पूजता है।,वस्तुतस्तु यजमानाः तामेव सोमादिभिर्हविर्भिः यागेषु यजन्ते। यह ही भागत्याग लक्षणा जहद्‌ तथा अजहत्‌ लक्षणा कहलाती है।,इयमेव भागत्यागलक्षणा जहदजहल्लक्षणा उच्यते। और सूत्रार्थ होता है- युवन्‌ प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ति प्रत्यय होता है और वह तद्धित होता है।,एवञ्च सूत्रार्थो भवति - युवन्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ति प्रत्ययः परः भवति स च तद्धितः भवति। और समाहार में द्विगु और हृनद को नपुंसक होता है यही सूत्रार्थ है।,"एवं ""समाहारे द्विगुः द्वन्द्वश्च नपुंसकं भवति"" इति सूत्रार्थः ।" और उत्तरपद हितम्‌ यह क्त प्रत्ययान्त है।,उत्तरपदं च हितम्‌ इति क्तप्रत्ययान्तम्‌। इसलिए सबसे पहले शम का निर्देश किया गया है।,तस्मात्‌ आदौ शमस्य निर्देशः। टच्‌ पक्ष में उपसमिध्‌ अ इस स्थिति होने पर सु की प्रक्रियाकार्य में उपसमिधम्‌ रूप होता है।,टच्पक्षे उपसमिध्‌ अ इति स्थिते सौ प्रक्रियाकार्ये उपसमिधम्‌ इति रूपम्‌। 6. ज्ञानेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं?,ज्ञानेन्द्रियाणि उत्पद्यन्ते - इसलिए अज्ञान का नाशकरक जीव तथा ब्रह्म में शुद्धचैतन्यस्वरूप के प्रतिपादन के लिए इस प्रकार के विषय स्वीकार किए जाते हैं।,अतः अज्ञानं नाशयित्वा जीवब्रह्मणोः शुद्धचैतन्यरूपस्वरूपप्रतिपादनाय एव एतादृशः विषयः स्वीकृतः। वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।,तत्‌ क्रियमाणं कथ्यते। ( वा. ६५४) वार्तिक का अर्थ - स्यान्त नामधेय का उपोत्तम उदात्त विकल्प से होता है।,(वा. ६५४) वार्तिकार्थः - स्यान्तस्य नामधेयस्य उपोत्तममुदात्तं वा स्यात्‌। उस सूत्र का यह अर्थ यहाँ प्राप्त होता है - वेद विषय में मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि- द्राक्षा-कलोमा- काष्ठा-पेष्ठा-काशी और अन्य शब्दों का आदि और दूसरा स्वर विकल्प से उदात्त होता है।,तेन अयं सूत्रार्थः अत्र लभ्यते- छन्दसि विषये मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा- काशीनाम्‌ अन्येषां च शब्दानाम्‌ आदिः द्वितीयः च स्वरः वा उदात्तः भवति इति। पाप ही मल होता है।,पापमेव मलः। इसी प्रकार इस उपनिषद्‌ में भी उसी तत्त्व का प्रतिपादन किया है।,एवञ्च अस्याम् उपनिषदि अपि तदेव तत्त्वं प्रतिपादितम्। भर्ता कोई उपाय करता है।,भर्त्रा तत्र कश्चन उपायः कृतः। वह रुद्र भयङ्कर था।,सः रुद्रः भयङ्करः आसीत्‌। ईषते इस पद की निष्पत्ति कैसे हुई?,ईषते इति पदस्य निष्पत्तिः कुतः ? "प्रति अनु अव पूर्व से तात्पर्य प्रति, अनु, अव ये पूर्वपद है जिससे।",प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ इत्यस्य तात्पर्यं प्रति अनु अव इति पूर्वपदं यस्य। “षष्ठी शेषे” इस शेष लक्षणा षष्ठी को वर्जित करके सभी भी षष्ठी प्रतिपदविधाना महाभाष्यादि ग्रंथ से जाना जाता है।,"""षष्ठी शेषे"" इति शेषलक्षणां षष्ठीं वर्जयित्वा सर्वापि षष्ठी प्रतिपदविधाना इति महाभाष्याद्याकरग्रन्थाद्‌ ज्ञायते।" अभि- इस उपसर्ग को छोड़कर।,अभि- इत्युपसर्ग वर्जयित्वा। स्वर्गलोक और आदित्यलोक जिससे ठहरे हुए हैं।,स्वर्गलोकः आदित्यलोकः च येन स्तब्धौ। यहाँ अन्य वैयाकरण आचार्य - अश्‌-धातु से कर्ता में क्त प्रत्यय करने पर अशित शब्द को निष्पन्न करते है।,अत्र अन्ये वैयाकरणाः अश्‌-धातोः कर्तरि क्तप्रत्यये अशितशब्दं निष्पादयन्ति। अव्ययीभावे चाकाले इस सूत्र की व्याख्या कीजिये।,अव्ययीभावे चाकाले इति सूत्रं व्याख्यात। बलदाः - बल उपपद पूर्वक दा-धातु से विच्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में बलदा: रूप सिद्ध होता है।,बलदाः- बलोपपदात्‌ दा-धातोः विच्प्रत्यये प्रथमैकवचने बलदाः इति रूपम्‌। अन्तिम काण्ड में तेरह अनुवचन है।,अन्तिमे काण्डे त्रयोदशानुवचनानि सन्ति। "वे होते है'- ""अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यद्‌र्ध्यर्थाभावाऽत्ययाऽसम्प्रति-शब्दप्रादुर्भाव-पश्चाद्‌- यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य-सम्पत्ति-साकल्याऽन्तवचनेषु"", ""यावदवधारणे"", ""सुप्प्रतिना मात्रार्थे"", ""संख्या वंश्येन"" ""नदीभिश्च"" ।","तानि भवन्ति - ""अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यद्‌र्ध्यर्थाभावाऽत्ययाऽसम्प्रति-शब्दप्रादुर्भाव-पश्चाद्‌- यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य-सम्पत्ति-साकल्याऽन्तवचनेषु"", ""यावदवधारणे"", ""सुप्प्रतिना मात्रार्थे"", ""संख्या वंश्येन"" ""नदीभिश्च"" चेति।" ( 9.4 ) यूनस्तिः ( 4.1.77 ) सूत्रार्थ - युवन्‌ प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ति प्रत्यय होता है और वह तद्धित का होता है।,"(९.४) यूनस्तिः॥ (४.१.७७) सूत्रार्थः - युवन्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ति प्रत्ययो भवति, स च तद्धितः भवति।" "चकार: आदिः येषां ते चादयः चादीनां लोपः, चादिलोपः तस्मिन्‌ चादिलोपे यहाँ बहुव्रीहिगर्भतत्पुरुष समास है।","चकारः आदिः येषां ते चादयः चादीनां लोपः, चादिलोपः तस्मिन्‌ चादिलोपे इति बहुव्रीहिगर्भतत्पुरुषसमासः।" "राज्य से हटे हुए राजा के लिये, पशुकाम की इच्छा वाले यजमान के लिए, सोमरस अनुकुलता से पराजित मनुष्य के लिए इस यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है।","राज्यच्युतनृपाय, पशुकाम-यजमानाय, सोमरसानुकूलतया पराङ्गुखजनाय चास्यैव यज्ञास्यानुष्ठानं विहितम्‌।" उसके लाभ के अधिकारी वेदान्त ग्रन्थों में कहे गये है।,तस्य लाभस्य एव अधिकारी वेदान्तग्रन्थेषु उच्यते। यामिषु गिरिशन्त ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,यामिषु गिरिशन्त. ...इति मन्त्रं व्याख्यात। होतारम्‌ - हू धातु से तृन्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में होतारम्‌ यह रूप बनता है।,होतारम्‌- हूधातोः तृन्प्रत्यये द्वितीयैकवचने होतारम्‌ इति रूपम्‌। 'कृञ्‌ कृतौ' शप्‌ लङ् उत्तम पुरुष एकवचन में ॥,'कृञ्‌ कृतौ' शप्‌ लङि उत्तमैकवचनम्‌॥८॥ इन्द्र सोम को आनन्द से पीता है सभी सूक्त में कीर्ति व्याप्त है।,इन्द्रः सोमं सानन्दं पिबतीति सर्वेषु एव सूक्तेषु कीर्तितम्‌। सूत्र का अर्थ - पद से उत्तर आमन्त्रित संज्ञक सम्पूर्ण पद को भी पाद के आदि मे वर्तमान न हो तो अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - पदात्‌ परस्य अपादादिस्थितस्य आमन्त्रितस्य सर्वस्य अनुदात्तः स्यात्‌। सामान्यतः अहिसा मन वाणी तथा काया के द्वारा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना है।,सामान्यतः अहिंसा नाम वाचा मनसा कायेन च परपीडनात्‌ प्रतिनिवृत्तिः। यह वाक्य छान्दोग्य उपनिषद्‌ में भी पाठ भेद से प्राप्त होता है (१।४।२)।,इदं वाक्यं छान्दोग्योपनिषदि अपि पाठभेदेन प्राप्यते (१।४।२)। अनव्यय अव्यय होता है।,अनव्ययम्‌ अव्ययं भवतीति। महोभिः - महस्‌-शब्द का तृतीयाबहुवचन में महोभिः रूप है।,महोभिः- महस्‌-शब्दस्य तृतीयाबहुवचने महोभिः इति रूपम्‌। इन्द्रऽशत्रुः दीर्घ तम आ अशयत्‌ व्याख्या - वृत्र का जल रूपी शरीर विचरण करता रहता है जल धाराएं विविध रूप होकर बहती है।,इन्द्रऽशत्रुः दीर्घ तम आ अशयत्‌। व्याख्या- वृत्रस्य शरीरम्‌ आपः विचरन्ति विशेषणोपरि आक्रम्य प्रवहन्ति। इस प्रकार का अज्ञान तब तक रुकता है जब तक स्वरूज्ञान होता है।,एतादृशम्‌ अज्ञानं तावत्‌ तिष्ठति यावत्‌ स्वरूपज्ञानं भवति। इस यज्ञ का वेद- वेदांगो सहित वर्णन शतपथ ब्राह्मण के तेरहवें काण्ड में और कात्यायन श्रौतसूत्र के बीसवें अध्याय में है।,अस्य यज्ञस्य साङ्कोपाङ्गवर्णनं शतपथब्राह्मणस्य त्रयोदशकाण्डे तथा च कात्यायनश्रौतसूत्रस्य विंशत्यध्याये अस्ति। प्रकाशमान चैतन्य स्वयं में अध्यस्त घट को भी प्रकाशित करता है।,च चैतन्यं स्वस्मिन्‌ अध्यस्तं घटमपि प्रकाशयति । वाष्कल शाखा के अनुसार “संज्ञान सूक्त' ऋग्वेद का अन्तिम सूक्त है।,वाष्कलशाखानुसारेण 'संज्ञानसूक्तम्‌' ऋग्वेदस्यान्तिमं सूक्तमस्ति। "श्रुतियों के अन्दर भी “ सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्म इव समना अमना इव "" अर्थात्‌ जीवन्मुक्त देह इन्द्रियादि में अभिमान के अभाव से भले ही वह आँख से देखता है फिर वह वस्तुतः नहीं देखता है।","श्रुत्यन्तरेऽपि-""सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण इव समना अमना इव” इति। जीवन्मुक्तस्य देहेन्द्रियादिषु अभिमानाभावाद्‌ यद्यपि चक्षुषा पश्यति तथापि वस्तुतो न पश्यति।" व्याख्या - हे मित्र और वरुण रथ में ठीक प्रकार से जुड़े हुए तुम्हारे घोड़े तुम दोनों को ढोवे।,व्याख्या- हे मित्रावरुणौ वां युवाम्‌ अश्वासः अश्वाः सुयुजः सुष्ठु रथे युक्ताः सन्तः आवहन्तु । सरलार्थ - (हे पर्जन्यदेव) (भूमि के) और अभिमुख करके गर्जना करो।,सरलार्थः - ( हे पर्जन्यदेव ) ( भूमिम्‌ ) अभिमुखीकृत्य गर्जनं करोतु । सृष्टी के लिए देवताओ और ऋषियों द्वारा जो यज्ञ किया गया उस यज्ञ में पुरुष हविरूप में परिकल्पित है।,सृष्ट्यर्थं देवताभिः ऋषिभिश्च यः यज्ञः कृतः तस्मिन्‌ यज्ञे पुरुषः हविरूपेण परिकल्पितः। ऋग्वेद के ये सभी संवाद सूक्त नाटकीय ओजस्विता के साथ सम्पृक्त है।,ऋग्वेदस्य एतानि सर्वाणि संवादसूक्तानि नाटकीयौजस्वितया सह सम्पृक्तानि सन्ति। विग्रह स्वरूप और उसके भेदों का वर्णन कीजिये।,विग्रहस्वरूपं तद्भेदान्‌ च वर्णयत। जो मुक्त होने की इच्छा करता है वह मुमुक्षु कहलाता है।,मोक्तुम्‌ इच्छति इति मुमुक्षुः। "ज्‌ च ण्‌ च ञ्णौ, ञ्णौ इतौ यस्य स ञ्णित तस्मिन्‌ इतरेतरद्वन्द्वगर्भ बहुव्रीहिसमास है।","ज् च ण्‌ च जञ्णौ, ञ्णौ इतौ यस्य स ज्णित्‌, तस्मिन्‌ इति इतरेतरद्वन्द्वगर्भबहुब्रीहिसमासः।" सुपा यह तृतीया विभक्ति एकवचनान्त पद है।,सुपा इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। नाष्ट्राः - नश्‌-धातु से ष्ट्रन्प्रत्यय करने पर बहुवचन में।,नाष्ट्राः - नश्‌-धातोः ष्टन्प्रत्यये बहुवचने। प्रत्यक्ष अनुमान से ही उनका प्रमाण स्वीकार है।,प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्‌ एव तेषां प्रमितिः सम्भवति। अतः सूत्र का अर्थ है - समास का अन्त उदात्त होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति- समासस्य अन्तः उदात्तः भवति इति। “वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌” इस सूत्र का उदाहरण दीजिये।,""" वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌ "" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌ ।" "केवल उच्च वर्णो का ही नहीं अपितु कुलालों का, लौहकारों का और व्याध आदि का वह देव और पालक है।","न केवलम्‌ उच्चवर्णानाम्‌, अपि तु कुलालानां लौहकाराणां व्याधादीनामपि सः देवः पालकश्च।" तैत्तिरीयसंहिता में इस विषय का सबसे प्रथम तथा प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त होता है - “वाग्‌ वै पराच्य व्याकृताऽवदत्‌।,तैत्तिरीयसंहितायाम्‌ अस्य विषयस्य सर्वप्रथमः तथा प्राचीनतमः उल्लेखः प्राप्यते - 'वाग्‌ वै पराच्य व्याकृताऽवदत्‌। औषधि आदि के द्वारा रोगादि दुःख दूर हो जाते हैं।,औषधादिना रोगजदुःखनिवृत्तिः । "हे प्रजापति, अन्य किसी ने इस समग्र उत्पन्न पदार्थ को व्याप्त नहीं किया।","हे प्रजापते, अन्यः कश्चित्‌ एनं समग्रम्‌ उत्पन्नं पदार्थं न व्याप्तवान्‌।" उस भाषितपुंसक से।,तस्मात्‌ भाषितपुंस्काद्‌ इति। विदेहमुक्ति होने पर तो देहनाश से उससे अधिष्ठित इन्द्रियों का भी नाश हो जाता है।,विदेहमुक्तौ तु देहनाशात्‌ तदधिष्ठितानाम्‌ इन्द्रियाणामपि असम्भवतापतति। और हरि ङि अधि यह अलौकिक विग्रह में विभक्त्यर्थवाचक्‌ अधि अव्यय सुबन्त के समर्थ से हरि ङि इस सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है ।और वह समास अव्ययीभाव संज्ञक होता है।,एवञ्च हरि ङि अधि इति अलौकिकविग्रहे विभक्त्यर्थवाचकम्‌ अधि इत्यव्ययं सुबन्तं समर्थन हरि ङि इति सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। स च समासः अव्ययीभावसंज्ञः भवति। अर्थवाद में निन्दा है तथा याग उपयोगी द्रव्यों की प्रशंसा है।,अर्थवादे निन्दा अस्ति तथा यागोपयोगिनां द्रव्याणां प्रशंसा वत्तते। "प्रत्येक दिन तीन बार सोमरस के निष्काशन का विधान है, प्रातः मध्याह्यण और सायंकाल।","प्रत्यहं वारत्रयं सोमरसस्य निष्कासनं विहितं वर्तते, प्रातः मध्याह्णे सायं च।" यज्ञ के संकेत नाम उपलब्ध है।,यज्ञीयसंकेतानामुपलब्धिः। मन को चिताकार्षक होकर रहता है।,मनो रुहाणाः नृणां चित्तमारोहन्त्यः। लौकिक मनुष्यों के समान उसके भी हाथ पैर शिर-इत्यादि का यहाँ पर वर्णन किया गया है।,लौकिकमानववत्‌ तस्यापि हस्तौ पादौ शिरः -इत्यादिकम्‌ अत्र वर्णितम्‌। "गिरिशन्त - गिरी पर्वत पर सोने वाला अथवा रहना वाला, अर्थात्‌ कैलास नाम पर्वत पर रहकर के, सुख को बढाने वाला गिरिशन्तः।","गिरिशन्त- गिरौ पर्वते शेते तिष्ठति वा, अर्थात्‌ कैलासाख्ये पर्वते स्थित्वा, शं सुखं तनोतीति गिरिशन्तः।" 22. संशय तथा विपर्यय का प्रतिपादन कीजिए।,२२. संशयविपर्ययौ प्रतिपादनीयौ। वैदिकों के वाक्यों का तो किन्हीं के मत में अधिकरणमुख से तथा किन्हीं के मत में उपक्रमादि के द्वार तात्पर्य का निर्णय किया जाता है।,"वैदिकानां वाक्यानां तु केषाञ्चित्‌ मते अधिकरणमुखेन, केषाञ्चित्‌ मते उपक्रमादिना तात्पर्यनिर्णयः क्रियते।" "स्वाध्यात्म विषयों का संशय निवारण के लिए सुकेशा, भारद्वाज आदि छः मुनि उसके समीप में आने का उल्लेख प्राप्त होता है।","स्वाध्यात्मविषयकानां संशयानां निवारणाय सुकेशा, भारद्वाजादीनां षण्णां मुनीनां तस्य पार्श्वे आगमनस्य उल्लेखः प्राप्यते।" शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण इति सूत्रगतपदच्छेदः। इस अथर्ववेद की अनेक शाखा प्राप्त होती है।,अस्य अथर्ववेदस्य विविधाः शाखाः उपलभ्यन्ते। इस सूत्र से उपसर्जन संज्ञा होती है।,अनेन सूत्रेण उपसर्जनसंज्ञा विधीयते। वह ही प्रत्येक जीव में भिन्न भिन्न होता है।,तच्च प्रति जीवं भिन्नं भिन्नमस्ति। उस प्रकृत से सूत्र से यज्ञकर्म भिन्न में स्वाध्याय काल में भी वेदों में विकल्प से एकश्रुति होती है।,तेन प्रकृतेन सूत्रेण यज्ञकर्मभिन्ने स्वाध्यायकालेऽपि छन्दस्सु विकल्पेन ऐकश्रुत्यं भवति। अत: उस फिष का अथवा प्रातिपदिक का अन्त्य ऐकार प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः तस्य फिषः प्रातिपदिकस्य वा अन्त्यः ऐकारः प्रकृतसूत्रेण उदात्तः भवति। प्रायश्चित्त विषय पर अथर्ववेद में जो कहा है उसे विस्तार से लिखिए।,प्रायश्चित्तविषये अथर्ववेदे यद्‌ उक्तं तद्विस्तारेण लिखत। आर्चज्योतिष छत्तीस पद्यों वाला है।,"आर्चज्यौतिषम्‌, षट्त्रिंशत्पद्यात्मकम्‌।" "अन्वय - जाग्रतः यत्‌ दैवं (मनः) दूरम्‌ उत्‌ एति, सुप्तस्य तत्‌ उ तथा एव एति।","अन्वयः - जाग्रतः यत्‌ दैवं ( मनः ) दूरम्‌ उत्‌ एति , सुप्तस्य तत्‌ उ तथा एव एति।" सामान्य शिक्षा ग्रन्थों से इस ग्रन्थ की विशिष्टता भी स्पष्ट ही है।,सामान्यशिक्षाग्रन्थेभ्यः अस्य ग्रन्थस्य विशिष्टता अपि स्पष्टा एव अस्ति। और वह पूर्वपद यह बहुवचनान्त से व्यत्यय किया गया है।,तच्च पूर्वपदानि इति बहुवचनान्ततया विपरिणम्यते। सुप का और तदत्तविधि से सुबन्त को प्राप्त करना चाहिए।,सुपा इत्यस्य तदन्तविधिना च सुबन्तेन इति लभ्येत। व्याख्या - अग्नि देव की स्तुति करता हूँ।,व्याख्या- अग्निनामकं देवम्‌ ईळे स्तौमि। "उन दोनों में विवेक का विवेचन करना कि कौन-सी वस्तु नित्य है, तथा कौन-सी वस्तु अनित्य है इस प्रकार से विचारपूर्वकज्ञान ही नित्यानित्यवस्तु विवेक कहलाता है।","तयोः विवेकः विवेचनम्‌, किं नित्यं वस्तु किम्‌ अनित्यं वस्तु इति विचारपूर्वकज्ञानम्‌ एव नित्यानित्यवस्तुविवेकः।" "वहाँ उपसर्ग: यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, च यह अव्यय, अभिवर्जम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र उपसर्गः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, च इति अव्ययम्‌, अभिवर्जम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" "शुक्ल यजुर्वेद के कल्पसूत्र - कात्यायन श्रौतसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र,और कात्यायन शुल्बसूत्र है।","शुक्लयजुर्वेदस्य कल्पसूत्रम्‌ - कात्यायनश्रौतसूत्रम्‌, पारस्करगृह्यसूत्रम्‌, कात्यायनशुल्बसूत्रं चेति।" लेकिन केवल प्रारब्ध कर्मवश वह देहनाश पर्यन्त जीवन को धारण करता है।,परन्तु केवलं प्रारब्धकर्मवशात्‌ देहनाशपर्यन्तं जीवनं धारयति। तब मनु ने कहा की तुम कैसे मेरी रक्षा करोगी।,तदा मनुः अवोचत्‌ त्वं कस्मात्‌ मम रक्षणं करिष्यसीति। "आहूत वायु प्राणी मात्र का स्वास्थ्य वर्धन करती है, और रोग निवारण में सहायक होती है।","हूताः वायवः प्राणिमात्रस्य स्वास्थ्यवर्धनं कुर्वन्ति, रोगनिवारणे सहायकाश्च भवन्ति।" शरीर का भी नाश होता है।,शरीरमपि नश्यति। "वहाँ देव शब्द के अकार के स्थान में अद्रि-यह आदेश होने पर देवद्रि अच्‌ इस स्थिति में, वहाँ ङीप्प्रत्यय करने पर ङीप्प्रत्यय के पित्त्‌ होने से ‹ अनुदात्तौ सुप्पितौ” इससे ङीप्प्रत्यय का ईकार को अनुदात्त स्वर होता है, उससे ` अचः” इससे अज्च्धातु के उदात्त अकार का लोप होने पर ` अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इस सूत्र से अनुदात्त ङीप्प्रत्यय के ईकार का उदात्त निवृत्ति स्वर प्राप्त होता है, तब उसको हटाकर प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर का विधान प्राप्त होता है।","ततः देवशब्दस्य अकारस्य स्थाने अद्रि-इत्यादेशे देवद्रि अच्‌ इति स्थिते, ततः ङीप्प्रत्यये ङीप्प्रत्ययस्य पित्त्वात्‌ 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' इत्यनेन ङीप्प्रत्ययस्य ईकारस्य अनुदात्तस्वरः भवति, तेन 'अचः' इत्यनेन अञ्च्धातोः उदात्तस्य अकारस्य लोपे सति 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इति सूत्रेण अनुदात्तस्य ङीप्प्रत्ययस्य ईकारस्य उदात्तनिवृत्तिस्वरः प्राप्तः भवति, तदा तं प्रबाध्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः विधीयते।" "नित्य कर्मों की पुण्यफलत्वश्रुतियों की 'वर्ण आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः' (गौ. ध. सू. 2.2.29) इत्यादि स्मृतियों से कर्मक्षयानुपपत्ति होती हैं और जो यह कहते हैं कि नित्यादिकर्म दुःखरूपत्व से पूर्वदुरितकर्मों को फल ही है, उनका स्वरूप व्यतिरेक के कारण अश्रुतत्व से तथा जीवनादिनिमित्त के विधान से अन्य फल नहीं होता है।","नित्यानां च कर्मणां पुण्यफलत्वश्रुतेः, “वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः (गौ. ध. सू. २.२.२९) इत्यादिस्मृतेश्च कर्मक्षयानुपपत्तिः॥ ये तु आहुः- नित्यानि कर्माणि दुःखरूपत्वात्‌ पूर्वकृतदुरितकर्मणां फलमेव, न तु तेषां स्वरूपव्यतिरेकेण अन्यत्‌ फलम्‌ अस्ति, अश्रुतत्वात्‌ , जीवनादिनिमित्ते च विधानात्‌ इति।" राजकार्यो में भी अथर्ववेद का विशेष महत्त्व है।,राजकार्येषु अपि अथर्ववेदस्य सविशेषमहत्त्वम्‌ अस्ति। "अन्वय - त्वत्‌ जाता मर्त्याः त्वयि चरन्ति, त्वं द्विपदः त्वं चतुष्पदः बिभर्षि।","अन्वयः- त्वत्‌ जाता मर्त्याः त्वयि चरन्ति, त्वं द्विपदः त्वं चतुष्पदः बिभर्षि।" मन से बुद्धि श्रेष्ठ होती है तथा बुद्धि से महान्‌ आत्मा श्रेष्ठ होती है।,"मनसः अपि बुद्धिः श्रेष्ठा, बुद्धेरपि महान्‌ आत्मा श्रेष्ठः भवति।" 47. प्रकरण प्रतिपाद्यार्थ साधन में वहाँ-वहाँ श्रूयमाण युक्ति उपपत्ति होती है।,४७.प्रकरण प्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रूयमाणा युक्तिः उपपत्तिः। "सान्वयप्रतिपदार्थ - एतावान्‌ = अखिल परिदृश्य जगद्‌, अस्य = सर्वेश्वर पुरुष, महिमा स्वसामर्थ्य विशेष विभूति।","सान्वयप्रतिपदार्थः - एतावान्‌= निखिलं परिदृश्यमानं जगद्‌, अस्य = सर्वेश्वरस्य पुरुषस्य महिमा= स्वकीयसामर्थ्यविशेषो विभूतिः।" इससे पद के सम्बन्धी विधि ऐसा अर्थ होता है।,तेन अस्य पदस्य पदसम्बन्धी विधिः इत्यर्थः। विष्णोर्नु कं वीर्याणि ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,विष्णोर्नुकं वीर्याणि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "वहाँ पर अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, इत्यादि अलङ्कार स्थान-स्थान में प्राप्त होते है।",तत्र अनुप्रासः उपमा उत्प्रेक्षा दृष्टान्तः अर्थान्तरन्यासः इत्यादयः अलङ्काराः स्थाने स्थाने समुपलभ्यन्ते। इसलिए ये वास्तविक नहीं है।,अतः न वास्तविकम्‌। शुक्लयजुर्वेद का यह सूक्त बतीसवें अध्याय में पढ़ा हुआ है।,शुक्लयजुर्वेदीयं सूक्तमिदम्‌ द्वात्रिंशे अध्याये पठितम्‌। मैत्रायणी संहिता विषय पर टिप्पणी लिखिए।,मैत्रायणीसंहिताविषये टिप्पणी लेख्या। अर्थात्‌ अष्टाध्यायी में पहले “कडारात्‌ समासः'' यहाँ से आरम्भ होकर कडारा कर्मधारय इस सूत्र से पूर्व विद्यमान सूत्रों में समास में यही पद और प्राक्‌ लिये जा रहे हैं।,"अर्थात्‌ अष्टाध्याय्यां प्राक्‌ ""कडारात्‌ समासः"" इत्यतः आरभ्य कडाराः कर्मधारये इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ पूर्वं विद्यमानसूत्रेषु समासः इति पदं प्राक्‌ इति पदं च गच्छतः।" विदेह मुक्त न तो सत्स्वरूप में विशिष्ट होता है और नहीं असत्स्वरूप में विशिष्ट होता है।,विदेहमुक्तः न सत्स्वरूपविशिष्टः न असत्स्वरूपविशिष्टः भवति। जब क नाम होता है तो उसकी सर्वनाम संज्ञा नहीं होती है।,यदा क इति नाम भवति तदा तस्य सर्वनाम इति संज्ञा न भवति। वैसे ही आध्यात्मिक-ऋचाओं का स्वरूप और देवीसूक्त के स्वरूप को निरुक्त में निरुक्तकार ने कहा है - अब आध्यात्मिकस्वरूप उत्तमपुरुष के योग में अहम इस का प्रयोग किया गया है।,तथाहि आध्यात्मिक-ऋक्‌-स्वरूपं देवीसूक्तस्य च तदन्तर्गतत्वं निरुक्ते निरुक्तमेवम्‌- अथाध्यात्मिक्य उत्तमपुरुषयोगा अहमिति चैतेन सर्वनाम्ना । छन्द में आया हुआ वैशिष्ट्य प्राचीन अंशो में उपलब्ध छन्दों की अपेक्षा से दसवें मण्डल के छन्दों में भेद है।,छन्दोगतवैशिष्ट्यम्‌ प्राचीनांशेषु उपलब्धानां छन्दसाम्‌ अपेक्षया दशममण्डलस्य छन्दःसु पार्थक्यम्‌ अस्ति। इसलिए प्रमाणों का अनुग्राहक तर्क कहलाता है।,अत एव प्रमाणानाम्‌ अनुग्राहकः तर्कः । सूत्र का अवतरण- निपात संज्ञक के आदि स्वरों को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- निपातसंज्ञकानाम्‌ आद्यानां स्वराणाम्‌ उदात्तत्वविधानार्थ सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। जिसकी सत्त्वशुद्धि होती है।,यस्य सत्त्वशुद्धिः अस्ति। अन्तः करण कौ शुद्धि के द्वारा ब्रह्मविद्या की उपायभूत और भी दो उपासनाएँ कही गयी हैं।,अन्तःकरणशुद्धिद्वारा ब्रह्मविद्योदयस्य उपायभूतम्‌ अन्यत्‌ अपि द्विविधम्‌ उपासनं विद्यते। वाक्यों के तात्पर्य के निर्णय के लिए मीमांसाशास्त्र में छ: प्रकार के तात्पर्यग्राहकलिङ्गों का प्रयोग किया है।,वाक्यानां तात्पर्यनिर्णयाय मीमांसाशास्त्रे षड्विधतात्पर्यग्राहकलिङ्गानि उपयुज्यन्ते। नीलग्रीवा की हजार आखों को भंयकर रुद्र के लिए तथा उनके गणों के लिए हम नमस्कार करते हैं।,नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय वर्षकाय रुद्राय तथा तस्य गणेभ्यश्च वयं पणताः। ये आख्यान पाठक हृदय के उद्ठिग्न मन में शान्ति और शीतलता देते हैं।,एतानि आख्यानानि पाठकहृदयस्य उद्विग्नचित्ते शान्तिदायकानि शीतलानि च भवन्ति। वहाँ पर विद्वानों का मत है - ओषध्यः पशवो वृक्षास्तीर्यञ्चः पक्षिणस्तथा।,तत्र शिष्टमतम्‌ - ओषध्यः पशवो वृक्षास्तीर्यञ्चः पक्षिणस्तथा। सुमन: शब्द में पुस्त्वमार्ष जगद्विशेषण होने से।,सुमनःशब्दे पुस्त्वमार्ष जगद्विशेषणत्वात्‌। और उनसे हमारी समृद्धि होती है।,तेन च अस्माकं समृद्धिः भवति । एक साथ के स्थान को उपासकों का सत्यलोक का निर्माण किया अथवा स्थिर करता है।,सधस्थम्‌ उपासकानां सहस्थानं सत्यलोकमस्कभायत्‌ स्कम्भितवान्‌ ध्रुवं स्थापितवानित्यर्थः। सूत्र अर्थ का समन्वय- कृतस्य अपत्यम्‌ इस अर्थ में कृत शब्द से अणू प्रत्यय करने पर कार्त: यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- कृतस्य अपत्यम्‌ इत्यर्थ कृतशब्दात्‌ अण्प्रत्यये कार्तः इति रूपम्‌। तथा चित्त को फिर से अन्तर्मुखी करना चाहिए।,चित्तं च पुनः अन्तर्मुखीनं कुर्यात्‌। "इस प्रकार मध्यवर्ति सूत्रों में “निष्ठा च द्वयजनात्‌' इस सूत्र से 'द्वयच्‌' इसकी अनुवृत्ति नहीं है, परन्तु इस सूत्र में 'द्व्यच्‌' इसकी अनुवृत्ति कैसे यदि कोई ऐसा कहता है तो “मण्डूकप्लुत' (मेंढक की) गति से यहाँ अनुवृत्ति है।","एवं मध्यवर्तिसूत्रेषु ""निष्ठा च दुव्यजनात्‌' इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ 'दुव्यच्‌' इत्यस्य अनुवृत्तिः न भवति, परन्तु अस्मिन्‌ सूत्रे कथं द्व्यच्‌ इत्यस्य अनुवृत्तिः इति चेदुच्यते ""मण्डूकप्लुत्या' अत्र अनुवृत्तिः इति।" "श्री सूक्त के दो मन्त्र- * हिरण्यवर्णां हरिणीम्‌' तथा ` गन्धद्वारां दुराधर्षाम्‌' पद्य पुराण में उद्धृत है (६/१५५/२८/३०) * सितासिते सरीते यत्र सङ्गते' यह स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में (७/४४) तथा पद्म पुराण में (६/२४६/३५) , इसका उल्लेख प्राप्त होता है।","श्रीसूक्तस्य द्वौ मन्त्रौ- 'हिरण्यवर्णा हरिणीम्‌' तथा 'गन्धद्वारां दुराधर्षाम्‌' पद्मपुराणे समुद्धृतौ स्तः (६/१५५/२८/३०) 'सितासिते सरीते यत्र सङ्गते' इति स्कन्दपुराणस्य काशीखण्डे (७/४४) तथा पद्मपुराणे (६/२४६/३५), समुद्धृतोऽस्ति।" और उस चौ यह पद सप्तमी एकवचनान्त है।,तत्‌ च चौ इति पदं सप्तम्येकवचनान्तं वर्तते। यास्क के निरुक्त में बारह निरुक्त कर्ताओं के नाम और उनके मत का निर्देश है।,यास्कस्य निरुक्ते द्वादशानां निरुक्तकर्तृणां नामानि मतानि च निर्दिष्टानि सन्ति। इस ग्रन्थ में साठ श्लोक है।,अस्मिन्‌ ग्रन्थे षष्टिः श्लोकाः सन्ति। अतः यहाँ पर प्रकरण में यजमान पशु-गृह-प्रजा-धन आदि को कल्याण मानता है तो पशु आदि यहाँ पर कल्याण हैं।,अतः अत्र प्रकरणे यजमानः पशु-गृह-प्रजा- वित्तादिकम्‌ कल्याणं मनुते चेत्‌ पश्वादिकम्‌ अत्र कल्याणम्‌। अन्वय - यस्यां परिचरा आपः समानी अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति।,अन्वयः- यस्यां परिचरा आपः समानी अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। “नञ्‌” सूत्र की व्याख्या की गई है ।,""" नञ्‌ "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" चित्त में विक्षेप उत्पन्न हो जाता है।,चित्ते विक्षेपः जायते। "इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है यहाँ पर जहाँ उदात्त स्वर नहीं है, उस प्रकार के लसार्वधातुक के परे अभ्यस्त संज्ञक धातुओं के आदि अच्‌ उदात्त होता है।",एवम्‌ अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति यत्र उदात्तस्वरः नास्ति तादृशे लसार्वधातुके परे अभ्यस्तसंज्ञकानां धातूनाम्‌ आदिः अच्‌ उदात्तः भवति। जैसे अग्नि के सानिध्य से द्विस्फुलिङग उत्पन्न होते हैं वैसे ही जो आत्मा का शोधयिता है।,यथाग्नेः सकाशाद्विस्फुलिङ्गा जायन्ते तद्वत्‌। यद्वा आत्मनां शोधयिता। तन्वानाः - तन्‌-धातु से शानच्‌ प्रथमाबहुवचन में यह रूप बनता है।,तन्वानाः- तन्‌-धातोः शानचि प्रथमाबहुवचने। “समर्थः पदविधिः” सूत्र से समर्थः पद की अनुवृत्ति होती है।,""" समर्थः पदविधिः "" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ समर्थः इति पदमधिक्रियते ।" टाप्‌ प्रथमा एकवचनान्त पद है।,टाप्‌ इति प्रथमेकवचनान्तं पदम्‌। “विद्यमान है धर्म आदि पुरुषार्थ जहाँ वे वेद है' ऐसा बह्वृक प्रातिशाख्य में कहा है।,विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्था यैस्ते वेदाः' इति बहृवुक्प्रातिशाख्यम्‌। इसके बाद दोनों अकारों के स्थान पर सवर्णदीर्घ आकार होने पर गवाक्षि अ होता है।,ततः अकारद्वयस्य स्थाने सवर्णदीर्घे आकारे गवाक्षि इति निष्पद्यते। तीसरे काण्ड में सोलह प्रपाठक है।,तृतीयकाण्डे षोडशप्रपाठकाः सन्ति। "लोप, आगम, विकार, प्रकृतिभाव, आख्यानों के चार प्रकार के संधि के नाम हैं।",लोपागमविकारप्रकृतिभावाख्यानां चतुर्विधसन्धीनाम्‌। वैसे ही ब्रह्मरूप वस्तु का विवर्तभूत अज्ञानप्रपञ्चादि होता है।,तथैव ब्रह्मरूपस्य वस्तुनः विवर्तभूतम्‌ अज्ञानप्रपञ्चादिकम्‌। 4. शोभना मेधा यस्य तम्‌ यहाँ बहुव्रीहि समास है।,4. शोभना मेधा यस्य तम्‌ इति बहुव्रीहिः। रत्न को धारण करने वाली यागफल रूपों के रत्नों को विशेष रूप से धारण अथवा पोषण करने वाली।,रत्नधातमं यागफलरूपाणां रत्नानामतिशयेन धारयितारं पोषयितारं वा। उसका उत्कर्ष किसी के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है।,तस्य उत्कर्षः केन ज्ञातुं शक्यते? 8 ब्रह्म का सर्वव्यापकत्वद्योतक भगवद्गीता में क्या वाक्य है?,८. ब्रह्मणः सर्वव्यापकत्वद्योतकं भगवद्गीतावाक्यं किम्‌? ऋग्वेद के दसवें मण्डल का चौतीसवाँ सूक्त अक्षसूक्त है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य चतुस्त्रिंशं सूक्तं हि अक्षसूक्तम्‌ । उस के बाद दम का निर्देश किया गया है ।,ततः परं दमस्य निर्देशः। तिसृभ्य यहाँ पर पञ्चमी विधान से तस्मादित्युत्तस्य इस परिभाषा से यहाँ परस्य यह पद उपस्थित होता है।,तिसृभ्य इत्यत्र पञ्चमीविधानात्‌ तस्मादित्युत्तस्य इति परिभाषया अत्र परस्य इति पदमत्र उपतिष्ठते। अलुक्‌ नाम यानि लुक्‌ नहीं होता है।,अलुक्‌ नाम लुक्‌ न भवति इति। "इन्होने ही वृत्र को माण, इसलिए यह वृत्रघ्न, वृत्रहा इत्यादिनाम से भी जाने जाते हैं।",वृत्रस्य हननमपि अनेन विहितम्‌ अतः अयं वृत्रघ्नः वृत्रहा इत्यादिनाम्ना अपि व्यपदिश्यते। यहाँ पदों का अन्वय इस प्रकार होता है - दीर्घात्‌ अष्टन: असर्वनामस्थानविशिष्टा विभक्तिः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- दीर्घात्‌ अष्टनः असर्वनामस्थानविशिष्टा विभक्तिः उदात्तः इति। सूत्र का अर्थ- दो अचों में यह अर्थ है।,सूत्रार्थः- दुव्यचामित्यर्थः। और वह ज्ञान मात्र के द्वारा साध्य होता है।,स च ज्ञानमात्रसाध्यः। वैदिक वाङमय में प्रयुक्त कुछ उपमा अलङकारों का वर्णन कीजिए।,वैदिकवाङ्खये प्रयुक्तानां केषाञ्चित्‌ उपमालङ्काराणां वर्णनं कुरुत। विनाश से रहित यह सायण का अर्थ है।,अविनाशः इत्यर्थः सायणस्य। तेजोमय अन्तःकरण से उपहित जीव का तैज इस प्रकार का नाम होता है।,तेजोमयान्तःकरणोपहितत्वात्‌ जीवस्य तैजस इति नाम। ' श्रृंगार रस के आभास का सङ्केत भी यमयमी सूक्त में (१०/१०) उपलब्ध होता है।,शृङ्गारसाभासस्य अपि सङ्केतः यमयमीसूक्ते (१०/१०) उपलब्धो भवति। यहाँ पर यह भाव है की यहाँ पर उपमालङ्कार है।,अस्य अयं भावः यत्‌ अत्रोपमालङ्कारः। आज के युग में स्वामि दयानन्द ने पाणिनीय शिक्षा का उद्धार किया है।,अद्यतनीये युगे स्वामिदयानन्दः पाणिनीयशिक्षायाः उद्धारं कृतवान्‌। इस प्रकार से सूक्त की महिमा प्रकट की गई है।,एवं प्रकारेण सूक्तस्य माहात्म्यं प्रकटितम्‌। आरोपस्थल में अधिष्ठान का अंश आरोप्यज्ञान में भासित होता है।,आरोपस्थले अधिष्ठानस्य अंशः आरोप्यज्ञाने भासते । "वे हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान तथा समाधि।",तानि हि - यमः नियमः आसनं प्राणायामः प्रत्याहारः ध्यानं धारणा समाधिश्चेति। उनके मत में ईश्वर साकार तथा निराकार है और साकार तथा निराकार से भिन्न भी है।,"तन्मते- 'ईश्वरः साकारो, निराकारः, साकारनिराकाराभ्यां भिन्नोऽपि।" वृत्रतरम्‌ - अतिशयने वृत्रम्‌ इस अर्थ में तरप करने पर वृत्रतरम्‌ यह रूप है।,वृत्रतरम्‌ - अतिशयने वृत्रम्‌ इति अर्थे तरपि वृत्रतरम्‌ इति रूपम्‌। के साथ यह शास्त्र संहिता गणित जातक आख्यान तीन भागों में अपने को प्रकट किया है।,गच्छता कालेन इदं शास्त्रं संहितागणितजातकायख्येषु त्रिषु भागेषु आत्मानं प्रकटीचकार। उसके लिए विषयों से मन को विरक्ति अपेक्षित होती है।,तदर्थं विषयेभ्यः मनसः विरक्तिः अपेक्षते। सूत्र अर्थ का समन्वय -उदाहरण से दिया यह मन्त्र यज्ञकर्म में प्रयुङ्क्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः -उदाहरणरूपेण प्रदत्तः अयं मन्त्रः यज्ञकर्मणि प्रयुङ्क्तः। ",11.5.7 ) तत्त्वमसि जहल्लक्षणा असडऱगति तत्वमसि यहाँ पर जहत्‌ लक्षणा सङ्गत नहीं है।",11.5.7) तत्त्वमसीत्यत्र जहल्लक्षणायाः असङ्गतिः तत्त्वमसीत्यत्र जहल्लक्षणा न सङ्गच्छते। वृत्र के मरने पर विरोधरहित जल वृत्र शरीर का उल्लङ्घन करके बहता है।,मृते तु वृत्रे विरोधरहिता आपो वृत्रशरीरमुल्लङ्घ्य प्रवहन्ति। वृषादीनां च इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,वृषादीनां च इति सूत्रं व्याख्यात। राजा के अभिषेक के समय में राजसूय यज्ञ होता है।,राज्ञः अभिषेककाले राजसूययज्ञो भवति। इसलिए पञ्चदशी में कहा गया हैं कि “बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम्‌।,अतः एव पञ्चदश्यां निगदितं- “बुद्धितत्स्थचिदाभासो द्वावपि व्याप्नुतो घटम्‌। इस कारण इन ग्रन्थों के काल विचार करने पर प्राचीन प्रतीत नहीं होते हैं।,अतः एतेषां ग्रन्थानां कालविचारे कृते प्राचीनत्वं न प्रतीयते। """चार्थे द्वन्द्वः"" इस सूत्र से दन्तः च ओष्ठः च तयोः समाहारः इस लौकिक विग्रह में समास होने पर दन्तोष्ठम्‌ रूप निष्पन्न होता है।","""चार्थे द्वन्द्वः"" इत्यनेन सूत्रेण दन्तः च ओष्ठश्च तयोः समाहारः इति लौकिकविग्रहे समासे दन्तोष्ठम्‌ इति रूपं निष्पद्यते।" फिर भी संक्षेप रूप से प्रधान विषयों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।,तथापि संक्षेपतः प्रधानविषयाः प्रस्तूयते। अमन्तवः - मानता नहीं अमन्तवः यह रूप है।,अमन्तवः- न मन्तवः अमन्तवः इति रूपम्‌। "वह ही अग्नि, वह ही आदित्य, वह ही वायु, वह ही चन्द्रमा, वह ही तेज, वह ही प्रार्थना, वह ही जल है।","स एव अग्निः, स एव आदित्यः, स एव वायुः, स एव चन्द्रमाः, स एव तेजः, स एव प्रार्थना, स एव जलम्‌।" वह बिजली के समान चमकता है।,तौ विद्युद्दीप इव प्रकाशेते। शास्त्राचार्यों के उपदेश के द्वारा यह सिद्ध है लेकिन परोक्षानुभव तो कुछ को ही है।,शास्त्राचार्योपदेशसिद्धः परोक्षानुभवस्तु केषाश्चिदस्ति। वृत्ति के पाँच भेद होते हैं।,वृत्तेः पञ्च भेदाः सन्ति। "कर्म भेद, उनका प्रभाव, साधनों की उपयोगिता।","कर्मभेदाः, तेषां प्रभावः, साधनानाम्‌ उपयोगिता ।" जिस प्रकार से धान को कूटने से चावल मिलते हैं तो जब तक चावल धान से बाहर नहीं आ जाते है तब तक उनको कूटा ही जाता है।,यथा अवहननेन धान्येभ्यः तण्डूलाः संग्रहणीयाः चेत्‌ यावत्‌ तण्डूलानां निष्कासनं न भवति तावद्‌ अवहननं विधीयते । “एक श्रुति दूरात्संबुद्धौ ' इस सूत्र से यहाँ “एक श्रुति' इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति आ रही है।,"""एकश्रुति दूरात्संबुद्धौ' इति सूत्रात्‌ अत्र ""एकश्रुति' इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।" इसलिए श्रुति और स्मृति में विरोध होने पर श्रुति को ही प्रमाण माना जाता है।,अत एव श्रुतिस्मृत्योः विरोधे श्रुतिरेव गरीयसी। पूजन अर्थ से परे जो प्रातिपदिक तदन्त से समास से समासान्त नहीं होता है।,पूजनार्थात्‌ परं यत्‌ प्रातिपदिकं तदन्तात्‌ समासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति। "जैसे गुरु वेदपाठ करता है, और शिष्य उसका अनुसरण करते है, वैसे ही यह मेंढक ध्वनि हे - “यदेषामन्यो अन्यस्य वाचं शाक्तस्येव वदति शिक्षमाणः।",यथा गुरुः वेदपाठं करोति शिष्याः च तम्‌ अनुवदन्ति तथैव अयं मण्डुकध्वनिः वर्तते - 'यदेषामन्यो अन्यस्य वाचं शाक्तस्येव वदति शिक्षमाणः। और उससे यहाँ सूत्र के पदों का अन्वय इस प्रकार है - चादयः निपाताः अनुदात्ताः इति।,ततश्च अत्र सूत्रस्यास्य पदान्वयः इत्थं -- चादयः निपाताः अनुदात्ताः इति। "जबतक पूर्व कृत फलों के उपभोगों का लय नहीं होता है, तब तक वह नये कर्मों को नहीं कर सकता है।","यावत्‌ पूर्वकृतस्य फलस्य उपभोगेन लयो न भवति, तावत्‌ नूतनतया कर्म कर्तु न शक्यते।" अज्ञान के आवरण के नाश से घटावच्छिन्न चैत्यन प्रकाशित होता है।,अज्ञानावरणस्य नाशात्‌ घटावच्छिन्नं चैतन्यं प्रकाशितं भवति। "और यहाँ पर पाठ में टाप्‌, डाप्‌, चाप्‌, ङीन्‌, ति ये पाँच प्रत्यय किस प्रातिपदिक से होते है।",अत्र च पाठे टाप्‌ डाप्‌ चाप्‌ ङीन्‌ ति इत्येते पञ्च प्रत्ययाः कस्मात्‌ प्रातपदिकात्‌ भवन्ति। उन विषयों में भोगेच्छा का अभाव ही वैराग्य कहलाता है।,तेषां विषयाणां भोगेच्छायाः अभावः वैराग्यम्‌। इसलिए ज्ञानस्थल में अवश्य ही चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,अतः ज्ञानस्थले अवश्यं चित्तवृत्तिः उत्पद्यते। "पूर्वपक्षी कहते है की वेद है, परन्तु प्रमाण सिद्ध में फिर भी वेद वाक्यों के प्रमाण स्वीकार्य नहीं हैं।",पूर्वपक्षी कथयति यत्‌ वेदः अस्ति इति यद्यपि प्रमाणसिद्धं तथापि वेदवाक्यानां प्रामाण्यं न स्वीकार्यम्‌। "नासदीय सूक्त-(१०/१२९) पुरुष सूक्त-( १०/९०) हिरण्यगर्भ सूक्त-(१०/१२१) वाक्‌ आदि सूक्त दार्शनिक दृष्टि से जैसे गम्भीर हैं वैसे ही प्रतिभा की अनुभूति दृष्टि से अत्यधिक रमणीय है, और अभिनव कल्पना दृष्टि से भी नितान्त प्रसिद्ध है।","नासदीयसूक्त-(१०/१२९)पुरुषसूक्त-(१०/९०)हिरण्यगर्भसूक्त-(१०/१२१)वाक्सूक्तादीनि सूक्तानि दार्शनिकदृष्ट्या यथा गम्भीराणि सन्ति तथैव प्रतिभानुभूतिदृष्ट्या अतीव रमणीयानि, अभिनवकल्पनादृष्ट्या अपि च नितान्तानि प्रसिद्धानि सन्ति।" इस मन्त्र में यास्क ने गोशब्द को किरणवाचक रूप में व्याख्या कौ है - उन वस्तुओ की कामना करता हूँ जहा जाने के लिये गायों के तीक्ष्ण सींग के समान =| जो तेज किरने है उनका प्रकाश वहा तक विस्तृत हो “शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा | टिप्पणियाँ शरणयोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वायासोऽयना”।,अस्मिन् मन्त्रे यास्कः गोशब्दं किरणवाचकत्वेन प्रयुग्ङ्क्ते । - यावत् किरणाः विस्तृताः भवन्ति तवत् पर्यन्तं प्रकाशः विस्तृतः वर्तते इति. सूर्य के उदय होने के काल को कहते है।,सूर्यस्य उदिता उदितावुदये। हाँ चार्वाक विदेहमुक्ति को स्वीकार करते हैं।,आम्‌ चार्वाकाः विदेहमुक्तिं स्वीकुर्वन्ति। इसी कारण ही कवि कहता है कि - “हे प्रकाश देने वाली उषा !,अत एव कविः कथयति- 'हे प्रकाशवति उषे! उनमे इन्द्र देव का प्रधान रूप से यजन किया गया है।,तासु इन्द्रो देवः प्रधानतां भजते। "यहाँ वोऽश्वाः (वः अश्वाः) क्व इस वकार से उत्तर उकार उदात्त है, शव से उत्तर आकार अनुदात्त तथा क्व से उत्तर अकार स्वरित है।","अत्र वोऽश्वाः(वः अश्वाः) क्व इत्यत्र वकारोत्तरः उकारः उदात्तः, श्वोत्तरः आकारः अनुदात्तः तथा क्वोत्तर : अकारः स्वरितः इति।" ऋचः अर्धम्‌ इस लौकिक विग्रह में ऋच्‌ ङस्‌ अर्ध सु इस अलौकिक विग्रह में “ अर्धंनपुंसकम्‌'' इस सूत्र से तत्पुरुष समास होता है।,"ऋचः अर्धम्‌ इति लौकिकविग्रहे ऋच्‌ ङस्‌ अर्ध सु इत्यलौकिकविग्रहे ""अर्धं नपुंसकम्‌"" इत्यनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासो भवति।" "हविः = पुरोडाशादिहवि पदार्थ, शरद्‌ = शरद्‌ ऋतु आसीत्‌ = हुआ।","हविः= पुरोडाशादिहविष्ट्वेन, शरद्‌= एतदाख्य ऋतुः आसीत्‌= अभवत्‌।" """अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इस सूत्र का अर्थ क्या है?","""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" "अभ्यास का अर्थ है आवृत्ति, अर्थात्‌ बार-बार कहना।","अभ्यासः आवृत्तिः, पुनःपुनः कथनम्‌ ।" वह उपासनादि करके उन विषयों का ज्ञान भी कर लेता है अतः वह ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कहलाता है।,शास्त्रतो ज्ञातानां विषयाणां स्वानुभवो वर्तते इति ज्ञानविज्ञानतृप्तम्‌ अन्तःकरणं यस्य सः। और सारथि द्वारा लगाम खीचने पर शीघ्र रुके।,एवं सारथिना लङ्घने कृते शीघ्रं तिष्ठति। "यहाँ निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकते हैं, कि इन आचार्यों के द्वारा ब्राह्मण ग्रन्थों का निर्माण हुआ हो।","अत्र निश्चयपूर्वकं किमपि वक्तुं न शक्यते, यद्‌ एतैः आचार्यैः ब्राह्मणग्रन्थानां निर्माणं कृतम्‌ इति।" अतः अक्षशौण्ड यहाँ पर अक्ष शब्द अन्तोदात्त ही रहता है।,अतः अक्षशौण्डः इत्यत्र अक्षशब्दः अन्तोदात्तः एव तिष्ठति। उपनिषद्‌ प्रतिपाद्य मोक्ष स्वरूप ब्रह्म ही होता है।,उपनिषत्प्रतिपाद्यं मोक्षस्वरूपं ब्रह्म | क्योंकि जीवन्मुक्त पुरुष की अज्ञान वृत्तियों के अभाव से उसे बाह्य जगत्‌ सुषुप्ति के समान प्रतीत होता है।,यतो हि जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य अज्ञानवृत्तीनाम्‌ अभावात्‌ बाह्यं जगत्‌ सुषुप्तिवत्‌ प्रतीयते। यहाँ नाम्‌ यह नुड आगम सहित आम्‌-विभक्ति का रूप है।,अत्र नाम्‌ इति च नुडागमसहितस्य आम्‌-विभक्तेः रूपम्‌। "ऋग्वेद के दो विभाग किये हैं, एक अष्टक क्रम है और दूसरा मण्डल क्रम है।","ऋग्वेदस्य विभागः द्विधा क्रियते, एकः अस्ति अष्टकक्रमः, अपरश्च मण्डलक्रमः।" द्युलोक-भूलोक-अन्तरिक्षलोक सर्वत्र ही इसका गमन है।,द्युलोक-भूलोक-अन्तरिक्षलोकेषु सर्वत्र अस्य गमनम्‌। 1.14 “सुप्प्रतिना मात्रार्थे” सूत्रार्थ-मात्र अर्थ में विद्यमान प्रति के साथ समर्थ का सुबन्त का अव्ययीभाव संज्ञा होती है।,"१.१४ ""सुप्प्रतिना मात्रार्थ"" सूत्रार्थः - मात्रार्थं विद्यमानेन प्रतिना सह समर्थं सुबन्तम्‌ अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति।" एवं तिप्रत्ययविधायक युनस्तिः सूत्र की व्याख्या है।,एवं तिप्रत्ययविधायकस्य यूनस्तिः इति सूत्रस्य व्याख्या वर्तते। 17. समाधि के कितने प्रकार हैं तथा वे कौन-कौन से हैं?,"१७. समाधिः कतिविधः, कौ च तौ?" "जाग्रत अवस्था में ही प्रमातृ, प्रमाण, प्रमेय आदि व्यवहार होते हैं।",जाग्रति प्रमातृप्रमाणप्रमेयव्यवहाराः भवन्ति। यहाँ हमारा कथन है की निरुक्त-व्याकरण आदि तक वेदाङ्गों के अध्ययन से इन मन्त्रों के अर्थ जाने जाते है।,अत्र अस्माकं वक्तव्यमिदं यत्‌ निरुक्त-व्याकरणप्रभृतीनां वेदाङ्गानां अध्ययनेन एतेषां मन्त्राणाम्‌ अर्थः बोधगम्यः भवति। अतः मोक्ष तथा बन्ध तो सापेक्ष होते है।,अतः मोक्षबन्धौ तु सापेक्षौ एव। उसके बाद इस माया याग में आने के बाद चेतन अचेतन प्राणी देवमनुष्यादि रूप से विविध प्रकार के होते हुए चारों दिशाओं में व्याप्त है।,ततः मायायागागत्यानन्तरं देवमनुष्यादिरूपेण विविधः सन्‌ चेतनाचेतने अभिलक्ष्य चतुर्दिक्षु व्याप्तवान्‌ अस्ति। 51. शब्दप्रादुर्भाव अर्थ में अव्ययीभावसमास का क्या उदाहरण हे?,५१. शब्दप्रादुर्भावार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? आत्मा पैर नहीं होती है अपितु गमनार्थ शक्ति प्रदायिका होती है इसी प्रकार से आत्मा पाद की पाद तथा हाथ की हाथ होती है।,आत्मा न पादः। पादस्य पादः भवति। पादस्य गमनार्थं शक्तिप्रदायक इति तात्पर्यम्‌। एवं हस्तस्य हस्तो भवत्यात्मा। इसलिए वेद से ही विशाल वाङ्मय दिखाई देता है।,अत एव वेदाद्‌ अपि महान्‌ विस्तरः परिलक्ष्यते वाङ्मयस्य। चित्‌ शब्द उत्तर जिससे वह चिदुत्तरम्‌ यहाँ बहुव्रीहि समास है।,चिच्छब्दः उत्तरं यस्मात्‌ तत्‌ चिदुत्तरम्‌ इति बहुव्रीहिसमासः। मिथ्या प्रत्यय तो स्थाणुपुरुषों में अगृह्माण विशेषणों में होता है।,मिथ्याप्रत्ययस्तु स्थाणुपुरुषयोः अगृह्यमाणविशेषयोः। पूर्वकल्प में पुरुषमेधकर्ताओं ने आदित्यरूप को प्राप्त किया।,पूर्वकल्पे पुरुषमेधयाजी आदित्यरूपं प्राप्तः स्तूयते। (क) मुमुक्षुत्व (ख) विवेक (ग) प्रयोजन (घ) वैराग्य 11. यह साधन चतुष्टय में अन्यतम होता हे?,(क) मुमुक्षुत्वम्‌ (ख) विवेकः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) वैराग्यम्‌ 11. अयं साधनचतुष्टये अन्यतमः। इस सूक्त में एक जुआरी का जीवन कैसे होता है इस विषय में कहा गया है।,अस्मिन्‌ सूक्ते एकस्य कितवस्य जीवनं कथं भवति इति विषये उक्तम्‌ । "( कैवल्योपनिषत्‌ 1.2) कर्म के द्वारा, प्र॒जा के द्वारा तथा धन के द्वारा अमृतत्व प्राप्त नही होता है।",(कैवल्योपनिषत्‌ १.२) कर्मणा वा प्रजया वा धनेन वा अमृतत्वं न प्राप्यते। "ब्रह्मादि के समान जीव भी विभु, नित्य तथा सन्मात्र चैतन्य होता है।",ब्रह्मादिवत्‌ जीव अपि विभुः नित्यः सन्मात्रचैतन्यमस्ति। इस पाठ में उदात्त स्वर की और अनुदात्त स्वर की आलोचना की है।,प्रकृतपाठे अस्मिन्‌ उदात्तस्वरस्य अनुदात्तस्वरस्य च आलोचनं क्रियते। इस संस्करण में केवल सत्तरह श्लोक ही हैं।,अस्मिन्‌ संस्करणे केवलं सप्तदश श्लोकाः एव वर्तन्ते। यहाँ मित्र प्रानो की रक्षा करता है और वरुणजल को धारण करते है।,अत्र मित्रः प्राणान्‌ रक्षयति वरुणश्च जलानि धारयति। पूजनात्‌ पूजितम्‌ अनुदात्तं काष्ठादिभ्यः ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,पूजनात्‌ पूजितम्‌ अनुदात्तं काष्ठादिभ्यः इति सूत्रगतपदच्छेदः। इस प्रकार से ही यहाँ नियम प्रदर्शित है।,अनेन एव प्रकारेण अत्र नियमाः प्रदर्शिताः। 27 आसन किसे कहते हैं?,२७. किं तावत्‌ आसनम्‌? छांदोग्य और मांडुक्य में विद्यमान महावाक्य लिखें।,छान्दोग्ये माण्डुक्ये च विद्यमाने महावाक्ये लिखत। "मेघों के प्रथम मेघ को जब मारा, उसके बाद माया से युक्त असुरों की माया को भी मारा था।",मेघानां प्रथमं मेघं यदा हतवान्‌ तदनन्तरं मायोपेतानाम्‌ असुराणां मायाः अपि हतवान्‌। इसलिए यह निर्मल होती है।,अत एव निर्मला च भवति। सूत्र व्याख्या-यह विधायक सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - इदं सूत्रं विधायकम्‌। इसलिए त्वं पदार्थ का विशेष्यत्व होता है।,अतः त्वम्पदार्थस्य विशेष्यत्वम्‌। सम्पूर्ण कालपरिणाम प्रकाशमानपुरुष से उत्पन्न हुआ है।,सम्पूर्णः कालपरिणामः प्रकाशमानपुरुषात्‌ उत्पन्नः। 2. आठ स्त्री प्रत्यय होते हैं?,२. अष्टौ स्त्रीप्रत्ययाः सन्ति। प्रज्ञानब्रह्म में उत्पत्ति स्थिति तथा लय कालों में प्रतिष्ठित प्रज्ञा अर्थ होता है।,प्रज्ञाने ब्रह्मणि उत्पत्तिस्थितिलयकालेषु प्रतिष्ठितं प्रज्ञायमित्यर्थः। रुद्रशब्द का अर्थः भीषण अथवा भयङ्कर है।,रुद्रशब्दस्य अर्थ भीषणं भयङ्करं वा। जज्ञिरे रूप कैसे सिद्ध हुआ?,जज्ञिरे इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। वैसे ही प्रायोगिक जीवन में भी उपयोग लिए प्रेरणादायी सिद्ध हुए।,तथैव प्रायोगिकजीवने अपि उपयोगाय भवति। इस प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति के लिए कुछ उपाय उपनिषदों में बताए गए है- बृहदारण्योकोपनिषद्‌ में इस प्रकार से कहा गया है- “ आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इस प्रकार से।,एवंविधस्य मोक्षस्य प्राप्तये केचन उपायाः उपनिषत्सु समुपनिबद्धाः।आम्नातं च बृहदारण्यकोपनिषदि - “आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इति। अब्राह्मणः रूप को सिद्ध कीजिये ।,अब्राह्मणः इति रूपं साधयत । यहाँ पर इन्द्र के महान वर्णन वीररस में लिखा हुआ है।,अत्र इन्द्रस्य माहात्म्यवर्णने वीररसः स्फुटः वर्तते। ध्यान तथा भक्ति मन से की जाती है।,ध्यानम्‌ भक्तिश्च मनसा एव क्रियते । सम्पृक्ताः - सम्पूर्वक पृच्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,सम्पृक्ताः - सम्पूर्वकात्‌ पृच्‌-धातोः क्तप्रत्यये प्रथमाबहुवचने । तद्धित अर्थ और उत्तरपद के समाहार में उक्त त्रिविध संख्यापूर्वः समास द्विगुसंज्ञा होता है।,तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च इत्यस्मिन्‌ सूत्रे उक्तः त्रिविधः संख्यापूर्वः समासो द्विगुसंज्ञो भवति । और न मरती है।,न च म्रियते। “कर्माणि च'' (2.2.18 ) सूत्रार्थ-'उभयप्राप्तोंकर्मणि”' उससे विहित जो षष्ठी उसके सुबन्त का सुबन्त के साथ मास नहीं होता है।,"कर्मणि च॥ (२.२.१४) सूत्रार्थः - ""उभयप्राप्तौ कर्मणि"" इत्यनेन विहिता या षष्ठी तदन्तस्य सुबन्तस्य सुबन्तेन समासो न भवति।" हन्तवै यह कैसे सिद्ध हुए?,हन्तवै इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। वह हमारे प्रति बिना अस्त्र के रहे।,सः अस्मान्‌ प्रति न्यस्तसर्वशस्त्रः अस्तु। अङ्गिरः यह कह करके किसका सम्बोधन किया जाता है?,अङ्गिरः इत्युक्त्वा कस्य सम्बोधनं क्रियते? ग्रन्थ के साथ विषय का हमेशा बोद्धयबोधकभव ही संबंध होता है।,ग्रन्थेन सह विषयस्य सर्वदा बोद्ध्यबोधकभावः एव सम्बन्धः भवति। समानाधिकरण और व्यधिकरण ये दो भेद होते हैं ऐसा कह सकते हैं।,समानाधिकरणः व्यधिकरणश्चेति भेदद्वयम्‌ इति वक्तुं शक्यते। च अव्यय पद है।,च इति अव्ययपदम्‌। होम की दर्वी होम यह अभिध कैसे दी गई?,होमस्य दर्वीहोमः इत्यभिधा कथम्‌? किन्तु भुङक्ते यह तिङन्त आहो उताहो इन अव्ययों से युक्त है।,किञ्च भुङ्क्ते इति तिङन्तम्‌ आहो उताहो इत्याभ्याम्‌ अव्ययाभ्यां युक्तम्‌ अस्ति। उदात्त अनुदात्त आदि अच्‌ ही सम्भव होते हैं इसलिए अच्‌ ही प्राप्त होता है।,उदात्तानुदात्तादिकम्‌ अचः एव सम्भवन्ति अतः अच्‌ इति लभ्यते। इस विराट्पुरुष के अङ्गों से ही अखिल प्रपञ्च उत्पन्न हुए जिससे उसका महत्त्व स्पष्ट ही है।,अस्य विराट्पुरुषस्य अङ्गेभ्य एव निखिलप्रपञ्चस्य जनिरिति युक्तमेव तस्य महत्त्वम्‌। "और इसी प्रकार मन्त्र, ब्राह्मण के पृथकत्व का शुक्ल यजुर्वेद के शुक्लत्व का कारण है।",एवञ्च मन्त्रब्राह्मणयोः पृथक्त्वं शुक्लयजुर्वदस्य शुक्लत्वस्य कारणम्‌ अस्ति। "इसका यह भाव है की जैसे सूर्य अपने आकर्षण से सभी भूगोलो को धारण करता है वैसे ही सूर्य आदि लोकों का कारण और जीव को जगदीश्वर धारण करते है जो इन असंख्यलोकों का निर्माण किया, जिसमे ये प्रलय को प्राप्त होते है, वह ही सबको उपासना करने योग्य है।",अस्य अयं भावः यत्‌ यथा सूर्यः स्वाकर्षणेन सर्वान्‌ भूगोलान्‌ धरति तथा सूर्यादीन्‌ लोकान्‌ कारणं जीवांश्च जगदीश्वरो धत्ते य इमान्‌ असंख्यलोकान्‌ सद्यो निर्ममे यस्मिन्‌ इमे प्रलीयन्ते च स एव सर्वेः उपास्यः। 33. अद्वितीय ब्रह्म में किञ्चित विचलित अन्तसिन्द्रिय का प्रवाह ही ध्यान कहलाता है।,३३. अद्वितीयब्रह्मवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्य अन्तरिन्द्रियप्रवाहः ध्यानम्‌। यह लगध कौन है।,किञ्च कोऽयं लगधः। इसका वर्णन उपनिषद्‌ के वर्णन प्रसङ्ग में आगे होगा।,अस्य वर्णनमुपनिषदां वर्णनप्रसङ्गे अग्रे भविष्यति। उसको ही षष्ठी विभक्ति में शुभः यह रूप सिद्ध होता है।,तस्य षष्ठीविभक्तौ शुभः इति रूपं सिध्यति। भीमः - भी भये इस धातु से मक्‌ प्रत्यय करने पर कहा गया है।,भीमः - भी भये इति धातोः मक्‌ प्रत्ययः प्रयुक्तः अस्ति। नित्य तथा अनित्य इस प्रकार से दो प्रकार की वस्तु संसार में होती है।,नित्यं वस्तु अनित्यं वस्तु इति द्विविधं वस्तु विद्यते जगति। व्यास ने सुमन्त मुनि को अथर्ववेद किसलिए पढ़ाया?,व्यासः सुमन्तमुनिम्‌ अथर्ववेदं किमर्थं पाठितवान्‌? जगत्‌ में सभी प्राणी उसके आज्ञा का पालन करते है।,जगति सर्वे प्राणिनः तस्य आज्ञानुकारिणः। तितिक्षा के विषय में शीतोष्णादि द्वन्द बाह्य द्वन्द होते हैं।,तितिक्षाविषयो हि शीतोष्णादिद्वन्द्वो बाह्यः । नवयुग के अवतार के रूप में विवेकानन्द ने रामकृष्ण को अवतार के रूप में देखा था।,नवयुगस्य अवताररूपेण च रामकृष्णदेवं दृष्टवान्‌ विवेकानन्दः "( ऋग्वे, १०/१६६ ) इस प्रकार से १०/१६४ सूक्त में बुरे स्वप्न के विनाश के लिये प्रार्थना की है।",(ऋग्वे. १०/१६६) अनेन प्रकारेण १०/१६४ सूक्ते दुःस्वप्नविनाशाय प्रार्थनाऽस्ति। इस प्रकार से श्री रामकृष्ण तथा विवेकानन्द के दर्शन का परस्पर परिपूर्ण सूक्ष्म एक ही विचार है।,एवं श्रीरामकृष्णस्य विवेकानन्दस्य च दर्शनं परस्परं परिपूरकम्‌ आसीदिति सूक्ष्मेक्षिकया विचार्यम्‌। उदाहरण - इसका उदाहरण होता है - योऽग्निहोत्रं जुहोति।,उदाहरणम्‌- अस्य उदहरणं भवति योऽग्निहोत्रं जुहोति। 5. शिश्रियाणम्‌ इसका क्या अर्थ है?,५. शिश्रियाणम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? अन्यत्र पुन उसी के द्वारा कहा गया है - मित्र जल को फैक करके अन्तरिक्षलोक को जाता है।,अन्यत्र पुनः तेनैव उक्तम्‌ - मित्रः जलं प्रक्षिपन्‌ अन्तरिक्षलोकं गच्छति इति। सूत्र का अर्थ - अञ्चु धातु के अकार और नकार का लोप होने पर पूर्व को अन्त उदात्त होता है।,सूत्रार्थः - लुप्ताकारे अञ्चतौ परे पूर्वस्य अन्तोदात्तः स्यात्‌। सभी के अन्तः करण में मल विक्षेप तथा आवरण इस प्रकार से तीन दोष होते हैं।,सर्वेषाम्‌ अन्तःकरणे मलो विक्षेपः आवरणं चेते त्रयो दोषा आसते। और उसके माता-पिता और सहोदर भाई कहते है की हम इस जुआरी को नहीं जानते है।,किञ्च पिता जननी च भ्रातरः सहोदराश्च एनं कितवम्‌ आहुः वदन्ति न वयमस्मदीयमेनं जानीमः । इसप्रकार से विवेक वैराग्य शमादिषट्‌ सम्पत्ति तथा मुमुक्षुत्व और साधन चतुष्टय को समझना चाहिए।,इति विवेकवैराग्यशमादिषट्कसम्पत्तिमुमुक्षुत्वानि साधनचतुष्टयपदाभिधेयानि। इस प्रकार से वेदान्तों के अद्ठितीय ब्रह्म में तात्पर्यावधारण ही श्रवण के रूप में विस्तार से कहा है।,एवम्‌ वेदान्तानाम्‌ अद्वितीये ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणम्‌ एव श्रवणम्‌ इति निगदितं यथाविस्तरम्‌। "यहाँ गङ्गा-यमुना के बीच का स्थान पवित्र, तथा मुनियों के निवास के लिए उत्कृष्ट भूमि का वर्णन है।","अत्र गङ्गा-यमुनयोः मध्यदेशः पवित्रः, तथा मुनीनां निवासाय उत्कृष्टभूमिः वर्णिता अस्ति।" 11.6 ) मन का अनिन्द्रियत्व ब्रह्म इन्द्रियगोचर नहीं होता है।,11.6) मनसः अनिन्द्रियत्वम्‌- ननु ब्रह्म इन्द्रियगोचरं खलु। जर्भुरीति - भुर्‌-धातु से यङ्लुक लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,जर्भुरीति - भुर्‌ - धातोः यङ्लुकि लटि प्रथमपुरुषैकवचने । सूत्र का अर्थ- छन्दस्‌ में दक्षिण का आदि और अन्त उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- छन्दसि दक्षिणस्य आदिः अन्तः च उदात्तः भवति। और सूत्रार्थ है।,एवं सूत्रार्थः । मोक्ष ब्रह्म ज्ञान से होता है यह अद्वैत वेदांत का सिद्धांत है।,मोक्षः ब्रह्मज्ञानाद्‌ भवति इति अद्वैतवेदान्तस्य सिद्धान्तः। इसलिए यह याग पशुयाग कहलाता है।,तस्मादयं यागः पशुयागः इति उच्यते। "शाखाओं के ज्ञान के बिना संहिता पाठ निरर्थक ही है, इसलिए कुछ शाखाओं के विषय में ज्ञान अति आवश्यक हेै।","शाखानां ज्ञानं विना संहितापाठः निरर्थकः एव, अतः कासाञ्चन शाखानां विषये ज्ञानम्‌ अत्यावश्यकम्‌।" कुमारिलभट्ट ने भी कहा है सर्वस्यैव तु शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित्‌।,कुमारिलभट्टः अपि आह - सर्वस्यैव तु शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित्‌। चक्षु आदि की अपेक्षा से दूर जाता है यह तात्पर्य है।,चक्षुराद्यपेक्षया दूरगामि इति तात्पर्यम्‌। बृहती छन्द में कितने अक्षर होते है?,बृहतीच्छन्दः कतीनामक्षराणां भवति? द्युत अर्थ को छोड़कर अक्ष शब्द का आदि उदात्त किस सूत्र से होता है?,अदेवनार्थे अक्षशब्दस्य आदिः उदात्तः केन सूत्रेण ? "एक तो शौनक द्वारा रचित बृहद्देवता ग्रन्थ, और दूसरा यास्कर्षि विरचित निरुक्त का दैवत काण्ड।","ग्रन्थद्वयं हि शौनकेन रचितः बृहद्देवता इति ग्रन्थः, यास्कर्षिविरचितस्य निरुक्तस्य दैवतकाण्डं च।" "मन का शुद्धि सम्पादन शुद्ध मन मोक्ष का हेतु होता है, इस प्रकार से कहा जा चुका है।",मनसः शुद्धिसम्पादनम्‌ शुद्धं मनः मोक्षस्य हेतुर्भवतीत्यक्तम्‌। "5 आओआग लगाने वाला, जहर देने वाला, धन का हरण करने वाला, भूमि का हरण करने वाल तथा पत्नी को हरने करने वाला, इस प्रकार से ये छ: आततायी कहलाते है।",५. अग्निदः गरदः शस्त्रपाणिः धनापहारकः क्षेत्रहरः दारहरश्चेति षड्‌ आततायिनो भवन्ति। यह सिद्धान्त सही प्रतीत होता है।,अयं सम्यक्‌ सिद्धान्तः इति प्रतिभाति। "कर्म से चित्त की शुद्धि होती है, उपासना से भक्तिभाव उत्पन्न होते है, उससे ही ब्रह्म उपलब्धि प्राप्त होती है।","कर्मणा चित्तशुद्धिर्जायते, उपासनया भक्तिभावो जागृतो भवति, तेनैव भवति ब्रह्मोपलब्धिः।" भैषज्य सूक्त विषय पर विस्तार से लिखिए।,भैषज्यसूक्तविषये विस्तारेण लिखत। तत्त्वमसि इसर महावाक्य का तत्‌ और त्वं पद का लक्ष्यार्थ और वाक्यार्थ को प्रतिपादित करें अथवा अयमात्मा ब्रह्म इस महावाक्य का पंचदशी कारकों के मत में विवरण करें।,तत्त्वमसि इति महावाक्यस्य तत्त्वंपदयोः लक्ष्यार्थं वाच्यार्थं च प्रतिपादयत। अथवा अयमात्मा ब्रह्म इति महावाक्यं पञ्चदशीकाराणां मतेन विवृणुत। "जिसके कारण इस संहिता के एक मन्त्र में (११/११) कुरु-पाञ्चालदेशीय राजाओं का निर्देश प्राप्त होता है (एष वः कुरवो राजा, एष पाञ्चालो राजा) ।","यतः अस्याः संहितायाः एकस्मिन्‌ मन्त्रे (११/११) कुरु-पाञ्चालदेशीयनृपतेः निर्देशः प्राप्यते (एष वः कुरवो राजा, एष पाञ्चालो राजा)।" "(घ) शुक्लयजुर्वेद में मुख्य उपनिषद् - बृहदारण्यकोपनिषद्, ईशोपनिषद् और भिक्षुकोपनिषद् यह हैं।","घ) शुक्लयजुर्वेदे मुख्या उपनिषदः - बृहदारण्यकोपनिषत्‌, ईशोपनिषत्‌, भिक्षुकोपनिषत्‌ चेति।" पौर्वशालः यहाँ किस अर्थ में क तद्धित प्रत्यय होता है?,पौर्वशालः इत्यत्र कस्मिन्नर्थ कः तद्धितप्रत्ययः ? तीसरी आहुति अग्नि और सोम को उद्देश्य करके पुरोडाश को अर्पित की जाती है।,तृतीयाहुतौ अग्नीषोमौ उद्दिश्य पुरोडाशः अर्प्यते। इसलिए यह अत्यन्त प्रकाशमान होता है।,अतः अत्यन्तं प्रकाशमानः भवति। विज्ञानमय के समान ही उदय तथा अस्तमय आत्मा नहीं होती है ऐसा कहकर विज्ञानमय कोश का आत्मत्व निरास किया गया है।,विज्ञानमयवत्‌ उदयः अस्तमयो वा आत्मनः नास्तीत्युक्त्वा विज्ञानमयस्य आत्मत्वनिरासः कृतः। इसी प्रकार जो जन साहित्य शास्त्र को नहीं जानता वह व्यञ्जना के द्वारा प्रतिपादित वैदिक अर्थो को नहीं जान सकता।,एवं यो जनः साहित्यशास्त्रं न जानाति स व्यञ्जनया प्रतिपाद्यमानान्‌ वैदिकार्थान्‌ ज्ञातुं न शक्नोति। उसने प्रजापति के शिर का छेदन किया।,तेन प्रजापतेः शिरश्छेदनं कृतम्‌। उनमें मानव जीवन के चरम लक्ष्य और उसको प्राप्ति साधन का उपदेश है।,तानि मानवजीवनस्य चरमं लक्ष्यं तत्प्राप्तिसाधनम्‌ च उपदिशन्ति। जब जीव हदय में स्थित सभी काम पुत्रलोकवित्तेषणा आदि लक्षणों से मुक्त होता हैं तब वह जीव कामवियोग से जीवित ही अमृतमय हो जाता है।,जीवस्य हृदि स्थिताः सर्वे कामाः पुत्रलोकवित्तैषणालक्षणा मुच्यन्ते तदा स जीवः कामवियोगात्‌ जीवन्नेव अमृतो भवति। 26. “सुपो धातुप्रातिपदिकयोः'' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"२६. ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌ ।" सूत्र की व्याख्या - छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं तावद्‌ विधिसूत्रम्‌। जाग्रत अवस्था में जीव का वैश्वानर इस प्रकार का नाम होता हे।,जाग्रदवस्थायां जीवस्य वैश्वानर इति नाम भवति। रुद्रदेव हमेशा भयङ्कर नहीं होते हैं।,रुद्रदेवः सर्वदा न भयङ्करः। 5. कथं वृत्रं वृत्रमातरं च इन्द्रः हतवान्‌ इसकी मन्त्र के अनुसार से व्याख्या करो।,5. कथं वृत्रं वृत्रमातरं च इन्द्रः हतवान्‌ इति मन्त्रानुसारेण व्याख्यात। इस समस्त जगत्‌ में परमात्मा के स्वामित्व के बारे में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी कहा है- “विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌” (१०.४२) इति।,"जगतः परमात्मसर्वस्वत्वं भगवता श्रीकृष्णेनापि ध्वन्यते- ""विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌"" (१०.४२) इति।" प्राप्त करता है।,प्राप्नोति। यह निषिद्ध कर्म प्रेरणा भी आगे पाप को जन्म देती है जिसके कारण मन में विक्षेप होने लगता है।,इदं निषिद्धकर्मसु प्रेरणमपि येन अग्रे पापं जायते किञ्च चित्तस्य विक्षेपो भवति। भलेही नेैयायिकों के दर्शन में आकाश नित्य है फिर भी वेदान्तियों के मत में आकाश ब्रह्म से उत्पन्न होता है अर्थात्‌ अनित्य है।,यद्यपि नैयायिकानां नये आकाशः नित्यः तथापि वेदान्तिनां मते आकाशः ब्रह्मणः उत्पद्यते अर्थात्‌ अनित्यः । 35. निश्चयात्मिका अन्तःकरणवृत्ति कौन-सी है?,३५. निश्चयात्मिका अन्तःकरणवृत्तिः का ? उस अद्वैत शब्द के अर्थ विशेष का विचार किया जाता है।,तत अद्वैतशब्दस्य अर्थविशेषः विचार्यते। गम्‌-धातु से लेट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में गमत्‌ यह रूप बनता है।,गम्‌-धातोः लेटि प्रथमपुरुषैकवचने गमत्‌ इति रूपम्‌। "विशेष - यहाँ सुब्रह्मण्या + ओम्‌ इस अवस्था में स्वरित के और उदात्त के स्थान में एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इस सूत्र से एकादेश में उदात्त स्वर नहीं होता है, उस सूत्र में “अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इस सूत्र से अनुदात्तस्य इस पद की अनुवृति होने से उस सूत्र से उदात्त के और अनुदात्त के स्थान में ही उदात्त एकादेश होता है।","विशेषः - अत्र सुब्रह्मण्या + ओम्‌ इत्यवस्थायां स्वरितस्य उदात्तस्य च स्थाने एकादेश उदात्तेनोदात्तः इति सूत्रेण एकादेशे उदात्तस्वरः न भवति, तस्मिन्‌ सूत्रे ""अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इति सूत्रात्‌ अनुदात्तस्य इति पदस्य अनुवर्तनात्‌ तेन सूत्रेण उदात्तस्य अनुदात्तस्यैव च स्थाने उदात्तः एकादेशः भवति।" चक्षुष किसका विषय होता हे?,चक्षुषः विषयः कः ? सूत्र की व्याख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम अतिदेश अधिकार सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्यख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियमातिदेशाधिकारात्मकेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। यजुर्वेद के एकत्रिंश (३१वें) अध्याय में पुरुष स्वरूप वर्णित है।,यजुर्वेदे एकत्रिंश अध्याये पुरुषस्वरूपं वर्णितम्‌। परंतु जो अयुक्त है अर्थात्‌ उपर्युक्त निश्चय वाला नहीं है वह काम को प्रेरणा से अपने फल के लिये यह कर्म मैं करता हूँ इस प्रकार फल में आसक्त होकर बँधता है।,मम फलाय इदं करोमि कर्म इत्येवं फले सक्तो निबध्यते। कर्मभिः जन्मरूपं संसारं प्राप्यते॥ "वैसे ही उदात्त स्वर का जिस स्थान से उच्चारण करते हैं, उस उच्चतर स्थान से भी जब किसी स्वर का उच्चारण करते है, तब वह स्वर उदात्ततर है ऐसा कहलाता है।","तथाहि उदात्तः स्वरः यस्मिन्‌ स्थले उच्चार्यते, ततः अपि उच्चतरे स्थले यदा कोऽपि स्वरः उच्चार्यते, तदा स स्वरः उदात्ततरः इति कथ्यते।" योगित्व श्रेष्ठ किस कारण से है जो प्रयत्न पूर्वक अधिक साधन में लगा हुआ है वह विद्वान्‌ योगी विशुद्धकिल्बिष अर्थात्‌ अनेक जन्मों में थोडे-थोडे संस्कारों को एकत्रित कर उन अनेक जन्मों के सजिचित संस्कारों से पाप रहित होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुआ सम्यक्‌ ज्ञान को प्राप्त करके परम गति मोक्ष को प्राप्त होता है।,तत्र योगी विद्वान्‌ संशुद्धकिल्बिषः विशुद्धकिल्बिषः संशुद्धपापः अनेकजन्मसंसिद्धः अनेकेषु जन्मसु किञ्चित्‌ किञ्चित्‌ संस्कारजातम्‌ उपचित्य तेन उपचितेन अनेकजन्मकृतेन संसिद्धः अनेकजन्मसंसिद्धः।ततो लब्धसम्यग्दर्शनः सन्‌ याति परां प्रकृष्टां गतिमिति॥ अग्निम्‌-ये केवल उपलक्षण है।,अग्निम्‌। उपलक्षणमेतत्‌। "ज्योतिष शास्त्र यज्ञ विधान के युक्त काल का निर्देश करता है, उससे ज्योतिष शास्त्र की सभी जगह मान्यता है।","ज्यौतिःशास्त्रं यज्ञविधानस्य युक्ततरं कालं निर्दिशति, तस्मात्‌ ज्योतिषशास्त्रस्य च सर्वत्र एव मान्यता वर्तते।" जो काम्य तथा निषिद्ध कर्मों का त्याग करता है।,यः काम्यानां निषिद्धानां च कर्मणां त्यागं करोति। इस प्रकार यहाँ पदों का अन्वय होता है - अनित्यसमासे अन्तोदात्तात्‌ एकाचः उत्तरपदात्‌ तृतीयादिः विभक्तिः उदात्तः अन्यतरस्याम्‌ इति।,एवञ्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- अनित्यसमासे अन्तोदात्तात्‌ एकाचः उत्तरपदात्‌ तृतीयादिः विभक्तिः उदात्तः अन्यतरस्याम्‌ इति। व्यपदेशिवदभाव के आश्रित होने से षट्‌ इस पद की भी आमन्त्रित अन्तत्व को सिद्ध करता है।,व्यपदेशिवद्भावम्‌ आश्रित्य षट्‌ इति पदस्य अपि आमन्त्रितान्तत्वं सिध्यति। ऐसा विचार करके बलपूर्वक विषयों से जो हटाता है वह शम कहलाता है।,इति विविच्य बलपूर्वक विषयेभ्य आकर्षति स वृत्तिविशेषः शमः। शाकल शाखा में एक हजार सत्रह (१०१७) सूक्त हैं।,शाकलशाखायां सप्तदशाधिकसहस्रसंख्यकानि (१०१७) सूक्तानि सन्ति। स्वर्ण वर्ण सुशिक्षित और सुदर्शन घोड़े सम्पूर्ण पृथ्वी बल से तुम को ले जाते है।,हिरण्यवर्णाः सुशिक्षिताः सुदर्शनाः च अश्वाः पृथुबलेन त्वां वहन्तु। हे पर्जन्य तुम ने वर्षा की।,हे पर्जन्य त्वम्‌ अवर्षीः वृष्टवानसि । प्रत्येक कर्म का उनके लिए कोइ न कोइ अभिप्राय होता है।,प्रत्येकं कर्मणाम्‌ अस्ति कश्चित्‌ अभिप्रायः। इसके बाद नञ्‌ के न लोप विधायक ““न लोपो नञः'' सूत्र की व्याख्या की गई है।,"ततः नञः नलोपविधायकं "" न लोपो नञः "" इति सूत्रं व्याख्यातम्‌ ।" टिप्पणी में सूक्त का ज्ञान कराने के लिए उपयोगी विषय दिया हुआ है।,टिप्पण्याम्‌ सूक्तस्य अवबोधाय उपयोगी विषयः प्रदत्तोऽस्ति। पहले दूसरे अध्याय में महाव्रत का वर्णन उपलब्ध है।,"प्रथम, द्वितीयाध्याययोः महाव्रतस्य वर्णनम्‌ उपलब्धर्मस्ति।" और इस प्रकार साङ्ख्य ने वेद को स्वतः प्रमाण को ही सिद्ध किया है।,एवञ्च साङ्ख्यनये वेदस्य स्वतःप्रामाण्यं सिद्धम्‌ एव। उसी परम आलोक के द्वारा घट प्रकाशित होता है।,ततः परम्‌ आलोकेन घटः प्रकाश्यते। और यह तिल- शब्द धान्यवाची है।,किञ्च अयं तिल- शब्दः धान्यवाची। जब भक्ति का विषय सगुण ब्रह्म होता है।,यदा भक्तेः विषयः सगुणं ब्रह्म भवति। "ये मित्र का सहचर, अतः समास प्रकरण में मित्रा-वरुणौ ये प्रयोग मिलता है।","मित्रस्य सहचरः अयम्‌, अतः समासप्रकरणे मित्रावरुणौ इत्येवम्‌ प्रयोगः दृश्यते।" उसी प्रकार तुमने वृत्र को मारकर बिना भय के चले गए।,तद्भयं मा भूदित्यभिप्रायः। चौथा आरण्यक बहुत ही छोटा है।,चतुर्थारण्यकम्‌ अतीव लघु अस्ति। शिक्षा प्रातिशाख्य का परस्पर सम्बन्ध विषय में एक मत नहीं है।,शिक्षा-प्रातिशाख्ययोः परस्परसम्बन्धविषये मतानाम्‌ ऐक्यं नास्ति। जैसे- यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्याद्‌ वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌ इत्यादि में अद्वितीयवस्तु के साधन में विकार के वाचारम्भवमात्रत्व में युक्ति सुनी जाती है।,यथा - 'यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्याद्‌ वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌' इत्यादौ अद्वितीयवस्तुसाधने विकारस्य वाचारम्भणमात्रत्वे युक्तिः श्रूयते। "भूलोक के देवों में अग्निः, अन्तरिक्ष के इन्द्र और द्युलोक के सूर्य ये मुख्य देव हैं।","भूलोकस्य देवेषु अग्निः, अन्तरिक्षस्य इन्द्रः, द्युलोकस्य च सूर्यः इति एते मुख्याः देवाः।" और वहाँ स्वर प्रकरण ही अत्यधिक सुन्दर है।,तत्र च स्वरप्रकरणम्‌ अतीव रम्यम्‌। "व्याख्या - जिस प्रकार पणी नामक असुर ने गायों को गुफा में बंद कर दिया था, उसी प्रकार वृत्र द्वारा रक्षित उसकी जल रूपी पत्नियां भी निरुद्ध थी जल बहने का मार्ग भी रुका हुआ था, इन्द्र ने वृत्र को मारकर वह द्वार खोला।","व्याख्या-पणिनामकोऽसुरो गाः अपहृत्य बिले स्थापयित्वा बिलद्वारमाच्छाद्य यथा निरुद्धवान्‌ तथा इत्यर्थः। अपां यत्‌ बिलं प्रवहणद्वारम्‌ अपिहितं वृत्रेण निरुद्धम्‌ आसीत्‌। तत्‌ बिलं प्रवहणद्वारं वृत्रं जघन्वान्‌, हतवान्‌ इन्द्रः अपववार अपवृत्रमकरोत्‌ वृत्रकृतम्‌ अपां निरोधं परिहृतवान्‌।" और सूत्र का अर्थ है - दो अच्‌ विशिष्ट तृण और धान्य वाचक शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है।,ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- दुव्यज्विशिष्टानां तृणधान्यवाचकानां च शब्दानाम्‌ आदिः उदात्तो भवति इति। गौण प्रत्यय की मुख्यकार्यार्थता अधिकरणस्ति अर्थत्व से तथा लुप्तोपमा शब्द के कारण नहीं होती है।,"न गौणप्रत्ययस्य मुख्यकार्यार्थता, अधिकरणस्तुत्यर्थत्वात्‌ लुप्तोपमाशब्देन।" "जब देवों ने पुरुष रूप हवि से यज्ञ सम्पादित किया तब वसन्त ऋतु घृत, ग्रीष्म ऋतु ईन्धन और शरद ऋतु हवि के रूप में थी।","यदा देवाः पुरुषरूपहविषा यज्ञं सम्पादितवन्तः तदा वसन्तर्तुः घृतं, ग्रीष्मर्तुः ईन्धनं, शरदृतुः हविरासन्‌।" सगुणब्रह्मविषयक तथा निर्गुणब्रह्मविषय।,सगुणब्रह्मविषया निर्गुणब्रह्मविषया इति॥ "विशेष - यहाँ विभाषा इस पद के ग्रहण से यज्ञकर्मणि इसकी निवृत्ति भी होती है, अलग से छन्दसि इस पद के ग्रहण से छन्द रूप में, यज्ञकर्म में, विकल्प से एकश्रुति प्राप्त होती ही है, परन्तु यहाँ कोई दोष नहीं है, उस 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु' इस सूत्र में यज्ञकर्मणी यहाँ पर कर्म शब्द के ग्रहण से यज्ञकर्म में, छन्द में उस सूत्र से नित्य ही एकश्रुति होती, प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक एक श्रुति नहीं होती है।","विशेषः - अत्र विभाषा इति पदस्य ग्रहणेन यज्ञकर्मणि इत्यस्य निवृत्तौ अपि, पृथक्तया छन्दसि इति पदस्य ग्रहणात्‌ छन्दोरूपेषु यज्ञकर्मसु विकल्पेन ऐकश्रुत्यं प्राप्नोति एव, परन्तु नैष दोषः, तस्मिन्‌ 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रे यज्ञकर्मणीत्यत्र कर्मशब्दग्रहणात्‌ यज्ञकर्मसु छन्दस्सु तेनैव सूत्रेण नित्यमेव ऐकश्रुत्यं स्यात्‌, न हि प्रकृतसूत्रेण वैकल्पिकम्‌ ऐकश्रुत्यम्‌।" आख्यानों में इसी प्रकार के अंश कौ विवक्षा है।,आख्यानेष्वेतावदेव अंशस्य विवक्षा वर्त्तते। पञ्चगो गोशब्दान्त तत्पुरुष अतः इस गोरतद्धिबलुकि सूत्र से टच्‌ प्रत्यय होता है।,पञ्चगो इति गोशब्दान्तः तत्पुरुषः अतः तस्मात्‌ गोरद्धितलुकि इति सूत्रेण टच्‌-प्रत्ययः। स्वामी विवेकानन्द ने सामाजिक समस्याओं के सामाधान के साथ वेदान्त के विषय में भी दो प्रधान कार्य संशोधित किए वे हैं वेदान्त का आधुनिक करण तथा ऐक्य साधन।,"स्वामिविवेकानन्देन सामाजिकसमस्यायाः समाधानं विहायापि वेदान्तविषये प्रधानं कार्यद्वयं संसाधितं - वेदान्तस्य आधुनिकीकरणम्‌, ऐक्यसाधनं च।" जब चित्त निर्मल हो जाता है तब उस प्रकार का शुद्ध चित्त ब्रह्मज्ञान के प्रति कारण होता है।,चित्तं यदा निर्मलं भवति तदा तादृशं शुद्धं चित्तं ब्रह्मज्ञानं प्रति करणं भवति। ऋग्वेद के मन्त्रों में अलङकारों का प्राचुर्य दिखाई देता है।,ऋग्वेदस्य मन्त्रेषु अलङ्काराणां प्राचुर्यं परिलक्ष्यते। चारों अनुबन्धनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है यहाँ पर देखना चाहिए।,चतुर्षु अनुबन्धेषु परस्परं के सम्बन्धाः इति अत्र द्रष्टव्यम्‌ । इसलिए अज्ञान का नाश कभी भी सम्भव नहीं होता है।,अतः अज्ञानस्य नाशः अपि कदापि न सम्भवति । व्याख्यानभेद के द्वारा भी अर्थ में भेद होता है।,व्याख्यानभेदेनापि अर्थे भेदाः सन्ति। इस विषय पर मन्त्र को लिखकर व्याख्या कीजिए।,इति विषयकं मन्त्रं लिखित्वा व्याख्यात । नित्य प्रलय सुषुप्ति होता है।,नित्यप्रलयः नाम सुषुप्तिः। वो ही स्रष्टा और सृष्टि का आदिपुरुष है।,स एव हि स्रष्टा सृष्टेरादिपुरुषश्च। और कुचरःकुटिलगामी शत्रुवध आदिकुत्सितकर्म को कर्ता सभी भूमियों में अथवा तीनो लोक में संचार करता है अथवा पर्वत के समान ऊचे स्थान होते है।,किंच कुचरः शत्रुवधादिकुत्सितकर्मकर्ता कुषु सर्वासु भूमिषु लोक्त्रयेषु संचारी वा तथा गिरिष्ठाः गिरिवत्‌ उच्छ्रितलोकस्थायी। यह ही गीताशास्त्रोक्तकर्त्तव्यार्थ का विभाग है।,इत्येषः गीताशास्त्रोक्तकर्तव्यार्थस्य विभागः॥ 16. अपरिग्रह की स्थिरता होने पर क्या होता है?,१६. अपरिग्रहस्थैर्ये योगिनः किं भवति? इस ग्रन्थ की रचना के विषय में ३४०० वर्ष बीत गए ऐसा शङ्कर बालदीक्षित का विचार है।,ग्रन्थस्य अस्य अवतीर्णस्य ३४०० वर्षाणि व्यतीतानि इति शङ्करबालदीक्षितस्य विचारः। "चार वेदों में वहाँ ऋग्वेद में अग्नि आदि देवों कौ स्तुति विद्यमान है, वैसे ही पर्जन्यदेव की भी स्तुति विद्यमान है।",चतुर्षु वेदेषु तत्र ऋग्वेदे अग्न्यादिदेवानां स्तुतिः विद्यमाना तथैव पर्जन्यदेवस्यापि स्तुतिः विद्यते । "प्रकृत सूत्र आठवें अध्याय के चौथे पाद में है, अत: तीन पाद में स्थित इस सूत्र से जिस स्वरित स्वर का नियम किया है, वह “अनुदात्तं पदमेक वर्जम्‌' (६.१.१५८) इसर सवा सात्त अध्याय में स्थित सूत्र की दृष्टि से असिद्ध है।",प्रकृतं सूत्रम्‌ अष्टमाध्यायस्य चतुर्थे पादे वर्तते अतः त्रिपादिस्थेन अनेन सूत्रेण यः स्वरितस्वरः विहितः सः अनुदात्तं पदमेकं वर्जम्‌(६.१.१५८) इति सपादसप्ताध्यायिस्थसूत्रदृष्ट्या असिद्धः। प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ से सामलोमन्त समास से समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोमान्तात्‌ समासात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्य्रत्ययो भवति। इस प्रकार से यह जागरित सात अङग वाला उन्नीस मुख वाला स्थूलभुक्‌ होता है।,एवमेव अयं जागरितस्थानः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुक्‌ च भवति। यहाँ शुभस्‌ यह षष्ठी का एकवचनान्त सुबन्त पद है।,अत्र शुभस्‌ इति षष्ठ्येकवचनान्तं सुबन्तं पदम्‌। सूत्र का अवतरण- ब्राह्मण नामधेय गोष्ठज शब्द के स्वरों को क्रम से उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।,सूत्रावतरणम्‌- ब्राह्मणनामधेयस्य गोष्ठजशब्दस्य स्वराणां पर्यायेण उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। इस पाठ में हमने आदि भाग में आरण्यकों के विषय में विस्तार से जाना है।,अस्मिन्‌ पाठे वयम्‌ आदिमे भागे आरण्यकानां विषये विस्तरेण ज्ञातवन्तः। "षोडशश्लोकीशिक्षा- श्री रामकृष्ण नाम के विद्वान द्वारा षोडश श्लोकी शिक्षा इस नाम का एक लघु ग्रन्थ प्रणीत है, जहाँ स्वर का और व्यञ्जन का विचार किया है।","षोडशश्लोकीशिक्षा- श्रीरामकृष्णनामकेन विदुषा षोडशश्लोकीशिक्षा इति नामकः लघुः एकः ग्रन्थः प्रणीतः, यत्र स्वरस्य व्यञ्जनस्य च विचारः कृतः।" सहचक्र इस स्थिति में “ अव्ययीभावे चाकाले” इस प्रस्तुत सूत्र से सहशब्द का स आदेश निष्पन्न होने पर प्रातिपादिक होने पर सचक्र इससे प्रथमा एकवचन में प्रक्रियाकार्य में सचकम्‌ यह रूप है।,"सहचक्र इति स्थिते ""अव्ययीभावे चाकाले"" इत्यनेन प्रस्तुतसूत्रेण सहशब्दस्य सादेशे निष्पन्नात्‌ प्रातिपदिकात्‌ सचक्र इत्यस्मात्‌ प्रथमैकवचने प्रक्रियाकार्ये सचक्रम्‌ इति रूपम्‌।" विष्णुपुराण का स्पष्ट कथन है कि - “पुरोहित के शान्तिक और पौष्टिक आदि कर्म इस अथर्ववेद से ही जाने जाते है।,"विष्णुपुराणस्य स्पष्टकथनम्‌ अस्ति यत्‌- ""पौरहित्य, शान्तिक. पौष्टिकादिकर्म इति अथर्ववेदाद्‌ एव ज्ञायते"" इति।" "प्रातःकालीन आहुति सूर्योदय से पूर्व तथा, सायंकालीन आहुति सूर्य क॑ अस्तगमन के बाद देनी चाहिए इस विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों में ऐसा विचार है।","प्रातःकालीना आहुतिः सूर्योदयात्‌ पूर्वम्‌, किञ्च सायंकालीना आहुतिः सूर्यस्य अस्तगमनात्‌ परं विधेया इति विषये ब्राह्मणग्रन्थे विचारः विद्यते।" यहाँ कृ धातु से ण्वुल्तृचौ सूत्र से व्वुल्‌ प्रत्यय होने पर कृ ण्वुल्‌ होने पर चुटू सूत्र से णकार की इत्संज्ञा होने पर और लकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः सूत्र से दोनों इत्संज्ञकों का लोप होने पर कृ वु होता है।,"अत्र कृ धातोः ण्वुल्तृचौ इति सूत्रेण ण्वुल्प्रत्यये कृते कृ ण्वुल्‌ इति जाते ततः परं चुटू इति सूत्रेण णकारस्य इत्संज्ञायाम्‌, लकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां च सत्यां तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे कृ वु इति जायते।" और इसका विग्रह होता है।,अस्य च विग्रहः भवति। और तीसरा वर्षा द्वारा पर्वतों को खण्डित किया।,तृतीयं च वृष्ट्या पर्वतान्‌ खण्डितवान्‌। अतीतो नाष्ट्रान्‌ नाशयितघ्न्‌” इति अतिनाष्ट्रः ॥ ३॥,अतीतो नाष्ट्रान्‌ नाशयितृन्‌ इति अतिनाष्ट्रः ॥ ३॥ इसे प्रतिपादित किया जाता है।,अनेन प्रतिपाद्यते अनुपसर्जन है और अदन्त है।,"अनुपसर्जनः अस्ति, अदन्तश्च अस्ति।" 3. मन इन्द्रिय होता है इसके पूर्वपक्ष का उपस्थापन कीजिए।,3 मनः इन्द्रियं भवति इति पूर्वपक्षिमतम्‌ उपस्थापयत। जैसे समासस्य इस सूत्र से अन्त उदात्त होता है।,यथा समासस्य इत्यनेन शास्त्रेण अन्तः उदात्तः भवति। "समस्त जगत का नियन्ता, सर्वज्ञ, और सर्वशक्तिमान्‌ है।","समस्तजगतां नियन्ता, सर्वज्ञः, सर्वशक्तिमान्‌ ।" 6. यङश्चाप्‌ सूत्र से क्या विधान होता है?,६. यङश्चाप्‌ इति सूत्रेण किं विधीयते? विश्व ही वैश्वानर होता है।,विश्‍व एव वैश्वानरो भवति। धातु से विहित स्वरों के विषय में कुछ सूत्रों की आलोचना की है।,धातोः विहितानां स्वराणां विषये कानिचित्‌ सूत्राणि आलोचितानि। जिससे प्रमाणित करता है वह प्रमाण कहलाता है।,येन प्रमिणोति तत्‌ प्रमाणम्‌। "इनके क्रमशः विषय है वचन, दान, गमन, विसर्ग तथा आनन्द।",यथाक्रमं वचनादानगमनविसर्गानन्दसाधकत्वं भवति एतेषाम्‌। इसलिए ही तिसृभ्यः यहाँ पर प्रकृत सूत्र से अन्तिम अकार को उदात्त करने का नियम किया है।,अत एव तिसृभ्यः इत्यत्र प्रकृतसूत्रेण अन्तिमस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते "उससे इस सूत्र का अर्थ होता है- अशित शब्द जब कर्ता है, तब इस शब्द के आदि अच्‌ को उदात्त होता है।",तेन अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति अशितशब्दः यदा कर्ता तदा अस्य शब्दस्य आदिः अच्‌ उदात्तः भवति। इसको उपलक्षित करके विकार हुआ वर्षा का कारणभूत से माया आत्मा के द्वारा मेरी देह को ही स्पृश करता है।,एतदुपरलक्षितं कृत्स्नं विकारजातं वर्ष्मणा कारणभूतेन मायात्मकेन मदीयेन देहेन उप स्पृशामि। परन्तु कुछ अज्ञात आसक्ति वैदिककाल से ही मनुष्यों को इस द्यूतकर्म में लगाती है।,परन्तु काचित्‌ अज्ञाता आसक्तिः वैदिककालादेव जनान्‌ अस्मिन्‌ द्यूते कर्मणि आसज्जयति । विद्युत्‌ - विशेषेण द्योत्यते इस अर्थ में विपूर्वक द्युद्‌-धातु से क्विप करने पर विद्युत्‌ यह रूप है।,विद्युत्‌ - विशेषेण द्योत्यते इत्यर्थे विपूर्वकात्‌ द्युद्‌-धातोः क्विपि विद्युत्‌ इति रूपम्‌। सामवेद के ही उपनिषदों में दूसरा ही छान्दोग्य उपनिषद्‌ है।,सामवेदीयोपनिषत्सु अन्यतमा हि छान्दोग्योपनिषत्‌। आम्नाय शब्द का क्या अर्थ है?,आम्नायशब्दस्य अर्थः कः? फलदान के लिए अनुन्मुख जो कर्म अनादिकाल से अर्जित तथा सञ्चित होकर के रुकते है वे सञ्चित कर्म कहलाते है।,फलदानाय अनुन्मुखानि यानि कर्माणि अनादिकालतः अर्जितानि सञ्चितानि च तिष्ठन्ति तत्‌ सञ्चितकर्म। अत उस आकृति की भी इस वृषादिगण में पाठ स्वीकार करना चाहिए।,अतः तस्यापि आकृत्या अत्र वृषादिगणे पाठः स्वीकर्तव्यः इति बोध्यम्‌। मनुष्य ग्रहण प्राणिमात्र का उपलक्षक है।,मनुष्यग्रहणं प्राणिमात्रोपलक्षकम्‌। ये ऋग्वेद के अष्टम अष्टक का षष्ठसूक्त है।,ऋग्वेदस्य अष्टमाष्टके षष्ठसूक्तमिदं चकास्ति। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवद्‌ गीता में कहा हेै।,तथाहि गीतं भगवता- जबतक ब्रह्मज्ञान नहीं हो तब तक श्रवणादि की आवृत्ति करनी चाहिए।,यावन्न ब्रह्मज्ञानं भवति तावत्‌ श्रवणादीनाम्‌ आवृत्तिर्विधेया। विष्णु के प्रथम पाद से पृथ्वीलोक का सङक्रमणओऔर द्वितीय पद से अन्तरिक्षलोक का तथा तृतीय पद से द्युलोकस्थसूर्यमण्डल को प्राप्त कर लेते है इत्यादिमतप्राप्त होते है।,विष्णोः प्रथमेन पादेन पृथ्वीलोकस्य सङ्क्रमणं द्वितीयेन च अन्तरिक्षलोकस्य तथा तृतीयेण द्युलोकस्थसूर्यमण्डलस्य सङ्क्रमणम्‌ इत्यादिमतानि प्राप्यन्ते। उस स्वरित स्वर परे होने पर ऊपर के सूत्र से यकार उत्तर अकार को सन्नतर ( अनुदात्ततर) स्वर सिद्ध होती है।,तस्मिन्‌ स्वरितस्वरे परे सति प्रोक्तसूत्रेण यकारोत्तरस्य अकारस्य सन्नतरः (अनुदात्ततरः) स्वरः सिद्धः। दार्शनिक चिंतन में रुचिमंत होकर शक्त तो संलग्न होंगे ।,दार्शनिकचिन्तने रुचिमन्तः भूत्वा शक्ताः संलग्नाश्च भविष्यन्ति। पशु के द्वारा यजमान स्वयं की आहूति देकर देवत्व को प्राप्त करता है।,पशुद्वारा यजमानः आत्मानम्‌ एव हुत्वा देवत्वं लभते। जो सम्पूर्ण वेद को शुरू से अन्त तक जानता है।,खिलवेदार्थम्‌ आपाततः जानाति। उदाहरण -अव्ययीभाव समास होने पर उपराजन्‌ अ इस स्थिति होने पर तद्धित प्रत्यय होने पर टच्‌ प्रत्यय होने पर “यचिभम्‌' इससे भसंज्ञा होती है।,"उदाहरणम्‌ - अव्ययीभावसमासे उपराजन्‌ अ इति स्थिते तद्धिते टचि प्रत्यये परे ""यचि भम्‌"" इत्यनेन भसंज्ञा भवति।" हीये - हा-धातु से कर्म लट उत्तमपुरुष एकवचन में।,हीये - हा - धातोः कर्मणि लटि उत्तमपुरुषैकवचने । निर्विकल्पक समाधि के उदय होने से अज्ञान का नाश होने पर मोक्ष सम्भव होता है।,निर्विकल्पकसमाधेरुदये अज्ञाननाशे सत्येव मोक्षः सम्भवति। "सरलार्थ -आप से उत्पन्न हुए प्राणी आप में ही विचरण करते हैं, तुम दो पैर वालों को धारण करने वाली और चार पैर वालों को धारण करती हो।","सरलार्थः- त्वत्तः जाताः प्राणिनः त्वयि एव विचरन्ति, त्वं पादद्वयधारिणं किञ्च पादचतुष्टयधारिणं धारयसि।" होमयाग का दूसरा नाम क्या है?,होमयागस्य अपरं नाम किम्‌ ? फिर 'यहाँ' उस पद का व्यावर्तकत्व अर्थात्‌ विशेषणत्व होता है।,पुनः अत्र तत्पदस्य व्यावर्तकत्वम्‌ अर्थात्‌ विशेषणत्वम्‌। अतः 'तिङङतिङः' इस सूत्र से ईयते इसका ईकार अनुदात्त है।,अतः 'तिङ्ङतिङः' इति सूत्रेण ईयते इत्यस्य ईकारः अनुदात्तः वर्तते। अतः इस विधि प्रतिपादित के अर्थ का ही अवान्तर वाक्य है।,अतः एतानि विधिप्रतिपादितस्य अर्थस्य एव अवान्तरवाक्यानि सन्ति। गन्ध नहीं होती है।,गन्धः नास्ति। "उपासना के द्वारा चित्त की शान्ति, अर्थात्‌ एकाग्रता सम्पादित होती है।",उपासनया चित्तस्य शान्तिः अर्थात्‌ एकाग्रता सम्पाद्यते। नाम और रूप को रचकर परम पुरुष परमात्मा उसके मध्य में प्रवेश करता है इस विषय में कौन सी श्रुति है?,नामरूपे सृष्ट्वा परमपुरुषः परमात्मा तन्मध्ये प्रविशति इत्यस्मिन्‌ विषये श्रुतिः का? इसलिए वेदान्तसार में सदान्दयोगीन्द्र के द्वारा कहा गया है- “निर्विकल्पकः तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अतितराम्‌ एकीभावेन अवस्थानम्‌” अर्थात्‌ निर्विकल्पक ज्ञातृज्ञानलयादि कि अपेक्षा से अद्वितीयवस्तु में तदाकाराकारिता से चित्तवृत्ति के एक होने को अवस्थान कहते हैं।,"उच्यते च वेदान्तसारे सदानन्दयोगीन्द्रेण - “निर्विकल्पकः तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अतितराम्‌ एकीभावेन अवस्थानम्‌” इति। अस्मिन्‌ समाधौ ज्ञातृज्ञानज्ञेयादिभेदबुद्धेः लयो भवति, अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिश्च अवतिष्ठते।" "यहाँ कुपुरुषः, ऊरीकृत्य, सुपुरुषः इत्यादि यथाक्रम उदाहरण हैं।","अत्र कुपुरुषः, ऊरीकृत्य, सुपुरुषः इत्यादीनि यथाक्रमम्‌ उदाहरणानि।" "वह यह देवदत्त है, यहाँ पर जैसे तत्काल विशिष्ट के तथा एतत्कालविशिष्ट के विरुद्धांश का परित्याक करके लक्षणा के द्वारा अविरुद्ध देवदत्त रूप पिण्ड अवबोधित होता है।",सोऽयं देवदत्तः इत्यत्र यथा तत्कालतद्देशविशिष्टस्य एतत्कालैतद्वेशविशिष्टस्य च विरुद्धांशस्य परित्यागं कृत्वा लक्षणया अविरुद्धदेवदत्तरूपपिण्डः अवबुध्यते। "जैसे इस जन्म में देहादिसङ्गाताभिमानरागद्वेषादि करने पर धर्म तथा अधर्म तत्फलानुभव, तथा अतीत में अतीत जन्म में अनादिविद्याकृत संसार अतीत अनागत अनुमेय होता है।","यथा अस्मिन्‌ जन्मनि देहादिसङ्घाताभिमानरागद्वेषादिकृतौ धर्माधर्मौ तत्फलानुभवश्च, तथा अतीते अतीततरेऽपि जन्मनि इति अनादिरविद्याकृतः संसारः अतीतोऽनागतश्च अनुमेयः।" तुझे छोड़कर अन्य कोई इन समस्त उत्पन्न वस्तुओं में परिव्याप्त नहीं है।,त्वां विहाय अन्यः कोपि एतत्‌ समस्तम्‌ उत्पन्नं वस्तु न परिव्याप्नोति। पृषदाज्य रूप कैसे सिद्ध हुआ?,पृषदाज्यम्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। विभक्ति आदि अर्थो में वर्तमान अव्यय का सुबन्त के साथ नित्य समास होता है।,विभक्त्यर्थादिषु वर्तमानम्‌ अव्ययं सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते। पोषम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,पोषम्‌ इति रूपं कथं सिद्धम्‌? अत एव रुद्र का मन्त्र में सदैव विद्रूप और संहारक रूप में भीषण वर्णन मिलता है।,अत एव रुद्रस्य मन्त्रेषु सदैव नाशकस्य संहारकस्य च भीषणं वर्णनम्‌ लभ्यते। सब और से मुख आदि इन्द्रियों के काम सर्वत्र करता है।,सर्वतोमुखः सर्वतो मुखाद्यवयवा यस्य। यहाँ ““पूरणगुणसुहितार्थ सदव्ययतव्य-समानाधि करणेन यह तृतीया एक वचनान्त पद है।,अत्र पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्य-समानाधिकरणेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। इससे भवत्‌ शब्द उगिदन्त प्रातिपदिक है।,तेन भवत्‌ इति उगिदन्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति। जिन विषयों के द्वारा योगी का जीवन सरलता से चल सके उन विषयों के द्वारा ही योगी को जीवन धारण करना चाहिए।,ये विषयाः योगिनः सन्निहिताः तैरेव विषयैः योगिनः जीवनं धारयेयुः। उससे मनः का मन्नन्तात्‌ यह अर्थ होता है।,तेन मनः इत्यस्य मन्नन्तात्‌ इत्यर्थो भवति। अतः गवाम्‌ इस षष्ठन्त दोहः शब्द को सुबन्त के साथ प्राप्त षष्ठी समास का प्रस्तुत सूत्र से निषेध होता है।,अतः गवाम्‌ इति षष्ठ्यन्तस्य दोहः इति सुबन्तेन सह प्राप्तः षष्ठीसमासः प्रस्तूतसूत्रेण निषिध्यते। वह महानुभावशक्ति से अपने पराक्रमो की ऊपर कहे गए सभी के द्वारा स्तुति करते है।,स महानुभावः वीर्येण स्वकीयेन वीरकर्मणा पूर्वोक्तरूपेण स्तवते स्तूयते सर्वैः। इसलिए वह ब्रह्माकारचित्तवृत्त तथा अखण्डाकारचित्तवृत्त भी कहलाती है।,तस्मादेव ब्रहमाकारचित्तवृत्तिः अखण्डाकारचित्तवृत्तिः इत्यपि उच्यते। पू-धातु से अच इ:' इस औणादिकसूत्र से इप्रत्यय करने पर।,पू-धातोः 'अच इः:' इति औणादिकसूत्रेण इप्रत्यये। और यह स्तनकेशवती हो सकती है और लोभवान भी हो सकता है।,तत्र स्तनकेशादिकमपि भवितुमर्हति लोमादिकमपि भवितुमर्हति। मायामरीचि उदक आदि के समान होते है।,मायामरीच्युदकसमाः सन्ति। सभी में चैतन्य स्वरूप ब्रह्म ही अनुस्यूत होता है।,सर्वेषु चैतन्यस्वरूपं ब्रह्म अनुस्यूतं वर्तते। मैं उसे जीतूँगा कभी-कभी पासे जुआरी की कामना पूरी करते है और उसके विरोधी जुआरी के अनुकूल कर्म धारण करके उसकी इच्छा पूरी करते है।,तत्र तस्य विरोधिकितवस्य कृते कृतानि प्रदाय अक्षाः इच्छां वर्धयन्ति । युष्मद्‌ के स्थान में वस्‌ यह आदेश होने पर सकार को रुत्व होने पर ' अतो रोरप्लुतादप्लुते' इससे रु के उत्व होने पर ` आद्गुणः' इससे अकार-उकार के स्थान में गुण ओकार होकर के वो-यह रूप सिद्ध होता है।,युष्मदः स्थाने वस्‌-इत्यादेशे सस्य रुत्वे अतो रोरप्लुतादप्लुते इत्यनेन रोः उत्वे आद्गुणः इति अकार-उकारयोः स्थाने गुणे ओकारे वो-इति सिध्यति। घृतेन द्यावपृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्यः॥ ८ ॥,घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्यः॥ ८ ॥ (Study Centre) में हो।,अध्ययनकेन्द्रे भवेत्‌। पदपाठ - सत्यम्‌।,पदपाठः- सत्यम्‌। जो निष्ठा नहीं है वह अनिष्ठा।,न निष्ठा इति अनिष्ठा। जैसे सविता देव जगत में विचरण करता है उसी प्रकार पास उस जुआरियो के संघ में विचरण करता है।,यथा सविता देवो जगति विहरति तद्वदक्षाणां संघ आस्फारे विहरतीत्यर्थः । तस्मात्‌ भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्त एवायं संसारभ्रमो न तु परमार्थ इति सम्यग्दर्शनाद्‌ अत्यन्त एवोपरम इति सिद्ध धर्म (गी.भा.18.66) साधन के तीन पाठ हैं।,तस्मात्‌ भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्त एवायं संसारभ्रमो न तु परमार्थ इति सम्यग्दर्शनाद्‌ अत्यन्त एवोपरम इति सिद्धम्‌॥ (गी.भा.१८.६६) साधनस्य त्रयः पाठाः सन्ति। वैदिक ऋषियों ने मनोगत भावों कों अच्छी प्रकार से प्रकट किया।,वैदिकाः ऋषयः मनोगतभावान्‌ सम्यक्‌ प्रकटितवन्तः। इसलिए कहते ही है - अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति तेन पूतिरन्तरतः।,अत एव उच्यते- अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति तेन पूतिरन्तरतः। श्रौत सूत्र में इस विवाद का समाधान विहित है।,श्रौतसूत्रैः अस्य विवादस्य समाधानं विहितम्‌ अस्ति। उससे यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - एव आदि का अन्त उदात्त होता है।,तेन अत्र सूत्रार्थः भवति- एवादीनाम्‌ अन्तः उदात्तः स्यात्‌ इति। "( 8.3 ) अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः सूत्रार्थ- प्रति, अनु, अन पूर्वक सामलोमान्त से समास से समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।",(८.२) अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः सूत्रार्थः - प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोमान्तात्‌ समासात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति। उसका द्वितीया एकवचन में उर्वीम्‌ रूप बना।,तस्य द्वितीयैकवचने उर्वीम्‌ इति रूपम्‌। वहाँ ऋषि आत्मा से पूछते हैं - कब मैं वरुण की मैत्री को प्राप्त करुगा।,त्र ऋषिः आत्मानं पृच्छति - कदा अहं वरुणस्य मैत्रीं प्राप्स्यामि। अथवा इस सूक्त के द्रष्टा उस श्रद्धा नाम वाली अग्नि को प्रज्वलित करते है।,यद्वा अस्य सूक्तस्य या द्रष्ट्री तया श्रद्धाख्यया अग्निः समिध्यते। इस सूत्र में छ पद है।,षट्पदात्मकमिदं सूत्रम्‌। लोक में पद्मासन स्वस्तिक आसन आदि प्रसिद्ध आसन है।,लोके च पद्मासनं स्वस्तिकासनम्‌ इत्यादिकं प्रसिद्धम्‌। "प्रत्येक पदार्थ में चेतन का अनुश्रवण किया जाता है, और वहाँ चेतन के अभाव में जडपदार्थो के अभिमानी देवता को संबोधित किया जाता है।","प्रत्येकं पदार्थ चैतन्यम्‌ अनुस्यूतम्‌, तत्‌ च चैतन्यं आपातदृष्टानां जडपदार्थानाम्‌ अभिमानिनी देवता।" अर्थात्‌ अग्नि के द्वारा सभी ओर से रक्षित यज्ञ ही देवों में जाता है।,अर्थात्‌ अग्निना सर्वतः रक्षितः यज्ञः एव देवेषु गच्छति। ज्ञान का आवरण अज्ञान है न की कर्म तद्बुद्धि तदात्मा तन्निष्ठ ज्ञाननिर्धूतकल्मष जन्तु संसार चक्र का अतिक्रमण करता हेै।,ज्ञानस्य आवरणम्‌ अज्ञानं भवति न तु कर्म। तद्बुद्धिः तदात्मा तन्निष्ठः तत्परायणः ज्ञाननिर्धूतकल्मषः जन्तुः संसारचक्रम्‌ अतिक्रामति। सुख हेतु के लिए है यह अर्थ है।,सुखहेतुरिति शेषः। 1 प्रधानादियों का अप्रत्यक्षत्व कहां से है?,१) प्रधानादीनाम्‌ अप्रत्यक्षत्वं कुतः। आरण्यक का महत्त्व सभी जगह स्वीकार किया है।,आरण्यकस्य महत्त्वं सर्वत्र स्वीकृतमस्ति। (वि.चू. 173) जाग्रत अवस्था में ही स्थूलशरीर का भान स्पष्ट होता है।,(वि.चू. १७३) जाग्रति स्थूलशरीरस्य भानं स्पष्टमस्ति स्वप्ने सूक्ष्मशरीरस्य भानञ्च स्पष्टमस्ति। अग्निना रयि ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अग्निना रयि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। नैमित्तिक प्रलय के विषय में यह पुराणवचन प्राप्त होता है।,नैमित्तिकप्रलये पुराणवचनं तावत्‌ - वह मोक्ष साधना का अधिकारी गिना जाता है।,स मोक्षस्य साधनाय अधिकारी इति गण्यते। उदाहरण -इस वार्तिक का उदाहरण वागर्थाविव है।,उदाहरणम्‌ - अस्य वार्तिकस्योदाहरणं वागर्थाविव इति। प्रशंसां वचन्ति इति प्रशंसावचनाः तैः प्रशंसावचनैः (प्रशंसा में वे बोलते है प्रशंसा वचन) रूढी द्वारा प्रशंसा वाचकों द्वारा यही अर्थ है।,"प्रशंसां वचन्ति इति प्रशंसावचनाः, तैः प्रशंसावचनैः । रूढ्या प्रशंसावाचकैः इत्यर्थः ।" उसी प्रकार आत्मा भी उपाधियुक्त होता हुआ स्पष्ट रूप में प्रकाशित नहीं होता है।,तथा आत्मा अपि उपाधियुक्तं सत्‌ स्पष्टं न प्रकाशते। जैसे मानते हैं कि स्वयम्‌ अव्यावृत भी आत्मा संनिधि करती है।,यत्तु मन्यसे- स्वयम्‌ अव्याप्रियमाणोऽपि आत्मा संनिधिमात्रेण करोति। अर्थात्‌ यह भी कह सकते हैं की पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन के साथ मिलकर के षष्टम अंश के रूप में मनोमय कोश का निर्माण करती हैं।,पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनश्च मिलित्वा षडंशेन मनोमयकोशो भवति। “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे” इस सूत्र में सामान्य प्रयोग में पद किसलिए कहा गया है?,"""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" इति सूत्रे सामान्याप्रयोगे इति पदं किमर्थम्‌" और तो उसका अन्त भी सङ्गत नहीं होता है।,"अपि च, ""तस्य आन्त्यं न सङ्घच्छते।" उसी प्रकार पूर्वस्यांशालायां भव इस लौकिक विग्रह में पूर्वा ङि शाला दि इस अलौकिक विग्रह में प्रकृत सूत्र से पूर्वा ङि इस दिशावाचक सुबन्त को प्रस्तुत सूत्र से “ दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां जः”' इस भव अर्थ में तद्धित अर्थ में विषय में शाला ङि इस समानाधिकरण का सुबन्त के साथ तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"तथाहि पूर्वस्यां शालायां भव इति लौकिकविग्रहे पूर्वा ङि शाला ङिः इत्यलौकिकविग्रहे प्रकृतसूत्रेण पूर्वा ङि इति दिग्वाचकं सुबन्तं प्रस्तुतेन सूत्रेण ""दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः"" इति भवार्थे तद्धितार्थ विषये शाला ङि इति समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" विवाह विषयक और प्रेम विषयक सूक्त कहाँ प्राप्त होते हैं?,विवाहविषयकाणि प्रेमविषयकाणि च सूक्तानि कुत्र उपलभ्यन्ते? श्री चिन्तामणि विनायक वेद्य भी अपने ग्रन्थ में उपनिषदों की प्राचीनता को प्रमाणित करने के लिए दो साधन सामने उपस्थित करते है।,श्रीचिन्तामणिविनायकवैद्योऽपि स्वग्रन्थे उपनिषदां प्राचीनतां प्रमाणयितुं साधनद्वयं समुपस्थापयति। मनुष्यों के लिए जन्म मृत्यु का नियन्ता वह ही है।,मनुष्याणां जननमरणस्य सः एव नियन्ता। "दर्शन प्रस्थान परिचय, नास्तिक दर्शन, आस्तिक दर्शन, अद्वैत वेदांत इत्यादि ये मुख्य विषय होॉंगे।",h इसलिए ही अन्तः करण को शुद्धि सत्त्वशुद्धि इस प्रकार से कही गयी है।,अतः एव अन्तःकरणस्य शुद्धिः सत्त्वशुद्धिः इत्यपि व्यपदिश्यते। 6 सर्प भ्रान्ति में अधिष्ठान क्या हे?,६. सर्पभ्रान्तेः अधिष्ठानं किम्‌ ? चौ अन्तः उदात्तः यह पद योजना होती है।,चौ अन्तः उदात्तः इति पदयोजना भवति। कविक्रतुः इसका क्या अर्थ है?,कविक्रतुः इत्यस्य कः अर्थः? इस प्रकार इन्द्र के द्वारा प्रजापति पूछे गये।,इत्थम्‌ इन्द्रेण पृष्टः प्रजापतिः। जो प्राप्त हो जाए उसमे ही खुश रहना तथा सन्तोष करना।,यदृच्छालाभसन्तुष्टिः अलाभे च अविषादः सन्तोषः। पर्जन्यसूक्त का सार ऋग्वेद के पांचवे मण्डल में तेरासिवें सूक्त को पर्जन्यसूक्त कहते है।,पर्जन्यसूक्तसारः ऋग्वेदस्य पञ्चमे मण्डले त्र्यशीतितमं सूक्तमिदं पर्जन्यसूक्तम्‌ । प्रथम काण्ड में दर्शपौर्णमास आदि मुख्य के और अवान्तर के अनुष्ठानों का वर्णन याग क्रम से है।,प्रथमे काण्डे दर्शपौर्णमासादीनां मुख्यस्य अवान्तरस्य च अनुष्ठानानां वर्णनं यागक्रमेण अस्ति। दर्शनतत्व की दिशा में वेदान्त में किन दो प्रकार के ब्रह्म का रूप उपलब्ध होता है ?,दर्शनतत्त्वदिशा वेदान्ते द्विप्रकारकं ब्रह्मणो रूपमुपलभ्यते - के ते? वैसे हि- “भयस्य राज्ञो जनपदे ह्यर्वाशान्तिपारगाः।,"तथाहि- ""यस्य राज्ञो जनपदे ह्यवरशान्तिपारगाः।" लौकिक लक्षण के अनुसार मित्र पद का अर्थ स्त्रीत्व भी प्राप्त हो सकता है और पुस्त्व भी प्राप्त हो सकता है।,तत्र लौकिकलक्षणानुसारं मित्रपदार्थस्य स्त्रीत्वमपि प्राप्तं पुंस्त्वमपि प्राप्तम्‌। तैत्तरीय संहिता के परिमाण भी कम नहीं है।,तैत्तिरीयसंहितायाः परिमाणमपि न्यूनं नास्ति। चौथे दिन - गोष्टोम।,चतुर्थदिवसः- गोष्टोमः। इसलिए वायु का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है।,अतः वायुः चाक्षुषप्रत्यक्षः न भवति। भृ-धातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,भृ-धातोः शतृप्रत्यये प्रथमाबहुवचने। "स्वरित स्वर से यदि अनुदात्त स्वर होता है, तब स्वरित स्वर का आधा भाग उदात्ततर स्वर विशिष्ट होता है।",स्वरितस्वरात्‌ यदि अनुदात्तस्वरः भवति तदा स्वरितस्वरस्य अर्धभागः उदात्ततरस्वरविशिष्टः भवति। ऋग्वेद का दूसरा मण्डल क्रम विभाग है।,ऋग्वेदस्य द्वितीयोऽयं मण्डलक्रमविभागः। इसलिए हिरण्यगर्भसूक्त में कहा गया है- प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।,तस्मादुक्तं हिरण्यगर्भसूक्ते - प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। ज्ञान के द्वारा अर्थात्‌ आत्मासाक्षात्कार के द्वारा अज्ञान नष्ट होता है।,ज्ञानेन अर्थात्‌ आत्मसाक्षात्कारेण अज्ञानं नश्यति। और इसका कारण वंश मण्डल से भाषा में आया भेद तथा विषय में आया भेद बहुत जगह दिखते है।,अस्य कारणञ्च वंशमण्डलात्‌ भाषागतभेदः तथा विषयगतभेदः च बहुत्र दृश्यते। (गीता 6.28) (शांकरभाष्यम्‌-) योग में लगा हुआ योगी क्रम से सभी पापों से मुक्त हो जाता है।,(गीता ६.२८) (शांकरभाष्यम्‌-) युञ्जन्‌ एवं यथोक्तेन क्रमेण योगी योगान्तरायवर्जितः सदा सर्वदा आत्मानं विगतकल्मषः विगतपापः अश्नुते व्याप्नोति अतः अन्तोदात्त ही रहता है।,अतः अन्तोदात्तः एव तिष्ठति| तत इस वार्तिक से पूर्वपद का शाकप्रिय इस उत्तरपद के प्रियशब्द का लोप होने पर प्रक्रिया कार्य में शाक पार्थिवः रूप निष्पन्न होता है।,तदा अनेन वार्तिकेन पूर्वपदस्य शाकप्रियेत्यस्य उत्तरपदस्य प्रियशब्दस्य लोपे प्रक्रियाकार्ये शाकपार्थिवः इति रूपं निष्पद्यते । "( ८.२.४) सूत्रार्थः- उदात्त स्थान में और स्वरित स्थान में जो यण्‌, उससे उत्तर अनुदात्त के स्थान में स्वरित आदेश होता है।",(८.२.४) सूत्रार्थः-उदात्तस्थाने स्वरितस्थाने च यो यण्‌ ततः परस्य अनुदात्तस्य स्वरितः भवति। व्याख्या - देव इन्द्र आदि ने असुरो के विषय में मारने का निश्चय किया उसी प्रकार तुम भी भक्तो को मनचाह फल प्रदान करो।,व्याख्या- देवाः इन्द्रादयः असुरेषु उद्गूर्णबलेषु यथा श्रद्धां चक्रिरे अवश्यमिमे हन्तव्या इति आदरातिशयं कृतवन्तः। वेद स्वयं ही एक अत्यधिक कठिन विषय है उसके अर्थ ज्ञान में उसके कर्मकाण्ड के प्रतिपादन में जो उपयोगी शास्त्र है वे ही वेदाङ्ग होते है।,वेदः स्वयम्‌ एव एकः दुरूहो विषयः अस्ति। तदर्थज्ञाने तस्य कर्मकाण्डस्य प्रतिपादने यानि उपयोगीनि शास्त्राणि सन्ति तानि एव वेदाङ्गानि भवन्ति। इसको शास्त्रजन्य कुछ अपरोक्ष ज्ञान भी होता है।,अस्य तु शास्त्रजन्यं किञ्चिदपरोक्षज्ञानमस्ति। चकार - कृ-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,चकार - कृ-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। उज्‌छादि एक गण है वहाँ - उञ्छ-म्लेच्छ-जञ्‌ज-जल्प-जप-वध-युग-वेग-वेद-इत्यादि शब्द है।,उञ्छादिरेकः गणः तत्र उञ्छ-म्लेच्छ-जञ्ज-जल्प-जप-वध-युग-वेग-वेद-इत्येते शब्दाः सन्ति। यहाँ पर पञ्चीकरण प्रक्रिया का विस्तार दिया जा रहा है।,इदानीं पञ्चीकरणप्रक्रिया विस्तार्यते। 15. प्रथम कोश कौन-सा होता हैं?,१५. प्रथमः कोशः कः ? 4. हन्‌-धातु से क्वसु प्रत्यय करने पर जघन्वस्‌ इसका षष्ठी एकवचन में।,4. हन्‌-धातोः क्वसुप्रत्यये जघन्वस्‌ इति जाते ततः षष्ठ्येकवचने। तैत्तरीय आरण्यक के कौन-कौन से अध्याय तैत्तिरिय उपनिषद्‌ कहलाते हैं?,तैत्तिरीयारण्यकस्य के अध्यायाः तैत्तिरियोपनिषद्‌ इति कथ्यन्ते? ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अर्न्तगत देवीसूक्त का आध्यात्मिक ऋचाओं की कीर्ति कही गई है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलार्न्तगतं देवीसूक्तम्‌ आध्यात्मिकीषु ऋक्षु कीर्तितम्‌। यहाँ सप्तमी प्रथमैकवचनान्तं और शौण्डैः तृतीया बहुतचनान्त है।,अत्र सप्तमी इति प्रथमैकवचनान्तं शौण्डैः इति च तृतीयाबहुवचनान्तं पदम्‌। इमं मे गङे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमम्‌ उदाहरण है।,इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तामम्‌ इति। और फिर तृणधान्यानां च द्वयषाम्‌ इस सूत्र से दो अच्‌ वाले तृण धान्य वाचक शब्दों के आदि स्वर के उदात्त होने का विधान है।,पुनश्च तृणधान्यानां च दुव्यषाम्‌ इति सूत्रेण दुव्यचां तृणधान्यवाचकानां शब्दानां च आदेः स्वरस्य उदात्तत्वं विधीयते। समासान्तकार्यो के निषेधसूत्र नीचे दिये जा रहे हैं?,समासान्तकार्याणां निषेधकानि सूत्राण्यधः प्रस्तूयन्ते अपने सामर्थ्यवश से ये पृथिवी और स्वर्ग को धारण इन दोनों ने किया है।,स्वसामर्थ्यवशात्‌ इमां पृथिवीं स्वर्गं च धारयतः इमौ देवौ। "“अनश्च इस सूत्र से अनः: इस का ""अव्ययी भावशरद्प्रभृतिः'' यहाँ से अव्ययीभाव पद का अनुवृत्ति होता है।","""अनश्च"" इति सूत्रात्‌ अनः इति ""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" इत्यतः च अव्ययीभावे इति पदमनुवर्तते।" "विश्वा, भुवना - नपुंसकलिङ्ग में बहुवचन में वैदिक यह दो रूप है।","विश्वा, भुवना- नपुंसकलिङ्गे बहुवचने वैदिकं रूपद्वयम्‌ इदम्‌।" वह चित्तवृत्तिनिरोधरूप नहीं होता है।,तत्‌ चित्तवृत्तिनिरोधरूपं नास्ति। आम्नाय का क्रियार्थ होता है।,आम्नायः क्रियार्थः अस्ति। सञ्चितकर्मे में से कोई एक कर्म शरीर का निर्माण करवाता है वह शरीर आरम्भक कर्म ही फिर प्रारब्ध कर्म कहलाता हे।,सञ्चितकर्मसु किञ्चिद्‌ एकं कर्म शरीरं प्रारभते। शरीरारम्भकं तत्‌ कर्म एव प्रारब्धं कर्म। यह संन्यास ज्ञानरहित होता है।,ज्ञानरहितः अयं संन्यासः। ये विषय उपस्थापित किए गए है।,एते विषया उपस्थापिताः। शाकल्य के अनुसार दस हजार चार सौ सड्सठ मन्त्र है।,शाकल्यनुसारेण दशसहस्र-चतुःशतसप्तषष्टिमिताः मन्त्राः सन्ति। क्व यह तित्प्रत्ययान्त है।,क्व इति तित्प्रत्ययान्तं विद्यते। इस प्रकार से श्रुतियों में कहा है यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।,तथाहि आम्नायते - यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति। मैं ही नित्य अमृत कूटस्थ अचल अर्थी हूँ।,अहं च नित्येन अमृतेन अभयेन कूटस्थेन अचलेन ध्रुवेण अर्थेन अर्थी। पूर्व पद का अर्थ प्रधान हो जहाँ यह पूर्वपदार्थ प्रधान ही बहुव्रीहि समास है।,पूर्वपदार्थः प्रधानो यत्र स पूर्वपदार्थप्रधानः इति बहुव्रीहिः। "धातु को जब द्वित्व होता है, तब वह समुदाय अभ्यस्त संज्ञक होता है।",धातोः यदा द्वित्वं भवति तदा समुदायः अभ्यस्तसंज्ञकः भवति। अतः प्रकृत सूत्र से इस मन्त्र में एकश्रुति का विधान है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अस्मिन्‌ मन्त्रे ऐकश्रुत्यं विधीयते। ऋक्‌ मन्त्रों में किसकी प्रधानता है?,ऋङ्गन्त्रेषु कस्य प्राधान्यम्‌? ब्रह्म ही सब को प्रकाशित करता है।,ब्रह्म एव सर्व प्रकाशयति। सर्वाधिक रत्नों को वह धारण करती है।,सर्वाधिकरत्नानि स धारयति। उपमानवाचक का ही पूर्व निपात है जैसे: स्यात् तदर्थमिदं सूत्रम्‌।,उपमानवाचकपदस्यैव पूर्वनिपातः यथा स्यात्‌ तदर्थमिदं सूत्रम्‌ । असम्भावना चित्त की ब्रह्मात्म परिभावना प्रचय निमित्ततदेकाग्रवृत्य योग्यता कहलाती है।,असम्भावना- चित्तस्य ब्रह्मात्मपरिभावनाप्रचयनिमित्ततदेकाग्रवृत्त्ययोग्यतोच्यते। "ब्रह्मविद्या ही उपनिषद्‌ है फिर भी जैसे आयु बढ़ाने के लिए घी को “आयुवे घृतम्‌' इस आयु शब्द का औपचारिक प्रयोग होता है, वैसे ही ब्रह्मविद्या के प्रकाशक ग्रन्थ में भी उपनिषद्‌ शब्द का औपचारिक प्रयोग होता है।",ब्रह्मविद्यैव उपनिषत्‌ तथापि यथा आयुर्वर्द्धक घृते आयुर्वै घृतम्‌ इति आयुश्शब्दस्य औपचारिकः प्रयोगो भवति तद्वत्‌ ब्रह्मविद्यायाः प्रकाशके ग्रन्थेऽपि उपनिषच्छब्दस्य औपचारिक: प्रयोगो भवति। इस अर्थ के विषय में कुछ भी भिन्न मत नहीं है।,अस्यार्थस्य विषये नास्ति किमपि भिन्नं मतम्‌। जिस पाप कर्म के जो निमित्त जो प्रायश्चित्त विहित है वह प्रायश्चित्त उस पाप का फल नहीं होता है।,यस्मिन्‌ पापकर्मणि निमित्ते यत्‌ विहितं प्रायश्चित्तम्‌ न तु तस्य पापस्य तत्‌ फलम्‌। "जैसे अच्छा सारथि अपने रथ के वेगयुक्त घोड़ो को इधर-उधर लेकर जाता है और जैसे उनको नियन्त्रित करता है, वैसे ही जो मन मनुष्यों को सभी कार्यो में प्रवृत्त करता है उन्हें उस कार्य में लगाता है, और जो मन हद्‌ देशवाशी है, और जो जरारहित, और जो उत्पन्न हुए बालकों में, युवकों में और वृद्धों में एक समान है, वह मेरा मन शुभसङ्कल्प से युक्त हो।","यथा सुसारथिः स्वरथस्य वेगयुक्तान्‌ अश्वान्‌ यतस्ततः नेनीयते किञ्च यथा सुसारथिः अभीषुभिः अश्वान्‌ नियन्त्रयति च तथैव यन्मनः मनुष्यान्‌ सर्वकर्मणि प्रवर्तयति नियच्छति च , यच्च मनः हृत्प्रतिष्ठं हृद्देशवासि इत्यर्थः , यच्च अजिरं जरारहितं , यच्च जविष्ठं बालकेषु युवकेषु वृद्धेषु च अतिवागवत्‌ तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु।" (क) पूर्वजन्म में किय गये कर्म जो फलदान प्रारब्ध नहीं होते हैं।,(क) पूर्वजन्मकृतं कर्म येन फलदानं न प्रारब्धम्‌। "अधिकारी, विषय, सम्बन्ध तथा प्रयोजन।",अधिकारी विषयः सम्बन्धः प्रयोजनम्‌। अपि च ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ सूत्र से प्रातिपदिकात्‌ पद की अनुवृत्ति आती है।,अपि च ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ इति सूत्रात्‌ प्रातिपदिकात्‌ इति अनुवर्तते। जहा वस्तुओ में बहुत उत्तम सींगो के समान किरने के द्वारा उन वस्तुओ को हम जान सकते है अथवा वे किरणों द्वारा अत्यधिक विस्तृत होती है।,यत्र येषु वास्तुषु गावः रश्मयः भूरिशृङ्गाः अत्यन्तोन्नत्युपेता बहुभिराश्रयणीया वा अयासः अयना गन्तारोऽतिविस्तृताः। यहाँ पर वस्तु स्वभाव ही नियामक होता है।,इत्यत्र वस्तुस्वभावः एव नियामकः। मात्रर्थम्‌ इसका विग्रह वाक्य होता है - मात्रे इदम्‌।,मात्रर्थम्‌ इत्यसय विग्रहवाक्यं भवति मात्रे इदम्‌ इति। तेरहवें और चौदहवें अध्यायों में अत्यंत संक्षेप से आत्मा का ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्ति जीव की सबसे बडी उपलब्धि के विषय में कहते है।,त्रयोदश-चतुर्दशयोः अध्याययोः अतिसंक्षेपेण आत्मनः ब्रह्मणा सह एकत्वप्राप्तिः जीवस्य सर्वोत्तमोपलब्धिः इति कथ्यते। सुवे यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,सुवे इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। "वेद के प्रमाण, नित्यत्व, अपौरुषेयत्व इत्यादि गूढ तत्त्वों को कहाँ स्थापित किया गया है?",वेदस्य प्रामाण्यम्‌ नित्यत्वम्‌ अपौरुषेयत्वम्‌ इत्यादिकं गूढतत्त्वं कः कुत्र स्थापितवान्‌? इस सूत्र से तो विशेषवाची समानाधिकरण आमंत्रित परे रहते सामान्यवचन आमन्त्रित के बहुवचन अन्त के पद को विकल्प से अविद्यमानवत्त्‌ के समान होता है।,अनेन सूत्रेण तु आमन्त्रितान्ते समानाधिकरणे विशेषणे पदे परे आमन्त्रितान्तस्य बहुवचनान्तस्य पदस्य विकल्पेन अविद्यमानवत्त्वं विधीयते। मैत्रायणी संहिता में कितने काण्ड है?,मैत्रायणीसंहितायां कति काण्डाः सन्ति? लुक (लोप) होता है।,लुक्‌ भवति। अज्ञान के द्वारा भ्रान्त जीव आत्मा के स्वरूप नहीं जानते है।,अज्ञानेन भ्रान्ताः जीवाः आत्मनः स्वरूपं न जानन्ति। अतः दारु यह तदर्थ है।,अतः दारु इति तदर्थः भवति। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर का स्वप्न में लिङग शरीर का तथा सुषुप्ति में कारण शरीर का भान होता है।,जाग्रति स्थूलशरीरस्य स्वप्ने लिङ्गशरीरस्य सुषुप्तौ कारणशरीरस्य च भानमस्ति। लेकिन आत्मा तो हमेशा होती है।,आत्मा तु सर्वदा अस्ति। "हे रुद्र, सब प्रकार की प्रजाओं को पीड़ा, रोग, कष्ट आदि देने वाले दुष्टों को हमसे दूर करो।","हे रुद्र, सर्वाः यातुधान्यः यातुधानीः राक्षसीः त्वं परासुव पराक्षिप अस्मभ्यो दूरीकुरु।" इसलिए उसे संशय अविरोधि निश्चयात्मक ज्ञान विधिवत्‌ वेदाध्ययन के द्वारा सम्पादित करना चाहिए।,तथाहि संशयाविरोधिनिश्चयात्मकं ज्ञानं विधिवद्वेदाध्ययनेन सम्पादनीयम्‌। "कृष्ण यजुर्वेद की चारों संहिताओ में केवल स्वरूप से ही एक रूपता नहीं है, अपितु उसमे वर्णित अनुष्ठानों में तथा उसके निष्पादक मन्त्रों में भी समानता है।",कृष्णयजुर्वदेस्य चतसृषु संहितासु न केवलं स्वरूपतः एकरूपताऽस्ति प्रत्युत तासु वर्णितानुष्ठानेषु तथा तन्निष्पादकमन्त्रेष्वपि साम्यं वर्त्तते। "जो देव, वह ही देवता।",यो देवः सा देवता। अग्निष्टोम में सात होता है।,अग्निष्टोमे सप्तहोतारो भवन्ति। प्रथम सभी में मुख्य पूज्य होने से।,प्रथमः सर्वेषां मुख्यः पूज्यत्वात्‌। उपनिषद्‌ शब्द ही प्रधान रूप से वेदान्त को कहते हैं।,उपनिषच्छब्देन प्राध्यान्यतो वेदान्त उच्यते। कर्म से केबल अभ्युदय फल ही प्राप्त होते हैं।,कर्मभ्यः अभ्युदयफलानि केवलानि लभ्यन्ते । तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे यह सप्तम्येकवचनान्त पद है।,तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌ । यदि पुरुष की मोक्ष प्राप्ति की इच्छा नहीं होती है तो वह मोक्ष के उपायों का अन्वेषण नहीं करता है।,यदि पुरुषस्य मोक्षप्राप्तय इच्छा न भवति तर्हि मोक्षोपायस्य अन्वेषणं न करोति। अनेकजन्मार्जितसंस्कारवश देहादि में आत्माध्यास होता है।,अनेकजन्मार्जितसंस्कारवशाद्‌ देहादौ आत्माध्यासः भवति। बहुव्रीहेः भी प्रातिपदिकात्‌ पद का विशेषण है।,बहुव्रीहेः इत्यपि प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। लौकिक में तो स्वस्ति यह अव्ययपद है।,लौकिके तु स्वस्ति इति अव्ययपदम्‌। दृढतर विशवास ही श्रद्धा होती है।,दृढतरविश्वास एव श्रद्धा। इसलिए प्रत्येक जन्म में जो कर्म किए जाते है।,प्रकृतजन्मनि यत्‌ कर्म क्रियते । वाणी के सम्बद्ध अनेक प्रकार की आख्या रुचिकर और शिक्षाप्रद है।,वाचा सम्बद्धाः बहुविधाख्याः रुचिराः शिक्षाप्रदाश्च सन्ति। किस प्रकार से चित्त विक्षिप्त होता है।,चित्तं विक्षिप्तम्‌ कथं ज्ञायते। 1 मुमुक्षु कब गुरु के पास जाता है?,1 मुमुक्षुः कदा गुरुम्‌ उपसर्पति। 2. सात होता कौन है?,२. के सप्तहोतारः? उपपत्ति युक्ति को कहते हैं।,उपपत्तिर्हि युक्तिः। छन्दःशास्त्र की व्याख्या कीजिए।,छन्दःशास्त्रं व्याख्यात। इस प्रकार 'सुब्रह्मण्योम्‌' यहाँ पर अन्तिम ओंकार स्वरित सिद्ध है।,एवं सुब्रह्मण्योम्‌ इत्यत्र अन्तिमः ओकारः स्वरितः इति सिद्धम्‌। इसलिए स्वर्गफल भी अनित्य है।,अतः स्वर्गफलम्‌ अनित्यम्‌। इसके बाद पूर्व इषुकामशमी होता है।,ततः पूर्व इषुकामशमी इति भवति। इससे विकल्प से उदात्त स्वर का विधान है।,अनेन वैकल्पिकः उदात्तस्वरः विधीयते। शुक्लयजुर्वेद की दो शाखा है - काण्वशाखा और माध्यन्दिनशाखा।,शुक्लयजुर्वेदस्य शाखाद्वयं - काण्वशाखा माध्यन्दिनशाखा च। आमन्त्रित संज्ञक पद का आदि अच्‌ उदात्त होता है यह छठे अध्याय में पढ़े हुए ' आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र का अर्थ है।,आमन्त्रितसंज्ञकस्य पदस्य आदिः अच्‌ उदात्तः भवति इति षष्ठाध्याये पठितस्य 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रस्य अर्थः। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का ग्यारहवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य एकादशः मन्त्रः। देव आर्यो का मनुष्यों के मध्य में उनका दीपक से अग्नि की स्थापना की जाती है।,देवा आर्याणां मानवानां मध्ये तेषां दीपकतया अग्निं स्थापयामासुः। "जो हमारा यह संसार जङ्गम मनुष्य पशु आदि जिस प्रकार से यक्ष्मा आदि रोगों से रहित होकर, नीरोग होकर कल्याणकारी सुंदर मन वाले जिस प्रकार रहे वैसे ही बना दो।",नोस्माकं सर्वमित्‌ सर्वमेव जगत्‌ जङ्गमं नराः पश्वादि यथा येन प्रकारेण अयक्ष्मं नीरोगं सुमनाः शोभनामनस्कं च असत्‌ भवति यथा कुर्विति शेषः। ये षट्‌ ऋचाएं उत्तरनारायण की है।,षट्‌ ऋचः उत्तरनारायणमन्त्राः। उसके लिए दारु यह उत्तरपद है।,तदर्थः दारु उत्तरपदम्‌। "अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, यम, प्रजापतियों के द्वारा क्रम से नियन्त्रित वागादि पाँच इन्द्रियों से क्रम से वचन, दान, गमन, विसर्ग, आनन्द, स्थूल विषयों का क्रम से अनुभव करता है।",अग्नीन्द्रोपेन्द्रयमप्रजापतिभिः क्रमाद्‌ नियन्त्रितेन वागादीन्द्रियपञ्चकेन क्रमाद्‌ वचनादानगमनविसर्गानन्दान्‌ स्थूलविषयान्‌ अनुभवति। इसको विष्णुपुराण में इस प्रकार से कहा गया हे कि- जगत्प्रतिष्ठा देवर्षे !,विष्णुपुराणे निगदितम्‌ अस्ति यत्‌ जगत्प्रतिष्ठा देवर्षे ! अर्थात्‌ इन्द्रियाँ हमेशा शब्दादि विषयों में प्रवृत्त होती है।,अर्थात्‌ इन्द्रियाणि सर्वदा अपि शब्दादिषु विषयेषु प्रवृत्तानि भवन्ति। ये मन्त्र उन्माद व्यक्तियों के प्रलाप के समान अर्थहीन हैं।,एते मन्त्राः उन्मादव्यक्तीनां प्रलापः इव अर्थहीनाः वर्तन्ते। समाधि दो प्रकार की होती है।,समाधिः द्विविधः । वेदों के अध्ययन के लिए गुरुगृह में जाना तथा वेदान्त श्रवण के लिए भी गुरु के समीप जाना इस प्रकार से दो बार गुरु के समीप जाना चाहिए।,वेदाध्ययनाय गुरुगृहगमनं वेदान्तश्रवणाय च गुरुसमीपगमनम्‌ इति द्विविधं गुरुगृहगमनम्‌ इति उक्तप्रायं भवति। तृतीयासमास होने से यहाँ यह सूत्र बाँधा गया है।,तृतीयासमासत्वात्‌ नेदं सूत्रं समासं बाधते। इस रोग की चिकित्सा स्वर वैद्य ने इसी यज्ञ से की है।,अस्य रोगस्य चिकित्सा स्वर्वैद्येसन अनेनैव यज्ञेन कृता इति। किससे वह भयहेतु में प्रश्‍न।,कस्मात्‌ इति भयहेतुप्रश्नः। इसके बाद “'कृत्तद्धितसमासाश्च'' इस सूत्र से पूर्वा सु इषु कामशमी सु इय समास का प्रातिपडिकत्व होने से “सुपो धातु प्रतिप्रातिपदिकयोः'' इस सूत्र से सुप्‌ के दो सूत्रों का लोप होने पर पूर्वा इषु कामशमी होता है।,"ततः ""कृत्तद्धितसमासाश्च"" इति सूत्रेण पूर्वा सु इषुकामशमी सु इति समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सूत्रेण सुपः सुद्वयस्य लुकि पूर्वा इषुकामशमी इति भवति।" यह दर्शपौर्णमासयाग तीस वर्षात्मक होता हेै।,अयं दर्शपौर्णमासयागः त्रिंशद्वर्षात्मकः। कौषीतकि उपनिषद्‌ किस आरण्यक के किस अध्याय को अतिव्याप्त करके आख्या है?,कौषितकी उपनिषद्‌ कस्यारण्यकस्य कं कम्‌ अध्यायं अभिव्याप्य आख्यायते? "इस इष्टी में पथ्यास्वति, अग्नि, सोम, सविता, और अदिति इन पांच देवाओं का आह्वान किया जाता है।","अस्याम्‌ इष्टौ पथ्यास्वतिः, अग्निः, सोमः, सविता, अदितिः च एतेषां पञ्चानां देवानाम्‌ आह्वानं क्रियते।" श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपरोक्षानुभूति लोभ ही मनुष्यजीवन के उद्देश्य के रूप में प्रतिष्ठापित किया।,श्रीरामकृष्णपरमहंसेन अपरोक्षानुभूतिलाभः एव मनुष्यजीवनस्य उद्देश्यत्वेन प्रतिष्ठापितः। "सगुणभक्ति योग का यह वैशिष्ट्य हैं कि इसमें हम उस ब्रह्म के साथ पुत्रत्व, मित्रत्व दासत्व आदि लौकिक सम्बन्धों की कल्पना ईश्वर के साथ कर लेते हैं।",सगुणभक्तियोगस्य वैशिष्ट्यं हि कश्चित्‌ लौकिकः सम्बन्धः पुत्रत्व-मित्रत्व-दासत्वादिः ईश्वरेण सह कल्प्यते। "मन्त्र, ब्राह्मण दोनों का जहाँ मिश्रित भाव प्राप्त होता है वह कृष्ण यजुर्वेद इस नाम से विख्यात है, किन्तु जहाँ मन्त्रों का ही विशुद्ध रूप के द्वारा प्रतिष्ठान किया है वह शुक्ल यजुर्वेद इस नाम से विख्यात है।","मन्त्रब्राह्मणयोर्द्धयोरपि यत्र मिश्रीभावः कृतः स कृष्णयजुर्वेद इति नाम्ना, किञ्च यत्र मन्त्राणामेव विशुद्धतया प्रतिष्ठानं कृतम्‌ सः शुक्लयजुर्वेदः इति विश्रुतम्‌।" वहाँ अक्षसूक्त के चौदहवे मन्त्र को पास के प्रति जुआरी ने प्रार्थना की है।,ततः अक्षसूक्तस्य द्वादशचतुर्दशयोः मन्त्रयोः अक्षान्‌ प्रति कितवानां प्रार्थनाज्ञापनम्‌ अस्ति । भविष्यत्‌ 'लृटः सद्वा' (पा०सू० ३.३.१४) इससे शतृप्रत्यय करने पर 'तौ सत्‌' (पा०सू० ३.२.१२७) इसके कहने पर त्रिकालसंबद्ध वस्तुओं में मन प्रवृत होता है यह अर्थ है।,भविष्यत्‌ 'लृटः सद्वा' (पा०सू० ३.३ .१४) इति शतृप्रत्ययः 'तौ सत्‌' ( पा०सू० ३.२.१२७ ) इत्युक्तेः त्रिकालसंबद्धवस्तुषु मनः प्रवर्तत इत्यर्थः। डकार के स्थान में ळकार कब होता है?,डकारस्य ळकारः कदा भवति? रुद्र हमारे प्रति सभी शस्त्र से रिक्त हो ॥,रुद्र अस्मान्‌ प्रति न्यस्तसर्वशस्त्रोऽस्त्वित्यर्थः॥ तारक्ष्य की भी स्तुति एक स्थान में देवता रूप में ही उपलब्ध होती है (ऋ. १०.१७८)।,ताक्ष्यस्याऽपि स्तुतिः एकस्मिन्‌ स्थाने देवतारूपे एवोपलब्धा भवति (क. १०.१७८)। इस बैल रूप व्याकरण के चार सींग हैं - नाम-आख्यात-उपसर्ग और निपात रूप है।,अस्य वृषभरूपव्याकरणस्य चत्वारि शृङ्गाणि सन्ति - नाम-आख्यात-उपसर्ग-निपातरूपाणि। उस सुषुप्ति में पुरुष परब्रह्म के साथ ऐकात्म्य को प्राप्त करता है।,तस्यां सुषुप्तौ पुरुषः परेण ब्रह्मणा सह ऐकात्म्यं प्राप्नोति हे प्रस्तरगणा! तुम सभी श्रवण करो इत्यादि।,हे प्रस्तरगणाः! यूयं श्रवणं कुर्वन्तु इत्यादि। "इसलिए यह सब मन का विजूृम्भण मात्र ही है, स्वप्रेर्थशुन्ये सृजति स्वशक्त्या भोक्कादि विश्वं मन एव सर्वम्‌।",अतः सर्वमेतत्‌ मनसः विजृम्भणमात्रमेव। स्वप्रेर्थशुन्ये सृजति स्वशक्त्या भोक्कादि विश्वं मन एव सर्वम्‌। अन्य जगह नही।,न अन्यत्र। इस श्लोक का अर्थ है कि इस जगत्‌ की सृष्टि से पूर्व एक ही अद्वितीय नामरूप रहित जो ब्रह्म था सृष्टि के बाद भी वैसा ही ब्रह्म रहेगा।,अस्य श्लोकस्य अर्थः तावत्‌ अस्याः जगत्सृष्टेः पूर्वम्‌ एकमेवाद्वितीयं नामरूपरहितं यत्‌ ब्रह्म आसीत्‌ सृष्टेः परमपि तादृशमेव ब्रह्म अस्ति। श्रवण से ही साक्षात्कार यहाँ पर जो मत प्रस्तुत किया जा रहा है उसे एक ही मत समझना है।,श्रवणादेव आत्मसाक्षात्कारः अत्र यत्‌ प्रस्तूयते तदेकं मतम्‌ अस्तीति अवधेयम्‌। "जैसे इस कल्प में वर्तमान सभी प्राणि देह वाले विराट्पुरुष के अवयव है, वैसे ही अतीत और आगामी कल्प में भी रहने वाले समस्त प्राणी अवयव है।","यथास्मिन्‌ कल्पे वर्तमानाः प्राणिदेहाः सर्वेऽपि विराट्पुरुषस्य अवयवाः, तथैव अतीतागामिनोरपि कल्पयोः सर्वे विराजः अवयवा एव।" तात्पर्य निर्णायक छः लिंगो में यह अन्यतम होता है।,तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌। "इस सूत्र में दो पद हैं, चादयः, अनुदात्ता: इति।","अस्मिनि सूत्रे द्वे पदे स्तः, चादयः अनुदात्ताः इति।" सरलार्थ - विराडाख्य पुरुष अनन्त शिरों से युक्त अनन्त आखों से युक्त अनन्त पादों से युक्त है।,सरलार्थः- विराडाख्यः पुरुषः अनन्तशिरोयुक्तः अनन्ताक्षियुक्तः अनन्तपादयुक्तः। वहाँ पती यह आमन्त्रित पद है।,ततः पती इति आमन्त्रितं पदं वर्तते। अपितु अनेक वर्षों पहले ही प्राचीन आचार्यों के द्वारा इस संज्ञा का विधान किया है।,अपि तु बहुपूर्वकालात्‌ एव पूर्वाचार्यैः एषा संज्ञा विहिता। फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र कौ व्याख्या कोजिए।,फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रं व्याख्यात। यहाँ पर भी श्रुतिविरोध दिखाई देता है।,इत्यपि श्रुतिविरोधः। इन ग्रन्थकारों में शाकपूर्णी का मत अधिक उद्धृत है।,एतेषु ग्रन्थकारेषु शाकपूणेः मतम्‌ आधिक्येन उद्धृतम्‌ अस्ति। सूत्र का अवतरण - पाद के अन्त में यथा को अनुदात्त स्वर विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- पादान्ते यथा इत्यस्य अनुदात्तस्वरविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌ । यहाँ पर विषभोजन शक्यार्थ होता है।,इत्यत्र विषभोजनं शक्यार्थो भवति। ऋग्वेद के और सामवेद के सभी मन्त्र छन्दोंबद्ध हैं।,ऋग्वेदस्य सामवेदस्य च सर्वे मन्त्राः छन्दोबद्धाः सन्ति। जैस गङर्‍गायां घोषः (गङ्गा में कुटिया) यहाँ पर गङऱगापद वाच्यार्थ के द्वारा गङ्गाप्रवाह रूप के साथ साक्षात्‌ संबंध तीर में केवल लक्षण है।,गङ्गायां घोषः इत्यत्र गङ्गापदवाच्यार्थेण गङ्गाप्रवाहरूपेण साकं साक्षात्सम्बन्धिनि तीरे केवललक्षणा। उदाहरणम्‌-इस सूत्र का उदाहरण होता है यावच्छलोकम्‌।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति यावच्छलोकम्‌ इति। इसके बाद किम्‌ का पूर्वनिपात होने पर समास के प्रातिपदिकत्व से सुप का लोप होने पर किंराजन्‌ होता है।,ततः किमित्यस्य पूर्वनिपाते समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि किंराजन्‌ इति भवति। पीताम्बर यहाँ समस्यमान पीतम्‌ अम्बर दो पद हैं।,पीताम्बर इत्यत्र समस्यमानं पीतम्‌ अम्बरं चेति पदद्वयम्‌। “घृतादीनां च' इस सूत्र से क्या होता है?,"""घृतादीनां च"" इति सूत्रेण किं भवति ?" "उससे इन धातुओं के प्रथमपुरुष, बहुवचन की विवक्षा में झि प्रत्यय करने पर झि को अन्त आदेश होने पर प्रक्रिया कार्य में स्वप्‌ अन्ति, श्वस्‌ अन्ति, हिंस्‌ अन्ति इस प्रकार होने से इट्‌ भिन्न का अजादि लसार्वधातुक परे होने पर प्रकृत सूत्र से धातुओं का आदि अच्‌ विकल्प से उदात्त होता है।","तेन एतेषां धातूनां प्रथमपुरुषबहुवचनविवक्षायां झिप्रत्यये झेरन्तादेशे प्रक्रियाकार्य स्वप्‌ अन्ति, श्वस्‌ अन्ति, हिंस्‌ अन्ति इति जाते इङ्भिन्नस्य अजादिलसार्वधातुकस्य परत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण धातूनाम्‌ आदिः अच्‌ विकल्पेन उदात्तः भवति।" इस रुद्र का तलवार रखने का स्थान भी खाली रहे हमारे लिए अर्थात्‌ इनकी म्यान में तलवार न हो।,अस्य रुद्रस्य निषङ्गधिः कोशः स आभुः रिक्तः खड्गरहितोऽस्तु। इसलिए वह चैतन्य चिदाभास का नाश नहीं कर सकता है।,तत्‌ चैतन्यं तु चिदाभासं नाशयितुं न शक्नोति। सिद्धान्त तो ब्रह्म जगताकार में प्रतीत होता है प्रतीत असत्य वस्तु का जगत निरास हो जाता है।,"सिद्धान्ते तु ब्रह्म जगादाकारेण प्रतीतं, प्रतीतस्य असत्यवस्तुनः जगतः निरासः।" ये विषय यहाँ पर क्रम से प्रतिपादित किए गये हैं।,एते एव विषयाः क्रमशः प्रतिपादिताः सन्ति। ऋग्वेद में अग्निदेव के साथ इसकी स्तुति की गई है।,ऋग्वदेषु अग्निदेवेन सह अस्य स्तुतिः कृता वर्तते। तो वहाँ पर कहते हैं कि वर्तमान में किया गया कर्म तथा उसका कुछ दृष्ट फल तुरन्त उत्पन्न होता है।,तत्रोच्यते यत्‌ सम्प्रति क्रियामाणं कर्म तस्य किमपि दृष्टं फलं सद्यः उत्पादयति। लौकिक विग्रह हमेशा स्वपदविग्रह ही होता है।,अलौकिकः विग्रहः सदा स्वपदविग्रहः एव भवति। निद्रा ङ्स अति यह अलौकिक विग्रह है।,निद्रा ङस्‌ अति इत्यलौकिकविग्रहः। उच्चौस्तरां वा वषट्कारः' इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,उच्चैस्तरां वा वषट्कारः' इति सूत्रं व्यख्यात। दीव्य:-दीव्‌-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में।,दीव्यः - दीव्‌ - धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने । उसको इस प्रकृत सूत्र से तिल- शब्द के आदि में स्वर इकार को उदात्त होता है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य तिल- शब्दस्य आदेः स्वरस्य इकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। "आठवें अध्याय में पढ़े हुए आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र का अर्थ है की पद से पर किन्तु पाद के आदि में अवर्तमान जो आमन्त्रित पद है, उस सभी पद को अनुदात्तस्वर होता है।","अष्टमाध्याये पठितस्य 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रस्य अर्थो हि पदात्‌ परं किञ्च पादस्य आदौ अवर्तमानं यत्‌ आमन्त्रितं पदं, तस्य सर्वस्य पदस्य अनुदात्तस्वरः भवति इति।" "ये सूत्र फिषम्‌ अर्थात्‌ प्रातिपदिक के आश्रित ही रहते हैं, और इन फिट सूत्रों के द्वारा प्रधानता से शब्दों के स्वर विधान का नियम है।",एतानि सूत्राणि फिषम्‌ अर्थात्‌ प्रातिपदिकम्‌ आश्रित्यैव प्रवर्तन्ते। एतैः च फिट्- सूत्रैः प्रधानतया शब्दानां स्वरविधानं शास्यते। यह ग्रन्थ पूर्ण नहीं है।,ग्रन्थोऽयम्‌ अपूर्णः एवास्ति। वेद में अग्नि बहुत प्रसिद्ध देवता है।,वेदे अग्निः बहुप्रसिद्धः देवता अस्ति। “जनिता मन्त्रे' से णिलोप होता है।,'जनिता मन्त्र' इति णिलोपो निपात्यते। यह सूत्र डाप प्रत्यय का विधान करता है।,इदं सूत्रं डाप्प्रत्ययं विदधाति। ऋग्वेद में रुद्रदेव का स्थान माहात्म्य इन्द्र-अग्नि-वरुणादि देवों की अपेक्षा बहुत न्यून है।,ऋग्वेदे रुद्रदेवस्य स्थानमाहात्म्यम्‌ इन्द्र-अग्नि-वरुणादिनां देवानाम्‌ अपेक्षया बहु न्यूनम्‌ अस्ति। आदि: इस पद को उदात्त इसका विशेषण होता है।,आदिः इति पदम्‌ उदात्तः इत्यस्य विशेषणं भवति। “पञ्चमी भयेन'' इस सूत्र से अनुवृत्ति का पञ्चमी का “प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः” इस परिभाषा से तदन्त विधि में पञ्चम्यन्त सुबन्त यही अर्थ है।,"""पञ्चमी भयेन"" इत्यस्मात्‌ सूत्रादनुवृत्तस्य पञ्चमीत्यस्य “प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः"" इति परिभाषया तदन्तविधौ पञ्चम्यन्तं सुबन्तम्‌ इत्यर्थः भवति।" इनमें श्रद्धा अवश्य होनी चाहिए।,अस्मासु श्रद्धा अवश्यं भवेत्‌। आश्वलायन गृह्यसूत्र में (३अ. ३ख.) ऋषि तर्पण के साथ आचार्य तर्पण का भी उल्लेख प्राप्त होता है।,आश्वालायनगृह्यसूत्रे (३अ. ३ख.) ऋषितर्पणेन सह आचार्यतर्णणः अपि समुपलब्धो भवति। वार्तिक व्याख्या-यह वार्तिक षष्ठी समास निषेध प्रसङ्ग में विराजता है।,वार्तिकव्याख्या - इदं वार्तिकं षष्ठीसमासनिषेधप्रसङ्गे विराजते। समासविधायक सूत्र है सहसुपा।,समासविधायकं सूत्रं सह सुपा इति। पशु का वसा अर्थात्‌ हृदय की मेद को अधवर्यु नामक पुरोहित आहवनी याग्नि में आहुत करता है।,वसा अर्थात्‌ हृदयस्य मेदः अध्वर्युनामकः पुरोहितः आहवनीयाग्नौ जुहोति। वहाँ कुछ उपाख्यान (कथा) है।,तत्र कानिचन उपाख्यानानि सन्ति। 37. अविद्यागत सत्वगुण का क्या परिणाम होता है?,३७. अविद्यागतसत्त्वगुणस्य परिणामो भवति कः? "उस नित्‌ के परे पूर्व के चकार से उत्तर अकार की तो ' जिनत्यादिर्नित्यम्‌' इससे ही आद्युदात्त स्वर सिद्ध होता है, उस प्रकृत-सूत्र से आद्युदात्त स्वर विधान की क्या आवश्यकता है यदि कोई ऐसा कहता है तो - यह ही ज्ञापक है की वेद में कुछ स्वर विधि में प्रत्यय के लोप होने पर 'प्रत्ययलक्षणम' से ग्रहण नहीं करते है।","तस्मिन्‌ निति परे पूर्वस्य चकारोत्तरस्य अकारस्य तु 'जञ्नित्यादिर्नित्यम्‌' इत्यनेनैव आद्युदात्तस्वरः सिध्यति, तेन प्रकृत-सूत्रेण आद्युदात्तस्वरविधानस्य का आवश्यकता इति चेदुच्यते- एतदेव ज्ञापकं यत्‌ वेदे क्वचित्स्वरविधौ प्रत्ययलोपे 'प्रत्ययलक्षणमिति' न गृह्यते।" जिस प्रकार पहिए के अरे नेमी में स्थित रहते है उसी प्रकार इंद्र ने सबको धारण किया।,यथा रथचक्रस्य परितो वर्तमाना नेमिः अरान्‌ नाभौ कीलितान्‌ काष्ठविशेषान्‌ व्याप्नोति तद्वत्‌॥ निष्काम कर्मयोग के द्वारा मल का नाश होता है।,निष्कामकर्मयोगेन मलनाशः। जीवन्मुक्ति ही विदेहमुक्ति का हेतु हे।,जीवन्मुक्तिः एव विदेहमुक्तेः हेतुः। यह अनुभव के विरुद्ध और युक्ति के विरुद्ध है।,इदम्‌ अनुभवविरुद्धं युक्तिविरुद्धं च। "तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्विङोः इस सूत्र से लसार्वधातुकम्‌ इस पद की अनुवृति यहाँ आती है, और वह यहाँ पर सप्तम्यन्त से विपरिणाम होता है।",तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्निङोः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लसार्वधातुकम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते तच्चात्र सप्तम्यन्ततया विपरिणम्यते। “पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन'' इस सूत्र का क्या अर्थ हैं?,"""पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" राज्ञः पुरुषः इस विग्रह में राजपुरुषः है।,राज्ञः पुरुषः इति विग्रहे राजपुरुषः। इस परिच्छेद में हमारा आलोचनाका विषय वेदप्रामाण्य है।,अस्मिन्‌ परिच्छेदे अस्माकम्‌ आलोच्यविषयः वेदप्रामाण्यम्‌ इति। "अदन्त अव्ययीभाव से सुप्‌ का लोप नहीं होता है, और उसका पञ्चमी के बिना अमादेश होता है।","अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ सुपः न लुक्‌, तस्य पञ्चमीं विना अमादेशश्च भवति।" व्याख्या - 'प्र वाताः' यहाँ पर चतुर्थी पर्जन्यस्य चरोर्याज्या।,व्याख्या- 'प्र वाताः' इति चतुर्थी पर्जन्यस्य चरोर्याज्या। इसके अलावा अन्य मार्ग नहीं मार्ग नहीं है।,अयनाय आश्रयाय अन्यः पन्थाः मार्गो न विद्यते। पुष्प को हटाने से स्फटिक का लोहित्य भी हट जाता है।,पुष्पस्य अपनयने स्फटिकस्य लौहित्यमपि अपगच्छति। गुरु श्रद्धावान्‌ अन्तेवासी के हृदय में ज्ञान का दीपक जलाकर के अज्ञान का नाश करता है।,गुरुः श्रद्धावतः अन्तेवासिनः हृदये ज्ञानरूपं प्रदीपं प्रज्वाल्य अज्ञानं नाशयति। यह सूक्त प्राचीन काल से प्रतिष्ठा प्राप्त आर्यसमाज और आर्यगण की दार्शनिक चिन्तन धारा के प्रवाह के विषय में प्रामाणिकता है।,इदं सूक्तम्‌ पुरा लब्धप्रतिष्ठस्य आर्यसमाजस्य आर्यगणस्य च दार्शनिकचिन्ताधारायाः प्रवाहविषये प्रामाणिकताम्‌ आवहति। मैं तुम्हारी रक्षा करुँगी।,अहं तव रक्षणं करिष्यामि इति। शरीर कभी भी अशुद्ध होने योग्य नहीं है।,कदापि अशुद्धः देहः नैव भवितुमर्हति। इसलिये पदपाठ में दो अलग निपात दिखाए गये।,अतः पदपाठे द्वौ पृथगेव प्रदर्शितौ। कृषस्व-कृष्‌-धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचने में (वैदिक )।,कृषस्व - कृष्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने ( वैदिकः ) । 77. “अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः'' यहाँ शरद्‌ प्रभृतिः यहाँ कौन सा समास हेै।,"७७. ""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" इत्यत्र शरत्प्रभृतिभ्यः इत्यत्र कः समासः?" हे मित्रावरुणहम इच्छित धन को पाने वाले और शत्रुओ को जितने वाले बने।,हे मित्रावरुणौ सिषासन्तः धनानि सम्भक्तुमिच्छन्तो वयं जिगीवांसः शत्रूणां धनानि जेतुमिच्छन्तः स्याम भवेम। संस्कृत वाङ्मय आकाश में वेद ही मृगराज है।,संस्कृतवाङ्गयगगने वेदाः एव खगराजाः । अहन्‌ - हन्‌-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में अहन्‌ यह रूप बनता है।,अहन्‌ - हन्‌-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने अहन्‌ इति रूपम्‌। तथा संसारचक्र को प्राप्त करता है।,संसारचक्रं प्राप्नोति वे ही इस * दारुणमुनि' इस उपाधि से विभूषित थे।,तेन असौ ' दारुणमुनिः' इति उपाधिना विभूषितः आसीत्‌। और हे शूर गायों का हरण करने वाले पणिनाम के राक्षसों को जीत लिया।,"किं च, गाः पणिनामाहृताः त्वं जितवान्‌।" """सुप्प्रतिना मात्रार्थे"" इस सूत्र से सूप के लेश लौकिक विग्रह में समास में सूपप्रति रूप निष्पन्न होता है।","""सुप्प्रतिना मात्रार्थे"" इत्यनेन सूत्रेण सूपस्य लेशः इति लौकिकविग्रहे समासे सूपप्रति इति रूपं निष्पद्यते।" सिद्धान्त में तो ब्रह्म ही वस्तु होता है तथा अज्ञानादि सकलजगत्‌ समूह अवस्तु होता है।,सिद्धान्ते च ब्रह्म वस्तु अज्ञानादिसकलजडसमूह अवस्तु च भवति। "जैसे -पन्द्रह, तिरेपन, एक सौ पच्चीस।","यथा - पञ्चदश , त्रिपञ्चाशत्‌ , पञ्चविंशत्युत्तरम्‌ एकशतम्‌ इति ।" बहुत से ब्राह्मणों में सोमयाग की विवृति देखी जाती है।,बहुषु ब्राह्मणेषु सोमयागस्य विवृतिः दृश्यते। लेकिन निदिध्यासन तथा समाधि में भेद के अभाव से वहाँ पर अप्रासङ्गिक अपन्यास आशङ्कनीय है।,परन्तु निदिध्यासनसमाध्योः भेदाभावात्‌ न तत्र अप्रासङ्गिकः उपन्यास आशङ्कनीयः। और अदन्त अव्ययीभाव से पर सुप्‌ लोप नहीं होता है ।,अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ सुपः लुक्‌ न भवतीति। यहाँ घञन्त कर्ष-इसके अन्त का षकार से उत्तर अकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।,अत्र घञन्तस्य कर्ष-इत्यस्य अन्तस्य षकारोत्तस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः। गमध्यै - गम्‌ धातु से तुमुन स्थान में शध्यै प्रत्यय करने पर।,गमध्यै - गम्‌ धातोः तुमुनः स्थाने शध्यै प्रत्ययः। अतः वह पृथिवी स्थानी देवों में मुख्य मानी जाती है।,अत एव स पृथिवीस्थानदेवेषु अग्रतो गण्यते। जब अज्ञान के द्वारा अनावृत्त घटावच्छिन्न चेतन्य प्रकाशित होता है तब घटावच्छिन्न चैतन्य में विद्यमान घट भी प्रकाशित होता है।,यदा च अज्ञानेन अनावृतं घटावच्छिन्नं चैतन्यं प्रकाशितं भवति तदा घटावच्छिन्नचैतन्ये विद्यमानः घटः अपि प्रकाशितो भवति। प्रतिभा अनुभूति के ऊपर अद्वैत तत्त्व की प्रतिष्ठा इसी ही गम्भीर मन्त्र का गूढ़ रहस्य है।,प्रतिभानुभूतेः उपरि अद्वैततत्त्वस्य प्रतिष्ठा एवास्य गम्भीरमन्त्रस्य गूढरहस्यमस्ति। "पाँच ज्ञानेन्द्रियाएँ, पाँच कर्मेन्द्रियाएँ, पाँच प्राण, बुद्धि, मन, अहङकार तथा चित्त इस प्रकार से इसके उन्नीस मुख होते है।","ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं, कर्मेन्द्रियपञ्चकं, प्राणादिपञ्चकं, बुद्धिः, मनः, अहङ्कारः, चित्तम्‌ इत्येवं तस्य नवदशमुखानि सन्ति।" इस विषय पर इस पाठ में आलोचना की जायेगी।,इत्यस्मिन्‌ विषये अस्मिन्‌ पाठे आलोच्यते। अभि शब्द को द्वित्व किस सूत्र से हुआ है?,अभिशब्दस्य द्वित्वं केन सूत्रेण भवति ? "कोई भी पदार्थ ईश्वरसृष्टिनियमक्रम का उल्लङ्घन कर सकता है, जो धार्मिकका मित्र के समान आनन्द देने वाला दुष्टो का शेर के समान भयप्रदान करने वाले न्याय आदिगुण को धारण करने वाले परमात्मा है, वह ही सभी का अधिष्ठाता न्यायाधीश है ऐसा जानना चाहिए।",नहि कश्चिदपि पदार्थ ईश्वरसृष्टिनियमक्रममुल्लङ्कितुं शक्नोति यो धार्मिकाणां मित्रइवाह्णादप्रदो दुष्टानां सिंहइव भयप्रदो न्यायादिगुणधर्त्ता परमात्माऽस्ति स एव सर्वोषामधिष्ठाता न्यायाधीशोऽस्तीति वेदितव्यम्‌। निश्चय रूप से वह विशाल रूप में वृद्धि को प्राप्त हुई।,हि यस्मात्‌ स ज्येष्ठं बृहत्तमं वर्धते। "इसलिए यहाँ पर यह स्पष्ट होता है कि तद्बुद्धि (परोक्ष ब्रह्म ज्ञान, शब्द ज्ञान, जैसे गुड मीठा होता है यह स्वयं अनुभव नहीं किया , इस प्रकार से वह गुड के माधुर्य को परोक्ष रूप से जानता है।)","स्पष्टञ्चात्र यत्‌ यः तद्बुद्धिः (पारोक्ष्येण ब्रह्मज्ञानम्‌, शाब्दज्ञानम्‌, यथा गुडो मधुर इति यो नानुभूतवान्‌ परन्तु कुतश्चित्‌ श्रुतवान्‌ स गुडस्य माधुर्यं पारोक्ष्येण जानाति।)" "जैसे चन्द्रमा गहरे अन्धकार से आच्छादित रात्रि को आलोकित करता है, वैसे ही अलङकारों के द्वारा वैदिक वाङमय के कठिन विषय को समझाने के लिए होता है।","यथा चन्द्रः घनान्धकारेण आच्छन्नां रात्रिम्‌ आलोकितां करोति, तद्वत्‌ अलङ्कारैः वैदिकवाङ्गयस्य दुरवगम्याः विषयाः बोधगम्याः भवन्ति।" छठे प्रपाठक में पितृमेध सम्बन्धी मन्त्रों का उल्लेख है।,षष्ठे प्रपाठके पितृमेधसम्बन्धिनां मन्त्राणाम्‌ उल्लेखोऽस्ति। जहाँ पर तुम दोनों निवास करते हो यह अर्थ है।,यत्र वां युवयोः स्थितिस्तदित्यर्थः। ताण्ड्य ब्राह्मण में इसके अनेक भेद प्राप्त होते हैं।,ताण्ड्यब्राह्मणे अस्य अनेकभेदाः लभ्यन्ते। जो किसी का भी पक्ष स्वीकार नहीं करता है वह उदासीन होता है।,यः कस्यापि पक्षं न भजते स उदासीनो भवति। अत्यधिक परिश्रम से समस्त संहिता का अध्ययन करके उपयोगी इस ग्रन्थ को लिखा है।,अतीवपरिश्रमेण समस्तसंहिताया अध्ययनं कृत्वा उपादेयः अयं ग्रन्थः लिखितः अस्ति। इसका ही सप्तमी बहुवचनान्त रूप सूत्र में होता है।,अस्यैव सप्तमीबहुवचनान्तं रूपं सूत्रे वर्तते। "यहाँ अहोरात्रः, राजपुत्रः, अर्धर्चः इत्यादि क्रमानुसार उदाहरण हैं।","अत्र अहोरात्रः, राजपुत्रः, अर्धर्चः इत्यादीनि क्रमश उदाहरणानि।" 3. जिसके द्वारा स्तुति की जाती है वह ऋचा कहलाती हैं ऋचाओं का समूह ऋग्वेद कहलाता है।,३. ऋच्यते स्तूयते यया सा ऋक्‌। ऋचां समूहः एव ऋग्वेदः। 47. प्रकरण प्रतिपाद्य की जहाँ जहाँ पर प्रशंसा होती है वह अर्थवाद उपपत्ति होता है।,४७. प्रकरण प्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रूयमाणा युक्तिः उपपत्तिः। शरीर का नाश सम्भव होने से अविनाशी आत्मा नहीं होता है ऐसा कहकर अन्नमय का आत्मत्व में निरास किया गया है।,शरीरस्य नाशसम्भवात्‌ अविनाशी नात्मा भवतीत्युक्त्वा अन्नमयस्य आत्मत्वनिरासः कृतः। "हे सहस्त्र नेत्र वाले रूद्र, तुम्हारे पास सैकड़ो तरकस है, तुम अपने धनुष को प्रत्यंचा रहित कर बाणों के फल को भी निकाल दो इस प्रकार हमारे लिए कल्याणकारी और श्रेष्ठ मन वाले हो जाओ।","हे सहस्रलोचन, हे बहुबाणहस्तः रुद्र, त्वं धनुषं न आरोप्य किञ्च बाणानां सर्वेषां तीक्ष्णाग्रभागं शीर्णं कृत्वा अस्माकं प्रति शान्तः तथा शोभनमनस्को भव।" इसलिए इन सभी के साक्षित्व होने के कारण आत्मा देहादि से विलक्षण होती है।,एवञ्च आत्मा देहादिवलक्षणः तत्साक्षित्वात्‌। क्ते क्त प्रत्यय करने पर यह अर्थ है।,क्ते क्तप्रत्यये इत्यर्थः। यहाँ पर यह कहतें हैं कि सुषुप्ति में तो अज्ञानवृत्तियों का तात्कालिक अभाव होता है।,अत्रोच्यते सुषुप्तौ तु अज्ञानवृत्तीनां तात्कालिकः अभावः भवति। 24 .2 ) निदिध्यासन स्वरूप निदिध्यासन के स्वरूप मे वेदान्तसार में कहा है।,२४.२) निदिध्यासनस्वरूपम्‌ निदिध्यासनस्वरूपविषये उच्यते वेदान्तसारे -। "जैसे घटज्ञान के बाद पटज्ञान, तथा पट के ज्ञान के बाद में दण्ड का ज्ञान इस प्रकार से विविध ज्ञानों की उत्पत्ति से जाग्रतावस्था में चित्त की वृत्तियाँ हर क्षण अलग अलग होती रहती हैं।","तथाहि घटज्ञानादनन्तरं पटज्ञानं, पटज्ञानादनन्तरं दण्डज्ञानमेवं विविधज्ञानानाम्‌ उत्पत्तेः जाग्रदवस्थायां चित्तवृत्तयोऽपि क्षणानन्तरमेव भिद्यन्ते।" उनके द्वारा उत्पन्न की गई विद्युत।,तैः अश्वैः उत्पादितः विद्युत्। तमोगुण प्रमाद आलस्य निद्रामोहादि का जनक होता है।,तमोगुणस्तु प्रमादालस्यनिद्रामोहादीनां जनकः। "यह स्पष्ट ही है, की ये मन्त्र अतिशयोक्ति मूलक है।",इदं स्पष्टम्‌ एव अस्ति यद्‌ एते मन्त्राः अतिशयोक्तिमूलकाः सन्ति। 11.7 ) ब्रह्मज्ञान का अज्ञाननाशकत्व अब कहते हैं कि अद्वैतवेदान्त में ब्रह्म निर्विशेष तथा निराकार होता है।,11.7) ब्रह्मज्ञानस्य अज्ञाननाशकत्वम्‌- ननु अद्वैतवेदान्ते ब्रह्म निर्विशेषं निराकारञ्च भवति। "इस पाठ में वेद के अनेक स्थलो में प्रयुक्त रस, अलङ्कार आदि का विशाल वर्णन किया गया है।",अस्मिन्‌ पाठे वेदस्य विविधेषु स्थलेषु प्रयुक्तानां रसालङ्कारादीनां विशदं वर्णनं कृतम्‌। पहला गद्यात्मक है और दूसण पद्यात्मक है।,प्रथमो गद्यात्मकः द्वितीयः पद्यात्मकः चेति। "हे देव, तुम अपने तेजअपने सामर्थ्य के द्वारा पृथिवी और द्यौ को धारण किया हुआ है।","हे देवौ, महोभिः तेजोभिः स्वसामर्थ्यैः पृथिवीम्‌ उत अपि च द्याम्‌ अधारयतम्‌।" ईशानः का अर्थ क्या है?,ईशानः इत्यस्य कः अर्थः। गमत्‌ - गम्‌-धातु से लेट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में गमत्‌ यह रूप बनता है।,गमत्‌- गम्‌-धातोः लेटि प्रथमपुरुषैकवचने गमत्‌ इति रूपम्‌। ऐसा सुस्पष्ट कर पाने में।,इति सुस्पष्टं ज्ञातुं प्रभवेत्‌। अक्रत - कृ-धातु से लुङ आत्मनेपदप्रथमपुरुषबहुवचन में (वैदिक )।,अक्रत - कृ - धातोः लुङि आत्मनेपदे प्रथमपुरुषबहुवचने ( वैदिकम्‌ ) । "अपनी स्त्री की दशा को देखकर जुआरी का हृदय फटा करता है, अन्यो की स्त्रियों का सौभाग्य को देखकर के उनकी प्रसन्नता को देखकर उस जुआरी को सन्ताप होता है।",अन्येषां स्वव्यतिरिक्तानां पुरुषाणां जायां जायाभूतां स्त्रियं नारीं सुखेन वर्तमानां सुकृतं सुष्टुकृतं योनिं गृहं दृष्ट्वा मज्जाया दुःखिता गृहं चासंस्कृतमिति ज्ञात्वा तताप तप्यते । अजायन्त - जन्‌-धातु से लड लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,अजायन्त- जन्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। धृतदक्षा इसका विग्रह क्या है और समास क्या है?,धृतदक्षा इत्यस्य कः विग्रहः कश्च समासः । पुरुष के शिर से कौन उत्पन्न हुआ?,पुरुषस्य शिरसः किम्‌ अजायत। आक्मूत्या - आकृति इस प्रातिपदिक का यह तृतीयान्त का रूप है।,आकूत्या - आकूति इति प्रातिपदिकस्य तृतीयान्तं रूपम्‌ इदम्‌। रुद्रसृक्त का सार लिखिए।,रुद्रसूक्तस्य सारं लिखत। "पौरोडाश, यजमान, वाजपेय, राजसूय, आदि अनेक यागों के अनुष्ठान का विस्तार से यहाँ पर वर्णन प्राप्त होता है।",पौरोडाश-याजमान-वाजपेय-राजसूयप्रभृतिनानायागानुष्ठानानां विशदं वर्णनम्‌ अत्राप्यस्ति। "सूत्र में ""प्रत्ययः"",""ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"" ""समासान्ताः"" ये अधिकृत सूत्र है।","सूत्रे ""प्रत्ययः"", ""ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"" ""समासान्ताः"" इत्येतानि अधिकृतानि।" यहां पर तत्‌ इस शब्दार्थ सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य का भेद व्यावृत्त होता है।,अत्र तत्‌ इति शब्दार्थस्य सर्वज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यस्य भेदः व्यावृत्तः। वेदांत मत में कितने प्रमाण हैं और वह कौन-कौन से हैं?,वेदान्तमते कति प्रामाणानि। कानि च तानि। अव्ययी भाव समास-जिस समास में प्राय: पूर्व पदार्थ प्रधान होता है अव्ययी भाव समास कहा जाता है।,अव्ययीभावः - प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानः अव्ययीभावः। "केवल समास, अव्ययीभावसमास, तत्पुरुष समास, द्वन्द्व समास, बहुब्रीहि समास।","केवलसमासः, अव्ययीभावः, तत्पुरुषः द्वन्द्वो बहुव्रीहिश्चेति।" अक्षर क्रम से ग्रन्थ का सङ्कलन है।,अक्षरक्रमेण ग्रन्थस्य सङ्कलनम्‌ अस्ति। अद्वैदवेदान्तदर्शन में जीवनमुक्ति तथा विदेहमुक्ति का विस्तार से आलोचन उपलब्ध होता है।,अद्वैतवेदान्तदर्शने जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योः विस्तरश आलोचनम्‌ उपलभ्यते। उससे नखनिर्भिन्नः रूप सिद्ध होती है।,तेन नखनिर्भिन्नः इति रूपम्‌। """सुप्प्रतिना मात्रार्थे"" इस सूत्र का रूप्‌ प्रति ""संख्या वंश्येन"" इस सूत्र का उदाहरण है-एकविंशतिभारद्धाजम्‌।","""सुप्प्रतिना मात्रार्थे"" इति सूत्रस्य सूपप्रति इति, ""संख्या वंश्येन"" इति सूत्रस्य उदाहरणं अस्ति एकविंशतिभारद्वाजम्‌।" "आरण्यक का प्रतिपाद्य विषय प्राणविद्या, उपनिषद्‌ का प्रतिपाद्य विषय निर्गुण ब्रह्म कौ प्राप्ति है यह ही उन दोनों के प्रतिपाद्य विषय में भेद है।","आरण्यकस्य प्रतिपाद्यविषयः प्राणविद्या, उपनिषदः प्रतिपाद्यविषयः निर्गुणब्रह्मणः प्राप्तिः इति तयोः प्रतिपाद्यविषये भेदः।" "और हमारे शत्रु ही तुम्हारे क्रोध के भाजन बने, आप हमारे शत्रु में ही निवास करो।",किञ्च वः युष्माकं मन्युः क्रोधः अरातिः अस्माकं शत्रुः नि विशताम्‌ अस्मच्छत्रुषु तिष्ठतु । सुख की प्राप्ति आत्मा में ही होती है।,सुखस्य प्राप्तिः आत्मनि एव वर्तते। सम्बुद्धि प्रथमा के द्विवचनका आकार है।,सम्बद्धौ प्रथमायाः द्विवचनस्य आकारः । 2 यम किसे कहते हैं?,२. को नाम यमः? उससे पचत्‌ ई होता है।,तेन पचत्‌ ई इति जायते। प्रारम्भ में देवीसूक्त का वर्णन है।,प्रारम्भे देवीसूक्तमस्ति। वस्तुत: ईश्वर के अनन्त रूप हैं।,वस्तुतस्तु ईश्वरस्य अनन्तानि रूपाणि। "यहाँ पर पीताम्बरः, द्वित्राः, दक्षिणपूर्वा, हस्ताहस्ति, केशाकेशि, इत्यादि क्रमानुसार उदाहरण हैं।","अत्र पीताम्बरः, द्वित्राः, दक्षिणपूर्वा, हस्ताहस्ति, केशाकेशि इत्यादीनि क्रमशः सूत्राणामुदाहरणानि।" कुछ मन्त्रों में अचेतन पदार्थो का सम्बोधन चेतन के समान देखा जाता है।,कतिपयेषु मन्त्रेषु अचेतनपदार्थानां सम्बोधनं चेतनवद्‌ दृश्यते। "यद्यपि परवर्तन काल में यज्ञ शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग दिखाया जाता है, फिर भी यज्ञ ऐसा कहने पर अग्निहोत्र रूप अर्थ शीघ्र जाना जाता है।",यद्यपि परवर्तिनि काले यज्ञशब्दो व्यापकार्थपरः प्रयुञ्जानो दृश्यते तथापि यज्ञ इत्युच्यमाने सति अग्निहोत्ररूपार्थः झटिति गम्यते। "जुआरी के माता, पिता एवं भाई कर्ज मागने वालों से कहते है - हम इसे नहीं जानते हैं, आप इसे बांधकर ले जाओ।",पित्रादयः अस्मिन्‌ विषये ऋणदातारं कथयति यत्‌ वयम्‌ एनं न जानीमः यूयम्‌ एनं रज्ज्वा बद्ध्वा नयत । नहीं तो वह क्षत्रियपद वाच्य नहीं होता है।,अन्यथा स क्षत्रियपदवाच्यो न भवति। समांशवाची नित्यनपुंसकलिङऱगे विद्यमान का ही यहाँ अर्घशब्द का ग्रहण है।,समांशवाचिनः नित्यनपुंसकलिङ्गे विद्यमानस्यैव अर्धशब्दस्यात्र ग्रहणम्‌। उनके द्वारा यहाँ यह सूत्र का अर्थ होता है - तद्धित चित्प्रत्ययान्त के प्रकृति प्रत्यय समुदाय के अन्तिम स्वर को उदात्त हो।,तेन अत्रायं सूत्रार्थः भवति - तद्भधितचित्प्रत्ययान्तस्य प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य अन्तिमस्वरस्य उदात्तत्वं स्यात्‌ इति। आठवें अध्याय में स्थित ' आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र का एक उदाहरण लिखो।,अष्टमाध्यायस्थस्य 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं लिखत। उसका सम्बोधन में यह रूप दोषावस्त: है।,तस्य सम्बोधने रूपम्‌ दोषावस्तः। इसके बाद वर्णसम्मेलन करके कारीषगन्ध्य रूप बना।,ततः वर्णसम्मेलनं कृत्वा कारीषगन्ध्य इति रूपं जायते। स्वः: यहाँ 'न्यङस्वरौ स्वरितो' इससे स्वरित है।,स्वः इत्यत्र 'न्यङ्स्वरौ स्वरितौ' इत्यनेन स्वरितः अस्ति। 19. बाह्य शौच किसे कहते हैं?,१९. किं नाम बाह्यं शौचम्‌? यह शिक्षा परिमाण में बड़ी है।,शिक्षा इयं परिमाणे गरिष्ठा। श्रद्धावान मनुष्य धन को प्राप्त करते है।,धनम्‌। श्रद्धावान्‌। और देने की इच्छा वाले का कल्याण करो।,दिदासतः दातुमिच्छतश्च हे श्रद्धे प्रियं कुरु। ऋग्वेद में अनेक स्थान पर इन्द्रमित्रवरुण आदिदेवो के समान ही विष्णु को अभिहित किया गया है।,ऋग्वेदे बहुत्र इन्द्रमित्रवरुणादिदेवानां समष्टिरेव विष्णुत्वे अभिहितः । विश्वतः - विश्व शब्द का तसिल्‌ प्रत्यय करने पर विश्वतः यह रूप बनता है।,विश्वतः- विश्वशब्दस्य तसिल्प्रत्यये विश्वतः इति रूपम्‌। ब्रह्म में अखिल प्रपञ्च के आरोप से ब्रह्म अधिष्ठान तथा प्रपञ्च आरोप्य होता है।,ब्रह्मणि अखिलस्य प्रपञ्चस्य आरोपात्‌ ब्रह्म अधिष्ठानम्‌ प्रपञ्चश्च आरोप्यः। शुक्लयजुर्वेदसंहिता का सोलहवाँ अध्याय रुद्र अध्याय नाम से प्रसिद्ध है।,शुक्लयजुर्वेदसंहितायाः षोडशाध्यायो रुद्राध्यायीनाम्ना प्रसिद्धः। रूपकों की भी बहुलता ऋग्वेद के मन्त्रों में उपलब्ध है।,रूपकाणाम्‌ अपि बाहुल्यम्‌ ऋग्वेदस्य मन्त्रेषु उपलब्धम्‌ अस्ति। नदी च अजादिश्च यहाँ कर्मधारय समास है।,नदी च अजादिश्च इति कर्मधारयसमासः। नु इस अर्थ में किन दो पद का प्रयोग किया गया है?,नु इत्यस्मिन्‌ अर्थे किं पदद्वयं प्रयुक्तम्‌? योगसूत्र में कहा भी गया है- तज्जयात्‌ प्रज्ञालोकः इति।,उक्तं च योगसूत्रे - तज्जयात्‌ प्रज्ञालोकः इति। 38. व्यधिकरणतत्पुरुष के कितने भेद हैं?,३८.व्यधिकरणतत्पुरुषस्य कति भेदाः? वहाँ दोनों अभि शब्दों में पर अभि शब्द के स्थान में “अनुदात्तं च' इस सूत्र से अनुदात्त स्वर की प्राप्ति है।,ततः द्वयोः अभिशब्दयोः परस्य अभिशब्दस्य 'अनुदात्तं च' इति सूत्रेण अनुदात्तस्वरः विधीयते। यहाँ प्रकरण से हवि दान करने का यह अर्थ होता है।,प्रकरणाद्‌ अत्र हर्विदानकर्त्रे इति अर्थः भवति। वेदान्त के मत में जो मोक्ष का प्रयोजन है।,वेदान्तस्य यत्‌ मोक्षाख्यं प्रयोजनम्‌ अस्ति। "कितव की स्त्री यद्यपि अक्षक्रीडा से पूर्व झगडा नही किया, कितव के मित्रो के लिये अनुकूल ही थी।","कितवस्य स्त्री यद्यपि अक्षक्रीडनात्‌ पूर्व कलहं न कृतवती , कितवमित्राणां कृते अनुकूला एव आसीत्‌ ।" इस दिन दक्षिणस्थ दिशा में हविर्विधन वेदी में सोम ले जाया जाता है।,अस्मिन्‌ दिवसे दक्षिणस्थदिशि हविर्विधानवेद्यां सोमः नीयते। मत्स्य पुराण का कथन है - पुरोहित अथर्व मन्त्र में और ब्राह्मण में निपुण होना चाहिए।,मत्स्यपुराणस्य कथनम्‌ अस्ति- पुरोहितः अथर्वमन्त्रे ब्राह्मणे च पारङ्गतः स्यात्‌ इति। जहाँ एक सौ चौरासी पदार्थों के आलम्भन का (बलिदान का) निर्देश किया है।,यत्र चतुरशीत्यधिकशतपदार्थानां आलम्भनस्य (बलिदानस्य) निर्देशः विहितः। अत एव ““ आकडारादेका संज्ञा” इस सूत्र के अधिकार में इस सूत्र का पाठ विहित नहीं होता है।,"अत एव ""आकडारादेका संज्ञा"" इति सूत्रस्याधिकारे अस्य सूत्रस्य पाठो न विहितः ।" सन्न शब्द का नीचे के इस अर्थ में प्रयोग है।,सन्नशब्दस्य नीचैः इति अर्थः। पर वे दोनों आत्मा के नहीं होते है।,तदुभयमपि आत्मनो नास्ति। 9 देश काल वस्तु के द्वारा क्या परिच्छिन्न नहीं होता है?,९. देशेन कालेन वस्तुना च किं न परिच्छिद्यते? पौर्वशालः रूप को सिद्ध कीजिये ।,पौर्वशालः इति रूपं साधयत । वहा गिरि इस पद में भी गि'यह वाणी है।,तत्र गिरि इति पदेऽपि गिर्‌ इति वाणी। 61. विजीतीयदेहादिप्रत्ययरहित अद्वितीयवस्तुसजीतीयप्रत्ययप्रवाह निदिध्यासन होता है।,६१. विजातीयदेहादिप्रत्ययरहित-अद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहः निदिध्यासनम्‌ इति। अतारीत्‌ - तृ-धातु से लुङ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,अतारीत्‌ - तृ-धातोः लुङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। ईकार के ऊपर में विद्यमान रेखा स्वरित का ज्ञान कराती है।,ईकारस्य उपरि विद्यमाना रेखा स्वरितस्य सूचिका। इस गणना का समाधान प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों ने किया है।,अस्याः गणनायाः समाधानं अर्वाचीनैः च विद्वद्भिः कृतम्‌। प्रत्येक दस का अन्तिम पद अनुवाक के अन्तिम में परिगणन किया है।,प्रत्येकं दशकस्य अन्तिमं पदम्‌ अनुवाकस्य अन्तिमे परिगणितं भवति। इसलिए मनोमय से अन्यतर आत्मा विज्ञानमय होती है ऐसा तैत्तिरीय श्रुति में कहा गया है।,तस्माद्वा एतस्माद्‌ मनोमयादन्योन्तर आत्मा विज्ञानमयः इति तैत्तिरीया श्रुतिरेव तत्र प्रमाणम्‌। वायु के समान।,वात इव। ( श्रद्धासूक्त में ) 10. श्रद्धासूक्त का सार लिखो।,(श्रद्धासूक्ते) १०. श्रद्धासूक्तस्य सारं लिखत। ( 2.2 ) “द्विगुश्च '' सूत्रार्थ - द्विगु भी तत्पुरुष संज्ञक होता है।,(२.२) द्विगुश्च सूत्रार्थः - द्विगुरपि तत्पुरुषसंज्ञकः भवति। जिस अवस्था में स्थिरता के साथ बहुत देर तक रुका जा सकता है वह आसन कहलाता है।,यस्याम्‌ अवस्थायां स्थिरतया बहुक्षणं यावद्‌ उपवेष्टुं शक्यते तद्धि आसनम्‌। अन्तिम प्रपाठक का क्या नाम है?,अन्तिमप्रपाठकस्य नाम किम्‌? 11. गुणवचनपद से किसका ग्रहण किया गया है?,११. गुणवचनपदेन कस्य ग्रहणम्‌? निषिद्ध कर्मों के आचरण से पाप उत्पन्न होता है।,निषिद्धकर्माचरणेन पापं जायते। “पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे'' सूत्र की व्याख्या की गई है?,"""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इति सूत्रं व्याख्यात।" यह उसके विकार है।,अयोविकारा इत्यर्थः। प्रथमे सप्तमी एकवचान्त पद है।,प्रथमे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। पाणिनि ने अष्टाध्यायी सूत्र में अनुब्राह्मण शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है - अनुब्राह्मणादिनिः (पा. सू. ४/२/६२)।,पाणिनेः अष्टाध्यायीसूत्रे अनुब्राह्मणशब्दस्य प्रयोगः प्राप्यते - अनुब्राह्मणादिनिः (पा. सू. ४/२/६२) इति। "आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कर आचार्य आदि अनेक प्रतिभाशाली विद्वान, विश्व को जानने वाले ज्योतिष आचार्यो ने अद्भुत सिद्धान्तो को लिखकर इस शास्त्र को नये रूप से विभूषित किया है।",आर्यभट्ट-वराहमिहिर-ब्रह्मगुप्त-भास्कराचार्यप्रभृतयः अगाधवैदुष्यवन्तः प्रतिभाशालिनः विश्वविदिताः ज्यौतिर्विदः अद्भुतान्‌ सिद्धान्तान्‌ अवतार्य शास्त्रमिदम्‌ अभिनवेन रूपेण विभूषितवन्तः। उनमें से कोई भी एक परिपक्व होकर के प्रारब्धत्व के रूप में परिणित होता है।,तेषु किमप्येकम्‌ परिपक्वं चेत्‌ प्रारब्धत्वेन परिणमते। इसलिए मुण्डकोपनिषद्‌ में कहा है- “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।,तस्य एव प्रकाशेन चन्द्रसूर्यादयः अपि प्रकाशमानाः भवन्ति। अतः एव मुण्डकोपनिषदि निगद्यते “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । इसलिए निर्विकारी आत्मा का मनोमय कोश कभी भी नहीं होता है ऐसा कहकर के मनोमय कोश से भी आत्मा का निरास किया गया है।,अतः निर्विकारी आत्मा मनोमयकोशः कदापि न भवतित्युक्त्वा मनोमयस्य आत्मत्वनिरासः कृतः। आमन्त्रित का आदि उदात्त होता हे।,आमन्त्रितस्य आदिः उदात्तः भवति। 8. उत्पूर्वकात्‌ इधातु से लङ्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में।,8. उत्पूर्वकात्‌ इधातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। इस प्रकार से विशिष्टपुण्य कर्म के द्वारा पुरुष ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।,एवम्‌ विशिष्टपुण्यकर्मणा पुरुषो ब्रह्मलोकं प्राप्नोति। "अग्नि यज्ञ की हवि ग्रहण करते हैं, मरुत वंशीं बजते हैं, रुद्र भीषण गर्जन करते हैं, विष्णु विशाल नेत्रों से समग्र जगत्‌ का निरीक्षण करते हैं, ऐसी कथाएं वेदों में मिलती हैं।","अग्निः यज्ञस्य हवींषि भुङ्क्ते, मरुतः वंशीं नादयन्ति, रुद्रः भीषणं गर्जति, विष्णुः विशालाभ्यां नेत्राभ्यां समग्रं जगत्‌ निरीक्षते इत्येवं कथाः वेदे दृश्यन्ते।" जिस में तत्व का अच्छी तरह से ज्ञान होता है।,सम्प्रज्ञायते अस्मिन्‌ ज्ञेयतत्त्वम्‌ । फिर शरद्‌ हवि थी।,तथा शरङद्धविरासीत्‌। यह एक प्रकार से अपक्व भक्ति होती है।,इयं हि अपक्वा भक्तिः। प्रजाओ के समीप से तुमने स्तुतिया प्राप्त की है।,प्रजाभ्यः सकाशात्‌ मनीषाम्‌ अविदः प्राप्तवानसि । "शौनक के दो शिष्य है, बभ्र और सैन्धवायन।","शौनकस्य द्वै शिष्यौ स्तः, बभ्रः सैन्धवायनश्चेति।" 5. प्र वाता वान्ति ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,५. प्र वाता वान्ति......इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "“पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराण नवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इस पूर्व सूत्र से समानाधिकरणेन पद की अनुवृत्ति होती है।","""पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इत्यस्मात्‌ पूर्वस्मात्‌ सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इत्यनुवर्तते।" इस वर्णन में शूद्र वर्णों का यज्ञ अधिकार से निकलने का भी सुंदर वर्णन प्राप्त होता है।,अस्मिन्‌ वर्णने शूद्रवर्णनां यज्ञाधिकारात्‌ निष्क्रमणस्य अपि सुष्ठु उपपत्तिः प्रयुक्ताऽस्ति। अन्तश्च तवै युगपद्‌ यहाँ पर युगपद्‌ ग्रहण किस लिए किया है?,अन्तश्च तवै युगपद्‌ इत्यत्र युगपद्ग्रहणं किमर्थम्‌? ब्रह्म के प्रकाश के लिए अज्ञाननाश मात्र अपेक्षित होता है।,ब्रह्मणः प्रकाशार्थं तु अज्ञाननाशमात्रम्‌ अपेक्षते । इस्री प्रकार से वैदिक मन्त्रों के व्याख्यान का भाग होने से इसका ब्राह्मण नामकरण हुआ।,अनेन प्रकारेण वैदिकमन्त्राणां व्याख्यानस्य उपस्थापकत्वात्‌ ब्राह्मणस्येदं नामकरणमभवत्‌। सर्वात्मा प्रजापति हृदय में स्थित होते हुए भी गर्भ में विचरण करता है।,य सर्वात्मा प्रजापतिः अन्तः हृदि स्थितः सन्‌ गर्भे चरति गर्भमध्ये प्रविशति। ऋक्परिशिष्ट के मन्त्र पुराणों में वैदिक मन्त्र दृष्टि के रूप में उद्धृत है।,ऋक्परिशिष्टस्य मन्त्राः पुराणेषु वैदिकमन्त्रदृष्ट्या समुद्धृताः सन्ति। इसप्रकार की आत्मा के बोध के लिए पाँच कोश कल्पित किये गये है।,एतादृशस्य आत्मनः बोधाय पञ्चकोशाः कल्पिताः। "47. ""अप्पूरणीप्रमाण्योः"" ""अन्तर्बहिर्भ्यां च लोम्नः"" ये दो सूत्र अप्‌ प्रत्यय विधायक हैं।","४७. ""अप्पूरणीप्रमाण्योः"" ""अन्तर्बहिर्भ्यां च लोम्नः"" इति सूत्रद्वयम्‌ अप्प्रत्ययस्य विधायकम्‌।" स्वरे यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,स्वरे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। अनुदातों का यहाँ जाति में बहुवचन है।,अनुदात्तानाम्‌ इत्यत्र जातौ बहुवचनम्‌। कर्मेन्द्रियां आकाशादियों के अलग-अलग रजांशों से क्रम से उत्पन्न होती है।,कर्मेन्द्रियाणि आकाशादीनां पृथक्‌ पृथक्‌ रजोंऽशेभ्यः क्रमेण उत्पद्यन्ते। "Belvelkar and Ranade& History of Indian Philosophy- Vol. 2 p.p. इस ग्रन्थ में ८७-९० पृष्ठ तक उपनिषदों का रचनाकाल प्रदर्शित है, किन्तु वह इतना काल्पनिक और अप्रामाणिक है की विश्वास योग्य नहीं है।",Belvelkar and Ranade- History of Indian Philosophy. Vol P.P. अस्मिन्‌ ग्रन्थे ८७-९० पृष्ठे उपनिषदां रचनाकालः प्रदर्शितः किन्तु स एतावान् काल्पनिकः अप्रामाणिकः च वर्तते यत्‌ विश्वासयोग्यः न भवति। मृत्यु और मुक्ति का कारण वो ही है।,मृत्योः मुक्तेश्च उत्सः स एव। फिर सोचती है अगली बार आकर के पूर्व पर्व ही ले जाऊगी।,अपरं च कणं मुखेन आदाय गृहं गच्छन्ती सा चिन्तितवती- स्थितिकाल में द्वितीय पाद रखा।,स्थितिकाले द्वितीयः पादप्रक्षेपः। प्रातिपदिक को फिट प्राचीन आचार्यों के द्वारा कहा गया है।,प्रातिपदिकम्‌ फिट्‌ इत्युच्यते प्राचीनैः आचार्यैः। अव्ययीभाव संज्ञक शब्द नपुंसक होता है।,अव्ययीभावसमाससंज्ञकः शब्दः नपुंसकं भवति। इसलिए कर्मयोग का फल भी कहा गया है।,अतः कर्मयोगस्य फलमपि उक्तम्‌। "इस संहिता में स्थानक की संख्या चालीस है, अनुवचनों की संख्या तेरह है, अनुवाकों की संख्या ८४३ है, मन्त्रों की संख्या ३०९१ है, मन्त्र ब्राह्मणों की सम्पूर्ण संख्या १८००० तक है।","अस्यां संहितायां स्थानकस्य संख्या चत्वारिंशत्‌, अनुवचनानां संख्या त्रयोदश, अनुवाकानां संख्या त्रयश्चत्वारिंशदधिकाष्टशतम्‌, मन्त्राणां संख्या एकनवत्यधिकत्रिसहस्रम्‌।" इसके बाद पर के टे: सूत्र से दामन्‌ शब्द के टि के अन्‌ का लोप होने पर दाम आ स्थिति होती है।,ततः परं टेः इति सूत्रेण दामन्‌ इति शब्दस्य टेः अन्‌ इत्यस्य लोपे सति दाम्‌ आ इति स्थितिः जायते। 3. मृत्यु तथा विदेहमुक्ति में क्या भिन्नता है?,३.मृत्युविदेहमुक्त्योः पार्थक्यम्‌ किम्‌? "आकाश, वायु, तेज, जल तथा पृथिवी पाँच स्थूलभूत होते हैं।",आकाशः वायुः तेजः आपः पृथिवी च पञ्च स्थूलभूतानि। उत्तर पत्र में आत्म परिचयात्मक लेखन अथवा निर्दिष्ट स्थान को छोड़कर अन्य कहीं पर भी अनुक्रमांक लिखना मना है।,उत्तरपत्रे आत्मपरिचयात्मकं लेखनम्‌ अथवा निर्दिष्टस्थानं विहाय अन्यत्र क्वापि अनुक्रमाङ्कलेखनं सर्वथा वर्जितमस्ति। 6. प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः सूत्र की व्याख्या लिखो।,"६. ""प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः"" इति सूत्रस्य व्याख्या लेख्या।" अन्तरिक्ष के देव कौन है ?,अन्तरिक्षस्य देवाः के ? यतोऽनावः इस सूत्र में अनाव: यहाँ पर कौनसी विभक्ति है?,यतोऽनावः इति सूत्रे अनावः इत्यत्र का विभक्तिः? इसमें उपासना पर्यन्त विषय पूर्व दो पाठों मे प्रतिपादित किए गये है।,एतेषु उपासनां यावत्‌ विषयः पूर्वतनपाठद्वये प्रतिपादितः। अगच्छत्‌ - गम्‌-धातु से लङ्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।,अगच्छत्‌ - गम्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। 30. “' अव्ययीभावः'' इसका अधिकार कहाँ तक हैं?,"३०. ""अव्ययीभावः"" इत्यधिकारः कियत्पर्यन्तम्‌?" और इसी प्रकार कारीषगन्ध्य प्रातिपदिक ष्यङत है यह सुस्पष्ट ही है।,एवञ्च कारीषगन्ध्य इति प्रातिपदिकं ष्यङन्तमस्ति इति सुस्पष्टमेव। संकट समय में जिसकी ओर सभी रक्षा के लिए देखते है।,रक्षासमये यं सर्वे रक्षणाय पश्यन्ति। इस प्रकार उत्पन्न होने के पश्चात्‌ रस से विश्वकर्मा बने।,एवं संभृतः सन्‌ पश्चात्‌ रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तत। 11. मन इन्द्रिय नहीं होता है यहाँ पर सिद्धान्तियों का मत लिखिए।,11 मनः न इन्द्रियम्‌ इत्यत्र सिद्धानिनां मतं लिखत। 33. राग जनन के द्वारा बन्धन का क्या कारण है?,३३. रागजननद्वारा बन्धकारणं किम्‌ ? "अवस्था अर्थ में ज्येष्ठ, कनिष्ठ शब्दों के अन्त्य स्वर को उदात्त किस सूत्र से होता है?",वयसि अर्थे ज्येष्ठकनिष्ठयोः शब्दयोः अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वं केन सूत्रेण? (ग) इस जन्म में किए गए कर्म (घ) अगले जन्म में करिष्यमाण कर्म 9 स्वर्गादि लोकों को जाकर के फिर मनुषादेहादि प्राप्ति होती है।,(ग) अस्मिन्‌ जन्मनि कृतं कर्म (घ) अग्रिमजन्मसु करिष्यमाणं कर्म ९. स्वर्गलोकं गत्वापि पुनः मनुष्यादिदेहं लभते । इस प्रकार से बुद्धि का विषय निश्चय होता है।,एवं बुद्धेः विषयः निश्चयः। "यहाँ अन्तेवासी प्रधानता से कहा जाता है, आचार्य तो उसका विशेषण होने से उपसर्जन भाव से कहलाते है।",अत्र अन्तेवासिनः प्राधान्येन उच्यन्ते आचार्यस्तु तद्विशेषणत्वात्‌ उपसर्जनभावेन उच्यते। अतः उत्पल शब्द का पूर्वनिपात होना चाहिए यहाँ शङका (प्रश्‍न) उत्पन्न होता है।,अतः उत्पलशब्दस्य पूर्वनिपातो भवतु इति शङ्का भवति । उस प्रकार के ब्रह्म में मन की स्थिति सम्पादन करना ही निदिध्यासन होता है।,तादृशब्रह्मणि मनसः स्थेैर्यसम्पादनमेव निदिध्यासनम्‌। दिवि यह अतिङन्त पद है।,दिवि इति अतिङन्तं पदं वर्तते। "शांख्यायन आरण्यक के सातवें, आठवें अध्याय में व्याप्त कौन सा उपनिषद्‌ है?",शांख्यायनारण्यकस्य सप्तमाष्टमाध्यायौ अभिव्याप्य का उपनिषद्‌ तिष्ठति? फिर इस प्रकर से कह गया है की- छान्दोग्य उपानिषद्‌ में आकाश की उत्पत्ति के अश्रवण से आकाश की उत्पत्ति नहीं है।,पुनः - छान्दोग्ये आकाशस्य उत्पत्त्यश्रवणात्‌ न आकाशस्य उत्पत्तिः विद्यते इति। यज्ञ में विधीयमान हिंसा भी पाप को जन्म देती है।,यज्ञे विधीयमाना वैधी हिंसा अपि पापं जनयति । इससे स्वरित स्वर का विधान करते है।,अनेन स्वरितस्वरः विधीयते। यहाँ सम्पूर्ण रूप से अङट्टारह सूत्रों की व्याख्या की है।,अत्र साकल्येन अष्टादश सूत्राणि व्याख्यातानि। अभिनत्‌ - भिद्‌-धातु से लङ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,अभिनत्‌ - भिद्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। "संबोधन करता है, जिस वाक्य से वह सम्बुद्धि है।",सम्बोधयति येन वाक्येन तत्‌ सम्बुद्धिः। कर्म ज्ञान भक्ति तथा राजयोग का समन्वय भी उसका इष्ट होता है।,कर्म-ज्ञान-भक्ति-राजयोगानां समन्वयः तस्य इष्ट आसीत्‌। "जैसे - आगच्छ भो माणवक देवदत्त इस वाक्य को जब पास से ही बुलाने का विधान है, तब उदात्त अनुदात्त आदि स्वर वहाँ होते है।",यथा- आगच्छ भौं माणवक देववत्त इति वाक्येन समीपात्‌ एव यदा आह्वानं विधीयते तदा उदात्तानुदात्तादिस्वराः एव तत्र तिष्ठन्ति। "उदात्त नहीं है अनुदात्त है, उस अनुदात्त में यहाँ अविद्यमान उदात्त में यह अर्थ है।",न उदात्तः अनुदात्तः तस्मिन्‌ अनुदात्ते इति अविद्यमानोदात्ते इत्यर्थः। वेदों में अनेक रूपों में प्राकृतिक शक्ति के रूप में देवतारूप से उसकी परिकल्पना की गई और हमारे द्वारा जिसकी स्तुति की जाती है।,बहुधा वेदेषु विविधाः प्राकृतिकशक्तयः देवतारूपेण परिकल्प्य अस्माभिः स्तूयन्ते। उसका लाभ होने पर मोद होता है।,तल्लाभे मोदः। “सह सुपा'' इस सूत्र को “इवेन सह समासो विभक्त्यलोपश्च” यह वार्तिक इस समास का विधायक है।,"""सह सुपा"" इति सूत्रं ""इवेन सह समासो विभक्त्यलोपश्च"" इति वार्तिकम्‌ अस्य समासस्य विधायकम्‌।" वह स्वय अमर होती हुई मरणधर्म घरों में आश्रय को स्वीकार करती है।,स स्वयममरः सन्‌ मरणधर्माणां गृहेषु आश्रयं स्वीकरोति। अत्यरिच्यत - अतिपूर्वक रिच्‌-धातु से लड्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में।,अत्यरिच्यत-अतिपूर्वकात्‌ रिच्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। दूसरा लिङग है अभ्यास।,द्वितीयं लिङ्गं तावत्‌ अभ्यासः। अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्‌ इस सूत्र से यहाँ असर्वनामस्थानम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्‌ इति सूत्रात्‌ अत्र असर्वनामस्थानम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। “उभयप्राप्तौ कर्मणि'' इससे विहित षष्ठी तदन्त सुबन्त का सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।,"""उभयप्राप्तौ कर्मणि"" इत्यनेन विहिता या षष्ठी तदन्तस्य सुबन्तस्य सुबन्तेन समासो न भवति।" "इस विनियोग का विशिष्ट विवेचन की आवश्यकता नहीं है, जिससे यह बात तो मन्त्र पद से ही सिद्ध होती है (६/१/६-९)।","अस्य विनियोगस्य विशिष्टविवेचनस्य आवश्यकता नास्ति, यतः इयं वार्ता तु मन्त्रपदादेव सिध्यति (६/१/६- ९)।" "सूत्र का अर्थ - गति अर्थ वाले धातुओं को लोट्‌ लकार से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है, यदि कारक सारा अन्य न हो तो।","सूत्रार्थः - गत्यर्थानां लोटा युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति, यत्रैव कारके लोट्‌ तत्रैव लृट्‌ अपि चेत्‌।" इसलिए अधिकारी के लक्षण में वेदान्तसार में - “ अस्मिन्‌ जन्मनि जन्मान्तरे वा” इस प्रकार से कहा गया है।,तस्मात्‌ अधिकारिणो लक्षणे वेदान्तसारस्थे “अस्मिन्‌ जन्मनि जन्मान्तरे वा” इति उक्तम्‌। "जो परमेश्वर से वेदद्वारा दी हुई आज्ञा के अनुसार जाता है, वे मोक्षसुख को प्राप्त होते है।",ये परमेश्वरेण वेदद्वारा दत्ताम्‌ आज्ञाम्‌ अनुगच्छन्ति ते मोक्षसुखमश्नुवते। सायणाचार्य के मत में इस ग्रन्थ का अरण्य में पाठ होने से 'आरण्यक' यह नामकरण सार्थक ही हे।,सायणाचार्यस्य मते अस्य ग्रन्थस्य अरण्ये पाठ्यत्वात्‌ “आरण्यकम्‌” इति नामकरणं सार्थकम्‌ एव इति। उन्हीं को कठवल्ली आदि में पढ़ा जाता है।,तानि च कठवल्ल्यादिषु पठ्यन्ते। उदाहरण - आदह॑ स्वधाम तु पुन॑र्गर्भस्तु मॅरिरे ये इस सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- आदह॑ स्व॒धाम तु पु्न॑र्गर्भस्तु म॑रिरे इति सूत्रस्य अस्य उदाहरणम्‌। यहाँ अधिकरणवाची से तृतीयावचनान्त पद है।,अत्र अधिकरणवाचिना इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। "इस कारण से ही पाणिनीय सूत्रों में कही पर कम अक्षरों की प्रधानता होती है, और कही पर ज्ञान लाघव प्रधान होता है।",अस्मादेव कारणात्‌ पाणिनीयसूत्रेषु क्वचित्‌ अक्षरलाघवं प्रधानं भवति क्वचिच्च ज्ञानलाघवं प्रधानं भवति। अमृतत्व के लिए त्याग ही एक साधन होता है।,अमृतत्वाय त्याग एव एकं साधनम्‌ । और उससे यह सूत्र का अर्थ यहाँ प्राप्त होता है - वाच्‌ आदि शब्दों के दोनों वर्ण उदात्त होते हैं।,ततश्च अयं सूत्रार्थः अत्र प्राप्यते- वाचादीनां शब्दानाम्‌ उभौ वर्णौ उदात्तौ भवतः इति। प्रारम्भ से चौथे अध्याय के सात सूत्र तक वैदिक छन्दों का लक्षण दिया है।,प्रारम्भात्‌ चतुर्थाध्यायस्य सप्तमसूत्रपर्यन्तं वैदिकच्छन्दसां लक्षणं प्रदत्तम्‌ अस्ति। इस सूत्र से समासान्त टच्‌ प्रत्यय होता है।,अनेन सूत्रेण समासान्तः टच्प्रत्ययो विधीयते । जल को नीचे गिरा देती है।,न्यग्भावं प्राप्ताः हताः। "उन इन्द्रियों के द्वारा विषयों के साथ सन्निकर्ष प्राप्त करके जीव जब सुख तथा दुःख को प्राप्त करता है तब वह जीव की जाग्रत अवस्था होती है, इस प्रकार से कह सकते हैं।",तैरिन्द्रियैः विषयैः साकं सन्निकर्ष प्राप्य जीवः यदा सुखदुःखे अनुभवति तदा जीवः जागर्ति इति वक्तुं शक्यते। 5. यज्वसु इसका क्या अर्थ है?,5. यज्वसु इत्यस्य कोऽर्थः। उसी से वस्तुतः सम्पूर्ण स्थूलप्रपज्च की उत्पत्ति होती है।,ततः एव वस्तुतः कृत्स्नः स्थूलः प्रपञ्चः आविर्भवति। 1 वेदान्त का विषय क्या होता है?,1 वेदान्तस्य विषयः कः। यहाँ आठवें अध्याय के तीसरे और छठें अध्याय के सूत्रों की आलोचना की है।,अत्र अष्टाध्याय्याः तृतीयाध्यायस्य षष्ठाध्यायस्य च सूत्राणि आलोचितानि। अत्‌ यहाँ पर तकार का “हलन्त्यम्‌' इस सूत्र से इत संज्ञा हुई।,अत्‌ इत्यत्र तकारः 'हलन्त्यम्‌' इति सूत्रेण इत्संज्ञकः। संबंधाध्यास क्या है और उसका उदाहरण क्या है?,कः सम्बन्धाध्यासः। किञ्च तदुदाहरणम्‌। (छा.उ.4.9.3) इस श्रुति से यह समझा जाता है कि आचार्य के द्वारा ही विदित साधिष्ट साधुतमत्व प्राप्त होता है।,(छा.उ.४.९.३) इति श्रुतितः अवगम्यते यद्‌ आचार्याद्धैव विद्या विदिता साधिष्ठं साधुतमत्वं प्रापति प्राप्नोति। हिसा मात्र को ही हेय बताया है।,हिंसामात्रमेव हेयम्‌। खण्ड भेद को कहते हैं।,खण्डः नाम भेदः। इस प्रकार से अन्यभूतों में भी देखना चाहिए।,एवम्‌ अन्येषु भूतेष्वपि द्रष्टव्यम्‌। स्वपादिगण किस गण के अन्तर्गत गण है?,स्वपादिगणः कस्य गणस्य अन्तर्गतः गणः? उस ब्रह्मरूपी एक वस्तु के अलावा सब असत्य है।,ब्रह्म एव सत्यमेकं वस्तु तदतिरिक्तं सर्वमपि असत्यमेवेति। यहाँ वहाँ परामर्श से ही इसके अस्तित्व का बोध होता है।,यत्र तत्र समुद्धरणादेव अस्यास्तित्वबोधो भवति। अग्नि शब्द से नि प्रत्यय का विधान अङऱगेर्नलोपश्च इस सूत्र से होता है।,अग्निशब्दात्‌ निप्रत्ययस्य विधानम्‌ अङ्गर्नलोपश्च इति सूत्रेण भवति। यहाँ पर कहते हैं कि इन्द्रिय गोचर वस्तु ही सत्‌ तथा असद्‌ के कारण बुद्धि गोचर होती है।,अत्रोच्यते - इन्द्रियगोचरं वस्त्वेव सदसद्बुद्धिगोचरं भवति। कुछ सूत्रों के द्वारा तिङन्त में अनुदात्त स्वर का निषेध है।,कैश्चित्‌ सूत्रैः तिङन्ते अनुदात्तस्वरः निषिध्यते। धर्मजिज्ञासा के पूर्व भी ब्रह्मजिज्ञासा सम्भव होती है।,धर्मजिज्ञासायाः पूर्वमपि ब्रह्मजिज्ञासा सम्भवति। पणिनाम असुर ने गायों को छुपाकर के क्या किया?,पणिनामकः असुरः गाः गोपायित्वा किं कृतवान्‌। कर्मकाण्ड में यगादि कर्मों का विचार तथा ज्ञानकाण्ड में ब्रह्म का विचार किया गया है।,कर्मकाण्डे यागादिकर्मणां विचारः तथा ज्ञानकाण्डे ब्रह्मविचारश्च स्तः। और तो निष्कामकर्म के द्वारा मानवों को आत्मज्ञान भी होता है।,अपि तु निष्कामकर्मणा मानवानां आत्मज्ञानं भवति। उस समय इस यज्ञ में घृत वसन्त ऋतु ही थी अर्थात उसी का आज्यत्व के रूप में सङ्कल्प किया।,तदानीम्‌ अस्य यज्ञस्य वसन्तः वसन्तर्तुरेव आज्यम्‌ आसीत्‌ अभूत्‌। तमेवाज्यत्वेन सङ्कल्पितवन्तः इत्यर्थः। अधिकारी विषय सम्बन्ध तथा प्रयोजन इस प्रकार से चार प्रकार के अनुबन्ध होते हैं।,अधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि इति चत्वारोऽनुबन्धाः। वह कुशमूर्ति कुश पत्थर कही जाती है।,सा कुशमूर्तिः कुशप्रस्तरः इत्युच्यते। जगती-छन्द में चार पाद और ग्यारह अक्षर होते है।,जगती-छन्दसि चत्वारः पादाः एकादश अक्षराणि च भवन्ति। प्रकरण में प्रतिपाद्य वस्तु की प्रतिपाद्य स्थल मे प्रशंसा करना अर्थवाद कहलाता है।,प्रकरणे प्रतिपाद्यस्य वस्तुनः प्रतिपाद्यस्थले प्रशंसनम्‌ अर्थवादः। मैं अनेक प्राणियों में आविष्ट हूँ इस प्रकार मेरी विश्वरूप की अवस्था का वर्ण किया है।,भूरि भूरीणि बहूनि भूतजातान्यावेशयन्तीं जीवभावेनात्मानं प्रवेशयन्तीमीदृशीं । "उदात्त अनुदात्त आदि अच्‌ को ही सम्भव है, अतः अच्‌ ही प्राप्त होते हैं।",उदात्तानुदात्तादिकम्‌ अचः एव सम्भवति अतः अच्‌ इति लभ्यते। और शाक्त आदि शक्ति महामाया को संसार का सर्जन-परिपालन और विनाशकारी मानते है और सप्तशती में कहा गया है - सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।,शाक्ताश्च आद्याशक्तिं महामायां संसारस्य सर्जन-परिपालन-विनाशनकारणं मन्यन्ते। तथाहि शस्तं सप्तशत्यां- सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि। एतदनन्तर पत्नीसंयाज अनुष्ठित है।,एतदनन्तरं पत्नीसंयाजः अनुष्ठितः वर्तते। विभृथः - भृ-धातु से परस्मैपद लट्‌-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में विभृथः रूप बनता है।,विभृथः- भृ-धातोः परस्मैपदे लट्‌-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने विभृथः इति रूपम्‌। वह केवल आर्यों का ही नहीं अनार्यो का मनुष्यों का समस्त प्राणियों का उपास्य और पालक देवता है।,सः न केवलम्‌ आर्यानार्याणां मनुष्याणामपि तु समस्तप्राणीनाम्‌ उपास्यः पालकश्चेति। कडारात्‌ यह पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त पद है।,कडारात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। महिना - ये महिम्ना का वैदिक रूप है।,महिना- महिम्ना इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। जब क यौगिक होता है तब स्मै योग व्यत्यय को द्वारा द्रष्टव्य है।,यदा तु क इति यौगिकः तदा स्मैयोगः व्यत्ययेन इति द्रष्टव्यम्‌। इस सूत्र में चार पद हैं।,अस्मिन्‌ सूत्रे चत्वारि पदानि सन्ति। सादृश्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण है।,सादृश्यार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति। सुबन्त का विशेषण होने से तृतीया का तदन्त विधि में तृतीयान्तम्‌ पद प्राप्त होता है।,सुबन्तस्य विशेषणत्वात्‌ तृतीया इत्यस्य तदन्तविधौ तृतीयान्तमिति लभ्यते। "3 उपक्रम उपसंहार, अभ्यास,अपूर्वता;फल, अर्थवाद, उपपत्त इस प्रकार से यह छ लिङग होते हैं।",३. उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासः अपूर्वता फलम्‌ अर्थवादः उपपत्तिः चेति लिङ्गानि। अतः यहाँ तदन्तविधि होती है।,अतः अत्र तदन्तविधिः भवति। "सम्पूर्ण मन्त्र इस प्रकार से है- “सर्व ह्येतद्ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌"" इति।",सम्पूर्णः मन्त्रः तावत्‌ “सर्वं ह्येतद्ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌” इति। ७ उत्तीर्णता का परिमाप (condition)- तैतीस प्रतिशत (33%) आअंक उत्तीर्णता के लिए (मानदंड) है।,७ उत्तीर्णतायै पणः (condition) - प्रतिशतं त्रयस्त्रिशद्‌ (३३%) अङ्काः उत्तीर्णतायै पणः (मानदण्डः) वर्तते। उसका साधन क्या है इस विषय में अनेक पूर्व पक्ष है।,तस्य साधनं किमति विषये नैके पूर्वपक्षाः सन्ति। 1.6.1 “इवेन समासो विभक्त्थलोपश्च'' ( वार्तिकम्‌ ) वातिकार्य-इन इस शब्द के साथ सुबन्त की समास संज्ञा होती है।,"१.६.१ ""इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च"" (वार्तिकम्‌) वार्तिकार्थः - इवेति शब्देन सह सुबन्तं समाससंज्ञं भवति।" पतञ्जलि के मत में चित्त को स्थिर करने के लिए अन्य विषयों से चित्त को बार बार हटा कर के एक ही स्थान में स्थित ध्यान कहलाता है।,पातञ्जलमते तावत्‌ यत्र चित्तं स्थिरीकृतं तत्र चित्तवृत्तेः प्रत्ययान्तरेण अस्पृष्टः सदृशः प्रवाह एव ध्यानम्‌। उनमें जो कर्म परिपाक वश फल देने में शुरू होता है वह प्रारब्धकर्म कहलाता है।,तेषु यत्‌ कर्म परिपाकवशाद्‌ फलं दातुम्‌ प्रारभते तत्‌ प्रारब्धं कथ्यते। तथा परमात्मा में मन की तेलधारा के समान स्थिति ध्यान कहलाती है।,ध्यानं नाम परमात्मनि मनसः तैलधारावत्‌ अविच्छिन्नतया प्रवाहः अर्थात्‌ एकाग्रता। कात्यायनीशिक्षा- इस शिक्षा में केवल तेरह श्लोक हैं।,कात्यायनी शिक्षा- अस्यां शिक्षायां केवलं त्रयोदश श्लोकाः वर्तन्ते। गर्भमध्य में वह ही रहता है।,गर्भमध्ये स एव तिष्ठति। "स्वामिविवेकानन्द ने कहा है “वेदान्त के महान्‌ तत्वों को केवल वनों और गुफाओं में ही नहीं होना चाहिए अपितु विचार के समय भोजनालय में, गरीब घर में, धीवर के घर में छात्र के अध्ययन स्थल में सभी जगहों पर ये तत्व आलोचित भी होना चाहिए।","स्वामिविवेकानन्देन उच्यते- “वेदान्तस्य महन्ति तत्त्वानि केवलम्‌ अरण्येषु गिरिगुहासु आबद्धानि न तिष्ठेयुः, - विचारालये भजनालये दरिद्रकुटीरे धीवरगृहे छात्रस्य अध्ययनागारे सर्वत्र एतानि तत्त्वानि आलोचितानि भवेयुः, जीवने च प्रयुक्तानि भवेयुः।।" उपसर्जन अप्रधान को कहते है।,उपसर्जनं नाम अप्रधानम्‌। प्रजापति से जब पुरुष उत्पादित हुआ तब वो कितने प्रकार से कल्पित हुआ।,प्रजापतेः प्राणरूपा देवाः यत्‌ यदा पुरुषं उत्पादितवन्तः तदानीं कतिधा कतिभिः प्रकारैः व्यकल्पयन्‌ विविधं कल्पितवन्तः। आकाश की उत्पत्ति प्रधान वाक्य श्रुतियों में प्राप्त होते हैं।,अस्ति हि उत्पत्तिश्रुतिराकाशस्य। सविकल्पक समाधि ही ज्ञातृज्ञानादिविकल्पक समाधि में ज्ञातूज्ञानरूप त्रिपुटी होती है।,सविकल्पकसमाधौ ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ञेयरूपा त्रिपुटी तिष्ठति। "वेद के छः दर्शनो में प्रमाण का प्रतिपादन न्याय, साङ्ख्य, मीमांसा आदि दर्शनो के आचार्य शब्द को प्रमाण रूप से स्वीकार किया।",षड्दर्शनेषु वेदस्य प्रामाण्यप्रतिपादनम्‌ न्यायसाङ्ख्यमीमांसादिदर्शनानाम्‌ आचार्याः शब्दं प्रमाणतया स्वीकृतवन्तः। और सूत्र का अर्थ है-सप्तम्यन्त सुबन्त को शौण्डादि प्रकृतिक को सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,"एवं च सूत्रार्थः- ""सप्तम्यन्तं सुबन्तं शौण्डादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" गर्भ के अन्त गर्भ के मध्य में वह ही निश्चित रूप से रहता है।,गर्भे अन्तः गर्भमध्ये स उ स एव तिष्ठति। "उनको स्वयं ही यह यज्ञ करना होता था, पुरोहित के द्वारा इसे करने की विधि नहीं थी।","तैः स्वयम्‌ एव इदं करणीयम्‌ आसीत्‌, पुरोहितद्वारा तत्करणस्य विधिः नासीत्‌।" अतः यह समास द्वितीयातत्पुरुष समास कहा जाता है।,अतः अयं समासः द्वितीयातत्पुरुषः इत्यभिधीयते। उससे यहाँ उदात्त आदि स्वरों का भेद दिखाई देता है।,तेन अत्र उदात्तादिस्वराणां भेदः विलीयते। आओतम्‌ - आपूर्वक तन्तुसन्तानात्‌ वेञ्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर ओतम्‌ रूप बनता है।,आओतम्‌ - आपूर्वकात्‌ तन्तुसन्तानात्‌ वेञ्‌ - धातोः क्तप्रत्यये ओतम्‌ इति रूपम्‌। भक्ति ईश्वर के प्रेम को कहते है।,भक्तिः नाम ईश्वरप्रेम। पूर्व अम्‌ भूत सु यहाँ “सह सुपा” इस सूत्र से समास संज्ञा की गई है।,"पूर्व अम्‌ भूत सु इत्यत्र च ""सह सुपा"" इत्यनेन समाससंज्ञा कृता अस्ति।" हास्य मुख वाली किशोरी के समान अपने वक्ष प्रदेश को खोल देती है।,स्मितानना तरुणीव स्ववक्षःप्रदेशम्‌ अनावृतं करोषि। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है तावत्‌ आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपेन इत्यादि गवाम्‌ इस पद पर कर्त्ता और कर्म में षष्ठी प्राप्त होने पर “उभय प्राप्तौकर्मणि'' इससे कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।,"उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं तावत्‌ आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपेन इत्यादिकम्‌। गवाम्‌ इत्यत्र कर्तरि कर्मणि च षष्ठ्यां प्राप्तायाम्‌ ""उभयप्राप्तौ कर्मणि"" इत्यनेन कर्मणि एव षष्ठी।" प्रतिदिन कितनी बार सोमरस के निष्काशन का विधान है?,प्रत्यहं कतिवारं सोमरसनिष्कासनस्य विधानं वर्तते। यहाँ पर यह अनुसन्धान करना चाहिए की जो महामाया प्रभाव से ही मधुसूदन अपने नाम को सार्थक करती है।,अत्रेदमनुसन्धेयं यत्‌ महामायाप्रभावेणैव मधुसूदनः स्वनाम्नः सार्थक्यं प्राप। इष्णन्‌ अर्थात्‌ कर्मफल का इच्छुक।,इष्णन्‌ कर्मफलम्‌ इच्छन्‌ सन्‌ इषाणः इच्छुः। मनु ने भी इस मत का समर्थन किया - यज्ञे वधोऽवधः।,मनुः अपि मतम्‌ इदं समर्थितवान्‌ - यज्ञे वधोऽवधः। विषय को भोगने के उपरान्त पुनः उसे भोगने के लिए इच्छा बलवान हो जाती है।,विषयस्य भोगेन पुनर्भोगाय इच्छा बलवती भवति। 47. व्यृद्धि अर्थ में अव्ययीभावसमास का क्या उदाहरण हे?,४७. व्यृद्ध्यर्थे अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? इसलिए वे उदित होमी कहलाते हैं।,तस्मात्‌ ते उदितहोमिनः उच्यन्ते । जहाँ पर शक्यार्थ के अन्तर्भाव्य ही अर्थान्त प्रतीति होती है।,यत्र शक्यार्थम्‌ अन्तर्भाव्य एव अर्थान्तरप्रतीतिः। वहाँ पर स्थित होकर के ब्रह्मचर्य का पालन करके वेदाङगों के सहित वेदों का अध्ययन करके विधिवत्‌ तरीके से अध्ययन करना चाहिए।,तत्र स्थित्वा ब्रह्मचर्यं पालयित्वा वेदाङ्गैः सहितं वेदानाम्‌ अध्ययनम्‌ एव विधिवत्‌ अध्ययनम्‌। यहाँ नामधेयस्य इस पद से निगद में षष्ठ्यन्त से प्रयोग किये गये नामवाचक स्यान्त पदो का ग्रहण करते हैं।,अत्र नामधेयस्य इति पदेन निगदे षष्ठ्यन्ततया प्रयुज्यमानानि नामवाचकानि स्यान्तानि पदानि ग्राह्यन्ते। भारतवर्ष के पुनः जागरण के लिए हिन्दु धर्म के ऐक्यसाधन के लिए वेदान्त का साधन हमेशा अपेक्षित है।,"भारतवर्षस्य पुनर्जागरणाय, हिन्दुधर्मस्य ऐक्यसाधनाय च वेदान्तस्य संहतिसाधनं नितराम्‌ अपेक्षितम्‌ आसीत्‌।" उसे मारने में पाप नहीं लगता है।,तेषां हननं न पापाय कल्पते। स्त्रिय स्वभाव से ही इस प्रकार की होती हैं।,स्त्रियः स्वभावः एवायं भवति। उससे शार्ङ्गरव ई स्थिति होती है।,तेन शार्ङ्गरव ई इति स्थितिः भवति। वि इति एक निपात है।,वि इति एकः निपातः वर्तते। सूपगमः सुख को प्राप्त हो।,सूपगमः सुखोपसर्पो भव। इन छन्दःशास्त्र में पिङ्गल छन्दसूत्र नाम ग्रन्थ सबसे अधिक प्रसिद्ध है।,अस्य छन्दःशास्त्रस्य पिङ्गलच्छन्दःसूत्रनामा ग्रन्थः सर्वाधिकप्रसिद्धः अस्ति। यजुर्वेदीय रुद्राध्याय के अनुसार रुद्र एक बलवान्‌ सुसज्जित योद्धा है।,यजुर्वेदीयरुद्राध्यायस्य अनुसारं रुद्रः एकः बलवान्‌ सुसज्जितः योद्धा। दोषावस्तः इसका क्या अर्थ है?,दोषावस्तः इत्यस्य कः अर्थः। नित्यनैमित्तिककाम्य प्रतिषिद्ध कर्म होते हैं।,नित्यनैमित्तिककाम्यप्रतिषिद्धानि च कर्माणि। 16.1.2 अब मूलपाठ को जानेंगे। अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुंविबाधर्मृजीषम्‌।,१६.१.२ इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम। अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुंविबाधर्मृजीषम्‌। जब अवयवी एकत्वविशिष्ट तब अवयव के साथ पूर्वादि सुबन्तों को विकल्प से तत्पुरुष समास होता है।,यदा अवयवी एकत्वविशिष्टः तदा अवयविना सह पूर्वादीनां सुबन्तानां विकल्पेन तत्पुरुषसमासो भवति। तब वह सोचता है कि अविशिष्ट दसवां व्यक्ति कहाँ पर है तब उनमें से ही कोई व्यक्ति कहता है कि दसवां तुम हो।,तदा स चिन्तितवान्‌ यत्‌ अवशिष्टः एकः जनः कुत्र गतः इति। तदा तेषु एव कश्चन कथयति- भोः! दशमः त्वम्‌ असि। इस प्रकार से देवकामना को पूरा करने वाले हैं।,एवं देवाः अभीष्टदातारः। अतः यहाँ चकार से उत्तर ऐकार को उदात्त स्वर नहीं होता है।,अतः अत्र न चकारोत्तरस्य ऐकारस्य उदात्तस्वरः। इसके पांबों से भूमि उत्पन्न हुई।,अस्य पद्भ्यां पादाभ्यां भूमिः उत्पन्ना। गद्यात्मक मन्त्रों का क्या अभिधान है?,गद्यात्मकमन्त्राणां किमभिधानम्‌? इसी प्रकार गोनागः इत्यादि इसका उदाहरण है।,एवमेव गोनागः इत्यादिकमस्योदाहरणम्‌ । उपासको के द्वारा क्या दूर फॅकने के लिए रुद्र से प्रार्थना की?,उपासकैः दूरे किंनिक्षेपणाय प्रार्थ्यते रुद्रः? शास्त्रविषयबोध का जनक होता है।,शास्त्रं विषयबोधस्य जनकम्‌। कर्मयोग किसे कहते है?,कर्मयोगः नाम किम्‌? वेद युक्त याग विधानों के प्रकाशक ही श्रौतसूत्र है।,त्युक्तानां यागविधीनां प्रकाशकानि हि श्रौतसूत्राणि। "वस्तुत तो वह शक्तिरूप से अधिष्ठात्री प्राणियों का देखना, सुनना, प्राण आदि कार्य भी वह ही करती है।",वस्तुतस्तु तयैव शक्तिरूपया अधिष्ठिताः प्राणिनः दर्शनश्रवणाशनप्राणनादिकर्माणि कुर्वन्ति| 4. ब्रह्म के नौ तटस्थ लक्षण है।,ब्रह्मणः नव तटस्थलक्षणानि सन्ति। उपोत्तमंरिति (६.१.१९७ ) सूत्र का अर्थ- रेफ इत्‌ वाले शब्द के उपोत्तम को उदात्त होता है।,उपोत्तमंरिति (६.१.१९७) सूत्रार्थः- रित्प्रत्ययान्तस्योपोत्तममुदात्तं स्यात्‌। और फिर उस यज्ञ से बकरी और भेड़ हुए।,किञ्च तस्मात्‌ यज्ञात्‌ अजावयः च जाताः। गुण से निषेध होने पर काकस्य कार्ष्ण्यम्‌ यह उदाहरण है।,गुणेन निषेधे काकस्य कार्ष्ण्यम्‌ इत्याद्युदाहरणम्‌। इस प्रसङ्ग में ` आरोग्यं भास्करादिच्छेद्धनमिच्छेद्धुताशनादि' ति पौराणिक आख्या का भी अनुसन्धान करना चाहिए।,प्रसङ्गेऽस्मिन्‌ 'आरोग्यं भास्करादिच्छेद्धनमिच्छेद्धुताशनादि'ति पौराणिकी भणितिरपि अनुसन्धेया। पुष्‌-धातु से घञ्‌प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में।,पुष्‌ -धातोः घञ्प्रत्यये द्वितीयैकवचने। हरि उत्तर पद है।,हरि इति उत्तरपदम्‌। शाड-ख्यायन आरण्यक यह ऋग्वेद का दूसरा आरण्यक है।,शाङ्ख्यायनारण्यकम्‌ ऋग्वेदस्येदं द्वितीयमारण्यकर्मास्ति। जुष्टम्‌ - जुष्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में जुष्टम्‌ यह रूप बनता है।,जुष्टम्‌- जुष्‌-धातोः क्तप्रत्यये द्वितीयैकवचने जुष्टम्‌ इति रूपम्‌। 18.4.4 ) मनोमयकोशस का आत्मत्व निरास देहादियों में अभिमान का कारण जो होता है वह मन होता है।,१८.४.४) मनोमयकोशस्य आत्मत्वनिरासः देहादिषु अभिमानकारणं यत्‌ भवति तदेव मनः। यहाँ पर कहते हैं कि जीवित पुरुष के कर्तृत्व भोक्तृत्व सुखदुः: खादिलक्षण चित्तधर्म क्लेशरूपत्व से बन्ध होते हैं।,अत्रोच्यते यत्‌ जीवतः पुरुषस्य कर्तृत्व-भोक्तृत्व-सुखदुःखादिलक्षणः चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वात्‌ बन्धो भवति। "न्यूङ्ख सोलह प्रकार के ओकार, उनमे कुछ उदात्त और कुछ अनुदात्त है।","न्यूङ्खाः षोडश ओकाराः, तेषु केचन उदात्ताः केचन अनुदात्ताश्च।" "सात चक्र है मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत,विशुद्ध, आज्ञा तथा सहस्रार।","सप्त चक्राणि। तानि मूलाधारः, स्वाधिष्ठानम्‌, मणिपुरम्‌, अनाहतः, विशुद्धः, आज्ञा, सहस्रारः इति।" ऋतम्‌ - ऋ गतौ इस धातु से क्तप्रत्यय के योग से ऋतशब्द बनता है।,ऋतम्‌ - ऋ गतौ इति धातोः क्तप्रत्यययोगेन ऋतशब्दः निष्पद्यते। इषु इच्छायां धातु से विकरण प्रत्यय।,इषु इच्छायां विकरणव्यत्ययः। उस प्रकार का रथ दिन में अन्तरिक्ष में घुमता है।,तादृशो रथो दिवि अन्तरिक्षे विभ्राजते। सभी शरीरों में स्थित प्राण प्रज्ञारूपी आत्मा होती है।,सर्वेषु शरीरेषु स्थितः प्राणः प्रज्ञारूपः आत्मा। त्रैलोक्यविनाश प्रलय कहलाता है।,प्रलयो नाम त्रैलोक्यविनाशः। "उस पदस्य यह षष्ठ्यन्त पद है, पदात्‌ यह पञ्चम्यन्त पद है, अनुदात्तम्‌ यह प्रथमान्त पद है, सर्वम्‌ यह प्रथमान्त पद है, और अपादादौ यह सप्तम्यन्त पद के अधिकार से प्राप्त है।","तेन पदस्य इति षष्ठ्यन्तं पदम्‌, पदात्‌ इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌, अनुदात्तम्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌, सर्वम्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌, अपादादौ इति सप्तम्यन्तं पदं च अधिकारात्‌ लभ्यते।" फिर पंचभूतों से जो पहले उत्पन्न हुआ।,यः भूतपञ्चकात्‌ संभृतः। यह तीसरा कोश है।,तृतीयः भवति अयं कोशः। "साशनाशने - अश्‌-धातु से ल्युट्‌ प्रत्यय, अशनेन सहितं साशनम्‌, अशनेन रहितम्‌ अनशनम्‌, साशनम्‌ च अनशनम्‌ चेति साशनाशने यहां द्वन्द समास है।","साशनाशने- अश्‌-धातोः ल्युटि, अशनेन सहितं साशनम्‌, अशनेन रहितम्‌ अनशनम्‌, साशनम्‌ च अनशनम्‌ चेति साशनाशने इति द्वन्द्वसमासः ।" अमोघनन्दिनीशिक्षा में कितने श्लोक हैं?,अमोघानन्दिनीशिक्षायां कति श्लोकाः सन्ति। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि (महा. शान्ति. 204.8) पापकर्म के क्षय होने से अर्थात्‌ निषिद्धकर्मों के आचरण से उत्पन्न अधर्माख्य संस्कार का यदि क्षय होता है तब ही ज्ञान उत्पन्न होता है।,यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि (महा. शान्ति. २०४.८) पापकर्मणः क्षयात्‌ अर्थात्‌ निषिद्धकर्माचरणेन उत्पन्नस्य अधर्माख्यस्य संस्कारस्य यदि क्षयः भवेत्‌ तर्हि ज्ञानम्‌ उत्पद्येत। वेदों का दूसरा अङ्ग कल्प है।,वेदानां द्वितीयम्‌ अङ्गम्‌ अस्ति कल्पः। व्याख्या - वो प्रजापति में कष्टों से बचाता है।,व्याख्या- स प्रजापतिः नः अस्मान्‌ मा हिंसीत्‌ मा बाधताम्‌। ब्रह्मलोक से लेकर के इस पृथ्वी तक जितने भी लोक हैं वे सभी पुनरावर्ति वाले हैं अर्थात्‌ पुनरावर्ति स्वभाव वाले हैं।,आ ब्रह्मभुवनात्‌ सह ब्रह्मभुवनेन लोकाः सर्वे पुनरावर्तिनः पुनरावर्तनस्वभावा । उसकी उत्पत्ति के विषय में विविध पौराणिक तथ्य प्राप्त होता है।,तस्योत्पत्तिविषये विविधं पौराणिकं तथ्यं प्राप्यते। "49. समासान्त लोप विधान के लिए ""पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः"" ""संख्यासुपूर्वस्य"" ""उद्विभ्यांकाकुदस्य"" ""पूर्णाद्विभाषा"" ये चार सूत्र पढे गये हैं।","४९ . समासान्तलोपविधानाय ""पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः"" ""संख्यासुपूर्वस्य"" ""उद्विभ्यां काकुदस्य"" ""पूर्णाद्विभाषा"" इत्येतानि चत्वारि सूत्राणि पठितानि।" "केवल समास - अव्ययी भाव समास, तत्पुरुष समास, बहुब्रीहि द्वन्द्व समास इनको समास की विशेष संज्ञाये हैं।","केवलसमासः - अव्ययीभावः, तत्पुरुषः, बहुव्रीहिः, द्वन्द्वः इत्येताः समासस्य विशेषसंज्ञाः सन्ति।" इस सूक्त में प्रधान रूप से जलवर्षण के लिए प्रार्थना का विधान है।,अस्मिन्‌ सूक्ते प्रधानतः जलवर्षणस्य कृते प्रार्थना विधीयते । इसलिए यहाँ पर अजहत्‌ लक्षणा है सङ्गत होती है।,अतः अत्र अजहल्लक्षणा सङ्गच्छते। "पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांचकर्मेन्द्रियां, पांच वायु, बुद्धि तथा मन इस प्रकार से सत्रह अवयवों बना हुआ सूक्ष्म शरीर होता है।","पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्चकर्मेन्द्रियाणि, पञ्च वायवः, बुद्धिः मनश्चेति सप्तदशावयवोपेतं सूक्ष्मशरीरम्‌।" ध्यान ब्रह्म विषय में विचलित अन्तःकरण की वृत्ति होती है।,ध्यानं च ब्रह्मविषयिणी विच्छिद्य विच्छिद्य अन्तःकरणवृत्तिसन्ततिः। एवं विग्रह वाक्य अवयव पदार्थों से पर अन्य जो विशिष्ट अर्थ है वह प्रातिपदिक वृत्ति है।,"एवं विग्रहवाक्यावयवपदार्थेभ्यः परः अन्यः यः विशिष्टैकार्थः, तत्प्रतिपादिका वृत्तिः।" यह गोपा अथवा गोपाल भी वेदोक्त संस्कारहीन अदृश्य को देखते है।,एनं गोपा उत गोपाला अपि वेदोक्तसंस्काराणहीनाः अदृशन्‌ पश्यन्ति। कदली के गर्भ के समान सारहीन होते हैं।,कदलीगर्भवद्‌ असाराः सन्ति। 1. कितने लिङ्ग होते हैं वे कौन से हैं?,१. कति लिङ्गानि भवन्ति ? कानि च तानि? उसको कहते है वेदान्त नाम उपनिषद्‌ प्रमाण है।,तदुच्यते वेदान्तो नाम उपनिषत्प्रमाणमिति। लोपे विभाषा इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,लोपे विभाषा इति सूत्रं व्याख्यात। प्रज्ञप्त प्रज्ञा है और वह ब्रह्म ही है जिसके द्वारा ले जाया जाता है वह नेत्र होता है।,प्रज्ञप्तिः प्रज्ञा तच्च ब्रह्मैव। नीयते अनेन इति नेत्रम्‌। वह सारथी के समान यागरथ को चलाकर के अभीष्ट देवों को यागस्थान पर लेकर के आता है।,स सारथिरिव यागरथं चालयन्‌ अभीष्टान्‌ देवान्‌ यागस्थानमावहति। कनिक्रदत्‌ - क्रन्द्‌-धातु से यङ्‌ लुङन्त प्रथम पुरुष एकवचन का यह रूप है।,कनिक्रदत्‌ - क्रन्द्‌ - धातोः यङ्‌ लुङन्ते प्रथमापुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ । कोई भी यजमान अग्नि रूपी होता के बिना उस यज्ञ को पूर्ण नहीं कर सकता है।,न कोऽपि यष्टा अग्नेः ज्यायान्‌ यतस्तेनैव प्रथमतो यागः सम्पादितः। किन्तु वाष्कल शाखा में एक हजार पच्चीस (१०२५) सूक्त हैं।,किञ्च वाष्कलशाखायां पञ्चविंशत्यधिकसहस्रसंख्यकानि (१०२५) सूक्तानि सन्ति। 9 आहुः रूपकिस धातु का है?,9. आहुः इति रूपं कस्य धातोः। "सूत्र का अर्थ - जिस पद में जिसका उदात्त अथवा स्वरित का विधान किया जाता है, उस एक अच्‌ को छोड़ कर शेष वे सभी पद अनुदात्त वाचक होते है।",सूत्रार्थः - यस्मिन्‌ पदे यस्य उदात्तः स्वरितः वा विधीयते तम्‌ एकम्‌ अचं वर्जयित्वा शेषं तत्पदम्‌ अनुदात्ताचकं भवति। वस्तुतः चैतन्य ही अज्ञान का नाशक होता है।,वस्तुतस्तु चैतन्यमेव अज्ञानस्य नाशकं भवति। "और 'तत्तेजोऽसृजत' इस प्रकार से एक बार श्रुत सृष्टा के स्रष्टव्य दो के द्वारा संबंध उचित नहीं है, 'तत्तेजोऽसृजतष्तदाकाशमसृजत' इस प्रकार से।","अपि च, ""तत्तेजोऽसृजत"" इति सकृच्छ्रुतस्य स्रष्टुः स्रष्टव्यद्वयेन सम्बन्धः न उपपद्यते - ""तत्तेजोऽसृजत"" ""तदाकाशमसृजत"" इति।" "इसके बाद “यचिभम्‌'' इससे पूर्व प्रतिसामन्‌ कौ भसंज्ञा होने पर “नस्तद्धिते "" इससे टि का अन्‌ लोप होने पर प्रति साम्‌ अ होने पर सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न प्रतिसाय शब्द का “परवल्लिङ्ग द्वन्द तत्पुरुषोः” इससे पर लिङ्गत्व होने पर नपुसक में सु प्रत्यय होने पर प्रतिसामम्‌ रूप बना।","ततः ""यचि भम्‌"" इत्यनेन पूर्वस्य प्रतिसामन्‌ इत्यस्य भसंज्ञायां ""नस्तद्धिते"" इत्यनेन टेरनः लोपे प्रतिसाम्‌ अ इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य प्रतिसामशब्दस्य ""परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः"" इत्यनेन परवत्निङ्गत्वे प्राप्ते नपुंसके सौ प्रतिसामम्‌ इति रूपम्‌।" उसी का यहाँ संक्षेप में आलोचना की जायेगी।,तदत्र संक्षेपेण आलोच्यते। प्रजापति ही पृथिवीलोक और द्युलोक की रचना करता है।,प्रजापतिः एव पृथिवीलोकं द्युलोकञ्च सृजति। "एक पक्ष में प्रातः सूर्योदय से पूर्व होम का विधान है, उनके मत में यदि ऐसा नहीं करते तो आदित्य आहुति को स्वीकार नहीं करता है।","एकस्मिन्‌ पक्षे प्रातः सूर्योदयात्‌ प्राक्‌ होमः विधेयः, तेषां नये तथा न क्रियते चेत्‌ आदित्यः आहुतिं न स्वीकरोति।" उसका तीन द्यु तीन शिर और तीन देहस्थान है।,तस्य त्रिधा द्युतयः त्रीणि शिरांसि त्रयो देहाः त्रीणि च स्थानानि। उदाहरण - कश्चिद्‌ भुङ्क्ते यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- कश्चिद्‌ भुङ्क्ते इति सूत्रस्य एकमुदाहरणम्‌ । इन अथर्ववेद की नौ शाखाओं में अब शौनक पेप्लाद नाम की दो ही शाखा प्राप्त होती हे।,आसु अथर्ववेदस्य नवशाखासु सम्प्रति शौनकप्पिलादसमाख्ये द्वे एव शाखे प्राप्येते। यह उपनिषद्‌ सामवेद की तवलकार शाखा के अन्तर्गत आता है।,इयम्‌ उपनिषद्‌ सामवेदीयतलवकारशाखान्तर्गता। इस प्रकार से आरम्भ में ब्रह्म का उपक्रम कहकर अन्त में जो “ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्‌ सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो” (6/8/7) इति।,एवम्‌ आरम्भे सद्ब्रह्म उपक्रम्य अन्तिमे उच्यते यत्‌ “ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्‌ सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो” (६/८/७) इति। "यहाँ गुप्‌-इस धातु से आय प्रत्यय करने पर उससे निष्पन्न गोपाय इसके पकार से उत्तर आकार को ""आद्युदात्तश्च' इससे आद्युदात्त स्वर है।","अत्र गुप्‌-इति धातोः आयप्रत्ययः विहितः तेन निष्पन्नस्य गोपाय इत्यस्य पकारोत्तस्य आकारस्य ""आद्युदात्तश्च' इत्यनेन आद्युदात्तस्वरः।" "जब तक पर्जन्य वृष्टि द्वारा भूमि की रक्षा करते है, तब तक वृष्टि के लिए हवा बहती है चारो तरफ बिजली चमकती रहती है, ओषधिया बढती रहती है।",प्र वान्ति वाताः वृष्ट्यर्थम्‌। पतयन्ति गच्छन्ति समन्तात्‌ सञ्चरन्ति विद्युतः । ओषधीः ओषधयः उत्‌ जिहते उद्गच्छन्ति प्रवर्धन्ते । जिसे श्रुतियों में इस प्रकार से कहा गय है- तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः संहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियते एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति।,तथा च श्रुतिः- तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः संहत्य पक्षो संठयायैव प्रियते एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति। इस प्रकार से आनन्दमय कोश के भी अन्दर होता है वह आत्मा होता है।,एवं आनन्दमयादपि अभ्यन्तरे यो वर्तते स आत्मा। इदमन्धतमः कृत्स्नम्‌ इत्यादि श्लोक किसने लिखा है?,इदमन्धतमः कृत्स्नमित्यादिश्लोकः केन लिखितः। दशाङगुलशब्द अल्प का द्योतक भी है।,दशाङ्गुलशब्दः अल्पद्योतकोऽपि। "25. ""परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुर्लौकिकः"" यह लौकिक विग्रह वाक्य लक्षण है।","२५. ""परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुर्लौकिकः"" इति लौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌।" उसी प्रकार से रज्जु में सर्प बाधित होता है तो भयकम्पनादि उसी क्षण नहीं जाते है।,अपि च रज्जौ सर्पः बाधितः चेत्‌ अपि भयकम्पनादि ततक्षणात्‌ न गच्छति। आत्मा के कितने रूप होते हैं?,आत्मनः कति रूपाणि? "“नेति नेति” (बृह.उ-4.4.22), “ अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्‌ ” (कठोपनिषत्‌-1.3.15), “ अस्थूलमनण्वहृस्वमदीर्घम्‌” (बृह.उ-3.8.8) इस प्रकार से सभी उपनिषदों में ज्ञेयवस्तु ब्रह्म के वागगोचरत्व से अशेष शेष तथा प्रतिषेध के द्वारा निर्विशेषत्व को कहा गया है।","“नेति नेति” (बृह.उ-४.४.२२), “अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्‌” (कठोपनिषत्‌-१.३.१५),“अस्थूलमनण्वहृस्वर्मस्दीर्घम्‌” (बृह.उ-३.८.८) चेत्येवं सर्वासु उपनिषत्सु ज्ञेयवस्तुनः ब्रह्मणः वागगोचरत्वादशेषविशेषप्रतिषेधद्वारेण निर्विशेषत्वं भणितम्‌।" किन्तु इष्टियाग में सभी पुरोहितों का अधिकार समान होता है।,किन्तु इष्टियागे सर्वेषां पुरोहितानाम्‌ अधिकारः समानो वर्तते। तथा शमादि के अभाव में मोक्ष विषयणी इच्छा भी सम्भव नहीं है।,शमादीनाम्‌ अभावे मोक्षविषयिणी इच्छा एव न सम्भवति। 1.21. ““नस्तद्धिद्वते'' सूत्रार्थ-नान्त के असंज्ञक के टि का लोप होता है तद्धित पर में होने पर।,(१.२१) नस्तद्धिते सूत्रार्थः - नान्तस्य असंज्ञकस्य टेः लोपः भवति तद्धिते परे। वह चित्तवृत्ति निर्विकल्पसमाधि में उत्पन्न होती है।,सा च चित्तवृत्तिः निर्विकल्पकसमाधौ समुदेति। "इसका यह अर्थ हैं कि दृष्ट स्वरूप गगन के तुल्य श्रेष्ठ, एकरूप से प्रकाशमान, जन्मरहित, सकलोपाधि शून्य, कूटस्थ, असङ्ग, सर्वव्यापी, सदा विमुक्त जो अद्वय वस्तु है वह अहं इस प्रकार से कहलाती है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है “वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।","अस्यार्थो हि - द्रष्टुस्वरूपं, गगनेन तुल्यं, श्रेष्ठम्‌, एकरूपेण प्रकाशमानम्‌, जन्मरहितम्‌, सकलोपाधिशून्यं, कूटस्थम्‌, असङ्गं, सर्वव्यापि, सदा विमुक्तं च यत्‌ अद्वयं वस्तु तद्‌ अहमेवेति। उच्यते च श्रीमद्भगवद्गीतायाम्‌ - “वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।" इस तदन्त विधि में सुबन्त।,ततः तदन्तविधौ सुबन्तम्‌ इति। अतः वेदान्त अचार्यो के द्वारा निदिध्यासन महान यत्न के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है।,अतो वेदान्ताचार्यैः निदिध्यासनम्‌ महता यत्नेन प्रतिपादितम्‌। बुद्धि निश्चयात्मिका अन्तः करणवृत्ति होती है।,बुद्धिर्नाम निश्चयात्मिका अन्तःकरणवृत्तिः भवति। 8 अर्थवाद का उदारहण बताइए?,8 अर्थवादस्य उदाहरणं दीयताम्‌। इसके प्राण से वायु उत्पन्न हुआ।,अस्य प्राणाद्वायुरजायत। सूत्र का अर्थ- वेद विषय में मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशी और अन्य शब्दों का आदि और दूसरा स्वर विकल्प से उदात्त होता है।,सूत्रार्थः - छन्दसि विषये मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा- काशीनाम्‌ अन्येषां च शब्दानाम्‌ आदिः द्वितीयः च स्वरः वा उदात्तः भवति। इसलिए देवीं वाचम्‌ यह प्रयोग सिद्ध होता है।,अतः देवीं वाचम्‌ इति प्रयोगः सिध्यति। सप्तमी तत्पुरुष का “सप्तमी शौण्डै:'' विधायक सूत्र है।,"सप्तमीतत्पुरुषस्य ""सप्तमी शौण्डैः"" इति विधायकं सूत्रम्‌।" जगत्‌ प्रपञ्च से तथा स्वप्न प्रपञ्च अत्यन्त भिन्न सुषुप्ति को जानना चाहिए।,जाग्रत्प्रपञ्चात्‌ स्वप्नप्रपञ्चाच्च अत्यन्तं भिन्ना सुषुप्तिरियं ज्ञेया। "( वा, ६५१ ) वार्तिक का अर्थ - उस निगद में ही प्रथमान्त का अन्त उदात्त होता है।",(वा. ६५१) वार्तिकार्थः - तस्मिन्नेव निगदे प्रथमान्तस्य अन्त उदात्तः स्यात्‌। "वहाँ आदि में सूक्ति के द्वारा कहा जाता है की उस महान्‌ पर्जन्यदेव की स्तुति करनी चाहिए, और नमस्कार माध्यम से उसे प्रसन्न करना चाहिए।","तत्रादौ उच्यते सूक्तिभिः स महान्‌ पर्जन्यदेवः स्तोतव्यः, किञ्च नमस्कारमाध्यमेन स प्रसन्नीकर्तव्यः ।" "एक ही वाक्य के दो व्यापारों के असम्भव होने से, सृष्टा एक होने पर भी अनेक की सृष्टि करें तो एकवाक्य में अनेक सृष्टि सम्भव होती है।",एकस्य वाक्यस्य व्यापारद्वयासम्भवात्‌; स्रष्टात्वेकोऽपि क्रमेण अनेकं स्रष्टव्यं सृजेदिति एकवाक्यत्वकल्पनायां सम्भवन्त्यां। इस प्रत्यय स्वर के प्रकरण में प्रत्ययों के स्वर विषय में संक्षेप से कुछ विवरण किया है।,अस्मिन्‌ प्रत्ययस्वराख्ये प्रकरणे प्रत्ययानां स्वरविषये संक्षेपेण किञ्चित्‌ विवरणं कृतम्‌। वहाँ प्रथम अर्थ है -ऋग्वेद में ऋत शब्द का अर्थ प्रकृति यह भी अधिकाशं रूप से प्राप्त होता है।