Hindi,Sanskrit उससे पूर्व अम्‌ भूत सु यह समुदाय समास संज्ञक होता है।,तेन पूर्व अम्‌ भूत सु इति समुदायः समाससंज्ञकः। वहाँ पर यह कारण है कि स्फटिक समीप लोहित पुष्प का होना।,तत्र कारणं हि स्फटिकस्य समीपे लोहितं पुष्पं वर्तते। """समासान्ताः"" ये अधिकृत करके कुछ समासान्त प्रत्यय होते हैं।","""समासान्ताः"" इत्यधिकृत्य केचन समासान्ताः प्रत्यया विधीयन्ते ।" एक पद को अलग करना।,एकपदस्य पृथक्करणम्‌। प्रज्ञानं ब्रह्म इसके प्रज्ञान शब्द का अर्थ प्रतिपादित करें अथवा गुरु की महिमा का वर्णन करें।,प्रज्ञानं ब्रह्म इत्यत्र प्रज्ञानशब्दस्य अर्थं प्रतिपादयत। अथवा गुरुमहिमानं वर्णयत। मेरे किये हुए द्रोह को छोड़ दो।,कृतद्रोहान्‌ अपेहि। सुपा इसकी तदन्त विधि में पूज्यमानैः इस अन्वय से सुबन्तैः पद प्राप्त होता है।,सुपा इत्यस्य तदन्तविधौ पूज्यमानैः इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तैः इति लभ्यते । उस प्रमा के द्वारा सभी प्रकार के अज्ञान को दूर करना चाहिए।,तया प्रमया निवर्त्य दूरीकर्तव्यं किमपि अज्ञानं स्यात्‌। यहाँ पर कहते हैं की यह भ्रान्ति के कारण कल्पित है।,अत्रोच्यते एतत्सर्वं भ्रान्त्या कल्पितं वर्तते। पञ्चगवधनः यहाँ पर टच्‌ प्रतयय किस सूत्र से और केसे होता है?,पञ्चगवधनः इत्यत्र टच्प्रत्ययः केन सूत्रेण कथं च ? उससे जीव कर्मसंसारबन्धन से मुक्त हो जाता है।,तेन च जीवः मुच्यते कर्मसंसारबन्धनात्‌। लौकिक और अलौकिक।,लौकिकोऽलौकिकश्च। इस रूप वाली हे श्रद्धा हमे इस लोककार्यो में श्रद्धा से युक्त बनाओ।,ईदृग्रूपे हे श्रद्धे नोस्मानिह लोके कर्मणि वा श्रद्धापय श्रद्धावतः कुरु। इस प्रकार से विद्यारण्य स्वामी के वाक्य से तथा शाङ्करवाक्य से यह सिद्ध होता है कि समाधि निर्विकल्पसमाधि कहलाती है।,इदानीं विद्यारण्यवाक्यात्‌ शाङ्करवाक्यात्‌ च इदम्‌ आयातं यत्‌ समाधिः नाम निर्विकल्पकसमाधिः। और ये दोनों स्पष्ट करते है।,एतच्चोभयं स्पष्टीक्रियते। भले ही स्वप्न जाग्रत अवस्था में अनुभूत विषयों की ही स्मृति होती है।,यद्यपि स्वप्नः जाग्रदवस्थानुभूतविषयाणां स्मृतिः भवति। अनुदात्त है इसके इस अर्थ में अनुदात्त शब्द से ' अर्श-आदिभ्योऽच्‌' इस सूत्र से मत्वर्थीय-अच्‌ प्रत्यय है।,अनुदात्ताः अस्य सन्ति इत्यर्थे अनुदात्तशब्दात्‌ 'अर्श-आदिभ्योऽच्‌' इति सूत्रेण मत्वर्थीय- अच्य्रत्ययः। यह ही विषय का सङ्ग दोष होता है।,अयमेव विषयस्य सङ्गदोषः। ऊङ्-तिभ्यां मिलिताश्चापि सन्त्यष्टौ प्रत्ययाः स्त्रियाम्‌॥,ऊङ्-तिभ्यां मिलिताश्चापि सन्त्यष्टौ प्रत्ययाः स्त्रियाम्‌।। उदाहरण -यहाँ इस सूत्र का उदाहरण है घनश्यामः।,उदाहरणम्‌ - अत्रोदाहरणं तावत्‌ घनश्यामः इति। वह नामरूप विकार आदिभेद से उपाधि विशिष्ट तथ उसके विपरीत सभी उपाधियों से विवर्जित होता है।,नामरूपविकारभेदोपाधिविशिष्टं तद्विपरीतं च सर्वोपाधिविवर्जितम्‌। राजा स्वरूप जगत के स्वामी भी इनको नमन करते है जुआ हेलने के समय इनका अपमान नही करते है।,राजा चित्‌ जगतः ईश्वरोऽपि एभ्यः नम इत्‌ नमस्कारमेव देवनवेलायां कृणोति । नावज्ञां करोतीत्यर्थः । यहाँ पर यह प्रश्‍न होता है की स्वप्न में भी लोग प्रातिभासिक वस्तु को देखते हैं।,अत्र प्रश्नः सम्भवति यत्‌ स्वप्ने अपि जनाः प्रातिभासिकं वस्तु पश्यति। क्योंकि चक्षु का विषय रूप होता है तथा त्वक्‌ इन्द्रिय का विषय स्पर्श होता है।,यतः चक्षुषः विषयो भवति रूपम्‌। त्वगिन्द्रियस्य विषयो भवति स्पर्शः। इस समास में प्राय पूर्वपदार्थ का ही प्राधान्य है।,अस्मिन्‌ समासे प्रायेण पूर्वपदार्थस्य प्राधान्यं। कायिक तथा मानसिक भेद से कर्म दो प्रकार के होते है।,कायिकमानसिकभेदेन कर्म द्वैविध्यं भजते। लुप्त-अकार विशिष्ट अञ्च् धातु यह अर्थ है।,लुप्त-अकारविशिष्टः अञ्च्‌ धातुः इत्यर्थः। "और मुक्ति का तो एक ही उपाय है ब्रह्मज्ञान जैस पाक्‌ की अग्नि के ज्ञान के बिना भोजन सिद्ध नहीं होता है उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान के बिना मोक्ष सम्भव नहीं होता है, इस प्रकार से आचार्य के द्वारा आत्मबोध प्रकरण में कहा गया है।",मुक्तेस्तावदेक एव उपायः ब्रह्मज्ञानम्‌। पाकस्य वह्निवज्ज्ञानं विना मोक्षो न सिद्ध्यति इति आत्मबोधे आचार्यणोक्तम्‌। मूलपाठ की व्याख्या ( पर्जन्यसूक्त ) : अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विंवास।,मूलपाठस्य व्याख्या ( पर्जन्यसूक्तम्‌ )- अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास । सभी देवों में यह इन्द्र सर्व श्रेष्ठ है।,निखिलेषु देवेषु असौ इन्द्रः श्रेष्ठतमः अस्ति। वह सूर्य भी ब्रह्म में प्रकाशित नहीं होता है।,स सूर्यः अपि ब्रह्मणि न भाति। इस अवसर में प्रयुक्त पाठ की भी व्याख्या की है।,अस्मिन्‌ अवसरे प्रयुक्तस्य उच्छ्रयणस्य अपि व्याख्या अस्ति। और उपनिषद्‌ शब्द का प्रसिद्ध अर्थ है ब्रह्मविद्या।,पुनः च उपनिषत्‌ इति शब्दस्य प्रसिद्धः अर्थः भवति ब्रह्मविद्या। इन मन्त्रों की संख्या अस्सी है।,एतेषां मन्त्राणां संख्याऽशीतिरस्ति। जैसे शुक्ति रजत भ्रम स्थल में यह रजत है इस प्रकार से शुक्ति में विद्यमान (सन्निकृष्टता) रजतज्ञान में रजत के अभेद से जानी जाती है।,यथा शुक्तिरजतभ्रमस्थले इदं रजतमिति शुक्तौ विद्यमाना इदन्ता (सन्निकृष्टता) रजतज्ञाने रजताभेदेन ज्ञायते । इस पाठ में निष्कामकर्मयोग की उपासना का विषय मुख्यरूप से वर्णित है।,अस्मिन्‌ पाठे निष्कामकर्मयोगः उपासना चेति विषयः प्रामुख्येन वर्णितः। वीरवत्तमम्‌ यह रूप कैसे सिद्ध होता है?,वीरवत्तमम्‌ इति रूपं कथं सिद्धम्‌? "और जो प्राणिमात्र के हृदय में रहता है, अन्य इन्द्रिया तो बाहरी है, मनतो आन्तरिक इन्द्रिय है यह अर्थ है।",यच्च प्रजायन्ते इति प्रजाः तासां प्राणिमात्राम्‌ अन्तः शरीरमध्ये आस्ते इतरेन्द्रियाणि बहिःष्ठानि मनः तु अन्तरिन्द्रियमित्यर्थः। ब्राह्मण नाम कर्म और उनके मन्त्रों का व्याख्यान ग्रन्थ हैं।,ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां च व्याख्यानग्रन्थः। तथा शस्त्रास्त्रादि के द्वारा चौरव्याघ्रादि भयजिनित दुःखों की निवृत्ति होती है।,शस्त्रास्त्रादिना चौरव्याघ्रादिजभयनिवृत्तिः। योगमतानुसार यह सम्प्रज्ञातसमाधि से भिन्न साधन रूप समाधि है।,योगमते अयं च सम्प्रज्ञातसमाधेः भिन्नः साधनरूपः समाधिः। 43. परमराजः यहाँ पर टच्‌ प्रत्यय किस सूत्र से होता है।,४३. परमराजः इत्यत्र टच्प्रत्ययः केन सूत्रेण? "ये विद्वान ऐतरेय ब्राह्मण में आये शुनःशेप उपाख्यान को, और शतपथ ब्राह्मण में आये उर्वशी-पुरुरवा-उपाख्यान को, यहाँ पर साक्षि भाव के रूप में स्थापित करते है।","एते विद्वांसः ऐतरेयब्राह्मणगतं शुनःशेपोपाख्यानं, शतपथब्राह्मणगतमुर्वशी-पुरुरव-उपाख्यानं, चात्र साक्षिभावेनोपस्थापयन्ति।" "इनके नित्य नैमित्तिक प्रायश्चित तथा शास्त्र प्रसिद्ध कर्मों का, गुरुजनों के द्वारा, कर्तव्यता के द्वारा उपदिष्ट कर्मका मोक्ष साधन के रूप में अनुष्ठान ही वेदान्त शास्त्र में कर्मयोग कहा गया है।","एषां नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तानां शास्त्रप्रसिद्धानां कर्मणां, गुरुजनैः कर्तव्यतया उपदिष्टानां कर्मणां च मोक्षसाधनरूपेण अनुष्ठानम्‌ एव वेदान्तशास्त्रे कर्मयोग इत्युच्यते।" परन्तु वस्तुतः शुक्लयजुर्वेद में विद्यमान नारायणीयसूक्त का है।,परन्तु वस्तुतः शुक्तयजुर्वेदे विद्यमानस्य नारायणीयसूक्तस्यास्ति। वैदिक साहित्य में मित्रावरुण भाई के समान स्नेह के प्रतीक हैं।,वैदिकसाहित्ये मित्रावरुणौ भातृसदृशस्नेहस्य प्रतीकम्‌ अस्ति। सभी आत्मा उस परमात्मा से उत्पन्न होती हैं।,आत्मानो हि सर्वे तस्मात्‌ परमात्मन उत्पद्यन्ते। अग्नि इन्द्र का जुड़वाँ भाई कहलाता है।,अग्निः इन्द्रस्य यमजपभ्राता इत्युच्यते। तदात्मा (ब्रह्मात्मा परोक्ष ज्ञान) तन्निष्ठः (नैरन्तर्येण तत्वस्वरूपानुसन्धानम्‌) तत्परायण (उसमें रति) ज्ञाननिर्धूत कल्मष अर्थात्‌ वह फिर देह को प्राप्त नहीं करता है अपितु मुक्त हो जाता है।,तदात्मा (ब्रह्मात्मापरोक्षज्ञानम्‌) तन्निष्ठः (नैरन्तर्येण तत्स्वरूपानुसन्धानं) तत्परायणः (तद्रतिः) ज्ञाननिर्धूतकल्मषः स एव पुनः देहं न लभते। मुक्तो भवति। उस स्थान से ही ऋत्विग अश्वगणों को अर्थात्‌ सूर्य रश्मि को छोड॒ता है।,तत्स्थानात्‌ एव ऋत्विजः अश्वगणान्‌ अर्थात्‌ सूर्यरश्मीन्‌ विमोचयन्ति। "बहुल शब्द का अर्थ है-विधि विधान का बहुत प्रसार से समीक्षा करके “कहीं प्रवृति से, कहीं अप्रवृत्ति से कहीं अन्य से ही, कहीं विकल्प से, इस प्रकार चार प्रकार का बाहुलक कहे जाते हैं।","बहुलशब्दस्य अर्थः- ""क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव। विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति इति।" स्वस्थ मन में ही ज्ञान की उत्पत्ति और मन के प्रतिकूल आचरण से ही ज्ञान का अभाव होता है।,मनः स्वास्थ्य एव ज्ञानोत्पत्तिः मनोवैय॒ग्ये च ज्ञानाभावः। चतुर्थ मन्त्र में इन्द्र से उत्पन्न किया हुआ इस विषय में कहा गया है।,ततः चतुर्थे मन्त्रे इन्द्रेण किमुत्पादितमित्येतत्‌ उच्यते। 11.4.1 ) नित्य प्रलयः प्रलय अर्थात्‌ त्रिलोक का नाश होता है।,११.४.१.)नित्यप्रलयः प्रलयः नाम त्रैलोक्यनाशः। दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति तथा परमानन्द की प्राप्ति ही मोक्ष कहलाती है।,दुःखस्य आत्यन्तिकनिवृत्तिः परमानन्दप्राप्तिश्च मोक्षः। कृदन्त का सुबन्त के अभाव से कृदन्तशब्द से कृदन्त प्रकृति का ग्रहण किया गया है।,कृदन्तस्य सुबन्तत्वाभावात्‌ कृदन्तशब्देन कृदन्तप्रकृतिकस्य ग्रहणम्‌। कुछ ब्राह्मणग्रन्थों के द्वारा जाना जाता है की वह आर्य और अनार्य दोनों धर्म में रुद्रदेव की पूजा प्रचलितथी।,केभ्यश्चन ब्राह्मणग्रन्थेभ्यः ज्ञायते आर्यानार्योभयधर्म रुद्रदेवस्य पूजा प्रचलिता आसीत्‌। सुकृते - शोभनं करोति इस विग्रह में सुपूर्वककृ-धातु से क्विप्प्रत्यय करने पर सुकृत्‌ यह शब्द निष्पन्न हुआ।,सुकृते- शोभनं करोति इति विग्रहे सुपूर्वककृ-धातोः क्विप्प्रत्यये सुकृत्‌ इति शब्दः निष्पन्नः। इसलिए भगवान बादरायण ने कहा है “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्‌' इति।,उक्तं च तस्माद्‌ भगवता बादरायणेन “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्‌ इति । इसलिए ब्रह्म क्या है?,अतः ब्रह्म किम्‌। अब माता उसे समझाती है जिससे बालक की जाने की सम्भावना ही नहीं होती है।,अधुना माता बालं तथा बोधयति येन बालस्य गमनसम्भावना एव नास्ति। अर्थात्‌ तीनो लोक में ही जिसकी कीर्तिप्रसिद्ध होती है वह विष्णु कहलाता है।,अर्थात्‌ त्रिषु लोकेषु एव यस्य कीर्तिः सुप्रसिद्धा स भवति विष्णुः इति। "“पूर्वकालैसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इस सूत्र से समानाधिकरणेन पद की अनुवृत्ति होती है।","""पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति पदम्‌ अनुवर्तते।" तब उसके सामने रूप आता है तो भी वह उसे नहीं देखता है।,तदा तस्य सम्मुखे सुरूपं तिष्ठति चेदपि न पश्यति। "“' प्राक्कडारासमासः'', “ सह सुपा”, “ तत्पुरुषः'' ये तीन अधिकृत सूत्र है।","""प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः"" इति स्ूत्रत्रयमधिकृतम्‌ ।" साधारणो धर्मः यही अर्थ है।,साधारणो धर्मः इति तदर्थः । इस प्रकार से भी स्मृति मे कहा है।,इति स्मृतिः आख्याति। मित्र प्राणरक्षक रूप से प्रतिपादित है।,मित्रः प्राणरक्षकरूपेण प्रतिपादितः। विशेष - उदात्त निवृत्ति स्वर अपवाद भूत यह सूत्र है।,विशेषः - उदात्तनिवृत्तिस्वरापवादभूतम्‌ इदं सूत्रम्‌। चित्रश्रवस्तमः इसका विग्रह और समास लिखो।,चित्रश्रवस्तमः इत्यस्य विग्रहं समासं च लिखत। 8 कौन-से कर्म संचित कर्म होते हैं?,८. संचितं किं भवति। यह नियम ही ऋत है।,अयं नियम ऋतम्‌। "2. “ अहं ब्रह्मास्मि"" यहाँ पर अहं पद के अर्थ का आलोचन कोजिए।",2 “अहं ब्रह्मास्मि” इत्यत्र अहंपदस्य अर्थम्‌ आलोचयत। "वहाँ विभाषा यह अव्ययपद है, और ' छन्दसि ' ये सप्तमी एकवचनान्त पद है।","तत्र विभाषा इति अव्ययपदम्‌, 'छन्दसि' इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" पूर्वजन्म में किए गए निषिद्धकर्म अन्तः करण में अधर्म के रूप में पाप के अपर नाम से उत्पन्न होते हैं।,पूर्वजन्मकृतानि निषिद्धकर्माणि अन्तःकरणे अधर्मम्‌ पापापरनाम जनयन्ति। इस प्रकार इस पाठ का मुख्य विषय प्रत्यय स्वर है।,एवञ्च अस्य पाठस्य मुख्यः विषयः भवति प्रत्ययस्वरः इति। वो सभी प्राणियों का नियन्ता तथा स्थावर और जङ्गमात्मक पदार्थों का स्वामी है।,"सः समेषां प्राणिनां नियन्ता, स्थावरजङ्गमात्मकस्य पदार्थस्य च अधीश्वरः।" यः प्राणतो निमिषतो... मन्त्र की व्याख्या करो।,यः प्राणतो निमिषतो... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। इस शिक्षा में वैदिक स्वरों का उदाहरण के साथ विशिष्ट और विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।,अस्यां शिक्षायां वैदिकस्वराणाम्‌ उदाहरणेन सह विशिष्टं विस्तृतं च वर्णनं वर्तते। यह इसका भावहे यहाँ उपमावाचक और लुप्तोपमालङ्कार।,अस्य अयं भावः अत्र उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौै। श्रवण के द्वारा यह जाना जाता है की ब्रह्म में ही वेदान्तों का तात्पर्य है न कि कर्म में।,"श्रवणेन इदं ज्ञातं यत्‌ ब्रह्मणि वेदान्तानां तात्पर्यमस्ति, न तु कर्मणि।" मैं ही इन्द्र अग्नि और दोनों अश्विनीकुमार को धारण करती हूँ।,अहमेव इन्द्राग्न्योः उभयाश्विनीकुमारयोः च धारकः अस्मि। न क्र्वि अक्रवि अक्रवी हस्तौ ययोस्तौ अक्रविहस्तौ बहुव्रीहि इति :।,"न क्रविः अक्रविः, अक्रवी हस्तौ ययोस्तौ अक्रविहस्तौ इति बहुव्रीहिः।" "यहाँ “सुब्रह्मण्यायाम्‌ एक श्रुतिः न, स्वरितस्य तु उदात्तः' यह सूत्र में आये पद का अन्वय है।","अत्र ""सुब्रह्मण्यायाम्‌ एकश्रुतिः न, स्वरितस्य तु उदात्तः' इति सूत्रगतपदयोजना।" और वहाँ सायणाचार्य ने भाष्य लिखा है।,तत्र च सायणाचार्यः भाष्यं रचितवान्‌। उदात्तः यह प्रथमा एकवचनान्त विधायक पद है।,उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं विधेयपदम्‌। इसलिए दोनों यागों के समान संख्यक पुरोहित और समानाहुति द्रव्य प्रयुक्त होते हैं।,तस्मात्‌ द्वयोः यागयोः समानसंख्याकपुरोहितानां समानाहुतिद्रव्याणां प्रयोजनं भवति। अङ्गिरा धारा का आभिचारिक कर्मों के साथ सम्बद्ध है।,अङ्गिरोधारा आभिचारिकैः कर्मभिः सह सम्बद्धाऽस्ति। अतः अनिष्ठा इसका अनिष्ठान्त यह अर्थ है।,अतः अनिष्ठा इत्यस्य अनिष्ठान्तम्‌ इत्यर्थः। उस प्रकार के किंवृत्त शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।,तादृशकिंवृत्तशब्देन युक्तं तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति इति। "“तद्धितार्थोत्तपदसमाहारे च"" यह किस प्रकार का सूत्र है?","""तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च"" इति सूत्रं किम्प्रकारकम्‌" “हविर्विलीनमाज्यं स्याद्‌ घनीभूतं घृतं विदुः यह श्रुति है।,"""हविर्विलीनमाज्यं स्याद्‌ घनीभूतं घृतं विदुः"" इति श्रुतिः वर्तते।" जब अव्ययीभावसमास निष्पन्न शब्द अकारान्त होता है तब विशेषकार्य होता है।,यदा अव्ययीभावसमासनिष्पन्नः शब्दः अकारान्तः भवति तदा विशेषकार्य भवति। वह यह वैदिक ज्ञान भ्रान्तियों से और प्रमाद से रहित है।,तदिदं वैदिकं ज्ञानं निर्भ्रान्तम्‌ प्रमादरहितं च। इसलिए इसका त्याग नहीं किया जा सकता है।,अतः अस्य त्यागः कर्तु न श्क्यते। अब कहते हैं की समाधि तो सकलभेद निरासपूर्वक अद्वेतब्रह्मवस्तुसाक्षात्कार के लिए प्रवर्तित होती है।,ननु समाधिस्तावत्‌ सकलभेदनिरासपूर्वकम्‌ अद्वैतब्रह्मवस्तुसाक्षात्काराय प्रवर्तितः। चाप्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,चाप्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। पविः - पू-धातु से ` अच इ:' इस औणादिकसूत्र से इप्रत्यय करने पर पवि: यह रूप बना।,पविः- पू-धातोः 'अच इः' इति औणादिकसूत्रेण इप्रत्यये पविः इति रूपम्‌। कितव की पत्नी के प्रति अन्यजुआरी क्या करते हैं?,कितवस्य भार्याम्‌ अन्ये प्रतिकितवाः किं कुर्वन्ति ? उदय शब्द पर शब्द से समान अर्थ है ऐसा प्रातिशाख्यों में प्रसिद्ध है।,उदयशब्दः परशब्देन समानार्थः इति प्रातिशाख्येषु प्रसिद्धः। इसलिए दो कोशों का व्यवहार उत्पन्न होता है।,अतः कोशद्वयव्यवहारः उपपद्यते एव। मन्त्रो में जो कहा गया है उस की ही यहाँ पर साररूप से कहते है।,मन्त्रेषु यदुक्तं तदेव अत्र साररूपेण कथ्यते । और सूत्र का अर्थ है कर्त्र्थक जो दो तृजक प्रत्यय को तदन्त सुबन्त के साथ षष्ठयन्त्र सुबन्त का समास नहीं होता है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""कर्त्र्थकौ यौ तृजकौ प्रत्ययौ तदन्तेन सुबन्तेन सह षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य समासो न भवति"" इति।" उस प्रकार के विष्णु के पराक्रम को कहता हूँ ।,तादृशस्य विष्णोः वीरकर्माणि वदामि। श्रुतियों में भी इस प्रकार से कहा है - परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।,तथाहि श्रुतिः- परीक्ष्य ळोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। "विधिपूर्वक वेदाध्ययन,वेदार्थज्ञान काम्य तथा निषिद्ध कर्मों का परित्याग नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित तथा उपासना का अनुष्ठान इत्यादि कर्मो करने पर भी पूर्वजन्म में जो कर्म किए गये है उनका फल तो प्राप्त होता ही है।","विधिपूर्वकं वेदाध्ययनम्‌, वेदार्थज्ञानम्‌, काम्यनिषिद्धकर्मणोः परित्यागः, नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानाम्‌ अनुष्ठानम्‌ च इत्यादिकर्माणि पूर्वजन्मसु कृतानि चेदपि तेभ्यः फलं लभ्यते।" "13. स्मरण, कीर्तन, हँसी मजाक, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिवृत्ति इस प्रकार से अष्टाङ्ग मैथुन होता है।","१३. स्मरणं, कीर्तनं, केलिः, प्रेक्षणं, गूह्यभाषणं, सङ्कल्पः, अध्यवसायः, क्रियानिर्वृतिः इति अष्टाङ्गमैथुनम्‌।" तद्धित अर्थ विषय में और उत्तरपद में परतः और समाहार में वाच्य दिशावाचक और संख्यावाचक सुबन्त को समानाधिकरण को सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,तद्धितार्थ विषये उत्तरपदे च परतः समाहारे च वाच्ये दिशावाचकं संख्यावाचकं च सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । इस प्रकार से प्राणवायु के निरोध का प्राणायाम कहते है।,प्राणवायोः निरोधात्‌ एते प्राणायामपदेन उच्यन्ते। वेद में वर्णित देव किसी न किसी पार्थिव वस्तु या पार्थिव प्राकृतिक पदार्थ के प्रतीक है।,वेदे वर्णिताः देवाः कस्यापि पार्थिववस्तुनः पार्थिवप्राकृतिकपदार्थस्य वा प्रतीकभूताः भवन्ति । न यह निषेध बोधक अव्ययपद है।,नेति निषेधबोधकम्‌ अव्ययपदम्‌। सरलार्थ - वह मछली शीघ्र ही विशाल मछली बन गई।,सरलार्थः - स मत्स्यः शीघ्रमेव महान्‌ मत्स्यः सञ्जातः। इससे उत्पन्न हुए जगत का जिसकी उत्पति स्थिति और प्रलय तीनों को बताने वाले इन्द्र ने सोमरस का अंश पिया।,तेषु सुतस्य अभिषुतस्य सोमस्यांशम्‌ अपिबत्‌ पीतवान्‌। पूर्वस्य पद अतः का विशेषण होता है।,पूर्वस्य इति पदम्‌ अतः इत्यस्य विशेषणं भवति। इन्द्र ने भी प्रार्थित वर प्रदान कर दिया।,इन्द्रोऽपि तदा प्रार्थितं दरं प्रदत्तवान्‌। वर्षा के देवता रूप इसका देवेन्द्र इन्द्र के साथ तुलना की गई है।,वर्षाणां देवतारूपेण अस्य देवेन्द्रेण इन्द्रेण सह तुलना कृता। निषिद्ध किसी के द्वारा भी नहीं करना चाहिए।,निषिद्धं न केनापि करणीयम्‌। यहाँ नञ्‌ इससे प्रसिद्ध अव्यय का ही ग्रहण होता है न कि “'स्त्रीपुंसाञ्यांनञ्स्जजौ भवनात्‌'' इस सूत्र से विहित नञ्‌ प्रत्यय का।,"अत्र नञ्‌ इत्यनेन प्रसिद्धस्याव्ययस्यैव ग्रहणं न तु "" स्त्रीपुंसाभ्यां नञ्स्नञौ भवनात्‌ "" इति सूत्रेण विहितस्य नञ्प्रत्ययस्य ।" शूद्र इसके पाद थे अर्थात्‌ पैरों से उत्पन्न हुआ।,शूद्रः अस्य पादः आसीत्‌ अर्थात्‌ पादाभ्याम्‌ उत्पन्नः। 20. सविकल्पसमाधि क्या होती है?,२०. सविकल्पकसमाधिः कः? किस ऋषि ने अनेक स्तुति में वीररस का आश्रय लेकर के इन्द्र का वर्णन किया?,कः ऋषिः अनेकासु स्तुतिषु वीररसम्‌ आश्रित्य इन्द्रस्य वर्णनं कृतवान्‌? कपर्दिनः - कपर्दः अस्यास्तीति विग्रह करने पर अत इनिठनौ इससे इनिप्रत्यय करने पर निष्पन्नकपर्दिन्‌-शब्द का षष्ठी एकवचन का रूप है।,कपर्दिनः- कपर्दः अस्यास्तीति विग्रहे अत इनिठनौ इत्यनेन इनिप्रत्यये निष्पन्नस्य कपर्दिन्‌- शब्दस्य षष्ठ्येकवचने रूपम्‌। इसके बाद समास के प्रातिपदिकत्व से प्रातिपदिक अवयव का सुबन्त के ङे प्रत्यय का और सु प्रत्यय का लोप होने पर यूपदारु शब्द निष्पन्न होता है।,ततः समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ प्रातिपदिकावयवस्य सुपः ङेप्रत्ययस्य सोश्च लुकि यूपदारु इति शब्दो निष्पद्यते। "पूर्वार्ध में पर्जन्यसूक्त विद्यमान है, और उत्तरार्ध में मनुमत्स्य कथा लिखी गई है।","पूर्वार्धे पर्जन्यसूक्तम्‌ विद्यते , उत्तरार्धे च मनुमत्स्यकथा उपन्यस्तमस्ति ।" उसको इस प्रकृत सूत्र से उस माष- शब्द का आदि स्वर आकार को उदात्त होता है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य माष- शब्दस्य आदेः स्वरस्य आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। इस प्रकार से भाष्य की भी इसमें सम्मति है क्रियाणां यज्ञादीनाम्‌ इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम्‌ उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम्‌ (गीता.भा.3.4) ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्‌ पापस्य कर्मणः।,तथाहि भाष्यसम्मतिः- क्रियाणां यज्ञादीनाम्‌ इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम्‌ उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम्‌ (गीता.भा.३.४) ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्‌ पापस्य कर्मणः। "वररुचि ने ` भवन्ती ', ' अद्यतनी, “ हस्तनी ' इत्यादि पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया है, वे पाणिनि के “लट्‌, लुङ्‌, लिट्‌' इत्यादि शब्दों से प्राचीन है।","वररुचिः 'भवन्ती”, 'अद्यतनी”, 'हस्तनी' इत्यादीनां पारिभाषिकशब्दानाम्‌ उल्लेखं कृतवान्‌, ते पाणिनेः 'लट्‌,लुङ्‌, लिट्‌' इत्यादिशब्देभ्यः प्राचीनम्‌ अस्ति।" उनको एक एक करके नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।,एकैकशः अधस्तात्‌ प्रस्तूयन्ते। चौथा शुल्वसूत्र तो विशेष रूप से वेदि निर्माण प्रकार का प्रतिपादन करता है।,चतुर्थं शुल्वसूत्रं तु विशेषतः वेदिनिर्माणप्रकारं प्रतिपादयति। इस पाठ में ऋग्वेदीय तथा यजुर्वेदीय महावाक्यों का विचार किया जा रहा है।,अस्मिन्‌ पाठे ऋग्वेदीयं यजुर्वेदीयं च महावाक्यं विचार्यते। यहाँ अक्ष्ण: इति अदर्शनात्‌ च दो पद पञ्चमी एकवचनान्त है।,अत्र अक्ष्णः इति अदर्शनात्‌ इति च पदद्वयं पञ्चम्येकवचनान्तम्‌। अध्यारोपवाद तथा अपवाद के द्वारा यह निष्प्रपञ्च प्रपञ्चित होता है इस प्रकार का न्याय यहाँ पर आधार होता है।,अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चः प्रपञ्च्यते इति न्यायस्तत्राधारः। और तिङन्त से परे गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है।,तिङन्ते च परे गतिसंज्ञकः अनुदात्तः भवति। श्रद्धासूक्त का ऋषि छन्द और देवता कौन है?,"श्रद्धासूक्तस्य कः ऋषिः, किं छन्दः, का च देवता।" उस के ह्वारा तदन्तविधि से और अन्तोदात्त नुट्‌-प्रत्ययान्त से यह अर्थ होता है।,तेन तदन्तविधिना च अन्तोदात्तान्तात्‌ नुट्‌-प्रत्ययान्तात्‌ इत्यर्थो भवति। और दीक्षित के द्वारा कहा गया है'' अथवा संज्ञा में ही नियमार्थ सूत्र हैं।,"अत एवोक्तं दीक्षितेन - ""संज्ञायामेवेति नियमार्थ सूत्रम्‌"" इति।" समसनम्‌ नाम बहुत सारे पदों के मेल से एकपदी होता है।,समसनं नाम बहूनां पदानां मेलनेन एकपदीभवनम्‌। अनुदात्तम्‌ यह प्रथमान्त तद्धितान्त पद है।,अनुदात्तम्‌ इति प्रथमान्तं तद्धितान्तं पदम्‌। विषय प्रमेय होता है।,विषयः प्रमेयः। 7 समाधान क्या होता है?,७. समाधानं किमिति लेख्यम्‌। सायकम्‌ - षिञ्‌-धातु से ण्वुल अक आदेश करने पर वृद्धि ऐकार होने पर और उसको आया आदेश होने पर नकार को णकार करने पर सायकम यह रूप है।,सायकम्‌ - षिञ्‌-धातोः ण्वुलि अकादेशे वृद्धौ ऐकारे तस्य आयादेशे नस्य णत्वे सायकमिति रूपम्‌। अखण्डवस्तु के अलाभ से चित्तवृत्ति जाङ्यभाव ही लय होता है।,अखण्डवस्तुनः अलाभात्‌ चित्तवृत्तेः जाङड्यमेव लयः। दशाङऱगुल यह उपलक्षण है।,दशाङ्कुलमित्युपलक्षणम्‌। वीरवत्तमम्‌ - वीर शब्द का मतुप्प्रत्यय करने पर और तमप्‌ प्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में वीरवत्तमम्‌ यह रूप बनता है।,वीरवत्तमम्‌- वीरशब्दस्य मतुप्प्रत्यये तमप्प्रत्यये च द्वितीयैकवचने वीरवत्तमम्‌ इति रूपम्‌। इस विषय के स्पष्टीकरण के लिए अरुन्धती न्याय का सहारा लिया जाता है।,विषयस्य स्पष्टीकरणार्थम्‌ अरुन्धतीनक्षत्रन्यायः उच्यते। मछली ने मनु को कहा की “अब आप विपत्ति से पार पा चुके हो।,"ततः मत्स्यः मनुम्‌ अब्रवीत्‌ यत्‌ "" साम्प्रतं भवान्‌ विपदुत्तीर्णः।" एक ही श्रुति अर्थात्‌ एक श्रवण यह ही अर्थ है।,एका एव श्रुतिः अर्थात्‌ एकश्रवणम्‌ इति तदर्थः। कामक्रोधादि मन के विकार होते हैं।,कामक्रोधादयः मनसः विकाराः भवन्ति। इसका पर्याप्त परिचय का अभाव है।,अस्य पर्याप्तपरिचयस्य अभावः अस्ति। 11.3.2 ) ब्रह्मशाब्दार्थ इस प्रकार से प्रज्ञान शब्द का अर्थ कहकर के विद्यारण्य स्वामी ने पञ्चदशी मे ब्रह्म शब्द का अर्थ इस प्रकार से कहा है- “चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु।,11.3.2) ब्रह्मशब्दार्थः- एवं प्रज्ञानशब्दस्य अर्थम्‌ उक्त्वा विद्यारण्यस्वामिणा पञ्चदश्यां ब्रह्मशब्दस्यार्थः कथ्यते- “चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु। श्रेणि शब्द का आद्युदात्त है।,श्रेणिशब्दस्य आद्युदात्तः भवति। षद्लृ धातु का क्या अर्थ है?,षद्लृधातोः कः अर्थः। उनमे भी इयतिथीं यावतिथीं तावतिथीम्‌ यह प्राप्त होने पर छान्दस में य शब्द व शब्द का लोप।,तेष्वपि इयतिथीं यावतिथीं तावतिथीम्‌ इति प्राप्ते छान्दसो यशब्दवशब्दलोपः। "वार्तिक अर्थ का समन्वय - गार्ग्यस्य यहाँ पर गार्ग्यस्य यह स्यान्त पद है, उससे यहाँ ग्य - इस उपोत्तम अकार का और स्य - यहाँ अकार का प्रकृत वार्तिक से उदात्त स्वर का विधान है।","वार्तिकार्थसमन्वयः - गार्ग्यस्य इत्यत्र गार्ग्यस्य इति स्यान्तं पदम्‌, तस्मात्‌ अत्र ग्य - इति उपोत्तमस्य अकारस्य स्य - इत्यत्र अकारस्य च प्रकृतवार्तिकेन उदात्तस्वरः विधीयते।" इस श्रुति से सोने के अण्ड के गर्भभूत प्रजापति ही हिरण्यगर्भ के नाम से जाने जाते है।,इति श्रुतेः हिरण्मयस्य अण्डस्य गर्भभूतः प्रजापतिः एव हिरण्यगर्भः इति स्तूयते। "शतुरनुमो नद्यजादी (६.१.१७३ ) सूत्र का अर्थ- नुम्‌ रहित जो अन्तोदात शतृ प्रत्ययान्त शब्द तदन्त से परे नदी संज्ञक प्रत्यय, तथा अजादि शस आदि विभक्ति को उदात्त होता है।",शतुरनुमो नद्यजादी(६.१.१७३) सूत्रार्थः- अनुम्‌ यः शतृप्रत्ययस्तदन्तादन्तोदात्तात्परा नदी अजादिश्च शसादिर्विभक्तिरुदात्ता स्यात्‌। और यह ब्राह्मणभाग भी वेद ही है।,अयं च ब्राह्मणभागः अपि वेदः एव। अत निपात कारण से यह आद्युदात्त है।,अतः निपातकारणात्‌ अयम्‌ आद्युदात्तः। “न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः' इस सूत्र से उदात्त प्राप्ति प्रकृत सूत्र से उसको अनुदात्त स्वर होता है ऐसा जानना चाहिए।,"""न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः 'इति सूत्रेण उदात्ते प्राप्ते प्रकृतसूत्रेण तस्य अनुदात्तस्वरः इति बोध्यम्‌ ।" "सूत्र का अर्थ - च, वा आदि चादियों के परे रहते भी गति भिन्न पद से उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है।",सूत्रार्थः - चवाहाहैवेषु तिङन्तम्‌ अनुदात्तं न भवति। समृतिम्‌ - सम्पूर्वक ऋ-धातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर।,समृतिम्‌ - सम्पूर्वकात्‌ ऋ-धातोः क्तिन्प्रत्यये रूपम्‌। "दोनों प्रकार को समाधि के लक्षण में वेदान्तसार टीका सुबोधिनी में नृसिंहसरस्वतीस्वामी के द्वारा कहा गया है - “व्युत्थान-निरोधसंस्कारयोः अभिभवप्रादुर्भावे सति चित्तस्य एकाग्रतापरिणामः समाधिः” चित्त के दो धर्म होते हैं प्रत्यय तथा संस्कार प्रत्ययरूप चित्त का उत्थान ही व्युत्थान कहलाता है, वह प्रत्ययात्मक होता है।","उभयविधसाधारणं समाधिलक्षणं तावदुच्यते वेदान्तसारटीकायां सुबोधिन्यां नृसिंहसरस्वतीस्वामिभिः - “व्युत्थान-निरोधसंस्कारयोः अभिभवप्रादुर्भवि सति चित्तस्य एकाग्रतापरिणामः समाधिः” इति। चित्तस्य हि धर्मद्वयम्‌ - प्रत्ययः संस्कारश्च। प्रत्ययरूपेण चित्तस्य उत्थानमेव व्युत्थानम्‌, तच्च प्रत्ययात्मकम्‌।" यह निदिध्यासन ही ब्रह्मसाक्षात्कार में कारण होता है।,इदं निदिध्यासनम्‌ एव ब्रह्मसाक्षात्कारे कारणम्‌। स्रवन्तीः - स्रु-धातु से शतृप्रत्यय करने पर ङीप्‌ द्वितीया बहुवचन में स्रवन्ती: यह रूप है।,स्रवन्तीः - स्रु-धातोः शतृप्रत्यये डीपि द्वितीयाबहुवचने स्रवन्तीः इति रूपम्‌। अब प्रश्‍न करते हैं कि अज्ञान का मूलोच्छेद ज्ञान के द्वारा होता है अथवा नहीं।,ननु अज्ञानस्य मूलोच्छेदे किं ज्ञानेन भवति न वेति। जिसके द्वारा सात होता विशिष्ट अग्निष्टोम आदि यज्ञ का सम्पादन किया जाता है।,येन सप्तहोतृविशिष्टः अग्निष्टोमादियज्ञः सम्पाद्यते। गत्यर्थलोटा युक्त यह अर्थ है।,गत्यर्थलोटा युक्तम्‌ इत्यर्थः। ध्यान में तेल की धारा के समान निरन्तर सजातीय चित्तवृत्ति नहीं होती है।,ध्याने च तैलधारावत्‌ निरन्तरं सजातीयचित्तवृत्तिर्न भवति। हिरण्यशकलैरग्निप्रोक्षणानन्तरं शतसरुद्रियसंज्ञो होमः उसकी आहवनीय में प्राप्ता अपवाद को कहते है।,हिरण्यशकलैरग्निप्रोक्षणानन्तरं शतरुद्रियसंज्ञो होमः तस्याहवनीये प्राप्तावपवादमाह। वर्णरत्नप्रदीपिका- इस ग्रन्थ के रचयिता भारद्वाज वंशीय कोई अमरेश नाम का विद्वान है।,वर्णरत्नप्रदीपिका- अस्य ग्रन्थस्य रचयिता भारद्वाजवंशीयः कोऽपि अमरेशनामकः विद्वान्‌ अस्ति। जीव तथा ईश्वर में लेश मात्र भी भेद नहीं है।,नास्ति जीवेश्वरयोः लेशमात्रम्‌ अपि भेदः। सामासान्त अच्‌ प्रत्यय होता है।,समासान्तः अच्प्रत्ययः विधीयते। "यह सूक्त उन वैष्णव भक्तों की वाणी को स्मरण कराते है, जहाँ वे हजार अपराधों को करके भी भगवान के साक्षात्‌ करना चाहते है।",इदं सूक्तं तस्य वैष्णवभक्तानां वाणीं स्मारयति यत्र ते सहस्रम्‌ अपराधान्‌ कृत्वा अपि भगवन्तं साक्षात्कर्तुम्‌ इच्छन्ति। बाह्येन्द्रियों से चक्षु कर्म नासिका जिह्वा त्वचा इन सभी को इनके विषयों से हटाना।,बाह्येन्द्रियाणां चक्षुः-कर्ण-नासिका-जिह्वा-त्वचां तद्विषयेभ्यः आकर्षणम्‌। "पातृतुदिव... इति स्थक| व्याकरणशास्त्र के प्रमाणभूत आचार्य पतञ्जलि ने व्याकरणशास्त्र के ऊपर निर्दिष्ट प्रयोजन वर्णन “चार सींग', 'चार वाणी', ` उतत्वः”, ` सक्तुमिव, ` सुदेवोऽसि' - इत्यादि मन्त्र पांच उद उद्धरण दिया।","पातृतुदिव... इति स्थक्‌। व्याकरणशास्त्रस्य प्रमाणभूत आचार्यः पतञ्जलिः व्याकरणशास्त्रस्य उपरिनिर्दिष्टानि प्रयोजनानि वर्णयन्‌ 'चत्वारि श्रृङ्गाः' „चत्वारि वाक्‌, 'उतत्वः', 'सक्तुमिव', 'सुदेवोऽसि' - इत्येतत्‌ मन्त्रपञ्चकम्‌ उद्धरति स्म।" उन अनुवृति पदों से यहाँ लिङग के व्यत्ययसे असर्वनामस्थान यह रूप प्राप्त होता है।,तच्च अनुवर्तमानं पदमत्र लिङ्गविपरिणामेन असर्वनामस्थाना इति रूपं लभते। "गौश्च श्वा च साववर्णश्च राट्‌ च अङ्‌ च क्रुङ्‌ च कृत्‌ च इस विग्रह करने पर इतरेतरद्वन्द्वसमास में गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङ्कृदः, उसका पञ्चमी विभक्ति में गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः बनता है।","गौश्च श्वा च साववर्णश्च राट्‌ च अङ्‌ च क्रुङ्‌ च कृत्‌ च इति विग्रहे इतरेतरद्वन्द्वसमासे गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुदः, तेभ्यः इति गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः ।" जीव तथा ब्रह्म में अविद्याकल्पित भेद होने पर भी परमार्थ रूप से अभेद में ही सभी वेदों का तात्पर्य बताया गया है।,जीवब्रह्मणोः अविद्याकल्पितभेदे सति अपि परमार्थतः अभेदे एव सर्वेषां वेदानां तात्पर्यम्‌ प्रतिपादयन्ति। यदि भाषा नहीं होती तो यह जगत अन्धकार रूपी रात से ढका रहता।,यदि भाषा न स्यात्‌ तर्हि जगदिदम्‌ अन्धतमसि मज्जेत्‌। """स्वतिभ्यामेव"" से ही भाष्य बल से सु अति इन दोनों उपसर्गों का पूजन अर्थ का ही ग्रहण सूत्र में किया गया है।","""स्वतिभ्यामेव"" इति भाष्येष्टिबलेन सु अति इत्युपसर्गद्वयस्य पूजनार्थस्यैव सूत्रे ग्रहणम्‌।" यहाँ कृष्ण: च असौ सर्पः च इति (कृष्ण है जो सर्प) काला है जो साँप इस लौकिक विग्रह में सर्पजाति विशेष वाचक बोध के अभाव से कृष्ण सर्पः अविग्रह नित्य समास है।,अत्र कृष्णश्चासौ सर्पश्चेति लौकिकविग्रहेन सर्पजातिविशेषवाचकस्य बोधाभावात्‌ कृष्णसर्पः इत्यविग्रहो नित्यसमासः। क) तैत्तिरीयोपनिषद्‌ में ख) कठोपनिषद्‌ में ग) बृहदारण्योकोपनिषद्‌ में घ) छान्दोग्योपनिषद्‌ में किस उपनिषद में आकाश प्रमुख को सृष्टि प्रतिपादित की गई है?,क) तैत्तिरीयोपनिषदि ख) कठोपनिषदि ग) बृहदारण्यकोपनिषदि घ) छान्दोग्योपनिषदि कस्यामुपनिषदि आकाश प्रमुखा सृष्टिः प्रतिपाद्यते। उस समय इस इन्द्र ने इस माता के नीचे वाले भाग में वृत्र के ऊपर मारने की इच्छा से प्रहार किया।,तदानीम्‌ अयम्‌ इन्द्रः अस्याः मातुः अव अधोभागे वृत्रस्योपरि वधः हननसाधनमायुधं जभार प्रहृतवान्‌। इस प्रकार से जो कृतक होते हैं वे अनित्य होते हैं इस न्याय के अनुसार काम्यफल अनित्य होते हैं।,एवञ्च यत्‌ कृतकं तदनित्यम्‌ इति न्यायात्‌ काम्यफलमनित्यम्‌। पट में जैसे ओतप्रोतरूप से धागे विद्यमान रहते है वैसे ही जिस मन में सभी पदार्थ विषयक ज्ञान निहित है उस प्रकार का मेरा मन शुभसङ्कल्पयुक्त हो।,पटे यथा ओतप्रोतरूपेण तन्तवः विद्यन्ते तथा यस्मिन्‌ मनसि सर्वपदार्थविषयकं ज्ञानं निहितमस्ति तादृशं मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु। "सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ हन्त इससे युक्त है, प्रविश यहाँ तिङन्त पद है।",सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र हन्त इत्यनेन युक्तम्‌ अस्ति प्रविश इति तिङन्तं पदम्‌। निष्क्रियात्मस्वरूप के द्वारा अवस्थान इस प्रकार से कर्म करना ही कर्मयोग कहलाता है।,निष्क्रियात्मस्वरूपेण अवस्थानम्‌। एतत्कर्मकरणम्‌ एव कर्मयोगः कथ्यते। कर्म फल को देने मे नियत होते हैं।,कर्माणि फलदाने नियतानि सन्ति। द्युलोक-अन्तरिक्षलोक-पृथ्वीलोक मिलकर के भी उतना यश प्राप्त नहीं कर सकते जितना यश इन्द्र का है।,द्युलोक-अन्तरिक्षलोक-पृथ्वीलोकाः मिलित्वा अपि तावद्‌ यशः न प्राप्तवन्तः यावदिन्द्रस्य विद्यते। ब्रह्म के अवयव भूत या ब्रह्मपुरुष के पुत्र के लिए।,ब्रह्मावयवभूताय ब्रह्मपुरुषापत्याय वा।। उससे कर्ता और करण में विद्यमान तृतीयान्त सुबन्तः को समास होता है यही अर्थ है।,तेन कर्तरि करणे च विद्यमानं तृतीयान्तं सुबन्तमित्यर्थः। सम्पूर्ण साधनों का विभाजन करके विविध पाठ रचनाएँ को गई हैं।,समग्रस्यापि साधनस्य विभाजनं कृत्वा विविधपाठरचना कृतास्ति। "कर्म तीन प्रकार के होते हैं प्रारब्ध, क्रियमाण तथा संचित होता हैं ।","कर्म त्रिविधं - प्रारब्धं, क्रियमाणं सञ्चितञ्चेति।" एकवर्जम्‌ यह भी प्रथमान्त पद है।,एकवर्जम्‌ इत्यपि प्रथमान्तं पदम्‌। 4 लब्धाधिकार मुमुक्षु को किस प्रकार से ब्रह्म का अन्वेषण करना चाहिए?,4. लब्धाधिकारः मुमुक्षुः कथं ब्रह्मान्वेषणं कुर्यात्‌। "हृदय में, सिर में और कण्ठ में तीन जगह से बंधा हुआ बैल शब्द करता है।",उरसि शिरसि कण्ठे च त्रिधा बद्धो वृषभः रोरवीति। कतर शब्द आद्युदात्त है अथवा अन्तोदात्त है?,कतरशब्दः आद्युदात्तः अन्तोदात्तः वा? "सूत्र का अर्थ- आचार्य है अप्रधान जिसका, ऐसा जो अन्तेवासी, उसको कहने वाले शब्द के परे रहते भी दिशा अर्थ में प्रयुक्त होने वाले पूर्वपद शब्द को अन्तोदात्त होता है।",आचार्योपसर्जनान्तेवासिवाचिनि उत्तरपदे दिक्छब्दाः पूर्वपदानि अन्तोदात्तानि भवन्ति। इन्द्र के साथ मित्रता के होने से मरुद्गण भी इसके मित्र थे।,इन्द्रेण सह मित्रतायाः सत्त्वात्‌ मरुद्गणा अपि अस्य मित्राणि आसन्‌। “दिशावाचक और संख्यावाचक सुबन्त को समानाधिकरण से सुबन्त के साथ संज्ञा में गम्यमान होने पर तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।,"""दिशावाचकं संख्यावाचकं च सुबन्तं समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह संज्ञायां गम्यमानायामेव तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति"" इति।" ऋग्वेद में देव कैसे असुर कहलाते है?,ऋग्वेदे देवाः कथम्‌ असुराः इत्युच्यन्ते? इसलिए ही अग्ने यह प्रयोग सिद्ध होता है।,अत एव अग्ने इति प्रयोगः सिध्यति। ईश्वरप्रणिधान के द्वारा आत्मज्ञान होता है।,ईश्वरप्रणिधानेन आत्मज्ञानं भवति। इन पाँचों कोशों के द्वारा आत्मा ढकी हुई रहती है।,एतैः पञ्चभिः कौशैः आत्मा आवृतो वर्तते। इसलिए इन तीनों पदों की 'सामन्त्रितम्‌' इस सूत्र से आमन्त्रित संज्ञा होती है।,अतः एतेषां त्रयाणां पदानां 'सामन्त्रितम्‌' इति सूत्रेण आमन्त्रितसंज्ञा भवति। विवेक चूडामणी में भी कहा है कि- विरज्य विषयव्राताद दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः।,विवेकचूडामणौ अपि उक्तम्‌ - विरज्य विषयव्रताद् दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः। व्याकरण शास्त्र तो अत्यंत प्राचीन शास्त्र है।,व्याकरणशास्त्रं तु नितरां प्राचीनशास्त्रम्‌ अस्ति। ऋग्वेद में ऋक्‌ मन्त्रों की गणना भी एक कठिन समस्या है।,ऋग्वेदे ऋक् मन्त्राणां गणना अपि एका विषमैव समस्या वर्तते। दुर्मदः - दुष्टः मदः यस्य सः यहाँ पर बहुव्रीहि समास है।,दुर्मदः - दुष्टः मदः यस्य सः इति बहुव्रीहिसमासः। और यह माष- शब्द धान्यवाची (धान का पर्यायवाची )।,किञ्च अयं माष- शब्दः धान्यवाची। इस सूत्र से स्वरित स्वर का निषेध होता है।,अनेन सूत्रेण स्वरितस्वरस्य निषेधो भवति। वेदादि शास्त्रों के ज्ञान से आचरण से स्वर्गादि अनित्य कर्मजन्यत्व की प्राप्ति होती है इसमें श्रुति तथा स्मृति प्रमाण रूप में है।,वेदादिशास्त्रतः ज्ञायमानः स्वर्गादिः अनित्यः कर्मजन्यत्वात्‌ इत्यत्र श्रुतिस्मृतिवचनानि प्रमाणत्वेन सन्ति। यहाँ पर योगशब्द के अर्थ मोक्षलाभ के लिए जो निर्दिष्ट साधन मार्ग है तथा जो मार्ग परमात्मा के साथ जीवात्मा को जोडता है उसका वर्णन हें।,"अत्र योगशब्दस्य अर्थः मोक्षलाभाय निर्दिष्टः साधनमार्गः, यः मार्गः परमात्मना सह जीवात्मानं संयुनक्ति।" श्रवणादि भी नहीं करे।,श्रवणादिमपि न कुर्यात्‌। सूत्र का अर्थ - यत परक ही परक तथा तु परक तिङन्त को छन्द विषय में अनुदात्त नहीं होता है।,सूत्रार्थः - यद्धितुपरं तिङन्तं छन्दसि विषये अनुदात्तं न भवति। उस प्रजापति में ही स्वकारण भूत समस्त विश्व और पंचभूत रहते हैं।,तस्मिन्‌ प्रजापतौ हि एव स्वकारणभूते एव विश्वा विश्वानि भुवनानि भूतानि तस्थुः तिष्ठन्ति।। इसलिए महावाक्य सुनने के बाद भी उसे जीवब्रह्म के ऐक्य का ज्ञान नहीं होता है।,अत एव महावाक्यश्रवणोत्तरमपि जीवब्रह्मैक्यज्ञानं नोत्पद्यते। 36. कर्तृलक्षण कोश कौन-सा है?,"३६. कर्तृलक्षणः अयं कोशः, कः ?" 37. तत्पुरुषसमासलक्षण में प्रायेण पद किसलिए लिया गया है?,३७. तत्पुरुषसमासलक्षणे प्रायेण इति पदं किमर्थम्‌? इसलिए सबसे पहले निदिध्यासन के स्वरूप का आलोचन किया जा रहा है।,अतः आदौ निदिध्यासनस्वरूपम्‌ आलोच्यते। धातु और प्रतिपदिक का समासपद “धातु प्रातिपदिके” है।,"धातुश्च प्रातिपदिकं च धातुप्रातिपदिके," फिर भी वह यह सोचता हैं की में बद्ध हूँ इसलिए वह बद्ध होता है।,तथापि यः चिन्तयति बद्धोऽस्मि इति स एव बद्धः अस्ति। "जैसे पुरुष मोम की मूर्ति को देखता हुआ उसके मोम मूर्ति के मात्र स्वरूप को ही देखता है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता भी जगत्‌ को देखता हुआ भी ब्रह्म स्वरूप को ही देखता है।","यथा पुरुषः सिक्थमूर्ति पश्यन्‌ तस्याः सिक्थपिण्डमात्रस्वरूपतामपि पश्यति, तद्वत्‌ ब्रह्मविदपि जगत्‌ सर्वं पश्यन्नपि ब्रह्मस्वरूपतामपि पश्यति।" योगसूत्र में पतञ्जलि ने कहा है- “देशबन्धश्चित्तस्य धारणा” इति।,योगसूत्रे पतञ्जलिना सूत्रितं - “देशबन्धश्चित्तस्य धारणा” इति। 2 आत्यन्तिक दुःख की निवृत्ति तथा परमान्द की प्राप्ति मोक्ष कहलाती है।