,तत्र प्रथमोऽर्थः - ऋग्वेदे ऋतशब्दस्यर्थः प्रकृतिः इत्यपि बाहुल्येन लभ्यते। 3. खश्‌ प्रत्यय।,३. खश्प्रत्ययः। पूर्वञ्च परञ्च अधरञ्च उत्तरञ्च इस विग्रह में समाहार द्वन्द में पूर्वापराधरोत्तरम्‌”' यह पद है।,पूर्वञ्च परञ्च अधरञ्च उत्तरञ्च इति विग्रहे समाहारद्वन्द्व पूर्वापराधरोत्तरम्‌ इति। व्याकरण ही भाषा का स्वरूप सङघटन और सभी का ज्ञान कराता है।,व्याकरणम्‌ एव भाषायाः स्वरूपसङ्घटनं सर्वात्मना कुरुते। "वायुपुराण से ज्ञात होता है कि इस शाखा के छः हजार छब्बिस (६०२६) मन्त्र थे, किन्तु अभी तक यह संहिता प्राप्त नहीं है।","वायुपुराणाद्‌ ज्ञातः भवति यत्‌ अस्यां शाखायां षड्विंशत्यधिकषट्सहस्रं (६०२६) मन्त्राः आसन्‌, किञ्च अद्यावधि इयं संहिता समुपलब्धा नास्ति इति।" “पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" "इस श्रद्धा की उपासना केवल मनुष्य नहीं करते, अपितु देवता भी असुरो के साथ युद्धकाल में श्रद्धा के आश्रित होकर के ही अपने मनोरथ को पूर्ण किया।",अस्याः श्रद्धाया उपासना न केवलं मानवाः कुर्वन्ति अपि तु देवता अपि असुरैः सह युद्धकाले श्रद्धाम्‌ आश्रित्य स्वकीयमनोरथं साधयन्ति। और वह कर्मयोग को परिसमाप्ति के पहले से ही संन्यास हो जाता है।,स च कर्मयोगस्य परिसमाप्तेः पूर्वमेव संन्यस्यति। आत्मा तो चेतन होता है इसलिए जडत्वधर्मविशिष्ट प्राणमयकोश आत्मा नहीं होती है।,आत्मा तु चेतनः अतः जडत्वधर्मविशिष्टः प्राणमयकोशः न आत्मा। "कुछ ऋषि, उसके रूप की स्तुति करते हैं।","यावान्‌ कश्चिद्‌ ऋषिः, तेन सर्वेण स्तोतव्यः इति।" गृ निगरणे (धा० ६.१२९)।,गृ निगरणे(धा० ६.१२९)। इस सूत्र से अलुक्‌ होता है।,अनेन सूत्रेण अलुक्‌ विधीयते। इस प्रकार से यह सभी दुख आन्तरोप्यसाध्यत्व से आध्यात्मिक दुःख कहलाता है।,सर्वं चैतद्‌ आन्तरोपायसाध्यत्वाद्‌ आध्यात्मिकं दुःखम्‌। 11.5.6 ) लक्षणा तथा उसके भेद लक्षणा का विषय लक्ष्य होता है।,11.5.6) लक्षणा तद्भेदाः च - लक्षणायाः विषयः लक्ष्यो भवति। अव्ययीभाव यह प्रथमा विभक्ति एकवचनान्त पद है।,अव्ययीभावः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। भोग्य विषय दो प्रकार के होते हैं।,भोग्यविषयः द्विविधः। स्वाधिष्ठान चक्र उदर के निम्नदेश मे होता है।,स्वाधिष्ठानम्‌ उदरस्य निम्नदेशे। हन्त इससे युक्त अनुदात्त लोडन्त को विकल्प से अनुदात्त किस सूत्र से होता है?,हन्त इत्यनेन युक्तमनुदात्तं लोडन्तं विकल्पेन अनुदात्तं केन सूत्रेण भवति? "“कैसे तुम मेरा पालन करोगी"" ऐसा मनु के पूछने पर उस मछली ने कहा है की भविष्य में महा जल प्रलय होगा।",""" कस्मात्‌ मां पारयिष्यति "" इति मनुना पृष्टे सति सः मत्स्यः अवोचत्‌ यत्‌ "" भाविनि काले कश्चन महान्‌ औघः भविता।" ज्ञानयोग वस्तुतः वेदान्त दर्शन ही है।,ज्ञानयोगः नाम वस्तुतः वेदान्तदर्शनम्‌। अतः कहा जाता है कि - यज्ञ को जातिगत दुष्टी से देखें तो गवामयन याग सोमयाग के अन्तर्गत आता है परन्तु काल की दृष्टी से उनके स्वरूप वश श्रेणी विन्यास किया जाता है।,अतः उच्यते यत्‌ - यज्ञयोः जातिदृष्ट्या अवलोक्यते चेत्‌ गवामयनयागः सोमयागे अन्तर्गतः भवति परन्तु कालदृष्ट्या तयोः स्वस्वरूपवशादेव श्रेणीविन्यासः क्रियते। स्वरितः वा अनुदात्ते पदादौ ये सूत्र में आये हुए पदच्छेद है।,स्वरितः वा अनुदात्ते पदादौ इति सूत्रगतपदच्छेदः। यहाँ जातेः पद और अनुपसर्जनात्‌ पद शार्ङ्गरवादि इसका विशेषण होता है।,अत्र जातेः इति पदम्‌ अनुपसर्जनात्‌ इति पदं च शार्ङ्गरवादेः इत्यस्य विशेषणं भवति। नैगम इस पद का यह तात्पर्य है की इनकी प्रकृति प्रत्यय का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है - अनवगतसंस्कारांश्च निगमान्‌।,नैगमः इत्येतस्य पदस्य तात्पर्यमिदम्‌ अस्ति यद्‌ एतस्य प्रकृतिप्रत्ययस्य यथार्थावगमनं न भवति - अनवगतसंस्कारांश्च निगमान्‌। यह क्रियावान्‌ तथा परिच्छिन्न होता है।,अयं क्रियावान्‌ परिच्छन्नश्च। जिस इष्टी से यज्ञ का आरम्भ होता है वह इष्टि प्रायणीय-इष्टि कहलाती है।,यया इष्ट्या यज्ञस्य आरम्भः भवति सा इष्टिः प्रायणीय-इष्टिः इत्युच्यते। और वे हैं- टाप्‌-डाप्‌-चापस्त्रयोप्येते डीप्‌-डीष्‌-डीन्‌- प्रत्ययै सह।,ते च टाप्‌-डाप्‌-चापस्त्रयोप्येते ङीप्‌-ङीष्‌-ङीन्‌-प्रत्ययैः सह। अब आदित्यरूप से रुद्र की स्तुति करते है।,अधुना आदित्यरूपेण रुद्रः स्तूयते। इस प्रकार से इन दशों का समूह प्राणमय कोश होता है।,एवं दशांशानां समूहः प्राणमयकोशः। जो जुआरी प्रातःकाल घोडे पर बैठकर जाता है वही शाम को कपड़ो के अभाव में व्याकुल होकर अग्नि के समीप रात्री व्यतीत करता है।,प्रातः अक्षान्‌ युयुजे । सायं च अग्नेः समीपे शयानः रात्रिं यापयति । "इन्द्र का मुख्य अस्त्र वज्र है, उसका निर्माता त्वष्टा कहलाता है।","इन्द्रस्य मुख्यम्‌ अस्त्रं भवति वज्रः, यस्य निर्माता भवति त्वष्टा इति।" एवं इतरेतरयोग और समाहार द्वन्दसमास दो प्रकार विभाजित किया जाता है।,एवं इतरेतरयोगः समाहारश्चेति द्वन्द्वसमासो द्विधा विभज्यते। शब्द प्रमाण लक्षण को लिखें अथवा जहल्लक्षण के स्वरुप को प्रतिपादित करें।,शब्दप्रमाणलक्षणम्‌ उपपादयत। अथवा जहल्लक्षणास्वरूपं प्रतिपादयत। और ये पहले भी कहा जा चुका है 'तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः' इति।,एतच्च प्रागेवोक्तम्‌ 'तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः' इति। "चकार से “स नपुंसकम्‌"" इस सूत्र से नपुंसकम्‌ इस पद को ग्रहण किया गया है।","चकारेण ""स नपुंसकम्‌"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ नपुंसकम्‌ इति पदं गृह्यते।" प्रजापतिः प्रजया संरराण स्त्रीणिन्योतींषि सचते स षोडशी॥५ ॥,प्रजापतिः प्र॒जया संरराण स्त्रीणिज्योतींषि सचते स षोडशी ॥५ ॥ कर्तृत्व ज्ञानेच्छा ही कर्तृत्व होती है।,कर्तृत्वं तु ज्ञानेच्छाकृतिमत्त्वम्‌। 7. श्रितादि शब्दों की लक्षण किसमें है?,७. श्रितादिशब्दानां कस्मिन्‌ लक्षणा। तब वह संचित कर्म फल देना शुरू करते हैं और अब वे प्रारब्ध कहलाते हैं।,तदा तत्‌ संचितं फलम्‌ दातुम्‌ आरभते।अधुना तत्‌ प्रारब्धं कथ्यते। "पौर्णमास याग में दीक्षित मनुष्य पूर्व दिशा में आहवनीय, गार्हपत्य, अग्नि के मध्य में स्थित जल का स्पर्श करते हैं।",पौर्णमासयागे दीक्षितो जनः पूर्वस्यां दिशि आहवनीय- गार्हपत्याग्नयोः मध्ये स्थित्वा जलस्य स्पर्श करोति। उसके कारण से ही वह कामायनी इस नाम से विख्यात है।,तेनैव कारणेन सा कामायनी इति नाम्ना विख्याताऽस्ति। देवब्रह्मणोः अनुदात्तः ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,देवब्रह्मणोः अनुदात्तः इति सूत्रगतपदच्छेदः। वेद में कभी इदन्तो मसि इस सूत्र से मकार के स्थान में मसि यह आदेश होता है।,वेदे कदाचित्‌ इदन्तो मसि इति सूत्रेण मस्य स्थाने मसि इत्यादेशः भवति। “मनसैवेदमाप्तव्यम्‌' यह श्रुति यहाँ प्रमाण है।,""" मनसैवेदमाप्तव्यम्‌ "" इति श्रुतिरत्र प्रमाणम्‌।" फिट्‌ यह संज्ञा वाचक पद है।,फिट्‌ इति संज्ञावाचकं पदम्‌। बाह्यशौच मिट्टी जल आदि के द्वारा बाह्यशरीर के मल को दूर करने से तथा पवित्र भोजन करने से होता है।,बाह्यं शौचं तावत्‌ मृज्जलादिद्वारा बाह्यशरीरमलदूरीकरणं पवित्रभोज्यग्रहणञ्च। "पाणिनीय शिक्षा में कहा है - “मन्त्रों हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह।","पाणिनीयशिक्षायाम्‌ उक्तम्‌ - ""मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह।" षष्ठ मन्त्र में अग्नि के प्रति कहते है की तुम जो कल्याण करती हो वह वस्तुतः आपके कल्याण के लिए ही होता है।,ततः षष्ठे मन्त्रे अग्निं प्रति उच्यते यत्‌ त्वं यत्‌ कल्याणं करोषि तत्‌ वस्तुतः तवैव कल्याणं भवति। घनशब्द के जलधरवाचक और श्याम शब्द के रामार्थवाचकता से समानाधिकरण नहीं है यह शंका है।,घनशब्दस्य जलधरवाचकत्वात्‌ श्यामशब्दस्य च रामार्थवाचकत्वात्‌ नास्ति सामानाधिकरण्यम्‌ इति शङ्का। इस महान पुरुष के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई।,अस्य महतः पुरुषस्य मुखाद्‌ ब्राह्मणानामुत्पत्तिः। "वेद चार हैं - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, और अथर्ववेद।","वेदाः वै चत्वारः भवन्ति । तथा हि - ऋग्वेदः , सामवेदः , यजुर्वेदः , अथर्ववेदश्चेति" अथवा वृत्र के द्वारा आवरण जो सभी शत्रु की रक्षा करता है उस वृत्र इस नाम वाले को शत्रु हन्ता इन्द्र ने विविध सेनाओं से युक्त अधिक शक्तिशाली वृत्र का नाश किया।,यद्वा वृत्रैः आवरणैः सर्वान्‌ शत्रून्‌ तरति तं वृत्रम्‌ एतन्नामकमसुरं व्यंसं विगतासं छिन्नबाहुः यथा भवति तथा अहन्‌ हतवान्‌। इसके बाद समास का प्रातिपदिकत्व होने से सु का लोप होने पर अर्ध 'शब्द का पूर्वनिपात होने पर “ आद्गुणः'' सूत्र से अकार के स्थान पर और ऋकार के स्थान पर गुण होने पर रपत्व होने पर अर्धर्च होता है।,"ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि, अर्धशब्दस्य पूर्वनिपाते ""आद्‌ गुणः"" इत्यनेन सूत्रेण अकारस्य ऋकारस्य च स्थाने गुणे रपरत्वे अर्धर्च इति भवति।" उस वृत्र को तथा उससे अधिक शक्तिशाली राक्षस का नाश किया।,तं वृत्रं तथा ततः अधिकशक्तिमन्तं राक्षसं नाशितवान्‌। इन तीन सूत्रों के द्वारा पाणिनीय प्रतिपादित अष्टाध्यायी में किया है।,इति त्रिभिः सूत्रैः पाणिनिः इदं प्रतिपादितवान्‌ अष्टाध्याय्याम्‌। “पूजायाम्‌” यह पद सप्तम्येकवचनान्त है।,पूजायामिति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। हिंसीत्‌ - हिसि (हिसायाम्‌) लुङ्‌-लकार प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,हिंसीत्‌ - हिसि ( हिंसायाम्‌ ) लुङ् - लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। वह मलिन होता है।,स मलिनः अस्ति। किन्तु वास्तव में यह आरण्यक निरुक्त से अधिक प्राचीन है।,किञ्च यथार्थत आरण्यकमिदं निरुक्तात्‌ प्राचीनतरमस्ति गाय जिस प्रकार बछडे की ओर रम्भाती हुई भागती है वैसे ही नदियाँ कोलाहल करती हुई समुद्र को प्राप्त होती है।,"वाश्राः वत्सान्प्रति हम्भारवोपेताः, धेनवः इव। यथा धेनवः सहसा वत्सगृहे गच्छन्ति तद्वत्‌।" पुरि शेते इस विग्रह से पुरुष शब्द की निष्पत्ति हुई है।,पुरि शेते इति विग्रहे पुरुषशब्दस्य निष्पत्तिः। 6. वृत्ति के कितने भेद होते हैं?,६. वृत्तेः कति भेदाः? "अन्वय - विश्वंभरा, वसुधानी, प्रतिष्ठा, हिरण्यवक्षा, जगतः निवेशनी, इन्द्रऋषभा भूमिः वैश्वानरम्‌ अग्नि बिभ्रती नः द्रविणे दधातु।","अन्वयः- विश्वंभरा, वसुधानी, प्रतिष्ठा, हिरण्यवक्षा, जगतः निवेशनी, इन्द्रऋषभा भूमिः वैश्वानरम्‌ अग्नि बिभ्रती नः द्रविणे दधातु।" तब कहते हैं की त्याग ही एक साधन है।,इति चेत्‌ त्याग एव एकं साधनम्‌। स्वप्नावस्था में जाग्रत अवस्था नहीं होती है।,स्वप्नावस्थायां जाग्रदपि नास्ति। इसी अध्याय में अग्निष्टोम के प्रकृति याग का विस्तृत विवरण है।,अस्मिन्नेवाध्याये अग्निष्टोमस्य प्रकृतियागत्वेन नितान्तं विस्तृतविवरणम्‌ अस्ति। तिङन्त पदों का सामान्य रूप से अनुदात्तस्वर का ही विधान है।,तिङन्तानां पदानां सामान्येन अनुदात्तस्वरः एव विधीयते । तथा भगवान भक्त को इसी प्रकार से चलाते है जिसके द्वारा भक्त संसारचक्र में बार बार आते जाते रहतें है।,"किञ्च, भगवान्‌ भक्तं तथा एव चालयति येन भक्तः भगवन्तं लभेत।" 3. द्विगुसमास का तत्पुरुष संज्ञा विधान में क्या प्रयोजन है?,३. द्विगुसमासस्य तत्पुरुषसंज्ञाविधाने किं प्रयोजनम्‌। पर्जन्य सम्पूर्ण पिता और माता कहलाता है।,पर्जन्यः समस्तविश्वस्य पिता माता च इत्युच्यते । मन ही सङकल्पवश चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों की और दोड़ता है।,मनसः सङ्कल्पवशात्‌ एव चक्षुरादयः रूपादीन्‌ विषयान्‌ प्रति धावन्ति। इस प्रकार स्वीकार किया गया हे।,इति स्वीक्रियते। जीव का चित्त अतिशय चपल होता है।,जीवस्य चित्तम्‌ अतिशयचपलम्‌। वहाँ इन्द्र ने वृत्र को मारने के लिए प्रजापति से शक्ति माँगी।,तत्र इन्द्रः वृत्रम्‌ हन्तुम्‌ प्रजापतिम्‌ शक्तिम्‌ अयाचत। 34. समृद्धि-सम्पत्ति में क्या भेद है?,३४. समृद्धि-सम्पत्त्योः को भेदः? "शी धातु से ण्वुल्‌, अनादेश में टाप्‌ प्रत्यय प्रक्रिया कार्य में शायिका रूप बना।","शीधातोः ण्वुल्‌, अकादेशे टापि प्रक्रियाकार्ये शायिका इति रूपम्‌।" उनके लिए जगत्‌ का निमित्त तथा उपादान कारण ब्रह्म ही है इस प्रकार से प्रदिपादन करना होता है।,तेषां कृते जगतो निमित्तोपादानकारणे ब्रह्म इति प्रतिपादनीयं भवति। इसलिए शङ्कराचार्य जी के द्वारा शाङ्करभाष्य में कहा गया है कि- न हि अग्निकार्याद्यकरणात्‌ संन्यासिनः प्रत्यवायः कल्पयितुं शक्यः।,तत्रोच्यते भाष्यकारेण भगवता शङ्करेण - न हि अग्निकार्याद्यकरणात्‌ संन्यासिनः प्रत्यवायः कल्पयितुं शक्यः। तब शरदादि अण में शरद शब्द पढ़ा गया है।,तदा शरदादिगणे शरद् शब्दः पठितः। ३. किम्‌ का अर्थ सुख होता है।,३. किम्‌ इत्यस्यार्थः सुखम्‌। हमारे द्वारा कर्म का त्याग करके एक क्षण भी रुका नहीं जा सकता है।,अस्माभिः कर्म विहाय एकं क्षणम्‌ अपि स्थातुं न शक्यते। वेदान्तसार के प्रकरण ग्रन्थ में जीवनमुक्त का लक्षण विस्तार से बताया गया है।,वेदान्तसाराख्ये प्रकरणग्रन्थे जीवन्मुक्तेः लक्षणं विस्तरेण आलोचितम्‌। यहाँ पर इस श्लोक का अर्थ है की श्रवण से सौ गुना मनन होता है।,अत्रायं श्लोकार्थः - श्रुतेः शतगुणं गुरुत्वावहं भवति मननम् । 11.5.8 ) तत्त्वमसि यहाँ पर अजहत्‌ लक्षणा की असङऱगति शोणो धावति।,11.5.8) तत्त्वमसीत्यत्र अजहल्लक्षणायाः असङ्गतिः- शोणो धावति । उन दोनों पदों का प्रयोग कर विग्रह किया गया है जैसे: राज्ञः पुरुषः।,तौ प्रयुज्य विग्रहः यथा राज्ञः पुरुषः इति। 13. कोश कितने होते हैं?,१३. कति कोशाः सन्ति? अत: उसके आदि में अच्‌ अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।,अतः अस्य आदेः अचः अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः भवति। बृहद्देवता का निर्माता कौन है?,बृहद्देवतायाः निर्माता कः? सुना जाता है यह श्रव कीर्ति है।,श्रूयते इति श्रवः कीर्तिः। उस अर्थ के प्राधान्य से और उत्तरपदार्थ प्राधान्य से यह समास उत्तरपदार्थ प्रधान तत्पुरुष समास होता है।,तस्यार्थस्य प्राधान्यात्‌ उत्तरपदार्थप्राधान्याद्‌ अयं समासः उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः। "अतः गतिसंज्ञक के परे गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है, यह सूत्र का अर्थ है।",अतः गतिसंज्ञके परे गतिसंज्ञकः अनुदात्तः भवति इति सूत्रार्थः जायते। 15. श्रवण का वर्णन कोजिए।,१५. श्रवणं विशदयत। और प्रकृत लक्ष्य में कृष्ण अम्‌ है।,तच्च प्रकृते लक्ष्ये कृष्ण अम्‌ इति अस्ति। व्याख्या - नील गर्दन वाले और नीलकण्ठवाले रुद्र के लिए नमस्कार हो।,व्याख्या - नीलग्रीवाय नीलकण्ठाय रुद्राय नमोऽस्तु नमस्कारो भवतु। यहाँ युवन्‌ नान्त प्रातिपदिक है।,अत्र युवन्‌ इति नान्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति। स्वप्नलोक में जीव के लिए अन्न का अतिसूक्ष्मांश ही आहार होता है।,स्वप्नलोके जीवस्य कृते अन्नस्य अतिसूक्ष्मांश एव आहारो भवति। "काष्ठादिगण में काष्ठा, दारुण, अमातापुत्र, वेश, अनाज्ञात, अनुज्ञात, अपुत्र, अयुत, अद्भुत, भृश, घोर, सुख, कल्याण, अनुक्त, इत्यादि शब्द पढ़े गए।",काष्ठादिगणे काष्ठा दारुण अमातापुत्र वेश अनाज्ञात अनुज्ञात अपुत्र अयुत अद्भुत भृश घोर सुख कल्याण अनुक्त इत्यादयः शब्दाः पठिताः। "इस सूत्र में यथा, इति, पादान्ते ये पदच्छेद है।","अस्मिन्‌ सूत्रे यथा, इति, पादान्ते इति पदच्छेदः।" पुरुष नर या नारी जो कामना या इच्छा करते हैं वह फलीभूत होता है उसी को पुरुषार्थ कहा गया है।,पुरुषः नरो वा नारी वा यद्‌ कामयते इच्छति अर्थयते स एव पुरुषार्थः। वर्ग सूक्त आदि की गणना प्रतिपादक श्लोक और उसका विवरण निम्न रूप से है - जानन्नपि द्विषामोदं स यज्ञः पातनानरः।,र्गसूक्तादीनां गणनाप्रतिपादकश्लोकस्तथा तद्विवरणञ्च निम्नरूपेणास्ति- जानन्नपि द्विषामोदं स यज्ञः पातनानरः। वेदान्त का सारभूत तत्व युग प्रयोजन के द्वारा तथा आधुनिक भाषा के द्वारा और भाष्य के द्वारा उन्होनें प्रकाशित किया जो मानवों की जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए उपयोगी है।,"वेदान्तस्य सारभूतं तत्त्वं युगप्रयोजनेन आधुनिकभाषया आधुनिकभाष्येण समं च तेन प्रकाशितम्‌, येन मानवानां जीवनसमस्यासमाधानाय तत्‌ उपयोगि स्यात्‌।" मर्डितारम्‌ - मृड्‌-धातु से तृच्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन मे।,मर्डितारम्‌ - मृड् - धातोः तृच्प्रत्यये द्वितीयैकवचने । और जो मन विषय आदि में प्रक वा वृद्धादी अवस्था से रहित है।,यच्च मनः अजिरं जरारहितं बाल्ययौवनस्थविरेषु मनसः तदवस्थत्वात्‌। अन्तः करण में विद्यमान सत्त्वगुण से रजोगुण को तथा तमोगुण को दूर करना चाहिए।,अन्तःकरणे विद्यमानात्‌ सत्त्वगुणात्‌ रजोगुणः तमोगुणश्च दूरीकरणीयः। लौकिक काव्यों का स्थान तो वैदिक काव्य के पश्चात्‌ ही विद्यमान है।,लौकिककाव्यानां स्थानं तु वैदिककाव्यात्‌ परमेव विद्यते। सरलार्थ - इन्द्र ने बड़े वज्र से वृत्र को मारा।,सरलार्थः- इन्द्रः महता वज्रेण वृत्रं हतवान्‌। तथा ब्रह्मा के समान शरीर को धारण करती हूँ।,तथा ब्रह्मीभूता बिभर्मि धारयामि। "हे कैलासपते मगलमय स्तुति रूप वाणी से तुम्हे प्राप्त होने के लिए प्रार्थना करते है सभी संसार जैसे हमारे लिए आरोग्य प्रद और श्रेष्ठ मन वाला हो सके, वैसा करो।","अस्यार्थो हि, हे गिरिश, तव शरणं प्राप्तु मङ्गलसूचकैः वाक्यैः प्रार्थयामः (येन) अस्माकं जगतः सर्वे (मानवाः) स्वास्थ्यवन्तः शोभनमनस्काश्च भवेयुः।" देवीं वाचम्‌ उदाहरण है।,देवीं वाच॑म्‌ इति। सम्पूर्ण सृष्टि में प्रलय के अन्त तक आकाश को ही नित्य माना गया है।,आसृष्टिप्रलयान्तं हि आकाशस्य नित्यत्वम्‌। "यहाँ पूर्वपद बहु शब्द है, और उत्तरपद इगन्त है।","अत्र पूर्वपदं बहुशब्दः, उत्तरपदं च इगन्तम्‌।" "“तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इस सूत्र का तद्धितार्थ विषय में क्या उदाहरण है?","""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रस्य तद्धितार्थ विषये किमुदाहरणम्‌ ?" प्रकरणभेद के होने पर भी अर्थभेद होता है।,प्रकरणभेदेऽपि अर्थभेदो भवति। 4. यस्मानृचः ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके महीधरभाष्य के अनुसार व्याख्या कीजिए।,४. यस्मानृचः ... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा महीधरभाष्यानुसारि व्याख्यानं कुरुत। ( 8.3.6 ) द्वन्द समास “प्रायेण उभयपदार्थप्रधानः द्वन्द'' यह द्वन्द समास का लक्षण है।,"८.३.६) द्वन्द्वसमासः ""प्रायेण उभयपदार्थप्रधानः द्वन्द्वः"" इति द्वन्द्वसमासस्य लक्षणम्‌।" इसलिए जब तक प्रारब्ध का भोगों का क्षय जब तक नहीं होता है तब तक शरीर रुकता है।,यतो हि प्रारब्धस्य यावन्न भोगेन क्षयः तावत्‌ शरीरं तिष्ठति। सृष्टि से पूर्व में इस जगत्‌ के नामरूपादियों को ग्रहण नहीं कर सकते है।,सृष्टेः पूर्वम्‌ अस्य जगतः नामरूपादिकं ग्रहीतुं न शक्यते। छन्दोगारण्यक में कहा गया है - “ तत्तेजोऽसृजत तदन्नमसृजत ता आप ऐक्षन्त' इति भूतत्रयसृष्टिमुक्त्वा ` हन्ताहमिमास्तिस्रो देवतास्तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणि' (छा० उ० ६.३.२-३) इत्यादि के द्वारा तीन कारणों से सृष्टि को उत्पन्न किया।,छन्दोगारण्यके- “तत्तेजोऽसृजत तदन्नमसृजत ता आप ऐक्षन्त” इति भूतत्रयसृष्टिमुक्त्वा `हन्ताहमिमास्तिस्रो देवतास्तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणि” (छा० उ० ६.३.२-३) इत्यादिना त्रिवृत्करणसृष्टिरुपपादिता। "किन्तु जैसे “वृद्धो यूना तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' इस सूत्र में यूना यहाँ पर सह शब्द के विना भी तृतीया होती है, वैसे ही यहाँ पर भी उदात्तेन सहयोग से तृतीया है।",किन्तु यथा 'वृद्धो यूना तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' इति सूत्रे यूना इत्यत्र सहशब्दं विनापि तृतीया भवति तद्वत्‌ अत्रापि उदात्तेन इत्यत्र सहयोगात्‌ तृतीया अस्ति। उसका अर्थ द्वितीयान्त है।,तस्य अर्थः द्वितीयान्तम्‌ इति। उससे आठवें अध्याय में स्थित “आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र की वहाँ प्रवृति नहीं होती है।,तेन अष्टमाध्यायस्थम्‌ 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रं तत्र न प्रवर्तते। दर्शन तत्व की दिशा में वेदान्त में दो प्रकार के ब्रह्म के रूप उपलब्ध होते है सोपाधिक ब्रह्म तथा निरूपाधिक ब्रह्म!,"दर्शनतत्त्वदिशा वेदान्ते द्विप्रकारकं ब्रह्मणो रूपमुपलभ्यते - सोपाधिकं ब्रह्म, निरुपाधिकं ब्रह्म च।" वेदों की शैली कैसी है?,वेदानां शैली कथं वर्तते? वहाँ पर तो अनुभव ही शरण होती है।,तत्र तु अनुभवः एव शरणं भवति। "जप, न्यूङ्क और साम जपन्यूङ्खसामानि, न जपन्यूङ्खसामानि अजपन्यूङ्कसामानि, उन अजपन्यूङ्खसामसु यहाँ दन्द्वगर्भ नञ्तत्पुरुष समास है।","जपश्च न्यूङ्कश्च साम च जपन्यूङ्खसामानि, न जपन्यूङ्कसामानि अजपन्यूङ्कसामानि, तेषु अजपन्यूङ्कसामसु इति द्वन्द्वगर्भनञ्तत्पुरुषसमासः।" निर्विशेष निरवयव प्रकाशस्वरूप ब्रह्म ही होता है।,निर्विशेषं निरवयवं प्रकाशस्वरूप ब्रह्म भवति। यहाँ दधाना यहाँ पर “चितः” इससे अन्त को उदात्तस्वर किया है।,अत्र दधाना इत्यत्र चितः इत्यनेन अन्तोदात्तस्वरः विहितः। इस सूत्र से विकल्प से स्वरित स्वर का विधान करते है।,अनेन सूत्रेण विकल्पेन स्वरितस्वरः विधीयते। इस प्रकार हृदय विदारक चित्रण इस मन्त्र में चित्रित किया है।,इत्थं हृदयविदारकं चित्रम्‌ अस्मिन्‌ मन्त्रे चित्रितम्‌ । अनुदात्तः यह प्रथमान्त विधीयमान पद है।,अनुदात्तः इति प्रथमान्तं विधीयमानं पदम्‌। यहाँ पापाणके यहाँ पर प्रथमान्त होने से पठित समास में उन दोनों शब्दों का ही पूर्व निपात होने से ऐसा हुआ।,अत्र पापाणके इति प्रथमान्तत्वेन पठितत्वात्‌ समासे तयोरेव शब्दयोः पूर्वनिपातः । सारा संसार इनके महान वध से डरता है।,शक्तिशालिनः आयुधयुक्तात्‌ पर्जन्यात्‌ सम्पूर्णलोकः बिभेति । 22. “सुपो धातुप्रातिपदिकयोः' इस सूत्र से क्या होता है?,"२२. ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इति सूत्रेण किं भवति?" इस विषय में कोई भी नहीं जानते है।,इति कोऽपि न जानाति। पूर्व ही कहा है कि ब्राह्मण ग्रन्थों का विस्तार अत्यधिक विशाल और व्यापक था।,पूर्वम्‌ एव कथितं यद्‌ ब्राह्मणग्रन्थानां विस्तारः अतीव विशालः व्यापकः च आसीत्‌ इति। माता पिता के द्वारा भुक्ति अन्न से भी इसकी उत्पत्ति होती है।,मातृपितृभुक्तात्‌ अन्नविकारात्‌ उत्पद्यते। अतः उन दोनों का जैसे पूर्व का स्वर था वैसे ही रहता है।,अतः तयोः यथा पूर्वं स्वरः आसीत्‌ तथा एव भवति। प्रतिष्ठिताः - प्रतिपूर्वक स्थाधातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में प्रतिष्ठिताः रूप है।,प्रतिष्ठिताः - प्रतिपूर्वकात्‌ स्थाधातोः क्तप्रत्यये प्रथमाबहुवचने प्रतिष्ठिताः इति रूपम्‌। सूत्र का अर्थ- अर्थ शब्द उत्तर पद रहते चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः- अर्थशब्दे उत्तरपदे चतुर्थ्यन्तं पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। यहाँ किरि यह अन्तोदात्त पद है।,अत्र किरि इति अन्तोदात्तं पदम्‌। इस प्रकार से अन्य स्थानों पर भी समझना चाहिए।,एवमन्यत्रापि ऊहनीयम्‌। उस अज्ञान का विषय घट होता है।,तस्य च अज्ञानस्य विषयो भवति घटः। विवेक वैराग्य के प्रति कारण होता है यह सिद्धान्त है।,विवेकः वैराग्यं प्रति कारणमिति सिद्धान्तः। क्योंकि पुरुष स्वरूप वैसा ही होता है।,यद्यपि पुरुषस्वरूपं तदेव वर्तते। उपयोग विधि का आस्था पूर्वक सिद्धि के लिए ही अर्थवादा होते है।,उपयोगविधेः आस्थापूर्वकपुष्ट्यर्थम्‌ एव अर्थवादाः भवन्ति। परंतु सुख साधन के विषय में और स्वरूप के विषय में उनके अनेक मतभेद हैं।,परन्तु सुखसाधनविषये स्वरूपविषये च तेषु नैके मतभेदाः सन्ति। इस प्रायश्चित कर्म का नाम चान्द्रायण है।,अस्य प्रायश्चित्तकर्मणो नाम चान्द्रायणम्‌। अतः योगीयों को उस आनन्द को छोड़कर के निर्वकल्पकसमाधि के लाभ के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिए।,"अतः योगी सविकल्पकानन्दास्वादनेन विमोहितः न स्यात्‌, तमानन्दं परित्यज्य निर्विकल्पकसमाधिलाभाय निरन्तरं यतेत।" ( ८.४.६६ ) सूत्र का अर्थ - उदात्त से उत्तर अनुदात्त को स्वरित आदेश होता है।,(८.४.६६) सूत्रार्थः - उदात्तात्परस्य अनुदात्तस्य स्वरितः स्यात्‌। "“स नपुंसकम्‌"" इस सूत्र का अर्थ क्या है?","""स नपुंसकम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" "यहाँ एकश्रुतिः यह विशेषण पद नहीं है, अपितु विशेष्य पद ही है।","अत्र एकश्रुतिः इति न विशेषणपदम्‌, अपि तु विशेष्यपदमेव।" सुषुप्ति काल में बुद्धि नहीं होती है।,सुषुप्तिकाले बुद्धिः नास्ति। फिर भी अद्वैत वेदांत दर्शन से अपने सिद्धांत किस तरह जुड़े हुए हैं किन युक्तियों से समर्थित हैं युक्ति प्रदर्शन के प्रमाण या वे प्रमाण कौन से हैं इत्यादि सब कुछ सब विस्तारपूर्वक छात्र को ज्ञान होना चाहिए।,"तथापि अद्वैतवेदान्तदर्शनेन स्वस्य सिद्धान्ताः कथं सिद्धान्तिताः, काभिः युक्तिभिः समर्थिताः, युक्तिप्रदर्शनस्य प्रमाणानि वा कानि इत्यादिसर्वमपि सविस्तरं ज्ञातव्यम्‌ भवति छात्रेण।" परन्तु प्रायोगिक परीक्षा कोई भी नहीं है।,परन्तु प्रायोगिकपरीक्षा कापि नास्ति। "इस याग में प्रतिदिन प्रातः काल और सायंकाल गृहस्थ के अग्निकुण्ड में दूध, दही, पुरोडाश आदि की आहुति दी जाती है।",अस्मिन्‌ यागे प्रतिदिनं प्रातःकाले सायंकाले च गृहस्थस्य अग्निकुण्डे दुग्धदधिपुरोडाशादीनां आहुतिः प्रदीयते। न केवल वर्तमान ही बल्कि अतीत और भविष्य जगत्‌ भी पुरुष ही है इस प्रकार वेद ने पुरुष के नित्यत्व को कहा है।,"न केवलं वर्तमानम्‌, अतीतं भविष्यं च जगतः पुरुष एव इति वदन्त्य श्रुत्या पुरुषस्य नित्यत्वमाम्नातम्‌।" "तब उसकी दुर्दशा को देखकर के अपने मनुष्य भी करुणा नही करते हैं, और उसकी रक्षा नही करना चाहते हैं।",तदा तदीयां दुर्दशां परिपश्यन्‌ स्वजनः अपि करुणां न करोति तं च परिचाययितुं न इच्छति । इस सूत्र में लिति यह सप्तम्यन्त एक ही पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे लिति इति सप्तम्यन्तम्‌ एकमेव पदम्‌ अस्ति। अजायत - जन्‌-धातु से लड लकार में प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बना।,अजायत-जन्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। समानाधिकरणे पदे स्तः अस्य इति विग्रहे (समान अधिकरण पद में है इसके विग्रह में “ अर्श आदिभ्योऽच्‌'' इस सूत्र से मतुप्‌ अर्थ में अर्श आदित्व से अच्‌ होने पर समानाधिकरणः निष्पन्न होता है।,"समानाधिकरणे पदे स्तः अस्येति विग्रहे ""अर्शआदिभ्योऽच्‌"" इत्यनेन सूत्रेण मत्वर्थे अर्शआदित्वाद्‌ अचि समानाधिकरणः इति निष्पन्नः ।" सभी के प्रति आप हमेशा अनुग्रहशील हो ऐसी हम बार-बार प्रार्थना करते हैं।,सर्वान्‌ प्रति त्वं सदैव अनुग्रहशीलो भव इति पुनः पुनः प्रार्थ्यते। "यहाँ चोदयित्री इसमें चोदयितृ इस अवस्था में उदात्त ऋकार के स्थान में यण्‌ रेफ का विधान है, और उस रेफ से हल्पूर्व है।","अत्र चोदयित्री इत्यत्र चोदयितृ इति अवस्थायाम्‌ उदात्तस्य ऋकारस्य स्थाने यण्‌ रेफः विधीयते, स च रेफः हल्पूर्वः।" कुछ मुख्य आख्यानों के उदाहरण दीजिए।,कानिचन मुख्यानि आख्यानानि उदाहरत। "वा नामधेयस्य इस सूत्र से नामवाचक स्यान्त पद के अन्त से पूर्व को विकल्प से उदात्त स्वर होता है, जिस पक्ष में वहाँ अन्त से पूर्व उदात्त नहीं होता है, वहाँ अन्त के स्थान में उदात्त स्वर होता है।","वा नामधेयस्य इति सूत्रेण नामवाचकस्य स्यान्तस्य पदस्य अन्तात्‌ पूर्वस्य विकल्पेन उदात्तस्वरः भवति, यस्मिन्‌ पक्षे तत्र अन्तात्‌ पूर्वम्‌ उदात्तः न भवति तत्र अन्तस्य उदात्तस्वरः भवति।" "कुछ मनुष्य अत्यधिक कार्य को पूर्ण कर सकते है, भयंकर युद्ध में निर्भय होकर सेना का संचालन करते है, कुछ ध्यान आदि से इन्द्रियों से परे का ज्ञान प्राप्त करता है।","केचित्‌ जनाः अत्यधिकं कार्यं सम्पादयितुं शक्नुवन्ति, महति युद्धे निर्भयं सेनाधिपत्यं कुर्वन्ति, केचित्‌ ध्यानादिना अतीन्द्रियं ज्ञानं लभन्ते।" ध्यान के द्वारा चित्त विक्षेपों के क्षय से चित्त की एकाग्रता होती है।,ध्यानेन चित्तविक्षेपाणां क्षयात्‌ चित्तस्य एकाग्रता भवति। सृष्टिक्रम का वर्णन करने वाली निम्नोक्तगीतावचन यहाँ प्रासङिगक है - अन्नाद भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।,सृष्टिक्रवर्णनकारिणी निम्नोक्तगीतावचनानि अत्र प्रासङ्गिकानि - अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। हिरण्यगर्भसूक्त में कस्मै शब्द के विषय में लघुलेख लिखो।,हिरण्यगर्भसूक्ते कस्मै इति शब्दस्य विषये लघुप्रबन्धं लिखत। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ऋग्वेद के विभागों का परिचय प्राप्त कर पाने में; ० अष्टक मण्डल क्रमों को जान पाने में; ऋचा के विविध शाखाओं का परिचय प्राप्त कर पाने में; दसवें मण्डल की विशेषता समझ पाने में; जिन ऋचाओं से स्तुति की जाती है वह है ऋक्‌।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - ऋग्वेदस्य विभागानां परिचयं प्राप्तुं शक्ष्यति। अष्टकमण्डलक्रमौ ज्ञास्यति। ऋचां विविधानां शाखानां परिचयं प्राप्स्यति। दशममण्डलस्य विशेषतां ज्ञास्यति।ऋच्यते स्तूयते यया सा ऋक्‌। "विवेकानन्द ने ही धर्म के चरमतत्व की उपलब्धि के रूप में निर्घोष किया “ धर्म जीवन में उपलब्धि का विषय है वह केवल श्रवण को, सुनकर के स्वीकार करने का विषय नहीं है ” धर्मी दर्शन विषय में प्रत्यक्षानुभूति ही आवश्यक होती है।","विवेकानन्दस्तु धर्म चरमतत्त्वस्य उपलब्धित्वेन निर्घोषयामास- “धर्मो हि जीवने उपलब्धिविषयः, न केवलं श्रवणस्य, श्रुत्वा वा स्वीकारस्य विषयः” इति। धर्मीयदर्शनविषये प्रत्यक्षानुभूतिरेव निकषभूता।" राज्ञः पुरुषः इस उदाहरण में दोनों पदों के अलग अर्थ है।,राज्ञः पुरुषः इत्युदाहरणे द्वयोः पदयोः पृथक्‌ अर्थः अस्ति। "उदाहरण -अधिगोपा इस स्थिति में अव्ययीभाव समाजसंज्ञक के इसके प्रकृतसूत्र से नपुंसकसंज्ञा होने पर ""ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य"" इससे आकार के ह्रस्वः (लघु) होने पर अधिगोप शब्द निष्पन्न होता है।","उदाहरणम्‌ - अधिगोपा इति स्थिते अव्ययीभावसमाससंज्ञकस्य अस्य प्रकृतसूत्रेण नपुंसकसंज्ञायां ""ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य"" इत्यनेन आकारस्य ह्रस्वत्वे अधिगोप इति निष्पद्यते।" उसी प्रकर से योगी भी सविकल्पानन्द के रसास्वाद के द्वारा मोहित होकर उसी में ही रह जाता है।,अतः योगी सविकल्पकानन्दास्वादनेन विमोहितः न स्यात्‌। जन्मनाश रहित होता है।,जन्मनाशरहितं भवति। आत्मसाक्षात्कार के प्रति कुछ प्रतिबन्ध होते है।,आत्मसाक्षात्कारं प्रति केचित्‌ प्रतिबन्धाः सन्ति। आत्यन्तिक प्रलय में तो ब्रह्म अपने स्वरूप मात्र में ही विराजते हैं।,आत्यन्तिकप्रलये तु ब्रह्म स्वस्वरूपमात्रेण विराजते। वह ही वहाँ पर अधिकृत होता है।,स तत्र अधिकृतः। जब चित्त सविकल्पकानन्द के स्वाद में रत होता है।,यदा च चित्तं सविकल्पकानन्दास्वादे रतो भवति । जिस प्रकार जो अन्तःकरणवृत्ति घट विषयक अज्ञान का नाश करती है वह घटाकार हो जाती है।,तथाहि या अन्तःकरणवृत्तिः घटविषयकम्‌ अज्ञानं नाशयति सा घटाकारा। 13. गुरुपसदन को लिखिए।,१३. गुरूपसदनं लिखत। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का चौदहवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य चतुर्दशो मन्त्रः। अखिलबन्धरहित आत्म ही जीवन्मुक्त के नाम से कही जाती हे।,अखिलबन्धरहितः आत्मा एव जीवन्मुक्तः इति नाम्ना कथ्यते। ऋग्वेद की संहिता में किस छन्द की अधिकता दिखाई देती है?,ऋग्वेदस्य संहितायां कस्य छन्दसः आधिक्यं दृश्यते? तथा शुद्धमन मोक्ष का कारण होता है।,शुद्धं मनः मोक्षस्य कारणञ्च भवति। इन दोनों की निवृत्ति जब होती है तब ही वस्तुतः दुखों को निवृत्ति सम्भव होती है।,अनयोः निवृत्तिः यदा भवति तदैव वस्तुतः दुःखनिवृत्तिः भवति। यह सुनकर के किस प्रकार का तथा क्या स्वप्न देखा इस प्रकार से प्रश्‍न होता है।,श्रुत्वा कीदृशः स्वप्नः इति प्रश्नः भवति। आत्रेय-ऋषिदृष्टा मित्रावरुणसूक्त में उन दोनों वर्णन किया गया है।,आत्रेय-ऋषिदृष्ट मित्रावरुणसूक्ते तावत्‌ तयोः वर्णनं विहितम्‌। 3. सम्प्रज्ञात पद का क्या अर्थ है?,३. सम्प्रज्ञातपदस्य कोऽर्थः? उनमें प्रतिबन्धकत्व से स्थित अधर्म का निवारण मुख्यत्वरूप से आवश्यक होता है।,तेषु प्रतिबन्धकत्वेन स्थितस्य अधर्मस्य निवारणम्‌ मुख्यत्वेन आवश्यकमस्ति। यह ऋग्वेद के दशवे मण्डल में १५१ संख्या का सूक्त है।,इदम्‌ ऋग्वेदस्य दशममण्डले १५१ संख्याकं सूक्तम्‌। “अव्ययं विभक्ति समीप-समृद्ध्र- व्यृद्व्यर्थाभावात्ययाऽसम्प्रतिशब्दप्रादुर्भाव-पश्चात्‌ यथाऽऽनुपूर्व्य-योंगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु ''।। सूत्रार्थ-विभक्ति आदि अर्थो में वर्तमान अव्यम का सुबन्त के साथ नित्य समास होता है।,"""अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययाऽसम्प्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्‌-यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य-सम्पत्ति- साकल्याऽन्तवचनेषु""।। सूत्रार्थः - विभक्त्यर्थादिषु वर्तमानम्‌ अव्ययं सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते।" सविकल्पक समाधि में भी योगी आनन्द का अनुभव करता है।,सविकल्पकसमाधौ अपि योगी आनन्दमनुभवति। त्वचा मांसादि सहित अशुद्ध शरीर को जो आत्मा मानता है वह मूढ होता है।,त्वङ्मांसास्थिसहितम्‌ अशुद्धं शरीरं यः आत्मा इति मनुते सः मूढः भवति। विशिष्ट अर्थ किसी एक पद का नहीं है।,विशिष्टः अर्थः कस्यापि एकस्य पदस्य नास्ति। विजिग्ये - विपूर्वक जि-धातु से आत्मनेपद लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।,विजिग्ये - विपूर्वकात्‌ जि-धातोः आत्मनेपदिनः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। उसमें असर्पभूतरज्जु में सर्प का आरोप अध्यारोप होता है।,तस्याम्‌ असर्पभूतायां रज्ज्वौ सर्पस्य आरोपः अध्यारोपः। तुम्हारे क्रोध को शत्रुओं पर अब स्थिर करो।,युष्माकं क्रोधं शत्रुतां च अधुना स्थिरीकुरुत । पूरी बात सुनकर मनु उस मछली को समुद्र में लेकर के गए।,सर्वं श्रुत्वा मनुः तं मत्स्यं समुद्रम्‌ अनयत्‌। दण्डिन्‌ शब्द नान्त प्रातिपदिक है।,एवञ्च नान्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति दण्डिन्‌ इति। और उसका शुद्ध उच्चारण शिक्षा शास्त्र में उपदेश दिया है।,तच्च अशुद्धोच्चारणं शिक्षाशास्त्रं समुपदिशति। इसको तिरछा सब दिशाओं में और न ही मध्य देश में भी ग्रहण नही कर सकते है।,एनं तिर्यञ्च चतुर्दिक्षु न परि मध्ये मध्यदेशेपि न गृह्णाति। 12. जो नहीं मानते या जानते नहीं है।,12. अमन्यमानाः अजानन्तः। "उदात्त से परे अनुदात्त को स्वरित होता है, परन्तु यदि अनुदात्त के परे उदात्त अथवा स्वरित हो तो पूर्व अनुदात्त के स्थान में स्वरित नहीं होता है।",उदात्तात्परस्य अनुदात्तस्य स्वरितो भवति परन्तु यदि अनुदात्तस्य परं उदात्तः स्वरितो वा स्यात्‌ तर्हि पूर्वस्य अनुदात्तस्य स्वरितो न भवति। "शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्द, और ज्योतिष ये छ: वेदाङ्गों के नाम है।","शिक्षा, व्याकरणम्‌, कल्पः, निरुक्तम्‌, छन्दः, ज्योतिषञ्च इत्येतानि वेदाङ्गानां नामानि।" भाषितपुंस्काद्‌ अनूङ यस्यां सा भाषितपुस्कादनूङ तस्याः भाषितपुंस्कादनूङ।,"भाषितपुंस्काद्‌ अनूङ्‌ यस्यां सा भाषितपुंस्कादनूङ्‌, तस्याः भाषितपुंस्कादनूङ्‌ इति।" सूत्र का अर्थ- पूर्व शब्द के उत्तरपद रहते भूतपूर्ववाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृति स्वर हो जाता है।,सूत्रार्थः- पूर्वशब्दे उत्तरपदे भूतपूर्व अर्थ तत्पुरुषे पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। गतिः इसकी गतिश्च इस सूत्र से विधियमान प्र आदि की गतिसंज्ञक और उपसर्ग कहलाते है।,गतिः इत्यनेन गतिश्च इति सूत्रेण विधीयमानाः प्रादयः गतिसंज्ञकाः उपसर्गाः उच्यन्ते। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने श्री मद्भगवद्गीता में कहा है “दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दूरत्यया।,अतः एव भगवता श्रीकृष्णेन श्रीमद्भगवद्गीतायां कथ्यते- “दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दूरत्यया। यह आरण्यक यजुर्वेद के साथ सम्बद्ध है।,आरण्यकमिदं यजुर्वेदेन सह सम्बद्धः अस्ति। जब पट कारण युक्त तन्तु को जलाने से पट रूपी कार्य का भी नाश हो जाता है।,तदा पटकारणतन्तुदाहे पटदाहवत्‌ कार्यम्‌ अपि नश्यति। इसके बाद यस्येति च सूत्र से अकार का लोप होने पर और वर्णसम्मेलन होने पर शार्ङ्गरवी रूप सिद्ध होता है।,ततः यस्येति च इति सूत्रेण अकारलोपे कृते वर्णसम्मेलने च कृते शार्ङ्गरवी इति रूपं सिध्यति। अर्थ प्रकृति से सुबन्त के साथ तृतीयान्त का समास में उदाहरण होता है।,अर्थप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह तृतीयान्तस्य समासे उदाहरणं भवति । "ऋग्वेद में एक विशिष्ट मण्डल है, वह दसवाँ मण्डल है, जहाँ भाषा में, छन्द में पूर्व-पूर्व मण्डलों की अपेक्षा भेद देखते हैं, उसी की यहाँ संक्षेप में कुछ आलोचना कौ जायेगी।","ऋग्वेदे एकं विशिष्टं मण्डलं वर्तते, तद्धि दशममण्डलं, यत्र भाषायां छन्दसि पूर्व- पूर्वमण्डलापेक्षया भेदः दृश्यते, तदत्र संक्षेपेण किञ्चिदालोचितम्‌।" "श्रेणिकृताः यहाँ पर कर्मधारय समास स्वीकार करते है, तो पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।",श्रेणिकृताः इत्यत्र कर्मधारयसमासः स्वीक्रियते चेत्‌ पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं भवति। काठक संहिता से अनेक प्रकार की विभिन्नता और पृथकता इस कापिष्ठल संहिता में दिखाई देती है।,काठकसंहितातः अनेकविधं वैभिन्यं पार्थक्यञ्च अस्यां कापिष्ठलसंहितायां परिलक्ष्यते। सम्यक्‌ ज्ञान से तात्पर्य है ब्रह्म के साथ एकत्व का ज्ञान।,सम्यग्ज्ञानं नाम ब्रह्मैकत्वज्ञानम्‌। सह शब्द के योग से।,सहयोगात्‌ इससे ङीन्‌ प्रत्यय का विधान किया गया है।,इदं सूत्रं ङीन्प्रत्ययं विदधाति। वहाँ अनुदात्तम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,तत्र अनुदात्तम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। सविकल्पक समाधि में विच्छिद्‌ चित्तवृत्ति नहीं होती है।,सविकल्पकसमाधौ विच्छिद्य विच्छिद्य चित्तवृत्तिः न भवति। अस्वस्थ होने पर ब्राह्मण और यजमान क्या करें?,अस्वास्थ्ये सति ब्राह्मणः यजमानः किं कुर्यात्‌? उसके द्वारा किसकी निवृत्ति होती है।,तेन कस्य निवृत्तिः भवति। निरुक्त में कुछ निर्वचनों के उदाहरण लिखिए।,निरुक्ते कानिचन निर्वचनानामुदाहरणानि लिखत। वरुण को उद्दे्य करके एक पुरोडाश अर्पण करते हैं।,वरुणम्‌ उद्दिश्य एकः पुरोडाशः अर्प्यते। इसके बाद पुरुष सु इस उपमेय के उपसर्जनत्व से पूर्व निपात होने पर सुप्‌ लोप निष्पन्न होने पर पुरुषव्याघ्रशब्द से सु प्रत्यय प्रक्रिया कार्य में पुरुष व्याघ्रः रूपं सिद्ध होता है।,ततः पुरुष सु इत्युपमेयस्य उपसर्जनत्वात्‌ पूर्वनिपाते सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ पुरुषव्याघ्रशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये पुरुषव्याघ्रः इति रूपं सिद्धम्‌। सूत्र का अर्थ- पूर्वपद स्थित कुमार शब्द को भी कर्मधारय समास में प्रकृतिस्वर होता है।,सूत्रार्थः- पूर्वपदस्थः कुमारशब्दः कर्मधारये समासे प्रकृत्या भवति। इसलिए मुमुक्षु के द्वारा काम्य कर्मों का त्याग कर देना चाहिए।,अतः काम्यकर्म वर्जनीयं मुमुक्षुणा। 27. अविग्रह अथवा अस्वपद विग्रह नित्य समास है।,२७. अविग्रहो अस्वपदविग्रहो वा नित्यसमासः। देवो में वह एक ही स्वामी है।,देवेषु सः एक एव स्वामी। यजुर्वेद और सामवेद संहिता साहित्य। इस पाठ में यजुर्वेदीय संहिता साहित्य और सामवेदीय संहिता साहित्य की आलोचना की गई है।,यजुर्वद-सामवेद-संहितासाहित्यम्‌। अस्मिन्‌ पाठे यजुर्वदीयसंहितासाहित्यं सामवेदीयसंहितासाहित्यं च आलोच्यम्‌। तीन पाद के विस्तार से भी सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है।,पादयोः त्रिः विस्तारेण स समग्रम्‌ अपि विश्वं व्याप्नोत्‌। इसके बाद समास के प्रातिपदिक होने पर उसके अवयव के सुपः आम लुकि निष्पन्न होने पर प्रातिपदिक होने पर समुद्र इससे प्रथमा एकवचन में सौ समुद्र सु ऐसा होने पर “नाव्ययी भावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः'' इससे भी सु के स्थान पर अमादेश होने पर दोनों अकारों के स्थान पर पूर्व रूप होने पर समुद्रम्‌ रूप निष्पन्न होता है।,"ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ तदवयवस्य सुपः आमः लुकि निष्पन्नात्‌ प्रातिपदिकात्‌ सुमद्र इत्यस्मात्‌ प्रथमैकवचने सौ सुमद्र सु इति जाते, ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" इत्यनेन सोरमि अकारद्वयस्य स्थाने पूर्वरूपे सुमद्रम्‌ इति निष्पन्नम्‌।" 4 जीवन्मुक्ति का प्रमाण क्या है?,४. जीवन्मुक्तेः प्रमाणं किम्‌? फिर भी एकान्ततया निवृत्ति नहीं होती है।,तथापि एकान्ततया न भवति। अधिकांश शब्द भी बाहुल्य से भिन्न होते है।,शब्दाः अपि बाहुल्येन भिन्ना भवन्ति। '' अर्थशब्द से चतुर्थ्यन्त का नित्यसमास और समास में विशेष्यलिङगता होती है।,"""अर्थशब्देन चतुर्थ्यन्तस्य नित्यसमासः समासे च विशेष्यलिङ्गता च भवति।" इस प्रकृतपाठ में अथर्ववेद के अन्तर्गत पृथ्वी सूक्त का वर्णन किया गया है।,प्रकृतपाठे अस्मिन्‌ अर्थववेदे अन्तर्गतस्य पृथिवीसूक्तं वर्ण्यते। श्रितादि सुबन्तों के द्वारा श्रितादिप्रकृति के द्वारा सुबन्त आदि का समास होता है यही सूत्र का अर्थ है।,श्रितादिभिः सुबन्तैः इत्यस्य श्रितादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः इत्यर्थः। उसकी प्रत्यंचा टूट जाए।,विगता ज्या यस्य तत्‌। विवेकानन्द के दर्शन का मूलवेशिष्ट्य संक्षेप में लिखिए।,विवेकानन्ददर्शनस्य मूलवैशिष्ट्यानि संक्षेपेण लिखत। निरुक्त जनित अर्थ से भी ब्राह्मण वाक्यों का समर्थन होता है।,निरुक्तजन्येन अर्थेन अपि ब्राह्मणवाक्यानां समर्थनं भवति। इस प्रकार से आकाश की तथा तेज की ब्रह्म से उत्पन्न होने वाली श्रुति श्रुत्यन्तर विहित तेज प्रमुख उत्पत्तिक्रम का वारण नहीं करती है।,"एवम्‌ आकाशस्य तेजसश्च ब्रह्मजत्वात्‌ श्रुतिः न श्रुत्यन्तरविहितं तेजःप्रमुखम्‌ उत्पत्तिक्रमं वारयति, न च श्रुत्यन्तरविहितं।" 9. अभ्यवहरासि यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,९. अभ्यवहरासि इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? अत शुतुद्रि इस पद का पाद के आदि में स्थित होने से प्रकृत सूत्र से अनुदात्त स्वर नहीं होता है।,अतः शुतुद्रि इति पदस्य पादादौ स्थितत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण अनुदात्तस्वरः न भवति। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ब्राह्मण ग्रन्थों के महत्त्वपूर्ण विषयों को जान पाने में; मुख्य आख्यान और उनमें प्रतिपादित विषयों को समझ पाने में; संहिता ब्राह्मण की भिन्नता बता पाने में; देव अमर कैसे हुए इस विषय को समझ पाने में; और प्रधान ब्राह्मण ग्रन्थों के विषय में विस्तार से जान पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - ब्राह्मणग्रन्थानां महत्त्वविषये अधिकतया ज्ञास्यति। मुख्यानि आख्यानानि कानि भवन्ति किञ्च तेषां प्रतिपाद्यमानानां विषायाणां विषये अपि अधिकतया ज्ञास्यति। संहिताब्राह्मणयोः पार्थक्यं ज्ञास्यति। देवाः कथं अमरा अभवन्‌ इति ज्ञास्यति। प्रधानानां ब्राह्मणग्रन्थानां विषये अपि विस्तारेण ज्ञास्यति। अब इन उपक्रमादि लिङ्गों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है 11.10.2 ) उपक्रम तथा उपसंहार प्रकरण प्रतिपाद्य अर्थ का प्रकरण के आदि में तथा अन्त में उपपादन तथा उपक्रम तथा उपसंहार होते है।,इदानीम्‌ एतेषाम्‌ उपक्रमादिलिङ्गानां विवरणं प्रस्तूयते-२३.१०.२) उपक्रमोपसंहारौ प्रकरणप्रतिपाद्यस्य अर्थस्य प्रकरणस्य आदौ अन्ते च उपपादनम्‌ उपक्रमोपसंहारौ इति। ब्रह्म के बिना अज्ञानकार्यभूत सबकुछ अवस्तु होता है।,ब्रह्म विना अज्ञानकार्यभूतं सर्वम्‌ अवस्तु भवति। किन्तु निघण्टु-निरुक्त आदि-ग्रन्थों के अनुशीलन से जाना जाता है कि कौरायाण पद का यास्क के द्वारा किया अर्थ बनाये हुए यान होता है।,किञ्च निघण्टु-निरुक्तादि-ग्रन्थानाम्‌ अनुशीलनेन ज्ञायते यत्‌ कौरयाणपदस्य यास्केन कृतोऽर्थः कृतयानो भवति। इतने समय तक समाहित हुआ हूँ इत्यादि में समाहितोत्थित समाधि में अज्ञात के द्वारा वृत्त सद्भाव का अनुमान किया जाता है।,“एतावन्तं कालं समाहितोऽभूवम्‌' इत्यादि-समाहितोत्थित-परामशात्‌ समाधौ अज्ञाततया वृत्तिसद्भावः अनुमीयते। कर्मों को साधने वाली इन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं।,कर्मणः साधनानि इन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि। जो दोनो से होता है वह अद्वैत कहलाता है।,द्वाभ्याम्‌ इतं द्वीतम्‌। इसप्रकार सृष्टिप्रतिपादक सूक्त भाग का अर्थ हुआ।,एतावता सृष्टिप्रतिपादकसूक्तभागार्थः संगृहीतः। इसलिए मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है।,अतः मोक्षः एव परमः पुरुषार्थः। व्यष्टिसूक्ष्मशरीर अज्ञानोपहित चैतन्य तैजस होता है।,व्यष्टिसूक्षशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं तैजसः। इसी प्रकार से त्वम्पद से अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्ट स्वार्थ का परित्याग करके तत्पदार्थ अर्थात्‌ ईश्वर चैतन्य को लक्षित करे।,एवमेव त्वम्पदम्‌ अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टं स्वार्थं परित्यज्य तत्पदार्थम्‌ ईश्वरचैतन्यं लक्षयतु। 23. “सुपो धातुप्रातिपदिकयोः' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"२३. ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इति सूत्रस्य कः अर्थः?" "क्योंकि ` आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से पाद के आदि में जो नहीं है, विद्यमान आमन्त्रित उन सभी को अनुदात्त स्वर की प्राप्ति होती है।",तो हि 'आमन्त्रितस्य च' इत्यनेन सूत्रेण अपादादौ विद्यमानस्य आमन्त्रितस्य सर्वानुदात्तस्वरः विधीयते। जिस प्रकार से दीपक मार्ग के अन्धकार का नाश करके पथिक को घर तक ले जाता है उसके बाद में उसका कार्य पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार से शास्त्र अज्ञानी को मार्ग दिखाकर के आत्मज्ञान की और ले जाते हैं।,यथा प्रदीपः मार्गस्य अन्धकारं नाशयित्वा गृहपर्यन्तं नयति पथिकं ततः तस्य कार्यं नश्यति तथैव शास्त्रम्‌ अपि अज्ञानिनं मार्ग प्रदर्श्य आत्मज्ञानं प्रति नयति। जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य प्रतिपादन ही वेदान्त का विषय है।,जीवस्य ब्रह्मणा साकम्‌ ऐक्यप्रतिपादनम्‌ एव वेदान्तानां विषयः। प्राचीन प्रमाण से भी सुन्दर उद्धरण और अनेक उदाहरण है।,प्राचीनप्रामाण्याद्‌ अपि सुष्ठु उद्धरणानि अनेकानि उदाहरणानि च सन्ति। एति दूरङ्गममिति दूरम्‌-गमम्‌।,एति दुरङ्ग॒ममिति दूरम्‌ - गमम्‌। परमात्मा से सभी उत्पन्न होते है इसलिए आत्मा और बल का दाता वो ही है।,"परमात्मनः सर्वम्‌ उत्पद्यन्ते। तस्मात्‌ आत्मनां दाता, बलस्य च दाता स एव।" वहाँ पर शास्त्र में अनेक उपाय बताए गये हैं।,तत्र नैके उपायाः सन्ति शास्त्रे। उस आमन्त्रितान्त पद के परे पूर्व में विद्यमान दिव: यह सुबन्त पद पर के अवयव के समान होता है।,तस्मिन्‌ आमन्त्रितान्ते पदे परे पूर्वं विद्यमानं दिवः इति सुबन्तं पदं परस्य अवयववत्‌ भवति। "अर्थशब्द के साथ समास में तावत्‌ द्विजायायं द्विजार्थः सुपः, द्विजार्था यवागू: द्विजार्थं पयः आदि इसके उदाहरण है।","अर्थशब्देन सह समासे तावद्‌ द्विजायायं द्विजार्थः सूपः, द्विजार्था यवागूः, द्विजार्थं पयश्चेति तदुदाहरणानि।" सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का सातवाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य सप्तमो मन्त्रः। इस प्रकार का मैं इस ससार में सभी और से व्याप्त होकर के रहता हूँ।,यत इदृग्भूताहमस्मि ततो हेतोः विश्वा विश्वानि सर्वाणि भुवनानि भुतजातान्यनुप्रविश्य वितिष्ठे विविधं व्याप्य तिष्ठामि। इसलिए जाग्रत कालीन स्थूल विषयों से इन्द्रिय उपरमित होने पर भी मन उन विषयों का फिर भोग करता है।,अतः जाग्रत्कालीनस्थूलविषयेभ्यः इन्द्रियाणाम्‌ उपरमेऽपि मनः अनुपरतं सत्‌ विषयान्‌ सेवते। और क्या प्राप्त करता है?,किम्‌ अन्यत्‌ प्राप्नोति? इन मुनियों के द्वारा अथर्ववेद का विशेष प्रचार हुआ।,एभिः मुनिभिः अथर्ववेदस्य विशेषप्रचारः सम्पन्नः अभवत्‌। किस ब्राह्मण में अग्निष्टोम का विवरण विस्तृत रूप से है?,कस्मिन्‌ ब्राह्मणे अग्निष्टोमस्य विवरणं विस्तृततया वर्तते ? दाशरात्र सूक्त में किसके द्वारा राजा दिवोदास के तथा उनके प्रतिपक्षि के सङ्घर्ष का सुंदर वर्णन किया गया है?,दाशरात्रसूक्ते केन राज्ञः दिवोदासस्य तथा तेषां प्रतिपक्षिणां सङ्घर्षस्य सुष्ठु वर्णनं कृतम्‌? वस्तुतः पञ्चीकरण पंचमहाभूतों का परस्पर सम्मिश्रण ही होता है।,वस्तुतः पञ्चीकरणं नाम पञ्चभूतानां परस्परसंमिश्रणम्‌। ब्राह्मण शब्द का अन्य अर्थ भी होता है - यज्ञ।,ब्राह्मणशब्दस्य अपरः अपि अर्थो भवति- यज्ञः। केवल अद्वितीय ब्रह्म ही अवभासित होता है।,केवलम्‌ अद्वितीयं ब्रह्म एव अवभासते। "सहस्राक्ष: = अनंत लोचनसमन्वित, अक्षिग्रहण से यहां सभी ज्ञानेन्दियों का उपलक्षक है।","सहस्राक्षः= अपरिमितलोचनसमन्वितः, अक्षिग्रहणम्‌ अत्र सर्वज्ञानेन्दियोपलक्षकम्‌।" 4. अन्नमय कोश का अनात्मत्व का प्रतिपादन कीजिए।,4 अन्नमयकोशस्य अनात्मत्वं प्रतिपादयत। कर्मकाण्ड में नित्यनैमित्तिककाम्य भेद से तीन प्रकार के कर्मवेद में कहे गए है।,कर्मकाण्डे नित्यनैमित्तिककाम्यभेदेन त्रिविधानि कर्माणि आम्नातानि। उससे उपकृष्णम्‌ उपकृष्णेन।,तेन उपकृष्णम्‌ उपकृष्णेन। अत: पटुपटुः इस उदाहरण में प्रकार आदिगण में पढ़े हुए पटु शब्द के प्रकारे गुणवचनस्य इस सूत्र से दो होने पर पटु पटु इस स्थित्ति में प्रकृत सूत्र से दूसरे पटु शब्द का अन्त्य उकार को उदात्त होता है।,अतः पटुपटुः इति उदाहरणे प्रकारादिगणे पठितस्य पटु शब्दस्य प्रकारे गुणवचनस्य इति सूत्रेण द्वित्वे पटु पटु इति स्थिते प्रकृतसूत्रे द्वितीयस्य पटुशब्दस्य अन्त्यस्य उकारस्य उदात्तत्वं भवति। यह समय गावों की रमणियों के लिए भी जल लाने का है।,समयोऽयं ग्राम्यरमणीनाम्‌ अपि जलानयनसमयः। प्रकृति से लकड़ी के होने पर भी द्यूत के समय में वह कभी किसी द्यूतकार को गिरा देता है और कभी किसी को उठाता है।,प्रकृत्या काष्ठं भूत्वापि द्यूतसमये सः कञ्चिद्‌ द्यूतकारं स्थगयति कञ्चिच्च प्रतिष्ठापयति । सभी जगह अवस्थित प्रज्ञान ब्रह्म ही है।,सर्वत्रावस्थितं प्रज्ञानं ब्रह्म एव। वेदान्तसारकार के द्वारा मनन के विषय में कहते हैं।,वेदान्तसारकारेण मननविषये उच्यते । घट में अज्ञान नहीं रुकता है।,न हि घटे अज्ञानं तिष्ठति। असुर शब्द का अर्थ क्या है ?,असुरशब्दस्य कः अर्थः ? सरलार्थः - उस (मछली) ने कहा - मैंने तुम्हे इस जल प्रलय से पार कर दिया है।,सरलार्थः - स ( मत्स्यः ) उक्तवान्‌ - अहं त्वाम्‌ अपारयाम्‌। वह वैराग्य कहलाता है।,तत्‌ एव वैराग्यम्‌ इति उच्यते। 1. अद्भ्यः सम्भृतः ... ये पुरुषसूक्त में कहे गये छः मन्त्रशुक्लयजुर्वेदीय है।,1. अद्भ्यः सम्भृतः इति पुरुषसूक्ते उपात्ता षट्‌ मन्त्राः शुक्लयजुर्वेदीयाः वर्तन्ते। सूत्र का अर्थ- कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते पूर्वपदस्थ अव्यवहित गति को प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः- कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे गतिरनन्तरः पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। “कुत्सितानि कुत्सजैः“ इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""कुत्सितानि कुत्सनैः"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" और मुमुक्षु भी नहीं है।,अपि च मुमुक्षुः अपि नास्ति। "अन्वय का अर्थ - सहस्राक्ष - हे सहस्र नेत्र वाले, शतेषुधे सौ बाण से युक्त, त्वम्‌ - आपका, धनु: -धनुष, अवतत्य विस्तार करके, शनल्यानां - बाणसमूह का, मुखा - अग्रभाग को, निशीर्य- अच्छि प्रकार से तेज करके, नः - हमारे, प्रतिशिवः शान्त, और कल्याणकारी हो।","अन्वयार्थः- सहस्राक्ष - हे सहस्रलोचन, शतेषुधे शतेषुधियुक्ते त्वम्‌ - तव, धनुः - धनुष्‌ अवतत्य आरोपितं न कृत्वा, शनल्यानां - बाणसमूहानां, मुखा - मुखान्‌ निशीर्य - शीर्णं कृत्वा, नः - अस्मान्‌ प्रति, शिवः शान्तः, सुमनाः शोभनमनस्कः भव।" वो चेतन और अचेतन में विविधरूप से व्याप्त है।,स चतनेषु अचेतनेषु च विविधरूपेण व्याप्तः अस्ति। दूसरे पत्थर पर सोमलता के पेषण से रस निकाला जाता है।,अपरस्मिन्‌ प्रस्तरखण्डे सोमलतायाः पेषणेन रसः निष्कास्यते। बभूव - भू-धातु से लिट्‌ लकार में प्रथमपुरुषएकवचन में बभूव रूप।,बभूव- भू-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने बभूव इति रूपम्‌। और वह शास्त्राध्ययन करता है।,शास्त्राध्ययनं च करोति। अध्यास के पदार्थों का निरूपण करें अथवा अध्यास के भेदों की आलोचना करें।,अध्यासपदार्थं निरूपयत। अथवा अध्यासभेदान्‌ आलोचयत। ईश्वर की इच्छा से भोगायत नाना स्थूल शरीरों की सृष्टि के लिए पञ्चीकरण सम्भव होता है।,ईश्वरेच्छया भोगायतनानां स्थूलशरीराणां सृष्टये पञ्चीकरणं सम्भवति। विशेषण का तदन्तविधि में अदन्त से अव्ययीभाव से होता है।,विशेषणस्य तदन्तविधौ अदन्ताद्‌ अव्ययीभावाद्‌ इति भवति। इसी प्रकार से “तत्त्वमसि” यहाँ पर भी जानना चाहिए।,एवमेव “तत्त्वमसि” इत्यत्रापि ज्ञेयम्‌। अत: उद्‌ इस गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है प्रकृतसूत्र से।,अतः उदिति गतिसंज्ञकम्‌ अनुदात्तं भवति प्रकृतसूत्रेण। "में स्थलू हूँ, मैं कृश हूँ, में सुन्दर हूँ इस प्रकार का भ्रान्तिग्रस्त यह जीव हो जाता है।",अहं स्थूलः अहं कृशः सुन्दरः इत्येवं भ्रान्तिग्रस्तः भवति। सभी जगह जो विद्वान्‌ अर्थ को समझने में समर्थ होता है वह ही अधिकारी समझा जाता है।,सर्वत्र यो हि अर्थी समर्थो विद्वान्‌ सः अधिकारित्वेन गण्यते। सर्वज्ञत्वाल्पज्ञत्वादि विशिष्ट वाचक पदों के विशेष्य अखण्ड ब्रह्म में यदि तात्पर्य होता है तो लक्षणा यहाँ पर स्वीकार्य नहीं होती है।,सर्वज्ञत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टवाचकपदानां विशेष्ये अखण्डब्रह्मणि यदि तात्पर्यं तर्हि लक्षणा अत्र न स्वीकर्तव्या। और उत्तरपद द्विगु का उदाहरण है पञ्चगवधनः।,उत्तरपदद्विगोश्च उदाहरणं पञ्चगवधनः इति। इस सूत्र से मकर आदि शब्दों का और अन्य शब्दों का आदि व दूसरा स्वर विकल्प से उदात्त होता है।,अनेन सूत्रेण मकरादीनां शब्दानाम्‌ अन्येषां च शब्दानाम्‌ आदिः द्वितीयश्च स्वरः विकल्पेन उदात्तो भवति। उसके परे होने पर शुभः इस पद के विसर्ग के स्थान में “षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु' इस सूत्र से सकार होता है।,"तस्मिन्‌ परे शुभः इति पदस्य विसर्गस्य स्थाने ""षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु' इति सूत्रेण सकारः भवति।" और उसके उदाहरण दिये गये हैं पुनः डाप्‌ प्रत्यय विधायक डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ सूत्र का व्याख्यान और उदाहरण हैं।,पुनः डाप्प्रत्ययविधायकस्य डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रस्य व्याख्यानम्‌ उदाहरणं च वर्तते। व्याख्या - इसने अत्यधिक वर्षा की।,व्याख्या - इयमतिवृष्टिविमोचनी । सम्बोधन विभक्त्यन्त पद को वेद में आमन्त्रित कहते है।,सम्बोधनविभक्त्यन्तं पदं वेदे आमन्त्रितम्‌ इत्युच्यते। इस इन्द्र के लिए गर्जनशील प्रेरणा के योग्य जब शब्दों से स्तुति करके त्वष्टा विश्वकर्मा वज्र को छोडते हैं।,अस्मै इन्द्राय स्वर्यं सुष्ठु प्रेरणीयं यद्वा शब्दनीयं स्तुत्यं त्वष्टा विश्वकर्मा वज्रं ततक्ष तनूकृतवान्‌। ब्रह्मविद्‌ गुरु उस प्रकार के शिष्य के लिए तत्त्वमसि आदि वाक्यों का उपदेश करता है।,ब्रह्मविद्गुरुः तादृशाय शिष्याय तत्त्वमस्यादिवाक्यम्‌ उपदिशति। ररीध्वम्‌ - आत्मनेपदि रा-धातु से लट्‌ मध्यमपुरुषबहुवचन में।,ररीध्वम्‌ - आत्मनेपदिनः रा - धातोः लटि मध्यमपुरुषबहुवचने । किसके लिये।,कस्मै। मीयन्ते - आत्मनेपद मा-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,मीयन्ते- आत्मनेपदिनः मा-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। "वह सोम को धारण करती है, त्वष्टा पूषा और भग को धारण करती है।","सा सोमस्य धारिका, त्वष्टारं पूषाणं भगं च धारयति।" ( ८.२.५ ) सूत्र का अर्थ- उदात्त के साथ एकादेश उदात्त होता है।,(८.२.५) सूत्रार्थः- उदात्तेन सह एकादेशः उदात्तः भवति। "इन्द्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्‌, शासक, स्थावर और जडम के तथा चेतन अचेतन पदार्थ के नियन्त्रक हैं।","इन्द्रः सर्वज्ञः, सर्वशक्तिमान्‌, शासकः, स्थावरजङ्गमयोः तथा चेतनाचेतनपदार्थयोः नियन्त्रकः।" वेदान्त मत में तत्प्रतीतिजननयोग्यत्वम्‌ ही तात्पर्यम्‌ इस प्रकार से अर्थ किया गया है।,वेदान्तमते- तत्प्रतीतिजननयोग्यत्वम्‌ एव तात्पर्यम्‌। "यह इशादेशश्छन्द में होने से, टित्त्व से ङीप्‌ होने पर।","इदम इशादेशश्छान्दसः, टित्त्वात्‌ ङीप्‌।" हमको धृष्णु धृष्णुना तृतीय अर्थ में प्रथमा।,नः अस्मान्‌ धृष्णु धृष्णुना तृतीयार्थे प्रथमा । "और सामर्थ्य के दो भेद होते हैं, एकार्थीभाव सामर्थ्य एवं अपेक्षासामर्थ्य।",सामर्थ्यं च द्विविधम्‌ एकार्थीभावसामर्थ्यं व्यपेक्षासामर्थ्यं चेति भेदात्‌। उदाहरण -यहाँ उदाहरण है तावत्‌ गोतल्लजः तल्लजः च असौ गौः च इस लौकिक विग्रह में तल्लज सु गो सु इस अलौकिक विग्रह में प्रशंसावाचक तल्लज सु सुबन्त के साथ जातिवाचक गो.सु. सुबन्त को प्रस्तुत सूत्र से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ गोतल्लजः इति। तल्लजश्चासौ गौश्च इति लौकिकविग्रहे तल्लज सु गो सु इत्यलौकिकविग्रहे प्रंशसावाचकेन तल्लज सु इति सुबन्तेन सह जातिवाचकं गो सु इति सुबन्तं प्रस्तुतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। """अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इस सूत्र का क्या अर्थ है?","""अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" 11. मनुमत्स्यकथा का सार लिखो।,११. मनुमत्स्यकथायां सारं लिखत। यज्ञ निरीक्षण कार्य सम्पादन के लिये मुनि व्यास ने सुमन्तु मुनि को अथर्ववेद पढ़ाया - “तदृक्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः।,यज्ञनिरीक्षणकार्यसम्पादनाय मुनिः व्यासः सुमन्तुमुनिमर्थववेदं पाठितवान्‌ - 'तदृक्वेदधरः पैलः सामगौ जैमिनिः कविः। उसके बाद जब मैं और बड़ी हो जाऊ तो मुझे समुद्र में लेकर के चले जाना।,"ततोऽपि यदा बृहत्कायः भविष्यामि तदा समुद्रम्‌ मां नयतु "" इति।" अनुमान के द्वारा तथा शब्द प्रमाण के द्वारा ही वह जाना जा सकता है।,अनुमानेन शब्दप्रमाणेन वा ज्ञातम्‌। अतः प्रत्यय ग्रहण परिभाषा से तिङन्त यह प्राप्त है।,अतः प्रत्ययग्रहणपरिभाषया तिङन्तम्‌ इति लाभः। साम में भी वैसे ही एका श्रुति नहीं होती है।,सामासु अपि तथैव न ऐकश्रुत्यम्‌। मित्र और वरुण यथाक्रम दिन और रात्रि के मान्य देवता है ऐसा आचार्य सायण ने कहा।,मित्रः वरुणश्च यथाक्रमं दिनस्य रात्रेश्च अभिमानिन्यौ देवते इति आचार्यः सायणः उक्तवान्‌। प्रथम आरण्यक में महाव्रत का वर्णन है।,प्रथमारण्यके महाव्रतस्य वर्णनमस्ति। शौण्डशब्द में बहुवचन निर्देश और गदपाठ से शौण्डशब्द शौण्डादिगण में विद्यमान शौण्डादि बोधक है।,शौण्डशब्दे बहुवचननिर्देशाद्‌ गणपाठाच्च शौण्डशब्दः शौण्डादिगणे विद्यमानानां शौण्डादीनां बोधकः। एक ही दिनमें सम्पन्न याग एकाह याग कहलाता है।,एकस्मिन्नेव दिने सम्पन्नयागः एकाहयागः इत्युच्यते। सभी लोक कर्म से प्राप्य होते हैं।,सर्वे लोकाः कर्मचिताः सन्ति। विपरीत भावना शरीराद्यध्याससंस्कारप्रचय होता है।,विपरीतभावना- शरीराद्यध्याससंस्कारप्रचयः। किरिकाणः- किरिणा काणः इस विग्रह में तृतीयातत्पुरुष समास में किरिकाणः यह रूप बनता है।,किरिकाणः- किरिणा काणः इति विग्रहे तृतीयातत्पुरुषसमासे किरिकाणः इति रूपं भवति। लेकिन जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में ऐसा नहीं होता है।,किन्तु जाग्रत्स्वप्नयोः तथा नास्ति। वहा स्थित घोडे के समूह के उपासक के स्तोता के रूप से वर्णन किया गया है।,तत्र स्थितान्‌ अश्वसमूहस्य उपासकान् स्तोतारः इति वर्णयन्ति। प्राणायाम आसनसिद्ध होने पर ही होता है।,प्राणायामो हि आसनसिद्धौ सत्यां भवति। अतः यहाँ पुनरुक्ति दोष नहीं है।,अतः न पुनरुक्तिदोषः। नाम और रूप को रचकर परम पुरुष परमात्मा उसके मध्य में रहता है - उसको रचकर उस में ही प्रवेश करता है।,नाम रूपं च सृष्ट्वा परमपुरुषः परमात्मा तन्मध्ये प्रविशति - 'तत्‌ सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्‌'। शाकस्य लेशः इस लौकिक विग्रह होने पर शाक डस्‌ प्रति अलौकिकविग्रह होने पर प्रकृतसूत्र से मात्र अर्थ में विद्यमान के प्रति इस अव्यय के साथ सह शाक डस्‌ इससे समर्थ का सुबन्त को अव्ययी भाव संज्ञा होती है।,शाकस्य लेशः इति लौकिकविग्रहे शाक ङस्‌ प्रति इत्यलौकिकविग्रहे प्रकृतसूत्रेण मात्रार्थे विद्यमानस्य प्रति इत्यव्ययेन सह शाक ङस्‌ इत्यनेन समर्थं सुबन्तम्‌ अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति। सूत्र का अर्थ- चित है जिस समुदित शब्द में उस शब्द को अन्त उदात्त होता है।,(६.१.१६३) सूत्रार्थः- चितः अन्तः उदात्तः स्यात्‌। “न निर्धारणे” इस सूत्र निषेध से यहाँ षष्ठी समास नहीं होता है।,न निर्धारणे इति सूत्रेण निषेधात्‌ नात्र षष्ठीसमासः। ( ८.१.३ ) सूत्र का अर्थ- जिसकी आम्रेडित संज्ञा होती है वह अनुदात्त भी होता है।,(८.१.३) सूत्रार्थः-द्विरुक्तस्य परं रूपम्‌ अनुदात्तं स्यात्‌।। इस महावाक्यों के तात्पर्य के लिए तात्पर्यलिङगों का सबसे पहले विचार किया जा रहा है।,अतः महावाक्यानाम्‌ तात्पर्यनिर्णयाय तात्पर्यलिङ्गानि आदौ विचार्यन्ते। "वज्र के देव रुद्र, इस विषय में वेद में बहुत वर्णन प्राप्त होता है।","वज्रस्य देवः रुद्रः, अस्य विषये वेदे भूयसी वर्णना प्राप्यते।" इसलिए ब्रह्मज्ञान का प्रतिबन्ध होता है।,अतः ब्रह्मज्ञानस्य प्रतिबन्धो भवति। इनका ऋग्वेद में स्थान आठवे मण्डल के उन्चासवें सूक्त से आरम्भ करके उनसठ सूक्त पर्यन्त है।,एतेषामृवेदे स्थानम्‌ अष्टममण्डलस्यान्तराले ऊनपञ्चाशत्तमात्‌ सूक्तादारभ्य ऊनषष्टितमं सूक्तपर्यन्तमस्ति। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय का तथा पञ्चमहायज्ञों का वर्णन है।,द्वितीयप्रपाठके स्वाध्यायस्य तथा पञ्चमहायज्ञानां वर्णनमस्ति। स्मृति आदि तो वेदमूलक होने से उसकी ही प्रमाण पदवी को धारण करते है।,स्मृत्यादयः तु वेदमूलकतया प्रमाणपदवीम्‌ आरोहन्ति । "आश्वलायन, और शाङ्खायन।","आश्वलायनं, शाङ्खायनञ्चेति।" 4 “इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः” इति कठोपनिषद्‌ में यह श्रुति है।,४. “इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः” इति कठोपनिषद्गता श्रुतिः। इसलिए वे ज्ञान के विषय होते है।,अतः ज्ञानस्य विषयाः भवन्ति। उनके दर्शन में श्रीरामकृष्ण का महान प्रभाव देखा जा सकता है।,तदीयदर्शने श्रीरामकृष्णस्य महान्‌ प्रभावः दरीदृश्यते। सोमयाग में पाँच दिनों में विहित अनुष्ठान का विवरण लिखो?,सोमयागे पञ्चमदिवसे विहितस्य अनुष्ठानस्य विवरणं करोतु। ",11.2.2 ) प्राणमय कोश अब प्राणमय कोश का निरूपण किया जा रहा है।",१८.२.२) प्राणमयकोशः अथ प्राणमयकोशः निरूप्यते। उसके गुरु का नाम कहौल कौषीतकि था।,तस्य गुरोर्नाम कहौलः कौषीतकिः इति आसीत्‌। वह ही यज्ञ का पुरोहित है।,स एव यज्ञस्य पुरोहितः। जिहीळे यहाँ पर क्या धातु है?,जिहीळे इत्यत्र कः धातुः ? "यज्ञभूमि पर आप के जो यजमान है, उनकी रक्षा करो, सुन्दर स्तुति करने के कारण उनके प्रति आप दानशाली हो।","यज्ञभूमौ भवन्तौ यं यजमानं रक्षतः, शोभनस्तुतिकारिणं तं प्रति भवन्तौ दानशालिनौ भवताम्‌।" दूसरों के धन में लोभ नहीं करना चाहिए।,परद्रव्येषु लोभः न कार्यः। वेद के लक्षण विषय में इससे पूर्व हमने आलोचना कि है।,वेदस्य लक्षणविषये इतः पूर्वं वयम्‌ आलोचनां कृतवन्तः। "सूत्र अर्थ का समन्वय- मकरः यह प्रयोग वेद में देखा जाता है, अतः प्रकृत सूत्र से मकर शब्द का छन्द में प्रयोग होने से और मकरादिगण के अन्तर्गत होने से प्रकृत सूत्र से उस मकर शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- मकरः इति प्रयोगः वेदे दृश्यते, अतः प्रकृतसूत्रेण मकरशब्दस्य छन्दसि प्रवर्तमानत्वात्‌ मकरादिगणे अन्तर्गतत्वात्‌ च प्रकृतसूत्रेण तस्य मकरशब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो भवति।" उसी प्रकार से अखण्डब्रह्माकार चित्तवृत्ति में प्रतिबिम्बचिदाभास अज्ञान का विनाश करता है।,तथैव अखण्डब्रह्माकारचित्तवृत्तौ प्रतिबिम्बितचिदाभासः अज्ञानं विनाशयति। सुषुप्ति से उत्थि की स्मृति भी उस समय कुछ नहीं जानती है।,सुषुप्त्युत्थितस्य स्मृतिरप्यस्ति प्रमाणतया। "अध्याय-3 अद्वैत वेदांत में अध्यारोप (पाठ 11 से 16 ) सभी दर्शनों का सामान्य परिचय ,अद्वैत वेदांत का विशेष परिचय माध्यमिक कक्षा में कराया गया है।","अध्यायः - ३ अद्वैतवेदान्ते अध्यारोपः (पाठाः - ११-१६) अध्यायस्य औचित्यम्‌ सकलदर्शनानां सामान्यपरिचयः, अद्वैवेदान्तस्य विशेषपरिचयः च माध्यमिकक्षायां कारितः।" उसके ही साधनचतुष्टय सिद्ध होते है।,तस्यैव साधनचतुष्टयं सिद्ध्यति। मन करणत्व कारक है तथा बुद्धि कर्तृत्व कारक है।,मनसः करणत्वं बुद्धेः कर्तृत्वञ्च इति विवेकः। प्रारब्धकर्म का नाश होने पर विदेहमुक्ति होती है।,प्रारब्धकर्मणो नाशे विदेहमुक्तिः भवति। हरिणा त्रातः इति हरिजातः (हरि से त्रस्त) चतुर्थी अन्त वाले अर्थ के लिए जो उसवाची अर्थबलिहितसुखरक्षितों के साथ चतुर्थ्यन्त सुबन्त को विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,हरिणा त्रातः हरित्रातः इति हरित्रातः। चतुर्थ्यन्तार्थाय यत्‌ तद्वाचिना अर्थबलिहितसुखरक्षितैः सह चतुर्थ्यन्तं सुबन्तं विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। अन्न का मध्यम अँश ही अत्यन्त विविक्त होता है।,अन्नस्य मध्यमांशद्‌ अत्यन्तं विविक्तः इति। “दमो बाह्येन्द्रियाणां तद्वयतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्‌” वेदान्त सार में दम कौ यह परिभाषा दी गई है।,"“दमो बाह्येन्द्रियाणां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्‌"" इति वेदान्तसारे उक्तम्‌।" इसमें स्थूलविषय तथा सूक्ष्म विषय नहीं होते है तथा विषयों का भान भी नहीं होता है।,स्थूलविषयाः सूक्ष्मविषयाश्च न सन्ति।तत्र विषायाणां भानमेव नास्ति। "जैसे वहां पर वृत्रासुर का विकराल रूप का वर्णन प्राप्त होता है, वैसा ही देवासुर सङ्ग्राम का भी वर्णन प्राप्त होता है।",यथा तत्र वृत्रासुरस्य विकटरूपस्य वर्णनं प्राप्यते तथा देवासुरसङ्ग्रामस्य अपि वर्णनं लभ्यते। उनके आध्यात्मिक श्रीरामकृष्ण थे।,तस्य आध्यात्मिकगुरुः आसीत्‌ श्रीरामकृष्णः। “पूर्वापरधरोत्तरमेकदेशनेकाधिकरणे '' ( 2.2.9 ) सूत्रार्थ- जब अव्ययी एकत्व विशिष्ट हो तब अव्यय के साथ पूर्व आदि सुबन्त का विकल्प से तत्पुरुष समास होता है।,पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे॥ (२.२.१) सूत्रार्थः - यदा अवयवी एकत्वविशिष्टः तदा अवयविना सह पूर्वादीनां सुबन्तानां विकल्पेन तत्पुरुषसमासो भवति। क्योंकि इसके यज्ञ का महत्त्व ब्राह्मण काल में ही स्वीकार किया है ( कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषे शतं समाः”) तथा बृहदारण्यक में कर्म संन्यास भावना की घोषणा ही नहीं है इस प्रकार (' पुत्रैषणायाश्च लोकैषणायाश्च ह्युत्थाय भिक्षाचर्य चरन्ति'- बृहदारण्य०)।,यतो ह्यस्मिन्‌ यज्ञस्य महत्त्वं ब्राह्मणकाले एव स्वीकृतमस्ति (कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्‌ शतं समाः”) तथा बृहदारण्यके कर्मसंन्यासभावनायाः घोषणा नास्ति एव इति (“पुत्रैषणायाश्च लोकैषणायाश्च ह्युत्थाय भिक्षाचर्यं चरन्ति”- बृहदारण्य०)। उदात्त-अनुदात्त-स्वरित-बोध कराने वाला पाणिनीय के दो सूत्रों को लिखिए।,उदात्त-अनुदात्त-स्वरित-बोधकं पाणिनीयसूत्रद्वयं लिखत। शांख्यायन आरण्यक का द्रष्टा कौन है?,शांख्यायनारण्यकस्य द्रष्टा कः? ' अतेर्लिटि' प्रथमा बहुवचन में झि प्रत्यय करने पर आरुः यह रूप बनता है।,अतेर्लिटि प्रथमाबहुवचने झिप्रत्यये आरुः इति रूपम्‌। दुन्दुभि की गर्जना को सुनकर शत्रु युवती का भयानक शास्त्र सङ्घर्ष के मध्य में अपने पुत्र को लेकर पलायन की प्रार्थना भी बहुत ही कारुणिक है।,दुन्दुभेः गर्जनं श्रुत्वा रिपुयुवत्याः भयानकास्त्रसङ्घर्षाणां मध्ये स्वपुत्रं नीत्वा पलायनस्य प्रार्थनाऽपि अतीव कारुणिका अस्ति। उपनिषद्‌ ब्रह्म के भाव को प्राप्त करने से इसे उपनिषद्‌ कहते हैं।,उपनिषीदति प्राप्नोति ब्रह्मत्यभावम्‌ अनया इति उपनिषत्‌। उपसमिधम्‌ रूप को सिद्ध करो?,उपसमिधम्‌ इति रूपं साधयत। इसी प्रकार सर्प के जो जो धर्म होते हैं वे सभी रस्सी मे कल्पित किये जाते है।,एवञ्च सर्पे ये ये धर्माः वर्तन्ते शिरस्त्वादयः ते रज्जौ कल्प्यन्ते। कुजपस्य अपत्यम्‌ इस अर्थ में कुजप शब्द से अण्‌ प्रत्यय करने पर कौजप: यह रूप बनता है।,कुजपस्य अपत्यम्‌ इत्यर्थ कुजपशब्दात्‌ अण्प्रत्यये कौजपः इति रूपम्‌। इस सूत्र के सामर्श्य से “कडाराः कर्मधारये'' यहाँ से प्राकृ पर्यन्त समास अधिकार है।,"तत्सूत्रसामर्थ्यात्‌ ""कडाराः कर्मधारये"" इत्यतः प्राक्‌ पर्यन्तं समासाधिकारः।" टिप्पणी में स्थित मत अधिक जिज्ञासु के लिए विशेष रूप से दिया हुआ है।,टिप्पणीस्थं मतम्‌ अधिकजिज्ञासूनां कृते विशेषतः प्रदत्तमस्ति। ततर्द - तृद्-धातु से लिट् प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,ततर्द - तृद्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। प्रगल्भता को प्राप्त होने के लिए।,धृष्णवे धर्षणशीलाय। इसलिए गीता में कहा है - अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।,अत एव उक्तं गीतायाम्‌ - अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। "11.5.2 ) त्वम्‌ पद का वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ व्यष्टि का कारणसूक्ष्मस्थूलशरीर अज्ञान समूह होता है, इससे उपहित चैतन्य अर्थात्‌ प्राज्ञ तैजस तथा विश्व होता है।","11.5.2) त्वम्पदस्य वाच्यार्थः लक्ष्यार्थः च - व्यष्टिकारणसूक्ष्मस्थूलशरीराज्ञानसमूहः, एतदुपहितं चैतन्यम्‌ अर्थात्‌ प्राज्ञः तैजसः विश्वः च।" चारों योगों का समन्वय विवेकानन्द के दर्शनानुसार कीजिए।,चतुर्णां योगानां समन्वयः विवेकानन्ददर्शनानुसारेण क्रियताम्‌। और्णनाभ इति आचार्य का मत है की विष्णु यहाँ पर सूर्य है।,और्णनाभः इति आचार्यस्य मतं यद्‌ विष्णुरत्र सूर्यः। ब्रह्म कर्म का प्रतिपादन करने से अथर्ववेद 'ब्रह्मवेद' इस नाम से जाना जाता है।,ब्रह्मकर्मणः प्रतिपादकत्वेन अथर्ववेदः 'ब्रह्मवेदः' इति कथ्यते। ऋगाद्यन्त समास के अप्रत्यय का अन्तावयव होता है अक्षे या धू: तदन्त का नहीं होता है।,"ऋगाद्यन्तस्य समासस्य अप्रत्ययः अन्तावयवो भवति, अक्षे या धूः तदन्तस्य न भवति।" 31. चित्त की विषयाकारिता क्या होती है?,३१. चित्तस्य विषयाकारता नाम का? उसको “ अनुदात्तौ सुप्पितौ ' इस सूत्र से ङीप्प्र्यय के अवयव ईकार को अनुदात्त स्वर की विवक्षा है।,तेन 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' इति सूत्रेण ङीप्प्रत्ययावयवस्य ईकारस्य अनुदात्तस्वरः विधीयते। "कृषिद्वारा प्राप्त धन में आदरभाव को प्रदर्शित किया गया, उससे ही सुख को प्राप्त होते है।",कृषिद्वारा लब्धेषु धनेषु आदरभावं प्रदर्शयन्तः तस्मादेव सुखं लभन्ताम्‌ । "किन्तु प्रकृत सूत्र से विहित कार्य तभी सम्भव है, जब गोष्ठज शब्द किसी भी ब्राह्मण का नाम है।",किञ्च प्रकृतसूत्रविहितं कार्यं तदैव सम्भवति यदा गोष्ठजशब्दः कस्यापि ब्राह्मणस्य नाम भवति। इन्द्रियों के शब्दादि अर्थ होते है।,इन्द्रियाणाम्‌ शब्दादयः हि अर्थाः। ग्रन्थ में मणिलाल का निबन्ध देखने योग्य है।,ग्रन्थे मणिलालस्य निबन्धः दर्शनीयोऽस्ति। तथा उससे आत्मस्वरूप का भान होता है।,तेन च आत्मस्वरूपस्य भानं भवति। इस प्रकार से कल्पितविचारों के निषेधों के द्वारा निर्विशेष ब्रह्म में ही गति होती है।,विचारैः कल्पितानां सर्वेषां निषेधद्वारा निर्विशिषब्रह्मावगतिः भवति। अतिङ: यह पद पदात्‌ इसका विशेषण है।,अतिङः इति पदं पदात्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌। जीरदानू - जीरं दानू ययोस्तौ इति बहुव्रीहिसमास में जीरदानू रूप बना।,जीरदानू- जीरं दानू ययोस्तौ इति बहुव्रीहिसमासे जीरदानू इति रूपम्‌। इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से दीर्घ होने पर आम्बष्ठया रूप सिद्ध होता है।,ततः अकः सवर्णे दीर्घः इति सूत्रेण दीर्घे च सति आम्बष्ठ्या इति रूपं सिध्यति। भिषक्‌ - रोग को दूर करने वाले भिषग्वैद्य चिकित्सक।,भिषक्‌-रोगहार्यगदंकारो भिषग्वैद्यौ चिकित्सके। और उस प्रकार के उदात्ततर का ही यहाँ प्रकृत सूत्र से विकल्प का विधान है।,एवञ्च तादृशम्‌ उदात्ततरत्वम्‌ एव अत्र प्रकृतसूत्रेण विकल्पे विधीयते। "सम्बोधन में अथवा प्रथमा, उस पद की आमन्त्रित संज्ञा होती है।","सम्बोधने या प्रथमा, तदन्तस्य पदस्य आमन्त्रितसंज्ञा भवति।" द्विपदात्मक इस सूत्र में “न'' अव्यय पद है और पूजनात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त रूप है।,पदद्वयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ नेत्यव्ययपदं पूजनात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। "इससे आगे ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इस सूत्र से तत्पुरुष अधिकार होने से त्रयसमास का विधान हुआ।","इतः अग्रे ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन सूत्रेण तत्पुरुषाधिकारे समासत्रयस्य विधानम्‌ अभवत्‌।" लेकिन सुलभता से उसकी प्राप्ति किसी को भी नहीं होती है।,किन्तु सुलभेन तस्य प्राप्तिः कस्यापि नास्ति। और वहाँ नागेश्वर भट्ट की टीका है।,तत्र नागेश्वरभट्टस्य टीका च वर्तते। तुम वारिवर्षक हो और हम लोगो के पालक हो।,अपः अस्माभिः निषिञ्चन्‌ स देवः असुरः उदकानां निरसितापि सन्‌ नः अस्माकं पिता पालकञ्च । इन सूक्तों में पुत्र उत्पन्न के लिए और उस उत्पन्न हुए शिशु की रक्षा के लिए सुंदर प्रार्थना भी प्राप्त होती है।,एतेषु सूक्तेषु पुत्रोत्पादनाय सद्योजातशिशोः रक्षणाय च भव्यप्रार्थनाऽपि प्राप्यते। जैसे छान्दोग्योपनिषद्‌ में अद्वितीय वस्तु का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा अविषयीकरण किया गया है।,यथा छान्दोग्योपनिषदि अद्वितीयवस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरेण अविषयीकरणम्‌। हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः॥३ ॥,हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः॥३ ॥ उनके द्वारा अपरोक्षानुभव का प्रामाण्य ही अद्वैतदर्शन में स्वीकार किया गया है।,तेन अपरोक्षानुभवस्य प्रामाण्यम्‌ अद्वैतदर्शने स्वीक्रियते। पुराणकारों के द्वारा भी कहा गया है।,पुराणकारेणापि कथ्यते। 8 वेदान्तसार में अधिकारी का लक्षण क्या बताया गया है उसका विवरण दीजिए?,८. वेदान्तसारे अधिकारिलक्षणं किमुक्तम्‌। निर्मल मन की एकाग्रता सम्पादन के लिए उपासना करना चाहिए।,निर्मलस्य मनसः एकाग्रतासम्पादनाय उपासनं कर्तव्यम्‌। "“ब्राह्मणेन निष्कारणः धर्मः षडङऱगों वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' इति अब शिक्षा की व्याख्या करेंगे - वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम, सन्तान ये शिक्षा अध्याय में बताये गए है।","'ब्राह्मणेन निष्कारणः धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' इति अथ शिक्षां व्याख्यास्यामः - वर्णाः, स्वरः, मात्रा, बलम्‌, साम, सन्तान इत्युक्तः शिक्षाध्यायः'।" अव्ययीभाव से इस विशेषण से अनः तदन्त विधि में अन्नन्ताद्‌ से होता है।,अव्ययीभावाद्‌ इत्यस्य विशेषणत्वाद्‌ अनः तदन्तविधौ अन्नन्ताद्‌ इति भवति। अब अपवाद को आरम्भ करते हैं।,अथ अपवाद आरभ्यते। "हे मनुष्यों, यह प्रसिद्ध सबसे पूर्व प्रथम उत्पन्न हुआ है।","जनाः , ह प्रसिद्धमेष पूर्वः प्रथमो जात उत्पन्नः।" "पथ्य के तीन शिष्य थे - जाजलि, कुमुद, और शौनक।","पथ्यस्य त्रयः शिष्याः आसन्‌- जाजलिः, कुमुदः, शौनकश्च।" "इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे - मन्त्रों के स्वर विधान के विषय में जान पाने में; स्वर विधायक सूत्रों को समझ पाने में; सूत्रों का अर्थ और उदाहरणों को समझ पाने में; उदाहरणों में सूत्रों के अर्थों का समन्वय कैसे होता है, इसे समझ पाने में; और आमंत्रित विषयों को जान पाने में।",इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - मन्त्राणां स्वरविधानविषये जानीयात्‌। स्वरविधायकानि सूत्राणि अवगच्छेत्‌। सूत्राणाम्‌ अर्थान्‌ उदाहरणानि च बोद्धुं शक्नुयात्‌। उदाहरणेषु सूत्रार्थानां समन्वयः कथं भवति इति ज्ञातुं प्रभवेत्‌। अप्रवृत्त कर्मों के फल प्रदान में असम्भव होने से दुःखफलविशेषों की अनुपत्ति नहीं होनी चाहिए।,न अप्रवृत्तानां कर्मणां फलदानासम्भवात्‌ ; दुःखफलविशेषानुपपत्तिश्च स्यात्‌। वह ही धर्मरहस्य है।,तत्‌ एव धर्मरहस्यम्‌ । व्याधिकरणे पदे इसका अर्थ असमानविभक्तिक पदे हैं।,व्यधिकरणे पदे इत्यस्य अर्थो हि असमानविभक्तिके पदे इति। "इससे रहस्यब्राह्मण, और आरण्यक के एकता की सिद्धि होती है, आरण्यक का अन्य नाम रहस्य भी है (गोपथ० ब्रा० १०)।","अनेन रहस्यब्राह्मण- आरण्यकयोः एकतायाः सिद्धिर्भवति, आरण्यकस्य नामान्तरं रहस्यमपि अस्ति (गोपथ० ब्रा० १०)।" जाग्रतकाल के समान ही स्वप्नस्थ भोग स्थूल नहीं होते हैं।,जाग्रत्कालीनवत्‌ स्वप्नस्थभोगाः न स्थूलाः । नियम पाँच होते हैं शौच सन्तोष तप स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान इनका विस्तार से आलोचन नीचे दिया जा रहा हैं शौच शुचिता तथा पवित्रता को कहते है।,नियमास्तावत्‌ शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि। एतेषां विस्तरश आलोचनमधो विधीयते।शौचं नाम शुचिता पवित्रता वा। वह बहुत वार पराजित होकर के भी उस आसक्ति से मुक्त नही होता है।,सः बहुवारं पराजितः भूत्वा अपि न तस्याः आसक्तेः मुक्तः । विधि कर्म का इष्टसाधन बोध कराने में इष्टसाधन पुरुष को प्रवृत करता है।,विधिः कर्मणाम्‌ इष्टसाधनत्वबोधनमुखेन इष्टसाधने पुरुषं प्रवर्तयति। मन के असत्व होने पर बन्धन नहीं होता है।,मनसः असत्त्वे स बन्धो नास्ति| उसका आनन और पृष्ठ देश घृतवर्ण से युक्त है।,तस्य आननं पृष्ठदेशश्च घृतवर्णयुतः। साम्प्रदायिक लोग भी कहते हैं कि जो तत्त्वमसि वाक्य हैं यहाँ पर तत्पदवाच्य का परोक्षत्वासर्वज्ञत्वादि विशिष्ट के त्वम्पदवाच्य के द्वारा अपरोक्षत्व अल्पज्ञत्वादि विशिष्ट के साथ ऐक्य अनुपत्ति से ऐक्यसिद्धि के लिए ही स्वरुप में लक्षणा स्वीकार करना चाहिए।,साम्प्रदायिकाः अपि कथयन्ति यत्‌ तत्त्वमसि इत्यत्र तत्पदवाच्यस्य परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टस्य त्वम्पदवाच्येन अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टेन साकम्‌ ऐक्यानुपपत्तेः ऐक्यसिदुध्यर्थमेव स्वरूपे लक्षणा स्वीकर्तव्या इति। विशेष- यहाँ दूरं नाम कितने दूर को इस प्रकार की जिज्ञासा स्वाभाविकता से होती ही है।,विशेषः- अत्र दूरं नाम कियद्‌ दूरं स्यात्‌ इति जिज्ञासा स्वाभाविकतया भवति एव। अतः समग्र संसार का वो ही एक स्वामी है।,तस्मात्‌ समग्रसंसारस्य स एव एकः स्वामी। यहाँ अग्निज्ञान अग्नि का प्रतीक रूप भी कह सकते है।,अग्निः अत्र ज्ञानाग्नेः प्रतीकरूपः अपि वक्तुं शक्यते। विशेष- यह सूत्र पूर्व के आद्युदात्तश्च इस सूत्र का अपवाद है।,विशेषः- एतत्‌ सूत्रं पूर्वस्य आद्युदात्तश्च इति सूत्रस्य अपवादभूतम्‌ अस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- उत यह निपात संज्ञक शब्द है।,सूत्रार्थसमन्वयः- उत इति निपातसंज्ञकः शब्दः। इसीप्रकार निरूपाधिक के प्रतिपादन के लिए सोपाधिक का प्रतिपादन अपेक्षित है।,एवं निरुपाधिकस्य प्रतिपादनाय सोपाधिकस्य प्रतिपादनञ्च अपेक्षते। वह दीप्ति से युक्त रक्त धुए को घोड़े ले जाते हैं।,स दीप्तिमद्भिरभयं लोहिताभ्याम्‌ अश्वाभ्यां वाहितं स्यन्दनमेकं समारुह्य सञ्चरति। यह ही आरण्यक ' जैमिनीय उपनिषद्‌ ब्राह्मण कहलाता है।,इदमेव आरण्यकं 'जैमिनीयोपनिषद्ब्राह्मणमि'ति कथ्यते। परन्तु हिरण्यगर्भ सूक्त की कोई प्राकृतिक भित्ति नहीं है।,परन्तु हिरण्यगर्भसूक्तस्य नास्ति कापि प्राकृतिकभित्तिः। सूत्र की व्याख्या- यह विधायक सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- विधायकं सूत्रमिदम्‌। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है- प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।,भगवान्‌ श्रीकृष्णः गीतायाम्‌ उक्तवान्‌ यत्‌ -प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः। जो बद्ध होता है उसकी ही मुमुक्षा सम्भव होती है।,बद्धस्यैव मुमुक्षा सम्भवति। "जाग्रत अवस्था में जीव जिन-जिन विषयों का भोग करता है, वे विषय उसके चित्त में वासना के रूप में स्थित हो जाते हैं।",जाग्रत्काले जीवः यद्यद्विषयविशेषम्‌ अनुभवति तस्य सर्वस्यापि चित्ते वासनारूपेण स्थितिर्भवति। तब सुनहरे से मण्डित सूर्य पश्चिम की दिशा में शोभित होता है।,तदा सूवर्णमण्डितः सूर्यः पश्चिमायां दिशि शोभितो भवति। हे श्रद्धा इस लोक में हमे श्रद्धा से युक्त बनाओ।,हे श्रद्धे अस्मिन्‌ लोके अस्मान्‌ श्रद्धावतः कुरु। पुराणों में काठक लोग मध्य प्रदेशीय नाम से अथवा माध्यम नाम से विख्यात थे।,पुराणेषु काठकजनाः मध्यप्रदेशीयनाम्ना माध्यमनाम्ना वा विख्याताः आसन्‌। व्याख्या - मेरी सहायता से प्राणी अन्न खाते है।,व्याख्या- योऽन्नमत्ति सः भोक्तृशक्तिरूपया मयैवान्नमत्ति। इसलिए उस समय जगत का भान भी नहीं रहता है।,अत एव जगतः भानमपि नास्ति। ऋग्वेद के मुख्य देवों में से ये एक है।,ऋग्वेदस्य मुख्येषु देवेषु अयमेकः। शेषं सर्वम्‌ अनुदात्तम्‌ ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,शेषं सर्वम्‌ अनुदात्तम्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः। इसीलिए सुख का उपाय भी इष्ट है।,अत एव सुखस्य उपायः अपि इष्टः। यह धारण करना चाहिए की ये लोक उत्पत्ति तथा विनाश शील होते हैं।,इत्थम्‌ अवधारयेत्‌- एते लोकाः उत्पत्तिविनाशशालिनः सन्ति। उस सूत्र का अर्थ है - सुगन्धितेजनस्य और ते- इस शब्द का आदि और दूसरा स्वर विकल्प से उदात्त होता है।,ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- सुगन्धितेजनस्य ते- इति शब्दस्य च आदिः द्वितीयः विकल्पेन उदात्तः स्यात्‌ इति। उसी आदित्य को जानकर मृत्यु को पारकर परब्रह्म को प्राप्त करता है।,तम्‌ एव आदित्यं विदित्वा ज्ञात्वा मृत्युम्‌ अत्येति अतिक्रामति परं ब्रह्म गच्छति। "लकार है इत्‌ जिसका वह लित्‌, उस अर्थ में।","लकारः इत्‌ यस्य सः लित्‌ , तस्मिन्‌ इत्यर्थः।" पुण्य कममों के द्वारा फलों के अनुभव काल मे कुछ वृत्ति अन्तर्मुखी होने पर वह आनन्द को प्रतिबिम्ब कराने वाली होती है।,पुण्यकर्मणां फलानुभवकाले काचिद्धीवृत्तिःअन्तर्मुखा सती आनन्दप्रतिबिम्भभाक्‌ भवति। प्रारब्ध कर्मों का नाश होने पर देहनाश होने से विदेह मुक्ति भी हो जाती है।,प्रारब्धकर्मनाशे सति देहनाशात्‌ विदेहमुक्तिः भवति। "प्रकृतिस्वर यह कहने से समास होने से पहले जो स्वाभाविक स्वर था, समास करने के बाद भी वह ही स्वर रहता है।","प्रकृतिस्वरः इत्युक्ते समासभवनात्‌ प्राक्‌ यः स्वाभाविकः स्वरः आसीत्‌, समासकरणात्‌ परमपि स एव स्वरः तिष्ठति।" इसी सूक्त का प्रख्यात मन्त्र में (१०.७१.११) यज्ञ सम्पादक चारों ऋत्विजों का (होता - अध्वर्यु-उद्गाता - ब्रह्मा) स्पष्ट रूप से सङ्केत प्राप्त होता है।,अस्यैव सूक्तस्य प्रख्यातमन्त्रे (१०.७१.११) यज्ञसम्पादकानां चतुर्णाम्‌ ऋत्विजां होतृ-अध्वर्यु-उद्गातृ-ब्रह्मादीनां स्पष्टरूपेण सङ्केतो प्राप्यते। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे- तत्पुरुष अधिकार की सीमा जान पाने में। द्विगु की तत्पुरुष संज्ञा को जान पाने में। व्यधिकरण तत्पुरुष विधायक सूत्रों को जान पाने में। षष्ठी समास निषेध सूत्रों को जान पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌/भवती - तत्पुरुषाधिकारपरिधिं जानीयात्‌। द्विगोः तत्पुरुषसंज्ञा भवति इति जानीयात्‌। व्यधिकरणतत्पुरुषविधायकानि सूत्राणि जानीयात्‌। षष्ठीसमासनिषेधकानि सूत्राणि जानीयात्‌। उपाख्यान के अन्तर से अग्नि की उत्पत्तिविषय के अन्य यह तथ्य समर्थन करता है की अग्नि बैल के समान जल से उत्पन्न होता है।,उपाख्यानान्तरेण अग्नेरुत्पत्तिविषयकमपरं तथ्यमिदं समर्थ्यते यत्‌ अग्निः वृषभ इव अपामङ्के समुत्पन्नः। हे शतबाण से युक्त यह अर्थ है।,हे शतबाणयुत इत्यर्थः। विदेहमुक्ति की और भी स्थिति शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित की गई है “विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति।,"अपि च विदेहमुक्तस्य स्थितिः शास्त्रैः प्रतिपाद्यते तद्यथा- ""विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति।" इसलिए पशु के बन्धन तथा मुक्ति का हेतु वह रज्जु होती है।,अतः पशोः बन्धहेतुर्भवति रज्जुः। इसलिए यदि जीव की पूजा की जाए तो वह अनिर्देश्य ईश्वर की ही पूजा होती है।,अतः जीवस्य यदि पूजा क्रियते तर्हि एव अनिर्देशस्य ईश्वरस्य पूजा भवति। जीव के स्वरूपभूत अखण्डब्रह्म का ज्ञान जब होता है तब स्वरूप अज्ञान तथा मूल अज्ञान का नाश हो जाता है।,जीवस्य स्वरूपभूतस्य अखण्डब्रह्मणः ज्ञानं यदा भवति तदा स्वरूपाज्ञानं मूलाज्ञानं वा नश्यति। कडाराः कर्मधारये सूत्र का ग्रहण।,कडाराः कर्मधारये इति सूत्रस्य ग्रहणम्‌। हिरनों के लिए शेर के समान।,मृगो न सिंहादिरिव। घृतरूप वर्षाजल से सम्पूर्ण पृथिवी का तथा आकाश का सेचन करो।,घृतरूपिणा वर्षाजलेन समग्रां पृथिवीं तथा आकाशञ्च सिञ्चतु । इन कर्मो को करने पर तो ये निषिद्ध कर्मो के द्वारा सम्भावित दोषों का भी निवारण करनें में समर्थ होते हें।,एतानि कर्माणि कृतानि चेत्‌ निषिद्धैः कर्मभिः सम्भाव्या दोषा प्रायो वारयितुं शक्यन्ते। "इस याग के देवता प्रजापति, सूर्य, इन्द्र अथवा अग्नि होते हैं।","अस्य यागस्य देवता प्रजापतिः, सूर्यः, इन्द्रः अथवा अग्निः ।" (क) पर्वत (ख) अग्नि (ग) अग्नत्व (घ) धुआं ७ पुरुष बहुत्व प्रतिपादित करने वाली सांख्यकारिका क्या है?,(क) पर्वतः (ख) वह्निः (ग) वह्नित्वम्‌ (घ) धूमः १) पुरुषबहुत्वप्रतिपादिका सांख्यकारिका का। इस प्रकार अगाह और अनन्त शब्द वर्ण है।,इत्थम्‌ अगाधम्‌ अनन्तञ्च शब्दार्णवम्‌ अस्ति। याज्ञिक परिभाषा में द्रुत घृत का क्या नाम?,याज्ञिकपरिभाषायां द्रुतघृतस्य नाम किम्‌ ? इसका फलितार्थ यह हुआ की श्रवणादि विषयों को छोड़कर के अन्य विषयों से मन का निग्रह करना चाहिए।,श्रवणादिविषयान्‌ विहाय अन्येभ्यः मनोनिग्रहः कर्तव्य इति फलितार्थः। लोड यह प्रत्यय संज्ञक है।,लोड्‌ इति प्रत्ययसंज्ञकः अस्ति। हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं।,अस्माकं शरीरे सप्त चक्राणि सन्ति । इसलिए ब्रह्म का प्रकाश करने के लिए चिदाभास का उपायोग नहीं होता है।,तस्मात्‌ ब्रह्म प्रकाशयितुं चिदाभासस्य उपयोगः एव नास्ति। हाथ पैर से रहित।,अपात्‌ अहस्तः। उदच - उत्पूर्वक अच्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,उदच - उत्पूर्वकात्‌ अच्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌ । वैदिक काल में भी इसमे मत भेद था आलोचना द्वारा साकार और निराकार का समन्वय प्रदर्शित किया गया है।,वैदिके काले एव इदं मतपार्थक्यमासीत्‌। यास्कः आलोचनया साकारनिराकारयोः समन्वयम्‌ प्रदर्शितवान्‌। "इसके बाद समास का प्रातिपदिकत्व से सुप्‌ का लोप होने पर गो अक्षि इस स्थिति में “ङिच्च'' इस परिभाषा से परिष्कृत ""अवङ्‌ स्फोटायनस्य"" इससे गो शब्द के ओकार का अवड आदेश होने पर अनुबन्धलोप होने पर ग्‌ अव अक्षि होता है।","ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि गो अक्षि इति स्थिते ""ङिच्च"" इति परिभाषया परिष्कृतेन ""अवङ्‌ स्फोटायनस्य"" इत्यनेन गोशब्दस्य ओकारस्यावङि अनुबन्धलोपे ग्‌ अव अक्षि इति भवति।" ये पुरुष अन्तरात्मा सदामनुष्यों के हृदय में सन्निविष्ट रहता है।,पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः। तिरन्ति - तृ-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,तिरन्ति - तृ - धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । पर्वत में विद्यमान (तुम्हारी) नौका समुद्रजल से छिन्न नही होगी।,पर्वते विद्यमाना ( तव ) नौका समुद्रजलेन छिन्ना न स्यात्‌। यज्ञ से यह पशु अनायास ही दैवी रूप को प्राप्त करता है।,यज्ञेन अनायासेन एव अयं पशुः दैवीरूपं लभते। इसके अलाव और कोई रास्ते नहीं है।,नान्यः पन्था विद्यते। इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम आज भी अज्ञात ही है।,अस्य ग्रन्थस्य रचयितुः नाम अद्यापि अज्ञातम्‌ एव अस्ति। भले ही ग्रन्थ में बहुत से विषय कहे जाते हैं।,यतो हि ग्रन्थे नैके विषया उच्यन्ते। यजुर्वेद में गद्य है।,यजूंषि गद्यानि। परन्तु दन्तोष्ठम्‌ यहाँ उभयप्राधान्य का व्यभिचार है।,परन्तु दन्तोष्ठम्‌ इत्यत्रास्ति उभयप्राधान्यस्य व्यभिचारः। तृतीया का सुबन्त का विशेषण से तदन्तविधि में तृतीयान्त सुबन्त प्राप्त होता है।,तृतीयेत्यस्य सुबन्तम्‌ इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ तदन्तविधौ तृतीयान्तं सुबन्तमिति लभ्यते। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने भी बहुत जगह इसी प्रकार कहा है।,गीतायां भगवता श्रीकृष्णेनापि बहुधा एवमुच्यते। इसका उदाहरण “उपदशाः'' है।,उपदशाः इत्यादिकम्‌ इहोदाहरणम्‌। दुरित का परिणाम ही यह असम्भावना है।,दुरितस्य परिणाम एव इयम्‌ असम्भावना। "ऋग्वेद के किसी एक मन्त्र में (२।३३।२) रुद्र को उद्देश्य करके प्रार्थना भी की गई है, जैसा कहा गया है - शतं हिमा अशीय भेषजेभिः इति अर्थात्‌ हे रुद्रदेव जिससे हम तेरे द्वारा दी गई औषधि से सौ वर्ष जिन्दगी बितातें हैं।","ऋग्वेदस्य कस्यपि एकस्य मन्त्रे (२।३३।२) रुद्रम्‌ उद्दिश्य प्रार्थना अपि विहिता, तथा ह्याम्नातं -शतं हिमा अशीय भेषजेभिः इति अर्थात्‌ हे रुद्रदेव येन अहं तव प्रदत्तेन भिषजा शतं वर्षाणि जीवामि इति।" असुरः इसका निवर्चन लिखो।,असुरः इत्यस्य निवर्चनं लिखत ? "यदि आमन्त्रितान्त समान विभक्ति विशेषण पद परे रहता है, तो आमन्त्रितान्त बहुवचनान्त पद विकल्प से अविद्यमान के समान होता है यह उस सूत्र का अर्थ है।",यदि आमन्त्रितान्तं समानविभक्तिकं विशेषणपदं परं तिष्ठति तर्हि आमन्त्रितान्तं बहुवचनान्तं पदं विकल्पेन अविद्यमानवत्‌ भवति इति तस्य सूत्रस्य अर्थः। "यहाँ दर्शपौर्णमास, अग्निष्टोम, अग्निहोत्र, आधान, काम्येष्टि, निरूढपशुबन्ध, वाजपेय, राजसूय, अग्निचयन, चातुर्मास, सौत्रामणी, अश्वमेध आदि यज्ञों का विशिष्ट विधान सहित वर्णन किया है।",अत्र दर्शपौर्णमास-अग्निष्टोम- अग्निहोत्र-आधान-काम्येष्टि-निरूढपशुबन्ध-वाजपेय-राजसूय-अग्निचयन-चातुर्मास्य-सौत्रामणी- अशश्वमेधादियज्ञानां विशिष्टविधानपुरस्सरम्‌ वर्णना अस्ति। अन्तःस्थल का मर्म स्पर्श भाव की अभिव्यक्त करने के लिए कविगण छन्दों की कोमल कलेवर का ही अन्वेषण करता है।,अन्तःस्थलस्य मर्मस्पर्शिनः भावस्य अभिव्यक्तीकरणाय कविगणाः छन्दसां कमनीयकलेवरम्‌ एव अन्विष्यन्ति। शब्द भी कुछ अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न करने में सक्षम होता है।,शब्दः अपि क्वचित्‌ अपरोक्षज्ञानम्‌ उत्पादयितुं समर्थः अस्ति। अहङकारादि का सुषुप्ति अवस्था में संस्कार विशेष से स्थित के कारणत्व से यह व्यष्टि कारण शरीर होता है।,अहङ्कारादीनां सुषुप्त्यवस्थायां संस्कारावशेषेण स्थितस्य कारणत्वात्‌ इयं व्यष्टिः कारणशरीरं भवति। "ऋक्‌ संहिता में आठ भाग हैं, और प्रत्येक भाग में आठ अध्याय हैं।","ऋक्संहितायाम्‌ अष्टौ भागाः, प्रतिभागं च अष्टौ अध्यायाः।" स्वप्न में अनुभूत अश्वगजादि विषय प्रतिभासिक होते हैं।,स्वप्ने अनुभूताः अश्वगजादिविषायाः प्रातिभासिकाः भवन्ति। अपने कर्मानुसार यह संसरण करता है।,स्वकर्मानुसारेण अयं संसरति। उपासना को विशदता को लिखिए।,उपासनां विशदतया लिखत। "श्रवः यह अन्न का नाम है, धन का नाम भी है।","श्रवः इति अन्नस्य नाम, धनस्य नाम अपि वर्तते।" "इस प्रकार से वहाँ पर प्रतीज्ञा होनी होती है, और प्रतिज्ञा हानि के द्वारा वेदो को अप्रमाणित करना भी उचित नहीं है।",ततश्च प्रतिज्ञाहानिः स्यात्‌; न च प्रतिज्ञाहान्या वेदस्याप्रामाण्यं युक्तं कर्तुम्‌। "छन्दसि यहाँ पर विषय सप्तमी है, अतः छन्द विषय में ऐसा अर्थ प्राप्त होता है।","छन्दसि इत्यत्र विषयसप्तमी वर्तते, अतः छन्दसि विषये इत्यर्थः लभ्यते।" "इस प्रकार से त्रिवृत्‌ करण से तात्पर्य है तेज का, जल का, तथा पृथ्वी का विशेष नियम के द्वार सम्मिश्रण।",त्रिवृत्करणं नाम तेजसः आपः पृथिव्याः च विशेषनियमेन संमिश्रणम्‌। ईळे यहाँ पर स्वरित ईकार से परे ळे इसके एकार के अनुदात्त होने से स्वरितात्‌ संहितायामनुदात्तानाम्‌' इस सूत्र से एकार की एकश्रुति स्वर (उदात्त अनुदात्त स्वरित का तिरोधान) होता है।,ईळे इत्यत्र स्वरिताद्‌ ईकारात्परस्य ळे इत्यस्य एकारस्य अनुदात्तत्वात्‌ 'स्वरितात्‌ संहितायामनुदात्तानाम्‌' इति सूत्रेण एकारस्य एकश्रुतिस्वरः( उदात्तानुदात्तस्वरितानां तिरोधानम्‌) भवति। कात्यायन ने यहाँ पर स्पष्ट रूप से कहा है - “यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दो दैवतब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वा अध्यापयति वा स्थाणुं वर्च्छति गर्त्ये वा पात्यते प्रमीयते वा पापीयान्‌ भवति।,कात्यायनेन अत्र स्पष्टतया एव उक्तम्‌ - “यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दो दैवतब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वा अध्यापयति वा स्थाणुं वर्च्छति गर्त्ये वा पात्यते प्रमीयते वा पापीयान्‌ भवति। जिसका अर्थ होता है तरुणी।,तरुणी इति तदर्थः। तद्धित अर्थ में भविष्यत्तद्धित जन्य ज्ञान विषय होने पर यह होता है।,तद्धितार्थ भविष्यत्तद्धितजन्यज्ञानविषये सतीति यावत्‌ । इन्द्र अग्नि और अश्विन कुमारो को वह धारण करती है।,इन्द्राग्न्योः अश्विनोः च सा धारिका। चाकशीति: पश्यतिकर्मा (नि. ३/९११/८)।,चाकशीतिः पश्यतिकर्मा (नि. ३/११/८)। इसलिए ब्रह्म का विवर्तरूप ही यह जगत होता है ।,अतः ब्रह्मणः विवर्तरूपमिदं जगत्‌। सरलार्थ - इस मन्त्र में ऋत्विग पत्नीयजमान के प्रति कहता है की हे पत्नीयजमानो तुम उस स्थान के प्रतिजाओ जहाँ तेज किरने हमेशा गतिशील रहती है।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे पत्नीयजमानौ प्रति उच्यते हे पत्नीयजमानौ युवां तत्‌ स्थानं प्रति गच्छतं यत्र शृङ्गिनः सदा गतिशीलाः गावः सन्ति। 20. आभ्यान्तर शौच किसे कहते हैं?,२०. आभ्यन्तरं शौचं किम्‌? सूत्र अर्थ का समन्वय- क्व॑ वोऽश्वाः यहाँ पर उदात्त अनुदात्त के स्थान में एकादेश होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- क्व॑ वोऽश्वाः इत्यत्र उदात्तानुदात्तयोः स्थाने एकादेशः भवति। यहाँ अयं इस शब्द से प्रत्यक्‌ आत्मा के बारे में बताया गया है।,अयमिति शब्देन अत्र प्रत्यगात्मा अभिधीयते। वहाँ चुप होने का भी विधान है।,तत्र तुष्णीभावस्य अपि विधानम्‌ अस्ति। सूत्र का अर्थ होता है- पद सम्बन्धी विधि समर्थ आश्रित होता है।,तेन सूत्रार्थो भवति - पदसम्बन्धी विधिः समार्थाश्रितो भवति। यहाँ एषाम्‌ षष्ठपद का आसितम्‌ इस क्तप्रत्ययान्तपद के योग होने पर षष्ठीसमास प्रस्तुत सूत्र से निषेध किया गया है।,अत्र एषाम्‌ इत्यस्य षष्ठ्यन्तस्य आसितम्‌ इति क्तप्रत्ययान्तेन योगे प्राप्तः षष्ठीसमासः प्रस्तुतसूत्रेण निषिध्यते। निदिध्यासन के द्वारा अखण्डाकार चित्तवृत्तियों के उदय से ब्रह्मविषयक अज्ञान का नाश होता है।,निदिध्यासनेन अखण्डाकारचित्तवृत्तेः उदयात्‌ ब्रह्मविषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति । न्युप्ताः - निपूर्वकात्वप्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,न्युप्ताः - निपूर्वकात्वप्‌ - धातोः क्तप्रत्यये प्रथमाबहुवचने । वेदांत के प्रस्थानों का वेदांत के संप्रदायों का विशेष परिचय पाठ्य पुस्तक में विद्यमान है।,वेदान्तस्य प्रस्थानानाम्‌ वेदान्तसम्प्रदायानां च विशेषः परिचयः विद्यते। प्रातिपदिक संज्ञा में सत्थ में “ सुपोधातुप्रातिपदिकयो:'' इससे प्राप्त के लुक्‌ निषेध होने पर “ विभक्त्यलोपश्च इस वार्तिक से होता है।,"प्रातिपदिकसंज्ञायां सत्यां ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन प्राप्तस्य लुकः निषेधः ""विभक्त्यलोपश्च"" इति वार्तिकांशात्‌ जायते।" “एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इस सूत्र में उदात्तेन यहाँ पर तृतीया किस प्रकार की है?,'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इत्यस्मिन्‌ सूत्रे उदात्तेन इत्यत्र कथं तृतीया ? वे एक ही सत्य को बहुत प्रकार से तथा मिथ्या मानते हैं।,"यत्‌ एकम्‌ एव सत्यं, बहु च मिथ्या मन्यन्ते?" स्वप्न सूक्ष्म शरीराभिमानी तैजस होता है।,स्वप्नसूक्ष्मशरीराभिमानी भवति तैजसः। त्याग मूलक वैदिक संस्कृति का महामन्त्र क्या है?,त्यागमूलकवैदिकसंस्कृतेः महामन्त्रः कः? अतः प्रकृत सूत्र से कुमारश्रमण यहाँ पर कुमार शब्द भी अन्तोदात्त ही रहता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण कुमारश्रमण इत्यत्र कुमारशब्दः अपि अन्तोदात्तः एव तिष्ठति। उस पुरुष की प्रतिमान कोई वस्तु नही कर सकती है।,तस्य पुरुषस्य प्रतिमानं किंचिद्वस्तु नास्त्येव। जल की धारा के समान वे तुम्हारा अनुसरण करती है।,जलस्य धारा इव ते युवाम्‌ अनुसरन्ति। प्रकाशमान यह अर्थ है।,प्रकाशमानम्‌ इत्यर्थः। और कौन पाद कहलाये?,कौ च पादावुच्येते। शब्द तो अपरोक्ष ज्ञान का जनक मात्र होता है।,शब्दः तु अपरोक्षज्ञानस्य जनकः भवति। वेद के विषय में कौन सा दोष दोषरूप से नहीं मानते है?,वेदस्य विषये कः दोषः दोषरूपेण न गण्यते? उसके बाद वह वृत्ति नष्ट नहीं होती ।,ततः परं सा वृत्तिः तु न नश्यति। मन द्वारा जाने हुए चिन्तित तथ्यों को वाणी ही प्रकट करती है।,मनसा ज्ञातानां चिन्तिततथ्यानां प्रकटीकरणं वाण्येव करोति। "मन ही ज्योतियों के विषयप्रकाशकों का श्रोत्र आदि इन्द्रियों का, ज्योति प्रकाशक प्रवर्तक है।","मनो हि ज्योतिषां विषयप्रकाशकानां श्रोत्रादीन्द्रियाणां , ज्योतिः प्रकाशकं प्रवर्तकम्‌ इत्यर्थः।" विक्रमशब्द का पादचलाना अर्थ है।,विक्रमणशब्दस्य पादप्रक्षेपः अर्थः। छन्दांसि च्छादनात्‌ इस यास्क कथन के होने से वेदार्थ वाचक छन्द इस पद की उत्पत्ति छद्‌ (छादने) धातु से बनी है।,छन्दांसि च्छादनात्‌ इत्येतद्‌ यास्ककथनाद्‌ वेदार्थवाचकं छन्दः इत्येतत्पदं छद्‌ ( छादने ) धातोः निष्पन्नम्‌। अर्थअम्‌ प्रति यह अलौकिक विग्रह है।,अर्थ अम्‌ प्रति इत्यलौकिकविग्रहश्च। इस सूत्र से नञ्‌ के न लोप होता है।,अनेन सूत्रेण नञः नलोपो विधीयते । "व्युत्थानसंस्कार का ही निरोधसंस्कार के द्वारा अभिभव होता है, न की प्रत्यय के द्वारा संस्कार का अभिभव सम्भव है।","व्युत्थानसंस्कारस्य हि निरोधसंस्कारेण अभिभवः, न हि प्रत्ययेन संस्कारस्य अभिभवः सम्भवति।" "“पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः"" ( 6.3.2 ) सूत्रार्थ-रतोकान्तिक इरार्थवाचकों से और कृच्छर शब्द से विहित पञ्चमी के उत्तरपद पर में लोप नहीं होता है।",पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः॥ (६.३.२) सूत्रार्थः - स्तोकान्तिकदूरार्थवाचकेभ्यः कृच्छ्रशब्दाच्च विहितायाः पञ्चम्याः उत्तरपदे परे लुक्‌ न भवति। उस देव-इस उपपद पूर्वक अज्‌च्‌-धातु से क्विन्प्रत्यय करने पर प्रक्रिया कार्य में देब अच्‌ इस स्थिति में 'गतिकारकोपपदात्‌ कृत्‌' इससे उत्तर पद प्रकृति स्वर करने पर अजञ्च्धातु का अकार उदात्त होता है।,तेन देव-इत्युपपदपूर्वकात्‌ अञ्च्‌-धातोः क्विन्प्रत्यये प्रक्रियाकार्ये देव अच्‌ इति स्थिते 'गतिकारकोपपदात्‌ कृत्‌' इत्यनेन उत्तरपदप्रकृतिस्वरेण अञ्च्धातोः अकारः उदात्तः भवति। यद्वृत्त से इसका जिस पद में यत्‌ शब्द है।,यद्वृत्तात्‌ इत्यस्य यस्मिन्‌ पदे यच्छब्दः अस्ति। "वे प्रजापति को बुलाते हुए कहते हैं हे सत्यधर्मन्‌ प्रजापति, तूने पृथिवी तथा द्युलोक को उत्पन्न किया, आनन्दकारी चन्द्रमा और समस्त जल समूह को उत्पन्न किया, अतः हमें पीडा मत दे।","ते प्रजापतिम्‌ आह्वयन्तः वदन्ति हे सत्यधर्मन्‌ प्रजापते, त्वं पृथिवीं तथा द्युलोकं च उत्पादितवान्‌, आनन्दकारिणं चन्द्रमसं समस्तजलसमूहं च उत्पादितवान्‌, अतः अस्मान्‌ मा पीडय।" द्वितीय अष्टक और तृतीय अष्टक- नौवें अध्याय से आरम्भ करके चौबीसवें अध्याय पर्यन्त द्वितीय तृतीय दोनों अष्टक।,"प्रथममष्टकम्‌- सम्पूर्णम्‌, अष्टाध्याययुतश्च। द्वितीयमष्टकम्‌, तृतीयमष्टकम्‌- नवमाध्यायादारभ्य चतुर्विशति-अध्यायपर्यन्तं द्वितीयतृतीय- अष्टकद्वयम्‌।" सभी से विनिर्मुक्त होकर के सर्वभूतस्थ परमात्मा का ध्यान करते हुए जीवितदशा में इस लोक में अविद्या काम कर्मादिप्रत्यक्ष बन्धनों से मुक्त होकर के देह में विद्यमान होते हुए भी जीव मुक्त हो जाता है।,सर्वेषणाविनिर्मुक्तः सन्‌ सर्वभूतस्थं परमात्मानं ध्यायन्‌ जीवितदशायाम्‌ अस्मिन्नेव लोके अविद्या-काम-कर्मादिप्रत्यक्षबन्धात्‌ मुक्तो भूत्वा देहे विद्यमानोऽपि जीवो मुक्तो भवति। 7 “ अयमात्मा ब्रह्म” इस महावाक्य का पञ्चदशीकारों के मतानुसार प्रतिपादन कीजिए।,७. “अयमात्मा ब्रह्म” इति महावाक्यं पञ्चदशीकाराणां मतानुसारेण प्रतिपाद्यताम्‌? वह आठ अङ्गो के आचरण से सम्भव होती है।,सा च अष्टानाम्‌ अङ्गानाम्‌ आचरणेन सम्भवति। अतः इस सूत्र का अर्थ होता है-''पूज्यमान सुबन्त को वृन्दारकनागकुञ्जर समानाधिकरणों से सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ - "" पूज्यमानं सुबन्तं वृन्दारकनागकुञ्जरैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह वा समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति "" इति ।" उससे येन विधिस्तदन्तस्य परिभाषा से यहाँ तदत्तविधि होती है।,तेन येन विधिस्तदन्तस्य इति परिभाषया अत्र तदन्तविधिः भवति। ( 9.5 ) शार्ङ्गरवाद्यञो डीन्‌ ( 4.1.73 ) सूत्रार्थ-जातिवाचक अनुपसर्जन से शार्ङ्गरवादिगण पठित अदन्त से प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीन्‌ प्रत्यय होता है।,[९.५] शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्‌ - सूत्रार्थः - जातिवाचकात्‌ अनुपसर्जनात्‌ शार्ङ्गरवादिगणपठितात्‌ अदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीन्‌ प्रत्ययः परः भवति। 1 महावाक्य किसे कहते हैं?,१. महावाक्यं नाम किम्‌? यह प्रसिद्ध ही है।,सुप्रसिद्धा एव। वैसे ही सुषुप्ति अवस्था में पुरुष के निकट आता है।,तथैव सुषुप्त्यवस्थायां सुप्तस्य निकटम्‌ आगच्छति। वह अनुमान कृतृत्व तथा अकृतत्व से अनित्य होता है।,तथाहि अनुमानम्‌- इदम्‌ अनित्यम्‌ कृतकत्वाद्‌। "इस सूक्त के ऋषि दीर्घतमा औचथ्य, छन्द विराट्‌ त्रिष्टुप, और देवता विष्णु है।","अस्य सूक्तस्य ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः, छन्दः विराट्‌ त्रिष्टुप्‌, देवता विष्णुः।" प्रत्येक प्रकृतियाग की बहुत सी विकृतियाँ हैं।,प्रत्येकं प्रकृतियागस्य बह्व्यः विकृतयः सन्ति। ब्रह्मजिज्ञासा किसको होती है?,ब्रह्मजिज्ञासा कस्य भवति| उस आद्युदात्त स्वर के विधान के लिए प्रकृत सूत्र की रचना की है।,तेन आद्युदात्तस्वरस्य विधानाय प्रकृतसूत्रं प्रारभ्यते। इसमें षष्ठीतत्पुरुष समास है।,पदविधिः इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। शेष सात सूक्त बाल्यखिल्य सूक्तों से सङ्गृहीत हैं।,अवशिष्टसप्तसूक्तानि बाल्यखिल्यसूक्तेभ्यः सङ्गृहीतानि सन्ति। यह ही घटना रूपक आवरण से कहते हैं की जो रुद्र जन्म-क्षण में भीषण चित्कार करता है।,इयमेव घटना रूपकावरणेन उच्यते यत्‌ रुद्रः जन्म-क्षणे भीषणचित्कारं करोति। अथवा शरीरस्थ सौन्दर्यादि धर्म आत्मा के हैं इस प्रकार से चिन्तन करता है।,अथवा स्थूलत्वं कृत्वं सौन्दर्यमित्यादिधर्माः आत्मनः इति चिन्तयन्ति। क्तान्त उत्तरपद रहते किस सूत्र से चतुर्थ्यन्त को प्रकृत्ति स्वर होता है?,क्तान्ते च उत्तरपदे केन सूत्रेण चतुर्थ्यन्तं प्रकृत्या भवति? "सरलार्थ - (मेरी) शक्तिशाली प्रार्थना, विस्तृत लोक में वास करने वाले, विशाल पैरो से युक्त, इच्छा को पूर्ण करने वाला, विष्णु के प्रति (जाये) जो आत्मा को साधना के लिये प्रशस्तमेलस्थान को तीन पैरो से उस परमात्मा ने धारण किया।","सरलार्थः- (मम) शक्तिशाली प्रार्थना, प्रशस्तलोके वासकारिणं, प्रशस्तपादयुक्तम्‌, इच्छापूर्तिकारकं, विष्णुं प्रति (गच्छेत्‌) यः आत्मनः साधनायाः प्रशस्तमेलनस्थानं त्रिभिः पादैः अमायत।" इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया की जो मुमुक्षु होता है।,अत इदं स्पष्टं यद्‌ मुमुक्षुः । "“ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (2.1.1) इति प्रकृत्य, ` तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः' (2.1.1) इस प्रकार से आत्म के द्वारा आकाश की उत्पत्ति वर्णित है।","सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म"" (२.१.१) इति प्रकृत्य, ""तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः"" (२.१.१) इति आत्मनः आकाशोत्पत्तिः वर्णिता।" वैदिक ऋषियों के मनोगत भावों के सरल निदर्शन इन मन्त्रों में प्राप्त होती है।,वैदिकर्षीणां मनोगतभावानां सरलनिदर्शनम्‌ एतेषु मन्त्रेषु समुपलभ्यते। वेदान्तसारग्रन्थ में अधिकारी का स्वरूप कहा गया है अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङगत्वेन आपाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन्‌ जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता इति।,वेदान्तसारग्रन्थे अधिकारिणः स्वरूपम्‌ उच्यते -अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेन आपाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन्‌ जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता इति। उस प्रकाश स्वरूप ब्रह्म के लिए नमस्कार।,तस्मै ब्राह्मये रुचाय नमः। उदाहरण- उघ्दसुजो यद॑ङिगरः।,उदाहरणम्‌- उदसु॑जो यद॑ङ्गिरः। "वह मछली मनु को कहती है की अब मेरे पालन करो, बाद में मैं तुम्हारा पालन करुँगी।","सः मत्स्यः मनुम्‌ उक्तवान्‌ यत्‌ "" इदानीं भवान्‌ मां पालयतु , परम्‌ अहं त्वां पारयिष्यामि "" इति।" इसके बाद चुटू इस सूत्र से टाप्‌ के टकार की इत्संज्ञा होती है।,ततः परं चुटू इति सूत्रेण टापः टकारस्य इत्संज्ञा भवति। त समास होता है क्रियापद है।,समस्यते इति क्रियापदम्‌। इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे - सूक्त में स्थित मन्त्रों का संहिता पाठ कर पाने में। सूक्त में विद्यमान मन्त्रों के पदपाठ को समझ पाने में। सूक्त में स्थित मन्त्रों का अन्वय करने में समर्थ हो पाने में। सूक्त में स्थित मन्त्रों की व्याख्या करने में समर्थ होंगे। सूक्त में विद्यमान मन्त्रों का सरलार्थ जानने में। मन्त्र में स्थित व्याकरण को जानने में।,एतं पाठं पठित्वा भवान्‌ - सूक्तस्थानां मन्त्राणां संहितापाठं ज्ञास्यति। सूक्ते विद्यमानानां मन्त्राणां पदपाठं ज्ञास्यति। सूक्तस्थानां मन्त्राणाम्‌ अन्वयं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूक्तस्थानां मन्त्राणां व्याख्यानं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूक्ते विद्यमानानां मन्त्राणां सरलार्थं ज्ञास्यति। मन्त्रे स्थितं व्याकरणं ज्ञातुं समर्थो भवेत्‌। "( ६.२.२ ) सूत्र का अर्थ- तत्पुरुष समास में तुल्य अर्थवाले, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त, उपमानवाची, अव्यय, द्वितीयान्त तथा कृत्यप्रत्ययान्त जो पूर्वपद में स्थित शब्द है, उन्हें प्रकृति स्वर होता है।","(६.२.२) सूत्रार्थः- तत्पुरुषसमासे पूर्वपदं यदि तुल्यार्थवाचकं, तृतीयान्तं, सप्तम्यन्तं, उपमानवाचकम्‌, अव्ययं, कृत्यप्रत्ययान्तं वा भवति तर्हि पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति।" समास के भेद विषय में अन्तिम पाठ में विस्तारपूर्वक आलोचन (विचार) किया जायेगा इस पाठ में केवल समास और अव्ययी भाव समास का विस्तारपूर्वक विवरण है।,समासभेदविषये अन्तिमे पाठे विस्तरशः आलोचनं करिष्यते। अस्मिन्‌ पाठे केवलसमासस्य अव्ययीभावसमासस्य विवरणं भवति। “विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌'' इस सूत्र में बहुलग्रहण का क्या फल है?,"""विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" इति सूत्रे बहुलग्रहणस्य किं फलम्‌ ?" विशेष- यहाँ यह समझना चाहिए की यह गोष्ठज शब्द ब्राह्मण का नाम है।,विशेषः- अत्रेदम्‌ अवधेयं यत्‌ अयं गोष्ठजशब्दः ब्राह्मणस्य नाम भवति। निश्चित ही देवता मनुष्य आदि चेतन जीवों का और जड वस्तुओं का भी वह ही स्रष्टा है।,नूनं देवतामनुष्यादिचेतनजीवानां जडवस्तूनामपि स एव स्रष्टा। इस प्रकार से इनकी मति है।,इति एतेषां मतिः। 7. प्रजापतिसूक्त का देवता कौन है?,७. प्रजापतिसूक्तस्य देवता का? वह मछली तैरती हुई उनके समीप आई।,स मत्स्यः तस्य समीपे तरन्‌ आगतवान्‌। 23. विग्रह नाम किसका है?,२३. विग्रहो नाम कः? वैशेषिक दर्शन में कणाद ऋषि ने वेद के प्रमाण को स्वीकार किया।,वैशेषिकदर्शने कणादर्षिः वेदस्य प्रामाण्यं स्वीकृतवान्‌। अहङ्कारादि जिस प्राणमन इन्द्रियदेहसंघात के होते हैं उसके अहडङऱकारादि जिस प्राण मन इन्द्रिय संघात के होते हैं वह देहान्त कहलाता है।,"अहङ्कारः आदिः यस्य प्राणमनइन्द्रियदेहसंघातस्य तस्य अहङ्कारादिः, तथा देहे अन्तः यस्य प्राणमनङइन्द्रियदेहसंघातस्य स देहान्तः।" "सरलार्थ - जिस प्रजापति से पहले कुछ भी उत्पन्न नही था, जिस प्रजापति ने सम्पूर्णलोक की रचना की और उसके चारो और व्याप्त है, सोलह अवयव से विशिष्ट प्रजापति प्रजा के साथ रमण करता हुआ तीन तेज को धारण करता है।","सरलार्थः - यस्मात्‌ प्रजापतेः प्राक्‌ किमपि नोत्पन्नं , यः प्रजापतिः सम्पूर्णलोकं परितः कल्पितवान्‌ , षोडशावयवविशिष्टः प्रजापतिः प्रजाभिः सह रमति, प्रकाशत्रयं धारयति।" पदपाठ - याम्‌।,पदपाठः- याम्‌। अपरोक्षानुभूति किसलिए अध्यात्मिक प्रपञ्च का प्रमाण होती है।,अपरोक्षानुभूतिः किमर्थम्‌ अध्यात्मप्रपञ्चस्य प्रमाणम्‌? इसलिए कर्मयोग ज्ञानयोग का उपायभूत होता है।,अत एव कर्मयोगः ज्ञानयोगस्य उपायभूतः। सायण ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में क्या कहा है?,सायणः ऋग्वेदभाष्यभूमिकायां किम्‌ आह? निश्चित रूप से परमार्थत रूप से जीव के ब्रह्म से अभिन्नत्व से जीव का अविद्याकल्पितत्व ईश्वर भी मिथ्या है तो अविद्या कल्पित जीव से परमेश्वर के भिन्न होने से ऐसा भी नहीं है।,"ननु परमार्थतः जीवस्य ब्रह्माभिन्नत्वात्‌, जीवस्य च अविद्याकल्पितत्वात्‌ ईश्वरोऽपि मिथ्या इति चेन्न, अविद्याकल्पितजीवात्‌ परमेश्वरस्य भिन्नत्वात्‌।" उससे आत्मप्रकाश उत्पन्न होता है।,ततः आत्मप्रकाशो जायते । इसके बाद लट्‌ के स्थान पर लट: शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणेइस सूत्र से शतृ प्रत्यय होने पर भू शतृ होने पर शकार का लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः सूत्र से लोप होने पर ऋकार की उपदेशेऽजनुनासिकइत् इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से लोप होने पर भू अत्‌ होता है।,"ततः लटः स्थाने लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इति सूत्रेण शतृप्रत्यये कृते भू शतृ इति जाते शकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे, ऋकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे सति भू अत्‌ इति जायते।" इसलिए ईश्वर के शासन में ऐसा नहीं है की अनेक कारण कार्य को जन्म देते हो।,तस्मात्‌ नेश्वरशासनमस्ति यद्‌ अनेकमेव कारणं कार्यं जनयतीति। शुभ शुम्भ दीप्तौ इस धातु से भाव में क्विप्‌ प्रत्यय करने पर शुब्‌ यह शब्द निष्पन्न होता है।,शुभ शुम्भ दीप्तौ इति धातोः भावे क्विप्प्रत्यये शुब्‌ इति शब्दः निष्पद्यते। महाभारत के मोक्षधर्म पर्व अनुसार से इस निघण्टु के रचयिता प्रजापति कश्यप थे - “वृषो हि भगवान्‌ धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत।,महाभारतस्य मोक्षधर्मपर्वानुसारेण अस्य निघण्टोः रचयिता प्रजापतिकश्यपः आसीत्‌ -'वृषो हि भगवान्‌ धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत। और भी यहाँ अक्ष-शब्द से उस शब्द के स्वरूप का ही ग्रहण है।,अपि च अत्र अक्ष-शब्देन तस्य शब्दस्य स्वरूपमेव ग्राह्यम्‌। और कौन त्रिलिङ्गक है यहाँ पर कोशादि ही प्रमाण है।,कः त्रिलिङ्गकः इत्यत्र कोशादिकमेव प्रमाणम्‌। "उन्होंने समझा की भारत की अवनति का मूल कारण उद्योगियों की नीतियाँ, साधारण दरिद्रजनों का शोषण तथा उनके प्रति हेयदृष्टि तथा नारियों की अवहेलना है।","तेनावगतं यत्‌ - भारतस्यावनतेः मूलं कारणं- सम्पदुत्पादकानां साधारणदरिद्रजनानां शोषणं, तान्‌ प्रति हेयदृष्टिः, तथा नारीणाम्‌ अवहेलनम्‌।" "अर्थात्‌ जिस स्थान में कर्तरि कर्मणि वा लोट्‌ होता है, उसी ही स्थान में यदि लृट्‌ लकार हो तो गति अर्थ वाले लोट्‌ लकार युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।",अर्थात्‌ यस्मिन्‌ स्थले कर्तरि कर्मणि वा लोट्‌ भवति तस्मिन्नेव स्थले यदि लृट्‌ भवेत्‌ तर्हि गत्यर्थलोटा युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति। जो बद्ध नहीं होती है तो उसके मोक्ष का विचार क्यों किया जाता है।,"यश्च बद्धो नास्ति, तस्य कुतो मोक्षो विचार्यते।" "यह इन्द्र कौन है इस विषय में जैसे हमारे देश के विद्वानों में संदेह है, वैसे ही विदेशी विद्वानों में भी अत्यधिक सन्देह विद्यमान है।",कोऽयम्‌ इन्द्रः इति विषये यथा अस्मद्देशीयानां पण्डितानां तथा वैदेशिकानां पण्डितानाम्‌ अपि महान्‌ सन्देहो विद्यते इति शिवम्‌। देवों का यज्ञ में होतृनाम का ऋत्विग्‌ अग्नि ही है।,देवानां यज्ञेषु होतृनामक ऋत्विग्‌ अग्निरेव। संसारबन्धान्‌ से अर्थात्‌ सूक्ष्म अहंकार से लेकर के स्थूलदेहपर्यन्त अज्ञानकल्पित बन्धसमूहों से मुमुक्षा होती है।,संसारबन्धनाद्‌ अर्थात्‌ सूक्ष्मात्‌ अहंकारात्‌ आरभ्य स्थूलदेहपर्यन्तम्‌ अज्ञानकल्पिताद्‌ बन्धसहमूहाद्‌ मुमुक्षा। "दो पद वाले इस सूत्र में हस्वनुड्भ्याम्‌ यह पञ्चमीं द्विवचनान्त पद है, और मतुप्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","द्विपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे ह्रस्वनुड्भ्याम्‌ इति पञ्चमीद्विवचनान्तं पदम्‌, मतुप्‌ इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" बभूव - भूधातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,बभूव - भूधातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने । "रकार का पापदाहकत्व अर्थ है, उकार का पालकत्व अर्थ है।","रकारस्य पापदाहकत्वमर्थः, उकारस्य पालकत्वमर्थः।" उस विद्या का शाण्डिल्यादि महर्षियों के द्वार उपदेश किया गया है।,सा विद्या शाण्डिल्यादिमहर्षिभिः उपदिष्टा। "जैसे - अक्षक्रीडा, ओषधिवृक्ष, पत्थर, उलूखमूषल इत्यादि का वर्णन प्राप्त है।","यथा अक्षक्रीडा, ओषधिवृक्षः, प्रस्तरः, उलूखमूषलः इत्यादीनां वर्णना प्राप्यते।" तथाहि गाः पाति इति इस विग्रह में गोपा शब्द निष्पन्न होता है।,तथाहि गाः पातीति विग्रहे गोपाशब्दो निष्पन्नः। ततक्ष - तक्ष्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में ततक्ष यह रूप बनता है।,ततक्ष - तक्ष्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने ततक्ष इति रूपम्‌। यजुर्वेद का ज्योतिष क्या है?,यजुर्वेदस्य ज्यौतिषम्‌ किम्‌? यजमानाः - यज्‌ -धातु से शानच्‌-प्रत्ययान्त का यह रूप है।,यजमानाः- यज्‌ - धातोः शानच्‌-प्रत्ययान्तं रूपम्‌ इदम्‌। इन सबसे विलक्षण स्वयं में निर्मल आत्मा होती है।,एतद्विलक्षणः स्वयं निर्मलः आत्मा। दो शौनक शाखा और पिप्पलाद शाखा।,"द्वे, शौनकशाखा पिप्पलादशाखा चेति।" संध्या में प्रयुक्त सूर्य अर्घ के जल की महिमा का वर्णन है।,संध्यायां प्रयुक्तस्य सूयर्घिस्य जलस्य महिमा वर्णिता अस्ति। "व्याख्या - तिरपन पासे नकश के ऊपर मिलकर विहार करते है, मानो सत्य स्वरूप सूर्यदेव संसार में विचरण करते है।",व्याख्या- एषाम्‌ अक्षाणां त्रिपञ्चाशः त्र्यधिकपञ्चाशत्संख्याकः व्रातः संघः क्रीळति आस्फारे विहरति । उदाहरण -सूत्र का उदाहरण है यथापूर्वकायः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा पूर्वकायः इति सबसे श्रेष्ठ बना देती हूँ।,सर्वेभ्योऽधिकं करोमि। 'कुमारश्च' इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिए?,कुमारश्च इति सूत्रस्य उदाहरणमेकं दीयताम्‌? असावित्यन्तः इस वार्तिक से निगद में प्रथमान्त पद का अन्त उदात्त होता है।,असावित्यन्तः इति वार्तिकेन निगदे प्रथमान्तस्य पदस्य अन्तः उदात्तो भवति। "सरलार्थ - विश्व का भरणपोषण करने वाली, धन को धारण करने वाली, सभी को आश्रयस्थान देने वाली, हृदय में सुवर्ण को धारण करने वाली, मनुष्य आदि का निवासस्थान अथवा जगत में उत्पन्न प्राणियों का शैथिल्य प्रदान करने वाली, इन्द्र के द्वारा रक्षित पृथ्वी वैश्वानर को धारण करती है वह हमें धन प्रदान करे।","सरलार्थः- विश्वस्य भरणपोषणकारिका, धनस्य धारिका, समेषाम्‌ आश्रयस्थानं, हृदये सुवर्णधारिका, जगतः निवासस्थानम्‌ अथवा जगति उत्पन्नानां प्राणिनाम्‌ शैथिल्यदानकारिका, इन्द्रेण रक्षिता पृथिवी वैश्वानरं धारयन्ती अस्मान्‌ धने प्रस्थापयतु।" "वहाँ असौ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, इति यह अव्ययम है, और अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र असौ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, इति इत्यव्ययम्‌, अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" अद्वैत वेदांत का विशिष्ट परिचय प्राप्त हो।,अद्वैतवेदान्तस्य विशिष्टः परिचयः भवेत्‌। ७ स्वाध्याय काल अवधि (Self Study Hours) 240 घंटे ७ कमसे कम तीस (30) संपर्क कक्षा (Personal Contact Programme & PCP) अध्ययन केद्र में होगी।,७ स्वाध्यायाय कालावधिः (Self-study hours) २४० होराः ७ न्यूनतः त्रिंशत्‌ (३०) सम्पर्ककक्षाः (Personal Contact Programme - PCP) अध्ययनकेन्द्रेषु भविष्यन्ति। मन के स्वास्थ्य के विना कर्म में प्रवृत्त यज्ञ में हवि प्रदान आदि कर्म को नही कर सकता है।,मनसः स्वास्थ्यं विना कर्माप्रवृत्तेः यज्ञे हविःप्रदानादि कर्म कर्तु न शक्यते। नित्य वस्तु का तथा अनित्य वस्तु कां अलग करना ही नित्यानित्यवस्तु विवेक कहलाता है।,नित्यवस्तुनः अनित्यवस्तुतः पृथक्करणम्‌ एव नित्यानित्यवस्तुविवेकः। इसका यह तात्पर्य है की यज्ञीय कार्यों में श्रद्धा की अत्यन्त आवश्यकता है।,अस्य तात्पर्यमिदर्मस्ति यत्‌ यज्ञीयकार्येषु श्रद्धायाः महती आवश्यकता वर्तते। सबसे पहले मुझे घड़े में रखो।,तस्मात्‌ पूर्वमेव मां कुम्भमध्ये स्थापय। अतः कुछ मन्त्रों में बुखार निमित्त प्रार्थना है।,अतः कतिपयेषु मन्त्रेषु ज्वरनिमित्तकप्रार्थना वर्त्तते। जिससे हम धन ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।,वयं यथा धनस्य अधिपतिः भवेम। अकारत्यत्व से निःश्रेयस को कर्मसाधनत्व अनुपप्ति होती है।,अकार्यत्वाच्च निःश्रेयसस्य कर्मसाधनत्वानुपपत्तिः। इसके बाद अर्धर्च अ होने पर सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न अध “रच शब्द का “परवल्लिंङ्गंद्वन्दतत्पुरुषोः”' इससे पर लिङ्गत्व प्राप्त होने पर “अर्धर्चाः पुंसि च'' इस विकल्प से पुल्लिंग होने पर सु प्रत्यय होने पर अर्धर्यः रूप होता है।,"ततः अर्धर्च अ इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य अर्धर्चशब्दस्य ""परवल्लिङ्गंद्वन्द्वतत्पुरुषयोः"" इत्यनेन परवत्लिङ्गत्वे प्राप्ते ""अर्धर्चाः पुंसि च"" इत्यनेन विकल्पेन पुंलिङ्गे सौ अर्धर्चः इति रूपम्‌।" इसलिए वेद में कहते है - अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिःस्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास।,अत आम्नातं - अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिःस्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास । उस मनु के हाथ धोते समय मछली उसके हाथ को प्राप्त हुई।,तस्य मनोः अवनेनिजानस्य प्रक्षालयतः मत्स्यः पाणी आपेदे प्राप्तः। मुझको नहीं मानते यहाँ मेरे विषय में ज्ञान नहीं रखते हैं यह अर्थ हैं।,माममन्तवो मद्विषयज्ञानरहिता इत्यर्थः। "उपनिषद्‌, शब्द का अर्थ रहस्य है।",उपनिषद्‌-शब्दस्य रहस्यम्‌ इत्यर्थः। फिर ज्ञानसाधन भिन्न शब्द स्पर्श रूपसरादि विषयों से श्रोत्रादि बाह्य इन्द्रियों का जिस वृत्ति विशेष के ह्वारा निग्रहण किया जाता है।,पुनः ज्ञानसाधनभिन्नेभ्यः शब्दास्पर्शरूपरसादिविषयेभ्यः श्रोत्रादीनि बाह्येन्द्रियाणि येन वृत्तिविशेषेण निगृह्यन्ते । पचति पचति गोत्रम्‌ यहाँ पर तिङन्त से परे गोत्र शब्द विद्यमान है।,पचति पचति गोत्रम्‌ इत्यत्र तिङन्तात्‌ परं गोत्रशब्दः विद्यते। उन कर्मो का फल स्वान्तकरण से युक्त होता है।,तेषां कर्मणां फलं स्वान्तःकरणेन युक्तं भवति। इसके आदि तीन समासों के वर्णन के लिए “कुगतिप्रादयः सूत्र की व्याख्या की गई है।,"अत्र आद्यस्य समासत्रयस्य वर्णनाय "" कुगतिप्रादयः "" इति सूत्रं व्याख्यातम्‌ ।" अखण्डाकार ब्रह्मविषयिणी चित्तवृत्ति अज्ञायमान होती हुई अवतिष्ठित होती है।,अखण्डाकारा ब्रह्मविषयिणी चित्तवृत्तिरज्ञायमाना सती अवतिष्ठते । अस्तगामी सूर्यरूप से रुद्र का नीलग्रीव इस नाम की उत्पत्ति हुई है।,अस्तगामिनः सूर्यरूपात्‌ रुद्रस्य नीलग्रीव इति नाम्नः उत्पत्तिः। सभी की विदेह मुक्ति नहीं होती है।,सर्वेषां विदेहमुक्तिः न भवति। सरलार्थ - जुआरी शरीर से दीप्त होकर एवं यह कहता हुआ जुआघर में जाता है की कौन धन वाला आया है।,सरलार्थः - दीप्तियुक्तशरीरी कितवः जेष्यमीति चिन्तयन्‌ अक्षगृहं प्रति गच्छति | इसके बाद सु प्रत्यय होने पर प्रक्रिया कार्य में अक्षधू: रूप बना।,ततः सौ प्रक्रियाकार्ये अक्षधूः इति रूपम्‌। 50. “प्रायेण उभयपदार्थप्रधानः द्वन्दः'' यह द्वन्द समास का लक्षण है।,"५०. ""प्रायेण उभयपदार्थप्रधानः द्वन्द्वः"" इति द्वन्द्वसमासस्य लक्षणम्‌।" उससे पूजन अर्थ परे जो प्रातिपदिक तस्मात्‌ प्राप्त होता है।,तेन पूजनार्थात्परं यत्प्रातिपदिकं तस्माद्‌ इति लभ्यते। इस समाधि में ज्ञेयतत्व अच्छी प्रकार से बुद्धि में आरूढ होता है।,अस्मिन्‌ समाधौ ज्ञेयतत्त्वं सम्यक्‌ बुद्ध्यारूढं भवति। यहाँ यङः से ञ्यङः और ष्यङः का ग्रहण है।,अत्र यङः इत्यनेन यङः ष्यङः च ग्रहणम्‌ अस्ति। संरराणऽङ़्ति सम्‌।,संरराणऽङ्ति सम्‌। पिन्वतम्‌ यह किस धातु से निष्पन्न हुआ?,पिन्वतम्‌ इति कस्मात्धातोः निष्पन्नः। वो पुरुषसुक्त का ही अंश है जो उत्तरनारायणीयसूक्त है।,तत्र पुरुषसुक्तस्यैव अंशभूतः। तत्र उत्तरनारायणीयसूक्तम्‌। पाठगत प्रश्नों के उत्तर - ऋच्यते स्तूयते यया सा ऋक्‌।,पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि- ऋच्यते स्तूयते यया सा ऋक्‌। इस दृष्टि से गोपथब्राह्मण का एक प्रकरण में ` अथर्व वेद सिद्ध होता है' और इसी प्रकार ' अङिगरस वेद भी इस प्रकार का वाक्य प्राप्त होता है (११/५ ११/१८)।,अनया दृष्ट्या गोपथब्राह्मणस्य एकस्मिन्नेव प्रकरणे 'आथर्वणो वेदः सिद्ध्यति' इति 'आङ्गिरसो वेदोऽभवच्चे'ति च वाक्यं प्राप्यते (११/५ ११/१८)। ज्योतिष-शास्त्र की विस्तार से व्याख्या कीजिए।,ज्योतिष्‌-शास्त्रं विशदं व्याख्यात। जिसमें ““नृणां ज्ञानैकनिष्ठानामात्मज्ञानविचारिणाम्‌।,"तथाह्युच्यते वसिष्ठेन -""नृणां ज्ञानैकनिष्ठानामात्मज्ञानविचारिणाम्‌।" ` अग्ने:' इस पद के स्थान में ` आग्नायि' इस पद का प्रयोग।,अग्नेः' इत्येतत्पदस्थाने 'आग्नायि' इति पदम्‌। उसके प्रातिपदिकत्व से प्रथमा विभक्ति की एकवचन विवक्षा में सुप्रत्यय होने पर यूपदारु रूप सिद्ध होती है।,तस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ प्रथमैकवचनविवक्षायां सौ यूपदारु इति रूपम्‌। व्याकरण वेद के मुख के समान समझना चाहिए - “मुखं व्याकरणं स्मृतम्‌।,व्याकरणं वेदस्य मुखत्वेन स्मृतम्‌ - 'मुखं व्याकरणं स्मृतम्‌।' उससे श्रेणिकृताः यह रूप होता है।,तेन श्रेणिकृताः इति रूपं भवति। सम्पूर्ण याग दो विभाग में विभक्त है।,समग्रयागः विभागद्वये विभक्तः। यह पाठ्य विषय संपूर्ण रूप से संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है।,अयं पाठ्यविषयः सम्पूर्णरूपेण संस्कृतभाषया लिखितः अस्ति। "तत्रापि “एवंवित्‌' इति विद्यासंयोगात्‌ प्रत्यासन्नानि विद्यासाधनानि शमादीनि, विविदिषासंयोगात्तु बाह्यतराणि यज्ञादीनीति विवेक्तव्यम्‌ मुमुक्षु साधनत्व के रूप में यज्ञादिक करता है यहाँ पर यह गीता की सम्मति है।","तत्रापि “एवंवित' इति विद्यासंयोगात्‌ प्रत्यासन्नानि विद्यासाधनानि शमादीनि, विविदिषासंयोगात्तु बाह्यतराणि यज्ञादीनीति विवेक्तव्यम्‌॥ मुमुक्षुः साधनत्वेन यज्ञादिकं करोतीत्यत्र गीतासम्मत्तिः।" 6 जीव कौ विदेहमुक्ति कब होती है?,६. कदा जीवस्य विदेहमुक्तिः भवति? इसके बाद ऋक्पूरब्धूपथाम्‌ यहाँ तदन्तविधि में ऋगाद्यन्त समासों का अन्वय होता है।,ततः ऋक्पूरब्धूपथाम्‌ इत्यत्र तदन्तविधौ ऋगाद्यन्तानां समासानाम्‌ इत्यन्वयो भवति। विशेष सामान्य से अलग होता है।,विशेषं सामान्यात्‌ अतिरिच्यते। ख) सूक्ष्मभूतों के रज अंशों से।,ख) सूक्ष्मभूतानां रजोंऽशेभ्यः। इन पांच मंत्रों में जो साररूप से कहा गया है उसको ही यहाँ पर साररूप से कहते है।,एषु पञ्चमन्त्रेषु यत्‌ साररूपेण कथितं तदेव अधुना साररूपेण कथ्यते। नाथितः - नाथ्-धातु से क्तप्रत्यय करने प्रथमा एकवचन में।,नाथितः - नाथ्‌ - धातोः क्तप्रत्यये प्रथमैकवचने । खादति इससे परे अगति संज्ञक चकार है।,खादति इत्यस्मात्‌ परम्‌ अगतिसंज्ञकः चकारः अस्ति। इस पुराण में सुमन्तु के ही दो शिष्यों का वर्णन कहा पथ्य और देवदर्श है।,अस्मिन्‌ पुराणे सुमन्तोः एव द्वौ शिष्यौ कथितौ पथ्यः देवदर्शः च। संन्यास विविदिषा तथा विद्वत्संन्यास के भेद से दो प्रकार का होता है।,संन्यासो विविदिषाविद्वत्संन्यासभेदात्‌ द्विविधः। पुत्र जन्म के निमित्त जातेष्टि नामक याज्ञ भी होता है।,पुत्रजान्मनिमित्तो जातेष्टियागो भवति। अहं ज्ञाता होता है।,अहं हि ज्ञाता। "और वहाँ घृतादीनाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है, च यह अव्यय पद है।","तत्र च घृतादीनाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌, च इति अव्ययपदम्‌।" चित्‌ शुद्ध हो जाने पर उसके बाद चित्त के विक्षेप के नाश के लिए उपासना करनी चाहिए।,चित्तं शुद्धं चेत्‌ ततः परम्‌ चित्तविक्षेपनाशाय उपासना कर्तव्या। उससे यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - निपात आद्युदात्त होते हैं।,ततश्च अयं सूत्रार्थः लभ्यते- निपाताः आद्युदात्ताः स्युः इति। इसके बाद षष्ठयन्त का राजन्‌ ङस्‌ इसके उपसर्जनत्व से पूर्व निपात होने पर राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु होता है।,ततः षष्ठ्यन्तस्य राजन्‌ ङस्‌ इत्यस्य उपसर्जनत्वात्‌ पूर्वनिपाते राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इति भवति। "मन्त्र का होता के प्रयोज्य होने से मैं होता स्तुति करता हूँ, यह अर्थ प्राप्त होता है।",मन्त्रस्य होत्रा प्रयोज्यत्वात्‌ अहं होता स्तौमीति लभ्यते। 9.तितिक्षा शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता होती है।,९. तितिक्षा हि शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता। "यहाँ स्यान्त षष्ठ्यन्त का तोड़ा हुआ पद है, 'स्यान्तस्योपोत्तमं च' इस वार्तिक में 'स्यान्तस्य' इस पद ग्रहण से।","अत्र स्यान्तषष्ठ्यन्तस्य व्यवच्छेदः भवति, स्यान्तस्योपोत्तमं च इति वार्तिके 'स्यान्तस्य' इति पदग्रहणात्‌।" योगी को अणिमादि सिद्धियाँ भी सुलभता से प्राप्त हो जाती है।,", योगिनः अणिमादिसिद्धयोऽपि सुलभा भवन्ति।" यहाँ सप्तम्यन्त समर्थ सुबन्त को समास होता है।,अत्र सप्तम्यन्तं समर्थन सुबन्तेन समस्यते। इस प्रकार से स्थूल नक्षत्रों को पहले दिखाकर के फिर उससे छोटे नक्षत्रों को दिखाकर के उसके बाद में सबसे लघु नक्षत्र को दिखाना चाहिए।,एवं स्थूलानि नक्षत्राणि प्रथमं प्रदर्श्य ततः लघुभूतानि प्रदर्श्य तदुत्तरम्‌ अन्ते अत्यन्तं सूक्ष्मम्‌ अरुन्धतीनक्षत्रं प्रदर्श्यते। "असुरों के द्वारा किये गए विघ्नों से रक्षा करने वाले उस, शक्तिशाली सैनिक के समान मत है।","असुरकृतेभ्यः विघ्नेभ्यः रक्षकत्वात्‌ तस्य, तच्छक्तिशाली सैनिक इव मतम्‌।" वेद में कहा गया है - “अग्निना रयिमश्नवत्‌/ पोषमेव दिवेदिवे।,तथाहि आम्नातम्‌ - 'अग्निना रयिमश्नवत्‌/ पोषमेव दिवेदिवे। अतः द्योतनात्‌ देवः ये सिद्ध हो जाता है।,अतः द्योतनात्‌ देवः इति सिध्यति। राजाभिः पूजितः इस विग्रह में भूत क्तान्त प्रत्ययान्त के साथ तृतीयान्त का समास होता है।,चेदुच्यते अत्र राजभिः पूजितः इति विग्रहे भूते क्तान्तेन सह तृतीयान्तस्य समासः। उनके द्वारा बहुत्व के रूप में प्रतीयमान आत्मा भी अभिन्नत्व के द्वाण प्रतीत होती है।,तेन च बहुत्वेन प्रतीयमानं सर्वम्‌ आत्मनः अभिन्नत्वेन प्रतीयते। सभी दार्शनिक जीवो के सुख की इच्छा को पूर्ण करने का प्रयास करते हैं।,सर्वेऽपि दार्शनिका जीवानां सुखवाञ्छापूर्णार्थं यतन्ते। केन उपनिषद्‌ की व्याख्या कीजिए।,केनोपनिषदं व्याख्यात। बहुत युग पूर्व सम्पूर्ण सृष्टि एक महान जल समूह से व्याप्त थी।,बहुयुगेभ्यः पूर्वं सम्पूर्णा सृष्टिः एकेन महता जलसमूहेन व्याप्ता आसीत्‌। अस्तेय के निषेध के लिए साक्षात्‌ श्रुति उपदेश देती है।,स्तेयनिषेधाय साक्षात्‌ श्रुतिः उपदिशति। अर्थ का अभावः अर्थाभावः।,अर्थस्य वस्तुनः अभावः अर्थाभावः। "इन तीनों सवनों का नाम यथाक्रम प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन, तृतीयसवन है।","एतेषां त्रयाणां सवनानां नाम यथाक्रमं हि प्रातःसवनम्‌, माध्यन्दिनसवनं, तृतीयसवनं चेति।" कर्मयोग सफल होता है अथवा नहीं इसके क्या लक्षण होते है।,कर्मयोगः सफलो न वेति कानि लक्षणानि इत्यादिकम्‌। "वहाँ याजुषज्योतिष के प्रमाण के लिए दो भाष्य भी प्राप्त होते है, एक सोमाकर द्वारा रचित प्राचीन है, दूसरा सुधाकर द्विवेदी द्वारा नवीन रचना है।","तत्र याजुषज्यौतिषस्य प्रामाणिकं भाष्यद्वयम्‌ अपि प्राप्यते, एकं सोमाकरविरचितं प्राचीनम्‌, द्वितीयं सुधाकरद्विवेदीकृतं नवीनम्‌।" "यज्ञ का कर्म यज्ञकर्म यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है, उस यज्ञकर्म में।","यज्ञस्य कर्म यज्ञकर्म इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः, तस्मिन्‌ यज्ञकर्मणि इति।" शुक्ल यजुर्वेद की कितनी शाखा हैं?,शुक्लयजुर्वदस्य कति शाखाः? "आद्युदात्तः यह प्रथमान्त पद है, च यह अव्यय पद है।","आद्युदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌, च इति अव्ययपदम्‌।" यह काल्पनिक यज्ञ है।,अयं काल्पनिकयज्ञोऽस्ति। ऋग्वेद के दशम मण्डल के नवतितम (९०वां ) सहस्रशीर्षं ... १६ ऋचा वाला सूक्त पुरुषसूक्त कहलाता है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य नवतितमं सहस्रशीर्षेति षोडशर्च सूक्तं पुरुषसूक्तम्‌ इत्यभिधानेनाभिधीयते। "निर्वकल्पक समाधि के ये चार विघ्न होते हैं- लय, विक्षेप, कषाय तथा रसास्वाद।",निर्विकल्पसमाधेः अन्तरायाश्च चत्वारः - लयः विक्षेपः कषायः रसास्वादश्चेति। स्वप्न में कोई अपने को राजा के रूप में देखता है।,स्वप्ने कश्चन आत्मानं राजानं पश्यति। इस प्रकार वहाँ पदों का अन्वय होता है - अभिवर्जम्‌ उपसर्गा: च आदिः उदात्तः इति।,एवञ्च तत्र पदान्वयः भवति- अभिवर्जम्‌ उपसर्गाः च आदिः उदात्तः इति। अनुदात्तम्‌ इस पद की अनुवृति है।,अनुदात्तम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते। "ब्राह्मण में मन्त्र, कर्म, विनियोग की व्याख्या है।",ब्राह्मणेषु मन्त्र- कर्म-विनियोगानां व्याख्या अस्ति। "वैसे ही यहाँ पर्जन्यदेवता का माहात्म्य को प्रकट किया जाता हे, वहाँ उसके भयङ्कर रूप का वर्णन किया जाता है, और इस पृथिवी पर उपयुक्त रूप से जलवर्षण के द्वारा धन धान्य से पूर्ण करने के लिए प्रार्थना करते है।","तथाहि अत्र पर्जन्यदेवतायाः माहात्म्यस्य प्रकटनं क्रियते , ततः तस्य भयङ्करं रूपं वर्ण्यते , ततश्च अस्यां पृथिव्याम्‌ उपयुक्तेन जलवर्षणेन शस्यविधानाय प्रार्थनाः क्रियन्ते ।" यज्ञ की आवश्यकता को अनुभव करके महामुनि व्यास ने क्या किया?,यज्ञस्य आवश्यकताम्‌ अनुभूय महामुनिना व्यासेन किं कृतम्‌? "विष्णु लोक में मनुष्यों की प्रसन्नता के लिये एक मधुसरोवर है, अत निश्चय से वह सभी का मित्र ही होता है।",विष्णोः लोके जनानां मोदनार्थम्‌ एकः मधुसरोवरः अस्ति अतः निश्चयेन स सर्वेषां मित्रमेव भवति। उससे यह सूत्रार्थ प्राप्त होता है - सुप्प्रत्यय और पित्प्र्यय अनुदात्त होते हैं।,ततश्च अयं सूत्रार्थः अत्र लभ्यते- सुप्प्रत्ययः पित्प्रत्ययः च अनुदात्तौ भवतः इति। पूर्वापरधरोत्तर इस विशेषण से सुप्‌ का तदन्तविधि में पूर्वापराधरोत्तर को सुबन्त होता है।,पूर्वापराधरोत्तरमित्यस्य विशेषणत्वात्‌ सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ पूर्वापराधरोत्तरं सुबन्तम्‌ इति भवति। "अतः सूत्र का अर्थ है द्विगुसमास में इगन्त, काल, कपाल, भगाल, वेदाध्ययन ३४५ (पुतक२) 44४g ३४५ ( पुस्तक-१ ) शराव इनके उत्तरपद रहते पूर्वपद बहु शब्द को विकल्प करके प्रकृतिस्वर होता है।",अतः सूत्रार्थः भवति द्विगुसमासे इगन्तकालकपालभगालशरावेषु उत्तरपदेषु पूर्वपदस्य बहुशब्दस्य अन्यतरस्यां प्रकृतिस्वरः भवति इति। पासे शीतलस्पर्श से विशिष्ट होने पर भी द्यूतकार के हृदय को जलाते रहते है।,अक्षः शीतलस्पर्शविशिष्टः अपि द्यूतकारहृदयं दहति । 7 दम कौन कहलाता है तथा किसका दम किया जाता हे?,७. दमः कः कथ्यते। किं दमनीयम्‌। सम्बन्ध यहाँ पर दो प्रकार का है।,सम्बन्धः द्विष्ठो भवति। निम्रुचि - नि+म्रुच्‌ धातु से निष्पन्नशब्द है।,निम्रुचि - नि+मुच्‌ धातोः निष्पन्नः शब्दः। "जिस प्रकार से राजा युद्ध में योद्धाओं को धन देने में तथा जय-पराजय के भोग में स्वयं ही मुख्य कर्तृत्व होता है, यजमान का भी दक्षिणादानादि में मुख्यकर्तृत्व होता है।","राजा तावत्‌ स्वव्यापारेणापि युध्यते; योधानां च योधयितृत्वे धनदाने च मुख्यमेव कर्तृत्वं, यजमानस्यापि प्रधानत्यागे दक्षिणादाने च मुख्यमेव कर्तृत्वम्‌।" "आप बहुत ही प्रसिद्धअपने शरीर के प्रकाश को बढाकर के ,मन्त्ररक्षितयज्ञ के समान सम्पूर्ण पृथिवी को इनके संरक्षण में करके यज्ञभूमि पर मध्यस्थ में रथ पर आरोहण करो।","भवन्तौ सुप्रसिद्धाः स्वशरीरप्रभाः वर्धयित्वा, मन्त्ररक्षितयज्ञवत्‌ सम्पूर्णां पृथिवीम्‌ इमां संरक्ष्य यज्ञभूमे: मध्यस्थे रथे आरोहणं कुरुताम्‌ इति।" सूत्रार्थ- झयन्त अव्वयीभाव से पर समासान्त तद्धित टच्‌ प्रत्यय विकल्प से होता है।,सूत्रार्थः - झयन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितः टच्‌ विकल्पेन भवति।। सत्रहवीं शताब्दी में दाराशिकोह नाम शाहजहाँ-नाम के सम्राट पुत्र ५० संख्या तक उपनिषद्‌ पारसी भाषा में ब्राह्मण पण्डितों की सहायता से अनुवाद किये।,सप्तदशशतके दाराशिकोहनामा शाहजहान-नामकस्य सम्राजः पुत्रः ५० संख्यकाः उपनिषदः पारसीभाषायां ब्राह्मणपण्डितानां साहाय्येन अनूदितवान्‌। ऐतरेय आरण्यक के विषय में लिखिए।,ऐतरेयाण्यकविषये लिखत। "उसके दो विस्तार लौकिकमनुष्यों के लिये ज्ञान का विषय है, परन्तु तीसरी बार जो विस्तार किया है, बह साधारण रूप से नही जाना जा सकता है।",तस्य द्विः विस्तारः लौकिकमनुष्याणां ज्ञानविषयः भवति परन्तु तृतीयवारं यः विस्तारः सः साधारणैः अगम्यः। "विशेष- विश्वदेवाः इत्यादि में यदि विश्वे च ते देवाः इस विग्रह में तत्पुरुष समास स्वीकार करते है, तो प्रकृत सूत्र से यहाँ विश्वशब्द को अन्तोदात्त नहीं होता है।",विशेषः- विश्वदेवाः इत्यादौ यदि विश्वे च ते देवाः इति विग्रहे तत्पुरुषसमासः स्वीक्रियते तर्हि प्रकृतसूत्रेण अत्र विश्वशब्दस्य अन्तोदात्तत्वं न भवति। समानाधिकरण तत्पुरुष का “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः इससे कर्म संज्ञा प्रस्तुत को गई है।,"समानाधिकरणस्य तत्पुरुषस्य "" तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः "" इत्यनेन कर्मधारयसंज्ञा प्रस्तुता।" प्रयोजन को बिना जाने मन्दबुद्ध व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है।,प्रयोजनम्‌ अज्ञात्वा मन्दबुद्धिः जनः अपि कस्मिन्नपि कार्ये प्रवृत्तः न भवति। वह रजो गुण का कार्य होता है।,रजसः कार्यं तद्‌। "किन्तु जो इन्द्र पद की प्राप्ति के लिए कठोर साधना करते हैं, वह उनका सङ्कल्प भङ्ग करता है।",किन्तु ये इन्द्रपदस्य प्राप्तये कठोरसाधनां कुर्वन्ति स तेषां सङ्कल्पभङ्गं करोति। इस अनुष्ठान का सबसे महत्त्वपूर्ण अङऱग महदुक्थम्‌ अथवा निष्कैवल्यशास्त्र है।,अस्य अनुष्ठानस्य सर्वतः महत्त्वपूर्णम्‌ अङ्गं महदुक्थम्‌ अथवा निष्कैवल्यशस्त्रम्‌। उसका बोध कराने वाले शब्द में यह अर्थ।,तद्वाचिनि इत्यर्थः। इनके नाश के लिए अधिकारी को श्रवण मनन तथा निदिध्यासन करना चाहिए।,एतयोः नाशाय अधिकारी श्रवणमनननिदिध्यासनानि कुर्यात्‌। "वहाँ स्यान्तस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, उपोत्तमम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, च यह अव्ययपद है।","तत्र स्यान्तस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, उपोत्तमम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, च इति अव्ययपदम्‌।" अदन्ताद्‌अव्ययीभाव से तृतीया और सप्तमी के बहुल का अमादेश होता है।,अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ तृतीयासप्तम्योः बहुलम्‌ अमादेशः भवति। कार्त इसका क्या अर्थ है?,कार्त इत्यस्य कः अर्थः? सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ पर क्व शब्द से उत्तर “किमोऽत्‌' इस सूत्रे से अत्‌-प्रत्यय करने पर तथा ' क्वाति' इससे किमः के स्थान में क्व- यह आदेश होने पर क्व-यह रूप सिद्ध होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र क्वशब्दोत्तरं किमोऽत्‌ इत्यनेन सूत्रेण अत्‌-प्रत्यये तथा क्वाति इत्यनेन किमः स्थाने क्व-इत्यादेशे क्व-इति रूपं सिध्यति। और ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इस सूत्र से ङीप्प्रत्यय करने पर जानत्‌ ङीप्‌ इस स्थित्ति में ङीप्प्र्यय के आदि ङकार कौ लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्‌ संज्ञा करने पर और तस्य लोपः इस सूत्र से उसके लोप होने पर जानत्‌ ई इस स्थित्ति में सभी का संयोग करने पर निष्पन्न जानती इस शब्द स्वरूप का ङीप्प्रत्ययान्त होने से और सु विभक्ति कार्य करने पर जानती यह रूप बनता है।,ततश्च ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इति सूत्रेण ङीप्प्रत्यये जानत्‌ ङीप्‌ इति स्थिते ङीप्प्रत्ययादेः ङकारस्य लशक्वतद्धते इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण च तस्य लोपे जानत्‌ ई इति स्थिते संयोगे निष्पन्नस्य जानती इति शब्दस्वरूपस्य ङीप्प्रत्ययान्तत्वात्‌ ततः सौ विभक्तिकार्ये च जानती इति रूपम्‌। इस प्रकार जो तुझसे मांगते है।,य ईदृशः ते त्वां याचे। "जैसे -जिसकी आज्ञा से ओषधियाँ विविध रंग से युक्त होती हैं, वह पर्जन्य देव हमारी रक्षा करे।","यथा- यस्य आज्ञया ओषधयः विविधवर्णयुक्ताः भवन्ति , स पर्जन्यदेवः अस्मान्‌ रक्षतु ।" वीर्याणि - वीर्‌ -धातु से यति प्रत्यय करने पर वीर्यम्‌ यह रूप बनता है।,वीर्याणि- वीर्‌- धातोः यतिप्रत्यये वीर्यम्‌ इति रूपम्‌। "पूरणश्च, गुणश्च, सहितं च पूरणगुणसुहितानि यहाँ इतरेतरयोगद्वन्दसमास है।","पूरणश्च, गुणश्च, सुहितं च पूरणगुणसुहितानि इति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः।" इसलिए पञ्चदशीकार विद्यारण्यस्वामी ने महावाक्यविवेक प्रकरण में कहा है कि- “येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च।,अतः एव पञ्चदशीकारेण विद्यारण्यस्वामिणा महावाक्यविवेकप्रकरणे उच्यते- “येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च। "कुछ लोग अन्य प्रकार से मानते है वे कहते है की नित्य काम्य अग्निहोत्रादि का अनुष्ठान अनायासदुःख के तुल्य होने से नित्यानुष्ठानासायदुःख ही पूर्वकृत दुरित का फल होता है, न की काम्यानुष्ठानायासदुःख होता है इस प्रकार से विशेष नहीं होने पर भी पूर्वकृत दुरितों का फल तो उत्पन्न होती ही है।","किञ्च अन्यत्‌ - नित्यस्य काम्यस्य च अग्निहोत्रादेः अनुष्ठानायासदुःखस्य तुल्यत्वात्‌ नित्यानुष्ठानायासदुःखमेव पूर्वकृतदुरितस्य फलम्‌ , न तु काम्यानुष्ठानायासदुःखम्‌ इति विशेषो नास्तीति तदपि पूर्वकृतदुरितफलं प्रसज्येत ।" "इनकी तुलना करने पर निम्नलिखित ज्ञान होता है -१ पिप्पलाद, २ स्तौद, ३ मोद, ४ शौनकीय, ५ जाजल, ६ जलद, ७ ब्रह्मवेद, ८ देवदर्श, ९ और चारणवेद्य।","एतेषां तुलनां कृते सति निम्नलिखितानि अभिधानानि भवन्ति - (१) पिप्पलादः, (२) स्तौदः, (३) मोदः, (४) शौनकीयः, (५) जाजलः, (६) जलदः, (७) ब्रह्मवदः, (८) देवदर्शः, (९) चारणवैद्यः च।" २.६४॥ ऋग्वेद में बहुत बार ही विक्रम-उरुक्रम-उरुगाय-इत्यादिशब्द से उसके तीन पैर का वर्णन किया है।,२.६४।। ऋग्वेदे बहुवारमेव विक्रम-उरुक्रम-उरुगाय-इत्यादिशब्देन तस्य पादत्रयं वर्णितम्‌ अस्ति। गत्यर्थलोटा लृट्‌ न चेत्‌ कारक सर्वान्यत्‌ ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,गत्यर्थलोटा लृट्‌ न चेत्‌ कारकं सर्वान्यत्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः। "प्रत्येक दिन जो पोषण करता हुआ उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त कराता है, कभी भी विनष्ट नहीं होता है।","दिवेदिवे पोषम्‌ एव प्रतिदिनं पुष्यमाणतया वर्धमानमेव, न तु कदाचिदपि क्षीयमाणम्‌।" उपनिषद्‌ अध्यात्मविद्या के रहस्य का प्रतिपादन करते हैं।,उपनिषदः अध्यात्मविद्यारहस्यं प्रतिपादयन्ति। वैदिक मन्त्रों में उपलब्ध उस उस पद विषय की व्युत्पत्ति भी ऊपर में अभिधान अथवा समर्थ करता है - “यज्ञेन यज्ञमजयन्त देवाः' (ऋग.१/१६४/५०)।,वैदिकमन्त्रेषु उलभ्यमानाः तत्तत्पदविषयिण्यः व्युत्पत्तयः अपि उपरि अभिहितम्‌ अभिधानं समर्थयन्ति - 'यज्ञेन यज्ञमजयन्त देवाः' (ऋग्‌.१/१६४/५०)। मोक्ष को इच्छा के बिना ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा भी नहीं होती है।,मोक्षे इच्छां विना ब्रह्मजिज्ञासा अपि न स्यात्‌। और दुःख को दूर करता है वह रुद्र है।,किञ्च रुत्‌ दुःखं द्रावयति रुद्रः। आदीध्ये यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,आदीध्ये इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? "वह राष्ट्र, भूमि, सङ्गम, यज्ञियो में प्रथम है।","सा राष्ट्री, वसूनां सङ्गमनी, चिकितुषी, यज्ञियानां प्रथमा।" इसी काम को अभिव्यक्ति ही सृष्टि के विभिन्न स्तरों में उसका प्रतिफल हुआ।,अस्यैव कामस्याभिव्यक्तिः सृष्टेः विभिन्नस्तरेषु प्रतिफलिता अभवत्‌। "किन्त दूसरे मन्त्र में कहते है - ` सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधिभूम्याम्‌' (तैत्तिरीयसंहिता ४-५-११-५) , अर्थात्‌ पृथिवी पर हजारो रुद्र हैं।","किन्तु, अपरस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते- 'सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधिभूम्याम्‌'(तैत्तिरीयसंहिता४-५-११-५), अर्थात्‌ पृथिव्यां सहस्रं रुद्राः सन्ति।" इसलिए पतञ्जलि ने कहा है- सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः ।,तथाहि सूत्रितं पतञ्जलिना - सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः इति। अज्ञान का विनाशकरके अमरत्व की प्राप्ति ही आध्यात्मिक धन है।,अज्ञानस्य विनाशं कृत्वा अमरत्वस्य प्राप्तिरेव आध्यात्मिकं वसु अस्ति। सर्तवे यहाँ पर किससे आद्युदात्त हुआ?,सर्तवे इत्यत्र कथम्‌ आद्युदात्तत्वम्‌। अत: प्रकृत सूत्र से करिष्यति इस तिङन्त पद को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसुत्रेण करिष्यति इति तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। "अर्थात्‌ मेघ द्वारा यह देवता आकाश को ढकता है, उससे इसका नाम वरुण है।","अर्थात्‌ मेघद्वारा इयं देवता आकाशम्‌ आवृणोति, तस्मात्‌ अस्या नाम वरुणः इति।" और इनमें अद्वैतत्व को ही सर्वोच्चस्तरीय उपलब्धित्व से देखते हुए उन्होंने अभ्यर्हितत्व के द्वारा उसका प्रचार किया।,परन्तु एतेषु अद्वैततत्त्वमेव सर्वोच्चैस्तरीयोपब्धित्वेन पश्यन्‌ स तदेव अभ्यर्हितत्वेन प्रचारितवान्‌। "® सभी वेदान्त शास्त्रों से सृक्ष्मनिर्विशेष निरवयव,निरञ्जन सर्वानुस्यूत अस्ति मात्र सत्‌ ब्रह्म वस्तु ही समझी जाती है।",सर्वेभ्यः वेदान्तशास्त्रेभ्यः सूक्ष्मं निर्विशेषं निरवयवं निरञ्जनं सर्वानुस्यूतम्‌ अस्तितामात्रं सत्‌ ब्रह्म वस्तु एव अवगम्यते। पूर्वेषुकामशमी इसके प्रातिपडिकत्व अहाति से इसके बाद सु प्रत्यय की प्रक्रिया होने पर पूर्वेषुकामशमी रूप निष्पन्न होता है।,पूर्वेषुकामशमी इत्यस्य प्रातिपदिकत्वाक्षत्या ततः सौ प्रक्रियाकार्ये पूर्वेषुकामशमी इति रूपम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- उद्वतः यहाँ पर उत्‌ यह उपसर्ग संज्ञक है।,सूत्रार्थसमन्वयः- उद्वतः इत्यत्र उत्‌ इति उपसर्गसंज्ञकः। यहाँ पर श्रद्धा पद का सायण के द्वारा किया गया अर्थ- श्रद्धाबलेन लभ्यं ब्रह्मात्मकं वस्तु अर्थात्‌ ब्रह्म को श्रद्धा के द्वारा ही जान सकते है अथवा प्राप्त कर सकते है।,"अत्र श्रद्धिव इति पदस्य सायणेन कृतोरऽऽर्थः - श्रद्धाबलेन लभ्यं ब्रह्मात्मकं वस्तु अर्थात्‌ ब्रह्म श्रद्धया ज्ञातं भवति, उपलभ्यते।" "“प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपद लोपः'' “नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपद लोपः'', “सप्तम्युपमान पूर्वपदस्योत्तरपदलोपश्च'' ये वार्तिक बहुव्रीहि समास विधायक हैं।","""प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः"", ""नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः"", ""सप्तम्युपमानपूर्वपदस्योत्तरपदलोपश्च"" इत्येतानि वार्तिकानि बहुव्रीहिविधायकानि सन्ति।" इस प्रकार से स्वीकार करना चाहिए।,आसीदिति स्वीकरणीयम्‌। और उदाहरण की सङ्गति दिखाई गई।,उदहरणसङ्गतिः च प्रदर्शिता। रूप को बढाने वाले।,रूपाधिक्यकर्तारः। यहाँ दिक्संख्ये प्रथमा द्विवचनात्त और संज्ञायाम्‌ सप्तम्येकवचनान्त पद है।,अत्र दिक्संख्ये इति प्रथमाद्विवचनान्तं संज्ञायामिति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। इन व्याकरणों में आठ प्रकार के नाम ही प्रसिद्ध हैं।,अनेन व्याकरणानाम्‌ अष्टविधत्वम्‌ एव प्रसिद्धम्‌। "अतीत, अनागत तथा वर्तमान रूप निखिल जगत्‌ पुरुष का अपने विशेष सामर्थ्य का परिणाम है।",अतीतानागतवर्तमानरूपां निखिलं जगत्‌ पुरुषस्य स्वकीयसामर्थ्यविशेषः। जाग्रत होने पर ही जीव की उपाधि अन्तः करण होता है।,जाग्रति जीवस्य उपाधिर्भवति अन्तःकरणम्‌। "सभी कार्यो को करने से पहले प्राणियों का मन पूर्वप्रवृत्त होता है, मन के स्वास्थ्य के विना कार्यो में प्रवृत नही होता है यह अर्थ है।",सर्वकर्मसु प्राणिनां मनः पूर्वप्रवृत्तेः मनःस्वास्थ्यं विना कर्माभावादित्यर्थः। वस्तुतः अन्तः करण के संयम का नाम ही राज योग है।,अन्तःकरणस्य संयम एव वस्तुतः राजयोगः। अर्थात्‌ मेरे मन में हमेशा धर्म ही हो कभी भी पाप नही हो।,अर्थात्‌ मम मनसि सदा धर्मः एव भवतु न कदापि पापम्‌। "सप्तहोता सात होता के द्वारा देवो का आह्वान करते है, अर्थात होतृमैत्रवरुण आदि सात होता है।",सप्तहोता सप्तहोतारो देवानाम्‌ आह्वातारो होतृमैत्रावरुणादयो यत्र स सप्तहोता। तैत्तिरीय ब्राह्मण में (३/१२/९/१) “ अथर्वणामङिगरसां प्रतीची इस पद में अथर्व अडिगरस का मिला हुआ स्वरूप वर्णित है।,तैत्तिरीयब्राह्मणे (३/१२/९/१) 'अथर्वणामङ्गिरसां प्रतीची' इत्यस्मिन्‌ पदे अथर्वाङ्गिरसोः मिलितस्वरूपं वर्णितम्‌ अस्ति। पर्जन्य सूक्त में (५/८३) वर्षा काल का अत्यधिक सुंदर वर्णन है।,पर्जन्यसूक्ते (५/८३) वर्षाकालस्य अतीव नैसर्गिकं वर्णनम्‌ अस्ति। वह नपुंसकलिङ्ग में गिना जाता है।,तत्‌ नपुंसकलिङ्गि गण्यते। और उनभूतों से भौतिक वस्तुओं की समुत्पत्ति होती हेै।,तेभ्यः भूतेभ्यः भौतिकानां च समुत्पत्तिः। (क.) जो काम्यकर्म को त्यागता है।,(क) यः काम्यानि त्यजति "उनमें क्त्वा, तोसुन्‌, कसुन इस अव्यय संज्ञा विधान से।",तेषां क्त्वातोसुन्कसुनः इत्यनेनाव्ययसंज्ञाविधानात्‌। उन्होंने इस जन्म में भले ही वेदाध्ययन वैदिककर्मो का अनुष्ठान भले ही नहीं किया है फिर भी वे उसके बिना ही वेदान्त के अधिकारी माने जाते है।,ते अस्मिन्‌ जन्मनि यद्यपि वेदाध्ययनं वैदिककर्मानुष्ठानं वा न कृतवन्तः तथापि तद्‌ विनापि वेदान्ते अधिकारिणः भवन्ति। समाहार वाच्य होने पर इस प्रकरण के उपकारक सूत्रों का वर्णन किया जाता है- संस्कृत व्याकरण-३४६ (पु्तक-१) ` व्याकरण -३४६ ( पुस्तक-१ ) (3.6 ) “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारय'' ( 9.2.42 ) सूत्रार्थ-समानाधिकरण तत्पुरुषसमास कर्मधारय होता है।,समाहारे वाच्ये एतत्प्रकरणोपकारकाणि सूत्राणि वर्ण्यन्ते - [३.६] तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः ॥ (१.२.४२) सूत्रार्थः - समानाधिकरणः तत्पुरुषसमासः कर्मधारयसंज्ञको भवति। "प्रथम भाग में बालखिल्य सूक्तों को छोड़कर सम्पूर्ण ऋग्वेद संहिता में दस मण्डल, पचासी अनुवाक, दो हजार छः वर्ग है।","प्रथमभागे बालखिल्यसूक्तानि विहाय सम्पूर्णायां ऋग्वेदसंहितायां दश मण्डलानि, पञ्चाशीतिश्चानुवाकाः, अष्टोत्तरद्विशतमिताश्च वर्गाः सन्ति।" विषयान्तरों से प्रतिनिवृत्त चित्त का ब्रह्म में स्थापन ही धारण होती है।,विषयान्तरेभ्यः प्रतिनिवृत्तस्य चित्तस्य ब्रह्मणि स्थापनमेव धारणा। प्रत्यह्न - प्रतिपूर्वक ह्न-धातु से लङः प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,प्रत्यह्न - प्रतिपूर्वकात्‌ ह्न-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। रत्न धन का नाम है।,रत्नम्‌ धनस्य नाम अस्ति। इसलिए इस समाधि में ज्ञातूज्ञानज्ञेयादि भेद बुद्धि का लय हो जाता है।,अस्मिन्‌ समाधौ ज्ञातृज्ञानज्ञेयादिभेदबुद्धेः लयो भवति। यह ब्राह्मण साहित्य हमेशा ही विशाल और व्यापक है।,ब्राह्मणसाहित्यमिदं नितराम्‌ एव विशालं व्यापकञ्च वर्तते। 6. वृषायमाणः इसक क्या अर्थ है?,६. वृषायमाणः इत्यस्य कः अर्थः? 6. प्रारब्ध कर्मों का क्षय किस प्रकार से होता है?,६.प्रारब्धकर्मणः कथं क्षयः भवति? यहीं व्याकरण अध्ययन के रास्ते हैं।,अयमेव व्याकरणाध्ययनस्य पन्थाः। शांत रूप से और सुखरूप से ॥,शन्तमया सुखतमया। अठारहवें अध्याय में वसु के धार सम्बन्धी मन्त्रों का निर्देश है।,अष्टादशाध्याये वसोः धारासम्बन्धिनः मन्त्राः निर्दिष्टाः सन्ति। इस समास का उदाहरण है-कृष्णश्रितः।,अस्य समासस्य कृष्णश्रितः इत्यादिकम्‌ उदाहरणम्‌। असावित्यन्तः' इस वार्तिक कौ व्याख्या कीजिए।,असावित्यन्तः' इति वार्तिकं व्याख्यात। "अथवा जैसे लेखक अपनी लेखनी को धारण करते है, और वाणिज्य अपने तुलादण्ड को धारण करते है।","यथा वा लेखकः स्वलेखनीं श्रद्दधाति , वणिक्‌ च स्वतुलादण्डं श्रद्धधति ।" अथ इस वार्तिक से उस यजमान नामवाचक के प्रथमान्त पद के अन्त का उदात्त स्वर करने का नियम है।,अथ अनेन वार्तिकेन तस्य यजमाननामवाचकस्य प्रथमान्तस्य पदस्य अन्तस्य उदात्तस्वरः विधीयते। हमें वैदिक रीति की अवश्य ही रक्षा करनी चाहिए।,अस्माभिः वैदिकी रीतिः ध्रुवमेव रक्षणीया वर्तते। अहो इस अव्यय से युक्त तिङन्त को किससे अनुदात्त नहीं होता हे?,अहो इत्यव्ययेन युक्तं तिङन्तं केन अनुदात्तं न भवति? धर्मराजध्वरीन्द्र के मत में भी वेदान्तपरिभाषा के अद्वैतवेदान्तप्रकरण ग्रन्थ में भी ब्रह्मसाक्षात्कार के हेतु के रूप में श्रवण मनन तथा निदिध्यासन को कहा गया है।,धर्मराजाध्वरीन्द्रविरचिते वेदान्तपरिभाषाभिधेये अद्वैतवेदान्तप्रकरणग्रन्थि अपि ब्रह्मसाक्षात्कारहेतुत्वेन श्रवणमनननिदिध्यासनानि निगदितानि। अथवा पापी मनुष्यों को दुःखभोग से रुलाते वे रुद्र है।,यद्वा पापिनो नरान्‌ दुःखभोगेन रोदयति रुद्रः। इसलिये तू युक्त हो अर्थात्‌ उपर्युक्त निश्चय वाला हो यह अभिप्राय है।,मम फलाय इदं करोमि कर्म इत्येवं फले सक्तो निबध्यते। उनके दर्शन का सारभूत तत्व यह ही है “ आत्मा मोक्ष के लिए है तथा जगत्‌ के हित के लिए है ”।,"तदीयदर्शनस्य सारभूतं तत्त्वं हि - “आत्मनो मोक्षार्थं, जगद्धिताय च”" बाह्य साधनों से जो दुःख होता है वहा दो प्रकार का होता है।,बाह्योपायसाध्यं च दुःखं द्वेधा। उससे यहाँ पद का अन्वय है - छन्दसि दक्षिणस्य आदि: अन्तः उदात्तः इति।,तेन अत्र पदान्वयः भवति- छन्दसि दक्षिणस्य आदिः अन्तः उदात्तः इति। मनुष्यों का सुख किस अलौकिक उपाय से हो सकता है इसका ज्ञान वेद कराता है।,जनानां सुखं केन अलौकिकेन उपायेन भवितुमर्हति इति वेदयति वेदः। "ब्रह्म, माया इसका ज्ञान कैसे होगा, कैसे यह सृष्टि होती है ,यह विषय यहां पर वर्णित है।","तत्र ब्रह्म माया इति ज्ञानोत्तरं कथम्‌ अध्यासः भवति, कथं ततः सृष्टिः भवति इति विषयः अत्र उपन्यस्तः।" इस प्रकार की उनकी भावनाएँ थी।,इति आसीत्‌ तस्य भावना। "नानार्थक शब्द के नानार्थ में शक्ति होती है , तो भी जिस अर्थ मे तात्पर्य निश्चित होता है।",नानार्थकशब्दस्य नानार्थे शक्तिज्ञानं भवति चेदपि यस्मिन्‌ अर्थ तात्पर्यनिश्चयो भवति। उसके अभय युक्त परमकल्याणकारी पद के ज्ञान के लिए गुरु के पास जाना चाहिए।,ततश्च अभयं शिवमकृतं नित्यं पदं यत्‌ तद्विज्ञानार्थं गुरुमेव अधिगच्छेत्‌। उनका विस्तार के भय से यहाँ वर्णन नहीं किया जा सका।,ते विस्तरभयादत्र नोच्यन्ते। "इन्द्र ने कम्पन इस पृथिवी को स्थिर किया, उड्‌्ते हुए पर्वत को भी स्थिर किया, आकाश और पृथिवी को विस्तृत करती है।","इन्द्रः कम्पमानां पृथिवीं दृढां चकार, उड्डीयमानं पर्वतम्‌ अपि स्थिरम्‌ अकरोत्‌, आकाशं पृथिवीं च व्यतनोत्‌।" "यम के स्वरूप के विषय में वेदान्तसार में कहा गया है- “तत्र अहिसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः” अर्थात्‌ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये पाँच यम कहलाते है।",यमस्वरूपविषये उच्यते वेदान्तसारे - “तत्र अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः” इति। उससे वागर्थ और इव यह स्थिती होती है।,तेन वागर्थ औ इव इति स्थितिः जायते। और यही अव्ययीपर है।,चेत्यव्ययपदम्‌ । द्यूतक्रीडा उसी शक्ति के वश में होकर रहती है।,द्यूतक्रीडकः अस्याः शक्तेः वशीभवति । इसपाठ में निर्वकल्पक समाधि के अंग तथा विघ्नों का आलोचन किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे निर्विकल्पकसमाधेः अङ्गानि अन्तरायाश्च आलोचितानि। "अब कहते हैं कि ब्रह्म ही नित्य है, अन्य अखिल अनित्य है यह विवेचन यदि निश्चय है तो एक प्रकार का संशय उत्पन्न होता है।",ननु ब्रह्मैव नित्यम्‌ अन्यद्‌ अखिलम्‌ अनित्यम्‌ इति यद्‌ विवेचनं तद्‌ निश्चयः उत संशयः। अखण्डार्थ प्रतिपादक वाक्य ही महावाक्य कहलाते हैं।,अखण्डार्थप्रतिपादकं वाक्यं हि महावाक्यम्‌। तुम जलसेचन करके गर्जनशील मेघ के साथ हम लोगो के अभिमुख आगमन करो।,हे पर्जन्य त्वम्‌ एतेन स्तनयित्नुना गर्जता मेघेन सह अर्वाङ्‌ अस्मदभिमुखान्‌ एहि आगच्छ । बुद्धि यहाँ पर विज्ञान होती है।,बुद्धिरत्र विज्ञानं भवति। सूत्र का अर्थ- सुगन्धितेजन और ते इस शब्द का आदि और दूसरा विकल्प से उदात्त हो।,सूत्रार्थः- सुगन्धितेजनस्य ते इति शब्दस्य च आदिः द्वितीयः च विकल्पेन उदात्तः स्यात्‌। तताप - तप्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,तताप - तप्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने । अथवा उससे मतुप्‌ प्रत्यय होने पर “गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिष्टः” इस वार्तिक से मतुप्‌ प्रत्यय का लोप होने पर श्वेतशब्द का श्वेत गुणविशिष्ट पद की वाचकता प्राप्त हुई है।,"अथवा तस्मान्मतुपि ""गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिष्टः"" इति वार्तिकेन मतुपः लुकि श्वेतशब्दस्य श्वेतगुणविशिष्टपदार्थवाचकत्वम्‌ अस्ति।" 22. वृत्ति के कितने भेद हैं?,२२. वृत्तेः कति भेदाः? लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थप्रत्यगात्मनाम्‌॥,लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थप्रत्यगात्मनाम्‌।।” इति। "अतः इस सूत्र का यह अर्थ है - तिङन्त पद से परे गोत्रादि अनुदात्त होते है, कुत्सन आभीक्ष्ण्य गम्यमान होने पर गोत्रादिगण में गोत्र, ब्रुव, प्रवचन, प्रहसन, प्रयतन, पवन, यजन, प्रकथन, प्रत्यायन, प्रचक्षण, विचक्षण, अवचक्षण, स्वाध्याय, भूयिष्ठा इत्यादि शब्द पढ़े गए है।",अतः सूत्रस्यास्य अर्थः भवति- तिङन्तात्‌ पदात्‌ पराणि गोत्रादीनि अनुदात्तानि भवन्ति कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः गम्यमानयोः इति। गोत्रादिगणे गोत्र ब्रुव प्रवचन प्रहसन प्रयतन पवन यजन प्रकथन प्रत्यायन प्रचक्षण विचक्षण अवचक्षण स्वाध्याय भूयिष्ठा इत्यादयः शब्दाः पठिताः। वस्तु में अवस्तु का आरोप अध्यारोप कहलाता है।,वस्तुनि अवस्तुनः आरोपः अध्यारोपः। अभीषुभिः - अभिपूर्वक इष्‌-धातु से उप्रत्यय करने पर तृतीयाबहुवचन में अभीषुभिः रूप बनता है।,अभीषुभिः - अभिपूर्वकेष्‌ - धातोः उप्रत्यये तृतीयाबहुवचने अभीषुभिः इति रूपम्‌। अब तक यह तो सिद्ध हो चुका है कि विधिवत्‌ वेदाङ्ग सहित वेदों का अध्ययन करना चाहिए।,एतत्‌ सिद्धं यत्‌ विधिवत्‌ वेदाङ्गसहितं वेदाध्ययनं कर्तव्यं। इस प्रकार से क्षणिकत्वादि धर्म विशिष्ट अन्नमयकोश नित्यत्वादि धर्म लक्षित लक्षण आत्मा का नहीं होता है।,एवं क्षणिकत्वादिधर्मविशिष्टः अन्नमयकोशः नित्यत्वादिधर्मलक्षितलक्षणः आत्मा नैव भवति। दृष्ट तथा आनुश्रविकादृष्ट ऐहिक अर्थात्‌ इस मृत्युलोक में उपलभ्य विषय होते हैं।,दृष्टः आनुश्रविकश्च। दृष्टः ऐहिकः अर्थात्‌ अस्मिन्‌ मृत्युलोके उपलभ्यमानः। पशुओं की आहूति के लिए खूंटे की अपेक्षा होती है।,पशूनाम्‌ आहुतये यूपदारु अपेक्षते। इसके पराक्रम से पृथिवी आकाश में कम्पन हुआ और देव भी भयभीत हुए।,अस्य पराक्रमेण पृथिव्याकाशौ कम्पमानौ सञ्जातौ देवाश्च भयभीताः अभवन्‌। "“कुगतिप्रादयः '' सूत्रार्थ-समर्थ कुगति प्रादि को समर्थ से सुबन्त के साथ नित्य समास होता है, और वह तत्पुरुष संज्ञक होती है।","कुगतिप्रादयः ॥ सूत्रार्थः - समर्थाः कुगतिप्रादयः समर्थन सुबन्तेन सह नित्यं समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" जीव अल्पज्ञ होता है ईश्वर सर्वज्ञ होता है।,"जीवः अल्पज्ञः, ईश्वरः सर्वज्ञः।" कौन देव?,के देवाः? "जैसे - “मा वामेतौ मा परेतौ रिषाम्‌'' (ऋ.वे.१०.१७८.२) , सूर्याचन्द्रमसौ धाता (१०.१९०.३)।","यथा - मा वामेतौ मा परेतौ रिषाम्‌ (ऋ.वे.१०.१७८.२), सूर्याचन्द्रमसौ धाता (१०.१९०.३)।" आत्मा को आँखों के द्वारा उसके रूप के अभाव के कारण देखा नहीं जा सकता।,आत्मा चक्षुषा द्रष्टुं न शक्यते। तस्य रूपाभावात्‌। "इसी कारण उन वाक्यों की विधियों का प्रतिपादन नहीं करते हैं, जिससे उन वाक्यों की भी व्यर्थता प्रकट होती है।",एवं यतः तानि वाक्यानि विधीन्‌ न प्रतिपादयन्ति तस्मात्‌ तेषां वाक्यानां नितान्ता व्यर्थता। 31. विशेष संज्ञा क्या है?,३१. विशेषसंज्ञाः काः? जैसे दस लोग नदी को पार करके उसके दूसरे तट पर पहुँच जाते हैं।,यथा दशजनाः नद्याः अपरतीरात्‌ ततः विपरीततीरम्‌ आगतवन्तः। न कि उसका वास्तव स्वरूप।,न तु तस्य वास्तवस्वरूपम्‌। अपरोक्षानुभूति आध्यात्मिक सत्य समूह का परम पुरुषार्थ वर्तमानकाल में श्रीरामकृष्ण के मत को मनुष्यों के श्रद्धा के लिए तथा उसका पुनः उद्धार तथा ईश्वर लाभ ही जीवन का परमलक्ष्य है इस प्रकार के तत्व कि उन्होंने फिर से प्रतिष्ठा की।,"अपरोक्षानुभूतिः - आध्यात्मिकसत्यसमूहस्य प्रमाणम्‌, परमपुरुषार्थश्च वर्तमानकाले श्रीरामकृष्णस्य अन्यतममवदानं तावत्‌ - मनुजनूनां मनःसु अतीन्दियसत्यं प्रति श्रद्धायाः पुनरुद्धारस्तथा ईश्वरलाभ एव जीवनस्य परमलक्ष्यम्‌ इति तत्त्वस्य पुनःप्रतिष्ठापनम्‌।" साकार कैसे है तो कहते हैं कि जैसे जल तथा बर्फ होता है।,"साकारः कथम्‌? यथा जलं, हिमकरकं च।" इसके बाद प्रोक्त सूत्र से प्रति पूर्वक सामान्त से प्रतिसामन्‌ इस समास से अच्‌ प्रत्यय होता है।,ततः प्रोक्तसूत्रेण प्रतिपूर्वात्‌ सामान्तात्‌ प्रतिसामन्‌ इत्यस्मात्‌ समासात्‌ अच्प्रत्ययो भवति। "छः मन्त्र वाले इस सूक्त के ऋषि याज्ञवल्क्य, मनो देवता, त्रिष्टुप्‌ छन्द है।","षड्-ऋचात्मकस्य सूक्तस्यास्य ऋषिः याज्ञवल्क्यः, मनो देवता, त्रिष्टुप्‌ छन्दः।" उससे पहले एक नाव का निर्माण करके मेरी प्रतीक्षा करोगे।,तस्मात्‌ एकां नावं निर्माय मम प्रतीक्षां करिष्यति । गवामयन याग में अनुष्ठानावली का काल विभाग के साथ सूर्य का वार्षिकगत सादृश्य है।,गवामयनयागस्य अनुष्ठानावल्या कालविभागेन सह सूर्यस्य वार्षिकगतेः सादृश्यम्‌ अस्ति। वह उसके द्वारा ईश्वर को प्राप्त भी कर सकता है।,स तेन एव मार्गेण ईश्वरं लब्धुं शक्नोति। किंराजन्‌ से “राजाह: सखिभ्यष्टच्‌ठ इससे टच्‌ प्राप्त होने पर कि पूर्व पद से प्रोक्त सूत्र से उसका निषेध होने पर किंराजन्‌ होता है।,"किंराजन्‌ इत्यस्मात्‌ ""राजाहःसखिभ्यष्टच्‌"" इत्यनेन टचि प्राप्ते किंपूर्वपदकत्वात्‌ प्रोक्तसूत्रेण तन्निषेधे किंराजन्‌ इति भवति।" स्वप्न में जो-जो देखा जाता है प्रबोध होने पर उन सभी का मूल सहित नाश हो जाता |,स्वप्ने यद्यत्‌ दृष्टं तत्सर्वमपि प्रबोधे समूलं नश्यति। "तीन पद वाले इस सूत्र में यथा यह अव्यय पद है, इति यह भी अव्यय पद है, और पादान्ते यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।","पदत्रयात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे यथा इति अव्ययपदम्‌, इति इत्यपि अव्ययपदम्‌, पादान्ते इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" “सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,'सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे' इति सूत्रस्य कः अर्थः ? सत्रयाग की क्या प्रकृति है?,सत्रयागस्य प्रकृतिः काः? प्रकृत पाठ में प्रत्यय स्वरों की चर्चा की गई है।,प्रकृतपाठे अस्मिन्‌ प्रत्ययस्वराणां तु चर्चा क्रियते। 'सुषुप्तवज्जाग्रति यो नपश्यति ' इत्यादि श्रुतिवाक्यों के द्वारा जीवन्मुक्त का स्वभाव कहा गया है।,'सुषुप्तवज्जाग्रति यो न पश्यति' इत्यादिश्रुतिवाक्यैः जीवन्मुक्तस्य स्वभावः उक्तः। विक्षेप चित्त का चाञ्चल्य होता है।,विक्षेपश्च चित्तस्य चाञ्चल्यम्‌। "यहाँ प्रधान रूप से कुछ उदात्त आदि स्वरों का विधान करते हैं, कुछ सूत्रों के द्वारा उन स्वरों का निषेध भी होता है।","अत्र प्रधानतः कैश्चित्‌ उदात्तादिस्वराः विधीयन्ते, कैश्चित्‌ सूत्रैस्तु तेषां स्वराणां निषेधः अपि भवति।" किन्तु आत्मतत्त्व की विशेष विवेचना को यह उपनिषद्‌ भी कहता है।,किञ्च आत्मतत्त्वस्य विशेषविवेचकत्वेन इयम्‌ उपनिषदपि कथ्यते। अर्थात्‌ वह सूर्य ब्रह्म को प्रकाशित नहीं कर सकता है।,अर्थात्‌ स सूर्यः ब्रह्म प्रकाशयितुं न शक्‍नोति। प्रपञ्च को स्वप्न के जैसा मानने के लिए वह निराकार होता है।,प्रपञ्चं स्वप्नवत्‌ मन्यमानानां कृते स निराकारः। उससे तिङन्त में स्वर निषेध विधायक सूत्रों की भी आलोचना है।,ततः तिङन्ते स्वरनिषेधविधायकानि सूत्राणि अपि आलोचितानि। इससे उपहित तथा तुरीय ब्रह्म के अभेद से अवभासमान त्वं पद वाच्यार्थ होता है।,एतदनुपहितं तुरीयं च ब्रह्म अभेदेन अवभासमानं त्वम्पदस्य वाच्यार्थः भवति। सरलार्थ - इस दृश्यमान जगत्‌ में जो कुछ भी है वो सभी पुरुष ही है।,सरलार्थः- यत्‌ किमपि दृश्यमानं जगत्‌ तत्‌ सर्वमपि स पुरुषः एव। वो किस प्रकार की।,कीदृश्या तया। तत्‌ शब्द से यहाँ चतुर्थ्यन्तार्थ कहलाता है।,तच्छब्देनात्र चतुर्थ्यन्तार्थः उच्यते। यहाँ दो पक्षियों से जीवात्मा और परमात्मा की उपमा की गई है।,अत्र पक्षिद्वयेन जीवात्मपरमात्मानौ उपमीतौ। स्वीकृत होने पर एकार्थी भाव रूप में सामर्थ्य में राजन्‌ ङस पुरुष सु इस समुदाय और समुदाय शक्ति से ही राजसम्बन्धी पुरुष यह विशिष्ट अर्थ के लिए बोध होता है।,स्वीकृते च एकार्थीभावरूपे सामर्थ्य राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इति समुदायः समुदायशक्त्या एव राजसम्बन्धी पुरुषः इति विशिष्टार्थ बोधयति। लेकिन सविकल्पकसमाधि में ज्ञातूज्ञानादि भेददर्शन से अद्वैत वस्तु किस प्रकार से भासित होती है।,परन्तु सविकल्पकसमाधौ ज्ञातृज्ञानादिभेददर्शनात्‌ कथम्‌ अद्वैतं ब्रह्मवस्तु भासेत। "जैसे देवों ने प्रजापति के मन आदि से चन्द्रादि की कल्पना की उसी प्रकार देवों ने उसकी नाभि से अन्तरीक्ष, शिर से स्वर्ग, पाद से भूमि, प्राच्यादि दिशा तथा भू: भुव और स्वः तीन लोक उत्पन्न किये।","यथा देवाः प्रजापतेः मनःप्रभृतिभ्यः चन्द्रादीन्‌ कल्पितवन्तः, तन्नाभेः अन्तरीक्षं, शिरसः स्वर्गं, पादाभ्यां भूमिं, प्राच्यादिदिशस्तथा भूर्भुवादिलोकान्‌ देवा उत्पादितवन्तः इति।" इन वाक्यों का यद्यपि अपने स्वयं से कोई उपयोगिता नहीं है फिर भी ये विधि प्रशंसा में प्रयुक्त है।,एतेषां वाक्यानां यद्यपि स्वतः कापि उपयोगिता नास्ति तथापि एतानि विधिप्रशंसायां प्रयुक्तानि सन्ति। 8. जविष्ठम्‌ इसका क्या अर्थ है?,८. जविष्ठम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? उस स्थितिप्रज्ञ पुरुष के पास में ब्रह्मज्ञानमार्ग खुल जाता है।,तस्य स्थितप्रज्ञस्य पुरुषस्य सकाशे ब्रह्मज्ञानस्य मार्गः उन्मुक्तः भवति। कार्य के प्रति जो उपादान कारण है उन कारणों का जिसमें अपरोक्ष ज्ञान होता है तथा कार्य करने की इच्छा एवं कार्य करणानुकूल प्रयत्न जिसमें होता है वह कर्ता है।,"कार्यं प्रति यानि उपादानकारणानि सन्ति तेषां कारणानाम्‌ अपरोक्षज्ञानं यस्मिन्‌ अस्ति, कार्यं कर्तुम्‌ इच्छा कार्यकरणानुकूलप्रयत्नः च यस्मिन्‌ विद्यते स कर्ता भवति।" "यहाँ छन्दसि यह विषय सप्तम्यन्त पद है, च यह अव्यय है।","अत्र छन्दसि इति विषयसप्तम्यन्तं पदम्‌, च इति अव्ययम्‌।" बाज नाम का बलवान पक्षी अत्यन्त दूर जाने के लिए भयभीत नहीं होता है।,श्येननामको बलवान्‌ पक्षीव दूरगमनात्तव भयमासीदिति गम्यते। जिसका अशेषता से अज्ञान का नाश होता है।,यस्य अशेषतया अज्ञानस्य नाशो भवति । लेकिन विजातीयदेह घटादि के द्वारा तादात्म्य से भासमान ब्रह्म के ज्ञान से मुक्ति सम्भव नहीं होती है।,परन्तु विजातीयदेहघटादिभिः तादात्म्येन भासमानस्य ब्रह्मणः ज्ञानेन न मुक्तिः सम्भवति। स्थूल शरीर आत्मा का नहीं होता है।,स्थूल शरीरम्‌ आत्मनः नास्ति। पशु याग के छह पुरोहित कौन से हैं?,पशुयागस्य षट्‌ पुरोहिताः के ? 7 चित्त के विक्षेप का हेतु क्या होता हे?,7 कः चित्तविक्षेपहेतुः। "उपर्युक्त अर्थ विशिष्ट वाला अव्यक्त महदादि विलक्षण चेतनस्वरूप तथा सभी प्राणियों का समष्टि रूप में ब्रह्माण्डदेह विराडाख्य पुरुष जो अनन्तशिर, चक्षु, चरणों वाला है।",उपर्युक्तार्थविशिष्टः अव्यक्तमहदादिविलक्षणः चेतनः संर्वप्राणिसमष्टिरूपः ब्रह्माण्डदेहो विराडाख्यः पुरुषः अनन्तैः शिरोभिः चक्षुभिः चरणैश्च चकासद्‌ अस्ति। फिर फल लाभ के लिए काम्य कर्मों के द्वारा पुण्यों का संचय करना चाहिए।,पुनः फललाभाय पुनः काम्यकर्मभिः पुण्यसंचयः कर्तव्यः। "और मनन से तात्पर्य है कि अद्वितीयवस्तु का वेदान्त के अनुसार अनवरत चिन्तन करना, तथा विजातीय देहादिप्रत्ययरहित अट्ठितीय वस्तु का सजातीय प्रवाह निदिध्यासन होता है।",मननं तु श्रुतस्य अद्वितीयवस्तुनः वेदान्तानुगुणयुक्तिभिः अनवरतम्‌ अनुचिन्तनम्‌। विजातीयदेहादिप्रत्ययरहिताद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहः निदिध्यासनम्‌” इति। कर्मधारय समास में कुमार शब्द पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,कर्मधारयसमासे कुमारशब्दः पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। हे भगवन धनुष की दोनों कोटियों में स्थित प्रत्यंचा को उतारलो और अपने हाथ में लिए बाणों को भी त्याग दो।,"हे भगवन्‌, त्वं धनुषः द्वयोः प्रान्तयोः ज्यां प्रकृष्टेन प्रमोचय किञ्च ते पाणयोः ये बाणाः तान्‌ अपि दूरं निक्षेपय।" फिर भी वे वस्तुतः ब्रह्म के स्वरूप नहीं होते है।,वस्तुतः ते ब्रह्मस्वरूपे न सन्ति। "भगवान पाणिनि के द्वारा रचित जो अष्टाध्यायी है, वहाँ वैदिक स्वर विषयक सूत्रों की प्रधानता छठे अध्याय से आरम्भ करके ग्रन्थ की समाप्ति तक इनका वर्णन है।",भगवता पाणिनिना विरचिता या अष्टाध्यायी तत्र वैदिकस्वरविषयकानि सूत्राणि प्राधान्येन षष्ठाध्यायाद्‌ आरभ्य ग्रन्थस्य आसमाप्तिं यावद्‌ उपन्यस्तानि। शताब्दियों के बाद लौकिक छन्दों का विकास पहले के वैदिक छन्दों से ही हुआ इस प्रकार याद रखना चाहिए।,शताब्द्यन्तरम्‌ लौकिकच्छन्दसां विकासः पूर्वोक्तेभ्यः वैदिकच्छन्देभ्यः जातः इत्यपि स्मरणीयम्‌। प्रत्यक्ष आदि में अदृष्टदर्शनार्थविषयत्वात्‌ प्रामाण्य का भाव नहीं होता है।,"न प्रत्यक्षादिविषये, अदृष्टदर्शनार्थविषयत्वात्‌ प्रामाण्यस्य।" और इसके बाद पचत्‌ शब्द उगिदन्त है।,ततश्च पचत्‌ इति शब्दः उगिदन्तः अस्ति। यहाँ अव्यय यह प्रथमा एक वचनान्त पद हैं।,तत्र अव्ययम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। "विशेष - स्वरित स्वर से यदि अनुदात्त स्वर होता है, तब स्वरित स्वर का आधा भाग उदात्ततर स्वर विशिष्ट होता है यह तो सभी को ज्ञात ही है, परन्तु यहाँ विधीयमान उदात्ततर स्वर का उस समय क्या स्वरूप है इस जिज्ञासा में कहते है - उच्चैः इससे उदात्त का ग्रहण करते हैं, यह उदात्त है, यह उदात्त है, यह इन दोनों में उससे अधिक उदात्त है उच्चैस्तराम्‌ अर्थात्‌ उदात्ततर है।","विशेषः -स्वरितस्वरात्‌ यदि अनुदात्तस्वरः भवति तदा स्वरितस्वरस्य अर्धभागः उदात्ततरस्वरविशिष्टः भवति इति तु ज्ञातम्‌, परन्तु अत्र विधीयमानस्य उदात्ततरस्वरस्य किं तावत्‌ स्वरूपम्‌ इति जिज्ञासायाम्‌ उच्यते- उच्चैः इत्यनेन उदात्तः गृह्यते, अयम्‌ उदात्तः अयम्‌ उदात्तः, अयम्‌ अनयोः अतितराम्‌ उदात्तः इति उच्चैस्तराम्‌ अर्थात्‌ उदात्ततरः।" किन लोकों का परीक्षण करना चाहिए?,के लोकाः परीक्षणीयाः। इससे स्तनकेशादि स्त्रीत्व का लक्षण प्रतिफलित होती लोमादि से पुरुष का लक्षण प्रतिफलित होती है और स्तनकेशलोमादि के अभाव विशिष्ट दोनों का सादृश्य का अभाव हो वहाँ नपुंसकत्व का लक्षण प्रतिफलित होता है।,एतेन स्तनकेशादिमत्त्वं स्त्रीत्वस्य लक्षणं प्रतिफलति लोमादिमत्त्वं पुंस्त्वस्य लक्षणं प्रतिफलति स्तनकेशलोमाद्यभावत्वविशिष्टोभयसदृशत्वं च नपुंसकत्वस्य लक्षणं प्रतिफलति। उस स्वप्रकाश स्वरूप ब्रह्म के प्रकाश से हम सभी प्रकाशित होते है।,तस्य स्वप्रकाशस्वरूपस्य ब्रह्मणः प्रकाशेन सर्वे वयं प्रकाशवन्तः। दिवसीय सूर्य का नाम मित्र है।,दिवसीयसूर्यस्य नाम मित्रः इति। प्रकृत दृष्टान्त में वस्तु रज्जु होती है तथा अवस्तु सर्प होता है।,प्रकृतदृष्टान्ते वस्तु भवति रज्जुः अवस्तु भवति सर्पश्च। बुभूषन्‌ - भवितुम्‌ इच्छति इस अर्थ में सन करने पर प्रथमा एकवचन में यह रूप है।,बुभूषन्‌ - भवितुम्‌ इच्छति इत्यर्थ सनि प्रथमैकवचने रूपम्‌। आदित्य के कार्य या गुणों के आधार पर देवों के नाम हुए।,"आदित्यस्य कार्यं, गुणं वा आधारीकृत्य देवानां नामानि जातानि।" इन्द्रियों के अभाव में भी स्वप्न में मन की प्रवृत्ति होती है।,इन्द्रियाभावेपि स्वप्ने मनसः प्रवृत्तिरस्ति। "शकटिशकट्योरक्षरमक्षरं पर्यायेण इस सूत्र से अक्षरम्‌, अक्षरं इन प्रथमा एकवचनान्त दो पदों की, पर्यायेण इस तृतीया एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।","शकटिशकट्योरक्षरमक्षरं पर्यायेण इति सूत्रात्‌ अक्षरम्‌, अक्षरं चेति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌, पर्यायेण इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तन्ते।" हविष्मते - हविष्‌-शब्द से मतुप्प्र्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में हविष्मते यह रूप है।,हविष्मते- हविष्‌-शब्दस्य मतुप्प्रत्यये चतुर्थ्यकवचने हविष्मते इति रूपम्‌। अब दूसरे उदाहरण के विषय में आलोचना करते है।,इदानीं द्वितीयोदाहरणस्य विषये आलोचना विधीयते। स्थूलत्वादि धर्म देह के ही होते हैं।,स्थूलत्वादिधर्माः देहस्यैव भवति। तथा भंयकर गर्जना करने वाले मेघ को वृत्र ने इन्द्र पर छोड़ दिया वह भी इन्द्र को नहीं रोक सका।,तथा तन्यतुः गर्जनं यां मिहं यां वृष्टिम्‌ अकिरत्‌ वृत्रो विक्षिप्तवान्‌ सापि वृष्टिः न सिषेध। मानवों का यथार्थ स्वरूप ढ॒ककर के माया विराजमान है।,मानवानां यथार्थं स्वरूपम्‌ आच्छाद्य विराजते माया। रजः शब्द किस प्रकार का है?,रजःशब्दः कीदृशः? 5. प्रकृत जन्म में प्रमादादि वश निषिद्ध करने पर तथ नित्य कर्म नहीं करने पर उनसे उत्पन्न दोष के क्षय के लिए कर्म करना चाहिए वह प्रायश्चित कर्म कहलाता है।,"५. प्रकृतजन्मनि प्रमादात्‌ निषिद्धं कर्म कृतं, नित्यं च अकृतम्‌। तदा ततो जायमानस्य दोषस्य क्षयार्थं यत्‌ कर्म कर्तव्यं तत्‌ प्रायश्चित्तम्‌ ईर्यते।" ऋग्वेद में २५० सूक्तों में इन्द्र का स्तुति स्वतन्त्ररूप से किया गया है।,ऋग्वेदे २५० सूक्तेषु इन्द्रस्य स्तुतिः स्वतन्त्ररूपेण कृता। शाकल संहिता के अन्त में ऋक्परिशिष्ट नाम के छत्तीस सूक्तों का संग्रह है।,शाकलसंहितान्ते ऋक्परिशिष्टनाम्ना षट्त्रिंशत्सूक्तानि संगृहीतानि सन्ति। अतः गौडपादकारिका में कहा गया है “लये सम्बोधयेत्‌ चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्‌ पुनः।,उच्यते च गौडपादकारिकायां - “लये सम्बोधयेत्‌ चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्‌ पुनः। इसलिए मन्दिरों में पूजा की अपेक्षा साक्षात्‌ अभुक्त नररूपी नारायण की ही भोजन औषधि आदि से पूजा करनी चाहिए।,अतः मन्दिरेषु ईश्वरस्य पूजापेक्षया साक्षात्‌ अभुक्तस्य नररूपिणः नारायणस्य भोजनौषदादिभिः पूजा करणीया। उदाहरण - काष्ठाध्यापकः यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- काष्ठाध्यापकः इति सूत्रस्य अस्य एकम्‌ उदाहरणम्‌। 8. श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ यहाँ आदित्य पुरुष जिससे सभी लोग जिसके आश्रयी होते है वह श्री अर्थात्‌ लक्ष्मी है।,४५. श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ इति अत्र आदित्यः पुरुषः यया सर्वजनाश्रयणीयो भवति सा श्रीः। चतुर्दश मन्त्र में इन्द्र के भयविषय में कहा।,चतुर्दशे मन्त्रे इन्द्रस्य भयविषये उक्तम्‌। इस प्रकार दूसरा कोई भी ग्रन्थ नहीं है जो अपनी प्रभा से केवल स्वय ही प्रकाशित न हो अपितु अपनी प्रभा से सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय को भी प्रकाशित कर दे।,एवंविधः अन्यो न कोऽपि दीप्ततुल्यः ग्रन्थः अस्ति यः स्वप्रभया न केवलं स्वयं भासितः अपि तु स्वस्य प्रभया समस्तभारतीयवाङ्गयम्‌ एव प्रभासितवान्‌। ' अह रुद्राय धनुरा ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अहं रुद्राय धनुरा... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "अतः अनुदात्तानाम्‌ इसका अर्थ है, अनुदात्त का, दो अनुदातों का, अथवा अनेक अनुदात्तों का।",अतः अनुदात्तानाम्‌ इत्यस्य अर्थः अनुदात्तस्य अनुदात्तयोः अनुदात्तानां वा इति। 12. ब्रह्मचर्य किसे कहते हैं?,१२. किं नाम ब्रह्मचर्यम्‌? दूसरे प्रपाठक के आरम्भ में क्या-क्या वर्णित है?,द्वितीयप्रपाठकस्य आरम्भे किं किं वर्णितमस्ति? और इसी प्रकार आमबष्ठय प्रातिपदिक ञ्यङन्त है यह सुस्पष्ट ही है।,एवञ्च आम्बष्ठ्य इति प्रातिपदिकं ञ्यङन्तमस्ति इति सुस्पष्टमेव। 40. ध्यान तथा समाधि में क्या भेद है?,४०. ध्यान-समाध्योः को भेदः? इस सूक्त में अक्षक्रीडा का प्रभाव प्रदर्शित किया गया है।,अस्मिन्‌ सूक्ते अक्षक्रीडायाः प्रभावः प्रदर्शितोस्ति । 1 मनन क्या होता है?,1 मननं किम्‌। जैसा की कहा गया है- न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।,उच्यते च - न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। किन्तु पूर्वपद अनिष्ठान्त ही होता है।,किञ्च पूर्वपदम्‌ अनिष्ठान्तमेव भवेत्‌। 6 नित्यादि कर्मों का परम प्रयोजन क्या है?,6. नित्यादीनाम्‌ परम्‌ प्रयोजनं किम्‌। "ब्रह्मा यज्ञ निरीक्षक करने और नहीं करने का अन्वेषण करने वाला है, वह ही सभी प्रकार के मन्त्रों को जानने वाला है, उस के अपेक्षित मन्त्रराशि अथर्ववेद है ऐसा कहते हैं।","ब्रह्मा यज्ञनिरीक्षकः कृताकृतावेक्षणकर्त्ता, स हि सर्वविधमन्त्रज्ञः, तदपेक्षितो मन्त्रराशिः अथर्ववेद इति कथ्यते।" फिर भी उस वासनायुक्ति मनोवृतियों के कारण उसे सूक्ष्म प्रपज्च का भान होता है।,तथापि तद्वासनायुक्ताभिः मनोवृत्तिभिः सूक्ष्मप्रपञ्चस्य भानं भवति। इसलिए प्राप्त मानव जन्म किस प्रकार से सर्वोच्चपुरुषार्थ के लाभ के लिए ही व्यय किया जाए इस विषय को भूमिका को प्रकट किया गया है।,अथः लब्धं मानवजीवनं कथं सर्वोच्चपुरुषार्थलाभाय व्ययीकर्तव्यम्‌ इति विषयो भूमिकायां प्रकटितः। "4. इस परमात्मा को ऊर्ध्वभाग से, तिर्यग्भाग से, मध्यभाग से जाना जा सकता है की नहीं?","४. एनं परमात्मानम्‌ ऊर्ध्वभागात्‌ , तिर्यग्भागात्‌, मध्यभागात्‌ बोद्धं शक्यते वा ?" उदाहरण -इस सूत्र के धातु के अवयव के लुक का उदाहरण होता है “'पुत्रीयति”।,"उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्य धात्ववयवस्य लुकि उदाहरणं भवति ""पुत्रीयति"" इति।" “सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः” इस सूत्र का उदाहरण दीजिये?,""" सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः "" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌ ।" कुचरः इसका क्या अर्थ है?,कुचरः इत्यस्य कः अर्थः? सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुसुषादधि।,सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि। भगवान में परम प्रीति ही भगवान की भक्ति है।,भगवति परमा प्रीतिः एव भक्तिः। ऋग्वेद के मन्त्रों में अनेक रस है।,ऋग्वेदस्य मन्त्रेषु अनेके रसा वर्तन्ते। 1 घ) छान्दोग्योपनिषद्‌ में।,१. घ) छान्दोग्योपनिषदि। आहिताग्नि त्रैवर्णिक पुरुष इस याग के अधिकारी हैं।,आहिताग्निः त्रैवर्णिकः पुरुषः अस्य यागस्य अधिकारी। लेकिन भार्या पहले कभी नहीं देखती है।,किन्तु भार्या तु पूर्वं न दृष्टवती। 14. अन्तः करण के घटद्रव्य कौन-कौन से हैं।,१४. अन्तःकरणस्य घटद्रव्याणि कानि। “'प्रत्ययः'' और “परश्च'' यहाँ अधिकार आ रहा है।,प्रत्ययः इति अधिकारः परश्च इति अधिकारः च अत्र आगच्छति। इसी प्रकार से गुरु के द्वारा भी किसी शिष्य के लिए ब्रह्मविद्या देना चाहिए तो उसके लिए नीचे श्लोक मे कहा गया है।,एवञ्च गुरुः कस्मै शिष्याय ब्रह्मविद्यां दद्याद्‌ इति अधः श्लोके सनिबद्धमस्ति। ल्यप्‌-प्रत्यय।,ल्यप्‌-प्रत्ययः। “ सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे” इससे सुप्‌ पद की अनुवृत्ति होती है।,"""सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे"" इत्यस्मात्‌ सुप्‌ इति पदमनुवर्तते ।" उन मन्त्रों से बीस मन्त्र इस पाठ में दिये हैं।,तेषु मन्त्रेषु विंशतिः मन्त्राः अस्मिन्‌ पाठे प्रदत्ताः सन्ति। मन के शुद्ध होने पर सभी वस्तुओ का ज्ञान होता है।,मनसि शुद्धे सति सर्वं प्रकाशितं भवति। और जो सबसे उत्कृष्टतर सभी लोकों के ऊपर है।,किंच यश्चोत्तरम्‌ उत्कृष्टतरं सर्वेषां लोकानामुपरिभूतम्‌। ये त्रिकालात्मक जगत्‌ पुरुष की महिमा है।,त्रिकालात्मकं जगदिदं पुरुषस्य महिमा। सूत्र की व्याख्या- पाणिनि के छ: प्रकार के सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- पाणिनीयेषु षड्विधेषु सूत्रेषु विधायकमिदम्‌। इदं सूत्रम्‌ उदात्तस्वरं विदधाति। स्वयं आत्मा से प्राप्त भेद स्वगत भेद होता है।,स्वम्‌ आत्मानं गतः प्राप्तः भेदः स्वगतभेदः। उसको प्रकृत सूत्र से उस बलि शब्द के आदि स्वर अकार को उदात्त करने का विधान है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण तस्य बलिशब्दस्य आदेः स्वरस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। "आकाश से हमारे लिए वर्षा को प्रदान करो, शक्तिशाली मेघों के द्वारा जलधारा को प्रवाहित करे, और जल सेचन करके पिता के समान हमारी रक्षा करे।","आकाशतः अस्मभ्यं वृष्टिं प्रददातु , शक्तिशालिभिः मेघैः जलधारां प्रवाहयतु किञ्च जलसेकेन पितृवत्‌ अस्माकं सुरक्षां विदधातु ।" "जब ऋग्वेद आदि तीनों वेद परलोक का फल देते है, तब यह अथर्ववेद इहलोक का भी फल देता है।",यदा हि ऋग्वेदादयः त्रयो वेदा आमुष्मिकं फलं प्रददति तदाऽयं अथर्ववेद ऐहिकम्‌ अपि फलं प्रयच्छति। यहाँ पर कौन धनवान है उसको मैं जीतूँगा।,कोऽत्रास्ति धनिकस्तं जेष्यामीति । "सूत्र का अवतरण- ऊठ्‌, इदम्‌, पदादी, अप्‌, पुम्‌, रै, तथा दिव शब्दों से उत्तर असर्वनाम स्थान विभक्ति उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।",सूत्रावतरणम्‌- ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रैद्युभ्यः परस्य असर्वनामस्थानविभक्तेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। उसके बाद जैसे वह पुरुष कहता है कि मृत्तिका ही यह है।,ततः परं यथा स पुरुषः कथयति मृत्तिका एव इदम्‌ आसीत्‌। इस अध्याय में मुख्य रूप से रुद्र के प्रति नमस्कार और प्रार्थना की गई है।,अस्मिन्‌ अध्याये मुख्यतः रुद्रं प्रति नमस्कारः प्रार्थना च विहिता। प्रकाणन्तर से लक्षणा तीन प्रकार की होती है।,प्रकारान्तरेण लक्षणा त्रिविधा। इसके बाद का विद्यमान भाग शुक्ल यजुर्वेदीय है।,इतः परं विद्यमानोऽयं भागः शुक्लयजुर्वेदीयो वर्तते। पुरुष के नाभिमण्डल से कौन उत्पन्न हुआ?,पुरुषस्य नाभिमण्डलात्‌ किम्‌ उत्पन्नम्‌। किन्तु यण आदेश होने से प्रकृति स्वर पक्ष में उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य इस सूत्र से स्वरित स्वर होता है।,किन्तु यणादेशत्वात्‌ प्रकृतिस्वरपक्षे उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य इति सूत्रेण स्वरितस्वरः भवति। इन सूक्तों के अध्ययन से पाठकों का महान्‌ उपकार होता है।,अनेन सूक्ताध्ययनेन अध्येतृणां महान्‌ उपकारो भवेद्‌। केवल देव के अनुग्रह से कभी भी शास्त्र का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है।,केवलं देवानुग्रहवशात्‌ शास्त्रस्य यथार्थज्ञानं न भवति। यहाँ एक श्रुति विषय में विग्रह सहित उदाहरण का भी वर्णन है।,अत्र एकश्रुतिविषये विग्रहपुरस्सरम्‌ उदाहरणमपि वर्णितम्‌। इससे पहले विवेक तथा वैराग्य दो साधनों का वर्णन किया जा चुका है।,इतः पूर्वं विवेकः वैराग्यम्‌ इति साधनद्वयं वर्णितम्‌। यहाँ पर ऐक्य शब्द का अर्थ अभेद भी होता है।,अत्र ऐक्यशब्दार्थः अभेदः इति। उपोत्तमं नाम दो संख्या से अधिक स्वर विशिष्ट पद के अन्त से पूर्व स्वर को कहते है।,उपोत्तमं नाम द्विसंख्याधिकस्वरविशिष्टस्य पदस्य अन्तात्‌ पूर्वस्वरः। विद्यारण्य स्वामी के द्वारा पञ्चदशी में कहा गया है।,विद्यारण्यस्वामिणा पञ्चदश्यां कथ्यते। क्योकि पाठ के बढ़ने के भय से प्रसिद्ध ही सूत्रों को ही यहाँ हमारे द्वारा स्वीकार किया है।,यतो हि पाठवृद्धिभयात्‌ प्रसिद्धानि एव सूत्राणि अस्माभिः स्वीकृतानि सन्ति। असुः का क्या अर्थ है?,असुः इत्यस्य कः अर्थः। विपत्नीक अग्निहोत्री क्या करे?,विपत्नीकः अग्निहोत्री किं कुर्यात्‌ ? "शाकल शाखा के अनुसार ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र “समानी व आकूतिः' (१०/१९१/४) है, किन्तु वाष्कल संहिता के अनुसार ' तच्छ्रेयोरावृणीमहे' यह अन्तिम मन्त्र है।","शाकलशाखानुसारेण ऋग्वेदस्यान्तिमो मन्त्रः 'समानी व आकूतिः (१०/१९१/४) अस्ति, किञ्च वाष्कलसंहितानुसारेण 'तच्छ्रेयोरावृणीमहे' इत्येव अन्तिमो मन्त्रोऽस्ति।" इसलिए ही श्रीमान आनन्दगिरि द्वारा बनाई टीका के “मन आदि का जो प्रवर्तक है क्या वह विशेष है इस प्रश्‍न की विशेषता ही विशेष उत्तर' है ऐसा कहा गया है।,अत एव श्रीमदानन्दगिरिणा कृतायां टीकायां 'मन आदीनां यः प्रवर्तकः स किं विशेष इति प्रश्नस्य निर्विशेषता एव विशेष इति उत्तरम्‌' इति उक्तम्‌। सम्पूर्ण रूप से यहाँ एक सौ चौवन खण्ड तथा छः सौ अट्टाईस मन्त्र है।,साकल्येनात्र चतुःपञ्चाशदधिक- एकशतखण्डास्तथा अष्टाविंशत्यधिक-षट्शतमन्त्राः सन्ति। मैक्डोनाल्ड के मत में तो अग्नि यह शब्द एजा इल .. इस ग्रीक्देवता के नाम से इसका भाषाविज्ञान समर्थित और उसी रूप में दिखाई देता है।,म्याक्डोनालमते तु अग्निरिति शब्दः 'एजा इल ..' इति ग्रीक्देवताया नाम्ना अस्य भाषाविज्ञानसमर्थितं सादृश्यं परिलक्ष्यते। मन्त्र और ब्राह्मण के भेद से वेद के दो भेद हैं।,मन्त्रब्राह्मणयोर्भेदेन वेदः प्राथम्येन द्विविधः। मा मा हिंसीज्जनितेत्येका यह (१२/१०२)।,मा मा हिंसीज्जनितेत्येका एषा (१२/१०२)। इस प्रकार से यह परस्पर परिपूरक क्रिया ही श्रीरामकृष्ण तथा विवेकानन्द दर्शन की भित्ति है।,इति परस्परपरिपूरकप्रक्रिया एव श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्ददार्शनिकभावनाया भित्तिभूता। "परन्तु, अक्षक्रीडा के बाद वह परित्यक्ता होती है।","परन्तु , अक्षक्रीडनात्‌ परं सा परित्यक्ता भवति ।" पदार्थ का अनुल्लङ्घन।,पदार्थस्यानुल्लङ्घनम्‌। और यहाँ पदों का अन्वय इस प्रकार से है - द्वयचां तृणधान्यानां च शब्दानाम्‌ आदिः उदात्तः इति।,एवञ्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- दुव्यचां तृणधान्यानां च शब्दानाम्‌ आदिः उदात्तः इति। "जिनमें क्रमशः दर्शपूर्ण मास, अध्वर, आधान, पुनराधान, चातुर्मास्य, वाजपेय आदि यज्ञो का वर्णन है।",येषु क्रमशः दर्शपूर्णमास-अध्वर-आधान-पुनराधान-चातुर्मास्य वाजपेयप्रभृतीनां यज्ञानां वर्णनमस्ति। इसका अर्थ यह है कि जिसमें जिसका विशेष अर्थात आधिक्य होता है उसका आश्रय लेकर के व्यपदेश किया होता है।,अस्यार्थः - यस्मिन्‌ यस्य विशेषः अर्थाद्‌ आधिक्यमस्ति तमाश्रित्यैव व्यपदेशः भवतीति। चवायोगे प्रथमा इस सूत्र से प्रथमा इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,चवायोगे प्रथमा इति सूत्रात्‌ प्रथमा इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। अतः वर्तमान अर्थक क्त प्रत्यय के योग में “क्तस्य च वर्तमाने'' इससे राजन्‌ शब्द से षष्ठी विभक्ति में राज्ञाम्‌ रूप बना।,"अतः वर्तमानार्थकस्य क्तस्य योगे ""क्तस्य च वर्तमाने"" इत्यनेन राजन्शब्दात्‌ षष्ठीविभक्तौ राज्ञाम्‌ इति रूपम्‌।" इन वाक्यों के द्वारा जीव तथा ब्रह्म का एक्य ही प्रतिपादित किया गया है।,एतैः वाक्यैः जीवब्रह्मणोः ऐक्यम्‌ एव प्रतिपाद्यते। जिसके लिए निमित्त कर्म किए जाते हैं वह नैमित्तिक कहलाता है।,निमित्तं कारणं यस्यास्ति तत्‌ नैमित्तिकम्‌। अर्थात्‌ उस व्यक्ति में क्षत्रियपद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है।,अर्थात्‌ तस्मिन्‌ जने क्षत्रियपदस्य प्रवृत्तिनिमित्तं नास्ति। स्यान्तस्य उपोत्तमं च ये वार्तिक में आये पदच्छेद है।,स्यान्तस्य उपोत्तमं च इति वार्तिकगतपदच्छेदः। स्वाध्याय से तात्पर्यं है प्रणव का जप तथा उपनिषदादि ग्रन्थों की आवृत्ति।,स्वाध्यायो नाम प्रणवजपः उपनिषदग्रन्थावृत्तिश्च। “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इस सूत्र का एक उदाहरण लिखिए।,"""न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः"" इति सूत्रस्यैकमुदाहरणं प्रदर्शयत।" कल्पना को ही आरोप कहते हैं।,आरोपो नाम कल्पनम्‌। "जिस पक्ष में स्वरित नहीं होता है, वहाँ “एकादेश उदात्तनोदात्तः' इस पूर्व सूत्र से उदात्त स्वर होता है।",यस्मिन्‌ पक्षे स्वरितः न भवति तत्र एकादेश उदात्तेनोदात्तः इति पूर्वसूत्रेण उदात्तस्वरः भवति। अथर्ववेद भाष्यभूमिका में लिखा है की अथर्ववेद का ज्ञाता शान्ति कर्म परायण जिस राष्ट्र में रहता है वह राष्ट्र उपद्रव रहित होकर निरन्तर बढ़ता रहता है।,अथर्ववेदभाष्यभूमिकायां लिखितम्‌ यत्‌ अथर्ववेदस्य ज्ञाता शान्तिकर्मपारगः यस्मिन्‌ राष्ट्र निवसति तद्राष्टरं निरूपद्रवं भूत्वा सततं वर्द्धते इति। पापी मनुष्यों को दुःखभोग से रुलाते है वह रुद्र है।,पापिनो नरान्‌ दुःखभोगेन रोदयति इति रुद्रः। स्वयं शक्तिशाली से रहित होने पर भी हजारों को पराजित करता है।,स्वयं दन्तरहितः सन्‌ अपि सहस्रजनान्‌ पराजेतुम्‌ इच्छति । अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ यह किस प्रकार का सूत्र है?,अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ इति कीदृशं सूत्रम्‌? तात्पर्यनिर्णायक लिंगों में यह अन्यतम होती है।,तात्पर्यनिर्णायकेषु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌। अव्ययीभाव समास में शरद आदि प्रातिपदिक से पर (आगे) समासान्त से तद्धित संज्ञक टच्‌ प्रत्यय होता है।,अव्ययीभावसमासे शरदादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययो भवति। दाधार - धा-धातु से लट्लकार प्रथमपुरुष एकवचन में दाधार रूप सिद्ध होता है।,दाधार- धा-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने दाधार इति रूपम्‌। "उसके ह्वारा बहुमास्यः, बहुमास्यः ये दो रूप बनते है।","तेन बहुमास्यः, बहुमास्यः इति रूपद्वयं भवति।" सूत्र की रचना - दो अचों वाले तृण और धान्य शब्दों का आदि उदात्त विधान के लिए आचार्य ने इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- द्व्यचां तृणधान्यानां च आदेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्यण। "बिना छन्दोज्ञान से जो वेदों का अध्ययन, यजन, याजन आदि-कार्य करते है उनके वे सभी फल न देने वाले कार्य होते हैं।",विना छन्दोज्ञानं यः वेदाऽध्यन-यजन-याजनादि-कार्याणि करोति तस्य तानि सर्वाणि फलप्रदायकानि कार्याणि न भवन्ति। इन्द्र ने वज्र से वृत्र के हाथ पैर को काट दिया।,इन्द्रः वज्रेण वृत्रस्य हस्तपादौ कर्तितवान्‌। """तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इस सूत्र से अदत्त अव्ययीभाव से तृतीया में और सप्तमी में बहुलम्‌ सु प्रत्यय को अम्‌ आदेश होता है।","""तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इति सूत्रेण अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ तृतीयायां सप्तम्यां च बहुलम्‌ सोः अमादेशो भवति।" अविग्रह अथवा अस्वपद विग्रह नित्य समास होता है।,अविग्रहो अस्वपदविग्रहो वा नित्यसमासः। अग्निष्टोम याग के विषय में संक्षेप से आलोचना करो?,अग्निष्टोमयागविषये संक्षेपेण आलोचयत। "सुना जाता है की प्राचीन काल में 'इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व' इस मन्त्र का अशुद्ध उच्चारण किया, उससे यजमान के लिए तो महाविनाश ही हुआ।","श्रूयते यत्‌ पुरा 'इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व' इति मन्त्रस्य अशुद्धोच्चारणं कृतम्‌, तेन यजमानं प्रति तत्‌ अनिष्टकारकम्‌ एव सञ्जातम्‌।" "इस प्रकार के देवो में “श्रद्धा (ऋ. १०.१५१), मन्यु ( १०.८३.८४) आदि की कल्पना की है।","एतादृशेषु देवेषु “श्रद्धा (ऋ. १०.१५१) ,„ “मन्युः( १०.८३.८४) प्रभृतयः परिकल्पिताः सन्ति।" 4. अवनेग्यम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,४. अवनेग्यम्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? "पृथिवी, द्युलोक और सभी भुवन पृथिवी जल तेजरूप से तिन धातुओ को धारण किया हुआ है।","पृथिवीं, द्युलोकं सर्वाणि भुवनानि च पृथिव्यप्तेजोरूपेण धातुत्रयेण धृतवान्‌।" "जीवन्मुक्ति सभी सम्प्रदायों के द्वारा अङ्गीकार नहीं की गई है रामकृष्णादि पुरुष भी जीवन्मुक्त ही थे, और शास्त्र प्रमाण भी हेै।",न जीवन्मुक्तिः सर्वैः सम्प्रदायैः अङ्गीक्रियते।रामकृष्णादयः पुरुषाः जीवन्मुक्ताः आसन्‌। अपि च शास्त्रप्रमाणम्‌ अस्ति। "न केवल मनुष्यों का अपितु समस्त प्राणियों का जैसे गाय, घोडे, कुते आदि का वह ही पालक है।",न केवलं मनुष्याणाम्‌ अपि तु समस्तप्राणीनां यथा गवाम्‌ अशवानां शुनां च सः एव पालकः। इसलिए सदानन्दयोगीन्द्र ने वेदान्तसार में कहा है “ अस्य अप्रामाण्यं न आशङ्कनीयं त्रिवृत्करणश्रुतेः पञ्चीकरणस्यापि उपलक्षणत्वात्‌” इति।,अतः एव सदानन्दयोगीन्द्रेण वेदान्तसारे उच्यते - “अस्य अप्रामाण्यं न आशङ्कनीयं त्रिवृत्करणश्रुतेः पञ्चीकरणस्यापि उपलक्षणत्वात्‌” इति। यहाँ पर “परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथुसणल्वमाः' इससे उस्‌-प्रत्यय का नियम किया है और वह प्रत्यय स्वर से उदात्त है।,अत्र परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथुसणल्वमाः इत्यनेन विहितः उस्‌-प्रत्ययः प्रत्ययस्वरेण उदात्तः। कला रहित जीवन उनको अच्छा नहीं लगता था।,कलारहितं जीवनं तेभ्यः न रोचते स्म। अतः उसके लिए यह सूत्र आवश्यक नहीं है।,अतः तस्य कृते सूत्रमिदं नावश्यकम्‌। वहाँ मिथ्यावादी मनुष्य यज्ञ के लिए उपयुक्त नहीं होता है।,तत्र मिथ्यावादी जनः यज्ञाय न उपयुक्तो भवति। "त्रिःसप्त (३५७) = एकविशति, समिधः = समिधाएँ, कृताः = बनाई।","त्रिःसप्त (३ ५ ७)= एकविंशतिसंख्याकाः, समिधः= एधांसि, कृताः= कल्पिताः।" गौण प्रत्यय विषय को जो जानता है वह “नेष सिंहः दैवदत्तः' तथा न “नायमग्निमाणवकः' इस प्रकार से मानता है तथा गौण देहादिसङ्घात आत्मा के द्वारा किया कर्म मुख्य रूप से अहं प्रत्यय युक्त आत्मा के द्वारा किया होता है।,"गौणप्रत्ययविषयं जानाति 'नैष सिंहः देवदत्तः”, तथा 'नायमग्निर्माणवकः' इति। तथा गौणेन देहादिसङ्घातेन आत्मना कृतं कर्म न मुख्येन अहंप्रत्ययविषयेण आत्मना कृतं स्यात्‌।" व्यष्टि के अभिप्राय से अज्ञान अनेक होते है।,व्यष्ट्यभिप्रायेण अज्ञानमनेकमित्युक्तम्‌। श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ में “यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ।,श्वेताश्वतरोपनिषदि उच्यते- “यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। उस मण्डल को देखा।,तन्मण्डलम्‌ अपश्यम्‌। "यह इन्द्र सूर्य का और उषा का पिता, और जल को बरसाने वाले हैं।",अयमिन्द्रः सूर्यस्य उषसः च जनकः अपां वर्षकः च अस्ति। इसलिए जिसका नामकरण भी प्रसिद्ध महान यशवाला है।,अत एव नाम प्रसिद्धं महत्‌ यशः यस्यास्ति। 7 निषिद्धकर्मजन्य अन्तः करण में कौन-सा संस्कार होता है?,७. निषिद्धकर्मजन्यः अन्तःकरणे कः संस्कारः भवति। राजन्तम्‌ - राज्‌ -धातु से शतृप्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में राजन्तम्‌ यह रूप बनता है।,राजन्तम्‌- राज्‌-धातोः शतृप्रत्यये द्वितीयैकवचने राजन्तम्‌ इति रूपम्‌। "“पूर्वापरापरोन्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये|","""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" उनमें द्यूत आदि में अर्जित धन बहुत परिश्रम से उपार्जित है।,तेषु द्यूतादिषु अर्जितं धनं बहूनां परिश्रमेण उपार्जितम्‌ । यहाँ उत्तर तब तक सादृश्य के गौण होने पर भी समास के विधान के लिए सूत्र में पुनः सादृश्य ग्रहण किया गया है।,अत्रोत्तरं तावत्‌ सादृश्यस्य गौणत्वे अपि समासविधानाय सूत्रे पुनः सादृश्यग्रहणम्‌। इस प्रकार से देहात्म बुद्धि स्थल में देह के साथ अभेद से आत्म का ज्ञान होता है।,एवं देहात्मबुद्धिस्थले देहेन सह अभेदेन आत्मा ज्ञायते। "' चार प्राचीन गद्य उपनिषद्‌, प्राचीन पद्य उपनिषद्‌, उत्तरकालिक गद्य उपनिषद्‌, अथर्वण कठ उपनिषद्‌, ईश उपनिषद्‌, श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ और महानारायण उपनिषद्‌।","चतस्रः प्राचीनगद्योपनिषत्‌, प्राचीनपद्योपनिषत्‌, उत्तरकालिकगद्योपनिषत्‌, अथर्वाणोपनिषत्‌, कठोपनिषद्‌, ईशोपनिषद्‌, श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ महानारायणोपनिषच्चेति।" घटाकार अन्तःकरणवृत्ति तबतक उस घटावच्छिन्न ब्रह्म में विद्यमान अज्ञान का नाश कर देती है।,घटाकारा अन्तःकरणवृत्तिः तावत्‌ घटावच्छिन्ने ब्रह्मणि विद्यमानम्‌ अज्ञानं नाशयति। पाराशरीशिक्षा में कौन से विषयों पर विवेचना की है?,पाराशरीशिक्षायां केषां विषयाणां विवेचनं वर्तते। और वे पादप्रक्षेप क्या है।,के ते पादप्रक्षेपाः। यहाँ पर प्राय शब्द का प्रकृष्ट अर्थ लोहे के समान कठोर तप है।,प्रायशब्दार्थः प्रकृष्टम्‌ अयः अर्थात्‌ लौहवत्‌ कठोरं तपः। 10. अस्तेय किसे कहते है?,१०. अस्तेयं नाम किम्‌? "और “'प्राक्कडारात्समासः'', ““ सहसुपा'', “तत्पुरुषः”, “*विभाषा'' ये चार सूत्र अधिकृत सूत्र है।","किञ्च, "" प्राक्कडारात्समासः "" , "" सह सुपा "" , "" तत्पुरुषः "" , "" विभाषा "" इति सूत्रचतुष्टयमधिकृतम्‌ ।" "ऋत्विग पत्नी-यजमानके प्रति कहते है की वे दोनों भी विष्णुलोक को प्राप्त हो, जहा विस्तृत प्रकाश से सभी जगह ज्योतिफैली हुई है, तथा सभी मनोरथो का परिपूरक विष्णुअपने भाव से प्रकाशित करते है।","पत्नी-यजमानौ प्रति उच्यते यत्‌ तयोरपि विष्णुलोकप्राप्तिः भवतु यत्र प्रखरप्रकाशेन सर्वत्र ज्योतिः प्रसृता विद्यते, तथा सर्वेषां मनोरथानां परिपूरकः विष्णुः स्वभासा प्रकाशते इति।" समास होने पर वागर्थ और इस पद का सुबन्त का प्रथमान्त बोध होने से “'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌ '' इस सूत्र से उपसर्जन संज्ञा होती है।,"समासे सति वागर्थ औ इत्यस्य सुबन्तम्‌ इति प्रथमान्तपदबोध्यत्वात्‌ ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रेण उपसर्जनसंज्ञा भवति।" यह संसार चक्र कहा जाता है।,इदं संसारचक्रं कथ्यते। "यहाँ पूर्वपद को तुल्यार्थवाचक है, किन्तु यतोऽनावः इस सूत्र से आद्युदात्त है।",अत्र पूर्वपदं तुल्यार्थवाचकम्‌ अस्ति किञ्च यतोऽनावः इति सूत्रेण आद्युदात्तम्‌। इसलिए सः (वह)यह शब्दार्थ विशेष्यत्व होता है।