,२. आत्यन्तिकदुःखनिवृत्तिः परमानन्दप्राप्तिश्च मोक्षः। इस अक्षसूक्त में उस द्यूत के विषय में तथा उससे मनुष्यों को कैसे छुडाये इस विषय में कहा गया है।,अस्मिन्‌ अक्षसूक्ते तस्य द्यूतस्य विषये तथा तस्मात्‌ जनानां विमुक्तिविषये उच्यते । आपः - अप्‌ इस प्रातिपदिक का प्रथमान्त बहुवचनान्त रूप है।,आपः- अप्‌ इति प्रातिपदिकस्य प्रथमान्तस्य बहुवचनान्तं रूपम्‌। यहाँ तक्षकस्य इस षष्ठयन्त का सुबन्त का षष्ठयन्त से सर्पस्य इस सुबन्त से प्राप्त षष्ठी समास समानाधिकरण से प्रकृत सूजेण से निषेध होता है।,अत्र तक्षकस्येति षष्ठ्यन्तस्य सुबन्तस्य षष्ठ्यन्तेन सर्पस्येति सुबन्तेन प्राप्तः षष्ठीसमासः समानाधिकरणत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण निषिध्यते। अन्य मतानुसार अद्वितीयब्रह्मविषयिणी निरवच्छिन्न चित्तवृत्ति के उत्पन्न होने पर वह सविकल्पक समाधि कहलाती हे।,"किञ्च, अद्वितीयब्रह्मविषयिणी निरवच्छिन्ना चित्तवृत्तिरुदेति स सविकल्पकः समाधिः।" इस शङ्का के होने पर सिद्धान्त पक्ष का कथन है की इन वाक्यों की भी आवश्यकता है।,एवं शङ्कायां सत्यां सिद्धान्तपक्षस्य कथनम्‌ अस्ति यद्‌ एतेषां वाक्यनाम्‌ अपि उपादेयता वर्त्तते। सहस्रपात्‌ = असंख्य चरणयुक्त । पादग्रहण यहां कर्मेन्द्रियों का उपलक्षक है।,"सहस्रपात्‌= असंख्यातचरणयुक्तः, विद्यते इति शेषः।पादग्रहणम्‌ अत्र कर्मेन्द्रियोपलक्षकम्‌।" भारतवर्ष आध्यात्मिकता की भूमि है।,भारतवर्ष हि आध्यात्मिकतायाः भूमिः। अच्छन्‌ यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,अच्छन्‌ इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌ ? वह असत्यभूत सर्पाकार में परिणित होती है तब उस असत्य वस्तु का निरास हो जाता है।,"सः असत्यभूतसर्पाकारेण परिणतः, तस्य असत्यवस्तुनः निरासः।" कर्माणि - कर्मशब्द का द्वितीयाबहुवचन में।,कर्माणि - कर्मशब्दस्य द्वितीयाबहुवचनम्‌। इन्द्रश्‍च वरुणश्च यह यहाँ विग्रह है।,इन्द्रश्च वरुणश्च इति अत्र विग्रहः। प्रकाशित होता है यह अर्थ है।,आलोकयतीत्यर्थः। अतः उसके अनुरोध से भूतशब्द का ही पूर्व प्रयोग किया जाता है।,अतः तदनुरोधेन भूतशब्दस्यैव पूर्व प्रयोगः क्रियते। गिरिक्षिते - क्षि निवासे इस धातु से क्विप्‌ प्रत्यय करने पर।,गिरिक्षिते - क्षि निवासे इति धातोः क्विप्‌ प्रत्ययः। ऋचाओं में कितने शब्द है?,ऋचां कति शब्दाः सन्ति? श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ इसमें श्री कौन है और किसकी पत्नी है?,श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ इति अत्र का श्रीः। कस्य पत्न्यौ। पादेन्द्रय के बिना गमन क्रिया सम्भव नहीं है।,पद्भ्यां विना क्रमित्वा देशान्तरं प्रति गन्तुं न शक्नोति। सहस्रार चक्र मस्तिक में होता है।,सहस्रारः मस्तके। टिप्पणी - सूपायनः - सु+उप+इण्‌ गतौ इस धातु से ल्युट्-प्रत्यय के योग से सूपायन शब्द निष्पन्न होता है।,टिप्पणी - सूपायनः - सु+उप+इण्‌ गतौ इति धातोः ल्युट्-प्रत्यययोगेन सूपायनशब्दः निष्पद्यते। एकादश मन्त्र में इन्द्र ने वृत्र द्वारा अवरुद्ध किये जल को कैसे प्रकाशित किया इस विषय में कहा गया है।,एकादशे मन्त्रे उक्तम्‌ इन्द्रः वृत्रेण आबद्धं जलं कथं प्रकाशितवान्‌। सर्वकर्मनाशकत्व होने पर भी ज्ञान से प्रारब्ध का नाश क्यों नहीं होता है।,सर्वकर्मनाशकत्वेऽपि ज्ञानस्य प्रारब्धनाशकत्वं कुतो नेति । लेकिन वास्तविक दृष्टि से जीवन्मुक्त स्वयं का भोजन औरों को देता है।,जीवन्मुक्तः स्वस्य भोजनम्‌ अपरस्मै ददाति। विशेष- कर्मधारय समास में ही इस सूत्र से प्रकृतिस्वर का विधान है।,विशेषः- कर्मधारयसमासे एव अनेन सूत्रेण प्रकृतिस्वरः विधीयते। तब राजत्‌ इसका ईशान का शासनकर्ता यह अर्थ है।,तदा राजत्‌ इत्यस्य ईशान शासनकर्ता इत्यर्थः। सायण के ऋग्वेद भाष्य भूमिका में कहा है - “स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षेति।,सायणस्य ऋग्वेदभाष्यभूमिकायाम्‌ उक्तम्‌ - 'स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षेति।' अलङकृत वर्णन में प्रकृति का तथा उसके व्यापारों का मानवीकरण होता है।,अलङ्कृतवर्णने प्रकृत्याः तथा तस्याः व्यापाराणां मानवीकरणं भवति। माया द्वारा प्रपञ्च रूप से उत्पन्न होता है।,मायया प्रपञ्चरूपेण उत्पद्यते। दविषाणि - दिव्‌-धातु से लेट उत्तमपुरुष एकवचन में।,दविषाणि - दिव्‌-धातोः लेटि उत्तमपुरुषैकवचने । उससे विश्वकर्मा ने गर्जना करने वाले वज्र का निर्माण किया।,तस्मात्‌ विश्वकर्मा गर्जनं कुर्वन्तं वज्रं निर्मितवान्‌। इन्द्र अग्नि आदि सभी देव ब्रह्म के ही विवर्त रूप होते है।,इन्द्राग्न्यादयः सर्वे देवा ब्रह्मणः एव विवर्तरूपाः भवन्ति। तो कहते है की नीर तथा क्षीर समान गौण एवं घटाकाश तथा पटाकाश के समान मुख्य।,नीरक्षीरवत्‌ गौणं वा घटाकाशपटाकाशवत्‌ मुख्यं वा। पदविधि यह प्रथमा विभक्ति एकवचनान्त पद है।,पदविधिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। उदात्त उदात्त के स्थान में एकादेश होता है तो आन्तरतम्य से ही उदात्त की प्राप्ति होती है।,उदात्तोदात्तयोः स्थाने एकादेशः भवति चेत्‌ आन्तरतम्यादेव उदात्तस्य प्राप्तिः भवति। अग्निप्रज्वलक पुरुष के हाथ की दश अङ्गुली से ही अग्नि को धारण करने वाली ये दश धारण करने वाली धायीमाता है।,अग्निप्रज्वालकस्य पुंसो दशहस्ताङ्गुलयो हि वह्नेः दश धातृमातरः। “समाहारे चापामिथ्यते'' इस सूत्रस्थ वार्तिक बल से।,"""समाहारे चायमिष्यते"" इति सूत्रस्थवार्तिकबलेन।" और यजुर्वेद के शुक्लकृष्णभेद से दो प्रकार का है।,यजुर्वेदश्च शुक्लकृष्णभेदेन द्विविधः। आरण्यक का सामान्य परिचय आरण्यक और उपनिषद्‌ ब्राह्मणों के परिशिष्ट ग्रन्थ के समान होते हैं।,आरण्यकस्य सामान्यपरिचयः आरण्यकोपनिषदौ ब्राह्मणानां परिशिष्टग्र्थसमानौ भवतः। "शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, और ज्योतिष।","शिक्षा, कल्पः, व्याकरणं, छन्दः, निरुक्तं, ज्योतिषं च।" विद्यारण्य स्वामी पञ्चदशी में कहतें है कि “स्वप्रकाशापरोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम्‌।,विद्यारण्यस्वामिनः पञ्चदश्यां वदन्ति यत्‌ -“स्वप्रकाशापरोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम्‌। "कुछ मानसिक भावना से, और मानसिक वृत्ति के प्रतिनिधि स्वरूप नये देवों की कल्पना की है।","कतिपये मानसिकभावनायाः, मानसिकवृत्तेश्च प्रतिनिधिस्वरूपाः अभिनवाः देवाः कल्पिताः।" अतः वह देवों के द्वारा दूतरूप में लगाई गई और मनुष्यों के द्वारा दी हवि को लेकर के जाना है।,अत एव स देवैः दूतत्वेन मनुष्यैश्च हविर्वाहकत्वेन नियोजितः। उसका भाव मुमुक्षुत्व होता है।,तस्य भावो मुमुक्षुत्वम्‌। वहाँ पर कारण है आत्मा का गूढ रूप होना।,तत्र कारणं भवति आत्मा गूढरूपेण वर्तते। "इस याग में चार पुरोहित होते हैं - होता, अधवर्यु, अग्नीश्र, और ब्रह्मा।","अस्मिन्‌ यागे चत्वारः पुरोहिताः अपेक्षन्ते - होता, अध्वर्युः, अग्नीध्रः,ब्रह्मा चेति।" और उत्तरपद क्त प्रत्ययान्त है।,उत्तरपदं च क्तप्रत्ययान्तम्‌। "देवों ने उस दहीमिश्रित घी से वायव्य, आरण्य और ग्राम्य पशुओं को उत्पन्न किया।",तेन सम्भृतेन पृषदाज्येन वायव्यान्‌ आरण्यान्‌ ग्राम्यान्‌ च पशून्‌ ते देवा उत्पादितवन्तः। शुक्लयजुर्वेद-शिवसङ्कल्पसूक्त में मन के स्वरूप विषय को प्राप्त करते हैं।,शुक्लयजुर्वेदीय-शिवसङ्कल्पसूक्ते मनसः स्वरूपविषये प्राप्यते। अतः प्रकृत वार्तिक से उस नामवाचक स्यान्त पद के उपोत्तमस्य अर्थात्‌ अन्त्य से पूर्व का उदात्त स्वर करने का विधान है।,अतः प्रकृतवार्तिकेन तस्य नामवाचकस्य स्यान्तस्य पदस्य उपोत्तमस्य अर्थात्‌ अन्त्यात्‌ पूर्वस्य उदात्तस्वरः विधीयते। वेदान्ततत्व के श्रवण मनन तथा निदिध्यासन के द्वारा ही तत्वज्ञान उत्पन्न होता है।,वेदान्ततत्त्वस्य श्रवण-मनन-निदिध्यासनेन एव तत्त्वज्ञानं जायते। दूसरे प्रपाठक के आदि तीन अध्यायों में किसका वर्णन है?,द्वितीयप्रपाठकस्य आदिमेषु त्रिषु अध्यायेषु कस्य वर्णनम्‌ अस्ति? समासान्त अप्रत्यय।,समासान्तः अप्रत्ययः। काम्य कर्मो को फल की भावना से करने पर वे अपने फल को देने को लिए फिर से देह धारण करवाते हैं।,काम्यानि फलाशया कृतानि चेत्‌ तज्जन्यफलभोगाय पुनः देहधारणम्‌ आपपति। "मानवों के सामान्यतः एक शिर, लोचन युगल तथा पादयुगल होते है, परन्तु इस पुरुष के सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सर्वत्र विचरणशील होने से अनेक विशिष्टताए है।","मानवानां सामान्यतः एकं शिरः, लोचनयुगलं तथा पादयुगलं च वर्तन्ते, परन्तु अस्य पुरुषस्य सर्वव्यापित्वात्‌ सर्वज्ञत्वात्‌ तथा सर्वत्र विचरणशीलत्वाच्च महती विशिष्टता वर्तते।" परम पुरुषार्थ चारों के उत्पत्ति वर्णन का उल्लेख तो पुरुष सूक्त में ही उपलब्ध होता है।,परमपुरुषेण चतुर्णा वर्णानामुत्पेत्तेरुल्लेखः तु पुरुषसूक्ते एवोपलब्धो भवति। बभ्रु आदिरूप विशिष्ट स्थिर इन्द्र के द्वारा रक्षित अत्यन्त विस्तृत पृथ्वी अपराजय हिसा रहित और विनाशरहित होकर रहें।,बभ्रु आदिरूपविशिष्टा स्थिरा इन्द्रेण रक्षिता सुविस्तृता पृथिवी अपराजिता अहिंसिता नाशरहिता भवन्ती प्रतिष्ठतु। अवनेग्यमुदकमाजदह्लर्यथेदं पाणिभ्यामवनेजनायाहरन्त्येवं तस्यावनेनिजानस्य मत्स्यः पाणी आपेदे॥ १॥,अवनेग्यमुदकमाजदहर्यथेदं पाणिभ्यामवनेजनायाहरन्त्येवं तस्यावनेनिजानस्य मत्स्यः पाणी आपेदे ॥ १॥ उत्पन्न होने से पहले ही उसने स्वयं ही देव और मनुष्यरूप में पृथक कर दिया।,उत्पन्नात्‌ परमेव स स्वयमेव देवमनुष्यरूपेण पृथक्कृतवान्‌। इसलिये अदिति अखण्डनीय भूमि को और दिति खण्डित प्रजादि को देखो।,अतः अस्माद्धेतोः अदितिम्‌ अखण्डनीयां भूमिं दितिं खण्डितां प्रजादिकां च चक्षाथे पश्यथः। यहाँ नञ्‌ तत्पुरुषसमास है।,अत्र नञ्तत्पुरुषसमासः अस्ति। त्रयोदश मन्त्र में इन्द्र वृत्र के युद्धविषय में कहा गया।,त्रयोदशे मन्त्रे इन्द्रवृत्रयोः युद्धविषये उक्तम्‌। वह कभी स्मित मुख वाली कुमारी के समान दर्शकों के हदय को आकृष्ट करती है।,सा कदाचित्‌ स्मितवदना कुमारी इव दर्शकानां हृदयम्‌ आकृष्टं करोति। फिर भी कोई योग्यता आवश्यक है।,तत्रापि काचित्‌ योग्यता आवश्यकी। सूत्र अर्थ का समन्वय- बह्वरत्निः- बहवः अरत्नयः प्रमाणम्‌ अस्य इस विग्रह में तद्धित अर्थ में तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च इस सूत्र से द्विगुसमास करने पर बह्वरत्निः यह रूप बनता है।,सूत्रार्थसमन्वयः- बह्वरत्निः- बहवः अरत्नयः प्रमाणम्‌ अस्य इति विग्रहे तद्धितार्थ तद्धितार्थात्तरपदसमाहारे च इति सूत्रेण द्विगुसमासे बह्वरत्निः इति रूपम्‌। 10. जन्‌-धातु से लिट्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में।,10. जन्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने। तथा अविद्या परिणाम रूप वृत्ति आनन्दमय कोश कहलाती है।,अविद्यापरिणामरूपा वृत्तिः आनन्दमयश्च। यहाँ किम्‌ अव्यय पद है।,अत्र किम्‌ इति अव्ययम्‌ सभी आनन्द का हेतु कौन है?,सर्वस्यापि आनन्दस्य हेतुः कः? "ब्राह्मण ग्रन्थों में विधि ही उसका केन्द्र बिन्दु है, जिसके चारो और निरुक्त, स्तुति, आख्यान, हेतु, वचन आदि विविध विषय अपने अपने आवर्त्तन को पूर्ण करते है।","ब्राह्मणग्रन्थेषु विधिः एव तत्केन्द्रबिन्दुः अस्ति, यं परितः निरुक्त, स्तुति, आख्यान, हेतु, वचनादयः विविधाः विषयाः स्वं स्वम्‌ आवर्त्तनं सम्पूरयन्ति।" इस सूत्र से “तत्पुरुष'' इस सूत्र से पहले तक जो सूत्र हैं उनसे विहित समास अव्ययीभावसंज्ञक होता है।,"एतस्मात्‌ सूत्रात्‌ ""तत्पुरुषः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्प्राक्‌ पर्यन्तं यानि सूत्राणि सन्ति तैः विहितः समासः अव्ययीभावसंज्ञको भवति।" इस प्रकार तर्कविदों ने कहा है।,इति तर्कविदः॥ """एकदेशविकृतमनन्यवत्‌"" इस न्याय से कृष्णश्रित शब्द के प्रातिपदिक आक्षय से इसके बाद “प्रथमा एकवचन विवक्षा में सु प्रत्यय होने पर कृष्णश्रित सु स्थिति होती है।","""एकदेशविकृतमनन्यवत्‌"" इति न्यायेन कृष्णश्रितशब्दस्य प्रातिपदिकत्वस्याक्षयात्‌ ततः प्रथमैकवचनविवक्षायां सौ कृष्णश्रित सु इति भवति।" सूत्र का अर्थ- अक्षर अक्षर को क्रम से उदात्त होता है।,सूत्रार्थः- अक्षरमक्षरं पर्यायेणोदात्तम्‌। 14. जृम्भणकारण वायु कौन-सी होती है?,जृम्भणकरः वायुः कः। (यजु ३४/६ ) पैंतीसवें अध्याय में पितृमेध यज्ञ सम्बन्धि मन्त्र सङ्कलित है।,(यजुः ३४/६) पञ्चत्रिंशदध्याये पितृमेधयज्ञसम्बन्धिमन्त्राः सङ्कलिताः। सप्तास्यासन्‌ परिधयस्त्रि ... इस प्रतीकरूप में उद्धृत मन्त्र को सम्पूर्ण लिखकर व्याख्या करो।,सप्तास्यासन्‌ परिधयस्त्रि... इति प्रतीकोद्धृतम्‌ मन्त्रं सम्पूर्णम्‌ उद्धृत्य व्याख्यात। फिर किसलिए दो प्रकार कल्पित है इस प्रकार की आशङ्का नहीं करनी चाहिए।,पुनः किमर्थं द्विधा कल्पनमिति नाशङ्कनीयम्‌। 36. “तत्पुरुष समास का लक्षण क्या है?,३६. तत्पुरुषसमासस्य लक्षणं किम्‌? क्योंकि रागादि बाह्यविषयक होते हैं वे अखण्डवस्तु की प्राप्ति में सहायक नहीं होते है।,"यतो हि रागादयो हि बाह्यविषयप्रापिकाः, अखण्डवस्तुप्रापणे न ते सहायका भवन्ति।" यदि भुज्यग्निहोत्रादिक्रिया के समान हो तो भी नहीं।,भुज्यग्निहोत्रादिक्रियावत्‌ स्यात्‌ इति चेत्‌ न। तब उस जल से मैं तुम्हे पार उतारूंगी।,"ततः औघात्‌ अहं भवन्तं पारयिष्यामि "" इति।" उदाहरण - आगच्छ देव ग्रामं द्रक्ष्यसि एनम्‌ यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- आगच्छ देव ग्रामं द्रक्ष्यसि एनम्‌ इति अस्य सूत्रस्य एकमुदाहरणम्‌ । चक्रिरे - कृञ्‌ करणे इस धातु से लिट्-लकारप्रथमपुरुष बहुवचन का यह रूप हेै।,चक्रिरे - कृञ्‌ करणे इति धातोः लिट्‌-लकारस्य प्रथमपुरुषस्य बहुवचने रूपम्‌ इदम्‌। यह स्मृति ही जीवन्मुक्तावस्था में प्रमाण होती है।,एषा स्मृतिः जीवन्मुक्तावस्थायां प्रमाणम्‌। "“'प्राक्कडारात्समासः'', ““सहसुपा'', “तत्पुरुषः” ये तीन सूत्र अधिकृत (अधिकार) हैं।",""" प्राक्कडारात्समासः"", ""सह सुपा"", ""तत्पुरुषः "" इति सूत्रत्रयमधिकृतम्‌ ।" पुनः यहाँ बहुव्रीहि समास भी है।,पुनः अत्र बहुव्रीहिसमासः अपि अस्ति। आत्मा निष्क्रिय तथा अपरिच्छिन्न होता है।,आत्मा निष्क्रियः अपरिच्छन्नश्च। अन्य लौकिक बन्धु बन्धु नहीं होते हैं।,अन्यो लौकिको बन्धुस्तु न बन्धुः। भारतीय वैदिक धर्म ग्रन्थ और दर्शन यह ही प्रस्थानत्रय का अवलम्बन करते है।,भारतीया वैदिकधर्मग्रन्था दर्शनानि च इदमेव प्रस्थानत्रयम्‌ अवलम्बन्ते। "जिस पदार्थ में जहल्‌ लक्षणा स्वीकार की जाती है, उस लक्षणा के द्वारा श्रुत पदार्थ का ज्ञान अपेक्षित नहीं होता है।",यस्मिन्‌ पदार्थे जहल्लक्षणा स्वीक्रियेत। लक्षणया श्रुतस्य पदार्थस्य ज्ञानं न अपेक्षितम्‌। इस प्रकार जठराग्नि अङिगरा होती है।,इत्थं जठराग्निः अङ्गिराः भवति। ममेथ - मिथ्‌-धातु से लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,ममेथ-मिथ्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। जो पुरुष जाग्रत काल में भी सुषुप्त की तरह ही देखता है।,यः पुरुषः सुषुप्तवत्‌ पश्यति जाग्रत्कालम्‌। ब्रह्म के प्रतिपादन के लिए पञ्चकोशों की कल्पना की गई है।,ब्रह्मप्रतिपादनार्थं भवति पञ्चानां कोशानां कल्पनम्‌। इत्यादि रूप के द्वारा वह तादात्म्याध्यास तथा विपरीत भावना कहलाती है।,इत्यादिरूपेण तादात्म्याध्यासः विपरीतभावना कथ्यते। “दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌” इस सूत्र का संख्या वाचक से समास में क्या उदाहरण है?,"""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" इति सूत्रस्य संख्यावाचकेन समासे किमुदाहरणम्‌?" "सरलार्थ - हे मित्रावरुण यज्ञभूमि में उस यजमान की मध्यभाग में रक्षा करते हो, उस स्तुति करने वाले यजमान के प्रति उदार हाथ से उसके पालनकारी हो।","सरलार्थः- हे मित्रावरुणौ युवां यं यजमानं यज्ञभूमेः मध्यभागे रक्षथः, तं स्तुतिकारिणं यजमानं प्रति अकृपणहस्तौ तस्य पालनकारिणौ भवताम्‌।" वायु के शोधनसे सभी के आरोग्य वर्धन का अवसर प्राप्त होता है।,वायोः शोधनेन सर्वेषाम्‌ आरोग्यवर्धनस्य अवसरः प्राप्यते। यह व्याकरण ग्रन्थ रूप में था इसके भी प्रमाण प्राप्त होते हैं।,व्याकरणमिदं ग्रन्थरूपे आसीत्‌ इत्यस्य अपि प्रमाणं प्राप्यते एव। इस भाष्य का नाम - निघण्टु-निर्वचनम्‌ इस प्रकार है।,अस्य भाष्यस्य नाम - निघण्टु-निर्वचनम्‌ इति अस्ति। "जैसे श्रृंगार रस हमारे मन को प्रसन्न कर सकता है, वैसे अन्य रस प्रभावित नहीं कर सकते।",यथा शृङ्गाररसः अस्माकं मनः मोदयितुं शक्नोति तथा अन्ये रसाः कर्तु न प्रभवन्ति। क्योंकि कहा भी है - “य आत्मदा बलदा ।,तथाहि आम्नातं- 'य आत्मदा बलदा'। "यहाँ प्रमाण ""संख्यापूर्वो द्विगुः"" है।","अत्र प्रमाणं ""संख्यापूर्वो द्विगुः"" इति सूत्रम्‌।" डाप्‌ प्रत्यय के अभाव में बहुयज्वन्‌ रूप बैठता है।,डाप्‌ इत्यस्य अभावे तु बहुयज्वन्‌ इत्येव रूपं तिष्ठति। उन वृत्तियों के परस्पर भेद दर्शन के लिए आकार शब्द प्रयुक्त हुआ है।,तासां वृत्तीनां परस्परं भेददर्शनार्थम्‌ आकारशब्दः प्रयुक्तः। लेकिन विज्ञानमय उन सभी को अहंता ममता की चिन्ता के द्वारा स्वयं में चिन्तन करता है।,किन्तु विज्ञानमयः तत्सर्वम्‌ अहन्ताममताचिन्तया स्वीयमिति चिन्तयति। "जहाँ विद्वान मुक्ति को प्राप्त करते है, वहा कुछ भी अन्धकार नही है, और मोक्ष प्राप्त किरने प्रकाशित होती है उस विद्वान को ही मुक्तिपद ब्रह्म सभी और से प्रकाशित करते है।",यत्र विद्वांसो मुक्तिं प्राप्नुवन्ति तत्र किञ्चिदप्यन्धकारो नास्ति प्राप्तमोक्षाश्च भास्वरा भवन्ति तदेवाप्तानां मुक्तिपदं ब्रह्म सर्वप्रकाशकमस्तीति। "और स्वरित स्थान में जो यण्‌ विहित है, उस यणू से पर वर्तमान अनुदात्त के स्थान में स्वरित होता है।",स्वरितस्थाने च यः यण्‌ विहितः तस्मात्‌ यणः परं वर्तमानस्य अनुदात्तस्य स्वरितः भवति। उसी समय निवृत्त होने पर भी चक्र की भ्रम क्रिया निवृत्त नहीं होती है।,तथैव निवृत्तः भवति चेत्‌ अपि न तत्क्षणात्‌ एव चक्रस्य भ्रमक्रिया न निवृत्ता भवति। इसके बाद समास विधायक सूत्र में चतुर्थी विभक्ति के प्रथमा विभक्ति के निदिष्ट होने से उरा बोध्य के यूप ङे इसकी उपसर्जन होने पर पूर्व नियात में यूप ङे दारु सु होता है।,ततः समासविधायकसूत्रे चतुर्थी इत्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्गोध्यस्य यूप ङे इत्यस्योपसर्जनत्वात्‌ पूर्वनिपाते यूप ङे दारु सु इति भवति। यह विश्लेषण ब्राह्मण-विषयों को ही लक्ष्य करता है।,विश्लेषणमिदं ब्राह्मण-विषयान्‌ एव लक्ष्यीकरोति। घट ही अज्ञान का कार्य या अज्ञान ही है।,"घटो हि अज्ञानकार्यम्‌, अज्ञानमेव तत्‌।" जीव ब्रह्म की एकता शांख्यायन आरण्यक के किस अध्याय में वर्णित हे?,जीवब्रह्मणोः ऐक्यं शांख्यायनारण्यके कस्मिन्‌ अध्याये वर्णितमस्ति? 14. अदस्-शब्द का तृतीया एकवचन में वैदिक रूप है।,14. अदस्‌-शब्दस्य तृतीयैकवचने वैदिकं रूपम्‌। व्यदधुः - वि पूर्वक धा धातु से लङ्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप निष्पन्न होता है।,व्यदधुः- विपूर्वकात्‌ धाधातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। करोमि लौकिक रूप है।,करोमि । "व्याख्या - बुरे, पापमय मद, भोग, विलास से तृप्त रहने वाला वृत्र बिना युद्ध की इच्छा वाले इन्द्र को लड़ना न जानने वाले अकुशल के समान युद्ध में ललकारा।",व्याख्या- दुर्मदः दुष्टमदोपेतो दर्पयुक्तो वृत्रः अयोद्धेव योद्धृरहित इव इन्द्रम्‌ आ जुह्वे हि आहूतवान्‌ खलु। चौंथा लिङग है फल।,चतुर्थं लिङ्गं तावत्‌ फलम्‌। नित्यादि कर्मों के फलों के बारे में वर्णन कीजिए।,नित्यादीनां फलं संगृह्णीत। यह सोमक्रय कहलाता है।,एषः सोमक्रयः इत्युच्यते। पादाभ्याम्‌ से अपादानपञ्चम्यन्त का समास होता है।,पादाभ्यामिति अपादानपञ्चम्यन्तस्य समासः। “' अल्लोपोऽनः”' इस सूत्र से लोप के प्रथमान्त पद की अनुवृत्ति होती है।,"""अल्लोपोऽनः"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ लोपः इति प्रथमान्तं पदमनुवर्तते।" 20. “उपसर्जनं पूर्वम्‌” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"२०. ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इति सूत्रस्य कः अर्थः?" इसलिए तुम दिव्य हो।,अतः त्वं दिव्या। वह अन्तःकरणवृत्ति तद्विषयाकारा हो जाती है।,सा अन्तःकरणवृत्तिः तद्विषयाकारा इति बोध्यम्‌। स्वस्वरूप की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है।,अन्यः पन्थाः न विद्यते अयनाय गमनाय स्वरूपप्राप्तये। शाङखायन ब्राह्मण का अन्य क्या नाम है?,शाङ्खायनब्राह्मणस्य अपरं नाम किम्‌? इस प्रकृत सूत्र से लुक्‌ होता है।,तस्य अनेन प्रकृतसूत्रेण लुक्‌ भवति। "यहाँ पर त्वम्‌, इस शब्दार्थ का अपरोक्षत्वकिजिचित्‌ ज्ञत्वादि विशिष्ट चैत्यन्य का भेद व्यावृत्त होता है।",अत्र त्वम्‌ इति शब्दार्थस्य अपरोक्षत्वकिञ्चिज्ज्ञत्वादिविशिष्टस्य चैतन्यस्य भेदः व्यावृत्तः। विवेकानन्द के मत में भक्ति कितने प्रकार की होती है?,विवेकानन्दमते भक्तिः कतिधा? अतः बाद के काल में वार्तिककार ने कुछ वार्तिकों की रचना की है।,अतः परस्मिन्‌ काले वार्तिककारेण कानिचन वार्तिकानि रचितानि। "इसका यह भावजो अनादिकारण से सूर्य आदिप्रकाश के समान शीघ्र उत्पन्न करने वाला सभी के द्वारा भोग्य पदार्थो के साथ जोड़ता है आनंद प्रदान करता है, उसके गुणकर्म उपासना से ही आनन्दकी प्राप्ति होती है।",अस्य अयं भावः योऽनादिकारणात्‌ सूर्यादिप्रकाशवत्‌ क्षितीरुत्पाद्य सर्वेर्भोग्यैः पदार्थैः सह संयोज्याऽऽनन्दयति तद्गुणकर्मोपासनेनानन्दो हि सर्वर्वर्द्धनीयः। जिससे आत्म दर्शन भी नहीं करता है।,तस्मात्‌ आत्मदर्शनम्‌ अपि न करोति। "भोजन के लिए, धन के लिए अथवा भोग के लिए किसके लिए 'शिशिर॑ जीवनाय कम्‌' इतिवद्‌ पादपूरण (निरु. १.१०)।",भोजनाय धनाय भोगाय वा कम्‌ इत्ययं ' शिशिरं जीवनाय कम्‌' इतिवद्‌ पादपूरणः ( निरु . १ . १० ) । यह रीति ऋात्विजवरण कहलाती है।,इयं रीतिः ऋत्विग्वरणम्‌ इत्युच्यते। अतः प्रकृत सूत्र से भुवन शब्द को विकल्प से प्रकृति स्वर होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण भुवनशब्दस्य विकल्पेन प्रकृतिस्वरः भवति। “न निर्धारणे” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""न निर्धारणे"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" परन्तु लिङ्ग का यह लौकिक लक्षण जडपदार्थो में सम्भव नहीं है।,परन्तु लिङ्गस्य इदं लौकिकं लक्षणं जडपदार्थषु न सम्भवति। सुगीत होता है तो भी वह उसे नहीं सुनता है।,सुगीतं भवति चेदपि न शृणोति। व्याख्या - वज्र से पैर के छिन्न होने से और हाथ के छिन्न होने से हाथ रहित वृत्र ने इन्द्र को उद्दिश्य करके सेना सहित युद्ध करने की इच्छा की।,व्याख्या- अपात्‌ वज्रेण च्छिन्नत्वात्‌ पादरहितः अहस्तः हस्तरहितः वृत्रः इन्द्रम्‌ उद्दिश्य अपृतन्यत्‌ पृतनां युद्धम्‌ ऐच्छत्‌। निषिञ्च - निपूर्वक सिञ्च्-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,निषिञ्च - निपूर्वकात्‌ सिञ्च्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैवचने । “'पूर्वकालैसर्वजरत्पुरणनवकेवलाः समानाधिकरणेन” इस सूत्र से समानाधिकरण से “दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌” इस सूत्र से दिक्संख्ये की अनुवृत्ति होती है।,"""पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन"" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति ""दिक्संख्ये संज्ञायाम्‌"" इति सूत्राच्च दिक्संख्ये इत्यनुवर्तते।" उभय पदार्थ प्रधान है जहाँ वह उभयपदार्थप्रधान है।,उभयपदार्थः प्रधानो यत्र सः उभयपदार्थप्रधानः। इस प्रकार से संशय होने पर समाधान बताते हैं कि अखण्डाकार चित्तवृत्ति यहाँ आकार शब्द के स्वार्थ में तात्पर्य नहीं होता है।,एवं संशये सति समाधानं कथयति यत्‌ अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिः इत्यत्र आकारशब्दस्य स्वार्थे तात्पर्यं नास्ति। 11. लौकिक ज्ञानस्थल में ब्रह्म किस प्रकार से जाना जाता है?,११. लौकिकज्ञानस्थले कथं ब्रह्म ज्ञायते? "सात, आठ, नौ प्रपाठक में।",सप्तम -अष्टम-नवमप्रपाठकेषु। नौवें प्रपाठक तक अनुवाकों की संख्या १०७ है।,नवमप्रपाठकपर्यन्तम्‌ अनुवाकसंख्या १०७ अस्ति। श्रोत्र आदि इन्द्रियों को अपने विषय में लगाता है।,प्रवर्तितान्येव श्रोत्रादीन्द्रियाणि स्वविषये प्रवर्तन्ते। वेद में उचित है।,वेदे । इसलिए उसका प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ग्रहण नहीं होता है।,अतः प्रत्यक्षप्रमाणेन गृहीतुं न शक्यते। "न यह अव्ययपद है, अनुदात्तम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त पद इन दो की अनुवृति है।","न इति अव्ययपदम्‌, अनुदात्तम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।" जैसे वहाँ उदाहरण है - एर विश्वं समन्त्रिणं दहर इति।,तत्रोदाहरणं यथा- एर विश्वं समन्त्रिण॑ दहर इति। उसकी कोई भी द्वेष कामना नहीं रहती है।,तस्य किमपि द्वेष्यं काम्यं वा न तिष्ठति। "11.2 ) लिङऱगों का परिचय उपक्रम संहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद तथा उपपत्ति इस प्रकार से ये छह लिङग होते है।",11.2) लिङ्गानां परिचयः उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासः अपूर्वता फलम्‌ अर्थवादः उपपत्तिः चेति षड्विधानि लिङ्गानि। दाशुषे इसकी प्रकृति और प्रत्यय लिखो।,दाशुषे इत्यस्य प्रकृतिं प्रत्ययं च लिखत। दर्शशब्द का अर्थ सूर्यन्द सङ्गम अर्थात्‌ अमावस्या है।,दर्शशब्दस्य अर्थः सूर्येन्दुसङ्गमः अर्थात्‌ अमावस्या। "इसके बाद “ सुप्तिङन्तं पदम्‌'' इससे समुदाय की पद संज्ञा होने पर ""ससजुषो रुः"" इससे सकार का रुकार होने ""खरवसानयोर्विसर्जनीयः"" इस सूत्र से पदान्त के रकार का विसर्ग आदेश होने पर कृष्णश्रितः रूप सिद्ध होता है।","ततः ""सुप्तिङन्तं पदम्‌"" इत्यनेन समुदायस्य पदसंज्ञायां ""ससजुषो रुः"" इत्यनेन सस्य रुत्वे, ""खरवसानयोर्विसर्जनीयः"" इत्यनेन सूत्रेण पदान्तस्य रेफस्य विसगदिशे कृष्णश्रितः इति रूपं सिध्यति।" "विष्णु पुराण के अनुसार से पथ्य के तीन शिष्यों के नाम क्रमश जाबालि, कुमुद तथा शौनक ये तीन थी।",विष्णुपुराणानुसारेण पथ्यस्य त्रयाणां शिष्याणां नामानि क्रमशः जाबालिः कुमुदादिः तथा शौनकः इति आसीत्‌। व्याख्या - ऋषि कहते हैं- वह मेरा मन शिवसङ्कल्प हो।,व्याख्या - ऋषिर्वदति । तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु। जैसे कोई वाराणसी जाने का अधिकारी है अथवा नहीं सर्वप्रथम इसको मीमांसा करते है।,"तद्यथा कश्चित्‌ वाराणसीं गन्तुम्‌ अधिकारी, योग्यः न वा इति मीमांस्यते।" यह अत्यन्त विस्तृत और उपयोगी शिक्षा है।,अतिविस्तृता इयम्‌ उपादेया च शिक्षा अस्ति। वस्तुत: बहुवचन में युष्मद्‌-शब्द के स्थान में “बहुवचनस्य वस्नसौ' इस सूत्र से वस्‌ यह आदेश होता है।,वस्तुतः बहुवचने युष्मद्‌-शब्दस्य स्थाने 'बहुवचनस्य वस्नसौ' इति सूत्रेण वस्‌ इत्यादेशः भवति। वह मेरा मन शुभसङकल्प वाला हो।,तदेव मम मनः शुभसङ्कल्पं भवतु। "इतिथीम्‌ यह अभिनय, उससे संख्येया समान देखा।","इतिथीम्‌ इत्यभिनयः , तेन संख्येयां समां दर्शितवान्‌।" वेद: अपौरुषेय परम्परा से ही है।,वेदः अपौरुषेय इति एव परम्परा। वह दुर्वासना वासित अन्तःकरण वैराग्यादि भावों के कारण श्रवणादि से हीन होता है।,स दुर्वासनावासितान्तःकरणः वैराग्याद्यभावात्‌ श्रवणादिहीनो भवति। यही अर्थ है” गो शब्द से तत्पुरुष से समासात्त टच्‌ प्रत्यय होता है लेकिन तद्धित लोप होने पर नहीं।,"एवमर्थः समायाति - ""गोशब्दान्तात्‌ तत्पुरुषात्‌ समासान्तः टच्प्रत्ययो भवति न तु तद्धितलुकि"" इति ।" "यहाँ भाषा में आये वैशिष्ट्य को, छन्द में आये वैशिष्ट्य को और देवता में आये वैशिष्ट्य की आलोचना करते है।","अत्र भाषागतवैशिष्ट्यं, छन्दोगतवैशिष्ट्यं तथा देवतागतं च वैशिष्ट्यमालोच्यते।" रज्जु असर्पभूत होती है।,रज्जुः असर्पभूता भवति। पंचभूत और काल के प्रति कारणत्व से पुरुषमेध याजियों ने लिङग शरीर में पञ्चभूत और काल उत्पन्न किये।,भूतपञ्चकस्य कालस्य च सर्वं प्रति कारणत्वमात्‌ पुरुषमेधयाजिनो लिङ्गशरीरे पञ्चभूतानि तुष्टानि कालश्च। शास्त्रपारदर्शी को भी स्वतन्त्रता से ब्रह्मज्ञान का अन्वेषण नहीं करना चाहिए।,शास्त्रपारदर्शिभिरपि स्वतन्त्रतया ब्रह्मज्ञानस्य अन्वेषणं न करणीयम्‌। अविद्या रूप मे ही होती है इसलिए कल्पित भेद भी मिथ्या ही होता है।,अविद्या च मिथ्याभूता। अतः तया कल्पितः भेदः अपि मिथ्या एव। वह कहते है कि ईश्वर साकार भी है तथा निराकार भी है तथा वह दोनों से भिन्न भी है।,"'अरे, ईश्वरः साकारोऽपि, निराकारोऽपि, ताभ्याम्‌ अपि बहुधा भिन्नः।" "वे हैं मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा तथा सहस्रार।","मूलाधारः, स्वाधिष्ठानम्‌, मणिपुरम्‌, अनाहतः, विशुद्धः, आज्ञा, सहस्रारः इति।" "वहाँ उत्तर है की जिस वाक्य के अर्थ विषय में सन्देह का अवकाश नहीं है, जिस वाक्य के अर्थ पूर्व अज्ञात अथवा समझा नहीं होता है, जिस वाक्य के अर्थ विषय में कोई भी बाधा नहीं है, अर्थात्‌ जिस वाक्य के अर्थ किसी भी अनुभव से खण्डित नहीं होता है, उस प्रकार का वाक्य ही प्रमाणिक है।","तत्र उत्तरं हि यस्य वाक्यस्य अर्थविषये सन्देहस्य अवकाशः नास्ति, यस्य वाक्यस्य अर्थः पूर्वम्‌ अज्ञातः अनधिगतो वा अस्ति, यस्य वाक्यस्य अर्थविषये कापि बाधा नास्ति, अर्थात्‌ यस्य वाक्यस्य अर्थः केनापि अनुभवेन खण्डितो न भवति, तादृशं वाक्यम्‌ एव प्रमाणम्‌।" प्राज्ञ का स्वरूप क्या है?,प्राज्ञस्य स्वरूपं किम्‌? "कालिदास के द्वारा वशिष्ठ मुनि के लिए ` अथर्वनिधिः' इस पद का विशेषण दिया है, जिसका यह तात्पर्य है - रघुवंश उद्भव के कुलपुरोहित मुनि वशिष्ठ ने अथर्व मन्त्रों का तथा उनके क्रियाकलापो का भण्डार थे (रघु. १/५९)।","कालिदासेन वशिष्ठमुनेः कृते 'अथर्वनिधिः' इत्येवं विशेषणं दत्तम्‌, यस्य इदं तात्पर्यम्‌ अस्ति - रघुवंशोद्भवानां कुलपुरोहितः मुनिः वशिष्ठः अथर्वमन्त्राणां तथा तेषां क्रियाकलापानां च भाण्डारः आसीत्‌ (रघु. १/५९)।" 7. मारना।,7. हन्तारम्‌ । अर्थात्‌ वाणी का वह स्वामी है।,अर्थात्‌ वाण्याम्‌ तिष्ठति सः। उस आदित्य को नमस्कार है।,तस्मै रुचाय तेजसे आदित्याय नमः। 9. “'तृतीयातत्कृतार्थेन गुणवचनेन इस सूत्र का क्या अर्थ है।,"९. ""तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" अतः मन के विना श्रोत्र आदि इन्द्रियों के होने पर भी शब्द आदि का ज्ञान सम्भव नही है।,अतः मनः विना श्रोत्रादीन्द्रियैः सत्त्वेऽपि शब्दादिज्ञानं न सम्भवति। “रथोऽपि गर्त उच्यते” (नि० ३।५) इति यास्क ने कहा।,"""रथोऽपि गर्त उच्यते"" (नि० ३।५) इति यास्कः।" विवेकानन्द के दर्शन में समन्वय किस प्रकार का समन्वय था?,विवेकानन्दस्य दर्शनसमन्वयः कीदृशः? तुम निडर बाज के समान निन्यानवे नदियों को पार करके चले गए।,यत्‌ यस्मात्‌ कारणात्‌ त्वं नव च नवतिं च स्रवन्तीः एकोनशतसङ्ख्यकाः प्रवहन्तीर्नदीः प्राप्य रजांसि तत्रत्यान्युदकानि अतरः तीर्णवानसि। प्राणायाम रेचक पूरक तथा कुम्भक के माध्यम से प्राणों के निग्रह करने का उपाय है।,रेचक-पूरक-कुम्भक-लक्षणाः प्राणनिग्रहोपायाः प्राणायामाः। इस सूत्र में द्वितीया इस प्रथमा एक वचनान्त श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः यह तृतीया बहुवचनान्त पद है।,सूत्रेऽस्मिन्‌ द्वितीया इति प्रथमैकवचनान्तं श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः इति तृतीयाबहुवचनान्तं पदम्‌। 1. ऋग्वेद में।,१. ऋग्वेदे। अनावः यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,अनावः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। "नामन्यतरस्याम्‌ इस सूत्र से यहाँ नाम्‌ इस प्रथमा एकवचनान्त पद की, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद कौ, पूर्वसूत्र से सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इससे यहाँ विभक्तिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति है।","नामन्यतरस्याम्‌ इति सूत्रात्‌ अत्र नाम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ उदात्तः चेति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, पूर्वसूत्रात्‌ सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इत्यस्मात्‌ अत्र विभक्तिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तन्ते।" जल द्वारा द्यावा पृथ्वी को आर्द्र करते हो।,प्रायेण नद्यः प्राच्यः स्यन्दते घृतेन उदकेन द्यावापृथिवी दिवं च पृथिवीं च व्युन्धि क्लेदय अत्यधिकम्‌ । 6 चित्त के विक्षेप की मीमांसा कीजिए?,६. चित्तविक्षेपो मीमांस्यताम्‌। गायत्रीछन्द में कितने पाद तथा प्रत्येक पाद में कितने अक्षर होते है?,गायत्री-छन्दसि कति पादाः तथा प्रतिपादं कति अक्षराणि भवन्ति? फिर उसे क्षत्रिय नहीं कह सकते है।,इत्थं क्षत्रिय इति पदं न तत्र प्रवर्तते। इस प्रकार से जल उसके शरीर को व्याप्त किया।,एवं क्रमेण जलं तस्य शरीरं व्यापृणोत्‌। वहाँ धर्म आदि पुरुषार्थ जहाँ विद्यमान है वे वेद कहलाते हैं।,तत्र विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्थाः यैः ते वेदाः इति । इस प्रकार वह ही सभी का भाई है सभी के लिये भाई के समान हितकारी अथवा उसके पदको प्राप्त होता है।,इत्थमुक्तप्रकारेण स हि बन्धुः स खलु सर्वेषां सुकृतिनां बन्धुभूतो हितकरः वा तस्य पदं प्राप्तवतां न पुनरावृत्ते। इसलिए ज्ञान के द्वारा ही प्रारब्ध का क्षय होता है।,अतो ज्ञानेन न हि प्रारब्धस्य क्षय इति उपपद्यते। प्रमेय जीव तथा ब्रह्म ऐक्य अर्थात्‌ अभेद है।,"प्रमेयं जीवब्रह्मणोः ऐक्यम्‌, अभेदः।" "“पापाणकेकुत्सितेः“ सूत्रार्थ-पाप शब्द और अणक शब्द को कुत्स्यमान (कुत्सित) समान अधिकरण सुबन्त के साथ समास होता है, और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","""पापाणके कुत्सितैः"" सूत्रार्थः - पापशब्दः अणकशब्दश्च कुत्स्यमानैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" इस प्रकार कुछ लोग इस युक्ति चतुष्टय से देवों का साकारत्व प्रतिपादित करते है और कुछ इन युक्ती का खण्डन करके देवों का निराकारत्व प्रमाणित करते हैं।,"एवञ्च केचन अनेन युक्तिचतुष्टयेन देवानां साकारत्वं प्रतिपादयितुं शक्यन्ते, अन्ये तु एताः युक्तीः खण्डयित्वा देवानां निराकारत्वं प्रमापयितुं प्रयतन्ते।" निदिध्यासन के द्वारा विपरीत भावना नष्ट होती है।,निदिध्यासनेन विपरीतभावना नश्यति। "पुण्यात्मा के मिलनस्थान का तीन पाद से व्यापक उच्चस्थाननिवासी यह विष्णुहमारी रक्षा करे हमारी शरण को प्राप्त हो, और हमारी इच्छाको पूर्ण करो।","पुण्यात्मानां मिलनस्थानस्य पादत्रयेण व्यापकः उच्चस्थाननिवासी अयं विष्णुः अस्माकं शरणं भवतु, अस्माकम्‌ इच्छां च पूरयतु इति।" "व्याख्या - जिस प्रजापति द्वारा द्यौ, अन्तरिक्ष उग्र अर्थात्विशेष दीप्तिमान है और भूमि को जिसने दृढ अर्थात्‌ स्थिर किया।",व्याख्या- येन प्रजापतिना द्यौः अन्तरिक्षम्‌ उग्रा उद्गूर्ण विशेषागहनरूपं वा। पृथिवी भूमिः च दृळ्हा येन स्थिरीकृता। "इसलिए ही जिस अनुदात्त के परे होने पर उदात्त का लोप होता है, उस अनुदात्त को उदात्त होता है यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है।","अत एव यस्मिन्‌ अनुदात्ते परे सति उदात्तस्य लोपः जायते, तस्य अनुदात्तस्य उदात्तः भवति इति सूत्रार्थः लभ्यते।" 12. काम्य की किस प्रकार के आचरण से चित्त की शुद्धि होती है?,१२. काम्यस्य कीदृशाचरणेन तत्‌ चित्तशुद्धिकरं भवति। पूजन शब्द से पूजनार्थक का ग्रहण किया गया है।,पूजनशब्देन पूजनार्थकस्य ग्रहणम्‌। वैसे-वैसे तुम भी नीचे की और लौटना।,तावत्तावत्‌ त्वमपि तदेवोदकम्‌ अनु अवसर्पासि अवतरेः। इस कारण निघण्टु व्याख्या यज्वन का अभिप्राय इस अमरकोश की व्याख्या से प्रतीत होता है।,अतः निघण्टुव्याख्यया यज्वने अभिप्रायः अस्य अमरकोशस्य एव व्याख्यया प्रतीतः भवति। मानता हुआ भी नहीं मानता है।,मन्वानोऽपि न मनुते। वृहत्‌ जलसमूह जब समग्र विश्व में परिव्याप्त था तब देवों ने गर्भरूप में धारण किया और अग्नि को उपलक्षित और समग्र भुवन को बनाया।,वृहज्जलसमूहः यदा समग्रं विश्वं परिव्याप्य आसीत्‌ तदा देवाः गर्भरूपेण यं धत्तवन्तः अग्निना उपलक्षितं समग्रं भुवनं च सम्पादितवन्तः। हेड - क्रोधका पर्यायवाची शब्द है।,हेड - क्रोधः इत्यस्य काचित्‌ संज्ञा। "सर्वकर्म संन्यासियों के अधिष्ठानादि पाँच कर्म हेतु होते हैं आम एकत्व कर्तृत्व ज्ञान वालों की पर ज्ञाननिष्ठा में वर्तमान भगवत तत्त्व विदों के अनिष्टादिकर्मफलत्रय परमहंसपरिव्राजको के ही लब्धभगवत्स्वरूपात्मैकशरणों के नहीं होते हैं, अगर होते हैं तो केबल अन्य अज्ञानी कर्म संन्यासियों के होते हैं।",अधिष्ठानादिपञ्चकहेतुकसर्वकर्मसंन्यासिनाम्‌ आत्मैकत्वाकर्तृत्वज्ञानवतां परस्यां ज्ञाननिष्ठायां वर्तमानानां भगवत्तत्त्वविदाम्‌ अनिष्टादिकर्मफलत्रयं परमहंसपरिव्राजकानामेव लब्धभगवत्स्वरूपात्मैकत्वशरणानां न भवति ; भवत्येव अन्येषामज्ञानां कर्मिणामसंन्यासिनाम्‌ । और नहीं श्रुत्यन्तरविहित आकाश प्रमुख के उत्पत्ति क्रम का वारण करने में योग्य है।,न च श्रुत्यन्तरविहितं नभःप्रमुखम्‌ उत्पत्तिक्रमं वारयितुमर्हति। हन्‌-धातु से कर्म में क्त प्रत्यय करने पर हतः यह रूप बनता है।,हन्‌-धातोः कर्मणि क्तप्रत्यये हतः इति रूपम्‌। उन सामान्य वचनों के द्वारा।,तैः सामान्यवचनैः । "किन्तु जो मनुष्य व्याकरण शास्त्र को जानने वाला होता है, उसके समीप वाणी सुसज्जित कामिनी के समान आकर के सम्पूर्ण भाव से समर्पित होती है - उतत्वः पश्यन्‌ न ददर्श उतत्वः शृण्वन्‌ न शृणोत्येनाम्‌ उतोत्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्ये उशती सुवासाः॥","किञ्च यो हि जनः व्याकरणशास्त्रज्ञः अस्ति, तत्सन्निधौ वाणी सुसज्जिता कामिनी इव समागत्य सर्वतोभावेन समर्पिता भवति - उतत्वः पश्यन्‌ न ददर्श उतत्वः शृण्वन्‌ न शृणोत्येनाम्‌ उतोत्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्ये उशती सुवासाः।।" यह तत्पुरुषसमास समानाधिकरण और व्यधिकरण दो विधियों में विभक्त (प्रकार) बोल सकते हैं।,अयं च तत्पुरुषसमासः समानाधिकरणः व्यधिकरणः चेति द्विधा विभक्तं इति वक्तुं शक्यते। उससे ही सम्पूर्ण जगत चारों और से व्याप्त है।,तेनैव जगत्सर्व परिव्याप्तम्‌| "जैसे अग्नि के रूपवर्णन प्रसङऱग में स्वभावोक्ति अलंकार का प्रयोग करते हैं, वैसे ही वरुण स्तुति में हृदय में आये कोमल भावों के और माधुर्य गुण का प्रकाश है।",यथा अग्नेः रूपवर्णनप्रसङ्गे स्वभावोक्त्यलंकारः प्रयुज्यते तथा वरुणस्तुतौ हृद्गतकोमलभावानां माधुर्यगुणस्य च प्रकाशः वर्तते। शिक्षा के अभिमत विषय प्रातिशाख्यों में देखते हैं और प्रातिशाख्य ग्रन्थ शिक्षा शास्त्र की प्राचीनता के प्रतिनिधि ही हैं।,शिक्षायाः अभिमतः विषयः प्रातिशाख्येषु दृश्यते एवं च प्रातिशाख्यग्रन्थाः शिक्षाशास्त्रस्य च प्राचीनतमाः प्रतिनिधयः इव सन्ति। उसका द्वितीया एकवचन में रूप राजन्तम्‌ यह प्राप्त होता है।,तस्य द्वितीयैकवचने रूपम्‌ राजन्तम्‌ इति। उस व्याख्यान भेद आदि के द्वारा हमेशा नए रूप में विद्वानों में हृदय में रहती है।,तेन व्याख्यानभेदादिदं सदैव अभिनवतया भासते विदुषां मानसेषु। 16. ईश्वर सभी भूतों में कहाँ पर रहता है?,१६. ईश्वरः सर्वभूतानां कुत्र तिष्ठति? "आनन्द का अनुभव अच्छी तरह से होता है, यह ही उसका अभिप्राय है।",आनन्दानुभवः सम्यगस्तीत्यभिप्रायः। बहुत दूर जाता है यह अर्थ है।,अतिदूरं गच्छति इत्यर्थः। सूत्रार्थ-स्त्रीत्व द्योत्ये होने पर आजादिगण में पठितशब्दान्त प्रातिपदिक से परे टाप् प्रत्यय होता है।,सूत्रार्थः - स्त्रीत्वे द्योत्ये अजादिगणपठितशब्दान्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ परः टाप्‌ प्रत्ययः भवति। नैमित्तिक पुत्रजन्मादि जातेष्ट्यादि कर्म होते है अर्थात्‌ जिनके निमित्त कारण होते है व नैमित्तिक कहलाते हैं।,नैमित्तिकानि पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जातेष्ट्यादीनि कर्माणि। निमित्तं कारणं यस्यास्ति तत्‌ नैमित्तिकम्‌। जैस अग्नि सभी का नाश करके अन्त में स्वयं भी उपशान्त हो जाती है।,यथा अग्निः सर्वं नाशयित्वा अन्तिमे स्वयमपि उपशान्तः भवति इति। 28. नित्यसमास के दोनों पक्षों में उदाहरण दिखाइये?,२८. नित्यसमासस्य पक्षद्वये उदाहरणं दर्शयत? और उस अभ्यास संज्ञा में हु हु झि इस स्थिति में कुहोश्चुः इससे हकार के स्थान में झकार करने पर अभ्यासे चर्च' इससे झकार के स्थान में जकार करने पर जु हु झि इस स्थिति में अदभ्यास्तात्‌ इससे झकार के स्थान में अद आदेश होने पर जुहु अति इस स्थिति में हुश्नुवोः सार्वधातुके इससे हु-इसके उकार के स्थान में वकार करने पर जुह्वति यह रूप सिद्ध होता है।,ततः अभ्याससंज्ञायां च हु हु झि इति स्थिते कुहोश्चुः इत्यनेन हकारस्य झकारे अभ्यासे चर्च इत्यनेन झकारस्य जकारे जु हु झि इति स्थिते अदभ्यास्तात्‌ इत्यनेन झकारस्य अदादेशे जुहु अति इति स्थिते हुश्नुवोः सार्वधातुके इत्यनेन हु-इत्यस्य उकारस्य स्थाने वकारे जुह्वति इति सिध्यति। वहाँ ईडायां मानवीम्‌ ईडां देवतां वक्तुं मानवी घृतपदी करने में प्रवृत हुए।,तत्र ईडायां मानवीम्‌ ईडां देवतां वक्तुं मानवी घृतपदी व्याख्यातुमितिहासः प्रवृत्तः। आदित्य की वार्षिक गति के दोनों भागों में भी विपरीत क्रम दिखता है।,आदित्यस्य वार्षिकगतेः भागद्वये अपि विपरीतक्रमो दृष्टः। बद्ध को ही मोक्ष के लिए ही साधन करने चाहिए।,बद्धश्चेत्‌ मोक्षाय साधनानि कुर्यात्‌। सूर्य का दिवस में और रात्रि में दो नाम क्या है ?,सूर्यस्य दिवसे रात्रौ च किं नामद्वयम्‌ ? और यजुर्वेद में प्रतिष्ठित है।,यजूंसि च प्रतिष्ठितानि। यहाँ यह सूत्र का अर्थ होता है - छन्द में ङ्यन्त से परे नाम को उदात्त होता है।,ततश्च अयमत्र सूत्रार्थो भवति- छन्दसि ङ्याः परस्य नामः उदात्तत्वं भवति इति। और रस लोहित-मांस-स्नायु- अस्थि-मज्जा-शुक्र।,रसाश्च लोहित-मांस-स्नायु-अस्थि-मज्जा-शुक्राः। "क्षीरस्वामी अमरकोश के प्रसिद्ध टीकाकार है, और निघण्टु-निर्वचन इस ग्रन्थ के व्याख्याता हैं।","क्षीरस्वामी अमरकोशस्य प्रसिद्धः टीकाकारः, निघण्टु-निर्वचनम्‌ इति ग्रन्थस्य व्याख्याता च।" सोमयाग में ब्रह्मा सर्वश्रेष्ठ होता है।,सोमयागे ब्रह्मा सर्वश्रेष्ठः भवति। जैसे “वाश्रा धेनवः' इस पद के द्वारा ऋषि ने वेदाध्ययन ३४५ (पुतक१?) ( पुस्तक -१ ) वृष्टि के साथ शब्द करती हुई धेनु के साथ समानता प्रकट की है।,यथा 'वाश्रा धेनवः' इत्यनेन पदेन ऋषिः वृष्ट्या सह शब्दं कुर्वतीनां धेनुनां साम्यं प्रकटितवान्‌। इसलिए प्रकृत सूत्र से नि प्रत्यय के इकार को ही उदात्त होता है।,अत एव प्रकृतसूत्रेण निप्रत्ययस्य इकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। सभी इन्द्रियों के द्वार ही ब्रह्म का ज्ञान सम्भव होता है।,सर्वैरेव इन्द्रियैः ब्रह्मणः ज्ञानं सम्भवति। कभी पति को प्रसन्न करने के लिए सुंदर वस्त्रों को धारण करती है।,कदाचित्‌ पतिम्‌ अनुरञ्जयितुं सुवस्त्रस्य धारणं करोति। प्रार्थना के समय कवि ने उनकी पवित्र भावानाओं का और भव्य रूपों का अच्छी प्रकार से वर्णन किया है और व्यङ्ग्य अर्थ को बताने वाले वाक्य वहाँ विद्यमान हैं।,प्रार्थनाऽवसरे कविः तासां पवित्रभावानां भव्यरूपाणां च सम्यग्‌ वर्णनं कृतवान्‌। व्यङ्ग्यार्थप्रतिपादकानि वाक्यानि च तत्र विद्यन्ते। परन्तु सुराजन्‌ यहाँ सु प्रत्यय पूजनार्थक है।,परन्तु सुराजन्‌ इत्यत्र सु इति पूजनार्थकम्‌। विवृत्त सर्पादिविकल्पपरज्जुकैवल्यावसना ही प्रकाशफल होता है।,विनिवृत्तसर्पादिविकल्परज्जुकैवल्यावसानं हि प्रकाशफलम्‌। इसलिए ही हरि उनको मारना चाहते थे और सप्तशती में कहा गया है - तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ।,अत एव हरिः तौ हन्तुम्‌ आर्हत्‌। तदुक्तं सप्तशत्यां - तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ। "राजन्यः = क्षत्रिय, बाहू = भुजा जो शौर्यपराक्रमसमन्वित है, कृतः = निष्पन्न है।","राजन्यः = क्षत्रियः, बाहू = भुजौ इव शौर्यपराक्रमसमन्वितः, कृतः = निष्पन्नः।" ये सभी जानते हैं।,सर्वे जानन्ति एव। "उससे इस सूत्र का अर्थ होता है- भी, ही, भृहु, मद, जन, धन, दरिद्रा, और जागृ धातु के अभ्यस्तो को पित लसार्वधातुक के परे रहते प्रत्यय से पूर्व को उदात्त होता है।","तेन अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति भी, ह्री, भृह्मद, जन, धन, दरिद्राजागराम्‌ अभ्यस्तानां पिति लसार्वधातुके परे प्रत्ययात्पूर्वम्‌ उदात्तं भवति।" परन्तु यह किसी अनुयायी का मत है।,परन्तु इदम्‌ अहेः कस्यचित्‌ अनुयायिनः मतम्‌। शान्ति पौष्टिक कर्म का प्रतिपादन करने वाले मन्त्र तथा अभिचार कर्म का प्रतिपादन करने वाले मन्त्र हैं।,शान्तिपौष्टककर्मप्रतिपादकाः मन्त्राः तथा आभिचारिककर्मप्रतिपादकाः मन्त्रः च। वर्तमान में निघण्टु ग्रन्थ में 'वृषाकपि' शब्द लिखा हुआ प्राप्त होता सङ्गृहीत है।,वर्तमाने निघण्टुग्रन्थे 'वृषाकपिः' शब्दः सङ्गृहीतः अस्ति। रेजमाने - रेज्‌-धातु से कानच्प्रत्यय और टाप्‌ होने पर प्रथमाद्िवचन में रेजमाने रूप बनता है।,रेजमाने- रेज्‌-धातोः कानच्प्रत्यये टापि च प्रथमाद्विवचने रेजमाने इति रूपम्‌। ऐतरेयब्राह्मण में विशेषतः अग्निष्टोम याग का विवरण है।,ऐतरेयब्राह्मणे विशेषतः अग्निष्टोमयागस्य विवरणं वर्तते। हम इस प्रकार काव्ययुग की कल्पना भी नहीं कर सकते जहाँ उपमा आदि अलङ्कारों का प्रयोग नहीं किया।,वयम्‌ एवं विधस्य काव्ययुगस्य कल्पनाम्‌ अपि कर्त्तु न शक्नुमः यत्र उपमादयः अलङ्काराः न प्रयुक्ताः। "मुख्य रूप से शुल्बसूत्र भी कल्पसूत्र ही है, वह श्रौतसूत्र के अन्तर्गत आता है।","मुख्यतः शुल्बसूत्रम्‌ अपि कल्पसूत्रमेव, तत्‌ श्रौतसूत्रान्तर्गतम्‌।" "इसी प्रकार अन्य भी अपभाषण, दुष्ट शब्द, अर्थज्ञान, धर्मलाभ नामकरण आदि प्रयोजनों की व्याख्या महाभाष्य में की है।",एवम्‌ अन्यानि अपि अपभाषण-दुष्टशब्द-अर्थज्ञान-धर्मलाभ-नामकरणादीनि प्रयोजनानि व्याख्यातानि महाभाष्ये। करण में कृत्य प्रत्यय करने पर।,करणे कृत्यः। "( ख) प्राचीन पद्य उपनिषद्‌- जो पद्य प्राचीन, सरल तथा वैदिक पद्य के समान ही है।","(ख) प्राचीनपद्योपनिषदः- यासां पद्यं प्राचीनं, सरलं तथा वैदिकपद्यम्‌ इव अस्ति।" इस ब्रह्मयज्ञ जप में विनियोग है।,अस्य ब्रह्मयज्ञजपे विनियोगः। और ब्राह्मणों में प्रतिपादित विषय पर भी सामान्य ज्ञान को प्राप्त करेंगे।,किञ्च ब्राह्मणेषु प्रतिपादितानां विषये अपि सामान्यं ज्ञानं प्राप्स्यति। वे असम्भावना तथा विपरीत भावना होते हैं।,ते असम्भावना विपरीतभावना च भवतः। उसका हेतु निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान होता है तथा दूसरा हेतु विषयासक्ति है।,तत्र हेतुः निषिद्धकर्मनुष्ठानम्‌। अपरो हेतुः विषयासक्तिः। इस ग्रन्थ में ऋग्वेद के वर्गो और सूक्तों की संख्या निर्धारित की गई है।,ग्रन्थेऽस्मिन्‌ ऋग्वेदस्य वर्गाणां सूक्तानाञ्च संख्या निर्धारिताऽस्ति। इस प्रकार उस सूत्र से अविद्यमानवत्‌ का निषेध प्राप्त था।,एवं तेन सूत्रेण अविद्यमानवत्त्वं निषिध्यते। देवीसूक्त और श्रद्धासूक्त भारतीय जीवन में और संस्कृत साहित्य में वेदों का स्थान सबसे ऊपर हे।,देवीसूक्तं श्रद्धासूक्तं च॥ भारतीयजीवने संस्कृतसाहित्ये च वेदानां स्थानं मूर्ध्नि वर्तते। "उदात्तस्वरितयोः इसका अर्थ उदात्त स्थान में, स्वरित स्थान में।",उदात्तस्वरितयोः इत्यस्य उदात्तस्थाने स्वरितस्थाने इत्यर्थः। यज्ञ में माष विधान का निषेध है।,यज्ञे माषस्य विधानं निषिद्धम्‌ अस्ति। कवि की लेखनी अत्यधिक बलशालिनी होती है।,कवेः लेखनी प्रभूतबलशालिनी भवति। आठवें अध्याय में वर्णित ब्रह्म प्राप्ति का उपदेश है।,अष्टमाध्याये वर्णितो ब्रह्मोपलब्धेरुपदेशः। उससे यहाँ सूत्र के पदों का अन्वय होता है - वयसि ज्येष्ठकनिष्ठयोः अन्तः उदात्तः इति।,ततश्च अत्र सूत्रस्य पदान्वयः भवति- वयसि ज्येष्ठकनिष्ठयोः अन्तः उदात्तः इति। (क) वैराग्यम्‌ (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्ति 16. उपपत्ति किसके अन्तर्गत होती है ?,(क) वैराग्यम्‌ (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्तिः 16. उपपत्तिः क्वान्तर्भवति। सूक्ष्मशरीर के विषय में विद्यारण्य स्वामी के द्वारा पञ्चदशी में कहा गया है।,सूक्ष्मशरीरविषये विद्यारण्यस्वामिना पञ्चदश्यां निगद्यते । धी पद के द्वारा यहाँ पर बुद्धि का ग्रहण होता है।,धीपदेन अत्र बुद्धेः ग्रहणं भवति। शब्द के उस प्रकार के सामर्थ्यवश ही भोजन के प्रकरण में “सैन्धवम्‌ आनय” यहाँ पर सैन्धव शब्द का लवण का बोध होता है।,शब्दस्य तादृशसामर्थ्यवशाद्‌ एव भोजनप्रकरणे 'सैन्धवम्‌ आनय' इति सैन्धवशब्दः लवणं बोधयति। मित्रं कृणुध्वं खलु ... इत्यादिमन्त्र को पूरा करके व्याख्या कीजिए।,मित्रं कृणुध्वं खलु ... इत्यादिमन्त्रं पूरयित्वा व्याख्यात । नहीं तो युद्ध त्याग का उपदेश देते नित्यादि केवल कर्म के कारण।,अन्यथा युद्धत्यागम्‌ उपदिशेत्‌। नित्यादीनि च केवलानि विदध्यात्‌। तथा सभी सञ्चित एवं क्रियमाण कर्म ब्रह्मज्ञान के द्वारा नष्ट होते हैं।,सर्वसञ्चितक्रियमाणकर्माणि ब्रह्मज्ञानेन नश्यन्ति इति । इसलिए हमारे प्रति जैसे वह शान्त और सुंदर मन वाले हो उसके लिए प्रार्थना करते है।,अत एव अस्मान्‌ प्रति यथा सः शान्तः शोभनमनस्कश्च भवेत्‌ तदर्थं प्रार्थना विधीयते। द्विगु समास का तत्पुरुष भेद से “परवल्लिङग हन्दतत्पुरुषयोः'' इससे प्राप्त द्विगु का और द्वन्द का परवलियङ्गता से अपवाद यही सूत्र हैं।,"द्विगुसमासस्य तत्पुरुषभेदत्वात्‌ ""परवल्षिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः"" इत्यनेन प्राप्तायाः द्विगोः द्वन्द्वस्य च परवल्लिङ्गताया अपवादभूतं सूत्रमिदम्‌ ।" "और प्रार्थना करती है की जलवर्षा के अनन्तर, और औषधियों का उत्पादन करने के बाद, और हमारी स्तुति को सुनकर आप पूर्णरूप से स्थिर हो।","एवञ्च प्रार्थ्यते यत्‌ जलवर्षणाद्‌ अनन्तरम्‌, ओषधीनां च उत्पादानाद्‌ अनन्तरम्‌, अस्माकं स्तुतीः च श्रुत्वा भवान्‌ पूर्णरूपेण स्थिरीभवतु ।" यहाँ पर सुपः यह षष्ठी एकवचान्त पद है और धाकप्रातिपदिकयोः षष्ठीद्विवचनान्त पद है।,"अत्र सुपः इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदं, धातुप्रातिपदिकयोः इति षष्ठीद्विवचनान्तं पदम्‌।" जहर खाओ यहाँ पर विष भोजन शक्यार्थ होता है उस शक्यार्थ का अन्तर्भाव्य यह है कि शत्रु के घर में भोजन मत करो इस प्रकार से यहाँ पर भोजन को निवृत्ति लक्षित की गई है।,यथा- विषं भुङ्क्ष्व इत्यत्र विषभोजनं शक्यार्थो भवति। तं शक्यार्थ न अन्तर्भाव्य शत्रोः गृहे भोजनं मा कुरु इति भोजननिवृत्तिः लक्ष्यते। सत्वरजतम प्राकृत गुणों का स्थिति मात्र नपुंसकत्व है।,सत्त्वरजस्तमसां प्राकृतगुणानां स्थितिमात्रं नपुंसकत्वम्‌। जो कुछ करते हैं वे सभी मेरे लिए ही करते है यह अर्थ है।,यद्यत्कुर्वन्ति तत्सर्वं मामेव कुर्वन्तीत्यर्थः। किस प्रकार अग्नि की होता स्तुति करता है?,कीदृशम्‌ अग्निं होता ईडे? शुक्ल यजुर्वेद में दर्शपौर्ण मास आदि के अनुष्ठान के लिये मन्त्र सङ्कलित हैं।,शुक्लयजुर्वेदे दर्शपौर्णमासाद्यनुष्ठानस्य कृते मन्त्राः सङ्कलिताः सन्ति। अत: प्रकृत सूत्र से मात्रार्थम्‌ यहाँ पर समास के होने पर भी पूर्वपद मातृ शब्द को अन्तोदात्त होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण मात्रार्थम्‌ इत्यत्र समासे सत्यपि पूर्वपदं मातृशब्दः इति अन्तोदात्तः भवति। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ अङ्ग इससे युक्त कुरु यह तिङन्त पद है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र अङ्ग इत्यनेन युक्तं कुरु इति तिङन्तम्‌ अस्ति। इस छन्द की सम्पूर्ण संख्या २४४९ है।,अस्य छन्दसः समस्ता संख्या २४४९ वर्त्तते। बारहवें अध्याय में किसका वर्णन हे?,द्वादशाध्याये कस्य वर्णनम्‌ अस्ति? तिङ् अतिङः: ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,तिङ्‌ अतिङः इति सूत्रगतपदच्छेतः। "च, वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌, कूपत्‌, कुवित्‌, नेत्‌, चेत्‌, चणकच्चित्‌, यत्र, नह, हन्त, माकिः, माकिम्‌, नकिः नकिम्‌, माङ, नञ्‌, यावत्‌, तावत्‌, त्वै, द्वै, न्वै, रै, श्रोषट्‌, वौषट्‌, स्वाहा, स्वधा, वषट्‌, तुम्‌, तथाहि, खलु, किल, अथो, अथ, सुष्ठु, स्म, आदह - इत्यादि निपात संज्ञक है।","च, वा, ह, अह, एव, एवम्‌, नूनम्‌, शश्वत्‌, युगपत्‌, भूयस्‌, कूपत्‌, कुवित्‌, नेत्‌, चेत्‌, चणकच्चित्‌, यत्र, नह, हन्त, माकिः, माकिम्‌, नकिः नकिम्‌, माङ्‌, नञ्‌, यावत्‌, तावत्‌, त्वै, द्वै, न्वै, रै, श्रौषट्‌, वौषट्‌, स्वाहा, स्वधा, वषट्‌, तुम्‌, तथाहि, खलु, किल, अथो, अथ, सुष्ठु, स्म, आदह - इत्यादयः निपातसंज्ञकाः।" अतएव निरपराधि भी वर्षण करने वाले पर्जन्य के निकट से भयभीत होकर पलायमान हो जाते है (निरु. १०.११) ' इति सरलार्थ - पर्जन्यदेव वृक्षों और राक्षसों का नाश करते है।,अप्यनपराधो भीतः पलायते वर्षकर्मवतो यत्पर्जन्यः स्तनयन्‌ हन्ति दुष्कृतः पापकृतः ( निरु. १० . ११ ) ' इति ॥ सरलार्थः - पर्जन्यदेवः वृक्षान्‌ नाशयति किञ्च राक्षसान्‌ नाशयति । "अथर्ववेद के उपलब्ध अनेक नामों में अथर्ववेद, ब्रह्मवेद, अडिगरोवेद, अथर्वाङिगरसवेद, आदि मुख्य नाम है।",अथर्ववेदस्य उपलब्धेषु अनेकेषु अभिधानेषु अथर्ववेद-ब्रह्मवेद-अङ्गिरोवेद- अथर्वाङ्गिरसवेदादिनामानि मुख्यानि सन्ति। प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः ये दो पद पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोम्नः इति पदद्वयं पञ्चम्येकवचनान्तम्‌। व्याख्या - हे मित्रराजन स्तोताओं को राजा स्वामी बनाने वाले मित्रवरुण आप ही है जिनकी उपासना करते है वे आप मित्रराजन।,व्याख्या- हे मित्रराजाना मित्रभूताः स्तोतारो राजानः स्वामिन ईश्वरा भवन्ति ययोरुपासनावशात्‌ तौ मित्रराजानौ। द्वितीयान्त सुबन्त को श्रितारिप्रकृतिकों द्वारा सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,द्वितीयान्तं सुबन्तं श्रितादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। "संहिता में स्तुति प्रधान है, ब्राह्मण ग्रन्थ में उसके विधानों की ही प्रधानता है।","संहितायां स्तुतीनां प्राधान्यम्‌ अस्ति, ब्राह्मणग्रन्थे तद्विधीनाम्‌ एव प्राधान्यम्‌ अस्ति।" "यक्ष्मा बीमारी के विनाश के लिये १६१, १६३ तथा अन्य अनेक प्रकार के सूक्त प्राप्त होते है।","यक्ष्माख्यस्य व्याधेः विनाशाय १६१, १६३ तथाऽन्यानि अनेकविधानि च सूक्तानि लभ्यन्ते।" “ यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,"""यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रं व्याख्यात।" इसलिए भगवत प्राप्ति के लिए भले ही बहुत से मार्ग हैं।,अर्थात्‌ भगवत्प्राप्तये यद्यपि बहूनि मतानि मार्गाणि च सन्ति। अर्थात्‌ वारिवर्षण कराओ।,तथा वारिवर्षणं कुरु । भ्रान्ति के बिना असंख्य निष्क्रिय निराकार आत्मा का विषयों के साथ संबंध नहीं होता है।,विना भ्रान्तिम्‌ असङ्गस्य निष्क्रियस्य निराकारस्य च आत्मनः विषयसम्बन्धः नैव भवति। बृहद्देवता में कहा है- वेदितव्यं दैवतं हि मन्त्रे मन्त्रे प्रयत्नतः।,बृहद्देवतायामुक्तम्‌-वेदितव्यं दैवतं हि मन्त्रे मन्त्रे प्रयत्नतः। “संख्यापूर्वोद्विगुः”' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""संख्यापूर्वो द्विगुः"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" "और उसके बाद सूत्र का अर्थ है- ऋदन्त प्रातिपदिक से और नान्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योत्य होने पर ङीप्‌ उदाहरण -कर्त्री, दण्डिनी।",ततश्च सूत्रार्थः भवति - ऋदसन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌ नान्तात्‌ च प्रातिपदिकात्‌ स्त्रीत्वे द्योत्ये ङीप्‌ प्रत्ययः परः भवति। उदाहरणम्‌ - कर्त्री। दण्डिनी। ब्रह्मलोक की प्राप्ति के बाद भी सुख का अवसान होता है।,ब्रह्मलोके प्राप्तस्य सुखस्य अवसानं भवति एव। व्यष्टि विशेष होता है तथा समष्टि सामान्य होता है।,"व्यष्टिः विशेषः, समष्टिः सामान्यञ्च।" महादेव के धनुष को विस्तृत करती हूँ।,महादेवस्य धनुश्चापमहमातनोमि। इस पाठ में विष्णुसूक्त और मित्रावरुणसूक्त को पाठ्य के रूप में लिया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे विष्णुसूक्तं मित्रावरुणसूक्तं च पाठ्यत्वेन विद्यते। अक्षशौण्डः इसका विग्रह वाक्य क्या है?,अक्षशौण्डः इत्यस्य विग्रहवाक्यं किम्‌? 7 नित्यादि कर्मो का अवान्तर फल क्या है?,7. नित्यादीनाम्‌ अवान्तरफलं किम्‌। कहीं पर जल से युक्त है ऐसी भी कीर्ति कही जाती है।,क्वचिद्‌ अपां युत इत्यपि कीर्त्यते। युयुधाते - युध्‌-धातु से आत्मनेपद में क्विप लिट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।,युयुधाते - युध्‌-धातोः आत्मनेपदिनः क्विपि लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्‌। प्राण क्रियावान होता है।,प्राणः क्रियावान्‌ भवति। भरण पोषण करने के लिए।,बिभृयाः पुष्णियाः। सुगन्धितेजन शब्द का पर्याय से उदात्त स्वर किस सूत्र से होता है?,सुगन्धितेजनशब्दस्य पर्यायेण उदात्तस्वरः केन सूत्रेण ? अशू-धातु से अशूप्रुषिलटिकनिखटिविशिभ्यः क्वन्‌' इस उणादि सूत्र से क्वन्‌-प्रत्यय करने पर बहुवचन प्रक्रिया में अश्वाः यह रूप सिद्ध होता है।,अशू-धातोः अशूप्रुषिलटिकनिखटिविशिभ्यः क्वन्‌ इति उणादिसूत्रेण क्वन्‌-प्रत्यये बहुवचने प्रक्रियायाम्‌ अश्वाः इति सिध्यति। इस प्रकार से आत्मा तथा अनात्मा का विवेक करना चाहिए।,इति आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यः। और इसका विग्रह होता है- शार्ङ्गरवः आदिः येषां ते शार्ङ्गरवादयः (शार्ङ्गरव आदि में है जिसमें-(शार्ङ्गरव )।,अस्य च विग्रहः भवति - शार्ङ्गरवः आदिः येषां ते शार्ङ्गरवादयः। “उपमानानि सामान्यवचनैः सूत्रार्थ-उपमानवाची सुबन्तों को सामान्यवचन समानाधिकरण सुबन्तों के साथ समास होता है।,""" उपमानानि सामान्यवचनैः "" सूत्रार्थः - उपमानवाचकानि सुबन्तानि सामान्यवचनैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते" इस प्रकार से शास्त्रों में भी कहा है- “जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते।,"तथा च शास्त्रं- ""जीवन्मुक्तपदं त्यक्तवा स्वदेहे कालसात्कृते।" इसलिए विवेकानन्द ने 'जीवन के कर्म में वेदान्त' इसका प्रचार किया।,तस्मात्‌ विवेकानन्दः 'कर्मजीवने वेदान्तः' इति तत्त्वं यत्‌ प्रचारितवान्‌ । "इस सूत्र में दो पद है - न, और गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः।","अस्मिन्‌ सूत्रे द्वे एव पदे स्तः- न इति, गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः इति च।" वहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने जो कहा है उसका सारांश यह पर शांकरभाष्य के साथ उपस्थापित किया जा रहा है।,तत्र भगवता श्रीकृष्णेन यदुक्तं तस्य सारांशः अत्र शांकरभाष्यानुरोधेन उपन्यस्यते। परब्रह्म के वशवर्ति देव उसके वश के ही हो जाते है।,परब्रह्मवशवर्तिनो देवाः तदंशभूतस्यापि वशवर्तिनो भवन्तीत्यर्थः।। 24. विग्रह के कितने भेद और वे कौन से हैं?,२४. विग्रहस्य कति भेदाः के च ते? "इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है- यत्प्रत्ययान्त का दो अचो से युक्त शब्द का आदि अच्‌ उदात्त होता है, नौ शब्द को नहीं होता है।",एवम्‌ अस्य सूत्रस्य अर्थो भवति यत्प्रत्ययान्तस्य अज्द्वययुक्तस्य शब्दस्य आदिः अच्‌ उदात्तः भवति नौशब्दस्य तु न भवति इति। कालशब्द से यहाँ कालविशेषवाचक पूर्वाह्न आदि तक ग्रहण किया गया।,कालशब्देनात्र कालविशेषवाचकानां पूर्वाह्नप्रभृतीनां ग्रहणम्‌। ब्रह्म ही एक सत्त्‌ है अन्य सभी रस्सी में सांप की तरह ब्रह्म की अविद्या से आच्छादित असत्‌ ही है।,ब्रह्मैव एकं सद्‌ अन्यत्‌ सर्व रज्जौ सर्प इव ब्रह्मणि अविद्यया आच्छादितम्‌ असदेव। 42. इष्टवस्तु का दर्शनजन्य सुख क्य होता है?,४२. इष्टवस्तुदर्शनजन्यं सुखं किम्‌? पद से पाद के आदि में न हो सभी आमन्त्रित के पद को अनुदात्त होते हैं यह इस सूत्र का अर्थ होता है।,पदात्‌ अपादादौ सर्वस्य आमन्त्रितस्य पदस्य अनुदात्तः इति पदयोजना भवति। यहाँ अन्यतरस्याम्‌ इस कथन से प्रकृत सूत्र से विहित कार्य विकल्प से होता है।,अत्र अन्यतरस्याम्‌ इति कथनात्‌ प्रकृतसूत्रविहितं कार्यं विकल्पेन भवति। वेदों के अर्थ ज्ञान के द्वारा ही कर्तव्य अकर्तव्यत्व विवेक होता होना चाहिए।,वेदानाम्‌ अर्थज्ञानेन कर्तव्यत्वाकर्तव्यत्वविवेकः स्यात्‌। व्याकरण शब्द कौ व्युत्पत्ति को लिखिए।,व्याकरणशब्दस्य व्युत्पत्तिं निर्दिशत। सभी उपनिषदों का ब्रह्म में ही तात्पर्य होता है।,सर्वासाम्‌ उपनिषदां ब्रह्मणि एव तात्पर्यम्‌। इस प्रकार से पञ्चदशी में कहा गया है- द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः।,तथाहि उच्यते पञ्चदश्याम्‌ - द्विघा विघाय चेकेकं चतुर्धा प्रथमं पुनः। मध्यन्दिन को परिलक्षित करके।,मध्यन्दिनं परिलक्ष्य। ब्रह्मविषयक अज्ञान के नाश के लिए ब्रह्मविषयिणी चित्तवृत्ति अपेक्षित है।,ब्रह्मविषयकस्य अज्ञानस्य नाशाय ब्रह्मविषयिणी चित्तवृत्तिः अपेक्षिता । इस प्रकार प्रजापति तथा हिरण्यगर्भ की पूजनीयता थी।,एवमेव आसीत्‌ प्रजापतेः तथा हिरण्यगर्भस्य पूजनीयता। "अब कहते है कि दुःखों को निवृत्ति तो पूर्व में बताए हुए प्रकारान्तर उपायों के माध्यम से भी हो रही थी फिर वेदान्त की आवश्यकता क्या है, इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होती है।",परन्तु प्रकारान्तेषु सत्सु वेदान्तोक्तोपायैरेव दुःखनिवृत्तिः कुत इति जिज्ञासा उदेति। उसी प्रकार चक्षु मन के विना रूप का ग्रहण नहीं करता है।,एवं चक्षुः मनसा विना रूपं न गृह्णाति। पूर्व के चार दिनों में अनुष्ठित अनुष्ठान अग्निष्टोम अनुष्ठान की भूमिका स्वरूप होते हैं।,पूर्वतनेषु चतुर्षु दिवसेषु अनुष्ठितानि अनुष्ठानानि अग्निष्टोमानुष्ठानस्य भूमिकास्वरूपाणि। "बहुव्रीहि समास में पूर्वनिपात विधायक सूत्र “सप्तमी विशेषणे बहुव्रीहो'', “निष्ठा”, ““वाऽऽहिताग्न्यादिषु'' हैं।","बहुव्रीहिसमासे पूर्वनिपातविधायकानि ""सप्तमीविशेषणे बहुव्रीहौ"" ""निष्ठा"" ""वाऽऽहिताग्न्यादिषु"" इति सूत्राणि सन्ति।" क्रतु प्रज्ञान का अथवा कर्म का नाम है।,क्रतुः प्रज्ञानस्य कर्मणो वा नाम। 25. स्वाध्याय प्रणव का जप तथा उपनिषदों को आवृत्ति है 26. मानस उपचारों के द्वारा ईश्वर का अर्चन ही ईश्वप्रणिधान कहलाता है।,२५. स्वाध्यायो नाम प्रणवजपः उपनिषद्ग्रन्थावृत्तिश्च।२६. मानसैः उपचारैः ईश्वरस्य अर्चनमेव ईश्वरप्रणिधानम्‌। और उससे यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - एवम्‌ इत्यादि शब्दों का अन्त उदात्त होता है।,तेन च अत्र सूत्रार्थः भवति- एवम्‌ इत्यदीनां शब्दानाम्‌ अन्तः उदात्तः स्यात्‌ इति। सविकल्पक प्रत्यक्ष का वर्णन लिखें अथवा सन्निकर्षो की संक्षेप में आलोचना करें।,सविकल्पकं प्रत्यक्षं विवृणुत। अथवा सन्निकर्षान्‌ संक्षेपेण आलोचयत। उसस निधर्मक ब्रह्म में जगत्‌ का कर्तृत्व सम्भव नहीं होता है तथा कार्यकारणरहित उसमें जगत्‌ का कारण भी सम्भव नहीं होता है।,"ततश्च निर्धर्मके ब्रह्मणि जगत्कर्तृत्वं नैव सम्भवति, कार्यकारणरहिते तस्मिन्‌ जगत्कारणत्वं नैव सम्भवतीत्यादिभिः।" 1 .सृष्टि के क्रम विषय में एक लघु टिप्पणी लिखिए?,१.सृष्टिक्रमविषये लघुटिप्पणीमेकां लिखत। इसके बाद श्रवण मनन तथा निदिध्यासन का अधिकारी अनुष्ठान करता है।,इतः परं श्रवणमनननिदिध्यासननि अनुतिष्ठति अधिकारी। पुरुषसूक्त में उसके स्वरूप का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।,पुरुषसूक्ते तत्स्वरूपस्य विस्तररूपेण विवरणं प्राप्यते। खिल सूक्तों के सङ्कलन करने पर उनकी संख्या एक सौ तीन हो जाती है।,खिलसूक्तानां सङ्कलनं कृत्वा तेषां संख्या त्र्यधिकशतमिता सम्भवति। इस प्रकार से सात अङ्ग तथा उन्नीस मुख वाला यह प्रविविक्त भुक्‌ होता है।,एवं सप्ताङ्गः एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्‌ च भवति। रस्सी को देखकर के रूप साम्य से यह सर्प है इस प्रकार का ज्ञान होता है।,रज्जुं दृष्ट्वा रूपसाम्यात्‌ सर्प इति ज्ञानं भवति। उससे अधिक द्रव्य ग्रहण करने की योगी की अभिलाषा नहीं होनी चाहिए।,ततः अधिकानां द्रव्याणां ग्रहणाय अभिलाषः योगिनः न स्यात्‌। रुणद्धि - रुध्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,रुणद्धि - रुध्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । यह व्यक्ति (रामकृष्णदेव) ने इक्यावन वर्ष के जीवन में पाँच हजार वर्ष का जीवन व्यतीत किया।,"""अयं जनः (रामकृष्णदेवः) तस्य एकपञ्चाशद्मर्षव्यापिजीवने पञ्चसहस्रवर्षाणां जातीयम्‌ आध्यात्मिकं जीवनं यापितवान्‌।" वहाँ “एङहृस्वात्‌ सम्बुद्धे:' इस सूत्र से एङन्त अग्नि इसके पर सम्बुद्धि हल्‌ सकार का लोप होने पर अग्ने यह पद सिद्ध होता है।,ततः 'एङ्हस्वात्‌ सम्बुद्धेः' इति सूत्रेण एङन्तात्‌ अग्ने इत्यस्मात्‌ परस्य सम्बुद्धिहलः सकारस्य लोपे अग्ने इति पदं सिध्यति। नमस्त आयुधायानातताय ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,नमस्त आयुधायानातताय....इति मन्त्रं व्याख्यात। स्वामी विवेकानन्द का परिचय आधुनिक भारतवर्ष में प्रायः सभी को है।,स्वामिनः विवेकानन्दस्य परिचितिः आधुनिके भारतवर्षे प्रायः सर्वेषामेव अस्ति। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ० विविध आरण्यको के विषय में जान पाने में; ० उपनिषदों का सामान्य रूप से परिचय प्राप्त कर पाने में; ० आरण्यकों के नामकरण की सार्थकता को समझ पाने में; और ० केन उपनिषद्‌ और छान्दोग्य उपनिषद्‌ का परिचय जान पाने में।,इमं पाठं पठित्वा भवान्‌ विविधानाम्‌ आरण्यकानां विषये ज्ञातुं प्रभवेत्‌। उपनिषदां सामान्यरूपेण परिचयं प्राप्तुं शक्नुयात्‌। आरण्यकानां नामकरणस्य सार्थकतां जानीयात्‌। केनोपनिषदः छान्दोग्योपनिषदः च विशेषतया परिचयं प्राप्स्यति। जिससे दार्शनिक तत्वों का सरल शैली में बोध होगा इस प्रकार को आशा करते हैं।,तेन दार्शनिकतत्त्वानि सुगमानि भविष्यन्ति इति आशास्महे। महर्षियों ने आध्यात्मिक विद्या से उन गूढ से भी गूढ़ रहस्यो का भी विस्तृत विचार करते हुए प्राप्त होते है।,महर्षय आध्यात्मिक्या विद्यया तेषां गूढतमानां रहस्याणां विशदतया विचारं कुर्वाणाः प्राप्यन्ते। "उससे बह्व॑रत्निः, बह्वरत्निः ये दो रूप प्राप्त होते हैं।","तस्मात्‌ बह्व॑रत्निः, बह्वरत्निः इति रूपद्वयं प्राप्यते।" उदात्तेन यहाँ पर सह के योग से तृतीया है।,उदात्तेन इत्यत्र सहयोगात्‌ तृतीया अस्ति। खलपू शब्द का सप्तमी एकवचन में खलप्वि यह रूप बनता है।,खलपूशब्दस्य सप्तम्येकवचने ख्लाप्वि इति रूपम्‌। समाधि के अनुष्ठान के लिए अपेक्षित द्रव्यो के अतिरिक्त अपेक्षित द्रव्यो का असंग्रह ही अपरिग्रह होता है।,समाधेः अनुष्ठानार्थं यानि द्रव्याणि अपेक्षितानि तदतिरिक्तानां द्रव्याणाम्‌ असंग्रह एव अपरिग्रहः। इससे अक्ष शब्द का आदि स्वर उदात्त होता है।,अनेन अक्षशब्दस्य आदिः स्वरः उदात्तो भवति। ऋग्वेद का आदि सूक्त कौन सा है ?,ऋग्वेदस्य आदिमं सूक्तं किम् ? "हे आदित्य, लक्ष्मी तेरी पत्नी है।","हे आदित्य, श्रीः लक्ष्मीः च ते तव पत्न्यौ।" स हि बन्धुरित्था ... इत्यादि मन्त्र अंश में हि शब्द का क्या अर्थ है?,स हि बन्धुरित्था... इत्यादि मन्त्रांशे हिशब्दः किमर्थः? उससे अतिरिक्त द्रव्यों का त्याग ही अपरिग्रह कहलाता है।,तदतिरिक्तानां द्रव्याणां असंग्रह एव अपरिग्रहः । वियोग सन्ताप और पुत्र शोक से।,वियोगजसन्तापेन पुत्रशोकेन च । मन के होने से ही देहादि में अभिमानरूप बन्ध होता है।,मनः अस्ति चेदेव देहादिषु अभिमानरूपबन्धः भवति। "ऊचे से अपादबन्ध यजुरात्मक जो मन्त्र वाक्य पढ्ते हैं, वह निगद होते है।",उच्चैरपादबन्धं यजुरात्मकं यत्‌ मन्त्रवाक्यं पठ्यते स भवति निगदः। यहाँ घञन्त कर्ष-इसके अन्त के षकार से उत्तर अकार का प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।,अत्र घञन्तस्य कर्ष- इत्यस्य अन्तस्य षकारोत्तस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः। उसका कर्म कर्ता के द्वारा भोगा जाता है।,तच्च कर्मफलं कर्त्रा भोक्तव्यम्‌। यावद्वै क्षुल्लका भवामो बह्वी वै नस्तावन्नाष्टा भवत्युत मत्स्य एव मत्स्यं गिलति क्छुम्भ्यां माऽग्ने बिभरासि स यदा तामतिव्वर्धा अथ क्ष्‌ खात्वा तस्यां मा बिभरासि स यदा तामतिव्वर्धाऽअथ मा समुद्रमभ्यवहरासि तर्हि वा अतिनाष्ट्रो भवितास्मीति॥३ ॥,यावद्वै क्षुल्लका भवामो बह्वी वै नस्तावन्नाष्ट्रा भवत्युत मत्स्य एव म॒त्स्यं गिलति कुम्भ्यां माऽग्रे बिभरासि स॒ यदा तामतिव्वर्धा अथ कर्ष खात्वा तस्यां मा बिभरासि। स यदा तामतिव्वर्धाऽअथ मा समुद्रमभ्यवहरासि तर्हि वा अतिनाष्ट्रो भवितास्मीति॥ ३ ॥ "वहाँ उपमा से कहते है की पिता जैसे पुत्र के समीप में अनायास से ही प्राप्ति का विषय होता है, वैसे ही हे अग्नि तुम भी हमारे लिये हो।",तत्र उपमया उच्यते यत्‌ पिता यथा पुत्रस्य समीपे अनायासेन प्राप्तिविषयः भवति तथैव हे अग्ने त्वमपि भव। कर्मवाचि क्तान्त उत्तरपद रहते तृतीयान्त पूर्वपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे तृतीयान्तं पूर्वपदं प्रकृत्या भवति। "तुम हट जाओ, अथवा रोग को छोड़कर मूजवत अग्नि के समान महावृष आदि दूरस्थ प्रान्त में जाओ (५/२५/७/८)।","यथा- हे ज्वर ! त्वं तिरोहितो भव, अथवा रोगार्त्तजनं विहाय मूजवत-वह्लिक-महावृषादि-सुदूरस्थप्रान्ते गच्छ (५/२५/७/८)।" महाव्रत के सभी अनुष्ठानों के विधान शाङखायन श्रौतसूत्र में है।,महाव्रतस्य सर्वाणि आनुष्ठानिकानि विधानानि शाङ्खायनश्रौतसूत्रे विद्यते। भागवत में इसकी विशाल चर्चा है की सुमन्तु इस अभिचार प्रधान वेद के मुख्य प्रचारक थे।,भागवते अस्य महति चर्चा अस्ति यत्‌ सुमन्तुः अभिचारप्रधानस्य अस्य वेदस्य मुख्यप्रचारकः आसीत्‌। और चित “चेतयति सम्यग्‌ ज्ञापयति इति चेत:”।,किञ्च चेतः। चेतयति सम्यग्‌ ज्ञापयति इति चेतः। पूर्वपद सामर्थ्य से उत्तरपदे इस पद का यहाँ अध्याहार किया गया है।,पूर्वपदसामर्थ्यात्‌ उत्तरपदे इति पदम्‌ अध्याहार्यम्‌। लाओ अब हाथ धोने के लिए जल को लाया।,आजहृुः आनीतवन्तः परिचारकाः। इसलिए संसारबन्धकारणभूत अविद्या मन ही होता है।,अतः संसारबन्धकारणभूता अविद्या मन एव। वहिष्पवमान-स्तोत्र में पांच ऋत्विज में आगे जाने वाला अध्वर्यु ने अपने हाथ में दर्भ को मुट्ठी में लेकर जाता है।,वहिष्पवमान-स्तोत्रे पञ्चानामृत्विजाम्‌ अग्रे गमनकर्ता अध्वर्युः स्वहस्ते दर्भस्य मुष्टिं नीत्वा गच्छति। वेदान्त में कहे गये साधनचतुष्टय सम्पन्न मुमुक्षु प्रमाता पुरुष जीवन्मुक्ति की अवस्था में जाता है।,वेदान्तोक्तसाधनचतुष्टयसम्पन्नः मुमुक्षुः प्रमाता पुरुषः जीवन्मुक्त्यवस्थां गच्छन्ति। इस पाठ में उसी भाष्य का अनुसरण करके व्याख्या दिया गया है।,अस्मिन्‌ पाठे तस्यैव भाष्याम्‌ अनुसृत्य व्याख्यानं प्रदत्तम्‌ अस्ति। अन्तोदात्तात्‌ उत्तरपदात्‌ अन्यतरस्याम्‌ अनित्यसमासे ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,अन्तोदात्तात्‌ उत्तरपदात्‌ अन्यतरस्याम्‌ अनित्यसमासे इति सूत्रगतपदच्छेदः। दूसरा अर्थ जिससे प्रतिपादित होता है वह वृत्ति है।,परार्थः येन प्रतिपाद्यते सा वृत्तिः। "9. वायुशब्द से यत्प्रत्यय, द्वितीयाबहुवचन का रूप।","9. वायुशब्दात्‌ यत्प्रत्ययः, ततः द्वितीयाबहुवचनम्‌।" यदि दोनों की कुभोजन में ही मति हो जाए तो तत्वदृष्टि से उनमें क्या भेद होगा।,यदि उभयोः अशुचिभक्षणे एव मतिः स्यात्‌ तर्हि शूनतत्त्वदृशयोः को भेदः। भ्रान्ति निमित्त तो सभी उपपादित होता है।,भ्रान्तिनिमित्तं तु सर्वम्‌ उपपद्यते। 16 सविकल्पकसमाधि का योगदर्शन में क्या नाम है?,१६. सविकल्पकसमाधेः योगदर्शने किं नाम? इस कथा में मनुमत्स्य की रमणीय कथा विद्यमान है।,अस्याम्‌ आख्यायिकायां मनुमत्स्ययोः रमणीया कथा विद्यते। भूतपूर्वे यह भी सप्तम्यन्त पद है।,भूतपूर्व इत्यपि सप्तम्यन्तं पदम्‌। कछुआ जैसे भय से अपने अङ्गो का संकोच करता है उसी प्रकार से यह ज्ञान निष्ठा में प्रवृत्त व्यक्ति भी सभी इन्द्रियों को शब्दादि विषयों से संकोच करते हैं।,कूर्मः यथा भयात्‌ स्वानि अङ्गानि संकोचयति तथा यदा अयं ज्ञाननिष्ठायां प्रवृत्तः जनः सर्वाणि इन्द्रियाणि शब्दादिभ्यः संकोचयति । यहाँ तत्समासपर्यालोचन अवसर पर ही समासान्त कार्य विधायक निषेध सूत्रों का समुल्लेख विहित है।,तत्र तत्तत्समासपर्यालोचनावसरे एव समासान्तकार्यविधायकनिषेधकसूत्राणां समुल्लेखः विहितः। "इत्यादि प्रमाणित यास्क का क्या काल है इस विचार में प्रस्तुत किये है, क भाग में) महाभारत के ऊपर लिखे दो पद्यों का उद्धरण उस अर्वाचीन महाभारत से है, ख) पाणिनि ने अपने वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्‌ ४/३/९८ इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को याद किया है उससे यह प्राचीन है।","इत्यादिना प्रमाणितस्य यास्कस्य कः काल इति विचारे प्रस्तुते-क) महाभारतस्य उपरि लिखितपद्यद्वयस्य उद्धरणात्‌ ततः अर्वाचीनो महाभारतः, ख) पाणिनिः स्वकीये वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्‌ ४/३/९८ इत्यस्मिन्‌ सूत्रे कृष्णार्जुनौ स्मृतवान्‌ इति ततः अयं प्राचीनः।" आनुपूर्व्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण होता है।,आनुपूर्व्यार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति। कापिष्ठल संहिता- चरणव्यूह मत के अनुसार इसके विषय में वर्णन करेंगे।,कापिष्ठलसंहिता- चरणव्यूहमतानुसारेण अस्याः विषये प्रतिपादयिष्यते। सभी हव्य द्रव्यों के मिश्रण से ईडा प्रस्तूत किया जाता है।,सर्वेषां हव्यद्रव्याणां मिश्रणेन इडा प्रस्तूयते। इस कथन से स्पष्ट होता है की अथर्ववेद में दो प्रकार के मन्त्र सङ्गृहीत हैं।,अनेन अभिधानेन स्पष्टो भवति यद्‌ अथर्ववेदे द्विविधा मन्त्राः सङ्गृहीताः सन्ति। अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कार्म प्रतिदीव्ने दध॑त॒ आ कृतानि॥,अक्षासो अस्य वि तिरन्ति काम॑ प्रतिदीव्ने दध॑त आ कृतानि ॥ ६ ॥ "विष्णु का और शिव का परम देव स्वरूप में वर्णन, प्रकृति-पुरुष का तथा सत्त्व-रजस तमस तीन प्रकार के गुणों का और साङ्ख्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।","विष्णोः शिवस्य च परदेवस्वरूपे वर्णनं, प्रकृति-पुरुषस्य तथा सत्त्व-रजस्तमसां त्रिविधगुणानां साङ्ख्यसिद्धान्तस्य प्रतिपादनं च।" इसलिए यह स्वप्न स्थान इस प्रकार से भी जाना जाता है।,अतः अयं स्वप्नस्थानः इत्यभिधीयते। इस प्रकार से योगरूढ को आगे ध्यानाभ्यास करना चाहिए।,इत्थं यो योगारूढः सः अग्रे ध्यानाभ्यासं कुर्यात्‌। समाज में जब भोगविलास की शक्ति का उदय होने पर उसी ही काल में जुए खेल का भी बहुत प्रचार और प्रसार दिखाई देती है।,समाजेषु यदा भोगविलासानां तथा शक्तेः उदयः जायते तत्समकालम्‌ एव द्यूतक्रीडायाः अपि महान्‌ प्रचारः प्रसारश्च परिलक्ष्यते । विस्पष्ट शब्द आद्युदात्त अथवा अन्तोदात्त है?,विस्पष्टशब्दः आद्युदात्तः अन्तोदात्तः वा? इस प्रकार से ईश्वरनामोच्चारण के द्वारा मल का तथा विक्षेप का निवारण करना चाहिए।,मलनिवृत्त्यर्थं निष्कामकर्माणि भूतदयादि ईश्वरनामोच्चारणादीनि च साधनानि विधीयन्ते। जैसे - “तोयारि' पद का दो बार उच्चारण करना।,यथा- 'तोयारि' पदस्य द्विवारम्‌ उच्चारणम्‌ । सुशोभनो राजा इस लौकिक विग्रह में सुशोभन सु राजन सु इस अलौकिक विग्रह में “कुगतिप्रदयः'' इस सूत्र से प्रादि तत्पुरुष समास होता है।,"सु शोभनो राजा इति लौकिकविग्रहे सु राजन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे ""कुगतिप्रादयः"" इत्यनेन सूत्रेण प्रादितत्पुरुषसमासो भवति" अथर्ववेद का 'क्षत्रवेद' इस नामकरण का यह ही कारण है।,अथर्ववेदस्य 'क्षत्रवेदः' इति नामकरणस्य इदम्‌ एव कारणम्‌ अस्ति। इस प्रकार से जैमिनि मुनि भी कर्म में वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करते है तो फिर औरों की तो बात ही क्या है।,इत्थं जैमिनिमुनिरपि कर्मणि वेदानां तात्पर्यं प्रतिपादयति चेत्‌ अन्येषां का कथा। "जो स्तुति करता है वह स्तोता है, स्तुति करने से अग्नि से वह रत्न धन को प्राप्त करता है।",यः स्तुतिं करोति स स्तोता स्तुतिकारणात्‌ अग्निसकाशात्‌ रयिं धनम्‌ प्राप्नोति। "न केवल धर्ममूलक होने से ही वेदों का आदर किया जाता है, अपितु विश्‍व में सबसे प्राचीनग्रन्थ होने से भी इनका आदर किया जाता है।","न केवलं धर्ममूलकतयैव वेदाः समादृताः, अपि तु विश्वस्मिन्‌ सर्वप्राचीनग्रन्थतया अपि।" बलवान पर्जन्य की गीतों के द्वारा स्तुति करो।,बलवन्तं पर्जन्यं गीर्भिः स्तुहि। "व्याख्या - मनीषियों मेधावियों को यज्ञ में जिस मन के द्वारा सत कर्म करते है, 'कृ करणे' स्वादि है।",व्याख्या - मनीषिणः मेधाविनः यज्ञे येन मनसा सता कर्माणि कृण्वन्ति कुर्वन्ति ' कृ करणे ' स्वादिः। व्याख्या - यहां मन्त्र में प्राजापत्यहवि का वर्णन है ' प्रजापते इत्येषानुवाक्या।,व्याख्या- इळादधाख्य इष्ट्ययने प्राजापत्यस्य हविषः 'प्रजापते इत्येषानुवाक्या। "सह शब्द का स आदेश होता है अव्ययीभाव होने पर, काल विशेष वाचक उत्तरपद पर होने पर नहीं होता हेै।","सहशब्दस्य सादेशः भवति अव्ययीभावे, कालविशेषवाचके उत्तरपदे परे न भवति।" चतुर्थ मन्त्र में अग्नि के प्रति कहा गया है की तुम जैसे तुम हिंसारहित यज्ञ के चारो और व्याप्त हो उससे वह यज्ञ अवश्य देवों की ओर जाता है।,ततः चतुर्थे मन्त्रे अग्निं प्रति उच्यते यत्‌ त्वं यथा हिंसारहितं यज्ञं परितः व्याप्नोषि तेन अवश्यं यज्ञः देवान्‌ प्रति गच्छति। लेकिन स्वप्न काल में जाग्रत कालीन वासनाभूत सूक्ष्म विषयों का अनुभव करता है इस हेतु से तैज की प्रज्ञा सूक्ष्म हो जाती है।,किन्तु स्वप्नकाले जाग्रत्कालीनान्‌ वासनाभूतान्‌ सूक्ष्मविषयान्‌ अनुभवति इति हेतुना तैजसस्य प्रज्ञा सूक्ष्मा भवति। पूजार्थक विध्‌-धातु से विधिलिङ में उत्तमपुरुषबहुवचन।,पूजार्थकात्‌ विध्‌-धातोः विधिलिङि उत्तमपुरुषबहुवचने। जहाँ पर समाधि में ज्ञातूज्ञानज्ञेयरूप विकल्प भासित होते हैं।,तथैव ज्ञातृ-ज्ञानादीनाम्‌ ब्रह्मविवर्तत्वात्‌ भासते। इससे उपलब्धिप्रज्ञाबल से यह सिद्धान्त द्वैत विशिष्टाद्वैत मत आध्यात्मिक उपलब्धि भिन्न-भिन्न स्तरों की द्योतक प्रतिसम्प्रदाय परम सत्ता सम्बन्धी जो मत है वह आध्यात्मिक उपलब्धि के उस उस स्तर में भी सत्य है।,"एतस्माद्‌ उपलब्धिजातप्रज्ञाबलात्‌ स इममेव सिद्धान्तं चकार यद्‌ द्वैत- विशिष्टाद्वैतादिमतानि आध्यात्मिकोपलब्धेः भिन्नभिन्नस्तराणां द्योतकानि, प्रतिसम्प्रदायं परमसत्तासम्बन्धि यन्मतं विद्यते तद्‌ आध्यात्मिकोपलब्धेः तत्तत्स्तरेषु सत्यभूतमेव।" सगुणोपासना की परम्परा से ही ब्रह्मानुभव हेतुत्व होता है।,सगुणोपासनस्य पारम्पर्येण ब्रह्मानुभवहेतुत्वम्‌। अतः प्रकृत सूत्र से तुल्यश्वेतः यहाँ समस्त पद का तुल्य यह पद आद्युदात्त है।,अतः प्रकृतसूत्रे तुल्यश्वेतः इति समस्तपदस्य तुल्य इति पदम्‌ आद्युदात्तं भवति। इत्यादि श्रुतियाँ प्रमाण भूत है।,इत्यादिश्रुतयः प्रमाणभूताः। इष्टि याग की प्रकृति दर्श पूर्णमास है।,इष्टियागस्य प्रकृतिः भवति दर्शपूर्णमासः। लेकिन प्रकाशकरणात्म ही होता है।,किन्तु प्रकाशकरणात्मकमेव। अवनेग्यम्‌ - अवपूर्वक निज्‌-धातु से ण्यत्प्रत्यय करने पर।,अवनेग्यम्‌ - अवपूर्वकात्‌ निज्‌-धातोः ण्यत्प्रत्यये। देव ब्रह्मण शब्दों के स्वरित के स्थान में अनुदात्त हो।,देवब्रह्मणोः शब्दयोः स्वरितस्य अनुदात्तः स्यात्‌। तैत्तिरीय ब्राह्मण के समान ही यहाँ पर भी प्रत्येक अनुवाक में दस वाक्यों का एक अङ्क होता है।,तैत्तिरीयब्राह्मणमिव अत्रापि प्रत्येकस्मिन्‌ अनुवाके दशानां वाक्यानाम्‌ एकः अङ्कः भवति। जिस प्रकार किसी रोगी को यक्ष्मा हो और फिर वैद्य उसको दूर करता है उसी प्रकार उपद्रव को शांत करें॥,अयक्ष्मया नास्ति यक्ष्मा रोगो यस्यास्तया निरुपद्रवया दृढया अनुपद्रवकारिण्या वा॥ अर्थवाद कौन है?,कः अर्थवादः? ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रेद्युभ्यः इस सूत्र से किसका विधान है?,ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रेद्युभ्यः इति सूत्रेण किं विधीयते? और इसके बाद ““उपसर्जनंपूर्वम्‌”' इस सूत्र से उसका पूर्व प्रयोग होता है।,"ततश्च ""उपसर्जनं पूर्वम्‌"" इति सूत्रेण तस्य पूर्वं प्रयोगः भवति।" वृत्ति के अर्थ के बोध के लिए जो पदसमुदायात्मक वाक्य को प्रयुक्त किया जाता है वह विग्रह कहलाता है।,वृत्तेः अर्थस्य बोधनाय यत्‌ पदसमुदायात्मकं वाक्यम्‌ प्रयुज्यते स विग्रहः कथ्यते। जो परमार्थ संन्यासी होता है।,यो हि परमार्थसंन्यासी । यहाँ कवि में मानवीकरण की भावना अत्यन्त बलवान है।,अत्र कवेः मानवीकरणस्य भावना अतिप्रबला अस्ति। स्तुति की अपेक्षा गायन के प्रति अधिक आकृष्ट होते है।,स्तुतेरपेक्षया गायनं प्रति अधिकाकृष्टाः भवन्ति। कारण यह है कि गङ्गा में घोष कभी भी रुक नहीं सकती है।,कारणं हि गङ्गायां कदापि घोषः अवस्थातुं न शक्नोति। और उसके विभक्ति विपरिणामेन सामान्य वचनैः का विशेषण होने से समानाधिकरण ही होता है।