,अतः सः इति शब्दार्थस्य विशेष्यत्वम्‌। इस क्रम से यह अध्यारोपवाद न्याय कहलाता है।,अस्यैव क्रमस्य अध्यारोपापवादन्यायः इत्युच्यते। इसी कारण मृत्यु के बीना इस याग के नित्यानुष्ठान से ब्राह्मण की निष्कृति नहीं है।,कारणं हि मृत्युं विना अस्य यागस्य नित्यानुष्ठानात्‌ ब्राह्मणस्य निष्कृतिः नास्ति। अग्निमीळे यहाँ पर किससे सभी को अनुदात्त होता है?,अग्निर्मीळे इत्यत्र केन सर्वम्‌ अनुदात्तं भवति? अग्नः पूर्वेभि ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अग्नः पूर्वेभि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "काम्यकर्म, निषिद्धकर्म, नित्यकर्म, नैमित्तिककर्म तथा प्रायश्चित्तकर्म इस प्रकार से पाँच प्रकार के कर्म माने जाते हैं।",काम्यं निषिद्धं नित्यं नैमित्तिकम्‌ प्रायश्चित्तञ्चेति पञ्चविधानि कर्माणि प्रथन्ते। अर्थात्‌ जो पुरुष विधि का अनुसरण करके शास्त्रोक्त कर्मो का आचरण करता है।,अर्थात्‌ यः पुरुषः विधिम्‌ अनुसृत्य शास्त्रोक्तकर्माणि आचरति। शुक्ल यजुर्वेद में कितने अध्याय है?,शुक्लयजुर्वेदे कति अध्यायाः सन्ति? अखण्डवस्तु ब्रह्म के ग्रहण के लिए अन्तर्मुखता के द्वारा प्रवृत्त चित्त वृत्ति का ब्रह्मवस्तु में अवलम्बन नहीं होने से बाह्यवस्तु ग्रहण में प्रवृत्त होकर के विक्षेप होता है।,अखण्डवस्तुनः ब्रह्मणो ग्रहणाय अन्तर्मुखतया प्रवृत्तायाः चित्तवृत्तेः ब्रहमवस्तु न अवलम्ब्य पुनः बाह्यवस्तुग्रहणे प्रवृत्तिः विक्षेपो भवति। इस मन्त्र का यह अर्थ है की - हे प्रकाश से पूर्ण उषादेवी !,स्य मन्त्रस्य अयम्‌ अर्थः - हे प्रकाशमयि उषे! और वे वेद चार है।,ते ह वेदाः चत्वारः भवन्ति। जातिगुणक्रियासंज्ञाओं से समुदाय से एकदेश का पृथक्करण निर्धारण होता है।,जातिगुणक्रियासंज्ञाभिः समुदायाद्‌ एकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणम्‌। "य आत्मदा बलदा...मन्त्र की व्याख्या करो । पाठगत प्रश्नों के उत्तर हिरण्यगर्भ ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, प्रजापति देवता।","य आत्मदा बलदा...इति मन्त्रं व्याख्यात।पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि हिरण्यगर्भः ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, प्रजापतिः देवता।" उससे एक दो और बहुतों की विधि समझनी चाहिए।,तेन एकस्य द्वयोः बहूनां च विधिः बोध्यः। (3.15 ) “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्य प्रयोगे” (2.1.15 ) सूत्रार्थ-उपमेय सुबन्त को उपमान व्याघ्रादि से समानाधिकरण सुबन्त के साथ साधारण धर्म का प्रयोग होने पर विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"[३.१५] उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे॥ (२.१.५५) सूत्रार्थः - उपमेयं सुबन्तं उपमानैः व्याघ्रादिभिः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह विकल्पेन समस्यते साधारणधर्मस्याप्रयोगे सति, तत्पुरुषसंज्ञकश्च भवति।" किस प्रकार का यज्ञ?,कीदृशं यज्ञम्‌? अक्षक्रीडा का शब्द से आसक्त मनुष्य द्यूतस्थल के प्रति दौड्ता है जैसे कुलटा स्त्री अपने संकेतस्थल के प्रति दौड़ती है।,अक्षक्रीडायाः शब्देन आसक्तः जनः द्यूतस्थलं प्रति धावति यथा पुंश्चली कुलटा स्त्री वा स्वसंकेतस्थलं प्रति धावति । ऐसे मन्त्रों में सन्देह के होने से वेद वाक्य को प्रमाण नहीं मान सकते है ऐसा पूर्वपक्षी कहते हैं।,एतेषु मन्त्रेषु सन्देहस्य सत्त्वात्‌ वेदवाक्यं न प्रमाणम्‌ इति पूर्वपक्षिणः कथयन्ति। "बालक हो अथवा स्त्री,पुरुष,महाराज,दरिद्र कोई भी हो इन सभी में भेद के बिना सुख की सभी की वह सुख रूपी एकावस्था ही होती है।",बालको वा स्त्री वा पुरुषो वा महाराजो दरिद्रो वेति भेदं विना सर्वेषामपि सुखमित्येकैवावस्था भवति। "अर्थात्‌ विविध, बहुत प्रकार का यह है।","अर्थात्‌ विविधः, बहुप्रकारकः इति।" अतः सूत्र का अर्थ होता है-निन्दा में गम्यमान किम्‌ अव्यय को समानाधिकरण से सुबन्त के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ - "" निन्दायां गम्यमानायां किमित्यव्ययं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति "" इति ।" "ये देवों का प्रतिनिधि है, पुरोवर्ती होकर देवों का आह्वान करता है, इसलिए वह पुरोहित कहलाता है।","देवानामयं प्रतिनिधिः, पुरोवर्ती भूत्वा देवान्‌ आह्वयति, अतःसः पुरोहितः।" उपनिषद्‌ परा विद्या कहलाती है।,उपनिषत्‌ परा विद्येति कथ्यते। न कोई उसका जानकार है।,न तस्यास्ति वेत्ता। सच्‌ समवाये इस धातु से आत्मनेपद में लोट्‌ थास होने पर सचस्व यह रूप बनता है।,सच्‌ समवाये इति धातोः आत्मनेपदे लोटि थासि रूपम्‌ सचस्व इति। पदपाठ - अधी अवोचत्‌ अधिवक्ततेत्यधिऽवक्ता प्रथमः दैव्यः भिषक्‌ अहीन्‌ च सर्वान्‌ जम्भ्यन्‌ सर्वाः च यातुधान्यङ्तियातुऽधान्यः अधराचीः पर सुव॥,पदपाठः- अधी अवोचत्‌ अधिवक्तेत्यंधिऽवक्ता प्रथमः दैव्यः भिषक्‌ अहीन्‌ च सर्वान्‌ जम्भन्‌ सर्वाः च यातुधान्यङ्तियातुऽधान्य: अधराचीः परा सुव॥ धनानि लौकिक रूप है।,धनानि । वितिष्ठे - वि पूर्वक स्था-धातु से आत्मनेपद उत्तमपुरुष एकवचन में वितिष्ठे यह रूप है।,वितिष्ठ- विपूर्वकात्‌ स्था-धातोः आत्मनेपदे उत्तमपुरुषैकवचने वितिष्ठे इति रूपम्‌। "यद्यपि कु पृथिवीवाची स्त्रीलिङ्ग शब्द है तथापि गति प्रातिसाहचर्य से कुत्सित अर्थ में विद्यमान कु इस अव्यय की यहाँ ग्रहण किया गया है अधि कार अनुवृत्तिलब्द पदों संयोग कर “समर्थ कु, गति, प्र आदि समर्थ सुबन्त के साथ नित्य समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता है।","यद्यपि कु इति पृथिवीवाची स्त्रीलिङ्गशब्दः वर्तते तथापि गतिप्रादिसाहचर्यात्‌ कुत्सितार्थे विद्यमानं कु इत्यव्ययमेव अत्र गृह्यते । अधिकारानुवृत्तिलब्धपदानि संयोज्य - "" समर्थाः कुगतिप्रादयः समर्थन सुबन्तेन सह नित्यं समस्यन्ते , स च तत्पुरुषसमासः भवति """ सरलार्थ दोनों प्रकार की इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से हटाकर के परिवर्तित करके अपने अपने स्थान में ही स्थित करके निश्चल रूप से उनकी रक्षा करनी चाहिए।,सरलार्थः- उभयेषाम्‌ इन्द्रियाणां ज्ञानेन्द्रियाणां कर्मेन्द्रियाणां च विषयेभ्यः स्वस्वविषयेभ्यः परावर्त्य विमुखीकृत्य स्वस्वगोलके स्वस्वस्थाने स्थापनं स्थिरीकृत्य निश्चलरूपेण रक्षणम्। "“प्राक्कडारात्समासः'', “सहसुपा”, “*तत्पुरुषः'' ये तीनों अधिकृत सूत्र हैं।",""" प्राक्कडारात्समासः "" , "" सह सुपा "" , "" तत्पुरुषः "" इति सूत्रत्रयमधिकृतम्‌ ।" आगे के पाठ में भी इन ही विषयों का अनुसरण किया जाएगा।,अग्रिमे पाठे अयमेव विषयः अनुवर्तते। यहाँ उपमितम्‌ पद प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अत्र उपमितमिति प्रथमैकवचनान्तं आज भी दाक्षिणात्य और महाराष्ट्र में बहुत से अग्निहोत्रकारी ब्राह्मण दिखते हैं।,अद्यापि दाक्षिणात्ये महाराष्ट्रे च बहवः अग्निहोत्रकर्तारः ब्राह्मणाः दृश्यन्ते। उससे जिस अनुदात्त के परे यह अर्थ प्राप्त होता है।,तेन यस्मिन्‌ अनुदात्ते इत्यर्थः लभ्यते। इसलिए प्रारब्ध कर्म का तो भोग के द्वार ही क्षय होता है।,अतः प्रारब्धस्य तु भोगेन एव क्षयः। विवृक्णा -विपूर्वक व्रश्च्धातु से क्तप्रत्यय करने पर विवृक्ण यह रुप बनता है।,विवृक्णा - विपूर्वकात्‌ व्रश्च्धातो क्तप्रत्यये विवृक्ण इति रुपम्‌। जगत में सभी माया के द्वारा समाच्छान्न होते हुए नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप के ज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप में जो प्रतिष्ठा करता है वह साधन मार्ग ही वस्तुतः ज्ञान योग होता है।,जगति सर्वे एव मायया समाच्छन्नाः सन्तः संसारचक्रे पुनः पुनः आवर्तन्ते। मायायाः तत्‌ आवरणं ज्ञानेन भस्मीकृत्य स्वस्य नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपस्य ज्ञानेन आत्मस्वरूपे प्रतिष्ठापयति यः साधनमार्गः स एव वस्तुतः ज्ञानयोगः। 15. “कृद्ग्रहणे गतिकारक पूर्वपदस्यापि ग्रहणम्‌” इस परिभाषा अर्थ क्या है?,"१५. ""कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वपदस्यापि ग्रहणम्‌"" इति परिभाषाया अर्थः कः?" चित्त का विक्षेप क्या होता है।,कः चित्तस्य विक्षेपः। यदर्घङ्‌ वायुर्वाति यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,यददूयङ्‌ वायुर्वाति इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। "सरलार्थ - जिस पृथ्वी के चारो दिशाओं में जल विचरण करता है, दिन और रात निर्विघ्न रूप से चलते रहते हैं।",सरलार्थः- यस्यां पृथिव्यां चतुर्दिक्षु विचरन्ति जलानि दिवसे रात्रौ च बाधराहित्येन प्रवहन्ति। "प्रगतः अध्वानम्‌ इस लौकिक विग्रह में प्र अध्वन्‌ अम्‌ इस अलौकिक विग्रह में ""अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थ द्वितीयया"" इस वार्तिक से प्रादितत्पुरुष समास होता है।","प्रगतः अध्वानम्‌ इति लौकिकविग्रहे प्र अध्वन्‌ अम्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थ द्वितीयया"" इत्यनेन वार्तिकेन प्रादितत्पुरुषसमासो भवति।" उससे जो इष्ट का जो सुख है उसका जो साधन है वहां निष्ठा से प्रवृत्त होना चाहिए।,तेन इष्टं यत्‌ सुखं तस्य यत्‌ साधनं तत्र निष्ठया प्रवृत्तिः भवेत्‌। यशसम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,यशसम्‌ इति रूपं कथं सिद्धम्‌? तब गाये घर के प्रति पुन आते है।,तदा गावः गोष्ठं प्रति प्रत्यागच्छन्ति। अर्थात्‌ पुरुष को जानकर ही मृत्यु को पार किया जाता है।,अर्थात्‌ पुरुषं विदित्वा एव मृत्युम्‌ अतिक्रामति। वैसे ही दूरात्‌ इस पञ्चम्यन्त पद का यहाँ वर्तमान सम्बुद्धि से इस शब्द का यहाँ अन्वर्थ रूप से ग्रहण किया है।,तथाहि दूरात्‌ इति पञ्चम्यन्तस्य पदस्य अत्र वर्तमानात्‌ सम्बुद्धि- इति शब्दः अत्र अन्वर्थरूपेण ग्राह्यः। और वर्णसम्मेलन होने पर दामा रूप सिद्ध होता है।,वर्णसम्मेलने च सति दामा इति रूपं सिध्यति। 13.वेदान्त के चार अनुबन्ध है।,१३. वेदान्तस्य चत्वारः अनुबन्धाः। वहाँ पर न तिष्ठन्तीति नञ् तत्पुरुषसमास में षष्ठीबहुवचन में अतिष्ठन्ति नाम यह रूप है।,ततः न तिष्ठन्तीति नञ् तत्पुरुषसमासे षष्ठीबहुवचने अतिष्ठन्तीनामिति रूपम्‌। मन्त्र पूत बकरे को पुरोहित पलाशवृक्ष को शाखाओं से स्पर्श करके *“* अग्नये त्वा जुष्टमुपाकरोमि'' इस मन्त्र का पाठ करता है।,"मन्त्रपूतं छागं पुरोहितः प्लक्षवृक्षस्य शाखाभिः स्पृष्ट्वा ""अग्नये त्वा जुष्टमुपाकरोमि"" इति मन्त्रं पठति।" अहन्‌ - हन्‌ - धातु से लङ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,अहन्‌ - हन्‌ - धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। इस सूत्र से उत्तर “तत्पुरुष'' इस सूत्र से प्राक्‌ विद्यमान सूत्रों में अव्ययीभावः पद अनुवर्ती हुई है।,"अर्थाद्‌ एतस्मात्‌ सूत्राद्‌ उत्तरं ""तत्पुरुषः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक्‌ विद्यमानेषु सूत्रेषु अव्ययीभावः इति पदम्‌ अनुवर्तते, व्याप्नोति।" इस पत्र का स्वरूप लिखित ही है (Theory)।,अस्य पत्रस्य लिखितस्वरूपमेवास्ति (Theory)। वेद में द्यावा पृथिवी यह एक बहुत चर्चित देवता युगल है।,वेदे द्यावापृथिवी इत्येकं बहुचर्चितं देवतायुगलम्‌। "इसलिए वेदान्तसार कारक ने कहा है की पञ्चीकरण अर्थात्‌ आकाशादि पाँच में एक-एक को दो-दो समान भागों में बाँटकर, उनको दस भागों में प्राथमिक 0 उच्तर माध्यमिक माध्यमिक भाग का आधा भाग त्यागकर भागान्तरों में संयोजन करना चाहिए।","उच्यते च वेदान्तसारकारेण - ""पञ्चीकरणं तु आकाशादिपञ्चसु एकैकं द्विधा समं विभज्य तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्‌ पञ्च भागान्‌ प्रत्येकं चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णां भागानां स्वस्वद्वितीयार्द्धभागं परित्यज्य भागान्तरेषु संयोजनम्‌।""इति।" 10. यज्ञ को चाहने वालो का।,10. यज्ञार्हाणाम्‌। इन्द्र के सभी सूक्त त्रिष्ठुप में ही हैं।,इन्द्रस्य सूक्तानि सर्वाणि त्रिष्टुपि एव ग्रथितानि। इस प्रकार से संशय होने पर समाधान कहा जाता है की पट का उपादान कारण तन्तु होते हैं।,एवं संशये सति समाधानम्‌ उच्यते - पटस्य उपादानकारणानि तन्तवः भवन्ति। उदैत्‌ - उत्पूर्वक इ धातु से लङ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,उदैत्‌-उत्पूर्वकात्‌ इधातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। इन नित्यनैमित्तिक तथा प्रायश्चितसोपानों का अवान्तर फल अर्थात्‌ गौण फल पितृलोक प्राप्ति तथा सत्यलोक प्राप्ति होता है।,एतेषां नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानाम्‌ अवान्तरफलम्‌ अर्थात्‌ गौणं फलं तु पितृलोकप्राप्तिः सत्यलोकप्राप्तिः। "और अन्यो के मत से यहाँ कार ग्रहण अवर्ण से भी कार प्रत्यय होता है, यह इसका ज्ञापक है, इनके मत के अनुसार ही एवकार इत्यादि पद सिद्ध होते है।","अपरेषां च मतेन अत्र कारग्रहणम्‌ अवर्णादपि कारप्रत्ययो भवति इत्यस्य ज्ञापकम्‌, एतेषां मतानुसारम्‌ एवकारः इत्यादीनि पदानि सिद्ध्यन्ति।" हिरण्यवक्षा इसका विग्रह और समास लिखो।,हिरण्यवक्षा इत्यस्य विग्रहं समासं च लिखत। जैस ब्रह्मविद्यविधिश्रुति के द्वारा आत्मा में अवगत होने पर देहादिसङगात में अहं प्रत्यय बाधित होता है।,यथा ब्रह्मविद्याविधिश्रुत्या आत्मनि अवगते देहादिसङ्काते अहंप्रत्ययः बाध्यते| द्रव्यकार्य आवरण कहलाता है।,द्रव्यकार्यम्‌ आवरणम्‌। उच्चौस्तराम्‌ इसका अर्थ उदात्ततर है।,उच्चैस्तराम्‌ इत्यस्य उदात्ततरः इत्यर्थः। दसवें मन्त्र में युद्ध के बाद वृत्र का क्या हुआ इस विषय में कहा गया।,दशमे मन्त्रे उक्तं युद्धात्‌ अनन्तरं वृत्रस्य किं जातमिति। फिर भी वह प्रतिपाद्यमान प्रयोजन के लाभ के लिए अधिकारी हो इस प्रकार से समझना चाहिए।,तथापि स प्रतिपाद्यमानस्य प्रयोजनस्य लाभाय अधिकारी इत्येव अभ्युपगन्तव्यम्‌। यदि उपसना ही साक्षात्‌ ब्रह्मसाक्षात्कार के प्रति कारण है तो फिर श्रवणादि व्यर्थ ही होते हैं।,यदि उपासना साक्षात्‌ ब्रह्मसाक्षात्कारं प्रति कारणं तर्हि श्रवणादीनां वैयर्थ्यापत्तिः। इद्‌ प्रथमान्त पद है।,इत् इति प्रथमान्तं पदम्‌। रज्जु में सर्पज्ञान के समान पुरुष में जगत ज्ञान भी अज्ञान है।,रज्ज्वौ सर्पज्ञानमिव पुरुषे जगज्ज्ञानम्‌ अज्ञानम्‌। क्तेन इस अर्थ का तदन्त विधि में तत्प्रकृतिक लक्षणा से क्तान्तप्रकृतिक यही अर्थ है।,क्तेन इत्यस्य तदन्तविधौ तत्प्रकृतिके लक्षणया क्तान्तप्रकृतिकेन इत्यर्थः| पंद्रहवें अध्याय में अग्निचयन प्रकार का वर्णन करके सोलहवें में सौ रुद्रियहोममन्त्र कहे गये हैं।,पञ्चदशे अध्याये अग्निचयन प्रकारं वर्णयित्वा षोडशे शतरुद्रियहोममन्त्राः उक्ताः। इसके पैर से ही गङ्गा की सृष्टि हुई यह प्रसिद्ध ही है।,अस्य पादादेव गङ्गायाः सृष्टिरिति प्रसिद्धिः। तब तो केवल सभी भूतों में प्रेम का अनुभव ही होता है।,तदा तु केवलं सर्वभूतेषु प्रेमानुभवः एव भवति। "पाद के आदि में विद्यमान होने से, आमन्त्रित होने से षष्ठी से और आमन्त्रित के स्थान से शुतुद्रि शब्द के शकार से उत्तर उकार उदात्त होता है, अत: उसके परे होने पर पूर्व सरस्वति शब्द की इकार के स्थान से अनुदात्त के स्थान में अनुदात्तर आदेश होता है।","पादस्य आदौ विद्यमानत्वात्‌, आमन्त्रितत्वात्‌ च षाष्ठेन आमन्त्रितस्य च इत्यनेन शुतुद्रिशब्दस्य शकारोत्तरः उकारः उदात्तः भवति, अतः तस्मिन्‌ परे सति पूर्वस्य सरस्वतिशब्दस्य इकारस्य अनुदात्तस्य सन्नतरः आदेशो भवति।" तप्यते - आत्मनेपद तप्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,तप्यते - आत्मनेपदिनः तप्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । जैसे:-पीतम्‌ अम्बरं यस्य स (पीला है) वस्त्र जिसका वह पीताम्बर है।,यथा पीतम्‌ अम्बरं यस्य स पीताम्बरः इति। 13. प्राण किसे कहते हैं?,१३. प्राणो नाम कः। वास्तव में तो पुरुष इससे भी अधिक सामर्थ्यशाली है।,वास्तवः पुरुषस्तु इतोऽप्यतिशयेन अधिकः। और प्रतिपद विधानषष्ठयन्त के षष्ठी इससे समास प्राप्त होने पर उक्त वार्तिक से उसका निषेध होता है।,एवं प्रतिपदविधानषष्ठ्यन्तस्य षष्ठी इत्यनेन समासे प्राप्ते प्रोक्तवार्तिकेन तन्निषिध्यते। वहां उपसर्जन यह पूर्व ये दो पद प्रथमाविभक्ति एकवचनान्त है।,तत्र उपसर्जनम्‌ इति पूर्वम्‌ इति च पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तम्‌। द्वेष को अधिक होने से अनेक प्रकार से भंग होने पर भी युद्ध को नहीं छोड़ता यह अर्थ है।,द्वेषाधिक्येन बहुधा विद्धोऽपि युद्धं न परित्यक्तवानित्यर्थः। उसका षष्ठी एकवचन में यह रूप बनता है।,तस्य षष्ठ्येकवचने इदं रूपम्‌। लेकिन प्रारब्धकर्मवश फलभोगसमाप्ति नहीं होती है।,परन्तु प्रारब्धकर्मवशात्‌ फलभोगसमाप्तिः न भवति। उपमान और उपमेय में जो साधारण धर्म है उसका विशिष्ट वचन ही उसका अर्थ है।,उपमानोपमेयसाधारणो यो धर्मस्तद्विशिष्टवचनैरित्यर्थः । जो इट्‌ नहीं है वह अनिट्‌ उस अनिट्‌ में इट्‌ से भिन्न में यह अर्थ है।,न इट्‌ अनिट्‌ तस्मिन्‌ अनिटि इट् भिन्ने इत्यर्थः। और उत्तरपद कपाल शब्द है।,उत्तरपदञ्च कपालशब्दः। विशेष - युञ्ज्‌ धातु से घञ्‌ प्रत्यय करने पर सिद्ध हुआ युग- यह शब्द उञ्‌छादिगण में पढ़ा हुआ है।,विशेषः- युञ्ज-धतोः घञ्प्रत्यये निष्पन्नः युग-इति शब्दः उञ्छादिगणे पठितः। "“ विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ "" सूत्र की व्याख्या की गई है?",""" विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" मैं उमके साथ विचरण करती हूँ।,तदात्मना चरामि। उत्तरार्थ में तो मित्रावरुणसूक्त की आलोचना की।,उत्तरार्थे तु मित्रावरुणसूक्तम्‌ आलोचितम्‌। प्रत्येक पाद में ग्यारह अक्षर होते है।,प्रतिपादे एकादश अक्षराणि भवन्ति। उपासना के अनुष्ठान से जिसका चित्त विक्षेप रहित एकाग्र तथा समाहित है।,उपासनायाः अनुष्ठानेन च यस्य चित्तं विक्षेपरहितम्‌ एकाग्रम्‌ समाहितम्‌ अस्ति। और वह भावना सुंदर शरीर की तरह उसके सुन्दर स्वरूप को प्रकट करती है।,सा च भावना स्मितवदनायाः तस्याः सुन्दरस्वरूपं प्रकटयति। इसलिए वे लोक कर्मचित्त कहलाते हैं।,अत एव एते लोकाः कर्मचिताः। अतः सूत्र का अर्थ है - कर्मधारय समास में पूर्वपद कतर और कतम शब्द को विकल्प से प्रकृति स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - कर्मधारयसमासे पूर्वपदस्य कतरशब्दस्य कतमशब्दस्य च विकल्पेन प्रकृतिस्वरः भवति इति। अच्छे कहने से सभी को सूक्त इस नाम से कहते है।,सुष्ट्क्तत्वात्सर्वं सूक्तमित्याख्यायते। और सूत्रार्थ आता है “'स्तोकान्तिदूरार्थवाची कृच्छ्रशब्द और पञ्चम्यन्त सुबन्त को क्तान्त प्रकृतिक सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"एवं सूत्रार्थः समायाति ""स्तोकान्तिकदूरार्थवाचकानि कृच्छ्रशब्दप्रकृतिकं च पञ्चम्यन्तं सुबन्तं क्तान्तप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" उससे उत्तम और मधुरतम कोई भी रस प्राप्त नहीं होता है।,तस्मात्‌ उत्तमः मधुरतमः च कोपि रसः न प्राप्यते। “दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" इति सूत्रस्य दिग्वाचकेन समासे किमुदाहरणम्‌ ?" और कौन उन यज्ञों का अधिकारी होता है।,के च तेषां यज्ञानाम्‌ अधिकारिणो भवन्ति। छठा लिङ्ग है उपपत्ति प्रकरण में जिन स्थालों में जो अर्थ प्रतिपादित किया गया है उन स्थलों में उस अर्थ के साधन मे श्रूयमाण युक्ति उत्पत्ति कहलाती है।,षष्ठं लिङ्गं भवति उपपत्तिः। प्रकरणे येषु स्थलेषु यः अर्थः प्रतिपाद्यते तेषु स्थलेषु तस्य अर्थस्य साधने श्रूयमाणा युक्तिः उपपत्तिः। सिषेध - षिध्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में सिषेध यह रूप है।,सिषेध - षिध्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने सिषेध इति रूपम्‌। यह ही स्पष्ट करते हैं।,एतदेव स्पष्ठीक्रियते। स्तोकात्‌ मुक्तः इस विग्रह में समास में स्तोकान्मुक्तः एक उदाहरण है।,स्तोकात्‌ मुक्तः इति विग्रहे समासे स्तोकान्मुक्तः इति एकम्‌ उदाहरणम्‌। वह पुरुष इन कर्मों की ओर प्रवर्तित होता है।,चेत्‌ पुरुषः प्रवर्तते । लेकिन शुकवामदेवादि मुक्तपुरुषत्व के द्वारा प्रसिद्ध शास्त्रों में उल्लिखित है।,"परन्तु शुकवामदेवादयः मुक्तपुरुषत्वेन प्रसिद्धाः, शास्त्रेष्वपि उल्लिखिताः।" देह की वृद्धि तथा क्षय अन्न के विकारत्व के कारण ही होती है।,देहस्य वृद्धिः क्षयश्च भवतः अन्नविकारत्वात्‌। यास्काचार्य ने कहा है - भजनीय।,यास्काचार्यस्तु - भजनीयम्‌। यहाँ चकार से अन्तः इस पद की अनुवृति आ रही है।,अत्र चकारेण अन्तः इति पदम्‌ अनुवर्तते। ये ददति प्रिया वसु इति दधाना इन्द्रे इत्यादीन्यपि ये इसके उदाहरण है।,ये ददति प्रिया वसुं इति दर्धांना इन्द्रे इत्यादीन्यपि अस्य उदाहरणानि। और प्रक्रिया कार्य में कृष्णश्रित यह रूप सिद्ध होता है।,प्रक्रियाकार्य च कृष्णश्रितः इति रूपं सिध्यति। तो फिर कहते हैं की कर्मों से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी तो मोक्ष मिलेगा ही नहीं।,ननु एवं तर्हि कर्मभ्यो मोक्षो नास्ति इति अनिर्मोक्ष एव। यहाँ शंका उत्पन्न होती है कि श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः इसका और सुबन्तों के द्वारा किस प्रकार समानाधिकरण होता है?,अत्र शङ्का समुदेति यत्‌ श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः इत्यस्य सुबन्तैः इत्यस्य च कथं सामानाधिकरण्यमिति। अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिः इति अङग का विग्रह है।,अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिः इति अङ्गानि इति विग्रहः। “ अनुगुत्तरपदे” इस सूज से उत्तरपद की अनुवृत्ति होती है।,अलुगुत्तरपदे इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ उत्तरपदे इत्यनुवर्तते । और तैत्तिरीय में भी कहा गया है - इन्द्रो वृत्रं हत्वा परां परावतमगच्छदपाराधमिति मन्यमानः' (तै - सं - २.५.३. ६) इति।,तैत्तिरीयाश्चामनन्ति - 'इन्द्रो वृत्रं हत्वा परां परावतमगच्छदपाराधमिति मन्यमानः'(तै - सं - २.५.३.६) इति॥ "समासः, सुप्‌, सह सुपा, विभाषा, तत्पुरुष ऐसे पद पहले से अधिकृत है।","समासः, सुप्‌, सह सुपा, विभाषा, तत्पुरुषश्चेत्येतानि पदानि पूर्वतोऽधिकृतानि।" अतः शास्त्रों में कहा है- “नोदेति नास्तमायाति सुखदुःखैर्मुखप्रभा।,"तथाहि शास्त्रम्‌- ""नोदेति नास्तमायाति सुखदुःखैर्मुखप्रभा।" योग सूत्र में ध्यान ही ध्येयाकार में भासित होता है वर्तमान चित्तवृत्ति का जैसे स्थैर्य होता है तब वह समाधि कहलाती है।,"योगसूत्रे तु ध्यानमेव यदा ध्येयाकारेण भासते, वर्तमाना अपि चित्तवृत्तिः यदा न गृहीता भवति सा हि समाधिः इत्युच्यते।" अथवा परम्परा वाले साधनों को गिना जाता है।,अथवा परम्परासाधनेषु गण्यते। "१४॥ अन्वय - नाभ्याः अन्तरिक्षम्‌ आसीत्‌ शीर्ष्णः द्यैः समवर्तत, पद्भ्यां भूमिः, श्रोत्रात्‌ दिशः, तथा व्याख्या - जैसे प्रजापति के मन से चन्द्र की रचना हुई, वैसे ही अन्तरिक्षादि लोकों को देवों ने प्रजापति के नाभ्यादि से उत्पादित किये।","१४॥ अन्वयः- नाभ्याः अन्तरिक्षम्‌ आसीत्‌ शीर्ष्णः द्यौः समवर्तत, पद्भ्यां भूमिः, श्रोत्रात्‌ दिशः, तथा लोकान्‌ अकल्पयन्‌।व्याख्या- यथा चन्द्रादीन्‌ प्रजापतेर्मनः प्रभृतिभ्योऽकल्पयन्‌ तथा अन्तरिक्षादीन्‌ लोकान्‌ प्रजापतेः नाभ्यादिभ्यो देवाः अकल्पयन्‌ उत्पादितवन्तः।" राजा और पुरुष के मध्य में तो सम्बन्ध नहीं हैं।,राजपुरुषयोः मध्ये तु सम्बन्धः नास्ति। प्रधान उपनिषद्‌ बुद्ध से पूर्व ही रचे गए।,प्रधानाः उपनिषदो बुद्धात्‌ प्राक्‌ एव प्रणीताः। धवखदिरौ यहाँ पर समस्यमान धव और खदिर पदों में अर्थ के प्राधान्यात्‌ से यह उभयपदार्थ प्रधान द्वन्द समास है।,धवखदिरौ इत्यत्र समस्यमानधवखदिरपदयोः अर्थस्य प्राधान्याद्‌ अयम्‌ उभयपदार्थप्रधानः द्वन्द्वः । उस सम्पत्ति में सबसे पहले शम होता है।,तत्सम्पत्तौ आद्यः शमः। वहाँ पर रजोगुण तथा तमोगुण के साथ जब मन होता है तब वह मन अशुद्ध होता है।,तत्र रजोगुणेन तमोगुणेन च सहितं यदा भवति मनः तदा अशुद्धं भवति। "नियम से तात्पर्य है शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान।",शौच-सन्तोष-तपः- स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि नियमाः। अनात्म में आत्मबुद्धि आवरण से होती है।,अनात्मसु आत्मत्वबुद्धिः आवरणाद्‌ भवति। अत एव यह शब्द नित्यनपुंसक लिङ्ग होता है ऐसा व्यवहार।,अत एव अयं शब्दः नित्यनपुंसकलिङ्गः इति व्यवहारः। जीवन का मूलभूत लक्ष्य ही नारी प्रेम है।,जीवनस्य मूलभूतं लक्ष्यम्‌ एव वर्तते नारीप्रेम। पुन: प्रत्येक वस्तु होती है।,पुनः प्रत्येकं वस्तुनि तिष्ठन्ति। यहाँ विष्णु की महानता का वर्णन किया गया है।,अत्र विष्णोः माहात्यं वर्णितम्‌। और वहाँ “ अर्थेन नित्यसमासो विशेल्यलिङगता चेति वक्तव्यम्‌'' इस वार्तिक की व्याख्या की गई।,"तत्र च ""अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम्‌"" इति वार्त्तिकं व्याख्यातम्‌।" "उच्चैरुदात्तः”, नीचैरनुदात्तः”, ' समाहारः स्वरितः”, इन सूत्रों में पाणिनि ने उन तीनों स्वरों के लक्षण कहे हैं।","'उच्चैरुदात्तः', 'नीचैरनुदात्तः', 'समाहारः स्वरितः' इत्येतानि पाणिनिना तेषां त्रयाणां स्वराणां लक्षणानि प्रोक्तानि।" निरोधसंस्कार के द्वारा व्यत्धान संस्कार का अभिभव होता है।,निरोधसंस्कारेण व्युत्थानसंस्कारस्य अभिभवो भवति। अहिगोपाः - अहिः गोपाः यासां ताः अहिगोपाः यहाँ पर बहुव्रीहि समास है।,अहिगोपाः - अहिः गोपाः यासां ताः अहिगोपाः इति बहुव्रीहिसमासः। रज्जु को देखकर के सर्प की भ्रान्ति जिस प्रकार से होती है उसी प्रकार सर्प को देखकर के भी रज्जु की भ्रान्ति होती है।,रज्जुं दृष्ट्वा सर्पस्य भ्रान्तिः यथा भवति तथैव सर्पं दृष्ट्वा रज्जुभ्रान्तिरपि भवेत्‌। यहाँ पर भी उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति आ रही है।,अत्रापि उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदं पूर्वसूत्रात्‌ अनुवर्तते। प्र आदि क्रियायोग में गतिसंज्ञक होते है।,प्रादयः क्रियायोगे गतिसंज्ञकाः भवन्ति। आठवें अध्याय में स्थित ` आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र में किसका अधिकार आता है?,अष्टमाध्यायस्थे 'आमन्त्रितस्य च' इत्यस्मिन्‌ सूत्रे के अधिकाराः आयान्ति ? मनुष्य मोह से प्रमाद करता है।,मनुष्या मोहात्‌ प्रमादं कुर्वन्ति। आदि में वृत्र से प्रहार करने पर इन्द्र में भय से देवो के घोड़े की पुच्छतुल्य हुए।,आदौ वृत्रेण प्रहारे कृते सति इन्द्रः भयेन देवानाम्‌ अश्वस्य पुच्छतुल्यः अभवत्‌। देव शब्द के निर्वचन के प्रसङ्ग में निरुक्तकार यास्काचार्य कहते है - “देवो दानाद्‌ वा दीपनाद वा द्योतनाद्‌ वा भवति इति।,देवशब्दस्य निर्वचनप्रसङ्गे निरुक्तकारः यास्काचार्यः आह- “देवो दानाद्‌ वा दीपनाद्‌ वा द्योतनाद्‌ वा भवति” इति। उस प्रकार का मेरा मन शान्तसङ्कल्प वाला हो।,तादृशं मे मनः शान्तसङ्कल्पमस्तु। कपिशवर्ण से युक्त अश्व उसके रथ को ले जाते हैं।,कपिशवर्णयुक्ताः अश्वाः तद्रथं नयन्ति। कर्म ही जीव के लोकान्तरगमन का कारण होता है।,कर्म एव जीवस्य लोकान्तरगमनस्य कारणं भवति। भारतीयों के द्वारा भी ऋग्वेद का अत्यधिक आदर किया जाता है।,भारतीयैरपि ऋग्वेदः अतिशयेन आद्रियते। ब्राह्मण ग्रन्थों में मन्त्रों के विनियोग का विस्तृत वर्णन है।,ब्राह्मणग्रन्थेषु मन्त्राणां विनियोगस्य सविस्तृतं वर्णनम्‌ अस्ति। सूत्र का अर्थ - इन दो से युक्त व्यवधान में तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - आभ्यां युक्तं व्यवहितं तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं भवति। "ऋग्वेद की कौन-कौन सी शाखा प्रसिद्ध है, उनको विस्तारपूर्वक लिखिए।","ऋग्वेदस्य काः शाखाः प्रसिद्धाः सन्ति, ताः विशदम्‌ आलोच्यताम्‌।" "निर्मलचित्त, एकाग्रचित्त तथा साधनचतुष्टसम्पन्न का ही ग्रहण होता है।",निर्मलचित्तः एकाग्रचित्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः एव गृह्यते। उसके लिए कोई चेष्टा भी नहीं होती है।,तदर्था चेष्टापि न भवति। वि.चू 173 मनसः बन्धमोक्षकारणत्वम्‌ मन ही मनुष्यों के बन्धन तथा मोक्ष का कारण होता है।,वि.चू १७३ मनसः बन्धमोक्षकारणत्वम्‌ मन एव कारणं मनुष्याणां बन्धमोक्षयोः। जो केवल वेद प्रमाण्य को स्वीकार करता है लेकिन वेदोक्तप्रकार से आचरण नहीं करता है उसका वेद में केवल विश्वास होता है लेकिन श्रद्धा नहीं होती है।,यश्च केवलं वेदप्रामाण्यं स्वीकरोति परन्तु वेदोक्तप्रकारेण नाचरति तस्य वेदे विश्वासः अस्ति श्रद्धा नास्ति। "एवं ""प्रयोगानर्हः असाधुरलौकिकः"" यह अलौकिक विग्रह वाक्य का लक्षण है।","एवं ""प्रयोगानर्हः असाधुरलौकिकः"" इति अलौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌।" प्रत्येक भेद भी अनेक शाखा से युक्त हैं।,प्रतिभेदम्‌ अपि अनेकशाखायुतः च। यहाँ शार्ङ्गरव शब्द शार्ङ्गरवादिगणे में पठित है।,अत्र शार्ङ्गरव इति शब्दः शार्ङ्गरवादिगणे पठितः अस्ति। "ब्रह्म विद्या में उपनिषद्‌ शब्द मुख्य रूप से वृत्ति में है, ग्रन्थ बोध में तो लक्षण से।","ब्रह्मविद्यायामुपनिषच्छब्दो मुख्यया वृत्त्या वर्तते, ग्रन्थबोधस्तु लक्षणया।" लेकिन जब यही प्रश्‍न उन्होंने रामकृष्ण से पूछा तो उन्होंने कहा हाँ देखा है।,"इति, तदा अविचलितचित्तः स उक्तवान्‌- 'आम्‌, दृष्टम्‌।" तेरे ही तेज से तेज का गोलक सूर्य प्रकाशित होता है।,तवैव तेजसा भासमानत्वात्‌ तेजसः गोलकः सूर्यो इति ज्योतिःशास्त्रोक्तेः। अधिक्रियते इस पद का यहाँ आक्षेप किया है।,अधिक्रियते इति पदमत्र आक्षिप्यते। बन्धन तथा मोक्ष मन के ही अधीन होते हैं।,बन्धस्य मोक्षस्य च मनोधीनत्वं वर्तते। सूत्र व्याख्या-यह अधिकार सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - इदम्‌ अधिकारसूत्रम्‌। 9. अभीशुभिः इसका क्या अर्थ है?,९. अभीशुभिः इत्यस्य कः अर्थः? (क) शम (ख) विषय (ग) प्रयोजन (घ) अधिकारी 9 यह अनुबन्धो में अन्यतम नहीं होता है।,(क) शमः (ख) विषयः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) अधिकारी 9. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः नास्ति। गुरु निर्मल चित्त शमदमादि सम्पन्न शिष्य के लिए ब्रह्म विद्या का उपदेश देता है।,गुरुः निर्मलचित्ताय शमदमादिसम्पन्नाय शिष्याय ब्रह्मविद्याम्‌ उपदिशति। इसी प्रकार अश्व शब्द का आदि अकार उदात्त है।,एवम्‌ अश्वशब्दस्य आदिमः अकारः उदात्तः। इन्द्र ने राक्षसों में प्रथम वृत्रासुर का आवाहन किया।,इन्द्रः रक्षसां प्रथमं वृत्रासुरम्‌ आहवे आह्वयामास। अनुदात्त ग्रहण की अनुवृति आती है।,अनुदात्तग्रहणम्‌ अनुवर्तते। इसलिए ईळे यहाँ पर “अनुदात्तं पदम्‌ एकवर्जम्‌' यह सूत्र यहाँ पर नहीं लगता है।,अतः ईळे इत्यत्र अनुदात्तं पदम्‌ एकवर्जम्‌ इति सूत्रं न प्रवर्तते। सूत्र अर्थ का समन्वय- भुवनपतिः यहाँ भुवनस्य पतिः इस विग्रह में तत्पुरुष समास हुआ है।,सूत्रार्थसमन्वयः- भुवनपतिः इत्यत्र भुवनस्य पतिः इति विग्रहे तत्पुरुषसमासः जातः। और सूत्रार्थ आता है-''द्वितीयान्त सुबन्त को श्रितादि प्राकृतिको द्वारा सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"एवं सूत्रार्थः समायाति - ""द्वितीयान्तं सुबन्तं श्रितादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" मोक्ष विषय प्रत्यक्ष गम्य नहीं होकर के अनुमान के द्वारा गम्य होता है।,मोक्षः विषयः न प्रत्यक्षगम्यः नापि अनुमानगम्यः। शिक्षासङग्रह नामक ग्रन्थ में बत्तीस -शिक्षा पुस्तकों का सङ्रह प्राप्त होता है।,शिक्षासङ्ग्रहनामके ग्रन्थे द्वात्रंशत्‌-शिक्षापुस्तकानां सङ्ग्रहः प्राप्यते। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है- ङस्‌ के परे होने पर पूर्व के युष्मद्‌ अस्मद्‌ का आदि अच्‌ उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति ङसि परे सति पूर्वयोः युष्मदस्मदोः आदिः अच्‌ उदात्तः भवति इति। नौवें और दसवें अध्याय में इसी यज्ञ से ही सम्बद्ध मन्त्रों का सङ्कलन है।,नवमे दशमे च अध्याये अनेन यज्ञेनैव सम्बद्धानां मन्त्राणां सङ्कलनमस्ति। जजान रूप कैसे बना?,जजान इति रूपं कथं स्यात्‌। ( 8.3.4 ) “तत्पुरुषसमास '' प्रायेण उत्तर पदार्थ प्रधानः तत्पुरुषः।,"(८.३.४) ""तत्पुरुषसमासः"" ""प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः"" इति।" भारतीय सिद्धान्तों की चाभी कौन हे?,भारतीयसिद्धान्तस्य कुञ्जिका इति का? पृथ्वी से प्रकृति का तथा उसके व्यापार का पवित्र प्रेम पूर्ण जीवन में लक्षण और प्रमाण हैं।,पृथोः प्रकृत्याः तथा तस्याः व्यापाराणाम्‌ पवित्रप्रेमपूर्ण जीवने लक्षणं प्रमाणं च। 45. समीप अर्थ में अव्ययीभावसमास का क्या उदाहरण है?,४५ . समीपार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? इस जगत्‌ की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है।,अस्य जगतः उत्पत्तिः ब्रह्मणः एव भवति। उसके द्वारा ही यह जगत सुनता है - अहमेववात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा इति।,तयैव जगदिदं सूयते -अहमेववात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा इति। "अर्थ वाक्य, प्रकरण, औचित्य, तथा देश काल के भेद से शब्दों का अर्थ अलग अलग होता है।",अस्यार्थः - वाक्यात्‌ प्रकरणात्‌ अर्थात्‌ औचित्यात्‌ देशतः कालतः च शब्दानाम्‌ अर्थाः भिन्नाः भवन्ति। प्रसङ्गतः षष्ठीतत्पुरुष निषेध सूत्रों का वर्णन किया जा रहा है।,प्रसङ्गतः षष्ठीतत्पुरुषनिषेधकानि सूत्राणि वर्ण्यन्ते। बार-बार हर क्षण दोष दृष्टि के द्वारा दोष देखकर के विषयों से तथा विषयों के समूहों से वैराग्यप्राप्ति करके मन को अपने लक्ष्य ब्रह्मतत्वनियतावस्था में निश्चल रूप से लगाना शम कहलाता हे।,मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणं दोषदृष्ट्या दोषदर्शनेन विषयत्रातात्‌ विषयसमूहात्‌ विरज्य वैराग्यप्राप्त्या मनसः स्वलक्ष्ये ब्रह्मतत्त्वज्ञाने नियतावस्था निश्चलरूपेण अवस्थानं शमः उच्यते कथितो भवति। दैक्ष तथा प्राजापत्य पशु सभी पशुयागों की प्रकृति है।,दैक्षः प्राजापत्यपशवो वा सकलपशुयागानां प्रकृतिः। और तीसरा हेतु चित्तगत अशुभ भावनाएँ हैं।,तृतीयो हेतुः चित्तगताशुभवासनाः। समास विधायक सूत्र का ग्रहण समास विधायक सूत्र में जो प्रथमान्त से बोधित उपसर्जन संज्ञा होती है?,समासविधायकसूत्रस्य ग्रहणम्‌ समासविधायकसूत्रे यत्‌ प्रथमान्तं तद्बोध्यम्‌ उपसर्जनसंज्ञं भवति इति। इस कर्मधारय समास में पूर्वपद कतर शब्द है।,अस्मिन्‌ कर्मधारयसमासे पूर्वपदं कतरशब्दः। स्यान्तस्य यह नामधेय इस पद का विशेषण है।,स्यान्तस्य इति नामधेयस्य इति पदस्य विशेषणम्‌। जिसमें ऋग्वेदीय ऐतरेयोपनिषद्‌ में “प्रज्ञानं ब्रह्म” (3/1/3 ) इसर प्रकार का महावाक्य है।,"तत्र ऋग्वेदीयायां ऐतरेयोपनिषदि “प्रज्ञानं ब्रह्म"" (३/१/३) इति महावाक्यम्‌ विद्यते।" इस प्रकार को परीक्षा के द्वारा क्या धारण करना चाहिए?,ईदृश्या परीक्षया किम्‌ अवधारयेत्‌। इस प्रकरण में शमादि छ: सम्पत्तियाँ अभीष्ट हैं।,अत्र प्रकरणे शमादिषट्कस्य सम्पत्तिः अभीष्टा। अभिमान में आकर के वृत्र ने इन्द्र को युद्ध में आमन्त्रित किया।,अभिमानाविष्टः वृत्रः इन्द्रं युद्धे आमन्त्रयामास। ब्रह्मविद लोग उस प्रजापति की योनि में स्थान देखते हैं और अहं ब्रह्मास्मि इस रूप में जानते हैं।,धीराः ब्रह्मविदः तस्य प्रजापतेः योनिः स्थानं स्वरूपं परिपश्यन्ति अहं ब्रह्मास्मि इति जानन्ति। ज्ञान अग्नि की समिधा श्रद्धा के द्वारा ही पूर्ण होती है।,ज्ञानाग्नेः समिन्धनमपि श्रद्धया एव सम्पादितं भवेत्‌। उदाहरण- आहो उताहो वा भुङ्क्ते ये इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- आहो उताहो वा भुङ्क्ते इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। 49. अति के अर्थ में अव्ययीभाव समास उदाहरण क्या हैं?,४९. अत्ययार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? केशराशि स्फुलिङ्ग वर्ण युक्त है।,केशराशिः स्फुलिङ्गवर्णयुक्तः। "जल का तेज में, तेज का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का जीव अहङकार में उस जीवाहङकार का हिरण्यगर्भाहङ्कार में और उस हिण्यगर्भाहङकार का अविद्या में लय हो जाता हेै।","अपां तेजसि, तेजसः वायो, वायोराकाशे, आकाशस्य जीवाहङ्कारे, तस्य जीवाहङ्कारस्य हिरण्यगर्भाहङ्कारे, तस्य हिरण्यगर्भाहङ्कारस्य अविद्यायां लयः भवति।" इसलिए गुरु के पास मे उपदेश प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए।,अतः एव गुरोः सकाशात्‌ उपदेशप्राप्त्यर्थं शिष्यः गुरोः शरणं प्राप्नोति| अन्वय - सर्वे निमेषाः विद्युतः पुरुषात्‌ अधि जज्ञिरे।,अन्वयः -सर्वे निमेषाः विद्युतः पुरुषात्‌ अधि जज्ञिरे। एजत्‌ - एज्‌-धातु से शतुप्रत्यय करने पर।,एजत्‌- एज्‌-धातोः शतुप्रत्यये। "मित्रवरुण की महानता से महानता अत्यन्त प्रशसा से, जो वश से ही निरन्तरभ्रमणरत सूर्य दैनिक गति से बन्ध जलराशी को आकर्षण करने में समर्थ होते है।","मित्रावरुणयोः माहात्म्यम् अतिप्रशस्तं, यद्वशात्‌ एव निरन्तरभ्रमणरतः सूर्यः दैनिकगत्या बद्धान्‌ जलराशीन्‌ आकर्षयितुं समर्थो भवति।" वहाँ पर उसका ही सोम उत्तम माना जाता है।,तत्र ह्युत्तमः सोमो जायते। मैं रुद्र के लिये ब्रह्मद्वेष कारी घातक शत्रुओं को मारने के लिये उसके धनुष को ग्रहण करती हूँ।,अहं रुद्राय ब्रह्मद्वेषकारिणं घतकं शत्रुं हन्तुं तस्य धनुषं गृह्णामि। फिर भी बे अविद्या के समान ही होते है।,तथापि अविद्यावत एव भवति। संशयात्मिका अन्तः करणवृत्ति मन होता है।,संशयात्मिकान्तःकरणवृत्तिर्भवति मनः। इसलिए अज्ञानजन्य जो कार्य होते हैं।,अतः अज्ञानजन्यानि यानि कार्याणि भवन्ति इसके बाद समास विधायक सूत्र में तृतीया के प्रथमाविभक्ति निर्दिष्ट होने पर उसके बोध का शङ्कुला टा इसकी उपसर्जनसंज्ञा होने पर पूर्वनिपात में शङ्कुला टा खण्ड सु होता है।,ततः समासविधायकसूत्रे तृतीया इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्बोध्यस्य शङ्कुला टा इत्यस्योपसर्जनत्वात्‌ पूर्वनिपाते शङ्कुला टा खण्ड सु इति भवति। जाया अर्थात्‌ तेरे वश में है।,जायास्थानीये त्वद्वशे इत्यर्थः। इस चित्र के माध्यम से साधनों के सोपानों को दिखाया जा रहा हे।,अत्र चित्रमुखेन साधनसोपानानि प्रदर्शितानि। बहुत स्थानों पर जिनकी गति हो यह उसका अर्थ है।,बहुगतिमान्‌ महागतिः इति तदर्थः। अनुभव निश्चयात्मक होता है।,अनुभवशच निश्चयात्मकः। एकाधिकरण में इसका सम्बन्ध एकदेश पद के साथ है।,एकाधिकरणे इत्यस्य सम्बन्धः एकदेशिना इति पदेन सह वर्तते। ज्ञेयाकारविरवच्छिन्नचित्तवृत्तियाँ होती है।,ज्ञेयाकारा निरवच्छिन्नचित्तवृत्तयश्च भवन्ति। इसलिए गोष्ठजः पशुः इत्यादि में गोष्ठज शब्द का ब्राह्मण नामधेय के अभाव होने से प्रकृत सूत्र से वहाँ स्वर उदात्त नहीं होते है।,अत एव गोष्ठजः पशुः इत्यादौ गोष्ठजशब्दस्य ब्राह्मणस्य नामधेयत्वाभावात्‌ प्रकृतसूत्रेण तत्र स्वराः उदात्ताः न भवन्ति। न लोपः अलोप: पद में नज्तत्पुरुषसमास है।,न लोपः अलोपः इति नञ्तत्पुरुषसमासः। इसलिए अज्ञान असत्‌ भी नहीं है।,अतः अज्ञानं नापि असत्‌। इस सूत्र का उदाहरण है अक्षशौण्डः।,अक्षशौण्डः इत्यादिकमत्र उदाहरणम्‌। सूर्यमण्डल पुरुष अर्थात्‌ आत्मरूप को ही जानकर मुक्ति होती है।,सूर्यमण्डलान्तः पुरुषम्‌ आत्मरूपं ज्ञात्वा एव मुक्तिः।। एवम्‌ यहां अर्थ हैं तृतीयान्तार्थकृतेन गुणवचनेन (तृतीयान्तर्थक कृत गुण वचन से) अर्थ से इसका अर्थ प्रकृति से सुबन्त से यही अर्थ हैं।,एवमत्रार्थः तृतीयान्तार्थकृतेन गुणवचनेन इति अर्थनेत्यस्य अर्थप्रकृतिकेन सुबन्तेनेत्यर्थः। और आत्मरूप होने से अमरण धर्मी होने से विनाश रहित है।,यच्चामृतम्‌ अमरणधर्मि आत्मरूपत्वात्‌। इसलिए ब्रह्मा सभी वेदों को जानने वाला होना चाहिए।,एतदर्थं ब्रह्मणा सर्ववेदविदा भवितव्यम्‌। 4. मन में वेद कैसे स्थिर होते है?,४. कथं मनसि वेदाः प्रतिष्ठताः? यथार्थता से सादृश्य के अर्थ के ग्रहण से पुनः सादृथ्य का सूत्र में किसलिए प्रश्‍न उत्पन्न होता है।,यथार्थत्वेन सादृश्यार्थस्य ग्रहणात्‌ पुनः सादृश्यं सूत्रे किमर्थम्‌ इति प्रश्नः समुदेति। पचति इससे परे अगति संज्ञक चकार है।,पचति इत्यस्मात्‌ पूर्वम्‌ अगतिसंज्ञकः चकारः अस्ति। यहाँ इञ्प्रत्यय के जित्त्वाद होने से 'ज्नित्यादिर्नित्यम्‌' इस सूत्र से आद्युदात्त की प्राप्ति में प्रकृत वार्तिक से यहाँ अन्त को उदात्त स्वर करने का विधान है।,अत्र इञ्प्रत्ययस्य ञिदित्त्वात्‌ ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इति सूत्रेण आद्युदात्तत्वे प्राप्ते प्रकृतवार्तिकेन अत्र अन्तस्य उदात्तस्वरः विधीयते। पाणिनीय शिक्षा में कहा है - शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां चयः।,पाणिनीयशिक्षायाम्‌ उक्तम्‌ - शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां चयः। स यतिथीं तत्स॒मां परिदिदेष ततिथीं समां नावमुपकाल्प्योपासांचक्रे स ऽअऔघऽ उत्थिते नावमापेदे तं स मत्स्य उपन्यापुप्लुवे तस्य शुडऱगे नावः पाश प्रतिमुमोच तेनैतमुत्तरं गिरिमतिदुद्राव॥ ५॥,स यतिथीं तत्समां परिदिदेष ततिथीं समां नावमुपकल्प्योपासांचक्रे स औघ उत्थिते नावमापेदे तं स मत्स्य उपन्यापुप्लुवे तस्य शृङ्गे नावः पाशं प्रतिमुमोच तेनैतमुत्तरं गिरिमतिदुद्राव ॥ ५॥ उपनिषद्‌ के अन्तिम अंश में ब्रह्म उपासना का वर्णन है।,उपनिषदः अन्तिमांशे वर्तते ब्रह्मोपासनाया वर्णनम्‌। उसी प्रकार से प्रकृति में भी जीवन्मुक्त दशा में अज्ञान नष्ट होता है तो अज्ञान के संस्कार नष्ट नहीं होते है।,प्रकृते अपि जीवन्मुक्तदशायाम्‌ अज्ञानं नश्यति चेत्‌ अपि अज्ञानसंस्काराः न नश्यन्ति। और वह समास अव्ययीभावसंज्ञक होता है।,स च समासः अव्ययीभावसंज्ञकः भवति। अग्निष्टोम याग में उद्गाता मण्डप में औदुम्बर की शाखा का पाठ करता है।,अग्निष्टोमयागे उद्गाता मण्डपे औदुम्बरस्य शाखाया उच्छ्रयणं करोति। “तद्धिलेब्वचामादेः'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""तद्धितेष्वचामादेः "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" 3. धर्मराजाध्वरीन्द्र के मत मे लक्षणा किसे कहते हैं?,३. धर्मराजाध्वरीन्द्राणां मते लक्षणा नाम किम्‌? उर्वी शब्द का क्या अर्थ है?,उर्वीशब्दस्य कः अर्थः। जैस दीपक प्रकाश में अन्धकार में विद्यमान घट विषयी कृत होकर घट का नाश करता है।,यथा- प्रदीपस्य आलोकः अन्धकारे विद्यमानं घटं विषयीकृत्य अन्धकारं नाशयति। देवाँ यह रूप कैसे होता है?,देवाँ इति रूपं कथं स्यात्‌? अग्न आर्यां हि वीतये' इन दोनों मन्त्रों का प्रयोग छन्द में देखते है।,अग्न आर्यां हि वीतये ' इति द्वयोः मन्त्रयोः प्रयोगः छन्दसि दृश्यते। श्रवण तथा मनन के बाद निदिध्यासन किया जाता है।,श्रवणमननयोः अनन्तरं निदिध्यासनं क्रियते। अत: यह पद भी प्रातिपदिकात्‌ का विशेषण होता है।,अतः इति पदमपि प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। परमात्मा अपरोक्षस्वप्रकाश स्वरूप होता है।,परमात्मा अपरोक्षस्वप्रकाशस्वरूपः भवति। हृदय वृत्ती का अच्छे रूप से प्रकट करने के लिए वरुण सूक्तों का अनुशीलन करना विशेष रूप से सहायक होता है।,हृदयवृत्तीनां सम्यक्‌ प्रकटनाय वरुणसूक्तानाम्‌ अनुशीलनं विशेषरूपेण सहायकः भवति। अज्ञान अनादिकाल से विद्यामान होता है तो भी ब्रह्म के उदय होने से नष्ट हो जाता है।,अज्ञानम्‌ अनादिकालात्‌ विद्यमानम्‌ अस्ति चेद्‌ अपि ब्रह्मज्ञानस्य उदयेन नष्टं भवति। इस सूत्र से अनुदात्तस्वर होता है।,अनेन सूत्रेण अनुदात्तस्वरः विधीयते। चञ्चा के समान पुरुष भी चञ्चा ही होता है।,चञ्चासदृशः पुरुषः अपि चञ्चा इति भवति। यह मन ही मनोमय कोश होता है।,एतत्‌ मन एव मनोमयकोशः भवति। वेदान्त उपनिषद्‌ को कहते है।,वेदान्तो नाम उपनिषद्‌। किस प्रकार से तो कहते हैं कि काम प्रवर्तक तथा प्रेरक होता है।,"कुतः इति चेद्‌ उच्यते यत्‌ कामः प्रवर्तकः, प्रेरकः।" भूतों के लिए।,भूतानाम्‌। अनन्त सीमा वाले होते हैं।,अनेकानर्थशतसहस्रसङ्कुलाः सन्ति। शास्त्रीय अनुदात्त की यदि विवक्षा होती तो वहाँ सम्बन्ध अर्थ में षष्ठी का उच्चारण होता है यह विशेष है।,शास्त्रीयम्‌ अनुदात्तं यदि विवक्षितं स्यात्‌ तर्हि तत्र सम्बन्धार्था षष्ठी उच्चारणीया इति विशेषः। उपरति का दूसरा अर्थ भी शास्त्रज्ञों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।,उपरतेः अपरोऽप्यर्थः शास्त्रकृद्किः प्रतिपाद्यते। इन दोनों में नाम मात्र भेद होता है।,एतयोः भेदो नाममात्रः। शतपथ ब्राह्मण में भी 33 देवों को स्वीकृत किया गया है।,शतपथब्राह्मणेऽपि त्रयस्त्रिंशद्देवाः इति स्वीकृतम्‌। जीरदानू इसका विग्रह और समास लिखो।,जीरदानू इत्यस्य विग्रहं समासं च लिखत। इसलिए ध्यानयोग का तथा भक्तियोग का मानस व्यापार रूप में उपासना के अन्तर्भाव होता है।,इत्यतः ध्यानयोगस्य भक्तियोगस्य च मानसव्यापाररूपे उपासने अन्तर्भावः भवति। कालिदास के कथन से भी इस कथन की पुष्टि होती है।,कालिदासस्य कथनेन अपि अस्य कथनस्य पुष्टिः भवति। सामान्य अप्रयोग में (सामान्याप्रयोगे) वचन से पुरुष व्याघ्र इव शूर इस विग्रह में उपमान उपमेय साधारण धर्म के शौर्य के प्रयोग से प्रस्तुतसूत्र से समास नहीं होता है।,सामान्याप्रयोगे इति वचनात्‌ पुरुषो व्याघ्र इव शूर इति विग्रहे उपमानोपमेयसाधारणधर्मस्य शौर्यस्य प्रयोगात्‌ प्रस्तुतसूत्रेण न समासः । "अतः - इससे, ज्यायान्‌ = अतिशय से और अधिक, पूरुषः = ब्रह्माण्डनायक।","अतः अस्मात्‌, ज्यायान्‌= अतिशयेन अधिकः च, पूरुषः= ब्रह्माण्डनायकः।" चान्द्रायण भी एक प्रायश्चित है।,चान्द्रायणम्‌ एकं प्रायश्चित्तम्‌। अर्थात्‌ विष्णु ने तीन पैर के द्वारा सभी भुवन अर्थात्‌ रचित जगत्‌ को सम्पूर्ण रूप से अतिक्रमण करते है।,अर्थात्‌ विष्णुः त्रीभिः पादप्रक्षेपैः सर्वाणि भुवनानि अर्थात्‌ सृष्टं जगत्‌ समग्रम्‌ अतिक्रामति। "अन्वय - यस्मात्‌ पुरा किञ्चन न जातम्‌, यः एव विश्वा भुवनानि आबभूव, षोडशी प्रजापतिः प्रजया संरराण - त्रीणि ज्योतींषि सचते॥ ५ ॥","अन्वयः - यस्मात्‌ पुरा किञ्चन न जातम्‌, यः एव विश्वा भुवनानि आबभूव, षोडशी प्रजापतिः प्रजया संरराण - त्रीणि ज्योतींषि सचते॥ ५॥" "शिव, शङ्कर, मयस्कर, शम्भु, और मयोभव उसके कल्याणवाचक शाब्द हैं।","शिवः, शङ्करः, मयस्करः, शम्भुः, मयोभवः चेति तस्य कल्याणवाचकशब्दाः इति।" भूमि पर अर्जित किया गया कर्मभोग के लिए अन्य लोकों का कारण है।,भूम्याम्‌ उपार्जितकर्मभोगार्थत्वात्‌ इतरलोकानां तत्कारणत्वम्‌। क्व॑ वोऽश्वाः यहाँ पर किसके स्थान में एकादेश है - (क) उदात्त उदात्त का (ख) उदात्त अनुदात्त का (ग) उदात्त स्वरित का (घ) स्वरित उदात्त का क्वाव॑रं मरुतः यहाँ पर किसके स्थान में एकादेश है - (क) उदात्त उदात्त का (ख) उदात्त अनुदात्त का (ग) उदात्त स्वरित का (घ) स्वरित उदात्त का स्वरितो वानुदात्ते पदादौ' इस सूत्र में किस प्रकार की विभाषा है?,क्व॑ वोऽश्वाः इत्यत्र कयोः स्थाने एकादेशः - (क) उदात्तादात्तयोः (ख) उदात्तानुदात्तयोः (ग) उदात्तस्वरितयोः (घ) स्वरितोदात्तयोः क्वाव॑रं मरुतः इत्यत्र कयोः स्थाने एकादेशः - (क) उदात्तादात्तयोः (ख) उदात्तानुदात्तयोः (ग) उदात्तस्वरितयोः (घ) स्वरितोदात्तयोः 'स्वरितो वानुदात्ते पदादौ' इत्यस्मिन्‌ सूत्रे कीदृशी विभाषा वर्तते ? कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्‌ शतं समाः। २५०० सौ वि. पूर्व।,कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्‌ शतं समाः| २५०० वि पूर्वशतकम्‌। किस प्रकार से तो कहते हैं कि असम्भव होने से।,कस्मादिति चेत्‌ असम्भवादेव। "व्याख्या - हे पासों तुम्हारे दल में जो प्रधान है, सेनापति है अथवा राजा है, उसको में अपनी दसों अगुलियाँ जोडकर प्रणाम करता हूँ।",व्याख्या - हे अक्षाः वः युष्माकं महतो गणस्य संघस्य यः अक्षः सेनानीः नेता बभूव भवति व्रातस्य च । गणद्रातयोरल्पो भेदः । राजा ईश्वरः प्रथमः मुख्यो बभूव तस्मै अक्षाय कृणोमि अहमञ्जलिं करोमि । अमिनाः - मी-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में अमिना: यह रूप बनता है।,अमिनाः - मी-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने अमिनाः इति रूपम्‌। "तीन-कौथुमीय, राणायनीय, और जैमिनीय।","तिस्रः। कौथुमीया, राणायनीया, जैमिनीया च।" दान स्तुति का उल्लेख कहाँ है?,दानस्तुतीनाम्‌ उल्लेखः कुत्र वर्तते? "ब्रह्म में ही उसकी स्थिति होती है, इस प्रकार से दृढ अवबोध उत्पन्न होता है।",ब्रह्मणि एव तस्य स्थितिर्भवतीति दृढावबोधः जायते। तो फिर वह आत्मा क्या है यह चिन्तन का विषय है।,तर्हि स आत्मा क इति चिन्तनीयमस्ति। “तृजकाभ्यां कर्तरि”' ( 2.2.15 ) सूत्रार्थ-कर्तृ अर्थक दो तृजक प्रत्यय तदन्त सुबन्त के साथ षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।,तृजकाभ्यां कर्तरि॥ (२.२.१५) सूत्रार्थः - कर्त्र्थकौ यौ तृजकौ प्रत्ययौ तदन्तेन सुबन्तेन सह षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति। और उसका फिर से जन्ममरणादि होता है।,तस्य तु पुनः जन्ममराणादिकं न भवति। अपितु पूर्ववर्ण को अनुनासिक आदेश होता है।,अपि तु पूर्ववर्णस्य अनुनासिकादेशः भवति। अनेक राजकर्म विषय सूक्त भी यहाँ प्राप्त होते है।,विवधराजकर्मविषयकाणि अपि सूक्तानि अत्र प्राप्यन्ते। इसके बाद अतः यहाँ पर भी येन विधिरतदन्तस्य इस सूत्र से तदन्तविधि होत है।,ततश्च अतः इत्यत्रापि येन विधिस्तदन्तस्य इति सूत्रेण तदन्तविधिः भवति। 4. उपासना कर्म का हेतु क्या होता है?,४.उपासना कर्महेतुः कः भवति। "उसका ही वर्णन इस मन्त्र में कहा गया है की यह अग्निप्रकाश से युक्त, यज्ञों का रक्षक, कर्मफल का बार-बार स्मरण कराने वाला, यज्ञ से अपने स्थान में और यज्ञगृह में वृद्धि को प्राप्त करता है।","तदेव अस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते यत्‌ अयम्‌ अग्निः दीप्तियुक्तः, यज्ञानां रक्षकः, कर्मफलानां पुनः पुनः द्योतकः स्मारकः, यज्ञे स्वस्थाने यज्ञगृहे वर्धमानश्च।" मत्स्यवचन-इस जल प्रलय से मैंने तुम्हारी रक्षा की है।,मत्स्यवचनम्‌ - अपीपरं वै त्वा पालतवानस्मि त्वाम्‌। "` अडऱ्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि' अर्थात्‌ जिससे किसी भी वस्तु के स्वरूप ज्ञान में सहायता प्राप्त होती है, उसको अङ्ग कहते हैं।",'अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि' अर्थाद्‌ येन कस्य अपि वस्तुनः स्वरूपज्ञाने साहाय्यं प्राप्यते तद्‌ अङ्गम्‌ इति कथ्यते। उत्पन्न होने पर वे सारे प्राणियों के अधीश्वर थे।,स च जातः जातमात्र एव एकः अद्वितीयः । महाव्रत अनुष्ठान में विहित विधानों का वर्णन कहाँ है?,महाव्रतानुष्ठानेन विहितानां विधानानां वर्णनं कुत्र अस्ति? लौकिक रूप तो जनयामास ही है।,लौकिके तु जनयामास इत्येवं रूपम्‌। पुण्यातिशय से योग्यगुरु का लाभ होता है।,योग्यगुरुलाभस्तु पुण्यातिशयाद्‌ भवति। सरलार्थ - जब देवों ने यज्ञ से उत्पन्न पुरुषरूप पशु को बाँधा तब उस मानस याग की सप्त परिधियां और एकविंशत (२१) समिधाएँ बनाई।,सरलार्थः- यदा देवाः यज्ञात्‌ उत्पन्नं पुरुषपशुं अबद्धनन्‌ तदा तस्य सप्त परिधयः एकत्रिंशत्‌ समिधयः च निर्मिताः। "अन्वय - या अग्रे अर्णवे सलिलम्‌ अधि आसीत्‌ यां मनीषिणः मायाभिः अन्वचरन्‌, यस्याः पृथिव्याः सत्येन आवृतम्‌, अमृतं हृदयं परमे व्योमन्‌ सा भूमिः न बलं उत्तमे राष्ट्रे दधातु।","अन्वयः- या अग्रे अर्णवे सलिलम्‌ अधि आसीत्‌ यां मनीषिणः मायाभिः अन्वचरन्‌, यस्याः पृथिव्याः सत्येन आवृतम्‌, अमृतं हृदयं परमे व्योमन्‌ सा भूमिः न बलं उत्तमे राष्ट्रे दधातु।" "“अव्ययी भावेशरत्‌ प्रभृतिभ्यः'', “अनश्च'' इस अव्ययीभावसमासान्त का टच्‌ प्रत्यय विधायक दोनों सूत्रों की व्याख्या की गई है।","""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"", ""अनश्च"" इति अव्ययीभावसमासान्तस्य टच्प्रत्ययस्य विधायकं सूत्रद्वयं व्याख्यातम्‌।" ये पद समास के अवयव होते हैं।,एतानि पदानि समासस्य अवयवाः सन्ति। अब प्रश्‍न करते हैं की यह जीव कौन है तथा अवस्थाएँ कौन-कौन सी होती हैं।,कोऽयं जीवः? अवस्थाश्च काः? स्वप्न के समान जाग्रत होने पर भी मन सभी का सर्जन करता है।,स्वप्नवत्‌ जाग्रत्यपि मन एव सर्व सृजति। आचार्य का वंश वर्णन है।,आचार्यस्य वंशवर्णनम्‌ अस्ति। विद्वान पुरुषो के उपदेश ही शब्द प्रमाण है - ` आप्तोपदेशः शब्दः इति।,आप्तपुरुषाणाम्‌ उपदेशः हि शब्दप्रमाणम्‌ - 'आप्तोपदेशः शब्दः' इति। यद्यपि गुरुत्व की दृष्टि से इन्द्र से बाद में ही अग्नि का स्थान वैसे भी यज्ञप्रधान वेद का प्रत्येक मण्डल के आरम्भ में वह सम्बोधन के विषय को प्राप्त करता है।,यद्यपि गुरुत्वदृष्ट्या इन्द्रात्‌ परमेव अग्नेः स्थानं तथापि यज्ञप्राधान्यात्‌ वेदस्य प्रत्येकमण्डलारम्भे स सम्बोधनविषयताम्‌ एति। न केवल जो आत्मा तथा अनात्मा के विवेक को जानने वाला विद्वान्‌ होता है वह शरीरादिविलक्षण परमार्थ आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है।,न किन्तु यो आत्मानात्मविवेकज्ञः विद्वान्‌ भवति सः शरीरादिविलक्षणं परमार्थम्‌ आत्मस्वरूपम्‌ अवगच्छति। ..................... और मुद्रित है।,... मुद्रितपुटानि च सन्ति। उसी प्रकार से इस संसार में देश काल में यह वस्तु सम्भव नहीं हैं इस प्रकार को दृढ़ भावना होती है।,तथा च लोकेऽस्मिन्‌ देशे काले च इदं वस्तु स्वरूपत एव न सम्भवति इति दृढभावितम्‌। जिस प्रकार से वायु के द्वारा मेघ लाये जाते है तथा उसी के द्वारा उनका लय हो जाता है।,वायुना आनीयते मेघः तथैव लीयते च पुनः। "व्याख्या - मैं पत्थर से पीसे जाने वाले सोम, अथवा शत्रूओं को मारने वर्तमान दिव्य देवों को सोम का पान कराती हूँ।",व्याख्या- आहनसमाहन्तव्यमभिषोतव्यं सोमं यद्वा शत्रूणामाहन्तारं दिवि वर्तमानं देवतात्मानं सोममहमेव बिभर्मि। अतः इस वार्तिक से उस षष्ठ्यन्त से विहित पद के अन्त को उदात्त स्वर का विधान है।,अतः अनेन वार्तिकेन तस्य षष्ठ्यन्ततया विहितस्य पदस्य अन्तस्य उदात्तस्वरः विधीयते। वह हिरण्यगर्भ धनेश्वर है।,स हिरण्यगर्भः धनेश्वरः। "हे रूद्र तुम्हारे क्रोध को नमस्कार, तुम्हारे आखो को नमस्कार और तुम्हारे बाहुओं को नमस्कार। रुद्रः - रुद्‌ दुःख को द्रावयति इति रुद्रः।","हे रुद्र, तव क्रोधाय नमः, तव बाणाय च नमः, पुनः ते हस्ताभ्यां नो नमः। रुद्रः- रुद्‌ दुःखं द्रावयति इति रुद्रः।" उसको 'चितः' इस सूत्र से अच्‌-प्रत्ययान्त देव शब्द का अन्तिम अच्‌ अकार को उदात्त स्वर की प्राप्ति होती है।,तेन 'चितः' इति सूत्रेण अच्‌-प्रत्ययान्तस्य देवशब्दस्य अन्त्यस्य अचः अकारस्य उदात्तस्वरः विधीयते। अभि शब्द में प्राप्त उदात्त का “उपसर्गश्चाधिवर्जम्‌' इस सूत्र से निषेध होता है।,अभिशब्दे प्राप्तस्य उदात्तस्य 'उपसर्गश्चाधिवर्जम्‌' इति सूत्रेण निषेधः भवति। उसी प्रकार उपासना करने वाले के ब्रह्म में लगे हुए चित्त की शान्ति होती है।,तद्वत्‌ चित्तस्य उपास्ये ब्रह्मणि लग्नता चेत्‌ चित्तं शान्तमति अनुमीयते। वैसे वेद में कहा गया है - “त्वमग्न इन्द्रो वृषभः ... त्वं विष्णुः ... त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि'' इति।,"तथाहि आम्नातं - ""त्वमग्न इन्द्रो वृषभः .. त्वं विष्णुः ... त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि"" इति।" """अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इस सूत्र का उदाहरण क्या है।","""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" अतः यह समास चतुर्थी तत्पुरुष कहा जाता है।,अतः अयं समासः चतुर्थीतत्पुरुषः इत्यभिधीयते। इगन्तकालकपालभगालशरावेषु द्विगो इस सूत्र से इगन्तकालकपालभगालशरावेषु और द्विगौ इन दोनों पदों की यहाँ अनुवृति है।,इगन्तकालकपालभगालशरावेषु द्विगौ इति सूत्रात्‌ इगन्तकालकपालभगालशरावेषु इति द्विगौ इति च पदद्वयम्‌ अत्र अनुवर्तते। प्राणायाम के तीन अङ्ग होते है।,प्राणायामस्य त्रीणि अङ्गानि सन्ति। इन्द्र का स्वरूप इदि-धातु से निष्पन्न इन्द्र शब्द परमेश्वर वाचक है।,इन्द्रशब्दः इदि-धातोः निष्पन्नः इन्द्रशब्दः परमेश्वरवाचकः। जैसी फलप्राप्ति के लिए तुझे उद्देश्य करके यज्ञ करता हूँ वैसा ही फल मुझे प्राप्त होवें।,यस्य फलस्य लाभाय त्वाम्‌ उद्दिश्य जुहुमः अस्माकं यथा तस्य फलस्य लाभः भवेत्‌। कैसे तो फिर हे अग्ने यह और अङ्गिरः यह सम्बोधन में है।,कथं तर्हि अग्ने इति अङ्गिरः इति च सम्बोधने। "तौद, जालज, ब्रह्मवेद, देवदर्श, आदि संहिता तो केवल नाम मात्र से ही प्रसिद्ध है।",तौद-जालज- ब्रह्मयद-देवदर्शादि-संहिताः तु नाममात्रेण एव ख्याताः सन्ति। व्योमन्‌ - व्योम्नि इसका यह वेदिक रूप है।,व्योमन्‌- व्योम्नि इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। जिससे अज्ञान का नाश होने पर अज्ञान कार्यत्व से स्वयं भी नष्ट हो जाती है।,"किञ्च, अज्ञानस्य नाशे सति अज्ञानकार्यत्वात्‌ स्वयम्‌ अपि नश्यति।" इन में ब्रह्म साक्षात्कार के द्वारा अशेष प्रपञ्च का विनाश आत्यन्तिक प्रलय कहलाता है।,एतेषु ब्रह्मसाक्षात्कारेण अशेषप्रपञ्चविनाशः आत्यन्तिकप्रलयः इत्युच्यते। याज्ञवल्क्य शिक्षा में किसका विवेचन किया है?,याज्ञवल्क्यशिक्षायां केषां विवेचनं वर्तते। उसके लिए वर्षा की रचना करके शीघ्र जीवन प्रदान करो।,तदर्थं वृष्टिम्‌ अवसृजतम्‌ अवाङ्गुखं प्रेरयतं हे जीरदानू क्षिप्रदानौ। लघु बालकों को कुछ भी देते है तो यदि कुछ दिया जाता है तथा प्रतिदान के रूप में कुछ भी नहीं मांगा जाता है।,लघुबालकान्‌ प्रति किञ्चित्‌ दीयते चेत्‌ यथा प्रतिदानरूपेण किमपि न याच्यते। दीदिविम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,दीदिविम्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? अन्य पदार्थ है प्रधान जहाँ वह अन्यपदार्थ प्रधान है।,अन्यपदार्थः प्रधानो यत्र सः अन्यपदार्थप्रधानः। यहाँ “समर्थः पदविधि'' इस सूत्रवर्णन अवसर में वृत्तिविग्रह आदि पारिभाषिक शब्दों का विवेचन किया गया।,"अत्र ""समर्थः पदविधिः"" इति सूत्रवर्णनावसरे वृत्तिविग्रहादिपारिभाषिकानां शब्दानां विवेचनं कृतम्‌।" (अचाम्‌ निर्धारणे षष्ठी) औरा सूत्र है जित्‌ और गित्‌ तद्धित पर में अचों में आदि अच की वृद्धि होती है।,"( अचाम्‌ निर्धारणे षष्ठी ) एवं च सूत्रार्थः भवति - ""ञिति णिति च तद्धिते परे अचाम्‌ आदेः अचो वृद्धिः भवति ।" जुआरी क्या बोलता हुआ मण्डली में प्रवेश करता है।,कितवः किं पृच्छन्‌ सभाम्‌ एति । सूत्र का अर्थ- शकटि शकटी शब्दों का प्रत्येक अक्षर क्रम से उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- शकटिशकट्योः शब्दयोः अक्षरम्‌ अक्षरं पययेण उदात्तो भवति। शतु: और अनुम: ये पञ्चम्यन्त पद है।,शतुः इति अनुमः इति च पञ्चम्यन्तं पदम्‌। धर्म तथा अधर्म दोनों ही फलदान में नियत होते है।,धर्मः अधर्मो वा फलदाने नियतौ स्तः। परिशब्द से होता आदि की व्याप्ति की विवक्षा है।,परिशब्देन होत्रीयादिधिष्ण्यव्याप्तिर्विवक्षिता। "इनके क्रमशः उदाहरण है- कल्याणी पञ्चमाः, अन्तर्लोमः।",कल्याणीपञ्चमाः अन्तर्लोमः इत्यादीनि क्रमशः उदाहरणानि। अत: सूत्र का अर्थ होता है- “रूढ़ी से प्रशंसावाचक समानाधिकरण सुबन्तों से जातिवाचक सुबन्त को समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ - "" रूढ्या प्रशंसावाचकैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः जातिवाचकं सुबन्तं समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति "" इति ।" कोशों में जीव किस प्रकार से तन्मय होता है?,कोशेषु जीवः तत्तन्मयो भवति कुतः ? इस प्रकार बड़े जल प्रलय होने पर वह मछली आई।,एवं महति प्लावने सति स मत्स्यः आगतः। "48. अप्‌, इच्‌, डच्‌, षच्‌, कप्‌, ये समासान्त पाँच प्रत्यय हैं।","४८. अप्‌, इच्‌, डच्‌, षच्‌, कप्‌ इति पञ्च समासान्ताः प्रत्ययाः भवन्ति।" उसी ही अर्थ में लृट्‌ लकार है।,तस्मिन्नेव अर्थ लृट्लकारः अस्ति। "जैसे अन्धा जाते समय में यदि खम्भे से आघात को प्राप्त करता है, तो वह दोष उस अन्धे की दृष्टिहीनता है, स्तम्भ का कोई दोष नहीं है - “नायं स्थानोरपराधो यदेनम्‌ अन्धो न पश्यति'।",यथा अन्धः गमनसमये यदि स्तम्भे आघातं प्राप्नोति तर्हि सः दोषः तस्य अन्धस्य दृष्टिहीनतायाः न तु स्तम्भस्य - 'नायं स्थानोरपराधो यदेनम्‌ अन्धो न पश्यति'। "इसके अनेक अर्थ है, कुल परम्पपरा विनाश से रहित हो इस प्रकार एक अर्थ देखा जाता है।",बहुत्र अस्यार्थः संततिपरम्पपरायाः उच्छेदस्य राहित्यम्‌ इति दृश्यते। इस प्रकार से बहुत जन्मों के बाद कभी उद्बोध सम्भव होता हे।,एवं बहु जन्मनः परं कदाचित्‌ उद्बोध सम्भवति । सूत्र अर्थ का समन्वय- अभ्य॑भि इस उदात्त स्थान में यह यण्‌ नियम का उदाहरण है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अभ्य॑भि इति उदात्तस्थाने विहितस्य यणः उदाहरणम्‌। इस कारण से ही अक्षैर्मा दीव्यः' इस उदाहरण में अक्ष शब्द के आदि स्वर अकार को उदात्त नहीं होता है।,अस्मात्‌ एव कारणात्‌ अक्षैर्मा दीव्यः इत्युदाहरणे अक्षशब्दस्य आदेः स्वरस्य अकारस्य उदात्तत्वं नास्ति। गुणमुक्तवान इस विग्रह में “ कृत्यल्युटोबहुलम्‌'' यहाँ बहुल ग्रहण से कर्ता अर्थ में भूतकाल में ल्युट्‌ प्रत्यय होने पर गुणवचनशब्द निष्पन्न होता है।,"गुणमुक्तवान्‌ इति विग्रहे ""कृत्यल्युटो बहुलम्‌"" इत्यत्र बहुलग्रहणात्‌ कर्त्रर्थे भूतकाले ल्युटि गुणवचनशब्दो निष्पद्यते।" धुर-शब्दान्त समास का समासान्त में उदाहरण है राज्ञः धूः राजधुरा।,धुर्‌- शब्दान्तसमासस्य समासान्ते उदाहरणं राज्ञः धू: राजधुरा इति। इस प्रकार से बार-बार शिशु को लाना दमन या दम कहलाता है।,इत्थम्‌ गतस्य शिशोः आनयनम्‌ दमनम्‌ दमः वा कथयितुम्‌ शक्यते। यहाँ पर जैस गडऱगापद प्रवाहरूप स्वार्थ का परित्याग करके स्वसम्बन्ध तीर को लक्षित करते है वैसे ही तत्पद परोक्षत्वसर्वक्षत्वादि विशिष्ट स्वार्थ का परित्याग करके त्वं पदार्थ अर्थात्‌ जीव चैतन्य को ही लक्षित करते है।,अत्र यथा गङ्गापदं प्रवाहरूपं स्वार्थं परित्यज्य स्वसम्बद्धं तीरं लक्षयति तथैव तत्पदं परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टं स्वार्थं परित्यज्य त्वम्पदार्थमर्थात्‌ जीवचैतन्यं लक्षयतु। सूत्र का अवतरण- उदात्त स्वर के स्थान में विहित जो यण आदेश उससे पूर्व नदी संज्ञक और शस आदि विभक्ति को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र को रचना कीौ।,सूत्रावतरणम्‌- उदात्तस्वरस्य स्थाने विहितः यः यणादेशः तस्मात्‌ पूर्वं नदीसंज्ञकस्य शसादीनां विभक्तीनां च उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। निरुपाधिद्वेषविषयीभूत चित्तवृत्ति दुख होती है।,निरुपाधिद्वेषविषयीभूता चित्तवृत्तिः दुःखम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- यूपाय दारु इस विग्रह में यूपदारु यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- यूपाय दारु इति विग्रहे यूपदारु इति रूपम्‌। 12. स्थूल विषयोपभोग कब होता है?,१२ स्थूलविषयोपभोगः कदा भवति? "भाषा विद्वानों की यह मान्यता है की संस्कृत भाषा जैसे विकसित होती वैसे ही उसकी भाषा में रेफ के स्थान में लकार का प्रयोग बढ़ता गया है, जैसे जल वाचक के सलिल-शब्द का प्राचीन रूप सरिर ऐसा पद गोत्र मण्डलों में प्रयुक्त है।","भाषाविदामियं मान्यता अस्ति यत्‌ संस्कृतभाषा यथैव विकसिता भवति तथैव तस्यां भाषायां रेफस्य स्थाने लकारस्य प्रयोगो वर्द्धते, यथा जलवाचकस्य सलिल-शब्दस्य प्राचीनरूपं सरिर इति पदं गोत्रमण्डलेषु प्रयुक्तम्‌ अस्ति।" मन सङ्कल्प विकल्पात्मिका अन्तः करण वृत्ति होती है।,मनो नाम सङ्कल्पविकल्पात्मिका अन्तःकरणवृत्तिः भवति। वो चार वाक्य महावाक्य कहलाते है।,तानि वाक्यानि महावाक्यानि कथ्यन्ते। कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्‌ चार अध्यायों में विभक्त है।,कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद्‌ चतुर्ष अध्यायेषु विभक्ता अस्ति। इस ग्रन्थ की हलायुध कृत 'मृतसञ्‌जीवनी' व्याख्या अत्यन्त प्रसिद्ध है।,अस्य ग्रन्थस्य हलायुधकृता 'मृतसञ्जीवनी' व्याख्या अतीव प्रसिद्धा वर्तते। परन्तु एकलिङ्गक पदार्थ कौन है?,परन्तु कः एकलिङ्गकः पदार्थः? जैसे दर्पण विनष्ट होता है तो दर्पणस्थ मुखप्रबिम्ब बिम्ब के साथ अभिन्न होता है।,यथा- दर्पणः विनष्टः चेत्‌ दर्पणस्थः मुखप्रतिबिम्बः बिम्बेन साकम्‌ अभिन्नः भवति। सूत्र का अर्थ- अभि शब्द को छोड़कर उपसर्ग आद्युदात्त होते है।,सूत्रार्थः- अभिशब्दं वर्जयित्वा उपसर्गाः आद्युदात्ताः स्युः। मेरुदण्ड के निम्नदेश में प्रजननशक्ति आधारभूत मूलाधार चक्र में होती है।,मेरुदण्डस्य निम्नदेशे प्रजननशक्तेराधारभूतं मूलाधारचक्रं विद्यते। इव शब्द के साथ सुबन्त की समास संज्ञा होती है।,इवेति शब्देन सह सुबन्तं समाससंज्ञं भवति। "कृष्ण यजुर्वेद की शाखा कृष्ण यजुर्वेद की आजकल चार शाखा प्राप्त होती है - (क) तैत्तिरीय संहिता- यह प्रधान शाखा है, यहाँ सात खण्ड है।","कृष्णयजुर्वेदस्य शाखा कृष्णयजुर्वेदस्य सम्प्रति चतस्रः शाखाः प्राप्यन्ते - क. तैत्तिरीयसंहिता- इयं प्रधानशाखा, अत्र सप्तखण्डाः सन्ति|" "वृषः आदि में है जिसके वह वृषादि, उन वृषादि का समूह।","वृषः आदिः यस्य स वृषादिः, तेषामिति।" वस्तुओं की सिद्धि के लिये क्या क्या आवश्यक होता है?,वस्तुनः सिद्धये किं किम्‌ आवश्यकं भवति? लेकिन यदि नित्यानित्यवस्तु विवेक इहामुत्रार्थभोगविराग शमादिसाधन तथा मुमुक्षुत्व नहीं होते हैं तो ब्रह्मजिज्ञासा भी सम्भव नहीं होती है।,परन्तु यदि नित्यानित्यवस्तुविवेकः इहामुत्रार्थभोगविरागः शमदमादिसाधनसम्पत्‌ मुमुक्षुत्वं चेति एतन्नास्ति तर्हि ब्रह्मजिज्ञासा न सम्भवति। अतः कहा जाता है “प्रायेण अन्यपदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास होता है।,अत एवोच्यते प्रायेण अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः इति। वासनाएँ बीज रूप में अवितिष्ठित रहती हैं।,वासना बीजरूपेण अवतिष्ठते। वह षष्ठी पद प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पद है।,तत्र षष्ठी इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। विदधातु से औणादिक थप्रत्यय।,विदधातोः औणादिकः थप्रत्ययः। रमणीय धन का दाता और धारण करने वाला।,रमणीयानां धनानां दातृतमम्‌। ईश आदि दस उपनिषदों के मध्य में केन उपनिषद्‌ का दूसरा स्थान मानते हैं वेदान्त विद्वान।,ईशादीनां दशानाम्‌ उपनिषदां मध्ये केनोपनिषदः स्थानं द्वितीयम्‌ आमनन्ति वेदान्तविदः। वार्तिक की व्याख्या - यह वार्तिक `न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इस सूत्र में पढ़ा हुआ है।,वार्तिकव्याख्या - इदं वार्तिकं न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः इति सूत्रे पठितम्‌। "इसके समाधान रूप में कह सकते हैं, की मनुष्य एक ही काल में एक और अनेक दोनों रूप नहीं हो सकते है।",एतस्य समाधानरूपेण वक्तुं शक्यते यत्‌ मनुष्यः एकस्मिन्नेव काले एकः बहुः इति उभयरूपेण भवितुं न शक्नोति। "सभी प्रकार के सोमयाग की प्रकृति हि अग्निष्टोम याग है, वह ज्योतिष्टोम भी कहलाता है।","सर्वविधसोमयागस्य प्रकृतिः हि अग्निष्टोमयागः, स ज्योतिष्टोमः इत्यपि उच्यते।" अकार के नीचे विद्यमान रेखा अकार के अनुदात्त होने का बोध कराती है।,अकारस्य नीचैः विद्यमाना रेखा अकारस्य अनुदात्तत्वं बोधयति। उसके बाद पाप शब्द का पूर्वनिपात होने पर सु प्रत्यय का लोप होने पर पापनापित शब्द से सु प्रत्ययप्रक्रिया कार्य में पानामितः रूप निष्पन्न होता है।,ततः पापशब्दस्य पूर्वनिपाते सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ पापनापितशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये पापनापितः इति रूपं निष्पन्नम्‌ । सभी समय में।,दिवेदिवे। उससे यङः पद का ञ्यङन्त से और ष्यङन्त से यह अर्थ होता है।,तेन यङः इति पदस्य ञ्यङन्तात्‌ ष्यङन्तात्‌ च इत्यर्थः भवति। उससे सुमद्रम्‌ यही रूप होता है।,तेन सुमद्रम्‌ इत्येव रूपम्‌। अद्वैत में मुक्ति दो प्रकार की होती है।,अद्वैते मुक्तिः द्विविधा भवति। इस खण्ड में शाकल्य का और माण्डुकेय के मतों का उल्लेख है।,अस्मिन्‌ खण्डे शाकल्यस्य माण्डुकेयस्य च मतानाम्‌ उल्लेखोऽस्ति। अत: उसकी अभ्रान्तियाँ और प्रमाण सिद्ध है।,अतः तद्‌ अभ्रान्तं प्रामाणिकं च इति सिध्यति। "ऋग्वेद-१.२२.२०॥ जहा सज्जन निवास करता है, और पुन जहा मधुसरोवर वहा पर ही विष्णुनिवास करते है।",ऋग्वेद-१.२२.२०॥। यत्र सज्जनाः निवसन्ति पुनश्च यत्र मधुसरोवरः तत्रैव विष्णुः निवसति। विशेष प्रयोजन साधन के लिए द्विगुसमास का “'द्विगुःच'' इससे तत्पुरुषसंज्ञा यहां वर्णित है।,"विशेषप्रयोजनसाधनाय द्विगुसमासस्य ""द्विगुश्च"" इत्यनेनन तत्पुरुषसंज्ञा अत्र वर्णिता।" बिभ्यत्‌ - भीधातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में वैदिक रूप है।,बिभ्यत्‌ - भीधातोः शतृप्रत्यये प्रथमैकवचने वैदिकं रूपम्‌ । इससे दो अच्‌ वाले विशिष्ट तृण और धान्य शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है।,अनेन दुव्यज्विशिष्टानां तृणधान्यानां च शब्दानाम्‌ आदिः स्वरः उदात्तः भवति। कात्यायन मुनि के नाम से प्रख्यात ऋग यजुर्वेद परिशिष्ट में पहले बताये तथ्य को स्वीकार किया हे - “छन्दो भूतमिदं सर्व वाडऱमयं स्याद्‌ विजानतः।,कात्यायनमुनेः नाम्ना प्रख्यातं ऋग्यजुष-परिशिष्टं पूर्वोक्तं तथ्यं स्वीकरोति - “छन्दोभूतमिदं सर्वं वाङ्गयं स्याद्‌ विजानतः। हम यहाँ बहुत से यागों के विषय में जान सकते हैं।,वयम्‌ अत्र बहूनां यागानां विषये ज्ञातुं शक्नुमः। इस विषय को सुलभता से समझ नहीं सकते है।,विषयश्चायं सुलभेन अवगन्तुं न शक्यते। जैसे चींटी शक्कर के एक कण को मुख में रखकर के ले जाती है।,एका पिपीलिका शर्करानिर्मितं पर्वतम्‌ एकं प्राप। अतिसंक्षेप से देवीसूक्त का वर्णन करो।,अतिसंक्षेपेण देवीसूक्तं वर्णयत। सुब्रह्मण्य शब्द का यत्‌ प्रत्ययान्त होने से और उस यत्‌ प्रत्यय के तित्‌ होने से तित्‌ स्वरितम्‌' इस सूत्र से यहाँ अन्त्य अकार को स्वरित स्वर होता है।,सुब्रह्मण्यशब्दस्य यत्प्रत्ययान्तत्वात्‌ तस्य च यत्प्रत्ययस्य तित्त्वात्‌ तित्‌ स्वरितम्‌ इति सूत्रेण अत्र अन्त्यस्य अकारस्य स्वरितस्वरः भवति। सूत्र का अर्थ- बहुव्रीहि समास में संज्ञा विषय में पूर्वपद विश्व शब्द को अन्तोदात्त होता है।,सूत्रार्थः- बहुव्रीहौ विश्वशब्दः पूर्वपदभूतः अन्तोदात्तः स्यात्‌ संज्ञायां सत्याम्‌। "इसका उदाहरण है - गोपायते नः इति, असि सत्यः इति।","अस्य उदाहरणं भवति गोपायते नः इति, असि सत्यः इति च।" 8. विभाय-भीधातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का यह रूप है।,८. विभाय - भीधातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌। और ङि प्रत्यय का इकार सुप्‌ होने से अनुदात्त है।,ङिप्रत्ययस्य इकारश्च सुप्त्वाद्‌ अनुदात्तः। शौनक के शिष्य कौन थे?,शौनकस्य शिष्याः के आसन्‌? टिप्पणी - लौकिक संस्कृत में धातु से पूर्व व्यवधान रहित उपसर्ग का प्रयोग किया जाता है।,टिप्पणी - लौकिकसंस्कृते धातोः अव्यवहितपूर्वम्‌ उपसर्गः प्रयुज्यते। अश्व्यः - अश्वे भवः इस अर्थ में भवेच्छन्दसि इस सूत्र से यत्‌ करने पर प्रथमा एकवचन में अश्व्यः यह रूप है।,अश्व्यः - अश्वे भवः इत्यर्थे भवेच्छन्दसि इति सूत्रेण यति प्रथमैकवचने अश्व्यः इति रूपम्‌। """अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इति, ""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इति ""उपसर्गादध्वनः"" अच्‌ प्रत्यय विधायक सूत्रों की व्याख्या की गई है।","""अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इति, ""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इति ""उपसर्गादध्वनः"" इति च अच्प्रत्ययस्य विधायकं सूत्रं व्याख्यातम्‌।" जो यह विष्णुप्रसिद्ध दिखाई देने वाले अतिविस्तृतलोको में निवास करता हुआ एकही अद्वितीय होता हुआ तीन पैर के द्वारा विशेष रूप से इन लोक का निर्माण किया।,यः विष्णुः इदं प्रसिद्धं दृश्यमानं दीर्घम्‌ अतिविस्तृतं प्रयतं सधस्थं सहस्थानं लोकत्रयम्‌ एकः इत्‌ एक एवाद्वितीयः सन्‌ त्रिभिः पदेभिः पादैः विममे विशेषेण निर्मितवान्‌। इसलिए श्रुतियों में कहा हैं तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन इति।,तथाहि श्रुतिः- तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन इति। सरलार्थ - यहाँ मन्त्र में अग्नि के प्रति कहते है की हे अग्नि अथवा अङिगर तुम हविदान करने वाले यजमान के लिए जो कल्याण करोगे वह वस्तुतः आप का ही सुख साधन है।,सरलार्थः- अत्र मन्त्रे अग्निं प्रति उच्यते यत्‌ हे अग्ने अङ्गिरो वा त्वं हविदानकारिणां यजमानानां कृते यत्‌ कल्याणं करोषि तत्‌ वस्तुतः तवैव सुखसाधनम्‌ अस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय - पचादिगण में देवट्‌- इस शब्द के पाठ से दिव्‌-धातु को ' नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः' इस सूत्र से अच्‌-प्रत्यय करने पर देवशब्द बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः - पचादिगणे देवट्‌-इति शब्दस्य पाठात्‌ दिव्‌-धातोः 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः' इति सूत्रेण अच्‌-प्रत्यये देवशब्दः निष्पद्यते। बुद्धि अन्दर होती है तथा मन उसकी अपेक्षा बाहर होता है यह भी भेद यहाँ पर वाच्य है।,बुद्धिः अन्तः वर्तते तदपेक्षया मनः बहिश्च वर्तते इत्यपि भेदः वाच्यः। उस प्रकार की ऋचाओं का समूह ही ऋग्वेद है।,तादृशीनाम्‌ ऋचां समूह एव ऋग्वेदः। "इस प्रकार के हेतु वचन से पाठकों के अनुष्ठानों के कारण का अपने आप परिचय प्राप्त होता है, तथा समाधन रूपी श्रद्धा से उनकी उन्नति भी होती है।",अनेन प्रकारेण हेतुवचनेन पाठकाननुष्ठानानां कारणस्य स्वतः परिचयो प्राप्यते तथा समधिकायाः श्रद्धाया उदयोऽपि भवति। चक्र टा सह यह अलौकिक विग्रह है।,चक्र टा सह इत्यलौकिकविग्रहः। पुर्‌ शब्दात्त समास के समासान्त में उदाहरण है-विष्णो: पू: इस विग्रह में विष्णुपरम्‌।,पुर्‌शब्दान्तसमासस्य समासान्ते उदाहरणं - विष्णोः पूः इति विग्रहे विष्णुपुरम्‌ इति। क्योंकि ` आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्‌' इस सूत्र से द्रवत्पाणी यह पद अविद्यमानवत्‌ है।,यतो हि 'आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्‌' इति सूत्रेण द्रव्यत्पाणी इति पदम्‌ अविद्यमानवत्‌ अस्ति। तब इन्द्र ने अपने अस्त्र से प्रहार किया।,तदा इन्द्रः स्वायुधेन प्रहृतवान्‌। जैस सुवर्णकुण्डलादि का ज्ञान होने पर उनके उपादान सुवर्ण का भी ज्ञान हो जाता है।,यथा सुवर्णकुण्डलादिज्ञाने सति तदुपादानस्य सुवर्णस्य ज्ञानं भवति। 26.3 ) जीवन्मुक्तिस्वरूपविचार श्रुति तथा स्मृति के वाक्यों में जीवन्मुक्ति के सद्भाव में बहुत से प्रमाण है।,२६.३) जीवन्मुक्तिस्वरूपविचारः श्रुतिस्मृतिवाक्यानि जीवन्मुक्तिसद्भावे प्रमाणानि वर्तन्ते। सूर्य भी अग्नि का अन्य मूर्ति रूप में कीर्ति है।,सूर्योऽपि अग्नेरन्यतमा मूर्तिरिति कीर्त्यते। यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है।,ग्रन्थोऽयम्‌ अष्टसु अध्यायेषु विभक्तः अस्ति। "यद्यपि सु यह सप्तमी बहुवचन में सुषु इसका ही रूप है, फिर भी व्याख्यान से सौ यह पद यहाँ सप्तमी बहुवचनान्त का बोध कराती है।","यद्यपि सु इत्यस्य सप्तमीबहुवचने सुषु इति एव रूपं स्यात्‌, तथापि व्याख्यनात्‌ सौ इति पदमत्र सप्तमीबहुवचनान्तं बोध्यम्‌।" जुह्वति यहाँ पर हु दानादानयोः इस धातु से लट्‌-लकार में प्रथम पुरुष का बहुवचन में झि प्रत्यय करने पर पूर्व के समान श्लु प्रत्यय करने पर पूर्व के समान हवित्व होता है।,जुह्वति इत्यत्र हु दानादनयोः इति धातोः लट्-लकारे प्रथमपुरुषस्य बहुवचने झिप्रत्यये पूर्ववत्‌ श्लुप्रत्यये पूर्ववद्‌ द्वित्वं भवति। फिर भी यहाँ पर च अर्थ अर्थात्‌ समुच्चय अर्थ निपातन से है।,तथापि अत्र चार्थः अर्थात्‌ समुच्चयः अर्थः निपातनाद्‌। मल्लशर्मशिक्षा- इस ग्रन्थ के रचयिता उपमन्य गोत्रीय अग्निहोत्री खगपति महोदय के पुत्र मल्लशर्मा इस नाम का कोई कान्यकुब्जब्राह्मण है।,मल्लशर्मशिक्षा- अस्य ग्रन्थस्य रचयिता उपमन्यगोत्रीयः अग्निहोत्री खगपतिमहोदयस्य पुत्रः मल्लशर्मा इति नामकः कोऽपि कान्यकुब्जब्राह्मणः। ऋग्वेद के प्रथममण्डल में विद्यमान इन्द्रसूक्त में पन्द्रह मन्त्र हैं।,ऋग्वेदस्य प्रथममण्डले विद्यमाने इन्द्रसूक्ते पञ्चदश मन्त्राः सन्ति। उदाहरण - सह हरि इस स्थिति में प्रकृतसूत्र से सह शब्द के स्थान पर स आदेश निष्पन्न होने पर सहरि इससे प्रातिपादिक से सु अव्यय से समास के “अव्ययादाप्सुपः'' इससे सुप्‌ लुक होने पर सहरि पद निष्पन्न हुआ।,"उदाहरणम्‌ - सहहरि इति स्थिते प्रकृतसूत्रेण सहशब्दस्य स्थाने सादेशे निष्पन्नात्‌ सहरि इत्यस्मात्‌ प्रातिपदिकात्सौ अव्ययत्वात्समासस्य ""अव्ययादाप्सुपः"" इत्यनेन सुब्लुकि सहरि इति पदं निष्पन्नम्‌।" "जिस सूर्यमण्डल में मित्रवरुण स्थित है, वह मण्डल हमेशा सत्यावृत होती है।","यस्मिन्‌ सूर्यमण्डले मित्रावरुणयोः अवस्थितिः वर्तते, तन्मण्डलं सदा सत्यावृतं भवति।" सूत्र का अर्थ- (वाच्‌- इत्यादि शब्दों के दोनों वर्ण ही उदात्त हो)।,सूत्रार्थः- (वाच्‌- इत्यादीनां शब्दानाम्‌ उभौ एव वर्णौ उदात्तौ स्तः)। ज्योतिष कितने प्रकार का हे?,ज्योतिषं कतिविधम्‌? 3. विवेकानन्द ने वेदान्तवाक्यों का आश्रय लेकर के ही दर्शनों का प्रचार किया।,"३. वेदान्तवाक्यानि आश्रित्य एव दर्शनप्रचारं कृतवान्‌ विवेकानन्दः, तस्मात्‌।" तृतीय आरण्यक का दूसरा नाम क्या है?,तृतीयारण्यकस्य अपरं नाम किम्‌? यहाँ पर भी ' वासुदेवस्य पुत्रः पशुपतेः पौत्रो नारायणस्य नप्ता रामभद्रस्य पिता महेन्द्रस्य पौत्रः कमलाकस्य प्रपौत्रो देवदत्तो यजते सुत्याम्‌' - इस रूप से मन्त्र में षष्ठ्यन्त से विहित पद का अमुष्य इस पद से ग्रहण किया है।,"अत्रापि 'वासुदेवस्य पुत्रः पशुपतेः पौत्रो नारायणस्य नप्ता रामभद्रस्य पिता महेन्द्रस्य पौत्रः कमलाकस्य प्रपौत्रो देवदत्तो यजते सुत्याम्‌"" - इत्यवंरूपेण मन्त्रे षष्ठ्यन्ततया विहितस्य पदस्य अमुष्य इति पदेन ग्रहणम्‌।" "जब उसका अतिक्रमण करूँगी तो, तब तालाब में मेरी रक्षा करना।",यदा तस्य अतिक्रमणं करिष्यमि तदा गर्तमध्ये मां रक्षय। प्रपाठकों का विभाजन कैसे होता है?,प्रपाठकानां विभाजनं कथं भवति? तेरहवे स्वयं यास्क ही हैं।,त्रयोदशः तु स्वयं यास्क एव अस्ति। "त्वच्‌ सूक्ष्मावरणों को अन्दर की धातु ,नाडी आदि सप्तावरणों को ढककर रखती है।",त्वक्‌ सूक्ष्मावरणम्‌ आन्तरान्धातून्‌ नाड्यादींश्च सप्तावरणानि आवृण्वन्ति। यहाँ पदों का अन्वय है - अदेवनस्य अक्षस्य आदि: उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- अदेवनस्य अक्षस्य आदिः उदात्तः इति। ( ख ) विग्रह-वत्यर्थावबोधक वाक्य विग्रह कहलाता है।,(ख) विग्रहः - वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः। कामना करता हूँ।,कामयामहे। ऋग्वेद के दशममण्डल का एक सौ पच्चीसवाँ सूक्त वाक्‌-सूक्त है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य पञ्चविंशत्यधिकैकशततमं सूक्तं वाक्‌-सूक्तम्‌ अस्ति। जब वह बालक जाने के लिए तैयार होता है तो तब ही माता उसे जाने से रोकती है।,ततश्च यदा स बालः गमनाय उद्युक्तः तदा एव माता तं गमनाद्‌ वारयति। इस प्रकार से अधिकार के लाभ के लिए करने योग्य साधन बहिरङ्ग साधन कहलाते हैं।,एवमधिकारलाभाय कर्तव्यानि साधनानि बहिरङ्गसाधनानि कथ्यन्ते। और मात्र अर्थ में विद्यमान से प्रति के साथ समर्थ सुबन्त को अव्ययीभावसंज्ञा होती है यही सूत्रार्थ है।,"एवं ""मात्रार्थं विद्यमानेन प्रतिना सह समर्थ सुबन्तम्‌ अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति"" इति सूत्रार्थः।" और उसको “विभक्तिविपरिणामेन कुत्सनैः'' इस विशेषण से समानाधिकरणों के द्वारा होता है।,तच्च विभक्तिविपरिणामेन कुत्सनैः इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ समानाधिकरणैः इति भवति । वस्तुतः जीव तथा ब्रह्म में अभेद ही होता है।,वस्तुतः जीवब्रह्मणोः अभेदः एव विद्यते। ब्राह्मण यह ब्रह्म के व्याख्या परक ग्रन्थों के नाम है।,ब्राह्मण इति ब्रह्मणः व्याख्यापरकानां ग्रन्थानां नाम अस्ति। "और तदर्थश्च, अर्थश्च बलिश्च हितश्च सुखश्च रक्षितश्च तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितानि तैः तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः यही इतरेतरद्वन्द है।",तदर्थञ्च अर्थश्च बलिश्च हितञ्च सुखञ्च रक्षितञ्च तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितानि तैः तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः इति इतरेतरद्वन्दः। ( ६.१.१५९ ) सूत्र का अर्थ- कृष विलेखने धातु तथा आकारवान जो घञन्त शब्द उनके अन्त को उदात होता है।,(६.१.१५९) सूत्रार्थः- कर्षतेर्धातोराकारवतश्च घञन्तस्यान्त उदात्तः स्यात्‌। उसके बीच में कोई भी आत्मा विद्यमान नहीं होती है ऐसा कहा जा चुका है।,तन्मध्ये विद्यमानः न कोऽपि आत्मा भवतीत्युक्तम्‌। "इस सूत्र में “अव्ययादाप्सुपः'' इस सूत्र से सुपः ऐसा षष्ठयन्त पद को ""ण्यक्षत्रियार्षञतो यूनि लुगणिञोः"" इस सूत्र से लोप होने पर ऐसा प्रथमा एकवचनान्त की अनुवृत्ती होती है।","अस्मिन्‌ सूत्रे ""अव्ययादाप्सुपः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सुपः इति षष्ठ्यन्तं पदं ""ण्यक्षत्रियार्षञतो यूनि लुगणिञोः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लुक्‌ इति प्रथमैकवचनान्तम्‌ अनुवर्तते।" जैस जलती हुई लालटेन का शीशा अधिक गंदा होने पर उसका प्रकाश नहीं होता है लेकिन उसके मालिन्य को हटा देने पर उसका प्रकाश दिखाई देने लगता है।,"यथा ज्वलति दण्डदीपे यदि गाढं मालिन्यं स्यात्‌ तदा दीपालोकः आवृतो भवति, यदा च मालिन्यं परिष्कृतं भवति तदा दीपप्रकाशः ज्ञायते।" अहिंसा की सिद्धि सत्यादि के द्वारा ही सम्भव होती है।,अहिंसायाः सिद्धिश्च सत्यादिभिः सम्भवति। वेदार्थ बोध के लिए सहायक होने से उनका उपकार स्पष्ट ही है।,वेदार्थबोधाय सहायकत्वात्‌ तेषाम्‌ उपकारकत्वं स्पष्टम्‌ एव। अज्ञानावरण क्या होता है यह केसे उत्पन्न होता है।,किम्‌ अज्ञानावरणम्‌ कथं जायते। उस विराट से उत्पन्न होने बाद स्वयं ही देव और मनुष्य रूप से पृथक्‌ हो गये।,उत्पन्नात्‌ परमेव स स्वयमेव विराजः देवमनुष्यरूपेण पृथक्कृतवान्‌। सोमयाग के लिए कितने दिन अपेक्षित हैं?,सोमयागस्य कृते कति दिनानि अपेक्षितानि ? इस प्रकार से इसका यह भावार्थ होता है।,इति भावार्थः। विशताम्‌ - विश्‌-धातु से लोट् प्रथमपुरुष एकवचन में।,विशताम्‌ - विश्‌ - धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने । इसलिए इसके ही विषय में भगवद्गीता में बाहुल्य से उल्लेख परिलक्षित होता है।,अतः अस्यैव विषयस्य भगवद्गीतायामपि बाहुल्येन उल्लेखः परिलक्ष्यते। इसलिए ही उसके शरीर के समान वृद्धि तथा क्षय भी नहीं होते हैं।,अत एव शरीरवत्‌ वृद्धिर्वा क्षयो वा न स्तः। श्री रामकृष्ण के इस प्रकार के वचन को सुनकर के नरेन्द्राथ का ईश्वर में दृढ विश्वास भी हो गया।,"श्रीरामकृष्णस्य एतादृशं निःसन्दिग्धं दृढं वचनं निशम्य न केवलं नरेन्द्रनाथस्य, आधुनिककाले जगति सहस्रशः मनुष्याणाम्‌ ईश्वरोपरि विश्वासः सञ्जातः।" इस प्रकार से मन ही बन्धकारणत्व रूप में सिद्ध होता है।,एवं मनसः बन्धकारणत्वं सिद्धम्‌। वह मृद्बीजादि अङकुरादि भाव के कारण कहीं एक परिणित होता है उसी प्रकार क्षीरादि दध्यादि भाव के कारण भी कहीं पर एक परिणित होता है।,तच्च क्वचिदनेकं परिणमते मृद्वीजादि अङ्कुरादिभावेन; क्वचिदेकं परिणमते क्षीरादि दध्यादिभावेन। एवं सूत्र का अर्थ होता है “प्र आदि पूर्वक अध्वन्नन्त समास से समासान्त तद्धिकसंज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""प्रादिपूर्वपदाद्‌ अध्वन्नन्तात्‌ समासाद्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति"" इति।" एक स्वर का दीर्घकाल तक अनेक प्रकार से उच्चारण करना।,एकस्वरस्य दीर्घकालपर्यन्तं विभिन्नोच्चारणम्‌। दीदिविम्‌ - दिव्‌ -धातु से क्विन्प्रत्यय करने पर और द्वित्व करने पर द्वितीया एकवचन में दीदिविम्‌ यह रूप बनता है।,दीदिविम्‌- दिव्‌-धातोः क्विन्प्रत्यये द्वित्वे द्वितीयैकवचने दीदिविम्‌ इति रूपम्‌। क) सूक्ष्मभूतों के सात्विकांश से ख) सूक्ष्मभूतों के रजांश से ग) सूृक्ष्मभूतों के तम अंश से 7. कर्मेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं?,क) सूक्ष्मभूतानां सात्त्विकांशेभ्यः ख) सूक्ष्मभूतानां रजोंऽशेभ्यःग) सूक्ष्मभूतानां तमोऽशेभ्यः७. कर्मेन्द्रियाणि उत्पद्यन्ते - "इस सूक्त में ऋषि कहते हैं की जो मन जागने वाले पुरुष का दूर जाता है, और सोने वाले मनुष्य का वही मन वैसे ही समीप आता है अर्थात्‌ जैसा गया है वैसे ही वापस आता है।","सूक्तेऽस्मिन्‌ ऋषिः वदति यत्‌ यन्मनो जाग्रतः पुरुषस्य दूरं गच्छति, यच्च मनः सुप्तस्य पुंसः तथैव समीपम्‌ एति अर्थात्‌ यथा गतं तथैव पुनरागच्छति।" अतः पञ्चदशीकार विद्यारण्य स्वामी नें कहा है “वृत्तयस्तु तदानीमज्ञाता अप्यात्मगोचराः।,उच्यते च पञ्चदशीकारेण विद्यारण्यस्वामिना - “वृत्तयस्तु तदानीमज्ञाता अप्यात्मगोचराः। "यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु इस सूत्र से यहाँ यज्ञकर्मणि इस सप्तमी एकवचनान्त पद की, एकश्रुति दूरात्संबुद्धौ इस सूत्र से एक श्रुति इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।","यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु इति सूत्रात्‌ अत्र यज्ञकर्मणि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌, एकश्रुति दूरात्संबुद्धौ इति सूत्रात्‌ च एकश्रुति इति प्रथमैकवचनान्तं पदमत्र अनुवर्तते।" जागरण इन्द्रियों के द्वारा अर्थोपलब्धि को कहते हैं।,जाग्रदवस्था जागरणं नाम इन्द्रियैः अर्थोपलब्धिः। 3. मिलित सुक्ष्मभूतों के कार्यो कों संक्षेप में लिखिए?,३. मिलितानां सूक्ष्मभूतानां कार्याणि संक्षेपेण लिखत। "अतः इस सूत्र से कहीं पर भी स्वरित स्वर होता है, कही पर भी उदात्त स्वर होता है।","अतः अनेन सूत्रेण कुत्रापि स्वरितस्वरः भवति, कुत्रापि उदात्तस्वरः भवति।" जो याग एक ही दिन में समाप्त हो जाते है उनके नाम लिखो?,ये यागाः एकस्मिन्नेव दिने समाप्यन्ते तेषां नामानि कानि। इसलिए यह आत्मा आदि तथा अन्त रहित होता है।,अतः आद्यन्तरहितः आत्मा। तब ही प्रपज्च का अनुभव होता है।,तदा एव प्रपञ्चानुभवश्च। उन दोंनों में ऐक्य का अनुभव होता है।,तयोः ऐक्यम्‌ अनुभूयते। शत्रुओं के नाश के लिए।,शत्रुणां नाशाय। अर्थात्‌ जिस व्रत के अनुष्ठान में कठोरता के द्वार तथा तप से चित्त तुष्ट होता है।,अर्थात्‌ यस्मिन्‌ व्रतानुष्ठाने कठोरेण तपसा चित्तं तुष्टं भवति । इसके बाद सौ प्रक्रियाकार्य होने पर ““स्तोकान्मुक्तः'' रूप होता है।,ततः सौ प्रक्रियाकार्ये स्तोकान्मुक्तः इति रूपम्‌। तो कहते है कि सविकल्पक समाधि में ज्ञातूज्ञानभेद का ज्ञान होने पर भी अद्वैत ब्रह्म ही भासित होता है।,"इति चेदुच्यते, सविकल्पकसमाधौ ज्ञातृज्ञानभेदस्य ज्ञाने सत्यपि अद्वैतं ब्रह्म भासते।" अनन्तर में वसन्तादी को आज्यादि विशेष रूपत्व से सङ्कल्प किया गया हेै।,अनन्तरं वसन्तादीनामाज्यादिविशेषेरूपत्वेन सङ्कल्प इति द्रष्टव्यम्‌। 3. दाधार इसमें लिट्लकार क्यों हुआ?,३. दाधार इत्यत्र कथं लिट्। और इसके बाद जिन-जिन सूत्र से हित समास का अव्ययीभाव संज्ञा होती है।,ततश्च तेन तेन सूत्रेण विहितस्य समासस्य अव्ययीभावसंज्ञा भवति। वह वाणी ही वसुरुद्र आदित्य आदिदेवता रूप से विचरण करती है।,सा वागेव वसुरुद्रादित्यादिदेवतारूपेण विचरति। किनके द्वारा वेद के अस्तित्व को प्रतिपादित करते हैं?,कैः वेदस्य अस्तित्वं प्रतिपाद्यते। वहीं औदुम्बर वृक्ष की उत्पत्ति हुई।,तत एव औदुम्बरवृक्षस्य उत्पत्तिः अभवत्‌। उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण से शिक्षा प्राप्त करके उसे धर्मसमन्वय के रूप में सभी देशों में प्रचारिंत किया।,गुरोः श्रीरामकृष्णात्‌ लब्धशिक्षः स धर्मसमन्वयभावम्‌ आविश्वं प्रचारयामास। किसी एक ही जन्म में उपासनाओं को समाप्त करके श्रवणादि के द्वारा मोक्ष नहीं मिलता है।,कश्चित्‌ एकस्मिन्नेव जन्मनि उपासनां समाप्य श्रवणादिना मोक्षं न भजते। 18.4.3 ) प्राणमय कोश का आत्मत्वनिरास देह में सर्वत्र व्याप्य वायु ही प्राणमय कोश है।,१८.४.३) प्राणमयकोशस्य आत्मत्वनिरासः देहे सर्वत्र व्याप्य वर्तमानः वायुरेव प्राणमयकोशः। अवहीनं लोम: यह अलौकिक विग्रह है।,अवहीनं लोम इति लौकिकविग्रहः। वहाँ ऋत: यह और नात्‌ प्रातिपदिकात्‌ इसका विशेषण है।,तत्र ऋतः इति नात्‌ इति च प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। उसी प्रकार जीव भी वास्तविक आत्मा को परित्याग करके आत्मभिन्न अनात्मकोषों में आत्मा को ढूँढता है।,तथैव जीवः वास्तविकम्‌ आत्मानं परित्यज्य आत्मभिन्नेषु अनात्मभूतेषु कोशेषु आत्मानं अन्विषते। "उसके द्वारा बहुक॑पालः, बहुकपालः ये दो रूप प्राप्त होते है।","तेन बहुक॑पालः, बहुकपालः इति रूपद्वयं भवति।" इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः सूत्र से सवर्णदीर्घ होने पर कारिका रूप सिद्ध होता है।,तत्पश्चात्‌ अकः सवर्णे दीर्घः इति सूत्रेण सवर्णदीर्घ सति कारिका इति रूपं सिध्यति। लेकिन धर्म जिज्ञासा के बिना ब्रह्मजिज्ञासा सम्भव होती है।,परन्तु धर्मजिज्ञासां विनापि ब्रह्मजिज्ञासा सम्भवति। यह मोक्ष बद्धजीव के स्वस्वरूप के अज्ञान के नाश के द्वारा होता है।,अयञ्च मोक्षः बद्धस्य जीवस्य स्वस्वरूपाज्ञाननाशाद्‌ भवति। 44. आनन्दमय कोश का सम्यक्‌ स्फुरण कब होता है?,४४. आनन्दमयस्य सम्यक्‌ स्फुरणं भवति कदा ? अपने देह से लेकर के ब्रह्मलोक पर्यन्त भोग्यवस्तुओं के दर्शन से तथा श्रवण से जो घृणा होती है वह वैराग्य कहलाता है।,स्वदेहात्‌ आरभ्य ब्रह्मलोकपर्यन्ते भोग्यवस्तुनि दर्शनेन श्रवणेन वा या जुगुप्सा घृणा तत्‌ एव वैराग्यम्‌। अपना प्रिय पदार्थ अग्नि तथा वायु के माध्यम से सकल संसार के कल्याण के लिए यज्ञ के द्वारा बाँया जाता है।,स्वस्य प्रियपदार्थादिकम्‌ अग्नेः तथा वायोः माध्यमेन सकलसंसारस्य कल्याणाय यज्ञद्वारा वितीर्यते। स्वर्यम्‌ - सुपूर्वक ऋ-धातु से ण्यत करने पर स्वर्यम्‌ यह रूप बनता है।,स्वर्यम्‌ - सुपूर्वकात्‌ ऋ-धातोः ण्यति स्वर्यम्‌ इति रूपम्‌। और वह उत्तरपद है।,तच्च उत्तरपदम्‌। कभी उसके अनित्यत्व का बोध होता है।,कादाचित्कत्वं तस्य अनित्यत्वं बोधयति। “नञः” सूत्र से नकार का लोप होता है।,नञः इति सूत्रेण नलोपो । लेकिन देखा यह जाता है कि जल का कोई निश्चित आकार नहीं होता है।,परन्तु दृश्यताम्‌ - जलस्य निर्दिष्ट आकारो नास्ति। वहाँ इदम्‌ यहाँ पर पाद के आदि में अनुदात्त स्वर है।,ततः इदम्‌ इत्यत्र पादादौ अनुदात्तस्वरः वर्तते। इस प्रकार से वृत्र को इन्द्र ने मारा।,एवंरूपेण वृत्रस्य निधनं चकार इन्द्रः। चेतः - चिद्‌-धातु से णिच असुन्प्र्यय करने पर चेतः रूप बनता है।,चेतः - चिद - धातोः णिचि असुन्प्रत्यये चेतः इति रूपम्‌। जिस विषय में चित्तवृत्तियाँ होती हैं वह उस विषय के अज्ञान का नाश करती हैं।,यस्मिन्‌ विषये चित्तवृत्तिर्भवति तद्विषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति। यह आख्यान दो प्रकार का होता है -अल्पकाय आख्यान और दीर्घकाय आख्यान।,"आख्यानमिदं द्विविधं भवति-स्वकल्पकायमाख्यानम्‌, दीर्घकायमाख्यानञ्चेति।" रूप ङस अनु यह अलौकिक विग्रह है।,रूप ङस्‌ अनु इत्यलौकिकविग्रहश्च। कुछ वस्तुओं को देखकर के यह अनित्य है इस प्रकार से जाना जाता है तथा कुछ वस्तुओं के आप्त जनों से सुनकर के ही उसकी अनित्यता के विषय में जाना जाता है।,कानिचन वस्तूनि अनित्यानि इति दृष्ट्वा एव ज्ञायते। अपि च कानिचन वस्तूनि अनित्यानि इति आप्तजनेभ्यः श्रुत्वा ज्ञायन्ते। सरलार्थ - निद्रा से रहित देव और प्रमादरहितसन्त जिस विस्तृत पृथ्वी की रक्षा करते है वह ही पृथ्वी मधुर सुंदर धान्य और तेज प्रदान करे।,सरलार्थः- निद्राविहीनाः देवाः प्रमादरहिताः सन्तः यां विस्तृतां पृथिवीं रक्षयन्ति सैव पृथिवी मधु क्षरतु किञ्च तेजः प्रसारयतु। किसी प्रकार तुम मेरा भरण पोषण करो।,कीदृशीम्‌ बिभृहि पुषाण मा माम्‌। प्रत्येक उस उसकी निर्दिष्ट सीमा के अन्तर्गत ही होता है।,प्रत्येकं भावः तत्तन्निर्दिष्टसीमाभ्यन्तरे यथार्थभूत एव। "जिसमें अद्वैत, भेदाभेद, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत इत्यादि प्रमुख सम्प्रदाय होता है।",तत्र अद्वैतं भेदाभेदं विशिष्टाद्वैतं द्वैतं शुद्धाद्रैतम्‌ इत्यादयः मुख्याः सम्प्रदायाः भवन्ति। "सातवें अध्याय में नामब्रह्म, वाग्ब्रह्म आदि के रूप की आलोचना है।",सप्तमाध्याये नामब्रह्म-वाख्रह्मादेः रूपमालोचितम्‌। "जिन स्थानो में किरने अत्यन्त उन्नतस्थान से जाने वाली हो, इस स्थानमें वस्तुओ के आधारभूत द्युलोक में अनेक प्रकार के स्तुति करने वाले कार्यो का सुख की वर्षा करने वाले विष्णु के समान उत्कृष्ट स्थान को अपनी महिमा से प्रकट करे।","येषु स्थानेषु रश्मयः अत्युन्नतस्थानाद्‌ गन्तारः स्युः, अस्मिन्‌ स्थाने वास्त्वाधारभूतद्युलोके बहुभिः स्तूयमानस्य कामानां वर्षणशीलस्य विष्णोः तादृशम्‌ उत्कृष्टं स्थानं स्वमहिम्ना स्फुरेत्‌।" अयमात्मा ब्रह्म अथर्ववेद के माण्डुक्य उपनिषद में “ अयमात्मा ब्रह्म” इस प्रकार का महावाक्य उपलब्ध होता है।,अयमात्मा ब्रह्म अथर्ववेदस्य माण्डूक्योपनिषदि “अयमात्मा ब्रह्म” इति महावाक्यम्‌ उपलभ्यते। "सरलार्थ - जो अन्न खाती हो, देखती हो, प्राण को धारण करती हो, कहे हुए विषय को सुनते हो, वह मेरे द्वारा ही यह सभी कार्य होते हैं।","सरलार्थः- यः अन्नं खादति, पश्यति, प्राणान्‌ धारयति, उक्तविषयान्‌ शृणोति, स मया एव एतत्‌ सर्वं कार्य करोति।" इसलिए एक प्रसिद्ध श्रुति वाक्य है।,तथाहि प्रसिद्धं श्रुतिवाक्यं- इस शिक्षा के अनुसार से सम्पूर्ण शुक्ल यजुर्वेद की संहिता में ऋग्वेद के १२६७ मन्त्र हैं।,अनया शिक्षया अनुसारेण समग्रायामपि शुक्लयजुर्वदीयसंहितायाम्‌ ऋग्वेदीयाः १२६७ मन्त्राः सन्ति। आस्तिक दर्शनों में सबसे अन्यतम वेदान्त दर्शन होता है।,आस्तिकदर्शनेषु अन्यतमो भवति वेदान्तः। जैसे 'ये' इस पद का “या २२३ यि?,यथा 'ये' इति पदस्य 'या २ ३ यि' इत्युच्चारणम्‌। "वहाँ वृत्तान्त अन्वाख्यान न प्रवर्तक और न निवर्तक है, प्रयोजन के अभाव से।","त्र वृत्तान्तान्वाख्यानं न प्रवर्तकम्‌, न निवर्तकश्चेति प्रयोजनाभावात्‌।" इससे अतीत और भविष्य काल में स्थित वस्तु को प्रत्यक्ष किया जा सकता है।,एतेन परोक्षं भाविकालस्थितं च वस्तु प्रत्यक्षं जायते। मोदते - आत्मनेपद मुद्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,मोदते - आत्मनेपदिनः मुद्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । अतः इस सूत्र से जहाँ समास किया जाता है वहाँ अव्ययम्‌ इस प्रथमान्त बोध का अत्यय की उपसर्जन संज्ञा होती है और उसका पूर्व प्रयोग होता है।,"अतः अनेन सूत्रेण यत्र समासः क्रियते तत्र अव्ययम्‌ इति प्रथमान्तबोध्यस्य अव्ययस्य उपसर्जनसंज्ञा भवति, तस्य च पूर्वप्रयोगः भवति।" निरोध होने पर तो इनकी आवश्यकता ही नहीं होती है।,निरोधे सति कुत एतद्‌ उपपद्येत। (घ.) जो काम्य निषिद्ध नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित तथा उपसना को त्यागता है।,(घ) यः काम्यानि निषिद्धानि नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानि उपासनानि च त्यजति। और जहाँ-जहाँ पदसम्बन्धी कार्य वहाँ-वहाँ उसका कार्य समर्थ पद आश्रित होकर ही होगा यही सूत्र का सार है।,एवञ्च यत्र यत्र पदसम्बन्धि कार्य तत्र तत्र तत्कार्य समर्थपदम्‌ आश्रित्य एव भविष्यति इति सूत्रसारः। वाल्मीकि रामायण के रचना काल में व्याकरण शास्त्र का अध्ययन और अध्यापन अच्छी प्रकार से प्रचलित था जो निम्न श्लोक बता रहे हे - “नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्‌।,वाल्मीकिरामायणस्य रचनाकाले व्याकरणशास्त्रस्य अध्ययनम्‌ अध्यापनं च सुव्यवस्थिततया प्रचलितम्‌ आसीत्‌ इत्येतद्‌ हि - 'नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्‌| लृट्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,लृट्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। लोमवान पुरुष होता है।,लोमवान्‌ पुरुषः भवति। इस प्रकार से श्रवणादियों व्यर्थ तत्त्व नहीं होता है।,एवं न श्रवणादिवैयर्थ्यम्‌। 2 अद्वितीय ब्रह्मज्ञान का अद्ठितीयब्रह्म की प्राप्ति ही फल है।,2 अद्वितीयब्रह्मज्ञानस्य अद्वितीयब्रह्मप्राप्तिरेव फलम्‌। वासिष्ठीशिक्षा - इसका भी सम्बन्ध वाजसनेयी संहिता के साथ ही है।,वासिष्ठीशिक्षा - अस्याः अपि सम्बन्धः वाजसनेयीसंहितया सह एव अस्ति। अतः प्रकृत सूत्र से भुङक्ते यहाँ तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण भुङ्क्ते इति तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। 12. लक्षणा के कितने भाग है तथा वे कौन कौन-से है?,"१२. लक्षणायाः कति भागाः, के च ते?" यहाँ निर्भिन्नः यहाँ पर निर्‌ गतिसंज्ञक है।,अत्र निर्भिन्नः इत्यत्र निर्‌ इति गतिसंज्ञकः। आयन्‌ - इ-धातु से लड्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में आयन्‌ रूप बनेगा।,आयन्‌- इ-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने आयन्‌ इति रूपम्‌। जिसमें ज्ञातृज्ञानादिविकल्प लय की अपेक्षा से अद्वितीयवस्तु में तदाकारकारिता चित्तवृत्ति का अवस्थान होता है वह सविकल्पक समाधि कहलाती है।,सविकल्पकसमाधिः नाम ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अवस्थानम्‌ । मा नः (क. १५-१६) इन दोनों के कुत्स ऋषि है।,मा नः (क. १५-१६) इति द्वयोः कुत्सोऽपि ऋषिः। वहाँ पर केवल उपाधि सामीप्य कारण होता है।,तत्र कारणं भवति उपाधिसामीप्यम्‌। टिप्पणी - अङ्ग यह निपात पादपूरण अर्थ में प्रयोग होता है।,टिप्पणी - अङ्ग इति निपातस्य पादपूरणार्थे प्रयोगो भवति। वेदान्तसार में कहा है- “लय: तावत्‌ अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेः निद्रा” यह लय दो प्रकार के होते है।,वेदान्तसारे उच्यते - “लयः तावत्‌ अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेः निद्रा” इति। अयञ्च लयो द्विधा व्याख्यायते। तथा व्यष्टि के अभिप्राय से वृक्ष के समान अनेक होता है।,व्यष्ट्यभिप्रायेण अनेकञ्च भवति वृक्षवत्‌। "जलसमूह विग्रह को धारण करके इनका अनुसरण करते है, और प्राचीन नदियां इनके अनुग्रह से ही पुन प्रवाहित होती है।","जलसमूहः विग्रहं धारयित्वा एतयोः अनुसरणं करोति, किञ्च पुरातनाः नद्यः एनयोः अनुग्रहात्‌ पुनः प्रवहन्ति।" व्यंसम्‌ - विगतौ अंसौ यस्य तम्‌ यहाँ बहुव्रीहि समास है।,व्यंसम्‌ - विगतौ अंसौ यस्य तम्‌ इति बहुव्रीहिसमासः। जो जुआरी होते है उनकी पत्नियाँ दुःखी होती है।,ये कितवाः भवन्ति तेषां स्त्रियः दुःखिताः भवन्ति । शरीर का अवयव अङ्ग कहलाता है।,शरीरस्य अवयवः अङ्गं कथ्यते। सूत्र व्याख्या-यह नियम सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - इदं नियमसूत्रम्‌। उससे यह अर्थ यहाँ प्राप्त है - दीर्घान्त अष्टन्‌-शब्द से परे शस आदि असर्वनामस्थान विभक्ति उदात्त हो।,ततश्च अयमत्र - दीर्घान्तात्‌ अष्टन्‌- शब्दात्‌ परं शसादयः असर्वनामस्थानाः विभक्तयः उदात्ताः स्युः इति। माण्डव्यशिक्षा- इस शिक्षा का सम्बद्ध शुक्ल यजुर्वेद के साथ है।,माण्डव्यशिक्षा- इयं शिक्षा शुक्लयजुर्वदेन सह सम्बद्धा अस्ति। जैसा राजा युद्ध करते हुए योद्धाओं में युद्ध करते हुओं के बीच में स्वयं युद्ध नहीं करता हुआ भी संन्निधि मात्र से ही जीतता है तथा पराजित होता है।,यथा राजा युध्यमानेषु योधेषु युध्यत इति प्रसिद्धं स्वयम्‌ अयुध्यमानोऽपि संनिधानादेव जितः पराजितश्चेति। एवं सूत्रार्थ होता है- अचक्षुः पर्याय से अक्षिशब्द से समासान्त तद्धितसंज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""अचक्षुः पर्यायाद्‌ अक्षिशब्दात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति इति।" उसके बाद सभी देवादिय प्राणियों का प्राणभूत एक प्रजापति उत्पन्न हुआ।,ततः तस्माद्धेतोः देवानां देवादीनां सर्वेषां प्राणिनाम्‌ असुः प्राणभूतः एकः प्रजापतिः समवर्तत समजायत। तुश्च पश्यश्च पश्यता: च अहः च इति तुपश्यपश्यताहाः तैः तुपश्यपश्यताहैः यहाँ द्वन्द्वसमास है।,तुश्च पश्यश्च पश्यताः च अहः च इति तुपश्यपश्यताहाः तैः तुपश्यपश्यताहैः इति द्वन्द्वसमासः। देवों की अपेक्षा अग्नि अधिक रूप से मनुष्यजीवन से सम्बन्धित है।,देवान्तरापेक्षया अग्निः अधिकतया मनुष्यजीवनं सम्बध्नाति। व्याख्या - पृथ्वी के ऊपर तुम शब्द करो गर्जन करो।,व्याख्या - अभि भूम्यभिमुखं क्रन्द शब्दय । तदेव पुनरुच्यते । दाढ्याय । स्तनय गर्ज । सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का चतुर्थ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य चतुर्थो मन्त्रः। "टाप्‌, डाप्‌, चाप्‌, ङीप्‌, ङीष्‌, ङीन्‌, ऊङ, ति ये आठ प्रत्यय स्त्रीत्व द्योतन के लिए प्रातिपदिक से होते हैं।","टाप्‌, डाप्‌, चाप्‌, ङीप्‌, ङीष्‌, ङीन्‌, ऊङ्‌, ति इत्येते अष्टौ प्रत्ययाः स्त्रीत्वस्य द्योतनाय प्रातिपदिकात्‌ भवन्ति।" "सूत्र की व्याख्या - छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह निषेध सूत्र है, और विधि सूत्र भी है।","सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं निषेधसूत्रम्‌, विधिसूत्रमपि।" वेद में धातु उपसर्ग के मध्य में व्यवधान सम्भव है।,वेदे धातूपसर्गयोः मध्ये व्यवधानं सम्भवति। प्रतिज्ञा आदि सम्पूर्ण नौ सूत्रों की विस्तृत व्याख्या उदाहरण के साथ यहाँ दी है।,प्रतिज्ञा-समस्तानां नवसूत्राणां विस्तृतव्याख्या उदाहरणेन सह अत्र प्रदत्ता अस्ति। जैसे स्वप्नकाल में मन से कल्पित सुख दुःख हेतु वस्तु सत्य के समान लगते हैं तथा प्रबोध होने पर असत्‌ हो जाते हैं।,यथा स्वप्नकाले मनःकल्पितानि सुखदुःखाभयादिहेतूनि वस्तूनि सत्यवद्भान्ति प्रबोधे चासन्ति भवेयुः। बोद्ध्यशब्द का अर्थ बोध का विषय होता है तथा बोद्ध्यशब्द बोध का जनक अर्थात्‌ जो बोध को उत्पन्न करता है।,"बोद्ध्यशब्दार्थः बोधस्य विषयः, बोधकशब्दार्थः बोधस्य जनकः अर्थात्‌ यः बोधं जनयति।" और वह “क' शब्द से भी जाना जाता है।,स च 'क'शब्दाभिधेयः। इन्द्र अग्नि को भी मैं धारण करती हूँ।,इन्द्राग्नी अपि अहम्‌ एव धारयामि। उदात्तलोपः यह प्रथमान्त समस्त पद है।,उदात्तलोपः इति प्रथमान्तं समस्तं पदम्‌। संकल्परूप से किया गया कार्य धन।,संकल्परूपया क्रयया। इसका गीता के छठे अध्याय में प्रमाण दिया गया है।,एतत्‌ प्रमाणीभवति गीतायां षष्ठाध्याये। उसका रूप वर्णन भी ऋषियों ने किया।,तस्य रूपवर्णना अपि ऋषिभिः कृता। "अतिङन्त पद से परे तिङन्त पद को सम्पूर्ण अनुदात्त होता है, 'तिङङतिङ:' इस सूत्र का अर्थ है।",अतिङन्तात्‌ पदात्‌ परं तिङन्तं सर्वम्‌ अनुदात्तं भवति इति तिङ्ङतिङः इति सूत्रस्य अर्थः। स्तोकान्मुक्तः इत्यादि में पञ्चमीविभक्ति का अलुक कैसे होता है?,स्तोकान्मुक्तः इत्यादौ पञ्चमीविभक्तेः अलुक्‌ कथम्‌? और भयभीत होकर के निन्यानवे (९९) नदियों को और अन्तरिक्ष को बाज की तरह तैरकर चली गई।,ततश्च भीतः नवनवतिः(९९) नद्यः किञ्च अन्तरिक्षं श्येनपक्षी इव तीर्त्वा गतः। प्रसितौ - प्रपूर्वक सि धातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर सप्तमी एकवचन में।,प्रसितौ - प्रपूर्वकात्‌ सिधातोः क्तिन्प्रत्यये सप्तम्येकवचने । मृळत इसका क्या अर्थ है?,मृळत इत्यस्य कः अर्थः ? द्वैत वेदान्त दर्शन के मत में भक्ति ही भगत्साक्षात्कार का कारण है।,द्वैतवेदान्तदर्शनमते भक्तिरेव भगवत्साक्षात्कारकारणम्‌। (1) आत्मख्यातिवादियों का (1 ) अन्यथाख्यातिवादियों का 7 इनमें से कौन सा ब्रह्म शब्द का पर्याय नहीं है?,(1) आत्मख्यातिवादिनाम्‌ (1) अन्यथाख्यातिवादिनाम्‌ ७) अयं न ब्रह्मशब्दस्य पर्यायः। उससे विस्पष्टकटुकम्‌ यहाँ पर विस्पष्ट शब्द आद्युदात्त ही रहता है।,तस्मात्‌ विस्पष्टकटुकम्‌ इत्यत्र विस्पष्टशब्दः आद्युदात्तः एव तिष्ठति। नगर में निवास करके वेद के तत्त्व ज्ञान को जानना अत्यन्त कठिन था।,नगरे स्थित्वा वेदस्य तत्त्वज्ञानं सुदुष्करमासीत्‌। उन्नतप्रदेश में रहता हुआ अनेक प्रकार से किये गये कार्यो के चारो और सर्वव्यापक विष्णु के लिये हमारे कर्मजन्यफल अथवा हमारे स्तोत्रजन्यबल हो।,उन्नतप्रदेशे तिष्ठते बहुभिः गीयमानाय कामानां वर्षित्रे सर्वव्यापकाय विष्णवे अस्मत्कर्मजन्यफलं अस्मत्स्तोत्रजन्यबलं वा अस्तु। अग्निष्टोम का दूसरा नाम क्या है?,अग्निष्टोमस्य अपरं नाम किम्‌ ? वैसे ही भाष्य आदि में 'आद्युदात्तश्‍च' इत्यादि सूत्रों में प्रकृति से अन्तोदात्त होने का विधान है।,तथाहि भाष्यादिषु 'आद्युदात्तश्च' इत्यादिषु सूत्रेषु प्रकृतेः अन्तोदात्तत्वं शास्यते। गवामयन यज्ञ की अनुष्ठानावली और काल विभाग अच्छी तरह से परिलक्षित किये जाये तो ज्ञात होता है कि सूर्य की वार्षिकगति से इसका सौसादृश्य है।,गवामयनयज्ञस्य अनुष्ठानावली कालविभागश्च सम्यक्तया परिलक्ष्यते चेत्‌ बुध्यते यत्‌ सूर्यस्य वार्षिकगतिना अस्य सौसादृश्यम्‌ अस्ति। "देव साकार है या निराकार इस विषय में पण्डितों के कुछ अभिप्राय है, वे भी यहाँ बताए गये है।","देवानां आकारः अस्ति न वा इति विषये पण्डितानां केचन अभिप्रायाः सन्ति, तदपि अत्र आलोच्यते।" मिथ्या प्रत्यय निमित्तेष्टा निष्टानुभूत क्रिया फल जनित संस्कार पूर्वक ही स्मृतिच्छयाप्रयत्नादि होते हैं।,मिथ्याप्रत्ययनिमित्तेष्टानिष्टानुभूतक्रियाफलजनितसंस्कारपूर्वकाः हि स्मृतीच्छाप्रयत्नादयः। तब कोई व्यक्ति विशेष जो उस वृक्ष के नीचे रहता था।,तदा कश्चन जनो यः तस्य वृक्षस्य अधस्तात्‌ वसति स्म। निषिद्ध कर्मो के आचारणों की जब गति होती है तब चित्त का मल भी कम होता चला जाता है।,निषिद्धकर्माचरणस्य लाघवं भवति चेत्‌ चित्तमलो न्यूनतां गत इति अनुमीयते। तथा सुषुप्ति में तो कारण शरीर का भान ही स्पष्ट रहता है।,सुषुप्तौ तु कारणशरीरस्य भानमेवास्ति स्पष्टतया। यज्ञ के साधन रूप में उस पुरुष को पशुत्व भाव से खूटे से बांधकर मानस यज्ञ में सृष्टि के साधनों के अनुरूप प्रजापति आदि और उसके अनुकूल देवों और ऋषियों ने शुद्ध किया।,यज्ञसाधनभूतं तं पुरुषं पशुत्वभावनया यूपे बद्ध्वा बर्हिषं मानसे यज्ञे सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः तदनुकूला देवा ऋषयश्च प्रेक्षितवन्तः। 5 ब्रह्म ही सभी को प्रकाशित करता है यहाँ पर कौन-सी श्रुति है?,५. ब्रह्म एव सर्व प्रकाशयति इत्यत्र का श्रुतिः? इस सूत्र में वाचादीनाम्‌ उभौ उदात्तौ ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,अस्मिन्‌ सूत्रे वाचादीनाम्‌ उभौ उदात्तौ इति सूत्रगतपदच्छेदः। वेदों में छन्दों की महानता के गीत बार-बार गाये।,श्रुतिषु छन्दसो महनीयता भृशं गीता। अनुपसर्जन से (5/1) यह अधिकार यहाँ आ रहा है।,अनुपसर्जनात्‌ (५/१) इति अधिकारः अत्र आगच्छति। यहाँ दो पद है - अष्टनः और दीर्घात्‌।,"अत्र पदद्वयं वर्तते- अष्टनः इति, दीर्घात्‌ इति।" वहाँ पर ब्रह्मविचार परक ज्ञानकाण्ड का विचार वेद के अन्तिम भाग में है।,तत्र ब्रह्मविचारपरस्य ज्ञानकाण्डस्य विचारः वेदस्यान्तिमभागे विद्यतेति। "इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है, उज्‌छादिगण में पढ़े हुए शब्दों के अन्त अच्‌ उदात्त होता है।",एवम्‌ अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति उञ्छादिगणपठितानां शब्दानां अन्तः अच्‌ उदात्तः भवति। समाहार द्वन्द में इस सूत्र का उदाहरण है पाणिपादम्‌।,समाहारद्वन्द्वे अस्य सूत्रस्योदाहरणं पाणिपादम्‌ इति । कीचड़ के निकल जाने पर जल स्वयं ही शुद्ध होता है उसी प्रकार उपाध्याय उपनयन होने पर आत्मा शुद्धता के ह्वारा अभिव्यजञ्जित होती हे।,पङ्कापनयने सति जलं स्वयमेव शुद्धं भवति तथा उपाध्यपनयने सति आत्मा शुद्धतया अभिव्यज्यते। अन्तरंग साधन तथा बहिरङ्ग साधन कहलाते हैं।,अन्तरङ्गबहिरङ्गसाधनविभागम्‌ अवगच्छेत्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ पचति खादति ये दो तिङन्त पद है।,उदाहरणम्‌- अत्र पचति खादति इति द्वयं तिङन्तम्‌ अस्ति। पूर्व अम्‌ इस सुबन्त का भूत सु इसके साथ सुबन्त को प्रकृत सूत्र से समाससंज्ञा प्राप्त होती है।,पूर्व अम्‌ इति सुबन्तं भूत सु इत्यनेन सुबन्तेन सह प्रकृतसूत्रेण समाससंज्ञां लभते। इससे अव्ययीभावसमास का नपुंसकत्व विधान होता है।,अनेन अव्ययीभावसमासस्य नपुंसकत्वं विधीयते। फिर भी प्रकृत सूत्र से मकर आदि के साथ अन्य शब्दों का भी आदि और दूसरा स्वर उदात्त हो।,तथापि प्रकृतसूत्रेण मकरादिभिः सह अन्येषाम्‌ अपि शब्दानाम्‌ आदिः द्वितीयश्च स्वरः उदात्तो भवति। भुजेर्विकरणव्यत्यय करने पर शप्रत्यय।,भुजेर्विकरणव्यत्यये शप्रत्ययः। "व्याख्या - वायु देवों की और मनुष्यो की रक्षा करता है, उसी प्रकार वे लोग अपने हृदय मंत मन में सकल्प करके श्रद्धा देवी की उपासना करते है, उस विधि रूप संकल्प से सभी मनुष्य श्रद्धा के समान ही आचरण करते है।",व्याख्या- देवाः यजमानाः मनुष्याश्च वायुगोपाः रक्षिताः येषां ते तादृशाः सन्तः श्रद्धां देवीमुपासते प्रार्थयन्ते हृदय्यया हृदये भवा हृदय्या तथाविधया आकूत्या संकल्परूपया क्रियया श्रद्धामेव परिचरन्ति सर्वे जनाः। तो सभी ने मना कर दिया।,न वा इति पृष्ट्वा अपि सदुत्तरं न प्राप्तवान्‌। "अतएव धृतव्रत, धर्मपति उसी की संज्ञा है।","अत एव धृतव्रतः, धर्मपतिः चेति तस्य संज्ञे।" जो विषय आगम प्रमाण के द्वारा जाना जाता है।,यो विषय आगमप्रमाणेन ज्ञायते । उञ्छ: आदि है जिसका वह उञ्‌छादिः और उन उञ्छादियो का समूह।,उञ्छः आदिः यस्य स उञ्छादिः तेषाम्‌ उञ्छादीनाम्‌ इति। इसके बाद प्रक्रियाकार्य में भूतपूर्व: रूप सिद्ध होता है।,ततश्च प्रक्रियाकार्ये भूतपूर्वः इति रूपम्‌। तत्कृतपद का तृतीयान्त अर्थक किया हुआ अर्थ प्राप्त हुआ।,तत्कृतपदस्य तृतीयान्तार्थाकृत इत्यर्थः। सविकल्पक समाधि ही योगदर्शन में कही गई सम्प्रज्ञात समाधि होती है।,सविकल्पकः समाधिर्हि योगदर्शनप्रोक्तः सम्प्रज्ञातसमाधिः। तस्थुः - स्था-धातु से लिट्‌-लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में तस्थु: यह रूप है।,तस्थुः- स्था-धातोः लिट्-लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने तस्थुः इति रूपम्‌। यूपदारु इसका विग्रह वाक्य होता है- यूपाय दारु।,यूपदारु इत्यस्य विग्रहवाक्यं भवति यूपाय दारु इति। अर्थात्‌ “पूरण आदि अर्थो से और सदादि से षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।,"अर्थात्‌ ""पूरणाद्यर्थेः सदादिभिश्च षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति"" इति।" कवि ने कहाँ पर श्रद्धा को प्रकट किया?,कविः कुत्र श्रद्धां प्रकटितवान्‌? उसका विग्रह होता है अविद्यमान उदात्त को अनुदात्त को।,तस्य विग्रहो भवति अविद्यमानम्‌ उदात्तम्‌ अनुदात्तम्‌ इति। विजय करने वाले को वह आनन्द देने वाला होता है और दुःख देने वाले को दुःख देता है।,विजेतुः कृते सः आनन्दप्रदः पराजेतुः कृते च दुःखप्रदः । इन दोनों कल्पसूत्र के श्रौत गृह्य धर्म शुल्वसूत्र सभी ही हैं ये दोनों ग्रन्थ पूर्ण रूप में है।,अनयोः कल्पसूत्रयोः श्रौतगृह्यधर्मशुल्वसूत्राणि सर्वाणि अपि सन्ति इति ग्रन्थौ इमौ पूर्णरूपौ। फिर उसी मुख से खग-मृग- बकरी -मेष- अश्व -नीलगाय -गर्धव-धेनु उत्पन्न हुए।,पुनरपि तस्माद्‌ मुखात्‌ खग-मृग-छाग-मेष-हय-गवय- गर्धव-धेनवः जाताः। "व्याकरण यह पद यस्मात्‌ धातु से निष्पन्न होती है, उसका भी मूल अर्थ यजुर्वेद में है - “दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्‌ सत्त्वाऽनृते प्रजापतिः' इस वाक्य में प्रयुक्त प्राप्त होते है।","व्याकरणम्‌ इत्येतत्‌ पदं यस्माद्‌ धातोः निष्पद्यते, तस्य अपि मूलार्थो यजुषि - 'दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्‌ सत्त्वाऽनृते प्रजापतिः' इत्येतस्मिन्‌ वाक्ये प्रयुक्तः प्राप्यते।" इस रागपाश का यहाँ स्वभाव है की यह देहादि विषयों में राग को उत्पन्न करता है।,अस्य रागपाशस्य अयं स्वभावः देहादिषु विषयेषु रागम्‌ उत्पादयतीति। पौराणिक काल में ये संख्या 33 करोड़ तक हो गई थी।,पौराणिके काले एषा संख्या त्रयस्त्रिंशत्कोटिपरिमिता सञ्जाता। (क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) फलम्‌ 12. तात्पर्यनिर्णायक छ: लिङ्गो में यह अन्यतम है।,(क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) फलम्‌ 12. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌॥ और उसके बाद प्रकृत सूत्र से ओकार के स्थान में सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर के स्थान में उदात्त स्वर का विधान है।,ततश्च प्रकृतसूत्रेण ओकारस्य लक्षणेन प्राप्तस्य स्वरितस्वरस्य स्थाने उदात्तस्वरः विधीयते। "वर्षा के लिए वायु बहती है, बिजली अच्छी प्रकार से चमकती है, औषधियाँ बढती हैं, अपने को अन्तरिक्ष में व्याप्त करता है, सभी भुवन के लिए भूमि अन्न को उत्पन्न करती है, जब पर्जन्य पृथिवी को जल से परिपूर्ण करता है।","वृष्ट्यर्थं वाताः प्रवान्ति , विद्युतः समन्तात्‌ संचरन्ति, ओषधयः प्रवर्धन्ते, स्वः अन्तरिक्षं पिन्वते, सर्वस्मै भुवनाय भूमिः अन्नम्‌ उत्पादयति, यदा पर्जन्यः पृथिवीम्‌ उदकेन अवति।" उसका षष्ठी एकवचन में यातः यह रूप बना।,तस्य षष्ठ्येकवचने यातः इति रूपम्‌। और नपुंसकत्व क्या है?,किं च नपुंसकत्वम्‌? हिंसीत्‌ - हिस्‌-धातु से लिङ्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में हिंसीत्‌ रूप बनता है।,हिंसीत्‌- हिंस्‌-धातोः लिङि प्रथमपुरुषैकवचने हिंसीत्‌ इति रूपम्‌। अंत में मन्त्रों के तात्पर्य का जो बोध होता है वह तो ब्राह्मणों के अन्तरङ्ग आध्यात्मिक व्याख्या से ही जाना जाता है।,आपाततः मन्त्राणां तात्पर्यस्य यो बोधो भवति स तु ब्राह्मणानाम्‌ अन्तरङ्गाध्यात्मिकव्याख्यानाद्‌ अनन्तरम्‌ एव जायते। “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" वेदान्त दर्शन में वेदव्यास ने तथा पूर्वमीमांसास्थ जैमिनि इससे समर्थित नहीं हैं।,वेदान्तदर्शने वेदव्यासः पूर्वमीमांसास्थं जैमिनेः मतमेतत्‌ न समर्थितवान्‌। इस प्रदक्षिण काल में वे अपने हाथ में कुछ धारण करके ही चलते हैं।,अस्मिन्‌ प्रदक्षिणकाले ते स्वहस्ते किञ्चिद्‌ धृत्वा एव चलन्ति। वेदों का अन्तिम भाग ही वेदान्त कहालाता है।,वेदानामन्तिमो भागः भवति वेदान्तः। जीवन्मुक्त पुरुष ही प्रारब्ध के नाश के बाद विदेह मुक्ति को प्राप्त करता है।,जीवन्मुक्त एव पुरुषः प्रारब्धनाशात्‌ परं विदेहमुक्तिं लभते। पदपाठ - विश्वम्‌ऽभरा।,पदपाठः- विश्वम्‌ऽभरा। वोपदेव ने संस्कृत के मान्य व्याकरण सम्प्रदायों में प्रथम स्थान इन्द्र के लिए ही दिया है - “इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः।,वोपदेवेन संस्कृतस्य मान्येषु व्याकरणसम्प्रदायेषु प्रथमस्थानम्‌ इन्द्राय एव प्रदत्तम्‌ - 'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः। पाठगत प्रश्न-5 1 श्रवण क्या होता है?,पाठगतप्रश्नाः- 1 श्रवणं किम्‌। (औषधियों में) गर्भ (जल को) स्थापित करो।,( ओषधिषु ) गर्भ ( जलं ) स्थापयतु । प्रकाशात्मज्ञान तो चैतन्य ही होता हे।,प्रकाशात्मकं तु ज्ञानं चैतन्यमेव । एक छोटा तो दूसरा विशाल था।,एकः लघुस्तथा अपरो बृहद्‌ च आसीत्‌ इति। इस प्रकार से श्रुतियों तथा स्मृतियों में भी बहुत प्रकार से प्रतिपादित किया गया है।,लभ्यन्ते इति श्रुतिस्मृतिषु बहुधा प्रतिपादितम्‌। और तेरहवे मन्त्र में अक्षक्रीडा को छोड़कर खेती करने के लिए कहा गया है।,किञ्च त्रयोदशमन्त्रे अक्षक्रीडां परित्यज्य कृषिकरणाय उक्तम्‌ । द्यूत में मद मनुष्य चिन्ता आसक्ति में लगा हुआ पूरी रात जगा रहता है।,द्यूतमत्तः जनः चिन्तासक्तो भूत्वा आरात्रिं जागर्ति । वो अपनी महिमा से श्वास-प्रश्‍वास ग्राहक पक्षियों और गमनशील प्राणियों का एक ही राजा है।,यस्य महिम्ना श्वासप्रश्‍वासग्राहिकानां पक्षिणां गमनशीलानां प्राणिनां च एकाकी एव राजा अस्ति। 39. अविद्या के कितने गुण होते हैं?,३९. अविद्यायां कति गुणाः सन्ति? नित्यानित्यवस्तुविवेक 2. इहामुत्रार्थभोगविराग शमदमादि षट्क सम्पत्ति 4. मुमुक्षुत्व ये जो साधन यहाँ पर दिए गए है।,१)नित्यानित्यवस्तुविवेकः २)इहामुत्रार्थभोगविरागः ३) शमदमादिसाधनसम्पत्‌ ४) मुमुक्षुत्वं चेति। अत एतानि साधनानि । इस प्रकार से गीतादिस्मृतियाँ भी जीव तथा ब्रह्म के भेद को बताती है।,एवं गीतादिस्मृतिभिरपि जीवब्रह्मणोः भेदः निगदितः। इस कारण काण्व संहिता का प्राचीन सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के साथ स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।,अतः काण्वसंहितायाः प्राचीनसम्बन्धः उत्तरप्रदेशन सह अङ्गीकरणे न कापि विप्रतिपत्तिः। देह आत्मा नहीं है यहाँ पर अन्य कारण है।,देहः नात्मा इत्यत्र अन्यत्‌ कारणम्‌ उच्यते। ( 1.22 ) “नपुंसकादन्यतरस्याम्‌ '' सूत्रार्थ-नपुंसक अन्‌ अन्त से अव्ययीभाव से पर समासान्त का तहितसंज्ञक टच्‌ प्रत्यय विकल्प से होता है।,"(१.२२) ""नपुंसकादन्यतरस्याम्‌"" सूत्रार्थः - नपुंसकाद्‌ अन्नन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययः विकल्पेन भवति।" आत्मा का निरोध भी नहीं होता है।,आत्मनश्च निरोधो नास्ति। प्रारब्ध से अतिरिक्त कर्म सञ्चित कर्म होते है।,प्रारब्धातिरिक्तं कर्म सञ्चितकर्म। यज्ञ का विधान कब करना चाहिए।,यज्ञस्य विधानं कदा कृतं भवेत्‌। यह विषय अध्यारोप कहलाता है अध्याय-४ अद्वैत वेदांत में अपवाद (पाठ 17 से 27 ) पहले भाग में अध्यारोप को जाना।,अयं विषयः अध्यारोपः इत्युच्यते। अध्यायः - ४ अद्वैतवेदान्ते अपवादः (पाठाः - १७-२७) अध्यायस्य औचित्यम्‌ पूर्वभागे अध्यारोपः ज्ञातः। ऐतरेय आरण्यक किसका परिशिष्ट ग्रन्थ है?,ऐतरेयारण्यकं कस्य परिशिष्टग्रन्थः? सुप्‌ का तदन्त विधि में सुबन्तम्‌ होता है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ सुबन्तमिति भवति। झूठ नहीं बोलता हूँ।,नानृतं ब्रवीमीत्यर्थः । इसलिए वे वेदोक्त फल को प्राप्त नहीं करते है।,अतो वेदान्तोक्तफलं न लभन्ते। सुख से समीपगमन किया जा सके उस प्रकार की आप अग्नि हमारे लिए हो।,सुखेन समीपं गन्तुं शक्यम्‌ तादृशः त्वं भव हे अग्ने। इसलिए यहाँ पर तद्वयतिरक्तविषभ्यः कहा गया हैं।,अत उक्तं तद्व्यतिरक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्‌ इति। यूपदारु द्विजार्थः सुपः इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।,यूपदारु द्विजार्थः सूपः इत्यादिकमेतस्योदाहरणम्‌। किन्तु प्राचीन काल में काण्व शाखा उत्तर भारत में ही थी।,किञ्च प्राचीनकाले काण्वशाखा उत्तरभारते एवासीत्‌। 6 छ प्रकार के तात्पर्यलिङ्गोपेत वाक्य महावाक्य किस प्रकार से कहलाता है।,६. षड्विधतात्पर्यग्राहकलिङ्गोपेतं वाक्यं महावाक्यम्‌। इस उपलक्षण से सभी विकार उत्पन हुए उनसे वर्तमान सङ्ग उदासीनकूटस्थब्रह्मचेतन रूप मेरी महिमा से यह सब हुआ।,एतदुपलक्षितात्‌ सर्वस्माद्‌ विकारजातात्‌ परस्ताद्‌ वर्तमाना सङ्कोदासीनकूटस्थब्रह्मचैतन्यरूपाहं महिना महिम्ना एतावती सम्बभूव। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणानि क्रमशः प्रस्तूयन्ते। तब एतत्कालविशिष्ट देवदत्त रूप पिण्ड का तत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से भेद व्यावृत्त होता है।,तदा एतत्कालैतद्देशविशिष्टस्य देवदत्तरूपपिण्डस्य तत्कालतद्वेशविशष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ भेदः व्यावृत्तः। आराम के लिए किसी भी पद के मध्य में विराम लगाना।,सौकर्य्याय कस्यापि पदस्य मध्ये विरामः। एक ब्रह्म के दो रूप होते | थ्यान देः हैं इसलिए ये भिन्न होते है।,"यस्मात्‌ एकस्य एव ब्रह्मणो रूपद्वयं, तस्मात्‌ ते न भिन्ने।" वेद के अलौकिक शक्तिशाली होने से वेद वाक्य ही वेद के अस्तित्व को बताते है।,वेदस्य अलौकिकशक्तिशालित्वात्‌ वेदवाक्यानि एव वेदस्य अस्तित्वं प्रमाणयन्ति। अथर्ववेद में वर्णित विषयों के कौन कौन से भेद हैं?,अथर्ववेदे वर्णितानां विषयाणां के भेदाः? अतः उससे परे का वाच्‌- शब्द के एकाच्‌-होने से उसके परे तृतीया विभक्ति में आकार का प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः तस्मात्‌ परस्य वाच्‌- शब्दस्य एकाच्‌-त्वात्‌ ततः परस्य तृतीयाविभक्तेः आकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं विधीयते। इस कारण से अथर्ववेद का अन्य नाम '“क्षत्रवेद' भी है।,अस्मात्‌ कारणात्‌ अथर्ववेदस्य 'क्षत्रवेदः' इत्यपि अपरं नाम भवति। "जैसे वह बुरे काल का नाश करता है, वज्रपात के द्वारा वृक्षों का नाश करता है, और भयङ्कर असुरो को भी अपने भयङ्कर अस्त्र के द्वारा मारता है।","यथा स दुष्कालं नाशयति , वज्रपातैः वृक्षान्‌ नाशयति किञ्च भयङद्करान्‌ असुरान्‌ अपि स्वस्य भयङ्करैः अस्त्रैः हन्ति ।" हे अग्नि तुम भद्र करोगे यहाँ पर कृधातु दान अर्थ में ग्रहण की गई है।,हे अग्नि त्वं भद्रं करिष्यसि इत्यत्र कृधातोः दानमर्थः गृह्यते। "यज्ञ में चार ऋत्विज होते हैं, और वे हैं १. होता, २. अध्वर्यु, ३. उद्गाता, ४. और ब्रह्मा।","यज्ञे चत्वारः ऋत्विजो भवन्ति, ते च १.होता, २.अध्वर्युः, ३. उद्गाता, ४. ब्रह्मा चेति।" वहाँ पर यह प्रमाण है।,तत्र प्रमाणं । उस कारण भूत से ही यह कार्य जगत हुआ जिस प्रकार सभी धागों में वस्त्र रहता है उसी प्रकार यह है।,कारणभूते तस्मिन्‌ हि वियदादिकार्यजातं सर्वं वर्तते तन्तुषु पट इव। इसके बाद समास विधायक सूत्र में अनुवृत्ति में दिक्संख्ये यहाँ पर दिक्पद की प्रथमानिर्दिष्ट रिक्‌ बोध का पूर्वा ङि पद की उपसर्जन संज्ञा होती है।,ततः समासविधायकसूत्रे अनुवृत्ते दिक्संख्ये इत्यत्र दिक्पदस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ दिग्बोध्यस्य पूर्वा ङि इति पदस्य उपसर्जनसंज्ञा भवति। "““प्राक्कडारात्समासः'', “ सहसुपा'', ““ तत्पुरुषः”, ““ विभाषा ये चारों सूत्र अधिकृत सूत्र हैं।","""प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः"", ""विभाषा"" इति सूत्रचतुष्टयमधिकृतम्‌।" "अग्निहोत्रादि के ही कर्मस्वरूपाविशेष में नित्यों का अनुष्ठानायासदुःमात्र से उपक्षय, काम्यों का स्वर्गादि महाफलत्व अंगीकार करने पर इनकी कर्तव्यताधिक्य के असत्‌ होने से ये कभी भी उपपद्य हो सकते है।","अमग्निहोत्रादीनामेव कर्मस्वरूपाविशेषे अनुष्ठानायासदुःखमात्रेण उपक्षयः नित्यानाम्‌ ; स्वर्गादिमहाफलत्वं काम्यानाम्‌ , अङ्गेतिकर्तव्यताद्याधिक्ये तु असति, तस्माच्च न कदाचिदपि उपपद्यते।" "कवियों में श्रेष्ठ कवि होता है, वैदिक ऋषि।",कविषु श्रेष्ठः कविः भवति वैदिकः ऋषिः। उसी प्रकार चिदाभास भी अखण्ड ब्रह्मत अज्ञान का नाश करके अन्त में स्वयं भी निवृत्त हो जाता है।,तथैव चिदाभासः अपि अखण्डब्रह्मगतम्‌ अज्ञानं नाशयित्वा अन्तिमे स्वयमेव निवृत्तं भवति। "बिल्व फल से मणि निर्माण की प्रक्रिया का, काल का तथा स्वरूप का।","बिल्वफलेन मणिनिर्माणस्य प्रक्रियायाः, कालस्य तथा स्वरूपस्य च।" इन पांच मंत्रों में श्रद्धा के मुख्यरूप से क्या क्या कर्तव्य होने चाहिए उसको कहा गया है।,एषु पञ्चमन्त्रेषु श्रद्धया किं किं कर्तव्यमिति मुख्यतया उक्तम्‌। "जो भूमि का स्रष्टा है और जो समस्त लोक का जनयिता सत्यधर्मा है द्यु जो चन्द्र, जल आदि का भी उत्पादक प्रजापति है, हमें कष्टों से बचाता है।","यः भूमिस्रष्टा, यश्च सर्वलोकजनयिता सत्यधर्मा यो वा चन्द्रोदकादीनामपि उत्पादकः सः प्रजापतिः अस्मान्‌ मा बाधताम्‌।" पर इस अर्थ में।,परमित्यर्थः। 21. “उपसर्जनं पूर्वम्‌” इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये?,"२१. ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इति सूत्रस्य एकम्‌ उदाहरणं देयम्‌?" विक्षेप के नाश होने से ही आवरण का नाश सरलता से हो जाता है।,विक्षेपनाशे आवरणनाशः सुकरो भवति। दाधार इसका क्या अर्थ है?,दाधार इत्यस्य कः अर्थः? "अत्यधिक गर्जना भयङ्कर शब्दो को करता हुआ जब आप पापी मनुष्य को मारते हो, तब सम्पूर्ण पृथिवी प्रसन्न होती है।","अतीव गर्जन्‌ भयङ्करशब्दं कुर्वन्‌ च यदा भवान्‌ पापिजनं हन्ति , तदा समग्रा पृथिवी प्रसन्ना भवति ।" पाणिनि के किस सूत्र में ब्राह्मण शब्द का प्रयोग देखा जाता है?,पाणिनेः कस्मिन्‌ सूत्रे ब्राह्मणशब्दस्य प्रयोगः दृश्यते? विदेहमुक्त का फिर आविर्भाव नहीं होता है।,विदेहमुक्तस्य पुनः आविर्भावः न भवति। वह श्लोक युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।,युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः। मनन के द्वारा प्रमेयगत असम्भावना दूर होती है।,मननेन प्रमेयगतासम्भावना दूरीभूता। "इनमें यम, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, तथा ब्रह्मचर्य के रूप में पाँच प्रकार का होता है।",एतेषु यमास्तावत्‌ अहिंसा सत्यम्‌ अस्तेयं ब्रह्मचर्यम्‌ अपरिग्रहश्चेति। इस सूत्र में यून: यह पञ्चम्येकवचनान्त पद है।,सूत्रेऽस्मिन्‌ यूनः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। 37. विक्षेप का स्वरूप क्या है?,३७. विक्षेपस्य स्वरूपं किम्‌? 40. “नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः'' इस सूत्र से क्या विधान होता है?,"४०. ""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" इति सूत्रेण किं विधीयते।" इरिणे इसका क्या अर्थ है?,इरिणे इत्यस्य कः अर्थः ? "न, अनुदात्तम्‌ इस पद की अनुवृति है।","न,अनुदात्तम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है अपन्था:।,उदाहरणम्‌ - अपन्थाः इति। उस मार्ग से नदियाँ प्रवाहित होती है।,तेन मार्गेण नद्यः प्रवहन्ति। आत्यन्तिक प्रलय का अपर नाम तुरीय प्रलय है।,आत्यन्तिकप्रलयस्य अपरं नाम तुरीयप्रलयः। प्रपञ्चरूप कार्य का मूल कारण ब्रह्म होता है।,प्रपञ्चरूपस्य कार्यस्य मूलं कारणं ब्रह्म। कोई भी इस पुरुष को ऊर्ध्व से ग्रहण नही कर सकता है।,किञ्चिदपि एनं पुरुषम्‌ ऊर्ध्वं न परिगृह्णाति। और ईयते यह तिङन्त पद है।,ईयते इति च तिङन्तं पदं वर्तते। अव्ययंविभक्ति इत्यादि सूत्र की व्याख्या कीजिये ।,अव्ययं विभक्ति इत्यादिसूत्रं व्याख्यात। वहाँ रुलाने वाला अथवा ज्ञानको देने वाला रुद्र कहलाता है।,तत्र रवणं रुत्‌ ज्ञानं राति ददाति इति रुद्रः इत्यर्थो भवति। "शाकः प्रियः यस्य इति विग्रह में ""अनेकमन्यपदार्थे"" इससे समास होने पर शाकप्रियः रूप होता है।","शाकः प्रियः यस्येति विग्रहे ""अनेकमन्यपदार्थे"" इत्यनेन समासे शाकप्रियः इति रूपम्‌ ।" जुआरी क्या देखकर के दुखी होता है?,कितवः किं दृष्ट्वा तप्यते ? सचस्व - सच्‌-धातु से आत्मनेपद में लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में सचस्व यह रूप बनता है।,सचस्व- सच्‌-धातोः आत्मनेपदे लोटि मध्यमपुरुषैकवचने सचस्व इति रूपम्‌। अतःघटाकार अन्तः करणवृत्ति घटावच्छिन्न चैतन्य के आवरक घटविषयक अज्ञान को दूर करती है।,अतः घटाकारा अन्तःकरणवृत्तिः घटावच्छिन्नचैतन्यस्य आवरकम्‌ घटविषयकम्‌ अज्ञानं दूरीकरोति । अत: खलपू शब्द अन्त उदात्त सिद्ध होता है।,अतः खलपूशब्दः अन्तोदात्तः इति सिध्यति। अर्थात्‌ अर्थ तथा कर्म के द्वारा जो प्राप्तव्य होता है वह प्रयोजन नहीं होता है इस प्रकार की उसकी बुद्धि हो जाती है।,अर्थात्‌ अर्थेभ्यः कर्मभ्यश्च यत्‌ प्राप्तव्यं तत्‌ प्रयोजनं नास्ति इति बुद्धिः भवति। वे अग्नि के प्रति जाना चाहते है।,ते अग्निं प्रति गन्तुम्‌ इच्छन्ति। वह परब्रह्म ही जिनका परम अयन आश्रय परमगति है अर्थात्‌ जो केवल आत्मामें ही रत हैं वे तत्परायण हैं (इस प्रकार) जिनके अन्तःकरण का अज्ञान ज्ञान द्वारा नष्ट हो गया है एवं उपर्युक्त ज्ञान द्वारा संसार के कारण रूप पापादि दोष जिनके नष्ट हो चुके हैं ऐसे ज्ञान निर्धूतकल्मष संन्यासी अपुनरावृत्ति को अर्थात्‌ जिस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर फिर देह से सम्बन्ध होना छूट जाता है ।,तत्परायणाश्च तदेव परम्‌ अयनं परा गतिः परमं प्राप्यं येषां भवति ते तत्परायणाः केवलात्मरतय इत्यर्थः। येषां ज्ञानेन नाशितम्‌ आत्मनः अज्ञानं ते गच्छन्ति एवंविधा अपुनरावृत्तिम्‌ अपुनर्देहसम्बन्धं मोक्षं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा यथोक्तेन ज्ञानेन निर्धूतः नाशितः । मैत्रायणी संहिता कृष्ण यजुर्वेद की दूसरी शाखा मैत्रायणी है।,मैत्रायणीसंहिता कृष्णयजुर्वेदस्य अन्यतमा शाखा मैत्रायणी। इस आदित्य वर्ण महान्त पुरुष को जाना या नहीं जाना इसी व्यतिहार से मैं जानता हूँ।,आदित्यवर्णं महान्तं पुरुषम्‌ एतं पुरुषं वेद अवेद्‌ इत्येवं व्यतिहारेण अहं वेद जानामि। यह अज्ञान अज्ञानोपाहित चैतन्य तथा ईश्वरादि तथा इनका आधारभूत अनुपहित चैतन्यरूप निर्विशेष निर्गुण ब्रह्म मात्र होता है।,एतद्‌ अज्ञानम्‌ अज्ञानोपहितं चैतन्यं च ईश्वरादिकम्‌ एतदाधारभूतम्‌ अनुपहितचैतन्यरूपम्‌ निर्विशेषं निर्गुणं ब्रह्ममात्रं भवति। फलस्वरूप धन पुष्टि वीर पुत्र सहित और कीर्ति को प्राप्त करता है।,फलस्वरूपम्‌ हि - धनम्‌ पुष्टिः विपुरवीरपुत्रसहिता कीर्तिः च। निषिद्धाचरण के प्रति आकर्षण होने से अधर्म की सत्ता अन्तःकरण में बढ़ने लगती है।,निषिद्धाचरणं प्रति आकर्षणाद्‌ अधर्मस्य सत्ता अन्तःकरणे अनुमीयते। पञ्चगवधनः इत्यादि में टच्‌ प्रत्यय विधायक “गोरतद्धितलुकि '' सूत्र की व्याख्या की गई है।,"पञ्चगवधनः इत्यादौ टच्प्रत्ययविधायकं ""गोरतद्धितलुकि"" इति सूत्रं व्याख्यातम्‌ ।" "और वे युक्तियाँ इस प्रकार हैं - मनुष्यों के शरीर प्रत्यक्ष दृश्य हैं, अग्नि वायु सूर्य आदि का शरीर प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं सिद्ध है, इस कारण उनका साकारत्व नहीं स्वीकार ने योग्य है।","तेषां च युक्तयः एवं- मनुष्यशरीराणि प्रत्यक्षं दृश्यन्ते, अग्निवायुसूर्यादीनां शरीरं प्रत्यक्षप्रमाणेन न लभ्यते, तेन तेषां साकारत्वं न स्वीकारयोग्यम्‌।" सरलार्थ - उसने (मछली ने) कहा -जब तक हम छोटे है तब तक हमको बड़ा डर लगता है।,सरलार्थः - सः (मत्स्यः) उक्तवान्‌ - यावत्‌ वयं क्षुद्राः स्थाष्यामः तावत्‌ अस्माकं महाभयम्‌। रोगों की उत्पत्ति कैसे होती है?,रोगाणाम्‌ उत्पत्तिः कथं भवति? प्रकृत सूत्र से विहित उदात्त धर्म से तृतीया आदि विभक्ति में अच्‌ को होता है।,प्रकृतसूत्रे विहितः उदात्तत्वधर्मश्च तृतीयादिविभक्तेः अचः भवति भलेही अज्ञान भावरूप होता है।,यद्यपि अज्ञानं भावरूपं भवति । दिवादिगण में जिस ईड गतौ इस धातु से लट्‌ प्रथम ।,दिवादिगणीयस्य ईङ्‌ गतौ इति धातोः लटि प्रथम। अर्थात्‌ ये उपाय एकान्त उपाय नहीं माने जाते है।,अर्थात्‌ एते उपाया एकान्ता न सन्ति। विवेकानन्द का यही कहना था कि शास्त्रों को केवल पढना ही नहीं चाहिए अपितु अपने जीवन में उसके उपदेशों का पालन भी करना चाहिए।,विवेकानन्दस्य दर्शने वेदान्तस्य व्यावहारिकः प्रयोगः सम्यक्तया उलभ्यते। विवेकानन्दस्य मतम्‌ आसीद्‌ यत्‌ शास्त्राणि न केवलं पठितव्यानि अपि तु शास्त्रोपदेशः स्वजीवने पालनीयः। संहिता पाठ से सम्बन्धित सभी विषयों का वहाँ अङ्ग उपाङगों सहित प्रतिपादन किया है।,संहितापाठसम्बन्धिनः सर्व अपि विषयाः तत्र साङ्गोपाङ्गतया प्रतिपादिताः। इससे चित्प्रत्ययान्त का प्रकृति प्रत्यय समुदा के अन्त्य स्वर को उदात्त करने का नियम किया है।,अनेन चित्प्रत्ययान्तस्य प्रकृतिप्रत्ययसमुदास्य अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वं विधीयते। वह विग्रह लौकिक और अलौकिक भेद से दो प्रकार के होते हैं।,स च विग्रहः लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधः। "'इस काल से विशिष्ट तथ इस देश से विशिष्ट यह वह देवदत्त है ' यहाँ पर 'वह' अर्थात्‌ तत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड, “यह ' अर्थात्‌ एतत्कालविशिष्ट देवदत्तरूपपिण्ड अभिन्न जब प्रतीत होता है।",“एतत्कालविशिष्टः एतद्वेशविशिष्टः च देवदत्तः अयं सः” इत्यत्र सः अर्थात्‌ तत्कालतद्देशविशिष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ अयम्‌ अर्थात्‌ एतत्कालैतद्वेशविशिष्टः देवदत्तरूपपिण्डः अभिन्नः इति यदा प्रतीयते । सत्यझूठ से रहित फल को अवश्य देता है यह अर्थ है।,सत्यः अनृतरहितः फलमवश्यं प्रयच्छतीत्यर्थः। व्यष्ट्यज्ञानोपहित चैतन्य प्राज्ञ कहलाता है।,व्यष्ट्यज्ञानोपहितं चैतन्यं प्राज्ञः इत्युच्यते। स्पष्ट ज्ञान के द्वारा कोई भी मानव पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है।,स्पष्टज्ञानेन यः कोऽपि मानवः पुरुषार्थलाभाय यतेत। किस प्रकार के मनीषियों को।,कीदृशाः मनीषिणः। यही परिभाषा अर्थ है।,इति परिभाषार्थः। अखण्डाकारिता चित्तवृत्ति ही रुकती है।,अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिश्च अवतिष्ठते। गोपाय यहाँ पर गकार उत्तर ओकार उदात्त है और यकार उत्तर अकार उदात्त है।,गोपाय इत्यत्र गकारोत्तरः ओकारः उदात्तः यकारोत्तरः अकारश्च उदात्तः अस्ति। रात्रि में चौर्य-व्यभिचारादि पाप उससे परोक्ष नहीं होते है।,रात्रौ चौर्य-व्यभिचारादिपापानि तस्य परोक्षं न भवन्ति। अर्थात्‌ ज्ञान रूप आत्मा अविद्या की विरोधी नहीं होती है।,अर्थात्‌ ज्ञानरूपः आत्मा न अविद्यायाः विरोधी। तीसरे प्रपाठक में चार होताओं के चित्त में उपयोगी मन्त्रों का सङ्ग्रह है।,तृतीयप्रपाठकः चातुर्होत्रचितेः उपयोगिनां मन्त्राणां सङ्ग्रहोऽस्ति। जो कर्म योग नहीं करता है वह फलाशय कर्म करता हुआ कर्मबद्ध हो जाता है।,"यः कर्मयोगं न करोति, फलाशया कर्म करोति स कर्मबद्धो भवति।" कभी अव्यय से युक्त तिङन्त में स्वर का विधान है।,कदाचित्‌ अव्ययेन युक्ते तिङन्ते स्वरः विधीयते। परीक्षा समय अवधि (71९) तीन घंटे (3) पूर्णाक (Full Marks )-100 प्रश्‍न हैं ।,परीक्षासमयावधिः (71९) होरात्रयम्‌ (३) पूर्णाङ्काः (Full Marks) - १०० अस्मिन्‌ प्रश्नपत्रे सन्ति। जिसने बृहत्‌ चन्द्र के समान आह्लादित करने वाले उदक या जल को बनाया।,यश्च बृहतीः महतीः चन्द्रा आह्णादिनीः अपः उदकानि जजान जनयामास। बिभर्षि द्विऽप।दः,बिभर्षि द्विऽपदः। "शार्ङ्गरवादयः च अञ्‌ च (शार्ङ्गरवादिक और अञ) शार्ङ्गरवाद्यञ्‌, उससे शार्ङ्गरवाद्यअः।","शार्ङ्गरवादयश्च अञ्‌ च इति शार्ङ्गरवाद्यञ्‌, तस्मात्‌ शार्ङ्गरवाद्यअः।" इस सूक्त में दान-महिमा का सुन्दर वर्णन है।,सूक्तेऽस्मिन्‌ दान-महिम्नः सुन्दरं वर्णनमस्ति। वैदिक ऋषि की प्रतिभा उषादेवी के चरित्र चित्रण में सभी रूप से कुशल ही है।,वैदिकर्षेः प्रतिभा उषादेव्याः चरित्रचित्रणे सर्वथा एव कुशला। इस प्रकार से विवेकानन्द का सेवा भाव ही वस्तुतः उनके दर्शन के विशिष्ठ्य में अन्यतम है।,एवं विवेकानन्दस्य सेवाभावः वस्तुतः तदीयदर्शनस्य वैशिष्ट्येषु अन्यतमः। "ऋषियों ने तप तथा दिव्य चक्षुओं से जो ज्ञान प्राप्त किया और जो शब्द राशि का संग्रह किया, वह वेद है।","ऋषिभिः तपसा दिव्यचक्षुर्भ्यां यद्‌ ज्ञानं लब्धं यः शब्दराशिः अधिगतः, स वेदः।" उससे वह पवित्र प्रेमपूर्ण जीवन में ही अत्यधिक श्रद्धा को प्रकट करते है।,तस्मात्‌ स पवित्रप्रेमपूर्णे जीवने महतीम्‌ एव श्रद्धां प्रकाशयति। सत्र याग की प्रकृति गवामयन नामक यज्ञ है।,सत्रयागस्य प्रकृतिः हि गवामयननामकयज्ञः। ” (स्वामिविवेकानन्दस्य ` वाणी ओ रचना') इससे यह मानना चाहिए की श्री रामकृष्णदेव का जीवन तथा उनके उपदेशामृत को जिस प्रकार से लोग ग्रहण कर सके उसके लिए विवेकानन्द ने प्रयास किया।,(स्वामिविवेकानन्दस्य 'वाणी ओ रना) एतस्माद्‌ अवधारणीयं यत्‌ श्रीरामकृष्णदेवस्य जीवनं तथा तस्य उपदेशामृतं यथा जना अवगन्तुं ग्रहीतुं च शक्नुयुः तथा जनानां मनोभूमिनिर्माणाय एव विवेकानन्देन प्रयतितम्‌। जिसके द्वारा कार्यकारणसंघातरूप आत्म वश में होती है वह जितेन्द्रिय होता है।,येन कार्यकारणसंघातरूपः आत्मा (न तु प्रत्यगात्मा) वशीकृतः स जितेन्द्रियः| "उनमें “ अव्ययीभावेशरत्प्रभृतिभ्यः”, “अनश्च” ये दो सूत्र नित्य टच्‌ प्रत्यय विधायक सूत्र है।","तेषु ""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" ""अनश्च"" इति सूत्रद्वयं नित्यं टच्प्रत्ययविधायकम्‌।" 15. अपरिग्रह किसे कहते हैं?,१५. अपरिग्रहो नाम कः? प्रश्‍न उत्पन्न होता है।,इति प्रश्नः समायाति। इस ग्रन्थ में वाजसनेयी संहिता में प्रयुक्त नाम औष्ठ्य वर्णो का सङ्ग्रह विद्यमान है।,अस्मिन्‌ ग्रन्थे वाजसनेयीसंहितायां प्रयुक्तानां नामौष्ठ्यवर्णानां सङ्ग्रहो विद्यते। माध्यन्दिनीशिक्षा- इस ग्रन्थ में केवल द्वित्व नियमों का ही विवेचन है।,माध्यन्दिनी शिक्षा- ग्रन्थे अस्मिन्‌ केवलं द्वित्वनियमानां विवेचनम्‌ अस्ति। "देवानां पूजकः देवपूजकः (देवताओं के पूजक) देवपूजक, देवपूजकः ब्राह्मणः देवब्राह्मणः।","देवानां पूजकः देवपूजकः, देवपूजकः ब्राह्मणः देवब्राह्मणः ।" 14. वीर्य लाभ होता है।,१४. वीर्यलाभो भवति। वैदिक काल से लेकर के आज भी गुरुकुलो में तथा विभिन्न प्रतिष्ठानो में गुरु शिष्य माध्यम से वेदपाठ प्रचलित है।,आवैदिककालात्‌ अद्यापि गुरुकुलेषु तथा विभिन्नेषु प्रतिष्ठानेषु गुरुशिष्यमाध्यमेन वेदपाठः प्रचलति। द्युलोक के सभी देव सुर्य के तथा अन्तरिक्ष के सभी इन्द्र के नाना प्रकाश स्वरूप है।,द्युलोकस्य सर्वे देवाः सूर्यस्य तथा अन्तरिक्षस्य सर्वे इन्द्रस्य नानाप्रकाशस्वरूपाः। “कुत्सितानि कुत्सनैः” इस सूत्र का उदाहरण दीजिये।,"""कुत्सितानि कुत्सनैः"" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌ ।" हि च इस सूत्र से हि इस अव्ययपद की अनुवृति है।,हि च इति सूत्रात्‌ हि इति अव्ययपदमनुवर्तते। इस में किए जाने वाले कर्म ही क्रियमाण कर्म पद के वाच्य है।,अस्मिन्‌ जन्मनि क्रियमाणानि कर्माणि हि क्रियमाणकर्मपदवाच्यानि। जिस प्रकार राजपुरुषम्‌ आनय (राजपुरुष को लाओ) ऐसा कहने पर पुरुष रूप अर्थ का आनयनम्‌ (बुलाना) इष्टं न ही है राजन्‌ पद का अर्थ राज्ञः।,यथा राजपुरुषमानय इत्युच्यते चेत्‌ पुरुषरूपार्थस्य आनयनम्‌ इष्टं न तु राजन्पदार्थस्य राज्ञः। सभी वेद में कहा गया है।,उक्तं सर्वं निगमयति। तो ध्यान योग में आरूढ होने की इच्छा करता है वह आरुरुक्षु कहलाता है।,यः ध्यानयोगम्‌ आरोढुम्‌ इच्छति स आरुरुक्षुः। तुम्हारा अकेला रथ धीरे धीरे चले।,युवयोरेको रथः अन्वाववर्त अनुक्रमेण परिभ्रमति। इसका नामकरण भी उससे ही होता है।,अस्य नामकरणम्‌ अपि तेनैव भवति। इस प्रकृत पाठ में हमारे द्वारा समास स्वर की आलोचना की है।,प्रकृतपाठे अस्मिन्‌ अस्माभिः समासस्वराः आलोच्यन्ते। शाकल शाखा के अनुसार ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र क्या है?,शाकलशाखानुसारेण ऋग्वेदस्य अन्तिमो मन्त्रः कः? जैसे रागपाश के बन्धन कारण मन होता है वैसे ही रागपाश के मोचन के लिए भी मन का ही कारण्य अपेक्षित होता है।,रागपाशेन बन्धकारणं मनः यथा भवति तथा रागपाशस्य मोचनार्थमपि मनसः कारुण्यमपेक्षते। उस युग में प्रजा ही राजा का चुनाव करती थी।,तस्मिन्‌ युगे प्रजाः एव राज्ञः संवरणम्‌ कृतवन्तः। बहुत समय तक अष्टाङ्ग सहित निर्विकल्पक समाधि के अभ्यास की कुशलता से प्रत्यगभिन्न परमान्द ब्रह्म में चित्तवृत्ति का लय यह प्रथम प्रकार है।,तथाहि बहुकालं यावत्‌ अष्टाङ्गसहितस्य निर्विकल्पकसमाधेः अभ्यासपटुतावशात्‌ प्रत्यगभिन्ने परमानन्दे ब्रह्मणि चित्तवृत्तेः लयः प्रथमविधः। नमोऽस्तु नीलग्रीवाय ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,नमोऽस्तु नीलग्रीवाय....इति मन्त्रं व्याख्यात। 3. सम्पूर्ण कालपरिणाम कहाँ से उत्पन्न हुआ?,३. सम्पूर्णः कालपरिणामः कुतः उत्पन्नः? अतः सदानन्दयोगीन्द्र ने स्वस्वरूपभूत अखण्डब्रह्म के ज्ञान को ही अज्ञान का विनाशक कहा है।,अतः सदानन्दयोगीन्द्रः स्वस्वरूपभूत-अखण्डब्रह्मणः ज्ञानम्‌ एव अज्ञानस्य विनाशकः इति उक्तवान्‌। उसमें इतरेतरद्वन्द्वगर्भ बहुव्रीहि समास है। ञ्णित इससे तद्भितों में इसके अन्वय से उसका एकवचनान्तत्व है।,तस्मिन्‌ इति इतरेतरद्वन्द्वगर्भबहुब्रीहिसमासः। ञ्णिति इत्यनेन तद्धितेषु इत्यस्य अन्वयात्‌ तस्य एकवचनान्तत्वं भवति । 3. किन कर्मों का त्याग सर्व कर्म संन्यास कहलाता है?,३. केषां कर्मणां त्यागः सर्वकर्मसन्न्यासः उच्यते। सामवेद से सम्बद्ध भी एक आरण्यक है।,सामवेदेन सम्बद्धम्‌ अप्येकम्‌ आरण्यकमस्ति। इसलिए यह मनोमयकोश आत्मा नहीं होता है।,अतः मनोमयः नात्मा। यह सूत्र टाप्‌ प्रत्यय विधायक है।,इदं सूत्रं टाप्प्रत्ययं विदधाति। अद्भ्यः सम्भृतः इति पुरुषसूक्त में वर्णित मन्त्र कहाँ से लिए गये है?,अद्भ्यः सम्भृतः इति पुरुषसूक्ते उपात्ता मन्त्राः कुत आनीताः। वह ज्ञान किस प्रकार से उत्पन्न होता है।,तच्च ज्ञानं कथं उत्पद्यते । उनमें लय नहीं होती है।,न तेषां लयो भवति। 6. धारण ध्यान तथा समाधियों का एक स्थान पर किस प्रकार का अभिधान होता है?,६. धारणा-ध्यान-समाधीनाम्‌ एकत्र किमभिधानम्‌? "प्राचीन अंश में क्रिया अर्थक क्रिया की सूचना के लिए तवै, से, असे, अध्यै, इत्यादि प्रत्ययों का प्रयोग होता है।","प्राचीनांशे क्रियार्थकक्रियायाः सूचनार्थं तवै , से, असे, अध्यै, इत्यादयः प्रत्ययाः प्रयुक्ताः सन्ति।" उससे जितना धन प्राप्त करोगे उससे ही आनन्द का अनुभव करो।,तेन यत्‌ धनं त्वं प्राप्स्यसि तत्रैव आनन्दम्‌ अनुभव । "और वहाँ पर हस्वान्तस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, स्त्रीविषयस्य यह भी षष्ठी एकवचनान्त पद है।","तत्र च हस्वान्तस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, स्त्रीविषयस्य इत्यपि षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌।" तन्तु के दग्ध होने पर तन्तुकार्य पट भी दग्ध हो जाता है।,तन्तवः दग्धाः भवन्ति चेत्‌ तन्तुकार्यं पटोऽपि दग्धः भवति। अनादिकाल से बाह्याभ्यन्तर रागों के अनुभव से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा कलुषित चित्त कभी श्रवणादि के अभ्यास द्वारा अन्तर्मुखी होता हुआ भी ब्रह्म के ग्रहण में असमर्थ तथा स्तब्ध हो जाता है।,अनादिकालात्‌ बाह्याभ्यन्तराणां रागादीनाम्‌ अनुभवात्‌ सञ्जातैः संस्कारैः कलुषितं चित्तं कदाचित्‌ श्रवणादीनाम्‌ अभ्यासेन अन्तर्मुखीनम्‌ अपि ब्रह्मग्रहणाय असमर्थं सत्‌ स्तब्धं भवति। आजकल प्राप्त पाणिनीय शिक्षा प्राचीन शिक्षासूत्रों की सहायता से रचना की गई है ऐसा बुद्धिमानों का विचार है।,साम्प्रतं समवाप्ता पाणिनीयशिक्षा प्राचीनशिक्षासूत्राणां साहाय्येन प्रणीता अभूद्‌ इति बुधानां विचारः। धारणा की कुशलता के अभाव में ब्रह्मविषयी चित्तवृत्ति विच्छिन्न होकर धीरे धीरे एकाग्र जब होती है तब वह ध्यान कहलाता है।,धारणापटुतायाः अभावेन ब्रह्मविषयिणी विच्छिद्य विच्छिद्य चित्तवृत्तिः यदा भवति तद्‌ ध्यानम्‌ इत्युच्यते। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥ ४॥,स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥ ४ ॥ श्री रामकृष्णदेव ने ही ब्रह्म का निराकार निर्गुण अव्यक्तादिरूप स्वीकार करते हुए उसके साकार अनन्तमयादि गुणों को भी स्वीकार किया है।,"श्रीरामकृष्णदेवः ब्रह्मणो निराकार-निर्गुणाव्यक्तादिरूपं स्वीकुर्वन्‌ अपि तस्य साकारानन्तगुणमयादिरूपं स्वीकरोति, स स्वयम्‌ एव एतदुपलभते स्म।" किन्तु वहाँ ब्राह्मण भाग का अलग से निर्देश है।,किञ्च तत्र ब्राह्मणभागः पृथक्तया निर्दिष्टः। उप-नि-पूर्वक विशरण गति अवसादन अर्थ से “षद्लृ -धातु से क्विप प्रत्यय में रूप उपनिषद्‌ बनता है।,उप-नि-पूर्वकात्‌ विशरणगत्यवसादनार्थकात्‌ 'षद्लृ-धातोः क्विप्प्रत्यये रूपम्‌ उपनिषदिति। सम्पूर्ण घर के कार्यों में अग्नि की अत्यन्त आवश्यकता होती है।,सम्पूर्णगृहकार्याय अग्नेः महती आवश्यकता अस्ति। वह ब्रह्म को जानने वाला बनकर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है इस प्रकार से तैत्तिरीय श्रुति में कहा गया है।,ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌ इति तैत्तिरीयश्रुतेः। इस प्रकार से कर्म ही बलपूर्वक जन्म करवाते है तथा मृत्यु करवाते है।,कर्म इत्थं बलपूर्वकं जन्म कारयति। मृत्यं कारयति। उसी अर्थ में है।,उ एवार्थे। धातु और प्रातिपदिक में षष्ठी विभक्ति होती है।,धातुप्रातिपदिकयोः इति षष्ठीविभक्तिः अस्ति। सूत्रार्थः - आमन्त्रित का आदि उदात्त होता है।,सूत्रार्थः - आमन्त्रितस्य आदिः उदात्तः भवति। अद्वैतवेदान्त में मुक्ति दो प्रकार की होती है।,अद्वैतवेदान्तमते मुक्तिः द्विविधा। "अत: जिस वाक्य से सम्बोधन करते हैं, वह संबोधन है, अर्थात्‌ सम्बुद्धि यह अर्थ यहाँ जानना चाहिए।",अतः सम्बोधयति येन वाक्येन तत्संबोधनम्‌ अर्थात्‌ सम्बुद्धिः इत्येवम्‌ अर्थः अत्र बोद्धव्यः| इसलिए निर्विकल्प समाधि का गोबलीवर्दन्याय के द्वारा तथा वसिष्ठब्राह्मणन्याय के द्वारा अलग से उपदेश विहित है।,अतः निर्विकल्पसमाधेः गोबलीवर्दन्यायेन वशिष्ठब्राह्मणन्यायेन वा पृथक्तया उपदेशो विहितः। "इस अध्याय में उस समय के समाज की अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है, तथा कला कौशल का परिचय प्राप्त होता है।","अस्मिन्नध्याये तात्कालिकसमाजस्य अवस्थायाः, वृत्तेस्तथा कलाकौशलस्य परिचयः प्राप्यते।" "उसका तात्पर्य यह है कि संहिता स्तुति प्रधान है, ब्राह्मण ग्रन्थ में उसका विधान ही प्रधान है।","स्य तात्पर्यमिदम्‌ अस्ति यत्‌ संहितायां स्तुतीनां प्राधान्यम्‌ अस्ति, ब्राह्मणग्रन्थे तद्विधीनाम्‌ एव प्राधान्यम्‌ अस्ति।" क्योंकि आप दोनों ही क्रोध से रहित होने पर धन को हजार स्तम्भ के समान धारण करो।,यतो हि भवन्तौ उभौ क्रोधविहीनौ सन्तौ धनं सहस्रस्तम्भसमन्वितं सौधं च धारयतः इति।। वहाँ वैज्ञानिक पद्धत्ति से व्याकरण का प्रतिपादन किया है।,तत्र वैज्ञानिक्या पद्धत्या व्याकरणं प्रतिपादितम्‌ अस्ति। उसका कर्ता आत्मवान कहलाता है।,तस्य कर्ता अनात्मविद्‌। जन्म के बाद ये देव रोया था इसीलिये रुद्र का सरुद्रत्व कारण है।,जन्मनः परम्‌ अयं देवः रुदितवान्‌ इति रुद्रस्य रुद्रत्वे कारणम्‌। यहाँ प्रसङ्ग से तत्पुरुषसमास निष्पन्न शब्दों के लिङग निर्णायक सूत्रों को समास में विशिष्ट आदेश और विधायक सूत्रों का वर्णन किया गया है।,तत्र प्रसङ्गतः तत्पुरुषसमासनिष्पन्नानां शब्दानां लिङ्गनिर्णायकानि सूत्राणि समासे विशिष्टादेशविधायकानि च सूत्राणि वर्णितानि । अतः उसका निपात होने से प्रकृत सूत्र से 'स्वाहा' इसका आदि आकार को उदात्त होने का नियम है।,अतः तस्य निपातत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण 'स्वाहा' इति अस्य आदेः आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। “सह सुपा'' इस सूत्र से किस प्रकार का समास होता है?,"""सह सुपा"" इत्यनेन सूत्रेण कीदृशः समासो भवति?" मध्यन्दिन यह अर्थ है।,मध्यन्दिनम्‌ इत्यर्थः। विशेष्य के स्वरूप विषय संस्कार सहकृत पदों के श्रवण ही विशेष्यस्वरूप की उपस्थिति होती है।,विशेष्यस्य स्वरूपविषयकसंस्कारसहकृतपदानां श्रवणात्‌ एव विशेष्यस्वरूपस्य उपस्थितिः भवति। समाहार में द्विगु और द्वन्द नपुंसक होता है।,समाहारे द्विगुर्द्वन्द्वश्च नपुंसकं भवति । मनसोपचार ईश्वर की पूजा ही ईश्वरप्रणिधान होता है।,मानसैः उपचारैः ईश्वरस्य अर्चनमेव ईश्वरप्रणिधानम्‌। इसलिए सभी वेदान्तों का ब्रह्म एक्य में ही तात्पर्य होता है।,अतः समेषामपि वेदान्तानां ब्रह्मात्मैक्ये तात्पर्यमिति । न केवल चतुर्दश भुवनों को अपितु इस ब्रह्माण्ड की और ब्रह्माण्ड अन्तर्गत चार प्रकार के स्थूल शारीरों की और अन्नपानादि की उत्पत्ति भी इस पञ्चीकृत महाभूत से होती है।,"न केवलं चतुर्दशभुवनानाम्‌, अस्य ब्रह्माण्डस्य, ब्रह्माण्डान्तर्गतानां च चतुर्विधस्थूलशरीराणाम्‌ अन्नपानादीनां च उत्पत्तिरपि पञ्चीकृतभूतेभ्यो जायते।" और दोनों समुच्चित ज्ञान कर्म के द्वारा भी नहीं।,न च ज्ञानकर्मणोः समुच्चितयोः। सूत्र का अर्थ- कतर तथा कतम पूर्वपद को कर्मधारय समास में विकल्प खे प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः- कतरशब्दः कतमशब्दश्च पूर्वपदं कर्मधारये समासे अन्यतरस्यां प्रकृत्या भवति। "व्याख्या - यह अग्नि पूर्व पुरातन भृग्वङिगर आदि ऋषियों के द्वारा स्तुति की गई है, नूतन उत अभी हमारे द्वारा इसकी स्तुति की जाती है।","याख्या- अयम्‌ अग्निः पूर्वभिः पुरातनैः भृग्वङ्गिरःप्रभृतिभिः ऋषिभिः ईड्यः स्तुत्यः, नूतनैः उत इदानीन्तनैः अस्माभिरपि स्तुत्यः।" अव्ययी भावेशरत्प्रमृतिम्यः यहाँ से अव्ययीभाव में पद की अनुवृत्ति है।,अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः इत्यतः च अव्ययीभावे इति पदमनुवर्तते। सुख के दो प्रकार हैं नित्य और अनित्य।,तत्र सुखं द्विविधम्‌। नित्यम्‌ अनित्यं च। तवेत्तत्‌ इसका तेरा ही यह अर्थ प्राप्त होता है।,तवेत्तत्‌ इत्यस्य तव एव तद्‌ इत्यर्थो लभ्यते। "प्रकृति, प्रत्यय, धातु, उपसर्ग और समास पदों का विभाग करने से निर्धारित होता है कि उसके बीते हुए काल को अनेक शताब्दी बीत गई।",प्रकृतिप्रत्ययधातूपसर्गसमासवतां पदानां विभागश्च कृत्स्नतया निर्धारितो जातो यदा तस्य गतस्य कालस्य अनेकसहस्राब्दाः व्यतीताः। स्वपिति यह इस जीव का लोकप्रसिद्ध नाम होता है।,स्वपितीति अस्य जीवस्य लोकप्रसिद्धं नाम भवति। उनके विरोध के क्या कारण हैं छात्र इनको जानकर सूक्ष्म चिंतन कर सके।,तेषु विरोधस्य कानि कारणानि इति ज्ञात्वा छात्रः सूक्ष्मं चिन्तनं कर्तुम्‌ प्रभवेत्‌। वेदान्तपरिभाषाकार धर्मराजध्वरीन्द्र के मत में तो यहाँ लक्षणा ही नहीं होती है।,वेदान्तपरिभाषाकाराणां धर्मराजाध्वरीन्द्रागां मते तु अत्र लक्षणा एव नास्ति। "मैं जिसको चाहती हूँ उसको ही बलवान, ब्रह्माण, मन्त्रद्रष्टा, और मेधावी बना देती हूँ।","अहं यमिच्छामि तमेव बलवन्तं, ब्रह्माणं, मन्त्रद्रष्टारं, मेधाविनं च करोमि।" विषयों में इन दोषों को देखकर के योगी को विषयों का परित्याग कर देना चाहिए।,विषयेषु एतान्‌ दोषान्‌ वीक्ष्य योगी विषयान्‌ परित्यजेत्‌। अपने घर में यज्ञशाला में हवि के द्वारा बढ़ता है।,स्वे दमे स्वकीयगृहे यज्ञशालायां हविर्भिः वर्धमानम्‌। "यहाँ जानत्‌ यह शतृप्रत्ययान्त का रूप है, और वहाँ शतृ प्रत्यय को नुम्‌ आगम नहीं होता है।","अत्र जानत्‌ इति शतृप्रत्ययान्तं रूपम्‌, तत्र च शतृप्रत्ययस्य नुमागमो न भवति।" इस पशुयाग में जो पशु के संज्ञपन श्वास रोधन आदि किये जाते हैं वे पशुवध नहीं माने जाते।,अस्मिन्‌ पशुयागे पशोः संज्ञपनश्वासरोधादिकं यत्‌ क्रियते तत्‌ पशुवधः इति न मन्यते। "चतुर्थ मन्त्र मर कहा गया की सन्यासी विद्वान श्रद्धा को हृदय में स्थित करके उसका सेवन करते है, यजनशील प्राणायाम वायूरक्षक है जिनका वे उसके समान होकर के श्रद्धाका हमेशा सेवन करते है, वह सेवन करते हुए धन को प्राप्त होते है।","चतुर्थे मन्त्रे उच्यते यत्‌ मुमुक्षुवो विद्वांसो श्रद्धां हृदयस्थां कृत्वा सदिच्छां सेवन्ते , यजनशीलाः प्राणायामैर्वायूरक्षको येषां ते तथाभूताः श्रद्धां सदिच्छां सेवन्ते ते सदिच्छया धनं लभन्ते।" आकृति के स्वरूप से यहाँ शब्दों का ग्रहण होता है वह आकृतिगण है।,आकृत्या स्वरूपेण यत्र शब्दनां ग्रहणं भवति स आकृतिगणः। परन्तु वैदिक वाक्य शब्द प्रमाण से ही सिद्ध होते है।,परन्तु वैदिकवाक्यानि शब्दप्रमाणेन एव सिध्यन्ति। तत्र अन्यं प्रमाणम्‌ न अपेक्ष्यते। हमारी लौकिक संस्कृती में बहुत से याग हमारे द्वारा परिलक्षित तथा पालित हैं।,अस्माकं लौकिकसंस्कृतौ बहवः यागाः अस्माभिः परिलक्ष्यन्ते किञ्च पाल्यन्ते अपि। वसिष्ठ के द्वारा गृत्समदकऋषि।,वसिष्ठेन। गृत्समद-ऋषिः। 11. एषो ह देवः ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,११. एषो ह देवः ... इति मन्त्रं व्याख्यात। इस समय संशय जड होती है चित्त प्रतिबिम्ब युक्त होने पर अज्ञान तथा अज्ञान के कार्य का नाश करती है।,अधुना संशयो भवति जडा वृत्तिः चित्प्रतिबिम्बिता सती अज्ञानम्‌ अज्ञानकार्यं च नाशयति। उनमें विष्णुसूक्त का सार आदिपूर्वार्ध में कह दिया है।,तयोः विष्णुसूक्तस्य सारादिकम्‌ पूर्वार्ध विद्यते। लौकिक में तो देवै: यह रूप बनता है।,लौकिके तु देवैः इति रूपम्‌। "वस्तुतः शम, दम, तथा उपरति के द्वारा बाह्यविषयों से निवृत्ति होती है।",वस्तुतः शमदमोपरतिभ्यः बहिर्विषयेभ्यः निवृत्तिः भवति। वेदान्त आधारित दर्शन प्रचार का कारण भले ही श्रीरामकृष्ण के प्रभाव का प्रचार ही विवेकानन्द का उद्देश्य हुआ फिर भी वेदान्त दर्शन का आश्रय लेकर के विवेकानन्द ने अपने दर्शन का प्रचार किया इसका कारण यह है कि उनके मन में यह था की रामकृष्ण के प्रभाव को विश्व जाने इसलिए विश्व को पहले एकसूत्र में बाँधना जरूरी है।,"वेदान्ताधारेण दर्शनप्रचारस्य कारणम्‌ द्वितीयतः, यद्यपि श्रीरामकृष्णभावप्रचार एव विवेकानन्दस्य उद्देश्यम्‌ आसीत्‌ तथापि वेदान्तदर्शनम्‌ आश्रित्य विवेकानन्दः स्वीयदर्शनं प्रचारितवान्‌ इत्यत्र कारणं हि तन्मते- श्रीरामकृष्णवचनस्य तात्पर्यं विश्वजनीनम्‌, तस्मात्‌ तत्प्रकाशनाय विश्वजनीनो एको माध्यमः अपेक्षितः।" मायाकृत द्वैत से रहित होता है।,मायाकृतं यत्‌ द्वैतमस्ति तद्रहितं भवति। कैवल्यफल में ही ज्ञानप्राप्ति होने पर सर्वतः सम्प्लुतोदकफल में कूपतटाकादिक्रियाफलार्थित्व अभाव से समान ही फलान्तर तत्साधनभूता क्रिया में अर्थित्व की अनुपपत्ति होती है।,"कैवल्यफले हि ज्ञाने प्राप्ते, सर्वतःसम्प्लुतोदकफले कूपतटाकादिक्रियाफलार्थित्वाभाववत्‌ फलान्तरे तत्साधनभूतायां वा क्रियायाम्‌ अर्थित्वानुपपत्तिः।" "जब समाज में भोगविलास की शक्ति बढ़ जाती है, तब द्युत कार्य भी बढ़ता है।",यदा समाजे भोगविलासानां शक्तिः वर्धिता भवति तदा द्युतकार्यम्‌ अपि वर्धते। अतः तदर्थ इसका चतुर्थ्यन्तार्थ के लिए यह अर्थ है।,अतः तदर्थ इत्यस्य चतुर्थ्यन्तार्थाय इदम्‌ इत्यर्थः। अतः मल के नाश होने से विक्षेप का नाश होता है।,अत एव मलनाशे विक्षेपनाशः भवति। यह अंश बिना संदेह के रूप से प्रातिशाख्य निरुक्त आदि से भी प्राचीन है।,अयम्‌ अंशः असन्दिग्धरूपेण प्रातिशाख्यनिरुक्ताभ्यां प्राचीनतरः अस्ति। सूत्र का अवतरण- एव आदि शब्दों के अन्त्य स्वर का उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की हेै।,सूत्रावतरणम्‌- एवादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। "व्याख्या - तब भी और जब इन्द्र ने अवश्य वध करने योग्य शत्रुओं में मेघों के मध्य में प्रथम उत्पन्न मेघ को मारा, और उसके बाद मायावी निशाचरों को उनकी सम्पूर्ण माया के साथ अच्छी प्रकार से नाश किया।",व्याख्या- उत अपि च हे इन्द्र यत्‌ यदा अहीनां मेघानां मध्ये प्रथमजां प्रथमोत्पन्नं मेघम्‌ अहन्‌ हतवानसि आत्‌ तदनन्तरं मायिनां मायोपेतानामसुराणां सम्बन्धिनीः मायाः प्र अमिनाः प्रकर्षेण नाशितवानसि। "अगर ये कहें की आत्मा से तेज की उत्पत्ति छान्दोग्योपनिषद्‌ में कही गयी है तथा यहाँ पर तो वायु से तेज की उत्पत्ति कही गयी है यह तो असङ्गत है, तो ऐसा भी नहीं है।","ननु आत्मनः तेजसः उत्पत्तिः छोन्दोग्ये आम्नायते, इह तु वायोः तेजसः उत्पत्तिः इति असङ्गतमिति चेन्न," टिप्पणी - अग्मिमीळे अग्नि से याचना करता हूँ।,टिप्पणी - अग्मिमीळे अग्निम्‌ याचामि। जिसे शास्त्रोक्त पदार्थों का परिज्ञान होता है।,यस्य शास्त्रोक्तपदार्थानां परिज्ञानमस्ति। इस प्रकार से सभी जगहों पर मन की अधीनता के द्वारा ही इन्द्रियाँ विषयों का ग्रहण करती है।,एवं सर्वत्र मनोधीनतया एव इन्द्रियाणां विषयग्रहणमस्ति। अतः भगवद्गीता में कहा है तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌।,तथाहि उच्यते श्रीमद्भगवद्गीतायाम्‌ - तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌। वहतीति औघः जलसङ्घात।,वहतीति औघः उदकसङ्घातः। विरक्त होने पर फिर देहादि विषयों मे राग उत्पन्न नहीं होता है।,विरक्तः पुनः देहादिविषयेषु रागं नोत्पादयति। भारतवर्ष की आध्यात्मिक शक्ति को उन्होंने अपने जीवन में अपनाया तथा सम्पूर्ण विशव में उसका विस्तार किया जिससे वह मानवों के बोधगम्य तथा अपने जीवन में पालन के लिए उपयोगी है।,भारतवर्षस्य आध्यात्मिकम्‌ ऐतिह्यम्‌ तेन उत्तराधिकाररूपेण प्राप्तम्‌।संकटापन्न तद्‌ ऐतिह्यं शुद्धं प्राणवत्‌ समृद्धं कालोपयोगि च विधाय स विश्वेषु विस्तारयामास येन तत्‌ समेषां मानवानां बोधगम्यं सत्‌ स्वीयजीवने परिपालनाय उपयोगि स्यात्‌। केवल प्रक्रिया में ही प्रयोग होता है।,केवलं प्रक्रियायाम्‌। पर्यतिष्ठत्‌ - परि उपसर्ग पूर्वक स्था-धातु से लङ्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,पर्यतिष्ठत्‌ - पर्युपसर्गपूर्वकात्‌ स्था-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। आपके बाण के लिए नमस्कार हो।,नमोऽस्तु बाणाय नतिरस्तु। सरलार्थ - इस मन्त्र में अग्नि को अनायास से प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे अग्नेः अनायासेन प्राप्त्यर्थं प्रार्थ्यते। सख्या सदृशः लौकिक विग्रह है और सखिटा सह यह अलौकिक विग्रह है।,सख्या सदृशः इति लौकिकविग्रहः सखि टा सह इत्यलौकिकविग्रहश्च। इष्ट वस्तु के दर्शन के बाद जब उसकी प्राप्ति होती है तब वह उत्पन्न होने पर वृत्ति मोद कहलाती है।,इष्टवस्तुनः दर्शनानन्तरं यदा तस्य प्राप्तिर्भवति तदा जायमाना वृत्तिः मोद इति कथ्यते। इस प्रकार से फल भोग के द्वारा पाप तथा पुण्य की शान्ति होती है।,एवञ्च फलोपभोगेन पुण्यापुण्ययोः शान्तिः भवति। जैमिनीय शाखा विषय पर टिप्पणी लिखिए।,जैमिनीयशाखाविषये टिप्पणी लेख्या। अतः इसे दर्वीहोम भी कहते हैं।,अतः अयं दर्वीहोमः इत्यपि उच्यते। इसमें पहले निर्दिष्ट राजसूय आदि यज्ञों के विषय में आवश्यक वस्तुओं का बहुत बड़ा सङ्ग्रह है।,एतेषु पूर्वनिर्दिष्टराजसूयादियज्ञानां विषये आवश्यकवस्तूनां सुमहान्‌ सङ्ग्रहो वर्तते। 4 अध्यारोप तथा अपवाद वाद के द्वारा प्रपञ्च क्या होता है?,४. अध्यारोपापवादाभ्यां प्रपञ्च्यते कः? दिवादिगणीय दिव्‌-धातु से अच्प्रत्यय होने पर देव: ऐसा रूप सिद्ध होता है।,दिवादिगणीयात्‌ दिव्‌-धातोः अच्प्रत्यये देवः इति रूपं सिध्यति। "(उचित उत्तर चुनें - उदात्त, अनुदात्त, स्वरित।)","(यथोचितम्‌ उत्तरं निर्णयतु - उदात्तः, अनुदात्तः, स्वरितः।)" उसके लिये विष्णु से प्रार्थना करते है यह अर्थ है।,तदर्थे विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः। "१ गेयगान (प्रकृति गानम्‌), २ आरण्यक गान ३ ऊहगान, ४ और ऊह्यगान (रहस्य गान)।","१) गेयगानम्‌ (प्रकृतिगानम्‌), २) आरण्यकगानम्‌ ३) ऊहगानम्‌, ४) ऊह्यगानं (रहस्यगानम्‌)।" सभी वेदान्त वाक्य अद्वैत ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते है।,सर्वाणि वेदान्तवाक्यानि अद्वैतं ब्रह्म एव प्रतिपादयन्ति इति। उसके विषय में आगमशास्त्र ही अन्तिम प्रमाण होते हैं।,तद्विषये आगमशास्त्रमेव अन्त्यं प्रमाणं भवति। जातीयर्‌ प्रत्यय पर में पाचक जातीय और देशीयर् प्रत्यय पर में पुंवद्भाव का पाचकदेशीया यही उदाहरण हेै।,"जातीयर्‌-प्रत्यये परे पाचकजातीया इति, देशीयर्‌-प्रत्यये परे च पुंवद्भावस्य पाचकदेशीया इत्युदाहरणम्‌ ।" स्वस्वरूप ज्ञाननाश के लिए मुमुक्षुओं के द्वारा श्रवण मनन तथा निदिध्यासन का आचरण करना चाहिए।,स्वस्वरूपाज्ञाननाशाय मुमुक्षुणा श्रवणं मननं निदिध्यासनं च समाचरणीयानि। देवों के लिए हितकारी।,दैव्यः देवेभ्यो हितः। "“द्यूते क्षतः कलहो विद्यते, न को वै द्यूतं रोचते बुध्यमानः' यह पङिक्त महाभारत के सभापर्व में आती है।","' द्यूते क्षतः कलहो विद्यते, न को वै द्यूतं रोचते बुध्यमानः ' इत्येषा पङ्क्तिः महाभारतस्य सभापर्वणि समायाति ।" चौ इससे लुप्त अकार विशिष्ट अञ्चु धातु को ग्रहण करते हैं।,चौ इत्यनेन लुप्त-अकारविशिष्टः अञ्चु-धातुः गृह्यते। 3. अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से टाप्‌ प्रत्यय होते है?,३. अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रेण टाप्प्रत्ययः विधीयते। अक्रविहस्ता इसका क्या अर्थ है?,अक्रविहस्ता इत्यस्य कः अर्थः? ( ६.१.१९७ ) सूत्र का अर्थ- ञकार और नकार इत्‌ संज्ञक है जिनका ऐसे प्रत्ययों के परे रहते नित्य ही आदि उदात्त होता है।,(६.१.१९७) सूत्रार्थः- ञिदन्तस्य निदन्तस्य चादिरुदात्तः स्यात्‌। इसलिए साधक की हमेशा यह जिज्ञासा रहती है की प्रमाण भूत आगम क्या है।,अतः साधकस्य सदा जिज्ञासा भवति यत्‌ प्रमाणभूत आगमः कः इति। वर्ग तो ऋचा के समुदाय की संज्ञा है।,वर्गस्तु ऋचां समुदायस्य संज्ञाऽस्ति। संहिता ब्राह्मण का भेद लिखिए।,संहिताब्राह्मणयोः पार्थक्यं लिखत। इन दोनों श्लोको के अर्थ के अनुसार तो देश काल तथा वस्तु से अपरिच्छिन्न आत्मा होता है।,अनयोः श्लोकयोः अर्थस्तावत्‌ देशेन कालेन वस्तुना च अपरिच्छिन्नः आत्मा। यह विद्वान रंगेशपुरी इस नाम की प्रसिद्ध नगर के पास में किसी भी गाँव के निवासी थे।,अयं हि विद्वान्‌ रंगेशपुरी इत्याख्यस्य नगरस्य पार्श्ववर्तिनः कस्य अपि ग्रामस्य निवासी आसीत्‌। “विभाषा” विकल्प बोधक अव्यय पद है।,"""विभाषा"" इति च विकल्पबोधकम्‌ अव्ययपदम्‌।" 12. ऊपर अर्थ में।,12. परस्तात्‌ । इसी प्रकार ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि इस सूत्र से अवस्था अर्थ में ज्येष्ठ कनिष्ठ शब्दों के अन्त्य स्वर को उदात्त होता है।,एवञ्च ज्येष्ठकनिष्ठयोर्वयसि इति सूत्रेण वयसि अर्थ ज्येष्ठकनिष्ठयोः शब्दयोः अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वं भवति। अग्नि के मन्त्र कौन से छन्द में है?,अग्नेः मन्त्रः कस्मिन्‌ छन्दसि वर्तन्ते ? इसीलिए कहा है - सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌।,उच्यते च- सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌। 36. लय से तात्पर्य है अखण्डवस्तु के अनवलम्बन से चित्तवृत्ति को निद्रा।,३६. लयः तावत्‌ अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेः निद्रा इति। 43. मोद कब होता है?,४३. मोदः कदा भवति ? अतः गवामयन की प्रकृति अग्निष्टोम है।,अतः गवामयनस्य प्रकृतिः हि अग्निष्टोमः। इन मन्त्रों का विशेष प्रयोग पारिवारिक उत्सव के समय पर होता था।,एतेषां मन्त्राणां विशेषप्रयोगः पारिवारिकमहोत्सवानाम्‌ अवसरे अभवत्‌। और स्वयं भी नष्ट हो जाती है।,स्वयमपि नश्यति। "निरुक्त के अनुसार तो एतिधातु से निष्पन्न होने से अयन शब्द से आकार को, अनक्ति-धातु से ककार को, और नयते से नी को लेकर के ककार के स्थान में गकार आदेश करने पर नी इसके ईकार को ह्रस्वादेश विधान करके अग्निशब्द निष्पन्न होता है, प्रत्यक्षवृत्त परोक्षवृत्त और अतिपरोक्षवृत्त को आधार मान करके।","नैरुक्तमतानुसारं तु एतिधातुनिष्पन्नाद्‌ अयनशब्दादकारम्‌, अनक्ति-धातोः ककारं, नयतेश्च नीरिति आदाय ककारस्य गकारादेशं कृत्वा नीरित्यस्य ईकारस्य ह्रस्वादेशं विधाय अग्निशब्दो निष्पाद्यते प्रत्यक्षवृत्तिं परोक्षवृत्तिम्‌ अतिपरोक्षवृत्तिं चावलम्ब्य इति शम्‌।" आवरण यहाँ पर ढकी हुई के समान ही समझना चाहिए।,आवृत इत्यस्य आवृत इव इति तात्पर्यम्‌। इस प्रकार से यहाँ पर प्रश्‍नोपनिषद्‌ का वाक्य है वाक्‌ च वक्तव्यं च हस्तौ च दातव्यं च उपस्थश्चानन्दयितव्यञ्‌्च पायुश्च विसर्जयितव्यञ्च पादौ गन्तव्यञ्च।,तथा च प्रश्नोपनिषद्वाक्यमस्ति। वाकू च वक्तव्यं च हस्तौ च दातव्यं च उपस्थश्चानन्द्यितव्यञ्च पायुश्च विसर्जयितव्यञ्च पादौ गन्तव्यञ्च। किस प्रकार का ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है?,कीदृशं ज्ञानम्‌ अज्ञानस्य नाशकम्‌ | उसको प्रकृत सूत्र से उस अनुदात्त का निषेध होता है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण तस्य अनुदात्तत्वं निषिध्यते। भले ही कुछ होता है फिर भी जो परिमाण सामान्य क्षत्रिय में होना चाहिए वह उसमें अभिप्रेत नहीं होता है।,"यद्यपि किञ्चिदस्ति, तथापि यावत्‌ परिमाणं सामान्यतः क्षत्रिय अभिप्रेतं तावन्नास्ति।" "अथर्व मन्त्रों में इहलोक परलोक का फल देने के विषयों की विवेचना की है तथा घर निर्माण के लिये, हल जोतने के लिए, बीज बोने के लिए उपयोगी विषयों का तथा गृहस्थ जीवन के भी विविध विषयों का वर्णन है।","अथर्वमन्त्रेषु ऐहिकपारलौकिकफलदायकानां विषयाणां विवेचनं तथा गृहनिर्माणाय, हलकर्षणाय, बीजवपनाय उपयोगिनां विषयाणां तथा गार्हस्थ्यजीवनस्य अपि विविधविषयाणां वर्णनम्‌ अस्ति।" अमृत शाश्वत होने से।,अमृतेन शाश्वतेन । उसका यह अंश माया के रूप में पुनः होकर उत्पत्ति और संहार के लिए बार बार आता है।,तस्य अस्य सोऽयं पादः लेशः सोऽयम्‌ इह मायायां पुनः अभवत्‌ सृष्टिसंहाराभ्यां पुनः पुनरागच्छति। वैषयिक आनन्द का त्याग करने पर ही निरतिशयान्द ब्रह्मरूप का लाभ सम्भव होता है।,वैषयिकानन्दत्यागेन एव निरतिशयानन्दस्य ब्रह्मरूपस्य लाभः सम्भवति। पुरुष एकवचन में ईयते यह रूप सिद्ध होता है।,पुरुषैकवचने ईयते इति रूपं सिध्यति। "“षष्ठी'' इससे षष्ठी इस पद को “न निर्धारणे” की अनुवृत्ति होती है (निषेध) “क्तेन च पूजायाम्‌"" इससे क्तेन पद की अनुवृत्ति हो आती है।","""षष्ठी"" इत्यस्मात्‌ षष्ठी इति पदं ""न निर्धारणे"" इत्यस्मात्‌ नेति ""क्तेन च पूजायाम्‌"" इत्यस्माच्च क्तेन इति पदं चानुवर्तते।" इन्द्र ऋग्वेद में सबसे अधिक लोग प्रिय महत्त्वपूर्ण देवता है।,इन्द्रः ऋग्वेदे सर्वाधिकजनप्रियः महत्त्वपूर्णदेवता अस्ति। पदपाठ - असौ यः अवसर्प्पतीत्यवऽसर्पति नील॑ग्रीवइतिनील॑ऽग्रीवः विलॉहितइतिविऽलोहितः उत एनम्‌ गोपाइतिंगोऽपाः अदृश्रन्‌ अदृशन्‌ उदाहार्यइ्त्युदऽहार्यः सःदुष्टः मृडयाति नः॥,पदपाठः- असौ यः अवसर्प्पतीत्यवऽसर्पति नीलग्रीवइतिनील॑ऽग्रीवः विलोहितइतिविऽलोहितः उत एनम्‌ गोपाइतिगोऽपाः अदृश्रन्‌ अदृशन्‌ उदाहार्यइत्युंदऽहार्यः सःदृष्टः मृडयाति नः। अहभिः - अहन्‌-शब्द का तृतीयाबहुवचन में अहभिः रूप है।,अहभिः- अहन्‌-शब्दस्य तृतीयाबहुवचने अहभिः इति रूपम्‌। यही सूत्रार्थ आता है।,इति सूत्रार्थः समायाति। कर्मधारयसंज्ञक की तत्पुरुष संज्ञा भी अभीष्ट है।,कर्मधारयसंज्ञकस्य तत्पुरुषसंज्ञा अप्यभीष्टा उपासना का परम प्रयोजन चित्त की एकाग्रता है।,उपासनायाः परं प्रयोजनं चित्तस्य एकाग्रता। जहाँ जिस मण्डल में स्थितघोड़ो को स्तोता मुक्त करता है।,यत्र यस्मिन्‌ मण्डले स्थितान्‌ अश्वान्‌ विमुचन्ति विमोचयन्ति स्तोतारः। अपञ्चीकृत पाँच सूक्ष्म महाभूत पञ्चीकरण की प्रक्रिया के द्वारा तथा त्रिवृत्करणप्रक्रिया के द्वारा स्थलूता को प्राप्त करके पाँच स्थूलभूत रूप में परिणित होते हैं।,अपञ्चीकृतानि पञ्च सूक्ष्मभूतानि पञ्चीकरणप्रक्रियया त्रिवृत्करणप्रक्रियया वा स्थूलताम्‌ अवाप्य पञ्च स्थूलभूतरूपेण परिणतानि। त्रिधातु इसका विग्रह वाक्य लिखो।,त्रिधातु इत्यस्य विग्रहवाक्यं लिखत? इस प्रकार से इतना करने पर भी गमन की सम्भावना होती है।,एवञ्च एतावता गमनसम्भावनापि वर्तते। देवब्रह्मणोरनुदात्तः इस सूत्र का क्या अर्थ है?,देवब्रह्मणोरनुदात्तः इति सूत्रस्य कोऽर्थः? उसके अनुसार ही वाक्य पदीयपद का अनुसन्धान करना चाहिए - अनादिनिधनं ब्रह्मशब्दतत्त्वं यदक्षरम्‌।,तदनुरूपं चेदं वाक्यपदीयपदम्‌ अनुसन्धेयम्‌ -अनादिनिधनं ब्रह्मशब्दतत्त्वं यदक्षरम्‌। 58. “ अव्ययीभावे चाकाले'' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"५८. ""अव्ययीभावे चाकाले"" इति सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?" 8. तदेवाग्निस्तदादित्य ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,८. तदेवाग्निस्तदादित्य ... इति मन्त्रं व्याख्यात। और अद्वैत का भाव ही द्वैत है।,द्वीतस्य भावः द्वैतम्‌ द्वैतस्याभावः अद्वैतम्‌। सुप्‌ का तदन्तविधि में सुबन्तम्‌ प्राप्त होता है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ सुबन्तम्‌ इति लभ्यते । "छान्दोग्य श्रुति के अनुसार तब आकाश तथा वायु की सृष्टि करके, उसने तेज की सृष्टि करी।","छान्दोग्यश्रुतिः - तदाकाशं वायुं च सृष्टि ""तत्तेजोऽसृजत"" इति।" साशनानशने अभिलक्ष्य - साशन अर्थात भोजनादि व्यवहार युक्त चेतन प्राणी को तथा अनशन अर्थात भोजनादि व्यवहार रहित अचेतन गिरि नद्यादि को बनाकर उसमें वास किया।,साशनानशने अभिलक्ष्य। साशनं भोजनादिव्यवहारोपेतं चेतनं प्राणजातम्‌ अनशनं तद्रहितमचेतनं गिरिनद्यादिकम्‌। इस समास में प्राय अन्यपदार्थ का प्राधान्य दिखाई देता है।,अस्मिन्‌ समासे प्रायेण अन्यपदार्थस्य प्राधान्यं दृश्यते। बालक का शरीर भिन्न होता है।,बालकस्य शरीरं भिन्नमस्ति। दोपहर में भी श्रद्धा की उपासना करते है।,मध्याह्नेऽपि तां श्रद्धाम्‌ आह्वयामहे। चाहे तो दो बार अथवा छह बार भी किया जा सकता है।,अपेक्ष्यते चेत्‌ वारद्वयं वारषट्कम्‌ अपि कर्तु शक्यते। संहिता ब्राह्मण के मध्य में महान भेद है।,संहिताब्राह्मणयोर्मध्ये वर्तते महान्‌ भेदः। इसलिए देहादि के भदे से विद्यमान अद्वैत ब्रह्म के विषय में निरन्तर चित्तवृत्ति ही निदिध्यासन होता है इस प्रकार से वेदान्तसार कर्ता सदानन्द का अभिप्राय स्पष्ट होता है।,अतो देहादिभिः भेदेन विद्यमानस्य अद्वैतब्रह्मणः विषये निरन्तरं चित्तवृत्तिरेव निदिध्यासनम्‌ इति वेदान्तसारकर्तुः सदानन्दयतेः अभिप्राय इति स्पष्टम्‌। चादिलोपे विभाषा इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिए।,चादिलोपे विभाषा इति सूत्रस्य एकमुदाहरणं दीयताम्‌। उससे यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - अदेवन अर्थ में अक्ष्‌ शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है।,ततश्च अयं सूत्रार्थः अत्र लभ्यते- अदेवनार्थ अक्षशब्दस्य आदिः उदात्तो भवति इति। ब्रह्म को जान जाने पर आकाश को जाना जा सकता है।,ब्रह्मणि विज्ञाते आकाशं विज्ञायेत। 4. आत्मा किसके साथ जुडती है?,4.आत्मा केन संयुज्यते? विज्ञानात्मा विशिष्ट अग्न्यादियों से ओतप्रोत होने से इसको जाना जाता है।,विज्ञानात्मा परेणात्मना विशिष्टोग्न्यादिष्वोतप्रोतत्वेनोपास्योभिधीयते। आधुनिक समय में अनेक लोग इस वेदान्त दर्शन के तत्व को स्वतः सिद्ध को रूप में चिन्तन करते है।,आधुनिककाले अनेके एव इदं वेदान्तदर्शनस्य स्वतःसिद्धं तत्त्वमिति चिन्तयन्ति। सभी जन्तु कर्म में रत हे।,सर्वोऽपि जन्तुः कर्मरतः। "वहाँ दिवः यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है, झल्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र दिवः इति पञ्यम्येकवचनान्तं पदम्‌, झल्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" "अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे ( ६.१.१६९ ) सूत्र का अर्थ- नित्य अधिकार के हुए समास से अन्यत्र जो अनित्य समास, उसमे जो अन्तोदात्त एकाच्‌ उत्तर पद उससे उत्तर तृतीया आदि विभक्ति को विकल्प से उदात्त हो।",अन्तोदात्तादुत्तरपदादन्यतरस्यामनित्यसमासे (६.१.१६९) सूत्रार्थः- नित्याधिकारविहितसमासादन्यत्र यदुत्तरपदमन्तोदात्तमेकाच्‌ ततः परा तृतीयादिविभक्तिरुदात्ता वा स्यात्‌। यङ्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद हैं।,यङः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। "प्रकृत सूत्र में 'कर्ष' यहाँ पर शप्‌ प्रत्यय करने से (कृ+शप्‌) घञ्‌ प्रत्यय से निर्देश नहीं होने से, उस तुदादि गण में जो कृ धातु है, उससे घञ्‌ प्रत्यय करने पर तदन्त शब्द के अन्त अच्‌ का प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर ही नहीं होता है, और भी “जिनत्यादिर्नित्यम्‌' इससे आदि अच्‌ को उदात्त स्वर होता है।","प्रकृतसूत्रे कर्ष-इत्यत्र शप्प्रत्ययेन (कृ+शप्‌) निर्देशः न तु घञ्ग्रत्ययेन, तेन तुदादिगणीयः यः कृधातु : तस्माद्‌ घञ्प्रत्यये तदन्तस्य शब्दस्य अन्तस्य अचः प्रकृतसूत्रेण न उदात्तस्वरः अपि च ""जिनत्यादिर्नित्यम्‌"" इत्यनेन आदेः अचः उदात्तस्वरः इति बोध्यम्‌।" उदाहरण -लीलोत्पलम्‌ यहाँ इत्यादि उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - नीलोत्पलम्‌ इत्याद्यत्रोदाहरणम्‌ । इदम्‌-शब्द “फिषोन्त उदात्तः' इस फिट्‌ सूत्र से अन्तोदात्त है।,इदम्‌-शब्दः 'फिषोन्त उदात्तः' इति फिट्सूत्रेण अन्तोदात्तः वर्तते। कुत्सना इसका निन्दा यह अर्थ है।,कुत्सना इत्यस्य निन्दा इत्यर्थः। चारो वेदों का उल्लेख कहाँ हे?,चतुर्णा वेदानाम्‌ उल्लेखः कुत्र अस्ति? और कहा गया है - येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळूहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।,तस्मादुक्तं - येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः। श्रेष्ठता को प्राप्त करने के लिए वाणी और मन में झगड़ा हुआ।,श्रेष्ठतां प्राप्तुं वाङ्-मनसोः कलहः समुत्पन्नोऽभवत्‌। आनन्द के द्वारा प्रमाद नहीं होता है।,आनन्देन प्रमादः न भवति। वैसे भी अन्य भी कुछ कार्य उसके है।,तथापि अन्यानि अपि कानिचन कार्याणि तस्य सन्ति । ये दोनों जैसे ही हुए वैसे ही वो ब्रह्म स्वयमेव विविध प्रकार का होकर उनमे व्याप्त हो गया।,तदुभयं यथा स्यात्तथा स्वयमेव विविधो भूत्वा व्याप्तवानित्यर्थः॥ "इसी प्रकार ही इन्द्र, वरुण, मित्र, देव, इत्यादि में भी आदि अचों को यथाक्रम इकार, अकार, इकार, और एकार को उदात्त स्वर प्रकृत सूत्र से होता है।",एवम्‌ एव इन्द्र वरुण मित्र देवाः इत्यादौ अपि आदीनाम्‌ अचां यथाक्रमम्‌ इकारस्य अकारस्य इकारस्य एकारस्य च उदात्तस्वरः प्रकृतसूत्रेण भवति। विवेकानन्द का वेदान्त दर्शन भी अब सनातनधर्म के द्वारा एकीभूत हो गया है।,विवेकानन्दवेदान्तदर्शनम्‌ इदानीं सनातनधर्मेण एकीभूतम्‌ एव जातम्‌। "प्राचीन आचार्यो के मध्य में ऋक्‌ मन्त्रों की गणना प्रसंग में विरोध, शाखाओं के भेद से ही परिलक्षित होता है।",प्राचीनाचार्याणां मध्ये ऋङ्गन्त्राणां गणनाप्रसंगे वैषम्यं शाखानां भेदजन्यादेव परिलक्ष्यते। अहो इस अव्यय से युक्त भी है।,अहो इति अव्ययेन युक्तमपि अस्ति। नीचे के अतलवितल आदि सात भुवन की उत्पत्ति।,अधोवर्तीनि अतलवितलादिसप्तभुवनान्युपात्तानि। इस प्रकार से विवेक तथा वैराग्य के द्वारा मन अन्तर्मुखी हो जाता है।,एवं विवेकवैराग्याभ्यां मनः अन्तर्मुखं भवति। "इस सूत्र में ""प्रत्ययः"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"" ""समासान्ताः"" ये अधिकृत सूत्र हैं।","सूत्रे ""प्रत्ययः"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"" ""समासान्ताः"" इत्येतानि अधिकृतानि।" यह यज्ञ पूर्णिमा और अमावास्या को किया जाता है।,पूर्णिमायाम्‌ अमावास्यायाञ्च अयं यागः क्रियते। इन्द्र ने वृत्रासुर को कैसे मारा था?,इन्द्रः वृत्रासुरम्‌ कथं जघान? उसी का नाश नित्यादिकर्मों के द्वारा किया जाता है।,तस्यैव नाशः नित्यादिकर्मणा क्रियते। इस प्रकार याज्ञिक विधानों के प्रतिपादन के लिए ही ब्राह्मण साहित्य का उद्भव हुआ।,एवंविधानां याज्ञिकविधीनां प्रतिपादनाय एव ब्राह्मणसाहित्यस्य उद्भवः अभवत्‌। "और सूत्र का अर्थ होता है “ अधिकरणवाची जो क्त प्रत्यय, उससे षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।","एवं सूत्रार्थो भवति - ""अधिकरणवाची यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति"" इति।" परन्तु भगवान पाणिनी का सूत्र “ भूतपूर्वचरट्‌'' विद्यमान है।,"परन्तु भगवतः पाणिनेः सूत्रं विद्यते ""भूतपूर्व चरट्‌"" इति।" "स्वर्गलोक और आदित्यलोक जिसने अन्तरिक्ष में ठहराए हैं और जो अन्तरिक्ष में जल का निर्माता है, उसको छोड़कर हम किसको हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।",तथा नाकः आदित्यश्च येन अन्तरिक्षे स्तभितः। यः च अन्तरिक्षे रजसः उदकस्य विमानः निर्माता। तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम। दक्षिण यह वैदिक प्रयोग है।,दक्षिणः इति वैदिकप्रयोगः। "“प्राक्कडारात्समासः'', “तत्पुरुषः”, “विभाषा” ये तीन अधिकृत सूत्र हैं।","""प्राक्कडारात्समासः"" ""तत्पुरुषः"", ""विभाषा"" इति सूत्रत्रयमधिकृतम्‌।" यह जगत्‌ नामरूपक्रिया के समान विकृत जो उपलब्ध होता है उसकी उत्पत्ति से पूर्व उसकी नामरूपक्रिया विवर्जित थी।,इदं जगत्‌ नामरूपक्रियावत्‌ विकृतं यदुपलभ्यते तदेव उत्पत्तेः पूर्व नामरूपक्रियाविवर्जितम्‌ आसीत्‌। “कर्त्तरि च'' यह सूत्र का क्या अर्थ है?,"""कर्तरि च"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इस प्रकार का वेदान्तियों का सिद्धान्त है।,वेदान्तिनां सिद्धान्तः। 7. सिद्धान्त वस्तु क्या है?,७. सिद्धान्ते वस्तु किम्‌ ? वैदिकदेवता मण्डल में विशिष्ट स्थान में एक को यह वरुण सुशोभित करते है।,वैदिकदेवतामण्डलेषु विशिष्टं स्थानम्‌ एकम्‌ अलङ्करोति अयं वरुणः। ''यही परिभाषा का इस सूत्र में उपयोग है।,"""इति परिभाषायाः अस्मिन्‌ सूत्रे उपयोगः अस्ति।" अपवाद का वर्णन करें अथवा अध्यारोप का संक्षेप में प्रतिपादन करें।,अपवादम्‌ कुरुत। अथवा अध्यारोपं संक्षेपेण प्रतिपादयत। उपमा काव्य संसार में कितनी प्राचीन हे?,उपमा काव्यसंसारे कियती प्राचीना? "1. इन्द्रसूक्त का ऋषि कौन, छन्द क्या, और देवता कौन है?","१. इन्द्रसूक्तस्य कः ऋषिः, किं छन्दः, का च देवता?" 39. अखण्डवस्तु अवबलम्बन के द्वारा चित्तवृत्ति का सविकल्पक समाधि के आरम्भ समय में आनन्दास्वादन सविकल्पकानन्दस्वादन कहलाता है।,"३९. रसास्वादो हि अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन अपि चित्तवृत्तेः सविकल्पकानन्दास्वादनं, समाध्यारम्भसमये सविकल्पकानन्दास्वादनं वा।" उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है पौर्वशालः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा पौर्वशालः इति । तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्विङो: इस सूत्र से लसार्वधातुकम्‌ इस पद की अनुवृति आती है और वह यहाँ पर सप्तम्यन्त से विपरिणाम है।,तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्विङोः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लसार्वधातुकम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते तच्चात्र सप्तम्यन्ततया विपरिणम्यते। वेद के देवों में इन्द्र का स्थान महत्‌ है।,वेदस्य देवेषु इन्द्रस्य स्थानं महत्‌ वर्तते। पाणिनि से भी प्राचीन ये है।,पाणिनेः अपि प्राचीनतरः अयम्‌ अस्ति। अब कहते हैं कि यदि ब्रह्मविद्या मूल अविद्या की पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है तो दाहकारण से विदुषों का देहादि में प्रतिभास होता है।,यदि ब्रह्मविद्या मूलाविद्यां सम्पूर्णतया दहति तर्हि अविद्यायाः दाहकारणात्‌ कथं विदुषो देहादिप्रतिभासः भवेदिति । निर्विकल्पक समाधि में तथा सुषुप्ति मूर्छादि में भी भेद होता है।,निर्विकल्पकसमाधेः सुषुप्तिमूर्छादीनाञ्च अस्ति भेदः। उसके बाद तीन अध्यायों में (१९-२१) सौत्रामणि यज्ञ का विधान है।,तदनन्तरं त्रिष्वध्यायेषु (१९-२१) सौत्रामणियज्ञस्य विधानमस्ति। सूत्र की व्याख्या- यह सूत्र विधायक है।,सूत्रव्याख्या- सूत्रम्‌ इदं विधायकम्‌। इसलिए ही लौकिक वाक्य स्वयं प्रमाण नहीं है।,अत एव लौकिकानि वाक्यानि स्वतः न प्रमीयन्ते। और कारिका भी है - “प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।,"तथाहि कारिका - ""प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।" 36. यथार्थता के सिद्ध होने पर पुनः सूत्र में सादृश्य का ग्रहण किसलिए किया गया है।,३६. यथार्थत्वेन एव सिद्धे पुनः सूत्रे सादृश्यग्रहणं किमर्थम्‌? विशेष रूप से पूज्य विचित्र अथवा विविध कीर्ति है जिसकी वह चित्रश्रवस्तम है।,अतिशयेन पूज्या विचित्रा विविधा वा कीर्तिः यस्य स चित्रश्रवस्तमः। वृत्र के द्वारा किये गये प्रवाहनिरोध का निराकरण किया यह अर्थ है।,वृत्रकृतं प्रवाहनिरोधं निराकृतवानित्यर्थः। जो पुण्यफल को ही देती है पापफल को नहीं यह अर्थ है।,या पुण्यफलमेव ददाति न पापफलमित्यर्थः। 2 मोक्ष किसे कहते हैं?,२. को नाम मोक्षः? "व्याकरण कर्ताओं में अनेक विद्वानों के अनुसार कितने वैयाकरण सुप्रसिद्ध है, और वे कौन कौन है?","व्याकरणकर्तृषु बहुषु विद्वत्सत्तमेषु कति वैयाकरणाः सुप्रथिताः, के च ते?" जुष्टम्‌ इसका क्या अर्थ है?,जुष्टम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। "इसी प्रकार वैदिक मन्त्रों में काव्य के अत्यधिक गुण देखे जाते हैं, जिनका ज्ञान वैदिक मन्त्रों के अर्थ समझाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।",अनेन प्रकारेण वैदिकमन्त्रेषु काव्यस्य गुणाः भूयशः दृश्यन्ते येषां ज्ञानं वैदिकमन्त्राणाम्‌ अर्थावगमने अत्यन्तमावश्यकम्‌ अस्ति। तत्पुरुष समास का विवेचन कीजिये।,तत्पुरुषसमासं विवृणुत। "सरलार्थ-वह प्रजापति ही अग्नि, वह ही आदित्य, वह ही वायु, वह ही चन्द्रमा है, वह ही तेज है, वह ही ब्रह्म, और जो जल है वह भी प्रजापति ही है।","सरलार्थः- स प्रजापतिः एव अग्निः, स एव आदित्यः, स एव वायुः, स एव निश्चतेन चन्द्रमाः अस्ति, स एव तेजः अस्ति, स एव ब्रह्म, किञ्च यत्‌ जलं तदपि प्रजापतिः।" सभी देवों की उत्पत्ति का बीज सूर्य का ही लक्षण तथा वर्णन प्राप्त होता है।,सर्वेषां देवानाम्‌ उत्पत्तेः बीजं सूर्यस्य लक्षणे वर्णने च प्राप्यते। गायो के लिए पीने योग्य जल को बरसाओ।,गवां कृते पानीयं जलं वर्षतु । इसी प्रकार सहस्राक्षित्व और सहस्रपादत्व है।,एवं सहस्राक्षित्वं सहस्रपादत्वञ्च। समाहार अर्थ में जो द्विगु होता है वह एकवचन होता है यही सूत्रार्थ है।,"""समाहारार्थे यः द्विगुः भवति स एकवचनं भवति"" इति सूत्रार्थः ।" उसका ही यहाँ पर उपस्थापन किया जा रहा है।,तदेवात्र उपन्यस्यते। "सरलार्थ - श्रद्धा के द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, श्रद्धा के द्वारा हवि का दान किया जाता है, श्रद्धा जो धन का प्रमुख है, उस श्रद्धा की स्तुति करते हैं।","सरलार्थः- श्रद्धया अग्निः प्रज्वलितः भवति, श्रद्धया हविर्दानं क्रियते, श्रद्धा या भाग्यस्य प्रधाना, सा श्रद्धा स्तुत्या प्रार्थ्यते।" अयासः - इण्‌ धातु से अच जस असुक्‌ इनके योग में अयास यह शब्द: निष्पन्न होता है।,अयासः - इण्‌ धातोः अचि जसि असुक्‌ इति योगे अयास इति शब्दः निष्पद्यते। आहवनीये इस रूप को सिद्ध कीजिए।,आहवनीये इति रूपं साधयत। यास्क के प्राचीन होने में लेश मात्र भी सन्देह नहीं है।,यास्कस्य प्राचीनताया अत्र लेशतः अपि सन्देहस्य अवकाशः नास्ति। शिर के ग्रहण से सभी अवयवों का ग्रहण है।,शिरोग्रहणं सर्वावयवोपलक्षणम्‌। (कठ.उ.1.2.9) अर्थात्‌ यह तर्क के द्वारा अपनी बुद्धि के द्वारा प्राप्तीय ब्रह्म नहीं होता है।,(कठ.उ.१.२.९) अर्थात्‌ - नैषा तर्केण स्वबुद्ध्यभ्यूहमात्रेण आपनेया नापनीया न प्रापणीया इत्यर्थः। जब गङ्गा पद का जलप्रवाह रूप शक्यार्थ स्वीकार किया जाता है तब तात्पर्य की अनुपपत्ति होती है।,यदा गङ्गापदस्य जलप्रवाहरूपः शक्यार्थः स्वीक्रियते तदा तात्पर्यस्य अनुपपत्तिः भवति। "इति अर्थात्‌ वनस्पति पशु, वृक्ष और तिर्यक योनि में स्थित पक्षी यदि यज्ञ में हिंसित है, फिर भी उनकी सद्गति होती है।",इति अर्थात्‌ वनस्पतयः पशवः वृक्षाः तिर्यग्योनिस्थाः पक्षिणः च यदि यज्ञे हिंसिताः तथापि तेषाम्‌ सद्गतिः भवति। हे रूद्र तुम्हारे धनुष पर चढ़े बाण को नमस्कार है तुम्हारे दोनों बाहुओं को और शत्रुओं को मारने में कुशल धनुष को भी मेरा नमस्कार।,हे रुद्र तव अनारोपितेभ्यः पराक्रमशालिभ्यः आयुधेभ्यः मे नमः पुनः तव बाहुभ्यां धनुषे च मे नमः। यज्ञ को आपदाओं को हटाने वाला यह अर्थ है।,यज्ञस्य आपदाम्‌ हन्तारम्‌ इत्यर्थः। कैसे जुआरी की पत्नी सन्तप्त होती है।,कथं कितवस्य जाया सन्तप्ता भवति ? सम्पूर्ण ऋग्वेद में चौसठ अध्याय हैं।,सम्पूर्ण ऋग्वेदे चतुष्षष्टिः अध्यायाः सन्ति। अन्ध सूक्त में (३/३) ज्ञात होता है की देश से निकाला हुआ राजा दुबारा राज्य में सम्मान पूर्वक प्रतिष्ठित हुआ।,अन्धसूक्ते (३/३) ज्ञातो भवति यद्देशात्‌ निष्कासितो राजा पुनः राज्ये सम्मानपूर्वकेण प्रतिष्ठितः अभवत्‌। जिस प्रकार से राज्यप्राप्तिरूपी कर्मफल में व्यापृतक्षेत्रमाप्राप्तिफल में व्यापार उपपादित तथा वह विषय ही अर्थित्व होता नहीं है।,"न हि राज्यप्राप्तिफले कर्मणि व्यापृतस्य क्षेत्रमात्रप्राप्तिफले व्यापारः उपपद्यते, तद्विषयं वा अर्थित्वम्‌।" व्याख्या - जिस समय मैं इच्छा करता हूँ की अब मैं इस समय से जुआ नही खेलूँगा उस समय साथी जुआरियो से हट जाता हूँ।,व्याख्या - यत्‌ यद्भदा अहम्‌ आदीध्ये ध्यायामि तदानीम्‌ एभिः अक्षैः न दविषाणि न दूषये न परितपामि । अब प्रश्‍न करते हुए कहते हैं की निर्विशेष ब्रह्म ज्ञेय होता है अथवा नहीं।,ननु निर्विशेषं ज्ञेयं ब्रह्म अस्ति वा नास्ति वा? सूत्र की व्याख्या- यह अधिकार सूत्र है।,सूत्रव्याख्या- अधिकारसूत्रमिदम्‌। "जैसे पशुओं का अपहरण करने वाला चोर अथवा रस्सी से बंधे हुए बछडे को लोग मुक्त करते हैं, वैसे ही मेरे अपराध से बंधे हुए वसिष्ठ को तुम छोड दो।",यथा पशूनाम्‌ अपहर्त्तरिं चौरं यथा वा रज्वा बद्धं वत्सं जनाः मुक्तं कुर्वन्ति तथैव मम अपराधेन बद्धं वसिष्ठं त्वं मोचय। "सरलार्थ - जब कोई पुरुष जागृत अवस्था में रहता है तब उसका दिव्य मन जिस प्रकार से दूर जाता है, वह ही जब सुप्तावस्था में वैसे ही उसी प्रकार से पुन आता है।",सरलार्थः - यदा कश्चित्‌ पुरुषः जागर्ति तदा तस्य दिव्यं मनः येन प्रकारेण दूरं गच्छति यदा स शेते तदा तदेव मनः तेनैव प्रकारेण आगच्छति। "और तो “तत्तेजोऽसृजत यहाँ पर कोई क्रम वाचक शब्द भी नहीं है, अर्थात्‌ क्रम का तो 'वायोरग्निः' (तै. उ. 2. 1.1) इस श्रुत्यन्तर प्रसिद्ध क्रम से निवारण हो जाता है।","अपि च ""तत्तेजोऽसृजत"" इति नात्र क्रमस्य वाचकः कश्चिच्छब्दोऽस्ति; अर्थात्तु क्रमो गम्यते; स च ""वायोरग्निः"" (तै. उ. २.१.१) इत्यनेन श्रुत्यन्तरप्रसिद्धेन क्रमेण निवार्यते।" व्याख्या - सर्वहुत अर्थात्‌ उस पूर्वोक्त यज्ञ से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए।,व्याख्या- सर्वहुतः तस्मात्‌ पूर्वोक्तात्‌ यज्ञात्‌ ऋचः सामानि च जज्ञिरे उत्पन्नाः। "लौकिक छन्दों के चार चरण होते है, किन्तु वैदिक छन्दों में यह नियम नहीं होते हैं।",लौकिकछन्दःसु चत्वारः चरणाः भवन्ति किन्तु वैदिकच्छन्दःसु अयं नियमः न भवति। जैस लोक में दश लोग नदी को तैरकर पार करके ग्रामान्तर को प्राप्त करके हमलोग दस लोग हैं अथवा नहीं इस प्रकार से स्वयं को छोडकर गणना करते है और उस दसवें को ढूँढ॒ते हैं।,यथा वा लोके दशजनाः नदीं तीर्त्वा ग्रामान्तरं प्राप्य दशजानाः अपि सन्तीति निर्णयार्थं समारब्धगणनायां गणनकर्ता आत्मानं दशमं विहाय अन्यत्र दशमम्‌ अन्विषते। पैङडऱग्य महापैङग्य इन नामों से प्रतीत होता है की महाभारत के समान भारत भी एक भिन्न ग्रन्थ था।,पैङ्ग्यः महापैङ्ग्य इति नामभ्यां प्रतीतो भवति यत्‌ महाभारत इव भारत इत्यपि एकः भिन्नग्रन्थः आसीत्‌ इति। "उसका महत्त्वपूर्ण कार्य है, पाद की तीन बार से विस्तार किया है।",तस्य महत्त्वपूर्णं कार्यं भवति पादयोः त्रिवारं विस्तारः। पायु इन्द्रिय विसर्जन करती है।,पायुः विसर्जनं साधयति। यास्क की प्रक्रिया आधुनिक भाषावेत्ता प्रधान रूप से मानते है।,यास्कस्य प्रक्रिया आधुनिकभाषावेत्तृणां प्रधानतः मान्या अस्ति। कुछ शिक्षा ग्रन्थों के नाम लिखिए।,केषाञ्चन शिक्षाग्रन्थानां नामानि लिखत। वो समस्त स्थावर और जङऱगम वस्तुओं में विद्यमान है।,स सर्वेषु स्थावरजङ्गमवस्तुषु विद्यमानः। ब्रह्म ही नित्यवस्तु है इस प्रकार से यहाँ पर यह प्रमाण है।,ब्रह्म नित्यं वस्तु इत्यत्र प्रमाणम्‌। लेकिन यह विरुद्ध भी कहा जाता है।,विरुद्धं च इदम्‌ उच्यते। गकार का का सिद्धिदातृत्व अर्थ है।,गकारस्य सिद्धिदातृत्वमर्थः। जिस क्रम से अद्वैत के द्वारा सृष्टि का प्रतिपादन किया गया है उसी क्रम से उसका प्रलय भी वे अङ्गीकार करते हैं।,येन क्रमेण सृष्टिः प्रतिपाद्यते अद्वैतिभिः तद्विपरीतक्रमेण प्रलयम्‌ अङ्गीकुर्वन्ति ते। कारण यह है कि गङगा तथा घोष में आधार तथा आधेय भाव सम्बन्ध रूप मुख्यार्थ का विरोध होता है।,कारणं हि गङ्गाघोषयोः आधाराधेयभावसम्बन्धरूपस्य मुख्यार्थस्य विरोधो विद्यते। "उसके बाद मायारूप में आकर चारों दिशाओं में देव, मनुष्य, पशु आदिरूप से विविध प्रकार से व्याप्त हुआ।",ततः मायायामागत्यानन्तरं विष्वङ्‌ देवमनुष्यतिर्यगादिरूपेण विविधः सन्‌ व्यक्रामत्‌ व्याप्तवान्‌। "““समर्थपदविधि :'', “प्राक्कडारात्समासः'', “ सहसुपा'', “तत्पुरुष”, “विभाषा” ये पूर्व से अधिकृत है।","""समर्थः पदविधिः"", ""प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः"", ""विभाषा"" इत्येतानि पूर्वतोऽधिकृतानि।" 34. अव्ययीभावसमास में समासान्त टचू प्रत्ययों के विधायक सूत्र कौन से हैं?,३४. अव्ययीभावसमासे समासान्तटच्प्रत्ययस्य विधायकानि सूत्राणि कानि? 23. फल किसे कहते हैं?,२३. फलं नाम किम्‌? 7. विशेषरूप ज्ञान का जनक।,७. विशेषेण ज्ञानजनकम्‌। और तुम गतिशील सूर्य की सभी किरणों को चमकीला बनाते हो।,किञ्च स्वसरस्य स्वयं सर्तुरादित्यस्य विश्वाः सर्वाः धेनाः लोकानां प्रीणयित्रीतीः पिन्वथः वर्धयथः। उसी प्रकार से तत्वमसि यहाँ पर भी अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्ट अंश का परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टांश के विरुद्धांश का परित्याग करके लक्षणा के द्वारा अविरुद्ध अखण्डचैतन्यमात्र का बोध होता है।,तथैव तत्त्वमसि इत्यत्र अपरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टांशस्य परोक्षत्वसर्वज्ञत्वादिविशिष्टांशस्य च विरुद्धांशस्य परित्यागं कृत्वा लक्षणया अविरुद्धाखण्डैकचैतन्यमात्रं बोधयति। प्रमुञ्च - प्र-उपसर्गपूर्वक से मुञ्च का लोट्मध्यमपुरुष एकवचन में।,प्रमुञ्च- प्र-उपसर्गपूर्वकात्‌ मुञ्चतेः लोटि मध्यमपुरुषैकवचनम्‌। ऋग्वेद के उपनिषदों का नाम लिखिए।,ऋग्वेदीयोपनिषदां नामानि लिखत। "सामान्यतः सभी मानव यहाँ कार्य करूँगा तो मुझे यह फल मिलेगा, इस प्रकार की भावना से कर्म करते हैं।","सामान्यतः सर्वे मानवाः इदं कार्यं क्रियते चेत्‌ मम इदं फलं भविष्यति इति फलकामनया कार्यं कुर्वन्ति, ।" अतः यहाँ राजपुरुषं: में समाप्त नहीं होता है।,अतः अत्र राजपुरुषयोः समासः न भवति। “सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,""" सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" उससे अञः का अजन्तात्‌ अर्थ होता है।,तेन अञः इत्यस्य अञन्तात्‌ इत्यर्थः भवति। वह सत्ता ही ब्रह्म की ही सत्ता होती है।,सत्ता च ब्रह्मणः एव। उससे स्वर्गलोक और आदित्यलोक निर्मित है।,तेन स्वर्गलोकः आदित्यलोकश्च निर्मितः। "ब्रह्मनिरवय, अवयवविशिष्ट अवयवों के उपचयापचय से वृद्धि नाश होता है।","ब्रह्मनिरवयवम्‌, अवयवविशिष्टस्य अवयवानाम्‌ उपचयापचयवशात्‌ वृद्धिनाशौ स्तः।" जीवन्मुक्ति तथा विदेहमुक्ति से दोनों अवस्थाओं में मुक्ति की दृष्टि से कोई भेद नहीं है।,जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योः अवस्थयोः मुक्तदृष्ट्या कोऽपि भेदः नास्ति। स्पर्श नहीं होता है।,स्पर्शः नास्ति। प्राण के निग्रह के लिए प्राणायाम का नियमानुसार पालन करना चाहिए।,प्राणस्य निग्रहाय प्राणायामः नियमानुसारेण कर्तव्यः। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में स्थितप्रज्ञ के विषय में भगवान ने विस्तार से बताया है।,श्रीमद्भगगवद्गीतासु द्वितीयाध्याये स्थितप्रज्ञस्य विषये विस्तरश उच्यते भगवता। तेरे उदय काल में पक्षी सुनने में मधुर ध्वनि करते है।,तव उदयकाले विहगाः श्रुतिमधुरं कलरवं कुर्वन्ति| 1. अग्निस्वरूप का वर्णन करो।,१. अग्निस्वरूपं वर्णयत। धातु के अन्त में क्या स्वर होता है?,धातोः अन्ते कः स्वरः भवति? पाणिनि आचार्य के अन्तेवासि वे पाणिनीय कहलाते हैं।,पाणिनेः आचार्यस्य अन्तेवासिनः इति पाणिनीयाः। "यहाँ पर दूरात्‌ इसमें दूरन्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च' इस सूत्र से पञ्चमी, सम्बुद्धौ यहाँ पर सप्तमी एकवचन है।","अत्र दूरात्‌ इत्यत्र दूरान्तिकार्थभ्यो द्वितीया च इति सूत्रेण पञ्चमी, सम्बुद्धौ इत्यत्र सप्तम्येकवचनम्‌।" और भी प्रजाओ के सुख के लिय स्तुति प्राप्त की।,अपि च प्रजाभ्यः सकाशात्‌ मनीषाम्‌ अविदः प्राप्तवानसि । उसके बाद संचित कर्मो में जो फलोन्मुख होते है उनके कारण फिर से जन्म होता है।,तद्वशात्‌ पुनः जन्म भवति। तदा तत्‌ संचितं फलम्‌ दातुम्‌ आरभते। वहाँ पर उपमा अलङ्कार का उदाहरण जैसे - “अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्त्ता रुगिव सनये धनानाम्‌।,तत्र उपमालङ्कारस्य उदाहरणं यथा - 'अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्त्ता रुगिव सनये धनानाम्‌। अर्थात्‌ अङिगरः इससे अङ्गरस कारण अग्नि का बोध कराता है।,अर्थात्‌ अङ्गिरः इत्यनेन अङ्गरसः कारणम्‌ अग्निः बोध्यः। सोमयाग में सर्वश्रेष्ठ कौन है?,सोमयागे सर्वश्रेष्ठः कः ? उन्होंने ही इस पृथिवी और आकाश को अपने अपने स्थानों में स्थापित किया।,अन्तरिक्षं दिवं भूमिं च दाधार धारयति। पञ्‌चकोश विवेक इस पाठ का विषय है।,पञ्चकोशविवेकः अस्ति अस्य पाठस्य विषयः । उनके अपने आधारभूत योग्य भूमिभाग का भी वह ही निर्माण करता है।,तेषां स्वाधारभूतं योग्यभूमिभागमपि सः निर्माति। पुरोहितों के प्रसाद भक्षण को क्या कहते हैं?,पुरोहितानां प्रसादभक्षणं किम्‌ इति उच्यते् ? यह शास्त्रों के द्वारा भी सिद्ध है।,इति शास्त्रपाठात्‌ अस्माभिः ज्ञायते। 10. वेदान्त के विषय को स्पष्ट कीजिए।,१०. वेदान्तस्य विषयः स्पष्टीकर्तव्यः। मूर्ख के समान।,अवक्षिप्ताः । 7. संयोग और विप्रलम्भ।,संयोगः विप्रलम्भः च। यहाँ दो पद है।,अत्र द्वे पदे स्तः। अतिङन्त से परे तिङन्त को अनुदात्त होता है।,अतिङन्तात्‌ परं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं भवति। इष्ट प्राप्ति का और अनिष्ट के निवारण के लिए जो अलौकिक उपाय बताता है वह वेद कहलाता है।,इष्टप्राप्तेः अनिष्टपरिहारस्य च अलौकिकम्‌ उपायं यो वेदयति स वेद इति। धर्म अंतः करण में विद्यमान किसी गुण विशेष का नाम है।,धर्मः अन्तःकरणे विद्यमानः कश्चित्‌ गुणविशेषः। "रस अर्थात राग, उस रस से विश्वकर्मा, विश्वकर्मा के राग से समस्त जगत्‌ के कर्ता के लिए ईश्वरेच्छा उत्पन्न हुई।",रसो रागः तस्माद्‌ रसात्‌ विश्वानि सर्वाणि कर्माणि यस्य सः विश्वकर्मा सविता तस्माद्‌ विश्वकर्मणः रसात्‌ सर्वजगत्कर्तुः ईश्वरस्य रागात्‌ ईश्वरेच्छा समवर्तत समभवत्‌। 4. रथ के नाभि में जैसे आरे।,४. रथनाभौ अराः इव। "इसका उदाहरण है युच्छति यहाँ पर युच्छ प्रमादे इस धातु से वर्तमाने लट्‌ इससे लट करने पर, लट के अकार और टकार की इत्संज्ञा और लोप करने पर युच्छ ल्‌ इस स्थित्ति में लकार के स्थान में तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्तातांथासाथान्ध्वमिड्वहिमहिङ्‌ इस सूत्र से अठारह तिप्प्रत्ययों को प्राप्ति में प्रथम पुरुष एकवचन कौ विवक्षा में तिप्‌ प्रत्यय करने पर युच्छ तिप्‌ इस स्थित्ति में पकार कौ हलन्त्यम्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर इत्संज्ञक पकार का तस्य लोपः इस सूत्र से लोप करने पर कर्तरि शप्‌ इस सूत्र से धातु को शप्प्रत्यय करने पर शप्प्रत्यय के आदि शकार की लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर और पकार की हलन्त्यम्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर उन दोनों इत्संज्ञक लकार पकार की तस्य लोपः इससे लोप करने पर युच्छ अ ति इस स्थित्ति में सभी का संयोग होने पर युच्छति यह रूप सिद्ध होता है।",अस्योदाहरणं हि युच्छति इति अत्र युच्छ प्रमादे इति धातोः वर्तमाने लट्‌ इति लटि लटः अकारटकारयोः इत्संज्ञायां लोपे च कृते युच्छ्‌ ल्‌ इति स्थिते लकारस्य स्थाने तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्तातांझथासाथान्ध्वमिड्वहिमहिङ्‌ इति सूत्रेण अष्टादशसु तिप्प्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमपुरुषैकवचनविवक्षायां तिप्प्रत्यये युच्छ तिप्‌ इति स्थिते पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌ इत्संज्ञकस्य पकारस्य तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे कर्तरि शप्‌ इति सूत्रेण धातोः शप्प्रत्यये शप्प्रत्ययस्य आदेः शकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायां पकारस्य च हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां ततश्च उभयोः इत्संज्ञकयोः लकारपकारयोः तस्य लोपः इति लोपे कृते युच्छ्‌ अ ति इति स्थिते सर्वसंयोगे युच्छति इति रूपं सिद्ध्यति। ईश केन कठ - इत्यादि श्लोक को पूरा लिखिए।,ईशकेनकठ - इत्यादि श्लोकं पूरयत? प्रौक्षन्‌ - प्रपूर्वक उक्ष्‌-धातु से लङ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बना।,प्रौक्षन्‌-प्रपूर्वकात्‌ उक्ष्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। परब्रह्म उपाधिवर्जित तथा शुद्ध होता है।,परं ब्रह्म उपाधिवर्जितं शुद्धं च भवति। "28. कृष्णसर्पः इस अविग्रह में, कुपुरुषः इस अस्वपद विग्रह में।","२८. कृष्णसर्पः इति अविग्रहे, कुपुरुषः इति अस्वपददविग्रहे।" "अपने लिये ही जब अध्ययन करते हैं, उसी समय ही खिल सूक्त पढ़ने की व्यवस्था है।",स्वेनैव यदा अध्ययनं क्रियते तदैव खिलपठनस्य व्यवस्था वर्तते। इस प्रकार से उपर से लेकर के एक-एक कोश आत्मव्यतिरिक्त होता है।,तदुर्ध्वम्‌ एकैकः अपि कोशः आत्मव्यतिरिक्तः भवति। "वृषादीनाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त है, च यह अव्ययपद है।","वृषादीनाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं, च इत्यव्ययपदम्‌।" वह ही ध्यान जब पराकाष्ठा पर पहुँचता है तब ब्रह्मविषयिणी अव्यवहिता चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,तदेव ध्यानं यदा परां काष्ठाम्‌ उपैति तदा ब्रह्मविषयिणी अव्यवहिता चित्तवृत्तिः भवति। इस प्रकार से जगत की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती है।,एवं जगतः स्वतन्त्रसत्ता नास्ति। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का तृतीय मन्त्र है।,सरलार्थः- अयं रुद्राध्यायस्य तृतीयो मन्त्रः। सूत्र अर्थ का समन्वय- दक्षिणः यह वैदिक प्रयोग है।,सूत्रार्थसमन्वयः- दक्षिणः इति वैदिकप्रयोगः। वाम्‌ - युष्मद अर्थ में बहुत्व को द्विवचनस्थान में।,वाम्‌ - युष्मदर्थमिति बहुत्वम्‌ द्विवचनस्थाने। सूक्त के द्वारा कहा गया है की वाणी ही उन नैयायिक स्फोटाख्या से परे वाणी ही है।,सूक्तोक्तावाग्‌ हि तेषां नये स्फोटाख्या परा वागेव। अतः उसके स्थान पर पूतिका-लता का विधान किया जाता है।,तस्मात्‌ तस्याः स्थाने पूतिका इत्याख्यायाः लतायाः विधानं दृश्यते। (क) तद्धितार्थ विषय में दिशावाची सुबन्त को समानाधिकरण सुबन्त से (ख) तद्दितार्थ विषय में संख्यावाची सुबन्त को समानाधिकरण सुबन्त से (ग) और उत्तरपद में चारों ओर दिशावाची सुबन्त को समानाधिकरण सुबन्त से (घ) और उत्तरपद में चारों ओर संख्यावाची सुबन्त को समानाधिकरण सुबन्त से।