,तच्च विभक्तिविपरिणामेन सामान्यवचनैः इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ समानाधिकरणैः इति भवति । इसी प्रकार घृतादीनां च इस सूत्र से घृतादि शब्दों के अन्त्य स्वर को उदात्त होता है।,एवञ्च घृतादीनां च इति शास्त्रेण घृतादीनां शब्दानाम्‌ अन्त्यस्वरः उदात्तः विधीयते। निर्वोढा - निर्‌ पूर्वक वह-धातु से लुट एकवचन में वैदिक प्रयोग है।,निर्वोढा - निर्पूर्वकात्‌ वह् - धातोः लुटि एकवचने वैदिकप्रयोगः। ताण्ड्य ब्राह्मण में (६/१) प्रजापति के अङग विशेष का वर्णन तथा उन देवताओं की उत्पत्ति का वर्णन है।,ताण्ड्यब्राह्मणे (६/१) प्रजापतेरङ्गविशेषेण वर्णनां तथा तत्तद्देवतानाम्‌ उत्पत्तिः वर्णिताऽस्ति। जो शब्द पूर्व साधारण धर्म से मुक्‍त मनुप्‌ अर्थी याच्‌ प्रत्यय बल से तद्धित दृश्य में होते है वे ही सामान्य वचन है यही वैयाकरणों का सिद्धान्त है।,ये शब्दाः पूर्व साधारणधर्ममुक्त्वा मत्वर्थीयाच्प्रत्ययबलात्‌ तद्वति द्रव्ये वर्तन्ते ते सामान्यवचना इति वैयाकरणराद्धान्तः । "वैसा “' पुरोहितं तथा अथर्वमन्त्र, ब्राह्मण. पारगम्‌'' इति।","तथाहि ""पुरोहितं तथा अथर्वमन्त्र, ब्राह्मण, पारगम्‌"" इति।" जिससे अहंता तथा ममता का उदय होता है।,अहन्ता ममता च उदेति। जिस के द्वारा अर्थ का निर्धारण किया जाए वह लिङ्ग कहलाता है।,लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम्‌। तथा वे कौन-कौन से होते हैं।,कानि च तानि लिति यहाँ पर सप्तमी निर्देश होने से “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' इससे लित के परे पूर्व के कार्य को जानना चाहिए।,"लिति इत्यत्र सप्तमीनिर्देशात्‌ ""तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य"" इत्यनेन लिति परे पूर्वस्य कार्यमिति बोध्यम्‌।" "इस सूक्त के ऐलूषकवष ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, सातवें मन्त्र का जगती छन्द, और देवता अक्ष ऋषि है।","अस्य सूक्तस्य ऐलूषकवषः ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः, सप्तममन्त्रस्य जगती छन्दः, देवता च अक्षः ऋषिः।" "जो भूमि का स्रष्टा है और जो समस्त लोक का जनयिता सत्यधर्मा है द्य जो चन्द्र, जल आदि का भी उत्पादक प्रजापति है, हमें कष्टों से बचाता है।","यः भूमिस्रष्टा, यश्च सर्वलोकजनयिता सत्यधर्मा यो वा चन्द्रोदकादीनामपि उत्पादकः स प्रजापतिः अस्मान्‌ मा बाधताम्‌।" वह यह “नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते” श्रुति है।,स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते इति श्रुतेः। "सरलार्थ - जब पर्जन्यदेव पृथिवी को जल से सिचता है, तब वायु शीघ्र बहती है, बिजली गिरती है, ओषधी उत्पन्न होती है, आकाश टपकने लगता है, सम्पूर्णलोक के लिए पृथिवी (कल्याण प्रदान करने में) समर्थ होती है।","सरलार्थः - यदा पर्जन्यदेवः पृथिवीं जलेन सिञ्चति , तदा वायुः शीघ्रं वाति , विद्युत्‌ पतति , ओषधयः जायन्ते, आकाशं पिन्वते, सम्पूर्णलोकस्य कृते पृथिवी ( भोजनप्रदाने ) समर्था भवति ।" 7. भृतिः इसका क्या अर्थ है?,७. भृतिः इत्यस्य कः अर्थः? यह शिक्षा शास्त्र कुछ इस प्रकार प्राचीन शास्त्र की आलोचना करके ही इसकी रचना की।,शिक्षाशास्त्रमिदं किमपि ईदृशं प्राचीनम्‌ शास्त्रम्‌ आलोक्य एव प्रणीतम्‌। सूत्र का अर्थ - तिङन्त पद से उत्तर कुत्सन आभीक्ष्ण्य अर्थ में वर्तमान गोत्रादिगण में पठित पदों को अनुदात होता है।,सूत्रार्थः - तिङन्तात्‌ पदाद्‌ गोत्रादीनि अनुदात्तानि भवन्ति कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः गम्यमानयोः॥ यहाँ पर समाधि पद के द्वारा निर्विकल्पसमाधि ही उपदिष्ट है।,अत्र समाधिपदेन निर्विकल्पकसमाधिः एव उपदिष्टः। अहो च इस सूत्र से अहो इस ओदन्त अव्ययपद की अनुवृति है।,अहो च इति सूत्रात्‌ अहो इति ओदन्तम्‌ अव्ययपदम्‌ अनुवर्तते। "“सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः'' ( 2.1.61 ) सूत्रार्थ-सत्‌, महत्‌, परम, उत्तम, उत्कृष्ट समान अधिकरण पूज्यमान सुबन्तों के साथ समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः॥ (२.१.६१) सूत्रार्थः - सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः समानाधिकरणैः पूज्यमानैः सुबन्तैः सह समस्यन्ते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।" सूत्र का अर्थ- (पाद के अन्त में यथा यह अनुदात्त होता है)।,सूत्रार्थः- (पादान्ते यथेति अनुदात्तो भवति) । सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ वदति यह युनाति यह दोनों तिङन्त हि शब्द से युक्त है।,सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र वदति इति युनाति इति द्वयं तिङन्तं हिशब्देन युक्तमस्ति। इसलिए दसवीं कक्षा के पाठकों को अच्छी तरह से पढ़ कर बारहवीं कक्षा के पाठकों को पढ़ना है।,अतः दशमकक्षायाः पाठानां सम्यक्‌ अध्ययनं विधाय द्वादशकक्षायाः पाठा अध्येतव्या। इस सूत्र में झयः यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे झयः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌। इसके द्वारा प्रत्येक आत्मा को जाना जाता है इसलिए इसे लिङ्ग कहते हैं।,प्रत्यगात्मसद्भाव एभिरिति लिङ्गानिे। इस प्रकार के इन्द्र के संबन्धि जो शतन्रुवध शस्त्र है उन शस्त्र-अस्त्र के एक साथ आने वाले प्रहार को पार कोई नहीं कर सकता।,अस्य ईदृशस्य इन्द्रस्य संबन्धिनः ये शत्रुवधाः सन्ति तेषां वधानां समृतिं संगमं नातारीत्‌ पूर्वोक्तो दुर्मदः तरीतुं नाशक्नोत्‌। अतः इस सूत्र का अर्थ है-उपमेय सुबन्त को उपमान व्याप्रादि समानाधि करण सुबन्तों के द्वारा विकल्प से साधारण धर्म का अप्रयोग होने पर समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञकः होता है।,"अतः सूत्रस्यास्यार्थः - "" उपमेयं सुबन्तं उपमानैः व्याघ्रादिभिः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह विकल्पेन समस्यते साधारणधर्मस्याप्रयोगे सति, तत्पुरुषसंज्ञकश्च भवति "" इति ।" काण्व संहिता विषय पर टिप्पणी लिखिए।,काण्वसंहिताविषये टिप्पणी लेख्या। "तैत्तिरीय ब्राह्मण कहता है - “वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत, ग्रीष्मे राजन्य आदधीत।","तैत्तिरीयब्राह्मणं वदति -'वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत, ग्रीष्मे राजन्य आदधीत।" "जब द्यूतकार उसकी धनराशि को पणरूप से प्रतिज्ञा के लिये भी उसको देने के लिए नही चाहते है, तब राजा के सिपाही रस्सी के द्वारा बान्ध करके राजा के समीप ले जाते हैं।",यदा द्यूतकारः तस्य धनराशिं पणरूपेण प्रतिज्ञाय अपि तान्‌ प्रदातुं नेच्छति तदा राजजनैः रज्जुभिः बद्धः सः राजसमीपं नीयते । "अविवेकी बालकों के द्वारा अज्ञान काल में यह देखा जाता है कि मैं बड़ा हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं गोरा हूँ, इस प्रकार से देहादिसङ्घात में अहं प्रत्यय होता है।","अविवेकिनां हि अज्ञानकाले बालानां दृश्यते 'दीर्घोऽहम्‌,गौरोऽहम्‌, इति देहादिसङ्घाते अहंप्रत्ययः।" जिसको क-शब्दसे कहा गया है।,स च क-शब्दाभिधेयः। 3. तात्पर्यनिर्णायक लिङग कितने होते हैं तथा वे कौन-कौन से हैं?,3. तात्पर्यनिर्णायकानि लिङ्गानि कति। कानि च। और वह प्रथमान्त है।,तच्च प्रथमान्तम्‌ अस्ति। इसलिए कहा गया है इन्द्रियाणाम्‌ उपरमे मनोऽनुपरतं यदि सेवते विषयानेव तद्विद्यात्‌ स्वप्नदर्शनम्‌॥,तथा च ज्ञायते-इन्द्रियाणाम्‌ उपरमे मनोऽनुपरतं यदि सेवते विषयानेव तद्विद्यात्‌ स्वम्नदर्शनम्‌॥ व्याख्या - क्षुद्रक कम।,व्याख्या - क्षुल्लकाः क्षुद्रकाः अल्पकाः। "इस प्रकार यहाँ उदात्त से परे अनुदात्त के होने से 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस पूर्वसूत्र से अनुदात्त को स्वरित स्वर की प्राप्ति होने पर उसका स्वरित परे होने से इस प्रकृत सूत्र से, पूर्व सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर का निषेध होता है।","एवमत्र उदात्तात्परस्य अनुदात्तस्य सत्त्वाद्‌ उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इति पूर्वसूत्रेण अनुदात्तस्य स्वरितस्वरे प्राप्ते तस्य स्वरितपरत्वाद्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण, पूर्वण प्राप्तस्य स्वरितस्वरस्य निषेधः भवति।" यज्ञकर्मणि इस पद कौ निवृत्ति के लिए।,यज्ञकर्मणि इति पदस्य निवृत्त्यर्थम्‌। अतः सूत्र का अर्थ है - कर्मवाचि क्तान्त उत्तरपद रहते तृतीयान्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है।,अतः सूत्रार्थः भवति - कर्मवाचिनि क्तान्ते उत्तरपदे तृतीयान्तस्य पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः भवति इति। डयसन महोदय के अनुसार से उपनिषदों के कितने प्रकार के भेद है और वे कौनसे है?,डयसनमहोदयानुसारेण उपनिषदः कतिविधाः भेदाः। के च ते। इसी कारण १२०००'३६=४३२००० होते है।,अतः १२०००*३६=४३२००० भवति। "तस्मात्‌ पञ्चमी एकवचनात्त है, नुट यह प्रथमा एकवचनात्त पद है और अचि सप्तम्येक वचनात्त पद है।","तस्मात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं, नुट्‌ इति प्रथमैकवचनान्तम्‌ अचि इति सप्तम्येकवचनान्तं च पदम्‌ ।" वस्तुतः उन दोनों में अभेद ही होता है।,वस्तुतः तयोः नास्ति भेदः। उदात्त परे और स्वरित परे अनुदात्तके स्थान में अनुदात्तर आदेश हो जाता है।,उदात्तपरस्य स्वरितपरस्य च अनुदात्तस्य सन्नतर आदेशो भवति। उसकी दिन में तीन हवि के द्वारा उपासना की जाती है।,स दिवसस्य त्रिभिः हविर्भिः उपास्यते। विशेष रूप से लाल।,विलोहितः विशेषण रक्तः। धेनाः - धे-धातु से शब्द से इसकी उत्पति हुई।,धेनाः-धे-धातोः शब्दस्यास्य निष्पत्तिः। "आजकल उपलब्ध निघण्टु ग्रन्थ एक ही है, परन्तु प्राचीन परम्परा के अनुशीलन से ) ज्ञात होता है की निघण्टु ग्रन्थ अनेक है।","सम्प्रति समुपलब्धः निघण्टुग्रन्थः एक एव अस्ति, परन्तु प्राचीनपरम्पराया अनुशीलनेन ज्ञातो भवति यत्‌ निघण्टुग्रन्था अनेके सन्ति।" इसी प्रकार उस परलोक में प्राप्त होने स्वर्गादि सुखों का अमृतादि विषय भोगों का भी अनित्यत्व होता है।,एवम्‌ एव आमुष्मिकाणां परलोके लभ्यमानानां स्वर्गादिसुखानाम्‌ अमृतादिविषयभोगानाम्‌ अपि अनित्यत्वम्‌। "जो जुआरी विजय होता है, उसके लिए पासे पुत्रजन्म के समान आनंद दाता होता है।",किंच जयतः कुमारदेष्णाः धनदानेन धन्यतां लम्भयन्तः कुमाराणां दातारो भवन्ति । 11. सिद्धान्त में लिङ्ग किसमें नष्ठ होते हैं?,११. सिद्धान्ते लिङ्गं किन्निष्ठम्‌? अन्तः करणोपहित चैतन्य साक्षी कहलाता है।,अन्तःकरणोपहितं चैतन्यमेव साक्षीत्युच्यते। निश्चित रूप से जो उत्पन्न होता है वह नष्ट भी होता है।,ननु यत्‌ जायते तत्‌ नश्यति। जपपूजापारायणहोमदानध्यान आदि के फलोद्देश से क्रियमाण कर्म होते हैं।,जपपूजापारायणहोमदानध्यानादीनि फलोद्देशेन क्रियमाणानि कर्माणि सन्ति। भृतिः - भृधातु से क्तिन्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में।,भृतिः - भृधातोः क्तिन्प्रत्यये प्रथमैवचने। उसी दिन सायंकाल में भी अग्निहोत्र करना होता है।,तस्मिन्‌ दिवसे सायंकाले अग्निहोत्रं करणीयं भवति। "11. ऋग्वेद कितने प्रकार का है, और वे कौन-कौन से है?",ऋग्वेदः कतिविधः? के च ते? 9 वेदान्तपरिभाषाकार के मतानुसार तात्पर्य अनुपपत्ति ही लक्षणा है।,९. तात्पर्यानुपपत्तिरेव लक्षणा इति वेदान्तपरिभाषाकारस्य मतम्‌। "इसी प्रकार उस उस कोष में कल्पित अभिमान जीव की मनोमयात्मा, विज्ञानमयात्मा तथा आनन्दमयात्मा होती है।",एवं तत्तत्कोशेषु कल्पिताभिमानात्‌ मनोमायात्मा विज्ञानमयात्मा आनन्दमयात्मा च भवति जीवः। उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।,तस्य सर्वाणि पापानि विनश्यन्ति। वहाँ पर ज्ञान भी अपेक्षित होता है।,तत्र ज्ञानमपेक्षते। वे कलाओ में कुशल जीवन को देखना चाहते थे।,ते कलासु कुशलं जीवनं द्रष्टुम्‌ इष्टवन्तः। सगुण ब्रह्म विषय तथा निर्गुण ब्रह्मविषया इस प्रकार से सगुण ब्रह्म विषय उपासना में ब्रह्म विद्या के बहिरङ्ग साधनों को गिना जाता है।,सगुणब्रह्मविषया निर्गुणब्रह्मविषया इति। सगुणब्रह्मविषयकम्‌ उपासनम्‌ एव ब्रह्मविद्यायाः बहिरङ्गसाधनेषु अथवा परम्परासाधनेषु गण्यते। अच्छा कल्याण है जिसका वह मङ्गलरूप सूर्य सभी की मगंल कामना से प्रवृत होता है ।,सुमङ्गलः शोभनानि मङ्गलानि यस्य मङ्गलरूपः रव्युदये सर्वमङ्गलप्रवर्तनात्‌। "तो कहते हैं की जिसमें जिस भूत के अंश अधिक होते हैं,उस भूत में वह उस नाम से कहा जाता है।",यस्मिन्‌ यस्य भूतस्य अंशः अधिकः तिष्ठति तद्भूतं तन्नाम्ना एव व्यपदिश्यते। 13.अज्ञान का आवरण क्या होता है?,१३. अज्ञानावरणं किम्‌। 24.1.1 प्रथम भाग : मूलपाठ की व्याख्या- श्लोक नमस्ते रुद्र मन्यव उतो तऽइषवे नमः।,२४.१.१ प्रथमो भागः इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम- नमस्ते रुद्र मन्यव उतो तऽइष॑वे नमः। यदः स्थान में उसका पर्यायवाची शब्द उकार है।,यदः स्थाने तच्छब्दः उकारश्चार्थः। "में स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ इस प्रकार के व्यवहार देह के होते हैं।","अहं स्थूलः अस्मि, अहं कृशः अस्मि इत्यादिव्यवहाराः सन्ति।" सूपायनः - सुपूर्वक और उपपूर्वक से इ-धातु से युच्प्रत्यय करने पर सूपायनः यह रूप बनता है।,सूपायनः- सुपूर्वकात्‌ उपपूर्वकात्‌ इ-धातोः युच्प्रत्यये सूपायनः इति रूपम्‌। "उत्पन्न होने पर भी वह ही उत्पन्न होता है, और आगामी काल में भी वह ही होगा।",जातोऽपि स एव जनिष्यमाणः उतपत्स्यमानोऽपि स एव। "आरण्यक का मुख्य प्रतिपाद्य विषय केवल यज्ञ ही नहीं, अपितु यज्ञ, याग आदि के अन्दर विद्यमान आध्यात्मिक तथ्य की विवेचना भी है।","आरण्यकस्य मुख्यप्रतिपाद्यविषयः न केवलं यज्ञः, अपि तु यज्ञ-यागाद्यभ्यन्तरे विद्यमानस्य आध्यात्मिकतथ्यस्य मीमांसापि अस्ति।" इस फलत्रय को लाघव कहा जाता है।,इदं फलत्रयं लाघवम्‌ उच्यते। वह ही उत्पन्न होता है और उत्पन्न होगा।,जातोऽपि स एव जनिष्यमाणः। 8 उपनिषद्‌ इस शब्द का क्या अर्थ है?,८. उपनिषत्‌ इति शब्दस्य अर्थः कः? एका भी सप्तमी यहाँ विषयमेड से है।,एकापि सप्तमी अत्र विषयभेदात्‌ भिद्यते । केसे पता चलता है की यह अज्ञान का आवरण है।,कथं ज्ञायते यद्‌ अज्ञानावरणम्‌ अस्ति। यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम्‌।,यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिँ पृथिवीमप्रंमादम्‌। "ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञीय विधि, विधान निमित्त का उचित कारण का भी निर्देश विस्तार से प्राप्त होता है।",ब्राह्मणग्रन्थेषु यज्ञीयविधि-विधाननिमित्तकस्य समुचितकारणस्य अपि निर्देशः विस्तारेण प्राप्यते। अथ प्रकृत सूत्र से ही यहाँ अपने अपने क्रम से स्वर उदात्त होते हैं।,अथ प्रकृतसूत्रेण एव पर्यायक्रमेण अत्र स्वराः उदात्ताः भवन्ति। आदित्यपुरुष और प्रजापति की पत्नियाँ है।,आदित्यस्य पुरुषस्य प्रजापतेः पत्न्यौ। स्वप्नकाल में भी जाग्रतकाल समान ही सभी प्रकार के व्यवहार सम्भव होते हैं।,स्वप्नकाले जाग्रत्कालीनवत्‌ सर्वोऽपि व्यवहारः सम्भवति। और भी प्र यह शब्द प्रकार आदि से भिन्न है।,अपि च प्र इति शब्दः प्रकारादिभिन्नः। "विशेष संज्ञायें में होती हैं- अव्ययीभाव, तत्पुरुष, द्वन्द और बहुव्रीहि।","विशेषसंज्ञाः भवन्ति - अव्ययीभावः, तत्पुरुषः, द्वन्द्वो बहुव्रीहिश्च।" रुद्र का वैशिष्ट्य लिखिए।,रुद्रस्य वैशिष्ट्यं लिखत। 5 अर्थवाद किसे कहते हैं?,५. अर्थवादः नाम किम्‌? पूर्व भाग में शिवसंकल्पसूक्त विद्यमान है और उत्तर भाग में प्रजापतिसूक्त रखा गया है।,"पूर्वार्ध शिवसंकल्पसूक्तं विद्यते, उत्तरार्धे च प्रजापतिसूकम्‌ उपन्यस्तमस्ति।" उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इस सूत्र का अर्थ लिखिए।,उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः इति सूत्रस्य अर्थं लिखत। 1. प्रजापतिश्चरति गर्भे ... ये मन्त्रांश पुरुषसूक्त का है।,1. प्रजापतिश्चरति गर्भे इति मन्त्रांशः पुरुषसूक्तस्य। घोड़े व्यापकशील मेघ को कहते है।,अश्वा व्यापनशीला मेघाः। और जो मन हृदय में प्रतिष्ठित है।,यच्च मनः हृत्प्रतिष्ठं। शङ्कराचार्य भी ब्रह्म सूत्र भाष्य में वेदव्यास को समर्थन देते है।,शङ्कराचार्यः अपि ब्रह्मसूत्रभाष्ये वेदव्यासं समर्थयति। अथवा क्षत्र बल को अपरिमित खम्भे वाले यज्ञ भवन को और जाने के लिए रथ को साथ में धारण करते है।,"अथवा क्षत्रं बलम्‌,अपरिमिताभिः स्थूणाभिरुपेतं यज्ञभवनं, अथवा रथं च गमनार्थं सह धारयथः।" "यहाँ सूक्त में प्रथम-सात, नौ और बारहवें मन्त्र का अक्षा देवता है।",अत्र सूक्ते प्रथम - सप्तम - नवम - द्वादशमन्त्रस्य च अक्षा देवताः । विवेक यह आत्मा है तथा यह आत्मा नहीं है इस प्रकार के विवेचन का ज्ञान होता है।,विवेको नाम अयमात्मा भवति अयमात्मा न भवतीति विवेचनज्ञानम्‌। इसिलए विवेकानन्द दर्शन वेदान्त का कालोपयोगिता के द्वारा प्रायोगिक व्याख्यान है।,अतः विवेकानन्ददर्शनं नाम वेदान्तस्य कालोपयोगितया प्रायोगिकं व्याख्यानम्‌। "जिस अवस्था में जाकर के सुप्त पुरुष कोई भी कामना नहीं करता है, तथा न कोई स्वप्न देखता है वह सुषुप्ति अवस्था कहलाती है।","यस्याम्‌ अवस्थायां सुप्तः पुरुषः न कञ्चन कामं कामयते, न कञ्चन स्वप्नं पश्यति सा सुषुप्त्यवस्थेति कथ्यते।" न की अगृह्यमाण विशेषसामानन्य में।,न अगृह्यमाणविशेषसामान्ययोः। अतः इस मन्त्र में उप इस उपसर्ग का एमसि इस क्रियापद के साथ अन्वय होता है।,अतः अस्मिन्‌ मन्त्रे उप इति उपसर्गस्य एमसि इति क्रियापदेन सह अन्वयः भवति। तो वे भी चित्त की शुद्धि में कारण होते हैं।,तर्हि तानि अपि चित्तशुद्धिकराणि भवन्ति। और जब यह आख्यान यज्ञ के संकुचित प्रान्त को छोड़कर साहित्य के सार्वभौम क्षेत्र में रचे गए तब वैदिक कर्मकाण्ड के कर्कश भाव भी उसको रोक नहीं सके।,किं च यदा आख्यानमिदं यज्ञस्य सङ्कीर्णप्रान्तं परित्यज्य साहित्यस्य सार्वभौमक्षेत्रे विचरति तदा वैदिककर्मकाण्डस्य कर्कशता तं रोद्धुं न शक्नोति। "न पन्थाः इस लौकिक विग्रह में न पथिन्‌ सु इस अलौकिक विग्रह में “नञ्'' सूत्र से तत्पुरुष समास होने पर, प्रातिपदिकत्व से सुप्‌ का लोप होने पर न लोप अपथिन्‌ निष्पन्न होता है।","न पन्थाः इति लौकिकविग्रहे न पथिन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे ""नञ्‌"" इत्यनेन सूत्रेण तत्पुरुषसमासे, प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि, नलोप अपथिन्‌ इति निष्पदद्यते।" 7 आनन्दमय कोश के आत्मत्व का निरास कीजिए।,7 आनन्दमयकोशस्य आत्मत्वनिरासं कुरुत। शास्त्रज्ञ को भी स्वतन्त्रता पूर्वक ब्रह्म का अन्वेषण नहीं करना चाहिए।,शास्त्रज्ञोऽपि स्वातन्त्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्याद्‌। इस सन्दर्भ में भारतीय विद्वानों ने नाटको का उदय वेद में स्थित सूक्तमूल ही बताया है।,अस्मिन्‌ सन्दर्भे भारतीया विद्वांसो नाटकानामुदयः वेदस्थितसूक्तमूलकः एव इत्याहुः। काम्यकर्मों का सक्षेप में परिचय दीजिए।,काम्यं कर्म संक्षेपेण परिचाययत। आस्तिक और नास्तिक दर्शन के भेद का ज्ञान हो।,आस्तिकनास्तिकदर्शनभेदस्य ज्ञानं भवेत्‌। किस प्रकार की अग्नि?,कीदृशमग्निम्‌? किन्तु पञ्चमी के बिना सुप्‌ के स्थान पर अमादेश होता हेै।,किञ्च पञ्चमीं विना सुपः स्थाने अमादेशो भवति। यास्क का प्रभाव बाद के समय के भाष्य के ऊपर है।,यास्कस्य प्रभावः अवान्तरकालिकस्य भाष्यस्य उपरि अस्ति। भले ही अज्ञानवश पदार्थों की नाना रूपों के द्वारा प्रतीति होती हे।,यद्यपि अज्ञानवशात्‌ पदार्थानां नानारूपेण प्रतीतिः भवति। टच्‌ के अभाव में उपसमिध इस प्रातिपदिक से सु उपसमित यह रूप है।,टजभावपक्ष उपसमिध्‌ इति प्रातिपदिकात्‌ सौ उपसमित्‌ इति रूपम्‌। प्राणमय काल मे यह निरुद्ध होता है।,प्राणायामकाले अयं निरुद्ध्यते च। "बालखिल्य सूक्तों को छोड़कर सम्पूर्ण ऋग्वेद संहिता में दस मण्डल, पचासी अनुवाक और दो हजार छः वर्ग है।",बालखिल्यसूक्तानि विहाय सम्पूर्णयाम्‌ ऋग्वेदसंहितायां दश मण्डलानि पञ्चाशीतिश्च अनुवाकाःअष्टोत्तरशतद्वयमिताश्च वर्गाः सन्ति। वर्धमानम्‌ - वृध्‌ -धातु से शानच्य्रत्यय करने पर द्वितीया एकवचन में वर्धमानम्‌ यह रूप बनता है।,वर्धमानम्‌ - वृध्‌-धातोः शानच्प्रत्यये द्वितीयैकवचने वर्धमानम्‌ इति रूपम्‌। "“प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः” 38. व्यधिकरणतत्पुरुष का द्वितीयातत्पुरुष, तृतीयातत्पुरुष, चतुर्थीतत्पुरुष, पञ्चमीतत्पुरुष, षष्ठीतत्पुरुष और सप्तमीतत्पुरुष के छः भेद होते हैं।","""प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः"" ३८. व्यधिकणतत्पुरुषस्य द्वितीयातत्पुरुषः, तृतीयातत्पुरुषः, चतुर्थीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः, षष्ठीतत्पुरुषः सप्तमीतत्पुरुषश्चेति षट्‌ भेदाः सन्ति।" इसलिए शुद्ध चैतन्य कहा भी गया है।,उच्यते “शुद्धचैतन्यम्‌” इति। अद्ठितीयवस्तु ब्रह्म के साधन में विकारार्थ पद की वाङ्मात्रत्व विषय में युक्ति है - यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात्‌ वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌” (छान्दोग्योपनिषत्‌ 6.1.4 ) इस श्रुति का अर्थ मृत्पिण्ड के द्वारा निर्मित गृह घटादि होते हैं।,अद्वितीयवस्तुनः ब्रह्मणः साधने विकारपदार्थस्य वाङ्कात्रत्वविषये युक्तिः तावत्‌- “यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्यात्‌ वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌” (छान्दोग्योपनिषत्‌ ६.१.४) इति। अस्याः श्रुतेः अर्थः भवति मृत्पिण्डेन एव निर्मिताः गृहघटादयः। 15.3 वेद में अग्नि का चरित्र चित्रण- याग ही आर्यों का इस लोक का और परलोक का साधन दोनों की उन्नति करने का एक ही धर्मसाधन के रूप में गणना की जाती है।,१५.३ वेदे अग्निचरितम्‌- यागो हि आर्याणाम्‌ ऐहिकामुष्मिकाभ्युदयसाधनम्‌ अपूर्वमुत्पादयन्‌ एकमेव धर्मसाधनमिति परिगण्यते। सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ या धातु से “कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः' इससे तवै-प्रत्यय होने से यातवै यह रूप हुआ।,"सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र याधातोः ""कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः"" इत्यनेन तवै-प्रत्ययेन यातवै इति रूपम्‌ अभवत्‌।" इसके बाद शप्श्यनोर्नित्यम्‌ सूत्र से नुम्‌ आगम होने पर पचन्त ई स्थिति में वर्णसम्मेलन होने पर पचन्ती रूप सिद्ध होती है।,ततः शप्श्यनोर्नित्यम्‌ इति नुमागमे अनुबन्धलोपे च सति पचन्त्‌ ई इति स्थिते वर्णमेलने च पचन्ती इति रूपं सिध्यति अग्नि यदि यजमान के द्वारा दी गई हवी को उस देवता को प्राप्त नहीं कराता तो उस यजमान को अभीष्ट कहाँ से प्राप्त होता?,अग्निर्यदे यजमानेन हुतं हव्यं तत्तद्देवान्‌ न प्रापयेत्‌ तदा कुतोऽभीष्टप्राप्तिः? इन शिक्षाओं का ही यहाँ संक्षिप्त वर्णन देते हैं।,आसाम्‌ एव शिक्षाणां संक्षिप्तवर्णनम्‌ अत्र दास्यते। “विभाषितं विशेषवचने ' यह एक अतिदेश सूत्र है।,'विभाषितं विशेषवचने' इति एकम्‌ अतिदेशसूत्रं वर्तते। इन्द्र की पत्नी कौन है ?,इन्द्रस्य पत्नी का ? "उनमें- ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ , उगितश्च, वयसि प्रथमे, द्विगोः, वर्णादनुदात्तात्तोपधात्‌ तो नः, टिड्ढाणञ्द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्तयप्ठक्ठञ्कञ्क्वरपः ये सूत्र यहाँ मुख्य रूप से चिन्तन करने योगय हैं।","तेषु - ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ , उगितश्च, वयसि प्रथमे, द्विगोः, वर्णादनुदात्तात्तोपधात्‌ तो नः, टिड्ढाणञ्द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्तयप्ठक्ठञ्कञ्क्वरपः इति एतानि सूत्राणि मुख्यानि अत्र चितानि च।" निर्वकल्प समाधि होने पर अखण्डाकार चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।,निर्विकल्पकसमाधौ सति अखण्डाकारा चित्तवृत्तिरुदेति। 25. निर्विकल्पक समाधि में चित्त की वृत्तियाँ रुकती हैं अथवा नहीं?,२५ . निर्विकल्पकसमाधौ चित्तवृत्तिस्तिष्ठति न वा? इस सूत्र से असंज्ञा होने पर गम्यमान तद्धित से ञ प्रत्यय होता है।,अनेन सूत्रेण असंज्ञायां गम्यमानायां तद्धितः ञप्रत्ययो विधीयते । "महाव्रत के अनुष्ठान वर्णन, निष्कैवल्य शास्त्र, प्राणविद्या, पुरुष आदि का वर्णन, कुछ स्थलो में ब्रह्मविद्या को गूढ़ता का विस्तार से भी वर्णन है।",महाव्रतस्य अनुष्ठानवर्णनं-निष्कैवल्यशास्त्र - प्राणविद्या - पुरुषप्रभृतीनाम्‌ वर्णनं केषुचित्‌ स्थलेषु ब्रह्मविद्यायाः गूढतया विस्तारेण च वर्णनमपि वर्तते। "सभी धर्म सम्प्रदायों का बौद्ध, जैन, मुहम्मद तथा अन्य धर्मो का भी अन्तिम लक्ष्य मोक्ष ही है।",समेषामेव धर्मसम्प्रदायानां बौद्ध-जैन-महम्मदीय-खृष्टीयधर्माणाम्‌ अपि अन्तिमं तावत्‌ लक्ष्यं मोक्ष एव। उससे आकाश में उसी के अंश के आधिक्य से आकाश इस प्रकार का व्यवहार सिद्ध होता है।,तस्माद्‌ आकाशे तदीयांशस्य आधिक्यवशाद्‌ आकाश इति व्यवहारः सिध्यति। इसके बाद “'तद्धितेत्वाचामादेः”' इससे पूर्वशालाशब्द के आदि अच्‌ का ऊकार की वृद्धि होने पर औकार होने पर पौर्वशाला इसके असंज्ञा होने पर पौर्वशालशब्द के प्रतिपादिकत्व होने से सु विभक्ति कार्य होने पर पौर्वशालः रूप सिद्ध होता है।,"ततः ""तद्धितेष्वाचामादेः"" इत्यनेन पूर्वशालाशब्दस्य आद्यचः ऊकारस्य वृद्धौ औकारे पौर्वशाला इत्यस्य भसंज्ञायां ""यस्येति च"" इति सूत्रेण भसंज्ञकस्य आकारस्य लोपे पौर्वशाल्‌ अ इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य पौर्वशालशब्दस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ सौ विभक्तिकार्ये पौर्वशालः इति रूपं सिद्धम्‌ ।" ज्ञानेन्द्रिय आकाशादि के अलग-अलग सात्विक अंशों से क्रम से उत्पन्न होती हैं।,ज्ञानेन्द्रियाणि आकाशादीनां पृथक्‌ पृथक्‌ सात्त्विकांशेभ्यः क्रमेण उत्पद्यन्ते। तृतीयान्त सुबन्त को तृतीयान्तार्थकृतगुणवचन और अर्थशब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,तृतीयान्तं सुबन्तं तृतीयान्तार्थकृतगुणवचनेन अर्थशब्देन च सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। व्याख्या - हे जुआरी कभी जुआ नही खेलना।,व्याख्या - हे कितव अक्षैर्मा दीव्यः द्यूतं मा कुरु । मनोगत भावों को सुन्दर रूप से प्रकट करने के लिए अलङऱकारों की आवश्यकता होती है।,मनोगतभावानां सुन्दरतया प्रकटनाय अलङ्काराः आवश्यकाः भवन्ति। घट प्रकाशित नहीं होता है तो कहते है कि घटावच्छिन्न चैतन्य में अज्ञान है इस प्रकार से प्रतीत होता है।,घटो न प्रकाशते इति उच्यते चेत्‌ घटावच्छिन्ने चैतन्ये अज्ञानं वर्तते इति प्रतीयते। "यह वचन ही मौनव्रत विरुद्ध होता है, वैसा दोष प्रकृत स्थल पर आता है।",इति वचनम्‌ एव मौनव्रतविरुद्धं भवति तथैव दोषः प्रकृतस्थले समापतति। अतः कहा भी है - “उभयतो ज्योतिरभिप्लव षडहः।,"अतः उच्यते - ""उभयतो ज्योतिरभिप्लवषडहः""।" उससे चित्त की स्थिरता सम्भव नहीं होती है।,तेन चेतसः स्थिरता न सम्भवति। उपमान शब्द कब आद्युदात्त होता है?,उपमानशब्दः कदा आद्युदात्तः? यहाँ पदों का अन्वय है - रिति उपोत्तमं उदात्तम्‌ इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः भवति- रिति उपोत्तमं उदात्तम्‌ इति। पाथः इसका क्या अर्थ है?,पाथः इत्यस्य कः अर्थः? वहाँ समर्थ: यह प्रथमाविभक्ति का एकवचनान्त पद है।,तत्र समर्थः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। "पूर्व भाग में विष्णुसूक्त विद्यमान है, और उत्तरार्ध भाग में मित्रावरुणसूक्त लिया गया है।","पूर्वार्ध विष्णुसूक्तं विद्यते, उत्तरार्थे च मित्रावरुणसूक्तम्‌ उपन्यस्तमस्ति।" मनुमत्स्य कथा में मनु मछली की कथा को प्रतिपादित किया गया है।,मनुमत्स्यकथायां मनुमत्स्ययोः कथा प्रतिपादिता। प्रत्यक्षादि प्रमाण की अनुपलब्धि होने पर विषय में अग्निहोत्रादि साध्य सम्बन्ध में ही श्रुति का प्रमाण होता है।,प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपलब्धे हि विषये अग्निहोत्रादिसाध्यसाधनसम्बन्धे श्रुतेः प्रामाण्यं। देवता में आया वैशिष्ट्य ऋग्वेद में ही देवता प्राणशाली होने से असुर ऐसा कहा।,देवगतवैशिष्ट्यम्‌ ऋग्वेदे हि देवताः प्राणशालित्वात्‌ असुर इति प्रोक्ताः। लौकिक विश्वानि और भुवनानि दो रूप है।,लौकिके तु विश्वानि भुवनानि चेति रूपद्वयम्‌ । "भूमि माता है, मैं इसका पुत्र हूँ, पर्जन्य पिता है, वह हमारा पालनपोषण करे।","भूमिः माता अस्ति, अहं पृथिव्याः पुत्रः अस्मि, पर्जन्यः पिता अस्ति, सः अस्माकं पालनपोषणं करोतु।" हमारे द्वारा उत्पन्न किये गये बल महत्त्व को।,अस्मत्कृत्यादिजन्यं बलं महत्त्वम्‌। वेदाहमेतं पुरुषम्‌ ... इस प्रतीकरूप में उद्धृत मन्त्र को सम्पूर्ण लिखकर व्याख्या करो।,वेदाहमेतं पुरुषम्‌.... इति प्रतीकोद्धृतम्‌ मन्त्रं सम्पूर्णम्‌ उद्धृत्य व्याख्यात। वैसे ही ब्रह्मज्ञान से पूर्व विद्यामान शुभवासनाओं की भी अनुवृत्ति होती है।,तथैव ब्रह्मज्ञानात्‌ पुर्वं विद्यमानानां शुभवासनानाम्‌ अपि अनुवृत्तिः भवति। उनको अन्नादि के द्वारा बढाने वाले।,ताम्‌ अन्नादिना वर्धमानाः। "मित्र और वरुण दोनों सूर्यरूप से ही ग्रहण किया जाता है, क्योंकि सूर्य ही दिन और रात्री के स्रष्टा है।","मित्रः वरुणश्च उभौ सूर्यरूपेण एव ग्राह्यौ, यतो हि सूर्य एव दिवारात्र्यै स्रष्टा।" समुचित् सन्दर्भ में ये अलङ्कार काव्य शोभा को निरंतर बढ़ाते हैं।,समुचिते सन्दर्भे इमे अलङ्काराः काव्यशोभां नितराम्‌ अभिवर्धयन्ति। श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ में कहा भी गया है - “तं ह देवात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये” ईश्वर में सर्वकर्मफल समर्पण ही ईश्वरप्रणिधान कहलाता है।,आम्नायते च श्वेताश्वतरोपनिषदि - “तं ह देवात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये” इति। ईश्वरे सर्वकर्मफलसमर्पणं हि ईश्वरप्रणिधानम्‌। यज्ञ में किसके विधान का निषेद्ध है?,यज्ञे कस्य विधानं निषिद्धम्‌? 9 राग किसे कहते हैं तथा वह कितने प्रकार का होता है?,"९, रागः कतिविधः, के च ते?" उस परमपुरुष का ही एक रूप प्रजापति है।,तस्यैव परमपुरुषस्यैको रूपः प्रजापतिः इति। सरलार्थ - इस मन्त्र में यज्ञकार अग्नि के प्रति कहते है की हम दिन और रात बुद्धि से युक्त आप को नमस्कार करते हुए और हम तेरे समीप आते है।,सरलार्थः- अस्मिन्‌ मन्त्रे यज्ञकारिणः अग्निं प्रति कथयति यत्‌ वयं दिवा रात्रौ च बुद्धियुक्ताः भवन्तः प्रणमन्तश्च तव समीपम्‌ आगच्छामः। उसके बाद आश्रमों का भी पर्याप्त निर्देश प्राप्त होता है।,तदनन्तरम्‌ आश्रमाणाम्‌ अपि पर्याप्तनिर्देशः प्राप्यते। 2 किस प्रकार का ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है विवरण दीजिए।,कीदृशं ज्ञानम्‌ अज्ञानस्य नाशकम्‌ इति विवृणुत। और भी यहाँ प्रेम विषय और विवाह विषय पर विविध सूक्त उपलब्ध होते है।,अपि च अत्र प्रेमविषयकाणि विवाहविषयकाणि च विविधानि सूक्तानि उपलभ्यन्ते। विषयों के प्रति चित्त का आकर्षण ही विक्षेप होता है।,विषयान्‌ प्रति चित्तस्य आकर्षणं विक्षेपः। “द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः '' सूत्रार्थ-द्वितीयान्त सुबन्त को श्रित आदि प्रकृति के सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष सामस संज्ञा होती है।,द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः सूत्रार्थः - द्वितीयान्तं सुबन्तं श्रितादिप्रकृतिकैः सुबन्तैः सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। “चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः”' इस सूत्र का विग्रह सहित एक उदाहरण दीजिये।,"""चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः"" इति सूत्रस्य सविग्रहम्‌ एकमुदाहरणं देयम्‌।" वह यह मैं ऋत सत्य ही बोलता हूँ।,तत्‌ एतत्‌ अहम्‌ ऋतं सत्यमेव वदामि । विवेकानन्द के मत में आध्यात्मिकप्रपञ्च में प्रमाणभूत क्या है?,विवेकानन्दमते आध्यात्मिकप्रपञ्चे प्रमाणभूतं किम्‌? "ये किस वेद में प्रपाठक में और अनुवाक में है, उसका भी यहाँ वर्णन है।","एतानि कस्मिन्‌ वेदे प्रपाठके अनुवाके च सन्ति, तदपि अत्र उपस्थाप्यते।" लेकिन निर्विकल्प समाधि ही मोक्ष है इस प्रकार से मोक्ष के प्रति कारण भगवान शङ्कराचार्य ने प्रतिपादित किया है-,"किञ्च, निर्विकल्पकसमाधिः एव मोक्षं प्रति कारणमिति भगवता शङ्कराचार्येण प्रतिपाद्यते-" अकल्पयन्‌ - क्लृप्‌-धातु से लङ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।,अकल्पयन्‌- क्लृप्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने। जब तक विपरीत भावना का निवारण नहीं होता है।,यावद्‌ विपरीतभावना न निवर्तते। दर्पण के अभाव में तो प्रतिबिम्ब भी नहीं होता है।,दर्पणाभावे प्रतिबिम्बोपि नास्ति। अथवा पृथिवीनिमित्तलोको का निर्माण किया।,अथवा पार्थिवानि पृथिवीनिमित्तकानि रजांसि लोकान्‌ विममे। इन तीनों देव के भिन्न कर्म और भिन्न विशेषण हैं अन्य देव के नाम करण के अनुसार प्रयोजन है।,"एतेषाम्‌ त्रयाणां देवानां भिन्नानि कर्माणि, भिन्नानि च विशेषणानि इतरेषां देवानां नामकरणे निमित्तानि।" उन उनके सम्प्रदाय के लोग उन मतों को यथार्थ मानते हैं अन्य सब मिथ्या मानते हैं।,तत्तत्सम्प्रदायस्था आचार्या तेषाम्‌ एव मतं यथार्थम्‌ अन्यत्‌ सर्व मिथ्या इति ब्रुवन्ति। यहाँ व्यधिरणतत्पुरुष विधायक सूत्रों को इस पाठ में सन्निवेश किया गया।,तत्र व्यधिकरणतत्पुरुषविधायकानां सूत्राणाम्‌ अस्मिन्‌ पाठे सन्निवेशः। निषेध तो अनिष्टसाधनबोध से अनिष्टसाधन से हटाता है।,निषेधस्तु अनिष्टसाधनबोधनमुखेन अनिष्टसाधनात्‌ निवर्तयति। कार्य में प्रेरक विश्वास ही श्रद्धा है ऐसा कह सकते है।,कार्ये प्रेरकः विश्वासो हि श्रद्धा इति वक्तुं शक्‍यम्‌। लेकिन उस कर्म का अन्तः करण में भी कुछ विशिष्ट संस्कार उत्पन्न होता है।,परन्तु तत्‌ कर्म अन्तःकरणे कमपि विशिष्टं संस्कारम्‌ उत्पादयति। "द्यूत क्रीडा का कठिन दुष्परिणाम उसी प्रकार दिखाई देते हैं, जब पराजित की पत्नी को कोई भी आलिङ्गन करता है।",द्यूतक्रीडायाः कठिनः दुष्परिणामः तदैव दृश्यते यदा पराजितस्य पत्नीं कश्चिद्‌ अपरः आलिङ्गति । वैयाकरण च असौखसूचिः च इति इस लौकिक विग्रह में वैयाकरण सु खसूचि सु इस अलौकिक विग्रह में कुत्स्यमानवाचक वैयाकरण सु सुबन्त को समानाधिकरण से खसूचि सु इससे सुबन्त के साथ तत्पुरुष संज्ञा होती है।,वैयाकरणश्चासौ खसूचिश्चेति इति लौकिकविग्रहे वैयाकरण सु खसूचि सु इत्यलौकिकविग्रहे कुत्स्यमानवाचकं वैयाकरण सु इति सुबन्तं समानाधिकरणेन खसूचि सु इत्यनेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति । और उसको प्रकृत सूत्र से यहाँ पर भी कनिष्ठ शब्द के अन्त्य स्वर अकार उदात्त होता है।,ततश्च प्रकृतसूत्रेण अत्रापि कनिष्ठशब्दस्य अन्त्यः स्वरः अकारः उदात्तो भवति। सूत्र का अवतरण- शकटि शकटी शब्दों के स्वरों को पर्याय से उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना आचार्य जी ने की है।,सूत्रावतरणम्‌- शकटिशकट्योः शब्दयोः स्वराणां पर्यायेण उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। ` कर्मण्येवाधिकारस्ते' (भ. गी. 2.47) ‹कुरु कर्मैव' (भ. गी. 4.15) इत्यादि वाक्य कर्म की आवश्यक्ताओं को दशति है।,'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (भ. गी. २.४७) “कुरु कर्मैव' (भ. गी. ४.१५) इत्येवमादीनि कर्मणाम्‌ अवश्यकर्तव्यतां दर्शयन्ति। लेखक के कथन अनुसार से इसकी रचना १७८१-शताब्दी है।,लेखककथनानुसारेण अस्या रचना १७८१-विक्रमाब्दे अभवत्‌। सूत्र का अवतरण- रित्प्रत्ययान्त के उपोत्तम को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।,सूत्रावतरणम्‌- रित्प्रत्ययान्तस्य उपोत्तमस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। तत्वमसि यहाँ पर तो जीवात्मा तथा परमात्मा का ऐक्यरूप ही तात्पर्य के रूप में उपपद्य होता है।,तत्त्वमसि इत्यत्र तु जीवात्मनः परमात्मनः च ऐक्यरूपं तात्पर्यम्‌ उपपद्यते। यहाँ पर तो जीव अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता है।,अत्र जीवः अत्यन्तम्‌ आयासमनुभूतवान्‌। ङसि का यहाँ पर सप्तमी निर्देश होने से “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' इस परिभाषा से षष्ठी एकवचन के परे होने पर पूर्व का कार्य जानना चाहिए है।,"ङसि इत्यत्र सप्तमीनिर्देशात्‌ ""तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य"" इत्यनया परिभाषया षष्ठ्येकवचने परे सति पूर्वस्य कार्यमिति बोध्यम्‌।" तथा आभ्यन्तर मनोराज्यादि होते हैं।,आभ्यन्तरा हि मनोराज्यादयः। मल विक्षेप तथा आवरण इन तीन दोषों के नाश के लिए साधना का उपदेश दिया गया है।,मलः विक्षेपः अज्ञानावरणं चेति त्रिदोषदुष्टत्वात्‌ तद्दोषनाशाय साधना उपदिश्यते। जिस प्रकार से जो बारहवीं कक्षा की परीक्षा को लिखकर के उत्तीर्ण होता है वह ही बारहवीं पास कहलाता है।,यथा यः द्वादशकक्षायाः परीक्षां लिखित्वा उत्तीर्णो भवति स एव द्वादशकक्षोत्तीर्ण इति गण्यते। मैथुन का त्याग मन कर्म तथा वचन से होना चाहिए।,मैथुनत्यागश्च कर्मणा मनसा वाचा च विधेयः। "इस वेद में वर्णित विषयों का विभाजन तीन प्रकार से कर सकते हैं - १, आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. और आधिदैविक।","अस्मिन्‌ वेदे वर्णितानां विषयाणां विभाजनं त्रिधा कर्तुं शक्यते- (१) आध्यात्मिकम्‌, (२) आधिभौतिकम्‌, (३) आधिदैविकञ्चेति।" जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर का प्राधान्य होता है।,जाग्रदवस्थायां स्थूलशरीरस्य प्राधान्यमस्ति। (तै.उ.2.1-4) विश्व का व्यष्टि स्थूल शरीर ही अन्नमय कोश होता है।,(ते.उ.२.१-४) विश्वस्य व्यष्टिस्थूलशरीरम्‌ अन्नमयकोशो भवति। जब निरन्तर एकजातीय ही चित्त की वृत्ति होती है।,यदा निरन्तरम्‌ एकजातीया एव चित्तवृत्तिर्भवति। यहाँ दिक्पूर्वपदाद्‌ असंज्ञायां ञः पदच्छेद है।,अत्र दिक्पूर्वपदाद्‌ असंज्ञायां ञः इति पदच्छेदः। इस प्रकार से शब्द समूह भी अपरोक्ष ज्ञान का जनक होता है।,एवं शब्दसमूहः अपि अपरोक्षज्ञानजनको भवति। मोक्ष होने पर तो देहादि धारण नहीं होती है।,मोक्षे च सति पुनः देहधारणादिकं न भवति। विमुचन्ति - विपूर्वकमुच्‌-धातु से लट्‌-लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में विमुचन्ति यह रूप है।,विमुचन्ति- विपूर्वकमुच्‌-धातोः लट्‌-लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने विमुचन्ति इति रूपम्‌। परन्तु ये खिल मन्त्र कहीं पर भी प्राप्त नहीं होते हैं और अक्षर गणना में भी इन मन्त्रों का समावेश नहीं होता है।,"किञ्चैतै खिलमन्त्राः कुत्रापि न उपलभ्यन्ते , न चाक्षरगणनायाम्‌ एव एतेषां मन्त्राणां समावेशोऽपि भवति।" जब तक पर्जन्य जलद समुह को अन्तरिक्ष में व्याप्त करते हैं तब तक सिंह की तरह गरजने वाले मेघ का शब्द दूर से ही उत्पन्न होता है।,"अवर्षणेनाभिभवितुः शब्दयितुर्वा मेघस्य स्तनथाः , गर्जनशब्दाः दूरात्‌ उदीरते उद्गच्छन्ति । कदा। यत्‌ यदा पर्जन्यः नभः अन्तरिक्षं वर्ष्यं वर्षापेतं कृणुते करोति तदा ॥" अडिग शरीर का स्थितिहेतु शरीर में खाए पिये रस से हुआ।,अङ्गिनः शरिरस्य स्थितिहेतुः शरीरे अशितात्‌ पीताद्‌ रसः जायते। इन क्रमों की यहाँ संक्षेप से आलोचना दी गई है।,एतौ क्रमौ अत्र संक्षेपेण आलोच्येते। और रात में भी वह जुआरी बेचारा दूसरे के घर में रात काटा करता है।,नक्तं रात्रौ उप एति चौर्यार्थमुपगच्छति । 34. विवेक तथा वैराग्य के द्वारा क्या शुद्ध होता है?,३४. विवेकवैराग्याभ्यां कम्‌ शुद्धं भवति? इन सभी का कारण अज्ञान ही होता है।,अस्य सर्वस्यापि कारणम्‌ अज्ञानमेव भवति। कवि अपने अनुभव को श्रोता के हृदय तक सरलता से पहुचाने के लिए उसके अनुरूप ही अलङ्कार आदि युक्त वाक्य का प्रयोग करता है।,कविः स्वानुभवं सहृदयहृदयपर्यन्तं सरलतया सम्प्रेषयितुं तदनुरूपं अलङ्कारादियुक्तं वाक्यं व्यवहरति। "अर्थात्‌ हे पशू, तू मृत्युलोक को नहीं जा रहा है और न हम तेरी हिंसा कर रहे हैं।","अर्थात्‌ हे पशो, त्वं मृत्युलोकं न गच्छसि न वा वयं तव हिंसां कुर्मः।" वहा अधर्म को किस प्रकार से जान जाता हेै।,तत्र अधर्मः कथम्‌ ज्ञायते। महाव्रत अनुष्ठान कब होता है?,महाव्रतानुष्ठानं कदा भवति? उनमे शतपथब्राह्मण के अन्तर्गत मनुमत्स्य कथा नाम का आख्यान अन्यतम है।,तेषु शतपथब्राह्मणान्तर्गतं मनुमत्स्यकथा नाम आख्यानम्‌ अन्यतमम्‌। वेदान्त मत के अनुसार तो अविद्या तथा उसका कार्य यह जगत होता है।,वेदान्तमते तु अविद्या तत्कार्यं जगत्‌ भवति। फिर भी सब कुछ यह अद्वितीय एक ब्रह्म ही उपनिषद्‌ में कहा गया है।,तथापि सर्वमिदम्‌ अद्वितीयम्‌ एकमेव ब्रह्म वस्तु इति उपनिषदि उक्तम्‌। एक श्रुतौ दूरात्‌ सम्बुद्धौ ये सूत्र में आये पदच्छेद हैं।