,क) तद्धितार्थ विषये दिशावाचिसुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन ख) तद्धितार्थ विषये संख्यावाचि सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन ग) उत्तरपदे च परतः दिशावाचि सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन घ) उत्तरपदे च परतः संख्यावाचि सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन 5. प्रशिषम्‌ का क्या अर्थ है?,5. प्रशिषम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। तो भी यहाँ समास होने पर आपत्ति है।,तर्हि अत्रापि समासः इत्यापत्तिः। इस निरुक्त में बारह अध्याय हैं।,अस्मिन्‌ निरुक्ते द्वादश अध्यायाः सन्ति। इन्द्रियाँ ज्ञान तथा कर्म के भेद से दस होती है।,इन्द्रियाणि ज्ञानकर्मभेदेन दश। "देवसाक्षात्‌ रूप से हवि ग्रहण नहीं करते हैं, अग्नि द्वारा ही देव हवि का आस्वादन करते हैं।","देवाः साक्षात्‌ हविः न भुञ्जते, अग्निना एव देवाः हवींषि आस्वादयन्ति।" अन्तिम आरण्यक में किसका वर्णन है?,अन्तिमारण्यके कस्य वर्णनम्‌ अस्ति? आवृणोति सतः पदार्थान्‌ इति वरुणः।,आवृणोति सतः पदार्थान्‌ इति वरुणः। विहङ्ग काकली के आरम्भ से पूर्व होता प्रातः अनुवाक पढ़ता है।,विहङ्गकाकल्याः आरम्भात्‌ पूर्वं होता प्रातः अनुवाकं पठति। तब स्थिर शान्त एकाग्र मन में अविच्छिन्नतेलधारा के समान अद्वितीय ब्रह्मज्ञान का सतत प्रवाह होता है वह ही निदिध्यासन कहलाता है।,"तदा स्थिरे शान्ते एकाग्रे च मनसि अविच्छिन्नतैलधारावत्‌ अद्वितीयब्रह्मज्ञानं सततं प्रवहते, तदेव निदिध्यासनम्‌ उच्यते।" यहाँ समासवृत्ति में राजपुरुष निष्पन्न होता है।,अत्र समासवृत्तौ सत्यां राजपुरुष इति निष्पद्यते। सूत्र अर्थ का समन्वय - यहाँ उदाहरण मन्त्र का यज्ञकर्म में विहित होने से और छन्द में होने से “यज्ञकर्मणि ' इस और “विभाषा छन्दसि' इन दो सूत्रों से प्राप्त एकश्रुति का प्रकृत सूत्र से निषेध प्राप्त होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः - अत्र उदाहरणमन्त्रस्य यज्ञकर्मणि विहितत्वात्‌ छन्दस्त्वात्‌ च ' यज्ञकर्मणि ` इति ' विभाषा छन्दसि ' इति च सूत्राभ्यां प्राप्ता एकश्रुतिः प्रकृतसूत्रेण निषिध्यते। ० अजयः - जी-धातु से लड मध्यमपुरुष एकवचन में रूप है।,अजयः - जी-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने रूपम्‌। परमात्मा का जीव भाव उपाधि के द्वारा कहा गया है।,परमात्मनः जीवभावः उपाधिना भवतीत्युक्तम्‌। ये तीन ही वस्तुत: प्रधान रूप से कल्पसूत्र के मत है।,इमानि एव त्रीणि वस्तुतः प्रधानानि कल्पसूत्राणि मतानि। अतः प्रत्यय ग्रहण परिभाषा से तिङन्त पद यह अर्थ प्राप्त होता है।,अतः प्रत्ययग्रहणपरिभाषया तिङन्तं पदम्‌ इत्यर्थः लभ्यते। (क) शम (ख) दम (ग) उपरति (घ) वैराग्य 18. विषयों से निवर्तित इन्द्रियों की श्रवणादि में एकाग्रता क्या कहलाती है।,(क) शमः (ख) दमः (ग) उपरतिः (घ) वैराग्यम्‌ 18. विषयेभ्यो निवर्तितानाम्‌ इन्द्रियाणां मनसः च श्रवणादौ एकाग्रता किमुच्यते। "वहाँ अकार आदि हि वर्ण, उदात्त आदि हि स्वर, हस्व आदि हि मात्रा, स्थान और प्रयत्न बल, निषाद आदि साम, और विकर्षण आदि सन्तान हैं।","तत्र अकारादिः हि वर्णः, उदात्तादिः हि स्वरः, ह्रस्वादिः हि मात्रा, स्थानप्रयत्नौ च बलं, निषादादिः साम, विकर्षणादिश्च सन्तानः।" ये तीन काल की वर्तनी भी स्थिति को यथावत करती है।,इदं त्रिकालवर्त्तनीम्‌ अपि स्थितिं करतलामलकवत्‌ करोति। इस प्रकार से ज्ञान तथा कर्म के कर्तव्योपदेश से समुच्चित एक निःश्रेयस का हेतु कौन है यहाँ पर संशय उत्पन्न होता है।,एवं ज्ञानकर्मणोः कर्तव्यत्वोपदेशात्‌ समुच्चितयोरपि निःश्रेयसहेतुत्वं स्यात्‌ इति भवेत्‌ संशयः कस्यचित्‌। कौन इसमें विशेष है यह कहलाता है।,कोऽस्य विशेष इति उच्यते। प्रमाणगत असम्भावना श्रवण निवृत्त होती है।,प्रमाणगता असम्भावना श्रवणेन निवर्तते। 8. श्रृंगार रस के दो भेदों के मध्य कौन सा श्रृंगार अत्यधिक मधुर है?,शृङ्गारस्य द्वयोः भेदयोः मध्ये कः शृङ्गारः मधुरतरः? सिषासन्तः - सन्‌-धातु से सन्‌-प्रत्यय शतृप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में सिषासन्तः रूप बना।,सिषासन्तः- सन्‌-धातोः सन्‌-प्रत्यये शतृप्रत्यते कृते प्रथमाबहुवचने सिषासन्तः इति रूपम्‌ इस सूत्र में “निष्ठा च द्वयजनात्‌' इस सूत्र से द्यच्‌ इसकी अनुवृत्ति आती है।,"अस्मिन्‌ सूत्रे ""निष्ठा च दुव्यजनात्‌' इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ दुव्यच्‌ इत्यनुवर्तते।" (क) चित्त के शोधकर्मो में (ख) साधनचतुष्टय में (ग) शमादषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णय छः: लिङ्गों में मनन का लक्षण वेदान्तपरिभाषा में धर्मराजध्वरीन्द्र ने इस प्रकार से कहा है।,(क) चित्तशोधककर्मसु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु मननस्य लक्षणं निगद्यते वेदान्तपरिभाषाकारेण धर्मराजाध्वरिन्द्रेण। भक्ति किसे कहते हैं?,भक्तिः नाम किम्‌? वह ही व्यक्ति जब शाम के समय कुलाल के घर में आया तो वहाँ पर तब उसने वहाँ पर देखा घट आदि शराव वहाँ पर थे।,स एव पुरुषः यदा अपराह्णे कुलालागृहम्‌ आगतवान्‌ तदा दृष्टवान्‌ यत्‌ तत्र घटशरावादयः सन्ति। अत: अन्तिम अच्‌ उदात्त होता है यह अर्थ है।,अतः अन्त्यः अच्‌ उदात्तः भवति इत्यर्थः। और इस प्रकार यहाँ यज्ञकर्मणि वषट्कारः उच्चौस्तराम्‌ एकश्रुतिः वा ये सूत्र में आये पद अन्वय होते है।,एवञ्च अत्र यज्ञकर्मणि वषट्कारः उच्चैस्तराम्‌ एकश्रुतिः वा इति सूत्रगतपदान्वयः भवति। इस प्रकार से निर्वकल्पसमाधि में जब ब्रह्माकार चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,एवं निर्विकल्पकसमाधौ यदा ब्रह्माकारा चित्तवृत्तिरुदेति। छन्दः शब्द की व्युत्पत्ति क्या है?,छन्दःशब्दस्य व्युत्पत्तिः का? और कुछ चतुर्थ्यन्त के शब्दस्वरूप से उससे किसी वस्तु का परामर्श अभाव से लक्षणा से चतुर्थ्यन्तेन कहना चाहिए उससे ग्रहण किया जाना चाहिए।,"किञ्च, चतुर्थ्यन्तस्य शब्दस्वरूपतया तेन कस्यचिद्वस्तुनः परामर्शाभावात्‌ लक्षणया चतुर्थ्यन्तेन तद्वाच्यं तदेव गृह्यते।" "इस प्रकार आचार्यों के यहाँ तीन गण उपलब्ध होते है - १ माण्डुकेय गण, २ शाङखायन गण, ३ और आश्वलायन गण।","एवंविधानाम्‌ आचार्याणाम्‌ अत्र त्रयो गणाः समुपलब्धा भवन्ति- (१) माण्डुकेयगणः, (२) शाङ्खायनगणः, (३) आश्वलायणगणः चेति।" ' ( ऋग्वे. १०/१४५/१ ) अन्ये सूक्त में शत्रु-संहार के लिये प्रार्थना की है - “ऋषभं मां समानानां सपत्नानां विषासहितम्‌।,"'(ऋग्वे, १०/१४५/१) अपरस्मिन्‌ सूक्ते शत्रु-संहाराय प्रार्थना वर्त्तते- 'ऋषभं मां समानानां सपत्नानां विषासहितम्‌।" "आधिभूत प्रकरण में राजा, राज्य, राज्यशासन और सङ्ग्राम आदि का वर्णन है।",आधिभूतप्रकरणे- राज-राज्यशासन-सङ्ग्रामादीनां च वर्णनम्‌ अस्ति। प्रथमपुरुष एकवचन का है।,प्रथमपुरुषस्य एकवचनम्‌। बाल्य काल में कोमल एवं सुन्दर गात्र होता है। यौवन काल में भी शरीर सुन्दर तथा दृढ होता है।,बाल्यकाले कोमलं सुन्दरञ्च गात्रं भवति। यौवनकालेपि सुन्दरं दृढञ्च भवति। तथा मध्यन्दिनं परि यहाँ पर लक्षण परे होंने पर कर्मप्रवचनीय हुआ।,तथा मध्यन्दिनं परि। लक्षणे परेः कर्मप्रवचनीयत्वम्‌। जन्म के बाद ही इसने अपना आपूर्व पराक्रम को दिखाया।,जन्मानन्तरमेव अनेन अपूर्वपराक्रमं प्रदर्शितम्‌। "वहाँ “न' और 'तु' ये अव्ययपद है, सुब्रह्मण्यायाम्‌ यह सप्तमी एकवचनान्त पद है, स्वरितस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, और उदात्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","तत्र ""न' इति तु इति च अव्ययपदम्‌, सुब्रह्मण्यायाम्‌ इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌, स्वरितस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, उदात्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" 10. विदेहमुक्त के पुण्यफल होतें हैं अथवा नहीं।,१०.विदेहमुक्तस्य पुण्यफलं तिष्ठति वा? "विश्व, तैजस, प्राज्ञ तथा ईश्वर इस प्रकार से चार पैर होते हैं।",विश्वः तैजसः प्राज्ञ ईश्वर इति चत्वारः पादाः।। अतः अग्नि के साथ उसका सम्बन्ध अन्य देवों की अपेक्षा से अधिक दृढ है।,अत एव अग्निना सह तस्य सम्बन्धो देवान्तरापेक्षया अधिकं दृढः। इस प्रकार से योगी स्थितप्रज्ञ कहलाता है।,एवंविधो योगी एव स्थितप्रज्ञ इत्युच्यते। उत्पत्ति से पहले प्रकाशादि कार्य नहीं होते हैं अपितु बाद में होते हैं।,"प्रागुत्पत्तेः प्रकाशादिकार्य न बभूव, पश्चाच्च भवतीति।" जब यह कछुए की तरह सभी इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है तब उसको प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।,यदा अयं कुर्मः अङ्गानि इव सर्वशः इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थभ्यः संहरते तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवति इति । ( वाचस्पतिमिश्रः ) इस कथन से सिद्ध होता है की वेद दो प्रकार का है - मन्त्ररूप और ब्राह्मणरूप।,(वाचस्पतिमिश्रः) अनेन कथनेन सिद्धो भवति यद्‌ वेदो द्विविधो- मन्त्ररूपो ब्राह्मणरूपश्च। उससे भी चित्रशब्द होता है।,ततः अपि चित्रशब्दः भवति। सबसे पहले शरीरी प्रजापति आत्मा ही है।,प्रथममेव जातः शरीरी प्रजापतिः आत्मा एव। प्रकाणन्तर से लक्षणा के तीन भाग किये गये हैं।,प्रकारान्तरेण लक्षणायाः भागत्रयं विद्यते। यत्तै दिवो दुहितर्मर्त भोज॑नम्‌ इस ऋग मन्त्र में दुहितः यह पद सम्बोधन में है।,यत्तं दिवो दुहितर्मर्त भोज॑नम्‌ इत्यस्मिन्‌ ऋङ्गन्त्रे दुहितः इति पदं सम्बोधने वर्तते। वेदान्त में मन से अतिरिक्त अविद्या नहीं होती है।,वेदान्ते मनसः अतिरिक्ता अविद्या नास्ति। विश्व नियन्ता पद से हटकर जल देवता स्वरूप में ही दृष्टि गोचर होते है।,विश्वनियन्तृ-पदाद्‌ अपसृत्य जलदेवतास्वरूपेणैव दृग्गोचरो भवति। इन कर्मों से इष्टफल प्राप्त होते हैं।,एतेभ्यः कर्मभ्य इष्टफलानि लभ्यन्ते। दीया - दी-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,दीया - दी - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌ । शूषम्‌ - शूषधातु से घञ करने पर शूष यह रूप बना।,शूषम्‌ - शूषधातोः घञि शूष इति रूपम्‌। समानाधिकरण तत्पुरुष नाम कर्मधारय समास का है।,समानाधिकरणतत्पुरुषः नाम कर्मधारयः समासः इति। छन्द्सि च इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,छन्दसि च इति सूत्रं व्याख्यात। “कि क्षेपे” इस सूत्र का उदाहरण दीजिये।,""" किं क्षेपे "" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌ ।" सूक्ष्म शरीर क्या होता है।,किन्नाम सूक्ष्मशरीरम्‌। क्त प्रत्ययान्त का अव्यवहित पूर्वपद प्र यह है।,क्तप्रत्ययान्तस्य अव्यवहितं पूर्वपदं प्र इति। “गोरतद्धितलुकि'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""गोरतद्धितलुकि"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" श्रवणादि कार्य करना चाहिए।,श्रवणादिकं कार्यं कर्तव्यम्‌। और यहाँ वषट्कार वौषट्‌ इस शब्द में निरूढ यह यहाँ प्रधान रूप से जानना चाहिए।,अत्र वषट्कारश्च वौषट्‌ इति शब्दे निरूढः इति अत्र प्राधान्येन ज्ञातव्यम्‌। "ऐसे कुछ याग वैदिक काल में आर्यों के द्वारा अनुष्ठीत होते थे, परन्तु आज काल के ग्रास से प्राय: बहुत से लुप्त हो गये।","एतादृशाः केचन यागाः वैदिके काले आर्यैः अनुष्ठीयन्ते स्म, परन्तु अधुना कालग्रासात्‌ प्रायः बहवः लुप्ताः जाताः।" प्रत्येक वर्णो के स्वर प्रत्यय योग से समास करने से इत्यादि हेतु से बदलते हैं।,प्रत्येकं वर्णानां स्वरः प्रत्यययोगात्‌ समासकरणात्‌ इत्यादिहेतोः परिवर्त्यते। 6. सूर्य 7. इन्द्र और अग्नि।,6. सूर्यः। 7. इन्द्रः अग्निश्च। धर्म का प्रायोजक अर्थ है।,धर्मस्य प्रयोजकः अर्थः। प्राचीन काल में वर्णों की संख्या के ऊपर छन्द विन्यास में विशेष ध्यान था।,प्राचीनांशेषु उपलब्धानां छन्दसाम्‌ अपेक्षया दशममण्डलस्य छन्दःसु पार्थक्यम्‌ अस्ति। उसको मोह तथा शोक नहीं होता है।,नास्ति तस्य शोकः मोहः वा। उर्ज शब्द का क्या अर्थ है?,उर्जशब्दस्य कः अर्थः? इन दोनों के द्वारा ही तत्व तथा पदार्थ में परिशुद्धि भी होती है।,आभ्यामेव तत्त्वम्पदार्थयोः परिशुद्धिरपि भवति। 1.3 सह सुपा सूत्रार्थ-सुबन्त का सुबन्त के साथ समास होता है।,१.३ सह सुपा सूत्रार्थः - सुबन्तं सुबन्तेन सह समस्यते। शेषे विभाषा इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिए।,शेषे विभाषा इति सूत्रस्य एकमुदाहरणं दीयताम्‌। उपसर्गव्यपेतं च इस सूत्र का उदाहरण लिखिए।,उपसर्गव्यपेतं च इति सूत्रस्य उदाहरणं लिखत। उसका नाम शतपथब्राह्मण है।,तस्य नाम शतपथब्राह्मणम्‌ इति। अष्टनो दीर्घात्‌ (६.१.१७२ ) सूत्र का अर्थ- शस आदि विभक्ति उदात्त होती है।,अष्टनो दीर्घात्‌ (६.१.१७२) सूत्रार्थः- शसादिविभक्तिरुदात्ता। तब स्वस्वरूप के ज्ञान से मोक्ष होता है।,तदा स्वस्वरूपज्ञानात्‌ मोक्षो भवति। यहाँ षष्ठयन्त फलशब्द का सुहित शब्द के साथ प्राप्त षष्ठी समास का प्रकृतसूत्र से निषेध होता है।,अत्र षष्ठ्यन्तस्य फलशब्दस्य सुहितशब्देन सह प्राप्तस्य षष्ठीसमासस्य प्रकृतसूत्रेण निषेधो विधीयते। तापयिष्णवः ये रूप कैसे सिद्ध हुआ।,तापयिष्णवः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? इसलिए उद्गाता उदुम्बर शाखा का पाठ करना अपने कार्यो में प्रधान कर्म मानता है।,अतः उद्गाता उदुम्बरशाखायाः उच्छ्रयणकार्यं स्वस्य प्रथमकर्मणा करोति। कुछ का मत है की ग्रह्-धातु से यह वैदिकरूप है।,केषाञ्चित्‌ मतं यत्‌ ग्रह्‌-धातोः वैदिकं रूपमिदम्‌ । "नियम है सोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान।",शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि नियमाः। "जिस वाक्य में श्रवण का भेद नहीं है, अर्थात्‌ जहाँ भिन्न श्रुति न हो वह ही वाक्य एकश्रुति कहलाता है।",यस्मिन्‌ वाक्ये श्रवणस्य भेदो न वर्तते अर्थात्‌ यत्र अभिन्नश्रुतिः तदेव वाक्यम्‌ एकश्रुति इति उच्यते। तथापि कुछ मन्त्र ऐसे हैं जिनमें उच्चतर दार्शनिकमत सम्यक्‌ रूप से प्रकटित देखा जाता है।,तथापि केचन मन्त्राः सन्ति येषु उच्चतरदार्शनिकमतं सम्यक्‌ प्रकटितं दृश्यते। सभी योगों का परमलक्ष्य तो योग ही है।,सर्वेषां योगानां परमलक्ष्यं तु मोक्षः एव। (8.6 ) “किमः क्षेपे” सूत्रार्थ - निन्दा अर्थक कि शब्द से परे जो प्रातिपदिक तदन्त समास से समासान्त नहीं होते हैं।,"(८.६) ""किमः क्षेपे"" सूत्रार्थः - निन्दार्थकात्‌ किंशब्दात्‌ परं यत्‌ प्रातिपदिकं तदन्तात्‌ समासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति।" "अत उषाकाल के वर्णन में प्रकृति वैसे विराजमान होती है, जैसे मणिमाला में स्वर्णसूत्र विराजमान है।",अतः उषाकालस्य वर्णने प्रकृतिः तथा विराजते यथा मणिमालायां स्वर्णसूत्रं विराजते। 360 दिनों से अधिक दिनों में जो याग सम्पादित होते हैं उन यागों की प्रकृति गवामयन याग होता है।,३६० दिवसेभ्यः अधिकदिवसे ये यागाः सम्पाद्यन्ते तेषां यागानां प्रकृतिः हि गवामयनयागः। ऐसी कामना करने वाले याजक कामना पूर्ति के लिए हिरण्यगर्भ को हवि देते हैं और हिरण्यगर्भ की स्तुति करते हुए प्रार्थना करते हैं कि उनकी कामनापूर्ण होवें।,इत्थं कामनान्विताः याज्ञिकाः कामनापूर्त्यर्थं हिरण्यगर्भाय हवींषि प्रयच्छन्ति हिरण्यगर्भस्तुतिं च कुर्वन्तः प्रार्थयन्ति तं कामनापूर्तये। "अन्वय का अर्थ - मीढुष्टम - अत्यन्त शक्तिशाली, ते - आपका, हस्ते - हाथ में, या धनुः - जो धनुष हेतिः वज्र धनु - सम्बन्धी - आयुध हैं, वे निरर्थक, तया अयक्ष्मया - उस क्षय रोग से रहित आयुध से, त्वम्‌ - आप स्वयं, अस्मान्‌ - हमारी, विश्वतः - सब और से पालन कीजिए।","अन्वयार्थः- मीढुष्टम - कामवर्षिन्‌, ते - तव, हस्ते - करे, या धनुः - यत्धनुष्‌, हेतिः - धनु-सम्बन्धी- आयुधः अस्ति, ते निरर्थकाः, तया अयक्ष्मया - व्यधिरहितेन आयुधेन, त्वम्‌ स्वयम्‌ अस्मान्‌ - नः, विश्वतः परितः परिभुज पालयतु।" इसलिए आत्मजिज्ञासु को श्रद्धा का अवलम्बन अनिवार्य है।,अतः आत्मजिज्ञासोः श्रद्धायाः अवलम्बनम्‌ अनिवार्यम्‌ । इसलिए पतञ्जलि ने कहा है- “अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्तासम्बोधः” इति।,तथाहि सूत्रितं पतञ्जलिना - “अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः” इति। "सर्वान्‌ - सभो को, अहीन्‌ सर्प के तुल्य प्राणान्त करने हारे रोगों को, च - और, जम्भयन्‌ - औषधियों से हटाते हुए, सर्वाः - सम्पूर्ण, च अपि - और भी, अधराचीः - नीचे गति को पहुचाने वाली, यातुधान्यः - रोगकारिणी औषधी राक्षससमूह को दूर फेको।","सर्वान्‌ - सकलान्‌, अहीन्‌ सर्पन्‌, च - किञ्च, जम्भयन्‌- विनाशयन्‌, सर्वाः- सकलाः, च अपि - च अधराचीः - अधोगामी, यातुधान्यः - परासुव राक्षससमूहान्‌ दूरं निक्षिप।" पर्जन्य वृक्षों को काटता है और राक्षसों को मारता है।,"पर्जन्यो वृक्षान्‌ विहन्ति , रक्षांसि विहन्ति च।" और भी अन्य समय में पीले रंग का।,उतापि च बभ्रुः पिङ्गलवर्णोऽन्यदा। "महर्षि जैमिनि ने वेद विरोधी वाक्यों के खण्डन के लिए जो युक्ती सम्मुख रखी, और उसके विवरण को भी कैसे वह उन वेद विरोधी युक्तियों का खण्डन करते हैं।",महर्षिः जैमिनिः वेदविरोधिनां वाक्यानां खण्डनाय याः युक्तीः समुपस्थापितवान्‌ तासां विवरणम्‌ अपि च कथं सः ताः वेदविरोधिनीः युक्तीः खण्डितवान्‌। अराजन्‌ इससे “राजाहः सखिभ्यष्टच्‌” इस टच्‌ प्रत्यय प्राप्त होने पर नञ्तत्पुरुष से प्रोक्त सूत्र से उसका निषेध होने पर अराजन्‌ से पुल्लिङ्ग में सु प्रत्यय होने पर प्रक्रियाकार्य में अराजा रूप बना।,"अराजन्‌ इत्यस्मात्‌ ""राजाहः सखिभ्यष्टच्‌"" इत्यनेन टचि प्राप्ते नञ्तत्पुरुषत्वात्‌ प्रोक्तसूत्रेण तन्निषेधे अराजन्‌ इत्यस्मात्‌ पुंसि सौ प्रक्रियाकार्ये अराजा इति रूपम्‌।" मैं स्वयं ही देवों के लिये और मनुष्यो के लिये इस वाक्य को कहती हूँ।,अहं स्वयमेव देवैः मनुष्यैश्च अभीष्टम्‌ इदं वाक्यं वदामि। उसी प्रकार से यहाँ पर भी जानना चाहिए।,तथैव अत्रापि ज्ञातव्यम्‌। "वहां वेदांत के मत में भ्रांति रहित ज्ञान प्रमा किसके प्रमाण से होती है, वेदांती कितने प्रमाणों को स्वीकार करते हैं, उनका स्वरूप क्या है, प्रक्रिया क्या है,प्रमेय क्या है, प्रमा भेद कौन-कौन से हैं इन अनेक विषयों को इस प्रकरण में प्रतिपाद्य है।","तत्र वेदान्तमते भ्रान्तिरहितं ज्ञानं प्रमा केन प्रमाणेन भवति, तत्र वेदान्तिनः कानि प्रमाणानि अङ्गीकुर्वन्ति, तेषां स्वरूपं किम्‌, प्रक्रिया का, प्रमेयाणि कानि, प्रमाभेदाः के इति नैके विषयाः अस्मिन्‌ प्रकरणे प्रतिपाद्याः।" इसलिए व्याकरण पढ़ना चाहिए।,तस्माद्‌ व्याकरणम्‌ अध्येयम्‌। "इस प्रश्‍न के होने पर कहा जाता है, एकश्रुतिः इस पद में “एका चासौ श्रुतिः चेति' इस विग्रह में एकश्रुति है, एकश्रुति है इस वाक्य की इति एक श्रुति है।","अस्मिन्‌ प्रश्ने सति उच्यते एकाश्रुतिः इति पदे 'एका चासौ श्रुतिः चेति' इति विग्रहे एकश्रुतिः, एकश्रुतिः अस्ति अस्य वाक्यस्य इति एकश्रुति।" साम शब्द के अर्थ का विस्तार से निबन्ध लिखिए।,सामशब्दार्थः विस्तरशः लेख्यः। 19. न्रिपुटी किसे कहते है?,१९. त्रिपुटी नाम का? और वहाँ साम शब्द के अर्थ का प्रतिपादन करेंगे।,तत्र च सामशब्दार्थः प्रतिपादयिष्यते। "जिसका चित्त एकदम शुद्ध तथा एकाग्र है, जिसकी मोक्षेच्छा भी है जिसकी साधनचतुष्टय सम्पत्ति भी है।","यस्य चित्तं शुद्धम्‌ एकाग्रं चास्ति, यस्य मोक्षेच्छा अस्ति, यस्य साधनचतुष्टयसम्पत्तिः अस्ति ।" वह केवल दिन में ही नहीं रात में भी अन्धकार को हटाकर सभी और प्रकाश फैलती है।,स न केवलं दिवा नक्तमपि तमिस्रामपसार्य सर्व प्रकाशयति। उसमें सबसे पहले साधनों में जो क्रम है उसका उपस्थापन किया गया है।,तत्रादौ साधनेषु यः क्रमः वर्तते तस्य उपस्थापनं कृतम्‌। समास में जिन सामाजिक पद हैं उनका “समर्थः पदविधिः सूत्र द्वारा बलपूर्वक समर्थ होते हैं।,"समासे च यानि समस्यमानानि पदानि तानि ""समर्थः पदविधिः"" इति सूत्रबलात्‌ समर्थानि भवन्ति।" अध्यवोचद्‌ - अधिपूर्वक वच्‌-धातु से लङ् प्रथमपुरुष एकवचन में।,अध्यवोचद्‌- अधिपूर्वकाद्‌ वच्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचनम्‌। परिशिष्ट भाग भी बाद का है ऐसा कह नहीं सकते है।,परिशिष्टभागम्‌ अपि अर्वाचीनम्‌ इति वक्तुं न शक्यते। उसका लाल धुआँ गोल रूप से आकाश को स्पर्श करता हुआ नभ को छु लेता है।,तस्य लोहिताभधूमाः स्तम्भाकारं परिगृह्य आकाशं स्पृशन्तः नभस आलम्बनतया विराजन्ते। प्रसिद्ध उपनिषदों के मध्य ऋग्वेद के ऐतरेयोपनिषद में “प्रज्ञानं ब्रह्म” इस प्रकार का महावाक्य है।,"प्रसिद्धानाम्‌ उपनिषदां मध्ये ऋग्वेदस्य ऐतरेयोपनिषदि “प्रज्ञानं ब्रह्म"" इति महावाक्यं विद्यते।" "अपरकायः, अधरकायः इत्यादि इस सूत्र के उदाहरण है।",अपरकायः अधरकायः इत्यादीन्येतस्य सूत्रस्योदाहरणानि। 11.4.3 ) नैमित्तिकप्रलय कार्यब्रह्म हिरण्यगर्भ के दिवसावसान निमित्तक त्रैलोक्यमात्र का नाश नैमित्तिक प्रलय कहलाता है।,११.४.३) नैमित्तिकप्रलयः कार्यब्रह्मणः हिरण्यगर्भस्य दिवसावसाननिमित्तकः त्रैलोक्यमात्रनाशः नैमित्तिकः प्रलयः कथ्यते। और वह आधार तथा आधेय भाव अशेषतः विरुद्ध होता है।,स च आधाराधेयभावः अशेषतः विरुद्धः। ” उदाहरण -स्तोकान्मुक्तः यहाँ उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - स्तोकान्मुक्तः इत्यत्रोदाहरणम्‌। इस प्रकार से आत्मा में नहीं होता है।,एवं आत्मा नैव भवति। अतः लक्षण का अर्थ लक्ष्य यह त्रितय निष्ठा से जानना चाहिए।,अतः लक्षणम्‌ अर्थः लक्ष्यम्‌ एतत्‌ त्रितयम्‌ निष्ठया ज्ञेयमेव। मात्रार्थम्‌ यहाँ पर अर्थ शब्द उत्तरपद में है।,मात्रार्थम्‌ इत्यत्र अर्थशब्दः उत्तरपदे वर्तते। मोक्ष नाम के परमपुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए अद्वैतवेदान्त में बताया गया है।,मोक्षाख्यस्य परमपुरुषार्थस्य प्राप्तये अद्वैतवेदान्तस्य प्रपञ्चः। सरलार्थ - इस मन्त्र में प्रजापति के बारे में कहा है कि हे प्रजापति !,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे प्रजापतिं प्रति उच्यते यत्‌ हे प्रजापते । 10. विवृक्णा इसका क्या अर्थ है?,१०. विवृक्णा इत्यस्य कः अर्थः? 32. धारणा किसे कहते हैं?,३२. का नाम धारणा? वहाँ अन यह पञ्चमी एकवचनान्त और अव्यय पद है।,तत्र अनः इति पञ्चम्येकवचनान्तं च इत्यव्ययपदं च। भक्ति दो प्रकार की होती है शुद्धा तथा गौंणी।,भक्तिः द्विधा - शुद्धा गौणी चेति। अतः का ह्रस्व अकार से अर्थ होता है।,अतः इत्यस्य ह्रस्वाकारात्‌ इत्यर्थः। "अच्छी प्रकार से और सरलता से जैसा अध्ययन होता है, उसी प्रकार इनका वर्ग भेद किया है।",सुष्ठुतया सारल्येन च यथा अध्ययनं भवेत्‌ तस्मादेव एतादृशः वर्गभेदः कृतः। वस्तुत अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में (१२.१) ६३ मन्त्र हैं।,वस्तुतः अथर्ववेदीयपृथिवीसूक्ते (१२.१) ६३ मन्त्राः सन्ति। रूपक तो वेद का एक प्रशंसनीय और प्रसिद्ध अलङ्कार है।,रूपकं तु वेदस्य एकः प्रशंसनीयः प्रसिद्धः च अलङ्कारः अस्ति। चरतः - चर्‌-धातु से शतृप्रत्यये करने पर षष्ठी एकवचन में।,चरतः - चर्‌ - धातोः शतृप्रत्यये षष्ठ्यैकवचने । लकड़ी के घर्षण से उत्पन्न होने के कारण अग्नि के माता पिता दो लकड़ी हैं।,अरणिद्वयमन्थनेन उत्पाद्यमानस्य वह्नेः पितरौ हि अरणिद्वयम्‌। "जैसे जल नीचे की और उतरे उसी प्रकार आप भी उसके अनुरूप ही नीचे की ओर उतरें।""","यावद्‌ जलम्‌ अपसरति तावद्‌ भवानपि तदनु अस्मात्‌ स्थानात्‌ नीचैः अवतरेत्‌।""" प्रागात्मज्ञा से देहाभिमान निमित्त प्रत्यक्षादि प्रामाण्य के समान।,प्रागात्मज्ञानाद्‌ देहाभिमाननिमित्तप्रत्यक्षादिप्रामाण्यवत्‌। यह अधर्म रूप संस्कार अगले जन्म में दुःख को जन्म देते है।,अयम्‌ अधर्माख्यः संस्कारः अग्रिमजन्मसु दुःखम्‌ जनयति। इसलिए ब्रह्म वस्तु प्रकाशकत्व विद्या को ही कहा जाता है।,इत्यतः ब्रह्मवस्तुप्रकाशकत्वम्‌ विद्यायाः उच्यते। नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित तथा उपासनाओं के अवान्तरफल अर्थात्‌ गौण फल होते हैं जिससे पितृलोक की तथा सत्यलोक प्राप्ति होती है।,नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानाम्‌ अवान्तरफलम्‌ अर्थात्‌ गौणं फलं पितृलोकप्राप्तिः सत्यलोकप्राप्तिः। सूत्र का अर्थ- कर्मवाचि क्तान्त उत्तरपद रहते तृतीयान्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः- कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे तृतीयान्तं पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। जैसे छान्दोग्योपनिषद्‌ में छठे अध्याय में आदि में “एकमेवाद्वितीयम्‌' तथा अन्त में “ऐतदात्म्यमिद सर्वम्‌ ' इस प्रकार से अद्वितीय वस्तु का प्रतिपादन किया गया है।,"यथा- छान्दोग्योपनिषदि षष्ठे अध्याये आदौ 'एकमेवाद्वितीयम्‌', अन्ते 'ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्‌' इति अद्वितीयवस्तुनः प्रतिपादनं क्रियते।" "सूत्र की रचना - सुगन्धितेजन का पहला और दूसरा स्वर, और ते शब्द के स्वर का विकल्प से उदात्त विधान के लिए इस सूत्र का सृजन किया है।","सूत्रावतरणम्‌- सुगन्धितेजनस्य प्रथमस्य द्वितीयस्य च स्वरस्य, ते शब्दस्य च स्वरस्य विकल्पेन उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌।" यहाँ पूर्वपद गवे यह चतुर्थ्यन्त है।,अत्र पूर्वपदं गवे इति चतुर्थ्यन्तम्‌। "“यत्कृतकं तदनित्यम्‌ इति नियमः दृष्टानुमानोभयसिद्धः "" ।धर्म कर्म से उत्पन्न होता है। इसलिए अनित्य है।",यत्कृतकं तदनित्यम्‌ इति नियमः दृष्टानुमानोभयसिद्धः। धर्मः कर्मजन्यः। अतः अनित्यः। यह तेजोमय तथा वासनामय होता है।,तेजोमयत्वञ्चात्र वासनामयत्वमेव। गृभाय - ग्रभ्‌-धातु से लट्‌ अथवा लोट मध्यम पुरुष एकवचन में।,गृभाय - ग्रभ्‌ - धातोः लटि लोटि वा मध्यमपुरुषैकवचने । लोक में यशस्‌ शब्द सकारन्त नपुंसकलिङ्ग में है।,लोके यशस्‌ शब्दः सकारन्तः नपुंसकलिङ्गी। "2 अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये यम होते हैं।",२. अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः। और उपसर्ग पूर्वक भी है।,तच्च उपसर्गपूर्वकमपि अस्ति। इळे - स्तुति अर्थ में ईड्‌-धातु से लट उत्तमपुरुष एकवचन में इळे यह रूप बनता है।,इळे- स्तुत्यर्थकाद्‌ ईड्-धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने इळे इति रूपम्‌। 14.3 ) समाधि को आवश्यकता विचार अब यह प्रश्‍न होता उत्पन्न होता है कि श्रवण तथा मनन के बाद निदिध्यासन को कहने से निदिध्यासन का ही ब्रह्मज्ञान में विधान होने से समाधि का अवसर कहाँ पर उत्पन्न होता है?,२४.३) समाधेः आवश्यकताविचारः इदानीम्‌ अयं प्रश्नः सुतरामुदेति यत्‌ श्रवणमननाभ्याम्‌ अनन्तरं निदिध्यासनस्य कथनात्‌ निदिध्यासनस्यैव ब्रह्मज्ञानं यावत्‌ विधानात्‌ कुत्र समाधेः अवसरः? स्वयंभु ब्रह्मद्रष्टा आत्म देवता सात दिन में होने वाला आप्तोर्यामसंज्ञक सर्वहोम में विनियोग करने लगे ' आप्तोर्यामः सप्तममह र्भवति ' इत्युपक्रम्य 'सर्व जुहोति सर्वस्यास्यै सर्वस्यावरुध्द्यै' ( १२/७/१/९) इति श्रुतिया।,स्वयंभुब्रह्मद्रशा आत्मदेवत्याः सप्तमेहनि आप्तोर्यामसंज्ञिके सर्वहोमे विनियुक्ताः ' आप्तोर्यामः सप्तममहर्भवति ' इत्युपक्रम्य 'सर्वं जुहोति सर्वस्यास्यै सर्वस्यावरुध्द्यै' (१३/७/१/९)इति श्रुतेः। अमोघानन्दिनीशिक्षा- इस ग्रन्थ में एक सौ तीस (१३०) श्लोक है।,अमोघानन्दिनीशिक्षा- अस्मिन्‌ ग्रन्थे त्रिंशदधिकशतं (१३०) श्लोकाः सन्ति। तथा कृति प्रयत्न होता है।,कृतिः प्रयत्नः। 3 आकाश कौ उत्पत्ति होती है।,३.आकाशस्य उत्पत्तिरस्ति। जो अन्तः करण वृत्ति पटविषयक अज्ञान का नाश करती है वह पटाकार हो जाती है।,या अन्तःकरणवृत्तिः पटविषयकम्‌ अज्ञानं नाशयति सा पटाकारा । इस बात को कौषीतकी उपनिषद्‌ में भी कहा है।,कौषितक्युपनिषदि अपि आम्नायते इसलिए वह अप्रमादी तथा धैर्यवान होकर के साधनों से अविचलित नहीं होता है।,अतः सः अप्रमादः धैर्यवान्‌ भूत्वा साधनातः अविचलितः न भवति। इन्द्र का जन्म अस्वाभाविकरूप से हुआ ऐसा ऋग्वेद में वर्णन है।,इन्द्रस्य जन्म अस्वाभाविकरूपेण जातम्‌ इति ऋग्वेदे वर्ण्यते। वहाँ पर आध्यात्मिक दो प्रकार का होता है शारीरिक तथा मानसिक।,तत्रापि आध्यात्मिकं द्विविधं शारीरं मानसं च। वहाँ देवब्रह्मणोः: ये सप्तमी द्विवचनान्त पद है।,तत्र देवब्रह्मणोः इति सप्तमीद्विवचनान्तं पदम्‌। जैसे इस कल्प में वर्तमान प्राणिदेही सभी विराटपुरुष के अवयव है वैसे ही अतीत और आगामी कल्प में भी जानना चाहिए।,यथा अस्मिन्कल्पे वर्तमानप्राणिदेहाः सर्वेऽपि विराट्पुरुषस्यावयवाः तथैवातीतागामिनोरपि कल्पयोढ्द्र्टव्यमित्यभिप्रायः। अत: तदन्तविधि से तिङन्त पद से यह अर्थ है।,अतः तदन्तविधिना तिङन्तात्‌ पदात्‌ इत्यर्थलाभः। इसलिए राग ही पाश है इस प्रकार से राग पाश को जानना चाहिए।,अतः राग एव पाशः रागपाश इति ज्ञातव्यम्‌। मैं ही उपासको से अभिव्यवृत होती हूँ जल आदि के द्वारा इस प्रकार व्याख्या की।,एवमेव अभ्यवहरासि उपासासै आपद्यासै इति व्याख्येयानि। यज्ञ में निषिद्ध पदार्थो की निन्दा ब्राह्मण ग्रन्थों के अनेक स्थलो में उपलब्ध होता है।,यज्ञे निषिद्धपदार्थानां निन्दाः ब्राह्मणग्रन्थानाम्‌ अनेकस्थलेषु समुपलब्धाः भवन्ति। सगुण सोपाधिक ब्रह्म उपास्य ब्रह्म होता है।,सगुणं सोपाधिकं ब्रह्म उपास्यम्‌। इस प्रकार से इनमें यह भेद होता है।,इति एतावान्‌ भेदः। इसलिए विषय के अर्जन मे दोष होता है।,अतो विषयस्य अर्जनदोषो विराजते। वहाँ पर कारण साम्य जानना चाहिए।,साम्यं तत्र कारणमिति ज्ञेयम्‌। अग्निहोत्र नित्यकर्म होते हैं।,नित्यं च अग्निहोत्रादिकम्‌। अर्वाचीन इसका क्या अर्थ है?,अर्वाचीनमित्यस्य कः अर्थः? दा दाने इस आकार युक्त धातु से ` आतो युक्चिण्कृतोः' इससे घज्‌ प्रत्यय करने पर दायः यह रूप बनता है।,दा दाने इति आकारयुक्तधातोः आतो युक्चिण्कृतोः इत्यनेन घञ्प्रत्यये दायः इति रूपम्‌। यहाँ नृसमुदाय से श्रेष्ठत्व धर्म से द्विज का (ब्राह्मण का) पृथक्करण हुआ।,अत्र नृसमुदायात्‌ श्रेष्ठत्वधर्मेण द्विजस्य पृथक्करणं जातम्‌। समवाय समवाय निमित्तकारणों से ही सभी की उत्पत्ति होती है।,समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणेभ्यो हि सर्वमुत्पद्यमानं समुत्पद्यते । (गीता 5.16) जिन जीवों के अन्तःकरण का वह अज्ञान जिस अज्ञान से आच्छादित हुए जीव मोहित होते हैं आत्म विषयक विवेक ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है उनका वह ज्ञान सूर्य की भाँति उस परम परमार्थ तत्त्व को प्रकाशित कर देता है।,"(गीता५.१६)- ज्ञानेन तु येन अज्ञानेन आवृताः मुह्यन्ति जन्तवः तत्‌ अज्ञानं येषां जन्तूनां विवेकज्ञानेन आत्मविषयेण नाशितम्‌ आत्मनः भवति, तेषां जन्तूनाम्‌ आदित्यवत्‌ यथा आदित्यः समस्तं रूपजातम्‌ अवभासयति तद्त्‌ ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु सर्व प्रकाशयति , तत्‌ परं परमार्थतत्त्वम्‌। ," रुद्र अध्याय में अनार्यलुण्ठक अन्य आदि मनुष्यों का उपासक और पालकरूप में रुद्र का वर्णन है।,रुद्राध्याये अनार्यलुण्ठकान्त्यजादीनाम्‌ उपासकत्वेन पालकत्वेन रुद्रः वर्णितः अस्ति। सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः' यह सूत्र क्या विधान करता है?,सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इति सूत्रेण किं विधीयते? स्वप्न में मन के जागरण से जाग्रतवासनायुक्त मनस विजृम्भित प्रपञ्च का जीव को अनुभव होता है।,स्वप्ने मनसः जागरणात्‌ जाग्रद्वासनायुक्तमनसा विजृम्भितः प्रपञ्चः जीवेन अनुभूयते। जिसमें श्वास को रोका जाता है वह कुम्भक कहलाता है।,कुम्भको नाम श्वासरोधः। फिर भी वरुणदेव को उद्दिश्य करके केवल बारह सूक्त ही सम्पूर्ण ऋग्वेद में वर्णन किया गया है।,तथापि वरुणदेवम्‌ उद्दिश्य केवलं द्वादश सूक्तानि एव सम्पूर्ण ऋग्वेदे निवेदितानि। असि - अस्‌ - धातु लट्‌ मध्यमपुरुषैकवचने असि यह रूप बनता है।,असि- अस्‌-धातोः लटि मध्यमपुरुषैकवचने असि इति रूपम्‌। "इसी प्रकार ऊककृताः, पूगकृताः इत्यादि में भी जानना चाहिए।","एवम्‌ ऊककृताः, पूगकृताः इत्यादौ अपि बोद्धव्यम्‌।" उसको प्राप्त होऊ।,तदश्याम्‌। आपि सप्तम्यन्त पद है।,आपि इति सप्तम्यन्तं पदम्‌। "तेरहवें, चौदहवें अध्याय में।",त्रयोदशचतुर्दशतमाध्याये। वेदान्त ही उपनिषद्‌ है।,वेदान्ताः एव उपनिषदः। स इद्‌ देवेषु गच्छति' - वह ही देवों में जाता है यह अर्थ है।,स इद्‌ देवेषु गच्छति - स एव देवेषु गच्छति इत्यर्थः। व्याख्या - कितवं कितवः यहाँ पर विभक्ति का व्यत्यय।,व्याख्या - कितवं कितवः। विभक्तिव्यत्ययः । "(नृणां द्विजः श्रेष्ठः) “यतश्च निर्धारणम्‌"" इससे नृणाम्‌ यहाँ पर निर्धारण में षष्ठी विहित है।","""यतश्च निर्धारणम्‌"" इत्यनेन नृणामित्यत्र निर्धारणे षष्ठी विहिता।" 4 अखण्डाकार वृत्ति के उदय होने पर क्या होता हे?,४.अखण्डाकारवृत्तेः उदये सति किं भवति? तब वह देहेन्द्रिय अद्यतीत कारण सूक्ष्म भूतों के शरीरों की साक्षिरूप से विद्यमान होती हुई वस्तु ही त्वम्‌ पद से उक्त है।,तदा देहेन्द्रियाद्यतीतं कारणसूक्ष्मस्थूलानां शरीराणां साक्षिरूपेण विद्यमानं सत्‌ वस्तु एव त्वम्पदेन उक्तम्‌ अस्ति। वह चित्तवृति जीव के स्वरूप विषयक अज्ञान का नाश करती है।,सा चित्तवृत्तिः जीवस्य स्वरूपविषयकमज्ञानं नाशयति। म्याक्डोनल्महोदय के अनुसार इन्द्र - इराणीय मनुष्यों के मध्य में बहुत समय पूर्व अग्निपूजा का प्रचलन था।,म्याक्डोनल्महोदयस्य मतानुसारम्‌ इन्द - इराणीयमानवानां मध्ये बहुपूर्वकालतः अग्निपूजायाः प्रचलनम्‌ आसीत्‌। “विभाषितं विशेषवचने' यह किसका अपवाद सूत्र है?,""" विभाषितं विशेषवचने' इति कस्य अपवादसूत्रम्‌ ?" यहाँ अधि पूर्व पद है।,अत्र अधि इति पूर्वपदर्मस्ति। मा नो हिंसीज्जनिता... मन्त्र की व्याख्या करो।,मा नो हिंसीज्जनिता... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। अहं शब्द का यहाँ पर आत्मा अर्थ होता है।,अहं शब्दस्य आत्मेति अर्थः भवति। अगृधत्‌ - गृध्‌-धातु से लङ प्रथमपुरुष एकवचन में (वैदिक )।,अगृधत्‌ - गृध्‌ - धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने ( वैदिकः ) । इस प्रकार का यह तात्पर्य है।,भवतीति तात्पर्यम्‌। इसलिए सूत्र में ब्राह्मणनामधेयस्य इस पद को जोड़ा गया है।,अत एव सूत्रे ब्राह्मणनामधेयस्य इति पदम्‌ उपन्यस्तमस्ति। कवि ने यहाँ पर उषादेवी का जो चरित्र चित्रण किया वह सहृदयों के हृदय में उल्लास को उत्त्पन्न करता है।,कविः अत्र उषादेव्याः यत्‌ चरित्र चित्रयति तत्‌ सहृदयानां हृदये उल्लासं जनयति। जैसे पिपासा रहित का पीने में।,अतृषितस्य इव पाने। महर्षि जैमिनि ने उनके पूर्वमीमांसा ग्रन्थ में।,महर्षिः जैमिनिः तस्य पूर्वमीमांसाग्रन्थे। यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामर्न्नं कृष्टयः संबभूवुः।,यस्याँ समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवृः। तब षट्‌ यह पद पाद के आदि में नहीं रहता है।,तदा षट्‌ इति पदं पादादौ न तिष्ठति। अथर्व संहिता की शौनकशाखा और पैप्पलादशाखा लम्बे काल से ही प्रकाशित है।,अथर्वसंहितायाः शौनकशाखा पैप्पलादशाखा च अचिरेणैव मुद्रिते स्तः। उस देवदर्श अथवा देवदर्शी इस नाम का ही उपयुक्त होता है ऐसा प्रतीत होता है।,तस्मात्‌ देवदर्शः उत देवदर्शी इति नाम एव उपयुक्तं भवति इति प्रतीयते। बिना अधिष्ठान के अनित्य सम्भव नहीं होता है।,निरधिष्ठानम्‌ अनित्यं न सम्भवति। "सूत्र अर्थ का समन्वय- बलिः यह शब्द स्त्रीविषय है, और यह शब्द हस्वान्त भी है।",सूत्रार्थसमन्वयः- बलिः इति शब्दः स्त्रीविषयः अस्ति किञ्च अयं शब्दः ह्रस्वान्तः अपि अस्ति। धर्म आदि पुरुषार्थ जिसमे वे वेद कहलाते है।,विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्थाः यैः ते वेदाः इति। इसीलिये आदित्य सहित सप्त परिधीयाँ यहां छन्द रूप में है।,ततः एव आदित्यसहिताः सप्त परिधयोऽत्र सप्त छन्दोरूपाः। एव आदि अन्तोदात्त किस सूत्र से होती है?,एवादयः अन्तोदात्ताः केन सूत्रेण ? जिस मन के बिना मनुष्य कोई भी कार्य नही कर सकते है।,यस्मात्‌ मनसः ऋते यन्मनो विना किञ्चन किमपि कर्म न क्रियते जनैः। न कुछ अनुभव किया इस प्रकार की भी यह स्मृति होने योग्य ही है।,न अननुभूतस्य कस्यचित्‌ स्मृतिर्भवितुमर्हति। "यहाँ वसु इस पद से भौतिकद्रव्य का सङ्केत नहीं है, किन्तु आध्यात्मिककल्याण का है।",अत्र वसु इत्येतत्पदेन भौतिकद्रव्यस्य सङ्केतो न भवति किन्तु आध्यात्मिककल्याणस्य। सरलार्थ - इस मन्त्र में इन्द्र के प्रति कहा गया है की हे इन्द्र जब अद्वितीय प्रकाशमान वृत्र ने प्रहार किया तब तुम घोडे की पूंछ के समान हो गये।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे इन्द्रं प्रति उच्यते यत्‌ हे इन्द्र यदा अद्वितीयः दीप्यमानः वृत्रः प्रहारं कृतवान्‌ तदा त्वं तु अश्वपुच्छकेशतुल्यः अभवः। भरद्वाज शिक्षा का अन्य नाम क्या है?,भरद्वाजशिक्षायाः अपरं नाम किम्‌। कृणोतु - कृ-धातु से लोट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,कृणोतु- कृ-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌। और पठति यह तिङन्त यहाँ उपसर्ग रहित अप्रतिषेध है।,पठति इति तिङन्तं च अत्र उपसर्गरहितम्‌ अप्रतिषिद्धं अस्ति। "शङ्कर भगवान के लिए यद्यपि उपनिषद्‌ शब्द से ब्रह्मविद्या को ही कहते है, फिर भी ग्रन्थ में उपनिषद्‌ शब्द व्यवहार के लिए होता है।","शङ्करभगवत्पादानां नये यद्यपि उपनिषच्छब्देन ब्रह्मविद्यैव उच्यते, तथापि ग्रन्थे उपनिषच्छब्दव्यवहारः सम्भवति।" "वे है श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, तथा घ्राण।",तानि च श्रोत्रत्वक्वक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि। उस वृत्र ने भी इन्द्र के साथ युद्ध में प्रवर्तित हुआ।,ततः अपि वृत्रः इन्द्रेण साकं युद्धे प्रवर्तितवान्‌। पुरुष बहुत को प्रतिपादित करने वाला संख्य सूत्र कौन सा है?,पुरुषबहुत्वप्रतिपादकं सांख्यसूत्रं किम्‌। "इसी प्रकार से अन्तः करण भी प्रकाशशील सत्त्वगुण के द्वारा शुद्ध स्वभाव वाला होता हुआ भी रज, तम आदि के योग से अशुद्ध हो जाता है।","अपसारिते च मालिन्ये चुम्बकम्‌ आकर्षति। एवमेव अन्तःकरणम्‌ प्रकाशनशीलेन सत्त्वगुणेन स्वभावतः सहितं चेदपि रजसा, तमसा च योगात्‌ अशुद्धम्‌ भवति।" और जैसा वेद में कहा गया ऋग्वेद के अक्षसूक्त में ` अक्षै: मा दिव्यः कृषिमित्‌ कृषस्व' इति।,तथा च आम्नातम्‌ ऋग्वेदीये अक्षसूक्ते ' अक्षैः मा दिव्यः कृषिमित्‌ कृषस्व ' इति । जो वृत्ति घटविषयक अज्ञान का नाश करती है।,या वृत्तिः घटविषयकम्‌ अज्ञानं नाशयति। (क) कर्म में (ख) ब्रह्म में (ग) स्वर्ग में (घ) देहधारण करने में इससे पहले इस पाठ में अनुबन्ध चतुष्टय का आलोचन किया गया है।,(क) कर्मणि (ख) ब्रह्मणि (ग) स्वर्गे (घ) देहधारणे इतः पूर्वम्‌ अस्मिन्‌ पाठे अनुबन्धा आलोचिताः। सरलार्थ - सर्व प्रथम उत्पन्न यज्ञीय पुरुष को कुशा पर रखकर जल से पवित्र किया।,सरलार्थः- प्रथमम्‌ उत्पन्नं यज्ञीयपुरुषं कुशे स्थापयित्वा जलेन पवित्री कृतवान्‌। ( ऋ. 10.114.5 ) ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 55 वें सूक्त के प्रत्येक मन्त्र के अन्तिम पाद में -' महद्देवानामसुरस्त्वमेकम्‌' ऐसा कहा गया है।,(ऋ. १०.११४.५) ऋग्वेदस्य तृतीयमण्डले पञ्चपञ्चाशत्तमस्य सूक्तस्य प्रत्येकं मन्त्राणामन्तिमे पादे -“महद्देवानामसुरस्त्वमेकम्‌' इति श्रूयते। ४।२७ मन्त्र में तथा ४।३७ मन्त्र में 'छिन्धी भिन्धी हन्धी कट' इस प्रकार के मन्त्रों का स्पष्ट रूप से यहाँ संकेत है।,४।२७ मन्त्रे तथा ४।३७ मन्त्रे छिन्धी भिन्धी हन्धी कट” एवंविधानां मन्त्राणां स्पष्टरूपेणात्र संकेतो वर्तते। पूर्व की दिशा में प्रभात उषा के स्वरूप को देखकर वैदिक कवि के हृदय आनन्द से पूर्ण होकर कहता है - ““उषो देव्यमर्त्या विभाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती।,"पूर्वस्यां दिशि प्रभाते उषायाः स्वरूपं दृष्ट्वा वैदिककवेः हृदयम्‌ आनन्देन पूरितं भूत्वा कथयति- ""उषो देव्यमर्त्या विभाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती।" “सप्तमी शौण्डैः सूत्रार्थ-सप्तम्यन्त सुबन्त को शौण्ड आदि प्रकृतिक को सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,सप्तमी शौण्डैः सूत्रार्थः - सप्तम्यन्तं सुबन्तं शौण्डादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। यजमान और ब्राह्मण मिलकर कुल सत्तरह लोग होते हैं।,यजमानः ब्राह्मणाः च मिलित्वा साकल्येन सप्तदश जनाः भवन्ति। "उसके कर्तृत्व भोक्तृत्व आदि उपाधिकृत होते हैं, न की वास्तविक रुप में।",कर्तृत्वभोक्तृत्वादिकम्‌ उपाधिकृतं न तु वास्तविकम्‌। क उसके सुखरूप का नाम है या फिर क इन्द्र का वाचक होने से प्रजापति कहलाता है।,कं सुखं तद्रूपः। यद्वा क इति इन्द्राख्यानात्‌ प्रजापतिः आख्यायते। उससे सूर्य उदय अस्तचल के अनुसार से प्रत्येक मुहूर्त को पृथक्‌ पृथक् नाम के साथ भी उसकी स्तुति की है।,तस्मात्‌ सूर्योदयास्तचलानुसारेण प्रत्येकम्‌ अपि मुहूर्तं पृथक्‌ पृथङ्नामभिः तस्य स्तुतिः। ( ६.१.२११ ) सूत्र का अर्थ- आदि उदात्त होता है।,(६.१.२११) सूत्रार्थः- आदिरुदात्तः स्यात्‌। अतः कर्मणि इस पद में सप्तमी एकवचन का उच्चारण करके जो षष्ठी उसका सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।,अतः कर्मणि इति सप्तम्येकवचनमुच्चार्य या षष्ठी तदन्तस्य सुबन्तेन सह समासो न समासान्त निषेधक विषय आश्रित टिप्पणी लिखो।,समासान्तनिषेधकानि इति विषयम्‌ आश्रित्य टिप्पणीं लिखत। यहां उवटभाष्यांश को ग्रहण करके /मुख्यरूप से महीधरभाष्य को ही किञ्चित्‌ परिवर्तन के साथ उपस्थापित किया है।,अत्र उवटभाष्यांशान्‌ गृहीत्वा प्रामुख्येन महीधरभाष्यमेव किञ्चित्‌ परिवर्तनेन उपस्थापितमस्ति। सभी कार्यो कल्याण के लिए इस यथार्थ यज्ञ रूप से कल्पना की।,सर्वेभ्यः कामेभ्यः उपादेयत्वेन अयम्‌ एव यथार्थयज्ञरूपेण कल्पितः। "इस परिभाषा के अनुसार वह व्यक्ति जो दूसरों के प्राण लेने के लिए स्वभाव से सदा उत्सुक रहता है तथा इसका प्रयास किया करता है, वो आततायी होता है।",इति। योगिनस्तु सर्वथा हिंसारहिताः भवेयुः। आततायिनः हिंस्रपशून्‌ प्रत्यपि ते हिंसां न प्रदर्शयन्ति नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो ब॑भ्रृणां प्रसितो न्व॑स्तु॥,नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो ब॑भ्रूणां प्रसितौ न्व॑स्तु ॥ १४ ॥ आदिः सिचोऽन्यतरस्याम्‌ इससे आदिः इस पद की और अन्यतरस्याम्‌ इस अव्यय पद की अनुवृति आती है।,आदिः सिचोऽन्यतरस्याम्‌ इत्यस्माद्‌ आदिः इति पदम्‌ अन्यतरस्याम्‌ इति अव्ययपदं चानुवर्तते। वैदिक कवि ने समीप रहने वाले पशु जीवन का भी उपमान रूप में प्रयोग किया।,वैदिककविः पार्श्ववर्त्तिनः पशुजीवनस्य अपि उपमानरूपेण प्रयोगं कृतवान्‌। अतः यस्मिन्‌ विधिस्तदादावल्ग्रहणे इस परिभाषा से उस आदि विधि से झलादि विभक्ति यह अर्थ प्राप्त होता है।,अतः यस्मिन्‌ विधिस्तदादावल्ग्रहणे इति परिभाषया तदादिविधिना झलादिः विभक्तिः इत्यर्थः लभ्यते। 5. शमादिषटक सम्पत्ति में सम्पत्ति पद का क्या अर्थ होता हे?,५. शमादिषट्कसम्पत्तौ सम्पत्तिपदस्य कोऽर्थः। छन्दसि लुङ्लङिलटः सूत्र से नित्य लिट्‌ हुआ।,छन्दसि लुङ्लङ्लिटः इति सार्वकालिको लिट्‌। "35. नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः, तृतीया और सप्तमी में बहुलम्‌ होता है।","३५ . नाव्ययीभावादतोम्त्वपञ्चम्याः इति, तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌ इति च।" दूसरे पक्ष में इसके विपरीत मतं प्रदर्शित किया गया है।,अपरस्मिन्‌ पक्षे विपरीतं मतं प्रदर्श्यते। उसकी केवल विवर्तरूप प्रतीति मात्र होती है।,किन्तु तस्य विवर्तरूपप्रतीतिमात्र एव। न्यूङ्ख नाम सोलह ओकार का है।,न्यूङ्खा नाम षोडश ओकाराः। प्रज्ञान शब्द से यहाँ पर चैतन्य को कहा गया है।,प्रज्ञानशब्देन अत्र चैतन्यम्‌ उच्यते। कर्मधारयोऽनिष्ठा सूत्र का अर्थः- कर्मधारय समास में क्तान्त उत्तरपद रहते अनिष्ठान्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,कर्मधारयोऽनिष्ठा सूत्रार्थः- कर्मधारये समासे क्तान्ते उत्तरपदे अनिष्ठान्तं पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। अथवा पृथिवीशब्द से नीचे के अतलवितल आदि सात भुवन को कहा गया है।,यद्वा। पृथिवीशब्देन अधोवर्तीनि अतलवितलादिसप्तभुवनान्युपात्तानि। "आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक।","आध्यात्मिकम्‌, आधिभौतिकम्‌ आधिदैविकं च।" यहाँ पर 'द्वयोश्चास्य स्वरयोर्मध्यमेत्य संपद्यते स डकारो लकारः इस प्रातिशाख्य वचन से डकार के स्थान में लकार होता है।,अत्र 'द्वयोश्चास्य स्वरयोर्मध्यमेत्य संपद्यते स डकारो लकारः' इति प्रातिशाख्यवचनेन डस्य लः। सविकल्पक समाधि ही योग प्रोक्त सम्प्रज्ञात समाधि होती है।,सविकल्पकः समाधिरेव योगप्रोक्तः सम्प्रज्ञातसमाधिः। जिसमें दुःख की गन्ध भी नहीं रहती है।,यतः दुःखगन्धोऽपि नास्ति तत्र। चौथे अध्याय से आरम्भ करके आठवें अध्याय पर्यन्त सोम याग का वर्णन है।,चतुर्थाध्यायात्‌ आरभ्य अष्टमाध्यायपर्यन्तं सोमयागानां वर्णनमस्ति। "सान्वयप्रतिपदार्थ - देवाः = पुरन्दर आदि देव, यज्ञेन = मानसयाग से, यज्ञम्‌ = यज्ञस्वरूप प्रजापति, अयजन्त = पूजा की।","सान्वयप्रतिपदार्थः - देवाः= पुरन्दरप्रभृतयः सुराः, यज्ञेन= मानसेन सङ्कल्पेन, यज्ञम्‌= यज्ञस्वरूपं प्रजापतिम्‌, अयजन्त= पूजितवन्तः।" "इस सूक्त का हिरण्यगर्भ ऋषि, प्रजापति देवता, और त्रिष्टुप्‌ छन्द है।","सूक्तस्यास्य हिरण्यगर्भः ऋषिः, प्रजापतिः देवता, त्रिष्टुप्‌ छन्दश्च।" शिवज्ञान के द्वारा जीव सेवा का आदर्श होने पर भी व्यावहारिक वेदान्त का फलीभूत अंश होता है।,शिवज्ञानेन जीवसेवाया आदर्शोऽपि व्यावहारिकवेदान्तस्य फलीभूतः अंशः। "इस सूत्र में दक्षिणस्य साधौ इस सूत्र से दक्षिणस्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, स्वाङ्गाख्यायामादिर्वा इस सूत्र से आदिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद कौ, फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से अन्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद, उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आती है।","अस्मिन्‌ सूत्रे दक्षिणस्य साधौ इति सूत्रात्‌ दक्षिणस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, स्वाङ्गाख्यायामादिर्वा इति सूत्रात्‌ आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, उदात्तः इत्यपि प्रथमैकवचनान्तं पदमत्र अनुवर्तन्ते।" स्वरित स्वर से परे विद्यमान होने से अनुदातो की उन गङ्गे यमुने इत्यादि शब्दों की एकश्रुति सिद्ध होती है।,स्वरितस्वरात्‌ परं विद्यमानत्वात्‌ अनुदात्तानां तेषां गङ्गे यमुने इत्यादीनां शब्दानाम्‌ एकश्रुतिः सिद्धा। लेकिन विजातीयों देहादि प्रत्ययों से रहित अद्वितीयब्रह्म के विषय में निरन्तर चित्तवृत्ति होती है तो निदिध्यासन सम्भव होता है।,परन्तु विजातीयैः देहादिप्रत्ययैः रहितस्य अद्वितीयब्रह्मणः विषये निरन्तरं चित्तवृत्तिः भवति चेत्‌ निदिध्यासनं सम्भवति। इसी प्रकार आत्मा का बुद्धि से अविद्यानिमित्त सम्बन्ध होता है।,आत्मनः बुद्धिसम्बन्धः अविद्यानिमित्तः। जैसे रथ के दोनों और आरे होते है ठीक वैसे ही मन ही सभी ऋचाओं में प्रतिष्ठित होते है।,यथा रथनाभौ अराः प्रतिष्ठिताः भवन्ति तथा मनसि एव सर्वाः ऋचः प्रतिष्ठिताः। और सूत्र में कहा गया है “यद्गंहिष्ठं नातिविधे सुदानू हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे' (आ० श्रौ० ३।८।१) इति।,सूत्रितञ्च 'यद्गंहिष्ठं नातिविधे सुदानू हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' (आ० श्रौ० ३।८।१) इति। क्योकि युगयुगान्तरों से सञ्चित तथा अनादिकाल से सज्चित अन्धकार भी जैसे दीपक के जलाने से दूर हो जाता है तथा दीपके हटाने पर फिर से अन्धकार हो जाता है।,"किञ्च युगयुगान्तसञ्चितं अनादिकालसञ्चितं तमः प्रदीपप्रञ्चवलेन अपसारितं भवति, प्रत्यूषे पुनः दीपस्य अपसारणेन तमोराशिः गुहां पूरयति|" अर्थात्‌ यज्ञ मं किया गया वध अवध है।,अर्थात्‌ यज्ञे वधः न वधः। "कृष्ण यजुर्वेद के कल्पसूत्र - बौधायनसूत्र, और आपस्तम्बसूत्र है।",कृष्णयजुर्वेदस्य कल्पसूत्रम्‌ - बौधायनसूत्रम्‌ आपस्तम्बसूत्रञ्चेति। यहाँ विग्रह पद से लौकिक विग्रह स्वीकृत किया गया है।,अत्र विग्रहपदेन लौकिकविग्रहः स्वीक्रियते। जिस विवेक चूडामणी में इस प्रकार से कहा सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम्‌।,विवेकचूडामणौ उक्तम्‌ - सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम्‌। वस्तुतः तो वैदिकों के लिए याग बहुत पुण्य प्रदायक हैं।,वस्तुतस्तु वैदिकानां कृते यागाः बहु पुण्यप्रदायकाः सन्ति। रजत भ्रम काल में देशांतरीय रजत का भान कहां से नहीं होता है अथवा अप्यय दीक्षित द्वारा परिणाम विवर्तो के लक्षण का वर्णन करें।,रजतभ्रमकाले कुतः देशान्तरीयस्य रजतस्य न भानम्‌। अथवा अप्ययदीक्षितकृतं परिणामविवर्तयोः लक्षणं विवृणुत। यह कैसे होगा।,कुत एवम्‌। आवहनीय की तीन परिधियाँ उत्तर वेदिका की तीन और आदित्य सप्तम परिधि प्रतिनिधि रूप में थी अतः कहते है - “न पुरस्तात्परिदधात्यादित्यो ह्येवोद्यन्‌ पुरस्ताद्रक्षांस्यपहन्ति' (तै०स० २.६.६.३) इति।,ऐष्टिकस्याहवनीयस्य त्रयः परिधयः उत्तरवेदिकास्त्रय आदित्यश्च सप्तमः परिधिप्रतिनिधिरूपः अतः एव आम्नायते-' न पुरस्तात्परिदधात्यादित्यो ह्येवोद्यन्‌ पुरस्ताद्रक्षांस्यपहन्ति'(तै०स० २.६.६.३)इति। "इस प्रकार वही निश्चित रूप से वैयाकरण है जो लक्षण जानता है, अर्थ जानता है और लक्ष्य जानता है और लक्षण से लक्ष्य का संस्कार करता है।","एवमेव स एव खलु वैयाकरणः यः लक्षणं जानाति, अर्थं जानाति, लक्ष्यं च जानाति, लक्षणेन लक्ष्यस्य संस्कारं च करोतीति।" सगुण ब्रह्मविषयक दो उपासनाएँ मुख्यरूप से उपनिषदों में सुनी जाती है।,सगुणब्रह्मविषयकानि उपासनद्वयम्‌ उपनिषत्सु मुख्यतया श्रूयते । श्रोत्र आदि के द्वारा तो प्रत्यक्ष ही ग्रहण करता है।,श्रोत्रादीनि तु प्रत्यक्षमेव गृह्णन्ति। इस प्रकृतसूक्त का देवता आत्मा है और इस प्रकृतपाठ में देवीसूक्त का व्याख्यान है।,प्रकृतसूत्रस्य अस्य देवता आत्मा। एवञ्च प्रकृतपाठे अस्मिन्‌ देवीसूक्तस्य व्याख्यानं वर्तते। इस प्रकार से उसे गुहातीत जानना चाहिए।,एवं गुहाहितत्वं ज्ञेयम्‌। महाभारत के शान्ति पर्व में कौन से शिक्षा ग्रन्थ का उल्लेख है?,महाभारते शान्तिपर्वणि कः शिक्षाग्रन्थः उल्लिखितः? 5 ज्ञान के साथ किस कर्म का विरोध नहीं होता है?,५.ज्ञानेन साकं कस्य कर्मणः विरोधः नास्ति? यह वार्तिक चार यह वाला है।,वार्तिकमिदं पदचतुष्टयात्मकम्‌। सूत्र का अवतरणम्‌- प्रकृत सूत्र से ही सुगन्धितेजन शब्द के आदि उकार का और दूसरे अकार स्वर का विकल्प से उदात विधान किया।,सूत्रावतरणम्‌- प्रकृतसूत्रेण एव सुगन्धितेजनशब्दस्य आदेः उकारस्य द्वितीयस्य अकारस्य च स्वरस्य उदात्तत्वं विकल्पेन विधीयते। योगियों का चित्त में सन्तोष होने पर उन्हे निरतिशय आनन्द की प्राप्ति होती है।,योगिनः चित्तसन्तोषे सति निरतिशयानन्दप्राप्तिः भवति। सरलार्थ - वाय के द्वारा रक्षित सभी देव तथा यजमानअपने हार्दिक सङ्कल्प से केवल श्रद्धा की उपासना करते है।,सरलार्थः- वायुना रक्षिताः सर्वे देवाः तथा यजमानाः स्वस्य हार्दिकसङ्कल्पेन केवलं श्रद्धायाः उपासनां कुर्वन्ति। इस प्रकार से मिथ्याप्रत्यय के अभाव में तत्कृत गौण ही होता है।,"तस्मात्‌ मिथ्याप्रत्ययाभावे अभावात्‌ तत्कृत एव, न गौणः।" मित्रं कृणुध्वं खलु... इत्यादि मन्त्र में खलु इसका क्या अर्थ है?,मित्रं कृणुध्वं खलु ... इत्यादिमन्त्रे खलु इति किमर्थम्‌ ? "जैसे - (१) बृहदारण्यक उपनिषद्‌, (२) छान्दोग्य उपनिषद्‌, (३) तैत्तिरीय उपनिषद्‌, (४) ऐतरेय उपनिषद्‌, (५) कौषीतकि उपनिषद्‌ (६) और केन उपनिषद्‌।","यथा- (१) बृहदारण्यकोपनिषद्‌, (२) छान्दोग्योपनिषद्‌, (३) तैत्तिरीयोपनिषद्‌, (४) ऐतरेयोपनिषद्‌, (५) कौषीतकि-उपनिषद्‌ (६) केनोपनिषच्चेति।" "सरलार्थ - जिस पृथ्वी पर देव वेदि निर्माण करते है, जिससे यज्ञ को सम्पादन करते है, और जिस आहुतिदान करने से पूर्व प्रकाशमान यज्ञीय यूप गाड़े जाते हैं, वह भूमिवृद्धि को प्राप्त होती हुई हमे बढ़ाये।","सरलार्थः- यस्यां पृथिव्यां देवाः वेदिनिर्माणं कुर्वन्ति, यस्यां यज्ञं सम्पादयन्ति, किञ्च यस्याम्‌ आहुतिदानात्‌ पूर्वं प्रकाशमानयज्ञीययूपं मीयन्ते, सा भूमिः वर्धयन्ती अस्मान्‌ वर्धयतु।" "श्रौतसूत्र में उनके अनुष्ठान आचार यागों का वर्णन विद्यमान है, जिनका सम्पादन तीन वर्णों के द्वारा अवश्य करना चाहिए।","श्रौतसूत्रे तेषाम्‌ अनुष्ठानाचारयागानां वर्णनं विद्यते, येषां सम्पादनं त्रैवर्णिकैः अवश्यं कर्तव्यम्‌।" बत्तीसवें अध्याय के आरम्भ में हिरण्यगर्भ सूक्त के भी कुछ मन्त्र उद्धृत है।,द्वात्रिंशदध्यस्यारम्भे हिरण्यगर्भसूक्तस्याऽपि कतिपयमन्त्राः समुद्धृताः सन्ति। इद्र का अन्य एक नाम शतक्रतु भी है।,इन्द्रस्य अपरम्‌ एकम्‌ नाम शतक्रतुः इति। इससे फिष का अथवा प्रातिपदिक के अन्त को उदात्त स्वर करने का विधान है।,अनेन फिषः प्रातिपदिकस्य वा अन्तस्य उदात्तस्वरः विधीयते। "उषा अपने प्रकाश से संसार को वैसे ही पवित्र करती है, जैसे कोई भी योद्धा अपने शास्त्रों का घर्षण से उनका संस्कार करते हैं।",उषा स्वप्रकाशेन संसारं तथा संस्कृतं करोति यथा कोऽपि योद्धा निजशस्त्राणां घर्षणेन तेषां संस्कारं करोति। भूतकालसम्बन्धि वस्तुओं का।,भूतकालसम्बन्धि वस्तु। कहीं पर आकाश की प्रथम उत्पत्ति मानने पर आकाश की सूष्टि करके फिर उसने तेज की सृष्टि की यह विकल्प भी सङ्गत है जिससे श्रुतियों का विप्रतिषेध नहीं होता हेै।,"किञ्च, आकाशस्य प्रथमजत्वाभ्युपगमे आकाशं सृष्ट्वा तेजः सृजति इति विकल्पोऽपि सुतरां सङ्गच्छते इति नास्ति श्रुत्योर्विप्रतिषेधः।" पाठसार : समास भेदों में तृतीयतत्पुरुष समास इस पाठ में प्रतिपादित है।,पाठसारः - समासभेदेषु तृतीयः तत्पुरुषसमासः अस्मिन्‌ पाठे प्रतिपादितः। इस प्रकार से सेवा भावना के द्वारा यदि यथार्थरूप से कार्य को किया जा सकता है तो चित्त शुद्धि शीघ्र ही हो जाती है।,इत्थं सेवाभावनया यदि यथार्थतया कार्यं कर्तु शक्यते तर्हि चित्तशुद्धिः शीघ्रं भवति। यहाँ पुत्र अम्‌ क्यच्‌ यह समुदाय धातुसंज्ञक है।,अत्र पुत्र अम्‌ क्यच्‌ इति समुदायः धातुसंज्ञकः। "वृत्र ने अपने जीवन काल में अपनी महिमा से जो मेघ में आया हुआ जल था उसको वही पर रोक दिया, अहि वृत्र मेघ उस जल का स्वामी युद्ध में पछाड़ खाकर गिरा।","वृत्रः जीवनदशायां महिना स्वकीयेन महिम्ना याश्चित्‌ या एव मेघगताः अपः पर्यतिष्ठत परिवृत्य स्थितवान्‌, अहिः वृत्रो मेघः तासाम्‌ अपां पत्सुतःशीः पादस्याघःशयानः बभूव।" "स्मृति में भी आकाश, वायु, अग्नि, सलिल, महि, ज्योतिष, सत्त्व दिशाएं, द्रुमयें सभी पुरुष के शरीर के रूप में कल्पित है।","स्मृतावपि आकाशं, वायुः, अग्निः, सलिलं, महिः, ज्योतींषि, सत्त्वानि दिशः, द्रुमाः इत्येतानि सर्वाणि पुरुषस्य शरीरत्वेन कल्पितानि।" निकृत्वानः - निपूर्वक कृद्-धातु से क्वनिप्प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,निकृत्वानः - निपूर्वकात्‌ कृद्‌ - धातोः क्वनिप्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने । सूत्र अर्थ का समन्वय- वेद में सम्बोधन पद को आमन्त्रित शब्द से कहते हैं।,सूत्रार्थसमन्वयः- वेदे सम्बोधनपदम्‌ आमन्त्रितशब्देन उच्यते। "अन्तिममन्त्र में श्रद्धा के प्रति कहा गया है की जो प्रातः काल में उसकी उपासना करते हुए परमात्मा से प्रीति करने के लिये उसको आमन्त्रित करते है, दिन के मध्ये में भी परमात्मा से प्रीति के लिए उसको आमंत्रित करते है, और सांयकाल में भी परमात्मप्रीति के लिये उसको आमन्त्रित करते है, हे श्रद्धा आस्तिकभावना होने पर परमात्मा से प्रीति होने पर !","अन्तिममन्त्रे श्रद्धां प्रति उच्यते यत्‌ प्रातः काले यथावद्धारणां खल्वास्तिकतां परमात्मप्रीतिम्‌ आमन्त्रयावहे, दिनस्य मध्येऽपि परमात्मप्रीतिमामन्त्रयामहे, परमात्मप्रीतिमामन्त्रयामहे, हे श्रद्धे आस्तिकभावने परमात्मप्रीते !" अत प्रकृत सूत्र से गो शब्द से परे भिस्‌ इस हलादि विभक्ति को उदात्त का निषेध करता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण गोशब्दात्‌ परस्य भिस्‌ इति हलादिविभक्तेः उदात्तत्वं निषिध्यते। वह एक ही विषय में दीर्घकाल तक नहीं रुकता है।,एकस्मिन्‌ विषये दीर्घकालं यावत्‌ न तिष्ठति| तथा संसार चक्र को प्राप्त करता है।,संसारचक्रं प्राप्नोति| अनेक रोगों के लक्षण तथा उस रोग से उत्पन्न शारीरिक विकार का आर्युवेदिक दृष्टि से विशाल वर्णन है।,विविधरोगाणां लक्षणं तथा तद्रोगेण समुत्पन्नानां शारीरिकविकाराणाम्‌ आयुर्वेदिकदृष्ट्या विशदवर्णनञ्च अस्ति। यहाँ प्रसङ्ग से इस मन्त्र का यहाँ उल्लेख किया गया है - “अग्निमीळे पुरोहितं /यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌।,अत्र प्रसङ्गत उल्लेखमर्हति अयं मन्त्रः - 'अग्निमीळे पुरोहितं /यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। शार्ङ्गरवाद्यः यह समस्त पद है।,शार्ङ्गरवाद्यः इति पदं समस्तम्‌ अस्ति। शौर्य के और शक्ति के प्रतीक कौन हैं?,शौर्यस्य वीर्यस्य च प्रतीकः कः अस्ति? '' दोनों ज्योतिष्टोम यागों के मध्यस्थ दिन उक्थ्यनाम से जाने जाते हैं।,द्वयोः ज्योतिष्टोमयागयोः मध्यस्थाः दिवसाः उक्थ्यनाम्ना ज्ञायन्ते। इसलिए दूसरा विषय होता है।,तस्मात्‌ द्वितीयतः विषयस्य उल्लेखः। उश्मसि - वश्‌ कान्तौ इस धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष बहुवचन।,उश्मसि - वश्‌ कान्तौ इति धातोः लट्‌ प्रथमपुरुषः बहुवचनम्‌। प्रत्येक घर में इसका निवास है।,प्रतिगृहम्‌ अस्य निवासः। मन का यह परिणाम ही वृत्ति कहलाता है।,मनसः अयं परिणाम एव वृत्तिरित्युच्यते। "“सर्व खल्विदं ब्रह्म” (छान्दोग्योपनिषद्‌ 3. 14.1) , “ आत्मैवेदं सर्व” (छान्दोग्योपनिषद्‌ 7.25.2) , “ ब्रह्मैवेदममृतं” (मुण्डकोपनिषद्‌ 2.2.11), “ सदेव सोम्य इदमग्र आसीत्‌” (छान्दोग्योपनिषद्‌ 3.2.1), “तत्त्वमसि” (छान्दोग्योपनिषद्‌ 6.8.7), “ अयमात्मा ब्रह्म” (बृहदारण्यकोपनिषद्‌ 2.5.19) इत्यादि श्रुतियाँ वेदान्तों में प्रत्यगभिन्न एक ही ब्रह्म में तात्पर्य को दिखाती है।","“सर्व खल्विदं ब्रह्म"" (छान्दोग्योपनिषद्‌ ३.१४.१), “आत्मैवेदं सर्व” (छान्दोग्योपनिषद्‌ ७.२५.२), “ब्रह्मैवेदममृतं” (मुण्डकोपनिषद्‌ २.२.११), “सदेव सोम्य इदमग्र आसीत्‌”(छान्दोग्योपनिषद्‌ ३.२.१), “तत्त्वमसि” (छान्दोग्योपनिषद्‌ ६.८.७), “अयमात्मा ब्रह्म” ( बृहदारण्यकोपनिषद्‌२.५.१९) चेत्यादिसहस्रश्रुतयः वेदान्तानां प्रत्यगभिन्ने एकस्मिन्‌ ब्रह्मण्येव तात्पर्यं दर्शयन्ति।" ईश्वर तथा आध्यात्मिक प्रपञ्च की इन्द्रियातीत सत्य समूहों की वह प्रमाणभूत हुई।,"एव ईश्वरात्माद्याध्यात्मिकप्रपञ्चस्य, इन्द्रियातीतसत्यसमूहानां च प्रमाणभूता।" "जैसे कोई स्वर्ग को जाने के लिए यज्ञ करता है ,कोई धनार्जन के लिए कार्य करता है।","यथा कश्चित्‌ स्वर्गं गन्तुं यज्ञं करोति, अथवा कश्चित्‌ अर्थलाभाय कार्यं करोति।" रुद्र के हस्त में सुवर्ण निर्मित धनुष और बाण हैं।,"रुद्रस्य हस्ते पिनाकः, सुवर्णनिर्मितं धनुः बाणाः एते सन्ति।" "'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु ' इस सूत्र से जप, न्यूङ्ख और साम से भिन्न यज्ञकर्म के मन्त्र में एकश्रुति होती है।",'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रेण जपभिन्ने न्यूङ्गभिन्ने सामभिन्ने च यज्ञकर्मणि मन्त्रः एकश्रुतिः भवति। टच्‌ पक्ष होने पर उपचर्मन्‌ अ इस स्थिति होने पर “नस्तद्धिते” इस सूत्र से तद्धित में टच्‌ प्रत्यय होने पर याचि भम्‌'' इससे भसंज्ञक उपचर्मन्‌ शब्द के टि का अनलोप होने पर सर्वसंयोग होने पर उपचर्म शब्द निष्पन्न होता है।,"टच्पक्ष उपचर्मन्‌ अ इति स्थिते ""नस्तद्धिते"" इति सूत्रेण तद्धिते टचि प्रत्यये परे ""यचि भम्‌"" इत्यनेन भसंज्ञकस्य उपचर्मन्‌ इति शब्दस्य टेः अनः लोपे सर्वसंयोगे उपचर्मशब्दो निष्पद्यते।" "फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से यहाँ अन्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद, और उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति आती है।","फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अत्र अन्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, उदात्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तेते।" नित्यनैमित्तिकप्रायश्चि कर्मों का बुद्धि शुद्धिरूप आवश्यक प्रयोजन होता है।,नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानां बुद्धिशुद्धिः परम्‌ अर्थात्‌ आवश्यकं प्रयोजनम्‌। इसलिए ही पण्डित समाज में एक प्रचलित और प्रसिद्ध गाथा है - “समुद्रवद्‌ व्याकरणं महेश्वरे तदर्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।,"अत एव पण्डितसमाजे एका प्रचलिता प्रसिद्धा गाथा च अस्त्ति - ""समुद्रवद्‌ व्याकरणं महेश्वरे तदर्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।" जैस पृथ्वी का जल में लय होता है।,यथा पृथिव्याः अप्सु लयः भवति। बृहदारण्यक किस वेद से सम्बद्धित है?,बृहदारण्यकं केन वेदेन सम्बद्धः अस्ति? 4. “द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः” सूत्र का क्या अर्थ है?,"४. ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" ब्रह्म गुहातीत होता है।,ब्रह्म च गुहाहितं भवति। पाद आत्मा नहीं होती है क्योंकि पाद के अभाव में कोई जीवित रहता है।,पादः नात्मा। पादाभावेपि कश्चन जीवति। अनुदात्तम्‌ इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,अनुदात्तम्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। शीघ्र अर्थ में भी प्रयोग होता है।,क्षिप्रार्थे अपि प्रयोगः भवति। द्विगु में एकवद्भाव का एक उदाहरण दीजिये?,द्विगौ एकवद्भावस्योदाहरणमेकं देयम्‌ ? नद्यजादी यह प्रथमा द्विवचनान्त पद है।,नद्यजादी इति प्रथमाद्विवचनान्तं पदम्‌। "जैसे मनुष्य भाई से सहायता को प्राप्त करते है उसी प्रकार प्यासे मधुरजल कुए को प्राप्त करके तृप्त होते है, तथा परमेश्वर को प्राप्त करके पूर्ण आनन्द को प्राप्त करते है।",यथा जना बन्धुं प्राप्य सहायं लभन्ते तृषिता वा मधुरजलं कूपं प्राप्य तृप्यन्ति तथा परमेश्वरं प्राप्य पूर्णाऽनन्दा जायन्ते। "ऋषि सूक्त, देवता सूक्त, छन्द सूक्त और अर्थ सूक्त भेद से सूक्त चार प्रकार के है।",ऋषिसूक्त-देवतासूक्त-च्छन्दःसूक्त-अर्थसूक्तभेदात्‌ सूक्तं चतुर्विधम्‌। अव्ययीभाव समास में पूर्वपदार्थप्राधान्य दिखाई देता है।,अव्ययीभावसमासे पूर्वपदार्थप्राधान्यं दृश्यते। अहतः - हन्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर हतः रूप बना।,अहतः- हन्‌-धातोः क्तप्रत्यये हतः इति रूपम्‌। विवेकचूडामणि में दम के विषय में इस प्रकार से कहा है कि- 'विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके।,विवेकचूडामणौ दमविषये उक्तम्‌ - विषयेभ्यः परावत्य स्थापनं स्वस्वगोलके। तव्य का प्रत्यय से तदन्त का बोध होता है।,तव्यस्य प्रत्ययत्वात्‌ तदन्तानां बोधो भवति। स्तनयन्‌ - स्तन्धातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में यह रूप बनता है।,स्तनयन्‌ - स्तन्धातोः शतृप्रत्यये प्रथमैकवचने रूपमिदम्‌ । ऐसा प्रतिपादित किया जा रहा है।,इति प्रतिपाद्यते। वकार को उकार अर्थात्‌ सम्प्रसारण छन्द में।,वकारस्य उकारः अर्थात्‌ सम्प्रसारणम्‌ छान्दसम्‌ । अक्ष द्यूतक्रीडा के देवता रूप से विख्यात है।,अक्षः द्यूतक्रीडायाः देवतारूपेण परिचीयते । ये सिद्ध होने पर निर्विकल्पक समाधि सम्भव होती है।,एतेषु सत्सु निर्विकल्पकसमाधिः सम्भवति। किन्तु एक सौ आठ संख्या तक ही उपनिषद्‌ प्राप्त होते है।,किन्तु अष्टोत्तरशतसंख्याकाः उपनिषदः एव प्राप्ताः। "जैसा अग्नि और सूर्य यथाक्रम पृथिवीलोक में और द्युलोक में स्वामी हैं, वैसे ही इन्द्र भी अन्तरिक्षलोक में स्वामी है।",यथा अग्निः सूर्यश्च यथाक्रमं पृथिवीलोके किञ्च द्युलोके अधिपती स्तः तथैव इन्द्रः अपि अन्तरिक्षलोके अधिपतिः अस्ति। यहाँ पर भी पूर्व के समान कतम शाब्द को प्रकृत सूत्र से विकल्प से प्रकृति स्वर होता है।,अत्रापि पूर्ववत्‌ कतमशब्दस्य प्रकृतसूत्रेण विकल्पेन प्रकृतिस्वरः भवति। गतिरनन्तरः इस सूत्र का अर्थ है कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते गतिरनन्तर पूर्वपद को प्रकृतत स्वर होता है।,गतिरनन्तरः इति सूत्रस्य अर्थः भवति कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे गतिरनन्तरः पूर्वपदं प्रकृत्या भवति इति। उसी प्रकार से यदि गुरु बाल वृद्ध तथा ब्राह्मण आदि कोई भी यदि आततायी होते हैं तो उनको मारने में पाप नहीं लगता है।,तथाहि गुरुः बालः वृद्धः ब्राह्मणः इत्यादयः केचिदपि यदि आततायिनो भवन्ति तर्हि तेषां हननं न पापाय कल्पते। शिक्षा साहित्य - यहाँ ` शिक्षा -शब्द का अर्थ होता है वैदिक मन्त्रों के उच्चारण विधि को सिखाने वाले ग्रन्थ है।,शिक्षासाहित्यम्‌ - 'शिक्षा-शब्दस्य अत्र अर्थो भवति वैदिकमन्त्राणाम्‌ उच्चारणविधेः शिक्षको ग्रन्थः इति। अक्षासः - अक्षा का (वैदिक रूप है)।,"अक्षासः - अक्षाः , ( वैदिकम्‌ )" यह बहुत सा धन दिलवाने वाला इन्द्र ने शास्त्र रूपी सूर्य किरणों से मेघ को मारा।,मघवा धनवान्‌ इन्द्रः सायकं बन्धकं वज्रम्‌ आ हतवान्‌। किस प्रकार के इन्द्र को?,कीदृशमिन्द्रम्‌? इनसे भिन्न अध्यायों में आरण्यक के मुख्य विषयों का प्रतिपादन है।,एतद्भिन्नेषु अध्यायेषु आरण्यकस्य मुख्यविषयाणां प्रतिपादनमस्ति। किये गए यज्ञो में।,कृतयज्ञेषु। दूसरा है गति इसका ज्ञान (विद्या ) अर्थ होता है।,गतिः इत्यस्य ज्ञानम्‌ (विद्या) अर्थः भवति। """ऋक्पूरब्धूपथामानक्षे"" इस सूत्र का अर्थ क्या है?","""ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" एकाचः इस पद के विशेष्य रूप से शब्दस्य इस षष्ठी एकवचनान्त पद को यहाँ जोड़ा जाता है।,एकाचः इति पदस्य विशेष्यरूपेण शब्दस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदमत्र योज्यते। यहाँ पर दोनों पद के वाच्य में तत्काल तद्देशविशिष्ट में तत्कालतद्देशविशिष्ट मे ऐक्य की अनुपपत्ति से देवदत्तपिण्डरूप विशेष्यमात्रपत्व होता है।,इत्यत्र पदद्वयवाच्ययोः तत्कालतद्देशविशिष्टेतत्कालैतद्देशविशिष्टयोः ऐक्यानुपपत्त्या देवदत्तपिण्डरूपविशेष्यमात्रपरत्वम्‌। यह एक्य का ज्ञान वेदों के द्वारा ही होता है।,इदम्‌ ऐक्यज्ञानं च वेदेभ्य एव भवति। गत्यर्थलोटा... इस सूत्र का अर्थ लिखकर उदाहरण की सङ्गति दिखाइए।,गत्यर्थलोटा... अस्य सूत्रस्य अर्थं लिखित्वा उदहरणसङ्घतिं दर्शयत। प्राय दश हजार सूर्य की किरने इकट्टे रूप से उस स्थान में रहते है।,प्रायः दशसहस्रं रश्मयः समवेततया तस्मिन्‌ स्थले अवतिष्ठन्ते। अर्थात्‌ जो वेदादि श्रुतिस्मृतियों के द्वारा निषिद्ध कर्म है उसको यदि वह करता है तो वह पापी कहलाता है।,अर्थात्‌ यः वेदादिश्रुतिस्मृतिभिः यन्निषिद्धं कर्म तदनुतिष्ठति स पापीयान्‌ जायते। यज्ञस्य - यज्‌-धातु से नङ करने पर षष्ठी एकवचन में यज्ञस्य यह रूप बनता है।,यज्ञस्य- यज्‌-धातोः नङि षष्ठ्येकवचने यज्ञस्य इति रूपम्‌। बतीसवें अध्याय के प्रारम्भ में ही हिरण्यगर्भ का विचार है।,द्वात्रिंशस्य अध्यायस्य प्रारम्भे एव हिरण्यगर्भस्य विचारः वर्तते। और उस प्रकार के वाक्य का प्रकृत सूत्र से एकश्रुति होने का विधान है।,तादृशस्य च वाक्यस्य प्रकृतसूत्रेण एकश्रुतित्वं विधीयते। "प्रातः और शाम को अग्नि में दुग्ध आज्य के साथ हवन का विधान है - “प्रातर्जुहोति, सायं जुहोति' ( तै.ब्रा. २।१।२)।","प्रातः सायं च अग्नौ दुग्धाज्येन हवनस्य विधानम्‌ अस्ति - 'प्रातर्जुहोति ,सायं जुहोति ( तै.ब्रा. २।१।२)।" 7. अभि क्रन्द स्तनय ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,७. अभि क्रन्द स्तनय ..... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। भावी पथ प्रदर्शक के रूप में श्री रामकृष्ण ने उनको ही निर्मित किया था।,भाविपथप्रदर्शकरूपेण एव श्रीरामकृष्णदेवः तं निर्मितवान्‌। "लौकिक तथा वैदिक कर्मों के सुख दुःखादि फलों को भोगने के लिए धर्म तथा अधर्म में, बन्धन तथा मोक्ष में ये वासना युक्त जाग्रत ही आश्रय कहलाते हैं।",लौकिकवैदिककर्मणां सुखदुःखादिफलभोगाय धर्माधर्मयोश्च तथा बन्धमोक्षप्राप्रये च एतद्वासनायुक्तं जाग्रदेव आश्रयं भवति। सभी निमेष काल-विशेष प्रजापति पुरुष से अधिपुरुष-से ही उत्पन्न हुए है।,सर्वे निमेषाः काल-विशेषाः प्रजापतिपुरुषात्‌ अधिपुरुष-सकाशात्‌ जज्ञिरे। व्याकरण शास्त्र का विवरण दीजिए।,व्याकरणशास्त्रं विशदयत। उदैति - उत्पूर्वक एण-धातु से लट प्रथमपुरुष एकवचन में उदैति रूप बनता है।,उदैति - उत्पूर्वकेण्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने उदैति इति रूपम्‌। मनन शब्द अवधारणा के अर्थ में मानान्तरविरोधशङ्का में तन्निराकरणानुकूलतर्कात्मकज्ञान जनकमानसव्यापारः होता है।,मननं च शब्दावधारिते अर्थ मानान्तरविरोधशङ्कायां तन्निराकरणानुकूलतर्कात्मकज्ञानजनकमानसव्यापारः इति। अज्ञानादि सकल जड समूह अनात्मा होते हैं।,अज्ञानादि सकलजडसमूहः अनात्मा भवति। तुल्य शब्द आद्युदात्त अथवा अन्तोदात्त है?,तुल्यशब्दः आद्युदात्तः अन्तोदात्तः वा? जैसे दीप की की प्रभा सूर्य की प्रभा को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं है।,यथा- प्रदीपप्रभा सूर्यप्रभां प्रकाशयितुं न शक्नोति। उसका विस्तार करती हूँ।,ज्ययाततं करोमि। इस प्रकार से शरीर वाक्‌ तथा मन के द्वारा धन के द्वारा तथा सेवा के द्वारा ईश्वर ही हमें अनन्तकोटिजन्मार्जितसुकृतो के परिपाक से गुरुमूर्ति के रूप में अवतीर्ण होता है।,एवञ्च शरीरवाङ्गनोभिः पुष्कलेन धनेन शुश्रूषया च ईश्‍वर एव अस्मदनन्तकोटिजन्मार्जितसुकृतपरिपाकात्‌ गुरुमूर्तिरूपेण अवतीर्ण इति । उपाधि तथा विज्ञानमय कोश अनादि होते हैं।,उपाधिश्च विज्ञानमयकोशः अनादिर्भवति। अतः मुक्ति तो औपचारिकी ही होती है।,अतः मुक्तिः तु औपचारिकी एव। "अतः- महिमा से भी, ज्यायान्‌-अत्यधिक है।",अतः महिम्नोऽपि ज्यायान्‌ अतिशयेनाधिकः। जीवन्मुक्ति तथा विदेह मुक्ति में क्या भेद होता है।,जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योः पार्थक्यम्‌ किम्‌? जल में मग्न होने से उसका कोई नाम नहीं जानता है।,अप्सु मग्नत्वेन गूढत्वात्‌ तदीयं नाम न केनापि ज्ञायते। योगसूत्र में प्रत्याहार के स्वरूप के विषय में कहा गया है “स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार” इति।,योगसूत्रे प्रत्याहारस्वरूपविषये उच्यते - “स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार” इति। "संस्कृत भाषा का जो विकास यास्क के निरुक्त में प्राप्त होता है, वह पाणिनि की अष्टाध्यायी में व्याख्या रूप से प्राचीनतर है।",संस्कृतभाषाया यः विकासः यास्कस्य निरुक्ते प्राप्यते तत्‌ पाणिनेः अष्टाध्याय्यां व्याख्यातरूपतः प्राचीनतरम्‌ अस्ति। निरुक्त के आरम्भ में 'निघण्टुम्‌' *समाम्नाय' इस पद से ज्ञात होता है।,निरुक्तस्य आरम्भे 'निघण्टुम्‌' 'समाम्नाय' इत्येतेन पदेन अभिधीयते। यहाँ सम्महत्परमोत्तमोत्कृष्टा : यह इतरेतर द्वन्दसमासनिष्पन्न प्रथमाबहुवचनान्त पद है तथा पूज्यमानैः यह तृतीया बहुवचनान्त पद है।,"अत्र सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः इति इतरेतरद्वन्द्वसमासनिष्पन्नं प्रथमाबहुवचनान्तं, पूज्यमानैः इति तृतीयाबहुवचनान्तं पदम्‌।" इस गण में आठ गणसूत्र भी है।,अस्मिन्‌ गणे अष्टौ गणसूत्राण्यपि सन्ति। श्रुधि - श्रु-धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में श्रुधि यह रूप है।,श्रुधि- श्रु-धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने श्रुधि इति रूपम्‌। ज्योतिष शास्त्र का अन्य नाम क्या है?,ज्योतिषशास्त्रस्य अपरं नाम्‌ किम्‌? तृतीया तत्कृत अर्थ से गुण और वचन से इस सूत्र से तृतीया इस प्रथमान्त की अनुवृत्ति होती है।,तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ तृतीया इति प्रथमान्तम्‌ अनुवर्तते। यहाँ पर भी जीव तथा ब्रह्म के भेद से कथन सुना जाता है।,अत्रापि जीवब्रह्मणोः भेदेन कथनं श्रूयते। अचेतनानां स्तुतिः' विहिता इसका क्या तात्पर्य है ?,अचेतनानां स्तुतिः विहिता इत्यत्र किं मानम्‌ ? उनके कर्म का त्याग करना चाहिए।,तेषां कर्मणां त्यागः कर्तव्यः। वेदान्तसार में कहा गया है कि जीवन्मुक्त स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञान के द्वारा तथा उस अज्ञान के बाध के द्वारा स्वस्वरूपाखण्ड ब्रह्म का साक्षात्कार करके अज्ञान तथा उसके कार्य सञ्चित कर्म संशय विपर्ययादि का भी बाध करके अखिल बन्ध रहित होकर के ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है।,वेदान्तसारे दान्तसारे उच्यते त॑ यत्‌ जीवन्मुक्त वन्मुक्तः नाम स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन स्वरूपाखण्ड्ब्रह्मज्ञानन तद्‌ अज्ञानबाधनद्वारा स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मणि साक्षात्कृते अज्ञानतत्कार्यसञ्चित-कर्म-संशय-विपर्ययादीनाम्‌ अपि बाधितत्वात्‌ अखिलबन्धरहितः ब्रह्मनिष्ठः इति। वसुधानी शब्द का क्या अर्थ है?,वसुधानी शब्दस्य कः अर्थः? पाठगत प्रश्नों के उत्तर। यजु।,पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि।यजुः। एवञ्च ब्रह्मणः: फलदातृत्वं “ फलमत उपपत्तेः” (ब्र. सू. ३. ३. ३८) इत्यधिकरण से आचार्य भाष्यकार के ह्वारा समर्थन किया गया है।,"एवञ्च ब्रह्मणः फलदातृत्वं"" फलमत उपपत्तेः"" (ब्र. सू. ३. ३. ३८) इत्यधिकरणे भगवता भाष्यकारेण समर्थितम्‌।" आजकल अथर्ववेद की कितनी शाखा प्राप्त होती हैं?,सम्प्रति अथर्ववदेस्य कति शाखाः लभ्यन्ते? न केवल स्वार्थान्ध व्यक्ति के जैसे स्वयं के मोक्ष के लिए प्रयास करना चाहिए अपितु जगत के हित के भी करना चाहिए।,"न केवलं स्वार्थान्धः जनः इव आत्मनः मोक्षाय यतनीयम्‌, अपि तु जगतः हितसाधनं करणीयम्‌।" 5. वृत्ति का लक्षण क्या है?,५. वृत्तिलक्षणं किम्‌? ऋग्वेद में पासों की संख्या विषय में सूचना देने के लिए त्तिरेपन शब्द प्रयुक्त हुआ।,ऋग्वेदे अक्षाणां संख्याविषये सूचनां प्रदातुं त्रिपञ्चाशः इति शब्दः प्रयुक्तः । “तद्वितार्थोत्तरपदसमाहारे च'' इससे समास प्रक्रिया कार्य में पञ्च गो धन इस स्थिति में प्रस्तुत सूत्र से गो शब्द से पञ्च गो इस समासात्त को टच्‌ प्रत्यय होता है।,"""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन समासे प्रक्रियाकार्ये पञ्च गो धन इति स्थिते प्रस्तुतेन सूत्रेण गोशब्दान्तात्‌ पञ्चगो इत्यस्मात्‌ समासान्तः टच्प्रत्ययो भवति ।" और कहते है की - हे पर्जन्यदेव !,ततश्च उच्यते - हे पर्जन्यदेव ! उससे यहाँ पदों का अन्वय है - एवम्‌ आदीनाम्‌ अन्तः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- एवम्‌ आदीनाम्‌ अन्तः उदात्तः इति। नरकादि अनिष्टों की प्राप्ति के प्रति कारण होता है।,नरकादीनाम्‌ अनिष्टानां प्राप्तिं प्रति कारणं भवति। सायणभाष्यम्‌ - शोभायमान ब्राह्यं ब्रह्मावयवभूतं जातावित्यनिटिलोपे च ब्राह्य रूप बनता है।,सायणभाष्यम्‌- रुचं रोचमानं ब्राह्यं ब्रह्मावयवभूतं जातावित्यनिटिलोपे च ब्राह्ममिति भवति। उससे शतृप्रत्यय उगित्‌ है।,तेन शतृप्रत्ययः उगित्‌ अस्ति। "31. विशेषसंज्ञा होती हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुषः, द्वन्द्वः और बहुव्रीहि :।","३१. विशेषसंज्ञाः भवन्ति - अव्ययीभावः, तत्पुरुषः, द्वन्द्वो बहुव्रीहिश्च।" पांचवे दिन - आयुष्टोम।,पञ्चमदिवसः- आयुष्टोमः। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ... इस प्रतीकरूप में उद्धृत मन्त्र को सम्पूर्ण लिखकर व्याख्या करो।,यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः... इति प्रतीकोद्धृतम्‌ मन्त्रं सम्पूर्णम्‌ उद्धृत्य व्याख्यात। पूर्वदिशा में निहित आवहनीय स्थापित पुरोहित यह भी अर्थ है।,पूर्वस्यां दिशि निहितः आहवनीयात्मना स्थापितः पुरोहितः इत्यपि अर्थः। प्राणिति यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,प्राणिति इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। अध्याय -1 सांख्य दर्शन (पाठ 1 से 4) महर्षि कपिल जन्म से ही सिद्ध माने जाते हैं।,अध्यायः - १ सांख्यदर्शनम्‌ (पाठाः १-४)महर्षिः कपिलो हि जन्मना सिद्धः। सुप्‌ इस तदन्तविधि में पूज्यमानम्‌ इस अन्वय से सुबन्त प्राप्त होता है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ पूज्यमानम्‌ इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तम्‌ इति लभ्यते । इन्द्र स्थल पर अश्व से तथा नदी में नाव से चलते हैं।,इन्द्रस्थले अश्वेन तथा नद्यां नावा यान्ति। "इसी के अधीन ही सभी घोड़े, गाय रथ और दिशा है।",अस्यैव आधीने सर्वे अश्वाः गावः रथाः सर्वाः दिशश्च सन्ति। "९॥ सरलार्थ - उस सर्वहुत यज्ञ से ऋग्वेद, सामवेद, गायत्र्यादि छन्द और यजुर्वेद उत्पन्न हुए।","९सरलार्थः- तस्मात्‌ सर्वहुतः यज्ञात्‌ ऋचः, सामानि, गायत्र्यादीनि छन्दांसि, यजूंषि च उत्पन्नानि।" "® अज्ञान सद्‌ तथा असद्‌ दोनों के द्वारा अनिर्वचनीय त्रिगुणात्मक, ज्ञानविरोधि तथा भावरूप जो कुछ होता है।","अज्ञानं सदसद्भ्याम्‌ अनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि, भावरूपं यत्‌ किञ्चित्‌ इति।" "अतः सूत्र का अर्थ होता है - च, वा, ह, अह आदि के लोप होने पर प्रथम तिङ विभक्त्यन्त को विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है।",अतः सूत्रस्यास्य अर्थः भवति- चवाहाहैवानां लोपे प्रथमतिङ्विभक्त्यन्तं विकल्पेन अनुदात्तं न भवति इति। इस प्रकार से प्राण का आगमन उच्छवास तथा निर्गमन निच्छवास कहलाता है।,एवं प्राणस्यागमनमेव उच्छ्वासः। निर्गमनं निश्वासश्च। यह सूत्र उदात्त स्वर का विधान करता है।,इदं सूत्रम्‌ उदात्तस्वरं विदधाति। अतः पतञ्जलि ने कहा भी है “ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्‌” इति।,सूत्रितं च पतञ्जलिना - “ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्‌” इति। सुप्‌ आमन्त्रिते पराङ्गवत्‌ स्वरे ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,सुप्‌ आमन्त्रिते पराङ्गवत्‌ स्वरे इति सूत्रगतपदच्छेदः। "क्योंकि इस अंश में निर्भुज, प्रतिघ्ण्ण, सन्धि, संहिता आदि के पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त है।","यतः अस्मिन्‌ अंशे निर्भुज, प्रतृण्ण, सन्धिसंहितादयः पारिभाषिकशब्दाः प्रयुक्ताः सन्ति।" और यहाँ चादि का लोप हुआ।,अत्र च चादीनां लोपः जातः। तार्किक व्यक्ति अपनी बुद्धि से कुछ भी कल्पना कर सकता है।,तार्किको हि अनागमज्ञः स्वबुद्धिपरिकल्पितं यत्किञ्चिदेव कल्पयति। स्मरणदृढ़ होने पर परोक्षानुभूति होती है।,स्मरणं दृढं भवति चेत्‌ प्रत्यक्षानुभूतिः भवति। "वह जीवन्मुक्त पुरुष इच्छा के द्वारा अनिच्छा के द्वारा,परेच्छा के द्वारा प्रारब्धकर्मों के फलों का अनुभव करता है।",स जीवन्मुक्तः पुरुषः इच्छया अनिच्छया परेच्छया वा प्रारब्धकर्मणः फलम्‌ अनुभवति। अत्र गो: पञ्चमी एकवचनान्त पद और तद्वित का लोप नहीं होने पर सप्तमी एकवचनान्त पद है।,अत्र गोः इति पञ्चम्येकवचनान्तम्‌ अतद्धितलुकि इति सप्तम्येकवचनान्तं च पदम्‌ । इन सूक्तों के अतिरिक्त और ग्यारह सूक्त बालखिल्य नाम के हैं।,एतेषां सूक्तानामतिरिक्तानि एकादश सूक्तानि च बालखिल्यनाम्ना सन्ति। 2 कौन-कौन से कर्म निषिद्ध कर्म होते हैं?,2. कानि निषिद्धानि कर्माणि। ब्रह्माण्ड से बाहर भी सब जगह व्याप्य होकर अवस्थित है।,ब्रह्माण्डाद्गहिरपि सर्वतो व्याप्यावस्थितः इत्यर्थः। और अन्नन्त है।,एतच्च अन्नन्तम्‌ अस्ति। अपने कुल को पीटता है यह अर्थ है।,स्वकुलं ताडयति इत्यर्थः। व्याख्या - जिस परमात्मा से सब कला काष्ठ काल आदि के अवयव अधिकतर उत्पन्न होते है।,व्याख्या- सर्वे निमेषाः त्रुटिकाष्ठाघट्यादयः कालविशेषाः पुरुषात्‌ अपि पुरुषसकाशाज्जजज्ञिरे। व्याख्या - दाक्षायणयज्ञ में `यद्‌ बंहिष्ठम्‌' इति नवमी द्विताया अमावस्या में मैत्रावरुण की हवि के द्वारा अर्चना की जाती है।,व्याख्या- दाक्षायणयज्ञे 'यद्‌ बंहिष्ठम्‌' इति नवमी द्वितायस्याममावास्यायां मैत्रावरुणस्य हविषो याज्या। और माता मार्ग में घूमती है।,माता च मार्गेषु अटति । कार्तकौजपादयश्च यह सूत्र किसका विधान करता है?,कार्तकौजपादयश्च इति सूत्रेण किं विधीयते? यहाँ तत्पुरुष समास का पाठ मे' अच्‌ प्रत्यय विधायक “तत्पुरुषस्याङगुलेः संख्याव्ययादे:” और “अहः सर्वैकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः” इन दो सूत्रों का उल्लेख किया गया है।,"अत्र तत्पुरुषसमासस्य पाठे अच्प्रत्ययविधायकं ""तत्पुरुषस्याङ्गुलेः संख्याव्ययादेः"" इति ""अहः सर्वैकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः"" इति सूत्रद्वयम्‌ उल्लिखितम्‌।" त्रिष्टुप्‌-छन्द में कितने पाद और कितने अक्षर होते है?,त्रिष्टुप्‌-छन्दसि कति पादाः कति अक्षराणि च भवन्ति? इस जगत्‌ में विद्यमान सभी वेगवान वस्तुओं में अधिकवेग मन का होता है।,जगत्यस्मिन्‌ विद्यमानेषु वेगवत्सु सर्वेषु वस्तुषु अधिकवेगवत्‌ भवति मनः। संहिता ब्राह्मण के विषय की भिन्नता संहिता का और ब्राह्मण के स्वरूप विषय में बहुत अंतर दिखाई देता है।,संहिताब्राह्मणयोः विषयस्य पार्थक्यम्‌ संहिताया ब्राह्मणस्य च स्वरूपविषये महत्‌ पार्थक्यं परिलक्ष्यते। 24.7 ) अखण्डाकारचित्तवृत्ति तथा अज्ञान का नाश शुद्धब्रह्म ब्रह्म अज्ञान का नाश नहीं करता है।,२४.७) अखण्डाकारचित्तवृत्तिः अज्ञाननाशश्च शुद्धं ब्रह्म न हि अज्ञानं नाशयति। अलौकिक विग्रहः तो कभी भी अस्वपद विग्रह नहीं होता है।,अलौकिकविग्रहस्तु कदापि न अस्वपदविग्रहः। जब दर्पण होता है तब ही प्रतीबिम्ब होता है।,दर्पणं यदा अस्ति तदा एव प्रतिबिम्बः। 4. अवपूर्वक निज्‌-धातु से ण्यत्प्रत्यय करने पर।,४. अवपूर्वकात्‌ निज्‌ - धातोः ण्यत्प्रत्यये। यज्ञादि में वेदमन्त्रों से देवों की स्तुति की जाती है।,यज्ञादिषु वेदमन्त्रैः देवाः स्तूयन्ते। परन्तु ऐश्वर्यवान्‌ इन्द्र ने भिन्न माया से वृत्र को जीत लिया।,परन्तु ऐश्वर्यवान्‌ इन्द्रः भिन्नमायया वृत्रम्‌ अजयत्‌। सभी प्रश्नों के उत्तर निर्धारित समय में ही लिखें।,समेषां प्रश्नानाम्‌ उत्तराणि निर्धारितसमये एव लेख्यानि। मात्रर्थम्‌ इसका विग्रह वाक्य क्या है?,मात्रर्थम्‌ इत्यस्य विग्रहवाक्यं किम्‌? इसलिए बृहदारण्यकोपनिषद में भी कहा गया है।,बृहदारण्यकोपनिषदि आम्नातम्‌ अस्ति। 3.शम का परिचय दीजिए।,३. शमः परिचेयः। 10. बहुयज्वा प्रयोग की सिद्धि प्रक्रिया प्रदर्शित करो।,१०. बहुयज्वा इति प्रयोगस्य सिद्धिप्रक्रियां प्रदर्श्यन्तु। 35.गुरु के समीप जाकर के अधिकारी श्रवणादि अन्तरङ्ग साधन करता है।,३५. गुरुसमीपं गत्वा अधिकारी श्रवणादीनि अन्तरङ्गसाधनानि करोति। पूजनात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,पूजनात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। उनके मत में इतालीय और ग्रीसदेश अग्नि के समान ही विविध देवों को उद्दिश्य करके होम करते थे।,तन्मते इतालीया ग्रीसदेशीयाश्च अग्नौ इव विविधान्‌ देवानुद्दिश्य होममकुर्वन्‌। पाठ निर्माण करने में संपर्क कक्षाओं में अध्यापन काल में छात्रों के जीबन कौशल का अच्छी प्रकार से विकास हो ऐसा ध्यान होना चाहिए।,पाठनिर्माणे संपर्ककक्षासु च अध्यापनकाले छात्रेषु जीवनकौशलानां सम्यक्‌ विकासः भवेत्‌ इति ध्यातव्यम्‌ भविष्यति। ऋग्वेद में रुद्रदेवता को उद्दिश्य करके स्तुतिनिवेदकसूक्त में हमेशा भयानकरूप से अथवा संहारकरूप से यह प्रकट होता है।,ऋग्वेदे रुद्रदेवताम्‌ उद्दिश्य स्तुतिनिवेदकसूक्ते सर्वदा भयानकरूपेण संहारकरूपेण वा अयम्‌ आविर्भवति। "सरलार्थ - विष्णु जिसके तीनो पाद में समस्तप्राणी निवास करता है, जो पराक्रम युक्तकार्य के लिये स्तुति की।","सरलार्थः- विष्णुः यस्य त्रिषु पादेषु समस्तप्राणी निवसति, यः वीर्ययुक्तकार्याय स्तुत्यः भवति।" “तत्पुरुषः'' ऐसा पूर्व सूत्र से अधिकृत किया गया है।,"""तत्पुरुषः"" इति पूर्वसूत्राद्‌ अधिकृतम्‌।" समस्त सृष्टी के पूर्व पुरुष उत्पन्न हुआ।,अग्रतः सर्वसृष्टेः पूर्वं पुरुषं जातं पुरुषत्वेनोत्पन्नम्‌। मनु ने भी एक नौका का निर्माण करके स्वयं को उसमे स्थापित करके मछली के सींगे से बान्धकर उत्तर पर्वत की ओर गए।,मनुः अपि नौकामेकां निर्माय पशून्‌ तत्र आदाय मत्स्यशृङ्गे बद्ध्वा उत्तरगिरिं प्रति गतवान्‌। अतः सूत्र का अर्थ होता है - कार्तकौजपादि के ढृन्द्व॒ समास में पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति- कार्तकौजपादीनां द्वन्द्वे पूर्वपदं प्रकृत्या भवति इति। सूत्र का अर्थ - किम का लोप होने पर क्रिया के प्रश्‍न में अनुपसर्ग अप्रतिषिद्ध तिङन्त को विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः - किमः लोपे सति क्रियाप्रश्ने अनुपसर्गम्‌ अप्रतिषिद्धं तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं न भवति। चक्रे - आत्मनेपद कृ-धातु से लिट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,चक्रे- आत्मनेपदिनः कृ-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। वह पाण्डुलिपि कश्मीर राजा के द्वारा जर्मन विद्वान राथ महोदय के लिए उपहार रूप में भेजी थी।,सा पाण्डुलिपिः कश्मीरनृपतिना जर्मनविदुषे राथमहोदयाय उपहाररूपेण प्रेषिता आसीत्‌। इसलिए कारण से ही कार्य होता है।,अतः कार्यात्‌ कारणम्‌ अनुमीयते। 15. चविषयासक्ति का कारण क्या है?,१५. विषयासक्तेः कारणं किम्‌। इसिलए धर्म समन्वय ही युक्ति युक्त अनुभव गोचर तथा शास्त्रसम्मत होता है।,"अतो धर्मसमन्वयो नितरां युक्तियुतः, अनुभवगोचरः, शास्त्रसम्मतश्च।" सोम का अभिसेचन कर यजमान की श्रद्धा को प्रकट करता है ( श्रद्धां वदन्‌ सोमराजन्‌ ९।११३।४ )।,सोमस्याभिषवः यजमानस्य श्रद्धां प्रकटयति (श्रद्धां वदन्‌ सोमराजन्‌ ९।११३।४)। ( ङ ) स्वपद विग्रह-समास के पदों के अवयवों को लेकर किया गया विग्रह स्वपदविग्रह कहलाता है।,(ङ) स्वपदविग्रहः - समासस्य पदात्मकान्‌ अवयवान्‌ आदाय कृतः विग्रहः स्वपदविग्रहः। अर्थात जिससे पाप होता है उस में असम्भावनादि दोष उत्पन्न होते हैं।,अर्थात्‌ यस्य पापम्‌ अस्ति तस्य असम्भावनादिदोषाः जायन्ते। आसनसिद्धि होने पर शीतोष्णादि द्वन्द्वों के द्वारा योगी अभिभूत नहीं होता है।,आसनसिद्धौ सति शीतोष्णादिद्वन्द्रैः योगी नाभिभूतो भवति। जो धेर्यस्वरूप विद्यमान है।,यत्‌ धैर्यस्वरूपं विद्यते। किस प्रकार की वाणी।,कीदृशी तनूः। और सूत्रार्थ है:-'“दिशावाचक पूर्वपद है जिसका उस प्रातिपदिक से शौषिक भव अर्थ में असंज्ञा का गम्यमान होने पर तद्धित से ञप्रत्यय होता है।,"एवं च सूत्रार्थः भवति - ""दिशावाचकं पूर्वपदं यस्य तस्मात्‌ प्रातिपदिकाद्‌ शैषिके भवाद्यर्थ असंज्ञायां गम्यमानायां तद्धितः ञप्रत्ययो भवति"" इति।" विषय के साथ शास्त्र का अथवा विषय के साथ पुरुष के सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक होता है।,विषयेण सह शास्त्रस्य अथवा विषयेण सह पुरुषस्य सम्बन्धज्ञानम्‌ आवश्यकम्‌। आचार्य वसिष्ठ ने कहा है “यथास्थितमिदं यस्य व्यवहारवतोऽपि च।,"आचार्यः वसिष्ठः उक्तवान्‌- ""यथास्थितमिदं यस्य व्यवहारवतोऽपि च।" इन्द्र हि शौर्य के और शक्ति के प्रतीक हैं।,इन्द्रो हि शौर्यस्य वीर्यस्य च प्रतीकः। "संहिता मन्त्रों में जिस विद्या का सङ्केत मात्र ही उपलब्ध होता है, यहां उसका विश्लेषण भी है।",संहितामन्त्रेषु यस्या विद्यायाः सङ्केतमात्रम्‌ एव उपलब्धं भवति अत्र तस्या विश्लेषणम्‌ अपि वर्तते। राक्षसो द्वारा को गई हिंसा से रहित यज्ञो का।,राक्षसकृतहिंसारहितानां यज्ञानाम्‌। यहाँ पदों का अन्वय- दिवः झल्‌ विभक्तिः न उदात्तः इति।,तश्च अयमत्र पदान्वयः- दिवः झल विभक्तिः न उदात्तः इति। 24.6 ) निर्विकल्पक समाधि सर्वविकल्प का लय होने पर ज्ञेयाकार चित्तवृत्ति जब होती है वह ही निर्विकल्पक समाधि कहलाती है।,२४.६) निर्विकल्पकः समाधिः सर्वविकल्पलये सति ज्ञेयाकारा चित्तवृत्तिः यदा भवति सा हि निर्विकल्पकः समाधिरित्युच्यते। तीन स्वर हैं।,त्रयः स्वराः। इसलिए ब्रह्म प्राप्त के लिए ब्रह्मज्ञ गुरु के पास जाना चाहिए।,अतः ब्रह्मप्राप्तये ब्रह्मविदः गुरोः सकाशं गमनीयम्‌ अस्ति। दा दाने इस आकार युक्त धातु से `आतो युक्चिण्कृतोः' इससे घञ्‌प्रत्यय करने पर दायः यह रूप बनता है।,"दा दाने इति आकारयुक्तधातोः ""आतो युक्चिण्कृतोः"" इत्यनेन घञ्प्रत्यये दायः इति रूपम्‌।" इस प्रकृत सूक्त का ऋषि आम्भृणी वाग्‌ है।,प्रकृतसूक्तस्य अस्य ऋषिः आम्भृणी वाग्‌। 19. ब्रह्म ही सभी को प्रकाशित करता है यहाँ पर उपनिषद्‌ वाक्य क्या है?,१९. ब्रह्म एव सर्वं प्रकाशयति इत्यत्र उपनिषद्वाक्यं किम्‌? यह ही हेतु है की में अग्नि की स्तुति करता हूँ।,अयमेव हेतुः यद्‌ अहम्‌ अग्निम्‌ ईडे। 2 क) तैत्तिरीयोपनिषद्‌ में।,२. क) तैत्तिरीयोपनिषदि। अलग से गृह्यमाण विशेषसामान्य में सिंहदेवदत्त अग्निमाणवक के समान गौण प्रत्यय अथवा शब्द प्रयोग होता है।,पृथग्गृह्यमाणविशेषसामान्ययोर्हि सिंहदेवदत्तयोः अग्निमाणवकयोर्वा गौणः प्रत्ययः शब्दप्रयोगो वा स्यात्‌। कपिल मुनि का सांख्य दर्शन वेदांत के बहुत निकट है मुख्य और पूर्व पक्ष सांख्य का गुण विचार पुरुष विचार सृष्टि विचार इत्यादि अद्वैत वेदांत में कुछ परिवर्तन करके स्वीकार किए गए हैं इसलिए पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष के साहित्य के अध्ययन में अत्यंत आवश्यक होता है यहां सांख्य दर्शन का विषय वर्णित है।,यतो हि कपिलस्य सांख्यदर्शनं वेदान्तस्य अति निकटम्‌। मुख्यः पूर्वपक्षः च। सांख्यानां गुणविचारः पुरुषविचारः सृष्टिविचारः इत्यादिकम्‌ अद्वैतवेदान्ते किञ्चित्‌ परिवर्तनेन गृहीतं दृश्यते। अतः पूर्वपक्षत्वेन मूलत्वेन च सांख्यानाम्‌ अध्ययनम्‌ अत्यन्तम्‌ आवश्यकमिति हेतोः अत्र सांख्यदर्शनस्य विषयाः अत्र उपन्यस्यन्ते। तीसरे दिन - आयुष्टोम।,तृतीयदिवसः- आयुष्टोमः। मन में ही धैर्य की उत्पति होने से मन में कार्य कारण के अभेद होने से धेर्य को धारण करता है।,मनसि एव धैर्योत्पत्तेः मनसि धैर्यम्‌ उपचर्यते कार्यकारणयोः अभेदात्‌। "उपमेय सुबन्त को उपमान व्याघ्रादि समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है, साधारण धर्म का अप्रयोग होने पर और तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","उपमेयं सुबन्तं उपमानैः व्याघ्रादिभिः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह विकल्पेन समस्यते साधारणधंर्मस्याप्रयोगे सति, तत्पुरुषसंज्ञकश्च भवति ।" सक्तकुस्थान में कही पर बकरी का दुग्ध।,सक्तुस्थाने अजादुग्धमिति केचित्‌। "वह उपाय यह है कि | ध्यान देंः भर्ता अपनी अङ्गुली को दिखाकर के भार्या से कहता हैं कि ऊपर अत्यन्त प्रकाशमान स्थूलरूप में दिखाई दे रहा है क्या वह आपको दिख रहा है, क्या?","स च उपायः उच्यते। भर्ता स्वाङ्गुल्या आकाशं प्रदर्श्य कथयति भार्याम्‌, उपरि अत्यन्तं प्रकाशमानं स्थूलं यत्‌ नक्षत्रं वर्तते तत्‌ दृष्टं किल इति।" कविशब्द यहाँ पर क्रान्त के अर्थ में न होकर के मेधाविनाम के अर्थ में है।,कविशब्दोऽत्र क्रान्तवचनो न तु मेधाविनाम। यज्ञ अनुष्ठान और दार्शनिक विचार किस ग्रन्थ का मुख्य विषय है?,यज्ञानुष्ठानं दार्शनिकविचारश्च कस्य ग्रन्थस्य मुख्यविषयः? द्वेष्टि - द्विष्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,द्वेष्टि - द्विष्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । अर्धपिप्पल्याः इस लौकिक विग्रह में अर्धं सु पिप्पल्लीङस्‌ इस अलौकिक विग्रह में “षष्ठी” इससे षष्ठीतत्पुरुष समास प्राप्त होने पर उसको बांधकर प्रकृत सूत्र से पिप्पलीङस्‌ इस एकत्व संख्या विशिष्ट से अवयववाची सुबन्त के साथ अर्धसु इस सम्‌ अंशवाची नित्य नपुंसकलिङ्ग होने पर विद्यमान तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"अर्धं पिप्पल्याः इति लौकिकविग्रहे अर्ध सु पिप्पली ङस्‌ इत्यलौकिकविग्रहे ""षष्ठी"" इत्यनेन षष्ठीतत्पुरुषसमासे प्राप्ते तं प्रबाध्य प्रकृतसूत्रेण पिप्पली ङस्‌ इति एकत्वसंख्याविशिष्टेन अवयविवाचकेन सुबन्तेन सह अर्ध सु इति समांशवाची नित्यं नपुंसकलिङ्गे विद्यमानः तत्पुरुषसमाससंज्ञो भवति।" अधिदैवत इसका देवतात्मक अर्थ होता है।,अधिदैवतम्‌ इत्यस्य देवतात्मकमित्यर्थः। यह आरण्यक तवलकार आरण्यक के नाम से प्रसिद्ध है।,आरण्यकमिदं तवलकारारण्यकमिति नाम्ना प्रसिद्धमस्ति। महाभाष्य में आद्याकर ग्रंथ से ज्ञात होता है।,इति महाभाष्याद्याकरग्रन्थाद्‌ ज्ञायते। प्रजास्विति प्र-जासु यस्मात्‌।,प्रजास्विति प्र-जासु यस्मात्‌ । इसका देवता पुरुष है।,पुरुषोऽत्र देवता। अध्वर्यु क्या करता है?,अध्वर्युः किं करोति? "जिस प्रकार से यह कहा गया है की स्मृति इच्छा प्रयत्न कर्म हेतुओं के द्वारा आत्म कर्म करती है, उनके मिथ्या प्रत्यय पूर्वकत्व होने से ऐसा नहीं है।","यच्च आहुः “आत्मीयैः स्मृतीच्छाप्रयत्नैः कर्महेतुभिरात्मा कर्म करोति” इति, न; तेषां मिथ्याप्रत्ययपूर्वकत्वात्‌।" न्याय शैली के ज्ञान के बिना इस विभाग का अध्ययन दुष्कर होगा इसकी कठिनता को दूर करने के लिए न्याय शैली का भी विस्तार पूर्वक उल्लेख किया।,न्यायशैल्याः ज्ञानं विना अस्य विभागस्य अध्ययनं दुष्करम्‌ इति हेतोः तत्र तत्र न्यायशैल्याः अपि विस्तरः प्रदर्शनीयत्वेन आपतति। "सूत्र का अर्थ- अहो इससे युक्त तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय से शेष में।",सूत्रार्थः - अहो इत्यनेन युक्तं तिङन्तं विकल्पेन न अनुदात्तम्‌ अपूजायाम्‌। यहाँ किसकी योनि का वर्णन है और कौनसी योनि तथा वो धीरजन कौन हे?,अत्र कस्य योनिं पश्यन्ति। का च योनिः। के च धीराः। वैसे नित्य नैमित्तिक काम्य भी होते है।,तथा नित्यनैमित्तिककाम्यान्यपीति। आत्मा के अवयव नहीं होते है।,आत्मनः अवयवाः न सन्ति। त्रातशब्द कृदन्त है और हरि यहाँ तृतीयान्त कर्ता है।,"त्रातशब्दः कृदन्तः, हरिश्चात्र तृतीयान्तः कर्ता।" इसलिए ही गोपाय नः स्वस्तये यह प्रयोग सिद्ध होता है।,अत एव गोपाय नः स्वस्तय इति प्रयोगः सिदुध्यति। तथा आत्मा की आत्मा में ही गति को कभी भी कोई भी बाधित नहीं कर सकता है।,तथा आत्मन्येव आत्मावगतिः न कदाचित्‌ केनचित्‌ कथञ्चिदपि बाधितुं शक्या | वे रूद्रः हमारा कल्याण करें।,रुद्रः अस्मभ्यं सुखं वितरतु। "इस प्रकार अग्नि यहाँ पर दो उदात्त स्वर है, एक धातु का दूसरा प्रत्यय का।",एवम्‌ अग्नि इत्यत्र उदात्तस्वरद्वयं वर्तते एकः धातोः अपरः प्रत्ययस्य। "वैतान सूत्र अधिक प्राचीन नहीं है, और कौशिकसूत्र में अभिचारक्रिया का वर्णन है।","वैतानसूत्रं न अतिप्राचीनम्‌, कौशिकसूत्रञ्च अभिचारक्रियावर्णनपरम्‌।" हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदों की शुद्धि के लिये उनमें प्रयुक्त अक्षरों की भी गणना की गई है।,अस्माकं प्राचीनाः ऋषयस्तु वेदानां विशुद्धये तेषु प्रयुक्तानाम्‌ अक्षराणामपि गणनां कृतवन्तः। अञ्चेश्छन्दस्य सर्वनामस्थानम्‌ इस सूत्र से असर्वनामस्थानम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त संज्ञा बोधक पद की अनुवृति है।,अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्‌ इति सूत्रात्‌ असर्वनामस्थानम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं संज्ञाबोधकं पदम्‌ अनुवृत्तम्‌। इस जुआरी को तुम रस्सी से बाँध करके ले जाओ और तुम्हे जैसा उचित लगे वैसा ही करो।,रज्ज्वा बद्धमेतं कितवं हे कितवाः यूयं नयत यथेष्टदेशं प्रापयेति । ङयि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,ङयि इति सप्तम्येकवचनान्तम्‌। ऋग्वेद में उसकी स्तुति के लिए पांच सूक्तप्राप्त होते है।,ऋग्वेदे तस्य स्तुत्यर्थं पञ्च सूक्तानि प्राप्यन्ते। "निष्कैवल्य शस्त्र, प्राणविद्या, पुरुष आदि का।",निष्कैवल्यशस्त्र -प्राणविद्या-पुरुषप्रभृतीनाम्‌। "सूत्र अर्थ का समन्वय- अष्टन्‌-शब्द कौ अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर डऱ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्या म्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङ सिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांडऱयोस्सुप्‌ इस सूत्र से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों की प्राप्ति में तृतीया बहुवचन कौ विवक्षा में भिस होने पर अष्टन्‌ भिस्‌ इस स्थिति में न लोप: प्रातिपदिकान्तस्य इस सूत्र से अष्टन्‌-शब्द के नकार का लोप होने पर अष्ट भिस्‌ इस स्थित्ति में सभी का संयोग करने पर निष्पन्न अष्टभिस्‌ इस शब्द स्वरूप के सुबन्त होने से तदन्त सकार के स्थान में ससजुषोः रुः इससे रु आदेश होने पर रु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इससे इत्‌ संज्ञा करने पर और लोप करने पर आत्त्व होने पर अष्टाभिर्‌ इस स्थित्ति में रेफ उच्चारण से परे वर्ण के अभाव होने पर विरामोऽवसानम्‌ इस सूत्र से अवसान संज्ञा होने पर उसके परे होने पर पूर्व रेफ के स्थान में खरवसानयोर्विसर्जनीयः इस सूत्र से रेफ के स्थान में विसर्ग होने पर अष्टाभिः यह सुबन्त रूप सिद्ध होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- अष्टन्‌-शब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः झङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण खले कपोतन्यायेन एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु तृतीयाबहुवचनविवक्षायां भिसि अष्टन्‌ भिस्‌ इति स्थिते न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य इति सूत्रेण अष्टन्‌-शब्दस्य नकारस्य लोपे अष्ट भिस्‌ इति स्थिते सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य अष्टभिस्‌ इति शब्दस्वरूपस्य सुबन्तत्वात्‌ तदन्तस्य सकारस्य स्थाने ससजुषोः रुः इति आदेशे रोः उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति इत्संज्ञायां लोपे च कृते आत्त्वे अष्टाभिर्‌ इति स्थिते रेफोच्चारणात्‌ परस्य वर्णाभावस्य विरामोऽवसानम्‌ इति सूत्रेण अवसानसंज्ञायां तत्परकत्वात्‌ पूर्वस्य रेफस्य स्थाने खरवसानयोर्विसर्जनीयः इति सूत्रेण रेफस्य स्थाने विसर्गे अष्टाभिः इति सुबन्तं रूपं सिद्ध्यति।" उच्चैस्तराम्‌ इसका क्या अर्थ है?,उच्चैस्तराम्‌ इत्यस्य कोऽर्थः ? और इन्द्रियों से पहले मन की रचना की और मन की पहले रचना होने से वह अपूर्व है।,किञ्च इन्द्रियेभ्यः पूर्वं मनसः सृष्टेः मनः अपूर्वम्‌। “ आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य” इत्यादि श्रुतियों में श्रवण मनन तथा निदिध्यासन के द्वारा ब्रह्मसाक्षात्कार का उपदेश दिया गया है।,“आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य” इत्यादिश्रुतिषु श्रवण-मनन- निदिध्यासनैः ब्रह्मसाक्षात्कार उपदिश्यते श्रुतिषु। लोक व्यवहारों में देह में तथा वैदिक व्यवहारों में स्वर्गादि में जीवों में अहत्व बुद्धि की कल्पना की जाती है।,लोकिकव्यवहारेषु देहे वैदिकव्वयहारेषु स्वर्गादिषु जीवे च अहंत्वबुद्धिं कल्पयति। परन्तु उस विषयक प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होते हैं।,परं तद्विषयकाः प्राचीनतराः ग्रन्था न उपलभ्यन्ते। मुक्तज्ञानी की यह अवस्था ही जीवन्मुक्ति होती है।,मुक्तस्य ब्रह्मज्ञानिन एषा अवस्था हि जीवन्मुक्तिः। यह विष्णु सभी के अपेक्षा से अधिकक्रियाशील है।,अयं विष्णुः सर्वापेक्षया अधिकक्रियाशीलः वर्तते। गोपाय इससे आय प्रत्ययान्त होने से “सनाद्यन्ता धातवः” इससे धातु संज्ञा में 'धातो:' इस सूत्र से गोपाय-धातु के अन्त्य अच्‌ यकार उत्तर अकार का उदात्त स्वर का विधान है।,गोपाय इत्यस्य आयप्रत्ययान्तत्वेन 'सनाद्यन्ता धातवः' इत्यनेन धातुसंज्ञायां 'धातोः' इति सूत्रेण गोपाय-धातोः अन्त्यस्य अचः यकारोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः विधीयते। "जिसे उनमें उसे मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ, मैं सुन्दर हूँ इस प्रकार का इस प्रकार के में रूपी अभिमान होता है।",ततश्च तेषु अहं स्थूलः अहं कृशः अहं सुन्दरः इत्येवंविधः अहंत्वाभिमानः भवति। इसी प्रकार की उपाधि से मुक्त ही उस ब्रह्म तत्त्व को रूप रहित होने से आखों से देख नहीं सकता है।,एवञ्च सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं तद्‌ ब्रह्मतत्त्वं रूपरहितत्वात्‌ चक्षुषा न गृह्यते। यहाँ वा इस पदग्रहण से वह उदात्त स्वर विकल्प से होता है।,अत्र वा इति पदग्रहणात्‌ स उदात्तस्वरः विकल्पेन भवति। इसके बाद षष्ठी इस सूत्र से नृणाम्‌ इस षष्ठयन्त सुबन्त का द्विजः इय सुबन्त से समास प्राप्त होने पर प्रकृत सूत्र से निर्धारणषष्ठयन्त से नृणाम्‌ इस पद का उस से साथ समास निषेध होता है।,ततः षष्ठी इत्यनेन सूत्रेण नृणामिति षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य द्विजः इति सुबन्तेन समासे प्राप्ते प्रकृतसूत्रेण निर्धारणषष्ठ्यन्तत्वात्‌ नृणाम्‌ इति पदस्य तेन सह समासनिषेधो भवति। कौथुमीय शाखा विषय पर टिप्पणी लिखिए।,कौथुमीयशाखाविषये टिप्पणी लेख्या। "उदाहरण -अधिगोप सु ऐसा होने पर “अव्ययीभावश्च'' इस से अव्ययीभाव का अव्ययसंज्ञा होने पर “अव्ययादाप्सुपः” इससे सुप्‌ लोप प्राप्त होने पर अदन्त होने पर अव्ययीभाव संज्ञक होने पर अधिओप शब्द का इसके आगे सु अमादेश होने पर अधिगोप अम्‌ ऐसा होने पर “अमिपूर्वः'' इससे दोनों अकारो के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होने पर अकार होने पर “अधि गोपम्‌"" यह रूप सिद्ध होता है।","उदाहरणम्‌ - अधिगोप सु इति जाते ""अव्ययीभावश्च"" इत्यनेन अव्ययीभावस्य अव्ययसंज्ञायाम्‌ ""अव्ययादाप्सुपः"" इत्यनेन सोर्लुकि प्राप्ते अदन्तत्वाद्‌ अव्ययीभावसंज्ञकत्वाद्‌ अधिगोपशब्दस्य ततः परस्य सोः अमादेशे अधिगोप अम्‌ इति जाते ""अमि पूर्वः "" इत्यनेन अकारद्वयस्य स्थाने पूर्वरूपे एकादेशे अकारे अधिगोपम्‌ इति रूपं सिध्यति।" अतः प्रकृत सूत्र से शस्त्रीश्यामा यहाँ पर शस्त्री यह अन्तोदात्त ही रहता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण शस्त्रीश्यामा इत्यत्र शस्त्री इति अन्तोदात्तः एव तिष्ठति। "वहाँ १० उपनिषद्‌ ऋग्वेद से सम्बद्ध, १९ उपनिषद्‌ शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध, ३२ कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध, १६ सामवेद से सम्बद्ध, ३१ अथर्ववेद से सम्बद्ध।","तत्र १० उपनिषदः ऋग्वेदसम्बद्धाः, १९ उपनिषदः शुक्लयजुर्वदसम्बद्धाः, ३२ कृष्णयजुर्वेदसम्बद्धाः, १६ सामवेदसम्बद्धाः, ३१ अथर्ववेदसम्बद्धाः।" कवि ने उषादेवी के विषय में अन्य भी कल्पना की है।,कविः उषादेव्याः विषये अन्याः अपि कल्पनाः कृतवान्‌। गुणविष्णु से ज्ञात होता है कि यह मन्त्र पैप्लाद शाखा का आदि मन्त्र था (शन्नो देवी अथर्ववेद का यह आदि मन्त्र पिप्पलाद दृष्ट है - छान्दोग्यमन्त्र भाष्य में)।,गुणविष्णुना ज्ञातो भवति यद्‌ अयं मन्त्रः पिप्पलादशाखायाः आदिमो मन्त्रः आसीत्‌ (शन्नो देवी....... अथर्ववेदादिमन्त्रोऽयं पिप्पलाददृष्टः- छान्दोग्यमन्त्रभाष्ये)। जो जल के संसर्ग से और पृथिवी के संसर्ग से उत्पन्न हुआ।,यः अद्भ्यः उदकात्‌ सकाशात्‌ संभृतः पृथिव्यै पृथिव्याः सकाशाच्च संभृत इति। धेहि - धा-धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में।,धेहि- धा-धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने। "सान्वय प्रतिपदार्थ - त्रिपात्‌ = त्रिचतुर्थाश, पुरुषः = ब्रह्म, ऊध्वम्‌ = ऊपर से, उद्‌ = उत्कर्ष से, ऐत्‌ = चला गया, या संस्थापित हो गया।","सान्वयप्रतिपदार्थः - त्रिपात्‌ = त्रिचतुर्थांशयुतः, पुरुषः = ब्रह्म, ऊध्वम्‌ = उपरिष्टात्‌, उद्‌ = उत्कर्षेण, ऐत्‌ = गतवान्‌, संस्थितवानित्याशयः।" और ऐसे समान पदों के मिलन से राज सम्बन्धी पुरुष यही अर्थ होता है।,एवं समेषां पदार्थानां मेलनेन राजसम्बन्धी पुरुषः इत्यर्थः भवति। "( १.२.३८ ) सूत्र का अर्थ- देव ब्राह्मण् शब्दों को स्वरित के स्थान में अनुदात्त होता है, सुब्रह्मण्या निगद में।",(१.२.३८) सूत्रार्थः-देवब्रह्मणोः स्वरितस्य अनुदात्तः स्यात्‌ सुब्रह्मण्यायाम्‌। यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन शिवसंकल्पमस्तु॥३ ॥,यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन शिवसंकल्पमस्तृ॥३ ॥ बहुव्रीहि समास “प्रायेण अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः'' यह बहुव्रीहि का सामान्य लक्षण है।,"बहुव्रीहिसमासः ""प्रायेण अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः"" इति बहुव्रीहिसमासस्य लक्षणम्‌।" सूत्र अर्थ का समन्वय- स्वप्‌-धातु और श्वस्‌-धातु स्वपादिगण में पढ़ी हुई हैं।,सूत्रार्थसमन्वयः- स्वप्‌-धातुः श्वस्‌-धातुश्च स्वपादिगणे पठितः। कनिष्ठ आह चमसा यह प्रयोग भी वेद में प्राप्त होता है।,कनिष्ठ आह चमसा इति प्रयोगः अपि वेदे लभ्यते। १२वीं कक्षा कक्षा के इस पाठ्क्रम में सांख्य दर्शन विशेष परिचय कराया गया है।,द्वादशकक्षायाः अस्मिन्‌ पाठ्यक्रमेम सांख्यानां दर्शनस्य विशेषः परिचयः कारितः। कल्प की व्युत्पत्ति प्राप्त अर्थ क्या है?,कल्पस्य व्युत्पत्तिलभ्यः अर्थः कः। इस प्रकार से स्वयं ब्रह्म होते हुए भी उसके द्वारा ब्रह्म अप्राप्त होता है।,एवं स्वयं ब्रह्म भवति चेदपि स्वेन ब्रह्म अप्राप्तं भवति। ऋषियों ने भी स्थान-स्थान पर मनोगत भावनाओं कों प्रकट करने के लिए अलङऱकारों का प्रयोग किया।,ऋषयः अपि स्थाने स्थाने मनोगतभावानां प्रकटने अलङ्कारप्रयोगं कृतवन्तः। इस पाठ में साधना का उपक्रम किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे साधनायाः उपक्रमः कृतः। और उपदेश साहस्री ग्रन्थ में भी कहा हैं कि ““सुषुप्तवत्‌ जाग्रति यो न पश्यति पश्यन्नपि चाद्वयत्त्वतः।,"अपि च उददेशसाहस्रीग्रन्थे उच्यते यत्‌- ""सुषुप्तवत्‌ जाग्रति यो न पश्यति पश्यन्नपि चाद्वयत्त्वतः।" कारण शरीर किसे कहते हैं?,किं कारणशरीरम्‌? उस जल में व्याप्त धेर्य वृति वाला जो ब्रह्म चेतन है वह मेरा ही कारण है।,तस्मिन्‌ अप्सु व्यापनशीलासु धीवृत्तिष्वन्तर्मध्ये यद्‌ ब्रह्म चैतन्यं तन्मम कारणमित्यर्थः। निरुद्धाः - निपूर्वकरुध्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में निरुद्धाः बना।,निरुद्धाः - निपूर्वकात्‌ रुध्‌-धातोः क्तप्रत्यये प्रथमाबहुवचने निरुद्धाः इति। इस प्रकार नित्यत्व से सिद्ध है कि मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है।,इत्थं सिद्धम्‌ यत्‌ मोक्षः एव परमः पुरुषार्थः नित्यत्वात्‌। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे- समास में कितने प्रकार के सामर्थ्य अपेक्षा की जाती है यह जान पाने में। केवल समास विधान किससे होता है यह जान पाने में। अव्ययी भाव समास विधायक सूत्र कौन से हैं यह जान पाने में। अव्ययी भाव समास में समासान्त प्रत्यय कौन से हैं यह जान पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌/भवती - समासे कति विधं सामर्थ्यमपेक्षते इति जानीयात्‌। केवलसमासविधानं केन भवति इति जानीयात्‌। अव्ययीभावसमासविधायकानि सूत्राणि कानि इति जानीयात्‌। अव्ययीभावसमासे समासान्ताः प्रत्ययाः के इति जानीयात्‌। वपुषाम्‌ - वपुष्‌-शब्द का षष्ठीबहुवचन में वपुषाम्‌ यह रूप है।,वपुषाम्‌- वपुष्‌-शब्दस्य षष्ठीबहुवचने वपुषाम्‌ इति रूपम्‌। मनन से लक्ष गुना निदिध्यासन होता है।,मननाद्‌ लक्षगुणं गुरुत्वावहं भवति ' अम गतौ भजने शब्दे' कर्तरि क्तः।,'अम गतौ भजने शब्दे' कर्तरि क्तः। अनुभूति भी शास्त्र विरुद्ध नहीं होनी चाहिए अपितु वे यथार्थानुभूति शास्त्रसम्मत ही होनी चाहिए।,"अनुभूतिरपि शास्त्रविरुद्धा न स्यात्‌, अपि च यथार्थानुभूतिः शास्त्रसम्मत एव भवेत्‌।" (अगले सूत्र देखा जाना चाहिए) 42. “'तृतीयासप्तम्योबर्हुलम्‌'' यह सुत्र किस प्रकार का है?,"(अग्रिमसूत्रं द्रष्टव्यम्‌।) ४२. ""तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इति सूत्रं किंप्रकारकम्‌?" यहाँ का आनन्द सर्वश्रेष्ठ होता है।,अत्रत्यः आनन्दः अतिघ्नी इत्यभिधीयते। सूत्र का अवतरण- प्रकार आदि शब्दों के द्वित्व होने से सभी को अनुदात्त स्वर विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।,सूत्रावतरणम्‌- प्रकारादिशब्दानां द्वित्वाद्‌ अन्यस्मिन्‌ द्वित्वे सर्वस्य अनुदात्तस्वरविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। सूत्रार्थ- शेषो बहुव्रीहि इस सूत्र पर्यन्त तत्पुरुष अधिकार है।,सूत्रार्थः - शेषो बहुव्रीहिः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ पूर्वपर्यन्तं तत्पुरुषाधिकारः। "युष्मदस्मदोः यह षष्ठी एकवचनान्त, ङसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।","युष्मदस्मदोः इति षष्ठ्येकवचनान्तं, ङसि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" मन्त्रों में अक्षर संख्या है - ४३२०००। सभी मन्त्र चौदह छन्दों में विभक्त हें।,मन्त्रेषु अक्षरसंख्या हि - ४३२०००। सर्वेऽपि मन्त्राः चतुर्दशसु छन्दःसु विभक्ताः। यहाँ पाद आदि के होने से पद का हनन नही किया गया।,अत्र पादादित्वादाद्यं पदं न निहन्यते। धारणा के सत्य होने पर ही ध्यान सम्भव होता है।,धारणायां सत्यां ध्यानं सम्भवति। चित्त का निरोध होता है तो चित्त के साथ इन्द्रियों का भी निरोध सम्भव होता है।,चित्तं निरुद्धं भवति चेत्‌ चित्तेन सह इन्द्रियाणामपि निरोधः सम्भवति। इसलिये इस प्रकृति सूत्र से उस काश शब्द के आदि वाले अच्‌ (आकार का) उदात्त विधान होता है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य काश- शब्दस्य आदेः स्वरस्य आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। इस श्लोक का यह अर्थ है की बुद्धि तथा बुद्धिस्थ चैतन्यप्रतिबिम्ब दोनों घट में व्याप्त हो जाते हैं।,अस्य श्लोकस्यार्थस्तावत्‌ बुद्धिः बुद्धिस्थं च चैतन्यप्रतिबिम्बम्‌ उभयमपि घटं व्याप्नोति। 9 योगियों की सत्य में प्रतिष्ठा होने पर क्या होता है?,"९, योगिनः सत्यप्रतिष्ठायां किं भवति?" "मुजवान पर्वत पर सोम उत्पन्न उत्तम सोमलता का रस पीकर जैसी प्रसन्नता होती है, वैसे ही प्रसन्नता बहेरे वृक्ष के काठ से बने अक्ष मेरे लिए हो जयपराजय आनंद दुःख को उत्पन्न करने वाले जुआरी मुझे आनंद प्रदान करते है।",किञ्च जागृविः जयपराजयोर्हर्षशोकाभ्यां कितवानां जागरणस्य कर्त्ता विभीदकविकाराऽक्षो मह्यं माम्‌ अच्छान्‌ अचच्छदत्‌ अत्यर्थं मादयति। "दूसरे काण्ड में आधान, पुनराधान, अग्निहोत्र, उपस्थापन, आग्रायण, दाक्षायण, आदि यज्ञों का वर्णन विस्तार से पुङ्ख और अनुपुङख़ क्रम से है।",द्वितीये काण्डे आधान- पुनराधान-अग्निहोत्र-उपस्थापन-आग्रायण-दाक्षायणादियज्ञानां वर्णनं सविस्तारेण पुङ्कानुपुङ्खक्रमेण च अस्ति। "( २.१.२ ) सूत्र का अर्थ - आमन्त्रित संज्ञक पद के परे रहते, उससे पूर्व जो सुबन्त पद उसको पर के अंग के समान कार्य होता है स्वर विषय में।",२.१.२) सूत्रार्थः - सुबन्तम्‌ आमन्त्रिते परे परस्य अङ्गवद्‌ भवति स्वरे कर्तव्ये। "इसी प्रकार अश्व॑हितम्‌, मनुष्य॑हितम्‌, गोरक्षितम्‌ अश्व॑रक्षितम्‌ इत्यादि में भी होता है।","एवम्‌ अश्व॑हितम्‌, म॒नुष्य॑हितम्‌, गोरक्षितम्‌ अश्व॑रक्षितम्‌ इत्यादौ अपि भवति।" उससे सम्यक्‌ ज्ञान होने पर भी अप्रतिष्ठित अनवाप्त ही होता है।,तेन सम्यग्‌ ज्ञानमपि स्वविषये अप्रतिष्ठितम्‌ अनवाप्तम्‌ इव भवति। जैसे वायु दूसरे को प्रेरित करती हुई अपनी इच्छा से बहती है उसी प्रकार।,यथा वातः परेणाप्रेरितः सन्‌ स्वेच्छयैव प्रवाति तद्वत्‌। जिसमें वैश्वानर का स्थान जाग्रत होता है।,तत्र वैश्वानरस्य स्थानं भवति जाग्रत्‌। किन्तु पीले रंग के पास्रों को देखकर ठहरा नही जाता है।,किंच बभ्रवः बभ्रुवर्णा अक्षाः न्युप्ताः कितवैरवक्षिप्ताः सन्तः वाचमक्रत शब्दं कुर्वेति । परोक्षकृत और प्रत्यक्षकृत मन्त्र अधिकांश है और आध्यात्मिक मन्त्र कम है।,"परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृताश्च मन्त्रा भूयिष्ठाः, अल्पश आध्यात्मिकाः इति।" "क्रिया कारक फल भेद बुद्धि अविद्या के द्वारा आत्मा में नित्य प्रवृत्त होती है मेरा कर्म, मैं कर्ता, उस फल के लिए यह करूँगा।","क्रियाकारकफलभेदबुद्धिः अविद्यया आत्मनि नित्यप्रवृत्ता - “मम कर्म, अहं कर्ता, अमुष्मै फलायेदं कर्म करिष्यामि ।" ऋग्वेद के दसवें मण्डल में चौतींसवे सूक्त में इस विषय को आधार करके लिखा गया।,ऋग्वेदस्य दशममण्डले चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तम्‌ एनं विषयम्‌ आधारीकृतवत्‌। यहाँ क्या हुआ।,इदं किंभूतम्‌। हीना - हाधातु से क्तप्रत्यय और टाप करने पर प्रथमा एकवचन में।,हीना - हाधातोः क्तप्रत्यये टापि प्रथमैकवचने । यहाँ कहा गया है की वस्तु के आधारभूत द्युलोक में अनन्त विस्तृत सूर्य की किरने सुख कौ वर्षा करने वाले सभी पुराण आदि में समझने योग्य प्रसिद्ध परमात्मा के विशेष स्थान को अत्यन्त उत्कृष्टता को अपनी महिमा से प्रकट करता है।,अत्र आह अत्र खलु वास्त्वाधारभूते द्युलोके उरुगायस्य बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य वृष्णः कामानां वर्षितुर्विष्णोस्तत्तादृशं सर्वत्र पुराणादिषु गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धं परमं निरतिशयं पदं स्थानं भूरि अतिप्रभूतम्‌ अव भाति स्वमहिम्ना स्फुरति। इसलिए यह तेज अन्तः प्रज्ञः होता है।,अतः अयं तैजसः अन्तःप्रज्ञश्च भवति। और इस सूत्र का अर्थ होता है प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व अकार के स्थान पर आप्‌ परे इकार होता है।,एवञ्च अस्य सूत्रस्यार्थः भवति प्रत्ययस्थात्‌ कात्‌ पूर्वस्य अतः स्थाने इत्‌ भवति आपि परे। इस प्रकरण में तिङन्त पदों का क्या स्वर विशेष है इस आलोचना का विषय है।,अस्मिन्‌ प्रकरणे तिङन्तपदानां कः स्वरविशेषः इति आलोच्यः विषयः अस्ति। नौवें अध्याय में प्राण की श्रेष्ठता का वर्णन है।,नवमाध्याये प्राणस्य श्रेष्ठताया वर्णनमस्ति। इष्ट वस्तु का दर्शन जन्य सुख प्रिय होता है।,इष्टवस्तुदर्शनजन्यं सुखं प्रियम्‌। "इसलिए प्रारम्भ में मुझे एक घडे में रखकर मेरा पालन करो, उसके बाद जब में बड़ी होऊ तो गड्डा खोदकर उसमे मेरा पालन करना।","अत आदौ मां एकस्मिन्‌ कुम्भ्यां पोषयतु, परं यदा ततः बृहत्कायः भविष्यामि तदा पुष्करिणीं खनित्वा तत्र मां पालयतु।" जज्ञिरे - जनी (प्रादुर्भावे) इस अर्थ की धातु से लिट्‌-लकार का प्रथमपुरुष के बहुवचन में रूप है।,जज्ञिरे- जनी (प्रादुर्भावे) इत्यर्थकात्‌ धातोः लिट्‌-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य बहुवचने रूपम्‌। लेकिन उनकी विदेह मुक्ति में केवल शरीर का ही नाश होता है।,परन्तु तेषां विदेहमुक्तिः इत्युक्ते केवलं शरीरनाशः इति। विदेहमुक्त के लक्षणों की व्याख्या कीजिए।,विदेहमुक्तलक्षणं व्याख्यानं कुरु? वह सम्प्रज्ञात समाधि होती है।,इति सम्प्रज्ञातः। काम्य कर्म मरने के बाद फल देते हैं।,काम्यकर्म मरणोत्तरं फलं ददाति। "बालकों के मुण्डन पर, किशोर को गोदान में (प्रथम क्षौर कर्म में) तथा उपनयन संस्कार में इस मन्त्र का उपयोग होता है।","बालकानां मुण्डने, किशोराणां गोदाने (प्रथमक्षौरकर्मणि) तथा उपनयनसंस्कारे अस्य मन्त्रस्य उपयोगो भवति।" 6 परमार्थ संन्यासी कौन होता हे?,6 कः परमार्थसंन्यासी। व्यवहार काल में अन्नमयादि कोशों का प्राधान्य होता है।,व्यवहारकाले अन्नमयादीनां कोशानां प्राधान्यमस्ति। जाग्रत होने पर स्थूलशरीर अच्छी प्रकार से अवभास युक्त होता है।,सूक्ष्मशरीरम्‌ जाग्रति स्थूलशरीरं सम्यगवभासेत्युक्तम्‌। पुरुष सुख ही संचित करता है।,पुरुषः सुखमेव अर्थयते। यह सुषुप्तिकारण शरीरा भिमानी होता है।,सुषुप्तिकारणशरीराभिमानी भवति प्राज्ञः। इसका ही यह भाव भी अनन्तबल से युक्त जगदीश्वर के अन्तर से इस विचित्रजगत का स्रष्टा धारण करने वाला और पालन करने वाले उस परमात्मा की उपासना करनी चाहिए उसको छोड़कर अन्य किसी की उपासना नही करनी चाहिए।,अस्य एवं भावः न खलु कश्चिद्‌ अपि अनन्तबलयुक्तं जगदीश्वरमन्तरेण इदं विचित्रं जगत्‌ स्रष्टुं धर्त्तु प्रलाययितुं च शक्नोति तस्मादेतं विहाय अन्यस्य उपासनं केनचिदपि नैव कार्य्यम्‌। ऋग्वेद में अक्षसूक्त से अक्षनामदेव की अभीष्ट सिद्धि के लिए प्रार्थना करते है।,ऋग्वेदे अक्षसूक्तेन अक्षनामकः देवः अभीष्टसिद्ध्यर्थ प्रार्थ्यते । जिस वृत्ति विशेष से आत्मविषयक श्रवणादिभिन्न विषयों से बल पूर्वक मन का निग्रह होता है शम होता है।,येन वृत्तिविशेषेण आत्मविषयकश्रवणादिभिन्नविषयेभ्यः बलात्‌ मनसः निग्रहः भवति सः शमः। दिक्शब्दाः ग्रामजनपदाख्यानचान -राटेषु इस सूत्र से दिक्शब्दाः इस पद की यहाँ अनुवृति आती है।,दिक्शब्दाः ग्रामजनपदाख्यानचानराटेषु इति सूत्रात्‌ दिक्शब्दाः इति पदम्‌ अत्र अनुवर्तते। इसके बाद अच्‌ आदि के उत्तरपद का अश्व का लुप्त नकार से नञ्‌ के नुट्‌ होने पर नुट नुट्‌ अश्व यह होने पर उकार का “ उपदेशेऽजनुनासिकश्त्‌'' इससे टकार का ओट “चुटू” इससे इत्संज्ञा होने पर “तस्य लोपः'' इससे लोप होने पर अ न्‌ अश्वः इस स्थिति में सर्वसंयोग होने निष्पन्न अनश्व शब्द से सु प्रक्रियाकार्य में अनश्वः रूप होता है।,"ततः अजादेः उत्तरपदस्य अश्व इत्यस्य लुप्तनकारात्‌ नञः नुटि अ नुट्‌ अश्व इति जाते, उकारस्य "" उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ "" इत्यनेन टकारस्य "" चुटू "" इत्यनेन च इत्संज्ञायां "" तस्य लोपः "" इत्यनेन लोपे अ न्‌ अश्व इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नात्‌ अनश्वशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये अनश्वः इति रूपम्‌ ।" "उपनिद, गीता, ब्रह्मसूत्र।","उपनिषत्‌,गीता,ब्रह्मसूत्रम्‌।" एवं अव्ययीभाव समास होने पर शरदादि से प्रातिपदिक से पर समासान्त तद्वित संज्ञक टच्‌ प्रत्यय होता है।,"एवम्‌ ""अव्ययीभावसमासे शरदादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययः भवति।" प्राचीन काल में पुल्लिङग-आकारान्त शब्दों में प्रथमा द्विवचन का प्रत्यय आ इस प्रकार का है।,प्राचीनांशे पुल्लिङ्ग- आकारान्तशब्देषु प्रथमाद्विवचनस्य प्रत्यय आ इत्येवास्ति। और उसका उपसर्ग से व्यवहित यह अर्थ है।,तस्य च उपसर्गेण व्यवहितम्‌ इत्यर्थः। और वह उत्कृष्टबुद्धिसम्पन्न सत्यशील और कीर्तिमान्‌ है।,स च उत्कृष्टबुद्धिसम्पन्नः सत्यशीलः कीर्तिमान्‌ च अस्ति। 3. अपादहस्तो अपृतन्यदित्यादिमन्त्र को पूर्ण करके सायणभाष्य के अनुसार व्याख्या करो।,3. अपादहस्तो अपृतन्यदित्यादिमन्त्रं पूरयित्वा सायणभाष्यानुसारि व्याख्यात। "१२ मास पञ्च ऋतुएँ, और ये तीन लोक और अदित्य एकविंशति (२१) पदार्थ एकविंशति (२१) लकडी रूपी इंधन उत्पन्न हुए।","द्वादश मासाः पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोका आदित्यश्च एकविंशतिः पदार्थाः एकविंशतिदारुयुक्तेन्धनत्वेन भाविताः।" ब्रह्म के स्वप्रकाशत्व से ब्रह्म फलविषय होता है।,ब्रह्मणः स्वप्रकाशत्वात्‌ न हि ब्रह्म फलविषयो भवति। इसके बाद भूत सु पूर्व अम्‌ इस स्थिति में सुप्‌ के लुक (लोप) के विधान के लिए यह सूत्र प्रवृत्त है।,ततः भूत सु पूर्व अम्‌ इति स्थिते सुब्लुग्विधानाय सूत्रमिदं प्रवृत्तम्‌। "ब्रह्मणो योग्यं ब्राह्यं, उस प्रकाश स्वरूप आदित्य को नमस्कार।",ब्रह्मणो योग्यं ब्राह्यं तस्मै ब्राह्मये रुचाय रोचमानाय दीप्यमानाय आदित्याय नमः।। सर्वविकल्प के लय होने पर जब ब्रह्माकार चित्तवृत्ति होती है तब निर्विकल्पसमाधि होती है।,सर्वविकल्पलये सति ब्रह्माकारा चित्तवृत्तिः यदा भवति तदा निर्विकल्पकः समाधिः भवति। 6. वृक्षों को गिराता है।,६. वृक्षान्‌ विहन्ति। 11. चित्त का मल पाप होता है।,११. चित्तमलः पापम्‌। "मैं हवि से युक्त, उत्तम हवि को प्राप्त करने वाली हूँ, सोम का अभिषिक्त करने वाले यजमान के लिए धन को धारण करती हूँ अथवा सम्पादन करती हूँ।","अहं हविर्युक्ता, उत्तमहविषः प्रापयिता, सोमाभिषवकारिणां यजमानानां कृते धनं धारयामि अथवा सम्पादयामि।" फिर भी प्रसक्त-अनुप्रसक्त और भी कुछ विषय उपस्थापित किये जाते हैं।,तथापि प्रसक्तानुप्रसक्ता अन्येऽपि केचिद्‌ विषया उपन्यस्यन्ते। शरीर जड होता है तथा आत्मा तो चेतन होता है।,शरीरं जडमस्ति। आत्मा तु चेतनः भवति। यह सूत्र लाट्यायन श्रौतसूत्र से प्राचीन है।,सूत्रमिदं लाट्यायनश्रौतसूत्रात्‌ प्राचीनं वर्तते। जैसे अग्निमीळे यहाँ पर अकार अनुदात्त है।,यथा अग्निमीळे इत्यत्र अकारः अनुदात्तः। 11.5.4 ) विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध जो व्यावर्तक होता है।,11.5.4) विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धः - यत्‌ व्यावर्तकं भवति। मुख्य प्रयोजन तो विविदिषा आदि होते है।,मुख्यं प्रयोजनं तु विविदिषादि। विना शरीर के जीव तथा आत्मा और शरीर की स्थिति नहीं होती है यह उनका वाद है।,विना शरीरं जीवस्य वा जीवात्मानं विना शरीरस्य वा स्थितिः नास्तीति वादस्तेषाम्‌। चित्त का चाञ्चल्य ही चित्त का विक्षेप कहलाता है।,चित्तस्य चाञ्चल्यम्‌ एव विक्षेपः। इस व्युत्पत्ति के योग का प्रतिपादन करने वाले अनेक प्रसङ्ग इस वेद में है।,अस्याः व्युत्पत्त्याः सम्पुष्टौ योगस्य प्रतिपादकाः अनेके प्रसङ्गाः अस्मिन्वेदे सन्ति। सविकल्प समाधि में त्रिपुटी होती है।,सविकल्पकसमाधौ त्रिपुटी विद्यते। जगत की स्थिति ब्रह्म में ही होती है।,जगतः स्थितिः ब्रह्मणि एव भवति। """स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन'' इस सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।","""स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" अतः प्रकृत सूत्र से मुहूर्तसुखम्‌ यहाँ पूर्वपद को अन्तोदात्त ही रहता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण मुहूर्तसुखम्‌ इत्यत्र पूर्वपदम्‌ अन्तोदात्तमेव तिष्ठति। लेकिन इसके द्वारा वेदसिद्धान्तविरोधी तर्क जानना चाहिए।,परन्तु एतेन वेदसिद्धान्ताविरोधी तर्कः ज्ञातव्यः। "निषेध के टिप्पणियाँ विकल्पता से उसके अभाव में अच्‌ प्रत्यय होने पर अपथिन्‌ अ इस स्थिति में, भसंज्ञक के टि (अन्‌) का लोप होने पर निष्पन्न अपथशब्द का ""पथः संख्याव्ययादेः"" इससे नपुंसक होने पर सु प्रत्यय होने पर अपथम्‌ रूप बना।","निषेधस्य वैकल्पिकत्वात्‌ तदभावपक्षे अचि अपथिन्‌ अ इति स्थिते, भस्य टेरनो लोपे निष्पन्नस्य अपथशब्दस्य ""पथः संख्याव्ययादेः"" इत्यनेन नपुंसकत्वे सौ अपथम्‌ इति रूपम्‌।" वि उपसर्ग पूर्वक डू धाञ्‌ धारण और पोषण इस अर्थ में धातु से “उपसर्गे धो: किः” इस सूत्र से कर्म में कि प्रत्यये होने पर विधि शब्द निष्पन्न होता है।,"विपूर्वकाद्‌ डुधाञ्‌ धारणपोषणयोः इति धातोः ""उपसर्गे घोः किः"" इत्यनेन सूत्रेण कर्मणि किप्रत्यये विधिशब्दो निष्पन्नः।" विष्णु युवक तथा विशालकाय है ऐसा ऋग्वेद में वर्णन किया गया है।,विष्णुः युवकः तथा विशालकायः अस्ति इति ऋग्वेदे वर्णितः। पर्जन्यसूक्त का ऋषि कौन है?,पर्जन्यसूक्तस्य ऋषिः कः भवति ? इसके बाद प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न हरिशब्द से प्रथमा एकवचन में सु प्रत्यय होने हरित्रातः रूप सिद्ध होता है।,ततः प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ हरित्रातशब्दात्‌ प्रथमैकवचने सौ हरित्रातः इति रूपम्‌। "प.द. 1.33 अन्न, प्राण,मन बुद्धि तथा आनन्द इस प्रकार से पाँच कोश होते हैं।",प.द्‌. १.३३ अन्नं प्राणो मनो बुद्धिरानन्दश्चेति पञ्चकोशाः। यहाँ पुरुष की आध्यात्मिक कल्पना का एक भव्य निदर्शन है।,अत्र पुरुषस्य आध्यात्मिककल्पनायाः एकं भव्यं निदर्शनं विद्यते। उभाम्याम्‌ पञ्चमीद्विवचनान्त पद है।,उभाभ्याम्‌ इति पञ्चमीद्विवचनान्तं पदम्‌। शेर के समान गर्जना करते हुए सम्पूर्ण आकाश को मेघ से आच्छादित करता है।,सिंहवत्‌ गर्जन्‌ सम्पूर्णम्‌ आकाशं मेघाच्छन्नं करोति। सूत्र का अवतरण- छन्द में ङ्यन्त से परे नाम को विकल्प से उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- छन्दसि ङ्याः परस्य नामः विकल्पेन उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। "माण्डुकेय गण, शाङखायन गण, और आश्वलायन गण।","माण्डुकेयगणः, शाङ्खायनगणः, आश्वलायणगणः चेति।" पुरुष शब्द का पुरुष यही अर्थ है।,पुरुषशब्दस्य पुरुषः इत्यर्थः। दूसरे दिन प्रायणीय-इष्ट का अनुष्ठान किया जाता है।,द्वितीयदिवसे प्रायणीय-इष्टेः अनुष्ठानं क्रियते। 16. तीन प्रकार के शरीर कौन-कौन से है?,१६.त्रिविधानि शरीराणि कानि? इनके संहिता और ब्राह्मण के विषय में यहाँ और अधिक जानोंगे।,एतयोः संहिताब्राह्मणयोः विषये अत्र अधिकतया ज्ञास्यति। किस प्रकार करते है कहा की -जिस कारण से श्रद्धा के द्वारा विशाल धनकोष को श्रद्धावानमनुष्य प्राप्त करे यह अर्थ है।,कुत इत्यत आह- यतः कारणात्‌ श्रद्धया हेतुभूतया वसु धनं विन्दते लभते श्रद्धावान्‌ जनः ततः इत्यर्थः। वह जैसे चाहता है वैसे ही उनको लेकर के जाता है।,स यथा इच्छति तथेव नेतुं शक्नोति। परार्थ नाम विग्रह वाक्य अवयव पदार्थों से परे जो अर्थ है वह परार्थ उसकी प्रतिपादिका वृत्ति है।,परार्थः नाम विग्रहवाक्यावयवपदार्थभ्यः परः यः अर्थः स परार्थः तत्प्रतिपादिका वृत्तिः। जितने काल तक भ्रान्ति रुकती है उतने काल तक ही जीवभाव की भी सत्ता होती है।,यावत्कालं भ्रान्तिः अवतिष्टते तावत्कालमेव जीवभावस्य सत्ता। किन्तु पशुयाग में होता केवल याज्य मन्त्रों का उच्चारण करता है।,किन्तु पशुयागे होता केवलं याज्यमन्त्रान्‌ उच्चारयति। बहुत से ब्राह्मण यागों में सोमयाग की विवृति देखी जाती है।,बहुब्राह्मणयागे सोमयागस्य विवृतिः दृश्यते। और विद्यारण्य स्वामी ने भी कहा है- द्वैतावस्था सुस्थिता चेदद्वैते धीः स्थिरा भवेत्‌।,"विद्यारण्यस्वामिना जीवन्मुक्तावस्थाविषये उक्तं - ""द्वैतावस्था सुस्थिता चेदद्वेते धीः स्थिरा भवेत्‌।" बिना शब्द के होने से वाणी से कह नहीं सकते है।,अशब्दत्वाद्‌ वाचा न उच्यते। "ऋग्वेद में वैरूप, बृहत्‌, रैवत, गायत्र, भद्र आदि साम के नामो का ज्ञान प्राप्त होता है।",ऋग्वेदे वैरूप-बृहत्‌-रैवत-गायत्र-भद्रादीनां साम्नानाम्‌ अभिधानं लभ्यते। दोनों के मध्य में देवदर्श- यह नाम ही प्रमाणिक है ऐसा प्रतीत होता है।,उभयोः मध्ये देवदर्श- इति नाम एव प्रामाणिकम्‌ इति प्रतीतः भवति। 'करणाधिकरणयोश्च' (पा०सू० ३.३.११७) इससे करण में ल्युट्‌ प्रत्यय किया।,'करणाधिकरणयोश्च' ( पा०सू०३.३.११७) इति करणे ल्युट्प्रत्ययः। भेद तीन प्रकार का होता है।,भेदत्रयम्‌ अस्ति। (ख) पूर्वजन्म में किए गये कर्म जो फल प्रदान करने में प्रारब्ध होते हैं।,(ख) पूर्वजन्मकृतं कर्म येन फलदानं प्रारब्धम्‌। इस सूत्र से द्वितीया तत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण द्वितीयातत्पुरुषसमासो भवति। इसी प्रकार वि यहाँ पर उदात्त स्वर है।,एवं वि इत्यत्र उदात्तस्वरः वर्तते। "सामान्य रूप से यह अर्थ बहुत पदो से वर्णन किया जाता है, परन्तु उपमा अंलङकार के प्रयोग से वह अर्थ थोड़े पदो से ही प्रकाशित होता है।","सामान्यतया यः अर्थः बहुभिः पदैः वर्ण्यते, उपमालङ्कारस्य प्रयोगेण सः अर्थः स्वल्पैः पदैः प्रकाशितो भवति।" इष्णन्‌ अर्थात्‌ कर्मफल का इच्छुक कि तद्‌ इति।,इष्णन्‌ इच्छन्‌ कर्मफलमिच्छन्‌। वह प्रत्यक्ष आत्मा के द्वारा अनुभवमात्र गम्य होता है।,प्रत्यगात्मत्वेन अनुभवमात्रगम्यम्‌। ब्रह्मज्ञान होने पर इन बन्धनों का नाश होता है।,ब्रह्मज्ञाने सति एतेषां बन्धानां नाशो भवति। मा नो हिसीज्जनिताङ्कमन्त्र की व्याख्या करो।,मा नो हिंसीज्जनिता... इति मन्त्रं व्याख्यात। "सभी वेदान्तशास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म, निर्विशेष,निरवयव,निरज्चन,तथा अस्तिमात्र सत्‌ वह ब्रह्म यहाँ पर सद्‌ इस प्रकार से कहा गया है।",सर्वेभ्यः वेदान्तशास्त्रेभ्यः सूक्ष्मं निर्विशेषं निरवयवं निरञ्जनं सर्वानुस्यूतम्‌ अस्तितामात्रं सत्‌ ब्रह्म वस्तु अत्र सदित्यनेन उच्यते। अत: उस शब्द के द्वित्व होने पर “प्र प्र' इस स्थित्ति में परे का प्र इस शब्द का अकार को प्रकृत सूत्र से अनुदात्त होने का विधान है।,अतः तस्य शब्दस्य द्वित्वे प्र प्र इति स्थिते परस्य प्र इति शब्दस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रे अनुदात्तत्वं विधीयते। """मनसैवानुद्रष्टव्यम्‌"" इति श्रुति है।","""मनसैवानुद्रष्टव्यम्‌"" इति श्रुतिः।" काष्ठानाम्‌ - क्रान्त्वा स्थिता इस अर्थ में क्रम पूर्वक स्था-धातु से क्विप करने पर काष्ठा हुआ षष्ठीबहुवचन में काष्ठानाम यह रूप हुआ।,काष्ठानाम्‌ - क्रान्त्वा स्थिता इत्यर्थ क्रमपूर्वकस्था-धातोः क्विपि काष्ठा इति जाते षष्ठीबहुवचने काष्ठानामिति रूपम्‌। मानव सामाजिक में दुर्व्यवहार के निराकरण करने के लिए सूक्तो का सङ्कलन किया गया है।,मानवेषु सामाजिकदुर्व्यवहाराणां निराकरणाय सूक्तानि सङ्कलितानि । अथवा गिरि मन्त्रादिरूप में वाणी सभी वर्तमान है।,यद्वा। गिरि मन्त्रादिरूपायां वाचि सर्वदा वर्तमानः। जगत का पालक ऋत्‌ है।,जगतः शानकम्‌ ऋतम्‌। "यहाँ कहते हैं की यदि इनसे भिन्न यज्ञ सम्बन्धी कर्म में मन्त्रों का प्रयोग होता है, तो उनके मन्त्रों की एकश्रुति होती है।","अत्रोच्यते यदि एतङद्भिन्ने यज्ञसम्बन्धिनि कर्मणि मन्त्राणां प्रयोगो भवति, तर्हि तेषां मन्त्राणाम्‌ ऐकश्रुत्यं भवति इति।" साधन चतुष्टय में अन्यतम साधन है शमादिषट्क सम्पत्ति होती है।,साधनचतुष्टय अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः। "उसी प्रकार दामा, पामा, सीमा, अतिमहिमा इत्यादि में भी बोध्य है।",एवमेव दामा पामा सीमा अतिमहिमा इत्यादावपि बोध्यम्‌। "व्याघ्रपात्‌, द्विपात्‌, उत्काकुत्‌, पूर्णकाकुत्‌ इत्यादि क्रमशः उदाहरण हैं।","व्याघ्रपात्‌, द्विपात्‌, उत्काकुत्‌, पूर्णकाकुत्‌ इत्यादीनि क्रमश उदाहरणानि भवन्ति।" निरुक्त में वृ-धातु से वरुण शब्द निष्पन्न है।,निरुक्ते वृ-धातोः वरुणशब्दः निष्पन्नः। ब्रह्म को सृष्टिकर्ता मानकर के उससे कर्तृत्व निषेध कार्य किया जाता है।,ब्रह्म सृष्टिकर्ता इति ज्ञात्वा ततः कर्तृत्वनिषेषः कार्यः। प्रमाता जीव चेतन होता है।,प्रमाता जीवश्चेतनो भवति। इष्ट देव की कृपा के बिना चित्त कभी भी निर्मल नहीं होता है।,इष्टदेवस्य कृपां विना चित्तं कदापि निर्मलं न भवति। यथाशक्ति शक्तिम्‌ अनतिक्रम्य यह लौकिकविग्रह है और शक्ति अम्‌ यथा यह अलौकिक विग्रह है।,यथाशक्ति शक्तिम्‌ अनतिक्रम्य इति लौकिकविग्रहः शक्ति अम्‌ यथा इत्यलौकिकविग्रहश्च। 1 अज्ञान का नाशक गुरु होता है।,1 अज्ञानस्य नाशकः गुरुः भवति। अन्य मन्त्र में मनोवैज्ञानिक तथ्य का रोचक विश्लेषण है - श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।,अपरस्मिन्‌ मन्त्रे मनोवैज्ञानिकतथ्यस्य रोचकं विश्लेषणं वर्तते- श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु। इति।। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर चैतन्य मात्र तो रूकता है।,अज्ञाने नष्टे चैतन्यमात्रं विराजते। "इस प्रकार सम्पूर्ण इन्द्रसूक्त में इन्द्र का पराक्रम, इन्द्र वृत्र का युद्ध, और इन्द्र की महानता का वर्णन 'किया।","एवं सम्पूर्ण इन्द्रसूक्ते इन्द्रस्य वीर्याणि, इन्द्रवृत्रयोः युद्धम्‌, इन्द्रस्य माहात्म्यं च वर्णितानि।" उसका लक्षण है- जो साधुओं में तथ पापियों में समबुद्धि होता है वह योगारूढों में भी विशिष्ट हो जाता है।,तस्य लक्षणं हि- साधुषु पापेषु च यः समबुद्धिः स योगारूढेषु अपि विशिष्टः अस्ति। "गङ्गा मे घोष है यहाँ पर गङगा पद प्रवाह रूप स्वार्थ पद का परित्याग करके तीर पदार्थ को लक्षित करता है, इस प्रकार से यह युक्तियुक्त होता है।",गङ्गायां घोषः इत्यत्र गङ्गापदं प्रवाहरूपं स्वार्थं परित्यज्य तीरपदार्थं लक्षयति इति युक्तियुक्तं भवति। एक जन्म के मृत्युपर्यन्त कारणस्वरूपसुख दुःखात्मकफलदायक कर्म प्रारब्ध कहलाते हैं।,एकस्य जन्मनः मृत्युं यावत्‌ कारणस्वरूपं सुखदुःखात्मकफलदायकं कर्म प्रारब्धम्‌ कथ्यते। अत: इस सूत्र का अर्थ होता है की आमन्त्रित का आदि अच्‌ उदात्त होता है।,अत एव स्यत्रार्थः भवति यत्‌ आमन्त्रितस्य आदिः अच्‌ उदात्तः भवति इति। उदितम्‌ - वद्‌ व्यक्तायां वाचि इस अर्थ वाली धातु से क्तप्रत्ययान्त का रूप है।,उदितम्‌ - वद्‌ व्यक्तायां वाचि इत्यर्थकात्‌ धातोः क्तप्रत्ययान्तं रूपम्‌। 5. धारण करता है।,५. धारयति। एवं लौकिक विग्रह वाक्य रहित नित्य समास है।,एवं लौकिकविग्रहवाक्यरहितः नित्यसमासः। अवर शब्द ` स्वाङ्गशिटामदन्तानाम्‌' इस सूत्र से आद्युदात्त है।,अवरशब्दः 'स्वाङ्गशिटामदन्तानाम्‌' इति सूत्रेण आद्युदात्तः वर्तते। "यहाँ पर उपमान के होने पर भी संज्ञा नहीं है, अतः मकार से उत्तर अकार को उदात्त स्वर नहीं हुआ।",अत्र उपमानत्वे अपि संज्ञा नास्ति अतः मकारोत्तरस्य अकारस्य न उदात्तस्वरः। इस प्रश्‍न के उत्तर रूप में कह सकते है कि उक्त मन्त्र में सन्देह का कारण नहीं है।,अस्याः आपत्तेः उत्तररूपेण वक्तुं शक्यते यद्‌ उक्तमन्त्रे सन्देहस्य अवकाशः नास्ति इति। "वहाँ सूक्त के चार भेद किये, ऋषि सूक्त, देवता सूक्त, छन्द सूक्त, अर्थ सूक्त।","तत्र सूक्तं चतुर्विधम्‌, ऋषिसूक्त-देवतासूक्त-च्छन्दःसूक्त-अर्थसूक्तभेदात्‌।" वेदान्त का विषय होता है- जीवब्रहयौक्य शुद्धचैतन्य प्रमेय यह विषय क्या होता है।,वेदान्तस्य विषयो भवति- जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयम्‌। और वह विशालकाय है।,अस्ति च तस्य विशालकायम्‌। तत्पर का ही भाव तात्पर्य कहलाता है।,तस्य भावः तात्पर्यम्‌ इति । पक्व भक्ति में तो घृणायुक्त बुद्धि तो होती ही नहीं है।,पक्वायां तु भक्त्यां घृणाबुद्धिः सम्पूर्णतः नाशम्‌ एति। (क) अनुबन्धों के (ख) साधनचतुष्टय के (ग) शमादिषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णय लिङ्गों में 21. प्रायश्चित किसके अन्तर्गत होता है?,(क) अनुबन्धेषु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु 21. प्रायश्चित्तं क्वान्तर्भवति। "प्रीति के कार्यो में प्रवृत्ति होती है, द्वेष से निवृत्ति होती है।",प्रीत्या कार्ये प्रवृत्तिर्भवति द्वेषान्निवृत्तिः। प्रकरण प्रतिपाद्य के अर्थ का प्रमाणान्तर से अविषयीकरण करना अपूर्वत कहलाती है।,प्रकरणप्रतिपाद्यस्य अर्थस्य प्रमाणान्तरेण अविषयीकरणम्‌ अपूर्वता इति। "इन आरण्यको में पहले तीन के रचयिता ऐतरेय, चौथे के आश्वलायन और पांचवें का शौनक माना जाता है।","एतेषु आरण्यकेषु प्रथमत्रयस्य रचयिता ऐतरेयः, चतुर्थस्य आश्वलायनः तथा पञ्चमस्य शौनक इति मन्यते।" आत्मभाव के अनुरूप ही सम्पत्ति होती है।,अनुरूपः आत्मभावः सम्पत्तिः। 4 शमादिषटक सम्पत्ति में शमा दिषटक्‌ क्या होता है?,४. शमादिषट्कसम्पत्तौ शमादिषट्कं किम्‌। 15.1.2 मूलपाठ को जानते है। अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।,१५.१.२ इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम। अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। इसके ही उदर से कमल की उत्पत्ति हुई जहा पर बैठकर के ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड की रचना की।,अस्यैव उदरात्‌ कमलोत्पत्तिः जाता यत्र उपविश्य ब्रह्मा ब्रह्माण्डं सृष्टवान्‌। दिव्‌-शब्द से परे झलादि विभक्ति को उदात्त निषेध के लिए इस सूत्र की रचना की है।,दिव्‌-शब्दात्‌ परेषां झलादिविभक्तीनाम्‌ उदात्तत्वनिषेधार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। उससे भवत्‌ ई होता है।,तेन भवत्‌ ई इति जायते। और उसके सींग के साथ नौका की रस्सी का बन्धन किया।,किञ्च तस्य शृङ्गेन सह नौकायाः रज्जुबन्धनं चकार। यह उपनिषद्‌ “केनेषितं पतति प्रेषितं मनः'' इत्यादि मन्त्र से आरम्भ होता है।,इयम्‌ उपनिषद्‌ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः इत्यादिकात्‌ मन्त्रादारभ्यते। उदात्त आदि स्वरों के निषेध के लिए भी कुछ सूत्र पाणिनि के द्वारा कहे गए है।,उदात्तादिस्वराणां निषेधार्थम्‌ अपि कानिचित्‌ सूत्राणि प्रोक्तानि पाणिनिना। गुरु के द्वारा कहे गये उपनिषद्‌ से सम्बन्धित साधन अन्तरङ्ग साधनों में गिने जाते हैं इस प्रकार से यह स्थूलविभाग होते हैं।,गुरूपसदनोत्तरं विहितानि साधनानि अन्तरङ्गसाधनानि गण्यन्ते इति स्थूलविभागोऽयमस्ति। "छान्दोग्योपनिषद्‌ में कहा भी गया है - तस्य तावदेव चिरं, यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्ये इति।","आम्नातं च छान्दोग्योपनिषदि - तस्य तावदेव चिरं, यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्ये इति।" "जप अनुकरण मन्त्र अथवा उपांशु प्रयोग, न्यूङ्क सोलह प्रकार का ओंकार, उससे यहाँ मन्त्र उच्चारण का प्रकार विशेष जानना चाहिए।","जपः अनुकरणमन्त्रः उपांशुप्रयोगो वा, न्यूङ्काः षोडश ओकाराः, तेन अत्र मन्त्रोच्चारणस्य प्रकारविशेषाः बोद्धव्याः।" इस सूत्र से अन्तोदात्त का विधान होता है।,अनेन सूत्रेण अन्तोदात्तः विधीयते। इसकी उत्पत्ति सबसे पहले हुई है।,एतस्य प्रथमोत्पत्तिः। उसका यहाँ अन्वर्थ ही ग्रहण किया है।,तस्य अत्र अन्वर्थ एव ग्राह्यः। "सूत्र अर्थ का समन्वय - इस प्रस्तुत उदाहरण में गङ्गे इति, यमुने इति, और सरस्वति इति तीन पद सम्बोधन अन्त है।",सूत्रार्थसमन्वयः - प्रस्तुतेऽस्मिन्‌ उदाहरणे गङ्गे इति यमुने इति सरस्वति इति च पदत्रयं सम्बोधनान्तं वर्तते। इस सूत्र से अङ्ग के समान होने का आदेश है।,अनेन सूत्रेण अङ्गवत्त्वम्‌ अतिदिश्यते। जो नित्य होता है उसका उसको कुछ भी अधिष्ठान होना ही चाहिए।,यदनित्यं तस्य किमपि नित्यम्‌ अधिष्ठानं स्यादेव। अतः यहाँ समास होता है।,अतः अत्र समासः भवति। 6. छान्दस से।,६. छान्दसः। इन मन्त्रों की सहायता से किये हुए अभिचारों का विशेष वर्णन कौशिक सूत्र में है।,एतेषां मन्त्राणां साहाय्येन कृतानाम्‌ अभिचाराणां विशेषवर्णनं कौशिकसूत्रेऽस्ति। पर्यपश्यत्‌ - परिपूर्वक दृश्‌-धातु से लङ्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में पर्यपश्यत्‌ रूप।,पर्यपश्यत्‌- परिपूर्वकात्‌ दृश्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने पर्यपश्यत्‌ इति रूपम्‌। हे श्रद्धा हमारे इस वचन की अभीष्टपूर्ति करो।,हे श्रद्धे अस्माकम्‌ अस्य वचनस्य अभीष्टपूर्ति कुरु। अब तुम यहाँ वृक्ष में नाव को बांध दो।,अधुनात्र वृक्षे नावं प्रतिबध्नीष्व। ऋतशब्द के अनेक अर्थ वेद में ही प्राप्त होता है।,ऋतशब्दस्य नैके अर्थाः वेदे एव परिलक्ष्यन्ते। छोटी मछली जल्दी ही विशाल मछली बन गई।,झषः महामत्स्यः क्षिप्रमेव महामत्स्योत्रावर्ततेत्यर्थः। इस जल स्पर्श का क्या कारण है ऐसा प्रश्‍न होने पर भी कहते हैं जल पवित्र होता है।,अस्य जलस्पर्शस्य किं कारणम्‌ इति प्रश्ने सति उच्यते जलं मेध्यं भवति इति। ज्ञानसहित यह संन्यास होता है।,ज्ञानसहितः अयं संन्यासः। 'आ विश्वेभिः सरथं याहि देवैः' इति और स्वयं यजस्व दिवि देव देवान्‌' इति प्रमाण है (मण्डलादि में अग्नि इन्द्र से)।,'आ विश्वेभिः सरथं याहि देवैः' इति 'स्वयं यजस्व दिवि देव देवान्‌' इति च प्रमाणम्‌ (मण्डलादिषु आग्नेयमैन्द्रात्‌)। 6. रुद्र के समान होकर को।,6. रुद्रात्मिका भूत्वा। गङ्गा में घोष(कुटिया) यहाँ पर तो जहत्‌ लक्षणा ही सङ्गत होती है।,गङ्गायां घोषः इत्यत्र तु जहल्लक्षणा सङ्गच्छते। वे अङ्गार के समान ही जुआरी के हदय को जलाते है।,ते अङ्गारसदृशाः भवन्तः अपि कितवानां हृदयं दहन्ति । जातेरस्त्रीविषयादयोपद्यात्‌ इस सूत्र से जातेः (5/1) जाते पद की अनुवृत्ति आ रही है।,जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्‌ इति सूत्रात्‌ जातेः (५/१) इति पदमनुवर्तते। और कहते है -.या च का च बलकृतिः इन्द्रकर्मैव तत्‌' इति।,उच्यते च 'या च का च बलकृतिः इन्द्रकर्मैव तत्‌' इति। "व्याख्या - पर्वत पर रहने वाले हे गिरिश, कल्याण वचन से, मङगल स्तुतिरूप से हम तुम्हे प्राप्त करते है हम कहते है या हम तेरी प्रार्थना करते है।","व्याख्या - गिरौ कैलासे शेते गिरिशः हे गिरिश, शिवेन वचसा मङ्गलेन स्तुतिरूपेण वचनेन त्वा अच्छ त्वां प्राप्तुं वयं वदामसि वदामः प्रार्थयामहे।" फिर जीवन्मुक्त लोकयात्र उच्छेदकरत्व अर्थात्‌ कुमार्गी हो जाएगा।,अतः जीवन्मुक्तेः लोकयात्रोच्छेदकरत्वं स्यात्‌। अहोरात्रे - अहश्च रात्रिश्च इति द्वन्द्वसमास का द्विवचनान्त रूप है।,अहोरात्रे - अहश्च रात्रिश्च इति द्वन्द्वसमासस्य द्विवचनान्तं रूपम्‌। कल्प शास्त्र की व्याख्या कीजिए।,कल्पशास्त्रं व्याख्यात। प्रायोगिक (Practical)- नहीं है।,७ प्रायोगिकम्‌ (Practical) - नास्ति। इसका प्रमाण श्रुति है।,तत्र प्रमाणं श्रुतिः। 30. केवलसमास का लक्षण क्या है?,३०. केवलसमासस्य लक्षणं किम्‌? आत्मीय देहादिसंघात में अहं प्रत्यय गौंण होता है।,आत्मीये देहादिसङ्काते अहंप्रत्ययः गौणः । "आधिदैवत प्रकरण में अनेक देवताओं का, अनेक यज्ञों का, और काल आदि के विषय में सङकलन है।","आधिदैवतप्रकरणे- नानादेवतानां, विविधानां यज्ञानां, कालादीनां च विषये सङ्कलनम्‌ अस्ति।" फिर भी जो विषय होते हैं उनका सामान्य ज्ञान तो अधिकारी को ही होता है।,तथापि यं विषयं विशेषतः जिज्ञासति तस्य सामान्यज्ञानं तु अधिकरिणः स्यादेव । बृहदारण्यकोपनिषद्‌ में कहा गया हैं कि -“ नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा” (3-7-23) इस प्रकार से।,बृहदारण्यकोपनिषदि उच्यते-“नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा” (३-७-२३) इति। वह मोक्ष तथा ब्रह्म के ऐक्य के ज्ञान होने पर ही सम्भव होता है उसके अलावा ओर कोई प्रकार नहीं है।,स च मोक्षो जीवब्रह्मणोः ऐक्यज्ञानेनैव सम्भवति नान्यथा। सूत्र अर्थ का समन्वय- जानती यहाँ पर जानत्‌ यह शतृ प्रत्ययान्त का रूप है।,सूत्रार्थसमन्वयः- जानती इत्यत्र जानत्‌ इति शतृप्रत्ययान्तं रूपम्‌ सरलार्थ - यह देव सभी दिशाओं में निश्चतरूप से व्याप्त होकर के रहता है।,सरलार्थः - एषः देवः सर्वाभिः दिग्भिः निश्चतरूपेण व्याप्नोति। इन दोनों उदात्त स्वरित के स्थान में यहाँ एकादेश हुआ है।,एतयोः उदात्तस्वरितयोः स्थाने अत्र एकादेशः जातः। दूसरे अर्थ में वृत्त है जो परार्थवृत्ति कहलाता है।,परार्थे वर्तते सा परार्थवृत्तिः। लेकिन जीवन्मुक्ति की अज्ञानवृत्तियाँ तो पूर्णरूप से नष्ट हो जाती है।,परन्तु जीवन्मुक्तस्य अज्ञानवृत्तयः पूर्णतया नश्यन्ति। इसी प्रकार कल मैंने एक स्वप्न देखा।,एवं ह्यः अहमेकं स्वप्नं दृष्टवानति । इसलिए भट्टपाद के द्वारा श्लोकवार्तिक मे कहा गया है।,अन्यच्चाहुः भट्टपादाः श्लोकवार्तिके- यजुषा - यजुष्‌-शब्द का तृतीया एकवचन में यजुषा रूप बना।,यजुषा- यजुष्‌-शब्दस्य तृतीयैकवचने यजुषा इति रूपम्‌। "व्याख्या - मैं सूक्त की द्रष्टा वागाम्भृणी जो ब्रह्म जगत का कारण उसके समान होती हूँ, रुद्र के द्वारा रुद्र ग्यारह है।",व्याख्या- अहं सूक्तस्य द्रष्ट्री वागाम्भृणी यद्‌ ब्रह्म जगत्कारणं तद्रूपा भवन्ती रुद्रेभिः रुद्ररैकादशभिः। 52. द्वन्द समास में एकवद्‌ भाव विधायक सूत्रों को लिखो?,५२. द्वन्द्वसमासे एकवद्भावविधायकानि सूत्राणि लिखत? 11. अज्ञान के अनिर्वचनीयत्व का प्रतिपादन कीजिए।,११. अज्ञानस्य अनिर्वचनीयत्वं प्रतिपादयतु? अर्थात्‌ सत्त्वगुण की शुद्धि विनष्ट होती है।,सत्त्वगुणस्य शुद्धिः विनष्टा भवतीत्यर्थः। वृत्तिभेद से पाँच प्राण होते हैं।,वृत्तिभेदेन पञ्चप्राणाः। पाँच प्राण तथा पाँच कर्मेन्द्रियों के साथ प्राणमय कोश होता है।,प्राणादिपञ्चकं कर्मेन्द्रियैः सहितं सत्‌ प्राणमयकोशो भवति। "“त्वं तदसि” ( तू कहता है ) यहाँ पर तत्‌ अर्थात्‌ सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य से त्वम्‌ अर्थात्‌ अल्पज्ञत्वादिविशिष्ट चैत्यन अभिन्न इस प्रकार से जब प्रतीत होता है, तब त्वं पद वाच्य का अल्पज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य तत्पदवाच्य से सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट चैतन्य से भेद व्यावृत्त होता है।",त्वं तदसि” इत्यत्र तत्‌ अर्थात्‌ सर्वज्ञत्वादिविशिष्टात्‌ चैतन्यात्‌ त्वम्‌ अर्थात्‌ अल्पज्ञत्वादिविशिष्टं चैतन्यम्‌ अभिन्नम्‌ इति यदा प्रतीयते तदा त्वम्पदवाच्यस्य अल्पज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यस्य तत्पदवाच्यात्‌ सर्वज्ञत्वादिविशिष्टात्‌ चैतन्यात्‌ भेदः व्यावृत्तः। जैमिनी को व्यास ने सामवेद पढ़ाया।,व्यासः जैमिनिं सामवेदं पाठितवान्‌। ङे इसके परे तुभ्यम्‌ यहाँ तकार से उत्तर आदि अच्‌ उकार को और मह्यम्‌ यहाँ पर मकार से उत्तर आदि अच्‌ अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,ङे इति परे तुभ्यम्‌ इत्यत्र तकारोत्तरस्य आदेः अचः उकारस्य मह्यम्‌ इत्यत्र मकारोत्तरस्य आदेः अचः अकारस्य च प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। वहाँ प्रथम भाग में सात मन्त्र है तथा द्वितीय भाग में सात मन्त्र की व्याख्या करते हैं।,"तत्र प्रथमभागे सप्त मन्त्राः, तथा द्वितीये भागे सप्त मन्त्राः व्याख्यास्यन्ते।" 17. “'प्रथमानिर्दिष्टम्‌”' इस पद का क्या अर्थ है?,१७. प्रथमानिर्दिष्टमिति पदस्य कः अर्थः? अतः सूत्र का अर्थ होता है आचार्य उपसर्जन अन्तेवासी उत्तरपद रहते दिक्शब्द पूर्वपद अन्तोदात्त होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति आचार्योपसर्जनान्तेवासिवाचिनि उत्तरपदे दिक्शब्दाः पूर्वपदानि अन्तोदात्तानि भवन्ति इति। कहीं पर उसकी नुकीले सींग धारण किये हुए बैल के समान तुलना की गई है।,क्वचित्‌ स तीक्ष्णशृङ्गधारी वृषभ इव वर्णितः। जैसे सच्चिदान्द ब्रह्म समुद्र के रूप में होता है जिसका कोई पार नहीं होता है।,"यथा सच्चिदानन्दसमुद्रमिव, पारं नास्ति।" टच्‌ अभाव पक्ष में उपचर्मन्‌ प्रतिपादिक से सु का लोष होने पर “न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इससे न लोप होने पर उपचर्म रूप निष्पन्न होता है।,"टजभावपक्ष उपचर्मन्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ सौ सोर्लुकि ""न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य"" इत्यनेन नलोपे उपचर्म इति रूपं निष्पद्यते।" "उसका यह अन्तरिक्षनाम है, 'पाथोऽन्तरिक्षं पथा व्याख्यातम्‌' (निरु० ६.७) इति यास्क के द्वारा कहा गया है।","अन्तरिक्षनामैतत्‌, “पाथोऽन्तरिक्षं पथा व्याख्यातम्‌ (निरु० ६.७) इति यास्केनोक्तत्वात्‌।" और भगवान्‌ श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।,अपि च भगवता श्रीकृष्णेन श्रीमद्भगवद्गीतायां कथ्यते “द्वाविमो पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च। माता के उस प्रकार के वचनों से बार बार निगृहित शिशु फिर अपने स्थान से दूर नहीं जाता है।,मातुः तादृशवचनात्‌ वारं वारं निग्रहाच्च स शिशुः स्वस्थानाद्‌ अन्यत्र न गच्छति। "इस वेद में वर्णित विषयों का विभाजन तीन प्रकार कर सकते है -१ आध्यात्मिक, २ आधिभौतिक, ३ और आधिदैविक।","अस्मिन्‌ वेदे वर्णितानां विषयाणां विभाजनं त्रिधा कर्तु शक्यते- (१) आध्यात्मिकम्‌, (२) आधिभौतिकम्‌, (३) आधिदैविकश्चेति।" इससे समासान्त अधिकार का विधान होता है।,अनेन समासान्ताधिकारः विधीयते। तिरेपन।,त्रिपञ्चाशत्‌ । उसके बाद जगती छन्द का स्थान होता है।,दनन्तरं जगतीच्छन्दसः स्थानं भवति। सोपसर्गम्‌ यह भी प्रथमान्त पद है।,सोपसर्गम्‌ इत्यपि प्रथमान्तं पदम्‌। ब्रह्मा ही यज्ञ निरीक्षक और किये हुए और नहीं किये हुए कार्य का निरीक्षण कर्त्ता है।,ब्रह्मा हि यज्ञनिरीक्षकः कृताकृतावेक्षणकर्त्ता च । उसी प्रकार से जातेष्ट्यादि यज्ञ विधायक वाक्य है- “वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत्‌ पुत्रे जाते” इति।,तथाहि जातेष्टियागस्य विधायकं वाक्यम्‌- “वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत्‌ पुत्रे जाते” इति। "“पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इस सूत्र का क्या अर्थ है?","""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" तो वेदान्ताचार्यों के द्वारा कहा गया है कि दृष्टानुरोध के द्वारा ही यह स्वीकार करना चाहिए।,चेदुच्यते वेदान्ताचार्यैः यत्‌ दृष्टानुरोधेन एव एतत्‌ स्वीकर्तव्यम्‌। सूत्र व्याख्या - छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह परिभाषा सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं परिभाषासूत्रम्‌। जिसको ज्ञान होता है।,यस्य ज्ञानं भवति आरण्यक में आरम्भ हुए अध्यात्म तत्त्व की आलोचना उपनिषदों में ही पूर्ण पराकाष्ठा को प्राप्त करके ही समाप्त होता है।,आरण्यके आरब्धा अध्यात्मतत्त्वालोचना उपनिषत्सु एव परां स्फूर्ति लभमाना परिसमाप्ता। उनके मत में शास्त्रोक्त रीति के द्वारा ईश्वर अनिर्देश्य होता है।,तन्मते शास्त्रोक्तरीत्या ईश्वरः हि अनिर्देश्यः। कहते है की वह अग्नि उत्कृष्ट बुद्धि सम्पन्न सत्यशील कीर्तिमान्‌ है।,उक्तं-स अग्निः उत्कृष्टबुद्धिसम्पन्नः सत्यशीलः कीर्तिमान्‌। मन जब संयमित होता है तो आत्मज्ञान प्रकाशित होता है।,मनः संयतं भवति चेत्‌ आत्मज्ञानं स्वतः प्रकाशते। स्मार्तसूत्रों के दो प्रकार लिखिए।,स्मार्तसूत्राणां द्वौ प्रकारौ लिखत। "वह धन प्रतिदिन बढ़ता है, और यजमान धन का दान आदिकर्म करने से उसका व्यय होने से यश कीर्ति को प्राप्त होता है।","तत्‌ धनं प्रतिदिनं वर्धते, यजमानश्च धनस्य दानादिकर्मणः कृते व्ययात्‌ यशः कीर्तिम्‌ लभते।" “विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्थाः यैः ते वेदाः इति”।,"""विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्थाः यैः ते वेदाः इति""।" जगत के हित के साधक ही आत्म का मोक्ष भी सम्पादित करना चाहिए।,जगतः हितसाधनेन एव आत्मनः मोक्षः सम्पादनीयः । पदपाठ - नमः अस्तु नील॑ग्रीवायेतिनील॑ऽग्रीवाय सहस्राक्षायेति सहस्रऽअक्षायं मीढुषं अथोत्त्यथो ये अस्य॒ सत्वांनः अहम्‌ तेभ्यः अकरम्‌ नमः॥,पदपाठः- नमः अस्तु नीलग्रीवायेतिनीलऽग्रीवाय सहस्राक्षायेति सहस्रऽअक्षाय मीढषे अथोत्त्यथो ये अस्य सत्वानः अहम्‌ तेभ्यः अकरम्‌ नमः। शिवसङ्कल्पमिति शिव-सङ्कल्पम्‌। अस्तु॥१॥,शिवसङ्कल्पमिति शिव - सङ्कल्पम्‌ । अस्तु॥१॥ "उसके बाद दिन बना, प्रश्‍न निरूपण द्वारा अध्यधिकार रूप में।",तदन्तरप्रतिपन्ने अहनि स परिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम्‌ अध्यधिकारसिद्धत्वात्‌। "वहाँ विद्यमान कुछ सूत्रों के द्वारा धातुस्वर का विधान है, कुछ से प्रत्यय स्वर का विधान है।","तत्र विद्यमानैः कैश्चित्‌ सूत्रैः धातुस्वरः विधीयते, कैश्चित्‌ तु प्रत्ययस्वरः विधीयते, अन्यैः प्रातिपदिकस्वरः विधीयते।" इसलिए लक्षण में “विधिवदधीतवेदवेदाङगत्वेन” यह कहा गया है।,अतो लक्षणे “विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेन” इति उक्तम्‌। इस प्रकार से इसको समझकर के जो इस प्रकार के साध्य तथा साधनभूत काम्यकर्मों से विरक्त हो जाता है वह ही मुमुक्षु कहलाता है।,इदमेवमेवेति अवगम्य यश्च इत्थं साध्यसाधनभूताद्‌ विरक्तः स एव मुमुक्षुः। आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि यहाँ पर उपसर्जन किसको कहते है?,आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि इत्यत्र उपसर्जनं नाम किम्‌? अपितु अशेषवेदान्तवाक्यों के द्वारा अद्वैत ब्रह्म में निश्चय सम्पदान है।,अपि तु अशेषवेदान्तवाक्यानां श्रवणेन अद्वैते ब्रह्मणि एव इति निश्चयसम्पादनम्‌। अतः यह वेदाङ्ग नहीं हो सकता इस आशङऱका का समाधान के लिए - “ अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्‌।,अतः अस्य वेदाङ्गत्वम्‌ अनुपपन्नम्‌ इति आशङ्क्य समाधत्ते - 'अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्‌। इस सूक्त में षोडश( १६) मन्त्र कहे गये है।,तत्र सूक्ते षोडशमन्त्रा आम्नाताः। इस कारण यहां पर जल स्पर्श करते है।,अतः असौ जलस्पर्शं करोति। शक्ति हमारे शरीर में स्थित चक्रों में सजञ्चत होती है।,शक्तिः अस्माकं शरीस्स्थेषु चक्रेषु सञ्चिता तिष्ठति। "अतः इस सूत्र का अर्थ होता है - तु, पश्य, पश्यत, अह शब्द से युक्त तिङन्त पद को अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय गम्यमान होने पर।",अतः अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति- तुपश्यपश्यताहैः शब्दैः युक्तं तिङन्तं पदम्‌ अनुदात्तं न भवति पूजायां गम्यमानायाम्‌ इति। इस प्रकार वह मन शुभसङ्कल्प वाला हो।,एवं यत्‌ मनः तत्‌ शुभसङ्कल्पं भवतु। और वहाँ भी उदात्त स्वर विषय में ही प्रधान रूप से आलोचना की है।,तत्रापि च उदात्तस्वरविषये एव प्राधान्येन आलोचना विहिता। सुब्रह्मण्यायां देवब्रह्मणोः स्वरितस्य अनुदात्तः यह पद का अन्वय है।,सुब्रह्मण्यायां देवब्रह्मणोः स्वरितस्य अनुदात्तः इति पदयोजना। यहाँ प्राक्‌ यह पूर्वार्थवाचक अवयव पद है।,तत्र प्राक्‌ इति पूर्वार्थवाचकम्‌ अव्ययपदम्‌। यहाँ वाक्य से आभीक्ष्ण्य को जाना जाता है।,अत्र वाक्यात्‌ आभीक्ष्ण्यम्‌ अवगम्यते। दैवम्‌ - देवशब्द से अण्प्रत्ययकरने पर प्रथमा एकवचन में दैवम्‌ रूप बनता है।,देवम्‌ - देवशब्दात्‌ अण्प्रत्यये प्रथमैकवचने दैवम्‌ इति रूपम्‌। तब वह आनन्दमात्र का अनुभव करता है इसलिए आनन्दभुक्‌ कहलाता है।,तदा आनन्दमात्रमनुभवतीति स आनन्दभुक्‌ भवति। मानुषेभिः यह रूप कहाँ पर दिखाई देता है?,मानुषेभिः इति रूपं क्व दृश्यते। सूर्य आकाश की सुनहरी मणि है -““दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति'' इति ( ऋग्वेद ७/६३४ )।,"सूर्यः आकाशस्य स्वर्णिमः मणिः अस्ति -""दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति"" इति (ऋग्वेदः ७/६३/४)।" श्रृंगार रस प्रतिपादन में उषा सूक्त अन्यतम है।,शृङ्गाररसप्रतिपादने उषस्सूक्तम्‌ अन्यतमम्‌। तैत्तरीय उपनिषद्‌ की व्याख्या लिखिए।,तैत्तिरीयोपनिषदं व्याख्यात। "उस सूत्र का सामान्य अर्थ होता है की एक पद में जितने अच्‌ हैं, उनमे एक उदात्त अथवा स्वरित अच्‌ को छोड़कर अन्य सभी अच्‌ अनुदात्त होते है।","तेन सूत्रस्य सामान्यः अर्थः भवति यत्‌ एकस्मिन्‌ पदे यावन्तः अचः सन्ति, तेषु एकम्‌ उदात्तं स्वरितं वा अचं वर्जयित्वा अन्ये सर्वे अचः अनुदात्ताः भवन्ति इति।" किस वाणी को सुने।,किं तच्छ्रीतव्यम्‌। यदि जन्तु निषिद्ध कर्म करता है तथा उसका अनिष्ट फल नहीं चाहता है तो निषिद्धकर्म से उत्पन्न होने वाले पाप के नाश के लिए उसे तुरन्त प्रायश्चित कर्म करना चाहिए।,"यदि जातु निषिद्धं कर्म क्रियते, परन्तु तस्य अनिष्टं फलं न काम्यते तर्हि निषिद्धकर्मणः जायमानस्य पापस्य सद्यः नाशाय प्रायश्चितं कर्म क्रियते।" “समाहार ग्रहणं कर्त्तव्यम्‌'' इस वार्तिक बल से सूत्र में समाहारः पद आता है।,"""समाहारग्रहणं कर्तव्यम्‌"" इति वार्तिकबलात्‌ सूत्रे समाहारः इति पदम्‌ आगच्छति ।" यहाँ कुम्भकारः इत्यादि उदाहरण है।,अत्र कुम्भकारः इत्यादीनि उदाहरणानि। उपरति से तात्पर्यं है निगृहीतबाह्येन्द्रिय तथा मन का आत्मविषयक श्रवणादियों में स्थिरीकरण करना तथा विहित नित्यकर्मादियों विधि से परित्याग करना।,उपरतिः नाम निगृहीतानां बाह्येन्द्रियाणां मनसः च आत्मविषयकश्रवणादिषु स्थिरीकरणम्‌ अथवा विहितानां नित्यकर्मादीनां विधिना परित्यागः। 3. आङ्पूर्वक हृ-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,३. आङ्पूर्वकात्‌ हृ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। इसी प्रकार इन्द्रावृहस्पती यहाँ पर भी।,एवं इन्द्रावृहस्पती इत्यपि। क्योंकि स्मृति ग्रन्थों के प्रमाण वेद के प्रमाण का आश्रय लेते है।,यतो हि स्मृतिग्रन्थानां प्रामाण्यं वेदस्य प्रामाण्यम्‌ आश्रयति। 3. अहिंसा किसे कहते हैं?,३. का अहिंसा? रुद्र की शिवमूर्ति ऋग्वेद में नही है।,रुद्रस्य शिवमूर्तिः ऋग्वेदे नास्ति। राणायनीय शाखा विषय पर छोटा निबन्ध लिखिए।,राणायनीयशाखाविषये लघुप्रबन्धो लेख्यः। सुप्‌ का तदन्त विधि में कुत्सितैः विशेषण से सुबन्तैः प्राप्त हो रहा है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ कुत्सितैः इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ सुबन्तैः इति लभ्यते । "इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे, लोक और वेद में शब्दों की स्वर व्यवस्था को जान पाने में। फिट्‌ सूत्रों के विषय में जानकारी प्राप्त कर पाने में। अपाणिनीय फिट्सूत्रों को भी कैसे प्रमाण रूप से स्वीकार किया गया है, इस विषय में जानकारी प्राप्त कर पाने में। विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न शब्दों के आद्युदात्त के विषय में अन्तोदात्त के विषय में और सभी को उदात्त होने के विषय में अधिकता से ज्ञान प्राप्त कर पाने में। सूत्रों का अर्थ निर्णय कर पाने में। सूत्रों की व्याख्या कर पाने में। और अनुवृत्ति आदि के विषय में जान पाने में।","इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ वा, लोके वेदे च शब्दानां स्वरव्यवस्था कथं भवति इति विषये अधिकतया ज्ञातुं शक्नुयात्‌। फिट्सूत्राणां विषये विशेषरूपेण ज्ञातुं शक्नुयात्‌। अपाणिनीयत्वे अपि फिट्सूत्राणि कथं प्रमाणरूपेण स्वीकृतानि इति विषये ज्ञातुं शक्नुयात्‌। विभिन्नासु अवस्थासु विभिन्नानां शब्दानाम्‌ आद्युदात्तत्वविषये अन्तोदात्तत्वविषये सर्वोदात्तत्वविषये च अधिकतया ज्ञातुं शक्नुयात्‌। सूत्राणाम्‌ अर्थनिर्णयं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूत्राणां व्याख्यानं कर्तु स्वयमपि योग्यो भवेत्‌। अनुवृत्त्यादीनां ज्ञानं भवितुं शक्नुयात्‌।" सहन्ते - आत्मनेपद सह-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,सहन्ते - आत्मनेपदिनः सह्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने । अत: सुप्‌ यह प्रथमान्त पद को प्राप्त होता है।,अतः सुप्‌ इति प्रथमान्तं पदं लभ्यते। क्षय इस शब्द स्वरूप का ग्रहण है।,क्षय इति शब्दस्वरूपस्य ग्रहणम्‌। तप से मल का क्षय होता है।,तपसा मलक्षयो भवति। "संक्षेप में सृष्टिक्रम नीचे दिया जा रहा है _———— (माया/अज्ञानम्‌) ईश्वर (सोपाधिक ब्रह्म) आकाश » वायु » अग्नि » आप ® पृथिवी (सूक्ष्मभूत) पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियां, पाँच स्थूलभूत, पाँच वायु, मन, बुद्धि 1 पाँच महाभूतों की सृष्टि का प्रतिपादन करने वाली तैत्तिरीय श्रुति कौन-सी है?","संक्षेपेण सृष्टिक्रमः अधः प्रदर्श्यते -निर्गुणं ब्रह्म(माया/अज्ञानम्‌)ईश्वरः (सोपाधिकं ब्रह्म)आकाशः » वायुः » अग्निः » आपः ® पृथिवी (सूक्ष्मभूतानि) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, पञ्च स्थूलभूतानि, पञ्च वायवः, मनः, बुद्धिः१. पञ्चभूतानां सृष्टिप्रतिपादिका तैत्तिरीयश्रुतिः का?" यहाँ पदों का अन्वय है कितः तद्धितस्य अन्तः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- कितः तद्धितस्य अन्तः उदात्तः इति। “ यावदवधारणे '' इस सूत्र का यावच्छलोकम्‌ उदाहरण है।,"""यावदवधारणे"" इति सूत्रस्य उदाहरणं अस्ति यावच्छलोकम्‌ इति।" घटादि का प्रकाश घटाकार अन्तः करण वृत्ति के द्वारा घटविषयकज्ञान के नाश होने पर सम्भव होता है।,घटादीनां प्रकाशः घटाकारान्तःकरणवृत्त्या घटविषयकाज्ञाननाशे सति सम्भवति। समासादि पक्ष विधियाँ तो एकार्थीभाव का सामर्थ्य ही स्वीकृत किया गया है यही सिद्धान्त है।,समासादिपदविधिषु तु एकार्थीभावसामर्थ्यम्‌ एव स्वीक्रियते इति सिद्धान्तः। प्राचीन धर्मसमाज-व्यवहार-आदि विषयों का ज्ञान वेद ही करा सकते है।,प्राचीनानि धर्मसमाज- व्यवहार-प्रभृतीनि वस्तुजातानि बोधयितुं श्रुतय एव क्षमन्ते। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - आहो उताहो इन अविद्यमान पूर्व से युक्त अनन्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति- आहो उताहो इत्याभ्याम्‌ अविद्यमानपूर्वाभ्यां युक्तम्‌ अनन्तरं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति। तब नञः नलोप विधायक सूत्र प्रवर्त्तत होता है।,तदा नञः नलोपविधायकं सूत्रं प्रवर्तते । क्योंकि यास्क के समान उव्वट भी परिशिष्ट भाग से परिचित थे।,यतो हि यास्क इव उव्वटः अपि परिशिष्टभागात्‌ परिचितः आसीत्‌। वैदिक सम्प्रदाय में यह मन्त्र यदि वन्दन मन्त्र के रूप में सुप्रसिद्ध तथा जनप्रिय है।,वैदिकसम्प्रदाये अयं मन्त्रो यतिवन्दनमन्त्रः इति सुप्रसिद्धो जनप्रियश्च। टिप्पणी रूप से उसको प्रकट किया गया है।,टिप्पणीरूपेण तस्य प्रकटनं कृतमस्ति। लोपे विभाषा इस सूत्र का अर्थ लिखिए।,लोपे विभाषा इति सूत्रस्य अर्थं लिखत। 39. “नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चभ्याः” इस सूत्र से क्या विधान होता है?,"३९.""नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः"" इति सूत्रं किंप्रकारकम्‌।" वृत्तिस्वरूप और उसके भेदों का वर्णन करो।,वृत्तिस्वरूपं तद्भेदान्‌ च वर्णयत। उपनिषद्‌ भारतीयों के अध्यात्म विद्या का ज्वलित रत्न है।,उपनिषदो भारतीयायाः अध्यात्मविद्याया ज्वलन्ति रत्नानि सन्ति। शिक्षासङग्रह नाम के ग्रन्थ में इकट्टे प्रकाशित बत्तीस शाखाओं का समूह है।,शिक्षासङ्ग्रहनामके ग्रन्थे एकत्र प्रकाशितानां द्वात्रिंशच्छाखानां समुच्चयः अस्ति। “शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌'' वात्तिकार्थ-शाकपार्थिव (शाक और पृथु) आदि शब्दों के सिद्ध होने पर पूर्वपद में स्थित उत्तरपदलोप का उपसंख्यान करना चाहिए।,शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्‌ (वार्तिकम्‌ ) वार्तिकार्थः - शाकपार्थिवादीनां शब्दानां सिद्धये पूर्वपदे स्थितस्य उत्तरपदलोपस्य उपसंख्यानं कर्तव्यम्‌। "क्योंकि कारीषगन्धि शब्द से कारीषगन्धे: गोत्रापत्यं स्त्री इत्यर्थे (कारीषग्रन्धि की गोत्र पुत्री) अण्‌ प्रत्यय होने पर करीषगन्धि अण्‌ स्थिति में अण्‌ प्रत्यय के स्थान पर अणिञोरनार्षयोर्गुरूपोत्तमयोः ष्यङ्‌ गोत्रे इस सूत्र से ष्यङ्‌ आदेश होने पर कारीषगन्धि ष्यङ्‌ होने पर षकार की षः प्रत्ययस्य सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, ङकार को हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से दोनों इत्संज्ञक पदों का लोप होने पर कारीषगन्धि य स्थिति होती है।","यतोहि करीषगन्धिशब्दात्‌ करीषगन्धेः गोत्रापत्यं स्त्री इत्यर्थ अण्‌-प्रत्यये सति करीषगन्धि अण्‌ इति स्थितौ अणः स्थाने अणिञोरनार्षयोर्गुरूपोत्तमयोः ष्यङ्‌ गोत्रे इति सूत्रेण ष्यङ्‌ इत्यादेशे सति करीषगन्धि ष्यङ्‌ इति जाते षकारस्य षः प्रत्ययस्य इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, ङकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे च सति करीषगन्धि य इति स्थितिः भवति।" किंवृत्तम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,किंवृत्तम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। तिप्प्रत्य के पित्त्‌ होने से प्रकृत सूत्र से समुदाय के अन्त स्वर को उदात्त सिद्ध होता है।,तिप्प्रत्यस्य पित्त्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण समुदायस्य अन्तस्य स्वरस्य उदात्तत्वं सिध्यति। तथा अविद्या का विकार भी होती है इस प्रकार से कहा भी जा चुका है।,अविद्यायाः विकारः भवतीत्युक्तम्‌। "१८॥ व्याख्या - इस सर्वोत्कृष्ट देशकाल आदि के भेद से रहित सूर्यमण्डलस्थ पुरुष को में जानता हूँ, ये ऋषि का वचन है।",१८।। व्याख्या- एतं महान्तं सर्वोत्कृष्टं देशकालाद्यवच्छेदरहितम्‌ पुरुषं सूर्यमण्डलस्थम्‌ अहं वेद जानामि इति ऋषेः वचनम्‌। अतः सायाणाचार्य ने उसी प्रकार की व्याख्या की है।,अतः सायाणाचार्यः तथैव व्याख्याति। उसी प्रकार बुद्धि रूपी उपाधि के नाश होने पर उसमें होने वाले कर्तृत्वादि धर्म भी बाधित हो जाते हैं।,तद्वत्‌ बुद्ध्युपाधिनाशे तद्गताः कर्तृत्वादिधर्माः अपि बाध्यन्ते। व्याख्या - हे पर्जन्य तुम कोशस्थानीय जल भण्डार महान मेघ को ऊर्ध्व भाग में उद्वेलित करो।,व्याख्या - हे पर्जन्य त्वं महान्तं प्रवृद्धं कोशं कोशस्थानीयं मेघम्‌ उदच्‌ उद्गच्छ । उद्गमय वा । इसलिए यहाँ पर भागत्याग लक्षणा युक्तियुक्त होती है।,अतः अत्र भागत्यागलक्षणा युक्तियुक्ता भवति। पदात्‌ यह अधिकार पञ्चम्यन्त से व्यत्यय है।,पदात्‌ इति अधिकृतं पञ्चम्यन्ततया विपरिणम्यते। "भले ही सृष्टि, स्थिति तथा लय, ब्रह्म से ही होते हैं।",यद्यपि सृष्टिस्थितिलयाः ब्रह्मण एव। पाणि आदान का साधन करती है पाणि के बिना किसी भी वस्तु का आदान सम्भव नहीं होता है।,पाणिः आदानं साधयति। विना पाणिसाहाय्यं कस्यचित्‌ वस्तुनः आदानं नैव सम्भवति। क्तक्तवतू निष्ठा यह सूत्र यहाँ प्रमाण है।,क्तक्तवतू निष्ठा इति सूत्रमत्र प्रमाणम्‌। रथनाभि में जैसे आरे प्रतिष्ठित होते है वैसे ही मन ही सम्पूर्ण वेदराशि में प्रतिष्ठित है।,रथनाभौ यथा अराः प्रतिष्ठिताः भवन्ति तथा मनसि एव निखिलवेदराशिः प्रतिष्ठितः। “सहस्य सः संज्ञायाम्‌” इस सूत्र से सह इसके षष्ठयन्त पद सः यह प्रथमान्त पद अनुवर्न्तन।,"""सहस्य सः संज्ञायाम्‌"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सहस्येति षष्ठ्यन्तं पदं सः इति प्रथमान्तं पदं च अनुवर्तते।" "इसका प्रधान वैशिष्ट्य यह है जल की वर्षा करते हैं, जलमय रथ से आरूढ होकर भ्रमण करते हैं।","अस्य प्रधानं वैशिष्ट्यं हि अयं जलं वर्षति , जलमयेन रथेन आरूढो भूत्वा भ्रमति ।" इन विषयो को चौदह मंत्रो के द्वारा कहा गया है।,इत्येते विषयाः चतुर्दशमन्त्रैः आबद्धाः । ऐक्यगत अज्ञान की निवृत्ति होती है तो स्वस्वरूपानन्द की प्राप्ति होती है।,ऐक्यगताज्ञाननिवृत्तिः भवति चेत्‌ एव स्वस्वरूपानन्दप्राप्तिः भवति। जीव अपने स्वरूप परमात्मा को भूलकर के देहादियों में आत्मवत्‌ बुद्धि कल्पना करता हैं।,जीवः स्वरुपं परमात्मानं विस्मृत्य देहादिषु आत्मत्वबुद्धिं कल्पयति। अपनी अति पीडित सेना प्रजा को।,रुजन्ति कुलानि इति। 15. उपपूर्वक अस्‌-धातु से लेट मध्यमपुरुष एकवचन में।,१५. उपपूर्वकात्‌ अस्‌-धातोः लेटि मध्यमपुरुषैकवचने। और वे जिस फलकी कामना से यज्ञ करते हैं वह फल लाभ हो ऐसी उनकी इच्छा होती है।,ते च यत्फलं कामयमानाः यज्ञं कुर्वन्ति तत्फललाभो भवतु इति तेषाम्‌ इच्छा। इस सूत्र में दो पद विराजमान हैं।,अस्मिन्‌ सूत्रे पदद्वयं विराजते। 27. मनोमय कोश में कितने अंश होते हैं?,२७. मनोमयकोशे कति अंशाः सन्ति ? 7. अजादिपद में कौन सा समास और कौन विग्रह है?,७. अजादिपदे कः समासः कश्च विग्रहः? उनमें श्रवण से तात्पर्य है “वेदान्त रूप से कहलाने वाले अद्वितीय ब्रह्म में तात्पर्यावधारणानुकूल मानसी क्रिया”।,तेषु श्रवणं नाम - “वेदान्तानामद्वितीये ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणानुकूला मानसी क्रिया” इति। सूत्र का अवतरण- जुए अर्थ छोड़कर अक्ष शब्द का आदि में उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य ने को है।,सूत्रावतरणम्‌- अदेवनस्य अक्षशब्दस्य आदेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। इसी प्रकार ते यहाँ पर भी प्रकृत सूत्र से विकल्प से उदात्त है।,एवं ते इत्यत्रापि प्रकृतसूत्रेण विकल्पेन उदात्तः अस्ति। देवो के रूपसमूह में श्रेष्ठ रूप को मै देखता था -इस प्रकार यजमानस्तुति करते है।,देवानां रूपसमूहेषु श्रेष्ठं रूपम्‌ अहम्‌ अपश्यम्‌ - इति यजमानः स्तौति। सूत्र अर्थ का समन्वय- वाचौ यह वाच्‌-शब्द के प्रथमा द्विवचन में रूप है।,सूत्रार्थसमन्वयः- वाचौ इति वाच्‌-शब्दस्य प्रथमाद्विवचने रूपम्‌। अपिहितम्‌ - अपिपूर्वकधा-धातु से क्तप्रत्यय करने पर विकल्प से पिहितम्‌ यह रूप बनता है।,अपिहितम्‌- अपिपूर्वकधा-धातोः क्तप्रत्यये विकल्पेन पिहितम्‌ इति रूपम्‌। किन्तु स्त्रीत्वबोध के लिए कुछ प्रत्यय कल्पित हैं।,किन्तु स्त्रीत्वबोधनाय केचन प्रत्ययाः कल्पिताः सन्ति। "याज्ञिक परिभाषा में घृत यदि तरल हो तो वह आज्य कहा जाता है, किन्तु पीण्डिभूत हो तो घृत कहलाता है।","याज्ञिकपरिभाषायां घृतम्‌ द्रुतं चेत्‌ तत्‌ आज्यम्‌ उच्यते, किञ्च पिण्डीभूतं चेत्‌ घृतम्‌ उच्यते।" "यहाँ ईकार रूप अनुदात्त के परे होने पर पूर्व अकार रूप उदात्त का लोप हुआ, उसमें प्रकृत सूत्र से उस अनुदात्त ईकार को उदात्त स्वर करने का विधान है।","अत्र ईकाररूपे अनुदात्ते परे सति पूर्वस्य अकाररूपस्य उदात्तस्य लोपः जातः, तेन प्रकृतसूत्रेण तस्य अनुदात्तस्य ईकारस्य उदात्तस्वरः विधीयते।" "यहाँ प्रकृति का प्राकृतिक माधुर्य कवि के हृदय को आकृष्ट करता है, वैसे अनिर्वचनीय आनन्द से कवि के मन को संतुष्ट करता है।",अत्र प्रकृत्याः नैसर्गिकं माधुर्यं कविहृदयम्‌ आकृष्टं करोति तथा अनिर्वचनीयेन आनन्देन कविमानसं तोषयति। इस सूक्त में आदिपुरुष के शरीर के माध्यम से देवताओं द्वारा जो सृष्टि की गई है वो वर्णित है।,अस्मिन्‌ सूक्ते आदिपुरुषशरीरात्‌ देवताभिः या सृष्टिः कृता सा वर्णिता अस्ति। प्रतिष्ठम्‌ - प्रपूर्वकस्थाधातु से कप्रत्यय करने पर प्रतिष्ठम्‌ रूप बनता है।,प्रतिष्ठम्‌ - प्रपूर्वकस्थाधातोः कप्रत्यये प्रतिष्ठम्‌ इति रूपम्‌। किस प्रकार की अग्नि देवों के साथ आओ?,कीदृशः अग्निः देवैः सह समागच्छतु? सूत्र अर्थ का समन्वय- कमु कान्तौ इस धातु से “कमेर्णिङ्‌ इससे स्वार्थ में णिङ्‌ प्रत्यय तथा अनुबन्ध लोप करने पर अत उपधायाः' इससे कम्‌-धातु के ककार से उत्तर अकार के स्थान में वृद्धि करने पर आकार में निष्पन्न कामि इसकी सनाद्यन्ता धातवः' इससे धातु संज्ञा सिद्ध होती है।,"सूत्रार्थसमन्वयः- कमु कान्तौ इति धातोः ""कमेर्णिङ्‌ इत्यनेन स्वार्थ णिङ्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे अत उपधायाः' इत्यनेन कम्‌-धातोः ककारोत्तरस्य अकारस्य वृद्धौ आकारे निष्पन्नस्य कामि इत्यस्य सनाद्यन्ता धतवः' इत्यनेन धातुसंज्ञा सिध्यति।" "तब देवो ने वाणी को उसके पास भेजा, वाणी उस सोम को लेकर वापस लौटने लगी।","तदा देवाः वाचं तस्य पार्श्वे प्रेषितवन्तः, वाक्‌ तं सोमं नीत्वा परावर्तिता।" उसी प्रकार से अद्वैतवादी भी बन्ध की सत्यता को स्वीकार नहीं करते हैं।,तथैव अद्वैतवेदान्तिभिः अपि बन्धस्य सत्यता न अङ्गीक्रियते। "उसी प्रकार से गोमतल्लिका, गोमचर्चिका, इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।","एवमेव गोमतल्लिका , गोमचर्चिका इत्यादिकमेतस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ ।" आच्छादन अर्थक वृधातु से वरुण शब्द निष्पन्न होता है।,आच्छादनार्थकात्‌ वृधातोः वरुणशब्दो निष्पन्नः। 'अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते' (निरु० १.४२) ऐसा यास्क ने कहा।,'अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते '( निरु० १.४२) इति यास्कोक्तेः। यहाँ पर शङ्कराचार्य ने यह कहा हैं कि “सब कुछ उस ब्रह्मरूपी प्रज्ञा का ही नेत्र है।,शङ्कराचार्येण अत्र उच्यते “सर्वं तदशेषतः प्रज्ञानेत्रम्‌। तब वह कहता हैं कि वह अरुन्धती नक्षत्र नहीं है।,तदा कथयति तन्न अरुन्धतीनक्षत्रमिति। वेद का व्याकरण लौकिकव्याकरण से भिन्न है।,वेदस्य व्याकरणम्‌ लौकिकव्याकरणाद्‌ भिन्नम्‌। पति तो पहले ही देख लेता है।,भर्ता तु पूर्वं दृष्टवानस्ति। अहिंसा का वैशद्य सत्यादि के द्वारा ही होता है।,अहिंसायाः वैशद्यं भवति सत्यादिभिः। यहाँ यह पदों का अन्वय है - गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः हलादिः विभक्तिः न उदात्तः इति।,ततश्च अयमत्र पदान्वयः भवति- गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङुद्भ्यः हलादिः विभक्तिः न उदात्तः इति। इस सूक्त का देवता अव्यक्त महदादिविलक्षण चेतन पुरुष प्रजापति है।,अस्य सूक्तस्य देवता हि अव्यक्तमहदादिविलक्षणः चेतनः पुरुषः प्रजापतिरिति। न्युप्ताः - निपूर्वकवप्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,न्युप्ताः - निपूर्वकवप्‌ - धातोः क्तप्रत्यये प्रथमाबहुवचने । उपकृष्णम्‌ यह रूप सिद्धि कीजिये।,उपकृष्णम्‌ इति रूपं साधयत। ग्यारहवे में।,एकादशतमे। इस प्रकार से अब विद्यारण्य स्वामी के द्वारा त्वम्‌ पद के लक्ष्यार्थ को कहते है।,अधुना विद्यारण्यस्वामिनः त्वम्पदस्य लक्ष्यार्थ कथयन्ति। "ऋक्‌ यजु, साम से अथर्व की भिन्नता स्पष्ट ग्रन्थों में प्राप्त होती है।",ऋग्यजुस्सामभ्यः अथर्वस्य पार्थक्यं स्पष्टतः ग्रन्थेषु प्राप्यते। अर्थात्‌ अर्थ से तथा कर्म से जो प्राप्तव्य होता है वह प्रयोजन नहीं होता है।,अर्थात्‌ अर्थेभ्यः कर्मभ्यश्च यत्‌ प्राप्तव्यं तत्‌ प्रयोजनं नास्ति । "दश उपनिषद्‌ प्रसिद्ध है ईशोपनिषत्‌ केनोपनिषत्‌, कठोपनिषत्‌, प्रश्नोपनिषत्‌, मुण्डकोपनिषत्‌, माण्डूक्योपनिषत्‌, तैत्तिरीयोपनिषत्‌ ऐतरेयोपनिषत्‌ छान्दोग्योपनिषत्‌ तथा बृहदारण्यकोपनिषत्‌।",दश उपनिषदः प्रसिद्धाः सन्ति। ईशोपनिषत्‌ केनोपनिषत्‌ कठोपनिषत्‌ प्रश्नोपनिषत्‌ मुण्डकोपनिषत्‌ माण्डूक्योपनिषत्‌ तैत्तिरीयोपनिषत्‌ ऐतरेयोपनिषत्‌ छान्दोग्योपनिषत्‌ बृहदारण्यकोपनिषत्‌ च इति। इससे उसका अमरत्व ज्ञात होता है।,एवं तस्य अमरणधर्मित्वं ज्ञायते। छन्दसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,छन्दसि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। तथा इसी प्रकार से परीक्षा भी करनी चाहिए।,इत्थम्‌ परीक्षेत। इसलिए आत्मा की शुद्धि के लिए बहुत जन्म आवश्यक होते हैं यह प्रमाणित हो चुका है।,अत आत्मनः शुद्ध्यर्थं बहु जन्म आवश्यकम्‌ इति प्रमाणितम्‌। वैसे ही वेद से आये ज्ञान स्रोत में अनेक प्रवाह मिल जाते हैं।,तद्वत्‌ वेदात्‌ आगतेषु ज्ञानस्रोतस्सु नैके प्रवाहाः मिलिताः सन्ति। इसलिए योगी को सावधान रहना चाहिए।,अतो योगी सदा अतन्द्रः तिष्ठेत्‌। पुनः जातिवाचक है।,पुनः जातिवाचकः अस्ति। जब तक कर्मो से उपरती नहीं हो तब तक जितेन्द्रिय होकर के चित्त को लगाना चाहिए।,"यावद्यावत्‌ कर्मभ्यः उपरमते, तावत्तावत्‌ निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं समाधीयते।" कारण शरीर का वर्णन आगे होगा कारण शरीर में अभिमान इस तादात्म्य अध्यास से अहम्‌ इस प्रकार का अज्ञान वाला जीव होता है।,कारणशरीरवर्णनन्तु अग्रे भविष्यति। कारणशरीरे अभिमानवान्‌ इत्यस्य तादात्म्याध्यासेन अहम्‌ इत्यभिमानवान्‌ भवति जीव इत्यर्थः। सूत्र का अर्थ है - दिव्‌-शब्द से परे झल्‌ आदि विभक्ति को उदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः भवति- दिव्‌-शब्दात्‌ परेषां झलादिविभक्तीनाम्‌ उदात्तत्वं न स्यात्‌ इति। वैसे ही विशेष रूप से पूज्य विचित्र अथवा विविध अन्न है जिसका वह चित्रश्रवस्तम है।,तथाहि अतिशयेन पूज्यं विचित्रं विविधं वा अन्नं यस्य स चित्रश्रवस्तमः। "इसी प्रकार सम्पूर्ण अक्षसूक्त में पासों का विवरण, उनका बुरा फल, और जुआरी के परिणाम दिए गए है।","एवमेव सम्पूर्णाक्षसूक्ते अक्षाणां विवरणं , तेषां कुफलं , कितवानां परिणामं च सन्ति ।" वो विराट के अतिरिक्त मनुष्यादि रूप में बना।,स विराडातिरिक्तो मनुष्यादिरूपोऽभूत्‌। विश्व के नरों को ले जाने के कारण इसका नाम वैश्वानर है।,विश्वेषां नराणां नयनाद्‌ वैश्वानरः। "यजमान और उसकी पत्नी यज्ञ में दीक्षित होते हैं, इस प्रकार दीक्षा से उन दोनों का नया जन्म अर्थात्‌ आध्यात्मिक जन्म होता है।","यजमानः तत्पत्नी च यज्ञे दीक्षिते भवतः, एवं तया दीक्षया तयोः नवजन्म अर्थात्‌ आध्यात्मिकजन्म भवति।" और यह काश-शब्द धान्यवाची है।,किञ्च अयं काश-शब्दः धान्यवाची। श्रद्धा तथा विश्वास में क्या भेद है।,श्रद्धाविश्वासयोः को भेदः। सोमपान के बाद इन्द्र महान कार्य भी अनायास से ही सिद्ध कर देते है।,सोमपानानन्तरम्‌ एष इन्द्रः महान्तमपि कार्यम्‌ अनायासेनैव साधयति। जैसे पर्वत में निवास करने वाले और स्वेच्छा से विचरण करने वाले भयङ्कर पशु रहते है।,यथा पर्वते निवसन्तः किञ्च स्वेच्छया विचरन्तः भयङ्कराः पशवः। ' इति अग्नि सर्वज्ञ है उसकी कीर्त्ति है क्योंकि वह यज्ञ विषयक सब कुछ जानता है।,"'इति अग्नेः सर्वज्ञत्वमपि कीर्त्तितम्‌, यतः स यज्ञ विषयकं सर्वं वेत्ति।" चित्तशुद्धि ही आत्मशुद्धि कहलाती है।,चित्तशुद्धिरेव आत्मशुद्धिरपि कथ्यते। प्रत्यक्ष आत्मस्वरूप एक ज्ञान भी नहीं होता है।,प्रत्यगात्मस्वरूपज्ञानमपि न भवति । 10. भागत्याग लक्षणा किस प्रकार की होती हे?,१०. भागत्यागलक्षणा नाम किम्‌? श्रीरामकृष्ण के मत में ईश्वर का स्वरूप क्या है?,श्रीरामकृष्णमते ईश्वरस्वरूपं किम्‌? "उदात्त स्थान में यण्‌ उदात्तयण्‌ यहाँ मध्य पद के लोप होने पर कर्मधारय समास है, उस उदात्तयण का।","उदात्तस्थाने यण्‌ उदात्तयण्‌ इति मध्यपदलोपी कर्मधारयसमासः, तस्य उदात्तयणः।" इस सूत्र में “सुबामन्नितेपराङ्गवत्स्वरे” इस सूत्र से सुप्‌ “सह सुपा'' इस सम्पूर्ण सूत्र का अनुवर्तन किया गया है।,"अस्मिन्‌ सूत्रे ""सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे"" इति सूत्रात्‌ सुप्‌, ""सह सुपा"" इति सम्पूर्णं सूत्रम्‌ च अनुवर्तते।" सूत्र अर्थ का समन्वय- गोभ्यः हितम्‌ इस विग्रह में चतुर्थी तदर्थार्थवलिहितसुखरक्षितैः इस सूत्र से चतुर्थीतत्पुरुष समास होने पर गोहितम्‌ यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- गोभ्यः हितम्‌ इति विग्रहे चतुर्थी तदर्थार्थवलिहितसुखरक्षितैः इति सूत्रेण चतुर्थीतत्पुरुषसमासे गोहितम्‌ इति रूपम्‌। अर्थात्‌ जिस समास में समासयुक्त पदों से ही विग्रह वाक्य निर्मित किया गया है वह स्वपदविग्रहः समास होता है।,अर्थाद्‌ यस्मिन्‌ समासे समासप्रयुक्तैः पदैः एव विग्रहवाक्यं निर्मीयते स स्वपदविग्रहः समासो भवति। क्योंकि विषय अनित्य होते हैं।,यतो हि विषयाः अनित्याः। जिस अधिकारी के युक्तसाधानों के अनुष्ठान से ये प्रतिबन्ध दूर हो जाते हैं वह निवृत्तप्रतिबन्धक अधिकारी उत्तमाधिकारी होता है।,यस्य अधिकारिणः युक्तसाधनानुष्ठानात्‌ प्रतिबन्धाः अपगताः सन्ति स निवृत्तप्रतिबन्धकः अधिकारी उत्तमाधिकारी भवति। "जब यह आकाश को मेघयुक्त करता है, तब शेर के समान भीषण गर्जना करते हैं।","यदा अयं आकाशं मेघयुक्तं करोति, तदा सिंहवत्‌ भीषणं गर्जति ।" इस प्रकार से श्रीरामकृष्ण वेदान्त के किसी मतवाद विशेष को हिन्दुधर्म के सम्प्रदायविशेष के पक्षपात की दृष्टि से नहीं देखते थे।,"एवं श्रीरामकृष्णो वेदान्तस्य कञ्चन मतवादविशेषं, हिन्दुधर्मस्य सम्प्रदायविशेषं वा पक्षपातदृष्ट्या न पश्यति स्म।" उदाहरण -सद्वैद्यः इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - सद्वैद्यः इत्यादिकमस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ । प्रत्येक जन्म में सूक्ष्म शरीर के आयतन के लिए स्थूल शरीर को स्वीकार करता है।,प्रति जन्म सूक्ष्मशरीरस्यायतनाय स्थूलशरीरं स्वीकरोति। इस प्रकार से श्रवण तथा मनन के द्वारा दृढनिश्चित ब्रह्म में तदिभन्नविषयों से अपकृष्ट मन का स्थैर्य ही निदिध्यासन होता है।,एवं श्रवणमननाभ्यां दृढनिश्चिते ब्रह्मणि तद्भिन्नविषयेभ्यः अपकृष्टस्य मनसः स्थैर्यमेव निदिध्यासनम्‌। अग्नि ही केबल एक देवता है जो स्थूल नेत्रों से प्रत्यक्ष होता है मनुष्यों को।,अग्निरेव केवला देवता या स्थूलेन चक्षुषा प्रत्यक्षा भवति नृणाम्‌। व्याख्या - वीर्य्य वृद्धि का आचरण करते हुए इन्द्र ने सोम को स्वीकार करता है।,व्याख्या- वृषायमाणः वृष इवाचरन्‌ सोमम्‌ अवृणीत वृतवान्‌। विद्यारण्य मुनि ने पञ्चदशी में कहा है कुर्वते कर्म भोगाय कर्म कर्तु च भुज्यते।,विद्यारण्यमुनिः पञ्चदश्याम्‌ अपि उक्तवान्‌-कुर्वते कर्म भोगाय कर्म कर्तुं च भुज्यते। परंतु यम उसके प्रलोभन से आकृष्ट नहीं हुआ।,यमः तु तस्याः प्रलोभनेन न आकृष्टः। देह जन्म से पहले नहीं होती है तथा मरण से बाद नहीं होती है।,देहः जन्मनः प्राक्‌ नास्ति मरणादूर्ध्वञ्च नास्ति। 6. अध्योरोपवाद किसे कहते हैं?,६. अध्यारोपः नाम किम्‌? इस सूत्र से सप्तमी तत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण सप्तमी-तत्पुरुषसमासो विधीयते। उससे इस सूत्र से पर पञ्चमाध्याय परि समाप्ति तक जब तक विद्यमान सूत्रों के द्वारा विहित कार्य का समासान्त संज्ञा होती हैं।,तेन एतस्मात्‌ सूत्रात्‌ परं पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तिं यावद्‌ विद्यमानैः सूत्रैः विहितानां कार्याणां समासान्तसंज्ञा भवति। भाष्यकार दुर्गाचार्य ने भी अपने आप को “कपिष्ठल वसिष्ठ' ऐसा कहा है (“' अहञ्च कापिष्ठलो वाशिष्ठः” निरुक्तरीका ४/४)।,"भाष्यकारेण दुर्गाचार्येणापि स्वात्मानं 'कपिष्ठलो वाशिष्ठः"" इति उक्तम्‌ (""अहञ्च कापिष्ठलो वाशिष्ठः” निरुक्तटीका ४/४)।" उस पुरुष रूप पशु से देव उत्पन्न हुए।,तेन पुरुषरूपेण पशुना देवाः अयजन्त। इसलिए वाक्यपदीय में कहा है- वाक्यात्‌ प्रकरणादर्थादौचित्यादेशकालतः।,तथाहि उच्यते वाक्यपदीये -वाक्यात प्रकरणादर्थादौचित्याद्देशकालतः। 21 वेदान्तसार में कहे गये अधिकारी के लक्षण में आपाततः इसके द्वारा क्या समझना चाहिए।,२१. वेदान्तसारोक्ते अधिकारिलक्षणे आपापतः इत्यनेन किं बोध्यम्‌ । “ तद्धितार्थोत्तपदसमाहारे च'' यहाँ उक्त तीन प्रकार संख्यापूर्वपदः समासः यहाँ संख्या पूर्व शब्द से ग्रहण किया गया।,"""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इत्यत्रोक्तः त्रिविधः संख्यापूर्पदः समासः अत्र संख्यापूर्वशब्देन गृह्यते ।" यहाँ पर क्या प्रमाण है कि यह वेदान्तों का तात्पर्य है।,किमत्र प्रमाणं यत्‌ तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यमिति। ( ६.१.२०४ ) सूत्र का अर्थ- उपमानवाची शब्द को संज्ञा विषय में आदि उदात्त होता है।,(६.१.२०४) सूत्रार्थः- उपमानशब्दः संज्ञायामाद्युदात्तः स्यात्‌। "वस्तुतः तो वेद अपौरुषेय है, ऐसा आस्तिको का मत है।",वस्तुतस्तु वेदाः अपौरुषेया इति आस्तिकानां मतम्‌। उदात्तेन एकादेश उदात्तः इति सूत्र में आये पद योजना है।,उदात्तेन एकादेश उदात्तः इति सूत्रगतपदयोजना। प्रकृति का चित्रण प्रकृति का वर्णन दो प्रकार से हो सकता है - प्रकृति में स्वयं के आलम्बन से वर्णन को अनावृत्त वर्णन कहते हैं।,प्रकृतेः वर्णनं प्रकारद्वयेन भवितुम्‌ अर्हति- प्रकृतेः स्वतः आलम्बनत्वेन वर्णनम्‌ अनावृतवर्णनम्‌। इनमे ` बालखिल्य'-सूक्तों का स्थान तो आठवें मण्डल के अन्तर्गत ही स्वीकार कर सकते हैं।,एतेषां 'बालखिल्य-सूक्तानां स्थानं तु अष्टममण्डलान्तर्गते एव स्वीकर्तुं शक्यते। स्वगत सजातीय तथा विजातीय।,स्वगतः सजातीयः विजातीयः च। शतपथ ब्राह्मण के मत में दर्शपूर्ण मास सभी यागों की प्रकृति है।,शतपथब्राह्मणस्य मते दर्शपूर्णमासः सकलयागानां प्रकृतिः। ये पुरुष वैदिक परम्परा की पराकाष्ठा तथा अन्य स्थितियों को मानता है।,अयं पुरुषः वैदिकपरम्परायाः पराकाष्ठा तथा परा गतिरिति स्वीक्रियते। तब “मैं देह हूँ' इस प्रकार के विजातीय प्रत्यय को त्यागकरके “मै आत्मा हूँ ' इस प्रकार के अद्वितीय सजातीयप्रत्यय के प्रवाह निदिध्यासपद वाच्य होता है।,तदा 'अहं देहादिकम्‌' इति विजातीयप्रत्ययं त्यक्त्वा 'अहमात्मा' इति अद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययस्य प्रवाहः निदिध्यासनपदवाच्यः। मुण्डकोपनिषद्‌ में कहा गया है।,मुण्डकोपनिषदि श्रूयते। गुहातीत का ज्ञान पञ्चकोशों के विवेक के ज्ञान के द्वारा होता है।,गुहाहितस्य ज्ञानं पञ्चकोशविवेकज्ञानेनैव भवति। इसलिए स्वामीविवेकानन्द जी के द्वार कहा गया है।,तथाहि उच्यते स्वामिविवेकानन्दपादैः - गुण शब्द से षष्ठीसमास निषेध अनित्य कैसे होता है?,गुणशब्देन षष्ठीसमासनिषेधः अनित्यः कथम्‌? भगवद्गीता में कहा भी गया है कि भगवान में मन तथा बुद्धि को लगाकर के अनन्य योग के द्वारा निरन्तर भगवान का स्मरण ही भक्ति होती है।,भगवद्गीतायाम्‌ उच्यते - भगवति मनः बुद्धिं च आवेश्य अनन्ययोगेन निरन्तरं भगवतः स्मरणं हि भक्तिः। वि.चू. 172 सुषुप्तिकाल में मन का लय हो जाता है इस प्रकार से कहा जा चुका है।,वि.चू. १७२ सुषुप्तिकाले मनसः लयः भवतीत्युक्तम्‌। 5 “तत्त्वमसि” इस महावाक्य में तत्पद का लक्ष्यार्थ तथा वाच्यार्थ लिखिए।,५. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये तत्पदस्य लक्ष्यार्थं वाच्यार्थ च लिखत? इस प्रकार वसु के साथ भी उसी के समान आचरण करती हूँ।,एवं वसुभिः इत्यादौ तत्तदात्मना चरामीति योज्यम्‌। "उसके पास में एक और लघु प्रकाशमान नक्षत्र दिखाई दे रहा है, क्या?",तत्समीपे अन्यदेकं प्रकाशमानं लघुभूतं यत्‌ वर्तते तदेव इति? पोषम्‌ - पुष्‌ -धातु से घज्‌प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में पोषम्‌ यह रूप बनता है।,पोषम्‌- पुष्‌ - धातोः घञ्प्रत्यये द्वितीयैकवचने पोषम्‌ इति रूपम्‌। अब प्रश्‍न हो सकता है की किस प्रकार की अग्नि है।,अधुना प्रश्नः भवितुम्‌ अर्हति यत्‌ कीदृशः अग्निः। अगर मन नहीं है तो देहादि में अभिमान रूप बन्ध भी नहीं है।,मनः नास्ति चेत्‌ तदभिमानं नास्ति। वह मेरा मन शिवसङ्कल्प हो।,तन्मे मम मनः शिवसङ्कल्पं शान्तव्यापारमस्तु। इस प्रकार से यह पाठ गतपाठ का ही शेष अंश है।,इत्थम्‌ गतपाठस्य अयं पाठः शेषः अस्ति। सबसे ऊच स्थान पर।,प्रधानभूते स्थाने। ऋग्वेद के समान ही यह ग्रन्थ भी अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है।,ऋग्वेद इव ग्रन्थोऽयम्‌ अष्टकेषु अध्यायेषु च विभक्तोऽस्ति। वारः - वारयति इस अर्थ में वृ-धातु से णिच्‌ अच्‌ करने पर प्रथमा एकवचन में वारः रूप है।,वारः - वारयति इत्यर्थ वृ-धातोः णिचि अचि प्रथमैकवचने वारः इति रूपम्‌। दिवीयते यह उदात्त का उदाहरण है।,दिवीयते इति उदात्तस्य उदाहरणम्‌। उषा देवी के सौन्दर्य कल्पना विषय पर टिप्पणी लिखिए।,उषादेव्याः सौन्दर्यकल्पनाविषये लिखत। अविनश्वर ब्रह्मलोक को कहते है।,अविनश्वरं ब्रह्मलोकमित्यर्थः। शूषम्‌ इसका क्या अर्थ है?,शूषम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? इस पाठ में तो धातु से विहित स्वरों का और प्रातिपदिक से विहित स्वरों के विषय में आलोचना की है।,अस्मिन्‌ पाठे तु धातोः विहितानां स्वराणां प्रतिपदिकाच्च विहितानां स्वराणां विषये आलोचना विद्यते। अपवाद निरास कहलाता है।,अपवादश्च निरासः। बारह दिनमें सम्पन्न याग अहीन याग कहाता हेै।,द्वादशदिनेषु सम्पन्नयागः अहीनयागः। "अतः उससे परे होने पर अध्यापक शब्द के ककार से उत्तर अकार अनुदात्त है, उसका इस सूत्र से सन्नतर आदेश होता है।","अतः तस्मिन्‌ परे सति अध्यापकशब्दस्य ककारोत्तरः अकारः अनुदात्तः, तस्य अनेन सूत्रेण सन्नतर आदेशो भवति।" "और जो विष्णु प्रलय के अनन्तर एक साथ के स्थान को तीन प्रकार से विशेष कर कम्पाता हुआ रोकता है, यह अर्थ है।",किंच यः च विष्णुः उत्तरम्‌ उद्गततरमतिविस्तीर्णं सधस्तं सहस्थानं लोकत्रयाश्रयभुतमन्तरिक्षम्‌ अस्कभायत्‌ तेषामाधारत्वेन स्तम्भितवान्‌ निर्मितवानित्यर्थः। हमारे ऊपर घोरदुद्धष प्रभाव का प्रयोग नहीं करना।,घोरेण असह्येन मा अभिचरत मा गच्छत । प्रथम ले जाना और दूसरी नियमन।,प्रथमायां नयनं द्वितीयायां नियमनम्‌। कृष्टयः - कृष्‌-धातु से भाव में क्तिन्प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन का रूप बनता है।,कृष्टयः- कृष्‌-धातोः भावे क्तिन्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने रूपम्‌। "प्रजापति से कामना करते हुए “मैं प्रजाओं की सृष्टि करता हूँ इस प्रकार, प्रजापति के मन का चिन्तन से ही उसके शिर से आदित्य की सृष्टि हुई।","प्रजापतिना कामना कृता 'प्रजानां सृष्टिरहं करोमि' इति, प्रजापतेरेवं मनसा चिन्तनेन एव तस्य मूर्ध्नः आदित्यस्य सृष्टिरभवत्‌।" श्रीनारायण देवता मन्त्र आदित्य द्वारा विनियुक्त माने गये है।,उत्तरनारायणेन आदित्यम्‌ उपस्थाय अनपेक्षमाणः अरण्यम्‌ अभिप्रेयादिति। "और ब्राह्मण कर्मब्राह्मण, उपसनाब्राह्मण, ज्ञानब्राह्मण ये तीन भाग में विभक्त है।","ब्राह्मणं च कर्मब्राह्मणम्‌, उपसनाब्राह्मणम्‌, ज्ञानब्राह्मणम्‌ इति त्रेधा विभक्तम्‌।" और यह विलक्षणता ही वेद के पद्यों और गद्यों में प्रकाशित है।,इयं च विलक्षणता वेदस्य पद्येषु गद्येषु च प्रकाशिता। 11.4 ) जीवन्मुक्त का आचरण जीवन्मुक्त का स्वरूप कहकर के अब उसके आचरण के विषय में कहा जा रहा है।,११.४) जीवन्मुक्तस्य आचरणम्‌ जीवन्मुक्तस्य स्वरूपम्‌ उक्त्वा इदानीं तस्य आचरणविषये उच्यते। इस ग्रन्थ की रचना कब हुई।,अस्य ग्रन्थस्य रचयिता कदा बभूव। दुव्यचां तृणधान्यानां इन पदों के विशेष्य रूप से शब्दानाम्‌ इस षष्ठी बहुवचनान्त पद का यहाँ आक्षेप किया है।,दुव्यचां तृणधान्यानां चेति पदानां विशेष्यरूपेण शब्दानाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌ अत्र आक्षिप्यते। वहाँ एक मेंढक के शब्द को सुनकर दूसरा भी ध्वनि करता है।,तत्र एकस्य मण्डुकस्य शब्दं श्रुत्वा अपरः अपि टरटरायते। जन्मदिन के आरम्भ से ही इसकी माता ने सोमरस इनको पिलाया था।,जन्मदिवसाद्‌ आरभ्य एव एनम्‌ अस्य माता सोमरसं पाययति स्म। इस ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण भी है।,अस्य ग्रन्थस्य संक्षिप्तसंस्करणमपि अस्ति। लौकिक वाक्य अन्य प्रमाण से सिद्ध होते है।,लौकिकवाक्यानि अन्येन प्रमाणेन सिद्धानि भवन्ति। और यहाँ पूर्व अम्‌ भूत सु इस स्थिति में समासविधायक शास्त्र में “सह सुपा'' यहाँ दोनों का सुबन्त के निर्देश से उन दोनों की उपसर्जन संज्ञा में उन दोनों का पूर्वनिपात प्राप्त होता है।,"अत्र च पूर्व अम्‌ भूत सु इति स्थिते समासविधायकशास्त्रे ""सह सुपा"" इत्यत्र उभयस्य सुबन्तत्वेन निर्देशाद्‌ उभयोः उपसर्जनसंज्ञायाम्‌ उभयोः पूर्वनिपातः प्राप्तः।" वे सभी भी संचित कर्म कहलाते हैं।,ते सर्वेऽपि संचितं कर्म कथ्यते। इसलिए दक्ष संहिता शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा।,उच्यते च तस्मात्‌ दक्षसंहितायाम्‌ - शोचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। इवेन समासः विभक्त्पलोपः यह पदच्छेद है।,इवेन समासः विभक्त्यलोपः च इति पदच्छेदः। सभी पशु यागों की क्या प्रकृति है ?,सकलपशुयागानां का प्रकृतिः ? इसलिए तदन्तविधि होती है।,अतः तदन्तविधिः भवति। रस्सियों से जैसे ले जाता है।,रश्मिभिः नियच्छति इत्यर्थः। तनोमि - तन्‌-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में तनोमि रूप बनता है।,तनोमि- तन्‌-धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने तनोमि इति रूपम्‌। सुवे - सू-धातु से लट आत्मनेपद में उत्तमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,सुवे- सू-धातोः लटि आत्मनेपदे उत्तमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपमिदम्‌। प्रथम मन्त्र में कहा गया है की में अग्नि की स्तुति करता हूँ।,प्रथममन्त्रे उक्तं यद्‌ अहम्‌ अग्निम्‌ स्तौमि। इस प्रकार से जितने काल तक ब्रह्म में श्रुतियों का तात्पर्यनिर्धारण नहीं हो तब तक श्रवण तथा जब तक असन्दिग्ध अविपर्यय बुद्धि का उदय नहीं हो तबतक मनन करना चाहिए।,"एवं यावत्कालपर्यन्तं ब्रह्मणि श्रुतीनां तात्पर्यावधारणं न भवेत्‌ तावत्कालपर्यन्तं श्रवणं, यावच्च ब्रह्मणि असन्दिग्धा अविपर्यस्ता च बुद्धिः नोदीयात्‌ तावत्‌ मननं कर्तव्यम्‌।" यज्ञ में कौनसी ऋतु हवि थी?,यज्ञे कः ऋतुः हविः आसीत्‌। अथ द्वितीयां प्रागीषात्‌ इस सूत्र से द्वितीयाम्‌ इस पद का अधिकार है।,अथ द्वितीयां प्रागीषात्‌ इति सूत्रात्‌ द्वितीयाम्‌ इति पदम्‌ अधिकृतम्‌। शब्दार्थ व्यतिरिक्त प्रपञ्च नहीं होता है।,शब्दार्थव्यतिरिक्तः प्रपञ्चो नास्ति। इस प्रकार विकलाङ्ग जीते जो हमारे प्रत्यक्ष में है।,विकलाङ्गजनाः जीवन्तीति अस्माकं प्रत्यक्षमस्ति। अक्षशौण्डः रूपं को सिद्ध करो?,अक्षशौण्डः इति रूपं साधयत। यह ही त्रिवृत्करण श्रुति पञ्चीकरण की ज्ञापिका होती है।,एषैव त्रिवृत्करणश्रुतिः पञ्चीकरणस्य ज्ञापिका भवति । "सरलार्थ - सूर्यदेव जिस प्रकार आकाश में विचरण करते है, उसी प्रकार तिरेपन पासे जुआ खेलने के तख्ते पर क्रीडा करते है, ये पासे उग्र एवं क्रोधी के भी वश में नही आते, राजा तक इन पासों के सामने झुकता है।",सरलार्थः- सूर्यदेवतुल्याः एते त्रिपञ्चाशत्‌ अक्षाः क्रीडन्ति। एते अक्षाः कदापि क्रोधिनः सम्मुखे न नमन्ति । राजा अपि एतान्‌ नमस्कुर्वन्ति । “समवप्रविभ्यः स्थः' (पा. १. ३. २२) इससे आत्मनेपद है।,'समवप्रविभ्यः स्थः'(पा. १. ३. २२) इत्यात्मनेपदम्‌। इसके बाद प्रक्रिया कार्य में भूतपूर्व रूप निष्पन्न होता है।,ततः प्रक्रियाकार्य भूतपूर्वः इति रूपं निष्पद्यते। "यदि है तो अवश्य सत्‌ होना चाहिए, और यदि नहीं हैं तो अवश्य ही असत्‌ होना चाहिए।",यदि अस्तीत्युच्यते तर्हि अवश्यं सद्भवेत्‌ नास्तीत्युच्यते चेत्‌ अवश्यमसद्भवेत्‌। जहाँ अर्थवश से पाद की व्यवस्था हो वह ऋक्‌ ऐसा मीमांसक मानते है।,यत्रार्थवशेन पादव्यावस्था सा ऋगिति मीमांसकाः। क्ते च (६.२.४५ ) सूत्र का अर्थ- क्तान्त शब्द उत्तरपद रहते भी चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,क्ते च(६.२.४५) सूत्रार्थः- क्तान्ते च उत्तरपदे चतुर्थ्यन्तं प्रकृत्या भवति। जिनकी छाया अमृत रूपिणी है और जिनके वश में मृत्यु है।,मृत्युः यमश्च प्राणापहारी छायेव भवति। अर्थात्‌ इसप्रकार का जो हिरण्यगर्भ है वो ही पूजनीय है।,अर्थात्‌ एवंभूतः यः हिरण्यगर्भः सः एव पूजनीयः। 10. न तस्य ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,१०. न तस्य ... इति मन्त्रं व्याख्यात। एकवर्जम्‌-इस पद में “ द्वितीयायां च' इस सूत्र से ण्मुल्‌-प्रत्यय होता है।,एकवर्जम्‌-इत्यस्मिन्‌ पदे 'द्वितीयायां च' इति सूत्रेण ण्मुल्‌-प्रत्ययः वर्तते। अतः अग्नि और सोम ने इन्द्र से एक पशु माँगा।,अतः अग्निः सोमश्च इन्द्राय एकं पशुं याचितवन्तौ। गायो के लिए पान योग्य सुंदर जल प्रचुर मात्रा में हो।,गोभ्यः सुप्रपाणं सुष्ठु प्रकर्षेण पातव्यमुदकं भवतु । इस ग्रन्थ के ऊपर अनेक प्रकार की टीका भी उपलब्ध होती है।,अस्य ग्रन्थस्य उपरि बहुविधाः टीकाः अपि उपलब्धा भवन्ति। तथा देव भी जिसके प्रशासन की उपासना करते हैं।,तथा देवाः अपि यस्य प्रशासनमुपासते। उसे प्रकृति स्वर पक्ष में आद्युदात्त होता है।,तेन प्रकृतिस्वरपक्षे आद्युदात्तः भवति। कर्म तीन प्रकार के होते है।,कर्म त्रिविधं वर्तते। यहाँ पर प्रकृत सूत्र से इस धातु के आदि अच्‌ को उदात्त होता है।,अत्र प्रकृतसूत्रेण अस्य धातोः आदिः अच्‌ उदात्तः भवति। ऐसा वाक्य लिखा जाना चाहिए।,इति वाक्यं लेख्यम्‌। "देवब्रह्मणोः यहाँ पर ` देवश्च ब्रह्मा च इत्यनयोः द्वन्द्व समास में 'देवब्रह्माणौ, तयो: देवब्रह्मणोः।","देवब्रह्मणोः इत्यत्र 'देवश्च ब्रह्मा च इत्यनयोः द्वन्द्वसमासे 'देवब्रह्माणौ, तयोः देवब्रह्मणोः।" जनयन्‌ - जन्‌-धातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में जनयन्‌ यह रूप है।,जनयन्‌ - जन्‌-धातोः शतृप्रत्यते प्रथमैकवचने जनयन्‌ इति रूपम्‌। शरीर के उत्पन्न होने पर देवों ने बाद की सृष्टि की सिद्धि के लिए उस पुरुष को हविष्ट के द्वारा स्मरण करके मानस याग की कल्पना की।,शरीरेषु उत्पन्नेषु सत्सु देवा उत्तरसृष्टिसिद्ध्यर्थं तं पुरुषं हविष्ट्वेन सङ्कल्प्य मानसं यागं सङ्कल्पितवन्तः। "वह वायु को बहता है, बिजली को प्रकट करता है, और ओषधियों को उत्पन्न करता हुआ जल से पृथिवी पर स्थित प्राणियो की रक्षा करता है।",स वायुं प्रवहन्‌ विद्युतं प्रकटयन्‌ ओषधीश्च उत्पादयन्‌ जलेन पृथिव्यां प्राणिनः रक्षति । इसी प्रकार इस पाठ का विषय तिङन्तस्वर है।,एवमेव पाठस्य अस्य विषयः तिङन्तस्वरः इति। शुक्लयजुर्वेद के सूक्तसंग्रह में यह अन्यतम प्रजापतिसूक्त है।,शुक्लयजुर्वेदीयसूक्तसंग्रहेषु अन्यतममिदं प्रजापतिसूक्तम्‌। बाह्य पुत्रादिविषय राग होते है।,बाह्याः हि पुत्रादिविषयाः रागाः। दूसरे चौथे आरण्यक के रचयिता कौन-कौन हैं?,द्वितीयचतुर्थारण्यकयोः रचयितारौ कौ? इसलिए घटपटादिविषयों में निरन्तरचित्तवृत्ति का प्रवाह निदिध्यासन होता है।,अतो न हि घटपटादिविषये निरन्तरचित्तवृत्तिप्रवाहः निदिध्यासनं भवति। विवेकानन्द के दर्शन में किसका सबसे अधिक प्रभाव था?,विवेकानन्ददर्शने कस्य सर्वाधिकतया प्रभावः आसीत्‌? उसके गुणसंविज्ञान में बहुव्रीहि समास होता है।,तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिः। टिप्पणी - इस प्रकार की अग्नि की स्तुति करो।,टिप्पणी - एवं स्तुतः अग्निः। 6 मोक्षसाधन निर्देशिक श्रुति कौन-सी है?,६. मोक्षसाधननिर्देशिका श्रुतिः का? तृणधान्यानां च द्वयषाम्‌ इस सूत्र की व्याख्या कोौजिए।,तृणधान्यानां च दुव्यषाम्‌ इति सूत्रं व्याख्यात। और इसके बाद खट्व आ यह स्थिति होती है।,तश्च खट्व आ इति स्थितिः भवति उस वज्र के द्वारा मेघ के भिन्न होने पर चलते हुए प्रस्रव युक्त जल समुद्र को अच्छी प्रकार से प्राप्त करता है।,तेन वज्रेण मेघे भिन्ने सति स्यन्दमानाः प्रस्रवणयुक्ताः आपः समुद्रम्‌ अञ्जः सम्यक्‌ अव जग्मुः प्राप्ताः। इस सूत्र में द्वितीया प्रथमान्त पद है।,अस्मिंश्च सूत्रे द्वितीया इति प्रथमान्तम्‌ पदम्‌। "उपनिषदों का सामान्य परिचय भारतीय दर्शन साहित्य में श्रुति, स्मृति, न्याय, आख्यानों के तीन प्रस्थान है।",उपनिषदां सामान्यपरिचयः भारतीयदर्शनसाहित्ये सन्ति त्रीणि श्रुतिस्मृतिन्यायाख्यानि प्रस्थानानि। लेकिन अज्ञान स्वयं ही नष्ट नहीं होता है।,किन्तु स्वतः न अज्ञानं नाशयति। "श्रद्धा से अग्नि प्रज्वलित होती है, अर्थात्‌ ज्ञान अग्नि का प्रज्वलन श्रद्धा से ही होता है।","श्रद्धया अग्नेः समिन्धनं भवति, अर्थात्‌ ज्ञानाग्नेः प्रज्वलनं श्रद्धया एव भवति।" इस प्रकार से अन्तरिन्द्रिय अन्तः करण कर्तुरूप मे तथा करण रूप मे परिणित होता है।,एवञ्च अन्तरिन्द्रियं अन्तःकरणं कर्तृरूपेण करणरूपेण च परिणमते। 13 प्राण वायु नासाग्रवर्ती होती है।,१३. प्राणो नाम प्राग्गमनवान्‌ वायुः नासाग्रवर्ती। व्याघ्र के मरण के भय से लोग जिस प्रकार से अरण्य में प्रवेश नहीं करते हैं उसी प्रकार साधु जन भी मोक्ष की इच्छा करते हुए मनोरूपी व्याघ्र के भय से विषय रूपी अरण्य में प्रवेश नहीं करते हैं विषयों के प्रति जाना मन का स्वभाव होता है।,व्याघ्रात्‌ मरणभयात्‌ जनाः यथा अरण्यं न प्रविशन्ति तथा साधवः मोक्षं कामयमानाः मनोव्याप्रभयात्‌ विषयारण्यं न प्रविशेयुः। विषयं प्रति गमनं मनसः स्वभावः। वो ही देवताओं का एकमात्र स्वामी है।,यः देवतानाम्‌ एकः एव स्वामी। यह आरण्यक ऐतरेय ब्राह्मण का ही परिशिष्ट भाग है।,दमारण्यकम्‌ ऐतरेयब्राह्मणस्यैव परिशिष्टभागोऽस्ति। वह मेरा मन कल्याणकारी हो।,तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु। जैसे वह वैद्यराज है।,यथा सः वैद्यराजा। इसलिए अनित्यत्व से नित्य आत्मा होने योग्य नहीं है।,अतः अनित्यत्वात्‌ नित्यः आत्मा भवितुं नार्हति। यहाँ कुरुक्षेत्र का और खाण्डव का वर्णन भौगोलिक स्थित्ति के अनुसार से ही है।,अत्र कुरुक्षेत्रस्य खाण्डवस्य च वर्णनं भौगोलिकस्थितेः अनुसारेण एवाऽस्ति। विवास यह पद कैसे बना?,विवास इति पदस्य निष्पत्तिः कुतः ? अन्य कुछ असुर के साथ मेघ का तथा इन्द्र के साथ वज्र-विद्युत्‌-वायु का समावेश करते है।