,एकश्रुतौ दूरात्‌ सम्बुद्धौ इति च सूत्रगतपदच्छेदः। उस प्रत्यय के विधान के लिए भगवान्‌ पाणिनी ने ऋनेभ्यो ङीप्‌ सूत्र की रचना कीौ।,तस्य प्रत्ययस्य विधानाय ऋन्नेभ्यो ङीप्‌ इति सूत्रं रचितवान्‌ भगवान्‌ पाणिनिः। वेदान्त वाक्यों के द्वारा भी इसी प्रकार का ऐक्य विविक्षित है।,वेदान्तवाक्यैः एतादृशम्‌ ऐक्यं विवक्षितं वा। अथवा गिरी वाणी के सुख को बढाने वाला विस्तार करने वाला यह अर्थ है।,अथवा गिरि वाचि शं सुखं तनोति विस्तारयतीत्यर्थः। अव्ययीभावसमास के पाठ में इस समास के विधायक पाँच सूत्र सन्निविष्ट किये है।,अव्ययीभावसमासस्य पाठे समासस्यास्य विधायकानि सूत्राणि पञ्च सूत्राणि सन्निविष्टानि। जलचर्म को लेकर वह जल को सीचता हैं।,जलचर्म आकुञ्च्य ततः जलं सिञ्चति । इस प्रकार वह सृष्टि को अतिक्रमण करता है।,इत्थम्‌ सृष्टिम्‌ स अतिक्रामति। 61. सादृश्यार्थे में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?,६१. सादृश्यार्थे अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? 24. तप किसे कहते हैं?,२४. किं नाम तपः? तैत्तरीय आरण्यक के किस प्रपाठक में गङ्गा यमुना की कथा का वर्णन है?,तैत्तिरीयारण्यके कस्मिन्‌ प्रपाठके गङ्गायमुनयोः कथा वर्णिता अस्ति? पञ्चीकरण के समान ही इनकी प्रक्रिया होती है।,पञ्चीकरणवदेव एषा प्रक्रिया। फिर कर्म को करने के लिए पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगता है।,पुनः कर्म कर्तु पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं भुञ्जते। वहाँ “अव्ययीभावश्च'' अव्यय भाव का नपुंसकत्वविधायक सूत्र है।,"तत्र ""अव्ययीभावश्च"" इत्यव्ययीभावस्य नपुंसकत्वविधायकम्‌।" "पशुओं को अन्तरिक्ष द्वारा वायुदेवता ने, यजुरब्राह्मण में कहते है 'वायवःस्थेत्याह वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः।",पशूनामन्तरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुब्रह्मणे समाम्नायते 'वायवःस्थेत्याह वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः। और भी कहा गया है - `स नः पितेव सूनवे /अग्ने सूपायनो भव।,तदुक्तम्‌- `स नः पितेव सूनवे /अग्ने सूपायनो भव। इतना सब होने पर भी वह वाराणसी को प्राप्त नहीं करता है क्योंकि वहाँ पहुँचने के लिए उसे गमन क्रिया करनी ही पडेगी।,एतावता स वाराणसीं न प्राप्तः। ततः परं तेन गन्तव्यमस्ति। “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति” इस प्रकार से यह गीता का वचन भी प्रमाण है।,“क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति” इति गीतावचनम्‌ अपि प्रमाणम्‌। यहाँ पदों का अन्वय इस प्रकार है - हल्पूर्वात्‌ उदात्तयणः नदी अजादिः असर्वनामस्थाना विभक्तिः उदात्ताः इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- हल्पूर्वात्‌ उदात्तयणः नदी अजादिः असर्वनामस्थाना विभक्तिः उदात्ता इति। प्रजापति का स्वरूप विविध देवताओं का स्मरण करना ही एक परमस्वरूप की स्तुति है।,प्रजापतिस्वरूपम्‌ विविधदेवतानामस्मरणं हि एकस्यैव परमस्वरूपस्य स्तुत्यै क्रियमाणं भवति। सभी प्रश्नों के उत्तर संस्कृत या हिन्दी भाषा में ही लिखें।,समेषां प्रश्नानाम्‌ उत्तराणि संस्कृतभाषया एव लेख्यानि। शतपथ ब्राह्मण तो विधि विधानों का एक विशाल समूह उपस्थित करता है।,शतपथब्राह्मणः तु विधिविधानानाम्‌ एकं विशालं समूहम्‌ उपस्थापयति। शतुरनुमो नद्यजादी इस सूत्र की व्याख्या कीजिए।,शतुरनुमो नद्यजादी इति सूत्रं व्याख्यात। जिससे त्रेदा जाता है वह व्यावर्त्यम्‌ भेद्यं विशेव्यम्‌ अतः इस सूत्र का अर्थ है “ भेदक समानाधिकरण भेद से बहुल को समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञा होती है।,"यद्‌ भिद्यते तद्‌ व्यावर्त्य भेद्यं विशेष्यम्‌ इति। अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ ""भेदकं समानाधिकरणेन भेद्येन बहुलं समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञो भवति"" इति ।" उस धनूरूप वज्र से हमारी सब और से रक्षा कीजिए।,तया धनूरूपया हेत्या विश्वतः सर्वतोऽस्मान्‌ परिपालय। वहाँ सभी के संयोग करने पर और विभक्ति आदि कार्य करने पर चिकीर्षक यह रूप सिद्ध होता है।,ततः सर्वसंयोगे विभक्त्यादिकार्ये चिकीर्षक इति रूपं सिध्यति। व्यक्रामत्‌ -विपूर्वक क्रम्‌-धातु लङ्‌ लकार मध्यमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,व्यक्रामत्‌-विपूर्वकात्‌ क्रम्‌-धातोः लङि मध्यमपुरुषैकवचने। व्याख्या - हे मित्रावरुणहम तुम्हारे उस महिमा को या उस महत्व को अच्छी प्रकार से कहते है।,"व्याख्या- हे मित्रावरुणा वां युवयोः तत्‌ महित्वं महत्त्वं सु सुष्ठु, अतिप्रशस्तमित्यर्थः।" यूपाय दारु इस लौकिक विग्रह में यूप ङे दारु सु इस अलौकिक विग्रह में प्रस्तुत सूत्र से चतुर्थ्यन्त यूप ङे इस सुबन्त को दारु सु इस तदर्थ से सुबन्त के साथ तत्पुरुषसमाससंज्ञा होती है।,यूपाय दारु इति लौकिकविग्रह यूप ङे दारु सु इत्यलौकिकविग्रहे प्रस्तुतसूत्रेण चतुर्थ्यन्तं यूप ङे इति सुबन्तं दारु सु इति तदर्थेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। यहाँ काम्या इसका यत्‌ प्रत्ययान्त होने से और यत्प्रत्यय के तकार की इत्‌ संज्ञा होने से तित्स्वरितम्‌' इससे स्वरित स्वर की प्राप्ति थी।,अत्र काम्या इत्यस्य यत्प्रत्ययान्तत्वात्‌ यत्प्रत्ययस्य च तकारस्य इत्संज्ञकत्वात्‌ तित्स्वरितम्‌ इत्यनेन स्वरितस्वरः प्राप्तः आसीत्‌। और सुबन्त पद भी है।,अपि च सुबन्तं पदम्‌ अस्ति। इस समास का धवखदिरौ इत्यादि उदाहरण है।,अस्य समासस्य धवखदिरौ इत्यादिकम्‌ उदाहरणम्‌। "इसके बाद एकवद्‌ भाव विधायक सूत्र हैं-'""द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम्‌"" ""जातिरप्राणिनाम्‌"" ""विप्रतिषिद्धं चानधिकरणवाचि"" ""येषां च विरोधः शाश्वतिकः"" इत्यादि हैं।","ततः एकवद्भावविधायकानि ""द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम्‌"" ""जातिरप्राणिनाम्‌"" ""विप्रतिषिद्धं चानधिकरणवाचि"" ""येषां च विरोधः शाश्वतिकः"" इत्यादीनि कानिचन सूत्राणि सन्ति।" बुद्ध के अवतार से प्राचीन काल को उत्तर वैदिक काल होने का निर्धारण पण्डित लोग करते हैं।,बुद्धावतारात्‌ प्राक्तनकालः उत्तरवैदिककालत्वेन निर्धार्यते पण्डितैः। वेद ज्ञानरगाशि और शब्दराशि है।,वेदो ज्ञानराशिः शब्दराशिश्च। 18.4 ) पञ्चकोश विवेक अध्यारोपवाद तथा अपवाद के द्वार पञ्चकोश प्रपञ्चित होता है इसे पूर्व में कहा जा चुका है।,१८.४) पञ्चकोशविवेकः अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चः प्रपञ्च्यते इत्युक्तमादौ। विपरीत भावना तो निदिध्यासन से निवृत्त होती है।,विपरीतभावना तु निदिध्यासनेन निवर्तते। कैसे होते हैं तो कहते हैं कि जीव इन सभी की सृष्टि करता है।,कथं सन्ति इति चेत्‌ जीवः एतत्‌ सर्व सृजति। सत्रहवें काण्ड का एकमात्र सूक्त यहाँ इस सूक्त में आता है।,सप्तदशकाण्डस्य एकमात्रं सूक्तम्‌ अत्र अन्तर्भवति। प्रथमान्त होने से यह विधान करने वाला पद है।,प्रथमान्तत्वाद्‌ विधायकं पदमेतत्‌। कारण यह है कि यदि अज्ञान नहीं है तो कभी भी अपरोक्ष उसका प्रतिभास नहीं हो।,कारणं हि यदि अज्ञानं नास्ति तर्हि कदापि तस्य अपरोक्षः प्रतिभासः न स्यात्‌। (क) श्रवण (ख) मनन (ग) निदिध्यासन (घ) विवेक 6 चित्त के मल का नाशक क्या होता है?,(क) श्रवणम्‌ (ख) मननम्‌ (ग) निदिध्यासनम्‌ (घ) विवेकः 6. चित्तमलस्य नाशकं किम्‌। "इसके बाद “प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम्‌'' इस समास विधायक सूत्र में सुबन्त का प्रथमानिर्दिष्ट होने पर उसके बोधक का ज्ञाक ङस्‌ इसकी उपसर्मन संज्ञा होने पर उसका पूर्व नियात होने पर शाक ङस्‌ प्रति ऐसा होने पर समास का प्रातिपदिक से अवयप का सुप का ङस्‌ प्रत्यय का लोप होने से प्रातिपदिक से शाक प्रति इससे प्रथमा एकवचने सु होने पर, अव्ययत्व होने से सु का लोप होने पर शाक प्रति यह रूप निष्पन्न होता है।","ततः ""प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्‌"" इत्यनेन समासविधायकसूत्रे सुबित्यस्य प्रथमानिर्दिष्टत्वात्‌ तद्बोध्यस्य शाक ङस्‌ इत्यस्य उपसर्जनसंज्ञायां तस्य पूर्वनिपाते शाक ङस्‌ प्रति इति जाते, समासस्य प्रातिपदिकत्वात्‌ तदवयवस्य सुपः ङस्प्रत्ययस्य लुकि निष्पन्नात्‌ प्रातिपदिकात्‌ शाकप्रति इत्यस्मात्‌ प्रथमैकवचने सौ, अव्ययत्वात्‌ सोर्लुकि शाकप्रति इति रूपं निष्पन्नम्‌।" गोपाल स्त्री आदि यह उसका अर्थ है।,आगोपालाङ्गनादिप्रसिद्ध इत्यर्थः। मादयन्ति - मद्‌-धातु से णिच लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।,मादयन्ति-मद्‌-धातोः णिचि लटि प्रथमपुरुषबहुवचने। एव अतः इसका भी प्रातिपदिकात्‌ का विशेषण होता है।,एवम्‌ अतः इत्यपि प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति। वह ही दिव्य पक्षी है।,स हि दिव्यो विहङ्गः। और जो प्राणियों के अन्तर्भाग में विद्यमान सभी इन्द्रियों का प्रकाशक है।,प्राणिनाम्‌ अन्तभगि विद्यमानं सर्वेन्द्रियाणां प्रकाशकम्‌ अस्ति। कृष्णश्रितः यहाँ समास में श्रितः उत्तरपद है।,कृष्णश्रितः इत्यत्र समासे श्रितः इत्युत्तरपदम्‌। श्रुधि इसका लौकिक रूप क्या है?,श्रुधि इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌। जैसे सोमरस के निष्कासन के लिए जो पत्थर के टुकड़े थे उनके लिए कहा गया है -' अभिक्रन्दति हरितेभिरासभिः” इति।,"यथा सोमरसस्य निष्कासनार्थं ये प्रस्तरखण्डाः व्यवहृताः तानुद्दिश्य उच्यते- ""अभिक्रन्दति हरितेभिरासभिः"" इति।" और पूर्वपदार्थ का अप्रधान्य है।,पूर्वपदार्थस्य च अप्राधान्यम्‌। अतः यहाँ सामान्य समास ही स्वीकार करना चाहिए।,अतः अत्र सामान्यसमासः एव स्वीकर्तव्यः। अहंता ममता का त्याग तथा आत्मज्ञान के द्वारा अनात्मवस्तु का त्याग होता है।,अहंताममतयोरेव त्यागः।आत्मज्ञानेन अनात्मवस्तुत्यागः। अन्य भी आक्षेपादि के द्वारा भ्रमित कर सकते हैं।,अन्येऽपि आक्षेपादिना भ्रामयितुं शक्नुवन्ति। विद्यार्थी भी यदि आत्मतत्व का चिन्तन करेगा तो वह उत्तम विद्यार्थी होगा।,विद्यार्थी यदि स्वम्‌ आत्मत्वेन चिन्तयति तर्हि स उत्तमो विद्यार्थी भविष्यति। प्रवामि - प्रपूर्वक वा-धातु से लट उत्तमपुरुष एकवचन में प्रवामि यह रूप बना है।,प्रवामि- प्रपूर्वकात्‌ वा-धातोः लटि उत्तमपुरुषैकवचने प्रवामि इति रूपम्‌। पासे दिव्य अङ्गार के समान महाशक्तिशाली है।,अक्षः दिव्याङ्गारस्वरूपः महाशक्तिशाली च । सामान्य व अप्रयोग होने पर वचन से पुरुष व्याघ्र इव शुर इस विग्रह में उपमान उपमेय साधारण धर्म का शौर्य प्रयोग से प्रस्तुत सूत्र से समास नहीं होता है।,सामान्याप्रयोगे इति वचनात्‌ पुरुषो व्याघ्र इव शूर इति विग्रहे उपमानोपमेयसाधारणधर्मस्य शौर्यस्य प्रयोगात्‌ प्रस्तुतसूत्रेण न समासः । अनेक प्रकार की औषधियों का तथा अनेक पेड़ों की प्रशंसा में भी अनेक मन्त्र यहाँ है।,बहुविधानाम्‌ औषधीनां तथा नानावृक्षाणां प्रशंसायाम्‌ अपि अनेके मन्त्राः अत्र सन्ति। तुम इसकी हिंसा मत करो।,अर्थात्‌ हे क्षुर! त्वम्‌ अस्य हिंसां मा कुरु। और जीवन्मुक्त के भूख शोक मोह आदि ये धर्म तत्वतः नहीं होते हैं।,अपि च जीवन्मुक्तस्य बुभुक्षा शोकः मोहः एते धर्माः तत्त्वतः न भवन्ति। उच्चौस्तरां वा वषट्कारः ये तीन पद यहाँ है।,उच्चैस्तरां वा वषट्कारः इति त्रीणि पदानि अत्र सन्ति। इस सूत्र से सुप्‌ का लुक्‌ (लोप) होता है।,अनेन सूत्रेण सुपः लुक्‌ विधीयते। अर्थात्‌ अवर शब्द का आदि अकार उदात्त है।,अर्थात्‌ अवरशब्दस्य आदिमः अकारः उदात्तः। "हे रूद्र तुम्हारे धनुष से सम्बन्धित बाण हमे सब और से त्याग दे, तुम अपने तरकसों को हमसे दूर ही रखो।","हे रुद्र तव धनुःसम्बन्धि आयुधं कस्याः अपि दिशः अस्मान्‌ न स्पर्शं कुर्यात्‌, पुनः तव यो बाणः अस्ति तम्‌ अस्माकं सकाशाद्‌ दूरे नयतु।" सगतिरपि तिङ इस परसूत्र में तिङग्रहण से यह सूत्र सुप्‌ विषयक है।,सगतिरपि तिङ्‌ इति परसूत्रे तिङ्ग्रहणात्‌ इदं सूत्रं सुब्विषयकम्‌। "सामान्यतया पाँच भेद होते हैं- केवलसमास, अव्ययीसमास, तत्पुरुषसमास, द्वन्दसमास और बहुत्रीहि समास।","सामान्यतया पञ्च भेदाः- केवलसमासः, अव्ययीभावः, तत्पुरुषः द्वन्द्वो बहुव्रीहिश्चेति।" जैसे - भैषज्य सूक्तों में विविध रोगों का वर्णन तथा उनके नाश के लिए विविध उपायों का वर्णन है।,यथा- भैषज्यसूक्तेषु विविधानां रोगाणां वर्णनं तथा तेषां शमनाय विविधाः उपायाः वर्णिताः सन्ति। उसके बाद गोपाय धातु लोट्‌ लकार मध्यम पुरुष एकवचन में थस्‌ प्रत्यय करने पर गोपाय थस्‌ इस स्थिति में गोपाय-धातु को शप्‌ आदेश अनुबन्ध लोप होने पर गोपाय अ थस्‌ इस स्थिति में शप्‌ के अकार की ' अनुदात्तौ सुप्पितौ ' इससे अनुदात्त स्वर होता है।,ततः गोपायधातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने थस्प्रत्यये गोपाय थस्‌ इति स्थिते गोपाय-धातोः शबादेशेऽनुबन्धलोपे गोपाय अ थस्‌ इति स्थिते शपः अकारस्य अनुदात्तौ सुप्पितौ इत्यनेन अनुदात्तस्वरः। इनको छोड़कर विष्णुहमेशा परोपकारी शरणागतरक्षक भक्तवत्सल दयालुऔर उदार है।,एतद्‌ अतिरिच्य विष्णुः सर्वदैव परोपकारी शरणागतरक्षकः भक्तवत्सलः दयालुः उदारश्च अस्ति। सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे इस सूत्र से सुप पद की अनुवर्ती होती है।,सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ सुप्‌ इति पदम्‌ अनुवर्तते। 39. समानाविकरण तत्पुरुष की कौन संज्ञा और किस सूत्र से होती है।,३९. समानाधिकरणतत्पुरुषस्य का संज्ञा केन च सूत्रेण? इससे विकल्प से अनुदात्त स्वर होता है।,विकल्पेन अनुदात्तस्वरः अनेन सुत्रेण विधीयते। आरण्यक विज्ञान के विशिष्ट ज्ञान का अथवा अध्यात्म ज्ञान का बोधक ग्रन्थ है यह भी इससे ही जाना जाता है।,"आरण्यकं विज्ञानस्य, विशिष्टज्ञानस्य, अध्यात्मज्ञानस्य वा बोधको ग्रन्थोऽस्ति, इत्यपि अनेन ज्ञायते।" "सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्मात्‌ = पूर्ण हुए, सर्वहुतः = अशेषहवनशीलत्व से, यज्ञात्‌ = यज्ञ से, ऋचः = ऋग्वेद, सामानि = सामवेद, जज्ञिरे = उत्पन्न हुए, तस्मात्‌ = पुरुषमेध कहलाने वाले यज्ञ से, छन्दांसि = गायत्री आदि, जज्ञिरे = प्रादुर्भूत हुए, तस्मात्‌ = सम्पादित यज्ञ से, यजुः = यजुर्वेद भी उत्पन्न हुआ,अजायत =, समुत्पन्न हुआ।","सान्वयप्रतिपदार्थः - तस्मात्‌ = प्रथितात्‌, सर्वहुतः = अशेषहवनशीलत्वात्‌, यज्ञात्‌ = मखात्‌, ऋचः = ऋग्वेदाः, सामानि = सामवेदाः, जज्ञिरे = समुत्पन्नाः, तस्मात्‌ = पुरुषमेधाख्ययागात्‌, छन्दांसि = गायत्र्यादीनि वृत्तानि, जज्ञिरे = प्रादुर्भूतानि, तस्मात्‌ = प्रथितात्‌ मखात्‌, यजुः = यजुरपि, अजायत = जातः, समुत्पन्न इत्याशयः।" “यस्मिन्‌ विधिः तदाहावल्ग्रहणे”' इस परिभाषा से अचि का तदत्तविधि में उत्तरपद में इससे अन्वय होने पर अजादौ उत्तरपद में यही अर्थ होता है।,""" यस्मिन्विधिस्तदादावल्ग्रहणे "" इत्यनया परिभाषया अचि इत्यस्य तदादिविधौ उत्तरपदे इत्यनेनान्वये सति अजादौ उत्तरपदे इत्यर्थ आयाति ।" 10. नपुंसकत्व का शास्त्रीय लक्षण क्या है?,१०. नपुंसकत्वस्य शास्त्रीयं लक्षणं किम्‌? अर्थात्‌ जो क्रियाजन्य साधन जन्य है वह अनित्य है।,अर्थात्‌ यत्‌ क्रियाजन्यं साधनजन्यं तद्‌ अनित्यम्‌। जिन्वति यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?,जिन्वति इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌? और भी वह मेरी भी सेवा करती थी।,उत अपि च ममापि सेवां कुर्वती आसीत्‌ । उसके बाद एक एक चक्र को भेदकर के कुण्डलिनी शक्ति को सुषुप्ति मार्ग के द्वारा मस्तिष्क में प्रेरित करना चाहिए।,ततः एकैकं चक्रं विभेद्य कुण्डलिनीशक्तिः सुषुम्णामार्गेण मस्तिष्कं प्रेरणीया। उससे दामन आ स्थिति होती है।,तेन दामन्‌ आ इति स्थितिः जायते। वहाँ अनुदात्त स्वर के बोध के लिए इस सङ्केत को स्वीकार किया है।,तत्र अनुदात्तस्वरस्य बोधनार्थं इति सङ्केतः स्वीक्रियते। इन्द्रियों के परे होने से मन से नहीं मान सकते है।,अतीन्द्रियत्वेन मनसा न मन्यते। इस प्रकार यहाँ पदों का अन्वय इस प्रकार है - शेषं सर्वम्‌ अनुदात्तम्‌ इति।,एवञ्च अत्र पदान्वयः इत्थं- शेषं सर्वम्‌ अनुदात्तम्‌ इति। इसका यह अर्थ है - प्रजापति के मन में यह साम लम्बे समय तक रहा है।,अस्यायमाशयः- प्रजापतेः मनसि इदं साम बृहत्कालपर्यन्तं निवसितम्‌। "सूत्र अर्थ का समन्वय- आहवनीये यहाँ पर आ पूर्वक हु धातु से कृत्यल्युटो बहुलम्‌ इस सूत्र से बाहुल के अधिकरण अर्थ में अनीय- प्रत्यय करने पर अनीय-प्रत्ययान्त के रेफ की हलन्त्यम्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर और तस्य लोप: इस सूत्र से इत्संज्ञक रकार के लोप होने पर आ हु अनीय इस स्थिति में धातु के उकार को गुण ओकार करने पर आ हो अनीय इस स्थिति में यथासंख्यमनुदेशः समानाम्‌ इस परिभाषा के परिष्कृत होने से एचोऽयवायावः इस सूत्र से ओकार के स्थान में अव्‌ यह आदेश होने पर आहव्‌ अनीय इस स्थिति में संयोग होने पर निष्पन्न आहवनीय इस शब्द स्वरूप के कृदन्त होने से वहाँ डऱ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः, परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङयोस्सुप्‌ इस सूत्र से इक्कीस स्वादि प्रत्ययों की प्राप्ति में सप्तमी एकवचन की विवक्षा में ङि प्रत्यय करने पर ङि प्रत्यय के आदि ङकार की लशक्वतद्धिते इस सूत्र से इत्संज्ञा और तस्य लोप: इस सूत्र से इत्संज्ञक ङकार के लोप होने पर आहवनीय इ इस स्थित्ति में एकः पूर्वपरयोः इस अधिकार में पढ़े हुए आद्गुणः इस सूत्र से उन अकार और इकार के स्थान में गुण होने पर स्थान आनन्तर्य से एकार हुआ सभी का संयोग करने पर आहवनीये यह रूप सिद्ध हुआ।","सूत्रार्थसमन्वयः- आहवनीये इत्यत्र आपूर्वकात्‌ हुधातोः कृत्यल्युटो बहुलम्‌ इति सूत्रेण बाहुलके अधिकरणार्थ अनीयर- प्रत्यये अनीयर्‌-प्रत्ययान्तस्य रेफस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण इत्संज्ञकस्य रकारस्य लोपे आ हु अनीय इति जाते धातोः उकारस्य गुणे ओकारे आ हो अनीय इति जाते यथासंख्यमनुदेशः समानाम्‌ इति परिभाषया परिष्कृतेन एचोऽयवायावः इति सूत्रेण ओकारस्य स्थाने अव्‌ इत्यादेश आहव्‌ अनीय इति जाते संयोगे निष्पन्नस्य आहवनीय इति शब्दस्वरूपस्य कृदन्तत्वात्‌ ततः झङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः, परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्डेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु सप्तम्येकवचनविवक्षायां ङिप्रत्यये ङिप्रत्ययादेः ङकारस्य लशक्वतद्धिते इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण च इत्संज्ञकस्य ङकारस्य लोपे आहवनीय इ इति स्थिते एकः पूर्वपरयोः इत्यधिकारे पठितेन आद्गुणः इति सूत्रेण तयोः अकारस्य इकारस्य च स्थाने गुणे स्थानत आन्तर्यात्‌ एकारे सर्वसंयोगे आहवनीये इति रूपं सिध्यति।" गतिर्गतौ इस सूत्र से गति: इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।,गतिर्गतौ इति सूत्रात्‌ गतिः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। छबीसवें अध्याय से आरम्भ करके उनत्तिसवें अध्याय पर्यन्त सम्पूर्ण मन्त्रों का सङ्कलन किया है।,षड्विंशत्यध्यायाद्‌ आरभ्य ऊनत्रिंशदध्यायपर्यन्तं खिलमन्त्राणां सङ्कलनमस्ति। निवृत्ति को प्राप्त नहीं करते हैं।,निर्वृतिं सुखं न लभन्ते। "क्योंकि अग्नि ही याग को पूर्ण करती है, उससे वह यज्ञ का ऋत्विग्‌, विप्र पुरोहित इन नामों से भी जानी जाती है।","यतोऽग्नौ हि यागो निष्पाद्यते ततः स यज्ञस्य ऋत्विग्‌, विप्रः पुरोहित इत्यभिधीयते।" सोपानादिक्रमों का तथा भ्रमादि क्रमों का त्याग नहीं करना चाहिए।,सोपानक्रमभ्रमम्रदिम्ना कम्रं त्यागं न कुर्यात्‌। 12. परिमुमोच यह किस लकार का रूप है?,12.परिमुमोच इति कस्मिन्‌ लकारे रूपम्‌? “एक श्रुति दूरात्सम्बुद्धौ इस सूत्र से यहाँ एकश्रुति इस नपुसंक लिङिग प्रथमा एकवचनान्त विधेय बोध पद की अनुवृति है।,"""एकश्रुति दूरात्सम्बुद्धौ इति सूत्रात्‌ अत्र एकश्रुति इति क्लीबलिङ्गि प्रथमैकवचनान्तं विधेयबोधकं पदम्‌ अनुवर्तते।" यज्ञ स्थल की उत्तर पूर्व दिशा में पशु संज्ञपन व्यवच्छेद आदि के निमित्त एक स्थान निर्दिष्ट है।,यज्ञस्थलस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि पशुसंज्ञपनव्यवच्छेदादिनिमित्तम्‌ एकं स्थानं निर्दिष्टम्‌ अस्ति। अथर्ववेद के भाष्य में सायणाचार्य ने कहा है - वरुण को रात्री के देवता के रूप में उनका वर्णन किया।,अथर्ववेदस्य भाष्ये सायणाचार्यः - वरुणः रात्र्यभिमानिनी देवता इति वर्णितवान्‌। इसलिये भगवान्‌ यास्क ने कहा - वरुणो वृणोतीति सतः।,अत एव भगवान्‌ यास्कः उक्तवान्‌ - वरुणो वृणोतीति सतः। शतपथ ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही हेतु के साथ ही विधि का निर्देश उपलब्ध होता है।,शतपथब्राह्मणस्य प्रारम्भे एव सहेतुकविधेः निर्देशः समुपलब्धो भवति। "अन्वय - येन अपसः मनीषिणः धीराः यज्ञे विदथेषु कर्माणि कृण्वन्ति यत्‌ प्रजानाम्‌ अन्तः अपूर्वं यक्षं, तत्‌ मे मनः शिवसङकल्पम्‌ अस्तु।","अन्वयः - येन अपसः मनीषिणः धीराः यज्ञे विदथेषु कर्माणि कृण्वन्ति यत्‌ प्रजानाम्‌ अन्तः अपूर्वं यक्षं, तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।" "अतः इस सूत्र का अर्थ होता है-'“पापशब्द और अणकशब्द को कुत्स्थमान समानाधिकरण सुबन्त के साथ समास होता है, और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है।","अतः सूत्रस्यास्यार्थस्तावत्‌ - "" पापशब्दः अणकशब्दश्च कुत्स्यमानैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति "" इति ।" शास्त्रों में इस प्रकार से कहा भी है।,आम्नातं च - पत्नी भी हमेशा दुःखी होती है।,जायापि सदैव दुःखिता भवति । अखण्डाकार ब्रह्मविषयणी चित्तवृत्ति अज्ञायमान होने पर अवतिष्ठित होती है इस प्रकार से इन दोनों में भेद होता है।,अखण्डाकारा ब्रह्मविषयिणी चित्तवृत्तिरज्ञायमाना सती अवतिष्ठते इत्यनयोर्भेदः। तुजादि होने से अभ्यास को दीर्घत्व हुआ।,तुजादित्वात्‌ अभ्यासस्य दीर्घत्वम्‌। पाराशरी शिक्षा इस शिक्षा में एक सो साठ (१६०) श्लोक हैं।,पाराशरीशिक्षा- अस्यां शिक्षायां षष्ट्यधिकशतं (१६०) श्लोकाः सन्ति। "किन्तु जब उदात्त अनुदात्त का, अथवा उदात्त स्वरित के स्थान में एकादेश होता है, तब अनुदात्त और स्वरित की प्राप्ति होती है।",किन्तु यदा उदात्तानुदात्तयोः उदात्तस्वरितयोः वा स्थाने एकादेशः भवति तदा अनुदात्तस्य स्वरितस्य च प्राप्तिः भवति। 38.आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद (छा.उ. 6.14.2) इस श्रुति के द्वारा यह समझा जाता है कि जिसका आचार्य ब्रह्म को जानता है वह ब्रह्म को जानता है।,३८. आचार्यवान्‌ पुरुषो वेद॥ (छा.उ. ६.१४.२) इति श्रुतितः अवगम्यते यद्‌ यस्य आचार्यः अस्ति स ब्रह्म जानाति। इन्द्रऋषभा - इन्द्रः ऋषभः यस्याः सा इति बहुव्रीहि समास।,इन्द्रऋृषभा- इन्द्रः ऋषभः यस्याः सा इति बहुव्रीहि समासः। एवं सूत्रार्थ होता है-'“कर्ता में जो षष्ठी तदन्त का सुबन्न के ण्वुल्‌ प्रत्ययान्त के साथ समास नहीं होता है।,"एवं सूत्रार्थो भवति - ""कर्तरि या षष्ठी तदन्तस्य सुबन्तस्य ण्वुल्प्रत्ययान्तेन सह समासो न भवति"" इति।" इस सूक्त में १६ मन्त्र है।,अस्मिन्‌ सूक्ते षोडशमन्त्राः सन्ति। कर्म से उत्कृष्टता से देवत्व को प्राप्त किया है वे कर्मदेव।,कर्मणा उत्कृष्टेन देवत्वं प्राप्ताः कर्मदेवाः। तथा अज्ञान ही कारण शरीर होता है।,अज्ञानमेव कारणशरीरं भवति। पूर्वजन्मों में किए गये निषिद्ध कर्मो का भी इस जन्म में प्रारब्ध के रूप में परिणाम होता है।,पूर्वपूर्वजन्मसु कृतस्य निषिद्धस्य अस्मिन्‌ जन्मपि प्रारब्धरूपेण परिणामो भवति। नम्‌-धातु से असुन्‌-प्रत्यय के योग से नमस्‌ यह अव्यय बनता है।,नम्‌-धातोः असुन्‌-प्रत्यययोगेन नमस्‌ इति अव्ययम्‌ निष्पद्यते। और ण्वुल्‌ प्रत्ययान्त का निषेध होने पर ओदनस्थ पाचकः इत्यादि उदाहरण है।,एवं ण्वुल्प्रत्ययान्तस्य निषेधे ओदनस्य पाचकः इत्यादिकमुदाहरणम्‌। यह ही मुक्ति परममुक्ति होती है।,एषा एव मुक्तिः परममुक्तिः। पिन्वते - आत्मनेपद पिन्व्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में।,पिन्वते - आत्मनेपदिनः पिन्व्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने । उसका और प्रथमान्त का सप्तम्यन्त पद से विपरिणाम होता है।,तस्य च प्रथमान्तस्य सप्तम्यन्तत्वेन विपरिणामः भवति। वेदान्त आचार्यो ने इन उपनिषदों की व्याख्या लिखी।,वेदान्ताचार्याः एतासाम्‌ उपनिषदां व्याख्यानानि विरचितवान्‌। अतः राजकीय सम्मान सहित सोम का वहन किया जाता है।,तदर्थं राजकीयसम्मानसहितं सोमस्य वहनं क्रियते। "यह आनन्दमय कभी कौन होता है, कभी होता है तथा कभी नहीं होता है।",अयम्‌ आनन्दमयः कादाचित्कः भवति। कदाचित्‌ भवति कदाचिन्न भवति। "हे सिचनशील रूद्र, तुम्हारे हाथों में जो धनुष और बाण है, उन्हें उपद्रव रहित कर सब और से हमारा पालन करो।","हे प्रभूत-कामवर्षणकारिन्‌, ते हस्ते यत्‌ धनुः सम्बन्धि आयुधं वर्तते, तेन व्याधिरहितेन (आयुधेन) त्वं अस्मान्‌ सर्वविधविघ्नेभ्यः परिपालय।" पर्जन्यदेव ही अन्न के उत्पादन करने में मूल कारण होता है।,पर्जन्यदेवः एव अन्नस्य उत्पादने मूलं कारणं भवति। इसलिए ही जीव अपनी नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपता को नहीं जानते है।,तस्मादेव जीवाः स्वेषां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपतां न जानन्ति। अग्निष्टोम में सोम का उपखण्ड से पीस करके रस निकालना चाहिए।,"अग्निष्टोमे सोमस्य उपलखण्डेन कुट्टनं कृत्वा रसक्षरणम्‌ करणीयम्‌। तेन हि प्रातः, मध्याह्ने, सायंकाले चाग्नौ हवनं भवति।" वर्तमान में भी है।,वर्तमानकाले अपि अस्ति। (२) पाराशर व्यास का भी यहाँ उल्लेख प्राप्त होता है (१।९।२)।,(२) पाराशर्यव्यासस्यापि अत्र उल्लेखः प्राप्यते (१।९।२)। उदाहरण -गो वृन्दारक इत्यादि इस सूत्र का उदाहरण है।,उदाहरणम्‌ - गोवृन्दारक इत्यादिकमस्य सूत्रस्योदाहरणम्‌ । ब्राह्मण ग्रन्थों में शतपथ ब्राह्मण सबसे महत्त्व का माना जाता है।,ब्राह्मणग्रन्थेषु शतपथ ब्राह्मणं गुरुतमं महत्त्वं भजते। ईड्यः - ईड्‌-धातु से ण्यत्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में ईड्यः यह रूप बनता है।,ईड्यः- ईड्-धातोः ण्यत्प्रत्यये प्रथमैकवचने ईड्यः इति रूपम्‌। उस समय सङ्कल्प का परित्याग करके जैसे भ्रष्टा नारी उप पति के पास जाती है वैसे ही मैं भी जुआरियो के घर पर जाता हूँ।,तदा सङ्कल्पं परित्यज्य अक्षव्यसनेनाभिभूयमाना स्वैरिणी सङ्केतस्थानं याति तद्वत्‌ एमीत्‌ गच्छाम्येव । और इसके बाद भवत्‌ शब्द उगिदन्त है।,ततश्च भवत्‌ इति शब्दः उगिदन्तः अस्ति। "जैसे पर्वत से आया हुआ जल है, अन्य भूमि पर वर्षा से गिरा हुआ जल भी उसी में प्राप्त होता है, और स्रोत भी विशाल होते है।","यथा पर्वताद्‌ आगतं जलं वर्तते, अन्यत्र भूमौ वृष्ट्या पतितं जलमपि मिलितं भवति, स्रोतश्च महद्‌ भवति।" रुद्राय यहाँ पर किस अर्थ में चतुर्थी है?,रुद्राय इत्यत्र कस्मिन्नर्थे चतुर्थी। अनुदात्ते पदादौ ये दोनों पद सप्तमी एकवचनान्त हैं।,अनुदात्ते पदादौ इति उभयमपि पदं सप्तम्येकवचनान्तम्‌। भूखे की जिस प्रकार से भोजन की प्रति अभिरुचि होती है।,बुभुक्षोः भोजनं प्रति यथा अभिरुचिः भवति । कात्यायनी शिक्षा में कितने श्लोक हैं?,कात्यायनीशिक्षायां कति श्लोकाः वर्तन्ते। जैस सिंह माणवक।,सिंहो माणवकः। व्यावहारिक जीवन को ही अध्यात्ममय करना चाहिए।,व्यवहारजीवनम्‌ एव अध्यात्ममयं करणीयम्‌। किन्तु इस विषय में पाश्चात्य विद्वानों के मध्य गम्भीर मतभेद है।,किञ्च अस्मिन्‌ विषये पाश्चात्यविद्वत्सु गम्भीरमतभेदो दृश्यते। आद्युदात्तरच इस सूत्र से प्रत्यय का आदि स्वर उदात्त होता है।,आद्युदात्तश्च इत्यादिना सूत्रेण प्रत्ययस्य आदिः स्वरः उदात्तः भवति। "उससे जिस शब्द का यहाँ पाठ नहीं है, और भी किसी भी सूत्र से आद्युदात्त स्वर नहीं किया है।",तेन यस्य शब्दस्य अत्र पाठः नास्ति अपि च केनापि सूत्रेण आद्युदात्तस्वरः न विहितः। इस श्रुति में अद्वितीय ब्रह्म की प्रशंसा की गई है।,अस्यां श्रुतौ अद्वितीयस्य वस्तुनः ब्रह्मणः प्रशंसा क्रियते। अन्तर्भूत है।,अन्तर्भूतो ण्यर्थः। इसके बाद सह इसका स आदेश विधायक सूत्र है।,ततः सहेत्यस्य सादेशविधायकं सूत्रम्‌। "इसी कारण ही अथर्ववेद इहलौकिक (इहलोक) कहलाता है, तथा अन्य तीनों वेद पारलौकिक (परलोक) के लिए कहलाते है।","अनेन एव कारणेन अथर्ववेदः ऐहिलौकिकः इति कथ्यते, तथाऽन्ये त्रयो वेदाः पारलौकिकाः इति कथ्यन्ते।" इनमें समुच्चय और अन्वाचय में असम अर्थ से समास नहीं होता है।,एतेषु समुच्चयान्वाचययोः असमार्थ्यात्‌ समासो न भवति। और कोई भी इस पुरुष के ऊर्ध्व भाग को प्राप्त नहीं कर सकता है।,किंच कश्चिदपि एनं पुरुषमूर्ध्वमुपरिभागे न परिजग्रभत्परिगृह्णाति। श्रीरामकृष्ण के प्रधान शिष्य विवेकानन्द ही गुरु के वार्ता के प्राचारक थे।,श्रीरामकृष्णदेवस्य प्रधानशिष्यः विवेकानन्दः गुरोः वार्तावह एव आसीत्‌। "ओरिमिका का दस स्थानको में पुरोडाश ब्राह्मण, यजमान ब्राह्मण, सत्रप्रायश्चित्त, चातुर्मास, सव, सौत्रामणि आदि का वर्णन है।",ओरिमिकायाः दशस्थानकेषु पुरोडाशब्राह्मण-यजमानब्राह्मण-सत्रप्रायश्चित्ति-चातुर्मास्य-सव- सौत्रामण्यादीनां वर्णनमस्ति। इसलिए बुद्धि रूपी दर्पण के अभाव में जीव भी नहीं होता हे।,अतः बुद्धिरूपदर्पणाभावात्‌ जीवोपि नास्ति। वहाँ पर कहा गया है की उपासना परम्परा के द्वारा ही निर्विशेषब्रह्मसाक्षात्कार के प्रति निमित्त होता है।,तत्रोच्यते यद्‌ उपासना परम्परया एव निर्विशेषब्रह्मसाक्षात्कारं प्रति निमित्तम्‌। वह ही मुक्ति का कारण होता है।,सा एव मुक्तेः कारणम्‌। आदित्य के समान वर्ण है जिसका उसको अन्य उपमा से रहित अर्थात्‌ स्वप्रकाश में स्थित तथा तमोरहित।,आदित्यवर्णम्‌ आदित्यस्य इव वर्णो यस्य तम्‌। उपमान्तराभावात्‌ स्वोपमम्‌। स्वप्रकाशम्‌ इति भावः। तथा तमसः परस्तात्‌। तमोरहितम्‌ इत्यर्थः। "यह आरण्यक महीदास, ऐतरेय के पहले तीन आरण्यकों के कर्ता होने से ऐतरेय ब्राह्मण के ही समकालिक है ऐसा सिद्ध होता है।",आरण्यकमिदं महिदास -एऐतरेयस्य प्रथमत्रयाणाम्‌ आरण्यकानां कर्त्तृत्वेन ऐतरेयब्राह्मणस्य एव समकालिकम्‌ इति सिद्धं भवति। प्रारब्धकर्म का नाश होने पर शरीरनाश से विदेह मुक्ति सम्भव होती है।,प्रारब्धकर्मनाशे तु शरीरनाशात्‌ विदेहमुक्तिः सम्भवति। कल्प को व्युत्पत्ति प्राप्त अर्थ होता है - “कल्प्यते समर्थ्यते यागप्रयोगोऽत्र' इति।,कल्पस्य व्युत्पत्तिलभ्यः अर्थः भवति- 'कल्प्यते समर्थ्यते यागप्रयोगोऽत्र' इति। 22. जो प्राप्त हो जाए उसी में ही सन्तुष्टि तथा प्राप्त नहीं होने पर अविषाद ही सन्तोष होता है।,२२. यदृच्छालाभसन्तुष्टिः अलाभे च अविषादः सन्तोषः। गतिरनन्तर इस सूत्र का क्या अर्थ है?,गतिरनन्तरः इति सूत्रस्य अर्थः कः? शाम के समय में अपने स्थान में वापस आती हुई गायों को देखते हुए उनको अत्यधिक प्रसन्नता होती है।,सायंकाले स्वस्थानं प्रत्यागतानां गवां दृश्यम्‌ तेषाम्‌ अतीव प्रियम्‌ अस्ति। 21. वृत्ति का लक्षण क्या है?,२१. वृत्तेः किं लक्षणम्‌? और यह समास अव्ययीभाव संज्ञक होता है।,स च समासः अव्ययीभावसंज्ञः भवति। कौन बाहू थे?,कौ बाहू अभूताम्‌। वैश्य इसके जंघा थी अर्थात्‌ जंघाओं से उत्पन्न हुआ।,वैश्यः अस्य ऊरुः आसीत्‌ अर्थात्‌ ऊरुभ्याम्‌ उत्पन्नः। पूर्व सावेकाचस्तृतीयादि- विभक्तिः इस सूत्र से यहाँ विभक्तिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति है।,पूर्वस्मात्‌ सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इति सूत्रात्‌ अत्र विभक्तिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते। यज्ञकर्म का नियमित ऋत है।,यज्ञकर्मणां नियमितता ऋतम्‌। उदाहरण - अनृतं हि मत्तो वदति पाप्मा चौनं युनाति यह इस सूत्र का एक उदाहरण है।,उदाहरणम्‌- अनृतं हि मत्तो वदति पाप्मा चैनं युनाति इति सूत्रस्य अस्य एकमुदाहरणम्‌। "वे दश द्रव्य एकवर्षीय गोवत्स, सुवर्ण, एक बकरा, एक दूध देने वाली गाय और उसका बछडा, एक सांड, शकट वहन के लिए एक बैल, एक छोटा सांड, एक गोवत्स, और एक वस्त्र।","तानि च दश द्रव्याणि हि एकवर्षीयः गोवत्सः, सुवर्णम्‌, एकः अजः, एका दुग्धवती गौः तस्याः वत्सः च, एकः वृषभः, शकटवहनाय एकः बलीवर्दः, एकः वृषभवत्सः, एकः गोवत्सः च, एकं वस्त्रं च।" इनका स्वरूप नीचे आलोचित किया जाएगा।,एतेषां स्वरूपम्‌ अधः आलोच्यते। यज्ञों के प्रतिपादन के लिए ही वेद प्रवृत्त हुए हैं।,यज्ञानां प्रतिपादनाय एव वेदाः प्रवृत्ताः। तो उससे नित्य कर्मानुष्ठानायास दुःख ही फल है इस प्रकार वहाँ पर विशेषण अयुक्त है।,ततः नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमेव फलम्‌ इति विशेषणम्‌ अयुक्तम्‌। प्रकृत आत्मा की उपाधि बुद्धि होती है।,प्रकृते आत्मनः उपाधिर्भवति बुद्धिः। "यहाँ पर भी ज्येष्ठकनिष्ठयोः इस पद से ज्येष्ठ, कनिष्ठ इस शब्द स्वरूप का ही ग्रहण है, उन शब्दों के अर्थ का ग्रहण नहीं है।","अत्रापि ज्येष्ठकनिष्ठयोः इति पदेन ज्येष्ठ, कनिष्ठ इति शब्दस्वरूपमेव ग्राह्यम्‌, न च तयोः शब्दयोः अर्थः ग्राह्यः।" प्रति संवत्सर वसन्त-कऋतु में त्रैवर्णिक यजमान सपत्नीक इस याग का अनुष्ठान करें।,प्रति संवत्सरं वसन्त-ऋतौ त्रैवर्णिकयजमानः सपत्नीकः अस्य यागस्य अनुष्ठानं कुर्यात्‌। इस सूत्र के व्याख्यान अवसर पर “अर्थेन नित्यसमासो विशेष्य लिङ्गता चेति वक्तत्यम्‌”' यह वार्तिक प्रवृत्ती होता है।,"एतस्य सूत्रस्य व्याख्यानावसरे ""अर्थन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम्‌"" इति वार्त्तिकं प्रवर्तते।" "कौन, कब अपने कल्याण के लिए चिन्तन करता है यह देश काल पात्र भेद से अलग अलग है।",कः कदा किं स्वस्य कल्याणं चिन्तयति इति देशकालपात्रभेदेन भिद्यते। ब्रह्म से द्वेष करने वाले ब्राह्मणों का हिंसक त्रिपुरनिवासी असुर के विनाश के लिए मारने के लिये विस्तार करती हूँ।,ब्रह्मद्विषे ब्राह्मणानां द्वेष्ठारं शरवे शरुं हिंसकं त्रिपुरनिवासिनमसुरं हन्तवै हन्तुं हिंसितुम्‌। समिध्यते - सम्‌-पूर्वक इन्ध्‌-धातु से कर्म रूप है (तप्रत्ययऔर यक करने पर) (प्रथमपुरुष एकवचन का यह रूप है)।,समिध्यते - सम्‌-पूर्वकात्‌ इन्ध्‌-धातोः कर्मणि रूपम्‌ (तप्रत्यये यकि) (प्रथमपुरुषस्य एकवचने रूपम्‌ इदम्‌)। 5. वेदान्तसार के लेखक कौन है?,५. वेदान्तसारस्य कः लेखकः? 4 वेदान्तसार में उपासना के क्या लक्षण बताए गए हैं?,4 उपासनालक्षणं किं वेदान्तसारे। यहाँ दोष है।,अत्र दोषः वर्तते। तद्वितार्थ में यहाँ वैषयिक अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।,तद्धितार्थ इत्यत्र वैषयिकाधिकरणे सप्तमी । "अवयवभूत पदों का अर्थ से अलग भिन्न अर्थ कहा जाता है, प्रतिपादित किया जाता है उससे ही परार्थाभिद्यान कहलाता है।",अवयवभूतानाम्‌ पदानाम्‌ अर्थेभ्यः परः भिन्नः अर्थः अभिधीयते प्रतिपाद्यते येन तत्‌ परार्थाभिधानम्‌। वृत्रदेह के गिरने से नदियाँ विक्षुब्ध हो जाती है और उससे तट पर स्थित पत्थर आदि का चूर्ण हो जाता है।,सर्वान्‌ लोकनावृण्वतो वृत्रदेहस्य पातेन नदीनां कूलानि तत्रत्यं पाषाणादिकं च चूर्णीभूतमित्यर्थः॥ राजन्य जो क्षत्रियत्व जाति वाले पुरुष उसकी बाहु से निष्पादित हुए।,राजन्यः क्षत्रियत्वजातिमान्‌ पुरुषः तस्य बाहुभ्यां निष्पादितः। "इस पाठ को पढने के बाद आप सक्षम होंगे : अक्षसूक्त के संहिता पाठ, पदपाठ का अन्वय और व्याख्या कर पाने में; द्युत कार्य के बुरे फल को जान पाने में; द्युत कर्म से होने वाले दुष्परिणामों को समझ पाने में; वैदिक शब्दों को जान पाने में; वैदिक लौकिक शब्दों के मध्य में भेद को जान पाने में; द्युत कर्म के स्थान पर क्या-क्या करना चाहिए, इसे समझ पाने में।",अस्य पाठस्य पठनात्‌ भवान्‌ - अक्षसूक्तस्य संहितापाठं पदपाठम्‌ अन्वयं व्याख्यां च पठिष्यति। अक्षक्रीडनस्य कुफलं भवान्‌ ज्ञास्यति। अक्षक्रीडनात्‌ किं किं त्यक्तं भवति तद्‌ ज्ञास्यति। वैदिकशब्दान्‌ ज्ञास्यति। वैदिकलौकिकशब्दयोः मध्ये भेदं ज्ञास्यति।अक्षक्रीडनस्य स्थाने किं करणीयम्‌ इत्यपि अवगमिष्यति। इस आरण्यक में होतृ नाम का जो ऋत्विज है उससे प्रयुक्त शास्त्रों का वर्णन है।,अस्मिन्‌ आरण्यके होतृनामकः यः ऋत्विक्‌ अस्ति तेन प्रयुक्तानां शास्त्राणां वर्णनमस्ति। जैसे- बृहदारण्यकोपनिषद्‌ में कहा गया है- “तन्त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि” (3/9/26) इति।,यथा - बृहदारण्यकोपनिषदि आम्नायते “तन्त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि” (३/९/२६) इति। इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से दीर्घ होने पर खट्वा रूप सिद्ध होता है।,ततः परम्‌ अकः सर्वर्णे दीर्घः इति सूत्रेण दीर्घे कृते सति खट्वा इति रूपं सिद्ध्यति। अश-धातु से क्विन्‌ प्रत्यय करने पर निष्पन्न अश्व शब्द आद्युदात्त है।,अश्‌-धातोः क्तिन्प्रत्यये निष्पन्नः अश्वशब्दः आद्युदात्तः। तिलक महोदय के अनुसार उपनिषद्‌ काल १९०० सौ वि० पूर्व होना चाहिए।,तिलकमहोदयानुसारेण उपनिषत्कालः १९०० वि० पूर्वं शतकेन भवितव्यम्‌। हन्तवै - हन्‌-धातु से तुमुन्प्त्यय के लिए वैदिक तवै प्रत्यय करने पर हन्तवै रूप बना।,हन्तवै- हन्‌-धातोः तुमुन्प्रत्ययार्थे वैदिके तवैप्रत्यये हन्तवै इति रूपम्‌। एक मिट्टी के पात्र में पशु के अङ्गशामित्र प्रवेश के बाद शामित्र नामक अग्नि कुण्ड में पकाए जाते हैं।,एकस्मिन्‌ मृत्पात्रे पश्वङ्गानि अङ्गशामित्रप्रवेशानन्तरं शामित्रनामके वह्निकुण्डे पच्यन्ते। और दूसरी आदि आहुतियों का देवता इन्द्र होता है।,द्वितीयादिषु च आहुतेः देवता भवति इन्द्रः। इस सूत्र से तद्धित कित्प्रत्ययान्त शब्द के अन्त्य स्वर को उदात्त करने का विधान है।,अनेन सूत्रेण तद्धितकित्प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य अन्त्यस्य स्वरस्य उदात्तत्वं विधीयते। जैसे स्वर्ग की प्राप्ति के लिए क्रियमाण ज्योतिष्टोमयज्ञादि कर्म।,यथा स्वर्गप्राप्त्यर्थं क्रियमाणानि ज्योतिष्टोमयज्ञादीनि। परिव्रजाक संन्यासी के रूप में भारत में भ्रमणकाल में लोगों की दरिद्रता तथा शिक्षा हीनता देखकर के स्वामी विवेकानन्द का मन दुःख से निपीडित हो गया।,परिब्राजकसन्न्यासिरूपेण भारतभ्रमणकाले जनानां दारिद्रयं शिक्षाहीनतां च वीक्ष्य स्वामिविवेकानन्दस्य मनः दुःखनिपीडितं सञ्जातम्‌। "क्वन्‌-प्रत्यय के नकार की इत्‌ संज्ञा होती है, अतः क्वन्‌ प्रत्ययान्त अश्व शब्द ` जिनत्यादिर्नित्यम्‌' इस सूत्र के अनुसार से आद्युदात्त होता है।",क्वन्‌-प्रत्ययस्य नकारः इत्‌ भवति अतः क्वन्प्रत्ययान्तः अश्वशब्दः ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इति सूत्रानुसारेण आद्युदात्तः भवति। तृतीय अध्याय में अग्निहोत्र के लिये और चातुर्मास्य यज्ञ के लिए उपयोगी मन्त्रों का विवरण किया है।,तृतीयाध्याये अग्निहोत्राय चातुर्मास्याय च यज्ञाय उपयोगिनाम्‌ मन्त्राणां विवरणं कृतम्‌ अस्ति। इस संहिता में ऋङ्मन्त्र यजु मन्त्र के भेद का अत्यधिक विस्तार से वर्णन किया है।,अस्यां संहितायाम्‌ ऋङ्मन्त्रयजुर्मन्त्रयोः पार्थक्यम्‌ अतिविस्तरेण वर्णितम्‌ अस्ति। सुप्‌ का तदन्तविधि में समानाधिकरणैः अन्वय से सुबन्तैः पद प्राप्त होता है।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ समानाधिकरणैः इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्तैः इति लभ्यते । निश्चित रूप से जो वैद्य रोग जानता है और औषधि जानता है और औषधि का प्रयोग भी जानता है।,"स एव खलु वैद्यः यो रोगं जानाति, औषधं च जानाति, औषधस्य प्रयोगं च जानाति।" कुछ वेद मन्त्रों में परस्पर विरोध दिखाई देता है।,कतिपयेषु वेदमन्त्रेषु परस्परविरोधः संलक्ष्यते। अतः उसका अर्थ-प्रजापति है।,अतः तदर्थः - प्रजापतिः। अतः यह बहुव्रीहि संज्ञक भी है।,अतः इदं बहुव्रीहिसंज्ञकमपि अस्ति। रुत्‌ ज्ञानप्रद है।,रुत्‌ ज्ञानप्रदः। टच्‌ का टकार का “चुटू” इससे चकार का और “हलन्त्यम्‌'' इससे इत्संज्ञा होने पर “तस्य लोपः'' इससे लोप होने पर पञ्च गो अ धन इस स्थिति में “*एचोऽयवायावः'' इस गो शब्द अवयव के ओकार का अवादेश होने पर सर्वसंयोग से निष्पन्न पञ्चगबधन शब्द से प्रक्रिया कार्य में सु प्रत्यय होने पर पञ्चबधनः रूप सिद्ध होता है।