,अन्ये केचन असुरेण सह मेघस्य तथा इन्द्रेण सार्धं वज्र-विद्युत्‌-वायूनां समावेशं कल्पयन्ति। "यदि ब्राह्मण अस्वास्थ्य के कारण अक्षम हो तो वह कार्य उसके पुत्र को, और पुत्राभाव में पुरोहित करे।","यदि ब्राह्मणः अस्वास्थ्यकारणात्‌ अक्षमः भवति तदा तत्कार्यं पुत्रेण, पुत्राभावे च पुरोहितेन कर्तव्यं भवति।" परन्तु ऋग्वेद में रुद्रसम्पूर्ण आर्यदेव है।,परन्तु ऋग्वेदे रुद्रः सम्पूर्णः आर्यदेवः। इसलिए वेदान्त परिभाषा में कहा गया है।,उच्यते च वेदान्तपरिभाषायां - "ये जो कुछ वर्तमान जगद्‌ दिख रहा है, वो सब पुरुष का स्वरूप ही है।",यदिदं वर्तमानं जगद्‌ भासते तत्सर्वं पुरुषस्वरूपमेव। उसी प्रकार क्रियाशब्दों के भी समभिव्याहार में पाचकपाठकः: पाठकपाचकः ये दो रूप हैं।,एवमेव क्रियाशब्दयोरपि समभिव्याहारे पाचकपाठकः पाठकपाचकः इति रूपद्वयम्‌ । ये निर्वचन नहीं हैं काल्पनिक है।,निर्वचनमिदं नास्ति काल्पनिकम्‌। "शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि यदि सोमलता प्राप्त नहीं होती, तो पूतिका से यज्ञ सम्पन करें।","शतपथब्राह्मणे उक्तं यत्‌ यदि सोमलता न प्राप्यते, तर्हि पूतिकया यज्ञं कुर्यात्‌ इति।" सुषुप्तिकाल में विज्ञानमय कोश का अस्त तथा फिर जाग्रत काल में उदय हो जाता है।,सुषुप्तिकाले विज्ञानमयस्य अस्तमयः पुनः जाग्रत्काले उदयश्च ज्ञायेते। द्युत अर्थ में वर्तमान अक्ष शब्द को उदात नहीं होता है।,न हि देवनार्थ अपि प्रवर्तमानस्य अक्षशब्दस्य। 26. ईश्वर प्रणिधान किसे कहते हैं?,२६. ईश्वरप्रणिधानं नाम किम्‌? "निःसन्देह रूप से उन्होंने स्पष्ट कहा है - “एक एव महानात्मा वेदे स्तूयते, स सूर्य इति व्याचक्षते' इति, तथा एकैव देवता स्तूयते आदित्य इति' इति च।","निस्सन्देहं तेन स्पष्टम्‌ उक्तम्‌- 'एक एव महानात्मा वेदे स्तूयते, स सूर्य इति व्याचक्षते' इति, तथा एकैव देवता स्तूयते आदित्य इति' इति च।" दर्शनाध्ययन करके छात्र महाविद्यालय स्तर पर और विश्वविद्यालय स्तर पर चल रहे पाठ्यक्रम में अध्ययन के लिए अवसर को प्राप्त करने में समर्थ होंगे।,दर्शनाध्ययनेन छात्राः महाविद्यालयस्तरे विश्वविद्यालयस्तरे च प्रवर्तमानेषु पाठ्यक्रमेषु अध्ययनार्थम्‌ अवसरं प्राप्तुं समर्थाः भविष्यन्ति। जिन वस्तुओं का आकार नहीं होता है उन विषयों में संलग्न चित्त की किस प्रकार तदाकारिता हो यह प्रश्‍न होने पर कहते हैं की जो अन्तः करणवृत्ति जिस विषयक अज्ञान का नाश करती है वह अन्तःकरण वृत्ति ही तदाकार होती है इस प्रकार से समझना चाहिए।,येषां च वस्तूनाम्‌ आकारो नास्ति तेषु विषयेषु संलग्नस्य चित्तस्य कथं तदाकारता स्यादिति प्रश्नश्चेत्‌ उच्यते यत्‌ या अन्तःकरणवृत्तिः यद्विषयकमज्ञानं नाशयति सा अन्तःकरणवृत्तिः तदाकारा इति बोध्यम्‌। यह तो कह सकते है की उपलब्ध वैदिक पदपाठो से पहले ही व्याकरण शास्त्र पूर्णता को प्राप्त हुआ।,इदं तु वक्तुं शक्यं यद्‌ उपलब्धेभ्यः वैदिकपदपाठेभ्यः प्रागु व्याकरणं शास्त्रं पूर्णतां गतम्‌। शर्म इसका क्या अर्थ है?,शर्म इत्यस्य कः अर्थः। "तथा गुणक्रियाशब्दों के समभिव्याहार में खञ्चपाचकः, पाचकखञ्जः ये दो रूप हैं।","तथा गुणक्रियाशब्दयोः समभिव्याहारे खञ्जपाचकः, पाचकखञ्जः इति रूपद्वयम्‌ ।" "जीव नित्य सुषुप्ति अवस्था में जाते है, इस कारण से सुषुप्ति नित्य प्रलय कहलाती है।",नित्यं हि जीवाः सुषुप्तिं गच्छन्ति इति कारणात्‌ सुषुप्तिर्हि नित्यप्रलयः। "इन छः वेदाङ्गों का उल्लेख गोपथ ब्राह्मण, बौधायन धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, रामायण के समान प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।",षण्णाम्‌ अपि एतेषां वेदाङ्गानाम्‌ उल्लेखः गोपथब्राह्मण-बौधायनधर्मसूत्र-गौतमधर्मसूत्र-रामायणसदृशेषु प्राचीनग्रन्थेषु उपलभ्यते। "जैसे कुल्हाड़ी से काटी गई वृक्ष की शाखा भूमि पर गिरती है, वैसे ही राक्षस पृथिवी के समीप अथवा उसकी गोद में हमेशा के लिए सोये।",यथा कुठारेण छिन्नाः वृक्षाणां शाखाः भूमौ पतन्ति तथैव राक्षसाः पृथिव्याः समीपे अथवा अङ्के शयिताः सन्ति। वेद के बहुत से दार्शनिक सूक्तों यह सूक्त अन्यतम है।,वेदस्य बहुषु दार्शनिकसूक्तेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌। "गायत्री-छन्द में तीन पाद होते हैं, प्रतिपाद में आठ अक्षर होते है।",गायत्री-छन्दसि त्रयः पादाः प्रतिपादं अष्टाक्षराणि भवन्ति। जीवनब्रह्मेक्यप्रमेयगत अज्ञान की निवृत्ति ही ब्रह्म से साथ आत्म के ऐक्यविषयकज्ञान की निवृत्ति होती है तथा स्वस्वरूपानन्द की प्राप्ति होती है।,जीवब्रह्मैक्यप्रमेयगताज्ञाननिवृत्तिः ब्रह्मणा सह आत्मन ऐक्यविषयकाज्ञानस्य निवृत्तिः तथा स्वस्वरूपानन्दावाप्तिश्च। अतः उन दोनों के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है।,अतस्तयोः स्वरूपं वर्ण्यते। एवं “पञ्चम्यन्त सुबन्त को भयप्रकृतिक सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,"एवं ""पञ्चम्यन्तं सुबन्तं भयप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" कुचर इति कुटिलकर्म देवताभिधानकुटिल कर्म करते है।,कुचर इति चरतिकर्म कुत्सितमथ चेद्वेवताभिधानं क्वायं न चरतीति। "इसके बाद पुरोहित यज्ञ की आहुति का अवशिष्ट अंश प्रसाद के रूप में ग्रहण करते है, और वह ईडा भक्षण कहलाता है।","अतःपरं पुरोहिताः यज्ञाहुतेः अवशिष्टम्‌ अंशं प्रसादरूपेण गृह्णन्ति, तच्च इडाभक्षणम्‌ इत्युच्यते।" यहाँ आम्र शब्द दो अच्‌ विशिष्ट होने पर भी तृणवाचक और धान्यवाचक के अभाव से प्रकृत सूत्र से उस आम्र- शब्द का आदि स्वर आकार उदात्त नहीं होता है।,अत्र आपम्रशब्दस्य दुव्यविशिष्टत्वादपि तुणवाचकत्वाभावात्‌ धान्यवाचकत्वाभावाच्च प्रकृतसूत्रेण तस्य आम्र- शब्दस्य आदिः स्वरः आकारः उदात्तो न भवति। इनसे भिन्न साधारण स्वर विधायक भी अनेक सूत्र को अष्टाध्यायी में प्रयोग किया है।,"तैः सूत्रैस्तु न कश्चित्‌ विशिष्टः स्वरः विधीयते, अपि तु साधारणान्‌ एव स्वरान्‌ विदधति तानि सूत्राणि।" 47. बहुव्रीहौ समासान्त अप्प्रत्यय विधायक सूत्र क्या है?,४७. बहुव्रीहौ समासान्तस्य अप्प्रत्ययस्य विधायकं किम्‌? किन्तु भागवत में (१२/७/१) स्कन्ध का नाम निर्दिष्ट नहीं है।,किञ्च भागवते (१२/७/१) स्कन्धस्य नाम निर्दिष्टं नास्ति। यावद्यथाभ्यामिति सूत्र की अनुवृति है।,यावद्यथाभ्यामिति सूत्रमनुवर्तते। और भी कहा गया - “प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।,"तथाहि उक्तम्‌ - ""प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।" "उनमें श्रेष्ठ सत्यकाम जावालि का उपाख्यान है, और उपकोसल का उपाख्यान है।",तेष्वन्यतमं हि सत्यकामजावालयोः उपाख्यानम्‌ उपकोसलस्य उपाख्यानं चेति। अथवा 'रु गतौ' यह गत्यर्थ और ज्ञान अर्थ में है।,यद्वा 'रु गतौ' ये गत्यर्थस्ते ज्ञानार्थाः। किस प्रकार का ज्ञान होता है तो कहते हैं कि अनुमानिक ज्ञान।,कीदृशं ज्ञानमिदमिति चेदुच्यते- आनुमानिकम्‌। और हमारा मन सर्वोत्तम गुण कर्म स्वभाव वाला और जो मन इन्द्रिय से पूर्व उसकी रचना हुई।,यच्च मनः अपूर्वं न विद्यते पूर्वमिन्द्रियं यस्मात्तदपूर्वम्‌ इन्द्रियेभ्यः पूर्व मनसः सृष्टेः। वेद अर्थ के ज्ञान के लिए उसके कर्मकाण्ड के प्रतिपादन के लिए जो उपयोगी शास्त्र हैं वे ही वेदाङ्ग होते हैं।,वेदार्थस्य ज्ञानार्थं तस्य कर्मकाण्डस्य प्रतिपादनार्थं च यानि उपयोगीनि शास्त्राणि सन्ति तानि एव वेदाङ्गानि भवन्ति। "यद्यपि बहुत जगह पुराण आदि में इस जल प्रलय की कथा प्राप्त होती है, फिर भी कुछ प्राणियों को जल प्रलय का पूर्वाभास हुआ, नाव का निर्माण किया, पाश से नाव को बन्धन किया, प्लावन के बाद सृष्टि इत्यादिविषयों का एक ही आख्यान में समावेश किया गया है, मनुमत्स्यकथाअन्यत्र नही दिखाई देता है।","यद्यपि बहुत्र पुराणादिषु अस्य औघस्य कथा प्राप्यते , तथापि केनचिदितरप्राणिना औघस्य पूर्वाभासप्रदानं, नावः निर्माणं, पाशेन नावः बन्धनं, प्लावनोत्तरं सृष्टिः इत्यादिविषयाणाम्‌ एकस्मिन्नेव आख्याने समावेशः इति मनुमत्स्यकथामन्तरेण अन्यत्र न दृश्यते।" इस प्रकार मन विविधप्रकार से प्रदर्शित किया।,एवं मनः विविधप्रकारेण प्रदर्शितम्‌। विवाह आदि में बार -बार सुख करता है यह अर्थ है।,विवाहादौ पुनः पुनः सुखीकरोति इत्यर्थः। ऋग्वेद का द्वितीय क्रम मण्डल क्रम है।,ऋग्वेदस्य द्वितीयः क्रमः मण्डलक्रमः? मन्त्रो में जो कहा गया है उसको साररूप से कहा गया है।,मन्त्रेषु यदुक्तं तदेव साररूपेण उच्यते । क्षत्रवेद इस नाम से अथर्ववेद कैसे प्रसिद्ध है?,क्षत्रवेदः इति नाम्ना कथम्‌ अथर्ववेदः प्रसिद्धः? जिस प्रकार से घट के निर्माण के लिए कुलाल की इच्छा होती है।,घटं निर्मातुं कुलालः इच्छति। कुछ कथा भी ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होती है।,काश्चन कथाः अपि ब्राह्मणग्रन्थेषु प्राप्यन्ते। इसलिए ही जीवन्मुक्त फिर मांसशोणित आदि को पारमार्थिक रूप से ग्रहण नहीं करता है।,अतः एव जीवन्मुक्तः पुनः मांसशोणितादीन्‌ न पारमार्थिकतया गृह्णाति। तद्विषयक ही यह सूक्त है।,तद्विषयकम्‌ एव एतत्‌ सूक्तम्‌। दर्शन के भेदों को प्रकट करें अथवा मोक्ष के परमत्व को प्रतिपादित करें।,दर्शनभेदान्‌ प्रकटयत। अथवा मोक्षस्य परमत्वं प्रतिपादयत। जीवन्मुक्ति का क्या प्रयोजन है आलोचित कीजिए।,जीवन्मुक्तेः प्रयोजनं किम्‌ आलोच्यताम्‌? "अतः वहाँ वर्तमान वौषट्‌-शब्द विकल्प से उदात्ततर होता है, और उसके अभाव पक्ष में एकश्रुति होती है।","अतः तत्र वर्तमानः वौषट्‌ -शब्दः विकल्पेन उदात्ततरः भवति, तदभावपक्षे च एकश्रुतिः भवति।" तद्धितार्थश्च उत्तरपदञ्च समाहारश्च इति तद्भितार्थोत्तरपदसमाहारं जिसमें समाहारद्वन्द है।,"तद्धितार्थश्च उत्तरपदञ्च समाहारश्च इति तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारं, तस्मिन्‌ इति समाहारद्वन्द्वः ।" आत्मविषयक स्थैर्य के अनुकूल मानस व्यापार ही निदिध्यासन होता है इस प्रकार से वेदान्त परिभाषाकार ने ख्यापित किया है।,आत्मविषयकस्थैर्यानुकूलः मानसः व्यापार एव निदिध्यासनम्‌ इति वेदान्तपरिभाषाकारः ख्यापितवान्‌। ध्यान से तात्पर्य है कि अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में बार बार अन्तरिन्द्रियवृत्त का प्रवाह।,ध्यानं हि अद्वितीयवस्तुनि ब्रह्मणि विच्छिद्य विच्छिद्य अन्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहः। '' उदाहरण -भवतः शायिका इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - भवतः शायिका इत्यादिकम्‌ अस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌। द्युस्थानीय कैसे हुआ - यद्यपि अग्नि पृथिवी स्थानीय है फिर भी देवों के प्रति हवि ले जाने से द्युस्थानी होता है।,कथं द्युस्थानः - यद्यपि अग्निः पृथिवीस्थानः तथापि देवान्‌ प्रति हविवहनाद्‌ द्युस्थानो भवति। "अथर्ववेद के ज्योतिष है - आथर्वणज्योतिष, द्विषष्टि-उत्तरशतपद्यात्मक।","अथर्ववेदस्य ज्यौतिषम्‌ - आथर्वणज्यौतिषम्‌, द्विषष्टि-उत्तरशतपद्यात्मकम्‌।" 5. आत्मभाव के अनुरूप सम्पत्ति जो होती है वो सम्पत्ति कहलाती है।,५. अनुरूपः आत्मभावः सम्पत्तिः कथ्यते। जिस प्रकार पुत्रः राज्ञः पुरुषः देवदत्तस्य यहाँ राजा के पुत्र से सम्बन्ध है और पुरुष का देवदत्त के साथ सम्बन्ध है।,"यथा पुत्रः राज्ञः पुरुषः देवदत्तस्य इत्यत्र राज्ञः पुत्रेण सम्बन्धः अस्ति, पुरुषस्य च देवदत्तेन सह सम्बन्धः अस्ति।" "यह तो स्पष्ट ही है की ग्रन्थ में जो प्रयोजन कहे गये हैं, उन प्रयोजनों के लाभ के लिए अधिकारी ग्रन्थ का अध्ययन करता है।","इदं तु स्पष्टमेव यद्‌ ग्रन्थे यत्‌ प्रयोजनम्‌ उच्यते, तत्प्रयोजनलाभाय खलु अधिकारी ग्रन्थम्‌ अधीते।" भारतभूमि पर धर्म और अध्यात्म वेद से ही जाने जाते है।,भारतभूमौ धर्मः अध्यात्मं च वेदादेव ज्ञायते । "इस पाठ के अध्ययन से आप सक्षम होंगे; साधनचतुष्टय के विषय में जानने में; विषय सम्बन्ध तथा प्रयोजन इन अवशिष्ट अनुबन्धों के विषय में जानने में; अधिकारी को कब गुरु के पास जाना चाहिए, इसका निर्धारण करने में; श्रवणमनन तथा निदिध्यासनादि को जानने में; श्रवण के द्वारा तात्पर्यग्रहण करने के लिए आवश्यक लिङगों को जानने में; 1.11.1 ) साधनचतुष्टय मोक्ष में अधिकार की प्राप्ति हेतु साधन चतुष्ट का अनुष्ठान करना चाहिए।",पाठस्यास्याध्ययनेन- साधनचतुष्टयं ज्ञास्यति। विषयसम्बन्धप्रयोजनानि इति अवशिष्टान्‌ अनुबन्धान्‌ अवगच्छेत्‌। अधिकारी कदा गुरुम्‌ उपसर्पति इति निर्धारयेत्‌। श्रवणमनननिदिध्यासनानि बुध्यात्‌। श्रवणेन तात्पर्यग्रहाय आवश्यकानि लिङ्गानि जानीयात्‌। 1.11.1) साधनचतुष्टयम्‌- मोक्षे अधिकारं लिप्सुना साधनचतुष्टम्‌ अनुष्ठेयं भवति। ' (तैति. ब्रा. २८/८/३ एवं निरु. ७ देखना चाहिए।,(तैति. ब्रा. २/८/८/३ एवं निरु. ७ द्रष्टव्यम्‌।) 3. महावाक्य जीव तथा ब्रह्म के ऐक्य का प्रतिपादन करते हैं।,3. महावाक्यानि जीवब्रह्मणोः ऐक्यं प्रतिपादयन्ति। "कापिष्ठल संहिता चरणव्यूह के मत अनुसार चरक शाखा में कठों का, प्राच्य कठो का, और कपिष्ठल कठ का उल्लेख प्राप्त होते है, जिस उल्लेख से शाखा सम्बद्ध इसका पूर्ण परिचय प्राप्त होता है।","कापिष्ठलसंहिता चरणव्यूहस्य मतानुसारेण चरकशाखान्तर्गते कठानां, प्राच्यकठानां कपिष्ठलकठानाञ्च उल्लेखः प्राप्यते, येन उल्लेखेन शाखासम्बद्धस्य अस्य पूर्णपरिचयो भवति।" "सूत्र अर्थ का समन्वय- चोदयित्री यहाँ पर चोदि- धातु से तृच्प्रत्यय करने पर चोदि तृ इस स्थित्त में और तृच्प्रत्यय को इट्‌ आगम होने पर चोदि इतृ इस स्थित्ति में चोदि-धातु के इकार को गुण एकार करने पर चोदे इतृ इस स्थित्ति में यथासंख्यमनुदेशः समानाम्‌ इस परिभाषा से एचोऽयवायावः इस सूत्र से एकार के स्थान में अय्‌-इत्यादेश होने पर चोदयितृ इस स्थित्ति में उस तृच्प्रत्ययान्त चोदयितृ शब्द स्वरूप के कृदन्त होने से कृत्तद्धितसमासाश्च इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इस सूत्र से ङीप्प्रत्यय करने पर चोदयितृ ङीप्‌ इस स्थित्ति में ङीप्प्रत्यय के आदि ङकार की लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर तस्य लोप: इस सूत्र से उसका लोप होने पर चोदयितृ ई इस स्थित्ति में ऋकार के स्थान में रेफ आदेश होने पर निष्पन्न चोदयित्री इस शब्द स्वरूप के ङीप्प्रत्ययान्त होने से वहाँ ङऱ्याप्प्रातिपदिकात्‌ प्रत्ययः, परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसांङऱयोस्सुप्‌ इस सूत्र से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों कौ प्राप्ति में प्रथमा एकवचन कौ विवक्षा में सु प्रत्यय करने पर अनुनासिक होने से पाणिनि की प्रतिज्ञा से उकार की उपदेशेऽजनुनासिकः इत्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर तस्य लोपः इस सूत्र से इत्सं़्ृक उकार के लोप होने पर चोदयित्री स्‌ इस स्थित्ति में संयोग करने पर चोदयित्री स्‌ इस स्थित्ति में हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्‌ सुतिस्यपृक्तं हल्‌ इस सूत्र से ङ्यन्त से परे सु प्रत्यय के सकार का लोप होने पर चोदयित्री यह रूप सिद्ध होता है।","सूत्रार्थसमन्वयः- चोदयित्री इत्यत्र चोदि- धातोः तृच्प्रत्यये चोदि तृ इति स्थिते तृच्प्रत्ययस्य च इडागमे चोदि इतृ इति स्थिते चोदि-धातोः इकारस्य गुणे एकारे चोदे इतृ इति स्थिते यथासंख्यमनुदेशः समानाम्‌ इति परिभाषया परिष्कृतेन एचोऽयवायावः इति सूत्रेण एकारस्य स्थाने अय्‌-इत्यादेशे चोदयितृ इति स्थिते तस्य तृच्प्रत्ययान्तस्य चोदयितृशब्दस्वरूपस्य कृदन्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततश्च ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इति सूत्रेण ङीप्प्रत्यये चोदयितृ ङीप्‌ इति स्थिते ङीप्प्रत्ययादेः ङकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण च तस्य लोपे चोदयितृ ई इति स्थिते ऋकारस्य स्थाने च रेफादेशे निष्पन्नस्य चोदयित्री इति शब्दस्वरूपस्य ङीप्प्रत्ययान्तत्वात्‌ ततः ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः, परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्डेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमैकवचनविवक्षायां सुप्रत्यये अनुनासिकत्वेन पाणिनीयैः प्रतिज्ञातस्य उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिकः इत्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण इत्संज्ञकस्य उकारस्य लोपे चोदयित्री स्‌ इति स्थिते संयोगे चोदयित्री स्‌ इति स्थिते हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्‌ सुतिस्यपृक्तं हल्‌ इति सूत्रेण ङ्यन्तात्‌ परस्य सुप्रत्ययस्य सकारस्य लोपे चोदयित्री इति रूपं सिध्यति।" सूत्रार्थ- पद सम्बन्धि जो कार्य उसका एकार्थीभाव सामर्थ्य के समान पदाश्रित होता है।,सूत्रार्थः - पदसम्बन्धि यत्‌ कार्य तद्‌ एकार्थीभावसामर्थ्यवत्पदाश्रितं भवति। "अन्वय का अर्थ - हे रुद्रदेव, ते - आपका, मन्यवे - क्रोध को उद्देश्य करके, नमः -अर्थात्‌ स्तुति करता हूँ, उतः - अथवा, ते - तेरा, इषवे - बाण को उद्देश्य करके, नम: अर्थात नमस्कार करता हूँ।","अन्वयार्थः- हे रुद्रदेव, ते - तव, मन्यवे - क्रोधस्य उद्देश्ये, नमः - नौमि अर्थात्‌ स्तुतिं करोमि, उतः - अथवा, ते- तव, इषवे - बाणस्य उद्देश्ये, नमः- नौमि।" "इस सूत्र में संज्ञायाम्‌ कहने से जहाँ पर संज्ञा नहीं है, वहाँ पर इस सूत्र की प्रवृति नहीं होती है, जैसे- अग्निर्माणवकः।",अस्मिन्‌ सूत्रे संज्ञायामित्युक्तत्वात्‌ यत्र संज्ञा नास्ति तत्र नेदं सूत्रं प्रवर्तते यथा अग्निर्माणवकः इति । ऋणावा बिभ्यद्धन॑मिच्छर्मांनो-ऽन्येषामस्तमुप नक्त॑मेति॥,ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति ॥ १० ॥ प्रथमा एकवचन में यह रूप बनता है।,प्रथमैकवचने रूपमिदम्‌। वहाँ रुद्र सूर्य का ही एक अंश है।,तत्र रुद्रः सूर्यस्य एकांशः इति। 2. ब्रह्माण्ड से बाहर भी सभी ओर व्याप्त होकर अवस्थित है।,2 ब्रह्माण्डाद्बहिरपि सर्वतो व्याप्यावस्थितः। ये शुक्लयजुर्वेद का एकत्रिशाध्याय (३१वां ) सूक्त है।,शुक्लयजुर्वेदस्य एकत्रिंशाध्याये सूक्तमिदमाम्नायते। केशाकेशि इत्यादि यहाँ उदाहरण हैं।,केशाकेशि इत्यादिकम्‌ इहोदाहरणम्‌। वहाँ अचानक विरोधियों का उपनिषद्‌ वाक्यों के मध्य में सामजस्य अच्छी प्रकार से प्रदर्शित करते है।,तत्र आपाततो विरोधिनाम्‌ उपनिषद्वाक्यानां समन्वयः सम्यक्‌ प्रदर्शितः। उस प्रकार का सभी जगह पर ही व्याप्त परमात्मा माया कल्पित इस जगत में विद्या लाभ योग्य श्रवणमनन निदिध्यासना अनुष्ठित मनुष्यादि शरीरों में साक्षी के रूप में स्थित होकर के हमेशा प्रकाशमान होता हुआ रुकता है।,"तादृशः अपरिच्छिन्नः, सर्वत्र एव व्याप्तः परमात्मा मायाकल्पिते अस्मिन्‌ जगति विद्यालाभयोग्येषु श्रवणमनननिदिध्यासनानुष्ठानवत्सु मनुष्यादिशरीरेषु साक्षितया स्थित्वा सर्वदा प्रकाशमानः तिष्ठति।" "इस मन्त्र को जानते हुए बहुत लोग वेदविहित सभी कर्मो को त्याग देते हैं, लेकिन वह उचित नहीं होता है।","मन्त्रममुं जानन्तो बहवो वेदविहितानि सर्वाणि कर्माणि रभसात्‌ त्यजन्ति, परन्तु तदनुचितम्‌।" सायणाचार्य के मत से आरण्यक नाम करण का सार्थक श्लोक को लिखिए?,सायणाचार्यमतेन आरण्यकनामकरणस्य सार्थकश्लोकं लिखत? जीव ब्रह्म जगत माया इत्यादि विषयों का आश्रय लेकर के उत्तर मीमांसा दर्शन प्रवृत्त हुआ है।,"जीवः, ब्रह्म, जगत्‌, माया इत्यादिविषयान्‌ आश्रित्य एव उत्तरमीमांसादर्शनं प्रवृत्तम्‌।" वक्षति - वह्-धातु से लृट स्यप्रत्यय करने पर यकार का छन्द में लोप होने पर वक्षति यह रूप बनता है।,वक्षति- वह्-धातोः लृटि स्यप्रत्यये यकारस्य छन्दसि लोपे वक्षति इति रूपम्‌। धातु का और प्रातिपदिक के स्वरों को अवलम्बन करके इस पाठ की रचना की है।,धातोः प्रातिपदिकस्य च स्वरम्‌ अवलम्ब्य पाठोऽयं विरचितो भवति। व्याख्या - पुरुषमन्त्र कहे है।,व्याख्या- पुरुषमन्त्रा उक्ताः। वहाँ “न जीत: अजीतः” इति नजूतत्पुरुषसमास।,"ततः ""न जीतः अजीतः"" इति नञ्तत्पुरुषसमासः।" संसार में चार वेद है।,जगति चत्वारः वेदाः सन्ति। स्वाध्यायोऽध्येतव्यः इस श्रुति वचन के अनुसार जो वेदों का साङ्ग विधिवत्‌ अध्ययन करके संशयाविरोधि निश्चयरूप से समग्र वेदार्थ को जानता है।,स्वाध्यायोऽध्येतव्यः इति श्रुतिवचनात्‌ यः वेदान्‌ साङ्गान्‌ विध्यनुसारेण अधीत्य संशयाविरोधिनिश्चयरूपेण च समग्रं वेदार्थं जानाति। स्वेदज अर्थात्‌ स्वेद से उत्पन्न होने वाले जू मच्छर आदि तथा मृत्तिका में उत्पन्न होने वाले लता वृक्षादि उद्भिज कहलाते हैं।,स्वेदेभ्यः जातानि यूकमशकादीनि स्वेदजानि। मृत्तिकाम्‌ उद्भिद्य जातानि लतावृक्षादीनि उद्किज्जानि। 4. पदसम्बन्धी जो विधि है वह समर्थ आश्रित होता है।,४. पदसम्बन्धी यो विधिः सः समर्थाश्रितो भवति। "अति = पार करके, अधिकं वा, अतिष्ठत्‌ = अवस्थित है।","अति= अतिक्रान्तं कृत्वा , अधिकं वा, अतिष्ठत्‌= अवस्थितः।" तथा उनकी प्राणवियोगानुकूल चेष्टा का अभाव।,तेषां प्राणवियोगानुकूलायाः चेष्टाया अभावश्च। "और इस प्रकार समानाधिकरणैः-समानाधिकरणों द्वारा, उपमानै:=उपमानों द्वारा, व्याघ्रादिभिः=व्याभ्र आदि द्वारा, सुबन्तैः=सुबन्तों द्वारा।",एवम्‌ समानाधिकरणैः उपमानैः व्याघ्रादिभिः सुबन्तैः इत्यर्थः । इस प्रकार से अन्तः करण मन तथा बुद्धि होती है।,मनः अन्तःकरणं भवति बुद्धिश्च। किस प्रकार का जुआरी ब्राह्मण आदि के घर में प्रवेश करता है।,कीदृशः कितवः ब्राह्मणादीनां गृहं प्रवशति ? अवसाननिर्णयशिक्षा- वैदिक व्याकरण सम्बन्धी पद प्रयोग नियमो के ज्ञान के लिए स्वर वर्ण आदि ज्ञान की सुलभता के लिए इस शिक्षा की रचना अनन्तदेव विद्वान ने की।,अवसाननिर्णयशिक्षा- वैदिकव्याकरणसम्बन्धिपदप्रयोगनियमानां ज्ञानाय स्वरवर्णादिज्ञानानां सौलभ्याय च इयं शिक्षा प्रणीता अनन्तदेवेन विदुषा। तब उस मात्रा को ही सम्पत्ति कह सकते हैं।,तदा तथा मात्रा एव सम्पत्तिः वक्तुं शक्यते। मोक्ष सर्वथा उपासनात्मक क्रियासाध्य नहीं होता है।,सर्वथा च नोपासनात्मकक्रियासाध्यो मोक्षः। कल्याणम्‌ यह उसका सामान्य अर्थ है।,कल्याणम्‌ इति तस्य सामान्यार्थः। स्व से समस्यमान पदों से विग्रह जिसका है वह स्वपद विग्रह है।,स्वैः समस्यमानैः पदैः विग्रहो यस्य स स्वपदविग्रहः। शप्‌ प्रत्यय के निर्देश से।,शप्प्रत्येन निर्देशात्‌। दर्शन शब्द कौ व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेदों को स्थापित करें अथवा पुरुषार्थ की सयुक्ति पूर्वक वर्णन करें।,दर्शनशब्दस्य व्युत्पत्तिभेदेन अर्थभेदान्‌ उपस्थापयत। अथवा पुरुषार्थं सयुक्ति विशयदयत। वह ब्रह्म महान लक्षण होने से ही ब्रह्म है।,ब्रह्म त्रयीलक्षणं तत्‌ ब्रह्मैव। अदिति पुरोडाश तथा अन्य चार देवओं के लिए तेज घृत व आज्य आहुति त्व का विधान है।,अदितये पुरोडाशः किञ्च अन्येभ्यः चतुर्भ्यः देवेभ्यः द्रुतं घृतम्‌ आज्यं वा आहुतित्वेन विहितं वर्तते। किन्तु स्वरित से परे अनुदात्त की एकश्रुति हो।,किञ्च स्वरितात्‌ परस्य अनुदात्तस्य एकश्रुतिः स्यात्‌। इसलिए यदि जीवन्मुक्ति को अङ्गीकार न करें तो इस श्रुति की अनुपपत्ति हो जाएगी।,अतः जीवन्मुक्तेः अङ्गीकारः न क्रियते चेत्‌ एतासां श्रुतीनाम्‌ अनुपपत्तिः भवेत्‌। व्याख्या - जिस मन से इसके चारो और विद्यमान वस्तुओं का ज्ञान है।,व्याख्या - येन मनसा इदं सर्वं परिगृहीतं परितः सर्वतो ज्ञातम्‌। अङ्क मूल्यांकन विधि और परीक्षा योजना ७ पत्र के (100) सौ अंक हैं।,अङ्कमूल्यायनप्रविधिः परीक्षायोजना च ७ पत्रस्य (१००) शतम्‌ अङ्काः सन्ति। यहाँ पहले अन्तःकरण की शुद्धि फिर ज्ञान प्राप्ति फिर सर्व कर्म संन्यास रूप ज्ञान निष्ठा की प्राप्ति इस प्रकार क्रम से परम शान्ति को प्राप्त होता है ।,अत्र भाष्ये भाष्यकारः साधनानां क्रमम्‌ आह- संत्त्वशुद्धि-ज्ञानप्राप्ति-सर्वकर्मसंन्यास- ज्ञाननिष्ठा-क्रमेणेति। सूत्र अर्थ का समन्वय- अक्षण्वन्तः यहाँ पर अन्तोदात्त नुद्‌ से मतुप्‌-प्रत्यय किया गया है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अक्षण्वन्तः इत्यत्र अन्तोदात्तनुडन्तात्‌ मतुप्‌-प्रत्ययः विहितः। यहां पर यह प्रमाण है कि जगत में कुछ विदुर धर्म व्याध आदि पुरुष उत्पन्न हुए है वे द्विजकुलो में उत्पन्न नहीं हुए अपितु अन्य कुलों में उत्पन्न हुए है।,अत्र प्रमाणं हि - जगति केचन विदुरधर्मव्याधादयः पुरुषाः समभूवन्‌ ये द्विजकुलेषु न उत्पन्नाः अपि तु अन्यकुले उत्पन्नाः अस्ति। अचो ञ्णिति सूत्र से ऋकार के स्थान पर वृद्धि करके कार्‌ अक होने पर और वर्णसम्मेलन में कारकः शब्द सिद्ध होता है।,अचो ञ्णिति इति सूत्रेण ऋकारस्य स्थाने वृद्धिं कृत्वा कार्‌ अक इति जाते वर्णसम्मेलने च सति कारक इति शब्दः सिध्यति। अथ कैसे वह विशाल मछली बनी।,अथ कस्मात्‌ सः शीघ्रमेव महामत्स्यः संवृत्तः। "जो भूत या अतीत जगत्‌, यच्च भव्य-भविष्य जगत्‌ वो सब भी पुरुष ही है।",यच्च भूतमतीतं जगत्‌ यच्च भव्यं भविष्यज्जगत्‌ तदपि पुरुष एव। वेदों की शेली ही रूपकमयी है।,वेदानां शैली एव रूपकमयी वर्तते। वेदाहमेतं पुरुषं म॒हान्त॑म्‌ यहाँ पुरुष का महत्त्व क्या है?,वेदाहमेतं पुरुषं म॒हान्त॑म्‌ इत्यत्र पुरुषस्य महत्त्वं किम्‌। वह वैद्यरूप से सभी को आरोग्य देता है।,सः वैद्यरूपेण सर्वान्‌ अरोग्यं ददाति। रोगहीन यह अर्थ है।,रोगहीनः इत्यर्थः। जो सभी जनों के आश्रयणीय होती है वो लक्ष्मी।,यया सर्वजनाश्रयणीयो भवति सा श्रीः । "तिङय्रत्यय जिनके अन्त में है, वे तिङन्त पद है।","तिङ्प्रत्ययः येषाम्‌ अन्ते अस्ति, तानि तिङन्तपदानि।" 9.संन्यास के भेद को लिखिए।,९ संन्यासभेदः लेख्यः। ऐन्द्र आदि ही प्रसिद्ध है।,ऐन्द्रादीनि एव प्रसिद्धानि। प्रदिवि - प्रपूर्वकदिव्‌-धातु से क्विप्‌प्रत्यय करने पर प्रदिव्‌-शब्द निष्पन्न हुआ।,प्रदिवि- प्रपूर्वकदिव्‌-धातोः क्विप्प्रत्यये प्रदिव्‌-शब्दः निष्पन्नः। इन विशेष संज्ञाओं से निर्युक्त जो समास है वही केवल समास अथवा सुप्सुपा समास कहलाता है।,एताभिः विशेषसंज्ञाभिः विनिर्मुक्तः यः समासः स एव केवलसमासः सुप्सुपा समासः इति वा अभिधीयते। जीवन में विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों में परस्पर कलह का कारण जानकर उनमें सौहार्द का निर्माण पुनः उत्पन्न करा सके ऐसा सामर्थ छात्रों में उत्पन्न हो।,जीवने विभिन्नानां दार्शनिकसम्प्रदायानां परस्परकलहस्य कारणं ज्ञात्वा तेषु सौहार्दस्य निर्माणाय प्रयतेत इति सामर्थ्यम्‌ छात्रस्य जायताम्‌। यहाँ बहु+अरत्निः इस अवस्था में यण आदेश करने पर बह्वरत्निः यह शब्द बनता है।,अत्र बहु+अरत्निः इत्यवस्थायां यणादेशे बह्वरत्निः इति भवति। "पाठगत प्रश्नों के उत्तर 1. आदित्य याज्ञवल्क्य ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, मन देवता।","पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि १ . आदित्य याज्ञवल्क्यः ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, मनः देवता।" अम्भृण ऋषि की कन्या वाग्‌ इसकी ऋषिका है।,अम्भृणर्षेः कन्या वाग्‌ अस्यर्षिः। "जैसा कि शतपथ ब्राह्मण में कहा है - ""अथ यस्मात्‌ पुरुषमेधो नामेमे वै लोकाः पूरयमेव पुरुषोऽयं पवते सोऽस्यां पुरि शेते तस्मात्‌ पुरुषः।""","यथोक्तं शतपथब्राह्मणे - ""अथ यस्मात्‌ पुरुषमेधो नामेमे वै लोकाः पूरयमेव पुरुषोऽयं पवते सोऽस्यां पुरि शेते तस्मात्‌ पुरुषः।""" देवराजयज्वाने अपने भाष्य के उपजीव्य के रूप में क्षीरस्वामी तथा अनन्त आचार्य की निघण्टु व्याख्या का उल्लेख किया है।,देवराजयज्वा स्वभाष्यस्य उपोद्धाते क्षीरस्वामिनः तथा अनन्ताचार्यस्य निघण्टुव्याख्यायाः उल्लेखं कृतवान्‌। तब षट्‌-शब्द ही पाद के आदि में रहता है।,तदा षट्-शब्दः एव पादादौ तिष्ठति। एवं “'परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुलौकिकः'' यह लौकिक विग्रह वाक्य लक्षण है।,"एवं ""परिनिष्ठितत्वात्‌ साधुर्लौकिकः"" इति लौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌।" जो अनभिज्ञो के द्वारा इस प्रकार से कहा गया है की मुख्य तो सत्रह रूपों में ही होता है।,तदुक्तमभिज्ञैः मुख्यं तु सप्तदशकं प्रथितं हि लिङ्गम्‌ इति। अथर्ववेद के परिशिष्ट में लिखा है कि - जिस राज्य में अथवा राजा के जनपद में अथर्ववेद का ज्ञाता रहता है उस राष्ट्र में उपद्रव आदि नहीं रहते हैं और वह राष्ट्र भी शीघ्र ही वृद्धि को प्राप्त होता है।,अथर्ववेदस्य परिशिष्टे लिखितम्‌ अस्ति- यस्य राज्ञः जनपदे अथर्ववेदस्य ज्ञाता निवसति तस्य राष्ट्र उपद्रवादिकं न तिष्ठति अपि च तद्राष्टं शीघ्रमेव वृद्धिम्‌ अभिगच्छति इति। ` अन प्राणने' धातु शतुरनुम:...' से विभक्ति को उदात्त।,'अन प्राणने'। आदादिकः। 'शतुरनुमः...' इति विभक्तेरुदात्तत्वम्‌। आरण्य पशु हरिणादि है।,आरण्या हरिणादयः। "और वे होता, पोता, मैत्रावरुण, ग्राववरुण, ब्राह्मणाच्छंदस, आच्छावाक और अग्नीद है।","ते च होता , पोता , मैत्रावरुणः , ग्राववरुणः , ब्राह्मणाच्छंदसी , आच्छावाक्‌ एवम्‌ अग्नीदः।" उनमें ङीप्‌ प्रत्यय भी एक है।,तेषु ङीप्प्रत्ययः अपि एकः। इस प्रकार से यह बुद्धिवृत्ति विद्या आत्मा की आवरक अविद्या का नाश करती है।,एवञ्च इयं बुद्धिवृत्तिः विद्या आत्मावरकाम्‌ अविद्यां नाशयति। इस प्रकाण्ड सृष्टि तत्त्व का मूलभूत्‌ सर्वव्यापी और सुमहान्‌ ईश्वर ही है।,अस्य प्रकाण्डस्य सृष्टितत्त्वस्य मूलभूतः सर्वव्यापी सुमहान्‌ ईश्वरः अस्ति। जीवन्मुक्त यदि प्रपञ्च को मिथ्यावत्‌ जानता है तो जीवन्मुक्त की पापपुण्य में भी मिथ्यादृष्टि होनी चाहिए फिर तो जीवन्मुक्त में स्वच्छाचार प्रसङ्ग दोष भी आता है।,जीवन्मुक्तः यदि प्रपञ्चं मिथ्यावत्‌ जानाति तर्हि जीवन्मुक्तस्य पापपुण्ययोरपि मिथ्यादृष्टिः स्यात्‌। तथात्वे जीवन्मुक्तस्य स्वेच्छाचारप्रसङ्गः समापतेत्‌। सुबन्त आमन्त्रित में परे पर का अङ्गवद्‌ होता है स्वर करने में।,सुबन्तमामन्त्रिते परे परस्याङ्गवद्‌ भवति स्वरे कर्तव्ये। ऋग्वेद में अतिशयोक्ति के अनेक उदाहरण हैं।,ऋग्वेदे अतिशयोक्त्याः प्रख्यातम्‌ उदाहरणम्‌ अस्ति। "तथाहि - ष्वायुश्चान्तरिक्षं चौतदमृतम (बृ. उ. 2.3.3) इति, ` आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः' (शतपथब्राह्मणम्‌ 10. 6.3.2 ) इस प्रकार से।","तथाहि - ""वायुश्चान्तरिक्षं चैतदमृतम्‌"" (बृ. उ. २.३.३) इति, ""आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः"" (शतपथब्राह्मणम्‌ १०.६.३.२) इति च।" उसने जान लिया की कृषि कर्म ही प्रकृत और सुखकारी कार्य है।,सः ज्ञातवान्‌ कृषिकर्म एव प्रकृतं सुखकरं कर्म । "“सर्व खल्विदं ब्रह्म”, “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्‌” इत्यादि श्रुतियों के सभी विषयों में आत्मानुभव होने पर दग्धपटन्याय से प्रपञ्चभान सत्य होने पर भी अद्वैतवस्तु भासित होती है।","“सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्‌” - इत्यादिश्रुतेः सर्वेषु विषयेषु सति दग्धपटन्यायेन प्रपञ्चभाने सत्यपि अद्वैतं वस्तु भासते।" इस सूक्त में सौ शरद ऋतु तक तथा सौ हेमन्त ऋतु तक जीवन के लिए अनेक प्रकार की मृत्यु से रक्षा के लिए अनेक रोगों से रक्षा के लिए प्रार्थना प्राप्त होती है।,"अस्मिन्‌ सूक्ते शतशरत्पर्यन्तं तथा शतहेमन्तपर्यन्तं जीवनाय, बहुविधमृत्युभ्यः त्राणाय, विविधरोगेभ्यः रक्षणाय च प्रार्थना समुपलब्धा भवति।" यह सुनकर के यदि वह कुएँ के पास चला जाए तो उसके इस विश्वास को श्रद्धा कह सकते हैं।,श्रुत्वा यदि कूपं प्रति गच्छेत्‌ तर्हि तस्य अयं विश्वासः श्रद्धा कथितुम्‌ शक्यते। एतावानस्य महिमा ... इस प्रतीकरूप में उद्धृत मन्त्र को सम्पूर्ण लिखकर व्याख्या करो।,एतावानस्य महिमा...इति प्रतीकोद्धृतम्‌ मन्त्रं सम्पूर्णम्‌ उद्धृत्य व्याख्यात। "अमुं म इषाण- इस लोक को मेरे कर्मफल लिए चाहा, सर्वलोक मेरे लिए ही बनाया अर्थात ये सब में ही हूँ और सभी को अपनी तरह से चाहता हूँ या कामना करता हूँ।","अमुं म इषाण-अमुं लोकं मे मदीयत्वेन इषाण इच्छ, सर्वलोकं मे मदीयत्वेन इषाण इच्छ आत्मत्वेन वा इषाण, अहम्‌ एव इदं सर्वमिति सर्वात्मभावम्‌ एव इच्छ इति।" कवि किसको साधकर काव्य को लिखते हैं?,कविः किं साधयितुं काव्यं करोति? क्योंकि इन अलङ्कारों के द्वारा अनेक सूक्ष्म अर्थ प्रकाशित होता था।,यतो हि एभिः अलङ्कारैः नैके सूक्ष्मार्थाः प्रकाशिताः अभवन्‌। "इस प्रकार से विचार करके ही उन्होंने अपने द्वारा प्रतिष्ठित संन्यासी संघ के आदर्श रूप में यह वचन दिया “ आत्म मोक्ष के लिए हैं तथा जगत्‌ के लिए है ""।","इत्थं विचिन्त्य एव स स्वप्रतिष्ठितस्य सन्न्यासिसङ्घस्य आदर्शरूपेण ""आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च” वचनं निरूपयामास।" इसके बाद तदत्तविधि से गो अन्त से आता है।,ततः तदन्तविधिना गोऽन्ताद्‌ इति समायाति । तब इन्द्र ने प्रत्युत्तर दिया की यदि यह कहते हो कि मैं कः होऊ।,तदा स इन्द्रः प्रत्यूचे यदि इदं ब्रवीषि यद्‌ अहं कः स्यामिति। जो सम्बन अवशिष्ट आदि में इस तीसरे पाठ में अधिकारी का जो सम्बन्ध है उसका अवशिष्ट भाग ही आदि में उपस्थापित किया गया है।,अस्मिन्‌ तृतीये पाठे अधिकारी इति यो संबन्धः तस्यैव अवशिष्टभागः आदौ उपस्थापितः अस्ति। यहाँ पञ्चमी इस प्रथमा एकवचनान्त तथा भयेन यह तृतीया एक वचनान्त पद हैं।,तत्र पञ्चमी इति प्रथमैकवचनान्तं तथा भयेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। शुक्लयजुर्वेदसंहिता का सोलहवाँ अध्याय रुद्राध्यायनाम से प्रसिद्ध है।,शुक्लयजुर्वेदसंहितायाः षोडशः अध्यायः रुद्राध्यायनाम्ना प्रसिद्धः। और पुरुषके पुत्रपौत्रादिजगत्‌ जङ्गम अन्य गाय आदि पशुओं को मत मारो ॥,किंच पुरुषं पुत्रपौत्रादिकं जगत्‌ जङ्गममन्यदपि गवाश्वादिकं मा हिंसीः म वधीः॥ पद का अर्थ ही पदार्थ है।,पदस्यार्थः पदार्थः। निवेशनी - नि उपपद विश-धातु से ल्युट ङीप करने पर।,निवेशनी- न्युपपदात्‌ विश्‌-धातोः ल्युटि ङीपि। "सूत्र में सम्बुद्धौ इस पद से “एकवचनं सम्बुद्धि:' इस सूत्र से निर्दिष्ट पारिभाषिक सम्बुद्धि शब्द का बोध नहीं करना है, अपितु सम्बुद्धि:- भली प्रकार से किसी को बुलाना यह अर्थ लिया है।","सूत्रे सम्बुद्धौ इति पदेन न हि ""एकवचनं सम्बुद्धिः' इति सूत्रेण निर्दिष्टः पारिभाषिकः सम्बुद्धिशब्दः बोध्यः, अपि तु सम्बुद्धिः इति शब्दः अत्र अन्वर्थः।" सुषुप्ति अवस्था में आत्मा का प्राज्ञ इस प्रकार का नाम भी होता है।,सुषुप्त्यवस्थायाम्‌ आत्मनः प्राज्ञ इति नाम। 3. दूरङ्गमम्‌ यहाँ पर प्रत्यय क्या है?,३. दूरङ्गमम्‌ इत्यत्र कः प्रत्ययः? 26. “प्रयोगानर्हः असाधुरलौकिकः'' यह अलौकिक विग्रह वाक्य लक्षण है।,"२६. ""प्रयोगानर्हः असाधुरलौकिकः"" इति अलौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌।" सत्यधर्म सविता सभी जगत के प्ररेक सूर्य देव के समान।,सत्यधर्मा । सविता सर्वस्य जगतः प्ररेकः सूर्यो देव इव । यहाँ धनशब्द में उत्तर पद पर से “'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारेच'' इस सूत्र से बहुव्रीहि गर्भ में संख्या वाचि पञ्चन शब्द का समानाधिकरण गो पद से साक (साथ) विकल्प के साथ अवात्तर तत्पुरुषसमास में प्राप्त होने पर “' द्वन्दतत्पुरुषयोरुणरपदे नित्यसमासवचनम्‌ '' इससे नित्य समास होने पर पञ्चन्‌ का उपसर्जन से पूर्व निपात होने पर “न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य'' इससे लोप होने पर पञ्च गो धन इस (दशा) स्थिति में समासान्त विधायक सूत्र प्रवृत्त होता है।,"अत्र धनशब्दे उत्तरपदे परतः ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रेण बहुव्रीहिगर्भे संख्यावाचिपञ्चन्शब्दस्य समानाधिकरणेन गोपदेन साकं विकल्पेन अवान्तरतत्पुरुषसमासे प्राप्ते ""द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम्‌"" इत्यनेन नित्ये समासे पञ्चन्‌ इत्यस्य उपसर्जनत्वात्पूर्वनिपाते नकारस्य ""न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य"" इत्यनेन लोपे पञ्च गो धन इति स्थिते समासान्तविधायकं सूत्रं प्रवर्तते ।" द्वितीय मन्त्र में विश्वकर्मा गर्जना युक्त वज्र का निर्माण किया।,ततः द्वितीये मन्त्रे विश्वकर्मा गर्जन्तं वज्रं निर्मितवान्‌। "मौद शाखा विशेषज्ञ अथवा जलद शाखा विशेषज्ञ पुरोहित जिस राष्ट्र में रहता है, उस राष्ट्र का विनाश होता है - “पुरोधा जलदो यस्य मौदो वा स्यात्‌ कदाचन।","मौद-शाखा- विशेषज्ञः अथवा जलदशाखाविशेषज्ञः पुरोहितः यस्मिन्‌ राष्ट्र निवसति, तस्य राष्ट्रस्य विनाशः भवति - 'पुरोधा जलदो यस्य मौदो वा स्यात्‌ कदाचन।" यहाँ गुरू उपदेश ही मुख्य प्रयोजन बताते है।,गुरूपदेशोऽत्र मुख्यं प्रयोजनम्‌ आवहति। गो शब्दान्त तत्पुरुष से समासान्त टच्‌ प्रत्यय होता है तद्धित लोप होने पर नहीं होता है।,गोशब्दान्तात्‌ तत्पुरुषात्‌ समासान्तः टच्प्रत्ययो भवति न तद्धितलुकि । रुद्रशब्द का तृतीयाबहुवचन में वैदिक रूप क्या है?,रुद्रशब्दस्य तृतीयाबहुवचने वैदिकं रूपं किं भवति। अतः उससे परे नदीसंज्ञक ङीप्प्रत्यय ईकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः तस्मात्‌ परस्य नदीसंज्ञकस्य ङीप्प्रत्ययस्य ईकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं विधीयते। 27. निर्विकल्पसमाधि में तथा सुषुप्ति में क्या भेद होता है?,२७. निर्विकल्पकसमाधेः सुषुप्तेश्च को भेदः? वेद ज्ञान के विशाल पर्वत हैं।,वेदो ज्ञानस्य महापर्वतः। सूत्र का अर्थ- पूजन वाची शब्दों से उत्तर काष्ठ आदि पूजित वाची को अनुदात्त होता है।,सूत्रार्थः - पूजनेभ्यः काष्ठादिभ्यः पूजितवचनम्‌ अनुदात्तं भवति। अर्थात्‌ स्वस्वरूप अखण्ड ब्रह्मज्ञान के द्वारा उस अज्ञान का बाध करके स्वस्वरूप अखण्डब्रह्म में साक्षात्कार करने पर अज्ञान तथा अज्ञान के कार्य कर्म संशय विपर्ययादि का भी नाश होने पर जो अखिलबन्धरहित ब्रह्मनिष्ठ होता है वह जीवन्मुक्त कहलाता है।,"यत्‌ ""जीवन्मुक्तो नाम स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन तदज्ञानबाधनद्वारा स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मणि साक्षात्कृते अज्ञानतत्कार्यसञ्चित-कर्म-संशय-विपर्ययादीनाम्‌ अपि बाधितत्वात्‌ अखिलबन्धरहितः ब्रह्मनिष्ठः"" इति।" 45. द्वित्राः यहाँ उभयपदार्थ का प्राधान्य है और अन्य पदार्थ का प्राधान्य भाव।,"४५. द्वित्राः इत्यत्र उभयपदार्थस्य प्राधान्यमस्ति, अन्यपदार्थस्य च प्राधान्याभावः।" "(ईशोपनिषत्‌ 6,7) इस प्रकार से विचार पूर्वक ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश होने पर आत्मस्वरूप का जब ज्ञान होता है तब वह मुक्त जन सभी स्थानों पर आत्मा को देखते हुए प्रसन्न होता है।","(ईशोपनिषत्‌ ६,७) इत्थं विचारपूर्वकज्ञानेन अज्ञाननाशे सति आत्मस्वरूपं ज्ञातं भवति, तदा मुक्तः जनः सर्वत्र आत्मानम्‌ एव पश्यन्‌ मोमुद्यते।" """तद्धिताः"", ""समासान्ताः"", ""प्रत्ययः"", ""परश्च"" यह चार सूत्र अधिकार है।","""तद्धिताः"", ""समासान्ताः"", ""प्रत्ययः"", ""परश्च"" इति सूत्रचतुष्कस्य अत्र अधिकारः।" ऋग्वेद में एक प्रसिद्ध देव की स्तुति विधान करने के लिये अभीष्ट सिद्धि के लिये वह देव को प्रार्थना करते है।,ऋग्वेदे एकस्य प्रसिद्धदेवस्य स्तुतिं विधाय अभीष्टसिद्ध्यर्थं सः देवः प्रार्थ्यते। तब तक शास्त्र का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है।,तावत्पर्यन्तं शास्त्रस्य यथार्थज्ञानं न भवति। और माया जगत का विवर्त कारण है।,माया च जगदाकारेण विवर्तते। सामवेद के पञ्चविंश ब्राह्मण में विविध सत्र याग की विधि और अनुष्ठान का स्वरूप वर्णित है।,सामवेदस्य पञ्चविंशब्राह्मणे विविधसत्रयागस्य विधिः अनुष्ठानस्वरूपं च वर्णितम्‌। जो तीनों कालों में होती है वह नित्यवस्तु होती है उस प्रकार का तो केवल ब्रह्म ही है।,त्रिकालाबाध्यत्वं नित्यत्वम्‌। तादृशम्‌ एकं ब्रह्म एव विद्यते। सुब्रह्मण्यायाम्‌ इसके सुब्रह्मण्य नाम यजुर्वेद के मन्त्र विशेष में इस अर्थ में।,सुब्रह्मण्यायाम्‌ इत्यस्य सुब्रह्मण्यनामके यजुर्वेदस्य मन्त्रविशेषे इत्यर्थः। प्रकृत्या इसका अर्थ स्वभाव से।,प्रकृत्या इत्यस्य अर्थः स्वभावेन अवतिष्ठते इति। "नित्यकर्म के द्वारा अनुष्ठीयमान से अन्य कर्म का फल भोगा जाता है, इस प्रकार से मानने पर ही वह उपभोग नित्यकर्म का फल होता है तथा नित्यकर्म का फलाभाव इसके विरुद्ध कहा जाता है।","नित्यकर्मणा अनुष्ठीयमानेन अन्यस्य कर्मणः फलं भुज्यते इति अभ्युपगम्यमाने स एव उपभोगः नित्यस्य कर्मणः फलम्‌ इति, नित्यस्य कर्मणः फलाभाव इति च विरुद्धम्‌ उच्यते।" स्था-धातु से लिट्‌-लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में।,स्था-धातोः लिट्-लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने। वह श्रृंगार रस संभोग श्रृंगार और विप्रलम्भ शृंगार भेद से दो प्रकार का है।,स शृङ्गाररसः संभोगशृङ्गारः विप्रलम्भशृङ्गारः इति भेदेन द्विविधः वर्तते। पतञ्जलि ने इस प्रकार से कहा है - “स्थिरसुखम्‌ आसनम्‌” इति।,सूत्रितं च पतञ्जलिना - “स्थिरसुखम्‌ आसनम्‌” इति। इसलिए कहा जाता है कि देहादि के व्यापार से अव्यापृत आत्मा भी कर्ता तथा भोक्ता होता है।,तस्मात्‌ असदेव एतत्‌ गीयते 'देहादीनां व्यापारेण अव्यापृतः आत्मा कर्ता भोक्ता च स्यात्‌' इति। क्या उत्पत्ति से पहले आकाश अच्छिद्र हुआ इस प्रकार से इस समझा जा सकता है।,किं हि प्रागुत्पत्तेः अनवकाशम्‌ अच्छिद्रं बभूवेति शक्यतेऽध्यवसातुम्‌। इसलिए वह यज्ञ के निमित्तक कर्म होता है।,तस्मात्‌ स यागो नैमित्तिकं कर्म। अन्वय - यस्यां पूर्वे पूर्वजनाः विचक्रिरे यस्यां देवाः असुरान्‌ अभ्यवर्तयन्‌।,अन्वयः- यस्यां पूर्वे पूर्वजनाः विचक्रिरे यस्यां देवाः असुरान्‌ अभ्यवर्तयन्‌। “किमः क्षेपे” इस सूत्र का उदाहरण है?,"""किमः क्षेपे"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" 10. प्रज्ञानम्‌ यहाँ पर ल्युट्‌ किस अर्थ में है?,१०. प्रज्ञानम्‌ इत्यत्र ल्युट्‌ कस्मिन्‌ अर्थ? और प्रतिभाग के अनुष्ठान काल में छः माह लगते हैं प्रतिमास में तीस दिनों का अनुष्ठान भी विहित है।,"अपि च प्रतिभागस्य अनुष्ठानकाले मासषट्कं, किञ्च प्रतिमासे त्रिंशद्दिवसस्य अनुष्ठानमपि विहितम्‌।" यदि उपपद समास के उत्तरपद में कोई कृदन्त पद रहता तो उस कृदन्त पद को प्रकृति से ही उदात्त होता है।,यदि उपपदसमासस्य उत्तरपदे किमपि कृदन्तं पदं तिष्ठति तर्हि तत्‌ कृदन्तपदं प्रकृत्या एव उदात्तः भवति। प्रजापतिश्चरति गर्भे ... मन्त्रांश किस सूक्त का है और यहाँ प्रजापति कौन है?,प्रजापतिश्चरति गर्भे .. मन्त्रांशः कस्य सूक्तस्य। कश्चात्र प्रजापतिः। निकृत्वानः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ।,निकृत्वानः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? वाक्सूक्त में ( ऋग्‌ १०।१४५ ) कहा गया है- श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि।,वाक्सूक्ते (ऋग्‌ १०।१४५) कथितमस्ति- श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि। निष्कैवल्य शस्त्र का वर्णन है।,निष्कैवल्यशस्त्रस्य वर्णनमस्ति। 'चिती संज्ञाने' इस ण्यन्तहोने से असुन्प्रत्यय हुआ।,'चिती संज्ञाने' अस्मात्‌ ण्यन्ताद्‌ असुन्प्रत्ययः। दूसरे दिन - गोष्टोम।,द्वितीयदिवसः- गोष्टोमः। क्या यहाँ पर मीमांसा फलित होती है।,किं पुनरत्र मीमांसाफलम्‌। इस अधिकार में कहे हुए शब्दों को द्वित्व होता है।,अस्मिन्‌ अधिकारे उक्तानां शब्दानाम्‌ द्वित्वं भवति। मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है वह बहुत पुण्यों के साधन के स्वरूप प्राप्त होता है।,अस्मिन्‌ साधनायाः उपक्रमः कृतः। नरजन्म दुर्लभम्‌ बहुपुण्यसाध्यत्वात्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- आढ्यः भूतपूर्वः इस विग्रह में आढ्यपूर्व: यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- आढ्यः भूतपूर्वः इति विग्रहे आढ्यपूर्वः इति रूपम्‌। """संख्ययाव्ययासन्नदूराधिकसंख्याः संख्येये"" इस सूत्र से द्वौ च त्रयः च इस लौकिक विग्रह में समास होने पर द्वित्राः रूप निष्पन्न होते हैं।","""संख्ययाव्ययासन्नदूराधिकसंख्याः संख्येये"" इत्यनेन सूत्रेण द्वौ च त्रयश्च इति लौकिकविग्रहे समासे द्वित्राः इति रूपं निष्पद्यते।" 4. विधेम ये रूप कैसे सिद्ध होगा?,4. विधेम इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। व्याख्या - हे इन्द्र जब तुमने वृत्र को मारा उस समय तुम्हारे हृदय चित्त में कोई भी भय नहीं था उस समय तुमने सहायक के रूप में किसी भी वृत्रहन्ता को नहीं देखा तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी पुरुष ऐसा करने में असमर्थ था।,व्याख्या- हे इन्द्र जघ्नुषः वृत्रं हतवतः तव हृदि चित्ते यत्‌ यदि भीरगच्छत्‌ न हतवानस्मीति बुद्ध्या भयं प्राप्नुयात्‌ तर्हि अहेः वृत्रस्य यातारं हन्तारं कमपश्यः त्वत्तोऽन्यं कं पुरुषं दृष्टवानसि। परमेश्वर से भय ' भीषास्माद्वातः पवते' (तै० आ० ८.८.१) इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है।,परमेश्वराद्भीतिः “भीषास्माद्वातः पवते' (तै० आ० ८.८.१) इत्यादिश्रुतिषु प्रसिद्धा। दशाङ्गुलम्‌ = दशाङ्गुल परिमाण देश।,दशाङ्कुलम्‌=दशाङ्कुलपरिमितं देशम्‌। घृत आदि शब्दों का अन्त्य स्वर उदात्त होता है।,घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्वरः उदात्तः भवति। समास में एक ही उदात स्वर होता है।,समासे एक एव उदात्तः स्वरः भवति। वेदों में प्रशंसनीय अलङ्कार कौन सा है?,वेदेषु प्रशंसनीयः अलङ्कार कः अस्ति? “ प्रशंसावचनैश्च “ सूत्र की व्याख्या की गई है ।,""" प्रशंसावचनैश्च "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" 6. नीचावया: इसका क्या अर्थ है?,6. नीचावयाः इत्यस्य कः अर्थः। 26. उदाहरण सहित अलौकिक विग्रह का लक्षण लिखो?,२६. सोदाहरणम्‌ अलौकिकविग्रहलक्षणं लिखत। बाल्ययौवनादि भी देह के धर्म होते हैं।,बाल्ययौवनादिकं देहस्य धर्मः। मधुर पूर्णगति से रथ अपने नेमी सहित घुमे।,रथाः मधुररूपेण सम्पूर्णवेगेन धावितवन्तः। ब्रह्म के अपरोक्षज्ञान से वह जीवन मुक्त कहलाता है।,ब्रह्मणः अपरोक्षज्ञानत्वात्‌ स जीवन्मुक्तः इति उच्यते। "ईश्वर की आराधना के द्वारा,पूजन के द्वारा,योगमार्ग के द्वारा;तथा केवल्य प्राप्त नहीं होता है।","ईश्वराराधनेन, ईश्वरपूजनेन, योगमार्गेण द्वैतमार्गेण वा कैवल्यं न लभ्यते।" वीप्सारूप में यथा अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण है प्रत्यर्थम्‌।,वीप्सारूपे यथार्थे अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति प्रत्यर्थम्‌ इति। प्रारब्ध समाप्त होने पर मृत्यु हो जाती है।,प्रारब्धं समाप्तं चेत्‌ मृत्युः भवति। क्षत्रिय इसके हस्त थे अर्थात्‌ हाथों से उत्पन्न हुए।,क्षत्रियः अस्य हस्तः आसीत्‌ अर्थात्‌ हस्ताभ्याम्‌ उत्पन्नः। अभिमानात्मक वृत्ति वाला अहङकार होता है।,अभिमानात्मिकान्तःकरणवृत्तिः अहङ्करः। यहाँ पूर्वपद द्वितीयान्त और अन्तोदात्त है।,"अत्र पूर्वपदं द्वितीयान्तम्‌, अन्तोदात्तं च।" 4. तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणी।,4. सर्वाणि भूतानि कालत्रयवर्तीनि प्राणिजातानि। "जिसको श्रुतियों में इस प्रकार कहा गया है कि ' येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌' (छा. उ. 6.1.3) इति, ` आत्मनि खल्वरे दुष्टे श्रुते मते विज्ञाते इद्‌ सर्व विदितम्‌' (बृ. उ. 4.5.6) इति, ` कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति' (मु.उ. 1.1.3) इस प्रकार से।","तथाहि श्रुतयः - ""येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌"" (छा. उ.६.१.३) इति, ""आत्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञाते इदं सर्वं विदितम्‌"" (बृ. उ. ४.५.६) इति, ""कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति"" (मु. उ. १.१.३) इति।" इस पाठ में कुछ अन्य आचार्यो के मत का भी संग्रह किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे क्वचित्‌ अन्येषाम्‌ आचार्याणाम्‌ मतस्यापि संग्रहः कृतोऽस्ति। अतः यजमान यदि पशुमांस को खाता है तो वह यजमान के लिए स्वमांस भक्षण के समान होगा।,अतः यजमानः यदि पशुमांसं भुङ्क्ते तर्हि तत्‌ यजमानस्य कृते स्वमांसभक्षणसमानं भविष्यति। न उत्तमम्‌ इति अनुत्तमम्‌ यहाँ नञ्तत्पुरुष समास है।,न उत्तमम्‌ इति अनुत्तमम्‌ इति नञ्तत्पुरुषसमासः। छन्द सूक्त क्या है?,किं छन्दःसूक्तम्‌? "इसकी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि आदि अवस्थाएँ होती हैं।",अस्यैव भवन्ति जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यवस्थाः समाधिश्च। यहाँ दो भाग किये जाते हैं।,अत्र द्वौ भागौ क्रियेते। यदपूर्व यक्षमन्त प्रजानां तन्मे मन शिवसङ्कल्पमस्तु ॥२ ॥,यदपूर्वं यक्षमन्त प्रजानां तन्मे मन शिवसङ्कल्पमस्तु ॥२ ॥ इसलिए उसका संक्षेप से सार यहाँ प्रदान रूप से दिया गया है।,अतः तस्य संक्षेपेण सारोऽत्र प्रदीयते। "यहाँ यथाक्रमम्‌, उपशरदम्‌, अध्यात्मम्‌, इत्यादि उदाहरण हैं।","अत्र यथाक्रमम्‌ उपशरदम्‌, अध्यात्मम्‌ इत्यादिकमुदाहरणम्‌।" विद्यारण्य स्वामी ने तो निदिध्यासन का लक्षण कहकर के उससे भिन्न समाधि का लक्षण कहा है।,विद्यारण्यस्वामिनस्तु निदिध्यासनलक्षणम्‌ उक्त्वा ततो भिन्नतया समाधेः लक्षणमाहुः। यहाँ “न”' लुप्तषष्ठी एकवचनात्त पद हैं।,अत्र न इति लुप्तषष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌ । अर्थात्‌ जो शरीर मैं पन वाली तादात्म्य बुद्धि करता है वह मूढ होता है।,शरीरे अहमिति तादात्म्यबुद्धिं करोति मूढः इति तात्पर्यम्‌। 8.निवर्तित बाह्येन्द्रियों का तथा मन का श्रवणादि व्यतिरिक्त विषयों से उपरण करवाना ही उपरति होती है।,८. निवर्तितानाम्‌ बाह्येन्द्रियाणाम्‌ मनसः च श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः उपरमणम्‌ उपरतिः इति। इन पञ्चीकृत भूतों से चौदह भुवन अथवा लोक उत्पन्न होते है।,एतेभ्यः पञ्चीकृतभूतेभ्यः चतुर्दश भुवनानि लोकाः वा उत्पद्यन्ते। 13. तृतीया विभक्ति में।,13. तृतीया। विराट स्वरूप पुरुष सहस्र शिरों से युक्त और सहस्राक्ष से युक्त है।,स विराडाख्यः पुरुषः सहस्रशिरोयुक्तः सहस्राक्षियुक्तः। अनुदात्तस्य च यत्र उदात्तलोपः इस सूत्र में आये पदच्छेद है।,अनुदात्तस्य च यत्र उदात्तलोपः इति सूत्रगतपदच्छेदः। पूरण अर्थ से निषेध होने पर उदाहरण है-सतां षष्ठः।,पूरणार्थन निषेधे सतां षष्ठः इत्याद्युदाहरणम्‌। दो अनुष्टुप्।,द्वे अनुष्टुभौ। यह इन्द्र अस्त्रों के मध्य- मध्य में बाण को भी धारण करता है।,अयम्‌ इन्द्रः अस्त्रत्वेन मध्ये मध्ये बाणमपि धारयति। मैं ही इस पृथिवी परमात्मा के शिर के ऊर्ध्वभाग को अथवा द्युलोक की रचना करती हूँ।,अहमेव अस्याः पृथिव्याः परमात्मनः शिरसि ऊर्ध्वभागे वा द्युलोकं सृजामि। इस प्रकार से विवेकानन्द के जीवन में रामकृष्ण का सायुज्य देखा जाता है।,अतः विवेकानन्दस्य दर्शनं श्रीरामकृष्णदर्शनसायुज्येन द्रष्टव्यम्‌। अत एव अविग्रह अथवा अस्वपदविग्रह नित्यसमास होता है।,अत एव अविग्रहः अस्वपदविग्रहो वा भवति नित्यसमासः। "जीवसे, अवसे इन स्थानों पर ऋग्वेद के दसवें मण्डल में क्या प्रयोग किया है?",जीवसे अवसे इत्यनयोः स्थलयोः ऋग्वेदस्य दशममण्डले किं प्रयुक्तं दृश्यते? लोक में पुरुषों के द्वारा जिसे चाहा गया है वह पुरुषार्थ होता है।,लोके प्रार्थ्यते यत्‌ पुरुषैः स पुरुषार्थः। उस मनुष्य के लिये घर नहीं होता है।,तस्मै जनाय गृहं न भवति। "यह तैत्तिरीय श्रुति अन्यथा परिणित करने में असम्भव मानती है, लेकिन छान्दोग्य श्रुति सम्भव मानती है।",अशक्या हीयं तैत्तिरीयश्रुतिः अन्यथा परिणेतुम्‌; शक्या तु परिणेतुं छान्दोग्यश्रुतिः - हमारे द्वारा यह भी जानना चाहिए की एक ही सत्य को बहुत प्रकार से प्रकाशित किया गया है।,“अस्माभिः ज्ञातव्यं यद्‌ एकमेव सत्यं लक्षधा प्रकाशम्‌ इयात्‌। "साधनचतुष्टय केवल अवशिष्ट है जिसे इस पाठ में उपस्थापित करके अवशिष्ट तीन अनुबन्ध, विषय, सम्बन्ध तथा प्रयोजन के विषय में भी बताया जाएगा।",साधनचतुष्टम्‌ अवशिष्टम्‌ अस्ति। तदस्मिन्‌ प्रकृते पाठे उपस्थाप्य अवशिष्टाः त्रयोऽनुबन्धाः विषयसम्बन्धप्रयोजनानि वक्ष्यन्ते। इस सूक्त में सृष्टि विषयक वर्णन है।,अस्मिन्‌ सूक्ते सृष्टिविषयकवर्णनम्‌ अस्ति। और स्वरित के अभाव में “एकादेश उदात्तेनोदात्त:' इस सूत्र से उदात्त होता है।,स्वरिताभावे च 'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रेण उदात्तः भवति। "वेद के दो सम्प्रदाय है - १) ब्रह्म सम्प्रदाय, २) और आदित्य सम्प्रदाय है।","वेदस्य द्वौ सम्प्रदायौ स्तः- १) ब्रह्मसम्प्रदायः, २) आदित्यसम्प्रदायः चेति।" फिर उस्ले अलग से वेदान्तशास्त्र के ज्ञान के लिए योग्यता अर्जित नहीं करना चाहिए।,तस्मात्‌ पृथक्तया वेदान्तशास्त्रस्य ज्ञानाय योग्यता न अर्जनीया। सूर्य का मध्यभाग के कण्ठ का नीलवर्ण रूप से प्रतीयमान होने से सूर्य का नाम नीलकण्ठ हुआ।,सूर्यस्यापि मध्यभागस्य कण्ठस्य नीलवर्णत्वेन प्रतीयमानत्वात्‌ सूर्यस्य नाम नीलकण्ठः। अशुद्ध उच्चारण युक्त और गलत स्वर वेदपाठ अत्यधिक हानिकारक होती है।,अशुद्धोच्चारणयुक्तः भ्रष्टस्वरश्च वेदपाठः परमहानिकरः भवति। अपने स्वयं के पद को प्रद्युवत कर किया गया विग्रह स्वपदविग्रह है।,स्वस्य पदानि प्रयुज्य कृतः विग्रहः इति यावत्‌। दीर्घ आयु के लिए अनेक प्रकार के प्रार्थना परक मन्त्र इस भाग में दिए है।,दीर्घायुषः कृते बहुविधाः प्रार्थनापरकमन्त्राः अस्मिन्‌ विभागे सन्ति। परन्तु “सहसुपा' इस सूत्र का “इवेन सह समासो विभक्त्यज्ञोपश्च” इस वार्तिक का केवलसमासविधायक का प्रतिपादन हुआ।,"परं ""सह सुपा"" इति सूत्रस्य ""इवेन सह समासो विभक्त्यलोपश्च"" इति वार्तिकस्य केवलसमासविधायकस्य प्रतिपादनं जातम्‌।" अनेक रूप में निर्मित किया।,विविधं निर्मितवान्‌। उसका सप्तमी एकवचन में प्रदिवि रूप बना।,तस्य सप्तम्येकवचने प्रदिवि इति रूपम्‌। देवों के द्वारा देव इन्द्र आदि के द्वारा भी सेवित हूँ।,देवेभिः देवैरिन्द्रादिभिरपि जुष्टं सेवितम्‌। विष्णु के मधुर से पूर्णतीन पादप्रक्षेप से अक्षयरूप से आश्रित मनुष्यों का अन्न के द्वारा रक्षित है।,विष्णोः मधुरेण पूर्णेन पादत्रयप्रक्षेपणेन अक्षयरूपेण आश्रितजनाः अन्नेन रक्षिताः। इसके रचयिता कोई प्रजापति काश्यप थे - “वृषो हि भगवान्‌ धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत।,अस्य रचयिता कोऽपि प्रजापतिः काश्यप आसीत्‌- 'वृषो हि भगवान्‌ धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत। "जीवन को सुखी करने के लिए जिन साधनों की अपेक्षा होती है, उनकी सिद्धि के लिए इस वेद में अनेक अनुष्ठानों का विधान है।","जीवनं सुखसमन्वितं कर्त्तु येषां साधनानाम्‌ अपेक्षा भवति, तेषां सिद्ध्यर्थम्‌ इह वेदे विविधानाम्‌ अनुष्ठानानां विधानम्‌ अस्ति।" रन्धय - रन्ध-धातु से णिजन्त लोट्‌-लकार का रूप है।,रन्धय - रन्ध-धातोः णिजन्तात्‌ लोट्‌-लकारस्य रूपम्‌। जो प्राथमिक वेदार्थ को जानता है लेकिन वेदान्त के तात्पर्य को नहीं जानता है उस प्रकार का प्रमाता ही यहाँ पर अधिकारी कहलाता है।,यः प्राथमिकतया वेदार्थ जानाति परन्तु वेदान्ततात्पर्यं न जानाति तादृशः प्रमाता अत्र अधिकारी। "विशेष- यहाँ यह जानना चाहिए की तृण धान्य वाचक पद दो अच्‌ वाले ही हो, अन्यथा यदि वे पद बहुत अचों वाले अथवा एक अच्‌ वाला पद हो तो प्रकृत सूत्र से वहाँ उन शब्दों का आदि स्वर उदात्त नहीं होता है।","विशेषः- अत्रेदम्‌ अवधेयं यत्‌ तृणधान्यवाचकानि पदानि दृव्यज्विशिष्टानि स्युः, अन्यथा यदि तानि पदानि बह्वज्विशिष्ठानि एकाज्विशिष्ठानि वा स्युः तर्हि प्रकृतसूत्रेण तत्र तेषां शब्दानाम्‌ आदिः स्वरः उदात्तो न भवति।" उस प्रत्यय ग्रहण करने से 'तदन्तग्रहण' इससे उसका ग्रहण होगा।,तस्मात्‌ प्रत्ययग्रहणे 'तदन्तग्रहणम्‌' इत्यनेन तदन्तग्रहणं भविष्यति| गुण तीन प्रकार के होते है।,त्रयः गुणाः सन्ति। कर्म सहित अर्थ स्मरण का फल प्रदान करने वाले हैं।,कर्मसमवेतार्थस्मारणैकफलकाः। उस कर्म में अनाश्रित होकर के वह कर्म करना चाहिए।,तच्च कर्म कर्मफलम्‌ अनाश्रित्य कर्तव्यम्‌। च इस अव्यय पद से यहाँ अन्य शब्दों का भी ग्रहण होता है।,च इति अव्ययपदेन अत्र अन्येषामपि शब्दानां ग्रहणं भवति। तिङि चोदात्तवति इस सूत्र से किस प्रकार तिङन्त के परे गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है?,तिङि चोदात्तवति इति सूत्रेण कीदृशे तिङन्ते परे गतिः अनुदात्तः भवति। 21. परमपुरुषार्थ क्या है?,२१. परमः पुरुषार्थः कः? "अर्थात्‌ पूर्व का जैसा स्वर था, वैसे ही रहता है।",अर्थात्‌ पूर्वं यथा स्वरः आसीत्‌ तथा एव भवति इति। ' येऽन्तरिक्षे?,'येऽन्तरिक्षः? इस पाठ में विष्णुसूक्त में विद्यमान छः मन्त्रों का वर्णन किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे विष्णुसूक्ते विद्यमानाः षट्‌ मन्त्राः प्रतिपादिताः। ऐसे ही देखना चाहते है।,तदेव दर्शयति । आसक्ति से पार रूपी मल सभी के द्वारा जाना जाता हे ।,आसक्तितः पापरूपः मलः सुतराम्‌ ज्ञायते। यह नियम ही ऋत्‌ है।,अयं नियम एव ऋतम्‌। मात्रार्थम्‌ यहाँ पर पूर्वपद मातृ शब्द को अर्थ इस सूत्र से अन्तोदात्त होता है।,मात्रार्थम्‌ इत्यत्र पूर्वपदं मातृशब्दः अर्थे इति सूत्रेण अन्तोदात्तः भवति। उगितः: यह पद समस्त (सम्पूर्ण) है।,उगितः इति पदं समस्तं वर्तते। यहाँ विविध अपराधो के प्रायश्चित्त के लिए प्रार्थना है।,अत्र विविधानाम्‌ अपराधानां प्रायश्चित्ताय प्रार्थनाः सन्ति। 29. किस प्रकार से चैतन्य अज्ञान का नाश करता है?,२९. किंविधं चैतन्यम्‌ अज्ञानं नाशयति? भव - भू - धातु से लोट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में भव यह रूप बनता है।,भव- भू- धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने भव इति रूपम्‌। ब्राह्मये में मूलशब्दब्राह्म: है।,ब्राह्मये इत्यस्य मूलशब्दः ब्राह्मिः। "नीचावयाः - वेति खादति इस अर्थ में वे-धातु से असिप्रत्यय करने पर वयस्‌ यह हुआ, उसके बाद नीचौ वयसौ यस्याः सा नीचवयाः यहाँ पर बहुव्रीहिसमास है, छन्द में दीर्घ है।","नीचावयाः - वेति खादति इत्यर्थे वे-धातोः असिप्रत्यये वयस्‌ इति जाते ततः नीचौ वयसौ यस्याः सा नीचवयाः इति बहुव्रीहिसमासः, छान्दसो दीर्घः।" सरलार्थ - जुआरी दुसरो की सुखी पत्नियों को देखकर और अच्छी प्रकार से बने हुए घरों को देखकर दुखी होता है।,सरलार्थः - कितवः दुःखितां स्वपत्नीं स्वगृहं च दृष्ट्वा अन्यस्य पत्नीं सुसज्जितगृहं च पश्यन्‌ दुःखी भवति । लेकिन साधारण जन तो बहुत जन्मों में किए गये तपस्यादि बल के द्वारा अधिकारी होते हैं।,परन्तु साधारणजनाः बहुषु जन्मसु कृतेन तपस्याबलेन अधिकारिणः भवन्ति। "धातु को जब द्वित्व होता है, तब उस समुदाय की अभ्यस्त संज्ञा होती है।",धातोः यदा द्वित्वं भवति तदा समुदायः अभ्यस्तसंज्ञकः। हमारी वाणी के इस वचन की अभीष्टपूर्ति करो।,अस्माकम्‌ अस्य वचनस्य अभीष्टपूर्ति कुरु। कहाँ हिंसा नहीं होती है?,कुतः हिंसा नास्ति। "१ ब्रह्म सम्प्रदाय, २ और आदित्य सम्प्रदाय दो सम्प्रदाय हैं।","१) ब्रह्मसम्प्रदायः, २) आदित्यसम्प्रदायः चेति द्वौ सम्प्रदायौ।" स्वस्वरूप अज्ञान का नाश अखण्डाकार चित्त वृत्ति से होता है।,स्वस्वरूपाज्ञानस्य नाशश्च अखण्डाकारचित्तवृत्या सञ्जायते। दार्शनिक अपनी अपनी तन्त्र सिद्धान्त के अनुसार इस सूक्त की व्याख्या की।,दार्शनिका हि स्व-स्व-तन्त्रसिद्धान्तानुगुण्येन सूक्तमिदं व्याचख्युः। "जब तुम बढकर बुरे कर्म को करने वाले को मेघ मारता है, तब यह विश्व प्रसन्न होता है, क्योंकि वर्षा ही सभी जगत के प्रीतिकारण के रूप में प्रसिद्ध है।","हे पर्जन्य यदा त्वं स्तनयन्‌ दुष्कृतः मेघान्‌ विदारयसि, तदा विश्वमिदं मोदते, यतो हि वृष्टेः सर्वजगत्प्रीतिकारणत्वं प्रसिद्धम्‌।" ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि कौन है?,ऋग्वेदद्रष्टारः ऋषयः के सन्ति? अथवा उत्‌-उपसर्ग से इण्‌ गतौ इस धातु से क्तप्रत्यय करने पर उदित यह रूप होता है।,यद्वा उत्‌-उपसर्गात्‌ इण्‌ गतौ इति धातोः क्तप्रत्यये उदित इति रूपं भवति। उसी के नियन्त्रण से सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रादि अपनी कक्षा में ही घूमते हैं।,तस्यैव नियन्त्रणेन सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रादीनि स्वीयकक्षे एव आवर्तन्ते। मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्ये गीता की पंक्ति यहाँ प्रासङिगक है।,मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्‌ इति गीतोक्तिः अत्र प्रासङ्गिकी । प्राचीन और नूतन ऋषियों के द्वारा।,प्राचीनैः नूतनैश्च ऋषिभिः । विशेष रूप से पूज्य विचित्र अथवा विविध धन है जिसका वह चित्रश्रवस्तम कहलाता है।,अतिशयेन पूज्यं विचित्रं विविधं वा धनं यस्य स चित्रश्रवस्तमः। "वे किसकी रचना करता है तो कहते है की तीनो लोक अग्नि, वायु आदित्यरूप लोकों का विशेष रूप से निर्माण करता है।",कानि तानीति लोकत्रयाभिमानीति अग्निवाय्वादित्यरूपाणि रजांसि विममे विशेषेण निर्ममे। 1. किस समय मनु के हाथ आदि धोने के लिए जल लेकर के आये?,1. कदा मनोः कृते हस्तादिप्रक्षालननाय जलम्‌ आनीतम्‌ ? कवि कौ दृष्टि में उषादेवी का जाना आना पहिये के समान है।,कवेः दृष्टौ उषादेव्याः गमनागमनं चक्रवत्‌ अस्ति। शास्त्र तथा ग्रंथ बोधक होते हैं।,शास्त्रं ग्रन्थः वा बोधकम्‌। इससे बाद प्रक्रिया कार्य में पञ्चराजम्‌' शब्द निष्पन्न होता है।,ततः प्रक्रियाकार्ये पञ्चराजम्‌ इति निष्पद्यते। "चौथा अध्याय नैगम काण्ड नाम से, पांचवा अध्याय दैवत काण्ड इस पद से जाना जाता है।","चतुर्थः अध्यायो नैगमकाण्डम्‌, पञ्चमः अध्यायो दैवतकाण्डम्‌ इति पदेन व्यपदिश्यते।" यहाँ कालिदास ने वशिष्ठ को `अथर्ववेत्ता' ऐसा कहना चाहते है।,अत्र कालिदासः वशिष्ठं 'अथर्ववेत्ता' इति कथयति। चोरभयम्‌ इत्यादि यहां उदाहरण है।,चोरभयम्‌ इत्यादिकमत्र उदाहरणम्‌। उसको प्रकृत सूत्र से ङ्यन्त अभिभञ्‌जती इससे षष्ठी बहुवचन की विवक्षा में विहित नुड्‌ आगम सहित आम्‌ प्रत्यय का आकार को उदात्त होता है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण ङ्यन्तात्‌ अभिभञ्जती इत्यस्मात्‌ षष्ठीबहुवचनविवक्षायां विहितस्य नुडागमसहितस्य आम्प्रत्ययस्य आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। हिरण्यगर्भ की महिमा का वर्णन करो।,हिरण्यगर्भस्य महिम्नः वर्णनं कर्तव्यम्‌। "अन्वय का अर्थ - अधिवक्ता - सबसे उत्तम बोलने वाला, प्रथमः - मुख्य, दैव्यः- देवो में प्रसिद्ध, भिषक्‌ - चिकित्सक, अधि अवोचत्‌-अधिक उपदेश दे।","अन्वयार्थः- अधिवक्ता - वाचालः, प्रथमः- मुख्यः, दैव्यः- स्वर्गीयः, भिषक्‌- चिकित्सकः, अधि अवोचत्‌ - अध्युक्तवान।" 2. कर्मजन्य सभी भोगों को अनित्यत्व से दृष्टानुश्रविकभोगों से हमेशा के लिए के निवृत्ति वैराग्य होता है।,२. कर्मजन्यानां समेषामपि भोगानाम्‌ अनित्यत्वात्‌ दृष्टानुश्रविकभोग्यभ्यः नितरां विरतिः वैराग्यम्‌। उसके बाद में फिर शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि में भोजन का आरम्भ करना चाहिए तथा प्रत्येक दिन एकमुट्टी भोजन बढाना चाहिए इस प्रकार से फिर पूर्णिमा के दिन पन्द्रमुटी भोजन करना चाहिए।,ततः शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ भोजनारम्भः कर्तव्यः। प्रत्यहम्‌ एकमुष्टिपरिमितस्य भोजनस्य वर्धनं कर्तव्यम्‌। पुनः पूर्णिमायां पञ्चदशमुष्टिपरिमितं भोजनं कर्तव्यम्‌। "वह विवेक वैरुग्य, उपरति, तितिक्षा, समाधान, आदि गुणों से युक्त चाहिए श्रद्धावान्‌ तथा गुरु सेवा परायण होना चाहिए।",गुणा विवेकवैराग्योपरतितितिक्षासमाधानानि श्रद्धालुः खलु अनुगतः गुरुसेवापरो भवति। अत्रैदं वोध्यम्‌ (यहाँ यह ज्ञान होना चाहिए) इस सूत्र में अव्ययम्‌ यह प्रथमान्त पद है।,अत्रेदं बोध्यम्‌ - अस्मिन्‌ सूत्रे अव्ययम्‌ इति प्रथमान्तं पदर्मस्ति। अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से अतः (5/1) पद की अनुवृत्ति आती है।,अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रात्‌ अतः (५/१) इति पदमनुवर्तते। इस प्रकार से हमें अज्ञान का नाश करना चाहिए।,अज्ञाननाशः अस्माभिः कर्तव्यः। "प्राचीन आचार्यो के मध्य में ऋग मन्त्रों के गणना प्रसङ्ग में जो विरोध दिखाई देता है, वह वास्तविक शाखा भेद जन्य ही है।","प्राचीनाचार्याणां मध्ये ऋद्गन्त्राणां गणनाप्रसङ्गे यद्‌ वैषम्यं परिलक्ष्यते, तत्तु वास्तविकतया शाखाभेदजन्यम्‌ एव अस्ति।" इसके अलावा पाँच वायु का वर्णन है।,अथ पञ्च वायवः चिन्त्यन्ते। इसलिए उस कारण से ही आरण्यक ग्रन्थों की उत्पत्ति हुई।,अतस्तस्मादेव आरण्यकग्रन्थानाम्‌ उत्पत्तिः जाता। सर्वनाम संज्ञा के अभाव में कस्मै ऐसा कस्मैयुक्त रूप नहीं होता है।,सर्वनामसंज्ञाभावे कस्मै इति स्मैयुक्तं रूपं न भवति। अर्थात्‌ यश कीर्ति को प्राप्त करता है।,अर्थात्‌ यशः कीर्तिम्‌ प्राप्नोति। आनन्दमयाधिकरण में पठित “ भेदव्यपदेशाच्च(1-1-17) ” इस सूत्र में श्रोत जीव ब्रह्मभेद व्यपदेश कहलाता है।,आनन्दमयाधिकरणे पठिते “भेदव्यपदेशाच्च(१-१-१७)” इत्यस्मिन्‌ सूत्रे श्रौतः जीवब्रह्मभेदव्यपदेशः निगदितः। ( भगवद्गीता 2.23-24) शरीर उत्पन्न होता है आत्मा तो उत्पन्न भी नहीं होती है।,"(भगवद्गीता २.२३-२४) शरीरं जायते, आत्मा तु न जायते।" वेद स्वयं में ही प्रमाण है।,वेदाः स्वतः प्रमाणम्‌। स्तोता मनुष्यों के लिये शत्रु के साथ मैं ही सङ्ग्राम करती हूँ।,स्तोतृजनार्थे शत्रुभिः सह सङ्ग्राममहमेव कृणोमि करोमि। "प्रमाण के अनुसार से पथ्य के तीन शिष्य थे - जाजलि, कुमुद, और शौनक।",प्रमाणान्तरानुसारेण पथ्यस्य त्रयः शिष्याः आसन्‌ - जाजलिः कुमुदः शौनकः च। ऋग्वेद में ऋचाओं की संख्या के विषय में जो जानते हो उसे लिखिए।,ऋग्वेदे ऋचां संख्यायाः विषये यज्जानन्ति तल्लिखन्तु। भले ही अधिकारी की उपस्थिति होती है।,यद्यपि अधिकारिणः उपस्थितिः भवति। अजादिगण में पठित अज प्रातिपदिक पठित है पुन: व्यपदेशिवत्‌ भाव से “ अजाद्यन्त्त भी है।,तत्र अजादिगणे अज इति प्रातिपदिकं पठितम्‌ अस्ति। पुनः व्यपदेशिवद्भावेन अजान्तमपि अस्ति। अतः यह निषिद्ध है।,अतः इदं निषिद्धम्‌। ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान होने पर भी उसका प्रारब्ध कर्मवश नाश नहीं होता है।,ब्रह्मापरोक्षज्ञाने सत्यपि तस्य प्रारब्धकर्मणः नाशः न अभवत्‌। ज्ञान जीवब्रह्मेक्यगोचरापरोक्षसात्काररूप ही होता है।,ज्ञानं च जीवब्रह्मैक्यगोचरापरोक्षसाक्षात्काररूपमेव। और लिखा भी है - प्राजापत्य इळादधः प्रजापते न त्वदेतान्यन्यः' (आश्व. श्रौ. २. १४) इति।,सूत्रितं च- प्राजापत्य इळादधः प्रजापते न त्वदेतान्यन्यः' (आश्व. श्रौ. २. १४) इति। स नः पितेव ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,स नः पितेव... इत्यादिमन्त्रस्य व्याख्यात। वैदिक कवि भी रस का प्रतिपादन करने में परम दक्ष थे।,वैदिककवयः अपि रसप्रतिपादने परमपटवः आसन्‌। पहले ही हमने यह कहा है की ये उपनिषद्‌ एक काल में नहीं लिखे गए अपितु काल काल पर उनकी रचना हुई।,पूर्वमेवोक्तं मया इमाः उपनिषद एकस्मिन्‌ काले न प्रणीता अपि तु काले काले ताः रचिता अभवन्‌। प्रकरण प्रतिपाद्य वस्तु का उसके बीच बीच में बार बार प्रतिपादन अभ्यास कहलाता है।,प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनः तन्मध्ये पौनःपुन्येन प्रतिपादनम्‌ अभ्यासः। इससे जाना जाता है कि उपनिषद्‌ एक सौ आठ से भी अधिक थे।,एतेन ज्ञायते यद्‌ उपनिषदः अष्टोत्तरशततः अपि अधिका आसन्‌। और यास्क ने कहा - 'प्रवेपिणो मा महतो विभीतकस्य फलानि मादयन्ति।,तथा च यास्कः- 'प्रवेपिणो मा महतो विभीतकस्य फलानि मादयन्ति। पिता द्यौ को मैं उत्पन्न करती हूँ।,पितरं दिवम्‌ अहं सुवे प्रसवे जनयामि। जिस प्रकार शब्द की योग्यता वीप्सा-पदार्थानतिवृत्ति-सादुश्यानि इस प्रकार चार अर्थ हैं।,यथाशब्दस्य योग्यता- वीप्सा-पदार्थानतिवृत्ति-सादृश्यानि इति एते चत्वारः अर्थाः। "यदि सुबन्तम्‌ आमन्त्रितान्त दो पद पाद के आदि में नहीं रहते हैं, तो “आमन्त्रितस्य च' इस आठवें अध्याय में स्थित सूत्र से सभी को अनुदात्त स्वर की प्राप्त होते है।",यदि सुबन्तम्‌ आमन्त्रितान्तम्‌ इति पदद्वयं पादादौ न तिष्ठति तर्हि 'आमन्त्रितस्य च' इत्यनेन अष्टमाध्यायस्थेन सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः विधीयते। "प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान तथा आगम प्रमाणों के द्वारा सभी लोकों का परीक्षण करना चाहिए।",प्रत्यक्षानुमानोपनागमैः प्रमाणैः सर्वतः याथात्म्येन लोकान्‌ अवधारयेदित्यर्थः। सभी उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हैं।,सर्वे तं प्रति सम्मानं प्रदर्शयन्ति। वे कर्म प्रारब्ध कर्म कहलाते है।,तत्‌ कर्म प्रारब्धकर्म। "या फिर हिरण्मय अण्ड जो गर्भरूप से जिसके उदर में है, वो सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ है।",यद्वा हिरण्मयः अण्डो गर्भवत्‌ यस्य उदरे वर्तते स सूत्रात्मा हिरण्यगर्भः। इस प्रकार- “इदं मदिष्टसाधनम्‌' यह ज्ञान प्रवृत्ति के प्रति कारण होता है।,इत्थम्‌ 'इदं मदिष्टसाधनम्‌' इति ज्ञानम्‌ प्रवृत्तिं प्रति कारणं भवति। तब विचार करके रागादि का त्याग करना चाहिए।,तदा विचार्य त्याज्या रागादयः इति। "जो साधक इस तत्त्व से अज्ञात होकर केवल बाहर के हवन में ही आसक्त होता है, वह केवल राख में ही हवन करता है।","यो हि साधकः तत्त्वमिदम्‌ अज्ञात्वा केवलं बाह्यहवने एव आसक्तो भवति, सः भस्मचये एव जुहोति।" स्वप्न किसे कहते हैं?,स्वप्नः कः? इस प्रकार से ज्ञान की स्थिति होती है।,एवं ज्ञानस्य स्थितिः। सूत्रव्याख्या-इस सूत्र में तृतीया तत्कृत अर्थेन गुणवचनेन यही पदच्छेद है।,सूत्रव्याख्या - सूत्रेऽस्मिन्‌ तृतीया तत्कृत अर्थेन गुणवचनेन इति पदच्छेदः। जीवनादि निमित्त में विधान से नित्यकर्मों के प्रायश्चित्त के समान पूर्वकृ तदुरित फलत्व की अनुपपत्ति होती है।,"जीवनादिनिमित्ते च विधानात्‌ , नित्यानां कर्मणां प्रायश्चित्तवत्‌ पूर्वकृतदुरितफलत्वानुपपत्तिः।" खाये हुए का इन रसरूप से परिवर्तन अग्नि करता है।,भुक्तस्य एतद्रसरूपेण परिणामम्‌ अग्निः करोति। समास में व्यपेक्षाभाव सामर्थ्य नहीं होता है ऐसा कहा गया है।,समासे व्यपेक्षाभावसामर्थ्यं नास्तीति उक्तमेव। भले ही शास्त्र में नित्यकर्म कहे गये हैं।,यद्यपि शास्त्रावगतं नित्यं कर्म। समानाधिकरणेन इसका विशेषण होने से सुपा यहां पर तदन्त विधि से सुबन्ते अधिकरणेन होता है।,समानाधिकरणेन इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ सुपा इत्यत्र तदन्तविधिना सुबन्तेन समानाधिकरणेन इति भवति। वृत्र की माता जब अपने पुत्र की रक्षा के लिए प्रयत्न किया तब वह भी इन्द्र के द्वारा मारी गई।,वृत्रस्य माता यदा स्वपुत्रं रक्षितुं प्रचेष्ठितवती तदा सा अपि इन्द्रेण हता। विद्युतः विशेष रूप से प्रकाशित होता है उससे।,विद्युतः विशेषेण द्योतते विद्युत्‌ तस्मात्‌। पृतन्यात्‌ - पृतन्य इस नाम धातु से लेट्‌-लकार का प्रथमपुरुषएकवचन का रूप है।,पृतन्यात्‌- पृतन्य इति नामधातोः लेट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। कर्मफलत्व से विविध लोकों की प्राप्ति होती है।,कर्मफलत्वेन विविधाः लोकाः लभ्यन्ते । वहाँ केवल मनुष्य लोक की ही कर्म भूमि होती है जिसमें कर्म करनें पर धर्म तथा अधर्म उत्पन्न होते है।,तत्र केवलं मनुष्यलोकः कर्मभूमिः वर्तते यत्र कर्म कृतं चेत्‌ तस्य धर्माधर्मौ उत्पद्येते। उससे चित्त की स्थिरता सम्भव होती है।,तेन च चित्तस्य स्थिरता सम्भवति। धन के होने पर क्या होता है?,धने सति के सम्पद्यन्ते? इसमें जो दस मन्त्रों से जो प्रतिपादित है वो यहां सार रूप में कहते है।,अत्र दशमन्त्रैः यत्‌ प्रतिपादितं तत्‌ साररूपेण कथ्यते। और इसी प्रकार प्रातिपदिक से विहित स्वरों के विषय में कुछ सूत्रों की आलोचना है।,एवञ्च प्रातिपदिकात्‌ विहितानां स्वराणां विषये कानिचित्‌ सूत्राणि आलोचितानि सन्ति। जीवनकाल के बढ़ाने के लिए किसका विशेष विधान है?,जीवनकालस्य वर्धनाय कस्य विशेषविधानम्‌ अस्ति? बृहतीः - ये बृहत्यः का वैदिकरूप है।,बृहतीः- बृहत्यः इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। नहीं है अपने पदों से विग्रह जिसका वह अस्वपदविग्रह है।,नास्ति स्वपदैः विग्रहो यस्य सः अस्वपदविग्रहः। "इस प्रकार वह प्रजापति प्रजा के साथ रमण करता हुआ तीन ज्योति सूर्य, अग्नि, चन्द्र की सेवा करता है।",इत्थं स प्रजापतिः प्रजया संरराणः त्रीणि ज्योतींषि रवीन्द्वग्निरुपाणि सेवते। दुःख तीन प्रकार का होता हेै।,दुःखं त्रिविधम्‌। उपनिषद्‌ शब्द का अर्थ ब्रह्मविद्या है।,उपनिषच्छब्दस्यार्थो ब्रह्मविद्या। इमसि यहाँ पर क्या धातु है?,इमसि इत्यत्र कः धातुः? टाप्‌ के आकार के स्थान में और सुब्रह्मण्य शब्द के अकार के स्थान में विहित आकार 'स्थानेऽन्तरतमः' इस सूत्र से अन्तरतम होने से स्वरित ही होता है।,टापः आकारस्य सुब्रह्मण्यशब्दस्य च अकारस्य स्थाने विहितः आकारः स्थानेऽन्तरतमः इति सूत्रेण आन्तरतम्यात्‌ स्वरितः एव भवति। उदाहरण -इस सूत्र का अर्थ है स्तोकान्मुक्तः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा स्तोकान्मुक्तः इति। अतः अन्तोदात्त नुडन्त से परे मतुप्‌ के अकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त का विधान किया है।,अतः अन्तोदात्तनुडन्तात्‌ परस्य मतुपः अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं विधीयते। जिस अनुदात्त के परे उदात्त का लोप होता है उसको उदात्त होता है।,यस्मिन्‌ अनुदात्ते परे उदात्तः लुप्यते तस्य उदात्तः भवति। इससे समास संज्ञा होती है।,अनेन समाससंज्ञा विधीयते। क्त प्रत्यय यहाँ कर्म में विहित है।,क्तप्रत्ययः अत्र कर्मणि विहितः। सत्वरजतम प्राकृत गुणों का अपचय स्त्रीत्व है।,सत्त्वरजस्तमसां प्राकृतगुणानाम्‌ अपचयः स्त्रीत्वम्‌। "मनुष्य जैसे कर्मादि करते हैं, वेद में देवों के भी कर्मादि वर्णित हैं।","मनुष्याः यथा कर्मादिकं कुर्वन्ति, वेदे देवानामपि कर्मादिकं वर्णितम्‌।" वेदान्तसार में भी श्रवण के विषय में कहा है।,वेदान्तसारे अपि श्रवणविषये उच्यते। प्रारब्धकर्मो के क्षय होने पर जीवन्मुक्त पुरुष के कोई भी कर्म फल भोगने के लिए नहीं रुकते है।,प्रारब्धकर्मणां क्षये सति जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य न किमपि कर्म तिष्ठति फलभोगाय। जैसे घटमध्यवर्ती आकाश घट के नाश होने पर महाकाश के साथ मिल जाता है जिससे दोनों का औपाधिक भेद निवर्तित हो जाता है तथा दोनों का ऐक्य हो जाता है।,"यथा घटमध्यवर्ती आकाशः घटस्य नाशे जाते महाकाशेन सह मिलितः भवति, द्वयोः औपाधिकः भेदः निवर्तते, द्वयोः ऐक्यं भवति।" शुतुद्रि शब्द का तो पाद आदि होने से निघात नहीं होता है।,शुतुद्रिशब्दस्य तु पादादित्वात्‌ निघातो न भवति। "प्रशन-राजमतः, राजबुद्धः, राजपूजितः, इत्यादि में समास क्यों होता है।","ननु राजमतः, राजबुद्धः, राजपूजितः इत्यादिषु कथं समासः इति।" काम्यकर्मों का फल अनित्य होता है।,काम्यकर्मणः फलम्‌ अनित्यम्‌। वे रमणीय भी जल लाने के समय आकृष्ट होकर रुद्रदेव की अपूर्वलीला को देखते हैं।,ताः रमण्य़ः जलानयनसमये आकृष्टं भूत्वा रुद्रदेवस्य अपूर्वलीलां पश्यन्ति। "वार्तिक अर्थ का समन्वय - देवदत्तस्य यह नामवाचक पद है, किन्तु यहाँ यह पद्‌ स्यान्त है।","वार्तिकार्थसमन्वयः - देवदत्तस्य इति नामवाचकं पदम्‌, किञ्च अत्र पदमिदं स्यान्तम्‌।" अनुयाज और पत्नीयाज के बाद यजमान के प्रतीक रूप में कुश निर्मित मूर्ति को अग्नि में निक्षिप्त की जाती है।,अनुयाजात्‌ पत्नीयाजात्‌ अनन्तरं यजमानस्य प्रतीकत्वेन कुशनिर्मिता मूर्तिः अग्नौ निक्षिप्यते। "बहुसंख्यक संहिता छन्दोबद्ध है, उनमे कुछ अंश ही गद्यात्मक है।","बहुसंख्यकाः संहिताः छन्दोबद्धाः सन्ति, तेषां कतिपयांशा एव गद्यात्मकाः सन्ति।." उसका क्या स्वरूप है।,किं तस्य स्वरूपम्‌ ? जिसके द्वारा सभी की आध्यात्मिक उन्नति हो जाए।,येन सर्वस्तरीयाणां समेषाम्‌ आध्यात्मिकी उन्नतिः स्यात्‌। इस सूत्र में कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।,अस्मिन्‌ सूत्रे कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। स्वप्नकाल में सूक्ष्मप्रपज्च होता हे।,स्वप्नकाले सूक्ष्मप्रपञ्चः अस्ति। इस प्रकार के कर्मों का विधान प्रधानता से अथर्ववेद में ही प्राप्त होता है।,एवंविधानां कर्मणां विधानं प्राधान्येन अथर्ववेदे एव प्राप्यते। उससे तिङ- शतृ-शानच्‌-इन पदों का ग्रहण होता है।,तेन तिङ्- शतृ-शानच्‌-इत्येते गृह्यन्ते। नञ्‌ सुबन्त के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"नञ्‌ सुबन्तेन सह समस्यते , स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" उससे यहाँ पदों का अन्वय होता है - सौ परे सति पूर्वस्मात्‌ एकाचः शब्दात्‌ परस्य तृतीयादिविभक्तेः स्वरः उदात्तः स्यात्‌ इति।,तेन अत्रायं पदान्वयः भवति- सौ परे सति पूर्वस्मात्‌ एकाचः शब्दात्‌ परस्य तृतीयादिविभक्तेः स्वरः उदात्तः स्यात्‌ इति। उसको प्रकृत सूत्र से यकार उत्तर उदात्त अकार को छोड़कर गकार उत्तर ओकार और पकार उत्तर आकार अनुदात्त होता है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण यकारोत्तरम्‌ उदात्तम्‌ अकारं वर्जयित्वा गकारोत्तरः ओकारः पकारोत्तरः आकारः च अनुदात्त : भवति। सभी जगत की स्वामी हूँ।,सर्वस्य जगत ईश्वरी। उदाहरण- इसका उदाहरण है - नान॑से यातवे (तै. सं ६-२-६-१)।,उदाहरणम्‌- अस्य उदहरणं भवति नान॑से यातवै (तै. सं ६-२-६-१)। "गुरु के द्वारा जो उपदिष्ट वेदवाक्य है, उन वाक्यों में विश्वास ही श्रद्धा है।",गुरुणा उपदिष्टानि यानि वेदान्तवाक्यानि तेषु वाक्येषु विश्वासः श्रद्धा। ञ्यङः ष्यङः च प्रत्ययै कृत्वा यहाँ पर “प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राप्ताः'' इस नियम से तदन्तविधि होती है।,"ञ्यङः ष्यङः च प्रत्ययौ इति कृत्वा अत्र ""प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः"" इति नियमेन तदन्तविधिः भवति।" २१॥ व्याख्या - देवों ने शोभायमान या देदीप्यमान ब्रह्म के पुत्र आदित्य को सर्वप्रथम उत्पन्न करते हुए उसको कुछ वचन कहे ।,२१॥व्याख्या- देवाः दीप्यमानाः प्राणाः रुचं शोभनं देदीप्यमानं ब्राह्यं ब्रह्मणः अपत्यम्‌ आदित्यं जनयन्तः उत्पादयन्तः अग्रे प्रथमं तत्‌ वचः अब्रुवन्‌ ऊचुः। “षष्ठी' सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।,"""ष॒ष्ठी"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" पुराणों में आरण्यक का आचार्य रूप में शौनक के नाम का उल्लेख है - “शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः' (पद्मपुरा० ५।१।१८) पुराण का यह वाक्य यथार्थ है।,पुराणेषु आरण्यकस्य आचार्यरूपेण शौनकस्य नाम उल्लिखितमस्ति- “शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः” (पद्मपुरा० ५।१।१८) पुराणस्य वाक्यमिदं यथार्थमस्ति। "मैं दैह ही हूँ, इस प्रकार से मूढ़ चिन्तन करता है।",अहं देह एव न तद्विलक्षणः इति पामरः चिन्तयति। "सरलार्थ - जो अबद्ध मनुष्यों को भी प्रेम में बंधन करती है, जो भूमि वैचित्र्य पूर्ण है, जो अनेक शक्ति से सम्पन्न औषधि वृक्षो को धारण करती है, वह पृथ्वी हमारे समीप में विस्तृत हो, हमारे लिए वह कल्याणकारी हो।","सरलार्थः- या अबद्धापि मानवान्‌ बध्नाति, यस्याः भूमिः वैचित्रपूर्ण, या बहुशक्तिसम्पन्नौषधिवृक्षान्‌ धारयति, सा पृथिवी अस्माकं समीपे विस्तीर्णा भवतु, अस्माकं कृते पुष्पैः शोभिता भवतु।" सरलार्थ - यज्ञ का प्रकाशयुक्त पुरोहित अग्नि है।,सरलार्थः- यज्ञस्य प्रकाशयुक्तः पुरोहितः अग्निः अस्ति। माण्डूकी शिक्षा- यह अथर्ववेद से सम्बद्धित शिक्षा है।,माण्डूकी शिक्षा- अथर्ववेदेन सम्बद्धा इयं शिक्षा अस्ति। "अतः इस सूत्र का अर्थ होता है - अहो इस अव्यय से युक्त तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है, पूजा से शेष विषय गम्यमान होने पर।",अतः अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति- अहो इत्यनेन अव्ययेन युक्तं तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं न भवति अपूजायां गम्यमानायाम्‌ इति। स्त्रियाँ स्वभाव से किस प्रकार होती है?,स्त्रियः स्वभावः कीदृशः। ब्रह्मज्ञान से अज्ञान का नाश होता है।,अज्ञानस्य नाशः भवति ब्रह्मज्ञानेन । 10. समिध्यते इसका क्या अर्थ है?,10. समिध्यते इत्यस्य कः अर्थः। कर्ता अपनी क्रिया और कर्म के द्वारा जिसको अभिप्रैत करता है वह सम्प्रदान होता है।,कर्ता स्वक्रियायाः कर्मणा यम्‌ अभिप्रैति स सम्प्रदानम्‌ भवति। तथा शुभ तथा अशुभ की प्राप्त में औदासीन्य होता है।,किञ्च शुभाशुभयोः उपरि औदासीन्य भवति। इस प्रकार से अखण्डाकार चित्तवृत्ति ही अज्ञान का नाश करती है।,अखण्डाकारचित्तवृत्तिः एव अज्ञानं नाशयति। इनके ही उपस्थान के लिए साधन की यहाँ पर पाठ रूप में प्रस्तुति की गई है।,एतेषामेव उपस्थापनाय साधनस्य पाठरूपेण प्रस्तुतिः। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में आहो उताहो ये दो अव्यय है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे आहो उताहो इति अव्ययद्वयं विद्यते। श्री भगवान्‌ सर्वव्यापी है।,श्रीभगवान्‌ सर्वव्यापी। जो मानवों के जीवन को समस्याओं के समाधान के लिए उपयोगी है।,येन मानवानां जीवनसमस्यासमाधानाय तत्‌ उपयोगि स्यात्‌। इस प्रकार की में तीसरी हूँ।,इत्थंभावे तृतीया। सूत्र अर्थ का समन्वय- प्रकृतः यहाँ पर कुगतिप्रादयः इस सूत्र से गति समास हुआ है।,सूत्रार्थसमन्वयः- प्रकृतः इत्यत्र कुगतिप्रादयः इति सूत्रेण गतिसमासः जातः। "इसको प्रत्यक्ष आदि विषयों से जाना नही जा सकता है, यह अर्थ है।",न ह्यसौ प्रत्यक्षादीनां विषय इत्यर्थः। 5 आततायी कौन-कौन होते हैं?,५. आततायिनः के? ( भ.गी.6.45) संशुद्ध किल्बिष तथा विनष्ट पाप युक्त वह व्यक्ति होता है जिसके सभी पाप नष्ट हो चुके है।,(भ.गी.६.४५) संशुद्धकिल्बिषः विनष्टपापः यस्य सर्वाणि पापानि विनष्टानि तादृशः पुरुषः। अत: यह समास सप्तमी तत्पुरुष समास कहा जाता है।,अतः अयं समासः सप्तमीतत्पुरुषः इत्यभिधीयते। "आसन से तात्पर्य है की, हाथ पैर आदि के द्वार की जाने वाली पद्म स्वस्ति आदि ।",आसनानि हि करचरणादिसंस्थानविशेषलक्षणानि पद्मस्वस्तिकादीनि। सूत्र में कृता इससे कृदन्त ग्रहण से यहाँ प्रसङ्ग से गति पूर्व का भी कृदन्त का भी ग्रहण होता है।,सूत्रे कृता इत्यनेन कृदन्तग्रहणादत्र प्रसङ्गतः गतिपूर्वस्यापि कृदन्तस्यापि ग्रहणं भवति। और सुब्रह्मण्योम्‌ यहाँ पर स्वरित के स्थान में उदात्त होने का उपदेश है।,सुब्रह्मण्योम्‌ इत्यत्र च स्वरितस्य उदात्तत्वं विधीयते इस सूत्र से हस्वान्त स्त्रीविषय शब्दों का आदि स्वर उदात्त होता है।,अनेन सूत्रेण हस्वान्तस्य स्त्रीविषयस्य शब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो भवति। "इस सूत्र में दो पद है, अभ्यस्तानाम्‌ आदिः ये सूत्र में आये पदच्छेद है।","अस्मिन्‌ सूत्रे द्वे पदे स्तः, अभ्यस्तानाम्‌ आदिः इति सूत्रगतपदच्छेदः।" घट ब्रह्म में अध्यस्त होता है।,घटः ब्रह्मणि अध्यस्तः। दूर से संबोधन करने वाले वाक्य में एकश्रुति होती है।,दूरात्‌ सम्बोधने वाक्यम्‌ एकश्रुति भवति। क्योंकि जब तक असम्भावना का निवारण नहीं होता है।,यतो हि यावत्‌ असम्भावना न निवर्तते । "विशेष- और इस प्रकृत सूत्र से विहित कार्य को कर्मधारयवदुत्तरेषु यहाँ कर्मधारयवद्‌ भाव होने से सिद्ध है, उससे यह सूत्र व्यर्थ है यह शङ्का यहाँ नहीं करना चाहिए।","विशेषः- इदं च प्रकृतसूत्रविहितं कार्यं कर्मधारयवदुत्तरेषु इति कर्मधारयवद्भावादेव सिध्यति, तेन इदं सूत्रं व्यर्थम्‌ इति शङ्का अत्र न कर्तव्या।" 53. द्वन्द समास में पूर्व निपात विधायक सूत्र लिखो?,५३. द्वन्द्वसमासे पूर्वनिपातविधायकानि सूत्राणि लिखत? वृत्ति अर्थक बोधक वाक्य को विग्रह कहते है।,वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः। विश्वदानीम्‌ - विश्व उपपद धा-धातु से ल्युट्‌ और ङीप्‌ करने पर।,विश्वदानीम्‌- विश्वोपपदात्‌ धा-धातोः ल्युटि ङीपि। 29. प्राणायाम किसे कहते हैं?,२९. प्राणायामो नाम कः? स्तोकान्तिक इराणि अर्था येवां ते रत्तोकान्तिकइरार्थाः यही बहुब्रीहि समास है और रत्तोकान्तिक दूरार्थाः कृञ्च्छरञ्च स्तोकान्तिकइरार्थकृच्छ्राणि यही इतरेतसयोगद्वन्द है।,स्तोकान्तिकदूराणि अर्था येषां ते स्तोकान्तिकदूरार्थाः इति बहुव्रीहिः। स्तोकान्तिकदूरार्थाः च कृच्छ्रञ्च स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि इति इतरेतरयोगद्वन्द्वः। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्याम्‌ आविवेश।,त्रिधा बद्धो बृूषभो रोरवीति महोदेवो मत्याम्‌ आविवेश।। इति।। इस प्रकार से धैर्य के द्वारा यह मन्त्र प्रतिपादित होता है।,इति धैर्येण प्रतिपादयति अयं मन्त्रः। ऊक्‌ शब्द और पूग शब्द अन्तोदात्त है।,ऊक्शब्दः पूगशब्दश्च अन्तोदात्तः। '' कृदन्त के ग्रहण में गतिपूर्व के कारक पूर्व का भी ग्रहण होता है'' यही परिभाषा का अर्थ है।,"""कृदन्तस्य ग्रहणे गतिपूर्वस्य कारकपूर्वस्यापि कृदन्तस्य ग्रहणं भवति"" इति परिभाषार्थः।" इस प्रकार से श्रुतियों में बताया गया है।,इति स्मृतिः आख्याति "फिर पुरुष ने वायु में विचरण करते हुए पक्षी, आरण्यक पशु और ग्राम्य पशून्‌ उत्पन्न किये।","ततः पुरुषः वायौ विचरतः पक्षिणः, आरण्यकान्‌ पशून्‌, ग्राम्यान्‌ पशून्‌ च सृष्टवान्‌।" और उससे युक्त तिङन्त भुङक्ते यह है।,तद्युक्तं तिङन्तं च भुङ्क्ते इति। 1. पर्जन्यसूक्त का सार संक्षेप से लिखो।,१. पर्जन्यसूक्तस्य सारं संक्षेपेण लिखत। 7. आकूत्या इसका क्या अर्थ है?,7. आकूत्या इत्यस्य कोऽर्थः। पर्जन्य वृष्टि करने वाले देव हैं।,पर्जन्यः वृष्टिकारकः देवः । इसलिए जीवब्रह्मात्मैक्यरूपतात्पर्य की उपपत्ति की लक्षणा का यहाँ पर आश्रय नहीं लेना चाहिए।,अतः जीवब्रह्मात्मैक्यरूपतात्पर्यस्य उपपत्तेः अत्र लक्षणा न आश्रयणीया। "इस प्रकार देवों का शरीर चैतन्य नही होता है तो आलाप, विवाह या प्रणय कथा की प्रासंगिकता कैसे हो सकती है ?","एवञ्च देवानां शरीरं चैतन्यं च न भवति चेत्‌ आलापः, विवाहः, प्रणयकथा वा कथं स्यात्‌ ?" तब वह अज्ञानात्मक कारण शरीराभिमानी होता है।,तदा सः अज्ञानात्मककारणशरीराभिमानी भवति। मृजेर्वृद्धि:”' इस सूत्र से वृद्धि पद की अनुवृत्ति होती है।,"""मृजेर्वृद्धिः"" इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ वृद्धिः इति पदम्‌ अनुवर्तते ।" "अर्थात्‌ तत्पुरुष समास में पूर्वपद यदि तुल्यार्थवाचक, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त, उपमानवाचक, अव्यय, अथवा कृत्यप्रत्ययान्त हो तो पूर्वपद को प्रकृति स्वर होता है।","अर्थात्‌ तत्पुरुषसमासे पूर्वपदं यदि तुल्यार्थवाचकं, तृतीयान्तं, सप्तम्यन्तं, उपमानवाचकम्‌, अव्ययं, कृत्यप्रत्ययान्तं वा भवति तर्हि पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति।" "वहां 11 भूलोक में, 11 अन्तरिक्ष में और 11 द्युलोक में रहते है।","तत्र एकादश भूलोके, एकादश अन्तरिक्षे एकादश च द्युलोके तिष्ठन्ति।" उदान कण्ठस्थानीय ऊर्ध्वगमनवाला उत्क्रणवायु होता है।,उदानो हि कण्ठस्थानीय जर्ध्वगमनवान्‌ उत्क्रणवायुः। इस प्रपाठक में अभिचार मन्त्रों की भी सत्ता है।,अस्मिन्‌ प्रपाठके अभिचारमन्त्राणामपि सत्ता वर्तते। कर्मज्ञान के लिए तथा यज्ञ विधान ज्ञान के लिए कल्प शास्त्र का पाठ करना चाहिए।,कर्मज्ञानाय तथा यज्ञविधानज्ञानाय कल्पशास्त्रस्य पाठः कर्तव्यः। छत्तिसवें अध्याय से आरम्भ करके अड्तिसवें अध्याय पर्यन्त प्रवर्ग्य याग का विस्तार से वर्णन है।,षट्त्रिंशदध्यायाद्‌ आरभ्य अष्टात्रिंशदध्यायपर्यन्तं प्रवर्ग्ययागस्य विस्तरशः वर्णनमस्ति। "उदात्तयण: यह पञ्चम्यन्त पद है, हल्पूर्वात्‌ यह भी पञ्चम्यन्त पद है।","उदात्तयणः इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌, हल्पूर्वात्‌ इत्यपि पञ्चम्यन्तं पदम्‌।" इस प्रकार से पर्शु-शब्द अन्तोदात्त हो तो “परशु इस रूप में जाना जाता है।,अनेन प्रकारेण पर्शु-शब्दः अन्तोदात्तः चेत्‌ 'परशु' इत्यस्मिन्‌ रूपे परिणतो भवति। अतः सूत्र का अर्थ होता है - क्तान्त उत्तरपद रहते अनिष्ठान्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - क्तान्ते उत्तरपदे अनिष्ठान्तस्य पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति इति। इसके साथ छात्रों के द्वारा एक परियोजना कार्य भी करना है।,अनेन सह छात्रैः एकं परियोजनाकार्यमपि करणीयम्‌। विरले कुछ ही मुक्त पुरुषों कों उस प्रकार का अनुभव होता है।,विरलानां केषाञ्चित्‌ मुक्तपुरुषाणां तादृशः अनुभवः स्यात्‌। "यहाँ वार्तिक में ""असौ' इस पद से उस यजमान का ही प्रथमान्त नामवाचक पद को ग्रहण किया है।","अत्र वार्तिके ""असौ' इति पदेन तदेव यजमानस्य प्रथमान्तं नामवाचकं पदं ग्राह्यम्‌|" यहाँ पर इन्द्रियों के मन में लीन हो जाने से उनकी प्रवृत्ति नहीं होती है।,अत्र इन्द्रियाणां प्रवृत्तिर्नास्ति तेषां मनसि लीनत्वात्‌। वार्तिक की व्याख्या - यह वार्तिक “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इस सूत्र में पढ़ा गया है।,"वार्तिकव्याख्या - इदं वार्तिकं ""न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इति सूत्रे पठितम्‌।" नेह नानास्ति किञ्चित इस श्रुति के द्वारा ब्रह्म में नानाभूत अद्वैत का निषेध किया जाता है।,नेह नानास्ति किञ्चन इति श्रुत्या ब्रह्मणि नानाभूतद्वैतस्य निषेधः क्रियते। लेकिन संस्कारवश मन विक्षिप्त होता है।,परन्तु संस्कारवशात्‌ विक्षिप्तं भवति। ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा के साथ दसवें मण्डल की भाषा समान दिखाई देती है।,ब्राह्मणग्रन्थानां भाषया सह दशममण्डलस्य भाषा समाना दृश्यते। ज्ञानकाण्ड का दूसरा नाम क्या है?,ज्ञानकाण्डस्य अपरं नाम किम्‌? "जिस प्रकार से पहिया हमेशा ही ऊपर नीचे होता रहता है, वैसे ही उषादेवी भी नित्य उत्पन्न होती रहती है -“सामानामर्थ चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्यावर्वृत्स्व।","येन प्रकारेण चक्रं सदा एव आवर्तितं भवति तथा उषादेवी अपि नित्यम्‌ आवर्तनं करोति - ""सामानामर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्यावर्वृत्स्व।" ये दो उपनिषद्‌ शाङख़ायनारण्यक के अविभाज्य अङग है।,इमे द्वे उपनिषदौ शाङ्खायनारण्यकस्य अविभाज्यम्‌ अङ्गमस्ति। इसके बाद शतृ के शित्व से तिङ्शित्सार्वधातुकम्‌ सूत्र से सार्वध तुक संज्ञा होने पर कर्न्तरिशप्‌ इस सूत्र से शप्‌ प्रत्यय होने पर भू शप्‌ अत्‌ होता है।,"ततः शतुः शित्त्वात्‌ तिङ्शित्सार्वधातुकम्‌ इति सूत्रेण सार्वधातुकसंज्ञायाम्‌, कर्तरि शप्‌ इति सूत्रेण शप्प्रत्यये सति भू शप्‌ अत्‌ इति जायते।" ऋग्वेद मण्डल-अनुवाक-वर्ग भेद से और अष्टक अध्याय सूक्त भेद से दो प्रकार की है।,ऋग्वेदः मण्डल-अनुवाक-वर्गभेदेन अष्टकाध्यायसूक्तभेदेन च द्विधा। 9 अन्तः करण किससे उत्पन्न होता है?,९. अन्तःकरणम्‌ उत्पद्यते - वेद स्वयम्‌ ही एक कठिन विषय है।,वेदः स्वयम्‌ एव एकः दुरूहो विषयः वर्तते। पञ्चकोशों के द्वार आत्मा आवृत होता है इस प्रकार का वहाँ पर आशय है।,पञ्चकोशैः आत्मा आवृतो वर्तते इति आशयः। अधिहरि यह रूप सिद्धि कीजिये?,अधिहरि इति रूपं साधयत। इसके बाद “तस्मान्नुडचि” नुडागम विधायक सूत्र प्रस्तुत किया गया है।,"ततः "" तस्मान्नुडचि "" इति नुडागमविधायकं सूत्रं प्रस्तुतम्‌ ।" फिर भी कोइ दुरितबलपीडित होता हुआ असमर्थ होता है।,तथापि कश्चित्‌ दुरितबलात्‌ पीड्यमानः तात्पर्यं ग्रहीतुमसमर्थो भवति। "यहाँ टापू प्रत्यय के पित्‌ होने से “अनुदात्तौ सुप्पितौ' इस सूत्र से आकार का अनुदात्त स्वर विशिष्ट होने पर भी उन दोनों में स्वरित अनुदात्त के स्थान में स्वरित ही होता है, 'स्वरितानुदात्तसन्निपाते स्वरितम्‌' इस सूत्र से स्वरित के और अनुदात्त के स्थान में स्वरित का ही निर्देश होने से।","अत्र टाप्प्रत्ययस्य पित्त्वात्‌ ""अनुदात्तौ सुप्पितौ' इति सूत्रेण आकारस्य अनुदात्तस्वरविशिष्टत्वेऽपि तयोः स्वरितानुदात्तयोः स्थाने स्वरितः एव भवति, 'स्वरितानुदात्तसन्निपाते स्वरितम्‌' इति सूत्रेण स्वरितस्य अनुदात्तस्य च स्थाने स्वरितस्य एव निर्देशात्‌।" सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का द्वितीय मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य द्वितीयो मन्त्रः। साधारण मानव तथा अज्ञानी ब्रह्म से भिन्न स्वतन्त्र कुछ और जगत्‌ होता है इस प्रकार से चिन्तन करते है।,साधारणमानवाः अज्ञानिनः ब्रह्मणः भिन्नं स्वतन्त्रं किञ्चिद्भवति जगदिति चिन्तयन्ति। "इस जिज्ञासा में कहते है निगद शब्द में वर्तमान गद्‌ - धातु से अपाद बन्ध अर्थक है, नि पूर्वक से गद्‌ - धातु वेदाध्ययन-३४५ ( पुस्तक-१ ) हमेशा गद्यते इस कर्म अर्थ में 'नौ गदनदपठस्वनः' इस सूत्र से अप्‌ - प्रत्यय होता है।","इति जिज्ञासायाम्‌ उच्यते निगदशब्दे वर्तमानः गद - धातुः अपादबन्धार्थकः, निपूर्वकात्‌ गद्‌ - धातोः नितरां गद्यते इत्यर्थे कर्मणि ' नौ गदनदपठस्वनः ' इति सूत्रेण अप्‌ - प्रत्ययः।" जरायु अर्थात्‌ गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य पशु आदि।,जरायुभ्यः जातानि मनुष्यपश्वादीनि जरायुजानि। क्योंकि आत्मविचार को समझना अत्यन्त ही कठिन है।,यतश्च अत्यन्तं दुर्विज्ञेयो भवति आत्मविचारः। लौकिक वैदिक भेद से शब्द दो प्रकार के हैं।,लौकिकवैदिकभेदेन शब्दः द्विविधः। "भारत के सभी ज्ञान के स्रोत वेद से ही प्रवाहित होते हैं, ऐसा सभी मनुष्य जानते है।",भारतस्य सर्वाणि ज्ञानस्य स्रोतांसि वेदादेव प्रभवन्ति इति सर्वे मनुष्याः जानान्ति। इसके बाद ग्यारह अनुयाज और पत्नी संयाज अनुष्ठीत किये जाते हैं।,इतः परम्‌ एकादश अनुयाजाः पत्नीसंयाजाश्च अनुष्ठीयन्ते। गवाम्‌ अक्षि इव इति लौकिक विग्रह में गो आम्‌ अक्षि सु इस अलौकिक विग्रह में “षष्ठी” से सूत्र से गो आम्‌ इस षष्ठयन्त अक्षि सु सुबन्त के साथ षष्ठी तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,"गवाम्‌ अक्षि इव इति लौकिकविग्रहे गो आम्‌ अक्षि सु इत्यलौकिकविग्रहे ""षष्ठी"" इत्यनेन सूत्रेण गो आम्‌ इति षष्ठ्यन्तं अक्षि सु इति सुबन्तेन सह षष्ठीतत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" 8. सुपूर्वक प्रपूर्वक अव्‌-धातु से ईप्रत्यय करने पर चतुर्थी एकवचन में।,8. सुपूर्वकात्‌ प्रपूर्वकात्‌ अव्‌-धातोः ईप्रत्यये चतुर्थ्यकवचने। "कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा का भी एक आरण्यक है, जो मैत्रायणीय उपनिषद्‌, इस नाम से विख्यात है।","कृष्णयजुर्वेदीयायाः मैत्रायणीयशाखाया अपि एकम्‌ आरण्यकमस्ति, यत्‌ मैत्रायणीयोपनिषद्‌ इति नाम्ना ख्यातमस्ति।" परार्थ नाम विग्रह वाक्य अवयव पदार्थों से पर जो अर्थ है वह परार्थ उस प्रातिपदिक वृत्ति होती है।,परार्थः नाम विग्रहवाक्यावयवपदार्थेभ्यः परः यः अर्थः स परार्थः तत्प्रतिपादिका वृत्तिः। "जैसे छान्दोग्योपनिषद्‌ में- आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद, तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्येश (छा.उ. 6.14.2) इस प्रकार से अद्वितीयवस्तु का ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति प्रयोजन होता है।","यथा - छान्दोग्योपनिषदि 'आवचार्यवान्‌ पुरुषो वेद, तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्ये' (छा.उ.६.१४.२) इति अद्वितीयवस्तुज्ञानस्य तत्प्राप्तिः प्रयोजनम्‌।" व्याख्या - हे पासों हमे बन्धु जानो।,व्याख्या - हे अक्षाः यूयं मित्रं कृणुध्वम्‌ । जैस ब्रह्म की पारमार्थिकी सत्ता तथा जगत को व्यावहारिकी सत्ता।,"यथा- ब्रह्मणः पारमार्थिकी सत्ता, जगतः व्यवहारिकी सत्ता।" सूत्र में अनिट्‌-इसके ग्रहण से इट्‌ सहित लसार्वधातुक के परे यह सूत्र कार्य नहीं करता है।,सूत्रे अनिट्-इत्यस्य ग्रहणात्‌ इट्सहितलसार्वधातुके परे इदं सूत्रं न प्रवर्तते। यजुर्वेद में एक सम्पूर्ण अध्याय रुद्रदेव सम्बन्धि है।,यजुर्वेदे एकः सम्पूर्णः अध्यायः रुद्रदेवसम्बन्धी। कुरु लौकिक रूप है।,कुरु। भले ही वेदान्त व्यवस्थापित किया गया है।,यद्यपि वेदान्ते व्यवस्थापितम्‌। इस प्रकार से मन का एकत्व भी गुण भेद के कारण बन्ध तथा मोक्ष का कारण हो जाता हे।,एवं रजसा तमसा च नितरां रहितं मनः मोक्षस्य हेतुर्भवति। शूशुजानः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ।,शूशुजानः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? अन्तिम ऋचाओं में त्रिष्टुप्‌ छन्द॒ तथा अवशिष्ट ऋचाओं में अनुष्टुप है।,"अन्त्यायाम्‌ ऋचि त्रिष्टुप्‌ छन्दः, शिष्टासु तु अनुष्टुभः।" यहाँ तृजकाभ्याम्‌ इस तृतीयाद्विवचनान्त कर्न्तरिं सप्तमी एकवचनान्त पद है।,अत्र तृजकाभ्यामिति तृतीयाद्विवचनान्तं कर्तरि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। "द्वित्व करने पर उन दोनों शब्दों के मध्य में जो दूसरा शब्द है, उसकी “तस्य परमाम्रेडितम्‌' इस सूत्र से आम्रेडितसंज्ञा होती है।","द्वित्वे कृते द्वयोः शब्दयोः मध्ये यः द्वितीयः शब्दः, तस्य 'तस्य परमापम्रेडितम्‌' इति सूत्रेण आम्रेडितसंज्ञा भवति।" उसका उत्पत्ति कारण अग्नि है ऐसा स्कन्द स्वामी मानते हैं।,तस्य उत्पत्तिकारणम्‌ अग्निः इति स्कन्दस्वामी मनुते। और विभक्ति कार्य करने पर पटुपटुः यह रूप सिद्ध होता है।,ततश्च विभक्तिकार्ये पटुपटुः इति रूपं सिध्यति। उससे उसके ऊपर उसके ऊपर इत्यादि में समास दुर्वार है।,तेन तस्य उपरि तदुपरि इत्यादौ समासः दुर्वारः। और वह ही स्थित प्रज्ञ होता है।,स च स्थितप्रज्ञः भवति। "जो जुआरी की स्त्री होती है, वह यद्यपि अक्षक्रोडा से पूर्व झगडा नही करती थी, कितव मित्रो के लिए अनुकूल ही था।","या कितवस्य स्त्रीः भवति सा यद्यपि अक्षक्रीडनात्‌ पूर्वं कलहं न कृतवती , कितवमित्राणां कृते अनुकूला एव आसीत्‌ ।" 2. अच्छा वद तवसं ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,२. अच्छा वद तवसं ..... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। "(क) ऋग्वेद में मुख्य उपनिषद् - ऐतरेयोपनिषद्, कौषीतकि उपनिषद् और निर्वाणोपनिषद् हैं ।","क) ऋग्वेदे मुख्या उपनिषदः - ऐतरेयोपनिषत्‌, बहृचोपनिषत्‌, निर्वाणोपनिषत्‌ चेति।" "और इसका कारण वंश मण्डल से भाषा में आया हुआ भेद, और विषय में आई हुई भिन्नता सब जगह दिखाई देती है।",कारणञ्च अस्य वंशमण्डलात्‌ भाषागतभेदः तथा विषयगतभिन्नता सर्वत्र परिलक्ष्यते। इन शाखाओ में माध्यन्दिनशाखा बहुत ही प्रसिद्ध है।,अनयोः शाखयोः माध्यन्दिनशाखा सुप्रसिद्धा अस्ति। आत्मानं रथिनं विद्धि - इस श्लोक को पूर्ण कोौजिए।,आत्मानं रथिनं विद्धि -- इत्यादि श्लोकं पूरयत। किस प्रकार से गुरु के पास जाएँ तो कहते हैं कि समित्पाणिः अर्थात्‌ हाथ में समिधा लेकर के गुरु के पास में जाए।,गुरुम्‌ कथम्‌ अभिगच्छेत्‌। स समित्पाणिः समिद्भारगृहीतहस्तः गुरुम्‌ अभिगच्छेत्‌। वहाँ देव ई इस स्थिति में (यचि भम्‌' इस सूत्र से देव इसकी भ संज्ञा होने पर “यस्येति च' इस सूत्र से ईकार परक होने से पूर्व की भ संज्ञक देव इसके वकार के उत्तर अकार का लोप होने पर देव्‌ ई यह स्थिति होती है।,ततः देव ई इति स्थिते 'यचि भम्‌' इति सूत्रेण देव इत्यस्य भसंज्ञायां 'यस्येति च' इति सूत्रेण ईकारपरकत्वात्‌ पूर्वस्य भसंज्ञकस्य देव-इत्यस्य वकारोत्तरस्य अकारस्य लोपे देव्‌ ई इति स्थितिः भवति। उससे परे यह अर्थ है।,तस्मात्‌ परम्‌ इत्यर्थः। इस प्रकार से अन्नमय के तथा प्राणमय के ज्ञानशक्ति रहित होने से वह बलिष्ठ भी होता है।,एवम्‌ अन्नमयस्य प्राणमयस्य च ज्ञानशक्त्यभावात्‌ ततो बलिष्ठत्वमपि अस्ति। इस पाठ में सर्वसमास उपकारक समासान्त कार्य विधायक सूत्रों की व्याख्या की गई है।,अस्मिन्‌ पाठे सर्वसमासोपकारकाणि समासान्तकार्यविधायकानि सूत्राणि व्याख्यातानि। पथिन शब्द का तत्पुरुषात्‌ इत्यादि अन्वय से तदन्तविधि में पथिन्‌ शब्द से तत्पुरुषात्‌ पद प्राप्त होता है।,पथिन्शब्दस्य तत्पुरुषादित्यनेनान्वयात्‌ तदन्तविधौ पथिन्शब्दान्तात्‌ तत्पुरुषात्‌ इति लभ्यते। स्तनकेशलोमादिव्यजक के अभाव में होने पर उन दोनों में अन्तर सादृश्य होता है।,तदभावे स्तनकेशलोमादिव्यञ्जकाभावे सति यद्‌ उभयोः अन्तरं सादृश्यं भवति। निघण्टु ग्रन्थ की सङख्या विषय में पर्याप्त मतभेद है।,निघण्टुग्रन्थस्य सङ्ख्याविषये पर्याप्तः मतभेदः अस्ति। मन के द्वारा यह सभी कुछ देखा जाता है।,मनसैव द्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम्‌ इति। अब उत्तर देते हुए आचार्य सदानन्दयोगीन्द्र ने जीवन्मुक्ति के वर्णन के समय में यह कहा है की जीवन्मुक्त की शुभ वासनाओं की भी अनुवृत्ति होती है।,अतः एव जीवन्मुक्तिवर्णनसमये आचार्यः सदानन्दयोगीन्द्रः उक्तवान्‌ यत्‌ जीवन्मुक्तस्य शुभवासनानाम्‌ अपि अनुवृत्तिः भवति। "किन्तु स्वर विधान करने में ही यह पराडगवत्त्‌ सिद्ध होता है, उससे अन्य स्थलों में नहीं सिद्ध होता है।","किन्तु स्वरविधाने कर्तव्ये एव इदं पराङ्गवत्त्वं सिध्यति, न ततः अन्येषु स्थलेषु।" "एकश्रुतिः यह प्रथमान्त पद है, अतः उसका विधायक पद है।","एकश्रुतिः इति प्रथमान्तं पदम्‌, अतः तद्‌ विधायकपदम्‌।" नहीं है जिसमें अतिवृत्ति यही अनतिवृत्ति है।,न अतिवृत्तिः अनतिवृत्तिः। यहाँ खलपू शब्द उपपद समास से बनता है।,अत्र खलपूशब्दः उपपदसमासेन निष्पन्नः। अधिकारी अधिकृत होता है।,अधिकारी अधिकृतः। सरलार्थ - मैं ही समस्त भुवन की रचना करती हुई वायु के समान प्रवाहित होती हूँ।,सरलार्थः- अहमेव समस्तभुवनं सृजन्ती वायुः इव प्रवहामि। इसलिए ग्रन्थ के आदि में विषय सम्बन्ध तथा प्रयोजन इनका उल्लेख किया जाता है।,अतः ग्रन्थादौ विषयः सम्बन्धः प्रयोजनम्‌ इत्येषाम्‌ उल्लेखः नूनं कर्तव्यः। "तीन पद वाले इस सूत्र में न यह अव्ययपद है, उदात्तस्वरितोदयम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त है, अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है।","त्रिपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे न इति अव्ययपदम्‌, उदात्तस्वरितोदयम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तम्‌, अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌।" आत्मदा - आत्मन्‌-उपपद पूर्वक दा-धातु से विच्प्रत्यय करने पर प्रथमा बहुवचन में आत्मदा रूप बनता है।,आत्मदा- आत्मन्‌-उपपदात्‌ दा-धातोः विच्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने आत्मदा इति रूपम्‌। देने की इच्छा यह उसका अर्थ है।,दातुम्‌ इच्छति तस्य इत्यर्थः। ऋग्वेद और यजुर्वेद के दो महावाक्य लिखें।,ऋग्वेदस्य यजुर्वेदस्य च महावाक्यं द्वयं लिखत। लेकिन वृद्धावस्था में शरीर सुन्दर नहीं होता है।,किन्तु वार्धक्ये शरीरं सुन्दरं नास्ति। इसलिए यह शब्द प्रमाण वेद के अपने नहीं है।,अतः इदं शब्दप्रमाणं वेदस्य स्वकीयं नास्ति। पुनः प्रत्येक पदार्थ में इन गुणों का उपचय और अपचय स्थिति मात्र होती है।,पुनः प्रत्येकं पदार्थे एतेषां गुणानाम्‌ उपचयः अपचयः स्थितिमात्रं च भवति। सर्वत्र पूजादियों में भी इसका प्रयोग विशेष रूप से होता है।,सर्वत्र पूजादिषु अपि अस्य प्रयोगः अव्याहतरूपेण भवति एव। अन्तरिक्ष देवता से पशु।,अन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वृतान्तज्ञान विधि न तो प्रवर्तक और न निवर्त्तक है।,वृतान्तज्ञानं विधौ न प्रवर्त्तकं नापि निवर्त्तकम्‌। आत्मोपनिषद्‌ में यह इस प्रकार से कहा गया है- घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्वयम्‌।,आत्मोपनिषदि आम्नातं- घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्वयम्‌। काठक संहिता- केवल क्रम में यहाँ वहाँ भेद है।,काठकसंहिता- केवलं क्रमे यत्र तत्र पार्थक्यं विद्यते। "वहाँ प्रथम एकवचन होने पर सु प्रत्यय होने पर अधिहरि सु इस स्थिति में अधिहरि इसका “ अव्ययीभावश्च"" इस सूत्र से अव्ययसंज्ञा होने पर “अव्ययादाप्सुपः'' इस सूत्र से सुप्‌ का लोप होने पर अधिहरि यह रूप सिद्ध होता है।","तत्र प्रथमैकवचने सुप्रत्यये अधिहरि सु इति स्थिते अधिहरि इत्यस्य ""अव्ययीभावश्च"" इति सूत्रेण अव्ययसंज्ञायां सत्याम्‌ ""अव्ययादाप्सुपः"" इति सूत्रेण सोः लुकि अधिहरि इति रूपं सिध्यति।" मिट्टी वहाँ पर उपादान कारण होती है।,मृत्‌ तत्र उपादानकारणं भवति। अनुदात्तौ सुप्पितौ इस सूत्र से निर्देश किया है।,अनुदात्तौ सुप्पितौ इति निर्देशात्‌। "एकाच: यह अनुवृति पद यहाँ उत्तरपदात्‌ इसका विशेषण है, अन्तोदात्तात्‌ यह भी उत्तरपदात्‌ इसका विशेषण है।","एकाचः इति अनुवर्तमानं पदमत्र उत्तरपदात्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌, अन्तोदात्तात्‌ इत्यपि उत्तरपदात्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌।" व्याख्या - जो जुआरी जुआ खेलते है उसकी सास उसकी निंदा करती है।,व्याख्या- श्वश्रूः जायाया माता गृहगतं कितवं द्वेष्टि निन्दतीत्यर्थः। और क्या है कहा गया है।,कुत्रेति तदाह। इसका प्रधान कार्य तो जल वर्षा ही करना है।,अस्य प्रधानं कार्य तु जलवर्षणम्‌ एव । (क) प्रागभाव (ख) प्रध्वंसाभाव (ग) अत्यंताभाव (घ) विशिष्टाभाव 10. “पर्वतो वह्निमान्‌ धुमात्‌' इस अनुमान में साध्य क्या है?,(क) प्रागभावः (ख) प्रध्वंसाभावः (ग) अत्यन्ताभावः (घ) विशिष्टाभावः १०) पर्वतो वह्निमान्‌ धूमात्‌ इत्यनुमाने साध्यं किम्‌। अथर्ववेद की शाखा पस्पशाह्निके में “नवधाऽऽथर्वणो मतः'' ऐसा लिखकर पतञ्जलि ने अथर्ववेद की नौ शाखा कही है।,"अथर्ववेदस्य शाखा पस्पशाह्विके ""नवधाऽऽथर्वणो मतः"" इति लिखित्वा पतञ्जलिना अथर्ववेदस्य नव शाखाः कथिताः।" "शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान यह छः सम्पत्तियाँ बताई गई हैं।",शमः दमः उपरतिः तितिक्षा श्रद्धा समाधानम्‌ इति एतत्‌ शमादिषट्कम्‌। अतः उसकी इस सूत्र से उपसर्जन संज्ञा होती है।,अतः तस्य अनेन सूत्रेण उपसर्जनसंज्ञा भवति। "उस प्रकार के सुख को धारण करते हो, उसी प्रकार का सुख हमको विशेष रूप से प्रदान करो।",तादृशं शर्म धारयथः तेन शर्मणा नः अस्मान्‌ अविष्टं रक्षतम्‌। अभ्यवर्तयन्‌ - अभिपूर्वक वृ-धातु से णिच लङ प्रथमपुरुष बहुवचन में।,अभ्यवर्तयन्‌- अभिपूर्वकात्‌ वृ-धातोः णिचि लङि प्रथमपुरुणबहुवचने। "मिटटी के पात्र में पशु के मांस का वसा नामक जो रस सञ्चित होता है, उसकी भी पुरोहित आहुति देता है।","मृत्पात्रे पशुमांसस्य वसानामकः यः रसः सञ्चितः भवति, तदपि पुरोहितः जुहोति।" जिस प्रकार से आवर्त (जलाशय) पतित कीट आवर्त से आवर्तान्तर (अन्य जलाशयों में) जाते हैं उसी प्रकार से जीव भी जन्म जन्मान्तरों के फलों को प्राप्त करते हैं।,यथा आवर्ते पतिताः कीटाः आवर्तात्‌ आवर्तान्तरं गच्छन्ति तथैव जीवाः जन्मनः जन्मान्तरं लभन्ते। यह सूत्र ति प्रत्यय का विधान करता है।,इदं सूत्रं तिप्रत्ययं विदधाति। अथर्ववेद में तक्मा: यह किसका नाम हे?,अथर्ववेदे तक्माः इति कस्य नाम ? उसका ही वर्णन इस मन्त्र में किया गया है।,तदेव अस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते। शब्दराशि और ज्ञान का खजाना वेद है।,शब्दराशिः ज्ञानखनिश्च वेदः। इसलिए जगत का सभी ज्ञान उसका है।,अतः सर्वस्य अपि जगतः ज्ञानं तस्य अस्ति। विष्णु शब्द का क्या अर्थ है?,विष्णुशब्दस्य कः अर्थः? "' ( अनुवाकाक्रमणी, श्लो. ३६) आश्वलायन संहिता का तथा उसके ब्राह्मणों का काल किसी समय में अवश्य ही था।","अनुवाकाक्रमणी, श्लो.३६) आश्वालायनसंहितायाः तथा तेषां ब्राह्मणानां कालः कस्मिंश्चित्‌ समये अवश्यमेव आसीत्‌।" 'प्रशंसावचनैश्च'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,""" प्रशंसावचनैश्च "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" विज्ञानमय कोश सभी व्यवहारो में अर्थात्‌ लौकिक तथा वैदिक व्यवहारों मे कर्ता के रूप में होता है।,विज्ञानमयः सर्वव्यवहारेषु लोकिकेषु वैदिकेषु च कर्ता भवति। "सरलार्थ - तीन चौथाई पुरुष या ब्रह्म द्युलोक में है तथा, चतुर्थ अंश इसी लोक में है।","सरलार्थः- त्रिपात्पुरुषः द्युलोकं गतः, चतुर्थः अंशः अस्मिन्‌ लोके एव विद्यते।" इस प्रकार से मोक्ष के द्वारा काम्य के फलों का विरोध होता है।,एवं मोक्षेण काम्यानां फलस्य विरोधो वर्तते। "महाभाष्य में (४/१/८६) , शाबरभाष्य में (१/१/३०) इस मौदमुनि का उल्लेख प्राप्त होता है।","महाभाष्ये (४/१/८६), शाबरभाष्ये (१/१/३०) अस्य मौदमुनेः उल्लखः प्राप्यते।" "अन्वय - एषः देवः सर्वा प्रदिशः, सः पूर्वः ह गर्भः अन्तः जातः, सः एव जातः, स जनिष्यमाणः।","अन्वयः - एषः देवः सर्वा प्रदिशः, सः पूर्वः ह गर्भः अन्तः जातः, सः एव जातः, स जनिष्यमाणः।" "( 1.13 ) “यावदवधारणे ' सूत्रार्थ-अवधारण अर्थ में यावत अव्यय का सुबन्त के समर्थ से समास संज्ञा होती है, और वह समास अव्ययीभाव संज्ञक होता है।","(१.१३) यावदवधारणे सूत्रार्थः - अवधारणे अर्थे यावदित्यव्ययं सुबन्तेन समर्थन सह समाससंज्ञं भवति, स च समासः अव्ययीभावसंज्ञः भवति।" "फिर उसी मन से चन्द्रमा, चक्षु से सूर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि, कर्ण से वायु और प्राण उत्पन्न हुए।","पुनरपि तस्य मनसः सकाशात्‌ चन्द्रमाः, चक्षुषः सूर्यः, मुखादिन्द्रः अग्निश्च, कर्णाभ्यां वायुः, प्राणश्च अजायन्त।" "देवीसूक्त का ऋषि कौन, छन्द क्या, और देवता कौन है?","देवीसूक्तस्य कः ऋषिः, किं छन्दः, का च देवता।" जब चित्त विक्षेप युक्त होता है।,यदा च चित्तं विक्षेपयुक्तं भवति। मृळत - मृड्-धातु से लोट मध्यमपुरुषबहुवचन में।,मृळत - मृड् - धातोः लोटि मध्यमपुरुषबहुवचने । "उसके द्वारा जैसा कहा गया, मनु ने वैसे ही कार्य किया।",ततः यथोक्तं कार्यं सम्पादितं मनुना। द्विपदात्मक इस सूत्र में नञः तत्पुरुषात्‌ से दो पद पञ्चमी एकवचनान्त है।,पदद्वयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ नञः तत्पुरुषात्‌ इति पदद्वयं पञ्चम्येकवचनान्तम्‌। इस ग्रन्थ की शोभाकर भू के द्वारा विस्तृत व्याख्या भी लिखी गई है।,अस्य ग्रन्थस्य शोभाकरभद्देन विस्तृता व्याख्या अपि लिखिता। यह मेघ अथवा अन्धकार ही वरुण का पाश के समान है।,अयं मेघः अथवा अन्धकारः एव वरुणस्य पाशस्वरूपः वर्तते। "( 8.3 ) “अक्ष्णोऽदर्शनात्‌, सूत्रार्थ-अचक्षु परि से अक्ष्ण समासान्त तद्धित संज्ञक को अच्‌ प्रत्यय होता है।","(८.३) ""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌, सूत्रार्थः - अचक्षुः पर्यायाद्‌ अक्ष्णः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अचप्रत्ययो भवति।" यहां तीन लिङ्ग होते हैं।,अत्र लिङ्गानि त्रीणि भवन्ति "इसलिए ही अग्नि को अपानपात इत्यादि आख्या को धारण करता है, वह वैदिकवाङ्मय में पृथग्‌ देवता के रूप में स्तुति को प्राप्त करता है।",अत एव अपां नपादित्याख्यां धारयन्‌ स वैदिकवाङ्मये पृथग्‌ दैवतमिव पृथक्‌ स्तुतिभिः संस्तुतः। इस सूत्र से पुंवद्भाव का अतिदेश होता है।,अनेन सूत्रेण पुंवद्भावस्यातिदेशो भवति । 6. प्रतिबिम्ब के बिम्ब को छोडकर और कोई भी सत्ता नहीं हैं।,6. प्रतिबिम्बस्य बिम्बम्‌ अतिरिच्य कापि सत्ता नास्ति। काव्यात्मकशैली अनेक स्थानों पर वेद में प्राप्त होती है।,काव्यात्मकशैली बहुत्र वेदे परिलक्ष्यते। ददतः - दा-धातु से शतृप्रत्ययान्त षष्ठी एकवचन का रूप है।,ददतः - दा-धातोः शतृप्रत्ययान्तं षष्ठ्येकवचने रूपम्‌। अतः प्रकृत सूत्र के सामर्थ्य से पचति इस तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रसामर्थ्यात्‌ पचति इति तिङन्तं विकल्पेन अनुदात्तं न भवति। इसलिए यदि मन का निग्रह हो जाए तो बाह्येन्द्रियों का अपने आप निग्रह हो जाता है।,अतः मनसः निग्रहः भवति चेत्‌ बहिरिन्द्रियाणां स्वतः निग्रहः भवति। उसका धर्माधर्मरूप संस्कार विशेष होता है।,तस्य धर्माधर्मरूपः संस्कारविशेषः भवति। मन करण होता है।,मनः करणं भवति। यहाँ पर अतिशयोक्ति अंलङकार है।,अत्र अतिशयोक्त्यलङ्कारः अस्ति। शाकल्य के अनुसार कितने मन्त्र है?,शाक्यलानुसारेण कति मन्त्राः? अतः सूत्र का अर्थ है - ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द के उत्तर पद में होने पर पूर्वपद भुवन शब्द को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है।,तः सूत्रार्थः भवति- ऐश्वर्यवाचिनि तत्पुरुषे पतिशब्दे उत्तरपदे सति पूर्वपदस्य भुवनशब्दस्य विकल्पेन प्रकृतिस्वरः भवति इति। "जो कितव होता है, उसकी सास भी उसको छोड़ देती है।",यः कितवः भवति तस्य श्वश्रूः अपि तं निवारयति । दिन और रात जो पत्नीत्व रूप में माने जाने पर उसके साथ रहने वाली होने से है।,अहोरात्रे ये पत्नीत्वेन कल्पिते पार्श्वे उभयपार्श्ववर्तिन्यौ ते। वहाँ पर क्रान्तप्रज्ञ अथवा क्रान्तकर्मा है।,ततः क्रान्तप्रज्ञः क्रान्तकर्मा वा। एवादीनामन्तः इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,एवादीनामन्तः इति सूत्रं व्याख्यात। उससे सूत्र का अर्थ होता है - लित प्रत्यय के परे पूर्व स्वर को उदात्त होता है।,तेन सूत्रार्थो भवति लिति परे प्रत्ययस्य पूर्वस्वरः उदात्तः भवति। ऋग्वेद में भी रुद्र के भयङ्कर रूप का अनेक स्थल में वर्णन है।,ऋग्वेदे अपि रुद्रस्य भयङ्करं रूपं बहुषु स्थलेषु वर्ण्यते। उसकी जिह्वा का आश्रय लेकर के ही देवहवि का भक्षण करते हैं।,तस्य जिह्वाम्‌ आश्रित्यैव देवा हविर्भुञ्जते। ऋग्वेद के प्रथम भाग में क्या है?,ऋग्वेदस्य प्रथमभागे किम्‌ अस्ति? इस प्रकार का विवेक करने पर तो ऐहिक तथा आमुष्मिकों से विराग सम्भव होता है।,ईदृशविवेकाद्‌ कृतकेभ्य ऐहिकामुष्मिकेभ्यो विरागः नितरां सम्भवति। माता और इसके सम्बन्धि कष्ट को प्राप्त करते है।,माता जनन्यपि तत्सम्बन्धाद्धीना तप्यते। 1. तीन लिङ्ग होते हैं?,१. त्रीणि लिङ्गानि भवन्ति। उसके बाद उसकी विदेह मुक्ति हो जाती है।,ततश्च तस्य विदेहमुक्तिः भवति। पुरोडाश के ईडा भक्षण को तरह ही पशुयाग में आहूति के अवशेष पशुमांस को खाने का विधान देखा जाता है।,पुरोडाशस्य इडाभक्षणम्‌ इव पशुयागे आहूत्यवशेषस्य पशुमांसस्य विधानं दृष्टं वर्तते। "यहाँ पर क्रमानुसार उपचर्म, उपचर्मम्‌, उपसमिधम्‌. उपसमित्‌ इत्यादि उदाहरण हैं,","अत्र यथाक्रमम्‌ उपचर्म, उपचर्मम्‌, उपसमिधम्‌, उपसमित्‌ इत्यादिकमुदाहरणम्‌।" जिससे पृथक्करण हुआ है वहाँ षष्ठी होती है।,यस्मात्‌ पृथक्करणं तत्र षष्ठी। उस यज्ञ का जो अन्तिम दिन उससे पहले के दिन में महाव्रत का अनुष्ठान होता है।,तस्य यज्ञस्य यः अन्तिमदिवसः ततः पूर्वस्मिन्‌ दिवसे महाव्रतस्य अनुष्ठानं भवति। वह यहाँ पर ही लीनता को प्राप्त कर लेता है।,अत्र लीनतां प्राप्नोति। विवेकादि साधनचतुष्टय करना चाहिए।,विवेकादिसाधनचतुष्टं च कर्तव्यम्‌। उपासक रुद्र का क्या उद्देय करके नमस्कार करते है?,उपासकाः रुद्रस्य किमुद्दिश्य प्रणमति? "यहाँ ""रात्राह्नाहाः पुंसि"", ""परवल्लिङ्गंद्वन्द्वतत्पुरुषयोः"", ""अर्धर्चाः पुंसि च"" इत्यादि लिङ्गानुशासनपरक सूत्र हैं।","अत्र ""रात्राह्नाहाः पुंसि"", ""परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः"", ""अर्धर्चाः पुंसि च"" इत्यादीनि लिङ्गानुशासनपरकाणि सूत्राण्यपि विद्यन्ते।" "इस रूप से पत्थर पर द्रोणएकलश की स्थापना के विषय में भी विधि, विधानों के कारण का निर्देश है।","अनेन रूपेण प्रस्तरोपरि द्रोणकलशस्य स्थापनस्य (अध्यूहनस्य) विषये अपि विधि, विधानानां कारणस्य निर्देशः अस्ति।" तुम हवि का दान करने वाले यजमान के लिए कल्याण करते हो और अन्त में वह कल्याण तुम्हारे लिए ही है।,त्वं दाशुषे हविर्दत्तवते यजमानाय तत्प्रीत्यर्थं यत्‌ भद्रं वित्तगृहप्रजापशुरूपं कल्याणं करिष्यसि तत्‌ भद्रं तव इत्‌ तवैव। विशेष रूप से शैवधर्म का प्रचार इस अध्याय में विद्यमान है।,विशेषतः शैवधर्मस्य प्रचारः अस्मिन्‌ अध्याये विद्यते। (गीता 5.15) अज्ञान के द्वारा विवेकियों का ज्ञान आवृत्त है जिससे जन्तु मोहित होते हैं।,(गीता ५.१५) अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं विवेकविज्ञानम्‌। तेन मुह्यन्ति जन्तवः। "उदाहरण -दामा, बहुयज्वा।",दाहरणम्‌ - दामा। बहुयज्वा। सोकर के उठे हुए पुरुष के वाक्‍य होते है कि सुख सो करके उठा हुँ मुझे कुछ भी नहीं पता है।,सुप्तोत्थितस्य पुरुषस्य वाक्यमस्ति- सुखेन सुप्तः न किञ्चिन्मया ज्ञातम्‌ इति। 30. मन से कल्पित क्या होता है?,३०. मनःकल्पित एव कः ? प्रत्यय्‌ आत्मा स्वप्रकाश तथा परोक्षस्वभाव वाला होता है।,प्रत्यगात्मा स्वप्रकाशापरोक्षस्वभावः भवति। सरलार्थ - जैसे कोई चतुर सारथि घोड़ो को सही चलाता है।,सरलार्थः - यथा कश्चत्‌ सुसारथिः घोटकं सम्यक्‌ परिचालयति। "सरलार्थ - हे पर्जन्य देव जब आप तीव्र शब्द को करते हुए, गर्जना करते हुए दुष्कर्म करने वाले मनुष्यों को मारते हो उनका हनन करते हो तब जो ये पृथिवी पर रहते है वे आनन्दित होते है।","सरलार्थः - हे पर्जन्य देव यदा भवान्‌ तीव्रशब्दं कुर्वतः, गर्जनं कुर्वतः दुष्कर्म कुर्वतां जनानां हननं करोति तदा ये पृथिव्यां तिष्ठन्ति ते आनन्दिताः भवन्ति ।" और उसी ने जल रूपी बादलों को मारा वह इन्द्र का दूसरा कार्य है।,अनु पश्चात्‌ अपः जलानि ततर्द हिंसितवान्‌ भूमौ पातितवानित्यर्थः। 5 प्राणमय कोश के अनात्मत्व का प्रतिपादन कीजिए।,5 प्राणमयकोश अनात्मत्वं प्रतिपादयत। इहलोक में या परलोक में जीवन का परम लक्ष्य सुख लाभ ही है।,जीवनस्य चरमलक्ष्यं सुखलाभः। इह परत्र च। वह ही धर्म रहस्य को श्रुति स्मृतिकर्त्ता सविता सभी के प्रेरक यह दृष्टिगोचर सूर्य देव ने मुझे विशेष रूप से ऐसा कहा।,तत्‌ एव धर्मरहस्यं श्रुतिस्मृतिकर्त्ता सविता सर्वस्य प्रेरकः अयं दृष्टिगोचरः अर्यः ईश्वरः मे मह्यं वि चष्टे विविधमाख्यातवान्‌ । हदय में उत्पन्न सङ्कल्प से श्रद्धा की उपासना होती है।,हृदये समुत्पन्नसङ्कल्पेन श्रद्धाया उपासना भवति। 7. जगती छन्द में कितने पाद और कितने अक्षर होते है?,जगती छन्दसि कति पादाः कति अक्षराणि च भवन्ति? यज्ञ को आवश्यकता को अनुभव करके उदात्त द्रष्टा महामुनि व्यास ने अपने चार शिष्यो को वेद पढ़ाया।,यज्ञस्य आवश्यकताम्‌ अनुभूय उदात्तदृष्ट्या महामुनिः व्यासः स्वस्य चतुरः शिष्यान्‌ वेदम्‌ अध्यापितवान्‌। 6 योगियों को अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर क्या सिद्धि मिलती है।,६. योगिनः अहिंसाप्रतिष्ठायां किं सिध्यति? निपाताः इस प्रथमा बहुवचनान्त पद की तो उस पूर्व सूत्र से ही यहाँ अनुवृति आ रही है।,निपाताः इति प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌ तत्तु पूर्वसूत्रात्‌ अनुवर्तते। जैसा दण्डि ने कहा - “इदमन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्‌।,यथोक्तं दण्डिना- 'इदमन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्‌। देवम्‌ - दिव्‌-धातु से अच्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में देवम्‌ यह रूप बनता है।,देवम्‌- दिव्‌-धातोः अच्प्रत्यये द्वितीयैकवचने देवम्‌ इति रूपम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- अहिना हतः इस विग्रह में तृतीयातत्पुरुष समास होने पर अहिहतः यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अहिना हतः इति विग्रहे तृतीयातत्पुरुषसमासे अहिहतः इति रूपम्‌। पुरुष के पाद से कौन उत्पन्न हुआ?,पुरुषस्य पादाभ्यां का उत्पन्ना। लेट्‌ लकार में भी इस प्रकार का रूप सम्भव है।,लेट्लकारेऽपि एवंरूपं सम्भवति। जो-जो उत्पन्न होता है वह सब अनित्य होता है इस नियम से आकाश की भी उत्पत्ति के श्रवण से वह भी अनित्य है।,यद्‌ यद्‌ उत्पद्यते तत्‌ सर्वम्‌ अनित्यमिति नियमात्‌ आकाशस्यापि उत्पत्तिश्रवणात्‌ अनित्यमिति ज्ञेयम्‌। 12.मोक्तुम्‌ इच्छा मुमुक्षा कहलाती है।,१२. मोक्तुम्‌ इच्छा मुमुक्षा। "ब्राह्मण के अन्तरङग परीक्षा से ज्ञात होता है कि ये ग्रन्थ यज्ञों के वैज्ञानिक, आधिभौतिक, तथा अध्यात्मिक विषयों का प्रतिपादन करता है।","ब्राह्मणानाम्‌ अन्तरङ्गपरीक्षणेन ज्ञातो भवति यदेते ग्रन्थाः यज्ञानां वैज्ञानिकान्‌, आधिभौतिकान्‌ तथा अध्यात्मिकान्‌ च विषयान्‌ प्रतिपादयन्ति इति।" और कौन उन यज्ञों के अधिकारी है।,के च तेषां यज्ञानाम्‌ अधिकारिणः। किस साधन से क्या प्राप्त करना चाहिए।,कस्मात्‌ साधनात्‌ किं लब्धव्यम्‌ । चित्त की निरुद्धावस्था के अलावा क्षिप्त-मूढ-विक्षिप्त तथा एकाग्रावस्था व्युत्थानरूप ही होती है।,चित्तस्य निरुद्धावस्थां व्यतिरिच्य क्षिप्त-मूढ-विक्षिप्तैकाग्यावस्थाः व्युत्थानरूपा एव। इन शाखाओं का विस्तृत विवरण पुराणों में और चरणव्यूह में प्राप्त होता है।,आसां शाखानां विस्तृतविवरणं पुराणेषु चरणव्यूहे च प्राप्यते। "कुछ उपनिषद्‌ गद्यात्मक है, कुछ पद्यात्मक है, और कुछ गद्य पद्य दोनों से मिश्रित है।","कतिचन उपनिषदो गद्यात्मिकाः, कतिचन पद्यात्मिकाः कतिचन गद्यपद्योभयात्मिकाश्च।" शुद्धा भक्ति तथा गौणी भक्ति।,"शुद्धा भक्तिः, गौणी भक्तिः च इति।" अहं राष्टी संगर्मनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञिर्यांनाम्‌।,अहं राष्ट्री संगमनी वदेवीसूक्तम्सूनां चिकितुषी प्रथमा य॒ज्ञियानाम्‌। दिग्वर्थः समाहार एक समान होता है।,दिग्वर्थः समाहारः एकवद्‌ भवति । अन्नमय शरीर ही आत्मा है इस प्रकार से मूढ लोग सोचते है।,अन्नमयं शरीरम्‌ आत्मा इति मूढाः चिन्तयन्ति। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार (६३/१८) शक्कुन्तला के पालन कर्ता पिता कुलपति कण्व का आश्रम मालिनी नदी के तट पर था।,महाभारतस्य आदिपर्वानुसारेण (६३/१८) शकुन्तलायाः पालनकर्तुः पितुः कुलपतिकण्वस्य आश्रमः मालिनीनद्याः तटे आसीत्‌। उससे इस लक्षण के अनुसार शास्त्र में लिङ्ग की व्यवस्था।,तस्माद्‌ एतल्लक्षणानुसारं शास्त्रे लिङ्गस्य व्यवस्था। मेदिनीकोश के अनुसार से वेदभाग का सूचक ब्राह्मण शब्द का प्रयोग तीनो लिङ्गों में होता है।,मेदिनीकोशानुसारेण वेदभागस्य सूचकः ब्राह्मणशब्दः क्लीबलिङ्गी एव भवति। तब आत्मा के साथ प्राज्ञ एकीभूत होता है।,तदा आत्मना सह एकीभूतो भवति प्राज्ञः। आजकल प्रचलित अथर्व संहिता और गोपथ ब्राह्मण इसी ही शाखा के है।,सम्प्रति प्रचलिता अथर्वसंहिता गोपथब्राह्मणं च अस्या एव शाखायाः वर्त्तते। जिसका आश्रय लेकर ब्राह्मण ग्रन्थ की व्युत्पत्ति निर्मित हुई।,यस्या आश्रयं गृहीत्वा ब्राह्मणग्रन्थस्य व्युत्पत्तिः निर्मिता। इस प्रविविक्ति का आरासंतर यह भी नामान्तर है।,अस्य प्रविविक्ताहारतरः इत्यपि नामान्तरमस्ति। विशेष- घञन्त शब्दो को जञ्नित्यादिर्नित्यम्‌ इससे आदि अच्‌ को उदात्त स्वर होता है।,विशेषः- घञन्तशब्दानां जञ्नित्यादिर्नित्यम्‌ इत्यनेन आदेः अचः उदात्तस्वरः भवति। किस प्रकार के पुरुष से।,कीदृशात्पुरुषात्‌। अतः उस फिषः अथवा प्रातिपदिक उच्चै इसके अन्त्य ऐकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः तस्य फिषः प्रातिपदिकस्य वा उच्चैः इत्यस्य अन्त्यः ऐकारः प्रकृतसूत्रेण उदात्तः भवति। उससे तुम्हारी में रक्षा करुँगी।,तस्मात्‌ त्वाम्‌ अहं रक्षिष्यामि। कारण यह है कि तत्वमसि यहाँ पर परोक्षत्वसर्वज्ञत्व अपरोक्षत्व किञ्चिद्‌ ज्ञत्वादि विशिष्ट चैतन्य के एकत्ववाक्यार्थ के विरुद्धत्व से परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्व किजञिचज्ज्ञत्वादिवि शिष्टांशा परित्याग के कारण उससे सम्बन्ध युक्त जिस किसी का भी लक्षितत्व सत्य होने पर परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टांशों के विरोध का परिहार नहीं कर सकते हैं।,कारणं हि तत्त्वमसि इत्यत्र परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वकिञ्चिज्ज्ञत्वादिविशिष्टचैतन्यैकत्वस्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्‌ परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वकिञ्चिज्ज्ञत्वादिविशिष्टांशापरित्यागेन तत्सम्बन्धयुक्तस्य यस्य कस्यापि लक्षितत्वे सत्यपि परोक्षत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वाल्पज्ञत्वादिविशिष्टांशानां विरोधः परिहर्तुं नैव शक्यते। डॉ० कीथ महोदय ने इस आरण्यको निरुक्त से बाद में लिखा हुआ मानकर इसका समय विक्रम से छः: सौ वर्ष पहले मानते है।,डा० कीथमहोदयः आरण्यकमिदं निरुक्तात्‌ परं प्रणीतम्‌ इति मत्वा अस्य समयं विक्रमपूर्वं षष्ठशतकं मन्यते। अन्नम्भट्ट ने तर्क संग्रह में कहा है कि “सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः” इस प्रकार से तथा श्रीमद्भगवद्गीता मे भी कहा गया है कि “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।,अन्नम्भट्देन तर्कसङ्ग्रहे उच्यते- “सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः” इति। श्रीमद्भगवद्गीतायामपि कथ्यते-“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। साकार शब्द के दो पर्यायवाची लिखो।,साकारशब्दस्य पर्यायद्वयं लेख्यम्‌। वेदान्त परिभाषाकार के द्वारा प्रतिपादित अर्थ का ही विस्तार वेदान्तसार में देखा गया है।,वेदान्तपरिभाषाकारेण प्रतिपादितस्य अर्थस्य एव विस्तारः वेदान्तसारे परिदृश्यते। वैसे ही वैराग्ययुक्त पुरुष का मन अभिरुचि सम्पन्न होने से होने पर भी पूर्वसंस्कारवश विक्षिप्त भी हो जाता है।,तथा एव वैराग्ययुक्तस्य पुरुषस्य मनः तत्त्वज्ञाने अभिरुचिसम्पन्नं सत्‌ अपि पूर्वसंस्कारवशात्‌ विक्षिप्तं भवति। सम्पूर्ण ऋग्वेद संहिता आठ भागो में विभक्त है।,समग्रा ऋक्संहिता अष्टषु भागेषु विभक्ता अस्ति। “तत्पुरुषः” यह अधिकृत विहित समास तत्पुरुषसंज्ञ होता है।,"""तत्पुरुषः"" इत्यधिकृत्य विहितः समासः तत्पुरुषसंज्ञकः भवति।" ऋग्वेद का दसवां मण्डल सबसे अर्वाचीन मण्डल है।,ऋग्वेदस्य दशमं मण्डलं सर्वतः अर्वाचीनं मण्डलं वर्तते। “कि क्षेपे” (2.1.6.4 ) सूत्रार्थ-निन्दा में गम्यमान किम्‌ अव्यय को समानाधिकरण सुबन्त के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।,"किं क्षेपे ॥ सूत्रार्थः - निन्दायां गम्यमानायां किमित्यव्ययं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति।" आहो उताहो चानन्तरम्‌' इस सूत्र को व्याख्या कोजिए।,आहो उताहो चानन्तरम्‌ इति सूत्रं व्याख्यात। उपनिषदों में श्रद्धातत्त्व को जो महानता प्रकट की गई उसका बीज इस प्रसिद्ध सूक्त में ही प्राप्त होता है।,उपनिषत्सु श्रद्धातत्त्वस्य यद्‌ माहात्म्यम्‌ उक्तं तस्य बीजम्‌ अस्मिन्नेव प्रख्यातसूक्ते समुपलभ्यते। "इस ऋग्वेद के श्रद्धासूक्त का ऋष: श्रद्धा कामायनी, देवता श्रद्धा, छन्दअनुष्टुप्‌ है।","अस्य ऋग्वेदीयस्य श्रद्धासूक्तस्य ऋषि: श्रद्धा कामायनी, देवता श्रद्धा, छन्दः अनुष्टुप्‌।" इस प्रकार वेद के प्रथम भाग देवस्तुतिमूलक मन्त्रभाग है।,एवं वेदस्य प्रथमभागः देवस्तुतिमूलको मन्त्रभागः। वो ही देवों काअद्वितीय या एकमात्र ईश्वर है।,स एव देवानामपि अद्वितीय ईश्वरः। मैं मुक्त होऊ।,मुक्तो भवेयम्‌ इत्यर्थः। "और अविद्यानिवर्तकत्व होने पर दृष्टकैवल्यफलावसानत्व से, केवल ज्ञान भी अनर्थक नहीं होता है।",केवलं ज्ञानमपि अनर्थकं तर्हि। न। अविद्यानिवर्तकत्वे सति दृष्टकैवल्यफलावसानत्वात्‌। वह साधक भेद से अपने को भिन्न रूपों में प्रकाशित करता है।,साधकभेदेन स भिन्नभिन्नरूपेण आत्मानं प्रकाशयति। और समास में उपसर्जन पूर्व यह पदयोजना है।,एवं समासे उपसर्जनं पूर्वम्‌ इति पदयोजना। नित्य अनित्य वस्तु विवेक जब होता है तब ही द्वितीय इहामुत्रफलभोगविराग में यत्न फलवान होता है।,नित्यानित्यवस्तुविवेकः यदा भवति तदा एव द्वितीये इहामुत्रफलभोगविरागे यत्नः फलवान्‌ भवति। इसलिए वेद में कहा गया है - महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌।,अत एव आम्नातं - महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्‌ । पूर्वपाणिनीयाः यहाँ पर आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि इस सूत्र से पूर्वशब्द को अन्तोदात्त होने का विधान है।,पूर्वपाणिनीयाः इत्यत्र आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि इति सूत्रेण पूर्वशब्दस्य अन्तोदात्तत्वं विधीयते। सभी स्तर के मानवों की आध्यात्मिक उन्नति ही आध्यात्मिक उन्नति है इस प्रकार से विवेकानन्द के दर्शन का लक्ष्य है।,सर्वस्तरीयाणां मानवानाम्‌ आध्यात्मिकी अभ्युन्नतिः विवेकानन्ददर्शनस्य लक्ष्यम्‌। अनेक प्रयत्नों से सरलतया से इसका अध्ययन छात्रो के लिए करना चाहिए।,भूयसा प्रयत्नेन सौष्ठवेन च अस्य अध्ययनं छात्रेण कर्तव्यम्‌। पञ्चदश मन्त्र में इन्द्र का स्वामी भाव को प्रकट किया।,पञ्चदशे मन्त्रे इन्द्रस्य स्वामित्वं प्रकटितम्‌। संवाद सूक्त में कुछ उपाख्यान प्राप्त होते हैं।,संवादसूक्ते कानिचन उपाख्यानानि प्राप्यन्ते। उसके बाद अमावस्या को उपवास करना चाहिए।,ततः अमावस्यायाम्‌ उपवासः कर्तव्यः। “ प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌'' सूत्र की व्याख्या कीजिये।,"""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रं व्याख्यात।" यहाँ पर जो समाधान कहा गया है।,अत्र यत्‌ समाधानम्‌ उच्यते । जिसके चित्त में अशुभ भावनाएँ होती है उसका चित्त मलिन होता है इसमें सन्देह का अवकाश बिल्कुल भी नहीं है।,यस्य चित्ते अशुभवासनाः सन्ति तस्य चित्तं मलिनमस्ति इति नास्ति सन्देहावकाशः। षष्ठयन्त ब्राह्मण का सुबन्त का तल्य प्रत्ययान्त से कर्न्तव्यम्‌ इससे प्राप्त षष्ठी समास का इससे निषेध होता है।,षष्ठ्यन्तस्य ब्राह्मणस्येति सुबन्तस्य तव्यप्रत्ययान्तेन कर्तव्यम्‌ इत्यनेन प्राप्तः षष्ठीसमासः अनेन निषिध्यते। उसके द्वारा इसकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।,तेन अस्य प्राचीनत्वं प्रमाणितं भवति। हमारे शत्रु अन्य लोग ही तुम्हारे कोप दुष्टि में फंसे रहे।,अन्यः न अस्माकं शत्रुः कश्चित्‌ बभ्रूणां बभ्रूवर्णानां युष्माकं प्रसितौ प्रबन्धने नु क्षिप्रं अस्तु भवतु । "स्थूल शरीर जीव का भोगायतन होता है, जाग्रत काल में वैश्वानर दिग्वातार्कवरूणाश्वों के द्वार क्रम से नियन्त्रित श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के द्वारा क्रम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि स्थूल विषयों का अनुभव करता है।",स्थूलशरीरं जीवस्य भोगायतनं भवति। जाग्रत्काले वैश्वानरः दिग्वातार्कवरुणाश्विभिः क्रमाद्‌ नियन्त्रितेन श्रोत्रादीन्द्रियपञ्चकेन क्रमात्‌ शब्दस्पर्शरूपरसगन्धान्तान्‌ स्थूल विषयान् अनुभवति । व्याख्या - पुरुष में आयी हुई अभिलाषा विशेष को श्रद्धा कहते है।,व्याख्या- पुरुषगतः अभिलाषविशेषः श्रद्धा। तब पूर्वा शब्द के “सर्वनाश्तो वृत्तिमात्रेपुंबद्भावः”' इस वार्तिक से पुंबददभाव होने पर निष्पन्न पूर्वशाला शब्द से “ दिक्पूर्वपदादसंज्ञायांज:'' इस सूत्र से अप्रत्यय होने पर अनुबन्ध लोप होने पर पूर्वशाला अ होता है।,"तदा पूर्वाशब्दस्य ""सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः"" इत्यनेन वार्तिकेन पुंवद्भावे निष्पन्नात्‌ पूर्वशालाशब्दात्‌ ""दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः"" इति सूत्रेण ञप्रत्यये अनुबन्धलोपे पूर्वशाला अ इति भवति ।" इसके लिए साधनों अनुष्ठान तो करना ही चाहिए।,इतोऽपि साधनानि अनुष्ठेयानि सन्ति। "कुछ मुख्य देव हैं यथा- इन्द्र, अग्नि, रुद्र, वरुण इत्यादि।","केचन मुख्याः देवाः सन्ति यथा इन्द्रः अग्निः, रुद्रः, वरुणः इत्यादयः।" तो और क्या?,किं तर्हि। पर्जन्य शीघ्रवर्षा कराते है।,पर्जन्यः शीघ्रं वृष्टिं कारयति । स्कन्दमाहेश्वर की व्याख्या के अनुसार पाकस्थामा शब्द का अर्थ होता है - महाप्राण अथवा महाबलवान - “पाकस्थामा लोक में स्थाम शब्द प्राण में प्रसिद्ध है।,स्कन्दमाहेश्वरस्य व्याख्यानुसारेण पाकस्थामाशब्दस्यार्थो भवति- महाप्राणः अथवा महाबलवानिति- 'पाकस्थामालोके स्थामशब्दः प्राणे प्रसिद्धः। किस ईस्वी सन्‌ में विवेकानन्द ने शिकागो नगर में विश्व धर्म सम्मेलन में योगदान दिया।,कस्मिन्‌ ईशवीयाब्दे विवेकानन्दः चिकागोनगरे विश्वधर्मसम्मेलने योगदानं कृतवान्‌? आरण्यक और उपनिषद्‌ में क्या भेद है?,आरण्यकोपनिषदोः कः भेदः? वह यह भारतवर्ष निवासी सभी प्रजानि:शेषदेशान्तर को प्राप्त करने के लिए उस भय हेतु से तुम्हारा पालन करुँगी।,स इमाः भारतवर्षनिवासिनीः सर्वाः प्रजाः निर्वोढा निःशेषं वोढा देशान्तरं प्रापयिता ततः तस्मात्‌ भयहेतोः त्वा पारयितास्मि पालयितास्मि। अर्धपिप्पली रूप को सिद्ध करो?,अर्धपिप्पली इति रूपं साधयत। तित्‌ और स्वरितम्‌।,"तित्‌ इति, स्वरितम्‌ इति।" "न तन्तुओं के संयोगों का समानजातीयत्व होता है, तन्तु के द्रव्यत्व से, संयोग के गुणत्व से तथा निमित्तकारणों का भी और तुरी वेमादी का भी समानजातीयत्व नियम नहीं होता है।","न हि तन्तूनां तत्संयोगानां च समानजातीयत्वमस्ति, तन्तोः द्रव्यत्वात्‌, संयोगस्य च गुणत्वात्‌; न च निमित्तकारणानामपि तुरीवेमादीनां समानजातीयत्वनियमोऽस्ति।" एव इस सूत्र का अर्थ है-समानाधिकरण पदक तत्पुरुष समास कर्मधारय संज्ञक होता है।,"एवम्‌ अस्य सूत्रस्यार्थः समायाति - ""समानाधिकरणपदकः तत्पुरुषसमासः कर्मधारयसंज्ञको भवति"" इति ।" "(क) अनुबन्धों के (ख) साधनचतुष्टय के (ग) शमादिषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णय लिङ्गों में 19, विषय किसके अन्तर्गत होता है?",(क) अनुबन्धेषु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु 19. विषयः क्वान्तर्भवति। गवामयन याग किसके अन्तर्गत आता है?,गवामयनयागः कस्मिन्‌ अन्तर्भवति। “ सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः” इस सूत्र का प्रयोजन क्या है?,""" सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः "" इति सूत्रस्य किं प्रयोजनम्‌ ।" परि ते धन्वनो ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,परि ते धन्वनो....इति मन्त्रं व्याख्यात। तथा आत्मा अनित्य नहीं होती है।,आत्मा न अनित्यः। "तत्तन्मयत्व से ही जीव का बन्ध होता है, इसको पञ्चदशी में इस प्रकार से कहा गया है।",तत्तन्मयत्वादेव जीवस्य बन्धः। तदुक्तं पञ्चदश्याम्‌ उसका अवयव अम्‌ सुप्‌ है।,तस्य अवयवः अम्‌ सुप्‌ अस्ति। और सूत्र का अर्थ होता है “नजञन्‌ के नकार का लोप होता है उत्तरपद पर में रहने पर।,"एवं च सूत्रार्थः भवति - "" नञः नकारस्य लोपो भवति उत्तरपदे परे "" इति ।" चौथे पांचवे छठे अध्यायों में ऐतरेय उपनिषद्‌ है।,"चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठाध्यायेषु ऐतरेयोपनिषद्‌ अस्ति।" सबसे प्रथम विशरण इसे विनाश भी कहते है।,विशरणं नाम विनाशः इत्यर्थः। "विष्णु जहाँ निवास करते है, वहा देव हमेशा विचरण करते है।",विष्णुः यत्र निवसति तत्र देवाः सर्वदैव विचरन्ति। दर्शन के सामान्य ज्ञान में वृद्धि होगी जिससे दार्शनिक ग्रंथों के सरल अंशों को पढ़कर छात्र उन अंशों का अर्थ ज्ञात कर पाने में सक्षम होंगे वे स्वयं ही मौखिक और लिखित अभिव्यक्ति करने में समर्थ होंगे।,दर्शनस्य सामान्यज्ञानवर्धनं भविष्यति येन दार्शनिकग्रन्थानाम्‌ सरलान्‌ अंशान्‌ पठित्वा छात्राः तेषाम्‌ अंशानाम्‌ अर्थान्‌ ज्ञास्यन्ति। ते स्वतः मौखिकीं लिखितां च अभिव्यक्तिं कर्तु शक्ष्यन्ति। उससे यहाँ यह सूत्रार्थ प्राप्त होता है - तद्धित कित्प्रत्ययान्त शब्द का अन्त उदात्त होता है।,तेन अत्र सूत्रार्थः इत्थं भवति- तद्धितकित्प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य अन्तः उदात्तो भवति इति। "नञ्तत्पुरुष, कुतत्पुरुष, गतितत्पुरुष, प्रादितत्पुरुष और उपपदतत्पुरुष है।","नञ्तत्पुरुषः, कुतत्पुरुषः, गतितत्पुरुषः, प्रादितत्पुरुषः उपपदतत्पुरुषश्चेति।" 5. जीवन्मुक्ति किसे कहते हैं।,५.का नाम जीवन्मुक्तिः? (क) शम (ख) विवेक (ग) प्रयोजन (घ) श्रद्धा 12. यह साधन चतुष्टय में अन्यतम होता है।,(क) शमः (ख) विवेकः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) श्रद्धा 12. अयं साधनचतुष्टये अन्यतमः। रामो जामदग्न्यः इत्यादि में समास नहीं होता है।,रामो जामदग्न्यः इत्यादौ तु समासः न भवति । तब निदिध्यासन पद वाच्य होता है।,तदा निदिध्यासनपदवाच्या भवति। शिवमहिम्न स्तोत्र में समन्वयपरक श्लोक का क्या अंश है?,शिवमहिम्नस्तोत्रे समन्वयपरकः श्लोकांशः कः? अथ वहाँ पर भी प्रकृत सूत्र से एक श्रुति नहीं होती है।,अथ तत्रापि प्रकृतसूत्रेण न ऐकश्रुत्यम्‌। इस प्रकार यहाँ यह सूत्र का अर्थ होता है - ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रेद्युभ्य से परे असर्वनामस्थान विभक्ति को उदात्त होता है।,एवञ्च अयमत्र सूत्रार्थः भवति- ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुप्रैद्युभ्यः परस्य असर्वनामस्थानविभक्तेः उदात्तत्वं भवति इति। यौगपद्यम्‌ का अर्थ है एककालता है।,यौगपद्यम्‌ एककालता। 2. प्रजापति कौन है?,२. प्रजापतिः कः? 6 वस्तु में अवस्तु का आरोप ही अध्यारोप होता है।,६. वस्तुनि अवस्तुनः आरोपः अध्यारोपः। कुछ स्थानों पर चित्तशुद्धिकारक कर्म तथा चित्तैग्रतासम्पादिका उपासना इस प्रकार से ये दो बहिरङ्ग साधन कहालाते हैं।,क्वचिच्च चित्तशुद्धिकराणि कर्माणि चित्तैग्रतासम्पादिका उपासना चेति एतद्वयम्‌ बहिरङ्गसाधनं कथ्यते। ३-१५॥ हिरण्यगर्भसूक्त में दश मन्त्र हैं।,३-१५॥ हिरण्यगर्भसूक्ते दश मन्त्राः सन्ति। "जैसे यज्ञीयकुशापर बैठा यज्ञ में यजु मन्त्र के द्वारा रक्षित होते है, वैसे ही पृथिवी के रक्षकतुम अन्न से बलबान होकर के यज्ञभूमि पर मध्यस्थल में स्थित रथ पर बैठते है।",यथा यज्ञीयकुशाः यज्ञे यजुर्मन्त्रैः रक्षिताः भवन्ति तथैव पृथिव्याः रक्षकौ युवाम्‌ अन्नेन बलवन्तौ भूत्वा यज्ञभूमेः मध्यस्थलस्थरथे उपविशताम्‌। यह कल्प ही मशक कल्पसूत्र नाम से भी प्रसिद्ध है।,अयम्‌ एव कल्पः मशककल्पसूत्रनाम्ना अपि प्रथते। समानाधिकरण अर्थात समान विभक्ति वाले।,समानाधिकरणे नाम समानविभक्तिके । श्री रामकृष्ण का जीवन तथा उनके अनुभवों को देखकर विवेकानन्द वेदान्त सम्प्रदाय के उपदलीय मतों साधनों तथा मार्गो का आविष्कार किया।,श्रीरामकृष्णस्य जीवनम्‌ अनुभवं च दृष्ट्वा विवेकानन्दो वेदान्तसम्प्रदायानाम्‌ उपदलीयमतानां च संहतिसाधनस्य पन्थानम्‌ आविश्चकार। वह अग्नि होती हुई इस यज्ञ में देवों को हवि भक्षण करने के लिये कहती है।,सः अग्निः सन्‌ इह यज्ञे देवान्‌ हविर्भुजः आ वक्ष्यति। दोनों ही शाखा का यह ब्राह्मण प्राप्त होता है।,उभयशाखायामेव ब्राह्मणम्‌ उपलभ्यते। 10. जहाँ पर विशिष्ट वाचक शब्द विशेषणरूप के एकदेश को छोड़कर के विशेष्य रूप एकदेश का बोधक होता है वहाँ भागत्यागलक्षणा होती है।,१०. यत्र विशिष्टवाचकः शब्दः विशेषणरूपम्‌ एकदेशं विहाय विशेष्यरूपस्य एकांशस्य बोधकः भवति तत्र भागत्यागलक्षणा भवति। इस वार्तिक से जिस पक्ष में उपोत्तम के उदात्त स्वर का अभाव है उस पक्ष में स्यान्त के अन्त का उदात्त स्वर होता है।,अनेन वार्तिकेन यस्मिन्‌ पक्ष उपोत्तमस्य उदात्तस्वराभावः तस्मिन्‌ पक्षे स्यान्तस्य अन्तस्य उदात्तस्वरः भवति। "कोई मातरिश्वान्‌ इस आख्या से भी अग्नि की उत्पति मानता है, कोई देव स्वर्ग से अग्नि को मर्त्यलोक में लेकर के आया।",मातरिश्वान्‌ इत्याख्यः कोऽपि देवः स्वर्गतोऽग्नि मर्त्यलोकमानयति। "वेदों के रक्षक होने से, वेद के अर्थ का ज्ञान कराने में सहायक होने से, प्रकृति प्रत्यय उपदेश के साथ पद स्वरूप का प्रतिष्ठापक होने से अर्थ निर्णय करने के साधनों में श्रेष्ठ साधन के प्रयुक्त होने से व्याकरण नाम अङ्ग नितान्त ही महान है, और वेदाङ्गों में यह श्रेष्ठ है।","वेदानां रक्षकत्वाद्‌, वेदार्थावबोधने सहायकत्वात्‌, प्रकृतिप्रत्ययोपदेशेन सह पदस्वरूपस्य प्रतिष्ठापकत्वाद्‌ अर्थनिर्णयनकृत्साधनेषु अन्यतमसाधनत्वेन प्रयुक्तत्वाद्‌ व्याकरणं नाम अङ्गं नितान्तम्‌ एव महनीयं वर्तते, वेदाङ्गेषु इदं श्रेष्ठञ्च स्मृतम्‌।" शङ्कुलया खण्डः इस लौकिक विग्रह में शङ्कुला टा खण्ड सु यह अलौकिक विग्रह होने पर प्रस्तुत सूत्र से तृतीयान्त शङ्कुला टा यह सुबन्तखण्ड सु ऐसा तृतीयान्त अर्थ गुणवचन से सुबन्त के साथ तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,शङ्कलया खण्डः इति लौकिकविग्रहे शङ्कुला टा खण्ड सु इत्यलौकिकविग्रहे प्रस्तुतसूत्रेण तृतीयान्तं शङ्कुला टा इति सुबन्तं खण्ड सु इति तृतीयान्तार्थगुणवचनेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। क्या कारण है जिसके द्वारा जन्तु जन्ममृत्युरूपी संसार का अतिक्रमण करता है।,किंलक्षणः जन्तुः जन्ममृत्युरूपसंसारम्‌ अतिक्रमति। शाङ्ख्यायनशाखा । इस शाखा की संहिता तो उपलब्ध नहीं है।,शाङ्ख्यायनशाखा। अस्याः शाखायाः संहिता तु अनुपलब्धाऽस्ति। अतः सूत्र का अर्थ होता है - बहुव्रीहि समास में संज्ञा विषय में विशव शब्द पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है।,अतः सूत्रार्थः - भवति बहुव्रीहौ समासे संज्ञायां विषये विश्वशब्दः पूर्वपदम्‌ अन्तोदात्तं भवति इति। समष्टिकारणशरीराज्ञानोपहितचैतन्य से समष्टिसूक्ष्मशरीराज्ञानोपहितचैतन्य से समष्टिस्थूल-शरीराज्ञानोपहितचैतन्य से ईश्वरहिरण्यगर्भवैश्वानरों का आधारभूत तुरीय चैतन्य भेद से अवभासमान तत्पद लक्ष्यार्थ होता है।,समष्टिकारणशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ समष्टिसूक्ष्मशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ समष्टिस्थूलशरीराज्ञानोपहितचैतन्यात्‌ ईश्वरहिरण्यगर्भवैश्वानराणाम्‌ आधारभूतं तुरीयं चैतन्यं भेदेन अवभासमानं तत्पदस्य लक्ष्यार्थः भवति। "जैस ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता तथा उनके भाष्य आदि हैं।",तथाच ब्रह्मसूत्रं भगवद्गीता तद्भाष्यादिकञ्च। अहृणीयमाना- हृणीङ्-धातु से शानच्‌प्रत्यय करने पर हृणीयमाना रूप बना।,अहृणीयमाना- हृणीङ्-धातोः शानच्प्रत्यये हृणीयमाना इति रूपम्‌। "उसी प्रकार सुचर्मा, सुपर्वा बहुराजा इत्यादि में भी बोध्य है।",एवमेव सुचर्मा सुपर्वा बहुराजा इत्यादावपि बोध्यम्‌। समर्थ: यह पद यहाँ समर्थ आश्रित होने पर लाक्षणिक है।,समर्थः इति पदमत्र समर्थाश्रिते लाक्षणिकम्‌। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का प्रथम मन्त्र है।,सरलार्थः- अयं रुद्राध्यायस्य प्रथमो मन्त्रः। "और इस प्रकार सूत्र का अर्थ होता है - उदात्त स्वर और स्वरित स्वर जब परे रहते है, तब पूर्व के अनुदात्त स्वर को अनुदात्तर आदेश होता है।","एवञ्च सूत्रार्थो भवति- उदात्तस्वरः स्वरितस्वरश्च यदा परे तिष्ठतः, तदा पूर्वस्य अनुदात्तस्वरस्य सन्नतरः आदेशो भवति।" क्योंकि नास्तिक भी इस ग्रन्थ को पढ़ते हैं।,नास्तिका अपि ग्रन्थममुं पठन्ति। ग्रन्थ के अध्ययन में अधिकारी भले ही कहा गया है।,तस्माद्‌ ग्रन्थाध्ययने अधिकारी यद्यपि उच्यते "सूत्रगोवाल अनेकजातीयों के द्वारा एक रज्जु सृज्यमाना दिखाई देती है, तथा सूत्र उनके द्वारा भी विचित्रकम्बलादियों का निर्माण होता है।",सूत्रगोवालैः हि अनेकजातीयैः एका रज्जुः सृज्यमाना दृश्यते; तथा सूत्रैः ऊर्णादिभिश्च विचित्रान्कम्बलान्वितन्वते। राजृ दीप्तौ इस धातु से शतृप्रत्यय के योग से राजत्‌ यह प्रातिपदिक प्राप्त होता है।,राजृ दीप्तौ इति धातोः शतृप्रत्यययोगेन राजत्‌ इति प्रातिपदिकं लभ्यते। वैसे हि रघुवंश में - 'स बभूव दुरासदः परैर्गुरुणाऽथर्वविदा कृतक्रियः'।,"तथाहि रघुवंशे- 'स बभूव दुरासदः परैर्गुरुणाऽथर्वविदा कृतक्रियः""|" परन्तु वृत्र उसको शस्त्र से मारने में असमर्थ और इन्द्र के ही वज्र से मारा गया।,परन्तु वृत्रः तं शस्त्रेण हन्तुमसमर्थः इन्द्रस्यैव वज्रेण हतः। (वेदान्तसारः) जो पुरुष नित्यादि कर्मों को करता है।,(वेदान्तसारः) यः पुरुषः नित्यादि कर्म करोति । अतः अङ्ग इस अव्यय से युक्त कुरु इस तिङन्त पद को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः अङ्ग इत्यव्ययेन युक्तं कुरु इति तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। अधिकारी यह एक महान विषय है।,अधिकारी इति महान्‌ विषयो वर्तते। इन्द्र की पत्नी शची थी जो शक्ति का प्रतीक कहलाती है।,इन्द्रस्य पत्नी भवति शची या शक्तेः प्रतीकम्‌ इत्युच्यते। द्यौ आकाश के ऊपर है।,दिवा आकाशस्य परस्तात्‌। पूर्वस्यां शालायां भव इस विग्रह में प्रक्रियाकार्य में पूर्वशाला में पूर्वशब्द का दिशावाचक पूर्वशाला का दिशावाचक पूर्वपद से भव अर्थ में प्रकृत सूत्र से ञप्रत्यय होता है।,पूर्वस्यां शालायां भवः इति विग्रहे प्रक्रियाकार्ये पूर्वशाला इति स्थिते पूर्वशब्दस्य दिग्वाचकत्वात्‌ पूर्वशाला इत्यस्य दिक्पूर्वपदत्वात्‌ ततः भवार्थे प्रकृतसूत्रेण ञप्रत्ययो भवति । "जिससे इस प्रकार से लोक में ' आकाशं कुरु', 'आकाशो जातः' इस प्रकार के गौण प्रयोग होते हैं।","तस्माद्यथा लोके 'आकाशं कुरु', 'आकाशो जातः' इत्येवंजातीयको गौणः प्रयोगो भवति।" उसका अन्त उदात्त हो।,तस्यान्त उदात्तः स्यात्‌। यथा उदाहरण -समास में राजपुरुषः।,यथा उदाहरणं राजपुरुषः इति समासे। सप्तम्यन्त सुबन्त शौण्डादिप्रकृति को सुबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,सप्तम्यन्तं सुबन्तं शौण्डादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरषसमाससंज्ञं भवति। एक सूक्त में पत्नी के कष्ट को छोड़कर पति के प्राप्ति के उपाय का विवरण प्राप्त होता है।,एकस्मिन्‌ सूक्ते पत्न्याः कष्टमपहाय पत्युः प्राप्त्युपायस्य विवरणं प्राप्यते। प्रत्येक पदार्थ में तीन लिङ्ग होते हैं।,तस्मात्‌ प्रत्येकं पदार्थे त्रीणि लिङ्गानि भवन्ति। सूत्र का अवतरण- अभि को त्यागकर उपसर्गों के आदि स्वरों को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी द्वारा की गई है।,सूत्रावतरणम्‌- अभिवर्जानाम्‌ उपसर्गानाम्‌ आदीनां स्वराणाम्‌ उदात्तविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। "जैसे - भवति, गच्छति, बभूव इत्यादि पद है।","यथा- भवति, गच्छति, बभूव इत्यादीनि पदानि।" लौकिक में तो महिम्ना यह रूप बना है।,लौकिके तु महिम्ना इति रूपम्‌। कारणसलक्षण अन्यथा भाव तथा परिणाम जो होते हैं इनसे विलक्षण विवर्त होता है।,"कारणसलक्षणः अन्यथाभावः परिणामः, तद्विलक्षणः विवर्तत इति वा।" उसके बाद उस शुद्ध पुरुष से देवों ने प्रजापत्यादि सृष्टकर्ता और यज्ञकर्ता ऋषियों ने यज्ञ को सम्पादित 'किया।,ततः प्रोक्षितपुरुषात्‌ देवाः प्रजापत्यादिसृष्टकर्तारः यज्ञकर्तारः ऋषयश्च यज्ञं सम्पादितवन्तः। व्याख्यान से कुत्सितशब्द वर्तमान में क्त प्रत्यय होता है।,"कुत्सितशब्दे वर्तमाने क्तप्रत्ययः, व्याख्यानात्‌ ।" इसलिए वेदान्त सार में सविकल्पसमाधि के विषय में कहा गया है कि “तत्र सविकल्पको नाम ज्ञातूृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारिताया: चित्तवृत्तेः अवस्थानम्‌” अर्थात्‌ सविकल्प ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलय की अपेक्षा से अद्वितीय वस्तु में तदाकार आकारित चित्तवृत्ति का अवस्थान होता है।,"उच्यते च वेदान्तसारे सविकल्पकसमाधिविषये - “तत्र सविकल्पको नाम ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षया अद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अवस्थानम्‌” इति। तदा यत्र समाधौ ज्ञातृज्ञानज्ञेयरूपविकल्पाः भासन्ते, न तेषां लयो भवति, किञ्च, अद्वितीयब्रह्मविषयिणी निरवच्छिन्ना चित्तवृत्तिरुदेति स सविकल्पकः समाधिः।" "शौनक मत में पाकस्थामा शब्द का भी अर्थ व्यक्ति वाचक नहीं है, अपितु विशेषण पद है (बृहद्देवता ६/४५)।",शौनकमतेन पाकस्थामाशब्दोऽपि व्यक्तिवाचको नास्ति अपितु विशेषणपदमस्ति (बृहद्देवता ६/४५)। सुपा का तदन्तविधि में व्याघ्र आदि अन्वय से सुबन्तैः पद प्राप्त होता है।,सुपा इत्यस्य तदन्तविधौ व्याघ्रादिभिः इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तैः इति लभ्यते। जैस कोई साधारण व्यक्ति राजदर्श के लिए अपने घर से निकल कर के राजमन्दिर में प्रविष्ट होता हुआ भी द्वार पाल के द्वारा रोक दिया जाता है उसी प्रकार से बाह्यविषयों को त्यागकर के अखण्डवस्तु के ग्रहण के लिए प्रवृत्त चित्त के रागादिसंस्कारों को उद्बोधकारण से स्तब्धीभाव उस ब्रह्मवस्तु के अग्रहण से वह कषाय इस प्रकार से कहलाता है।,यथा हि कश्चित्‌ साधारणो जनो राजदर्शनाय स्वगृहान्निर्गत्य राजमन्दिर प्रविष्टोऽपि द्वारपालेन निरुद्धः सन्‌ स्तब्धो भवति तथैव बाह्यविषयान्‌ परित्यज्य अखण्डवस्तुग्रहणाय प्रवृत्तस्य चित्तस्य रागादिसंस्कारोद्वोधकारणात्‌ स्तब्धीभावः तस्माच्च ब्रह्मवस्तुनः अग्रहणं कषाय इत्युच्यते। उच्चै अपाद बन्ध यजुरात्मक है क्योकि जो मन्त्र वाक्य पढ्ते है वे निगद होते है।,उच्चैरपादबन्धं यजुरात्मकं यत्‌ मन्त्रवाक्यं पठ्यते तद्‌ भवति निगदः। इसलिए इन विषयों का भी इस पाठ में वर्णन दिया गया है।,इति एते विषया अस्मिन्‌ पाठे अन्तर्भवन्ति। इस प्रकार से द्रोणकलश में सोमरस को स्रावित करके अग्निष्टोम में स्थापना की व्यवस्था है।,अनेन प्रकारेण द्रोणकलशे सोमरसं स्रावयित्वा अग्निष्टोमे स्थापनस्य व्यवस्था वर्तते। प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। इस समाधि के उदय होने पर अज्ञान नाश से मुक्ति सम्भव होती है।,अस्य समाधेरुदये च अज्ञाननाशात्‌ मुक्तिः सम्भवति इति इन ऋचाओं के द्रष्टा ऋषिर्नारायण है।,ऋषिर्नारायणः ऋचामासाम्‌ ईक्षिता। कृधि - कृधातु से लुङ मध्यमपुरुष एकवचन का रूप है।,कृधि - कृधातोः लुङि मध्यमपुरुषे एकवचने रूपम्‌। उस उपासना के द्वारा चित्त को सम्पादित करके वह अर्चिरादि क्रम से ब्रह्मलोक को जाता है।,तया उपासनया चित्तैग्रतां सम्पाद्य अर्चिरादिक्रमेण ब्रह्मलोकं गच्छति। इस जन्म में जो क्रियमाण कर्म फल प्रदान नहीं करते हैं अपितु भावी जन्म में फल प्रदान करने के लिए सञ्चित होते हैं वे कर्म क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।,"अस्मिन्‌ जन्मनि क्रियमाणाणि यानि कर्माणि फलप्रदानं न कुर्वन्ति, भाविकाले फलप्रदानाय सञ्चितानि तिष्ठन्ति तानि क्रियमाणकर्माणि इति उच्यते।" "इस प्रकार यद्वृत्त से उत्तर तिङन्त को नित्य अनुदात्त नहीं होता है, यह सूत्र का अर्थ है।",एवञ्च यद्कृत्तात्‌ उत्तरं तिङन्तं नित्यं न अनुदात्तम्‌ इति सूत्रार्थः। 72. “नदीभिश्च” इस सूत्र का क्या उदाहरण है?,"७२. ""नदीभिश्च"" इति सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?" इसलिए तत्वमसि यह महावाक्य यदि अभेदार्थक होता है तो वेदस्मृति प्रत्यक्ष प्रमादि से विरुद्ध होता है।,अतः तत्त्वमसि इति महावाक्यं यदि अभेदार्थकं भवति तर्हि वेदस्मृतिप्रत्यक्षप्रमादिभ्यः तत्‌ विरुद्ध्यते। हिशब्द सभी श्रुतिस्मृतिपुराण आदि में प्रसिद्धद्योतन अर्थ में है।,हिशब्दः सर्वश्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रसिद्धिद्योतनार्थः। "इसी ही क्रम से रात का देवता वरुण है, इसलिए यह अपान का प्रतीक है।","अनेन एव क्रमेण निशानां देवता वरुणः अस्ति, अतः असौ अपानस्य प्रतीकः अस्ति।" उस व्याकरण से ही भाषा ज्ञान लाभ के लिए सभी अष्ट शक्ति ग्राहकों के मध्य में सबसे उच्च स्थान पर बैठते है।,तस्माद्‌ व्याकरणम्‌ एव भाषाज्ञानलाभाय सर्वेषाम्‌ अपि अष्टानां शक्तिग्राहकाणां मध्ये मूर्धन्यं स्थानम्‌ अध्यास्ते। श्रद्धा के समान।,श्रद्धिवम्‌। किसके बिना कोई भी मनुष्य विजय को प्राप्त नहीं कर सकता?,कं विना न कोऽपि मानवो विजयं प्राप्नोति? 11. अस्तेय प्रतिष्ठा होने पर क्या होता है?,११. अस्तेयप्रतिष्ठायां योगिनः किं भवति? ऋचाओं का समूह ही ऋग्वेद है।,ऋचां समूह एव ऋग्वेदः। अतएव अग्नि को देवों का मुख कहा है (अग्निर्वै मुखं देवानाम्‌)।,अत एव अग्निमुखा देवाः इत्युच्यन्ते (अग्निर्वै मुखं देवानाम्‌)। जब पुण्यों का क्षय होता है।,यदा पुण्यक्षयः भवति। उप अर्थात्‌ समीप में तथा आस्यते अर्थात्‌ रुकता है वह उपासना होती है।,उप समीपे आस्यते स्थीयते अनेन इति उपासनम्‌ इति। नहीं है अपने पदों से विग्रह जिसका वह अस्वपद विग्रह है।,नास्ति स्वैः पदैः विग्रहः यस्य सः अस्वपदविग्रहः। आध्यात्मिकता रूपी शक्ति ही सभी की केन्द्रभूत है।,आध्यात्मिकता एव जातेः प्राणकेन्द्रभूता। किन्तु दसवें मण्डल में उस स्थान में औ इस प्रत्यय का भी प्रयोग प्राप्त होता है।,किञ्च दशममण्डले तस्मिन्‌ स्थाने औ इति प्रत्ययस्य अपि प्रयोगः प्राप्यते। "जो यह रुद्र ताम्रवर्ण, अरुणवर्ण, पिङ्गलवर्ण और सुमङ्गल तथा जो ये असंख्य किरणें हैं उनके क्रोध को हम भक्ति के साथ निवारण करते हैं।",योऽसौ रुद्रः ताम्रवर्णः अरुणवर्णः पिङ्गलवर्णः सुमङ्गलश्च तथा येऽस्य असंख्या अंशवः तेषां क्रोधं वयं भक्त्या निवारयामः। तथा असम्भावना विपरीत भावना की निवृत्ति में प्रतिबन्धकत्व के रुप में कार्य करते हैं।,तथा असम्भावनाविपरीतभावनानां निवर्तने प्रतिबन्धकत्वेन कार्यं कुर्वन्ति। दानशील विश्वरक्षक ये मित्रवरुणबिना किसी बाधा के सुख को प्रदान करने में समर्थ हो।,दानशीलौ विश्वरक्षकौ एतौ मित्रावरुणौ निरवरच्छिन्नसुखस्य प्रदाने समर्थौ। प्रकृत सूत्र से अष्टाभिः यहाँ पर भकार से उत्तर अच्‌ इकार को उदात होता है।,प्रकृतसूत्रेण अष्टाभिः इत्यत्र भकारोत्तरस्य अचः इकारस्य उदातत्वं प्रकृतसूत्रेण विधीयते। "“उपमानानि सामान्यवचनैः"" सूत्र की व्याख्या की गई है?",""" उपमानानि सामान्यवचनैः "" इति सूत्रं व्याख्यात ।" छान्दोग्योपनिषद्‌ में सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्‌' (छा. उ. 6.2.1) इस प्रकार से सत्‌ शब्द से वाच्य ब्रह्म प्रकृत्य ` तदैक्षत' ` तत्तेजोऽसृजत' (छा. उ. 6.2.3) इस प्रकार से पञ्चमहाभूतों का मध्यम तेज आदि करके इनकी उत्पत्ति सुनी जाती है।,छान्दोग्योपनिषदि 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्‌' (छा. उ. ६.२.१) इति सच्छब्दवाच्यं ब्रह्म प्रकृत्य 'तदैक्षत' 'तत्तेजोऽसृजत' (छा. उ. ६.२.३) इति च पञ्चानां महाभूतानां मध्यमं तेज आदि कृत्वा त्रयाणां तेजोबन्नानामुत्पत्तिः श्राव्यते। कपिश वर्णीय अश्व उसके रथ को ले जाते हैं।,कपिशवर्णीयाः अश्वाः तद्रथं नयन्ति स्म। उसका परमात्मा मे लय हो जाता है।,तस्य परमात्मनि लयसम्भवात्‌। भीम-वृष्ण-गिरिजा-गिरिक्षत-सहीयान्-इत्यादिनाम से भी इस विष्णु का व्यवहार किया जाता है।,भीम-वृष्ण-गिरिजा-गिरिक्षत-सहीयान्‌-इत्यादिनाम्ना अपि अयमेव विष्णुः व्यपदिश्यते। लोक में व्याकरण से संस्कृतः पदों का प्रयोग होता है।,व्याकरणेन संस्कृतानामेव पदानां प्रयोगार्हत्वात्‌ लोके। द्रव्य का एकजातीय अनेक द्रव्यो का समवायी कारण होता है।,द्रव्यस्य चैकजातीयकमनेकं च द्रव्यं समवायिकारणं भवति । "अस्य = पुरुष के, पादः = चतुर्थाश, पुनः = पुनः, इह = इस लोक में, अभवत्‌ = स्थित हुआ।","अस्य = पुरुषस्य, पादः = चतुर्थाशः, पुनः = भूय, इह = अस्मिन्‌ लोके, अभवत्‌ = स्थितिं प्राप।" अकुटिलता वृत्ति से और अहिंसा वृत्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यक्ति।,"अकुटिलतावृत्त्या, अहिंसावृत्त्या च मनसः स्थैर्यप्राप्तिकर्त्री व्यक्तिः।" ये चार भेदों में भिन्न वेद ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद हैं।,चतुर्षु भेदेषु भिन्नो वेदः ऋग्वेदः यजुर्वेदः सामवेदः अथर्ववेदश्चेति। वेद के कितने सम्प्रदाय है?,वेदस्य कति सम्प्रदायाः? शाङ्ख्यायन आरण्यक के तीसरे अध्याय से छठे अध्याय तक।,शाङ्ख्यायनारण्यकस्य आतृतीयाध्यायात्‌ षष्ठ्याध्याययपर्यन्तम्‌। अध्यात्मोपनिषद्‌ में भी यही कहा गया है।,अध्यात्मोपनिषदि अपि आम्नायते । और विवेक से वैराग्य उत्पन्न होता है।,एवञ्च विवेकाद्‌ वैराग्यस्य उदयो भवति। जिस प्रकार से आम के पक जाने पर भी वह पनस नहीं कहलाता है उसी प्रकार से निदिध्यासन की पक्वावस्था भी निदिध्यासन के अन्तर्गत ही आती है।,आम्रं पक्वं भवति चेत्‌ यथा न तत्‌ पनसमिति कथ्यते तथैव निदिध्यासनस्य पक्वावस्था अपि निदिध्यासनान्तर्गता एव। पाठ के अन्त में पञ्‌चकोश के अतिरिक्त आत्मा का भी स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।,पाठान्ते च पञ्चकोशातिरिक्तस्य आत्मनः स्वरूपं प्रदर्शितम्‌ चित्त मलिन होता है ।,मलिनं चित्तमस्ति। अवर्षीः - वृष्‌-धातु से लुङ मध्यमपुरुष एकवचन मे।,अवर्षीः - वृष्‌ - धातोः लुङि मध्यमपुरुषैकवचने । छठे अध्याय में स्थित ' आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से वहाँ उदात्त स्वर का विधान है।,षष्ठाध्यायस्थेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण तत्र उदात्तस्वरः विधीयते। पाद इन्द्रिय गमन साधती है।,पादः गमनं साधयति। उसी ने समग्रद्युलोक तथा पृथिवी को धारण किया है।,स समग्रद्युलोकं तथा पृथिवीं च दधार। तथा वेदान्त तत्त्वों के आभ्यन्तरीकरण और ऐक्यसाधन रूपी महान कार्यों में भी अन्यतम है।,"अपि च, वेदान्ततत्त्वानाम्‌ आभ्यन्तरीणम्‌ ऐक्यसाधनम्‌ अपि तस्य महत्कार्येषु अन्यतमम्‌।" इस प्रकार से अधिकारी के लक्षण सामान्य रूप से प्रदर्शित किए गये हैं।,एवम्‌ अधिकारिलक्षणं सामान्यरूपेण प्रदर्शितम्‌। "अर्थात्‌ धर्म, अधर्म के द्वारा निवर्तित होते हैं।",धर्माधर्मनिर्वर्तिताः इति। तथा बन्ध का करण भी नहीं है।,बन्धकारणम्‌ अपि नास्ति। "जैसे मेघ को मारना, वर्षा करना इत्यादि।","यथा मेघहननं, वर्षणम्‌ इत्यादि।" "9. साशन अर्थात्‌ भोजनादिव्यवहार से युक्त चेतनप्राणजात तथा अनशन अर्थात् उससे रहित अचेतन गिरि, नद्यादि।",साशनं भोजनादिव्यवहारोपेतं चेतनं प्राणजातम्‌ अनशनं तद्रहितमचेतनं गिरिनद्यादिकम्‌। यश्चिदापो महिना .... मन्त्र कौ व्याख्या करो।,यश्चिदापो महिना .... इति मन्त्रं व्याख्यात। यज्ञ में कोई पशु आहुत होता है तो वह पशु अपना पार्थिव शरीर छोड़कर जिस देव को उद्देश्य करके वह आहूत किया गया उस देव के समीप जाता है।,यज्ञे कोऽपि पशुः आहूयते चेत्‌ स पशुः तस्य पार्थिवशरीरं परित्यज्य यं देवम्‌ उद्दिश्य स आहूतः तस्य देवस्य सायुज्यम्‌ आप्नोति। सभी मन्त्रों में द्रष्टा रूप से अहमिति पद से वागाम्भृणी ऋषिका को जानना चाहिए।,सर्वत्र मन्त्रेषु दृष्टेन अहमिति पदेन वागाम्भृणी ऋषिः ज्ञेयः। इस परिदृश्यमान दो पैर युक्त मनुष्य तथा चार पैर युक्त गवाश्वादि का जो प्रजापति है।,अस्य परिदृश्यमानस्य द्विपदः पादद्वययुक्तस्य मनुष्यपादेः चतुष्पदःगवाश्वादेश्च यः प्रजापतिः। वेङ्कटमाधव के अनुसार उसका अर्थ सत्य है।,वेङ्कटमाधवमतेन तदर्थः सत्यम्‌ इति। जैसे घटनाश होने पर घटकाश महाकाश हो जाता ।,यथा घटनाशे घटाकाशः महाकाश एव भवति तद्वत्‌। एवं “विभक्ति आदि में वर्तमान अव्यय का सुबन्त का समर्थन से सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,"एवं ""विभक्त्यादिषु अर्थेषु वर्तमानम्‌ अव्ययं सुबन्तं समर्थेन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति।" इस प्रकार से उसने लोक की सृजना कौ।,एवं स लोकान्‌ सृष्टवान्‌। चान्द्रायण के विषय में मनुमुनि ने कहा है- एकैकं हासयेत्‌ पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत्‌।,चान्द्रायणविषये मनुमुनिराह - एकैकं हासयेत्‌ पिण्डं कृष्णे शुक्के च वर्धयेत्‌। दशवीं कक्षा के इस ग्रंथ में सभी दर्शनों का सामान्य परिचय विद्यमान है।,दशमकक्षायाः ग्रन्थे समेषामपि दर्शनानाम्‌ सामान्यः परिचयः विद्यते। इस निश्चय से तो श्रवणादि साधन भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं क्योंकि यदि संशय होता है तो संशयात्मक ज्ञान से वैराग्यादि उत्पन्न ही नहीं होगा।,यदि निश्चयः तर्हि श्रवणादिसाधनानां वैयर्थ्यं स्यात्‌। यदि उच्येत यत्‌ संशय इति तर्हि संशयात्मकात्‌ ज्ञानाद्‌ वैराग्योदयो न स्यात्‌। तन्मयता औरअनन्यता के उत्कृष्ट वैशिष्ट्य वेदों में प्राप्त है।,तन्मयतायाः अनन्यतायाः च उत्कृष्टं वैशिष्ट्यं वेदेषु समुपलभ्यते। मनु भी उसी प्रकार नीचे की ओर उतरे।,मनुः अपि तद्वत्‌ नीचैः अवततार। "भगवान शङऱकाराचार्य भी यह ही कहते हैं कि - “प्रतिषिध्यते एव तु परमार्थतः सर्वज्ञात्‌ परमेश्वरात्‌ अन्यः द्रष्टा श्रोता वा, नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा इत्यादिना” इति।","भगवान्‌ शङ्कराचार्योऽपि एवमेव कथयति -“प्रतिषिध्यते एव तु परमार्थतः सर्वज्ञात्‌ परमेश्वरात्‌ अन्यः द्रष्टा श्रोता वा, नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा इत्यादिना” इति॥" "सूत्र में “प्रत्ययः”, ““परश्च'', “तद्धिताः”, “समासान्ताः” ये अधिकृत सूत्र हैं।","सूत्रेषु ""प्रत्ययः"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"", ""समासान्ताः"" इत्येतानि अधिकृतानि।" "'सामवेद को जो जानता है, वह ही वेद तत्त्व को जानता है' यह बृहद्देवता की उक्ति उसकी महिमा को उच्च स्वर से गा रही है।",'सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्‌' इत्येषा बृहद्देवतायाः उक्तिः तन्महिमानम्‌ उच्चैः गायति। और यह संहिता गद्य पद्यात्मक है।,इयं च संहिता गद्यपद्यात्मिकाऽस्ति। वे विदेहमुक्त सम्भव नहीं होते हैं।,तानि तु न सम्भवन्ति विदेहमुक्तस्य। स्वप्न के अभाव से जो निद्रा होती है वह ही जीव की सुषुप्ति अवस्था होती है।,स्वप्नाभावेन या निद्रा भवति सा एव सुषुप्तिर्जीवस्य। अथवा वृत्रैः तरति इससे वृत्रतरम्‌ बनता है।,अथवा वृत्रैः तरति इति वृत्रतरम्‌। कृदन्त के ग्रहण में गतिपूर्व कारक का भी कृदन्त का ग्रहण होता है।,कृदन्तस्य ग्रहणे गतिपूर्वस्य कारकपूर्वस्यापि कृदन्तस्य ग्रहणं भवति। सोलह संस्कारों का विशिष्ट वर्णन भी गृह्यसूत्रों में किया है।,षोडशसंस्काराणां विशिष्टं वर्णनम्‌ अपि गृह्यसूत्रेषु कृतम्‌। इस सूत्र से एव आदि शब्दों का अन्त उदात्त होता है।,अनेन एवादीनां शब्दानाम्‌ अन्तः उदात्तः भवति। इसके बाद उसका पूर्व निपात होने पर पूर्वा ङि शाला ङि इस स्थिति होने पर समुदाय का समास होने पर प्रातिपदिक संज्ञा होने पर ““सुपोधातुप्रातिपदिकयोः'' इससे सुप्‌ के ङि का लोप होने पर पूर्वाशाला होता है।,"ततः तस्य पूर्वनिपाते पूर्वा ङि शाला ङि इति स्थिते समुदायस्य समासत्वेन प्रातिपदिकसंज्ञायां ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सुपोः ङ्योः लुकि पूर्वा शाला इति भवति ।" इससे जप आदि से भिन्न प्रयोगो में वाक्यो के एकश्रुति होने का विधान है।,अनेन जपादिभन्नेषु प्रयोगेषु वाक्यानाम्‌ एकश्रुतित्वं विधीयते। और वे शब्द यथैव मौखिक परम्परा से हजार वर्षों से आस्तिकों के द्वारा सुरक्षित की।,ते च शब्दाः यथायथम्‌ मौखिकपरम्परया सहस्रशः वर्षाणि आस्तिकैः सुरक्षिताः। उसके द्वारा मन घटाकार के रूप में परिणित होता है।,तेन च मनः घटाकारेण परिणमते। इस श्लोक का यह अर्थ है कि श्रवण मनन निदिध्यासनादि के द्वारा जब श्रोता को महावाक्य का ज्ञान होता है।,अस्य श्लोकस्य अर्थः तावत्‌ श्रवणमनननिदिध्यासनादिना यदा श्रोतुः महावाक्यार्थज्ञानं भवति । औषदि आदि के द्वारा भले ही दुःख की निवृत्ति होती है।,ओऔषधादिभिः यद्यपि दुःखनिवृत्तिः भवति । उन देहघटादि से जब अलग ही ब्रह्मवस्तु का ज्ञान होता है।,तेभ्यः देहघटादिभ्यः पृथक्तया यदा अद्वितीयस्य ब्रह्मवस्तुनः ज्ञानं भवति। उनके द्वारा ही प्राचीन आचार्यों ने प्रथम अक्षर से आरम्भ करके १०४ अक्षर तक छन्दों का विधान अपने -अपने ग्रन्थों में किया है।,तेन हि प्राचीनाचार्याः प्रथमाक्षरादारभ्य १०४ अक्षरपर्यन्तं छन्दसां विधानं स्वस्वग्रन्थेषु कृतवन्तः। इस ग्रन्थ में दो सौ सत्ताईस (२२७) श्लोक हैं।,अस्मिन्‌ ग्रन्थे सप्तविंशत्यधिकशतं (२२७) श्लोकाः सन्ति। अपने आप प्रकाशित होता है।,राजन्तम्‌। "सातवें, आठवें और नौवें प्रपाठकों में तैत्तरीय उपनिषद्‌ है।",सप्तम-अष्टम-नवमप्रपाठकेषु तैत्तिरीयोपनिषदस्ति। गत्यर्थ: चासौ लोट्‌ इति गत्यर्थलोट्‌ तेन गत्यर्थलोटा यहाँ कर्मधारय समास है।,गत्यर्थः चासौ लोट्‌ इति गत्यर्थलोट्‌ तेन गत्यर्थलोटा इति कर्मधारयसमासः। सूत्र का अवतरण- यह विधिसूत्र है।,सूत्रावतरणम्‌- इदं विधिसूत्रम्‌। 38. कषाय किसे कहते हैं?,३८. कः कषायः? यहाँ पर भी प्रत्यय ग्रहण करने पर तदन्ता: ग्राह्याः इस न्याय से तदन्तविधि में क्तान्त यह रूप होता है।,अत्रापि प्रत्ययग्रहणे तदन्ताः ग्राह्याः इति न्यायेन तदन्तविधौ क्तान्ते इति रूपं भवति। उप इस उपसर्ग से सामीप्य को समझा जाता है।,उप इत्युपसर्गात्‌ सामीप्यम्‌ अवगम्यते। (क) अनुबन्धों के (ख) साधनचतुष्टय के (ग) शमादिषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णय लिङ्गों में 20. दम किसके अन्तर्गत होता है?,(क) अनुबन्धेषु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु 20. दमः क्वान्तर्भवति। सुमेधाम्‌ - शोभना मेधा यस्य तम्‌ यहाँ बहुव्रीहि समास है।,सुमेधाम्‌- शोभना मेधा यस्य तम्‌ इति बहुव्रीहिः। इसलिए विदेहमुक्ति का कारण जीवन्मुक्ति यह भी कह सकते है।,अतः विदेहमुक्तेः कारणं जीवन्मुक्तिः इत्यपि वक्तुं शक्यते। व्याख्या - जिससे पहले कुछ भी उत्पन्न नही हुआ।,व्याख्या - यस्मात्‌ पुरा किंचन किमपि न जातमेव। किन्तु ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थ प्रकाशित हैं।,किञ्च ब्राह्मणारण्यकौ ग्रन्थौ प्रकाशितौ स्तः। दुख का उपाय भी अनिष्ट है।,दुःखस्य उपायः अपि अनिष्टः। फिर भी शरीरभेद से समष्टिकारणशरीर अज्ञानोपहित चैतन्य सर्वज्ञ ईश्वर होता है।,तथापि शरीरभेदेन समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेण अस्य भेदाः कल्प्यन्ते । समष्टिकारणशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं सर्वज्ञः ईश्वरः। ऋग्वेद में ऋतु वर्णन पर अनेक मन्त्र प्राप्त होते हैं।,ऋग्वेदे ऋतुवर्णनपराः अनेके मन्त्रा प्राप्यन्ते। इन सूत्रों से और वार्तिक से विधीयमान तत्पुरुष का समानाधिकरण से कर्मधारय संज्ञा होती है।,एतेः सूत्रैः वार्तिकेन च विधीयमानस्य तत्पुरुषस्य सामानाधिकण्यात्‌ कर्मधारयसंज्ञा। नाटक में जो आज भी गद्य पद्य का मिश्रण देखते हैं।,नाटके यदधुना गद्यपद्ययोर्मिश्रणं दृश्यते। व्युष्टौ - विपूर्वकोच्छ-धातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर व्युष्टि रूप हुआ।,व्युष्टौ- विपूर्वकोच्छ-धातोः क्तिन्प्रत्यये व्युष्टि इति रूपम्‌। यहाँ आदिः और उदात्तः इन दो पदों को आद्युदात्ताः इस रूप के द्वारा उपसर्गाः इस पद के साथ अन्वय किया है।,अत्र आदिः उदात्तः चेति पदद्वयम्‌ आद्युदात्ताः इत्येवंरूपेण उपसर्गाः इति पदेन सह अन्वेति। आजकल यास्क रचित निरुक्त ही इस वेदाङ्ग का प्रतिनिधि ग्रन्थ है।,सम्प्रति यास्करचितं निरुक्तम्‌ एव अस्य वेदाङ्गस्य प्रतिनिधिग्रन्थः वर्तते। इस सूत्र से षष्ठीतत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण षष्ठीतत्पुरुषसमासो विधीयते। और प्रारब्ध के क्षीण होने पर सांप के समान शरीर को छोडकर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।,क्षीणे च प्रारब्धे सर्पवत्‌ शरीरं त्यक्त्वा ब्रह्मणि लीयते। यह अन्तरङग साधनों का अन्तर होता है।,अन्तरङ्गसाधानेषु अन्तर्भवति। उसने वज्र को स्वीकार करके मेघो के प्रथम मेघ को मारा।,ततः वज्रं स्वीकृत्य मेघानां प्रथमं मेघं हतवान्‌। अब कहते हैं कि यदि ब्रह्म सत्य है तो श्रुतियों तथा स्मृतियों का व्यर्थ प्रसङ्ग हो जाएगा।,ननु ब्रह्म यदि सत्‌ स्यात्‌ तर्हि श्रुतीनां स्मृतीनां च वैयर्थ्यप्रसङ्गः खलु। इसलिए ही अन्तः करण त्रिगुणात्मक होता है।,अत एव अन्तःकरणं त्रिगुणात्मकम्‌ भवति। इस प्रकार से गन्धादि के अभाव के समान आत्मा में इन्द्रियों का प्रवेश नहीं होता है।,एवं गन्धाद्यभावावात्‌ इतरेन्द्रियाणामपि तत्र प्रवेशो नास्ति। और पाठान्त में इन देवों के स्वरूप विषय में संक्षेप में आप जान सकोगे।,पाठान्ते च एषां देवानां स्वरूपविषये संक्षेपेण ज्ञातुं शक्नुवन्ति भवन्तः। "परन्तु ओषधियों का, पशूओं का, वृक्षों का और पक्षियों की हिंसा देखी जाती है।",परन्तु ओषधीनां पशूनां वृक्षानां पक्षिणां च हिंसा दृश्यते। आद्युदात्तश्च इस सूत्र से प्रत्यय को आद्युदात्त होने का विधान हेै।,आद्युदात्तश्च इति सूत्रेण प्रत्ययस्य आद्युदात्तत्वं विधीयते इस सूत्र में “कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।,अस्मिन्‌ सूत्रे कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदमनुवर्तते। उन अनुदात स्वरों में ही परिस्थिति विशेष होने से स्वरित दूसरा स्वर बनता है।,तेषु एव अनुदात्तेषु स्वरेषु परिस्थितिविशेषे स्वरितः इति अन्यतमः स्वरः जायते। "सरलार्थ - जब मैं निश्चय कर लेता हूँ की जुआ नही खेलूंगा, तब मैं आए हुए जुआरी मित्रो का त्याग देता हूँ, किन्तु जब जुआ खेलने के तख्ते पर फेके हुए पीले रंग के पासों को शब्द करते हुए देखता हूँ, तो मैं उस स्थान की तरफ चला जाता हूँ जैसे व्याभिचारिणी स्त्री संकेत स्थान पर पहुँच जाती है।",सरलार्थः - यदा अहं ( कितवः ) चिन्तयामि यत्‌ अक्षैः सह न क्रीडिष्यामीति तदा मित्रकितवेभ्यः स्वं गोपयामि । परन्तु यदा अक्षाः इरिणे निक्षिप्ताः भवन्ति तदा अहं ( कितवः ) व्यभिचारिणी स्त्री इव गच्छामि । तथाहि सुहृद: पर्यायभूत मित्र शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है।,तथाहि सुहृदः पर्यायभूतः मित्रशब्दः नपुंसकलिङ्गः अस्ति तप से कल्मषों का नाश होता है।,तपसा कल्मषं हन्ति। वायो विकार का क्या कोश होता है?,वायोः विकारः कोषः कः भवति? टिप्पणी - उत शब्द का विकल्प अर्थ है।,टिप्पणी - उतशब्दस्य विकल्पः अर्थः। काश्यप का क्या अर्थ है?,काश्यपस्य कः अर्थः? वरुण को चर क्यों कहा जाता है ?,वरुणः चरः इति कथमुच्यते ? फिर वे सविशेष निरुपण सगुणब्रह्म की उपासना करके उनकी अनुकम्पा प्राप्त करते हैं।,ते सविशेषनिरूपणैः सगुणब्रह्मोपासननिरूपणैः अनुकम्प्यन्ते अनुगृह्यन्ते। "कृण्वन्ति - कृ-धातु से लट प्रथमपुरुष एकवचन में रूप, कुर्वन्ति इसका वैदिकप्रयोग हे।","कृण्वन्ति - कृ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपं , कुर्वन्ति इत्यस्य वैदिकप्रयोगः।" जैस प्रतिषेध शास्त्रों को समझने पर भी ब्रह्महत्यादि लक्षण कर्म अनर्थकारण अविद्याकामादिदोष के समान होते हैं।,यथा प्रतिषेधशास्त्रावगतमपि ब्रह्महत्यादिलक्षणं कर्म अनर्थकारणम्‌ अविद्याकामादिदोषवतः भवति। उसी कारण यह अग्निहोत्र नाम से प्रसिद्ध होता है स्तम्भ श्रौत सूत्र के मत में।,तस्मात्‌ कारणात्‌ इदम् अग्निहोत्रम्‌ इति प्रसिद्धिः आपस्तम्भस्य श्रौतसूत्रमते। 32. “ अव्ययं विभक्ति” इत्यादि सूत्र में विभक्ति पद का क्या बोध होता है?,"३२. ""अव्ययं विभक्ति"" इत्यादिसूत्रे विभक्तिपदं किं बोधयति?" "यह प्रतीक के रूप में पूर्व में पढ़े हुए होने से आदिमात्रा में यहाँ पर कहते है, ब्रह्मयज्ञ और जप में सभी को पढ़ना चाहिए।",एता प्रतीकचोदिताः पूर्व पठितत्वादादिमात्रेणोक्ताः ब्रह्मयज्ञे जपे च सर्वा अध्येयाः। "वे वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद है।","ते वै ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः, अथर्ववेदश्च।" जब वह योगारूढ होता है तब कर्म का शम उपशम सभी कर्मों से निवृत्ति के कारण योगारूढ का साधन कहलाता है।,"यदा च स योगारूढः भवति तदा कर्मणः शमः उपशमः, सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणम्‌ योगारूढस्य साधनम्‌ उच्यते।" ( १.२.३३ ) सूत्र का अर्थ - दूर से बुलाने में वाक्य एकश्रुति हो जाता है।,(१.२.३३) सूत्रार्थः - दूरात्‌ सम्बोधने वाक्यम्‌ एकश्रुति स्यात्‌। लेकिन निम्नस्तरीय भक्ति ही सङकीर्णता का बीज होती है।,परन्तु निम्नस्तरीया भक्तिः सङ्कीर्णतायाः बीजम्‌। शरीरस्थ मल का विसर्जन इसी पायु इन्द्रिय के द्वारा ही होता है।,शरीरस्थस्य मलस्य विसर्जनं पाय्वाख्येन इन्द्रियणैव भवति। उसी प्रकार से जीवन्मुक्त जगत्‌ प्रपञ्च को मिथ्या मानकर के उसको सत्य के रूप में नहीं देखता है।,तथा जीवन्मुक्तः जगत्प्रपञ्चं मिथ्या इति ज्ञात्वा सत्यरूपेण न पश्यति। यहाँ इस धातु के अभ्यस्त होने से प्रकृत सूत्र से आदि स्वर उदात्त होता है।,अत्र अस्य धातोः अभ्यस्तत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण आदिस्वरः उदात्तः भवति। अथर्वा ऋषि ने पृथ्वी का विविध रूप से वर्णन किया।,अथर्वा ऋषिः पृथिवीं विविधरूपेण वर्णितवान्‌। जब तक ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता तबतक निदिध्यासन का अनुष्ठान करना चाहिए।,निदिध्यासनं च यावदुब्रह्मज्ञानं न भवति तावदनुष्ठेयम्‌। तैत्तरीयोपनिषद्‌ में तो “वायोरग्निः इस प्रकार से वायु को ही तेज के उपादानत्व रूप मे वर्णित है।,"तैत्तिरीयके तु ""वायोरग्निः"" इति वायुरेव तेजसः उपादानत्वेन वर्णित ।" अभिक्षिपन्‌ - अभि पूर्वकक्षिप्‌-धातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथम पुरुष एकवचन का यह रूप है।,अभिक्षिपन्‌ - अभि पूर्वकात्‌ क्षिप्‌-धातोः शतृप्रत्यये प्रथमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ । मानापमानादिद्वन्द आभ्यन्तर द्वन्द होते हैं।,मानापमानादिद्वन्द्वः आभ्यन्तरः। यजुर्वेद के उपनिषदों का नाम लिखिए।,यजुर्वेदीयोपनिषदां नामानि लिखत। यहाँ अभिधान इस करण में ल्युट्‌ प्रत्यय है।,अत्र अभिधानम्‌ इति करणे ल्युट्‌। अद्वैत वेदान्त के मत में ज्ञान ही केवल्य होता है।,अद्वैतवेदान्तदर्शनमते ज्ञानादेव तु कैवल्यम्‌। इसी प्रकार शकटि: यहाँ पर भी प्रकृत सूत्र से ही क्रम से स्वर वर्ण उदात्त होते हैं।,एवं शकटिः इत्यत्रापि प्रकृसूत्रेण एव पर्यायक्रमेण स्वरवर्णाः उदात्ताः सन्ति। वो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर भी दशाङऱगुल परिमित स्थान में भी विद्यमान है।,स समस्तदब्रह्माण्डं व्याप्य तिष्ठन्‌ अपि दशाङ्गुलपरिमितस्थानम्‌ अधिकं विद्यते। "( अनु, ४५) और शब्द में आये अक्षरो की संख्या ४३२००० है।",(अनु. ४५) तथा शब्दगताक्षरणां संख्या ४३२००० वर्तते। तिङ यह प्रथमान्त पद है।,तिङ्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌। ये पुरुष अमरत्व का स्वामी हैं।,अयं पुरुषः अमरत्वस्य स्वामी। यहाँ पूर्वपद श्रेणि शब्द है।,अत्र पूर्वपदं श्रेणिशब्दः। "स = अन्तर्यामी, भूमिं = ब्रह्माण्डगोलकरूप धरित्री, अथवा पञ्चभूत में व्याप्त, भूमिशब्द यहां पञ्चभूत उपलक्षक है।","स= अन्तर्यामी, भूमिं= ब्रह्माण्डगोलकरूपां धरित्रीम्‌, अथवा पञ्चभूतानि व्याप्य, भूमिशब्दोऽत्र पञ्चभूतोपलक्षकः ।" वेदि की रचना १०८०० ईटों से होता है।,वेद्या रचना १०८०० इष्टिकाभिः भवति। चित्तवृत्ति ब्रह्मालम्बन में असमर्थता के कारण जब अन्यविषयों का आलम्बन ग्रहण करती है वह विक्षेप कहलाता है।,चित्तवृत्तिः ब्रह्मालम्बने असमर्था सती यदा विषयान्तरमवलम्बते सः विक्षेपः। जैसे- बह्वृच-छन्दोमय शाखा के द्विजातिगण सूर्योदय से पूर्व होम करें।,यथा बह्वृच्-छन्दोमयशाखयोः द्विजातिगणाः सूर्योदयात्‌ पूर्वं होमं कुर्युः। उसी प्रकार उत्तरपद होने पर पूर्वपद दिक्शब्द को प्रकृत सूत्र से अन्तोदात्त होता है।,तादृशे उत्तरपदे सति पूर्वपदं दिक्शब्दः प्रकृतसूत्रेण अन्तोदात्तः भवति। वह ही विश्व को धारण और पालन करता है।,स एव विश्वं धारयति पालयति च। उन्हीं जिज्ञासाओं की शांति के लिए अद्वैत वेदांत के मतों के अनुकूल प्रकरण यहां पर उपस्थित है।,तन्निवृत्तये अद्वैतवेदान्तमतानुकूलानि प्रकरणानि अत्र सन्ति। अथर्व की अन्तिम शाखा चारणवेद्य के विषय में कौशिक सूत्र में व्याख्या की है।,अथर्वस्य अन्तिमा शाखा चारणवैद्यानां विषये इति कौशिकसूत्रे व्याख्यातम्‌ अस्ति। यद्यपि वो समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर रहता है।,यद्यपि स समग्रब्रह्माण्डं व्याप्य तिष्ठति । यहाँ कर्तृ शब्द ऋदन्त है और कृन्तद्धितसमासाश्च सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञक भी है।,"अत्र कर्तृ इति शब्दः ऋदन्तः अस्ति, अपि च कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञकः अपि अस्ति।" वह ही जगत की स्वामिनी धन देने वाली जीवभाव से भूतो में प्रवेश करके विविधरूप से रहती है।,सा हि जगदीश्वरी धनदात्री जीवभावेन भूतानि अनुप्रविश्य विविधरूपेण अवतिष्ठते। ये दोनों एक ही रथ और बे दोनों निरन्तर भ्रमण करते है।,एतयोः उभयोः एक एव रथः स च निरन्तरं भ्रमति। यहाँ दो प्रकार की शिक्षा उपलब्ध होती है।,द्विविधा इयं शिक्षा समुपलब्धा भवति। क्या कामना करते है वो बताते हुए कहते है।,किम्‌ एषणीयं तत्राह। आँखों का घट के साथ संयोग होने पर अन्तः करण के साथ घट सम्बन्धवश घटाकार्न्तः करणवृत्ति उत्पन्न होती है।,चक्षुषा घटसंयोगे सति अन्तःकरणेन सह घटस्य सम्बन्धवशात्‌ घटाकारान्तःकरणवृत्तिः उदेति । सरलार्थ- प्रातः मनु के समीप हाथ थोने के लिए जल लाये थे।,सरलार्थः - प्रातः मनोः समीपे हस्तप्रक्षालननाय जलम्‌ आनीतम्‌। शास्त्राध्ययन में अनुबन्धत्व के द्वारा कौन सा विषय कहा गया है इस प्रकार का स्पष्ट ज्ञान आवश्यक होता है।,शास्त्राध्ययने अनुबन्धत्वेन कः विषयः उक्तः अस्ति इति स्पष्टं ज्ञानम्‌ आवश्यकम्‌। सूत्र का अवतरण- तित्‌ प्रत्यय के स्वर को स्वरित विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- तितः प्रत्ययस्य स्वरस्य स्वरितत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। इस कारण आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि शुक्ल यजुर्वेद है।,अतः आदित्यसम्प्रदायस्य प्रतिनिधिः शुक्लयजुर्वेदोऽस्ति। उदाहरण- इसका उदहरण होता है - दधांसि रत्नं द्रविणं च दाशुषे इति।,उदाहरणम्‌- अस्य उदहरणं भवति दधांसि रत्नं द्रविणं च दाशुषे इति। सूत्र अर्थ का समन्वय- घृतं मिमिक्षे इस उदाहरण में घृतम्‌ इस पद के अन्त्य अकार उदात्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- घृतं मिमिक्षे इत्युदाहरणे घृतम्‌ इति पदस्य अन्त्यः अकारः उदात्तः अस्ति। और अनुदात्त स्वर निघात शब्द को कहते है।,अनुदात्तस्वरः च निघातशब्देन उच्यते। जल से द्युलोक का तथा पृथिवीलोक का विशेषरूप से सेचन करो।,जलेन द्युलोकं तथा पृथिवीलोकं विशेषरूपेण सिक्तं करोतु । एक ही जन्म में बाल्यकौमरादि अवस्थाओं में भी शरीर भिन्न भिन्न रूप में जाना जाता है।,एकस्मिन्नपि जन्मनि बाल्यकौमाराद्यवस्थासु अपि शरीरं भिन्नत्वेन ज्ञायते। सभी जगत की आत्मा में हूँ।,सर्वजगदात्मनाहं सम्भूतास्मि। सातवे मन्त्र में तो जगतीच्छन्द है।,सप्तममन्त्रे तु जगतीच्छन्दः अस्ति । यातारम्‌ यहाँ पर धातु क्या है?,यातारम्‌ इत्यत्र कः धातुः। जहाँ पर विशिष्ट वाचक शब्द विशेषण के रूप में एकदेश को छोड़कर के विशेष्यरूप एकांश का बोधक होता है वहाँ पर जहद्‌ तथा अजहत्‌ लक्षणा होती है।,यत्र विशिष्टवाचकः शब्दः विशेषणरूपम्‌ एकदेशं विहाय विशेष्यरूपस्य एकांशस्य बोधकः भवति तत्र जहदजहल्लक्षणा भवति। धर्म भी जन्य है।,धर्मोऽपि जन्यः अस्ति। सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इस सूत्र से यहाँ विभक्तिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।,सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इति सूत्रात्‌ अत्र विभक्तिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। व्यतिरेक का सुंदर उदाहरण कहाँ प्राप्त होता है?,व्यतिरेकस्य सुष्ठु उदाहरणं कुत्र प्राप्यते? 2 क्रियमाण कर्म कौन से होते हैं?,2. क्रियमाणकर्म किम्‌? "यदि विशेष्यमात्र तात्पर्ययुक्त वाक्य में लक्षणा स्वीकार करते है तो घर में घट-घट में रूप, घट को लाओ इत्यादि वाक्यों में भी लक्षणा स्वीकार करना चाहिए।","यदि विशेष्यमात्रे तात्पर्ययुक्तवाक्ये लक्षणा स्वीक्रियते तर्हि गेहे घटः, घटे रूपम्‌, घटम्‌ आनय इत्यादिषु अपि लक्षणा स्वीकर्तव्या।" 40. ध्यान में विचलित चित्तवृत्ति होती हैं तथा समाधि में अविचलित चित्तवृत्ति होती है।,"४०. ध्याने विच्छिद्य विच्छिद्य चित्तवृत्तिः भवति, समाधौ तु निरवरच्छिन्ना चित्तवृत्तिः भवति।" "आत्मा मन को प्रेरित करता है, मन इन्द्रिय से इन्द्रिय को, अर्थ से न्याय युक्त मन सम्बन्ध को उन दोनों को प्रवृत करता है।",आत्मा मनसा संयुज्यते मनः इन्द्रियेण इन्द्रियम्‌ अर्थनेति न्यायोक्तेर्मनः सम्बन्धम्‌ अन्तरा तेषाम्‌ अप्रवृत्तेः। और इस प्रकार यहाँ पर अजपन्यूङ्खसामसु यज्ञकर्मणि एकश्रुति ये सूत्र में आया अन्वय है।,एवञ्च अत्र अजपन्यूङ्खसामसु यज्ञकर्मणि एकश्रुति इति सूत्रगतपदयोजना। इसलिए शङ्कराचार्य जी ने उपदेशसाहस्री में कहा है “ऋषिस्वरूपं गगनोपमं परं सकृद्विभातं त्वजमेकमक्षरम्‌।,उच्यते च शङ्कराचार्येण उपदेशसाहस्र्यां - “ऋषिस्वरूपं गगनोपमं परं सकृद्विभातं त्वजमेकमक्षरम्‌। भक्ति स्वयं ही साध्यरूपा तथा साधनरूपा होती है।,भक्तिः स्वयं साध्यरूपा साधनरूपा च। यह काम आत्मज्ञान रहितों से उत्पन्न होता है।,यः अनात्मविद्‌ तस्य कामः जायते। (1) विद्यारण्य (1 ) सदानंदयोगी 9. भविष्यति' इस प्रतीति विषय का अभाव कौन ?,(1) विद्यारण्यः (1 ) सदानन्दयोगीन्द्रः ९) भविष्यति इति प्रतीतिविषयः अभावः कः। अग्नि को उद्देय करके कौन सी संज्ञा प्रयुक्त होती है ?,अग्निमुद्दिश्य काः संज्ञाः प्रयुज्यन्ते ? इससे अनुदात्त स्वर का विधान है।,अनेन अनुदात्तस्वरः विधीयते। सूत्र अर्थ का समन्वय- गोभ्यः यहाँ पर गो शब्द से भ्यस्‌ यह हलादि विभक्ति है।,सूत्रार्थसमन्वयः- गोभ्यः इत्यत्र गोशब्दात्‌ भ्यस्‌ इति हलादिः विभक्तिः वर्तते। अन्यों से प्रातिपदिक स्वर का विधान है।,एतद्भिन्नानि साधारणस्वरविधायकानि अपि नैकानि सूत्राणि अष्टाध्याय्यां पदंकुर्वन्ति। "उनको प्रकृत सूत्र से बताये गए कार्य लोक में भी होते है, और वेद में भी होते हैं।",तेन प्रकृतसूत्रेण विहितं कार्य लोके अपि भवति वेदे अपि भवति। इसलिए उन दोनों से हमेशा विरक्ति अत्यन्तविमुखता इहामुत्रफलभोगविराग कहलाता है।,अतः तेभ्यो नितरां विरतिः अत्यन्ततया विमुखता एव इहामुत्रफलभोगविरागः। इस सूत्र से विकल्प से तत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण विकल्पेन तत्पुरुषसमासो विधीयते । ऋग्वेद में आये मन्त्र द्रष्टा ऋषियों में गृत्समद-विश्वामित्र-वामदेव-अत्रि-भारद्वाज-वशिष्ठ आदि है।,ऋग्वेदगतमन्त्रद्रष्टारो ऋषयः गृत्समद-विश्वामित्र-वामदेव-अत्रि-भरद्वाज-वशिष्ठादयः सन्ति।। इसलिए वेदान्त में उसकी प्रवृत्ति ही नहीं होती है।,अतः वेदान्ते तस्य प्रवृत्तिः एव न स्यात्‌। 'जनी प्रादुर्भावे'। णिच और वृद्धि होकर “जनीजूृष्क्नसुरज्ज...' से निषेध करके अम्प्रत्यय के अभाव में तिप्‌ और णल्‌ तथा वृद्धि होकर “लिति से प्रत्यय से पूर्व के स्थान पर उदात्त हुआ।,'जनी प्रादुर्भावे'। णिचि वृद्धौ 'जनीजृष्क्नसुरञ्ज...' इति निषेधादाम्प्रत्ययाभावे तिपो णलि वृद्धौ 'लिति' इति प्रत्ययात्पूर्वस्योदात्तत्वम्‌। सूर्योदय होने पर आहुति का दान निष्फल होता है।,असति सूर्योदये आहुतिदानं निष्फलं भवति। आद्युदात्त: च ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,आद्युदात्तः च इति सूत्रगतपदच्छेदः। तथा जीव तथा जगत्‌ इन दोनों से विशिष्ट जगत्‌ अद्वैत कहलाता है।,जीवजगद्भ्यामितं विशष्टं ब्रह्मैव द्वीतम्‌। उससे यह धातु अभ्यस्त संज्ञक है।,तेन अयं धातुः अभ्यस्तसंज्ञकः। तेज तथा घृतादि का जो मध्यम भाग होता है वह मज्जा होता है।,तेजसो घृतादेः मध्यमो भागः मज्जा। इस प्रकार से अधिगताखिलवेदार्थ शुद्धचित्त एकाग्रमान तथा साधनचतुष्टय सम्पन्न अधिकारी होता है।,एवम्‌ अधिगताखिलवेदार्थः शुद्धचित्तः एकाग्रमानसः साधनचतुष्टयसम्पन्नः अधिकारी भवति। उदात्तस्वरितोदयं न अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ यह सूत्र में आये पद का अन्वय है।,उदात्तस्वरितोदयं न अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ इति सूत्रगतपदान्वयः। अतः इनके द्वारा अलौकिक विग्रह वाक्य में एकार्थी भाव रूप सामर्थ्य स्वीकृत किया जाता है।,अतः अस्माभिः अलौकिकविग्रहवाक्ये एकार्थीभावरूपं सामर्थ्यं स्वीक्रियते। वैदिक सूक्तों में अनेक देवताओ ने यज्ञ के प्रति समागम के लिए पार्थिव सुख के सम्पादन के लिए और आध्यात्मिक भाव के अन्वेषण के लिए अनेक छन्दों में प्रार्थना की।,वैदिकसूक्तेषु नानादेवतानां यज्ञं प्रति समागमनाय पार्थिवसुखस्य सम्पादनाय आध्यात्मिकभावस्य उन्मेषणाय च बहुविधेषु छन्दःसु प्रार्थना कृता अस्ति। अनेक प्रकार को स्तोत्रों का और साम नामो की सुन्दर निरुक्ति ताण्ड्य ब्राह्मण में उपलब्ध होती है।,नानाविधानां स्तोत्राणां सामाभिधानानां च सुष्ठु निरुक्तिः ताण्ड्यब्राह्मणे समुपलब्धा अस्ति। गणव्रत में थोडा ही भेद है।,गणद्रातयोरल्पो भेदः । "“प्राक्कडारात्समासः'', “सह सुपा”, “तत्पुरुषः'' ये तीन अधिकृत सूत्र हैं।",""" प्राक्कडारात्समासः "" , "" सह सुपा "" , "" तत्पुरुषः "" इत्येतानि अत्र अधिकृतानि ।" "इस सूक्त में ऋषि अत्रि कहते है की, हे स्तोता!","सूक्तेस्मिन्‌ ऋषिः अत्रिः आह , हे स्तोतः।" अनुदात्तस्य इस पद का जहाँ इति पद के साथ सम्बन्ध है।,अनुदात्तस्य इति पदस्य यत्र इति पदेन सह सम्बन्धः वर्तते। कुत्सितः च असौ पुरुषः च इस लौकिक विग्रह है।,अत्र कुत्सितश्चासौ पुरुषश्चेति लौकिकविग्रहः। वेदाङ्गों की व्याख्या कीजिए।,वेदाङ्गानि व्याख्यात। उस पुरुषरूप पशु से कौन देव उत्पन्न हुए?,तेन पुरुषरूपेण पशुना के देवाः अयजन्त। इसलिए वह रसो में श्रेष्ठतम है।,अतः सः रसेषु श्रेष्ठतमः अस्ति। 50. द्वन्द समास का लक्षण क्या हैं?,५०. द्वन्द्वसमासस्य लक्षणं किम्‌? यहाँ आशित शब्द कर्तृवाचक है।,अत्र आशितशब्दः कर्तृवाचकः विद्यते। इस सूत्र से द्विगुसमास की तत्पुरुष संज्ञा होती है।,अनेन सूत्रेण द्विगुसमासस्य तत्पुरुषसंज्ञा विधीयते। प्राचीन आर्य परम्परा के अनुसार से गद्य भी छन्दोबद्ध रचना ही मानते हैं।,प्राचीनार्यपरम्परानुसारेण गद्यम्‌ अपि छन्दोबद्धरचना एव मन्यते। वहाँ प्राम्भ के सोलह अध्यायों में अग्निष्टोम याग के ऋग्वेदीय पुरोहितों का कर्तव्य विहित है।,तत्र आदितः षोडशसु अध्यायेषु अग्निष्टोमयागे ऋग्वेदीयपुरोहितानां कर्तव्यं विहितं वर्तते। “सर्वे एकीभवन्ति” यह श्रुति यहाँ पर प्रमाण स्वरूप है।,“सर्वे एकीभवन्ति” इति श्रुतिरत्र मानम्‌। 9. तृ-धातु से लङ मध्यमपुरुष एकवचन में।,तृ-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने। मूर्धनि इसका क्या अर्थ है?,मूर्धनि इत्यस्य कोऽऽर्थः। अत मन्त्रो का विद्वानों द्वारा जो अर्थ किया गया है उससे भिन्न भी अर्थ हो सकता है।,अतः मन्त्राणाम्‌ आपाततो योऽर्थः प्रतिभाति ततो भिन्न एव अर्थो भवितुमर्हति। "तथा मानस काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या आदि विषयों के विशेष दर्शन के निबन्ध से होता है।",मानसं तु कामक्रोधलोभमोहभयेर्ष्याविषयविशेषादर्शननिबन्धनम्‌। उसका आकार पृथुबुध्नोदर विशिष्ट होना चाहिए।,तस्य आकारः पृथुबुध्नोदरविशिष्ठः स्यात्‌। आहुति को धारण करने वाली अग्नि को देखकर शास्त्र प्रसिद्ध कर्मफल को स्मरण किया।,आहुत्याधारम्‌ अग्निं दृष्ट्वा शास्त्रप्रसिद्धं कर्मफलं स्मर्यते। """अर्धं नपुंसकम्‌"" यह सूत्र का अर्थ है?","""अर्धं नपुंसकम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" स्तेय से तात्पर्य है शास्त्रविधि को छोड़कर के दूसरों का धन लेना अथवा दूसरों के धन को हरण करने की अभिलाषा।,स्तेयं नाम शास्त्रविधिमुत्सृज्य द्रव्याणाम्‌ परतः स्वीकरणम्‌ परद्रव्यहरणाभिलाषो वा। "केवल सन्यासी ही नहीं, अपितु संसार में स्थित सनातन लोग उस उपनिषदों का श्रद्धा से अध्ययन करके तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना चाहते है।","न केवलं सन्न्यासिनः, अपि तु संसारे स्तिताः सनातनजनाः तासाम्‌ उपनिषदां श्रद्धया अध्ययनं कृत्वा तत्त्वज्ञानं लब्धुम्‌ इच्छन्ति।" सुना जाता है की वृत्रासुरध काल में इन्द्र ने पादविस्तार के लिये विष्णु को कहते है।,श्रूयते यद्‌ वृत्रासुरवधसमये इन्द्रः पादविस्ताराय विष्णुं प्रोवाच इति। आवरण केवल द्रव्य ही हो सकता है।,आवरणं केवलं द्रव्येण भवितुम्‌ अर्हति। जैसे कोई क्षत्रियकुलोत्पन्न व्यक्ति अगर युद्धादि कर्मो से डरता है तो उसमें पर्याप्त क्षत्रियत्व भाव नहीं होता है।,यथा कश्चित्‌ क्षत्रियकुलोत्पन्नः जनः युद्धादिभ्यः प्रायः बिभेति। तर्हि तस्मिन्‌ पर्याप्तः क्षत्रियत्वभावः नास्ति। वहाँ पर किए गये कर्मों के धर्म तथा अधर्म नहीं होते हैं।,तत्र कृतस्य कर्मणः धर्माधर्मौ न भवतः। इसलिए उसके गुण तथा दोष भी नहीं होते हैं।,अतः गुणः दोषो वा न स्तः। अलङ्कार सौन्दर्य को प्रकट करने का भी साधन है।,अलङ्काराः सौन्दर्यस्य प्रकटीकरणे अपि पटवः वर्तन्ते। 10. चित्तवृत्ति अज्ञान का नाश करती है।,१०. चित्तवृत्तिः अज्ञानं नाशयति। 75. “समासान्ताः” इस सूत्र का अधिकार कहाँ तक है?,"७५ . ""समासान्ताः"" इति सूत्रस्याधिकारः कियत्पर्यन्तम्‌?" इस छन्द में अर्थात्‌ वेद में विकल्प से एकश्रुति का विधान है।,अनेन छन्दसि अर्थात्‌ वेदे विकल्पेन ऐकश्रुत्यं विधीयते। व्यष्टिकारणशरीराज्ञोनोपहित चैतन्य प्राज्ञ होता है।,व्यष्टिकारणशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं प्राज्ञः। उस मन को शुद्ध करने के लिए इस सूक्त में अनेक बार कहा गया है - 'तन्मे मनः शिवसङऱकल्पमस्तु' इति।,तस्मात्‌ मनसः शुद्धीकरणाय अस्मिन्‌ सूक्ते बहुवारम्‌ उच्यते - 'तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु' इति। तो कहते हैं की यहाँ पर कुछ भी अकृत तथा कृत नहीं है।,उच्यते- स निश्चिनुयात्‌ यत्‌ - नास्ति अकृतः कृतेन। इस प्रकार से न तो ब्रह्म सत्‌ होता है और ना ही असत्‌ होता है।,"अतः ब्रह्म न सत्‌, नापि असत्‌।" व्याकरणकारों का और इसलिए व्याकरण को अधिकृत करके इन दो श्लोक की रचना की है।,व्याकरणकारान्‌ अथ च व्याकरणानि अधिकृत्य एतच्छलोकद्वयं प्रथितम्‌ अस्ति। इनके पिता का नाम यज्ञेश्वर है।,अस्य पितुः नाम यज्ञेश्वरः अस्ति। फिर भी प्रमाणभूत आचार्यो का श्रीमान सायण आचार्य का भाष्य ही कुछ समझाने के लिए परिवर्तन करके छात्रो के उपयोगी समास आदि यहाँ पर दिया गया है।,तथापि प्रमाणभूतानाम्‌ आचार्याणाम्‌ श्रीमताम्‌ सायणानाम्‌ भाष्यमेव किञ्चित्‌ सुबोधाय परिवर्तनेन छात्रोपयोगित्वं समासाद्य अत्र प्रदीयते। अथर्व नाम के ऋषि द्वारा दृष्ट मन्त्र शान्ति और पुष्टिकर्म युक्त है।,अथर्वनामकेन ऋषिणा दृष्टाः मन्त्राः शान्ति-पुष्टिकर्मयुक्ताः सन्ति। दिव्‌-धातु के क्रीडाविजिगीषादि बहुत अर्थ है।,दिव्‌-धातोः क्रीडाविजिगीषादयः बहवः अर्थाः सन्ति। और उससे अज टाप्‌ ऐसी स्थिति होती है इसके बाद “चुटू सूत्र से प्रत्यय के आदि टाप्‌ के टकार की इत्संज्ञा होती है।,तेन च अज टाप्‌ इति स्थितिः भवति ततः परं चुटू इति सूत्रेण प्रत्ययाद्यस्य टापः टकारस्य इत्संज्ञा भवति। जैसे छान्दोग्योपनिषद्‌ के छठे अध्याय में “तत्त्वमसि” इस वाक्य को नौ बार पढ़ा गया है।,यथा- छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्याये “तत्त्वमसि” इति वाक्यं नववारं पठितम्‌ अस्ति। उसी का अपर नाम लिङ्ग शरीर भी है।,तस्य अपरं नाम लिङ्गशरीरमिति। वहाँ उदाहरण रूप से दविद्युत्या रुचा (ऋ. ९/६४-२८) इस मन्त्र को देखना चाहिए।,तत्र उदाहरणरूपेण दविद्युत्या रुचा (ऋ. ९/६४-२८) इति मन्त्रो द्रष्टव्यः। केवल जल ही समस्त जगत्‌ में व्याप्त था।,आपो ह आप एव विश्‍श्वमायन्‌ सर्वे जगत्‌ व्याप्नुवन्‌ यत्‌ यस्मात्‌ । जैसे वह वैद्यश्रेष्ठ इससे भी जाना जाता है।,यथा सः वैद्यश्रेष्ठः इत्यपि श्रुयते। "षष्ठ मन्त्र में कहा की मिथ्याभिमानी वृत्र ने यद्यपि इन्द्र को युद्ध के लिए आवाहन किया, फिर भी स्वयं ही इन्द्र से मारा गया है।",षष्ठे मन्त्रे उक्तं यत्‌ मिथ्याभिमानी वृत्रः यद्यपि इन्द्रं युद्धाय आहूतवान्‌ तथापि स्वयमेव इन्द्रेण हतः। इसलिए भले ही वह द्वैत को देखता है फिर भी अद्वैत के द्वारा द्वैत के बाधवश वहां द्वैत को तत्वतः नहीं देखता है।,अतः यद्यपि द्वैतं पश्यति तथापि अद्वैतेन द्वैतस्य बाधवशात्‌ न तु द्वैतं तत्त्वतः पश्यति। पूजायाम्‌ इस सप्तम्यन्त पद की अनुवृति हेै।,पूजायाम्‌ इति सप्तम्यन्तं पदम्‌ अनुवर्तते। वितिष्ठे यह रूप कैसे हुआ?,वितिष्ठे इति रूपं कथं स्यात्‌। कारण सामग्री के अभाव से आकाश की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है।,कारणसामग्र्याभावात्‌ आकाशस्योत्पत्तिः नैव शक्यते सम्भावयितुम्‌। ॥ बाईसवाँ पाठ समाप्त ॥,॥ इति द्वाविंशः पाठः समाप्तः ॥ (क) तितिक्षा (ख) दम (ग) उपरति (घ) वैराग्य 20. वेदान्तों का क्या तात्पर्य होता है?,(क) तितिक्षा (ख) दमः (ग) उपरतिः (घ) वैराग्यम्‌ 20. वेदान्तानां कुत्र तात्पर्यम्‌। इसलिए निर्गुण के प्रतिपादन के लिए सगुण का प्रतिपादन अपेक्षित है।,अतः निर्गुणस्य प्रतिपादनार्थं सगुणस्य प्रतिपादनमपेक्षते। लोमान्त के समासान्त में अवलोमम्‌ उदाहरण बना।,लोमान्तस्य समासान्ते अवलोमम्‌ इत्युदाहरणम्‌। इसमें पन्द्रह आध्याय है।,अस्मिन्‌ पञ्चदश आध्यायाः सन्ति। बर्हि यज्ञ को कहते है।,बर्हिः यज्ञस्य कथयन्ति। अन्वय - यस्मिन्‌ ऋचः: यस्मिन्‌ साम यजूंषि रथनाभौ अराः इव प्रतिष्ठिताः यस्मिन्‌ प्रजानां सर्व चित्तम्‌ ओतं तत्‌ मे मनः शिवसङकल्पम्‌ अस्तु।,अन्वयः - यस्मिन्‌ ऋचः यस्मिन्‌ साम यजूंषि रथनाभौ अराः इव प्रतिष्ठिताः यस्मिन्‌ प्रजानां सर्व चित्तम्‌ ओतं तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु। 8 इसका अर्थ रहस्य होता है।,८. रहस्यम्‌ इति अर्थः। "मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि- द्राक्षा-कलोमा- काष्ठा-पेष्ठा-काशीनामादिर्वा इस सूत्र से यहाँ पर मकर-वरूढ-पारेबत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा- कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशीनाम्‌ ये षष्ठी बहुवचनान्त पद, आदिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद, और वा इस अव्यय पद की यहाँ अनुवृति आती है।","मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा- पेष्ठा-काशीनामादिर्वा इति सूत्रात्‌ अत्र मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा- काशीनाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌, आदिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, वा इति अव्ययपदं च अनुवर्तन्ते।" इस सूत्र का अर्थ होता है-घष्ठयन्त सुबन्त को पूरण आदि अर्थों से सदादि से समास नहीं होता है।,"सूत्रस्यास्यार्थो भवति - ""षष्ठ्यन्तं सुबन्तं पूरणाद्यर्थः सदादिभिश्च न समस्यते"" इति।" “कर्त्तरि च'' सूत्रार्थ-कर्ता में जो षष्ठी तदन्त का ण्वुल्प्रत्यय के साथ प्रत्यय नहीं होता है।,कर्तरि च॥ सूत्रार्थः - कर्तरि या षष्ठी तदन्तस्य ण्वुल्प्रत्ययान्तेन सह समासो न भवति। और भी यजुर्वेद में घोरः घोरतरः तथा शिवः शिवतरः इति।,अपि च यजुर्वेदे घोरः घोरतरः तथा शिवः शिवतरः इति। देवों ने प्राणरूप प्रजापति को यथोक्त मानस संकल्प से यज्ञस्वरूप प्रजापति का यजन किया।,देवाः प्रजापतिप्राणरूपाः यज्ञेन यथोक्तेन मानसेन संकल्पेन यज्ञं यथोक्तयज्ञस्वरूपं प्रजापतिम्‌ अयजन्त पूजितवन्तः। इसलिए यह संसार मनकल्पित ही होता है।,अतः संसारः मनःकल्पित एव। "वज्र से सभी जीव डरते हैं, शिर पर वज्राघात से मृत्यु ही हो जाती है।","वज्रात्‌ जीवाः सर्वे बिभ्यन्ति, शिरसि वज्राघाते मृत्युरेव भवति।" बाह्यविषयों में प्रवृत्त के कारण वह बहिष्प्रज्ञ होता है।,बाह्यविषयेषु प्रवृत्तत्वात्‌ बहिष्प्रज्ञश्च। दन्द समास का विवरण कीजिये।,द्वन्द्वसमासं विवृणुत। और जिसके प्रकृष्ट शासन आज्ञा का विश्व के सभी प्राणि उपासना प्रार्थना अथवा सेवन करते हैं।,यस्य च प्रशिषं प्रकृष्टं शासनमाज्ञां विश्वे सर्वे प्राणिनः उपासन्ते प्रार्थयन्ते सेवन्ते वा। "तैत्तरीय, महानारायण, कठ, श्वेताश्वतर, मैत्रायणी उपनिषद्‌ ईशावास्य उपनिषद्‌ बृहदारण्यक।",तैत्तिरीय-महानारायण-कठ-श्वेताश्वतर-मैत्रायण्युपनिषद्‌ ईशावास्योपनिषद्‌ बृहदारण्यकम्‌ । यहाँ तत्पुरुष: समानाधिकरणः कर्मधारयः ये तीनों पद प्रथमा एकवचनान्त हैं।,अत्र तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः इति पदत्रयं प्रथमैकवचनान्तम्‌ । इसलिए ही बार -बार वेदों की बात को जानना चाहिए - तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति।,अत एव भूयो भूयो वार्तेयं वेदानां -'तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इति शम्‌। यहाँ तक अधिकारी के विषय को कहा गया है।,इति एतावता उक्तम्‌। विद्या के द्वारा अमृत की प्राप्ति होती है।,विद्यया अमृतं लभते। "भाषा का वैसे भाव अन्य वेदों से पृथक होने से यह ऋग्वेद प्राचीनतम माना गया, ऐसा पाश्चात्य विद्वान मानते हैं।",पाश्चात्यानां नये तु भाषायाः तथा भावस्य पार्थक्येन अन्येभ्यः वेदेभ्यः प्राचीनतमः अयम्‌ ऋग्वेदः। वह श्रोत्रिय अध्ययन श्रुतार्थसम्पन्न हो।,श्रोत्रियम्‌- अध्ययनश्रुतार्थसम्पन्नम्‌। "व्यवहारिक, प्रातिभासिक तथा पारमार्थिक।","व्यवहारिकी, प्रातिभासिकी, पारमार्थिकी चेति।" 8 शाब्दावधारि अर्थ में मानान्तर विरोधशङ्का में उसके निराकरणानुकूलतर्कात्मक आत्मज्ञान जनक मानस व्यापार मनन होता है।,८. शब्दावधारितेऽर्थ मानान्तरविरोधशङ्कायां तन्निराकरणानुकूलतर्कात्मज्ञानजनकः मानसः व्यापारः मननम्‌। लेकिन प्रारब्ध कर्म नष्ट नहीं होते है।,प्रारब्धकर्माणि न नश्यन्ति। और यह पद पूर्व में वर्तमान देवी: इस पद के साथ समान विभक्ति और उसका विशेषण है।,इदं च पदं पूर्ववर्तिना देवी: इति पदेन सह समानविभक्तिकं तस्य विशेषणं च वर्तते। जल के ऊठने पर आप नाव में आरोहण करोगे।,औघे उत्थिते सति भवान्‌ नावम्‌ आरोक्ष्यति। सरलार्थ - अपमानित वृत्रमाता अपने पुत्र की रक्षा के लिए अपने हाथ को फैलाया।,सरलार्थः- अपमानिता वृत्रमाता स्वपुत्रं रक्षितुं स्वहस्तं प्रसारितवती। सहस्र नेत्र है जिसके ऐसा इन्द्रस्वरूप वाले के लिए।,सहस्राक्षाय सहस्रमक्षीणि यस्य इन्द्रस्वरूपिणे। “तृजकाभ्यां कर्त्तरि” इस सूत्र का तृचा निषेध होने का उदाहरण है।,"""तृजकाभ्यां कर्तरि"" इति सूत्रस्य तृचा निषेधे किम्‌ उदाहरणम्‌?" उस का नाश ही सत्व की शुद्धि होती है।,तस्य नाश एव सत्त्वस्य शुद्धिः। ऋग्वेद के बहुत से स्थलों में शब्दों के भिन्न रूप से प्रयोग दिखते हैं।,ऋग्वेदस्य बहुषु स्थलेषु शब्दानां भिन्नरूपेण प्रयोगः दृश्यते। पाठ्यक्रम के साथ निम्नलिखित सामग्री समायोजित होगी- दो मुद्रित पुस्तकें ।,पाठ्यक्रमेण सह निम्नलिखितसामग्री समायोजिता भविष्यति- द्वे मुद्रिते पुस्तके। उन सूत्रों में कुछ विशिष्ट प्रयोग पाणिनि के द्वारा निर्देश नहीं किया है।,तेषु सूत्रेषु च केचन विशिष्टाः प्रयोगाः पाणिनिना अनिर्दिष्टः सन्ति। धन लाभ इतना हो कि जिससे वे धन के स्वामी हो जाए।,धनलाभः तथा महान्‌ भवतु येन ते धनानाम्‌ ईश्वराः भवेयुः। "यदि कहते वेद के मध्य में ही वेद चतुष्टय के नाम का उल्लेख है, तो ये उक्तियाँ वेद के अस्तित्व में प्रमाण है, तो आत्म आश्रय रूप के दोष का आविर्भाव होता है।",यदि उच्यते वेदस्य मध्ये एव वेदचतुष्टयस्य नामोल्लेखः अस्ति इत्यतः एताः उक्तयः वेदस्य अस्तित्वे प्रमाणभूताः तर्हि आत्माश्रयत्वरूपस्य दोषस्य आविर्भावः भवति। "उनमें छ: आस्तिकदर्शन जैसे न्याय वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वोत्तर, मीमांसा तथा सांख्य प्रसिद्ध थे।",तेषु षड्‌ आस्तिकदर्शनानि न्याय-वैशेषिक-सांख्य-योग-पूर्वोत्तरमीमांसाख्यानि प्रसिद्धानि। "सुब्रह्मण्या+ओम्‌ इत्यादि स्थलों में स्वरित स्वर का और उदात्त स्वर के स्थान में एकादेश उदात्तेनोदात्तः इस सूत्र से एकादेश में उदात्त स्वर नहीं होता है, उस सूत्र में अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इस सूत्र से अनुदात्तस्य इस पद की अनुवृति आती है, किन्तु उस एकादेश विधायक सूत्र से उदात्त अनुदात्त के स्थान में ही एकादेश उदात्त होता है, उदात्त स्वरित के स्थान में एकादेश नहीं होता है।","सुब्रह्मण्या +ओम्‌ इत्यादिस्थलेषु स्वरितस्वरस्य उदात्तस्वरस्य च स्थाने एकादेश उदात्तेनोदात्तः इति सूत्रेण एकादेशे उदात्तस्वरः न भवति, तस्मिन्‌ सूत्रे अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इति सूत्रात्‌ अनुदात्तस्य इति पदस्य अनुवर्तनात्‌, किञ्च तेन एकादेशविधायकेन सूत्रेण उदात्तानुदात्तयोः स्थाने एव एकादेश उदात्तः भवति, न तु उदात्तस्वरितयोः स्थाने।" उसके बाद गायत्री छन्द का स्थान आता है।,तदनन्तरं गायत्रीछन्दसः स्थानम्‌ आयाति। 18. शौच कितने प्रकार के होते हैं तथा कौन-कौन से हैं?,"१८. शौचं कतिविधं, के च ते?" "जिन मन्त्रों में देवता एक है, उस समूह को देवता सूक्त कहते है।",येषां मन्त्राणाम्‌ देवता एका वर्तते तेषां समूहः हि देवतासूक्तम्‌। "एक बार तो उन्होंने यह कहा था कि यह में जो कह रहा हूँ वह स्वामीरामकृष्ण के ही शब्द है- “यत्सर्व भावम्‌ अहं कथयामि, तत्सर्वम्‌ एव तस्य (रामकृष्णदेवस्य) चिन्ताराशेः प्रतिध्वनिकल्पम अनुत्तमान्‌ विहाय एतेषाम्‌ एकोऽपि मदीयो नास्ति।","तथाहि तेनोक्तं- “यत्सर्वं भावम्‌ अहं कथयामि, तत्सर्वम्‌ एव तस्य (रामकृष्णदेवस्य) चिन्ताराशेः प्रतिध्वनिकल्पम्‌ अनुत्तमान्‌ विहाय एतेषाम्‌ एकोऽपि मदीयो नास्ति।" केवल समास और अव्ययी भाव समास। “समसनं समासः'' यह समास का सामान्य लक्षण है।,"केवलसमासः अव्ययीभावसमासः च। ""समसनं समासः"" इति समासस्य सामान्यलक्षणम्‌।" वेद में बहुत से देवों के नाम मिलते हैं।,दृश्यन्ते वेदे बहूनां देवानां नामानि। "उसी प्रकार से में कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, इस प्रकार का सभी का व्यवहार होता है।",तथैव अहं कर्ता भोक्ता इति सर्वेषां व्यवहारः अस्ति। "जब नौका जल के प्रति जाए, तब तुम भी वैसे ही नीचे की और गमन करना।",यदैव नौका जलं प्रति गच्छेत्‌ तदैव त्वं नौकायाः अवतर इति। स्वार्थ रहित कर्मों के द्वारा मनुष्य आध्यात्मिकता के उच्चतम सोपानों पर आरूढ होकर समर्थ रूप से यहाँ पर प्रतिपादित किया गया है।,स्वार्थरहितकर्मणा मनुष्य आध्यात्मिकताया उच्चतमं सोपानम्‌ आरोढुं समर्थ इति अत्र प्रतिपाद्यते। चरणव्यूह के टीका कर्ता - महिमदास है।,चरणव्यूहस्य टीकाकर्ता हि - महिमदासः। तथा जीव स्वस्वरूप ज्ञान से छूट जाता है।,जीवश्च स्वस्वरूपज्ञानात्‌ मुच्यते। मित्रावरुण का सम्बन्ध किसके साथ हे?,मित्रावरुणस्य सम्बन्धः केन सह वर्तते? उनमे ब्रह्मा इस नाम का ऋत्विग्‌ यज्ञ का अध्यक्ष होता है।,तेषु ब्रह्मा इति नामकः ऋत्विग्‌ यज्ञस्य अध्यक्षो भवति। वह वस्तुतः शुद्ध भक्ति होती हे।,सा एव वस्तुतः शुद्धा भक्तिः। कर्मदेव और आजान देव।,कर्मदेवाः आजानदेवाः च। तैजस का स्थान स्वप्न होता है तथा प्राज्ञ का स्थान सुषुप्ति होता है।,तैजसस्य स्थानं भवति स्वप्नः। प्राज्ञस्य स्थानं सुषुप्तिश्च। 6. हंसि- हन्‌-धातु से लट्‌ मध्यमपुरुष एकवचन में।,६. हंसि - हन्‌ - धातोः लटि मध्यमपुरुषैकवचने। "और कलात्मक दृष्टि से भी ये सूक्त नितान्त रमणीय, सरल और प्रभावित करने वाले है।","कलात्मकदृष्ट्याऽपि चैतानि सूक्तानि नितान्तरमणीयानि, सरसानि प्रभावोत्पादकानि च सन्ति।" किन्तु यजुर्वेद और अथर्ववेद में रुद्रदेव का स्थान अतीव महत्त्वपूर्ण है।,किन्तु यजुर्वेदे अथर्ववेदे च रुद्रदेवस्य स्थानम्‌ अतीव महत्त्वपूर्णम्‌ अस्ति। मुक्तिपर्यन्त श्रोत्र आदि का तो नाश होता है परन्तु मन तो अमर है।,मुक्तिपर्यन्तं श्रोत्रादीनि नश्यन्ति मनः तु अनश्वरम्‌ इत्यर्थः । शूशुजानः - शुज्‌-धातु से कानच प्रथमा एकवचन में।,शूशुजानः - शुज्‌ - धातोः कानचि प्रथमैकवचने । जैसे - “शाकल्यदृष्टेः पदलक्षमेक सार्ध च वेदे त्रिसहस्रयुक्तम्‌।,यथा- 'शाकल्यदृष्टेः पदलक्षमेकं सार्धं च वेदे त्रिसहस्रयुक्तम्‌। ब्राह्मण को ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिए लोकों की परीक्षा करनी चाहिए।,ब्राह्मणः ब्रह्मविद्यां लब्धुम्‌ इच्छुः लोकान्‌ परीक्षेत। जीव तब अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।,जीवस्तदा स्वरूपे प्रतिष्ठितो भवति। कृष्णं श्रितः इस विग्रह में कृष्णश्रितः उदाहरण है।,कृष्णं श्रितः इति विग्रहे कृष्णश्रितः इति उदाहरणम्‌। यहाँ प्रकृत सूत्र से ही घृत शब्द के अन्त्य अकार को उदात्त होने का विधान किया है।,अत्र प्रकृतसूत्रेण एव घृतशब्दस्य अन्त्यस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। इसलिए वह स्थूलभुक्‌ होता है।,अतः स स्थूलभुक्‌ भवति। दूसरे विद्वान विण्डिश-ओल्डेनवर्ग-पिशेल आदि मुख्य मानते हैं कि संवाद सूक्त प्राचीन काल में गद्य पद्यात्मक थे।,अपरे पुनर्विद्वांसो विण्डिश- ओल्डेनवर्ग-पिशेलमुख्या अभिप्रयन्ति यत्‌ संवादसूक्तानि पुरा गद्यपद्यात्मकानि आसन्‌। "पांचो ऋत्विजो में अध्वर्यु, प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहर्ता, ब्रह्मा, आदि के जाने की व्यवस्था है।",पञ्चसु ऋत्विक्षु अध्वर्यु-प्रस्तोता-उद्गाता-प्रतिहर्ता-ब्रह्मादीनां गमनस्य व्यवस्था वर्तते। उनके आशीर्वाद से धर्मस्वर्गादि प्राप्त हो जाते है।,तस्याशीर्वादन धर्मादयः स्वर्गादयश्च लभ्यन्ते। इस प्रसङ्ग में चौदहवां काण्ड विशेषरूप से सहायक है।,अस्मिन्‌ प्रसङ्गे चतुर्दशकाण्डः विशेषरूपेण सम्बद्धः अस्ति। वेद से आरण्यक जैसे औषधियों से अमृत।,आरण्यकञ्च वेदेभ्य ओषधिभ्योमृतं यथा। परन्तु स्वयं सिद्धि के वेदे अपने प्रमाण के अपौरुषेय वेद के विषय में आत्म आश्रयत्व दोष दोषरूप से नहीं मानते है।,परन्तु स्वयंसिद्धस्य स्वतःप्रमाणस्य अपौरुषेयस्य वेदस्य विषये आत्माश्रयत्वदोषः दोषरूपेण न गण्यते। होमजातीय यागों की प्रकृति अग्निहोत्र है।,होमजातीययागानां प्रकृतिः अग्निहोत्रः। ब्रह्मज्ञान सुलभ नहीं है।,ब्रह्मज्ञानं सुलभं नास्ति। श्रद्धे - श्रद्धाशब्द का सम्बोधन एकवचन में श्रद्धे यह रूप है।,श्रद्धे - श्रद्धाशब्दस्य सम्बोधनैकवचने श्रद्धे इति रूपम्‌। "सभी ही जलचर अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त होते है, वह तो विशाल मछलियों से भी अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त हुई यह श्रुतिवचन है।","सर्वे एव हि जलचरा अतिशयेन वर्धन्ते, स तु मत्स्यत्वादनाष्ट्रत्वाच्च बृहत्तमं वर्धत इति श्रुतिवचनम्‌।" सूत्र अर्थ का समन्वय-राज्ञः पुरुषः इस विग्रह में “ षष्ठी'' इस सूत्र से षष्ठीतत्पुरुष समास होने पर राजपुरुषः यह रूप होता है।,"सूत्रार्थसमन्वयः-राज्ञः पुरुषः इति विग्रहे ""षष्ठी"" इति सूत्रेण षष्ठीतत्पुरुषसमासे राजपुरुषः इति रूपं भवति।" प्लावन के बाद मनु ने जिस स्थान पर शरण ली वह आज भी मानसरोवर कहलाता है।,प्लावनोत्तरं मनुः येन वर्त्मना अवततार तत्‌ वर्त्म अद्यापि मनोरवसर्पणम्‌ इति आयख्यायते। यहाँ पर अतिक्रान्तार्थ का पूर्वपदार्थ का ही प्राधान्य है और उत्तरपदार्थ का अप्राधान्य है।,"अत्र अतिक्रान्तार्थस्य पूर्वपदार्थस्यैव प्राधान्यमस्ति, उत्तरपदार्थस्य च अप्राधान्यम्‌।" ईड स्तुतौ इस धातु से लट लकार उत्तम पुरुष एकवचन में 'ईळे' यह रूप बनता है।,ईड स्तुतौ इति धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने ईळे इति रूपम्‌। “विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌'' इससे ही सिद्ध होने पर “उपमानानि सामान्यवचनैः'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,""" विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ "" इत्यनेन एव सिद्धे "" उपमानानि सामान्यवचनैः "" इति सूत्रं किमर्थम्‌ ।" जीवन्मुक्त की जैसे संसारदशा में अनुष्ठीयमान पूर्वाहारविहारादि जैसे अनुवृत्ति होती है।,जीवन्मुक्तस्य संसारदशायाम्‌ अनुष्ठीयमानानां पुर्वाहारविहारादीनां यथा अनुवृत्तिः भवति। समस्यमान पूर्वपद का और उत्तरपद का अर्थ उभयपदार्थ होता है।,समस्यमानस्य पूर्वपदस्य उत्तरपदस्य चार्थ उभयपदार्थो भवति। प्राच्य विद्वानों के अनुसार अग्निरङ्गतेरिति विग्रह के अनुसारअग्‌-धातु से निप्रत्यय करने पर अग्नि शब्द बनता है।,प्राच्यविदुषां मतानुसारमग्निरङ्गतेरिति विग्रहानुसारम्‌ अग्‌-धातोः निप्रत्यये अग्निशब्दो निष्पाद्यते। यह ही वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति प्रदर्शन करने में प्रवृत्त निरुक्तकार ने सबसे पहले अग्नि की व्याख्या करने की इच्छा से कहा - “अग्नि पृथिवी स्थानीय देव की प्रथम व्याख्या करेंगे।,"एत एव वैदिकशब्दानां व्युत्पत्तिप्रदर्शने प्रवृत्तः निरुक्तकारः सर्वप्रथमम्‌ अग्निं व्याख्यातुकाम आह - ""अग्नि पृथिवीस्थानस्थं प्रथमं व्याख्यास्यामः"" इति।" यह काम किस से उत्पन्न होता है।,अयं कामः कुतः जायते। ब्रह्मचर्य इनके विपरीत ही होता है।,एतेषाम्‌ विपरीतं हि ब्रह्मचर्यम्‌। उस चैतन्य के द्वारा विषयीकृत घट भी प्रकाशमान घटावच्छिन्नचेतन्य में अध्यस्तत्व से प्रकाशित होता है।,तेन चैतन्येन विषयीकृतः घटः अपि प्रकाशमानघटावच्छिन्नचैतन्ये अध्यस्तत्वात्‌ प्रकाशितो भवति। और ५० सूक्तों में अन्य देवताओं के साथ भी स्तुति की गई है।,किञ्च ५० सूक्तेषु अन्यदेवताभिः सह स्तुतिः विहिता। हृदय में स्थित कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति का नैसर्गिक माध्यम छन्द ही है।,हृदयस्थकोमलभावानाम्‌ अभिव्यक्त्या नैसर्गिकमाध्यमं छन्दः एव अस्ति। चित्त के तथा अहङ्कार के इनके ही अन्दर होने से उन दोनों की अलग से विचार अपेक्षित नहीं होता है।,चित्तस्य अहंकारस्य च अनयोरेव अन्तर्भावात्‌ तयोः पृथक्‌ विचारः नापेक्षते। इसलिए ब्रह्म के बिना प्रपञ्च की अतिरिक्त कोई भी सत्ता नहीं है इस प्रकार से उपनिषद्‌ में मृत्तिका आदि दुष्टान्तों के द्वारा कहा गया है।,अतः ब्रह्म विना प्रपञ्चस्य अतिरिक्ता कापि सत्ता नास्ति इति उपनिषदि मृत्तिकादिभिः दृष्टान्तैः आम्नातम्‌। बहुत से अद्वैतदार्शनिकों के द्वारा दो जीवन्तमुक्ति स्वीकार ही नहीं की गई हैं।,बहुभिरद्वैतदार्शनिकैः जीवन्मुक्तिः न स्वीकृता। "द्वादश मन्त्र में कहा की इन्द्र ने गाय, सोम, प्रवहित नदी को मुक्त किया।","द्वादशे मन्त्रे उक्तं कथम्‌ इन्द्रः गाः, सोमं, प्रवहिताः नदीः विमुक्तवान्‌।" "अन्वय का अर्थ - गिरिश - हे रुद्रदेव, शिवेन - कल्याणकारी, वचसा- वचन से, त्वा - तुझको, अच्छ - अच्छा, वदामसि - कहते है, यथा - जैसे, नः - हमारा, सर्वं - सम्पूर्णजगत्‌, अयक्ष्मम्‌ - क्षय रोग आदि से रहित, सुमनाः - प्रसन्नचित हो।","अन्वयार्थः- गिरिश - हे रुद्रदेव, शिवेन - मङ्गलजनकेन, वचसा - वाचा, त्वा - त्वाम्‌, अच्छ - लाभाय, वदामसि - प्रर्थानां रोमि, यथा - येन, नः - अस्माकं, सर्वं - सम्पूर्णम्‌जगत्‌, अयक्ष्मम्‌ - व्यधिरहितं, सुमनाः - शोभनमनस्काः, असत्‌।" तब आत्मा की कहीं भी गति नहीं होती है।,तदा आत्मनः कुत्रापि गतिः न भवति। अपुनरावृत्ति से उसकी उत्कृष्टत्व को कहते है।,अपुनरावृत्तेः तस्योत्कृष्टत्वम्‌। विश्व शब्द यहाँ पूर्वपद है।,विश्वशब्दश्च अत्र पूर्वपदम्‌। "( १,२.४० ) सूत्र का अर्थ- उदात्तस्वरितौ परौ यस्मात्तस्य अनुदात्तस्य सन्नतरः स्यात्‌।",(१.२.४०) सूत्रार्थः-उदात्तस्वरितौ परौ यस्मात्तस्य अनुदात्तस्य सन्नतरः स्यात्‌। जैसे - ब्लेड को लक्षित करके एक मन्त्र में कहते है - “स्वधिते नैनं हिंसी: इति।,यथा-क्षुरं लक्षीकृत्य एकस्मिन्‌ मन्त्रे उच्यते - 'स्वधिते नैनं हिंसीः” इति। समुद्र में जलधारा में तालाब आदि के मध्य में मेरी योनि कारणभूत अम्भृणाख्य ऋषि है।,समुद्रे जलधावप्सूदकेष्वन्तर्मध्ये मम योनिः कारणभूतोऽम्भृणाख्य ऋषिः वर्तते। 16. “कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌'' इस सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये?,"१६. ""कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" दक्षिण का आदि और अन्त किस सूत्र से उदात्त होता है?,दक्षिणस्य आदिः अन्तः च केन सूत्रेण उदात्तः भवति ? "(मनुस्मृतिः 11.216) प्रत्येक दिन प्रातः, मध्यान्ह तथा शाम के समय स्नान करना चाहिए पूर्णिमा में पन्द्रह मुटटी भोजन करके कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि से एक एक मुट्ठी भोजन कम करते जाना चाहिए।",(मनुस्मृतिः ११.२१६) प्रत्यहं प्रातः सायं मध्याह्णे च स्नानम्‌ कर्तव्यम्‌। पूर्णिमायां पञ्चदशमुष्टिपरिमितं भोजनं कृत्वा कृष्णपक्षस्य प्रतिपत्तिथेः चतुर्दशीपर्यन्तं प्रत्यहम्‌ एकमुष्टिपरिमितं भोजनं न्यूनं कर्तव्यम्‌। फिर भी वे अपने स्वरूप का चिन्तन करते हैं।,तथापि ते च स्वीयं स्वरूपमिति चिन्तयन्ति। जिन कर्मों से पुण्य उत्पन्न होता है वे पुण्यों के फलों को देकर के ही समाप्त होते हैं।,यावत्‌ कर्मणः पुण्यं जायते तावत्‌ पुण्यं फलं दत्वा समाप्तं भवति। "लेकिन क्रिया शक्ति विशिष्ट अन्तः करण का नाश नहीं होता है, इस कारण से प्राण उसी अवस्था में रुकता है इस प्रकार से यह अद्वैतवादियों का मत है।",किन्तु क्रियाशक्तिविशिष्टस्य अन्तःकरणस्य नाशः न भवतीति कारणात्‌ प्राणः तस्यामवस्थायां तिष्ठति एवेति अद्वैतिनां मतम्‌। लेकिन घटरूपावरण के कारण वह पृथक्‌ ही अनृूभूत होता है।,परन्तु घटरूपावरणवशात्‌ पृथक्‌ इति अनुभूयते। उस परमात्मा या पुरुष ही समस्त जगत्‌ का स्वामी है कोई और नहीं।,"स परमात्मा पुरुष एव जगतः सर्वम्‌, नान्यत्‌।" यहाँ उपमान और उपमेय में उपमान का ही पूर्व निपात होने पर उपमित का पूर्व निपात के विधान के लिए यह सूत्र बना है।,अत्र उपमानोपमेययोः उपमानस्यैव पूर्वनिपाते प्राप्ते उपमितस्य पूर्वनिपातविधानार्थम्‌ इदम्‌ । "पृथ्वी गवाम्‌ अश्वानां वयसः च विष्ठा, न भगं वर्चः दधातु।","पृथिवी गवाम्‌ अश्वानां वयसः च विष्ठा, न भगं वर्चः दधातु।" उन दोनों से पहले कोई भी पद नहीं है।,तयोः पूर्वं च किमपि पदं नास्ति। 186 इस कोश में बुद्धि प्रधान होती है।,१८६ कोशेऽस्मिन्‌ बुद्धिः प्रधानम्‌ भवति। उससे यहाँ यह सूत्र अर्थ यहाँ पास होता है - प्रकार आदि- शब्दों के द्वित्व होने से अन्य द्वित्व में पर के सभी अनुदात्त हो।,ततश्च अयं सूत्रार्थः अत्र लभ्यते- प्रकारादि- शब्दानां द्वित्वाद्‌ अन्यस्मिन्‌ द्वित्वे परस्य सर्वस्य अनुदात्तः स्यात्‌ इति। ऋषियो के द्वारा की गई स्तुति श्रद्धापूर्ण मन से इन्द्र के द्वारा सुनी गई ( श्रद्धामनस्या शृणुतेद भीतये )।,ऋषिभिः कृतं स्तोत्रं श्रद्धासमन्वितमनसा इन्द्रेण श्रुतम्‌ (श्रद्धामनस्याा शृणुतेदभीतये)। इसलिए विवेक चूडामणि में भी कहा है।,विवेकचूडामणौ अपि उक्तम्‌ । व्याख्या - उसने कहा।,व्याख्या - स होवाच। उदाहरण के द्वारा स्पष्ट होता है।,उदाहरणेन स्पष्टं भवति। औदुम्बर वृक्ष का देवता कौन है?,औदुम्बरवृक्षस्य देवता का? जिनका वर्णन किया गया है वो तो जानते हैं की न तो मैं आग हूँ और न ही मैं सिह हूँ।,स्तूयमानौ च जानीतः 'नाहं सिंहः” “नाहम्‌ अग्निः इति । "उप पूर्वक, नि पूर्वक से षद्‌ धातु से क्विप करने पर उपनिषद्‌ शब्द की उत्पति होती है।",उपपूर्वकात्‌ निपूर्वकात्‌ षद्धातोः क्विपि उपनिषच्छब्दस्य निष्पत्तिः। देवों में कौन मूल है इस विषय में यास्क और कात्यायन ने अपने अपने मत दिए है।,देवेषु को मूलः इति विषये यास्कः कात्यायनश्च स्वस्वमतानि प्रस्तुतवन्तौ। सूत्र अर्थ का समन्वय- स्वाहा इसका 'चादयोऽसत्त्वे' इस सूत्र से निपात संज्ञा है।,सूत्रार्थसमन्वयः- स्वाहा इति 'चादयोऽसत्त्वे' इति सूत्रेण निपातसंज्ञकः। परार्थ अभिधान परार्थाभिधान यह षष्ठी तत्पुरुष समास है।,परार्थस्य अभिधानं परार्थाभिधानम्‌ इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। वाक्‌ इन्द्रिय के ह्वारा निर्गत जिस अन्तःकरणवृत्युपहित चैतन्य से शब्दों का व्यवहार होता है।,वागिन्द्रियेण निर्गतेन येन अन्तःकरणतवृत्त्युपहितचैतन्येन शब्दजातं व्याहरति। आचार्योपसर्जनः यह अन्तेवासिनि इसका विशेषण है।,आचार्योपसर्जनः इति अन्तेवासिनि इत्यस्य विशेषणम्‌। 8. शार्ङ्गरवी प्रयोग की सिद्धिप्रक्रिया लिखो।,८. शार्ङ्गरवी इति प्रयोगस्य सिद्धिप्रक्रियां लिखत। और जो ये अन्न से बढ़ते है उनका भी स्वामी भी पुरुष ही है।,अपिच ये अन्नेन वर्धन्ते तेषामपि पुरुषोऽयम्‌ ईश्वरः। वह सम्बन्ध जब दृढता को प्राप्त हो जाता है तब चित्त ईश्वर के चिन्तन में लग्न हो जाता है।,स सम्बन्धः यावत्‌ दार्ढ्यं लभते तावत्‌ चित्तं ईश्वरचिन्तने लग्नं भवति। महामाया से मोहित होकर मधुकैटभ ने वर प्रदान को अङ्गीकार करके विष्णु के हाथ से अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण किया।,महामायाविमोहितौ मधुकैटभौ वरप्रदानाङ्गीकारेण विष्णुहस्ते स्वेच्छामृत्युवरणं कृतवन्तौ। “तत्पुरुषः समानाधि करणः कर्मधारयः इससे कर्मधारय संज्ञा होने पर प्रकृतसूत्र से पञ्चन्‌ संख्यापूर्वपद से पञ्चगण शब्द से द्विगु समास होता है।,"""तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः"" इत्यनेन कर्मधारयसंज्ञायां प्रकृतसूत्रेण पञ्चन्‌ इति संख्यापूर्वत्वाद्‌ पञ्चगव इत्यस्य द्विगुसमासः भवति।" अपूर्वम्‌ इसका अविद्यमान पूर्व से यह अर्थ है।,अपूर्वम्‌ इत्यस्य अविद्यमानपूर्वण इत्यर्थः। इस प्रकार यहाँ यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - ब्राह्मण नामधेय गोष्ठज शब्द का प्रत्येक स्वर क्रम से उदात्त होता है।,एवम्‌ अत्र अयं सूत्रार्थः लभ्यते ब्राह्मणनामधेयस्य गोष्ठजशब्दस्य प्रत्येकं स्वराः उदात्ताः भवन्ति इति। इसलिए संसारबन्धन का हेतु मन ही होता है।,अतः संसारबन्धहेतुः मन एव। “पत्यावैश्वर्ये” इसकी यहाँ अनुवृति आती है।,"""पत्यावैश्वर्ये"" इति अनुवर्तते।" "शब्द संख्या- १५३८२६, अक्षर संख्या- ४३२०००। सभी मन्त्र चौदह छन्दों में विभक्त हैं ऐसा जानना चाहिए।","शब्दसंख्या- १५३८२६, अक्षरसंख्या- ४३२०००। सर्वेऽपि मन्त्राः चतुर्दशसु छन्दःसु विभक्ताः इति बोध्यम्‌।" कर्मधारय यह सप्तम्यन्त पद है।,कर्मधारये इति सप्तम्यन्तं पदम्‌। इसलिए वह तदसमसत्ता विवर्त इस प्रकार से कहलाता है।,तदसमसत्ताकः विवर्त्त इति वा । ये प्रत्येक दो प्रकार से विभाजित होते है।,एतानि भूतानि प्रत्येकं द्विधा विभज्यते। पूर्वशब्द का दिशावाचक पूर्वशाला का दिव-पूर्वपद से इसके बाद भव अर्थ में प्रकृतसूत्र से ञप्रत्यय होता है।,पूर्वशब्दस्य दिग्वाचकत्वात्‌ पूर्वशाला इत्यस्य दिक्पूर्वपदत्वात्‌ ततः भवार्थे प्रकृतसूत्रेण ञप्रत्ययो भवति । आपद्यासै - आङऱपूर्वक पद्‌-धातु से लेट मध्यमपुरुष एकवचन में।,आपद्यासै - आङ्पूर्वकात्‌ पद्‌ - धातोः लेटि मध्यमपुरुषैकवचने। अव्ययीभाव में प्रायः पूर्वपदार्थप्रधान होता है।,अव्ययीभावश्च प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानो भवति। इस वार्तिक से अर्थ शब्द से चतुर्थी अन्त गते पद को नित्य समास होता है अन्यथा विभाषा अधिकार से अर्थ से समास में विकल्प की आपत्ति होनी चाहिए।,"अनेन वार्तिकेन अर्थशब्देन चतुर्थ्यन्तस्य नित्यसमासो विधीयते, अन्यथा विभाषाधिकारात्‌ अर्थेन समासे विकल्पापत्तिः स्यात्‌।" दान आदि के द्वारा यश से युक्त होकर वीर के समान विशेष रूप से पुत्र सेवक आदि द्वारा वीर पुरुष के समान सुख को प्राप्त करो।,यशसं दानादिना यशोयुक्तं वीरवत्तमम्‌ अतिशयेन पुत्रभृत्यादिवीरपुरुषैः उपेतम्‌। चिह्न विहीन उदात्त होता है।,चिह्णविहीनः उदात्तः भवति। उससे विश्वदेवः यह रूप होता है।,तेन विश्वदेवः इत्येवं रूपं भवति। देवों का निवास स्थान विषय में निरुक्त में क्या कहा गया है ?,देवानां निवासस्थानविषये निरुक्ते किम्‌ उक्तम्‌ ? आतन्तरिक कुम्भक श्वास को अन्दर ग्रहण करके रोका जाता है तथा बाह्य कुम्भक में श्वास को बाहर निकाल कर रोका जाता है।,अन्तःप्रवेशनम्‌। कुम्भकश्च पूरितस्य वायोः अन्तः निरोधः। अपूर्वम्‌ इसका विद्यमान नहीं है पूर्व में यह अर्थ है।,अपूर्वम्‌ इत्यस्य अविद्यमानपूर्वम्‌ इत्यर्थः। श्री राम कृष्ण के आगमन से पहले लोग विश्वास द्वारा ही सदाचार तथा नैतिक उपदेशों को धर्मत्व के रूप में मानते थे।,श्रीरामकृष्णागमनात्‌ प्राक्‌ जनाः विश्‍श्वासपुरःसरम्‌ आचारानुष्ठानादिकं नैतिकोपदेशान्‌ च धर्मत्वेन मन्यन्ते स्म। उसके कर्म का वेदान्त की दृष्टि से विवेचन करना चाहिए।,तस्य कर्मणो वेदान्तदृष्ट्या विवेचनम्‌ इष्टम्‌। यहाँ पूर्वापरधरोत्तरम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अत्र पूर्वापराधरोत्तरम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तम्‌। सभी जगह सभी में आत्म होती है।,सर्वत्र सर्वेषु आत्मा वर्तते। प्रत्येक वेदो के पृथक्‌ पृथक्‌ ब्राह्मण प्राप्त होते है।,प्रत्येकं वेदनां पृथक्‌ पृथक्‌ ब्राह्मणानि प्राप्यन्ते। सोम के लिए आतिथ्येष्टि नामक इष्टी का विधान है यहाँ इस इष्टी में नौ मृत्क-पाल विष्णु को उद्देश्य करके पुरोडाश को अर्पण किये जाते हैं।,सोमस्य कृते आतिथ्येष्टिनामिकायाः इष्टेः विधानं वर्तते अस्मिन्‌ स्थले।अस्याम्‌ इष्टौ नवसु मृत्कपालेषु विष्णुम्‌ उद्दिश्य पुरोडाशः अर्प्यते। ` अथ द्वितीयां प्रागीषात्‌' इस सूत्र से द्वितीयाम्‌ इस पद का यहाँ अधिकार है।,'अथ द्वितीयां प्रागीषात्‌' इति सूत्रात्‌ द्वितीयाम्‌ इति पदम्‌ अधिकृतम्‌। इसलिए काम्य कर्मो को त्यागना चाहिए।,अतः काम्यानि त्यज्यन्ते। श्रेणि यह क्त प्रत्ययान्त भी नहीं है और क्तवतु प्रत्ययान्त भी नहीं है।,श्रेणि इति क्तप्रत्ययान्तमपि नास्ति क्तवतुप्रत्ययान्तमपि नास्ति। उन गए हुए को प्राप्त हो।,अयासो गन्तारः। """प्राक्कडारात्समासः"" अधिकृत किया गया है यहाँ।","""प्राक्कडारात्समासः"" इत्यधिक्रियते अत्र।" किन्तु लौकिक संस्कृत के छन्दों में यह बात नहीं है।,किञ्च लौकिकसंस्कृतस्य छन्दःसु इयं वार्ता नास्ति। “न निर्धारणे” (2.2.90 ) सूत्रार्थ-निर्धारण में षष्ठयन्त को सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।,न निर्धारणे॥ (२.२.१०) सूत्रार्थः - निर्धारणे षष्ठ्यन्तं सुबन्तं न समस्यते। प्रातिपदिक से ही उनकी प्रतीति होती है।,प्रातिपदिकेनैव तेषां प्रतीतिः भवति। उत्पन्न किया अर्थ है।,उत्पादितवानित्यर्थः। वह तत्वमसि इस प्रकार के महावाक्यों के अधीन होता है।,तच्च तत्त्वमसि अति महावाक्याधीनम्‌। 5. अद्वैतवेदान्त के मत में आकाश उत्पत्ति सम्भव है अथवा नहीं विचार कीजिए?,५. अद्वैतवेदान्तमते आकाशस्य उत्पत्तिः सम्भवति न वेति विचारयत ? उसके द्वारा आत्मोन्नति जल्दी होती है।,तेन एव आत्मोन्नतिः आशु भवति। "अर्थात्‌ हन्त इस शब्द से युक्त उपसर्ग पूर्वक को लोट्‌ विभक्त्यन्त अनुदात्त को विकल्प से होता है, किन्तु उत्तम पुरुष को नहीं होता है।",अर्थात्‌ हन्त इति शब्देन युक्तम्‌ उपसर्गपूर्वकं लोड्विभक्त्यन्तम्‌ अनुदात्तं विकल्पेन भवति किन्तु उत्तमपुरुषे न भवति इति। इसके बाद स्तोक ङसि मुक्‍त सु समास की प्रातिपदिक संज्ञा में “सुपो धातु प्रातिपदिकयोः'' इससे सुप्‌ का ङसि प्रत्यये और सु प्रत्यय का लोप होने पर पञ्चमी का अलुक्‌ विधायक सूत्र प्रवृत्त हुई है।,"ततः स्तोक ङसि मुक्त सु इति समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सुपः ङसेः सोश्च लुकि प्राप्ते पञ्चम्याः अलुग्विधायकं सूत्रं प्रवृत्तम्‌।" ऋत से ढके हुए मित्रवरुण का निवासस्थानभूत सूर्यमण्डल को मै देखता हूँ।,ऋतेन आच्छादितं मित्रावरुणयोः वासस्थानभूतं सूर्यमण्डलम्‌ अहम्‌ अपश्यम्‌। काम ही अनात्मफल का विषय होता है।,कामो हि अनात्मफलविषयः। इसलिए नाश के साम्य से अज्ञान का भी शरीर नाम होता है।,अतः नाशसाम्यात्‌ अज्ञानस्यापि शरीरमिति नाम। गौडपादाचार्य ने माण्डूक्यकारिका में कहा है कि- ““न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बन्धो न च साधकः।,"तथाहि गौडपादाचार्यः उक्तवान्‌ माण्डुक्यकारिकायां यत्‌ - ""न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बन्धो न च साधकः।" इस प्रकार दोनों पक्षों के मतानुसार आहुति प्रदान करनी होती है।,एवमेव पक्षद्वयस्य मतानुसारम्‌ आहुतिप्रदानं कर्तव्यं भवति। इसी प्रकार से लोक में जीवन्मुक्त भी देखे जाते है।,एवं जीवन्मुक्ता अपि दृष्टाः लोके। प्राण के और अपान के साथ।,प्राणेन अपानेन च सह। अतः पचति खादति इन दोनों के तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः पचति खादति इत्यनयोः तिङन्तयोः अनुदात्तं न भवति इति। वेद विहित कर्मो की व्यवस्था के लिए क्रम पूर्वक कल्प शास्त्र में कल्पना की।,वेदविहितानां कर्मणां व्यवस्थापनं क्रमपूर्वकं कल्पशास्त्रे कल्पितम्‌। परमात्मा का ज्ञान मन के द्वारा ही सम्भव है।,परमात्मनः ज्ञानं मनसा एव सम्भवति। कैवल्यफल ज्ञान में क्रियाफलार्थित्वानुपपत्ति होती है।,कैवल्यफले ज्ञाने क्रियाफलार्थित्वानुपपत्तेः। वृत्रपुत्रा - वृत्रः पुत्रः यस्याः सा यहाँ पर बहुव्रीहिसमास है।,वृत्रपुत्रा - वृत्रः पुत्रः यस्याः सा इति बहुव्रीहिसमासः। "षष्णां पूरणः इस अर्थ में “तस्य पूरणे डट्‌"" इससे डट्‌ प्रत्यय होने पर “षट्कतिकतिपयचतुरां थुक्‌” इससे थुक्‌ प्रत्यय होने पर षष्ठः रूप होता है।","षण्णां पूरणः इत्यर्थे ""तस्य पूरणे डट्‌"" इत्यनेन डटि ""षट्कतिकतिपयचतुरां थुक्‌"" इत्यनेन थुकि च षष्ठः इति रूपम्‌।" वैदिक वाङ्मय में भी अर्थ को दर्शाने के लिए अलङऱकारों का प्रयोग किया जाता है।,वैदिकवाङ्गये अर्थप्रतिपादनाय अलङ्काराणां प्रयोजनं विद्यते। ( घ ) अलौकिक विग्रह-व्याकरण प्रक्रिया सख्त सौकर करने के लिए राजपुरुषः इस वृत्ति का राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इस प्रकृति का विभक्ति प्रत्यय सहित प्रकट करना अलौकिक विग्रहः कहा जाता है।,(घ) अलौकिकविग्रहः - व्याकरणप्रक्रियासौकर्याय राजपुरुषः इति वृत्तेः राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इति प्रकृतेः विभक्तिप्रत्ययसहितं प्रकटनम्‌ अलौकिकविग्रहः कथ्यते। उत्तर पद में पर दिशावाचक के साथ समास का उदाहरण है पूर्वशालप्रियः समाहार वाच्य होने पर संख्यातत्पुरुष का उदाहरण है पञ्चगवम्‌।,उत्तरपदे परतो दिशावाचकेन सह समासस्योदाहरणं भवति पूर्वशालप्रियः इति । धन के होने पर ही पुरुष सम्पन्न होता है।,सति हि धने पुरुषाः सम्पद्यन्ते। "न, अनुदात्तं इन दो पदों की अनुवृति है।","न, अनुदात्तं पदद्वयमनुवर्तते।" सरलार्थ - इस पुरुष की महानता है कि यह पुरुष महिमा और ऐश्वर्य से बृहत्‌ है।,सरलार्थः- अस्य पुरुषस्य एवं महिमा यत्‌ अयं पुरुषः महिम्नः ऐश्वर्यात्‌ च वृहत्‌। अध्वराणाम्‌ इसका क्या अर्थ है?,अध्वराणाम्‌ इत्यस्य कः अर्थः? गुण से जो निषेध विहित है वह अनित्य है।,गुणेन यो निषेधो विहितः सोऽनित्यः। "इन्द्र का प्रिय पेयसोम है, अतः वह सोमपा कहलाता है।","इन्द्रस्य प्रियः पेयः भवति सोमः, अतः स सोमपा इत्युच्यते।" सुख दुःख के द्वारा जिसका मन विषादपूर्ण नहीं होता है।,सुखदुःखैः यस्य मनः विषादपूर्णम्‌ न भवति । अतः मोक्ष की दशा में भी वृत्ति के विद्यमान होने पर भी एक ही अद्वितीय तत्व अनुपपन्न होता है।,अतः मोक्षदशायां वृत्तेरपि विद्यमानात्‌ एकमेव अद्वितीयं तत्त्वम्‌ अनुपपन्नं भवति। अर्थशब्द से चतुर्थ्यन्त नित्यसमास और समास में विशेष्यलिङगता होती है।,अर्थशब्देन चतुर्थ्यन्तस्य नित्यसमासः समासे च विशेष्यलिङ्गता भवति। विषय विवेचना की दृष्टि से आरण्यक के साथ उपनिषद्‌ की भी समानता है।,विषयविवेचनस्य दृष्ट्या आरण्यकेन साकम्‌ उपनिषदः साम्यमस्ति। तथा भूखे के अन्दर धर्म भी नहीं होता है इस प्रकार से रामकृष्ण के द्वारा कह गया है।,अभुक्ते उदरे धर्मः न भवति इति श्रीरामकृष्णस्य उक्तिः। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार से एक बार इन्द्र प्रजापति के समीप जाकर उसकी स्तुति की उसकी प्रार्थना की।,ऐतरेयब्राह्मणानुसारेण एकवारम्‌ इन्द्रः प्रजापतेः समीपमेत्य तस्य माहात्म्यं प्रार्थयामास। लेकिन वह यदि धूली आदि मालिन्य से युक्त होता है तो लोहे का आकर्षण करने में असमर्थ होता है।,किन्तु तद्‌ धूल्यादिमालिन्ययुक्तं चेत्‌ लौहाकर्षणे असमर्थं भवति। और वृत्र भूमि पर गिरा।,किञ्च वृत्रः भूमौ पतितवान्‌। शाङ्ख्यायन आरण्यक का सार लिखिए।,शाङ्ख्यायनारण्यकस्य सारं लिखत। मधुना लौकिक रूप है।,मधुना । अज्ञाननाश से उसके कार्य संचितकर्म संशय तथा विपर्ययादि का भी नाश हो जाता है।,अज्ञाननाशात्‌ तत्कार्याणामपि सञ्चितकर्म-संशय-विपर्ययादीनां नाशो भवति उपमा आदि अलङऱकारों की उत्पति वैदिक काल में ही हुई।,उपमादीनाम्‌ अलङ्काराणाम्‌ अवतारणा वैदिककाले एव अभवत्‌। "और जो नित्य नहीं करते हैं, केबल कामना सिद्धि के लिए ही करते हैं उनके लिए तो काम्य है।","ये च नित्यं कर्म न कुर्वन्ति, कामनासिद्ध्यर्थमेव कुर्वन्ति तेषां कृते तु काम्यं कर्म इति उच्यते।" जगत का लय भी ब्रह्म में ही होता है।,जगतः लयः ब्रह्मणि एव भवति। "“उतत्वः पश्यन्‌ न ददर्श वाचं, जायेव पत्ये उषती सुवासा, द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया'' इस प्रकार अनेक वाक्य वेदों में है।","""उतत्वः पश्यन्‌ न ददर्श वाचं, जायेव पत्ये उषती सुवासा"", ""द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया"" इत्यादीनि अनेकानि वाक्यानि वेदेषु सन्ति।" शृणु इसका यह वैदिक रूप है।,शृणु इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। यहाँ कुत्सितानि यह प्रथमा बहुवचनान्त पद है और कुत्सन्नैः यह तृतीयाबहुवचनान्त पद है।,अत्र कुत्सितानि इति प्रथमाबहुवचनान्तं कुत्सनैः इति च तृतीयाबहुवचनान्तं पदम्‌ । "मैं ब्राह्मण हूँ, मैं पण्डित हूँ, यह मेरा घर है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकार से यह अहंता तथा ममता करता है।",अहं ब्राह्मणः अहं पण्डितः मम गृहं मम पुत्रः इत्येवम्‌ अहन्तां ममतां च करोति। श्रद्धिः श्रद्धा को कहते है।,श्रद्धिः श्रद्धा। वह विष्णु-प्रजापति-अग्नि-सोम आदि के लिए निवेदन की जाती है।,सा च विष्णु-प्रजापति-अग्नि-सोमानां कृते निवेद्यते। उपनिषदों के तात्पर्य का विचार जिन ग्रन्थों के द्वारा होता है वे वेदान्त पद के द्वारा बोध्य होते हैं।,उपनिषदां तात्पर्यविचारः यैः ग्रन्थैः क्रियते ते वेदान्तपदबोध्याः भवन्ति। जो यह सूर्य प्रत्यक्ष रुद्र का रूप है।,योऽसौ प्रत्यक्षो रुद्रो रविरूपः। विवर्त किसे कहते हैं और क्या उसका दृष्टांत है?,"को नाम विवर्तः, कश्च तस्य दृष्टान्तः।" प्रधान ब्राह्मण ग्रन्थों का वेद निर्देश सहित नाम लिखिए।,प्रधानानां ब्राह्मणग्रन्थानां वेदनिर्देशपुरःसरं नामानि लिखत। "इन्द्रियों के वैकल्य के कारण इन्द्रियजन्य ज्ञान में भ्रम, प्रमाद आदि उत्पन्न होते हैं परन्तु इन्द्रियातीत ज्ञान किसी दूषित इन्द्रिय से नहीं होता है।",इन्द्रियाणां वैकल्यवशात्‌ इन्द्रियजन्यज्ञाने भ्रमप्रमादादिकं सम्भवति परन्तु इन्द्रियातीतं ज्ञानं न केनापि दुष्टेन इन्द्रियेण भवति। टिप्पणी - विद्यमान नहीं है हिंसा जिसमे उसको अध्वर कहते है।,टिप्पणी - न विद्यते ध्वरः हिंसा अस्य इति अध्वरः। जल प्रलय आया।,आपुप्ल वे आगतः। मन के द्वारा ही सभी कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं।,मनसा एव सर्वाणि कर्मेन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणि स्वविषयस्य ग्रहणे समर्थानि भवन्ति। इस प्रकार हि युक्त तिङन्त अनुदात्त नहीं होता अनुकूलता गम्यमान होने पर यह सूत्र का अर्थ है।,एवञ्च हियुक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति अप्रातिलोम्ये इति सूत्रार्थः समायाति। श्रवण तथा मनन के द्वारा दृढनिश्चित अर्थ में उससे भिन्नविषयों से मन का स्थैर्य ही निदिध्यासन कहलाता है।,श्रवणमननाभ्यां दृढनिश्चिते अर्थ तद्भिन्नविषयेभ्यः अपकृष्टस्य मनसः स्थैर्यमेव निदिध्यासनम्‌। नमस्ते रुद्र ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,नमस्ते रुद्र ....इति मन्त्रं व्याख्यात। उसके ज्ञान के बिना वेद के अर्थ का ज्ञान करना कठिन है।,तद् ज्ञानम्‌ ऋते वेदार्थज्ञानं दुष्करम्‌। उपसर्जनम्‌ यह प्रथमा विभक्ति एकवचनान्त पद है।,उपसर्जनम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। “ समानाधिकरणः तत्पुरुषः “ विषय आश्रित टिप्पणी लिखो ।,समानाधिकरणः तत्पुरुषः - इति विषयमाश्रित्य टिप्पणीं लिखत। प्रकृति वर्णन के कितने भेद हैं। प्रत्येक भेद को लेकर टिप्पणी लिखिए।,प्रकृतिवर्णनस्य कति प्रकाराः। प्रत्येकं प्रकारम्‌ आश्रित्य टिप्पणीं विरचयत। इस प्रकार से यह व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है।,इति व्युत्पत्तिलब्धः अर्थः। विवेकानन्द ने वेदान्त के इस प्रकार के महात्म्य को जो व्यवहारिक तथा आध्यात्मिक जीवन का समझकर के तथा व्यवहारिक जीवन में इसका प्रयोग किस प्रकार से हो इस स्पष्टता का भी निरूपण किया।,विवेकानन्दवेदान्तस्य एतादृशं माहात्म्यं यत्‌ तत्‌ व्यवहारिकस्य आध्यात्मिकस्य च जीवनस्य प्राचीरं निराकृत्य व्यवहारजीवने एव आध्यात्मिकतायाः प्रयोगः कथं स्यात्‌ इति स्पष्टतया न्यरूपयत्‌। यहाँ पर यह भी प्रश्‍न उत्पन्न होता है कि उपासना के द्वारा साक्षात्‌ निर्विशेष ब्रह्म का साक्षात्कार होता है अथवा परम्परा के द्वारा।,समुदेति प्रश्नोऽत्र यद्‌ उपासनया साक्षात्‌ निर्विशेषब्रह्मसाक्षात्कारो भवति उत परम्परया। विकृतिया का दूसरा नाम अङऱगयाग है।,विकृतियागस्य अपरं नाम अङ्गयागः। सप्तदश अवयव (17) तथा सूक्ष्म शरीर का पूर्व में विचार किया जा चुका है।,सप्तदशावयवोपेतं सूक्ष्मशरीरमधिकृत्य पूर्वं विचारितम्‌। इस प्रकार यहाँ चञ्चा-शब्द की उपमानवाचक और संज्ञावाचक होने से प्रकृत सूत्र से उसके आदि में अच्‌ चकार से उत्तर अकार को उदात्त स्वर होता है।,एवमत्र चञ्चा-शब्दस्य उपमानवाचकत्वात्‌ संज्ञावाचकत्वाच्च प्रकृतसूत्रेण तस्य आदेः अचः चाकारोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरो भवति। "फिर उस जीवन्मुक्त पुरुष की ज्ञानोत्पत्ति के लिए पूर्व में जो कर्म किये हैं जन्मान्तरों में जो कर्म फल देने में अप्रवृत्त होते हैं, उनके कर्मों का नाश होता है।","पुनश्च तस्य जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य ज्ञानोत्पत्तेः पूर्वं यानि कर्माणि सन्ति, जन्मान्तरे च यानि कर्माणि फलदाने अप्रवृत्तानि सन्ति, तेषां कर्मणां नाशः भवति।" जिस देव से पूर्व सभी देव अग्रणीरूप से उत्पन्न हुए।,यश्च देवेभ्यः पूर्वः सर्वदेवाग्रणीः जातः। इस सूत्र से प्रकृतिस्वर का नियम किया गया है।,सूत्रेणानेन प्रकृतिस्वरः विधीयते। और प्राणियों के लिए उसके कर्तव्य भी प्रकाशित किये।,किञ्च प्राणिनां कृते तस्य कर्तव्यमपि प्रकाशितम्‌। 71. “नदीभिश्च इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"७१. ""नदीभिश्च"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" "अतः उदात्त स्थान में जो यण्‌ है, उसके पर अनुदात्त के इकार का प्रकृत सूत्र से स्वरित स्वर करने का विधान है।",अतः उदात्तस्थाने यः यण्‌ ततः परस्य अनुदात्तस्य इकारस्य प्रकृतसूत्रेण स्वरितस्वरः विधीयते। इन्द्रियों के द्वारा अर्थोपलब्धि।,इन्द्रियैः अर्थोपलब्धिः। वेद का मुख्य प्रयोजन ही वैदिक कर्मकाण्ड का और याग का यथार्थ अनुष्ठान है।,वेदस्य मुख्यप्रयोजनं हि वैदिककर्मकाण्डस्य यागस्य च यथार्थानुष्ठाम्‌। जैमिनी को किसने सामवेद पढ़ाया?,जैमिनीं कः सामवेदम्‌ अध्यापितवान्‌? "सूर्य जलता हुआ पत्थर का टुकडा है, जो आकाश में रखा हुआ है - “मध्ये दिवो निहितः पृश्नरश्मा'' इति ( ऋग्वेद ५/४७/३ )।","सूर्यः ज्वलितप्रस्तरखण्डः अस्ति यदाकाशे स्थापितः - ""मध्ये दिवो निहितः पृश्नरश्मा"" इति (ऋग्वेदः ५/४७/३)।" व्याख्या - चार त्रिष्टुभ।,व्याख्या - चतस्रस्त्रिष्टुभः। काम्य कर्म का त्याग किस प्रकार से करना चाहिए।,काम्यकर्मणः त्यागः कुतः कर्तव्यः। इस प्रकार यातवै इसके तवै-प्रत्ययान्त होने से उसका आदि स्वर यकार से उत्तर अकार और अन्त स्वर वकार से उत्तर ऐकार की एक साथ इस सूत्र से उदात्त संज्ञा हुई।,एवं यातवै इत्यस्य तवै-प्रत्ययान्तत्वात्‌ तस्य आदिः स्वरः यकारोत्तरः अकारः अन्तः स्वरः वकारोत्तरः ऐकारश्च युगपद्‌ अनेन सूत्रेण उदात्तसंज्ञकः। और ब्राह्मण ग्रंथो में कहा गया है - “इन्द्रो वै वृत्रं हत्वा नास्तृषीति मन्यमानः पराः परावतोऽगच्छत्‌' (एऐतरेयब्राह्मणे - ३.१५) इति।,तच्च दूरगमनं ब्राह्मणे समाम्नातम्‌ - 'इन्द्रो वै वृत्रं हत्वा नास्तृषीति मन्यमानः पराः परावतोऽगच्छत्‌'(ऐतरेयब्राह्मणे - ३.१५) इति। उदाहरण - यत्प्रपचति यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- यत्प्रपचति इति अस्य सूत्रस्य एकमुदाहरणम्‌। इस प्रकार वैदिकदेवो में भी अत्यधिकमहानता को धारण किये हुए यह विष्णु प्रसीद्ध ही है।,एवं वैदिकदेवेषु अत्यधिकं माहात्म्यं धत्ते अयं प्रसिद्धः विष्णुदेवः इति। कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव होता है।,कारणाभावे कार्याभावात्‌। इस प्रकार से यह अनुबन्ध की स्थिति होती है।,सः अनुबन्धः इति स्थितिः। विकल्प से समासान्त टच्‌ प्रत्यय विधायक यह सूत्र है।,विकल्पेन समासान्तटच्प्रत्ययविधायकमिदम्‌। यद्यपि उनमें कर्मकाण्ड बाहुल्यक मन्त्र प्रचूरता से प्राप्त होते है फिर भी आत्मतत्त्व प्रतिपादक मन्त्रों का महत्व भी कम नहीं है।,यद्यपि तत्र कर्मकाण्डभूयिष्ठा मन्त्राः प्राचुर्येण प्राप्यन्ते तथापि आत्मतत्त्वप्रतिपादकानां मन्त्राणां नाल्पं महत्त्वमस्ति। वह चित्तवृत्ति अखण्डब्रह्मगत अज्ञान का नाश करके अन्त में स्वयं भी नष्ट हो जाती है।,सा चित्तवृत्तिः अखण्डब्रह्मगतम्‌ अज्ञानं नाशयित्वा अन्तिमे स्वयम्‌ अपि नश्यति। महर्षि व्यास कवि ने जैमिनि को सामवेद पढ़ाया।,महर्षिः व्यासः कवये जैमिनये सामवेदमध्यापितवान्‌। "इसलिए ही सिद्धान्तलेश सङ्ग्रह में कहा गया है कि “अविनाशी वा अरे अयमात्मा इति श्रवणं जीवस्य तदुपाधिनिवृत्तौ प्रतिबिम्बभावापगमे अपि स्वरूपं न विनश्यति इत्येतत्परं न तदतिरिक्त्मूटस्थनामचैतन्यान्तरपरम्‌"" इस प्रकार से प्रतिबिम्ब की बिम्ब के अतिरिक्त कोई भी सत्ता नहीं होती है।",अतः एव सिद्धान्तलेशसङ्ग्रहे उच्यते “अविनाशी वा अरे अयमात्मा इति श्रवणं जीवस्य तदुपाधिनिवृत्तौ प्रतिबिम्बभावापगमे अपि स्वरूपं न विनश्यति इत्येतत्परं न तदतिरिक्तकूटस्थनामचैतन्यान्तरपरम्‌” इति। प्रतिबिम्बस्य बिम्बातिरिक्ता कापि सत्ता नास्ति। स्थूलात्मक जगत्प्रपज्च का स्वप्नस्थप्रपञ्च का तथा सूक्ष्मप्रपञ्च का सुषुप्ति अवस्था में लय हो जाता है।,स्थूलात्मकस्य जाग्रत्प्रपञ्चस्य स्वप्नस्थस्य सूक्ष्मप्रपञ्चस्य च सुषुप्तौ लयः भवति। यह अनुध्यान यजमानों को प्रेरणा देता है।,इदम्‌ अनुध्यानं यजमानेभ्यः प्रेरणां प्रयच्छति। याज्ञिक ऋषियों की स्तुति में हिरण्यगर्भ इस प्रकार वर्णित है -संसार की उत्पत्ति के समय प्रथम हिरण्यगर्भरूप परमात्मा ही आविर्भूत हुआ।,याज्ञिकानाम्‌ ऋषीणां स्तुतौ हिरण्यगर्भः इत्थं वर्णितः- संसारसृष्टिवेलायां अग्रे हिरण्यगर्भरूपेण परमात्मा एव आविर्भूतः। (अब) नौका को वृक्ष से साथ बाँध लो।,( अधुना ) नौकायाः वृक्षेण बन्धनं कुरु। विष्णुशब्द का अन्य अर्थ होता है क्रियाशील है।,विष्णुशब्दस्य अन्यः अर्थः भवति क्रियाशीलः। अगर द्रव्यत्व सत्व होता है दोनों और भी समान सजातीयत्व होता तो वैसा होने पर सजातीयत्वाभ्युगम सभी के सभी के द्वारा समानजातीयत्व होने से व्यर्थ ही होगा।,"ननु द्रव्यत्वं सत्त्वं च उभयत्रापि समानमिति सजातीयत्वमिति चेत्‌ तथा सति सजातीयत्वाभ्युपगमः व्यर्थः, सर्वस्य सर्वेण समानजातीयत्वात्‌।" धूमकेतु जिस प्रकार स्थित है उसी प्रकार यह धुआँ भी द्युलोक में व्याप्त रहता है।,धूमकेतुरिति तस्याभिधान्तरम्‌। 1 छान्दोग्योपनिषद्‌ में विद्यमान महावाक्य क्या है?,१. छान्दोग्योपनिषदि विद्यमानं महावाक्यं किम्‌? यह शब्द प्रमाण वेद के अस्तित्व को बताने में समर्थ नहीं है।,इदं शब्दप्रमाणं वेदस्य अस्तित्वं प्रतिपादयितुं न समर्थः। उसी का ही भोग काल में कुछ अनुभव किया जाता है।,तदेव भोगकाले किञ्चिदिव अनुभूयते। चोरों के घर में प्रवेश करते ही वह प्राणात्मा जाना जाए।,चौरे गृहं प्रविष्टे सति सः प्राणात्मा जानीयात्‌। जहा पर भूख प्यास जन्म मरण आदि की दुबारा आवृत्ति नही हो केवल संकल्पमात्र से ही अमृत आदिभोग प्राप्त हो उस प्रकार इसका अर्थ है।,यत्र क्षुत्तृष्णाजरामरणपुनरावृत्त्यादिभयं नास्ति संकल्पमात्रेण अमृतकुल्यादिभोगाः प्राप्यन्ते तादृशमित्यर्थः। पञ्‌चानुवाक के अन्त में श्सुधन्वने च (क. ३६) यहाँ पर नाभिमात्र में परिश्रित स्वाहाकार है।,पञ्चानुवाकान्ते 'सुधन्वने च' (क. ३६) इत्यत्र नाभिमात्रे परिश्रिति स्वाहाकारः। सूत्र की व्याख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम-अतिदेश-अधिकार छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्याख्या- संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम-अतिदेश-अधिकाराख्येषु षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। उस धन से ही तुम गायो और अपनी स्त्री को प्राप्त करो।,तेनैव धनेन त्वं गाः स्वस्त्रीः च प्राप्स्यसि । "उसे उसी प्रकार छोड़ दिया जाता है, जैसे वृद्ध घोडे को कोई नही खरीदते है, ठीक उसी प्रकार उसको भी कोई कुछ नही देते है।",इत्थं बुद्ध्या विमृशत्वात्‌ नाहं जरतः वृद्धस्य वस्न्यस्य। वस्नं मूल्यं तदर्हस्य अश्वस्येव कितवस्य भोगं न विन्दामि न लभे। वो ही सर्वप्रथम धर्म है।,स एव सर्वप्रथमः धर्मः। अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ इस सूत्र से किस स्वर की प्राप्ति होती है?,अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌ इति सूत्रेण कः स्वरः विधीयते? इसलिए श्रुति में कहा है।,तथा च श्रुतिः । ब्रह्मा मन से यज्ञ के अन्य पक्ष का संस्कार करता है।,ब्रह्मा मनसाऽन्यतरस्य पक्षस्य संस्कारं करोति| अनुदात्तस्य यह षष्ठी का एकवचनान्त पद है।,अनुदात्तस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌। एकान्त इसका अर्थ है निश्चयरूप से फलदायी।,एकान्त इत्यस्यार्थः निश्चयेन फलदायकः। उत्तरपद क्त प्रत्ययान्त भी है।,उत्तरपदं क्तप्रत्ययान्तमपि वर्तते। इसके बाद न लोपः प्रातिपदिकान्तस्ये सूत्र से युवन्‌ शब्द के नकार का लोप होता है।,ततः परं नलोपः प्रातिपदिकस्य इति सूत्रेण युवन्‌ इति शब्दस्य नकारस्य लोपः भवति। "यहाँ तीन पद है, उपसर्गः च अभिवर्जम्‌ ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।","अत्र त्रीणि पदानि सन्ति, उपसर्गः च अभिवर्जम्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः।" अत प्रकृत सूत्र से दिव्‌-शब्द के परे झलादि भिस प्रत्यय के उदात्त का निषेध करता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण दिव्‌-शब्दस्य परस्य झलादेः भिसः प्रत्ययस्य उदात्तत्वं निषिध्यते। उसके प्रमाण के लिए ये श्रुतियां हैं।,तत्र प्रमाणभूता श्रुतिर्हि - वसिष्ठ राम संवाद में जीवन्मुक्ति तथा विदेहमुक्ति के विषय में आलोचना देखी गई है।,वसिष्ठरामसंवादे जीवन्मुक्ति-विदेहमुक्तिविषये आलोचना दृश्यते। असम्प्रति अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण होता है अतिनिद्रम्‌।,असम्प्रत्यर्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति अतिनिद्रम्‌ इति। तभी मैं विनाश का अतिक्रमण करूंगी।,तेदैव अहं विनाशस्य अतिक्रमणं करिष्यामि। "उससे सूत्र का अर्थ होता है, उदात्त परे और स्वरित परे जो अनुदात्त, उसको 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर नहीं होता है, गार्ग्य-काश्यप-गालव ऋषियों के मत में तो होता ही है।","तेन सूत्रार्थो भवति उदात्तपरः स्वरितपरः च यः अनुदात्तः, तस्य 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इति सूत्रेण प्राप्तः स्वरितस्वरो न भवति, गार्ग्य-काश्यप- गालवानाम्‌ ऋषीणां मते तु भवत्येव इति।" यहाँ पर जगत्‌ पद के द्वारा सभी कार्यजात विविक्षित होता है।,अत्र जगत्पदेन सर्वं कार्यजातं विवक्षितम्‌। वह अतिसूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं होता है।,तच्च संस्कारात्मना अतिसूक्ष्मत्वात्‌ न प्रत्यक्षीभवति। इस सूत्र में ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ सूत्र से प्रातिपदिकात्‌ (5/1)पद की अनुवृत्ति आती है।,अस्मिन्‌ सूत्रे ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ इति सूत्रात्‌ प्रातिपदिकात्‌ (५/१) इति अनुवर्तते। इसलिए विवेक चूडामणि में यह कहा गया है कि बुद्धि जीव के पीछे-पीछे चलती है।,अत उच्यते बुद्धिः जीवमनुगच्छतीति। अनुव्रजच्चित्प्रतिबिम्बशक्तिः इति विवेकचूडामणौ। शरवे यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,शरवे इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। और वह उत्तम पुरुष से भिन्न है यह अर्थ है।,तस्य च उत्तमपुरुषभिन्नम्‌ इत्यर्थः। (गीता 17.25) तत्‌ ऐसे इस ब्रह्म के नाम का उच्चारण करके और कर्मो के फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ और तप रूप तथा दान अर्थात्‌ भूमि?,"(गीता १७.२५) तत्‌ इति अनभिसन्धाय, “तत्‌ इति ब्रह्माभिधानम्‌ उच्चार्य अनभिसन्धाय च यज्ञादिकर्मणः फलं यज्ञतपःक्रियाः यज्ञक्रियाश्च तपःक्रियाश्च यज्ञतपःक्रियाः दानक्रियाश्च विविधाः क्षेत्रहिरण्यप्रदानादिलक्षणाः क्रियन्ते।" ब्राह्मण विधियों की संख्या दस प्रकार की है ये किसका मत है?,ब्राह्मणविधीनां संख्या दशधा इति कस्य मतम्‌? इसके विधान के लिए वेद आज्ञा पालन के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान होने पर ही यथायोग्य हो सकता है।,एतद्विधाया वेदाज्ञायाः पालनं ज्योतिषशास्त्रज्ञाने सति एव यथायथं भवितुम्‌ अर्हति। जीव की कितनी अवस्थाएँ होती हैं?,जीवस्य अवस्थाः कति ? परन्तु उन जप आदि पदों का यहाँ ग्रहण के अभाव होने से और 'छन्दसि' इस पद का ही उल्लेख होने से उन जप आदि में प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक एकश्रुति नहीं होती है।,परन्तु तेषां जपादिपदानाम्‌ अत्र ग्रहणाभावात्‌ छन्दसि इति पदस्य एव च उल्लेखात्‌ न तेषु जपादिषु प्रकृतसूत्रेण वैकल्पिकम्‌ ऐकश्रुत्यम्‌। इस प्रकार उच्चारण करना।,इत्युच्चारणम्‌। विविदिषा संन्यास जो करता है वह विविदिषु कहलाता है।,विविदिषासंन्यासं यः करोति स विविदिषुः कथ्यते। पाँच वायु आकाशादियों के रजांशों से मिलकर के उत्पन्न होते है।,पञ्च वायवः आकाशादीनां रजोंऽशेभ्यः मिलितेभ्यः उत्पद्यन्ते। अश्व्यः किस सूत्र से यत्प्रत्यय हुआ?,अश्व्यः केन सूत्रेण यत्प्रत्ययः। अग्नि शब्द से नि प्रत्यय का विधान किससे होता हे?,अग्निशब्दात्‌ निप्रत्ययस्य विधानं केन भवति? इन दुःखों के सत्‌ होने के कारण में वेदान्त दर्शन दुःखों के नाश के लिए प्रवर्तित हुआ है।,सत्सु च एतेषु को वेदान्तेन दुःखनाशे प्रवर्तेत। "“क्तेन च पूजायाम्‌ सूत्रार्थ-' मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च '' इससे विहित जो क्त प्रत्यय है, उसस से षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।","क्तेन च पूजायाम्‌॥ सूत्रार्थः - ""मतिबुद्धिपूजार्थभ्यश्च"" इत्यनेन विहितः यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति।" "प्रमाण रूप में उपनिषद्‌, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता इत्यादि ग्रन्थ होते हैं।",प्रमाणम्‌ उपनिषद्‌ ब्रह्मसूत्रं भगवद्गीता इत्यादयो ग्रन्थाः। भर्ता कहता है वह नहीं लेकिन उसके पास में जो सबसे छोटा नक्षत्र दिखाई दे रह है वह अरुन्धती नक्षत्र है।,भर्तुः वचनमस्ति तन्न अरुन्धतीनक्षत्रमिति। तस्य समीपे यत्‌ अत्यन्तं लघुभूतमस्ति तदेव इति। यहाँ अक का कर्त्र्थकत्व के अभाव से “*तृजकाम्यां कर्तरि” यह सूत्र प्रवृत्त नहीं होता है।,"अत्र अकस्य कर्त्र्थकत्वाभावात्‌ ""तृजकाभ्यां कर्तरि"" इति सूत्रं न प्रवर्तते।" सायणाचार्यके मतमें अर्थ- १. यहाँ किं शब्द अनिर्ज्ञात स्वरूप है।,सायणाचार्यः - तस्य मतेन अर्थाः - १) अत्र किंशब्दोऽनिर्ज्ञातस्वरूपः। शरीर अङ्गि कहलाता है।,शरीरम्‌ अङ्गि कथ्यते। "स्वरूप से निष्काम ब्रह्मभूत भी अपने स्वरूप को भूलकर जो भिन्न नहीं है उसको भी भिन्न मानकर कामना, द्वेष अथवा कर्मो को करता है।",स्वरूपतो निष्कामा ब्रह्मभूता अपि स्वस्वरूपं विस्मृत्य अभिन्नमपि भिन्नं मत्वा कामयन्तः द्विषन्तो वा कर्माणि अनुतिष्ठन्ति। "सूत्र अर्थ का समन्वय- वध-यह शब्द उञ्‌छादिगण में पढ़ा हुआ है, अतः यहाँ प्रथम वाक्य में उस वध यहाँ पर धकार से उत्तर अकार को उदात्त स्वर होता है।",सूत्रार्थसमन्वयः- वध-इति शब्दः उञ्छादिगणे पठितः अतः अत्र प्रथमे वाक्ये तावत्‌ वध इत्यत्र धकारोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः। कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग तथा राजयोग।,"कर्मयोगः, ज्ञानयोगः, भक्तियोगः, राजयोगः च।" इस प्रकार अन्त उदात्त देव शब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में ' टिड्ाणजूढवयसज्दघ्नञ्‌मात्रच्तयप्ठक्ठञ्‌कजञ्‌क्वरपः' इस सूत्र से ङीप्प्रत्यय होने पर देव ङीप्‌ यह स्थिति होती है।,एवम्‌ अन्तोदात्तात्‌ देवशब्दात्‌ स्त्रीत्वविवक्षायां 'टिड्डाणञ्द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्तयप्ठक्ठञ्कञ्क्वरपः' इति सूत्रेण ङीप्प्रत्यये देव ङीप्‌ इति स्थितिः भवति। लेकिन जीवन्मुक्त की इन्द्रियाँ तथा लौकिक दृष्टि होती है।,किन्तु जीवन्मुक्तस्य सन्ति इन्द्रियादीनि इति लौकिकी दृष्टिः। आगम कहते हैं कि ब्रह्म ही सत्य है।,आगमश्च कथयति ब्रह्म एव सत्यमेकं । यज्ञ में सभी का अनुग्रह होता है हिंसा नहीं होती है।,यज्ञे हि सर्वस्य अनुग्रहः भवति न तु हिंसा। व्याख्या - पन्द्रहवे अध्याय के चयनमन्त्रों को समाप्त करके सोलहवें में शतरुद्रहोम के मन्त्र कहते है।,व्याख्या - पञ्चदशे अध्याये चयनमन्त्रान्‌ समाप्य षोडशे शतरुद्रियाख्यहोममन्त्रा उच्यन्ते। निरुपाधिक ब्रह्म का स्वरूप जानने के लिए ही इन अवस्थाओं का शास्त्रों में निरूपण किया है।,निरुपाधिकस्य ब्रह्मणः स्वरूपम्‌ अवगन्तुमेव एताः अवस्थाः निरूप्यन्ते शास्त्रे। "सूर्यमण्डल में मित्रावरुण की स्थिति "" चित्रं देवानामुदगादनीक चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः"" ""उद्वां चक्षुर्वरुण सुप्रतीकं देवयोः चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य"" इत्यादियों में प्रसिद्ध है।","सूर्यमण्डले मित्रावरुणयोः स्थितिः ""चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः"" ""उद्वां चक्षुर्वरुण सुप्रतीकं देवयोः चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य"" इत्यादिषु प्रसिद्धा।" और सूत्रार्थ होता है-'“पथिन्‌ शब्द से नञ्तत्पुरुष समास से विकल्प से समासान्त नहीं होते हैं।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""पथिन्शब्दान्तात्‌ नञ्तत्पुरुषसमासात्‌ विकल्पेन समासान्ताः न भवन्ति"" इति।" 11.5.1 ) तत्पद का वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ लोहपिण्ड तप्त होता है तो लोहे के जलने पर लौहपिण्ड तथा अग्नि में अभेद से प्रतीति होती है।,11.5.1) तत्पदस्य वाच्यार्थः लक्ष्यार्थः च- लौहपिण्डः तप्तः भवति चेत्‌ अयो दहतीति लौहपिण्डाग्न्योः अभेदेन प्रतीतिः भवति। सरलार्थ - सम्पूर्ण काल परिणाम प्रकाशमान पुरुष से ही उत्पन्न हुआ।,सरलार्थः - सम्पूर्णः कालपरिणामः प्रकाशमानपुरुषात्‌ उत्पन्नः। "नित्यकर्मविद्यानर्थक्यप्रसङ्ग, उपभोग के द्वारा ही प्रसूतफल के दुरुत कर्म की क्षयोपपत्ति होती है।","नित्यकर्मविध्यानर्थक्यप्रसङ्गश्च, उपभोगेनैव प्रसूतफलस्य दुरितकर्मणः क्षयोपपत्तेः।" क्योंकि यह कहा गया है 'श्रुतिप्राणाण्यात्‌ ' इसप्रकार से लेकिन उस प्रमाण के अदृष्टविषयत्व से वैसा भी नहीं होता है।,"यत्तु उक्तम्‌ “श्रुतिप्रामाण्यात्‌' इति, तन्न; तत्प्रामाण्यस्य अदृष्टविषयत्वात्‌।" 3. यज्जाग्रतो दूरमुदैति ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या लिखिए।,३. यज्जाग्रतो दूरमुदैति ... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। धातु से तिङ्प्रत्यय से तिङन्त पद होता है।,धातोः तिङ्प्रत्ययेन तिङन्तं पदं भवति। इट्‌ नहीं अनिट्‌ उस अनिट में इट्‌ से भिन्न में यह अर्थ है।,न इट्‌ अनिट्‌ तस्मिन्‌ अनिटि इड्भिन्ने इत्यर्थः। वाणी का कथन था कि जो बात तुम जानते हो उसका विज्ञापन मैं ही करता हूँ।,वाण्याः कथनम्‌ आसीत्‌- यत्त्वं जानासि तस्य विज्ञापनाम्‌ अहम्‌ एव करोमि। "शेषभाग में अनुष्टुप्‌ ८९८, पङिक्त ४९८, उष्णिक्‌ ६९८, बृहती ३७१ हैं।","शेषभागे अनुष्टुप ८९८, पंङ्क्तिः ४९८, उष्णिक्‌ ६९८, बृहती ३७१ वर्त्तन्ते।" यहाँ “अर्घ नपुंसकम्‌'' यह द्विपदात्मक है।,अत्र अर्धम्‌ नपुंसकम्‌ इति पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तम्‌। "सम अंशवाची नित्य नपुंसक लिङग में विद्यमान अर्धशब्द को अवयवन के साथ विकल्प से तत्पुरुष संज्ञा होती है, एकत्व संख्या विशिष्ट अवयवी पद है।","समांशवाची नित्यं नपुंसकलिङ्गे विद्यमानः अर्धशब्दः अवयविना सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति, एकत्वसंख्याविशिष्टः चेद्‌ अवयवी।" तब विषयवेराग्यादि के द्वारा चित्त का शमन करना चाहिए।,तदा विषयवैराग्यादिना चित्तं शमयेत्‌। 11. वेदोक्तमार्ग का अधिकारी के द्वारा किस प्रकार से अनुसरण करना चाहिए?,११. वेदान्तोक्तमार्ग एव कुतोऽनुसर्तव्यः अधिकारिणा। दधानाः - धा-धातु से शानच्य्रत्यय और टाप्‌ होने पर प्रथमाबहुवचन में दधाना: रूप बनता है।,दधानाः- धा-धातोः शानच्प्रत्यये टापि च प्रथमाबहुवचने दधानाः इति रूपम्‌। अग्नि शब्द में नकार से परे इकार उदात्त होता है।,अग्निशब्दे नकारात्‌ परः इकारः उदात्तः। "मन प्रज्ञान, विशेष ज्ञान का बोध कराता है।","मनः प्रज्ञानं , विशेषेण ज्ञानजजनकम्‌ इत्यर्थः।" योगियों की बाह्य शौच से स्वशरीर में घृणा तथा परशरीर के स्पर्श की अनिच्छा उत्पन्न होती है।,योगिनः बाह्यशौचसिद्धौ स्वशरीरे घृणा परशरीरस्पर्श अनीहा च उत्पद्यते। 14. किसके साथ नौका को रस्सी से बाँधा?,१४. केन सह नौकायाः रज्जुबन्धनं चकार? "नित्यकर्मों के अनुष्ठान से प्रत्यवाय की अप्राप्ति;तथा प्रतिषिद्ध के अकरण से अनिष्टशरीर की अनुपपत्ति, काम्यों को छोड़ने से इष्टशरीर की अनुपपप्ति, वर्तमान शरीर आरम्भक कर्मों को फलोपगों का क्षय होने पर पतित इस शरीर के पतित होने पर देहान्तर उपपत्ति और कारणाभाव से आत्मक के रागादि के अकरण में स्वरूपावस्थान ही कैवल्य अर्थात्‌ अयत्नसिद्ध कहलाता है।","नित्यानां कर्मणाम्‌ अनुष्ठानात्‌ प्रत्यवायस्य अप्राप्तिः, प्रतिषिद्धस्य च अकरणात्‌ अनिष्टशरीरानुपपत्तिः, काम्यानां च वर्जनात्‌ इष्टाशरीरानुपपत्तिः, वर्तमानशरीरारम्भकस्य च कर्मणः फलोपभोगक्षये, पतिते अस्मिन्‌ शरीरे देहान्तरोत्पत्तौ च कारणाभावात्‌ आत्मनः रागादीनां च अकरणे स्वरूपावस्थानमेव कैवल्यमिति अयत्नसिद्धं कैवल्यम्‌ इति।" एक ही वृत्ति जब नष्ट होती है तो तब चैतन्य प्रतिबिम्ब बिम्बभूत चैतन्य के साथ अभिन्न होता है।,एवमेव वृत्तिः यदा नश्यति तदा चैतन्यप्रतिबिम्बः बिम्बभूतेन चैतन्येन साकम्‌ अभिन्नः भवति। "इस प्रश्‍न के होने पर कहते है की पूर्व सूत्र से ही उप्‌ आदि उपसर्गो को आद्युदात्त होना सम्भव है, फिर भी उपसर्गो में अभि इस उपसर्ग को आद्युदात्त नहीं हो जाए इसलिए इस सूत्र को अलग पढ़ा गया है।","इति प्रश्ने सति उच्यते यत्‌ पूर्वसूत्रेण एव उपादीनाम्‌ उपसर्गानाम्‌ आद्युदात्तत्वं सम्भवति, तथापि उपसर्गेषु अभि इत्युपसर्गस्य आद्युदात्तत्वं न स्यात्‌ तदर्थं सूत्रमिदम्‌ उपन्यस्तम्‌।" "एक अन्य जगह भी कहा है -'होतुश्चित्‌ पूर्वं हविरद्यमाशते' यहां पत्थर के टुकड़े होता से पहले ही हवि का भोग करते है, ऐसा कहा है।",अन्यस्मिन्नपि एकत्र उच्यते-'होतुश्चित्‌ पूर्वं हविरद्यमाशते' इत्यत्र प्रस्तरखण्डाः होतुः प्राक्‌ एव हविः भुङ्क्ते इत्युच्यते। "उदात्त स्वर परे जिसका उस प्रकार के, अथवा स्वरित स्वर परे जिसका उस प्रकार के अनुदात्त स्वर का यह अर्थ है।","उदात्तस्वरः परं यस्य तादृशस्य, स्वरितस्वरः परं यस्य तादृशस्य वा अनुदात्तस्वरस्य इत्यर्थः।" पुनः अञन्तात्‌ का जातेः पद और अनुसर्जनात्‌ पद विशेषण होता है।,पुनः अञन्तात्‌ इत्यस्य जातेः इति पदम्‌ अनुपसर्जनात्‌ इति पदं च विशेषणं भवति। 3. यङश्चाप्‌ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या करो।,"३. ""यङश्चाप्‌"" इति सूत्रस्य सोदाहरणं व्याख्यां लिखत।" इस सूत्र से अव्ययीभाव समास होता है।,अनेन सूत्रेण अव्ययीभावसमासः विधीयते। इसमें कोई संशय नहीं है।,इत्यत्र नास्ति संशयः। उसका चतुर्थी एकवचन में सुकृते रूप बना।,तस्य चतुर्थ्यकवचने सुकृते इति रूपम्‌। ऋग्वेद में लगभग २०० सूक्तो में अग्नि की स्तुति प्राप्त होती है।,ऋग्वेदे प्रायः २०० सूक्तेषु अग्नेः स्तुतिः समुपलभ्यते। इन सूक्तों के अध्ययन से उस समय की राजनैतिक स्थिति का विशाल वर्णन प्राप्त होता है।,एतेषां सूक्तानाम्‌ अध्ययनेन तात्कालिकराजनैतिक्याः स्थित्याः विशदचित्रणं समुपलब्धं भवति। वहाँ अनुदात्तस्य यह षष्ठ्यन्त पद है।,तत्र अनुदात्तस्य इति षष्ठ्यन्तं पदम्‌। शत्रुओं पर फेंकने के लिए।,असितुं शत्रून्‌ क्षेप्नुमित्यर्थः। अधिगर्त्यः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,अधिगर्त्यः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। इस प्रकार से उस आनन्द का प्रिय मोद तथा प्रमोद के रूप में अनुभव होता है।,सच आनन्दः प्रियमोदप्रमोदैः अनुभूयते। "वे हैं वाक्‌, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ।",तानि च वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि। एतवै - इण्‌-धातु से तुमर्थक्‌ तवैप्रत्यय करने पर।,एतवै - इण्‌ - धातोः तुमर्थकतवैप्रत्यये । इस आरण्यक में दस परिच्छेद अथवा प्रपाठक हैं।,अस्मिन्‌ आरण्यके दश परिच्छेदाः अथवा प्रपाठकाः सन्ति। वैदिक काल के महर्षियों ने प्रकृति की लीला धारण करने के लिये विविध रूपों की कल्पना की है।,वैदिककालस्य महर्षयः प्रकृतेः लीलाः अवधारयितुम्‌ विविधानि रूपाणि कल्पितवन्तः। लौकिक वाक्यों में तो तात्पर्य का अर्थ प्रकारणादि समाझा जाता है।,लौकिकवाक्येषु तु तात्पर्यं प्रकरणादिना अवगम्यते। कामये - कम्‌-धातु से लट्‌ आत्मनेपद उत्तमपुरुष एकवचन में कामये यह रूप है।,कामये- कम्‌-धातोः लटि आत्मनेपदे उत्तमपुरुषैकवचने कामये इति रूपम्‌। ब्राह्मण मन्त्रों में वेदि तथा उसके ईटों का आध्यात्मिक रूप से व्याख्यान बहुत सुन्दरता से किया है।,ब्राह्मणमन्त्रेषु वेद्याः तथा तासाम्‌ इष्टिकाणाम्‌ आध्यात्मिकरूपतया व्याख्यानम्‌ अतीव सुन्दरतया कृतमस्ति। इसमें रुचशब्द का अर्थ क्या है?,इत्यत्र रुचशब्दार्थः कः। "उस ब्रह्म के कारण से ही अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्रमा उसके कारण से ही है।",अग्निः तदेव कारणं ब्रह्मैव आदित्यस्तदेव वायुस्तदेव चन्द्रमास्तत्‌ तदेव। प्रकृतियाग अगी है।,प्रकृतियागः अङ्गी। श्रवण केवल कानों के द्वारा वेदान्त के वाक्यों का श्रवण नहीं है।,श्रवणं वै न केवलं कर्णाभ्यां वेदान्तवाक्यानां श्रवणम्‌। जैसे ब्राह्मण ग्रन्थों में सामान्य प्रतिपाद्य विषयों से भिन्न विषयों का प्रतिपादन है तथा इनका भी है।,यथा ब्राह्मणग्रन्थेषु सामान्यप्रतिपाद्यविषयेभ्यो भिन्नविषयाणां प्रतिपादनं विद्यते तथा एतेषु अपि वर्तते। जिससे अपने मन में विरुद्ध युक्तियाँ उत्पन्न हो सकती है।,अथवा स्वमनसि एव विरुद्धाः युक्तयः आविर्भवितुम्‌ अर्हन्ति। उससे इस सूत्र के पदों का अन्वय है- गोष्ठजशब्दस्य ब्राह्मणनामधेयस्य अक्षरमक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति।,ततश्च अत्र सूत्रस्यास्य पदान्वयः भवति- गोष्ठजशब्दस्य ब्राह्मणनामधेयस्य अक्षरमक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति। इस व्याख्या के रचयिता देवराजयज्वा है।,अस्या व्याख्याया रचयिता देवराजयज्वा अस्ति। "जैसे इन्द्र वैकुण्ठ, लवसूक्त वागाम्भृणी इत्यादि।","यथैतदिन्द्रो वैकुण्ठः, लवसूक्तं वागाम्भृणीयम्‌ इति।" "छान्दोग्य श्रुति के द्वारा आकाश की उत्पत्ति प्रतिपादित नहीं की गई है, इस प्रकार से आकाश की उत्पत्ति नहीं होती है ऐसा नहीं है।","छान्दोग्यश्रुत्या आकाशस्योत्पत्तिः न प्रतिपाद्यते इत्यतः नास्त्येव आकाशस्योत्पत्तिरिति चेन्न," इस अध्याय में रुद्र पशुपति-शम्भु-शिव- शङ्कर-गिरिश- गिरिशन्त- शितिकण्ठ-नीलग्रीव-कपर्दि-आदि अनेक नामों से अलंकारित हैं।,अध्यायेऽस्मिन्‌ रुद्रः पशुपति-शम्भु-शिव- शङ्कर-गिरिश- गिरिशन्त- शितिकण्ठ-नीलग्रीव-कपर्दि-प्रभृतिभि बहुभिः नामभिः अलंकारितः। वह परम्परा इस प्रकार से है-,तथाहि परम्परा- स्थूल सूक्ष्म प्रपञ्च होता है।,स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चकारणं भवतीति कारणत्वम्‌। जैसे राजपुरुषः इस समास स्थान में अन्त्य अकार को उदात्त होता है।,यथा राजपुरुषः इति समासस्थले अन्त्यस्य अकारस्य उदात्तः विधीयते। इसी प्रकार अतिशयितो राजा अतिराजा यहाँ पर न समासान्त प्रत्यय हेै।,एवमेव अतिशयितो राजा अतिराजा इत्यत्र न समासान्तप्रत्ययः। इसलिए यहाँ अखण्डाकारवृत्ति अखण्डब्रह्म के साथ सम्बन्धवश चित्त का परिणाम विशेष होती है।,अतः अत्र अखण्डाकारवृत्तिः नाम अखण्डब्रह्मणा सह सम्बन्धवशात्‌ चित्तस्य परिणामविशेषः। "व्याख्या - वृत्र पुत्र है जिस माता का वह माता वृत्र पुत्रा कहलाती है, अन्तरिक्ष को ढक लेने वाले मेघ को पुत्र के समान उत्पन्न करने वाली अन्तरिक्ष भूमि भी जल को नीचें गिरा देती है मानो स्वयं मरती जाती है तब ऊपर की अन्तरिक्ष माता ऊपर ही रहती है और उसका पुत्र मेघ नीचे गिरता है तब बछडे सहित गाय के समान वह खण्डित वृत्र माता के नीचे ही गिरा रहता है।",व्याख्या- वृत्रपुत्रा वृत्रः पुत्रो यस्याः मातुः सेयं माता वृत्रपुत्रा नीचावयाः न्यग्भावं प्राप्ता हता अभवत्‌ पुत्रं प्रहाराद्रभितुं पुत्रदेहस्योपरि तिरश्ची पतितवतीत्यर्थः। निदिध्यासन की आध्यावस्था में सविकल्पक समाधि होती है।,निदिध्यासनस्य आद्यावस्थायां सविकल्पकसमाधिः भवति । निर्वकल्पक समाधि के अङ्ग रूप में कही गई यह सविकल्पक समाधि ही है।,निर्विकल्पकसमाधेरङ्गरूपेण उक्तः अयं समाधिस्तु सविकल्पक एव। उज्जिहते - उत्पूर्वक आत्मनेपदहा-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,उज्जिहते - उत्पूर्वकात्‌ आत्मनेपदिनः हा - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । वहाँ पर घटवृत्ति से घट रूपी अज्ञान का नाश होता है।,तत्र बुद्धिवृत्त्या घटगतम्‌ अज्ञानं नश्यति। और कहते है कि द्रव्यारम्भ में ही अनेक आरम्भ का नियम है तो परिणामी अभ्युपगम के कारण ऐसा भी नहीं है।,"ननु द्रव्यारम्भे एव अनेकारम्भकत्वनियम इति चेन्न, परिणामाभ्युपगमात्‌।" इसके बाद प्रथमा विभक्ति के निर्दिष्टता से उसके बोध्य का स्तोक ङसि इसका “' प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌'' इस सूत्र से पूर्व निपात होता है।,"ततः पञ्चम्यन्तस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्बोध्यस्य स्तोक ङसि इत्यस्य ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेन उपसर्जनत्वात्‌ पूर्वनिपातो भवति।" "34. ""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" ""अनश्च"" ये दो सूत्र नित्य टच्‌ प्रत्यय विधायक हेै।","३४. ""अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः"" ""अनश्च"" इति सूत्रद्वयं नित्यं टच्प्रत्ययविधायकम्‌।" वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी देव को उद्देश्य करके ही प्रयुक्त है।,वेदस्य प्रत्येकं मन्त्रः कमपि देवम्‌ उद्दिश्य एव प्रयुक्तः। वहाँ पर उसे मन की सहायता की अपेक्षा होती है।,मनसः साहाय्यं तत्रापेक्षते। यहाँ पूजायां नानन्तरम्‌ इस सूत्र से पचति इस तिङन्त के अनुदात्त का निषेध नहीं होता है।,अत्र पूजायां नानन्तरम्‌ इति सूत्रेण पचति इति तिङन्तस्य अनुदात्तत्वं न निषिध्यते। "देवों के स्थान भेद से तथा काल भेद से भु, अन्तरीक्ष तथा द्युलोक के देव होते है इसका विवरण इस पाठ में प्राप्त होता है।","देवानां स्थानभेदेन तथा कालभेदेन च भुवः, अन्तरिक्षस्य तथा द्युलोकस्य देवाः भवन्ति इत्यस्य विस्तरः अस्मिन्‌ पाठे प्राप्यते।" अध्याय के परमेष्ठिदेवप्रजापति ऋषि।,अध्यायस्य परमेष्ठिदेवप्रजापतय ऋषयः। 6. विदेहमुक्ति के बाद प्रारब्ध कर्मों का क्या होता है?,६.विदेहमुक्तेः अनन्तरं प्रारब्धकर्मणः किं भवति। गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र।,गृह्यसूत्राणि धर्मसूत्राणि च। इस प्रकार से वहिष्पवमान- स्तोत्र की स्तुति यहाँ उपलब्ध होती है (ता.६/८/५)।,अनेन प्रकारेण वहिष्पवमान- स्तोत्रस्य स्तुतिरत्र उपलब्धा भवति (ता.६/८/५)। बहुमास्यः- बहून्‌ मासान्‌ भृतः इस विग्रह में तद्धित अर्थ में द्विगुसमास करने पर और यप्‌ प्रत्यय करने पर बहुमास्यः यह रूप होता है।,बहुमास्यः- बहून्‌ मासान्‌ भृतः इति विग्रहे तद्धितार्थे द्विगुसमासे यप्प्रत्यये बहुमास्यः इति रूपम्‌। सुप्‌ इस पद का तदत्तविधि से सुबन्त प्राप्त होता है।,सुप्‌ इति पदस्य तदन्तविधिना सुबन्तम्‌ इति लभ्यते। 12. लक्षणा दो प्रकार की होती है।,१२. लक्षणा द्विविधा। विवेकानन्द के मत में योगियों के मतानुसार कितने चक्र होते हैं?,विवेकानन्दमते योगिनां मते मानवशरीरे कति चक्राणि सन्ति? अञ: प्रत्ययग्रहण है।,अञः इति प्रत्ययग्रहणम्‌ अस्ति। "इसलिए उसी पाप के निमित्त का प्रायश्चित्त दुःख ही फल होता है, जीवनादिनिमित्त होने पर भी नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःख जीवनादिनिमित्त के ही फलों को नित्य प्रायश्चित्त तथा नैमित्तिकत्वाविशेष से उत्पन्न करता है।","अथ तस्यैव पापस्य निमित्तस्य प्रायश्चित्तदुःखं फलम्‌ , जीवनादिनिमित्तेऽपि नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं जीवनादिनिमित्तस्यैवय फलं प्रसज्येत नित्यप्रायश्चित्तयोः नैमित्तिकत्वाविशेषात्‌।" इसलिए इस पुरुष के सहस्र शिर तथा सहस्र नेत्र और सहस्रपाद है।,तथाहि अस्य पुरुषस्य सहस्रं शिरांसि तथा सहस्रं नेत्राणि सहस्रं च पादानि सन्ति। देवेभिः इसका लौकिक रूप क्या है?,देवेभिः इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। दसवें प्रपाठक में नारायणीय उपनिषद्‌ है।,दशमे प्रपाठके नारायणीयोपनिषदस्ति। यहाँ द्युति अर्थ वाली या कान्ति अर्थ वाली ग्रहण की है।,अत्र द्युत्यर्थकः कान्त्यर्थो वा गृहीतः। (ब्र.सू. शा.भा.1.1.1) तात्पर्य पूर्व मीमांसा दर्शन प्रतिपाद्य विषय ही धर्मजिज्ञासा का होता है।,(ब्र.सू.शा.भा.१.१.१)तात्पर्यम्‌- पूर्वमीमांसादर्शनप्रतिपाद्यो विषय एव धर्मजिज्ञासायाम्‌ अन्तर्भवति। इसी प्रकार आगे भी देखना चाहिए।,एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्‌॥ इससे प्र य आ रुः यह सिद्ध होता है।,एतेन प्र य आ रुः इति सिध्यति। "सूत्र का अर्थ - हि से युक्त साकाङ्क्ष अनेक तिङन्त को भी अनुदात्त नहीं होता है, छन्द में।",सूत्रार्थः - हीत्यनेन युक्तं साकाङ्क्षमनेकमपि तिङन्तं नानुदात्तं भवति छन्दसि। वाणी देवताओं के कार्यों से प्रसन्न होकर उनके पास गई।,वाणी देवतानां कार्यैः प्रसन्ना भूत्वा तेषां पार्श्वेऽगमत्‌। हे भगवन्‌ धनुष की दोनों कोटियों में जयदायिनी हो।,हे भगवन्‌ धन्वनः द्वयोः कोट्योः स्थितां ज्यां । पदपाठ- या ते रुद्र शिवा तनूः अघारा अपापकाशिनीत्यपापकाशिनी॥,पदपाठः- या ते रुद्र शिवा तनूः अघोरा अपापकाशिनीत्यपापकाशिनी॥ "जिस पुरुष में श्रद्धा रूपी अग्नि विशेष आदर को प्राप्त होती है, वह पुरुषही अग्नि को प्रज्वलित कर सकता है अन्य दूसरा नहीं।",यदा हि पुरुषे श्रद्धा अग्निगोचर आदरातिशयो जायते तदैषः पुरुषः अग्नीन्‌ प्रज्वालयति नान्यदा। इस गाँव का उल्लेख काशिका में तथा वराहमिहिर के द्वारा रचित बृहत संहिता में (१४/४) प्राप्त होता है।,अस्य ग्रामस्योल्लेखः काशिकायां तथा वराहमिहिरेण रचितायाम्‌ बृहत्संहितायां (१४/४) प्राप्यते। उसके बाद में शास्त्र का उपादेय नष्ट हो जाता है।,ततः शास्त्रस्य उपादेयत्वं नश्यति। विवेकानन्द के द्वारा प्रचारित दर्शन का क्या लक्ष्य है?,विवेकानन्दप्रचारितस्य दर्शनस्य लक्ष्यं किम्‌ आसीत्‌? लेकिन अन्तःकरणवृत्ति रूपी अज्ञान का नाश होने पर फिर वह चेतन्य प्रकाशित हो जाता है।,परन्तु अन्तःकरणवृत्त्या अज्ञानावरणस्य नाशे तु पुनः चैतन्यस्य प्रकाशः भवति। यहाँ अमुष्य इति अन्तः ये वार्तिक में आये पदच्छेद है।,अत्र अमुष्य इति अन्तः इति वार्तिकगतपदच्छेदः। दोनों प्रकार से भोग्यवस्तुओं के अनित्यत्व के ज्ञान से उन अनित्यों में जो घृणा होती है।,उभयप्रकारेण भोग्यवस्तुनः अनित्यत्वस्य ज्ञानात्‌ तस्मिन्‌ अनित्ये या जुगुप्सा घृणा । किन्तु मित्र शब्द नित्यनपुंसक लिङ्गविशिष्ट अर्थ का वाचक है।,किन्तु मित्रशब्दः नित्यनपुंसकलिङ्गविशिष्टस्य अर्थस्य वाचकः अस्ति। "विश्वे देवाः ये सर्वदा बहुवचनान्त रूप में प्रयुक्त है, क्योंकि ये गोष्ठी वाचक और बहुदेवता वाचक शब्द है।","विश्वेदेवाः इति सर्वदा बहुवचनान्ततया व्यवह्नियते, यतो हि अयम्‌ गोष्ठीवाचकः बहुदेवतावाचकः च शब्दः।" ब्रह्म के प्रकाश के लिए वृत्तिविषयत्व मात्र अपेक्षित होता है।,ब्रह्मणः प्रकाशार्थं वृत्तिविषयत्वमात्रम्‌ अपेक्षितम्‌। पापः च असौ नापितः च इस लौकिक विग्रह में पाप सु नापित सु इस अलौकिक विग्रह में पाप सु इस सुबन्त को समानाधिकरण से कुत्स्यमान होने से नापित सु इस सुबन्त के साथ प्रा उक्त सूत्र से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,पापश्चासौ नापितश्चेति इति लौकिकविग्रहे पाप सु नापित सु इत्यलौकिकविग्रहे पाप सु इति सुबन्तं समानाधिकरणेन कुत्स्यमानेन नापित सु इत्यनेन सुबन्तेन सह प्रोक्तसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । वर्धत्‌ - वृध्‌-धातु से शतृप्रत्यय करने पर नपुंसकलिङ्गप्रथमा एकवचन में वर्धत्‌ रूप बना।,वर्धत्‌- वृध्‌-धातोः शतृप्रत्यये नपुंसकलिङ्गे प्रथमैकवचने वर्धत्‌ इति रूपम्‌। अग्निमुखा: देवाः इति क्यों कहा गया है ?,अग्निमुखाः देवाः इति कथमुच्यते ? जल को लाने वाली स्त्रियाँ भी उसके स्वरूप को देखती है।,जलहारिण्यो योषितोऽप्येनमदृशन्‌ पश्यन्ति। अग्नि से जैसे सूर्य का जन्म वैसे ही सूर्य से आदित्य का जन्म हुआ ऐसा तात्पर्य है।,अग्नेः यथा सूर्यस्य जन्म तथा सूर्यादपि आदित्यस्येति भावः। वहाँ पर योगी को रस का आस्वादन नहीं करना चाहिए।,योगी तत्र रसं नास्वादयेत्‌ । यहाँ पर अश्रुत पदार्थ नहीं होता है।,अत्र अश्रुतः पदार्थः नास्ति। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त शरीर तथा मन से कर्मों को कर्ता हुआ मनुष्य उनका फल प्राप्त करता ही है।,जन्मनः मुत्युं यावत्‌ शारीरं मानसं कर्म कुर्वाणो मानवः तत्फलं तु लभते एव। 3. जीवन्मुक्ति सभी सम्प्रदायों के द्वारा अङ्गीकार की गई हैं अथवा नहीं।,३. जीवन्मुक्तिः सर्वैः सम्प्रदायैः अङ्गीक्रियते वा? जब पुत्र उत्पन्न होता है तब बारह कपालों में पुरोडाश रखकर के वैश्वानरदेव के लिए देना चाहिए।,यदा पुत्रः जायते तदा द्वादशसु कपालेषु पुरोडाशं स्थापयित्वा वैश्वानरदेवाय दातव्यम्‌। तुलनात्मक दृष्टि से यह अपूर्ण ग्रन्थ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।,तुलनात्मकदृष्ट्या अपूर्णो ग्रन्थोऽयमतीव महत्त्वपूर्णमस्ति। इसलिए इस पाठ में जीवन मुक्ति कि सिद्धि के लिए युक्तियों का उपस्थापन किया जाएगा।,अतो पाठेऽस्मिन्‌ जीवन्मुक्तिसिद्ध्यर्थं युक्तय उपस्थापयिष्यन्ते। ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रं व्याख्यात। 38. लयविक्षेप का अभाव होने पर चित्तवृत्ति का रागादि वासना के द्वारा स्तब्धी भाव होना अखण्डवस्तु अनवलम्बन कषाय कहलाता है।,३८. लयविक्षेपाभावेऽपि चित्तवृत्तेः रागादिवासनया स्तब्धीभावात्‌ अखण्डवस्त्वनवलम्बनं कषायः। ( 2.6 ) “चतुर्थी तदर्थार्थबलिहित सुख रक्षितैः” (2.1.36 ) सूत्रार्थ-चतुर्थ्यन्त अर्थ के लिए जो तद्‌ वाची अर्थबलिहित सुख रक्षा के साथ चतुर्थ्यन्त सुबन्त को विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,(२.६) चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः॥ (२.१.३६) सूत्रार्थः - चतुर्थ्यन्तार्थाय यत्‌ तद्वाचिना अर्थबलिहितसुखरक्षितैः सह चतुर्थ्यन्तं सुबन्तं विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। अभिमाताम्‌ - अभि उपसर्ग मा-धातु से लङ प्रथम पुरुष द्विवचन में।,अभिमाताम्‌- अभ्युपसर्गात्‌ मा-धातोः लङि प्रथमपुरुषद्विवचने। अपितु वृत्ति के माध्यम से ही अज्ञान का नाश होता है।,अपि तु वृत्तिमाध्यमेन अज्ञानं नाशयति। इसी प्रकार से हस्त के अभाव में भी कोई जीवित रहता है।,एवं हस्ताभावेपि जीवति। "53. ""द्वन्द्वे घि"" ""अजाद्यन्तम्‌"" ""अल्पाच्तरम्‌"" ये सूत्र हैं।","५३. ""द्वन्द्वे घि"" ""अजाद्यन्तम्‌"" ""अल्पाच्तरम्‌"" इति सूत्राणि सन्ति।" कुश्च गतिश्च प्रादिश्च कुगतिप्रादयः कु. गति और प्र आदि कुगतिप्रादय इसमें इतरेतरद्वन्द्वसमास है।,कुश्च गतिश्च प्रादिश्च कुगतिप्रादयः इति इतरेतरद्वन्द्वसमासः । (गीता 9.21) अर्थात्‌ - वे सोमापान आदि के द्वारा पापरहित होकर पुण्यों के फल को लेकर के स्वर्ग लोक को जाते हैं।,(गीता ९.२१)अर्थात्‌ - ये सोमपानेन पूतपापाः शुद्धकिल्बिषाः पुण्यफलम्‌ आसाद्य सुरेन्द्रलोकं स्वर्गं गच्छन्ति । "जो मित्रवरुण की स्तुति करते है, वे स्तोता इनके अनुग्रह से राजपद को प्राप्त करते है।","ये तु मित्रावरुणयोः स्तुतिं कुर्वन्ति, ते स्तोतारः एतयोः अनुग्रहात्‌ राजपदं लभन्ते।" स्मृति आदि तो वेदमूल का ही प्रमाण को स्वीकार करते है।,स्मृत्यादयः तु वेदमूलकतया प्रामाण्यं भजन्ते। निर्गुण ब्रह्मोपासना में तो निदिध्यासन ही होता है।,निर्गुणब्रह्मविषयकम्‌ उपासनं तु निदिध्यासनमेव। 1 कऋग्वेद का महावाक्य कौन-सा है?,१. ऋग्वेदस्य महावाक्यं किम्‌? इसके बाद प्रकृतसूत्र से समास में उपसर्जनसंज्ञक का कृष्ण अम्‌ इसका पूर्व निपात होता है।,ततः प्रकृतसूत्रेण समासे उपसर्जनसंज्ञकस्य कृष्ण अम्‌ इत्यस्य पूर्वनिपातः भवति। भक्ति दो प्रकार की होती हे।,भक्तिर्हि द्विविधा। इसलिए उन कर्मों को शास्त्रों के माध्यम से जानता हुआ अथवा नहीं जानता हुआ भी जन्तु सुख के लाभ के लिए तथा दुःख के परिहार के लिए कर्मों का अनुष्ठान करता है।,अत एव तानि च कर्माणि शास्त्रतः जानन्‌ शास्त्रानध्ययनात्‌ अजानन्‌ वा जन्तुः सुखलाभाय दुःखपरिहाराय च कर्माणि अनुतिष्ठति। उसे आवृत्त होकर के निर्गुण ब्रह्म होता है।,तैरावृत्य वर्तते निर्गुणं ब्रह्म| द्युभिः यहाँ पर दिव्‌-शब्द से भिस्‌ यह प्रत्यय है।,द्युभिः इत्यत्र दिव्‌- शब्दात्‌ भिस्‌ इति प्रत्ययः वर्तते। "अन्वय का अर्थ - रुद्र हे रुद्रदेव, ते - आपका, या-जो, शिवा -कल्याणकारी, अघोरा -घोर उपद्रवो से रहित, अपापकाशिनी-सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी, तनू: -शरीर, तया- आपका, शन्तमया-अत्यंत सुख प्राप्त कराने वाली, तन्वा- शरीर से, नः- हमको, गिरिशन्त - हे गिरिश, सब और से सुख प्रदान कीजिए।","अन्वयार्थः- रुद्र हे रुद्रदेव, ते - तव, या - यः, शिवा - मङ्गलमयी, अघोरा - अभयप्रदायिनी, अपापकाशिनी - पूण्यप्रकाशिनी, तनूः- शरीरं, तया - भवता, शन्तमया - अतिशयसूखजनकेन, तन्वा - शरीरेण, नः - अस्मान्‌, गिरिशन्त हे गिरिश, अभिचाकशीहि अवलम्बनं कुरु।" इस सूत्र से विशेषण विशेष्य समास होता है।,अनेन सूत्रेण विशेषणविशेष्यसमासो विधीयते । उसी प्रकार से निर्विकल्पकसमाधि में अद्वितीयब्रह्माकाराकारिता चित्तवृत्ति का अवभासन नहीं होता है।,तथैव निर्विकल्पकसमाधौ अद्वितीयब्रह्माकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः अवभासो न भवति । पूर्वसूत्र से चादयोऽनुदात्ताः इस सूत्र से अनुदात्ताः इस प्रथमा बहुवचनान्त पद कौ प्रकृत सूत्र में अनुवृति आ रही है।,पूर्वसूत्रात्‌ चादयोऽनुदात्ताः इति सूत्रात्‌ अनुदात्ताः इति प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌ प्रकृतसूत्रे अनुवर्तते। अतः यह समास पञ्चमी तत्पुरुष कहा जाता है।,अतः अयं समासः पञ्चमीतत्पुरुषः इत्यभिधीयते। 4 इन अनुबन्धों में सबसे अन्यतम क्या है?,4. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः। जिनके ह्वारा ब्रह्म तथा आत्मा का ऐक्य समझा जाता है वह पाद विश्वादि कहलाते हैं।,पद्यते गम्यते अवगम्यते ब्रह्मात्मैक्यम्‌ एभिरिति पादाः विश्वादयः। "पुराणों के अनुसार वेदव्यास महोदय ने जिस शिष्य को अथर्ववेद पढ़ाया है उसका नाम सुमन्तु था ( श्रीमद्भागवत में १२/७/१-३,, वायुपुराण में ६१/४९-५३, विष्णुपुराण में ३/६/९-१३)।","पुराणानुसारेण वेदव्यासमहोदयः यं शिष्यम्‌ अथर्ववेदम्‌ अध्यापितवान्‌ तस्य नाम सुमन्तुः आसीत्‌ (श्रीमद्भागवते १२/७/१-३, वायुपुराणे ६१/४९-५३, विष्णुपुराणे ३/६/९-१३)।" आरण्यक का मुख्य विषय प्राणविद्या तथा प्रतीक उपासना है।,आरण्यकस्य मुख्यविषयः प्राणविद्या तथा प्रतीकोपासना अस्ति। अतः इन वेद मन्त्रों के अर्थ अनुभव से बाधित हैं।,अतः एतेषां वेदमन्त्राणाम्‌ अर्थः अनुभवेन बाधितः। इसलिए पूर्वार्जित संस्कारवश कभी चित्त का विक्षेप हो जाता है।,अतः पूर्वार्जितसंस्कारवशात्‌ कदाचित्‌ विक्षेपश्चित्तस्य भवेत्‌। "षष्ठी समास का अपवादभूत दो सूत्र हैं- ""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे""और “अर्धं नपुंसकम्‌''।","षष्ठीसमासस्य अपवादभूतं सूत्रद्वयं ""पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"" इति ""अर्धं नपुंसकम्‌"" इति च।" “उपपदमतिङ '' यह उपपदतत्पुरुष विधायक सूत्र है।,"""उपपदमतिङ्‌"" इति उपपदतत्पुरुषविधायकं सूत्रम्‌।" अथवा स्वृ (शब्दोपनापयोः) इससे ण्यत करने पर स्वर्यम्‌ यह रूप बनता है।,अथवा स्वृ (शब्दोपनापयोः) इत्यतः ण्यति स्वर्यम्‌ इति रूपम्‌। कुत्सितो राजा इस लौकिक विग्रह में किम्‌ सु राजन्‌ सु इस अलौकिक विग्रह में “कि क्षेपे” इस सूत्र से तत्पुरुष समास होता है।,"कुत्सितो राजा इति लौकिकविग्रहे किम्‌ सु राजन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे ""किं क्षेपे"" इत्यनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासो भवति।" उसका कोई भी कारण हो सकता है।,तस्य किमपि कारणम्‌ अस्ति। यज्ञ के प्रथम दिन ही यजमान पुरोहितों का अभिनन्दन करता है तथा दक्षिणा की प्रतिश्रुति देकर यज्ञ का नियोजन करता है।,यज्ञस्य प्रथमदिवसे एव यजमानः पुरोहितान्‌ अभिनन्दति अपि च दक्षिणायाः प्रतिश्रुतिं प्रदाय यज्ञे नियोजयति। जैसे - “गृणानि हव्यदातये इस पद में हकार के उपर विराम है।,यथा- 'गृणानि हव्यदातये' इत्यस्मिन्‌ पदे हकारस्योपरि विरामः। यहाँ यह विष्णु क्या है।,कोऽयमत्र विष्णु। इस इन्द्रसूक्त में इन्द्र के शौर्ययुक्त कार्यों का वर्णन है।,अस्मिन्‌ इन्द्रसूक्ते इन्द्रस्य शौर्ययुक्तानि कर्माणि वर्णितानि। शीघ्रकारी वा शुद्ध भाव से वह शुक्र प्रसिद्ध है।,शुक्रं शुक्लं तत्‌ प्रसिद्धम्‌। दशाङऱगुलम्शब्द का क्या तात्पर्य है?,दशाङ्कुलम्‌ इत्यस्य किं तात्पर्यम्‌। अब किसी भी अन्य मनुष्य को अपने पास में मत गिराओ।,अधुना कश्चिदपि अन्यः जनः अक्षमोहे मा पतेत्‌ । "यहाँ मनुष्यों के साथ अश्विन, मित्रावरुण आदि द्वारा राजा के चुनने का वर्णन है।","अत्र मानवैः सह अश्विन्‌, मित्रावरुणादिद्वारेण राज्ञः संवरणस्य वर्णनम्‌ अस्ति।" उसकी पत्नी इन्द्राणी या शची है।,तस्याः पत्नी इन्द्राणी अथवा शची । साधनमार्गों में भक्तियोग का माहात्म्य ही जो परमलक्ष्यभूत ईश्वर की प्राप्ति के लिए यहाँ पर सभी कौ अपेक्षा से सरल तथा स्वभाविक मार्ग है।,साधनमार्गेषु भक्तियोगस्य माहात्म्यं हि यत्‌ परमलक्ष्यभूतस्य ईश्वरस्य प्राप्तय अयं सवपिक्षया सरलः स्वाभाविकः च मार्गः। समासात्‌ का विशेषणत्व से तदत्तविधि में सामलोम्नः का सामलोमान्तात्‌ यह अर्थ होता है।,समासात् इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ तदन्तविधौ सामलोम्नः इत्यस्य सामलोमान्तात् इत्यर्थो भवति। "शत्रु के विनाश के लिए प्रार्थना के साथ सङ्ग्राम का तथा उसके उपयोगी साधनों का वर्णन है जैसे- रथ, दुन्दुभि, शङ्ख आदि का विशेष विवरण और संग्राम की दृष्टि से भी अथर्ववेद के महत्त्व को सूचित करते हैं।","शत्रूणां विनाशाय प्रार्थनया सह सङ्ग्रामस्य तथा तदुपयोगिनां साधनानां यथा- रथ, दुन्दुभि, शङ्खादीनां विशेषविविरणं साङ्ग्रामिकदृष्ट्या अपि अथर्ववेदस्य महत्तां सूचयति।" "सान्वयप्रतिपदार्थ - इद्‌ सर्व = समस्त प्रत्यक्षवर्तमान जगत्‌, यद्‌ भूतं = जो अतीतकालिकविश्व, यच्च भाव्यं = जो भविष्यत्कालिक जगत्‌, पुरुष एव = वो सब परब्रह्म परमात्मा ही है, (सः=पुरुषः) अमृतत्वस्य = अमरता का या मोक्ष का, ईशानः = स्वामी, उत = और भी, यत्‌ = जो कुछ भी, अन्नेन = भोज्य, पदार्थ से, अतिरोहति = वृद्धि को प्राप्त होता है, (तस्यापि ईशानः = स्वामी इत्याशयः) ।","सान्वयप्रतिपदार्थः - इदं सर्व= निखिलप्रत्यक्षवर्तमानं जगत्‌ , यद्‌ भूतं = यद्‌ अतीतकालिकं विश्वं, यच्च भाव्यं=यद्‌ भविष्यत्कालिकं जगत्‌, पुरुष एवऱतत्सर्वं परब्रह्म परमात्मा एव, (सःऱ्पुरुषः) अमृतत्वस्य=अमरतायाः, मोक्षस्य वा, ईशानः= स्वामी, उत=अपि च, यत्‌= यत्किमपि, अन्नेन= भोज्येन, अतिरोहति= वृद्धिं लभते, (तस्यापि ईशानः= स्वामी इत्याशयः) ।।" च पुन अर्थ में।,च पुनर्रर्थे। इन मन्त्रों को आधार करके आचार्य महीधर भाष्यकार ने भाष्य की रचना की।,एतान्‌ मन्त्रान्‌ आधारीकृत्य महीधरनामकः भाष्यकारः भाष्यं रचितवान्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ पश्य यह तिङन्त लोडन्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र पश्य इति तिङन्तं लोडन्तमस्ति। झयन्त अव्ययीभाव से पर समासान्त तद्धित को टच्‌ प्रत्यय विकल्प से होता है।,झयन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितः टच्‌ विकल्पेन भवति। 6॥ (स.वे.सि.सा.संग्रहः) अनुबन्धों के क्रम में भी कोई विशेषता होती है।,६॥ (स.वे.सि.सा.संग्रहः)अनुबन्धानां क्रमेऽपि अस्ति वा काचित्‌ विशेषता। अतः क प्रजापति की आख्या है।,अतः कारणात्‌ क इति प्रजापतिः आख्याते। विवेकानन्द स्वयं भले ही संन्यासी थे फिर भी उनका उपदेश सभी स्तरों के तथा सभी सम्प्रदायों के मानवों के लिए था।,विवेकानन्दः स्वयं यद्यपि सन्न्यासी आसीत्‌ तथापि तस्य उपदेशः सर्वस्तरीयाणां सर्वसम्प्रदायानां मानवानां कृते आसीत्‌। "यहाँ अजादिगण में पठित शब्दों के अन्य उदाहरण हैं-अजा, एडका, अश्वा, चटका, मूषिका, बाला, वत्सा, होडा, पाका, मन्दा, विलाता, क्रुञ्चा, उष्णिहा, देवविशा, ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा, कोकिला, दंष्ट्रा आदि।","अत्राजादिगणपठितशब्दानामन्यान्युदाहरणानि - अजा, एडका, अश्वा चटका, मूषिका, बाला, वत्सा, होडा, पाका, मन्दा, विलाता, क्रुञ्चा, उष्णिहा, देवविशा, ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा, कोकिला, दंष्ट्रा इति।" "ईशावास्य उपनिषद्‌ प्राचीन पद्य उपनिषद्‌ में स्थान युक्त नहीं है, उसका प्रमाण वाक्य लिखिए।","ईशावास्योपनिषदः प्राचीनपद्योपनिषदि स्थापनं न युक्तम्‌, तत्प्रमाणवाक्यं लिखत।" इस प्रकार से श्री रामकृष्ण देव ने अपने जीवन में वेदान्त के तत्वों का प्रयोग किया।,एवं श्रीरामकृष्णदेवः स्वकीयजीवने वेदान्ततत्त्वानां प्रयोगं चकार। यहाँ सूत्र का अर्थ है - रित्प्रत्ययान्त के उपोत्तम को उदात्त हो।,एवञ्च अत्र सूत्रर्थो भवति- रित्प्रत्ययान्तस्य उपोत्तमस्य उदात्तत्वं स्यात्‌ इति। एवं अवध रणे अर्थ में यावत्‌ इस अव्यय का सुबन्त से समर्थ के साथ समास संज्ञा होती है और वह समास अव्ययीभावसंज्ञक होता है यही सूत्रार्थ है।,"एवम्‌ ""अवधारणे अर्थे यावदित्यव्ययं सुबन्तेन समर्थन सह समाससंज्ञं भवति, स च समासः अव्ययीभावसंज्ञः भवती""ति सूत्रार्थः।" उनमें अधिकारी अन्यतम है।,तेषु अधिकारी अन्यतमः। जो कार्य करता है उसकी यह कर्तृत्व बुद्धि यह होती हैं कि में कार्य करता हूँ।,कार्यं यः करोति अस्ति तस्य कर्तृत्वबुद्धिः - अहं करोमि इति। फिर अज्ञान के कारण आत्मा इसे स्वयं का मानता है।,तथापि अज्ञानात्‌ स्वकीयं मनुते। इस जन्म में निषिद्धकर्म यदि प्रमादात्‌ पूर्वक हो जाए तो उससे जन्य पाप उत्पन्न नहीं हो इस प्रकार से कोई चाहता है तो उसके लिए प्रायश्चित का विधान किया गया है।,अस्मिन्‌ जन्मनि निषिद्धं प्रमादात्‌ कृतं चेत्‌ तेन जन्यं पापं न भवतु इति वाञ्छति चेत्‌ प्रायश्चित्तानि विधीयन्ते। 3. ऋग्वेद किसे कहते हैं?,३. ऋग्वेदः नाम किम्‌? 4. यूनस्ति सूत्र से ति प्रत्यय होता है।,४. यूनस्ति इति सूत्रेण तिप्रत्ययः विधीयते। तमप्‌-प्रत्यय अतिशय अर्थ में जाना जाता है।,तमप्‌-प्रत्ययेन अतिशयः गम्यते। जले हुए अङ्गार के समान ये नकश के ऊपर बैठे हुए अग्नि से रहित और इन्धन से रहित होने पर भी शीतस्पर्श वाले सन्त के हृदय में जुए के कारण प्राप्त पराजय से उनके हृदय में पराजय द्वारा उत्पन्न अग्नि जलती है।,दिव्याः दिवि भवा अपकृताः अङ्गाराः अङ्गारसदृशाः अक्षाः इरिणे इन्धनरहिते आस्फारे न्युप्ताः शीताः शीतस्पर्शाः सन्तः हृदयं कितवानामन्तः करणं निर्दहन्ति पराजयजनितसन्तापेन भस्मीकुर्वन्ति । "वैवस्वत- यम ने दिन, भूमि, समुद्र आदि के पास जाकर लोगों के मन परिवर्त्तन के लिये प्रार्थन की है - “यत्‌ ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम्‌।",वैवस्वत-यम-दिव-भूमि-समुद्रादीनां पार्श्वगतानां जनानां मनसां परिवर्त्तनाय प्रार्थनाऽस्ति- 'यत्‌ ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम्‌। सूत्र का अर्थ - गति अर्थ वाले लोट्‌ लकार युक्त लोडन्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः - गत्यर्थलोटा युक्तं लोडन्तं नानुदात्तम्‌। "वज्रधारी वह सभी राजाओं का, सभी मनुष्यों का शासक हुए।",वज्रधारी सः सर्वेषां नृपः सर्वेषां मनुष्याणां शासकः। त्रिपुर आदि तो उसके निमित्तभूत है।,त्रिपुरहरादयस्तु निमित्तभूताः। प्राचीन काल से आरम्भ करके चार्वाक आदि ऋषि तक वेद विरोधी सम्प्रदाय ने वेद की प्रमाणिकता का खण्डन करने के लिए अनेक युक्तियाँ सामने रखी।,प्राचीनकालाद्‌ आरभ्य चार्वाकप्रभृतयः वेदविरोधिनः सम्प्रदायाः वेदस्य प्रामाण्यं खण्डयितुं विविधाः युक्तीः समुपस्थापयन्ति। पकक्‍वावस्था में निर्विकल्प समाधि होती है।,पक्वावस्थायां च निर्विकल्पकसमाधिः भवति। "जैसे - “यद्वै यज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते शिथिलं तत्‌, यदृचा तत्‌ दृढमिति"" (तै.सं. ६/५/१०/३) परमेश्वर से सर्व प्रथम ऋचाओं का ही आविर्भाव हुआ है ऐसा वेद के पुरुष सूक्त में भी वर्णन किया गया है।","यथा- “यद्वै यज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते शिथिलं तत्‌, यदृचा तत्‌ दृढमिति” ।(तै.सं. ६/५/१०/३)परमेश्वरात्‌ सर्वप्रथमः ऋचामेवाविर्भावः अभवत्‌ इति पुरुषसूक्तेऽपि आम्नातम्‌।" "अधिकारी, विषय सम्बन्ध तथा प्रयोजन इस प्रकार से अनुबन्धों को क्रम से उपस्थापित करने में कोई नियम अवश्य है।",अधिकारि-विषय-सम्बन्ध-प्रयोजनानाम्‌ अनुबन्धानां क्रमेण उपस्थितौ कोऽपि नियमः अस्ति। इससे यह सुस्पष्ट होता है कि वाक्य में प्रत्येक पदों का स्वकीय अर्थ है।,एतेन इदं सुस्पष्टं यद्‌ वाक्ये प्रत्येकं पदानां स्वकीयः अर्थः अस्ति। "(ऋग्वेद ६/६४/३२) उ उषा अपने प्रकाश को वैसे ही विस्तृत करती है, जैसे गोपालक गोचर भूमि में अपनी गायों को फैलाता है।",(ऋग्वेदः ६/६४/३) उषा स्वप्रकाशं तथा प्रसारयति यथा गोपाः गोचारणभूमौ स्वकीयाः गाः प्रसारयन्ति। और आपके बाणों के लिए नमस्कार हो।,उतो अपि च ते तवेषवे बाणाय नमः। विभाषा छन्दसि इस सूत्र में विभाषा इस पद का ग्रहण कैसे किया है?,विभाषा छन्दसि इति सूत्रे विभाषा इति पदग्रहणं कथम्‌ ? 13. “कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"१३. ""कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" व्याख्या - अब पूर्वोक्त प्रश्‍न के उत्तर देखते हैं।,व्याख्या- इदानीं पूर्वोक्तानां प्रश्नानामुत्तराणि दर्शयति। इसी प्रकार स्थूल विवेचना के बाद विस्तृत विवरण है।,एवंविधस्य स्थूलविवेचनस्य पश्चात्‌ विस्तृतविवरणम्‌ अस्ति। उनमें अन्तिम पंद्रह अध्याय खिल रूप से प्रसिद्ध अर्वाचीन मानते है।,तेषु अन्तिमाः पञ्चदशाध्यायाः खिलरूपेण प्रसिद्धैः अवान्तरयुगीयाः मन्यन्ते। एवम्‌ यहाँ तात्पर्य यह है कि पाणिनी द्वारा जिनमें समाज संज्ञा की गई है वे ही समास पद माना जाना चाहिए।,एवमत्र तात्पर्य यत्‌ पाणिनिना सूत्रैः येषां समाससंज्ञा कृता ते एव समासपदबोध्याः। नहीं तो शान्त दान्त उपरति तितिक्षु इत्यादि गुण सम्पन्न वेदान्तसारादि ग्रन्थों के अध्ययन में अधिकारी होता है इस प्रकार को आपत्ति हो जाएगी।,अन्यथा शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः इत्यादिगुणसम्पन्नः वेदान्तसारादिग्रन्थाध्ययने अधिकारी इति आपत्तिः स्यात्‌। 18. शौच दो प्रकार का होता है बाह्य तथा आभ्यन्तर 19. मिट्टी जलादि के द्वारा बाह्यशरीर मल को दूर करना तथा पवित्र भोजन का ग्रहण करना बाह्य शौच होता है।,१८. शौचं द्विविधं बाह्यम्‌ आभ्यन्तरञ्च| १९. मृज्जलादिद्वारा बाह्यशरीरमलदूरीकरणं पवित्रभोज्यग्रहणञ्च बाह्यं शौचम्‌। उषा केवल बाहरी सौन्दर्य को ही प्रकाशित नहीं करती अपितु वह कवि के आन्तरिक सौन्दर्य को भी निरंतर प्रकाशित करती रहती है।,उषा केवलं बाह्यसौन्दर्यस्य एव प्रकाशिका नास्ति प्रत्युत सा कवेः आन्तरिकसौन्दर्यम्‌ अपि सुतरां प्रकाशयति। "इस प्रकार से 'ज्ञानात्कैवल्यप्राप्तिः' इत्यादि पुराणवचनों कौ, अनारब्ध पुण्यों को कर्मों की क्षय अनुपपप्ति भी होती हेै।",ज्ञानात्कैवल्यमाप्नोति' इति च पुराणस्मृतेः; अनारब्धफलानां पुण्यानां कर्मणां क्षयानुपपत्तेश्च। इस सूत्र में विधीयमान अव्ययीभाव अस्वपदविग्रह नित्यसमास होता है और इस सूत्र का उदाहरणों के अस्वपदविग्रह ही किया जाता है।,अनेन सूत्रेण विधीयमानः अव्ययीभावः अस्वपदविग्रहो नित्यसमासः।एवञ्च अस्य सूत्रस्य उदाहरणानाम्‌ अस्वपदविग्रहः एव क्रियते। वहाँ पर भी पूर्वकृत पुण्य का फलोपभोग होता है।,तत्रापि पूर्वकृतस्य पुण्यस्य फलोपभोगः भवति। पंद्रहवे अध्याय में क्या वर्णित है?,. पञ्चदशाध्याये किं वर्णितमस्ति? मन्त्र भाग ही संहिता शब्द से प्रयोग किया जाता है।,मन्त्रभाग एव संहिताशब्देन व्यवह्वियते। कारण यह है की गुरु ही अज्ञान का नाश करता है।,कारणं हि गुरुः अविद्यां नाशयति। केवल श्रवणादि के माध्यम से ही साक्षात्कार नहीं होता है।,केवलेन श्रवणादिना तत्त्वसाक्षात्कारः न भवति। सायण से पूर्ववर्ति होने से इस व्याख्या का तथा निरुक्त में विशेष महत्त्व है।,सायणात्‌ पूर्ववर्तित्वेन अस्या व्याख्यायाः तथा निरुक्तेः च विशेषं महत्त्वम्‌ अस्ति। जो भविष्य काल में फल देंगे जन्मजन्मान्तरों से सञ्चित वह कर्म फल सञ्चितकर्म कर्म कहलाता है।,यत्‌ भविष्यत्काले फलं प्रदास्यति जन्मजन्मान्तरसञ्चितं तत्‌ कर्मफलं सञ्चितकर्म इति उच्यते। निघंटु में वेद के कठिन शब्दों का संकलन है।,निघण्टौ वेदस्य कठिनशब्दानां समुच्चयः अस्ति। इन्द्र का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से अथवा परोक्षरूप से सभी देवों के साथ है।,इन्द्रस्य सम्बन्धः प्रत्यक्षरूपेण परोक्षरूपेण वा सर्वेः देवैः सह वर्तते। और बाण है जिसके पास ऐसा वह बाणवान्‌ (रूद्र) उसके बाण भी विफल हो जाए।,उतापि बाणवान्‌ बाणा अस्मिन्‌ सन्तीति बाणवान्‌ इषुधिः विशल्यो विफलोऽस्तु। जो आत्मा का अप्रिय होता है वह आत्मा का द्वेषी तथा जो सम्बन्धी होता है वह बन्धु होता है।,आत्मनः अप्रियः द्वेष्यः भवति। सम्बन्धी बन्धुः कथ्यते। अन्य स्थानों पर प्रसक्त अनुप्रसक्त भी कुछ विषय को जानना चाहिए।,अन्ये प्रसक्तानुप्रसक्ताः केचिद्‌ विषयाः अपि स्युरिति अवधेयम्‌। “संख्यापूर्वोद्विगुः'' ( 2.1.12 ) सूत्रार्थः -तद्धितार्थ और उत्तरपद समहार में इस सूत्र में उक्त तीनों प्रकार से संख्या पूर्व समास द्विगु समास (संज्ञा) होती है।,संख्यापूर्वो द्विगुः॥ (२.१.५२) सूत्रार्थः - तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च इत्यस्मिन्‌ सूत्रे उक्तः त्रिविधः संख्यापूर्वः समासो द्विगुसंज्ञो भवति। 5. आपूर्वक तन्तुसन्तानवेज्‌-धातु से क्तप्रत्यय करने पर।,5.आपूर्वकात्‌ तन्तुसन्तानात्‌ वेञ्‌-धातोः क्तप्रत्यये। मद्राणां समृद्धि इस लौकिक विग्रह में मद्र आम्‌ सु ऐसा अलौकिकविग्रह होने पर “अव्ययं विभक्ति” आदि सूत्र से समृद्धि अर्थ में विद्यमान सु इस अव्यय को मद्र आम्‌ इसके समर्थ से सुबन्त के साथ अव्ययीभावसमास संज्ञा होती है।,"मद्राणां समृद्धिः इति लौकिकविग्रहे मद्र आम्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे ""अव्ययं विभक्ती""त्यादि सूत्रेण समृद्ध्यर्थ विद्यमानं सु इत्यव्ययं मद्र आम्‌ इत्यनेन समर्थन सुबन्तेन सह अव्ययीभावसमाससंज्ञं भवति।" कृणोमि - कृधातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,कृणोमि - कृधातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌ । इसलिए गीता में कहा है क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।,तथाहि गीतावचन्‌ - क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। (पञ्चपादिका प्रथमवर्णकम्‌) मनन के द्वारा प्रमेय गत असम्भावना का निवारण होता है।,(पञ्चपादिका प्रथमवर्णकम्‌) मननेन प्रमेयगतासम्भावना निवर्तते। अविरुद्ध देवदत्तरूपपिण्ड का लक्ष्यत्व होता है।,अविरुद्धस्य देवदत्तरूपपिण्डस्य लक्ष्यत्वम्‌। हे अर्जुन केवल मुझे ही प्राप्त करने के बाद ही फिर से उत्पत्ति नहीं होती है।,हे अर्जुन ! माम्‌ एकम्‌ उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिः न विद्यते॥ व्याख्या - जिस मन में ऋग्वेद प्रतिष्ठित है।,व्याख्या - यस्मिन्‌ मनसि ऋचः प्रतिष्ठिताः। इसके बाद “आद्गुणः” इस सूत्र से पूर्व शब्द के वकार के उत्तर के अकार का इषुकामशमी इसका अकार और इकार का गुण एकादेश होने पर एकार के सर्व संयोग होने पर पूर्वेषुकामशमी रूप निष्पन्न होता है।,"ततः ""आदू गुणः"" इति सूत्रेण पूर्वशब्दस्य वकारोत्तरस्य अकारस्य इषुकामशमीत्यस्य इकारस्य च स्थाने गुणे एकादेशे एकारे सर्वसंयोगे पूर्वेषुकामशमी इति निष्पद्यते|" अग्निः यह अतिङन्त से परे तिङन्त ईळे यह पद है।,अग्निः इति अतिङन्तात्‌ परं तिङन्तम्‌ ईळे इति पदं वर्तते। अतः वेद के सही ज्ञान के लिए देवता ज्ञान आवश्यक है।,अतः वेदस्य सुष्ठु ज्ञानाय देवताज्ञानम्‌ आवश्यकम्‌। "यहाँ दूर से सम्बोधन होता है, तो ही प्रकृत सूत्र से उस सम्बोधन बोधक पद में एक श्रुति करने का विधान है, अन्यथा एक श्रुति नहीं होती है।","अत्र दूरात्‌ सम्बोधनं भवति चेत्‌ एव प्रकृतसूत्रेण तस्मिन्‌ सम्बोधनबोधके पदे एकश्रुतित्वं विधीयते, अन्यथा एकश्रुतित्वं न भवति।" वेदभाग का सूचक ब्राह्मण शब्द किस लिङग में होता है?,वेदभागस्य सूचकः ब्राह्मणशब्दः कस्मिन्‌ लिङ्गे भवति। इस प्रकार से चित्त का ज्ञेयात्म निश्चचलावस्थान समाधि का तात्पर्य रामतीर्थाचार्य के द्वारा अभिप्रेत हैं ।,एवं चित्तस्य ज्ञेयात्मना निश्चलावस्थानं समाधिरिति तात्पर्यं रामतीर्थाचार्यस्य अभिप्रेतम्‌। तस्तभाने - स्तम्भ्‌-धातु से कानच्‌ और टाप्‌ होने पर प्रथमाद्विवचन में तस्तभाने रूप बनता है।,तस्तभाने- स्तम्भ्‌-धातोः कानचि टापि च प्रथमाद्विवचने तस्तभाने इति रूपम्‌। "मुख्यार्थ का विरोध होने पर ही मुख्यार्थ से सम्बन्धित जो अर्थ श्रुत नहीं है, उसके अश्रुत अर्थ में लक्षणा होती है।","मुख्यार्थे विरोधे सति एव मुख्यार्थेन सम्बद्धः यः अर्थः श्रुतः नास्ति, तस्मिन्‌ अश्रुते अर्थ लक्षणा भवति ।" विष्णुशब्द विष्‌-धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थहोता है व्यापकशील।,विष्णुशब्दः विष्‌-धातोः निष्पद्यते यस्य अर्थो भवति व्यापनशीलः इति। इसका अर्थ है।,अस्यार्थः। अतः प्रकृत सूत्र से किरिकाणः यहाँ किरि यह अन्तोदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण किरिकाणः इत्यत्र किरि इति अन्तोदात्तं भवति। "गार्ग्य-काश्यप-गालव ऋषियों के मत में तो स्वरित का निषेध नहीं होता है, अपितु पूर्व सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर ही होता है।",गार्ग्य-काश्यप-गालवानाम्‌ ऋषीणां मते तु स्वरितस्य निषेधो न भवति अपि तु पूर्वसूत्रेण प्राप्तः स्वरितस्वर एव भवति इति। घट का रूप भी रूपहीन होता है।,घटरूपमपि रूपहीनं भवति। आभिचारिक मन्त्रों का प्रयोग शत्रुओं के नाश के लिए होता है।,आभिचारिकमन्त्राणां प्रयोगः शत्रूणां नाशाय भवति। कृष्णश्रितः रूप को सिद्ध करो?,कृष्णश्रितः इति रूपं साधयत। क्योंकि संस्कृत साहित्य में वेदों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है।,यतो हि संस्कृतसाहित्ये वेदा तुङ्गस्थानम्‌ अधिकुर्वन्ति। "उन सूत्रों के द्वारा कोई विशिष्ट स्वर का विधान नहीं करते हैं, अपितु साधारणों को ही स्वरों में विधान करते हैं उन सूत्रों से वे ही सूत्र हमारे इस पाठ में संगृहीत हैं।","तैः सूत्रैस्तु न कश्चित्‌ विशिष्टः स्वरः विधीयते, अपि तु साधारणान्‌ एव स्वरान्‌ विदधति तानि एव सूत्राणि अस्माभिः अस्मिन्‌ पाठे संगृहीतानि।" "सूत्र का अर्थ - अविद्यमान पूर्ववाले आहो उताहो से युक्त जो व्यवधान रहित तिङन्त है, उसको अनुदात्त नहीं होता है।",सूत्रार्थः - अविद्यमानपूर्वाभ्यां आहो उताहो इत्येताभ्यां युक्तम् अव्यवहितं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। यह नामरूपात्मक जगत्‌ उसके लिए नष्ट हो जाता है।,एतत्‌ नामरूपात्मकं जगत्‌ तस्य कृते नष्टम्‌। पुरः का क्या अर्थ है?,पुरः इत्यस्य कः अर्थः। अपने भावों को संस्कृत भाषा में लिखकर प्रकट कर सके।,स्वभावं संस्कृतभाषया लिखित्वा प्रकटयितुं शक्नोति। विष्णु के कितने कार्य है?,विष्णोः कतिधा क्रमणम्‌? "वहाँ - ऋग्वेद के कल्पसूत्र - आश्वलायन ,और शाङखायन।","तत्र-ऋग्वेदस्य कल्पसूत्रम्‌ - आश्वलायनम्‌, शाङ्खायनञ्चेति।" यजमान प्रार्थना करता है की - हे अन्नसम्पन्न बलशाली मित्रवरुण!,यजमानः प्रार्थयति यत्‌ - हे अन्नसम्पन्नौ बलशालिनौ मित्रावरुणौ! ईश्वर के साकारत्व तथा निराकारत्वप को समझने के लिए श्री रामकृष्ण देव के द्वारा एक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।,ईश्वरस्य साकारत्वं निराकारत्वं चावगमयितुं श्रीरामकृष्णदेवेन मनोज्ञम्‌ एकम्‌ उदाहरणं प्रदत्तम्‌- "जैसे - श्री सूक्त (सू.स. ११), रात्रि सूक्त (सूस. २६), मेधा सूक्त (सू स. ३१), शिवसङ्कल्प सूक्त (सू.स. ३३)।","यथा- श्रीसूक्तम्‌ (सू. स. ११), रात्रिसूक्तम्‌ (सू स. २६), मेधासूक्तम्‌ (सू. स. ३१), शिवसङ्कल्पसूक्तम्‌ (सू स. ३३)।" देवों का प्रकृत स्वरूप ब्रह्म ही है और ब्रह्म स्वयं प्रकाश स्वरूप है।,देवानां प्रकृतं स्वरूपं ब्रह्म एव। ब्रह्म च स्वयंप्रकाशः। "अन्वय - याम्‌ अश्विनौ अभिमाताम्‌, यस्यां विष्णुः विचक्रमे, यां शचीपतिः इन्द्र आत्मने अनमित्रां चक्रे, नः सा पृथ्वी माता ते पुत्राय पयः विसृजताम्‌। सरलार्थ - जिस पृथ्वी पर अश्विन कुमारों ने भ्रमण किया, जिसको विष्णु ने अपने पद चरणों से सुशोभित किया, जिसे शचीपति इन्द्र ने अपने लिए अशत्रू रहित बनाया, वह ही हमारी पृथ्वी माता हमारे लिए दुग्ध आदि धान्य प्रदान करे।","अन्वयः- याम्‌ अश्विनौ अभिमाताम्‌, यस्यां विष्णुः विचक्रमे, यां शचीपतिः इन्द्र आत्मने अनमित्रां चक्रे, नः सा पृथिवी माता ते पुत्राय पयः विसृजताम्‌। सरलार्थः- यस्याः पृथिव्याः अश्विनौ परिमापं चक्रतुः, यस्यां विष्णुः पादन्यासं चकार, यां शचीपतिः इन्द्रः स्वस्य कृते अशत्रूकृतवान्‌, सैव अस्माकं पृथिवीमाता अस्मभ्यं दुग्धं प्रयच्छतु।" "जिस मन के द्वारा यह सभी सब कुछ जाना गया है, और जिस मन से भूतकाल सम्बन्धी वस्तु, वर्तमानकाल सम्बन्धी वस्तु, और भविष्यत्काल सम्बन्धी वस्तु का ज्ञान होता है, जिस मन के द्वारा होतृमैत्रावरुण आदि सात होता युक्त अग्निष्टोमयज्ञ को विस्तृत करते है वह मेरा मन शुभसङकल्प से युक्त हो।","येन मनसा इदं सर्वं सर्वतः ज्ञातं , येन च मनसा भूतकालसम्बन्धि वस्तु , वर्तमानकालसम्बन्धि वस्तु , भविष्यत्कालसम्बन्धि वस्तु च परिगृह्यन्ते , येन मनसा होतृमैत्रावरुणादिसप्तहोतृयुक्तः अग्निष्टोमयज्ञः विस्तार्यते तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु।" 8. अत्यन्त वेगवान।,८. अतिजववद्वेगवत्‌। इत्यादि अर्थ कहते है।,इत्यादीन्‌ अर्थान्‌ वदति। यह इसका भाव है की यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है।,अयमस्य भावः यत्‌ अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। "आकाश की सृष्टि श्रुति को गौण भी नहीं समझ सकते है, क्योंकि उसके अभ्युपगम में कारण के अभाव से प्रतिज्ञा की हानि होती है ऐसा पूर्व में बताया भी जा चुका है।","न हि आकाशस्य सृष्टिश्रुतिः गौणी इति शक्यते अभ्युपगन्तुम्‌, तदभ्युपगमे कारणाभावात्‌, प्रतिज्ञाहानेश्चेति उपपादितं पूर्वम्‌।" बृहदारण्यक का उपनिषद्‌ कथन का क्या कारण है?,बृहदारण्यकस्य उपनिषदिति कथनस्य किं कारणम्‌? जीव ही पाप पुण्य आदि को उपार्जित करता है तथा उनके फलों को भोगता है।,जीव एव पापपुण्यादीनि उपार्जयति तत्फलं भुङ्क्ते च। फिर भी वह विषय समान ही होता है”।,तथापि विषयस्तु समान एव तिष्ठति” इति। कहाँ जाने के लिए और कोनसा पन्थ है?,कुत्र अयनाय। कश्च पन्थाः। "वेदत्रयी जहाँ अलौकिक फलदाता है, वहाँ अथर्ववेद लौकिक फलदाता है।",वेदत्रयी यत्र अलौकिकफलदाता अस्ति तत्र अथर्ववेदः लौकिकफलदाता अस्ति। वज्र के देव कौन है ?,वज्रस्य देवः कः ? जो विषयों में आसक्त होता है।,यो विषयेषु आसक्तो भवति । उसके बाद चतुर्थ मन्त्र में कहा गया है की जिसके द्वारा भूतभविष्य अतीतपदार्थो का ज्ञान होता है और सात होता विशिष्ट यज्ञको सम्पादित करता है।,ततः चतुर्थ मन्त्रे उक्तं यत्‌ येन भूतभविष्यदतीतानां पदार्थानां ज्ञानं भवति किञ्च सप्तहोतृविशिष्टः यज्ञः सम्पाद्यते। ज्ञाता ज्ञान तथा ज्ञेय इन तीनों का समूह त्रिपुटी कहलाता है।,ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयः इत्येतेषां त्रयाणां समाहार एव त्रिपुटी। "आतिथ्येष्टी के बाद प्रवर्ग्य नामक अनुष्ठान, और तदनन्तर उपसत्‌-इष्टी का अनुष्ठान किया जाता है।","आतिथ्येष्टेः अनन्तरं प्रवर्ग्यनामकम्‌ अनुष्ठानम्‌, तदनन्तरं च उपसत्‌-इष्टेः अनुष्ठानं क्रियते।" परन्तु सामान्य रूप से सुप्प्रत्यय अनुदात्त होते है।,परन्तु सामान्यतः सुप्प्रत्ययाः अनुदात्ताः भवन्ति। जो काम्य कर्म वर्णाश्रमकर्मरुप से प्राप्त होते हैं तो वो भी यदि निष्कामभावना से किये जाते हैं तो वे भी चित्तशुद्धिकारक होते है।,यः काम्यानि कर्माणि वर्णाश्रमकर्मरूपेण प्राप्तानि चेत्‌ तानि यदि निष्कामभावनया क्रियन्ते तर्हि तानि अपि चित्तशुद्धिकराणि भवन्ति। ' अनन्ताचार्य का यहाँ पर ही प्रथम उल्लेख हमको प्राप्त होता है।,अनन्ताचार्यस्य उल्लेखः अत्र प्रथमं एव अस्माकं प्राप्यते। "उदाहरण - इसका उदाहरण है - यस्मिन्‌ विश्वानि पौंस्या (ऋ.१.६.९) इति, सुते देधिष्व नश्चनः (ऋ.१-३-६) इति।","उदाहरणम्‌- अस्य उदहरणं भवति यस्मिन्‌ विश्वानि पौंस्या(ऋ.१.६.९) इति, सुते देधिष्व नश्चनः(ऋ.१-३-६)इति।" आपः - अपः का ये द्वितीयाबहुवचन में वैदिक रूप।,आपः- अपः इति द्वितीयाबहुवचनस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। ये प्रपाठक बहुत से अनुवाकों में विभक्त है।,इमे प्रपाठकाः बहुषु अनुवाक्षु विभक्ताः सन्ति। और जो योग यज्ञ में पूजनीय होकर के एकीभूत हो रहा हो।,यच्च यक्षं यष्टुं शक्तं यज्ञम्‌। यह सूत्र का अर्थ है - हस्वान्त अन्तोदात्त से और नुट्‌ प्रत्ययान्त से परे मतुप्‌ को उदात्त होता है।,ततश्च अयमत्र सूत्रार्थः भवति- ह्स्वान्तात्‌ अन्तोदात्तात्‌ नुट्प्रत्ययान्तात्‌ च परस्य मतुपः उदात्तत्वं भवति इति। संचित कर्मा में बहुत प्रकार के कर्म होते हैं।,संचिते बहूनि कर्माणि भवन्ति। दिन का देवता कौन है?,दिवसानां देवता का? और वह अष्टाङ्गमैथुन के त्याग से होता है।,स च अष्टाङ्गमैथुनवर्जनेन सम्भवति। स्तनकेशवती स्त्री होती है।,स्तनकेशवती स्त्री भवति। इसलिए पञ्चदशी के टीकाकार रामकृष्ण ने कहा है-,उच्यते च पञ्चदशीटीकाकारेण रामकृष्णेन - अन्नमयकोश में तन्मय होकर के जीव संसरण करता है।,अन्नमयेकोशे तन्मयो भूत्वा जीवः संसरति। क्योंकि देह मांस में लिप्त तथा पुरीष से पूर्ण होता है।,यतश्च सः देहः मांसेन लिप्तः पुरीषेण पूर्णश्च वर्तते। और जो योगारूढ होते हैं वे कोई विशिष्ट ही होते हैं।,ये च योगारूढाः तेषु अपि कश्चित्‌ विशिष्टः भवति। ” (13/12) इति।,” (१३/१२) वेवेकानन्द का यह सेवा भाव ही किसी साधक की आध्यात्मिक उन्नति के लिए तथा व्यावहारिक जीवन की उन्नति के लिए कल्पित है।,विवेकानन्दस्य अयं सेवाभावः यथा कस्यचित्‌ साधकस्य आध्यात्मिकजीवनस्य उन्नत्यै कल्पते तथैव व्यवहारजीवने अपि उन्नत्यै कल्पते। खलप्वि आशा इस स्वरित इकार के स्थान में यण्‌ किया है।,खलप्वि आशा इति स्वरितस्य इकारस्य स्थाने यण्‌ विहितः। इसके बाद कुत्सित अर्थ का वैयाकरण सु का पूर्वनिपात में सु का लोप होने पर निष्पन्न वैयाकरण खसूचि शब्द से सु प्रत्यय प्रक्रिया कार्य में वैयाकरण खसूचिः रूप निष्पन्न होता है।,ततः कुत्सितार्थस्य वैयाकरण सु इत्यस्य पूर्वनिपाते सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ वैयाकरणखसूचिशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये वैयाकरणखसूचिः इति रूपं निष्पन्नम्‌ । नित्य नैमित्तिक तथा प्रायश्चित कर्मो के अनुष्ठान से जिसके धर्माधर्म रूपी निखिल कल्मष निकल चुके हैं।,नित्यानां नैमित्तिकानां प्रायश्चितानां च कर्मणाम्‌ अनुष्ठानेन यस्य धर्माधर्मरूपाणि निखिलानि कल्मषाणि निर्गतानि। 8 सभी उपनिषदों का जीव तथा ब्रह्म ऐक्य प्रतिपादित ही तात्पर्य हे।,8 सर्वासाम्‌ उपनिषदां जीवब्रह्मणोः ऐक्यप्रतिपादने एव तात्पर्यम्‌। कूटस्थ नित्य तथा प्रवाह नित्य।,कूटस्थनित्यं प्रवाहिनित्यं च। रस्सी के खोलने पर पशु भी मुक्त हो जाता है।,रज्ज्वा विमोचनेन पशुरपि मोचितो भवति। विष्णु के निकट होने के लिये जो कोई भी प्रार्थना करता है तो वे प्रकट हो जाते है।,विष्णोः निकटे यत्‌ यत्‌ प्रार्थितं तदपि प्रकटितम्‌। देहमुक्ति के प्रमाण को यदा संरहते चायं कूर्मोऽङ्गानीव इत्यादि स्मृतियों के द्वारा समझा जाता है।,विदेहमुक्तः प्रमाणं तु यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव इत्यादिभिः स्मृतिभिः अवगम्यते। "“पदस्य', “पदात्‌', और ‹ अनुदात्तं सर्वमपादादौ ' तीन सूत्रों का अधिकार आ रहा है।","""पदस्य', ""पदात्‌, 'अनुदात्तं सर्वमपादादौ चेति सूत्रत्रयम्‌ अधिक्रियते।" "पुस्त्वम्‌, स्त्रीत्व, और नपुंसकत्व।","पुंस्त्वम्‌, स्त्रीत्वम्‌, नपुंसकत्वं चेति।" "देहादिसङ्गात में अह प्रत्यय गौण तथा मिथ्या नहीं हो, तो उस कार्य में गौणत्व की उपपत्ति के कारण ऐसा भी नहीं है।","देहादिसङ्घाते अहंप्रत्ययः गौणः, न मिथ्या इति चेन्न; तत्कार्येष्वपि गौणत्वोपपत्तेः।" पुरोहित इस दिन प्रत्यूषा पूत सलिल में अवगाहन करके सोम सवन करते हैं।,पुरोहिताः अस्मिन्‌ दिवसे प्रत्युषसि पूतसलिले अवगाहनं कृत्वा सोमसवनं कुर्वन्ति। इसलिए संन्यासी को भी नित्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए।,अतः संन्यासिना अपि नित्यानि अनुष्ठेयानि इति एवं ज्ञानेन सह कर्मापि कर्तव्यमेव। द्विपदात्मक इस सूत्र में “पथः'' पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,"पदद्वयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ ""पथः"" पञ्चम्येकवचनान्तं पदं।" 25. उदाहरण सहित लौकिक विग्रह का लक्षण लिखो?,२५. सोदाहरणं लौकिकविग्रहलक्षणं लिखत। और चक्षु से सूर्य भी उत्पन्न हुआ।,चक्षोः च चक्षुषः सूर्यः अपि अजायत। "स्मृति ग्रन्थों में वेद का उल्लेख है, इस कारण स्मृति ग्रन्थ वेद के अस्तित्व को प्रमाणिक करते ऐसा तो वहाँ पर भी दोष है।",स्मृतिग्रन्थेषु वेदस्य उल्लेखः अस्ति अतः स्मृतिग्रन्थाः वेदस्य अस्तित्वं प्रमाणयन्ति इति यदि उच्यते तर्हि तत्रापि दोषः अस्ति। उसके बाद वेदान्तसाधनानुकूल कर्म विभाग का प्रदर्शन किया गया है।,वेदान्तसाधनानुकूलम्‌ कर्मविभाजनं प्रदर्शितम्‌। ' *केवलाघो भवति केवलादी' यह हि त्याग मूलक वैदिक संस्कृति का महामन्त्र है।,'केवलाघो भवति केवलादी' अयं हि त्यागमूलकवैदिकसंस्कृतेः महामन्त्रोऽस्ति। स होवाचापीपर वै त्वा व्वृक्षे नावं प्रतिबघ्नीष्व तं तु त्वा मा गिरौ सन्तमुदकमन्तश्छैत्सीद्यावदुदकं समवायात्तावत्तावदन्ववसर्पासीति स ह तावत्तावदेवान्ववससर्प तदप्येतदुत्तरस्य गिरेर्मनोरवसर्पणमित्यौघो हताः सर्वाः प्रजा निरुवाहाथेह मनुरेवैकः परिशिशिषे॥ ६ ॥,स होवाचापीपरं वै त्वा व्वृक्षे नावं प्रतिबघ्नीष्व तं तु त्वा मा गिरौ स॒न्तमुदकमन्तश्छैत्सीद्यावद्यावदुदकं समवायात्तावततावदन्ववसर्पासीति स ह तावत्तावदेवान्ववससप्र्प तदप्येतदुत्तरस्य गिरेप्रमनोरवसर्पणमित्यौघो हताः सर्वाः प्रजा निरुवाहाथेह मनुरेवैकः परिशिशिषे ॥ ६ ॥ 9 विदेहमुक्त का क्या प्रमाण है?,९.विदेहमुक्तस्य प्रमाणं किम्‌? पृथ्वी किनको धारण करती है?,पृथिवी कान्‌ धारयति? `सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे” इस सूत्र से सुप्‌ पद की अनुवृत्ति हुई है।,"""सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सुप्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते।" और वो किए गए पाप के लिए पश्चाताप भी करते है।,परं च कृतस्य पापस्य कृते अनुशोचनं कुर्वन्ति। 5. निर्वोढा यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,५. निर्वोढा इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? "ऐलूषकवष ऋषि, त्रिष्टुप्‌ और ७ वे मन्त्र में जगती छन्द है, अक्ष ऋषि देवता है।","ऐलूषकवषः ऋषिः , त्रिष्टुप्‌ ७जगती च छन्दसी , अक्षः ऋषिः देवता ।" उन्हें किस प्रकार से करना चाहिए।,कथं ते कर्तव्याः। किन्तु ऋषियों के मुख से ही उनका सर्व प्रथम प्रकाश होने के कारण उसे ऋषियों का काव्य कहा जाता है।,किन्तु ऋषीणां मुखादेव प्रथमतया तेषां प्रकाशः अभवत्‌ इति ऋषीणां कवित्वम्‌। विशेष वचन यह सप्तमी एकवचनान्त समस्त पद है।,विशेषवचने इति सप्तम्येकवचनान्तं समस्तं पदम्‌। किसका अधिकारी यह प्रश्‍न उत्पन्न होता है।,कस्य अधिकारी इति प्रश्‍न उदेति। "वह जैसे ऋत्विग मंत्रों के द्वारा यज्ञ की रक्षा करते है उसी प्रकार तुम यज्ञ के द्वारा धरती की रक्षा करो, हे पालक, हे प्रकाशमान, हे अन्न के धाता अत्यधिक बलशाली हे मित्र हे वरुण हे मित्रावरुणौ तुम ऊपर कहे लक्षण वाले होने से पूजा में यागभूमि पर अन्त मध्य में रथ पर बैठते हो।","यथा ऋत्विक् मन्त्रोच्चारणेन यज्ञस्य रक्षणं करोति तथा भवान् यज्ञेन पृथिव्याः रक्षणं करोतु। हे पालक, हे प्रकाशमान, हे अन्नदाता अत्यधिक बलवान् हे मित्र, हे वरुण, हे मित्रावरुणौ भवन्तः पूर्वोक्त लक्षणयुक्ताः सन्तः अस्मिन् पूजायां यागभूमेः अन्त्ये तथा मध्ये रथे उपविशन्तु।" तब ““न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य'' इस सूत्र से राजन्‌ शब्द का नकार का लोप होने पर प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न होने से राजपुरुष शब्द से सु प्रत्यय होने पर प्रक्रियाकार्य में राजपुरुष रूप होता है।,"तदा ""न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य"" इत्यनेन सूत्रेण राजन्‌-शब्दस्य नकारस्य लोपे प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ राजपुरुषशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये राजपुरुषः इति रूपम्‌।" वैदिक वाङमय विषय में संक्षेप से लिखिए।,वैदिकवाङ्गयविषये संक्षेपेण लिखत। यजुर्वेद की सत्ताईस शाखाओं में कठ शाखा अद्वितीय है।,यजुर्वेदस्य सप्तविंशतिशाखासु कठशाखा अन्यतमा। अतः चादियों के परे गति से भिन्न उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है यह सूत्र का अर्थ आता है।,अतः चादिषु परेषु अगतेः उत्तरं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति सूत्रार्थः समायाति। अभेद के बोध होने से और वहाँ कहते है कार्यशब्द से कारण का अभिधान है।,अभेदबोधः खलु स्यात्‌ तत्रोच्यते कार्यशब्देन कारणस्य अभिधानम्‌। तथा सम्बन्ध किसका होता हे।,सम्बन्धः कयोः। आसन पद्मासनादि के सहायता से अधिक समय तक कम्पन रहित होकर बैठना होता है।,आसनं पद्मासनादिकं बहुक्षणं निष्कम्पतया उपवेशनसहायकम्‌। कर्मयोग का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान कर लेन पर ही मुमुक्षु ज्ञानयोग की कल्पना करते हैं।,कर्मयोगः सम्यग्‌ अनुष्ठितः चेत्‌ ज्ञानयोगाय मुमुक्षुः कल्पते। "श्लोक का यह अर्थ है कि ध्याता ध्यान का परित्याग करके जब चित्त ध्येयगत ही होता है तब ध्येय में निरवच्छिन्नता से निवातदी के समान रुकता हैं , वह ही समाधि कहलाती है।","श्लोकार्थो हि - ध्यातारं ध्यानं च परित्यज्य यदा चित्तं ध्येयगतमेव भवति, ध्येये च निरवच्छिन्नतया निवातदीवत्‌ तिष्ठति, सा स्थितिः समाधिः इत्युच्यते।" इसके पर “टे: सूत्र से बहुयज्वन्‌ शब्द के “टेः” सूत्र से अन्‌ का लोप होने पर बहुयज्व्‌ आ स्थिति होती है।,ततः परं टेः इति सूत्रेण बहुयज्वन्‌ इति शब्दस्य टेः अन्‌ इत्यस्य लोपे सति बहुयज्व्‌ आ इति स्थितिः जायते। ७ संस्थान को परीक्षा में उत्तर लेखन भाषा-संस्कृत (अनिवार्य) या हिन्दी ७ निर्देश भाषा (Medium of instruction)-संस्कृत।,७ संस्थानस्य परीक्षायाम्‌ उत्तरलेखनभाषा - संस्कृतम्‌ (अनिवार्यम्‌)७ निर्देशभाषा (Medium of instruction) - संस्कृतम्‌ जीवनमुक्ति के अनन्तर विदेह मुक्त का स्वरूप बताया जा रहा है।,जीवन्मुक्तेः अनन्तरं विदेहमुक्तेः स्वरूपम्‌ उच्यते। 6. शम से तात्पर्य है श्रवणादिव्यतिरिक्त विषयों से मन का निग्रह।,६. शमो हि श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यः मनसः निग्रहः। श्रृंगार रस के दो भेद कौन से है?,शृङ्गारस्य द्वौ भेदौ कौ? अतः यूपदारु यहाँ समास के होने पर भी प्रकृत सूत्र से यूप शब्द आद्युदात्त ही रहता है।,अतः यूपदारु इत्यत्र समासे सत्यपि प्रकृतसूत्रेण यूपशब्दः आद्युदात्तः एव तिष्ठति। "पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तथा आकाश ये सभी पञ्चमहाभूत उससे ही उत्पन्न होते हैं।",पृथिवी आपः तेजः वायुराकाशः चेति पञ्चमहाभूतानि तस्मादेव जातानि। आगे की सारणी में देखना चाहिए।,अग्रे सारण्यां द्रष्टव्यम्‌। “राजाह: सखिभ्यश्च'' इस सूत्र से टच्‌ प्रत्यय की अनुवृत्ति होती है।,"""राजाहःसखिभ्यष्टच्‌"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ टच्‌ इत्यनुवर्तते ।" दोनों शब्द अण्प्रत्ययान्त है।,शब्दद्वयम्‌ अण्प्रत्ययान्तम्‌। इस विषय में इस पाठ में विस्तार से आलोचना प्रस्तुत है।,इति विषये अस्मिन्‌ पाठे विस्तारेण आलोचना विद्यते। इस पाठ के अंश में मन्त्रों का पदपाठ का और व्याख्यान का अच्छी प्रकार से समावेश किया गया है।,अस्मिन्‌ पाठ्यांशे मन्त्राणां पदपाठानां व्याख्यानां च सम्यक्‌ समावेशो वर्तते। इसलिए प्रपञ्च मन में ही होता है।,अत एव प्रपञ्चः मनसि वर्तते। जिस प्रकार सादृश्य नाम तुल्यता।,यथार्थः सादृश्यं नाम तुल्यता। तिङो गोत्रादीनि कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः इस सूत्र का कुत्सन अर्थ में क्या उदाहरण है?,तिङो गोत्रादीनि कुत्सनाभीक्ष््ययोः इति सूत्रस्य कुत्सनार्थे किम्‌ उदाहरणम्‌। पांचवे प्रपाठक में किसका वर्णन है?,पञ्चमप्रपाठके कस्य वर्णनमस्ति? समाधि के विघ्नों के स्वरूप भी आलोचित होंगे।,समाधेः विघ्नानां च स्वरूपं आलोचितं भविष्यति। उसके पञ्चदशी में इस प्रकार से कहा गया है।,ततदुक्तं पञ्चदश्याम्‌। कर्मधारय संज्ञा होने पर सत्यांकृष्णा चतुर्दशी इस विग्रह में “पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु'' इस सूत्र से पूर्वकृष्णापद के कर्मधारय समास होने पर “पुवद्भाव प्रक्रिया में कृष्ण चतुर्दशी रूप सिद्ध होता है।,"कर्मधारयसंज्ञायां सत्यां कृष्णा चतुर्दशी इति विग्रहे ""पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु"" इत्यनेन सूत्रेण पूर्वपदस्य कृष्णापदस्य कर्मधारयसमासे पुंवद्भावे प्रक्रियाकार्ये कृष्णचतुर्दशी इति रूपं सिध्यति ।" अतः तदन्तविधि से अतिङन्त पद से यह अर्थ प्राप्त होता है।,अतः तदन्तविधिना अतिङन्तात्‌ पदात्‌ इत्यर्थः लभ्यते। “तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः”' इस सूत्र से तत्पुरुष इसको अनुवृति आती है।,"""तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः"" इति सूत्रात्‌ तत्पुरुषे इति अनुवर्तते।" "बारहवें अध्याय में बिल्व फल से मणि निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन है, काल का और स्वरूप का वर्णन है।","द्वादशतमाध्याये बिल्वफलेन मणिनिर्माणस्य प्रक्रियायाः, कालस्य तथा स्वरूपस्य च वर्णनमस्ति।" (मो.ध. 329. 40)1. ब्रह्मजिज्ञासा कब करनी चाहिए?,(मो.ध.३२९. ४०) १. ब्रह्मजिज्ञासा कदा कर्तव्या। उस प्रकार को बुद्धि के नाश होने पर तो कर्मानुगुण सृष्टि सम्भव ही नहीं होती है।,तादृशबुद्धेः नाशे कर्मानुगुणा सृष्टः नैव सम्भवति। चित्त शान्त है अथवा नहीं इसे किस प्रकार से जानना चाहिए।,चित्तं शान्तं न वेति कथं ज्ञातव्यम्‌। उसका लक्षण वेदान्तपरिभाषा में इस प्रकार से किया गया है।,तल्लक्षणम्‌ हि निगद्यते वेदान्तपरिभाषायाम्‌ । नपुंसक अन्नन्त अव्ययीभाव से पर समासान्त तद्धित संज्ञक टच्‌ प्रत्यय विकल्प से होता है।,नपुंसकाद्‌ अन्नन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययः विकल्पेन भवति। त्रयपदात्मक इस सूत्र में अव्ययीभाव में सप्तम्येकवचनान्त पद है।,पदत्रयात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे अव्ययीभावे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। तस्मादुक्तम्‌ - य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।,तस्मादुक्तम्‌ - य आत्मदा बलदा यस्य विशव उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। घट मध्यवर्ती आकाश महाकाश का ही अंश होता है।,घटमध्यवर्ती आकाशः महाकाशस्य एव अंशः। अगर केवल यह कहें की केवल ज्ञान से कैवल्य की प्राप्ति हो जाए तो वह भी असत्‌ है क्योंकि नित्यादि कर्मो को श्रुति के अनुसार नहीं करने पर नरकादि प्राप्ति लक्षण होता है।,"यत्‌ तावत्‌ केवलाज्ज्ञानात्‌ कैवल्यप्राप्तिः इत्येतत्‌ , तत्‌ असत्‌ ; यतः नित्यानां कर्मणां श्रुत्युक्तानाम्‌ अकरणे प्रत्यवायः नरकादिप्राप्तिलक्षणः स्यात्‌।" और भी जो मन स्मृति का साधक है।,उत अपि यत्‌ मनः चेतः चेतयति सम्यक्‌ ज्ञापयति तच्चेतः। "इस अग्निसूक्त के मधुच्छन्दा ऋषि, गायत्री छन्द, और अग्नि देवता हैं।","अस्य अग्निसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः, गायत्री छन्दः, अग्निश्च देवता।" "उस जल से सभी प्रजा निःशेष रूप से जलमग्न हो गई थी, मनु ही जीवित रहे और उसी मनु से मनुष्यों की उत्पत्ति हुई, ऐसे मनुष्य अथवा मानव कहलाते है।","औघेन सर्वाः प्रजाः निःशेषेण जलनिमग्नाः गतप्राणाः सञ्जाताः, मनुः तु एकः एव जीवितः अवर्तत । किञ्च तस्मादेव मनोः मनुष्याणाम्‌ उत्पत्तिर्जाता इति मनुष्या मानवा इति कथ्यन्ते इति।" और “अदन्त अव्ययीभाव से तृतीयासप्तमी के बहुल अमादेश होता है।,"एवञ्च ""अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ तृतीयासप्तम्योः बहुलम्‌ अमादेशः भवति।" मृत्यु को भगाने के लिए विशिष्ट याग का वर्णन कहाँ पर है?,मृत्योः अपसारणाय विशिष्टयागस्य वर्णनं कुत्र अस्ति? वहाँ आदि में अग्निमीळे पुरोहितम्‌... इति मन्त्र अग्निसूक्त का आदि मन्त्र विद्यमान है।,तत्रादौ अग्निमीळे पुरोहितम्‌... इति मन्त्रः अग्निसूक्तस्य आदिममन्त्रः विद्यमानः। इसलिए सन्तोष ही सुख का मूल होता है।,अतः सन्तोष एव सुखमूलम्‌। 15.2 अग्नि का स्वरूप- सभी वैदिक देवताओं में अग्नि ही पवित्रतम देवता है।,१५.२ अग्निस्वरूपम्‌- सर्वासु वैदिकदेवतासु अग्निरेव पवित्रतमा देवता। “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे” इस सूत्र का अर्थ क्या है?,"""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" इति सूत्रस्यार्थः कः।" तथा वेदान्तसूत्र * जन्माद्यस्य यतः' है।,तथाहि वेदान्तसूत्रं 'जन्माद्यस्य यतः' इति। "16. “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इस सूत्र का क्या अर्थ है?","१६. ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इस प्रकार से आकाश की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है।,न ह्याकाशस्योत्पत्तिः सम्भावयितुं। सूत्र का अर्थ- अदेवनार्थ में अक्ष शब्द आदि उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- अदेवनार्थे अक्षशब्दस्य आदिः उदात्तो भवति। इस प्रकार से सम्पूर्ण ग्रन्थ यह चौदह अध्यायों में विभक्त है।,अनेन प्रकारेण समग्रग्रन्थः अयं चतुर्दशसु अध्यायेषु विभक्तः अस्ति। फल स्वरूप ये वाक्य अनर्थक ही हैं।,फलतः एतानि वाक्यानि अनर्थकानि सन्ति एव। अब मूलपाठ जानेंगे यहां से आगे षट्‌ मन्त्र शुक्लयजुर्वेदीय है।,इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम इतः परं षट्‌ मन्त्राः शुक्लयजुर्वदीया वर्तन्ते। सबसे पहले प्राणायम के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करना चाहिए।,आदौ प्राणायामेन कुण्डलिनीशक्तेः जागरणं कर्तव्यम्‌। "वहाँ पर संशय मन का विषय होता है, निश्यय बुद्धि का विषय होता है।",तत्र संशयः- मनसः विषयो भवति। निश्चयः बुद्धेः विषयो भवति। "कर्मवान, बुद्धिमान, मेधावी जिस मन से कार्य करते हैं, जिससे बुद्धिमान यथाविधि यज्ञ का सम्पादन करते हैं, और जो अपूर्व, सभी इन्द्रियों से पूर्व जिसकी रचना हुई, सभी प्राणियों में विद्यमान और पूज्य वह मेरा मन शुभ सङ्कल्प से युक्त हो।","कर्मवन्तः धीमन्तः मेधाविनः येन मनसा कर्माणि कुर्वन्ति , येन धीमन्तः यथाविधि यज्ञसम्पादनं कुर्वन्ति , यच्च अपूर्व सर्वेभ्यः अपि इन्द्रियेभ्यः पूर्वं सृष्टं , सर्वषु प्राणिषु विद्यमानं पूज्यं च तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु।" बहुलम्‌ प्रथमा एकवचनात्त पद है।,बहुलम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं च पदम्‌ । शिव शान्त मङ्गलरूप वाली वाणी।,शिवा शान्ता मङ्गलरूपा वाणी। उसके बाद क्रम से नित्यमुक्त होता हुआ ब्रह्मस्वाद का अनुभव करता है।,ततश्च क्रमेण नित्यमुक्तः सन्‌ ब्रह्मास्वादमनुभवति। इसके बाद प्रस्तुत सूत्र से भसंज्ञक उप राजन्‌ शब्द के टि का अन्‌ लोप होने पर उपराज्‌ अ य होने पर सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न होने पर उपराज शब्द से सोः अम्‌ होने पर प्रक्रिया कार्य में उपराजम् रूप निष्पन्न होता है।,"ततः प्रस्तुतसूत्रेण भसंज्ञकस्य उपराजन्‌ इति शब्दस्य टेः अनः लोपे उपराज्‌ अ इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नाद्‌ उपराजशब्दात्‌ सौ, सोरमि प्रक्रियाकार्ये उपराजम्‌ इति रूपं निष्पन्नम्‌।" यह ग्रन्थ सूत्र रूप में है।,अयं ग्रन्थः सूत्ररूपेऽस्ति। मैत्रायणीं संहिता- ये दोनों भी संहिता में तैत्तरीय संहिता का अनुसरण करती हैं।,मैत्रायणीसंहिता- इमे द्वे अपि संहिते तैत्तिरीयसंहिताम्‌ अनुकुरुतः। यह ही अर्थ इस मन्त्र के द्वारा कहते हैं।,सोऽयमर्थोऽनेन मन्त्रेणोच्यते। अब इसके अध्येताओं की संख्या बहुत कम है।,अधुना अस्याः अध्येतृणां संख्या अतीव अल्पा। और यहाँ सौ शरद ऋतु तक तथा सौ हेमन्त ऋतु पर्यन्त जीवन के लिये प्रार्थना है।,किञ्च अत्र शतशरत्पर्यन्तं तथा शतहेमन्तपर्यन्तं जीवनाय प्रार्थनाः सन्ति। पुरुषार्थ चार होते हैं।,चत्वारः पुरुषार्थाः सन्ति। गत्यर्थलोटा यह तृतीय एकवचनान्त पद है।,गत्यर्थलोटा इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। किम्‌ का प्रातिपदिक से अन्वय होता है।,किमः इत्यस्य प्रातिपदिकात्‌ इत्यनेनान्वयः। शुक्लयजुर्वेद के चार सूक्त में तथा एकसूक्त भागमात्रसोमदेव के साथ उसकी स्तुति दिखाई देती है।,शुक्लयजुर्वेदस्य चतुर्षु सूक्तेषु तथा एकस्य सूक्तस्य भागमात्रे च सोमदेवेन सह तस्य स्तुतिः दृश्यते। होता क्या करता है?,होता किं करोति? "“ऐतदात्म्यमिद्‌ सर्व', “सर्व खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि।","“ऐतदात्म्यमिदं सर्व”, “सर्व खल्विदं ब्रह्म” इत्याद्याः।" ये दोनो प्रपञ्च भी इस सुषुप्ति में नहीं होते हैं।,प्रपञ्चद्वयमप्येतत्‌ सुषुप्तौ नास्ति। अठारहवां पाठ समाप्त ॥,॥ इति अष्टादशः पाठः ॥ तृतीयसवन के बाद अवभृथ स्नान का अनुष्ठान किया जाता है।,तृतीयसवनात्‌ परम्‌ अवभृथस्नानस्य अनुष्ठानं क्रियते। कृष्णश्रितः दुःखातीतः इत्यादि इस सूत्र के उदाहरण हैं।,कृष्णश्रितः दुःखातीतः इत्यादिकमेतस्योदाहरणम्‌। विष्णु के तीन पाद के विषय में प्राचीनकाल से ही वर्णन प्राप्त होते है।,विष्णोः त्रयाणां पादानां विषये प्राचीनकालादेव वर्णनं दृश्यते। "वह सुख द्वारा अत्यधिक आनन्द का अनुभव नहीं करता है, तथा दुख से भी अत्यधिक दुःखी नहीं होता है।","सः सुखेन अत्यधिकम्‌ आनन्दम्‌ न अनुभवति, दुःखेन अपि दुःखितः न भवति।" तद्धितस्य यह किस प्रकार का सूत्र है?,तद्धितस्य इति कीदृशं सूत्रम्‌? अभीशुभिरित्यभीशु-भिः।,अभीशुभिरित्यभीशु - भिः। द्वेषत्‌ - द्विष्‌-धातु से लोट्‌-लकार प्रथमपुरुष एकवचन में रूप है।,द्वेषत्‌- द्विष्‌-धातोः लोट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌। "उदात्त स्थान में और स्वरित स्थान में जो यण्‌ है, उसके पर अनुदात्त के स्थान में स्वरित होता है ` उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य' इस सूत्र का अर्थ है।",उदात्तस्थाने स्वरितस्थाने च यो यण्‌ वर्तते ततः परस्य अनुदात्तस्य स्वरितः भवति इति 'उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य' इति सूत्रस्य अर्थः। इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन ही प्रत्याहार कहलाता है।,इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्यावर्तनं हि प्रत्याहारः। "यज्ञ का वास्तविक विधान अध्वर्यु ही करता है, इसलिए यह यजुर्वेद यज्ञ विधि के अत्यधिक समीपता के सम्बन्ध कौ रक्षा करता है।","यज्ञस्य वास्तविकं विधानमध्वर्युरेव करोति, अतोऽयं यजुर्वेदो यज्ञविधेरतिसन्निकृष्टं सम्बन्धं रक्षति।" इसका सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के साथ है।,अस्याः सम्बन्धः शुक्लयजुर्वेदीय-वाजसनेयीशाखया सह अस्ति। "तैत्तरीय उपनिषद्‌ के आरम्भ में शिक्षा शास्त्र का प्रयोजन कहा है की - अब शिक्षा की व्याख्या करेंगे - वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम, सन्तान ये शिक्षा अध्याय हैं।","तैत्तिरीयोपनिषदः आरम्भे शिक्षाशास्त्रस्य प्रयोजनम्‌ उक्तं यत्‌ - 'अथ शिक्षां व्याख्यास्यामः- वर्णः, स्वरः, मात्रा, बलम्‌, साम, सन्तान इत्युक्तः शिक्षाध्यायः' इति।" अज्ञानावभासकत्व से इस प्राज्ञ का नाम कुछ लोग कारण शरीराभिमानी प्राज्ञ मानते हैं।,अज्ञानावभासकत्वात्‌ अस्य प्राज्ञ इति नाम इति केचित्‌। कारणशरीराभिमानी भवति प्राज्ञः। अर्थात्‌ अधिकारी का अधिकार कहाँ किस वस्तु में कितना होना चाहिए।,"अर्थाद्‌ अधिकारिणः अधिकारः कुत्र, कस्मिन्‌ विषय इति।" वह ब्रह्म साक्षीहोता हुआ विराजमान रहता है।,तत्‌ ब्रह्म साक्षितया विराजमानं वर्तते। "माध्यन्दिन सवन में पशुमांस और पुरोडाश की आहुति निर्दिष्ट है, सायन्तन अर्थात्‌ तीसरेसवन में पशु के नाना-अङग आहुति के रूप में दिए जाते हैं।","माध्यन्दिनसवने पशुमांसस्य पुरोडाशस्य च आहुतिः निर्दिष्टा वर्तते, सायन्तने अर्थात्‌ तृतीयसवने पशोः नाना-अङ्गानि आहुतित्वेन दीयन्ते।" 20.6 मित्रावरुणसूक्त का सार मित्र और वरुण यथाक्रम दिन के रात्री के मान्य देवता है ऐसा आचार्य सायण ने कहा।,२०.६) मित्रावरुणसूक्तस्य सारः मित्रः वरुणश्च यथाक्रमं दिनस्य रात्रेश्च अभिमानिन्यौ देवते इति आचार्यः सायणः उक्तवान्‌। "सरल संस्कृत, संस्कृत साहित्य के सरल गद्यांश को और पद्यांश को पढ़ और समझ सके।","सरलसंस्कृतं, संस्कृतसाहित्यास्य सरलगद्यांशान्‌ पद्यांशान्‌ च पठितुम्‌ बोद्धुं च शक्नोति।" दृष्टान्त रूप से उर्वशी पुरुरवा संवादमूल को आधार बनाकर कालिदास ने विक्रमोर्वशीय नाम के त्रोटक की रचना की।,दृष्टान्तरूपेणोर्वशीपुरुरवः संवादमूलं कालिदासीयं विक्रमोर्वशीयं नाम त्रोटकम्‌ उपस्थापयितुं शक्यते। 2.धर्मजिज्ञासा के पहले भी ब्रह्मजिज्ञासा सम्भव होती है अथवा नहीं?,२. धर्मजिज्ञासायाः पूर्वमपि ब्रह्मजिज्ञासा सम्भवति न वा। स्वर का और वर्ण का विचार नहीं करके केवल होठ से उच्चारित वर्णों का ही यहाँ सङ्ग्रह किया है।,स्वरस्य वर्णस्य च विचारम्‌ अकृत्वा एव केवलम्‌ ओष्ठेन उच्चारितवर्णानाम्‌ एवात्र सङ्ग्रहः कृतः वर्तते। हिरण के समान भंयकर समस्त लोक लोकान्तरो को प्रशसित करता है।,मृग इव भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। मृगो कर्मणो भीमो बिभ्यत्यस्माद्कीष्मोऽप्येतस्मादेव। उसकी शक्ति के कारण ही वे शक्तिशाली है।,तच्छक्त्यैव शक्तिमन्तः ते। इस प्रकार से मन के अन्यव व्यतिरेक के द्वारा बन्धकारणत्व सिद्ध होता है।,एवं मनसः अन्वयव्यतिरेकेण बन्धकारणत्वं सिद्धम्‌। कृ धातु से परस्मैपद लोट्‌ लकार में मध्यम पुरुष एकवचन में कुरु यह रूप है।,कृधातोः परस्मैपदिनः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने कुरु इति रूपम्‌। "उदात्तयणो हल्पूर्वात्‌ ( ६.१.१७४ ) सूत्र का अर्थ- हल्‌ पूर्व में है जिससे, ऐसा जो उदात्त के स्थान में यण्‌ उससे परे नदी संज्ञक प्रत्यय और शस आदि विभक्ति को उदात्त होता है।",उदात्तयणो हल्पूर्वात्‌(६.१.१७४) सूत्रार्थः- उदात्तस्थाने यो यण्‌ हल्पूर्वस्तस्मात्परा नदी शसादिर्विभक्तिश्च उदात्ता स्यात्‌। भौज्योष्णम्‌ यहाँ पूर्वपद को प्रकृति स्वर किस सूत्र से है?,भौज्योष्णम्‌ इत्यत्र पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं केन विधीयते? "इसी प्रकार वरूढ: यह प्रयोग भी वेद में ही मिलता है, और इस वरूढ़ शब्द का मकरादिगण के अन्तर्गत पाठ होने से प्रकृत सूत्र से उस वरूढ शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है।","एवं वरूढः इति प्रयोगः अपि वेदे दृश्यते, किञ्च अस्य वरूढशब्दस्य मकरादिगणे अन्तर्गतत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण तस्य वरूढशब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो भवति।" रुधादिगण की हिंस्‌-धातु भी प्रकृत सूत्र में ग्रहण की है।,रुधादिगणीयः हिंस्‌-धातुरपि प्रकृतसूत्रे गृहीतः। इस ग्रन्थ का प्रधान लक्ष्य ही संहिता पदों की शुद्धता ही है।,अस्य ग्रन्थस्य प्रधानलक्ष्यं हि संहितापदानां शुद्धता एव। वह पूर्व में कहा गया जल प्रलय जब आएगा तब नाव की रचना करके (मा) मुझे स्मरण करना।,स पूर्वोक्त औघः आगन्ता तत्‌ तदा नावम्‌ उपकल्प्य ( मा ) माम्‌ उपासासै उपासीथाः। अभिधानम्‌ करण में ल्युट्‌ प्रत्यय होता है।,अभिधानमिति करणे ल्युट्प्रत्ययः। """अह ब्रहमास्मि"" इसमें अहम पद को आलोचना करें अथवा अर्थवाद और फल का निरूपण करें।","""अहम्‌ ब्रह्मास्मि"" इत्यत्र अहंपदस्य अर्थम्‌ आलोचयत। अथवा अर्थवादं फलं च निरूपयत।" वह मछली नौका को रस्सी से बांधकर उत्तर दिशा पर्वत की ओर चल दी।,सः मत्स्यः नौकायाः रज्जुं स्वशृङ्गे बध्वा उत्तरदिशि पर्वतम्‌ अतिक्रम्य अगच्छत्‌। उदाहरण के लिए वहिष्पवमान-स्तोत्र में अध्वर्यु-उद्गाता आदि पांच ऋत्विजों के प्रसर्पण का विधान है।,उदाहरणार्थं वहिष्पवमान-स्तोत्रे अध्वर्यु-उद्गातादीनां पञ्चानामृत्विजाम्‌ प्रसर्पणस्य विधानम्‌ अस्ति। आत्मा के विषय में अनवरत चिन्तन ही समाधि अर्थात्‌ समाधान है।,आत्मविषये अनवरतम्‌ अनुचिन्तनं समाधिः अर्थात्‌ समाधानम्‌। "सचक्रम्‌, ससखि, साग्नि इत्यादि इसके सूत्र का उदाहरण है।","सचक्रम्‌, ससखि, साग्नि इत्यादिकमेतस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌।" "इन उपनिषदों का काल क्या है, अथवा इनके मध्य में पारस्परिक सम्बन्ध क्या हैं इन विषयों को जानने के लिए प्राचीन विद्वानों ने अत्यधिक उपयोग किया है।",आसामुपनिषदां कः कालः कः वा एतेषां मध्ये पारस्परिकसम्बन्धः इति ज्ञातुम्‌ प्राचीनविद्वांसः अतीव उद्योगं कृतवन्तः। वो ही मोक्ष का ईश्वर है जो न कभी मरता है।,यो हि मोक्षेश्वरो न स म्रियते। केवल श्रवण मननों के द्वारा ही निर्वकल्प समाधि सम्भव नहीं होती है।,न हि श्रवण-मननाभ्यामेव निर्विकल्पकसमाधिः सम्भवति। कहीं-कहीं पर तो धातु से उत्तर भी उपसर्ग का प्रयोग होता है।,क्वचिच्च धातोः उत्तरम्‌ अपि उपसर्गप्रयोगः भवति। यह याग पूर्णिमा की प्रातः आरम्भ होता है तथा दुसरे दिन अर्थात्‌ प्रतिपदा के मध्याह्न में समाप्त होता है।,अयं यागः पूर्णिमायां प्रातः आरभ्य परस्मिन्‌ दिवसे अर्थात्‌ प्रतिपदि मध्याह्णे समाप्तो भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ यावत्‌-शब्द से युक्त प्रपचति इस तिङन्त को प्र-इस उपसर्ग का व्यवधान है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र यावत्‌-शब्देन युक्तं प्रपचति इति तिङन्तं प्र-इति उपसर्गव्यवहितम्‌ अस्ति। 33. उक्त लक्षण लक्षित अधिकारी जनन मरणात्मक चक्र की पीछा करके तद्गतव्याधियों का विचार करके संसार नल से संतप्त होकर के गुरु के पास जाता है।,३३. उक्तलक्षणलक्षितः अधिकारी जननमरणात्मकं चक्रं परीक्ष्य तद्गतव्याध्यादिकं च विचिन्त्य संसारानलसन्तप्तः गुरुम्‌ उपसर्पति॥ अतः तत्‌ तथा त्वम्‌ पदार्थ आगे कहे जा चुके है।,अतः तत्पदार्थः त्वम्पदार्थः च आदौ कथ्यते। चक्षु आदि वस्तुओं को ग्रहण कराता है।,चक्षुराद्यदैवमात्मग्राहकमित्यर्थः। विवेकानन्द का बाल्यकाल मे क्या नाम था?,विवेकानन्दस्य बाल्यकाले किं नाम आसीत्‌? "उस प्रकृत वार्तिक से स्यान्त पद के अन्त्य का, और अन्त्य से पूर्व का उदात्त स्वर करने का विधान है।",तेन प्रकृतवार्तिकेन स्यान्तस्य पदस्य अन्त्यस्य अन्त्यात्‌ पूर्वस्य च उदात्तस्वरः विधीयते। और उत्तरपद कालवाचक है।,उत्तरपदञ्च कालवाचकम्‌। "इसके बाद तद्धिताः, “समासान्ताः” इन दो अधिकार सूत्रों का वर्णन विहित है।","ततः ""तद्धिताः"" ""समासान्ताः"" इत्यधिकारद्वयस्य वर्णनं विहितम्‌।" संसार में प्राप्त साहित्य का यह प्राचीनतम सूक्त है।,जगति उपलभ्यमानस्य साहित्यस्य इदम्‌ प्राचीनतमं सूक्तम्‌। वर्तमान समय में कुछ लोग भान्ति के कारण विधिविधान का त्याग करके जिस किसी भी क्रम से ग्रन्थों को इधर उधर से पढ़ते है।,साम्प्रतिके काले केचिद्‌ भ्रान्त्या विधि हित्वा येन केनापि क्रमेण कांश्चिद्‌ ग्रन्थान्‌ इतस्ततः पठन्ति। वह ऋग्वेद मण्डल-अनुवाक-वर्ग भेद से अष्टक-अध्याय और सूक्त भेद से दो प्रकार का है।,स ऋग्वेदः मण्डल-अनुवाक-वर्गभेदेन अष्टक-अध्याय-सूक्तभेदेन च द्विधा। समास और अव्ययीभाव दो पद अधिकृत किया गया है।,समासः अव्ययीभावः च इति पदद्वयमधिकृतम्‌। सम्बभूवुः - सम्पूर्वक भू-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,सम्बभूवुः- सम्पूर्वकात्‌ भू-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। स्यन्दमानाः - स्यन्द्‌-धातु से शानच करने पर स्यन्दमाना यह रूप बनता है।,स्यन्दमानाः - स्यन्द्‌-धातोः शानचि स्यन्दमाना इति रूपम्‌। आचार्य पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है - “बृहस्पतिश्च वक्ता।,"आचार्यपतञ्जलिः स्वकीये महाभाष्ये लिखितवान्‌ - ""बृहस्पतिश्च वक्ता।" और अन्य समीप अर्थक अव्यय का सुबन्त के समर्थन से सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है और वही समास अव्ययीभाव संज्ञक होता है।,एवं समीपार्थकम्‌ अव्ययं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। स च समासः अव्ययीभावसंज्ञकः भवति। जब सुषुप्ति मार्ग के द्वारा शक्ति सहस्रार चक्र का स्पर्श करेगी तब आत्मज्ञान होगा।,यदा सुषुम्णामार्गेण शक्तिः सहस्रारचक्रस्पर्श करिष्यति तदा आत्मज्ञानं भविष्यति। व्याख्या - शश्वत् शब्द यहाँ पर सामर्थ्य होने से शीघ्र प्रवचन में।,व्याख्या- शश्वच्छब्दोत्र सामर्थ्यात्‌ क्षिप्रवचनः। “कुगति प्रादयः'' यह प्रथमा बहुवचनान्त पद है।,कुगतिप्रादयः इति प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌ । और तत्पुरुष संज्ञक होता है।,स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति । शङ्कराचार्य ने विवेकचूडामणि में इसे इसप्रकार से कहा है- वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च।,तदुक्तं शङ्कराचार्येण विविकचूडामणौ- वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपन्चाभ्रमुखानि पञ्च। लेकिन प्रतिबिम्ब के बिम्ब से अभिन्नत्व होने पर भी बिम्ब प्रतिबिम्ब के द्वारा परिणमित नहीं होता है।,किन्तु प्रतिबिम्बस्य बिम्बाभिन्नत्वेऽपि बिम्बः प्रतिबिम्बरूपेण न परिणमते। "पर इस सकारान्त को ऊपर अर्थ में है, तथा अध यह नीचे अर्थ में।",पर इति सकारान्तं परस्तादित्यर्थे वर्तते तथा अध इति अधस्तादित्यर्थे। सर्पिषोज्ञानम्‌ यहाँ समास कैसे नहीं हुआ?,सर्पिषो ज्ञानम्‌ इत्यत्र कथं न समासः? अथर्ववेद में भी विष्णु से ही ऊष्णता प्रदातृत्व के रूप में विख्यात है।,अथर्ववेदेऽपि विष्णुदेवः उष्णप्रदातृत्वेन ख्यातः। तदनन्तर दश द्रव्यो के विनिमय से शूद्र के साथ सोमलता का क्रयण किया जाता है।,एतदनन्तरं दशद्रव्याणां विनिमयेन शूद्रस्य सकाशात्‌ सोमलतायाः क्रयणं क्रियते। उभाभ्याम्‌ - उभशब्द का नित्यद्विवचनान्त है।,उभाभ्याम्‌-उभशब्दः नित्यद्विवचनान्तः। जो कर्म योग नहीं करता है।,यस्तु कर्मयोगं न करोति। और इन विनियोग का वैज्ञानिक दृष्टि से भी वहाँ समानता प्रदर्शित है।,एतेषां च विनियोगानां वैज्ञानिकदृष्ट्या सम्मतत्वमपि तत्र प्रदर्श्यते। पद के अर्थ की (अनतिवृत्ति) सीमा से बाहर न होने की स्थिति पदार्थानतिवृत्ति है।,पदार्थस्यानतिवृत्तिः इति पदार्थानतिवृत्तिः। सभी काल में यह अर्थ प्राप्त होता है।,सर्वकालम्‌ इत्यर्थः। मन का सामर्थ्य को जानना अत्यधिक कठिन है।,मनसः सामर्थ्यस्य अवगाहनम्‌ अति कठिनम्‌। विवेक चूडामणी में कहा गया है कि- “बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा” इति।,विवेकचूडामणौ उक्तम्‌ - “बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा” इति। (8.5) “न पूजनात्‌ '' ( 5.4.69 ) सूत्रार्थ-पूजन अर्थ से पर जो प्रातिपदिक है उससे समास से समासान्त नहीं होते है।,"(८.५) ""न पूजनात्‌""(५.४.६९.) सूत्रार्थः - पूजनार्थात्‌ परं यत्‌ प्रातिपदिकं तदन्तात्‌ समासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति।" सभी श्रुतिस्मृतिपुरण आदि में प्रसिद्धद्योतन अर्थ है।,सर्वश्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रसिद्धिद्योतनार्थः। पचति यह तिङन्त उदात्तवान पद प्र इससे परे है।,पचति इति तिङन्तम्‌ उदात्तवत्‌ पदं प्र इत्यस्मात्‌ परम्‌ अस्ति। आरण्यक वेदों से औषधि के समान सारभूत है यहाँ क्या प्रमाण है?,आरण्यकं वेदेभ्य ओषधिभ्यः सारभूतमित्यत्र किं प्रमाणम्‌? वह ही प्रसन्न होने पर उपासक के लिये ब्रह्म आदिदेवपद को ऋषित्व अथवा विद्या देती है।,सैव प्रसन्ना सती उपासकाय ब्रह्मादिदेवपदम्‌ ऋषित्वं विद्यां वा प्रयच्छति। यहाँ पर यह उदाहरण है की- किसी निधि के ग्रहण के लिए यदि कोई प्रवृत्त होता है और वह उस निधि के रक्षक भूतप्रेतादि से बचकर के आनन्द का अनुभव करता है लेकिन उसी आनन्द का परमान्द मानकर के वह कभी भी निधि के पास नहीं पहुँचता है।,अत्रोदाहरणं तावत्‌ -कश्चित्‌ निधिग्रहणाय प्रवृत्तः निधिरक्षकान्‌ भूतप्रेतादीन्‌ अनिष्टसाधकान्‌ अभिभूयापि आनन्दम्‌ अनुभवति। परन्तु तमेव आनन्दं परमं मन्यमानस्य कदापि निधिप्राप्तिनि भवति। प्रारम्भिक दो अध्याय दर्शपौर्ण मास नामक याग के सम्बद्ध मन्त्रों का वर्णन है।,प्रारम्भिकयोर्द्वयोरध्यायः दर्शपौर्णमासनामकयागसम्बद्धमन्त्राणां वर्णनमस्ति। ` अग्निमीळे' यहाँ पर मकार से उत्तर ईकार का क्या स्वर है?,'अग्निमीळे' इत्यत्र मकारोत्तरस्य ईकारस्य कः स्वरः? 1. येनेदं भूतं भूवनम्‌ इस मन्त्रांश में येन इसका क्या तात्पर्य है?,१. येनेदं भूतं भूवनम्‌ इति मन्त्रांशे येन इत्यस्य किं तात्पर्यम्‌? "सर्वहुत यज्ञ से क्या क्या उत्पन्न हुआ, इसकी मन्त्रानुसार व्याख्या करो।",सर्वहुतः यज्ञात्‌ किं किम्‌ उत्पन्नम्‌ इति मन्त्रानुसारेण व्याख्यात। हिमवन्तः - हिम शब्द से मतुप्प्रत्यय करने पर प्रथमा बहुवचन में हिमवन्त: रूप बनता है।,हिमवन्तः- हिमशब्दात्‌ मतुप्प्रत्यये प्रथमाबहुवचने हिमवन्तः इति रूपम्‌। गति: यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,गतिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। 8. “द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः”' इस सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।,"८. ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" कर्म अभाव से फल भी नहीं बढ़ते है।,कर्माभावात्‌ फलमपि न फलति। धृतिः - धृ-धातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर धृतिः रूप बनता है।,धृतिः - धृ - धातोः क्तिन्प्रत्यये धृतिः इति रूपम्‌। उभा इसका लौकिक रूप क्या है?,उभा इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। जो रुद्र है वह ही शिव है।,यः रुद्रः स एव शिवः। देवता और ब्राह्मणों का राजा कौन है?,देवतानां ब्राह्मणानां च राजा कः ? "व्याख्या - जो मन जैसे सुंदर घोड़े के समान, लगाम से घोड़ो को सब और चलाता है, वैसे ही मनुष्य आदि प्राणियों को शीघ्र ही इधर उधर भ्रमण कराता है।",व्याख्या - यत्‌ मनो मनुष्यान्‌ नरान्‌ नेनीयते अत्यर्थम्‌ इतस्ततो नयति। और उससे यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - यज्ञकर्म में वषट्कारः अर्थात्‌ वौषट्‌- शब्द एक श्रुति उदात्ततर विकल्प से होता है।,ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- यज्ञकर्मणि वषट्कारः अर्थात्‌ वौषट्‌- शब्दः एकश्रुतिः उदात्ततरो वा भवतीति। अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' यह परिभाषा स्वर विधि विषय है।,अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति परिभाषा स्वरविधिविषया वर्तते। बलवीर्य के सभी सर्व कर्म इन्द्र के ही है।,बलवीर्यस्य सर्वं कर्म इन्द्रस्य एव। इसी प्रकार तनुः यहाँ पर भी तनु शब्द का स्त्रीविषय होने से और हृस्वान्त होने से प्रकृत सूत्र से उस शब्द का आदि स्वर अकार को उदात्त करने का विधान है।,एवं तनुः इत्यत्रापि तनुशब्दस्य स्त्रीविषयत्वात्‌ किञ्च ह्स्वान्तत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण तस्य शब्दस्य आदेः स्वरस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। उसका स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं।,तदेतदुत्तरार्धन स्पष्टीक्रियते। 6 विज्ञानमय कोश के आत्मत्व का निरास कीजिए।,6. विज्ञानमकोशस्य आत्मत्वनिरासं कुरुत। "क्योंकि देव इतरेतर जन्मा तथा इतरेतर प्रकृति वाले होते है, अर्थात्‌ परस्पर संयोग से उत्पन्न होते है।","यतो हि देवः इतरेतरजन्मा तथा इतरेतरप्रकृतिः वा भवति, अर्थात्‌ मिथः परस्परस्मात्‌ जातः।" इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे :- सूक्त में स्थित मन्त्रों के संहिता पाठ को जान पाने में; सूक्त में विद्यमान मन्त्रों के पदपाठ को समझ पाने में; सूक्तस्थ मन्त्रों का अन्वय कर पाने में; सूक्तस्थ मन्त्रों की व्याख्या कर पाने में; सूक्त में विद्यमान मन्त्रों का सरलार्थ जान पाने में; मन्त्र में स्थित व्याकरण पदों को समझ पाने में; सूक्त का तात्पर्य और सूक्त के तत्त्व जान पाने में;,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - सूक्तस्थानां मन्त्राणां संहितापाठं ज्ञास्यति। सूक्ते विद्यमानानां मन्त्राणां पदपाठं ज्ञास्यति। सूक्तस्थानां मन्त्राणाम्‌ अन्वयं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूक्तस्थानां मन्त्राणां व्याख्यानं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूक्ते विद्यमानानां मन्त्राणां सरलार्थं ज्ञास्यति। मन्त्रे स्थितं व्याकरणं ज्ञातुं समर्थो भवेत्‌। सूक्ततात्पर्यं सूक्ततत्त्वं च अवगच्छेत्‌। ग्रन्थ के आरम्भ में यास्क ने निरुक्त के सिद्धान्त का वैज्ञानिक प्रदर्शन किया।,ग्रन्थस्य आरम्भे यास्को निरुक्तस्य सिद्धान्तस्य वैज्ञानिकं प्रदर्शनम्‌ अकरोत्‌। परिगृह्णन्ति - परि उपसर्ग ग्रह-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,परिगृह्णन्ति- पर्युपसर्गात्‌ ग्रह्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। इस प्रकार से अविद्या के द्वार अप्राप्त जो ब्रह्म स्वरूप है उसकी प्राप्ति विद्या के द्वारा होती है।,एवमविद्यया अप्राप्तं यत्‌ ब्रह्मस्वरूपमस्ति तस्य प्राप्तिस्तु भवति विद्यया। अर्थात्‌- श्रवण तथा मनन के ह्वारा जब अर्थ निः सन्दिग्ध होता है तब उस निः सन्दिग्ध वस्तु में मन की एकाग्रता ही निदिध्यासन कहलाती हे।,अर्थात्‌ श्रवणमननाभ्यां यदा अर्थः निःसन्दिग्धः भवति तदा तस्मिन्‌ निःसन्दिग्धे वस्तुनि मनसः एकतानता हि निदिध्यासनम्‌ उच्यते। प्रतियोगी की अपेक्षा से द्विवचन है।,प्रतियोग्यपेक्षया द्विवचनम्‌। निर्वकल्पक समाधि में सभी विकल्पों का लय होने के कारण ब्रह्म में तदाकारकारिता चित्तवृत्ति का एकीभाव से अवस्थान होता है।,निर्विकल्पकसमाधिः हि सर्वविकल्पलये सति ब्रह्मणि तदाकाराकारितायाः चित्तवृत्तेः एकीभावेन अवस्थानम्‌। अधिहरि यहाँ अव्ययीभाव समास में अधि यह अव्यय पूर्वपद है।,अधिहरि इत्यत्र अव्ययीभावसमासे अधि इत्यव्ययं पूर्वपदम्‌। इसके बाद समास विधायक सूत्र में अव्यय इसका प्रथमा निर्दिष्ट होने से उसके बोध के अधि इसका “'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌ ' इससे उपसर्जन संज्ञा होती है।,"ततः समासविधायकसूत्रे अव्ययम्‌ इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्भोध्यस्य अधि इत्यस्य ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेन उपसर्जनसंज्ञा भवति।" उभा - उभौ इसका वेदिक रूप है।,उभा- उभौ इत्यस्य वैदिकं रूपम्‌। उभयपद का अर्थ उभयपदार्थ है।,उभयपदस्यार्थः उभयपदार्थः। वायव्यान्‌ रूप कैसे कथं सिद्ध हुआ?,वायव्यान्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। वरुण देव का शासन क्षेत्र कहाँ था?,वरुणदेवस्य शासनक्षेत्रं कुत्र आसीदिति? इत्यादि शब्दों के द्वारा उसकी प्रशंसा सुनते है।,इत्यादिशब्दैः तत्प्रशंसा श्रूयते। और मनुष्यों के द्वारा भी सेवित हूँ।,उतापि च मानुषेभिः मनुष्यैरपि जुष्टम्‌। मण्डलरूप विभाग होने पर यह सूक्त दशम मण्डल के नवतितम (९०वां)(ऋ.वे. म-१०.९०)।,तत्र मण्डलरूपेण विभागे सति इदं सूक्तम्‌ दशममण्डले नवतितमम्‌ (ऋ.वे. म-१०.९०)। अतः प्रकृत सूत्र से नुम्‌ रहित शतृ के अन्तोदात्त से परे नदी संज्ञक ङीप्प्र्यय के ईकार को उदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अनुमः शतुः अन्तोदात्तात्‌ परस्य नदीसंज्ञकस्य ङीप्प्रत्ययस्य ईकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। “ आसितम्‌'' यहाँ पर “ क्तोऽचिकरणे च ध्रौव्यगति प्रत्यवसानार्थेभ्यः'”' इससे अधिकरण में क्त प्रत्यय होता है।,"आसितम्‌ इत्यत्र ""क्तोऽधिकरणे च श्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यः"" इति अधिकरणे क्तः।" पार्थिवाग्नि ही अन्तरिक्ष में इन्द्ररूप में तथा विद्युदूप में द्युलोक में सूर्यरूप में प्रकटित होती है।,पार्थिवाग्निरेव अन्तरिक्षे इन्द्ररूपेण विद्युद्रूपेण तथा द्युलोके सूर्यरूपेण प्रकटितः। तिङ: यह पद पदात्‌ इस पद का विशेषण है।,तिङः इति पदं पदात्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌। "अतः पुरोहितों के लिए अवशिष्ट पशु मांस का भक्षण दोष रहित है, तथा निषिद्ध भी नहीं है।","अतः पुरोहितानाम्‌ अवशिष्टानां पशुमांसानां भक्षणं न दोषावहम्‌, न च निषिद्धम्‌।" 11. लौकिकज्ञानस्थल में घटपटादि के साथ तादात्म्य से ब्रह्म ज्ञात होता है।,११. लौकिकज्ञानस्थले घटपटादिभिः सह तादात्म्येन ब्रह्म ज्ञातं भवति। और उस प्रयोग के द्वारा वह बहुत ही कठिन विषय को भी थोडे ही पदों में अत्यधिक सरलता से प्रकट करता है।,तेषां प्रयोगेण च स बहु दुर्बोध्यम्‌ अपि विषयं स्वल्पैः एव पदैः अतीव सरलतया प्रकटयति। यह वृद्धि ह्यास समानानुपात से ही होते हैं।,अयं वृद्धिह्रासः समानानुपातेनैव भवति। अन्तिम दिन अर्थात्‌ पाँचवे दिन प्रकृत अग्निष्टोम का अनुष्ठान होता है।,अन्तिमदिवसे अर्थात्‌ पञ्चमदिवसे प्रकृतस्य अग्निष्टोमस्य अनुष्ठानं भवति। "पुरुष भोग्य द्रव्य ही देवों के साकारत्व को प्रमाणित नही कर सकते हैं, क्योंकि वेद में अपुरुषविध अशरीरि भी पदार्थ में भोग्यद्रव्यों का प्रयोग करते दिखते है, यथा 'सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्मिन्‌' यहाँ नदी और रथ योजना की कथा कही गई है।","पुरुषभोग्यानि द्रव्याणि एव देवानां साकारत्वं प्रमापयितुं न शक्नुवन्ति, यतो हि वेदे अपुरुषविधे अशरीरिणि अपि पदार्थे भोग्यद्रव्याणां प्रयोगः दृश्यते, यथा 'सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्मिन्‌' इत्यत्र नद्याः, रथयोजनायाः कथा उक्ता।" यहाँ यह भी ज्ञान होना चाहिए जिस अर्थ से समस्यमान शब्दस्वरूप के विशेषणात्मक प्रधानीभूत की विशेष्यलिङ्कता होनी चाहिए।,तत्रेदमप्यवधेयं यदर्थेन समस्यमानस्य शब्दस्वरूपस्य विशेषणात्मकत्वात्‌ प्रधानीभूतस्य विशेष्यस्य स्वलिङ्गतेष्ठा। सरलार्थ - अग्नि यज्ञ में देवता का आह्वान करता है।,सरलार्थः- अग्निः यज्ञे देवताः आह्वयति। 8 सत्ता कितने प्रकार की होती है।,८.सत्ता कतिविधा? इसके बाद तद्धितान्त होने से कृत्तद्धितसमासाश्च इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर और स्वादि कार्य होने पर युवति: रूप सिद्ध होता है।,ततः तद्धितान्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां स्वादिकार्ये च कृते युवतिः इति रूपं सिध्यति। अविद्या में तीन गुण होते हैं।,अविद्यायां त्रयः गुणाः सन्ति। स्मृति अनुभवजन्या होती है।,स्मृतिश्च अनुभवजन्या इति। वहाँ से गुरुगृह में जाना चाहिए।,ततः गुरुगृहं गन्तव्यम्‌। सभी धर्मों में यह कहा गया है को अपने मन को कालुष्य से हटाकर के ईश्वर की आराधना के द्वारा तथा शुभकर्म के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त करके जीव को ईश्वर की प्राप्ति करनी चाहिए।,सर्वेषु धर्मेषु इदम एव उच्यते यत्‌ - स्वमनःकालुष्यम्‌ अपसार्य ईश्वराराधनेन शुभकर्मणा वा उत्कर्षमवाप्य। और तो उसका कोई भी व्यवहार भी नहीं होता है।,अपि च तस्य न कोऽपि व्यवहारः भवति। अभी अध्यारोप तथा अपवाद दोनों के द्वारा सभी का वस्तुमात्रत्व जाना।,अधुना अध्यारोपापवादाभ्यां सर्वस्य वस्तुमात्रत्वं ज्ञातम्‌। विस्तृत तीनो लोक में पादप्रक्षेप करके सभी लोकों को आश्रित करके रहता है।,विस्तीर्णषु त्रिषु पादप्रक्षेपेषु सर्वाणि भुवन्ति अधिक्षियन्ति आश्रित्य तिष्ठन्ति। अद्वितीयब्रह्मवस्तुमात्र मे अवभासित होता है।,अद्वितीयब्रह्मवस्तुमात्रम्‌ अवभासते। श्रीरामकृष्ण परमहस ने सभी सम्प्रदायों के मतों में समन्वय साधने का प्रयास किया।,श्रीरामकृष्णप्रज्ञां भित्तीकृत्य स्वामिविवेकानन्देन शङ्कर-रामानुज-मध्वादिमतानां समन्वयसाधनाय प्रयतितम्‌। नपुंसक लिङ्ग में सु प्रत्यय होने पर अर्धर्चम्‌ रूप बना।,नपुंसकलिङ्गे सौ अर्धर्चम्‌ इति रूपम्‌। और श्वेत शब्द गुणवचन है।,एवं च श्वेतशब्दः गुणवचनः। लेकिन वह आत्यन्तिक नहीं होती है।,परन्तु आत्यन्तिकनिवृत्तिः न भवति। अतः स्त्रीत्व विवक्षा में शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्'' सूत्र से ङीन्‌ प्रत्यय होता है।,अतः स्त्रीत्वविवक्षायां शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्‌ इति सूत्रेण ङीन्‌ प्रत्ययः भवति। केशवी शिक्षा- इसके रचयिता आस्तिक मुनि के वंशज गोकुल दैवज्ञ का पुत्र केशव दैवज्ञ है।,केशवी शिक्षा- अस्याः रचयिता आस्तिकमुनेः वंशजो गोकुलदैवज्ञस्य पुत्रः केशवदैवज्ञः अस्ति। ईड्यः इसका क्या अर्थ है?,ईड्यः इत्यस्य कः अर्थः? "वहां अग्नि, आप, पृथ्वी, सोम भूलोक के देव है।","तत्र अग्निः, आपः, पृथिवी, सोमः भूलोकस्य देवाः।" सुषुप्ति अवस्था का वर्णन कीजिए?,सुषुप्त्यवस्थां वर्णयत? "व्यधिकरणतत्पुरुष पुनः द्वितीयातत्पुरुष, तृतीयातत्पुरुष, चतुर्थीतत्पुरुष, पञ्चमीतत्पुरुष, षष्ठीतत्पुरुष और सप्तमीतत्पुरुष षङ प्रकार होता है।","व्यधिकरणतत्पुरुषः पुनः द्वितीयातत्पुरुषः, तृतीयातत्पुरुषः, चतुर्थीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः षष्ठीतत्पुरुषः सप्तमीतत्पुरुषश्चेति षड्विधः।" हमारे द्वार समास आदि पाठ पढने के समय ज्ञात हुआ है की समास में पूर्वपद और उत्तरपद रहते हैं।,"अस्माभिः समासादिपाठपठनवेलायां ज्ञातम्‌ अस्ति यत्‌ समासे पूर्वपदम्‌, उत्तरपदञ्च तिष्ठति।" सर्व खल्विदं ब्रह्मये श्रुति वाक्य है।,सर्व खल्विदं ब्रह्म इति सामश्रुतेः। 4 दम का विवरण दीजिए।,४. दमः विवरणीयः। अनुदात्तम्‌ यह प्रथमान्त और न यह अव्ययपद अनुवृति है।,अनुदात्तम्‌ इति प्रथमान्तं न इति अव्ययपदं च अनुवर्तते। यहाँ विभक्ति में अन्य उदाहरण अधिगोपम्‌ होता है।,अत्र विभक्तौ अन्यदुदाहरणं भवति अधिगोपम्‌ इति। जीव तथा ब्रह्म का अभेदार्थ जिन उपनिषदों के द्वारा सूचित होता है वे महावाक्य कहलाते है।,जीव-ब्रह्मणोः अभेदार्थः यैः उपनिषद्वाक्यैः सूचितः तानि महावाक्यानि इत्युच्यन्ते। "इस सूक्त में परमात्मा ही जगन्नियामक है, यह स्तुति की गई है।",अस्मिन्‌ सूक्ते परमात्मा एव जगन्नियामकः इति स्तुतिः दृश्यते। "में स्थूल हूँ, कृश हूँ इत्यादि उसके तादात्म्य अभिमान के कारण होता है यह जानना चाहिए।",अहं स्थूलः कृशः इत्यादितादात्म्याभिमानात्‌ अस्य ज्ञानत्वम्‌। इनका इस पाठ में क्रमश: विस्तारपूर्वक वर्णन है।,एतानि अस्मिन्‌ पाठे क्रमशः विशदीकृतानि। "इसका उत्तर उसके अगले मन्त्र में ही कहा गया है की वह प्रकाश से युक्त, यज्ञ का रक्षक, कर्मफल को प्रकाशित करने वाला, यज्ञ में अपने स्थान को बढ़ाने वाला है।","अस्य उत्तरं ततः परस्मिन्‌ मन्त्रे एव उच्यते यत्‌ दीप्तियुक्तः, यज्ञानां रक्षकः, कर्मफलानां द्योतकः, यज्ञे स्वस्थाने वर्धमानश्च।" “कर्मणा पितृलोकः विद्यया देवलोकः” इस प्रकार से श्रुतियों में कहा है।,“कर्मणा पितृलोकः विद्यया देवलोकः” इति श्रुतिः। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का छठाँ मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य षष्ठः मन्त्रः। जो याग एक दिन समाप्त होता है वह एकाहयाग कहलाता है।,ये यागाः एकस्मिन्नेव दिने समाप्यन्ते तर्हि एकाहयागाः। पूर्वपाणिनीयाः यहाँ पर किस सूत्र से पूर्वशब्द को अन्तोदात्त का विधान है?,पूर्वपाणिनीयाः इत्यत्र केन सूत्रेण पूर्वशब्दस्य अन्तोदात्तत्वं विधीयते? उससे आधुनिक विज्ञानयुग में वेदान्त के अभिनवरूप के द्वारा इस प्रकार के व्याख्यानो को सभी दर्शन जिज्ञासुओं के द्वारा अवश्य ही ध्यान पूर्वक समझना चाहिए।,तस्मात्‌ आधुनिके विज्ञानयुगे वेदान्तस्य अभिनवरूपेण एतादृशं व्याख्यानं सर्वेः दर्शनजिज्ञासुभिः अवश्यम्‌ अध्येयम्‌। मनसः - मनस्‌-शब्द के षष्ठ्येकवचन और पञ्चम्येकवचन में यह रूप बनता है।,मनसः- मनस्‌-शब्दस्य षष्ठ्येकवचने पञ्चम्येकवचने वा। इस सूक्त से ही वाष्कल शाखा-संहिता की समाप्ति होती है।,अस्मादेव सूक्तात्‌ वाष्कलशाखा-सम्मत-संहितायाः समाप्तिर्भवति। और उस सम्बन्धिशब्द से उपमान आक्षेपित होता है।,तच्च सम्बन्धिशब्दत्वाद्‌ उपमानमाक्षिपति । दर्शन का शिक्षण प्रायोगिक रूप से भी होगा।,दर्शनस्य शिक्षणं प्रायोगिकरूपेण अपि भविष्यति। श्रवण लिंग कितने हैं और वह कौन-कौन से हैं?,श्रवणस्य लिङ्गानि कति। कानि च तानि। मलिन मन ही अशुद्ध के रूप में कहा जाता है।,मलिनं मन एव अभशुद्धमित्युच्यते। इससे तद्धित चित्प्रत्ययान्त का प्रकृति प्रत्यय समुदाय के अन्तिम स्वर को उदात्त होने का विधान है।,अनेन तद्धितचित्प्रत्ययान्तस्य प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य अन्तिमस्वरस्य उदात्तत्वं विधीयते। जडपदार्थ के आकार से आकारित चित्तवृत्ति अखण्डवृत्ति के साथ भिदती है।,जडपदार्थस्य आकारेण आकारिता चित्तवृत्तिः अखण्डवृत्त्या साकं भिद्यते। "द्वितीय मन्त्र में श्रद्धा के प्रति कहा गया है की हे श्रद्धा मेरे द्वारा इस कहे गये वचन को, दानदेकर के मनुष्यों का कल्याण करो, हे हमेशा रहने वाली श्रद्धा !","द्वितीये मन्त्रे श्रद्धां प्रति उच्यते हे श्रद्धे ममेदं घोषितवचनम्‌, दानं प्रयच्छतो जनस्य कल्याणं कुरु, हे सदास्थे !" सूत्र का अर्थ- दो बार कहा गया प्रकार आदि शब्दों के पर का अन्त उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- द्विरुक्तौ प्रकारादिशब्दानां परस्य अन्तः उदात्तो भवति। "तुम कमनीय कन्या की तरह अत्यन्त आकर्षणमयी होकर इच्छित फल देने के लिए सूर्य के समीप जाती हो, किन्तु वहाँ जाकर सूर्य के सामने स्मित आनंद देने वाली तरुणी के समान अपने वक्षस्थल प्रदेश को खोल देती हो।",त्वं कमनीया कन्या इव अत्यन्तम्‌ आकर्षणमयी भूत्वा इष्टफलप्रदातुः सूर्यस्य समीपं गच्छसि किञ्च तत्र गत्वा दिवाकरस्य पुरस्तात्‌ स्मितानना तरुणीव स्ववक्षः प्रदेशम्‌ अनावृतं करोषि। समास यह अव्ययीभाव यह अधिकृत किया गया है।,समासः इति अव्ययीभावः इति चाधिकृतम्‌। ( ६.१.१९२ ) सूत्र का अर्थ - भी आदि के अभ्यस्त को पित लसार्वधातुक के परे रहते प्रत्यय से पूर्व को उदात्त होता है।,(६.१.१९२) सूत्रार्थः- भीप्रभृतीनामभ्यस्तानां पिति लसार्वधातुके परे प्रत्ययात्पूर्वम्‌ उदात्तं भवति। वह मेरा मन मंगलमय हो।,तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु। एवं स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ह्रस्व अकरान्त से प्रातिपदिक से टाप्‌ प्रत्यय होता है।,एवं स्त्रीत्वे द्योत्ये ह्रस्वाकारान्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ परः टाप्‌ प्रत्ययः भवति। उसको दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपायों का वर्णन मन्त्रों में है।,तद्दूरीकरणाय बहुविधाः उपायाः मन्त्रेषु वर्णिताः सन्ति। "कुछ विद्वानों के मत में यह विद्वान सायण से बाद में थे, किन्तु वास्तव में सायण से यह पहले ही थे।","केषाञ्चित्‌ विदुषां मते अयं विद्वान्‌ सायणात्‌ परवर्ती आसीत्‌, किञ्च यथार्थतः सायणात्‌ पूर्ववर्ती एव अयम्‌ आसीत्‌।" जञ्निति इसके सप्तम्यन्त होने से “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' इससे पूर्व के कार्य को जानना चाहिए।,जञ्निति इत्यस्य सप्तम्यन्तत्वात्‌ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इत्यनेन पूर्वस्य कार्यमिति बोध्यम्‌। उनमें कोई क्रम होता है।,तेषु कश्चित्‌ क्रमः अस्ति। अतः प्रकृत सूत्र से गोहितम्‌ यहाँ समास होने पर भी गो यहाँ इसका प्रकृतिस्वर ही होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण गोहितम्‌ इत्यत्र समासे सत्यपि गो इति अस्य प्रकृतिस्वरः भवति। प्रत्ययः इस प्रथमा एकवचनान्त पद का यहाँ अधिकार आ रहा है।,प्रत्ययः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अधिक्रियते। मन स्वास्थ्य के विना कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है।,मनः स्वास्थ्यं विना कर्माप्रवृत्तेः। 14.वेदान्त के चार अनुबन्ध है।,१४. वेदान्तस्य चत्वारः अनुबन्धाः। उसके पदों का यहाँ अन्वय होगा - सुगन्धितेजनस्य ते आदिः द्वितीयः वा उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- सुगन्धितेजनस्य ते आदिः द्वितीयः वा उदात्तः इति। 20.4 मूलपाठ मित्रावरुणसूक्त ऋतेन॑ ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्य॑स्य यत्र॑ विमुचन्त्यश्वांन्‌।,२०.४) अधुना मूलपाठं पठाम (मित्रावरुणसूक्तम्‌) ऋतेन॑ ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्य॑स्य यत्र॑ विमुचन्त्यश्वांन्‌। उदाहरण -समीप अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण उपकृष्णम्‌ हैं।,उदाहरणम्‌ - समीपार्थ अव्ययीभावसमासस्य उदाहरणम्‌ उपकृष्णम्‌ इति। सबसे पहले अन्नमयकोश होता है उसके बाद प्राणमयकोश होता है उसके बाद मनोमय कोश होता है उसके बाद विज्ञानमय कोश होता है तथा उसके बाद आनन्दमयकोश होता है।,प्रथमं अन्नमयकोशः तदन्तः प्राणमयकोशः तदन्तः मनोमयकोशः तदन्तः विज्ञानमयकोशः तदन्तश्च आनन्दमयकोशश्च। जब प्रारब्ध कर्मों का क्षय हो जाता है तब आनन्दस्वरूप परब्रह्म में उसके प्राणों का लय हो जाता है।,यदा प्रारब्धकर्मणः क्षयः भवति तदा आनन्दस्वरूपे परब्रह्मणि तस्य प्राणाः लीयन्ते। उसका प्रथमा बहुवचन में वीर्याणि यह रूप है।,ततः प्रथमाबहुवचने वीर्याणीति। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अनेक सूक्तों में लौकिक-व्यवहार-विषय का रोचक वर्णन है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य अनेकेषु सूक्तेषु लौकिक-व्यवहारिक-विषयाणां रोचकं वर्णनमस्ति। तब सूर्यविम्ब का मध्य भाग में एक विशिष्ट नीलवर्ण रेखा प्रतीत होती है।,तदा सूर्यविम्बस्य मध्यभागे एका विशिष्टा नीलवर्णरेखा प्रतीयते। अर्थात्‌ पुरुष उस समय रागपाश के द्वारा बन्ध जाता है।,रागपाशेन पुरुषं बध्नातीत्यर्थः। जिससे इष्ट्‌ यज्ञ का आरम्भ होता है वह प्रायणीय इष्टि कहलाती है।,यया इष्ट्या यज्ञस्य आरम्भः भवति सा प्रायणीयः इष्टिः इति उच्यते। "बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां इन्द्रगुप्तां भूमिं पृथिवीम्‌ अहम्‌ अजीतः अहतः अधि अस्थाम्‌। सरलार्थ - हे पृथ्वी तेरे पर्वत, हिमालय, और गिरी आदि कल्याणकारी हो, और तेरे वन कल्याणकारी हों।","बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां इन्द्रगुप्तां भूमिं पृथिवीम्‌ अहम्‌ अजीतः अहतः अधि अस्थाम्‌। सरलार्थः- हे पृथिवि तव गिरयः हिमावृताः पर्वताश्च कल्याणकारिणः, किञ्च तव वनानि कल्याणकारकाणि सन्तु।" अतः लौकिक नियम का व्यत्ययः होता है।,अतः लौकिकनियमस्य व्यत्ययः इति भावः। अनन्तरम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अनन्तरम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। धेनाशब्द का द्वितीयाबहुवचन में धेना: यह रूप है।,धेनाशब्दस्य द्वितीयाबहुवचने धेनाः इति रूपम्‌। "जिन मंत्रो के ऋषि एक ही हैं, उन मंत्र समूहों को ही ऋषि सूक्त कहते हैं।",येषां मन्त्राणाम्‌ ऋषिः तु एकः एव वर्तते तेषां समूहः हि ऋषिसूक्तम्‌। “अलुगुत्तरपदे” इस सूत्र से अलुक्‌ उत्तर पदे इन दोनों पदों की अनुवृत्ति होती है।,"""अलुगुत्तरपदे"" इत्यस्मात्‌ सूत्राद्‌ अलुग्‌ उत्तरपदे इति पदद्वयमनुवर्तते।" तथा एकश्रुति होने पर इन दोनों मन्त्रों में सभी जगह एक ही उदात्त स्वर का विधान होने पर “इषे त्वोर्ज त्वा।,तथा सति अनयोः मन्त्रयोः सर्वत्रैव एकस्यैव उदात्तस्वरस्य विधाने 'इषे त्वोर्ज त्वा। "अतः सूत्र का अर्थ है, चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को चतुर्थ्यन्त उत्तरपद रहते प्रकृत्ति स्वर होता है।",अतः सूत्रार्थः भवति चतुर्थ्यन्तं पूर्वपदं तदर्थे उत्तरपदे प्रकृत्या भवति इति। और इसके बाद ह्रस्व अकारान्त से खट्व प्रातिपदिक से स्त्रीद्योतन के लिए अजाद्यतष्टाप्‌ इस सूत्र से टाप्‌ प्रत्यय होता है।,ततश्च ह्रस्वाकारान्तात्‌ खट्व इति प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वद्योतनाय अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रेण टाप्‌ प्रत्ययः भवति। अव्ययीभाव है।,अव्ययीभावः। "इनके क्रमानुसार ये आचार्य हैं शङ्कराचार्य, भास्कराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य तथा वल्लभाचार्य इस पाठ को पढ़कर के आप सक्षम होंगे; वेदान्त का समान्य ज्ञान प्राप्त करने में; अद्वैत वेदान्त शब्द के विशेषार्थ का ज्ञान प्राप्त करने में; वेदान्त के इतर विभागों का परिचय प्राप्त करने में; वेदान्त प्रतिपाद्य मुख्यतत्वों का ज्ञान प्राप्त करने में; ®शङ्कराचार्य आदि आचार्यो का सामान्य परिचय प्राप्त करने में; अवस्थात्रय के विषय में सामान्य बोध प्राप्त करने में; आत्म का चतुष्पादत्व का सम्यक्‌ अवगमन प्राप्त करने में; विश्व वेश्वानरादि स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने में; अद्वैतशाब्दार्थ जहाँ पर द्वैत नहीं होता है उसका अर्थ अद्वैत होता है।",एतेषां यथाक्रमं प्रवर्तकाः भवन्ति शङ्कराचार्यः भास्कराचार्यः रामानुजाचार्यः मध्वाचार्यः वल्लभाचार्यश्च। ९) उद्देश्यानि पाठस्यास्याध्ययनेन- वेदान्तस्य सामान्यज्ञानं लभ्यते। अद्वैतवेदान्तशब्दस्य विशेषार्थः अवगम्यते। वेदान्तस्य इतरविभागानां परिचयः प्राप्यते। वेदान्तप्रतिपाद्यानां मुख्यतत्त्वानां ज्ञानम्‌ उपलभ्यते। शङ्कराद्याचार्याणां परिचयः सामान्यतया उपलभ्यते। अवस्थात्रयविषये सुष्ठु बोधः लभ्यते। आत्मनः चतुष्पात्त्वं सम्यगवगम्यते विश्ववैश्वनरादिस्वरूपमवबुद्ध्यते। अद्वैतशब्दार्थः न विद्यते द्वैतं यस्मिन्‌ तत्‌ अद्वैतमिति तस्यार्थः। जनिष्यमाणः - जनी (प्रादुर्भावे) इस अर्थ की धातु से शानच्‌-प्रत्ययान्त का रूप है।,जनिष्यमाणः - जनी ( प्रादुर्भावे ) इत्यर्थकात्‌ धातोः शानच्‌-प्रत्ययान्तस्य रूपम्‌। इस समास का उदाहरण है-पीताम्बरः।,अस्य समासस्य पीताम्बरः इत्यादिकम्‌ उदाहरणम्‌। तद्धितस्य (६.१.१६४) सूत्र का अर्थ- तद्धित चित प्रत्यय को अन्त उदात्त होता है।,तद्धितस्य (६.१.१६४) सूत्रार्थः- चितः तद्धितस्य अन्तः उदात्तः स्यात्‌। 22. नित्यादि कर्म प्रत्येक जन्म के कर्तव्य होते हैं अथवा नहीं प्रस्तुत कोजिए।,२२. नित्यादिकर्माणि प्रति जन्म कर्तव्यानि न वेति प्रस्तूयताम्‌। 2. अज्ञानोपाहितचैतन्य से सबसे पहले कौन-सा भूत उत्पन्न होता है?,अज्ञानोपहितात्‌ चैतन्यात्‌ प्रथमं किम्‌ भूतम्‌ उत्पद्यते। 55. द्वन्दाच्चुदषहान्तात्समाहारे सूत्र से।,५५. द्वन्द्वाच्चुदषहान्तात्समाहारे इति सूत्रेण। अथवा जैसे कोई भी नदी अपने जल को फैलाती है -“पशून्न चित्रा सुभगा प्रथाना सिन्धुर्नक्षोद उर्विया व्यश्वैत।,"अथवा यथा काऽपि नदी स्वजलानि प्रसारयति- ""पशून्न चित्रा सुभगा प्रथाना सिन्धुर्नक्षोद उर्विया व्यश्वैत।" और उससे सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - छन्दसि विषय में दक्षिण शब्द का आदि और अन्त उदात्त होता है।,ततश्च सूत्रार्थः प्राप्यते- छन्दसि विषये दक्षिणशब्दस्य आदेः अन्तस्य च उदात्तः भवति इति। मन्त्र का प्रारम्भिक भाग प्रस्ताव है।,मन्त्रस्य प्रारम्भिकभागः प्रस्तावः। "आङिगरस के द्वारा मारण, मोहन, स्तम्भन, विद्वेष, वशीकरण, और उच्चाटन प्रख्यात छः कर्मों का विधान विशेष रूप से देखना चाहिए, वैसे ही नारदीय पुराण में भी कहा है - “तत्र चाडिगरसे कल्पे षट्कर्माणि सविस्तरम्‌।","आङ्गिरसेन मारण-मोहन-स्तम्भन-विद्वेषण-वशीकरण- उच्चाटनानां प्रख्यातानां षट्कर्मणां विधानं विशदेन दर्शितम्‌, तथाहि नारदीयपुराणे उक्तम्‌- 'तत्र चाङ्गिरसे कल्पे षट्कर्माणि सविस्तरम्‌।" उन शाखाओ को प्रत्येक के अपने मन्त्र ब्राह्मण भेद विभिन्न रूप के हैं।,तासां शाखानां प्रतिस्वं मन्त्रब्राह्मणभेदविभिन्नत्वम्‌। "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तद, चन्द्रमाः।",तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः । सूत्र अर्थ का समन्वय- विश्वः देवः यस्य इस विग्रह में विश्वदेवः यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- विश्वः देवः यस्य इति विग्रहे विश्वदेवः इति रूपम्‌। उस समय विद्युत आदि प्राप्त नहीं हुए।,तदानीं विद्युदादयो न प्राप्ता इति पूर्वत्रान्वयः। उसी प्रकार से श्रुतियों में उसे चक्षु युक्त होते हुए भी अचक्षुयुक्त तथा कर्ण युक्त होते हुए भी अकर्ण युक्त कहा है।,तथाहि श्रुतिः यत्‌ सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण इव इति। जैसे छान्दोग्योपनिषद में अद्वितीयवस्तु का मध्य में “तत्वमसि' इस प्रकार से नौ बार प्रतिपादन किया गया है।,यथा - छान्दोग्योपनिषदि अद्वितीयवस्तुनः मध्ये 'तत्त्वमसि' इति नवकृत्वा प्रतिपादनम्‌ विद्यते। जो विष्णु ने इस अतिविस्तृत तीन लोक को अद्वितीय होता हुआ तीन पैरो के द्वारा विशेष रूप से निर्मित किया।,यः विष्णुः इदम्‌ अतिविस्तृतं लोकत्रयं अद्वितीयः सन्‌ त्रिभिः पादैः विशेषेण निर्मितवान्‌। यज्ञाद्‌ भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥,यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥ वेदि की आकृति पंख फैलाये पक्षी के समान होती है।,वेद्याः आकृतिः पतत्रप्रसारितः पक्षी इव भवति। द्रोणकलश नामक पात्र में विशुद्ध रस स्थापित किया जाता है।,द्रोणकलशनामके पात्रे विशुद्धरसः संस्थाप्यते। वैदिक युग में ही सोमलता दुष्प्रा्य थी।,वैदिकयुगे एव सोमलता दुष्प्राप्या आसीत्‌। 11.3 ) साधना का कारण क्या है मानव का अन्तः करण तीन दोषों के कारण दूषित होता है।,२१.३) साधनायाः कारणं किम्‌ मानवान्तःकरणं त्रिदोषदुष्टम्‌। इसलिए वह ब्रह्म से भिन्न नहीं होता है।,तस्मात्‌ ब्रह्मणः न भिन्नम्‌। "अनुदात्त शब्द यहाँ पर शास्त्रीय अनुदात्त नहीं है, तो क्या है?","अनुदात्तशब्दः अत्र न शास्त्रीयम्‌ अनुदात्तम्‌, तर्हि किम्?" 30. अव्ययीभावादिविशेषसंज्ञाओं से विनियुक्त जो समास है वह केवल समास है।,३०. अव्ययीभावादिविशेषसंज्ञाभिः विनिर्मुक्तः यः समासः स केवलसमासः। इसके बाद प्रक्रिया कार्य में निष्पन्न से गोवृन्दारक शब्द से सु प्रत्यय होने पर गोवृन्दारकः रूप सिद्ध होता है।,ततः प्रक्रियाकार्ये निष्पन्नात्‌ गोवृन्दारकशब्दात्‌ सौ गोवृन्दारकः इति रूपं सिद्धम्‌। समासान्त अच्‌ प्रत्यय होता है।,समासान्तः अच्प्रत्ययो विधीयते। जितने सभी प्राणियों के शिर है वे सभी उसकी देह में विद्यमान होने से उसका भी सहस्र शीर्षत्व है।,यानि सर्वप्राणिनां शिरांसि तानि सर्वाणि तद्देहान्तःपातित्वात्तदीयान्येवेति सहस्रशीर्षत्वम्‌। और इस प्रकार यहाँ पद का अन्वय होता है - अथ प्राक्‌ शकटे: आदिः अधिक्रियते इति।,एवञ्च अत्र पदान्वयः भवति- अथ प्राक्‌ शकटेः आदिः अधिक्रियते इति। जब कोई भी भाषा व्यवहार में दीर्घ काल से चली आ रही है तब उस भाषा का ज्ञान व्याकरण मन्त्र के द्वारा जाना नहीं जा सकता है।,यदा कापि भाषा व्यवहारातीततां प्रयाति तदा तस्या भाषायाः ज्ञानं व्याकरणमन्त्रेण न प्रतिपत्तुं शक्यं भवति। इस प्रकार से ये निर्विकल्पक समाधि के अङ्ग होते है।,एतानि हि निर्विकल्पकसमाधेः अङ्गानि भवन्ति। रुद्र का कल्याणत्व किस श्रुति से प्रतीत होता है ?,रुद्रस्य कल्याणत्वं कया श्रुत्या द्योत्यते ? शुक्लयजुर्वेद में जो मन्त्र है उनकी भी इसी तरह व्याख्या है।,शुक्लयजुर्वेदे ये मन्त्राः लभ्यन्ते तेऽपि अत्र आनीय व्याख्याताः सन्ति। उदाहरण -कर्ता में तृतीयान्त का कृदन्त से समास का उदाहरण है हरित्रातः।,उदाहरणम्‌ - कर्तरि तृतीयान्तस्य कृदन्तेन समासस्योदाहरणं हरित्रातः। इसलिए विषय के साथ शास्त्र का बोध्यबोधकभाव सम्बन्ध होता है।,अतः विषयेण सह शास्त्रस्य बोद्ध्यबोधकभावसम्बन्धः। अर्थात्‌- घट का नाश होता है तो जैसे व्योम घट मध्यवर्ती आकाश स्वयं व्योम होता है तथा स्वयं ही महाकाश होता है।,"अर्थात्‌ - घटे नष्टे घटस्य नाशः भवति चेत्‌ यथा व्योम घटमध्यवर्ती आकाशः व्योमैव स्वयं भवति, स्वयम्‌ एव महाकाशः भवति।" वह अपने महान से हमको महान सुख प्रदान करे।,स महांस्त्वम्‌ अस्मभ्यं महत्‌ सुखं प्रयच्छ। "वहाँ पर रथ, रथचालक अश्व तथा मार्गादि होते हैं।",तत्र रथाः रथचालकाः अश्वाः मार्गाश्च सन्ति। यहाँ 'मे' शब्दको आश्रित करके सरस्वति यहाँ पर आमन्त्रित निघात है।,अत्र मेशब्दम्‌ आश्रित्य सरस्वति इत्यत्र आमन्त्रितनिघातः। न की वेदसिद्धान्त विरोधी तर्क इसलिए भगवान भाष्यकार ने कहा है- “श्रुत्यनुगृहीतः एव ह्यत्र तर्कोनुभवाडऱगत्वेन आश्रियते ” इति।,न तु वेदसिद्धान्तविरोधी तर्कः। तस्मादेव भगवता भाष्यकारेण उच्यते - “श्रुत्यनुगृहीतः एव ह्यत्र तर्कोनुभवाङ्गत्वेन आश्रियते” इति। "'' यद्यपि महाभाष्य में ऋग्वेद की इक्कीस शाखाओं का निर्देश है, और वहाँ शाकल-वाष्कल- आश्वलायन-शांख्यायन-माण्डूकायन-नाम की पांच मुख्य शाखाओं के विषय में कहा गया है।","यद्यपि महाभाष्ये ऋग्वेदस्य एकविंशतिसंख्यकाः शाखा निर्दिष्टाः, तत्र च शाकल-वाष्कल- आश्वलायन-शांख्यायन-माण्डूकायन-नामधेयाः पञ्च मुख्याः शाखाः सन्ति।" इसके बाद उपचर्म शब्द सुका अम्‌ होने पर प्रक्रियाकार्य में उपचर्यम्‌ रूप निष्पत्र होता है।,ततः उपचर्मशब्दात्‌ सौ सोरमि प्रक्रियाकार्ये उपचर्मम्‌ इति रूपं निष्पन्नम्‌ "चन्द्र, चतुर्मुख, शङ्कर,तथा अच्युत के द्वारा क्रम से नियन्त्रित मन बुद्धि अहङ्कार तथा चित्त के माध्यम से अन्तरिन्द्रियचतुष्कोण से क्रम से सङ्कल्प विकल्प निश्चय अहङ्कार तथा चित्त स्थूल विषयों का वैश्वानर अनुभव करता है।",चन्द्रचतुर्गुखशङ्कराच्युतैः क्रमाद्‌ नियन्त्रितेन मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्ताख्येन अन्तरिन्द्रियचतुष्केण क्रमात्‌ सङ्कल्पविकल्पनिश्चयाहङ्कार्यचैत्तांश्च स्थूलविषयान्‌ वैश्वानरः अनुभवति। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण नीचे दिये गये हैं।,उदाहरणम्‌ - अस्य सूत्रस्योदाहरणानि अधः प्रदीयन्ते। अतः प्रकृत सूत्र से पश्य यहाँ तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण पश्य इति तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। अर्थेन नित्यसमासो विरोष्यलिङगता चेति वक्तव्यम्‌'' इस वार्तिक का क्या अर्थ है।,"अर्थन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम्‌"" इति वार्तिकस्यार्थः कः।" आहनसम्‌ इसका क्या अर्थ है?,आहनसम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। क्षीरस्वामी अमरकोश के प्रसिद्ध टीकाकार हैं।,क्षीरस्वामी अमरकोशस्य प्रसिद्धः टीकाकारः अस्ति। 3. स्वर्ग फल नित्य होता है अथवा अनित्य प्रमाण सहित बताइए?,३. स्वर्गफलं नित्यमनित्यं वेति सप्रमाणं वदत। और भी एकश्रुति यहाँ नपुंसक लिङ्ग प्रथमा एकवचनान्त पद वाक्य है प्रथमा एकवचनान्त पद का विशेषण है।,अपि च एकश्रुति इति क्लीबलिङ्गि' प्रथमैकवचनान्तं पदं वाक्यम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तस्य पदस्य विशेषणम्‌। परन्तु आजकल तो पाणिनीय व्याकरण ही प्राप्त होता है।,परं साम्प्रतं तु पाणिनीयं व्याकरणम्‌ एव प्राप्यते। अथर्ववेद का कोई भी आरण्यक उपलब्ध नहीं है।,अथर्ववेदस्य न किमपि आरण्यकम्‌ उपलब्धमस्ति। शिवमहिम्नस्तोत्र में यह कहा है- रुचीनां वैचित्र्यादूजुकुटिलनानापथजुषाम्‌।,शिवमहिम्नस्तोस्त्रे अपि उच्यते-रुचीनां वैचित्र्यादूजुकुटिलनानापथजुषाम्‌। प्राचीन ऋषियों ने वर्षा के तथा गर्जन शक्ति वाले मूर्तिरूप पर्जन्यदेव के दर्शन को प्राप्त करते है।,प्राचीनाः ऋषयः वर्षाणां तथा गर्जनशक्त्याः मूर्तिरूपेण पर्जन्यदेवस्य दर्शनं लब्धवन्तः। प्रकृति शब्द का अर्थ स्वाभाविक है।,प्रकृतिशब्दः स्वाभाविके वर्तते। पदद्वयात्मक होने पर इस सूत्र में तृतीयासप्तमी का षष्ठीद्विवचनान्त पद है।,पदद्वयात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे तृतीयासप्तम्योः इति षष्ठीद्विवचनान्तं पदम्‌। ऋतम्‌ - ऋ-धातु से क्त प्रत्यय करने पर।,ऋतम्‌- ऋ-धातोः क्तप्रत्यये। आमन्त्रितम्‌ यह पद का विशेषण है।,आमन्त्रितम्‌ इति पदस्य विशेषणम्‌। हिरण्यगर्भ का स्वरूप भी इस तत्त्व का अपवाद भूत नहीं है।,हिरण्यगर्भस्य स्वरूपमपि अस्य तत्त्वस्य अपवादभूतं नास्ति। जीव हि अविद्या के प्रभाव से असद्‌ वस्तु को सत्‌ रूप से देखता है।,जीवा हि अविद्यायाः प्रभावात्‌ असद्‌ वस्तु सद्रूपेण पश्यन्ति। अर्थात्‌ अखण्ड ब्रह्म में ही सबकुछ पर्यवसित होता है।,अर्थात्‌ अखण्डे ब्रह्मणि एव सर्वं पर्यवसितं भवति। और वह यश पुत्र आदिवीरपुरुष सहित प्राप्त होता है।,तच्च यशः पुत्रादिवीरपुरुषैः सहितं प्राप्नोति। कभी अपने आप ही स्वर का विधान है।,कदाचित्‌ स्वतः एव स्वरः विधीयते। अनेक कार्यो को पूर्ण करने वाले शक्तिशाली।,प्रभूतकामवर्षणशीलः इत्यर्थः। "सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में काष्ठादिगण में पढ़ा गए है, काष्ठ शब्द पूजित अर्थ में विद्यमान है।",सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे काष्ठादिगणे पठितः काष्ठाशब्दः पूजितार्थ विद्यते। हिरण्यगर्भ ही प्रजापति नाम से विख्यात है।,हिरण्यगर्भ एव प्रजापतिः इति नाम्ना विख्यातः। "इस सूक्त में आत्म समर्पण, नम्रता, दीनता, अपराध स्वीकृति, इत्यादि विशाल भावना देखते है।",अस्मिन्‌ सूक्ते आत्मसमर्पणं नम्रता दीनता अपराधस्वीकृतिः इत्यादयः भव्यभावनाः दृश्यन्ते। वह तब स्थूल विषयों का अनुभव करता है।,स तदा स्थूलविषयान्‌ अनुभवति। लघुटिप्पी लिखिए-शिवज्ञान तथा जीवसेवा।,लघुटिप्पणीं लिखत - शिवज्ञानेन जीवसेवा। अब कहते हैं भले ही एक वाक्यता हो जाए लेकिन यहाँ पर तो विरोध ही है।,ननु भवतु तावत्‌ एकवाक्यत्वम्‌ अविरुद्धानाम्‌; इह तु विरोध उक्तः। पदपाठ - यस्मात्‌।,पदपाठः - यस्मात्‌। योग प्रभाव से आर्त को आरोग्य भी देता है।,योगप्रभावात्‌ आर्ताय आरोग्यं ददाति। इसलिए इससे तो मोक्ष में भी अनित्यता आ जाती है।,अतः मोक्षस्यापि अनित्यता आगता। फिर भी आद्युदात्त स्वर है।,तथापि आद्युदात्तस्वरः अस्ति। कल्पसूत्र दो प्रकार के होते हैं - श्रौतसूत्र और स्मार्त्तसूत्र।,कल्पसूत्राणि द्विविधानि- श्रौतसूत्राणि स्मार्त्तसूत्राणि च। जिस प्रकार से मृत्तिका को घटादियों के द्वारा परिणमित कलालादि निमित्तकारण रूप के द्वारा देखे गये है उसी प्रकार से यहाँ सद्‌ ब्रह्म के विना अन्यत कुछ और निमित्त कारण नहीं होता है।,"यथा मृत्तिकां घटादिना परिणमयितुं कलालादयः निमित्तकारणरूपेण दृष्टा, न तथा अत्र सद्ब्रह्म विना अन्यत्‌ किञ्चित्‌ निमित्तकारणम्‌ अस्ति।" श्रद्धा का विषय ही गुरुपदिष्ट वेदान्त वाक्य है।,श्रद्धाविषयः गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्यम्‌। और वह चित्प्रतिबिम्ब सहित होकर के प्रत्यगभिन्न अज्ञान परब्रह्म को विषयीकृत करके तद्गत अज्ञान का बाध करती है।,सा तु चित्प्रतिबिम्बसहिता सती प्रत्यगभिन्नम्‌ अज्ञातं परं ब्रह्म विषयीकृत्य तद्गत अज्ञानम्‌ एव बाधते। यहाँ पर क्या कारण है।,किमत्र कारणं स्यादिति । वा भुवनम्‌ इस सूत्र का क्या अर्थ है?,वा भुवनम्‌ इति सूत्रस्य अर्थः कः? जो जलवर्षक दानशील गर्जनकारी पर्जन्य वृष्टिपात द्वारा औषधियों को गर्भयुक्त करे।,यः पर्जन्यः वृषभः अपां वर्षिता जीरदानुः क्षिप्रदानः कनिक्रदत्‌ गर्जनशब्दं कुर्वन्‌ ओषधीषु गर्भ गर्भस्थानीयं रेतः उदकं दधाति स्थापयति । तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्हिविङोः इस सूत्र से सार्वधातुकम्‌ इस पद की अनुवृति आ रही है।,तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्ह्निङोः इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लसार्वधातुकम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते। "व्याख्या - ` द्यः पिता' (तै. ब्रा. ३. ७, ५. ४) इस श्रुत्ति के अनुसार द्यौ पिता है।","व्याख्या- 'द्यौः पिता'(तै. ब्रा. ३. ७. ५. ४) इति श्रुतेः, पिता द्यौः।" "जहल्लक्षणा, अजहल्लक्षणा और जहदजहल्लक्षणा जहाँ पर शक्यार्थ के अनन्तर्भाव्य ही अर्थान्तर प्रतीत होता है वहाँ पर जहल्लक्षणा होती है।",जहल्लक्षणा अजहल्लक्षणा जहदजहल्लक्षणा च इति। यत्र शक्यार्थम्‌ अनन्तर्भाव्य एव अर्थान्तरप्रतीतिः भवति तत्र जहल्लक्षणा भवति। द्वि पदात्मक इस सूत्र में यावत्‌ इस अव्ययपद के अवधारण होने पर सप्तम्येकवचनान्त पद है।,पदद्वयात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे यावदित्यव्ययपदम्‌ अवधारणे इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। लोक में सामान्यरूप से मनुष्य जो कुछ होता है वहा पर उसकी श्रद्धा है ऐसा कह सकते है।,लोके सामान्यतः जनः यत्परः भवति तत्र तस्य श्रद्धा अस्ति इति वक्तुं शक्यते। "इस प्रकार के व्याकरण ज्ञान से जो अनजान है, वह जानता हुआ भी नहीं जानता है, देखता हुआ भी नहीं देखता है, सुनता हुआ भी नहीं सुनता है।","एवंविधव्याकरणज्ञानाद्‌ यः अनभिज्ञः अस्ति स जानन्नपि न जानाति, पश्यन्नपि न पश्यति, शृण्वन्नपि न शृणोति।" केनोपनिषद में उमा-हैमवतीसंवाद में भी शक्ति महानता को प्रकाशित किया है।,केनोपनिषदि उमा-हैमवतीसंवादेऽपि शक्तिमाहात्म्यं प्रकाशितम्‌। व्याकरण को अनेक वैयाकरणों व महर्षियों के द्वारा लिखा गया है।,व्याकरणानि बहुभिः वैयाकरणैः महर्षिभिः प्रणीतानि। इस सूत्र में अजाद्यतः पद में बहुव्रीहिगर्भसमाहार द्वन्द समास है।,अस्मिन्‌ सूत्रे अजाद्यतः इति पदे बहुव्रीहिगर्भसमाहारद्वन्द्वसमासः अस्ति। अवगम (Understanding) अभिव्यक्ति (Application skill) और अवलम्ब युक्त अनुपात से प्रश्‍न पूछे जायेंगे।,अवगमम्‌ (Understanding) अभिव्यक्तिं (Application skil1) चावलम्ब्य युक्तानुपातेन प्रश्नाः समाविष्टाः स्युः। "पाक परिपक्व में जो महान्‌, अथवा जिसमें निष्णात है वह पाकस्थामा महाप्राण अर्थ में' (स्कन्दमाहेश्वर कौ व्याख्या)।",पाकः परिपक्वो महान्‌ स्थामा यस्मै स पाकस्थामा महाप्राणश्चेत्यर्थः' (स्कन्दमाहेश्वरस्य व्याख्या)। "इस प्रकार से श्रोत्र, त्वक्‌, चक्षु, जिह्वा घ्राण तथा मन मनोमय कोश के अन्तर्गत होते हैं।",एवं श्रोत्रं त्वक्‌ चक्षुः जिह्वा घ्राणं तथा मनश्च मनोमयकोशे अन्तर्भवति। उषादेवी सूर्य के सामने जाकरके क्या करती है?,उषादेवी दिवाकरस्य पुरस्तात्‌ गत्वा किं करोति? लेकिन इस वाक्य से अग्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है।,तस्मात्‌ वाक्यात्‌ अग्नेः प्रत्यक्षं ज्ञानं न भवति। विभ्रती - विपूर्वकभृ-धातु से शतृप्रत्यय और ङीप करने पर।,विभ्रती- विपूर्वकभृ-धातोः शतृप्रत्यये ङीपि। सुषुप्ति में मन के विलय होने से मन होता ही नहीं है।,सुषुप्तौ मनसः विलयात्‌ विषयः नास्ति। उन जुआरी की स्थिति क्या होती है कहते है।,ततः कितवानां का स्थितिः भवतीति उच्यते । धर्म के द्वारा पाप दूर होते हैं।,धर्मेण पापम्‌ अपनुदति। "इस सूत्र में तीन पद है, स्वपादिहिंसाम्‌ अचि अनिटि ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।","अस्मिन्‌ सूत्रे त्रीणि पदानि सन्ति, स्वपादिहिंसाम्‌ अचि अनिटि इति सूत्रगतपदच्छेदः।" वहाँ नित्यादिकर्मो के द्वारा चित्त की शुद्धि को जाती है।,तत्र नित्यादिकर्माणि चित्तशुद्धये क्रियन्ते। आनन्द का भोग करने वाला आनन्दभुक्‌ कहलाता है।,आनन्दं भुङ्क्ते इति आनन्दभुक्‌। कर्म किये बिना कोई भी प्राणी एक क्षण भी रुक नहीं सकता है।,कर्म अकृत्वा न कोऽपि क्षणमेकं जातु तिष्ठति। नित्यकर्मपाप नाशक होते हैं इस विषय में गीता की सम्मति है।,नित्यकर्माणि पापनाशकानि सन्ति इत्यत्र गीतासम्मतिः। "जहाँ महान गतिशील कौ, इच्छापूर्ति करने वाले विष्णु के परम धाम अधोलोक को प्रकाशित करता है।","यत्र महतः गतिशीलस्य, इच्छापूर्तिकारकस्य विष्णोः परमं धाम अधोलोके प्रकाशते।" "काम्यानुष्ठान में धान्य से पुरोडाश का निर्माण करना चाहिए, वहाँ गेहूँ का व्यवहार निषिद्ध है।","काम्यानुष्ठाने धान्येन पुरोडाशस्य निर्माणं कर्तव्यम्‌, तत्र गोधूमस्य व्यवहारः निषिद्धः।" पूर्व अम्‌ भूत सु यह अलौकिक विग्रह है।,पूर्व अम्‌ भूत सु इत्यलौकिकविग्रहः। सूत्र अर्थ का समन्वय- पद्भ्यां भूमिः इस उदाहरण में पद्‌-शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रादिपदिकम्‌ इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर उससे स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इस सूत्र से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों कौ प्राप्ति में तृतीया द्विवचन को विवक्षा में भ्याम्‌- प्रत्यय करने पर पद्भ्याम्‌ इस स्थित्ति में उन सभी का संयोग करने पर पद्भ्याम्‌ यह रूप सिद्ध होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- पद्भ्यां भूमिः इति उदाहरणे पद्‌-शब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रादिपदिकम्‌ इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्डेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु तृतीयाद्विवचनविवक्षायां भ्याम्‌- प्रत्यये पद्‌ भ्याम्‌ इति स्थिते ततश्च सर्वसंयोगे पद्भ्याम्‌ इति रूपं सिध्यति। अविवाहित को अग्निहोत्र का अधिकार नहीं है।,अविवाहितस्य अग्निहोत्रे अधिकारः नास्ति। यूपदारु रूप को सिद्ध करो?,यूपदारु इति रूपं साधयत। "यहाँ तवै- इस प्रत्यय विशेष का ग्रहण है, उस प्रत्यय ग्रहण में “तदन्ता: ग्राह्याः' इस परिभाषा से तवै-प्रत्ययान्त की यहाँ पर प्राप्ति होती है।","अत्र तवै-इति प्रत्ययविशेषस्य ग्रहणम्‌, तेन प्रत्ययग्रहणे ""तदन्ताः ग्राह्याः' इति परिभाषया तवै- प्रत्ययान्तस्य इति लभ्यते।" और वाक्‍य का हर्याविकरणिकाः भक्तिः ऐसा अर्थ है।,वाक्यस्य च हर्यधिकरणिका भक्तिः इत्यर्थः। पर्वतों के द्वारा पुष्ट करने वाली प्रवहणशील नदियों को बहाता है अर्थात नदियों के किनारे को बहाने वाला यह सूर्य रूपी इन्द्र का तीसरा कार्य है।,पर्वतानां संबन्धिनी: वक्षणाः प्रवहणशीलाः नदीः प्र अभिनत्‌ भिन्नवान्‌ कूलद्वयकर्षणेन प्रवाहितवानित्यर्थः इदं तृतीयं वीर्यम्‌। इस उपनिषद्‌ का आरम्भ प्रशन प्रतिवचनों से देखा जाता है।,अस्या उपनिषद आरम्भः प्रश्नप्रतिवचनाभ्यां दृश्यते। इस संहिता के सम्पादक का अनुमान है कि - कपिष्ठल गाँव का प्रतिनिधि 'कैथल' इस नाम का ही गाँव था।,अस्याः संहितायाः सम्पादकेन अनुमीयते यत्‌- कपिष्ठलग्रामस्य प्रतिनिधिः 'कैथल' इत्याख्यो ग्राम एवासीत्‌। इसका अर्थ यह हैं कि सभी प्रकार के उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त तुम कामादि त्याग अशक्तव के द्वार सभी अधर्म अनुचित वस्तुओं की आकांक्षा मत करो।,अस्यार्थो हि सर्वोत्कृष्ठहेतुज्ञानवान्‌ त्वं कामादित्यागाशक्तत्वेन सर्वाधमविङ्वाहादिसाम्यं माकाङ्कीः मा कुरु। मन का शम किया जाता है।,मनसः शमः क्रियते। "सम्पूर्ण रूप से सूत्र का अर्थ होता है - संहिता के होने पर स्वरित स्वर से परे विद्यमान अनुदात्त स्वरों की एकश्रुति होती है, अर्थात्‌ कोई भी विशिष्ट स्वर सुनाई नहीं देता है यह भाव है।",साकल्येन सूत्रस्य अर्थो भवति- संहितायां सत्यां स्वरितस्वरात्‌ परं विद्यमानानाम्‌ अनुदात्तस्वराणां एकश्रुतिः भवति अर्थात्‌ कोऽपि विशिष्टः स्वरः न श्रूयते इति भावः। "पहले बताये मत के अनुसार से वेद का कोई भी इस प्रकार का मन्त्र नहीं है, जो छन्द के माध्यम से निर्मित नहीं है।","पूर्वोक्तमतानुसारेण वेदस्य न कोऽपि एवंविधः मन्त्रः अस्ति, यः छन्दसो माध्यमेन न निर्मितः वर्तते।" उस के द्वारा आद्युदात्त होने से प्रकृतः यह रूप ही होता है।,तेन आद्युदात्तत्वात्‌ प्रकृतः इत्येवं रूपं भवति। विशेष- इस सूत्र में युगपद्‌ ग्रहण पर्याय की निवृत्ति के लिए है।,विशेषः- अस्मिन्‌ सूत्रे युगपद्‌ ग्रहणं पर्यायनिवृत्यर्थम्‌। जिस प्रकार से मन के द्वारा बन्धनों की कल्पना को जाती है उसी प्रकार मन के द्वारा ही मोक्ष को भी कल्पना की जाती है।,येन मनसा बन्धः कल्प्यते मोक्षः तैनैव कल्प्यते। नीचा वर्तन्त उपरि ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या कीजिए।,नीचा वर्तन्त उपरि ... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। यश शब्द से अच्प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में।,यशश्शब्दस्य अच्प्रत्यये द्वितीयैकवचने। "मन, बुद्धि, अहङ्कार तथा चित्त के रूप में।",मनः बुद्धिः अहंकारः चित्तं च इति। जिस प्रकार से सृष्टि होती है प्रलय उसके विपरीत क्रम से होता है।,येन क्रमेण सृष्टिः तद्विपरीतक्रमेण प्रलयः। इसके बाद पूर्वपठित पाठों में केवल आदि पाँच समासों का कैसे परिशील सेहत किया गया है इस पाठ में प्रस्तुत किया गया है।,ततः पूर्वतनेषु पाठेषु केवलादीनां पञ्चानां समासानां कथं परिशीलनं संवृत्तम्‌ इति संक्षेपेण अस्मिन्‌ पाठे प्रस्तुतम्‌। श्रुतियों में कहा भी गया है तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।,श्रूयते च - तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति। सिद्धान्त संहिता होरारूप स्कन्धत्रय आत्मक हेै।,सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्‌। "इसके निराकरण के लिए ""पाणिनीयसङ्केतसम्बन्धेन समासपदवत्त्वम्‌"" ऐसा समास का लक्षण करना चाहिए।","तद्वारणाय ""पाणिनीयसङ्केतसम्बन्धेन समासपदवत्त्वम्‌"" इति समासस्य लक्षणं करणीयम्‌।" यदि घटाकार चित्तवृत्ति होती है तो वह घटविषयक अज्ञान का नाश करती है तथा घट को प्रकाशित करती है।,तथाहि यदि घटाकारा चित्तवृत्तिर्भवति तर्हि घटविषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति घटश्च प्रकाशते । ब्राह्मण ग्रन्थों का विस्तृत परिचय पहले ही हुआ है।,ब्राह्मणग्रन्थानां विस्तृतपरिचयः पूर्वमेव अभवत्‌। क्या किया।,किं कुर्वन्‌। अकः - कृ-धातु से लुङ मध्यमपुरुष एकवचन में यह वैदिक रूप है।,अकः - कृ - धातोः लुङि मध्यमपुरुषैकवचने वैदिकरूपम्‌ । उसके उत्तर में ङस्‌ प्रत्यय का सम्बन्ध यही अर्थ है।,तदुत्तरस्य ङस्‌-प्रत्ययस्य सम्बन्धः इत्यर्थः। इस प्रकार अनेक धारा से सम्पन्न पृथ्वी हमारे लिए दुग्ध (जल) प्रदान करे अथवा वह पृथ्वी हमारे लिए अनेक दुग्ध धारा से और तेज से अभिषेक करे।,एवं बहुधारासम्पन्ना पृथिवी अस्मभ्यं दुग्धँ(जलं) प्रयच्छतु अथवा सा पृथिवी अस्माकं कृते बहुधारया दुग्धं दोग्धु किञ्च तेजसा अभिषिञ्चतु। मन्त्रों में जिस स्थल पर अचेतन का चेतन के समान सम्बोधन अथवा व्यवहार सुना जाता है उस स्थल पर उस अभिमानी देवता के चेतन सत्ता को आमन्त्रित किया ऐसा समझना चाहिए।,मन्त्रेषु यस्मिन्‌ स्थले अचेतनस्य चेतनवत्‌ सम्बोधनं व्यवहारो वा श्रूयते तस्मिन्‌ स्थले तदभिमानिनीनां देवतानां चैतन्यसत्तायाः आमन्त्रणं बोद्धव्यम्‌।। यहाँ यजुर्वेद की संख्या २८२३ है।,अत्र यजुषां संख्याः २८२३ सन्ति। 17 शौचसन्तोष तप स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान ये नियम होते हैं।,१७. शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। मित्र ही जल वर्षा कारी देवता ऐसा यास्क व्याख्या से जाना जाता है।,मित्रो हि जलवर्षणकारिणी देवता इति यास्कव्याख्यानात्‌ ज्ञायते। "अप्पयदीक्षित के द्वारा भी सिद्धान्तलेख सङ्ग्रह मे यही कहा गया है कि “ इस प्रकार से मुक्त होने पर जीव तथा ईश्वर के प्रतिबिम्ब विशेष पक्षों में जो बिम्ब स्थानीय ब्रह्म होता है, वह मुक्त प्राप्य शुद्ध चैतन्य होता है।",अप्पयदीक्षितेनापि एवमेव भण्यते सिद्धान्तलेखसंग्रहे - “एवमुक्तेषु एतेषु जीवेश्वरयोः प्रतिबिम्बविशेषपक्षेषु यत्‌ बिम्बस्थानीयं ब्रह्म तत्‌ मुक्तप्राप्यं शुद्धचैतन्यमिति” इति। सम्बुद्धि क्या है?,का सम्बुद्धिः ? नः पद भ का विशेषण है।,नः इति पदं भस्य विशेषणम्‌। 6. प्रजापतिसूक्त में कितने मन्त्र हैं?,६.प्रजापतिसूक्ते कति मन्त्राः सन्ति? और कहा - “कल्पो वेदविहितानां कर्मणामानुपूर्व्यण कल्पनाशास्त्रम्‌'।,उक्तञ्च- 'कल्पो वेदविहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्‌। और विषयों से मन श्रेष्ठ होता है।,विषयेभ्यः मनः श्रेष्ठम्‌। इस प्रसङ्ग में “आरोग्यं भास्करादिच्छेद्धनमिच्छेद्धुताशनात्‌” इस पौराणिक आख्यायिका का भी अनुसन्धान करना चाहिए।,"प्रसङ्गे अस्मिन्‌ ""आरोग्यं भास्करादिच्छेद्धनमिच्छेद्धुताशनात्‌” इति पौराणिकी भणितिरपि अनुसन्धेया।" वहाँ आमन्त्रित संज्ञक अग्नि इस पद के आदि अच्‌ अकार के स्थान में प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर का विधान है।,ततः आमन्त्रितसंज्ञकस्य अग्ने इति पदस्य आदेः अचः अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः विधीयते। इसमें प्रथमानिर्दिष्टं समासे उपसर्जनम्‌ यह पदच्छेद है।,तत्र प्रथमानिर्दिष्टं समासे उपसर्जनम्‌ इति पदच्छेदः। 'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि भवन्त्यायुष्मत्पुरुषाणि च' इस प्रकार वृद्धिरादैच्‌ इस सूत्रभाष्य में पतञ्जलि ने कहा है।,'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि' भवन्त्यायुष्मत्पुरुषाणि च इति बृद्धिरादैच्‌ इति सूत्रभाष्ये पतञ्जलिना उक्तम्‌। कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र कौ व्याख्या कोजिए।,कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रं व्याख्यात। सरलार्थ - वह मछली उनसे कहती है कि -आप मेरा पालन करो।,सरलार्थः - स मत्स्यः तम्‌ उवाच- त्वं मां पालय। उससे अधि अव्यय का विभक्त्यर्थकवाचक है।,तस्मात्‌ अधि इत्यव्ययं विभक्त्यर्थवाचकम्‌ अस्ति। (क) उपरति (ख) तितिक्षा (ग) वैराग्य (घ) श्रद्धा 15. शमदमादि षट्क सम्पत्ति के अन्तर्गत यह नहीं होता है।,(क) उपरतिः (ख) तितिक्षता (ग) वैराग्यम्‌ (घ) श्रद्धा 15. शमादिषट्कसम्पत्तौ इदं नान्तर्भवति। और उसका बोध पूर्व अम्‌ यह है भूत सु यह भी है।,"तद्गोध्यं च पूर्व अम्‌ इत्यपि अस्ति, भूत सु इत्यपि अस्ति।" वह यहाँ पर पञ्चम्यन्त से विपरीत है।,तच्चात्र पञ्चम्यन्ततया विपरिणम्यते। यातुधान्यशब्द का क्या अर्थ है?,यातुधान्यशब्दस्य कः अर्थः? प्रायः सभी विषय का साधक बाधक युक्तियों के द्वारा परीक्षण करके भगवान भाष्यकार शङऱकराचार्य जी ने गीता के अन्तिम अध्याय में कहा है।,प्रायः समग्रस्यास्य विषयस्य साधकबाधकयुक्तिभिः परीक्षणं कृतं भगवता भाष्यकारेण शङ्करेण गीताया अन्तिमाध्याये। "अन्वय - यस्याः बहु उद्वतः प्रवतः समं मानवानां मध्यतः असम्बाधं याः नानावीर्याः ओषधीः बिभर्ति, पृथ्वी नः प्रथताम्‌, नः राध्यताम्‌।","अन्वयः- यस्याः बहु उद्वतः प्रवतः समं मानवानां मध्यतः असम्बाधं याः नानावीर्याः ओषधीः बिभर्ति, पृथिवी नः प्रथताम्‌, नः राध्यताम्‌।" 8. सू: यहाँ पर धातु क्या है?,8. सू: इत्यत्र कः धातुः। जिससे शरीर मे इन्द्रियों में तथा मन में निरतिशय सामर्थ्य उत्पन्न होता है।,तेन च तस्य शरीरेन्द्रियमनःसु निरतिशयं सामर्थ्यम्‌ उपजायते। इस विधान कारण का पूर्ण निर्देश ताण्ड्य ब्राह्मण में (६/५/१) प्राप्त होते है।,अस्य विधानकारणस्य पूर्णनिर्देशः ताण्ड्यब्राह्मणे (६/५/१) प्राप्यते। श्रज्यावमकन्पापवत्सु भावे कर्मधारये इस सूत्र से कर्मधारये इस पद की अनुवृति आती है।,श्रज्यावमकन्पापवत्सु भावे कर्मधारये इति सूत्रात्‌ कर्मधारये इति पदम्‌ अनुवर्तते। सत्वरजतमोगुणमय अज्ञान से सत्त्वगुण के प्राधान्य के द्वारा अन्तः करण उत्पन्न होता है।,सत्त्वरजस्तमोगुणमयाद्‌ अज्ञानाद्‌ सत्त्वगुणस्य प्राधान्येन उत्पन्नं खलु अन्तःकरणम्‌। "इन्द्र और सूर्य में अश्व का, रूद्र का वज्र निर्माण, इन्द्र का वज्र प्रयोग, अग्नि इन्द्र सविता देव की रथ की कहानियाँ वेद में बहुत प्राप्त होती है।","इन्द्रसूर्ययोः अश्वस्य, त्वष्टुः वज्रनिर्माणस्य, इन्द्रस्य वज्रप्रयोगस्य, अग्नीन्द्रसवितृदेवानां रथस्य च कथाः वेदे भूयो भूयः प्राप्यन्ते।" डॉ. हर्टल महोदय ने भी श्रोदर महोदय के विचार का अनुमोदन किया।,डॉ. हर्टलमहोदयोऽपि श्रोदरमहोदयस्य विचारमनुमोदयति। इस प्रकार से यह सुनिश्चित होता है कि जीवन्मुक्त ही आत्मवान होता है न को अन्य।,"जीवन्मुक्तः एव आत्मवित्‌ भवति, न अन्यः इति एव निश्चयः।" ब्रह्म निरूपाधिक निर्गुण तथा निर्धर्मक होता है।,ब्रह्म च निरुपाधिकं निर्गुणं निर्धर्मकञ्च भवति। इसलिए श्रुतियों में कहा है की उसकी प्रभा से यह सब प्रकाशित होता है।,तथाहि- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति श्रुतेः। दिशावाचक पूर्वपद जिसका जिससे प्रातिपदिक शैषिक भवादि अर्थ में असंज्ञायां गम्यमान तद्धित जप्रत्यय होता है।,दिशावाचकं पूर्वपदं यस्य तस्मात्‌ प्रातिपदिकाद्‌ शैषिके भवाद्यर्थ असंज्ञायां गम्यमानायां तद्धितः ञप्रत्ययो भवति । "देव साकार है या निराकार, शरीर धारी है या अशारीरक इस विषय में नाना दर्शनों में नानानिरूक्तकारों ने नाना मत बताएं हैं।","देवाः साकाराः निराकाराः वा, शरीरिणः अशरीरिणः वा इति विषये नानादर्शनेषु नानानिरुक्तकारेषु नानामतानि परिलक्ष्यन्ते।" समाधि के लाभ के लिए भी इस योग से अष्टाङ्ग का उपदेश दिया गया है उनकों अष्टाङ्ग योग कहते हैं।,"किञ्च, समाधिलाभाय अस्य योगस्य अष्टौ अङ्गानि उपदिष्टानि तस्मात्‌ अष्टाङ्गयोग इत्यपि अस्य योगस्य नाम।" उससे इस सूत्र का अर्थ होता है- स्वपादि धातुओं को और हिस्‌-धातु को इट्‌ से भिन्न में अजादि लसार्वधातुक परे आदि उदात्त विकल्प से होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति स्वपादीनां धातूनां हिंस्‌-धातोश्च इङ्भिन्ने अजादौ लसार्वधातुके परे आदिः उदात्तः वा भवति इति। "इस सूत्र में छन्दसि यह विषय सप्तम्यन्त पद है, च यह अव्यय पद है।","अस्मिन्‌ सूत्रे छन्दसि इति विषयसप्तम्यन्तं पदम्‌, च इति अव्ययपदम्‌।" "भारत वर्ष में वेद के संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद आदि का महत्व विशिष्ट है।","भारते वर्षे वेदस्य संहितानां, ब्राह्मणानाम्‌, आरण्यकानाम्‌, उपनिषदां च विद्यते महद्‌ वैशिष्ट्यम्‌।" और जो अत्यन्त वेगवान है 'न वै वातात्‌ किज्चनाशीयोस्ति न मनसः किज्चनाशीयोस्ति' इति श्रुति।,यच्च जविष्ठम्‌ अतिजववद्‌ वेगवत्‌ जविष्ठं 'न वै वातात्‌ किञ्चनाशीयोस्ति न मनसः किञ्चनाशीयोस्ति' इति श्रुतेः। कितने पासे स्वच्छंद रूप से विचरण करते है।,कति अक्षाः आस्फारे विहरन्ति ? “वृन्दारक नाग कुञ्जरैः पूज्यमानम्‌” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,""" वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌ "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" "क्योंकि उसकी फलव्यतिरेक से युक्त गति होती है, जैसे अग्नि की ऊष्णता तथा प्रकाश।","फलाव्यतिरेकादवगतेः, यथा अग्निरुष्णः प्रकाशश्च इति।" तेबिसवाँ पाठ समाप्त ॥,इति त्रयोविंशः पाठः। इस प्रकार से वह ध्यान योग के योग्य हो जाता है।,एवञ्च स ध्यानयोगाय योग्यः। किम्‌-शब्द से 'किमोऽत्‌' इस सूत्र से अद्‌ आदेश होता है।,किम्‌-शब्दात्‌ 'किमोऽत्‌' इति सूत्रेण अदादेशः भवति। "अन्तोदात्तात्‌, और उत्तरपदात्‌ ये दो पद पञ्चमी एकवचनान्त है, अन्यतरस्याम्‌ यह सप्तमी बहुवचनान्त पद है, अनित्यसमासे यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।","अन्तोदात्तात्‌, उत्तरपदात्‌ चेति पदद्वयं पञ्चम्येकवचनान्तं पदद्वयम्‌, अन्यतरस्याम्‌ इति सप्तमीबहुवचनान्तं पदम्‌, अनित्यसमासे इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" सरलार्थ - इन्द्र को मारने के लिए जब शक्ति का वृत्र के द्वारा प्रयोग की गई वह सभी विफल हुई।,सरलार्थः- इन्द्रं हन्तुं याः शक्तयः वृत्रेण प्रयुक्ताः ताः सर्वाः अपि विफलाः अभवन्‌। “कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस पूर्व सूत्र से ` अन्तः उदात्तः' ये प्रथमान्त के दो पदो की अनुवृति है।