,"टचः टस्य ""चुटू"" इत्यनेन टकारस्य च ""हलन्त्यम्‌"" इत्यनेन इत्संज्ञायां ""तस्य लोपः"" इत्यनेन लोपे पञ्च गो अ धन इति स्थिते ""एचोऽयवायावः"" इत्यनेन गोशब्दावयवस्य ओकारस्य अवादेशे सर्वसंयोगे निष्पन्नात्‌ पञ्चगवधनशब्दात्‌ प्रक्रियाकार्ये सौ पञ्चगवधनः इति रूपम्‌ ।" "उदाहरण के लिये एक मन्त्र हि- “एक एव रुद्रो न द्वितीयः अवतस्थे' (तैत्तिरीयसंहिता १-८-१-१) , अर्थात्‌ रुद्र एक ही है, दूसरा रुद्र नहीं है।","उदाहरणभूतः एको मन्त्रो हि- 'एक एव सुद्रो न द्वितीयः अवतस्थे'(तैत्तिरीयसंहिता१-८-१-१), अर्थात्‌ रुद्रः एक एव, द्वितीयः रुद्रः नास्ति।" अमन्तवः इसका क्या अर्थ है?,अमन्तवः इत्यस्य कः अर्थः। आनन्दमय कोश अनित्यत्व से युक्त होता है।,आनन्दमयः अनित्यत्वमागतम्‌। "कल्याणकारी हो, हमारी रक्षा करो।","समवेतो भव, अस्मान्‌ सेवस्व।" इसका लोक में प्रयोग नहीं होता है।,अस्य लोके प्रयोगो न भवति। शिव का शिवधर्म का अथवा शैवधर्म का प्रसार शुक्लयजुर्वेदसाहित्य इतिहास में बहुत बड़े स्थान को अलंकृत करता है।,शिवस्य शिवधर्मस्य शैवधर्मस्य वा प्रसारः शुक्लयजुर्वेदसाहित्येतिहासे गुरुत्वपूर्णस्थानम्‌ अलंकरोति। लेकिन अनिर्देश्य ईश्वर का अधिष्ठान जीव ही होते हैं।,परन्तु अनिर्देश्यस्य ईश्वरस्य अधिष्ठानं तु जीवाः एव। विचक्रमे - वि उपसर्ग क्रम्‌-धातु से लिट्‌ प्रथम पुरुष एकवचन में।,विचक्रमे- व्युपसर्गात्‌ क्रम्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषैकवचने। जिनसे चार प्रकार के ही कर्म किए जाते है।,यस्माच्चतुर्विधमेव हि सर्वं कर्म कार्यम्‌ । अवनेनिजानस्य - अवपूर्वक निज्‌-धातु से शानच करने पर।,अवनेनिजानस्य - अवपूर्वकात्‌ निज्‌-धातोः शानचि। इसलिए वृत्ति के नाशकान्तर के अभाव से वृत्ति तो रुकती ही है।,अतः वृत्तेः नाशकान्तराभावात्‌ वृत्तिस्तु तिष्ठति एव। छान्दोग्य उपनिषद्‌ की व्याख्या कीजिए।,छान्दोग्योपनिषदं व्याख्यात। चित्त के निरोध के अभ्यास से उत्पन्न संस्कार निरोध संस्कार होता है।,चित्तस्य निरोधस्य अभ्यासेन जायमानः संस्कारः निरोधसंस्कारः। अत: ये दरशर्च सूक्त है।,अतः दशर्चमिदं सूक्तम्‌। मायिनाम्‌ - मायाशब्द से तदस्यास्ती इस अर्थ में इनिप्रत्यय करने पर मायिन्‌ यह हुआ उसका षष्ठीबहुवचन में मायिनाम्‌।,मायिनाम्‌ - मायाशब्दात्‌ तदस्यास्तीत्यर्थ इनिप्रत्यये मायिन्‌ इति जाते तस्य षष्ठीबहुवचने मायिनाम्‌। इस प्रकार से अङ्गीकार करना चाहिए।,इति अङ्गीक्रियते। कौशिक सूक्त में नारी प्रेम सम्पादन के लिए अनेक प्रकार की आभिचारिक क्रिया का वर्णन है।,कौशिकसूक्ते नारीप्रेमसम्पादनाय बहुविधायाः आभिचारिकक्रियायाः वर्णनम्‌ अस्ति। "“षष्ठीशेषे"" शेषलक्षणा षष्ठी को छोड़कर सभी षष्ठी प्रतिपदविधान।","""षष्ठी शेषे"" इति शेषलक्षणां षष्ठीं वर्जयित्वा सर्वापि षष्ठी प्रतिपदविधाना" व्याख्या - हे अग्नि हम अनुष्ठाता प्रत्येक दिन रात और प्रत्येक समय में बुद्धि से तुम्हें नमस्कार करते हुए तुम्हारे समीप आते है।,व्याख्या- हे अग्ने वयम्‌ अनुष्ठातारः दिवेदिवे प्रतिदिनं दोषावस्तः रात्रौ अहनि च धिया बुद्ध्या नमः भरन्तः नमस्कारं सम्पादयन्तः उप समीपे त्वा एमसि त्वाम्‌ आगच्छामः। परिभाषा सूत्र दीपक के समान होता है।,परिभाषासूत्रं प्रदीपवद्‌ भवति। 8 ध्यानयोग के बहिरङ्ग साधन कौन-से होते हैं?,8 ध्यानयोगस्य बहिरङ्गं साधनम्‌ किम्‌। 12. मुमुक्षा किसे कहते है तथा मुमुक्षा किससे होती है?,१२. का मुमुक्षा। कुतो मुमुक्षा। इस विषय में एक उदाहरण बार बार दिया जाता है कर भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न समय में बहुत प्रकार के कृकलाश (कल्पद्रुमवृक्ष) देखकर के उसका वर्णन करते हैं।,एतस्मिन्‌ विषये एकम्‌ उदाहरणं तेन भूयशः प्रदीयते स्म - भिन्ना जनाः भिन्ने भिन्ने समये बहुरूपिणं कृकलासम्‌ एकं दृष्ट्वा तस्य वर्णविषये विवदन्ते स्म। सभी दर्शनों का प्रारंभ हो उसी दर्शन से होता है।,सर्वेषामपि दर्शनानां तद्वर्शनादेव प्रारम्भः। "इस सूत्र में दो पद है, यद्धितुपरम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।",द्विपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे यद्धितुपरम्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। और जहाँ जो पद होते हैं उनमें '“समर्थःपदविधि' इस सूत्र बल से समान अर्थ होते हैं।,"तत्र च यानि पदानि भवन्ति तानि ""समर्थः पदविधिः"" इति सूत्रबलात्‌ समर्थानि भवन्ति।" इहामुत्रफलभोगविराग वैराग्यपद के द्वारा वाच्य है।,इहामुत्रफलभोगविरागः वैराग्यपदवाच्यः। और “नपुंसक से अन्‌ अन्त से अव्ययीभाव से पर समासान्त तद्धित संज्ञक का टच्‌ प्रत्यय विकल्प से होता है।,"एवम्‌ ""नपुंसकाद्‌ अन्नन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः टच्प्रत्ययः विकल्पेन भवति।" मुक्षुक्षा के उदय होने पर मोक्ष के उपायों की जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है।,मुमुक्षाया उदयात्‌ मोक्षोपायस्य जिज्ञासा सुतारम्‌ उदेति। वेदान्त दर्शनों में भी परस्पर मतभेद प्रसिद्ध ही है।,वेदान्तदर्शनेषु एवं परस्परः मतभेदः प्रसिद्ध एव। सूर्य चन्द्रादी को कक्ष में घुमने से कौन नियन्त्रित करता है ?,सूर्यचन्द्रादीनां कक्षे आवर्तनं केन नियन्त्र्यते ? इसके द्वारा सुप्तोथिक की स्मृति को यह समझा जाता है कि सुषुप्ति में सुख तथा अज्ञान का अनुभव होता है।,अनेन सुप्तोत्थितस्य स्मृत्या अवगम्यते यत्‌ तेन सुषुप्तौ सुखम्‌ अज्ञानञ्च अनुभूतमिति। इन्द्रिय युक्त होकर भी निरिन्द्रिय हो जाता है।,सेन्द्रियोऽपि स निरिन्द्रिय एव। और व्यधिकरण तत्पुरुष समास इस पाठ में प्रतिपादित है।,एवं व्यधिकरणतत्पुरुषसमासः अस्मिन्‌ पाठे प्रतिपादितः। "परि... वृणक्तु-, यहाँ परि यह उपसर्ग, मध्य पदो का व्यवच्छेदतो वैदिकप्रयोग होने से साधु है।","परि....वृणक्तु-, अत्र परिरिति उपसर्गः, मध्ये पदानां व्यवच्छेदः तु वैदिकप्रयोगत्वात्‌ साधुः।" पञ्चमी का अमादेश नहीं होता है।,पञ्चम्याः तु अम्‌ न भवति। "फिर उस घृत से आकाशस्थ विहग, आरण्यकपशु और ग्राम्यपशु उत्पन्न हुए।","तेन घृतेन आकाशस्थाः विहगाः, आरण्यकपशवः, ग्राम्यपशवः च उत्पन्नाः।" अन्तः करणरूप उपाधि के नाश होने पर जीवत्व का भी नाश होता है।,अन्तःकरणरूपस्य उपाधेः नाशाद्‌ एव जीवत्वनाशः। पृथ्वी आदि के वैधर्म्य से तथा विभूत्वादि लक्षण से आकाश की अजत्व सिद्धि होती है।,पृथिव्यादिवैधर्म्याच्च विभुत्वादिलक्षणात्‌ आकाशस्य अजत्वसिद्धिः। उसके प्रति कोई भी दयाभाव नही दिखाता है।,तं प्रति कः अपि दयाभावं न प्रदर्शयति । यह एकपदात्मक सूत्र हैं।,सूत्रमिदं एकपदात्मकम्‌। 3. अहिसा से तात्पर्य है सभी भूतों को दुःख नहीं पहुँचाना।,३. अहिंसा नाम सर्वथा सर्वदा च भूतानाम्‌ अपीडनम् । वहाँ गोपाय धातु लोट्‌ में मध्यम पुरुष एकवचन में सिप्‌-प्रत्यय करने पर प्रक्रिया कार्य में गोपाय यह रूप होता है।,ततः गोपायधातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने सिप्‌-प्रत्यये प्रक्रियाकार्ये गोपाय इति रूपं भवति। मन के प्रेरित करने पर ही प्राणि कार्य में प्रवृत होते है।,मनः प्रेरिता एव प्राणिनः प्रवर्तन्ते। 1 उपासना के कितने भेद होते हैं तथा कौन-कौन से होते हैं?,1. उपासनाभेदाः कति। के च ते। 11.चित्त का मल क्या होता है तथा चित्त के मल को किस प्रकार से जाना जा सकता है?,११. चित्तमलः कः। चित्तमलः कथं ज्ञायते। यह इन्द्र के मित्र है।,अयम्‌ इन्द्रस्य मित्रं भवति। जिन विषयों को जानने के लिए शास्त्रों का पढ़ा जाता है वे विषय ही अनुबन्ध कहलाते है।,यं विषयं ज्ञातुं शास्त्रं पठति स विषय एव अनुबन्धः। "तुम औषधी समूह को बढाओ, गाय आदि पशुओ को बढाओ।","युवां औषधसमूहं वर्धयतं, गवादपशून्‌ वर्धयतम्‌।" अविद्यमानवस्त्व के अभाव पक्ष में देवी: यह पद विद्यमान ही होता है।,अविद्यमानवत्त्वस्य अभावपक्षे देवीः इति पदं विद्यमानमेव भवति। सरलार्थ - मैं ही इस पृथिवी परमात्मा के शिर के ऊर्ध्वभाग को अथवा द्युलोक की रचना करती हूँ।,सरलार्थः- अहमेव अस्याः पृथिव्याः परमात्मनः शिरसि ऊर्ध्वभागे वा द्युलोकं सृजामि। यजमान और अन्य सभी पुरोहित अवभृथ स्नान के लिए जलाशय को जाते हैं।,यजमानः अन्ये सर्वे पुरोहिताः च अवभृथस्नानाय जलाशयं गच्छन्ति। इस प्रकार कर्मों के संचित प्रारब्ध तथा क्रियमाण मध्य में तीन विभाग भी किए गये है।,संचितं प्रारब्धं क्रियमाणं चेति त्रेधा विभागोऽपि व्यवसितः। अब कहते हैं कि वृत्ति के नाश हो जाने पर वृत्तिजन्य चिदाभास तो रुकता ही है।,ननु वृत्तिः नश्यति चेत्‌ अपि वृत्तिजन्यः चिदाभासः तिष्ठति एव। उसके द्वारा आत्मभावापन्न वायु से तेज की उत्पत्ति होती है यहाँ पर कुछ भी असमञ्जस नहीं है।,तेन आत्मभावापन्नाद्‌ वायोः तेजसः उत्पत्तिः जातेति नास्ति असामञ्जस्यं किञ्चित्‌। सरलार्थ - हे मित्रावरुणतुम्हारा महत्व इसलिये प्रसिद्ध है कि उसके द्वारा सदा घुमने वाले सूर्य ने वर्षा ऋतु को स्थावर जलो को दुहा है।,सरलार्थः- हे मित्रावरुणौ युवयोः उभयोः स महिमा अतिशयेन प्रशस्तः। सततगमनशीलः यः सूर्यः स नित्यगमनेन स्थितजलसमूहं दोग्धि। "धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थो में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ होता है।",धर्मार्थकाममोक्षाख्येषु चतुर्विधपुरुषार्थेषु मोक्ष एव परमपुरुषार्थः। “अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङगानि' इति व्युत्पत्ति से अङ्ग शब्द का अर्थ होता है “उपकारक ' इति।,'अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि' इति व्युत्पत्तिवशात्‌ अङ्गशब्दस्य अर्थः भवति 'उपकारकः' इति। अतः ऋत जगत का शासन करता है।,अतः ऋतम्‌ जगत्‌ शास्ति। इसी प्रकार अष्टम मन्त्र में कहा गया की इन्द्र ने युद्ध के बाद क्या कार्य किया।,एवम्‌ अष्टमे मन्त्रे उक्तं यत्‌ इन्द्रः युद्धात्‌ अनन्तरं किं कार्यं कृतवान्‌। कुछ देवियों के नाम लिखो।,कासाञ्चन देवीनां नामानि लेख्यानि। इस प्रकार इसको अनेक प्रकार से प्रशंसा करते हुए इस सूक्त का अत्यधिक रूप से प्रचार वैदिकवाङ्मय में विशेष रूप से किया गया है।,एवं बहु प्रस्थानप्रशस्तं प्रचुरप्रचारं सूक्तमिदं वैदिकवाङ्गये वैशिष्ट्येन विशिष्यते। योगी की सत्य में प्रतिष्ठा होती है तो वह क्रियाफल का दाता होता है।,योगिनः सत्ये प्रतिष्ठा भवति चेत्‌ स क्रियाफलदाता भवति। नित्यादियों के जिस प्रकार से चित्तशुद्धयदि फल होते हैं वैसे ही पितृलोक देवलोक प्राप्ति रूप भी फल होते हैं।,नित्यादीन्‌ यथा चित्तशुद्ध्यादिकं फलमस्ति तथैव पितृलोकदेवलोकप्राप्तिुुपमपि फलमस्ति। उसके लिए यह अर्थ होता है।,तत्कृतेनेत्यर्थः। "इस सूक्त का ऋषि हिरण्यस्तूप, त्रिष्टुप्‌ छन्द और इन्द्र देवता हैं।","अस्य सूक्तस्य ऋषिः हिरण्यस्तूपः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः इन्द्रश्च देवता।" विवेक तथा वैराग्य के द्वारा मन शुद्ध होता है।,विवेकवैराग्याभ्यां मनः शुद्धं भवति। शिवेन वचसा त्वा ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,शिवेन वचसा त्वा....इति मन्त्रं व्याख्यात। 46. समृद्धयर्थ में अव्ययीभावसमास का उदाहरण क्या है?,४६. समृद्ध्यर्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? जिससे ऊर्ध्वस्थान औरनीचे के स्थानसमान हो।,येन ऊर्ध्वस्थानम्‌ अधोस्थानं च समानं भवेत्‌ । इसलिए केवल ज्ञान ही निःश्रेयसाधन नहीं होता है।,अतः केवलमेव ज्ञानं निःश्रेयससाधनम्‌ इति न। सुप का तदन्तविधि में सन्यहत्परमोन्तमोत्कृष्टाः इस अन्वय से सुबन्ताः (सुप्‌ प्रव्ययान्तपद) प्राप्त होते हैं।,सुप्‌ इत्यस्य तदन्तविधौ सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः इत्यनेनान्वयात्‌ सुबन्ताः इति लभ्यते । वायु का विकार होता है इसलिए वह प्राणमय हे।,वायोः विकारः भवति अयं प्राणमयः। "इस सूक्त के अन्त में कृषि करनी चाहिए, ऐसा मनुष्यों को उपदेश दिया गया है।",इदम्‌ एव सूक्तम्‌ अन्ते कृषिः एव करणीया इति जनान्‌ उद्दिश्य उपदिशति । “सह सुपा'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""सह सुपा"" इत्यस्य सूत्रस्य कः अर्थः?" ऊङोदुभावः अनूड यह अव्ययीभावः पद है।,ऊङोऽभावः अनूङ्‌ इति अव्ययीभावः। जस्‌ करने पर वा छन्दसि ' से पूर्वसवर्णदीर्घ।,जसि 'वा छन्दसि' इति पूर्वसवर्णदीर्घः। वह ही क्रम विविध प्रमाणों के साथ बताया जा रहा है।,स एव क्रमः विविधैः प्रमाणैः उपवर्ण्यते। "मन्त्रों के छन्दोबद्ध होने से छन्दों के ज्ञान के विना वेद मन्त्र का सही उच्चारण नहीं कर सकते है, अतः छन्द इस वेदाङ्ग को अवश्य जानना चाहिए।",मन्त्राणां छन्दोबद्धतया छन्दसां ज्ञानं विना वेदमन्त्राः साधु उच्चारयितुं न शक्यन्ते अतः छन्दः इति वेदाङ्गम्‌ अवश्यं ज्ञेयम्‌। "दूसरी शिक्षा पद्यात्मक है, यहाँ इक्कीस पद्यो में स्वर का विस्तृत विचार किया है।","द्वितीया शिक्षा पद्यात्मिका वर्तते, एकविंशतौ पद्येषु अत्र स्वरस्य विस्तृतविचारः वर्तते।" "कर्षात्वतः यह षष्ठी एकवचनान्त पद है, घञः यह भी षष्ठी एकवचनान्त है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त है, उदात्तः यह भी प्रथमा एकवचनान्त पद है।","कर्षात्त्वतः इति षष्ठ्येकवचनान्तं, घञः इत्यपि षष्ठ्येकवचनान्तम्‌, अन्तः इति प्रथैकवचनान्तम्‌, उदात्तः इत्यपि प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" वे अनुबन्ध यहाँ पर श्लोकबद्ध है अधिकारी च विषयः सम्बन्धश्च प्रयोजनम्‌।,ते चानुबन्धाः अत्र श्लोकबद्धाः-अधिकारी च विषयः सम्बन्धश्च प्रयोजनम्‌। वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय सर्वश्रेष्ठ देव इन्द्र हैं।,वेदे अन्तरिक्षस्थानीयः सर्वश्रेष्ठः देवः भवति इन्द्रः । तब वह मुक्त पुरुष सभी वस्तुओं में आत्मा को ही देखता है।,तदा मुक्तः पुरुषः सर्वेषु वस्तुषु आत्मानम्‌ एव पश्यति। इस पशुमांस के भक्षण के विषय में दो विपरीत मत हैं।,अस्य पशुमांसस्य भक्षणविषये द्वे विपरीते मते स्तः। 3. अजाद्यतष्टाप्‌ सूत्र से क्या विधान है?,३. अजाद्यतष्टाप्‌ इति सूत्रेण किं विधीयते? अब हम शमादि का क्रम से उपस्थान कर रहे है।,अधुना शमादयः क्रमशः उपस्थाप्यन्ते। 9. सर्वे निमेषा ... इस मन्त्र की व्याख्या कीजिए।,९. तदेवाग्निस्तदादित्य ... इति मन्त्रं व्याख्यात। जो अन्तरिक्ष में जल को बनाकर धारण करने वाला है द्य उसको छोड़कर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करें अथवा प्रजापति को हवि के द्वारा पूजें।,यः अन्तरिक्षे जलपरिमाणकारी तं विहाय कं हविषा पूजयेम अथवा प्रजापतिं हविषा पूजयेम। यह ही अध्यारोप तथा अपवाद का प्रयोजन है।,एतदेव अध्यापोपापवादयोः प्रयोजनम्‌। 14. वृक्ष से।,१४. वृक्षेण। "इस सूक्त का हिरण्यगर्भ प्राजापति ऋषि, त्रिष्टुप्‌ छन्द, प्रजापति देवता है।","अस्य सूक्तस्य हिरण्यगर्भः प्राजापत्य ऋषिः, त्रिष्टुप्‌ छन्दः,प्रजापतिर्देवता।" "देने की इच्छा वालो का कल्याण करो, दान के भोक्ता का दक्षिणा में प्राप्त ऋत्विग के समान कल्याणकरो।","दातुमिच्छतः कल्याणं कुरु, दानस्य भोक्तृषु दक्षिणां गृहीतवत्सु खल्वृत्विक्षु कल्याणं कुरु इति।" याग के विषय में विस्तार से व्याख्या लिखो?,यागविषये विस्तरेण व्याख्यात। दन्तपडिक्त सुवर्ण के समान चमकदार हैं।,दन्तपङ्क्तिः सुवर्णभास्वरा। "विशरण, अगति, अवसादन अर्थ।",विशरमगत्यवसादनार्थः। माध्यन्दिन सवन के बाद पुरोहितगण को दक्षिणा दी जाती है।,माध्यन्दिनसवनात्‌ पुरोहितगणाय दक्षिणा दीयते। सरलार्थ - विष्णु के उस लोक को प्राप्त करना चाहता हूँ जहा देवताओ की इच्छा से मनुष्य आनन्द करते है।,सरलार्थः- विष्णोः तं लोकं प्राप्तुम्‌ इच्छामि यत्र देवतानाम्‌ इच्छया मनुष्याः आनन्दं कुर्वन्ति। अव्ययीभाव समास निष्पन्न शब्द का “ अव्ययीभावः से नपुंसकत्व होता है।,"अव्ययीभावसमासनिष्पन्नस्य शब्दस्य ""अव्ययीभावः"" इत्यनेन नपुंसकत्वं भवति।" जीव का जीवत्व आग में उष्णत्व के समान स्वभाविक नहीं है अपितु कल्पित होता है।,जीवस्य जीवत्वं वह्नेः उष्णत्ववत्‌ न स्वाभाविकम्‌ किन्तु कल्पितमेव। इस प्रकार धर्म अर्थ काम मोक्ष चार पुरुषार्थ वैदिक संस्कृतियों में प्रसिद्ध है।,एवं धर्मार्थकाममोक्षाः चत्वारः पुरुषार्थाः सुप्रसिद्धा वैदिकसंस्कृतौ। अप्रतिहत वेग्शालिनी नदियाँ पूर्वाभिमुख या पुरोभाग में प्रवाहित हो।,कुल्या नद्यः विषिताः विष्यूताः सत्यः स्यन्दन्तां प्रवहन्तु पुरस्तात्‌ पूर्वाभिमुखम्‌ । अर्थात्‌ जिस किम्‌ शब्द से पूर्व कोई भी पद नहीं है।,अर्थात्‌ यस्मात्‌ किम्शब्दात्‌ पूर्वं किमपि पदं नास्ति। "वो असत्‌ से रहित,अव्यक्त प्रकाशित सत्स्वरूप वाङ्मयरूप हिरण्यगर्भ है।",असतः अव्यक्तात्‌ प्रकाशितस्य सत्स्वरूपस्य वाङ्गयरूपं हि हिरण्यगर्भः। अतः कार्ष्ण्यम्‌ इसके गुणवाची होने के कारण उसके साथ काकस्य इस षष्ठयन्त का “'षष्ठी'' इस षष्ठी समास होने पर वह प्रकृतसूत्र से निषेध होता है।,"अतः कार्ष्ण्यम्‌ इत्यस्य गुणवाचकत्वात्‌ तेन सह काकस्य इति षष्ठ्यन्तस्य ""षष्ठी"" इत्यनेन षष्ठीसमासे प्रकृतसूत्रेण स निषिध्यते।" अश्वाः लौकिक रूप है।,अश्वाः। त्रयपदात्मक इस सूत्र में सुप्‌ इस प्रथमान्त प्रतिना इति तृतीयान्त और मात्रार्थ में सप्तम्यन्त पद है।,पदत्रयात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे सुप्‌ इति प्रथमान्तं प्रतिना इति तृतीयान्तं मात्रार्थं इति च सप्तम्यन्तं पदम्‌। दक्ष शब्द से ` अत इञ्‌ इस सूत्र से इञ्प्रत्यय करने पर इञ्प्रत्यय के जकार की “हलन्त्यम्‌' इस सूत्र से इत्‌ संज्ञा करने पर “तस्य लोपः' इस सूत्र से उस ञकार का लोप होने पर और प्रक्रिया कार्य में दाक्षेः यह रूप सिद्ध होता है।,"दक्षशब्दात्‌ अत इञ्‌ इति सूत्रेण इञ्प्रत्यये इञ्प्रत्ययस्य अकारस्य ""हलन्त्यम्‌' इति सूत्रेण इत्संज्ञायां ""तस्य लोपः' इति सूत्रेण तस्य ञकारस्य लोपे ततश्च प्रक्रियाकार्ये दाक्षेः इति रूपं सिध्यति।" मुमुक्षुत्व का अर्थ मोक्ष की इच्छा होती है।,मुमुक्षुत्वस्य अर्थस्तावत्‌ मोक्षे इच्छा। "इस मन्त्र का यह अर्थ है - अच्छे पक्षधर वाले, साथ रहने वाले, समान ख्याति वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष के ऊपर स्थित हैं।",सुपक्षधरौ सहवासिनौ समानख्यातौ द्वौ पक्षिणौ एकस्य एव वृक्षस्य उपरि स्थितौ। उसके बाद पूर्वोऽभ्यास' इससे पूर्व की अभ्यास संज्ञा होने पर भृञामित्‌ इससे अभ्यस्त अच्‌ ऋकार के इकार में अभ्यासे चर्च इससे भकार के जश्त्व होने पर वकार में बिभृ अत्‌ इस स्थिति में इको यणचि इससे ऋकार के रकार में निष्पन्न बिभ्रत्‌ इसके शत्रन्त होने से स्त्रियाम्‌ उगितश्च इससे ङीप्‌ में अनुबन्ध लोप ईकार करने पर बिभ्रती यह रूप बनता है।,ततः पूर्वोऽभ्यासः इत्यनेन पूर्वस्य अभ्याससंज्ञायां भृञामित्‌ इत्यनेन अभ्यस्तस्य अचः ऋकारस्य इकारे अभ्यासे चर्च इत्यनेन भकारस्य जश्त्वे वकारे बिभृ अत्‌ इति स्थिते इको यणचि इत्यनेन ऋकारस्य रकारे निष्पन्नस्य बिभ्रत्‌ इत्यस्य शत्रन्तत्वात्‌ स्त्रियाम्‌ उगितश्च इत्यनेन ङीपि अनुबन्धलोपे ईकारे बिभ्रती इति रूपम्‌। क्योंकि लक्षण जिस शब्द स्वरूप का संस्कार करता है वही शब्दस्वरूप उसका लक्ष्य कहा जाता है।,तत्‌ लक्षणं यस्य शब्दस्वरूपस्य संस्कारं करोति तत्‌ शब्दस्वरूपं तस्य लक्ष्यम्‌ उच्यते। "इसी प्रकार राज्ञां बुद्धः, रज्ञां पूजितः इत्यादि में समास नहीं होता है।",एवमेव राज्ञां बुद्धः राज्ञां पूजितः इत्यादौ न समासः। वैसा ही वेद के ऋक्संहिता में कहा गया है - '' अग्निं मन्ये पितरमग्निमपिमग्नि भ्रातरं सदमित्‌ सस्वायम्‌ ....” इति।,"तदाम्नातम्‌ ऋक्संहितायाम्‌ - ""अग्निं मन्ये पितरमग्निमपिमग्नि भ्रातरं सदमित्‌ सस्वायम्‌ -...”इति।" कभी भयानक जंतु के समान हमारे हृदय में भय और क्षोभ को उत्पन्न करता है।,कदाचिद्‌ भीषणजन्तुः इव अस्माकं हृदये भयं क्षोभं च समुत्पादयति। 8. सत्वरजतम प्राकृत गुणों का अपचयः: स्त्रीत्व है।,८. सत्त्वरजस्तमसां प्राकृतगुणानाम्‌ उपचयः पुंस्त्वम्‌। अतः तित्स्वरितम्‌' इस सूत्र से क्व यहाँ पर स्वरित स्वर की प्राप्ति है।,अतः'तित्स्वरितम्‌' इति सूत्रेण क्व इत्यत्र स्वरितस्वरः विधीयते। इसके बाद “'कृत्तद्धितसमासाश्च'' इससे समास की प्रातिपदिक संज्ञा होने पर “सुपो धातुप्रातिपदिकयोः'' इस सूत्र से प्रातिपदिक अव्यय का सुप्‌ का अय्‌ आदेश एवं सु प्रत्यय का लोप होने पर कृष्णश्रित होता है।,"ततः ""कृत्तद्धितसमासाश्च"" इत्यनेन समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सूत्रेण प्रातिपदिकावयवस्य सुपः अमः सोश्च लुकि कृष्णश्रित इति भवति।" यहाँ उषादेवी का कुमारी रूप की कल्पना की है।,अत्र उषादेव्याः कुमारीरूपस्य कल्पना वर्तते। "अत अर्थ में संदेह करने वाले दोष का अवकाश नहीं है, ऐसा सिद्धान्तियों का मत है।",अतः सन्दिग्धार्थस्य दोषस्य अवकाशः नास्ति इति सिद्धान्तिमतम्‌। उसके द्वारा कर्म करके तथा उससे जो शुद्धचित्तरूपी फल प्राप्त किया जाता है।,तेन कर्माणि कृत्वा ततः यत्‌ चित्तशुद्धिरूपं फलं तत्‌ आसादितम्‌ इति भावः। वाष्प रूप जल के मध्य में गुप्त रूप से रहता है।,काष्ठानाम्‌ अपां मध्ये निक्षिप्तम्‌ । उन दोनों चैतन्यों के अभेदान्वय में कोई भी बाधक नहीं होता है।,तयोः चैतन्ययोः अभेदान्वये कोऽपि बाधकः नास्ति। और जल के उठने पर नाव में आरूढ हुए उस मनु को वह मछली उनको समुद्र से हिमालय की और लेकर जाने लगी।,औघे च उत्थिते नावम्‌ अधिरूढः तं च मनुं स मत्स्यः उप समीपे ( नि ) नीचैः एनमुपकर्ष्यम्‌ इति सम्बन्धः। यह उसका रूप है।,ततः इदं रूपम्‌। स्वप्न में वासना रूप के द्वारा प्रज्ञा स्थिर होती है वैश्वानर स्थूल विषयों का साक्षात्‌ अनुभव करता है जिससे उसकी प्रज्ञा भी स्थूल हो जाती हे।,स्वप्ने वासनारूपेणैव प्रज्ञायाः स्थितिर्भवति। वैश्वानरः स्थूलविषयान्‌ साक्षादनुभवतीति हेतुना तस्य प्रज्ञा स्थूला भवति। कुछ वेद वाक्यों का कोई भी अर्थ ही नहीं है जैसे - “अम्यक्‌ स्यात इन्द्र ऋष्टिः ' ( ऋग्वेद१-१६९-३ )' “सृण्येव जर्भरी तुर्फरी तु पर्फरी फर्फरीका' ( ऋग्वेद १०-१०६-६ )' “आपास्तमन्युस्तृपल प्रभर्मा' ( ऋग्वेदः१०-८९-५ )' इत्यादि।,"कतिपयानां वेदवाक्यानां कोऽपि अर्थः एव नास्ति यथा- ""अम्यक्‌ स्यात इन्द्र ऋष्टिः (ऋग्वेदः १-१६९-३)' 'सृण्येव जर्भरी तुर्फरी तु पर्फरी फर्फरीका”(ऋग्वेदः १०-१०६-६)' 'आपास्तमन्युस्तृपल प्रभर्मा” (ऋग्वेदः १०-८९-५)' इत्यादि।" "तुल्यशब्द का समास होने से पहले आद्युदात्त जैसे था, वैसे ही समास करने के बाद भी आद्युदात्त ही होता है।",तुल्यशब्दस्य समासात्‌ प्राक्‌ आद्युदात्तत्वं यथा आसीत्‌ तथैव समासकरणात्‌ परमपि आद्युदात्तत्वमेव भवति। 2 सविकल्पकसमाधि का तथा निर्विकल्पकसमाधि का निदिध्यासन में किस प्रकार से अन्तर्भाव होता है?,२. सविकल्पकसमाधेः निर्विकल्पकसमाधेश्च कथं निदिध्यासने अन्तर्भावः? 1 निर्विकल्पकक समाधि के आठ अंग कौन-कौन से हैं?,१. निर्विकल्पकसमाधेः अष्टाङ्गानि कानि? ( 9.6 )प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः ( 7.3.44 ) सूत्रार्थ - प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व के अत्‌ के स्थान पर इत्‌ होता है आप्‌ परे।,(९.६) प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः(७.३.४४) सूत्रार्थः - प्रत्ययस्थात्‌ कात्‌ पूर्वस्य अतः स्थाने इत्‌ भवति आपि परे। 5. निर्पूर्वक वह-धातु से लुट एकवचन में वैदिक प्रयोग हे।,५. निर्पर्वकात्‌ वह्‌ - धातोः लुटि एकवचने वैदिकप्रयोगः। दोबार कहे हुए शब्दों में बाद वाला आम्रेडित संज्ञक शब्द अनुदात्त होता है।,द्विवारं उच्यमाने शब्दे परः आम्रेडितसंज्ञकः शब्दः अनुदात्तो भवति। (1/31) जिस प्रकार से कीट सत्कर्म के परिपाक के कारण करुणानिधि कृपालु किसी पुरुष विशेष के द्वारा बचकर नदी के जल प्रवाह से किसी वृक्ष की छाया को प्राप्त करके वहाँ पर जिस प्रकार से विश्राम को प्राप्त करतें है।,(१/३१) ते कीटाः सत्कर्मपरिपाकात्‌ करुणानिधिना परमकृपालुना केनचित्‌ पुरुषविशेषेण उद्धृताः रक्षिताः जलप्रवाहतीरे तरुच्छायां प्राप्य तत्र यथा विश्राम्यन्ति। वेदान्तशास्त्र का प्रयोजन है जीवब्रह्मेक्यरूपप्रमेयविषय के अज्ञान को निवृत्ति तथा स्वस्वरूपानन्द की प्राप्ति।,वेदान्तशास्त्रस्य प्रयोजनम्‌ हि जीवब्रह्मैक्यरूपप्रमेयविषयकस्य अज्ञानस्य निवृत्तिः स्वस्वरूपानन्दावाप्तेश्च इति। अपितु लक्षणा के द्वारा तीनों सम्बन्ध से अखण्डार्थ के बोधक होते हैं।,चेदपि लक्षणया सम्बन्धत्रयेण अखण्डार्थस्य बोधकानि भवन्ति। 7 श्रवण किसे कहते हैं?,७. किं तावत्‌ श्रवणम्‌? सूक्त के अन्त में ये वर्णित है कि जो देवों ने यज्ञ से यज्ञपुरुष की कल्पना के है वो ही धर्म है।,सूक्तस्य अन्ते एवं वर्णितं यत्‌ देवाः यज्ञेन यज्ञपुरुषं पूजितवन्तः। स एव धर्मः। जातिगुण क्रियावाची शब्दों के समभिव्यवहार में जातिवाचक विशेष्य अत्यन्त्‌ विशेषण को स्वभाव से नियम से नील शब्द का विशेष्यत्व नहीं होता है।,"जातिगुणक्रियावाचिनां शब्दानां समभिव्याहारे जातिवाचक एव विशेष्यम्‌, अन्यद्‌ विशेषणं स्वभावात्‌ इति नियमेन नीलशब्दस्य विशेष्यत्वं नास्ति ।" जिसको धारण करके साधक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।,यं धृत्वा साधकः शत्रूणामुपरि विजयं लभते। उदात्तवति यह भी सप्तमी एकवचनान्त पद है।,उदात्तवति इत्यपि सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। जहाँ तुम दोनों की स्थिति है वहां के घोड़ो को स्तोता मुक्त करता है।,यत्र युवयोः अश्वसमूहान्‌ स्तोतारः विमोचयन्ति। और जल प्रलय के बढ़ने पर उस नाव को तुम जल में उतार देना यह अर्थ है॥ ४ ॥,औघे च उत्थिते तां नावम्‌ त्वम्‌ आपद्यासै आरोहेरित्यर्थः ॥ ४ ॥ "और उपपादि विद्वत विषय कर्म विद्वत विषय सर्वकर्मसंन्यासपूर्विकाज्ञाननिष्ठा- 'उभौ तौ न विजानीतः' (भ. गी. 2.19) वेदाविनाशिनं नित्यम्‌' (भ. गी. 2.21) “ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌' (भ. गी. 3.3) ` अज्ञानां कर्मसङिजगनाम्‌' (भ. गी. 31 26) ` तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते' (भ. गी. 3.28) सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते' (भ. गी. 5.13) “नैव किञिचित्‌ करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्‌' (भ. गी. 5.8), अर्थात्‌ अज्ञः करोमि इति ; आरुरुक्षोः कर्म कारणम्‌, आरूढस्य योगस्थस्य शम एव कारणम्‌ ; उदाराः त्रयोऽपि अज्ञाः, “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम (भ. गी. 7.18) ` अज्ञाः कर्मिणः गतागतं कामकामाः लभन्ते' ; अनन्याश्चिन्तयन्तो मां नित्ययुक्ताः यथोक्तम्‌ आत्मानम्‌ आकाशकल्पम्‌ उपासते ; ` ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते', अर्थात्‌ अज्ञानि कर्मी भगवान को प्राप्त नहीं करतें है।","तथा च उपपादितमविद्वद्विषयं कर्म, विद्वद्विषया च सर्वकर्मसंन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा - 'उभौ तौ न विजानीतः (भ. गी. २.१९) “वेदाविनाशिनं नित्यम्‌' (भ. गी. २.२१) ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ (भ. गी. ३.३) “अज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्‌' (भ. गी. ३। २६) तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते” (भ. गी. ३.२८) “सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते” (भ. गी. ५.१३) “नैव किञ्चित्‌ करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्‌' (भ. गी. ५, ८), अर्थात्‌ अज्ञः करोमि इति ; आरुरुक्षोः कर्म कारणम्‌ , आरूढस्य योगस्थस्य शम एव कारणम्‌ ; उदाराः त्रयोऽपि अज्ञाः, ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ (भ. गी.७.१८) “अज्ञाः कर्मिणः गतागतं कामकामाः लभन्ते” ; अनन्याश्चिन्तयन्तो मां नित्ययुक्ताः यथोक्तम्‌ आत्मानम्‌ आकाशकल्पम्‌ उपासते ; “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते”, अर्थात्‌ न कर्मिणः अज्ञाः उपयान्ति।" धातु और प्रातिपदिक के अवयव के सुप्‌ का लुक्‌ (लोप) होता है।,धातोः प्रातिपदिकस्य च अवयवस्य सुपः लुक्‌ भवति। यह अक्ष द्यूत आसक्त मनुष्य को सम्पूर्ण रात्रि को जगाये रखता है।,अयम्‌ अक्षः द्यूतासक्तं जनं समग्रां रात्रिं व्याप्य जागरयति। देवयवः - देव+यु क्विप्‌ इत्था - इत्थम्‌ इस अर्थ में आत्व ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास॑:।,देवयवः - देव+यु क्विप्‌ इत्था - इत्थम्‌ इत्यर्थे आत्वम्‌ ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। ऋतेन ऋतमपिहितम्‌ ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,ऋतेन ऋतमपिहितम्‌... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। यहाँ द्वितीयान्त को समर्थ से सुबन्त से समास होता है।,अत्र द्वितीयान्तं समर्थन सुबन्तेन समस्यते। यहाँ इस सूत्र के पदों का अन्वय इस प्रकार है - वाचादीनाम्‌ उभौ उदात्तौ इति।,अत्र सूत्रस्यास्य पदान्वयः इत्थं- वाचादीनाम्‌ उभौ उदात्तौ इति। वहाँ पर उसके अभाव में अज्ञावृत्ति इस प्रकार से होती है।,तत्र तदभावेऽपि अज्ञावृत्तिरस्त्येव। इसलिए कर्मो के त्याग का भी कोई क्रम होता है।,अतः कर्मादीनां त्यागेऽपि कश्चित्‌ क्रमः अस्ति। "इस प्रकार से यह आत्मा अन्नमयकोश नहीं होती है न ही प्राणमय कोश, न मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और न ही यह आनन्दमय कोश होती है।","नायमात्मा अन्नममयेकोशः, नायमात्मा प्राणमयकोशः, नायं मनोमयकोशः, नायं विज्ञानमयः, नायम्‌ आनन्दमयश्च ।" वह दुःख फिर चित्तधर्म हो जाता है।,दुःखं च चित्तधर्मः। वह सुख के द्वारा अनायास ही ब्रह्म से संस्पृष्ट होकर उस निरतिशय परमतत्व को प्राप्त कर लेता है और- प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।,सुखेन अनायासेन ब्रह्मसंस्पर्शं ब्रह्मणा परेण संस्पर्शो यस्य तत्‌ ब्रह्मसंस्पर्शं सुखम्‌ अत्यन्तम्‌ अन्तमतीत्य वर्तत इत्यत्यन्तम्‌ उत्कृष्टं निरतिशयम्‌ अश्नुते व्याप्नोति॥ प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः। नील पद का (अनीलात्‌ उत्पलाद्‌) अनील उत्पल से उत्पल शब्द का व्यावर्तकत्व से विशेषणत्व है।,नीलपदस्य अनीलादुत्पलाद्‌ उत्पलशब्दस्य व्यावर्तकत्वेन विशेषणत्वमस्ति । इस कथानक के अंदर मनोवैज्ञानिक तथ्य का विशाल सङ्केत प्राप्त होता है (शत.१/४/५/८-२)।,अस्य कथानकस्य अभ्यन्तरे मनोवैज्ञानिकतथ्यस्य विशदः सङ्केतः प्राप्यते (शत.१/४/५/८-२)। कुछ तो पशु को यजमान का चिह्व स्वरूप मानते हैं।,एके वदन्ति यत्‌ पशुः यजमानस्य चिह्वस्वरूपः इति। अस्तवे - यहाँ असु क्षेपणे इस धातु से तुमर्थ में तवेप्रत्यय होता है।,अस्तवे- अत्र असु क्षेपणे इतिधातोः तुमर्थ तवेप्रत्ययः। "फल स्वरूप यजुर्वेद के मन्त्र भी निश्चय रूप से गद्यात्मक है, वह भी छन्द से रहित नहीं है।","फलतो यजुर्वेदस्य मन्त्रः अपि यो हि निश्चयेन गद्यात्मकः अस्ति, छन्दोविरहितः नास्ति।" इष्टियाग की समाप्ति पर अग्नि स्विष्टकृत्‌ आहुति अग्नि के लिए अर्पित की जाती है।,इष्टियागस्य समाप्तौ अग्निस्विष्टकृन्नामिका आहुतिः अग्नये अर्प्यते। उपासको के प्रति वह दयालु है तथा उनको बहुत धन देता है।,"उपासकान्‌ प्रति सः दयालुः, तेभ्यः महद्धनं ददाति।" कितने प्रकार के उपनिषद्‌ थे?,कतिविधा उपनिषदः आसन्‌। ' यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते' ( भ. गी. 13.12) ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌' (भ. गी. 18. 55) इत्यादि वाक्य केवल ज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति दिखाते है।,'यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते' (भ. गी. १३.१२) “ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌ (भ. गी. १८.५५) इत्यादीनि वाक्यानि केवलाज्ज्ञानात्‌ निःश्रेयसप्राप्तिं दर्शयन्ति। चक्रे - कृधातु से लिट्‌ लकार आत्मनेपद प्रथमपुरुषेकवचन में यह रूप बनता है।,चक्रे- कृधातोः लिटि आत्मनेपदे प्रथमपुरुषैकवचनम्‌। उपमीयतें सदृशतया परिच्छिद्यते ये तानि उपमानानि (उपमा दी जाती है समानता से चारों तरफ से जिससे वे हैं उपमान) सामान्य का भाव है सामान्यम्‌।,उपमीयते सदृशतया परिच्छिद्यते यैस्तानि उपमानानि। समानस्य भावः सामान्यम् "वह ही सोलह कला वाले लिङ्ग शरीर प्रजापति के साथ प्रजा का रक्षक तीन ज्योति बिजली, सूर्य और चंद्रमा को संयुक्त करता है।",स षोडशी षोडशावयवलिङ्गशरीरी प्रजापतिः प्रजया संरराणः रममाणः त्रीणि ज्योतींषि रविचन्द्रविद्युतः सचते सेवते। “' प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स विहितः तदादेशस्तदन्तस्य ग्रहणम्‌” इस परिभाषा से सुप्‌ प्रत्ययबोधक का प्रत्याहार ग्रहण से तदन्त विधि है।,"""प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स विहितस्तदादेस्तदन्तस्य ग्रहणम्‌"" इति परिभाषया सुप्‌ इति प्रत्ययबोधकस्य प्रत्याहारस्य ग्रहणात्‌ तत्र तदन्तविधिः।" बुद्धि तथा मन दोनों ही अन्तः करण के ही अंश होते हैं।,बुद्धिमनसी द्वयमपि अन्तःकरणस्यैव अंशो भवति। ऐसा होने पर जल्दी ही योगारूढ हो जाता है।,तथा सति स झटिति योगारूढो भवति। गोपाल और स्त्री क्या देखती है?,गोपालाः अङ्गनाश्च किं पश्यन्ति? वह अन्य किसी भी प्रमाण के द्वारा यदि नहीं जाना जाता है तो वह विषय प्रमाणान्तर विषय कहलाता है।,स नान्येन केनचिदपि प्रमाणेन ज्ञायते चेत्‌ स प्रमाणान्तराविषयः। "सूत्रावतरण-यहाँ टाप्‌, डाप्‌, चाप्‌, ङीप्‌, ङीष्‌, ङीन्‌, ये छ: मुख्यस्त्री प्रत्यय हैं।","सूत्रावतरणम्‌ - तत्र तावत्‌ टाप्‌, डाप्‌, चाप्‌, ङीप्‌, ङीष्‌, ङीन्‌, इत्येते षट्‌ मुख्यस्त्रीप्रत्ययाः सन्ति।" यहाँ पदों का अन्वय इस प्रकार है - अनुमः शतुः अन्तोदात्तात्‌ परा नदी अजादिः असर्वनामस्थाना विभक्तिः उदात्ता इति।,ततश्च अत्र पदान्वयः इत्थं भवति- अनुमः शतुः अन्तोदात्तात्‌ परा नदी अजादिः असर्वनामस्थाना विभक्तिः उदात्ता इति। हमें लोगो को इस प्रकार से शिक्षित करना चाहिए की कोई भी विषय भिन्न भिन्न दुष्टियों के द्वारा सौ प्रकार से देखा जा सकता है।,अस्माभिः शिक्षणीयं यत्‌- कश्चिद्‌ विषयो भिन्नाभ्यो दिग्भ्यः शतधा द्रष्टुं शक्यः। मैत्रावरुण में पशु हवि के द्वारा इनकी ही पूजा की जाती है।,मैत्रावरुणे पशौ हविष एषैव याज्या। जब उपास्य निर्गुण ब्रह्म होता है।,यदा उपास्यं निर्गुणं ब्रह्म भवति। 38. परमात्मा का जीवभाव किसके द्वारा होता है?,३८. परमात्मनः जीवभावः केन भवति ? लेकिन प्रत्यक्ष प्रतीति के द्वारा द्वैत का ही मुख्य भान होता है।,किन्तु प्रत्यक्षप्रतीत्या द्वैतस्यैव मुख्यं भानमस्ति। देवता के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि - मनुष्यों में जैसे पिता से ही पुत्र की उत्पत्ति है वैसे देवों में नहीं है।,"देवताविचारकाले तेनोक्तं यत्‌ मनुष्येषु यथा पितुः एव पुत्रस्य उत्पत्तिः, न तथा देवेषु।" और ब्राह्मण ग्रन्थों में विविध विधियों के विषय में आलोचना है।,ब्राह्मणग्रन्थेषु च विविधानां विधीनां विषये आलोचितम्‌। "भीही भृहुमदजनधनदरिद्राजागराम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त है, प्रत्ययात्‌ यह पञ्चमी एकवचनान्त है, पूर्वम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त है, पिति यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।","भीही भृहुमदजनधनदरिद्राजागराम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं, प्रत्ययात्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तं, पूर्वमिति प्रथमैकवचनान्तं, पिति इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।" अतः प्रकृत सूत्र से उस आहवनीये इस पद के अन्त्य से पूर्व एकार को उदात्त करने का विधान है।,अतः प्रकृतसूत्रेण तदन्तस्य आहवनीये इति पदस्य अन्त्यात्‌ पूर्वस्य एकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। 4. रथीव कशयाश्वाँ ... इत्यादिमन्त्र की व्याख्या करो।,४. रथीव कशयाश्वाँ ...... इत्यादिमन्त्रं व्याख्यात। अच्‌ ही उदात्त आदि स्वर होते हैं।,अचः एव उदात्तादिस्वराः भवन्ति। शतपथ ब्राह्मण में और ताण्ड्य ब्राह्मण में उपयोगी निरुक्तियों का भण्डार है।,शतपथब्राह्मणे ताण्ड्यब्राह्मणे च उपादेयानां निरुक्तीनां भाण्डारः अस्ति। 5 उपरित को प्रकट कौजिए।,५. उपरतिः प्रकटनीया। इसलिए उसकी आमन्त्रित अन्त में होने से समानाधि करण विशेषण में षट्‌-शब्द के परे पूर्व आमन्त्रितान्त बहुवचनान्त देवी: इस पद की अविद्यमानवत्त्‌ के समान प्रकृत सूत्र से कार्य प्राप्त हुआ।,अतः तस्मिन्‌ आमन्त्रितान्ते समानाधिकरणे विशेषणे षट्-शब्दे परे पूर्वस्य आमन्त्रितान्तस्य बहुवचनान्तस्य देवीः इति पदस्य अविद्यमानवत्त्वं प्रकृतसूत्रेण विधीयते। क्रान्तप्रज्ञा वाला अथवा क्रान्तकर्मा।,क्रान्तप्रज्ञः क्रान्तकर्मा वा। इसलिए श्रुति स्मृति में विरोध होने पर सभी आस्तिको के द्वारा श्रुति को ही श्रेष्ठ रूप से अङ्गीकार करना चाहिए।,अत एव श्रुतिस्मृत्योः विरोधे जाते श्रुतेः ज्यायस्त्वम्‌ अङ्गीक्रियते सर्वैरपि आस्तिकैः । फल अभाव से फल उपभोग के लिए शरीर धारण करना भी आवश्यक नहीं है।,फलाभावात्‌ फलोपभागाय शरीरपरिग्रहोऽपि नावश्यकः। तथा उसके भोग होने पर प्रमोद होता है।,तद्भोगे प्रमोदश्च भवति। दोनों भागों का मध्यस्थ विषुव दिवस है।,द्वयोः भागयोः मध्यस्थः विषुदिवसः। सः अग्नेरन्ते वृषलः पपाद' (१०-३४-११)।,' सः अग्नेरन्ते वृषलः पपाद ' ( १० - ३४ - ११ ) । सूपप्रति यहाँ प्रति मात्राबोधक है।,सूपप्रति इत्यत्र प्रति इति मात्राबोधकम्‌। ये सभी सोने के बने हुए है।,हिरण्यनामैतत्‌। सरलार्थः- सविता जुआरियो के प्रति कहती है की हे जुआरियों पासों से मत खेलो।,सरलार्थः - सविता कितवं प्रति कथयति यत्‌ हे कितव अक्षैः मा क्रीड । इस सूक्त में श्रद्धा की स्तुति देवतारूप से की गई है।,सूक्तेऽस्मिन्‌ श्रद्धायाः स्तुतिः देवतारूपेण कृता अस्ति। मन के द्वारा होतृमैत्रावरुण आदि सात होता से युक्त अग्निष्टोमयज्ञ का विस्तार करता है।,मनसा होतृमैत्रावरुणादिसप्तहोतृयुक्तः अग्निष्टोमयज्ञः विस्तार्यते। परन्तु अचेतन पदार्थो के अभिमानी देवताओं के लिए सम्बोधन है।,"अपि तु, अचेतनपदार्थानाम्‌ अभिमानिनीनां देवतानां सम्बोधनम्‌ अस्ति।" इसलिए पहले कहे हुए कथन के अनुसार से ज्ञात होता है की महाभारत काल में इस निघण्टु ग्रन्थ के निर्माता पद से प्रजापति कश्यप ही प्रसिद्ध थे।,अतः पूर्वोक्तकथनानुसारेण ज्ञातः भवति यत्‌ महाभारतकाले अस्य निघण्टुग्रन्थस्य निर्मातृपदेन प्रजापतिः कश्यप एव प्रख्यात आसीत्‌। यहाँ चार पद हैं।,अत्र चत्वारि पदानि सन्ति| प्रायणीय इष्टी के बाद सोमलता क्रयण का अनुष्ठान देखा जाता है।,प्रायणीयेष्टेः परं सोमलताक्रयणस्य अनुष्ठानं दृश्यते। उसका निवारण जीवन मुक्ति होती है।,तस्य निवारणं जीवन्मुक्तिः। इस पाठ में विष्णुसूक्त के छ मन्त्र है।,अस्मिन्‌ पाठे विष्णुसूक्तस्य षट्‌ मन्त्राः सन्ति। "जैसे सांख्य में कहते हैं की पुरुष का बन्ध भी नहीं होता है, तथा मुक्ति भी नहीं होती है।","यथा सांख्याः वदन्ति यत्‌ पुरुषस्य बन्धः नास्ति, मुक्तिः अपि नास्ति।" अथादिः प्राक्‌ शकटेः - इसका अधिकार 'शकटिशकस्योरिति जाएगा सूत्र का अर्थ- यह अधिकार सूत्र है।,"अथादिः प्राक्‌ शकटेः सूत्रार्थः- अधिकारोऽयम्‌, शकटिशकट्योरिति यावत्‌- अधिकारसूत्रमिदम्‌।" अब मनोमय कोश का निरूपण किया जा रहा है।,अथ मनोमयकोशो निरूप्यते। आकाश परमात्मा का मस्तक है।,अस्य परमात्मनो मूर्धन्‌ मूर्धन्युपरि। तो कहते हैं की कारणों में सबसे अन्यतम कारण है अन्तःकरण की मालिन्य।,तत्र कारणेषु अन्यतमं कारणं हि अन्तःकरणस्य मालिन्यम्‌। लोक से परे वह सभी लोक को अपनी महिमा से उत्पन्न करती हुई वाणी की कीर्ति को कहती है।,लोकातीता सा सर्वं लोकम्‌ उत्पादयन्ती स्वमहिम्ना विलसतीति वाचो माहात्म्यं कीर्तितमिति शम्‌। जिस ब्रह्म का बोध होने पर इस मिथ्याभूत सभी आकाशादि प्रपञ्च का बाध होता है वह पारमार्थिक ब्रह्म यहाँ पर कहा गया है।,यस्य ब्रह्मणः बाधे सति अस्य मिथ्याभूतस्य सर्वस्य आकाशादिप्रपञ्चस्य बाधः भवति तत्‌ पारमार्थिकं ब्रह्म अत्र उक्तम्‌। इसी प्रकार मनुष्यों के सामाजिक दुर्व्यवहार के निराकरण के लिये सूक्तो का सङ्कलन किया गया है।,एवं मानवानां सामाजिकदुर्व्यवहाराणां निराकरणाय सूक्तानां सङ्कलनं कृतम्‌। एवं “प्रयोगानर्हः असाधुरलोकिकः'' यह अलौकि विग्रह वाक्य लक्षण है।,"एवं ""प्रयोगानर्हः असाधुरलौकिकः"" इति अलौकिकविग्रहवाक्यलक्षणम्‌" और हव्य द्रव्य यथा क्रम दही और दृध हैं।,हव्यद्रव्यं च यथाक्रमं दधि दुग्धं च। नैयायिकों के मत मे तो कारण सामग्री ही कार्य को जन्म देने में समर्थ होती है।,नैयायिकानां मते हि कारणसामग्री एव कार्यं जनयितुं शक्याः। १२॥ सरलार्थः - ब्राह्मण इसका मुख था अर्थात्‌ मुख से उत्पन्न हुआ।,१२।। सरलार्थः- ब्राह्मणः अस्य मुखमासीत्‌ अर्थात्‌ मुखात्‌ उत्पन्नः। उदाहरण -कृष्ण अम्‌ श्रित सु इस अलौकिक विग्रह में “ द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः”' इस सूत्र से समास संज्ञा होती है।