,'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इति पूर्वसूत्रात्‌ अन्तः उदात्तः इति च प्रथमान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते। 12.14 ) सुषुप्ति में जगद भान का अभाव जाग्रत काल में स्थूल प्रपञ्च होता है।,१७.१४) सुषुप्तौ जगद्भानाभावः जाग्रत्काले स्थूलप्रपञ्चः अस्ति। पाँच ज्ञानेन्द्रियां कौन-कौन सी है?,पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि कानि। ऋत शब्द इस प्रकार नैतिकव्रत अर्थ में भी दिखाई देता है।,ऋतशब्दः ईदृशनैतिकव्रतार्थेऽपि दृश्यते। "संख्याओं का गुण विचार, पुरुष विचार ,सृष्टि विचार इत्यादि अद्वैत वेदांत में कुछ परिवर्तन से स्वीकार किए गए हैं ऐसा प्रतीत होता है।",सांख्यानां गुणविचारः पुरुषविचारः सृष्टिविचारः इत्यादिकम्‌ अद्वैतवेदान्ते किञ्चित्‌ परिवर्तनेन गृहीतं दृश्यते। और विद्या आचार्यों के उपदेश से प्राप्त होती है।,विद्या च आचार्योपिदेशात्‌। वह ही वृत्ति आनन्दमय कहलाती है।,सा च वृत्तिः आनन्दमयः भवति। "व्याख्या - हे हजार नेत्र वाले और सौ बाण से युक्त रूद्र, हे शतेषुध, आप हमारे प्रति कल्याणकारी शान्त और मंगलमय हों।","व्याख्या - सहस्रमक्षीणि यस्य शतमिषुधयो यस्य हे सहस्राक्ष, हे शतेषुधे, त्वं नोऽस्मान्‌ प्रति शिवः शान्तः सुमनाः शोभनचित्तश्च भव।" पूर्वता का क्रम यही अर्थ है।,पूर्वतायाः क्रम इत्यर्थः। वेद का अन्तिम लक्ष्य होने से और वेद का प्रधान भाग होने से ही उपनिषद्‌ वेदान्त कहलाते हैं।,वेदस्य अन्तिमत्वात्‌ लक्ष्यत्वात्‌ च वेदशिरोभूता उपनिषद्‌ एव वेदान्ता इत्युच्यन्ते। "प्रश्‍न उपनिषद्‌, मैत्रायणीय उपनिषद्‌ और माण्डूक्य उपनिषद्‌।","प्रश्नोपनिषद्‌, मैत्रायणीयोपनिषद्‌ माण्डूक्योपनिषच्चेति।" जीवन के संग्राम शास्त्र यदि उपकारक नहीं होते हैं तो फिर शास्त्र का मूल्य ही क्या है।,जीवनसंग्रामे शास्त्रं यदे उपकारकं न भवति तर्हि शास्त्रस्य मूल्यं कुत्र? यहाँ नञ्‌ प्रथमा एकवचनात्त पद है।,अत्र नञ्‌ प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ । स्त्रीकर्म विषय सूक्त विवाह विषय पर और प्रेम विषय पर बहुत से सूक्त इस वेद में है।,स्त्रीकर्मविषयकसूक्तानि विवाहविषयकाणि प्रेमविषयकाणि च बहूनि सूक्तानि अस्मिन्‌ वेदे सन्ति। क) सूक्ष्मभूतों के मिलितसात्त्विकांशो से।,क) सूक्ष्मभूतानां मिलितेभ्यः सात्त्विकांशेभ्यः । अविद्यमान उदात्त इस अर्थ में।,अविद्यमानोदात्ते इत्यर्थः। उदाहरण -ऋक्‌ शब्दान्त समास का समासान्त में उदाहरण है- अर्धर्चः।,उदाहरणम्‌ - ऋक्शब्दान्तसमासस्य समासान्ते उदाहरणम्‌ अर्धर्चः इति। देह एवं देहस्थित जीव अहं पद का अर्थ है।,नाम देहः जीवश्च अहंपदस्य अर्थौ इति। ' ऐश्वर्य समग्र धर्मस्य यशसः श्रियः।,'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। नेनीयते - नी-धातु से यङ लट प्रथमपुरुष एकवचन में नेनीयते रूप बनता है।,नेनीयते - नी-धातोः यङि लटि प्रथमपुरुषैकवचने नेनीयते इति रूपम्‌। सुषुप्तिकाल में प्रपञ्च नहीं होता है।,सुषुप्तिकाले प्रपञ्चः नास्ति। मन का संयम ही वस्तुतः राज योग का उद्देश्य है।,मनःसंयमः एव वस्तुतः राजयोगस्य उद्देश्यम्‌। महिम्ना लौकिक रूप है।,महिम्ना । इन विषयों को हम इस पाठ में पढ़ेंगे और यहाँ हम वेद के प्रमाण विषय पर भी चर्चा करेंगे।,इमान्‌ विषयान्‌ वयम्‌ अस्मिन्‌ पाठे पठामः। अपि च अत्र वयं वेदस्य प्रामाण्यविषये आलोचनां कुर्मः। उनमे लगभग सभी जगह लौकिक के ही विषयों पर वर्णन प्राप्त होते है।,तेषु प्रायेण सर्वत्र लौकिकानाम्‌ एव विषयाणां वर्णनम्‌ अस्ति। वर्षाओं।,प्रपिन्वतः प्रक्षरत । कपर्दः अस्यास्तीति विग्रह करने पर अत्‌ इनिठनौ इससे इनिप्रत्यय करने पर निष्पन्न करपर्दिन्‌-शब्द का षष्ठी एकवचन में रूप है।,कपर्दः अस्यास्तीति विग्रहे अत इनिठनौ इत्यनेन इनिप्रत्यये निष्पन्नस्य कपर्दिन्‌-शब्दस्य षष्ठ्येकवचने रूपम्‌। चौलादिकर्म में भी ये हवि होम के लिए प्रयुक्त होती है।,चौलादिकर्मस्वप्येषा होमार्था। 2 यजुर्वेद का महावाक्य कौन-सा है?,२. यजुर्वेदस्य महावाक्यं किम्‌? "और अधिदैवत के तीन रूप होते हैं- ईश्वर, हिरण्यगर्भ तथा विराट।","तथा च अधिदैवतं त्रीणि रूपाणि भवन्ति ईश्वरः, हिरण्यगर्भः विराट्‌ च।" लेकिन सभी जीवों के द्वारा स्वरूप प्रतिपादक महावाक्यों के बार-बार सुनने पर भी उनके अन्दर ब्रह्म विद्या का उदय नहीं होता है।,परन्तु सर्वैः जीवैः स्वरूपप्रतिपादकानां महावाक्यानां भूयो भूयः श्रवणेऽपि ब्रह्मविद्या न समुदेति बहूनाम्‌। नित्यादि कर्मो का फल किसी भी कर्म का आवश्यक तथा मुख्यभेद से दो ही फल होते हैं।,नित्यादीनाम्‌ फलम्‌ कस्यापि कर्मणा आवश्यकमुख्यभेदेन फलद्वयं सम्भवति। इसके मुख्य और पूर्व पक्ष हैं।,मुख्यः पूर्वपक्षः च। आर्च ज्योतिष में यह अर्थ कहा है - “वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।,आर्चज्योतिषे अयमर्थ उक्तः - वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। 9 जगत की पारमार्थिक सत्ता होती है अथवा नहीं?,९.जगतः पारमार्थिकसत्ता अस्ति वा? ज्ञानयोग का समास विधि से परिचय दीजिए।,ज्ञानयोगस्य समासेन परिचयः दीयताम्‌। वह मछली अपनी से बड़ी मछलियों से अपनी रक्षा के लिए मनु से प्रार्थना करने लगी।,स मत्स्यः महद्भ्यः मत्स्येभ्यः स्वस्य रक्षणाय मनुं प्रार्थितवान्‌। तब सूर्य और उषा को उत्पन्न करके किसी भी शत्रु को प्राप्त नहीं किया है।,तदा सूर्यम्‌ उषसं च जनयन्‌ कमपि शत्रुं न प्राप्तवान्‌। पशु याग के देव कौन हैं?,पशुयागस्य देवाः के ? अथवा समुद्र में अन्तरिक्ष में अपनी माया में और देव शरीर में मेरा कारणभूत ब्रह्म चेतन है।,यद्वा समुद्रेऽन्तरिक्षेऽप्स्वम्मयेषु देवशरीरेषु मम कारणभूतं ब्रह्म चैतन्यं वर्तते। कुछ अलङ्कारों के नाम लिखिए।,केषाञ्चित्‌ अलङ्काराणां नामानि लिखन्तु। विष्णुसूक्त और मित्रावरुणसूक्त- वेद ज्ञानराशि और शब्दराशि है।,विष्णुसूक्तं मित्रावरुणसूरक्तं च॥ वेदो ज्ञानराशिः शब्दराशिश्च। दर्शन के अध्ययन में सामर्थ्य सांख्य दर्शन का विशिष्ट परिचय प्राप्त हो।,दर्शनाध्ययने सामर्थ्यम्‌ सांख्यानां दर्शनस्य विशिष्टं परिचयं प्राप्नुयात्‌। उप त्वाग्ने ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,उप त्वाग्ने... इत्यादिमन्त्रस्य व्याख्यात। प्रत्येक अध्याय के अनन्तर विभाग का नाम 'वर्ग' है।,प्रत्येकम्‌ अध्यायस्य अनन्तरविभागस्य नाम “वर्गः इत्यस्ति। "और उसका पूज्यमानैः इस अन्वय से विभक्ति विपरिणामेन समानाधिकरणैः होता है “' प्राक्कडारात्समासः'', ` सहसुपा'', ““ तत्पुरुषः” ये तीन अधिकृत हैं।",""" प्राक्कडारात्समासः "", "" सह सुपा "", "" तत्पुरुषः "" इति सूत्रत्रयमधिकृतम्‌ ।" उससे भारतीय दर्शनो में मन उभय इन्द्रिय कहलाता है।,तस्मात्‌ भारतीयदर्शनेषु मनः उभयेन्द्रियमिति कथ्यते। इत्‌ शब्द का ही अर्थ है।,इत्‌ शब्दः एवर्थ। उदाहरण -सूत्र का उदाहरण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणान्यधः प्रस्तूयन्ते। "और सब जगह व्यापक होने से प्रसिद्ध आप, जल तथा सब प्रजा का स्वामी होने से प्रसिद्ध प्रजापति वह ब्रह्म ही है।",ताः प्रसिद्धाः आपः जलानि स प्रसिद्धः प्रजापतिरपि तदेव ब्रह्म। खेती से कमाया हुआ जो धन है उससे ही संतुष्ट रहो।,वित्ते कृष्या सम्पादिते धने रमस्व रतिं कुरु । इस प्रकार से साधक भी ईश्वर के एक रूप का साक्षात्कार करके उसके एकमात्र स्वरूप का ही चिन्तन करते हैं।,इत्थं साधकाः ईश्वरस्य एकम्‌ एकं रूपं साक्षात्कृत्य तदेव तस्य एकमात्रं स्वरूपम्‌ इति चिन्तयन्तो विवदन्ते। वह हमारी हिंसा न करे।,मा हन्त्वित्यर्थः। आशा शब्द ' आशाया अदिगख्या चेत्‌' इस सूत्र से अन्त उदात्त है।,आशाशब्दः 'आशाया अदिगख्या चेत्‌' इति सूत्रेण अन्तोदात्तः वर्तते। अतः यह संज्ञा अधि कार है।,अतः अयं संज्ञाधिकारः। घट के निर्माण के लिए जो जो अपेक्षित है उन सबके द्वारा किस प्रकार से बनाया जाए यह भी जानना चाहिए।,घटनिर्माणार्थं यद्यत्‌ अपेक्षते एवं कथं निर्मातव्यं इत्येतत्‌ सर्वमपि ज्ञातव्यम्‌। "पाश्चात्त्यों के द्वारा पाइथागोरस आदि ज्यामिति शास्त्र रचे हुए है, जो कल्पना की है, वे शुल्वसूत्र को देखकर दृढ़ इच्छा करते हैं की यह ज्यामिति शास्त्र भारतीयों के द्वारा पाश्चात्य ज्यामिति शास्त्र उत्पत्ति से बहुत वर्षों पहले ही प्रकट कर दी है।","पाश्चात्त्यैः पिथागोरस-प्रभृतिभिः ज्यामितिशास्त्रं प्रणीतम्‌ इति ये कल्पयन्ति, ते शुल्वसूत्रं दृष्ट्या दृढीकुर्न्तु यत्‌ इदम्‌ ज्यामितिशास्त्रं भारतीयैः पाश्चात्यज्यामितिशास्त्रोत्पत्तेः बहुदिवसपूर्वम्‌ एव प्रकटीकृतम्‌ इति।" पूर्वप्रवृत्ति निरोध से उत्तरोत्तर अपूर्व प्रवृत्ति जनन का प्रत्यगात्माभिमुख्य के द्वारा तथा प्रवृत्युत्पादनार्थत्व से कर्मविधि श्रुति का अप्रमाण्य भी नहीं कहा जा सकता है।,"न च एवं कर्मविधिश्रुतेरप्रामाण्यं, पूर्वपूर्वप्रवृत्तिनिरोधेन उत्तरोत्तरापूर्वप्रवृत्तिजननस्य प्रत्यगात्माभिमुख्येन प्रवृत्तयुत्पादनार्थत्वात्‌।" आतनोति - आङ्पूर्वक तन्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,आतनोति- आङ्पूर्वक तन्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने। ऋतेन - ऋतशब्द का तृतीया एकवचन में ऋतेन यह रूप है।,ऋतेन- ऋतशब्दस्य तृतीयैकवचने ऋतेन इति रूपम्‌। निर्वकल्पक समाधि में प्रतिष्ठा के लाभ के लिए योगी को इन विघ्नों से अपनी रक्षा करनी चाहिए।,निर्विकल्पकसमाधौ प्रतिष्ठालाभार्थं योगी एतेभ्यः अन्तरायेभ्यः आत्मानं रक्षेत्‌। की व्याख्या की गई है।,सूत्रं व्याख्यातम्‌ उनकी तो देहान्तर किए बिना ही क्षयानुपपत्ति तथा मोक्षामुपपत्ति होती है।,तेषां च देहान्तरम्‌ अकृत्वा क्षयानुपपत्तौ मोक्षानुपपत्तिः। तथा रजोगुण और तमोगुण से रहित मन जब मात्र सत्त्वगुण से युक्त होता है तब वह शुद्ध होता है।,रजोस्तमोभ्यां रहितं यदा मनः भवति अथवा सत्त्वमात्रगुणयुक्तं भवति तदा शुद्धं भवति। उत्तरम्‌ सधस्थम्‌ - सहशब्द से उत्तरपद हो तो वेद में सहशब्द के स्थान में सध इसका प्रयोग होता है।,उत्तरम्‌ सधस्थम्‌ - सहशब्दात्‌ उत्तरपदर्मस्ति चेत्‌ वेदे सहशब्दस्य सध इति प्रयोगः भवति। "इस यज्ञ में द्यूतक्रीडा, अस्त्रक्रीडा आदि का राजा के अन्य उचित विभिन्न क्रियाकलापों का विधान होता है।",यज्ञेऽस्मिन्‌ द्यूतक्रीडा-अस्त्रक्रीडाप्रभृतीनां राजन्योचितविभिन्नक्रियाकलापानां विधानं भवति। उस इन्द्र के पराक्रमों को विशेष रूप से बताते हैं।,तस्य इन्द्रस्य तानि वीर्याणि नु क्षिप्रं प्रब्रवीमि। इन के द्वारा परपस्पर विरोधिमत प्रकाशकत्व से वेदान्त का प्रामाण्य सभी लोगों के लिए ग्राहित्व नहीं हुआ।,"एतेन परस्परविरोधिमतप्रकाशकत्वेन वेदान्तस्य प्रामाण्यं, सर्वजनग्राहित्वं च न स्याताम्‌।" 4. पुत्रजन्मादिरूप कुछ भी विशिष्ट निमित्त का आश्रय लेकर के जो कर्म करने होते हे वे नैमित्तिक होते हैं।,४. पुत्रजन्मादिरूपं किमपि विशिष्टं निमित्तम्‌ आश्रित्य यानि कर्माणि कर्तव्यानि भवन्ति तानि नैमित्तिकानि। वाजिनः - वज्‌-धातु से णिनिप्रत्यय करने पर द्वितीयाबहुवचने में वाजिनः रूप बनता है।,वाजिनः -वज्‌-धातोः णिनिप्रत्यये द्वितीयाबहुवचने वाजिनः इति रूपम्‌। तन्वते - आत्मनेपद तन्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,तन्वते- आत्मनेपदिनः तन्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। "और वह वेद ऋक, यजु, साम, और अथर्व के भेद से चार प्रकार का है।",स च वेद ऋक्‌ यजुः साम अथर्वा इति भेदेन चतुर्धा अपि। ऋग्वेद में दो सौ सूक्त से अग्नि का आवाहन और स्तुति विहित है।,ऋग्वेदे द्विशतपरिमितैः सूक्तैः अग्नेः आवाहनं स्तुतिश्च विहिता। "यदा सुप्तः न कञ्चन स्वप्नं पश्यति, अथास्मिन्‌ प्राण एव एकधा भवति, अथैनं वाक्‌ सर्वेर्नामभिः सहाप्यति” (कौषितक्युपनिषत्‌-3/2 ) इस प्रकार से सुषुप्ति में सत्पम्पन्नत्व से सबकुछ विनाश की और चला जता है यहाँ पर छान्दोग्य श्रुति यह कहती है कि - “सता सौम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति”( 6/8/1) च इस प्रकार से।","“यदा सुप्तः न कञ्चन स्वप्नं पश्यति, अथास्मिन्‌ प्राण एव एकधा भवति, अथैनं वाक्‌ सर्वैर्नामभिः सहाप्यति” (कौषितक्युपनिषत्‌-३/२) इति। सुषुप्तौ सत्सम्पन्नत्वात्‌ सर्वम्‌ विनाशं गच्छतीत्यत्र छान्दोग्यश्रुतिर्हि - “सता सौम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति”( ६/८/१) च इति।" अद्वैतवेदान्त सिद्धान्त मे तात्पर्य अनुपपत्ति ही लक्षणा होती है।,अद्वैतवेदान्तसिद्धान्ते तात्पर्यानुपपत्तिरेव लक्षणा। 9 फल क्या होता है अह' ब्रह्मास्मि यहाँ पर पञ्चदशीकार के द्वारा उक्त ब्रह्म के अर्थ को लिखिए।,9 फलं नाम किम्‌? ब्रह्मास्मि” इत्यत्र पञ्चदशीकारेण उक्तः ब्रह्मशब्दार्थः लिख्यताम्‌। सूर्य का ऋत सत्यभूत मण्डल को ऋतजल से निश्चित रूप से ढके हुए अटल स्थिर शाश्वत को देखा।,सूर्यस्य ऋतं सत्यभूतं मण्डलम्‌ ऋतेन उदकेन अपिहितम्‌ आच्छादितं ध्रुवं शाश्वतम्‌ अपश्यम्‌। "प्राणायाम रेचक, पूरक तथा कुम्भक के माध्यम से प्राण का निग्रह उपाय होता है।",प्राणायामाश्च रेचकपूरककुम्भकरूपाः प्राणनिग्रहोपायाः। पती यह पद सम्बोधन में है।,पती इति पदं सम्बोधने वर्तते। इसलिए विजातीय वस्तुओं के द्वारा तादात्म्य के द्वारा भासमान ब्रह्म के विषय में निरन्तरचित्तवृत्ति निदिध्यासन होता है।,अतः न हि विजातीयवस्तुभिः तादात्म्येन भासमानस्य ब्रह्मणः विषये निरन्तरचित्तवृत्तिः निदिध्यासनम्‌ । "उसका समाधान कहते है की जितने स्थान में स्वाभाविक प्रयत्न से उच्चारण करने पर सम्बोध्य मान व्यक्ति को नहीं सुनाई देता है, उस स्थान को ही दूर शब्द से ग्रहण करते है।","तस्य समाधानम्‌ उच्यते यत्‌ यावति देशे स्वाभाविकप्रयत्नेन उच्चारितं सम्बोध्यमानेन न श्रूयते, तावान्‌ देश एव दूरशब्देन गृह्यते।" और उसके प्रकाश से ही ये समस्त जगत प्रकाशमान है।,किञ्च तस्य प्रकाशेनैव सर्वमिदं प्रकाशते। इस प्रकार से आत्मा तथा अनात्मा के विवेकियों के ह्वार जानना जाहिए।,इति चेत्‌ आत्मानात्मविवेकेन इति ज्ञेयम्‌। अलग अलग ग्रन्थों में शाखा संख्या में भी भिन्नता है।,विविधेषु ग्रन्थेषु शाखासंख्यायां विपर्ययो वर्त्तते। “ऋक्पूरब्धू: पथामानक्षे”' सूत्र की व्याख्या करो?,"""ऋक्पूरब्धूपथामानक्षे"" इति सूत्रं व्याख्यात।" अतः शिक्षा शास्त्र से वेद मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण पूर्वक - वेदपाठ से बेद की महिमा कीर्तन और वेद कौ रक्षा सम्भवता हो सकती है।,अतः शिक्षाशास्त्रेण वेदमन्त्राणां शुद्धोच्चारणूर्वक - वेदपाठेन वेदमहिम्नः कीर्तनं तथा वेदरक्षणं च सम्भवति। "उषा अपने प्रकाश को वैसे फैलाती है, जैसे गोपालक गोचर भूमि में अपनी गायों को फैलाता है।",उषा स्वप्रकाशं तथा प्रसारयति यथा गोपाः गोचारणभूमौ स्वकीयाः गाः प्रसारयन्ति। ब्राह्मण द्रष्टा दो आचार्यो के नाम लिखिए।,ब्राह्मणद्रष्टोः द्वयोराचार्ययोर्नाम लिखत। धनुष को तान कर और बाणों के फलों के मुख को खूब तेज करके भी हमारे लिए कल्याणकारी हों।,धनुरवतत्य अपज्याकं कृत्वा शल्यानां मुखा मुखानि बाणफलाग्राणि निशीर्य शीर्णानि कृत्वा इत्यर्थः॥ मुहूर्तसुखम्‌- मुहूर्त सुखम्‌ इस विग्रह में अत्यन्त संयोगे च इस सूत्र से ह्वितीयातत्पुरुष समास हुआ।,मुहूर्तसुखम्‌- मुहूर्तं सुखम्‌ इति विग्रहे अत्यन्तसंयोगे च इति सूत्रेण द्वितीयातत्पुरुषसमासः जातः। 6 चार प्रकार के प्रलयों का संक्षेप में परिचय दीजिए?,६. चतुर्विधप्रलयानां संक्षेपेण परिचयः दीयताम्‌। दिक्‌ च संख्या च दिक्संख्ये इसमें इतरेतरयोग द्वन्द समास है।,दिक्‌ च संख्या च दिक्संख्ये इति इतरेतरयोगद्वन्द्वः। उसी प्रकृतियाग के आश्रय में विकृतियाग अनुष्ठीत होते हैं।,तमेव प्रकृतियागम्‌ आश्रित्य विकृतियागाः अनुष्ठीयन्ते। श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों को शब्द आदि का ग्रहण करते हैं।,श्रोत्रादीन्द्रियाः स्वस्वविषयान्‌ शब्दादीन्‌ गृह्णन्ति। ब्रह्म तो कूटस्थ नित्य होता है।,ब्रह्म तु कूटस्थनित्यम्‌। पहले की वासना के कारण से वह फिर चञ्चल हो जाता है।,पूर्वतनवासनावशात्‌ तानि पुनः चञ्चलानि भवन्ति। इस प्रकार से विवेकानन्द का दृढ विश्वास था इसलिए स्वामी विवेकानन्द श्री रामकृष्ण के जीवन के माध्यम से तथा उन्हीं के वचनों के माध्यम से वेदान्त के शक्ति तत्व समूहों का जनसाधारणों के लिए प्रचार किया।,इति विवेकानन्दस्य दृढविश्वास आसीत्‌। तस्मात्‌ स्वामिविवेकानन्दः श्रीरामकृष्णजीवनमाध्यमेन तदीयवचनमाध्यमेन च प्रकाशितस्य वेदान्तस्य शक्तिप्रदतत्त्वसमूहान्‌ जनसाधारणेभ्यः प्रचारितवान्‌ । विवेश - विपूर्वक विश्-धातु से लिट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में विवेश रूप बना।,विवेश- विपूर्वकात्‌ विश्‌-धातोः लिटि उत्तमपुरुषैकवचने विवेश इति रूपम्‌। कर्मयोगादि नाना प्रकार के साधानों का मुमुक्षुओं को फल प्राप्त करवाने के लिए शास्त्रों में उपदेश दिया गया है।,कर्मयोगादीनि नानाविधानि साधनानि मुमुक्षुणा सम्पत्तिलाभाय शास्त्रेषु उपदिश्यन्ते। 20. मनन में तक की उपयोगिता लिखिए।,२०. मनने तर्कस्य उपयोगितां लिखत। "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्रविशत्‌, ये श्रुति का प्रमाण है।","तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्रविशत्‌, इत्यादिश्रुतिरेव प्रमाणम्‌।" इसमें पांच आरण्यक है।,अस्मिन्‌ पञ्च आरण्यकानि सन्ति। उसके साधन के लिए ये शब्द है शब्दा: सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्‌' (छा. उ. 6. 2.1) 'तदैक्षत' “तत्तेजोऽसृजत' (छा. उ. 6.2.3) इस प्रकार से कार्य होने पर ब्रह्म का प्रदर्शन करके अव्यतिरेक को प्रदर्शित करते हैं 'ऐतदात्म्यमिद्‌ सर्वम्‌' (छा. उ. 6.8.7) यहाँ से लेकर के प्रापठक की समाप्ति तक वह जो आकाश हो वह ब्रह्म का कार्य नहीं होना चाहिए।,"तत्साधनायैव चोत्तरे शब्दाः सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्‌' (छा. उ. ६.२.१) ""तदैक्षत"" ""तत्तेजोऽसृजत"" (छा. उ. ६.२.३) इत्येवं कार्यजातं ब्रह्मणः प्रदर्श्य, अव्यतिरेकं प्रदर्शयन्ति ""ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्‌"" (छा. उ. ६.८.७) इत्यारभ्य आ प्रपाठकपरिसमाप्तेः" किस प्रकार से स्वरों से अर्थ नियन्त्रणकारी होता है यह ऊपर के उदाहरण में कहा ही है।,केन प्रकारेण स्वराणाम्‌ अर्थनियन्त्रणकारित्वं भवति इति उपरिष्टाद्‌ उदाहरणं निधाय उक्तम्‌ एव। आस्तिक तथा नास्तिक भेद से दो प्रकार के होते हैं।,दर्शनानानि आस्तिकानि नास्तिकानि चेति द्वेधा व्यवह्वियन्ते। "इस पाठ में “दिक्संख्येसंज्ञायाम्‌”*, ““तद्धिताथोत्तरपदसमाहारे च'' तत्पुरुषसमासविधायक दो सूत्रों की व्याख्या की गई है।","अस्मिन्‌ पाठे ""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" ""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति तत्पुरुषसमासविधायकं सूत्रद्वयं व्याख्यातम्‌ ।" उससे तीनो लोक का पृथिवीशब्दवाच्यत्व है।,तस्मात्‌ लोकत्रयस्य पृथिवीशब्दवाच्यत्वम्‌। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति और भी - “योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।,ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति'॥ पुनश्च- 'योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। "संज्ञायाम्‌ यह सप्तमी एकवचनान्त, उपमानम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","संज्ञायाम्‌ इति सप्तम्येकवचनान्तं, उपमानम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" ऋग्वेद संहिता के कितने भाग है और प्रत्येक भाग में कितने अध्याय है?,"ऋक्संहितायाः कति भागाः, प्रतिभागं कति अध्यायाश्च सन्ति?" 10. श्रद्धा पद का क्या अर्थ होता हे।,१०. श्रद्धापदस्य कोऽर्थः। वर्धमाना - वृध्‌-धातु से शानच और टापकरने पर प्रथमा एकवचन में।,वर्धमाना- वृध्‌-धातोः शानचि टापि प्रथमैकवचने। “विजाती देहादिप्रत्ययरहित अद्वितीयसजातीयप्रत्ययप्रवाह निदिध्यासन होता है” जाग्रत अवस्था में विविध विषयों का ज्ञान हमें होता है।,"“विजातीय- देहादिप्रत्ययरहिताद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहः निदिध्यासनम्‌"" इति।जाग्रदवस्थायां विविधविषयाणां ज्ञानमस्माकं भवति।" में कर्ता हूँ इस प्रकार के कर्तृत्व के अभिमान से बुद्धि के कार्य होते हैं ।,अहं कर्ता इति कर्तृत्वाभिमानः बुद्धेः कार्य भवति। अत: यह भी पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,अतः इत्यपि पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। आकाश का नित्यत्व किस प्रकार से सङ्गत होता है?,आकाशस्य नित्यत्वं कथं सङ्घच्छते। उनमें अनुबन्ध के अधिकारी के पाँच विषयों का आलोचन किया जाता है वो हैं 1) वेदाध्ययनम्‌ 2) काम्यनिषिद्धवर्जनम्‌ 3) नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानाम्‌ अनुष्ठानम्‌ 4) उपासना 5) साधनचतुष्टम्‌।,अधिकारिणि अनुबन्धे एते पञ्च विषया आलोच्यन्ते-- १)वेदाध्ययनम्‌ २)काम्यनिषिद्धवर्जनम्‌ ३)नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानाम्‌ अनुष्ठानम्‌ ४)उपासना ५)साधनचतुष्टम्‌। "वेद चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।","वेदाः चत्वारः भवन्ति। तथा हि- ऋग्वेदः, सामवेदः, यजुर्वेदः, अथर्ववेदश्चेति।" पूरणार्थशब्द से पुरणार्थक प्रत्ययों के शब्दों का ग्रहण है।,पूरणार्थशब्देन पुरणार्थकप्रत्ययान्तानां शब्दानां ग्रहणम्‌। इसके बाद हरे: सादृश्यम्‌ इस लौकिक विग्रह में सह हरि इस स्थिति में सह का स आदेश विधायक सूत्र “ अव्ययी भावेचाकाले'' प्रस्तुत किया गया।,"ततः हरेः सादृश्यम्‌ इति लौकिकविग्रहे सहहरि इति स्थिते सहस्य सादेशविधायकम्‌ ""अव्ययीभावे चाकाले"" इति सूत्रं प्रस्तुतम्‌।" और ब्राह्मण सु इस सुबन्त के साथ प्रकृत सूत्र से तत्पुरुष संज्ञा होती है।,ब्राह्मण सु इत्यनेन सुबन्तेन सह प्रकृतसूत्रेण तत्पुरुषसंज्ञं भवति । वह जीव शरीर के क्लेशों को आत्मा मानकर के दुःखों का अनुभव करता है।,शरीरस्य क्लेशः आत्मनः इति विचिन्त्य दुःखमनुभवति। समास के कितने भेद होते हैं यहाँ बहुत सी विप्रतिपत्तियाँ हैं।,समासस्य कति भेदा इत्यत्र बहूनामस्ति विप्रतिपत्तिः। उसके कर्म का कारण साधन कहलाता है।,तस्य तु कर्म कारणम्‌ साधनम्‌ उच्यते। व्याख्या - जो मन प्रज्ञा को विशेष करके ज्ञान का अच्छी प्रकार से बोध कराता है वह प्रज्ञानम्‌ है।,व्याख्या - यत्‌ मनः प्रज्ञानं विशेषेण ज्ञानजनकं प्रकर्षेण ज्ञायते येन तत्‌ प्रज्ञानम्‌ । धृष्णु यहाँ पर किस अर्थ में प्रथमा है?,धृष्णु इत्यत्र कस्मिन्‌ अर्थे प्रथमा ? मैं मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ।,अहं मित्रवरुणयोः उभयोः धारकः। “संख्यावंश्येन'' इस सूत्र की व्याख्या कीजिये?,"""संख्या वंश्येन"" इति सूत्रं व्याख्यात।" "कुछ देवियाँ इस प्रकार है - वाक्‌, उषा, अदिति, रात्रि, पृथ्वी, सरस्वती, श्री, धिषणा जैसी अनेक है।","काश्चन देव्यः तावत्‌ - वाक्‌, उषा, अदितिः, रात्रिः, पृथिवी, सरस्वती, श्रीः, धिषणा प्रभृतयः।" “अहं ब्रह्मास्मि” (बृहदारण्यकोपनिषत्‌-1/4/10) यहाँ पर अस्मि इस पद से जीव तथा ब्रह्म के एक्य को सूचित किया गया है।,“अहं ब्रह्मास्मि” (बृहदारण्यकोपनिषत्‌-१/४/१०) इत्यत्र अस्मीति पदेन जीवब्रह्मणोः ऐक्यं सूचितम्‌। राजकर्म विषय पर अथर्ववेद में जो कहा है उसे लिखिए।,राजकर्मविषये अथर्ववेदे यद्‌ उक्तं तल्लिखत। अर्थात्‌ शीतोष्ण से लेकर परस्पर विरुद्धद्वन्द्वों को तथा उनसे उत्पन्न सुख दुःखादि को सहना तितिक्षा होती है।,अर्थात्‌ शीतोष्णप्रभृति-परस्परविरुद्धानां द्वन्द्वानां तथा ततः उत्पन्नसुखदुःखादीनां सहनम्‌। हिरण्यगर्भसूक्त का सार ऋग्वेद के दशममण्डल के एक सौ इक्कीसवाँ सूक्त हिरण्यगर्भ सूक्त है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य एकविंशत्युत्तरैकशततमं सूक्तं हि हिरण्यगर्भसूक्तम्‌। यहाँ पर ब्रह्म के नौ तटस्थलक्षण बताए है- (वेदान्त परिभाषा में कहा गया है- तटस्थलक्षणं तु यावल्लक्ष्यकालमनवस्थितत्वे सति यद्दयावर्तकं तदेव यथा गन्धवत्त्वं पृथ्वीलक्षणम्‌” इति।),ब्रह्मणः नव तटस्थलक्षणानि- (वेदान्तपरिभाषायां निगद्यते- “तटस्थलक्षणं तु यावल्लक्ष्यकालमनवस्थितत्वे सति यद्व्यावर्तकं तदेव यथा गन्धवत्त्वं पृथ्वीलक्षणम्‌” इति।) इसके बाद नञ्‌ समास विधायक सूत्र “ नञ्‌ “,"ततः नञ्समासविधायकं ""नञ्‌"" इति" "मुख्य अग्नि वायु और सूर्य में अग्नि निकटतम (अग्निर्वे देवानामवमः), तथा सूर्य अधिक दूर (सूर्यो देवानां परम:)।","मुख्येषु अग्निवायुसूर्येषु त्रिषु अग्निः निकटतमः (अग्निर्वै देवानामवमः), तथा सूर्यस्य दूरत्वम्‌ अधिकं (सूर्यो देवानां परमः)।" इससे यह शाखा कम प्रचलित थी ऐसा बोध होता हेै।,अनेन इयं शाखा अल्पप्रचलिता आसीद्‌ इति बोधः भवति। "इठिमिका के अट्टारह स्थानकों में पुरोडाश, अध्वर, पशुबन्ध, वाजपेय, राजसूय आदि यागों का विस्तृत वर्णन है।",इठिमिकायाः अष्टादशस्थानकेषु पुरोडाश-अध्वर-पशुबन्ध-वाजपेय-राजसूयादियागानां विस्तृतं वर्णनमस्ति। समान का भाव सामान्यम्‌ होता है।,समानस्य भावः सामान्यं दधाति - धा-धातु से लट्‌ प्रथमा एकवचन का यह रूप है।,दधाति - धा - धातोः लटि प्रथमैकवचने रूपमिदम्‌ अत क्व यहाँ पर प्रकृत सूत्र से अकार को स्वरित स्वर होता है।,अतः क्व इत्यत्र प्रकृतसूत्रेण अकारस्य स्वरितस्वरः भवति। उनका आगे आलोचन किया जाएगा।,ते चाग्रे आलोचयिष्यन्ते। जिसे वेदान्त परिभाषा में इस प्रकार से कहा गया हे।,तदुक्तं वेदान्तपारिभाषायाम्‌। ऋग्वेद संहिता में दशम मण्डल में कुछ सूक्तों में देवों की स्तुति नहीं है।,ऋग्वेदसंहितायां दशममण्डले केषुचित्‌ सूक्तेषु देवानां स्तुतिः नास्ति। कहाँ से किस प्रकार का उपाय होता है इस प्रकार की जिज्ञासा सभी के मन में उत्पन्न होती है।,कुत एवं कश्चन उपाय इति जिज्ञासा भवति। जंघाओं से वैश्य तथा पादों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।,ऊरुभ्यां वैश्यस्य तथा पादाभ्यां शूद्रस्योत्पत्तिः। "पञ्चीकृतभूतों के अंश पञ्चीकृतभूतानि | आकाशः | वायुः तेजः जलम्‌ | पृथिवी 1 आकाशः = 1/2 1/8 1/8 1/8 1/8 1 वायुः = 1/8 1/2 1/8 1/8 1/8 1 तेजः = 1/8 1/8 12 1/8 1/8 1 जलम्‌ = 1/8 1/8 1/8 1/2 1/8 1 पृथिवी = 1/8 1/8 1/8 1/8 1/2 पञ्चीकरण से स्थूलभूत की उत्पत्ति के अनन्तर आकाश में शब्द अभिव्यञि्‌जित होता, वायु में शब्द तथा स्पर्श, अग्नि में शब्द, स्पर्श तथा रूप, जल में शब्द स्पर्श रूप तथा रस और पृथ्वी में शब्द स्पर्श रूप रस तथ गन्ध अभिव्यजञि्‌जित होती है।",पञ्चीकृतभूतानाम्‌ अंशाः पञ्चीकृतभूतानि | आकाशः | वायुः | तेजः | जलम्‌ | पृथिवी १ आकाशः = | १/२ | १/८|१/८ | १/८ | १/८ १वायुः = । १/८ |।१/२।१/८ १/८ | १/८ १तेजः = । १/८ |१/८|१/२ | १/८ | १/८ १जलम्‌ = | १/८ |१/८ १/८ | १/२ | १/८१पृथिवी = | १/८ ।१/८ १/८| १/८ | १/२ पञ्चीकरणात्‌ स्थूलभूतोत्पत्तेनन्तरम्‌ आकाशे उस अभेद का प्रतिपादन करने के लिए शास्त्र में अनेक उपाय स्वीकार किये हैं।,तस्य अभेदस्य प्रतिपादनं कर्तुं शास्त्रे नैके उपायाः स्वीकृताः वर्तन्ते। मुख्य रूप से गृह्यसूत्र में गृह्याग्नि सम्बद्ध यागों का उपनयन विवाह श्राद्ध आदि संस्कारों का विस्तृत विवरण दिया है।,मुख्यतः गृह्यसूत्रे गृह्याग्निसम्बद्धयागानाम्‌ उपनयनविवाहश्राद्धादीनां संस्काराणां विस्तृतं विवरणं विद्यते। शुक्लयजुर्वेद में रुद्राध्याय काव्यसौन्दर्य से मण्डित है।,शुक्लयजुर्वेदे रुद्राध्यायः काव्यसौन्दर्यण मण्डितः। वह ब्रह्म की जिज्ञासा करता है।,ततो ब्रह्म जिज्ञासति। यह निर्देश इतना मार्मिक और वैज्ञानिक है कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से भी यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है।,एष निर्देशः एतावान्‌ मार्मिकः वैज्ञानिकः च अस्ति यत्‌ भाषाशास्त्रदृष्ट्या अपि अयम्‌ अतीव महत्त्वपूर्णः प्रतीतो भवति। "इसप्रकार हिरण्यगर्भ अद्वितीय होते हुए भी समस्त जगत्‌ का ईश्वर है, द्यु और पृथिवी लोक को धारण करता है।","एवं हिरण्यगर्भः अद्वितीयः सन्‌ सर्वस्य जगतः ईश्वरः, दिवं भूमिं च धारयति।" बुद्धिवृत्ति रूपा विद्या आत्मा के आवरक अविद्या का नाश करती है।,बुद्धिवृत्तिरूपा विद्या आत्मावरकाम्‌ अविद्यां नाशयति। "यज्ञस्य यहाँ पर जो ङस्‌ के स्थान में विहित स्य आदेश है, उसका स्थानिवद्‌ भाव से सुप्‌ होने का आरोप किया है।","यज्ञस्य इत्यत्र यः ङसः स्थाने विहितः स्यादेशः, तस्मिन्‌ स्थानिवद्भावेन सुप्त्वधर्मस्यारोपः क्रियते।" उसके पढ्ने से बारहवीं कक्षा के पाठ आपको सरल प्रतीत हो रहे होंगे।,तस्य पठनेन द्वादशकक्षायाः पाठः सुबोधः प्रतीयेत। वह मन शुभसङ्कल्प हो।,तत्‌ मनः शुभसङ्कल्पं भवतु। वैदिक ग्रन्थ में देवों की संख्या तैंतिस 33 स्वीकृत है।,वैदिके ग्रन्थे देवानां संख्या त्रयस्त्रिंशदिति स्वीकृतम्‌। तब इन्द्र ने पर्वत शिखर के तुल्य कन्धो पर वज्र से प्रहार किया।,तदा इन्द्रः पर्वतशिखरतुल्यस्कन्धे वज्रेण प्रहारं कृतवान्‌। वैदिक वाङ्मय में स्वर प्रकरण की अत्यधिक महानता का वर्णन है।,वैदिकवाङ्मये स्वरप्रकरणम्‌ अतीव माहात्म्यम्‌ आवहति। और जो दूर से भी दूरात्‌ गच्छतीति दूरङ्गमं खश्प्रत्यय है।,यच्च दूरङ्गमं दूरात्‌ गच्छतीति दूरङ्गमं खश्प्रत्ययः। किन्तु वर्णनीय विषय की समानता भी उन दोनों के मध्य में कुछ भेद दिखाई देता है।,किञ्च वर्णनीयविषयस्य साम्यत्वेन अपि तयोः मध्ये किञ्चित्‌ पार्थक्यं परिलक्ष्यते। वासनामय राग संस्कारूप होते हैं।,संस्काररूपाः हि वासनामया रागाः। मीमांसको के लिये ऋक्‌ क्या है?,मीमांसकानां नये का ऋक्‌? विशेष- अथादिः प्राक्‌ शकटे: इस अधिकार सूत्र में प्राक्‌ शकटे: इस वचन से उस सूत्र से नियम किये गए आदिः इस पद का अधिकार प्रकृत सूत्र से पूर्व तक ही है।,विशेषः- अथादिः प्राक्‌ शकटेः इति अधिकारसूत्रे प्राक्‌ शकटेः इति वचनात्‌ तेन सूत्रेण विहितः आदिः इति पदस्य अधिकारः प्रकृतसूत्रात्‌ पूर्वं यावत्‌ एव वर्तते। जलयुक्त रथ के चारो और भ्रमण करो।,जलयुक्तं रथं परितः भ्रमतु । इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।,एतेन तेषां पुरातनतरत्वं सिद्ध्यति। (क. ६५) ये नाभिमात्र में।,(क. ६५) इति नाभिमात्रे। "विश्व, तैजस, प्राज्ञ तथा ईश्वर इस प्रकार से चार पाद होते हैं।",विश्वः तैजसः प्राज्ञ ईश्वरः इति चत्वारः पादाः। इस वेद वाक्य को जानकर के कोई स्वर्ग प्राप्तसुख का इच्छुक यज्ञ आदि करता है तो वहाँ पर जो यज्ञ करता है उसकी वेद में श्रद्धा होती है।,इति वेदवाक्याद्‌ ज्ञातं यत्‌ स्वर्गादिसुखं लिप्सुः चेत्‌ यागं कुर्यात्‌। तत्र यः यागं करोति तस्य वेदे श्रद्धा अस्ति। 11. मुक्ति का एक ही उपाय क्या है?,११. मुक्तेः एक एव उपायः कः? 5 विदेह मुक्ति के बाद जन्म होता है अथवा नहीं।,५.विदेहमुक्तेः परं पुनः जन्म भवति वा? हि शब्द युक्त तिङन्त को कैसे अनुदात्त नहीं होता है?,हिशब्दयुक्तं तिङन्तं कथम्‌ अनुदात्तं न भवति? "तीन होते है, पूरक कुम्भक तथा रेचक।",तिस्रः। पूरक-कुम्भक-रेचकाः। अतः गवामयन याग सत्रयाग के अन्तर्गत आता है।,अतः गवामयनयागः सत्रयागे अन्तर्गतः। "यहाँ मुख्य रूप से दो उपनिषद्‌ केन उपनिषद्‌, छान्दोग्य उपनिषद्‌ की संक्षेप से व्याख्या की है।",अत्र मुख्यतया द्वे केनोपनिषत्‌-छान्दोग्योपनिषदौ संक्षेपेण व्याख्याते। किस प्रकार का वाष्प जल।,कीदृशानां काष्ठानाम्‌। "जैसे - यहाँ उदाहरण रूप से दिए मन्त्र का जब सपाठ में अर्थात्‌ स्वाध्यायकाल में प्रयोग होता है, तब एक श्रुति नहीं होती है।",यथा- अत्र उदाहरणरूपेण दत्तस्य मन्त्रस्य यदा संपाठे अर्थात्‌ स्वाध्यायकाले प्रयोगो भवति तदा न ऐकश्रुत्यं विधीयते। “एकादेश उदात्तेनोदात्त: इस सूत्र से एकादेशः इस प्रथमा एकवचनान्त और उदात्तेन इस तृतीया एकवचनान्त पद की अनुवृति आ रही है।,'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रात्‌ एकादेशः इति प्रथमैकवचनान्तम्‌ उदात्तेन इति च तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। नीलोत्पलम्‌ यहाँ नील शब्द का विशेष्य कैसे नहीं हुआ?,नीलोत्पलम्‌ इत्यत्र नीलशब्दस्य विशेष्यत्वं कुतः न ? इन्द्र हाथ में हमेशा सुनहरे अथवा रक्तिम वस्त्र को धारण करते हैं।,इन्द्रः हस्ते सर्वदा स्वर्णिमं रक्तिमं वा वस्त्रं धारयति। तत्वमसि यहाँ पर तत्‌ पद से तथा त्वम्‌ पद से विशेष्य अखण्ड एक रस चैतन्य ही उपस्थापित होता है।,तत्त्वमसि इत्यत्र तत्पदेन त्वम्पदेन च विशेष्यम्‌ अखण्डैकरसं चैतन्यमेव उपस्थापितम्‌। यह शब्द मन्त्रों का यथार्थ उच्चारण के लिए प्रवर्तमान वेदाङ्ग को शिक्षा इस नाम से जाना जाता है।,शब्दमयमन्त्राणां यथार्थोच्चारणाय प्रवर्तमानं वेदाङ्गं शिक्षा इति अभिधीयते। उसी वार्तिक का ही सज्जीकरण से पूर्व उक्त वार्तिक आया है।,तस्यैव वार्तिकस्य सज्जीकरणेन पूर्वोक्तं वार्तिकरूपम्‌ आगतम्‌ । व्यपदेशिवद्भाव के आश्रित होने से इसको आमन्त्रितान्तत्व भी सिद्ध होता है।,व्यपदेशिवद्भावम्‌ आश्रित्य अस्य आमन्त्रितान्तत्वम्‌ अपि सिध्यति। वहाँ उगितः पद प्रातिपदिकात्‌ पद का विशेषण होता है।,तत्र उगितः इति पदं प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। यज्ञस्य इस रूप को सिद्ध कोजिए।,यज्ञस्य इति रूपं साधयत। चनचिदिवगोत्रादितद्धिताम्रेडितेष्वगतेः इस सूत्र से अगतेः इस पञ्चम्यन्त पद की अनुवृति है।,चनचिदिवगोत्रादितद्धिताम्रेडितेष्वगतेः इति सूत्रात्‌ अगतेः इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌ अनुवर्तते। अत्र सूत्र होने पर अतः अव्ययीभाव से सुप्‌ न लोप इस एक वाक्य अम्‌ तु अपञ्चम्याः यह दूसरा वाक्य है।,अत्र सूत्रे अतः अव्ययीभावात्‌ सुपो न लुक्‌ इत्येकं वाक्यम्‌ अम्‌ तु अपञ्चम्याः इत्यपरं वाक्यम्‌। अञन्तात्‌ यह प्रातिपदिकात्‌ इसका विशेषण है।,अञन्तात्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌ अस्ति। (ब्र.सू.शा.भा.1.1.1) इस वचन से यह ज्ञात होता है की साधनसम्पत्ति के लाभ के बाद ही ब्रह्मजिज्ञासा करनी चाहिए।,(ब्र.सू. शा.भा.१.१.१) अस्माद्‌ वचनाद्‌ ज्ञायते यद्‌ साधनसम्पत्तिलाभात्‌ परं ब्रह्मजिज्ञासा कर्तव्या इति| "जिससे वह मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, तथा ब्राह्मण हूँ, इस प्रकार का मूढ विचार करता है।",ततश्च अहं पुरुषः भवामि स्त्री भवामि ब्राह्मणो भवामि इत्येवं मूढविचारं करोति। विभिन्न प्रकार से उसका प्रकटन किया जा सकता है।,विभिन्नैः प्रकारैः तस्य प्रकटनं कर्तुं शक्यते। रुद्र सम्बन्धी वैदिक यज्ञो में रुद्राध्याय अत्यधिक उपयोगी और हमेशा प्रसिद्ध है।,रुद्रसम्बन्धिवैदिकयनज्ञेषु रुद्राध्यायः अतीव उपयोगित्वेन नितान्तं प्रसिद्धोऽस्ति। गाढ्निद्रा ही सुषुप्ति कहलाती है।,सुषुप्तिः गाढनिद्रा एव। स्वयंप्रकाश ब्रह्म आवरण नाश से प्रकाशित होता है।,स्वयंप्रकाशं ब्रह्म च आवरणनाशात्‌ प्रकाशितं भवति। भ्राजते - भ्राज्‌-धातु से लट्‌-लकार आत्मनेपद प्रथमपुरुष एकवचन में भ्राजते रूप है।,भ्राजते- भ्राज्‌-धातोः लट्-लकारे आत्मनेपदे प्रथमपुरुषैकवचने भ्राजते इति रूपम्‌। गुरु के वचनों में तथा गुरूपदिष्टशास्त्रवचनों में दुढतर विश्वास ही श्रद्धा कहलाती है।,गुरुवचनेषु तथा गुरूपदिष्टशास्त्रवचनेषु दृढतरविश्वासः एव श्रद्धा। 25.2 ) समाधि के विघ्न निर्विकल्पकक समाधि के चार विघ्न होते है।,२५.२) समाधेः अन्तरायाः निर्विकल्पकसमाधेः चत्वारः विघ्नाः सन्ति। आठ सूत्रों में।,अष्टसु सूत्रेषु "उस यज्ञ से अश्व, पशु, गायें इत्यादि उत्पन्न हुए।",तस्मात्‌ यज्ञात्‌ अश्वाः पशवः गावः इत्यादयः अजायन्त। परम पुरुष को जो चाहता है वह अधिकारी है।,पुरुषः परमत्वेन यत्‌ कामयते तत्र अधिकारी। वेदान्त यह मुख्य रूप से उपनिषदों का ही नाम है।,वेदान्त इति मुख्यतया उपनिषदां नाम। और वह शुभसङ्कल्प वाला भी हो ऐसी प्रार्थना करते है।,किञ्च तत्‌ शुभसङ्कल्पमपि भवतु इति प्रार्थनमपि। श्री वाचस्पति गैरोला अपने इतिहास में लिखते है की - सत्यकेतुविद्यालङ्कार का यह मत है की जैगीषव्य का शिष्य बाभ्रव्य शिक्षा शास्त्र का जनक हैं।,श्रीवाचस्पतिगैरोला स्वकीये इतिहासे लिखति यत्‌ - सत्यकेतुविद्यालङ्कारस्य मतमिदं यत्‌ जैगीषव्यस्य शिष्यो बाभ्रव्यः शिक्षाशास्त्रं प्रणिनाय इति। पहली शिक्षा में माध्यन्दिन शाखा से सम्बद्ध परिभाषाओं का विस्तृत विवेचन है।,प्राथमिकीशिक्षायां माध्यन्दिनशाखातः सम्बद्धपरिभाषाणां विस्तृतं विवेचनम्‌ अस्ति। रुहाणाः - रुह्-धातु से शानच्प्रत्यय करने पर यह रूप है।,रुहाणाः - रुह्‌-धातोः शानच्ग्रत्यये रूपम्‌। "यथा भूलोक के देव, अन्तरिक्ष लोक के देव और द्युलोक के देव।","यथा भूलोकस्य देवाः, अन्तरिक्षलोकस्य देवाः द्युलोकस्य देवाश्च।" अस्ताचलसमय में आकाश को रंग बिरंगा बना देता है।,अस्ताचलसमये आकाशं वर्णक्रीडायां निमज्जितं भवति। 2 सोलहवां गण कहां से उत्पन्न होता है?,२) षोडशको गणः कस्मादुत्पद्यते। "आततायी हिंसक पशुओं के सामने भी वे हिंसा का प्रदर्शन नहीं करते हैं, कुछ हिंसा कभी कभी प्रकट करते है।","आततायिनः हिंस्रपशून्‌ प्रत्यपि ते हिंसां न प्रदर्शयन्ति, मृदुहिंसामात्रं कदाचिद्वा प्रदर्शयन्ति।" इस प्रकार ही सिद्धान्त पक्षकार उनके मत को सम्मुख रखते हैं।,एवं सिद्धान्तपक्षिणः तेषां मतं समुपस्थापयन्ति। इसलिए मोक्षलाभ के लिए यदि योगचतुष्टय को स्वीकार किया जाए तो इसमें कोई दोष नहीं है।,अतः मोक्षलाभाय यदि योगचतुष्टयम्‌ अपि स्वीक्रियते तर्हि नास्ति दोषः। चालीस।,चत्वारिंशत्‌। उसका पूर्व परिणाम मेद होता है।,तस्य पूर्वपरिणामः मेदः। धेनु लोक प्रसिद्ध गाय बछडे के बिना नहीं रहती है बछडे के साथ ही सोती है वैसे ही यह वृत्रमाता है।,धेनुः लोकप्रसिद्धा गौः सहवत्सा न यथा वत्ससहिता शयनं करोति तद्वत्‌॥ जीवन्मुक्त ज्ञान प्राप्त करके स्वेच्छाचारी नहीं होता है क्योंकि उसकी अशुभादि वासनाएँ तो साधनकाल में ही लुप्त हो जाती है।,"जीवन्मुक्तः ज्ञानं प्राप्य न स्वेच्छाचारी स्यात्‌, यतो हि अशुभादिवासना साधनकाले एव लुप्ता भवति।" पदपाठ - सुषारथिः।,पदपाठः - सुषारथिः। ` द्वितीयाटौस्वेनः' (पा. २. ४. ३४) इससे यहाँ एना आदेश हुआ।,'द्वितीयाटौस्वेनः' (पा. २. ४. ३४) इतीदम एनादेशः। समर्थः पदविधिः इस सूत्र से समर्थ पद आता है।,समर्थः पदविधिः इति सूत्रात्‌ समर्थः इति पदम्‌ आयाति। यहाँ पर जीवात्मा की तीन अवस्थाएँ प्रतिपादित की गई हैं।,अत्र जीवात्मनः तिस्रः अवस्थाः प्रतिपादिताः। इसलिए मन विषयों में आकृष्ट होने लगता है।,अतः मनः विषयेषु आकृष्टं भवति। चतुर्थ्यन्त यूप इसका जो अर्थ है वह उस शब्द से कहते है।,चतुर्थ्यन्तस्य यूप इत्यस्य यः अर्थः सः तच्छब्देन उच्यते। प्रस्थानत्रय का नाम लिखिए?,प्रस्थानत्रयस्य नामानि लिखत । लगभग पांच मंत्रो का एक वर्ग होता है।,प्रायः पञ्चभिः मन्त्रैः एको वर्गो भवति।। सौ एकाच: तृतीयादिः विभक्तिः ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,सौ एकाचः तृतीयादिः विभक्तिः इति च सूत्रगतपदच्छेदः। केवल सज्जनों का नहीं अपितु दुष्टों का और लुटेरों का भी देवता और पालक वह ही है।,न केवलं सज्जनानाम्‌ अपि तु असच्चौर-लुण्ठकानामपि देवता पालकश्च। भले ही जीव स्थूल देहादि से अथवा पञ्चकोशों से अत्यन्त ही भिन्न होता है।,यद्यपि जीवः स्थूलदेहादिभ्यः अथवा पञ्चकोशेभ्यः अत्यन्तं भिन्नः भवति। "वहाँ पङिक्त भङ्ग होने पर पाप होता है, अनर्थ की भी सम्भावना बढती है।","तत्र पङ्क्तिभङ्गे सति पापं भवति, अनर्थस्य अपि सम्भावना वर्द्धते।" "मानते है, उससे पहले ज्योति के विषय में किसी ने कभी भी कोई भी रचना नहीं लिखी थी।","मन्ये, ततः प्राक्‌ ज्यौतिषि क्वापि काचित्‌ कृतिः लिखिता न अभूत्‌।" श्रद्धां प्रातर्हवामहे ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या करो।,श्रद्धां प्रातर्हवामहे... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। कहा जाता है की जन्म होने मात्र से ही शिशु अग्नि अपने माता पिता का भक्षण करता है।,कथ्यते यत्‌ जन्ममात्रमेव शिशुरग्निः तस्य पितरौ भक्षयति। और व्यधिकरण नाम असमान विभक्ति के पद होने का है।,एवमेव व्यधिकरणे नाम असमानविभक्तिके पदे। सम्पूर्ण ऋग्वेद में कितने अध्याय है?,सम्पूर्ण ऋग्वेदे कति अध्यायाः सन्ति? भले ही परलोकस्थ सुख दुःखों का साक्षात्‌ अनुभव होता है फिर भी उनका दर्शन तो होता है इस प्रकार से सभी का अनुभव है।,यद्यपि परलोकस्थसुखदुःखे साक्षान्नानुभवति तथापि तद्दर्शनं भवतीति सर्वेषामनुभवः। “तिङङतिङः' इस सूत्र से।,तिङ्ङतिङः इति सूत्रेण। और इसके उत्तरपद कृदन्त है।,अस्य उत्तरपदं च कृदन्तं वर्तते। और अदितिऔर दिति को देखते हो।,किञ्च अदितिं दितिं च अवलोकयतम्‌। "मरुत्‌ हमेशा इन्द्र की युद्ध में सहायता करता है, अतः इन्द्र मरुत्सखा मरुत्वान्‌ इत्यादिनाम से भी जाना जाता है।",मरुत्‌ सर्वदा इन्द्रस्य युद्धे सहायतां विदधाति अतः इन्द्रः मरुत्सखा मरुत्वान्‌ इत्यादिनाम्ना अपि उच्यते। "इसका उदाहरण है, कर्षः इति, दायः इति च।","अस्य उदाहरणं भवति कर्षः इति, दायः इति च।" प्राणायाम के द्वारा चित्त देह पवित्र तथा निर्मल होते हैं।,प्राणायामेन चित्तं देहश्च पवित्रं निर्मलं च भवति। होमयाग की आहुति के प्रदान के विषय में कैसी मति होती हे।,होमयागस्य आहुतिप्रदानविषये कीदृशी विमतिः विद्यते। ब्रह्म ही प्रतिपाद्य वस्तु है इस प्रकार से सूचित करने के लिए ही नौ बार कथन किया गया है।,ब्रह्म एव प्रतिपाद्यं वस्तु इति एतदेव सूचयितुं ब्रह्मणः नवकृत्वः कथनम्‌। उससे कर्तृ ङीप्‌ होता है।,तेन कर्तृ ङीप्‌ इति भवति। यहाँ “विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌'' इससे प्राप्त कर्मधारय बहुलग्रहणसामर्थ्य से नहीं होता है।,"अत्र ""विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" इत्यनेन प्राप्तः कर्मधारयसमासः बहुलग्रहणसामर्थ्यात्‌ न भवति।" इन चक्रों का योगियों की योगियों के द्वारा सुप्त तथा पद्य रूप में कल्पना की गई है।,एतानि चक्राणि सुप्तपद्मरूपेण कल्पन्त्ये योगिभिः। "गायत्री छन्द सोम देवताओं को लेकर जा रहा था, मार्ग में गन्धर्वो ने उसका अपहरण कर लिया।","गायत्रीच्छन्दः सोमं देवताभ्यः नीत्वा गच्छति स्म, मार्गे गन्धर्वाः तम्‌ अपहृतवन्तः।" सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्या-न्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽङ्गव ।,सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्या-न्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽङ्गव। अन्वय - यत्‌ (मनः) मनुष्यान्‌ सुषारथिः अश्वन्‌ इव नेनीयते अभीषुभिः वाजिन इव( मनुष्यान्‌ कर्मषु प्रेरयति) यत्‌ हृत्प्रतिष्ठम्‌ अजिरं जविष्ठं तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।,अन्वयः - यत्‌ ( मनः ) मनुष्यान्‌ सुषारथिः अश्वन्‌ इव नेनीयते अभीषुभिः वाजिन इव ( मनुष्यान्‌ कर्मसु प्रेरयति ) यत्‌ हृत्प्रतिष्ठम्‌ अजिरं जविष्ठं तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु। 14. गुरु के लक्षणों को लिखिए।,१४. गुरुलक्षणानि लिखत। इसलिए ही यह सूक्त अध्ययन को लिखा गया है।,अत एव अयं सूक्ताध्ययनं प्रपञ्चः। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है जैसे आदमियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा नृणां द्विजः श्रेष्ठः इति। वहाँ शतृ प्रत्यय की ऋकार की इत्संज्ञा होती है।,तत्र शतृप्रत्ययस्य ऋकारस्य इत्संज्ञा भवति। कहा से यह हुआ।,कुतः एवम्‌। "रूपक अलंकार, रूपकमयी, ऋग्वेद में, ऋतु चक्र के वर्णन में उषा काल के वर्णन में प्रकृति वैसे सुशोभित होती है जैसे मणिमाला में स्वर्ण सूत्र शोभित होता है।",रूपकालंकारः रूपकमयी ऋग्वेदे ऋतचक्रस्य वर्णने उषाकालस्य वर्णने प्रकृतिः तथा विराजते यथा मणिमालायां स्वर्णसूत्रं विराजते। "अतीत, भविष्य और वर्तमान कालिक सभी वस्तुएं भी पुरुष है।",अतीतानागतवर्तमानकालिकवस्तूनि सर्वाणि एव पुरुषः। इस विष्णुसूक्त में ऋषि कहते है की सभी जगह व्यापकशील विष्णु के पराक्रमो को शीघ्र कहते है।,अस्मिन्‌ विष्णुसूक्ते ऋषिः वदति सर्वत्र व्यापनशीलस्य विष्णोः वीरकर्माणि शीघ्रं वदामि। अवशिष्ट त्रिपाद्‌ विनाश रहित सत्‌ अर्थात्‌ प्रकाशरूप में अवस्थित है।,अवशिष्टः त्रिपाद्‌ विनाशरहितं सत्‌ स्वप्रकाशरूपे व्यवतिष्ठते इति शम्‌। यत: यह षष्ठी एकवचनान्त है।,यतः इति षष्ठ्येकवचनान्तम्‌। इस प्रकार स्वरित स्थान में विधान किया जो यण्‌ है उससे पर अनुदात्त आकार का प्रकृत स्थान में स्वरित स्वर विहित है।,एवं स्वरितस्थाने विहितः यः यण्‌ ततः परस्य अनुदात्तस्य आकारस्य प्रकृतस्थाने स्वरितस्वरः विहितः लेकिन अविद्यागत सत्त्वगुण का परिणाम बुद्धि होती हेै।,किन्तु अविद्यागतसत्त्वगुणस्य परिणामो भवति बुद्धिः। "उच्चैः इस पद की पाणिनीय सूत्रों के द्वारा प्रातिपदिक संज्ञा नहीं है, अपितु पूर्व आचार्यों के द्वारा प्रातिपदिक कहा जाता है।","उच्चैः इति पदं पाणिनीयैः सूत्रैः न प्रातिपदिकसंज्ञकम्‌, अपि तु पूर्वाचार्यैः प्रातिपदिकम्‌ इत्युच्यते।" 1. वेदान्त में अधिकारी का विवेक क्या होता है?,१. वेदान्ते अधिकारिणो विवेकः कः। वे इस अध्याय में बताए जाएंगे।,तदस्मिन्‌ अध्याये आलोचयिष्यते। ऋग्वेदीय देवता स्वरूप के अध्ययनकाल में स्पष्ट ही हो जाता है कि ऋग्वेद में एक ही परमसत्ता की स्तुति विविध नामों से की गई है।,ऋग्वेदीयदेवतास्वरूपाणाम्‌ अध्ययनकाले स्पष्टमेव ज्ञायते यत्‌ ऋग्वेदे एकस्याः एव परमसत्तायाः स्तुतिः विविधनाम्ना अक्रियत। शिवसङ्कल्पमिति शिवसङ्कल्पम्‌।,शिवसङ्कल्पमिति शिव-सङ्कल्पम्‌। गृत्समद ऋषि ने अनेक स्तुति में वीररस को आश्रित करके इन्द्र का वर्णन किया।,गृत्समदर्षिः अनेकासु स्तुतिषु वीररसम्‌ आश्रित्य इन्द्रस्य वर्णनम्‌ अकरोत्‌। "दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, आठवें, दसवें, ग्यारहवें, और चौदहवें मन्त्र का कितव और अक्ष देवता है।",द्वितीय - तृतीय - चतुर्थ - पञ्चम - षष्ठ - अष्टम - दशम - एकादश - चतुर्दशमन्त्रस्य च कितवः अक्षाश्च देवताः । यदर्ङ वायुर्वाति यहाँ पर भुङ्क्ते और वाति ये दो तिङन्त पद है।,यददूयङ्‌ वायुर्वाति इत्यत्र भुङ्क्ते इति वाति इति च द्वयं तिङन्तं पदम्‌ अस्ति। 5. षष्ठी अर्थ में।,षष्ठ्यर्थे । पदात्‌ इस सूत्र का अधिकार है।,पदात्‌ इति सूत्रम्‌ अधिक्रियते। "“अधिकरणवाचिना च'' ( 2.2.13 ) सूत्रार्थ-अधिकरणवाची जो क्त प्रत्यय है, उससे षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।","अधिकरणवाचिना च॥ (२.२.१३) सूत्रार्थः - अधिरकरणवाची यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति।" मया सो अन्नमत्तिङ्ख ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,मया सो अन्नमत्ति.....इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। शुज्‌-धातु से कानच प्रथम एकवचन में।,शुज्‌ - धातोः कानचि प्रथमैकवचने । “प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते'' इस वार्तिक का क्या अर्थ है?,"""प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते"" इति वार्तिकस्यार्थः कः?" कर्म में संप्रदान होने से चतुर्थी।,कर्मणः संप्रदानत्वात्‌ चतुर्थी। व्यष्टिज्ञानोपाहित चैतन्य प्राज्ञ होता है।,व्यष्ट्यज्ञानोपहितं चैतन्यं भवति प्राज्ञः। "पर्वत में स्थित स्वेच्छा से गमन करने वाले भयानक पशु जैसे स्वतन्त्र है वैसे ही यह भी स्वतन्त्र इ्सके तीन पादभूमि के मध्य में सभी प्राणि जीवन बिताते है, इसलिये यह स्तुत्ति करते है।",पर्वतस्थः स्वेच्छया गमनवान्‌ भयानकपशुः यथा स्वतन्त्रः तथा अयमपि स्वतन्त्रः अस्यैव त्रिपादभूमिमध्ये सर्वे प्राणिनः जीवन्ति अतः अयं स्तुत्यः। उसी प्रकार अहङ्कार के सङकल्पविकल्पात्मक होने से मन के अन्दर अन्तर्भाव होता है।,अहङ्कारस्य सङ्कल्पविकल्पात्मकत्वात्‌ सः मनसि चान्तर्भवति। और जुआरी किसी से कुछ मागता है तो उसे कोई कुछ नही देते है।,अपि च नाथितः याचमानः कितवो धनं मर्डितारं धनदानेन सुखयितारं न विन्दते न लभते। और यह ही भारतीय नाटकों की मूल प्रवृत्ति कहलाती है।,एतन्मूलैव च भारतीयनाटकप्रवृत्तिः इत्याह। "डॉ. हर्टल महोदय, श्रोदर महोदय, विण्डिश महोदय, ओल्डेन वर्ग महोदय, पिशेल महोदय नासदीय सूक्त, पुरुष सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, वाक सूक्त इत्यादि।","डॉ. हर्टलमहोदयः, श्रोदरमहोदयः, विण्डिशमहोदयः, ओल्डेनवर्गमहोदयः, पिशेलमहोदयः इत्येते नासदीयसूक्तम्‌,पुरुषसूक्तम्‌,हिरण्यगर्भसूक्तम्‌,वाक्सूक्तम्‌ इत्यादि।" "दर्पण मे जैसे मुख प्रतिबिम्ब के मानापमानों के द्वारा कोई परिवर्तन नहीं होता है, उसी प्रकार से जीवन्मुक्त को भी जगत्‌ के मिथ्यात्व के ज्ञान से हर्षविषादादि नहीं होते है।","दर्पणे यथा मुखप्रतिविम्बस्य मानापमानैः न किञ्चित्‌ परिवर्तनं भवति, जीवन्मुक्तस्य अपि जगन्मिथ्यात्वज्ञानात्‌ हर्षाविषादादि न भवति।" पांच प्रकार के प्रकृतियागों की प्रकृति यहाँ दिखाई गयी है।,पञ्चविधानां प्रकृतियागानां प्रकृतिः अत्र प्रदर्श्यते। यज्ञियानाम्‌ इसका क्या अर्थ है?,यज्ञियानाम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। तीनों समासो में जिस समास में पूर्वपदसंज्ञावाचक होता है उस समास की संख्यापूर्वो द्विगुः इस सूत्र से द्विगु संज्ञा का विधान होता है।,त्रिषु च समासेषु यस्मिन्‌ समासे पूर्वपदं संख्यावाचकं भवति तस्य समासस्य संख्यापूर्वो द्विगुः इत्यनेन सूत्रेण द्विगुसंज्ञा विधीयते। यज्ञ कौ सफलता में केवल उचित विधान में ही नहीं है अपितु उचित समय के नक्षत्र की भी आवश्यकता होती है।,यज्ञस्य साफल्यं न केवलम्‌ उचितविधाने अस्ति प्रत्युत उचितसमयस्य नक्षत्रस्य अपि आवश्यकता वर्तते। (क) विषय (ख) विवेक (ग) प्रयोजन (घ) अधिकारी 13. शमदमादि षट्क सम्पत्ति के अन्तर्गत यह नहीं होता है।,(क) विषयः (ख) विवेकः (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) अधिकारी 13. शमादिषट्कसम्पत्तौ इदं नान्तर्भवति। जिसकी जटा है वह कपर्दी कहलाता है।,यस्य जटा अस्ति सः कपर्दी इत्युच्यते। तथापि अभी भी ब्राह्मणों द्वारा ये याग बहुत सी जगह किये जाते हैं।,तथापि विप्रैः अधुनापि एते यागाः क्रियन्ते बहुत्र। बहुमूल्य धन स्थविर घोड़े के समान जुआरी के प्रिय पात्र नही होती है।,बहुमूल्योपेतः स्थविरः अश्वः इव प्रियपात्रं न भवति द्यूतकारः । "वेद में स्वर की प्रधानता सभी को विदित ही है, और स्वर ज्ञान शिक्षा से ही होता है।","वेदे स्वरस्य प्राधान्यं सर्वैः विदितम्‌, स्वरज्ञानं च शिक्षातः एव भवति।" यहाँ षष्ठयन्त को समान अर्थ से सुबन्त के साथ समास होता है।,अत्र षष्ठ्यन्तं समर्थेन सुबन्तेन समस्यते। "अधिकारी के कर्मो में उक्त कर्मों की उपासना तथा इनका अनुष्ठान तभी सम्भव होगा जब प्रमाता ऋक्‌, यजु, साम तथा अथर्व इन वेदों का अर्थ सामान्य रूप से जानता होगा।",अधिकारिणो लक्षणे उक्तानाम्‌ कर्मणाम्‌ उपासनानां च एतेषाम्‌ अनुष्ठानं तदैव सम्भवति यदा प्रमाता ऋक्‌-साम-यजुरथर्वणां चतुर्णां वेदानाम्‌ अर्थं सामान्येन जानीयात्‌। "चैतन्य ही प्रकाश स्वरूप होता है, तथा सदा प्रकाशमान भी होता है।","चैतन्यं हि प्रकाशस्वरूपं, सदा प्रकाशमानम्‌।" "दो प्रकार का यह ग्रन्थ है, एक बड़े आकार का, दूसरा लघु आकार का।","द्विविधः अयं ग्रन्थः, एकः बृहदाकारः, द्वितीयस्तु लघ्वाकारः एव।" व्याख्या - हे उदार हाथो वाले दानशूर वीर यह अर्थ है।,व्याख्या- अक्रविहस्ता अकृपणहस्तौ दानशूरावित्यर्थः। इसलिए मुमुक्षुओं के लिए ब्रह्मज्ञान सम्पादन में सविशेष ब्रह्मज्ञान के द्वारा निर्विशेष का ज्ञान होता है।,अतः मुमुक्षूणां कृते ब्रह्मज्ञानसम्पादनमुद्दिश्य सविशेषब्रह्मज्ञानद्वारा निर्विशेषस्य ज्ञानं भवति। संस्कृत पाठशालाओं में और महाविद्यालयों में वेद का अध्ययन अध्यापन होता है।,संस्कृतपाठशालासु महाविद्यालयेषु च वेदस्य अध्ययनम्‌ अध्यापनं च साग्रहं भवति। "सरलार्थ - अनिश्चित स्थान में घुमने वाले जुआरी की पत्नी उसके बिना दुखी होती है एवं माता परेशान रहती है, दूसरो के कर्ज चढ़ जाने से जुआरी डरता है, वह दूसरो के धन को चुराने की इच्छा करता है रात में घर आता है।",सरलार्थः - कितवस्य आश्रयहीना पत्नी सन्तप्ता भवति । क्वचिदपि विचरतः कितवपुत्रस्य माता दुःखिता भवति। ऋणी कितवः ऋणदातुः बिभेति। कितवश्च धनाय रात्रौ अन्यस्य गृहं प्रविशति । "शाकपार्थिवादीनां शब्दानां शाक, पृथु आदि शब्दों की सिद्धि होने पर पूर्व पद में स्थित उत्तरपदलोप का उपसंख्या न करना चाहिए।",शाकपार्थिवादीनां शब्दानां सिद्धये पूर्वपदे स्थितस्य उत्तरपदलोपस्य उपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ । यह प्रज्ञानेत्र रूप पूर्ववत्‌ होता है।,प्रज्ञानेत्रो लोकः पूर्ववत्‌। हरिणा त्रातः इस लौकिक विग्रह में हरि टा त्रात सु इस अलौकिक विग्रह में प्रकृत सूत्र से कर्ता में विद्यमान हरि टा इस सुबन्त को त्रात सु सुबन्त के साथ तत्पुरुषसंज्ञा होती है।,हरिणा त्रातः इति लौकिकविग्रहे हरि टा त्रात सु इत्यलौकिकविग्रहे प्रकृतसूत्रेण कर्तरि विद्यमानं हरि टा इति सुबन्तं त्रात सु इति सुबन्तेन सह तत्पुरुषसंज्ञं भवति। 7. अजादिपद में बहुव्रीहि समास है।,७. अजादिपदे बहुव्रीहिसमासः अस्ति। वेदान्तवाक्यों के द्वारा जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य किस प्रकार से विवक्षित किया गया है।,वेदान्तवाक्यैः जीवब्रह्मणोः कीदृशम्‌ ऐक्यं विवक्षितम्‌। अतः वेद को पढ़कर और विचार करके उसके अनुसार आचरण करना चाहिए।,"अतः अध्येयः वेदः, विचार्यः च तदर्थः विपश्चिता।" और इस प्रकार दूरात्‌ सम्बुद्धौ वाक्यम्‌ एक श्रुति ये यहाँ सूत्र में आये पदो का अन्वय है।,एवञ्च दूरात्‌ सम्बुद्धौ वाक्यम्‌ एकश्रुति इति अत्र सूत्रगतपदानाम्‌ अन्वयः। अनुबन्धों में अधिकारी तथा विषय अभी तक कहे जा चुके हैं।,अनुबन्धेषु अधिकारी विषयः च इति एतावता उक्तौ। यहाँ चतुर्थ्यन्त को समर्थ से सुबन्त के साथ समास होता है।,अत्र चतुर्थ्यन्तं समर्थन सुबन्तेन समस्यते। इस प्रकार की उसकी बुद्धि हो जाती है।,इति बुद्धिः भवति। इस याग को प्रतिशरद ऋतु में एकवार करने का निर्देश किया गया है।,अयं यागः प्रतिशरदम्‌ एकवारं करणीयः इति निर्देशः। उस अन्य पदार्थ विष्णु की प्राधान्यता से यह समास अन्यपदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास होता है।,तस्य अन्यपदार्थस्य विष्णोः प्राधान्यात्‌ अयं समासः अन्यपदार्थप्रधानः बहुव्रीहिः। पृथिवी पर जलग्रहण करके पञ्चमहाभूतों का उपलक्षण किया।,पृथिव्युदकग्रहणं पञ्चमहाभूतानाम्‌ उपलक्षणम्‌। "अतएव वैदिक मन्त्र में इन्द्र से बाद में ही अग्नि को महत्व दिया गया है, उसके महत्व को प्रकट करने के लिए अग्नि देवता के दो सौ से अधिक सूक्तों में उसका वर्णन किया गया है।",अत एव वैदिकमन्त्रेषु इन्द्रात्‌ परमेव अग्नेरभ्यर्हितत्वं प्रकटयन्ति अग्निदेवताका द्विशताधिकस्तोत्रनिबद्धा मन्त्राः। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे- ०° कुगति प्रादि समासों के सूत्रों और वार्तिकों को जान पाने में; ० उपपद समास सम्बन्धी सूत्रों को जान पाने में; ° तत्पुरुषसमासान्त प्रत्ययों के विधायक सूत्रों को जान पाने में; ० लिङग निर्णय सूत्रों को जान पाने में; ० विशिष्ट आदेश विधायक सूत्रों को जान पाने में; ० सूत्र सहित समास को जानकर उनके अन्य समस्त पदों के निर्माण कर पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ - कुगतिप्रादिसमासानां विधायकं सूत्रं वार्तिकानि च जानीयात्‌। उपपदसमाससम्बन्धानि सूत्राणि जानीयात्‌। तत्पुरुषसमासान्तप्रत्ययानां विधायकानि सूत्राणि जानीयात्‌। लिङ्गनिर्णायकानि सूत्राणि जानीयात्‌। विशिष्टादेशविधायकानि सूत्राणि जानीयात्‌। ससूत्रं समासं ज्ञात्वा तादृशानाम्‌ अन्येषां समस्तपदानां निर्माणे समर्थो भविष्यति। इसलिए कहा गया है- ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्य यत्‌।,तथाहि उच्यते- ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्य यत्‌। "( गोप. ब्रा. ३/२ ) पुरोहित को अथर्ववेद का ज्ञान भी आवश्यक होता है, जो राजा की शान्ति तथा पौष्टिक कार्य का सम्पादन अथर्ववेद से ही करता है।","(गोप. ब्रा. ३/२) पुरोहितस्य अथर्ववेदस्य ज्ञानम्‌ अपि आवश्यकं भवति, यदसौ राज्ञः शान्त्यास्तथा पौष्टककार्यस्य च सम्पादनं अथर्ववेदेन एव करोति।" वैसे ही वह वर्षा द्वारा पृथिवी पर जलरूपवीर्य को धारण करता हुआ प्राणियो के लिए अन्न आदि खाद्य पदार्थो को उत्पन्न करता है।,तथाहि स वर्षाद्वारा पृथिव्यां जलरूपिवीर्यस्य धारणं कुर्वन्‌ प्राणिनां कृते अन्नादीनां खाद्यपदार्थानाम्‌ उत्पत्तिं करोति । निदिध्यासन मोक्ष जनक होता है।,निदिध्यासनं हि मोक्षजनकम्‌। इस सूत्र से नपुंसकत्व होता है।,अनेन सूत्रेण नपुंसकत्वं विधीयते । यद्यपि रुद्र काचन देवता परन्तु वह भगवान्‌ स्वरूप है।,यद्यपि रुद्रः काचन देवता परन्तु स भगवत्स्वरुपः। निर्मल चित्तवाले पुरुष की ही शास्त्र में श्रद्धा होती है।,निर्मलचित्तस्य पुरुषस्य शास्त्राध्ययने श्रद्धा भवति। "उसी की महिमा से हिमालयादि पर्वत और महाभाग्य, नदी सागरादि बने।",तस्यैव माहात्म्यं हिमालयादिनिखिलपर्वताः महाभाग्यं च नदीसागरादयः। "बारह दिनों से अधिक दिन जिस याग में अपेक्षित हैं, उस याग का क्या नाम है?","द्वादशदिवसेभ्यः अधिकदिवसाः यस्मिन्‌ यागे अपेक्षिताः, तस्य यागस्य किं नाम?" किस प्रकार का धन।,कीदृशं रयिम्‌। इसी प्रकार पञ्चम मन्त्र में कहा की जिसमे ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद और अर्थववेद है।,एवं पञ्चमे मन्त्रे उक्तं यत्‌ यस्मिन्‌ ऋग्वेदाः सामवेदाः यजुर्वेदाः अर्थववेदाः सन्ति। शास्त्रविद्‌ को भी स्वातन्त्र्य से नहीं करना चाहिए।,शास्त्रविदपि स्वान्त्र्यण न कुर्यात्‌। जैसे - अधिकांश संख्या में संहिता छन्दोबद्ध है।,यथा- बहुसंख्यकाः संहिताः छन्दोबद्धाः सन्ति। छठे अध्याय में स्थित 'आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,षष्ठाध्यायस्थस्य 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रस्य कः अर्थः ? समास के कितने भेद होते हैं और उनके लक्षण क्या है?,समासभेदाः के भवन्ति? कानि च तेषां लक्षणानि? मित्र और वरुण दोनों सूर्यरूप से ही ग्रहण किया है क्योंकि सूर्य ही दिन रात्री का स्रष्टा है।,"मित्रः वरुणश्च उभयौ सूर्यरूपेण एव ग्राह्यौ, यतो हि सूर्य एव दिवारात्र्यौः स्रष्टा।" `अनुदात्तं च' इस सूत्र में अनुदात्त शब्द का अर्थ क्या है?,'अनुदात्तं च' इति सूत्रे अनुदात्तशब्दार्थः कः? वृत्ति जड होती है।,वृत्तिः जडा भवति। अतः यह षष्ठयन्त पद है।,अतः इति षष्ठ्यन्तं पदम्‌। 5 उपक्रम तथा उपसंहार को उदाहरण के द्वारा प्रतिपादन कीजिए।,5 उपक्रमोपसंहारौ उदाहरणेन प्रतिपादयत। भोज्यम्‌ यह कूृत्यप्रत्ययान्त पद और स्वरित है।,"भोज्यम्‌ इति कृत्यप्रत्ययान्तं पदम्‌, स्वरितं च।" 9 सविकल्पक समाधि किस चित्तभूमि में उत्पन्न होती है?,९. सविकल्पकः समाधिः कस्यां चित्तभूमौ जायते? उन मन्त्रों के द्वारा पुरुषस्वरूप और सृष्टि विवरण वर्णित है।,"तैः मन्त्रैः पुरुषस्वरूपं, सृष्टिविवरणं च वर्णितम्‌।" उससे बैद ई स्थिति होती है।,तेन बैद ई इति स्थितिः भवति। और विनियोग है।,गतश्च विनियोगः। येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदर्थेषु धीरा।,येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीरा। पहला प्रपाठक आरुण-केतु नाम की अग्नि की उपासना का तथा उसके लिए ईटों के चयन का वर्णन करता है।,प्रथमः प्रपाठकः आरुण-केतुनामकस्य अग्नेः उपासनायाः तथा तदर्थम्‌ इष्टिकाचयनस्य वर्णनं करोति। इस सूत्र से संख्यापूर्व तत्पुरुष की द्विगु संज्ञा होती है।,अनेन सूत्रेण संख्यापूर्वस्य तत्पुरुषस्य द्विगुसंज्ञा विधीयते। अभी वृष्टि का संवरण करो।,वर्षमृदु षू गृभाय उत्कृष्टं सु सुष्टु गृभाय गृहाण । "जगत के मूलकारण का, और परब्रह्म के अपूर्व सृजन शक्ति का तथा अलौकिक महिमा का वर्णन इस सूक्त में है।",गतः मूलकारणस्य परब्रह्मणः अपूर्वसृजनशक्तेः तथा अलौकिकमहिम्नः वर्णनम्‌ अस्मिन्‌ सूक्ते अस्ति। इसी सन्दर्भ में अक्षरशः अनुवाद रूप से गीता का यह श्लोक देखना चाहिए - “यज्ञाशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।,अस्मिन्‌ सन्दर्भेऽक्षरशोऽनुवादरूपेण गीतायाः श्लोकोऽयं द्रष्टव्यः- 'यज्ञाशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। शङ्कर भगवान इसमें अत्यधिक रुचि लेते हैं।,शङ्करभगवत्पादानामस्यां महती रुचिः परिलक्ष्यते। परीक्षा का समय तीन घंटे होगा।,परीक्षाकालः होरात्रयात्मकः। "आभ्यन्तर शौच के द्वारा चित्तशुद्धि, चित्तशुद्धि में मन कौ प्रसन्नता, मन की प्रसन्नता से चित्त की एकाग्रता उससे इन्द्रयों पर निग्रह और इन्द्रिय जय आत्मदर्शन योग्यता योगी को प्राप्त होती हे।","आभ्यन्तरशौचेन च चित्तशुद्धिः, चित्तशुद्धेः मनसः प्रसादः, मनःप्रसादात्‌ चित्तैकाग्यं, ततः इन्द्रियजयः, इन्द्रियजयाच्च आत्मदर्शनयोग्यता योगिनः सम्भवति।" यदि ज्ञान के अज्ञान का नाश होता है तो अज्ञानकार्य प्रारब्ध का भी नाश ज्ञान के द्वारा होना चाहिए यदि ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश नहीं होता है तो ब्रह्मज्ञान की व्यर्थापत्ति हो जाएगी।,"यदि स्यात्‌ ज्ञानेन अज्ञाननाशः तर्हि अज्ञानकार्यस्य प्रारब्धस्य अपि नाशः ज्ञानेन स्यात्‌, यदि ज्ञानेन न अज्ञाननाशस्तर्हि ब्रह्मज्ञानस्य व्यर्थतापत्तिः स्यात्‌।" जैसे - हमारा वृत्तान्त स्तुति अर्थ के द्वारा अन्वाख्यान है।,यथा- 'अस्मद्कृत्तान्तान्वाख्यानं स्तुत्यर्थन। इस सूत्र में एक ही समस्त पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे एकमेव समस्तं पदं वर्तते। यतोऽनावः इसका एक उदाहरण को प्रदर्शित करके समन्वय कोजिए।,यतोऽनावः इत्यस्य एकमुदाहरणं प्रदर्श्य समन्वयत। पर्वत में स्थित मेघों को पीटने के लिए त्वष्टा ने इन्द्र के लिये गर्जना युक्त वज्र का निर्माण किया।,पर्वते निवसतः मेघान्‌ ताडितवान्‌ इत्यतः त्वष्टा इन्द्राय गर्जन्तं वज्रं सृष्टवान्‌। आरुरुक्षु को कर्म फलों को सन्यस्य करके कर्म करना चाहिए।,यश्च आरुरुक्षुः स कर्मफलं संन्यस्य कर्म कुर्यात्‌। और वह अवस्था जीवन्मुक्ति कहलाती है।,सा च अवस्था जीवन्मुक्तिः इत्युच्यते। एक तेपद पादपूरण के लिए।,एकं तेपदं पादपूरणाय। इस प्रकार सूर्य अग्नि का जनक हुआ।,तत्र सूर्यः अग्नेः जनकः। 24. तप से तात्पर्य हो कामनाओं का अनुपभोग।,२४. तपो नाम कामानाम्‌ अनुपभोगः। वह प्रजापति ही अग्नि है।,स प्रजापतिः एव अग्निः। राजपुरुषः यहाँ उदाहरण है।,राजपुरुषः इत्यादिकमत्र उदाहरणम्‌। कर्मों के करने के लिए भी कर्म करना चाहिए।,कर्मणः कृते एव कर्म कर्तव्यम्‌। यह शिक्षा प्राचीन प्रतीत होती है।,इयं शिक्षा प्राचीना इति प्रतीयते। अतः प्रकृत सूत्र से अपदादि में स्थित ईळे इस पद को अनुदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अपदादौ स्थितम्‌ ईळे इति पदं सर्वम्‌ अनुदात्तं भवति। त्रिष्टुभ आदि छन्दों में यह सूक्त है।,त्रिष्टुभादिना छन्दसा सूक्तम्‌ इदम्‌ अस्ति। तृतीया कर्मणि इस सूत्र से कर्मणि इसकी अनुवृति आती है।,तृतीया कर्मणि इति सूत्रात्‌ कर्मणि इत्यनुवर्तते। कहाँ होने पर आदर के लिए पुनः कहते है।,उक्तमपि पुनरुच्यते आदरार्थम्‌। खलप्व्यांशा यह स्वरित स्थान में विहित यण्‌ का उदाहरण है।,खलप्व्यांशा इति स्वरितस्थाने विहितस्य यणः उदाहरणम्‌। "सायंकाल में सूर्य उसका तेज अग्नि में प्रतिष्ठापित करके अस्त हो जाता है, अतः सूर्य के स्थान पर अग्नि का पाठ विहित है।","सायंकाले सूर्यः तस्य तेजः अग्नौ प्रतिष्ठाप्य अस्तं गच्छति, अतः सूर्यस्य स्थाने अग्नेः पाठः विहितः।" माय का वह आवरण ज्ञान के द्वारा भस्म होकर के स्वयं के विवेकानन्द वेदान्त भगवान को प्राप्त करें।,ु "श्रद्धा कामायनी ऋषिका, अनुष्टुप्‌ छन्द, और देवता श्रद्धा है।","श्रद्धा कामायनी ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, देवता श्रद्धा।" वस्तुतः मन का निग्रह ही शम कहलाता है।,वस्तुतः मनसः निग्रहः एव शमः। ऋग्वेद के एक अत्यन्त प्रसिद्ध मन्त्र में व्याकरण को बैल के रूप में प्रतिपादन किया है - चत्वारि शृङ्गाः त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्ता सोऽस्य।,ऋग्वेदस्य एकस्मिन्‌ सुप्रसिद्धमन्त्रे व्याकरणं वृषभस्य रूपकत्वेन प्रतिपादितम्‌ अस्ति - चत्वारि शृङ्गाः त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्ता सोऽस्य। उदाहरण -यहाँ उदाहरण है तावत्‌ किराजा।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ किंराजा इति । वैदिक देवता के बाह्यप्रतीक को प्रत्येक एक-एक प्रकृतिक घटना है।,वैदिकदेवतायाः बाह्यप्रतीकं प्रत्येकम्‌ एकम्‌ एकं प्रकृतिकघटना। भारतीय विचार शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ उपजीव्य ग्रन्थ उपनिषद्‌ ही है।,भारतीयविचारशास्त्रस्य सर्वश्रेष्ठः उपजीव्यग्रन्थः उपनिषदेव। एवं सुराजन्‌ का पूजनार्थं पूर्वपदकत्व से प्रोक्त सूत्र से टच्‌ प्रत्यय का निषेध होने पर सुराजन्‌ होता है।,एवं सुराजन्‌ इत्यस्य पूजनार्थपूर्वपदकत्वात्‌ प्रोक्तसूत्रेण टचः निषेधे सुराजन्‌ इति भवति। अध्यात्म इसका जीवात्मक अर्थ होता है।,अध्यात्मम्‌ इत्यस्य जीवात्मकमित्यर्थः। कहते हैं की जिस प्रकार अरे रथचक्र की रक्षा करता है उसी प्रकार राजा भी मनुष्यों की रक्षा करता है।,उच्यते यथा अराः रथचक्रं रक्षन्ति तथैव राजा अपि मनुष्यान्‌ रक्षति। “षष्ठी” इससे षष्ठी पद “न निर्धारणे” इससे पद की अनुवृत्ति नहीं आती है।,"ष॒ष्ठी"" इत्यस्मात्‌ षष्ठी इति पदं ""न निर्धारणे"" इत्यस्मात्‌ नेति पदमनुवर्तते।" इससे आयी हुई जो समासादिपद विधियों में एकार्थीभावक सामर्थ्यवान्‌ उन पदों को जिन पर आश्रित होते है।,तेन इदम्‌ आगतं यत्‌ समासादिपदविधिः एकार्थीभावरूपसामर्थ्यवन्ति यानि पदानि तानि आश्रित्य प्रवर्तते। विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ सूत्रार्थ-भेदक भेद से समानाधिकरण के साथ बहुल को समास होता है।,विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ सूत्रार्थः - भेदकं भेद्येन समानाधिकरणेन सह बहुलं समस्यते व्याख्या - हिम जिसमें है वह हिमवान्‌।,व्याख्या- हिमानि अस्मिन्‌ सन्तीति हिमवान्‌। पाँच वायु कौन-कौन से है?,पञ्च वायवः के? "ये सूत्र भी यद्यपि अपाणिनीय है, फिर भी भाष्य प्रमाण से ये सूत्र महर्षि पाणिनि के द्वारा स्वीकार किया है ऐसा जाना जाता है।",एतानि सूत्राण्यपि यद्यपि अपाणिनीयानि तथापि भाष्यप्रामाण्यात्‌ एतानि सूत्राणि महर्षिणा पाणिनिना स्वीकृतानि इति ज्ञायते। तत्काल एतत्काल तद्‌ देश एतद्देश आदि विशेषण विशिष्ट वाचक पदों का एकदेश एक विशेष्य देवदत्तस्वरूपपिण्डमात्र में जो तात्पर्य होता है वह यह देवदत्त है इस प्रकार की लक्षणा का यहाँ पर आश्रय लेना चाहिए।,तत्कालैतत्कालतद्देशैतद्देशादिविशेषणविशिष्टवाचकपदानाम्‌ एकदेशे विशेष्ये देवदत्तपिण्डस्वरूपमात्रे यदि तात्पर्यं भवति तर्हि सोऽयं देवदत्तः इत्यत्र लक्षणा न आश्रयणीया। 5. सुषारथिरश्वा ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या कीजिए।,५. सुषारथिरश्वा ... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। अनात्मवान से काम किस प्रकार से उत्पन्न होता है।,कुतः अनात्मविदः कामः जायते। तीसरे प्रस्थान को किसने लिखा?,तृतीयप्रस्थानं केन प्रणीतम्‌। उससे ज्योतिष नाम वेदाङ्ग का भी अपना वैशिष्ट्य है।,तस्मात्‌ ज्योतिषं नाम वेदाङ्गाम्‌ अपि स्वीयं वैशिष्ट्यं निदधाति। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे। धातु से विहित स्वरों के विषय में जान पाने में। प्रातिपदिक से विहित स्वरों को जान पाने में। उदात्त स्वर विषय में जान पाने में। स्वर प्रक्रिया को समझ पाने में। स्वर विषय में दक्ष हो पाने में। सूत्रों के अर्थ निर्णय करने में समर्थ हो पाने में। सूत्रों की व्याख्या कर पाने में। अनुवृत्ति आदि से सूत्र के अर्थ का निर्णय कर पाने में।,अमुं पाठं पठित्वा भवान्‌ - धातोः विहितानां स्वराणां विषये ज्ञास्यति। प्रतिपदिकाद्विहितानां स्वराणां विषये ज्ञास्यति। उदात्तस्वरविषये ज्ञास्यति। स्वरप्रक्रियां ज्ञास्यति। स्वरविषये पटुः भवितुं शक्नुयात्‌। सूत्राणां अर्थनिर्णयं कर्तु समर्थो भवेत्‌। सूत्राणां व्याख्यानं कर्तु समर्थो भवेत्‌। अनुवृत्त्यादिना सूत्रार्थनिर्णयमपि कर्तु शक्नुयात्‌ । अपने आप जैसे -अग्निमीळे इत्यादि।,स्वतः यथा अग्निमीळे इत्यादि। अतः यहाँ तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः अत्र तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। इस प्रकार के जिसने कार्य किये उस प्रकार के विष्णु के पराक्रम को कहता हूँ।,य एवं कृतवान्‌ तादृशस्य विष्णोर्वीर्याणि प्रवोचम्‌। उस समाधान के लिए उत्तरगर्भ का यह मन्त्र बताता है - श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्‌ वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः।,तत्समाधानाय उत्तरगर्भोऽयं मन्त्र आम्नायते- श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्‌ वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः। लौकिक नाम लोक में प्रयोग होने का है।,लौकिको नाम लोके प्रयोगार्हः। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है राजपुरुषः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा राजपुरुषः इति। जिसके कारण सूर्य उदित होता है।,यम्‌ आधारीकृत्य सूर्यः उदितः भवति। इन श्रुतियों की एक वाक्यता होनी चाहिए।,एकवाक्यता तु अनयोः श्रुत्योर्युक्ता। जो भी श्रुति में कहा गया को आकाश का नित्यत्व अभ्युपगम से अमृतत्व की उत्पत्ति नहीं है तो यह भी अयुक्त ही है।,"यदपि उक्तं श्रुतौ आकाशस्य नित्यत्वाभ्युपगमात्‌, अमृतत्वकथनाच्च नास्ति उत्पत्तिः इति तदपि अयुक्तम्‌।" देहेन्द्रियों में तथा घर आदि में अहंता तथा ममता का उत्पादन मन ही करता है।,देहेन्द्रियादिषु गेहादिषु च अहन्तां ममतां च मन एव उत्पादयति। वह अवस्था ही सविकल्पक समाधि कहलाती है।,सा अवस्था हि सविकल्पकः समाधिः। जल ही घनीभूत होकर के बर्फ बन जाता है।,जलमेव घनीभवत्‌ हिमं भवति। “दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌”' इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये और यह सूत्र कितने प्रकार का होता है।,"""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" विविध रूपों में व्याप्त होकर रहती हूँ।,विविधं व्याप्य तिष्ठामि। दृश्यते अनेन इति दर्शनम्‌ पद में करण में ल्युट्‌ प्रत्यय है।,दृश्यते अनेनेति दर्शनमिति करणे ल्युट्‌। इस कारण यह अंश भोजराजा से प्राचीन अपने आप सिद्ध है।,अतः अस्य अंशस्य भोजराजात्‌ प्राचीनत्वं स्वतः सिद्धम्‌ अस्ति। यहाँ दो सौ बत्तीस (२३२) श्लोक हैं।,अत्र द्वात्रंशदधिकद्विशतं (२३२) श्लोकाः सन्ति। 40. तीन गुण कौन-कौन से हैं?,४०. त्रयः गुणाः के? जीवत्मनाश होने पर कर्तृत भोक्तृत्वादि रूप से उत्पन्न दुःखादियों का भी नाश हो जाता है।,जीवत्वनाशे सति कर्तृत्व-भोक्तृत्वादिसमुपजनितं दुःखादीनामपि नाशः। वेदान्तसार में उपरति के दो लक्षण बताए गए है - “निवर्तितानाम्‌ एतेषां तद्वयतिरिक्तविषयेभ्यः उपरमणम्‌ उपरतिः” अथवा “विहितानां कर्मणां विधिना परित्यागः” इति।,वेदान्तसारे उपरतेः लक्षणद्वयम्‌ उक्तम्‌ - “निवर्तितानाम्‌ एतेषां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यः उपरमणम्‌ उपरतिः” अथवा “विहितानां कर्मणां विधिना परित्यागः” इति। 18. वेदान्त के अधिकारी का किसमें अधिकार होता है?,१८. वेदान्तस्य अधिकारिणः कुत्राधिकारः। उग्रस्य॑ चिन्मन्यवे ना नम॑न्ते राजां चिदेभ्यो नम इत्कृणोति॥,उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम॒ इत्कृणोति ॥ ८ ॥ न कि पूर्व शब्द का।,न तु पूर्व इति शब्दस्य। विशेष-मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशीनामादिर्वा इस सूत्र से ही यहाँ छन्द में मकर आदि शब्दों के आदि में और दूसरे स्वर का उदात्त होना सम्भव है।,विशेषः- मकर-वरूढ-पारेवत-वितस्तेक्ष्वार्जि-द्राक्षा-कलोमा-काष्ठा-पेष्ठा-काशीनामादिर्वा इति सूत्रेणैव अत्र छन्दसि मकरादिशब्दानाम्‌ आदेः द्वितीयस्य च स्वरस्य उदात्तत्वं सम्भवति। यहाँ पर “कर्मणि' सप्तम्येकवचनान्त पद है।,अत्र कर्मणि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। इसलिए यत्न करना चाहिए।,तस्मात्‌ यत्नः कर्तव्यः। वेद की संहिता में भी देवों का स्वरूप स्पष्ट बताया गया है- एकं सद्विप्रा बहुध वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।,वेदस्य संहितायामपि देवानां स्वरूपम्‌ स्पष्टम्‌ उद्घोषितम्‌- एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। सदन्त से षष्ठी समास निषेध होने का क्या उदाहरण हे?,सदन्तेन षष्ठीसमासनिषेधे किमुदाहरणम्‌? इसलिए शास्त्रों में ब्रह्मचर्य के विषय में कहा है-,शास्त्रेषु ब्रह्मचर्यविषये उच्यते - बुद्धयाद्यविद्यापि च कामकर्माणि अवस्था त्रय विचार पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः॥,बुस्याद्यविद्यापि च कामकर्माणि पुर्यष्टकं सृक्ष्मशरीरमाहुः॥ यहाँ अङग शब्द अवयव वाचक है।,अत्र अङ्गशब्दः अवयववाचकः वर्तते। अन्तिम में प्रार्थना है - श्रद्धे श्रद्धापये ह नः।,अन्तिमा प्रार्थनाः- श्रद्धे श्रद्धापये ह नः। जैसे रथ के पहियों में लकड़ी के अरा लगे होते है।,रथनाभौ अराः इव। धनवान इन्द्र ने वज्र को स्वीकार किया।,धनवान्‌ इन्द्रः वज्रं स्वीचकार। मोक्ष साधने की अनुपूर्वी को स्पष्ट कीजिए।,मोक्षसाधनेषु आनुपूर्वी स्पष्टीकुरुत। न इस अव्ययपद की अनुवृति है।,न इति अव्ययपदम्‌ अनुवर्तते। और वह दुःखनिवृत्ति रूप तथा आनन्द प्राप्ति रूप होता है तथा बार बार जन्ममरण रूपी संसार चक्र से निवृत्ति रूप होता है ।,"स च दुःखनिवृत्तिरूपः, आनन्दावाप्तिरूपः, पुनः पुनः जन्ममरणसंसारचक्रनिवृत्तिरुपः वा।" इस प्रकार यह अपनी महिमा से स्तुति करते है।,ईदृशोऽयं स्वमहिम्ना स्तूयते। 18.4.6 ) आनन्दमयकोश का आत्मत्व निरास आनन्द आत्मा का स्वरूप होता है।,१८.४.६) आनन्दमयकोशस्य आत्मत्वनिरासः आनन्दः आत्मनः स्वरूपं भवति। सूत्र में पूजाग्रहण का क्या अर्थ है?,सूत्रे पूजाग्रहणं किमर्थम्‌ ? यहाँ “स्त्रिया: पुंवद्भाषितपुंस्कादनूङ्समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणीप्रियादिषु”' इस सूत्र से स्त्रियाः और भाषितपुंस्कादनूङ् दो पदों की अनुवृत्ति होती है।,"अत्र ""स्त्रियाः पुंवद्भाषितपुंस्कादनूङ्समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणीप्रियादिषु"" इति सूत्रात्‌ स्त्रियाः भाषितपुंस्कादनूङ्‌ चेति पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" यह अनुष्ठान हविर्विधन प्रणयन कहलाता है।,इदं च अनुष्ठानं हविर्विधानप्रणयनम्‌ इति अभिधीयते। उसके द्वारा उपासना का साफल्य प्राप्त होने लगता है।,तेन उपासनायां साफल्यं सम्भवति। वेद ज्ञानसागर भी हैं।,वेदो ज्ञानसागरोऽपि। फिर भी सुखसाधन भी कल्याणकारी कहलाते है।,तथापि सुखसाधनमपि अपि कल्याणं कथ्यते। केवल लक्षणा तथा लक्षित लक्षणा।,केवललक्षणा लक्षितलक्षणा च इति। यहां पर वह छात्र अधिकारी है जो- काव्य व्याकरण कोष और वेद का विविध रूप से अध्ययन किया हो दर्शनशास्त्र को देखने की इच्छा और समझने की इच्छा मन में व्याप्त हो।,अत्र स छात्रः अधिकृतः यः - अधीतकाव्यव्याकरणकोषः अनधीतदर्शनशास्त्रः। ऐसा होने पर जो जाने से विरति होती है वह शम कहलाता है।,एवं सति गमनाद्‌ विरतिः शमः इति कथयितुं शक्यते। इसलिए मुण्डकोपनिषद्‌ में कहा गया है।,मुण्डकोपनिषदि आम्नायते। "वस्तु निष्ठ प्रश्नों के (क), (ख), (ग), (घ) इन विकल्पों में से युक्‍त उत्तर को चुनकर उत्तर पत्र पर लिखें।","वस्तुनिष्ठप्रश्‍ननाम्‌ (क), (ख), (ग), (घ) एषु विकल्पेषु युक्तम्‌ उत्तरं चित्वा उत्तरपत्रे लेख्यम्‌।" "उस दुरित की दुःख के विशेषफलत्व अनुपत्ति से अनेक दुरुतों में सम्भव भिन्नदुःखसाधन फलों में नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमात्र फलों में कल्प्यमान में न्द्र आदि रोगादि का बाध की कल्पना नहीं कर सकते है, नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःख से होने वाले पूर्वोपात्तदुरित फल शिरस पत्थर तोड्ने वाले दुःख नहीं होते हैं।","तस्य दुरितस्य दुःखविशेषफलत्वानुपपत्तेश्च - अनेकेषु हि दुरितेषु सम्भवत्सु भिन्नदुःखसाधनफलेषु नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमात्रफलेषु कल्प्यमानेषु द्वन्द्वरोगादिबाधनं निर्निमित्तं न हि शक्यते कल्पयितुम्‌ , नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमेव पूर्वोपात्तदुरितफलं न शिरसा पाषाणवहनादिदुःखमिति।" उसका अब उपस्थापन किया जा रहा है।,सोऽधुनात्रोपस्थाप्यते। यदि वेदाङ्ग सहित विधि का अनुसरण करके कोई वेद का अध्ययन करता है तो उस प्रमाता को वेद के अध्ययन के समय ही वेदान्त तत्व का ज्ञान हो जाता है।,यदि वेदाङ्गसहितं विधिम्‌ अनुसृत्य वेदाध्ययनं भवति तर्हि प्रमाता वेदपाठकाले एव वेदान्ततत्त्वं जानाति। इनके यथार्थ रूप का भी ज्ञान नहीं है।,एतेषां यथार्थरूपस्याऽपि बोधो न भवति। यहाँ प्रसङ्ग “दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः'' यह तद्धित ज प्रत्यय विधायक सूत्र “ तद्धितेष्वचायादेः' आदि अच की वृद्धिविधायक सूत्र प्रस्तुत किया गया है।,"अत्र प्रसङ्गाद्‌ ""दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः"" इति तद्धितञप्रत्ययविधायकं ""तद्धितेष्वचामादेः"" इत्यादेरचो वृद्धिविधायकं सूत्रं प्रस्तुतम्‌ ।" इस हाथ पैर रहित वृत्र के पर्वत के समान उसके भारी कंधो पर वज्र को विशेष रूप से मारा इन्द्र ने समुख होकर के फैंका।,अस्य हस्तपादहीनस्य वृत्रस्य सानौ पर्वतसानुसदृशे प्रौढस्कन्धे अधि उपरि वज्रम्‌ आ जघान इन्द्रः आभिमुख्येन प्रक्षिपवान्‌। मृत्यु से बचने के लिए इसके अलावा अन्य कोई भी मार्ग नहीं है।,इतः अन्यः कोऽपि मार्गः मृत्युराहित्याय नास्ति। 12. स होवाच... इस कथा अंश की व्याख्या करो।,१२. स होवाच ... इति कथांशं व्याख्यात। उवाच - वच्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,उवाच - वच्‌ - धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। जिससे इस योग का नामान्तर अभ्यास योग है।,तस्मात्‌ अस्य योगस्य नामान्तरम्‌ अभ्यासयोगः इति। आचार्योपसर्जनः यहाँ पर सप्तम्य अर्थ में प्रथमा की गई है।,आचार्योपसर्जनः इत्यत्र सप्तम्यर्थे प्रथमा विहिता। अङ्कुशिनः - अङ्कुशशब्द से इनि प्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में।,अङ्कुशिनः - अङ्कुशशब्दात्‌ इनि प्रत्यये प्रथमाबहुवचने । अतः प्रकृत सूत्र से श्रेणिकृताः यहाँ समास होने पर भी श्रेणि शब्द को प्रकृति स्वर होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण श्रेणिकृताः इत्यत्र समासे सत्यपि श्रेणिशब्दः प्रकृतिस्वरः भवति। उसकी विशाल शक्ति के सामने सम्पूर्ण जगत्‌ ही नतमस्तक होता है।,तस्य महत्याः शक्त्याः पुरतः सम्पूर्ण जगत्‌ एव नतमस्तकं भवति । ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त का देवता हिरण्यगर्भ प्रजापति स्वयं है।,ऋग्वेदस्य हिरण्यगर्भसूक्तस्य देवता हिरण्यगर्भः प्रजापतिः स्वयम्‌। “पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु '' ( 6.3.42 ) सूत्रार्थ- भाषित पुंसकत्व पर (नपुंसक) ऊङ के अभाव जिस तथा भूत की स्त्रीलिङ्ग के पूर्वपद का कर्मधारय होने पर जातीय में और देशीय के आगे पुंबाचक का ही (नपुंसक का) रूप होता है।,पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु॥ (६.३.४२) सूत्रार्थः - भाषितपुंस्कात्पर ऊङोऽभावो यस्मिन्‌ तथाभूतस्य स्त्रीलिङ्गकस्य पूर्वपदस्य कर्मधारये जातीयदेशीययोश्च परतः पुंवाचकस्येव रूपं भवति । समास के होने पर भी प्रकृतः यहाँ पर प्रकृत सूत्र से प्रकृति स्वर अर्थात्‌ अन्तोदात्त होता है।,समासे सत्यपि प्रकृतः इत्यत्र प्रकृतसूत्रेण प्रकृतिस्वरः अर्थात्‌ अन्तोदात्तः भवति। केबल अज्ञान ही अवभासित होता है।,केवलम्‌ अज्ञानमेव अवभासते। इसलिए वृत्ति स्वयं अज्ञान का नाश नहीं कर सकती है।,अतः वृत्तिः स्वतः अज्ञानं नाशयितुं न शक्नोति। 7. ईष्धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का यह रूप है।,७. ईष्धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपमिदम्‌। सृष्टि के क्रम में अनुक्रम से उत्पन्न अपञ्चीकृत सृक्ष्मभूत व्यवहार समर्थ नहीं होते हैं इस कारण से वे ही भूत पञज्चीकृत होते है।,सृष्टिसमये अनुक्रमेण उत्पन्नानि अपञ्चीकृतानि सूक्ष्मभूतानि व्यवहारसमर्थानि न भवन्ति इति कारणात्‌ तानि एव भूतानि पञ्चीकृतानि भवन्ति। इस प्रकार से महासुषुप्ति तथा प्रलय होता।,महासुषुप्तिः अथवा प्रलयो भवति। वहाँ जो उसका मौन है।,तत्र यता तस्य मौनी अस्मि। अनावृत्त चेतन्य शास्त्रों में फल शब्द के द्वारा कह जाता है।,अनावृतं चैतन्यं शास्त्रेषु फलशब्देन कथ्यते। उसके बाद में धर्म सिखाना चाहिए।,ततः परं धर्मदानम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- याति यह हि शब्द युक्त तिङन्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- याति इति हिशब्दयुक्तं तिङन्तम्‌ अस्ति। न तद्धित लुकि अतद्धितलुकि यहाँ नञ्तत्पुरुषसमास है।,न तद्धितलुकि अतद्धितलुकि इति नञ्तत्पुरुषसमासः । "आरण्यान्‌ - अरण्यशब्द से अण्प्रत्यय, उससे द्वितीयाबहुवचन में यह रूप बनता है।","आरण्यान्‌- अरण्यशब्दात्‌ अण्प्रत्ययः, ततः द्वितीयाबहुवचनम्‌।" भाषाविज्ञान दृष्टि से भी इसकी वैज्ञानिकता अक्षुण्ण ही है।,भाषाविज्ञानदृष्ट्या अपि अस्य वैज्ञानिकता अक्षुण्णा एव अस्ति। इस प्रकार के महानुभाव को हम शीघ्र प्राप्त हो।,एवं महानुभावं शूषं प्राप्नोतु। "विशेष- पुंस्‌-शब्द का यद्यपि ब्राह्मणादिगण में पाठ नहीं है, फिर भी ब्राह्मणादेणकृतिगण होने से पुंस्‌-शब्द का यहाँ ही ग्रहण है।",विशेषः- पुंस्‌-शब्दस्य यद्यपि ब्राह्मणादिगणे पाठः नास्ति तथापि ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात्‌ पुंस्‌- शब्दस्य अत्रैव ग्रहणम्‌। `अग्निमीळे' इस रूप को स्वर सहित सिद्ध कीजिए।,'अग्निमीळे' इति रूपं सस्वरं साधयत। २. प्रजापति सृष्टी के लिए कामयमान है।,२) प्रजापतिः सृष्ट्यर्थं कामयते। उन दोनों में शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनसंहिता का बतीसवें अध्याय में सर्वमेघ के मन्त्र लिखे हुए है।,तयोः शुक्लयजुर्वेदस्य माध्यन्दिनसंहितायां द्वात्रिंश अध्याये सर्वमेघस्य मन्त्राः लिखिताः। 18.4.5 ) विज्ञानमयकोश का आत्मत्व निरास सुषुप्ति में लय को प्राप्त करने वाले तथा जाग्रत में नखशिखापर्यन्त व्याप्य शरीर में जो बुद्धि है वह निश्चयात्मिका बुद्धि विज्ञानमय कोश कहलाती है।,१८.४.५) विज्ञानमयकोशस्य आत्मत्वनिरासः सुषुप्तौ लयं प्राप्य जाग्रति नखशिखान्तं व्याप्य शरीरे वर्तमाना निश्चयात्मिका बुद्धिःविज्ञानमयकोशः भवति। उक्त श्लोक के द्वारा बुद्धिपद से सूक्ष्म शरीर को कहा गया है।,श्लोकोक्तेन बुद्धिपदेन सूक्ष्मशरीरं निगदितम्‌। व्याख्या - श्रद्धा देवी की प्रातःकाल उपासना करते है।,व्याख्या- श्रद्धां देवीं प्रातः पूर्वाह्न हवामहे। तुम लोग अन्तरिक्ष से हम लोगो के लिए वृष्टि प्रदान करो।,यूयं दिवः अन्तरिक्षसकासात्‌ नः अस्मादर्थं वृष्टिं ररीध्वं दत्त । सरलार्थः - देवों ने पुरुष को विविध भाग और विविध रूप से विभक्त किया है।,सरलार्थः- देवाः पुरुषं विविधभागेन विविधरूपेण च विभक्तवन्तः। सूत्र अर्थ का समन्वय- उशन्ति यहाँ यह तिङन्त हि शब्द से युक्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- उशन्ति इति अत्र तिङन्तं हिशब्दयुक्तम्‌ अस्ति। भूमि के सृष्टी के बाद जीवों के शरीर को बनाया।,अथो भूमिसृष्टेरनन्तरं तेषां जीवानां पुरः ससर्ज। उस प्रकार के श्रम का निवारण करने के लिए जीव अपने आश्रय स्थान सुषुप्ति की और जाता है।,तादृशं श्रमं निवर्तयितुं एव जीवः स्वाश्रयस्थानं सुषुप्ति गच्छति। यह भाव देवों में यज्ञभाग आदि के विधान भिन्न-भिन्न कालों में प्राप्त होते हैं।,अयं भावः देवेषु यज्ञभागादीनां विधानं भिन्न-भिन्नकालेषु कृतं प्राप्यते। "श्रीबलदेव-उपाध्याय ने अपने “वैदिक साहित्य और संस्कृति' - इस नाम के ग्रन्थ में याज्ञवल्क्य शिक्षा, वासिष्ठी शिक्षा आदि बीस ग्रन्थों का उल्लेख दिया है।",श्रीबलदेव-उपाध्यायः स्वकीये 'वैदिक साहित्य और संस्कृति'-इत्यभिधेये ग्रन्थे याज्ञवल्क्यशिक्षा-वासिष्ठीशिक्षादीनां विंशतेः ग्रन्थानाम्‌ उल्लेखं विदधाति। "एक ही वह शिव शान्त पालक और उपास्य है, अन्य वह रुद्र भीषण और संहारक है।","एकत्र सः शिवः शान्तः पालकः उपास्यश्च, अपरत्र सः रुद्रः भीषणः संहारकश्च इति।" अग्न आया हि वीतये' ये दोनों वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होते हैं।,अग्न आया हि वीतये' इति वैकल्पिकं प्रयोगद्वयं सिध्यति। दाशारात्र सूक्त में महर्षि वसिष्ठ राजा दिवोदास के तथा उसके प्रतिपक्ष के मध्य में जो सङ्घर्ष हुआ उसका सुंदर रूप से वर्णन करते हैं।,दाशरात्रसूक्ते महर्षिः वसिष्ठः राज्ञः दिवोदासस्य तथा तस्य प्रतिपक्षिणां मध्ये यः सङ्घर्षः अभवत्‌ तस्य सुष्ठु वर्णनं कृतवान्‌। दृळ्हा - दृह-धातु क्तप्रत्यय और टाप्‌ करने पर दृळ्हा रूप बनता है।,दृळ्हा- दृह्-धातोः क्तप्रत्यये टापि च दृळ्हा इति रूपम्‌। 'वृषों अग्निः समि॑ध्यते' यहाँ पर वकार से उत्तर ऋकार का किस सूत्र से उदात्त स्वर है?,'वृषौ अग्निः समिध्यते' इत्यत्र वकारोत्तरस्य ऋकारस्य केन सूत्रेण उदात्तस्वरः? दिक् दिग्वाचक पूर्वपदं यस्य (दिशावाचक पूर्वपद है जिसका) यही बहुव्रीहिसमास है।,दिक्‌ दिग्वाचकं पूर्वपदं यस्य तद्‌ दिक्पूर्वपदं तस्मादिति बहुव्रीहिः समासः। जीवन्मुक्त के प्रारब्धकर्मों के उपभोग के द्वारा क्षय होने से देहनाश होने पर उसकी विदेहमुक्त होती।,जीवन्मुक्तस्य प्रारब्धकर्मणः उपभोगेन क्षयात्‌ देहनाशे सति विदेहमुक्तिः भवति। चित्‌ का मल नाशक कर्म कौनसा होता है।,१४. चित्तमलनाशकं कर्म किम्‌। इसके बाद पर वर्णसम्मेलन होने पर दण्डिनी रूप सिद्ध होता है।,ततः परं वर्णसम्मलेने कृते सति दण्डिनी इति रूपे सिद्ध्यति। स्वर्ग को जिसने स्तब्ध किया है।,स्वः स्वर्गश्च येन स्तभितं स्तब्धं कृतम्‌। अरण यह अर्थ हे।,अरण इति। "हे रूद्र तुम पर्वत पर रहने वाले हो तुम्हारा जो कल्याण रूप सौम्य है और पाप के फल को न देकर, पुण्य फल ही देता है अपने उस मंगलमय देह से हमारी और देखो।","हे रुद्र, तव यत्‌ मङ्गलमयं, भीतिशून्यं, पुण्यस्वरूपस्य प्रकाशकं यत्‌ रुद्रस्य शरीरमस्ति, तेन निखिलसुखभरितेन शरीरेण हे गिरिश, त्वम्‌ अस्मान्‌ अवलोकयतु।" वो अव्यक्त परब्रह्म का व्यक्तरूप है।,सः अव्यक्तस्य परब्रह्मणः व्यक्तं रूपम्‌। उससे ही द्रोणकलश कौ सृष्टि हुई।,तस्माद्‌ एव द्रोणकलशस्य सृष्टिरभवत्‌। "क्योंकि यह अग्नि पूर्वतन ऋत्विगों के द्वारा स्तुत्य है, नूतन के द्वारा भी स्तुत्य है।","यतो हि अयमग्निः पूर्वतनैः ऋत्विग्भिः स्तुत्यः, नूतनैरपि स्तुत्यः।" एकार्थी भाव सामर्थ्य कौ प्रक्रिया दशा में प्रत्येक अर्थवत्‌ के अलग गृहित होने वाले पदों की समुदाय शक्ति से विशिष्ट एक अर्थ प्रतिपादित होता है।,एकार्थीभावसामर्थ्य च प्रक्रियादशायां प्रत्येकम्‌ अर्थवत्त्वेन पृथग्‌ गृहीतानां पदानां समुदायशक्त्या विशिष्टैकार्थप्रतिपादकता। इसलिए परमार्थभूत मुक्ति भी नहीं होती है।,अतः परमार्थभूता मुक्तिः अपि नास्ति। "उस गान को नृत्य से प्रदर्शित किया जाता था, वे इन संवाद सूक्तों के धार्मिक नाटक के रूप में चाहते थे।","तदिदं गानं नृत्येन आभिनीयते स्म, तदिष्यते एषां संवादसूक्तानां धार्मिकनाटकरूपता।" तो कहते हैं कि यह तो सत्य है की औषधि आदि के माध्यम से दुःखों की निवृत्ति सम्भव होती है।,इदं तु सत्यं यद्‌ औषधादिना दुःखनिवृत्तिः सम्भवति। अथादिः प्राक्‌ शकटे: इस सूत्र से किस पद का अधिकार ग्रहण करते हैं?,अथादिः प्राक्‌ शकटेः इति सूत्रेण किं पदम्‌ अधिक्रियते ? इस प्रकार इसके निर्मलत्व होने के कारण ही दर्पण के समान परमात्मा का प्रतिबिम्ब इसमें दिखाई देता है।,एवं निर्मलत्वादेव दर्पण इव परमात्मनः प्रतिबिम्बः अत्र भवति। तब स्वयं देखते हुए भी उसपर विश्वास नहीं होता है जब तक उसके सम्भव का अनुसरण नहीं करते हैं।,तदा स्वयम्‌ ईक्षमाणोऽपि तावन्न अध्यवस्यति यावत्‌ तत्‌ सम्भवम्‌ नानुसरति। आस्तिक मुनि के वंशज गोकुलदैवज्ञ का पुत्र केशवदैवज्ञ है।,आस्तिकमुनेः वंशजः गोकुलदैवज्ञस्य पुत्रः केशवदैवज्ञः। ४३॥ ( अनुवाक अनुक्रमणी में) ऋचाओं में शब्दो की संख्या १५३८२३ है।,४३।। (अनुवाकानुक्रमणी) ऋचां शब्दानां संख्या १५३८२३ वर्तते। "तत्‌ अर्थ है वह, वह जिससे परे होता है उसे तत्पर कहते हैं।","तत्‌ अर्थः, स परो यस्य स तत्पर ।" इसलिए सर्पप्रथम इनको सम्पादित करके ब्रह्म जिज्ञासा करनी चाहिए।,अत एतत्‌ सम्पाद्य ब्रह्मजिज्ञासा कर्तव्या। "इसी प्रकार स्वधा, वषट्‌, पम्‌, तथाहि इत्यादि निपातो के आदि स्वरों को उदात्त करने का विधान है।","एवं स्वधा, वषट्‌, पम्‌, तथाहि इत्यादीनां निपातानाम्‌ आदीनां स्वराणाम्‌ उदात्तत्वं विधीयते।" "जिस मण्डल में दश, सौ, और हजार किरने रहती है, उस प्रकार के दिव्य लोक में देवो का निवास स्थान है, तेज अग्नि आदि के समान श्रेष्ठ कर्म करते है।",यस्मिंश्च मण्डले दश शता शतानि सहस्रसंख्यका रश्मयः तस्थुः तिष्ठन्ति तादृशं देवानां वपुषां वपुष्मतां तेजोवताम्‌ अग्न्यादीनां श्रेष्ठं प्रशस्यतमम्‌। "' अनुदात्तपदमेकवर्ज्यम्‌' इस पाणिनीय सूत्र में कहा है की वेद के प्रत्येक पद में अवश्य ही कुछ उदात्त स्वर होते हैं, और शेष स्वर अनुदात्त होता है।","'अनुदात्तपदमेकवर्ज्यम्‌' इति एतस्मिन्‌ पाणिनीये सूत्रे उक्तं यद्‌ वेदस्य प्रत्येकस्मिन्‌ पदे अवश्यम्‌ एव कश्चित्‌ उदात्तस्वरः भवति, अवशिष्टाः च स्वराः अनुदात्ताः भवन्ति।" अग्नि का रथ हिरण्य वर्णीय और उज्ज्वल है।,अग्नेः रथः हिरण्यवर्णीयः उञ्ज्वलश्च। इस प्रकार संक्षेप से वर्णन किया है।,इति संक्षेपेण वर्णितम्। इस पाठ को पढ़कर के आप सक्षम होंगे; वेदान्तों का गुह्यतत्व क्या है यह जानने में; ब्रह्म शब्द का क्या अर्थ है यह जानने में; मन किस प्रकार से इन्द्रिय होता है इसका परिचय प्राप्त करने में; शब्द किस प्रकार से अपरोक्ष का जनक होता है जानने में; ब्रह्म को जानने वाला गुरु किस प्रकार का होता है इस बारे में जानने में; तात्पर्य निर्णय के लिए छः प्रकार के लिङगों को जानने में; अज्ञान किस प्रकार होता,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌- वेदान्तानां गुह्यं तत्त्वं किम्‌ इति बोद्धुं शक्नुयात्‌। ब्रह्मशब्दार्थः कः इति जानीयात्‌। मनः कथं न इन्द्रियं भवति इति परिचिनुयात्‌। शब्दः कथम्‌ अपरोक्षज्ञानस्य जनकः भवति इति अवगच्छेत्‌। ब्रह्मविद्गुरुः कीदृशः भवति इति वक्तुं शक्ष्यति। तात्पर्यनिर्णयाय षड्विधानां लिङ्गानि जानीयात्‌। अज्ञानं कीदृशं भवति इति अवगच्छेत्‌। अति व्याप्ति क्या है ।,का अतिव्याप्तिः। पूजितम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,पूजितम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। कारण यह है कि यदि श्रद्धा नहीं है तो कार्य की सफलता भी प्राप्त नहीं होती है।,कारणं हि श्रद्धा नास्ति चेत्‌ कार्यं न प्राप्नोति। जैसे:-नृणां द्विजः ( आदमियों में ब्राह्मण) श्रेष्ठ है।,यथा नृणां द्विजः श्रेष्ठः। अनन्तपाद-लोचन-मस्तक से युक्त परमेश्वर पुरुष ब्रह्माण्डगोलक रूप धरित्री पर सब ओर व्याप्त है तथा प्राणियों के हृदय में दशाङगुल परिमित स्थान को छोड़कर अवस्थित हैं।,अनन्तपाद-लोचन-मस्तकसमन्वितः परमेश्वरः पुरुषः ब्रह्माण्डगोलकरूपां धरित्रीं सर्वतो व्याप्य दशाङ्कुलपरिमितस्थानम्‌ अतिक्रम्य प्राणिनां हृदि अवस्थितः। "प्रेम से प्रकृति जीवित होती है, और श्वास में बढ़ते हैं।","प्रेम्णा प्रकृतिः जीवति, श्वसिति वर्धते च।" उससे आमन्त्रित का आदि उदात्त होता है यह पद योजना बनाती है।,तेन आमन्त्रितस्य आदिः उदात्तः इति पदयोजना भवति। खाये हुए अन्न का मध्यम भाग रक्त बनता है।,अशितस्य अन्नस्य मध्यमो भागः लोहितं "जिस पर्जन्य के कार्य से पृथिवी अन्न से परिपूर्ण होती है, जिसके व्रत से ही गाय आदि पशु गमन करते है, जिसके कार्यो से औषधियाँ अनेक रूप वाली होती है, हे पर्जन्य!","यस्य पर्जन्यस्य कर्मणि पृथिवी नन्नमीति, यस्य व्रते पादोपेतं गवादिकं भ्रियते पूर्यते गच्छति वा, यस्य कर्मणि ओषधयः नानारूपा भवन्ति।" समस्त विश्व और पंचभूत जात पदार्थ उसी कारणरूप ब्रह्म में स्थित है।,विश्वा विश्वानि सर्वाणि भुवनानि भूतजातानि तस्मिन्‌ ह तस्मिन्नेव कारणात्मनि ब्रह्मणि तस्थुः स्थितानि। योगदर्शन प्रोक्त असम्प्रज्ञात समाधि के समाधि स्वरूप तथा निर्विकल्पकसमाधि के यह दो ही भेद हैं को असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्ति की स्थिति अङ्गीकार नहीं गई है।,योगदर्शनप्रोक्तात्‌ असम्प्रज्ञातसमाधेः निर्विकल्पकसमाधेः अयमेव भेदो यत्‌ असम्प्रज्ञातसमाधौ न हि चित्तवृत्तेः स्थितिः अङ्गीक्रियते। व्याख्या - जिस प्रिय विष्णु का प्रियभूत होकर के सभी के सेवन करने योग्य प्रसिद्ध मार्ग को बनता है।,व्याख्या- अस्य महतो विष्णोः प्रियं प्रियभूतं तत्‌ सर्वैः सेव्यत्वेन प्रसिद्धं पाथः। स्त्रीत्व क्या है?,किं स्त्रीत्वम्‌? पासे के कुछ विशेषण भी है।,अक्षस्य कानिचन विशेषणानि अपि सन्ति । इस वेद में देवताओ के स्थान अत्यधिक महत्त्व पूर्ण है।,अस्मिन्‌ वेदे देवतानां स्थानमतीव महत्त्वपूर्णम्‌ अस्ति। मूर्धन्‌ - मूर्ध्न-इसका सप्तमी एकवचन में यह वैदिक रूप है।,मूर्धन्‌- मूर्ध्नि-इत्यस्य सप्तम्येकवचने वैदिकं रूपमिदम्‌। "मेरा जन्म नहीं होता है, मेरा विनाश नहीं होता हे, अज्ञान नहीं है, दुःखों का स्पर्श भी नहीं है, संसार में कुछ भी नानात्व नहीं है इस प्रकार से शिष्य को अपरोक्षानुभव होता है।","मम जन्म नास्ति, मम विनाशः नास्ति, अज्ञानं नास्ति, दुःखस्पर्शः नास्ति, नानात्वं नास्ति इत्येवं शिष्यस्य अपरोक्षानुभवो भवति।" मणिपुर चक्र नाभि में होता है।,मणिपूरं नाभिदेशे। कहीं पर तीन प्रकार का दिखाया गया है।,क्वचित्‌ त्रेधापि प्रदर्श्यते। "(ख) सामवेद में मुख्य उपनिषद् - छान्दोग्योपनिषद्, केनोपनिषद् और सन्न्यासोपनिषद् यह हैं।","ख) सामवेदे मुख्या उपनिषदः - छान्दोग्योपनिषत्‌, केनोपनिषत्‌, सन्न्यासोपनिषत्‌ चेति।" सूत्र का अर्थ- शेष नित्य आदि के दो बार होने पर बाद अर्थ में है।,सूत्रार्थः- शेषं नित्यादिद्विरुक्तस्य परमित्यर्थः। अचाम्‌ इस निर्धारण में षष्ठी होती है।,अचाम्‌ इति निर्धारणे षष्ठी । इस भाष्य से अतिरिक्त कोई भी अन्य निघण्टु भाष्य विद्यमान नहीं है।,अस्माद्‌ भाष्याद्‌ अतिरिक्तं न किम्‌ अपि अन्यत्‌ निघण्टुभाष्यं विद्यमानम्‌ अस्ति। इसलिए ग्रन्थ तथा विषय में बोध्य बोधक भावसम्बन्ध होता है।,अतः ग्रन्थविषययोः बोध्यबोधकभावसम्बन्धः भवति। उसको किस प्रकार करना चाहिए।,केन प्रकारेण तत्कर्म कर्त्तव्यम्‌। वेदों में शुद्ध उच्चारण सबसे पहले आवश्यक होता है।,वेदेषु शुद्धोच्चारणं सर्वप्रथमम्‌ इष्टं भवति। छन्द की शरीर के किस अङ्ग के साथ तुलना की है?,छन्दश्शरीरस्य केन अङ्गेन सह तुल्यम्‌? वह ही मनुष्यों का सम्राट्‌ होकर के निवास करता हुआ उनकी रक्षा भी करता है।,स एव मनुष्यानां सम्राट्‌ भूत्वा निवसन्‌ तेषां रक्षामपि करोति। पक्षियों के मध्य में इसका वाहनगरुड है।,पक्षिणां मध्ये अस्य वाहनं भवति गरुडः इति। घन इव श्यामः (बादल के समान काला) इस लौकिक विग्रह में घन सु श्याम सु इस अलौकिक विग्रह में उपमानवाचक घन सु सुबन्त को समान अधिकरण से श्याम सु इस सामान्य वचन के साथ विकल्प से प्रकृतसूत्र से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,घन इव श्यामः इति लौकिकविग्रहे घन सु श्याम सु इत्यलौकिकविग्रहे उपमानवाचकं घन सु इति सुबन्तं समानाधिकरणेन श्याम सु इत्यनेन सामान्यवचनेन सह विकल्पेन प्रकृतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। जैसे विशाल पर्वत से अनेक नदियाँ प्रवाहित होती है और सीधी और टेढ़ी नीचे की और जनकल्याण के लिए प्रवाहित होती है तथा अन्त में समुद्र को प्राप्त होती है।,यथा महतः पर्वतात्‌ नैकाः नद्यः प्रभवन्ति । सरलैः वक्रैश्च अध्वभिः जनकल्याणाय प्रवहन्ति । अन्ते च समुद्रेण मिलन्ति। सरलार्थ - महत सत्य आदि पृथ्वी को धारण करते हैं।,सरलार्थः- महत्सत्यादयः पृथिवीं धारयन्तः सन्ति। अन्य मन्त्रों में भी ऋषियो का श्रद्धा के प्रति अत्यन्त आदर की भवना है।,अन्येषु मन्त्रेष्वपि ऋषीणां श्रद्धां प्रति अतीव पूज्या भवना वर्तते। और अनुदात्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अनुदात्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। अतएव उसको आर्य सम्राट्‌ या चर कहते है।,"अत एव तं सम्राट्‌, चरो वेति ब्रुवन्ति आर्याः।" फिर भी शास्त्रोक्तश्रद्धा विश्वास तथा निःस्वार्थपरतादिगुण तथा रीतियाँ अवश्य पालनीय है वे हेय नहीं है।,"तथापि शास्त्रोक्तश्रद्धा-विश्वास-निःस्वार्थपरतादिगुणाः रीतयश्च अवश्यं पालनीयाः, न तु हेयाः।" इसके बाद पौर्वशाला इसका “यचिभम्‌'' इसमें भ संज्ञा होने पर ““यस्थेति च'' इस सूत्र से जसंज़्क आकार का लोप होने पर पौर्वशाल्‌ अ होने पर सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न पौर्वशालशब्द के प्रातिपदिकत्व से इसके बाद सु विभक्ति कार्य होने पर पौर्वशालः रूप सिद्ध होता है।,"ततः पौर्वशाला इत्यस्य ""यचि भम्‌"" इत्यनेन भसंज्ञायां ""यस्येति च"" इति सूत्रेण भसंज्ञकस्य आकारस्य लोपे पौर्वशाल्‌ अ इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य पौर्वशालशब्दस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ ततः सौ विभक्तिकार्ये पौर्वशालः इति रूपं सिद्धम्‌।" सबसे पहले आकाश की उत्पत्ति होती है अथवा नहीं यह प्रश्‍न पूर्वपक्षी के द्वारा सबसे पहले पूछा गया।,तत्रादौ आकाशः उत्पद्यते न वेति प्रश्नः पूर्वपक्षिणः। उससे यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - चादय निपात संज्ञक अनुदात्त हो।,तश्च अत्र अयं सूत्रार्थः लभ्यते - चादयः निपातसंज्ञकाः अनुदात्ताः स्युः इति। वहाँ पर समय-समय पर बहुत धर्म सम्प्रदायों की तथा दर्शन सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई है।,तत्र काले काले बहूनां धर्मसम्प्रदायानां दर्शनसम्प्रदायानां च उत्पत्तिः अभूत्‌। दृष्टार्थों की च्छिदिक्रया अग्निमन्थनादियों व्यापृतकर्त्रादिकारकों की द्वैधीभावाग्निदर्शन फल से अन्यफल में अर्थ कर्मान्तर में जो व्यापारानुपपत्ति जैसे होती है।,दृष्टार्थानां च च्छिदिक्रियाग्निमन्थनादीनां व्यापृतकर्त्रादिकारकाणां द्वैधीभावाग्निदर्शनादिफलात्‌ अन्यफले कर्मान्तरे वा व्यापारानुपपत्तिः यथा। मध्यभाग शरीर का कण्ठ के समान है।,मध्यभागः शरीरस्य कण्ठसदृशः। स्मरण भगवान के विषय में ही हमेशा स्मरण।,स्मरणम्‌ - भगवद्विषये एव सर्वदा स्मरणम्‌। इस पञ्चीकरण के अप्रामाण्य की आशङ्का नहीं करनी चाहिए।,अस्य पञ्चीकरणस्य अप्रामाण्यं न आशङ्कनीयम्‌। उभयादतः इस शब्द से क्या तात्पर्य है?,उभयादतः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌। यहां उत्पल शब्द का जातिवाचक से विशेषणत्व के अभाव से पूर्व निपात नहीं होता है।,अत्र उत्पलशब्दस्य जातिवाचकत्वाद्‌ विशेषणत्वाभावात्‌ न पूर्वनिपातः । अग्नि-आदित्य-वायु-शुक्र- ब्रह्म-ओंकार आदिरूपों के द्वारा उस प्रजापति की ही व्याख्या प्रसिद्ध रूप से की गई है।,अग्नि - आदित्य-वायु-शुक्र-ब्रह्म-ओंकारादिरूपैः सः प्रजापतिरेव व्याख्यातः प्रसिद्धश्च। उससे इसी ऋषि के महत्व को जाना जाता है।,तेन अस्यैव ऋषेः अभ्यर्हितत्वं अवगम्यते। चित्तवृत्ति से तात्पर्य है चित्त का विषायाकार परिणाम।,चित्तवृत्तिर्नाम चित्तस्य विषयाकारः परिणामः। हरि ङि अधि यह अलौकिक निग्रह है।,हरि ङि अधि इत्यलौकिकविग्रहः अस्ति। तो भोग्य वस्तु का आकर्षण होता है।,चेत्‌ भोग्यवस्तुनः आकर्षणं भवति। अर्चनम्‌ भगवान की पूजा।,अर्चनम्‌ - भगवतः पूजनम्‌। उन्होंने द्युलोक और विस्तीर्ण पृथिवी को धारण किया।,स द्युलोकं विस्तीर्णपृथिवीं च धृतवान्‌। गूढत्व से तात्पर्य है आच्छादत्व होना।,गूढत्वं नाम आच्छाद्यत्वम्‌। अत रस प्रतिपादन में वैदिक वाङमय विलक्षण है।,अतः रसप्रतिपादने वैदिकवाङ्गयः विलक्षणः। अनुसन्धानात्मक अन्तः करण की वृत्ति चित्त होता है।,अनुसन्धानात्माकान्तःकरणवृत्तिः चित्तम्‌। वहा मण्डल रूप से विभाग होने पर यह सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक सौ चौवनवाँ (१.१५४) सूक्त है।,तत्र मण्डलरूपेण विभागे सति सूक्तम्‌ इदम्‌ ऋग्वेदस्य प्रथमे मण्डले (१.१५४) चतुःपञ्चाशदधिकैकशततमं सूक्तम्‌। "वहाँ कहा गया है की जो मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि धर्मो को अच्छी प्रकार से पालन करके इन्द्रियों को संयम में करके शास्त्रों के द्वारा अनुमोदित विषय को छोड़कर सभी विषयों में हिंसा त्याग देता है, वह ही ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।","तत्राम्नातं यो जनो ब्रह्मचर्य-गार्हस्थादीन्‌ धर्मान्‌ परिपाल्य इन्द्रियाणि संयम्य शास्त्रानुमोदितविषयं विहाय सर्वेषु विषयेषु हिंसां विजहाति, स एव ब्रह्मलोकं प्राप्नोति।" "और सूत्रार्थ आता है “स्तोक, अन्तिक, इरअर्थवाची कृच्छर शब्द से विहित जो पञ्चमी उसका उत्तरपद पर में लोप नहीं होती है।","एवं सूत्रार्थः समायाति ""स्तोकान्तिकदूरार्थवाचकेभ्यः कृच्छ्रशब्दाच्च विहिता या पञ्चमी तस्याः उत्तरपदे परे लुक्‌ न भवति"" इति।" इसलिए निष्क्रिय आत्मा प्राणमय कोश न ही होता है इस प्रकार से उसका निरास किया गया है।,अतः निष्क्रिय आत्मा प्राणमयकोशः न भवतीति तन्निरासः कृतः। किन्तु उस ब्रह्मा का प्रधानभेद अथर्ववेद ही होता है।,किञ्च तस्य ब्रह्मणः प्रधानभेदः अथर्ववेद एव भवति। मात्रार्थम्‌ यहाँ पर पूर्वपद मातृ शब्द किस सूत्र से अन्तोदात्त होता है?,मात्रार्थम्‌ इत्यत्र पूर्वपदं मातृशब्दः केन सूत्रेण अन्तोदात्तः भवति? सूत्र अर्थ का समन्वय- पचति गोत्रम्‌ यहाँ पर तिङन्त से परे गोत्र शब्द विद्यमान है।,सूत्रार्थसमन्वयः- पचति गोत्रम्‌ इत्यत्र तिङन्तात्‌ परं गोत्रशब्दः विद्यते। "अच्‌-प्रत्यय के चकार का *हलन्त्यम्‌' इस सूत्र से इत्संज्ञा होती है, उससे अच्‌-प्रत्यय चित्‌ है।","अच्‌-प्रत्ययस्य चकारस्य 'हलन्त्यम्‌' इति सूत्रेण इत्संज्ञा भवति, तस्मात्‌ अच-प्रत्ययः चित्‌ वर्तते।" केशवीशिक्षा का रचयिता कौन है?,केशवीशिक्षायाः रचयिता कः। सुबन्त के विशेषण से द्वितीया इसका तदन्तविधि में द्वितीयान्त सुबन्त को तत्पुरुष समास होता है।,सुबन्तम्‌ इत्यस्य विशेषणत्वाद्‌ द्वितीया इत्यस्य तदन्तविधौ द्वितीयान्तं सुबन्तम्‌ इति भवति। साख्य दर्शन के मत में लौकिक वाक्यों का अन्तर्भाव कहाँ स्वीकार नहीं है?,साङ्ख्यमते लौकिकवाक्यानाम्‌ अन्तर्भावः कुत्र न स्वीक्रियते? विष्णु का स्वरुप विष्णु एक द्युस्थानीय देव है।,विष्णुस्वरुपम्‌। विष्णुः एकः द्युस्थानीयः देवः। इसके बाद सुष्ट का लोप होने पर निष्पन्न होने पर पूर्वकायशब्द से सुप्रत्यय होने पर पूर्वकामः रूप होता है।,ततः सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ पूर्वकायशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये पूर्वकायः इति रूपम्‌। ये किसी पात्र में रखकर हाथों के द्वारा उनको खेला जाता है।,एनम्‌ कस्मिंश्चित्‌ पात्रे संस्थाप्य हस्तैः तस्य चालनं कृत्वा क्रीडा चाल्यते । समासः वियक्त्यलोपः ये दोनों यह प्रथमा विभक्ति के एकवचनान्त है।,समासः विभक्त्यलोपः इति पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तम्‌। धर्म के बिना सुख नहीं होता है।,धर्मं विना सुखं नैव भवति। इसी प्रकार यहाँ पदों का अन्वय निपाताः आद्युदात्ताः इति।,एवमत्र पदान्वयः निपाताः आद्युदात्ताः इति। अर्थात्‌ मुक्ति को प्राप्ति होती है।,अर्थात्‌ मुक्तिः प्राप्यते। प्रबोध काल में जीव स्थूल सुक्ष्म शरीर द्वारा तथा स्वप्न में अन्तः करण के द्वारा भोगों का अनुभव करता है।,"प्रबोधकाले जीवः स्थूलसूक्ष्मशरीरद्वारा, स्वप्ने च अन्तःकरणद्वारा स्वकर्मणा भोगान्‌ अनुभूतवान्‌।" उन “क नामवाले प्रजापति देवता की हम हवी के ह्वारा पूजा करेंगे अथवा हम हव्य द्वारा किन देवता की पूजा करें।,तस्मै कस्मै देवाय इत्यादि अधः प्रपश्चितम्‌। हविषा पुरोडाशात्मनेति तु विशेषः॥ इसीलिए कठोपनिषद में कहा गया है- महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः।,तथाह्याम्नातं कठोपनिषदि- महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। और सूत्रार्थ होता है-अजादिगणपठितशब्दान्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर टाप्‌ प्रत्यय पर होता है।,एवञ्च सूत्रार्थो भवति अजादिगणपठितशब्दान्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये टाप्‌ प्रत्ययः परः भवति। ये कहे गये पञ्च कोश के द्वार प्रकाशित होते हैं वह चैतन्य ही आत्मा कहलाता है।,उक्ताः पञ्चकोशाः येन प्रकाश्यन्ते तच्चैतन्यमेवात्मा। वह मछली प्रतिदिन बढती थी।,स मत्स्यः प्रतिदिनं वर्धमानः आसीत्‌। स्वरित स्वर के बोध के लिए इति सङकेत को स्वीकार किया है।।,स्वरितस्वरस्य बोधनार्थं इति सङ्केतः स्वीक्रियते। इसलिए किस साधन के बाद में कौन सा साधन करें यह बात मुमुक्षुओं को अच्छी प्रकार से जान लेना चाहिए।,अत एव कस्मात्‌ साधनात्‌ परं किं साधनम्‌ कर्तव्यमिति सुष्ठु बोद्धव्यम्‌ मुमुक्षुणा। वह वाणी ही भूर्भुवःस्वः लोक को चारो और से व्याप्त करके विराजमान होती है।,सा वागेव भूर्भुवःस्वर्लाेकान्‌ परिव्याप्य विराजते। श्रद्धा-इस शब्द का अर्थ ही कही पर कार्यविशेष में अथवा वचनविशेष में अपने कार्य को आदर सहित प्रकट करता है।,श्रद्धा-इति शब्दस्य अर्थो हि कस्मिंश्चित्‌ कार्यविशेषेऽथवा वचनविशेषे स्वान्तःकरणेन आदरातिशयस्य प्रकटीकरणम्‌ इति। 2 “अयमात्मा ब्रह्म” इस प्रकार से।,२. “अयमात्मा ब्रह्म” इति। अनुग्रहित करें।,अनुगृहाणेत्यर्थः। "सान्वयप्रतिपदार्थ - तस्मात्‌ = पुरुषमेध से, सर्व हूयते यस्मिन्‌ स सर्वहुत, तस्मात्‌ सर्वहुतः = सर्वात्मकहवनशील से, यज्ञात्‌ = यज्ञ से, पृषत्‌ तद्‌ आज्यम्‌ पृषदाज्यं = दधिमिश्र घृत, सम्भृतम्‌ = समुत्पन्नया सम्पादित किया, (तस्मात्‌ सम्भृतात्‌ पृषदाज्यात्‌) वायव्यान्‌ = वायुदेवता, नभचर इत, आरण्यान्‌ = अरण्ये भवान्‌, हरिणादि को, ये च = किया गया, ग्रामे भवाः ग्राम्याः = ग्राम में होने वाले गवाश्वादि, तान्‌ = पशुओं को, चक्रे = उत्पादित किया।","सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्मात्‌= पुरुषमेधाख्यात्‌, सर्वं हूयते यस्मिन्‌ स सर्वहुत्‌, तस्मात्‌ सर्वहुतः= सर्वात्मकहवनशीलत्वात्‌, यज्ञात्‌= मखात्‌, पृषत्‌ च तद्‌ आज्यम्‌ पृषदाज्यं= दधिमिश्रम आज्यं, सम्भृतम्‌= समुत्पन्नं सम्पादितं वा, (तस्मात्‌ सम्भृतात्‌ पृषदाज्यात्‌) वायव्यान्‌= वायुतदेवताकान्‌, नभचारिण इत्याशयः, आरण्यान्‌= अरण्ये भवान्‌, हरिणादीन्‌, ये च= प्रथिताः, ग्रामे भवाः ग्राम्याः= ग्रामभवाः गवाश्वादयः, तान्‌= पशून्‌, चक्रे= समुत्पादितवान्‌।" अतः श्रित आदि शब्दों के उसकी प्रकृति के लक्षण हैं।,अतः श्रितादीनां शब्दानां तत्प्रकृतिके लक्षणा। अश्विन्यादि नक्षत्र तेरे रूप है अर्थात्‌ तेरे मुख है।,अश्विनौ द्यावापृथिव्यौ तव व्यात्तं मुख्यं मुखम्‌। इसी प्रकार से कर्म करना चाहिए उसके प्रतिदान के रूप में मन से कुछ भी नहीं मांगना चाहिए कर्म जब आध्यात्मिक उन्नति के लिए सहायक होता है तो वह योगपदवी को भी प्राप्त करवा देता है।,तद्वत्‌ कर्म क्रियते चेत्‌ तस्य प्रतिदानरूपेण न किञ्चित्‌ मनसा अपि याचनीयम्‌। कर्म यदा आध्यात्मिकोन्नत्यै सहायकं भवति तदा एव स योगपदवीम्‌ अधिरोहति। (1) भ्वादिगण (1) अदादिगण (i) 5. ब्रह्म सर्वत्र किससे संबंधित है?,(क) भ्वादिगणीयः (ख) अदादिगणीयः ५) ब्रह्म सर्वत्र केन सम्बन्धेन वर्तते। "फिर वह अन्यत्र दोड॒ता है,चला जाता है।","पुनः स अन्यत्र धावति, गच्छति च।" इस आत्म तत्त्व का सभी को अवश्य साक्षात्‌ करना चाहिए।,इदमेव आत्मतत्त्वं सर्वैः अवश्यं साक्षात्‌ करणीयम्‌। प्रकरणप्रतिपाद्य के अर्थ साधन में जहाँ जहाँ पर श्रूयमाण युक्त होती है वह उपपत्ति कहलाती है।,प्रकरणप्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रूयमाणा युक्तिः उपपत्तिः। "विष्णुसूक्त का ऋषि, छन्द॒ और देवता कौन है?","विष्णुसूक्तस्य कः ऋषिः, किं छन्दः, का च देवता।" मैं ही संग्राम करती हूँ।,अहमेव समदम्‌। समानं माद्यन्त्यस्मिन्निति समत्सङ्ग्रामः। इसलिए वेद में कहते है - वृक्षान्‌ हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात्‌।,अत एव आम्नातं - वि वृक्षान्‌ हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात्‌। सुषुप्ति में जगत्‌ का भान क्यों नहीं होता है?,सुषुप्तौ जगतः भानं कुतो नास्ति ? इनके सङकटों का समाधान वेदान्त के तत्वों के द्वारा किया जा सकता है।,एतेषां सङ्कटानां समाधानं वेदान्तस्य शक्रिगर्भतत्त्वसमूहैः कर्तु शक्यते विवेकानन्द के आध्यात्मिक गुरु कौन थे?,विवेकानन्दस्य आध्यात्मिकगुरुः कः आसीत्‌? यज्ञीय अनुष्ठान के साथ उसके अन्तर्गत दार्शनिक विचार भी इसका मुख्य विषय है।,यज्ञीयानुष्ठानेन सह तदसन्तर्गतः दार्शनिकविचारः अपि अस्य मुख्यविषयोऽस्ति। उनके मत में इतालीय और ग्रीसदेश के निवासी अग्नि को ही विविध देवों को उद्दिश्य करके होम करते थे।,तन्मते इतालीया ग्रीसदेशीयाश्च अग्नौ एव विविधान्‌ देवान्‌ उद्दिश्य होममकुर्वन्‌। "अंधकार में प्रकाश किरण के समान, ये आख्यान पाठक हृदय के उद्ठिग्न चित्त में शान्ति और शीतलता प्रदान करता है।","तमसि प्रकाशकिरण इव, एतानि आख्यानानि पाठकहृदयस्य उद्विग्रचित्ते शान्तिदायकानि शीतलानि च भवन्ति।" उदाहरणः-राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु।,उदाहरणं-राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु। "यहाँ परमा इस पूर्व पद को, और वाक्‌ इस उत्तर पद को।","अत्र परमा इति पूर्वपदम्‌, वाक्‌ इति च उत्तरपदम्‌।" ( भ.गी. 18.61) यहाँ पर कही गयी हृदय रूपी गुहा के चारों ओर पञ्‌कोष होते हैं।,(भ.गी. १८.६१)अत्रोक्तहृदयगुहां परितः पञ्चकोशाः सन्ति। शम तथा दम जिस पुरुष के द्वारा साध लिए जाते है।,शमः दमः च येन साधितः। "नानार्थक पद से उसके ही अर्थ संस्कारबोध से उस अर्थ की ही उपस्थिति होती है, न की अन्य किसी अर्थ की उपस्थिति होती है।","नानार्थकपदेन तस्य एव अर्थस्य संस्कारोद्वोधात्‌ तस्य अर्थस्य उपस्थितिः भवति, नान्यस्य कस्यापि अर्थस्य।" उससे अधि हरि ङि यह स्थिति उत्पन्न होती है।,तेन अधि हरि ङि इति स्थितिः जायते। बुद्धि पूर्वकृत कर्मवासनाओं का आश्रय होती है।,पुर्वकृतकर्मवासनायाः आश्रयो भवति बुद्धिः। उस सर्वज्ञ ने अपनी माया से विराट देह या विराट रूप को बनाकर स्वयं ही जीवरूप में प्रविष्ट होकर ब्रह्माण्डाभिमानी जीव बना या हुआ।,स सर्वज्ञः स्वकीयमायया विराड्देहं विराड्रूपं सृष्ट्वा तत्र स्वयमेव जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी जीवोऽभूत्‌। ऋतम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,ऋतम्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? 4 कौन-से कर्म नैमित्तिक कर्म होते हैं?,4. किं नैमित्तिकं कर्म। इनके द्वारा अपने कर्मो को करने में तथा शक्ति प्रदान करने में मूल तत्व आत्मा ही होती है।,एतेषां स्वकर्मकरणे शक्तिप्रदायको भवत्यात्मा। यदि योगी अस्तेय प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है तो सङ्कल्पमात्र से उसे सभी रत्नों का लाभ भी मिलता है।,योगी अस्तेये प्रतिष्ठां लभते चेत्‌ सङ्कल्पमात्रेण तस्य सर्वरत्नानां लाभो भवति। "11.3.1 ) प्रज्ञानशाब्दार्थ पुरुष चक्षु द्वारा निर्गत जिस अन्तःकरणवृत्त्युपहित चैतन्य से दर्शन योग्य रूपादि को देखता है, वैसे ही श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा निर्गत जिस अन्तः करणवृत्युपहित चैतन्य से शब्दों का श्रवण होता है।","11.3.1) प्रज्ञानशब्दार्थः- पुरुषः चक्षुरद्वारा निर्गतेन येन अन्तःकरणवृत्त्युपहितचैतन्येन दर्शनयोग्यं रूपादिकं पश्यति, तथैव श्रोत्रेन्द्रियेण निर्गतेन येन अन्तःकरणवृत्त्युपहितचैतन्येन शब्दजातं शृणोति।" 6. अमृतम्‌ अमृतत्वम्‌ किसकीओर निर्देश कर रहा है?,6. अमृतम्‌ अमृतत्वम्‌ इति कीदृशः निर्देशः। इसलिए उसके द्वारा कर्मयोग अनुवर्तनीय होता है।,अतः तेन कर्मयोगः अनुवर्तनीय एव। सूत्रार्थ होता है कि “समास'' विधायक सूत्र में जहाँ प्रथमान्त बोधित पद की उपसर्जन संज्ञा होती है''।,"एवं सूत्रार्थः समायाति - ""समासविधायकसूत्रे यत्‌ प्रथमान्तं तद्भोध्यम्‌ उपसर्जनसंज्ञं भवति"" इति।" व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति अधिकृत तो निश्चितता से कुछ भी कहना असम्भव है।,व्याकरणशास्त्रस्य उत्पत्तिम्‌ अधिकृत्य तु न निश्चिततया किमपि कथनं सम्भवम्‌। कर्मबत उपासना भी सकाम और निष्काम भेद से दो प्रकार की है।,कर्मवदुपासनापि सकामनिष्कामभेदेन द्विविधा। उदाहरण -इस सूत्र का उदाहरण है अक्षशौण्डः।,उदाहरणम्‌ - सूत्रस्यास्योदाहरणं यथा अक्षशौण्डः इति। साशनानाशन का क्या अर्थ है?,साशनानाशने इत्यस्य कः अर्थः। इस प्रकार की ऋचा प्राकृतिक दो पाद वाली कहलाती है।,एतादृश्यः ऋचः 'नैमित्तिकद्विपदाः' कथ्यन्ते। अतिष्ठन्तीनाम्‌ - स्थाधातु से शतृप्रत्यय करने पर ङीप्‌ होकर तिष्ठन्ति यह रूप बनता है।,अतिष्ठन्तीनाम्‌ - स्थाधातोः शतृप्रत्यये ङीपि तिष्ठन्ती इति रूपम्‌। कविक्रतुः - इस अग्नि का कर्म सभी और गया होने से यह कविक्रतु है।,कविक्रतुः - क्रान्तं गतं सर्वत्र अप्रतिहतं क्रतुः प्रज्ञानं कर्म वा यस्य स कविक्रतुः। उदात्ताद्‌ यहाँ पञ्चमी निर्देश होने से तस्मादित्युत्तरस्य' इस परिभाषा से उदात्त से उत्तर का यह अर्थ प्राप्त होता है।,उदात्ताद्‌ इत्यत्र पञ्चमीनिर्देशाद्‌ 'तस्मादित्युत्तरस्य' इति परिभाषया उदात्ताद्‌ उत्तरस्य इति लभ्यते। अर्थात्‌ जिस पुरुष में समस्यमान पदों की समान विभक्तियाँ नहीं होती है।,अर्थाद्‌ यस्मिन्‌ तत्पुरुषे समस्यमानानि पदानि समानविभक्तिकानि न सन्ति। काम का कारण ही धर्म कहलाता है।,कामस्य कारणं हि धर्मः कथ्यते। तब उसको ज्ञान हो जाता है कि दशवां में ही हूँ।,तदा तस्य ज्ञानं जातं यत्‌ दशमः अहमस्मि इति। "अन्यथा इन दोनों गुणवाचकत्त से विशेषण विशेष्य भाव में कामचर से खञ्जकुब्जः, कुब्जखञ्जः ऐसा इस नियम से आपत्ति होनी चाहिए।","अन्यथा उभयोः गुणवाचकत्वेन विशेषणविशेष्यभावे कामचारात्‌ खञ्जकुब्जः, कुब्जखञ्जः इतिवद्‌ अनियमापत्तिरिति स्यात्‌ ।" तब (मनु) ऊपर से नीचे आये।,तदा ( मनुः ) अवततार। जैसा तेसा संदिग्ध ज्ञान आवश्यक है।,यथायथम्‌ असन्दिग्धं च ज्ञानम्‌ आवश्यकम्‌। हंसि यह रूप कहाँ का है?,हंसि इति कुत्रत्यं रूपम्‌ ? स्वप्न जागरित संस्कार प्रत्यय सविषय होता है।,स्वप्नो नाम जागरितसंस्कारप्रत्ययः सविषयः। निषिद्धकर्मों के आचरण से पाप उत्पन्न होता है।,निषिद्धकर्माचरणेन पापं जायते । 16. “तत्त्वमसि” इस महावाक्य में जहत्‌ लक्षणा किस प्रकार से सङ्गत नहीं है।,१६. “तत्त्वमसि” इति महावाक्ये किमर्थं न जहल्लक्षणा सङ्गच्छते? 4 मन तथा इन्द्रियों की यहाँ पर कौन-सी श्रुति है?,४. मनः न इन्द्रियम्‌ इत्यत्र का श्रुतिः? निष्ठा संज्ञा किस-किस की होती है?,कयोः निष्ठासंज्ञा भवति? इवेन सह सुबन्तं समासः विभक्त्यलोपश्च यह पद योजना है।,एवम्‌ इवेन सह सुबन्तं समासः विभक्त्यलोपश्च इति पदयोजना। "जीवन मुक्ति क्या होती है, क्या इसके प्रमाण है, किस प्रकार से जीवन मुक्ति सिद्ध की जाए, इस का क्या प्रयोजन है।","अथ केयं जीवन्मुक्तिः, जीवन्मुक्तेः किं प्रमाणम्‌, कथं वा जीवन्मुक्तेः सिद्धिः,किं वैतस्य प्रयोजनम्‌ इत्यादिप्रश्नाः सुतरां समुदिताः स्युः।" निशीर्य यहाँ पर क्या प्रत्यय है?,निशीर्य इत्यत्र कः प्रत्ययः? छान्दोग्य उपनिषद्‌ - यहाँ एक उपनिषद्‌ को संक्षेप से कहते है।,छान्दोग्योपनिषत्‌ - अत्र एका उपनिषत्‌ संक्षेपेण उच्यते। तब विशेषकार्य साधना के लिए सूत्र कहा गया है।,तदा विशेषकार्यसाधनाय सूत्रम्‌ उक्तम्‌। अतः बन्ध का कारण भी नहीं है।,अतः बन्धकारणम्‌ अपि नास्ति। 20. प्राणमय कोश क्या है?,२०. प्राणमयकोशः कः ? "व्याख्या - इस मन्त्र में निरुक्त में स्पष्ट व्याख्या की है उसको ही यहाँ पर लिखते है, - “पर्जन्य वृक्षों को नष्ट करता है, राक्षसों का वध करता है और महान वध द्वारा सम्पूर्ण भुवन को भय प्रदर्शित करते है।","व्याख्या-अयं मन्त्रो निरुक्ते स्पष्टं व्याख्यातः, तदेवात्र लिख्यते - ' पर्जन्यो विहन्ति वृक्षान्विहन्ति च रक्षांसि सर्वाणि चास्मद्भुतानि विभ्यति महाबधात्‌ महान्‌ ह्यस्य बधः ।" डॉ. वर्नल महोदय के कथन अनुसार से तमरल भाषा का आदि व्याकरण तोलकरप्पिय इस नाम वाले व्याकरण में ऐन्द्र व्याकरण से ही सहायता ली गई है।,डॉ.वर्नलमहोदयस्य कथनानुसारेण तमरलभाषाया आद्यव्याकरणं तोलकरप्पियम्‌ इत्याख्ये व्याकरणे ऐन्द्रव्याकरणात्‌ एव साहाय्यं गृहीतम्‌। हाथ आदि दोने के लिए।,अवनेज्यते हस्ताद्यनेनेत्यवनेग्यम्‌। अविद्यातमोनिवर्तक ज्ञान का दृष्टकैवल्यफलावसनात्व रज्वादिविषय में सर्पाद्यज्ञानतमोनिवर्तकप्रदीप प्रकाशफल के समान होता है।,अविद्यातमोनिवर्तकस्य ज्ञानस्य दृष्टं कैवल्यफलावसानत्वं रज्वादिविषये सर्पाद्यज्ञानतमोनिवर्तकप्रदीपप्रकाशफलवत्‌। अभीष्ट वस्तु के दर्शन में जो वृत्ति उत्पन्न होती है वह प्रिय रूप में व्यवहरणीय होती है।,अभीष्टवस्तुदर्शने या वृत्तिः उदेति सा प्रियमिति व्यवह्रीयते। अपान आवागमन वाला पायु आदिस्थानवर्ती होता है।,अपानो हि अवाग्गमनवान्‌ पाय्वादिस्थानवर्ती। एक आत्मा नामरूपाधि के भेदों से बहुत्व के रूप में प्रतीत होती है।,एकः एव आत्मा नामरूपोपाधिवशात्‌ बहुत्वेन प्रतीयते। "व्याख्या - जितने दिन अथवा तिथि नाव आदि की रचना करने के लिए, नाव आदि की रचना कर और मछली को स्मरण किया।",व्याख्या - यावतीनां पूरणीं यतिथीं परिदिदेश परिदिष्टवान्‌ आख्यातवान्‌ ततिथीं तावतीनां पूरणीं समां नावम्‌ उपकल्प्य मत्स्यम्‌ उपासितवान्‌। इसलिए यह विश्व का पिता होता है।,अतः अयं भवति विश्वस्य पिता। वह विद्या कहलाती हे।,सा विद्या। और वह विग्रह दो प्रकार का होता है लौकिक और अलौकिक।,स च विग्रहः द्विविधः लौकिकः अलौकिकश्चेति। यजुर्वेद में सभी प्रकार के यागों के वर्णन प्राप्त होते हैं।,यजुर्वेदे सर्वविधस्य यागस्य वर्णनं विद्यते। चार प्रकार के स्थूल शरीर कौन-कौन से हैं?,चतुर्विधानि स्थूलशरीराणि कानि। साधना का विषय बहुत ही महान तथा बहुत सूक्ष्म होता है।,साधनाविषयः अति महान्‌ सुसूक्ष्मश्च वर्तते। किन्तु जकार का उदात्त स्वर युक्त होने पर अकार युक्त वृजन इस प्रकार होता है ( वृजने “ज' उदात्तश्चेद्‌ अकारेण सहोच्यते )।,किञ्च जकारस्य उदात्तस्वरयुक्तत्वे सति अकारयुक्तः वृजन इत्येवं भवति(वृजने 'ज' उदात्तश्चेद्‌ अकारेण सहोच्यते)। असन्दिग्ध-अनधिगत-अबाधित अर्थ बोधक वाक्य प्रमाण' है।,असन्दिग्ध-अनधिगत-अबाधितार्थबोधकं वाक्यं प्रमाणम्‌' इति। उरुशब्द का विस्तार अर्थ है।,उरुशब्दस्य विस्तीर्णम् इत्यर्थः। आहो उताहो चानन्तरम्‌ इस सूत्र से आहो उताहो इन दो अव्ययपद की यहाँ अनुवृति है।,आहो उताहो चानन्तरम्‌ इति सूत्रात्‌ आहो उताहो इति अव्ययपदद्वयम्‌ अनुवर्तते। इस प्रकार से बुद्धि परमात्मा के दर्पण के समान ही होती है।,एवं बुद्धिः परमात्मनः दर्पणमिव भवति। उससे बहुयज्वन्‌ आ स्थिति होती है।,तेन बहुयज्वन्‌ आ इति स्थितिः जायते। कुछ पाश्चात्य विद्वानों के नाम लिखो।,केषाञ्चन पाश्चात्यविदुषां नाम लिख्यताम्‌? निघण्टु ग्रथ के एक किसी व्याख्याकार का नाम उल्लेख है?,निघण्टुग्रन्थस्य एकस्य व्याख्याकारस्य नाम उल्लिखत। सूत्र अर्थ का समन्वय- श्रेणिः च असौ कृतः इस विग्रह में श्रेण्यादयः कृतादिभिः इस सूत्र से कर्मधारय समास करने पर बहुवचन में श्रेणिकृता: यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- श्रेणिः च असौ कृतः इति विग्रहे श्रेण्यादयः कृतादिभिः इति सूत्रेण कर्मधारयसमासे बहुवचने श्रेणिकृताः इति रूपम्‌। निर्धारण में विधीयमान जो षष्ठी उस षष्ठयन्त सुबन्त का सुबन्त के साथ “षष्ठी '' इससे षष्ठी तत्पुरुष समास प्राप्त होता है।,"निर्धारणे विधीयमाना या षष्ठी तादृशषष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य सुबन्तेन सह ""षष्ठी"" इत्यनेन षष्ठीतत्पुरुषसमासः प्राप्नोति|" समान अधिकरण में ये दो है समानाधिकरण अर्श आदि होने से अच्‌ प्रत्यय होता है।,समानाधिकरणे अस्य स्तः इति समानाधिकरणः इति अर्श आदित्वादच्प्रत्ययः। "वहाँ पर कुछ पासे जुआरी के पक्ष में गिरते है तो उसकी मनोकामना को पूर्ण करते है, और कुछ उसके विपक्ष में गिरते है तो उसके विपक्षी के मनोरथो को पूर्ण करते है इस प्रकार जुआ उन दोनों को लोभ के चक्कर में डाले रखता है।",प्रतिदेवित्रे कितवाय कृतानि देवनोपयुक्तानि कर्माणि आ दधतः जयार्थमाभिमुख्येन मर्यादया वा दधतः कितवस्य कामम्‌ इच्छाम्‌ अक्षासः अक्षाः वि तिरन्ति वर्धयन्ति । उद्गाता ही स्वर बद्ध मन्त्रों को गाता है।,उद्गाता हि स्वरबद्धान्‌ मन्त्रान्‌ उच्चैर्गायति। इसकी व्युत्पत्ति पर्याप्त रूप से वैज्ञानिक है।,अस्य व्युत्पत्तिः पर्याप्तरूपेण वैज्ञानिकी वर्तते। प्रत्येक अध्याय में दोबारा कुछ खण्ड हैं।,प्रत्येकम्‌ अध्याये पुनः केचन खण्डाः सन्ति। “टे:'' इस सूत्र से टे: इस षष्ठयन्त पद की अनुवृत्ति होती है।,"""टेः"" इति सूत्रात्‌ टेः इति षष्ठ्यन्तं पदमनुवर्तते।" ७ भारांश - सैद्धांतिक शत प्रतिशत।,७ भारांशः - सैद्धान्तिकः शतं प्रतिशतम्‌। या ते हेतिर्मीढुष्टम ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,या ते हेतिर्मीदुष्टम....इति मन्त्रं व्याख्यात। उन्धि - उद्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,उन्धि - उद्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने । व्याख्या - हे शास्त्रवेता विद्वानों अथवा यजमान तुम्हारे लिये प्राप्त करने योग्य प्रसिद्ध वस्तुओ को सुखनिवास के योग्य स्थानजाने को हम लोग चाहते है।,व्याख्या- हे पत्नीयजमानौ वां युष्मदर्थं ता तानि गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि वास्तूनि सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि गमध्यै युवयोः गमनाय उश्मसि कामयामहे। रुत्‌ अथवा ज्ञानप्रद है।,रुत्‌ ज्ञानप्रदः इति वा। हमेशा कर्मनिष्ठ यह अर्थ है।,सदा कर्मनिष्ठा इत्यर्थः। अनश्वः यहाँ नुडागमविधायक सूत्र क्या है?,अनश्वः इत्यत्र नुडागमविधायकं सूत्रं किम्‌ ? जो सभी को चारो और से सूक्ष्मता से देखता है' १।८।८) अर्थात्‌ पश्यक शब्द से वर्ण को बदलने के नियम से कश्यप शब्द बनता है।,"यत्‌ सर्वं परिपश्यति सौक्ष्म्यात्‌"" १।८।८) अर्थात्‌ पश्यकशब्दात्‌ वर्णव्यत्ययस्य नियमेन कश्यपशब्दः निष्पन्नो भवति।" अग्नि ही प्राचीन ऋषियों का प्रधान था।,अग्निः एव प्राचीनानाम्‌ ऋषीणां प्रधानम्‌ आसीत्‌। जनन देह का धर्म होता है।,जननं देहस्य धर्मः। पदसमूह ही वाक्य कहलाता है।,पदसमूहः वाक्यम्‌। वासनाओं के क्षय के बाद में चित्त स्वयं ही अखण्डवस्तु विषयक हो जाता है।,वासनाक्षयानन्तरं चित्तं स्वयमेव अखण्डवस्तुविषयकं भवति। शिर से द्युलोक उत्पन्न हुआ।,शीर्ष्णः शिरसः द्यौः समवर्तत उत्पन्नाः। सप्तम मन्त्र में अग्नि के प्रति यजमान होता को जाने के लिए कहा गया है।,ततः सप्तमे मन्त्रे अग्निं प्रति यज्ञकारिणां गमनम्‌ उच्यते। यहाँ पर प्रमाण वचन क्या है?,इत्यत्र प्रमाणं वचनं किम्‌। "उसके शत्रुओं द्वारा अजेय व्‌ नए-नए दुर्गो में कुछ लौह से, और कुछ पत्थरों से निर्मित थे।","तस्य शत्रुभिः अजेयेषु नवनवत्यां दुर्गेषु केचन लौहैः, केचन वा प्रस्तरैः निर्मिताः।" सूत्रव्याख्या-यह संज्ञा सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - इदं संज्ञासूत्रम्‌। यहाँ वस्‌-यह आदेश अनुदात्तं सर्वमपादादौ' इसके अधिकार में होता है अतः वकार से उत्तर अकार अनुदात्त है।,अत्र वस्‌-इत्यादेशः अनुदात्तं सर्वमपादादौ इत्यस्य अधिकारे भवति अतः वाकारोत्तरः अकारः अनुदात्तः। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - देवता वाचियों का जो द्वन्द्वसमास वहा एक साथ पूर्व और उत्तरपद में प्रकृत्तिस्वर होता है।,तेन अस्य सूत्रस्य अर्थः भवति- देवतावाचिनां यः द्वन्द्वसमासः तत्र युगपत्‌ पूर्वोत्तरपदे प्रकृत्या भवतः। अय निर्देश होने पर पञ्चमी निर्देश के बलीय से अजादि उत्तर पद में इसके पष्ठयत्त से विपरिणाम होता है।,उभयनिर्देशे पञ्चमीनिर्देशस्य बलीयस्त्वात्‌ अजादौ उत्तरपदे इत्यस्य षष्ठ्यन्तत्वेन विपरिणामो भवति । यहाँ समास में एक से अधिक पद होते हैं वहाँ प्राय: सभी पदों के अन्त में एक ही विभक्ति दिखाई देती हैं।,यत्र समासे एकाधिकानि पदानि सन्ति तत्र प्रायः सर्वेषां पदानाम्‌ अन्ते एका एव विभक्तिः दृश्यते। अथर्ववेद में -'तक्माः' यह बुखार का ही नाम है।,अथर्ववेदे-'तक्माः' इति तु ज्वरस्य एव नाम अस्ति। सुप्राव्ये यह रूप कैसे हुआ?,सुप्राव्ये इति रूपं कथं स्यात्‌। 10. चित्तवृत्ति क्या करती है?,१०. चित्तवृत्तिः किं करोति? उन यज्ञों का विधान उचित काल में किया जाता है तो उसका फल प्राप्त करते हैं।,तेषां हि यज्ञानां विधानं समुचिते काले विधीयते चेत्‌ तदैव तत्फलं लभ्यते। "जो लोग उपासना से इच्छा पूर्ति कार्यो में रमण करते है, वे बार -बार संसार चक्र में जीव रूप के द्वारा उत्पन्न होते है।",ये जना उपासनात्‌ इष्टापूर्तकर्मभ्यश्च विरमन्ते ते भूयो भूयः संसारचक्रे जीवरूपेण आविर्भवन्ति। विधेम क्रियापद है।,विधेम इति क्रियापदम्‌ । यहाँ भूतशब्द का पूर्व प्रयोग दिखाई देता है।,तत्र भूतशब्दस्य पूर्वं प्रयोगः दृश्यते। 11. किद्‌-धातु से क्वसुप्रत्ययऔर ङीप करने पर प्रथमा एकवचन में।,11. किद्‌-धातोः क्वसुप्रत्यये ङीपि प्रथमैकवचने। वह मनुष्यों के द्वारा दी गई हवि देवों को प्राप्त कराती है।,स मनुष्यैर्दत्तं हविर्देवान्‌ प्रापयति। वह सूर्य का भी धारक है।,सः सूर्यस्यापि धारकः। अर्थात देव ही देवता है।,अर्थाद्‌ देवः एव देवता। प्रपाठकों का विभाजन अनुवाकों में है।,प्रपाठकानां विभाजनम्‌ अनुवाकेषु अस्ति। समास के अर्थबोधक वाक्य को विग्रह कहा जाता है।,समासस्यार्थबोधकं वाक्यं विग्रहः कथ्यते। सूर्यकान्तमणि में प्रतिफलित होता हुआ तृणादि का नाश करने में समर्थ होता है।,सूर्यकान्तमणौ प्रतिफलितः सन्‌ आतपः तृणादिकं नाशयति। यहाँ किसका अभेद है?,अत्र केषाम्‌ अभेदः ? वर्धयत्‌ - वृध्‌-धातु से लोट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,वर्धयत्‌- वृध्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने। 31. मन मनुष्य के किस किस का कारण है?,३१. मन एव कारणं मनुष्याणां कयोः ? इसलिए आकाश की उत्पत्ति होती है यह उपपन्न हो गया है।,अतः अस्ति आकाशस्य उत्पत्तिः इति उपपन्नम्‌। आमन्त्रितस्य यह षष्ठी का एकवचनान्त पद है।,आमन्त्रितस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌। 'सर्वानुक्रमणी' इस ग्रन्थ में वैदिक देवता का मूल सूर्यःया आदित्य है ऐसा कहा है।,सः स्वकृतौ 'सर्वानुक्रमणी' इति ग्रन्थे वैदिकदेवानां मूलं सूर्यः आदित्यो वेत्याह। यह ही जीव का अज्ञान होता है।,एतदेव जीवस्य अज्ञानम्‌। जन्म समय में स्वयं ही भीषण क्रन्दन करता है और उस शब्द से सम्पूर्ण भुवन कम्पायमान होता है वह रुद्र है।,जन्मसमये स्वयमेव भीषणं क्रन्दति अपि च तत्‌ शब्देन अखिलभूनं यः कम्पयति सः रुद्रः। लेकिन कुछ स्थानों पर हिंसा होने पर भी साधारण मानवों को दोष नहीं होता है इस प्रकार से स्मृतिकार के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।,परन्तु केषुचित्‌ स्थलेषु हिंसायां सत्यामपि दोषो न भवति साधारणमानवानामिति स्मृतिकारैः प्रतिपादितम्‌। कालविशेषवाचक उत्तरपद के परे न होने पर यही सूत्रार्थ है।,कालविशेषवाचके उत्तरपदे परे न भवतीति सूत्रार्थः। तह स्वर्गादि में भी अदृष्टफलशासन के द्वारा उद्यम नहीं होता है।,तदा स्वर्गादिष्वपि अदृष्टफलाशासनेन उद्यमो न स्यात्‌ । उत्पत्ति से पूर्व यह जगत्‌ सत्‌ शब्द बुद्धमात्र के द्वारा अवगम्य होता है।,उत्पत्तेः पूर्वम्‌ इदं जगत्‌ सच्छब्दबुद्धिमात्रगम्यम्‌ आसीत्‌। ईशावास्य उपनिषद्‌ की दूसरे स्तर में स्थापना कभी भी न्याय सङ्गत नहीं है।,ईशावास्योपनिषदः द्वितीयस्तरे स्थापनं कदापि न्यायसङ्घतं न भवति। इस कारण उनके उच्चारण के लिए छन्द का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।,अतः तेषाम्‌ उच्चारणाय छन्दोज्ञानम्‌ अत्यन्तम्‌ आवश्यकम्‌। ये ही पुरुष का पुरुषत्व है।,तत्पुरुषस्य पुरुषत्वमिति। 655. खूंटा किन वृक्षो की काष्ठ से निर्मीत होता है?,यूपदारुणि केषां वृक्षाणां काष्ठेन निर्मीयन्ते ? परिदिदेश - परिपूर्वक दिश्‌-धातु से लिट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,परिदिदेश - परिपूर्वकात्‌ दिश्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। उदित मात्र होने तक ये भग है।,उदियमात्रमयं भगः। वो परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है।,परमात्मा एव हिरण्यगर्भः। इसलिए ही भगवान्‌ श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवद्गीता में कहा है- “ अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌।,अतः एव भगवता श्रीकृष्णेन श्रीमद्भगवद्गीतायां निगद्यते- “अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌। यहाँ समाहार द्विगु का उदाहरण है-पञ्चगवम्‌।,अत्र समाहारद्विगोः उदाहरणं पञ्चगवम्‌ इति। वेदान्तसार के लेखक सादनन्दयोगीन्द्र है।,वेदान्तसारस्य लेखकः सदानन्दयोगीन्द्रः। द्यूतक्रीडा के लिए भूमि पर एक निम्न स्थान का निर्माण किया जाता है।,द्यूतक्रीडार्थं भूम्याम्‌ एकं निम्नं स्थानं निर्मीयते । अत: इन सूत्रों के अपाणिनीय होने पर भी पाणिनीय प्रमाण के द्वारा इनको आश्रित किया जाता है।,अतः एतेषां सूत्राणाम्‌ अपाणिनीयत्वे अपि पाणिनीयैः प्रमाणत्वेन आश्रियन्ते। ३॥ यस्य॒ त्री पूर्णा मधुना पदा-न्यक्षीयमाणा स्व॒धया मर्द॑न्ति।,३।। यस्य त्री पूर्णा मधुना प॒दा- न्यक्षीयमाणा स्वधया मद॑न्ति। संहितायां स्वरिताद्‌ अनुदात्तानाम्‌ एकश्रुतिः स्याद ये सूत्र में आये पदों का अन्वय है।,संहितायां स्वरिताद्‌ अनुदात्तानाम्‌ एकश्रुतिः स्यादिति सूत्रगतपदानाम्‌ अन्वयः। अवधारण अर्थ होने पर यावत इस अव्यय का सुबन्त के समर्थ के साथ समास संज्ञा होती है।,अवधारणे अर्थ यावदित्यव्ययं सुबन्तेन समर्थन सह समाससंज्ञं भवति। जैसे श्रेणिकृताः यहाँ पर यदि श्रेण्या कृताः इस विग्रह में तृतीयातत्पुरुष समास स्वीकार करते तो कर्मधारय समास के अभाव से प्रकृत सूत्र से श्रेणि यहाँ पर प्रकृति स्वर नहीं होता है।,यथा श्रेणिकृताः इत्यत्रैव यदि श्रेण्या कृताः इति विग्रहे तृतीयातत्पुरुषसमासः स्वीक्रियते तर्हि कर्मधारयसमासाभावात्‌ प्रकृतसूत्रेण श्रेणि इति अत्र प्रकृतिस्वरः न भवति। चित्त का मल ही धर्म तथा अधर्म होता है।,चित्तस्य मलः धर्मः अधर्मश्च। इन पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य हमेशा घूमता रहता है।,एषां पुरुषार्थानां प्राप्तये एव जनः सर्वदा भ्रमति। "अष्ट कपाल पुरोडाशयाग, उपांशुयाग, और एकादशकपाल पुरोडाशयाग इन तीनों यागों का समुह पौर्णमासयाग कहलाता है।","अष्टकपालपुरोडाशयागः, उपांशुयागः, एकादशकपालपुरोडाशयागश्चेति त्रयाणां यागानां समुहः पौर्णमासयागः।" चिदुत्तरम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,चिदुत्तरम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। सबसे पहले काम अर्थात्‌ सङ्कल्प उत्पन्न हुआ।,सर्वप्रथमः कामः अर्थात्‌ सङ्कल्पः समुत्पन्नोऽभवत्‌। आदित्य जिससे देखता है वो लक्ष्मी है।,आदित्यः यया तु लक्ष्यते सा लक्ष्मीः। परन्तु अलौकिक शक्तिशाली रुद्र अपने स्वयं के बल से हजारो रूप धारण करने में समर्थ है।,परन्तु अलौकिकशक्तिशाली रुद्रः स्वस्य विभूतिबलेन सहस्ररूपाणि धारयितुं समर्थः। वह ही मल होता है।,स एव मलः। “ भस्य'' यह अधिकृत सूत्र है।,"""भस्य"" इति सूत्रम्‌ अधिकृतम्‌।" और सह शब्द का सादेश होता है अव्ययीभाव समास में।,"एवं ""सहशब्दस्य सादेशः भवति अव्ययीभाव समासे।" विराट्‌ - विपूर्वक राज्‌-धातु से क्विप्‌ प्रत्यय करने पर यह शब्द बना।,विराट्-विपूर्वकात्‌ राज्‌-धातोः क्विपि। इसलिए ये सर्ववेदान्तवित्‌ परमात्मा स्वयं ही अपनी माया से विराड्‌-देहरूपी ब्रह्माण्ड रूप का सृजन करके उसमे जीवरूप में प्रवेश करके ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीव कहलाया।,सोऽयं सर्ववेदान्तवित्‌ परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्-देहं ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीवः अभवत्‌। "स्वपादिगण अदादिगण के अन्तर्गत एक गण है, वहाँ पढ़ी हुई धातुओं को और हिंस्‌-धातु को यह अर्थ है।","स्वपादिगणः अदादिगणान्तर्गतः एकः गणः, तत्र पठितानां धातूनां हिंस्‌-धातोश्च इत्यर्थः।" श्लोक को उपस्थापित करके अन्त में उनका सारांश दिया जा रहा है।,श्लोकान्‌ उपस्थाप्य अन्ते सारांशः प्रदास्यते। कही पर भारतीय दर्शन छान्दोग्योपनिषद्‌ में सदाख्याता आत्मा के तेज की सृष्टि बतायी गई है।,"किञ्च, छान्दोग्ये सदाख्यात्‌ आत्मनः तेजसः सृष्टिः समाम्नाता।" कर्तव्ये इसका अध्याहार किया है।,कर्तव्ये इति अध्याह्नियते। इस प्रकार से देहादि के सत्यत्वनिश्चय तथा जीव ब्रह्म में भेद निश्चय ही विपरीत भावना होती है।,इत्थं देहादीनां सत्यत्वनिश्चयः जीवब्रह्मणोः भेदनिश्चय एव विपरीतभावना। य ब्राह्मणः हे आदित्य तुझे इस उक्तविधि से उत्पन्न किया उस आदित्य के वश में देव रहते हैं।,यो ब्राह्मणः हे आदित्य त्वा त्वाम्‌ एवम्‌ उक्तविधिना उत्पन्नं विद्यात्‌ जानीयात्‌ तस्य ब्राह्मणस्य देवाः वशे असन्‌ वश्याः भवन्ति। और वह बुद्धितत्व का परिणाम विशेष होता है।,तच्च बुद्धितत्त्वस्यपरिणामविशेषः। वह ही द्रव्य विशेष के समान अवस्थान्तर से आपद्यमान कार्य समझा जाए।,तदेव तु द्रव्यं विशेषवदवस्थान्तरम्‌ आपद्यमानं कार्यं नाम अभ्युपगम्यते। "हे पृथ्वी सभी मनुष्य तेरे है, जिनके लिए उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरण से अमृततुल्य प्रकाश को फैलाता है।","हे पृथिवि सर्वे मनुष्याः तव, येषां कृते उद्यन्‌ सूर्यः स्वकिरणेन अमृततुल्यं प्रकाशं प्रसारयति।" जिग्ये यहाँ पर किस सूत्र से अभ्यास से उत्तर अकार कको कुत्व हुआ?,जिग्ये इत्यत्र केन सूत्रेण अभ्यासादुत्तरस्य अकारस्य कुत्वम्‌। लक्षण का असंभव दोष क्या है?,लक्षणस्य असम्भवदोषः कः। जीव अपरोक्ष होता है ईश्वर परोक्ष होता है।,"जीवः अपरोक्षः, ईश्वरः परोक्षः।" यहाँ तृतीयान्त के समान अर्थ से सुबन्त से समास होता है।,अत्र तृतीयान्तं समर्थन सुबन्तेन समस्यते। और सूत्र में कहा गया है 'प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत्‌ इत्यग्न्याधेय प्रभृति' (आश्व०२.१५) इति।,सूत्रितं च - ' प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत्‌ इत्यग्न्याधेय प्रभृति ' ( आश्व० २. १५ ) इति । "इन्द्र की सहायता के बिना युद्ध में विजय प्राप्त करना असम्भव है, अतः युद्ध में योद्धा इसी का ही आवाहन करते है।",इन्द्रस्य सहायतां विना युद्धे जयः असम्भवः अतः युद्धे योद्धारः एनमेव आह्वयन्ति। आत्मा के स्वरूप को कहा नहीं जा सकता है।,आत्मनः स्वरूपं वक्तुं न शक्यते। कुछ फल कुछ समय बाद इसी जन्म में प्राप्त होते हैं तथा कुछ फल अगले जन्म में प्राप्त होते हैं।,किमपि फलम्‌ कालेन अस्मिन्‌ जन्मनि अग्रिमजन्मसु वा लभ्यते। सूर्य की किरणें मेघ की रचना करती है और आकाश को मेघ आच्छादित करता है।,"सूर्यरश्मिः मेघं सृजति, आकाशं च मेघावृतं करोति।" जो देवों के साथ ब्रह्मरूप में सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ।,यश्च देवेभ्यः सकाशात्‌ पूर्वः जातः अग्रे प्रथमम्‌ उत्पन्नः ब्रह्मरूपेण। इसको कल्पतरु में इस प्रकार से प्रतिपादित किया है- निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः।,तदित्थं प्रतिपादितं कल्पतरौ- निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः। “निरुच्यते निश्शेषेण उपदिश्यते तत्‌ तदर्थावबोधनाय पदजातं यत्र तन्निरुक्तम्‌” इस प्रकार कहते हैं।,निरुच्यते निश्शेषेण उपदिश्यते तत्‌ तदर्थावबोधनाय पदजातं यत्र तन्निरुक्तम्‌ इति कथ्यते। विवेकियों का तो ' अन्योऽहं देहादिसङऱघात्‌' मैं देहादिसङ्घात से अलग हूँ इस प्रकार से देह आदि में उनका अहं प्रत्यय नहीं होता है।,न तु विवेकिनाम्‌ अन्योऽहं देहादिसङ्घातात्‌' इति जानतां तत्काले देहादिसङ्काते अहंप्रत्ययो भवति। केवल इच्छा से घट का निर्माण नहीं होता हे।,केवलम्‌ इच्छया घटः न उत्पद्यते। निगद में यजमान के नामवाचक प्रातिपदिक में कौन सी विभक्ति होती है?,निगदे यजमानस्य नामवाचके प्रातिपदिके का विभक्तिः भवति ? लौकिक काव्य की अपेक्षा वैदिक काव्य विद्वानों के मन को अधिक हर्षित करता है।,लौकिककाव्यस्य अपेक्षया वैदिकं काव्यं विदुषां मनसि अधिकम्‌ आह्लादं जनयति। इस कार्य के अंक अंकपत्रिका (Marks Sheet) में अलग से उल्लेख होगा।,अस्य कार्यस्य अङ्काः अङ्कपत्रिकायां (Marks ऽheet) पृथक्‌ उल्लिखिताः स्युः। "दुर्गाचार्य के मत में इस मन्त्र में 'यान' की स्तुति है, दान की नहीं।",दुर्गाचार्यस्य सम्मतौ अस्मिन्‌ मन्त्रे 'यान'स्य स्तुतिरस्ति दानस्य नास्ति। (क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) विवेकः 4 प्रमेयगतासम्भावना का निवर्तक क्या होता है?,(क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) विवेकः 4. प्रमेयगतासम्भावनाया निवर्तकं किम्‌। अग्नि अपने को विस्तृत करती हुई हवी स्थल को अपने आप ही लकड़ी जलाने और हवि पकाने के लिए प्रेरित करती है यह अर्थ है।,अग्निः अङ्गति स्वकीयमङ्गं सन्नममानः प्रह्वीभवन्‌ स्वयमेव काष्ठदाहे हविष्पाके च प्रेरयति इत्यर्थः। "और यह भी यहाँ स्मरण रखना चाहिए की यह शुक्ल यजुर्वेद में याज्ञवल्क्य शिक्षा, सामवेद में नारदीय शिक्षा, अथर्ववेद में माण्डूकी शिक्षा, और ऋग्वेद में पाणिनीय शिक्षा प्राप्त होती है।","इदम्‌ अपि अत्र स्मरणीयम्‌ यद्‌ इदानीं शुक्लयजुर्वेदे याज्ञवल्क्यशिक्षा, सामवेदे नारदीशिक्षा, अथर्ववेदे माण्डूकीशिक्षा, किञ्च ऋग्वेदे पाणिनीयशिक्षा च प्राप्यते।" इसी ही प्रकार से बृहत्साम नाम की निरुक्ति प्राप्त होती है - “ततो बृहदनु प्राजायत।,अनेन एव प्रकारेण बृहत्साम्नः निरुक्तिः - 'ततो बृहदनु प्राजायत। उदाहरण- देव: पचति च खादति च ये इस सूत्र का एक उदाहरण है।,सूत्रव्याख्या- देवः पचति च खादति च इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। उसके दांत स्वर्ण से युक्त है।,दन्तास्तस्य हिरण्मयाः। वह कर्तव्यत्व के द्वार उपदिश्य होता है।,कर्तव्यत्वेन उपदिश्यते। यहाँ पर यह समाधान है की स्वप्न में स्वप्नस्थ ज्ञान नहीं होता है।,अत्र समाधानं तु स्वप्ने यद्यपि प्रातिभासिकं वस्तु विद्यते तथापि स्वप्ने स्वप्नस्थस्य ज्ञानं न भवति। तथा देवों को शोभन हवि देने वाले को अथवा हवि से देवों को तृप्त करने वाले यजमान को धन देती हूँ।,तथा हविष्मते हविर्भिर्युक्ताय सुप्राव्ये शोभनं हविर्देवानां प्रापयित्रे तर्पयित्रे। सुन्वते सोमाभिषवं कुर्वते। 728. अग्नेर्वा आदित्यो जायते इससे क्या ज्ञात होता है ?,७२७. अग्नेर्वा आदित्यो जायते इत्यनेन किं ज्ञायते ? "6. जो तम से परे है, उस महान्‌ देशकाल आदि भेद से रहित आदित्यवर्ण पुरुष को जानकर मृत्यु को भी पार किया जा सकता है।",6. यः तमसः परः तम्‌ महान्तम्‌ देशकालाद्यवच्छेदरहितम्‌ आदित्यवर्णं पुरुषं विदित्वा मृत्युम्‌ अत्येति। द्यूतप्रभृति खेल मनुष्यो को जीवनस्रोत से हटाते है।,द्यूतप्रभृतयः क्रीडाः मनुष्यान्‌ जीवनस्रोतसः विच्छेदयन्ति । अथवा यज्ञ का सम्बन्धि पूर्वभाग में आवहनीय रूप से अवस्थित पुनः किस प्रकार का है?,"यद्वा, यज्ञस्य सम्बन्धिनि पूर्वभागे आवहनीयरूपेण अवस्थितम्‌ पुनः कीदृशम्‌?" उससे परे गङ्गे-यमुने इत्यादि शब्द है।,तस्मात्‌ परं वर्तते गङ्गे- यमुने इत्यादयः शब्दाः। "उस प्रकार विशिष्ट गुण से युक्त, अनेक रूप में अनेक वस्तुओं में अवस्थित हूँ।","तादृशी गुणविशिष्टा, बहुरूपेण बहुवस्तुषु अवस्थिता।" "जल के द्वारा औषधियों को गर्भ को धारण कराओ, वारिपूर्ण रथ द्वारा अन्तरिक्ष में परिभ्रमण करो, उदकधारक मेघ को वृष्टि के लिए आकृष्ट करो या विमुक्त बंधन करो, उस बंधन को अधोमुख करो, उन्नत और निम्नतम प्रदेशो को समतल करो।",गर्भस्थानीयमुदकम्‌ ओषधीषु आ धाः आधेहि। तदर्थम्‌ उदन्वता उदकवता रथेन परिदीय परितो गच्छ। दृतिं दृतिवदुदकधारकं मेघं विषितं विशेषेण सितं बद्धं न्यञ्चं न्यक्‌ अधोमुखं सु सुष्ठु आकर्ष वृष्ट्यर्थम्‌। यद्वा। विषितं विमुक्तबन्धनमेवं कर्ष। एवं कृते उद्वतः ऊर्ध्ववन्तः उन्नतप्रदेशाः निपादाः न्यग्भूतपादा निकृष्टपादा वा निम्नोन्नतप्रदेशाः समाः एकस्थाः। शेर के समान गर्जना करता हुआ सम्पूर्ण आकाश को मेघ से आच्छादित करता है।,सिंहवत्‌ गर्जन्‌ सम्पूर्णम्‌ आकाशं मेघाच्छन्नं करोति । महाभारत का कथन है कि औषधियों से जैसे अमृत को धारण किया वैसे ही वेदों से सार को लेकर के आरण्यकों की रचना की।,महाभारतस्य कथनमस्ति यद्‌ औषधीभ्यो यथा अमृतम्‌ उद्धृतं तथैव वेदेभ्यः सारं समुद्धृत्य आरण्यकं प्रणीतम्‌। इस कारण वेद वाक्य उक्त दोष से मुक्त ही है।,अतः वेदवाक्यम्‌ उक्तदोषात्‌ विनिर्मुक्तम्‌ एव अस्ति। इस प्रकार इच्छित धन को प्राप्त करके हम शत्रु को जितने वाले बने।,एवम्‌ अभीप्सितधनयुक्ताः भूत्वा वयं यथा शत्रुविजयिनौ भवेमः। अधिष्ठान व्यतिरिक्त कल्पितवस्तु के सत्त्व असिद्ध होने पर भी कल्पितवस्तु सत्ताव्यतिरेक से अधिष्ठानसत्तव प्रत्यक्ष ही सिद्ध होता है।,अधिष्ठानव्यतिरेकेण कल्पितवस्तुनः सत्त्वासिद्धे सत्यपि कल्पितवस्तुसत्ताव्यतिरेकेण अधिष्ठानसत्त्वं प्रत्यक्षसिद्धमेव। प्राज्ञ स्थान सुषुप्ति अथवा गाढनिद्रा का होता है।,प्राज्ञस्य स्थानं भवति सुषुप्तिः अथवा गाढनिद्रा। "अहङऱकारोपासना तथा साधना।उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि, इस प्रकार से वेदान्तसार में उपासना का लक्षण बताया गया है।",अहङ्कारोपासनम्‌ प्रतीकोपासनं चेति। उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि इति उपासनालक्षणं वेदान्तसारे। कर्षू:- छोटा तालाब।,कर्षूः खातिकाः। "अरातिः - न रातिः अरातिः नजूतत्पुरुषः, नपूर्वक राधातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में।","अरातिः - न रातिः अरातिः नञ्तत्पुरुषः, नपूर्वकात्‌ राधातोः क्तिन्प्रत्यये प्रथमैकवचने ।" यहाँ रतोकान्तिदूरार्थकृच्छ्राणि यह प्रथमाबहुवचनान्त तथा वतेन तृतीया एकवचनान्त पद है।,तत्र स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि इति प्रथमाबहुवचनान्तं तथा क्तेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। इस पुरुष के कालत्रयवर्ती प्राणिजात चतुर्थ पाद या अंश है।,अस्य पुरुषस्य कालत्रयवर्तीनि प्राणिजातानि पादः चतुर्थः अंशः। फिर भी सामीप्य से पुष्प की रक्तिमा स्फटिक में प्रतिबिम्बित होती है।,तथापि समीप्यात्‌ पुष्पस्य रक्तिमा स्फटिके प्रतिबम्बते। अध्यायः-3 अद्वैतवेदान्ते अध्यारोपः- 54 22 पाठः-11 ब्रह्मलक्षणम्‌- ब्रह्मपदस्यार्थः।,अध्यायः-३ अद्वैतवेदान्ते अध्यारोपः- ५४ २२ पाठः ११ ब्रह्मलक्षणम्‌- ब्रह्मपदस्यार्थः। चादिलोपे विभाषा इस सूत्र की व्याख्यान कीजिए।,चादिलोपे विभाषा इति अस्य सूत्रस्य व्यख्यानं कुरुत। तब वह शरीर त्याग नहीं करता है।,तदा एव शरीरत्यागं न करोति। "( गीता. ३/१३ ) ऋग्वेद में दार्शनिक सूक्तों की जैसी उपनिषदो में तात्त्विक विवेचनों के साथ सम्बद्ध है, वैसे ही इन सूक्तों का प्रबन्ध काव्य और नाटक के साथ भी सम्बन्ध जुड़ता है।","(गीताः. ३/१३) ऋगेवेदे दार्शनिकसूक्तानि यथा उपनिषदां तात्त्विकविवेचनैः सह सम्बद्धानि सन्ति, तथैव एतानि सूक्तानि प्रबन्धकाव्येन नाटकेनापि च सम्बन्धं संयोजयन्ति।" अकाल होने पर सप्तम्येकवचनान्त पद है।,अकाले इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। भागवत में भी कहा है - “विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌' (भ० गी० १०.४२)।,भगवताप्युक्तं-'विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌' (भ० गी० १०.४२) इति। किन्तु ऐतरेय तथा शाङखायन निश्चय से ही ब्राह्मण द्रष्टा ऋषि है।,किन्तु ऐतरेयस्तथा शाङ्खायनः च निश्चयेन एव ब्राह्मणद्रष्टारौ ऋषी स्तः। सामान्याप्रयोगे यह सप्तम्येकवचनान्त पद है।,सामान्याप्रयोगे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌ । प्राणिति - प्रपूर्वक अन्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में प्राणिति रूप है।,प्राणिति- प्रपूर्वकात्‌ अन्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने प्राणिति इति रूपम्‌। और मेरा स्थान कारण समुद्र में है।,मम च योनिः कारणं समुद्रे। जर्मन विद्वान्‌ डाक्टर श्रोदर महोदय ने भी इस विचार का समर्थन किया।,जर्मनविद्वान्‌ डक्टरश्रोदरमहोदयोऽपि विचारमिमम्‌ अनुमोदयति। इसके दो ग्रन्थ थे।,अस्याः द्वौ ग्रन्थौ आस्ताम्‌। भुवन वर्तमान काल को कहते है।,भुवनं भवतीति भुवनम्‌। विष्णु के सम्बन्ध मुख्यरूप से इन्द्र के साथ भी है।,विष्णोः सम्बन्धः मुख्यरूपेण इन्द्रेण सहापि वर्तते। उस प्रकार का अशुद्ध उच्चारण युक्त कार्य तो बड़ी विपत्ति को ही उत्पन्न करता है।,तादृशम्‌ अशुद्धोच्चारणयुक्तं कार्यं तु महतीम्‌ विपदम्‌ एव उत्पादयति। बृहती छन्द छत्तीस अक्षरों का होता है।,बृहतीच्छन्दः षट्त्रिंशदक्षराणां भवति। उसका धनु सहस्र जनों को भी मारने में समर्थ है।,तस्य धनुः सहस्रमपि जनान्‌ हन्तुं समर्थम्‌। 48. बहुव्रीहि में कौन-कौन से समासान्त प्रत्यय होते हैं?,४८. बहुव्रीहौ के के समासान्ताः प्रत्यया भवन्ति? शुक्लयजुर्वेद में रुद्र सगुणदेवों का अतिक्रमण करके निर्गुण परमेश्वर रूप में परिणत हुए।,शुक्लयजुर्वेदे रुद्रः सगुणदेवान्‌ अतिक्रम्य निर्गुणपरमेश्वरेण परिणतः अभवत्‌। और सु प्रत्यय का “'सुपोधातुप्रातिपदिकपोः”' इस सूत्र से लोप होने पर सर्वसंयोग होने पर स्तोकान्मुक्त शब्द निष्पन्न होता है।,"सोश्च ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन लुकि सर्वसंयोगे स्तोकान्मुक्त इति शब्दो निष्पद्यते।" ( 10.2 ) उगितश्च ( 4.1.6 ) सूत्रार्थ-उगित अन्त वाले प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीप्‌ प्रत्यय होता है।,[१०.२] उगितश्च (४.१.६) सूत्रार्थः - उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीप्‌ प्रत्ययः स्यात्‌। 11. अस्तेय की प्राप्ति होने पर संकल्पमात्र से योगी सभी प्रकार के रत्नों को प्राप्त कर सकता है।,११. अस्तेयप्रतिष्ठायां संकल्पमात्रेण योगिनः सर्वविधरत्नप्राप्तिः भवति। भू से क्युप्रत्यय करने पर वर्तमानकालसंबन्धि है।,भवतेः क्युप्रत्ययः वर्तमानकालसंबन्धि। "विविदिषा संन्यास में कर्म के एकदेश का त्याग होता है, अपरदेश का अनुवर्तन हो जाता है।","विविदिषासंन्यासे कर्मेकदेशः त्यज्यते, अपरदेशः अनुवर्त्यते।" आद्युदात्तरच इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,आद्युदात्तश्च इति सूत्रं व्याख्यात। इन सभी सूत्रों का यहा उदाहरण सहित व्याख्या की है।,एतेषां समेषामपि सूत्राणामत्र उदाहरणपुरःसरं व्याख्यानं विहितम्‌। सु के उकार का “उपदेशेजनुनासिक इत्‌'' इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर “तस्य लोपः'' इससे लोप (उकार का) होने पर कृष्णश्रित स्‌ होता है।,"सोः उकारस्य ""उपदेशेजनुनासिक इत्‌"" इत्यनेन सूत्रेण इत्संज्ञायां ""तस्य लोपः"" इत्यनेन लोपे कृष्णश्रित स्‌ इति भवति।" व्याख्या - हे श्रद्धा घी पुरोडाश आदि देने वाले यजमान का प्रिय अभीष्टफल को पूर्ण करो।,व्याख्या- हे श्रद्धे ददतः चरुपुरोडाशादीनि प्रयच्छतः यजमानस्य प्रियम्‌ अभीष्टफलं कुरु। यहाँ सुप्प्रत्यय को और पित्प्रत्यय को उद्देश्य करके अनुदात्त होने की विधि है।,अत्र सुप्प्रत्ययमुद्दिश्य पित्प्रत्ययञ्च उद्दिश्य अनुदात्तत्वविधिः भवति। 18. “'प्रथमानिर्दिष्टमं समास उपसर्जनम्‌” इस सूत्र में संज्ञास॑ज्ञि निर्णय करो।,"१८. ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रे संज्ञासंज्ञिनिर्णयं कुरुत?" गुरु जब तत्वसि इस वाक्य का उपदेश करता है तब शुद्धचित्त शिष्य की अखण्डाकार चित्तवृत्ति का उदय होता है।,गुरुः यदा तत्त्वमस्यादिवाक्यम्‌ उपदिशति तदा शुद्धचित्तयुक्तस्य शिष्यस्य अखण्डब्रह्माकाराकारिता चित्तवृत्तिः उदेति। उससे सूत्र का अर्थ होता है - प्रत्यय का आदि उदात्त ही होता है।,ततश्च सूत्रार्थो भवति - प्रत्ययः आद्युदात्तः एव भवति इति। "सूत्र में “प्रत्ययः”, “परश्च”, ““ तद्धिताः”', “ समासान्ताः” ये अधिकृत हैं।","सूत्रे प्रत्ययः""परश्च"", ""तद्धिताः"", ""समासान्ताः"" इत्येतानि अधिकृतानि।" विवेकादि साधनचतुष्टय अन्तरङ्गसाधनत्व के द्वारा गिने जाते हैं।,विवेकादिसाधनचतुष्टयम्‌ अन्तरङ्गसाधनत्वेन गण्यते। अतः प्रकृत सूत्र से उस तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण तत्‌ तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। आरोहथः - आङपूर्वकरुह्-धातु से लट्‌-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में आरोहथः रूप बना।,आरोहथः- आङ्पूर्वकरुह्‌-धातोः लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने आरोहथः इति रूपम्‌। विशेष- यहाँ यह जानना चाहिए की प्रकृत सूत्र से अदेवन अर्थ में वर्तमान अक्ष शब्द के आदि स्वर अकार को उदात्त होता है।,विशेषः- अत्रेदम्‌ अवधेयं यत्‌ प्रकृतसूत्रेण अदेवनार्थे प्रवर्तमानस्य अक्षशब्दस्य आदेः स्वरस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। उससे कर्तृ ई स्थिति होती है।,तेन कर्तृ ई इति स्थितिः भवति। (दो स्वर के मध्यस्थ होने से डकार का ळकार) नमन्ते - नम्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष बहुवचन में वैदिक रूप है।,( स्वरद्वयस्य मध्यस्थत्वात्‌ डकारस्य ळकारः ) नमन्ते - नम्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुबहुवचने वैदिकं रूपम्‌ । "“स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन'' ( 2.9.37 ) सूत्रार्थ-स्तोक, अन्तिक, दूर अर्थ वाची और कृच्छशब्द पञ्चम्यन्त को सुबन्त को वत्तान्त प्रकृति सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।",स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन॥ (२.१.३९) सूत्रार्थः - स्तोकान्तिकदूरार्थवाचकानि कृच्छ्रशब्दप्रकृतिकं च पञ्चम्यन्तं सुबन्तं क्तान्तप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। यहाँ यून: प्रातिपदिक से इसका विशेषण होता है।,अत्र यूनः इति प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। यदि छह बार करना हो तो प्रत्येक ऋतु में एक एक सम्पादन करना चाहिए।,यदि वारषट्कं तर्हि प्रत्येकस्मिन् ऋतौ एकैकम्‌ सम्पादनीयम्‌ । अतः यह समास षष्ठी तत्पुरुष कहा जाता है।,अतः अयं समासः षष्ठीतत्पुरुषः इत्यभिधीयते। "गौ, अश्व, गधा, बकरा, भैसा, तिल, दाल मांस धन्य और जौ दक्षिणा के रूप में दीये जाते हैं।",गौः अश्वः गर्दभः छागः महिषः तिलं द्विदलं मांसं धान्यं यवः च दक्षिणात्वेन दीयन्ते। इसलिए जन्तु मोहग्रस्त हो जाता है।,अत एव जन्तुः मोहग्रस्तो भवति। रोग के नाश के लिए स्मरण से ही औषधि के द्वारा रोग का नाश हो जाता है।,भिषक्‌ रोगनाशकः स्मरणेनैव रोगनाशाद्भिषकत्वम्‌। "आश्वलायन के मतानुसार से मन्त्र द्रष्टा ऋषि होते हैं, और ब्राह्मण द्रष्टा आचार्य।","आश्वालायनमतानुसारेण मन्त्रद्रष्टारः ऋषयो भवन्ति, ब्राह्मणद्रष्टारः आचार्याश्च।" """अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इस सूत्र से क्या विधान है?","""अक्ष्णोऽदर्शनात्‌"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" वह कही दूर चला जाता है तो माता उसको अपने पास ले आती है।,स अपरत्र गतश्चेत्‌ तम्‌ माता स्वसमीपम्‌ आनयति। यह देवदत्त शब्द का सम्बोधन एकवचन का रूप है।,यथा देवदत्त! इति देवदत्तशब्दस्य सम्बोधनैकवचनस्य रूपम्‌। वह ही ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप होता है।,तच्च ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूपं भवति। "जैस पक्षी बहुत दूर तक उड़कर के थकान के कारण विश्रान्ति के उद्देश्य से अपने घोसले में आकर के प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार जीव भी अन्यत्र दोनों अवस्थाओं में अपने कर्म के द्वारा प्रयास से थककर विश्रान्ति के लिए सुषुप्ति को प्राप्त करता है।",यथा पक्षिणः वियदि बहुदूरम्‌ उदड्डयनं कृत्वा आयासात्‌ विश्रान्तिमुद्दिश्य स्वकीयं पञ्जरमुपगत्य प्रविशति। तथा जीवः अपि अन्यत्रावस्थाद्वये स्वकर्मणा आयासेन श्रान्तः सन्‌ विश्रान्तये सुषुप्तिं प्राप्नोति| वेदों में अथर्ववेद का स्थान सबसे उपर है।,वेदेष्व्थर्ववेदः महत्‌ स्थानम्‌ अधिकरोति। बुद्धि कर्ता होती है।,बुद्धिस्तु कर्ता च। "सूत्र का अर्थ है तत्पुरुष समास में तुल्य अर्थवाले, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त, उपमानवाची, अव्यय द्वितीयान्त और कृत्यप्रत्ययान्त पूर्वपद प्रकृति स्वर होता है।",सूत्रार्थः भवति तत्पुरुषे समासे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः पूर्वपदभूताः प्रकृत्या इति। ` अभ्यस्तानामादिः' से आद्युदात्त हुआ।,'अभ्यस्तानामादिः' इत्याद्युदात्तत्वम्‌। “ तद्धितार्थोत्तपदसमाहारे च'' इस सूत्र के उत्तरपद में पर होने का कौन सा उदाहरण है?,"""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रस्य उत्तरपदे परे किमुदाहरणम्‌ ?" पहले स्तम्भ में साधन हैं तथा दूसरे स्तम्भ में उनके फल है।,प्रथमस्तम्भे साधनानि सन्ति। द्वितीयस्तम्भे तत्तत्फलमस्ति। वह वृत्ति घटाकार होती है।,सा वृत्तिः घटाकाराकारिता भवति। (क) शम (ख) विवेक (ग) सम्बन्ध (घ) वैरण्ग्य 8 इन अनुबन्धों में अन्यतम नहीं होता है?,(क) शमः (ख) विवेकः (ग) सम्बन्धः (घ) वैराग्यम्‌ 8. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः नास्ति। 20.1.1 मूलपाठ ( विष्णुसूक्त ) विष्णोर्नु क॑ वीर्याणि प्र वाचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि।,२०.१.१) मूलपाठम्‌ (विष्णुसूक्तम्‌)- विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विम॒मे रजांसि। आरण्यक किसके गूढ़ रहस्य को प्रदर्शित करते हैं?,आरण्यकं कस्य गूढरहस्यं प्रतिपादयति? “द्विक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः '' सूत्रार्थ-दिशावाचक पूर्वपद जिसके उस प्रातिपदिक से शौषिक में भव अर्थ में असंज्ञा में गम्यमान तद्धित को ञ प्रत्यय होता है।,दिक्पूर्वपदादसंज्ञायां ञः सूत्रार्थः - दिशावाचकं पूर्वपदं यस्य तस्मात्‌ प्रातिपदिकाद्‌ शैषिके भवाद्यर्थ असंज्ञायां गम्यमानायां तद्धितः ञप्रत्ययो भवति । खलप्व्याघ्शा इस रूप को सिद्ध कीजिए।,खलप्व्यांशा इति रूपं साधयत। अथर्ववेद आमुष्मिक के साथ अन्य क्या फल देता है?,अथर्ववेदः आमुष्मिकेण सह अपरं किं फलं प्रयच्छति? इसलिये ही यज्ञयों में यज्ञ को चाहने वाले प्रथम मुख्य रूप से मेरे इस प्रकार के गुणों का वर्णन करते हैं।,अत एव यज्ञियानां यज्ञार्हाणां प्रथमा मुख्या या एवङ्गुणविशिष्टाहं ताम्। बलित्व से प्रदास्यमान पशु श्वास के रोधन से मर जाता है।,बलित्वेन प्रदास्यमानः पशुः श्वासबन्धेन निहन्यते। 'तनोतेर्यकि' (पा०सू० ६.४.४४) इससे आकार।,'तनोतेर्यकि' (पा०सू० ६.४.४४) इत्याकारः। इस सूत्र से वाक्यों की एक श्रुति होने का विधान है।,अनेन सूत्रेण वाक्यानाम्‌ एकश्रुतित्वं विधीयते। तथा शीतोष्णदुःरूपों में वह सम होता है।,शीतोष्णसुखदुःखरूपेषु द्वन्द्वेषु समः। ब्रह्मा नाम के ऋत्विज का प्रधान कार्य है सभी कार्यो में अच्छी प्रकार से निरीक्षण करना तथा होने वाली त्रुटी से हटाना।,ब्रह्मानामकस्य ऋत्विजः प्रधानं कार्य सर्वत्र कार्येषु सम्यक्तया निरीक्षणं तथा सम्भावितायाः त्रुट्याः मार्जनम्‌। अमावस्या पर तो पुरोडाश निष्ठ पहली आहुति अग्नि के लिए इष्ट होती है।,अमावस्यायां तु पुरोडाशनिष्ठा प्रथमाहुतिः अग्नेः इष्टा भवति। रात्री कालीन सूर्य का नाम वरुण है।,रात्रीकालीनसूर्यस्य नाम वरुणः इति। उसको इस प्रकृत सूत्र से उस कुश- शब्द का आदि स्वर उकार को उदात्त करने का नियम किया है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य कुश- शब्दस्य आदेः स्वरस्य उकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। "ब्रह्म शब्द स्वयं अनेक अर्थो में प्रयुक्त होता है, जैसे मन्त्र के अर्थ में - ब्रह्म वै मन्त्र:...(शत. ब्रा.७/१/१/५)।","ब्रह्मशब्दः स्वयमनेकेषु अर्थेषु प्रयुक्तो भवति, यथा मन्त्रार्थ- ब्रह्म वै मन्त्रः...(शत. ब्रा.७/१/१/५)।" इसलिए निश्चयात्मा बुद्धि में ही चित्त का अन्तर्भाव होता है।,अतः निश्चयात्मिकायां बुद्धौ एव चित्तस्य अन्तर्भावः। "पूरक, कुम्भक तथा रेचक।","पूरकः, कुम्भकः, रेचकश्च।" "जीवन मुक्ति का लोक व्यवहार, कर्मों के द्वारा उसकी अस्पृष्टता इत्यादि विषय भी यहाँ पर आलोचित किए जाएँगे।","जीवन्मुक्तस्य लोकव्यवहारः, कर्मभिः तस्य अस्पृष्टता इत्यादयो विषया अत्र आलोचिता भविष्यन्ति।" चित्त विक्षिप्त है इसका किस प्रकार से ज्ञान होता है।,चित्तं विक्षिप्तम्‌ अस्ति इति कथं ज्ञायते। "( घ) आथर्वण उपनिषद्‌- जिनका उपयोग तान्त्रिक उपासना में विशिष्ट रूप से स्वीकार किया है - (१) सामान्य उपनिषद्‌, (२) योग उपनिषद्‌, (३) सांख्यवेदान्त उपनिषद्‌, (४) शैव उपनिषद्‌, (५) वैष्णव उपनिषद्‌, (६) और शाक्त उपनिषद्‌।","(घ) आयथर्वणोपनिषदः- यासामुपयोगः तान्त्रिकोपासनायां विशिष्टरूपेण स्वीकृतमस्ति- (१) सामान्योपनिषद्‌, (२) योगोपनिषद्‌, (३) सांख्यवेदान्तोपनिषद्‌, (४) शैवोपनिषद्‌, (५) वैष्णवोपनिषद्‌, (६) शाक्तोपनिषच्चेति।" इस रूप से तो आलोचनात्मक प्रत्ययविशेष ही विवेक पद के द्वारा वाच्य है।,एवंरूपेण आलोचनात्मकप्रत्ययविशेष एव विवेकपदवाच्यः। पुत्र तो नीचें था।,पुत्रः तु अधोभागस्थितः आसीत्‌। क्षरन्ति - क्षर्‌-धातु से लट्-लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में क्षरन्ति रूप है।,क्षरन्ति- क्षर्‌-धातोः लट्-लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने क्षरन्ति इति रूपम्‌। अग्नि अपने प्रभा से आकाश को स्पृश करती है - “धृतप्रतीको बृहता दिवि स्पृशा” इति ( ऋग्वेद ५/१/१ )।,"अग्निः स्वप्रभया आकाशं स्पृशति - ""धृतप्रतीको बृहता दिवि स्पृशा” इति (ऋग्वेदः ५/१/१)।" उसका परवर्ति ' स्वरितो वानुदात्ते पदादौ' इस सूत्र से विकल्प से स्वरित स्वर का विधान किया है।,ततः परवर्तिना 'स्वरितो वानुदात्ते पदादौ' इति सूत्रेण विकल्पेन स्वरितस्वरः विहितः। बलदा बल का दाता अथवा शोधयिता।,बलदाः बलस्य च दाता शोधयिता वा। जो आनन्द प्रदान करता है वह प्रचुरानन्द होता है इस प्रकार से लोक में प्रसिद्ध भी है।,आनन्दयतीत्यर्थः। यः आनन्दयति स प्रचुरानन्दो भवतीति प्रसिद्धं लोके। इसके बाद सूत्र में नञ्‌ का प्रथमानिर्दित्व से उसके बोध्य का “प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌'' इससे उपसर्जन संज्ञा होने पर “ उपसर्जनंपूर्वम्‌'' इससे पूर्वनिपाल में न ब्राह्मण सु होता है।,"ततः सूत्रे नञ्‌ इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्वोध्यस्य नेत्यस्य "" प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌ "" इत्यनेन उपसर्जनसंज्ञायाम्‌ "" उपसर्जनं पूर्वम्‌ "" इत्यनेन पूर्वनिपाते न ब्राह्मण सु इति भवति ।" क्रिया का ग्रहण करना चाहिए।,क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्‌। उपराजन्‌ अ इस स्थिति होने पर नान्त का उपराजन्‌ इस टि लोप विधान के लिए यह सूत्र प्रवृत्त होता है।,उपराजन्‌ अ इति स्थिते नान्तस्य उपराजन्‌ इत्यस्य टिलोपविधानाय इदं सूत्रं प्रवृत्तम्‌। "इसलिए विविदिषा तथा विद्वत्, सन्यास के भेद से सन्यास दो प्रकार का होता है।",अत एव विविदिषाविद्वत्संन्यासभेदेन संन्यासस्य द्वैविध्यमापद्यते। वह पत्नी मेरे परिवार की विशेष रूप से सेवा करती थी।,सा अस्मदीयेभ्यः विशेषेण सेवां कुर्वती आसीत्‌ । अविद्या की विरोधी तो विद्या होती है।,अविद्यायाः विरोधिनी तु विद्या भवति। यह पर्जन्यदेव भौतिक पर्जन्य का अर्थात्‌ मेघ का मूर्तरूप है।,अयं पर्जन्यदेवः भौतिकस्य पर्जन्यस्य अर्थात्‌ मेघस्य मूर्तरूपः। हे अग्नि प्रतिदिन जैसी हमारी बुद्धि है वैसा ही नमस्कार अथवा स्तुति करते हुए हम तेरे समीप आते हैं।,हे अग्ने प्रतिदिनम्‌ यथा अस्माकं प्रज्ञा तथा नमस्कारं स्तुतिं वा कुर्वन्तः वयं तव समीपम्‌ आगच्छामः इति। “नञ्‌” सूत्र का क्या अर्थ है?,""" नञ्‌ "" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" "मन्त्रो का अन्वय, मन्त्रो की व्याख्या, मन्त्र का सरलार्थ, कुछ शब्दो का व्याकरण इन रूप से मन्त्रो की व्याख्या की गई है।","मन्त्रान्वयः, मन्त्रव्याख्या, मन्त्रस्य सरलार्थः, केषाञ्चित्‌ शब्दानां व्याकरणम्‌ इति रूपेणात्र मन्त्राः व्याख्याताः सन्ति।" बिभर्मि - भृ-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में बिभर्मि यह रूप है।,बिभर्मि- भृ-धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने बिभर्मि इति रूपम्‌। तिङि यहाँ तिङ यह प्रत्यय है।,तिङि इत्यत्र तिङ्‌ इति प्रत्ययः। "व्याख्या - जुआरी अपनी छाती को फुलाकर कूदता हुआ जुए के अड़े पर आता है और कहता है की कौन यहाँ धनिक उसको मैं जीतूँगा, ऐसा पूछता हुआ उस चोपट में कूद जाता है।",व्याख्या - तन्वा शरीरेण शूशुजानः शोशुचानो दीप्यमानः कितवः कोऽत्रास्ति धनिकस्तं जेष्यामीति पृच्छमानः पृच्छन्‌ सभां कितवसम्बन्धिनीम्‌ एति गच्छति । इस प्रकार से चारों विघ्नों से रहित चित्त वायु रहित स्थान में दीपक समान अचल सत्‌ ब्रह्म रूप में जब स्थित होता हैं तब निर्विकल्पकक समाधि होती है।,एवम्‌ अन्तरायचतुष्टयेन विरहितं चित्तं निर्वातदीपवत्‌ अचलं सत्‌ ब्रह्मरूपेण अवतिष्ठते तदा निर्विकल्पकः समाधिः भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय - रक्षण क्रियावाचि भ्वादिगण में पढ़ी हुई गुपू धातु से पकार के उत्तर ऊकार का उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌' इस सूत्र से इत्‌ संज्ञा होने पर `तस्य लोपः' इससे लोप करने पर गुप्‌ इस स्थिति में ' धातोः' इस सूत्र से गुप्‌-धातु के अन्त्य का अच्‌ गकार के उत्तर उकार का उदात्त स्वर का विधान होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः - रक्षणक्रियावाचिनः भ्वादिगणे पठितस्य गुपूधातोः पकारोत्तरस्य ऊकारस्य 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌' इति सूत्रेण इत्संज्ञायां 'तस्य लोपः' इत्यनेन लोपे च कृते गुप्‌ इति स्थिते 'धातोः' इति सूत्रेण गुप्‌-धातोः अन्त्यस्य अचः गकारोत्तरस्य उकारस्य उदात्तस्वरः विधीयते। जलाशय से यज्ञ स्थल की और प्रत्यागमन के समय में यजमान उदयनीय नामक अन्तिम अनुष्ठान का आचरण करता है।,जलाशयाद्‌ यज्ञस्थलं प्रति प्रत्यावर्तनसमये यजमानः उदयनीय इति नामकम्‌ अन्तिमम्‌ अनुष्ठानम्‌ आचरति। व्यपदेशिवद भाव को आश्रित करके देवी: इस पद की आमन्त्रित अन्तत्व होना भी सिद्ध है।,व्यपदेशिवद्भावम्‌ आश्रित्य देवीः इति पदस्य आमन्त्रितान्तत्वम्‌ अपि सिध्यति। मैं दसों अंगुलियों वाले हाथ को जोड़कर सत्य कहता हूँ की भविष्य में मैं जुए से धन नही कमाऊंगा।,अहम्‌ अञ्जलिं कृत्वा सत्यं वदामि यत्‌ अहं ( कितवः ) धनानि न ग्रहिष्यामीति । "बहुल ग्रहण से समास अभाव का उदाहरण जैसे: दात्रेण, लुनवान इत्यादि है।",बहुलग्रहणात्‌ समासाभावस्योदाहरणं यथा दात्रेण लूनवान्‌ इत्यादि। बृहदारण्योपकनिषद में कहा गया हैं कि ““मनसैवानुद्रष्टव्यम्‌” (4/4/1९) अर्थात्‌ मन के के द्वारा ब्रह्म का दर्शन करना चाहिए।,बृहदारण्यकोपनिषदि आम्नायते “मनसैवानुद्रष्टव्यम्‌” (४/४/१९) इति। मनसा एव ब्रह्मदर्शनं कर्तव्यम्‌। 4. शम दम उपरति तितिक्षा समाधान तथा श्रद्धा ये छ: षट्‌ सम्पत्तियां है।,४. शमः दमः उपरतिः तितिक्षा श्रद्धा समाधानम्‌ इति एतत्‌ शमादिषट्कम्‌। मन्त्र और ब्राह्मण का एक ही जगह मिश्रण ही कृष्ण यजुर्वेद के कृष्णत्व का कारण है।,मन्त्रब्राह्मणयोः एकत्र मिश्रणमेव कृष्णयजुर्वेदस्य कृष्णत्वस्य कारणमस्ति। ब्रह्मभिन्न विषयों का वृत्तिविषयत्व तथा फल विषयत्व अपेक्षित होता है।,ब्रह्मभिन्नविषयाणां वृत्तिविषयत्वं फलविषयत्वं चापेक्षिते। यहाँ दो पद विराजमान हैं।,अत्र पदद्वयं विराजते। कौन किस प्रकार के कर्म का त्याग करता है?,कः कीदृशं कर्म त्यजति। तात्पर्यभेद से अर्थ भेद होता है।,तात्पर्यभेदेन अर्थ भेदो भवति। जग्मुः - गम्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,जग्मुः - गम्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्‌। वहाँ वाङ्मय मात्र का ही ज्ञान नहीं हो सकता है।,तत्र वाङ्गयमात्रज्ञानम्‌ एव न जायते। वेदव्यास महोदय ने अपने शिष्य जैमिनी के लिए।,वेदव्यासमहोदयः स्वशिष्याय जैमिनये। निहितम्‌ - निपूर्वक धा-धातु से क्तप्रत्यय करने पर निहितम्‌ यह रूप बनता है।,निहितम्‌ - निपूर्वकात्‌ धा-धातोः क्तप्रत्यये निहितम्‌ इति रूपम्‌। नित्य सुख आत्म सुख है।,नित्यं सुखम्‌ आत्मसुखम्‌। ये कर्म पापरूपी संस्कारो को अन्तः करण में उत्पन्न करते हैं और वे संस्कार समुचित काल में विविध दुःखों को तथा नरकादि अनिष्टों को जन्म देते हैं।,एतानि कर्माणि पापाख्यं संस्कारम्‌ अन्तःकरणे जनयन्ति। स च संस्कारः समुचिते काले विविधानि दुःखानि नरकादि अनिष्टं च जनयति। 3. असरुन्धतीनक्षत्रनिदर्श का वर्णन कीजिए।,3 अरुन्धतीनक्षत्रनिदर्शनं वर्णयत। "भले ही स्वप्नकाल में स्थूल विषय नहीं होते हैं, फिर भी सृक्ष्म विषय तो होते ही हैं।",यद्यपि स्वप्नकाले स्थूलविषयाः न सन्ति तथापि सूक्ष्मविषयाः सन्त्येव। इस प्रकार से शब्दपक्षव्य अर्थ यह है कि न केवल कर्मों से तथा न ज्ञान तथा कर्मोसे निः श्रेयस की प्राप्ति होती है।,"शब्दः पक्षव्यावृत्त्यर्थः- न केवलेभ्यः कर्मभ्यः, न च ज्ञानकर्मभ्यां समुच्चिताभ्यां निःश्रेयसप्राप्तिः ।" अतः सूर्य के साथ अभिन्न आत्मा रुद्र का भी नाम नीलग्रीवअथवा नीलकण्ठ है।,अतः सूर्येण साकम्‌ अभिन्नात्मनः रुद्रस्यापि नाम नीलग्रीवो नीलकण्ठ इति वा। 3. सञ्चित कर्म किसे कहते हैं?,३. किं सञ्चितकर्म? अभिप्लव षडह के प्रथमा दन तथा अन्तिम दिन ज्योतिष्टोम याग का विधान है।,अभिप्लवषडहे प्रथमदिवसे अन्तिमदिवसे च ज्योतिष्टोमयागः विहितः। इस याग का प्रथम दिवस पूर्णिमा हो।,अस्य यागस्य प्रथमदिनं पूर्णिमा भवेत्‌। कुछ साक्षात्‌ मोक्ष की कामना करते है तो कुछ दूर से।,केचित्‌ साक्षात्‌ मोक्षं कामयन्ते केचित्‌ दूरान्वयेन। और उसकी प्रशंसा करते हुए कहते है कि उसको छोड़कर और किसकी हवि द्वारा पूजा करू।,किञ्च प्रशंसां कुर्वता उच्यते यत्‌ तं विहाय अन्यं कं हविषा पूजयामि। जन्तुओं के मोह का कारण क्या है अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥,जन्तूनां मोहस्य कारणं किम्‌ अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ इस प्रकार से पञ्चदशीकार ने कहा है।,इति पञ्चदशीकारः। यहाँ पर यह दृष्टान्त है।,अंसच्छेदे दृष्टान्तः। “समासान्तः” यह अधिकृत सूत्र हैं।,"""समासान्तः"" इत्यधिक्रियते ।" इससिए वेदान्त के श्रवणादि में तदनुकूलविषयों का हमेशा चिन्तन ही यहाँ पर समाधान कहा गया है।,अतः वेदान्तस्य श्रवणादौ तदनुकूलविषयाणां सदा चिन्तनमेव अत्र समाधानम्‌। स्वरूपभूतचैतन्य ब्रह्म में विद्यमान अज्ञान के नाश के लिए अखण्डाकारचित्तवृत्त अपेक्षित होती है।,स्वरूपभूतचैतन्ये ब्रह्मणि विद्यमानस्य अज्ञानस्य नाशाय अखण्डाकारचित्तवृत्तिः अपेक्षते । वहाँ अनुवाक तीन में ' अर्भकेभ्यश्च वो नमः' (क. २६) यहाँ जानुमात्र में परिश्रित स्वाहाकारका विधान करना चाहिए।,तत्रानुवाकत्रयान्ते 'अर्भकेभ्यश्च वो नमः' (क २६) इत्यत्र जानुमात्रे परिश्रिति स्वाहाकारो विधेयः। चित्रश्रवस्‌ - शब्द से तमप्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में चित्रश्रवस्तम: यह रूप बनता हे।,चित्रश्रवस्‌-शब्दात्‌ तमप्प्रत्यये प्रथमैकवचने चित्रश्रवस्तमः इति रूपम्‌। अतः दोनों पूर्वपद और उत्तपद को जैसे पूर्व स्वर था वैसे ही समास होने के बाद भी रहता है।,अतः तयोः पूर्वपदोत्तपदयोः यथा पूर्वं स्वरः आसीत्‌ तथा एव समासात्‌ परम्‌ अपि भवति। जिनमे “त्रिष्टुप्‌'-छन्द की संख्या सबसे अधिक है।,येषु त्रिष्टुप्‌-छन्दसः संख्या सर्वातिशायिनी वर्तते। "“ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्‌ देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्‌”"" इस प्रकार से।","“ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्‌ देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्‌"" इति।" इसलिए दुरितनास के बाद ही यथाविधि वेदान्तों का श्रवण किया जाता है तो तात्पर्य का ग्रहण भी होता है।,अतः दुरितनाशपुरःसरं यथाविधि वेदान्तानां श्रवणं क्रियते चेत्‌ तात्पर्यग्रहः भवेत्‌। देव श्रेष्ठ इन्द्र भी ब्रह्मज्ञान लाभ के लिए सौ वर्ष तक गुरु के घर में जीवन बिताया है।,इन्द्रवद्‌ देवश्रेष्ठोऽपि ब्रह्मज्ञानलाभाय शतानि वत्सराणि गुरुगृहे यापितवान्‌। "किन्तु पासा किसी के वश में नही आता है, उग्रचित क्रूरमन वाले क्रोध मनुष्य के भी वश में ये पास नही होते है।","किञ्च , उग्रस्य चित्‌ क्रूरस्यापि मन्यवे क्रोधाय एते अक्षाः न नमन्ते न प्रह्वीभवन्ति ।" तथा उसमें कहे गये साधनों का अनुष्ठान करता है।,तदुक्तानि साधनानि चानुतिष्ठति। अज्ञान भाव रूप में होता है।,अज्ञानं च भावरूपमस्ति । वह किसी भी प्रमाण का विषय नहीं होता है।,कस्यापि प्रमाणस्य विषयो न भवति। "इन प्रपाठको में काम्य, इष्टि, राजसूय, अग्निचित, आदि का विस्तृत विवरण है।",एतेषु प्रपाठकेषु काम्य-इष्टि-राजसूय-अग्निचितिप्रभृतीनां विस्तृतं विवरणमस्ति। "कृष्णा चासौ चतुर्दशी च इस लौकिक विग्रह में कृष्ण सु चतुर्दशी सु इस अलौकिक विग्रह में “विशेषणं विशेषणं बहुलम्‌'' इससे तत्पुरुष समास होने पर, कृष्णा सु इसका पूर्व निपात होने पर प्रातिपदिकसंज्ञा होने पर सुब्लुकि कृष्णा चतुर्दशी शब्द स्वरूप का एकदेशविकृतन्याय से समासतव की अक्षता से होने पर इसके बाद सु विभक्ति का विभक्ति कार्य होने पर कृष्ण चतुर्दशी रूप बना।","कृष्णा चासौ चतुर्दशी च इति लौकिकविग्रहे कृष्णा सु चतुर्दशी सु इत्यलौकिकविग्रहे ""विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" इत्यनेन तत्पुरुषसमासे, कृष्णा सु इत्यस्य पूर्वनिपाते प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः सुब्लुकि कृष्णा चतुर्दशी इति भवति।" वहन्तु - वह-धातु से लोट्‌-लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में वहन्तु रूप है।,वहन्तु- वह्‌-धातोः लोट्-लकारे प्रथमपुरुष बहुवचने वहन्तु इति रूपम्‌। अतः अभि शब्द का अन्तिम इकार उदात्त है।,अतः अभिशब्दस्य अन्त्यः इकारः उदात्तः अस्ति। 9 अनादिदुर्वासनाओं के विषयों में आकृष्यमाण चित्त को उनके विषयों से हटाकर आत्मविषयक स्थैर्य के अनुकूल जो मानस व्यापार होता है वह निदिध्यासन कहलाता है।,९. निदिध्यासनं नाम अनादिदुर्वासनया विषयेष्वाकृष्यमाणस्य चित्तस्य विषयेभ्योऽपकृष्य आत्मविषयकस्थैर्यानुकूलो मानसव्यापारः। इस प्रकरण में समास स्वर के विषय में जानेगें।,अस्मिन्‌ प्रकरणे समासस्वरविषये ज्ञास्यामः। पाँचवां अर्थ-यज्ञानुष्ठान में यजमान का और ऋत्विजों का आचरण नियम ही व्रत कहलाता है।,पञ्चमोऽर्थः - यज्ञानुष्ठाने यजमानस्य ऋत्विजाम्‌ च आचरणस्य नियमः हि व्रतम्‌ कथ्यते। यहाँ खण्डशब्द खण्डगुणबोधक होकर खण्डनगुणविशिष्ट के अंश का बोधक है।,अत्र खण्डशब्दः खण्डनगुणबोधको भूत्वा ततः खण्डनगुणविशिष्टस्यांशस्य बोधकः। इस पाठ में पर्जन्यसूक्त और मनुमत्स्य कथा पाठ्य रूप से विद्यमान है।,अस्मिन्‌ पाठे पर्जन्यसूक्तम्‌ मनुमत्स्यकथा च पाठ्यत्वेन विद्यते । सरलार्थ - किसी निश्चित स्थान के रहित जल के मध्य में गिरे हुए नामरहित वृत्र के शरीर को जल अतिक्रमण करता है।,सरलार्थः - अतिष्ठतः उपवेशनरहितस्य जलमध्ये पततः नामरहितस्य वृत्रस्य शरीरं जलम्‌ अतिक्रामति। "उसने क्रमशः मनुष्यादि जीवों, भूमि और जीव शरीरों को बनाया।","स क्रमशः मनुष्यादीन्‌ जीवान्‌, भूमिं, जीवशरीराणि च ससर्ज।" उससे उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ प्राप्त होता है।,तेन उगिदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ इति लभ्यते। सूत्र की व्याख्या - पाणिनि के छ: प्रकार के सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - पाणिनीयेषु षड्विधेषु सूत्रेषु विधिसूत्रम्‌ इदम्‌। “प्रत्यय ग्रहणे-तदन्ता ग्राह्याः” इस परिभाषा से इससे षष्ठयन्त सुबन्त प्राप्त होता है।,"""प्रत्ययग्रहणे तदन्ता ग्राह्याः"" इति परिभाषया षष्ठी इत्यनेन षष्ठ्यन्तं सुबन्तमिति लभ्यते।" वैदिक कवि ने उषा के रूप वर्णन से मानव जीवन के प्रेमरूप प्रधान तत्त्व का ही वर्णन किया है।,वैदिककविः उषायाः रूपवर्णनेन मानवजीवनस्य प्रेमरूपं प्रधानं तत्त्वमेव वर्णयति। "इसका सामान्य अर्थ है की यदि पद के आदि में अनुदात्त स्वर रहता है, और उससे पूर्व उदात्त स्वर रहता है, तो उस अनुदात्त और उदात्त के स्थान में जो एकादेश होता है, वह एकादेश विकल्प से स्वरित होता है।","अस्य सामान्यः अर्थः हि यदि पदादौ अनुदात्तस्वरः तिष्ठति, ततःपूर्वं च उदात्तस्वरः तिष्ठति तर्हि तस्य अनुदात्तस्य उदात्तस्य च स्थाने यः एकादेशः भवति स एकादेशः विकल्पेन स्वरितः भवति।" खाये अथवा पिये पदार्थ से शरीर में रससृष्टि का निर्माण अग्निवश से होता है।,भुक्तात्‌ पीताद्‌ वा पदार्थात्‌ शरीरे रससृष्टिः अग्निवशाद्‌ भवति। अतः वेद में स्वर का स्थान सबसे ऊपर है।,अतः वेदे स्वरस्य स्थानं सर्वोपरि वर्तते। वह उष्ण दूध अग्निहोत्रवनी इस नाम से दर्वय अग्नि में आहूत किया जाता है।,तच्च उष्णं दुग्धम्‌ अग्निहोत्रवनी इति नामिकया दर्व्या अग्नौ आहूयते। उसकी ज्वालामदमस्त हाथी के समान भंयकर गर्जना करती है उसकी गर्जना बिजली के समान प्रतीत होती है।,तस्य ज्वालाः गर्जदुर्मय इव रावश्च वज्रानिर्घोष इव प्रतीयते। क्या कर्म करना चाहिए तो कहते है कि नित्य कर्म करना चाहिए।,किं कर्म कर्तव्यम्‌। नित्यं कर्म कर्तव्यम्‌। जीव का वास्तविक रूप ब्रह्म ही होता है।,जीवस्य वास्तविकं रूपं ब्रह्म एव। कृष्णशब्द से भाव में ष्यञ्‌ प्रत्यय होने पर कार्ष्ण्यः शण्ड निष्पन्न होता है।,कृष्णशब्दात्‌ भावे ष्यञि कार्ष्ण्यशब्दो निष्पन्नः। जिसमें श्वास को त्यागा जाता है।,रेचको हि श्वासत्यागः। कीर्तनम्‌ भगवान के गुणों तथा नामों का सङ्कौर्तन तथा गान।,कीर्तनम्‌ - भगवतः गुणानां नाम्नां च सङ्कीर्तनम्‌ अथवा गानम्‌। “* विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌” इस से ही सूत्रकार्य में सिद्ध होने पर इस सूत्र से किसलिए (किमर्थम्‌) प्रश्‍न आता है।,""" विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ "" इत्यनेन एव सूत्रकार्य सिद्धे सूत्रमिदं किमर्थमिति प्रश्नः समायाति ।" तथा आध्यात्मिक भावना ही व्यवाहिरक जीवन में प्रयुक्त होना चाहिए।,आध्यात्मिकभावनाः च व्यवहारजीवने प्रयोक्तव्याः। इस सूत्र से नुडागम होता है।,अनेन सूत्रेण नुडागमो विधीयते । उन आवश्यकता को ही कम शब्दों के द्वारा पूरा करने के लिए कल्प सूत्रों की रचना हुई।,ताम्‌ एव आवश्यकतां स्वल्पैः शब्दैः पूरयितुं कल्पसूत्राणि विरचितानि। कवि उस रस को ही साधकर काव्य की रचना करते हैं।,कविः तम्‌ एव रसं साधयितुं काव्यं रचयति। श्रुति में इस प्रकार से कहा गया है - “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” इति।,श्रूतौ आम्नातं - “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” इति। आदि के तीन अध्याय नैघण्टुक काण्ड इस नाम से जाने जाते हैं।,आदिमाः त्रयः अध्यायाः नैघण्टुककाण्डम्‌ इति अभिधीयते। उससे पञ्चगवशब्द से नपुंसक में सु प्रत्यय का अम्‌ होने पर प्रक्रियाकार्य में पञ्चगवम्‌ रूप निष्पन्न होता है।,तेन पञ्चगवशब्दात्‌ नपुंसके सौ सोरमि प्रक्रियाकार्ये पञ्चगवम्‌ इति रूपं निष्पद्यते । 6 धी इसका क्या अर्थ है?,६. धीः इत्यस्य कोऽर्थः? रिति इस पद के विशेष्य रूप से प्रत्ययः इस पद का आक्षेप किया है।,रिति इति पदस्य विशेष्यरूपेण प्रत्ययः इति पदस्य आक्षेपः कर्तव्यः। "इसलिए आदि में वह रुद्र अनायों का उपास्य था और बाद में आर्यों का वह पूज्य हुआ, इसलिए वह आर्यों का और अनार्यो का उपास्य है ऐसा कुछ पण्डित मानते है।","अतः आदौ सः रुद्रः अनार्याणामुपास्यः आसीत्‌ अनन्तरञ्च आर्यगणैः सः पूजितः, अतः सः आर्यानामनार्याणाम्‌ उपास्यः इति केचन पण्डिताः।" यहाँ पर ब्रह्मज्ञ को जो विदेह मुक्ति वर्णित है वह मुक्ति तो औपचारिक होती है।,अत्र ब्रह्मज्ञस्य या विदेहमुक्तिः वर्णिता सा मुक्तिः तु औपचारिकी अस्ति। ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को भस्म करती है।,ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्‌ कुरुते । निषेध के अनित्यत्व अर्थस्य गौरवम्‌ (अर्थ का गौरवम्‌ )-अर्थगौरवम्‌।,निषेधस्य अनित्यत्वात्‌ अर्थस्य गौरवम्‌ अर्थगौरवम्‌। जिसका यश सबसे विशाल है यह अर्थ है।,सर्वातिरिक्तयशा इत्यर्थः। """अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इस सूत्र का उदाहरण क्या है?","""अच्‌ प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" आरण्यक प्रपाठकों में विभक्त है।,आरण्यकानि प्रपाठकेषु विभज्यन्ते। (मनुसंहिता 10.106) अर्थ- जो ऋषियों के द्वारा धर्मोपदेश से वेदस्मृतादिशास्त्र अविरोधि तक के द्वारा अनुसन्धान करते हैं वह ही धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ सकता है न की अन्य।,"(मनुसंहिता १०.१०६) अस्यार्थः - यः ऋषीणाम्‌ धर्मोपदेशं वेदस्मृत्यादिशास्त्राविरोधिणा तर्केण अनुसन्धत्ते सः एव धर्मस्य यथार्थ स्वरूपं वेत्ति, नान्य इति।" "गुरुवाक्य अर्थात्‌ गुरु के द्वारा उपदिष्ट वाक्य की तथा शास्त्रवाक्य अर्थात्‌ वेदान्त के द्वारा उपदिष्ट वाक्य की श्रद्धा ,सत्यबुद्धयवधारणं अर्थात्‌ सत्यता के द्वारा ग्रहण करना।","गुरुवाक्यस्य गुरुणा उपदिष्टस्य वाक्यस्य, तथा शास्त्रवाक्यस्य वेदान्तवाक्यस्य, सत्यबुद्ध्यवधारणं सत्यतया ग्रहणम्।" स्फोटब्रह्मवादि वैयाकरण पुन बोलना ही जगत के जन्म का कारण है।,स्फोटब्रह्मवादिनो वैयाकरणाः पुनर्वाच एव जगतो जन्म जगदुः। इस प्रकार का मुख्य एक्य ही वेदान्त प्रतिपाद्य होता है।,एतादृशं मुख्यम्‌ ऐक्यम्‌ एव वेदान्तस्य प्रतिपाद्यम्‌। 7 अपवाद वस्तु में भास मान अवस्तु अज्ञानादि का प्रपञ्चमात्र होता है।,७. अपवादः नाम वस्तुनि भासमानस्य अवस्त्वज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम्‌। और एवमादीनामन्तः यह इस सूत्र का पाठान्तर है।,एवमादीनामन्तः इति च सूत्रस्यास्य पाठान्तरम्‌। इस प्रकार से दूसरे प्रकार का लय ही निर्विकल्पककसमाधि का विघ्न होता है उसके त्याग के लिए वेदान्तसार में उसके स्वरूप का आलोचन किया गया है।,द्वितीयविधः लय एव निर्विकल्पकसमाधेः विघ्नो भवतीति तस्य त्यागाय तस्य स्वरूपम्‌ आलोचितं वेदान्तसारे। व्याख्या - इन दोनों का रथ सोने का बना हुआ है।,व्याख्या- अनयोः रथौ हिरण्यनिर्णिक्‌ हिरण्यरूपः। 'लोपस्त आत्मनेपदेषु' से अनुदात्तेत्त्व से ल सार्वधातुक अनुदात्तत्व धातुस्वर।,'लोपस्त आत्मनेपदेषु' अनुदात्तेत्त्वाह्लसार्वधातुकानुदात्तत्वे धातुस्वरः। शक्ति के द्वारा ही देवदत्त पिण्ड स्वरूप का बोध होता है।,शक्त्या एव देवदत्तपिण्डस्वरूपस्य बोधो भवति। अनात्मविषयों के बाद ही आत्मस्वरूप का विवेचन किया गया है।,अनात्मविषयेभ्यः आत्मस्वरूपं विवेचनीयमस्ति। कित तद्धित का अन्त उदात्त किस सूत्र से होता?,कितस्तद्धितस्यान्त उदात्तः केन विहितः? वर्णों के विभेद-स्वरूप-साम्य-वैषम्य आदि का भी वर्णन इस शिक्षा में किया है।,वर्णानां विभेद-स्वरूप-साम्य-वैषम्यादीनाम्‌ अपि वर्णनम्‌ अस्यां शिक्षायां विद्यते। ऐसी जिज्ञासा होने पर शास्त्राकारों द्वार तीन लिङ्गों के लक्षण कहा गया है।,इति जिज्ञासायां शास्त्रकारैः त्रयाणां लिङ्गानां लक्षणं प्रोच्यते। निरुक्त निघण्टु की महत्त्वपूर्ण टीका है।,निरुक्तं निघण्टोः महत्त्वपूर्णा टीका अस्ति। यहाँ स्त्रीप्रत्यय प्रकरण के आदि में ही वर्णित जो आठ प्रत्यय हैं उनमें ङीप्‌ प्रत्यय भी प्रमुख है।,अत्र स्त्रीप्रत्ययप्रकरणस्यादौ एव वर्णितं यद्‌ अष्टौ स्त्रीप्रत्ययाः सन्ति तेषु ङीप्प्रत्ययः अपि प्रमुखः प्रत्ययः अस्ति। प्रमाणिक दृष्टि से अथवा विद्वत्ता की दृष्टि से किसी भी भाष्य से न्यून यह भाष्य नहीं है।,प्रामाणिकदृष्ट्या विद्वत्तादृष्ट्या वा कस्मादपि भाष्याद्‌ हीनतरमिदं भाष्यं नास्ति। "तब दग्ध बीज जैसे फिर अङ्कुर को जन्म देने में समर्थ नहीं होता है , वैसे ही ज्ञानाग्नि के द्वार अज्ञान के भस्म होने से फिर पुरुष बन्धनों में नहीं बन्धता है।",तदा तु दग्धबीजं यथा पुनः अङ्कुरजनने समर्थं न भवति ।तथैव ज्ञानाग्निना भस्मीकृतं कर्मजातं पुनः पुरुषं न बध्नाति। लौकिक में विश्वानि रूप बनता है।,लौकिके तु विश्वानि इति रूपम्‌। उससे “चतुर्थ्यन्तवाच्य को उस तद्वाची और अर्थादि सुबन्तों के द्वारा और सुबन्त को विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है यही अर्थ प्राप्त होता है।,"तस्मात्‌ ""चतुर्थ्यन्तवाच्यं यत्‌ तद्वाचिना अर्थादिसुबन्तैश्च चतुर्थ्यन्तं सुबन्तं विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति इत्यर्थो लभ्यते।" "यहाँ मेधा बुद्धि वाले ऋषियों का सृष्टितत्त्व विषय में बढती हुई जिज्ञासा के रूप में इस देव की उत्पति हुई, ऐसा कहा जाता है।",अत्र प्राज्ञानाम्‌ ऋषीणां सृष्टितत्त्वविषये प्रवर्तमानायाः जिज्ञासायाः अयं देवः आविर्भूतः इति कीर्त्यते। अज्ञानावरण के नाश का क्या कारण है?,७. अज्ञानावरणनाशस्य कारणं किम्‌। यहाँ व्ययीभाव समास का पाठ में टच्‌ प्रत्यय विधायक चार सूत्रों का उल्लेख किया गया है।,अत्र अव्ययीभावसमासस्य पाठे टच्प्रत्ययविधायकानि चत्वारि सूत्राणि उल्लिखितानि। 4. इन्द्रस्य स्वामित्वम्‌ इन्द्रो यतोवसितस्य... इत्यादि मन्त्र के अनुसार से व्याख्या करो।,4. इन्द्रस्य स्वामित्वम्‌ इन्द्रो यतोवसितस्य... इत्यादिमन्त्रानुसारेण व्याख्यात। पञ्चगवधनः रूप को सिद्ध कीजिये ।,पञ्चगवधनः इति रूपं साधयत । इस अध्याय में हम ऋग्वेद संहिता के विषय में जानेंगे।,अस्मिन्‌ अध्याये वयम्‌ ऋग्वेदस्य संहितायाः विषये अवगमिष्यामः। 4 अध्यारोप तथा अपवाद इन दोनों के द्वारा किस प्रकार से तत्वपदार्थ का शोधन होता है?,४. अध्यारोपापवादाभ्यां कथं तत्त्वम्पदार्थशोधनं भवति? यह उपनिषद्‌ शाङखायन आरण्यक का ही अंश है।,एषा उपनिषत्‌ शाङ्खायनारण्यकस्य एव अंशो वर्तते। "वा शब्द और अर्थ में, तिल स्नेहने (धा० ६।७६, १०।७३)।","वाशब्दश्चार्थे, तिल स्नेहने (धा० ६।७६, १०।७३)।" "प्रभात वर्णन प्रसङ्ग में वह कहता है, की कोई मनुष्य कुछ भी चर्म को लेकर जल के अंदर रखते हैं, वैसे ही सूर्योदय होने पर उसकी किरण अन्धकार को छुपा देती है - “दविध्यतो रश्मयः सूर्यस्य चर्मेवावाधुस्तमो अप्स्वन्तः।",प्रभातवर्णनप्रसङ्गे सः कथयति यत्‌ यथा कोऽपि जनः किमपि चर्म नीत्वा जलाभ्यन्तरे स्थापयति तथैव सूर्योदयात्‌ परं तस्य किरणानि अन्धकारं निक्षिपन्ति - 'दविध्यतो रश्मयः सूर्यस्य चर्मेवावाधुस्तमो अप्स्वन्तः।' तपनाः - तप्‌-धातु से ल्युट प्रथमाबहुवचन में।,तपनाः - तप्‌ - धातोः ल्युटि प्रथमाबहुवचने । 7 “यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म” यह बृहदारण्यकोपनिषद्‌ में बताया गया है।,७. “यत्साक्षादपरोक्षादुब्रह्म” इति बृहदारण्यकोपनिषद्गता श्रुतिः। रज्जु सर्प के सिर तथा पूँछ नहीं होती है।,रज्जोः सर्पस्य इव शिरः नास्ति। "उसके बाद शकार की लशक्वतद्धिते सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, तस्यलोपः सूत्र से लोप होने पर भू अ अत्‌ होता है।","ततः शकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण लोपे भू अ अत्‌ इति जायते।" आत्मा वै पुत्र नामासि' (तै. आ. एका. 2। 11) इस प्रकार से पुत्र मैं अहं का सम्बन्ध जन्यजनकसम्बन्धनिमित्त गौण होता है।,"आत्मा वै पुत्र नामासि” (तै. आ. एका. २। ११) इति पुत्रे अहंप्रत्ययः, स तु जन्यजनकसम्बन्धनिमित्तः गौणः।" "अन्यथाख्यातिवादी कौन हैं, अन्यथाख्याति का अन्य नाम क्या है?",अन्यथाख्यातिवादिनः के। अन्यथाख्यातेः अपरं नाम किम्‌। अर्थात्‌ अनेक वीरपुत्रों के साथ यश को प्राप्त होता है।,अर्थात्‌ बहुभिः वीरपुत्रैः सहितं यशः लभते। "यज्ञ में चार ऋत्विज होते हैं - १. होता, २. अध्वर्यु, ३. उद्गाता, ४ ब्रह्मा।","यज्ञे चत्वारो ऋत्विजो भवन्ति -१.होता, २.अध्वर्युः, ३. उद्गाता, ४. ब्रह्मा च।" अनुदात्तम इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,अनुदात्तमिति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। वैसे ही मन मनुष्यों को कार्य में प्रवृत करता है और लेकर जाता है।,तथा मनः प्रवर्तयति नियच्छति च नरान्‌ इत्यर्थः। 12. यस्माज्जातम्‌ ... इस मन्त्र कौ व्याख्या कीजिए।,१२. यस्माज्जातम्‌ ... इति मन्त्रं व्याख्यात। सगुणोपसाना रूपी फल से सगुण ब्रह्म की उपासना से प्राप्त होता है।,सगुणोपासनफलं च एषां मन्दानां सगुणब्रह्मशीलनात्‌ भवति। तथा आधिदैविक यक्ष राक्षस विनायक तथा ग्रहों के कारण होता है।,आधिदैविकं यक्षराक्षसविनायकग्रहावेशनिबन्धनं चेति। इसी प्रकार से तत्‌ तथा त्वं पदार्थो को अन्योन्यभेदव्यावर्तक के द्वारा विशेषण विशेष्य भाव होता है।,एवं तत्त्वम्पदार्थयोः अन्योन्यभेदव्यावर्तकतया विशेषणविशेष्यभावः। "वहाँ ही निघण्टु के व्याख्याता यास्क थे, यह प्रमाण भी उपलब्ध है - “लिपिविष्टेति चाख्यायां हीनरोमा च योऽभवत्‌।","तत्र एव निघण्टोः व्याख्याता यास्कः आसीत्‌, इत्यस्य प्रमाणम्‌ अपि समुपलब्धम्‌ अस्ति- 'लिपिविष्टेति चाख्यायां हीनरोमा च योऽभवत्‌।" और अन्त में पञ्चकोश भी आत्मा होने योग्य नहीं है ऐसा कहकर के यथार्थ आत्मस्वरूप का बोध करवाया जाता है।,अन्ते च एते पञ्चकोशाः अपि आत्मा भवितुं नार्हति इत्युक्त्वा यथार्थम्‌ आत्मस्वरूपं उद्बोधयति। इस पुरुषसूक्त में प्रारम्भ में पुरुष स्वरूप वर्णित है।,अस्मिन्‌ पुरुषसूक्ते आदौ पुरुषस्वरूपं वर्णितम्‌। तीसरा अनुबन्ध सम्बन्ध होता है।,तृतीयः अनुबन्धस्तावद्‌ सम्बन्धः। अविद्या से भेद दर्शन होता है।,अविद्यायाः भेददर्शनम्‌। विवेकानन्द वेदान्त ने कल्पना की भी है।,विवेकानन्ददर्शनस्य अन्यतमः प्रधानः विषयः। “पञ्चमी भयेन'' इस सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।,"""पञ्चमी भयेन"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" आरुः यहाँ पर आकार का ' उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः' इससे अनुदात्त स्वर है।,आरुः इत्यत्र आकारस्य 'उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः' इत्यनेन अनुदात्तस्वरः। बिभर्ति - भृ-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन मे।,बिभर्ति- भृ-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने। उस ज्ञान में घट की सत्ता का ज्ञान होता है।,तस्मिन्‌ ज्ञाने घटस्य सत्ता ज्ञायते। इसके बाद वृत्तिस्वरूप पर्यालोचित है।,ततः वृत्तिस्वरूपं पर्यालोचितम्‌। वहाँ प्रकृति चेतन प्राणि के समान अनेक कार्यो को पूर्ण करती है।,तत्र प्रकृतिः चैतन्यप्राणिनाम्‌ इव नानाविधकर्मणां सम्पादनं करोति। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में दिवे दिवे यहाँ पर दो बार दिवे-शब्द का प्रयोग है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे दिवे दिवे इत्यत्र वारद्वयं दिवे-शब्दः प्रयुक्तः अस्ति। इसलिए कहते हैं - वेद के क्रियार्थ होने से अनर्थक मत का अर्थ हो सकता है।,अत एव उच्यते- 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्‌ आनर्थक्यमतदर्थानाम्‌।' षडह याग छह दिनों में निष्पन्न होने वाला याग है।,षडहयागः षड्षु दिवसेषु क्रियमाणः यागः। "37. ""अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थ द्वितीयया"" इस वार्तिक से “मालामतिक्रान्तः'' इस लौकिक विग्रह में समास होने पर अतिमालः रूप निष्पन्न होता है।","३७. ""अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थ द्वितीयया"" इत्यनेन वार्तिकेन मालामतिक्रान्तः इति लौकिकविग्रहे समासे अतिमालः इति रूपं निष्पद्यते।" यह विचार का मार्ग है।,अयं विचारस्य मार्गः। "जिनमें अग्निचित, अध्वरविधि, सौत्रामणी, अश्वमेध आदि का विस्तृत वर्णन है।",येषु अग्निचिति-अध्वरविधि-सौत्रामणी-अश्वमेधादीनां विस्तृतं वर्णनमस्ति। इन सभी को प्रत्यगधिष्ठानता तथा साक्षिता के कारण अन्तर आत्म कहते हैं।,एतेषां सर्वेषां प्रत्यगधिष्ठानतया साक्षितया च आन्तरः आत्मा इति कथ्यते। दसवें प्रपाठक को भी महानारायणीय उपनिषद्‌ कहलाता है।,दशमप्रपाठकोऽपि महानारायणीयोपनिषदिति कथ्यते। ङीप्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,ङीप्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। इस प्रकार इस सर्वहुत यज्ञ से ऋगादिवेद मन्त्र और गायत्र्यादि छन्द उत्पन्न हुए।,एवं सर्वहुतः यज्ञात्‌ ऋगादिवेदान्तर्भूतमन्त्राः गायत्र्यादिछन्दांसि च अजायन्त। अन्यथा महाविनाश होना ही निश्चित है।,अन्यथा महती विनष्टिः स्यादेव। """ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे"" इस सूत्र का उदाहरण है?","""ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" साधारण धर्म: यही अर्थ है।,साधारणो धर्मः इत्यर्थः । फिर जिसका भेद व्यावर्त्य है वह विशेष्य कहलाता है।,पुनः यस्य भेदः व्यावृत्तः तत्‌ विशेष्यम्‌। सूत्र का अवतरण- सुप्‌ प्रत्ययों की और पित्‌ प्रत्ययों के स्वर को अनुदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- सुप्प्रत्ययानां पित्प्रत्ययानां च स्वराणाम्‌ अनुदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। अर्थ अनित्य है यह प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात होता है।,अर्थः अनित्यः इति प्रत्यक्षेण ज्ञायते। इसलिए ब्रह्म चित्तवृत्ति ही विषय होते होते है।,अतो ब्रह्म चित्तवृत्तेरेव विषयो भवति। लोप-आगम-विकार-प्रकृतिभाव आख्यानों के चार प्रकार सन्धियों का भी यहाँ विवेचन किया है।,लोप-आगम-विकार-प्रकृतिभावाख्यानां चतुर्विधसन्धीनां विवेचनम्‌ अपि अत्र वर्तते। विश्वा - विश्वशब्द का नपुंसकलिङ्ग में द्वितीयाबहुवचन में विश्वा रूप।,विश्वा- विश्वशब्दस्य नपुंसकलिङ्गे द्वितीयाबहुवचने विश्वा इति रूपम्‌। उसी आनन्द को ब्रह्मानन्द मानने वाले योगी कभी भी ब्रह्म स्वरूप का लाभ ग्रहण नहीं कर पाते है।,तमेव आनन्दं ब्रह्मानन्दं मन्वानस्य योगिनः कदापि ब्रह्मस्वरूपलाभः न सम्भवति। अन्वय - पृथिवि ते गिरयः हिमवन्तः पर्वताः ते अरण्यं स्योनम्‌ अस्तु।,अन्वयः- पृथिवि ते गिरयः हिमवन्तः पर्वताः ते अरण्यं स्योनम्‌ अस्तु। उसके बाद उसने कहा की -जिस दिन जल प्रलय होगा तब नौका का निर्माण करके प्रतीक्षा करोगे।,ततः स उक्तवान्‌ - यस्मिन्‌ वत्सरे प्लावनम्‌ आगमिष्यति तदा नौकां निर्मीय प्रतीक्षां करिष्यसि। इसलिए निष्काम कर्म योग के द्वारा व्यक्ति बन्धते नहीं हैं।,तस्मात्‌ निष्कामकर्मणा न जनः बध्यते। “पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्य समानाधिकरणेन '' सूत्रार्थ-पूरण आदि अर्थों से और सदादि से षष्ठयन्त सुबन्त को समास संज्ञा नहीं होती है सूत्र व्याख्या-छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन॥ (२.२.११) सूत्रार्थः - पूरणाद्यर्थेः सदादिभिश्च षष्ठ्यन्तं सुबन्तं समाससंज्ञं न भवति। (समासो न भवति।) सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। और सूत्रार्थ होता है-पूजनार्थ से पर जो प्रातिपदिक है उस तदन्त समासान्त का नहीं होता है।,एवं सूत्रार्थो भवति - पूजनार्थात्‌ परं यत्‌ प्रातिपदिकं तदन्तात्‌ समासात्‌ समासान्ताः न भवन्ति इति। अम्बष्ठ नामक जन की पुत्री यही उसका अर्थ है।,अम्बष्ठनामकस्य जनस्य पुत्री इति तदर्थः। इन्द्र का असुर वध ऐतिहासिक वृत्तान्त और प्राकृतिक विघ्न चिह्न इन विषयों में विह्वत्सभा में नाना मत है।,इन्द्रस्य असुरवधः ऐतिहासिकवृत्तान्तः उत प्राकृतिकविघ्नचिह्नं इति विषये विद्वत्सभायां नानामतानि विराजन्ते। इसी प्रकार अन्य जगह भी प्रकृत सूत्र से घृतादि शब्दों के अन्त्य स्वर को उदात्त किया है।,एवम्‌ अन्यत्रापि प्रकृतसूत्रेण घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वं विधीयते। अनिमित्त होने पर विहित नित्य कर्म होते है।,अनिमित्ते सति विहितं नित्यं कर्म भवति। इसी ही तत्त्व का वर्णन स्मृति ग्रन्थों में पर्याप्त प्राप्त होता है।,अस्यैव तत्त्वस्य वर्णनं स्मृतिग्रन्थेषु पर्याप्तम्‌ प्राप्यते। वृणक्तु यहाँ वृजी वर्जने इस धातु से रुधादि होने से श्नम्‌।,वृणक्तु इति वृजी वर्जने इतिधातोः रुधादित्वात्‌ श्नम्‌। उस दर्शन के बहुत से सम्प्रदाय तथा बहुत सी व्याख्याएँ वेदान्तदर्शन वस्तुतः साक्षात्‌ उपनिषदों का आश्रय लेकर के स्वयं दर्शन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है।,"तस्य च दर्शनस्य बहवः सम्प्रदायाः, बहूनि च व्याख्यानानि। वेदान्तदर्शनं वस्तुतः साक्षात्‌ उपनिषदः आश्रित्य स्वीयं दर्शनसिद्धान्तं प्रस्तौति।" “द्वितीयादि तत्पुरुष समास” अव्ययीभाव समास से पर तत्पुरुष उपस्थित होता है।,"""द्वितीयादितत्पुरुषसमासः"" अव्ययीभावसमासात्परं तत्पुरुषः उपस्थाप्यते।" यहाँ अव्ययीभाव ऐसा पदच्छेद है।,अत्र अव्ययीभावः च इति पदच्छेदः। इसके बाद विग्रह स्वरूप प्रतिपादित किया गया है “'वृत्यर्थावबोधक वाक्य विग्रहः''।,"ततः विग्रहस्य स्वरूपं प्रतिपादितं ""वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः"" इति।" सूत्र अर्थ का समन्वय- युष्मद्‌ शब्द से और अस्मद्‌ शब्द से ङस्‌-प्रत्यय करने पर ' युष्मदस्मद्भ्यां ङशोऽश्‌' इससे ङश्‌ को अश्‌ आदेश होने पर 'तवममौ ङसि' इससे युष्मद्‌ के म पर्यन्त को तव आदेश और अस्मद्‌ के मपर्यन्त भाग को मम आदेश करने पर प्रक्रिया कार्य में “तव मम' ये दो रूप सिद्ध होते है।,"सूत्रार्थसमन्वयः- युष्मत्‌-शब्दात्‌ अस्मत्‌- शब्दाच्च ङस्‌-प्रत्यये 'यष्मदस्मद्भ्यां ङशोऽश्‌' इत्यनेन ङशः अशादेशे 'तवममौ ङसि' इत्यनेन युष्मदः मपर्यन्तस्य तव इत्यादेशे अस्मदः मपर्यन्तस्य च मम इत्यादेशे प्रक्रियाकार्य ""तव मम' इति रूपद्वयं सिध्यति।" "उसका स्पष्ट कथन है, की ये सम्पूर्ण आख्यान असत्य है।",तस्य स्पष्टकथनमस्ति यत्‌ समस्तम्‌ आख्यानमिदम्‌ असत्यमस्ति। अन्नमयादि अनात्मों से मैं अन्य नहीं हूँ इस प्रकार का अभिमान करता है।,अन्नमयाद्यनात्मभ्यः नान्योऽहमस्मीति अभिमन्यते। "न यह अव्ययपद है, अनुदात्तम्‌ इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।","न इति अव्ययपदम्‌, अनुदात्तम्‌ इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।" 1.महता महानपुण्यपण्येन इत्यादि श्लोक को लिखकर के उसके सरलार्थ को लिखिए।,१. महता पुण्यपण्येन इत्यादिश्लोकम्‌ उद्धृत्य सरलार्थ लिखत। और अप्राप्त की प्राप्ति ही पुरुषार्थ होती है।,अपि च अप्राप्तस्य प्राप्तिः एव पुरुषार्थः। पूर्वोक्त अङ्गों का आचरण करने पर भी विघ्नवश निर्विकल्पकक समाधि सम्भव नहीं होती है।,पूर्वोक्तेषु अङ्गेषु आचरितेष्वपि विघ्नवशात्‌ न हि निर्विकल्पकसमाधिः सम्भवति। भले ही वहाँ निवास दीर्घकाल पर्यन्त तक होता है फिर भी वह लोक नित्य नहीं है।,यद्यपि तत्र निवासो दीर्घकालपर्यन्तं भवति तथापि स लोको न नित्यः। उस प्रकार की माया के द्वारा आधार होने से सङ्ग का भी ब्रह्म ने सभी की उत्पति की है।,तादृश्या मायया आधारत्वेनासङ्गस्यापि ब्रह्मण उक्तस्य सर्वस्योपपत्तिः॥ निदिध्यासन के अभाव में समाधि नहीं होती है।,निदिध्यासनाभावे समाधिर्नास्ति। अग्नि हि ऐसा देव है जो जन्म से आरम्भ करको मृत्युपर्यन्त मनुष्य के साथ ही रहता है।,अग्निः हि एवं देवः यः जन्मनः आरभ्य मृत्युपर्यन्तं जनेन सहैव तिष्ठति। इस प्रकार मन का निवासस्थान प्राणियों का हृदय प्रदेश होता है।,एवम्भूतस्य मनसः निवासस्थानं भवति प्राणिनां हृत्प्रदेशः इति। बैल के रूपक से।,वृषभरूपकत्वेन। स्वपादिहिंसामच्यनिटि इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,स्वपादिहिंसामच्यनिटि इति सूत्रं व्याख्यात। सम्भृतम्‌ - सम्पूर्वक भृ धातु क्तप्रत्यय।,सम्भृतम्‌- सम्पूर्वकात्‌ भृधातोः क्तप्रत्यये। और इसका अजः आदिः येषां ते अजादयः यह विग्रह है।,अस्य च अजः आदिः येषां ते अजादयः इति विग्रहः। इस प्रकार से समाधि तथा सुषुप्ति में भेद होता है।,इति समाधिसुषुप्त्योर्भेदः। "जाग्रत काल में कोई रोगी कहता हे की वैद्य मेरे पैर मे वेदना है, उसके बिना कहे जाना नहीं जा सकता है।",जाग्रत्काले रुग्णः कश्चन कथयति वैद्यम्‌- भो वैद्य मम पादे वेदनास्तीति तच्च विना कथनेन अवगन्तुं न शक्यते। सूत्र अर्थ का समन्वय- चज्चा-शब्द का अर्थ घास से निर्मित पुरुष के लिए है।,सूत्रार्थसमन्वय- चञ्चा-शब्दस्य तृणनिर्मितपुरुषः इत्यर्थः। और जो मन सुप्तावस्था में भी उसी प्रकार वापस आता है जिस प्रकार वह गया था।,यच्च मनः सुप्तस्य पुंसः तथैव इति यथा गतं तथैव पुनरागच्छति स्वापकाले सुषुप्त्यवस्थायां पुनरागच्छति। यहाँ तद्धितेषु अचाम्‌ आदे: पदच्छेद है।,अत्र तद्धितेषु अचाम्‌ आदेः इति पदच्छेदः । अविद्यापूर्वक सभी के कर्म असिद्ध होते हैं तो ब्रह्महत्यादि के समान ऐसा भी नहीं है।,अविद्यापूर्वकत्वं सर्वस्य कर्मणः असिद्धमिति चेन्न; ब्रह्महत्यादिवत्‌। "यत्‌ = जब, यज्ञं = मानसयाग का, तन्वानाः = विस्तार किया, देवाः = पुरन्दर आदि, पुरुषं = विराट्पुरुष को, पशुम्‌ = पशुरूप में, अबध्नन्‌ = बांधा, भावितवन्त इत्याशयः।","यत्‌= यदा, यज्ञं= मानसक्रतुं, तन्वानाः= विस्तारयन्तः, देवाः= पुरन्दरप्रभृतयः, पुरुषं= विराट्पुरुषमेव, पशुम्‌= पशुत्वेन, अबध्नन्‌= बद्धवन्तः, भावितवन्त इत्याशयः।" विज्ञानमय कोश के जैसा उदय या अस्त होने वाला यह आत्मा नहीं होता है। इसलिए आत्मा विज्ञानमयकोश नहीं है।,विज्ञानमयवत्‌ उदयः अस्तमयो वा आत्मनः नास्ति। अतः नात्मा विज्ञानमयः। "ग्रन्थ के अर्थ में ब्राह्मण शब्द का प्रयोग वेदाध्ययन ३४५ (पुतक१?) 44८५४ ( पुस्तक -१ ) पाणिनीय व्याकरण में (सू.३/४/३६) , निरुक्त में (४/२७), ब्राह्मण में (शतप.४/६/९/२०) , और ऐतरेय ब्राह्मण में (६/२५/८/२) केवल प्राप्त नहीं होता अपितु ब्राह्मण विषय में तैत्तरीय संहिता में कहा है - एतद्‌ ब्राह्मणान्येव पञ्च हवींषि (तै. सं. ३/७/१/१)।","ग्रन्थार्थ ब्राह्मणशब्दस्य प्रयोगः पाणिनीयव्याकरणे (सू..३/४/३६), निरुक्ते(४/२७), ब्राह्मणे (शतप.४/६/९/२०), ऐतरेयब्राह्मणे (६/२५/८/२) च न केवलं समुपलब्धो भवति, अपि तु ब्राह्मणविषये तैत्तिरीयसंहितायाम्‌ उक्तम्‌ अस्ति- एतद्‌ ब्राह्मणान्येव पञ्च हवींषि (तै. सं. ३/७/१/१)।" किन्तु सभी ब्राह्मण ग्रन्थ गद्यात्मक ही होते हैं।,किन्तु ब्राह्मणग्रन्थाः सर्वे गद्यात्मका एव भवन्ति। प्रथमानिर्दिष्टम पर प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पद है।,प्रथमानिर्दिष्टमिति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। "इस ज्योतिष शास्त्र के तीन वर्त्म है, जिससे इस शास्त्र को त्रिस्कन्ध कहते है।","एतस्य ज्यौतिषशास्त्रस्य त्रीणि वर्त्मानि, तस्मात्‌ इदं शास्त्रं त्रिस्कन्धम्‌ इत्युच्यते।" और आदि: इस प्रथमान्त पद की पूर्व सूत्र से अनुवृति आती है।,आदिः इति प्रथमान्तं पदं च पूर्वसूत्रात्‌ अनुवर्तते। इस बन्धन से बचना ही मोक्ष कहलाता है।,अस्मादेव बन्धनात्‌ त्राणं मोक्षः भवति। "अथ और भी इस रुद्र के जो ये सामर्थ्यवान, शक्तिशाली सेवक उनके लिए भी मैं नमस्कार करता हूँ।",अथो अपिच अस्य रुद्रस्य ये सत्वानः प्राणिनो भृत्यास्तेभ्योऽहं नमो नमस्कारमकरं करोमि। पाणिनीय शिक्षा में कितने श्लोक है?,पाणिनीयशिक्षायां कति श्लोकाः सन्ति। सूत्र में बहुलग्रहण किया गया है।,सूत्रे बहुलग्रहणं कृतम्‌। "पदपाठः- नमः ते आयुधाय अनातताय धृष्णवे उभाभ्याम्‌ उत ते नमः बाहुभ्यामितिबाहऽभ्याम्‌ तव धन्वने। अन्वय का अर्थ - ते - आपका, अनातताय - अपने आशय से गुप्त संकोच में रखने, धृष्णवे -प्रगल्भता को प्राप्त होने वाले, आयुधाय नमः -आयुध को उद्देश्य करके नमस्ते करते हैं, उत - अथवा, ते - आपके, उभाभ्याम्‌ बाहुभ्यां - दोनों हाथों को, नमः - स्तुति करता हूँ, तव धन्वने और आपके धनुष को भी नमस्कार करता हँ।","पदपाठः- नमः ते आयुधाय अनातताय धृष्णवे उभाभ्याम्‌ उत ते नमः बाहुभ्यामितिबाहऽभ्याम्‌ तव धन्वने। अन्वयार्थः- ते - तव, अनातताय - अनारोपिताय, धृष्णवे - विष्णवे, आयुधाय नमः - आयुधस्य उद्देश्ये नौमि, उत - अथवा, ते - तव, उभाभ्याम्‌ बाहुभ्यां - हस्ताभ्यां, नमः - स्तौमि, तव धन्वने धनुषे च।" "अध्वर्यु विधिवत यज्ञ को पूर्ण करता है, वहाँ आवश्यक मन्त्र यजूंषी कहलाते हैं, उस का संग्रह यजुर्वेद, उद्गाता तो उच्च स्वर से गान करने वाला है, वह ही स्वर बद्ध मन्त्रों को उच्च स्वर से गाता है, उसके अपेक्षित मन्त्रों का सङ्ग्रह सामवेद है।","अध्वर्युर्विधिवद्यज्ञं सम्पादयति, तत्रावश्यकमन्त्रा यजूंषी, तत्संग्रहः यजुर्वेदः,उद्गाता तु उच्चस्वरेण गानकर्त्ता, स हि स्वरबद्धान्‌ मन्त्रान्‌ उच्चैर्गायति, तदपेक्षितमन्त्राणां सङ्ग्रहः सामवेदः।" अतः पूर्वतन और नूतन यह अर्थ प्राप्त होता है॥,अतः पूर्वतनैः नूतनैः च इत्यर्थो लभ्यते। घोडे किस बल से उषादेवी को ले जाते है?,अश्वाः कस्य बलेन उषादेवीं वहन्तु? उच्चतरमाध्यमिक स्तर पर भारतीय दर्शन का पाठ्य रूप से योजना के कुछ उद्देश्य यहां नीचे दिए जाते हैं।,उच्चमाध्यमिकस्तरे भारतीयदर्शनस्य पाठ्यत्वेन योजनस्य कानिचन उद्देशानि अत्राधो दीयन्ते। अब केन उपनिषद्‌ तथा छान्दोग्य उपनिषद्‌ को संक्षेप से जानेंगे।,अधुना केनोपनिषदं तथा छान्दोग्योपनिषदं संक्षेपेण अवगच्छामः। तिल्विलम्‌ क्या है?,किं तिल्विलम्‌। शृडि्गणः - शृङ्गशब्द से इनप्रत्यय करने पर शृङिगन्‌ यह हुआ उसका षष्ठी एकवचन में शृङडिगणः यह रूप बना।,शृङ्गिणः - शृङ्गशब्दात्‌ इनिप्रत्यये शृङ्गिन्‌ इति जाते षष्ठ्येकवचने शृङ्गिणः इति रूपम्‌। 35. निर्वकल्पक समाधि को विघ्न कौन-कौन से हैं?,३५. निर्विकल्पकसमाधेः विघ्नाः के? उसका द्वितीया एकवचन में तुविबाधम् रूप है।,तस्य द्वितीयैकवचने तुविबाधम्‌ इति रूपम्। यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन॑ शिवसंकल्पमस्तु॥३॥,यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मन शिवसंकल्पमस्तृ ॥ ३ ॥ इसलिए कौन-सी वस्तु प्रत्यक्ष होती है कौन-सी नहीं होती है।,"अतः किं वस्तु प्रत्यक्षं भवति, किं न भवति।" सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ।,हिरण्यगर्भः प्रथमः उत्पन्नः। "पाँच राजाओं का समाहार इस विग्रह में पञ्चराजन्‌ यहाँ तत्पुरुषसमासान्त का ""राजाहःसखिभ्यष्टच्‌"" ' इससे टच की प्रवृत्ति होती है।","तेन पञ्चानां राजानां समाहारः इति विग्रहे पञ्चराजन्‌ इत्यत्र तत्पुरुषसमासान्तस्य ""राजाहःसखिभ्यष्टच्‌"" इति टचः प्रवृत्तिर्थवति।" यह इवेन तृतीया एकवचान्त पद है।,अत्र इवेनेति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। व्याख्या - मैं राष्ट्र की स्वामी हूँ।,व्याख्या- अहं राष्ट्री। जीवित रहते हुए पुरुष के कर्तृत्व भोक्तृत्व तथा सुखदुःखादि लक्षण जो चित्त के धर्म होते हैं वह क्लेश रूपत्व से बन्ध होता है।,जीवतः पुरुषस्य कर्तृत्व-भोक्तृत्व-सुखदुःखादिलक्षणः अखिलः यः चित्तधर्मः सः क्लेशरूपत्वात्‌ बन्धो भवति। “सप्तमी शौण्डैः” सूत्र की व्याख्या करो?,"""सप्तमी शौण्डैः"" इति सूत्रं व्याख्यात।" वैदिक ऋषि उच्च विचारों को सोचने में समर्थ थे।,वैदिकर्षयः उच्चविचारान्‌ कर्तुं समर्थः आसीत्‌। पदार्थानतिवृत्तिरूप में यथा अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण है।,पदार्थानतिवृत्तिरूपे यथार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति। शिक्षा शास्त्र के यथार्थ ज्ञान लाभ के लिए यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है।,शिक्षाशास्त्रस्य यथार्थज्ञानलाभाय ग्रन्थोऽयम्‌ अतीव उपादेयः अस्ति। वह तो तीनों कालों में नित्य रहती है।,स हि नित्यः त्रिषु कालेषु । भास्कर उसके आधार करने पर ही निकलता है और प्रकाश देता है।,भास्करः अमूमेव आधारीकृत्य उदेति भासयति च। पदोद्देश्यक विधित्व वृत्ति का नाम है।,पदोद्देश्यकविधित्वं वृत्तीनामस्ति। अहंकारोपासना तथा प्रतिकोपासना।,अहङ्कारोपासनम्‌ प्रतीकोपासनं चेति। विवेकानन्द के द्वार प्रचारित वेदान्त का क्या अभिधान है।,विवेकानन्देन प्रचारितस्य वेदान्तस्य किम्‌ अभिधानम्‌? "यह वाक्य जब दूर से किसी को सम्बोधन करने में प्रयोग करते हैं, तब प्रकृत सूत्र यहाँ उदात्त अनुदात्त आदि स्वर गत भेद को दूर करने से तथा एक का ही उदात्त स्वर का विधान करने से आगच्छ भो माणवक देवदत्त यहाँ एकश्रुति में उदात्त स्वर का ही समावेश होता है।","वाक्यमेतद्‌ यदा दूरात्‌ कस्यापि सम्बोधने व्यवह्नियते, तदा प्रकृतसूत्रेण अत्र उदात्तानुदात्तादिस्वरगतभेदस्य अपसारणेन तथा एकस्य एव उदात्तस्वरस्य विधानेन, आगच्छ भो माणवक देवदत्त३ इति एकश्रुत्या अत्र उदात्तस्वरस्यैव समावेशः भवति।" मानुषेभिः - मानुषैः इसका यह वैदिकरूप है।,मानुषेभिः- मानुषैः इत्यस्य वैदिकं रूपमिदम्‌। प्रलय में तो आकाश का भी नाश होता है।,प्रलये तु आकाशस्यापि नाशो भवति। इस अर्थ में प्रवृत्त अङ्ग को कल्प इस प्रकार कहते हैं।,अस्मिन्‌ अर्थ प्रवृत्तम्‌ अङ्गं कल्पः इति कथ्यते। यहाँ द्वितीयादि सप्तमी तत्पुरुष सामान्य हैं।,तत्र सामान्या भवन्ति द्वितीयादिसप्तमीतत्पुरुषाः। पतन्ती पचन्ती-पच्‌ धातु वर्तमानेलट्‌ सूत्र से लट्‌ प्रत्यय होने पर पच्‌ लट्‌ होता है।,पचन्ती। पच्‌ इति धातोः वर्तमाने लट्‌ इति सूत्रेण लट्प्रत्यये सति पच्‌ लट्‌ इति जायते। शिक्षा शास्त्र के कुछ ग्रन्थों का निर्देश कीजिए।,शिक्षाशास्त्रस्य कांश्चन ग्रन्थान्‌ निर्दिशत। मन का सत्व होने पर देहादि में अभिमानरूप बन्धन होता है।,मनसः सत्त्वे एव देहादौ अभिमानरूपः बन्धः भवति। सरलार्थ - पर्वत में रहने योग्य आश्रित मेघों को इन्द्र ने मारा।,सरलार्थः- पर्वते आश्रितान्‌ मेघान्‌ इन्द्रः हतवान्‌। श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के बाद भी विवेकानन्द उनसे मार्ग दर्शन लेते रहे थे।,श्रीरामकृष्णस्य देहत्यागाद्‌ अनन्तरम्‌ अपि विवेकानन्दः तस्मात्‌ मार्गनिदेशं लभते। सुख को देने वाले।,सुखयिता । २४। सात्यमुग्रि मनुष्यों के द्वारा।,२४।सात्यमुग्रिजनाः। और वह नाना वर्ण से युक्त परिधान धारण करती है।,सा च नानावर्णयुतम्‌ उष्णीषं परिधत्ते स्म। 18.3 ) अनात्मों में आत्मा के समान बुद्धि अन्नमयादि कोश होते हैं।,१८.३) अनात्मसु आत्मत्वबुद्धिः अन्नमयादयः कोशाः भवन्ति| "चौथे अध्याय का दसवें अनुवाक में प्रसिद्ध तवलकार, अथवा केनोपनिषद्‌ है।",चतुर्थाध्यायस्य दशमानुवाके प्रसिद्धः तवलकारः किंवा केनोपनिषदस्ति। एवं ह्रस्व अकारान्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर टाप्‌ प्रत्यय परे होता है।,एवं ह्रस्वाकारान्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये टाप्‌ प्रत्ययः परः भवति। कृष्ण यजुर्वेद के नाम करण में हेतु कौन है?,कृष्णयजुर्वेदस्य तथा नामकरणे हेतुः कः? इन नित्यनैमित्तिकप्राश्चित्तों का बुद्धिशुद्धि रूपी परम अर्थात्‌ आवश्यक प्रयोजन होता है।,एतेषां नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानां बुद्धिशुद्धिः परम्‌ अर्थात्‌ आवश्यकं प्रयोजनम्‌। सभी प्राणियों का यह एक अनुभव होता है कि सुषुप्ति में कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता है।,सर्वेषां प्राणिनाम्‌ अयमेक एवानुभव अस्ति सुषुप्तौ 'न किञ्चदवेदिषम्‌' इति। जगत सृष्टि की इच्छा से परमात्मा प्रपञ्च की उत्पत्ति से पहले हिरण्यगर्भ रूप में उत्पन्न हुआ।,जगत्सृष्टं कामयमानः परमात्मा प्रपञ्चोत्पत्तेः प्राक्‌ हिरण्यगर्भरूपेण समजायत। जिस तत्पुरुष में समस्यमान पदों की समान विभक्तियाँ होती हैं वह समानाधिकरण तत्पुरुष है।,यस्मिन्‌ तत्पुरुषे समस्यमानपदानि समानविभक्तिकानि भवन्ति स समानाधिकरणः तत्पुरुषः। "अन्यथा भी सामान्यतः कर्मधारय, द्विगु, नञ् आदि चार भेद कह सकते हैं।","अन्यथा अपि सामान्यः, कर्मधारयः, द्विगुः, नञ्प्रभृतयश्चेति चत्वारो भेदा इति वक्तुं शक्यन्ते।" उस अम्‌-प्रत्यय के करने पर ' अनुदात्तौ सुप्पिता' इससे अनुदात्त स्वर है।,ततः विहितस्य अम्-प्रत्ययस्य अनुदात्तौ सुप्पितौ इत्यनेन अनुदात्तस्वरः। यहाँ पर यह जानना चाहिए की विचार चिदाभास चैतन्यस्वरूप ब्रह्म प्रकाश करने में समर्थ नहीं है।,अत्र ज्ञातव्यं यत्‌ चिदाभासः चैतन्यस्वरूपं ब्रह्म प्रकाशयितुं न शक्नोति। सूत्र का अवतरण- अवस्था अर्थ में ज्येष्ठ कनिष्ठ शब्दों के अन्त्य स्वर को उदात्त करने के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य द्वारा की गई है।,सूत्रावतरणम्‌- वयसि अर्थे ज्येष्ठकनिष्ठयोः शब्दयोः अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वविधानार्थ सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण। अब मूलपाठ पढ़ते है ( पुरुषसूक्तम्‌ ) सहस्र॑शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌।,इदानीं मूलपाठं पठाम (पुरुषसूक्तम्‌) सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌। "अद्वैत वेदान्त के मत में अज्ञानोपाहित चैतन्य से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल पृथ्वी उत्पन्न होती है।","अद्वैतवेदान्तमते अज्ञानोपहितात्‌ चैतन्यात्‌ आकाशस्य, ततः वायोः, ततः अग्नेः, ततः आपः, ततश्च पृथिव्याः समुत्पत्तिरभूत्‌।" इसलिए आचार्य शंकर ने कहा है- पुण्यातिशयात्‌ परमकारुणिकं कजिचित्‌ सदब्रह्मात्मविदं विमुक्तबन्धनं ब्रह्मिष्ठं यदा आसादयति।,तथाहि आचार्यः शंकर आह- पुण्यातिशयात्‌ परमकारुणिकं कञ्चित्‌ सद्ब्रह्मात्मविदं विमुक्तबन्धनं ब्रह्मिष्ठं यदा आसादयति। विभक्ति के अन्तर को समास होता है जैसे: पादसारक छिपते इति हारकः बहुलक से कर्म से ण्वुल्‌ प्रत्यय है।,विभक्त्यन्तरमपि समस्यते इत्यस्योदाहरणं यथा पादहारकः इत्यादि बाहुलकात्‌ कर्मणि ण्वुल्‌। 28. आसन की सिद्धि होने पर क्या होता है?,२८. आसनसिद्धो सति योगिनः किं भवति? अन्य देवों का इन्ही दोनों में अन्तर्भाव हो जाता है।,अन्येषां देवानां च अनयोरेव अन्तर्भावः। महान गतिशील विष्णु का एकमधुसरोवर है।,महतः गतिशीलस्य विष्णोः एकः मधुसरोवरः अस्ति। सच्‌-धातु से आत्मनेपद लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,सच्‌-धातोः आत्मनेपदे लोटि मध्यमपुरुषैकवचने। 81. “नस्तद्धिते” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"८१. ""नस्तद्धिते"" इत्यस्य सूत्रस्य कः अर्थः?" "प्रातिपदिक से विहित स्वरों के विषय में सूत्र है, जैसे - “कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः, उञ्छादीनाञ्‌च इत्यादि सूत्र है।","प्रातिपदिकात्‌ विहितस्वराणां विषये सूत्राणि भवन्ति, यथा- ""कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः"", उञ्छादीनाञ्च इत्यादीनि सूत्राणि।" प्रियं श्रद्धे ददतः ... इत्यादिमन्त्र को पूर्ण करके व्याख्या करो।,प्रियं श्रद्धे ददतः... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात। इसको जानने के लिए ही शिक्षा का प्रयोजन है।,अस्य अवबोधनम्‌ एव शिक्षायाः प्रयोजनम्‌। अधिहरि-विभक्त्यर्थक वाचक अव्यय का सुबन्त के समर्थ से सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,अधिहरि - विभक्त्यर्थवाचकम्‌ अव्ययं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति| सूत्र की व्याख्या- संज्ञा- परिभाषा- विधि- नियम अतिदेश अधिकार छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधिसूत्र है।,सूत्रव्याख्या- संज्ञा- परिभाषा- विधि- नियमातिदेशाधिकारात्मकेषु षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। भारतीय शास्त्रों में भी यम के महाफलों की प्रशंसा की गई है।,भारतीयशास्त्रान्तरेष्वपि अहिंसा महाफलत्वेन प्रशंसिता। उपनिषदों में भी अनेक अलङरऱकारों के दृष्टान्त प्राप्त होते है।,उपनिषत्सु अपि अनेकेषाम्‌ अलङ्काराणां दृष्टान्ताः लभ्यन्ते। अर्थात्‌ वैसा विश्वासजो विश्वासी मनुष्य को विश्वास के अनुसार ही कार्य करने की प्रेरणा करता है।,अर्थात्‌ तथा विश्वासः यः विश्वासिनं जनं विश्वासानुगुणं कार्ये प्रेरयति। छः प्रकार के लिंगों की आलोचना करें अथवा ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करें।,षड्विधानि लिङ्गानि आलोचयत। अथवा ब्रह्मणः स्वरूपं वर्णयत। किन्तु सूत्र का वैकल्पिक होने से पक्ष में “एकादेश उदात्तेनोदात्त: इस सूत्र से उदात्त स्वर का विधान किया है।,किन्तु सूत्रस्य वैकल्पिकत्वात्‌ पक्षे 'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रेण उदात्तस्वरः विहितः। यह जगत्‌ प्रपञ्च तथा स्वप्न प्रपञ्च नहीं होता है।,इह हि जाग्रत्प्रपञ्चः स्वप्नप्रपञ्चो वा न स्तः। संन्यास के दो प्रकार विविदिष संन्यास तथा विद्वत संन्यास के भेद से संन्यास दो प्रकार का होता है।,संन्यासस्य द्वैविध्यम्‌ विविदिषासंन्यासः विद्वत्संन्यास इति भेदात्‌ संन्यासस्य द्वैविध्यमस्ति। "लेकिन श्रुत नित्यकर्म का दुःख तो फिर फल हुआ, और वह नित्यकर्मानुष्ठानायास से ही व्योमादि के समान दिखाई देता है उससे अन्य की कल्पना अनुपपत्ति होती है।","किञ्च, श्रुतस्य नित्यस्य कर्मणः दुःखं चेत्‌ फलम्‌ , नित्यकर्मानुष्ठानायासादेव तत्‌ दृश्यते व्यायामादिवत्‌ ; तत्‌ अन्यस्य इति कल्पनानुपपत्तिः।" यजमान कौ रक्षा के लिए।,सुकृते यजमानाय। ये शिक्षा चारों वेदों की विभिन्न शाखा से सम्बद्ध है।,एताः शिक्षाः चतुर्णां वेदानां विभिन्नशाखातः सम्बद्धाः सन्ति। और वह यजुर्वेद में शिव-शङ्कर-मयस्कर-शम्भव-मयोभव आदि कल्याणवाचकसंज्ञा के द्वारा स्तुति करते हैं।,किञ्च सः यजुर्वेदे शिव- शङ्कर-मयस्कर-शम्भव-मयोभवप्रभृतिभिः कल्याणवाचकसंज्ञाभिः स्तूयते। उनदोनों के विचारों के बिना पञ्चकोश विवेक नहीं किया जा सकता है।,तयोर्विचारं विना पञ्चकोशविवकः कर्तु न शक्यते। परस्तात्‌ इसके योग में कौन सी विभक्ति होती है?,परस्तात्‌ इति योगे का विभक्तिः दृश्यते। 8 उपरति क्या होती है तथा किससे उपरति करना चाहिए?,८. उपरतिः का। कुतः उपरतिः। ये दो पदरूप है जो इषुधातु के रूप और विकरण प्रत्यय है।,एतत्पदद्वयमपि इषुधातो रूपम्‌। विकरणव्यत्ययश्च। देववाणी और वेदवाणी संस्कृत है।,देववाणी वेदवाणी च संस्कृतम्‌ । उसकाल में सूक्ष्म विषयों का अनुभव होता है इसलिए वह प्रविविक्त भुक्‌ इस प्रकार से कहलाता है।,तत्काले सूक्ष्मविषयान्‌ अनुभवति इति स प्रविविक्तभुक्‌ इति कथ्यते। वेद संहिताओं में सबसे प्रचानी होने से और ऐतिहासिकों के द्वारा समर्थित अग्निसूक्त का ही आरम्भ किया जाता है।,वेदसंहितासु सर्वपुरातनत्वेन ऐतिहासिकैः समर्थिता अग्निसूक्तादेव आरभते। इस ज्ञान में घट ज्ञेय होता है।,अत्र ज्ञाने घटः ज्ञेयः। भूतकाल यहाँ दिखाई नहीं देता है।,भूतकालः अत्र न विवक्षितः । वहाँ प्रत्येक पदों का अपना कुछ अर्थ होता है।,तत्र प्रत्येकं पदानां स्वकीयः कश्चिद्‌ अर्थः भवति। उसकी फिर देहान्तर प्राप्ति सम्भव नहीं होता है।,न तस्य पुनः देहान्तरप्राप्तिः सम्भवति। जैसे - कौमार सारस्वत और शाकल व्याकरण।,यथा - कौमारं सारस्वतं शाकलञ्च व्याकरणम्‌। ऋग्वेद का दूसरा आरण्यक किस नाम से कहते है?,ऋग्वेदस्य द्वितीयम्‌ आरण्यकं केन नाम्ना कथ्यते? स्वयं सिद्ध हुआ योगी ही शिष्यों में ज्ञानोत्पन्न करने में ब्रह्मचर्य के बल से समर्थ होता है।,स्वयं सिद्धः सन्‌ योगी शिष्येषु ज्ञानमुत्पादयितुं समर्थो भवति ब्रह्मचर्यबलात्‌। निर्धारण नाम जातिगुण किया संज्ञाओं से एकदेश समुदाय का पृथक्करण है।,निर्धारणं नाम जातिगुणक्रियासंज्ञाभिः समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणम्‌ इति। "इस प्रकार से बुद्धि के तादात्म्य से, भ्रान्ति से प्राप्त आत्मा का जीवाभाव होता हे।",एवं बुद्धितादात्म्यात्‌ भ्रान्त्या प्राप्तः आत्मनः जीवभावः। मन के केवल बाह्य इन्द्रियों से निग्रह करने पर ही वह तत्त्वज्ञान के मार्ग को और उन्मुक्त नहीं होता है।,मनसः तथा बहिरिन्द्रियाणां निग्रहेण एव तत्त्वज्ञानस्य मार्ग उन्मुक्तो न भवति। अतः आमन्त्रित इस पद का आक्षेप किया है।,अतः आमन्त्रितम्‌ इत्यनेन पदस्य आक्षेपः क्रियते। सप्रमाण ज्ञान होता है तो साधक सन्देह रहित तथा श्रद्धावान होकर के साधनों में प्रवर्तित होता है।,सप्रमाणं ज्ञानं भवति चेत्‌ साधकः सन्देहरहितः सन्‌ श्रद्धावित्तो भूत्वा साधनेषु प्रवर्तते। अग्नि को निकटत्व कहने वाली श्रुति कौन सी है ?,अग्नेः निकटत्वख्यापिका श्रुतिः का ? "जो बद्ध ही नहीं है, तो उसको साधक की आवश्यक्ता भी नहीं है।","बद्ध एव नास्ति, अतो न साधकः।" तात्पर्य किसे कहते हैं।,ननु किं तात्पर्यम्‌। समास में प्रयुज्यमान कु पदका अर्थ बोध के लिए लौकिक विग्रह में कुत्सितः पद का प्रयोग आदि समास अस्वपदविग्रह नित्य समास है।,समासे प्रयुज्यमानस्य कु इत्यस्य अर्थबोधनाय लौकिकविग्रहे कुत्सितः इति पदस्य प्रयोगादयं समासः अस्वपदविग्रहो नित्यसमासः। आत्मा में कल्पित अतद्धर्मों का निरास होता है।,आत्मनि कल्पितानां अतद्धर्माणां निरासः। प्रत्येक काण्ड में कुछ अध्याय है जो प्रपाठक नाम से विख्यात है।,प्रतिकाण्डं कतिपयाध्यायाः वर्तन्ते ये प्रपाठकनाम्ना ख्याताः। वेदान्तपरिभाषा में धर्मणाजाध्वरीन्द्र के द्वारा कहा गया है।,वेदान्तपरिभाषायां धर्मराजाध्वरीन्द्रेण कथ्यते । आदिरूदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस पद की यहाँ अनुवृति आती है।,आदिरूदात्तः इति सूत्रात्‌ उदात्तः इति पदम्‌ अत्र अनुवर्तते। भारद्वाज शिक्षा की व्याख्या कोीजिए।,भरद्वाजशिक्षां व्याख्यात। तीन प्रकार से विशेष कर कम्पाता हुआ रोकता है।,त्रेधा विचक्रमाणः त्रिप्रकारं स्वसृष्टान्‌ लोकान्विविधं क्रममाणः। "पाठ:-22 साधनविचारः-2 निष्कामकर्म, उपासना पाठः-23 साधनविचारः-3 साधनचतुष्टयम्‌ श्रवणादि।","पाठः - २२ धनविचारः-२ निष्कामकर्म, उपासना पाठः - २३ धनविचारः-३ साधनचतुष्टयम्‌ श्रवणादि ।" लेकिन कहीं पर अन्य अविहितम प्रतिषिद्ध कर्म तत्कालफलवाले तथा शापसस्त्र प्रेरितप्रतिषिद्ध तत्काल फलवाले नहीं होते है।,"किञ्च अन्यत्‌ - अविहितमप्रतिषिद्धं च कर्म तत्कालफलम्‌ , न तु शास्त्रचोदितं प्रतिषिद्धं वा तत्कालफलं भवेत्‌।" जिनका विवरण नीचे दिया गया है।,विवरणमधस्तादुपन्यस्यते।- यह ही कर्म योग है।,अयमेव कर्मयोगः। अर्थात्‌ श्रित आदि प्रकृति का जिनके वे सब श्रित आदि प्रकृतिक यहाँ श्रित आदि पदों से ग्रहण किये गये हैं।,अर्थात्‌ श्रितादयः प्रकृतयः येषां ते श्रितादिप्रकृतिकाः अत्र श्रितादिपदेन गृह्यन्ते। "वे हैं-""विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" ""कुत्सितानि कुत्सनैः"" ""पापाणके कुत्सितैः"" ""उपमानानि सामान्यवचनैः"" ""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" ""सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः"" ""वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌"" ""किं क्षेपे"" ""प्रशंसावचनैश्च""।","तानि तावद्‌ - ""विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" ""कुत्सितानि कुत्सनैः"" ""पापाणके कुत्सितैः"" ""उपमानानि सामान्यवचनैः"" ""उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"" ""सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः"" ""वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्‌"" ""किं क्षेपे"" ""प्रशंसावचनैश्च"" इति।" कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से अन्तः और उदात्तः इन प्रथमा एकवचनान्त दो पदों की यहाँ अनुवृति आ रही है।,कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अन्तः इति उदात्तः चेति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अत्र अनुवर्तते। प्रावेपाः इसका क्या अर्थ है?,प्रावेपाः इत्यस्य कः अर्थः । यहाँ भुवन क्या है।,कानि अत्र भुवनानि ? ये अवस्थाएँ परस्पर विलक्षण होती है।,परपस्परविलक्षणाः भवन्ति एता अवस्थाः। विधि के साथ हेतु का भी युक्ति सहित वर्णन किया है।,विधिना सहैव हेतोः अपि सयुक्तिकं वर्णनं कृतम्‌ अस्ति। इसके कालत्रय वर्तीचतुर्थाश से समस्त प्राणी उत्पन्न हुए।,अस्य कालत्रयवर्तीनि प्राणिजातानि चतुर्थांशत्वेन कल्पितानि। पूर्व शब्द उत्तरपद भी है।,पूर्वशब्दः उत्तरपदम्‌ अपि वर्तते। हे पर्जन्य तुम हम लोगो को महान सुख प्रदान करो।,हे पर्जन्यः सः महांस्त्वं नः अस्माभ्यं महि शर्म महत्‌ सुखं यच्छ प्रयच्छ । वह मेरा परलोक अच्छा होवे अर्थात्‌ समस्त लोक मेरी कामना पूर्ण करने वाले हो।,सर्वं मे मम इषाण सर्वलोकात्मकः अहं भवेयम्‌ इति इच्छा इत्यर्थः। यस्य॑ व्रत ओष॑धीर्विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म॑ यच्छ।,यस्य व्रत ओषधीर्विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥ ५ ॥ इस प्रकार जुआरी का जीवन चलता है।,एवं कितवस्य जीवनं चलति । इसलिए श्रुति स्मृति में विरोध होने पर श्रुति को ही प्रधान मानना चाहिए।,अत एव श्रुतिस्मृत्योः विरोधे सति श्रुतिरेव गरीयसी। (1.11) “तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌'' सूत्रार्थ-अदन्त अव्ययीभाव से तृतीया विभक्ति और सप्तमी विभक्ति का बहुल अमादेश होता है।,(१.११) तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌॥ सूत्रार्थः - अदन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ तृतीयासप्तम्योः बहुलम्‌ अमादेशः भवति। इन्द्र के अश्व किस वर्ण के हैं ?,इन्द्रस्य अश्वस्य कः वर्णः ? 23. सन्तोष से क्या होता है?,२३. सन्तोषात्‌ किं भवति? दूसरा जल को भूमि पर गिराना।,द्वितीयं जलानि भूमौ पातितवान्‌। योग शब्द का क्या अर्थ होता है?,योगशब्दस्य कः तावत्‌ अर्थः? उससे यहाँ प्रातिपदिक ह्रस्व अकारान्त है।,तेन इदं प्रातिपदिकं ह्रस्वाकारान्तम्‌ अस्ति। यहाँ सूत्र में स्त्रियाम्‌ यह अधिकार आ रहा है।,अत्र सूत्रे स्त्रियाम्‌ इति अधिकारः आगच्छति। यह ही मुक्ति परममुक्ति कही जाती है।,एषा एव मुक्तिः परममुक्तिः इत्युच्यते। (क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) अपूर्वता 14. तात्पर्यनिर्णायक छ लिङऱगों में यह नहीं है।,(क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) अपूर्वता 14. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ नास्ति। किसी भी यज्ञ के सम्पूर्ण रूप से पूर्ण करने के लिए कितने ऋत्विज होते हैं?,कस्यापि यज्ञस्य सम्पूर्णरूपेण निष्पादनार्थं कति ऋत्विजः भवन्ति? वहाँ पर जो प्रमाणों के द्वारा अर्थ का निर्धारण करता है वह प्रमाता कहलाता हे।,तत्र प्रमाणैः यो अर्थं प्रमिणोति स प्रमाता। सूत्र की व्याख्या - संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम-अतिदेश-अधिकार छः प्रकार के पाणिनीय सूत्रों में यह विधि सूत्र है।,सूत्रव्याख्या - संज्ञा-परिभाषा-विधि-नियम-अतिदेश-अधिकारात्मकेषु षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं विधिसूत्रम्‌। इसलिए जैसे घट अन्तः करणवृत्ति का विषय होता है तथा अनावृत्त प्रकाशमान चैतन्य का भी विषय होता है।,"अतो घटो यथा अन्तःकरणवृत्तेः विषयो भवति, तथा अनावृतस्य प्रकाशमानस्य चैतन्यस्यापि विषयो भवति।" कर्ता और करण यही कर्तृकरणम्‌ तस्मिन्‌ (उसमें) कर्तृकरणे में समाहार ढुन्द है।,"कर्ता च करणं च कर्तृकरणम्‌, तस्मिन्‌ कर्तृकरणे इति समाहारद्वन्द्वः।" निमिता - निपूर्वकमि-धातु से क्तप्रत्यय करने पर सुप और डा आदेश होने पर निमिता रूप बना।,निमिता- निपूर्वकमि-धातोः क्तप्रत्यये सुपः डादेशे च निमिता इति रूपम्‌। यहाँ अतः यह पद अव्ययीभाव से इसका विशेषण है।,अत्र अतः इति पदम्‌ अव्ययीभावाद्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌। इस दशा में ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे समाधान का नाश हो।,अस्याम्‌ दशायाम्‌ एवं किमपि न कर्तव्यं येन समाधाननाशः स्यात्‌। पूर्व भूतः यह लौकिक विग्रह है।,पूर्वं भूतः इति लौकिकविग्रहः। चौथा अर्थ-यज्ञो का चालन ऋत से होता है कहा गया है।,चतुर्थोऽर्थः - यज्ञानां चालनम्‌ ऋतेन भवतीति उक्तमेव। इस प्रकार से यह चक्र प्रवर्तित होता रहता है।,इत्थम्‌ इदम्‌ चक्रं प्रवर्तते। इसका सङ्केत भागवत पुराण में भी प्राप्त होता है - ` अथर्वणेऽदात्‌ शान्तिं यया यज्ञो वितन्यते' इति (३/२४/२४)।,अस्य सङ्केतः भागवतपुराणे अपि प्राप्यते - 'अथर्वणेऽदात्‌ शान्तिं यया यज्ञो वितन्यते' इति (३/२४/२४)। जिसका चित्त वेदान्त के श्रवण में अथवा स्वरूपानुसन्धान में स्थिरता प्राप्त नहीं करता है अपितु विषयाभिमुखी होता है उसके द्वारा ईश्वर का नामोच्चारण अजपामन्त्रावृत्ति ईश्वरमूर्ति का ध्यान तथा निर्गुणब्रह्मानुसन्धान इत्यादि उपाय कहे गये हैं।,यस्य चित्तं वेदान्तश्रवणे स्वरूपानुसन्धाने वा स्थैर्यं न प्राप्नोति किन्तु विषयाभिमुखीभवति तेन तन्निवृत्तये ईश्वरनामोच्चारणम्‌ अजपामन्त्रावृत्तिः ईश्वरमूर्तिध्यानं निर्गुणब्रह्मानुसन्धानम्‌ इत्यादय उपाया अवलम्ब्याः। ऋग्वेद के देवतातत्त्व में प्रकृति पूजा का आश्रय लिया जाता है।,ऋग्वेदस्य देवतातत्त्वं प्रकृतिपूजाम्‌ आश्रयति। वह चित्‌ इसका है यहाँ पर चित्‌-प्रातिपदिक से मत्वर्थ में अचप्रत्यय करने पर चित: यह रूप बनता है।,ततः चित्‌ अस्य अस्ति इति चित्‌-प्रातिपदिकात्‌ मत्वर्थीये अच्प्रत्यये चितः इति रूपम्‌। 8 मुमुक्षुत्व का वर्णन कीजिए।,८. मुमुक्षुत्वम्‌ विशदयत। प्रयोजन की हमेशा अन्त में अवस्थिति होती है।,प्रयोजनस्य सर्वदा अन्तिमे अवस्थितिः। आत्मा के स्वरूप का क्या नाम है तो कहते हैं- न जायते म्रियते वा कदाचित्‌ नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।,किं नाम आत्मनः स्वरूपम्‌ इति चेत्‌ - न जायते म्रियते वा कदाचित्‌ नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अथर्व शब्द का अर्थ क्या है?,अथर्वशब्दस्य अर्थः कः? उत - यह अव्यय पद है।,उत- अव्ययं पदमिदम्‌। सुषुप्ति कालीन अनुभव किस प्रकार का होता है इस प्रकार की जिज्ञास करने पर कहते हैं कि अज्ञानान्द के अनुभव की तरह।,सुषुप्तिकालीनानुभवः कीदृश इति जिज्ञासायामुच्यते अज्ञानानन्दयोरनुभव इति। वाणी को अपने पक्ष में लाने के लिए किस किसने प्रयत्न किया?,वाचं स्वपक्षे आनेतुं के प्रयत्नं कृतवन्तः? जिस लिए बालक जाता है अथवा जाने की इच्छा करता है वह उस बालक को अब अच्छा नहीं लगता है।,यदर्थं गच्छति गन्तुमिच्छति तत्र अधुना बालो न रमते। किसी के प्रतिपादन के लिए ब्राह्मण साहित्य का उद्भव बताइए।,केषां प्रतिपादनाय ब्राह्मणसाहित्यस्योद्भवः। जो व्यावर्त्य होता है वह विशेष्य होता है।,यत्‌ व्यावर्त्य भवति तत्‌ विशेष्यं भवति। "इस ग्रन्थ में निम्न लिखित अष्टक तथा उसके अन्तर्गत अध्याय है - प्रथम अष्टक- सम्पूर्ण है, और आठ अध्याय से युक्त है।",ग्रन्थेऽस्मिन्‌ निम्नलिखितानि अष्टकानि तथा तदन्तर्गता अध्यायाश्च सन्ति। उसका सप्तमी एकवचन में व्युष्टौ रूप बना।,तस्य सप्तम्येकवचने व्युष्टौ इति रूपम्‌। उसको प्रकृत सूत्र से विहित कार्य अदेवन अर्थ में वर्तमान अक्ष शब्द को उदात होता है।,तस्मात्‌ प्रकृतसूत्रेण विहितं कार्यम्‌ अदेवनार्थ प्रवर्तमानस्य अक्षशब्दस्य भवति। दुहाम्‌ यह रूप किस लकार में है?,दुहाम्‌ इति रूपं कस्मिन्‌ लकारे? लेकिन फिर सभी दर्शनों का साध्य एक ईश्वरतत्व साक्षात्कार ही है।,गन्तव्यस्थलं तु समेषां दर्शनानां साधनमार्गाणां वा समानमेव- ईश्वरतत्त्वसाक्षात्कारः। और वह तद्धितस्य पद षष्ठी एकवचनान्त है।,तच्च तद्धितस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌। बैल के समान आचरण करना।,वृष इव आचरन्‌। इस सूत्र से सह शब्द के स आदेश होता है।,अनेन सूत्रेण सहशब्दस्य सादेशो विधीयते। ऋतु वर्णन परक मन्त्र कहाँ प्राप्त होते हैं?,ऋतुवर्णनपराः मन्त्राः कुत्र लभ्यन्ते? और षष्ठयन्त सुबन्त को सम अर्थ होने से सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,"एवं ""षष्ठ्यन्तं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति।" आरण्यक पशु किससे उत्पन्न हुए?,आरण्यकाः कस्मात्‌ अजायन्त। वे वीत श्रद्धा वाले होते हैं।,तेन ते वीतश्रद्धा भवन्ति। "जैसे गौणसिंहाग्नि से मुख्यसिंहाग्निवत्‌ कार्य अदृष्टविषयप्रेरक प्रमाण से आत्मकर्तव्य गौण देहेन्द्रिय आत्मा के द्वार किए जाते है तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि उनका कार्य तो अविद्या के द्वारा किया जाता है।",गौणसिँहाग्निभ्यां मुख्यसिंहाग्निकार्यवत्‌॥अदृष्टविषयचोदनाप्रामाण्याद्‌ आत्मकर्तव्यं गौणैः देहेन्द्रियात्मभिः क्रियत एव इति चेन्न; अविद्याकृतात्मत्वात्तेषाम्‌। न च गौणा आत्मानो देहेन्द्रियादयः; किँ तर्हि। "धातु से विहित स्वरों के विषय में सूत्र है, जैसे - धातोः, स्वपादिहिसामच्यनिटि इत्यादि सूत्र है।","धातोः विहितस्वराणां विषये सूत्राणि भवन्ति, यथा- धातोः, स्वपादिहिंसामच्यनिटि इत्यादीनि सूत्राणि।" देवता वाची शब्दों का हुन्द्व॒ समास में यह अर्थ है।,देववाचिशब्दानां द्वन्द्वसमासे इत्यर्थः। इस प्रकार के सूक्तों में कथनोपकथन की प्रधानता है।,एवंविधेषु सूक्तेषु कथोपकथनस्य प्राधान्यमस्ति। इसलिए यहाँ पर तत्पदार्थ का विशेष्यत्व रूप होता है।,अतोऽत्र तत्पदार्थस्य विशेष्यत्वम्‌। मध्याह्न में गगन मण्डल के मध्य भाग में जब होता है तब ये विष्णु कहलाता है - इसी प्रकार 12 आदित्य होते है।,मध्याह्ने गगनमण्डलस्य मध्यभागे यदा राजते तदा अयं विष्णुरिति। एवमेव द्वादश आदित्याः भवन्ति। समास शब्द का लाघव को संक्षेप भी अर्थ है।,समासशब्दस्य लाघवं संक्षेपः इत्यपि अर्थः अस्ति। छः अङ्ग कौन-कौन से हैं?,षडङ्गानि कानि। अतः मघवा नाम भी है।,अतः मघवा इति नाम। पुंवत्‌ यह वतिप्रत्यान्त अव्यय पद हैं और कर्मधारयजातीयदेशीयेषु सप्तमी बहुवचनान्त पद है।,"पुंवत्‌ इति वतिप्रत्ययान्तम्‌ अव्ययम्‌, कर्मधारयजातीयदेशीयेषु इति च सप्तमीबहुवचनान्तं पदम्‌ ।" "व्याख्या - रुद्र आप सबसे पहले आज्ञापक होकर मुझे आज्ञा दें, आपका कथन मेरे लिए प्रधान हो।","व्याख्या - रुद्रो मामध्योवचत्‌ अधिवक्तु मां सर्वाधिकं वदतु, तेनोक्ते मम सर्वाधिक्यं भवत्येवेत्यर्थः।" योगी यदि अपरिग्रह में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है तो उसका अतीत वर्तमान तथा भविष्यों के जन्म का ज्ञान सम्भव हो जाता है।,योगी यदि अपहिग्रहे प्रतिष्ठां लभते तर्हि तस्य अतीतवर्तमानभविष्यजन्मनां ज्ञानं सम्भवति। "जब तक प्रारब्ध का नाश नहीं हो जाता है, तब तक वह शरीर धारण के लिए आवश्यक कर्म मात्र का पालन करते हुए कर्तव्य मात्र का बोध करता है बुद्धि से।",यावत्‌ प्रारब्धक्षयो न जायते तावत्‌ स शरीरधारणाय आवश्यककर्ममात्रम्‌ अनुतिष्ठति कर्तव्यमात्रबुद्धया। कशया - कश्‌ धातु से अच्‌ प्रत्यय और टाप्‌ प्रत्यय करने पर तृतीया बहुवचन का यह रूप है।,कशया - कश्धातोः अच्प्रत्यये टाप्प्रत्यये तृतीयाबहुवचने रूपमिदम्‌ । अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान के द्वारा ही होती है।,अज्ञानस्य निवृत्तिः ज्ञानेनैव भवति। प्रलय में कार्य कारण भाव को प्राप्त करते है।,प्रलये कार्याणि कारणभावं प्राप्नुवन्ति। व्याख्या - सभी प्राणि समष्टि रूप से ब्रह्माण्ड देह रूप विराडाख्य जो पुरुष है वो यह सहस्रशीर्षा है।,व्याख्या- सर्वप्राणिसमष्टिरूपो ब्रह्माण्डदेहो विराडाख्यो यः पुरुषः सः अयं सहस्रशीर्षा। और वागर्थ औ इव इस स्थिति में “वृद्ठिरेचि”' इस सूत्र से आकार के और औकार के स्थान पर वृद्धि होने पर औकार होने पर “एचोऽयवायावः'' इस सूत्र से औकार के स्थान पर आवादेश होने पर प्रक्रियाकार्य में सर्वसंयोग होने पर वागर्थाविव रूप निष्पन्न होता है।,"एवं वागर्थ औ इवेति स्थिते ""वृद्धिरेचि"" इत्यनेन सूत्रेण अकारस्य औकारस्य च स्थाने वृद्धौ ओकारे, ""एचोऽयवायावः"" इत्यनेन सूत्रेण औकारस्यावादेशे प्रक्रियाकार्ये सर्वसंयोगे वागर्थाविव इति रूपं निष्पद्यते।" तथा विषयाकार हो जाता है।,यस्मिन्‌ विषये चित्तवृत्तिर्भवति। क्रियते - कृ-धातु से कर्म लट प्रथमपुरुष एकवचन में क्रियते रूप बनता है।,क्रियते - कृ - धातोः कर्मणि लटि प्रथमपुरुषैकवचने क्रियते इति रूपम्‌। उन्होंने ही संवाद सूक्तों को गीतरूप में स्वीकार किया।,स हि संवादसूक्तानां गीतरूपत्वं स्वीकरोति। 8. धैर्यरूप।,८. धैर्यरूपम्‌। "ऋग्वेद के ज्योतिष शास्त्र है - आर्चज्योतिष, षटित्रंशत्पद्यात्मक।","ऋग्वेदस्य ज्यौतिषम्‌ - आर्चज्यौतिषम्‌, षट्त्रिंशत्पद्यात्मकम्‌।" तुम्हारा अकेला रथक्रम पूर्वक धीरे धीरे चले।,एकनेमिरथः युवयोः अनुग्रहेण आवर्तते। आयुधधारणनिमित्त रुद्र के रौद्र रूप अतिभयानक है।,आयुधधारणनिमित्तं रुद्रस्य रौद्रं रूपम्‌ अतिभयानम्‌। "यहाँ “ अव्ययविभक्ति ”' इस सूत्र के अधिहरि, उपकृष्णम्‌, समुद्रम्‌, दुर्यवनम्‌ उदाहरण हैं।","तत्र ""अव्ययं विभक्ती""ति सूत्रस्य अधिहरि, उपकृष्णम्‌, सुमद्रम्‌, दुर्यवनम्‌ इत्यादीन्युदाहरणानि भवन्ति।" मनन ब्रह्मविषय में समापतितिविरुद्धयुक्तियों के खण्डानानुकूला मानसी क्रिया होती है।,मननं तावत्‌ ब्रह्मविषये समापतितानां विरुद्धयुक्तीनां खण्डनानुकूला मानसी क्रिया। शेषभाग में ८९८ अनुष्टुप्‌ है।,शेषभागे ८९८ अनुष्टुप्‌ वर्तन्ते। नौवें मन्त्र में वृत्र की माता कैसे मृत्यु को प्राप्त हुई इस विषय में कहा गया।,ततः नवमे मन्त्रे वृत्रस्य जनन्याः कथं मरणं जातमिति उक्तम्‌। कर्मकृत होने के कारण ये अनित्य होते हैं।,कर्मकृतत्वाच्च एते अनित्याः सन्ति। सुप्‌ प्रत्यय के और पित्‌ प्रत्यय को अनुदात्त विधान किस सूत्र से होता है?,सुप्प्रत्ययस्य पित्प्रत्ययस्य च अनुदात्तत्वं केन विधीयते? और उस जल स्पर्श से मनुष्य पवित्र होकर दीक्षित होता है।,ततश्च जलस्पर्शन जनः पवित्रो भूत्वा दीक्षितो भवति। इसलिए उसे विदेहमुक्ति को आवश्यकता होती है।,अतः विदेहमुक्तेः आवश्यकता तस्य वर्तते। इस सूत्र द्वारा चाप्‌ प्रत्यय का विधान होता है।,इदं सूत्रं चाप्प्रत्ययं विदधाति। इस सूत्र का वैज्ञानिक महत्त्व है।,अस्य सूत्रस्य वैज्ञानिकं महत्त्वम्‌ अस्ति। 'स्वपादिहिंसामच्यनिटि' इससे अचि अनिटि इन दो सप्तम्यन्त पद की अनुवृति आती है।,'स्वपादिहिंसामच्यनिटि' इत्यस्माद्‌ अचि अनिटि इति सप्तम्यन्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते। ढका हुआ।,आच्छादितम्‌। अत 'फिषोन्त उदात्तः' इस सूत्र से अभि शब्द में अन्त उदात्त की प्राप्ति होती है।,अतः 'फिषोन्त उदात्तः' इति सूत्रेण अभिशब्दे अन्तोदात्तः विधीयते। "इस प्रकार से ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से तेज,तेज से जल, जल से पृथ्वी, इस प्रकार का सृष्टि का क्रम मानना चाहिए।","एवम्‌ ब्रह्मणः आकाशस्य, आकाशात्‌ वायोः, वायोः तेजसः, तेजसः अपां, अदुभ्यः पृथिव्याः च सृष्टिः भवतीति क्रमः अनुसन्धेयः।" भगवान में परमप्रीति ही भक्ति है।,भगवति प्ररमा प्रीतिः एव भक्तिः। सूत्र अर्थ का समन्वय - उदाहरण रूप में दिया यह मन्त्र यज्ञकर्म में प्रयुङ्क्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः - उदाहरणरूपेण दत्तः अयं मन्त्रः यज्ञकर्मणि प्रयुङ्क्तः। वेदान्तसार मे कहा गया है “ अपवादो नाम रज्जुविवर्तस्य सर्पस्य रज्जुमात्रत्ववत्‌ वस्तुविवर्तस्य अवस्तुनः अज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम्‌” अर्थात्‌ अपवाद रज्जुविवर्त सर्प का रज्जुमात्रत्व के समान वस्तुविवर्त अवस्तु अज्ञानादि प्रपञ्च का वस्तुमात्रत्व होता है।,वेदान्तसारे भण्यते “अपवादो नाम रज्जुविवर्तस्य सर्पस्य रज्जुमात्रत्ववत्‌ वस्तुविवर्तस्य अवस्तुनः अज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम्‌” इति। इनमें स्थूल शरीर अन्नमयकोश कहलाता है।,एतेषु स्थूलशरीरम्‌ अन्नमयकोश इत्युच्यते। वि सृजताम्‌ - वि उपसर्ग सृज्‌-धातु से लोट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,वि सृजताम्‌- व्युपसर्गात्‌ सृज्‌-धातोः लोटि प्रथमपुरुषैकवचने। वेदने इसका क्या अर्थ है?,वेदने इत्यस्य कः अर्थः ? आवरण का भङऱगा किस प्रकार से किया जाता है।,आवरणभङ्गः कथं क्रियते। यह भक्ति मार्ग नौ प्रकार का होता है।,अयम्‌ भक्तिमार्गः नवविधा भक्तिः इति प्रसिद्धः। फिर भी जो काम्य कर्म वर्णाश्रम कर्म रूप के द्वारा प्राप्त होते हैं तो वे यदि निष्काम भावना के द्वारा किये जाते हैं।,तथापि यः काम्यानि कर्माणिवर्णाश्रमकर्मरूपेण प्राप्तानि चेत्‌ तानि यदि निष्कामभावनया क्रियन्ते । सुहितार्थ से निषेध होने पर फलानां सुहितः इत्यादि एक उदाहरण है।,सुहितार्थेन निषेधे फलानां सुहितः इत्यादिकमुदाहरणम्‌। तब आयासदुःख के द्वारा ही काम्याग्निहोत्रादिफल तत्तन्त्रत्व से उपक्षीण होते है।,तदायासदुःखेनैव काम्याग्निहोत्रादिफलम्‌ उपक्षीणं स्यात्‌ । "व्याख्या - वज्रबाहु इन्द्र ने शत्रुओं को मारकर स्थावर, जंगम, सींग रहित और सींग धारी पशुओं के स्वामी बने अथवा राजा बनें।",व्याख्या- वज्रबाहुः इन्द्रः शत्रौ हते सति निःसपत्नो भूत्वा यातः गच्छतो जङ्गमस्य अवसितस्य एकत्रैव स्थितस्य स्थावरस्य शमस्य शान्तस्य शृङ्गराहित्येन प्रहरणादावप्रवृत्तस्याश्वगर्दभादेः शृङ्गिणः शृङ्गोपेतस्योग्रस्य महिषबलीवददिश्च राजा अभूत्‌। 7. दानुः इसका क्या अर्थ है?,7. दानुः इत्यस्य कः अर्थः। इन्द्रसूक्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।,इन्द्रसूक्तम्‌ अतीव महत्त्वपूर्णम्‌। इस आरण्यक में स्थान-स्थान पर कुछ विशेष बात भी प्राप्त होती है।,अस्मिन्‌ आरण्यके स्थाने स्थाने कतिपयाः विशिष्टाः वार्ताः अपि प्राप्यन्ते। इससे उदात्त स्वर का विधान करते हैं।,अनेन उदात्तत्वस्य विधानं क्रियते। और उस यज्‌प्रत्यय का ञित होने से गार्ग्य शब्द का ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इस सूत्र से आद्युदात्त की प्राप्ति में प्रकृत वार्तिक से यहाँ अन्त के उदात्त स्वर का विधान किया है।,तस्य च यञ्प्रत्ययस्य ञिदित्त्वात्‌ गार्ग्यशब्दस्य ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इति सूत्रेण आद्युदात्तत्वे प्राप्ते प्रकृतवार्तिकेन अत्र अन्तस्य उदात्तस्वरः विधीयते। यह इस श्लोक का अर्थ है।,इति श्लोकार्थः। अतिवर्द्ध अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त होने पर लिङर्थे लेद्‌(३.४.७) इससे जब योग में लेट्‌।,अतिवर्द्ध॑ अतिरिच्य वर्धितास्मीति प्राप्ते लिङर्थे लेट्‌(३. ४.७) इति यदा योगे लेट्‌। इस पाठ में फिट्‌-स्वर विधायक कुछ विशेष सूत्र की आलोचना है।,अस्मिन्‌ पाठे फिट्-स्वरविधायकानि कानिचित्‌ विशेषसूत्राणि आलोच्यन्ते। "विशेष- आङ पूर्वक अश्‌-धातु से कर्ता में क्त प्रत्यय विधान का कोई सूत्र नहीं है, तो कैसे क्त प्रत्यय है, यदि ऐसा कहते हैं तो यहाँ पर क्त प्रत्यय निपातन से है।",विशेषः- ननु आङ्पूर्वकात्‌ अश्‌-धातोः कर्तरि क्तप्रत्ययविधानस्य किमपि सूत्रं नास्ति तर्हि कथं क्तप्रत्ययः इति चेदुच्यते अत्र क्तप्रत्ययः निपात्यते इति। चार काण्ड है।,चत्वारः काण्डाः सन्ति। प्रत्येक वेद शाखा के अनुसार से ब्राह्मण ग्रन्थ और आरण्यक ग्रन्थ भिन्न होते हैं।,प्रत्येकं वेदशाखानुसारेण ब्राह्मणग्रन्थाः आरण्यकग्रन्थाः च भिन्नाः भवन्ति। "यह विभाषा कहाँ पर लगेगी, कहाँ पर नहीं लगेगी।","इयं विभाषा कुत्रापि प्रवर्तते, कुत्रापि न प्रवर्तते।" इस प्रकार से हमारे साथ बहुत जन्मों में किए गये संस्कार होते हैं।,इत्थं बहुषु जन्मसु कृताः संस्काराः सन्ति। अथर्ववेद के स्वरों का और वर्णो का उचित ज्ञान के लिए यह शिक्षा अत्यन्त ही प्रशंसनीय है।,अथर्ववेदस्य स्वराणां वर्णानां च सुष्टुज्ञानाय इयं शिक्षा महनीया श्लाघनीया च अस्ति। "पौष्टिक सूक्तों में घर निर्माण के लिए, क्षेत्र को जोतने के लिए, बीज बोने के लिए, अन्न उत्पादन के लिये और अन्य गृहस्थ कर्मो के लिए प्रार्थना है।","पौष्टिकसूक्तेषु गृहनिर्माणाय, सीरकर्षणाय, बीजवपनाय, अन्नोत्पादनाय किञ्च अन्यगार्हस्थ्यकर्मणां कृते प्रार्थनाः सन्ति।" किसी भी पद का बार-बार उच्चारण करना।,कस्यापि पदस्य भृशमुच्चारणम्‌ (पौनःपुन्येन)| ङ्याः छन्दसि बहुलम्‌ ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,ङ्याः छन्दसि बहुलम्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः। और वह आर्य-अनार्यो का सज्जन और दुष्टों का वह सभी का उपास्य है।,किञ्च सः आर्य-अनार्याणां सतामसतां सर्वेषाम्‌ उपास्यः। "दो प्रकार, मन्त्र रूप और ब्राह्मण रूप।","द्विविधः, मन्त्ररूपो ब्राह्मणरूपश्चेति।" वेद कर्मकाण्ड तथा ज्ञान काण्ड के रूप में दो प्रकार का होता है।,वेदः कर्मकाण्डः ज्ञानकाण्डश्चेति द्विविधः। इञ प्रत्यय और टिलोप।,इञि टिलोपः। "अन्वय - यस्यां भूम्यां वेदिं परिगृहणन्ति, विश्वकर्माणः यस्यां यज्ञं तन्वते, यस्यां पृथिव्याम्‌ आहुत्याः पुरस्तात्‌ ऊर्ध्वाः शुक्राः स्वरवः मीयन्ते, सा भूमिः वर्धमाना नः वर्धयत्‌।","अन्वयः- यस्यां भूम्यां वेदिं परिगृह्णन्ति, विश्वकर्माणः यस्यां यज्ञं तन्वते, यस्यां पृथिव्याम्‌ आहुत्याः पुरस्तात्‌ ऊर्ध्वाः शुक्राः स्वरवः मीयन्ते, सा भूमिः वर्धमाना नः वर्धयत्‌।" ति यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,ति इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। इत्यादि रूप से भी प्रकट किये जाते हैं।,इत्यादिरूपेणापि प्रकट्यते। वहाँ अजादे: प्रातिपादिकात्‌ इसका विशेषण होता है।,तत्र अजादेः इति प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। "पर्जन्य ही पृथिवी को सत्त्वयुक्त करता है, और औषधियों को अनेक पल्लव और फूल के द्वारा सुशोभित करते हैं।","पर्जन्यो हि पृथिवीं सत्त्वयुक्तां करोति, ओषधयश्च अनेन पल्लवैः पुष्पैः च शोभन्ते।" (क) अनुबन्धों के (ख) साधनचतुष्टय के (ग) शमादिषट्क सम्पत्ति में (घ) तात्पर्यनिर्णाय लिङ्गों में 17 फल किसके अन्तर्गत होता हे?,(क) अनुबन्धेषु (ख) साधनचतुष्टये (ग) शमादिषट्कसम्पत्तौ (घ) तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गेषु 17. फलम्‌ क्वान्तर्भवति। एवं अर्थ होता है-अचादि के और अकार दो।,एवञ्च अस्य अर्थः भवति - अजादेः अतः च। नपुंसक लिड्ग में।,नपुंसके। राजन्तमध्वराणाम्‌ ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,राजन्तमध्वराणाम्‌...... इत्यदिमन्त्रस्य व्याख्यात। "न यह अव्ययपद है, अनुदात्ततम्‌ यह प्रथमान्त पद की अनुवृति है।","न इति अव्ययपदम्‌, अनुदात्ततम्‌ इति प्रथमान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" "इस सूत्र का अर्थ होता है “'तद्धितार्थोत्तर पद समाहारे च'' इस तद्धित अर्थ विषय में, उत्तरपद पर में और समाहार में वाच्य होने पर जो संख्या पूर्वपद का समास होता है वह द्विगु संज्ञक होता है।","एतस्य सूत्रस्य अर्थो भवति - ""तद्धितार्थात्तरपदसमाहारे च"" इत्यनेन तद्धितार्थ विषये, उत्तरपदे परे समाहारे च वाच्ये यः संख्यापूर्वपदः समासः भवति स द्विगुसंज्ञको भवति"" इति ।" "मैं वसुगण, आदित्य गण, और विश्वदेव गण के साथ उनके समान होकर विचरण करती हूँ।","अहं वसुगणैः, आदित्यगणैः, विश्वदेवगणैः सह तत्तदात्मिका भूत्वा विचरामि।" एमि - इ-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में।,एमि - इ - धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने । पूजनात्‌...इस सूत्र को पूर्ण कीजिए।,पूजनात्‌...इति सूत्रं पूरयत। अतः प्रकृत सूत्र से यहाँ उत्‌ इसके स्वर को प्रकृत सूत्र से उदात्त करने का विधान है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अत्र उत्‌ इत्यस्य स्वरस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं विधीयते। भगवान्‌ शङ्कराचार्य के द्वारा भी श्री मद्‌भगवद्गीता के भाष्य में कहा गया है कि- “इद्‌ तु ज्ञेयमतीन्द्रियत्वेन शब्दैकप्रमाणगम्यत्वात्‌ न घटादिवत्‌ उभयबुद्धयनुगतप्रत्ययविषयमित्यतो ` न सत्‌ तन्नासत्‌' इत्युच्यते” अर्थात्‌ यह तो ज्ञेय अतीन्द्रियत्व के द्वारा शब्दरूप एक प्रमाण के अगम्य से घटादि के समान नहीं होता है।,भगवता शङ्कराचार्येणापि श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये उक्तम्‌ “इदं तु ज्ञेयमतीन्द्रियत्वेनम शब्दैकप्रमाणगम्यत्वात्‌ न घटादिवत्‌ उभयबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयमित्यतो 'न सत्‌ तन्नासत्‌” इत्युच्यते” इति। यच्छ - यम्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,यच्छ - यम्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने । याग के समय एक पुरोडाश को यज्ञाग्नि में आहुत किया जाता है।,यागसमये एकः पुरोडाशः यज्ञाग्नौ आहूयते। यदि वह कैसे भी दैववश उपलब्ध हो जाती है तो।,यदि तत्‌ कथञ्चिद्‌ दैववशाद्‌ उपलभ्येत । अयजन्त - यज्‌-धातु से लड लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बना।,अयजन्त-यज्‌-धातोःलङि प्रथमपुरुषबहुवचने। और इस प्रकार से ये मुखदियों से ब्राह्मणादि की उत्पत्ति यजुःसंहिता में सप्तमकाण्ड में 'स मुखतस्रिवृतं निरमिमीत'(तै०स० ७. १.१.४) स्पष्टरूप से बताया गया है।,इयं च मुखदिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां सप्तमकाण्डे 'स मुखतस्रिवृतं निरमिमीत '(तै०स० ७.१.१.४) इत्यादौ विस्पष्टमाम्नाता। पूर्व में ऊगता हुआ प्रथमपाद को धारण करते है।,पूर्वाह्ण समारोहणे प्रथमपादं निधत्ते। अविद्यात्मकत्व देहाभिमान का उसकी निवृत्ति में देहानुपपत्तिसे संसारानुपपत्ति होती है।,"अविद्यात्मकत्वाच्च देहाभिमानस्य, तन्निवृत्तौ देहानुपपत्तेः संसारानुपपत्तिः।" वेद में मिथिला आदि नगरियों का वर्णन अत्यधिक सुंदर है।,वेदे मिथिलादि नगरीणाम्‌ अतीव रमणीयं वर्णनं वर्तते। इसलिए उसे मन्त्रमयी स्वीकार किया है।,अतः मन्त्रमयित्वं स्वीकार्यम्‌। अथवा यजमान के सम्मुख अग्नि स्थित है।,अथवा यजमानस्य सम्मुखे अग्निः स्थितः। उस आदिपुरुष से विराट्‌ ब्रह्माण्डदेहउत्पन्न हुआ।,तस्मात्‌ आदिपुरुषात्‌ विराट्‌ ब्रह्माण्डदेहः अजायत उत्पन्नः। इसका ऋषि नारायण तथा पुरुष देवता है।,तत्र नारायणनाम्ना ऋषिः पुरुषो देवता। ब्रह्म ही अद्वैत होता है वहाँ पर द्वैत का स्थान ही नहीं होता है।,ब्रह्म च अद्वैतं भवति तत्र द्वैतस्य स्थानमेव नास्ति। सृष्टी के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए जो देव वे आजानदेव हेै।,सृष्ट्यादौ उत्पन्नाः आजानदेवाः। यही सूत्र का अर्थ है।,इति सूत्रार्थः। 41. आनन्दमय कोश की तीन वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?,४१. आनन्दमयकोशस्य वृत्तित्रयं किम्‌ ? "यहाँ विस्पष्टम्‌ यह कटुक का प्रवृत्तिनिमित्त कटुकत्व है, उसका विशेषण है, कटुक का नहीं है।","अत्र विस्पष्टम्‌ इति कटुकस्य यत्‌ प्रवृत्तिनिमित्तं कटुकत्वं, तस्य विशेषणं, न तु कटुकस्य।" छठे अध्याय में आरुणि-श्वेतकेतु के उपाख्यान से आत्म तत्त्व का विवरण प्राप्त होता है।,षष्ठाध्याये आरुणि-श्वेतकेतोः उपाख्यानेन आत्मतत्त्वं विवृतम्‌। उन्होंने यह भी प्रत्यक्ष किया की दरिद्रता होने पर भी सभी लोगों के जीवन में धर्म जीवन शक्ति के रूप में होता है।,"तेन एतदपि प्रत्यक्षीकृतं यत्‌ दारिद्र्ये सत्यपि सर्वत्र जनानां जीवनेषु धर्मो जीवच्छक्तिरूपः, स्याताम्‌।" दसवां पाठ समाप्त।,इति दशमः पाठः। फिर भी वासनाओं का नाश तो नहीं होता है।,तथापि वासनानां नाशस्तु नास्त्येव। असाधारण धर्मप्रतिपादक वाक्य की जो प्रतिपाद्य वस्तु लक्ष्य होती है वही लक्ष्य होती है।,असाधारणधर्मप्रतिपादकस्य वाक्यस्य यत्‌ प्रतिपाद्यं वस्तु तदेव लक्ष्यं भवति। कपर्दिनः इसका निर्वचन करो?,कपर्दिनः इत्यस्य निर्वचनं कुरुत? आ वामश्वासः ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,आ वामश्वासः... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। """उरःप्रभृतिभ्यः कप्‌"", ""इनः स्त्रियाम्‌, ""शेषाद्विभाषा"" ये तीन सूत्र कप् प्रत्यय विधायक हैं।","""उरःप्रभृतिभ्यः कप्‌"", ""इनः स्त्रियाम्‌, ""शेषाद्विभाषा"" इति सूत्रत्रयं कप्प्रत्ययविधायकम्‌।" कैसे यह मनु के प्रश्‍न।,कथम्‌ इति मनोः प्रश्नः। "वह वर्षा करने वाला कर्ता है, पर्जन्यरूप है यह उसका अर्थ है।",सेक्त्रे वृष्टिकर्त्रे पर्जन्यरूपायेत्यर्थः। धन के द्वारा ही वर्तमान समय में सबकुछ सम्पादित होता है।,धनेन हि अद्यतनकाले सर्वं सम्पाद्येत। 9. यत्पर्जन्य कनिक्रदत ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,९. यत्पर्जन्य कनिक्रदत्‌ . ...... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। तथा अयम्‌ (यह) यह शब्दार्थ विशेषणत्व होता है।,अयम्‌ इति शब्दार्थस्य विशेषणत्वम्‌। यह साहित्य गद्यात्मक है।,साहित्यमिदं गद्यात्मकं विद्यते। बर्हिः इस शब्द का क्या अर्थ है?,बर्हिः इति शब्दस्य कः अर्थः। इसलिए कहा गया है- “तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः” इति।,तथाहि सूत्रितं - “तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः” इति। सूर्य अस्तांचल समय में आकाश रक्तरञ्जित होता है।,सूर्यास्तचलसमये आकाशं रक्तरञ्जितं भवति। "बालखिल्य सूक्तों को छोडकर सम्पूर्ण ऋग्वेद संहिता में कितने मण्डल, अनुवाक और वर्ग हैं?",बालखिल्यसूक्तानि विहाय सम्पूर्णयाम्‌ ऋग्वेदसंहितायां कति मण्डलानि अनुवाकाः वर्गाश्च सन्ति? प्रातिशाख्यप्रदीपशिक्षा- इस पाण्डित्य पूर्ण शिक्षा शास्त्र को सदाशिव पुत्र बालकृष्ण नाम के किसी विद्वान ने की है।,प्रातिशाख्यप्रदीपशिक्षा- इदं पाण्डित्यपूर्ण शिक्षाशास्त्रं सदाशिवपुत्रेण बालकृष्णनाम्ना केनापि विदुषा कृतम्‌ अस्ति। "उससे तिङ, शतृ-शानच्‌ ये ग्रहण करते है।","तेन तिङ्‌, शतृ-शानच्‌-इत्येते गृह्यते।" (क) काम्यकर्म के द्वारा (ख) निषिद्ध के द्वार (ग) नित्यादिकर्मो के द्वार (घ) ब्रह्मज्ञान के द्वारा अनुबन्ध कितने होते हैं तथा वे कौन-कौन से हैं।,(क) काम्यकर्मणा (ख) निषिद्धेन (ग) नित्यादिना (घ) ब्रह्मज्ञानेन अनुबन्धाः कति के च। इस प्रकार से यह आशङ्का सत्य प्रतीत होती है।,एवम्‌ आशङ्कायां सत्याम्‌ उच्यते । वे सर्वकार्य सिद्धि के लिए अपने उपास्यदेव को बुलाते हैं।,ते सर्वकार्यसिद्ध्यर्थ स्वोपास्यदेवम्‌ आह्वयन्ति। इस प्रकार के अवयवों से युक्त स्थूलशरीर होता है।,एतादृशैः अवयवैः युक्तं भवति स्थूलशरीरम्‌। इसलिए नित्यादि कर्मों के द्वारा जिस पुरुष का चित्त निर्मल होता है।,अतः नित्यादिकर्मणा यस्य पुरुषस्य चित्तं निर्मलं भवति । 1 मोक्ष ही परम पुरुषार्थ हैं ।,१. मोक्ष एव परम पुरुषार्थः। न्याय शास्त्र के तकसंग्रह इस ग्रंथ का दीपिका सहित ज्ञान रखता हो।,न्यायशास्त्रस्य तर्कसंग्रह इति ग्रन्थं दीपिकासहितं जानाति। ऋग्वेद में तीन प्रमुख देवों में अग्नि का दूसरा स्थान है।,ऋग्वेदे त्रिषु प्रमुख्यदेवेषु अग्नेः स्थानं द्वितीयम्‌। "वह पाशक्रीडा में पराजित होने पर ऋण लेता है, अन्य घर में आत्मा को छुपाता है।","सः पाशक्रीडायां पराजितः सन्‌ ऋणं करोति , परस्य गृहे आत्मानं गोपायति ।" ऋग्वेद की शाकल-वाष्कल-आशश्वालायन- शांख्यायन-माण्डूकायन-नाम की पांच मुख्य शाखा है।,ऋग्वेदस्य शाकल-वाष्कल-आश्‍श्वलायन-शांख्यायन-माण्डूकायन- नामधेयाः पञ्च मुख्याः शाखाः सन्ति। परमात्मा से सभी उत्पन्न होते है फिर हिरण्यगर्भ उनमें आत्मसत्ता के संस्थापक रूप में कहलाता है और बल का दाता भी वो ही है।,"परमात्मनः सर्वे उत्पद्यन्ते तस्मात्‌ हिरण्यगर्भः आत्मनां दाता, किञ्च बलस्य अपि दाता स एव।" "21. “परार्थाभिधानं वृत्तिः"" यह वृत्ति का लक्षण है।","२१. ""परार्थाभिधानं वृत्तिः"" इति वृत्तिलक्षणम्‌।" "अर्थात्‌ पूर्व में कोई भी पद नहीं है उन दोनों के, इस प्रकार के आहो उताहो इन अव्ययों से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।","अर्थात्‌ पूर्वं किमपि पदं नास्ति ययोः, एतादृशाभ्याम्‌ आहो उताहो इत्यव्ययाभ्यां युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति।" रागादि वासनाओं के द्वारा अनादिकाल विद्यमान चित्तवृत्ति का स्तब्धी भाव अखण्डवस्तु के अवलम्बन से कषाय होता है।,रागादिवासनया अनादिकालात्‌ विद्यमानया चित्तवृत्तेः स्तब्धीभावः अखण्डवस्त्वनवलम्बनं च कषायः। . केन उपनिषद्‌ किस अनुवाक में है?,केनोपनिषद्‌ कस्मिन्‌ अनुवाके अस्ति? "सरलार्थ - जिसका कभी विनाश नही होता है, जिसके मधुर से पूर्ण तीन पैर (मनुष्यों के लिये) अपनी शक्ति से आनन्द देता है, जो एक होता हुआ भी तीनधातुओ को, पृथिवी को, आकाश को तथा सम्पूर्ण लोक को धारण करता है (उस विष्णु के प्रति मेंरी शक्तिशाली स्तुति जाये)।","सरलार्थः- अक्षीयमाणम्‌, यस्य मधुपूर्णं पादत्रयं (मनुष्येभ्यः) स्वशक्त्या आनन्दयति, यः एकाकी एव त्रीन्‌ धातून्‌, पृथिवीम्‌, आकाशं तथा सम्पूर्ण लोकं धारयति (तं विष्णुं प्रति मम शक्तिशाली स्तुतिः गच्छेत्‌)।" मीमांसकों का कहना है की स्मृति संबंधी शास्त्रों में और लौकिक ग्रन्थों में आत्माश्रयत्व दोषरूप से गिनते हैं।,मीमांसकाः कथयन्ति यत्‌ स्मृतिसम्बन्धिशास्त्रेषु लौकिकग्रन्थेषु च आत्माश्रयत्वदोषः दोषरूपेण गण्यते। उससे यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - शकटि शकटी शब्दों के अक्षर - अक्षर को क्रम से उदात्त होता है।,ततश्च अत्र सूत्रार्थो भवति- शकटिशकट्योः शब्दयोः अक्षरम्‌ अक्षरं पययिण उदात्तो भवति इति। अब उसका विस्तार आवश्यक है।,इदानीं तस्य विस्तारः आवश्यकः। बहुत काल पहले ही महर्षि पाणिनि ने सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय के स्वर निर्णय के लिए सूत्रों को रचना की।,बहोः कालात्‌ पूर्वमेव महर्षिः पाणिनिः निखिलस्यापि वैदिकवाङ्मयस्य स्वरनिर्णयार्थं सूत्राणि रचितवान्‌। "22. विधिपूर्वक वेदाध्ययन, वेदार्थ का ज्ञान, काम्यनिषिद्धकर्मों का परित्याग तथा नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित तथा उपासनाओं का अनुष्ठान इत्यादि कर्म यदि पूर्व जन्म में किये हुए रहते हैं तो भी उनका फल तो प्राप्त होता ही है।","२२. विधिपूर्वकं वेदाध्ययनम्‌, वेदार्थज्ञानम्‌, काम्यनिषिद्धकर्मणोः परित्यागः, नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानाम्‌ अनुष्ठानम्‌ च इत्यादिकर्माणि पूर्वजन्मसु कृतानि चेदपि तेभ्यः फलं लभ्यते।" अपश्यम्‌ - दृश्‌-धातु से लङ्‌-लकार उत्तमपुरुष एकवचन में अपश्यम्‌ यह रूप बनता है।,अपश्यम्‌- दृश्‌-धातोः लङ्-लकारे उत्तमपुरुषैकवचने अपश्यम्‌ इति रूपम्‌। इस प्रकार से वो तीनों कालों में नहीं होते हैं।,अतः तानि कालत्रये न तिष्ठन्ति। मन ही दूर जाने वाला है।,मनो हि दूरङ्गमम्‌। जैस छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है - “उत तमादेशम्‌ अप्राक्ष्यः येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌” (6/1/3)।,यथा- छान्दोग्योपनिषदि आम्नायते - “उत तमादेशम्‌ अप्राक्ष्यः येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्‌” (६/१/३) इति। उन फलों में कामनाओं का परित्याग करके चित्त की शुद्धि के लिए उपासनओं को कर सकते हैं।,तेषु फलेषु कामनाम्‌ परित्यज्य चित्तशुद्ध्यर्थम्‌ अपि उपासनं कर्तुं शक्यते। “शेषे” इस सूत्र से शेषे पद की अनुवृत्ति होती है।,"""शेषे"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ शेषे इति पदमनुवर्तते ।" न उदात्तस्वरितोदम्‌ अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ ये सूत्र में आये हुए पदच्छेद है।,न उदात्तस्वरितोदम्‌ अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ इति सूत्रगतपदच्छेदः। "सूत्र में अचि इस पद ग्रहण से स्वप्यात्‌, हिंस्याद्‌ इत्यादि में आद्युदात्त स्वर नहीं होता है अजादि लसार्वधातुक के अभाव होने से।","सूत्रे अचि इति पदग्रहणात्‌ स्वप्यात्‌, हिंस्याद्‌ इत्यादिषु न आद्युदात्तस्वरः अजादिलसार्वधातुकस्य अभावाद्‌ इति।" जिस प्रकार से अद्वैत विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत मतों का समन्वय श्रीरामकृष्ण के दर्शन में प्राप्त होता है।,तथाहि अद्वैत-विशिष्टाद्वैत- द्वैतमतानां समन्वयः श्रीरामकृष्णदर्शने लभ्यते। जहाँ समास विकल्प से किया जाता है वहाँ लौकिक स्वपदविग्रहः सम्भव होता है।,यत्र समासः विकल्पेन विधीयते तत्र लौकिकः स्वपदविग्रहः सम्भवति। क्योंकि काम ही अनात्म का फल विषय होता है।,यतो हि कामः अनात्मफलविषयः। प्राचीनकाल से ही नदिया बहती है।,प्राचीनकालतः नद्यः प्रवहन्ति। सायणाचार्य के अनुसार कर्मफल को यह उसका अर्थ होता है।,सायणाचार्यमतेन कर्मफलम्‌ तदर्थो भवति। "इस प्रकार दधि आज्यादि द्रव्य गवादि पशु, ऋगादि चारों वेद, ब्राह्मण आदि मनुष्य, प्रकृतिस्थ सूर्यचन्द्र आदि सभी उसी प्रजापति के अङऱगों से उत्पन्न होने से कल्याणकारी है।","एवंरूपेण दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशवः, ऋगादिवेदाः, ब्राह्मणादयो मनुष्याः, प्रकृतिस्थसूर्यचन्द्रादयः सर्वे एव तस्यैव प्रजापतेः अङ्गभूताः सन्तीति शिवम्‌।" अथर्ववेद का यह ही ब्रह्मवेद नाम से जानने का मुख्य कारण है।,अथर्ववेदस्य ब्रह्मवेदनाम्नः इदम्‌ एव मुख्यकारणम्‌ अस्ति। मण्डल को ही सूर्य का निवास स्थान कहते है।,मण्डलं हि सूर्यस्य वपुःस्थानीयम्‌। तितिक्षा “तितिक्षा शीतोष्णादिद्वन्द्रसहिष्णुता” इस प्रकार से कही गयी है।,तितिक्षा- “तितिक्षा शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता” इति उक्तम्‌। "व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, शिक्षा, कल्प तथा छन्द ये छ: वेदाङ्ग होते है।",व्याकरणं निरुक्तं ज्योतिषं शिक्षा कल्पः छन्दः च इति षड्‌ वेदाङ्गानि। कृ धातु से शतृप्रत्यय और शानच्‌ प्रत्यय होने पर क्रमके अनुसार कुर्वन्‌ और कुर्वाणः ये दो रूप हैं।,कृधातोः शतरि शानचि च यथाक्रमं कुर्वन्‌ कुर्वाणः चेति रूपद्वयम्‌। एव आदीनाम्‌ अन्तः ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,एव आदीनाम्‌ अन्तः इति सूत्रगतपदच्छेदः। बहुभगालः- बहुषु भगालेषु संस्कृतः इस विग्रह में द्विगुसमास करने पर बहुभगालः यह रूप बनता है।,बहुभगालः- बहुषु भगालेषु संस्कृतः इति विग्रहे द्विगुसमासे बहुभगालः इति रूपम्‌। श्रुति का अतीन्द्रियार्थ प्रतिपत्ति में हमारा प्रमाण होता है।,श्रुतिर्हि अतीन्द्रियार्थप्रतिपत्तौ अस्माकं प्रमाणम्‌। इसके बाद पर निपात विधायक सूत्रों में “राजदन्तादिषु परम्‌” का उल्लेख है।,"ततः परनिपातविधायकेषु ""राजदन्तादिषु परम्‌"" इत्युल्लेखार्हम्‌।" "इसी प्रकार श्रद्धावान भजन करने वाले भक्तो का, भोगार्थियो का और यजमानो का भी प्रिय करो।",एवं श्रद्धावत्सु भोजेषु भोक्तृषु भोगार्थिषु यज्वसु यष्टृसु कृतयज्ञेषु जनेषु च इदमुदितमुक्तं प्रियं कृधि कुरु। लोकों का वैसा अनुभव नहीं होता है।,किन्तु लोकानां तथा अनुभवः नास्ति। यहाँ निपातन से पञ्चमी का अलुक्‌ और षष्ठी का लुक होता है।,अत्र निपातनात्‌ पञ्चम्याः अलुक्‌ षष्ठ्याश्च लुक्‌। 3. वि वृक्षान्‌ हन्त्युत ... इत्यादिमन्त्र को व्याख्या करो।,३. वि वृक्षान्‌ हन्त्युत .... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। मुण्डक उपनिषद्‌ में।,मुण्डकोपनिषदि। वहाँ समास वृत्ति में जैसे:- वृत्तिलक्षणसङ्गमनम्‌। जैसे:-राज्ञः पुरुषः यहाँ पर राज्ञः इस पद का राजसम्बन्धी अर्थ है।,तत्र समासवृत्तौ यथा वृत्तिलक्षणसङ्गमनम्‌। यथा राज्ञः पुरुषः इत्यत्र राज्ञः इति पदस्य राजसम्बन्धी इत्यर्थः। कारण शरीर अविद्यात्मक होता है।,अविद्यात्मकं कारणशरीरमित्यर्थः। वह अविकार्य अचल होती हुई भी स्वर्ग को चली जाती है।,"सः अविकार्यः, अचलः सन्‌ अपि स सर्वगतः।" भयशब्द के सुबन्तत्व के अभाव से भय प्राकृतिक लक्षणा है।,भयशब्दस्य सुबन्तत्वाभावाद्‌ भयप्रकृतिके लक्षणा। यहाँ सूत्र में “स्त्रियाम्‌” यह अधिकार आता है।,"अत्र सूत्रे ""स्त्रियाम्‌"" इति अधिकारः आगच्छति।" अत: सूत्र का अर्थ होता है - गुण को कहने वाले शब्दों के उत्तरपद रहते विस्पष्टादि पूर्वपदों को प्रकृतिस्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति- गुणवचनेषु उत्तरपदेषु विस्पष्टादीनां पूर्वपदानां प्रकृतिस्वरः भवति इति। यस्य त्री पूर्णा... इत्यादिमन्त्र में पृथिवी शब्द का क्या अर्थ है?,यस्य त्री पूर्णा... इत्यादिमन्त्रे पृथिवीशब्दस्य कः अर्थः? व्याख्या - जब शरीर के उत्पन्न होने पर देवों ने आगे की सृष्टि के सिद्धि के लिए बाह्यद्रव्य के उत्पन्न न होने से हवि से पुरुष को ही मन से हविषत्व का संकल्प करके पुरुष से मानस यज्ञ को किया।,व्याख्या- यत्‌ यदा पूर्वोक्तक्रमेणैव शरीरेषूत्पन्नेषु सत्सु देवाः उत्तरसृष्टिसिद्ध्यर्थ बाह्यद्रव्यस्यानुत्पन्नत्वेन हविरन्तरासम्भवात्‌ पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्त्वेन संकल्प्य पुरुषेण पुरुषाख्येन हविषा मानसं यज्ञम्‌ अतन्वत अन्वतिष्ठन्‌। 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस सूत्र का ही यहाँ निषेध है।,उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इति सूत्रस्य एव अत्र निषेधः। 9. स्त्रीत्व का शास्त्रीय लक्षण क्या है?,९ . स्त्रीत्वस्य शास्त्रीयं लक्षणं किम्‌? एकादेश: उदात्तेन उदात्तः ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,एकादेशः उदात्तेन उदात्तः इति सूत्रगतपदच्छेदः। पुरुष की जांघो से कौन उत्पन्न हुए?,पुरुषस्य ऊरुभ्यां कौ उत्पन्नौ। यही सूत्र का अर्थ आता है।,इति सूत्रस्यार्थः समायाति। 11. अज्ञान की त्रिगुणात्मक प्रतिपादिका श्रुति कौन-सी है?,११. अज्ञानस्य त्रिगुणात्मत्वप्रतिपादिका श्रुतिः का? देहारम्भ के प्रारब्धकर्म नाश के अभाव से देह के नाश होने पर ही होते हैं।,परन्तु देहारम्भकस्य प्रारब्धकर्मणः नाशाभावात्‌ देहस्य नाशो न भवति। पण्डित तो देह रूप में जीव में ही आत्मबुद्धि की कल्पना करता है।,पण्डितम्मन्यमानस्तु देहे जीवे च आत्मबुद्धिं कल्पयति। इनसे भिन्न अन्य कोई दूसरी शिक्षा प्राप्त नहीं होती है।,एतद्भिन्ना न अन्या काऽपि शिक्षा उपलभ्यते। अज शब्द प्रातिपदिक है।,अज इति प्रातिपदिकम्‌। और जिसमें तत्पुरुष समस्यमान पद समानविभक्ति नहीं है वह है व्यधिकरण तत्पुरुषः।,एवं यस्मिन्‌ तत्पुरुषे समस्यमानानि पदानि समानविभक्तिकानि न सन्ति स व्यधिकरणः तत्पुरुषः। इसके मुख से इन्द्र और अग्नि देव्‌ उत्पन्न हुए।,अस्य मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च देवावुत्पन्नौ। दोनों स्थानो में यह मन्त्र प्रयाग परक है।,द्वयोः स्थानयोः मन्त्रयोऽयं प्रयागपरकः अस्ति। 10. सामर्थ्य से क्षिप्रवचनः।,१०. सामर्थ्यात्‌ क्षिप्रवचनः। 9 तितिक्षा क्या होती है तथा तितिक्षा का विषय क्या होता हे?,९. तितिक्षा का। तितिक्षाविषयः कः। वाक्‌ च अर्थः च इस वागर्थो इसमें इतरेतरयोगद्वन्द्व समास है।,वाक्‌ च अर्थश्च इति वागर्थौ इति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः। (क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) उपपत्ति 11. तात्पर्यनिर्णायक छ: लिङ्गो में यह अन्यतम है।,(क) विवेकः (ख) वैराग्यम्‌ (ग) प्रयोजनम्‌ (घ) उपपत्तिः 11. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ अन्यतमम्‌॥ ( ८.२.६ ) सूत्र का अर्थ- पद आदि अनुदात्त के परे रहते उदात्त के साथ में हुआ एकादेश विकल्प से स्वरित होता है।,(८.२.६) सूत्रार्थः- अनुदात्ते पदादौ परे उदात्तेन सह एकादेशः स्वरितो वा भवति। इसिलए तदुपाधिकृत विशेष भी नहीं होता है।,अतः तदुपाधिकृतः विशेषोऽपि नास्ति। इसलिए उनमें ज्ञानोदय दिखाई देता है।,अतः तेषु ज्ञानोदयः दृश्यते। तब वृष्टिलाभ से मनुष्य संतुष्ट होते है।,तदा वृष्टिलाभेन मनुष्यास्तुष्यन्तीत्यर्थः। "इसका अर्थ है की नाभिचक्र,;हदय, आदिस्थानों में देवमूर्ति का चिन्तन करके उसमें चित्त को स्थित करना ही धारणा है।",अस्यार्थो हि नाभिचक्र-हृदयपुण्डरीकादिषु देवमूर्तिप्रभृतिषु चित्तस्थैर्यं हि धारणा। जैसे दीपक अन्धकार का विनाशक होता है उसी प्रकार से ब्रह्मज्ञान भी अज्ञान का विनाशक होता है।,आलोकः यथा अन्धकारस्य विनाशकः ब्रह्मज्ञानमपि तथैव अज्ञानस्य विनाशकम्‌। इनके विवेचना विषयों में भी भेद है।,अनयोः विविच्यविषये अपि भेदः अस्ति। इस प्रकार कापिष्ठल संहिता में ऋग्वेद का ही महान्‌ प्रभाव दिखाई देता है।,वेद इव ग्रन्थोऽयम्‌ अष्टकेषु अध्यायेषु च विभक्तोऽस्ति। एवम्‌ कापिष्ठलसंहितायाम्‌ ऋग्वेदस्यैव महान्‌ प्रभावः परिलक्ष्यते। वाक्‌ इन्द्रिय के बिना हम लोग कहने में असमर्थ होते हैं।,वागिन्द्रियं विना कथने वयम्‌ असमर्था एव। 8 अजहत्‌ लक्षणा किसे कहते हैं?,"८. अजहल्लक्षणा नाम किम्‌, ?" इसलिए परमेश्व का मिथ्यात्व नहीं होता है।,अतः न परमेश्वरस्य मिथ्यात्वम्‌। "“प्रशंसावचनैश्च"" इस सूत्र का उदाहरण दीजिये।","""प्रशंसावचनैश्च"" इति सूत्रस्योदाहरणं देयम्‌।" "लगध-प्रणीत वेदाङ्ग ज्योतिष ग्रन्थ के श्लोकों का रहस्य क्या है, इस विषय का यथार्थ जानने के लिए विद्वानों के लिए भी कठिन है।",लगध-प्रणीतस्य वेदाङ्गज्यौतिषग्रन्थस्य श्लोकानां रहस्यं किम्‌ इत्येतद्‌ वस्तुतः विदुषाम्‌ अपि दुर्गमम्‌। अथर्ववेद के ब्रह्मवेद-अङिगरावेद-अथर्वाङिगरसवेद आदि नाम भी प्रसिद्ध है।,अथर्ववेदस्य ब्रह्मवेद- अङ्गिरोवेद-अथर्वाङ्गिरसवेदादीनि नामानि अपि प्रसिद्धानि सन्ति। अतः सूत्र का अर्थ है - तिङन्त पद से परे इन गोत्रादि शब्द स्वरूप को अनुदात्त होते है कुत्सन आभीक्ष्ण्य अर्थ का गम्यमान होने पर।,अतः सूत्रस्य अस्य अर्थः भवति- तिङन्तात्‌ पदात्‌ पराणि एतानि गोत्रादीनि शब्दस्वरूपाणि अनुदात्तानि भवन्ति कुत्सनाभीक्ष्ण्यार्थयोः गम्यमानयोः इति। आचार्य वसिष्ठ ने कहा है कि जीवन्मुक्त का जो देह इन्द्रियों के द्वारा जो व्यवहार किया जाता है वह लोक में होता है वह तत्वतः नहीं होता है।,आचार्यः वशिष्ठः उक्तवान्‌ यत्‌ देहेन्द्रियैः व्यवहारः क्रियते चेद्‌ अपि जीवन्मुक्तस्य केवलं तत्‌ लोकतः न तत्त्वतः। हि च यहाँ पर हि यह क्या है?,हि च इत्यत्र हि इति किम्‌? अग्ने यं यज्ञ ... इत्यादिमन्त्र को व्याख्या करो।,अग्ने यं यज्ञ... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। राजा के लिए शान्ति पौष्टिक कर्म की तुलना में पुरुष आदि के दान की महती आवश्यकता होती है।,राज्ञः कृते शान्तिकपौष्टककर्मणः तुलापुरुषादिदानस्य च महती आवश्यकता भवति। उपनिषदों में कहा भी गया है- “ओमित्येव ध्यायथ आत्मानम्‌” इति।,"आम्नातं च - “ओमित्येव ध्यायथ आत्मानम्‌"" इति।" "इतरेतरयोगद्वन्द समास/श्रितश्च अतीतश्च पतिश्च गतश्च अत्यस्तश्च प्राप्तश्च आपन्नश्च-श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नाः, तैः श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नै; यह विग्रह है।","इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः। श्रितश्च अतीतश्च पतितश्च गतश्च अत्यस्तश्च प्राप्तश्च आपन्नश्च श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नाः, तैःश्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः इति विग्रहः।" "अर्थात्‌ जिस पद में यत्‌ शब्द विद्यमान है, उससे परे जो तिङन्त पद को नित्य ही अनुदात्त नहीं होता है, यह सूत्र का अर्थ है।",अर्थात्‌ यस्मिन्‌ पदे यच्छब्दः विद्यते ततः परं यत्‌ तिङन्तं पदं तत्‌ नित्यम्‌ अनुदात्तं न भवति इति सूत्रार्थः समायाति। इन वाक्यों का अभिप्राय साहित्य शास्त्रों में अनभिज्ञ व्यक्ति जान नहीं सकता है।,एतेषां वाक्यानाम्‌ अभिप्रायं साहित्यशास्त्रेषु अनभिज्ञः ज्ञातुं न प्रभवति। आचार्य शङ्कर के द्वारा उनके विषय में यह कहा जाता है की दो रूपों में ही ब्रह्म को समझना चाहिए।,आचार्येण शङ्करेण तद्विषये उच्यते - 'द्विरूपं हि ब्रह्म अवगम्यते । वेद में काव्य तो अपने आप ही है।,वेदे काव्यत्वं स्वतः एव वर्तते। "सृष्टी के आरम्भ में वह ही अग्नि की रचना करता है, और प्रलयकाल में विस्तृत जल को अपने उदर में स्थापित करता है जिससे सृष्टि रचना दुबारा हो।",सृष्ट्यारम्भे सः अग्निं सृजति किञ्च प्रलयकाले समावृतं पयः स्वोदरि संस्थापयति येन सृष्टिः पुनजयित। जैस विषं भुङक्ष्व।,यथा- विषं भुङ्क्ष्व । "यहाँ पर भी एकश्रुतिः यह विशेषण पद नहीं है, अपितु विशेष्य पद ही है।","अत्रापि एकश्रुतिः इति न विशेषणपदम्‌, अपि तु विशेष्यपदमेव।" "और वे ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्‌।",ते च ब्राह्मणम्‌ आरण्यकम्‌ उपनिषच्चेति। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में भी इस विधा से लौकिक संस्कृति के साथ सम्बद्ध विषयों की उपलब्धि इस मण्डल की विशिष्टता को सूचित करती है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलेऽपि एवंविधया लौकिकसंस्कृत्या सह सम्बद्धविषयाणां समुपलब्धिः अस्य मण्डलस्य विशिष्टतां सूचयति। जीवन का प्रधान लक्ष्य क्या है ?,जीवनस्य प्रधानं लक्ष्यं किम्‌? 32. वैराग्य जनन के द्वारा मोक्ष का क्या कारण होता है?,३२. वैराग्यजननद्वारा मोक्षकारणं किम्‌ ? "इसके बाद समास का प्रातिपदिक संज्ञक का अवयनभूत सुप का लोपविधायक को ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" सूत्र की व्याख्या की गई है।","ततः समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञकस्य अवयवभूतस्य सुपो लोपविधायकं ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इति सूत्रं व्याख्यातम्‌।" रस विधान विषय पर टिप्पणी लिखिए।,रसविधानविषये टिप्पणी लेख्या। इसके बाद “'कृत्तद्धितसामासाश्च'' इस सूत्र से प्रातिपादिक होने से सुप्‌ ङ्स का लोप होने पर उपकृष्ण रूप सिद्ध होता है।,"ततः ""कृत्तद्धितसमासाश्च"" इत्यनेन समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सुपः ङसो लुकि उपकृष्ण इति सिध्यति।" घटादि ब्रह्म में अध्यस्त होते है।,घटादयः ब्रह्मणि अध्यस्ताः। "“एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इस सूत्र से उदात्त अनुदात्त का, और उदात्त स्वरित के स्थान में जो एकादेश होता है, वह एकादेश उदात्त होता है।","""एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रेण उदात्तानुदात्तयोः उदात्तस्वरितयोः च स्थाने यः एकादेशः भवति स एकादेशः उदात्तः भवति इति।" राज्ञः पुरुष उस लौकिक विग्रह में राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इस अलौकिक विग्रह में राजन्‌ ङस्‌ इस षष्ठयन्त सुबन्त पुरुष सु इस समान अर्थ से सुबन्त के साथ प्रकृत सूत्र से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,राज्ञः पुरुष इति लौकिकविग्रहे राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इत्यलौकिकविग्रहे राजन्‌ ङस्‌ इति षष्ठ्यन्तं सुबन्तं पुरुष सु इति समर्थन सुबन्तेन सह प्रकृतसूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। "जो अप्रमेय, निश्चल, आत्मतत्त्व उसको मन से ही देखना चाहिए।","यद्‌ अप्रमेयं, निश्चलम्‌, आत्मतत्त्वं तद्‌ मनसा एव द्रष्टव्यम्‌।" 3. इन्द्र का तृतीयपराक्रम क्या था?,३. इन्द्रस्य तृतीयं वीर्यं किम्‌ आसीत्‌? फल भोग के बाद फिर उस फल को भोगने को कोई भी इच्छा करता है तो उसे वह कर्म फिर करना चाहिए।,फलभोगात्‌ परं पुनः तत्‌ फलं कोऽपि इच्छति चेत्‌ तत्‌ कर्म पुनः कर्तव्यम्‌। "याज्ञिक विषयों में कुछ विरोध भी प्रतीत होता है, वहाँ शुद्ध करना भी ब्राह्मण का उद्देश्य है।","याज्ञिकविषयेषु क्वचिद्विरोधः अपि प्रतीतो भवति, तत्र परिष्कारः अपि ब्राह्मणस्य उद्देश्यम्‌ अस्ति।" क्या प्रकृति से प्राणप्रद शक्ति का संचार होता है?,किं प्रकृत्यां प्राणप्रदां शक्तिं सञ्चारयति? "यहाँ ऋषि आदित्ययाज्ञवल्क्य, त्रिष्टुप्‌ छन्द, और मन देवता है।","अत्र ऋषिः आदित्ययाज्ञवल्क्यः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, मनश्च देवता।" 1. पुरुषसूक्त का सार लिखो।,पुरुषसूक्तस्य सारं लिखत। 6 क) सूक्ष्मभूतों के सात्विक अंशों से।,६.क) सूक्ष्मभूतानां सात्त्विकांशेभ्यः। अतः प्रकृत वार्तिक से यहाँ नामवाचक देवदत्तस्य इस पद के उपोत्तमस्य अर्थात्‌ अन्त्य से पूर्व का विकल्प से उदात्त स्वर होता है।,अतः प्रकृतवार्तिकेन अत्र नामवाचकस्य देवदत्तस्य इति पदस्य उपोत्तमस्य अर्थात्‌ अन्त्यात्‌ पूर्वस्य विकल्पेन उदात्तस्वरः भवति। "में देह हूँ, में स्थूल हूँ, मैं काना हूँ, यह मेरा है।",अहं देहः। अहं स्थूलः। अहं काणः। मम इदम्‌ । यहाँ पर स्तुति का क्या कारण है।,किमत्र स्तुतौ कारणम्‌। "अनर्थक अविवक्षित है, परन्तु प्ररोचना से तो प्रवृति और द्वेष से निवृति होने से उसकी विवक्षा है।",अनर्थकमित्यविवक्षितं प्ररोचनया तु प्रवर्त्तते इति द्वेषान्निवर्त्तते इति तयोर्विवक्षा।' 1. आत्मनेपद रा-धातु से लट्‌ मध्यमपुरुषबहुवचन में।,१. आत्मनेपदिनः रा-धातोः लटि मध्यमपुरुषबहुवचने। सरलार्थ - प्रजापति प्रथम उत्पन्न देव हैं।,सरलार्थः- प्रजापतिः प्रथमः उत्पन्नः देवः। "लेकिन वह नहीं दृष्ट विरोध के कारण नहीं होता है, काम्यानुष्ठानायासदुःख से केवलनित्यानुष्ठानायसुद:ख भिन्न दिखाई नहीं देते है।","न च तदस्ति, दृष्टविरोधात्‌ ; न हि काम्यानुष्ठानायासदुःखात्‌ केवलनित्यानुष्ठानायासदुःखं भिन्नं दृश्यते।" विवेकानन्द के दर्शन के लिए श्रीरामकृष्णदर्शन किसलिए आवश्यक है इसका विस्तार से विचार कीजिए।,विवेकानन्ददर्शनस्य ज्ञानाय श्रीरामकृष्णदर्शनं किमर्थम्‌ आवश्यकमिति विस्तरेण आलोचयत। 1. जिन कर्मों के माध्यम से स्वर्गादि सुखात्म तथा सुखजनक इष्ट फल प्राप्त होता है वे काम्य कर्म कहे जाते हैं।,१. येः कर्मभिः स्वर्गादि सुखात्मं सुखजनकं च इष्टम्‌ फलं लभ्यते तानि कर्माणि काम्यानि। अब फिर प्रश्‍न उत्पन्न होता है की प्रारब्ध के ज्ञान विरोधी होने में क्या कारण है।,अत्र पुनः प्रश्नः जायते यत्‌ प्रारब्धस्य ज्ञानाविरोधे किं कारणम्‌ इति। ये सूक्ष्मभूत व्यवहार समर्थित तथा अपञ्चीकृत भूत भी कहलाते हैं।,एतानि सूक्ष्माणि भूतानि व्यवहारासमार्थानि अपञ्चीकृतभूतानि इत्युच्यन्ते। अनित्य सूखे ही काम कहलाता है।,अनित्यसुखं हि कामः कथ्यते। "स्वर प्रधानता का कारण वेदों में है, उन स्वरों का अर्थ नियन्त्रण है।","स्वरप्रधानतायाः कारणं वेदेषु अस्ति, तेषां स्वराणाम्‌ अर्थनियन्त्रणत्वम्‌।" जैसे -तट शब्द लिङ्गत्रयविशिष्ट अर्थ का वाचक है।,यथा तटशब्दः लिङ्गत्रयविशिष्टस्य अर्थस्य वाचकः अस्ति। "यहाँ घर निर्माण के लिए, क्षेत्र जोतने के लिए, बीज बोने के लिए, अन्न उत्पादन के लिए, पुष्टि के लिए, व्यापार के कारण विदेश जाने के लिए और अनेक प्रकार के आशीर्वाद के लिए प्रार्थना की है।","अत्र गृहनिर्माणाय, सीरकर्षणाय, बीजवपनाय, अन्नोत्पादनाय, पुष्ट्यर्थाय, व्यापारहेतवे विदेशगमनाय नानाविधाशीर्वादाय च प्रार्थना कृताऽस्ति।" गाय की स्तुति में प्रयुक्त एक सम्पूर्ण सूक्त (१०.१६९) वैदिक आर्यो की गो विषय में भावना को सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है।,गोः स्तुतौ प्रयुक्तमेकं समग्रसूक्तं (१०.१६९) वैदिकानाम्‌ आर्याणां गोविषयिणीं भावनां सुन्दरतया अभिव्यक्तं करोति। उससे आहो उताहो इन अव्यय पूर्व से युक्त तिङन्त को शेष में विकल्प से अनुदात्त होता है यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है।,तेन आहो उताहो इत्येताभ्याम्‌ अपूर्वाभ्यां युक्तं तिङन्तं शेषे विकल्पेन अनुदात्तं भवति इति सूत्रार्थः समायाति। व्याधि युक्त आन्तरिक दोषों का नाश होता है।,व्याधिप्रभृतीनाम्‌ अन्तरायाणां च विनाशो भवति। यहाँ ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ सूत्र से ङीप्‌ (1/1) पद है और अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से अत्‌ (5/1) पद की अनुवृत्ति होती है।,"अत्र ""ऋन्नेभ्यो ङीप्‌"" इति सूत्रात्‌ ङीप्‌ (१/१) इति पदम्‌, अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रात्‌ अतः (५/१) इति पदं च अनुवर्तते।" “पथो विभाषा' इस सूत्र का क्या उदहारण है?,"""पथो विभाषा"" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?" ञिति और णिति तद्धित पर में अचों में आदि अच्‌ की वृद्धि होती है।,ञिति णिति च तद्धिते परे अचाम्‌ आदेः अचो वृद्धिः भवति । "पूर्व के पाठों में धातुस्वर, प्रातिपदिक स्वर, फिट्‌-स्वर, और प्रत्यय स्वर हमारे द्वारा पढ़े गए हैं।","पूर्वतनेषु पाठादिषु धातुस्वराः, प्रातिपदिकस्वराः, फिट्-स्वराः, प्रत्ययस्वराश्च अस्माभिः पठिताः सन्ति।" "पाठगत प्रश्नों के उत्तर ऋषिदीर्घतमा औचथ्य, छन्द विराट्‌ त्रिस्टुप्‌, देवता विष्णु।","पाठगतप्रश्नानाम्‌ उत्तराणि ऋषि: दीर्घतमा औचथ्यः, छन्दः विराट्‌ त्रिष्टुप्, देवता विष्णुः।" २०॥ व्याख्या - जो प्रजापति आदित्य रूप देव के लिए दीखता है।,२०॥ व्याख्या- यः प्रजापतिः आदित्यरूपो देवेभ्यः अर्थाय आतपति द्योतते। साकाङ्क्षम् यह प्रथमान्त पद है।,साकाङ्क्षमिति प्रथमान्तं पदम्‌। अन्यथा वहाँ प्रकृत सूत्र से उदात्त होने का विधान नहीं है।,अन्यथा तत्र प्रकृतसूत्रेण उदात्तत्वं न विधीयते। "वृत्र का हन्ता वह ही है, अतः वृत्रघ्न नाम भी है।","वृत्रस्य हन्ता सः, अतः वृत्रघ्नः इति नाम।" निर्विकल्पक समाधि में अखण्डाकार चित्तवृत्ति का उदय होने पर अज्ञान का नाश हो जाता है।,निर्विकल्पकसमाधौ अखण्डाकारचित्तवृत्तेरुदये सति अज्ञानं नश्यति। अनुदात्तानि इस प्रथमा बहुवचनान्त पद की अनुवृति आती है।,अनुदात्तानि इति प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। शकन्ध्वादित्वात्पररूपम्‌ (पा. ६/१/९४) किस प्रकार का विस्तार।,शकन्ध्वादित्वात्पररूपम्‌ (पा. ६/१/९४) कीदृशी तन्वा। जो गर्भ को धारण करता हुआ विशव को अपने अंदर अवस्थित करता है।,यं गर्भं दधाना आपो विश्वात्मना अवस्थिताः । अत देवदत्त इस पद की आमन्त्रित संज्ञा होती है।,अतः देवदत्त इति पदम्‌ आमन्त्रितसंज्ञं भवति। दो बार कहे हुए शब्दों के पर रूप को अनुदात्त हो।,द्विरुक्तस्य परं रूपम्‌ अनुदात्तं स्यात्‌। "अन्य उदाहरण हैं-बालिका, अश्वपालिका, अध्यापिका, तारिका, हारिका, धारिका, परिव्राजिका, शयिका, नायिकाय, गायिका, पाचिका, पाठिका इत्यादि।","अन्यानि उदाहरणानि - बालिका,अश्वपालिका, अध्यापिका, तारिका, हारिका, धारिका, परिव्राजिका, शयिका, नायिका, गायिका ,पाचिका, पाठिका इत्यादीनि।" वहाँ अथर्ववेद की संहिता साहित्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।,तत्र अथर्ववेदस्य संहितासाहित्यम्‌ अतीव महत्त्वपूर्णं वर्तते। "सरलार्थ - हे मरुत, अन्तरिक्ष से हमारे लिए जल प्रदान करो।","सरलार्थः - हे मरुतः , अन्तरिक्षात्‌ अस्माकं कृते जलं प्रयच्छ ।" 9 लक्षणा किसे कहते हैं?,९. लक्षणा नाम किम्‌? जीव उपाधि तन्त्र होता है।,उपाधितन्त्रो भवति जीवः। 29. समास के सामान्यतः कितने भेद हैं?,२९. समासस्य सामान्यतः कति भेदाः? यहाँ पर परीक्षोपयोगी प्रष्टव्य प्रशन दिये गये हैं- 1. अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या लिखो?,अत्र परीक्षोपयोगिनः प्रष्टव्याः प्रश्नाः प्रदीयन्ते- १. अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रस्य सोदाहरणं व्याख्यां लिखन्तु? "अथो उसके बाद, आपके जो बाण है, तम्‌- उसको, अस्मत्‌ - हमारे समीप से, निधेहि - निरन्तर धारण कीजिए, उस बाण को हमारे हाथ में रख दीजिए।","अथो अनन्तरं, तव यः इषुधिः अस्ति, तम्‌ अस्मत्‌ - अस्माकं समीपे, निधेहि - तमिषुदधीम्‌, अस्माकं हस्ते स्थापनं कुरु।" ( ६.१.१६० ) सूत्र का अर्थ- उच्छादि शब्दों को भी अन्तोदात्त होता है।,(६.१.१६०) सूत्रार्थः- अन्त उदात्तः स्यात्‌। "इसी प्रकार ही गङ्गे इस पद से परे यमुने यह पद है, किन्तु वह यमुने पद पाद के आदि में नहीं है, अत आमन्त्रित संज्ञक सम्पूर्ण यमुने इस पद का प्रकृत सूत्र से अनुदात्त स्वर का विधान है।","एवम्‌ एव गङ्गे इत्यस्मात्‌ पदात्‌ परं यमुने इति पदम्‌ अस्ति, किञ्च तत्‌ यमुने इति पदं पादस्य आदौ न वर्तते, अतः आमन्त्रितसंज्ञकस्य सम्पूर्णस्य यमुने इति पदस्य प्रकृतसूत्रेण अनुदात्तस्वरः विधीयते।" "तब प्रस्तुत ही उदाहरण में शुतुद्रि इस पद का सम्बोधनान्त होने से 'सामन्त्रितम्‌' इससे आमन्त्रित संज्ञा होती है, वहाँ सरस्वति इस पद से पर आमन्त्रित संज्ञक शुतुद्रि इस सम्पूर्ण पद की प्रकृत सूत्र से अनुदात्त स्वर प्राप्त होता है, अत उसको हटाने के लिए अपादादौ यह कहा है।","तदा प्रस्तुते एव उदाहरणे शुतुद्रि इति पदस्य सम्बोधनान्तत्वेन 'सामन्त्रितम्‌' इत्यनेन आमन्त्रितसंज्ञा भवति, ततः सरस्वति इत्यस्मात्‌ पदात्‌ परस्य आमन्त्रितसंज्ञकस्य शुतुद्रि इत्यस्य सम्पूर्णस्य पदस्य प्रकृतसूत्रेण अनुदात्तस्वरः प्राप्नोति, अतः तद्वारणाय अपादादौ इति उक्तम्‌।" प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में ओङऱकार उपासना प्राप्त होती है।,प्रथमाध्यायस्य प्रारम्भे ओङ्कारोपासना दृश्यते। "यथा “यमान पार्थिव अग्नि का चैतन्यमयी देवता अग्नि, चक्षु्रह्म सूर्य का अधिष्ठाता सूर्यदेव, आदित्यदेव, या सविता हैं।","यथा दृश्यस्य पार्थिवस्य अग्नेः चैतन्यमयी देवता अग्निः, चक्षुरह्मस्य सूर्यस्य अधिष्ठाता सूर्यदेवः, आदित्यदेवः, सविता वा।" गोष्ठज शब्द का और ब्राह्मणनामधेयस्य ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,गोष्ठजशब्दस्य ब्राह्मणनामधेयस्य चेति सूत्रगतपदच्छेदः। परमात्मा के अधिदैवत सविशेष तीन रूप होते है।,तथा च परमात्मनः अधिदैवतं सविशेषाणि त्रीणि रूपाणि सन्ति। 39. रसास्वादन किसे कहते हैं?,३९. रसास्वादो नाम कः? काम धर्म से उत्पन्न होता है इसलिए अनित्य है।,कामः धर्मजन्यः। अतः अनित्यः। कुत्सितहिसादि का कर्ता अथवा दुर्गमप्रदेश में रहने वाला।,कुत्सितहिंसादिकर्ता दुर्गमप्रदेशगन्ता वा। परमार्थत्व से यह ही स्थिति होती है।,परमार्थत्वेन एषा स्थितिः अस्ति। तब टाप्‌ प्रत्यय परे अकरूप प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व अकार के स्थान पर प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यातइदाप्यसुपः सूत्र से इत्‌ आदेश होने पर कारिक आ स्थिति होती है।,तदा अत्र टापि परे अकरूपप्रत्ययस्थात्‌ कात्‌ पूर्वस्य अतः स्थाने प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः इति सूत्रेण इत्‌ इत्यादेश कारिक आ इति स्थितिः भवति। यौगपद्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण है सचक्रम्‌।,यौगपद्यार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति सचक्रम्‌ इति। उसको पढने वाला अनुब्राह्मण।,तदधीते अनुब्राह्मणी इति। तो आत्मा के जीव भाव का नाश नष्ट नहीं होता है।,तर्हि आत्मनः जीवभावोऽपि न नश्यति । सबकुछ आत्मा के विषय होते हैं।,सर्वमपि आत्मनो विषयो भवति। इस छन्द में चार पाद होते हैं।,अस्मिन्‌ छन्दसि चत्वारः पादाः भवन्ति। "अतः निष्काम कर्म द्वारा जब चित्त की शुद्धि होती है, तब यहाँ फलभोग से विरागवान होकर शम, दम आदि छः सम्पत्ति को प्राप्त करके संसार ताप अग्नि को सहन नहीं करने वाला मुमुक्षु यदि ब्रह्म गुरु के समीप जाकर उनके मुख से वेदान्त वाक्यों को सुनकर मनन और निदिध्यासन का आचरण करता है तब समाधि में ब्रह्म में लीन हो तब उसकी माया नष्ट होती है।",अतः निष्कामकर्मद्वारा यदा चित्तशुद्धिः भवति तदा इहामुत्रफलभोगविरागवान्‌ शमदमादिषट्सम्पत्तिम्‌ अर्जयित्वा संसारतापदाहम्‌ असहमानो मुमुक्षुः यदि ब्रह्मज्ञं गुरुमुपसद्य तन्मुखाद्‌ वेदान्तवाक्यं श्रुत्वा मननं निदिध्यासनं च आचरति तदा समाधौ ब्रह्मणि लीनस्य तस्य माया विध्वस्ता भवति। कृष विलेखने इस धातु से घज्‌प्रत्यय करने पर कर्षः यह रूप बनता है।,कृष विलेखने इति धातोः घञ्ग्रत्यये कर्षः इति रूपम्‌। सह धातू से असुन्‌ प्रत्यय उणादि में।,सहधातोः असुन्‌ उणादौ। 10. शश्वद्ध झष... इस मन्त्र के अंश में शश्वच्छब्द किस प्रकार का है?,१०. शश्वद्ध झष... इति मन्त्रांशे शश्वच्छब्दः अत्र कीदृशः? यह मेरा आदेश है।,इदम्‌ अस्माद्देशादित्यर्थः। खलप्वि आशा इस स्थिति में 'इको यणचि' इस सूत्र से अच्‌ पर होने पर खलप्वि इसके इकार के स्थान में यण्‌ आदेश होने पर खलप्व्याशा यह रूप सिद्ध होता है।,खलप्वि आशा इति स्थिते 'इको यणचि' इति सूत्रेण अचि परे खलप्वि इत्यस्य इकारस्य स्थाने यणादेशे खलप्व्याशा इति रूपं सिध्यति। कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण का नाम तैत्तिरीयब्राह्मण है।,कृष्णयजुर्वेदस्य ब्राह्मणस्य नाम तैत्तिरीयब्राह्मणम्‌। तब कहतें हैं की समाधि तो निदिध्यासविशेष ही होती है।,इति चेदुच्यते समाधिस्तु निदिध्यासनविशेषः। "सभी मंत्रों की संख्या दस हजार चार सौ सडसठ (१०४६७) है ऐसा शाकल्य ऋषि मानते हैं, शौनक अनुक्रमणि में तो दस हजार पांच सौ अस्सी (१०५८०) मन्त्र बताये गये हैं।","मन्त्राश्च सर्वे सप्तषष्ट्युत्तरचतुःशताधिकदशसहस्रमिताः (१०४६७) इति शाकल्यर्षिः, शौनकानुक्रमण्यः तु अशीत्युत्तर-पञ्चशताधिक-दशसहस्रमितान्‌( १०५८०) मन्त्रान्‌ आहुः।" व्याख्या - हिरण्यगर्भ हिरण्मय अण्डे का गर्भ भूत प्रजापतिर्हिरण्यगर्भ है।,व्याख्या- हिरण्यगर्भः हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूतः प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः। किन्तु तिङन्त पद को व्यवधान है।,किञ्च तिङन्तपदं व्यवहितम्‌ अस्ति। (वि.चू. 98) ज्ञान का साधन करने वाली इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ कहलाती हैं।,(वि.चू. ९८) ज्ञानसाधनानीन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणि। "सम्पूर्ण काव्यों में वैदिक काव्य ही प्रथम है, ऐसा विद्वानों का मत है।",निखिलेषु काव्येषु वैदिकं काव्यम्‌ एव प्रथमम्‌ इति विदुषां मतम्‌। ईडे यहाँ पर क्या धातु है?,ईडे इत्यत्र कः धातुः? अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्निधेहि तम्‌॥,अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्निधेहि तम्‌॥१२॥ अत इस प्रकरण के अनेक मन्त्रों में ऊपर वर्णित उपद्रवों के शांत करने का उपाय है।,अतः अस्य प्रकरणस्य अनेकमन्त्रेषु पूर्ववर्णितानाम्‌ उपद्रवाणां शमनोपायः वर्णितः अस्ति। तस्थुः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,तस्थुः इति रूपं कथं सिद्ध्यति। तथा तैत्तिरीयक- * प्रजापतिर्वे हिरण्यग.... भः प्रजापतेरनुरूपत्वाय' (तै. सं. ५. ५ .१. २)।,तथा च तैत्तिरीयकं- 'प्रजापतिर्वै हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपत्वाय' (तै. सं. ५. ५ .१. २) इति। कहा गया है की प्राचीन और पुरातन ऋषियों के द्वारा उसकी स्तुत्ति की जाती है।,उक्तं प्राचीनैः पुरातनैः च ऋषिभिः स स्तुत्यः। इस प्रकार से मुण्डकोपनिषद्‌ में भी कहा गया है।,मुण्डकोपनिषदि अपि आम्नायते। जन्‌-धातु से लिट्‌ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में।,जन्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। 14. “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌” इस सूत्र से क्या होता है?,"१४. ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इति सूत्रेण किं भवति?" 2. रुजानाः इसका क्या अर्थ है?,2. रुजानाः इत्यस्य कः अर्थः। इन वेदाङ्गों को सही समझ करके वेद पढ़े तो सम्पूर्ण फल को प्राप्त करते हैं।,एतान्‌ वेदाङ्गान्‌ सम्यक्‌ ज्ञात्वा वेदः अधीयते चेत्‌ सम्पूर्ण फलं लभ्यते। 2. पूर्वकल्प में पुरुषमेध के यजनकर्ता ने आदित्यरूप प्राप्त किया।,पूर्वकल्पे पुरुषमेधयाजी आदित्यरूपं प्राप्तः। अत: सूत्र का अर्थ होता है - कर्मवाचि क्तान्त उत्तरपद रहते अव्यवहित गति पूर्वपदस्थ को प्रकृत्ति स्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे गतिरनन्तरः पूर्वपदं प्रकृत्या भवति इति। अतः प्रकृत सूत्र से गोत्र शब्द को अनुदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण गोत्रशब्दस्य अनुदात्तत्वं भवति। अग्नि को पुरोहित क्यों कहा जाता है ?,अग्निः पुरोहितः इति कथमुच्यते ? सङ्कल्प तथा विकल्प मन के ही विषय होते हैं।,सङ्कल्पविकल्पे मनसः विषयौ स्तः। उदाहरण - अग्निमीळे इस सूत्र का यह एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- अग्निमीळे इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। कुछ विशिष्ट शब्दों का सङ्कलन भी विद्यमान है।,क्वचिद्‌ विशिष्ठशब्दानां सङ्कलनम्‌ अपि विद्यते। "प्रथम तो साधक के चित्त में सङ्कल्प का उदय होता है, उसके बाद ही वह किसी कार्य को करने में अपने को प्रवृत होता है।","प्रथमस्तु साधकस्य चित्ते सङ्कल्पस्य उदयो भवति, तदनन्तरम्‌ एवासौ कस्मिंश्चिद्‌ अपि कार्ये स्वनियोगं करोति।" सरलार्थ - अग्नि की प्राचीन और नूतन ऋषियों के द्वारा स्तुति की जाती है।,सरलार्थः- अग्निः प्रचीनैः नूतनैश्च ऋषिभिः स्तुत्यः। सूत्र का अर्थ - हि से युक्त तिङन्त को भी अप्रातिलोम्य अर्थ में गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः - अप्रातिलोम्यार्थ हिशब्देन युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। तभी तुम अपने राष्ट्र में निश्चय रूप से शत्रुओं को भी नहीं प्राप्त कर सकेगे।,तदानीम्‌ आवश्यकान्धकाराभावात्‌ शत्रुं घातकं वैरिणं न विवित्से किल त्वं न लब्धवान्‌ खलु॥ "इस प्रकार यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - सुब्रह्मण्या नामवाले निगद में एकश्रुति नहीं होती है, और सूत्र से प्राप्त स्वरित के स्थान में उदात्त होता है।",एवमत्र सूत्रार्थो भवति - सुब्रह्मण्याख्ये निगदे ऐकश्रुत्यं न स्यात्‌ लक्षणेन प्राप्तस्य स्वरितस्य उदात्तश्च भवति इति। ऋक्‌ संहिता के दो क्रमों का वर्णन कोजिए।,ऋक्संहितायाः द्वौ क्रमौ वर्णयत। कौन सा द्विलङ्गक पदार्थ है?,कः द्विलिङ्गकः पदार्थः? "वह कुछ उपासकों की पिता है, कुछ का भाई और कुछ के पुत्र रूप में उसका वर्णन प्राप्त होता है।","स क्वचित्‌ तदुपसकानां पितेव, क्वचित्‌ भ्रतेव क्वचिद्‌ सुत इव वर्णितः।" इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे; निर्विकल्पक समाधि के अङ्गों को जानने में; अद्वैतवेदान्तमत में तथा पतञ्जलि के मत में उनका किस प्रकार का स्वरूप है जान पाने में; उन अंगों में योगी लोग फल की सिद्धि में किस प्रकार का लाभ प्राप्त करेंगे।,एतं पाठं पठित्वा छात्रा अधःस्थान्‌ विषयान्‌ ज्ञास्यन्ति। निर्विकल्पकसमाधेः अङ्गानि। अद्वैतवेदान्तमते पातञ्जलमते च तेषां कीदृशं स्वरूपम्‌। तेषु अङ्गेषु योगिनः सिद्धौ कीदृशः फललाभः। उससे आनन्द का अनुभव होता है।,ततश्च सआनन्दमनुभवति। सूत्र का अवतरण- अनित्य समास में अन्तोदात्त से उत्तर पद के परे तृतीया आदि विभक्ति में उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- अनित्यसमासे अन्तोदात्तात्‌ उत्तरपदात्‌ परस्य तृतीयादिविभक्तेः उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। सोम पर्जन्यदेव का पुत्र है ऐसा प्रसिद्ध है।,सोमः पर्जन्यदेवस्य पुत्रः इति प्रसिद्धम्‌। पूर्वसूत्र से तद्धितस्य इस षष्ठी एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आती है।,पूर्वसूत्रात्‌ तद्धितस्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। "इस सूत्र में दो पद हैं, वहाँ निपाताः यह प्रथमा बहुवचनान्त पद है, आद्युदात्ताः यह भी प्रथमा बहुवचनान्त पद है।","अस्मिन्‌ सूत्रे द्वे पदे स्तः, तत्र निपाताः इति प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌, आद्युदात्ताः इत्यपि प्रथमाबहुवचनान्तं पदम्‌।" “'पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु ”' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" उपासते - उपपूर्वक आस्‌-धातू से लट्लकार आत्मनेपद प्रथमपुरुष बहुवचन में उपासते रूप सिद्ध होता है।,उपासते- उपपूर्वकात्‌ आस्‌-धातोः लटि आत्मनेपदे प्रथमपुरुषबहुवचने उपासते इति रूपम्‌। उसी प्रकार अज्ञान काल में यह जगत्‌ द्वैत इस प्रकार से सत्य के समान अनुभूत होकर के सर्व व्यवहारास्पद होकर के सुखादुःखादि का अनुभव करवाकर के आत्मप्रबोध होने पर निश्शेष होकर निवर्तित हो जाता है।,तथाज्ञानकाले द्वैतमिदं जगत्‌ सत्यवद्भात्वा सर्वव्यवहारास्पदं भूत्वा सुखदुःखाद्यनुभवान्‌ भावयित्वा आत्मप्रबोधे च निश्शेषं निवर्तते। और मन्नन्त है।,एतच्च मन्नन्तम्‌ अस्ति। संख्या पूर्वः पूर्वावयवः यस्य स संख्यापूर्वं बहुव्रीहि समास है।,संख्या पूर्वः पूर्वावयवः यस्य स संख्यापूर्वः इति बहुव्रीहिसमासः। उसी प्रकार स्वप्नस्थ विषय क्षणिक होते हैं न कि दीर्घ कालिक।,स्वप्नस्थविषयाः क्षणिकाः न तु दीर्घकालिकाः। जाग्रत अवस्था में स्थूलशरीराभिमानी यह विश्व होता हे।,जाग्रदवस्थायां स्थूलशरीराभिमानी भवति विश्वः। इन विधानों के विषयों पर मीमांसकों द्वारा किया अभिधान अर्थवाद होता है।,एवंविधानां विषयाणां मीमांसकैः कृतम्‌ अभिधानम्‌ अर्थवादो भवति। अपने और अपने परिचितों के जीवन दर्शन को स्वीकार कर पाने में सक्षम हो।,स्वस्य स्वपरिचितानां च जीवनं दर्शनमवलम्ब्य नेतुम्‌ शक्नुयात्‌। उससे यहाँ पदों का अन्वय होता है - एवादीनाम्‌ अन्तः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- एवादीनाम्‌ अन्तः उदात्तः इति। अङ्ग शब्द की व्युत्पत्ति प्राप्त अर्थ क्या है?,अङ्गशब्दस्य व्युत्पत्तिलभ्यः अर्थः कः। (प्र.उप. 4.8 ) अब बुद्धि तथा मन की क्या गति है इस पर भी विचार करते हैं।,(प्र.उप. ४.८ ) अथ बुद्धिमनसोश्च का गतिरिति चिन्त्यते। लेकिन दुःख का सहन सभी नहीं कर सकते है।,परन्तु दुःखस्य सहनं सर्वे कर्तुं न शक्नुवन्ति। ता वां वास्तून्युश्मसि ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,ता वां वास्तून्युश्मसि... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। जीवन्मुक्त का फिर संसार बन्ध नहीं होता है।,जीवन्मुक्तस्य पुनः संसारबन्धः न भवति। इन्द्र की महानता बहुत ही विशाल है।,इन्द्रस्य माहात्म्यं सुविशालमस्ति। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में आग्नेयः इस पद में ढक्‌ यह तद्धित प्रत्यय है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे आग्नेयः इति पदे ढक्‌ इति तद्धितप्रत्ययः विद्यते। अव्ययीभाव समास की “ अव्ययीभावश्च'' सूत्र से अव्यय संज्ञा होती है।,अव्ययीभावसमासस्य अव्ययीभावश्च इति सूत्रेण अव्ययसंज्ञा भवति। उदाहरणः- भूतपूर्व इत्यादि इस सूत्र के उदाहरण हैं।,उदाहरणम्‌ - भूतपूर्वः इत्यादिकम्‌ अस्य सूत्रस्य उदाहरणम्‌। 'दैप्‌ शोधने ' धातु से `आतो मनिन्‌...' से विच्‌ प्रत्यय।,'दैप्‌ शोधने'। 'आतो मनिन्‌...' इति विच्‌। वहाँ चञ्चा-शब्द से 'इवे प्रतिकृतौ' इस सूत्र से किये गए कन्‌ प्रत्यय का “लुम्मनुष्ये' इस सूत्र से लोप होता है।,"तत्र चञ्चा-शब्दात्‌ 'इवे प्रतिकृतौ' इति सूत्रेण विहितस्य कन्प्रत्ययस्य ""लुम्मनुष्ये' इति सूत्रेण लोपः।" यहाँ इडाब्राह्मण है।,इडाब्राह्मणमेतत्‌। अर्थात्‌ श्रोत्रादि इन्द्रियों का अपने शब्दादि विषयों से प्रत्यावर्तन प्रत्याहार होता है।,श्रोत्रादीनाम्‌ इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः शब्दादिभ्यः प्रत्यावर्तनं हि प्रत्याहारः। यह विशिष्ट स्थान से भी समान होती है।,इयम्‌ विशिष्टस्थानादेव समानीता भवति। मोक्ष मार्ग के प्रथम सोपान में अध्यारोपकाल में वस्तुस्थिति समझ में नहीं आती है।,मोक्षमार्गस्य प्रथमसोपाने अध्यारोपकाले वस्तुस्थितिः नावगम्यते। यज्ञ निरीक्षण कार्य सम्पादन के लिये मुनि व्यास ने सुमन्तु मुनि को अथर्ववेद पढ़ाया।,यज्ञनिरीक्षणकार्यसम्पादनाय मुनिः व्यासः सुमन्तुमुनिमर्थववेदं पाठितवान्‌। सर्वात्मक पुरुष जिस यज्ञ में आहूत किया गया हो वो सर्वहूत्‌ है।,सर्वात्मकः पुरुषो यस्मिन्‌ यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहूत्‌। यह सोमरस में ऐसे आसक्त थे की एक बार सोम के लिए चोरी भी की।,सोमरसे अयम्‌ एवमासक्तः यद्‌ एकदा स सोमार्थं चौर्यम्‌ अपि कृतवान्‌। "व्याख्या - जटाजूट है जिसकी ऐसा रुद्र है, उसका धनुष प्रत्यंचा रहित हो।",व्याख्या - जटाजूटोऽस्यास्तीति कपर्दो रुद्रस्तस्य धनुः विज्यं। उसका यहाँ षष्ठी एकवचनान्त का व्यत्यय है।,तच्च अत्र षष्ठ्येकवचनान्ततया विपरिणम्यते। लेकिन यहाँ प्रयुक्त काश शब्द-धान्य का द्योतक है।,किञ्च अयं काश- शब्दः धान्यवाची। "धर्मसूत्रों में धार्मिक नियम, प्रजाओं और राजा के कार्त्तव्यों की चर्चा, चार वर्ण, चार आश्रम, उनका धर्म पूर्ण रूप से निरूपण किया है।","धर्मसूत्रेषु धार्मिकनियमाः, प्रजानां राज्ञां च कर्त्तव्यचर्याः, चत्वारो वर्णाः, चत्वारः आश्रमाः, तेषां धर्माः पूर्णतया निरूपिताः।" विक्षेप होने से एकाग्रता नहीं होती है।,विक्षेपश्चेत्‌ एकाग्रता न भवति। द्वन्द्वसमास होने से प्रकृत सूत्र से कार्त इस पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है।,द्वन्द्वसमासत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण कार्त इति पूर्वपदम्‌ अन्तोदात्तं भवति। "- “बुद्ध ने यह उपदेश दिया हैं की बहुत सत्य अहङ्कार मिथ्या, जो कठोर हिन्दु जन स्वीकार करतें है।","“बुद्धः किम्‌ उपदिष्टवान्‌ यत्‌ बहु सत्यम्‌, अहङ्कारः मिथ्या, यत्र कठोरहिन्दवः स्वीकुर्वन्ति ।" तैत्तिरीय संहिता विषय पर छोटा निबंध लिखिए।,तैत्तिरीयसंहिताविषये लघुप्रबन्धो लेख्यः। "जिसको उद्देश्य करके जो कुछ कार्य का विधान किया जाता है, वह कार्य उद्देद्य कहलाता है, अतः सुप्पितौ यह प्रथमा द्विवचनान्त उद्देश्य बोधक पद है।","यमुद्दिश्य यत्‌ किञ्चित्‌ कार्यं विधीयते तत्‌ कार्यम्‌ उद्देश्यम्‌ इति कथ्यते, अतः सुप्पितौ इति प्रथमाद्विवचनान्तम्‌ उद्देश्यबोधकं पदम्‌।" 5. प्रजापतिसूक्त किस वेद के अन्तर्गत होता है?,5.प्रजापतिसूक्तं कस्मिन्‌ वेदे अन्तर्गतः भवति? "वे दोनों पत्नियाँ है, वे कौन?",उभे ते पत्न्यौ भार्य। ते के। देव कर्म करते हैं इससे वे पुरुषवत्‌ है ये युक्ति सही नहीं है क्योंकि अचेतन भी कर्म करते हैं ऐसा वेद में प्राप्त होता है।,"देवाः कर्म कुर्वन्ति इत्यतः ते पुरुषविधाः इति, न । यतो हि अचेतनाः अपि कर्म कुर्वन्ति इति वेदे प्राप्यते।" सूत्र का अर्थ- कार्तकौजपादि जो द्वन्द्व समासवाले शब्द उनके पूर्वपद को भी प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः- कार्तकौजपादयो ये द्वन्द्वास्तेषु पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। जैसे वृष्टिकाल में बहुत जल नदी के तों को तोड़कर अतिक्रमण करके जाता है उसी प्रकार।,यथा वृष्टिकाले प्रभूता आपो नद्याः कूलं भित्त्वा अतिक्रम्य गच्छन्ति तद्वत्‌। ' कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस पूर्व सूत्र से उदात्त इस प्रथमान्त पद की अनुवृति आती है।,'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इति पूर्वसूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। इन्द्र का शतक्रतु नाम करण क्यों हैं ?,इन्द्रस्य शतक्रतुरिति नामकरणं कथम्‌ ? 4. युनस्ति सूत्र की सोदाहरण व्याख्या लिखो।,"४. ""यूनस्तिः"" इति सूत्रस्य सोदाहरणं व्याख्यां लिखत।" प्रकरण में प्रतिपाद्य विषय बार बार प्रतिपादन करना अभ्यास कहलाता है।,प्रकरणे प्रतिपाद्यस्य विषयस्य पौनःपुन्येन प्रतिपादनम्‌ अभ्यासः। तीसरा है अवसाद इसका शैथिल्य अर्थ होता है।,अवसादनं नाम शैथिल्यम्‌। 54. वीप्सा अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण लिखो।,५४. वीप्सार्थे अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं लिखत। इस प्रकार से जिन नक्षत्रों का दर्शन सुलभ होता सबसे पहले उनका दर्शन करवाकर के उसके बाद फिर एक एक नक्षत्र का निरास करके अन्त में मुख्य अरुन्धती नक्षत्र का प्रदर्शन करवाना चाहिए।,एवं येषां नक्षत्राणां दर्शनं सुलभं भवति तेषां नक्षत्राणां प्रथमम्‌ अरुन्धतीत्वेन परिचयं कृत्वा ततश्च एकैकस्य निरासं कृत्वा अन्ते मुख्यस्य अरुन्धतीनक्षस्य प्रदर्शनं क्रियते। शुक्लयजुर्वेद में एक ही ब्राह्मण विद्यमान है।,शुक्लयजुर्वेदे एकमेव ब्राह्मणं विद्यते। ऋषि के सभी प्रयास यहाँ पर वीररस को ही पोषित करते हैं।,ऋषेः सर्वे प्रयासाः अत्र वीररसम्‌ एव परिपोषयन्ति। वे जब प्रतिभास के रूप में होते है।,ते यावत्प्रतिभासमवतिष्ठन्ते। वैश्वानर के जैसे सात अङ्गादि वर्णित है वैसे ही इसको भी देखना चाहिए।,वैश्वानरस्य यथा सप्ताङ्गादयः वर्णिताः तथा अस्यापि द्रष्टव्याः। ' क्योंकि यह विश्व दो भागो में विभक्त है द्यात्रा और पृथिवी उन दोनों से जो उत्पन्न होने से वह अग्नि द्विजन्मा कहलाता है।,'यतो विश्वमिदं द्विधा विभक्तं द्यावापृथिवीभ्यां तस्मादुभयत्र जायमानोऽग्निः द्विजन्मा इत्युच्यते। कैलास पर्वत में स्थित होकर सभी प्राणियों की रक्षा करने वाले वह शिव का बाण हमारे लिए कल्याणकारी हो।,"गिरित्र, गिरौ कैलासे स्थितो भूतानि त्रायत इति गिरित्रः तामिषुं शिवां कल्याणकारिणी कुरु।" मुक्तिकोपनिषद्‌ मान्य परम्परा के अनुसार से यह समस्त उपनिषदों की गणना में प्रथम स्तरीय ही है।,मुक्तिकोपनिषदः मान्यपरम्परानुसारेण इयं समस्तानाम्‌ उपनिषदां गणनायां प्रथमस्तरीया एव अस्ति। 9. “'प्राक्कडारात्समासः'' यह किस प्रकार का सूत्र है?,"९. ""प्राक्कडारात्समासः"" इति सूत्रं कीदृशं सूत्रम्‌?" छ: प्रकार के वेदाङगों साथ ही वेदों के सम्यक्‌ अर्थ का ज्ञान सम्भव होता है।,षड्विधैः वेदाङ्गैः सह एव वेदानां सम्यक्‌ अर्थज्ञानं सम्भवति । साधु कौन होते हैं तथा पापी कौन होते हैं।,के साधवः के च पापाः । उससे इमं मे गङऱगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तमम्‌ यह प्रयोग सम्भव हो सकता है।,तेन इमं में गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तमम्‌ इत्येवं प्रयोगः सम्भवति। मूलप्रकृति से अविद्या के परिणाम रूप में यह होती है।,मूलप्रकृतेः अवद्यायाः परिणामो भवत्ययम्‌। उनमे ऋग्वेद में देवता स्तुति है।,तेषु ऋग्वेदे देवतास्तुतिः वर्तते। अनुदात्तौ सुप्पितौ ( ३-१-४) सूत्र का अर्थ- सुप्‌ पित्‌ प्रत्ययों की अनुदात्त संज्ञा होती है।,अनुदात्तौ सुप्पितौ(३-१-४) सूत्रार्थः- सुप्पितौ प्रत्ययौ अनुदात्तौ भवतः। अपने विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्बन्ध के अभाव में इन्द्रियाँ चित्त के समान निरुद्ध हो जाती है।,स्वस्वविषयैः सह इन्द्रियाणां सम्बन्धाभावे सति इन्द्रियाणि चित्तवत्‌ निरुद्धानि भवन्ति। यहाँ कार शब्द के ग्रहण करने के विषय में अन्य भी अनेक मत है।,अत्र कारशब्दस्य ग्रहणविषये अन्यानि अपि बहूनि मतानि सन्ति। "इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनि, अमर, और जैनेन्द्र।",इन्द्रः चन्द्रः काशकृत्स्नः आपिशलिः शाकटायनः पाणिनिः अमरः जैनेन्द्रः चेति। भले ही पूर्वमीमांसा के अनुसार कर्म ही तात्पर्य होता है।,यतो हि पूर्वमीमांसानुसारेण कर्मणि एव तात्पर्यम्‌। अक्षासः इसका लौकिक रूप क्या है।,अक्षासः इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌ ? ब्राह्मण ग्रन्थों के महत्त्व का वर्णन कीजिए।,ब्राह्मणग्रन्थानां महत्त्वं वर्णयत। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य' इस सूत्र से किसका विधान है?,उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य' इत्यनेन सूत्रेण किं विधीयते ? पञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न स्थूल देह ही अन्नमयकोश होता है।,पञ्चीकृतभूतेभ्यः उत्पन्नः स्थूलदेह एव आन्नमयकोशः भवति। सोम देवताओं तथा ब्राह्मणों के राजा हैं।,सोमः देवतानां ब्राह्मणानां च राजा। निष्ठा इससे क्त प्रत्यय का और क्तवतु प्रत्यय का परामर्श है।,निष्ठा इत्यनेन क्तप्रत्ययस्य क्तवतुप्रत्ययस्य च परामर्शः। और वह अकच्य्रत्यय चित्‌ है।,स च अकच्प्रत्ययः चित्‌ अस्ति। यहाँ अन्तोदात्तात्‌ यह पदञ्‌चम्यन्त पद नुट्‌ इसका विशेषण है।,अत्र अन्तोदात्तात्‌ इति पदञ्च नुट्‌ इत्यस्य विशेषणम्‌। वायु रूप हीन होती है।,वायुः रूपहीनः भवति। "तब गवाक्षिशब्द का ""यचि भम्‌"" सूत्र से भसंज्ञा होने पर ""यस्येति च"" इससे इकार का लोप होने पर सर्वसंयोग में निष्पन्न गवाक्षशब्द स लोकप्रसिद्वत्व से पुल्लिंग में विद्यमान सु प्रत्यय होने पर प्रक्रियाकार्य में गवाक्षः रूप बना।","तदा गवाक्षिशब्दस्य ""यचि भम्‌"" इत्यनेन भसंज्ञायां ""यस्येति च"" इत्यनेन इकारस्य लोपे सर्वसंयोगे निष्पन्नात्‌ गवाक्षशब्दात्‌ लोकप्रसिद्धत्वात्‌ पुंसि विद्यमानात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये गवाक्षः इति रूपम्‌।" और विधिबोधक वाक्य की ब्राह्मणसंज्ञ है।,विधिबोधकवाक्यस्य च ब्राह्मणसंज्ञा। उत्तरकालिक उपनिषद्‌ में कौनसे उपनिषद्‌ आते है?,उत्तरकालिकोपनिषदि काः उपनिषदः अन्तर्गताः। तृतीयान्तार्थाकृत यही अर्थ है।,तृतीयान्तार्थाकृत इत्यर्थः। अविद्या तथा वासनामय जो काम होते है।,अविद्यावासनामयाः कामाः ये सन्ति। तीन पादों में लोकों का अतिक्रमण किया इसलिये ऐसा कहते है।,त्रिषु पादेषु त्रीन्‌ लोकान्‌ अतिक्रामति। अत एवमुक्तम्‌। यह ही वेद सभी दिशाओं में व्याप्त होकर के स्थित रहता है।,एष हि वेदः सर्वाः प्रदिशि व्याप्य स्थितः। उस अज्ञान का कोई विषय होता है।,तस्य अज्ञानस्य कश्चिद्‌ विषयो भवति। "यहाँ एक यज्ञ है, गवामयन-नामक यज्ञ ऐसा उसका नाम है।","अत्र एकः यज्ञः अस्ति, गवामयन-नामकयज्ञः इति तस्य नाम।" ईश्वर ही इस समष्टि के अखिलकारणत्व से कारण शरीर होता है आकाशादि भी यहा पर उपरमण करते हैं।,ईश्वरस्य इयं समष्टिः अखिलकारणत्वात्‌ कारणशरीरं भवति। आकाशादयः अत्रैव उपरमन्ते इति । उसको बाधकर “'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌'' इस प्रस्तुत सूत्र से बहुलक से अमादेश होता है।,"तं प्रबाध्य ""तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इत्यनेन प्रस्तुतसूत्रेण बाहुलकाद्‌ अमादेशो भवति।" अपनी कारणावस्था को पार करके परिदुश्यमान जगदवस्था को प्राप्त करता है जिससे प्राणियों के कर्मफलभोग के लिए जगदवस्था को स्वीकारने से यह उसका वस्तुत्व अर्थ नहीं हुआ।,स्वकीयां कारणावस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमाना जगदवस्थां प्राप्नोति तस्मात्प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारान्नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः और उससे स्त्रीत्व विवक्षा में ञ्यङन्त आम्बष्ठय प्रातिपदिक से यङश्चाप्‌ सूत्र से चाप्‌ प्रत्यय होने पर आम्बष्ठय-चाप्‌ स्थिति होती है।,तेन च स्त्रीत्वविवक्षायां यङन्तात्‌ आम्बष्ठ्य इति प्रातिपदिकात्‌ यङश्चाप्‌ इति सूत्रेण चाप्‌ प्रत्यये सति आम्बष्ठ्य चाप्‌ इति स्थितिः भवति। द्यौ और पृथिवी का उपादान उपलक्षण है।,द्यावापृथिव्योरुपादानमुपलक्षणम्‌। "यहाँ “पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इस सूत्र से समानाधिकरणेन पद की अनुवृत्ति होती है।","अत्र ""पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति पदम्‌ अनुवर्तते ।" एक श्रुति दूरात्सम्बुद्धौ” इस सूत्र से यहाँ एक श्रुतिः इस एकवचनान्त पद की अनुवृति आती है।,एकश्रुति दूरात्सम्बुद्धौ इति सूत्रादिह एकश्रुतिः इति एकवचनान्तं पदमनुवर्तते। विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु इस सूत्र से गुणवचन उत्तरपद में विस्पष्टादि पूर्वपदों को प्रकृतिस्वर होता है।,विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु इति सूत्रेण गुणवचनेषूत्तरपदेषु विस्पष्टादिनां पूर्वपदानां प्रकृतिस्वरत्वं विधीयते। जिससे इस विषय का अच्छा ज्ञान होगा।,तेन विषयस्यास्य सुष्ठु ज्ञानं भविष्यति। सोम को निचोड़ कर हवी देने वाले को यागफल के रूप में मैं ही धन आदि देती हूँ।,'ईदृशाय यजमानाय द्रविणं धनं यागफलरूपमहमेव दधामि धारयामि। "उन दो विहगों में एक अच्छे स्वाद वाले फलों को खाता है, और दूसरा तो बिना खाते हुए देखता रहता है।","तयोः विहगयोः एकः सुस्वादुफलं भुङ्क्ते, अपरः तु अभुक्त्वा एव तिष्ठति।" 6. क्यसुप्रत्यय।,६. क्यसुप्रत्ययः। "वहाँ समस्त पद में समास इस प्रकार है - पद्‌ आदिः येषां ते पदादयः यहाँ बहुव्रीहि समास है, ऊट्‌ च इदं च पदादयश्च अप्‌ च पुम्‌ च रै च दिव्‌ च इस विग्रह में इतरेतर हवन्द्व॒ समास है, ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रैदिवः यह रूप बनता है, इसका ही पञ्चमीं विभक्ति में ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रेद्युभ्यः है।","तत्र समस्ते पदे समासः इत्थम्‌- पद्‌ आदिः येषां ते पदादयः इति बहुव्रीहिसमासः ,ऊट्‌ च इदं च पदादयश्च अप्‌ च पुम्‌ च रै च दिव्‌ च इति विग्रहे इतरेतरद्वन्द्वसमासे ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रैदिवः इति रूपं, तेभ्यः इति ऊडिदसम्पदाद्यपुप्पुम्रेद्युभ्यः।" और घट के अभाव में इन्द्रिय अगोचरत्व के कारण घट नहीं है इस प्रकार से कहा जाता है।,चेत्‌ घटाभावस्येन्द्रियगोचरत्वात्‌ घटः नास्ति इत्युच्यते। पूर्व पाठों में आपने वेदों की संहिता विषय में अधिकता से समझ लिया है।,पूर्वेषु पाठेषु भवन्तः वेदानां संहिताविषये अधिकतया ज्ञातवन्तः। जैसे इन्द्रादिसूक्तों में इन्द्र आदिदेवों के विविध रूप से वर्णन किया वैसे ही पृथ्वी सूक्त में भी पृथ्वी के विविधरूप का वर्णन है।,यथा इन्द्रादिसूक्तेषु इन्द्रादिदेवाः विविधरूपेण वर्णिताः तथैव पृथिवीसूक्ते अपि पृथिवी विविधरूपेण वर्णिता। इसलिए सम्बन्ध का तृतीय स्थान में उल्लेख किया गया है।,तस्मात्‌ सम्बन्धस्य तृतीये स्थाने उल्लेखः विद्यते। निर्विकल्पकसमाधि के भी बहुत से विघ्न है ।,निर्विकल्पकसमाधेरपि सन्ति विघ्नाः। . तवलकार आरण्यक किस नाम से कहलाता है?,तवलकारारण्यकं केन नाम्ना कथ्यते? पाणिनि ने लौकिक व्याकरण करने पर स्वर आदि व्यवस्था की है।,पाणिनिः लौकिकव्याकरणस्य कृते स्वरादिव्यवस्थां कृतवान्‌। फिर त्वम्‌ पदार्थ का अल्पज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य का विशेषणत्व होता है।,पुनः त्वम्पदार्थस्य अल्पज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यस्य विशेषणत्वम्‌। आकाङक्षा योग्यता तथा सन्निधि ये तीनों शाब्दबोध तात्पर्य के प्रति हेतु हैं।,आकाङ्का योग्यता सन्निधिः च यथा तथा तात्पर्यम्‌ अपि शाब्दबोधं प्रति हेतुः। "अर्थात्‌ आखीों को रूप से, कानों को शब्द से,नासिका को गन्ध से, जिह्वा को रस से,त्वचा को स्पर्श से जिस वृत्ति विशेष के द्वारा हटाया जाता है वह वृत्तिविशेष दम कहलाती है।","चक्षुषः रूपात्‌, कर्णस्य शब्दात्‌, नासिकायाः गन्धात्‌, जिह्वायाः रसात्‌, त्वचः स्पर्शात्‌ आकर्षणं येन वृत्तिविशेषेण क्रियते स दमः।" यहाँ पर गुरु ही अवधारणात्मक होता है।,एतत्‌ गुरुमेव इति अवधारणफलम्‌। "विवाहित, सस्त्रीक आहिताग्नि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय अथवा शूद्र भी इस याग के अधिकारी हैं।","विवाहितः, सपत्नीकः, आहिताग्निः ब्राह्मणः क्षत्रियो वा शूद्रो वा अस्य यागस्य अधिकारी।" अत: उसे क कहा जाता है।,अतः क इत्युच्यते। यहाँ व्याख्यान समय में गोत्रादि शब्दों का उल्लेख है।,अत्र व्याख्यानकाले गोत्रादयः शब्दाः उल्लिखिताः। हम जिस इच्छा को आधार मानकर हवि देते हैं वह इच्छा पूर्ण हो।,वयं याम्‌ इच्छाम्‌ आधारीकृत्य हविः ददामः सा इच्छा पूरिता भवेत्‌। उसी प्रकार उत्पल पद अनुत्पला से नील को व्यावर्त उत्पल पद भी विशेषणत्व है।,तथैव उत्पलपदम्‌ अनुत्पलान्नीलं व्यावर्तयतीत्युत्पलपदस्यापि विशेषणत्वम्‌ । इस प्रकार से औदुम्बर वृक्ष का देवता प्रजापति हुए।,अनेन प्रकारेण औदुम्बरवृक्षस्य देवता प्रजापतिः अभवत्‌। और उस अनुष्ठान के द्वारा अन्तर कर्मस्वरूप ज्ञान नही होता है।,तदनुष्ठानं च अन्तरेण कर्मस्वरूपज्ञानं न भवति। "नीले कंठ वाले, सहस्त्र नेत्र वाले, सेचन समर्थ पर्जन्य रूप रूद्र के निमित नमस्कार हो।","नीलकण्ठाय, सहस्रलोचनाय, वर्षणकर्त्रे तरुणाय रुद्राय मे नमः।" किस उपसर्ग को छोड़कर अन्य सभी उपसर्गो को आद्युदात्त होने का विधान है?,कम्‌ उपसर्ग वर्जयित्वा अन्येषाम्‌ उपसर्गाणाम्‌ आद्युदात्तत्वम्‌ ? यह ईश्वर का नाम है।,ईश्वरनामैतत्‌। लेकिन व्यावहारिक जीवन में योगचतुष्टय का समन्वय उनका इष्ट है ऐसा माना भी जाता है।,"किञ्च, व्यावहारिकजीवने योगचतुष्कस्य समन्वयः एव तस्य इष्टः आसीत्‌ इति मन्यते।" सूत्र अर्थ का समन्वयः- वींदम्‌ यह स्वरित का उदाहरण है।,सूत्रार्थसमन्वयः- वीँदम्‌ इति स्वरितस्य उदाहरणम्‌। इसलिए आकाश की पूर्वोत्तर काल में सम्भवना नहीं कर सकते।,आकाशस्य पुनर्न पूर्वोत्तरकालयोर्विशेषः सम्भावयितुं शक्यते। "अब कहते हैं कि मैं ईश्वर नहीं हूँ, मैं मनुष्य हूँ, इत्यादि प्रत्यक्ष के द्वारा एक ही, किञ्चिसर्वज्ञत्वा परोक्षत्व परोक्षत्वादि विरुद्ध हेतु से जीव ब्रह्म का भेद स्पष्ट होता है।","ननु अहम्‌ ईश्वरः न, अहं मनुष्यः इत्यादिप्रत्यक्षेण,, एकस्मिन्‌ एव किञ्चिज्ञत्वसर्वज्ञत्वापरोक्षत्वपरोक्षत्वादिविरुद्धहेतुना जीवब्रह्मणोः भेदः स्पष्टः।" दीया यह रूप कहाँ का है?,दीया इति कुत्रत्यं रूपम्‌ ? "उसके द्वारा आत्मदर्शन, मोक्ष का मार्ग, वेदान्त तत्व का श्रवण मनन तथा निदिध्यासन और आत्म दर्शन में कारणादि को नहीं जाना जा सकता है।","तेन आत्मदर्शनं मोक्षस्य मार्गः, वेदान्ततत्त्व-श्रवण-मनन-निदिध्यासनम्‌ आत्मदर्शने कारणम्‌ इति बोद्धुं न शक्‍नोति।" कुल्हाड़ी से जिस प्रकार वृक्ष काट दिया जाता है उसी प्रकार इन्द्र ने मेघ को मारा।,कुलिशेन कुठारेण विवृक्णा विशेषतश्च्छिन्नानि स्कन्धांसीवयथा वृक्षस्कन्धाश्छिन्ना भवन्ति तद्वत्‌। ( 8.4 ) “उपसर्गादध्वनः '' सूत्रार्थ - प्र आदि अध्वन्‌ से समासान्त तद्धितसंज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।,"(८.४) ""उपसर्गादध्वनः"" सूत्रार्थः - प्रादिभ्यः अध्वनः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अचप्रत्ययो भवति।" 43. “तृतीयासप्तम्योबर्हुलम्‌'' इस सूत्र से क्या विधान होता है?,"४३. ""तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्‌"" इति सूत्रेण किं विधीयते?" गुणशब्दों के गुण क्रिया शब्दों के समभिव्याहार में विशेषणविशेष्य का भाव नहीं होता है।,गुणशब्दयोः गुणक्रियाशब्दयोः समभिव्याहारे विशेषणविशेष्यभावः न भवति । सुन्दर उपमानों की यहाँ पर सुन्दर रूप से आलोचना की है।,सुष्टुनाम्‌ उपमानानां सम्यक्‌ आलोचनम्‌ अत्र विहितं वर्तते। पूजा विषय भी यहाँ जाना जाता है अतः प्रकृतसूत्र से तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,पूजा अपि अत्र अवगम्यते। अतः प्रकृतसूत्रेण तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। यह मन्त्र ऋग्वेद के सृष्टि सूक्त से (१०-१२९) लिया है।,अयं मन्त्रः ऋग्वेदस्य सृष्टिसूक्तात्‌(१०-१२९) उद्धृतः। "अधिकरण का तात्पर्य है- विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, सङ्गत्यात्मक तथा पञ्चलिङ्गक।",अधिकरणं वै विषय-संशय-पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष-सङ्गत्यात्मकं पञ्चलिङ्गकम्‌। निर्‌ पूर्वकनिज्‌-धातु से क्विप्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में।,निपूर्वकनिज्‌-धातोः क्विप्प्रत्यये प्रथमैकवचने। "सरलार्थ - प्रवण देश में उत्पन्न बड़े बड़े पासे जुआ खेलने के तख्ते पर इधर-उधर बिखरते हुए मुझे आनन्दित करते है, जीत हार में हर्ष शोक जगाने वाला पासा मुझे उसी प्रकार सुख देता है जिस प्रकार मुंज पर्वत पर उत्पन्न सोमलता का रस पीकर सुख मिलता है।",सरलार्थः- द्रुतप्रवहमानवायुप्रदेश जाताः इरिणे कम्पमानाः अक्षाः माम्‌ आनन्दयन्ति। विभीदकवृक्षजाताः जागरणकारिणः अक्षाः मां हर्षेण मत्तं कुर्वन्ति यथा मूजवति पर्वते उत्पन्नं सोमं पीत्वा जनाः उन्मत्ताः भवन्ति। यह इन्द्रियों तथा मन से भी परम होती है।,इन्द्रियाणां मनसश्चात्रोपरमः ज्ञेयः। "इसप्रकार से ममत्वबुद्धिशून्य इन्द्रियों के द्वारा भी योगीकर्मी कर्म करता है, तथा संग को त्यागकर और फल विषयों में सभी जगह ममता को त्याग करके आत्मशुद्धि के लिए अथवा सत्वशुद्धि के लिए कर्म करता है।",ममत्वबुद्धिशून्यैः इन्द्रियैरपि योगिनः कर्मिणः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वा फलविषयम्‌ सर्वव्यापारेषु ममतां हित्वा आत्मशुद्धये सत्त्वशुद्धये। और यह युक्ति सम्मत भी है।,"किञ्च, इदं युक्तिसम्मतम्‌ अपि।" चौदह भुवन कौन-कौन से हैं?,चतुर्दशभुवनानि कानि। सूत्र अर्थ का समन्वय- कौञ्जायनाः यहाँ पर च्फञ्‌ यह तद्धित प्रत्यय किया है।,सूत्रार्थसमन्वयः- कौञ्जायनाः इत्यत्र च्फञ्‌ इति तद्धितप्रत्ययः विहितः। (बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकम्‌-4.3.1907) इस प्रकार से शुद्ध चैतन्य अद्वैत होता है।,(बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकम्‌ - ४.३.१९०७) एवञ्च शुद्धं चैतन्यमेव अद्वैतम्‌। 9. महता वधेन इस मन्त्र अंश में वध शब्द का क्या अर्थ है?,९. महता वधेन इति मन्त्रांशे वधशब्दस्य कः अर्थः। तत्पुरुषः इस संज्ञापद को द्विगु इस संज्ञिपद है।,तत्पुरुषः इति संज्ञापदं द्विगुरिति संज्ञिपदम्‌। सम्बोधन में जो प्रथमा विभक्ति है उसको वेद में आमन्त्रित कहते है।,सम्बोधने या प्रथमा तदन्तं पदं वेदे आमन्त्रितम्‌ इति कथ्यते। चोराद्‌ भयम्‌ इस विग्रह में चोरभयम्‌ यह एक उदाहरण है।,चोराद्‌ भयम्‌ इति विग्रहे चोरभयम्‌ इति एकम्‌ उदाहरणम्‌। क्योकि यह प्रकृत सूत्र पाणिनीय सूत्र से पूर्व से ही वर्तमान है।,यतो हि प्रकृतं सूत्रमिदं पाणिनीयसूत्रात्‌ पूर्वमेव प्रवर्तमानम्‌। वामन अवतार में उसके त्रिविक्रमरूप से परिचित है।,वामनावतारे स त्रिविक्रमरूपेण परिचितः। गुणों का चित्त में प्रभाव किस प्रकार से होता है विस्तार पूर्वक बताइए।,गुणानां चित्ते प्रभावं विस्तारयत। जिसे स्मृतियों में इस प्रकार से कहा है आ ब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।,तथाहि स्मृतिः- आ ब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। यहाँ पूर्वपद का अधिकरण अर्थ के प्राधान्य से अधि हरि पूर्वपदार्थ प्रधान है।,अत्र पूर्वपदस्य अधिकरणार्थस्य प्राधान्यात्‌ अधिहरि इति पूर्वपदार्थप्रधानः। उन किनको यहाँ पर कहते हो।,तानीत्युक्तं कानीत्याह। और यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - घृतादि शब्दों का अन्त्य स्वर उदात्त होता है।,ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्वरः उदात्तः स्यात्‌ इति। पदों की पृथक्‌-पृथक्‌ उपस्थिति नहीं होती है।,पदानां पृथक्‌ पृथक्‌ अर्थस्य उपस्थितिः न भवति। साम वाक्य विशेष में स्थित गीत है।,सामानि वाक्यविशेषस्था गीतयः। "रजोगुण के द्वारा तथा तमोगुण के द्वारा अभिभूत अन्तःकरण दृष्ट, स्पृष्ट , श्रुत, अघ्रात तथा रसित विषय के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित नहीं कर सकता है।",रजसा तमसा च अभिभूतम्‌ अन्तःकरणं दृष्टस्य स्पृष्टस्य श्रुतस्य आपघ्रातस्य रसितस्य च विषयस्य वास्तविकं स्वरूपम्‌ प्रकाशयितुं न शक्नोति। उससे इस सूत्र का अर्थ होता है - संज्ञा में उपमान शब्द का आदि अच्‌ उदात्त होता है।,तेन अस्य सूत्रस्यार्थः भवति- संज्ञायाम्‌ उपमानशब्दस्य आदिः अच्‌ उदात्तः भवति। "इसी प्रकार कुछ अन्यत्र स्थान पर होता, अध्वर्यु, ब्रह्मण इत्यादि नामों से भी जानी जाती है।","एवं क्वचिद्‌ अन्यत्र होता, अध्वर्युः, ब्रह्मण इत्यादिभिरभिधाभिः सोऽभिहितः।" इसी प्रकार सूर्य रूप रुद्रदेवता का अस्तांचलसमय में रम्य मुहूर्तआकृषण होता है।,एवं सूर्यरूपरुद्रदेवतायाः अस्ताचलसमये उद्बुद्धः रम्यः मुहूर्तः आकृष्यमाणो भवति। 10. योगी की तप में प्रतिष्ठा होने पर किस प्रकार का फल लाभ होता है?,१०. योगिनः तपसि प्रतिष्ठायां कीदृशः फललाभो भवति? वैसे ही कहते है - लक्षण और प्रमाण से वस्तु की सिद्धि होती है।,तथाहि उच्यते- लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः इति। बत्तीसवें तथा तैंतीसवें अध्याय में सर्वमेध के मन्त्रों का उल्लेख मिलता है।,द्वात्रिंशत्‌ तथा त्रयस्त्रिंशदध्याये सर्वमेधस्य मन्त्रः उल्लिखितोऽस्ति। वेदान्त का अन्यतम विभाग अद्वैत वेदान्त है।,वेदान्तस्य अन्यतमः विभागोऽस्ति अद्वैतवेदान्तः। 9 ब्रह्म में ही जगत की उत्पत्तिलय संभव है।,9 ब्रह्मणि एव जगतः उत्पत्तिस्थितिलयाः भवन्ति। सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का पञ्चम मन्त्र है।,सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य पञ्चमो मन्त्रः। अर्वाचीन के भ्रम का कारण क्या हे?,अर्वाचीनानां भ्रमोदयस्य कारणं किम्‌ अस्ति? “नकारान्त भसंञज्ञक का टि का लोप होता है तद्वित पर में होने पर यही सूत्र का अर्थ है।,"""नकारान्तस्य भसंज्ञकस्य टेः लोपः भवति तद्धिते परे"" इति सूत्रार्थः।" ऋचा के उत्पन्न होने के विषय में पुरुष सूक्त में आलोचना की है।,ऋचाम्‌ आविर्भावविषये पुरुषसूक्ते आलोचना वर्तते। "अर्थात्‌ जिस किसी भी वस्तु से स्वरूप ज्ञान में सहायता होती है, उस अङ्ग को इस प्रकार से कहते हैं।",अर्थात्‌ यत्‌ कस्य अपि वस्तुनः स्वरूपज्ञाने साहाय्यं करोति तत्‌ अङ्गम्‌ इति कथ्यते। "श्रीमद्‌ भगवान शङ्कराचार्य ने जिन ग्यारह उपनिषदों का भाष्य लिखा है वे है - 'ईश, केन, कठ, प्रश्‍न, मुण्ड, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ '।",श्रीमद्भगवच्छङ्कराचार्यपादैः यासाम्‌ एकादशोपनिषदां भाष्याणि विरचितानि ताः सन्ति - 'ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-ऐतरेय- तैत्तिरीय-छान्दोग्य-बृहदारण्यक-श्वेताश्वतरोपनिषद' इति। अक्षसूक्त में अक्षस्वरूप को वर्णित किया है।,अक्षसूक्ते अक्षस्वरूपं वर्णितं वर्तते । "यज्ञ अर्थ से अतिरिक्त आध्यात्मिक, आधिदैविक पक्षों में भी मन्त्रों के अर्थ यहाँ वहाँ किए गए हैं।",अधियज्ञार्थाद्‌ अतिरिक्तः आध्यात्मिकाधिदैविकपक्षयोरपि मन्त्राणामर्थो यत्र तत्र कृतोऽस्ति। तात्पर्यम्‌ - आख्यानब्राह्मणसाहित्य को समृद्ध करते है।,तात्पर्यम्‌ - आख्यानसमृद्धं खलु ब्राह्मणसाहित्यम्‌। "वहाँ स्वरिताद्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है, संहितायाम यह सप्तमी एकवचनान्त तथा अनुदात्तानाम यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है।","तत्र स्वरिताद्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं, संहितायामिति सप्तम्येकवचनान्तं तथा अनुदात्तानामिति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌।" जज्ञिरे - जन्‌-धातु से लिट्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,जज्ञिरे- जन्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। श्रद्धा के द्वारा क्या क्या करना चाहिए इस विषय का मन्त्र लिखकर सायनभाष्य के अनुसार व्याख्यान करो।,श्रद्धया किं किं करणीयम्‌ इति विषयकमन्त्रं लिखन्‌ सायनभाष्यनुसारि व्याख्यानं कुरुत। मन ही अविद्या का कार्य होता है।,मनः अविद्यायाः कार्यमस्ति। यदि इच्छा है तो जाने हेतु मार्गव्यय के लिए पर्याप्त धन है अथवा नहीं।,यदि इच्छा अस्ति तर्हि गमनस्य मार्गव्ययाय पर्याप्तं धनम्‌ अस्ति न वा। भोज्योष्णम्‌- भोज्यं च तत्‌ उष्णम्‌ इस विग्रह में कर्मधारय संज्ञक तत्पुरुष समास हुआ।,भोज्योष्णम्‌- भोज्यं च तत्‌ उष्ण्यम्‌ इति विग्रहे कर्मधारयसंज्ञकः तत्पुरुषसमासः जातः। उदात्त आदि तो अच्‌ को ही सम्भव है।,उदात्तादिकं तु अचः एव सम्भवति। "मिथ्यात्व होने पर भी उपाय की उपमेय सत्यता के द्वार सत्यत्व ही होना चाहिए जैसे अर्थवाद विधि विशेषणों की, लोक में भी बलोन्तमत्तादियों की पापी आदि में पापयित्व होने पर चूडावर्धानादिवचन होते हैं।",मिथ्यात्वेऽपि उपायस्य उपेयसत्यतया सत्यत्वमेव स्याद्‌ यथा अर्थवादानां विधिशेषाणां; लोकेऽपि बालोन्मत्तादीनां पापआदौ पाययितव्ये चूडावर्धनादिवचनम्‌। प्रथम शाखा उत्तर भारत में प्राप्त होती है और दूसरी महाराष्ट्र में।,प्रथमा उत्तरभारते प्राप्यते द्वितीया च महाराष्ट्र। जुआरी रात में दूअरो के घर में चोरी के लिए प्रवेश करते है।,कितवः रात्रौ अन्यस्य गृहं प्रविशति चौरार्थम्‌ । अतः प्रकृत सूत्र से यहाँ पूर्वपद बहु शब्द को विकल्प से प्रकृति स्वर अन्तोदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अत्र पूर्वपदस्य बहुशब्दस्य विकल्पेन प्रकृतिस्वरः अन्तोदात्तः भवति। 7. देवों ने ब्रह्म के पुत्र आदित्य का उल्लेख करते हुए कहा है कि -यो ब्राह्मणः आदित्यम्‌ उक्तविधिना उत्पन्नम्‌ जानीयात्‌ तस्य देवा वशे स्यु:।,7. देवाः ब्रह्मणः अपत्यम्‌ आदित्यम्‌ अग्रे उत्पाद्य अब्रुवन्‌ यद्‌ यो ब्राह्मणः आदित्यम्‌ उक्तविधिना उत्पन्नम्‌ जानीयात्‌ तस्य देवा वशे स्युः इति। 9 परमब्रह्म परिच्छिन्न नहीं होता है।,९. परमं ब्रह्म न परिच्छिद्यते। """वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः"" यह विग्रह का लक्षण है।","""वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः"" इति विग्रहवाक्यस्य लक्षणम्‌।" (8.8) पथो विभाषा ( 5.4.72 ) सूत्रार्थ-पथिन्‌ शब्द से नञ्‌ तत्पुरुष समास से विकल्प से समास नहीं होते हैं।,(८.८) पथो विभाषा॥ (५.४.७२) सूत्रार्थः - पथिन्शब्दान्तात्‌ नञ्तत्पुरुषसमासात्‌ विकल्पेन समासान्ताः न भवन्ति। प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय जिन स्थलों में होता है उन स्थलों में श्रूयमाण प्रयोजन फल कहलाता है।,प्रकरणस्य प्रतिपाद्यः विषयः येषु स्थलेषु विद्यते तेषु स्थलेषु श्रूयमाणं प्रयोजनं फलम्‌। आसाथे - आस्‌-धातु से आत्मनेपद में लट्‌-लकार में मध्यमपुरुषद्विवचन में आसाथे रूप बना।,आसाथे- आस्‌-धातोः आत्मनेपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने आसाथे इति रूपम्‌। स्यान्तस्योपोत्तमं च इस वार्तिक से स्यान्तस्य इस पद ग्रहण से।,स्यान्तस्योपोत्तमं च इति वार्तिके स्यान्तस्य इति पदग्रहणात्‌। सत्रहवां पाठ समाप्त ॥,इति सप्तदशः पाठः ॥ अव्ययीभाव से इस विशेषण से झय का तदन्त विधि होने पर झयन्तात्‌ होता है।,अव्ययीभावाद्‌ इत्यस्य विशेषणत्वाद्‌ झयः तदन्तविधौ झयन्ताद्‌ इति भवति। पाँचवां लिङ्ग है अर्थवाद।,पञ्चमं लिङ्गं भवति अर्थवादः। २॥ वेदाध्ययन-३४५ ( पुस्तक-२ ) अन्वय - मित्रावरुणा वां तत्‌ महित्वं सु ईर्मा अहोऽभिः तस्थुषी: दुदुह्वे स्वसरस्य विश्वाः धेनाः पिन्वथः अनु वाम्‌ एकः पविः आववर्त।,२॥ अन्वयः - मित्रावरुणा वां तत्‌ महित्वं सु ईर्मा अहोऽभिः तस्थुषीः दुदुहे स्वसरस्य विश्वाः धेनाः पिन्वथः अनु वाम्‌ एकः पविः आववर्त। "सन्‌ (सत्‌), महत्‌, परम्‌, उत्तम, उत्कृष्ट समानाधिकरण पूज्यमान सुबन्तों के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।","सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः समानाधिकरणैः पूज्यमानैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" "इन में फिर उत्तर मीमांसा ही द्वैत, विशिष्टद्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद शैवविशिष्टाद्वैतादि अलग अलग मत वाले हो गये।",एतेषु पुनः उत्तरमीमांसायाम्‌ एव द्वैत-विशिष्टद्वैत-अद्वेत-शुद्धाद्रैत-द्वैताद्वेत-अचिन्त्यभेदाभेद- शैवविशिष्टाद्वेतादिदर्शनानि परस्परसूक्ष्मभेदं निर्वहन्ति राजन्तेतराम्‌। अब कहते हैं की निदिध्यासन तथा समाधि में जो अभेद होता हैं तो इन दोनों का उपदेश विद्यारण्य स्वामी के द्वारा तथा शङ्कराचार्य के द्वारा एक ही साथ क्यों नहीं दिया गया है।,ननु निदिध्यासनसमाध्योः यदि अभेदः तर्हि कथं तयोः निदिध्यासनपदेनैव उपदेशः विद्यारण्यैः शङ्कराचार्यैः वा न विधीयते । संस्कृत की परम्परा में ग्रन्थकार चार प्रकार के अनुबन्धों को प्रत्यक्ष रूप से तथा परोक्ष रूप से ग्रन्थ के आदि में उपस्थापित करते हैं।,संस्कृतपरम्परासु सर्वत्र ग्रन्थकाराः चतुरः अनुबन्धान्‌ प्रत्यक्षरूपेण परोक्षरूपेण वा ग्रन्थादौ उपस्थायन्ति। उससे ज्योतिष-नाम के वेदाङ्ग का भी अपना वैशिष्ट्य है।,तस्मात्‌ ज्योतिष-नामकस्य वेदाङ्गस्य अपि स्वकीयं वैशिष्ट्यं विद्यते। पश्चात्‌ देवादि जीव के बाद भूमि को बनाया।,पश्चात्‌ देवादिजीवभावादूर्ध्वं भूमिं ससर्जेति शेषः। “एकश्रुति दूरात्संबुद्धौ” इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,"""एकश्रुति दूरात्संबुद्धौ"" इति सूत्रं व्यख्यात।" यज्ञसम्बन्धिहवि आदि पदार्थो के ज्ञान में उसका यह अर्थ है।,यज्ञसम्बन्धिनां हविरादिपदार्थानां ज्ञानेषु सत्स्वित्यर्थः। चायृ पूजानिशामनयोः इस धातु से चित्र शब्द बनता है ऐसा स्कन्द स्वामी कहते है।,चायृ पूजानिशामनयोः इति धातुतः चित्रशब्दः व्युत्पन्नः इति स्कन्दस्वामी वदति। ऋग्वेद का समूह।,ऋक्समूहः। "और भी यहाँ सूत्र में 'वा' इस पद के प्रयोग करने से ही कार्य सम्भव होने पर, विभाषा इस पद के ग्रहण करने से यज्ञकर्मणि इस पद की निवृत्ति हो जाती है।","अपि च अत्र सूत्रे वा इति पदस्य निवेशेनैव कार्यसम्भवे सति, विभाषा इति पदस्य ग्रहणं यज्ञकर्मणि इति पदस्य निवृत्त्यर्थम्‌।" डाप्‌ प्रथमा एकवचनान्त पद है।,डाप्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। यहाँ नि प्रत्यय का नकार से उत्तर इकार “आद्युदात्तरच' इससे उदात्त है।,अत्र निप्रत्ययस्य नकरोत्तरः इकारः आद्युदात्तश्च इत्यनेन उदात्तः। जयतः - जिधातु से शतृप्रत्यय करने पर पञ्चमी एकवचन में अथवा षष्ठी एकवचन में।,जयतः - जिधातोः शतृप्रत्यये पञ्चम्येकवचने वा षष्ठ्यैकवचने । कौञ्‌जायनाः इस रूप को सूत्र सहित सिद्ध कीजिए।,कौञ्जायनाः इति रूपं ससूत्रं साधयत। भरन्तः - भृधातु से शतृप्रत्यय करने पर प्रथमाबहुवचन में भरन्तः यह रूप बनता है।,भरन्तः- भृधातोः शतृप्रत्यये प्रथमाबहुवचने भरन्तः इति रूपम्‌। और वह कुटीचकादि होता है।,स च कुटीचकादिः भवति। आ वेदयामसि - आ पूर्वक विद्‌ धातु से णिच लट्‌ उत्तमपुरुष बहुवचन का यह रूप है।,आ वेदयामसि - आ पूर्वकात्‌ विदधातोः णिचि लटि उत्तमपुरुषस्य बहुवचनस्यरूपम्‌। आत्मा सत्‌ तथा एक होती है फिर भी उपाधि भेद से अनेक जीव स्वरूप से प्रतीत होती है।,आत्मा तु सदेकः तथापि उपाधिभेदेन अनेकजीवस्वरूपेण प्रतीयते। इसलिए विषं भुङ्क्ष्व यहाँ पर जहत्‌ लक्षणा है।,अतः विषं भुङ्क्ष्व इत्यत्र जहल्लक्षणा। योग दर्शन में प्रतिपादित असम्प्रज्ञात समाधि से निर्विकल्पसमाधि मे कुछ वैलक्षण्य है।,योगदर्शने प्रतिपादितात्‌ असम्प्रज्ञातसमाधेः निर्विकल्पकसमाधेरस्ति किञ्चिद्वैलक्षण्यम्‌। उदाहरण- इस सूत्र के उदाहरण है - सत्यं ब्रवीमि वध इत्‌ स तस्य॑ (तै. ब्रा.२-८-८-७) इति।,उदाहरणम्‌- अस्य सूत्रस्य उदाहरणानि भवन्ति सत्यं ब्रवीमि वध इत्‌ स तस्य॑(तै. ब्रा.२-८-८- ७) इति। यहाँ शकटिशकट्योः इस पद के विशेष्य रूप से शब्दयोः इस पद का यहाँ आक्षेप किया है।,अत्र शकटिशकट्योः इति पदस्य विशेष्यरूपेण शब्दयोः इति पदम्‌ आक्षिप्यते। 21. विकल्प का भान होने पर किस प्रकार से सविकल्प समाधि में अद्वैत ब्रह्म भासित होता है?,२१. विकल्पभानेऽपि कथं सविकल्पकसमाधोौ अद्वैतं ब्रह्म भासते? यहाँ स नपुंसकम्‌ दो पद प्रथमा एकवचनात्तपद है।,अत्र स नपुंसकम्‌ इति पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तम्‌। यहाँ पूजा अर्थ में क्तप्रत्यय होने पर षष्ठी समास नहीं होता है।,अत्र पूजायां क्तेन न षष्ठीसमासः इत्यन्वयः। "कुगतिप्रादि समास और उपपद समास इस पाठ में कु समास का, गति समास का, प्रादि समास का, और उपपद समास का वर्णन किया गया है।","कुगतिप्रादिसमासः , उपपदसमासः च प्रस्तावना अस्मिन्‌ पाठे कुसमासस्य गतिसमासस्य प्रादिसमासस्य उपपदसमासस्य च वर्णनं क्रियते ।" चित्त के शुद्ध होने के बाद उपासान करनी चाहिए।,चित्तशुद्धेः परम्‌ उपासना करणीया। "श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः"" इस प्रकार अनेक जगह श्रद्धा की स्तुति प्राप्त होती है।",श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः'॥ एवं बहुधा श्रद्धायाः स्तुतिः बहुत्र कृता समुपलभ्यते। इस प्रकार से बन्धन का कारण तथा मोक्ष कारण मन ही है यह सिद्ध हो चुका है।,एवं बन्धनकारणं मोचनकारणमपि मन एव इति सिद्धम्‌। दीव्यः यह रूप कैसे सिद्ध हुए?,दीव्यः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? कुछ सूक्तों को भी पहले जान लेना चाहिए।,कानिचन सूक्तानि अपि प्राथम्येन ज्ञातव्यानि। "घञन्त भक्ष शब्द भी उजञ्‌छादिगण में पढ़ा हुआ है, उससे “गावः प्रथमस्य भक्ष; यहाँ पर षकार से उत्तर अकार का प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर है।","घञन्तः भक्षशब्दोऽपि उञ्छादिगणे पठितः, तेन ""गावः प्रथमस्य भक्ष इत्यत्र षकारोत्तरस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः।" इस पाठ में फिट्‌ सूत्रों कौ आलोचना करेगें।,अस्मिन्‌ पाठे फिट्सूत्राणि आलोचितानि। कर्मयोग के द्वारा चित्त के मल का नाश होता है।,कर्मयोगेन चित्तमलानां नाशः भवति। और जिस स्थान पर मनु सबसे पहले उतरे उस हिमालय के स्थान को आज भी मानसरोवर के नाम से जाना जाता है।,येन च वर्त्मना मनुरवसृप्तः तद्‌ अद्यत्वे अपि एतद्‌ उत्तरस्य गिरेः मनोरवसर्पणम्‌ इति आहुरिति शेषः। वीर्याणि इसका क्या अर्थ है?,वीर्याणि इत्यस्य कः अर्थः? महर्षियों ने जो आध्यात्मिक तत्त्व ध्यान के माध्यम से साक्षात्‌ किया उन सभी तत्त्वो का यहाँ वर्णन है।,महर्षयो यानि आध्यात्मिकतत्त्वानि ध्यानमाध्यमेन साक्षाद्‌ अकुर्वन्‌ तानि सर्वाणि तत्त्वानि अत्र वर्णितानि सन्ति। व्याकरण विषय का भी यह ही अंश बहुत ही प्राचीन है।,व्याकरणविषयस्य अपि अयमंशः नितान्तं प्राचीनः अस्ति। "मित्रावरुणसूक्त के ऋषि कौन, देवता कौन, छन्द क्या है?","मित्रावरुणसूक्तस्य कः ऋषिः, के देवते, किं छन्दः।" "“तद्धितार्थोत्तपदसमाहारे च"" इस सूत्र का क्या अर्थ है?","""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रस्यार्थः कः" विवाह के बाद रात्रिकाल में अपनी पत्नी बाहर लाकर के पति अरुन्धती नक्षत्र का दर्शन करवाता है।,विवाहानन्तरं रात्रिकाले स्वभार्यां बहिरानीय भर्ता अरुन्धतीनक्षत्रं प्रदर्शयति। ऋग्वेद के दो आरण्यको के मध्य में यह श्रेष्ठ आरण्यक है।,ऋग्वेदस्य द्वयोः आरणयकयोः मध्ये अन्यतमम्‌ इदम्‌ आरण्यकर्मस्ति। "तथा समिधाएं सात को तीन से गुणा करने पर २१ हुई “द्वादश मासाः पञूचर्तवस्त्रय इमे लोकाः असावादित्य एकविशः' (तै०स० ५.१.१०.३) अर्थात “द्वादश मास, पञ्च ऋतु, ये तीन लोक और एक आदित्य कुल २१ इस श्रुति से पदार्थ एकविंशति लकडी से युक्त समिधा के रूप में हुई।",तथा समिधः त्रिः सप्तत्रिगुणीकृतसप्तसंख्याकाः एकविंशतिः कृताः।'द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोकाः असावादित्य एकविंशः'(तै०स० ५.१.१०.३)इति श्रुताः पदार्था एकविंशतिदारुयुक्तेध्मत्वेन भाविताः। 2 निदिध्यासन क्या होता है?,2. निदिध्यासनं किम्‌। प्रत्ययस्थात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,प्रत्ययस्थात्‌ इति पञ्चम्यन्तं पदम्‌। "गुरुत्व, महिमाशाली, शौर्य और वीर्य और सूक्त संख्या में इन्द्र अद्वितीय हैं।",गुरुत्वे महिमनि शौर्ये वीर्य सूक्तसंख्यायां च इन्द्रः अद्वितीयः। “नमोऽस्तु रुद्रेभ्यः (क. ६३) इस प्रत्यवरोहमन्त्र में उससे पहले मुखमात्रपरिश्रित स्वाहाकार है।,'नमोऽस्तु रुद्रेभ्यः' (क. ६३) इति प्रत्यवरोहमन्त्राः तेभ्यः प्राक्‌ मुखमात्रपरिश्रिति स्वाहाकारः। यहाँ सादृश्यबोधक शौर्यात्मकसाधारणधर्म के अप्रयोग से प्रस्तुत सूत्र से समास होता है।,अत्र सादृश्यबोधकशौर्यात्मकसाधारणधर्मस्याप्रयोगात्‌ प्रस्तुतसूत्रेण समासः । ऋग्वेद के बहुत से विषयों पर यहाँ दुबारा आलोचना की है।,ऋग्वेदस्य बहवः विषयाः अत्र पुनः आलोचिताः। इस पुरुष के अविशिष्ट त्रिपाद स्वरूपम्‌ अमृतं- विनाशरहितं सत्‌ द्योतनात्मक या प्रकाशक प्रकाश स्वरुप में अवतिष्ठ है।,अस्य पुरुषस्य अविशिष्टं त्रिपात्‌ स्वरूपम्‌ अमृतं विनाशरहितं सत्‌ दिवि द्योतनात्मके स्वप्राकाशस्वरुपे व्यवतिष्ठात इति शेषः। इस कथा के प्रतीयमान उपदेश के ऊपर ब्राह्मण का मत है की आज भी स्त्री स्तुति की अपेक्षा से गायन के प्रति अधिक आकर्षित होती है।,अस्याः कथायाः प्रतीयमानस्य उपदेशस्य उपरि ब्राह्मणस्य मतमस्ति यद्‌ अद्यापि स्त्रियः स्तुतेरपेक्षया गायनं प्रति अधिकाकृष्टा भवन्ति इति। “आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इत्यादि श्रुतियों में एकबार श्रवण एकबार मनन तथा एकबार निदिध्यासन का उपदेश नहीं दिया है।,न हि “आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इत्यादिश्रुतिषु सकृच्छ्रवणं सकृत्‌ मननं सकृत्‌ निदिध्यासनं वा उपदिश्यते। "वहाँ अग्नि शब्द का सम्बोधन एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय होने पर अनुबन्ध लोप होने पर अग्नि स्‌ इस स्थिति में “एकवचनं सम्बुद्धिः' इस सूत्र से सु प्रत्यय की सम्बुद्धि संज्ञा में ' हृस्वस्य गुणः' इस सूत्र से सम्बुद्धि परक होने पर हस्व अङ्ग संज्ञक अग्नि शब्द के अन्तिम इकार के स्थान में गुण एकार होने पर, अग्ने स्‌ यह स्थिति होती है।",ततः अग्निशब्दस्य सम्बोधनैकवचनविवक्षायां सप्रत्यये अनुबन्धलोपे अग्नि स्‌ इति स्थिते 'एकवचनं सम्बुद्धिः' इति सूत्रेण सुप्रत्ययस्य सम्बुद्धिसंज्ञायां 'हस्वस्य गुणः' इति सूत्रेण सम्बुद्धिपरकत्वात्‌ ह्रस्वस्य अङ्गसंज्ञकस्य अग्निशब्दस्य अन्त्यस्य इकारस्य गुणे एकारे अग्ने स्‌ इति स्थितिः जायते। रुद्र शब्द का अर्थ भीषण अथवा भयङ्कर है।,रुद्रशब्दास्यार्थः भीषणः भयङ्करो वेति। अतः उससे पर अनुदात्त के स्थान में प्रकृत सूत्र से स्वरित स्वर की प्राप्ति हुई।,अतः तस्मात्‌ परस्य अनुदात्तस्य स्थाने प्रकृतसूत्रेण स्वरितस्वरः विधीयते। उससे राजदन्तः इत्यादि सिद्ध होते हैं।,तेन राजदन्तः इत्यादिकं सिध्यति। इसमें चार अध्याय है।,अस्य चत्वारोऽध्यायाः सन्ति। यथा प्राप्त स्थिति ही जिसकी दिखाई देती है वह जीवन्मुक्त कहलाता है।,यथाप्राप्ते स्थितिः यस्य दृश्यते स एव जीवन्मुक्तः इति उच्यते। चित्त के मल के नाश के लिए अर्थात चित्त की शुद्धि के लिए नित्यादि कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है।,चित्तमलस्य नाशाय अर्थात्‌ चित्तस्य शुद्धये नित्यादीनि कर्माणि अनुष्ठेयानि। सूत्र में “क्तेन'' यह तृतीया एकवचनान्त पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे क्तेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” (2/2/11) इस प्रकार से।,तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” (२/२/११) इति। लेकिन ऐहिक वस्तुओं से जो सुख उत्पन्न होता है।,परन्तु ऐहिकवस्तुभ्यः यत्‌ सुखं जायते। पूर्वे भूतपूर्वे इस सूत्र से किसका विधान है?,पूर्वे भूतपूर्व इति सूत्रेण किं विधीयते? सूत्र व्याख्या-सूत्र के छ: विधियों में पाणिनीय सूत्रों में यह परिभाषा सूत्र है। इस सूत्र में दो पद हैं।,सूत्रव्याख्या - षड्विधेषु पाणिनीयसूत्रेषु इदं परिभाषासूत्रम्‌। सूत्रेऽस्मिन्‌ पदद्वयं वर्तते। ऋग्वेद के ८/३/२१-२४ मन्त्र का देवता सर्वानुक्रमणि में पाकस्थ कौरायाण की दानस्तुति कही है।,ऋग्वेदस्य ८/३/२१-२४ मन्त्रस्य देवता सवनुक्रमण्यां पाकस्थामाकौरयाणस्य दानस्तुतिः कथिता। पर के अङग के समान “पराङडगवत्‌' यहाँ षष्ठीतत्पुरुष समास है।,परस्य अङ्गवत्‌ पराङ्गवत्‌ इति षष्ठीतत्पुरुषसमासः। "सूक्त कितने प्रकार के हैं, और वे कौन कौन से है?",सूक्तं कतिविधम्‌? कानि च तानि? विधान किया जाता है अर्थात्‌ विधीयते ऐसा विधि कार्य है।,विधीयते इति विधिः कार्यम्‌। कौन पृथ्वी को धारण करते है?,के पृथिवीं धारयन्ति? क्या कहते है यह बताते है।,किं वदाम इत्यत आह। "सूत्र अर्थ का समन्वय- उच्चौः इस पद को पाणिनीय सूत्रों के द्वारा प्रातिपदिक संज्ञा नहीं की है, अपितु पूर्व आचार्यों के द्वारा प्रातिपदिक कहा गया है।","सूत्रार्थसमन्वयः- उच्चैः इति पदं पाणिनीयैः सूत्रैः न प्रातिपदिकसंज्ञकम्‌, अपि तु पूर्वाचार्यैः प्रातिपदिकम्‌ इत्युच्यते।" जो द्वैत नहीं होता है वह अद्वैत कहलाता है।,न द्वैतम्‌ अद्वैतम्‌। और इसके बाद अज आ यह स्थिति होती है।,ततश्च अज आ इति स्थितिः भवति। (बृ-2.1.19) सुषुप्ति में संसार नहीं होता है।,(बृ-२.१.१९) सुषुप्तौ संसारो नास्ति। इसलिए यह तैजस का प्रविविक्ताहारतर होता है इस प्रकार से बृहदारण्य में कहा है।,अतः अयं तैजसः प्रविविक्ताहारतरश्च भवतीति बृहदारण्यके अस्ति। वरुण शब्द किस धातु से निष्पन्न है ?,वरुणशब्दः कस्माद्‌ धातोः निष्पन्नः ? इन्द्र अग्नि का भाई कहलाता है।,इन्द्रो हि अग्नेः सहोदर इत्युच्यते। इसलिए तत्वमसि यहाँ पर जहत्‌ लक्षणा स्वीकार नहीं की जाती है।,अतः तत्त्वमसि इत्यत्र जहल्लक्षणा न स्वीक्रियते। तडाग केदार आदि के उदाहरण तो बालकों के बोध के लिए हैं।,तडागकेदारादि उदाहरणं तु बालबोधाय। आचार्य विद्यारण्य स्वामी ने तत्वदर्शियों को किस प्रकार से आचरण करना चाहिए उसका उपदेश दिया है।,आचार्यः विद्यारण्यः तत्त्वदर्शिनां कृते कथम्‌ आचरणं कर्तव्यं तत्‌ उपदिष्टवान्‌। "सरलार्थ - रथी योद्धा जिस प्रकार कोडे से घोड़ो को मारता हुआ योद्धाओं को प्रकट करता है, उसी प्रकार पर्जन्य जब आकाश को वर्षा से युक्त करते हैं, तब उनका गर्जन सिंह के समान दूर से उत्पन्न होता है।",सरलार्थः - कशया अश्वं प्रेरणं कुर्वन्‌ रथस्वामी इव ( पर्जन्यदेवः ) वर्षासम्बन्धिदूतान्‌ प्रकटयति । यदा पर्जन्यदेवः आकाशात्‌ वर्षणं करोति तदा दूरात्‌ गर्जनस्य ध्वनिः श्रूयते । पञ्चम अष्टक- तैतीसवें अध्याय को छोड़कर बतीसवे अध्याय से आरम्भ करके अन्य सात अध्याय प्राप्त होते है।,पञ्चममष्टकम्‌- त्रयस्त्रिंशदध्यायं विना द्वात्रिंशदध्यायादरभ्य अन्ये सप्त अध्यायाः समुपलब्धाः। उन्होंने एक पत्र में कहा भी था।,पत्रे एकदा विवेकानन्देन लिखितम्‌- उसके लिए गुरु की शरण ग्रहण करके श्रवणादिक करना चाहिए।,ततः गुरूपसदनम्‌। ततः श्रवणादिकम्‌। और विवेकानन्द ने वेदान्त के माध्यम से श्री रामकृष्ण के जीवन की व्याख्या की।,विवेकानन्दस्तु वेदान्तमाध्यमेन श्रीरामकृष्णजीवनं व्याख्यातवान्‌ गोष्ठजस्य ब्राह्मणनामधेयस्य इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,गोष्ठजस्य ब्राह्मणनामधेयस्य इति सूत्रं व्याख्यात। अनिवेशनानाम्‌ - निपूर्वक विश्‌-धातु से ल्युट्‌ अन्‌ आदेश होने पर निवेशनम यह हुआ उसके बाद न निवेशनम यहाँ पर नञ्‌ तत्पुरुष समास में षष्ठीबहुवचन में अनिवेशनानाम्‌ यह रूप बनता है।,अनिवेशनानाम्‌ - निपूर्वकात्‌ विश्‌-धातोः ल्युटि अनादेशे निवेशनमिति जाते ततः न निवेशनमिति नञ्तत्पुरुषसमासे षष्ठीबहुवचने अनिवेशनानाम्‌ इति रूपम्‌। जर्तिलैरारण्यतिल के द्वारा मिश्रित गेहू के साथ सक्तकूनर्कपत्र से आहुति देते है।,जर्तिलैरारण्यतिलैर्मिश्रान्‌ गवेधुकासक्तूनर्कपत्रेण जुहोति। जैसे शुक्ल: घट: (सफेद घड़ा) यहाँ पर शुक्ल शब्द का शुक्लगुणरूप वाच्यार्थ है।,यथा- शुक्लो घटः इति। अत्र शुक्लशब्दस्य शुक्लगुणरूपः वाच्यार्थः। तब इन्द्र ने उनसे कहा - तुम जैसे कहते हो मै वैसे ही हो जाता हूँ।,तदा इन्द्रः तमुक्तवान्‌ - त्वं यथावभाससे तथा भूयाः इति। इस द्रोणकलश की स्थापना रथ के पृष्ठ भाग में होती है।,अस्य द्रोणकलशस्य स्थापनं रथस्य अधोभागे भवति। उस जल प्रभाव से मन्देह नाम के दैत्य का सभी प्रकार से विनाश होता है (२।२)।,तेन जलप्रभावेण मन्देहनामकस्य दैत्यस्य सर्वथा विनाशो भवति (२।२)। प्रत्येक पदार्थ को उसने प्राप्त कर रखा है।,प्रत्यङ्‌ प्रतिपदार्थमञ्चति प्रत्यङ्। यहाँ यह घृतादिगण ही आकृतिगण है।,अत्र अयं घृतादिगणो हि आकृतिगणः भवति। 2. डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌ सूत्र को सोदाहरण व्याख्या कीजिये।,"२. ""डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्‌"" इति सूत्रस्य सोदाहरणं व्याख्या कार्या।" इसलिए सृष्टि विचार के प्रसङ्ग में पञ्चीकरण को भी जानना चाहिए।,तस्मात्‌ सृष्टिविचारप्रसङ्के पञ्चीकरणम्‌ अपि ज्ञातव्यम्‌। अहं सोममाहनसंङ्कु ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,अहं सोममाहनसं... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। (गीता 5.12) सब कर्म ईश्वर के लिये ही हैं मेरे फल के लिये नहीं इस प्रकार निश्चय वाला योगी कर्म फल का त्याग करके ज्ञान निष्ठा में होने वाली मोक्ष रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।,(गीता ५.१२)युक्तः “ईश्वराय कर्माणि करोमि न मम फलाय इत्येवं समाहितः सन्‌ कर्मफलं त्यक्त्वा परित्यज्य शान्तिं मोक्षाख्याम्‌ आप्नोति नैष्ठिकीं । छन्दसि च सूत्र से।,छन्दसि च। मल्लशर्मशिक्षा का रचयिता कौन है?,मल्लशर्मशिक्षायाः रचयिता कः। ज्येष्ठ सुस्‌ अनु यह अलौकिक विग्रह है।,ज्येष्ठ ङस्‌ अनु इत्यलौकिकविग्रहः। वह उस स्वरूप वाला मेरा मन धर्मेष्ट होवे।,तत्‌ तादृशं मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्त्विति। बहुशरावः- बहुषु शरावेषु संस्कृतः इस विग्रह में द्विगुसमास करने पर बहुशरावः यह रूप बनता है।,बहुशरावः- बहुषु शरावेषु संस्कृतः इति विग्रहे द्विगुसमासे बहुशहावः इति रूपम्‌। अज्ञान का नाश होने पर ज्ञान स्वयं प्रकाशित हो जाता है।,अज्ञानस्य नाशे सति ज्ञानं तु स्वयं प्रकाशते। उससे सूत्र का अर्थ होता है इट्‌ से भिन्न में अजादि लसार्वधातुक परे अभ्यस्त संज्ञको के आदि अच्‌ उदात्त होते हैं।,तेन सूत्रार्थो भवति इट् भिन्ने अजादिलसार्वधातुके परे अभ्यस्तसंज्ञकानाम्‌ आदिः अच्‌ उदात्तः भवति। वस्तुतः वहाँ पर रस्सी ही होती है न की सर्प।,वस्तुतः तत्र रज्जुरेव वर्तते न सर्पः। मन के अधीन ही इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है।,मनोधीनतया एव इन्द्रियाणां प्रवृत्तिः। छन्द वेद का पाँचवां अङ्ग है।,छन्दो वेदस्य पञ्चमम्‌ अङ्गम्‌ अस्ति। “पथो विभाषा” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""पथो विभाषा"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" और इसका अर्थ होता है शार्ङ्गरवादि का और अञ्‌ का।,एवञ्च अस्यार्थो भवति - शार्ङ्गरवादेः अञः च इति। इससे अनुपहित तुरीय ब्रह्म एकत्व के कारण अवभासमान तत्‌ पद का वाच्यार्थ होता है।,एतदनुपहितं तुरीयं च ब्रह्म एकत्वेन अवभासमानं तत्पदस्य वाच्यार्थः भवति। इस उल्लेख से स्पष्ट होता है की पाणिनि इस ग्रन्थ के लेखक नहीं है।,अनेन उल्लेखेन स्पष्टः भवति यत्‌ पाणिनिः अस्य ग्रन्थस्य लेखको नास्ति। इस प्रकार से ही सम्बन्ध का ज्ञान होता है तो विषय जिज्ञासु के तथा उसके बोधक शास्त्र में प्रवर्तित होता है।,एतादृशस्य एव सम्बन्धस्य ज्ञानं भवति चेत्‌ विषयं जिज्ञासुः तस्य बोधके शास्त्रे प्रवर्तते। "सरलार्थ - जिसमे ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद चक्रनाभि में विद्यमान अरा के समान विद्यमान है और भी जिसमे प्राणियों के सभी पदार्थ विषयक ज्ञान है।","सरलार्थः- यस्मिन्‌ ऋचः , सामानि , यजूंषि च चक्रनाभौ अराः इव विद्यन्ते। अपि च यस्मिन्‌ प्राणिनां सर्वपदार्थविषयकज्ञानं वर्तते।" इस प्रकार सांख्य शास्त्रज्ञों का मत है।,इति सांख्यशास्त्रविदां मतम्‌। वेद धर्म निरूपण करने में स्वतन्त्र भाव से प्रमाण है।,वेदो धर्मनिरूपणे स्वतन्त्रभावेन प्रमाणम्‌ । और जो एक ही अद्वैत परमात्मा पृथिवी प्रख्यात भूमिद्यौ प्रकाशित अन्तरिक्षऔर विश्वके चौदह भुवनऔर लोकों का कर्ता है।,य उ य एव पृथिवीं प्रख्यातां भूमिं द्याम्‌ उत द्योतनात्मकमन्तरिक्षं च विश्वा भुवनानि चतुर्दश लोकांश्च। किसका शासन अध्वर यज्ञों का यह है।,कस्य शासनम्‌ अध्वराणाम्‌ यज्ञानाम्‌ इति। पथिन्‌ शब्दान्त समास का समासान्त में उदाहरण है-सख्युः पन्थाः सखिपथः।,पथिन्‌ शब्दान्तसमासस्य समासान्ते उदाहरणं- सख्युः पन्थाः सखिपथः इति। "चरित्र की त्रुटी में धार्मिक विरोध का तथा अन्य विधिहीन आचरणों का विधान है - जैसे ज्ञात अथवा अज्ञात अपराधो के हेतु से, धर्मशास्त्र के द्वारा निषेध का, विवाह का कारण, ऋण लेने वाले के प्रति द्वेष भावना हेतु से, बड़े भाई के बिना विवाह हेतु से जो अपराध होते हैं, उनको दूर करने के लिए यहाँ प्रायश्चित्त का विधान है।","चारित्रिकत्रुटेः धार्मिकविरोधस्य तथा अन्यविधिहीनानाम्‌ आचाराणां विधानम्‌- यथा- ज्ञातस्य अज्ञातस्य वा अपराधस्य हेतुना, धर्मशास्त्रेण वर्जितस्य विवाहस्य कारणेन, ऋणप्रतिशोधाभावहेतुना, ज्येष्ठं विना विवाहहेतुना च ये अपराधाः भवन्ति तेषां दूरीकरणाय अत्र प्रायश्चित्तस्य विधानम्‌ अस्ति।" अग्नि के द्वारा सभी ओर से पालित यज्ञ को राक्षस आदि उसको हिंसित नहीं कर सकते।,न ह्यग्निना सर्वतः पालितं यज्ञं राक्षसादयो हिंसितुं प्रभवन्ति। ® सत्‌ का सहाकारी कारण दूसरा नहीं होता है।,सतः सहकारिकारणं द्वितीयं नास्ति। “नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌' इस सूत्र में उदय शब्द का क्या अर्थ है?,"""नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌' इत्यस्मिन्‌ सूत्रे उदयशब्दस्य कोऽर्थः?" जो जिस विषय अज्ञान को निवर्तिका होती है वह वृत्ति तद्विषयाकार ही हो जाती है।,या वृत्तिः यद्विषयस्य अज्ञानस्य निर्वर्तिका भवति सा वृत्तिः तद्विषयाकारा भवति। अब कहते हैं की जीव तथा ब्रह्म का अज्ञान कृत कल्पित भेद स्वीकार करने से लब्धलब्धव्य भाव स्वीकार करने का अर्थ प्रसिद्ध होता है तो कहते हैं कि ऐसा भी नहीं है।,"ननु जीवब्रह्मणोरज्ञानकृतकल्पितभेदस्वीकारात्‌ लब्धृुलब्धव्यभावस्वीकारस्य वैयर्थ्यं प्रसज्यते इति चेन्न, ।" ईषदन्यतरस्याम्‌ इस सूत्र से अन्यतरस्याम्‌ इस पद की अनुवृति आती है।,ईषदन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रात्‌ अन्यतरस्याम्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते। जुए को छोडकर क्या करना चाहिए।,अक्षकीडां परित्यज्य किं करणीयम्‌ तब हाथ धोते समय कोई छोटी मछली उनके हाथ पर गिरी।,तदा हस्तप्रक्षालनसमये कश्चित्‌ क्षुद्रः मत्स्यः मनोः हस्ते पतितः। इन अवस्थाओं में शरीर की वृद्धि भी होती है तथा क्षय भी होता है।,एतासु अवस्थासु शरीरस्य वृद्धिर्भवति क्षयश्च भवति। 1 प्रज्ञानं ब्रह्म” यहाँ पर प्रज्ञान शब्द के अर्थ का प्रतिपादन कीजिए।,1 “प्रज्ञानं ब्रह्म” इत्यत्र प्रज्ञानशब्दस्य अर्थं प्रतिपादयत। "व्याख्या - हे रुद्र, जो आपका यह इस प्रकार का विशाल शरीर को हे गिरिशन्त, उस विस्तृत कानून आदि से सब को देख सब पर दृष्टि रख।","व्याख्या - हे रुद्र, या ते तवेदृशी तनू: शरीरं हे गिरिशन्त, तया तन्वा नोऽस्मानभिचाकशीहि अभिपश्य।" नाम से प्रतीत होता है की ये विद्वान दक्षिणभारत के निवासी थे।,नाम्ना प्रतीतो भवति यद्‌ अयं विद्वान्‌ सुदूरदक्षिणभारतस्य एव निवासी आसीत्‌। जो ज्ञान के विषय होते हैं वह ज्ञान आत्मा कहलाता है।,यस्य ज्ञानस्य विषयाः भवन्ति तज्ज्ञानम्‌ आत्मा भवति। उस पूर्वोक्त मानस यज्ञ से दधिमिश्रितघृत सम्पादित हुआ।,तादृशात्‌ तस्मात्‌ पूर्वोक्तात्‌ मानसात्‌ यज्ञात्पृषदाज्यं दधिमिश्रिज्यं सम्भृतं सम्पादितम्‌। कर्मभेदों का वर्णन कीजिए।,कर्मभेदान्‌ विवृणुत। कात्यायन की ऋक्सर्वानुक्रमणि में केवल बाईस संख्या सूक्तों में है।,कात्यायनस्य ऋक्सवनुक्रमण्यां केवलं द्वाविंशतिसंख्यकेषु सूक्तेषु। जविष्ठम्‌ - जुधातु से इष्ठन्प्र्यय करने पर जविष्ठम्‌ रूप बनता है।,जविष्ठम्‌ - जुधातोः इष्ठन्प्रत्यये जविष्ठम्‌ इति रूपम्‌। "सान्वयप्रतिपदार्थ - तस्मात्‌ = पूर्व में कहे गये यज्ञ से, अश्वाः = घोडे, ये के च = अश्व से अतिरिक्त गर्दभ आदि, उभयोः भागयोः दन्ता येषां ते उभयादतः = ऊर्ध्व और अधोभाग में दन्तयुक्त है, वो भी, अजायन्त = समुत्पन्न हुए तस्मात्‌ = पूर्वोक्त यज्ञ से, ह = स्फुटं, गावः = धेनु, जज्ञिरे = प्रादुर्भूत हुए, तस्मात्‌ = यज्ञ से, अजाश्च अवयश्च अजावयः = बकरी भेड्‌ आदि ने, जाताः = जन्म लिया।","सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्मात्‌ = पूर्वनिगदितात्‌ यज्ञात्‌, अश्वाः = हयाः, ये के च = अश्वातिरिक्ता गर्दभादयः अश्वतराश्च, उभयोः भागयोः दन्ता येषां ते उभयादतः = ऊर्ध्वाधोभागयोः दन्तयुक्ताः सन्ति, तेऽपि, अजायन्त = समुत्पन्नाः। तस्मात्‌ = पूर्वोक्ताद्‌ यज्ञात्‌, ह = स्फुटं, गावः = धेनवः, जज्ञिरे = प्रादुर्भूताः, तस्मात्‌ = मखात्‌, अजाश्च अवयश्च अजावयः = छागमेषादयश्च, जाताः = जनिम्‌ अलभन्त।" भविष्यत्‌ - भृधातु से लूट शतृप्रत्यय करने पर भविष्यत्‌ रूप बनता है।,भविष्यत्‌ - भूधातुः लृटि शतृप्रत्यये भविष्यत्‌ इति रूपम्‌। उससे ऋदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ नान्तात्‌ और प्रातिपदिकात्‌ प्राप्त होता है।,तेन ऋदन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ नान्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च इति लभ्यते। 35. अव्ययीभावसमास में अमादेश विधायक दो सूत्र कौन से हैं?,३५. अव्ययीभावसमासे अमादेशविधायकं सूत्रद्वयं किम्‌? अपिहितम्‌ इसका क्या अर्थ है?,अपिहितम्‌ इत्यस्य कः अर्थः। "उनमें अद्रव्य वाचि शब्द और जो चादिगण में पढ़े हुए है, उनका चादयोऽसत्त्वे' इस सूत्र से निपातसंज्ञा का विधान है।",तेषु अद्रव्यवाचिनः शब्दाः ये च चादिगणे पठिताः तेषां चादयोऽसत्त्वे इति सूत्रेण निपातसंज्ञा विधीयते। और वहाँ विविध सूक्तों में लौकिक विषयों पर राजकर्म आदि का विधान है।,तत्र च विविधेषु सूक्तेषु लौकिकविषयाणां राजकर्मादीनां विधानम्‌ अस्ति। अतः कर्ता में और करण में तृतीया का कहीं समास नहीं होता है।,अतः कर्तरि करणे च या तृतीया तदन्तमपि क्वचिन्न समस्यते। पुनः टाप्‌ प्रत्यय के पकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होती है।,पुनः टापः पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञा भवति। स्यान्तस्योपोत्तमं च॥,स्यान्तस्योपोत्तमं च॥ (वा. ६५३) 30. नृणां द्विजः श्रेष्ठः यहाँ पर षष्ठी समास क्यों नहीं हुआ?,नृणां द्विजः श्रेष्ठः इत्यत्र कथं न षष्ठीसमासः? प्राज्ञ आत्मा का तृतीय पाद होता है।,प्राज्ञः आत्मनो तृतीयः पादः भवति। उसी के द्वारा ही वस्तुतः धर्म प्रदान करना सार्थक होगा।,तेन एव वस्तुतः धर्मदानं सार्थकं भवति। स्वाध्याय के द्वारा इष्टदेवता के दर्शन भी योगियों को सम्भव होते है- सूत्रितं च “स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग” इति।,स्वाध्यायेन योगिनः इष्टदेवदर्शनं सम्भवति। सूत्रितं च - “स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग” इति। चायृ पूजानिशामनयोः इस धातु को 'चायतेरन्ने हस्वश्च' इस उणादिक सूत्र से असुन्‌ प्रत्यय करने पर आकार के अकार में नुडागम अनुबन्ध लोप करने पर चय्‌ न्‌ अस्‌' इस स्थिति में “लोपो व्योर्वलि इससे यकार का लोप करने की प्रक्रिया में 'चन:' यह रूप बनता है।,चायृ पूजानिशामनयोः इति धातोः 'चायतेरन्ने ह्रस्वश्च' इत्यौणादिकसूत्रेण असुन्प्रत्यये आकारस्य अकारे नुडागमेऽनुबन्धलोपे चय्‌ न्‌ अस्‌ इति स्थिते लोपो व्योर्वलि इत्यनेन यकारस्य लोपे प्रक्रियायां 'चनः' इति रूपम्‌। जिसके बिना कोई भी कार्य नही किया जा सकता है।,येन विना किमपि कार्यं कर्तुं न शक्यते। समासान्त के टच्‌ प्रत्यय के विधान के लिए यह सूत्र प्रवृत्त होता है।,समासान्तस्य टच्प्रत्ययस्य विधानाय इदं सूत्रं प्रवृत्तम्‌। उस यज्ञ से गायत्री आदि उत्पन्न हुए।,तस्मात्‌ यज्ञात्‌ छन्दांसि गायत्र्यादीनि जज्ञिरे। ये सभी मन्त्र ऋग्वेद के विभिन्न मण्डलों में प्राप्त होते हैं।,एते सर्वेऽपि मन्त्राः ऋग्वेदस्य विभिन्नमण्डलेषु समुपलब्धाः भवन्ति। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में किन प्रत्ययों का प्रयोग मिलता है?,ऋग्वेदस्य दशममण्डले केषां प्रत्ययानां प्रयोगः दृश्यते? उसका अन्तिम भाग अस्थि होता है।,तस्य स्थविष्ठो भागः अस्थि। अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इसका एक उदाहरण लिखिए।,अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः इत्यस्य उदाहरणम्‌ एकं लिखत। इसके बाद तद्धितेष्वचामादेः इस सूत्र से आदि वृद्धि होने पर यस्येति च सूत्र से अम्बष्ठ शब्द के अन्त्य अकार का लोप होने पर आम्बष्ठ य रूप होता है।,ततः तद्धितेष्वचामादेः इति सूत्रेण आदिवृद्धौ यस्येति च इति सूत्रेण अम्बष्ठशब्दस्य अन्त्यस्य अकारस्य लोपे च सति आम्बष्ट य इति रूपं भवति। उदाहरण -वार्तिक का उदाहरण है सर्पिषः ज्ञानम्‌।,उदाहरणम्‌ - वार्तिकस्यास्योदाहरणं सर्पिषो ज्ञानम्‌ इति। "और भी यहाँ पद यदि केवल दो अच्‌ विशिष्ट ही होता, तृणवाचक अथवा धान्यवाचक नहीं है, तो वहाँ पर भी प्रकृत सूत्र से उस शब्द का आदि स्वर उदात्त नहीं होता है।","अपि च अत्र पदं यदि केवलं दुव्यच्‌-विशिष्टमेव भवति, तृणवाचकं धान्यवाचकं वा न भवति तर्हि तत्र प्रकृतसूत्रेण तस्य शब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो न भवति।" घी और जल तुम दोनों का अनुसरण करते है।,घृतं तथा उदकम् उभयमपि भवतां अनुसरणं कुरुतः। "शेषम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है, सर्वम्‌, अनुदात्तं ये दो पद भी प्रथमा एकवचनान्त है।","शेषम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, सर्वम्‌, अनुदात्तं इति पदद्वयमपि प्रथमैकवचनान्तम्‌।" सबसे पहले अन्तरिन्द्रिय का निग्रह करना चाहिए।,आदौ अन्तरिन्द्रियस्य निग्रहः कर्तव्यः| "ब्रह्म स्वरूप का उसकी प्राप्ति उपाय का, जीव का, जगत का, तथा आत्मा आदि विषयों का विस्तार सहित वर्णन उपनिषद्‌ में है।",ब्रह्मणः स्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य जीवस्य जगतश्च तथा आत्मादिविषयाणां सविस्तरं वर्णनम्‌ उपनिषदि अस्ति। समीप आओ यह उसका अर्थ है।,समीपम्‌ आगच्छसि इति तदर्थः। सुब्रह्मण्यायाम्‌ उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इस सूत्र में विधीयमान एकश्रुति स्वर क्या है?,सुब्रह्मण्यायाम्‌ उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इति सूत्रे विधीयमानः एकश्रुतिस्वरः कः? "ये दोनों मन्त्र परस्पर विरुद्ध हैं, इस कारण विपरीत अर्थ दोष स्वीकार नहीं है।",इदं मन्त्रद्वयं परस्परविरुद्धम्‌ अतः विपरीतार्थदोषः अपरिहार्यः। उनकी पत्नियो की अवस्था किस प्रकार होती है।,तेषां पत्नीनां कीदृशी अवस्था भवति । विन्दते - विद्‌-धातु से लट्‌-लकार प्रथमपुरुष एकवचन का यह रूप है।,विन्दते - विद्‌-धातोः लट्-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌ इदम्‌। अब दोनों शब्दों का प्रयोग लगभग समान अर्थ में ही होता है।,अधुना उभयोः शब्दयोः प्रयोगः प्रायः समानार्थे एव भवति। केवल इसी प्रकार ही नही अपितु वे क्रोधि के सामने भी नही झुकते है।,न केवलम्‌ एवंभूताः अपि तु ते क्रोधिनः सम्मुखे न नमन्ति । ऋग्वेद में भी दो पाद वाली ऋचा है।,ऋग्वेदे नित्यद्विपदाऽपि ऋचः सन्ति। अतः विधिवत तरीके से ही वेदवेदाङ्गों का अध्ययन करना चाहिए।,अतो विधिवदेव वेदवेदाङ्गाध्ययनं कर्तव्यम्‌। 5 अन्तः करण ही जीव की उपाधि होता है।,५. अन्तःकरणमेव जीवोपाधिः। "यहाँ अमुष्य यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, इति यह अव्यय है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","अत्र अमुष्य इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌, इति इत्यव्ययम्‌, अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" उसी प्रकार से चित्त मलिन होता है।,तथाहि अनुमानम्‌- चित्तं मलिनम्‌ वह रेचक कहलाता है।,रेचको हि। “पापाणके कुत्सितैः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""पापाणके कुत्सितैः"" इति सूत्रस्यार्थः कः।" अग्न आया हि वीतये' (ऋ. ६.१६.१०) सूत्र अर्थ का समन्वय - ` इषे त्वोर्जे त्वा।,अग्न आया हि वीतये' (ऋ. ६.१६.१०) सूत्रार्थसमन्वयः - ' इषे त्वोर्ज त्व। महर्षि पतञ्जलि के मत में अथर्ववेद की कितनी शाखा है?,महर्षिपतञ्जलेः मते अथर्ववेदस्य कति शाखाः? जैसे वैदिक विधानों को पूर्ण करने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थ का उपयोग करते हैं वैसे ही उच्चारण प्रयोजन के लिए शिक्षा का भी उपयोग होता है।,"यथा वैदिकविधीनां सम्पादनार्थं ब्राह्मणग्रन्थाः उपयुज्यन्ते, तथैव उच्चारणप्रयोजनाय शिक्षाया अपि उपयोगो भवति।" "सूत्र का अर्थ - यावत्‌ और यथा से युक्त, एवं उपसर्ग से व्यवहित अन्तर तिङ को अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय में।",सूत्रार्थः - यावत्‌-यथाभ्याम्‌ युक्तम्‌ उपसर्गव्यपेतं तिङ्‌ न अनुदात्तं पूजायाम्‌। "और इस प्रकार यहाँ ज्येष्ठ कनिष्ठयोः यह षष्ठी द्विवचनान्त पद है, वयसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।","एवञ्च अत्र ज्येष्ठकनिष्ठयोः इति षष्ठीद्विवचनान्तं पदम्‌, वयसि इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" वहाँ प्रमाण है।,तत्र प्रमाणम्‌ । "त्रिष्टुप्छन्द, अन्तरिक्ष लोक, माध्यन्दिन सोम सवन, ग्रीष्मऋर्तु, सोमपान, वीरत्व पूर्ण कर्म, असुर वध ये सब विषय इन्द्र के साथ नित्य सम्बद्ध है।","त्रिष्टुप्छन्दः, अन्तरिक्षलोकः, माध्यन्दिनसोमसवनम्‌, ग्रीष्मर्तुः, सोमपानम्‌, वीरत्वपूर्णं कर्म, असुरवधः इत्येते विषयाः इन्द्रेण साकं नित्यं सम्बद्धाः।" महिना - मह-धातु से इन्प्रत्यय करने पर महिन्‌ यह हुआ उसी का तृतीया एकवचन में वैदिकरूप है।,महिना - मह्‌-धातोः इन्प्रत्यये महिन्‌ इति जाते तृतीयैकवचने वैदिकरूपम्‌। अब मन की शुद्धि किस प्रकार से होती है इस पर विचार किया जा रहा है।,कथं मनसः शुद्धिः सम्पादयितुं शक्यतेति चिन्त्यते। 8. बभूव के भू- में कौन सा स्वर है?,8. बभूव इत्यत्र भू-इत्यत्र कः स्वरः। वहाँ पर सूक्ष्मविषयों के अनुभव के कारण वह प्रविविक्तभुक्‌ होता है।,तत्र सूक्ष्मविषयान्‌ अनुभवतीति कारणात्‌ स प्रविविक्तभुक्‌ भवति। यह गाँव कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के पूर्व दिशा में बसा हुआ था।,ग्रामोऽयं कुरुक्षेत्रे सरस्वतीनद्याः पूर्वस्यां दिशि अवस्थितः आसीत्‌। "उसके बाद में “वो अश्वाः” इस स्थिति में “एङ: पदान्तादति ' इस सूत्र से ओकार-अकार के स्थान में पूर्वरूप होने पर “एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इस सूत्र से वकार से उत्तर उकार उदात्त है, ` अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इस सूत्र के अनुसार से श्वा- यहाँ पर आकार अनुदात्त है।","ततः वो अश्वाः इति स्थिते एङः पदान्तादति इति सूत्रेण ओकार-अकारयोः स्थाने पूर्वरूपे 'एकादेश उदात्तेनोदात्तः' इति सूत्रेण वकारोत्तरः उकारः उदात्तः, 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रानुसारेण श्वा- इत्यत्र आकारः अनुदात्तः।" एकाग्रता के अभाव में निदिध्यासन सम्भव नहीं होता है।,एकाग्रतायाः अभावे निदिध्यासनं न सम्भवति। प्रजापति की उपांशु रूप से प्रार्थना के लिए शतपथ ब्राह्मण में जिस कथानक का उपक्रम प्राप्त होता है वह तो बिल्कुल रहस्यमय है।,प्रजापतेः उपांशुरूपेण प्रार्थनायै शतपथब्राह्मण यस्य कथानकस्य उपक्रमं प्राप्यते तत्तु नितान्तं रहस्यमयम्‌ अस्ति। 'महच्छब्दादिमनिचि श्टे:' (पा. ६. ४. १५५) इससे टिलोप हुआ।,'महच्छब्दादिमनिचि 'टेः' (पा. ६. ४. १५५) इति टिलोपः। 28. समाधि में वृत्ति के स्थितिविषय में विद्यारण्य स्वामी ने क्या कहा है?,२८. समाधौ वृत्तेः स्थितिविषये विद्यारण्यस्वामिना किमुक्तम्‌? "सूत्रार्थ होता है- “'मतिबुद्धिपूजार्थो से विहित जो क्त प्रत्यय, उससे षष्ठयन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।","एवं सूत्रार्थो भवति - ""मतिबुद्धिपूजार्थभ्यश्च इत्यनेन विहितः यः क्तप्रत्ययः, तदन्तेन षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति"" इति।" चारों वेदों में ऋग्वेद की महानता का वर्णन सबसे अधिक है।,चतुर्षु वेदेषु ऋग्वेदस्य माहात्म्यं सर्वातिशयि अस्ति| धारणा कुशलता के अभाव में चित्त के पूर्णरूप से स्थित नहीं होने पर ब्रह्म विषय में जो विचलित चित्तवृत्ति होती है वह ध्यान कहलाता है।,धारणापटुत्वाभावेन चित्तस्थैर्यस्य अभावात्‌ यदा ब्रह्मविषयिणी विच्छिद्य विच्छिद्य चित्तवृत्तिः भवति तत्‌ ध्यानम्‌ इत्युच्यते। उसके बाद ग्यारहवें अध्याय से आरम्भ करके अठारहवें अध्याय पर्यन्त अग्नि चयन विषय में आलोचना है।,तदनन्तरम्‌ एकादशाध्यायाद्‌ आरभ्य अष्टादशाध्यायपर्यन्तम्‌ अग्निचयनविषये आलोचना वर्तते। हिरण्यवर्णा हरिणीम्‌ इत्यादि मन्त्र किस सूक्त में है?,हिरण्यवर्णा हरिणीम्‌ इत्यादिमन्त्रः कस्मिन्‌ सूक्ते वर्तते? यह छान्दोग्य श्रुति तेज के जन्म देने में प्रधान नहीं होकर भी श्रुत्यन्तर प्रसिद्ध रूप में आकाश की उत्पत्ति का निवारण कर सकती है।,न हीयं छान्दोग्यश्रुतिः तेजोजनिप्रधाना सती श्रुत्यन्तरप्रसिद्धाम्‌ आकाशस्योत्पत्तिं वारयितुं शक्नोति। और इसकी रूप प्रक्रिया अजन्त स्त्रीलिङ्ग प्रकरण में गौरी शब्द के समान जाननी चाहिए।,अस्य रूपप्रक्रिया च अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणे गौरीशब्दवद्‌ बोध्या। 2. कितने स्त्री प्रत्यय हैं?,२. कति स्त्रीप्रत्ययाः सन्ति? "नहीं तो घर में घट है, घट में रूप है।","अन्यथा गेहे घटः, घटे रूपम्‌।" कहे हुए से अन्य शेष है।,उक्तादन्यः शेषः। जिस स्थान पर दिव्य लोगो की कामना करने वाले देव के प्रकाशशील स्वभाव को विष्णु आत्मा को चाहने वाले यज्ञदान आदि के द्वारा प्राप्त करने की इच्छा वाले मनुष्य प्रसन्नता का अनुभव करते है।,यत्र स्थाने देवयवः देवं द्योतनस्वभावं विष्णुमात्मन इच्छन्तो यज्ञदानादिभिः प्राप्तुमिच्छन्तः नरः मदन्ति तृप्तिमनुभवन्ति। "करता हूँ, करवाता हूँ, भजता हूँ, भजवाता हूँ, इस प्रकार के मोह को संसारी प्राप्त हो जाते हैं।",करोमि कारयामि भोक्ष्ये भोजयामि' इत्येवं मोहं गच्छन्ति संसारिणो । इस सूत्र में षष्ठ्यन्त का एक ही पद है 'धातोः।,अस्मिन्‌ सूत्रे षष्ठ्यन्तम्‌ एकमेव पदम्‌ अस्ति 'धातोः इति। योग्यतारूप में यथा अर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण होता है अनुरूपम्‌।,योग्यतारूपे यथार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति अनुरूपम्‌ इति। जिस प्रकार से पूर्वपात्त दुरित्तों के अनारब्धफल सम्भव होते हैं वैसे ही पुण्यों के भी अनारब्ध फल सम्भव होना चाहिए।,"यथा पूर्वोपात्तानां दुरितानाम्‌ अनारब्धफलानां सम्भवः, तथा पुण्यानाम्‌ अनारब्धफलानां स्यात्‌ सम्भवः।" इसलिये ही इस सूक्त में अक्षदेव से प्रार्थना की गई- 'प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति ' इत्यादि मन्त्रों के द्वारा।,एतदर्थमेव अस्मिन्‌ सूक्ते अक्षदेवः प्रार्थ्यते प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति' इत्यादिमन्त्रैः । 20.5 मित्रावरुण का स्वरूप वैदिकयुग में प्रसिद्ध देवताओ में अन्यतम ही वरुणदेवता है।,२०.५) मित्रावरुणस्वरूपम्‌ वैदिकयुगे प्रसिद्धासु देवतासु अन्यतमा हि वरुणदेवता। जिस प्रकार दीपक एकस्थान पर स्थित होकर पूरे घर में प्रकाश फैलाता है उसी प्रकार परिभाषा सूत्र एक जगह स्थित होकर भी सम्पूर्ण अष्टाध्यायी में प्रवर्न्त हो रहे है।,यथा प्रदीपः एकदेशस्थः सन्‌ सर्वं गृहम्‌ अभिज्वालयति एवमेव परिभाषासूत्रम्‌ एकत्र स्थितमपि सम्पूर्णायाम्‌ अष्टाध्याय्यां प्रवर्तते। अर्थात्‌ उन दोनों का फल प्राप्त होता ही है।,अर्थात्‌ तयोः फलं भवति एव। अपानो नाम सृष्टि प्रलय विचार बुद्धिकर्मन्द्रियप्राणपञ्‌ धिया।,बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया। इसलिए इस मण्डल के समस्त सूक्तों की संख्या (९९) निन्यानवे होती है।,अतोऽस्य मण्डल्यस्य समस्तसूक्तानां संख्या (९९) नवनवतिर्भवति। रुणध्मि - रुध्‌-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुष एकवचन में।,रुणध्मि - रुध्‌ - धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने । "अन्वय का अर्थ - असौ - वह, यः - जो, ताम्रः- ताम्रवत, अरुणः - सुंदर गौरांग, उत - अथवा, बभ्रुः - पीला वा धुमेला युक्त वर्ण युक्त, सुमङ्गलः -मड्गलमय, ये च पुनः, सहस्रशः - हजारो, रुद्राः - दुष्टों को रुलाने हारे, एनम्‌ - इस रूद्र के, अभितः - चारो और, दिक्षु दिशाओं में, श्रिताः - आश्रय से वसते हो, एषाम्‌ - इनका, हेडः - शत्रुओं का अनादर करने हारे, अव ईमहे - विरुद्धाचरण की इच्छा नहीं करते है।","अन्वयार्थः- असौ - अयं, यः- यत्, ताम्रः - ताम्रवर्णीयः, अरुणः - रक्तवर्णीयः, उत - अथवा, बभ्रुः- पिङ्गलवर्णीयः, सुमङ्गलः - मङ्गलमयः, ये च पुनः, सहस्रशः -सहस्रसंख्यकः, रुद्राः -रश्मयः, एनम्‌- एतम्‌, अभितः- पुरस्तात्‌, दिक्षु - काष्ठासु, श्रिताः -आश्रिताः, एषाम्‌ - एतेषां, हेडः - क्रोधः, अव ईमहे भक्त्या दूरं करोमि।" अनित्य सुख जन्य है।,अनित्यम्‌ सुखम्‌ जन्यम्‌ अस्ति। "यज्ञपुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य, पैरों से शूद्र ये वर्णचतुष्टय उत्पन्न हुआ।","यज्ञपुरुषस्य मुखात्‌ ब्राह्मणः, बाहुभ्यां क्षत्रियः, उरुभ्यां वैश्यः, पादाभ्यां च शूद्रः इति वर्णचतुष्टयं समुत्पन्नम्‌।" शकुंलया खण्डः इति विग्रह में शङकुलाखण्डः।,शङ्कुलया खण्डः इति विग्रहे शङ्कलाखण्डः। वहां देवः: पुरुषविधः साकारः इस विषय में युक्त से आलोचना करते है - 1) देवों का शरीर पुरुष के शरीर के समान नही होता है तो कर्मादि भी नही होने चाहिए।,तत्र देवः पुरुषविधः साकारः इति विषये युक्तयः आलोच्यन्ते- १) देवानां शरीरं पुरुषशरीरमिव न भवति चेत्‌ कर्मादि अपि न भवेत्‌। सरलार्थ - में स्वय ही देवों के लिए और मनुष्यों के लिए इन अभीष्ट वाक्य को कहती हूँ।,सरलार्थः- अहं स्वयमेव देवैः मनुष्यैश्च अभीष्टम्‌ इदं वाक्यं वदामि। 5. मुण्डकोपनिषद्‌ में कहा गया हैं कि “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।,५. मुण्डकोपनिषदि निगद्यते “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। इसी प्रकार से शरीर का भी दर्शन तथा स्पर्श होता है।,एवं शरीरस्यापि स्पष्टं दर्शनमस्ति स्पर्शनञ्च। “'इच्कर्मव्यतिहारे” यह इच्‌ प्रत्यय विधायक सूत्र है।,"""इच्कर्मव्यतिहारे"" इति इच्प्रत्ययस्य विधायकम्‌।" अन्यतरस्याम्‌ अव्ययपद है।,अन्यतरस्याम्‌ इति अव्ययपदम्‌। काम प्ररेक तथ प्रवर्तक होता है।,कामः प्रेरकः प्रवर्तकः अस्ति। यहाँ तव मम इन दोनों के ङस्‌ अन्त में होने से उसके परे तकार से उत्तर अकार को और मकार से उत्तर अकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,अत्र तव मम इत्यनयोः ङसन्तत्वात्‌ तस्मिन परे तकारोत्तरस्य अकारस्य मकारोत्तरस्य अकारस्य च प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। पाणिनीय व्याकरण में तो अन्य प्रसिद्ध व्याकरणों से स्वर विषय में चर्चा अधिक रूप से दिखाई देती है।,पाणिनीयव्याकरणे तु अन्येभ्यः प्रसिद्धव्याकरणेभ्यः स्वरविषयिणी चर्चा अधिकतया परिलक्ष्यते। यजमान प्रार्थना करते है की - हे जल प्रदाता देवो !,यजमानः प्रार्थयति यत्‌ - हे क्षिप्रदातारौ! पादहस्तादि स्थूल शरीर के अवयव होते हैं।,पादहस्तादयः स्थूलशरीरस्य अवयवाः भवन्ति। शतु: अनुमः नद्यजादी ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,शतुः अनुमः नद्यजादी इति सूत्रगतपदच्छेदः। "( ६.१.१८९ ) सूत्र का अर्थ- अजादि लसार्वधातुक परे हो, तो अभ्यस्त संज्ञको के आदि को उदात्त होता है।",(६.१.१८९) सूत्रार्थः- अनिट्यजादौ लसार्वधातुके परे अभ्यस्तानामादिरुदात्तः। "इसलिए वेदांत में, उपनिषद्‌ वाक्य में और ऋक्संहिता के अन्तर्गत पुरुष सूक्त में ऋक्‌-साम- यजुर्वेद का उल्लेख वेद के अस्तित्व विषय में प्रमाण है।",अतः वेदान्तर्भूते उपनिषद्वाक्ये ऋक्संहितान्तर्गते पुरुषसूक्ते च ऋक्‌-साम- यजुर्वेदानाम्‌ उल्लेखः वेदस्य अस्तित्वविषये प्रमाणम्‌। तो कहते हैं की अशुद्ध मन बन्ध का कारण होता है।,अशुद्धं मनः बन्धस्य कारणं भवति। यत्र यहाँ पर यकार से उत्तर अकार का उदात्त स्वर किस सूत्र से होता है?,यत्र इत्यत्र यकरोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः केन सूत्रेण भवति? वह शुक्ति गुणरूप स्वार्थ अन्तर्भाव्य ही शुक्ल शब्द तथा शुक्लगुणविशिष्ट द्रव्य मे लक्षणा के द्वारा ही रहता है।,तं शुक्लगुणरूपं स्वार्थम्‌ अन्तर्भाव्य एव शुक्लशब्दः शुक्लगुणविशिष्टे द्रव्ये लक्षणया तिष्ठति। अथवा खुले हुए वक्ष स्थल को देखकर कौन मनुष्य प्रेरणा को प्राप्त नहीं करता है।,अनावृतं वक्षःस्थलं दृष्ट्वा कः वा मानवः प्रेरणां न प्राप्नोति। इस संहिता में चार काण्ड है।,अस्यां संहितायां चत्वारः काण्डाः सन्ति। यहाँ शेष क्या है?,ननु अत्र कः शेषः ? अथवा तरुण के लिए।,तारुणाय वा। मनन तर्कात्मक होता है।,मननं हि तर्कात्मकम्‌। "यहाँ प्रजापतिसर्वात्मा आदित्य पुरुष है,जो माया से प्रपञ्चरूप से उत्पन्न हुआ है।","प्रजापतिरत्र सर्वात्मा आदित्यः पुरुषः, यो मायया प्रपञ्चरूपेण उत्पद्यते।" समवायी तथा असमवायी कारण के अभाव से तो उसका अनुग्रहप्रवृत्त निमित्तकारण दूरापेत ही आकाश का होत है।,समवाय्यसमवायिकारणाभावात्तु तदनुग्रहप्रवृत्तं निमित्तकारणं दूरापेतमेव आकाशस्य भवति। "अन्य अलङ्कारों में भी अतिशयोक्ति अलङ्कार का, व्यतिरेक अलङ्कार का और समासोक्ति अलङ्कार का प्रयोग यहाँ दिखाई देता है।",अन्येषु अलङ्कारेषु अतिशयोक्त्यलङ्कारस्य व्यतिरेकालङ्कारस्य समासोक्त्यलङ्कारस्य च प्रयोगः अत्र दृश्यते। वो पुरुष भूमि अर्थात ब्रह्माण्डगोलक रूप को विश्वत अर्थात सभी और से वृत्वा-व्याप्त होकर दशाङऱगुल अर्थात्‌ दशाङगुल के परिमाण देश के बाहर भी बैठा है या अवस्थित है।,सः पुरुषः भूमिं ब्रह्माण्डगोलकरूपां विश्वतः सर्वतः वृत्वा परिवेष्ट्य दशाङ्कुलं दशाङ्गुलपरिमितं देशम्‌ अत्यतिष्ठत्‌ अतिक्रम्य व्यवस्थितः। और उससे खट्व टाप्‌ होता है।,तेन च खट्व टाप्‌ इति स्थितिः भवति। प्रत्येक जन्म में मानव जो कर्म करता है।,प्रति जन्म मानवः यत्‌ कर्म करोति। अखण्ड ब्रह्मज्ञान के द्वारा ब्रह्मविषयक अज्ञान का नाश होता है।,अखण्डब्रह्मज्ञानेन ब्रहमविषयकम्‌ अज्ञानं नश्यति। "इस क्रम साधन में बहुत दोषो को दिखाकर डॉ० बेलवेलकर, राणाडे महोदय ने एक नई योजना प्रस्तुत की।",अस्मिन्‌ क्रमसाधने बहून्‌ दोषान्‌ दर्शयित्वा डॉ० बेल-वेलकर-राणाडेमहोदयाभ्याम्‌ एकाम्‌ अभिनवयोजनां प्रस्तुतवान्‌। यहाँ पर अग्नि की स्तुति की गई है।,अत्र अग्नेः स्तुतिः विद्यते। यहाँ पर पदों का अन्वय - छन्दसि एकश्रुतिः विभाषा है।,अत्र पदयोजना - छन्दसि एकश्रुतिः विभाषा इति। क्षेप नाम निन्दा का है।,क्षेपो नाम निन्दा। और उस पद को पञ्चमी में विपरिणत गो: से विशेषण है।,तच्च पदं पञ्चम्यां विपरिणतं गोः इत्यनेन विशिष्यते । व्यवहार समर्थ पाँच सूक्ष्मभूतों के परस्पर समिश्रण के द्वारा व्यवहार योग्य स्थूल भूतोत्पत्ति प्रक्रिया ही पञ्चीकरण है।,व्यवहारासमर्थानां पञ्च सूक्ष्मभूतानां परस्परसंमिश्रणेन व्यवहारयोग्य-स्थूलभूतोत्पत्तिप्रक्रिया एव पञ्चीकरणम्‌। केवल चित्त का लालन तथा कौतुहल से वेदान्तत्व के आलोचन से मन का तृप्ति लाभ समाधान नहीं होता है।,तु किन्तु चित्तस्य लालनम्‌ कौतुहलात्‌ वेदान्ततत्त्वस्य आलोचनेन मनसः तृप्तिलाभः न समाधानम्‌ इत्यर्थः। आस्-धातु से आत्मनेपद लट्‌-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में।,आस्‌-धातोः आत्मनेपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने। वह सुख तो आत्म स्वभाव से ही उत्पन्न होता है।,तत्‌ सुखम्‌ तु आत्मस्वभावः एव। आहुः - ब्रू-धातु से लट्लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में आहु: रूप बनता है।,आहुः- ब्रू-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने आहुः इति रूपम्‌। व्याख्या - जो प्रजापति आत्मदा अर्थात आत्मा का प्रदाता है।,व्याख्या- यः प्रजापतिः आत्मदाः आत्मनां दाता। 1 मनन ही श्रुत अद्वितीय वस्तु की वेदान्तगुण युक्ततियों के द्वारा अनवरत अनुचिन्तन होता है।,६०. मननं हि श्रुतस्य अद्वितीयवस्तुनः वेदान्तानुगुणयुक्तिभिः अनवरतम्‌ अनुचिन्तनम्‌। या इष आभीक्ष्ण्ये ऋयादि यहाँ पर इच्छार्थक है।,यद्वा इष आभीक्ष्ण्ये ऋयादिः अत्र इच्छार्थः। वेद के प्रमाण को नित्य अपौरुषेय इत्यादि गूढ तत्त्व महर्षि जैमिनि ने उनके पूर्वमीमांसा ग्रन्थ में प्रस्तुत किया।,वेदस्य प्रामाण्यं नित्यत्वम्‌ अपौरुषेयत्वम्‌ इत्यादीनि गूढतत्त्वानि महर्षिः जैमिनिः तस्य पूर्वमीमांसाग्रन्थे उपस्थापितवान्‌। जानीमः - ज्ञा-धातु से लट्‌ उत्तमपुरुषबहुवचन में।,जानीमः - ज्ञा - धातोः लटि उत्तमपुरुषबहुवचने । देवो में से एकदेव की श्रेष्ठमूर्ति को मै देखता हूँ।,देवानाम्‌ एकां श्रेष्ठमूर्तिम्‌ अहं पश्यामि। जहाँ समाधि में विकल्प भान सत्य होने पर चित्तज्ञेयब्रह्मविषय में एकाग्र होता है वह सविकल्प समाधि होती है।,यत्र समाधौ विकल्पभाने सत्यपि चित्तं ज्ञेयब्रह्मविषये एकाग्रं भवति सः सविकल्पकः समाधिः। घनश्यामः रूप को सिद्ध कोजिये ।,घनश्यामः इति रूपं साधयत । इस सूक्त में पांच मन्त्र विद्यमान है।,अस्मिन्‌ सूक्ते पञ्च मन्त्राः विद्यन्ते। इस शिवसङ्कल्पसूक्त में मन की अनेक प्रकार से व्याख्या की है।,अस्मिन्‌ शिवसङ्कल्पसूक्ते मनः विविधप्रकारेण व्याख्यातम्‌। 5. पत्सुतःशी इस रूप कोसिद्ध करो?,5. पत्सुतःशी इति रूपं साधयत। "“निदिध्यासन अनादि दुर्वासना के द्वारा विषयों में आकृष्यमाण चित्त का विषयों से अपकर्षण करके आत्म विषयकस्थैर्य के अनुकूल मानस व्यापर करना निदिध्यासन होता है” इस प्रकार से श्रवण, मनन तथा निदिध्यासनों के अनुष्ठान से मुक्ति होती है।",“निदिध्यासनं नाम अनादिदुर्वासनया विषयेष्वाकृष्यमाणस्य चित्तस्य विषयेभ्योऽपकृष्य आत्मविषयकस्थैर्यानुकूलो मानसव्यापारः” इति। एवं श्रवण-मनन-निदिध्यासनानाम्‌ अनुष्ठानेन मुक्तिः भवतीति । मुमुक्षुओं को काम्यादिकर्मों का त्याग किस प्रकार से करना चाहिए?,काम्यादिकर्मणां त्यागः केन क्रमेण कर्तव्यः मुमुक्षुणा। तथा मनन के द्वारा किसकी निवृत्ति होती है?,मननेन कस्य निवृत्तिः भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में पचति यह तिङन्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे पचति इति तिङन्तं पदम्‌ अस्ति। समुदायशक्ति नाम एकार्थीभाव सामर्थ्यम्‌ है।,समुदायशक्तिर्नाम एकार्थीभावसामर्थ्यम्‌। इस याग में सोलह पुरोहित अर्थात्‌ सभी अपेक्षित हैं।,अस्मिन्‌ यागे षोडश पुरोहिताः अर्थात्‌ सर्वे अपेक्षिताः। व्याकरण ज्ञान शून्य साधु शब्दों का प्रयोग चाहते है।,न हि व्याकरणज्ञानशून्यः साधून्‌ शब्दान्‌ प्रयोक्तुम्‌ ईशः। वहाँ अव्ययीभाव होने से सप्तमी एकवचनान्त और शरद आदि तक पञ्चमी बहुवचनान्त पद है।,तत्र अव्ययीभावे इति सप्तम्येकवचनान्तं शरत्प्रभृतिभ्यः इति पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌। उससे रुद्रदेव का प्रतीक वज्र है।,तस्मात्‌ रुद्रदेवस्य प्रतीकं वज्र इति। 7 क्रियमाण कर्म का क्षय किस प्रकार से होता है?,७.क्रियमाणकर्मणः क्षयं कथं भवति? इसलिए अवयवों में आत्मबुद्ध भ्रान्ति मात्र है।,अतः अवयवेषु आत्मत्वबुद्धिः भ्रान्तिमात्रा एव। वेद ही यज्ञ अर्थ को बताते है .......इत्यादि।,वेदा हि यज्ञार्थम्‌ अभिप्रवृत्ताः..इत्यादिः। जागरण किसे कहते हैं?,जागरणं किम्‌? जो अपनी बुद्धि के द्वारा परमात्मा को जानना चाहता है वह भी अज्ञान में ही डूबता रहता है।,स्वबुद्ध्या परमात्मानं यः ज्ञातुम्‌ इच्छति स अज्ञाने निमज्जति। सौन्दर्य ही काव्य का “रस' ऐसा विद्वान भी स्वीकार करते हैं।,सौन्दर्यम्‌ एव काव्यस्य 'रस' इति विद्वांसः अपि स्वीकुर्वन्ति। उदाहरण -शार्ङ्गरवी ।,उदाहरणम्‌ - शार्ङ्गरवी । तीन आहुतियाँ किनको दी जाती हैं?,तिस्रः आहुतयः केभ्यः प्रदीयते? स्वर सहित वेदों का अध्ययन करना चाहिए।,स्वरसहिततया वेदाः अध्येतव्याः। न अश्व: इस लौकिक विग्रह में न अश्व सु इस अलौकिक विग्रह में “नज्‌' इस सूत्र से नञ्‌ समास होने पर प्रक्रियाकार्य में न अश्व इस स्थिति में नज्‌ के नकार का लोप होने पर अ अश्व रूप होता है।,"न अश्वः इति लौकिकविग्रहे न अश्व सु इत्यलौकिकविग्रहे "" नञ्‌ "" इत्यनेन सूत्रेण नञ्समासे प्रक्रियाकार्य न अश्व इति स्थिते नञः नकारस्य लोपे अ अश्व इति भवति ।" तब प्रजापति ने कहा - तुमको अपनी विशालता प्रदान करने से मै कौन हूँ।,तदा प्रजापतिः अपृच्छत्‌ - तुभ्यं स्वमाहात्म्यप्रदानेन अहं कः स्याम्‌ इति। उषा विषयक मन्त्रों के अनुशीलन से हम वैदिक ऋषियों की प्रकृति के प्रति उदार भावना को जान सकते हैं।,उषाविषयकमन्त्राणाम्‌ अनुशीलनेन वयं वैदिकानाम्‌ ऋषीणां प्रकृतिं प्रति उदात्तभावनां ज्ञातुं शक्नुमः। आरभमाणा - आपूर्वक रभ्-धातु से शानच्प्रत्ययऔर टाप्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में आरभमाणा रूप बना।,आरभमाणा- आपूर्वकात्‌ रभ्‌-धातोः शानच्प्रत्यये टाप्प्रत्यये च प्रथमैकवचने आरभमाणा इति रूपम्‌। उस क्रम को जाने बिना ही जो असम्यक्‌ रूप से कर्मों का त्याग कर देता है वह मोक्ष प्राप्त नहीं होता है।,तं क्रममबुद्ध्वा असन्नद्धः कर्मत्यागं करोति चेद्‌ मोक्षं न भजेत। प्रारब्ध कर्मो के क्षय होने पर जीवन्मुक्त पुरुष के कोई भी कर्म नहीं रुकते है।,प्रारब्धकर्मणां क्षये सति जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य न किमपि कर्म तिष्ठति । संहिता ब्राह्मण का प्रधान भेद क्या है?,संहिताब्राह्मणयोः प्रधानं पार्थक्यं किम्‌? ( च ) अस्वपद विग्रह-समाज के पदों के अवयवों को बिना ग्रहण किये या बिना प्रयोग किये किया गया विग्रह अस्वपद विग्रहः होता है।,(च) अस्वपदविग्रहः - समासस्य पदात्मकान्‌ अवयवान्‌ अनादाय कृतः विग्रहः अस्वपदविग्रहः। "इन सूत्रों की व्याख्या कीजिए - तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः, आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि, समास का अन्त उदात्त होता है।","इमानि सूत्राणि व्याख्यात- तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः, आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि, समासस्य अन्तः उदात्तः भवति?" किस प्रकार से।,कीदृशम्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- पुसः कर्म इस अर्थ में 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य: ष्यञ्‌कर्मणि च' इससे पुंस-शब्द से ष्यञ्‌ प्रत्यय करने पर “पौंसानि' यह पद निष्पन्न होता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- पुंसः कर्माणि इत्यर्थ गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः ष्यञ्कर्मणि च इत्यनेन पुंस्‌- शब्दात्‌ ष्यञ्प्रत्यये पौँसानि इति पदं निष्पद्यते। सन्धि स्वर वर्ण आदि के।,सन्धिस्वरवर्णादीनाम्‌। "आपात काल में जो जड को उस प्रकार के पदार्थ का यदि कोई भी सम्बोधन करता है, तब यह जानना होता है की उस पदार्थ में वर्तमान चेतन सत्ता का सम्बोधन होता है।","आपातदृष्टौ यत्‌ जडं तादृशस्य पदार्थस्य यदि कोऽपि सम्बोधनं करोति, तदा इदं ज्ञातव्यं भवति यत्‌ तस्मिन्‌ पदार्थे वर्तमानायाः चित्सत्तायाः सम्बोधनं भवति।" महावाक्य से तात्पर्य है अखण्डार्थ प्रतिपादक वाक्य।,महावाक्यं नाम अखण्डार्थप्रतिपादकं वाक्यम्‌। सभी दर्शनों के समान ही अद्वैत वेदान्तियों का सृष्टिक्रम भी जानना चाहिए।,सर्वेषां दर्शनानामिव अद्वैतवेदान्तिनां सृष्टिक्रमः इति वेदितव्यः। उदात्तेन यह तृतीया एकवचनान्त पद है।,उदात्तेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्‌। श्री रामकृष्णदेव ने निम्नस्तरीय क्रिया बहुल मूर्ति पूजार्चना आदि के द्वारा उच्चस्तरी हवैतसाधन करके सभी प्रकर के आध्यात्मिक तत्वों को उपलब्ध करवाया।,श्रीरामकृष्णदेवो निम्नस्तरीयक्रियाबहुलमूर्तिपूजार्चनादिभ्यः उच्चैस्तरीयाद्वैतसाधनं कृत्वा सर्वप्रकारकम्‌ आध्यात्मिकं तत्त्वम्‌ उपलब्धवान्‌। "वाज्य अक्ष - वाजी+अक्ष, क्षेप्रसन्धि।","वाज्य अक्षः - वाजी + अक्षः , क्षैप्रसन्धिः ।" अर्थात्‌ किए गए कर्म का फल तो होता ही है जबतक उसके परिहार का उपाय कल्पित नहीं किया जाए।,अर्थात्‌ कृतस्य कर्मणः फलं भवति एव यावत्‌ तत्परिहारोपायो न कल्प्यते। यह हेतु त्रय जिस पुरुष के होते हैं।,एतत्‌ हेतुत्रयं यस्य पुरुषस्य अस्ति । अनोबहुव्रीहेः इस सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति आती है।,अनो बहुव्रीहेः इति सम्पूर्णमपि सूत्रम्‌ अनुवर्तते। इसलिए ब्रह्मविषयी निरन्तरचित्तवृत्ति ही निदिध्यासन कहलाती है।,अतः ब्रह्मविषयिणी निरन्तरचित्तवृत्तिरेव निदिध्यासनम्‌। निर्विकल्पक समाधि में ही अखण्डाकारा चित्तवृत्ति होती है।,निर्विकल्पकसमाधौ हि अखण्डब्रह्माकारा चित्तवृत्तिस्तिष्ठति । इन दोनों उदात्त अनुदात्त के स्थान में यहाँ एकादेश हुआ है।,एतयोः उदात्तानुदात्तयोः स्थाने अत्र एकादेशः जातः। अधिष्ठान रज्जु अंश का अज्ञान ही सर्प प्रतीति का कारण होता है।,अधिष्ठानस्य रज्ज्वंशस्य अज्ञानमेव सर्पप्रतीतेः कारणम्‌। 3. समृद्ध्यर्थक 4. वृद्ध्यर्थकम्‌ 5. अर्थभावअर्थक 6. अव्ययार्थक 7. असम्प्रत्ति अर्थक 8. शब्दप्रादुर्भावार्थक 9. पश्चादर्थक 10. य़थार्थकम् 11.आनपूव्यर्थक 12. यौगयद्यार्थकम्‌ 13. सादृश्यार्थक 14. सम्पत्त्यर्थक 15. साकल्यार्थक 16. अन्तार्थकम्‌ अव्यय का सुबन्त के समर्थन सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है।,३) समृद्ध्यर्थकं ४) वृद्ध्यर्थकम्‌ ५) अर्थाभावार्थकम्‌ ६) अत्ययार्थकम्‌ ७) असम्प्रत्यर्थकम्‌ ८) शब्दप्रादुर्भावार्थकं ९) पश्चादर्थकं १०) यथार्थकम्‌ ११) आनपूर्व्यर्थकम्‌ १२) यौगपद्यार्थकं १३) सादृश्यार्थकं १४) सम्पत्त्यर्थके १५) साकल्यार्थकम्‌ १६) अन्तार्थकम्‌ अव्ययं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। क्रिया प्रश्ने यह सप्तम्यन्त पद है।,क्रियाप्रश्ने इति सप्तम्यन्तं पदम्‌। स्वर वर्ण आदि के उच्चारण किस प्रकार से करने चाहिए इस विषय में उपदेश शिक्षा शास्त्र देते हैं।,स्वरवर्णादीनाम्‌ उच्चारणानि केन प्रकारेण कर्तव्यानि इति अस्मिन्‌ विषये उपदिशति शिक्षा! अधिकरण शब्द द्रव्य परक है।,अधिकरणशब्दश्चात्र द्रव्यपरकः। सूर्यास्तचल समय में सूर्यदेव का अथवा रुद्रदेव की लालिमा को गोपालक और गांव की रमनिया रुद्रदेव की लीला को देखते हैं।,सूर्यास्तचलसमये सूर्यदेवस्य रुद्रदेवस्य वा लीललायां महितं भूत्वा गोपालकाः ग्राम्यरमण्यः च रुद्रदेवस्य लीलां पश्यन्ति इति। इस सूत्र में अव्ययीभाव यह प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे अव्ययीभावः इति प्रथमैकवचनान्तम्‌ पदम्‌। जो प्रत्युपकार की उपेक्षा नहीं करता है तथा स्नेहवान मित्र होता है।,प्रत्युपकारम्‌ अनपेक्ष्य उपकर्ता सुहृद्‌ भवति। स्नेहवान्‌ मित्रं भवति। इस समास का सुप्सुपासमास यह नामान्तरण है।,अस्य समासस्य सुप्सुपासमास इति नामान्तरम्‌। यद्वा अस्तेः व्यत्यस्ताक्षरयोगात्‌ आसीत्‌ पुरा पूर्वमेव ऐसा विग्रह करके पुरुष शब्द बना।,यद्वा अस्तेः व्यत्यस्ताक्षरयोगात्‌ आसीत्‌ पुरा पूर्वमेवेति विग्रहं कृत्वा व्युत्पादितः पुरुष इति। साधक योगारूढ हुआ अथवा नहीं यह कैसे समझा जाता है।,साधको योगारूढो न वेति कथं बोद्धव्यम्‌। मघवा - मघः अस्य अस्तीति वतुप करने पर मघवत्‌ इसका प्रथमा एकवचन में मघवा यह रूप है।,मघवा - मघः अस्य अस्तीति वतुपि मघवत्‌ इत्यस्य प्रथमैकवचने मघवा इति रूपम्‌। तथा गुहा पञ्चकोशों के द्वारा निर्मित होती है।,गुहा च पञ्चकोशैः निर्मिता। वि इससे परे अचक्षयत्स्व इस तिङन्त की तिङ इससे निघात है।,वि इत्यतः परम्‌ अचक्षयदिति तिङन्तस्य तिङः इत्यनेन निघातः। बाह्यविषयों में ही इसकी प्रज्ञा अवभासित होती है।,बाह्यविषयेषु एव अस्य प्रज्ञा अवभासते। ब्राह्मणों में मन्त्र-कर्म-विनियोग की व्याख्या है।,ब्राह्मणेषु मन्त्र-कर्म-विनियोगानां व्याख्या अस्ति। यहाँ वृन्दारकनागकुञ्जरैः इस इतरेतरद्वन्दसमासनिष्पन्न तृतीया बहुवचनान्त पद है और पूज्यमानम्‌ प्रथमैकवचनान्त पद है।,"अत्र वृन्दारकनागकुञ्जरैः इति इतरेतरद्वन्द्वसमासनिष्पन्नं तृतीयाबहुवचनान्तं, पूज्यमानम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ ।" अन्य रूपों की सिद्धि प्रक्रिया अजन्त स्त्रीलिङ्ग रमाशब्द के समान हैं।,अन्येषां रूपाणां सिद्धिप्रक्रिया अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणे रमाशब्दवत्‌ वर्तते। प्रपाठक सामान्य रूप से किस नाम से जाने जाते है?,प्रपाठकः सामान्यतया केन नाम्ना ज्ञायते? त्रिकालसम्बन्धी वस्तुओं में मन प्रवृत्त करता है।,त्रिकालसम्बन्धिवस्तुषु मनः प्रवर्तते। "यहाँ रोचते असौ इति रुचः, रुचशब्द का अर्थ दीप्यमान या शोभायमान है।","इत्यत्र रोचते असौ इति रुचः, दीप्यमानः इति रुचशब्दार्थः।" "इस प्रकार से विषय कर्मों में अनुषङ्गहीन सर्वसंकल्पसन्यासी, जितेन्द्रिय, जितात्मा, प्रशान्त, समाहित, शीतोष्णादिबाह्य द्वन्दों में सम, मानोपमानादि मानस द्वद्वों में सम ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थ, समलोष्टाश्माकाञ्चन ही योगरूढ़ कहलाता है।","इत्थम्‌ विषयेषु कर्मसु अनुषङ्गहीनः, सर्वसंकल्पसंन्यासी, जितेन्द्रियः, जितात्मा, प्रशान्तः, समाहितः, शीतादिबाह्यद्वन्द्रेषु समः, मानापमानादि-मानसद्वन्द्वेषु समः, ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थः, समलोष्टाश्मकाञ्चनः एव योगारूढः इति लक्ष्यते।" उसका चतुर्थी में दाशुषे यह रूप बनता है।,तस्य चतुर्थी दाशुषे इति। इसलिए जैमिनि मुनि के अनुसार अर्थवाद ही अभिप्रैत है।,अतः अर्थवादे अन्तर्भवति इति अभिप्रैति जैमिनिमुनिः। क्योकि वह ही जलवर्षा के द्वारा औषधियों में गर्भरूप से बीजो को धारण करते है।,यतो हि स जलवर्षकः ओषधीषु गर्भरूपेण बीजानि धारयति । तैत्तिरीय संहिता तैत्तरीय संहिता का प्रचार देश के दक्षिण भारत में है।,तैत्तिरीयसंहिता तैत्तिरीयसंहितायाः प्रसारदेशः दक्षिणभारतेऽस्ति। "और उसका विग्रह होता है-उक्‌ इत्‌ यस्य सः उगित्‌, तस्य उगितः।","तस्य च विग्रहः भवति- उक्‌ इत्‌ यस्य सः उगित्‌, तस्य उगितः।" शिक्षा शास्त्र का इतिहास बहुत प्राचीन है।,शिक्षाशास्त्रस्य इतिहासः पुरातनतरः। "और भी आपकी भुजाओं को नमस्कार, आपके धनुष को भी नमस्कार।",उतापि च ते तवोभाभ्यां बाहुभ्यां नमः तव धन्वने धनुषेऽपि नमोस्तु। दर्शन में प्रवेश के लिए सामर्थ्य दर्शन में कौन-कौन से विषय सम्मिलित हैं इसका सामान्य ज्ञान।,दर्शने प्रवेशस्य सामर्थ्यम्‌ दर्शने के विषया अन्तर्भवन्ति इति सामान्यज्ञानं भवेत्‌। कर्म के द्वारा ही कर्म का नाश किया जाता है।,कर्मणा कर्मनाशः क्रियते। उत्तरम्‌ इसका प्रलय के बाद यह अर्थ है।,उत्तरम्‌ इत्यस्य उपरि इत्यर्थः। क्योंकि नीचे नहीं है अत: ऊपर ही अवस्थ समझना चाहिए।,यथाधो न पतति तथोपरि अवस्थापितमित्यर्थः। 1.4 “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌'' सूत्रार्थ-समासविधायकशास्त्र में प्रथमान्त बोधित पद में उपसर्जन संज्ञा होती है।,"१.४ ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" सूत्रार्थः - समासविधायकशास्त्रे यत्‌ प्रथमान्तं तद्भोध्यम्‌ उपसर्जनसंज्ञं भवति।" जिस प्रजापति के आधार पर सूर्य उदय प्राप्तकर प्रकाशित होता है।,यस्मिन्नाधारभूते प्रजापतौ सूरः सूर्यः उदितः उदयं प्राप्तः सन्‌ विभाति प्रकाशते। 3. दीया- दी-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में वैदिक रूप है।,३. दीया - दी - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने वैदिकं रूपम्‌। यहाँ नपुंसक से पञ्चमी एक वचनान्त का और अन्यतरस्य का विकल्प अर्थक अव्ययपद है।,तत्र नपुंसकाद्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तम्‌ अन्यतरस्याम्‌ इति च विकल्पार्थकम्‌ अव्ययपदम्‌। दूरङ्गमम्‌ - दूरं गच्छतीति विग्रह में दूरपूर्वकगम्‌-धातु से खश्प्रत्यय करने पर दूरङ्गमम्‌ रूप बनता है।,दूरङ्गमम्‌ - दूरं गच्छतीति विग्रहे दूरपूर्वकगम्‌ - धातोः खश्प्रत्यये दूरङ्गमम्‌ इति रूपम्‌। बाईसवें अध्याय से आरम्भ करके पच्चीसवें अध्याय तक अश्वमेध यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों का निर्देश है।,द्वाविंशत्यध्यायाद्‌ आरभ्य पञ्चविंशत्यध्यायपर्यम्तम्‌ अश्वमेधयज्ञस्य विशिष्टमन्त्राणां निर्देशोऽस्त। अव्ययीभावसमास के अधिकार बोधक सूत्र हैं “ अव्ययीभावः”। इसके बाद “अव्ययं विभक्ति समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावाऽत्ययाऽसम्प्रति-शब्दप्रादुर्भाव पश्चात्‌-यथाऽऽनुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य-सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु '' इस सूत्र का अव्ययीभाव समास संज्ञक का व्याख्यान अवसर पर बहूनि अव्ययीभाव कार्य विधायक सूत्रों की व्याख्या की गई।,"अव्ययीभावसमासस्य अधिकारं बोधयति ""अव्ययीभावः"" इति सूत्रम्‌। ततः ""अव्ययं विभक्ति- समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावाऽत्ययाऽसम्प्रति-शब्दप्रादुर्भाव- पश्चात् -यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्याऽन्तवचनेषु"" इति सूत्रस्य अव्ययीभावसमाससंज्ञकस्य व्याख्यानावसरे बहूनि अव्ययीभावकार्यविधायकानि सूत्राणि व्याख्यातानि।" यजमान किस प्रकार का धन प्राप्त करता है?,यजमानः कीदृशं रयिं प्राप्नोति? पुण्य संस्कार से अनुरजि्‌जित भूतपञ्च व्याप्त हुए।,पुण्यसंस्कारानुरञ्जितभूतपञ्चकपरिवेष्टित इत्यर्थः। बंहिष्ठम्‌ - बहुलशब्द से इष्ठन्प्रत्यय करने पर बहुलस्थान में बंहादेशे द्वितीया एकवचन में बंहिष्ठम्‌ रूप बना।,बंहिष्ठम्‌- बहुलशब्दात्‌ इष्ठन्प्रत्यये बहुलस्थाने बंहादेशे द्वितीयैकवचने बंहिष्ठम्‌ इति रूपम्‌। तब फिर उसे पकड़कर के माता उसे अपने पास में ले आती है।,तदा पुनः माता तम्‌ गृहीत्वा स्वसमीपम्‌ आनयति। 2. माण्डुक्योपनिषद्‌ में विद्यमान महावाक्य क्या है?,२. माण्डूक्योपनिषदि विद्यमानं महावाक्यं किम्‌? संस्कृत भाषा में अत्यन्त प्राचीन साहित्य प्राप्त होता है।,संस्कृतभाषायाम्‌ अति प्राचीनं साहित्यं लभ्यते तब शरीर अत्यन्त दुर्बल होता है।,अत्यन्तं दुर्बलं भवति। उनको विजय नही बनाते है।,तं नमयन्तीत्यर्थः । समृद्धि अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण होता है सुमद्रम्‌।,समृद्ध्यर्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति सुमद्रम्‌ इति। अतः प्रकृत सूत्र से आगच्छ इस लोट्‌ अन्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण आगच्छ इति लोडन्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। किन्तु उत्तम पुरुष नहीं है।,किञ्च उत्तमपुरुषः नास्ति। न गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।,न गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङकृद्भ्यः इति सूत्रं व्याख्यात। दिवि ईयते इस स्थिति में “एक: पूर्वपरयो:' इस अधिकार में पढ़ा हुआ ' अकः सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से पूर्व पर इकार ईकार के स्थान ईकार रूप सवर्ण दीर्घ एकादेश होने पर दिवीयते यह रूप सिद्ध होता है।,दिवि ईयते इति स्थिते 'एकः पूर्वपरयोः' इत्यधिकारे पठितेन 'अकः सवर्णे दीर्घः' इति सूत्रेण पूर्वपरयोः इकारेकारयोः स्थाने ईकाररूपसवर्णदीर्घेकादेशे दिवीयते इति रूपं सिध्यति। काम्यकर्मो का त्याग मुमुक्षुओं के द्वारा करना चाहिए।,काम्यकर्मणां त्यागः कर्तव्यः मुमुक्षुणा । यह सब चैतन्यस्वरूप ब्रह्म ही होता है।,इदं सर्वं चैतन्यस्वरूपं ब्रह्म एव। (क) श्रवण (ख) मनन (ग) निदिध्यासन (घ) निष्कामकर्मयोग 7 चित्त विक्षेप का शामक क्या होता है?,(क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) निष्कामकर्मयोगः 7. चित्तविक्षेपस्य शामकं किम्‌। जैसे:- राजपुरुषः इसमें समन्वय प्रस्तुत किया जा रहा है।,यथा राजपुरुषः इत्यादौ समन्वयः प्रस्तूयते। मोक्ष भी नहीं है।,मोक्षः अपि नास्ति। तिलु स्निग्धा भूमि है जिसकी वह क्षेत्र तिल्विल देवयजन का कहलाता है।,तिलुः स्निग्धा भूमिर्यस्य तत्‌ क्षेत्रं तिल्विलं देवयजनम्‌ इति कथ्यते। यज्ञ को आवश्यकता को अनुभव करके उदात्त द्रष्टा महामुनि व्यास ने अपने चार शिष्यों को वेद पढाया।,यज्ञस्य आवश्यकताम्‌ अनुभूय उदात्तदृष्ट्या महामुनिः व्यासः स्वचतुरान्‌ शिष्यान्‌ वेदम्‌ अध्यापितवान्‌। धातोः इस सूत्र से धातु अन्त उदात्त है।,धातोः इति सूत्रेण धातोः अन्तः उदात्तः भवति। "इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।","स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्म निर्वाणमृच्छति"" ॥" उदाहरण- अङ्ग कुरु यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- अङ्ग कुरु इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। गायों की संख्या बढाओ।,गाः पिन्वतम्‌ गवाश्वादीन्‌ वर्धयतम्‌। वायुगोपा: - वायुः गोपा (रक्षिता) जिनकी उनको वायुगोपाः कहते है।,वायुगोपाः - वायुः गोपाः (रक्षिताः) येषां ते वायुगोपाः। उसको ' अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इस सूत्र से धातु के (अगि-इसके) अकार का अनुदात्त स्वर है प्रत्यय का नहीं है।,तेन 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्‌' इति सूत्रेण धातोः (अगि-इत्यस्य) अकारस्य अनुदात्तस्वरः न तु प्रत्ययस्य इति। गङ्गा तथा घोष में आधार तथा आधेय भाव ही है।,गङ्गाघोषयोः आधाराधेयभावो विद्यते। दर्शन के प्रयोग का सामर्थ्य दर्शन के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त कर अपने जीवन में उसके प्रयोग को करके कृतकृत्य होगा।,दर्शनप्रयोगस्य सामर्थ्यम्‌ दर्शनस्य स्पष्टं ज्ञानं प्राप्य स्वस्य जीवने तस्य प्रयोगं कृत्वा कृतकृत्यो भविष्यति।