,"उदाहरणम्‌ - कृष्ण अम्‌ श्रित सु इति अलौकिकविग्रहे ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रेण समाससंज्ञा विधीयते।" यह ही समाधि योगशास्त्र में सम्प्रज्ञातसमाधि इस प्रकार से कही गई है।,अयमेव समाधिः योगशास्त्रे सम्प्रज्ञातसमाधिः इत्युच्यते। अयोद्धा - न योद्धा इति अयोद्धा यहाँ पर नञ् तत्पुरुष समास।,अयोद्धा - न योद्धा इति अयोद्धा इति नञ्तत्पुरुषसमासः। इस सूत्र में एक ही तद्धितस्य यह पद है।,अस्मिन्‌ सूत्रे एकमेव तद्धितस्य इति पदं वर्तते। परन्तु सूपप्रति यहाँ पूर्वपदार्थप्राधान्य का व्यभिचार है।,परन्तु सूपप्रति इत्यत्रास्ति पूर्वपदार्थप्राधान्यस्य व्यभिचारः। "अधिगर्त्यस्य - गर्ते इति अधिगर्तम्‌ इति अव्ययीभावसमास, अधिगर्ते भवः इति अधिगर्त्यः, उस अधिगर्त का।","अधिगर्त्यस्य- गर्ते इति अधिगर्तम्‌ इति अव्ययीभावसमासः, अधिगर्ते भवः इति अधिगर्त्यः, तस्य अधिगर्त्यस्य ।" सामान्य जाति विशेष जाति शब्दों के समभिव्याहार में तो विशेष जाति ही विशेषण होता है।,सामान्यजातिविशेषजातिशब्दयोः समभिव्याहारे तु विशेषजातिरेव विशेषणम्‌ । सरलार्थ - जल से ढका हुआ शाश्वत सूर्य के मण्डल को मे देखता हूँ।,सरलार्थः- जलेन आच्छादितं शाश्वतं सूर्यस्य मण्डलम्‌ अहं पश्यामि। "आकाश से एकजातीय अनेकद्रव्य आरम्भक नहीं है, जिसमें समवयीकारण होने पर असमवायीकारण में उसका संयोग होने पर आकाश की उत्पत्ति होती है।","न चाकाशस्य एकजातीयकम्‌ अनेकं च द्बव्यमारम्भकमस्ति; यस्मिन्समवायिकारणे सति, असमवायिकारणे च तत्संयोगे, आकाश उत्पद्येत।" एकार्थवृत्तित्वम्‌ इति फलितम्‌ (एकार्थवृत्तित्व ही फलित है)।,एकार्थवृत्तित्वमिति फलितम्‌। "तृतीय मन्त्र में कहा गया है की जैसे क्रूर अथवा दुष्ट मनुष्यों पर सन्यासी विद्वान उचित को धारण करने वाली दैवीशक्ति को प्रेरित करती है, इसी प्रकार भोजनदाताओं में तथा यजमानो में हमारा इस आशीर्वाद को कल्याणप्रद करो इस प्रकार श्रद्धा के प्रति प्रार्थना की गई है।","तृतीये मन्त्रे उच्यते यत्‌ यथा क्रूरेषु दुष्टजनेषु वा तेषामुपरि मुमुक्षुवो विद्वांसो यथोचितं धारणां दैवीशक्तिं प्रेरयन्ति, एवं भोजनदातृषु तथा यजमानेषु खलु अस्माकम्‌ इदम्‌ आशीर्वचनं कल्याणप्रदं कुरु इति प्रार्थितं श्रद्धां प्रति।" उससे इस प्रकृत सूत्र से उस काश-शब्द के आदि स्वर का आकार उदात्त होने का विधान है।,तस्मात्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण तस्य काश-शब्दस्य आदेः स्वरस्य आकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। वहीं यागों के अनुष्ठानों का प्रतिपादन सबसे उत्तम रीति से किया है।,तत्र एव यागानुष्ठानानां प्रतिपादनं सर्वोत्तमरीत्या क्रियते। "तुम ने गायों को चुराने वालों को जीता, सोम को जीता, और सात नदियों को बंधन से मुक्त किया।","त्वं गाः अजयः, सोमं जीतवान्‌, सप्त नदीः मुञ्चसि स्म।" उससे प्रजापति की इस नाम से भी उसकी प्रसिद्धि है।,ततः प्रजापतिः कः इति नाम्नापि प्रसिद्धिम्‌ अगमत्‌। 35. पदार्थानतिवृत्ति का क्या नाम है?,३५. पदार्थानतिवृत्तिः नाम किम्‌? स्वर विषय का सही ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमारे द्वारा अवश्य ही इस साधारण स्वर प्रकरण को पढना चाहिए।,स्वरविषयकं सम्यक्‌ ज्ञानं प्राप्तुम्‌ अस्माभिः अवश्यम्‌ एव इदं साधारणस्वरप्रकरणं पठनीयम्‌। चर्मणः समीपम्‌ इति इस लौकिक विग्रह में चर्मन्‌ ङस्‌ उप यह अलौकिक विग्रह होने पर “अव्ययं विभक्ति' आदि सूत्र से अव्ययीभाव समास होने पर उपचर्मन्‌ शब्द निष्पन्न होता है।,"चर्मणः समीपमिति लौकिकविग्रह चर्मन्‌ ङस्‌ उप इत्यलौकिकविग्रहे ""अव्ययं विभक्ती""त्यादिना सूत्रेण अव्ययीभावसमासे उपचर्मन्‌ इति शब्दः निष्पद्यते।" यथाशक्ति रूप को सिद्ध कोजिये?,यथाशक्ति इति रूपं साधयत। उसके बाद अब इस प्रजापति से जो वैश्य हुए वो जंघाओं से उत्पन्न हुए।,तत्‌ तदानीम्‌ अस्य प्रजापतेः यद्वैश्यः संपन्नः।ऊसुभ्यामुत्पन्न इत्यर्थः। (वि.चू. 97) इस प्रकार से पूर्वोक्त सप्तदश वायु वाले इस सूक्ष्म शरीर का भान स्वप्न में होता है।,(वि.चू ९७) एवञ्च पूर्वोक्तं सप्तदशावयवोपेतं सूक्ष्मशरीरस्य भानं भवति स्वप्ने। इस में व्याप्त होता है।,अश्याम्‌ व्याप्नुयाम्‌। "अतः एक पक्ष में अन्तोदात्त होता है, दूसरे पक्ष में समासस्य से अन्त उदात्त होता है।","अतः एकस्मिन्‌ पक्षे अन्तोदात्तः भवति, अपरपक्षे च समासान्तः उदात्तः भवति।" "तब मुमुक्षु पुरुष ब्रह्म को प्राप्त करता है, और दुःखों से दूर होता है।","तदा मुमुक्षुः पुरुषः ब्रह्म प्राप्नोति, दुःखानि च दूरीभवन्ति।" विवेकानन्द दर्शन में श्रीरामकृष्ण का प्रभाव सबसे पहले तो यह जानना चाहिए की विवेकानन्द के वेदान्तचिन्तन में उनके गुरु श्री रामकृष्ण का महान प्रभाव था।,विवेकानन्ददर्शने श्रीरामकृष्णस्य प्रभावः प्रथमतः इदं ज्ञातव्यं यत्‌ विवेकानन्दस्य वेदान्तचिन्तने तस्य गुरोः श्रीरामकृष्णस्य महान्‌ प्रभावः आसीत्‌। सूत्र अर्थ का समन्वय- विस्पष्टं कटुकम्‌ इस विग्रह में यहाँ समास है।,सूत्रार्थसमन्वयः- विस्पष्टं कटुकम्‌ इति विग्रहे अत्र समासः। संवाद सूक्त के विषय में संक्षेप में लिखिए।,संवादसूक्तविषये संक्षेपेण लिखत। "“द्विगुरेकवचनम्‌"" सूत्र का अर्थ क्या है?","""द्विगुरेकवचनम्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः ?" श्रद्धा से विहीनकार्य कभी भी इच्छित फल नहीं देता है।,श्रद्धाविहीनं कर्म कदापि अभीष्टफलदायकं न भवति। "इस विषय में पुराण, स्मृत्ति आदि ग्रन्थों में बहुत प्रमाण उपलब्ध होते हैं।",अस्मिन्‌ विषये पुराण-स्मृत्यादिग्रन्थेषु बहूनि प्रमाणानि समुपलब्धानि भवन्ति। सदन्त से निषेध होने पर द्विञस्य कुर्वन्‌ कुर्वाणो वा इसका उदाहरण है।,सदसन्तेन निषेधे द्विजस्य कुर्वन्‌ कुर्वाणो वा इत्याद्युदाहरणम्‌। स्वयं के अधिकानुसार जिस मार्ग का आश्रय लेकर के जो ईश्वर प्राप्ति की इच्छा करता है।,स्वीयाधिकारित्वानुगुण्येन यो यं मार्गम्‌ आश्रित्य ईश्वरं प्राप्तुम्‌ इच्छति । द्वित्व होने पर प्रकार आदि शब्दों के पर का अन्त उदात्त किस सूत्र से होता है?,द्विरुक्तौ प्रकारादिशब्दानां परस्य अन्तः उदात्तः केन सूत्रेण भवति ? उपमान शब्द जब संज्ञावाचक है तब।,उपमानशब्दः यदा संज्ञावाचकः तदा इति। "इस परमात्मा को ऊर्ध्वभाग से, तिरछे भाग से, मध्यभाग से नही जाना जा सकता है।","एनं परमात्मानम्‌ ऊर्ध्वभागात्‌ , तिर्यग्भागात्‌ , मध्यभागात्‌ बोद्धं न शक्यते।" इस विदेह मुक्ति की स्थिति शास्त्रों के द्वारा इस प्रकार से प्रतिपादित की गई हे।,अस्याः विदेहमुक्तेः स्थितिः शास्त्रैःप्रतिपाद्यते । और यह सूत्र का अर्थ है - फिष का अथवा प्रातिपदिक के अन्त्य का उदात्त हो।,अयं च सूत्रार्थः- फिषः प्रातिपदिकस्य वा अन्त्यस्य उदात्तः स्यात्‌ इति। सूत्र अर्थ का समन्वय- हु धातु से लट्‌ लकार में प्रथमपुरुष एकवचन में तिप्‌ प्रत्यय करने पर पकार कौ ` हलन्त्यम्‌' इस सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्य लोपः' इससे लोप करने पर द्वित्व आदि कार्य करने पर ' जुहो ति' इस स्थित्ति में तिप्‌ का तिङप्रत्ययो में पाठ होने से “तिङिशित्सार्वधातुकम्‌' इससे तिप्‌ की सार्वधातुक संज्ञा सिद्ध होती है।,"सूत्रार्थसमन्वयः- हुधातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचे तिप्प्रत्यये पकारस्य 'हलन्त्यम्‌' इत्यनेन इत्संज्ञायां तस्य लोपः इत्यनेन लोपे द्वित्वादिकार्य जुहो ति इति स्थिते तिपः तिङ्प्रत्ययेषु पाठात्‌ ""तिङ्शित्सार्वधातुकम्‌' इत्यनेन तिपः सार्वधातुकसंज्ञा सिध्यति।" यज्ञ के मुख्य स्वरूप का निष्पादकत्व से इस संहिता का विद्वत्ता पूर्ण भाष्य को सर्वप्रथम आचार्य सायण ने लिखा है।,यज्ञस्य मुख्यस्वरूपस्य निष्पादकत्वेन अस्याः संहितायाः विद्वत्तापूर्णभाष्यं सर्वप्रथमम्‌ आचार्यसायणेन रचितम्‌। सोमयाग में पांच दिनों में अनुष्ठित अनुष्ठानों का संक्षेप से विविरण लिखो?,सोमयागे पञ्चसु दिनेषु अनुष्ठितानानाम्‌ अनुष्ठानानां संक्षेपेण विविरणं करोतु। यज्वा का उदाहरण * अमरकोशोद्घाटन में' एक समान ही उपलब्ध होता है।,यज्वनः उद्धरणम्‌ 'अमरकोशोद्धाटने' यथावद्‌ उपलब्धं भवति। 14. व्युत्थानावस्था किसे कहते है?,१४. व्युत्थानावस्था नाम का? अन्न के विकारत्व से अन्न का कार्य अन्नमय कोश में होता है।,अन्नविकारत्वात्‌ अन्नस्य कार्यं भवति अन्नममयेकोशः। विष्णु के सभी प्रियतमो को उसके प्रसिद्ध अविनाशी ब्रह्मलोक को व्याप्त करके और जिसमे ब्रह्मलोक विष्णु को आत्मा से चाहने वाले मनुष्य विशाल तृप्ति का अनुभव करते है।,विष्णोः प्रियतमं सर्वैः सेयत्वेन प्रसिद्धं तम्‌ अविनाशिब्रह्मलोकं व्याप्नुयां यस्मिन्‌ च ब्रह्मलोके विष्णुम्‌ आत्मनः इच्छन्तः नराः महतीं तृप्तिमनुभवन्ति। यहाँ भाष्यकार ने बहुवचनम्‌ इस पद को जोड़कर इस सूत्र को पूर्ण किया है।,अत्र भाष्यकारः बहुवचनम्‌ इति पदं योजयित्वा सूत्रमिदं पूरितवान्‌। """नपुंसकादन्यतरस्याम्‌"" इस सूत्र से अन्यतरस्याम्‌ पद की अनुवृत्ति होती है।","""नपुंसकादन्यतरस्याम्‌"" इति सूत्राद्‌ अन्यतरस्याम्‌ इति पदमनुवर्तते।" इस अध्याय से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है की इस आरण्यक के दृष्टा ऋषि का नाम गुणाख्य शाङ्ख्यायन था।,अनेन अध्यायेन स्पष्टरूपेण प्रतीतो भवति यद्‌ अस्य आरण्यकस्य द्रष्टुः ऋषेर्नाम गुणाख्यशाङ्ख्यायनः आसीत्‌। और इस प्रकार प्रकृत वार्तिक से उस पद के ही और उपोत्तम अर्थात्‌ अन्त्य से पूर्व अन्त्य को उदात्त स्वर का विधान है।,एवञ्च प्रकृतवार्तिकेन तस्यैव पदस्य उपोत्तमस्य अर्थात्‌ अन्त्यात्‌ पूर्वस्य अन्त्यस्य च उदात्तस्वरः विधीयते। उपासना आदि के द्वारा भी चित्त की एकाग्रता उत्पन्न होती है।,उपासनादिभिः चित्तस्य एकाग्रता जायते। "मित्रवरुण जहाँ रहते है, उस स्थान में प्राय दस हजार किरणें एक साथ स्थित होकर के रहती हैं।","मित्रावरुणौ यत्र वसतः, तस्मिन्‌ स्थाने प्रायः दशसहस्राणि रश्मयः समवेततया अवतिष्ठन्ते।" फिर हमारे द्वारा उनको नहीं जाना जात है।,तथापि अस्माभिः तन्न ज्ञायते। “न पूजनात्‌” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""न पूजनात्‌"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" कथासार - कभी प्रातः काल हाथ धोने के लिए महर्षि मनु के लिए उनके सेवक जल को लेकर आये।,कथासारः - अथ कदाचित्‌ प्रातः हस्तप्रक्षालनाय महर्षेः मनोः कृते तस्य भृत्याः जलम्‌ आनीतवन्तः। तिसृभ्यो जसः ( ६.१.१६६ ) सूत्र का अर्थ- तिसृ शब्द से परे जस्‌ को अन्तोदात्त होता है।,तिसृभ्यो जसः (६.१.१६६) सूत्रार्थः- त्रिसृशब्दात्‌ परस्य जसः अन्तः उदात्तः स्यात्‌। ब्रह्मलोक अत्यन्तविशिष्टकर्मज्ञानसाध्य तथा दुष्प्राप्य होता है।,अत्यन्तविशिष्टकर्मज्ञानसाध्यो दुष्प्रापो ब्रह्मलोकः। तब आकर्षण का कारण लघुता को प्राप्त कर लेता है।,आकर्षणस्य कारणम्‌ लघुतां गच्छति। अकिरत्‌ यहाँ पर किस सूत्र से इकार हुआ?,अकिरत्‌ इत्यत्र केन सूत्रेण इत्वम्‌। देव और देवता शब्द दोनों पर्याय हैं।,देवशब्दः देवताशब्दश्च उभौ पर्यायौ। वहाँ से ही पुरुष की प्रवृत्ति होती है।,ततः एव पुरुषस्य प्रवृत्तिः भवति। समर्थ का विशेषण होने से तदन्त विधि में सुबन्तेन होता है।,समर्थस्य विशेषणत्वात्‌ तदन्तविधौ सुबन्तेनेति भवति। सगुणब्रह्मविषयक दो प्रकार की उपासनाएँ उपनिषदों में सुनाई देती है।,सगुणब्रह्मविषयकानि उपासनद्वयम्‌ उपनिषत्सु श्रूयते। क्योंकि उनके लिए लौकिक वाक्य प्रत्यक्ष से अथवा अनुमान से ग्रहण करते है।,यतो हि तेषां नये लौकिकवाक्यानि प्रत्यक्षेण अनुमानेन वा गृह्यम्। 32. अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में अन्तिरिन्द्रयधारण ही धारणा होती है।,३२. अद्वितीयवस्तुनि ब्रह्मणि अन्तरिन्द्रियधारणं धारणा। "इस सूक्त के अथर्वा ऋषि, भूमि और पृथ्वी देवता।","अस्य सूक्तस्य अथर्वा ऋषिः, भूमिः पृथ्वी च देवते।" अभिप्लव षडह के छः दिन - पहले दिन - ज्योतिष्टोम।,अभिप्लवषडहस्य षड्‌ दिवसाः - प्रथमदिवसः- ज्योतिष्टोमः। देहादि के आश्रमधर्म तथा तदनुगण कर्म भी होते हैं।,देहादीनां भवति आश्रमधर्माः तदनुगुणकर्माणि च। इसलिए कर्मों का परिणाम धर्म अधर्म तथा चित्त शुद्धि तीन प्रकार का होता है।,अतः कर्मणां परिणामः धर्मः अधर्मः चित्तशुद्धिः इति त्रिविधः। और जो विनाश रहित है।,यच्च अमरणधर्मि। इस प्रजापति से ब्राह्मण अर्थात ब्राह्मणत्व जाति विशिष्ट पुरुष मुख था मुख से उत्पन्न हुआ।,अस्य प्रजापतेः ब्राह्मणः ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टः पुरुषः मुखमासीत्‌ मुखादुत्पन्नः इत्यर्थः। 9. अभिपूर्वक अवपूर्वक हृ-धातु से लेट मध्यमपुरुष एकवचन में।,९. अभिपूर्वकात्‌ अवपूर्वकात्‌ हृ-धातोः लेटि मध्यमपुरुषैकवचने। और भी शक्तिशाली धनवान इन्द्र ने वृत्र के साथ उसके द्वारा अन्यनिर्मित माया को भी विशेष रूप से जीत लिया।,उत अपि च मघवा धनवानिन्द्रः अपरीभ्यः अपराभ्यः अन्यासामपि वृत्रनिर्मितानां मायानां सकाशात्‌ वि जिग्ये विशेषेण जितवान्‌॥ “किमः क्षेपे” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""किमः क्षेपे"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इस सूत्र से चतुर्थी तत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण चतुर्थीतत्पुरुषसमासो भवति। बोधक प्रमाण उपनिषद है।,बोधकं च प्रमाणम्‌ उपनिषद्‌। भक्ति योग के विषय में लघु टिप्पणी कीजिए।,भक्तियोगविषये लघुटिप्पणीं लिखत। तृणम्‌ अपि अपरित्यज्य यह लौकिक विग्रह है और तृण टा सह यह अलौकिक विग्रह है।,तृणमपि अपरित्यज्य इति लौकिकविग्रहः तृण टा सह इत्यलौकिकविग्रहः। बहुत स्थानों पर तो विषय दृढत्व सम्पादित करने के लिए श्रुति तथा स्मृतियों के वचनों का भी उपस्थापन किया जाएगा।,बहुत्र विषयस्य दृढत्वसम्पादनाय श्रुतिस्मृतिवचनानि उपस्थापयिष्यन्ते। दाशृ दाने इस धातु से क्वसुप्रत्यय के योग से दाश्वस्‌ शब्द होता है।,दाशृ दाने इति धातोः क्वसुप्रत्यययोगेन दाश्वस्‌ शब्दः भवति। इसी प्रकार से इस संसार के दुःख भी होते है।,एवमेव अस्य संसारदुःखं भवति। इस प्रकार श्रद्धा योग्य ब्रह्मात्मक वस्तु का तुम्हे उपदेश देती हूँ।,ईदृशं ब्रह्मात्मकं वस्तु ते तुभ्यं वदामि उपदिशामि। वहाँ परीक्षा में समुचित मूल्यांकन होगा।,तत्र परीक्षायां समुच्चितं मूल्यायनं भविष्यति। इस श्रुति के द्वारा यह स्पष्ट होत है की लोक परीक्षा अनन्तर निर्वाण वैराग्य सम्पन्न होकर के गुरु के पास में जाना चाहिए तथा उनसे श्रवणादि कार्य करना चाहिए।,अनया श्रुत्या इदं स्पष्टं भवति यत्‌ लोकपरीक्षायाः अनन्तरं निर्विण्णः वैराग्यसम्पन्नो भूत्वा गुरुम्‌ उपसर्पेत्‌। ततः श्रवणादिकं कुर्यात्‌। 22. अर्थवाद का उदाहरण दीजिए।,२२. अर्थवादस्य उदाहरणं दीयताम्‌? सूर्योदयकाल में अस्तांचलसमय में सूर्य की हजार किरणें स्पष्ट होती है।,सूर्योदयकाले अस्ताचलसमये सूर्यस्य सहस्ररश्मयः स्पष्टीभवन्ति। "रज्‌: शब्द लोकवाची, “लोका रजांस्युच्यन्ते' ये यास्क ने कहा।","रजःशब्दो लोकवाची, “लोका रजांस्युच्यन्ते' इति यास्केनोक्तत्वात्‌।" यहाँ एकश्रुतिः इस पद में विग्रह क्या है?,अत्र एकश्रुतिः इति पदे विग्रहः कः ? ऋग्वेद के दशममण्डल के अन्तर्गत आया हुआ हिरण्यगर्भ सूक्त उनमें प्रमुख है।,ऋग्वेदस्य दशममण्डलान्तर्गतं हिरण्यगर्भसूक्तं तेषु प्रामुख्यं भजते। उसके बाद पुरुष का जल से स्नानादि करना वर्णित है।,ततः पुरुषस्य जलेन स्नानादिकं वर्णितम्‌। इस प्रकार से यह उपन्यास प्रपञ्च प्रारम्भ किया जा रहा है।,अत एवायम्‌ उपन्यासप्रपञ्चः। उनके समाधान में भाष्य कार ने कहा है- स्मृतिष्वपि भगवदगीताद्यासु अनभिसन्धाय फलम्‌ अनुष्ठितानि यज्ञादीनि मुमुक्षोः ज्ञानसाधनानि भवन्तीति प्रपञ्चितम्‌ तस्माद्‌ यज्ञादीनि शमदमादीनि च यथाश्रमं सर्वाण्येव आश्रमकर्माणि विद्योत्पत्तौ अपेक्षितव्यानि।,तत्समाधौ आह भाष्यकारः- स्मृतिष्वपि भगवद्वीताद्यासु अनभिसन्धाय फलम्‌ अनुष्ठितानि यज्ञादीनि मुमुक्षोः ज्ञानसाधनानि भवन्तीति प्रपञ्चितम्‌। तस्माद्‌ यज्ञादीनि शमदमादीनि च यथाश्रमं सर्वाण्येव आश्रमकर्माणि विद्योत्पत्तो अपेक्षितव्यानि। तद्धितस्य इस पद का विशेष्य रूप से प्रत्ययस्य इस पद की यहाँ अनुवृत्ति आती है।,तद्धितस्य इति पदस्य विशेष्यरूपेण प्रत्ययस्य इति पदमत्र अनुवर्तते। इस सूत्र से नञ्तत्पुरुष समास होता है।,अनेन सूत्रेण नञ्तत्पुरुषसमासो विधीयते । ह्वस्वनुड्भ्यां मतुप्‌ ( ६.१.१७६ ) सूत्र का अर्थ- अन्तोदात हस्वान्त तथा नुद्‌ से उत्तर मतुप को उदात होता है।,ह्वस्वनुड्भ्यां मतुप्‌ (६.१.१७६) सूत्रार्थः- हस्वान्तादन्तोदात्तान्नुटश्च परः मतुबुदात्तः। अथवा अस्वपदलौकिक विग्रह होता है।,अथवा अस्वपदलौकिकविग्रहः भवति। उनसे द्वेष नही करके उनसे स्वयं ही दूर चला जाता हूँ।,न द्वेषये परायदुभ्यः स्वयमेव परागच्छद्भ्यः सखिभ्यः सखिभूतेभ्यः कितवेभ्यः अव हीये अवहितो भवामि । सरलार्थ-हम प्रातःकाल मध्याहण में और सूर्यास्तसमय में श्रद्धा की उपासना करते है।,सरलार्थः- वयं प्रातःकाले मध्याह्णे सूर्यास्तसमये च श्रद्धाम्‌ आह्वयामः। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा भारत में तथा पाश्चात्य देशों में भी गुरु को अपरोक्षानुभूतिलाभरूप आदर्श प्रचारित किया गया है।,स्वामिविवेकानन्देन भारते पाश्चात्त्यदेशेषु च गुरोः अपरोक्षानुभूतिलाभरूपादर्शः प्रचारितः। स्वस्थ कर्त्तव्यम्‌ इस विग्रह में स्वकर्त्तव्यम्‌ में षष्ठी समास होता है।,स्वस्य कर्तव्यम्‌ इति विग्रहे स्वकर्तव्यम्‌ इति षष्ठीसमासः। वह सूर्यरूपी इन्द्र दिन में नागरुपी बादलों को मारता है।,अहिं मेघम्‌ अहन्‌ हतवान्‌। यह मन्त्र इस संहिता के अन्त में लिखा हुआ है।,मन्त्रोऽयमस्याः संहितायाः अन्ते निवेशितोऽस्ति। पाणिनीयशिक्षा - यह शिक्षा अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय है।,पाणिनीयशिक्षा - शिक्षा इयम्‌ अतिप्रसिद्धा लोकप्रिया च अस्ति। वह मनु समय के अनुसार उस उस काल में नीचे की और लौटने लगे (अन्तवससर्प) नीचे की और सर्पण करने लगे।,स मनुः प्राप्ते काले तावत्‌ तावत्‌ एव ( अन्तवससर्प ) अन्ववसृप्तः। फिर उसको प्रबल प्रारब्ध वश उसकी अन्तिम मुक्ति नहीं होती है।,तथापि तस्य प्रबलप्रारब्धकर्मवशात्‌ तस्य अन्तिमा मुक्तिः न भवति। रसास्वाद में अखण्डवस्तु के अनवलम्बन से भी चित्तवृत्ति का सामाराध्य के समय में सविकल्पानन्द का रसास्वादन होने लग जाता है।,रसास्वादो हि अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन अपि चित्तवृत्तेः सविकल्पकानन्दास्वादनं । यहाँ पर “पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन“ इस सूत्र से समानाधिकरणेन से पद की अनुवृत्ति होती है।,"अत्र "" पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन "" इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणेन इति पदम्‌ अनुवर्तते ।" उससे जातिवाचकात्‌ अनुपसर्जनात्‌ अञन्तात्‌ यह अर्थ होता है।,तेन जातिवाचकात्‌ अनुपसर्जनात्‌ अञन्तात्‌ इत्यर्थो लभ्यते। "उनमे ऐतरेय ब्राह्मण में आया हुआ शुनः शेप उपाख्यान, शतपथ ब्राह्मण में आया हुआ उर्वशी-पुरुरवा उपाख्यान इत्यादि मुख्य है।","तेषु ऐतरेयब्राह्मणगतं शुनःशेपोपाख्यानं, शतपथब्राह्मणगतमुर्वशी-पुरुरव-उपाख्यानम्‌ इत्यादीनि मुख्यानि सन्ति।" वह कर्म में तथा ब्रह्म में इस प्रकार से दो प्रकार की होती है।,कर्मणि ब्रह्मणि वा। ये निरूपित पुरुष कौन है?,ननु कोऽयं निरूप्यः पुरुष । दूसरे काण्ड को एकपदी भी कहते हैं।,द्वितीयकाण्डम्‌ एकपदीयम्‌ अपि कथ्यते। निशीर्य - `शृ हिंसायाम्‌' ` समासेऽनञ्‌पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌' ' ऋत इद्‌-धातोः' (पा. ७/१/१००) इति।,निशीर्य- 'शृ हिंसायाम्‌' 'समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌' 'ऋत इद्‌-धातोः' (पा. ७/१/१००) इति। लेकिन आत्मा को कोई भी नहीं जानता है।,किन्तु नात्मानं कोपि जानाति। और यौवन काल में जितना बल होता है उतना बल भी वृद्धावस्था में नहीं होता है।,अपि च यौवनादिकाले यावत्‌ बलमासीत्‌ तावत्‌ बलमपि न भविष्यति वार्धक्ये। त्रिलोक के सभी देवता अग्नि के नाना अभिव्यक्ति मात्र है ऐसा मान के अग्नि एक ही देव है इसके निरूपण के लिए यास्क ने ऋग्वेदीय मन्त्र उद्घृत किया - “तमू अकृण्वन्‌ त्रेधा भुव' इति (10.88.10)।,किञ्च त्रिलोकस्य सर्वाः देवताः अग्नेः नानाभिव्यक्तिमात्रम्‌ इति स्वीकृत्य अग्निः एक एव देवः इति निरूपयता यास्केन ऋग्वेदीयमन्त्रः उद्धृतः- 'तमू अकृण्वन्‌ त्रेधा भुवे' इति (१०.८८.१०)। समवर्तत - सम्पूर्वक वृत्‌-धातु से लङ लकार प्रथमपुरुष एकवचन में यह रूप बनता है।,समवर्तत- सम्पूर्वात्‌ वृत्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषैकवचने। जैस रज्जु मे सर्प का आरोप।,यथा रज्जौ सर्पस्य आरोपः। 'विशेष- तदर्थ शब्द से यहाँ प्रकृति विकृति भाव का ही ग्रहण है।,विशेषः- तदर्थशब्देन अत्र प्रकृतिविकृतिभावः एव गृह्यते। क्षेपे यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,क्षेपे इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। हमारे द्वारा प्राचीन काल से उपनिषदों की पूजा की जाती है।,आ बहोः कालाद्‌ अस्माभिः उपनिषदः पूज्यन्ते। जो अन्तकरण वृत्ति जिस विषयक अज्ञान का नाश करती है।,या अन्तःकरणवृत्तिः यद्विषयकम्‌ अज्ञानं नाशयति। अद्वैतमत में अद्वितीयब्रह्म में ही अशेषवेदान्त का तात्पर्य है।,अद्वैतमते अद्वितीये ब्रह्मणि एव अशेषवेदान्तानां तात्पर्यम्‌। "और कुछ तिथि, मास, पक्ष, नक्षत्र परक होते हैं।",केचन च तिथि-मास-पक्ष-नक्षत्रपरकाः सन्ति। अथर्ववेद के अनेक अभिधानों में मुख्य कौन से है?,अथर्ववेदस्य विविधेषु अभिधानेषु कानि मुख्यानि? "अन्वय - तत्‌ एव अग्निः, तत्‌ आदित्यः, तत्‌ वायुः, तत्‌ उ चन्द्रमाः, तत्‌ एव शुक्रम्‌, तत्‌ ब्रह्म, ताः आपः, सः प्रजापतिः (वर्तते)॥१ ॥","अन्वय:- तत्‌ एव अग्निः, तत्‌ आदित्यः, तत्‌ वायुः, तत्‌ उ चन्द्रमाः, तत्‌ एव शुक्रम्‌, तत्‌ ब्रह्म, ताः आपः, सः प्रजापतिः (वर्तते)॥१ ॥" इस अध्याय के द्वितीय भाग में उपनिषदों का वर्णन है।,अस्य अध्यायस्य द्वितीये भागे उपनिषदां वर्णनं विद्यते। वेदान्त का विषय ही जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य है शुद्धचैतन्य प्रमेय होता है।,वेदान्तस्य विषयो हि जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयम्‌। साधारण रूप से शरीर के मध्यभाग के समान कण्ठ है।,साधारणतः शरीरस्य मध्यमभागसदृशः कण्ठः। इस प्रकार अच्‌ के तीन स्वर सम्भव है।,एवम्‌ अचः त्रयः स्वराः सम्भवन्ति। अर्थात्‌ वृत्ति मन की विषय प्रकाशक शक्ति होती है उसे बाह्य आलम्बनों से रहित होना तथा बाह्य अनात्म वस्तु के परिणाम भाव के कारण उनसे उपरति करना की उत्तम उपरति कहलाती है।,"वृत्तेः मनसः विषयप्रकाशकशक्तेः, बाह्यानालम्बनं बाह्यानात्मवस्त्वाकारेण परिणामाभावः एव उत्तमा उपरतिः।" "यहाँ उषादेवी के कोमल भावों का, कठोर भावों का, और शीत स्पर्श का वैसे ही मनोहर वर्णन किया जिससे पाठकों के मन में निरंतर उल्लास बना रहे।",अत्र उषादेव्याः कोमलत्वस्य कृशाङ्गत्वस्य सितस्पर्शत्वस्य च तथा मनोरमं वर्णनं प्रदत्तं येन पाठकानां मनांसि सुतरां समुल्लसितानि भवन्ति। “उपमानानि सामान्यवचनैः'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""उपमानानि सामान्यवचनैः"" इति सूत्रस्यार्थः कः।" गृभाय इसका क्या अर्थ है?,गृभाय इत्यस्य कोऽर्थः ? द्युशब्द से उसके अंतर्गत सात भुव आदिभुवन है।,द्युशब्देन तदवान्तररूपाणि भुवादिसप्तभुवनानि। प्रातः केवल “सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः” तथा सायं सूर्य शब्द के स्थान पर अग्नि शब्द का प्रयोग करके “अग्निर्ज्योतिः ज्योतिरग्निः'” ऐसा पढ़ा जाता है।,"प्रातः केवलं ""सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः"" इति, सायं च सूर्यशब्दस्य स्थाने अग्निशब्दं प्रयुज्य ""अग्निर्ज्योतिः ज्योतिरग्निः"" इति पठ्यते।" उपक्षियन्ति - उप पूर्वक क्षि-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में उपक्षियन्ति यह रूप है।,उपक्षियन्ति- उपपूर्वकात्‌ क्षि-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने उपक्षियन्ति इति रूपम्‌। उदाहरणम्‌-इस सूत्र उदाहरण है “कृष्णश्रितः। कृष्णं श्रितः इस लौकिक विग्रह में कृष्ण अम्‌ श्रित सु इस अलौकिक विग्रह में प्रस्तुतसूत्र से द्वितीयान्त कृष्ण अम्‌ इस सुबन्त को श्रित सु इस श्रितप्रकृतिक से सुबन्त के साथ तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,उदाहरणम्‌ - एतस्य सूत्रस्योदाहरणं भवति कृष्णश्रितः इति। कृष्णं श्रितः इति लौकिकविग्रहे कृष्ण अम्‌ श्रित सु इत्यलौकिकविग्रहे प्रस्तुतसूत्रेण द्वितीयान्तं कृष्ण अम्‌ इति सुबन्तं श्रित सु इति श्रितप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। "निदिध्यासन ही यदि समाधि नहीं हो तो, निदिध्यासन के बाद सङ्गति निर्देश के बिना साक्षात्‌ समाधि के आलोचन का अप्रसङ्ग हो जाता है।",निदिध्यासनमेव यदि समाधिः न स्यात्‌ तर्हि निदिध्यासनात्‌ परं सङ्घतिनिर्देशं विना साक्षात्‌ समाधेः आलोचनम्‌ अप्रासङ्गिकोपन्यास एव स्यात्‌। वैदिक काव्य के विषय में विद्वानों के मन में कोई भी संदेह नहीं है।,वैदिककाव्यस्य विषये विदुषां मनसि कोऽपि सन्देहः नास्ति। पातञ्जल्य योगसूत्र ही यहाँ पर मुख्य है।,पातञ्जलयोगसूत्राणि अत्र मुख्यानि। उन तीनो में प्रत्येक लोक का एक देव प्रधान है और अन्य उसकी भिन्न अभिव्यक्तियां है।,तेषु त्रिषु प्रतिलोकम्‌ एकः देवः प्रधानः अन्ये च तस्यैव भिन्नाः अभिव्यक्तयः। उसी प्रकार से उपाधि के विलय से तथा अज्ञान के नाश हो जाने पर ब्रह्मवान जीवात्म ब्रह्म रूप में स्वयं में होता है।,तथा उपाधिविलये आवरणनाशे अज्ञाननाशे जाते ब्रह्मवित्‌ जीवात्मा ब्रह्मैव परं ब्रह्म एव स्वयं भवति। रज के तथा तम के क्षीण होने पर सत्त्वगुण के आधिक्य से अन्तःकरण में सभी ज्ञेय प्रकाशक हो जाता है।,रजसि तमसि च क्षीणे सत्त्वगुणाधिक्यात्‌ अन्तःकरणं यथायथं सर्वं ज्ञेयं प्रकाशयति। यहाँ बहुल ग्रहण से तृतीया और सप्तमी होने पर कहीं पर अमादेश होता है और कहीं नहीं होता है।,अत्र बहुलग्रहणात्‌ तृतीयायां सप्तम्यां च क्वचिद्‌ अमादेशो भवति क्वचिच्च न भवति। और क्रम से अन्य का भी होता है।,एवं क्रमेण अन्येषाम्‌ अपि भवति। और तेरहवें मन्त्र का कृषि देवता है।,त्रयोदशमन्त्रस्य च कृषिर्देवता । वहाँ हाथ आदि साफ करते समय एक मछली उनके हाथ पर गिरी।,तत्र हस्तादिप्रक्षालनसमये एकः मत्स्यः तस्य हस्ते अपतत्‌। नियम किसे कहते हैं?,नियमः नाम कः? "घञः यह कर्षात्वतः इसका विशेषण है, उससे तदन्त विधि से घञन्त कर्ष तथा आकार धातु से यह अर्थ प्राप्त होता है।","घञः इति कर्षात्वतः इत्यस्य विशेषणम्‌, तेन तदन्तविधिना घञन्तस्य कर्षात्वतः इति लभ्यते।" अमरता को प्राप्त करने का प्रधान साधन यह श्रद्धा ही है।,अमरतायाः समुपलब्धेः प्रधानं साधनम्‌ इयम्‌ एव श्रद्धा वर्तते। "सूत्र में ""प्रत्ययः"", ""ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"", ""समासान्ताः"" ये अधिकृत सूत्र हैं।","सूत्रे ""प्रत्ययः"", ""ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌"", ""परश्च"", ""तद्धिताः"", ""समासान्ताः"" इत्येतानि अधिकृतानि।" उदाहरण - इसका उदाहरण है - वृषों अग्निः समिंध्यते।,उदाहरणम्‌- अस्य उदहरणं भवति वृषो अग्निः समिंध्यते। यहाँ वह इस पद से समाहार अर्थ में द्विगु का और समाहारद्वन्द का ग्रहण किया गया है।,अत्र सः इति पदेन समाहारार्थे द्विगोः समाहारद्वन्द्वस्य च ग्रहणम्‌ । समा संवत्सरः उन समा को अर्थात संवत्सर में यह अर्थ है।,समा संवत्सरः तां समां समायामित्यर्थः। इस प्रकार से वह सभी कर्मो से सन्यस्त होने के कारण सर्व संकल्प संन्यासी योगारूढ कहलाता है।,एवञ्च स सर्वान्‌ कामान्‌ सर्वाणि च कर्माणि संन्यस्यति तदा स सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढः उच्यते। इस समास में प्राय उभयपदार्थ का प्राधान्य दिखाई देते है।,अस्मिन्‌ समासे प्रायेण उभयपदार्थस्य प्राधान्यं दृश्यते। प्रारब्ध कर्म के क्षयान्तर शरीरपात से वह विदेह मुक्त हो जाता है।,प्रारब्धकर्मणः क्षयानन्तरं शरीरपातात्‌ च स विदेहमुक्तो भवति। इस कारण बेलवेलकर-महोदय का कथन किसी भी तत्त्व जिज्ञासु मनुष्य के हृदय में विश्वास को उत्पन्न नहीं कर सकता है।,अतो बेलवेलकर-महोदयस्य कथनं कस्यापि तत्त्वजिज्ञासोः जनस्य हृदये विश्वासं नोत्पादयति। "लेकिन इन प्रापञ्चिकवस्तुओं के ज्ञानस्थल मे न केवल अद्वितीय ब्रह्म को जाना जाता है, अपितु विजातीय घटपटादि के साथ तादात्म्य से ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है।","परन्तु एतेषु प्रापश्चिकवस्तूनां ज्ञानस्थले न हि केवलम्‌ अद्वितीयं ब्रह्म ज्ञायते, तद्विजातीयैः घटपटादिभिः सह तादात्म्येन ब्रह्म ज्ञातं भवति।" अक्षशौण्डः- अक्षेषु शौण्डः इस विग्रह में सप्तमीतत्पुरुष समास करने पर अक्षशौण्डः यह रूप बनता है।,अक्षशौण्डः- अक्षेषु शौण्डः इति विग्रहे सप्तमीतत्पुरुषसमासे अक्षशौण्डः इति रूपम्‌। भाष्यकार के वचन से।,भाष्यकारवचनात्‌ जाग्रतावस्था में जीव का नाम वैश्वानर होता है।,जाग्रवदवस्थायां जीवस्य वैश्वानर इति नाम। यहाँ प्राक्‌ पद दो बार आवृत हुआ है।,अत्र प्राक्‌ इति पदं द्विः आवर्तते। शौनक विरचित ऋक्‌प्रातिशाख्य में अंतिम भाग में छन्दों की पर्याप्त विवेचन विद्यमान है।,शौनकविरचिते ऋक्प्रातिशाख्ये चरमभागे छन्दसां पर्याप्तं विवेचनं विद्यते। सूत्र अर्थ का समन्वय- तन्नेमिमृभवोध्‌ यथा - इस उदाहरण में अनुष्टुप्‌- छन्द है।,सूत्रार्थसमन्वयः- तन्नेमिमृभवां यथा - इति उदाहरणे अनुष्टुप्‌- छन्दः वर्तते। "और उससे यहाँ सूत्र का अर्थ होता है - यज्ञकर्म में उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरो की एकश्रुति होती है, जप न्यूङख साम को छोड़कर।","ततश्च अत्र सूत्रार्थो भवति- यज्ञकर्मणि उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणाम्‌ एकश्रुतिः भवति, जपन्यूङ्कसामानि वर्जयित्वा इति।" 16. तात्पर्य निर्णायक लिङगों की व्याख्या कोीजिए।,१६. तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गानि व्याख्यात। अक्ष किसी भी फल के बीज से निर्माण किया जाता है।,अक्षः कस्यापि फलस्य बीजात्‌ निर्मीयते । तो कहते है - पुरं शारीरं तस्मिन्‌ शेते इति पुरुषः।,चेदुच्यते- पुरं शरीरं तस्मिन्‌ शेते इति पुरुषः। श्रवण ही ब्रह्मरूपी आत्मा में तत्वमसि वाक्य का उस शाब्दपर्यायलोचन के द्वारा तात्पर्यागम होता हे।,श्रवणं हि ब्रह्मात्मनि तत्त्वमसि-वाक्यस्य तच्छब्दश्रुत्यादिपर्यालोचनया तात्पर्यावगमः। उससे बैद ङीन्‌ यह स्थिति होती है।,तेन बैद ङीन्‌ इति स्थितिः भवति। अन्वय - यां पृथ्वी भूमिम्‌ अस्वप्नाः देवाः विश्वदानीम्‌ अप्रमादं रक्षन्ति सा (पृथ्वी) नः प्रियं मधु दुहाम्‌ अथो वर्चसा उक्षतु।,अन्वयः- यां पृथिवी भूमिम्‌ अस्वप्नाः देवाः विश्वदानीम्‌ अप्रमादं रक्षन्ति सा (पृथ्वी) नः प्रियं मधु दुहाम्‌ अथो वर्चसा उक्षतु। जैस वह यह देवदत्त है।,यथा- सोऽयं देवदत्तः । तथा अपने द्वारा खाये हुए अन्न से यह स्थित रहता है।,ततश्च स्वेन भुक्तेन अन्नेन शरीरस्य स्थितिर्भवति। "जो उपनिषदों में इस प्रकार से कहा गया है - अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानं ब्रह्म इत्यादि।","तथाहि उपनिषद्वाक्यानि- अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानं ब्रह्म इत्यादीनि।" वहाँ आदि में यह प्रश्‍न निकलता है की किस प्रकार का वाक्य प्रमाणिक है।,तत्र आदौ अयं प्रश्नः समुदेति यत्‌ कीदृशं वाक्यं प्रमाणम्‌ इति। प्राचीन आचार्यो के मध्य में ऋग मन्त्रों की गणना प्रसङ्ग में विरोध किसलिए दिखाई देता है?,प्राचीनाचार्याणां मध्ये ऋङ्खन्त्राणां गणनाप्रसङ्गे वैषम्यं किमर्थं परिलक्ष्यते? ये सूक्त षोडश मन्त्रों से सुशोभित है।,षोडशभिः ऋङ्खन्त्रैः सुशोभते एतत्‌ सूक्तम्‌। समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा होने पर “सुपोधातुप्रातिपदिकमे'' इससे सुप्‌ का ङस्‌ और सु प्रत्यय का लोप होने पर राजन्‌ पुरुष होता है।,"समुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ""सुपो धातुप्रातिपदिकयोः"" इत्यनेन सुपः ङसः सोश्च लुकि राजन्‌ पुरुष इति भवति।" 21. मनन में प्रयुज्यमान उपपत्ति की क्या विशेषता है।,२१. मनने प्रयुज्यमानाया उपपत्तेः का विशेषता। उषा देवी के वर्णन में वैदिक कवि की दो प्रकार की भावना प्रकाशित होती है।,उषादेव्याः वर्णने वैदिककवेः द्विविधाभावनाः प्रकाशिताः भवन्ति। स्तोकान्तिकदूर अर्थ वाचि और कृच्छर प्रकृतिक पञ्चम्यत्त को क्तान्तप्रकृतिक सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,स्तोकान्तिकदूरार्थवाचकानि कृच्छ्रशब्दप्रकृतिकं च पञ्चम्यन्तं सुबन्तं क्तान्तप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। भोजनादि के द्वारा क्षुधादिजनित दुःख दूर हो जाते हैं।,भोजनादिना क्षुधादिजनितदुःखनिवृत्तिः। सद्‌ धातु के तीन अर्थ होते है।,सदिति धातोः त्रयः अर्थाः सन्ति। उसके अभाव पक्ष में अन्तस्य इसके स्य - इसके अकार को उदात्त स्वर होता है।,तदभावपक्षे च अन्तस्य स्य - इति अकारस्य उदात्तस्वरः भवति। सर्वोपाधिविवर्जित ब्रह्म इन अवस्थाओं से भी मुक्त होता हे।,सर्वोपाधिवर्जितं ब्रह्म एताभ्यः अवस्थाभ्यः अपि मुक्तं भवततीति । संहिता ही मन्त्र का पर्यायवाची शब्द है।,संहिता हि मन्त्रस्य पर्यायः। और इसका अन्त्यवर्ण ह्रस्व अकार है।,अस्य च अन्त्यवर्णः ह्रस्वाकारः अस्ति। इस प्रकार से पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है।,इत्थं पञ्चभूतानां समुत्पत्तिः। वह ही इस पाठ में प्रस्तुति करता है।,सैव अस्मिन्‌ पाठे प्रस्तूयते। यहाँ क्षय शब्द का निवास अर्थ में विद्यमान होने से प्रकृत सूत्र से आदि में षकार से उत्तर अकार का उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,अत्र क्षयशब्दस्य निवासेऽर्थ विद्यमानत्वात्‌ प्रकृतसूत्रेण आदेः षकारोत्तरस्य अकारस्य उदात्तस्वरः सिध्यति। अपितु उसको देवत्व की प्राप्ति होती है।,तस्य देवत्वप्राप्तिः भवति। ये अपनी महिमा से भी बढ़कर है।,अतो महिम्नोऽपि अतिशयेन वर्तते पुरुषः। "` सनाद्यन्ता धातव:' इससे गोपाय- इसकी धातु संज्ञा है, अतः उस अन्त अकार की भी प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।","'सनाद्यन्ता धातवः' इत्यनेन गोपाय- इति धातुसंज्ञकः, अतः तस्य अन्तस्य अकारस्यापि प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः।" एवं और उसे वहाँ से नीचे की और क्षारित करो।,तथा कृत्वा निषिञ्च नीचैः क्षारय । और यह अनुष्ठान अवभृथ-इष्टिनाम से जाना जाता है।,इदं च अनुष्ठानम्‌ अवभृथ-इष्टिः इत्यभिधीयते। तो अविद्या के समान बुद्धि का अनादित्व होता है क्या यह संशय उत्पन्न होता है।,तर्हि अविद्यावत्‌ बुद्धेः अनादित्वम्‌ अस्ति वेति संशयः। अतः इन दोनों के स्थान में होने वाला ओकार रूप पूर्वरूप एकादेश प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः अनयोः स्थाने जायमानः ओकाररूपपूर्वरूपैकादेशः प्रकृतसूत्रेण उदात्तः भवति। प्रातिपदिक के अवयव के लोप का उदाहरण भूतपूर्वः ऐसा है।,प्रातिपदिकावयवस्य लुकि उदाहरणं भूतपूर्वः इति। और इस प्रकार प्रकृत सूत्र से वाक्यों का उदात्त आदि स्वरों के अभेद का विधान है।,एवञ्च प्रकृतसूत्रेण वाक्यानाम्‌ उदात्तादिस्वराणाम्‌ अभेदः विधीयते। कामों के उपभोग के द्वारा काम उपशान्त नहीं ।,न हि कामानाम्‌ उपभोगेन कामा उपशान्ताः भवन्ति। कह सकते हैं।,वक्तुं शक्यन्ते। अग्नि शब्द का अर्थ होता है - जो देव यज्ञ में दी गई हवि देवताओं के लिए लेकर के जाता है वह अग्नि है।,अग्निशब्दस्य अर्थः भवति- यः देवः यज्ञे प्रदत्तं हविः देवतानां कृते आदाय गच्छति सः अग्निः। अविद्यानिवर्तकत्व के द्वारा विरोध से ज्ञान कैवल्यफल को कर्म को सहायता को अपेक्षा नहीं होती है।,"नापि ज्ञानस्य कैवल्यफलस्य कर्मसाहाय्यापेक्षा, अविद्यानिवर्तकत्वेन विरोधात्‌।" पृथ्वी सूक्त के ऋषि और देवता कौन है?,पृथिवीसूक्तस्य कः ऋषिः का च देवता? इस प्रकार के अग्नि के समीप यज्ञकर्ता जाते हैं।,ईदृशस्य अग्नेः समीपं यज्ञकारिणः यान्ति। ब्राह्मण ग्रन्थ मन्त्रों की व्याख्या से ही उनके विनियोग का युक्त मत को सिद्ध करते है।,ब्राह्मणग्रन्थाः मन्त्राणां व्यख्यया एव तेषां विनियोगस्य युक्तिमत्तां सिद्ध्यन्ति। “कर्मणि च इस सूत्र का एक उदाहरण दीजिये।,"""कर्मणि च"" इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं देयम्‌।" प्रायश्चित्त के लिए तथा पूर्व के उपात्तों को दूर करने के लिए नित्यकर्म किए जाते हैं।,प्रायश्चित्तवद्वा पूर्वोपात्तदुरितक्षयार्थं नित्यं कर्म। स्तनय - स्तन्‌-धातु से लोट मध्यमपुरुष एकवचन में।,स्तनय - स्तन्‌ - धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने । "-( तै० आ० भा०, श्लो० ६) इन ग्रन्थों के मनन स्थान जंगल का एकान्त शान्त वातावरण है।","(तै० आ० भा०, श्लो० ६) एतेषां ग्रन्थानां मननस्थानम्‌ अरण्यस्य एकान्तशान्तं वातावरणम्‌।" जिसमे सत्व रजस और तं ये तीन हो।,त्रिधातु। युग शब्द उज्‌छादिगण में पढे होने से उस 'कुशिकेभिर्युगेयुगे' यहाँ गकार से उत्तर एकार का प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,युगशब्दः उञ्छादिगणे पठितः तेन कुशिकेभिर्युगेयुगे इत्यत्र गकारोत्तरस्य एकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति। तिङः यह प्रत्यय है।,तिङ्‌ इति प्रत्ययः। उस वज्र से मेघ के भिन्न होने पर शब्द करती हुई गाय के समान जल शीघ्र समुद्र की और जाता है।,तेन वज्रेण मेघे भिन्ने सति शब्दायमानाः धेनवः इव जलानि शीघ्रं समुद्रं प्रति अगच्छन्‌। और उस वज्र से मेघों में प्रथम प्रकट हुए मेघ को मारा।,तेन च वज्रेण मेघेषु प्रथमजं मेघं जघान। यहाँ निषेधपरक अव्ययपद नहीं है।,अत्र नेति निषेधपरकम्‌ अव्ययपदम्‌। पूर्वभिः यह रूप कहाँ पर सही है?,पूर्वभिः इति रूपं क्व साधु? "अष्टकाय में, फाल्गुनि में और पूर्णमास में दीक्षा का विधान का वर्णन किया है ताण्ड्य ब्राह्मण में दीक्षा के बारे में कहा गया है - “एकाष्टकायां दीक्षेरन्‌ फाल्गुनीपूर्णमासे दीक्षेरन्‌' (ताण्ड्यत्रा. ५।९।१७)।",अष्टकायां फाल्गुन्यां पूर्णमासे च दीक्षाया विधानं विदधत्‌ ताण्ड्यब्राह्मणं दीक्षितं भवति -'एकाष्टकायां दीक्षेरन्‌ फाल्गुनीपूर्णमासे दीक्षेरन्‌” ( ताण्ड्यब्रा. ५।९|१७)। वृत्वा-वृ-धातु से क्त्वाप्रत्यय होने पर वृत्वा रूप बनता है।,वृत्वा-वृ-धातोः क्त्वाप्रत्यये वृत्वा इति रूपम्‌। त्रिपदात्मक इस सूत्र में अच्‌ प्रथमा एकवचनान्त पद है।,पदत्रयात्मके सूत्रेऽस्मिन्‌ अच्‌ इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। कर्षात्वतः यहाँ पर कर्ष शब्द से कैसे तुदादिगण की धातु का ग्रहण नहीं है?,कर्षात्वतः इत्यत्र कर्षशब्देन कथं तुदादिगणीयधातोः ग्रहणं न? यत्‌ शब्द से “सप्तम्यास्त्रल्‌' इससे त्रल्‌ प्रत्यय करने पर त्रल्‌ प्रत्यय का लित्‌ होने से उससे पूर्व के यकार से उत्तर अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।,"यच्छब्दात्‌ ""सप्तम्यास्त्रल्‌' इत्यनेन त्रल्प्रत्यये त्रल्प्रत्ययस्य लित्त्वात्‌ ततः पूर्वस्य यकारोत्तस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिद्धति।" "और यहाँ पर पूर्वनिपात के यथाक्रम- कण्ठेकालः, युक्तयोगः, अग्न्याहितः इत्यादि उदाहरण हैं।",अत्र च पूर्वनिपातस्य यथाक्रमं कण्ठेकालः युक्तयोगः अग्न्याहितः इत्यादीन्युदाहरणानि। "ऋक्परिशिष्ट के मन्त्र पुराणों में प्रमाण के लिये उद्धृत है, उसके कारण ये मन्त्र विशेष सम्मान वाले हैं।","ऋक्परिशिष्टस्य मन्त्राः पुराणेषु प्रमाणाय समुद्धृताः सन्ति, तेन एते मन्त्राः विशेषसम्मान्नार्हाः भवन्ति।" यहाँ श्रवण अर्थ में श्रु-धातु से क्तिन्‌-प्रत्यय करने पर और विभक्ति कार्य में श्रुतिः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अत्र श्रवणार्थकात्‌ श्रु-धातोः क्तिन्‌-प्रत्यये ततश्च विभक्तिकार्ये श्रुतिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। "प्रशान्तचित्तवाला, शमगुणयुक्त, जितेन्द्रिय,दमगुण युक्त, शुद्ध चित्ताला, गुरु तथा शास्त्र के द्वारा जिस प्रकार से कहा गया है उसका पूर्ण रूप से जो आचरण वाला अधिकारी कहलाता है।","प्रशान्तचित्ताय, शमगुणयुक्त, जितेन्द्रियाय, दमगुणयुक्त , चित्तं, शुद्धं यथा उक्तं शास्त्रेण गुरुणा च तथा करोति स अधिकारी कथ्यते ।" "पवि रथ की नेमि को कहते है ""पवी रथनेमिर्भवतिश"" ऐसा यास्क का वचन, यहाँ पर लक्षितलक्षणणा के द्वारा रथ में हो, केवलचक्र के घुमने के योग से।","पविरिति रथस्य नेमिः 'पवी रथनेमिर्भवति' इति यास्कवचनात्‌, तथाप्यत्र लक्षितलक्षणया रथे वर्तते, केवलचक्रस्यावर्तनायोगात्‌।" अजीजन ओष॑धीर्भाज॑नाय कमुत प्रजाभ्योऽविदः मनीषाम्‌॥,अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदः मनीषाम्‌ ॥ १० ॥ इसके बाद वर्णसम्मेलन करके आम्बष्ठय रूप बना।,ततः वर्णसम्मेलनं कृत्वा आम्बष्ठ्य इति रूपं जायते। कर्त्ता में और करण में विद्यमान तृतीयान्त सुबन्त को कृदन्त के साथ बहुल तत्पुरुषसमास संज्ञा होती है।,कर्तरि करणे च विद्यमानं तृतीयान्तं सुबन्तं कृदन्तेन सह बहुलं तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति। पञ्चीकरण किसे कहते हैं तो कहते हैं कि पञ्चीकरण एक प्रक्रिया होती है ।,ननु किं नाम पञ्चीकरणमिति चेदुच्यते -पञ्चीकरणं नाम एका प्रक्रिया। जिस क्रम से भूतों की तथा भौतिकों कि सृष्टि होती है उनका विपरीत क्रम से लय भी होता है।,येन क्रमेण भूतानां भौतिकानां च सृष्टिः भवति तद्विपरीतक्रमेण लयः भवति। यह अक्ष द्यूतक्रीडा को प्रसन्न वैसे ही करता है जैसे सोमरस देवो को आनन्दित करता है।,अयम्‌ अक्षः द्यूतक्रीडकं तथा आनन्दयति यथा सोमरसः देवान्‌ आनन्दयति । अतः उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों की एक अभिन्न श्रुति है यह उसका अर्थ है।,अतः उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणाम्‌ एका अभिन्ना श्रुतिः इति तदर्थः। किसी साधन का किसी भी क्रम में अनुष्ठान करने पर कोई कामाचार नहीं होता है।,किमपि साधनं केनापि क्रमेण अनुष्ठाने नास्ति कामचारः। "इसी प्रकार सात के क्रम से नीचे के लोक होते है अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल तथा पाताल इस प्रकार से।",सप्त च क्रमेण अधोलोकाः अतल-वितल-सुतल-रसातल-तलातल-महातल- पातालाः इति। "क्योंकि यह प्रमाण जैसे वेद में प्रयुक्त दिखाई देता है, वैसे ही वेद से बाहर स्मृति शास्त्र में भी।",यतो हि इदं प्रमाणं यथा वेदे प्रयुक्तं दृश्यते तथैव वेदबहिर्भूते स्मृतिशास्त्रे अपि। इसके बाद उपसर्जन संज्ञक का सु इसका अव्यय का पूर्व निपात होने पर सु मद्र आम्‌ यह होता है।,ततः उपसर्जनसंज्ञकस्य सु इत्यस्याव्ययस्य पूर्वनिपाते सु मद्र आम्‌ इति भवति। "तीन पद वाले इस सूत्र में ङ्याः यह पञ्चमी एकवचनान्त पद है, छन्दसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है, बहुलम्‌ यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।","त्रिपदात्मके अस्मिन्‌ सूत्रे ङ्याः इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌, छन्दसि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌, बहुलम्‌ इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।" तथा जिस विषय को जानते हुए ग्रन्थ में प्रवर्तित होते है वह अनुबन्ध कहलाता है।,यं विषयं जानन्‌ ग्रन्थे प्रवर्तते स विषयः एव अनुबन्धः कथ्यते। लेकिन अविद्या के द्वारा विद्यादि प्रपञ्च रूप से विवर्त मानत्व लक्षण इनका हो जाता है।,किन्तु अविद्यया वियदादिप्रपञ्चरूपेण विवर्त्तमानत्वलक्षणम्‌। उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इस सूत्र से किस स्वर का विधान है?,उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इत्यनेन सूत्रेण कः स्वरो विधीयते? जिस दिन अग्निहोत्र आरम्भ किया जाता है।,यस्मिन्‌ दिवसे अग्निहोत्रम्‌ आरभ्यते। गतौ यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।,गतौ इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌। उनके योग में तृतीया विभक्ति सभी जगह दिखाई देती है।,तद्योगे च तृतीया सर्वत्र दृश्यते। स्तुति अथवा नमस्कार यह उसका अर्थ है।,स्तुतिः नमस्कारः वा तदर्थः। "वैसे ही कुञ्ज शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर उसके बाद च्फञ्‌ इस तद्धित प्रत्यय करने पर कुञ्ज च्फञ्‌ इस स्थित्ति में च्फञ्‌-प्रत्यय के आदि चकार की चुटू इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर, जकार की हलन्त्यम्‌ इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर तस्य लोपः इस सूत्र से उन दोनों की इत्‌ संज्ञा करने पर चकार जकार के लोप होने पर कुजूज फ इस स्थित्ति में फकार के स्थान में आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्‌ इस सूत्र से आयन्‌ यह आदेश होने पर कुज्ज आयन्‌ अ इस स्थित्ति में च्फज्‌-प्रत्यय के जित्त्‌ होने से तद्धितेष्वचामादेः इस सूत्र से कुज्ज शब्द के आदि उकार को वृद्धि औकार होने पर और भसंज्ञक कौञ्‌जायन शब्द के अन्त्य अकार की यस्येति च इस सूत्र से लोप होने पर सभी का संयोग करने पर कौञ्‌जायन इस शब्द स्वरूप के तद्धितान्त होने से कृत्तद्धितसमासाश्च इस सूत्र से उसकी प्रातिपदिक संज्ञा करने पर, वहाँ डऱयाप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च इनके अधिकार में वर्तमान स्वौजसमौट्‌- छष्टाभ्याम्भिस्ङभ्याम्भ्य स्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌' इन सभी इक्कीस स्वादि प्रत्ययों कौ प्राप्ति में प्रथमा बहुवचन की विवक्षा में जस्प्रत्यय करने पर जस्प्रत्यय के आदि जकार की चुटू इस सूत्र से इत्संज्ञा करने पर तस्य लोप: इस सूत्र से उस इत्संज्ञक जकार के लोप होने पर कौञ्‌ूजायन अस्‌ इस स्थित्ति में संयोग करने पर कौञ्‌जायनास्‌ इस शब्द स्वरूप के सुबन्त होने से उस सकार के स्थान में ससजुषो: रुः इससे रु आदेश करने पर रु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इससे इत्संज्ञा और लोप करने पर कौञ्‌जायना इस स्थित्ति में रेफ उच्चारण से परे वर्ण अभाव होने से विरामोऽवसानम्‌ इस सूत्र से अवसान संज्ञा होने पर पूर्व रेफ के स्थान में खरवसानयोर्विसर्जनीयः इस सूत्र से रेफ के स्थान में विसर्ग करने पर कौञ्जायनाः यह सुबन्त रूप बनता है।","तथाहि कुञ्जशब्दस्य अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ इति सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः च्फञ्‌ इति तद्धितप्रत्यये कुञ्ज च्फञ्‌ इति स्थिते च्फञ्‌-प्रत्ययाद्यस्य चकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, अकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण तयोः इत्संज्ञकयोः चकारञकारयोः लोपे कुञ्ज फ इति स्थिते फकारस्य स्थाने आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्‌ इति सूत्रेण आयन्‌ इत्यादेशे कुञ्ज आयन्‌ अ इति स्थिते च्फञ्‌-प्रत्ययस्य ञित्त्वात्‌ तद्धितेष्वचामादेः इति सूत्रेण कुञ्जशब्दस्य आदेः उकारस्य वृद्धौ औकारे भसंज्ञकस्य कौञ्जायनशब्दस्य अन्त्यस्य अकारस्य च यस्येति च इति सूत्रेण लोपे सर्वसंयोगे निष्पन्नस्य कौञ्जायन इति शब्दस्वरूपस्य तद्धितान्तत्वात्‌ कृत्तद्धितसमासाश्च इति सूत्रेण तस्य प्रातिपदिकसंज्ञायां ततः झङ्याप्प्रातिपदिकात्‌, प्रत्ययः परश्च चेत्यधिकृत्य प्रवर्तमानेन स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङ्सोसांङ्योस्सुप्‌ इति सूत्रेण खले कपोतन्यायेन एकविंशतिषु स्वादिप्रत्ययेषु प्राप्तेषु प्रथमाबहुवचनविवक्षायां जस्प्रत्यये जस्प्रत्ययादेः जकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायां तस्य लोपः इति सूत्रेण च तस्य इत्संज्ञकस्य जकारस्य लोपे कौञ्जायन अस्‌ इति स्थिते संयोगे निष्पन्नस्य कौञ्जायनास्‌ इति शब्दस्वरूपस्य सुबन्तत्वात्‌ तदन्तस्य सकारस्य स्थाने ससजुषोः रुः इति आदेशे रोः उकारस्य उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ इति इत्संज्ञायां लोपे च कृते कौञ्जायनार्‌ इति स्थिते रेफोच्चारणात्‌ परस्य वर्णाभावस्य विरामोऽवसानम्‌ इति सूत्रेण अवसानसंज्ञायां तत्परकत्वात्‌ पूर्वस्य रेफस्य स्थाने खरवसानयोर्विसर्जनीयः इति सूत्रेण रेफस्य स्थाने विसर्गे कौञ्जायनाः इति सुबन्तं रूपं सिदुध्यति।" "और कहते हैं कि एक श्रुत कर्ता के भी दो कर्तव्य देखे जातें जैसे सूप को पकाकर के ओदन पकाता है, इस प्रकार तब आकाश की सृष्टि करके उसने तेज की सृष्टि करी इस प्रकार योजित कर देगें।","ननु सकृच्छ्रुतस्यापि कर्तुः कर्तव्यद्वयेन सम्बन्धो दृश्यते -- यथा सूपं पक्त्वा ओदनं पचतीति, एवं तदाकाशं सृष्ट्वा तत्तेजोऽसृजत इति योजयिष्यामि" निर्धारण क्या है?,निर्धारणं नाम किम्‌? 5. “द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः”' सूत्र का क्या अर्थ है?,"५. ""द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः"" इति सूत्रस्यार्थः कः?" इसलिए फिर मोक्ष में पुरुषार्थता को आवश्यकता क्या है।,अतः मोक्षस्य कथं पुरुषार्थता स्यात्‌। "तब चित्त विविध विषयों में नहीं जाता है, इस हेतु से चित्त स्थिर कहलाता है।",तदा चित्तं विविधविषयेषु न गच्छतीति हेतोः चित्तं स्थिरम्‌ इति कथ्यते। भाषा में आया भेद ऋक्‌ संहिता साहित्य में बहुत जगह भाषा में भेद परिलक्षित होता है।,भाषागतभेदः ऋक्संहितासाहित्ये बहुत्र भाषायां भेदाः परिलक्ष्यन्ते। “ मीढस्तुम' इसका क्या अर्थ है?,""" मीढस्तुमित्यस्य कः अर्थः?" अर्थात्‌ विषयों से प्रत्याहृ चित्त का आत्मा के विषय में श्रवण मनन तथा निदिध्यासन में उसके अनुगुणविषय गुरुशुश्रुषा आदि में अवस्थान ही समाधान होता है।,अर्थात्‌ विषयेभ्यः प्रत्याहृतस्य चित्तस्य आत्मनः विषये श्रवण-मनन-निदिध्यासने तथा तस्य अनुगुणविषये गुरुशुश्रूषादौ अवस्थानम्‌ एव समाधानम्‌। पञ्चीकरण प्रक्रिया को विस्तार से जाना।,एव पञ्चीकरणम्‌ ज्ञायते । “'प्रत्ययः'' (1/1) यह अधिकार और ““परश्च'' यह अधिकार यहाँ आता है।,"""प्रत्ययः"" (१/१) इति अधिकारः ""परश्च"" इति अधिकारः च अत्र आगच्छति।" अथवा शीघ्र दौड़ने के लिये प्रेरित करते है।,अथवा शीघ्रधावनाय स्तुत्या प्रेरयन्ति। "ततः = उसके बाद, मायारूप में आकर या दुसरे रूप में, विष्वङ्‌ = चारों दिशाओं में या विविधरूप होकर, साशनम्‌ = भोजन आदि व्यवहारयुक्त चेतन प्राणी उत्पन्न किये, अनशनम्‌ = उससे रहित अचेतन, ते साशनानशने = चेतन अचेतन को, अभि = लक्ष्य करके, वि = विशेषरूप से, अक्रामत्‌ = व्याप्त हुआ ।","ततः = तस्माद्‌, मायायाम्‌ आगत्य अनन्तरं वा, विष्वङ्‌ = चतुर्दिक्षु, विविधरूपो भूत्वा वा, साशनम्‌ = असनादिव्यवहारोपेतं चेतनप्राणिजातम्‌, अनशनम्‌ = तद्रहितम्‌ अचेतनम्‌, ते साशनानशने = चेतनाचेतने, अभि = अभिलक्ष्य, वि = विशेषरूपेण, अक्रामत्‌ = व्याप्तवान्‌।।" 28. गेहादि में अहंता तथा ममता को उत्पादन कौन करता है?,२८. गेहादिषु च अहन्तां ममतां च उत्पदयति कः? और सूत्र का अर्थ है “मन्नन्तात्‌ प्रातिपदिक से अन्नन्त बहुव्रीहि से और प्रातिपदिक से स्त्रीत्व द्योतक होने से विकल्प से डाप्‌ प्रत्यय होता है।,"सूत्रार्थो भवति - मन्नन्तात्‌ प्रातिपदिकात्‌, अन्नन्तात्‌ बहुव्रीहिसंज्ञकात्‌ प्रातिपदिकात्‌ च स्त्रीत्वे द्योत्ये वा डाप्‌ प्रत्ययः परः भवति।" व्याघ्रादिभिः यह तृतीया बहुवचनान्त पद है।,व्याघ्रादिभिः इति तृतीयाबहुवचनान्तं झयन्त अव्यर्थाभाव से पर समासान्त तद्धित से टच् प्रत्यय विकल्प से होता है यही सूत्रार्थ है।,एवं झयन्ताद्‌ अव्ययीभावात्‌ परः समासान्तः तद्धितः टच्प्रत्ययः विकल्पेन भवति इति सूत्रार्थः। क्या एक ही ज्ञानी के त्याग के द्वारा अमृतत्व प्राप्त होता है।,किं तु एके ज्ञानिनः त्यागेन अमृतत्वं प्राप्तवन्तः ॥ यहाँ पर सर्वकर्मसन्यास ही इष्ट होता है।,अत्र सर्वकर्मसन्न्यासः एव इष्टः। उसके द्वारा वेदान्त वैद्यक आत्म का ज्ञान भी नहीं होता है।,तेन वेदान्तैकवेद्यस्य आत्मनः ज्ञानम्‌ अपि तस्य न भवति। पर्जन्य किसको मारता है?,पर्जन्यः कान्‌ विहन्ति ? उसका द्वितीयान्त रूप शूषम्‌ है।,तस्य द्वितीयान्तम्‌ रूपम्‌ शूषम्‌ इति। "सूत्र अर्थ का समन्वय- कृ धातु को सन्‌ प्रत्यय करने पर द्वित्वादि कार्य करने में चिकीर्ष इस स्थिति में, वहाँ ण्वुल्‌ प्रत्यय करने पर तथा अनुबन्ध लोप करने पर चिकीर्ष वु इस स्थत्ति में युवोरनाकौ इस सूत्र से वु को अक्‌ आदेश करने पर षकार से उत्तर अकार के लोप होने पर चिकीर्ष अक इस स्थिति में ण्वुल्‌ प्रत्यय के लित्‌ होने से, उसके परे पूर्व के ककार से उत्तर ईकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर का विधान है।",सूत्रार्थसमन्वयः- कृधातोः सनि द्वित्वादिकार्ये चिकीर्ष इति स्थिते ततः ण्वुल्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे चिकीर्ष वु इति स्थिते युवोरनाकौ इत्यनेन वोः अकादेशे षकारोत्तरस्य अकारस्य लोपे चिकीर्ष अक इति स्थिते ण्वुल्प्रत्ययस्य लित्त्वात्‌ तस्मिन्‌ परे पूर्वस्य ककारोत्तरस्य ईकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः विधीयते। स्वर विधायक अनेक सूत्र अष्टाध्यायी में हैं।,स्वरविधायकानि बहूनि सूत्राणि अष्टाध्याय्यां विराजन्ते। उदात्तस्वरितयोः यणः अनुदात्तस्य स्वरितः पद को जोड्ने का क्रम है।,उदात्तस्वरितयोः यणः अनुदात्तस्य स्वरितः पदयोजना। 5. प्रायश्चित कर्म कौन-से होते हैं?,5. कानि प्रायश्चित्तानि कर्माणि। साधन चतुष्टय में अन्यतमसाधन शमादिषट्क सम्पत्ति है।,साधनचतुष्टये अन्यतमं साधनं शमादिषट्कसम्पत्तिः। इस कारण से ही छः वेदाङऱगों में शिक्षा नाम अङग की प्रधानता बताई है।,एतस्माद्‌ एव कारणात्‌ षट्सु वेदाङ्गेषु शिक्षानामकस्य अङ्गस्य मूर्धन्यत्वम्‌ आम्नातम्‌। यहाँ पर सद्‌ धातु का गति परक अर्थ स्वीकार करते है तो उपनिषद्‌ शब्द का ब्रह्मविद्या यह अर्थ होता है।,अत्र सद्धातोः गतिः इत्यर्थः स्वीक्रियते चेत्‌ उपनिषच्छब्दस्य ब्रह्मविद्या इत्यर्थः भवति। यहाँ संख्या पूर्व: द्विगुः ये दो पद प्रथमा एकवचनान्त पद है।,अत्र संख्यापूर्वः द्विगुः इति पदद्वयं प्रथमैकवचनान्तम्‌। यहाँ “प्रत्ययग्रहणेतदत्तग्रहणम्‌“ इस परिभाषा सुपा की प्रदत्त विधि में सुबन्तम्‌ होता है।,"अत्र "" प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम्‌ "" इति परिभाषया सुपा इत्यस्य तदन्तविधौ सुबन्तेनेति भवति ।" उसकी रचना करके उसमे ही प्रवेश करते हैं।,'तत्सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्‌' इति। 10.गुरुपदिष्ट वेदान्त वाक्यों में विश्वास ही श्रद्धा है।,१०. गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा। 33. ध्यान किसे कहते हैं?,३३. किं नाम ध्यानम्‌? इससे सुप्प्रत्ययों के और पित्प्रत्ययों के स्वरों का अनुदात्त विधान किया है।,अनेन सुप्प्रत्ययानां पित्प्रत्ययानां च स्वराणाम्‌ अनुदात्तत्वं विधीयते। सत्य वस्तु को असत्य वस्तु में परिणित होने पर उस असत्य वस्तु का निरास हो जाता है।,सत्यवस्तु असत्यवस्तुरूपेण परिणतं तस्य असत्यवस्तुनः निरासः। सूत्र का अर्थ- देवतावाची शब्दों का जो दृन्द्वसमास उसमे भी एक साथ दोनों अर्थात्‌ पूर्व और उत्तरपद को प्रकृत्ति स्वर होता है।,सूत्रार्थः - देवताद्वन्द्वे युगपत्‌ उभे प्रकृत्या भवतः। वषट्कार- इस शब्द से यहाँ वौषट्‌ इस अव्यय का ग्रहण है।,वषट्कार- इति शब्देन अत्र वौषट्‌ इति अव्ययं ग्राह्यम्‌। उसके साथ ही प्रजापति का विवेचन भी किया है।,तेन सहैव प्रजापतेः विवेचनमपि अस्ति। शोपेन हावेर (Shopen Howers)-नाम से प्रसिद्ध विदेशी दार्शनिक उपनिषदों को अपने गुरुओं में गिनते थे।,शोपेन हावेर (ऽhopen ठowers) -नाम्ना प्रसिद्धो वैदेशिको दार्शनिकः उपनिषदः स्वगुरुषु गणयति स्म। काम्य तथा निषिद्ध कर्मो को करने पर उनके द्वारा अन्तः करण में उत्पन्न संस्कार आगे कभी भी फल दे सकते है।,यदपि काम्यं निषिद्धं वा कर्म क्रियते तस्य अन्तःकरणे जातः संस्कारः अग्रे कदाचित्‌ फलं दद्यात्‌। साधारण होने से राजपुरुष: इत्यादि स्थानों में समासस्य इस सूत्र से अन्त्य यह कहने से उत्तरपद के अन्तिम अकार को उदात्त होता है।,साधारणतया राजपुरुषः इत्यादिस्थले समासस्य इति सूत्रेण अन्त्यस्य इत्युक्ते उत्तरपदस्य अन्तिमस्य अकारस्य उदात्तत्वं विधीयते। इस प्रकार यहाँ सूत्र का अर्थ इस प्रकार सिद्ध होता है - पाद के अन्त में यथा यह अनुदात्त होता है।,एवञ्च अत्र सूत्रार्थः इत्थं सिध्यति - पादान्ते यथा इति अनुदात्तो भवतीति। ङीप्‌ प्रत्यय है।,ङीप्‌। इसका भी समुद्र के लिए व्यवहार किया जाता है।,अयमपि समुद्रम्‌ अभ्यवहृते। हवि से हवन भी श्रद्धा से ही सम्भव होता है।,हविषः हवनमपि श्रद्धया एव सम्भवति। (वि.चू. 122) सुषुप्ति में सभी इन्द्रियों की तथा बुद्धि की वृत्ति प्रलीन होती है।,(वि.चू. १२२) सुषुप्तिः प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिर्भवति। उसका यथार्थ भूत वर्ण क्या है इस विषय में विवाद करते हुए स्वयं के मत को ही यथार्थ मानते है।,तस्य यथार्थभूतो वर्णः क: इत्यस्मिन्‌ विषये विवदमाना स्वकीयं मतमेव यथार्थभूतं मन्यन्ते स्म। इसी प्रकार जप में प्रयुङ्क्त मन्त्रों की भी एकश्रुति नहीं होती है।,एवं जपे प्रयुङ्क्तानां मन्त्राणामपि ऐकश्रुत्यं न भवति। उस दशा में जिस वृत्ति विशेष के द्वारा पार्थिव सुख अनित्य हैं तथा परिणाम में दुःख जनक है।,तस्यां दशायां येन वृत्तिविशेषेण पार्थिवं सुखम्‌ अनित्यं परिणामे च दुःखजनकम्‌ । अत: इसका पाणिनीय से पूर्व प्रवृत होने से कोई दोष नहीं है।,अतः अस्य पाणिनीयात्पूर्वप्रवृत्तत्वेन नास्ति कोऽपि दोषः। इसलिए इनकी विस्तीर्ण मीमांसा की गई है।,अतः विस्तीर्णतरं मीमांस्यम्‌ एतत्‌॥ ( ६.१.२०७ ) सूत्र का अर्थ- कर्तृवाची अशित शब्द को आदि उदात्त होता है।,(६.१.२०७) सूत्रार्थः- कर्तृवाची अशितशब्दः आद्युदात्तः। कतृकरणे इसका तृतीयान्त सुबन्त की इससे अन्वय होता है।,कर्तृकरणे इत्यस्य तृतीयान्तं सुबन्तमित्यनेनान्वयः। “विशेषणं विशेष्येन बहुलम्‌ '' इससे ही सिद्ध होने पर “पापाणके कुत्सितैः'” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"᳚विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌"" इत्यनेन एव सिद्धे ""पापाणके कुत्सितैः"" इति सूत्रं किमर्थम्‌ ।" सौ यहाँ पर सप्तमी विधान होने से तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इस परिभाषा से यहाँ सौ इस व्यवधान रहित पूर्व का यह अर्थ प्राप्त होता है।,सौ इत्यत्र सप्तमीविधानात्‌ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इति परिभाषया अत्र सौ इत्यस्य अव्यवहितपूर्वस्य इत्यर्थः लभ्यते। ज्ञान अज्ञान के सभी कार्यों का नाश करता है तो भी वह प्रारब्ध का नाश नहीं कर सकता हैं ।,ज्ञानम्‌ अज्ञानस्य सर्वाणि कार्याणि नाशयति चेत्‌ अपि प्रारब्धस्य नाशं कर्तु न शक्नोति। दिक्पूर्वपदाद्‌ इस पञ्चम्येकवचनात्तम्‌ असंज्ञायाम्‌ यह सप्तम्येकवचनान्तं जः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।,दिक्पूर्वपदाद्‌ इति पञ्चम्येकवचनान्तम्‌ असंज्ञायाम्‌ इति सप्तम्येकवचनान्तं ञः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌। वह ही उसको चाहिए।,देव तस्य इष्टम्‌। भले ही सभी कर्मों का त्याग ही मोक्ष होता है फिर भी चित्त शुद्धि के लिए तथा प्रतिबन्धक निवृत्ति के लिए नित्यादि कर्म करने चाहिए।,यद्यपि सर्वकर्मत्यागेनैव मोक्षः भवति तथापि चित्तशुद्धये प्रतिबन्धकनिवृत्तये च नित्यादिकर्माणि कर्तव्यानि। अच्छी प्रकार से नाश किया।,प्रकर्षेण नाशितवान्‌। गार्ग्य-काश्यप-गालव ऋषियों के मत में तो नहीं होता है यह अर्थ है।,गार्ग्य-काश्यप-गालवानाम्‌ ऋषीणां मते तु न भवति इत्यर्थः। सुंदर स्तुति करने वाले के लिए।,सुकृते शोभनस्तुतिकर्त्रे। अत: यहाँ प्रकृत सूत्र से आढ्य इस पूर्वपद को प्रकृति स्वर ही होता है।,अतः अत्र प्रकृतसूत्रेण आढ्य इति पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरत्वं भवति। फिर भी फलांशों को त्याग करके अनुष्ठान करते हैं तो चित्त की शुद्धि ही होती है।,तथापि फलाशां त्यक्त्वा तानि अनुष्ठीयन्ते चेत्‌ चित्तशुद्धिः भवति। यहाँ समासिक दोनों पदों के उत्तर पद का पुरुष पद का अर्थ ही प्रधान है।,अत्र समस्यमानयोः पदयोः उत्तरपदस्य पुरुषपदस्यार्थ एव प्रधानः। नाम अनुरूप से ही इस ग्रन्थ में वर्ण-स्वर-सन्धि साङ्गोपाङ्ग का विवेचन है।,नामानुरूपेण एव अस्मिन्‌ ग्रन्थे वर्ण-स्वर-सन्धीनां साङ्गोपाङ्गं विवेचनम्‌ अस्ति। ऋग्वेदीय यह सूक्त दशम मण्डल के अन्तर्गत आता है।,ऋग्वेदीयम्‌ इदं सूक्तं दशममण्डले अन्तर्भवति। "चतुर्थीतत्पुरुष का ""चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः"" यह विधायक सूत्र है।","चतुर्थीतत्पुरुषस्य ""चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः"" इति विधायकं सूत्रम्‌।" उपमन्यु गोत्र के अग्निहोत्री खगपति महोदय के पुत्र मल्लशर्मा इस नाम का कोई कान्यकुब्ज ब्राह्मण ने।,उपमन्युगोत्रीयः अग्निहोत्री खगपतिमहोदयस्य पुत्रः मल्लशर्मा इति नामकः कोऽपि कान्यकुब्जब्राह्मणः। प्रेम से प्रकृति में भी प्राणप्रद शक्ति का सञ्चार होता है।,प्रेम प्रकृत्याम्‌ अपि प्राणप्रदां शक्तिं सञ्चारयति। "जो जुआरी प्रातःकाल में घोड़े की सवारी कर आता है, वाही संध्या के समय दरिद्र के समान जाडे से बचने के लिए आग से तपाता है, उसके शरीर पर वस्त्र भी नही रहता है।",पुनः पूर्वाह्णे प्रातःकाले बभ्रून्‌ बभ्रूवर्णान्‌ अश्वान्‌ व्यापकानक्षान्‌ युयुजे युनक्ति । पुनश्च वृषलः वृषलकर्मा सः कितवो रात्रौ अग्नेरन्ते समीपे पपाद शीतार्तः सन्‌ शेते । जीवनमुक्त कौन होता है?,जीवन्मुक्तः कः? इसके तीन पाद है भूत-भविष्य और वर्तमान।,अस्य त्रयः पादाः भूत-भविष्य-वर्तमानाः। "और जो दूर से जाता है, जो मन आत्म साक्षात्कार में साधन है, और जो मन प्रकाशकों का श्रोत्र आदि इन्द्रियों का एक ही ज्योति प्रवर्तक है, सभी शरीर का चालक वह मेरा मन शुभसङ्कल्पों से युक्त हो।","यच्च मनः दूराद्‌ गच्छति , यन्मनः आत्मसाक्षात्कारे साधनं , यच्च मनः प्रकाशकानां श्रोत्रादीन्द्रियाणाम्‌ एकम्‌ एव ज्योतिः प्रवर्तकं , सर्वशरीरस्य चालकं तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु।" यहाँ पीतशब्द से और अम्बर शब्द से समस्यमान से ही विग्रह के दर्शन से यह अनित्य समास है।,अत्र पीतशब्देन अम्बरशब्देन च समस्यमानेन एव विग्रहस्य दर्शनाद्‌ अयम्‌ अनित्यसमासः। यवनानां व्यृद्धिः इस लौकिक विग्रह और यवन्‌ आम्‌ दुर्‌ यह अलौकिक विग्रह है।,यवनानां व्यृद्धिः इति लौकिकविग्रहः यवन आम्‌ दुर्‌ इत्यलौकिकविग्रहश्च। पुरुत्रा - पुरु इससे सप्तमी अर्थ में त्रा प्रत्यय करने पर पुरुत्रा यह रूप बनता है।,पुरुत्रा - पुरु इत्यस्मात्‌ सप्तम्यर्थे त्राप्रत्यये पुरुत्रा इति रूपम्‌। ऋग्वेद के बारह सूक्तों में वरुण की स्तुति की गई है।,ऋग्वेदे द्वादशसु सूक्तेषु वरुणस्य स्तुतिः विद्यते। द्विमूर्धः इत्यादि यहाँ उदाहरण है।,द्विमूर्धः इत्यादिकम्‌ अत्रोदाहरणम्‌। इस प्रकार के निधन को संज्ञपन कहते हैं।,एवंविधं निधनं संज्ञपनम्‌ इति उच्यते। "इसलिए एक वाक्य सम्भव नहीं होता तो ऐसा भी नहीं है तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः' इस प्रकार से तेज सृष्टि के तैत्तरीय उपनिषद्‌ में तृतीयरूप में श्रवण से श्रुतियों का एक वाक्यत्व सम्भव हो जाता है।","अतः एकवाक्यत्वं नैव सम्भवतीति चेन्न, ""तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः"" इति तेजःसर्गस्य तैत्तिरीयके तृतीयत्वश्रवणात्‌ सम्भवत्येव एकवाक्यत्वं श्रुतयोः।" सूत्र का अवतरण - फिट्‌-रूप प्रातिपदिक के अन्त्य का उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना कौ है।,सूत्रावतरणम्‌- फिट्-रूपस्य प्रातिपदिकस्य अन्त्यस्य उदात्तविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतम्‌। जहां ऋग्वेद के अपेक्षा षट्‌ मन्त्र अधिक है।,यत्र ऋग्वेदापेक्षया षट्‌ मन्त्राः अधिकाः सन्ति। अपरिग्रह ही विषयों में वैराग्य करवाता है।,अपरिग्रहो हि विषयेषु वैराग्यम्‌। महानारायण उपदनिषद्‌ में कहा है कि- “मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैकार्ग्य परमं तपः” इति।,महानारायणोपनिषदि - “मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैकार्ग्य परमं तपः” इति। उससे व्यतिरेक अलङ्कार का भी गूढ़ सङ्केत यहाँ प्राप्त होता है।,तेन व्यतिरेकाऽलङ्कारस्य अपि गूढः सङ्केतः अत्र प्राप्यते। भीतः - भीधातु से क्तप्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में भीतः यह रूप है।,भीतः - भीधातोः क्तप्रत्यये प्रथमैकवचने भीतः इति रूपम्‌। इसलिए प्रमेय तथा प्रमाण का सम्बन्ध बोध्यबोधकभाव सम्बन्ध कहलाता है।,अतः प्रमेयप्रमाणयोः सम्बन्धः बोध्यबोधकभावसम्बन्धः। मनु ने उसकी रक्षा की।,मनुः तं रक्षितवान्‌। इस कारण गवामयन याग की प्रकृति अग्निष्टोम है।,अस्मात्‌ कारणात्‌ गवामयनयागस्य प्रकृतिः हि अग्निष्टोमः। इसलिए अधिकारी को मोक्ष के विषय में इच्छा अवश्य करनी चाहिए।,अतः अधिकारिणः मोक्षेच्छा अवश्यं स्यात्‌। ` आ सर्वनाम्नः' (पा. ६. ३. ९१) इससे आत्व।,'आ सर्वनाम्नः' (पा. ६. ३. ९१) इत्यात्वम्‌। 7. मारना चाहिए।,7. आहन्तव्यम्‌। अन्तरिक्ष स्रावित होता रहता है और सम्पूर्ण भुवन की हित साधना में भूमि समर्थ होती रहती है।,स्वः अन्तरिक्षं पिन्वते क्षरति । इरा भूमिः विश्वस्मै सर्वस्मै भुवनाय सर्वजगद्धिताय जायते समर्थाः भवति। कदैवमिति । उनके घर का वैभव कैसे होता है।,कीदृशं तेषां गृहवैभवं भवति । अद्रव्यवाचि प्रादिगण में पढ़े हुए होने से उन शब्दों को प्रादय: इस सूत्र से निपात संज्ञा होती है।,अद्रव्यवाचिनां प्रादिगणे पठितानां शब्दानां प्रादयः इति सूत्रेण निपातसंज्ञा भवति। "वह वागाम्भृणी रुद्रो के, आदित्यो के, और विश्वदेवो के, साथ उनके समान होकर के विचरण करती है।","सा वागाम्भृणी रुद्रैः, आदित्यैः, विश्वदेवैः, सह तत्तदात्मिका भूत्वा विचरति।" "“अप्पूरणीप्रमाण्योः, अन्तर्वहिर्भ्यां चे लोम्नः” ये दो सूत्र अप्‌ प्रत्यय विधायक हैं।","""अप्पूरणीप्रमाण्योः"" ""अन्तर्बहिर्भ्यां च लोम्नः"" इति सूत्रद्वयम्‌ अप्प्रत्ययस्य विधायकम्‌।" मैं जिसकी उपासना करता हूँ वह ही श्रेष्ठ है उनकी अपेक्षा अन्य मेरे लिए नहीं है इस प्रकार का भाव गौणी भक्ति में होता है।,"मया उपास्यमानः ईश्वरः एव श्रेष्ठः, अन्येषां तु तदपेक्षया अवरः इति भावः गौण्यां भक्त्यां तिष्ठति।" बहुत दूर दुर्गम प्रदेश से सोमलता को लाकर यत्न से उसकी रक्षा की जाती थी।,बहुदूरात्‌ दुर्गमप्रदेशात्‌ सोमलताम्‌ आनीय यत्नेन तस्याः रक्षा क्रियते स्म। विष्णु उरुगाय कहलाते है।,विष्णुः उरुगायः इति कथ्यते। अतः तद्धित अर्थ विषय में अर्थ है पर्यवस्यति।,अतः तद्धितार्थ विषये इति अर्थः पर्यवस्यति । अर्थात्‌ आत्मा तथा अनात्मा का ज्ञान ही विवेक कहलाता है।,आत्मानात्मविवेक इति तात्पर्यम्‌। तस्मै कृणोमि न धारनां रुणधिमिदशाह प्राचीस्तदृतं व॑दामि॥,तस्मै कृणोमि न धाना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं व॑दामि ॥ १२ ॥ और यह विश्व के पालनकर्ता भी कहलाता है।,अयं च विश्वस्य पालनकर्ता इत्यपि उच्यते। भुवनम्‌ - भृधातु से क्युप्रत्यय करने पर भुवनम्‌ रूप बनता है।,भुवनम्‌ - भूधातोः क्युप्रत्यये भुवनम्‌ इति रूपम्‌। द्यूतस्थल में फेके हुए पासे मर्मस्थल को प्रसन्न और भयभीत करते है।,द्यूतस्थले निक्षिप्तः अपि अक्षः क्रीडकस्य मर्मस्थलं तुदति भिनत्ति च । "इसलिए हमारे द्वारा इस प्रबन्ध में समाधि का स्वरूप, समाधि की आवश्यकता तथा समाधि के प्रकार इत्यादि विषयों का आलोचन किया जा रहा है।","अतः अस्माभिरस्मिन्‌ प्रबन्धे समाधेः स्वरूपम्‌, समाधेः आवश्यकता, समाधेः प्रकाराः इत्यादिविषये आलोचनं विधास्यते।" निदिध्यासन का विशेषस्वरूप क्या होता है?,निदिध्यासनस्य विशेषस्वरूपम्‌। जो अतिक्रमण नहीं है वही अनतिक्रम अर्थ हैं अर्थात्‌ सीमा से बाहर नहीं होना।,अनतिक्रम इत्यर्थः। और जो तेरे हाथ में बाण है उनको आप दूर तक शत्रुओं पर फेके ॥,याश्च ते तव हस्ते इषवः बाणाः ता इषूः परावप पराक्षिप॥९॥ ब्रह्मभिन्न अन्य सब अनित्य होते है पूर्व में नहीं थे अभी भी नहीं है तथा भविष्य में भी नहीं होंगे।,"ब्रह्मभिन्नम्‌ अन्यत्‌ सर्वम्‌ अपि अनित्यम्‌। तानि पूर्व नासन्‌, इदानीं सन्ति, भविष्यत्काले अपि न स्थास्यन्ति।" दन्तोष्ठम्‌ यहाँ अन्य पदार्थ के समाहार की प्राधान्य है और उभय पदार्थ का प्राधान्य नहीं है।,"दन्तोष्ठम्‌ इत्यत्र अन्यपदार्थस्य समाहारस्य प्राधान्यमस्ति, उभयपदार्थस्य च प्राधान्यं नास्ति।" रजोगुण कामक्रोधरागद्वेषादि का उत्पादक होता है।,रजोगुणः कामक्रोधरागद्वेषादीनाम्‌ उत्पादकः। वह द्यावापृथिवी के पुत्र हैं।,स द्यावापृथिव्योः पुत्रः। इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे; मोक्ष के उपाय कौन-से हैं तथा उनका स्वरूप क्या होता है?,"एतं पाठं पठित्वा अध्येतारः अधःस्थविषयान्‌ ज्ञास्यन्ति - मोक्षस्य उपायाः के, किं च तेषां स्वरूपम्‌।" उनकी सभी मतों के ऊपर श्रद्धा थी।,सर्वेषां मतानाम्‌ उपरि एव तस्य श्रद्धा आसीत्‌। 4 अखण्ड चित्तवृत्ति के लिए क्या करना चाहिए?,४. अखण्डाकारचित्तवृत्तेः किं कार्यम्‌? 2 विदेह मुक्ति किसकी होती है?,२.कस्य विदेहमुक्तिः भवति? गतिः गतौ ये सूत्र में आये पदच्छेद है।,गतिः गतौ इति सूत्रगतपदच्छेदः। इसलिए कहा गया है “निदिध्यासन ही ब्रह्मसाक्षात्कार में साक्षात्कारण होता हे” इस प्रकार से।,तथाहि तेन उच्यते- “निदिध्यासनं ब्रह्मसाक्षात्कारे साक्षात्कारणम्‌” इति। वहाँ गुप्‌-धातु से 'गुपृधूपविच्छिपणिपनिभ्य आयः' इस सूत्र से आय प्रत्यय करने पर गोपाय इस के ओकार का उकार की ही विकृत होने से उदात्तत्व होता है।,ततः गुप्‌-धातोः 'गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्य आयः' इति सूत्रेण आयप्रत्यये निष्पन्नस्य गोपाय इत्यस्य ओकारस्य उकारस्य एव विकृतत्वात्‌ उदात्तत्वं भवति। अतः प्रकृत सूत्र से अहिहतः यहाँ पर अहि शब्द को प्रकृति स्वर होता है।,अतः प्रकृतसूत्रेण अहिहतः इत्यत्र अहिशब्दः प्रकृतिस्वरः भवति। हिरण्मय अण्ड का गर्भभूत प्रजापति हिरण्यगर्भ है।,हिरण्मयस्य अण्डस्य गर्भभूतः प्रजापतिः हिरण्यगर्भः। “समर्थः पदविधिः” इस सूत्र का क्या अर्थ है?,"""समर्थः पदविधिः"" इति सूत्रस्य कः अर्थः?" अग्नि की अनेक पशुओं के साथ तुलना की गई है।,अग्निः बहुत्रैव विविधैः पशुभिः सह तुलितः। मैं स्थूल हूँ इस प्रकार से यहाँ पर जीव आत्मा को स्थूल समझता है।,एवञ्च अहं स्थूलः इत्यस्य आत्मनः स्थूलत्वं बुद्ध्यते। राजः पुरुषः इस लौकिक विग्रह वाक्य का संस्कृतत्व से लोक में प्रयोग होता है यहाँ राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इस अलौकिक विग्रह वाक्य में।,"राज्ञः पुरुषः इति लौकिकविग्रहवाक्यम्‌, अस्य वाक्यस्य व्याकरणसंस्कृतत्वात्‌ लोके प्रयोर्गार्हत्वात्‌ अत्र राजन्‌ ङस्‌ पुरुष सु इत्यलौकिकविग्रहवाक्यम्‌।" 13. शश्वद्ध झषआस... इस कथा अंश की व्याख्या करो।,१३. शश्वद्ध झषआस ... इति कथांशं व्याख्यात। इस प्रकार से कर्तृत्व बुद्धिपूर्वक वह जो कार्य करता है उन सभी कर्मो का फल अवश्य होता है।,एवं कर्तृत्वबुद्धिपूर्वकं यत्‌ यत्‌ कर्म क्रियते सर्वस्य अपि कर्मणः फलम्‌ अवश्यं भवति। सभी प्राणियों के उदरमध्य में अन्तर्यामिरूप से ये विचरण करता है और वो स्वरूप से अजायमान अर्थात्‌ देहादि से जन्म शून्य होते हुए भी उपाधिवश बहुत प्रकार से उत्पन्न होता है।,सर्वप्राणिनाम्‌ उदरमध्ये अन्तर्यामिरूपेण यः चरति। स च स्वरूपेण अजायमानः देहादेः जन्मनि अपि स्वयं जन्मशून्योऽपि उपाधिवशात्‌ बहुधा बहुप्रकारेण विजायते। जिसके द्वारा पापों का क्षय होता है।,येन पापानां क्षयो भवति। दसवें मण्डल में भाषा में आये हुए भेद का वर्णन कीजिए।,दशममण्डले भाषागतभेदं वर्णयत। उनमें मन्त्रों के विनियोग विषय पर विस्तार सहित वर्णन प्राप्त होता है।,तेषु मन्त्राणां विनियोगविषये च सविस्तीर्णं वर्णनं प्राप्यते। "यहाँ पूर्वपद नञ्‌ यह निपात है, निपाताः आद्युदात्ताः इस सूत्र से आद्युदात्त है।","अत्र पूर्वपदं नञ्‌ इति निपातः, निपाताः आद्युदात्ताः इति सूत्रेण आद्युदात्तः च।" नागेश्वर मत के द्वारा वह ग्रन्थ भारद्वाज ने लिखा है।,नागेश्वरमतेन स ग्रन्थः भारद्वाजेन प्रणीतः। 18. समाधि का साधारण लक्षण क्या होता है?,१८. समाधेः साधारणं लक्षणं किम्‌? "सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण।",सत्त्वगुणः रजोगुणः तमोगुणश्च। समर्थ आश्रितः इसके अर्थ में सामर्थ्यवान्‌ जो पद उन पदों को आश्रित प्रवर्न्तमान होना।,"समर्थाश्रितः इत्यस्य अर्थो हि सामर्थ्यवन्ति यानि पदानि, तानि पदानि आश्रित्य प्रवर्तमानः।" प्रायः यह किसी स्थान विशेष का बोध कराता था।,प्रायः कस्यचित्‌ स्थानविशेषस्य इदम्‌ अभिधानम्‌ आसीत्‌। अथवा जो विष्णु पृथिवीसंबन्धि पृथिवी के नीचे के सात लोकों को अनेक प्रकार से निर्मित किया है।,यद्वा। यो विष्णुः पार्थिवानि पृथिवीसंबन्धीनि रजांसि पृथिव्या अधस्तनसप्तलोकान्‌ विममे विविधं निर्मितवान्‌। ऋग्वेद आदि भाग के अनुसार से आरण्यक भी बहुत है।,ऋग्वेदादिभागानुसारेण आरण्यकानि अपि बहूनि सन्ति। उन्नीसवां पाठ समाप्त ॥,॥ इति नवदशः पाठः ॥ "इस सूक्त के पर्जन्य देवता, अत्रि ऋषि, प्रथम, पञ्चम षष्ठ, सप्तम, अष्टम, दशम्‌ मन्त्र में त्रिष्टुप्‌ छन्द है, द्वितीय तृतीय चतुर्थ में जगती छन्द है, नवम में अनुष्टुप्‌ छन्द है।","अस्य सूक्तस्य पर्जन्यः देवता , अत्रिः ऋषिः , प्रथमस्य पञ्चमस्य षष्ठस्य सप्तमस्य अष्टमस्य दशमस्य त्रिष्टुप्‌ छन्दः , द्वितीयस्य तृतीयस्य चतुर्थस्य जगती छन्दः , नवमस्य अनुष्टुप्‌ छन्दः ।" "शाङखायन संहिता के तथा शाकल शाखा के अनुयायियों में-ऋक्संहिता का और मन्त्र संहिता का भेद नहीं देखते, केवल मन्त्रों के क्रम में ही भिन्नता है।","शाङ्खायनीयसंहितायाः तथा शाकलशाखानुयायि-ऋक्संहितायाः च मन्त्रसंहितयोः भेदो न दृश्यते, केवलं मन्त्राणां क्रमे एव विभिन्नता वर्त्तते।" यम किसे कहते हैं?,यमः नाम कः? "तृतीया तत्पुरुष का “तृतीयातत्कृतार्थेन गुणवचनेन '', `“ कर्त्तकरणेकृता बहुलम्‌'' ये दो विधायक सूत्र हैं।","तृतीयातत्पुरुषस्य ""तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन"", ""कर्तृकरणे कृता बहुलम्‌"" इति विधायकं सूत्रद्वयम्‌।" अपितु भगवत्कर्म करने वाले जो युक्त होते हैं वे भी कर्मि अज्ञ होते है वे उत्तरोत्तहीनफलत्यागावसानसाधना वाले तथा अनिर्देश्याक्षरोपासक होते है ` अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्‌' (भ. गी. 12.13) इस प्रकार से इसर अध्याय में परिसमाप्ति तक कही गई साधना क्षेत्राध्यायद्यध्याय में जो ज्ञान साधना कही गई है।,"भगवत्कर्मकारिणः ये युक्ततमा अपि कर्मिणः अज्ञाः, ते उत्तरोत्तरहीनफलत्यागावसानसाधनाः ; अनिर्देश्याक्षरोपासकास्तु 'अद्वेष्ठा सर्वभूतानाम्‌ (भ. गी. १२.१३) इति आध्यायपरिसमाप्ति उक्तसाधनाः क्षेत्राध्यायाद्यध्यायत्रयोक्तज्ञानसाधनाश्च।" "और 'देवात्मशक्ति स्वगुणैः निगूढाम्‌' इस प्रकार से (श्वेताश्वतरोपनिषत्‌, 1/3) ” इति।","“देवात्मशक्तिं स्वगुणैः निगूढाम्‌' (श्वेताश्वतरोपनिषत्‌, १/३)” इति।" तो कहते हैं कि काम ही कर्म का हेतु होता हैं ।,उच्यते कर्महेतुर्हि कामः। और समास अलौकिक विग्रह वाक्य में होता है।,समासश्च अलौकिकविग्रहवाक्ये भवति। अतः अकच रूप चित्प्रत्यय होने से अन्य के यहाँ पर प्रकृति प्रत्यय के समान समुदाय के अन्त स्वर एकार को प्रकृत सूत्र से उदात्त होता है।,अतः अकज्रूपचित्प्रत्ययान्तत्वात्‌ अन्यके इति प्रकृतिप्रत्ययवतः समुदायस्य अन्तः स्वरः एकारः प्रकृतसूत्रेण उदात्तो भवति। इस पाठ में क्रमशः केवल समास और अव्ययीभाव समास सूत्रों की आलोचना की जा रही है।,अस्मिन्‌ पाठे क्रमशः केवलसमासस्य अव्ययीभावसमासस्य च सूत्राणि आलोच्यन्ते। "उससे सूत्र का अर्थ होता है, धातु का अन्त अच्‌ उदात्त होता है।",तेन सूत्रार्थः भवति धातोः अन्तः अच्‌ उदात्तः भवति इति। 'सङख्यासुपूर्वस्य' (पा०सू० ५. ४. १४०) से पाद के अन्त का लोप समासान्त होने से।,'सङ्ख्यासुपूर्वस्य'(पा०सू० ५. ४. १४०) इति पादस्यान्तलोपः समासान्तः। वैसे ही संसार के तीनों तापों से दह्यमान तापनिवृत्त के लिए अपने स्वरूप का जिज्ञासु संसारनिवर्तक श्रोत्रियब्रह्मनिष्ठ स्वप्रकाशात्मस्वरूपयुक्त गुरु के पास में जाता है।,तथा संसारतापत्रयदन्दह्यमानः तापनिवृत्तिकामः स्वस्वरूपं जिज्ञासुः संसारनिवर्तकं श्रौत्रियं ब्रह्मनिष्ठं करतलामलकवत्‌ स्वप्रकाशात्मस्वरूपसमर्पकं गुरुम्‌ उपसर्पति। "पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि, अनावृष्टि के समय वृष्टी के लिए होने वाला इष्टि याग, खेत की प्रथम फसल देवता को अर्पण करने के लिए आग्रायणेष्टि इत्यादि।","पुत्रलाभाय पुत्रेष्टिः, अनावृष्टिसमये वृष्ट्यानयनाय इष्टिः, क्षेत्रस्य प्रथमं देवतायै अर्पणाय आग्रायणेष्टिः इत्यादयः।" उस समय माता ऊपर थी।,तदानीं सू: माता उत्तरा उपरिस्थिता आसीत्‌। सर्तवे - सृ-धातु से तुमर्थ में तवेन्प्रत्यय करने पर सर्तवे यह रूप है।,सर्तवे - सु-धातोः तुमर्थके तवेन्प्रत्यये सर्तवे इति रूपम्‌। मन्त्रब्राह्मणयोर्वदनामधेयम्‌।,मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्‌। पदपाठ - एषः।,पदपाठः - एषः। जिसकी महिमा से द्युलोक और पृथिवी स्थिर है द्य जिसने स्वर्गलोक और नागलोक को स्थिर किया है।,"यस्य महिम्ना द्युलोकः स्थिरीकृतः, पृथिवी च स्थिरीकृता, स्वर्गलोकः नागलोकश्च स्थिरीकृतौ।" उपनिषदों में वर्णित विषय निर्गुण ब्रह्म प्राप्ति का उपाय है।,उपनिषत्सु वर्णितो विषयः निर्गुणब्रह्मप्राप्तेः उपायः अस्ति। इसकी मन्त्र सहित व्याख्या कीजिए।,इति मन्त्रं लिखित्वा व्याख्यात । अर्थात्‌ अमावास्या पर इसका आरम्भ न करें।,अर्थात्‌ अमावास्यायाम्‌ आरम्भो न भवेत्‌। "फिर श्रोत्रमय कोश, चक्षुमय कोश, इसका नाम नहीं होता है।",तथापि श्रोत्रमयः चक्षुर्मय इति कोशस्य नाम नास्ति। यहाँ विहित सूक्तों का विशेष प्रयोग पारिवारिक महोत्सवों के अवसर पर होता है।,अत्र विहितानां सूक्तानां विशेषप्रयोगः पारिवारिकमहोत्सवानाम्‌ अवसरे भवन्ति। अतः येन विधिस्तदत्तस्य इस सूत्र से अजादेः यहाँ तदन्तविधि होती है।,अतः येन विधिस्तदन्तस्य इति सूत्रेण अजादेः इत्यत्र तदन्तविधिः भवति। प्रलय के विषय में विस्तार से वर्णित हैं ।,प्रलयः इत्युच्यते। यह ही विदेह मुक्ति कहलाती है।,एतदेव विदेहमुक्तिः कथ्यते। फिर शरीर धारण करना चाहिए।,पुनः शरीरधारणं कर्तव्यम्‌। “तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः' (१०-३४-१३)।,' तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः ' ( १० - ३४ - १३ ) । अथवा तुम दोनों एकसंसार का आधार हो।,वां युवयोः एकः अप्रतियोगी पविः। इनमें जो शास्त्रों के अनुसार चलते है वह साधु होते हैं तथा जो प्रतिषिद्धकारी होते है वे पापी होते है।,एतेषु ये शास्त्रानुसारिणः सन्ति ते साधवः। ये च प्रतिषिद्धकारिणः ते पापाः। इस प्रकार जो दूर जाने वाला और ज्योतियों में अद्वितीय मेरा मन वह शुभसङ्कल्प से युक्त हो।,एवं यत्‌ दूरगामि किञ्च ज्योतिषाम्‌ अद्वितीयं मम मनः तत्‌ शुभसङ्कल्पं भवतु। अगर समवायिकारणविषय को ही समानजातीयत्व के रूप में माने तो वह कारणन्तर विषय होने के कारण वह भी अयुक्त है।,"ननु समवायिकारणविषय एव समानजातीयत्वाभ्युपगमः, न कारणान्तरविषय इति चेत्‌ तदपि अयुक्तम्‌।" "जो मन प्रज्ञा को विशेष रूप से ज्ञान कराता है, और भी जो मन सामान्य ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है, जो मन धृति धेर्य स्वरूप, जो मन अमरण धर्मी, जो मन प्रजाओं में अन्तर वर्तमान होने से सभी इन्द्रियों का प्रकाशक है, जिसके बिना कोई भी कार्य पूर्ण नही किया जा सकता है वह मेरा मन शुभसङ्कल्प से युक्त हो।","यन्मनः प्रज्ञानं विशेषेण ज्ञानजनकम्‌ , अपि च यन्मनः चेतः ज्ञापकः सामान्यज्ञानजनकम्‌ इत्यर्थः , यन्मनः धृतिः धैर्यस्वरूपं, यन्मनः अमरणधर्मि , यन्मनः प्रजासु अन्तर्वर्तमानं सत्‌ सर्वेन्द्रियाणां प्रकाशकम्‌ , येन विना न किञ्चन कर्म सम्पादयितुं शक्यते तत्‌ मम मनः शुभसङ्कल्पयुक्तं भवतु।" यजुर्वेद कितने प्रकार का है?,यजुर्वेदः कतिविधः? किन्तु षष्ठी समास निषेध सात सूत्र हैं।,किञ्च षष्ठीसमासनिषेधकानि सप्त सूत्राणि सन्ति । अधिक्षियन्ति - अधिपूर्वक क्षि निवासे इस धातु से लट प्रथमपुरुष बहुवचन में यह रूप है।,अधिक्षियन्ति - अधिपूर्वकात्‌ क्षि निवासे इति धातोः लटि प्रथमपुरुषे बहुवचने इदं रूपम्‌। वैसे ही घट ज्ञान स्थल में ब्रह्म की स्वरूप भूता सत्ता ही घट के साथ अभिन्नता से जानी जाती है।,तथैव घटज्ञानस्थले ब्रह्मणः स्वरूपभूता सत्ता एव घटेन सह अभिन्नतया ज्ञायते इस छन्द में तीन पाद होते हैं।,अस्मिन्‌ छन्दसि त्रयः पादाः भवन्ति।